Book Title: Abhidhan Rajendra kosha Part 5
Author(s): Rajendrasuri
Publisher: Abhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જો લગાન ગાતા પત થાય, નિબય ઉસૂરી ની ી RTED.ICS : 8-10 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो समणस्स भगवओ महावीरस्स श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय विश्वपूज्य प्रातः स्मरणीय प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर पट्टप्रभावक चर्चाचक्रवर्ती परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय धनचन्द्रसूरीश्वर साहित्यविशारद विद्याभूषण श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वर व्याख्यानवाचस्पति श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वर, शान्तमूर्ति कविरत्न श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वर गुरुभ्यो नमः सकलागम रहस्यवेदी कलिकाल सर्वज्ञकल्प-विद्वन्मान्य प्रातःस्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वर निर्मित श्री अभिधान राजेन्द्र कोष 卐 पंचमो भागः ॥ [द्वितीय संस्करण] TABO :- प्रकाशक :शांतमूर्ति आचार्यदेव श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वर पट्टालंकार परमपूज्य तीर्थप्रभावक साहित्यमनीषी आचार्यदेव श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज एवं संयमवयःस्थविर मुनिराजश्री शान्तिविजयजी महाराज . के उपदेश से अ. भा. श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ प्रदत्त द्रव्यसहाय से । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष प्रकाशन संस्था, अहमदाबाद. श्री वीर संवत २५१३ प्रति : १०५० श्री राजेन्द्रसूरि संवत ७८ ईस्वी सन १९८६ . मूल्य : संपूर्ण सेट (७ भागका) २५०१ __(दो हजार पांचसा एक रुपये) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तिस्थान श्री अभिधान राजेन्द्रकोष प्रकाशन संस्था C/o श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञान मन्दिर, रतनपोल, श्री राजेन्द्रसूरि चोक, अहमदाबाद. मुद्रक : पं. मफतलाल झवेरचंद गांधी नयन नि. प्रेस, का. २-६१ गांधीरोड, ढींकवावाडी, अहमदाबाद-१ : raaaaaaanाकाकाकाकाका अभिधान राजेन्द्रकोषस्य रचना तु सर्वथा अपूर्वेवाऽस्ति पण्डित शितिकण्ठशास्त्री श्री अभिधान राजेन्द्रकोष ! शब्दकोशोंकी परंपरा में 'अभिधानराजेन्द्र' यथार्थमें एक विशिष्ट उपलब्धि है। श्रीमद् की जीवनसाधनाका यह अत्यंत उदाहरण है। जब इस कोषका पहिला अक्षर लिखा गया तब वे तिरसठ वर्ष के थे । सात भागों में तथा दस हजार पांचसो छियासठ पृष्ठों में प्रकाशित यह कोश वस्तुतः एक विश्वकोष के समान है। जिसमें जिनागमों तथा विभिन्न दार्शनिक ग्रन्थों के उद्धरण संकलित कर विस्तृत विवेचन किया गया हैं । - वसंतीलाल जैन अभिधानराजेन्द्र कोप जैसे अतिविशाल ग्रन्थरत्नकी रचना उनके सम्यग् ज्ञानके सर्वागी समर्पणकी साहजिक निष्पत्ति हैं । अन्यथा असंभव सा यह कार्य उनसे होता ही नहीं। अभिधानराजेन्द्र कोप सामान्य शब्दकोष नहीं हैं । किन्तु शास्त्रवचनोंकी समीचीन अभिव्यक्ति और अर्थघटनका सर्वश्रेष्ठ सहायक माध्यम है। - रमेश आर. जवेरी ההההההההההההההההההההההההההה Hamaaranamamar a Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविहितसूरिशक्रचक्रचूडामणि-कलिकालसर्वज्ञकल्प-परमयोगिराज जगत्पूज्य-गुरूदेव-प्रभुश्रीमद्-विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज । श्रीअभिधान राजेन्द्र कोषः Joo मालालालाजलागलार orejero I KOOOOOOO LEON तोलारामChan दृप्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाननग्रामणी-राजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात्सन्दीप्तजैनश्रुत : । सङ्घस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशः, कोऽन्यः सूरिपदाड्कितो विजयराजेन्द्रात्परः पुण्यवान् ? ॥ १ ॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय निवेदन कलिकाल सर्वज्ञकल्प, सकलागमरहस्यवेदी, विश्वपूज्य, परमयोगीन्द्र, परमकृपालु, पूज्यपाद गुरुदेव प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने अपने तप, जप, एवं ज्ञान, ध्यान की आत्मोन्नतिकारिणी प्रवृत्ति में अप्रमत्त भाव से रममाण होते हुए जिन प्रवचन में निर्दिष्ट सत्य वस्तु तत्व का जीवनभर प्रचार, प्रसार किया । साथ ही अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया-प्रन्थ सम्पदा का सर्जन किया । एक विशाल ग्रन्थागार सम उन की जो सर्वोत्तम, और सर्वतोमुखी रचना हैं श्री अभिधान राजेन्द्र कोश ! इस अलौकिक कृति के निर्माण द्वारा श्रीमद्ने विश्व के सभी विद्वज्जनों को युगों युगों के लिये अद्भूत प्रेरणा प्रदान की है। बीसवीं शताब्दी के संध्याकाल में इस ग्रन्थराज की प्रथम आवृत्ति श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय श्री जैन प्रभाकर प्रिन्टींग प्रेस, रतलाम (म. प्र.) से प्रकाशित की गई थी । प्रथमावृत्ति की प्रतियां समाप्त प्रोयः हो जाने के कारण यह ग्रन्थ दुर्लभ हो गया थो । विश्व इस की द्वितियावृत्ति का इन्तेजार कर रहा था और हम भी इस के पुनः प्रकाशन के लिये प्रयत्नशील थे । अ. भा. श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन संघ का श्रीभांडवपुरतीर्थ पर विराट अधिवेशन हुआ और उस में इस ग्रन्थराज के प्रकाशन का निर्णय लिया गया । तदनुसार प्रकाशन कार्य प्रारंभ हुआ । इस महान कार्य में परमपूज्य शान्तमूर्ति आचार्यदेव श्रीमद् बिजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के पदप्रभावक परमपूज्य तीर्थप्रभावक साहित्यमनिषी आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज का श्रम साध्य सहयोग हमें प्राप्त हुआ हैं। वों के बाद पुनः एक बार इस ग्रन्थराज का प्रकाशन हम सब के लिये परम आनन्ददायक है । इस के पुनः प्रकाशन में परमपूज्य तीर्थ प्रभावक आचार्य देव श्रीमद् विजय जयन्त सेनसूरीश्वरजी महाराज सयमवयःस्थविर मुनिराजश्री शान्तिविजयजी महाराज, मुनिराज श्री पुण्यविजयजी. मुनिश्री विनयविजयजी, मुनिश्री नित्यान'दविजयजी, मुनिश्री जयरत्नविजयजी मुनिश्री जयानन्दविजयजी आदि मुनि मण्डल, एवं साध्वी-मण्डल की ओर से जो सहयोग मिला है उस के लिये हम हार्दिक आभार प्रकट करते हैं: श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक संघ-अहमदाबाद के ट्रस्टी मण्डल का भी इस कार्य में पूर्ण सहयोग मिला है। इस प्रकाशन में हमें जिन जिन ग्राम नगरों के श्री संघ एवं महानुभावों का जो अनमोल आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है। नियमानुसार उनका नाम निर्देश करते हुए हमें अत्यन्त आनन्द का जनुभव हो रहा है। उन की मंगल नामावली प्रस्तुत है इस प्रकार । १ प्रवर्तिनी साध्वीजी गुरुणीजी प्रेमश्रीजी की शिष्या गुरुणीजी, रायश्रीजी की शिष्या साध्वीजी शिवश्रीजी को स्मृति में विदुषी साध्वीजी श्री सुन्दरश्रीजी, विदुषी साध्वीजो श्री गभीरश्रीजी के उपदेश से श्री मालवदेशीय त्रिस्तुतिक संघ ।। २ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ, चोराउ (राज.) ३ श्री महावीर जैन श्वेताम्बर पेढी, श्री भाण्डवपुर तीर्थ (राज) ४ श्री भेसवाडा सिल्क मिल्स, भीवंडी (महाराष्ट्र) ५ श्री वस्तीमलजी हेमानी, जीवाणा (राज.) शाह नेमिचन्द, देवीचन्द, फूलचन्द, शुकनराज, कान्तिलाल, राजु बेटापोता श्री लखमाजी बलदरिया. कोशेलाव (राज.) ७ श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक (त्रिस्तुतिक) संघ थराद (उ. गुजरात) ८ श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक संघ अने थराद जन युवक मंडल, अहमदाबाद ९ श्री सौधर्मपृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ दाधाल १० श्री सौधर्मबहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ-सुराणा Jain Education Interational Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ-धानेरा १२ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ थराद गैन मित्रमण्डल, बम्बई । १३ श्री जैन श्वेताम्बर सकल संघ नेनावा (गुजरात) १४ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ, मेंगलवा (राज.) १५ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक सघ सियाणा (राज.) १६ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक सघ आकाली (राज.) १७ श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञानमन्दिर, राणीस्टेशन (राज.) १८ श्री मांगीलाल, फुटरमल, शांतिलाल, किशोरचन्द्र बेटापोता शेषमलजी खसाजी रामाणी, गुडाबालोतान् (राज.) १९ श्री दरजमल, उकचन्द, हस्तिमल, तगराज हीराणी, रेवतड़ा (राज.) २० श्री चेतनकुमार अशोककुमार, कन्हैयालालजी काश्यप, रतलाम (म. प्र) २१ श्री चीमनलाल भीखालाल लाधाणो वासणवाला, धानेरा (गुजरात) २२ शा. जेठमल, जुहारमल, लक्ष्मणराज, पृथ्वीराज, बीरचंद, गौतमचन्द, अशोककुमार, रतनलाल, गणपतराज, बेटापाता केनाजी मेंगलवा, (राजस्थान) २३ श्री अमरचन्द देशमल, तिलोकचन्द मीठालाल ओटमल धरमाजी पटियात (धाणसा) २४ शाह मगराज सुखराज एन्ड क. मद्रास २५ शाह सरेमलजी हरखचन्दजी तिलोकचन्दजी बेटापोता हांसाजी रतनपुराबोरा, मोदरा (राज.) २६ श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी जैन ट्रस्ट मद्रास २७ कुंदनमल सुरेशकुमार जगदीशकुमार बेटापोता मिश्रीमल नथाजी बागरेचा, आहेर २८ कुसलराज भूरमलजी बूटा, आहार (राजस्थान) २९ श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ वाघोडा (राजस्थान) ३० सुकनलाल नेमिचंद ब्राइट स्टेनलेस मद्रास ३१ शान्तिलाल ज्वेलर्स नेलूर ३२ लीलाबेन गांठालालजी चौधरी रीगणोद ३३ कोठारी निर्मलाबेन धर्म पत्नी कोठारी सागरमलजी रंगलालजी छोटी सादडी ३४ श्री अखिलभारतीय त्रिस्तुतिक जैन संघ इन्दौर ३५ श्री जेठमलजी सरेमलजी भीनमाल ३६ श्री सोहनराज डुगरजी भीनमाल ३७ श्री भांडवपुर मोहनखेडा तीर्थ छ'रीपालक संघ समिति ३८ संघवी गगलदास हालचंदभाई और संघवी भीखालाल मणोलाल अहमदाबाद इन के अतिरक्त गाँव नगरों के महानुभावने लाभ लिया है उन के नाम हैं. भीनमाल, जोधपुर, मेंगलवा, सायला, सुराणा, मद्रास, नल्लोर, विजयवाडा, मांडवला, धाणसा, आहार, भेसवाडा, सुरा, सियाणा, कामता, सुराणा, दाधाल, रेवतडा, उनडी, पांथेडी, बम्बई. सुमेरपुर, सांचोर, तखतगढ, कोशेलाव, थराद, अहमदाबाद, लोवाणा, दुधवा, आणद, वासणा, डीसा, लाखणी, बामी, धानेरा, कलोल. झाबुआ, टांडा, पारा, रिंगणाद, (धार) इस प्रकार गुरु कृपा से एवं पू. आचार्य श्री के सतत प्रयत्न से यह प्रकाशन हो रहा है, यह प्रसन्नता का विषय है, शुभम् । निवेदक श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञानमन्दिर श्री अभिधान राजेन्द्र कोष प्रकाशन संस्था रतनपाल, श्री राजेन्द्रसूरि चौक अहमदाबाद पा. अहमदाबाद २०४२ पोष सुद ७ (गुरुसप्तमी) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयावृत्ति प्रस्तावना अनादि से प्रवहमान है श्री वीतराग परमात्मा का परम पावन शासन ! अनादि मिथ्यात्व से मुक्त हो कर आत्मा जब सम्यक्त्व गुण प्राप्त करता है, तब आत्मिक उत्क्रान्ति का शुभारंभ होता है । सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के पश्चात् हो सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का क्रम आत्मा में परिलक्षित होता है। मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान दोनों ही इन्द्रिय तथा मन से ग्राह्य हैं, अतः इनका समावेश परीक्षशान में होता है; परन्तु अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान एवं केवलज्ञान आत्म ग्राह्य हैं; अतः ये ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान में समाविष्ट हैं। ___ सम्यक्त्व का सूर्योदय होते ही मिथ्यात्व का घना अन्धेरा दूर हो जाता है और आत्मा संपूर्णता की ओर गतिमान होता है । यही सम्यक्त्व आत्मा को परोक्ष ज्ञान से प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर अग्रसर करता है। प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि के लिए यह आवश्यक है कि आत्मा लौकिक भावों से अलग हो कर लेोकोत्तर भावों को चिन्तनधारा में स्वयं को डुबो दे। 'जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पठा।' संसार परिभ्रमण को प्रमुख कारण है आस्रव और बन्ध । दुःख से मुक्ति के लिए इनको दूर करना आवश्यक है तथा इसके साथ ही सवर और निर्जरा भी आवश्यक है । बन्धन सहज है, पर यदि उसके कारण भाव एव कारण स्थिति से स्वय' को अलग रखा जाये तो अवश्य ही हम निर्बन्ध अथवा अपुनर्बन्धक अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं । जिनागम में अध्यात्म समाया हुआ है । सहज स्थिति की कामना करनेवालों को चाहिये कि वे जिनवाणी का श्रवण, अध्ययन, चिन्तन, अनुशीलन आदि करते रहे । कर्म और आत्मा का अनादि से घना रिश्ता है; अतः कर्म आत्मा के साथ ही लगा रहता है। जैसे खान में रहे हए सोने के साथ मिट्टी लगी हुई होती है । मिट्टी सुवर्ण की मलिनता है और कर्म आत्मा की। प्रयोग के द्वारा मिट्टी सुवर्ण से अलग की जा सकती है। जब देने अलग अलग होते हैं तब मिट्टी मिट्टी रुप में और सुवर्ण सुवर्ण के रूप में प्रकट होता है । मिट्टी का कोई सुवर्ण नहीं कहता और न ही सुवर्ण का केई मिट्टी कहता है । ठीक उसी प्रकार सम्यग्दर्शन प्राप्त आत्मा सम्यग्ज्ञान के उज्ज्वल आलोक में सम्यक् चारित्र के प्रयोग द्वारा अपने पर से कर्म रज पूरी तरह झटक देती है और अपनी मलिनता दूर करके उज्ज्वलता प्रकट कर देती है। कर्म की आठों प्रकृतियाँ अपने अपने स्वभावानुसार सांसारिक प्रवृत्तियों में रममाण आत्मा को कर्म भुगतान के लिए प्रेरित करती रहती हैं। जिन्हें स्वयं का ख्याल नहीं है और जो असमंजस स्थिति में हैं। ऐसे संसारो जीवों का ये कर्म प्रकृतियां विभाव परिणमन करा लेती हैं Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानावरणीय कर्म आँखों पर रही हुई पट्टी के समान है। नजर चाहे जितनी सूक्ष्म हो, पर यदि आंखों पर कपड़े की पट्टी लगी हो, तो कुछ भी दिखाई नहीं ज्ञानदृष्टि को ज्ञानवरणीय कर्म आवृत्त कर लेता है। इससे कर्म जीव को उल्टी चाल चलाता है । देता; ठीक इसी प्रकार आत्मा की निर्मल ज्ञानदृष्टि पर आवरण छा जाता है। यह दर्शनावरणीय कर्म राजा के पहरेदार के समान है । जिस प्रकार पहरेदार दर्शनार्थी के राजदर्शन से वंचित रखता है, उसे महल में प्रवेश करने से रोकता है; उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म जीव को आत्मदर्शन से वंचित रखता है। यह जीव को प्रमत्त भाव में आकण्ठ डुबो देता है; अतः जीव अप्रमत्त भाव से सर्वथा दूर रह जाता है । यह जीव के आत्मदर्शन के राजमार्ग को अवरुद्ध कर देता है और जीव को उन्मार्गगामी बनाता है । का लालची बना करवाता है, पर मधुलिप्त असि धार के समान है वेदनीय कर्म यह जीव को क्षणभंगुर सुख कर उसे अनन्त दुःख समुद्र में धकेल देता है साता का वेदन तो यह अत्यल्प असाता का वेदन यह अत्यधिक करवाता है। शहद लगी तलवार की धार को चाटनेवाला शहद की मधुरता तो पाता है और सुख का अनुभव भी करता है; पर जीभ कट जाते ही असह्य दुःख का अनुभव भी उसे करना पड़ता है इस प्रकार वेदनीय कर्म सुख के साथ अपार दुःख का भी वेदन कराता है । मोहनीय कर्म मदिरा के समान है । मदिरा प्राशन करनेवाला मनुष्य अपने होश- हवास खा बैठता है; इसी प्रकार मोहनीय कर्म से प्रभावित जीव अपने आत्म-स्वरुप को भूल जाता है और पर पदार्थों को आत्म स्वरुप मान लेता है। यही एकमेव कारण है उसके संसार परिभ्रमण का मोह महामद पिया अनादि, भूठि आपकु' भरमत बादि। यह जीव के सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र के मार्ग में रुकावट डालता है । | तक हममें विद्यमान है ममकार जितना जितना जो मनुष्य इस मोहनीय कर्म के स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है और जो इसकी स्थिति का अनुभव नहीं करता वह अपने जीवन में आत्म विकास से वंचित रह जाता है अहंकार और ममकार जय तब तक हम मेोहनीय कर्म के बन्धन में जकड़े हुए ही हैं। अहंकार और पटता जाता है; उतना ही मोहनीय कर्म का बन्धन शिथिल होता जाता है । यह मोहनीय कर्म समस्त कर्मसत्ता का अधिपति है और सबसे लम्बी उम्र वाला है। इस महराजा के निर्देशन में ही कर्म सेना आगेकुम करती है। है । इसने ही जीव को संसार को भूलभुलैया में । जीव को भेदविज्ञान से वंचित रखनेवाला यही कर्म अटकाये रखा है । और बेडी के समान हे आयुष्य फर्म इसने जीव को शरीर रुपी बेडी लगा दी है अनादि से आज तक चली आ रही है । एक बेडी टूटती है; तो दूसरी पुनः तुरन्त लग जाती है । सजा की अवधि पूरी हुए बिना फेदी मुक्त नहीं होता; इसी प्रकार जब तक जीव को जन्म जन्म को केंद्र की अवधि पूरी नहीं होती तब तक जीव मुक्ति की मौज नहीं पा सकता । नाम कर्म का स्वभाव है चित्रकार के समान चित्रकार नाना प्रकार के चित्र पट पर अंकित | करता है; ठीक इसी प्रकार नाम कर्म चतुर्गति में भ्रमण करने विविध जीवों को भिन्न भिन्न नाम प्रदान करता है । इसके प्रभाव से जीव इस संसार पट पर नाना प्रकार के नाम धारण करके देव, मनुष्य तिर्यंच और नरक गति में भ्रमण करता है । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोत्र कर्म का स्वभाव कुम्हार के समान है। कुम्हार अनेक प्रकार के छोटे बडे बर्तन बनाता है और उन्हें विभिन्न आकार प्रदान करता है । गोत्र कर्म भी जीव को उच्च और नीच गोत्र प्रदान करता है, जिससे जीव को उच्च या नीच गोत्र में जन्म धारण करना पड़ता है। इसी प्रकार अन्तराय कर्म है-राजा के खजाँची के समान । खजाने में माल तो बहुत होता है, पर कुञ्जी खजाँची के हाथ में होती है; अतः खजाने में से याचक कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता । यही कार्य अन्तराय कर्म करता हैं । इसके प्रभाव से जीव को इच्छित वस्तु उपलब्ध नहीं हो पाती। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य (आत्मशक्ति) के विषय में अन्तराय कर्म के उदय से जीव किसी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता । संक्षेप में यह है जैन दर्शन का कर्मवाद । इसी प्रकार जिनागरे में आत्मवाद, अनेकान्तवाद, पदव्य, नवतत्त्व, मोक्ष मार्ग आदि अनेक ऐसे विषयों का समावेश है; जो जीव के आत्म विकास में परम सहायक हैं। द्वादशांगी जिनवाणी का विस्तार है । आत्म कल्याण की कामना करनेवालों के लिए द्वादशांगी का गहन अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है । ससारस्थ प्रत्येक जीव को स्वस्वरूप अर्थात् ईश्वरत्व प्राप्त करने का अधिकार केवल जैन धर्म दर्शन ही देता है, अन्य कोई नहीं । 'सब धर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज ।', 'बुद्धं शरणं गच्छामि......धम्म सरणं गच्छामि ।' और 'केवलिपण्णत धम्म सरणं पव्वज्जामि । इन तीनों पक्षों के सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन से यही निष्कर्ष निकलता है कि अन्तिम पक्ष जीव के लिए केवलीप्रणीत धर्म के दरवाजे खुले रखता है । इस धर्म में प्रवेश करके जीव म्वयं अनन्त ऐश्वर्यवान केवलज्ञान सम्पन्न बन जाता है । जीव अपने पुरुषार्थ के बल पर परमात्म पद प्राप्त कर सकता है। अन्य समस्त धर्म दर्शनों में जीव का परमात्मप्राप्ति के बाद भी परमात्मा से हीन माना गया है। जब कि जैनधर्मदर्शन में परमात्म पद प्राप्ति के पश्चात् जीव को परमात्म स्वरुप ही माना गया है । यह जैन धर्म की अपनी अलग विशेषता है। परमज्ञानी परमात्मा की पावन वाणी जीव की इस अनुपम एवं असाधारण स्थिति का स्पष्ट बोध कराती है। प्रमाण, नय, निक्षेप, सप्तभंगी एवं स्याद्वाद शैली से संवृत्त जिनवाणीमय जिनागमे के गहन अध्ययन के लिए विभिन्न सन्दर्भ ग्रन्थों का अनुशोलन अत्यन्त आवश्यक है। आज से सौ साल पूर्व उचित साधनों के अभाव में जिनागमों का अध्ययन अत्यन्त दुष्कर था । विश्व के विद्वान जिनागम की एक ऐसी कुजी तलाश रहे थे; जो सारे रहस्य खोल दे और उनकी ज्ञानपिपासा बुझा सके। ऐसे समय में एक तिरसठ वर्षीय वयोवृद्ध त्यागवृद्ध, तपोवृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध दिव्य पुरुष ने यह काम अपने हाथ में लिया । वे दिव्य पुरुष थे-उत्कृष्ट चारित्र क्रिया पालक गुरुदेवप्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज । उन्होंन जिनागम की कुञ्जी निर्माण करने का जटिल कार्य सियाणा नगरस्थ श्री सुविधिनाथ जिनालय की छत्र छाया में अपने हाथ में लिया। कुजीनिर्माण की यह प्रक्रिया पूरे चौदह वर्ष तक चलनी रही और सूरत में कुञ्जी बन कर तैयार हो गयी । वह कुञ्जी है-'अभिधान राजेन्द्र'। यह कहना जरा भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आगमों का अध्ययन करते वक्त 'अभिधान राजेन्द्र' पास में हो तो और कोई ग्रन्थ पास में रखने की कोई आवश्यकता नहीं है । जैनागमों में निर्दिष्ट Jain Education Interational Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतत्त्व जो ‘अभिधान राजेन्द्र' में है, वह अन्यत्र हो या न हो; पर जो नहीं है। वह कहीं नहीं है। यह महान ग्रन्थ जिज्ञासु की तमाम जिज्ञासाएँ पूर्ण करता है। भारतीय संस्कृति में इतिहास पूर्व काल से कोश साहित्य की परंपरा आज तक चली आ रहो है। निघ'टु कोश में वेद की संहिताओं का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। ‘यास्क' की रचना 'निरुक्त' में और पाणिनी के 'अष्टाध्यायी' में भी विशाल शब्दसंग्रह दृष्टिगोचर होता है। ये सब कोश गद्य लेखन में हैं। इसके पश्चात् प्रारंभ हुआ पद्य रचनाकाल । जो कोश पद्य में रचे गये, वे दो प्रकार से रचे गये । एक प्रकार है, एकार्थक काश और दूसरा प्रकार है-अनेकार्थक कोश । कात्यायन की 'नाममाला', वाचस्पति का 'शब्दार्णव', विक्रमादित्य का 'शब्दार्णव' भागुरी का 'त्रिकाण्ड' और धन्वन्तरी का निघण्टु, इनमें से कुछ प्राप्य हैं और कुछ अप्राप्य । उपलब्ध कोशों में अमरसिंहका 'अमरकोश' बहु प्रचलित है। धनपाल का ‘पाइय लच्छी नाम माला' २७९ गाथात्मक है और एकार्थक शब्दों का बोध कराता है। इसमें ९९८ शब्दों के प्राकृत रूप प्रस्तुत किये गये हैं। आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने 'पाइयलच्छी नाम माला' पर प्रामाणिकता की मुहर लगाई है। धनब्जयने 'धनब्जय नाम माला' में शब्दान्तर करने की एक विशिष्ट पद्धति प्रस्तुत की है। 'धर' शब्द के योग से पृथ्वी वाचक शब्द पर्वत वाचक बन जाते हैं-जैसे भूधर, कुधर, इत्यादि । इस पद्धति से अनेक नये शब्दों निर्माण होता हैं। इसी प्रकार धनन्जयने 'अनेकार्थ नाममाला' को रचना भी की है। कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य के 'अभिधान चिन्तामणि', 'अनेकार्थ संग्रह', 'निघण्टु सग्रह' और 'देशी नाममाला' आदि कोश प्रन्थ सुप्रसिद्ध हैं। इसके अलावा 'शिलांछ कोश', 'नाम कोश', 'शब्द चन्द्रिका', 'सुन्दर प्रकाश शब्दार्णव', 'शब्दभेद नाममाला', 'नाम संग्रह', 'शारदीय नाममाला', 'शब्द रत्नाकर', 'अव्ययकाक्षर नाममाला', 'शेष नाममाला', 'शब्द सन्दोह संग्रह', 'शब्द रत्न प्रदीप', 'विश्वलोचन कोश', 'नानार्थ कोश', 'पंचवर्ग स ग्रह नाम माला', 'अपवर्ग नाम माला', 'एकाक्षरी-नानार्थ कोश', 'एकाक्षर नाममालिका', 'एकाक्षर कोश', 'एकाक्षर नाममाला', 'द्वयक्षर कोश', 'देश्य निर्देश निघण्टु', 'पाइय सहमहण्णव', 'अर्धमागधी डिक्शनरी', 'जैनागम कोश', 'अल्पपरिचित सैद्धान्तिक कोश', जनेन्द्र सिद्धान्त कोश' इत्यादि अनेक कोश अन्य भाषा के अध्ययनार्थ रचे गये हैं। इनमें से कई कोश प्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र' के पूर्व प्रकाशित हुए हैं और कुछ पश्चात् भी। 'अभिधान राजेन्द्र' की अपनी अलग विशेषता है। इसी विशेपता के कारण यह आज भी समस्त कोश प्रन्यों का सिरमौर बना हुआ है। सच तो यह है कि जिस प्रकार सूर्य को दिया दिखाने की आवश्यकता नहीं होती; उसी प्रकार इस महा प्रन्थ को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है। सूर्य स्वयमेव प्रकाशित है और यह पन्थराज भी स्वयमेव प्रमाणित है; फिर भी इसकी कुछ विशेषताए प्रस्तुत करना अप्रासंगिक तो नहीं होगा। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरपट्ट्प्रभाकर - चर्चाचक्रवर्ति-आगमरहस्यवेदी - श्रुतस्थविरमान्यश्रीसौधर्म बृहत्तपोगच्छीय - श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरिजी महाराज । तोलाराम शर्मा विद्वच्चकोरजनमोदकरं प्रसन्नं, शुभ्रव्रतं सुकविकैरवसद्विलासम् । हृद्ध्वान्तनाशकरणे प्रसरत्प्रतापं, वन्दे कलानिधिसमं धनचन्द्रसूरिम् ॥ १ ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' अभिधान राजेन्द्र ' अर्धमागधी प्राकृत भाषा का कोश है। भगवान महावीर के समय में प्राकृत ore भाषा थी । उन्होंने इसी भाषा में आम आदमो का धर्म का मर्म समझाया । यही कारण है कि जैन आगमों को रचना अर्धमागधी प्राकृत में की गई है। इस महाकोश में श्रीमद् ने प्राकृत शब्दों का मर्म ' अ ' कारादि क्रम से समझाया है; यह इस महाप्रन्थ की वैज्ञानिकता है। उन्होंने मूल प्राकृत शब्द का अथ स्पष्ट करते वक्त उसका संस्कृत रुप, लिंग, व्युत्पत्ति का ज्ञान कराया है; इसके अलावा उस शब्द के तमाम अर्थ सन्दर्भ सहित प्रस्तुत किये हैं । वैज्ञानिकता के अलावा इसमें व्यापकता भी है जैनधर्म-दर्शन का कोई भी विषय इससे अछूता नहीं रह गया है। इसमें तथ्य प्रमाण सहित प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें स्यादवाद, ईश्वरवाद सप्तनय, सप्तभंगी, षड्दर्शन, नवतत्त्व, अनुयोग, तीर्थ परिचय आदि समस्त विषयों की सप्रमाण जानकारी है । सत्तानवे सन्दर्भ ग्रन्थ इसमें समाविष्ट हैं । वैज्ञानिक और व्यापक होने के साथ साथ यह सुविशाल भी हैं। सात भागों में विभक्त यह विश्वकोश लगभग दस हजार रॉयल पेजी पृष्ठों में विस्तारित है । इसमें धर्म-संकृति से संब ंधित लगभग साठ हजार शब्द सार्थ व्याख्यायित हुए हैं । उनको पुष्ट सप्रमाण व्याख्या के लिए इसमें चार लाख से भी अधिक श्लोक उद्धृत किये गये हैं। इसके सातों भागों को यदि कोई सामान्य मनुष्य एक साथ उठाना चाहे; तो उठाने के पहले उसे कुछ विचार अवश्य ही करना पडेगा । इस महाप्रन्थ के प्रारंभिक लेखन की भी अपनी अलग कहानी है । जिस जमाने में यह महा प्रन्थ लिखा गया; उस समय लेखन साहित्य का पूर्ण विकास नहीं हुआ था । श्रीमद् गुरुदेव ने रात के समय लेखन कभी नहीं किया। कहते हैं, वे कपड़े का एक छोटा सा टुकडा स्याही से तर कर देते थे और उसमें कलम गीली करके लिखते थे । एक स्थान पर बैठ कर उन्होंने कभी नहीं लिखा । चातुर्मास काल के अलावा वे सदैव विहार-रत रहे । मालवा, मारवाड, गुजरात के प्रदेशों में उन्होंने दोघे विहार किये; प्रतिष्ठा-अंजनशलाका, उपधान, संघप्रयाण आदि अनेक धार्मिक व सामाजिक कार्य संपन्न किये; जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान किया और प्रतिपक्षियों द्वारा प्रदत्त मानसिक सन्ताप भी सहन किये । साथ साथ ध्यान और तपश्चर्या भी चलती रही । ऐसी विषम परिस्थिति में केवल चौदह वर्ष में एक व्यक्ति द्वारा इस 'जैन विश्वकोश' का निर्माण हुआ; यह एक महान आश्चर्य है । इस महाप्रन्थ के प्रणयन ने उन्हें विश्वत्रपुरुष की श्रेणी में प्रतिष्ठित कर दिया है और विश्वपूज्यता प्रदान की है । श्रीमद् विजय यशेादेवसूरिजी महाराज ' अभिधान राजेन्द्र और इसके कर्त्ता के प्रति अपना भावालास प्रकट करते हुए लिखते हैं- आज भी यह ( अभिधान राजेन्द्र ) मेरा निकटतम सहचर है । साधनों के अभाव के जमाने में यह जो महान कार्य सम्पन्न हुआ है; इसका अवलोकन करके मेरा मन आश्चर्य के भावों से भर जाता है और मेरा मस्तक इसके कर्ता के इस भगीरथ पुण्य पुरुषार्थ के आगे झुक जाता है । मेरे मन में उनके प्रति सम्मान का भाव उत्पन्न होता है; क्योंकि इस प्रकार के (महा) कोश को रचना करने का आद्य विचार केवल उन्हें ही उत्पन्न हुआ और उस विकट समय में अपने विचार पर उन्होंने अमल भी किया । यदि कोई मुझसे यह पूछे कि जैन साहित्य के क्षेत्र में बीसवीं सदी की असाधारण घटना कौनसी है; तो मेरा संकेत इस कोश की ओर ही होगा; जो बढ़ा कष्ट साध्य एवं अर्थसाध्य है । For Private Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत बृहद् विश्वकोश को पुनः प्रकाशित करने को हलचल और हमारा दक्षिण विहार दोनों एक साथ प्रारम्भ हुए। बबई चातुर्मास में हमारा अनेक मुनिजनों और विद्वानों से साक्षात्कार हुआ। जा भी मिला, उसने यही कहा कि 'अभिधान राजेन्द्र' जो कि दुर्लभ हो गया है, उसे पुनः प्रकाशित करके सर्वजन सुलभ किया जाये। हमें यह भी सुनना पड़ा कि यदि आपके समाज के पाम वर्तमान में इसके प्रकाशन की कोई योजना न हो; तो हमें इसके प्रकाशन का अधिकार दीजिये । हमने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि त्रिस्तुतिक जन संघ इस मामले में सम्पन्न एवं समर्थ है। · अभिधान राजेन्द्र' यथावसर शीघ्र प्रकाशित होगा। श्रीमद् पूज्य गुरुदेव की यह महती कृपा हुई कि हम क्रमशः विहार करते हुए मद्रास पहुँच गये । तामिलनाडु राज्य की राजधानी है यह मद्रास । दक्षिण में बसे हुए दूर दूर के हजारों श्रद्धालुओं ने इस चातुर्मास में मद्रास की यात्रा की। मद्रास चातुर्मास आज भी हमारे लिए स्मरणीय है। चातुर्मास समाप्ति के पश्चात् पोष सुदी सप्तमी के दिन मद्रास में गुरु सप्तमी उत्सव मनाया गया। गुरु सप्तमो प्रातःस्मरणीय पूज्य गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब का जन्म और स्मृति दिन है। गुरु सप्तमी के पावन अवसर पर एक विद्वद् गोष्ठी का आयोजन किया गया। उपस्थित विद्वानों ने अपने प्रवचन में पूज्य गुरुदेवश्री के महान कार्यों की प्रशस्ति करते दुए उनकी समीचीनता प्रकट की और प्रशस्ति में • अभिधान राजेन्द्र' का उचित मूल्याङ्कन करते हुए इसके पुनर्मुद्रण की आवश्यकता पर जोर दिया। इस ग्रन्थराज का प्रकाशन एक भगीरथ कार्य है। इस महत्त्वपूर्ण कार्य का बीड़ा उठाने का आहान मैंने मद्रास संघ को किया। आह्वान होते ही संघ हिमाचल से गुरुभक्ति गंगा उमड़ पड़ी। इस महत्कार्य के लिए भरपूर सहयोग का हमें आश्वासन प्राप्त हुआ। ग्रन्थ की छपाई गतिमान हुई पर श्रेयांसि बहुविध्नानि' की उक्ति के अनुसार हमे यह पुनीत कार्य स्थगित करना पड़ा। कोई ऐसा अवरोध इसके प्रकाशन मार्ग में उपस्थित हो गया कि उसे दूर करना आसान नहीं था। प्रकाशन की स्थगिति सबके लिए दुःखद थी, पर मैं मजबूर था। आंतरिक विरोध को जन्म दे कर कार्य करना मुझे पसन्द नहीं है। हमारी इस मजबूरी से नाजायज लाभ उठाया-दिल्ली की प्रकाशन संस्थाओंने ......... ......... । उन्होंने इस पुनीत ग्रन्थ को शुद्ध व्यक्सायिक दृष्टि से चुपचाप प्रकाशित कर दिया । श्रीमद् ने जो भी लिखा, स्वान्तःसुखाय और सर्वजन हिताय लिखा; व्यवसायियों के लिये नहीं । यही कारण है कि इसकी प्रथम आवृत्ति में यह स्पष्ट कर दिया गया कि • इसके पुनःप्रकाशन का अधिकार त्रिस्तुतिक सकल संघ को है ।' त्रिस्तुतिक समाज की इस अनमोल धरोहर को प्रकाशित करने से पहले त्रिस्तुतिक समाज को इसके प्रकाशन से आगाह करना आवश्यक था । ऐसा न करके इसके अन्य प्रकाशकों ने एक तरह से नैतिकता का भंग ही किया है। श्री भाण्डवपुर तीर्थ पर अखिल भारतीय श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय श्रीजैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ का विराट अधिवेशन सम्पन्न हुआ । देश के कोने कोने से गुरुभक्त उस अधिवेशन के लिए उपस्थित हुए। पावनपुण्यस्थल श्री भाण्डवपुर भक्तजनों के भक्तिभाव की स्वर लहरियों से गूंज उठा। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिवेशन प्रारम्भ हुआ । संयमयःस्थविर मुनिप्रवर श्री शान्तिविजयजी महाराज साहब आदि मुनि मण्डल की सान्निध्यता में मैंने संघ के ममक्ष विश्व की असाधारण कृति इस 'अभिधान राजेन्द्र' के पुनःप्रकाशन का प्रस्ताव रखा। श्री संघने हार्दिक प्रसन्नता व अपूर्व भावोल्लास के साथ मेरा प्रस्ताव स्वीकार किया और उसी जाजम पर श्रोसघ ने इसे प्रकाशित करने की घोषणा कर दी। परमकृपालु श्रीमद् गुरुदेव के प्रति श्री संघ की यह अनन्य असाधारण भक्ति सराहनीय है। और आज अखिल भारतीय श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ के द्वारा यह कोश प्रन्थ पुनर्मुद्रित हो कर विद्वज्जनों के समक्ष प्रस्तुत हो रहा है। यह हम सब के लिए परम आनन्द का विषय है । इस महामन्थ के पुनर्मुद्रण हेतु एक समिति का गठन किया गया है। फिर भी इस प्रकाशन में अपना अमूल्य योगदान देनेवाले श्रेष्ठिवर्य संघवी श्री गगलभाई अध्यक्ष अ. भा. सौ. बृ. त्रिस्तुतिक संघ गुजरात विभागीय अध्यक्ष श्री हीराभाई, मंत्री श्री हिम्मतभाई एवं स्थानीय समस्त कार्यकर्ताओं की सेवाओं को कभी भी मुलाया नहीं जा सकता । इनकी सेवाए सदा स्मरणीय हैं। इस कार्य में हमें पंडित श्री मफतलाल झवेरचन्द का स्मरणीय योगदान मिला है। प्रेसकार्य, प्रूफरीडिंग एवं प्रकाशन में हमें उनसे अनमोल सहायता मिली है । हम उन्हें नहीं भूल सकते । त्रिस्तुतिक संघ के समस्त गुरुभक्तों ने इस प्रकाशन हेतु जो गुरुभक्ति प्रदर्शित की है, वह इतिहास में अमर हो गयी हैं। वे सब धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंने इस कार्य में भाग लिया है । शुभम् । नेनावा (बनासकांठा) दिनांक २-१२-८५ आचार्य जयन्तसेनसुरि Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमहावीरस्वामीशासननायक | २५ श्रीनरसिंहसूर २६ श्रीसमुद्रसूरि १ श्रीसुधर्मास्वामी २ श्रीजम्बूस्वामी ३ श्रीप्रनवस्वामी - श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय पट्टावली + ४ श्रीसय्यंभवस्वामी ५ श्रीयशोमसूरि ६ श्रीसंभूतविजयजी श्री बाहुस्वामी ७ श्री लभस्वामी ८ & श्रीमार्यसुहस्तीसूरि (श्री मार्यमहागिरि श्रीमस्थित श्रीसुप्रतिबद्ध मूरि १० श्री इन्द्रदिन्नसूर ११ श्रीदिन्नसूर १२ श्री सिंहगिरिसूरि १३ श्रीवज्रस्वामीजी १४ श्रीवज्रसेनसूरिजी १५ श्री चन्दसूरिजी १६ श्रीसामन्तम सूरि १७ श्री वृद्धदेवसूरि १८ श्री प्रद्योतनसू १६ श्रीमानदेव सूर २० श्रीमानतुङ्गसूरि २१ श्रीवीरसूरि २२ श्रीजयदेवसूरि २३ श्रीदेवामन्दसूरि २४ श्रीविक्रमसूरि ** २७ श्रीमान देवसूर २८ श्रीविबुधप्रभसूर २६ श्रीजयानन्द सूरि ३० श्रीरविप्रसूरि ३१ श्रीयशोदेवसूरि ३२ श्रीप्रद्युम्नसूर ३३ श्रीमानदेवसूरि ३४ श्रीविमलचन्द्रसूरि ३५ श्रीमद्योतनसूरि ३६ श्रीसर्वदेवसूरि ३७ श्रीदेवसूरि ३८ श्रीसर्वदेवसूरि ३६. (श्रीयशोभद्रसूरि (श्रीनेमिचन्द्रसूरि ४. श्रीमुनिचन्द्रसूरि ४१ श्री अजित देवसूरि ४२ श्रीविजयसिंहसूर श्री सोमप्रसूरि (श्रीमणिरत्नसूरि ४३. ४४ श्रीजगच्चन्द्रसूरि ४५२ श्रीदेवेन्द्रसूरि (श्रीविद्यानन्दसूरि ४६ श्रीधर्मघोष ४७ श्री सोमप्रभसूर ४८ श्रीसोमतिलकसूरि ४६ श्रीदेवसुन्दरसूरि For Private Personal Use Only ५० श्री सोमसुन्दरसूरि ५१ श्री मुनिसुन्दरसूरि ५२ श्रीरत्नशेखरसूरि ५३ श्रीलक्ष्मीसागरसूरि ५४ श्रीसुमति साधुसूरि ५५ श्री हेमविमलसूरि ५६ श्रीमानन्दविमलसूरि ५७ श्री विजयदानसूरि ५८ श्रीहीरविजयसूरि ५६ श्रीविजयसेनसूरि ६० ( श्रीविजयदेवसूरि (श्रीविजयसिंह सूरि ६१ श्रीविजयप्रभसूरि ६२ श्रीविजयरत्नसूरि ६३ श्रीविजयक्षमासूर ६४ श्रीविजयदेवेन्द्रसूरि ६५ श्री विजय कल्याण सूरि ६६ श्रीविजयप्रमोदसूरि ६७ श्री विजयराजेन्द्रसूरि ६८. श्री विजयधनचन्द्रसूरि ६६ श्री विजय भूपेन्द्रसूरि ७० श्री विजययतीन्द्रसूरि ७१ श्री विजयविद्याचन्द्रसूरि ७२ वर्तमानाचार्य श्री विजयजयन्तसेनरि Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजेनकोष बाद विजय रोदनकाजी महराज बाद विजय मालदीवाजी महाराज उपाध्याय मोहनविजयजी महाज असा विजय भूपेनपूरalapur विजयीवाजी महाराज उपायात गुलामविजयजी महाराज विजय विधानसूरीश्वरजी महाराज * विजय याdaalana wunjaneuorary.org Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजार-प्रदर्शनम् । सुविहितसूरिकुसतिखकायमान-सकसजैनागमपारह श्व-श्रावासब्रह्मचारी-जङ्गमयुगप्रधान-प्रातःस्मरणीय-परमयोगिराज-क्रियाशुद्धयुपकारक-श्री सौधर्मवृहतपोगच्छीय-सितपटाचार्य-जगत्पूज्य गुरुदेव-नहारक श्री १००८ प्रनु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने 'श्रीअनिधानराजेन्द्र' प्राकृत मागधी महाकोश का सङ्कलनकार्य मरुधरदेशीय श्रीसियाणा नगर में संवत् १९४६ के थाश्विनशुलद्वितीया के दिन शुभ लग्न में आरम्भ किया । इस महान् संकलन कार्य में समय समय पर कोशकर्ता के मुख्य पट्टधर शिष्य. श्रीमद्धनचन्मसूरीजी महाराजने नी आपको बहुत सहायता दी। इस प्रकार करीब साढे चौदह वर्ष के अविश्रान्त परिश्रम के फलस्वरूप में यह प्राकृत बृहत्कोष संवत् १९६० चैत्र शुक्ला १३ बुधवार के दिन श्री सूर्यपुर (सूरत-गुजरात ) में बनकर परिपूर्ण ( तैयार ) हुआ। 生基本事事未来半丰需求,本基主事者基本基本主主未事事非事事非事事事本样本去去去去去非专本事来影本一本本事去丰乡某事本事事主本本本本子本多半是坐l गवालियर रियासत के राजगढ (मालवा ) में गुरुनिर्वाणोत्सव के दरमियान संवत् १९६३ पौष शुक्ला १३ के दिन महातपस्वी-मुनि श्रीरूपवि. जयजी, मुनिश्रीदोपविजयजी, मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी, श्रादि सुयोग्य मुनि महाराजाओं की अध्यक्षता में मालवदेशीय छोटे बझे प्राम-नगरों के प्रतिष्ठित-सद्गृहस्थों की सामाजिक मिटिंग में सर्वानुमत से यह प्रस्ताव पास दुधा कि-मर्तुम-गुरुदेव के निर्माण किये हुए 'अभिधानराजेन्द्र' प्राकृत मागधी महाकोश का जैन जैनेतर समानरूप से लाज प्राप्त कर सकें, इस लिये इसको अवश्य छपाना चाहिये, और इसके छपाने के लिये रतक्षाम (मालवा) में सेठ जसुजी चतुर्जुजजीत्-मिश्रीमलजी मथुगलालजी, रूपचंदजी रखनदासजी-जानीग्थजी, वीसाजी जवरचंदजीत्-प्यारचंदजी और गोमाजी गंजीरचंद जीत्-निहालचंदजी, आदि प्रतिष्ठित सदगृहस्थों की देख-रेख में श्रीश्रनिधानराजेन्द्र कार्यालय और 'श्रीजैनप्रनाकरांप्रटिंग प्रेस स्वतन्त्र खोलना चाहिये । कोष के संशोधन और कार्यालय के प्रबन्ध का 未来去去去去去去去去去来去去去去去奉卡手术未未来来来去去去去去去去去去去去去去未李若未未 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ITER A RITATE समस्त नार मर्दुम-गुरुदेव के सुयोग्य-शिष्य मुनिश्रीदीपविजयजी (श्रीमविजयजूपेन्द्रसूरिजी) और मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी को सोंपा जाय । बस, प्रस्ताव पास होने के बाद सं० १९६४ श्रावणसुदि ५ के दिन उक्त कोश को छपाने के लिये रतलाम में उपर्युक्त कार्यालय और प्रेस खोला गया और उक्त दोनों पूज्य-मुनिराजों की देख-रेख से कोश क्रमशः उपना शुरू हुथा, मो सं० १एर चैत्र--वदि ५ गुरुवार के दिन संपूर्ण बप जाने की सफलता को प्राप्त दुथा। t i tititi1232+**** इस महान् कोश के मुअणकार्य में कुवादिमतमतंगजमदभञ्जनकेसरीकलिकालसिमान्तशिरोमणि--प्रातःस्मरणीय-श्राचार्य श्रीमद्धनचन्छसूरिजी महाराज, उपाध्याय--श्रीमन्मोहनविजयजी महाराज , सच्चारित्रीमुनिश्रीटीकमविजयजी महाराज, पूर्णगुरुदेवसेवाहेवाक--मुनिश्रीहुकुमविज. यजी महाराज, सस्क्रियावान्- महातपस्वी मुनिश्रीरूपविजयजी महाराज, साहित्यविशारद-विधानूषण-श्रीमद्विजयनूपेन्द्रसूरिजी महाराज , व्याख्यानवाचस्पत्युपाध्याय-मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी महाराज, झानी ध्यानी मौनी महातपस्वी-मुनिश्रीहिम्मतविजयजी, मुनिश्री-सदमी विजयजी, मुनिश्री-गुलाबविजयजी, मुनिश्री--हर्षविजयजी, मुनिश्री. इंसविजयनी, मुनिश्री-अमृतविजयजी, आदि मुनिवरोंने अपने अपने विहार के दरमियान समय समय पर श्रीसंघ को उपदेश दे दे कर तन, मन और धन से पूर्ण सहायता पहोंचाई, और स्वयं भी अनेक जाँति परिश्रम गया है, अतएव उक्त मुनिवरों का कार्यालय बाजारी है । ** *******-*-*-* जिन जिन माम-नगरों के सौधर्मवृहत्तपोगच्छीय श्रीसंघ ने इस महान् कोषाङ्कन-कार्य में आर्थिक सहायता प्रदान की है, उनकी शुजसुवर्षाकरी नामावली इस प्रकार है श्रीसौधर्मवृ त्तपोगच्छीय श्रीमंघ-मालवा -*-*-*-* श्रीसंघ-रतलाम। जावरा। भीमंघ-वाँगरोद। , पारोदा-बड़ा श्रीसंघ-राजगढ़। , झायुवा । -*** 去去考法学本来孝老半生生幸去法学考法关主关注未来学生未来李李李李若未未事法学学孝亲手去害 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसंघ-बड़नगर। , खाचरोद। मन्दसोर । सीतामऊ। निम्बाहेड़ा। इन्दौर। उज्जैन। महेन्दपुर। नयागाम। नीमच-सिटी। संजीत। नारायणगढ़। बरड़ावदा। श्रीसंघ-सरसी। " मुंजाखेड़ी। , खरसोद-बड़ी। चीरोला-बड़ा। मकरावन । बरड़िया। (भाट)पचलाना। पटलावदिया। पिपलोदा। दशाई। बड़ी-कडोद। धामणदा। " राजोद। भीसंघ-झकणावदा। " कूकसी। __ आलीराजपुर। रींगनोद। राणापुर। पारां। टांडा। खवासा। रंभापुर अमला। बोरी। नानपुर। " श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीयसंघ-गुजरात श्रीसंघ-अहमदाबाद। वीरमगाम । सूरत। साणंद। बम्बई। पालनपुर । श्रीसंघ-धिरपुर (धराद)। श्रीसंघ-ढीमा। वाव । दूधवा। भोरोल। वात्यम। धानेरा। वासण। धोराजी। जामनगर। " हुवा। खंभात। श्रोसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-संघ-मारवाड़ श्रीसंघ-जोधपुर । र आहोर। जालोर। भंसवाड़ा। रमणिया। मांकलेसर। देवावस । बिशनगढ़। मांडवला। श्रीसंघ-भीनमाल । सांचोर। बागरा। धानपुर। आकोली। साथू । सियाणा। काणोदर। देलंदर । श्रीसंघ-शिवगंज। कोरटा। फतापुरा। जोगापुरा। भारंदा। पोमावा। बीजापुर । बाली। खिमेल। *********************** ¥未未未孝未老去未未米米米米幸未来事关未来冬中老李孝孝半半老老老老老老去半张卡辛未来老来荣获 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******************************************************* ***** ********** ********* श्रीसंघ-गोल। र साहेला। , पालासण। रेवतड़ा। भाणसा। बाकरा। मोदरा। पलवाड़। मेंगलवा। सूराणा दाधाल। धनारी। श्रीसंघ-मंडवारिया। " बलदूट। " जावाल। सिरोही। सिरोड़ी। हरजी। गुडाबालोतरा। भूति । तखतगढ । सेदरिया। गेवाडा। भावरी। श्रीसंघ-सडिराव । " खुडाला। राणी। खिमाड़ा। कोशीलाव। पावा। एंदला का गुड़ा। चाणोद। डूडसी। थाँवला। जोयला। काचोली। *********************************** *-*-*-*-*-*-*- *- *****-*-*-*-*-*- इनके सिवाय दूसरे भी कई गाँवो के संघों के तरफ से मदद मिली है, उन सभी का कार्यालय शुद्धान्तःकरण से पूर्ण आभारी है। ******** श्रीअभिधानराजेन्द्रकार्यालय, रतलाम ( मालवा) ** * *-*- ************************************** -*- --*-* * -*-*- I T ******************************************************** IN Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीवर्द्धमानो जयति ॥ श्रीअभिधानराजेन्दः। वीरं नमेऊण सुरेसपुजं, सारं गदेऊण तयागमायो। साहूण सहाण य बोइयं तं, बोच्छामि नागम्मि य पंचमम्मि ॥ १ ॥ HTTTTTTT. पकार 18Rinkmahtions 00***OS पठाण ඇAAAAAAz5745:&&&&&&&&& ". पइ-पति-पुं०ा पाति रक्षति तामिति पतिः भर्तरि,उत्त०१०। 6TTETTER एकस्याः स्त्रिया एक एव पतिर्भवति। मृते पत्यौ पत्नी ब्रह्मचर्य चरतीति स्मृतिः। एतादृश आचारश्च. परं प्राक्कस्मिश्चिद्देशे ए कस्याः स्त्रिया अनेके भर्तार आसन् । तद्यथा-"थेरे मंडियपुत्ते वासिट्ठगुत्तणं श्रद्धट्ठाई समसयाई वाएइ । थरे मोरियपुते कासवगुत्तेणं श्रद्धटाई समरणसयाई।" इत्यादि । मण्डिकमौ र्यपुत्रयोंरकमातृकत्वेन भ्रात्रोरपिभिन्नगोत्राऽभिधानं पृथग् ALAttita जनकापेक्षया । तत्र मण्डिकस्य पिता धनदेवो, मौर्यपुत्रस्य तु मौर्य इति । अनिसिद्धं च तत्र देशे एकस्मिन् पत्यौ मृते द्वितीयातवरणमिति घृद्धाः। कल्प०२ अधि०८ क्षण । प-प-पुंगपत् पा वा डः। पवने, पातरि.पणे, पाने च । वा " पई भत्ता" पाई. ना० २५३ गाथा । च० । सूर्ये.शोषणे, वही, पाताले, वरुणे च। परित्राणे, क्षमे. पइन-देशी-भत्सिते, रथचके च । देना०६ वर्ग ६४ गाथा। क्षत्रे, निपाने. पङ्कसङ्कले. उच्चदेशे, स्थले च । “पः सूर्ये शोषणे पइक्खण-प्रतिक्षण-अव्य० । प्रतिसमयमित्यर्थे, स्था०२ ठा० बढ़ी, पाताले वरुणेऽनिले । परित्राणे क्षमे क्षत्रे, निपाने पङ्क- १ उ० । कर्म० । ध। ८०॥" एकाना० । पवते, क्षण. प्रकारे, शुभलक्ष्ये च। पइच्छन्न-प्रतिच्छन्न-पुं० । भूतविशेषे, प्रशा० १ पद । “ पुल्लिङ्गे तु पकारः स्यात् . पवन पर्वते क्षणे ॥ ५६ ॥ प्रकारे शुभलक्ष्य च. पात्रकौस्तुभयोरपि ॥ (५७)" एका०र० । “प | पद-प्रतिष्ठ-पुं० सुपार्श्वतीर्थकृतः सप्तमतीर्थकरस्य पितरि, त्तिय पाववजणे ।" प इति पापवर्जन, आ० म०१०। प्रव० ११ द्वार । स० । श्रावमातरसे, विरले, मार्गे च । प्र-श्रव्यः दे० ना० ६ वर्ग ६६ गाथा । । “सर्वत्र लवरामचन्द्रे" ॥२७॥ इति रलोपः। आदिकर्मणि, जगा प्रणमिताः, नमयितुमारब्धा इत्यर्थः । प्र पइदुवण-प्रतिष्ठापन-न० । प्रतिष्ठापने, जीवा०१ अधिक। शब्दस्याऽऽदिकर्मार्थत्वात् । जं०१ बक्ष०ा उत्ता प्राथम्ये, स- पइदा-प्रतिष्ठा-स्त्री०।"प्रत्यादौ डः॥८।१।२०६॥ इतिर्वतोभावे, उत्पत्ती, ख्याती,व्यवहारे च । वाचन प्रकर्षे,सू- तस्य डः प्राप्ता न. प्रायिकत्वात्। प्रा०१ पाद । अवस्थाने, प. १०२ श्रु०१ अ० उत्त०। प्राचा०रा०ा नि०चूल प्रज्ञा प्रश्न- शा०८ विव० । स्था०। संसारभ्रमणविरती, सूत्र०१ श्रु०११ वणे, "विप्पोसहि" इत्यत्र प्रशब्देन प्रश्रयणग्रहणात् । औ० । अ० । सर्वज्ञगुणाध्यारोपे. जी०१ प्रति०। (जिनबिम्बविपत्र-पुं०-पयम्-न० । “स्नमदामशिरोनभः" ॥८।१।३२॥ इति धापनं, प्रतिष्ठाविधिश्च 'चेइय' शब्दे तृतीयभाग १२६६ पृष्ठ पयसः प्राकृते पुंस्त्वम् । प्रा०१ पाद । जले, दुग्धे च । वाचा उक्नः) (तत्कल्पस्तु प्रतिष्ठाकल्पग्रन्थादवसेयः) प्रतिष्ठापनं पागजल-प्रयागजल-न० । "कगचज०" ॥८।१।१७७॥ प्रतिष्ठा, अपायावधारितस्यैवार्थस्य हृदि प्रभेदेन प्रतिष्ठापने, इत्यस्य प्रायिकत्वान्न ग्लुक् । प्रयागाऽऽख्यतीर्थराजस्थग- मं०। प्रतिष्ठन्त्यस्यामिति प्रतिष्ठा । श्राश्रये, औ०। कायमुनोदके, प्रा०१ पाद । पहवाण-प्रतिष्ठान-न० । प्रतिष्ठते प्रासादोऽस्मिन्निति प्रतिपधार-प्रचार-पुं० । 'प्रचार' शब्दार्थे, प्रा०१ पाद । ठानम् । पीठे, प्रव० १४८ द्वार । ध। श्राधार, रा० । स्था। प्रकार-पुं० । “घ वृद्धिर्वा" ||८।१।६८॥ इति घनि सूत्र०। त्रिसापानमूलपदेशे, प्रा०म०१ श्र० । स्था० । मित्तस्य वृद्धिरूपस्याऽऽकारस्याद वा पयार' शब्दे वक्ष्य जंग। जी०। संसारगर्तापतत्प्राणिवर्गस्याऽऽधार, तं०। प्रमायोऽर्थ, प्रा०१ पाद । तिष्ठानं सम्यकन्यम् , तस्य तथाकल्पत्वात् । तथाहि-यथा पावइ-प्रजापति-पुं० । “कगचजनदपयवां प्रायो लुक।" पयापर्यन्तं पृथ्वीतलगतगर्तापूरकरहितः प्रासादः सुरढो न 1८1१७७॥ इत्यादिना जलुक् । प्रा०१पाद ।"श्रयों यभूतिः" ॥८।१।१८०॥ इति अवर्णस्थाने लघुप्रयत्नतरय भवति, तथा धर्मदेवहर्म्यमपि सम्यन्वरूपातिष्ठानपरित्यक्तं काराभावः । प्रा०१पाद । निश्चलं न भवेदिति । प्रव०१४- द्वार। श्रा०चू० । भाव Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टाय " ल्युट् । श्रवस्थाने, स्था० ६ ठा० स्थितौ, श्राव० ४ ० । पुरभेदे, नागदत्तो नागवसुपुत्रो जिनकल्पं प्रतिपथ भ्रष्टः । प्रा० ० यत्र या शालिवाहन राजाऽऽसीत्। " पट्टा नगरे मालिवाहणो राया । सो वरिसे वरिसे भरुयच्छे नयरे नरबाइणं रायाणं रोहेइ । " विशे० । कल्प० । श्राच० । श्रा० म० । पट्ठाणपट्टण-प्रतिष्ठानपत्तन न०|महाराष्ट्रविषयप्रधानपुरे, ती. "जीपा पुनमेतद्रोदयः श्रीप्रतिष्ठानम्। रखाssपीडं श्रीमहाराष्ट्रलक्ष्म्याः,‍ :, रम्यैई स्वनेत्रशैत्यैश्व चैत्यैः ॥१॥ अष्टलका अरे यात्र वीराः। पृथ्वीशानां न प्रवर-क्षेत्र मोडते जोरीगाम्॥श नश्यतीति पुटभेदनतोऽस्मात् परियोजनमितः फलवर्मा। बाधनाय भृगुकच्छमगच्छ द्वाजिनो जिनपतिः कमठाङ्कः (?) ३) अन्यितावियल्या अन्त्यजे शरदजनमा कालयोग्यधित वार्षिक मार्याः, पर्वभाद्रपद शुक्लचतुर्थ्याम् ॥४॥ मतदानपति जनो विचक्षणः । न्वासुरविमानधारणि श्रीचिसोकविषयं कुतूहलम् ॥४॥ सातवाहनपुरस्सरा नृपश-श्चित्रकारिचरिता इहाभवन् । ने, यानान्यनेकशः ॥ ६ ॥ कपिलाऽऽत्रेयबृहस्पति पञ्चला इह महीभृदुपरोधात् । न्यस्तस्व (२) चतुर्लक्ष - ग्रन्थार्थ श्लोकमेकमकथयन् ॥ ७ ॥ " सचार्य श्लोकः"जी भोजनमात्रेयः कपिः प्राणिनो दाम् बृहस्पतिरविश्वासः पञ्चातः खीषु मार्दयम् ॥ ८ ॥ " इद्द जयति शोरमृतच्छटा सुरग्बर्दियां पयोदघटा । जीवितस्वामिप्रतिमा, श्रीमन्मुनिसुव्रतस्य लेप्यमयी ॥ ६ ॥ मेकाला युतानि सार्थानि । अ शतानि पर निकाली ऽस्याः ॥ १० ॥ सुजिनसे यात्रामा विदितविविधमदाम् । भव्यत्ययेद्दिक पा११॥ '' , - ( २ ) अभिधान राजेन्द्रः । प्रासादेऽत्र श्रीजिनराजां, चारु चकासति लेप्यमयानि । अम्बा देवी क्षेत्राधिपति-यक्षाधिपतिश्चापि कपर्दी ॥१२॥" विस्वान्यप्रतिबिम्ब-प्रीतिस्फीति ददाति जिनानाम् ॥ " श्रीप्रतिष्ठानतीर्थस्य, श्रीजिनप्रभसूरयः । कल्पमतं विरचयां बभूवुर्भूतये सताम् ॥ १३ ॥ " श्रीप्रतिष्ठान पत्तन कल्पः । ती० २२ कल्प | विस्तरेण तु " श्रीसुतजिनं नत्था, प्रतिष्ठां प्रापुषः प्रतिष्ठान पुरस्याभि-दध्मः कल्पं यथाश्रुतम् ॥ १ ॥ । भारत वर्षे दक्षिणखरांड महाराष्ट्रदेशावतंसं श्रीमत् प्रति । टानं नाम पचन विद्यते तच निजमूल्याऽभिभूतपुरतपुरमपि कालान्तरेण कामानएकदा द्वी येदेशिकद्विजौ समागत्य विधवया स्वस्ना साकं कस्यचित् कु । उभकारस्य शालायां तस्थिवांसौ, वृत्ति विधाय कणान् स्वमरुपनीय तत्कृताद्वारपाकेन समयं यापयतः स्माश्रन्येद्युः सा तयोर्विप्रयोः स्वसा जलाऽऽहरणाय गोदावरीं गता, तस्याः रूपसुः स्वरूपमप्रतिमरूपं निरूप स्मरन्तदेवासी शेषनाम नागराजो दागत्य विहितमनुष्यवस्तया सह बलादषि संभोगकेमिकल भवितवासिने पद्वारा पहच स्याः सप्तधातुरहितस्याऽपि तस्य दिव्यशक्त्या शुक्रपुङ्गलसञ्चारागर्भाऽऽधानमभवत् । स्वनामधेयं प्रकाश्य व्यसनसंकटे मां स्मरेरित्यभिधाय च नागराजः पाताललोकमगमत्, सा च स्वगृहं प्रत्यगच्छत् । व्रीडापीडिता च साखभ्रात्रे तं वृत्तान्तं न खलु न्यवेदयत् । कालक्रमेण सोदर्याभ्यां गर्भलिङ्गानि वीक्ष्य सा जातगर्भेत्यलक्ष्यत । ज्यायसस्तु मनसिशङ्का जानामीशुक्रेति शङ्कनीयान्तराभावात् । यवीयसोऽपि चेतसि समजनि विकल्पः- नूनमा ज्यायसा सह विनष्टशीलत्यवं मिथः कलुषिताऽऽशयौ विहाय तामेकाकिन पृथक देशान्तरमवासिशम् साऽपि प्रवर्द्धमानगभी परमन्दिरेषु कर्माणि निर्माण प्राणवृत्तिमपूर्णेनेसिसलाई प्रासून तन यम् । स च क्रमाद्वपुषा गुणैश्च वर्द्धमानः सवयोभी रममावाला स्वयं भूपतीभूय तेक रितुरगरथाऽऽदीनि कृत्रिमान दत्तवानिति, सनोने दर्शनार्थस्वालाकैः सातवाहन इति व्यपदेशं लम्भितः स्वजनन्या पात्यमानः सुवास्थित इतश्चाजयिन्यां श्रीविक्रमादित्यस्यावन्तिनरेशितुः सदसि मितिः सातवाहनं प्रपन्नान्द्रादिक्षत् । अथैतस्यामेव पुर्यामेकः स्थविरावप्रः स्वाऽऽयुरवसानमवसाय चतुरः स्वननयानाय प्रोक्तवान् यथा वत्साः ! म परा महीपादादारभ्य - तुपादानामधो वर्तमानं कलशचएवं युमाधिर्यथायेनिः पुत्रस्तु यादेशः पितुः । तस्मिन्नुपरत तस्वीडि वा त्रयोदशेऽहनि भुत्रं खात्वा यथायथं चतुरोऽपि निधिकलशांत हिरे बाबा निभालयन्निथमेनकु म्भस्य कनकम् द्वैतीयीकस्य कृष्णमृत्स्ना, तृतीयस्य घुशं तुरीयस्य चास्थीनि दाशं तदनु उपयसा सार्क इतर त्रयो विवदन्ते स्म यदस्मभ्यमपि विभज्य कनकं वितरात । तास्म . वितरति सति तेऽपतिपतेः धर्माधिकरणमुनास्थिपन तावादनिर्णयः सम्पादिते महाराष्ट्र जनपदमुपानंसिषुः । सातवाहन कुमारस्तु कुलालमृदा हस्त्यश्वरथनः कुलालशालायां यालक्रीडा दुर्ललित: कलितस्थितिरनयत्समयम् । ते च द्विजतनुजा: प्रतिष्ठानपत्तनमुपेत्य परितस्तस्यामेव जीवनशालायां तस्थिवांसः। सातवाहन कुमारस्तु तानवक्ष्येङ्गिताकारज्ञानकुशलः प्रोवाच- भो विप्राः ! किं भवन्तः चिन्तापना इव बीचयन्ते । तैस्तु जगदे-सुभग ! कथमिव वयं चिन्ताऽऽकान्तत्रेतस्वयाऽज्ञासिष्महि । कुमारेण बभणे- हांङ्गनैः किमवं नावगम्यते । तैरुक्तं युक्तमेतत् । परं भवतः पुरो निवेदितन किंचिग्लायडतिचिन्तामा वदिष्यामि इति ततस्ते तद्वचनवैचित्रहृतहृदयाः सकलमपि स्वस्वरूपं निधिनिर्णयादि मालवेशपरिपद्यपि विवादानि तवन्तः कुमारस्तु स्मितयाम्फुरिताऽधरोबारी भी विधा निदामि तामवहिते यस्य ताय द्धस्तमाप्तः कनककलशः स तेनैव निर्वृतोऽस्तु यस्य कलशे कृष्णमृत्स्ना निरगात् स क्षेत्र केदाराऽऽदीन गृराहातु, यस्य तु बुशंसामापनि कुनाम Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पइट्ठाण पट्टण अभिधानराजेन्द्रः। स्व चास्थीनि निरगुः सोऽश्वगोमहिषीवृषभदामीदासाऽऽदि- पइवावण-प्रतिष्ठापन-न । व्यवस्थापने, पञ्चा० ७ विव। कमुगादत्तामिनि युष्मजनकस्याऽऽशयः । इनि क्षीरकराठोक्नं संस्थापने, पञ्चा०८ विव०। शुन्या सूत्र करठाश्चिविवादास्तद्वनं प्रतिश्रुत्य तमनुज्ञाप्य | पदिड-प्रतिस्थिति-श्रव्य० । स्थिति स्थिति प्रति प्रतिस्थिप्रत्याययुः खनगरीम् । प्रथिता सा तद्विवादनिर्णयकथा पुर्या | तिः । वीप्सायां योग्यतावीप्सापदार्थानतिवृत्तिसारश्ये:म् । गाऽध्याकार्य पर्यनुयुक्तः। किं नु भो भवतां बादनिर्ण । व्ययीभावः । एकैकस्मिन स्थितिबन्ध, " पठिामसंस्खलोगयो जातः ?, तैरुतश्चाऽऽम् स्वामिन् ! कन निर्णीत इति नृप । समा।" कर्म० ५ कर्म । गोदित सातवाहनस्वरूप ममपि यथातथ्यमचकथयन् । त. पइडिय-प्रतिष्ठित-त्रि० । व्यवस्थिते. प्राचा०२ श्रु० १ चू०१ दाकण्यं तस्य शिशोरपि बुद्धिवैभवं विभाव्य प्रागुतं दैवशेन | तस्य प्रतिष्ठान राज्यं भविष्यतीत्यनुस्मृत्य तं स्वप्रतिपन्थिनमा। अ०७ उ० । स्था। आ० म०। ज्यो०। प्रतिबद्धे, आबा० २ श्रु०१ चू०१०७ उ०॥ कलय्य भितमनास्तन्मारणोपायकमचिन्नयाचरं नरेश्वरः । अभिसराऽऽदिप्रयोगैारिते चास्मिन्नवश्यं क्षात्रवृत्तिक्षतिर्भ पइणियय-प्रतिनियत-त्रिका अवश्यं भाविनि, प्रतिनियत दिवसभाविनि, "इंदाइमहा पाय, पइनियया ऊसया हॉति ।" वतादिति विचार्य सनद्धतुरङ्गमूसमूहाऽयन्तीपतिः प्रस्था श्रा०म० ११०! य प्रतिष्ठानपत्तनं यथेष्टमवेष्टयत् , तदवलाषय त ग्राम्यानसाश्चिन्तयन्ति स्म-कस्योपर्ययमतावानाटापः सकोपस्य मा. पइम-प्रकीर्ण-त्रिका विक्षिप्त, वृ० १ उ०१प्रक०। लयेशस्य, न तावत्र राजा, राजन्यो चा वीरः, न च ताह प्रतीर्ण-त्रि०। प्रकर्षेण तीणे, प्राचा० १ श्रु०५ अ० ३ उ० ॥ ग्दुर्गादि वति चिन्तयत्सुतेषु मालवंशहितो दूतः समेत्य वैल्ये, दे० ना०६ वर्ग ७ गाथा। सातवाहनमयोचत्-भाः कुमारक! तुभ्यं नृपः क्रुद्धं, प्रात पहम्मतर-प्रतिज्ञान्तर-नाप्रतिज्ञातार्थप्रतिषधे परेण कृते तत्रैव स्वां मारयिष्यत्यता युद्धाऽऽधुपायचिन्तनायहितेन भवता धर्मिणि धोत्तरं साधनीयमभिदधतो निग्रहस्थान दे,स्यान भाव्यमिति । स च धुत्वाऽऽपि दूतोक्नं निर्भयं निर्भर क्रीडन पइमकहा-प्रकीर्णकथा-स्त्री० । उत्सर्गे, " उस्सग्गे पइसकहा थाऽऽस्त, अत्रान्तरे विदितपरमार्थी तो तन्मातुलावितरेतरं भमान, अववादो निच्छयकहा भमनि।" नि००५ उ०। प्रतिाबगतदुर्षिकरूपौ पुनः प्रतिष्ठानमागतौ परचक्रं दृष्ट्रा भ- पइपग-प्रकीर्णक-त्रि० । अनावलिकाबद्धे, द्विविधा नरकाःगिनी प्राचतुः-हे स्वसः! येन दिवौकसा तवायं तनयो दत्त श्रालिकाप्रविष्टाः, प्रकीर्णकाश्च । स्था०६ ठा। तीर्थकृत्सास्तमय स्मर । यथा स एवास्य साहाय्य विधत्ते । सोऽपि त मान्यसाधुक्त ग्रन्थे, तं० । (प्रकीर्णकसंख्या 'तदुंलबयालिय' द्वचसा प्राचीन नागपतेर्वचः स्मृत्वा शिरसि निधेशितघटा शब्देऽस्मिन्नेव भागे २१६८ पृष्ठ गता) गोदावयों नागदं गत्वा सात्वा च तमेव नागनायकमाराध । तथा च प्रकीर्णकानियत् । तत्क्षणानागराजः प्रत्यक्षीभूय वाचमुवाच ब्राह्मणीम् एवमाइयाई चउरासीई पइनगसहस्साई भगवयो अरको हेतुरहमनुस्मृतस्त्वया?। तया च प्रणम्य यथास्थितमभिहिते बभाषे शषराजः-मयि प्रतिपातरि कस्तव तनय हो उसहसामिस्स आइतित्थयरस्स । तहा संखिजाई मभिभवितुं क्षमः १, इत्युदीर्य तद्घटमादाय हदान्तर्निमज्य पइन्नगसहस्साई मज्झिमगजिणवराणं । चोद्दसपइबगसहपीयूषकुण्डात् सुधया घटमापूर्याऽऽनीय तस्यै दत्तवान् , स्साणि समणस्स भगवत्रो वद्धमाणसामिस्स । अहवागदितयांश्चानेनऽमृतेन सातवाहनकृतमृन्मयाश्वरथगजपदा जस्स जत्तिया सीसा उप्पत्तियाए वेणइयाए कम्मियाए तिजातमभिषिञ्चः, यथा तत् सजीवं भूत्वा परवलं भनक्ति, स्वत्पुषं च प्रतिष्ठानपत्तनरान्येऽयमेव पीयूषघटाऽभिषय पारिणामियाए चउबिहाए बुद्धीए उववेया,तस्स तत्तियाई ति, प्रस्ताव पुनः स्मरणीयोऽहमित्युक्त्या स्वाऽऽस्पदमगमद् | पइसगसहस्साई, पत्तेयबुद्धा वि तत्तिया चेव । भुजङ्गपुङ्गवः । साऽपि सुधाघटमादाय समोपेत्य तन तन्मय (एवमाझ्याई इत्यादि) कियन्ति नाम नामग्राहमाख्यातुं शसैन्यमदैन्यमभ्युक्षयामास । प्रातर्दिव्यानुभावतः, सचेतनी- क्यन्त प्रकीर्णकानि, तत एवमादीनि चतुरशीतिप्रकीर्णकभूय तत्सैन्य संमुखं गत्वा युयुधे । परानीकिन्या साई तया| सहस्राणि भगवतोऽहंतः श्रीऋषभस्वामिनः तीर्थकृतस्तथासातवाहनपृतनया भग्नमवन्तीशितुर्वल, विक्रमनृपतिरपि प- संख्येयानि प्रकीर्णकसहस्राणि मध्यमानामजिताऽऽदीनां जि. खाय्य ययाववन्ती, तदनु सातवाहनोऽपि क्रमेण दक्षिणा- नवरेन्द्राणाम् । एतानि च यस्य यावन्ति भवन्ति तस्य तावन्ति पथमनणं विधाय तापीतीरपर्यन्तं चोत्तरापथं साधयित्वा प्रथमानुयोगतो वेदितव्यानि । तथा चतुर्दशप्रकीर्णकसहस्वकीयसंवत्सरं प्रावीवृतत् , जैनश्च समजनि, अचीकरच्च स्राणि भगवतोऽईतो बर्द्धमानस्वामिनः । इयमत्र भावना-दह जनितजननयनशैत्यानि जिनचैत्यानि, पश्चाशद्वारा अपि प्र- भगवतः ऋषभस्वामिनः चतुरशीतिसहनसंख्याः श्रमणा त्येकं स्वस्वनामाङ्किताभ्यन्तनगरं कारयांबभूवुर्जिनभवनानि । आसीरन । ततः प्रकीर्णकरूपाणि चाध्ययनानि कालिकोइति प्रतिष्ठानपत्तनकल्पः । ती० ३२ कल्प । त्कालिकभेदभिन्नानि सर्वसंख्यया चतुरशीनिसहनसंख्या न्यभवन् । कथमिति चेत् ? । उच्यते-इह यद्भगवदईपइट्ठाणपुर-प्रतिष्ठानपुर-न०1 महाराष्ट्र देशप्रधाननगरे, ती० ३२ कल्प। दुपदिष्ट थुतमनुसृत्य भगवतः श्रमणा विग्त्रयन्ति , त. सर्व प्रकीर्णकमुच्यते । अथवा-श्रृतमनुसरन्तो यदापडद्रावग-प्रतिष्ठापक-पुं०1 व्यवस्थापके, औराजाऽऽदि- त्मनो वचनकौशलेन धर्मदेशनाऽऽदिषु प्रन्थपद्धतिरूपतया समक्ष स्वपदानवेशनेन प्रतिष्ठाकारके. मा श्रु० १८०।. भापन्ते तदपि सर्व प्रकीर्णकं , भगवतश्च ऋषभस्वामि Jain Education Interational | Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। न उत्कृष्टा श्रमणसंपदासीत चतुरशीनिहरमाणा. नागपशशष्टदनेह प्रकरण शायते उत्सगांपवादतस्वमनयेति व्य. घटन्ते प्रकीर्णकाम्यपि भगवतः चतरशीनिसहमसंयानि। पत्त्या छदश्रुत गुप्तरहस्यवचनपद्धतिरुच्यते, सा प्रकीर्णा एवं मध्यतीर्थकृतामपि संख्येयानि प्रकीर्णक सहस्राणि भाव चिक्षिप्ता यन स प्रकीमप्रज्ञः । प्रकोप्रश्न इति वा पाठः । तत्र नीयानि । भगवतम्तु वर्द्धमानस्वामिनः चतनशश्रमणासह- वापारणनेः किमेनद रहस्यभूनमत्राभिधीयते पत्य लेखेन प. नागि, तेन प्रकीर्णकान्यपि भगवतश्चत देशमहागि । यात्र च्छ्यत इति प्रश्नः छेदश्रुतान्तःपाती रहम्यार्थः, स प्रकीरणों छ मन । एके सूरयः प्रज्ञापयन्ति-इदं किल चतुरमोनियह- मन म प्रकीर्ण प्रश्नः । तथा प्रकीर्णविद्यन्तु सर्वमध्यादेगरभ्यः साऽऽदिकं वृषभाऽदितीर्थकृतां श्रमपरिमागं प्रधानमत्र- पपन्नं यावत् वेदश्रुतमुत्सगोपवादसहितमपरिणतानां कथ. विरचनसमर्थान् श्रमणानधिकृत्य धेदितव्यम. इनग्था पुनः यति. विद्याशब्दन चात्राखण्डच्छेदश्रुतमभिधीयते, प्रकीर्मा सामान्यश्रमणाः प्रभूनतरा अपि तस्मिन ऋपना 55दिकान विद्या येन स प्रकी विद्य इति ॥ ७६३॥ श्रासीरन् । अपर पुनरेवं प्रज्ञापयन्ति-ऋपभाऽऽदिनीनां अथ द्विविधम्यापि प्रकीर्णव्याकर्तुदोषानाहजीवतामिदं चतुरशीतिलहनाऽऽदिकं श्रमणपरिणाम , प्र- अप्पचनो अकित्ती, जिणाण ओहाव मइलणा चेव । वाहतः पुनरे कै कस्मिन् नीर्ण भूयांसः श्रमणा वेदितव्याः । तत्र दलहबोहीअत्तं, पावंति पइपवागरणा ।। ७६४॥ ये प्रधानसूत्रधिरचनशक्तिसमन्विताः सुप्रसिद्ध तदन्था अनकालिका अपि तीर्थ वर्तमानास्तऽत्राधिकृता द्रष्टव्याः । पत अपरिणताऽऽदीनां राहसिकेषु पदेषु ज्ञाप्यमानेषु अप्रत्यदेव मतान्तरमुपदर्शयन्नाह-(अथवेत्यादि ) अथवेति प्रका योऽविश्वासो भवति-पूर्वापरविरुद्धमिदं शास्त्र, यतः पूर्व न गन्तरोपदर्शन; यस्य ऋपभाऽऽदस्तीथकृतो यावन्तः शिष्या: कल्पते तालप्रलम्ब प्रतिगृहीतुमति प्राप्य पश्चात् कल्पते ती श्रोत्पक्तिक्या वेनयिक्या कर्म जया पारिणामिक्या चतु इत्यनुज्ञायाः प्रतिपादनात् । यथा चैतद कं, तथा सर्वमपि धिंधया बुद्ध या उपपेनाः समन्विता ग्रामीरन , तम्य प जिनप्रवचनमीदृशमेवति । ते चैवं विपरिणताः सन्तो जिना. भाऽउदेस्तीर्थकृतः तावन्ति प्रतीम कसहस्राणि अभयन् , प्र नो-तीर्थकृतामकीर्ति कुर्यु:-कुत एषां सर्वशत्वं, यैरीरशंपूर्वा. न्येकबुद्धा अपि नावन्त एव । अत्रके व्याचक्षते- इहै कैकस्य परब्यात भापितमिति ? । ततश्च (ोहाव त्ति ) अवधातीर्थकृतस्तीर्थे अपरिमारणानि प्रकीर्णकानि भवन्ति.प्रकीक बनमुत्-प्रत्रजनं कुर्बीरन् । अथ नोत्प्रव्रजेयुस्तथाऽपि (मइकारिणामपरिमाणत्वात. केवलमिह प्रत्येकवरचिताय लगात) तपामधाप्यपारणतत्वादपवादपदं शत्वा अपरिप्रकीर्मकानि दृष्टव्यानि. प्रकीर्मकपरिमाणन प्रत्येक बुद्धपार णामकत्वेन चा शङ्काऽऽदिशेषतो ज्ञानाऽऽदीनां मलिनता मा. माणप्रतिपादनात् । स्यादेतत्-प्रत्येक बुद्धानां शिष्यभावा वि लिन्यं स्यादिति । ततश्चैवमप्रत्ययाऽऽदिकं जनयन्तो दुर्लभरुद्धयंत, तदेतदसमीचीनम् , यतः व्राजकाचार्यमेवाधि बोधिकत्वं प्राप्नुवन्ति । क पते इत्याद-प्रकीर्णव्याकरणाः प्रकृत्य शिष्यभावा निषिध्यते. न तु तीर्थकरोपदिष्टशासनप्रति विस्तारिच्छेदश्रुतरहस्यार्थनिर्वचनाः, प्रकीर्णप्रश्नाः, प्रकीर्णपन्नत्वेनापि ततो न कश्चिद्दोषः । तथा च तेषां ग्रन्थः-" इह विद्याश्चेत्यर्थः।व्याख्यातं प्रकीर्णद्वारम् ॥७६४॥वृ०१उ०१प्रका तित्थे अपरिमाणा पइस्मगा पइलगसामिपरिमाणतणो, पइएणपएह-प्रकीर्णप्रश्न-त्रि० विक्षिप्तच्छदश्रुतान्तःपातिरकिं तु इह सुत्ते पत्तेयबुद्धपणीयं पइमग भारिणयव्वं । कम्हा | हस्यार्थे, वृ० १ उ०१ प्रकः । जम्हा?, पइमागपरिमाणेण चेव पत्तेयबुद्ध परिमाणं करेंति । पहलवागरण-प्रकीर्णव्याकरण-त्रि० । प्रस्तारितच्छेदश्रुतरइय भणियं-पत्तेयबुद्धा वित्तिया चव । चोयग श्राह-ननु हम्यार्थनिर्वचने, बृ०१ उ०१प्रक०।। पत्तेयबुद्धाणं सिरसभावो विरुज्झए । पायरिय पाह-तिस्थगरपणीयसासणपडियन्नत्तेण उ ते तस्सीसा हयंतीति ।" पडणविज-प्रकीर्णविद्य-त्रि० । विद्याशब्देन चात्राखण्डं छेदअन्ये पुनरेवमाहुः-सामान्येन प्रकीर्म कैस्तुल्यत्वात् प्रत्येक श्रुतमभिधीयत, प्रकीर्णा विद्या येन स प्रकीर्णविद्यः। वितिबुद्धानामवाभिधानं, न तु नियोगतः प्रत्येकबुद्धचितान्यव प्तसमग्रच्छदभुत, बृ०१ उ०१ प्रक०। प्रकीसकानीति । नं। प्रज्ञा०। प्रकीमककथोपयोगिज्ञानक- पहामा-प्रतिज्ञा-स्त्री०। प्रतिज्ञानं प्रतिज्ञा । साध्यवचननिपदे, दश. २ श्र० । ( प्रकीर्णकसंख्या · उद्देस ' शब्दे | देशे, दश। द्वितीयभागे ७६६ पृष्ठेऽपि गता) धम्मो मंगलमुक्ति-टुंति पइन्नऽत्तवयणनिद्देसो। पहलगतव-प्रकीर्णकतपस्-न० । व्यक्तितो भिक्षुप्रतिमाव- मो य इहेव जिणमए, ननत्थ पइन्नपविभत्ती ॥१४३॥ रसूत्रेऽनिषिद्धे तपोभेद, पञ्चा० १६ विव० । ("तित्थयर० " धर्मो मङ्गलमुकृष्टमिति पूर्ववत् , इयं प्रतिज्ञा। अाह-केयं १६) इत्यादिगाथा 'तित्थयरणिग्गमतव' शब्दे चतुर्थभागे प्रतिशति?, उच्यते-श्राप्तवचननिर्देशः इति। तत्राऽप्तोऽप्रतार२३२३ पृष्ठे व्याख्याता) कः, अप्रतारकश्वाशेषरागाऽऽदिक्षयाद्भवतीति । उक्नं चपइमपास-प्रकीर्ण प्रज्ञ-त्रि० । विक्षिप्तच्छेदश्रृतरहस्ये, वृ।। "अागमो ह्याप्तवचन-माप्तं दोषक्षयाद्विदुः । वीतरागोऽनृतं अथ प्रकीराद्वारमाह चाक्यं, न चूया त्वसंभवात् ॥१॥" तस्य वचनमाप्तवचनं, सोउं अणभिगताणं, कहेइ अमुगं कहिजई इत्थं । तस्य निर्देशः श्राप्तवचनर्निर्देशः । श्राह-अयमागम इत्युच्यते, एम उ पइम्पपामो, पइमविजो उ सव्वं पि॥ ७६३ ।। विप्रतिपन्नसंप्रतिपत्तिनिबन्धनत्वेनैष एव प्रतिशति नैष दोषः। योऽयमण्डल्या हसिकग्रन्थार्थ श्रुत्वा उत्थितः सन्ननभिग- पाठान्तरं वा-साध्यवचननिर्देश इति। साध्यत इति माध्यम, शानामपरिणतानां लशोद्देशतः कथयति।यथा-अमुक प्रलम्बग्र- उच्यते इति वचनमों यस्मात् स एवाच्यते, साध्यं च सादिकमत्र सूत्रे करनीयत या कभ्यते,पण प्रकीर्या प्रश्नः प्रकी- तद्वचनं च माध्यवचनं, साध्यार्थ इत्यर्थः । तम्य निर्देशः Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्षा प्रतिज्ञेत्युक्तः प्रथमो ऽवयवः । इत्यादि । दश० १ अ० श्रा० म० श्राद० । नियमे, सुत्र० २ ० ४ ० । ("लज्जाम्०" इत्या दिभागे २७०० पृष्ठे गतः ) पणाविरोधपतिविरोध- निमेवेाप्रति ज्ञाहेत्वोर्विरोधः प्रतिज्ञाविरोधः ॥४॥" गौ० सू०५४०२ श्र० । श्रत्र च प्रतिशाहेतुपदे कथाकालीन वाक्यपरे तथा च कथायां खबचनार्थविरोधः प्रतिज्ञाविरोधः, यद्यपि काञ्चनमयः पर्वतो वहिमान पर्वतः काञ्चनमयचहिमान् हदो वह्निमान् हदत्वात् पर्ववो वह्निमान् काञ्चनमयधूमादित्यादी हेत्वाभासान्तरसाङ्कर्य तथाऽपरे ऽप्युपाघेरसायन दोषः । ना स्थलाभावः पर्वतो न वह्निमान् धूमात्, यो यो धूमवान् स निर ग्निरित्युदाहरणे निरग्निश्चायमित्युपनये तत्सत्वात् एवं निग मनेऽपि बोध्यम् । वा० ० । वाच० । इष्टाविस प्रतिज्ञा विशेष पुं० [विशेषेपक्षा ०१०वि० पक्ष्यास यास प्रतिज्ञासंन्यास स्थानमे (4) अभिधानराजेन्द्रः | "जंग्यासः० तत्प सु०५ अ०१ ना०' पक्षस्य स्वाभिहितस्य परेषप्रतिषेधे रिजिहीर्षया प्रतिज्ञातस्यार्थस्यापनयनमपलाप इत्यर्थः वाचण पाहाणि - प्रतिज्ञाहानि - स्त्री० । हेवनैकान्तिकीकृते प्रतिधर्मस्थान स्था ( अत्र 'निम्गद्वाण' शब्दे चतुर्थनागे पृष्ठे उदाहरणानि ) पोसथापकीर्णेपणाखी बनाम पं पइदियस - प्रतिदिवस ० । अहर्निशे, पश्चा० २ ० । परदिप-प्रतिदिन प्रययमित्यर्थे पं० २०१ द्वार पदिया किरिया प्रतिदिनक्रिया प्रतिदिनं क्रिया चेष्टा प्रतिदिनकिया। प्रजितानां चरुवाल सामाचा पं० ० १ द्वार । - अथ श्रावकस्य प्रतिदिन किया । तथापि निवसतः प्रतिदिनकर्तव्यमाद एवकारेण विवोहो, अनुसरणं साबो बधाई मे । जोगो चिड़वंद मो, पञ्चकखाणं च विहिपुत्रं ॥ ४२ ॥ नमस्कारेण परमेष्ठिपञ्चकनमस्क्रियया, प्रात्यन्तिकन दूबहुमानकार्यभूतया परमया विधायक इति शेषः। एवमुत्रापि इह याविशेषण के नमस्कारपान क पयन्ति । अन्ये श्राहु:-" नवकारचितणं माणसम्मि सेजागएस कायन्वं । सुताविण्य पवित्ती, निवारिया हो पवं तु ॥ १॥" तथाग्नुस्मरणमनुचिन्तनं सदसत्कर्तव्यप्रवृत्तिहेतुभूतम् । किं - चदित्यादिि यमाः, (मे ) मम, लन्तीति शेषः । उपलक्षणं चैतत् । तेनादःकुलदशिष्यत्यादिषतमुत्रामाऽऽदाबिति क्षेत्रतः, प्रभातमिदमित्यादि कालतः, सूत्राऽऽदिवाधानां का बा धेत्यादि प्रायतः । ततो योगः कायिकोत्सगशौचादिरूपो व्यापारः एवं दिदेहाचापरिहारः समा प्रायानुष्ठानता पूजापुरस्सरमदद्विम्बवन्दन । ओ इति निपातो गाथा पूरणार्थः । ततः प्रत्याख्यानमागमप्रसिद्धं शब्दः समुचये । विधिपूर्वमागमिकविधान पुरस्सरं, न तु यथाकथञ्चित् । एतश्च विशेषणं चैत्यवन्दने प्रत्याख्याने च संबन्धनीयम् । विधिश्व तयोस्तत्प्रकरणयोवंदयमाण इति गाथाऽर्थः ॥४२॥ २ पइदिया किरिया ततः तह चेईहरगमणं, सकारो वंद गुरुतगासे । पचक्खाणं सवणं, जपुच्छा उचियकरणिज्जं ॥ ४३ ॥ तथा तेन प्रकारण जिन बिम्बभवने यानं, प्रवेशश्च रात्र यानविधिः- "सव्वा डीएसउचाप दिलीप सवाए जुत्तीए सम्वसमुदपणं!" इत्यादि । एवं हि प्रवचन प्रज्ञावना कृता भवति । प्रवेशविधिस्तु "सचिन्ताणं राम अचिचाणं दवाएं अविवरणार, ए गाणं म पगलीभावेषं ति । तत्र च सत्कारो माल्याऽऽदिनिरज्यश्चनम्, अप्रतिमास इति गव्यते । चन्दनं प्रसिद्धविधिना चैत्यव नकाशे गुरुसमीचे प्रत्यायं 55दिदीयावर गुलाहिकस्यविधानमित्यर्थः। ततः श्रवणमाकर्णनं गुरुला पामस्येति गम्यते । एवं दिस किस तरी एवं हि दिनप्रि रणविद " ऽऽदिविधेयम् । अन्यथा पृच्छाया नातिसार्थकता स्यादिति गापार्थ: : ४३ ॥ ततः विरुद्ध हारो, काले तह भोयणं च संवरणं । गम सवर्ण सकारो वंदणाई व ॥ ४४ ॥ अविरुषः प्राशुपदर्शितपञ्चदशकर्मों ऽऽदानपरिवारतोऽनवद्ययो व्यावृतमिति कार्य इति शेषः अन्या धर्मसाधना व स्वादिति फागु पेपानी समस्या का दि धर्मकायस्थादिति तथा तेन प्रणिप्रकारंज 1 दूषणं परियर उचियासो यता, पञ्चखाणस्स संभरणं ॥ १ ॥ " इत्यादि । जोजनमाहाराभ्यवहारः, प्रकारान्तरभोजने धर्म एव । चशब्दः समुच्चथे। संवरणं तदनन्तरं संभवतो ग्रन्थिसहिताऽऽदेः प्रत्याख्यानदय ग्रहणं प्रमादपरिजिहीर्षोर्हि प्रत्याक्यानं बिना न युक्तं तप्यासि ततोऽयसरे याममा प्रतीतः 1 समागम 55 कधीनं यगृह आमश्रमणम आगमस्य श्रवणमिति दि प्रायः श्रागमव्याख्यानं भवतीत्यागमव्याख्यानस्थानान्तरोपक्षणा चैत्यगृमयम यदाद " " "जरा निश्कर्म पूरिति सिमोसरणं । जत्थ पुण पूति समीर धन्नास शिरसवेश्यपि ॥ १ ॥ शहरा लोगविरुद्ध सङ्घानंगो य लङ्काणं । " नागमपूर्वकमानमवणं विधेयमित साधयोऽयति इति नियम पत्तो बहारजाप्यवचनमेवं स्थितम्"जश् विन श्राकम्मं, जत्तिकयं तह वि वज्जयं तेहिं (वेब)। भक्ती खलु होइ कया, छहरा आलायणा परमा ॥ १ ॥ विसाया चनश्रो वा उवहो चेव, तेण दंति न चेइए ॥ २ ॥ तिथिाका तिलिया। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदिणकिरिया अभिधानराजेन्दः। पइदिणकिरिया ताव तत्थ अणुमायं, कारण परेण वि॥३॥" वाशब्दो विकल्पार्थः । अधिकरणानि कहाः, कृष्याऽऽदीनि इत्य प्रसंसान । ततो विकाले सत्कारोऽहच्चैत्यानां पूजा, घा, तेषामुपशमाय निवर्तनाय यश्चित्तं मानसं तत्तथा, नत्राधिबन्दनाऽऽदि न । वन्दना प्रसिद्धार्हचैत्यानामेव । श्रादिशब्दाञ्चै. करणोपशमचित्ते कथं कदा वा मेऽधिकरणोपशमचित्तं भ. त्यसंबन्धि तत्कालोचितकृत्यान्तरं ग्राह्य, साध्वान यगमनं, त. विष्यतीत्वं चिनविन्यासः कार्य इति नावः । वाशब्दो विकननाऽऽदि वा, भूमिकौचित्येन षक्रिधाऽऽवश्यकमवश्यं विधे। पार्थः । इति गाथाऽर्थः ॥४७॥ यमिति सर्वत्र गम्यम् । चशब्दः समुच्चये। पञ्चा० १ वि० । तथाजइविस्तामणमुचियो, जोगो नवकारचिंतणाईओ । खाज्यपरिहाणीए, असमंजसचेट्टियाण व विवागे । गिहगमणं विहिमयणं, सरणं गुरुदेवयाऽणं ।।४।। खणलाभदीवणाए, पम्मगुणेसुं च विविहेसु ।। ४ ।। पतीनां साधूनां वैयावृत्याऽऽदिभिःश्रान्तानां पुष्टाऽऽसम्बनेन तथा- आयुःपरिहाणौ प्रतिकणाऽऽयुष्कायवकणायां चित्तविन्यास विधश्रावकाऽऽदेरपि देहखेदापनोदमिच्छतां विश्रमणं खेदविनो. इति प्रतिपदं योज्यम् । अत्र चोक्तम्-" समस्तसवसङ्गाना, दनं यतिविश्रमणं, करणीयमिति गम्यते । एवं सर्वत्रोचितकि- वयत्यायुरनुक्षणम् । आममबकवारीब, किं तथाऽपि प्रमायाऽध्याहारः कायः । प्राकृत्याच विश्राम्यतेरुपान्त्यदीर्घत्वम, धसि? ॥१॥" इत्यादि । असमञ्जसचेष्टितानाम सदाचरितायद्वा-विश्राम्यतः करणमिति शतमन्तस्य कारिते घुटच बि. नां प्राणिवादीनाम् । वाशब्दो विकल्पार्थः, विपाके नर. श्रामणमिति भवति । तथोचितः स्वभूमिकायोग्य योगो व्यापा- काऽऽयशुनफलदायत्वे । यथा-"बहमारणसम्मक्खा-गदाणरः । तमेवाऽऽह-नमस्कारचिन्तनाऽऽदिकः परमेष्ठिपञ्चकनम- परधणचिलोवणाऽऽदी । सचजहाछो उदो,इसगुणिो एकस्कृतिध्यानप्रभृतिकः । श्रादिशब्दात् परिपाचनप्रकरणगुण- सि प्रयास ॥१॥” इत्यादि । कणे कालविशेषे, स्तोककानादिपरिग्रहः । ततो गृहगमनं निजामगमः। तत्र च विधि- लेऽपीत्यर्थः, लाभोऽशुभाध्यक्तायन महतोऽशुभकर्मणः शुभाशयन विधिना शयन क्रया । विधिश्च जिनार्चनवन्दनविशेष. ध्यवसायेन च महत इतरस्यान, तस्य दीपना प्रकाशना प्रत्याख्यान करणाऽऽदिः। तमेव विशेषेणाऽऽह स्मरण मनसि धा. कणबामदीपना, तस्याम, यथा-"नरपसु सुरवरेसु य,जो बंध. रणम्, नपत्रवणत्वादस्य गुणवर्णनाऽऽदि च; गुरुदेवतादीनां इ सागरोवमं पकं । पत्रिनोवमाग बंधन, कोडिसहस्साख धर्माऽऽचायजिननायकप्रभृतीनाम्। आदिशब्दात्तदन्येषां च ध. दिवसेणं ॥१॥" अथवा-कणोऽवसरो मोक्कसाधनस्य, सच मपकारकाणां प्रत्याख्यानाऽऽदीनामिति गाथाऽर्थः॥४५॥ कायाऽविभेदाश्चतुर्विधः। तत्र व्यतो मानुषत्वं, केत्रत आर्यतत्र च केत्र, कालतो पुषमयमाऽऽदिः कावविशेषः, भाबतो बोधिअबभे पुण विरई, मोहगंछा सतत्तचिता । रिति । तस्य क्षणस्य यो मानो युगसमिलान्यायेन कटा. इत्यीकलेवराणं, तबिरएसुं च वहुमाणो ॥५६।। प्राहिः, तस्वबा दीपना सा तथा, तस्याम् । यथोक्तम्अब्रह्मणि स्त्रीपरिजोगल काणे, पुनःशब्दो विशेषणे । तद्भावना " मारगुस्सखे तजाई-कुलसकऽरोग्गाउयं बुद्ध।। सवणो माहसका सं-जमो य लोगम्मि दुलहाई॥१॥" चैवम् गुर्वादिषु स्मरणं कर्तव्यम, अब्रह्मणि पुनबिरतिनिवृत्तिः कार्या । तया मोहजुगुप्सा स्त्रीपरिभोगहेतुवेदादिमोहमीय. अथवा कणमात्रश्च दीपझालं, द्वीपक्षातं वा कणलाजदीपज्ञा. निन्दा । यया-" यन्त्रजनीयमतिगोप्यमदर्शनीयं, बीनत्समुल्व. तं, कणनाभडीपज्ञातं वा । तत्र समाजात प्राम्बद । दीप. मनाऽऽविलपूतिगन्धि । तथाचतेऽङ्गमिह कामिकृभिस्तदेव, हात पुर्यथा--"अंधकारे महाघोरे, दीयो ताणं सरीरिणं । चा दुनोतिन मनोभववामना हा? ॥१॥" इत्यादि । तथा स्व. एवममाणतानिस्से, भीमणम्मि जिनाममो ॥१॥" द्वीपझातं तत्त्वचिन्ता स्वरूपचिन्तनं, केषाम् ?, स्त्रीकोबराणां योनिदेहा. तु-"नायो तास सरीरी, समुद्दे दुःत्तरे जहा । धम्मो जिणिनाम्। यथा-"शुक्रशोणितसंभूतं, नवच्छिकंमलोस्वणम् । अ. ६पएसो, तहा संलारसागरे ॥१॥" तथा धर्मस्थ श्रतचा रिक्षकास्य, गुणा नपकाराम, फलानीति यावत्, धर्मगुणाः, तेषु स्थिशृश्खशिकामात्र, हन्त योषिच्छरीरकम् । १॥ " तद्विरते. चशब्दः समुच्चये। विविधेषु च बहुविधेविहलोकपरलोकाघब्रह्मनिवृत्तेषु मुनिपु । चशब्दः समुच्चये । बहुमानो उन्नरमधी. निरूपो विधेयः । यथा-" धन्यास्ते बन्दनीयास्ते, तेत्रलोक्न ऽऽथितेषु । यथोक्तम् -"श्रुतिगम्यं फवं तावत्, सधर्मस्य शिवा. पवित्रतम् । येरेष जुधनलेशी, काममल्लो निपातितः ॥ १॥" 55दिकम् । शमजन्यसौख्यरूपं तु, साकादेवानुभूयते ॥१॥"तथा-- इत्यादीति गाथार्थः ॥ ४६॥ "निर्जितमदमदनानां, वाकायमनोविकाररहितानाम् । विनिवृ. शपराशाना-मिहेव मोक्षः सुविहितानाम् ॥१॥" अथवा धर्मरूपा तथा गुणा धर्मगुणाःोमाऽऽदयस्तेषु विविधधर्मगुणानां कारणे स्व. सुत्तविउच्चस्म पुणो, मुद्धापयत्येस चित्तविपासो। रूप फो च, चित्तन्यासः कार्य इति हृदयमिति गाथाऽर्थः ॥४॥ जवहिलिरूवारे वा, अहिगरलानममचिने वा ॥१७॥ वागदोसनिवखे, धन्यायरिए य उज्यविहारे । सुप्तविबुद्धस्य निद्रा उपगमेन जाग्रतः श्रावकस्य, पुन शब्द : एमाइचित्तणामो, संवेगरसायणं दे ।। १ ।। प्रवाश्यापक्रयो चस्वाक्पार्थस्य विलकणनाद्योतका, सूक्ष्म- येथे दोपैरंधकामरागाऽऽदिनिः स धर्माधिकारी पुरुषो वाध्य. पदार्थेषु अस्थूलवस्तुषु कर्माऽऽत्मपरिणामा35पिष,चित्तविन्या- ते कुशलानुष्ठानतरच्याज्यते ते बाधकदोषाः, तेषां विषका तत्प्र. सोमानलाऽऽवेशन, करणीयमिति गम्यते । भवस्थितिनिरू. तिपकभावनारूपो बाधकदोषविपक्षस्तत्र । यमुक्तम-"जो जे पणे संसारश्वरूपपर्या लोच मे, चित्तविन्यास इति प्रकृतम् । वादिजाति, दोसेणं चेयणाइविसपणं । सो खनु तस्स विवक्ख, यथोक्तम्-" रङ्को राजा नृपो रक्षा, स्वमा जाया जनी स्व- तस्विमयं चेत्र काजा ॥१॥"चेतन चात्रव्यम"अत्याम्म रा. सा। दुःखी सुखी सुखी सुखी, यत्राऽसी निगंणो भवः' गनावे, तस्सेव उवजणाइसंकासं । जाज्ज धम्महउ, अभा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पइदिव किरिया अभिधानराजेन्सः। पादिणकिरिया धमो तह य तस्लेव ॥१॥" इत्यादि । तथा धर्माऽऽचायें बोधि वागमः " सम्वे वि पढमजामे, दोन्नि उ चसमाण आलाभहेतुभूते गुरी, दुष्करप्रत्युपकारोऽसावित्यादिरूपश्चित्सम्या. इमा जामा । तइओ होइ गुरुणं, चरथी हो सम्बेसो विधेयः। यथोक्तम-" सम्मत्तदायमाणं, दुप्पडियारं नवे सिं॥१॥"शयनविधिश्वायम्-"बहुपडिपुनाए पोरिसाद गु. सु बहुपसुं । सम्बगुणमलियाहि वि, उवारसहस्सकोमीहि रुसगासं गंतूण भएण-इच्छामि खमाणो ! बंदिळ जावाणि॥१॥" शब्दः समुच्चये । तथोद्यतानां प्रयत्नवत्साधूनाम, ज्जाए निसीहि आप मत्थरण बंदाभाबहुपमिपुछा पोरिसी, नद्यतो वा प्रयत्नवान् विहारो मासकल्पाऽऽदिचर्या उद्यतविदा. अणुजाणह राक्ष्यं संथारयं । ताहे पढमं कायभूमि बात । रतत्र । यथोत्तम.." अनिएयवासो समुदा-चरिया, अनाय- ताहे जत्थ संथारतमी तत्थ वच्चंति आहे उहिम्मि उच परिक्कया य । अप्पोबही कलहविवज्जणा य, बिहारच- ओगं करत्ता पमजिजत्ता वहीए दोरयं गडंति, ताडे संथा. रिया इसिणं पसत्था ॥१॥" आत्मगते चोद्यते विहारे यथा- रपट्टयं उत्तरपट्टयं च पडिलेहित्ता दो वि एगत्थ यायित्ता नरु"कश्या होही सो वा-सरोज गीयत्यगुरुसमीवम्मि। सम्ववि- मि व्वति। ताहे संथाराम पमज्जति । ताहे संथारयं साथरयं पब्जिय, विहरिस्सामी अहं जम्मि ॥१॥" धर्माचार्य. रंति सउत्तरपद्य, तत्थ य लग्गाए महपोत्तियाए परिमं काविशेषणं वोद्यतविहार इति । एवं चित्तविन्यासं फलनिर्देश- यं मजंति, देहिलं रयहरणेणं, कप्प य बामपा वावीत, द्वारेण निगमयन्नाह-वमनन्तरोक्ताकारं सूदमपदार्थाऽऽदिक पुणो संधार चमित्ता भणति जेठजाईपुरतो-चिट्टनाएं अणुवस्त्वादियषामात्मप्रमादनिन्दाऽऽदीनां त एवमादयः, तेषु, चि- जाणिजह, पुणो सामाइयं तिन्नि वारे कठिऊण तु ।" तविन्यासो मनोनिकेप एवमादिचित्तभ्यासः । अथर्ववमा. सुप्तानां चायं विधि:दिरनन्तरोक्तसूक्ष्मपदार्थचित्तविन्यासप्रभृतिकः, स चासो " अणुजाणह संथारं, बाहुवहाणेणं वामपासे चित्तन्यासश्चेत्येवमादिचित्तन्यासः । किमित्याह-संवेगः सं. पायपसारणकुकुडि-श्रतरतो पमजए नमि ॥१॥ सारनिवेदो, मोक्षानुरागो बा, स एव रसायनममृतमजराम सकोए सडाम, उबटुंती' कायपमिलेहा । रत्वहेतुत्वात्संगरसायनं, तहदाति प्रयच्छति । एवं हि चित दवादी नवोगं,उस्सासनिरंभणा झोयं ॥२॥"ति सूपार्थः। विन्यास संवेग उत्पद्यत इति गाथाऽर्थः॥ ४६॥ संप्रति रात्रिनागचतुष्टयपरिज्ञानोपायमुपदर्शयन् सस्तय. ततः तिकृत्यमाहगोसे जाणिो य विही, इय अणवरयं तु चेमाणस्स । जणे जया रत्ति, नक्खत्तं तम्मि पहचडजागे । जवावरहवीयनूओ, जाय चारित्तपरिणामो ॥ ५० ॥ संपत्ते विरमेजा, सजाय पोसकामम्मि ।। १६ ॥ (गोसे) प्रत्युपनि । भणितः,चशब्दस्यैवकारार्थवाद्भणित एव सम्मेव य नक्खत्ते, गयणे चनजागमावसेसम्मि । प्राक् प्रतिपादित एव । विधिः श्रावकानुष्ठानम् " नवकारेण बेरसियं पि कालं, पमिञहिता मुणी कुज्जा ॥२०॥ विबोहो" इत्यादिरूपः, अतः पुनरपि नोच्यत इति वृदयम् । पवं च प्रतिपादितानुष्ठानं फाप्रदर्शनद्वारेण निगमयमाह यद नयति प्रापयति,परिसमाप्तिमिति गम्यते । यदा रात्रि नक्षत्र, प्रति प्राक्तन प्रकारेण नमस्कार विबोधाऽऽदिना, अनवरतं सत तस्मिनभश्चतुर्थभागे संप्राप्त विरमनिवर्तत। (सज्कायत्ति) स्था ध्यायात प्रदोषकाने रजनीमुखसमये,प्रारब्धादिति शेषः। तस्मितम् । तुशब्दः पुनःशब्दार्थः, पवकारार्थों वा । वेष्टमानस्य प्रह नेव नक्षत्रे प्रक्रमाप्राप्ते। क्वेत्याह-(गयण त्ति) गगने, कीशि?, झिंतानुष्ठानं विदधतः, श्राबकस्येति गम्यम्। किम?,भवविरहः संसारत्रियोगस्तस्य बीजभूतो बीजकल्पो, हेतुरित्यर्थः, ख चतुर्भागेण गम्यते साबशपं सोद्वरितं चतुर्भागसावशेष,तस्मिन्, सारविरह पीजभूतः, जायते संपद्यते, चारित्रपरिणामः सर्व चैरात्रिकं तृतीयम, अपिशब्दाश्रिजनिजसमये प्रादोषकाऽऽदि च विरतिपरिणतिः । एवं हि देशविरतिमन्यस्यत उपायप्रवृ. काझं (पमिोहितु ति) प्रत्युपेत्य प्रतिजागर्य, मुनिः कुर्यात् । करोतेः सर्वधास्वाद् गृहीयात् । इह च काकोपलक्षणद्वारेण तेरवश्यं भवविरहबीजभूतश्चारित्रपरिणामः, तत्रास्यत्र वा प्र. प्रथमादिषु नभश्चतुभांग संप्राप्ते नेतरि नक्षत्रे रात्रेः प्रथमादिति हृदयम् । इह च विरह इति सिताम्बरश्रोहरिजट्राऽऽचार्यस्य कृतेर इति गाथार्थः । पश्चा० १ वि० । (साधोस्तु ऽऽदयः प्रहराऽऽदय इत्युक्तं नवताति सुत्रद्वयार्थः ॥ २० ॥ दिनचर्या पोरिसी' शब्दे वक्ष्यते) इत्थं सामान्येन दिनरजनित्यमुपदर्य पुनर्विशेषतस्तदेव दर्शयंस्तावदिनकृत्यमाहरति पि चनरो जागे, कुज्जा निक्खू वियरवणे । पुब्वियाम्मि चउम्भागे, पमिोहित्ताण भंम्यं । तत नत्सरगुणं कुज्जा, राजागेसु चनसु वि ॥ १७ ॥ गुरुं बंदिसु सन्कायं, कुज्जा भिक्खू वियक्खणे ॥२१॥ पढमपोरिम समायं, विडए काणं कियायह। पोरिसीए चउजागे, बंदिताएं तो गुरुं । तझ्याए निदमोक्खं तु.चउत्थी जुजो वि समायं ।।१८।। अपमिकमित्त कालस्स, भाणं तु पडिलोहए ॥२२॥ स्पष्मेत्र, नवरं रात्रिमपि, न केवलं दिननित्यपिशनार्थः । सत्राणि सप्तदश सार्धानि, नत्र सूत्रद्वयं व्याख्यातप्रायमेव, नद्वितीयां पौरुषी वायत इति ध्यानं सूदमस्त्रार्थलकल, किातय. घरं पूर्वस्मिन् चतुर्थभागे प्रथमपौरुषीलक्षणे, प्रक्रमादिनस्य; लयद्वीपसागरभवनादि वा । (फियाय ति) यायेचिन्तयेत्। प्रत्युपेत्य भए उकं प्राम्बद बाकपाशुपधिम,अादित्योदयस. तृतीयायां निद्रामोक्षः-पूर्व निरुद्वाया मुकलना निकामोक्षा, मय इति शेषः । द्वितीयसूत्रे च पौरुष्याश्चतुर्थभागे, विशिष्य. स्वाप इत्यर्थः । तं कुर्यादिति सर्वत्र प्रक्रमाद्योज्यम् । वृष- माण इति गम्यते । ततोऽयमयः-पादोनपौरुष्यां भाजनं प्रतिभापेकं चैतत्, सामस्त्येन तु प्रथमचरमप्रहरजागरणमेव । तथा। लेख येदिति संबन्धः । स्वाध्यायाऽपरतश्चेतू कास्य प्रतिक्र Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4G पइदि किरिया स्यैव कृत्यान्तरमारब्धव्यमित्याशङ्कयेतात आर अप्रतिक्रम्य कामस्य प्रतिमा कायोत्सर्गमविचाव चतुर्थवीरुष्याम पि स्वाध्यायस्य विधास्यमानत्वात् ॥ २१ ॥ २२ ॥ प्रतिखामेवा पोति परिलेडिया, परिलेढि गोगं । गोबस्थाई पहिले ॥ २३ ॥ मुखपोतिक प्रतीनामेव प्रतिले प्रतिगोट पात्रको परिपकरणम् गोगलयंगुलियस ) प्राकृतत्वादभितो गृहीतो गोष्ठको येन सोऽयमङ्गुलिलातगोष्ठको वस्त्राणि पटतकरूपाणि प्रतिलेखयेत, प्रस्ता वात् प्रमार्जयेदित्यर्थः ॥ २३ ॥ इत्यं तथाऽवस्थितान्येव पटलाति गोच्नकेन प्रय पुन कुर्यादादउचिरं अतुरियं पुरुवं ता वत्यमेव पहिले । तोयं च पुणो एमजिला ॥ २४ ॥ ऊर्द्ध कायतो वस्त्रतश्च तत्र कायत सत्कुटुकस्वेन स्थितत्वाइतिप्रसारित उद्दि रियं पेहे जड़ चित्रितो । " स्थिरं दृढग्रहणेन, स्वरितममुतं स्तिमितं यथा भवत्येवं पूर्व प्रथमं ( ता इति ) ताबड पटलकरूपं, जातावेकवचनं, पटलकप्रक्रमेऽपि सामान्य वाचकवनिचा वर्षावादिप्रत्युपेणायामयमेव विधिरे तिर्थ ततः त्युपेक्षतेव, भारतः परतश्च निररीक्षेतैव, न तु प्रस्फोटयेत् । अथवा बिदुलोदादेवमुनाकऽऽदिप्रकारे प्रत्यु त्वम्यथेति भावः । तत्र च यदि जन्तून् पश्यति ततो यतनयाऽन्यत्र संक्रमयति, तददर्शने च (तो इति) ततः प्रत्युपेक्षणादनन्त रं द्वितीयमिदं कुर्यात् यदुत परिशुद्धं सत्यस्फोटयेत, तर प्रस्फो नां कुर्यादित्यर्थः । तृतीयं च पुनरिदं कुर्यात् यदुत प्रमृज्यात्, कोऽर्थः प्रत्युपेक्ष्य प्रस्फोटय व हस्तगतान् प्राणिनः प्रमृज्यादित्यर्थः ॥ २४ ॥ प्र कथं पुनः प्रस्फोटवे, अनादियं अनियंधियोस । पुरमा नव खोया, पाणीपाणिविसोहगां ॥ २५ ॥ अनर्तितं प्रस्फोटनं प्रमार्जनं कुर्वता वस्त्रं वपुर्वा यथा नर्तितं न भवति, अवलितं यथाऽऽत्मनो वस्त्रस्य व बलिरामिति मोटनं न भवति । (अणाधिति) अननुबन्धि अननुवन्धनेन नैरन्तर्यवशेन युक्तमनवन्धिनस्तथा का भागं यथा न भवति (मो) त्याम दिपरामर्शयद्यया न भवति। एकं हितिरिति।" तथा किमित्यादपुरम पिपूर्वक फोट रिमका क्रियाविशेषा समयफोरमका कर्तव्या इति शेषः पाणी पा णितले, प्राणानां कुन्ध्वादिसत्वानां विशोधनं, पाठान्तरतश्च प्र माग प्रस्फोटन रित्रिक पाणिप्राणविशोधनं पाणिप्राणप्रमार्जनं वा कर्तव्यम् ॥ २५ ॥ प्रतिलेखनादोषपरिहारार्थमाद आजका संमदा, वज्जेयब्वा य मोसली तझ्या | (<) अनिधानराजेन्द्र त्या पइदि किरिया फोमणे चत्थी, विक्खित्ता बेइया बड़ी || २६ ॥ आरभटा बिपरीतकरणमुच्यते, त्वरितं वा श्रन्यान्यवनप्रढणेनासी भवति । चकं हि "वितढकरणमारभमा, तुरियं वा अन्न"म कोष उपरि निधन दोन फोला, निसीक तत्व संमा।" सर्व संयतेः पूरये (मोलि जि ) तिर्यमा घना तृतीया प्रस्फोटना प्रतिस्यैव स्व कटनाचतुर्थी, विशेषणं विकिता, पञ्चमीति गम्यते । रूढित्वासिर्फ हि "जिम सोकाऽऽअवस्था ।" साप प्रत्युपेतान्यपत्यु माया वाचलंय पति वैदिक) षष्ठी । श्रत्र संप्रदाय:-" वेश्या पंचविदा पाता । तं जहा उ हरिया तत्थ उवेश्या उवरिं जुन्नगाणं हत्थे कारुण पहिलेदेति । अहोवेश्या श्रहो जुझगाणं हत्थे काऊण पहिलेद्देश् । तिरियबेया हत्यं विष्ण परिय चाणं अंतरे दो वि जुन्ना काकण पकिले हेति । एगलो वेश्या गं वाणमंतरे काऊ प्ररिसेछेद ।" एवमेते षट् दोषाः प्रतिलेखनायां परिहर्तव्याः ॥ २६ ॥ तथा सिढिलपलंबझोला, एगामोसा गरूणा । कुपमाथि पमार्थ, संदिपगणीवर्ग कुजः ||२७|| प्रशिथिलं नाम दोषो यद् दृढमत्वयितं वा ददं गृह्यते, प्रलम्बो यद्विषमग्रहणेन प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्र कोणा नालम्बनं, लोला यहू भूमौ करे वा प्रत्युपेक माणवकास्य सोलजम् । अमीषां द्वन्द्वः । ए कामना मध्ये गृहीत्वा प्रवेशं यादुभयतो वस्त्रस्य यदेकका संघर्षमार्षदम् । उक्तं च"सिमिघणं अजरायतं च विलमगहणं च कोणे वा । भूश्री करलोलण्या करुणगहणेगश्रामोसा ॥ १ ॥ " ( ऐगअनेकरूपापासी संख्याश्यामक्रमणो युग पातो वा घूमना नामका अनेकरूपधूनना । पछयते च (गणेगत्रधूय सित न धूतं कम्पनम, अन्यत् शात् । तथा यत्करोति प्रमाणे प्रस्फ़ोटाऽऽदिसंख्यातो लक साधनं प्राप्रतिक गरानां करालास्पो दिनैकचित्र पारिमामुपग च्छत्युपयाति गणनोपगं यथा भवत्येवं गम्यमानत्वात प्रस्फोटनाssदि कुर्यात्, संत्राबने लिट् । सोऽपि दोषः । सर्वत्र पूर्वसूत्रादपर्जन किया योजनीया उर्फ "विद परे वाघ एक गणप संकि यगण करे पमादी ॥ १ ॥ " एवं चानन्तरोक्तदोषैरन्विता सदोषा प्रत्युपेक्षणा, वियुक्ता तु निर्दोषेत्ययेत उक्तं च ॥ २७ ॥ सामनिदर्शनारेण सारसदोषांच कि इ श्रगुणाइरित पडिलेहा, अविवच्चासा तहेव य । पटप पसत्य, सेसानि य अप्पसस्थाई ॥ २० ॥ (अाइसिस) हा वादतिरिक्ता योगातिरिकन तथा अनूनातिरिक्ता, प्रतिलेखना । इदच न्यूनताऽऽधिक्ये स्फोटना Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पइदि किरिया (ब) अभिधानराजेन्द्रः । मानसचापिमला सु हादिया गया।" (अविवाससि विविधपत्या सांविपर्यासो पस्यां सा व्यत्यासा, न तथा विव्यत्यासा पुरुपोपधिविपर्यासरहिता, कर्तव्येति शेषः । अत्र च त्रिभिर्विशेषणपर भङ्गाः सूचिता भवन्ति । स्थापना बेयम्-एतेषु च कः शुरू की हत्या प्रथमं पद रूपं प्रशस्तं निर्दोषतया लाध्यं शुद्धमिति यावत् । शेषाणि तु. प्रक्रमात्पदानि द्वितीयाऽऽदिन कामकानि प्रशस्तानि तेषु न्यूनताऽऽद्यन्यतमदोपसम्भवात् । ततः प्रथमभङ्गनुपातिन्येव प्रतिलेखनाविधेयेश्युकं भवति । विधामध्ये तत्काको पदे घुमाहपहिणं कुणांतों, मिहो कहं कुणइ जणत्रयकहं वा । देह व पचवाणं, पापड़ सर्व परिच्छद वा ॥ २५ ॥ प्रतिलेखनां कुर्वन् मिथः कथां परस्पर संभाषणाऽऽटिमकां, करोति जनपदायादिकयोपलक्षणमेतत्। ददाति प्र व्यायामन्यस्मै वाचावयति स्वयं प्रति वा श्रालापका ऽऽदिकं गृह्णांति, य ति गम्यते ॥ २६ ॥ सकिमित्याह पुत्री भाउकाए, तेऊ - बाऊ - वणस्स तसा | पोई पि चिराइओ होइ ॥ ३० ॥ "युद्धवी" इत्यादि स्प (कास) पृथिव्य काययोः प्रतिखनामिथः कथाऽऽदिन सन् चामपि स्वामेकैकाडादीनामिव पदाधिक प्रमत्तो हि कुम्भकारशालाऽऽदौ स्थितो जलभृतघटाऽऽदिकमपिलो बिवादः प्ला लवनातश्च विराध्यन्ते, यत्र चाग्निस्तत्राऽऽवश्यं वायुरिति षमरा धकत्वमेव । चक्तं हि " दओ व उपदं, विराहो जाओ राउत पुणा संपती ॥१॥" पुदी आकार, वाऊपण स्सइतसार्थं । पहिले आउत्तो, छाई संरक्खयो होइ ॥ ३१ ॥ सदन] जीवरका रवानाका च प्रमादजन करन हिंसात्मक परम् प्रथमपकृतदनन्तरं द्वितीयपोपकरणानि धानावसरः । तश्च "बीए काणं क्रियायइ । " इति वचनेन ध्यानमुक्तम, उभयं चैतदवश्यक र्त्तव्यमतस्तृतीय पौरुषी कृत्य मध्येबम्, उत कारणे एवोत्पन्ने ?, इत्याशङ्कयाऽऽद्द तइयाए पोरिसीए, भतं पाणं गवेसए । छहं अन्नपराए य. कारणम्मि उवडिए ॥ ३२ ॥ "या" इत्यादि सुगमं नरमत्कमेत अन्यथा हि स्थ विरकल्पिकानां यथा काल भक्ताऽऽदेवेषणं तथा चाऽऽह "सर काले चरे भिक्खुत्ति ।" पण्णां कारणानां (अरणयरापत्ति ) अन्यतरस्मिन् कारणे समुत्थिते जातु क नेति भावः । नोजनोपलक्षणं चेह भक्तपानगवेषणम्. भक्तपा मापि तस्यावता चान्यत्र भोजन एवैतानि कारणान्युक्तानि ॥ ३२ ॥ पइदिया किरिया तान्येव षट् कारणान्याह - पण यामध्ये इरियाए य संजमाए । तह पाणवत्तियाए, छद्धं पुष्य धम्मचिंताए ॥ ३३ ॥ स्याद्वेदनादस्य चोपलकत्वात् क्षुत्पिपासाजनितवेदनोपशमनाय तथा चुत्पिपासायां न गुर्वादिवैयावृत्यकरणक्षम इति वैयावृत्याय । तथा इति समितिः, सेव निर्जरार्थिभिरथ्यमानतयाऽर्थः, तस्मै, चः समुचये । कथं नामासी भवत्विति । इतरथा हिसाम्य पीडितस्य चतुमपश्यतः कथमिवासी स्वादिति । तथा संयमार्थाय कथं नामाऽसी पालयितुं शक्यतामित्याकुलि तस्य हि ताभ्यां सचिताऽऽहारे तद्विघात एव स्यात् । तथा-(पानवतियाए सि ) प्राणप्रत्ययं जीवितनिमित्तमपि विधिना ह्यात्मनोऽपि प्राणोत्क्रमणे हिंसा स्यात् । अत एवोक्तम्- "भावि यजिणवयणाणं, समप्तरदियाण नऽस्थि हु विसेसो । अध्यायम्मि परस्मि य, तो बज्जे पीरुमुभए वि " ॥ १ ॥ षष्ठं पुनरिदं कार पं वहुत-धर्मचिन्तायै, प्रक्तपानं गवेषयेदिति सर्वत्रानुवर्त्यते, धर्मविता-धर्मध्यान्ता धर्मचिन्ता था। इ मयरूपा अपि तदाकुलितचेतसो न स्यादा ध्यान संभवात् इह च यद्यपि वेदनोपशमाऽऽदीनां शाब्दया वृष्या तदुपलकित. भोजनफलत्वेन प्रतिनिधिसुचनादायी पृथ्या कारणत्वमेयेषामुपदर्शितं नायिका रणमेव संबन्धितम् । सत्कार किमवश्यं मयानगवेषणं कर्त्तव्यमुताम्यवाद नियोचित निधी साथ करेल हें चैव । थाहिं उ इमेहिं, अणतिकमणाइ से होइ || ३४ ॥ यो यतिःतिमान् धर्मचरण प्रतिनिधी लाऽपि कुर्याद्, भक्तपानगवेषमिति प्रक्रमः । बभूभिश्चैव स्यानैः, तुः पुनरर्थे पभिरनन्तरं वक्ष्यमाणैः किमित्येवमत आह (अणमणमिति सूत्रत्वादनतिक्रमणं संयमयोगानामसङ्घनं शब्द यस्मादर्थे, यस्मात् ( से वि ) तस्य निर्व्रन्थस्य तस्या बानि भवति जायते, अन्यथा तदतिक्रमण संभवात् ॥२ पद्स्थानाम्येवाहआके उवसग्गे, तितिक्खयात्रम्भचेरगुतीसु । दिया तब सरीरबोच्छेपणडाए ।। ३५ ।। श्रातङ्को ज्वराऽऽदि रोगः, तस्मिन्, उपसर्गान् इति स्वजनाऽऽदिः कचिदुपस्तकिमार्थ करोति विम ति ) तस्तस्मिन् सति उभयत्र तन्निवारणार्थमिति गम्यते । तथातितिका सहन तथा तु विषये ब्रह्मवर्षगुसि ता दि नान्यथा सोढुं शक्याः, तथा ( पाणिदया तब प्राणदाताजीयराये प तुरूपं स तथा शरीरस्य व्यवच्छेदः परिहार, तदर्थे च उचितकाने संलखनामनशनं वा कुर्वन् भक्तपानगकुर्यादिति सर्वत्र योत्यम् कारणत्वभावना चामीयां प्राग्वत् ॥ ३५ ॥ वेषणं - कुर्वन् केन विधिना कियत्वाद सेक्मा पहिलेइए। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) पइदिण किरिया अन्निधानराजेन्द्रः। पदि पाकिरिया परमद्धजोयणाओ, विहारं विहरे मुणी॥६॥ भजति अंगमंगाई। तह जिदंति सुविहिया, अविडं कम्मसंअवशेष निक्षाप्रक्रमात् पात्रनिर्योगोद्वरितं, चशब्दस्य गम्यमा घायं ॥१॥" तत्र च स्थितो यत् कुर्यात्तदाह-(देसियं ति) नत्वात शेष चन पात्रनिर्योगमेव । यद्वा-अपगतं शेषमपशेषम् । प्राकृतत्वाद्वकारलोपे देवसिकम् । चः पूरणे, अतिचारमतिक्रम, कोऽर्थः?,समस्तं भाण्डकमुपकरणं (गिज्ज त्ति) गृहीत्वा, च चिन्तयेद् ध्यायेत् । (आणुपुत्वसो ति)मानुपूर्या क्रमेण,प्रभातमुशुषा प्रत्युपेकेत, उपलकणत्वात् प्रतिलेखयेशा इह च विशेष खबस्त्रिकाप्रत्युपेक्षणातो यावदयमेव. कायोत्सर्गः। उक्तं दिस इति गम्यते । सामान्यतो प्रत्युपेक्तिस्य ग्रहणमपि न "गोस मुहे ऽणतगाई,पासो देसिए य अतियारे । सम्वेसमायुज्यत एव यतीनाम, उपलकणत्वाश्चास्य तदादाय परमुत्कृष्ट णवत्ता,हियए दोसे विजाह ॥१॥"किंविषयमतीचारं चिन्तये. मईयोजनादयोजनमाश्रित्य, स्यब्लोपे पञ्चमी । परतो हि दित्याह-काने झानविषयमेवं दर्शने चैव, चारिने तथैव च । केत्रातीतमशनाऽऽदिर्भवेत, विहरन्त्यस्मिन् प्रदेश इति विहार- पारियकाजस्सग्गो, बंदित्ताण तओ गुरुं। स्त ( विहर त्ति) विहरेद्विचरेन्मुनिः ॥ ३६ ॥ देसियं तु अतीचार, पालोएन्ज जहकमं ॥४१॥ इत्थं विहत्यापाश्रयं चाऽऽगत्य गुर्वालोचनाऽऽदि कृत्वा यत् पारितः समापितः कायोत्सों येन स तथा, बन्दित्वा कुर्याचदाह प्रस्तावाद् द्वादशाऽऽबर्तवन्दनेन, तत इत्यतीचारचिन्तनाचनत्थीए पोरिसीए, णिक्खिविताण भायणं । इनन्तरं गुरुमाचार्याऽऽदि ( देसिय ति) प्राग्वदेवसिकं, तु: पूरणे । अतीचारमालोचयेत् प्रकाशयेत् गुरुणामेव, यसज्काययं तो कुज्जा, सबजावविजावयं ।। ३७॥ थाक्रममालोचनाऽऽसेवनाऽन्यतराऽनुलोम्यक्रमानतिक्रमेण । चतुर्यो पौरुष्यां निविष्य प्रत्युपेकणापूर्वकं बध्वा भाजनं पमिकमित्तु निस्सलो, वंदिताण तो गुरुं ।। पात्रं स्वाध्यायं ततः कुर्यात, सर्वभावा जीवाऽऽदयः, तेषां वि. भावकं प्रकाशकं सर्वभावविभावकम् । पठ्यते च-" सम्बदा कानस्सग्गं तो कुजा, सम्वदुक्ख विमोक्खणं ॥४॥ स्त्रविमुक्खणं ति" प्राम्बत् । प्रतिक्रम्य प्रतीपमपराधस्थानेभ्यो निवृश्य, प्रतिक्रमणं च म. पोरिसीए चनब्जाए, वंदित्ताण तओ गुरुं। नसा भावविशुस्तिो ,वाचा ततसूत्रपाठतः, कायनोसमाङ्गेन न. मनाऽऽदितः,निःशल्यो मायाऽऽदिशल्यरहितः,सूचकत्वात् सूत्रपमिक्कमित्ता कालस्स, सेजं तु पडिलेहए ॥ ३०॥ स्य चन्दनकपूर्ये कमयित्वा च, वन्दित्वा द्वादशाऽऽवर्तवन्दनेन, पौरुष्याः प्रक्रमाश्चतुर्थ्याश्चतुर्भागे चतुर्थाशे,शेष इति गम्यते । तत इत्युक्तविधेरनन्तरं गुरुमाचार्याऽऽदिक,कायोत्सर्ग दर्शनचा. पन्दित्वा तत ति स्वाध्यायकरणादनन्तरं गुरुमाचार्याऽऽदि रित्रश्रुतज्ञान वाद्धिनिमित्तव्युत्सर्गत्रयलकणं, जातो चैकवचनं, प्रतिक्रम्य कालस्य शय्यां वसति, तुः पूरणे,प्रतिलेखयेत् ॥३०॥ ततो गुरुवन्दनानन्तरं कुर्यात सर्वदुःस्वविमोवणम ॥४५॥ पासवाचारमि च, पडिलहिज्ज जयं जई। पारियकाजसग्गो, वंदित्ताण तओ गुरुं । ततश्च (पासवणुचारभूमि च ति) मिशब्दस्य प्रत्येकमभिसं । युइमंगलं च काऊण, कालं संपमिलेहए ॥ ४३॥ बन्धात् प्रश्रवणभूमिमुबारनूमिं च प्रत्येकं द्वादशस्थपिमला55. 'पारिय'इत्यादि पूर्वाद्ध व्याख्यातमेव । स्तुतिमङ्गलंच सिद्धत्मिकां चशम्दात कालभर्मि च स्थएिकलत्रयाऽऽत्मिकां प्रतिझे- सूत्ररूपं च कृत्वा । पाठान्तरं वा-" सिद्धाण संथवं किश्च सि" स्वयेत् । (जयं ति) यतमारम्भापरतं यथा भवति तथा यत. सुगमम् । कालमागमप्रतीतं (संपडिलेदय ति) संप्रत्युपेक्षेत। मानो यतिः । एवं च सप्तविंशतिस्थरिमसानां प्रत्युपेक्वणानन्तर- कोऽर्थः-प्रतिजाति, उपसकणत्वाद् गृहाति च, एततश्च मादित्योऽस्तमेति । तथा चोक्कम विधिरागमादवसेयः ॥४३ ।। "चउभागऽबसेसाए, चरिमाएँ पडिक्कमित्त कालस्म । पढमपोरिमि सज्जायं, वितिए जाणं कियायइ । उच्चारे पासवणे, थंमिलचरवीति पेहे ॥१॥ महियासियामा अंतो, आसन्नो मजिक दरि तिन्नि नवे । तइयाए निमोक्खं तु, सज्जायं तु चनथिए । १४ ॥ तिनेच अणहियासिया, अंतोच बाहिरी ॥२॥ "पढम"इत्यादि प्राग्व्याख्यातमेव,नवरं पुनरभिधानमस्थ पुन: पमेव य पासवणे, बारस चउवीसरंतु पेहेत्सा। पुनरुपदेष्टव्यमेव गुरुभिर्न प्रयासो मन्तव्य इति ख्यापनार्थकालस्स य तिनि भवे, अह सरो अस्थमुवया ॥३॥" म् ॥ ४ ॥ इति सार्द्धसप्तदशसूत्रार्थः। कथं पुनश्चतुर्थपौरुष्या स्वाध्यायं कुर्यादित्याहइथं विशेषतो दिनकृत्यमभिधाय संप्रति तथैव रात्रिकर्त पोरिसीए चउथीए,कानं तु पमिझेहिए । व्यमाह सज्कायं तु तो कुजा, अबोहंतो असंजए ॥ ४॥ पौरुम्यां चतुर्यो, काल वैरात्रिकं,तुः पूरणे । (पमिलेहिय ति) कानस्मगं ततो कुन्जा, सव्वदुक्खविमुक्खणं ॥ ३६ ।। प्रत्युपेक्ष्य प्रतिजागर्य, प्राग्वद् गृहीत्वा च, स्वाध्यायं ततः कुदेसियं च अईयारं, चिंतिज अणुपुबसो। यात, अबोधयन्त्रब्युस्थापयन् असंयतान् अगारिणः, तदुत्थानाणम्मि देसणे चेक, चरित्तम्मि तहेव य ।। ४०॥ पने तत्पापस्थानेषु तेषां प्रवर्तनसंभवात् ।। ४५ ॥ सार्वानि प्रयोदश सुत्राणि कायोत्सगे,ततःप्रश्रवणादिभूमि पोरिसीए चनब्जाए, वंदिऊण तो गुरुं । प्रतिलेखनादनन्तरं कुर्यात् सर्वस्वविमोकणं, तथावं चास्य पमिकमिनु कालस्स, कालं तु पडिलेहए ॥४६॥ कमोपत्रयाहेतुत्वात् । उक्तं च-"काउस्समो जहम-हियस्स । पारुष्याः प्रक्रमास तुश्चितुर्थनागे, अवशिप्यमाण प्रति शेषः। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदिणकिरिया प्रभिधानराजेन्सः । पादिणकिरिया तत्र दिकाले वेनायाः संभव इति कासः, तस्य ग्रहणं, बन्दित्वा पोऽइमेवं तत्र विचिन्तयेत्। बर्द्धमानो दिभगवान् षण्मासं याततो गुरूं,प्रतिक्रम्य कात्रस्य कालं प्राभातिक.तुशब्दो वक्ष्यमाण- बनिरसनो विहानवान्, ततः किमहमपि निरसनः शक्नोम्येताविशेषद्योतकः(पडिलेदए ति)प्रत्युपेक्षत, प्राग्वद्, गृह्णीयात् च ।। घत्कालं स्थातुमुत नेति । एवं पञ्चमासाऽऽद्यपि यावन्नमस्कारस. वह च साक्षात्प्रत्युपेकणस्यैव पुनःपुनरनिधानं बहुतराविषयत्वात्। हितं यावत्परिजावयेत्। उक्तं हि-"चिंते चरिमेउकिं तवं छम्माअत्र च संप्रदाय "तादे गुरू उत्ता गुणति,जाब चरिमो जामो सादेकदिणादीहाणिजा पोरिसीनामा वा।"(?) नगई स्पटम्। पत्तोति। चरिमे जामे सब्बे उद्वित्ता बेरत्तियं घेत्तुं सज्कार्य करेंति। ताहे गुरू सुवति। पत्ते पान्नाइप काले पाभाश्यकालं पेच्छेद, सो एतमुक्तार्थानुवादतः सामाचारीशेषमाएर कामस पमिकमिडं पाभाश्यकाल गिपति, सेसा कालबेलाए पारियकाउस्सग्गो, वंदित्ताण तो गुरुं । कालस्स पक्किमंति,ततो आवस्सयं कुणति।"मध्यमप्रक्रमापेकं तवं संपविजेज्जा, क्ररिज सिम्याण संथवं ।। ५२॥ स्त्र कालत्रयग्रहणमुक्तम, अन्यथा मत्सर्गत उत्कर्षेण चत्वारो, "पारिय" इत्यादि प्राम्बत् । नवरं तपो यथाशक्ति चिन्तितमुपजघन्येन त्रयः कालाः,अपवादतश्चोत्कर्षेण द्वौ,जधन्येनैकोऽप्यनु पासाऽऽदि,संप्रतिपद्याङ्गीकृत्य कुर्यात् सिकानां संस्तवं स्तुतित्र. जात एव । यत उक्तम्-"कालं चउक्क उक्को-सपण जहप्पी यरूपं, तदनु यत्र चैत्यानि सन्ति तत्र तद्वन्दन विधेयम् । तथा तिमि होति बोधवा। बीयपयम्मि दुगं तू, मायामयविष्पमुक्का चाऽऽह जाध्यकार:-"वंदित्त नियंती,कालं तो चश्या जइ अ. ॥१॥"अत्र च तुशब्दादेकस्याप्यनुशा। तथा च चूर्णिकार:-"पवं स्थि । तरेवदंती कालं,जहा तुले पक्किमणं ॥१॥" इति साअमायाविणा तिमि वा अगिएदंतस्स एक्को जबति । त्रयोदशसूत्रार्थः। पठन्ति च"पदमपोरिसि सज्झायं, वीप जाणं झियाया। संप्रत्यध्ययनार्थमुपसंहरनाहतयार निबमोक्खं तु, चउजाए चमत्थर ॥१॥ एसा सामायारी, समासण वियाहिया। काल तु पमित्ता , अवोहितो असंजए । जं चरित्ता बहूजीवा, तिमा संसारसागरं ।।एशातिबेमि ।। कुज्जा मुणी य सज्जाय, सव्व क्वविमुक्खणं ॥२॥ पोरिसीप चनभाए, से वंदिन ततो गुरू। (पसा दसधिहा साहुसामायारी पवेश्या.जं चरित्ताण निग्गंथा पडिक्कमिसु कालस्स, कासं तु पहिलेहए ॥३॥" तिम्मा संसारसागर तिमि) पषाऽनन्तरोक्ता सामाचारी दश. अत्रापि व्याख्या तथैव । पारद्वयेऽपि च चतुर्थप्रहर विशेषक- विधौधरूपा च पदविभागाऽऽत्मिका चेह नोक्ता,धर्मकथानुयोगस्थाभिधानप्रसन पुनः प्रहरत्रयकृत्यानिधानमिति मन्तव्यम् । स्वादस्याः नेदसूत्रान्तर्गतत्वाच । तस्याः समासेन संकेपेण,(वि. प्रागए काय वोस्सग्गे, सव्वदुक्ख विमोक्खणे । पाहियत्ति)व्याख्याता। अत्रैवाऽऽदरख्यापनार्थमस्याः फलमाहकाउस्सग्गं तो कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं ॥४॥ पां सामाचारी चरित्वा पासेन्य बहवोऽनेके जीवास्तीर्णाः, सं. भागते प्राप्ते,कायव्युत्समें इति । उपचारात् कायव्युत्सर्गे समये, लारसागरं प्राग्वदिति सूत्रार्थः । शतिः परिसमाप्तौ। ब्रीमोति सर्वदुःखानां विमोकणमात्कायोत्सर्गद्वारेण यस्मिन् स तथा पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः । संप्रति नयास्तेऽपि तद्वदेव । उत्त० तस्मिन् .शेष प्राम्वत् । यह सबकुःखधिमोकणविशेषणं पुनःपुन २६ अ०। रुच्यते तदस्यात्यन्तनिर्जराहेतुत्वव्यापनार्थम्। तथेह कायोत्सर्ग- से जयवं ! किंतं पइदिणकिरियं । गोयमा! पायच्चिग्रहणेन चारित्रदर्शने श्रुतकानविशुद्धयर्थ कायोत्सर्गत्रय गृह्यते । तस्स पयाई संखाश्याई। से भय ! तेमि संखाइतत्रच तृतीये रात्रिकोऽतीचारश्चिन्त्यते । यत उक्तम्-"जस्थ प. दमो चरित्ते, सणसुद्धी' बीयत्रो हो । सुयणाणस्स य याणं पायच्छित्तपयाणं किंतं पढमं पायच्छित्तस्स एणं पयं। तो , वरं चिंते तत्थ इमं ॥९॥ तइए निसाश्यारं ।" इति। गोयमा! पइदिणकिरियं । भय ! किंतं पइदिण किरियं ।गोरात्रिको तिचारश्च यथा यद्विषयश्व चिन्तनीयः,तथाऽऽह- यमा! जमसमया अहनिसमणोवरमं० जाव अणुढेयव्वा. राइयं च अईयारं, चिंतिज्ज अणुपुचसो । णि संखजाणि श्रावस्सगाणि । से जयवं! केणं अटेणं नाणम्मि दमणम्मिय, चरित्तम्मि तवम्मि य ॥ ४॥ एवं वुच्चइ-जहाणं आवस्सगाणि । गोयमा ! असेसकसिरात्री भवं रात्रिकम् । चः पूरणे । अतीचारं चिन्तयेत् (अणुपुब्बा सति)मानुपूर्व्या क्रमेण,काने,दर्शने,चारित्रे,तपसि, चशब्दाद्वीय पकम्मक्खयकारिउत्तमसम्मईसणचारित्त प्रचंतघोरवीरु-- चशेषकायोत्सर्गेषु चतुर्विशतिस्तवः प्रतीतश्चिन्त्यतया साधार. ग्गकट्ठसुरतवमाहणघाए परूविजंति, नियमिय विभपश्चेति नोक्तः। तु दिह परिमिएणं कालसमएणं पयंपएणाहन्निततश्चपारियकाउस्सग्गो, वंदित्ताण तो गुरुं । साणुसमयमाजम्मं अवस्समेव तिउराइम कीरति, अणुराइयं तु अतीचारं, आलोएज्ज जहक्कम ।। ४ए॥ द्विति, उसिजति, परूविजंति, पनविनंति सययं, पमिक्कमित्तु निस्सा , बंदिसाण तो गुरुं । एपणं अद्वेणं एवं बुच्चइ-गोयमा ! जहा ए श्रावस्सकानस्सग्गं तमो कुजा, सचमुक्ख विमोक्खणं ॥५०॥। गाणि, तेसिं च पं गोयमा! जे जिक्खू कामाइक्कमेणं वेकिं तवं पमिवज्जामि, एवं तत्थ विचिंतए । माइक्कमेणं समयाकम्मेणं असमायमाणे अणोवउत्ते पमत्ते कानसमग्गं तु पारिता, वंदई य तो गुरुं ॥ २१ ॥ पारितेत्यादि सूत्रतयं व्याख्यातमेव । कायोत्सर्गस्थितश्च कि भावहाए अन्नास र प्राविहीए अन्नेसिं च असद्धं जप्पायमाणो अन्नयरमावकर्यादित्याह-किमिति फिरूपं तपो नमस्कारसहिताऽऽदि प्रति. स्मगं पमाइय संतेयं वनवीरिएणं सातोहमत्ताए आलंच. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड़ दिया किरिया बिराइये पडरियजगाणं जनया वा किंचि पे लं समज्जा से णं गोगमा ! महापायच्चिती जवेना । महा० १ ० । पदिपूयाविद्वाणप्रतिदिनपुजाविधान अनुदिवसा चेनकरणे, पश्चा०८ विव० । पइदिद्धंग - प्रतिदिग्धाङ्ग त्रिव । काराऽऽदिना प्रतिदिग्धश रीरे, सूत्र० १० ५० १० । चिंच प्रतिविम्ब०० प्रतिपनयपकुपित-गोली चलनग्गपइर्बिवं " प्रा० ४ पाद। "प्रतिबि म्यात्मको भागः, पुंसि भेदाग्रहादयम् । प्रतिविज्यमानच्छायासदृशच्छायान्तरोद्भवः ॥ १ ॥ " तादृश एव प्रतिबिम्बशब्देनोच्यते । द्वा० ११ द्वा० । पजय - प्रतिजय पुं० प्राणिनं प्राणिनं प्रति भयं यस्मात्स प्र तिभयः । प्रतिप्राणिनं भयप्रदे, प्रश्न० १ श्रश्र० द्वार । परभास प्रतिनास पुं० वादाविरजाऽऽदि - - ( १२ ) अभिधान राजेन्खः । यथार्थज्ञाने, सम्म० १ काएक । मारिया पतिमारिकाखमालिका खियाम, "य यैका नर्मदां तीर्खा, जारसङ्गता । " आव०४ अ० । ० ० । ( 'गरिहा' शब्दे तृतीयभागे ८५० पृष्ठे उदाहृता ) परिक्क - प्रतिरिक्त- त्रि । स्यादिविरहितत्वे, उस० २ श्र० । एकान्ते, मुकले, प्रचुरे, भक्तपाने, पृ० ४ ० । परिकथा प्रतिरिक्तता स्त्री अनेकान्तखेचितायाम, ५०० - २ ० । पइरिकमुहविहार- प्रतिरिक्तमुखविहार- त्रि० । प्रतिरिक्ते एका सुखविहारोऽवस्थानयनादिरूपतरि विहारः । स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात्। एकान्ते विहारयोध्ये, जी० ३ प्रति०४ अधि० भ० । परितु - प्रकीर्य्य - अव्य० । वाप्येत्यर्थे, “परितु रयिं पुणो । " नि० चू० १३० । बइलाइया - प्रतिलादिका - स्त्री० । भुज परिसर्पदे, प्रका०१ पद । पाच-पदिक-पुं० [चतुःपञ्चाशतमे महान " दो पा "" स्था०२ ०३ उ० । -- इत्र प्रतिव- पुं० | स्वनामख्याते यादवे, प्रश्न• ४ ० द्वार पापनिव्रता- पति भर्तारं यत्ति तमेवाभि 1 नामि इत्येवं नियमं करोतीति पतिव्रता । झा० १३० १६ ० आ० सू० । समय-प्रतिसमय- अव्य० प्रतिक्षणे, इन्या० १ अध्या० । ईणि कप--प्रतीतिनिराकृत त्रि० । प्रतीतेरेव विरुद्ध वस्तुदोषजेदे, मथाऽचन्द्रः शशी । स्था० १० aro | पद - प्रदीप पुं० । प्रदीप्यते इति प्रदीपः । " पो वः छ । १। २८ ॥ इति पस्य वः । प्रा० १ पाद दीपकलिकायाम्, पिं० । ष्ट्यादिसमुदाये, भ० ८ श०६ उ० । तैलदशानाजने, न० SG उ० । पईस्स णं ते! जियायमाणस्स कि पदीवे कियाइ, झडी शिपाई, बसी जिवा, किया पीनचं जिवार, उत्त संतसिद्धि जोग जोई जियाइ ? | गोवमा नो पदीये जिपाइजान नो पदी बचपर जियार, जोई जियाइ ॥ (पदवत्यादि) (जयायमाणस्स त्ति) ध्यायतो ध्मायमानस्य (पदीचे) प्रदीप दीपश्यादि समुदायः ॥ (विति) ध्यायति, भायते वा ज्वलति । (बट्टी ति ) दी. यष्टिः (वसी ति ) दशा । ( दीवसंपर खि) दीपस्थगनकम् । ( जोइ सि ) अग्निः । प्र० ८०९ उ० उद्दीप्तदीपे, नि० चूक १४० ।" तस्स लोग वस्त्र" प्रकृष्टपदार्थ प्रकाशकारि स्वात्प्रदीपः । स० १ सम० । उत्स० । “पईबो दीवो । पाइο " ना० २४४ गाथा । I प्रतीपत्र प्रत्यनीके "पचपचधियो वामा "याद० ना० १५४ गाथा । - ४ ४ पई हर पतिगृह १०" दीर्घस्वी मिश्र वृती" ॥१ इतिवृताधिकारस्येकाने पद्मप्रयुतन० चतुरशीति स्था०| दिने, दे० ना० ६ वर्ग ५ गाथा । पअंग-प्रयुताङ्ग-न - न० । चतुरशीतिलकगुणिते प्रयुते, स्था० २ वा. ४ उ० । अनु० । स्थाo | नि० ० ३४० । पच्छे प्रोछत्त्र० पतंजंत - प्रयुञ्जत्त्र उच्चारयति, "हासिता साविता पापा भी परंजिता प्रयोक्त्र०ले स्था० ५ ०२४० । अन्तर्भूतकारितार्थत्वाद् वा प्रयोजयितरि, स्था० ५ ० १ ० परिहार परिहार पुं० परिवृत्परित्या तत्रैवोत्पादे श्र० म० १ अ० । "वणस्सकायाओ पट्टपरिहारं परिहरति । " परिवृत्य परिवृत्य मृत्वा यस्तस्वेव वनस्पति शरीरस्य परिहारः परिवर्तित परिवर्तनाद इत्यर्थः । १० १५ श० । - पाद प्रयुता अनु " 2 प-प्रकोष्ठ - पुं० कूर्परा प्रेतनभागे, भ० ११ श० ११ च० । कलाविकदेशे प्रश्न० ४ श्र० द्वार | तं०' पहुँचा ' इति लोकप्रसिके हस्तावयवे, कल्प० १ अधि० २ करा । , प्रवृष्ट त्रि० ।" उत्वादौ " ॥ ८ । १ । १३१ ॥ इति ऋत उ त्वम् । कृतवर्षे, प्रा० १ पाद । उ- देशी-गृहे, दे० ना० ६ वर्ग ४ गाथा । पण गुण महतो गुणो येन म गुणो यस्य वा ऋजुतावति, दक्षे च । बाच" पणीकयं होमकुंडं । " दर्श० ३ तव । 99 पत्त- प्रयोक्तृ-त्रि० । कर्तरि प्रयोगकर्तरि " उवयारसयबंधपडत्ताओ । तं० । प्रयुक्ताः प्रयोक्यो वा कयेः । तं । ६- न० । प्रयोगे, व्यापारे, ज्ञा० १ ० १ ० प्रयुक्तपत्त संतमिद्धिजोग - प्रयुक्तसत्सिद्धियोग- पुं० । प्रयुक्तः प्रव तितः सत्सिद्धियोगः सत्साधनव्यापारो येन स तथा । सत्सि • पो० विष Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनत्ति अभिधानराजेन्डः । पउमचंद पति-प्रवृत्ति-स्त्री । प्रकृष्टे वर्तने, भ० १५ श० । “वुनंतो य जहा मेहे तहेव धम्मजागरियाचिंता, एवं जहेव मेहो तहेव उयंतो, बत्ता य पर ननामाई।" पा३० ना० ६ गाथा । समणं जगवं आपुच्छित्ता विउलेजाव पाओवगते,समर - प्रयक्ति-स्त्री० । वायाम, झा० १ श्रु०१६ म०। स्स जगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामा.. पउप्पय-प्रपौत्रिक- । प्रशिष्ये शिष्वसन्ताने, भ० ११ श. यमाइयाई एकारस अंगाई बहुपडिपुस्माई पंच सयाई साम - ११ उ०। परियाए संलेहणाए सर्टि जताई आणपुचीए कान' त पनम-पद्म-न०।" रामुख्यद्वारे वा" ॥७।२।११३॥ येरा उत्तिन्ना भगवं गोयमं पुच्छ, सामी कहेइ० जाव साहूँ इति संयुक्तच्यात्यः पञ्जनात्पूर्व उकारः। 'पउमं । पोम्म ।' प्रा० भत्ताई आगसणे दित्ता आलोय उद्धं चंदिमसूरियाए २पाद । “श्रोत्प " ॥८।१।६१॥ इति श्रत श्रोत्वम्। प्रा०१पाद । सूर्यवि काशिनि कमले, प्रा० म०१ अ०१ खग। सोहम्मे देवत्ताए नववने दो सागराई । से भंते ! पनमे जी० आचार। रविबोध्ये कमसे, औकमले पाका- देवे ताओ देवोगायो आउखएणं० पुच्छा । गोया! निधाने गन्धव्यशिषे. जी०३मति० तांध० ० त महाविटेवामे जादपरन्न जात अंतं कादिति त शा० । प्रशा० । प्रा . | चतुरशीति लकगुणिते पद्माङ्गे, जं०२ एवं खल जंबू ! समणेणं० जाव संपतेणं पढः स्स वक० । स्था। अ० । भ.। अस्यामवसर्पिण्यां भरत के जाते ऽष्टमे बलदेवे, -श्व सीताजा राम इति प्रसिद्धः। प्रव. अजयणस्स अयमढे पाते । नि०१ श्रु० : वर्ग २०५ द्वार । स०। ०। ति०। प्रागमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्यां १ अ०। प्रविष्यति अष्टमे चरवर्तिनि, साति०। ती० । प्रागमिष्य. आर्यवर्यस्य गौतमगोत्रस्य प्रथमशिष्ये, कल्प० २धिo त्यामुत्सपिण्यांना व्यति अष्टम बल देधे, स. । ति। ती । ८क्षण । अष्टमदेवलोकविमानभेदे, स०१८ सम । दि. उस्य पञ्चमतीर्थकृतः प्रर मभिकादायके, स० । स्वनामख्याते थे- त्रिंशसु मुहूर्तेषु नवमे मुहूर्ते,ज्यो०२ पाहु०। रम्पकवर्ष त्तवैणिकपुत्रस्य कालर पुत्रे, ति। तान्यपर्वतस्य पर्यायस्याधिपती देबे, स्था०४ ठा०२६ मा तद्वक्तव्यता हापातीर्थकरस्य सहप्रवजिष्यमाणे | स्था०८० । इमवजइ एं जंते ! सपणेणं. जाव संपत्तेणं कप्पवडिसियाणं तीप्रथमहदे, स्था०२ ग० ३ उ0101 सुधर्मायां बनायां दस अजायणा पन्नत्ता । पढमस्स णं भंते ! अज्जयणस्स पद्मावतंसके विमाने स्वनामग्याते सिंहासने, का०२०१० वर्ग १ अ । दक्षिणरुचकवरपर्वतस्य प्रथमकूटे, स्था० ०। कप्पवडिसियाणं भगवयाजाव के अहे पत्ते । एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्या। पउमंग-पाङ्ग-न । चतुरशीतिमहानन्जिनशतसहस्ने , ज्यो. पुन्नन चेइए.कूणिए राया, पउमावई देवी । तत्थ ए पाए २ पादु । चतुरशीतिलकगुणिते काबविशेषे, जीपति०४ अधिo । स्था.। भ०। जं० । अनु०। नयरीए सेणियरम् रन्नो लज्जा कूणियस्स रन्नो चुतमाउया कानी नामवी होत्या मुकुमाला । नीसे णं कानीए पचमकूम-पनकूट-न० । पत्रकूटे, "दो पचमकूडा।' स्था० २ ग.३०। देवीए पुत्ते काले : म कुमारे होत्था सुकुमाला । तस्स एं। पनमखम-पद्मखएड-न० । स्वनामख्याते पुरे, यसको ज्येकालस्म कुमारस्स पन्मावई नाम देवी होत्या मुकुमाला ठपुत्रो गन्धप्रियकुमार आसीत् । ग.२ अधि०।। जाब विहरति । तत णं सा पनमावई देवी अन्नया कयाई तसि तारिसगंमि व सघरमि अभितरतो सचित्तकम्मे जान । पनमगुम्म-पझगुल्म-न० । नलिनगुल्मविमाने, स्था. ८०। त्त । अष्टमदेवलोकस्धे विमाननेदे, स. १८ सम । श्रेणि. सीहं सुमिणे पासित्ता णं पमिबुछा,पवं जम्म ण जहा म कपुत्रवीरकृष्णाङ्गजेस च श्रेणिकपुत्रात वीरकृष्णाम सध्या हाबलस्सन्जाव नापधिज्ज,जम्हा अम्हाणं इमे दारए काम- बयः प्राप्तो बीरान्ति के प्रवस्य वर्षत्रयं व्रतपर्याय परिपाल्य महास्त कुमाररस पुत्ते प उपावईए देवीए अत्तए,तं होऊणं अम्हं शुक्र सप्तम कल्पे समुत्पद्य सप्तदशसागरोपमाऽ. पुरनुपाल्य इमस्स दारयस्स नाबाधिज्ज पनमे २, येमं जहा महाबनस्स ततयुतो महाविदेई सेत्स्यतीति सप्तममध्ययनं । ल्पावतंसि. अहोदातोजाव नपिपासायवरगते विहरति । तेणं का. कायाः सूचयतीति । नि०१ ० २ वर्ग १०:हापद्यतीर्थ कृता सह प्रवाजिष्यमाणे पुरुषभेदे, स्था० म०। होणं तेणं समएणं सामी समोसरिए, परिसा निग्गया, कूणिए निग्गते,पउमे वि जहा महाबले निग्गते, तहेब अम्मा पउमगोर-पद्मगौर-त्रि. पद्मवणे, "दो तित्थगरा ० उमगोरा बपितिापुच्छणा० नाव पवइए अणगारे जाए जाव माणं पसत्ता।" स्था० ५ ग०४ उ० । गुत्तबंभयारी। तते णं से पउमे अणगारे समएस्स जगवतो एनमचंद-पद्मचन्छ-पुं० । पनचन्द्रकुमाऽऽाकुत्राः दिपुरुष, यत्र महावीरस्स तहारूक ए थेराणं अंतिए सामाध्यमादियाई धनेश्वरसूर्याऽऽदयो दिगम्बरझम्बरा प्रभूवन् । पृट कल्पटीकाकृ एक्कारस अंगाई अहिजद, अहिज्जित्ता बाहिं चरत्यउद्यम तक्कमकीर्तिमरिपितृव्यगुरी, कृ. ६१०। श्रयः प' चन्द्रा-एकः चित्रसेनपद्मावतीचरित्रकतः पाठकराजवचनस्य गुरुः कर्मप्रकजाव विहरति। तते गं से पलमे अणगारे तेणं जरालेणं तिविवरणनामक ग्रन्थस्य काऽऽसीत् । द्वितीयः श्रीकृष्णराज Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) पनमचंद श्राभिधानराजेन्डः। पउमलया पिंगच्छीयः प्रभानन्दसूरिगुरुन्त्राता उपाध्यायः । स च वैक्रमीये पउमपम्हगोर-पद्मपदमगौर-पुं० । पद्मपकवद् गौरः। जी० ४ प्र१६६१ बर्षे विद्यमान आसीत् । तृतीयश्चन्द्रगच्छीयो जिनशेख. रसुरिशिष्यः विजयेन्डसूरिगुरुः धनाभ्युदयमहाकाव्यरच. ति०२०० । कमलगर्भकान्ते पीते, औ० । बिता । जै००। पउमपुर-पद्मपुर-न० । नासिक्यपुरे, " तत्थ पउमासमेणं परपउमचरिय-पअचरित-न । दाशरथिरामचरित्रप्रतिबके प्रथमे- मधुरं ति निवेसियं ।" ती० २६ कल्प। दे, ध० २ अधि०। पउमप्पना-पअपना-स्त्री० । जम्म्चाः सुदर्शनाया उत्तरपारपउमजाल-पद्मजाल-नापनाऽऽत्मके दाससमूह, रा.। । स्त्ये दिग्भागे प्रथमवनखएके दक्षिणस्यां नन्दापुष्करिण्याम्, पउमणाभ-पमनाथ-पुं० । विमलवाहने महापो भविष्यति प्र- जं. ४ वक्ष जी०। थमतीर्थकरे, कल्प. १ भधि. ७ क्षण । ती.। प्रथ.। पउमप्पल-पापन-पुं० । निष्पकतामजीकृत्य पद्यस्येव प्रभा यविष्णी, अमरः । वाच। स्यासौ पनप्रजः। तथा पद्मशयनदोहदो मातुर्देवतया पूरित इ. पउमतिलग-पतिलक-पुं० । सोमप्रनसूरिशिष्ये स्वनामख्याते ति, पनवर्णश्च भगवानिति पमप्रनः । ध०२ अधिः । अवसमाचार्य, गच्छा० प्र०४ अधिः । पिण्यां भरतक्षेत्रजे षष्ठतीर्थकरे, स्था० ५ ग.१००। प्रव०। पनमत्थन-पथस्थल-न० । मथुरास्थे पभारण्ये,क०तीकल्प । सा पचप्रभस्य सामान्यतोऽभिधानकारणमिदम-निष्पकतया पउमदह-पमहद-पुं०।जम्बूद्वीपे मन्दरस्थ इक्किणे श्रीदेवताऽध्या- पपस्येव प्रभा यस्य स पद्मप्रभः। तत्र सर्व एब भगवन्तो य. धोक्तस्वरूपास्ततो विशेषकारणमाह-" पउमसयणम्मि जणसिते महान्हदे, स्था० ३ ०४० श्राब करप० । “दो णी दोदलो तेण पतमाभो।" येन कारणेन तस्मिन् नगव. पउमद्दहा दो पचमदहवासिणीनो देवी मो सिरीयो।" स्था० ति गर्भगते जनम्या देव्याः पनरायनी ये दोहदमजूत्, तब देव३.२ठा०३ उ01( 'धायईसंम्दीव' शब्द चतुर्थनागे तया संपादितम् । नगवान् स्वरूपतः पनवर्ण स्तेन कारणेन पचप्र. २७४६ पृष्ठे व्याख्या) भइतिनामविषयी कृतः। प्रा० म. २० । आ. चू० । अनु.। অথ ঘঝলামান বৃক্ষা स्था. ('तित्थयर'शब्दे चतुर्थभाग २२४७ पृष्ठादारज्य व. सेकेणढणं ते! एवं वुच्च-पनपदहे परमबहे गोयमा पउ क्तव्बतोक्ता) पदहेणं तत्थ तत्थ देसे, ताहि तहि बहचे उप्पलाई० जाव सय- | पउमप्पहमूरि-पद्यपभसरि-पुं० । खरतरगच्चीये देवाऽऽनन्दसू. सहस्सपत्ताई पनमदहवणाई पउमदहप्पभाई, सिरी इत्थ रिशिष्ये, स च वैकलीये १२६४ वर्षे विद्यमान आसीत् । देवी महिष्ठिभाजाव पलिओवमहिईश्रा परिवसा से तेन मुनिसुव्रतचरित्रं नाम पुस्तकं रचितम् । जै०१०। एएणऽढे जाव अनुत्तरं च णं गोयपा! पउपमहस्स पउमभह-पद्मभद्र-। धेसिकपुत्रसुकृष्णसरकपुत्रे, स च वीरा. सासरणामधिजे पत्ते, ण कयाइ णासि । स्तिके प्रवज्य वर्षचतुश्यं व्रतपर्याय परिपाल्य ब्रह्मलोके प. ( से केणणमित्यादि ) अथ केनाऽर्थेन भवन्त ! नमलोके दशसागरोपमान्युत्कृष्टमायुरनुपास्य ततश्च्युतो म. एवमुच्यते-पदमबहः पाद्रह ति ?। गैातम! पाहे तत्र हाविदेहे सेत्स्यतीति कल्पावतंसिकायाः पश्चमाध्ययने सुचितत्र देश तस्मिस्तस्मिन् देशे बहूनि उत्पन्नानि यावतसहा तम नि• १ श्रु०५ वर्ग १ अ.।। नपत्राणि पाहप्रभाणिपनऽहाऽऽकाराणि, आयतचतुर-पनममेक-पयमेरु-पुंगानन्दमेरुसूरिशिष्ये राजमहाभ्युदयसाकाराणीत्यर्थः। एतेन तत्र वानस्पतानि पहाऽऽकाराणि __ महाकाव्यकृतः पद्मसुन्दरसूरिगुरी, जै० ३० । पमानि बहनि सन्ति, नतु केवनपार्थिवानि वृत्ताकाराणि म. हापमाऽऽदान्येव तत्र सन्तीति ज्ञापितम् । तथा पाहवर्णस्ये. | पउमरठ-पद्मरथ-पुं०। मिथिलापुर्या विजयसेनभूपतेः पुत्रे मदचाऽभा प्रतिभासो येषां तानि तथा ततस्तानि तदाकारत्वात् मरेखाकुक्तिसम्नूतस्य युगबाहुपुत्रस्य नमेः रक्षके स्वनामख्याते तद्वर्णस्वाच पाहाणीति प्रसिकानि । ततस्तद्योगादयं जला- राजमि, सत्त.. अ० । आव. । प्रा० चू०। दर्श० । शयोऽपि पमहः । उजयेषामपि च नाम्नादिनाप्रवृत्तस्येन नेतरे. श्रा० म०। तराश्रयो दोषः। अथ पार्थिवपनतोऽदयस्य नामप्रवृमिर्जाता. पउपराय-पराज-पुं० । धातकीखरामभरतकेत्रापरकङ्काराजस्तीतिज्ञापयितुं प्रकारान्तरेण नामनिबन्धनमाह-श्रीश्च देवी धानीनिवासिनि द्रौपदीहारके स्वनामख्याते राजनि, स्था०१० पनवासाऽत्र परिवसति । ततश्च श्रीनिवासयोग्यपनाश्रयत्वात् पनोपन्नक्तितो वह इति पद आख्यायते । मध्यमपदसोपी ठा०। पुण्यसागरशिध्ये गौतमकुलकवृत्तिकृतो ज्ञानतिलकगणि नो गुरौ, जै० इ०। समासात् समाधानम् । शेषं प्राग्वत् । जं०प्र०७ वक्ष। पनमदेवसूरि-पादेवसूरि-पुं०। मानतुझसूरिशिध्ये सब्धिप्रपञ्च- पउमरुक्ख-पद्मवृक्ष-पुं० । अतिविशालतया वृक्तकल्पषु पोषु, प्रयोधिकायोगरहस्यग्रन्थयोः कारके स्वनामक्याते प्राचार्य, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । पुष्करवरद्वीपपूर्वार्द्ध तद्द्वीपनामनिभयमाचार्यः सं० १२४० वर्षाद १२६२ पर्यन्तमासीत् । द्वितीयो बन्धनतद्द्वीपाधिपदेवाऽवासशाश्वतपनकाऽऽकृती वस्तुनि, ऽध्येतनामा नाराचचजम्बूद्वीपसरिशिष्यः तिलकसरिशि “दो पचमरुक्ने ।" स्था०म० ३ उ०।। ध्यगुरुः। जै• ३० । . | पनमाया-पन्नता-श्री० । पग्रिन्याम, स० १ सम । रा.। पउमध्य-पद्मध्वज-पु०महापद्मतीर्थकरेण सह प्रव्रजिष्यमाणे, 50जी0। पनाऽऽकारलतासु,झा०१६०१०॥ ज०। औ० स्था०००। "पसम नयाभत्तिचित्तं" भ०११ २०११ उ०। पद्यानि चल Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनमलया अभिधानराजेन्द्रः । पउमवरवेश्या ताश्च पचलतास्त दूपाभिर्विचितिनिश्चित्रो यस्य स तथा । नि। (अंकामया पक्वा पक्षवाहतो य इति ) अङ्को रत्नषिभ० १४ श०६०। शेषस्तन्मयाः पक्कास्तदेकदेशाः पतवाहवाऽपि तदेकदेशसूता पनमवसिय-पमावतंसक-न० । पद्मावतीदेवीनिवासनते सु. एमाङ्कमयाः । श्राह च मूखटीकाकार:-प्रक्कमयाः पक्षास्तधर्मायां सभायां स्वनामख्याते विमाने,का०२ श्रु०५ वर्ग १०। देकदेशनूताः,एवं पक्षबाहवोऽपि द्रष्टव्या इति । (जोईरसामया बंसा बंसकबेल्लुपा य इति) ज्योतीरसं नाम रख, तन्मया वंपनमबरवेक्ष्या-पावरवेदिका-स्त्री० । देवनोगनूमा,जं०१वका शा महान्तः पृष्ठवंशाः (वंशकवेल्लुपा य इति) महतां पृष्ठवंशापावरबेदिकावर्णकः मामुभयतस्तिर्यकलाप्यमाना वंशाः, कवेल्तुकानि प्रतीतानि। तीसे णं जगतीए उरिप बहुमज्झदेसनाए एत्य ण एगा (रययामईश्रो पहियानो इति) रजतमस्यः पट्टिकाः वंशाना. महं पनुमवरवेदिका पत्ता सा णं पउमवरवेदिया अकजो- मुपरिकम्बाखानीयाः (जावरुवईओ श्रोहामणीओ) जातरूपं यणाई उठं उच्चत्तेणं पंच. धणुसयाई विक्खनेणं सन्दर सुवर्मविशेषः, तन्मय्यः (ोहामणीमो) अवधाटिन्यः, प्राच्या दन हेतुकं चोपरि स्थाप्यमानमहाप्रमाणकिलिम्बस्थानीयाः । यणामई जगतीसमिया परिक्खेवेणं । (बरामरंभो रवरि पुंचणीभो इति) वजमरयो बजरत्नाऽऽ(तीसे णं जगतीए इत्यादि) तस्या यथोक्तस्वरूपाया जगत्वा सिमका अधधाटनीनामुपरि पुष्चन्यो निविस्तरगदनदेतुलवणउपरि उपरितने तले यो बहुमध्यदेशभागः, सत्रे एकारान्तता मागधभाषासकणानुरोधात् । तथा " कयरे आगच्छ दिसम् तरतृणविशेषस्थानीयाः । सक्तं च मूत्रटीकाकारण--" मोहा मणी हारग्रहणं महत्, पुलकंतु पुनी इति।" (सम्पसेबे" इत्यत्र। (पत्थ णमिति) अत्र एतस्मिन् बहुमध्यदेशना यस्ययामए गवणे इति) सर्वश्वेतं रजतं रजतमयं पुनीगे, णमिति पूर्ववत् । महती एका पद्मवरचदिका प्रकप्ता, मया मामुपरि कवेल्लुकामामध मागदनम् । शेषैश्च तीर्थकृद्भिः । सा च कर्द्धमुच्चैस्स्वेनार्द्धयोजनं वे गव्यूते पञ्चधनु-शतानि विष्कम्भेण (जगतीसमिया इति)जगत्या साए पनमवरवेदिया एगमेगेणं हेमजाले एगमेगणं समा समाना जगतीसमा, सैव जगतीसमिका, परिकेपेण गवखजालेणं एगमेगणं खिखिणिजालेणं एवं घंटजालेणं परिरयेण, यावान् जगत्या मध्यन्नागे परिरबस्तावान् तस्या जाव मणिजालेणं एगमेगणं पउमवरमालेणं सबरयभपि परिरय इति भावः। सर्वरत्नमयी सामस्त्येन रत्नाऽस्मि- णामएणं सबतो समंता संपरिक्खित्ता तेणं जालतबका।" अच्छा सपहा" इत्यादि विशेषणकदम्बकं पारतोऽर्थ णिज्जझंबूसगा सुवझपयरगमंमिया नाणामणिरयणनितश्च प्राग्वतू। तीसे णं पउमवरवेदियाए अयमेतारूवे वडावासे पलत्ते । ते विधहारकहारउपसोहियसमुदया ईसिं भषामध्यमसंपत्ता नहा-चयरामया नेमा, रिठ्ठामया पतिहारमा, वेरुलियामया पुवावरदाहिण उत्तरागतेहिं बाएहिं मंदायं मंदाय एखंजा, सुवमरुप्पमया फलगा, लोहितक्खमईओ सुई प्रो, जिया पिया कंपिता खोभिया चालिया फंदिया बहरामया संधी, नाणामणिमया कलेवरा कन्भेवरसंघाडा, घट्टिया उदीरिया, एतेसि नराने मानेणं कक्षमण निव्वुणाणामणिमया रूवारूवसंघाढा,अंकामया पक्खा पक्वबा. तिकरणं सग सम्बतो समंता मापूरमाणा प्रापूरेमाणा हो, जोतीरसामया वंसावंसकवेगाोरययामयीनो प सिरीए अतीव प्रतीब उसोभेमाणा उवसोजेमाणा चिट्ठति। ट्ठियाओ, जातरूवमयीनो ओहामणीश्रो, बरामयीओ (ला णमित्यादि) सा एवं स्वरूपा , समिति वाक्यातरकारे । उत्ररि पुंछणीओ, सबसेयरययामए जादणे । पायरवेविका, तत्रतत्र प्रदेशे एकैकेन हेमजालेन सर्वाऽऽश्मना हेममयेन सम्बमानेन दामसमूहन, एकैकेन गवातजाम गवा(तीसे णमित्यादि) तस्याः, णमिति पूर्ववत् । पावरवेविकाया कातिरक्षाविशेषदामसमहेन, एकैकेन किरिणीजालेन किअयं वक्ष्यमाण एतवूपः स्वरूप धायासः वर्णःलावा यया. किया क्षुधरिटकाः, पकैकेन घण्टाजा न किङ्किण्यपेक्षया वस्थितस्वरूपकीर्तन,तस्याऽऽचासो निवासो प्रन्थपतिसपोक- किश्चिन्महस्यो घण्टाः, तथैकैकेन मुक्ताजा लेन मुक्ताफलमयेन वासो वर्णकनिवेश इत्यर्थः। प्राप्तः प्ररूपितः। तदयधेत्यादिना दामलमून, एकैकम मणिज्ञालेन मणिमयेन दामसमडेन, एकतमेव दर्शयति-(वरामया नेमा इति) नेमा नाम पनघरबेदि केन कनकजामेन कनकं पीतरूपः सुवर्णविशेषः, तम्मयेन दाकायां भूमिजागादूर्द्ध निष्क्रामन्तः प्रदेशाः, ते सर्वे वज्रमया वन मसमूहन, पकेन रत्नजानेन एकैकेन पद्मजालेन सर्वत्र रत्मरत्नमयाः,वज्रशब्दस्य दीघत्वं प्राकृतत्वात् । पचमन्यापि खष्ट- मवपदाऽऽस्मकेन दामसम्हेन, सर्वतः सर्वासु विक्षु, समन्तत: व्यम् । रिएमयानि रिटरत्नमयानि प्रतिष्ठानानि मूनपादा(बेरु- सर्वासु विदिक परिविता व्याप्ता । एतानि च दामलियामया खंभा इति) बैडूर्यरत्नमयास्तम्भाः। सुवर्णरूप्यमयानि समूहरूपाणि हेमजालादीनि जालानि सम्बमानानि - फलकानि। लोहिताऽऽस्यरत्नाऽऽत्मिका:सूचयः फलकद्वयसंबन्ध- वितव्यानि । तथा चाऽऽह-(तेणं जाला इत्यादि) तानि, सूत्रे विघटनाभावहेतुपादुकास्थानीयाः(वश्रामया संधी) बज्रमयाः पुंस्त्वनिर्देशःप्राकृतत्वात , प्राकृते रिलिजमानियतमिति । णमि. सन्धयः सन्धिमेलाः फलकानाम् । किमुक्तं भवति ?- ति पूर्ववत् । हेमजालाऽऽदीनि,जालानि,कचित् दामा क्षति पाम। बजरनाऽऽपूरिताः फलकानां सन्धयः। (नाणामणिमया कले तत्र त हेमजामाऽऽदिरूपा दामान इति व्याख्येयम्। (तवाणिज्ज. बरा इति ) नानामणिमयानि कलेवराणि मनुष्यशरीराणि, ना. लंबूसगा) तपनीयमारक्तं सुवर्स तन्मयो सम्बसगो दाम्नानामणिमयाः कवरसङ्घाटाः मनुष्यशरीरयुग्मानि, नानामणिः | मनिमभागे मरामनविशेषो येषां तानि तपनीयतम्यूसका नि। मयाणि रूपाणि रूपकाणि,नानामणिमयारूपसङ्घाटा: रूपयुम्मा- (सुवमापयरगझिया इति) पाश्वतः सामसत्येन सुवर्षाप्रतर. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनमरवइया अभिधानराजेन्द्रः। पउमवरखेडया केण सुवर्णपत्रकेण मरिकतानि सुवर्मप्रतरकमरिकतानि (नाना- हयपतीमो गयपंतीयो" इत्यादि, नवरमेकस्यां दिशि था श्रेणिः मणिरयणविविहहारकहार उवसोभियसमुदया इति) ईषत् ना ! सा पङ्किरभिधीयते उभयोरपि पार्श्वयोरेकैकश्रेणिभावेन यत् नारूपाणां मणीनां रत्नानां च ये विविधा विचित्रवर्या हारा। श्रेणिद्वयं सा बीथी, पसिंघाटा हयाऽऽदीनां पुरुषाणामुताः। अष्टादशसरिका अर्यहारा नवसारिकाः,तेरुशोजितः समुदा- साम्प्रतमेतेषामेव हराऽऽदीनां स्त्रीपुरुषयुग्मप्रतिपादनार्थ "मिदु. यो येषां तानि तथा। (ईलिमन्त्रमन्नमसंपत्ता इति) ईषत मनाक गाई" इत्युक्तम् । उसनेव प्रकारेण यादीनां मिथुन कानि अन्योऽन्यं परस्परमसंप्राप्तानि संलग्नानि पूर्वापरदकिणोत्तरा- स्त्रीपुरुष युग्मरूपाणि काच्यानि । यथा-"तत्य २ देसे तहिं तदि गतैर्वातैर्मदायन्ते मम्दायन्ते इति मन्द मन्दम्, पजमानानि कम्प. पपसे बहुर्दि हयमिहगाई गयमिहुणगाई।" इत्यादि। मानानि भृशा॥५४॥४२॥ इत्यविच्छेदे द्विः प्रोक्तमवादः । तसे पलमवर इयाए तत्थ ५ देसे तहिं २पएसे बहवे इत्यविच्छेदे द्विवचनं, यधा पचति पचतीस्था । एवमुत्त पनमसयाओ नागल्याप्रो एवं असोगचंपगचूयवणवासंतिरत्रापि। पित्कम्पनवशादेव प्रकर्षत इतस्ततो मनाक चलनेन लम्बमानानि नम्बमानानि, ततः परम्परसंपर्कवशतः शब्दाय पमतिमुत्तगकुंदलयाओ णिचं कुसुमियामोजाव मुविजत्त. मानानि, उदारेण स्फारेण, शब्देनेति योगः। स च स्फारशब्दो पमिमंजरीवटेंसकर यो सम्वरयणामतीओ साहाओ न. मनःप्रतिकूलोऽपि जबात,तत माद-मनोझेन मनोऽनुकूलनातच एहाम्रो घट्ठायो महायोणारयानोनिम्मन्नाओ निप्पंकाओ मनोऽनुकूलं वेशतोऽपि स्यादत आह-मनोहरण मनांसि श्रोतृणां निकंकमगयाओ सभाओ ससिरियाओ सज्जायाओ हरति श्रात्मवश नयतीति मनोहरः । सिदाऽऽदेराकृतिगणस्वा. पासादीयाो दरिसज्जिाओ अनिरुवामो पडिरूवाओ दचप्रत्ययः । तेन । तदपि मनोहरत्वं कुत इत्याह-"कर्ममनोनिवृत्तिकरेण । "निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायोद. तीसे पउमवरचेदियाए तत्थ श्देसे तहिं २पएसे बहवे र्शनम्।" इति वचनात देतो तृतीया। ततोऽयमर्थः-प्रतिश्रोतृक अक्खया सोस्थिया पामत्ता सम्वरमणामया अच्छा। योर्मनसश्च निवृतिकर: सुखोत्पादकः,ततो मनोहर,तेन इत्थं तीले णमित्यादि) तरूपांणमिति पूर्ववत । पावरवेदिकायां भूतेन शब्देन तान् प्रत्यासन्नान प्रदेशान् सर्वतो दिनु,समन्ततो तत्र तत्र (तहि तर्हि इति तस्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेश, अ. चिदिक्षु श्रापूरयन्ति, शत्रन्तस्य शाविदं रूपम् । अत एवं श्रिया त्रापि “तत्य २ देसे तहिं २” इति बदता यनैका लता तत्रत्या शोजया अतीव शोभमानानि उपशोभमानानि तिष्ठन्तीति। भपि बचा लताः सम्तीति प्रतिपादितं कष्टव्यम् । (बहुयानो प. तीसे णं पनमवरवेइयाए तत्य तत्य देसे तहिं तहिं पदेसे उमलयाभो इत्यादि) बयः पद्मलताः पमिन्यः, नागलताः नागा मुमविशेषाः, त एव लताः तिर्यक्शाखा प्रसराभावात् नागमताः। बहवे हयसंघामा गयसंघामा नरसंघामा किपरसंघामा एवमझोकलताः, बणलता वणास्तविशेषाः,वासन्तिकास ताः किंपुरिससंघाडा महोरगसंघामा गंधनसंगाडा उसभसं. प्रतिमुक्तकलता,कुम्द सताः,कलताः,नित्यं सर्वकाल षट्स्वपि घाटा सब्बरयणामया अच्छा सएहा लएहा घट्टा मट्ठा णी- ऋतुषु इत्यधः । कुसुमिताः कुसुमानि पुष्पाणि संजातान्यास्विति स्या निम्मला निष्पका निकंकाच्छाया सपना सस्सिरीया कुसुमिताः, तारकाऽऽदिदर्शन दितप्रत्ययः। यावत् करणात् एवं म उज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अनिरूवा पभिरूवा ॥ नित्यं मुकुलिता मुकुलामि नाम कुइमलानि,कलिका स्ययः,नि. स्य (पञ्चपायानो इति) पल्लविता,नित्यं (नवश्याओरति) स्तव. (तीस णमित्यादि ) तस्याः पद्मवरवेदिकायाः, तत्र तत्र देशे किता:,नित्यं (गुवाओ)गुटिगताः,स्तवक गुल्मा गुच्छकविशेषौ, (तहि तहि शति) तस्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे । एतावता निग्य गुञ्छिता,नित्यं यमलिता यमलं नाम-समानजातीययोलतकिमुक्तं नवति?-यत्र देशे एकस्तत्रान्ये ऽपि विद्यन्त इति। यहवा वोर्युग्मं तत् संयातमास्थिति यमलिताः, नित्यं युगलिता युगलं हयसंघाटा हय युग्मानि,सवाट कशब्दो युग्मवाची, यथा साधु सजातीयविजातीययोल तपाईन्छम् तथा नित्यं सर्वकालं फल भ. संघाट इत्यत्र । एवं गजनरकिम्पुरुषमहारगगन्धर्ववृफ्नसंघा रेण नता ईपन्नता नित्यं प्रणता माइता फलभारेण दूरं नताः,तथा रा अपि वाच्याः । एते च कथंभूता इत्याद-(सब्बरयणामया) नित्यं (मुविभक्तेत्यादि) सुविभक्तिका सुविच्छित्तिकः प्रतिविशिसर्वाऽऽत्मना रत्नमयाः, अच्छा आकाशस्फटिकदतिस्वच्छाः। टो मन्जरीरूपायोऽवतंसकस्तारास्तद्धारिण्यः। एवं सवाऽपि कु. जाव पडिरूवा इति) यावत्करणात्-" सपना सराहा घा सुमितत्वाऽऽदिको धर्म एकैकस्या लताया उक्तः। साम्प्रतं कासा. महा" इत्यादि विशेषणकदम्बकपरिग्रहः, तञ्च प्राम्यत् । एते चिलतानां सकलकुलुमितत्वाऽऽदिधर्मप्रतिपादनार्थमाह-( नियं सर्वेऽपि च संघाटाः पुष्पावकीर्णका सक्ताः। कुसुमियमचलियलवश्यथवश्यगुलायगोच्चियघिमियपणमिसंप्रत्येतेषामेव हयाऽऽदीमां पयादिप्रतिपादनार्थमाह यसुविभत्तपडिमंजरिवहंसगधरीनो) एताश्च सर्वा अपिलता तीसे एं परमवरवेदियाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं पदेसे एवं रूपा प्रत्याह-(सव्वरयणामईश्रो) सर्वात्मना रत्नमय्यः "अच्चा अपहा" इत्यादि विशेषणः कदम्बकं प्राग्वत् । बहवे हयपंतप्रो तहेवजाव पमिरुवाओ,एवं दयवीही श्री अधुना पावरवेदिकाशब्दप्रवृत्तिम.मित्तं शिकासुः पृच्छति जाव पमिरुवाओ, एवं हयमिहणाईजाव पडिरूवाई॥ से केपट्टेणं जंते ! एवं वुच्चइ-गोयमा ! पउमवरवेदि( एवं पंतीओ बीदीयो एवं मिहुणमा इति ) यथा अमीषां याए तत्थ २ देसे तर्हि पएसे वेदियासु वेतियबाहास इयाऽऽदीनामटाना-संघाटा उक्तास्तथा पञ्जयोऽपि वक्तव्याः। बीथयोऽपि, मिपुनकानि च। तानि चैवम्-" तीसे णं वेतियासीसफलएम वेतियापुडंतरे खंभे खंभवाहास पनमयरवेश्याप तत्थ तत्थ देसे तर्हि तहि पपसे बहयाओ। खंभसीसेसु खंज पुमंतरेसु सूर्यामु स्यीमुहेसु सूयीफलएम Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) निधानराजेन्द्रः । परवेश्या सूर्यपुतरे पक्खेसु पक्ववाहासु पक्खाय तरेसु बहुयउ - पलाई पउमा जान सयसहस्सबत्ताई मच्चरयणामयाई अच्छाई सदा लगाई पडाई महाई नि पाई निम्मलाई निष्पकाई निकंदाबाई सप्पभाई ससिरियाई सज्जयाई पासादीयाई दरिस लिज्जाई अथिरूवाई heart महया यामिक्कत्तसमाणाई पत्ता समणाउसोसे ते गोषमा एवं वृचइपर बरवेदिया २ । अनुत्तरं च जं गोयमा ! पडमवरवेतियाई सासते नामधे - बजे पमाचे, कपानि व्यास जाव येथे (से केवडे मंते! इत्यादि) दोपरान थे। अथ केमायेन केन कारमेन भदन्त ! एवमुच्यते- पद्मवर दिका पद्मवर चेदिति । किमुक्तं भवति ?- पद्मवर वेदिकेत्येवंर पस्य शब्दस्य तत्र प्रवृत्तौ किंनिमित्तमिति । एवमुक्ते भगवाना गौतम ! पद्मबरबेदिकायां तत्र तत्र प्रदेशे तस्यैव देशस्य तत्र तत्र वेदकासु उपवेशनयोग्यमधवारणरूपासु वेदिकापाय अंतरेसु इति) घे वेदि के बेदिकापुढं, तेषामन्तर अपान्तरा खानिवेदिकान्तराणि तेषु तथास्तम्भे यतः तथा स्तम्भवादासु स्तम्भपातु इति स्तम्मी (संतरे इति स्तम्भ स्तम्भपुढं तेषान्तराणि तेषु [सूची]] फलकद्वय संबन्धविघट मावहेतु पादुकाखमा मुपरि इति तात्पर्यार्थः (त प्रवेश के भिवा मध्ये प्रविशति तस्प्रत्यासन्नो देशः सूची नुखं तेषु, तथा सूची फलकेषु सूचीभिरभिसंबन्धिता मे फलक प्रदेशास्तेऽप्युपचारात् सूची फलानि ते दाम परिस था ( सूईपुरुतरेसु इति ) द्वे सूच्यौ सुखीपुढं तेषामन्तरेषु पकापवादादिदेसास्तेषु बहूनि उत्पलानि गर्दभका नि, बहूनि पद्मानि सूर्यविकाशीनि, बहूनि पश्नानि चन्द्रविका शीनि । एवं नलिनसुन्नगसैौगन्धिकपुरकरी कमहापुरामरीकशत पत्रापि वाक्यानि तेषां च विशेष प्रदर्श सानिकानीत्या सर्वरत्नमयानि यानि इत्यादिविशेषणात् मया बालिका समाचारं इति ) महान्ति मदाप्रमाणानि वार्षिका णि वर्षाकाले यानि पानीयरक्षणार्थे कृतानि तानि वार्षिकाणि शानि च तानि छत्राणि च तत्समानानि प्रचप्तानि । दे श्रमण ! हे आयुष्मद् (से तेज मित्यादि देनार्थेन गौतम पवमुच्य से पद्मवेदिका पद्मव रबेदिकेति । यमवरवेदिया णं अंते ! किं सासता, सासता ? । गोयमा ! सिय सासता, सिय असासता से केणड्डेां भते ! एवं वृचइसिप सासता, भिय असासता है। गोषमा ! दन्डयाए सा सवा, पनवेधिपवेहिं रसपाने फासपजहिं | सासता से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वृच्चति - सिय सासता, सिय असासता ॥ (पचमबरबेश्या णं भंते ! किं सासया इत्यादि) पद्मबरवेदिका, यमिति पूर्ववत् किती उत देशः प्राकृतत्वात् । किं नित्या, उतानित्येति भावः । भगवानाह - गीतम! स्यात् शाम्यतीथकथा पउमवास दनित्या इत्यर्थः स्यानिवासः कथदित्या बी । "से के पट्टे भंते!" इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवागौतम ग्यार्थतया प्रम्यास्तिकयमतेावती या स्टिफनो हि यमेव ताकिमभिमन्यतेन चान्यपरिणामित्वात् अन्यथा इन्यात्वायोगात् यित्वाचा सकलकालभावीति नवति । इत्यार्थतया शाश्वती वर्णमुत्पद्यमानयविशेष एवं प पर्यायैः पपर्याय उपलक्षयमेतत् सम्यपुत्रविधनोचने अशाश्वती किमुकं प्रति १-पर्यायास्तिक नयमतेन पर्यायाचान्यविज्ञायाम पर्यायाणां प्रतिकृणभावितथा विकासभावितया था निशा " से तेणद्वेणं " इत्याद्युपसंहारवाक्यं सुगमम् । श्ह द्रव्यास्तिकनयवादाः स्वतश्व प्रतिष्ठापनार्थमेवमाह "नात्यन्तासत उस्पादों, नापि सतो विद्यते विनाशो था।" "नासतो विद्यते भाबो, नाभावो विद्यते सतः ॥ " इति वचनात् । यौ तु दृश्यते प्रतिवस्तु उत्पादविनाशी तहविषति भ पस्य सत्त्ववित्वे, स्यात्सये पर नियमिति । पु कियचिरम् पलमवरवेयाणं भेते तो केप चिरं होई । गोषमा याति यासिन कयाति पत्थि, न कदातिन जविस्सति, चूर्विच, जयति य, अविस्मति प, धुवा शिपया सासता अक्खया भन्या अवट्टिया पिश्वा पलमबरवेदिया । एवं चिन्तायां संशयः किं घटादिचयार्थता शाश्वती समेत पदार्थ म गवन्तं भूयः पृच्छनि परदिया यमित्यादि) पद्म वेदिकमिति पूर्वयद भदन्त परमादयोगिक! यश्विरं कियन्तं कालं यावत् प्रवति एवंरूपा कियन्तं कालम तिते इति भगवानाद-गीतमन कदाचित् सर्व देवासीदिति नाथः तथा नका सर्वदेव वर्तमानकालचितायां भवतीति माया सदेव प्राया तथा प्रविष्यति किं तु भविष्यचिन्ता सर्वदेव भविष्यतीति प्रतिपसम्म पयसिताका अत्रयविग्तायां नास्तित्वप्रतिषेधं विधाय संप्रत्यस्तित्वं प्रति पादयति-भूषित्यादि) अमृतमयति यति ति । एवं त्रिकालावस्थाविश्वात् भुवा मेर्बादिवत् ध्रुवत्वादेव सदैव स्वस्वरूपे नियता, नियतत्वादेव शाश्वती शश्वद्भवनस्वनावा, शाश्वतत्वादेव च सततगङ्गासिन्धुप्रवाह प्रवृत्तावपि पौएडरीकहद श्वानेकपुङ्गलविखटनेऽपि तावन्मात्रान्यङ्गलो वाटन संजवात्, अकृया न विद्यते तयो यथोक्तरूपाऽऽकारशो यस्याः सा अकृया, मक्कयत्वादेषाव्यथा अव्ययशब्दवाच्या मनागपि स्वरूपाञ्चनस्य जातुचिष्यसंभवात् । मध्ययत्वादेस्वप्रमाणे उपस्थित मानुषीसरा समुद्र एवं सादिया धमतिका खाऽऽदिवद। जी० ३ प्रति०४ अधि० । पचमबास - पद्मवर्ष - पुं०। पद्माना या काशोत्पाते, " पडमवासे य रयणवासे व बासे वासिद्दिति ।" पद्मवर्षः पद्मवर्षरूपः । प्र० १४ ० ६४० स्था० । * अयमेय स्यादुवादशब्दे निर्देश्यते । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) पजमवूह भनिधानराजेन्द्रः । पनमसेहर पउमड-पग्रव्यूह-०। पाऽऽकारे परेषामनप्रिनवनीय सैन्यः | पुक्खापने कुम्गे, विहगे खग्गे य भारुमे ।।।। कुंजरवसहे सीहे, नगराया चेव सागरक्कोहे। विन्यासविशेष, प्रश्न०३ आभ• द्वार। चंदे सूरे कणगे, वसुंधरा वेब सुर्यहुए ॥१०॥ पामसर-पग्रसरसू-म०। पप्रवृषितं सर: पसरति समा. जिणसमप निहिछा, चाइमिसीह मुणिवसहा। सः । भा० म. १० । पायुक्त सरसि, पानि पत्रो. भावेण सेसि गुणव-सणं पिनासक दुरियभरं ॥११॥ स्परान्ते । स्था. १० ग० । कल्प.! तीर्थक्वन्मातरतुर्दशसु स्वप्रेषु दशमस्वप्ने पासरः पश्यम्ति, सरिक पोपसहितं सरो. माणुसं उत्तम धम्मो, गुरुनाणाइसंजुभो। परमात्रमुत मानसरोवत्पनसरोऽपि द्वीपास्तरे कोऽप्यस्तीति सामगी दुलारा, एसा जाणेर हियमप्पणो ॥१२॥ प्रमे, उत्तरम्-पमरुपलक्षितं सरः पदमसरति व्याख्यातम एयारिसो सुहगुरू, धनाणं दिदिगोयरमुखेड। स्ति, द्वीपान्तरे तमाम सरोनास्तीति । १०६०। सेम. पयस्स सवणसुहयं, पियति वयणामयं धना ॥१३॥ १उहा। एयस्स महामुणिणो, म्बएलरसायम भकाऊण । पनमसागर-पमसागर-पुं० । तपागलीये धर्मसागरोपाध्याय. होही पच्छायायो, चत्ते पत्ते निहाणे व ॥२४॥ शिष्ये मयप्रकाशप्रन्थकारके पुरौ, सब वैक्रमीये १६७३ श्य मणिपण तेणं, जिणधम्मे गाविमो बह लोमो। वर्षे मासीत् । ० पगो पुण सिधिसुमो, विजभो नामेण श्य भणः ॥१५॥ परमसिरी-पद्मश्री-सी । दन्तपुरे नगरे धनमित्रवणिजो नार्या- पवणुद्धयचेल चलं, चलं मणं कह धरति मे मुषिणो। पा धनश्रीसपल्याम, यया दन्तमयसौधे छोहदो याचितः । कह नियनियविलए धा-विरा रुंधति करणारं ॥१६॥ मा. क। भाव । मा० घू। नि० चू. । (जिरवलाव दुहियजियाणं च बहो, जुत्तो ज ते विषासिया हयं । शम्ने चतुर्षमागे २१११ पृष्ठे कथा) मेघरथविद्याधरदुहितरि बेहत्तु निययकम्मं, सुगईए जायणं दुति ।। १७ ।। सुभौमस्य बकवर्तिमो भार्यायाम, मा०क०। ('माण' शब्द. जंण अपमायामो, मुक्खस्स परुवणं तयं मन्ने। ऽस्योबाहरणम् ) सिंहपुरे नगरे कीर्तिधर्मस्य राशो हितरि, जरहरणे तक्खगमउ-निरयण उबएसदाएं ब॥१८॥ दर्श०३ तव। इय सो वायारण, धम्माभिमुहं पिमोहए लाए। परमसुंदर-पगुंदर-पुं० । नागपुरीयतपागगये राजमला. नीनो निवेण तब्बो-हणत्यमेवं तो विहियं ।। १ ।। जक्ख सिनिययपुरिसो, भणिो जह महम मसंकार। भ्युदयमहाकाव्यधातुपाउपाश्वनाथकाव्यजम्बूस्वामिकथानकाऽऽविप्रथकति स्थनामस्याले गणिनि, जे०३०। पक्षिवसु कास मित्तं, रयणकरमम्मि विजयस्स ।। २० ।। तेण वितहेव कावं, विनसं राणो तो इमिणा। पउमसे-पग्रसेन-पुं० । श्रेणिकपुत्रस्य महाकृष्णसत्कपुत्रे, सच पडहगययाणपुचं, नयो घासावियं एवं ॥२१॥ बीरास्तिके प्रत्रज्य लान्तके करपे उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यती- जो निवप्राहरणं कह-विलरूमप्पास दोसवं गिरिह। ति कल्पावतंलिकानां षष्ठेऽध्ययने सूचितम । नि.१ २० २ पच्छा से तणुदंमो, श्य घोसावित पारसिंग ॥ २२ ॥ वर्ग ८ . । पर्षतविशेषकूटाधिपती नागकुमारे देवे, दी। सह पनरहि सपुरिसा, बुसा गिहसोहणम्मि मह तेहि। पठपसेपर-पचशेखर-पुं० पृथि पुरनरराजे, ध०र०। विजयगिहे तं दि, सो पुछो नणु किमेयं ति? ॥२३॥ सभण अहंन याणे, चोरियमवि नमुणसि सिजणिरेईि। पशेखरमहाराजकथा चैवम् - निवपासे नीओ ते-हिं तण वज्को स आणतो॥ २४॥ "पुरिसुसमसयणं सुर-जणमहिय किं तु खारगुणरहियं । न य ते को वि मुयावर, पचक्खो तकरु तितो विजभो। नीरनिहिनीरसरिसं, पुहपुरं अस्थि इत्थ पुरं ॥१॥ पावसजीवियासो, जक्खं पक्ष जंपा सुवीणो ॥२५॥ सुमनोबसणविरहियो, किंतु जहासंगवजिमओ सययं। मित्त निवं विविउ, दंमेणं दुक्करेण वि कहं पि। ससिसेहरुब्ब सिरिपउ-मसेहरो मरबरो तत्थ ॥२॥ दावसु जीवियं मे, तो जक्खो भणश्य निव।२६॥ सो वामभावमा भा-विऊण जावेण गहियजिणधम्मो । देव भह मुयसु मितं, केण वि दंमेण तो नणहराया। सरापुरमो, पत्तो पत्र जिणधम्मं ॥ ३ ॥ जनजाद हो सुगर, मितो तुह किन पमिहार ? ॥२७॥ बक्खाणा जीवनयं, अपमायामो परूवर मुक् । स प्रणा सुईएँ प्रसं, जीवंता पिच्चए नरो भहं । बहुसो बामाणेणं एवं बाइ सया गुरुणो॥४॥ तादेसु पाणभिक्खं, तो निई भण कुवियब्ध ॥ २०॥ खंता बंता संता, बसंता रागरोसपरिवत्ता। जा मम पासाोते-छपुनपत्तं गहिर्विदं पि । परपरिवायीवरचा,इंति गुरु मिखमपमत्ता ।।५।। भचयंतो सयलपुरे, भमिउ पुण ठबदमापुरमो॥ २९ ॥ जवसमसायलसलिलप्पवाहविज्कवियकोहजलणा बि। ता तुह मुपमि मितं, रायाए संतयं कहा जक्खो। गाढपपरुदभवधिय-मघिडविनिद्रवणबदहणा॥६॥ विजयस्स तेण तं पि हु,पमिव जीवियासाए ॥ ३०॥ मिज्जियमयणा विपसि-कसिद्धिबदुसंगसुक्खतलिच्छा। तत्तो निरूबियाई, सयमपुरे पढमसेहरनिवेण । परिवतसयससंगा, विसदिवसंगहियचरणधणा॥७॥ पडपडहवेणवीणा-इसइउहामहीरसाई॥ ३१ ॥ नीमेमजंतुसंता-णपालले फुरियगड्यकरुणा वि।। प्रासमहरूवलवणिम-सुवेससाविमासकमियाई। मिट्रपमायसिंधुर-कुंभत्थलदलणहरिसरिसा ।।। सधिदियतुरया, पए पप पिच्छणसया ॥ ३२ ॥ तथा सो किर बिसेसरसिभो, तेसु अश्मरणभीरुभो तह थि। कसे संखे जीये, गयणे बाक य सारए सलिसे । तेल्लपमिपुत्रपठे, निहियमणो भमिय सयलपुरे ॥ ३३॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनमसेहर प्रान्निधानराजेन्द्रः। पउमावई पत्तो नरबरपासे, पुरो जत्रोण मुत्तु तं पतं । रामो कन्सयउक, हरी वि परमावईकम्मं ॥ ५॥ पमित्रो चलणेसु तम्रो, इसिं हसि निवो भणः ॥ ३४॥ गहिउ तार्दि समेया, समागया निययपुरघरे सव्धे।" इति । भयंतचंचलाई, मणकरणाई कहं तुमे विजय! प्रश्न०४माध०द्वार।। भाइवहेसु बिभिसं, पिच्छणगासु निरुद्वा॥ ३५ ॥ जति णं भंते ! पंचमस्स वग्गस्स दस अज्जयणा। पढमतेणु सामिय! मर-भीरुणा मह नियो भणह जाते। स्स गं ते! ज्य णस्स के अटे पम्पत्ते । एवं खलु जं. एगभषमरणभीर- सेविनो पषमपमानो ॥ ३६ ।। ता कह सेवंति न तं, अणंतवमरणभीरुणो मुणिणो । व ! तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवती नगरी जहा पढमे० व्य सो पम्बुिको, विजप्रो आम्रो पबरसो ॥ ३७॥ जाब कन्हे वासुदेवे अाहेव जाब विहरति । तस्स एं श्य गुरुगुणगणव-मण परायणो बोहिवं बटुं सोयं । कनास्स वासुदेवस्स पउमावती नाम देवी होत्था, वयो। सो पसममेहरनियो, सुगई' भायणं जामो ॥ ३८॥ तेणं काय ते समएण भरहा अरिहनेमी समोसदे० जाव श्रुत्वोते कुग्रहविनिग्रहणैकमनं. श्रीपदमशेखरनरेश्वरसचरित्रम् । विहरति । कन्हे विनिग्गते,जाव पज्जुवासति। तते णं से पउमासकानदर्शनचरित्रभृतां गुरुणां, वती देवी इमीसे कहाए बदहे समाणे इतुहा जहा देवभव्या जना गुणगणं परिकीर्तयन्तु ॥२६॥" ती देवी. मात्र पज्जुवासति । अन्त० ५ वर्ग १ अ० । इति पदमशेखरमहाराजकथा । ध०र०२ अधि०५लका। तते णं से कन्हे वासुदेवे अरहो अरिष्टनेमिस्स अंतिए पउमा-पमा-खीलदम्याम, भमरजीमस्य राकसेन्स्य प्रथ एयमहसोचानिसम्म प्रोडयाजाव झियाति कएहादी। श्रमायामप्रमहिण्याम,म० १० २०५४० वा शक्रस्य प्रथमाप्रमहिण्याम, का०२ श्रु०६वर्ग १ भाभा खा०। (अनयोःपूर्वो रहा अरिठनेमी कएहं वासुदेवं एवं वयासी-माणं तुमं देवा. तरभवकथा ' भग्गमहिसी । शम्दे प्रथमन्नागे १७३ पृष्ठे णुपिया! मोहयजाव कियाहि । एवं खास तुमं देवाणुप्पि. उक्ता ) जम्म्याः सुदर्शनायाःप्रथमवनखएके पूर्वस्यां नन्दापुष्क- या! तचाओ पुढवीओ जलियातो रगाओ अणंतरं नन्छ। रिएयाम्, जं०४ वक्ष.।जी।मुनिसुव्रतस्य विंशतितमतीर्थकृतो ट्टित्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आगमेसाए श्रोसमातरि,सतिलाचतुर्दशतीर्थकृतःप्रथमप्रवर्तिन्याम्, प्रव०१० पिणीते पुंडेसु जणवएसु सयबारे गरे वारसमो अममो द्वार । ब्रह्मणो नार्यायाम, द्वितीयबलदेववासुदेवमातरि, ति.। अनन्तजीववनस्पतिभेदे, प्रशा०१ पद । वेश्याने, स.। नाम अरहा जविस्सति । तत्थ णं तुमे बहूई वासाई केवपउमाभ-पद्माज-पुं०। पद्मप्रजाऽऽपये तीर्थकरे, प्रब० ३० द्वार। लिपरियागं पाउणित्ता सिमिहिति । बुफिहिति जाव पनमाई-पद्मावती-स्त्री० । भीमस्व राकसेन्द्रस्य द्वितीयायाः अंतं काहिति । तते णं से काहे वासुदेवे अरहो मप्रमरिष्याम, भ. १. श०५ 30 । स्था। (अस्याः पूर्वोत्त. अरिष्टनेमिस्स अंतिभाए एयमढे सोचा णिसम्म हडतुरजन्मकथा 'मग्गमहिसी'शब्दे प्रथमजागे १७१ पृष्ठे उक्ता) हा अप्फोमिति । दुग्गतिं तिवति छिंदति, निंदस्ता, शक्राममहिण्यांचज्ञा०२ श्रु० ७ वर्ग भ. (अस्या अपि सीहनायं करेति, करेतित्ता अरहं अरिष्टनेमि वंदति, नमंसपोत्सरजन्मकथा 'भगमहिसी' शब्द प्रथमभागे १७३ पृष्ठे सक्ता) चेटकमहाराजकुहितरि चम्पेश्वरमहाराजदधिवाहन ति, नमंसित्ता तमेव अतिसेकं हत्थिरयणं सुरूहति, पुरूह. प्रार्यायाम, श्राव०प्र० उत्त० प्रा० क० । मा० ५०। इत्ता जेणेव बारबतीणयरी जेणेव रायगिहे तेणेच उवायस्या हस्स्यारोहणदोहदोऽनूत,ततो हस्त्याहतया बने कर- | गते, नवागतेत्ता भनिसेयहत्थिरयणाश्रो पचोरुहति, जेणेत्र कराह नाम कुमारः सवे। उत्त०१० अ०। प्रा.या० ।। बाहिरिया जबढाणसाला तेणेव नवागच्छति, उवगच्छइत्ता (करकंडू'शब्दे तृतीयभागे ३५७पृष्ठे कथा) हिरण्यना सीहासणवरंसि पुरत्याभिमुहे निसीयति,निसीयहत्ता कोडं. मनगरराजहितरि कृष्णवासुदेवपट्टराझ्याम, प्रश०। पदमाबतीकृते संग्रामोऽनुत् । तत्र अरिष्टनगरे राममातुनस्य हिरण्य. विप पुरिसे सहावेति,सदावेत्ता एवं बयासी-गच्छहणं तुज्के नाभानिधाननगराधिपस्य दुहिता पद्मावती बनूष । तस्याश्च देवाणुप्पिया! वारवतीए पायरीए सिंघाडगाजाव नग्धोसेखयम्वरमुपश्रुत्यराम केशवावन्ये च राजकुमारास्तत्राऽजग्मुः। माणे एवं बयासी-एवं खल देवाणप्पिया! वारवतीए णय. ततश्च गए नवजोयणाजाव देवलोगयाओ सुरदीवएणं मूसाए "पूप भावणिजो, विहीए सो तस्थ रामगुत्ती। रेवगनामो जेहो, नाया य हिरमनानस्स ॥१॥ वीणासे विस्सति, तं जो णं देवाणुप्पिया ! इच्छाति वा. पिउणा सह पवश्लो, सो तित्थे नमिजिणस्स गयमोहो। रवतीए राया वा जुबराया वा तलवरे वा मर्मविया को/तस्त घरे वयनामो, रामा सीमा य बंधुई॥२॥ वियाइन्ने वा सेठ्ठी वा देवी वा कुमारो वा कुमारी वा अरहा अहियाओं पढम चिय, दिनाओ प्राति सेण रामस्स । अरिहनेमिस्स अंतिए मुंभेजाव पवते, तं गं कएहे वातत्थ य लयंबरम्मी, सब्बेहिं नरबरिंदाणं ॥३॥ पुरन थिय तं गेहशमाह च कुसलाण कमगं कपहो । मुदेवे विसज्जेति । पच्छा तुरस्स वि य से प्रहापवित्तं वित्तं जायं च पत्थिवेहि, मझ सह जायवाण उलं ॥४॥ श्रणुजाणइ, महया वीसकारसमुदएण य से निक्खमणं सम्बत्तो विहविर, मुहुचमिण सम्बनरना। करेति, फरेतिचा दोचं पि तचं पि घोसणं घोसेह, Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनमाई भाभिधानराजेन्द्रः। पनमास मम एवं पञ्चप्पियाह । तते ण ते कोडुविया पुरिसाजाव पञ्च- सा जक्खिणी प्रजा पनमावतिं देवि सयमेव पव्वज्जाजाव प्पिणंति । तते णं से पनमावती अरहो अरिष्टनेमिस्स अं. संजमियन्वं-तते णं अरहा अरिहनेगी पउमावतिं देवि तिए धम्मं सोचा निसम्म हतुका० जाव हियया अरहं जाव संजमेति, तते से पउमावती जा जाया इरियाअरिष्टनेमि वंदति, नमसति, नमंसित्ता एवं बयासी-सह- समिया• जाच गुत्तभयारिणी तस पनमावती अजा हामि भंते ! निम्गंथं पावयाणं से जहेतं तुझे बदह जं जक्खिणीते अजाए अंतिए सामाः यमाइयाई एकारस णवरं देवाणुप्पिया ! कएहं वासुदेवं आपुच्छामि । तते | अंगाई अहिज्जति, अहिज्जित्ता बहू ि चउत्थन्ट्ठविविहअहं देवाणुप्पियाणं अंतिते मुंमा भवित्ता जाच पन्चयामि । सब अत्ताणं नावियमाणा विहरति । ततेणं सा पउमावती अहामुहं । तस्स पठमावती देवी धम्मियं जाणाप्पवरं अज्जा बहुपकिपुस्लाई बीसवासाति सामापरियागं पुरूहति. पुरूहतित्ता जेरोव बारवती एयरी जेणेव सए पाउणंति, पाउणित्ता मासियाए सलेहणार अपाणं गिहे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता धम्मियातो सेति, भूसेत्ता सहि भत्ताई असणा तच्छेदेति रत्ता जाणाओ पच्चोरुहति, पच्चोरुहतित्ता जेणेव कण्हे वासु- जस्सहाए कीरति नग्गनावेजाव तमट्ठ पाराहेति, चरिदेवे तेणेव नवागच्छति, उवागच्चइत्ता करयलकहु क मुस्सासेहिं सिका। अन्त०५ वर्ग. १०स्था। एई वासुदेवं एवं बयासी-इच्छामि पं देवाणुपिया !तु- श्रेणिकपुत्रस्य कणिकस्य स्नुषायां कालस्य भार्यायां पटुब्जेहिं अभणुमाया समाणा अरहो अस्टिनेमिस्म अं- ममातरि, नि० १ ० १ बर्ग २ अ० । कूणिकमहाराजभार्या. तिए मुंमा०जाव पन्बइया । तए णं से कराहे वासुदेवे को पाम् , सा च स्वर्दे खरयोहल्लविदलयामचनकानिधानं दस्तिहुंबिए पुरिसे सद्दावति, सहावेत्ता एवं बयासी-खिप्पा नमपजिहीर्षम्ती कूणिकं प्रेरितवती, तेन च तदर्थमहाशिमा कपटकसङ्घामः कारितः। भ०७ श० उ० ! ति०। सेसलमेव पनमावतीए देवीए महत्थ निक्खमणाभिसेयं नव पुरराजसेलकमार्यायाम् ध० २०३ आंध०७ लक्षः। ('थाच. हवेह, एतमाण त्तियं पञ्चप्पिणंति० जाव पच्चप्पिणंतित्ता यापुत्त' शब्दे चतुर्थभागे २०४१ पृष्ठे कथा गता) अयोध्यारा. तमेव कएहे वासुदेवे पनमावती देवी पट्टयं दुरूहे ति, श्र को हरिसिंहस्य राश्यां पृथ्वीचन्छनरेन्छमातरि, ध० र. २ हमंतेण सोवणण्जाव कलसा जाच महानिक्खमणाभिसे अधि. ६ लक। ज्ञा०ाजरते वर्षे तेतलिपुरनगरराजकनक केतुभार्यायाम, तेतलिसुतेन पोछिलायां जातस्य कनकध्वजस्य एणं अभिसिंचति, अभिसिंचतित्ता सन्त्रालंकारविभूसियं मातृत्वेन रक्तिकायाम.दर्श,१तव । झा | प्रा०क0 (तेतखिकरेइ, करेइत्ता पुरिससहस्सवाहणिं सिवियं दुरूहावेति, य' शब्दे चतुर्थभागे ५३५२ पृष्ठे कथा ) सिन्धुसौवीरेषु सुरूहावेत्ता बारवतीए णयरीए मज्कं मोणं निग्गच्छति, बीतभयराजस्योदायनस्य भार्यायाम, भ० १ ० ७ ० । निग्गच्छत्ता जेणेव रेक्यते पन्चए जेणेव सहस्संबवणे उजा कौशाम्बीराजशतानीकपुत्रोदायननृपनायर्यायाम्, विपा. १ शु०५० (या बृहस्पतिदत्तेन संगतेति 'बहप्फश्वर' शब्दे गणे तेणेव उवागच्छति,नवागच्चश्त्ता सीयं ग्वेति, पउमाव कथा) विशतितमतीर्थक्रतो मुनिसुव्रतस्य मातरि, प्रव० ११ सी देवी सिवियातो पच्चोरुहति, पच्चोरुहस्त्ता जेणेव अरहा द्वार। माया तिः । पायजिनस्य शासनदेव्याम् , सा च अरिहनेमी तोच वागच्छति, उवागच्चइत्ता भरहं अरि- कनकवर्णा कुफुटसर्पवाहना चतुर्तुजा पद्मपाशान्वितदक्षिहुनेमि तिवावुत्तो आयाहिणपयाहिणं करोति, करेइत्ता ण करतया,फलाडूशाधितिवामकरतया च । प्रव० २७ द्वार । ती । स्था० । पश्चिमदिग्भागवतिरुचकपर्वतस्य मन्दरकूटवाबंदति नमसति, एस ते ! सा मम अग्गमाहसी पउ सिम्यां दिकुमार्याम, जं. ५ बकः । स्था० । दी। श्रा० क० । मावती पामं देवी इवा कंता पिया मणुएणा मणाभिरामान मा० चू । रोहीडकनगरराजमदायसभार्यायां वीरगतमातरि, जाब किमंग ! पुण पासणया, एतेणं अहं देवाणुप्पिया ! नि.१४०५ वर्ग अ०। (निसढ' शब्दे चतुर्थनागे २१३७ पृष्ठे सिस्सिणिभिक्खं दलयामि, पहिच्छंतु मं देवाणुप्पिया ! कधोक्ता) पुष्कलावतीविजये पुगडरीकिणीराजस्य महाप. सिस्सिपिभिक्खं । अहामुहं । तओ सा पउमावती उत्तर अस्य पट्टराइयां पुण्डरीककएमरीकमातरि, श्रा०चू०१०। रम्यविजयराजधान्यां रम्यो विजयः, पद्मावती राजपूः उन्मत्तपच्छिमदिसिभायं अवक्कमति,अवक्कमहत्ता सयमेव अाभर जला महानदी। जं०४ वक्ता तथा पद्मावती कि धरणेन्छपणालंकारं नम्मोयति, उम्मोयइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं| ली, उताच्या परिगृहीतति प्रश्ने, उत्तरम्-पद्मावती धरणे. करेति, करेइत्ता जाब रहा रिटनेमी तेणेव उवाग- न्द्रस्याग्रमदिपी,न तु साधारणेति । ११२ प्र० । सेन०२उल्ला । छति, उवागच्चइता अरहं अरिहनेमि वंदति, बंदरता सागिति-पद्याऽऽकति-त्रिः । पनर्सस्थिते, "अहो णाभी एवं आलित्तेणंजाव धम्ममातिक्खियं । तते णं अरहा अ- उमागिती वा।" नि० चू०१ उ.। रिठ्ठनेमी पउमावति देवि सयमेव पन्चावेति, सयमेव मुंडा पउमामण-पद्माऽऽसन-न। पनाऽऽकारे श्रासने, जं. १ बेति, सयमेव जक्खणीए अजाए सिस्मिणि दमयति, ततेजी । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) अभिधानराजेन्द्रः । पठमिणी पलमणी-पश्चिमी श्री० पद्मलतायाम् ०१०१० 1 बाचा०सं० नगरे पुज्यमानायां पद्माभ्याम् ती जनपदे घामरकुम तत्कल्पः पउमुप्पल सर्व त्वत्पृष्ठत एव समेष्यति, केवलं गिरिवरध्वना स्वया ग स्वयं पृष्ठतच मालोक्यते इति तद्वचनं सचेत्युररीकृत्य तगिरिविवरमनु प्रावीविशदश्वम्, यावत् द्वादश योजनाम्यवा जीजी पश्चादागच्छतु करिपटापाटणत्कार तुम् लमतुलं कोलाइ समापये कुलोसालता पदि पश्चाद्भागं सिंहावलोकितम्यायेन निभालयांतू, याबद far करितुरगाssदिसमूहसंकुलां सेनां, तस्मिंश्च विस्मयरसमायोजनाले सम वोऽचास्थित । तद्नु च स माधवराजः परमजैनस्तया पृतनया प रिवृतस्तत्रैव नगरं निवेश्य तस्या देखा भवनं व विधाप्य पुनरामरकुरुनगरमा गत्यराजलक्ष्मी पपाप पालमो सिलालिऩशासनः प्रासादं चाभ्रङ्कषशिखरं हिरण्मयदण्डकलराजभ्राजिष्णुमची करत तिथि न विषीयमानमनुष्य श्रीपद्मावती देवी पद पर्या विभक्तिरहितमना सन्देषः विद्यावि वनोदव्यापिमाहात्म्यं जगवस्था मन्दिरममन्दलक्ष्मीकं नव्यअनतया पर्युपास्यमानं, तस्य च गिरिविबरस्य द्वारे विपुलशिपट्टमयापि समस्ति यथा तेन पथा सर्वोऽपि न प्रविशति राहिलाय मदती पूजां कृत्वा प्रविश्य प्रथमं गन्तव्यं कियतीमपि कलां, तदग्रे चोपविटेश्धलनीयम, अग्रेतरां च महत्वकाक्षे कर्जुनिरेव देवसदनं किल गन्तव्यमिति प्रत्यूह संज्ञाया कमयाच न करिद्वार मुयाटयितुं पाटलम साहसिकः कलयतीति शिलापिहितद्वारि विवरस्थान एव सर्वेऽपि श्रकालवः पद्मावत्याः पूजां कुर्वते, प्रा. नुबन्ति विवीरऽभिरुचितार्थसिद्धीः। माधवराजस्य क इसी ग्राम वास्तव्यत्वाद्वंशजाः पुररिटरिसमराज पिकिकु ऐकमराज प्रोमराज रुद्रदेवगणपति देवाः पुत्र महाप शर्षकृतस्यास्ततः काकतीया तिि द्धाः। “श्रीमदामरकुराडाक्य- पद्मावत्या यथाश्रुतम् । आजल्पि को भीजनमभिः॥१॥" पद्माव तीदेवी कल्पः । ती०५६ कल्प। "पडमिणिगोवलग्ग जलबिंदुविवचितं । " पद्मिन्यः कमलिन्यस्तासां पत्राणि तेषाम परि अन्ना ने जन्नती रत्नमवानिव पद्मिनी पत्राणि मुक्ताफलानुकारिभि नितीन शोभते पस्तत् सरः कृतं प्रातीति भाव ॥ कल्प० १ अधि० ३ कृण । सत्संग-पश्चिनी खएम-पुं० [सनामस्याने बचाने, पत्र वीरो भगवान् निष्क्रान्तः। वि० । परमुत्तरोत्तर- मन्दरस्य पर्वतस्य ने प्रथ मदिग्वस्तिकूदपर्वते, जं० [४] वक्• | द्वी० । स्था० । ( ' भद्द साखरण' शब्देऽस्य मकम्पता ) हस्तिनापुर जाने वालाप तौ विष्णुकुमार मदापयोः पितरि सी० २० कल्प महाप मो नवमचक्रवर्ती । स० । " आमरकुप रुकनगरे, तिनपविभूषणे दधिरे । गिरिशिखरजयमस्य स्थित जयति पद्मिनी देवी ॥ १ ॥ " अस्ति रमती रामकुरा नाम म गरमभ्रंलिहा बहम्पंश्रेणिधानाविधच्छायातरुप रेस्कृतं मध्जुगु जन्मधुकर निकरपरीत कुसुमसौरभसंरम्भसुरभीकृत विष्यल से त्रिमल बहन स्वामिल कलितसरित्सरो । शोभित किंवा तस्य पुर वरस्व वर्णवः मो, यत्र करबीरसुमनसोऽपि मृगमदगन्धयः विशि चिकलीफ सरकार सहकार संपर पुनागनागीय शाखनासंकर भून स्वाद्यानि चन्ति प्रति सौरवरनिर्जराति यः शालयः वीदयते परिपप्रमुख राम्हीम्यगहनानि पण्यानि निष्पक्ष सभ्यपदेशनामे कशासी भूमिरिष् विष्णुपद म्रपरम्परा परितः सर्वतो रमणीयः प पातमिः सम्पतरामास्ते पर परि शान्तिनायम्भ कृत जनमनःप्रसादाः प्रासादाः शोभन्ते शुभंयवः। तत्रैकत्र पवित्रतरे पुरे गतसमनि ब्रद्मनिर्मुक्तमना मनागपि विषयसुखैरतुमितयः सहपासादितोथा प्रतिवसति स्म जितश्मरो विस्मयकारिणदर्श वशीकृत पद्मावतीदेवी तिष्ठ मेघचन्द्रनामा दिगम्बरो प्रतिपतिरेको नेकनिमिवत्परिपा सितपदः । स चैकदा धात्रकगोष्ठी मनुज्ञाप्य प्रतस्थे स्थानान्तर विहरणाय यावत्कियतीमपि भुवमगमत् स्वहस्ताऽऽभरणं नाम्राकी पुस्तक प्रदरता बेन स्वस्त विद्यात्रमेकं कश्विजातीना मधेयं व्यावर्त्तयत् पुस्तकाऽऽनयनाय । स च छात्रो बलित्वा मठमशतमतिर्यावत्प्रविशति तावदपश्यदेकमाऽद्भुतरूपधेयाभियात्रिया तत् पुस्तकमुपरि यस्तं याबासी कमण्यतास्तदूरो हीतुं प्रयुतस्तत् तावत् सा परवर्धिनी तत् पुस्तकं स्वदे मतद्नुस छात्रो मात्रोचीर्णवैयावृत्यस्तरी बर दवा स्कन्धादपि तद् ग्रहीतुं प्रावृतत् । ततस्तयाऽऽराज्याहोऽयमितवतः करेभहितास किमपि मसिन सतरं निबन्यो मद्गुदा सबै मामभिरुचितम प्रदातुं समर्थ मास्ति तत्किम जवती प्रवर्ती प्रार्थये इत्यभिधानात्र पुस्तकमादाय च माचार्य सविधमागच्छत् । तदखिलं स्वरूपं निषेध पुस्तकमाचार्याय समार्पिपत् । क्षपणकगणाधिपतिरवोचत् - जरू ! सा न स्त्रीमात्रं किं तु भगवती पद्मावती देवता खा, तद्रत्र लिखितद्यपद्यमिदं पत्रं तस्यै दशैतिदेशं तथेति प्रतिपद्य सद्य एव विनेयो न्याय गत्यात् समप्यं पुरस्तस्थी । यध्याय तू । यथा-"अष्टौ दन्ति सहस्राणि, नवकोट्यः पदातयः । रथालक्षसंख्याश्ध, कोशश्चास्मै प्रदीयताम् ॥ १ ॥ " भगवत्यपि पद्यार्थमवधार्य तस्मा अन्तेवासिने चतुरगस्तुरगः प्रददे । जगदे दासी- यदेनमरिनान् यत्याव ६ पठमुत्तरा-पोतरा-स्त्री० शर्करा प्रज्ञा० । जी० । ० १ ० १७ अ० । परमुप्पल - पद्मोत्पन्न- १० । पद्मोत्पलम् प्रश्न० १ श्र० द्वार। "पडमुप्यलसारसनीसासरविणा ।" पद्मं कमलमुत्पलं नीलोत्पलं यद्वा-पद्मं पद्मकाभिधानं गन्ध अन्य म, उत्पलं Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल मुप्पल च उत्पलकृष्टं तयोर्गन्धेन सौरभेण सदृशः समो यो निश्वासस्तेन सुरभिगन्ध वदनं मुखं येषां ते पद्मोत्पल गन्धसदृश निश्वाससुरभिवदनाः । तं० । जी० । चतुरशीतिलतगुणिते प्रयुताने स्था० २ पय प्रयुत-पुं० ठा० ४ स० । जी० । (१२) अभिधानराजेन्रूः । पठयंग - प्रयुताङ्ग - न० । चतुरशीतिलकगुणिते अयुतशतसहत्रे, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । पउर प्रचुर - त्रि० । प्रभूते, आ० म० १ ४० औ० । प्रइन० । अ तिप्रभूते, व्य० ३ ० | का० । बहुले, स्था० २ ठा० ४ ० । पौर - त्रि० । “उः पौराऽऽदौ च ॥ ८ | १ | १६१ ॥ इत्यतो ऽचः । "पडरो। " पुरोद्भवे, प्रा०१ पाद । विशिष्टनगरनिवासिलोके श्र० म० १ अ० । “पतरजणबालघु रुपमुश्यतुरियपहावियवियला उलबोलबहुलं ननं करते। " पौरजनाश्च, अथवा प्रचुरजना बाला वृद्धाश्च ये प्रमुदितास्त्वरितप्रधाविताश्च शीघ्रं गच्छ न्तः तेषां व्याकुलाकुलानामतिव्याकुलानां यो बोलः ल बहुसो यत्र तत्तथा तदेवंभूतं नभः कुर्वन्निति । भ० श० ३३० । पर गोयर- प्रचुरगोचर - पुं० । प्रचुरचरणभूमौ भ० १२ श० ७ उ० । " परिस- पौरुष - न० । पुरुषस्य भावे, " अ: पौराऽऽदौ च । " ॥ ८ | १ | १६२ ॥ इस्यौतोऽङः । प्रा० १ पाद । " पुरुषे रोः " ॥ ८ । १ । १११ ॥ इत्युकारस्येकारः । प्रा० १ पाद । परिषण - मचुरेन्धन - न० । बहुलकाष्ठे, उत० ३२ अ० । पडरुस - पौरुष - न० | परिस' शब्दार्थे, प्रा० १ पाद । पठ (प्रो) झ-पटोल - पुं० । अनन्तजीव वनस्पतिमेवे, प्रज्ञा ०१ पद । पच ( स ) तद्वि-प्रतोत्रयष्टि-स्त्री० । प्राजनकश्यमे, दशा०१० प्र० । पडल- प्रचोटन- न० 1 पखनविशेषे, प्रश्न० १ ० द्वार । पलिभ-पक - त्रि० । दग्धे, पुलुध्यं " पनि दधुं । " 7 पाइ० ना० २०० गाथा | पनस्संत-प्रद्विषत् - त्रि । प्रद्वेषमुपयाति, प्रति० । पद - देशी | न० । गृहे, दे० ना० ६ वर्ग ४ गाथा । पएस प्रदेश - पुं० । प्रकृष्टो देशः । उत० ४ ० । निर्विभागे भा गे, अनु० । श्र• म० । स्था० । विशे० धर्माधर्माऽऽकाश जीवपु. द्गमानां निरवयवे ( स्था० ३ ठा०२ उ० ) निरंशे धर्माधर्माssकाशजीवानां देशे ऽवयवधिशेषे, स्था०१ वा०। विशे० | जी० श्र० म० । निरंशावयवे परिमाणे, स०५ । प्रमितपरिमाणे, स० । सघुतरनागे, भ० ९८०३३ उ० । जनपदैकदेशे, स्था० ३ ठा० ३ उ० । कणिक्काऽऽदिरूपे, ( कर्म० १ कर्म० ) दलसंचये, कर्म० ५ कर्म० । जं० । जीवानां सप्रदे शस्त्राप्रदेशत्वम् जीवे णं जंते ! कालादेसेणं किं सपएसे, अपए से । गोमा ! नियमा पसे । नेरइए णं नंते ! कालादेसेणं किं सपरसे, अपसे । गोयमा ! सिय सपएसे, सिय पर से, एवं जाव सिद्धे । जीवा एवं जंते ! कालादेसेणं किं सपएसा, For Private पएस परसा । गोयमा ! नियमा सपएसा । नेरइया णं भंते ! काल देसेणं किं सपएमा, अपएसा ? । गोयमा ! सव्वे वि ताब होज्ज सपएसा । श्रहवा-सपएसाय, अपए से य । श्रहवासपएसा य, अपएसा य । एवं०जाव थणियकुमारा ! पुढविकाइया णं भंते! किं सपरसा, अपएसा ? । गोयमा ! सपएसा , अपएसा वि । एवं० जाव वणस्सइकाइया, सेसा जहा नेरइया तहा सिका, श्राहारगाणं जीवेगिंदियवजो तियनंगो, अाहारगाणं जीवेगिंदियवज्जा छभंगा एवं जाणियव्वा - सपएसा वा १, अपएसा वा २ अहवा सपए से य, अपसे य ३ | अहवा सपएसे य, अपसा य ४| हवा-सपएसाय, अपए से य ए अहवा-सपएसा य, अपएसाय ६ । सिद्धेहिं तियभंगो-नवसिटी य, अजबसिटी य, जहा प्रोहिया, नोजवसिद्धी य, नोअजबसि य। जीवसिहिं तियनंगो, सभीहिं जीवादिश्रो तियभंगो, असभिएहिं एगिंदियवज्जो तियनंगो, नेरइयदेवहिं भंगो, नोसन्निनोअसनि जीवे मायसिदेहिं तियभंगो, सझेसे जहा ओहिया कएहस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा जहा आहारओ, एवरं जस्स अस्थिया तेलेस्साए जीवाइयो तियजंगो, एवरं पुढविकास श्रावण फईसु उब्भंगा, म्हसेस्से सुकलेस्साए जीवाइओ तियभंगो, अलेस्सेहिं जीवसिद्धेहिं तियजंगो, मासु बन्जंगा, सम्मद्दिडीहिं जीवादिश्रो तियगो, विगलिदिए भंगा, मिच्छादिडीहिं एगिंदियवज्जो तियभंगो, सम्मामिच्छदिट्ठीहिं छन्भंगा, संजएहि जीवादिश्रोतियभंगो, संजपहिं एगिंदियवज्जो तियभंगो, संजया संजएहिं जीवादिओ तियनंगो, नोसंजयनो संजयनोसंजया संजयजीवसिद्धेहिं तियजंगो, सकसाइएहिं जीवादियो तियभंगो, एगिदिएस अनंगयं, कोह कसाईहिं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो, देवेहिं छन्गा, माणकसाई माइकसाईहिं जीवेर्गिदियवज्जो तियभंगो, नेरइयदेवोहं छन्जंगा, लोहकसाईहिं जीवेगिंदियवज्जो तियजंगो, नेरइएस छन्जंगा, अकसाईजीमहिं सिद्धेहिं तियनंगो, मोहियणाणे आनिबोहियणाणे गुयनाणे जीवादियो तियभंगो, विंगलिंदिरहिं बभंगा, ओहिणाले महपज्जवणाणे केवक्षणाणे जीवादितियभंगो, ओहिए अमाणे मतिअवाणे सुयअष्वावे एगिंदियवज्जो तियभंगो, विभंगणाणे जीवादियों तियांगो, सजोई जहा मोहिमो म जोगिवइजेोगिकाय जोगिजीवादिओ तियभंगो, एवरं काथजोगी एगिंदिया, तेसु अनंगकं, अजोगा जहा अ Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) पएस अभिधानराजेन्षः। पएस लेसा, सागारोवउत्तअणागारोवउत्तेहिं जीवेगिदियवज्जो एवमेकत्वे सर्वेष्वपि सादिभावेषु मनाविनावेषु तु-" निय मा सपपसे" इति वाक्यम । पृथक्त्वदएमके त्वेषमभिला. तियनंगो, सवेयगा जहा सकसाई इस्थीवेयगपुरिसवेयगन पो दृश्य:-" माहारया णं भंते ! जीया कालापसेणं तु नियमा पुंसगवे यगेमु जीवादिभो तियभंगो, वरं नपुंसगवेदे एगि- सपएसे"इति वाच्यम् । पृथक्त्वदमके स्वेवमभिसापोरश्य:दिएस अभंगयं, अवेयगा जहा अकसाई, ससरीरी जहा "माहारयाण भंते ! जीवा कालाएसेणं किंसपपसा,अपएसा। मोहिमो, ओरालियवेलब्धियसरीराणं जीवेगिदियवज्जो गोयमा ! सपपसा वि,अपपसा बि" इति। तत्रनामाहारक. स्वेनावस्थिताना भावात्सप्रदेशत्वम्,तथा बहूनां विप्रहगतेरनन्तरं तियभंगो,पाहारगसरीरे जीवमणुए उन्भंगा,तेयगकम्मगाई प्रथमसमये आहारकत्वसम्भवादप्रदेशत्वमप्याहारकाणां म. जहा भोहिया, असरीरेहिं जीवसिछोहिं तियभंगो,पाहा ज्यत इति सप्रदेशा अपि भप्रदेशा अपीत्युक्तमा एवं पृथिव्यादरपज्जतीए सरीरपज्जत्तीए इंदियपज्जत्तीए आणापाणपज्ज. योग्यध्येयाः। नारकाऽऽदयः पुनर्विकल्पत्रयेण वाच्याः। तद्यथातीए जीवेगिदियवज्जो तियजंगो, जासामणपज्जत्ती जहा | "माहारया गं भंते ! नरश्या णं कि सपपसा,पपसा । गोयसभी,आहारअपज्जती जहा अणाहारगा,सरीरअपज्जत्ती मासम्बे वि ताच होज सपएसा । महवा-सपपसा यमपएसे या प्रहमा-सपपसा य,अपएसा य । इति। एतदेवाह-(माहा. एइंदियभपज्जत्तीए आणापाणअपज्जत्तीए जीवे एगिदि रगाणं जीवेगिदियबज्जो नियभंगो सि) जीवपदमेकेम्ब्यिपवज्जो तियजंगो, नेरश्यदेवमणुएहिं उम्नंगा, भासामण- पदपञ्चकं च वर्जयित्वा त्रिकरूपो भस्त्रिकजसो, नाकप्रयं अपज्जत्तीए जीवादिओ तियनंगो, णेरइयदेवमणुएहिं वाच्यमित्यर्थः,सिरूपदं विहन वाच्यं तेषामनम्हारकत्वातामा कम्भंगा । “सपएसाहारगनवि-यसमिालेसदिसिंज नाहारकदएकवयमप्येवमनुसरणीयम । सत्रानाहारको विग्रहग त्यापनः समुद्घातगतकेबसी भयोगी सिखोवा म्यास्स चानाहायकसाए। नाणे जोगुवोगे, वेए य सरीरपज्जत्ती ॥१॥" रकत्वप्रथमसमयेऽप्रदेशः,द्वितीयाऽऽदिषु तु सप्रदेशस्तेन स्यास्स(जीवे णमित्यादि) (कालादेसणं ति) कालप्रकारेण, का- प्रदेश इत्याद्युच्यते । पृथक्त्वदएमके विशेषमाह-(प्रणाहारगालमाश्रित्येत्यर्थः। (सपपसे ति) सविभागः । (नियमा सप. णमित्यादि ) जीवानेकेन्धियांध वर्जयन्तीति जीवैकेन्द्रियव. पसे ति) मनादित्वेन जीवस्यानन्तसमयस्थितिकत्वात्सप्रदे- र्जास्तान्वर्जयित्वेत्यर्थः । जीवपदे, एकेन्छियपदेच-"सपपसा शता, यो कसमयस्थितिः सोशदेशः। नादिसमयस्थितिस्तु य, अपएसा य ।" इत्येवंरूप एक एव नाको, बहुना बिग्रहग. सप्रदेशः। बह चानया गाथया भावना कार्या-"जो जस्स पढ- स्थापनानां सप्रदेशानामप्रदेशानां च लाजात् । नारकाऽऽदीनां, मसमप, बट्टा जावस्स सोन अपएसो अम्मरम्म बहमाणो. द्वीकियाऽऽदीनां च स्तोकतराणामुत्पादः, तब चैकदमादीनामना. काजापसेण सपएसो ॥१॥"नारकस्त यः प्रथमसमयोत्पन: हारकाणां नावात् षभनिकासम्नवः तत्र द्वौ बहुवचनान्ती,श्रसोऽप्रदेशो, वादिसमयोत्पन्नः पुनः सप्रदेशः। प्रत उक्तम्- म्ये तु चत्वारस, एकवचनबहुवचनसंयोगात्, केवझेकवचनभ"लिय सपएसे सिप अपरसे"। एष तावदेकत्वेन जीवाऽऽदिः- अकाविद न स्तः, पृथक्त्वस्याधिकृतत्वादिति । (सिकेहि नि. सिहावसानः पविशतिदण्डकः कालसप्रदेशत्वाऽऽदिना चि. यभंगो सिसप्रदेशपदस्य बहुवचनान्तस्यैव सम्भवात । (नवन्तितोऽथायमेव तथैव पृथक्त्वेन चिन्त्यते-( सम्वे वि ताव सिकीय प्रभवसिद्धी य जहा भोहिय त्ति) अयमयः-औधिक. होज सपएस सि) उपपातविरहकालेऽसल्यातानां पूर्वोत्प- दयाकवदेषां प्रत्येक दमकद्वयं, तत्र च भव्योऽजल्यो वा जीवो माना जावात्सर्वेऽपि सप्रदेशा नवेयुः, तथा पूर्वोत्पनेषु माये नियमात्सप्रदेशो, नारकाऽऽविस्तु सप्रवेशोऽप्रदेशो षा। बाबयदेकोऽन्यो नारक उत्पद्यते तदा तस्य प्रथमसमयोस्प- स्तु जीवाः सप्रदेशा एव,नारकाऽऽचास्तु निभायन्तः, एकेन्धिसत्वेनाप्रदेशस्वाच्छेषाणां च यादिसमयोत्पनत्वेन सप्रदेश- याः पुनः प्रदेशाधाप्रदेशाचेत्येकभना एवेति । सिम्पदं तुम स्वादुच्यते-(सपएसा य अपएले यत्ति) एवं यदा बहव ह. पाध्य, सिद्धानां जव्याजव्यविशेषणानुपपत्तेरिति । तथा-(नोस्पचमाना भवन्ति तदोच्यते-(सपएसा य अपएसा य सि) भवसिकीय नो प्रभवसिकीय-त्ति) एतद्विशेषणं जीवाऽऽदिवउत्पचन्ते नेकदैकाऽऽदयो नारकाः। यदाह-"एगो व दो पति- एडकवयमध्येयम । तत्र चामिलाप:-(नो नवसिद्धी यमो प्रमनिवि, संखमसंखा व पगसमपणं । उववजंतेवश्या, उन्ब बसिद्धी यणं भंते ! जीवे सपपसे अपपसे इत्यादि) एवं पूध. तावि एमेव ॥१॥" (पुढविकाझ्याणमित्यादि) पन्छि- कत्वएडकोऽपि, केवलमिह जीवपद सिरूपदं वेति द्वयमेव, याणा पूर्वोत्पमानामुत्पद्यमानानां च बहूनां सम्भवात "सप- नारकाविपदानां नोभव्यनोमभव्यविशेषणस्यानुपपवेरिति । एसा वि अपएसा वि" इत्युच्यते । (मेसा जहा या इत्या- यह च पृथक्त्ववएमकं पूर्वोक्तं भकत्रयमनुसनव्यम,मत पत्रा. दि) यथा नारका अभिलापत्रयेणोक्तास्तथा शेषाद्वन्द्रियाss. ह-(जीवसिद्धहिं तियनंगी सि) संविषु यो दएमको तयोईि. दयः सिद्धावसाना बाच्याः, सर्वेषामेषां विरडसम्नषादेका55. तीयदएमके जीवाऽऽदिपदेषु जमकत्रयं जवतीस्यत माह-(स. पुत्पत्तश्चेति, पवमाहारकानाहारकशब्दविशेषितावेतादेवकस्व. चीहि इत्यादि) तत्र संझिनो जीवाः कालतः सप्रदेशा भ. पृथक्स्वदयमकाबध्ये यो । अध्ययनक्रमश्वायम्-"पाहारपणं नं. वन्ति । चिरोत्पन्नानपेक्य उत्पादविरहानन्तरं चैकस्योत्पत्तीत. तेजीये कामापसेणं कि सपपसे, अपपसे । गोयमा ! सि. प्राथम्ये सप्रदेशाचा प्रदेशति स्यात् । बढ्नामुत्पत्तिप्राथम्ये यसपपले, सिय अपपसे । " इत्यादि स्वधिया वाच्यः । तत्र तु सप्रदेशा भप्रदेशाश्चेति स्यातदेवं नात्रयमिति । एवं सर्वपदा विग्रहे, केवसिसमुदाते वा मनाहारको सूत्वा पुनराहा. पदेषु केवलमेतयोर्दएमफयोरेकेन्द्रियविकलेन्द्रियसिद्धपदानि रकत्वं प्रतिपद्यते, तदा तत्प्रथमसमयेऽप्रदेशो,हितीयाऽऽदिषु तु नपाच्यानि, तेषु सम्झिविशेषणस्थासम्भवादिति । (असमाहि सप्रदेश इत्यत उच्यते-(सिय सपएसे, सिय अपपसे ति) इत्यादि) भयमर्थः-सम्धिषु असाधविषये द्वितीयदएडके Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएस (२४) भन्निधानराजेन्धः। पएस पृथिव्यादिपदानि वर्जयित्वा भात्रय प्रागदर्शितमेव वाच्यम् । सम्भवाविति । (संजएहि इत्यादि) संयतेषु संयतशब्दावशे १. पृथिव्यादिपदेषु हि सप्रदेशावाप्रदेशाश्च श्त्येक एव, सदा ब. तेषु जीवादिपदेष त्रिकमला, संयम प्रतिपन्नानां बहूनां प्रा - इनामुत्पण्या तेषामप्रदेशबहत्वस्यापि सम्भवात् । नैरयिका- पद्यमानानां काऽऽदीना भावात् । इह व जीबपदमनुष्यपदेच ऽदीनां च न्यस्तराम्तानां संधिनामध्यसंझिस्वय, असंहिस्वमसं. वाच्ये, अन्यत्र संपतस्वाभावादिति । असंयतद्वितीयदएम के झिभ्य बरपादाद इतभाषतयाम्वसेयम्। तथा रयिका दिव. (बसंजरहीत्यादि) महासंयतत्वं प्रतिपचानां बहमा संयतत्वसंशित्वस्य कादाविरकरवेशवबदुस्वसम्भवात्वम् नका भव' दितिप्रतिपातेन तत्प्रतिपद्यमामानां चैकाऽऽदीनां भावाद्भनकन्ति । ते च दर्शिता एव । पतदेवाह (नरश्यदेवमाए इत्या प्रयम्। एकेम्ब्यिाणां तु पूर्वोक्तयुक्त्या सप्रदेशाश्वाप्रदेशाश्चत्येक दि)। ज्योतिकवैमानिकसिद्धास्तुन बारपाः, तेषामसंझिस्वा' पव नाति । वह सिद्धपदं नाध्ययम,असम्भवादिति । संयताउसजवात् । तथा मोसंज्ञिनोऽसशिविशेषणदपम्कयोर्विती संयतबदुत्वदण्डके-( संजयासंजएहीत्यादि ) इह देशवि. यदण्ड के जांबमनुजसिद्धपदेपूक्तरूपं भड़कत्रयं भवति, तेषु रति प्रतिपधानां बहूनां संयमादसंयमाद्वा निवृश्य तां प्रति५१. बहुनामवस्थिताना बाभाऽपचमानानां कादीनां सम्न. मानानां चैकाऽदीनां भावानात्रयसम्नवः। इह च जीवपशचादिति । एतयोश्च दक्षरयोजीवमनुजद्विपदान्येच भवन्ति, न्द्रियतिर्यम्मनुष्यपदान्येवाध्ये यानि, तदन्यत्र संयतासंयतत्वस्मर नारकाऽऽदिपदाना नोसंझिनोअसंज्ञाति विशेषणस्याघटनादि- प्रामादिति । "नोसंजए" इत्यादौ सेव जावना, नवरमिह जोधति । सलेश्यदएकवे भौधिकरयाकबछीवनारकाऽऽदयो सिमपदे एव वाध्ये,अत एवोक्तम्-(जीवसिद्धहि तियभंगो त्ति) पाच्याः, सलेश्यताया जीवत्ववदनादित्वेन विशेषानुत्पाद (सकसाइहिं जीवादो तियनंमो त्ति) अयमर्थ:-सकपाया. कत्वात्केव सिरुपदं बाधीयते, सिमानामोश्यत्वादिति, कृ. सदावस्थितत्वाते सप्रदेशा प्रत्येको भङ्गका, तथोपशमधे. पालेश्यानील लेश्याकापोतमेश्याश्च जीवनारकाऽऽदयः प्रत्येक सीतःप्रव्यवमानत्वे सकषायत्वं प्रतिपद्यमाना पकाऽऽदयो . दण्डकद्वयन माहारकजीवाम्मदिवदुपयुज्य वाच्या, केवलं ब ज्यन्ते, ततश्च सप्रदेशाश्वाप्रदेशाच, तथा सप्रदेशाचा प्रदेश:स्य जीवनारकाऽऽदेरेताः सन्ति स एव वाच्यः। एतदेवाह-(क. भेत्यपरभाकद्वयमिति,नारकादिषु तु प्रतीतमेव भङ्गकनयम : एहस्सेत्यादि) एताश्च ज्योतिकवैमानिकानां न प्रचम्ति, (पगिदिपस अभमय सि) भड़कानामनावोऽभङ्गक, सप्रदे. सिकानां तु सर्वा न जवन्तीति तेजोसेश्याद्वितीयदएकके जी. साधाप्रदेशाश्वेत्येक एव विकल्प इत्यर्थः,बदूनामवस्थितानामु. घाऽऽदिपदेषु त पव वयो नङ्गाः, पृथिव्यम्बुवमस्पतिषु पुनः स्पद्यमानानां च तेषुलानादिति । इह च सिद्धपदं नाध्ययम,प्रकषभरगाः, यत पतेषु तेजोलेश्या एकाऽऽदयो देवाः पूर्वोत्पत्रा पायित्वात । एवं क्रोधादिदण्डकेवाप-(कोहकसाईहिं जीवउत्पद्यमानाश्च खच्यन्त इति सप्रदेशानामप्रदेशानां चैकत्वय गिदिखवजो सियभगो सि) अयमर्थ:-क्रोधकायिद्वितीयदहुस्वसंभव इति । एतदेवाऽऽह-(तेउलेस्सा इत्यादि) । हवा. एमके-जीवपदे पृथिम्यादिपदेषु च सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येक रकतेजोवायुविकलेन्द्रियसिद्धपदानि न याच्यामि,तेजोले श्या एप भक्तः। शेषेषु तु प्रयः । ननु सकषायिजीवपदवत्कथामद या अभावादिति । पचालझ्याशुक्ल लेश्ययोद्धितीयदएमके जीवा. भकत्रयंबलच्यते । उच्यते- मानमायालोभेभ्यो निवृऽऽदिषु पदेषु त एवं त्रयो भङकाः। एतदेवाऽऽह-(पम्हालेखत्यादि) साक्रोध प्रतिपद्यमाना बहव एक लज्यम्ते, प्रत्येकं तमाशीइह च परचेन्द्रियतिर्यग्मनुष्यवैमानिकपदान्येव वाच्याचि, अ. नामनन्तस्त्रान स्वेकादयो, ययोपशमश्रेणीतः प्रच्यवमानाः न्येचनयोरभावादिति । अलेश्यदएमकयो वमनुष्यसिम्पदा सफषायित्वप्रतिवत्सार इति । ( देवेहि भंग त्ति) देवपदेषु न्येवोच्यन्ते, अन्येषामलेइयत्वस्याऽसम्भवात् । तत्र च जीप प्रयोदश खपि षम्भवाः तेषु क्रोधोदययतामरूपत्वे ने करवे बहु. सिद्धयोनकायं तदेव, मनुष्येषु तु षम् भङ्गाः, अलेश्यताप्रति र सप्रदेशाप्रदेशत्वयोः सम्नवादिति । मानकषाय-- पन्नानां प्रतिपद्यमानानां चै काऽऽदीनां मनुष्याणां सम्भवेब स मायाकपायिद्धितीयदएमके-(नेरश्यदेवदि छब्नंग प्ति ) माप्रदेशत्वेऽप्रदेशत्वे चैकत्वबढ़त्वसम्भवादिति । इदमेवाऽऽह रकाणां देवानां च मध्ये रूपा एव मानमायोदयवन्तो भन(प्रलेसेहि इत्यादि)सम्यम्हघिदण्डकयोः सम्यग्दशनप्रतिपति म्तीति पूर्वोक्तम्यायात् षर भक्का भवन्तीति । (लोहकसाहि प्रथमसमये अप्रदेशत्वं, द्वितीयाऽऽदिषु तु सप्रदेशत्वम् । तत्र वि. जीगिदियवज्जो तियभंगोत्ति) एतस्य क्रोधसूत्रवद्भावना । तीयमके जीघाऽऽदिपदेषु त्रयो भङ्गास्तथैव । विकलेन्द्रियेषु (नेरापदि छन्भंग ति) नारकाणां लोभोदयवतामल्पत्वात्पूतु षट् । यतस्तेषु सासादनसम्यग्दष्टप एकाऽऽदयः पूर्वोस्पन्ना बोकाः पर भला भवन्तीति । आह च-"कोहे माणे माया.बो. उत्पद्यमानाश्च वज्यन्ते, अतः सप्रदेशत्वाप्रदेशत्वयोरेकत्वबहु धन्वा सुरगणेहिँ नंगा । माणे माया लोभे, नेरहिं पिउस्वसम्भव इति । तदेवाऽऽह-(सम्मदिट्रीहित्यादि) है। नंगा ॥१॥"देवा लोभप्रचुरा, नारकाः क्रोधप्रचुरा इति। प्रक' केन्द्रियपदानि व वाग्यानि,तेषु सम्यग्दर्शनाभावादिति । (मि. पायिद्वितीयदएमके-जीवमनुष्यसिम्पदेषु भङ्गत्रयम,अन्येषाम. चट्ठिीहिं श्त्यादि) मिण्यारशिद्वितीयदएमके जीघाऽऽदिपदेषु सम्भवात्। एतदेवाऽऽह-(प्रकसाई इत्यादि)(मोदियनाणे आत्रयो जना,भिय्यात्वं प्रतिपत्राः बहवः, सम्यक्त्ववंश तत्प्रतिप- भिनियोहियनाणे सुयनाणे जीवारो तियभंगो सि) प्राधिक द्यमानाकाऽऽदयः सम्भवतीति करवा । एकेन्जियपदेषु पुनः ज्ञानं मत्यादिभिरविशेषितं,तत्र मतिश्रुतकानयोश्च बहुत्वद एम.के। सप्रदेशाधाप्रदेशाइवेत्येक एव, तेववस्थितामामुपद्यमानानां जीवाऽदिपदेषु प्रयो भङ्गाः पूर्वोक्ता नवन्ति, तत्राधिकझानिम. च बहूनामेव भावादिति । इह वसिमानवाच्याः, तेषां मिथ्या- तिश्रुतज्ञानिनां सदाऽवस्थितत्वेन सप्रदेशानां नाबात्सप्रदेदेशा स्वानावादिति । सम्यग्मिध्यारष्टिबहुत्वदएमके-(सम्मामिच्चाहि- इत्येकः, तथा मिथ्याझानान्मत्यादिज्ञानमात्र, मत्यज्ञानान्मतिक्षाहीटिंगभंगा) अयमर्थः-सम्याग्निच्या दृष्टित्वं प्रतिपन्नकाः प्रति. नं, श्रुताझानाच श्रुतकानं प्रतिपद्यमानानामे काऽऽदीनां लाभान्सपद्यमानाश्च एकादयोऽपि लभ्यन्त इत्यतस्तेषुषम् भङ्गा नबन्ती- प्रदेशाचाप्रदेशश्च, तथा सप्रदेशाश्चाप्रदेशाइचेति द्वावित्येचं लिहिच एकेम्ब्यिविकलेनियसिम्पदानि न वाव्यानि, अ- त्रयमिति । (विगलिदिहिं उम्भ त्ति) द्वित्रिचतुरिन्जियेषु Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएस अन्निधानराजेन्डः। पएस सानादनसम्यक्त्वसम्नवेनाऽऽभिनिबोधिकाऽऽदिशानिनामेका दण्डकपुरुषदण्ड केषु देवपश्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्यपदान्येव, नपुंउतनां सम्नवात्त एव पर जङ्गाः ह च यथायोगं पृथिव्यादयः । सकदएमकयोस्तु देववानि वाच्यानि, सिरुपदं च सर्वेष्वपि सिकाच नवाच्या,असम्नवादिति । एवमवध्यादिष्वपि भङ्गका न वाच्यमिति । (अवेयगा जहा अकसात्ति) जीयमनुष्यप्रयभावना,केवसमवधिदण्डकपोरेकेन्द्रियविकनेन्द्रियाः सिका. सिरूपदेषु भङ्गत्रयमकर्षायिवद्वाच्यमित्यर्थः। (ससरीरी जहा इच न बाच्याः, मनःपर्यायदएमकयोस्तु जीवा मनुष्याश्च पा ओदिश्रो ति ) औधिकदण्डकवत् सशरीरिदण्डकयोव्याः,केबझदण्डकयोस्तु जीवमनुष्यसिद्धा वाव्याः। मत एव जीवपेद सप्रदेशतैव वाच्याऽनादित्वात्सशरीरत्वस्य; नारपाचनान्तरे दृश्यते-“ विश्लेयं जस्ल जं अस्थि ति।" (ओहिए काऽऽविषु तु बहुत्वे भड़कत्रयम,पकेन्द्रियेषु तु तृतीयभङ्ग इति । प्रमाणे इत्यादि) सामान्ये अक्षाने मत्यज्ञानाऽऽदिजिरविशेषिते ( ओरालियवेब्धियसरीराणं जीवेगिदियवज्जो तियभंगो मत्यज्ञाने श्रुताकाने च जीवाऽऽदिषु त्रिनली जवति । एते हि स. दाऽवस्थितत्वात्सप्रदेशा इत्यैकः, यदा तु तदन्ये झानं विमुच्य ति) औदारिकाऽऽदिशरीरिसत्त्वेषु जीवपदे एकेजियपदेषु च मत्यशानाऽऽदितया परिणमन्ति तदैकाऽऽदिसम्भवेन सप्रदेशा बहुत्वे तृतीयभङ्ग एव, बदूनां प्रतिपन्नानां प्रतिपद्यमानानां चा. चाप्रदेशाश्वेत्यादिभाष्यमित्येवं भङ्गकत्रयमिति । पृथि नुकणं लानात् । शेषेषु भङ्गकत्रयं,बदूनां तेषु प्रतिपन्नानां तथौब्यादिषु तु सप्रदेशाइचाप्रदेशाश्चेत्येक एवेत्यत पाह-(पगि दारिकबक्रियत्यागेनौदारिक वैक्रियं च प्रतिपद्यमानानामेकाsदियवज्जो तियनंगो तिरह च त्रयेऽपि सिमानवाच्याः। वि. दीनां लानात् । हौदारिकदएमकयोारका देवाश्च न वाच्या, प्ररे तु जीवाऽदिषु भक्तत्रयं तद्भावना च मत्यकामा दिबत्केवः | वैक्रियदण्डकयोस्तु पृथिव्यप्तेजोवनस्पतिविकलेन्डिया न बा. लमिहे केन्द्रियविकलेन्द्रियाः सिद्धाश्च न बाच्या इति । (स. च्याः, यश्च वैक्रियदएमके एकेन्छियपदे तृतीयभङ्गोऽभिधीय. जोई जहा श्रोहियो ति ) सबोगिजीवाऽऽपिदण्डकतयेऽपि ते, स चान्यूनानामसइयातानां प्रतिसमयं वैक्रियकरणमाधितथा वाच्यो ययौघिको जीचाऽऽदिः । स चैवम्-सयोगी त्य तथा, यद्यपि पश्चेन्जियतियश्चो मनुष्याश्च वैक्रियलब्धिजीवो नियमात्सप्रदेशो, नारकाऽऽदिक्तु सप्रदेशोऽप्रदेशो मन्तोऽल्पे, तथापि च भङ्गत्रयवचनसामर्थ्यानां चैक्रियाववा । बहवस्तु जीवाः सप्रदेशा एव; नारकाऽऽद्यास्तु त्रिभ. स्थानसंभवः। तथैकाऽऽदीनां तत्प्रतिपद्यमानता चावसेया।(भाअवन्त पकेन्द्रियाः पुनस्तृतीयभङ्गा ति। यह सिद्धपदं नाध्ये. हारगेस्यादि ) याहारकशरीरे जीवमनुष्ययोः पर अङ्गकाः यम् । ( मणजोई इत्यादि) मनोयोगिनो योगत्रयवन्तः संझिन पूर्वोक्ता एवाऽऽहारकशरीरिणामल्पत्वात, शेषजीवानां तु तन्न श्वर्यः, वाग्योगिन एकेन्धियवर्जाः,काययो गिनस्तु सर्वेऽप्येके. सम्भवतीति । (तेयगेत्यादि ) तैजसकार्मणशरीरे समाश्रित्य निध्याऽऽदयः। एतेषु च जीवाऽऽदिषु त्रिविधो भङ्गः। तद्भाधना च जीवाऽऽदयस्तथा बाच्या ययौघिकास्त एव, तत्र च जीवाः स. मनोयोम्यादीनामवस्थितत्वे प्रथमः, अमनोयोगित्वाऽऽदित्यागाच प्रदेशा एव वाच्या, अनादित्वात्तेजसाऽऽदिसंयोगस्य । नारका. मनोयोगित्वाऽऽत्पादनाप्रदेशत्वमान्नेऽन्यदलकद्वयमिति, मवरं ऽऽदयस्तु त्रिभङ्गा,पकेन्द्रियास्तु तृतीयभङ्गाः एतेषु च शरीराकाययोगिनो ये एकेन्छियास्तेष्वभङ्गक, सप्रदेशाश्वाप्रदेशा ऽऽदिदण्डकेषु सिरूपदं नाध्ये यमिति । (सरीरेत्यादि) भशरीश्वेत्येक पच नाक इत्यर्थः। एतेषु च योगत्रयदएमकेषु जीवाऽऽ- रेषु जीचाऽऽदिषु सप्रदेशताऽऽदित्वेन बक्तव्येषु जीवसिद्धपदयोः दिपदानि यथासम्भवमभ्ययानि, सिद्धपदं च न वाच्यमिति । पूर्वोक्ता त्रिभङ्गी बाच्या, अन्यत्राऽशरीरत्वस्याभावादिति । (प्रा. (अजोगी जहा प्रलेस ति) दण्डकध्येऽप्यले श्वसमवक्त- हारपजत्तीप इत्यादि) ह च जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च बदः ध्यत्वात्तेषां ततो द्वितीयदएमकेऽयोगिषु जीवसिद्धपदयोज- नामाहाराऽऽदिपर्याप्तीः प्रतिपन्नानां तदपर्याप्तित्यागेनाऽऽदारप कत्रयं, मनुष्येषु च परभनीति । (सागारेत्यादि) साकारो. र्याप्पयादिभिः पर्याप्तिभावं गच्चतांच यहूनामेब लानात्सप्रदेशापयुक्तचनाकारोपयुक्तेषु च नारकाऽऽदिषु त्रयो भा जीवपदे श्वाप्रदेशाश्वेत्येक एव भङ्ग,शेषे तु अयो भना इति (भासामपृषिव्यादिपदेषु च सप्रदेशाचाप्रदेशाश्वेत्येक एव। तत्र चान्य. णेत्यादि) इह भाषामनसोः पर्याप्तिः भाषामनःपर्याप्तिः, नाषातरोपयोगादन्यतरगमने प्रथमेतरसमयेध्यप्रदेशत्वसप्रदेशस्वे मनःपर्याप्योस्तु बहुक्षुताभिमतेन फेनापि कारणेनैकत्वं वि. नावनीये । सिकानां वेकसमयोपयोगत्वेऽपि साकारस्येतरस्य बक्तितं, ततश्च तया पर्याप्तका यथा संझिनस्तथा सप्रदेशा55चोपयोगस्यासकृस्प्राप्त्या सप्रदेशत्वं, सकृत्प्रापया चाप्रदेशत्व- दितया बाच्याः, सर्वपदेषु भङ्गत्रयमित्यर्थः । पञ्चेन्द्रियपदान्येमवसेयम । एवं चासकृदयाप्तसाकारोपयोगा बहनाभिस्य स. व चेह घाच्यानि । पर्याप्तीनां चेदं स्वरूपमादुः-येन करणेन प्रदेशा इत्येको भक्तः। तानेव सदवाप्तसाकारोपयोगं चैकमा भुक्तमाहारं खरं रसं च कर्तुं समर्यो भवति तस्य करणस्य निश्रित्य द्वितीयः। तथा तानेव सकृदवाप्तसाकारीपयोगांश्च बहु पत्तिराहारपर्याप्तिः। करणं शक्तिरिति पर्यायौ। तथा शरीरपर्यामधिकृत्य तृतीयः। अनाकारोपयोगे स्वसप्राप्तानाकारोपयो. प्तिामन्येन करणेनौदारिकवैक्रियाहारकाणां शरीराणां योग्यागानाश्रित्य प्रथमः। तानेव सकृत्प्राप्तानाकारोपयोगं चकमा निद्रव्याणि गृहीत्वौदारिकाऽऽदिभावेन परिणमयति तस्य करश्रित्य द्वितीयः। उजयेषामप्यनेकत्वे तृतीय शति । (सबेयगा णस्य निर्वृत्तिःशरीरपर्याप्तिरिति,तथा येन करणेनैकाऽऽदीनामि. जहा सकसा ति) सवेदानामपि जीवाऽऽदिपदेषु भङ्ककत्रय न्द्रियाणां प्रायोग्यानि द्रव्याणि गृहीत्वाऽऽत्मीयान् विषयान् ज्ञातुं प्रावात्, एकेन्द्रियेषु चैकभङ्गकसद्भावात्। श् च वेदप्रतिपन्ना समयों प्रवति तस्य करणस्य निर्वृत्तिरिकियपर्याप्तिः,तथा येन न्याहुन श्रेणिभ्रशे च बेदं प्रतिपद्यमानकानेकादीनपेक्ष्य भङ्ग करणेनाऽऽनप्राणप्रायोग्यानि व्यापयवलम्ब्याऽऽनप्राणतया न. अयं भावनीयम् । (श्धीवेयगेत्यादि) वेदावेदान्तरसं- स्त्रए समयों भवति तस्य करणस्य निर्वृत्तिरानप्राणपर्याप्तिाराने, कान्ती प्रथमसमये प्रदेशत्वमितरेषु च सप्रदेशत्वमवगम्य तथा येन करणेन सत्यादिभाषायाःप्रायोग्यानि व्याण्यवः-- जकत्रयं पूर्ववद्वाच्यं, नपुंसकबेददण्डकयोस्वकेन्धियेको मन्य चतुर्विधनाषया परिणमय्य भाषानिसर्जनसमों भवान भङ्गकः सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्त्यवरूपः, प्रागुक्तयुक्तरेवति । स्त्री- तस्य करणस्य निष्पत्तिभाषापर्याप्तिः। तथा येन करणेन चतुर्विध. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) अभिधान राजेन्द्रः | पएस मनोयोग्यानि द्रव्याणि गृहीत्वा मननसमयों भवति तस्य करमनिष्पतिर्वनापतिरिति (बहार अपत्यादि जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च सप्रदेश प्रदेशाकोत्येक एव भङ्गकोऽनवरतं विग्रहगतिमतामाहारपर्याप्तिमतां बहूनां सा. भात् भङ्गाः पूर्वोका एवाऽऽहारपयोतिमतामउपस्थात् सरीरपरञ्जलीय इत्यादि) रह जीवेयेके चैक एव प्रोऽम्यत्र तु त्रयं शरीराऽऽद्यपर्यंतकानां कालतः समदेशानां सदैव प्रदेशाकादीनां सा प्रात् मारकदेवमनुष्पेषु च पमेवेति ( मासेत्यादि ) मा वामनोऽपर्या पर्याप्तकास्ते येषां जातितो भाषामनोयोग्यत्वे तिते यदि नामोरभावमात्रेण तदपर्यातका अभविष्यंस्तदै केन्द्रिया अपि तेऽभविभ्यस्तता जीवपदे तृतीय एव भङ्गः स्यात् । उच्यते च (जी. बाचित जीवेषु पञ्चेन्द्रियति दून तदपर्यातिप्रतिपचानां प्रतिपद्यमानानां बेका भारपूर्वी कमेष मङ्गजयम ( मेरश्यदेवमनुपि शामियानामपरत्वेन व देशदेशान rssani लानाच एव पक् भङ्गाः । पषु च पर्याय पर्याप्त केषु सिद्धपदं मन्येयमसम्भवादिति पूर्वोकद्वारायां संघहगाथा - ( सपए सेत्यादि ) | ( सपपस सि ) फालतो जीवाः सप्रदेशाः इतरे व एकत्व बहुस्वाभ्यामुक्ताः । (आहारग चि) आहारका अनाहारका तथैत्र । ( भविय ति) भव्या अ. भय्या उभयनिषेधात (स) समोहिनीनिषेध तथैव (मेस) सश्या कृष्णाऽविश् अश्यातच (दिड ) सम्पादिकान् सन्तस्तथेव (संजय) संता असंयताः मिश्राखपनिषेध तथैव (कायसि कषायः चादिता 1 1 पायाश्च तथैव । ( नाथ सि) ज्ञानिन श्रानिनिबोधिकाssदिज्ञानिनः ५, अज्ञानिनो मत्यज्ञानाऽऽदिमन्तश्च तथैव। (जोग सि) योगा मावियोगिनोध्योगिनाथ तथेव (योग) साकाराsनाकारोपयोगास्तथैव। (बेद सि) सवेदाः श्रीवेदा55दिमन्तः ३, अवेदाका तथैव (ससरीर सि) सशरीरा मीदारिकादिमन्तः २ अशरीराय तयेव (परजति सि महारादिपर्यातिमन्तः तपसा तथैवोका इति ॥ प्र० ६ ० ४ ४० । बोका: 1 केवड्या अंते! झोयागासपरसा परणचा ? गोयमा ! असंखज्जा लोयागासप्पएसा पचत्ता । एगमेगस्स यां जेते 1 जीवस्य केवइया जीवप्परसा पाता है। गोयमा ! जावइया लोयागासपरसा एक्मेगस्स नं जीमहस एवइया जीवप्पसा पछता । ( केवस्था णमित्यादि ) ( ) मायप्रदेशिको लोकतस्मात्तस्य प्रदेशा असङ्गपेया एवेति । प्रदेशाधिकारादेवेदमा - ( एगमेगस्सेत्यादि ) एकैकस्य जीवस्य तावन्तः प्रदेशाबाबत लोकाऽऽकाशस्य, कथम् ?, यस्माज्जीवः फेवाताले सबै सोफाकाव्य समाकाकाशमरेशप्रमाणात इति न००१०० लोणं भेते किं जीवा एवं महा अस्थिका उद्देस पएस अलोमागासे तदेव खिरवसेसं०जाब प्रांत जागूणे हे ardaste भंते ! एगम्मि आगासपदेसे किं जीवा जीवदेसा जीबप्पदेसा, अजीवा जीवदेसा जीवप्पदेसा । गोपमा ! यो जीवा जीवसा वि जीवाव जीवा वि अभीदेसा वि अजीवपदेसा वि, जे जसा ते णिय पर्मिदिषदेसा, महवा पुगिदियदेसा व बेईदिपस देसे, हवा एगिंदियस्स देसा य बेइंदियाण य देसा, एवं - जिविरहियो० नाव दिए जाए गिदियदेसाय अििदयाण व देसा, ज जीवप्परसा ते विषमं पर्मिदियष्पदेसा, अहना पनिदिषप्परसाव - दिवस देसा, अवा एगिंदियप्पदेसा य वेदियाण य परसा, एवं दिविरदिश्रो० जान पंचिदिएसु य प्रविदिप प तियांगो ने अजीवा से दुबिदा पणतंजाबी अजीवा व अरूवी जीवाव रूबी तब ने अनी अभीवा ते पंचविद्या पाता। तं जहा - णो धम्मत्यिकार धम्पत्थिकायस्स देसे धम्मात्थकायस्थ परसा । एवं धम्मस्थिकायस्स वि कासम । तिरपलोसोयरस अंते गाम्भ भागासपदेखे किं जीवा एवं महा अहे लोगखेचलोगस्स तदेव, एवं उठ्ठलोय खेलोगस्स वि, एवरं अद्धा समश्रो नत्थि अरूवी चव्विदा, लोगस्स जहा अहेलोग खेतब्लोगस्प एम्म प्राणास पसे । अन्लोगस्स णं भंते ! एम्पि आगासप्प से कुच्छ ? गोयमा! जो जीवा को जीवदेसा । तं चैव जाते अगुस्मयगुणेहिं संजुते सवागासस जागूणे, दन्त्रो णं अहेलोयखेतलोए - यता जीवदया अयंता अजीवदन्दा अता जीवाजीवदब्बा, एवं तिरियलोयखेत्तलोए वि, एवं उठ्ठलोग खेत्तनोए नि । दभोणं अलोए नेवत्यि जीरदम्बा, बल्थि अजीवदव्वा, बस्थि जीवाजीवदव्वा, एगे अजीवदव्व देसे ० जान सम्मागासस्स अभागो का पं असोयखेलोए० जाव ण कयायि णासि जाव णिच्चे, एवं ०जाब अलोए । जावो णं अहेलोग खेत्त लोगे अरांता बापया जहा खंद०जावता गुरुपादुपपज्जा एवं० जाब लोए भावभो णं असोर बस्थि बालबा जाब ऐवस्थि अगुरुन्न हुयपज्जवा एगे अजीवदव्व देसे० जा सभागृ ।। ( असो ते ! त्यादिजहेत्याद्यतिदेशादेवं दृश्य-"अलोष णं मंते । किं जीवा जीपसा जीवदेखा अजीब अजीब सा अजी बप्पसा ? । गोयमा ! नो जीवा०जाब नो जीवण्यसा । पगे अजीबदव्यदे से गुरु अगुरुलघुयगुणेहिं संजुते सम्यागासे प्रणंत भागणे चि । " सर्वात भागोनामित्यस्यायमर्थः- त Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएस अभिधानराजेन्दः। पएसागया णेन समस्ताऽऽकाशस्याऽनन्तभागेन न्यून सर्वाऽऽकाशमलोक भनु० । एकविध्यणुषु, मनु० । प्रातिशिमके, दे० ना. . इति। (अहेलोगखत्तमोगस्स णं अंते ! पंगम्मि प्रागासप्पएसे बर्ग ३ गाथा। इत्यादि) मोजीवा एकप्रदेशे तेषामनवगाहनात बहूनां पुन पएसकम्म-प्रदेशकर्मन्-न । प्रदेशा एव पुद्रला एवं यस्य वेजीवानां दशस्य प्रदेशस्याऽवगाहनादुच्यते-(जीवदेसा वि पन्तेत यथा बद्धोग्सप्रदेशमात्रतया वेचकर्म प्रदेशकर्म । कजीवप्पएसा वित्ति) यद्यपि धमास्तिकायाऽऽद्यशीवरून्यं नै ममेवे, स्था० ३ ग०३ उ०। कत्राऽऽकाशप्रदेशेवगाइते तथापि परमाणुशाणुकाऽऽदिव्यायां कालरुग्यस्य चावगाहनादुच्यते-(प्रजीषा विति). पएसग्ग-प्रदेशाग्र-न । प्रदेशप्रमाणे, स्था•४ ग.३७०। काऽऽदिस्कन्धदेशानां त्वत्रगाहनाधुक्तम्- अजीबदेसा वि पएसघण-प्रदेशधन-त्रिका मार निविभप्रदेश, मौ०। ति) धर्माधर्मास्तिकायप्रदेशयोः पुढूगलषव्यप्रदेशानां चायगाहनापुच्यते-(मजीवप्पएसा वि सि)(एवं मज्झिविर पएसया-प्रदेशार्थता-खी। प्रो देशः प्रदेशः नियोंऽशः हिमोत्ति) दशमशतप्रदर्शिते त्रिकभरे। "भहवा एगिदियदे- सवासावधेति प्रदेशाधस्तस्य भाषः प्रदेशार्थता । गुणपर्यासायबेइंदियस्स य देसा" इत्येवंरूपो यो मध्यमभङ्गस्त. पाऽऽधाराषयवलक्षणार्थतायाम, स्था०१०। प्रष्टो निरंद्विरहितोऽसौ त्रिकभङ्ग एवमिति सूत्रप्रदर्शितमात्यरूपोऽ. शो देशःप्रदेशः, स्वासावर्थच प्रदेशार्थस्तस्य भावः प्रदे. भ्येतव्यो, मध्यमभङ्गस्यहाउसम्भवात् । तथाहि-द्वीन्द्रियस्यैक शार्थता। परमाणुत्वे, अनु ।प्र। स्यैकत्राऽऽकाशप्रदेशे बहवो देशा न सन्ति, देशस्यैवानाबादे- पएमणय-प्रवेशनक-10 । अपदेशे, मा० ५.१.।"पए. वम् (बालविरहिमो ति ) " महबा-पमिदियदेसा य | सणयं णाम सबएसो, काविहे संप्रेते! पएसमार पसे । तं बेइंदियरस पपसे " इत्येवं sऽरूपाद्यभकविरहितखिकना जहा।" (इति 'पवेसणग' शब्दे पश्यते) एवमितिसूत्रप्रदर्शितनवयरूपोऽध्येतव्यः, प्राधभत्रकस्येहा. पएसणाम(ण)-प्रदेशनामन-२० । प्रदेशानामायुःकर्मकल्याण ऽसम्भवात् । तथाहि-नास्त्येवेकत्राऽऽकाशप्रदेशे केवलिसमघातं बिकस्य जीषस्यैकप्रदेशसंभवोऽसंख्यातामामेष भाषा नाम तथाविधा परिणतिः प्रदेशनाम प्रदेशरूप या नाम कर्मवि दिति । (अरिणदिपसु यतियभंगोत्ति) अनिन्छियेषूक्तभङ्गकत्रय शेष इत्यर्थः । स्था' ६ ग० । प्रदेशानां प्रमितपरिमाणानामपि सम्भवतीति कृत्वा तेषु तहाच्यमिति । (कवी वहेब त्ति) मायुःकर्मदलिकानां नाम । परिणामोदये प्रात्मप्रदेशेषु कर्मप्रदे शानां सम्बन्धने जातिगत्यवगाहनाकर्मणां प्रदेशरूपे नामकर्मस्कन्धा देशाः प्रदेशा अणवधेत्यर्थः। (ो धम्मस्थिकाय ति)। मोधर्मास्तिकाय एकत्राकाशप्रदेशे सम्नवत्यसंख्यातप्रदेशाव णि च । स० गाहित्यासस्यति।(धम्मस्थिकायस्सदेसे सि) ययपि घ-पएसणामणिहत्तान-प्रदेशनामनिधत्ताऽऽयुष-म०प्रदेशनामेन मर्मास्तिकायस्यैकत्राकाऽऽशप्रदेशे प्रदेश एवास्ति तथाऽपि देशो- प्रदेशनाम्ना च निधत्ते आयुषि, साना था। ऽवयब इत्यनन्तरत्वेनाऽवयवमात्रस्यैव विवक्षितत्वानिरंश-पएसत्त-प्रदेशत्व-न० । अविभागिपुले, व्या० ११ अध्या। तायाश्च तत्र सत्या प्रप्यविवक्षितत्वार्मास्तिकायस्य देश इ. पएसबंध-प्रदेशबन्ध-पुं० । जीवप्रदेशेषु कर्मप्रदेशेषु कर्मप्रदेशास्युक्तमा प्रदेशस्तु निरुपचरित पचास्तीस्यत उच्यते-(धम्मस्थिकायस्स पदेस ति) (पवमहम्मत्यिकायम्स बिति)"नो प्रह नामनन्तानन्तानां प्रति प्रकृतिप्रतिनियतपरिमाणानां सम्बन्धनम्मरिचकाए भहम्मत्यिकायस्स देसे अहम्मत्यिकायत पदेसे" रूपे बन्धनेदे, स०४ सम । कर्मपुद्रलानां पदग्रहणं खितिरइत्येवमधर्मास्तिकायसूत्रं पाच्यमित्यर्थः। (भद्धासमा म. सनिरपेक्षदलिकसंख्याप्राधान्येनैव करोति स प्रदेशबन्ध इति । थि प्राची चवह त्ति) लोके श्रद्धा समयोनास्तीत्यरू कम०५ कर्म० । क. प्र०। पं० सं०। (प्रदेशबन्धस्य सर्वा पिणश्चतुर्विधा भरूमास्तिफायदेशाऽऽदय ऊर्द्धलोकस्यैकत्राss. वक्तव्यता 'बंध' शब्दे पक्ष्यते) काशप्रदेशे भवन्तीति । (लोयस्स जहा अहेलोगखेत्तलोगस्स पएसय-प्रदेशक-पुं० । प्रधाने प्रकृष्ट मादी, वा देशके, विशे। पम्मि भागासप्पएसेत्ति) अधोलोककेत्रश्लोकस्यैकत्राकाश- | “तिम्मे सुगगइगए, सिद्धिपहपएसए बंदे ।" विशे०। प्रदेशे यतकन्यं युक्तं तलोकस्याप्येकत्राऽऽकाशप्रदेशे वाच्यमित्य- पएससंकम-प्रदेशसंक्रम-पुं० । “पई नीया व नीता" इति सदम-"मोगरसभंते ! एगम्मि मागासप्पएसे कि यकपमन्यप्रकतिखनाबेन परिणामेन परिणाम्यतेस प्रदेश जीव पगागोयमा! नो जीव0" इत्यादि प्राग्वत। (भदेसोयनेसंक्रमःउक्तंच." दलियमनप्पगई, निज्जा सो संकमोपए. सलोए अणंता बापजव चि) अधोलोकक्षेत्रलोकेऽनन्ता व. सरू।" स्था.४४ा.२3..सं.1 ("सामान्यलक्षणं संपरर्यवाः, एकगुणकालकाऽऽदीनामनन्तगुणकालकाऽऽद्यषसा- नेदः, साधनाऽदिप्ररूपणा । उस्कएप्रदेशसंक्रमस्वामीति प्रदेनानां पुद्गलानां तत्र नावात् । अधोलोकसूत्रे (नेवस्थि अगरुय. शसंक्रमस्य वक्तव्यता 'संकम' शब्द वश्यते) बहुयपज्जव ति ) । अगुरुलघुपर्यवोपेतद्रव्याणां पुद्रलाऽऽ |पएससंतकम्म(ण)-प्रदेशसत्कर्मन्-म० । सत्ताकर्मभेदे, 40 दीनां । तत्रामावात् । भ० ११ १० १० उ० । प्रदेशशब्देन | प्र.१० प्रक-पं० सं०। (संतकम्म' शब्दे व्याख्या) जीवप्रदेशानामप्रकारकर्मपुलैः सर संबन्धाधबोधनास, दर्श० ४ तव । मावः । "पएससि प एमाणंतय-प्रदेशानन्तक-न। माकाशप्रदेशानामानन्स्ये म. पाजीवप्रदेशा जीवप्रदेशा इति । यथा पौरो महाबीर ति। नन्तकनेदे, स्था०१०म०। एक एक चरमप्रदेशो जीव इत्यज्युपगमपरे जीवप्रदेशिकनिह पएसाणेगया-प्रदेशानेकता-स्त्री० । बहुप्रदेशसभावे, सण्या थे, विशे० । प्रकृतः पुफलास्तिकायदेशः प्रदेशः। परमाणी, १२ अभ्या। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) अभिधान राजेन्द्रः । एसि (यू ) एसि (ए) - प्रदेशिन- पुं० । स्वनामख्याते श्वेताम्बिकानग राजे प्राच्यभवे सूर्यामदेवे, रा० । तत्कथा महिनिए महज्जुतीए महाजसे महासोक्खे महाणुजागे सूरियाने देवे । श्रहो णं भंते! सूरियाने देवे महिडिए० जाव महापुजावे, सूरियाजेणं जंते ! देवेनं सा दिव्वा देवकी सा दिन्वा देवजुई दिन्वे देवाणुभागे किष्मा किमा पत्ते किवा अभिसममागते, पुत्रभवे के आसि, किंणामए बा, किंगुत्तरणं वा कयरंसि वा गामंसि वा जाव सम्मिसंसि वा किं वा दच्चा किंवा भुच्चा किं वा समायाता कस्स वा तहारूनस्स वा समएरस वा माहणस्स ना अंतिए एगमवि आय सोच्या सिम्म तेरा सूरियाने देवे वा दिव्या दे डी०जाव देवानागे बद्धे पत्ते अनि समागते । मोयमादिसणं जगवं महावी: भगवं गोयम ति श्रमंतेचा एवं बयासी एवं खलु गोमा ! तेणं कालेणं तेणं समां see ii दीवे माहे वासे केकयछे लाम जवए होत्या रिकित्थिमियममि तत्थ णं केकयके जलवए सेयंबिया णामं गर । होत्था रिकित्थिमिवसमिका ० जाव परिरूवा । तीसे णं सेयंबियाए पयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीनाए एत्य णं भिगवणे जामं उज्जाणे होत्या रम्मे दवणगासे सन्वोज्यपुष्फफलसमि सुहसुरभिसं बनाए छायाए सन्नतो चेव सम व पासादी०जाब परिरूत्रे तत्थ णं सेयंबियाए एगरीए पएसी पाम रामा होत्या महया हिमवंत जात्र विहरति थपिए अघमिट्ठे अधम्मक्खाई अथमाए अधम्पपलोई अधम्मपजणणे धम्मसीससमुयारे अश्रमेण चैव वित्ति कप्पेमाणे हा बिंद जिंद पवत्तएपावे कोपे के रोदे खोड़े मोहिनपाली साहसिए उकंचणवंचएमायाणियमिकूरुकवडसं प ओगबहुले पिस्सीले - व्वणिग्गुणिम्प्रेरे णिपचक्खालपोस होवना से बहुलं - पच उपयामियपसुपक्खिसरीसवाणं घाताए वहाए उच्छेrore म्प समुद्दि गुरूणं जो अजुट्ठेति पो विजयं पजइ, सयस्स वि गं जणवयस्स शोस करं वा भरंवा वित्तिं पव्वते । तस्स लं पदेसिस्स रखो सूरियकंता णामं देवी होत्या सुकुमालपाणिपाया, धारिणीवस । परसिया रास असुरना० जाव विहरति । तसणं पदेसिस्स रपो जेढे पत्ते सूरियकताए देवीए अत्तए सूरियते । मं कुमारे होत्या सुकुमालपाणिपाए जान पकिरुवे । से गं सूरियकं ते कुमारे युवराया कि होत्या । पए एसि (यू ) सिस्स रखो रज्जं च रक्षं च बलं च वाहणं च कोर्स च कोडागारं च पुरं च ते उरं च जग्वयं च यमेत्र पच्चु - क्खमाणे परचुक्खमाणे विहरति । तस्स णं पदेसि - स रखो जेटुभावसर चित्रे ग्रामं सारी होत्या - वे० जात्र बहुजणस्स अपरिनूर सामभयदं उप्पयाप्रत्थसत्यईहामइत्रिमारए उप्पत्तियाए वेलइयाए कम्प्रियाप् पारिणामियाए चन्निहाए बुद्धीए नवत्रेते एसिस्स रणो बहु कब्जे य कारणेसु य कुकुंबेसु य मंदमु य गुज्जेसु म रहस्ते यच्छिएस य ववहारेसु आपु पिज्जे पडि पुच्छणजे मेढीपमाणे आधारे आलंबणे च खूनूए सब्बडागसव्वभूमियासु लखपच्चए विदिष्यत्रिय र रज्जधुर चिंतर यात्रि होत्या । तेणं कालेणं तेणं समयेणं कुणाला सामं जव दोत्था रिद्धि त्थिमियसमिद्धे । तत्थ णं कुणालाए tray सावत्थी णामं पयरी होत्या रिष्टि थपियममि[फा०] जान पढिरूदा । तीसे णं सावत्थीए गरीए बढ़िया उत्तरपुरच्छ दिसीनाए कोइए णामं चेइए होत्या पोरा० जाव सुरम्मे पासादीए दरिस णिज्जे । त्थ सावत्यre rate परमिस्स राम्रो अंतेवासी जियसत्तू लाम राया होस्था, मझ्या हिमवंत व्जाव विहर तए णं पदेसी राया या कया महत्वं महम्यं मद्दरिहं निजलं रायारिहं पाहु लज्जा सज्जता चित्तं सारहिं सांइ, सदा वेत्ता एवं बयासी - गच्छहणं तुमं चित्ता ! सावत्थिं गगरि, जियस तुम रो इमं महत्यं ● जात्र पाहुडं उवणे जाई तत्थ रायकाणि य रायणिउत्ते य रायववहारे य ताइं जियस - ससियमेव पच्चुत्रेक्खमाणे पच्चुवेकनमाणे विहराहितिक विसज्जिते । तए एं से चित्ते सारही पए सिहरछा एवं वृत्ते समाणे हडतुट्ट ०जाब परिसुणित्ता तं महत्थं जाव पाडुरं गिद्दड़, पएसिस्स रखो अंतियाओ परिणिक्खम, परिक्खिमित्ता सेयंविं गुगारं म मज्जेणं जेणेव सए गिहे तेणेव जवागच्छ उवागच्छित्ता तं महत्० जाव पाडु वेइ, कोकुंचियपुरिसे सद्दात्रेति, सदावेइता एवं बयासी खिप्पामेव जो देवाप्पिया ! सत्यं जाब चारघंटं आसरहं जुतामेव उबडवेह ० जाव पच्चपिण । तेते ते कोनुं वियपुरिसा चित्तसार हिस्स एयम विrej पाडेसुति, परिसुणेड़ता हडतुड० नाव हियया विप्पामेव सत्यं जाव जुद्धसज्जं चाउ आसरहं जुत्तामेव उति, तमाणत्तियं पच्चपिणंति । ततेां से चिने सारही कोकुंबियपुरिसेणं अंतिए एवम सोच्चाणिसम्म हट्ट जाव हियए एढाए कयबलिकम्प कयको य मंगलपायच्छत्ते संपवरून म्मियकवय उप्पीझेय सरास For Private Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२ ) पएसि (ण) अन्निधानराजेन्द्रः। पएसि (ण) णपट्टए पिणकगेविजबिमलवरचिन्धपट्टे गहियाउहपहरणे | दिए जियपरीसहे जीवियासमरणभयविप्पमुक्के तबप्पहामहत्थंग जाव पाहुमं गिरह, गिएहत्ता जेणेव चा णे गुणप्पहाणे करणप्पहारी चरित्तप्पहाणे पिग्गहप्पहाणे उग्घंटे प्रासरहे तेणेव उवागच्छइ, नवागच्चइचा चाउग्घंटं णियप्पहाणे अज्जवप्पहाणे महवप्पहाणे लाघवप्पहा. भासरह दुरूहति,बहूहिं पुरिसेहिं समजाव गहियानह णे खंतिप्पहाणे मुत्तिप्पहाण विज्जप्पहाणे मंतप्पहाणे बंपहरणेहि सकि संपरिखडे सकोरंटमध्यदामेणं उत्तेणं धरि- जप्पहाणे वेदप्पहाणे णयप्पहाणे णिगमप्पहाणे सञ्चप्पहाणे ज्जमाणेणं महया नाचमगरहपहकरवंदपरिक्खित्ते सयातो (मोयप्पहाणे) सोयप्पहाणे नाणप्पहाणे दंसणप्पहाणे चागिहातो णिग्गच्छति, सेयंबियाए एगरीए मज्कं मोएं रित्तप्पहाणे चन्दसपुची चनणाणोवगए पंचहि अण गच्छद, णिग्गच्चइता सुहेहिं वासेहिं पायरासए- गारसएहिं सकि संपरिबुझे पुवापुन्धि चरमाणे गामाहिं णाइविकहिं अंतरावासेहिं वसमाणे केययऽघस्स | णुगामं दूइज्जमाणे सुहं मुहणं विहरमाणे जेणेव सावत्थी जणवयस्स मऊ मझेणं जेणेव कुणाला णाम णगरी जेणेव कोहए चेहए तेणेव उवागच्च, उवागच्छजणवए जेणेव सावत्यी पगरी तेणेच उवागच्छति, इत्ता सावत्थीए पागरीए बडिया कोहए चेए अहापफिरूवं तेणेव उवामच्छित्ता सावत्थीए गरीए मऊ मऊकेणं नग्गहं नग्गिएिहत्ता संजमेणं तवमा अप्पाणं भावमाणे अणुपविसति, जेणेब जियसत्तुस्स रमो गिहे जेणेच वा- विहरति । तए णं सावत्थीए णगरीए सिंघामगतियचनहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्नति, नवागच्चतिचा कचच्चरचउम्मुहमहापहेमु महया जणस देवा जणकलकलेइ पहंग्वेति,रहं वेत्ता रहातो पच्चोरुजति तं महत्थंजाव वाजाव परिसा पज्जुवासति । तते णं तस्स चित्तसारहिस्स पाहुमं गिरहे,जेणेच अभितरिया उबट्ठाणसाला जेणेव महाजणसई च जाणकलकनं च सुणेत्ता पासेत्ता इमेयाजियसत्तू राया तेणेव नवागच्छति, नवागच्छतिचा जिय रूवे अन्जस्थिएण्जाव समुप्पज्जित्या-किं णं अज्ज सासत्तरायं करयलपरिग्गहियंजाव कह जएणं विजएणं व वत्थीए णयरीए इंदमहेश वा खंदमहेइ वा एवं रुद्दमहेइ छावइ,वछावइत्तातं महत्थंजाव पाहुनवणेति । तते णं से बा मउंदमहेइ वा वेसमणमहेइ वा पागमहेश वा नूयमहेश जियसत्तू गया चित्तस्स सारहिस्स तं महत्था जाव पाहु | वा जखमहेश वा थूनमहेइ वा चेश्यमहेश पा रुक्खपमिच्छ,चित्तं सारहिंसकारेति,सम्माणेति, पमिविसज्जेइ, महेइ वा गिरिमहेइ वा दरिमहेइ वा अवढमहेइ वा पदीरायमग्गमोगाढं आवासं दायति । तते णं से चित्ते सारही महेइ वा सागरपहेइ वा जेण इमे बहवे उग्गा नग्गयुत्ता विसज्जिए समाणे जियसत्तुस्स रमो अंतियाो पफिणि जोगा रामा खत्तिया इक्खागुकारवजाव इन्भा इन्जखमइ,जेणेव बाहिरिया ज्वट्ठाणसाला जेणेव चाउम्घंटे प्रा. पुत्ता एहाया कयवनिकम्मा जहोयवाइए तहेव अप्पेगइया सरहे तेणेव उवागच्छइ,उवागच्छित्ता चाउग्घंटं आसरहं दुरू हयगया० जाव अप्पेगइया पादचारविहारेणं महया वंदा इति,सुरूहइत्ता सावत्थीए णयरीए मऊ मकेणं जेव बंदएहि णिग्गच्छति, एवं संपेहेइ, संपेहेइत्ता कंचुडपुरिस रायमगमोगाढे आवासे तेणेव उवागळ, नवागच्च सद्दावेद, सदावेइत्ता एवं बयासी-किं णं देवाणुप्पिया! अज्ज ना तुरए णिगिएहइ,रहं ठवेति,ग्वेश्त्ता रहातो पच्चोरुनति, सावत्थीए णयरीए इंदमहेश वा० जात्र सागरमहेइ वा एहाए कयवनिकम्मे कयकोजयमंगझपायच्छित्ते मुझपावेसा. जेणं इमे बहवे उग्गा०णिग्गच्छति ?। तते णं से कंचुइपुरिसे मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिते अप्पमहग्याभरणालंकियस केसिस कुमारसमणस्म आगमणोगहियं विणच्छियंति चित्तं रेनिमियभूत्तत्तरागए वि य समाणे पुलावरगह सारहिं करयनपरिग्गहियं जाव बच्छावेत्ता एवं बयासीकालसमयसि गंधयोहिणपहिं उपनचिज्जमाणे नव णो खलु देवाणुपिया! अज्ज सावत्योए णगरीए इंदगाइज्जमाणे नवलाझिज्जमाणे इढे सहफारसरसरूवगंधे महेइ वा जाव सागरमहेश्वा, जेणं इमे बहवेजाव बंदा पंचविहे माणुस्सए कामनोगे पचणभक्माणे विहरति ।। वंदरहिं णिग्गच्छति,एवं खलु देवाणुपिया पासावस्चिज्जे तेणं कालेणं तेणं समरणं पासावच्चिने * केसी णामंकु- केसी णाम कुमारसमणे जातिसंपएणे जाव दुइज्जमाणे मारसपणे जाइसंपले कुन्नसंपम्मे बलसंपले रूवसंपएणे वि हमागतेजाव विहर। तेणं अज्ज सावत्यीए बहवे उग्गा० णयसंपो काणसंपले सणसंपो चरित्नसंपएणे मज्जा नाव इम्भा इन्भपुत्ता अप्पेगड्या बंदणवत्तियाए० जाव संपठो लाघवसंपएणे ओयंसी तेयंसी बच्चंसी जसंसी महया वंदा वंदरहिं णिग्गच्छति। तते णं से चित्ते सारही जियकोहे जियमाणे जियमाए जियलोने जियणिद्दे जिति कंचुइपुरिसस्स अंतिए एयमटुं सोचाणिसम्म हतुजा व हियए कोबियपुरिसे सहावेश, सद्दावेइत्ता एवं बयामी* पापित्यीये इत्यर्थः। खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! चाउग्घटं आसरहं जुत्तामेव Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) पएसि (ण) भन्निधानराजेन्द्रः। पएसि (ए) उबट्टवेह जाव सत्यत्रो जाव उबहवेति । तते ण से चित्ते तते णं से चित्ते सारही केमिस्म कुमारसमणस्प अंसारही एहाए कयवनिकम्मे कयकोउयमंगलपायचित्ते सु- तिए पंचागुम्बइयं जाव गिहिधम्म नवसंपजिता णं छप्पामाई मंगलाई वत्याई पवरपरिहिते अप्पमहग्याभर- विहरति । तते णं चित्ते सारही केसिकुमारसमणालंकियसरीरे जेणेव चानग्धंटे आमरहे तेणेव नवाग- णस्स णं वंदति, णमंसति, जेणेव चानघंटे आसरहे तेणेव उइ, उवागच्छत्ता चाउग्घटं आसरहं दुरूहति, दुरूहा- पहारेत्थगमणाए चानघंटं आमरहं मुरूडति, जामेव दिसिं त्ता सकोरिंटमबदामाणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं महया भ- पाउब्लूए तामेव दिसिं पमिगए । तेग से चित्ते सारही मचमगरहपहगरवंदपरिखित्ते सावत्थीए णयरीए मऊ मज्के. समाणोचामए जाते अहिगयजीवा जीवे नवसद्धपुरमपावे णिग्गच्छद, जेणव कोट्ठए चेइए जागेव केसी कुमारसम आसवसंवरणिज्जरणकिरियाहिगरण बंधपोक्खकुसझे अ णे तेणेव नवागच्छइ, नवागच्छइत्ता केसिस्स कुमारस्स साहेज्जे देवामुरणागजक्रवरक्खसकिष्मरकिंपुरिसगरुनगंसमणस्स अदूरसामंते तुरए णिगिएहति, रहं ठवेति, धन्यमहोरगाइ एहिं देवगणेहिं णिग्गंथाश्रो पाक्यणाओ अ. रहाओ पच्चोरुहति, जेणेव केसी कुमारसमणे लेणेव नवागच्छइ, उवागच्छइत्ता केसि कुमारसमणं तिक्खुत्तो पातिकमणिज्जे पिग्गंथे पावयणे णिस्तंकिए णिखिए आयाहिणपयाहिणं करेइ, वंदति, णभंसति, एमंसइत्ता णिव्वितिगिच्छे लम्हे गहियढे अहिगयढे पुच्छ्यि पच्चामणे गाइरे सुस्सूममाणे मंसमाणे अजिमुहे विणिच्छियढे अद्विमिंजपेम्माणुरागरत्ते अयमाउसो ! णिपंजलिन में विणएणं पज्जुवासे । तते णं केसी कुमारस गंथे पावयणे अहे अयं परमट्टे,सेसे अणहे,चानदसट्ठमुमणे चित्तस्स सारहिस्स तीसे मइतिमहाक्षयाए महचाए दिपुणिमासिणीमु पमिपुरणपोसह सम्म अापालेमाणे पारिमाए चाउज्जामं धम्म कहे । तं जहा-सव्वाश्रो पा जामियफलिहे अवगयबारे चियत्तेनरपरघरप्पवेसे समणे णाइ वायाओ वेरमाणं , सयाओ मुमावायाओ वेरमणं, णिगंथे फासुपणं एसपिज्जेणं अमणपाणखाइमसाइमेणं सब्याओ अदिाणादाणाओ वेरमणं, सयाओ मेहुणहाणा पीढफलगसेज्जासंथारएणं वत्यपडिग्गहकंवक्षपायपुंछणेणं ओ वेरमणं । तते ॥ सा महतिमहालया महच्चपरिसा के अोसह सज्जेण य पमिनाजेमाणे पमिलाभेमाणे बहूदि सिकुमारस्स समणस्स अंतिए धम्मं सोचा हहतुट्ठ जाव सीलब्बयाणवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासहि अप्पाणं भाहियया वंदिता णमंसित्ता जामेव दिसिं पानन्या तामेव वेमाणे जाई तत्थ रायकज्जाणि य जाव रायववहारे दिसिं पकिंगया। तते णं से चित्ते सारही केमिस्स कुमार वि जियस लुणा सदि सयमेव पच्चुवेक्खमाणे विसमणस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हतुट्ठ नाव हि हरति । तते णं से जियसत्तू राया अाया कयाइ महत्थं. यए उठाए जहति,केसि कुमारसमणं तिकवुत्तो आयाहिण-। जाच पाहुमं सज्जेइ, चित्तं सारहिं सदावे सदावेइत्ता एवं पयाहिणं करेइ,वंदा,णमंसति,णमंसित्ता एवं बयासी-स. बयासी-गच्छह तुम चित्ता सेयंवियं गरि पएसिस्स दहामि एभंते ! विगंथे पावयणे,पत्तियामिण नंते ! पिग्गंथे रणो इमं महत्थं नाव पाहडं नवाणेहि, मम पाजगहणं जहा पाक्यणे,रोएमिते!णिगंयं पावयणं, अब्तहमि णं जणियमवितहमसंदिषं वयणं विवेहि त कट्टविसज्जिए। जते । एवमेयं ते ! तहमेयं ते ! अवितहमेयं भंते ! तते ण से चित्ते सारही जियसत्ताणा रमा पिसज्जिए असंदिद्धमयं ते! इच्छियपमिच्छियमेयं ते ! सम्वेणं समाणे तंमहत्यजाव गिएहइ,जियसत्तुस्म राम्रो अंतियाओ एसमढे, से जहा तुम्ने वयह त्ति कट्ट वंदड, मंसति,एवं पमिणि खमति, सावत्यीए णगरीए मजकं मोणं जेणेव बयासी-जहा णं देवाणुपियाणं अंतिए वहवे नग्गा रायमग्गयोगाढे आवासे तेणेव उवागच्चम नवागच्चइत्ता नोगाजाव इन्भा इब्नपुत्ता चिच्चा हिरएणं चिच्चा सुवप्न तं महत्थं जाव वेड, एहाएजाव सरीरे सकोरिंटछत्तेणं एवं धणधरणावलवाहणकोसं कोट्ठागारं पुरं अंतेउरं पायचारविहारेणं महया पुरिसपरिसपरिक्खित्ते रायमग्गचिच्चा विननं धाका गरयणमणिमोत्तियं संखसिलप्प मोगाढायो आवासाप्रो णिग्गच्छर, जेणेव कोहए चेवानं संतसारसावतेयं विच्छड्डइना विगोवइत्ता दाणं दा इए जेणव केसी कुमारसमणे तेहोव नवागच्च, केइत्ता परिभाइत्ता मुंझे नवित्ता आगाराओ अणगारियं सीकुमारसमणस्त अंतिए धम्मं सोचा० जाव नहाए पव्वयंति,णो खत्रु अहंतहा संचाएमि चिच्चा हिरणं तं चेत्र उट्ठिए जाव एवं बयासी-एवं खलु अहं भंते ! जिजाव पवात्तए। अहं णं देवासुप्पियाणं अंतिए पंचाण यसत्तणारणा पएसिस्म एणो इमं महत्यं जाव नवणेहि बइयं सत्तसिवखावयं वालसविहं गिहिधम्म पडिव जि. त्ति कटु विसज्जिए। तं गच्छामि एणं अहं भंते ! सेयंबियं - चए। अहासुई देवाणप्पिया ! मा पमिबंध करेह । गरिं, पासादी एंजते ! सेयंविया णगरी,एवं दरसणिज्जा Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) अभिधान राजेन्द्रः । परसि (णू) ते ! सेयंविया एगरी, अभिरूवाणं जेते । सेयंविया - गरी, समोसरह णं जंते ! तुब्जे मेयंवियं एगरिं । ततें केसी कुमारसमणे चित्तेणं सारहिला एवं बुत्ते समाऐ चित्तस्स सारहिस्स एयमट्ठे णो आढाति, णो परिजाणाति, तुसिणीए संचिति । तते णं से चित्ते सारही केमिं कुमारसमणं दो पि एवं क्यासी एवं खलु अहं जंते ! जियसतुपा पसिस्मरणो इयं महत्य० जाव विसज्जिए, तं चैत्र ० जाव समोसरह नेते ! तुब्जे सेयंवियं एगरिं । १५ णं केसी कुमारसमणे चित्तेणं सारहिणा दोच्चं पि तचं पि एवं वुत्त समाणे चित्तं सारहिं एवं वयासी - चित्ता ! से जहाएमए के सिया किएहे किए होभासे० जाव परिरूने, से नू चित्ता !वणसं, तेसिं बहूणं उपयच उप्पयमियपसुषक्खिसरीसिवाएं श्रनिगमणिज्जे ? | हंता अभिगमणिज्जे । तंसि च णं चित्ता ! वणसंमंसि बहवे जिलुंगा लाम पात्रसृमणा परिवसंति, जे पं तेर्सि बहूणं पयच उप्पयमयपसुपक्खिसरी मित्राणं चेत्र मंससोणियं आहारेति, से - चित्ता ! म तेर्सि बहूगं दुपयचउप्पयसरीसिवानिगमणि ऐति (?) कम्हा? | जंते ! सोवसग्गे । एवामेव चित्ता ! तु पि सेयंत्रियाए णयरीए पदेसी शाम राया परिवन अम्मिए जात्र णो सम्पं करभरविति प वतेति णं कहूं अहं चिता ! सेयंविवाए एयरीए समोरिस्सामि । तए णं से चिते सारही केसीकुमारसपणं एवं बयासी - किं गंजते ! तुब्जे परसिया काय ? | त्यि णं जंते ! सेयंवियाए गगरीए ग्रहणे बहवे ईसरतलत्रर० जात्र सत्यवाह पनि तित्ता, जे ही देवापिए ! बंदिस्मंति, जर्मसिस्संति० जान पज्जुवासिस्संति, बिउलेणं असणपापखाइममाइमेणं पद्मिन्नाजिस्संति, पडिहारिएणं पीढफगसेज्जासंथारएणं उवनिमंतिस्संति । तते गं से केसी कुमारसपणे चित्ते सारही एवं बयासी- अचियाई चित्ता ! समोमरिस्लामो । तर गं से चिते सारही केमीकुमारसमणं वेद, एवंस, केमिस्स कुमार समस्स अंतिया कोट्टयाचेयाओ पत्रिखमइ, जेवि सावत्थी एगरी जेणेव रायममावासे तेणेव उवागच्छर, कोकुंवियपुरिसे सदा मद्दावेत्ता एवं वयासी - खिप्पामेत्र भो देवापिया ! चानुपदं आसरहं जुत्तामेव उववेह, जहा सेयंबियाए एगरीए णिग्गच्छ, तदेव० जात्र समाणे कुणालाए जवयस्सम मज्झे जेशव केकयछे जाए जेव सेयंविया एगरी जेयेव मियवशे उज्जाणे तेथेव नत्रागच्छड़, जत्रागच्छत्ता उज्जाण पालए सदावे, सहावेइत्ता एवं व्यासी जया णं देवाध्विया ! पामानचिज्जे परसि (ण्) बंदिज्जाह, एमसिज्जाह, वंदित्ता केसी नाम कुमार भित्ता अहापरूिवं उग्गहं अणुजाऐज्जाह, अजाणित्ता पारिहारिणां पीढफलग० जान उवरिणमंतिज्जाद, एयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चपिणिजाइ । तते ते उज्जापानगे चित्तें सारहिला एवं बुत्ता समाणा हट्टा जाव हियया करयन्नपरिगहि जान एवं - यासी- वह ति आगाए विषएवं चेत्र वयणं परिसुणंति । तते चित्ते सारही जणेव सेयंविया णगरी तेव उत्रागच्छ, उवागच्छत्ता सेयंवियाए एगरीए मज्ऊं मhi अपविस, अणुपविमइत्ता जेणेव पएनिस्सरएणो गिहे जेणेव बाहिरिया उवद्वाणसाला तेणेव उवागच्छछ, नवागच्छत्ता तुरए पिगिएह, तुरए बिगिरिहत्ता रहं वेड़, वेत्ता रहातो पच्चोभे, पच्चोरुनेइत्ता महत्वं जाव गिएहइ, जेणेव पदेस राया तेणेव उत्रागच्छा, उवागच्छता पएसि रायं करयझण्जाव बघावेत्ता महं० जान उवणेति । तते णं से पएसी राया चित्तस्स सारहिस्स तं म हत्यं ● जाव परिच्छ, पमिच्छत्ता चित्तं सारहिं सकारेश, सम्माड़, परिविसज्जेह तर णं से चित्ते सारही पदेसिया रा विमज्जिते समाणे हडतुड० जाव हियए पएसिस्स र लो त्र्यंतिया परिक्खिम, जेव चानघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छर, चाउम्बर्ट आसरहं कुरूहति, पुरूदत्ता सेवियार नगरीए म मज्जेणं जेणेव सए गेहे ते उ aircase णिगिएइ, रहं बड़, रहाओ पबोरुदेड, एहाए • जाव उपिपासायवर गए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्य एहिं बत्तीसं विश्वद्धएहिं पाडएडिं वरतरुणी संपतेहिं उचगिज्ऊमाणे उबगिज्जपणे इडे सद्दे फरिमे० जाव विहरति । तते णं केसी कुमारसमये या कयाई पानिहारियं पीढफलग सेकासयार पचपणे, सावस्थीतो कोट्टयाओ चेतियाओ परिक्रिम, पंचहि अणगारसहिंण्जाव विहरमाणे जेव केक जणवर सेयंविया नगरी जेणेव मियवणे उज्जाणे तेणेव जवागच्छ, अहापरिरूवं उगाई उग्गिहित्ता संजमेणं तसा प्रयाणं जावेमाणे विहरः । तते सेविया गरीए सिंघाडग० जात्र महया जणसद्देश वा०जाव परिसा विग्गच्छइ । तते णं ते उज्जाण पालगे इमी श्रमपिए सचद्वा समाणा इडनुहु० जाव हियए जेव केसी कुपारसमणे तेणेव उवागच्छछ, उवागच्छत्ता केसीकुमारसमणं बंद, मंस, ग्रहापडिरूवं उग्गहं अणुजाणंति, पाडिहारिए०जाव संधारणं उबणिमंते, णामं गोयं पुच्छति, पुच्छता धारेति, अमं एवं बयासीजस्म णं णामं देवाणुपिया ! चित्तं सारही दंसणं कंस, दं सर्ण पत्ये, दंसणं पीछे, दंसणं अनिस, जस्स णं णामगो For Private Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) पएसि (ण) अभिधानराजेन्डः। पएसि (ण) यस्स वि सवणयाए इहतुट्ठ० जाव हियए जवइ,से णं केसी ण देवाणुप्पिया! पदेसिस्स बहुगुणतरं होत्था जण वयस्स । कुमारसमणे पुवाणुपुचि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे | तए ण केमी कुमारसमणे चित्तं सारहिं एवं बयासी एवं खलु इहमागए,इह संपत्ते, इह समोसदे इहेत्र सेयंबियाए णगरीए चनहिं गणेहिं चित्ता! जीवा केवक्षिपएणतं धम्मणोलभेबहिया मियवणे उज्जाणे अहापभिरूवं. जाव विहरइ। तं जना सवणयाए,तं जहा आरामगयं वा नजाण गयं वा सगच्छामो णं देवाणुप्पिया! चित्तस्म सारहिस्स एयमढें पियं मणं वा माहणं चाणो अभिगच्छति,णो वंदति,णो णमंमति, णिवेदेमो,पियं ते नवउ, अपमास्स अंतिए एयमटुं पडिसुणं- यो सकारोति, णो संमाणे, णो कहाणं मंगलं देवयं चेइयं ति, पडिमुणंतित्ता जणव सेयंबिया णयरी जेणेव चित्तस्म पि व पज्जुवासति, णो अट्टातिहेकाहिं पसिणावागरणाई सारहिस्स घरे जेणेव चित्ते सारही तेणेव नवागच्छइ, चित्तं पुच्छह, एएणं गणेणं चित्ता ! जीवे केवनिपाणत्तं धम्म सारहि करयन जाव बद्धाति, बछावइत्ता एवं बयासी- णो समति सवरण याए । उबस्सयमयं समणं वा तं चेवन जस्स गं देवाणुपिया! दमणं कंखतिजाव अनिलसति, | जान एपणं वीयहाणेणं चित्ता! जाव केवनिपएणतं धजस्स णं गायगोयस्स विसवणयाए हहतुट्ठ० जाव भव मं णो लभति सत्रणयाए । गोयरग्गगयं समणं वा० नाव ह, से ए अयं पासावच्चिज्जे केसी णाम कुमारसमणे पु- | णो पज्जुवासइ, णो दिनलेणं असणपाहाखाइमसाइमेण वाणूपुचि चरमाणेजाव समोसदे जाब विहरति , तए | पमिलानेइ, णो अट्ठाई. जाव पुच्छति, एएण विगणेणं णं से चित्ते सारही तेसिं उज्जापपानगाणं अंतिए एयमढे चिता । जीवे केवन्निपण धम्म णो लभइ सवण्याए । सोचा णिसम्म हहतुट्ठ० जाव पासणाओ अन्तुढेइ, पा जत्य विएं समणेणं वा माहणेणं वा सर्फि अभिसमस्यायपीढाओ पचोरुहति,पान्याओ मुयति,मुयइत्ता एगसाडियं गच्छड, तत्य वियणं हत्येण वा वत्येण वा अप्पाणं आउत्तरासंगं करेइ, करेसा अंजलिमनालयहत्य केसीकुमा- वरित्ता चिट्ठ, एएणं गणेणं केवलिपाण धम्मं णो रसमणाभिमुहे सत्तट्ठपयाई अणुगच्च,अणुगच्छइत्ता कर. बज सवणयाए । एएहि चनहिं गणेहिं जीवे केवलिपयापरिम्गहिय एवं बयासी-मोऽत्यु णं अरहंताणं जाव मत्तं धम्म को लभा । चित्ता! च उहिंगणेहिं जीवे केवलि. संपत्ताणं,णमोऽत्थु णं केमिस्स कुमारसमएस्स मम धम्माय- पएणतं धर्म लजह सवणयाए । तं जहा-पारामगयं वा रियस्स धम्मोवएसिस्स,चंदामि णं भगवं तत्थ य इहगए ति समणं वा माहणं वा बंद, मंस जार पज्जुवासति, अकटु वंदति,णमंसति, उजाणपालए विउलणं वत्यगंधमला- हाई. जाव पुच्च । एएगणेणं चित्ता ! जाव लजति संकारेणं सकारोति, सम्माणेति, विउल्लेणं जीवितारिहं पीइ- सवण पाए । एवं नवस्मयगय गोयररगयं समणं वाजाव पदाणं दनयति,पमिविमज्जेति,कोबियपुरिसे सद्दावेइ,सद्दा- उजवासंति विनले जाव पडिलाभेति अट्ठाइन्जाव पुच्छइ, वेत्ता एवं बयासी-खिप्पामेव नो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंट एएण वि ठाणेणं जाव सवणयाए जत्य विणं ममणेणं वा आमरह जुत्तामेव नववेजाव पञ्चप्पिणछ। तते णं ते को- माहणे वा अभिसमागच्छद,तत्थ वि य णं णो हत्येणं वा० बियपुरिसे खिप्पामेव सच्चत्तं सज्कयं नाव उद्ववेत्ता तुरए त- जाव आवरेत्ताणं चिट्ट, एपण वि गणेणं चित्ता ! जीवे माणत्तियं पनापिणंति ।से चित्ते सारही कोबियपुरिसाणं केवलिपातं धम्मं ल भइ सवणयाए । तुम्हंण चित्ता! पअंतिए एयमह सोच्चा णिसम्म हट्ठजाव दियए एहाए एमी राया आरामगयं वा तं चेव सव्वं नाणियन्वं प्राइस कयवलिकम्मेजाव सरीरे जेणे व चाजम्घटेजाव मुरूहित्ता एणं गमएणंजाव अध्याणं आवरेत्ताएं चिट्ठति,तं कहं णु सकोरिंट०महया जमचमकरणं तं चैव पज्जुवास, धम्मक-- चित्ता! पएमिस्स रमो धम्ममाइक्खिस्मामो ? । तते णं मे हाजाच । तए से चित्ते सारही केमिस्म कुमारसमणस्स चित्ते सारही केसीकुमारसमणं एवं बयासी-एवं खल भंते ! अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हतुझे तहेव एवं बयासी- अमया कयाइ कंबोएहिं चत्तारि आसा उवणयं नवणीया, एवं खल्ल ते! अम्हं पदेसी राया अधम्मिए जावस- ते मए पएसिस्स रएणो प्राणया चेत्र विएणया तएवं इस्स वि जणवयस्स णो सम्मं करनरं पनत्तेति, तं जइ एं खा जंते ! कारणेणं अहं पएसिसाणं रायं देवाणप्पि. देवाणप्पिया ! पदोसस्स रमो धम्ममाइक्खेज्जा बहुगुणु. याणं अंतियं हवमाणइस्सामो, तम्हा णं देवाणप्पिया ! त्तरं खलु होउजा पदेसिस्स रमो, तेसि णं बढ़ण य । तुब्ने पएसिस्स रगणो धम्ममाइक्खेज्जाह,वंदे ण नंते ! तु. उपयचउप्पयमिगपसुपक्खिमरीसिवाणं, तं जाणं देवाणु- ने पएसिस्मरणो धम्ममाइक्वज्जा । तते णं केसी कुमारसमप्पिया ! पदेसिस्स रमो धम्ममाइक्खेज्जा बहुगुणत्तरं फलं चित्तं सारहिं एवं बयासी-अवियाई चित्ता!जाणिस्सामो। होज्जा तेसि गं बहूणं समणमाहण निक्खुयाणं, तं जातते णं से चित्ते सारही केसीकुमारसमणं बंबइ, णमंसति, Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसि (ग् ) वंदित्ता णमसत्ता जेणेव चाजग्घंटे आसरहे तेणेव उबागच्छ, जत्रागच्छत्ता चारघंटं आसरहं दुरूह, 5रूहइत्ता जामेत्र दिसिं पाजन्नूए तामेव दिसिं पाडेगए तते णं से चिते सारही कल्लं पाठयभाए रयणीए फुल्लुपलकमकोमलु म्मिल्लियम्मि अहे पंडुरे बजाए कलियमssवस्मर सहस्सरस्सिम्मिदियरे तेयसा जयंते साओगेहाम्रो शिगच्छड, पिगच्छत्ता जेएव पएसी राया तेणेव उवागच्छति, नवागच्छत्ता पदेमिरायं करयल०जाब कट्टु जए विजए, बद्धावेत्ता एवं बयासी एवं खघु देवाप्पिया! कंबोएहिं चत्तारि आसा उवयणं उणीया यमदेवापियां लिवेइए एहि गं सामी ! आसे श्रा ३३) निधान राजेन्द्रः । या पासह। तए से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं क्यासी-गच्छादितुभे चित्ता ! तेहिं चनहिं चैव आसेहि आसर जुत्तामेव ननवेहि, उद्ववेत्ता जान पञ्चपिगाहि । तते णं चित्ते सारही एसिया रष्मा एवं वृत्ते समाला :तुहिए जान उत्रेति, उद्ववेत्ता एवमापत्तिर्य पच्चप्पियति । तते णं से पएसी राया चित्तस्स सारहिस्स तिए एयम मोच्चा निसम्म हट्ट जाव अप्पमहरवाभरणालं कि सरीरे साओ गिहाम्रो निगच्छति, निगच्छइत्ता जगामेत्र चाउरघंटे आसरहे तेषामेव उवागच्छइ, नवागच्छइत्ता चाउघंटे आमरहे दुरूहति, सेयंवियाए - गरी मज्जं मणिग्गच्छ तते गं से चित्ते सारही तं र अगाई जोयणाई उन्नामे । तते गं से पदेसी राया उद्वेण यतएहाए रहवारणं परिकिलरसति समाणे चि. तं सारहिं एवं बयासी चित्ता । परिफिलंते मे सरीरे, तं प रावतेहि रहे । तए णं से चिने सारही रहं परावतेति, जेणेव मित्रणे उज्जाये तेणेव उवागच्छ, पएस रायं एवं बयामी - एस णं सामी ! मित्रले उज्जाणे, एत्य श्रसा समेकिलामं सम्पमवणेमो । तए णं से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं बयासी एवं होउ चित्ता । तए णं से चित्ते सारही जेणेव मियवणे उज्जाणे जेणेव केसिकुमार समएस्स अरमागते तेणेव उवागच्छछ, तुरए निगिएहड़, रहं व रहातो पच्चरुम, तुग्ए मोएति, मोएता पएसिं रायं एवं बयासी - एहिं सामी! आसाणं समं कित्तासम्ममवणेमो। तते णं से पदेसी राया रहातो पच्चोरुनति, चित्तेणं सारहिला सद्धिं श्रसाणं समं किलामं सम्ममत्रणीमाणे पास जत्य केसी कुमारसमये महतिमहाझियाए मणुसपरिसाए मगर य महया मझ्या सदेणं धम्ममाइक्खमाणं पासति, पासिता इमेयारूत्रे अम्भस्थिर संकप्पे समुप्पजित्था - जमा जो जर्म पज्जुवासंति, मुंमा खलु भो मुंरुं पज्जुवासंति, मूढा खन्नु भो मूढं पज्जुवासंति, अपंमिया खलु जो अपंडियं 世 For Private परसि (‍ ) पज्जुवासंति, निनिलो खबु जो निणि खलु जो निव्विाणाणं पज्जुवासंति, केसंति इमे, केस णं एस पुरिसे जडे मूढे मुंडे पंडिते निविष्ठाणे सिरीए हिte नवगए उत्तप्पसरीरे १, एम णं पुरिसे किमाहारेति, किं खाइ, किं पिवति, किं दवयति, किं पयच्छति, जेण एस पुरिसे महतिमहाझियाए मस्तपरिसाए, मज्जगते महया संदेणं बूयाइ १,एवं संपेढेड, संपदेइत्ता चित्तं सारहिं एवं बयासी - चित्ता ! जमा खलु भो जमं पज्जुवासंतिजाव बूयाइ साए त्रियां उज्जाणनूभीए को संचाए मि सम्म पकामं पवियरित्तए । तर चिने सारही परसिरायं एवं बयासी एस सामी सव्वविज्जे केसी नाम कुमारममणे जातिसंप० जाव चानुष्पाणोवगते अहोद्दिए असजीवी । त‍ णं से पदेसी राया चित्तं सारहिं एवं बयासी- अहोहित्तं वयासी चित्ता!, माजी वियत्तं बयासी चित्ता ।। हंता ! सामी ! अहोहियत्तं वयामि, अन्नजीवियत्तं वयामि । अभिगम जे चित्ता! मे एस पुरिसे देता है। सामी ! अनिगमणिज्जे । अभिगच्छामो चित्ता ! अम्हे एयं पुरिसं १ । हन्ता सामी ! अभिगच्छामो । तने एं से पएसी राया चित्ते सारक्षिणा सद्धिं जेणेव केसी कुमारसमणे तेव उनागच्छछ, उवागच्छछत्ता केसिस्स कुमारसमएस अडूरसामंते विद्या एवं बयासी-तुब्ने णं भंते ! होहिया अन्नजीविया । तए णं केसी कुमारसमये पदसिं रायं एवं बयासीसे जहानामए वाणियाइ वा संखवाणियाइ वा दंतनाणियाइ वा मशिवाशियाई वा सुक्कं जेउं कामा नो सम्मं पंथं पुच्छंति, एवामेव पदेसी ! तुमं पुच्छेवि वणयं जंजेनं कामे नो सम्मं पुच्छसि मे नूगां तत्र पदेसी ! मम पासित्ता अयमेयारूवे अन्न थिए० जाव समुप्पज्जित्था - जमा भोज पज्जुवासंति ० जाव पवियरिणं । पदेसी ! एस अट्ठे समट्ठे ?। हंता प्रत्थि । तए एां से पदसी राया केसी कुमार समणं एवं बयासी-से केणं जंते ! तुब्नं णाणं वा दंसणं वा, जेणं तुम्भे मम एयावं अन्नत्थियं० जाव संकष्पं समुप्प जाह, पासद ? । ततेां से केसी कुमारसमले पएसिरायं एवं बयासी एवं खलु पदेसी ! अम्हं समणाणं निथाएं पंचविहे गाणे पम्पत्ते । तं जहाआनिषिबोदिया, सुगणाले, ओहिणाणे, मण्पज्जवणणे । से किं तं श्रनिबिडियणाये ? । आजिबिहिया चन्त्रिते । तं जहा उग्गहे, इहा, वाए, धारणा से किं तं उग्गहे ?। उग्गहे विडे पत्ते । तं जहा नंदी जाव मेत्तं धारणा । सेतं आजित्रिोहिणाएं । से किं तं सुनाएं ? | सुयनाणं कुविहं पमात्तं- अंगपविच, अंगबाहिरं च सव्वं भणियन्नंजाव दिट्टिवाओ। ओहिनाणं से किं तं सूयं वयोवसमियं च जहा नंदीए। मरण प्रज्जवनाणे * नन्दीसूत्रे यथा कृता तथाऽत्रापि कर्तव्या । Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएसि (ण) अभिधानराजेन्धः। पएसि (ण) पुषिहे पप्मात्ते । तं जहा-नज्जुमत्तीय विपुलमती य । तहेव केव बयासी-अस्थि णं पदेसी!तव सूरियकता नामा देवी?।हंता अलनाणं भाणियव्वं । एत्य एजे से आमिणिबोहियनाणे सेणं त्यि जया णं तुम्हं पदेसि तं सूरियतं देविं एहायं कयवलिमम अस्थि,एवं चेव मुयाणाणे मोहिणाणे मणपज्जवणाणे वि कम्म कयकोउयमंगलपायच्चित्तं सव्वाअंकारविज्ञसियं केणई य, तत्थ ए जे से केवलनाणे से एणं ममनस्थि। सेणं अरहताएं पुरिसेणं एहाएणंजाब सव्वाबंकारविनूमिएणं सकिं इढे भगवंताणं। इच्चेएणं पदेसी!अहं तब चनबिहेणं गउभत्ये- सफरिसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोए पञ्चाणं नाणाएं इमेयारूवं अन्भस्थियं जाव समुप्पन्न जाणामि, भवमाणे पासिज्जासि, तस्स णं पदेसी! पुरिसस्स कं दंड पासामि । तए णं पदेसी राया केसिकुमारसमणं एवं बया- निव्वत्तेजेसि ?। अह एं भंते ! पुरिस इत्यपिगं वा सी-अहं णं भंते!इह उबविमामि। पदेसी साए उन- पायच्छिमगं वा मूसानिजग्गं वा एगाहच्च कमाहचं जी. जुमीए तुमंमि चेव जाणए। तते णं से पदेसी गया चित्तणं, वियाओ वमोवेज्जा। अह णं पदेसी! से पुरिसे तुभं एवं ब. सारहिणा सद्धिं केसिकुमारसमणस्स अदूरसामंते नबवि. एज्जा मा णं तुम्हे सामी!सुमहत्तगं हत्यच्चिन्नगं वाजाव सति नवविसित्ता केसिकुमारसमणं एवं बयासी-तुब्ने एं जीविश्रामो ववरोवेहि जाव ताव अहं मित्तनाशनियगसनंते ! समणा निग्गंथाणं एसा सरणा एसा पतिमा एसा यणसंबंधिपरिजाएं एवं वयामि-एवं खलु देवाणुप्पिया ! दिट्ठी एमालई एस हेक एस नबएसे एम संकप्पे एस तुला एस पावाई कम्मा समायरित्ताई इमेयारूवं आवयं पाविज्जामाणे एस पमाण एस समोसरणे जहा अप्लो जीवो अम्म मि, तं माणं देवाणप्पिया! तुब्ने केह पाबाई कम्माईम. सरीरं,नो तज्जीवो तं सरीरीतते णं केसी कुमारसमणे पदे. मायरउ, माणं से वि एवं चेव आवयं पावेज्जासि य जहा सिं रायं एवं वयासी-पदेसि ! अम्हं समणाणं निग्गंथाणं णं हं। तस्स णं तुमे पदेसी! पुरिसस्स खणमवि एयपटुं एसा समजाव एस समोसरणे-जहा अन्नो जीवो अन्नं पमिसुणेनासि? नो इण्डे समढे कम्हा णं भंते ! अवसरीरं,नो तज्जीवो तं सरीरं । तते ६ पदेसी राया केसिक राही से पुरिमे । एवामेव पएसी! तव अज्जए होत्था मारसमणं एवं बयासी-जति णं जंते ! तुम्ने समणाणं इहेव सेयंचियाए नयरीए अधम्मिए जाव नो सम्मं करजनिग्गंथाणं एसा समा जाव एस समोसरणे, जहा अप्लो रवितिं पवत्तेति सेणं अम्हं वत्तव्बयाए सुबह जाव उववरण जीवो अशंसरी, नो तज्जीवो त सरीरं,एवं खलु मम अ. तस्स रणं अज्जगस्स तुयं नत्तुए होत्या इडे कंते० जाव ज्जए होत्या इहेव जंबुद्दीवे दीवे सेयबियाए नयरीए अधम्मिए जाच समस्स वि य णं जाणवयस्त नो सम्म पासण याए से इच्छइ माणुस्सझोग हबमागच्छति, नो चेव करनरवित्ति पन्चत्तेति,से एणं नुन्नं वत्तव्ययाए सुबहुपाचं एं संचारएति.हव्व मागच्छति।तते णं च उहिं गणेहिं पदेसी! कम्म कलिकलुस समन्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा अ अहुणोचव नरए नेरतिए इच्छइ माणुस्सलोग हन्नमागभयरेसु नरएसु नेरइयत्ताए उपवणे। तस्स णं अजगस्स अहं | च्छति मते अहुणोचव नरए नेरइए समच्च्नेयणं वेयमाणे नत्तुए होत्या इ8 कंते पिए मण मणाम धिज्जे वेसा इच्छिइ माणुस्मं लोग हनमागच्छित्तए नो चेन एणं संचाएति सिए सम्पए बहुमते अणुपए करंडगसमाणे जीविउस्सविए हव मागच्छित्तते, अहणाववन्नए नरए निरतिए नगरपाहिययणंदिजणणे दुंबरपुष्फ पि व दुबभे सवाण याए किमंग लगेहिं जज्जो तुज्जो समहिविज्जमाणे इच्च माणुमं सोगं पुण पासणयाए। तं जइ से अजए ममं आगंतुं वए हव्वमागउित्तए नो चेत्र णं संचाएति हन्नमागच्छित्तए ज्जा-एवं खलु नत्तुया ! अहं तव अज्जए होत्था इहेव से अदुणोवचन्नए नरएसु नेरइए निज्जास कम्मंसि अक्खीयंधियाए नयरीए अधम्मिए जाव नो सम्मं करभरवित्ति पंसि अवेडयंसि अणिज्जिनसि इच्छति पाणुसं लोग ह बमामच्छित्तए नो चेव णं संचाएति, एवं निरयाउयंसि क. परतमि,तते णं अहं सुबहुपावं कम्म कझिकलुमं समजिणित्ता जाव चवहो तं माणं तुया!तुम पिजवाहि अधम्मी मंसि अक्खीणंसि अवश्यंसि अणिजिमंसित मा. जाव नो सम्मं करनरवित्ति पवत्तेहिमाणं तुमं वि एवं चेव एम लोग हबमागच्चित्तए नो चेव णं संचाएड हबसुबहपावं कम्मं जाव उववजिहिसितं जया एणं से अज्जएस. मागच्छित्तए । इच्चेहिं चनहिं गणेहि पएसी ! अहुपोचवले म्मं आगंतु एवं वएज्जा,तते गं अहं सदहेजा, पत्तिएज्जा, नरएम नेरइए इच्छइ मातृमं बोगं नो चेत्र णं संचाएE, रोएज्जा जहा प्राप्नो जीवो अन्नं मरीरं,नो तज्जीवो तं सरीरं, हन्धमागच्छित्तए, तं सहाहि णं तमं पदेसी! जहा अन्नो जहाण से अजए ममं आगंतुं नो एवं बयासी,तो मुपति जीवो अन्नसरीरं, नो तज्जीवोतं मरीरं ।। तते णं से पदेसी डिया मे पाया समणाउसो! जहा तजीवो तं सरीरं,णो अन्नो राया केसीकुमारसमणं एवं बयासी-अस्थि णं ते ! जीवो अन्नं सरीरीतते ण केसी कुमारसमणे पदेसारायं एवं एस पत्ती उवमा इमेणं पुण कारणणं णे उवाग Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएसि (ण) अभिधानराजेन्द्रः। पएसि (ण) च। एवं खलु भंते ! मम अन्जिया होत्या इठेव सेयंचि. चाएइ अदुणाववाए देवे दिव्येहि कामनांगेहि मच्छिते. यानयरीए धम्मियाजाव धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा स. जाव अकोवक्मए । तस्म णं एवं भव इयाणगस्थि मुनुत्तेमगोवासिया अहिगयजीवाजीचा सब्बो वप्लोजाव अ- ण गच्छंतागं कानेणं इहिं अप्पान्या कालधम्मणा संजुत्ता पाणं नावेमाणा विहरति । से णं तुम्नं वत्तवयाए मुबहु नवंति, से णं इच्छेज्जा माणुमं लोग नो चेव णं संचाए पुराणोवयं समन्जिणित्ताकासमासे काल किच्चा अन्नयरेम अहुणोचवणए देवे दिव्वेहिंन्जाव अजमोववमए । लसणं देवलोएसु देवत्ताए उचवन्ना | तीसे णं अज्जियाए माणुस्सए उराख्ने गंधे परिकले पमिलोमे वि य भवति उर्फ़ पि अहं ण सुए होत्या इहे कंते जीवपासणयाए, तं जाणं यणंजाव चत्तारिपंचजोयणमयाई असुने मापुस्मए गंधए अज्जिया ममं आगंतु एवं वज्जा । एवं खलु नत्तुया ! अहं अजिममागच्चड,से णं इच्छेना माणुसं लोग णो चेव णं संतब अज्जिया होत्या हेव सेयंबियाए नगरीए धम्मिया० चाइज्जा, चेहिं चनहिं गणेहिं पएसी! अहुणेववप्लए देवे जाब वित्ति कप्पेमाणी समणोवासिया० जाब विहरामि, देवलोएसु इच्छेज्जा माणुसं लोग दृब्वगागच्चित्तए, नो चेव तए णं अहं पुप्मोववयं समन्जिणित्ता अन्नतरेसु देवनोएसु एणं संचाए हन्नमागजित्तए तं सहाहि णं तुमं पएमी। जहा उपवधा,तं तुमं पिणत्तु या!जवाहि धम्पिएन्जाव विहराहि, अन्नो जीवो अन्नं सरीरं,नो त जीवो तं सरीरं॥ तए णं मे तो णं तुमंवि एवं चेव सुबहपुराणोरवयं समज्जिणित्ता. | पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं बयासी-अस्थि णं जंते ! जाव देवलोएसु उवव जिनहिसि । तं ज णं सा अज्निया एमा पन्नत्ती उवमा,इमेणं पुण कारणेणं नो उवागच्चइ,एवं खयु मम आगंतु एवं वएज्जा, तो एं अहं सादहेज्जा, पत्तिए- नंते! अहं अनया कयाइ वाहिरियाए उवट्ठाणसाझाए बज्जा, रोएज्ना, जहा अन्नो जीवो अप्नं सरीरं, नो तज्जीवो दुहिं गणनायगदंझणायगईसरतवरमाडंबियकोमुविय इमतं सरीरं, जम्हा अज्जिया ममं आगंतु नो एवं बयासी-त. सेट्टिमेणवइसत्यवाहमंतिमहामंतिगणगदोबारियअमञ्चपीढम्हा सुपहिया मे पणा जहा तज्जीयो त सरीरं,नो अन्नो मद्दननगरनिगमद्वयनंधिवानेहिं माँई परिव विहरामि । जीवो अन्नं सरीरं । तए णं केसी कुमारसमणे पदेसीरायं एवं ममं नगरगुनिया ससक्खं सहोढं सगवेज अवाउ बयासी-जया [ तुमंपएमी! एहायं कवनिकम्म कयको- धणवकं चोरं नवोति नए अहं तं पुरिसं जीवंत चेन उयमंगलपायच्छित्तं नापसाडगभिंगारं कमुच्छयहत्यगयं अउकुंभीए पक्खिवावेमि, अयोमरणं पिहाणे पिहावेमि, देवकुलमापविसमाणं केइय पुरिसे बच्चघरंमि ठिच्चा एवं बए- अएण य तनएण य कयावेपि,अयपच्चत्तिएहिं पुरिसींह जाहि ताव सामी !इह मुहुत्तगं आमयह वा,मयह वा,चिट्ठह रक्खायोमि, तए णं अहं अन्नया कयाइ जेणेव सा अओवा,निसीयह वा,तुपट्टहवा,तस्स तुपं पएसी! पुरिमस्सख- कुंजी तेणेव उवागच्छामि,तेणेव उवागच्चित्ता तं अओकुंनि णमविएयपढे पमिमुज्जासि। णोडणढे समठे। कम्हाणं नग्गलच्चावमि, नग्गलच्छवेत्ता तं पुरिसं सयमेव पासामि, नंते ! असुती तं सामंतो। एवामेव पएमी! तब वि अज्जिया नो चेच गं तीसे अयोकुंभीए के जिम्मेड वा, विवरेड होत्या इहेव सेयंबियाए नयरीए धम्पियाजाव विहरति । सा वा, राई वा । जो णं से जीवे अंतोहिंतो बहिया एं अम्हं वत्तयाए सुबहूजाच उपत्रमा। तीसे एं अज्जियाए निग्गए। जहणं ते! तीसे अयोकुंजीए होज्जा केइ तुम्हंणनए होत्या इच्छति माणुमं लोगं हवमागच्चिए, नो छिके वाजाव राई वा,जो णं से जीवे अंतोहिंतोनिचेवणं संचारएति इन्चमागस्किए। चउहि चणं ठाणेडिं पदे गते, तो णं अहं सहेज्जा, पत्तिएज्जा, जहा अन्नो जीसी! अहापोचवणए देवे देवलोएम इच्छेज्जा माणुसं सोगं वो अन्न सरीरं, जम्हा णं ते! तीसे अयोकुंनीए नत्यि नो चेत्र णं संचाएति हबमागत्तिाए, अहुणोवाए केइ निम्मे वाजाव निग्गए,तम्हा मुप्पतिट्ठियामे पतिदेवे देवलोएस इच्छेज्जा माणुसं सोगं नो चेव णं संचाएति ना जहा-तज्जीवो तं सरीरं, नो अन्नो जीवो मन्नं सरीरं। धमागन्छित्ताए, अहुणोववस्मे देवे देवलोएमु दिब्बेहि तते णं केसी कुमारसमणे परसिरायं एवं बयासी-से नहाकामभोगेहिं मुच्छिते गढिते अजकोववो, से णं माणुस्सए नामए कूमागारमानामिया होनिता गुप्ता गुत्तदुवारा कामभोगे नो पाढाति, नो परिजाणाति, से णं इच्चिज्जा निवायगंभीरा, मह ए के पुरिमे रिं च दं च गहाय माणमं सोगंनो चेव णं संचाएति अहणोचनमो देवे देवो. मसालं अंतो २ अप्पविसति,अणुप्पविसित्ता तीसे कूमाएसु दिव्वेहि कामभोगेहि मच्छितेजाब प्रज्कोववन्ने। त- गारसालाए मन्यो समंता घणनिचयनिपिछडाई दुवारवयसणं माणुस्सए पिम्मे वोच्चि जबति,दिने पिम्मे सं- पापिधेति,पिधेचा तीमे कृटागारसालाए बहुमकदेसभाकंते भवति, से णं इच्छेन्ना माणुमं लोगं, णो चेवणं सं एविच्चा तं नरिंदणं महया महया महेणं नामज्जा,से नू Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) अभिधानराजेन्द्रः । परसि ( ग ) देसी सद्दे अंतोहितो बहिया निरगच्छ ? | हंबा निग्गच्छइ । अस्थि पदेसी ! तीसे कूमागारमालाए केइ बिले ० जाब राई वा । जहां से मद्दे अंतो बढ़िया निग्गतो, एवामेव देसी ! जीवेवि अप्पमयगती पुढविं जिला सि जिच्चा पव्त्रयं भिचा अंतोहितो बहिया निगच्छइ, तं सदाहिणं तुमं पदेमी ! जहा अन्नो जीवो अन्नं शरीर, नो तज्जीवो तं सरीरं ३ || तए णं पदेसी राया केसीकुमारसमणं एवं बयासी अस्थि भंते ! एसा पत्ती उत्रमा, इमे पुर्ण कारणं नो जवागच्छर । एवं खलु जंते ! अन्नया कमाइ बाहिरियाए उबडाणसालाए० जान विहरामि । तते णं मम नगरगुत्तिया समक्खं० जाव उव तणं, अहं तं पुरिमं जीविताओ वनरोवेमि, जीवियाग्र वित्ता अयोकुंभीए पक्खिमि प्रयोमरणं पिहाणे पहावे मि०जात्र पञ्च एहिं पुरिमेहिं रक्खावेमि । तए णं अहं अन्नया कयाइ जेणेव प्रयोकुंनी तेथे जत्रागच्छामि, उबागच्छिता तं प्रयोकुंनि जग्गच्छामि, तं श्रयोकुंजि मिमं पित्र पासासि, नो चेव णं तीने प्रयोकुंभीए केइ बिड्डे वा० जात्र राई बा० जम्रो णं ते जीवा बहियादि तो पाि । जति णं तीसे प्रयोकुंजीए होज्जा बिड्डे बाजार पत्रिका, तो णं श्रहं सहेज्जा ज हा अन्नो जीवो तं वेब, जम्हा णं तीने अयो कुंजीए नत्थि केइ छिड्डे वा० जाव अणुविधा तम्हा सुपतिडिया मे पइसा जहा तज्जीवो तं सरीरं तं चैत्र । तते सां केसी कुमारसमये पएस राय एवं बयासी- अस्थि णं तुम्हे पएमी राया तं वा मावि पुव्वे वा । हन्ता अस्थि । से नूणं एसी ! यो समाणे सच्चे अगणि परिणते नवति ? | इंता भवति । अस्य णं पदेसी ! तस्स यस्स केई बिड्डे जात्र राई बा, जे से जीवा बहियाहिंतो अंतोनवडे, वामेव परसी ! जीवेवि अहिराई पुढत्रिं भिच्चा सि जिचा पन्चयं भिच्चा बहियाहिं अतिं सदहाहि पं तुम्हें पएसी ! तत्र ४ ॥ तए णं से पदेसी राया के सिपारस एवं बयासी - अस्थि णं जंते ! पन्नत्ती उमा, इमेणं पुकारणं नो उत्रागच्छ जते ! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे० जाव सिप्पोवगए प पंचकमगं निमरित्तर हंता पनू । अति णं भंते! मे चैत्र पुरिसे वाले जान मंदविन्नाणे पन्नू होज्जा पंचगं निरित, ततो अहं मदहेज्जा, पत्तिएजा, जहा असो जीवतं चेत्र, जम्हाणं भंते! सो चैत्र वाले जाव मंदविष्ठा एसा नो पनू पंच निमरित्तए, तम्हा सुपइडिया मे पतिष्ठा जहा तज्जीवो तं चेत्र सरीरं । तने णं केमी कुमारसमणे प देसि रायं एवं बयासी - पदेसी ! से जहानामए केड़ पुरिसे For Private एस (ग् तरुणे० जाव सिप्पो गए नवएणं धणुणा नवियाए जीवाए नवणं सुणा पनू पंचकं मयं निसरित्तए । ता पन् । | सो चैत्र पुरिसे तरुणे० जाव निउ सिप्पोवगते कोरिएणं कोरिल्ला जीवाए कोरिल्लएणं उम्रणा पत्तू पंचकंडगं निसरितए ? | नो इट्टे समट्ठे कम्हा गां भंते! तस्स पु· रिसम्म अपज्जताई जवगरणाई अवंति, एवामेत्र पएसी ! सो चैत्र पुरिसे बाजे ० जाव मंदविष्ठाणे अपजत्तोवगरशे नो पभू पंचकंड निसरतए, तं सद्दद्दाहि णं तुम्हं पएसी ! जहा अन्नो जीव तं चैव ५|| तर पएसी राया केसी कुमारममणं एत्रे वयासी प्रत्थि णं जंते ! एसा पन्नत्ती उत्रमा इमेल पुग कारणें नो उवागच्छ भंते! से जहापापए केई पुरिसे तरु० जाव सिप्पोवगए पन्नू एवं महं अयजारगं वा तयार वा सोमभारगं वा खारजारगं वा परिवहित्तए, जहां जने ! सो चैत्र णं पुरिमे जुऐ जज्जरियदे हे मिटझवलितयाए विट्टगत्तए दंमपरिगयइत्ये परिपरिसकि यदतसेढी आउरिए पिवासिए दुब्बले बुहापरिकिअंते पन् एवं महं अयभारं वाण्जाव परिवहित्तए, तो णं सदहेज्जा, प त्तिएज्जा तहेव, जम्हाणं भंते! सो चेत्र पुरिसे जुझे०जाव कि• ते नो पक्ष एवं महं अवजारं वा०जाव परिवहित्तए, तम्हा सुपइडिया मे पतिएका तहेव । तए गं केसी कुमारसमणे पदेसी राय एवं क्यासी-से जहानामए के‍ पुरिसे तरुणे०जात्र सिप्पीगए नत्रियाए बहंगियाए नवएहिं सक्खएहिं न एपिच्छयापिएहिं पन एगं महं अयजारं वा० जाव परिवत्तिए || हंताप । पसी ! सो चैत्र पुरिसे तरु ०जाब सिप्पोवगए जुमियादुवलित्ताए यूपीए खंनियाए बहंगियाए जुम्प्रहिं यूनाइएहिं सिट्ठिलवया पिट्ठेहिं सक्खएहिं जुम्मोहिं थूणाखइ एहिं पच्चियापिट्टएहिं पभू एवं महं भारं वाण्जाव परिवहित्तए । नो इण्डे समट्ठे कम्हा अंत ! तस्स पुरिसस्स जुरालाई उदगरलाई भवति, एवामेव से पुरिसे जु० जाव किलंते जुन्नोवगरणे णो पनू एवं मारं वाण्जाव परिवहित्तए, सद्दद्दाहि गं तुम्हे पएसी ! जहा अन्न जीवो न्नं सरीरं ६ ।। तए एं से पदेसी राया केसी कुमारं समणं एवं बयासी-अत्यि णं नंते ! ०जाव नोवा गच्छ एवं खलु जंते !० जाव विहरामि । तते मम नगर गुत्तिया चोरं नवति । तते णं श्रहं तं पुरिसं जीवंतग चैत्र तुरे, तुसेड़ना बचिच्छेयं प्रकुब्नमाणो जीविताओ व रोएम, जीविताश्र नवरात्रिया मयं तुलेमि, तुलेइत्ता नो चेत्र तरस पुरिसम्म जीवितस्स वा तुझियस्स मयस्स वा तुझि• यस्न नत्थि केइ अष्ठात्ते वा नाणत्ते वा उम्मत्ते वा गरुयत्ते वा बहुयते वा । जति णं भंते तस पुरिसस्स जीवितस्स वा तुझि Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) पएसि (ण) अभिधानराजेन्छः। पएसि (ण) यस्स,मयस्स वा तुझियस्स होज्जा के अपत्ते वा. जाव परसुं गएहइ.गेएह इत्ता तं कट्ठे नुहा फालियं करेइ, करेऽत्ता बहुयत्ते बा,तो णं अहं सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा,तं चेव जम्हा एं सव्यत्रो समंता समनिलोए नो चेवणं जोई पासति, एवं जंते ! तस्स परिसस्स जीवियस्स वा तुलियस्स मयस्स वा तु जाव संखेज्जफ नियं करेइ.करइत्ता सव्वयो समंता सजिझियस्स नस्थि के अहाते वा लहुयने वा,तम्हा सुपतिहिया मे स्रोएइ,नो चेवणं जाईपासति,तते णं ते पुरिसे सि कलुसि पतिस्मा जहा तज्जीवो तं चेव मरीरं तर णं केमी कुमारसमो दुहा फालियंसि वा जाव संखेज्जफानियंसि वा जोनिं अ-- पएसीरायं एवं बयासी-अस्थि णं पदेसी! तुम्हे कयाइ वत्थी पासमाणे संते तंते परितते निविणे समाणे परसुं एगते एडेति, धंतपुव्ये वा?। हंता । अत्यि पदेसी ! तस्स वत्यिस्म पुस्मस्म एमेत्ता परियरं मुयति, मुयत्ता एवं वयामी-अहो मए वा तुझियस्म अपुन्नस वा तुलियस्स केइ अापत्ते पा० नाव तेसिं पुरिमाणं असणे णो साहिए ति कट्ट श्रोहयमणु संकप्प बहुयत्ते वा । नो तिणं । एवामेव पएमी ! जीविस्स वि गुरुयन- चिंतामोगमागरं संपविढे करयनपटहत्यमुहे अट्टज्माणोवगदुयत्तं परवियव्वं जीवंतस्स वा तुझियस्स मयस्स वा तुलिय- ए नूमीगयदिट्टीए कियायः । तते णं ते पुरिसा कट्ठाई दिति, स्स० जाव नत्थि केइ अमात्ने वा जाव लहुयत्ते वा,तं सद्दहा- छिंदत्ता जेणे व से पुरिसे तेशेव उवागच्छह, नवागच्छइत्ता हिण पदेसी । तं चे०७। तए ण पएमी राया केसीकुमार- तं पुरिसं ओहयमणसकप्पंजाव कियायमाणं पासंति,पास. समणं एवं बयासी-अस्थि णं भंते ! एस नीव एणो सचागच्छ, तित्ता एवं बयामी-किंणं तुम्हं देवाणुप्पिया! ओहयमणसंएवं खलु ते! अन्नयाजाव चोरं उवणेति,तए गं अहंत कप्पे जाव क्रियायति । तए णं से पुरिसे एवं बयासी-तुबने पुरिमं सबो समंता समलिलोएमि, नो रेवणं जीवं देवाणुप्पिया कहाणं अडवि अणुपविसमाणे मम एवं बया. पामामि,तते णं अहं तं पुरिसं दुहा काहियं करेमि,सन्च- सी-अम्हे णं देवाणुप्षिया कट्ठाणं अमविजाय अणुपविट्ठा, तो समंता समजिलोएमि, नो चेव ण जी पासामि, एवं ततेणं अहं तो मुहुत्तरस्म तुजं असणं मोहमि त्ति कटु तिहा चउहा संखिज्जहा फाझिय करेमिजाव नो चेवणं | जेणेव जोश्यतावणे जाव कियामि, तते । तेसिं पुरिमाणं तंजीव पासामि,जति पं मंते ! अहं तंमि पुरिसंसि दुहा एगे पुरिसे छेए दक्ख पढेजाव उवएसलछे ते पुरिसे एवं वा तिहा वा चनहा बा संखेन्नहाना फालियसि वा बयासी-गच्छहण तुब्भे देवाणप्पिया! एहाया कयवलिकजीव पासामि, तो णं अहं सद्दहिज्जा तं व जम्हा एं मा०प्राव हव्यमागच्छह, जाणं अहं तुम्भं असणं साहेमि भंते ! अहं तसि पुरिसंसि दुहा पा तिहा बा चहा वा सं- ति कह परियरं बंधति, बंधश्त्ता परपुंगिएहइ, सरं गिएहे, खेज्जहा वा फालियंसि बा जीवं नो पासामि तम्हा मुप- अरणि करे सरए अरणिं महेइ,महेश्त्त। जोई पामेइ,जोई इघिया मे पइन्ना जहा तज्जीवो तं सरीरं स चेव । तए णं संधुकरखेइ संधुक्खइत्ता तेसिं पुरिसाणं कसणं साहेति, तते पं केनी कुमारसमणे पएमि रायं एवं बयासी-मूहतराए हां तुम ते पुरिसाएहाया कयवनिकम्माजाव पायच्छित्ता नेणेव से पदेसं। ताओ तुच्छ तराओ के एवं भंते ! तुच्छतराओ पदेसी । पुरिभे तेणेव उबागच्छ ,तते णं से पुरिसे तेसिं पुरिमाणं मुहा. से जहानामए केइ पुरिसा चमत्थी बायोपजीवा मागवेसणा सावरगयाणं तं विउझं असणं पाणं खाइमं माइमं ज्वरोइ तते तया णं जोइं च जोइनायाएं च गहाय कट्ठाणं अडविं ते पुरिसानं विउझं असणं पाणं खाइमं साइमं आमाएमाणा अणुप्पविघा,तए णं ते पुरिसा सीमे प्रकामियाए नाव किं- वीसाएमाणाजाव विहरति जिमियमुत्तत्तरागया वि य गं चि देसं अाप ता समाणा एगं पुरिमं एवं वयासी-ब्रम्हे समाणा आता चोक्खा परमसुजूया तं पुरिसं एवं बयाएण देवाणुपिया ! कट्ठाणं अमत्रि भापविसामो, एत्तो सी-अहो पं तुमं देवाणुप्पिया ! जो मूढे अपंडिते नितुमं जोइजायणाओ जोई गहाय अभणं साहेज्जासि प्रह विन्नागणे अणुवदेसन,नेणं तु इच्छः उहा फालियसि तं जोइजायणे जोए विज्काएइ एत्तो णं तुम कहानी का जोई पासित्तए । से तेण पएसी! एवं बुच्चइ-मृढतराए जोतिं गहाय अम्हं असणं साहेज्जासि त्ति कट्ट कट्ठाणं णं तुम्ह पएमी तायो तुच्छतरानातएणं पदेसी राया केसी. अमवि अणुपविट्ठा । तते णं से पुरिमे तो मुहतरस्स कुमारसमणं एवं बयासी-जुत्तं एंतुनते ! अच्छेतेसिं पुरिसाणं असणं साहेमि तिकड जेणेव जोश्नायणे याणं दक्खाणं पतिद्वाणं कुसलाणं मेहावीणं विपीयाण तेव उवागच्चइ, जोइनायणे जोई विकायमेव पामति । विमाणपन्नाणं उवदेसहाणं अहं मीसाए महविवाए तए णं से पुरिस जव से कहे तेणेव उवागच्छा, उवाग- महचए परिमाए मजके नवाब एहिं आ उसेहिं आनसित्तए, च्छइत्ता त कटुं सवतो समंता ममनिलोए नो चेव एंजोई व्यावयाहिं उछसणाई उसित्तए, एवं निभत्यणाहिं पासति,तते एं से पुरिसे परिपरं बंधइ, परिवरं बंधत्ता शिगंगाहिं । तए णं केभी कुमारममा पदसी रायं एवं Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) पएसि (ण) भनिधानराजेन्द्रः। पएसि (ण) बयासी-जाणासिणं तुम्हं पएसी केइ परिसाओ पनत्ता- स्मकायए एवं चम, फंदइ, घट्टइ, उदीरइ, तं नावं पश्रोते! जाणामि चत्तारि परिसायो पनत्ताओ। तं जहा. रिणमइ । तर णं केसी कुमारसमणे पएसीरायं एवं बपाखत्तियपरिसा,गाहावतिपरिसा,माहणपरिसा, इसिपरिसा। सी-पाससि णं तुमं पदेसी ! एतं तणवणस्सतिकार्य जाणासि तुम्हें पएसी ! रायासि चनएहं परिसाणं कस एयंत जाव तंभावं परिणमंतं । हता! पासामि । जाणासि गं का दंकनीती पत्रता। हता! जाणामि,जेणं खत्तियपरिमा- तुमं पएसी! एवं तणवणस्पतिकायं किं देवो चालेइ,ममुरो ए अवरज्मद से णं हत्याराए वा पायजिम्मए वा सी- वा वेएइ,नागो वा किन्नरो वा चालेइ, किं पुरिसो वा महोसम्मिए दा मूलातिगए वा मूलजिनाए वा एगाहचे रगो वा गंधव्यो वा चाले ? । हंता ! जाणामि णो देवो कुमाहच्चे जीविताओ ववरोविजावे । जेणं गाहावइपरिसाए चालेइ० जाच गंधनो नो चाले । वानकाइनो चाले । अवरकृति से पंग तंतेण वा बेदेख वा पन्नालेण वा वेदित्ता पाससिणं तुम्हं पएसी । एयस्स बाउकास्यस्स अगणिकाएणं कामिन्जड़। जे णं माहणपरिसाए अचरजाद सरूविस्स सकम्मस्स सरागस्स सपोहस्स सवेयस्स सम्झेमे णं अणिहाहिं अकंताहिं० जाव अमणमाहिं वग्गहिं सस्म सरीरस्त रूवं । नो इणढे । ज णं तुम्हे पदेसी ! नवाझंतित्ता कुंडियाझंडणए वा सुणगलंबणए वा कीरह, एयरस वाउकायस्स रूवं न पासमि, तं करणं पदेसी! निम्निसए वा आणविजइ । जे ण इसिपरिसाए अवरज्कइ तब करयसि वा आमलगं जीवं उबईसेस्सामि, एनं खयु से नाइअणिवाहिक जाव नाइअमणमाहिं वग्गृहिं उबा- पएसी! दस हालाई उमत्येवं मणुस्से सवभावणं न लम्नति । एवं च ताव पदेसी! तुम जापासि तहा विणं तुम जाणइ, न पास । तं जहा-धम्मत्थिकार्य, अधम्मस्थिवामेणं दंमेणं पमिकृलेणं पडिलोमेणं विवच्चासं विच्चासेणं कायं, आगासस्थिकाय, जीचं असरीरवकं,परमाणुपोग्गलं, बट्टमि । तते णं पदेसी केसीकुमारसमणं एवं बयासी-एवं सई, गंध, वायं, अयं जिणे भविस्मइ, अयं सध्वजुक्खाणं खलु अहं देवाणुप्पिएहिं पढमिल्लएणं चेव वागरणेणं * से अंतं करिस्सा वा,नो वा । एयाणि चेव चप्पननाणदंसणधरे उपनदे,तेणं ममं इमेयारूने अन्जस्थिपन्जाव संकप्पे समु. अरहा जिणे केवली सम्बभावेणं जाणइ, पासइ । तं जहाप्पज्जित्था-नहा जहा णं एयस्स पुरिसस्स वामं वामेणं० धम्मस्थिकायंज्जाव नो वा करिस्सइ, तं सहाहि गं तुम जाब विवच्चासेणं वहिस्सामि तहा तहाणं अहं णाणं च पएसी! जहा अन्नो जीवो तं चेव हातएणं से पदेसी राया नाणोवलंभं च चरणं चरणोवलंभं च दसणं च दमणोवझंभं | केसीकुमारसमणं एवं बयासी-से नणं भंते ! हथिस्स य च जीवं च जीवोवलं च उन्नभिस्सामि,नं एएणं अहंकार- कुंथुस्स य समे चैव जीवे । हंता पएसी!हत्यिस्स य कुंथुस्स पणे वाम वामणंजाब विच्चासं विवञ्चासेण बट्टे । तते पं | यसमे चेव जीवे से नगं ते हत्यीनो कुंथ अप्पकम्मतरा केसी कुमारसमाणे पदेसिरायं एवं वयासी-जाणासि णं तुम चेव अप्पकिरियतरा चैव अप्पामवतरा चेव एवं आहारनीपएसी ! कत्ति ववहारमा पन्नत्ताा ता! जाणामि चत्तारि हारसासनीसासाठी अप्पा जुतीय अप्पतरा चेव कथनो ववहारया पनत्ता । देति णामेगे णो सामवेति १ , समवे- हत्यी महाकम्मतरा चेव पहाकिरिया० जाव महजूई अंतरा ति नामेगे नो देति २, एगे देति वि सणवेति वि३, एगे चैत्र । हंता पदेसी ! हत्यीश्रो कुंयू अप्पकम्मतरा चेव,कुंयूओ नो देति नो सप्लव ४। जाणासि णं तुम पएसी ! चमएई वाहत्थी महाकम्मतरा चेव तं चेव । कम्हाणं भंते ! हथिस्स पुरिमाणं के ववहारी, के अश्वहारी। ता! जाणामि,तत्य य कंयस्स य समे चेव जीवे । पदेसी!से जहानामए कूणं जे से पुरिसे देति णो समवे,मे पुरिसे वबहारी । डागारसाला सियाजाव गंभीरा,अहणं केइ पुरिसे जोतत्थ णं जे से पुरिसे नो देइ सम्मवेश, से णं ववहारी, इयं दीवचंपगं गहाय तं कूमागारसालं अंतो अंतो प्रापतत्थ एंजे से पुरिसे देति वि समवेश वि से णं ववहारी विसइ, तीसे कूमागारमाझाए सन्नो सपंता घणनि३, तत्य णं जे से पुरिसे नो देति नो सामवेइ, से एं चयनिरंतरं निच्चिड्डाई दुवारवयाणाई पिहेइ, पिहत्ता मीसे अवबहारी वामेव पपसी! तुम पि अचवहारीज नए पपसी राया केसीकुमारसमणं एवं बयासी-तुन्भेणं कूमागारसालाए बहुमज्कदेसजाए तं पदी पनीवेजा, भंते ! अइच्छ्या दक्खाजाव उवएसन्नद्धा,समत्था भंते! तए से पड़ीवा तं कमागारमानं भंतो अंदो श्रोनासति, मम करयलंसि ना प्राममयं जीवं सरीराम्रो प्रनिनिम्न नम्मोइतबति,पहाइनो चेव बाहिं । अहणं से पुहित्ता णं दंसित्तए । तेणं कालेणं तेणं समएणं - रिसे तं पईवं इदुरएणं पिहेम्जा, तते णं से पईचे तं इदुएसिस्स रमो अदरसामंते बाउआयसंजुत्ते तावण- | स्यं घेतो ओभासति,नो चेव णं दुरगस्स वाहिनो चेवणं .'जमा बधु भो जपज्जुपासंति' इत्यादिना प्रोक्तम् । कुमागारसा, नो चेव गं कूमामारसामाए बाहिं,एवं किल | Jain Education Interational Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) पएसि (ण) अभिधानराजेन्द्रः। पएसि (ए) जए गां गोकलिएणं गंझमाणियाए पिढएणं आढएणं रगं,तउत्नारगं बंधाहि । तते णं से पुरिसे एवं बयासी-दूराहमे अकादएणं पत्थएणं चनन्जाइयाए सोलसियाए - । मए देवाणुप्पिया ! अए विराहमे मए देवाणुप्पिया! अए, तीसयाए चनसहियाए, तए णं से पुरिसे तं पदीयं दी- गाढबंध बके मए देवाणुप्पिया ! अए, धणियं वंधणवचंपकं पत्ते णं; तते णं से पदीये दीपचंपगं अंतो ओ- धे मए देवाणप्पिया! अए, नो ति खलु देवाणप्पिया । भासति ४ नो चेन पं दीवचंपगस्स बाहिं, नो चेव एं संचाएमि अयनारगं बड्डेता तउयनारे बंधित्तए । तते णं चउमडियं,नो चेव णं कूडागारसानं नो चेव णं कूडागार- ते पुरिसा सं पुरिसं जहा नो संचाएति बदहिं आघवणासाए बाहिं,एवामेव पएमी ! जीवो जं जारिसयं पुन्चकम्म. हिं परमवणाहिं प्राघवित्तए वा पाठवित्तए वा ताहे अहाणुनिवरबोंदि निव्वत्तेद, तं असंखेज्जेहिं ० जाव पदेसहिं स- पुनाए संपत्थिया एवं तंत्रागरं रुप्पागरं सुवमागरं श्यचित्ता करे खुडियं वा महाशयं बा, तं सद्दहाहि गं तुमं णागरं वयारागरं । तते णं ते पुरिसा जेणेव सया सया पदेसी!जहा अन्नो जीवोतं चेत्र १० तएणं परमी राया जणवया जेणेव साई साई नगराईतेणेव उनागच्छा,नवागकेसिकुमारसमणं एवं बयासी-एवं खस जंते ! अज्जगस्स कछेत्ता वयरविकणयं करेंति, सुबहुं दासीदासगोमहिसगएमा समाजाव समोसरणे जहा तज्जीचो तं सरीरं,नो अ. वेनगं गिएहइ,अट्टतममुस्सियपासायवमेंसगे कारवति,एहामोजीवो। तयाणंतरंच णं मम पिउणो पि एमा सम्माजाव या कयवलिकम्मा उप्पि पासायवरगया फुट्टमाणेहिं मुइंगतं सर्गरं तयाणंतरं च मम दिएमा समाजाव समोसरलं. मत्यएहिं बत्तीसं बकरहिं नामरहिं वरतरुणीसंपउतं नो खा ग्रहं बहुपुरिसपरंपरागयं कुल्लनिस्सयं दिहिं त्तेहिं नवनइमाणा नवगिज्जमाणा उपनालिज्जमाणा छोइस्सामि । तते णं केसी कुमारसमणे पदेमिरायं एवं बया इसफरिस जाब विहरति । तते णं से पुरिसे भयसी-माणं तुम पएसी पिच्चाणुताबिए नउजासि जहा से भारयं जेणेव सए नगरे तेणेव उवागच्चइ, अयभारगं पुरिसे अयहारए । के णं जंते ! अयहारए । पएसी !से जहा गहाय अयरिकणयं करेति । तसि य अप्पमोलसि निद्वियंनामए केश पुरिसा अत्यत्थिया अत्थगवेसिया अत्यबुधगा सि भिमपरिवए, पुरिसे अपि पासायवरगते. जाव प्रत्यकंखिया अत्यपिचासिया अत्थगवेसणया विउलं विहरमाणे पासति, पासइत्ता एवं बयासी-अहोणं महं पणियनंम्मायाय सुबहुं जत्तपाणपत्थयणं गहाय एगं महं अधम्मे अपुले अकयत्थे अक्षयलक्खणे हिरिसिरिपरिवअकामियं छिनावीयं दीहमदं भमर्षि अणुपविट्ठा, तते णं ज्जिए हीणपुले चाउदिसिए पुरंतपंतलक्खणे । जति णं ते पुरिसा तीसे प्रकामियाए अडवीए किंचि देसं अणु अहं मित्ताण वा नाईण वा नियमाण वा वयणं मुणेज्जा, पत्ता समाणा एगं महंतं प्रयागरं पासति, अएणं स तो णं अहं पिचेर उपि पासायवरगतेजाव विहरंतो । से चोसमंता प्राइमं विणिच्छिन्नं संमं जवछंक फु अनु- | तेणढेणं पएसी एवं वुच्चइ-माणं तुमं पएसी पच्चाणुतावि. गाई पासति,पासित्ता हतुट्ठ०जाव हियया अमममं सद्दा ए भवेज्जासि जहा च से पुरिमे अयभारए ११ । एत्थ वेति,सदावेत्ता एवं बयासी-एस देवाणप्पिया! अयं णं से पदेसी राया मुबुके केसीकुमारसमणं बंदइ० जाव हे ट्रे कंतजाव मणामे, सेयं खल देवाणप्पिया!- एवं बयासी-नो खयु नंते ! ई पच्छाणताविए भविस्सामं प्रयभारं बंधित्तए त्ति कह अम्मममास्स एयम, पकि- मि जहा व से पुरिसे अयभारए, तं इच्छामि ण देवाणमुणेति,अयनारं बंधति,अहाए पुन्नीए संपत्थिया, तेणं से | पिया ! अंते केवलिपगणतं धम्म निसामित्तए । अहासुई पुरिसे अकामियाए० जाच अमवीए कि वि देसमणुपत्ता देवाणुप्पिया!मा पमिबंध करेह धम्मकहा जहा वित्तस्स तहेव समणा एगं महंतनागरं पासति, तनपण माश्यं तं जाव गिहिधम्म परिवज्जए जेणेव सेयंविया णगरी तेणेव चेव सहावेत्ता एवं बयासी-एस ण देवाणुप्पिया! तउए। पहारेत्यगमणाए । तते णं केसी कुमारसमणे पदेसि रायं एवं जंडे जाव मणामे अप्पेणं चेव तउएणं मुबहु अए लब्ज- बयामी-जाणासिणं तुम्हें पएमी केश्या भारिया पन्नत्ता। ति, तं सेयं खलु देवाणु प्पिया ! अम्हं अयभारए छम्मे- हंता! जाणामि । तमोपायरिया पन्नत्ता। तं जहा-कलायरि. ता तउयत्ते बंधिनए ति कहु अन्नमन्नस्स अंतिए एयमहुँ ए, सिप्पायरिए,धम्मायरिए । जाणासि एं तुम्हं पएमी तोसे पहिमुणिति,पकिसुणेत्ता अयभारए छड्डेति, छड्डेइत्ता तउ- तिएहं पायरियाणं कस्म का विणयपभिवत्ता पजियब्बा। यजारए बंधेति । तत्थ णं एगे पुरिसे नो संचाएति अय- हंता! जाणामि कमायरियस्स सिप्पायरियस्स नवलेवणं वा जारगं बहुत्ता तनयं जारं बंधितए तते णं पुरिमातं परिसं समज्जणं करेजा, पुष्पाणि वा आणविज्जा, मंदुवेज्जावा, एवं बयासी-एस पं देवाणुप्पिया! त उए जमे० जाव सु- भोयावेज्जा वा, विउझं जीवियारिहं पीइदाणं दसएज्जा,पु. बहुं अए लम्नति, तं छडेहि णं देवाणुपिया ! अयना- ताणं पुत्तियं वा वित्तिकप्पेज्जा,जत्येव धम्पायरियं पासेज्जा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसि ( ) (४०) अभिधान राजेन्द्रः । । तत्येव वंदिज्जा, एसेज्जा, सकारेज्जा, संयाज्जा, कलाणं मंगलं चेय पज्जुवा सेज्जा फासुएसरिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिला भेजा, पारिहारिएणं पीढफलगसेज्जासंधारणं उननिमंतिज्जा । एवं च ताब तुमं पएसी ! एवं जाणासि तहाविघां तुमं मम वामं वामेणं जाव वट्टित्ता ममं एयम खामेत्ता जेणेव सेयंविया नयरी तोव पहारेत्थगमणा । ततेां से पदेसी राया के सिकुमारसम एवं बयासी - एवं खलु भंते ! मम इमेयारूवे अन्नत्थिए ० जामुपजत्था । एवं खन्नु श्रहं देवाप्पियाणं वामं वामेणं जान दिने, सेयं स्वलु से कलं पाठष्पभाए रपणी ए० जाव सेजसा जलते ते उर परियाझसद्धिं संपरिचुमे देवाणपिया ! बंदिता नमसित्ता एयमहं जज्जो जुज्ञो सम्मस्स विणणं स्वामिनाए त कट्टु नामेच दिसिं पाठब्भूपा तामेव दिसिं परिगए । तर एं से पदेसी राया कलं पाउपमायाए रयणीए० जाब तेयसा जयंते तुट्ट० जात्र हियए जब कूणिए तहेव निगच्छति अंडरपरियालसहि संपरिचुमे पंचविणं अभिगमेणं बंदर, नम॑सति एयमहं जुज्जो सुज्जो सम्मं विवरण खामे । तए णं केसी कुमारसमये पदेसिस्स रणो सूरियकंतपमुहाणं देत्रीणं तीसे णं महइमहालियाए महच्च परिसाए० जाब धम्मं सम्म देति । ततेां से पदेसी राया धम्मं सोचा निसम्म बढाए बडे, केलिकुमारसम चंद, नम॑सति, जेणेव सेयंबिया नयरी तेणेव पहारेस्थगमरणाए । तए णं केसी कुमारसमणे पदेसीरायं एवं बयासी-माणं तुमं पदेसी ! पुत्र रमणिज्जे नवित्ता पच्छा - रमणिज्जे नवेज्जासि जहा से वणसंडे वा नसालाई बा उक्खुवामेति वा खलवामेति वा । कहं णं जंते ! बणसंमे शुविरमणिज्जे वित्ता पच्छा अरमपिज्जे जवति ?! षदेसी ! जहा णं णसं पत्तिए पुष्पिते फलिते हरिते दरिसनमाला सिरीए अतीव उवसोभेमाला नवसोनेमाला चिडति तया णं वणसं रमणिज्जे भवति, जया णं वणसंडे मो पत्तिए नो पुष्किए नो फलिए नो हरिते नो हरितजपाथे सिरीए नो अतीव उवसोजेमाणे उब सोनेमाणे चिछड़, तया संडे अरमणिज्जे भवति । जया नट्टमालाए गिज्ज‍, वाइज्जइ, नञ्चिज्जइ, अभिणिज्ज, हसिज्जा, रमिज्जइ, तानसाला रमणिज्जा जवति, जया णं नसान्नाए नो गिज्जइ० जाव नो रमिज्ज तथा खं नट्टसाला नो रमणिज्जा भवति । जया णं इक्खवाडे छिज्जड़, भिज्जइ, पब्लिज्जइ, खज्जइ, पिज्जइ, तथा णं इक्खवाडे रमखिज्जे जवति, जया इक्खुवामे नो छिज्ज०जाव तया णं इक्खुवा मे अरमणिज्जे भवति । जया णं खन्नवामे बच्बुब्ज‍, उज्ज‍, खज्जड़, For Private एसि ( ) पिज्जइ, तया णं खलवामे रमणिज्जे जवति, जया पंखलवामे नो उच्छुभए०जाव अपणिज्जे नवति, से तेपट्टे देसी ! एवं बुच्चति-माणं तुमं पदेस ! पुवि रमणिज्जे नवित्ता पच्छा प्ररमणिज्जे भविज्जासि जहा वण्संडे बा० जाव खलवाडे वा । तए णं पएसी राया केसी कुमारसमएां एवं वयासी-नो खलु भंते ! अहं पुत्रि रमणिज्जे भविता पच्छा प्ररमणिज्जे भविस्सामि जहा से बणमं बा० जाव खलवामे वा । श्रहं णं सेयंबियापा मोक्खाई सत्तगामसहस्साई चत्तारि भागे करेस्सामि, एगे जागे वनवादणस्स दत्तस्सामि, कोडागारे दलइस्सामि, एगे भागे तेरस द इस्सामि, एमेणं भागेणं महत्महानियकूमागारसालं करिस्सामि । तत्थां बहूहिं पुरिसेहिं दिभत्तिभत्तवेयहिं विलं असणं पाणं खाइमं साइमं नवक्खडावेत्ता बहूणं समणमादण निक्खुषाणं पंथियपहियाय परिभएमा परिभएमाणे वहिं सीलपञ्चक्खाणपोलदोववासेहिं० जाव विहरिस्सामिति कट्टु जामेव दिसं पान्नु तामेव दिसं परुिगते । तते पदेसी राया कल्ले पायो जाव तेजसा जयंते सेयंवियापामोक्खाई सत्तगामसहस्सा बचारि पाए करेति, एवं जागं बचवाहणस्मदलइति०जाव कूमागारसालं करेति, तत्य णं बहूहिं पुरिसेहिं० जान बक्खडादेशा बहूणं समणमाहलाएं ण्जाव परिभोएमारणे विहरति । तते णं मे पदेसी राया समणोवासए जाए अभिनयजीबाजी दे०जाव विहरति । जपनिई च णं पदेसी राजा समोमासर जाए तप्पचि णं रज्जं च रहं च तं पाहणं च कोसं व कोठागारं च पुरं च अंतेडरं च जब अस्पादायमाणे विहरति । ततेां तीसे सूरियकंताए देवीए इमेयारूचे अग्नत्थिर समुप्पज्जित्था - जयभिइंच गं परसी रामा समणोबासए जाए तप्पनि च रज्जं रहुं बन्जाब अंतेनरं च० जाव समं च जाणवयं च / नादामा बाचि विहर, तं सेयं खलु मे पदेसीराय के य सत्यपयोगेण वा अपियोगेण वा तपओगेण वा उद्दाता सूरियत कुमारं रज्जे ववेत्ता सयमेव रज्जसिरिं करेमाणी विरित्त तिकट्टु एवं संपेद्देति, संपेहेतिना सूरियतं कुमारं सदावेति, सांवेत्ता एवं बयासी जम्पनि चणं पदेसी राया समणोवासए जाए तथ्यभिई चरज्ञं च रडं च० जाव अंडरं च जणवयं च मालुसर कामनोगे यणाहायगाणे यात्रि विहरति तं सेयं खलु तव पुत्तापदेसिंरा के सत्यप्पोगेण वाण्जाव उवेता संयमेव रज्जसिरिं करेमाएस्स पालेमापुस् विहरित । तते णं सूरियकंते कुमारे सूरियकताए देवीए एवं वृत्ते समाणे सूरियकताए देवीए एयम ना Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) अभिधानराजेन्द्रः एसि ( ) माढा, नो परियाणा तितुसिणीए संचिइति । वते से सूरियकताए देवीए इमेयारूत्रे अन्यत्यिए समुप्यज्जित्था से पं सूरियर्कते कुमारे पस्म रह्यो इमे रहस्मयं करिस्थती निकटु परयो मिराबराणि अंतराय पजागरेमाणी पजागरेमाणी विहरति । तते णं सूरियकंता देवी या कयाइ पदेसिस्स रम्रो अंतरंजाइम नाव सासवस्याकारे पदेमिम रखो हावा पाय हापि खाइयं साइमे वर जाव अकार विस्मरति । तते तस्म पदेसिस्स रह्यो तं विससंजुत्तं श्रमणं पापं खाडमं साइमै आहारयस्स समाणस्त सरीरगंसि वेया पाउन्भूया विलापगाडा कसा कंडू प मा तिब्या दुक्खा डुम्मा दुरहियासा पिसक्नरपरिययमरीरे दावते यात्रि विहरति । तर यां से पएसी राया सूरियकंताए देवीए मणसापिसाब पोलहसाला वेगेव उपभोग-प्रयोग-पुं० प्रयोजनं प्रयोगः ति, उपागच्छतित्ता पोसना पमश्नर, पोसइसाले पमजसा चारपास पति संचार सं चरे, दग्नसंचार रूहति, पुरस्यानिमुद्दे संपक्षिपंकनिसने करयपरिग्गद्दियं सिरसावत्तं मत्थए अजलिं कट्टु एव बवासी नमोऽस् अरिहंताणं० जाव संताणं, णमो शां के सिकुमारस्स समणस्स धम्मायरियस्स धम्पोत्रदेमगरस, बंदा जगवंतं तत्थ गये गए पास मे नगरं तस्य गए इह गयं ति कड्डु वंदति, मंसति, णमंसतित्ता पिणं मए के सिकुमारसमणस्य अंतिए धून पा तिवाए पच्वक्खाए० जाव परिग्गहे, इयाणि पिणं तसेव भगवतो अंतिर सव्वपाणातिवायं पञ्चकखामि० जाव परिग्गहंस कोई जाब विच्छादंसणस अरणिज्जं जोगं पच्चक्खामि सव्यं असणं चन्त्रिप हारं जावलीचा पचक्खामि अपि मे सरीरं इ० मा व संति, एवं पिणं चरमेहिं ऊसासनीसासेहिं बोसि रामिति कट्टु आलोयपमिते समाहिपत्ते कालमासे का fear सोहम्मे कप्पे सूरिया विमाणे नववायसभाए० जान उपवसे । ततेां सूरिया देवेोवा स माणे पंचविहार पज्जतीए पज्जतिमात्रं गच्छति । तं जहाआहारपजची सरीरपतीए, इंडियनतीए, आणपाएजसीए, भासामणपज्जतीए; त एत्र खलु गोयमा ! सूरिया देणं सा दिव्या देवडी दिव्या देवीद य देवानाने के पत्ते अभिसरणागए । (रायगढ़ीका पदमात्रार्थबोधिनीत्युपेचिता) रा० । ० ११ पभोग 'विश् म० । स्था० । श्रा० चू० । (सुर्याजदेवस्य स्थितिः शब्दे चतुर्थजागे १७१६ पृष्ठे प्रोक्ता) (सूर्याभो देवः सूर्याभविमानात् च्युतः सन् कोत्पत्स्यतीति 'सूरियाम' शब्दे षयते ) पक्षिणी- प्रदेशिनं। श्री पायोदाम, "पसेणी अंगुडपोरठिताए जे घेप्पति। " नि० ० २० । पए सिय- प्रदेशित त्रि० । प्रणीते, माचा• १ श्रु० ६ अ० ३ उ० 1 पसिराय- प्रदेशिराज पुं० । श्वेताम्बिकानगरीपती सूर्यानपूनवजीवे स्थान सबै प शब्देऽनुपदमेव गतम् ) परसोगाद- प्रदेशावगाढ " प्रदेश शेषे अवगाढा आश्रिता एक प्रदेशावगाढाः, ते व परमाणुरूपाः, स्कन्धरूपाश्च स्था० १ ० पएनोदय- प्रदेशोदय- पुं० । कर्मणां प्रदेशेन उद्यकरणे,पं०सं ५ द्वारक०प्र०('उदय' द्वितीयभागे ७३७ उक्त परसोदीरणा- प्रदेशोदीरणा स्त्री० प्रदेशविषये करणे, पं० [सं० ५ द्वार । ( 'उदरिण' शब्दे द्वितीयभागे ६५० पृष्ठे ऽस्या व्याख्या गता ) स्था३ वा० ३ ३० । ० | स० प्रा० चू० । पुरुषव्यापारे, न० ६ श० ३ उ० । चेतनावतो व्यापारे, विशे० आ० म० । तद्भेदाः कतिविधेयां व 1 पचोंगे पाने १। गोमा ! पारसविपक्ष जड़ा-मध्यमप्पओगे, अमममपओगे, सच्चामोसमय प्पओगे, प्रसच्चामोसमयओगे वि । एवं वप्पयोगे वि चन्दा । ओरालियमरीरापगे, ओरालियमीस सरीर कायप्पश्रोगे, वेडयसरीरकायपोगे, वेडब्वियमीससरीरकायप्पओगे, आहारगसरीरका यपोगे, आहारगभी ससरीरकायप्प योगे, कमासरीर कापण्यओगे । ! कतिविधः कतिप्रकारो, समिति वाक्यालङ्कारे । भदन्त प्रयोगः प्रज्ञप्तः ? प्रयोग इति प्रपूर्वस्य युजिर् योगे इत्यस्य घप्रन्तस्य प्रयोगः । परिस्पन्दः, क्रिया, श्रात्मव्यापार इत्यर्थः । अथवा प्रकर्षेण युज्यते व्यापार्यते किवा सम्यते वा परायिकेर्यापथकर्मणा सदाऽयमा अनेनेति प्रयोगः । " पुनम्ति घः ॥ ५ । ३ । १३०॥ इति करणे घप्रत्ययः । भगवानादपञ्चदशविधः प्रकृतः । तदेव पञ्चदशविधत्वं दर्शयति- (स पोगे इत्यादि) सन्तो मुनयः, पदार्था वा तेषु यथासंवयं मुक्तपकावेन यथास्थितवस्तुस्वरूप षु सत्यमस्ति जीवः समन्यायेत्यादिरूपतया यथाऽवस्थित वस्तु चिन्तनपरं सत्यं च तत् मनश्च सत्यमनः, तस्य प्रयोगो व्यापारः सत्यमनः प्रयोगः । (असचमणपओगे इति । सत्यविपरीत मलत्यं नाऽस्ति जीव एकान्तस पश्चेत्यादिकविकल्पनपरं, तब तम्मनश्च तस्य प्रयोगोऽसत्यमनःप्रयोगः । ( सचमो समणप्पओगे इति ) सत्यमृपा स स्यात् यथापदिपलाशादिमि भवनमेवेदमिति दिपिक वृकाणां सद्भावात् । तच्च तन्मनश्चेत्यादि प्राग्वत् । तथा (अ. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) पयोग अनिधानराजेन्धः। पोग सच्चामोसमणप्पओग इति) यन्न सत्यं नापि मृषा तदसल्यामृ. पर्याप्तावस्थायां, मिश्रता च तदानीं कार्मणेन सह वेदितपा । इह विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठाऽऽशया सर्वक्षमतानुसा. व्या । अत्राकेपपरिहारौ प्राग्वत् । तथा यदा मनुष्यस्तिर्यक्रेण विकल्प्यते । यथा-अम्ति जीवः सदसद्रूप इत्यादि, तरिक- पञ्चेन्जियो, घायुकायिको चा वैक्रियशरीरीनूत्वा कृतकार्यो ल सत्यपरिभाषिकमाराधकत्वात् । यत्पुनर्विप्रतिपत्ती स- वैक्रिय परिजिहीरौदारिके प्रवेटुं यतते, तदा किल बैत्यां यद्वस्तु प्रतिष्ठाऽऽशयाऽपि सर्वज्ञमतोत्तीर्ण विकल्प- क्रियशरिबन औदारिकोपादानाय प्रवर्तते इति वैकिते, यथा नास्ति जीवः, एकान्तनित्यो वा इत्यादि । तद. यस्य प्राधान्यात्तेन व्यपदेशो नौदारिकेणेति वैक्रियमिश्रितसत्यम, विराधकत्वात्, यत्पुनर्वस्तुप्रतिष्ठाऽऽशामन्तरेण स्व- मिति । तथा आहारकशरीरकायप्रयोग माहारकशरीरपरूपमात्रपालोचनपरं, यथा देवदत्तात् घट श्रानेतन्यो, गौ- यांपत्या पर्याप्तस्य आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोग आहारकाचिनीया इत्यादि चिन्तनपर, तत् असत्यमृपा । इदं हि स्व. | दौदारिक प्रविशतः । एतमुक्तं भवति-यदा श्राहारकशरीरीरूपमात्रपालोचनपरत्वात् न यथोक्तलक्षणं लत्यं, नापि मृपा नूवा कृत कार्यः पुनरप्बौदारिकं गृह्णाति तदा यद्यपि मिएतदपि व्यवहारनयमतापेकया अव्यम, अन्यथा विप्रतारण- श्रत्वमुनयनिष्ठ तथाऽप्यौदारिके प्रवेश माहारकबननस्याहा. बुद्धिपूर्वकमसत्येऽन्तजिवति, अन्यत्र तु सत्ये,तश्च तन्मनश्च तस्य रकस्य प्रधानत्वात्तेन व्यपदेशो नौदारिकेणाऽऽहार कमिथमिति। प्रयोगोऽसत्यमपामनःप्रयोगः। (एवं वप्पओगो वि चनहा एतच्च सिद्धान्ताभिप्रायेणोक्तं, कर्मग्रन्थिकाः पुनर्वत्रियस्य प्रा. इति) यथा मनाप्रयोगश्चती तथा चाकप्रयोगोऽपि चतर्दा तद | रम्भकाले,परित्यागका च वैक्रियमिश्रमाढारक शरीरस्य प्रारयथा सत्यवाक्मयोगो, मृषावाक्प्रयोगः, सत्यमृषावाक्प्रयोगः, म्भकाले, परित्यागकाले च औदारिकमिथं न स्वेकस्यामप्य. अनत्यामृपावाकप्रयोगः। पताश्च सत्यवागादयः सत्यमन:प्रभू वस्थायामौदारिकमिश्रमिति प्रतिपन्नाः । तैजसकामणशरीरप्रतिवद् भावनीयाः पूर्वबद्नाविता इति । (ओरालियसरीरकाय. योमो विग्रहगतो समुद्घातावस्थायां वा सयोगिकेवलिनस्तृपोगे इति) औदारिकाऽऽदिशब्दार्थमने वकामः । औदारिक- तीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु वह तैजसकार्मणेन सहाव्यभिचारीति मेव शरीरम् औदारिकशरीरम्, तदेव पुद्गमस्कन्धसमुदायक युगपत्तैजसकामणग्रहणम् । पत्वात, उपचीयमानत्वात् च काय औदारिकशरीरकायः, अमूनेव पञ्चदश प्रयोगान जीवाऽऽदिषु स्थानेषु-चिन्तयन्नाहतस्य प्रयोगः औदारिकशरीरकायप्रयोगः । अयं च तिरश्चो म- जीवाणं भंते ! कतिविहे पओगे पापत्ते ?। गोयमा ! नुष्यस्य च पर्याप्तस्य औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोग इति । पन्नरसविहे पोगे पत्ते । तं जहा-सच्चमणप्पओगे जाव औदारिकं च तन्मिश्रं च औदारिकमिश्र, केन सह मिश्रि. तमिति चेत् ?, उच्यते-कार्मणेन । तथा चोक्तं नियुक्तिकारण कम्मसरीरकायप्पओगे। शत्रपरिझाऽध्ययने-"जोएण कम्मरणं, हारे अणंतरं जीयो । " जीवाणं अंते ! कतिविहे पनोगे पम्मत्ते” इत्यादि । तत्र तेण परं मिस्सेण च, जाव सरीरस्म निष्फत्ती ॥१॥" न जीवपदे पञ्चदशापि प्रयोगाः, नानाजीवापेक्कया सदैव पञ्चदतु मिश्रत्वमुभयनिष्ठम । तथाहि-यथा औदारिक कार्मणेन मि. शानामपि योगानां लभ्यमानत्वात् । श्रे, तथा कार्मणमप्यौदारिकेण मिश्र, ततः कस्मादौदारिकामा नेरइयाणं भंते कविहे पोगे पठाते ?। गोयमा! एकारमश्रमेव । यमुच्यते-न कामणमिति ? । उच्यते-इह व्यपदेशसप्र. विहे पोगे पछत्ते । तं जहा-सच्चमणप्पभोगे जाव असच्चवर्तनीया पेन विक्रितार्थप्रतिपत्तिनिष्प्रतिपक्की श्रोतृणामुपजा. मणप्पोगे । वक्ष्यप्पमोगे चउहा। वेउब्वियसरीरकाययते, अन्यदा सन्देहाऽऽपत्तितो विवकिताप्रतिपरया न प्पओगे,वे उब्धियमीससरीरकायपोगे,कम्मासरीरकायप्पतथा तेषूपकारः कृतः स्यात्, काणं च शरीरमासंसारमा विच्छेदेनाबस्थितत्वात् सकनेष्वपि शरीरेषु सम्भवति, ततः ओगे । एवं असुरकुमाराण वि० जाव थणियकुमाराणं । कामणमिभ्रमित्युक्तं, न ज्ञायते किं तिर्यमनुष्याणामपर्याप्ताव पुढविकाझ्याणं पुच्छा। गोयमा तिविहे पोगे पाग्रत्ते । तं स्थायां तद्विवक्षितमुत देवनारकाणामिति । तत उत्पत्तिमाश्रि- जहा-ओरालियसरीरकायपोगे, ओसन्नियमीममरीरन्यौदारिकस्य प्रधानत्वात् कादाचिकत्याच निष्प्रतिपक्ववियति कायप्पओगे,कम्मासरीरकायप्पओगे। एवंजाव वणस्सइ-- नार्थप्रतिपयर्थमौदारिकेण व्यपदिश्यते औदारिकमिश्रमिति । तथा यदादारिकशरीरो क्रियलब्धिसम्पनो मनुष्यतियंकप काइयाणं, नवरं वाउकाइयाणं पंचविहे पओगे पाते । तं श्चेन्नियः पाप्तकबादरवायुकायिको वा बैंक्रियं करोति जहा-ओरानियकायप्पोगे, ओरालियमीससरीरकायप्पतदा किलोदारिकशरीरमयोग एवं वर्तमानप्रदेशान् विविष्य | अोगे, वेनबिए दुविहे, कम्मासरीरकायप्पओगे । वेइंदिक्रियशरीरयोग्यान पुद्गलानुपादाय वैक्रियशरीर पर्याप्या यावन्न याणं पुच्छा ?। गोयमा ! चनबिहे पोगे पम्मत्ते। तं नहापर्याप्तिमुपगमगत तावन् यद्यपि वैक्रियेण मिश्रतोदारिकस्योभयनिष्ठा तथाऽप्यौदारिकस्य प्रारम्नकतया प्रधानत्वात् तेन असच्चामोसवइपोगे, ओरालियसरीरकायप्पओगे, ओव्यपदेश औदारिकमिति न वैक्रियेणेति । तथा आहारकमपि रालियमीसकायप्पओगे,कम्मासरीरकायप्पओगे । एवंजान शरीरं यदा कश्चिदाहार कलब्धिमान् पूर्वधरः करोति तदा य. चनरिदियाणं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्चा ? गोयमा! द्ययाहारकेण मिश्रत्वमौदारिकस्यो प्रर्यानष्ट, तथाप्यौदारिक- तेरमविहे पोगे पठात्ते । तं जहा-सञ्चमणप्पोगे नाव अ. मारम्नकतया प्राधान्यमिात, तेन व्यपदेशप्रवृत्तिसैदारिकमिश्रमिति, न स्वाहारकेणेति । औदारिकमिश्रं च तत शरीरं सञ्चामोसमणप्पोगे। एवं वइपोगे वि । ओरालियसरीरचेत्यादि पूर्ववत् । वैक्रियशरीरकायप्रयोगो वैक्रियशरीरपर्या कायप्प ओगे, ओराझियमीसमरीरकायप्पओगे, वेनव्वियस. त्या पर्याप्तस्य चैक्रियामश्रशरीरकायप्रयोगो देवनारकाणाम- रीरकायप्पाग, व उव्ययमा रीरकायप्पोगे, वे उब्वियमीससरीरकायप्पओगे,कम्मासरी Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) पयोग अभिधानराजेन्द्रः। पयोग रकायप्पोगे। मणुस्साणं पुच्छा। गोयमा पन्नरसाबिहे प- ताव होजा असच्चामोसवइपोगी वि,ओरालियसरीरभोगे पत्ते । तं जहा-सच्चमणप्पोगेजाव कम्मासरीरका- कायप्पयोगी वि,ओरालियमीससरीरकायप्पओगी वि । श्र. यप्पओगे | वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा नेरझ्याणं । हवेगे य कम्मासरीरकायप्पोगी वि ? , अहवेगे य नैरयिक पदे एकादश भौदारिकौदारिकमियाऽऽहारकाऽऽहा. कम्मासरीरकायप्पभोगिणो य । एवं जाव चलरिदिया रकमिश्रयोगाणां तेषामसम्भवात्। एवं सवपि भवनपसिव्य पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया, नवरं ओरालियहरज्योतिष्कवैमानिकेषु जावनीयम्। पृथिव्यादिषु वायुकायव. सरीरकायप्पोगी वि.पोरालियमीससरीरकायप्पभोगी वि, जेवेकेन्द्रियेषु प्रत्येकं प्रत्येकं त्रयस्त्रयःप्रयोगाः औदारिकौदारिकमिश्रकामण लक्षणा घायुकायिकेषु पञ्च वैक्रियवैक्रियमिथयो- अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पयोगी य, अहवेगे य कम्मासरपि तेषां सम्भवात् । द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां प्रत्येक चरवार रीरकायप्पओगिणो य। मास्सा णं ते ! किं सच्चमणऔदारिककौदारिकमिश्रं कामणमसत्यामृषान्नाषा च शेषा- | प्पयोगी जाच किं कम्मासरीरकायप्पोगी। गोयमा ! स्तु सत्याऽऽदयो भाषास्तेषां न सम्नवन्ति,"विकलेषु असञ्चा मणुस्सा सव्वे वि ताव होज्जा सच्चमणप्पओगी वि० जाव मोसं" इति वचनात् । पञ्चन्धियतिर्यक्योनिकानां त्रयोदश श्राहारकाहारकमिश्रयोस्तेषामसम्भवश्चतुर्दशपूर्वाधिगमासम्नवा. ओरालियसरीरकायप्पओगी वि, वेजब्वियसरीरकायपत् । मनुष्येषु पञ्चदशापि मनुष्याणां सर्वभावसम्भवात् । ओगी वि, वेनव्वियमीससरीरकायप्पभोगी वि । अहवेगे अधुना जीवाऽऽदिषु पदेषु नियतप्रयोगजायचिन्तयिषुरिदमाह य ओरालियमीससरीरकायप्पओगी य, अहवेगे य ओराजीवा णं भंते ! किं सच्चमणप्पओगी जाव किं कम्मास- | लियमीससरीरकायप्पोगिणो य | अहवेगे य आहारगरीरकायपोगी। गोयमा! जीवा सम्वेऽपि ताव होज्जा सरीरकायप्पयोगिणो य, अहवेगे य आहारगमीससरीसच्चमणप्पयोगी वि० जाव वेचब्बियमीससरीरकायप्प- रकायप्पयोगी य । अहवेगे य आहारगमीससरीरकायश्रोगी बि, कम्मासरीरकायप्पओगी वि १। हवेगे य परोगिणो य, अहवेगे य कम्मगमरीरकायप्पओगीय, आहारगसरीरकायप्पभोगी य, अहवेगे य आहारगसरीर- अहवेगे य कम्मगसरीरकायप्पयोगिणो यश एते अहनंकायप्पोगिणो य २, अहवेगे य आहारगमीससरीर- गा पत्तयं । अहवेगे य ओरानियमीससरीरकायप्पयोगी य, कायप्पओगी य ३, अहवेगे य आहारगमीससरीरकायप्प- आहारगसरीरकायप्पभोगी य,अहवेगे य ओरालियमीस ओगिणो य चनजंगो। अहवेगे य आहारगसरीरका- सरीरकायपोगिणो य, पाहारगसरीरकायप्पओगी य, पप्पभोगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगी य? । अ- अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्प रोगिणो य,पाहाहवेगे य आहारगसरीरकायप्पयोगी य, आहारगमीससरी- रगसरीरकायप्पओगिणो य, अहवेगे य ओरालियसरीररकायप्पोगणो य २, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्प- कायप्पओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पयोगी य, प्रोगिणो य, आहारगमीससरीरकायपोगी य३. अ- अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पोगी य, पाहाहवेगे य आहारगसरीरकायप्पग्रोगिणो य,पाहारगमीगमरी- रगमीसमरीरकायप्पभोगिणो य, अहवेगे य ओरारकायप्पभोगिणो या एए जीवाणं अट्ठ अंगा । नेर- लियमीससरीरकायप्पभोगिणो य, आहारगमीससरीरकाइयाणं ते ! कि सच्चमागप्प बोगीजाब किं कम्मासरीर- यप्पओगी य । अहवेगे य ओरानियमीससरीरकायप्पोकायप्पओगी। गोयमा! नेरइया सव्वे विताव होज्जा सच्चम- गिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पभोगिणो य । एते चएप्पयोगी वि०जाव वेचबियमीससरीरकायप्पोगी वि१, तारि भंगा। अहवेगे य ओराझियमीसमरीरकायप्पभोगी अहवेगे य कम्मासरीरकायपोगी य २,अहवेगे य कम्मा- य, कम्मासरीरकायप्पओगी य । अहवेगे य ओरान्निसरीरकायोगिणो य । एवं असुरकुमारा विजाव थ- यमीससरीरकायप्पभोगी य, कम्मासरीरकायप्प प्रोगिणो णियकुमारा । पुढविकाझ्या णं नंते ! किं ओरामियमरीर- | य । अहवेगे य ओरानियमीससरीरकायप्पओगिणो य, कायप्पोगी,ओराग्नियमीमसरीरकायप्पओगी,कम्मासरी- कम्मासरीरकायप्पोगी य । अहवेगे य ओरालियमीरकायप्पयोगी? गोयमा ! पुढाविकाझ्या णं ओरालिय- ससरीरकायप्पयोगिणो य,कम्मासरीरकायप्पभोगिणो य। मरीरकायप्पोगी वि, ओराझियमीससरीरकायप्पओगी एते चत्तारि नंगा। अहवेगे य श्राहारगसरीरकायप्पयोगी वि, कम्पासरीरकायप्प भोगी वि । एवं० जाव वणस्सइ- य,आहारगमीससरीरकायप्पोगी य । अहवेगे व पाहाकाइयाणं, नवरं वानकाइया वेउब्वियसरीरकायप्प- | रगसरीरकायप्पोगी य,आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो ओगी वि,वेनधियमीमसरीरकायप्पयोगी वि । वेइंदिया एं | य । अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, आहानंते ! किं ओरालियसरीरकायप्पोगी. जाव क- गमीसरीरकायप्पोगी य । अहवेगे य ाहारगम्मासरीरकायप्पोगी ? गोयमा ! इंदिया सन्चे वि सरीरकायप्पयोगियो य, आहारगमीमसरीरकायप्प Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) अभिधानराजेन्द्रः । पद्मोग श्रोगिणो य । एए चत्तारि भंगा । अवगे य आहारगसरीरकायपोगी य, कम्मासरीरकायप्पओगी । हवेगे य आहारगसरीरकायच्ययोगी य, कम्मासरीरकागिणो । अवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगियो य, कम्पासरीरकायोगी य । श्रहवेगे य आहारगसरीरकायपभोगिणो य, कम्पासरीरकायपओगी य । अहनेगे य आहारगस कायपोगिणोय | कम्मासरीरकायष्पगियो य । चउरो भंगा। अगे य आहारगमीससरीरकायप्योगी य, कम्मासरीरकायपयोगी य । अहबेगे य आहारगमीससरीरायपोगी य, कम्पासरीरकायप्पओगिणो म । हवेगे य आहारगमीससरीरकायप्प ओगियो य, कम्मगसरीरकायप्प गीय । श्रवेगे य आहारगमीससरीरकायपण ओोगिणोय, कम्मगसरीरकायपयोगिणो य । चउरो भंगा। एवं चडवीसं भंगा २४ | हवेगे य ओराझियमीसग सरीरकाययोगी य, श्राहारगसरीरकाययोगी य, आहारगमीससरीरकायोगी य १ । महवेगे य श्ररानियमीससरीरकायप्पझोगी य, आहारगसरीरका यप्पयोगी य, आहारगमीसस कायगो प २ । प्रवेगे य ओरालियमीमसरीरकायपोगी य, आहारगसरीरकायप्प ओगियो य, श्राहारगमीससरीरकायपोगी प ३ । श्रवेगे य ओराझियमीससरीरकायपोगी य, आहारगसरीरकायप्पयोगिणो य, आहारगमीससरीरकायपयोगिणो य ४ । ग्रहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्प ओगियो य, आहारगसरीरकायष्पओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगी यए । वेगे य ओरालियमीससरीरकायष्णयोगिनो य, आहारगसरीरका यप्पओगी य, आहारगमीस सरीरकायप्प ओगिलोय ६ । वेगेय ओराशियमीस सरीरकायप्प प्रो. गिलोय, आहारगसरीरकायष्प योगियो य, आहारगमीमसरीरकापयोगी य ७ | अहवेगे य ओरालियमीसमरीरकायप्प ओगियो य, आहारगसरीरकायगणो य, आहारगमीस सरीरकायपयोगियो य छ । एए श्र जंगा | अहवेगे य ओरालियमीमसरीरकायप्पयोगी य, आहारगसरीरकायप्पओगी य, कम्पगसरी रकायष्प श्रोगी य १। अगे य ओरालियमीस सरीरकायप्पयोगी ययाहारगसरीरकायपोगी य, कम्मग सरीरकायष्पगिलोय २ | अहवेगे य ओरालियमीस सरीरकायप्पओगी य, आहारगसरीरकायष्प योगिलोय, कम्मगमरीरका यप्पयोग य ३ । ग्रवेगे य श्ररानियमीमसरीरकायप्पओगीय, आहारगसरीरकायप्प ओगिलो य, कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ४ । वेगे य ओराक्षियमीससरिकायप्पओ For Private पयोग गिलोय, आहारगसरीरकायप्पओगी य, कम्पग सरीरकायपोगियो य ए । अहयेगे य श्ररानियमीससरीरकायओगीय, आहारगसरीर कायप्पओगिलोय, कम्पासरीरकायगो य६ । अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायगो य, आहारगसरीरकायप्पयोगिणो य, कम्मासरीरकायपत्र्यगिणो य ७ । वेगे य ओरालियमीससरीरकायप्प ओगियो य, आहारगसरीरकायप्पओगिलोय, कम्पासरीरकाय पोगिणो य ८ | महत्रेगे य ओरालियमीम सरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीरकायगीय, कम्मगसरीरकायध्यओगी य १ | अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरायपओगी य, कम्पगसरीरकायप्पयोगियो य २ । वेगे य ओरालियमीमसरीरकायच्ययोगी य, आहारगमी सरीरका पगिणो य, कम्मगसरीरकायप्पओगी य ३ । अहगे य ओरानियमीससरीर कायपयोगी य, आ हारगपीससरीरका यपयोगियो य, कम्मासरीरकायप्पो गिणो य ४ । त्रेगे य ओरान्नियमीससरीरकायप्पओगिणो य, आहारणमीमसरीरकायपभोगी य, कम्मगसरीरायपओगी य ५ | अहवेगे य ओरालियमीससरीरका गोय, आहारगमीससरीरकायप्पओगी य, कमासरीरका योगिणो य ६ । अहरेगे य ओरालियमी - ससरीरकाययोगियो य, आहारगमीससरीरकायप्पयोगिणों म, कम्पासरीरकायपोगी य७ | अहवेंगे य रामं सरीरकायप्पयोगिणो य, आहारगमीससरीरका पोगिणी य, कम्मासरीरका गप्प ओगिलो य८ । अत्रेगे य आहारगसरीरकायपयोगी य, आहारगमीससरीरका योगी य, कम्पासरीरका यपयोगी य १ । अत्रे व आहारगसरीरकायपओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगी य, कम्मरा सिरकायष्पगियो य २ । वेगे य आहारगसरीरकायष्पयोगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य, कम्मासरीरकायपोगी य ३ | अत्रेय आहारगसरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगियो य, कम्पासरीरकायपोगिणोय ४ | अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिलोय, आहारगमीससरीरका यप्पयोगी य, कम्मासरीरकायगी य५ । अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगियो य, आहारगमी ससरिकायप्पयोगी य, कम्मासरकारगिलोय ६ । वेगे य आहारगसरीरायपयोगिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पयोगितोय, कम्पासररिकायपयोगी य ७ | अहवेंगे य आहारगसरीरकायष्पगिलोय, आहारगमीस सरीरकायप्पयोगियो Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( y) पयोग अन्निधानराजेन्द्रः। पभोग य, कम्मासरीरकायप्पओगिणो य । एवं एते वि तिय- नियमीससरीरकायप्पयोगिणो य,पाहारगसरीरकायप्पोसंजोएणं चत्तारि अट्ठभंगा। सब्ने विमिलिया बत्तीसं नंगा गिणो य,आहारगमीससरीरकायप्पोगिणो य, कम्मगसरी- . जाणियबा ३। अहवेगे य ओरानियमीससरीरकायप्प- रकायप्पयोगी य १५ । श्रहवेगे य ओरालियभीससओगीय, आहारगसरीरकायप्पभोगीय,पाहारगमीसमरी- रीरकायप्पभोगिणो य, आहारगसरीरकायप्पभोगिणो य, रकायप्पयोगी य, कम्मासरीरकायप्पभोगी य १। अहवेगे पाहारगमीससरीरकायप्प प्रोगिणो य, कम्मासरीरकायप्पय भोरालियमीसमरीरकायप्पभोगी य,पाहारगसरीरफायः || श्रोगिणो य १६ । एवं एते चनसंजोएणं सोलस जंगा पभोगी य,पाहारगमीससरीरकायप्पभोगी य,कम्मासरीर- भवति । सम्बेसि संपिमिया असीई भंगा जति । कायापमोगिणो य । प्रहवेगे य मोरालियमी ससरीर- "जीवाणं भंते !" इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, निर्वचनसूत्रेसकायपोगी य,आहारगसरीरकायप्पोगी यामाहारग वेऽपि ताबद्भवेयुः सत्यमन:प्रायोगिण इत्यादिरेको नमः । किमुक्तं भवति ?-सदैव जीवा बहव एव सत्यमनःप्रायोगिणो. मीससरीरकायप्पभोगिणोय,कम्मामरीरकायप्पओगीय। यसस्यमनःप्रायोगिणोऽपि याबक्रियमिभशरीरकायबायोगि. श्राहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पभोगी य, आहारग- पोऽपि सभ्यन्ते सत्र सदैव वैक्रियमिक्षशरीरकायप्रायोगिणो ना. सरीरकायप्पभोगी य, आहारगमीससरीरकायप्पभोगिणो. रकाऽऽदीनां सदैवोपपातोत्तरक्रियाऽऽरम्नसम्भवात् । सदैव य, कम्मासरीरकायप्पभोगिणो य ।। अहवेगे य मोरा. कार्मणशरीरकायप्रायोगिणः सर्वदैव वनस्पत्यादीनां विग्रहेणा चान्तरगती सत्यमानत्वातामाहारकशरीरीच कदाचित स. लियमीससरीरकायप्पभोगी य, माहारगसरीरकायप्पमो पंधान सत्यते, परमासान् यावत्कर्षतोऽन्तरजावात्, यदाऽपि गिणोय, पाहारगमीससरीरकायप्पभोगी य, कम्मासरीर- लभ्यते तदाऽपि जघन्यपदे एको द्वौ वा, तस्कर्षतः सहमपृथकायप्पोगी य । अहवेगे य भोरालियमीससरीरकाय- कत्वम् । उक्तं चप्पयोगी य, पाहारगसरीरकायप्पभोगिणो य, आहारग- " माहारगई सोप, छम्मासे जा न होति विकयाई । मीससरीरकायप्पयोगी य,कम्मासरीरकायप्पभोगिणो य उकोसेणं नियमा, पकं समयं जहन्नेणं ॥१॥ होताई जहनेणं, एक दो तिथि पंचय हवंति। ६। अहवेगे प ओरालियमीससरीरकायपोगी य, नकोसेण उ जुगवं, पुदुत्तमे सहस्साणं" ॥२॥ पाहारगसरीरकायप्पयोगिणो प, प्राहारगमीससरीरका. ततो बदा पाहारकशरीरकायप्रयोगी, याहारकमिश्रारीरयप्प प्रोगिणो प, कम्मासरीरकायप्पयोगी १७ । मह कायप्रयोगी बैंकोपिन लभ्यते, तदा बचनविशिष्टत्रयोदशवेगे य ओराझियमीससरीरकायप्पभोगीय, प्राहारगस पदारमकपको भनात्रयोदशपदानामपि सदैव बहुत्वेनाब. स्थितस्वास । यदा त्येक माहारकशरीरकायप्रयोगो सभ्यतेतरीरकायप्पभोगिणो प, आहारगमीससरीरकायप्पभोगि दा द्वितीयः। तेऽपि यदा बहवो सभ्यन्ते तदा तृतीयः । एवमेव पो य, कम्मासरीरकायप्पयोगिणो पर। प्रहनेगे या माहारकमिभशरीरकायप्रयोगिपडेनापि हो प्रलो लभ्येते,श्त्येभोरासियमीससरीरकायप्पओगिणो प, पाहारगसरीरका- कयोगे चत्वारो भला द्विकसंयोगेऽपि प्रत्येकमेकवचनबहुवचपप्पोगी य, श्राहारगमीससरीरकायप्पयोगी प, कम्मास नाभ्यां चम्यारति सर्वसंख्यया जीवपदे नव भामेरयिक पदे सत्वमननयोगप्रभृतीनि वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगे. रीरकायप्पयोगी य ए । अहवेगे य ओरालियमीससरी पि पर्यन्तानि सदैव बहुवचनेन दशपदाम्यवस्थितानीत्येको रकायप्पभोगिणो य, आहारगसरीरकायप्पयोगी प, भा. मङ्गः । बध क्रियमिवशरीरकायप्रयोगिणः सदैव कयं लभ्यहारगपीससरीरकायप्पभोगी य, कम्पासरीरकायप्पयोगि- ते,द्वादशमौहर्तिकगत्युपपातविरह कामभावात । उच्यते-हत्तणो य १०। अहवेगे य पोरालियमीससरीरकायप्पनी स्वैक्रियापेक्षया । तथाहि यद्यपि द्वादशमौर्णिको गत्युपपातवि. रहकासस्तथापि तदानीमपि उत्सरवैफियाऽऽरमिनणः सम्नवगिणो य, आहारगसरीरकायप्पभोगी प, पाहारगपीससरीरकायप्पयोगिणो य, कम्मासरीरकायप्पयोगी प न्ति, अत्तरबैकियाऽऽरम्भे च नवधारणाय वैक्रियमिदं तदबले११। अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पभोगियो नान्तरवैकियाऽऽरम्नात् भवधारणीयप्रदेशे चोत्तरक्रियं बैकि यमिभमुत्तरवैफियवझेन भवधारणीयप्रवेशातातत पवमुत्तरवै. य, पाहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसमरीरकायप्पभोगिणो य, कम्पासरीरकायप्पभोगिणो य १३ । कियापेक्या जवधारणीयोत्तरबैक्रियमिश्रसम्भवात,तदानीमपि क्रियशरीरमिश्रकायप्रयोगिणो नैरयिका लच्यन्ते, कार्मणशअहवेगे योगलियमीससरीरकायप्पयोगिणो प, था- रीरकायप्रयोगी च नैरयिकः कदाचिदेकोऽपि न सभ्यते, द्वा. हारगमरीरकायप्पभोगिणो य, आहारगमीससरीरकायप्प- दशमार्तिकगत्युपपातबिरहकाल नावात् । यदापि लभ्यते त. श्रोगी य, कम्मासरीरकायप्पभोगी य १३ । अहवेगे य दाऽपि जघन्यत एको द्वै। वा, उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयाः । ततो यदा ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणो य, आहारगसरीर एकोऽपि कार्मणशरीरकायप्रयोगी न लभ्यते,तथा प्रथमो भङ्गो, कायप्पओगिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पोगी य, यदा पुनरेकस्तदा द्वितीयो,यदा बहवस्तदा तृतीय इति । अत एव त्रयो भङ्गा भवनपतिभ्यन्तरन्योतिष्कवैमानिकेषु नावनीया पृ. कम्मासरीरकायप्पओगिणो य १४। अहवेणे य ओरा- शिव्यपतेजोवायवनस्पतिषु श्रीदारिकशरीरकायप्रयाागणाजप, १२ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) श्रभिधानराजेन्द्रः | पयोग श्रीदारिकमिशरीरको कार्यक गिणोऽपि सदा बहव एव लभ्यन्ते इति पदत्रय बहुवचनाऽऽत्मकः प्रत्येकमेक एव भङ्ग, कायिकेदार कामणशरीर पञ्चकचचना अमक ए शिरीरिणां वैकियमणि च सदेव मानवा द्वीद्रियेषु परिका पारिका समेत लघु मदारिक मिश्रगम न्तर्मुहूर्तमतिवृहत्प्रमाणमत औदारिक मिश्रशरीरकायप्रयोगिलभ्यते तुका विदेकनिकोपपरिया। यदाऽपि लभ्यते तदाऽपि जघन्यत एको द्वौ वा, उत्कर्षतोऽसंश्याम ततो या एकोऽपि कार्मणशरीरकायप्रयोगी न लभ्यते तदा प्रथमो भङ्गः । यदा पुनरेकः कार्मणशरीरी लभ्यते, तदा द्वितीयो, यदा बहवस्तदा तृतीय इति । एवं त्रिचतुरिन्द्रियेष्वपि भावनीयमानया जड़ा दि पतिमिका यथा नैरधिकारतान वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगिस्थाने औदारिक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगिणो वक्तव्याः । किमुक्तं भवति ? - सत्यमनःप्रयोगिनोऽपीत्यादि तावद्वक्तव्यं याबदसत्यामृषावाकप्रयोगि पिसारिकशरर काययोगिकिमि अशरीर काय प्रयोगोऽपीति वक्तव्यम् । एतानि दश पदानि बहुवचनेन सदाऽवस्थितानि । यद्यपि च तिर्यगपञ्चेन्द्रियाणामपारिका तथायुपपानविरहकाला तर्मुहूर्त लघु, औदारिकमिश्रान्तर्मुहूर्तमतिबृहदित्यत्राप्यौदारिकमिश्रशरीरकाय प्रयोगिणः सदा बज्यन्ते । यद्वस्तु द्वादश मुहूतेक उपपतिविरहकालः स गर्भकान्तिक पचेन्द्रियतिर धन सामान्यतरखामिति कार्मणशरीरका प्रयो " गीतुकाको विरह कालभावात्। ततो यदा एकोऽपि कार्मणशरीरी नवज्य ते तथा प्रथमो भङ्गः यदा पुनरेको लभ्यते तदा द्वितीयः । यदा बह्वस्तदा तृतीयः। मनुष्येषु मनश्चतुष्टयवाक् चतुष्टयौदारिकवै क्रियद्विकरूपास्येकादश पदानि सदैव बहुवचनेन लभ्यन्ते । वै. किषमिशरीरिण कति विद्या रायपेय तथाहि विद्याधरा अन्येऽपि केचिमि दो सदैव वाय लभ्यन्ते । आह च मूलटीकाकार:- मनुष्या वैक्रियमिश्रशरीरप्रयोगविद्या विकुर्तानावादिति श्रदारि कमिशरीरकापयोगी कामे शरीरकाययोगी का राज्य द्वादशमहाविर आहारकशरीरी, आहारक मिश्रशरीरी वा कादाचित्कः प्रागेवोक्तः, तत श्रदारिकमिश्रऽऽयभावे पदैकदेशबहुवचनक एको जगः । तत औदारिक मिश्रपदेन एकवचनबहुवचनाभ्यां द्वौ न । वमेव द्वौ भङ्गो आहारकपदेन, द्वौ चाऽऽहारकमिश्रपदेन, द्वौ कार्मणपदेनेत्ये कै कसंयोगे श्रष्टौ भङ्काः । द्विक संयोग प्रत्येकमेकवचनबहुवचनाभ्यामादारिकमाहारकप योश्वत्वारः। एवमेव श्रदारिकमिधाऽऽहा एक मिक्ष पोरवार, श्रदारिकमिश्रकार्मणयोरवार, आहारका द्वारक मिश्र पक्षस्वारः, आदारककार्मयार आहारको स्वारइति सर्वसंनिविभात्रियोगे श्रदारिक मिश्राहारकाऽऽहारकमिश्रपदानामेकवचनवदु पद्मोगपचयपरूवणा वचनाभ्यामष्टौ भङ्गाः, श्रदारिक मिश्राऽऽहारक कार्मणानामौ श्रदारिकमिधाऽऽद्धारकमकार्मणानामाहारकाद्वार कमिश्रकार्मणानामिति सर्वसंयात्रियो 1 श्रदारिक मिश्राऽऽहारकाऽऽदारक मिश्रकार्मणरूपाणां तु चतु [[पदानामेकवचना पोडश भङ्गाः सर्वभ हानामतिरिति उक्तप्रयोगः एकयों को २४ त्रिक संयोगे ३२, चतुष्क संयोगे १६। एवं सर्व संख्यया भङ्गाः ८० | प्रज्ञा० १६ पद । श्राचा० । (गतिप्रपात भेदाः 'गपत्राय' शब्दे तृतीयभागे ७७६ पृष्ठे प्रष्टव्याः) संक्लेशसंज्ञिते विशेोधिसंज्ञिते वा बीमिया मियागातिथिगे 64 जहासम्म गेम गे प्रयोगः सम्यक्त्वाऽऽदि पूर्वी मनःप्रभृतिष्यापार इति । अथवासम्पादयोग उचितानुचितो नामक औषधा पारवत् । स्था० ३ ० ३ ३० । प्रन० । विसर्जन कुले, रा० । नि०यू० । व्योपार्जनीयविशेषे, स्था० ३ ठा० १ ३० । सूत्र० । तिथि पद्मोग पानं जाण 66 जदा जोगो गिले 33 काय णं तदा पोगो वि । 'स्था० ६ ठा० रा० । श्रधमर्णानां दाने, स्था० वा० । उपाये, आ० चू० १ ० । ० । प्रयुज्यते इति प्रयोगः | व्यापारे, धर्मकथाप्रबन्धे, " जे गरहिया समियायोगात सुमा 33 सूत्र० १ श्रु० १३ श्र० । पद्योगकम्म प्रयोगकर्मन-म० पञ्चविधेनापि योगप्रदेशान् विहाय भी जम देश प्रदेश का देशका दलिकं नाति तत्प्रयोगमै पोकरण-प्रयोगकरण १० पुरुषव्यापारमिष्याचे सूत्र० १ कर्म कर्म आचा० १५०२ अ० १० । । ० अ० उ० । कुसुम्भरामाऽऽदो. आम०१० 'कर' शब्दे तृतीयभामे ३६० पृष्ठे प्रयोगकरणं यात पश्रोगकिरिया प्रयोगक्रिया स्त्री० । बीर्यान्तरायक्कयोपशमाविनंती मनायसे व्यापार्यत इति प्रयोग मनोका यलक्षणः, तस्य क्रिया करणं व्यापृतिरिति प्रयोगक्रिया । अथवाप्रयोग कियते प्रयोगर्थः । अक्रियाभेदे, दुष्टत्वेनास्या अक्रियत्वात् । स्था० ३ ० ३ उ० | श्रा० चू० | कायाऽऽदिव्यापारे, स्था० ५०२० पगाकिरिया तिविहा पत्ता । तं जहा-मणपोगा किरि या ओकिरिया, कायप्पभोगकिरिया । तत्थ मणप श्रगकिरिया श्रट्टरुद्दज्जणाई, वप्पओगो वायाजोगो, जोतित्थकरेहिं सावज्जादीगर हिश्रो । तं सेच्छार जासर । कायोगकिरिया पभत्तस्स गमणादकुंचणपसारणादिचेष्ठाकायरस | " श्राव० ४ श्र० । पचगगइ प्रयोगगति - स्त्री० । सत्यमनःप्रभृतिकस्य पञ्चदशविधस्य प्रयोगस्य प्रवृत्तौ भ० श० उ० । पनोगपचयपरूचा प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा स्त्री० प्रकृष्ट योग प्रयोगस्य कारभूत पुद्गलास्तेषां स्नेहमधिकृत्य स्पर्धकप्ररूपणा प्रयोगप्रत्ययस्प प्ररूपणा | प्रयोगजन्य स्पर्धकानां प्ररूपणायाम्, क० प्र० । तत्र प्रयोगो योगः, तत्स्थानङ्ख्या यो रसः कर्म परमाणुषु के - - Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयोगपचयपरूवणा प्रत्ययमानेषु परिवर्धते स्पर्श रूपयात त " योगप्रत्ययस्पर्द्धकम् । उक्तं च-" होठ पद्मोगो जोगो, तष्ठाचिचद्धणाएँ जो उ रसो परियई जी, योग चैति ॥ १ ॥ तस्य पञ्च अनुयोगद्वाराणि । तद्यथा श्रविभागप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्द्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा चेति । (२३ गा०) क० प्र०१ प्रक० । पयोगपरिणय प्रयोगपरित्रजीव्यापार तथा परिणतिमुपनीतायां यथा पटाssदिषु कर्माऽऽदिषु वा । त्रिविधपुद्गलभेदे, स्था० ३ डा० ३ उ० । पोगबंध-प्रयोगक० ६ उ० जीवव्यापारबन्धे, भ०८ श०६ ४० । जीवप्रयोगेण अभ्याणां बन्धने, भ० १८ श० ३ उ० । ( ' मागंदिय' शब्दे बक्तव्यता ) पगम प्रयोगमति खी०वापराने "वतोप ओम दो पुषीय बायपुरि से वत्युं चिय परंजप वायं ॥१॥ " उत्त० १ अ० । दशा० । स्थान पगा प्रयोगपीणिसंस्था०टा० । ( ' गणि संपया' शब्दे तृतीयभागे ४२६ पृष्ठे व्याख्याता ) योग-प्रयोजकका (80) निधानराजेन्द्रः । - । युज- निस्व त्या प्रेरके व्याकरण हेतु कर्तरि पं० ० १ द्वार । आ० म० । पोज-प्रयोजन न० प्रयोज्यते येन तयोजनम् कार्ये मेह प्रयोश्या०० अ० कारने नि०यू० १३ उ० | येन प्रयुक्तः प्रवर्तते । सुत्र० १४० १२ २० । विशे० प्रव० । ( 'मोक्कार' शब्दे चतुर्थजागे १८४४ पृष्ठे तत्प्रयोज नमुक्तम् ) " पूर्वमेवेह सम्बन्धः, सानिधेयं प्रयोजनम् । मङ्गलं चैव शास्त्रस्य, प्रयोक्तव्यं प्रवर्तकम् ॥ १ ॥ " दशा० १ श्र० । जी• । तत्र प्रयोजनं द्विधा-परम्, अपरं च । पुनरेकैकं द्विधा क पानिपतपर्यालोचनावामाग मस्य नित्यत्वात्कर्तुरभाव एव । तथा चोक्तम्- पपा द्वादशाङ्गी म कदाचित् न कदाचि नवियति न कदाचित्र नवति " इति वचनात् । पर्यायास्तिकनयमतपर्यालोचनायां वानित्यत्वादवश्यंभावी तत्सद्भावः, तत्वपर्यालोचनायां तु सुशाययरूपत्वात् नापेयात्ययित्वात्कञ्चित्क सिद्धिः । तत्र च सूत्रकर्तुरनन्तरं प्रयोजनं सत्वानुग्रहः परं प्रायः सभ्यानामनुग्रम् स्वपवर्गप्राप्तिः करोतिनां प्राप्नोत्ययम् ॥ १॥" द तिपादकस्य भगवतो कि प्रयोजनमिति चेत् [[चित् । प्रयोजनमन्तरेणार्थप्रतिपादनप्रयासी न समीचीन इति चेत् । न तस्य तोकरनामकर्मविपाकोदयप्रभवत्वात्। वक्ष्यति च "तं च कहं वेश्जर, श्रीगला धम्मदेसणादीहिं ।” इति। श्रोतॄणामनन्तरं प्रयोजनमावश्यकश्रुतस्कधार्थ परिज्ञानं परं निःश्रेयसावाप्तिः । कथमिति चेत् ?, उच्यतेदाभ्यां कः सम्यगः सरसाव गनिवृत्तिप्रवृत्तिभ्यां सवितुः खरकिरणैर्ज बाई शाटिकायाः सा लकणानामिव कर्तपरमाणूनामवश्यमुपशोषोपगमसंभवात् ज्ञानक्रियाSSत्मकं चावश्यक मुभय स्वभावत्वात् । तयोश्च ज्ञानकिययोराशिविचिताऽऽपश्यन्यणो जायते नान्यथा, तत्कारणत्वात् तदवाप्तेः श्रत एव भगवन्तो भ बाहुस्वामिनः परम करुणापरीतचेतस पेयुगीनसाधूनामुप यते पंकायया काराय आवश्यकस्य व्याख्यानरूपामिमां नियुक्ति कृतवन्तः, अन्यथा सम्यकपरिज्ञानात शिष्याणां दप्रसक्तेः, कारणादेव कार्यसिद्धिभावात् । श्राह च भाष्यकृत्"नाणा करियाहि मोक्खो, तम्मयमाषस्लयं जतो तेण । पच्च खाणारंभो, कारणतो कज्जसिद्धि त्ति ॥ ३॥ " ततः श्रोतॄणामपि परम्परया मुक्तिभावाद्भवति तेषां परं प्रयोजनं निश्रेयावाप्ति रिति प्रयोजनवान् आवश्यकप्रारम्भप्रयासः । श्रा०म०१ श्र० प्र वर्त्तने, "जन्तत्थं गणत्थं चलोगे लिंगप्पओयणं ।" उत्त०२३श्र० । पद्मोन पर तोवर ०. ०१०१० नोझी प्रतोजी-स्त्री० [सुराणां प्राकारस्य चान्तरेऽहस्तविस्तारे इत्यादिसंचारमार्गयरिकायाम अनुमोद पोली य ।" पाई० ना० २६० गाथा । पद्मस प्रेट्र्ष पुं० - द्वेषः प्रद्वेषः २०३४ सा मत्सरे श्राव०४ अ० । स्था० स० । श्रातु० । अन्त । रामप्रीतौ, कर्म० १ कर्म० । कषाये, "कोहाईश्रो कलाओ " स्था०१० dol मोपपुं० प्रोषिक आचा० २ ० ३ ० - " सेयं पचसं । " पाइ० ना० २३४ गाथा । पोका प्रषध्यान न० प्रतिकमस्येव पितो गोपस्येव ने पद्मोदर पयोधर पुं० स्तने जं० १०० "" पश्रो हरा तह थणा सिहिणा । " पाइ० ना० १०६ गाथा । पंक-पक-पुं० । पङ्कयतीति पङ्कम् । पापे, सुत्र० २ श्रु० २ श्र०। प्रश्न० । वृ० | कर्दमे, स्था० ८० उत्त० श्राव० । श्रघ० । भ० । तं० । औ०| चिक्खल्ले, वृ०६ ० । श्वेशऽऽऽमले, उत्त०२ अ० । संथा० ॥ ज० | "पंको दव्वभावतो, दव्वओो चलणी, भावश्रो श्रसंजमए ।" नि० चू० १३० ।" जंबाला खंजणो पंको । पाई० ना० १२६ गाथा । पंकजल णिमज्जण - पङ्कज बोसने, प्रश्न० ४ श्रश्र० द्वार 39 जलनिमज्जन- न० । कर्दमप्राथजले, पंकप्पभा - पङ्कप्रभा - स्त्री० । पङ्कस्य प्रभा यस्यां सा पङ्कप्रभा । भव्योपलकिता चतुर्थनरकथिव्याम, अस्था प्रज्ञा० भ०] प्रब० । पंकबहुल-पल पचतीति पहुं पार्थ बहु स्तथा । बहुलपापे, पापप्रचुरे, सूत्र०२ ०२ अ० दशा० | रत्नप्रभायाः पृथिव्याः प्रथमकाएके, जी. ३ प्रति०९१ अधि०१० ॥ कय-पद-१० प पजम विशे० विन्दे संघा०] विशे० (अस्यैकार्थिकानि चतुर्थमागे नक्ष शब्दे २७७२ पृष्ठे गतानि ) पंकरय-पङ्करजस् न० पङ्कः कर्दमः, स एव रजः पद्मस्वरूप परञ्ज नाजी पंकवई - पडूबती - स्त्री० । मन्दरस्य पूर्वेण सीताया महानद्या उत्तरेण वदन्त्यामन्तर्नद्याम, स्था० २ ० ४ उ० । वेगवत्याम्, "दो पंकवई । " स्था० २ ठा०३ उ० । पंकाय पायतनम० पथाने पत्र लि - प्रकृष्टो द्वेषः प्रद्वेषस्तस्य ध्यानवीरं प्रति कर्णयोः का " का धर्मार्थ लोटनाऽऽदिक्रियां कुर्वन्ति । आचा० २ श्रु० २ चू० ३ अ० । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) अभिधान राजेन्खः । पंकाई ती पंकावई - पावती स्त्री० पङ्कोऽतिशयत्वेनास्त्यस्यामिति पङ्कायस्वाद दीर्घत्वम् । मद्राविदेदे तृतीयान्तयाम, जं० ॥ काढणं भंते! महाविदेहे वासे पंकाचईकुंदे णामं कुंके पत्ते ? | गोमा ! मंगलावचस्स पुरस्थिमेणं पुक्खल विजयस पञ्चाच्छमणं एझवंतस्स दाहिणे नितंबे एत्थ एं पंकाई ०जाब कुंके पत्ते, तं चेत्र गाहावइकुंरुप्पमाणं ० जाव मंगलापुक्खलाबजए 5हा विभयमाणी विजयमाणी, अ सेतं चैव गाहावई । जं० ४ वक्ष० । पंकिय-पडित - त्रि० । आईमसोपेते, भ० ६ श० ३४० । ज मलमस्ते, नि०यू० १३० । पंख पक्ष - पुं० । पक्षिणामवयवे उडयनसाधने, आ०म० १० पञ्चदशस्वहोरात्रेषु ज्यो० २ पाडु० । पंखासण - पक्षासन - न० । येषामधोभागे नानास्वरूपाः पक्षिण उपविशन्ति तेषु रा० । पंखुमी - देशी - पत्रे, दे० ना० ६ वर्ग ८ गाथा । पंगु - पशु - त्रिo | अनभिनिर्वृतपाण्याद्यवयवविभागे मृगापुत्रपूर्वकृताशुभ कर्मोदयाद्धिताहितप्राप्तिपरिहार विमुखेऽतिकरुणां दश प्राप्ते, आचा० १ ० १ ० २ ० | पाई० ना० । पंगुरण - मावरण - न० । " प्रावरणे अंग्वाऊ" ।। ८ । १ । १७५ ।। इति प्रावरणशब्दे आदेः स्वरेण सस्वरव्यजनेन सह अम्बा देशः । उत्तरीय वस्त्रे, प्रा० १ पाद । पंगुन-पहल- त्रि० । चङ्कमणाऽसमर्थ, प्र० ५ सम्ब० द्वार पादगमनशक्ति विकले, प्रत्र०११० द्वार। म० गमनासमर्थे, प्रश्न ० १ आश्र० द्वार । व्य०। पादजाहीने, नि०यू०११० । “कम्मदोसेण पंगुलिया जाया समरिया नियजाती । " प्रा०म० १ अ० । पंगुलअ - पशुलक - पुं० । गमनाऽसमर्थे, पाई- ना० २३५ गाथा । पंच- पञ्चन् - त्रि० | संख्याविशेषवत्सु दशार्के, नं० नि० ० । अनु० । उत० । भव० । पंचग - पञ्चाङ्ग-पुं० | पञ्चान्यवयवा विवचितम्यापारयन्ति यत्र स पञ्चाङ्गः । पञ्चावयवे जानुद्वयाऽऽदीनि भूस्पृष्टानि कृत्वा प्रणिपाते पञ्चा०४ बिब० । सङ्घा० । ( " पंबंगो पणिवाचो" इत्यादिगाथा 'पणिवाय ' शब्दे व्याख्यास्यते ) पंचगमुद्दा - पञ्चाङ्गमुद्रा-त्री पञ्चाङ्गान्यवयवाः करजानुद्वयोत्तमाङ्गकणानि विनकितव्यापारवन्ति यस्याः सा तथा । पञ्चाङ्गे श्रङ्गविन्यासविशेषे, ४० २ अधि० । पंचगुनि - देशी - परमवृक्के, दे० ना० ६ वर्ग १७ गाथा । पंचगुलिय - पञ्चाङ्गुलीय-पुं० । अङ्गुलिपञ्चकशालिनि दस्ते, अन्यत्र पञ्चाङ्गुम्नं दारु । “ गोसीस सरसरत बंददद्दरादेनपंचगुलितसं । " ० १ ० १ ० रा० स० । पंचगुनिया - पञ्चाङ्गुलिका स्त्री० । वल्लीभेदे, प्रज्ञा० १ पद । पंचकत्तिय - पञ्चकृतिक पुं० । कृत्तिकासु जातपञ्चकल्याणे कु. न्युनाथे, स्था० वा० १० । पंचकम्प - पञ्चकल्प - पुं० । भरुबाहुस्वामिना नवमपूर्वान्निर्यूदे पञ्चविध कल्पप्रतिपाद के ग्रन्थभेदे, संघदास गणिकृतनाप्यविभूषिते नियुक्तिग्रन्थभेदे, पं० ना० । For Private पंचकप्प बंदामि जeबाहुं, पाईणं चरिम सगल सुयनाणिं । सुत्तस्स कारगमिसि, दसाण कप्पे य ववहारे ॥ १ ॥ कप्पंति नामनिष्फनं महत्थं वत्थुकाम । निज्जूहगस्स नत्तीए, मंगलडाऍ संधुर्ति ॥ २ ॥ तित्थगरणमोकारो, सत्यस्स उ आइए समक्खाओ । इद्द पुण जेवाज्जयणं, निज्जूढं तस्स कीरसि तु ॥ ३ ॥ सत्याणि मंगनपुर - स्सराणि सुहसवणगणधर गुणाणि । जहा भवति जति य, सिस्सप सिस्सेहिँ पचयं च ||४|| मीय सत्यकचरि, ततो जब योगगोरबं सस्थे । eer कारणं, कीर यादी णमोकारो ॥ ५ ॥ बद-प्रतिवाद - युतीए, सुभसद्देगहा तु परिगीतो । बंद - पूनम, पुराणं सकारमेगडा ||६|| भई सि सुंदरं तिय, तुझत्यो जस्म सुंदरा बाहू | सो होति भरबाहू, गोधां जेणं तु बालते ॥ ७ ॥ पाषण य अविस्वज्जइ, बेसलभावी तु बाहुजुबलस्स | उबवणमतो नाम, तस्मेयं मबाहु ति ॥ ८ ॥ प्रणेवि जवाहू - बिसेसणा गोतगण हरपाइय्यं । यस पडिसि, चिबेसणं चरमसगन्नसुतं H ६ ॥ रिमो पच्छिम खलु चोदसपुन्नार होति सगलसुतं । सेनाम ब्रदासहा, सुत्तकरऊपणमेयस्व ॥ १० ॥ किं वे कबं तंतू, बं जएथेति तस्स कारम्रो सो तु । भति गणधरीहिं, सब्बसुयं चेव पुष्वकतं ।। ११ ।। तो चि निज्जू, अगहडॉर संपयजतीणं । तो मुत्तकारो खलु, स भवति दसकप्पनबारे | १२ | वंदे तं भगवंतं, बहुजरसुभद्दसत्रभोज । पण हिययकेतुं सुवणाणपभावगं धीरं ।। १३ ॥ दिसदो पुत्रणि तदतीतं चेन नामगोत्तेहिं । इस्सरियागुण जगो, सो से प्रत्थिति तो भगवं । १४ । न कलाएं ति य, एगहूं तं च सुबदुषं जस्से । सो होती बहुभही, सोनल भद्दो मुद्दो नि || १५॥ वीरासनमादीणितु, सुभाणि जद्दाणि तस्स न बहूणि । सब इहपरलोए, जहं वो सवतोभो ।। १६ ।। मोहादि इहए पसलोए होतऽत्तरसुरादी | सुकुलुप्पत्ती यतो, ततो य पच्छा य शिव्त्राणं ॥ १७ ॥ जाति त्ति भद्दमहवा, भादी णाणदिहि सो जम्हा सो होति जद्दनामो, कुम्बइ भद्दाणि वो जम्हा ।। १८ ।। पत्रयण दुवाल संगं, तस्म हितो तं करेति संघो तु पवयणं तू, हितोपदेसं तो तस्स ॥ १२७॥ केतू दो जसिए, प्रोसियगंतुं तस्स ओहं तु । इहोगे पर लोगे, सो जगवं होति परमसुही || २० ॥ । Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकप्प निधानराजेन्द्रः। पंचजाम वायणयपत्जावण्या, मुतनाणगुणा य ते वदति सोए। अधुना पञ्चकल्याण प्रायश्चित्तसाध्यातिचारस्थानानि विचरपरिसाएँ मज्के, सुतनाण पभावणा एसा ॥२१॥ गाधायुगलेनाऽऽह दप्पेणं पंचिंदिय-बवरोवणे संकिनिकम्मे य । किं कारणं तस्स को, महया भत्ती तु णमोकारो। दीहदाणसेवी, गिलाण कप्पावसाणे य ।। ५७ ॥ जम्हा ते णिज्जूढा, अम्हहियहा य मुत्त इमे ।। २२॥ सव्वावहिकप्पम्मि य, पुरि पत्ताहणे य चरिमाए । प्रायारदसाकप्पो, ववहारो नरमपुवाणीसंदो। चारित्तरक्वणट्ठा. सयकडम्सुवरि गरिया:॥१३॥ चानम्मासे वरिसे, य सोहणं पंचकमाणं ।। ५७ ।। अंगरसा आमा वि दु, उवामगादीण तेण तु विमेसो। दो धाबनवल्गनझेपनाऽऽदि प्राण्याख्यातः,सं कुर्यता पञ्चेन्धिपं० भा०१ कटप । यव्यपरोपणं विघातनं कृतं स्यात्तस्मिन् दर्पण पन्चेन्ज्यि . मङ्गलादीनि सस्थाणि, प्रवाभिहितानि मङ्गलानि, पू व्यपरोपणे, संक्लिएं कर्म यद् गाहनस्य लिङ्गस्य करपरिमर्दचंता चास्मिन् तन्त्र कल्पाऽऽस्ये प्रोघनिष्पन्ने निपे भग नेन डाकपुजलनिष्काशनं करकर्मेनि यमुच्यते । चकारात् लिचन्तः तीर्थकरा अपनाऽऽद्याः कृतार्थाः कृतकृया इति कृत्वा ङ्गस्य स्नेहाऽऽदिना प्रकादिकं च,तस्मिन् संक्लिकमंणि(दीतेषां नमस्कारः कृतः । अधुनाऽस्मिन्नामानिष्पन्ने निक्षेपे पश्च. हद्धाणासेवि त्ति) षष्ठीस्थाने प्रथमा । ततो दीपावनि यदाधाकलासंझके येनेदं दशाकल्पसूत्रं प्रवचनहितार्थाय पूर्वादाहृतं कर्म अश्वकल्पाऽऽदिकं यत् शुष्ककदलीफाऽऽदिधरणाऽऽत्मकं तस्य नमस्कारं करोमि प्रत्येकशः गाहासूत्रकर्तुः । तत्राऽऽद्या गा. तदासविन, ग्यान कल्पावसाने च ग्लान कल्योवानाऽऽचारः, था-(वंदाभि भहवाहु)यदि स्तुत्यनिवादनयोः बन्दनमबन,प्रणि श्राधाकर्मिकक्काथपथ्याऽऽद्युपजीवनसंनिधीभूतचूर्णस्याऽऽसेवन पान इत्यर्थः । निर्देश करोति-भव हु, प्राचीनमिति-प्राचीन वा तस्य ग्लानकल्पस्यावसाने, नीरोगित्वे जाते सतीत्यर्धः। वा जनपदः चरमं यः पश्चिम इत्यर्थः । सक वसुयनाणि सकलं समुच्चये। सर्वोपधिकल्पे च वर्षारम्भं विनाऽपि सोंपधेः क. कृत्स्नं निरव शेषमित्यर्थः; तानि च चतुर्दशपूर्वाणि, ततस्तेन पकालने कृते सति (पुरि मत्तापेहणे य चरिमाए)सूचकत्वात भगवता पूर्वधारकेन नवमात्पूर्वात्प्रत्याख्यानमामधेयादाहृतं, सत्रस्य (पुरि ति) पौरुष्या, (चरिमापत्ति) चरमजागांनायां, ताणि य काब्यवहाराणि य चयगाउबगह कराणि अविस्सं. प्रथमपादोनप्रहरे सतीत्यर्थः । मात्राक्कणे मात्रकस्य भिक्कातीति कटटु तेण भगवता निज्जूढाणि, तेन कारणेन कार्यब पात्रकस्य प्रमादेनाप्रतिलेखने तथा चातुर्मास के वार्षिक व पचार इति कृत्वा स रव भगवान प्रवचनापप्रडका; तेण पर्युषणाऽऽख्ये परिण शुद्धौ प्रक्रान्तायां समाप्येतेषु पदेषु महता नत्तीए जनो वि नमोकारं तस्सेव करेमि-(वंदे तं जग शोधकं पञ्चकल्याणक प्रायश्चित्तम् । अत्राऽऽद-दर्पतः पश्चन्छिवंत गाहा)भगवन्त इति यशस आस्था,भगवन्तः यशोवन्त इत्य पबंधाऽऽदी दीयतां नाम प्रायश्चितं, चातुर्मासिकवार्षिकेषु चार्थः। अथवा-जगवत इति। यस्मात् ससुरासुरनरोरगतिर्यग्योनो तिचाराभावे कथं प्रायश्चित्तमिति । अत्रोच्यते प्रादोषिकाईजीवलोकः कामभोगारतितृषितार्द्धिमूच्छिताध्युप पन्नस्तेन ज. रात्रिकविरात्रिकमानातिकाऽऽख्य कामानां कदाचिदग्रहणं सूत्राथ. गवता वान्त इनीत्यतो भगवन्त इति । बहुना इति । भदि क पौरुष्यों जावकरणमप्रति लेखिनमुःप्रतिखिताऽऽदि चत्यादीन् व्याणे सुखे च । बहु सुखं साद्यपर्यवसितं निर्वाणं यस्यासी समातिचारान् कृतानपि यतो न जानाति, न वा स्मरति, साधनार्थमभ्युद्यत इत्यतो बहुनकः । बहु च सद्भकं च निर्वाणं, ततश्चातुमासिकबार्षिकेषु निगतिचारस्यापि प्रायश्चितं भवति । भइसंझक: शोजनं न इत्यतः सुभः । सर्वतोभद्र ति । स. चकारद्वयं चा गाथायां समुश्चयार्थे । "पुरि मत्तापदणे तः सर्वावस्थं पक्ष्यं निरुपद्रवं चैतत् इत्यतः सर्वतोनप्रव. य, चरिमाए । " इत्यत्र यश्चकारः सोऽनुक्तसमुयार्थः, चनमिति द्वादशाङ्गम् । अथवा-श्रमणसङ्कः, तस्य हितसुख तेन यापोषितः कश्चिबरमायां पाश्चात्यपारुष्यामपि पाकेतुके उन्न्ये । कस्मादसौ केतुभूत?-यस्मातेन तज्ञानं दशा. प्रकाणि न प्रतिलेखयति, प्रास्ता प्रथमायां, तदा तस्यैक ककल्पव्यवहारमिशीयमहाकल्पसूत्राऽऽद्याः प्रवचनानिहिता नि । झ्याणक दीयत इति समुच्चीयते । जीत० । यढा इत्यर्थः । श्रुझानप्रभावकाः ते इत्यज्युपपत्तेः । श्रश्रवणे। पंचकोटग-पञ्चकोटक-पुं०। पञ्चभिः कोष्ठकै युक्ते पुरुष, पुरुषस्य झा प्रवबाधने । भादीत।। धी बुद्धिरित्यर्थः। पंच०१कल्प। | हि पञ्च कोष्ठका जवन्ति । तं। । पञ्चविधकल्पग्रन्थे पश्चाधिकारा-तथा च पक्रिधकल्पाचवंध-पञ्चस्कन्ध-पुं० । रुपाऽऽदिषु स्कन्धेषु,सूत्र० १ श्रु०१ सप्तविधकरपा, दधिधक, विशतिविधकल्पः, द्वाचत्वा- ०१०1" पंचखंधे वयंतेगे।" पश्चस्कन्धप्ररूपणपुरःसर रिशद्विधकल्पश्चेति । ते च स्वस्वस्थाने दर्शिताः। तेषां नामनि- निराकरण 'खणियवाई' शब्दे तृतीयभागे ७०४ पृष्ठे रूटव्यम) देशरसु' कप' शब्दे तृतीयजागे २२६ पृष्ठे कृतः) महत्पश्च- नचिन-पहचचित्र-पुंज पञ्चसु च्यवनाऽऽदिदिनेषु चित्रा नकत्रकलानाध्यं सदासकमाश्रमणविरचितं समाप्तमिति । "गा | विशेषो यस्य स पञ्चचित्र चित्रासुजातपञ्चकल्याणे,पदमप्रभ. हम्गेम्ग पंचवीससताई चउहत्तराई २५७४ । सिलोयम्गेणं । बत्तीससताणि दसहसहिया ३२१८ । पं० ना. स्य चित्रा नक्षत्र च्यवनाऽऽदिषु पञ्चसु स्थानेषु भवतीति। स्था० ५ कल्प.। पञ्चकल्पचूर्णिः समाप्त । प्रन्धप्रमाणं सहनत्रयं शत- । ५ टा.१३० । सत्त०। मेकं पञ्चविंशत्युत्तरम । पं० चूकल्प । पंचना-पाञ्चजन्य-पुं० । पञ्चजने देव्ये भवः-यञ् । विपंचकवाणय-पञ्चकल्याणक-न। काम्पिल्पनगरे तत्र हि भ. शके वाचा वासुदेवशङ्खे,शा०१ श्रु०१६ अ०। स्था०ातिका गवतो विमलनाथस्य च्यवनजननराज्याभिषेकटीका केवलका-पंचनाम-पञ्चयाम-पु० । हिसासत्याऽस्तेय ब्रह्मचर्या उपरिग्रहनलक्षणानि पञ्च कल्याणकानि जातानीति पञ्चकल्याणक- विरतिरूपे प्रथमान्यनीयकरधर्म, स्था०एम०। (चातुयामा मांत तवसिद्धमिति । ती०२४कल्प । तपोनिशेपे, जीत। धर्मःचाउजाम' शब्दे तक्षीयभागे ११६० पृष्ठ उक्त Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचगाद पंचपद - पञ्चनद-पुं० । पञ्च नद्यो यत्र | "विसस्तेरावतीच - भागा मधे सरिद्वरा । शतद्रुश्च विपाशा च तेन पञ्चनदः स्मृतः ॥ १ ॥ " इत्युक्ते ( पञ्चाव ) इति ख्याते रुदेशे, पञ्चा मां नदीनां समाहारः । काशीस्थासु " किरणा धूतपापा च गु ततोया सरस्वती । गङ्गा च यमुना चैव पञ्च नद्यः प्रकीर्तिताः ॥ १ ॥ " इत्युक्तासु बिन्दुमाधव तीर्थसन्निहितासु पञ्चसु नदीशु, वाच०। | इहाश्व इति किम् ? - नामिकम, वस्तुवाचकत्वात् । खल्विति नेपानिकल, निपातेषु पानीमा प्रधानत्वात् परस्योपसर्गिकम, उपसर्गेषु पठितत्वान् । संयत इति उपनामसमुदाय निष्या fer क्रोमीकरणात्पश्ञ्चनामत्वं जावनीयम् ' से तं पंचनामे इति ) निगमनम् ॥ १२६॥ पंचतित्थी - पञ्चती थीं- स्त्री तीर्थपञ्चके, अर्बुद गिरिसविधे हि तीर्थपञ्चकं यथास्थानं व्याख्यानम् । घ० २ अधि । पंचत - पञ्चत्व- न० । पञ्चानां पृथिव्यादिभूतानां भावः पञ्चत्वम्। मरम्मका स्वस्यांशस्य स्पेषु स्वेषु प्रवेशः इति तस्य पञ्चरूपता । स्था० = ठा० । पंचदसी पचदशी-खी पूर्णिमायाम् प्र०१० पाहु० १४ पाहु० पाहु० । वेदान्तग्रन्थे, बात्र० । पंनदिन पञ्चदि-२०१२ योनि देवदुन्दुभिः ३, गन्धोदकपुष्पवृष्टिः ४. श्राकाशे श्रहो कार्यक - (५०) अभिधान राजेन्द्रः | पंचाम पञ्चनामन्नमधि लापरवाह मे किं से पंचनामे | पंचनामे से नहा नाभिकम् नेपानिकम् श्राख्यातिकम् औपसर्गिकम्, पि श्रम् । श्रश्व इति नामिकम्, खस्विति नैपातिकम्, धावतीत्याख्यातिकम्, परीत्यौपसर्गिकम्, संयत इति मिश्रम् । से तव वीयदि श्रणे गाइसयगुणपण+खरपरिमाणं- 'णमो सि घमालावगसत्तक्खरपरिमाणा अणतागमपज्जवत्थपसाहगं स महामंत्रां परमपवित पदमज्झणं अहिज्जेयव्यं तद्विअहे श्र श्रायवित्रेण पारे । पंचनामे ।। १२६ ॥ काणं' ति वयं अभयणं श्रहिज्जेयध्वं तद्दिश्रहे अ श्रायंवित्रे -1 " कार अस्य बतु १८३५ विनयविधानविषये विशेषः द्वितीया २०४६ नः विणिग्गयं विण्याऽऽदि बहुमाणपारश्रसाकमाद्धं श्र गोगादेव णाखदारिस रोगसं जगजरामरणगन्ज निवासासह मोहित गभ्यं इणमो सागममज्झगयस्त मिच्छत्तदोसोवय बुद्धिपरिकपिकुमणिय मागास उदित जुतविरुद्ध पंचमंगलमास पंचम वस्तुपञ्चके, कल्प० १ अधि० ३ क्षण | पंचपपपुल पुं० [मत्स्यबन्धनविशेष स्था०-१०० पंचासादपूर्वाषापूर्वीचा जानादिकल्याणपञ्चके शीतलजिने, स्था० वा० १ ० पंचपूम- पञ्चपुष्य- पुं० । पुष्येसु संजातच्यवनाऽऽदि कल्याणधमेाजने, स्था० ५० १४० । वयवापचभूतवादिन- भूतपञ्चकमपादाङ्गीका रेणाऽऽत्मनः पदार्थान्तरत्वनिषेध के नास्तिके, सुत्र० १० " १ ० १ ० । पंचम-पम पहचान पूरके पां निर्देशक्रममाश्रित्य पूरणः पञ्चमः । अथवा पत्रसु नाभ्यादि षु स्थानेषु मातीति पञ्चमः । स्वरनेदे, तथा | प्रश्न०५ सम्ब० द्वार | वायुः समुत्थितो ना. तापस्थानस्थितस्यास्य पश्यत्वं विधीयते ॥ १ ॥ " स्था० ७ ठा० । अनु० । उपा० । पंचमंगल महामुकसंध - पञ्चमङ्गल महाश्रुतस्कन्ध- - पुं० ० । पञ्चप नमस्कार गर्भे श्रुतस्कन्धे, प्रति । (अस्य विषयः ' रामो | पातालय तभरियस्थप्रसाद अनंतरं तेणेव कम्मेण तिषयपरिछिन्ने मान लावगतखरपरिमाणं 'नमो उवज्जायाणं' ति चोत्थमज्झयणं श्रहिजे. तद्दिश्रहे श्र श्रयंबिलेण पारेअव्यं । 'नमो बोए पंचम पंचम दिवस मिश्रकारखपति मालवगतिसीरपरिमाणं सोपंचमुखारोपणो मंगला च सखि, पढमं हवर मंगलं ॥ १॥ " इति । चूलं ति छसत्त विवि 1 पत्र मंगलमहासुखंधं सरवन्नपयक्खरमत्ताविसु गुरुणोवयं गुरु कसिणमहिजित्ता णं तहा काय जहाऽऽणुवीपीय 66 तेरावणंतरभावयतिद्धिकरण गांगण मन से समजा विउ णं गोयमा ! मइया पबंधेणं सुपरिणं णिवणं असंदिद्धं सुत्तत्थं अगहा सोऊ धारेयव्यं । एयाप विहीर पंचमंगलस्स मोबाइ धर्मास्तिकायादिकरणचरपूर्वपतिम हिमा पंचमासिया विलोकया। L उवढाण अगुरुवयण गोगोलागी निवेशयइति प्रति महा० । पंचमय- पञ्चमक - न० । पञ्चममेव पञ्चमकम् । प्राकृततत्थात्स्वार्थे कप्रत्ययः । पञ्चसंख्यापूरणे, प्रा० म० १ ० प्रश्न० ॥ पंचम पञ्चमायतिक-पुं० पश्यामे धर्मसूत्र २ श्रु० ७ श्र० । पंचमद्दव्यप पञ्चम० णातिपातविरश्यादिक पञ्च पंचमहवयविसावसाने । पेषु पञ्चसु महावतेषु, महावनानि एव विशात्रा विस्तीर्णाः शात्राः शाखा यस्य स - " पंचमहाय माथिका लक णेषु भूतेषु, विशे० | सूत्र | प्रश्न० स्था० । पंचमासिय- पाञ्चमासिक - पुं० । पञ्चसु मासेषु प्रतीतेषु भवे, आचा० १ ० १ ० १ २ ० ० । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमी पंचमीपञ्चमी श्री प्रतिपदाः पञ्च व्यापारमितायतिथी, ६० प० | ज्यो० । ङसिभ्यांत्र्यसितिविभक्तिनेदे, "वायाणे पंचमं । ।" अनु० । स्थान पहिलो पोच पञ्चभिर्मुष्टिनि शिराके शापनयने (ऋषभः) "वयमेव उर्दि हाई हिलयं करे।" स्वयमेव चतसृति/मुभिः करणभूतानि र्बुञ्चनीय केशानां पञ्चमनागलुचि कानिरित्यर्थः । लोचं करोति अपराङ्गराऽऽदिमोचनपूर्वकमेव शिरोऽलङ्कारादिमोचनं विक्रिमायेति पर्यले मस्तकामद्वारकेशोनं कृता पत्रमुष्टिको संभवेऽपि अस्य गवािलोचगोचरः श्री परिवाद्यभिप्रायोग्यन प्रथममेकया मु मधु तिमि शिरोलो शिष्यमा पवनाशिनां कनकावासी प्रक योरुपरि लुठन्तीं मरकतोपमानमाविभूतीं परमरमणीयां वीक्ष्य प्रमोद भगवन् मनुग्रहं विधाय त्थमेवेति विज्ञप्ते भगवताऽपि सा तथैव रक्षितेति । न होकान्तनामां यात्रामनुगृहीतारः परयन्ती " पत्रमूर्ती स्कन्धोपरि बेलुरिकाः क्रियन्ते इति सुचिता के शाः शकेल कसा ते ०२० पंचरत्त - पञ्चरात्र - पुं० ।" रात्रं तु ज्ञानचचनं ज्ञानं पञ्चविधं स्मृतम् । पञ्चरात्रमिति क्यातम् इत्युक्ते पञ्चज्ञानसाधने नारदाssधुक्के ग्रन्थभेदे, आचा० १ ० १ ० १ ० । पंचरय - पञ्चरत-त्रि० । पञ्चमहाव्रतशक्ते, " मुणी पंचरपति. गुत्तो वनकसायाचगए स पुजो ।" दश० १ ० ४ ० । पंचरासिय पञ्चराशिक-१० पचराशिगते स्था०४० ३ ८० । पंचरूपिचरूपिक-पुं० पञ्चानां रूपाणां गतिवि ज्जल वाताभ्र लक्षणानां समाहारः पञ्चरूपं तदस्ति येषां ते पञ्चरूपिकाः । उदकगभेदेषु, स्था० ४ ठा० ४३० । पंचलिंगी-पहचानी श्रीने स्पा भगवान् पञ्चलिङ्गीकारः । द्वा० १ द्वा । पंचलोइया-पञ्चसौकिका तथा च " - - २ प्रति० । पंचग्ग - पञ्चवर्ग- पुं० । पञ्चानां समुदाये, प्राचा० १ ० २ अ० १३० । पंचर (प) पिंचखरपञ्चकपिचवर पुं० पञ्चानां वणिजां पञ्चदशसु गर्दभेषु. पंचवणितिपंचखरभतुल्लमल्ला य आदरणं ।" ० १ ० । पंचवा - पञ्चवर्ण-पुं० दशार्द्धवर्णे, " पञ्चवमा सरस सुरभिमु कपुष्कर्युजीवारिसे सुनाव मुक्तेन वितेन पुष्पपुजल कसेनोपचारेण पूजया कलितं यः तथा तत्र ज० ११ श० ११ उ० । रा० औ० जी० । 1 पंचवद्या-पच-स्त्री० चतुर्दशीकरस्य निष्क्रमणशि विकायाम, स० । (५१) अभिधान राजेन्द्रः । 33 " पंचवत्य-पचरस्तु १० विधानादिस्तु काभिधाय के आचार्यहरिनद्रसूरिकृते प्रकरणग्रन्थे, पं० ब० । पंचत्य 19 "प्रणिपत्य जिनं वीरं नृसुरासुरपूजितम् । व्याख्या शिष्यहिता पञ्च वस्तुकस्य विधीयते ॥ १ ॥ श्ड हि पश्ञ्चवस्तुका ऽऽयं प्रकरणमा रन्धुकाम श्राचार्यः शिष्टसमयप्रतिपालनाय विघ्नविनायकोपशान्तये प्रयोजनादिप्रतिपादनार्थमादावेवेद गाथासूत्रमुपन्यस्तव मियमार्थसम्यं मणका जोगेहिं । संघ च पंचवत्थुरा - महकमं कित्तइस्लामि ।। १ । सत्र शिष्टानामयं समाशिः कचिदिष्टे वस्तुनि प्र वर्त्तमानाः सन्तः इष्टदेवतानमस्कारपूर्वकं प्रवर्त्तन्त इत्ययमध्याचार्यो न हि न शिष्ट इत्यतः तत्समयप्रतिपालनाय, तथाश्रेयांस बहुविधनानि भवन्तीति । उक्तं च-" श्रेयांसि बहुविनानि भवति महतामपि अपप्रवृत्तानां वा ऽपि यान्ति विनायकाः ॥ १ ॥ " इदं च प्रकरणं सम्यग्ज्ञानहेतुत्वामतोमा नृष्ण इति विघ्नविनायको शाख ये "नमिकण बद्धमाएं, सम्मं भणवयणकाय आगेहिं । संघ 1 , ।" इत्यनेनेष्टदेवतास्ता पूर्वकारिणश्च प्रयोजना:दिशून्ये न प्रवर्तन्त इति । उक्तं च- " सर्वस्यैव हि शास्त्रस्य, कर्मणो वाऽपि कस्यचित् । यावत्प्रयोजनं नोकं तावतकेन गृह्यते ? ॥ १ ॥ " इत्यादि । श्रतः प्रयोजनाऽऽदिप्रतिपादनार्थे च - " पञ्चत्रत्थुगमदृक्कर्म कित्तहस्सामि " इत्येतदाह । प्रकरणार्थकथनकालोपस्थित पर संज्ञाव्यमानोपन्यास हेतुनिराकरणार्थे च । तथाहि पञ्चवस्तुकाऽऽख्यं प्रकरणमारभ्यत - त्युके संजयत्येवं बाई परानारम्यम्यमेवेदं प्रकरणं प्रयोजनर दितान्मत्ताविस्तत्तथा निराकारी कावत, तथा असंबद्धत्वाद् दश दाडिमानीत्यादि वाक्यं वतोमीषांतून मसितोशिमाषविषयेत्येतदाद "पं arryगमहकमं किन्त इस्लामि समुदायार्थ बघुनच न कमित्याह मार्ग समानतीर्थाधिपति तीर्थकर तस्य हि भगवत एतन्नाम । यच्चोक्तम्- श्रस्मापि संतिए बद्धमाणे " इत्यादि । कथं नत्वेत्यत आह- सम्यग् मनोवाक्काययोगे सम्बमिति विधिना मनोयोगमं मोबाशयव्यापारः खमेव भवनह इह च मनोवाक्काययोमैरसम्यगपि नमनं भवतीति सम्यन्यहणम। आइ एवमपि सम्यगित्येतदेवास्त्वलं मनोवाक्काययोगप्रनारिय पृथिवीयमित्यादी विशेषण 35 एष तावका थाप्रस्ताबः शनादिति । न केवलं वईमानं नत्वा किं तु सङ्कं न सम्यग्दर्श नाssदिसमन्वितप्राणिगणं च नत्वा । किमित्याह- पञ्चवस्तुकं यथाक्रमं कीर्त्तयिष्यामि । प्रव्रज्याविधानाऽऽदीनि पञ्च वस्तूनि यस्मिन् प्रकरणे तत्पञ्चवस्तु पञ्चत्रस्येव पञ्चवस्तुकं प्र यो यः क्रमाक्रमं यथा-परिवादी की संयिष्यामि संशयिष्यामि इति गाथार्थ १ तुरयम्माद पत्र जाएँ बिहाणं, पइदिणकिरिया वसु उत्रणाय । संलेहण यो अ इ३ पंच ॥ २ ॥ 14 प्रव्रज्यायाः वक्ष्यमाणलकणाया विधानमिति विधिः। तथा प्र विदिति प्रतिदिन किया प्रतिदिन 2 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) भभिधानराजेन्छ । पचवत्थुय पचसगह प्रजितानामेव चकवालसामावारीति जावः। तथा-तषु स्थापना पंचवमी-पञ्चवटी स्त्री०। पञ्चानां वदानां समुदाये,नासिक्यपुचेति । हिंसाऽनतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतयः प्रतानि, तेषु रान्तिके गोदावरीतीरे रामसीताभ्यामावासीकृते बटपञ्चक, स्थापना सामायिकसंयतस्य उपस्थापनेत्यर्थः। ननु कथं व्रतानां ती० २७ कल्प। स्थापनेति युक्तं, तत्र तेषामारोप्यमाणत्वात्?, उच्यते-सामान्येन बतानामनादित्वात्तेषु तस्योपस्थाप्यमानत्वादित्यमप्यदोष ए. | पंचवरिस-पञ्चवर्ष-पुं० । पञ्चवर्षपर्याये, व्य०३ उ०। छ । तथा-मनुयोगगणानुझेति, अनुयोजनमनुयोगः सूत्रस्य नि. | पंचविह-पञ्चविध-त्रि । पञ्चेति संख्यावचनः,विधानामि बिजेनाभिधेयेन संबन्धन, व्याख्यानमित्यर्थः। गणस्तु गच्छोऽ- धा भेदाः । पञ्चविधा प्रस्येति पञ्चविधम् । पश्चप्रकारे,अनु। भिधीयते, अनुयोगश्च गणश्चानुयोगगणी, तयारनुक्षा प्रवच- प्रश्नानं०। मोक्तन विधिना स्वातन्यानुज्ञानमिति । संलेखना चेति-संलिख्यते शरीरकषायाऽदि यया तपःक्रियामा संलेखना,यद्यपि पंचसंगह-पञ्चसङ्ग्रह-पुं०। पञ्चानामर्थाधिकाराणां संग्रही सव तपःक्रियेयं तथाऽप्यत्र चरमकालभाषिनी विशिष्टव सं. यत्र प्रन्थे स पञ्चसाप्रदः। शतकाऽऽदिपञ्चग्रन्थानां सक्ग्रह. मेखनोच्यत इति । 'मो' इति पूरणार्थों निपातः । इति पञ्चेति प्रन्य, पं० सं०। इति पवमलेनैव क्रमेण पञ्च वस्तूनि । तथाहि-प्रवज्याविधाने " अशेषकमजुमदाहदावं, समस्तविज्ञातजगत्स्वभावम् । सति सामायिकसंयतो भवति, संयतस्य प्रतिदिनं क्रिया क्रि. विधूतनिःशेषकुतीधिमान, प्रणम्य देवं जिनवद्धमानम् ॥१॥ यावतश्व व्रतेषु स्थापना, प्रतस्थस्य वाऽनुयोगपणानुझे संभ संसारकूपोदरमनजन्तु-स्तोमादधृतौ हस्तमिवाव सम्यम् । पतचरमकाले च संलेखनेति गाथार्थः ॥२॥ जैनागमं वाहितशेषशास्त्र-न्यग्नावमापूर्णयथार्थवादम॥२॥ साम्प्रतममीषामेव वस्तुत्वप्रतिपादनार्थमाद.. विवृणोमि पञ्चसंग्रह-मतिनिपुणगभीरमल्पबुकिरपि । एए चेव य वत्यू, संती एएस नाणमाईया । शास्त्रान्तरीकातो, गुरूपदेशाच सुखबोधम् ॥ ३॥" रद्द शिधाः कचिदिष्टे वस्तुनि प्रवर्तमानाः सस्त इष्टदेवतामजं परमगुणा एमा-णि हे नफाजावो हुति ॥ ३ ॥ मस्कारपुरस्सरमैव प्रवर्तन्ते, न चायमाचार्यों न शिष्ट इति पताम्येव प्रव्रज्याविधानाऽऽदीनि शिष्याचार्याऽऽदीनि जीवन शिष्टसमयपरिपालनाय। तथा-'श्रेयांसि बहुविध्नानि भवन्ति । व्याऽऽध्यत्वात्ततस्तद्रूपत्वाइस्तूनि, पतेम्वेव भावशब्दार्थोपप उक्तंच-"श्रेयांसि बहुविघ्नानि, भवन्ति महतामपि । श्रेयसि ना तथा चाऽऽह-वसन्ति एतेषु प्रवज्याविधानाऽऽदिषु ज्ञानाऽऽ प्रवृत्तानां, कापि यान्ति विनायकाः॥१॥" इदं च प्रकरण दयः कावदशनचारित्रलझणाः । यद्यस्मात्परमगुणा प्रधानगुणा सम्यग्ज्ञानहेतुत्वात् श्रेयोनूतमतो मा नूद विघ्न इति वि. एवमप्येतान्येवेत्यवधारणमयुक्तम, अविरसम्यग्दृष्टयादिवि. नविनायकोपशान्तये चेदेवतानमस्कारम् । तथा-न प्रेक्कापूर्वधानाऽऽदीनां विशिष्टस्वर्गगमनसुकुल प्रत्यायातिपुनर्बोधिलाभाः | कारिणः प्रयोजनाऽऽदिविरहे प्रवर्तन्ते, ततःप्रेक्कावतां प्रवृत्यदीनामपि च वस्तुत्वादित्येतदाशक्याऽऽह-शिष्यारयविः | थै प्रयोजनाऽऽदिकं च प्रतिपिपादयिषुरादाविमा गाथामाहरतसम्यग्यादिविधानाऽऽदीनि हेतुफलभावतो भवन्ति ।। अविरतसम्यगडष्ट्यादीनि हेतुनावतः कारणभावेन, विशिष्टस्व नमिकण जिणं वीरं, सम्म मुकम्मनिट्ठवर्ग । गंगमनाऽऽदीनि तु फलभावतः कार्यजाबेन वस्तूनि जवन्ति। वोच्छामि पंचसंगह-मेय महत्वं जहत्थं च ॥१॥ तथा-विरतसम्यग्दृष्ट्यादिविधानाऽऽदिकार्याणि प्रव्रज्यावि- सम्यक त्रिकरणयोगेन नत्वा नमस्कृत्य, शूर वीर विक्रान्ती । धानादीन्यतो वस्तुकारणत्वात्तेषामपि वस्तुत्वमेव। विशिष्टस्व बीरयति स्म कषायोपसर्गपरीषहेन्धियाऽऽदिशत्रुगणजयं प्रति गंगमनाउदीन तु प्रवज्याविधानादिकार्याश्यतो वस्तुका- विक्रामति स्मेति वीरः । अथवा-ईर गतिप्रेरणयो,विशेषेणईयत्वादमीचामेव वस्तुतापत्तिः । व्यवहारनयदर्शनसूत्रतस्वधि. रपति गमयति स्फेटयति कर्म, प्रापयति वा शिव,प्रेरयति शिकृतानामेव बस्तुत्वमिति गाथार्थः॥१.५०व. १द्वार। 'बानिमुखमिति वा वीरः। अधवा-ईरि गती । विशेषेण अपुइय पंचवस्थुगमिणं, उधरिअं सुअसमुद्दामो नर्भावेन ईत स्म याति स्म शिवमिति वीरः,तं,स च नामतोऽपि प्रायासारणत्यं, नवविरह इच्छमाणेणं ।।१७१३ ॥ कचिद्भवति,ततस्तव्यवच्छेदार्थ विशेषणमाद-जिनं रागाऽऽदि (श्य ) पवमुक्तेन प्रकारेण पञ्चवस्तुकमिदमुक्तलकणमुद्धृ. शत्रुजेतत्वान्जिनस्तं.सोऽपि थुताबधिजिनाऽऽदिकोऽपि संभवति, संपृथगवस्थापितं भुतसमुहाद्विस्तीर्णात श्रुतोदधेः । किमर्थ तस्यापि यथासंभवं रागाऽऽदिशत्रुजयनात,नतस्तव्यवच्छेदार्थ मित्याह-अरमानुस्मरणार्थमात्मानुस्मरणाय प्रवज्यादिविधा विशेषणान्तरमाह-मुष्टाऽष्टकर्मनिष्टापकं दुष्टानामष्ठानां कर्मणां नाऽऽदीनां नवविरहं संसारक्षयमिच्छता तस्य भगवद्वचनो निष्टापको विनाशका, तं, केवलिजिनमित्यर्थः । नन्वेतदेव विशप्रयोगाऽऽदिसाध्यत्वात् । इति गाथार्थः ॥ १७१३ ॥ षणमास्तां पुष्टत्वाइलं जिनग्रहणेन उच्यते-ह संसारमोच. काऽऽदयो हिंसामघुनाऽऽदिभ्योऽपि दुष्टारकर्ममिनाशमिच्चम्ति, साहगं पुण इत्थं, वरं गणिका गवि एअं। संपारमोचकस्याऽपि हिंसा यन्मुक्तिसाधनमित्यादिवचनश्रवसीसाण हिअट्ठाए, सत्तरस सयाणि माणेणं ॥१७१४॥ पात् ततस्तव्यवच्छेदार्थ जिनग्रहणम्। जिन एव रागद्वेषाज्ञानासमाप्ता चेयं पञ्चवस्तुकसूत्रटीका शिष्यहिता नाम, कृति. अदिशत्रन् जयनेत्र सत्यो पुष्टाष्टकर्मविनाशको,बान्यथा,तं मन धर्मतो याकिनीमहत्तरासूनोराचार्यहरिभद्रस्य । "कृस्वा दीका- स्वाकिमित्याह-वक्यामि (पयत्ति)विभक्तिबाप बापत्वात,पत. भेना, यदवाप्तं कुशलमिह मया तेन । मात्सयमुखबिरहा- मन्तस्तचनिष्पन्नं पश्चसंग्रह,संगृह्यतेऽनेनेति संग्रहः, "नानि" गुणानुरागी भवतु लोकः ॥ १॥" इति पञ्चवस्तुकटीका संपू. ॥५॥३।१३०॥ इति करणे घप्रत्ययः, पंचानां शतकसप्तति । पं०व०५ द्वार । काकषायप्रानृतसत्कर्मप्रकृतिल कणानां प्रन्यानाम,अथवा-पञ्चा Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंगह अभिधानराजेन्डः। पंवहसत्तर नामर्धाधिकाराणां योगोपयोगविषयमार्गणाबन्धकबद्धव्यबन्ध पंचमिह-पञ्चशिख-पुं० । पञ्चसु स्थानेषु रक्षितशिखे कुमारे, हेतुबन्धविधिन्नकणानां संग्रहः पञ्चसंग्रहः । यद्वा-पञ्चानां प्र. सूत्र० १ श्रु०७०। स्थानामर्याधिकाराणांचा संग्रहो यत्र ग्रन्थे स पञ्चसंग्रहस्तम्। कथंतामन्याह-महाथ महान् गम्नीरोऽर्थों यस्मिस्तं, यथा. पंचसीस-पञ्चशीर्ष-नाद्वीपसमुविशेषाधिपती, दी। 2 च,यथावस्थितः प्रवचनाविरोधी अर्थों यस्मिन् तम् । यद्वा- पंचमुण-पञ्चशून्य-न० । पश्चानां शूनानां समाहारः पञ्च. 'अर्थस्य प्रवचनोक्तस्यानतिक्रमलेर, म स्वमनीषिकया यथार्थ, शून्यम् । समाहारविवतया एकत्वम् । शूनापाच के, प्रव० ३५ चः समुश्चये, इह पञ्चसंग्रहोऽभिधेयः, तत्परिज्ञानं श्रोतुरनन्तरं द्वार । गृहस्थानां चुल्ख्यादिकाः पञ्च शनाः प्राणिवधस्थाप्रयोजनं कर्तुः परानुग्रहः, परम्पराप्रयोजनं तूनयोरपि निःश्रेय. नानि । सूत्र० १ श्रु. १०४ उ०। सावाप्तिः, संबन्धस्तूपायोपेयवतणः । तथाहि-वचनरूपाऽऽपत्रं प्रकरणमुपायस्तत्परिकानं चौपेयमिति ॥१॥ पंचमुत्तग-पञ्च-सत्रक-न। पापप्रतिघातगुणवीजाऽऽधानसूत्राऽऽ. संप्रति प्रकरणस्य यथार्थाभिधानतामावेदयति दीनां पञ्चानां समूह, पं० सू०। "प्रणम्य परमात्मानं,महा. धीरं जिनेश्वरम | सत्पञ्चसूत्रकव्याख्या , समासेन विधीसयगाइ पंच गंथा, जहारिहं जेण एत्थ संखित्ता । यते॥१॥" आह-किमिदं पत्रसूत्रकं नाम ?। उच्यते-पापप्रति. दाराणि पंच अहवा, तेण जहत्यानिहाणमिणं ॥२॥ घातगुणधीजाऽऽधानसूत्राऽऽदीनि पञ्च सूत्राण्येव । तद्यथा-पाशतकादयः पञ्च ग्रन्थाः पूर्वोक्ता यथाई यथायोग येन कारणे- पप्रतिघातगुणवीजाऽऽधानसूत्रम् १,साधुधर्मपरिभावनासूत्रम २, नात्र प्रकरणे संक्षिप्ताः संगृहीताः। अथवा-बरयमाणस्वरूपा प्रवज्याग्रहणविधिप्सूत्रम् ३, प्रव्रज्यापरिपालनासूत्रम ४, प्रवज्याणि पञ्च द्वाराणि यथाईमत्र संक्किप्तानि, तेन कारणेन इदम- फलसुत्रम ५, इति । पाह-किमर्थमेवमतेषामुपन्यासः? इत्यत्रोच्यभिधान पश्चसंग्रहलवण यथार्थ सान्वयमिति ॥२॥ पं० सं०] ते-पतदर्थस्यैवमेव तवतो भाव इति स्थापनार्थ, न हि प्रायः १द्वार। पापप्रतिघातेन गुणबीजाधानं बिना तत्वतस्तच्चद्धाभावपरीसंप्रति ययेदं प्रकरणं समाप्तिमुपगतं तथोपदर्शयन्नाह- हा, न चासत्यस्मिन्साधुधर्मपरिनावना, न चापरिभाषितसासुयदेविपसायाप्री, पगरणमेयं समासो जणियं । धुधर्मस्य प्रवज्याग्रहणविधाअधिकारः, न चाप्रतिपनस्तांत पालनाय पनते, न चापालने एतत्फ नमाप्नोतीति प्रवचनसमयाओ चंदरिसिणा, समईविभवाणुसारेणं ॥१५१।। सार एष सजनानक्रियायोगात् । अन्यथा-अनादिमति संसाश्रुतं द्वादशाङ्ग, तद्रूपा देवी श्रुतदेवी, तस्याः प्रसादतस्तद्विष- रेयथाकथञ्चिदनेकश पतत्प्राप्त्यादेः स्यादेतत्सर्वसत्वानामेव यभक्तिबहुमानवशसमुच्चलितविशिष्टकर्मक्षयोपशमभाषत ए. म चैतदेवं, सर्वसरवानां सिम्यभावात् । सिद्धिश्व प्रधान तत्पश्चसंग्रहाऽऽख्यं प्रकरणं, मया चर्षिनाम्बा साधुना, स. फवं प्रवज्यापरिपालनस्य, मानुषङ्गिकं तु सुदेवत्वाऽऽदि । यमयात् सिद्धान्तात, तत्र यद्यपि सिद्धान्ते ऽनेकेऽर्थाः प्रपञ्चतः थाकश्चिदनेकश एतत्प्राप्यादिवचनप्रामाण्यात्, सर्वसत्वाप्रकपितास्तथापि न तेऽस्मारशा साकल्येनोहते शक्यन्ते,श्त्या. मामेव प्रायो प्रेयेयकेम्वनन्तश नपपातश्रुतेः, न च तेषु साधुवेदनार्थमाद- स्वमतिविनवानुसारेण समासतः सकेपतः संकि- क्रियामन्तरणोपपाता, न च सम्यग्हरपापुद्गलपरावभ्यिसचिजनानुकम्पया भषिताः ॥ १५१ ॥ धिको भवति भावनीयमेतत् । तस्मानिजिस्यैव क्रिया"अयति सकसकर्मक्लेशसंपर्कमुक्ता, मात्रस्य सा प्राप्तिरिति प्रतिपत्तव्यम् । सबीजायां तु त. स्फुरितविततशुद्धज्ञान संभारलक्ष्मीः । स्यां न दीर्घदोगत्यम, अत एतदर्थस्यैवमेव तखतो भाव प्रतिनिहतकुतीर्थाशेषमार्गप्रवादः, इति स्थितम् । अयं चातिगम्भीरो न जवाभिनन्दिभिः कोशिवपदमधिरूढो वर्द्धमानो जिनेन्द्रः॥१॥ रूयाधुपघातात्प्रतिपत्तुमपि शक्यते, आस्तां पुनः कत्तमिति, गणधररब्धं जिनभा-पितार्थमखिन्नाऽऽगमभनयकलितम् । । न सर्वेषामेवतत्प्राप्त्यादि, अतो यथोक्तदोषाभाव इति । अलं. परतीर्थानुमतमा-दृतिमभिगन्तुं शासनं जैनम् ॥२॥ विस्तरेण । पं.स.१ सूत्र । सभाप्तं पञ्चसूत्रक व्याख्यानतोबहमस्पशब्द, प्रकरणमेतद् विवृण्वता स्वखिमम । ऽपि, नमः श्रुतदेवतायै नगवत्यै, सर्वनमस्कारोभ्यो नमः स. यावापि मलयगिरिणा, सिम् ितेनाइनुतां लोकः ॥ ३॥ वन्दनानि वन्दे । सर्वोपकारिणामियामो वैयावृत्यं स. अईन्तो मार सिका, मङ्गलं मम साधवः। बानुभावादौचित्येन मे धर्मे प्रवृत्तिर्भवतु, सर्वे सवाः सुखिनः मङ्गलं मङ्गलं धर्म स्तन् मङ्गलमशिश्रियम् ॥ ४॥" सन्तु । पञ्चसूत्रकटीका समाप्ता।" कृतिःसिताम्बराऽऽचाय-हरिइति श्रीमनयगिरिविचिता पाचसंग्रहटीका समाप्तति । पं० जास्य धर्मतो वाकिनीमहत्तरासूनोः ।" पं० ० ५ सूत्र । सं.५ द्वार। पचंसेलग-पञ्चशक्षक-पुं० । लवणोदधिमध्यस्थ व्यन्तराला. पंचसंवरसंव-पञ्चसंवरसंवृत-त्रा प्राणातिपाताऽऽदिपञ्चमहा सनूते शैलपञ्चकवितृषिते लघुदीपे.यत्र कुमारनन्दी स्वर्णकाव्रतोपेतत्वात् पञ्चप्रकारसम्बरसंवृते,सूत्र०१ श्रु.१०४ उ०। रः स्त्री सोलुपो व्यन्तर्यर्थं गतः । यत्र विद्युन्माली यक पासीत्, पंचसमिय-पंचसमित-त्रि०। ईर्यासमित्यादिभिः पञ्चभिः स- येन देवाधिदेवप्रतिमा बीतिभयनगरं नीता । पृ.४ १० । नि. मितिभिः समिते, भाव. ३ ०पं० सू०। चू०। प्रा. म. । उत्त। पंचसर-पञ्चशर-पुं• कापदेवे, " मयरद्धभो अणंगो, रह-पंचसोगंधिय-पञ्चसौगन्धिक-त्रिका पञ्चभिरेलालवङ्गकर्पूरक. णाहो वम्महो कुसुमबाणो । कंदप्पो पंचसरो, मयणो संक. कोबजातीफनलकणैः सुगन्धिजिव्यैरभिसंस्कृते,नपा.१०। पजोणी य" ॥७॥ पा० ना.७ गाथा। | पंचहत्युत्तर-पञ्चहस्तोत्तर-पुं० । हस्त उत्तरोप्रासामुत्तरफा १४ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचइत्युत्तर गीता दस्तराः, साथ पचसु खानेषु गर्भाधानसंदर जन्मदी का ज्ञानोत्पत्तिरूपेषु संवृता श्रतः पञ्चस्तोत्तरः । श्रात्रा०१ श्रु०४ अ०४ उ । भगवति वीरे तस्य हि गर्भाऽऽधा बाऽऽदिषु पञ्चसु स्थानेषु उत्तरफाल्गुन्याः सत्वात् । कल्प० १ अधि• १ कण । स्था० । पंचानन पहचानन० सिंहे, "पंचानन मयारी, मवाहियों केसरी सीहो । पंचामेलियपरियामिराम पञ्चापी मेकपरिमाणमतानिराम त्रि० । पञ्चजिरापमिकाभिश्चूमाभिः परिमते अ जिसमे रम्ये च । भ० श० ६ उ० । 19 पाइ० ना० ४३ गाथा । पंचायाम- पञ्चगाम-पुं० । पञ्च यामा व्रतानि यंत्र स पञ्चा यामः । " दीर्घस्वी मिश्रो वृत्तौ " ॥ ८ । १ । ४ ॥ इति प्राकृतलक्षणवशायकारस्य दीर्घत्वम् । पूर्वान्तिमतीर्थकरयोः पञ्चमहाव्रतिके धर्मे, " पंत्रायामो धम्मो, पुरिमस्स य परिभ्रमरस य जिणस्स । " बृ० ६ उ० । पंचाल पचास पुं० कापिल्यपुरराजधानीप्रति - (५४) अभिधानराजेन्द्रः । - दिपिका सीतायाम सम्बनियोजनाधिकामिगाथामान मिणमा साधगधम्मं समास बोध्यं सम्मलाई भाव-त्थसंगयं सुतणीई ॥ १ ॥ पडचा० १ बिष० । ('सान 35 वगधम्म ' शब्दे अस्या व्याख्या ) "स्मितश्रुतसंयमधिवाप्राप्नुवत्यावरं तथाविधम् । स्वस्थाऽयं संबोि सरोभवत् ॥ १ ॥ शिष्योऽस्य जिनेश्वराय सूरिः कृतानिन्यविविषशास्त्रः । सदा निरालम्बविहारवर्ती चन्द्रोपमइचन्द्रकुलाम्बरस्य ॥ २ ॥ मुसि अन्योऽपि पाण्डित्य चारित्रगुणैरनुपमैः ( ? ) । शब्दाश्रमप्रतिपादकानछग्रन्थप्रणेता प्रवरः कमावताम् ॥ ३ ॥ तयोरिमां शिष्यवरस्य वाक्याद् वृतिं व्यधात् जिनवन्द्ररे। शिष्यस्तयोरेव त्रिमुग्धबुद्धि- थार्थ ॥ बोधन नपदेसु. प्रज्ञा० १ पद । पञ्चाना यत्र काम्पिल्यं नगरम् । ज्ञा० १ थु० ८ श्र० प्रा० सूत्र० स्था० । पञ्चालदेशराजे, आव ० १ अ० प्रा० ० ती० प्रश्न० स्वनामख्याते लौकिकप श्रीवतम्। "जीर्णे भोजनमात्रयः कपिः प्राणिनां दयाम् बृहस्पतिरविश्यानं पश्चा बः स्त्रीषु माम् ॥ १॥ अ० चू० १ अ० आ० म० । पंचाक्षराय पञ्चालराज पुं० काम्पिल्यनगरनायके पश्चाल 33 जनपदराजे, स्था० ७ ठा० दशायाम्, तत्सं पंचाव - पञ्चाशत् - स्त्री० । “गोणाऽऽदयः” ॥ ८ । २ । १७४ ॥ इति तथारूपो निपातः । पञ्चाधिकपञ्चाशति, प्रा० २ पाद । दे० ना० । पंचास पचाशनी रूयेये च | " पंचासं अजियालाहरुसीओ । स० ४६ सम० । पंचासग - पञ्चाशक न० । पञ्चाशद्गाथा परिमाणनया स्वनामयातेषु हरिरवतेषु प्रन्येषु तानि को भट्टल रिरचिनाम्यभयदेवतानि पञ्चा० । "समां समस्ता प्रकाशि तं त्वा श्रीमहावीरं तिग्मरामि तमोऽहम् ॥ १ ॥ वृषायानुसारेण दिये समायतः । पचाशकाऽऽह्नशास्त्रस्य, धर्मशास्त्रशिरोमणेः ॥ २ ॥ " सादयः परिज्ञाता द्विविधया परिश्या परि समन्ताच ज्ञाता यैस्ते पञ्चापरिक्षाता आदितान्या कृतिगणत्वाद निष्ठायाः पूर्वनिपात इति समासो युक्तः । परिज्ञाताऽऽभवपञ्चकेषु, दश० ३ अ० । पंचासीइ-पञ्चाशीति -पुं०। पञ्चाधिकायामशी तौ, स००५ सम० । पंचाह- पञ्चाह - न० । पञ्चानामहां समाहारे, झाचा० १ भु० इढ हे विस्फुरन्निखिन्नातिशयते जोधामनि दुःषमाकालविपुल जायमानमहिमनिनितरामनु विहृतमग्रन्थ साधनारकानिकरे पारङ्गत गदितागमाम्बरेप २ श्र० ३ ० | नासुद्धीतनामचेो भगवादिप-पचेन्द्रिय-पराक रिस्तथाविधपुरुषार्थसिद्ध्यर्थिनाम पटुद्दष्टीनामुन्नमित जिशाला बु. युगमानानामात्मन पाणीन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः । जी० १ प्रति । प्रश्न० । पं० [सं० कर कल असारससमरसुरारकादिषु जी वजेदेषु, कर्म० ४ कर्म० । विशे० । श्राव० सं० साथैवार्थवाद कतिपयवचनार्थसार तारक शे पञ्चेन्द्रियचक्तव्यतामाद निप्रकरणात य विदिशा ने भीषा चलम्विहा ते वियाहिया । पनि दिय न तादृशी वाकपटुताऽस्ति मे तथा । न चास्ति टीकेह न वृद्धनिर्मिता, हेतुः परं मेऽत्र कृतौ विनोर्वचः ॥ ५ ॥ यदि किमपि बुद्धिमान् मयि विहितकृपास्तकीधनाः शोधवन्तु । निपुणमतिमतोऽपि प्रायशः सावृतेः स्याद् । न दिन मतिविमोहः किं पुनमीदृशस्य ? ॥ ६ ॥ चतुरधिकशतवर्षम् । पुरे तो धनपत्योर्वकुलन्दियोः ॥ ७॥ महिलपाटकनगरे, संघवरैर्वर्तमान बुधमुख्यैः । श्री द्रोणाचार्याऽऽद्यैर्विद्वद्भिः शोधिता चेति ॥ ८ ॥ " पञ्चा० १९ विव० । पंचासत्रपरिष्ठाय पञ्चाश्रयपरिज्ञात Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) अभिधान राजेन्द्रः । पंचिदिय नरेय तिरिक्खा य, मणुया देवा य आदिया ॥ ५० ॥ पञ्चेन्द्रियास्तु ये जीवाश्चतुर्विधास्ते व्याख्याताः । तद्यथा(ऐरइय तिरिक्खा इति ) नैरयिकास्तिर्यञ्श्चश्च मनुजा देवाश्च व्याख्याताः कथिताः तीर्थकराऽऽदिनिः । इति सूत्रार्थः ॥ ५० ॥ उत्त० पा० ३६ प्र० । जी० । प्रज्ञा० । स्था० । श्राव० । श्रा० म० भ० | सुत्र० । ( 'इंद्रिय शब्दे द्वितीयभागे ५४६ पृष्ठे सर्वेषां जीवानां पञ्चेन्द्रियत्वमुक्तम् ) पंचिदिवस - पञ्चेन्द्रियोपत्रशर्त पुं०। पञ्चेन्द्रियाणां स्पर्शmissदिपीकाणामुप सामीप्येन वशश्रायता वर्णलोपात् प चेन्द्रियोपवशस्तेन यदार्तमार्तध्यानम् । विह्वलतायाम् पा० । पंचिदियजाइणाम - पञ्चेन्द्रियजातिनामन् - न० । नामकर्मभेदे, यदुदयात्पञ्चेन्द्रियजन्म नवति । उत्त० ३३ अ० । पंचिदियणगढ- पञ्चेन्द्रियनिग्रह - पुं० । पञ्चसंख्यानां स्पर्श नरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्राणां स्वविषयग्रहणप्रवृत्तावपि रागद्वेषाsकरणे, दर्श० २ तथ्य | पंचिदियतिरिक्ख जोणिय पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक - पुं० । एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियनिने तिर्यग्जन्ती, जी० । से किं तं पंचिदियतिरिक्खजोगिया ?। पंचिदियतिरिक्खजोशिया विदा पत्ता । तं जहा संमुद्धिमपंचिदियतिरि क्खजोणिया य, गज्जवकंतियपंचिदियतिरिक्खजोणिया य। से किं तं समुच्छिमपंचिदियतिरिक्ख जोगिया ? | संमुचिमपंचिदियतिरिक्खजोलिया तिविहा पत्ता । तं जहाजलयम, थयग, खड़यग य । (से किं तमित्यादि) अथ के ते पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकाः ।। सूरिराह- पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका द्विविधाः प्रशप्ताः । तद्यथा-संमूमिवेन्द्रियतिर्यग्योनिका, गर्भव्युत्क्रान्तिकपञ्चेन्द्रियतिर्ययोनिकाः । तत्र संमूर्द्धनं संमूर्ती गर्भोपपातव्यतिरेकेणैवमेव प्राणिनामुत्पादः तेन निर्वृत्ताः संमूईिमाः । " भावादिमः " | ६ | ४ | ३१ ॥ इति इमप्रत्ययः । ते च ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाच संमूर्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका गर्ने व्युत्क्रान्तिरुत्पसिनाम्। यदि वा गर्भाद् गर्भवासाद् व्युत्क्रान्तिर्निःक्रमणं येषां ते गव्युत्क्रान्तिकाः, ते च पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाचेति विशेषणसमासः । चशब्दौ स्वस्वगतानेक नेदसुखको । ( से कि तमित्यादि) अथ के ते संमूर्तिमवेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः १। सुरिराह - पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनि कास्त्रिविधाः प्रकृताः। तद्यथा-जलचराः, स्थतचराः, खचगः । तत्र जले चरन्तीति जलचराः । एवं स्थलचराः । खचरा अपि भावनीयाः । जी० १ प्रति । से किं तं पंचिदियतिरिक्खजोगिया ? | पंचिदियतिरिक्खजो - पिया तित्रिदा पत्ता । तं जहा- जलयर पंचिदियतिरिक्खजोरिया, यज्ञयरपंचिदियतिरिक्खजोलिया, खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया । पञ्चेन्द्रियान् प्रतिपिपादयिषुराह - ( से किं तमित्यादि) अथ के ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका : ? । सुरिराह-पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकास्त्रिविधाः प्रशप्ताः । तद्यथा - ( जलय रत्यादि) जल्ले चरन्ति पर्यदन्तीति जलचराः " आधारात्" ॥ ५ । १ । १३७ ॥ इति प्र. For Private पंचिदियतिरिक्खजोणिया त्ययः । ते च ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्च जलचरपश्ञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः । स्थले चरन्तीति स्थलचराः। खे श्राकाशे चरन्तीति खचराः । प्राकृतत्वादार्थत्वाच " खहचरा " इति सूत्रे पाठः। ते भयत्रापि पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकशब्देन सह विशेषणस मालः । प्रका० १ पद सूत्र स्था० । जी० । इत्थं नैरयिकानभिधाय तिरा आद पंचिदिय तिरिक्खा य, डुविहा ते वियाहिया । संमुच्छिम तिरिक्खा उ, गब्जवकंतिया तहा ॥ १७१ ॥ दुविहा ते जत्रे तिविहा, जलयरा यलयरा तहा | खहयरा य बोधव्वा, तेसिं जेए सुणेह मे ।। १७२ ॥ मच्छाय कच्छना यावि, गाहा य मगरा तहा । सुसुमाराय बोधव्वा, पंचहा जलगरा तहा ।। १७३ ।। बोगदे ते सब्बे, न सव्वत्य वियाहिया । एतो. कालविभागं तु, तेमिं वोच्छं चव्वि ॥ १७४॥ संत पप्प लाईया, अपज्जबसिया विय । विपकुच्च साईया, सपज्जवसिया विय ।। १७ । गाओ पुण्वकोमीओ, उक्कोसेणं वियाहियं । राणं, अंतोमुहुत्तं जहसिया ।। १७६ ॥ (पुत्रको रुपुहुतं तु, नक्कोसेण वियाहिया । काजलराणं, तो मुद्दत्तं जहन्नगं ॥ १७७॥ ) तालको, तो मुहुतं जहन्नगं । विजम्मि मए काए, जनयराणं य अंतरं ।। १७८ ॥ उपयाय परिसप्पा, दुबिहा थक्षयरा जत्रे | चउपया चउत्रिहा, ते मे कित्तयतो सुख ।। १७५ ॥ एगखुरा दुखुरा चैत्र, गंमीपयसणहृपया । माइ गोलमाई, गयमाई सीहमाइणो ।। १८० ।। तोरगपरीसप्पा, उरपरिसप्पा दुहा जवे। गोहा हिमाई य, एक्केका ऐगदा भवे ।। १०१ ॥ लोएगदेसे ते सच्चे, न सव्वत्य वियाहिया | एतो कालविभागं तु, तेसिं बुच्छं चव्विहं ।। १८२ ।। संत पप पादीया, अपज्जवसिया विय । पिच साईया, सपज्जबसिया वि य ।। १८३ ॥ पत्तिोमा तिमि उ, उक्कोसेण वियाहिया | आनट्टिई धनयराणं, अंतोमुत्तं जप्रिया ॥ १८४॥ पुत्र कोमीपुहतेणं, तो मुहुतं जहम्सिया । कायईि थलमराणं, अंतरं तेसिमं जवे ।। १८५ ॥ कालं तमुको, तो मुहुतं जहायं । विजढम्म मए काए, थलयराणं तु अंतरं ।। १८६ ॥ चम्पे उ होमपक्खी य, तइया समुग्गपक्खी य । तितक्खी य बोधव्वा, पक्खिणो य चलन्त्रिहा ।१८७। ओएगसे ते सब्बे, न सव्वत्थ वियाहिया । Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचिंदियतिरिक्खजोणिय अभिधानराजेन्द्रः। पंजाल इत्तो कालवितागं तु, तसिं वृच्छ चननिहं ॥१ कारपक्कबन्तः, ते च मानुषोसराद बदिद्वीपवर्तिनः। विततपक्षिा संतई पप्प णाईया, अपज्जवसिया वि य । णो ये सर्वदा विस्तारिताज्यामेव पक्काभ्यामासते, ह च यत् विइं पडुच्च साईया, सपज्जवसिया वि य ॥ १५ ॥ क्षेत्रस्थित्यन्तराऽऽदि प्रत्येकं प्राक्तमसहशमपि पुनः पुनरुच्यते, न पुनरतिदिश्यते. तत् प्रपञ्चितविनेयाऽनुग्रहार्थम,एवंविधा पलिओवमस्स भागो न, असंखेज इमो भवे । अपि प्रज्ञापनीया एव, इतिख्यापनार्थ चेत्य दुष्टमिति विनावपाउट्टिई खहयराणं, अंतोमुहत्तं जहसिया ॥१०॥ नीयमिति पञ्चविंशतिस्त्रार्थः । सत्त.६अ। असंखभागो पलियस्स, नकोसेण वियाहिया । पंचिंदियरयण-पञ्चेन्जियरत्न-न० । चक्रवर्तिनां बीर्यतः स्वपुनकामी पुहुत्ते, अंतोमुहत्तं जहमिया ॥११॥ जात्युत्कृष्ट पञ्चेन्धिये एकैकस्य पञ्चेम्झियस्य सदा पञ्चे. कायट्टिई खहयराणं, अंतरं तेसिमो जने । न्द्रियरत्नानि-सेना यतिगृहपतिवर्द्धकः पुरोहितः स्त्री अश्वो कालं अणंतमुकोस, अंतोमुहुत्तं जहालयं ॥ १५ ॥ हस्ती चेति । स्था०७ ठा०। एएसिं वमतो चेव, गंधतो रसफासतो । पंचिंदियसंवरण-पञ्चन्द्रियसंवरण-ना स्पर्शनाऽऽदीन्द्रियनिसंठाणदेसतो वावि, विहाणाई सहस्सश्रो ।। १५३॥ । प्रहंणे, ध०३ अधि। सूत्राणि पञ्चविंशतिः व्याख्यातप्रायान्येव, नवरमाद्य सूत्रद्वय. पंचुंबरी-पचोमुम्बरी-स्त्री० । पञ्चानामुदुम्बराणां समाहार। मुद्देशतो भेदाननन्तरं ग्रन्थसम्बन्धं चाभिदधाति । अत्र सं. पञ्चोम्बरी । बपिप्पलोदुम्बरप्लककाकोदुम्बरीफलरूपे उ. मूळने संमूळ अतिशयमूढता, तया निर्वृताः संमृर्बिमाः । दुम्बराऽऽदिपञ्चके, सा मशकाऽऽकारसूदमबहुजीचभृतत्वाद यदि बा-समित्युत्पत्तिस्थानपुलैः सहकीभावेन मृच्छन्ति, यानिशानले सोभानमत वर्जनीया। प्रव.४ द्वार । पञ्चा। तत्पुदलोपचयात् समुच्छ्रिता भवन्तीति औणादिके इमप्रत्यये पंचोवयारजुत्त-पञ्चोपचारयुक्त-त्रिका "दो जाणू दोषि करा, संमूचिमा,ते च ते तिर्यश्चश्व समूचिमतियञ्चो ये मनःपर्याय. पंचमय होर नत्तिमंगं तु ।" एवमेनिः पञ्चनिरूपचारैःयुक्ते प. भावतःसदा संचिता श्वावतिष्ठन्ते तथा गर्भ व्युत्क्रान्तिरुत्प. धानप्रणिपाते,"सचित्ताणं दवाणं विसरणयाए।" इत्यादि। त्तिर्येषां ते गर्भन्युत्क्रान्तिकाः। जस्ले चरन्ति गम्यन्ति,चरेमकणम. कैरागमोक्तैः पञ्चनिर्विमयस्थानयुक्ते, पश्चा० १ वि०।। प्यर्थ इति नक्षयन्ति चेति जनचराः। एवं स्थलं निर्जलो नभा. पंजर-पञ्जर-न । लोहवंशशलाकाऽऽदिनिर्मिते पक्षिनियन्त्र. गस्तस्मिश्चरन्तीति स्थलचराः। तथा-(खहायर त्ति) सूत्रत्वात् खमाकाशं,तस्मिश्चरन्तीति खचराः | "ययोदेश मिला णस्थान, सत्त०२२ भ.। सू० प्र०। का। प्रभा जी०। जलघरभेदानाद-मत्स्या मीनाः, कच्छपाः कूमाः, गृहन्तीति वंशाऽऽदिमवप्रच्छादनविशेषे, रा० । “नाई रमे पक्विाणि माहा जलचरविशेषाः, मकराः सुसुमारा अपि तद्विशेषा एव । पंजरे वा, संताणछिन्ना चरिस्सामि मोणं । " उत्त०१५ अ. प्रा.म . "लोएगदेस"इत्यादि सूत्राणि षट् केत्रकालभावानिधायीनि,तयेह पृथक्त्वं द्विप्रभृत्या नवान्तं स्थलचरभेदानाह-परि स पंजरग्ग-जराग्र-म० । पञ्जरमुखे, मा०म० १ .२ खगड । मस्तारसर्पन्ति गच्चन्तीति परिसर्पाः। एकखुरादयश्च हयाsपंजरणिरोहण-पञ्जरनिरोधन-न०। पञ्जरे रोधयित्वा प्राणिनां दिप्रतिनिर्यधाक्रम योज्यन्ते,तत एकः खुरश्चरणाधोवय॑स्थि- दण्डने, प्रश्न०१ माश्र0 द्वार । विशेषो येषां ते एकखुग हयाऽऽदयः, एवं द्विखुरा गवादयो, | गएमीपदा कर्णिका, तन्दू वृत्ततया पदानि येषां ते गएमीपदा पंजरदीव-पजरदीप-पुं० । अभ्रपटलाऽऽदिपजरयुक्त दीपे, गजादयः। (सणपय ति) सूत्रत्वात् सह नखनवरात्मकन्त मा० १ ० १ ० । भ०। इति सनखास्तथाविधानि पदानि येषां ते सनखपदाःसिंहाऽऽ. पंजरजगा-पञ्जरजग्न-पुं० । यथा पञ्जरे शकुनेः शसाकाऽऽदिदयः । (भूतोरगपरिसप्पा यत्ति ) परिसर्पशादः प्रत्येकमभिः भिः स्वच्छन्दगमनं निवार्यते तथाऽऽचार्याऽऽदिपुरुषगसम्बन्ध्यते । ततो भुजा श्व जुजाः शरीरावयवविशेषाः,तैः परि- पजरे सारणाशलाकया सामान्यरूपोन्मार्गगमनं निवार्यते सपन्त इति शुजपरिसर्पाः, उरो वक्षस्तेन परिसर्पन्तीति न. तानं येन सः। यतमानसाधूनां मूलादागते, परिभवतां या रस्परिसः तस्यैव तत्र प्राधान्यात गोधाऽऽदयः अहिःसर्प- मूलादागते, व्य. १३०।। स्तदादय ति यथाक्रमं योगः।पते चैकैक इति प्रत्येकमनेकधा पंजम्मीलिय-पज्जरोन्मीलित-त्रि० । वंशाऽदिमयप्रच्चादनअनेकदा गोधेरफनकुमाऽऽदिजेदतो गौणसहावप्रसापाऽऽदि. भेदतश्च, पल्योपमानि तु श्रीएयुत्कृष्टेन तुसाधिकानि पूर्वकोटी विशेषात् पजरा बहिष्कृते, जी० ३ प्रति४ अधि० स० प्र०। “पंजसम्मीलिय व । " पजरादुन्मीलितमिव बहिस्कृत थकावेनोक्तरूपेण पत्योपमाऽऽयुषो हि न पुनस्तत्रवोत्पद्यन्ते, ये तमिव पञ्जरोन्मीलितमित्र, यथादि किन किमपि वस्तु पञ्जा तु पूर्वकोट्यायुषो मृत्वा तत्रैवोपजायन्ते तेऽपि सप्ताट वा जव सद वंशाऽऽदिमयप्रच्छादनविशेषाद बहिःकृतमत्यन्तमविनग्रहणानि यावत्पश्चन्जियनरतिरश्चामधिकनिरन्तरभवान्तरास एच्छायत्वात् शोभते, एवं तदपि विमानमिति भावः । च० मनवात् । उक्तं हि.." सत्तट्ट नवा उ तिरियमणुय ति । " प्र०१८ पाहु०। मत एतावत श्वाधिकस्य सम्नव इति भावना । खेचरानाह(चम्मे उ ति) प्रक्रमावर्मपविणः चर्मचटकाप्रभृतयः, चर्म. पंजल-प्राजन-त्रिका समे, विशे० । अनु० । रूपा एव हि तेषां पक्षा इति । तथा-रोमप्रधानाः पक्का रोमपक्षा-पजाल-पाजाक्ष पंजलि-पाजलि-पुं०। प्रकृष्ट प्रधाने ललाटतटघटितत्वेनाजस्तवन्ता रामपकिणोराजहंसाऽऽदयः समुपक्षिणःसमकाऽ. लो. जं. १ वक्ष० । विनयरचितकरसंपुटे, ध. २ भधिक। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंजलि अन्निधानराजेन्डः। पंडिय का० । आव । प्रकृताजली, भा. चू.५ म. । प्रवृहा- उत्प्लुत्य तत्र देशे मन्दरे पर्वते शिखरतले मौलिभागे पण्डजलौ, येन हि प्रवृद्धोऽजलिः । व्य० १ उ.। कवनं नाम वनं प्राप्तम् । चत्वारियोजनशतानि चतुर्नवस्य पंजलिउम-प्राजलिकृत-त्रि.। प्रकृष्टः प्रधानो ललाटतटघ धिकानि चक्रवात्रविष्कम्भेन । एतपपत्तिस्तु सहस्रयोजनप्रटितत्वेन अजलिईस्तव्यासविशेषः कृतो विहितो येन सः । माणात शिखरच्यासान्मध्यस्थितचलिकामूलव्यासे द्वादशयोअग्न्याहिताऽऽदिदर्शनात्प्राजसिकृतः। भ०१ श.१ उ०। भा० जनप्रमाणे शोधितेऽवशिष्टीकृते यथोक्तं मान, यत्पएमकानं म० । विनयरचितकरपुटे.स.। प्रोद्गताञ्जली, दश ६ म. मन्दर युविका सर्वतः समन्तातू संपरिविष्य निष्ठति, यथा नन्दनवन मेलं सर्वतः समन्तात संपरिक्तिपय स्थित, तथे १०रा० । बद्धाञ्जली, उत्स० १ ०। चं०प्र०का प्रहाल मेरुचूलिकामिति । त्रीणि योजनप्सहस्राणि एकं च द्वाषष्टि द्वा. लिपुटे, पं. चू०१ कल्प । उत्त० स० प्र० । “सुत्तत्ये गेएहतो, कुण मंजर्सि पंजलिश तु।" पं०भा०१कल्प । प्रकर्षणाम्तः षष्ट्यधिक योजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिकं परिकेपेणेति । श्र. प्रीत्यात्मकन कृतो विहितोऽजलिरुजयकरमीलनात्मको. थास्य वर्णकमाह-( से णं इत्यादि ) व्यक्तम् । उनेनेति प्रकृताज्जलिः । प्राकृतत्वाच्च कृतशब्दस्य परनिपातः। प्रय प्रस्तुतवने प्रवनप्रासादाऽऽदिवक्तव्यगोचरसूत्रम्विनयरचितकरपुटे, उत्त०१०। मंदरचलियाए णं पुरस्चिमेणं पंगवणं पास जोगाई प्रामलिपुट-त्रि० । प्रकृष्ट नावान्विततयाऽम्जलिपुरमस्येति | भोहित्ता एत्थ ण महं एगे जवणे पमत्ते, एवं जं चेव सो. प्राञ्जलिपुटः। यहाजली, उत्त. १० । मणसे पुख्नवाधिो गमो भवणाणं पुक्खरिणीणं पासायपंध-पएकक-पु.।' पंडग 'शम्दाथै, पा. मा. २३५ | बंटेंसगाण य, सो चेत्र अव्वोजाब सकीसाणवडेंसगा, गाथा। तेणं चेव परिमाणेणं। पंग-पएमक-पुं० । नपुंसकभेदे, ध० ३ मधिः । स्था०।१०। (मंदरचूलियाए इत्यादि) मन्दरचूलिकायाः पूर्ततः पएकविशे०।६० नागप्रव०नि००। "तहियं पंमो तिषित कवनं पश्चाशयोजनान्यवगाह भत्रान्तरे महदकं भवने सिहो, लक्षण दूसिय तहोषधामो य।" पं०भा०१कल्प । (ल- काऽऽयतने प्रकप्तम, पवमुक्तानिंलापेन य पत्र सौमनसभवने क्षणपएमका बक्षणपंग' शब्दे कम्यः) (दूषितपण्ड. पूर्ववर्णितो नन्दनबनप्रस्तावोक्तो गमः कूटवर्जः सिकाऽऽयतनाका दृसियपंग' शब्दे चतुर्थनागे १६.६ पृष्ठे गतः ) 5ऽदिव्यवस्थाऽऽधायकः सहशामापकः पाठः, स एवात्रापि (अपघातपएमकः 'वघायपंग' शब्दे द्वितीयतागे अवमानां पुष्करिणीनां प्रासादावतंसकानांच सातव्या,यावच्छपृष्ठे बिस्तरेण प्रतिपादितः) (सर्वेऽपि पण्डकाः प्रवज्याs- केशानप्रासादावतंसकास्तेनेच प्रमाणेन ति । अत्रेदानीं नामानि योग्याः इति 'पवजा ' शब्दे बदयते) प्रागुक्तयुक्त्या सूत्रेऽदृष्टान्यपि प्रन्थान्तरतो लिख्यन्ते। तद्यथापंगवण-पएडकवन-न। परमते गच्छति जिनजन्मानिये- | ऐशानप्रासाद पूर्वाऽऽदिक्रमेण पुएमा १ पुपरप्रभा २ सुरक्ता ३ कस्थानरवेन सर्ववनेष्वतिशायितामिति एकप्रत्यये पण्ड, रक्ताचती पानेयप्रासादे-कीररसा १ कुरसा २ अमृतरलच्च वनमिति । ०४ वक्ष०ासौमनसवनावै पत्रिंशद्यो सा ३ वारुणी वा नैर्ऋतप्रासादे-शनोत्तरा १शखा २ शहजनसहस्राणि उत्पमुत्यात्रान्तरे मेरोरुपरितने तले योजनसह खाबर्ता ३ वसाहका ४ वायव्यप्रासादे-पुष्पोत्सरा.पुष्पवती २ सविस्तारे सिकायाः सर्वासु दिनु मेरौ चतुर्थ स्वनाम | सुपुष्पा ३ पुष्पमालिनी ४ चेति । जं. ४ मा ख्याते बने, ज्यो०१० पाहु० । प्रका० । " दो पंगवणा।" | पंढगवेजयंत-पाडकवैजयन्त-पुं० । पण्डकवनं शिरसि व्यवस्था० २०३०००। स्थितं वैजयन्तीकल्पं पताकाभूतं यस्य स तथा । पपरकव. नमण्डितशिरस्के, " सय सहस्सा उजोयणाण, तिकंगे कहिणं भंते ! मन्दरे वलए पंडगवणे णामं वणे पहाते ।। पंडगवेजयंते।" सूत्र०१ श्रु.६० गोयमा ! सोमणसवणस्स बहुसमरमणिजाओ भूमिनागा पंझरंग-देशी-रुद्रे, दे० ना०६ वर्ग २३ गाथा । ओ छत्तीसं जोअणसहस्साईन नप्पइत्ता एत्थ णं मं पंकर-पाकर-पुंज कीरवरद्वीपदेव,सु० प्र०१६ पाहु०। चं०प्र०। दरे पव्वर सिहरतले पंगवणे णाय वणे पएणत्ते चत्ता- पंव-पाएडव-पुं० । "मांसाऽऽदिध्वनुस्वारे"।८।१।७० ॥ इति द्वस्वः । प्रा० १पाद । पण्डोरपत्य पाण्डवः । परामराज. रि चउण नए जोमणसए चकवालविखंनेणं बहे बल केत्रजायाः कुन्त्याः पुत्रेषु युधिष्ठिराऽऽदिषु, स्था०१०मा याकारसंगणमंनिए, जेणं मंदरचूनि सव्व ओ समंता अन्त० । का०। श्राध० । प्रा० म०। ('दुई 'शब्दे चतुर्धसंपरिक्खित्ता पं चिट्ठः, तिणि जोअणसहस्साई एगं च | भागे २५८८ पृष्ठे कथोक्ता) चावहि जोश्रण सयं किंचि विसेसाहिपरिक्खवेणं, से मविन-देशी-जलाऽऽई, दे० ना०६ वर्ग २० गाया। एगाए पउमवरवेशमाए एगेण य वणसंमेणंजाव किएहदे-पंमिय-पशिस्त-पुं०। पापाडीनः पएिमतः । संयते, भ० ७ श. वा प्रासयंति । जं०। २० । सर्वविरते, वृ०३ 30+ पापानुष्ठानाहवीयसि, सूत्र०१ (मन्दरचूलिकाच मंदरचूलिया' शब्दे वक्ष्यन्ते) शु० २०२० सदसदविवेकके, आचा०१ श्रु.१५०५ "कहिणं" इत्यादि प्रश्नः प्रतीतः। उत्तरसूत्रे सौमनसवनस्य उ०।सूत्र० । परमार्थके, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। तस्यके, उत्त०६ बहुसमरमणीभादू नुमिभागादृर्द्ध षटुशियोजनसहस्राणि अ. । भावरिपुभिरनिहते, प्राचा० १७० ४ ० ३७०। १५ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडिय ० उत्तः । पापोपादान परिहारतया सम्यकपदार्थ, आचा० १ ६ अ० उ० | सूत्र० । सकलावयपरिवर्ज के, भ० १ ० ४ उ० । बुद्धिमति, श्राचा० १० ८ श्र० उ० । विवेषिनि, सूत्र० १ ॐ० १० अ० । हेयोपादेयतरवशे, आचा० २ श्रु० १ ० ३ ० १ उ० | परमार्थवेदिनि ( दश० ९ अ ० ४ ० ) साधौ, अनु० । विदुषि, दश० १ ० । पण्डा बुद्धिः संजाताऽस्येति परितः । उत्त० १ श्र० । शास्त्रार्थ, दश० ६ श्र० ४ उ० । दर्शनपरि णामवति, दश० २ अ० । “पठकः पावकश्चैव ये चान्ये तत्त्वाचेका सर्वे व्यसनिनो राजन् च कियावान् परितः॥१॥" स्था० ४ ठा० ४ ० । पतिपदनन्दिभवनाभावे पण्डितपदस्थस्य पुरो न्यूनाधिकायां सामान्यतन संजानीनां लघुपरिमतानां च कियन्ति कियन्ति क्रिया कार्याणि कृतानि शुद्धयन्तीति प्रश्न, उत्तरम् - परिमतपदनन्दिभवनाजावेऽपि - रूपडित पुरः प्रतिदिन क्रियमाणानि सर्वाण्यधिकार्या णि सर्वेषां कृतानि शुद्धस्थापनस्थापनाचार्यप्रति प्रतिमाप्रतिष्ठादिकानि तु सारा शुद्ध पापसातु केचन वृष्णय पवितस्य पुर कामयानुनादिकं न कुर्वन्ति प्रवृत्तिस्तु वा निवारयितुमशक्या, परं शास्त्राक्षरानुसारेण लघोरपि परिमतपुरो वृद्धानामपि गणनां तत्करणं मानौति १६६ प्र० । सेन २ उल्ला० । पंरियजण - परिमतजन पुं० विज्ञजने, पञ्चा० १६ विब० । परियप्पा ( ) परियवादिन त्रि० पण्डितानि ए मानिनि, आचा० १० २ श्र० ५ ० । पंरियमरा परिसरा 3 पतिमरणम् । स० १७ सम० । श्रातु० । सर्वविरतमरणे, ४० १३ श० ७ ३० । उत्तमार्थप्रतिपत्तौ संथा । " कि पंडियमरणे ? | पंमियमरणे विहे छते । तं जहा पाश्रीवगम णे य, नत्तपश्चक्खाणे य। " भ० २ ० १ उ० । ६० प० । पापा ( ) पण्डितमानिन्- त्रि० परितमात्मानं मन्यते इत्येवंशीलः पण्डिनमानी। उत्त०४ अ० श्रात्मानं पाएकतं मन्ये ज्ञानाहकारधारिणि, उत्त० ६ श्र० । श्रघ० । सूत्र० । श्रा० म० । दुर्विदग्धे, वृ० १० । पंनियत्रण परिवचन- ० १ ० १ ० १ उ० । पंरियर- पतिवीर्य-म० नराणां ची सूत्र• १ श्रु० ० श्र० । ( ५४ ) अभिधान राजेन्द्रः । - इस परियं विमुखेद मे (६) दवि च सन्निपणे । पल पानकं कर्म संतति अंतसो ॥ १० ॥ " अत ऊर्द्धमकर्मणां पण्डितानां यद्वीये तत् मे मम कथयतः शृणुत यूयमिति ॥ ९ ॥ यथाप्रतिज्ञातमेवाऽऽह (दविए इत्यादि) यो जन्यो मुक्तिगमनयोग्यः । " सव्यं च भव्यः इति रागबिरायभूतो कायर्थः यदि या वीतराग इति । वीतरागोऽल्पकपाय इत्यर्थः । तथा चोक्तम्" किं सक्का वो युंजे, सरागधम्मम्मि को अकसायी । संते पंडियबीरिय चि जो फसाए, निगिएहई सोऽवि तसुद्धो ॥ १ ॥ " सकिन भूतो भवतीति दर्शयति बन पायामामुको बन्ध नोन्मुक्तः । बन्धनं तु कषायाणां कर्मस्थितिहेतुत्वात् । तथा चोक्तम् - " बंधट्टिई कसायवसा।" इति । यदिवा बन्धनोन्मुक्त धन्यम्मुक्तः तथा सर्वतः सर्वकारेण अमपनीतं बन्धनं कथायात्मकं येन स निबन्धनः। तथा प्र० पाप कर्म कारण शेषकं कर्म ततायो निरवशेषवित पाठान्तरं वा (सलं तर अप्पणो ति ) शल्यभूतं यदप्र कारं कर्म तदात्मनः सम्बन्धि कृन्तति विनन्तीत्यर्थः ॥१०॥ यमुपादाय शयमपनयति दर्शवितुमादनेयाजयं सुक्खायं, जवादाय समीहए ॥ भुज्जो भुज्जो उदावास, अमुदत्तं तहा तहा ॥११॥ (यस्यादि) जयनशील नेता, नयतेच् म्सचा सम्यक्दर्शनाचारिमको मोहमार्ग चारित्ररूपो वा धर्मों माकनयमशीलवान् गृह्यते । मार्ग धर्मे या प्रतिमेत सुकवाया तमुपादाय गृहीत्वा सम्यक् मोक्षाय चेष्टते भ्यानाध्ययनाऽऽदाधर्माऽहाऽऽसम्बनायाऽऽभूषा पी. नःपुन्येन यद्बालवीर्य ततीतानागतानन्तभावग्रहणेषु दुःखमाबासयतीति दुःखाऽऽवासं वर्तते । यथा यथा च बालवीर्यवान् नरकादिषु वासेषु पर्यटति तथा तथा वा बसायित्वादशुभमेव प्रवर्धते इत्येवं संसारस्वरूपमनुपेक्ष्यमा णस्य धर्मध्यामं प्रवर्तत इति ॥ ११ ॥ साम्यमनित्यभावनामधिकृत्याऽऽद ठाणी विविणारी, चस्सति ण संसओ । अयं णावहिं सुहीहि व ।। १२ ।। ( गणी विविदेत्यादि ) स्थानानि विद्यन्ते येषां ते स्थानिनः । तथा देवलोके इन्द्रः समानाशित्याचादीनि मनुष्येष्वपि चक्रवर्तिबल दे ववासुदेवम दाम सकलिकाऽऽदीनि । दिपि पनि कानदिशनिमेोगभूम्यादी स्थानान तानि सर्वाण्यपि विविधानि नानाप्रकाराणयुत्तमाधममध्यमानि, तेषु स्थानिनस्त्यक्ष्यन्ति नात्र संशयो विधेय इति । तथा चो म्यान स्थानानि सर्वाणि च । दे वासुरमनुष्याणा - मृरूया सुखानि च ॥ १ ॥ " तथाऽयं ज्ञातिभिसरभिः सार्धं महात्मा सोऽनित्योऽशाश्वत इति । तथा चोक्तम्- " सुचिरतरमुषित्वा वाग्वैर्विप्रयोगः सुनिरपि हि रन्या नास्ति भोगेषु तृतिः । सुचिमा पुएं बाति नाशं शरीरं सुचिरमपि विधित्यो धर्म एकः सहायः ॥ १ ॥” इति । चकारो धनधान्यद्विपदचतुयह शरीराद्यनित्यत्वभावनार्थी धरणाद्यशेषभावनायें चानुक्तसमुच्चयार्थमुपासाविति ॥ १२ ॥ एवमादाय मेहावी अप्पयो गिद्धदरे आरियं वपज्जे सम्मकोचियं ॥ १३ ॥ ( एवमादायेत्यादि ) अनित्यानि सर्वाण्यपि स्थानानीश्येषमायावधार्य मेधावी मर्यादाव्यवस्थितः सदसद्विवेकी वा सम्बद्धामयमुद्धरेपनपेग्ममेद Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडियवरय महमस्य स्वामीत्येवं ममरवं क्वचिदपि न कुर्यात् । तथा प्रा. रातः सर्वयमेव इत्या मोडमा समुपसम्पद्येताचितिष्ठत समावेदिति कि मार्गमित्याह भी चिकधरोपितोषितः स्वमहिम्नेव दूषयितुमशक्यत् प्रतिष्ठां गतः । यदि बा - सर्वैधर्मैः स्वभावैरनुष्ठान रूपैर गोपितं फुरसतयावत् प्रदमित्यर्थः ॥ १३ ॥ (10) अभिधानराजेन्ः | सुधर्मपरिज्ञानं च यथा भवति तदर्शयितुमाहसह संमइए णच्चा, धम्मसारं सृणेतु का । समुह अणगारे, पचकवायकुपाचर ॥ १४ ॥ (सह समय इत्यादि ) धर्मस्य सारः परमार्थो धर्मसारस्तं कात्यावबुध्य । कथमिति दर्शयति-सह सम्मत्या स्वमत्या वा विशिष्टाऽऽतिनिधिकहानेन ज्ञानेनावज्ञानेनाप बोधकत्वात् ज्ञानस्य, तेन सह धर्मस्य सारं कारयेत्यर्थः अन्येभ्यो वा सार्थकरगणचरा 35 बाय 15 (तरकथा ' इलापुच ' शब्द द्वितीयजागे ६३२ पृष्ठे गता ) श्रुत्वा चिम्नातपुत्रवधा ( तत्कथा चिला पुत "शब्दे तृतीय नागे १२ पृष्ठे म्या) धर्मसारमुपगच्छति स्वा सारं चारित्रं तत्तौ च पूर्वोपास कर्मार्थसम्पन्न रागादिबन्धन कार्यरहित उत्तरोतर गुणसंपतये समुपस्थितोना मानपरिणामः प्रत्याश्या निराकृतं कृपापर्क साधानुष्ठान येनाऽसौ प्रत्याख्यातपापको प्रवतीति ॥ १४ ॥ बाल 66 जं किंचुत्रकर्म जाणे, उक्खेमस्स अपणो । वसेव अंतरा खियं सिक्ख सिक्वेल पंडिए || १५|| ( जं किंचुकममित्यादि ) उपक्रम्यते संघर्त्यते कयमुपनीयते आयुर्येन स उपक्रमस्तं यं कञ्चन जानीयात् । कस्य ? श्रायुःक्मस्य स्वायुष इति । इदमुक्तं भवति स्वायुष्कस्य येन केनचिप्रकारेणोपक्रमो भावी यस्मिन्वा काले तत्परिशाय, त स्योपक्रमस्य कामस्य वा अन्तराले प्रिमेवानुजी तानाशंसी पति विवेकी संलेखनानुरूप शिक्षां प्र परिङ्गितमरणाऽऽदिकां वा शिक्केत् । तत्र ग्रहणशिक्षया य यावन्मरणविधि विज्ञाबाऽऽसेचनाशिकमा सेवेतेति ॥ १५ ॥ किं चान्यत्जहा कुम्मे अ संगाई, सर देहे समाहारे । एवं पावाई मेघानी अप्पे समाहारे ।। १६ ।। (जहा कुम्मे इत्यादि) बधेत्युदाहरणार्थ या कृ मैः कच्छपः स्वान्यङ्गानि शिरोधराऽऽदीनि स्वके देदे समादरेपदव्यापाराणि कुर्यात् । एवममयैव प्रक्रियया मेधावी मर्या दावान् सदसद्विवेकी वा पापानि पापरूपाण्यनुष्ठानाम्यध्यारमना सम्यक धर्मज्ञानादिभाषया समाहरे दुपसंहरेन्मरणकाले चोपस्थिते सम्यक् संलेखनया संलिखितकायः पएिकसमरामानं समाहरेदिति ॥ १६ ॥ संदरणप्रकारमाह सारे इत्थपाए य, मां पंचेंद्रियाणि य । पावकं च परीणामं नासादोसं च तारिखं ।। १७ ॥ दीपगमनं शङ्गितमरणे, नकपरिहार्या पंडियबीरिय शेषकाले या कुस्ती पादी च संहरेयापाराशिये । तथा मनोऽन्तःकरणं, तथाऽकुशवव्यापारेभ्यो निवर्तयेत् । तथाशब्दाऽऽदिविषयेभ्यो ऽनुकृति यादीनि पञ्चाऽपीन्द्रियाणि । चशब्दः समुच्चये । तथा पा पर्क परिणाममेहासारूपं संदरेदिति । एवं भा पादप संहरेत् मनोवाक्कायगुप्तः सन् संयममवाप्य पतिमरणं वाशेवा सम्यगनुपायेदिति ॥ १७ ॥ तं च संयमे पराक्रममाणं कश्चित् पूजा सरकाराऽऽदिना निमन्त्रयेत मनोरकपन कार्यदिवितुमाहअणु माणं च मायं च तं पडिन्नाय पंमिए । सातागारवणिहुए, उबसंतेऽणि चरे ।। १८ ॥ 1 " ( अणु माणं चेत्यादि ) चक्रवर्त्यादिना सत्काराऽऽदिना पूज्य मानेनाऽपि स्तोकोऽपि मानोऽकारो न विधेयः किमुत महान दिवस ममरोपस्थितमोपोमिसन वा अ दोदमित्येवंरूप] स्तोकोऽपि गर्यो न विधेयः तथा-"पापरा या इस्तीफाऽपि माया न विधेया किमतीत पो लोनावापेन विधेयाविति । एवं द्विविधयाऽपि परिज्ञया कषायाँस्तद्विपाकां परिहाभ्योति कुर्यादिति पाठान्तरं बा"- अमाणं च माई व तं परिणाय पंकिए।" अतीय मानो अतिमानः सन्मानमिष भूम शब्दो मानशब्दश्य द्रष्टव्यः तं दुःखावहमित्येवं ज्ञात्वा परिहरेत् इदमुक्त भवति यद्यपि सरागस्य कदाचिन्मानोदयः स्यात्तथाऽप्युदयप्रा सस्य विफलीकरणं कुर्यादिति । एवं मायायामप्यायोज्यम् | पाठान्तरं वा " सुयं मे हमेगेसि, एयं वीरस्स वीरियं । " येन बसेन संग्रामशिरसि महति सुभटे परानीकं विजयते, तत्परमातो न भवति अपितु येन कामको विजयते सी रस्य महापुरुषस्य वीर्यमिदैवास्मसेव संसारे मनुष्यजन्मनि चैकेषां तीर्थंकराssदीनां सम्बन्धि वाक्यं मया श्रुतम्। पाठान्तरं वा- " आयतङ्कं समादाय, एयं वीरस्स वीरियं । आयतो मो पर्यवसितावस्थानत्वात् स चाखाचर्यच वा तत्प्र तदर्थो योजना या सम्यगृत्रिमार्गः सभायतार्थ दायीत्वा योनिमकोचादिविजयाय च पराक्रमते, एतद्वीरस्य वीर्यमिति वीरस्य वीरत्वमिति, तद्यथा नवति तथाऽऽख्यातम् । किञ्चान्यत्- सातगौरवं नाम सुशीलता निमत्यर्थः तथा ऽग्निजयादुपशान्तः शीतीभूतः शब्दाऽऽदिविषयेभ्योऽप्यनुकू प्रतियोोिपशान्तो जितेन्द्रियनि वृत इति । तथा निहन्यन्ते प्राणिनः संसारे यया सा निहा मा या न विद्यते सा यस्याऽसाबनि हो, मायाप्रपञ्चरहित इत्यर्थः । तथा मानरहित लोनर्जितइत्यपि एम्यम् । स चैवम्भूतः संयमानुष्ठानं चरेत् कुर्यादिति । तदेवं मरणकाले अन्यदा वा परिमतो वीर्यवान् महावतः स्वात् । साऽपि प्राणातिपातविरतिरेव गरीयसीतित्वा तत्प्रतिपादनार्थमाद 46 बम तिरियं वा, जे पाणा तलथावरा । सम्बत् विरति कुजा, संतिं निव्वाणमाहियं ॥ १ ॥ " अयं च श्लोको न सूत्राऽऽदर्शषु दृष्टः, टीकायां तु दृष्ट इति कृत्वा मितिः, उत्तानार्थयति ॥ १८ ॥ सूत्र० १ श्रु० अ० । 1 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंयिवी रिय ( ६० ) अभिधान राजेन्द्रः । तथा किश्चान्यत् करूं च कज्जमाणं च श्रागामिस्सं व पात्रगं । सव्यं तं जाति, आयगुता निशंदेया ॥ २१ ॥ कर्म यादि) सादेशेन परेक पापकं कर्म तथा वर्तमाने च काले क्रियमाणम्, तथा आगा मिमि च काले यत्करिष्यते, तत्सर्वं मनोवाक्कायकर्मभिर्नानु जानन्ति नानुमोदन्ति, तदुपभोगपरिहार खेति प्राषः । यद्यप्यारमा पापकं कर्म परैः कृतं क्रियते, करिष्यते च । तद्यथा-श भोःशिरानं तथा बीरो तो इन्यसेदनिध्यते वा इत्यादिकं परानुष्ठानं न जाननि डु मन्यन्ते । तथाहि यदि परः कश्चिदशुकेनाऽऽहारेणोपनिमत्रयेमपि मानुमन्यन्त इति क एवम्भूता जयन्तीति दर्शय ति आत्मा कुशल मनोवाक्कायनिरोधेन गुप्तो येषां ते तथा । जिलानि कृतानि इन्द्रियाणि श्रादीनि येते तथा प बम्भूताः पापकर्म नानुजानीति स्थितम् ॥ २१ ॥ अन्यच्च जे अबुका महानागा, बीरा असमत्तदंसियो । अमुषं तेसि परतं, सफलं दोइ सव्वसो ॥ २५ ॥ (जे अबुद्धा इत्यादि) ये के चमायुका धर्म प्रत्याितपर मार्थ व्याकरणशुष्कतदपरिज्ञानेन जाताभ्यमेाः परिम तमानिनोऽपि परमार्थवस्तुतश्वाऽनवबोधाद बुद्धा इत्युक्तम् । म व्याकरणपरिज्ञानमात्रेण सम्ययम्यतिरेकेण वस्तुवाच बोधो भवतीति । तथा चोक्तम्- " शास्त्रावगाह परिघट्टनपरोपमैवाऽबुधः समनिगच्छति वस्तुतस्य नामा प्रकाररसन्नावगताऽपि दव, स्वायं रस सुखिरादपि ने 39 ॥ १ ॥ यदि वा प्रबुद्धा इव बालवीर्यवन्तः । तथा महान्तका ते भागाश्च महाभागाः । भागशब्दः पूजाचचनः । ततश्च महापूज्या इत्यर्थः लोकविश्रुता इति । तथा वीराः परानीकमेदिनः सुना इति भवति स्वागादिभिपूज्याः अपि च तथासुभटवाई पह तोऽपि सम्यक तत्वपरिविकला केन भवन्तीति दर्श यति न सम्यगसम्यक सद्भावोऽसम्यक्त्वं स यां ते तथा मिया यात्रा परिक्रम पितानायययमनियमाऽऽदिषु पराक्रान्तमुद्यमस्तद युद्धविराम त्यात वैद्यकिय परतायां परा क्रान्तं, सह फलेन कर्मबन्धेन वर्तत इति सफलम् । सर्वश इति । सर्वाऽपि तत्क्रिया तपोमुष्ठानाऽऽदिका कर्मबन्धायैवेति ॥ २२ ॥ सम्पतिवाधित्याह जे प बुका महानागा, बीरा सम्मत्तदक्षिणो । सुद्धं तेर्सि परकंत, अफनं होइ सव्वसो ॥ २३ ॥ (जे बुद्धायादि) ये केचन स्वयंयुद्धास्तीकराचा बोध गरायो महानागा महापूजाभाजो धीराः कर्मविदारणसदियो हाना विराजन्त इति वीराः । तथा सम्यक्त्वदर्शिनः परमार्थतस्ववेदिनः । तेषां भगवतां यत्पराक्रान्तं तपोऽध्ययनयमनिय माऽदायनुष्ठितं तदा निरोध खासगीक परियवीरिय पायादिदोषाकमा कर्मप्रतिबन्धमभवत बन्धनिर्जरार्थमेव भवतीत्यर्थः । तथाहि सम्यग्दृष्टीनां स मपि संयमतपः प्रधानमनुष्ठानं नवति, संयमस्य चानाश्रयरूपत्वात् तपसश्च निज फलत्वादिति । तथा च पठ्यते"संयमेण फले तोति ॥ २३ ॥ किचान्यत्पितो, निक्खता ने महाकुक्षा | जमेषले विद्यायंति न मिलोगं पवेज्जर ॥ २४ ॥ ( तेखि पीत्यादि) महाकादिये ते महाकुला लोकविश्रुताः शौर्याऽऽदिभिर्गुणैर्विरुतीराय शसस्तेषामपि पूजासस्काराऽऽद्यर्थमुत्कीर्तनेन वा यत्तपस्तदशुद्धं भवति । यच्च क्रियमाणमपि तपो नैथाऽन्ये दानाकाऽऽदयो जानन्ति तत्त थाभूतमात्मार्थिना विधेयो नैषाऽऽमन्ामप्रवेदयेत् प्रकाशयेत् तद्यथा अमुलकुलीन इभ्यो या साम्यतं पु नस्तपोनिष्टतदेह इति एवं स्वयमाविष्करणेन न स्वकीयमनुष्ठानं फल्गुतामापादयेदिति ॥ २४ ॥ अपि च पास पाणामि, पंजाल सुम्ए । ते अनिनिष्के दंते, बीतगिकी सदा जय || २५ ॥ (अर्थिमा इत्यादि ) अल्पं स्तोकं पिरममशितुं शीलमस्थाsसावरूपपिएकाशी, यत्किञ्चनाशीति भावः । तथा चाऽऽगम:-" हे जंतव प्रालीय, जत्थ व तत्य व सुहोवगयनिदा । जे वणवा,धीर ! मुणिकसि ते अप्पा ॥ १ ॥ तथा-" | ६कुक्कुडिम सप्पमाथे कसे हमारे सकले अवलोमोपरिया सोलसेहि भाग च उबी भोमोदरियं संपमाणपते, ती कवला संपुष्टाहा रे।" केवलाम्यादिनोमोहता विधेया एवं पाने उपकरणे वाचनां वियादिति तथा चोकर "घो बाहारी थोव भणिश्रो अ जो दोष थोपनिहो । थोवो उपकरणे, तस्स दु देवा वि पणमति ॥ १ ॥ " सुवतः साधुरक्ष परिमितं हितं च भाषेत, सर्वदा विकथारहितो भवेरित्यर्थः । जावादौदर्यमधिकृत्याऽऽह - भावतः क्रोधाऽऽयुपशमात् चान्तः शान्तिप्रधान तथ तथा इन्द्रियजय तथा बो क्तम्- " कषाया यस्य न च्छिन्नाः यस्य नाऽऽत्मवशं मनः । ३प्रियाणि न गुप्तानि प्रव्रज्या तस्य जीवनम् ॥ १ ॥ एवं विगता गृद्धिर्विषयेषु यस्य स विगतगृद्धिराशंसादोषरहितः, सदा सर्वका संयमानुष्ठाने यते यज्ञं कुर्यादिति ॥ २५ ॥ अपि च 31 जाणजोगं समाइछु, कार्य विनसेज्ज सव्वसो । तितिक्तं परमं शमा, आमोक्खाय परिव्वर ॥ २६ ॥ ( झाणजोगमित्यादि ) ध्यानं चितरोधलक्षणं धर्मध्यानाssदिकं तत्र योगो विशिष्टमनकाकापण्यापास माहृत्य सम्यगुपादाय कार्य देहमकुशलयोगप्रवृत्तं युत्सृजे परित्यजेत् । सर्वतः सर्वेणापि प्रकारण, हस्तपादाऽऽदिकमपि परपीडाकारिन व्यापारयेत् । तथा तितिक्षां कान्ति परीष दोपसर्गसदनकषां परम प्रधान झाल्या ग्रामोकायाशेष Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंमियवीरिय अनिधानराजेन्छः । पडुसिला कर्मवयं यावत्पारबजेदिति संयमानुष्ठानं कुर्यास्त्वमिति । सूत्र० पंकमहरा-पाएममधरा-स्त्री। कृपणदेशात् पागमयनिवेशिते १ श्रु० ० अ०। भारतवर्षस्य दक्षिणाईचेलातटे स्वनामख्याते सन्निवेश, ज्ञा०१ पमिया-पाणिकता-स्त्री० । पूर्व विदेडे पुष्कलावतीविजये पुराम ध्रु०१६ अ० । प्राव० । श्रा० म० । अन्त । श्रा० चू० । रीकिराया नगरर्या वज्रसेनचक्रवर्तिनः सुतायाः श्रीमत्या अ. पंकय-पाक-पु०। 'पंग' शब्दार्थे, स्था० । ठा० । म्बाधाच्याम्, आ. म. १०१ खण्ड। पंकर-पार-त्रि० । अकलङ्के, जी0 । " पंसुरससिसकलपंग-पाएम-पुं० । युधिष्ठिराऽऽदीनां कुल्तीमाडीमुतानां पितरि, स्था० १० वा० । अन्तः । श्वतवणे, केतकीधूलिप्सन्निभे पीन. विमलानम्मनसंखगोरिफंग कुंददगरयमुणानियाधवल दंत-- सेढ।।" पाएकरमकलङ्क यत् शशिशकलं चन्मखरावि. वर्णवर्णभेदे, तद्वति । त्रि० । नागभेदे, श्वत हस्तिनि, रोग मल श्रागन्तुकमलरहितो निर्मः स्वभावोत्थमनरहितो यः भेडे, पटोलवृत च । पुं० माषपपर्याम, वाच०।" से सिग्रं शङ्खगोक्षीरफेनः प्रतीतः, कुन्दं कुन्दकुसुम, दकरज नदबलवं, अबदायं पडु धवलं च ॥" पाइ• ना०६५ गाथा। ककणाः, मृणालिका विशम् तद्वत् धवला दन्तश्रेणियेषां ते पंमुबलसिझा-पाएडुकम्बशिला-स्त्री० । मेरुचूलिकाया द पापमुरशशिशकविमलनिर्मलगोकीरफेनकुन्ददकरजोमृणा-. किणतः पाककवनदाक्तिणात्यपर्वतेऽनिषकशिलायाम्, जं०। । लिकाधवलदन्तश्रेणयः । जी० ३ प्रति०४ अधिः । शुक्ले, कहिण भंते ! पंडगवणे पंडुकंबासिन्ना णामं सिला प-| ज्ञा० १ श्रु० १ ० । सुधाधवले, ज्ञा० १ श्रु० ११० । श्री० [कल्प०। मत्ता । गोमा ! मंदरचून्निआए दक्खिणे णं पंडगवण पंरंग-पाएमुराग-पुं० । भस्मोत्रितगात्रे पाखण्डिनि, ग. दाहिएपेरते एत्य णं पंगवणे णं पंकंवनसिला णाम २ अधिः । सिमा पामत्ता, पाणपकोणायया उत्तरदाहिण वित्यिमा। रजा-पाएमराऽऽा-सी०। स्वनामख्यातायामार्यायाम, एवं तं चेव पमाणं, वत्तव्नया य नाणिअना. जा तस्स । यया भक्तप्रत्याख्यान कृतवत्या मायादोषण किल्विपिका जन्म पं बहुममरमाणिज्जस्स भूमिनागस्स बहुमज्देसजाए एत्थ लेभे । प्रा० म० १ १०२ खराक । ('माया' शब्दे उदाहृतम् ) ए महं एगे सीहामणे पाते, न चैव सीहासागप्पमा । तत्य पंकरत्थिय-पाएकरास्थिक-पुं० । बलीवईश्वेतास्थिप्राधान्याणं बहिं भवणवा जारभारहगा तित्थयरा अहिसिञ्चति ॥ स्वनामख्याते ग्रामे, यश्चाऽस्थिकग्रामेति संशां भेजे । प्रा. "कहिण" इत्यादि प्रश्नः प्रतीतः । उत्तरसूत्रे मेरुचूलिकाया चू. १ अ०। दकिणतः पएककवनदाक्षिणात्यपर्यन्त पाण्डुकम्बला नाम्नी पंरपपाउरण-पाएरपटमावरण-पुं० । पागमुरो धौतः पटः शिजा प्राप्ता । प्राक पश्विमा यता उत्तरदक्षिाविस्तीर्ण प्रावरणं या ते तथा । मन्तपरीघहासहिगुताऽऽदरीकृतत्वाद् प्राद्यात प्राक पश्चिमविस्तीर्णा उत्तरदक्षिणाऽऽयतेत्येतहिरो. निर्मलोपधी, ग० २ अधि० । षणद्वयं विहायान्यन प्रागुक्तमतिदिशति । एवमेयोक्ताजिला | पंहरय-पाएडरक-त्रि०। श्वेते, "केसा पंमुरया हवंति ते।" पेन तदेव प्रमागं शियायाः पञ्चयोजनशताऽऽयामाऽऽदिक ब - उत्त०३ अ०। तव्य, सा चार्जुनस्वर्णवामाँऽऽदि का भणितव्या यावत्तस्य बहसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्रान्तरे महदेक पंफराय-पाएदराज-01 माजी कुन्तीपतौ युधिष्ठिराऽऽदीनां पिसिंहासन प्रशतं, तदेव पञ्चधनुःशनाधिक सिंहासनप्रमाण- | तरि हस्तिनापुरराजे, झा0 १ श्रु० १६ अ० । चस्वाऽऽदी झेयम, तत्र वदामिभवनपत्यादिभिभारतका रोग- पारोग-० । ज्वरविशेषेण शरीरस्य पापमुवर्णता. भरतत्रोपनास्तीथ कुतोऽजिपिच्यन्ते । ननु पूर्वशिला सि. याम, १वका प्रव० । हासनद्वयम्, अत्र तु एकसिंहासनं किमिति ? । उच्यते-एपा लिशिला दक्किनदिभिमुखा, तद्दिगभिमुखं च क्षेत्र भार- | पंकजुमितमही-पाण्डुकित मुखी-स्त्री। आ०म० १ १०१ ताऽख्यप, तत्र चककालमेक एव तीर्थकृत्पद्यते इति तदभि खएक । पारसुरी जूतवदनाया, विधा० १ श्रु० २ ०। पका जुरोधेनै कन्वं सिंहासनस्य ति। जं.४ वह ज्ञा० । स्था। पंडसिला-पाएरुशिला-स्त्री। नन्दनवने प्रथमाभिषेकशिक्षापंग-पाएक-jo । स्वनामख्याते महानिधौ, स्था० ९०।। याम, जं०। लि. ("गणियास" (३) इत्यादि गाथा ' णिहि' शब्दच. कहते ! पंडगवो पंसिना पार्म सिन्ना तुर्धभाग २१५१ पृष्ठ व्याख्याता) परमुकापत्ये सपनेदे, प्रा. पाता। गोअमा ! मंदरचूलिआए पुरधिमे ए पंचू० १ अ० । प्रव० । दर्श। मंगवणपुरच्छिपपरंते एत्य है पंगवणे पंसिक्षा णामं पंडुपत्त-पाएमुपत्र-न । पुराणत्वेन पाण्डुवर्मा पत्रे, अनु०। धा सिना पामत्ता, उत्तरदादिमायया पाईपमीणवित्थिामा पंमुजद्द-पाएडुल-पुं० । प्रार्थनूतिविजयस्य द्वादशे शिध्ये, अचंदसंठाणसंमिश्रा पंचजोसयाई आयामे "यरे तह पंदुभद्दे य" कल्प० १ अधि० ४ कण । असान्जाई जोअणसयाई रिकवभेणं चत्तारि जोपंमुमट्टिया-पाएममृत्तिका-स्त्री० । देशविशेषे या धृझिरूपा स. ती पापमुरिति प्रसिका,तदात्मका जीवा आप्याने दोपचारात् पा. अणाई वाहलेणं मधकागामई अच्छा वेश्या वसंएमृत्तिकेति । पृथ्वीकायभेदे, जी०१ प्रति० । प्रज्ञा । डणं सवओ समंता संपरिक्खित्ता, वहाओ। तीसे णं पं. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडुसिला मुसिझाए चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिवगा पछता जाय तोरणा तसे णं पंसिलाए उि ममरमणिले मागे पा० नाव देवा आसमंत संयंत तस्य णं बहुमरमस्मि भूमिभागस्स बहुमा ए उत्तरदाहिणे णं एत्थ णं दुत्रे सीहामणा पत्ता । पंचसयाई आयामविक्रमेणं अढाइज्जाई घणूसयाई बाहक्षेणं सीहासवओो जाणिव्वो, विजयद्वज्जो । तस्य णं ने से उत्तरि सीहासणे सत्य णं बहिं भवा वझ्याणमंतर जे इसिनेमाणिएहिं देवेहिं देवं हि अच्छाआतित्थयरा अनिमिति । तस्य जे से दा सहामधे तत्थ एं बहूहिं चत्रण० जाव माणिपहिं देवेहिं देवदितिश्यपरा अनिसिति । ( ६२ ) अभिधानराजेम्ब: । 33 इता | उ श्र नाम् "आसणगारं व पंताई" । समानिन्युरापनि काष्ठानि दुर्घट म्यासेवितवान् | आचा० १ ० अ० ३ ० । पंतकुझ-प्रान्तकुल - न० । चाण्डालाऽऽदीनामपसदकुले, स्था बा० श्र० म० । 35 काम मिस्याही “कदि इत्यादि प्रश्नः प्रतीतः उत्तरसूत्रे मन्दरमि काया पूर्वपशिला नाम शिवा प्र दक्षिणा पूर्वपर विस्तृता अ चन्द्रसंस्थानसंस्थिता पञ्चयोजनशतान्यायामेन मुखविनयोजनाविष्कम्भेन मध्यान अर्थबन्द्राकारक्षेत्राणामेव परमव्याससंनवान् श्रत एवास्याः परमश्वासः शरस्येन लभ्यो जात्येन परिक्षेप लस्करणररित्या अनेनध्या | तथा चत्वारि योजनानि बाहल्येन परितः सर्वात्मना कनकमया प्रस्तावादर्जुन सुवर्णमयी अच्छा बेदिका वनखण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्ता । वक्रता च पंतगाव मारताय ० आदेश सीमा - चू निकालना सरमा तु दिव विकासको मोति च शिक्षा रा कस्मिन्, आगच्छन्ति स्म साधवः । श्र० क० १ ० । मादि) पिंतर-मान्तरग पुं० प्रान्तं तदूषणाय गच्छ चतुर्दिशि चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्राप्तानि । तेषां च सीतिर अभिप्रविशेषात् प्रान्तमा स्था वायायवोरखानि प्रवास्पा भूमिसौभाग्यमा ५ ० १ ० | सून० । दथना-(आँखे णमित्यादि) उपपंतजी (ए) मान्जीनि-पुं० । प्रातंग जीवितुं शीलमाश बसरमा गिदेवाचा शेर इत्यादि । अथात्रा निषेकाना मिया ३) तस्य बहुमरमणीयस्य मिनागस्य बहुभागतरतो दक्षिणतश्च अत्रान्तरे द्वे अभिषेक सिंहासने जिनज. माभिषेकापीठे प्रप्ते, पञ्चचतुःशतान्यायामविष्कम्भाभ्याम्, अर्द्ध तृतीयानि धनुःशनिवार सिंहासनवरी को भवितव्यः स च विजयजेः उपरि जागे विजयनामक चन्द्रोदययणनारहित इत्यर्थः । शिला सिंनानामादिशेत् । अत्र च सिंहासना. नामायामविष्कम्भवत्येसका के मापि यस्य स प्रान्तजीवी । स्था०५ ० १ उ० । अन्तप्रान्तच. चणकाऽऽदिजीविनि, सूत्र ०२ ६० ५ अ० । पंतपणा मान्वमज्ञा स्त्री | सकलसालम्बनसमाधिपर्यं ३०५० पंतत्रत्य - प्रान्तवस्त्र - न०। परिजीवीरे, वृ० २ ४० । पंतविवेगमान्तविवेक- पुं० । देहादात्मनामात्मनो वा सर्वसं ०१ लिन परिवाद"से"मति पंतावण- प्रान्तापन - न० प्रहारदाने, निगमाऽऽदिनिबन्धने, ग १ अथिपिने ०१० | यधिमुकिरादिना सामने ओध० नि० ० | वृ० । झापाका तराई सिप्याप मान्तापन संकल्प पुं० [परिहारेसरस्योतिष्कवैमानिकप तास्तीर्थकरा अभिषिच्यते जन्मोत्सवार्थ स्तप्यते । यत्तु दा विधिः- पण डि शिक्षा पूर्वदिखा दिखं च पूर्वमहानिदे तत्रयुग जगगुरुयुगं जन्नभागं जवति, तत्र शीतो विज्ञान पंताहार निषिच्यते, तस्या एव दक्षिणदिग्वर्तिविजयजातो जगद्गुरुदक्षिणदिग्वर्तिनीति | जं० ४ ० । पंमुसे पाए कुन पापाजा पुत्रे, झा० १ ० १६० । स च द्रौपद्या सह प्रत्रजितेषु पा एमवेषु राजा जातः। श्रा० क० ४ ० । ० चू० । पंत-प्रान्त पुं० । प्रकृष्टोऽन्तः । शेषसीमायाम, वाचः । प्रकृष्टमतं प्रान्तं तावशेषत्वेन, पर्युषितत्वेन वा प्रकर्षेणान्तवर्ति स्वात् प्रान्तम् । भ० ६ श० ३३ उ० | स्वाजाविकरसरहिते अ पेपर्युषिते वा बलचणकाऽऽदौ, आचा० १ श्रु० ५ ० ४ ० । पञ्चा० । प्रति । शा० । स्थाः । " णिष्फावचणकमाई. तं तं तु होइ बावन्नं" निष्पाचा वल्लाः, चणकाः प्रतीताः, आदिशब्दात् कुल्माषाऽऽदिकं चान्तमित्युच्यते प्रान्तं पुनस्तदेष व्यापनं विनम् । श्राचा० १ ० २ श्र० ६ उ० । " पंताणि च पुराणमा" साधुर्यापनार्थ शरीर निर्वादाचे प्रास्तानि नामानि रम्याम्यपि सेवेत | उस०८ श्र० । अपसदे ० १ ० मापयं साहुं पंत देवया बलेदि ।” नि०यू० १ ० । बिस।" यदि " ८ ५० । "पंत से कामको - मीतितानि०० १३० पंताहार थाम्नाहार पुं० प्रकारचा काय पर्युषितं वाऽऽहारो यस्य सः । श्र० । प्रान्तमाहारयति, प्रान्तं बाऽऽहारो यस्य स प्रान्ताऽऽहारः । अभिप्रदविशेषात्प्रान्ताशिनि, स्था० वा० १ ० १ सूत्रः । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंताहार अभिधानराजेन्धः। पंथग नन्यौपपातिकसूत्रे साधुवर्णनाधिकारे "ताहारे" इत्यस्य वृ. सीपयुषितं वल्ल चरणकाऽऽदीति व्याख्यातमस्तिा तथा च-पर्युषितपूपिकाभवणाऽऽदराणां खाद्याऽऽदीनां तद्विषयदोषोद्घट्टनं कथं युक्तिमदिति । अत्र "निष्फावचणकमाई, अंतं पंतं च होइ वाव. नो"इति बृहत्कल्पानाध्ये जिनकल्पिकाधिकारे । एतवृत्तौ च. "वावन्न" शब्देन विनष्टमिति व्याख्यातमस्ति,तत्वं तु तत्वावद्वे घम, प्रात्मनां तु पर्युषितस्याग्रहणेऽविच्छिन्नवृरूपरम्पराऽऽराधनं, संसक्ति सद्भावे तहोषवर्जन च गुणायैवेति बोध्यम् । हो. ३ प्रका। श्रा० क०। पति-पद्धि-स्त्री० । " उनणनो व्यञ्जने "॥८।१।२५ ॥ इति स्थानेऽनुस्वारः । प्रा० १ पाद । पस्तौ, शा०१ श्रु० ११०। " अोली माला राई, रिंगेली प्रावली पंती।" पाइ० ना.६३ गाचा । स्था। अनु० जी०। (ज्योतिषकाणां पयः' ओइसिय' शब्दे चतुर्थ जागे १५५३ पृष्ठे उक्ताः) पंती-देशी-वेण्याम , दे० ना० ६ वर्ग २ गाथा । पंय-पथिन-पुं० । मार्गे, ज०१० श. २०० । स्या। उत्त० । नि० चू० । अध्वनि, पातु । "दुबिहो य होइ पंथो, चिन्नहाणं. तरं अचिन्नं च । चिन्नम्मि नत्थि किंची, अचिन्नपटलाहि व. इगाहिं ॥१५॥"शत "विहार" शब्दे व्याख्यास्यते । वृ०१ ००३प्रक० । व्य । नाचतः सम्यक्त्वे,सूत्र०११० ११०। "मम्मो पंथो सरणी,अद्धाणं वत्तिणी पहो पयर्व।।" पा० ना. ५२ गाथा। पान्य-पुं० । पथिके, " सो तेसिं पंथं गुणे कहेश, एगो पंथो उज्जुगो, एगो बंको।" प्रा० म० १ ० २ खाम। पंथकोट--पन्थकोष्ठ--न । सार्थघाते, विपा० १ ० १ अ०।। पंथग--पान्यक- पुं० । ब्रह्मदत्तचक्रिभार्याया नागयशस्रो जनके, (उत्त० १३ अ०) स्थापत्यापुत्रसहप्रव्रजिते.ज्ञा० १ श्रु० ५ ० । "बच्वालीपुत्तस्स पंथगस्स नत्तं नेऊण ।" आव०४ अ०।। धन्यस्य सार्थवाहस्य स्वनामख्याते दासचेटके, ज्ञा० १ श्रु॥ ५ अ०। पत्तो सुसीमसदो, एवं कुागतेण पंयगेणाऽवि । गाढप्पमाणो विह, सेनगमूरिस्स सीसेण ।।१३।। प्राप्त जब्धः "सुशिष्यः" इति शब्दो विशेषणम्,पवं गुरो योऽ. पिचारित्रे प्रवृत्ति कारयता पन्थकेन पन्थकनाम्ना सचिवल. वसाधुना, अपिशवादन्यैरपि तथाविधैः । यतोऽभाणि" सीइसा कयावि गुरू, तं पि सुसीसा सुनि उणमरहिं।। मग वंात पुणरवि, जह सलगपंथगो नायं॥१॥" तमेव विशिष्टि-गाढप्रमादिनोऽप्यतिशयशैथिल्यवनोऽपि, शैल कसूरेः शिष्येणेति व्यक्तमेवेति गाथावरार्थः । भावार्थः कथानकादयसेयः। कथानक चेदम्"कचिकुलकलाधिकलियं, सेलगपूरमत्थि सेल सहरंव।। तत्थ पयावसियकित्ति, सेल उ च सेन्नो राया ॥१॥ सम्मकम्मवज्जिय-उनमा पनमाचई पिया तस्स । सन्नीइनागवडी-5 मंझवो महगो पुत्तो ॥२॥ च उसुद्धबुद्धिसप्ति-रूपंथगा पंथगाइणो आसि । रजभरधरणसजा, सुमंतिणो पंचसयसखा ॥ ३ ॥ थावश्चासुयगणहर-समीवपमिवन्नसुद्धगिहिधम्मो । सेनगराया रज्जं, तिवम्गसारं चिरं कुण ॥४॥ अन्नदिणे थाबच्चा-सुयपहुपयवत्तिसुयगुरुसमीवे । पंचदि मंतिसएहिं, पंथगपमुहेहि परियरित्रो ॥ ५॥ मड़गपुत्ते रज, विकणं गिराहप वयं राया। इक्कारस अंगाई, अहिजिजओ वजिया वजो ॥ ६ ॥ पंधगपमुहाण तो, पंचमुणिसयाण नायगो विओ। सुयमुणिवरेण सेझग-रायरिसी जिणसमयविहिणा ॥ ७॥ सुयसूरीन महप्पा, समए आहारबज्जणं काउं । सिरिविमलिहरिसिहरे, सहस्ससहिश्रो लिवं पत्तो ॥०॥ अह सेनगरायरिसी, अणुचियजत्ताभोगदोसेणं । दाह जरास्तविप्रो, समापओ सेनगपुरम्मि | | नजाणम्मि पसत्थे, सुभूमिभागम्मि तं समोसरियं । सोलण पहिगुमणो, विणिमानो मडगो राया ॥ १० ॥ कयवंदणाइकिच्चो, लरीरवत्तं वियाणिउं गुरुणो। विन्नवर पर भंते !, मम गेहे जाणसालासु ॥ ११ ॥ प्रत्तोसहायाह, अहापवत्तेहिं तत्थ तुम्हाणं । कारेमि जेण किरियं, धम्मसरीरस्स रक्त्रछा ॥१२॥" तथा चोक्तम्-- "शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः। शरीराच्यते धर्मः, पर्वतात्सलिलं यथा ॥ १३॥" "पमिवन्नमिणं गुरुणा, पारद्धा तत्थ नत्तमा किरिया । निकमहुराइपहि, आहारहिं सुविजेहि। १४ ॥ विजाण कुलशयाए, पत्योसहपाणुगाइधुक्लाभा । धोवदि यहेहि एसो,जाओ निरु यो य बलवं च ॥ १५ ॥ नवरं सिणिद्धपेसल आहाराईसु मुच्छिनो धणियं । सुहसीलयं पवन्नो, नेच्छद गामंतरविहारं ॥ १६ ॥ बहुसो वि नगिजंतो, विरमइनो जाव सो पमायाओ। ताहे पंथगवजा, मुणिणो मंतंति एगस्थ ॥ १७ ॥ कम्मा नूण घणचि-कणार कुमिलाई वजसारा। नाणयं पिपुरिसं, पंथाश्रो चप्पहं निति ॥ १० ॥ नाका सुयबनेणं, करयल मूत्साहलं व भुषणयलं। अहह निवर्मति केवि हु, पिच्छह कम्मरस बझियत्तं ॥ १५ ॥ मुत्तपा रायरिकिं, मक्खत्थी ताव एस पन्चइओ। संपर अपनाया, विम्हरियपओयणो जाओ ॥२०॥ काले नएसं, अन्धं न कह पुच्छमाणागं । आवरूगाभान्ति, मत्तं बहु मन्नए निदं ।। ७१ ॥ सारणवारणपमिचा-यणा न मणं पि देश गच्छस्स। न य सारणाइरहित, गच्छे चासोख पि खमो ॥ २२॥" तथा चाडगमः.. "हिनस्थि सारणा वा--रणा य पडिचोयणा य गरुकृम्मि । सो न अगच्छो गरुको, संजमकामीहि मुत्तव्यो । २३॥" "उबगारी य दढमिमो, अम्हाणं धम्मचरण उत्ता। मुत्तुं घित्तुं च मं, जुत त्ति फुर्म न थाणामो ॥ २४॥ अहवा कि श्रम्हाण, कारणरहिएण नीयवासेण । गुरुणो वेयावधे, पंथगसाहुं निमंजित्ता ॥ २५ ॥ एयं चिय पुच्चित्ता, विहरामो उज्जया बयं सम्धे । काल हरणं पि कीरइ, जो वेयइ एस अप्पाणं ॥२६॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) अनिधानराजेन्द्रः | पंचग सामत्थिऊणु एवं पंथगसाहुं चित्तु गुरुपासे सच्चे मणिण दु २७ ॥ गुरु देवा जोये कु श्रसवत्तजोगजुसो, सया अपूर्ण च निर्याकिरियं ॥ २८ ॥ कत्तियामासे, सूरी ऋण निद्धमदुराई । परिरियस्वयशकिच्यो, सुत्तो तीस मुसब्बंगो ॥ २६ ॥ आवस्यकुतो पंथगला विश्रामसनिमितं । सीलेण तस्स पाए, घट्ट‍ विणयनयनिउणो ॥ ३० ॥ तो कुवि रायरिसी, जंपइ को एस श्रज निल्लज्जो । पाए तो, निहाविग्धे मढ पयट्टो ? ।। ३१ ।। सुरिं महुरगिरं पंथगो श्य भणेइ । चाउम्मासिस्वामण कए मए हम्मिया तुभे ॥ ३२ ॥ ता एवं अवराहं खमह न काहामि परिसं बीयं । इंतिखमासी थिय, उत्तमपुरिसा जो लोए ॥ ३३ ॥ पंचगणिवणं यतस्तररिस सूरुग्ामे तमं पिव, अन्नाणं दूरमोसरियं ॥ ३४ ॥ बहुसो निंदिय अप्पं, सविसेसं जायसंजमुजोओ । खामेश पंथगमणि, पुणो पुणो सुद्धपरिणामो ॥ ३५ ॥ रुद मिनिमावि दो वि से लगभुराओ । निक्खता पारद्धा, उग्गविहारेण विहरे ।। ३६ ।। श्रवगयतब्बुशंता, संपत्ता समतिमुणिणो वि। निरियरिणा चाकामगिरि ॥ ३७॥ दमासकसणी लेखिका मसि । पंचसयसमणसहि श्रो, लोयग्गठियं पयं पतो ॥ ३० ॥ " " एवं पन्थगसाधुवृत्तममलं श्रुत्वा चरित्रोज्ज्वलं. गुणतिं गुरुसेवया । भोजन ! गुरोरवि यथा सासंयमेो निस्ताराय कदाचन प्रभवत स्फूर्जद्गुणश्रेणयः ॥ ३९ ॥ " इति पत्थकसाघुकथानकम् । ध० २०३ अधि० ७ लक्ष० । पंचधाय पन्धाक धोकानां मारके, प्रश्न०३ श्राश्रण द्वार । पं यच्छेषण- पथिच्छेदन - न० | मार्गच्छेदने, मार्गातिक्रमणे, स्था० ५० ३ उ० । पंथजा - पथियायिन् पुं० । स्वसमयबोधविशिष्ठे युग्माssचायें, स्था० ४ ० ३ उ० । पंचका-पचिवाना पन्थाः तस्य मस्मिन् वा यानं चिनम् पोरगापुरमा ग एकलचारिणश्व दुध्याने यातु । पनि ग पंचसिकाइ रोक तस्य पन्थानं निर्ध्यातुं शीलमस्येति पत्यनिययी । गुरुमार्गप्रतीच्छके, आचा० १०५०२ उ० । पंथाण - पन्यान- पुं० । महति विषमे चाध्वनि, श्रातु० । पंयाजाण - पन्यानध्यानन० । महान् विषमचाध्वा पन्था नस्तस्य ध्यानम् । सनत्कुमारं गवेषयतो महेन्द्रसिंहस्येव ब्रह्म दत्तं वा वरघनस्येव दुयने आतु० । पंविष-पाकि० नीति पाथिका । नित्यपथिके, झा० १ ० ८ श्र० । पंथुच्हणी - देशी - श्वशुरकुले प्रथमाऽऽनीतायां वध्याम, दे० ना० ६ वर्ग ३५ गाथा । पंपुत्र्य- देशी-दीर्घ, दे० ना० पं पसि ल्युट् पृषो० । “मांसाऽऽदिष्वनुस्वा पंत्रण- पांसन-त्रि रे” ।। Û । १ । ७० ।। इत्यातोऽत् । प्रा०१ पाद । दूषके, “कुञ्जपांसनः ।" वाच० । 6 पंपां ० मध्ये २३ ॥ इति अनुस्वा रस्य लुग्वा । पासू | पंसू । प्रा० १ पाद रेणौ, अं० ३ वक्क० । धूमाssकारे वित्त रजसि श्र० चू० ४ ० । जं० । आव० 1 नि० चू० । “पंसू अचित्तरओ ।" पांशवो नाम धूमाऽऽकारमापा मुरमचित्तं रजः । व्य० ७ उ० । पाइ० ना० । सुपिसापय-पांशुपिशाचभूतवि० स्वयमुचितशरीर त्वेन मलिनवत्वेन भूततुल्ये, उस० १२ श्र० मुमुलियांत्रिकपुं० - विद्यामध्ये आ० सू० १ ० । पंसुलिया - पांशुलिका स्त्री० । पाश्र्वस्नि, अणु० ३ वर्ग १ अ० । तं । बारस पंसुत्रिया ककया ढ इह शरीदे द्वादश पांशुलिकारूपाः करएमका वंशको भवति । प्रव २५३ द्वार । वारस पंसुलिया करंडे सुनिए कडा विहत्थियाकुच्छी ।" तं । पशुकाकट पुं० पानां - धणु० मुझिया ३ वर्ग १ अ० । ४ पंसुनी - पांगुली - स्त्री० । व्यभिचारिण्याम्" अहिसारिश्रा श्र डयणाय पंसु । बंबई य पुस्सीला ।” पाना० ५६ गाथा । e-ily, for in पशुवृष्टिर्नाम यदचित्तं रजो निपतति । व्य० ७ ० | प्रब० । पांशुरनिफत्यचिन्तके शास्त्र, सूत्र० २ श्रु० २ ० । पकं (गं ) थ - मकथ - धा० । चुरा० । निन्द्रायाम, "पत्रि पापा को लिए प्रत्रजित! त्वमपि मया सार्द्धमेवं जल्पसि । अथवा ज कारवकारादिभिरपरैः प्रकाश्य निन्द्राकारविधत्ते । श्राचाण १ श्रु० ६ श्र० २ ३० । " पक्षियं पगंधे श्रवा पगंधे " प्रकथयेदेवं तस्वमित्यन्यथा वा कुण्ठमण्ठाऽऽदिभिर्गुणैर्मुखीव• काराऽऽदिनिर्वा कथयेदिति । श्रचा० १ ० ६ श्र० २ उ० ! पा० ४० ४० एकंप-प्रकम्प - पुं० | कोभे, श्राव०४ अ० विकेपे, श्राष०४ श्र० । पपिय-मकस्थल त्रिविधूने २० पक प्रकर्षणाकर्षणे नि००२०३० " पकप्प ६ वर्ग १२ गाथा | ३० ना० ५ १३ गाथा - पकत्थन - प्रकल्यन - न० । श्रात्मनः श्लाघायाम्, २० १ ० ४ श्र० १० । पकप - प्रकल्प पुं० | श्राचा० ३ उ० उ० । प्रकृष्टः कल्प श्राचारः । स्था० ४] aro नि० । निशीयाध्ययने, व्य० दाणिं पकप्पे ति दारं । प्रकर्षण कल्पः प्रक Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) अभिधानरराजे पकप्प रूपः प्ररूपणेत्यर्थः । प्रकर्षे कल्पो वा प्रकल्पः, प्रधान इत्यर्थः । प्रकर्षेण वा कल्पनं प्रकल्पः, बेदन इत्यर्थः । प्रकर्षाद्वा कल्पने त्यस्तु आयात पर्वप्र शब्दार्थया हुयाद्यथासंभवं पो तस्स पिक्स्वो मंत्रणा कप्पो, दव्त्रे खेत्ते य काले भावे य । एसो न पकप्पस, णिक्खेवो छन्विहो होति ॥ २६ ॥ णामप्पो, उपकप्पो, दव्यपकप्पो, खेत्तपकप्पो, कालपकप्यो, भावपकप्पो, चसद्दो समुच्चये । एसो पकप्परल छोमणि तुसो अवधारणायें । मागतातो दध्यपरिसमेण चिड़िया उत्त तत्थ करोति, अजस्त्र परस्स दान कप्पर्ण पर्व गते पुसे जढ़ा देववरमिलानसा एकपणं । अजीवद्रव्याण बहूण पमाण दसाणं कप्पणं । गये सामितं । स्वाणि करणे पगले जाण सुखाति, पिपलकेण वा दसकपणं करोति वाहते दात्रैर्बुनंति, परसुहिं वा रुक्खे कते । गये क इाणि श्रधिकरणे- पगत्ते जहा गंठी बेऊ तणादीणं कप्पणा कज्जति, फलगे वा दलाल कपणा बहुते तमादिगंताओ ववेत्ता तेसि ताण गणवा कण्णा कज्जति । पला दव्यपकप्यविभागण खेत्तपत्रप्प्रो खेत्तं ति इक्कुखेत्तादि कुलिए नाम-सरडाविलय हत्यमाणं कई तस्स अंते अयखील ते एगायत्रो बगहा लो अडि दोदित ि दलदंताला घेष्पति । किट्टु णाम वाहितं । वातियं वा । श्रहमा पधाति जंबुदीने, दीपसमुदाय पानी । एसो खेतपकप्पो, जत्थ व कहला पकप्पस्स ! ६१ ! पीपाड़ पिसेस करजति जंबूद्दीनसत्ती, तस्स जं वक्वाणं सो को दीवा जंयो उदद्दी समुद्दा, ते १७ पकपणा कायन्त्रा सामितकरण अधिकरण ते य एगत तथ पुढत्ते य । पवासाचं कुलिसादि किडं तु ।। ६० ।। सामित्तं नाम श्रात्मलाभः, यथा घटस्य घटत्वेन । करणं नाम किया, येन वा क्रियते यथा प्रामिषेटः । अधिकरणं नाम, श्रधारः, यथा चक्रमस्तके घटः । जे सामादिभिगा दिया था वि म पद नाम पु ★ तेहि विभासा-गुण पर्यायान्तीति व्यम्। दुदुगतौ । दूयते वाव्यम् दुः सत्ता, तस्या अवयवो वा द्रव्यम् उत्पन्नाऽऽदिवि कार व गुणसंवाद इत्यर्थः भाव चाव्यम् । प्रतीतपर्ययव्यपदेशाद्वा अन्यम् । कप्पणं कप्पो, प्ररू वर्थः विविधमगपगारा भाषा विमासा अवारूपा इत्यर्थः। दध्वस्त पकप्यो दत्रपको चपकप्पस्स विभासा पपविनासा | साय सामिचाइविसेसेण कथए । इमो दव्यको दुविदी-जीवदन्वपकप्पो य, जीवप य । तत्थ जीवदव्वस्स जहा देवदत्तस्स श्रत्थापकष्पगंथ - प्रकरूपग्रन्थ-पुं० । निशीथे जी० १ प्रति० । , सिजेन अणपती नणंदारी तह वति । जहा जंबुपाती खेत्तकप्पो भवति तहा दविसा गरीवि । एसो खेत्तपकप्पो द्दिनवयणं । अह्वा जत्थ ति क्खेसे, वगारो विकप्पदंसणं करेति । कहणं व्याख्या पकपयसेति वक्कलेसं । खेतपकप्पो गतो । श्याणि कालपकप्पो प्रकामनिकरगा पम्पत्ति चंदसूरे, णाझियमादीहिं जम्मि वा काले । मूलुचरा व जावे, पचणा कप्पगडा ।। ६२ ।। पाव पत्ती, विसेसेण चंद्रपन्नत्ती, सुरपाती। पतिसो पत्तेयं तेर्सि, जं वक्खाणं सो कालपकप्पो | अहवा निगमादीहिं णालिंग ति घमिश्रा । श्रादिसद्दातो बायासोहि जिणकपियादयो या सुजियकरणे गतागतं कालं जाणंति । श्रहवा जम्मि काले श्रायारपकप्पो वक्खाणिज्जति, जहा वितियपोरिसीप, सो कालपकप्पो । गतो कालपकप्पो । श्याणि भावपकप्पो । भावपकप्पो दुविहो- श्रागम श्रो, श्रागमश्री य । श्रागमश्र जाणए उवउत्ते । गो आगमश्रो इमं चेव आ पापकर्ण, जेणे गुणा अहिंसादिमहत्वया पंत्र । उत्तरगुणा इमे "पिंकस्स जा विसोही समिती भावणा तत्र दुविहो । पक्रिमा अतिहा विय समाहिपते वेष भावेति । परूवणत्ति वा पकप्पत्ति वा एगठा । पति दारं गतं । नि० ० १ उ० । श्रध्यवसाये, स॰ २८ सम० | स्थविरकल्पे, पं० भा० ३ कल्प। पं० चू० । अप्राशीतिमहाग्रहाणां द्वापञ्चाशत्तमे, सु० प्र० २० पाहु० । कल्प० । भेदे नि० चू० १ उ० । पिरमवियादिके प्र कल्पनीये, स्था० ५ ठा० १ ३० । - पकप्पजड़-मकल्पयति पुं० [अधीत निशीथाऽध्ययने पराऽशेष तीर्थान्तरीयधर्मातिशायिनि साधी, “धम्मो जिणपन्नत्तो, एकपजश्णा कहेयचो " घ० १ अधि० । त्रि । प्रकल्पनं तं स्थितः प्रकल्पस्थितः अपवादसहिते १ उ० । पपडियमकल्पस्थित मेद इत्यर्थः ०० पकपणा - प्रकरूपना - स्त्री० प्रकर्षेण कल्पना प्रकल्पना सप्रभेद, प्ररूपणायाम, नि० चू० १.उ० । पकप्पधर - प्रकल्पधर - पुं० । शोधिकरे निशीथाध्ययनोक्तप्रायश्चित्तदातरि नि० चू० २० उ० । पकप्पमाण प्रकल्पमान-न० निशीथाऽध्ययने, " एवं एकणामी पाणक्यविश्र पितं चैव विसे ॥ १ ॥ " नि० ० १ उ० | पकाम - प्रकाम - न० । अत्यर्थे, " प्रकामं दाडं । ३३ ० । यथेच्छे, उत्त० १४ अ० । 19 भ० ६ श० कामनिकरण - प्रकामनिकरण न० प्रकाम ईप्सितार्थाऽप्राप्ति प्रवर्धमानतारणा Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पकामनिकरण अनिधानराजेन्द्रः। पक्कम धक क्रियाणामभावो यत्र तत्प्रकामनिकरणं तद्यथा भवतीति । नस्सेइमाइ तं चिय, पकिंधणजोगतो पकं ॥ .. प्रकामनिकरणवायां वेदनायाम् , भ०७० उ० । (स. नामपर्क, स्थापनापक्व, कन्यपक्कंभावपकं, वा जबति ज्ञातव्यम्। मर्थोऽपि कि प्रकामनिकरणवेदनां वेदयतीति 'अकामणिगरण' शब्दे प्रथमभागे १२४ पृष्ठे उक्तम् ) तत्र नामस्थापने गतार्थे । जव्यपक्कं तदेवोत्स्वेदिमाऽऽदिकं यदामं भणितम् । किमुक्तं भवति?-यद्व्यामम् उत्स्मेदिमसंस्बेटिमोन पकामरसभोगि ( ण् )-प्रकामरसन्नोगिन-त्रि० । प्रकाममत्यर्थे पस्कृतपर्यायाऽऽमभेदाच्चतुझी भणिनं तदेव यदा इन्धन संयोरसानां मधुरादिभेदानां नोगी भोक्ता प्रकामरसभोगीति । म गा-पक्कमुपजायते तदा द्रव्यपक्कं मन्तव्यम् । गतं ध्यपश्यम् । धुराऽऽदिभेदरसानामत्यर्थ भोक्तरि, भ. ७ २०२२० । भावपक्रमाहपकिट्ठ-प्रकृष्ट-त्रि०। प्रधाने, विशे० । श्रा० का। संजमचरित्तनोगा, उग्गमसोही य नावपकं तु । पकिा -प्रकीर्ण-त्रि० । उप्ते, “ जहिं पकिम्मा विरुहंति पुन्ना।" अन्नो वि य पाएसो, निरुवकमजीवमरणं तु । उस. १२७० । इत्ते, उत्त० पाई. १२ अ.। वाच० । नं० ।। संयमयोगाः प्रत्युपेक्षणाऽऽदयश्चारित्रं च मूलोत्तरगुणरूपं सुवि. प्र-कृ-भावे-क्तः। चामरे,भिन्नजातीयानां मिश्रणे च । पूति करओ, शुद्धभावपक्वमुच्यते, गाथायां बन्धाऽऽनुलोम्येन चारित्रशब्दपुं० । कर्मणि कः । विक्तिने,विस्तृते, भिन्नजा मिश्रिते च। स्य व्यत्यासेन निर्देशः । यचा-या उद्गमादीनां दोषाणां शु. त्रि। स्वार्थ केन् अत्र । चामरे, न0 । अश्वे, पुं० । वान। द्धिस्तद्भावपक्वम् । अन्योऽध्यादेशो वर्तते,येन यदायुष्कं निवपकिमतव-प्रकीतिपर-न० । श्रेण्य ऽऽदिनियतरचनादिरचिते तितं तत्सर्वमनुपाल्य म्रियमाणस्य निरुपक्रमाऽऽयुजीवस्य य. स्वशक्त्यपेके तपसि, यत् कथञ्चित् विधीयते, तच्च नम. न्मरणं तद्नावपक्व । अत्र च अध्यपक्केनाधिकारः,तत्रापि प. स्कारसहिताऽऽदिपूर्वपुरुषवरितं यवमध्यय (जे ज प्रतिमादि यायपक्वण,तत्रापि वृक्तपर्यायपक्येण । निर्गतं पापदम् । . च । उत्त० ३० अ०। १ उ० २ प्रकः । पुर्व्यवहारिभेदे, व्य० । पकित्तिय-प्रकीर्तित-त्रि० । तीर्थकरैः कथिते, नत्त० २ अ०। फलमिव पकं पडए, पक्कस्सऽहवा न गच्छए पागं । पकिरिया-प्रक्रिया-खो०। प्र-क-शः अधिकारे,प्रकरणाथै,राझा ववहारो तज्जोगा, ससिगुत्तसिरी व संगासे ।। उत्रचामरधुननाऽऽदिव्यापारे च "अनादिनिधनं ब्रह्म. शब्द तस्वं पक्कुझावजया वा,कजं पिन सेसया नदीरंति । यदक्षरम्। विततेऽर्थभावेन, प्रक्रिया जगतो यतः॥१॥"बाच० । पक्कस्य व्यवहारः फलमित्र पक्कं पतति, न पुनः स्थरोऽवतिपकुवंत-प्रकुर्वत्-त्रि० । खरमराः कृत्वाऽऽत्ननः सुखमुत्पादयति, प्ठते । अथवा-तद्योगाद् व्यवहारः पाकंन गच्छति । यथा चाणक्यस्य सकाशे शशिशुप्तश्री चन्द्रगुप्तस्य लक्ष्मीः। अत एक सूत्र० १ श्रु) १० अ०। पतेन पाको गमनेन वा पक्वकलसहव्यवहारकरणात् स पकुत्रमाण-प्रकुर्वाण-त्रि• प्रकर्षेण कुर्वाणे, मृत्र०१ श्रु०१० पक इति व्यवपिहयते । अथवा-यस्थ पक्कोक्तापभयात कार्य. अ० । आचा। विधाने, प्राचा० १ १०५ ०२ उ० । मपि न शेषका नदीरयन्ति ब्रुवते स पक्कम् । किमुक्तं भवति?. पकुब्धय-प्रकुर्वक-पुं० । भालोचितेवपराधेषु प्रायश्चित्तदान पकपक्वानि तारशानि स जापते, यैः भाषिताः सन्तोऽन्ये सतो विशुहिं कारयितुं समर्थे, भ. २५ श०७ उ० । द्वादिनस्तूष्णीका आसते, ततः पक्वलज्ञापयोगात्स पक्व इति । व्य०३ उ०। पब्बि( ए )-प्रर्विन-त्रि० । पामोचितातिचाराणां प्राय पकंत-प्रक्रान्त-न० । प्रकृते प्रस्तुते, श्राव. ४०" पकं पिश्चिन प्रदानेन शुक्रिप्रकर्षेण व्यापारयतीत्येवं शीनः । श्राचारवत्यादिगुणयुक्तोऽपि कश्विद्धदानं नाभ्युपगच्छतीत्ये कं परिणयं ।" पा३० ना० १४३ गाथा। तदृव्यवदार्थ प्रकुत्युिक्तम । ०५ अधिः । श्रालो- पक्कघय-पक्वत-म० । श्रीषधेः पके सिद्धार्थके प्रामकाऽऽदि. चिो शुद्धिकरणस्यैव समर्थ श्रालोचनामाद के, स्था० ८ संबन्धिनि पाकावस्था प्रापिने घृत, ध.२ अधिः। ठा। आसोच केनालोचितेवपराधेषु यः सम्यक प्रायश्चित्त- पक्का-पकण-पुं० । अनार्यदेशभेने, अनार्यदेशोत्पन्ने मनुष्यभेदे प्रदानत आलोच कस्य विशुद्धिमुपजनयति सः । व्य. ११०।। च । ज्ञा० १ श्रु. १ अ० । प्रा० म०। प्रवः । प्रश्न । सूत्र०। पकोट-प्रकोप-पु । प्रगतः कोष्ठम् । कूरिस्याओनागस्थे म. | पकानल-पकाकुल-न । मातागृहे. ३० ३ ००। गहितकुणिबन्धपर्यन्ते हस्तावयवे, गृहद्वारपिएक च। वाच । क- ले, “पणकुले वसंतो, सक्षणं। श्यरो विगरहिो होह।" साविकायाम, औ०। श्राव० ३ अ०। पक-पक-त्रि०।" पकाङ्गारललाटेवा" ।।१।४७॥ इति पक्का-पकान-न । अग्निसंस्कृतान्ने, पकानग्रहणकालः कुत्र ग्रप्रादेरत इत्वम् । 'पिकं । पक।' प्रा०पाद । पाकप्राप्ते, प्राचा मधेऽस्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-पक्कान्नग्रहणकालः श्रारुविधी कथि. १ श्रु० अ०६ उ० । राद्ध, जी०३ प्रति० ४ अधिक। तोऽस्तीति । २० प्र० । सेन०४ नवा० । " प णाम-जं अग्निशा पोलियं । " मि० चू०१५ पतिझ-पकौन-न। लाक्षादिज्यपक्रतो,ध०२ अधि०। उ०। प्रव०॥ पक्कम-प्रक्रम-०। प्र-क्रम-घ, न वृतिः । क्रमे, अवसरे, उपनिकेपः क्रमे, वाच । चरणे, सूत्र०१ श्रु. २०१०। प्रकर्षेण प्रनाम उवा पकं, रब्ने जावे य होइ नायव्यं । जवने, सा०१० ठा० । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्रमहुर प्रनिधानराजेन्द्रः पक्खाभास पक्कमहुर-पकमधुर-त्रि०ा पक्व श्व मधुरे, पक्वे सति मधुरे च। पक्खजमाण-पखाद्यमान-त्रि० । भक्ष्यमाणे, सूत्र० १ श्रु० स्था०४ ठा.१००। ५०२न। पकन्न-समथे-त्रि० । गोणाऽदित्वात् समर्थस्थाने पकसाऽ5• पक्वर्पि-पक्षपिएम-पुं०। बाहुद्वयकायपिण्डे,उत्स०१ ० । देशः । शक्ते, प्रा० २ पाद । “ पका लहा समत्था, य पकला | जानुजगोपरिवस्त्रावेएनात्मके योगपट्टाऽश्रयके, बाहुद्वयनैव पंचला पोढा ।" पा३० ना०३६ गाया। कायबन्धाऽऽत्म के बाऽऽसननेदे, " नेव परहस्थिए कुजा, पक्कीलिय प्रक्रीडित- त्रिवसन्तोत्सवाऽऽदिना प्रक्रीमितुमारब्धे, पक्खपि च संचए । " उत्स.१०। कल्प० १ अधि०५ क्षण | जं० । विपा० । अन्त । ज्ञा० । पक्खर-पक्षर-पुं० । अश्वाऽऽदीनां तनुत्राणविशेष, विपा०११० पके जघर-पकगृह-न० । पक्वेष्टकागृहे, व्य० ४ न०। २० । पक्कसव-पक-त्रि० । स्वार्थ इल्लप्रत्ययः । अग्निना कृतपाके, उत्त० पक्खरा-देशी-तुरगसंनाहे, दे० ना०६ वर्ग १० गा। ४ अ०। पक्खसंत-प्रस्खलत-त्रि० । अवपाताऽऽदौ प्रपतति, “पवते पक्ख-पक-पुं० । पतत्यनेन पकः । उत्त० ४ अ । तनूरुडे, य से तत्थ, पक्खनंते व संजए।" दश० ५.१००। "जायपक्खा जहा हंसा।" उत्त०११ अ । पाव, स्था०४ | पक्वझण-प्रस्खलन-न० । गत्या नमिसंप्राप्ती, "मिए अ. ०३ उ०। दक्षिणवामाऽऽदिपाश्र्वे, स्था० २ ठा०४ उ०। कस्य. संपत्तं पत्तं वा हत्थजाणुमादीहिं पक्ख लणं जायच्वं ।" भू चिदेकदेश नूते, रा । जं० । पश्चदशाहाराप्रमाणे ( स्था० मावसंप्राप्तं हस्तजानुकाऽऽदिनिःप्राप्तं वा प्रस्खलनं ज्ञातव्यम् । २०४० । विशे० )मासार०१वक. । पञ्च. वृ० ६ उ० । स्था। दशाहोरात्रप्रमाणे, स्था० २०४ उ० । विपा० । कर्म । पखलमाणी-प्रस्खनन्ती-स्त्री०। प्रकर्षण स्खलन्त्याम्, गत्या "पारस अहोरत्ता पक्खो, दो पक्खा मालो।" भ० ६ श० ७ उ० । तं । अनु. । प्रा० म०। । मं० । " एगमेगस्स णं भंते! गच्छन्त्यां भूमावसप्राप्तायाम , वृ. ६ उ० । स्था। कति पवा? गोयमा! दो पक्खा पत्ता । तं जहा- पक्खवंत-पतवत-त्रि० । नृपवर्गीयपक्कसमन्विते, व्य० १ उ० । बहलपकस्खे, सुकपक्खे य।" जी०२ प्रतिः। दर्श० । "सिधा. पक्खबाइ-पक्कपातिन्-त्रि० । पक्कमेकपकान्निनिवेशं पातयति धयिषया शून्या, सिभिर्यत्र न विद्यते । स पकस्तत्र वृत्तित्वमानादनुमतिर्भवेत् ॥१॥" इत्युक्तलक्षणे हेनुसाध्याधिकरणे अनु. तिरस्करोतीति पक्षपाती । क्वचिद् षिष्टे क्वचिदनुरक्तेनैकप. मानवाक्ये पक्षप्रयोगः । रत्ना. ३ परि० । “कातव्ये कानुरागिणि, स्या। पक्वधर्मत्वे. पक्को धर्यनिधीयते । व्याप्तिकाले नवेधमः, साध्य. पखवाय-पक्षपात-पुं० । अनुमोदनधर्म आचारे, "ज विन. सिकौ पुनद्वंयम् ॥" रत्ना०३ परि०। ('अणुमाण' शब्दे प्रथ- हामि न भत्ती, न पक्व वायो अमग्गश्रगुणेसु ।" ध. २ श्रमनागे ४०२ पृष्ठे पवस्वरूपमुक्तम) धि.।" न धन्यव त्वयि पक्कातः, न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु । पक्खो -पक्षतम्-अव्य० । दक्षिणा दिपकमाश्रित्येत्यय, उत्त यथावदाप्सत्वपरीकया तु. स्वामेव वीरं प्रस्तुमाश्रयामः॥२॥" अ. १० । दश । पावत इत्यर्थे, दश०८ अ०। ४०१७प्रष्ट पवंत-पक्षान्त-न० । अन्यतरस्मिन्निन्ष्यिजाते, " अनतरं- पखवाह-पक्षवाह-पुं० । वेदिकैकदेशविशेषे, जं. १ वक्षः । दियजायं पक्खंतं भन्माइ।" नि० चू०६ उ०। जी० । पकैकदेशविशेषे, रा.।जी। पखंतर-पक्षान्तर-न० । पक्वविशेष,प्रा०म० १०२ खराक। पक्खाइ-पक्षादि-पुं० अर्बमासप्रभृती, प्रादिशब्दाचतुर्मासापक्खंद-प्रस्कन्द-धा० । प्र-स्कन्द प्राक्रमणे, " अणि व कन्द-या | कद आक्रमण, " अगाण व दिग्रहः । पञ्चा०१५ विव. पक्खंद पयंगसणा।" अग्नि प्रस्कन्दथ वाऽऽक्रमथ । उत्त०११ प्रख्याति-स्त्री०। यशसि, औ०। अ०।" पक्खंदे जलियं जोई, धूमकेउं पुरासयं।" प्रस्कन्द-पखाभास-पक्षानास-पुं० । पक्कदोषविशिष्टे, रता। ति मध्यवस्यन्ति प्रस्कन्देत, प्राकृत्तवात प्रस्कन्देयुः । उत्त) पकाऽऽभासांस्तावदाहु:१२ अ०। दश। तत्र प्रतीतनिराकृतान नीप्सितसाध्यधर्मविशेषणात्रयःपपक्खंदण-प्रस्कन्दन-न । धाविस्वा पतने, “पमणं तु सप्पतित्ता, पक्खंदणं धाविऊण जपमति, जे पुण अदूरो आधा क्षाऽऽभामाः ।। ३०॥ विता पर तं पक्खंदणं । अहवा-उप्पास्य पक्खंदणं, तं पुण प्रतीतसाध्यधर्मविशेषणः, निराकृतसाध्यधर्मविशेषणः, अनगिरिम्मि जुज्जर, रुक्खट्टियरस जसप्पश्त्ता पाणं तं पक्वं. नीप्सितसाध्यधर्मविशेषणश्चेति त्रयः पवाभासा भवन्ति । अ. दणं, हत्येहि वा लविङ ज अंदोलचा पमर, तं वा पक्रंदणं प्रतीतानिराकृतानीप्सितसाध्यधर्मविशिष्टधर्मिणां सम्यक्पक. मरणं।" नि० चू० ११ १० । खेन प्रागुपवर्णितत्वादेतेषां च तद्विपरीतत्वात् ॥ ३८ ॥ पक्खंदोलग-पढ्यान्दोमक-पुं० । यत्र पक्किण आगत्याऽऽत्मान तत्राऽऽद्य पक्षाऽऽभासमुदाहरन्तिमान्दोलयन्ति तस्मिन् , जी. ३ प्रति०४ अधिः । प्रतीतसाध्यधर्मविशेष यो यथा-भाई तान् प्रत्यवधारणवर्ज पक्खग-पक्षग-त्रि०। मासा भाविनि, "पक्चगा संजलणा | परेण प्रयुज्यमानः सपस्ति जीव इस्पादिः ।। ३ ।। कसाया।"कर्म० १ कर्मः। अवधारणं वर्जयित्वा परोपन्यस्त. समस्तोऽपि वाकयो Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्खानास अनिधानराजेन्धः। पक्खाभास गार्हतानां प्रतीतमेवार्थ प्रकाशयति। ते हि सर्व जीवाऽऽदि- चेत्, प्रत्यकाऽऽधतिरिक्तं, तदन्यतरता । न तावदाद्यः पक्का, प्र. वस्त्वनेकान्ताऽऽत्मक प्रतिपन्नाः, ततस्तेषामवधारणरहितं प्रमा- त्यक्षाऽऽद्यतिरिक्तप्रमाणस्यासंजवात्। अन्यथा-"प्रत्यकंच परोकं णवाक्य, सुनयवाक्य वा प्रयुज्यमानं प्रसिम्मेवार्थमुद्भावयती- च।" इत्यादिविभागस्याऽऽसमजस्याऽऽपत्तेः। द्वितीयपक्षे तु ति व्यर्थस्तत्प्रयोगः । सिद्धसाधनः, प्रसिद्धसंबन्ध इत्यपि सं. प्रत्यक्तनिराकृतसाध्यधर्मविशेषणाऽऽदिपवाभासेष्वेवास्यान्तर्भू. झाद्वयमस्याविरुकम् ॥ ३६॥ तत्वात् न वाच्यः प्रकृतः पकानास इति चेत् । सत्यमेतत्, द्वितीयपक्का ऽऽभासं नेदतो नियमयन्ति किं तु लोकप्रतीतिरत्रोस्कलितत्वेन प्रतिजातीति नियमनीपो. निराकृतमाध्यधर्मविशेषाणः प्रत्यवानुमानाऽऽगमलोकस्वब- न्मीलनार्थमस्य पार्थक्येन निर्देशः। एवं शुचि नरशिरःकपाचनाऽऽदिनिः साध्यधर्मस्य निराकरणादनेकप्रकारः||४|| सप्रमुखं, प्राण्यत्वातू, शङ्खशुक्तिवदित्याद्यपि दृश्यम ॥ ४॥ पञ्चमप्रकार कीर्तयन्तिप्रत्यकनिराकृतसाध्यधर्मविशेषणः, अनुमाननिराकृतसाध. मविशेषणः, आगमनिराकृतसाध्यधर्मविशेषणः, लोकनिराकृत स्ववचननिराकृतसाध्यधर्मविशेषणो यथा-नास्ति प्रमेय. साध्यधर्मविशेषणः,स्ववचननिराकृतसाध्यधर्मविशेषणः श्रादि परिच्छेदकं प्रमाणम् ।। ४५ ॥ शब्दात स्मरणनिराकृतसाध्यधर्मविशेषणः, प्रत्यभिज्ञाननिराक सर्वप्रमाणाभावमन्युपगच्छतः स्वमपि वचनं स्वाभिप्रायप्र. तसाध्यधर्मविशेषणः,म निराकृतसाध्यधर्मविपाश्चेति ॥४०॥ तिपादनपरं नास्तीति वाचंयमत्वमेव तस्य श्रेयः, धाणम्तु नास्ति प्रमाण प्रमेयपरिच्छेदकमिति स्ववचनं प्रमाणीकुर्वन् एषु प्रथम प्रकार प्रकाशयन्ति द्यूत ति स्ववचनेनेवासी दयाहन्यते; एवं निरन्तरमहं मौनीप्रत्यक्षनिराकृतमाध्यधर्मविशेषणो यथा-नास्ति नूतविल त्याद्यपि दृश्यम् । ननु स्ववचनस्य शब्दरूपत्वात्तन्निराकृतक्षण आत्मा ॥ ११॥ साध्यधर्मविशेषणः पकाभासः प्राग्गदिताऽऽगमनिराकृतसाध्य. स्वसंवेदनप्रत्यक्केण दि पृथिव्यप्तेजोवायुभ्यः शरीरत्वेन परि- धर्मविशेषण एव पक्षाभासेऽन्तर्भवतीति किमर्थमस्य भेदन णतेभ्यो भूतेभ्यो बिलकणोऽन्य अात्मापरिच्छिद्यत इति । त- कथनमिति चेत् । एवमेतत्, तथापि शिष्यशमुषीविकाशाद्विलकणाऽऽत्मनिराकरणप्रतिक्षाऽनेन वाध्यते । यथाऽनुष्णो. र्थमस्यापि पार्थक्येन कथनमिति न दोषः । आदिशब्दसूचिऽग्निः, इति प्रतिज्ञा वाटेन्जियप्रत्यकेण ॥ ४२ ॥ तास्तु पक्काभासात्रयः स्मरणश्यभिज्ञानतकनिराकृतसाध्यध. द्वितीयप्रकार प्रकाशयन्ति मर्मविशेषणाः। तत्र स्मरणनिराकृतसाध्यधर्मविशेषण। यथा,स अनुमाननिराकृतसाध्यधर्मविशेषणो यथा-नास्ति सर्व सहकारतरुः फल शून्य इति, अयं पक्कः कस्यचित्सहकारझो, वीतरागो बा || ॥ तर फलभरभ्राजिष्णुं सम्यक् स्मर्तुः स्मरणेन बाध्यते । प्र. त्यभिज्ञाननिराकृतसाध्यधर्मविशेषणो यथा, सदृशेऽपि क्वच. अत्र हि यः कश्चिनिहासातिशयवान् स क्वचित्स्वकारणजनि न वस्तुनि कश्चन कश्चनाधिकृत्योर्चतासामान्यच्चान्त्या पक्कीतनिर्मूल कयो यथा-कनकाऽऽदिमलो, निहींसातिशयचती च दो. करुते, तदेवेदमिति । तस्याऽयं पक्रस्तिय सामान्यावापाऽऽवरणे इत्यनेनानुमानेन सुव्यक्त्यैव, बाधा एतस्मात्सल्वनुमा. म्बिना तेन सशमिदमिति प्रत्यभिज्ञानेन निराक्रियते । तनाद्यत्र बबन पुरुषधौरेये दोषाऽऽवरणयोः सर्वथा प्रकृयप्रसि. कनिराकृते साध्यधर्मविशेषणो यथा, यो यस्तत्पुत्रः, स द्धिः, स एव सर्वज्ञो वीतरागश्चेति। एवमपरिणामी शब्द श्याम इति व्याप्तिः समीचीनेति। अस्याऽयं पक्षो यो जनइत्यादिरपि प्रतिज्ञा परिणामी शब्दः कृतकत्वान्यथानुपपत्तेरि. न्युपनुक्तशाकाऽऽद्याहारपरिणामपूर्वकस्तत्पुत्रः, स श्याम इति त्यायनुमानेन बाध्यमानाऽत्रोदाहरणीया ॥ ४२ ॥ व्याप्तिग्राहिणा घम्यक् तर्केण निराक्रियते ॥ ४५ ॥ अथ तृतीयं नेदमा हुः द्वितीय पक्षानासं सभेदमुपदश्य तृतीयमुपदर्शयन्तिआगमनिराकृतसाध्यधर्मविशेषणो यथा-जैनेन रजनिभोज- अननीप्सितसाध्यधर्मविशेषागो यथा-स्याद्वादिनः शाश्वनं जजनीयम् ॥४३॥ तिक एव कलशाऽऽदिरशाश्वतिक एव वेति बदतः ॥४६॥ "अत्थं गयम्मि आइथे, पुरत्था य अणुग्गए । आहारमाइयं __ स्याद्वादिनो हि सर्वत्रापि वस्तुनि नित्यत्वैकान्तः, अनि. सवं, मणसाऽवि न पत्थर ॥१॥" इत्यादिना दि प्रसिहप्रा- त्यत्वैकान्तो वा नाभीप्सितः, तथाऽपि कदाचिदसौ सभामाण्येन परमागमवाक्येन वपाभत्तणपक्कः प्रतिक्षिप्यमाण- क्षोनाऽऽदिनैवमपि वदेत् । एवं नित्यः शब्द इति ताथागतस्य स्वान्न साधुत्वमास्कन्दति । एवं जैनेन परकत्रमजिन्नपणीयाम- वदतः प्रकृतः पक्वाभासः । ये त्वलिरुविशेषणाप्रसिहवित्याशुदाहरणीयम् ॥ ४३ ॥ शष्याप्रतिकोभयाः पक्षानासाः परःप्रोचिरे, नामी समीचीचतुर्थ प्रकारं प्रथयन्ति चीनाः । अप्रसिद्धस्यैव विशेषणस्य साध्यमानत्वात, अन्य था सिद्धसाध्यताऽवतारात। अथाऽत्र सार्वत्रिका प्रसिध्यभा. लोकनिराकृतमाध्यधर्मविशेपानो यथा-न पारमार्थिक वो विवक्तितो न तु तत्रैव धर्मिणि, यथा साइख्यस्य बिनाशि. प्रमाणप्रमेयव्यवहारः॥४४॥ त्वं क्वापि धर्मिणि न प्रसि, तिरोभावमा त्रस्येव सर्वत्र तेना. लोकशब्देनात्र लोकतातिरुच्यते । ततो लोकप्रतीतिनिराक- भिधानात् । तदयुक्तम । एवं सति कणिकतां साधयतो भवतः तसाध्यधर्मविशेषण इत्यर्थः । सर्वाऽपि हि लोकस्य प्रतीतिरी. कथ नाप्रतिकविशेषणत्वं दोषो भवेत् ? , कणिकतायाः सपके दृशी यत्वारमार्थिक प्रमाणं,तेन च तस्यातत्व विवेकः पारमार्थि- क्वाप्यसिद्धेः । विशेष्यस्य तु धर्मिणः सिद्धिर्षिकरूपादपि क एव कियते । ननु लोकप्रतीतिरप्रमाणे प्रमाण चा? - प्रतिपादितेति कथमप्रसिकताऽस्य ?। एतेनाप्रतिकोभयोऽपि प्रमाणं चेत, कथं तया बाधः कस्यापि कर्तुं शक्यः ?। प्रमाण परास्तः ॥ ४६ ॥ रत्ना ६ परि० । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पखारिण अनादेशविशेष संदेश दासी पक्वारिया पकारिण पक्कारिणी । " पक्खारिणी ।" रा० । पक्खालण - प्रशासन न० । धावने, श्राचा० १०८ श्र० ५ उ० | सूत्र० । ० 1 पखावा-पक्काऽऽपतित त्रि । अम्यतरस्य पार्श्वे पतिते " पक्खावमियं तासुं।" प्रा० ४ पाद । (६८) निधानराजेन्द्रः । و पक्खा सण - पद्मासन न० । येषामघोभागे नानारूपाः पक्तिस्तेषु श्रसननेदेषु जी० ३ प्रति० ४ अधि० । जं० । पत्र (ए) पनि ५० बी० पसायनेन पहा सो ऽस्यास्तीति पक्की | उत्त० १ अ० । गृड्राऽऽदिषु श्राचा० १० ६ भ० २ उ० । अनु० । | चविदा पक्खी पयता तं जहाचम्यपक्खी, सोमप खी, समुपक्खी विषयपत्री (स्वा० ४ ० ४ ४० ) सिविदा पक्खी पाता। नाडा, पोया, सम्मुच्छि मा | अंडया पक्खी तिविद्दा पत्ता । तं जहा- इत्थी, पुरिसा. नपुंगा। पोयया पक्खी तिविहा पष्पत्ता । तं जहा- इत्थी, सा वि एवं भावे उरपरिसरा त्रिपिपरिया विभणियन्दा पक्षिणोऽण्डजाः हंसाऽऽदयः पोतजा वल्गुलीप्रभृतयः, स. मा: बम्जनका सम्म स्वदेशयत्वसम् दिति स्थान द्वा० १ ('बयर ७३४ पृष्ठे वक्तव्यतोका ) पक्खिनाथ पक्षात २० पणि, स्था०० नाऽऽभिते, उत्त० २० अ० । यहि पक्किपथ पुं० [पमा पत्र भारुमा दिपकमि - देशावरमवाप्यते । सू० १० ११० पक्वप्य महिष्य प्र० निष्काश्य सूत्र० १० ० १ उ० । पल-पाक्षिक न० पाक्षिक पा १५ वि० भ० । पक्के पक्के भवे, कल्प० ३ अणि प कस्यान्तिकं पाक्रिकम् । प्र० ४ द्वार पक्षातिचारनिर्वृते प्रतिक्रमणे, श्राव० ४ अ० । (तश्च पाचिकप्रतिक्रमणं कदा कथं कर्तव्यमिति 'परिकमण' शब्दे वक्ष्यते) अथ प्रश्नस्त सुखराणि च यथा-धाद्राः पाकिदिने प्रतापयन्ति तत्रष्ठं दिवनं, दशमं व देशावकाशिक, तदन्ये नाङ्गीकुर्वन्ति, यद् तद्वयं कथितमस्ति तदात्मकथितं यत्पवनं यावजी त्यधिकं दशमं तु विनयमिति का युक्ति है, इति प्ररम्-श्रावश्यके वकयता पिहारे देशाकाशिकापकः कथितोऽस्ति लिख्यते । यथा-" विषयही दिसापरिणामस्स पदिणं प रिमाणकरणं सावगासिश्रं, देसावगासियस्स समोवासए मां श्मे पंच अश्रारा जाणियत्वा न समायरिया । तं ज १० पक्खियपोस हिय हा आओगे १. पेोगे २, सावा ४पकानुसारेण प्रतस्थ संपदेशाकाशिक स्पष्टतया ज्ञायते तथा योगशाखाद्यनेकप्रन्येषु संदेशाकाशिक क तमस्ति । तथा श्री उपासकदशाङ्के आनन्दवतोच्चाराधिकारे सामायिकादयताप्रापविस्तारो म कविता ता स्केचनात तोच्चारादौ पर्व पाठोऽस्ति " अहं णं देवागुप्पियाणं अंतिए पंचावश्यं विश्वासाम्मं परिवजिस्सा देवि मा पडिव करेि 1 सोनारा गाढाव सम पास्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणात्तसि क्वावइयं पुवालसविहं सावयधम्मं परिवज्जद्द, पडिवजा समर्ण भगवं महावीर वंदन गस" पतालापा दयाराङ्गीकारः कथं घटते ?। यदि देशायका सिवन भवति तई पञ्चातीचाराः कथं कथिताः । दान ? चत्वारि व्रतानि सविस्तराणि नोच्चरितानि यत्प्रतिदिनं वा रं वारमुच्यते पुनः संक्षेपतस्तदुच्चरितान्येवेति शेषम् । ७३ प्र० । सेन० ४ उaro | परिपत्रपणा पाक्षिकक्षामा स्त्री" इच्छामि खान पिच मे जं ने दहा मुहानं अप्पा" इत्यादि भगनाsस्मिकायां पाकिकप्रतिक्रमणस्यान्ते कामणायाम्, ('पकिमणशब्दे व्याख्या) पाकिकामणाऽवसरे प्रत्ये कं नमस्कारान् मनोमध्ये कथयेयुः, किं वा नेति प्रश्ने, उत्तरमू- कामणाऽवसरे यतिसङ्गावे श्राद्धा नमस्कारानू न पठन्ति, किं तुपतिनियमकान्त पीनामभावे तु नमस्कारं पाकिस्थाने तिच उन्तीत्यवसेयम् । २१ प्र० । सेन० १ उल्ला० । २ उ० । नि० ० । पक्खिणि सेविय-पक्षिनिषेवित - त्रि० । विविधविहङ्गैरतिशये पक्खियपरिकपण- पाक्षिकमतिक्रमण - न० । पक्कातिचारनिर्वृ चतुर्दश्यां कपमा प्रतिक्रमणे ४०२ विन रीस्मृतिकायोत्सर्गादनुपातिक प्रतिक्रमणे ज्ञानाऽऽदिगुणयुतानामिति स्तुतिः धाविकानिरपि पठ्यते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम पाक्तिकप्रतिक्रमणे ज्ञानाऽऽदिगुणयुतानामिति स्तुतिः श्राषिकाभिः साध्वीभिरपि च कथ्यमानाऽस्तीति । ४०३ प्र० । से. २०३० अनुयोजनानि चियामशान्तिरवश्यं कथ्यते निरस्यस्मिन् विनेऽपि कथ्यते किमस्तीति प्रझे उ तरम- पाकिकप्रतिक्रमणे परम्परया शान्तिरवश्यं कथ्यतेऽन्य स्मिन् दिने तु कथनमाश्रित्य नियमो नास्तीति । ५७ प्र० । सेन०४ उल्ला० ॥ - - पक्षपोसह पाकिकपोष-पुं० [प भयं पाक्षिकममा सिर्फ पर्वपचः पापिषधः चतुर्दश्य पोष बते. दशा० ५ अ० पक्खियपोसहिय पापिषक पाक्षि रूपोपची स्ति येषां ते पाक्तिकपौषधिकाः । पर्वसु कृत पौषधोपवासेषु दशा० । परिपोषि पोसहो चाउसिमीसु वा ।" अत्रापि स एवार्थः। यथा-पक्के मापात पापांचा पि Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) पक्खियपोसहिय अभिधानराजेन्दः । पगइभग अत्र व नियतं पोषध उपवासरूपः । यतः श्रीउत्तराध्ययनवृह. दश०१ अ.। भ० । औ०। ज्ञा० । स्थानि०५०।१०। वती-" सम्वपि तपोयोगः, प्रशस्तः कालपर्वसु । अष्टम्यां कम्मोशे, कर्मभेदे कानाऽऽवरणाऽऽदौ, भ०१०१००। पश्चरश्यां च, नियतः पोषधं वसेत् ॥१॥" तथा श्रीमावश्य- स० । कर्मणामपि किञ्चित् शानमावृणोति किशिदर्शनम, कचूर्णी-'सन्चेसुंकालपब्वे-सु सत्यो जिणमए तयो जोगी। किश्चित्सुखाखन जनयति, किश्चिन्मोत्यतीत्येवस्वरूपा अमिपनरसासु, नियमेण हविज्ज पोसहिनो॥१॥"इति कृतिः। क. प्र.१ प्रक० । समुदाय, ('कम्म' शब्द तृतीयभागे बचनात पाक्तिकेवइयं तपः कार्यम् । उपलकणं चतच्चतुर्द २५० पृष्ठे मोदकष्टान्तेन तत्स्वरूपमुक्तम) भेदे, प्राह्मणकत्रि. श्यष्टम्योस्तत्रापितपः कार्यमिति । अत एवोक्तं चूर्णिकृता-"चा. यवैश्यशूकाऽऽस्याश्चनसः प्रकृतयः । प्राचा० १ ० १ ० उहसिअहमीसु वा।" अत्र वाशब्दः समुच्चया, अनुक्तपर्व १उ० । कुम्भकाराऽऽादश्रणयः प्रकृतयः । श्रो० । बलदेव. संग्राहको व्यावमिंतइचूर्णिकृता । तत्र तविशेषश्चतुर्थाद स्य रेवत्यामुत्पन्ने पुत्रे, स चारिष्टनेमिस्वामिनोन्ति के प्रा. रूपस्ते.. युक्तानां साधूनां मध्ये । दशा०५०। ज्य सर्वार्थसिद्ध उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यति । नि०१ श्रु.५ वर्ग १ अ०। पक्खियापक्खिय-पाक्षिकापाक्षिक-पुं० । नपुंसकभेदे, यस्य पके, शुकरके अतीव मोहोदयः स्यातू-अपके च-कृष्णपके स पगडअंत-प्रकृत्यन्त-पुं० । प्रकृतिविश्रान्ती, द्वा० ११ द्वा। पाक्षिकापाक्तिकः । ध० ३ अधिः। शुक्लपक्षे सवेदो, नोक पगइनदय-प्रकृत्युदय-पुं०। कर्मभेदविषये उत्सरकरणे, पं०सं० ष्णपके अधषा-शुक्लपक्के कृष्णपक्षे या पकं याबदतीवोदयः ५द्वार । क० प्र०। स्यात्तावतमेव कालमल्पोदयः स पाक्तिकापातिकः। ग०१ पाइनदीरणा-प्रकृत्युदीरणा-स्त्री० कर्मप्रकृतिविषये दीरणाअधिः । । ५० भा० । पं० चू०। करणे, पं० सं०५ द्वार । क०प्र०। पक्खि विरान्नय-पक्तिविगमक-पुं० । जीवविशेषे, " से जहा- पगइनवसंत-प्रकृत्युपशान्त-त्रि०। क्रोधोदयरहिते, न.१ श. णाम पक्खिबिरालए सिया रुक्खायो रुक्खं मेवमाणं गच्छे- ६०० । औ०। जा।" न० १३ श०९ उ० । पगईतर-प्रकृत्यन्तर-न० । पतप्रहप्रकृतिरूपे कौश, पं०सं० पक्खिविरानी-पतिविमानी-स्त्री० । चर्मपक्किभेदे, जी० १ ५द्वारा प्रति०। प्रकाo1 | पाइंतरणयणसंकम-प्रकृत्यन्तरनयनसंक्रम-पुं० । विधकितापक्बुकनंत अ-प्रक्षत्यत-त्रि०।" स्वार्थ कश्च वा"||२। याः प्रकृतेः समाकृष्य प्रकृत्यन्तरे नीत्वा निवेशने, पं०म० ५द्वार । १६४ ॥ इति का प्रत्ययः स्वार्थिकः । प्रकर्षण कोभं प्राप्नुवति, "धरणीहरपक्खुम्नंत ।" प्रा०२पाद । पगइटाण-प्रकृतिस्थान-न० । प्रकृतीनां स्थानानि । विध्यादिप्र कृतिसमुदाये, कर्म.५ कर्म । पक्रदेव-प्रक्षेप-पुं० । प्रतपणे, एकदेशप्रहणात् प्रतपाऽऽहारे। पगइहाणपमिग्गह-प्रकृतिस्थानपतग्रह-पुं० । यदा सुप्रभूताप्रव.२०५द्वार। सु प्रकृतिषु एका संक्रामति यथा मिथ्यात्वं सम्यक्त्वमिथ्यापक्खेवय-पक्केपक-पुं० । अर्थपथे त्रुटितशम्बलस्य शम्बलपूर स्वयोस्तदा संभवति । प्रकृतिसंक्रमे, पं० सं०५धार। अव्ये, “अपक्खेवगस्स पक्खेवगं दलयति ।" ज्ञा० १ ६० पगहाणसंकप-प्रकृतिस्थानसंक्रम-पुं० । यदा प्रभूतासु प्रभूः १४ म०प्रकपणे, बृ०१ उ०।" नाम्नि पुंसि बा"॥५।३। ताः संक्रामन्ति यथा ज्ञाना 35वरणस्य पश्चापि प्रकृतयः पश्वसु १२१॥ इति भावे णकप्रत्ययः। यथा अरोचनमरोचकः। हेम०। तदा सम्भवन्ति । सम्भ्रमभेदे, ६० सं०५ द्वार। (वखप्रक्षेपकस्वरूपम् 'वस्थ' शब्दे वश्यते ) पगइपहिग्गह-प्रकृतिपतग्रह-० । प्रकृतिस्थानानां यदेकप्रकपखवाहार-पक्केपाहार-पुं० । प्रकोण कवलाऽऽदेराबारः तिपतग्रहभावो विवक्ष्यते तदा संभवति । संक्रमभेदे, . प्रोपाहारस। काबलि के कबलप्रोपनिष्पादिते आहारभेदे. सं.५ द्वार। सूत्र०२६०२० पग:पतणकोहमाणमायामोह-प्रकृतिप्रतनुक्रोधमानपायालोभपक्खोम-शद-धा। शातने, “शदो कम-पक्खोडी"।। पुं० । प्रकृत्यैव प्रतनवोप्रतिमन्दीभूताः क्रोधमानमायालोभा ये४११३०॥ इति ज्ञायतेः पक्खोडाऽऽदेशः। 'पक्सोमाशीयते। पांते तथा । तं । सत्यपि कषायोदये प्रतनुरोधाऽऽदिनावेषु, श्री. जी प्रा० ४ पाद । पक्वोमिन-शदित-त्रिका "पप्फोमिअंच पक्रोमिय" पाइ० पगईपन्नवसत्ता-प्रकृतिपेलवसत्ता-स्त्री०। स्वभाषनैव तुच्छः ना० २४३ गाथा। तिबनायाम्, बृ० १ उ० । नि० चू।। पक्खोलण-शदन-न० । शद-कर्तरित्युत् । प्रस्खलति, रुप्य- पगबंध-प्रकृतिबन्ध-पुंग कर्मणःप्रकृतोऽशा भेदानाssue. ति, नि० १ ०३ वर्ग २ अ०। णीयाऽऽपयोऽसौ तासां प्रकृतेर्वाविशेषितस्य कर्मणो बन्धः। पग-प्रकृति-स्त्रीप्रीस्यप्रीतिविषादाऽऽत्मकानां लाघधोपष्टम्नः | स्था० ४ वा०२ उगकर्मपरमाणूनां ( स०४ सम० ) समुदायगौग्वधर्माणां परस्परोपकारिणां त्रयाणां गुणानां सवरजस्त स्थित्यनुभागप्रदेशसमुदाये, पं.सं०५ द्वार । कर्मः । (प्रकृतिका मसा माम्यावस्थायाम् , स्या। प्राचा०। आ० म०। बुद्धि म्धस्वरूपस्य 'बन्ध' शब्द सर्वा वक्तव्यता) रेव प्रसुप्तस्वभावा साधिकारा प्रकृतिरिति केचित् । डा०११ पगभग-प्रकृतिभक-त्रि० । प्रकृत्या स्वभाव एच न परानु. द्वा । स्वभावे, न. १ २०६०।" पगई एसा उमगणाण" वृश्यादिना भडका परोपकारकरणशीक्षः प्रकृतिजसकः । श्री। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पगरभग अन्निधानराजेन्द्रः। पगरगासम स्वजावत एव परोपकरणशीले, भ० १ श० ६ उ• । स्वजावेन प्रकृत-त्रि० । प्रकर्षमा विहिते, उत्त० १३ अ० । प्रकर्षण बद्ध, प्ररानुपहतकामवालमनश्चेष्टे, शाp१ श्रु०१०। जी०सं०। । "न० १३ भ. । आचा. पगइनदयया-प्रकृतिनकता-स्त्री० । स्वभावेन परानुपतापि पगढण-प्रकटन-न । प्रकाश, प्रकाशके च । नं। सायाम , स्था०४ ठा०४ उ००। पगइपउय-प्रकृतिमृदक-त्रि०। स्वजावत एव भावमार्दयिके, सो पगमत्थ-प्रकटार्थ-पुं० । उत्तानार्थे, चं० प्र०१७ पाहु । ज०१ श० ६ उ०। पगमि-प्रकृति-स्त्री० । पर्याय, "पगमिति वा, पज्जाय तिवा, पगइमंद-प्रकृतिमन्द-पुं०। स्वभावेन कर्मवैचित्र्यात सदृद्धिरहि- वेद त्ति वा एगट्ठा । " प्रा. चू० १ अ । प्राचा० । ते, "पए मंदा विजयति एगे, महरा वि य, जे सुप्रबुद्धोब. सस्वरजस्तमसा साम्यावस्थायाम, सूत्र०१६०१२ ० । उवेया । (३)" दश० अ० १ ०। त।आचा० । 'प्रकृतेमहाँस्ततोऽहकारः।' प्रज्ञा०३२ पद । पगविजुस-प्रकृतिवियुक्त-त्रि० । स्वतन्त्रपरिजाषया सकसकानाs. ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मप्रकृतिषु, आ० म०१ अ०१ खण्ड। घरणीयाऽऽदिमूलोत्तरभेदप्रकृति नेदवियुक्त,परतन्त्रपरिभाषया पग-प्रगत-पुं० ।महागर्ते, प्राचा० १ १.३ १०३ उ०। सस्बरजस्तममांसाम्यावस्था प्रकृतिरित्य नया बियुक्त,"नित्य प्रकृ. पगत-प्रगत-त्रि० । अधिकारे प्रयोजने, नि०.१ उ०। तिवियुक्त, लोकालोकावलोकनाऽऽभोगम।" पो० १६ बिव०। पगविणीय-प्रकृतिविनीत-त्रि० । स्वनावेन , न तु परोपदेश पगप्प-प्रकल्प-पुं० । प्रादुर्तते, सूत्र. १ श्रु०३१०३ उ०। तः विनययुक्त, तं०। भ०।। पगप्पिता-प्रकर्त्तयितृ-त्रि०। पृष्ठोदराऽऽदेः कर्तयितरि, “ हता पगइविसमा-प्रकृतिविषमा-स्त्री० । आवश्यकोक्तपतिमारिकाव- बेत्ता पगप्पित्ता, आपसायाणुगामिणो।" सूत्र. १ श्रु० ८ । त् स्वभावेन वक्रभावयुक्तायां स्त्रियाम, तं० । (पतिमारिकावृ-पगप्पिय-प्रकल्पित-त्रि० । प्ररूपिते प्रख्यापिते, सूत्र. १ श्रु. त्तम 'गरिहा' शब्दे तृतीयभागे ५० पृष्ठे गतम्) ३१०३ उ०। पगइसकम-प्रकृतिसंक्रम-पुरा प्रकृतेः संक्रम्यमाणायाः सकाशा- पग-प्रगभ-पुं० । धाविरुधे, सूत्र.१ श्रु० ७५०। प्रा. तु दक्षिकं परमाएवात्मकं समाकृष्याऽन्यां प्रकृति पतप्रकृतिः चा । अतीव परिपुष्टे, जी० ३ प्रति०४ अधि। धृष्टतां याते, स्वभावम्तत्संक्रमः प्रकृतिसंक्रम इत्युच्यते । पं० सं० ५ द्वार। मत्र.१ श्रु० २ ० ३ ०० । संक्रमनेदे, स्था०४ ठा०२ उ०। पं० सं०। पगन्जणा-प्रगहनना-स्त्री० । धाष्टयें, सूत्र० १ ६०५० २ पगइसंतकम्म-प्रकृतिसत्कर्मन्-न । मूलोत्तरप्रकृतीनां सत्ताक उ० । पापकरणे, धृष्टतायाम्, सूत्र०१ श्रु०२ अ० २००। मणि, क० प्र०१. प्रक। पं० सं०। पगब्मा-प्रगहना-स्त्री. । स्वनामपातायां पार्श्वनाथाम्तेषापगइसोम्म-प्रकृतिसौम्य-पुं०। प्रकृत्या स्वभावेन सौम्योऽनीषणा सिन्याम्, यथा कूपिक संनिवेशे उपसृष्टो बीरस्वामी नावितः। प्रकृतिः। विश्वसनीयरूपे षष्ठे धावकगुणे,एवंविधन प्रायेण न श्रा०म०१ ०२खराकान। पापव्यापारे व्याप्रियते, सुखाऽऽश्रयणीयश्च प्रवति । प्रव० पगम्भिय-प्रगल्लित-त्रि धृष्टतां गते, प्रमादवति च । “कि२३६द्वार । स्वजावतोऽपापकर्मणि, ध०१ अधि• । स्वभावेनैव वणेण समं पगम्भिया, न वि जाणंति समादिमुत्तमं । " सुत्र० शशधरवदानन्दकारिणि, दर्श०२ तव ।। १७०२०३ उ० धावति, सूत्र.१०१०१०। अथ तृतीयं प्रकृतिसौम्यत्वगुणमाह धाष्टोंपगते, सूत्र०१ श्रु०१.१००। पयईसोमसहावो, न पावकम्भे पवत्तए पायं । पगय-प्रकृत-त्रि० । अधिकृते, व्य०७ ३० । विशे० । प्रस्तुते, हवा सुहसेवाणिज्जो, पसमनिमित्तं परेसि पि ॥१०॥ अनु । सूत्र । विशे० । भावे क्तः । प्रस्तावे, सूत्र. १ श्रुक प्रकृस्याऽकृत्रिमभावेन सौम्य स्वभावोऽनीषणाऽऽकृतिबिंश्वसनी. १५ अ । अधिकारे, सूत्र० १ श्रु० ११ १०। बृ० । प्राचा० । यरूप इत्यर्थः(न)नैव,पापकर्मण्याक्रोशबद्धाऽऽदौहिंसाचौर्याss. प्रयोजने, विशे० । श्रुतविशेषे, व्य०६ उ.। (कल्पव्यवहारयोः दौ वा प्रवर्तते व्याप्रियते प्रायो बाहुल्येन निर्वाहाऽऽनिकरणम- प्रकृतानि ' असेस' शब्दे प्रथमभणे २६ पृष्ठे दर्शितानि) स्तरेण । अत एव जवति सुखसेवनीयोऽक्लेशाराभ्यःप्रशमनिमि प्रगत-त्रि० । प्राप्ते, स्था० ४ वा० १ उ० । समुपशमकारणं च अपिशब्दस्येह समुच्चायकस्य योगात, परे पगरण-प्रकरण-न प्रक्रियन्तेऽर्था अस्मिन्निति प्रकरणम् । धामन्येषामनीदृशानां भवेत, विजयश्रेष्टिवत् । ध. २०१ अधि० ३ गुण । (विजयश्रेष्ठिकथा 'विजयसेहि' शब्द) । अनेकार्याधिकारवत् कायप्रकरणाऽऽदौ, दश०४ मा प्राचा पगंठ-प्रकएउ-पुं० पीतविशेषे, आदच मुमटीकाकार:-"प्रक- पगरणसम-प्रकरणसम-न०। हेत्वाभासनेदे, रत्ना० ६ प. एवी पीउविशेषौ।" वृर्णिकारस्स्वेचमाह-आदर्शवृत्तौ पर्यन्ताव. रि०। अस्य हि लक्कणम्-यस्मात्प्रकरणचिन्ता स निर्णया. नतप्रदेशौ । जी. ३ प्रति० ४ अधि० । जं० । रा०। थमपदिष्टः प्रकरणसम इति । यस्मात्प्रकरणस्य पक्कप्रतिपक्क योश्चिन्ता विमर्शाऽऽरिमका प्रवर्तते, कस्माउचासौ प्रवर्तते ?, पगंथ-प्रग्रन्थ-पुं० । प्रगते ग्रन्थे, स्था० 10। "पसियं पगंथे विशेषानुपलम्भात्, स एव विशेषानुपलम्नो यदा निर्णयार्थमअमुवा पगंधे।" भाचा०१०६०२०।। पदिश्यते तदा प्रकरणमनतिवर्तमानत्वात् प्रकरणसमो जवत्ति, पगम-प्रकट-त्रि0 सर्वजनदृश्ये, तं० । प्रकटयति प्रकाशयति, प्रकरणे पाके प्रतिपके च समस्तुल्य इतिायथा-अनित्यः शनो मि. विशे०। त्यधर्मानुपलब्धेरित्येकेनोक्ते, द्वितीयः प्राइ-यधनेन प्रकारेणा Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पगरगासम आभिधानराजेन्छः पग्गहिया नित्यत्वं साध्यते, तर्हि नित्यतासिद्धिरप्यस्तु, अन्यतरानुपलब्धे. चकचिकायमानत्वे, विशेदीप्तौ, रा०। औ०। "प्रयसीकुसुमस्तत्रापि सनावात्। तथाहि-नित्यः शब्दोऽनित्यधर्मानुपलब्धे. पगासा, "क्रोधे, "न य उक्कोसपगासमाहणे।" सूत्र. १ श्रु. रिति । अयं चाऽनुपपन्नो, यतो यदि नित्यधर्मानुपलाधनिश्चिता १भ.२०। तदा कथमतो नानित्यत्वसिद्धिः?,अथानिश्चिता, तर्हि संदिग्धा | पगासग-प्रकाशक-त्रि० । प्रकाशयतीति प्रकाशकम् । ज्ञाने, सिहतव दोषः। अथ योग्यायोग्यविशेषणमपास्य नित्यधर्माणमनुपलब्धिमात्र निश्चितमेव, तत्तहि व्यभिचार्येव । प्रतिवा. प्रा० म०१ अ० १ खाम । अवबोधके,पो०१६ विव० । चन्द्रादिनश्चाऽसौ नित्यधर्मानुगन्नब्धिः स्वरूपासिव नित्यधमोपलब्धः कोऽदिके प्रकाशकृवस्तुनि, विशे०। प्राचा० । तत्रास्य सिकेः। एवमनित्यधर्मानपलब्धिरपि परीकीया। इति पगासण-प्रकाशन-न० । प्रकटने, प्रव०६ द्वार । सूत्र०। सिकं त्रय एव हेत्वाजासाः। (५७ सूत्र दी०) रत्ना०६ परि०।। आच०। (प्रकरणसमस्य विषयः प्रणगंतवाय' शब्द प्रथमभागे पगासदीव-प्रकाशदीप-पुं० । प्रकाशाय दीपः प्रकाशदीपः। ४३३ पृष्ठे द्रष्टव्यः ) श्रादित्यचजमण्यादौ, प्राचा०१ श्रु० ६ ० ३ उ०। पगरणमुत्त प्रकरणसूत्र-ना स्वसमय एबाउपनिर्णयप्रसिच्या पगासिय-प्रकाशित-त्रि० । प्रकटिते, संथा० । सम्यमाधिजूते, दुभावके सूत्रभेदे, वृ० १ उ० । ('सुन' शब्दे इदं व्याख्यास्यते) सूत्र. १ श्रु० १४ अ०। पगरणीवएम-प्रकरणोपदेश-पुं० । कारणोपदेशे, प्रा० ० पगिकिय-प्रगृह्य-श्रव्य० । नक्षिप्येत्यर्थे, आचा०१ श्रु० ५ अ. १०। ( अस्यकार्यिकानि कारणोवएस' शब्दे तृतीय नागे ६०। विधायेत्ययें, ज०३ श. १० । औ० । धृत्वेत्यर्थे, ४६६ पृष्ठे गतानि) ज.९शः ३११०। पगरिय-प्रगलित-त्रि० । गलत्कुष्ठे, पिं० । पगिट्ट-प्रकृष्ट-त्रि० । प्रधाने, पं० सं०१द्वार । पगझंत-प्रगन्नत-त्रिका निःभ्यन्दमाने, नं०। विपा० । प्रश्नः। पगिट्टभावज्जिय-प्रकृष्ट नावाणित-त्रि० । शुभनाबार्जिते, पं० "पगलंतलायणंसु जलदिछो।" महा०५१०। सू० ए सूत्र । पगलिय-गगलित-त्रि०। करिते, ज्ञा० १ ० १ ०। नि० पगीय-प्रगीयत्-त्रि० । गातुमारब्धवति, रा०। चू० । प्रश्न। पगुण-प्रगुण-त्रि० । अकुटिले, सूत्र०१ श्रु०१ १०२ उ० । प्रा. पगाढ-प्रगाह-त्रि० । प्रकर्षवत्ति, भ० ५ श.६ उ०। प्रश्नः। चा० । अव्यभिचारिणि, सूत्र. ११० १०४ उ० । ध० । प्रकर्षेण व्यवस्थिते, सूत्र० १ श्रु०१३ श्र प्रकर्षवृनौ, न श. ३१ उ.। ज्ञाo। स्था०।"पगाढा चंडा दुहा तिब्वा दुरहि. पगे-प्रगे-अव्यय । वाचल। प्रगीयतेऽत्र प्र-गै-कः । प्रतिप्रातःका. यासा" इति एकार्थाः। विपा० १०१०। प्रगाढा प्रकणसे, प्राचा०१ श्रु०५ १०४०। ममंप्रदेशव्यापितयाऽतीव समवगाढा (बेदना )। जी०३ प्रति० | पग्गह-प्रग्रह-पु।प्रगृह्यते उपादीयते प्रादेयवचनत्वाद्यास प्र. १अधि०२४०। प्रदः । ग्राह्यवाक्ये नायके, स च लौकिको,सोकोत्तरश्चति । तत्र पगाम-काम-न० । अत्यर्थे, ज्ञा०१ श्रु० अ०। सूत्रः। उत्क- लौकिको राजयुवराजमहत्तरामात्यकुमाररूपो, सोकोत्तरश्चाटे, माव०४ अ० । अत्यन्ते, " रसा पगामं न निसेवियचा।" चार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविरगणावच्छेदकरूप इति । स्था०१ उत्त०३२ अ। ग.। ('गण' शब्दे चतुर्थभागे १६६६ पृष्ठे व्याख्यातः) प्र. कर्षण गृह्णातीति प्रश्नहः । उपधौ, ओघका रश्मी, शा. १ ध्रु. पगामभोयण-प्रकामनोजन-न०। द्वात्रिंशदादिकवलेन्यः परेण २ । उपा०। परतो भुजानस्य भोज़ने, पिंक। पगामसज्जा-प्रकामशट्या-स्त्री० । 'शोछ' स्वप्ने । अस्य क्यप्र. पग्गहिय-प्रगृहीत-त्रि० । प्रकर्षेणान्युपगते, प्राणु३ वर्ग १ त्ययान्तस्य " कृत्यल्युटो बहुलम्" ॥ ३३॥ ११३॥ इति ० । आदरप्रतिपन्नत्वात् । स्था० ४ छा० ३ उ० । प्रकर्षण गृही. ते, बहुमानप्रकर्षाद् गृहीते, ज्ञा० १ श्रु० २ . । भोजनार्थमु. वचनात् शयनं शय्या प्रकामं चातुर्याम शयनं शेरतेऽस्यामि स्पादित, स्था० ६ ठा० । मूत्र•। ति वा शय्या संस्तारकाऽदिलक्षणा, प्रकामा उत्कटा शय्या प्रकामशरया । संस्तारोत्तरपट्टकादतिरिक्तायां प्रावरणमधिकृत्य । पग्गहियतरय-प्रगृहीततरक-न । प्रकर्षण गृहीतं प्रगृहीततरं, कल्पत्रयातिरिक्तायां वा शरयायाम्. श्राव०४०11०।(प्र- तदेव प्रगृहीततरकम । प्रकर्षणातिशायिस्वेन गृहीते, प्राचा०१ कामशय्याऽतिचारप्रतिक्रमग 'पमिक्कमण' शब्द) श्रु.२०२७० प्रगृहीततगं शय्यां यैवं काचिद्विषयसमा. पगार-प्रकार-प। दे, प्रा० ० १ ० । विशे०। स्था। दिका वसतिः सम्पन्ना तामेवम् । प्राचा०१ श्रु०२ अ०२ उ01 "भेद ति वा पगारो त्ति वा एगट्ठा।" श्रा. चू०१०। आ-पागहियताझियंद-प्रगृहीततानवन्त-त्रि०। प्रगृहीतं तालवृन्तं द्यर्थे, सूत्र०१७०१३ अ । विधाने, श्राव.४ अ० ये प्रति तस्मिन, न श०३३ उ० । औ०। पगास-प्रकाश- प्रभायाम्, ऑ० । झा० । अनु. । प्रावि.पगडिया-प्रग्रहीता-स्त्री० भोज़नवेझायां दातुमच्युत्थितेन करा. र्भावे, विशे। दिनरात्रिविभागनिबन्धने तरणिप्रभारूपेऽथै, वि- दिना प्रगृहीतं यद्भोजनजातं,भोक्ता वा स्वहस्ताऽऽदिना तद् गू. शे० । नेत्रवत्राऽऽदिविकाशे, अनु०। प्रतिभायाम्, प्रशा० नाति इति षष्ठयां विमेषणायाम्, आव०४ अपाचाग ("प. २ पद प्रकटे, नि० चू० १००। प्रसिद्धौ, सूत्र. १श्रु०६अ। मेसणा' शब्दे सूत्रम् ) भोजनसमये भोक्तुमुपविष्टाय परिवेष्टितुं Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पगाहिया अभिधानराजेन्दः। पन्चक्ख परिवेषकेण स्थाल्यादेरुदवृत्य वटुका दिना उरिकप्तं परेण च प्रवृत्तिनिमित्तस्य स्पष्टत्वस्य तत्रापि भावेन तच्छन्दवाच्यतोपन गृहीतं प्रवजिताय दापितम् । यद्वा-भोक्त्रा स्वयं भोक्तुं स्वक- पतेः । व्युत्पत्तिनिमित्तमात्रतया ह्यत्राक्तिशब्दः शब्दयते, करेण यद् गृहीतमशनाऽऽदि तद् गृह्णतो भिक्कायाम् ध०३ अधिक। थमन्यथाऽकशब्दोपादानेऽप्यनिन्छियप्रत्यकस्य तच्छन्दवापांगम्ब-पायम-श्रव्य० । "प्रायसः प्रान प्राश्व-प्राइम्ब-प. च्यता चतुरस्रा स्यात् ? । अथ कथमेवं प्रत्यक्षः प्रेक्कावणः, गिम्बाः" |||४१४॥ इति प्रायसः पग्गिम्बाऽऽदेशः । प्रत्यक्ता पक्षपक्षाक्षीति स्त्रीपुंसभावः ?, अस्याव्ययीनावस्य सदा " पग्गिम्बाइ मणोरहा, उक्करु दाउ करे।" प्रा०४ पाद । नपुंसकत्वात् । नैत्र, प्रत्यकमस्यास्तीति अर्शश्रादित्वनादन्त. पघंसण-प्रघर्षण-न: पुन: पुनघर्षणे, " एक दिणं आघसणं, स्वात्तभावसिद्धेः । अत्रोच्यते एवमपि प्रत्यको बोधः, प्र. दिणे दिणे पघंसणं ।" निचू०३ उ०। त्यका बुकिरित्यत्र पोस्नं स्त्रैणं च न प्राप्नोति, न ह्यत्र मत्वजे निक्खू णिग्गये दंते अमउत्थियस्म गारस्थियस्स वा यार्थों घटते, प्रत्यकस्वरूपस्यैव बेदनस्य बोधबुद्धिशब्दा. भ्यामाभिधानात् । रत्ना०२परि०ा विशे० सूत्र। साताज्ज्ञाआघसेउन वा, पघंसेज्ज वा, आघसावंतं वा पघंसावंत वा ने, प्राचा० १ श्रु० १ ० ५ उ० । 'अशूछ' व्याप्ती, अश्नुते, शा. साइज्ज ।। नाऽऽत्मना सर्वानान् व्याप्नोतीत्यक्षः । अथवा-प्र जोजने । गन्धजन्येण ईषत्पुनः पुनर्वा घर्षयेत्। नि०चू०१७ उ० आचा अनाति सर्वान् यथायोगं नुक्ते पालयति चेति अको जीवः । पचंग-प्रचएम-त्रि० । प्रकोपनशीले, व्य०८ उ.। उत्जयनाप्यौणाऽऽदिकः सक्प्रत्ययः । तमकं जीवं प्रति साक्कादू पचत्तर-देशी-चाटौ, सुन्दरे, दे. ना.६ वर्ग २१ गाथा । वर्तते यत्तत्प्रत्यकम । “ अत्यादयः कान्ताऽऽद्यर्थे द्वितीयया (वा०)" ति समासः। अनु० । इन्डियमनोनिरपेके आत्मनः पचलिय-प्रचलित-त्रि०। कम्पिते, कल्पा "पचलिप्रवरकमग. सावात्प्रवृत्तिमति ज्ञानजेद, नं। अनात्यश्नुते व्याप्नोति अर्थातुडिअकेऊरमउमकुंमत त्ति ।" तत्र प्रचलितानि भगवद्दर्शनेन नित्यक आत्मा,तं प्रति यद्वर्त्तते ज्ञानं तत्प्रत्यक्ष निश्चयतोऽवधिअधिकसंभ्रमवच्चात् कम्पितानि (बरकमग त्ति) वराणि कट. मनःपर्यायकेवलानि अकाणि चेन्जियाणि प्रति यत्तत्प्रत्यक्कम्, कानि कङ्कणानि श्रुटिताश्च बाहुरककाः (बहिरखा इति लोके) व्यवहारतस्तथ चक्षुरादिप्रजवमिति । लकणमिदमस्य-"अपरोकेयूराणि चाङ्गदानि (वाजूबन्ध इति लोके )(मनड त्ति) मुकुटं, कतयाऽर्थस्य, ग्राहक शानमीदृशम् । प्रत्यक्कामतर यं, परो. कुरामले च प्रसिके, एतानि प्रचलितानि यस्य स तथा । कल्प तं ग्रहणे तथा ॥१॥" स्था०४1०३ उ017 जीवस्या१ अधि०१ कण। साक्षात्कारित्वेन वर्तमाने ज्ञाने, अनु। पचानेपाण-प्रचालयत-त्रि० । प्रकर्षण चालयति, भ० १७ (१) तत्र प्रत्यकस्य लक्षणमाहडा० १०॥ जीवो अक्खो अत्य-व्वावण नोयणगुणमिओ जेण । पचोइय-प्रचोदित-त्रि०। प्रेरिते, "अबले होइ गवं पचोप।" तं पइ वट्टइ नाणं, जं पच्चक्खं तयं निविहं ॥ नए ॥ सूत्र० १ १०२ अ०३ उ०।। पञ्च-प्रत्यय-jo1"त्योऽचैत्ये" ।।२।१३ ॥ इति त्यस्य अकस्तावज्जीव उच्यते। केन हेतुना ?, इत्याह-(अत्यवाकचः । प्रा० २ पाद । सर्वजनप्रतीती, प्रश्न०४ सम्ब० द्वार। वणेत्यादि) अर्थव्यापननोजनगुणान्वितो येन, तेनाक्षो जीवः। इदमुक्तं भवति-प्रशूल् व्याप्ती । अश्नुते ज्ञानाऽमना सर्वार्थापञ्चइय-प्रात्ययिक-पुं० । प्रत्ययादिन्छियानिन्छियलक्षणानिमि न व्याप्नोतीत्याणाऽऽदिकनिपातनादको जीवः । अथवा-प्रशू साजातः प्रात्ययिकः । व्यवसायभेदे, स्था० ३ ठा० ३ ० । नोजने । अइनाति समस्तत्रिनुवनान्तर्वर्तिनो देवलोकसमृपचंगिरा-प्रत्य गिरा-स्त्री०। देवीभेदे, वाच । अन्यत्र लग ज्यादीनान् पालयति भुले वेति निपातनादको जीवः, अ. नीयस्य दोषस्यात्मनि लगने, “पश्चंगिरसोगमुद्दाहो।" अ. भातेजनार्थत्वाद्धजेश्व पालनाभ्यवहारार्थत्वादितिभावः । थामा साधुर्भातः सन् निहते अपनपति, न कथयतीत्यर्थः। इत्येवमर्थव्यापनभोजनगुणयुक्तत्वेन जीवस्यावत्वं सिमंजव१.१ उ० । नि० चू०। ति । तमकं जीवं प्रति साकादगतमिन्छियनिरपेकं वर्तते यद पचंत-प्रत्यन्त-त्रि० । सीमासन्धिवर्तिनि, व्य०१ उ० । “पश्चं. झानं तत्प्रत्यकम् । तश्चावधिमनःपर्यायकेवलज्ञानदास्त्रिविधंता मिलक्खु बोहिया।" प्रत्यन्तदेशवासिनो म्लेच्गः । वृ० त्रिप्रकारम, तस्यैव साक्षादर्थपरिच्छेदकत्वेन जीवं प्रति सावा१ उ. सीमाप्रान्तस्थं नगरं प्रत्यम्तनगरम । प्राव. ४०। द्वत्तमानस्वादिति गाथार्थः ॥८६॥ विशे० । ०। प्रा. च। पच्चंतय-प्रत्यम्तक-पुं० । नीचके, आव० ४ ०। दर्श० । सूत्र० । आ० म. । (अवधिज्ञानस्वरूपम् 'प्रो हिपाण' शब्दे तृतीयत्नागे १५६ पृष्ठे गतम् ) ( मन.. पच्चंतर-प्रत्यन्तर-न। चतुर्थदेवलोकस्थे विमानभेदे, स. पर्यायज्ञानस्वरूप 'मण पजवणाण'शब्दे वक्ष्यते) (केवल५ सम। ज्ञानविस्तरः केवलणाण' शब्दे तृतीयत्नागे ६४२ पृष्ठे गतः) पच्चंतराय-अत्यन्तराज-पुं० । सीमाराजे, " अमुगो पश्चंतरायः | प्रत्यक्ष लक्षयन्तिउब्वेहो अहम ज तारिसा पुरिसा।" प्रा० म०१ अ०१खएमा स्पष्टं प्रत्यक्षम् ॥ २॥ पच्चक्ख-प्रत्यक-न0। अक्वमिन्द्रिय प्रतिगतम्-इन्द्रियाधीनतया प्रबनतरज्ञानाऽऽवरणवीयान्तराययोःक्षयोपशमात कयादा स्प. यत्पद्यते तत्प्रत्यक्षमिति तत्पुरुषः। ननु-अक्तिशब्दादपि प्रति. टताविशिष्टं वैशद्याऽऽस्पदीभूतं यत् तत् प्रत्यक्ष प्रत्येयम ॥२॥ पूर्वात-"प्रतिपरसमनुभ्योऽदणः। (ग)" इत्यव्ययीभावसमा. सान्ते टचि प्रत्यकमिति सिध्यति, तत्किन ककीबवान्सः?, न स्पष्टत्वमेव स्पष्टयन्ति। चैव स्पार्शनादिप्रत्यकं नैतचन्दवाच्यं स्यादिति वाच्यं, त. अनुमानाऽऽद्याधिक्येन विशेषप्रकाशनं स्पष्टत्वम् ॥३॥ १६ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्ख अनुमानादिभ्यो यमाणपरोक्षप्रकारे ज्योतिरेकेण यद्विशेषाणां निषवसंस्थानाऽऽयका प्रतिमासा नस्य तत् स्पष्टत्वमिति ॥ ३ ॥ रत्ना० २ परि० । (२) वैशेषिकादः ननु अि पीकं करणं स्मृतं ततो म्हणामिश्रियाणां या सा सा प्रत्यक्का, अक्कमिन्द्रियं प्रति वर्त्तते प्रत्यक्षमिति व्युत्पतेः । तथा च सति सकललोके प्रसिद्धं साकादिन्द्रियाश्रितं घटादिज्ञानं प्रत्यमिति सिद्धम् । तदेतदयुक्तम, द्रियाणानुपपत्वाद संगयात्। तथा चात्र प्रयोग पर चेतनं तवं यथा घरोऽवेतनानि न चायमसियो , मामाथि निवृत्युपकरणरूपाणि प करणे च फलमये, यथा चानयोः पुत्रसमयता तथा च दयते । पुन्नमयं च सर्वमचेतनं, पुद्गलानां च काठिन्याबोधरूपतया चैतन्यं प्रति धत्यायोगात धर्मानुरूपे हिसा पि धर्मी, यथा काविन्यं प्रति पृथिवी, यदि पुनरनुरूपत्वाभावेऽपि धर्मधर्मिभावो भवेत्ततः काठिन्यजनयोरपि स भवेत् न च भवति तस्मादचेतनः पुनः ठकं च (७४) अभिधान राजेन्द्रः । , ब "विसपरिव विषयसायाणि भूषाणि जगत्पसिखाणि ॥ १ ॥ तामाहमे घर मे श्रतुरुवतानावे, कानिजमाण किं न नवे ॥ ॥ २ ॥” इति । नापि संदिग्धानैकान्तिकता हेतोः शङ्कनीया, अचेतनस्थोपलम्भकत्वशक्त्यायोगात् । उपलम्भकत्वं हि चेतनाया धर्म्मः ततः समाजमिति प्रत्यक्षवाधितेषं प्रतिका साक्कादिन्द्रियाणामुपलम्भकत्वेन प्रतीतेः । तथाहि चक्कू रूपं गृह्यनुपलभ्यते, शब्दं कर्णी, नासिका गन्धमित्यादि । तदेतमोहाचान्तःकरणात तथा हि-मशरीरे द्रियैः सहान्योऽन्यानुवेधेन व्यवस्थितः, ततोऽयमात्माऽमूनि केन्द्रियाणि इति विधेमतो बाहिि ? 1 रुवं पश्यन्नपि समीचीनमसमीचीनं वा राजा निजदोषारिकवचन एच प्रत्येति न खाज्ञानात्माऽपिचक्षुरादिनोपदर्शितं बाह्यमर्थं चकुरा समीचीनमसमीचीनं वा बेनिन साक्षात् तथाहि दिले हो दिसंशय भवति चिरादाद्गुष्यमेव प्रतीत्य निश्चयं विदधाति यथा न मे वकुस्तिमिरोपच्युतं नौयानाश्रुभ्रमणाऽऽद्यापादितविभ्रमं वा ततोऽयमर्थः समीचीन इति । त तो यथा राज्ञो नाऽयं मम राजा दौवारिकोऽसत्यालापी कदा नाप्यस्य उपभिचारापनदिनीवारिकस्य सानु एयमवगम्य परराज की पुरुष समीचीनताधारपरमा तापरोक्षं तद्वात्मनोऽपि सुरारिसाधारण वस्तुयाथात्म्यावधारणं वस्तुतः परोकम् । नन्विदमिबिखाद्गुण्यावधारणतो वस्तुपाचात्पावधारणमनस्याभदशामापनस्योपलभ्यते, नाच्या सदशामुपगतस्य, अभ्यासदशामापन्नो ह्यभ्यासप्रकर्षसामर्थ्यादिन्द्रिय साद्गुण्यमनपेक्ष्यैव स्वादयते ततस्तस्येन्द्रियाचितं ज्ञानं क माशांकुशावता लम्नकानीन्द्रियाणीति मन्यन्ते, परमार्थतः पुनरुपलब्धा तत्रा वसीयते इति चेत्-मे पत्रधार्थानुस्मरणात्। तथाहि कोऽपि पूर्वे चकुषा विवक्षितम र्थं गृहीतवान् ततः कालान्तरे दैवविनियोगतश्च कुषोपगमेऽपि स तमर्थमनुस्मरति । तत्र यदि चकुरेव प्रष्टास्यात्ततश्चक्षुषोऽभावे तदुपलब्धार्थानुस्मरणं न भवेत् । न ह्यात्मना सोऽर्थोऽनुभूतः, किंतु समात्नापे नानुभूतेऽर्थेऽन्यस्य स्मरणं मा प्रापदिति प्रसङ्गः । अपि च-मा नृच्चकुपोपगमस्तथापि यदि चतुरेव द्रष्टा ततः स्मरणमात्मनो न प्रवेत्, अन्येनानुभूतेऽर्थे अन्यस्य स्मरणायोगात् भवति च स्मरणमात्मनः, चकुः स्मर्तृत्वेनाप्रतीतेरनभ्युपगमाच्च, तस्मादात्मैवोपलब्धा नेन्द्रियमिति । तथा चात्र प्रयोगः- यो येषूपरतेपिपलच्चानयां स्मरनि स तत्रोपलग्धा यथा वा भवति । तदप्ययुक्तम् । अभ्यासदशामापन्नस्यापि साक्कादनघ घोषस्यापीन्द्रिरेणाधबोधप्रवृत्तरश्यमिसि कचात् केवलप्रयासका एवंऊटवावधारयति, पूर्वावधृतं च कटित्येव निश्चिनोति । ततः कालसम्पत्तयते इत्थं वश्यमा यज्ञानमचद्यदेहापूर्वमा विचारणारा, विचारको सातवस्तुतः यचैरविचारावेवयवज्ञानस्य सम्यग्ज्ञानत्वायोगात् वस्तुमिवा 1 पानामर्थानामनुमतो देवोऽनुस्मरति च इम्पे)ि सभ्यश्विचारितो वा यज्ञ ज्ञानं समीचीनं भवति, ततोऽभ्यास शाऽऽपन्नेऽप|न्द्रिय सद्गुण्यावधारणमव सेयम् । यदपित्रोक्तम्"न खलु देवदत्तो हस्तेन जुज्जानो हस्तव्यापारव्यवहितत्वात् न साक्षाद्भोकेति व्यपदेष्टुं शक्यमिति । तदध्ययुक्तम् । दृष्टान्तदाप्रान्तिकार्थवैषम्याद । भोक्ता हि भक्तिक्रिया नवनागी भएयते, मुजिक्रियाऽनुजत्रश्च देवदत्तस्य न इस्तेन विधीयते, किंतु सा -- - योपधानर्थान्येन्द्रियोपगमेऽध्यात्माः छह स्मरणमनुभवपूर्वकतया व्याप्तः व्याप्यव्यापक मावश्चानयोः प्रत्यक्षेणैव प्रतिपद्मः सयादयोऽन दप्रतीतेर्वि विषये यदि स्मरणं भवेन्तो मनुष पश्चक्रख बापे स्मरणं नवेदित्यतिप्रसङ्ग तस्माद्यापगमे तपलब्धार्थानुस्मरणादात्मन्वेति स्थितम् । उक्तं च "केसि चि इंदियाई, अक्साई तब सकिपञ्चकखं । तो ताई जमचे यणाएँ जाणंति न घडो व्व ॥ १ ॥ नवलद्धा तच्छाया, तन्विगमे तदुवसद्धसरणाश्रो । परमेषितदुपसरिया या २४* 1 अ] शब्द उपमार्थ अपरे पुनराहून वयमिन्द्रियाणामुप प्रतिज्ञान किं मया प्रय संते ज्ञानमात्मनि तत्रव्यवहितत्वादात्म साझापलग्ध इति द्राणामुपप्रतिकरण तथा व्यवधायकत्वायोगात देवद सध्या पारव्यवहितस्वरसाका भोकेति व्यपदेशम् तत दसमीचीनम्, सम्यग् वस्तुतत्वापरिज्ञानात् । इह हि यदात्माच कुरादिकमपेक्ष्य बाह्यमर्थमवबुध्यते तदाऽऽवश्यं चकुरादेः सा दूगुण्याद्यपेक्ष्यते । तथाहि यदा सद्गुणं चक्रुस्तदा वाह्यमर्थ स्पष्टं यथावस्थितं चोपलभते यदा तु तिमिराणमीयामचि सादिको मदेशीयस्वाऽऽद्यापादितविभ्रमं तदा विपरी संशयितं वा ततोऽवश्यमात्मा अर्थोपलब्धौ पराधीनः, तथा त्र सति यथा राजा निजी पारि - Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५) पच्चक्ख अभिधानराजेन्द्रः। पञ्चक्ख कातू, हस्तो हि कवनप्रकप एव व्याप्रियते, न परिच्छेद क्रिया- तत्र सूत्रम् "परोक्खं दुविहं पत्तंतं जहा-श्राभिनियोहियना. याम्, इन्जियमिवाऽऽहारक्रियानुनवेऽपि येन व्यवधानं भवेत, णं सुयनाणं।" इत्यादि । तत्राऽऽभिनिबोधिकमवग्रहाऽऽदिरूपम्, ततो देवदत्तः साकाङ्गोक्तति व्यवव्हियते । इह तु वस्तूनामुपन. अवग्रहाऽऽदयश्च श्रोत्रेन्द्रियाऽऽद्याश्रितास्तत्र वर्णिताः,तद्यदि श्रीविधरुनीत्या चारादीन्द्रियसादगुण्यावगमानुसारेणोपजाय त्राऽऽदीजियाऽऽश्रितं ज्ञानं परमार्थतः प्रत्यकं,तत्कथम्?, अयनते । ततो व्यवधानान्न साक्षाऽपलम्भक प्रात्मेति । नन्विदं स हाऽऽदयः परोक्कत्वेनाग्रेऽभिहिताः, तस्मादुत्तरोन्याश्रितधमप्युत्सूत्रप्ररूपणं, सूत्रे ह्यनन्तरमेवेन्धियाऽऽश्रितं ज्ञानं प्रत्य- ज्ञानस्य परोक्कत्वेनाभिधानादवसीयते प्रागिछियाऽऽश्रितं ज्ञानं कमुपदेश्यते । नं० प्रा०म० । स्था । विशे०। संव्यवहारतः प्रत्यकमुक्तं, न परमार्थतः । श्राहच भाष्यकृत(३) तयादि-इन्धियनाइन्जियप्रत्यक्षम् "पगतेण परोक्खं, लिगियमोहाश्यं च परुमक्खं । इंदियमणो. से किं तं पच्चक्खं । पच्चक्खं दुविहं पमत्तं । तं जहा भवं जं, तं संबहारपच्चक्त्रं ॥९॥” इति । प्रा०म० १ ०१ खएक विशे० । अनु।०। श्रा०चनि . चू०। "दुबिहे इंदियपच्चक्खं, नोदियपच्चक्खं च । से किं तं इंदि पच्चक्खनाणे पामते। तं जहा-केवलणाणे चेव, नोकेवलनाणे यपच्चक्खं । इंदियपच्चक्खं पंचविहं पातं । तं जहा- चेव।" स्था०२०। सोइंदियपच्चक्खं, चक्खिदयपच्चक्खं, घाणिदियपच्च-(४)बौछादिभिः सह प्रत्यकविषयकशास्त्रार्थः-यदपि सन्निहि क्खं, जिग्निदियपच्चक्खं, फासिंदियपच्चक्खं । से तं ई- तमर्थमबतरत्यध्यक्ष,नामाऽऽदिकं च विशेषणमसनिहितमिति, दियपच्चक्खं । से किं तं नोइंदियपच्चक्खं । नो न तद्योजनामवतरीतुं कममिति,तस्वेऽपि यदि सन्निहितमध्यक्कम वतरेत पदमम्लपरिष्वक्तमञ्जनाऽऽदिकं सन्निहितं किं नावतरेत्, इंदियपच्चक्खं तिविहं पमत्तं । तं जहा-ओहिनाण अथ यत् प्रतिनासयोग्य वस्तु तदेवावतरेत् । न च स्तम्नाऽऽदिकं पञ्चक्खं, मणपजवनाणपञ्चक्खं. केवलनाणपञ्चक्खं ।। व्यवहितमपि योग्यमित्येतदेव कुतः?,स्तम्नाऽऽदेः प्रतिभासनात प्रत्यकं विविध प्रक्षप्तम् । तद्यथा--इन्जियप्रत्यक्त, नोइन्द्रियप्र. तद्योग्यता व्यवस्थाप्यते,तर्हि तत्प्रतिभासनं कुतो व्यवस्थाप्यम स्यकं च । (नं०) ह च हिविधमपि ऽव्यभावरूपमिन्द्रियं गृ. स्वयं वेदनादिति चेन्न तत्प्रतिभासः संवेद्यते । तसत्र योग्यमिह्यते, एकतरस्याप्यनावे इन्जियप्रत्यक्षत्वानुपपतः । तत्रेन्ष्यि- तर स्वयोग्यवस्था या तत्सन्निधानासन्निधाने क्वोपयोगिनी । एवं स्य प्रत्यक्कमिन्छियप्रत्यक, नोइन्जियप्रत्यक्षं यत् इन्छियप्रत्य- यद्यसनिहितस्यापि नामाऽऽदि विशेषणं तस्यापि मताप्रतिजासः कं न भवति । नौशब्दः सर्वनिषेधवाची । तेन मनसोऽपि कथ. को विरोधः?,अध्यक्षत्वेन विरोधे वा चिरातीतभविष्यदर्थराशेश्चिदिन्छियत्वाच्युपगमासदाश्रितं ज्ञान प्रत्यक्तं न भवतीति सि. रसन्निहितस्य बुद्धसंवेदनप्रतिनासनादध्यक्षताविरोधस्तस्याखम्। (से किं तमित्यादि ) अथ कि तदिन्द्रियप्रत्यक्कम ?। इ. पि भवेत् । अथ विशदत्वात् तज्ज्ञानस्य नाध्यकताविरोधः, न्द्रिय प्रत्यक्ष पञ्चविधं प्राप्तम् । तद्यथा-श्रोत्रन्द्रिय प्रत्यक्वमित्या- तद्विशेषणविशिष्टार्थावभासिन्यप्यध्यक्वज्ञाने समानम् । एते. दि । तत्र श्रोत्रेनियस्य प्रत्यकं श्रोत्रेन्ष्यिप्रत्यक, श्रोभियं नोपाधीनामुपाधिमतः पूर्वकालत्वे उपाधिमग्राहिणा झा. निमित्तीकृत्य यदुत्पन्नं ज्ञानं तत् श्रोत्रेजियप्रत्यक्वमिति भावः । नेनासन्निहितत्वेनाप्रदणात व तद्विशेषणविशिष्टार्थप्राहिएयध्यएवं शेषेष्वपि भावनीयम्। एतच्च व्यवहारत उच्यते, न परमा- कमतिर्विदा संजवतीति प्रत्युक्तम् । बुझज्ञानेऽप्यानेतन्या येन यंत इत्यनन्तरमेव प्रागुक्तम् । श्राह-स्पर्शनरसनघ्राणी- वैशद्याभावतोऽनध्यक्षताऽऽपत्तेः। न चासन्निहितस्यापि वि. निजयाणीति क्रमः । अयमेव च समीचीनः, पूर्व पूर्वनाम एवो. शेषणस्याध्यक्के प्रतिभासे कस्याप्यसान्निहितस्य प्रशक्तिः, त्तरोत्तरलानसंभवात्। ततः किमर्थमुत्क्रमोपन्यासः कृतः। उच्य. यतो यस्यैवासन्निहितस्यापि प्रतिभासः संविद्यते तदेव तत्र ते-"अस्ति पूर्वानुपूर्वी, अस्ति पत्रानुपूर्वी।" इति न्यायप्रदर्शना- प्रतिनातीत्यभ्युपगन्तव्यम् । अन्यथा अनन्तरातीतार्थक्षणसा. र्थः। भपिच-शेषन्छियापेक्तया श्रोत्रेन्द्रियं पटु। ततः श्रीनेन्द्रिय ध्यकप्रतिभासे विस्तरातीतस्याप्यतीतया प्रतिजा शक्तिरित्या स्य यत्प्रत्यकंतच्छेषेन्द्रियप्रत्यक्कापेक्षया स्पष्टम् । संवेदनस्पष्टं सं. नाघता तउजन्मपरम्पराप्रतिभासस्य वा । तदसङ्गतमान धेकवेदनं चोपवर्यमानं विनेयः सुखेनाऽवबुध्यते,ततःसुखप्रतिपत्त. स्प व्यवहितस्य प्रति ताहगध्यकं जवेत, यश्च वाचो व्या. ये श्रोत्रेद्रियाऽऽदिक्रम उक्तः। (से कि तं नोइंदियपक्ख इत्यादि) पितयाऽपदार्थात्मतया च नार्थदेशे तनिधिरिति तदर्शनेन अथाकिं तत् नोइन्छियप्रत्यक्षम?। नोइन्जियप्रत्यकं त्रिविध प्रक्षप्त- सा प्रतिभातीति तत्सिद्धमेव साधितम् । यश्च व्यवदितायास्तु मा तद्यथा-अवधिज्ञानप्रत्यक्षमित्यादि । नं० सत्यमेतद् वैशेषि- थाप्रतिज्ञासे निखिलातीतार्थपरम्परप्रतिभासिनामिति । तदकाऽदिसम्मतम्,किंतु इदं लोकव्यवहारमपेक्ष्योक्तं, न परमा सङ्गतम् । नोकस्य व्यवहितस्य प्रतिमासे अतीतक्षणवत् स. थतः। तथाहि-यदिन्द्रियाश्रितमपरव्यवधानरहितं ज्ञानमुदयते, । कलस्य व्यवहितस्य चिरातीतकणस्येव प्रतिभासः संभवीतल्लोके प्रत्यक्षमिति व्यवस्थितम,अपरधूमाऽऽदिलिङ्गनिरपेक्षत. त्युक्तत्वात् । यश्च समनन्तरप्रत्यया च बोधरूपत्वे च घागरू. या सावादिन्द्रियमधिकृत्य प्रवर्तनात् । यत्पुनरिन्जियव्यापारे. पताऽपि वाचकस्मृतिसन्निहितोदया भविष्यतीति । तालमेव । ऽप्यपरंधूमादिकमपेक्ष्याम्न्यादिविषयं ज्ञानमुदयते,तल्लो के प. यश्च हेतुविषयजेदादेकस्मृतिप्रभवसंवेदनस्मरणयोदप्रसक्ति. रोक्षम् । तत्र सावादिन्न्यिव्यापारासम्भवात् । यत्पुनरात्मन इ. रिति । तदसङ्गतमेव । चतरूपालोके मनस्कारप्रभवस्य यथा जिपमप्यनपेक्ष्य साकापजायते, तत्परमार्थतः प्रत्यकंतचाव- रूपज्ञानस्य हेतुभेदेऽप्येकसामग्रीप्रनवत्वादभेदस्तथा विशिष्टस्यादिकं त्रिप्रकारं, ततः संव्यवहारमधिकृत्येन्द्रियाश्रितं ज्ञान शब्दस्मरणमनस्कारसचिवसामग्रीप्रभवम्य रूपमित्युद्धखवतो प्रत्यक्कमुक्तं,न परमार्थतः। अथ कथमेतदवसीयते-संव्यवहार- विशदस्यकतया प्रतीयमानस्य किमिति नेदो नवेत् ? । यथा हि मधिकृत्येन्धियाऽऽश्रितं ज्ञानं प्रत्यकमुक्तं,न परमार्थतः? उच्यते-त. चकुषो रूपग्रहणं प्रति नियमो बोधाच्चिद्रूपता पालोकाद्विशवात्तरपत्रार्थपर्यालोचनात्। तथाहि-प्रत्यक्तभेदाभिधानानन्तरं । दतोत्पाघनेकधर्माऽऽक्रान्तस्य रूपज्ञानस्यकरूपतया प्रतिभाना Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) अभिधानराजेन्डः। पच्चक्रव पच्चक्ख देकतया तथा विशिष्टार्थस्मरणमनस्कारापामतिविशिष्टोद्धखा- भ्युपगमेनानन्तरातीतकणग्रहणझानजननप्रवृत्तं वा सकला काम्तस्यकतया प्रतीयमानस्य बोधविशेषस्यैकरूपता युक्तिसङ्ग। तीतक्षणग्रहणमानजनने वा प्रवर्तते, अतीतत्वाविशेषात् । अथ तैब।सामग्रथन्तर्गतकारणाभंदेऽपि सामग्रीलकणस्य कारणस्या- यदेव तजझाने प्रतिभाति, जनन एव तस्य व्यापारः परिकजिन्नत्वात् । यदपि तटस्थ वागरूपताविशिष्टा वा अर्थमात्रा गृह्यते, प्यते,तदितरत्रापि समानम । न च विशेषणाऽऽदयस्तदाऽसत्रिचारूपतनापन्ना वा?,तत्पतष्यमध्यनभ्युपगमानिरस्तम,विशिष्ट- हिता पवैकान्ततो येन तान् प्रति प्रत्यक्तबुकिनिरात्रम्बने जशब्दवाच्यतया तु विशिष्टयोपशमसव्यपेक्वेन्छियजप्रतिपस्या- वेत् । निरन्वयकणक्यस्य निषिकत्वात् कथञ्चिदनुगतस्य च अर्थमात्रा गृह्यत एव, तहाच्यत्वं वाऽर्थमात्राणां कथञ्चि- प्रसाधितत्वात्। यदपि सुखाऽऽदिव्यतिरिक्तस्याक्प्रभवसंवेदना दनभिनूतो निजो धर्म इति प्रतिपादितं शब्दप्रामास्य व्यव- स्यार्थावभासकत्वं प्रतिपादितं, तदपि सिफसाधनमेव । यच्च स्थापयद्भिः केवलं तवाध्यताप्रतिपत्तिस्तासां मतिः श्रुतं वेत्यत्र सुखाऽऽदिवादिकल्पोऽपि नार्थसाक्षात्करणस्वभाव इत्यत्र यद्यवि. विचारः। स च यथास्थानं निरूपयिष्यते । अक्ष प्रभवानुरूपमि- शेषेण विकल्पमात्रं विधीयते तदा सिमाध्यता । अध दमिति प्रतिपत्तिरूपशब्दवाच्यताविशिष्टाऽर्थग्राहिययेका स्वसं. प्रकृतो विकल्पस्तदाऽसिकं, तमन्तरेणापरस्यार्थसाक्वात्कारिणोवेदनाऽध्यकतोऽनुभूत एव,अस्या अपलापे स्वसंवेदनामात्रस्या- ऽविकल्पस्यानावात् । यदपि यदि नाम पुरोवर्तिनमर्थ विकप्यपझापप्रलक्तेः शून्यतामात्रमेव स्यात् । न च शब्दगोचरोऽर्थ ल्पमतिरुद्योतयति । तथा क्रिया समर्थरूपा अपरिच्छेदान्न इन्द्रियविषयः, सामान्यविशेषाऽऽत्मनस्तस्याक्षप्रभवप्रतिपत्ती तत्र प्रवृत्तिमारचयितुं कमेति । तदप्ययुक्तम् । अर्थक्रियास. प्रतिनासनात् न च प्रतिज्ञासमानस्याविषयत्वम, अतिप्रसङ्गा. मर्थरूपस्य तस्या एवं परिच्छेदकत्वेन प्रवर्तकत्वादन्यथाप्रवृ. त् । तच्चन संविदितरमतीतोऽर्थः संविदन्तरप्रतीतस्य वि- तेरभावप्रसङ्गात् । तामन्तरेण कस्यचित् प्रत्ययस्य तद्रूप. शेषणम् । तदयुक्तमेव । विशिष्टशब्दवाच्यताविशेषणस्य रूप- योगादपि प्रतिपादनात् । अत एव यदि नयनप्रसरमनुस. स रूपमिदमित्येकप्रतीतिविषयत्वाभ्युपगमात् । अत एव रन्ती प्रथमा मतिन तवं प्रत्येति, पश्चादपि नैव प्रत्येप्यकेयं तदनुरक्ततेति विकल्पत्रये यद्दोपानिधानं, तदनभ्युपग- ति, स्मरणसहायस्याऽपि लोचनस्य विषयतयकत्वेन प्रति. मादेव निरस्तम् । यदपि यदि नाम: परिणद्धा यस्य सकक्षमा- परयजनकवादित्यादि सर्व प्रतिक्किप्तम, स्थिरस्थूगवभास्यक्षर्थस्य सवित्तदाऽर्थसर्वदमेव न भवेदिति दोषाभिधानम, तद. प्रनवसंवेदनाध्यक्तः प्रसिद्धः । तथापि तत्त्वस्याक्षप्रतिपत्तिवि. प्यनभ्युपगमानिरस्तम्। न हि शब्दानुविद्धार्थप्रतिपत्तिरेव स. षयत्वे संवेदनस्य स्वसंवेदनाध्यक्षविषयताऽपि न भवेत् । अवा. विकल्पिका, तथाऽभ्युपगमे सविकल्पप्रतिपत्तिरेव न भवेदि- धितप्रतिपत्तिविषयत्वाऽऽदिकं च सर्वमन्यत्रापि समानम् । अथ त्युक्तं प्राक् । अग्रहीतसंकेतस्य पुंसोऽर्यप्रतिपत्तिविकासपका,तथा स्वसंवेदनं वेदनाभावेन दृधमिति तत्तद्विषय, संवेदनं तु विपर्यच विकल्पयतो गोप्रतिपत्तिः गोशब्दोल्ले खधिकले त्यत्रापि प्रति- यान तद्विषयम् । ननु कणिकनिरंशैकपरमारवाकारसंवेदनाभा. विहितमेव । व्युत्क्रामेयदपि वागरूपता चेदित्यादिदोषाऽभिधा- वेतन दृष्टमुत तद्विपरीतसंबेदनाभावे । यद्याद्यः पक्का-स न नं, तच्च सिद्धसाध्यतया निरस्तम्। यच्च समानकालयोवां भा. युक्तः,सर्वदा तदनाव एव तस्य दृष्टेः। अथ द्वितीयस्तदा विपर्यय. वयोः विशेषणविशष्यभावमिन्छियप्रतिपत्तिरधिगति, भिन्न- सिद्धिः-यथा स्थिरस्थूराऽऽकारसंवेदनानावे अभवत् स्वसंवेदन कायोति पक्कद्वयेऽपि दोषाभिधानम् । तदप्यसङ्गतम् । यत्र तद्विषयं सिद्धयति स्थिरस्थरार्थानावे संवेदनं किं न तद्विषयं हि समानासमानकाल विशेषणविशिष्टोऽर्थः अबाधिताकारा. सिद्धयति, येन लोचनाविषयत्वं तत्वस्य भवेद । यथा पूर्वदि. कजप्रतिपत्ती प्रतिभाति, सा तदग्राहिकाऽज्युपगम्यते नान्ये- ग्देशादर्शनाद्नामग्रहणेऽपीदानींतनदर्शनेन स्वग्राह्यस्य तद्विवे. ति कुतोऽतिप्रसङ्गदोषावकाशः, यथा च स्तम्मा 55कारो- का प्रतीयते, तथाऽनेन तस्य तत्संपृशता किमिति नावगम्यत पकपरमाणुग्रहणप्रवृत्तं संवेदन भिन्नदेश परमापबन्तरम- इतिन युक्तम्,पूवेदशेनाद्यपतीतो तड्पताऽऽदिकं तस्य न प्रत्ये. घभासयति, अन्यथा प्रतिभाऽतिविरतिप्रसङ्गात् । तथाहि- तुं शक्यमित्यानिधानम् । यदि प्राप्याप्रतीतावपि रश्यदर्शविशेषग्रहणप्रवृत्तं विशेष्यावलासि तदभ्युपगन्तव्यम, अन्यथा नेन स्वग्राह्यस्य तदेकत्वं प्रतीयते,अन्यथा तस्याविसंवादकत्वाविशेषणविशेषार्यावभासाजावो भवेदियुक्तं प्राक् । न च विशे योगात प्रमाण्यं न स्यात, किमित्यर्थक्रियादर्शने तत्समर्थरूपा षणविशष्यभाबस्यानवस्थानाद् न समानकालयोरपि नयोः प्रतिपत्तियेन प्रकृतिविकल्पात्प्रवृत्तिनं भवेत् । यदपि स्मर्यमाणसद्भावप्रतिपत्तिः, अनेकधर्मकाऽऽकान्तस्य वस्तुनो विशि- स्यार्थस्य सत्तासिकेस्तवृत्तिस्मृत्यनन्तरभाविनोऽध्यक्षस्य स. सामग्नीप्रनवप्रतिपच्या प्रतिनियतधर्मविशितया ग्रहणात्। त्यतेत्यादीतरेतराश्रयत्वं प्रेरितं,तत् स्वसंवेदनेऽपि समानम्। तथा न च गदग्दर्शने अशेषधर्माध्यासितवस्तुस्वरूपप्रतिभासः हि-संवेदस्य सत्यत्वे तत्स्वसंवेदनस्य सत्यवेदिता, तस्याश्च कस्यचित् कचित् कयाचित्प्रतिपस्या, यथा तयोपशमग्रह- तत्सत्येति कथं नेतरेतराश्रयस्वमः,यथा च शिनिश्चयाद्विशद. णात् । न च तत्प्रतिपत्त्याऽगृह्यमाणु स्याऽऽत्यतिकस्ततो भेदः, तनोरनुमितिरविशदावभासा पृथगवसीयते,न तथा प्रकृतविक. असत्वं चाऽऽदेरविनीलप्रतिपस्याऽप्रतीयमानस्य तथास्वप्रश. ल्पात प्रथमविकल्पिका मतिः कदाचिदप्यनुनुयत इति। तत्सा क्तरित्युक्तावात्। यदपि पुरोवर्तिनि रूपे प्रवृत्तमक्षं यद्यतीते स्यमेव । निरंशकणिकैकपरमाराववभासस्थासत्वप्रतिपादनात् । विशेषणाऽऽदौ प्रतिपत्तिनुपजनयति,अतिविरतिमुपगतासु यदा यदपि न चाऽपि लिङ्गतः पश्चादिन्जियस्य प्रवर्तनमित्यादि प्र. परम्पगस्वपि प्रतिपत्तिभुषजनयेत । नमध्ययुक्ताभिधानम् । यतो त्यार्थगिरयोपन्यस्तं तत्सर्वमयुक्ततया स्थितम । यदपि जात्यायदेव हकमती परिस्फुटं प्रतिभाति तंत्रेवाकं प्रतिपत्तिमुप- देरजाबात्तद्विशिष्टाऽप्रतिपत्तिः सविकल्पिका संजवतीति।त. रचयतीति व्यवस्थाप्यते, अन्यथैकम्तम्जपरिणत्यापकपरमा- दपि प्रतिकितत्वान्न पुनः प्रतिसमाधानमहति । यच्च फन या. गुग्रहणकानजननप्रवृत्तमकं तत्परपरमाणुग्रहणानजननवत् | ग्यता परोक्षति नाध्यकप्रतिपसिनश्चयात्मिका प्रवर्तत इति । सकल पदार्थ वाहिज्ञानजननेऽपि प्रवर्तते, भेदाविशेषादू,जबदः । तदपि प्रतिविहितमेव । यच्च दर्शनपरिणत्यनवगतफल' Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्ख अभिधानराजेन्छः । पच्चक्ख संबन्धित्वमवगच्छन्ति कथं तद् भिन्नविषयेति । तत्सिा - नम्। पुरुषस्य चैतेतिशयेन शक्तिदेतवः । एताबखोपयुज्यतेमेव साधितम् । तद्व्यतिरेकेण दर्शनपरिणते विकलिपकाया इम्झियविषयभूतोऽर्थशब्देनानिप्रेतः, नार्थमात्र, तेन सन्निकर्षप्रश्रभावात् । यदपि रूपदर्शनाल्सिङ्गात्परोक्षार्थक्रियायोग्यताऽस्य- त्यासत्तेरिन्ज्यिस्य प्राप्तिः, तस्य च व्यवाहितार्थानुपलब्ध्या स. वसायानुमानमुदयमासादयति तद् व्यवहितमुपजनयतीति । त- द्भावः सूत्रकृता प्रतिपादितः, तत्सद्भाचे सिके पारिशेप्यातू दप्ययुक्तम् । फरजननयोग्यतायाः परोक्षत्वासिकेः प्रतितासमान तरसंयोगाऽऽदिकल्पना, परिशेषश्चन्जियण सा व्यस्य सरूपस्य वा निश्चितस्य लिङ्गत्वायोगादनुमानात्तनिश्चये ऽनय. योग एव,अयुतसिहत्वात् । गुणाऽऽदानां व्यसमबेवानां सस्थाप्रतिपादनात् । अध्यक्षतस्तनिश्चये च सिद्धं निर्णयाऽऽत्मक- युक्तसमवायो व्यस्सति अत्र समवायात, तत्समवेते. मध्यक्षम् । यइप्यनिश्चयाऽऽत्मकमध्यकमज्यासदशायां प्रवृत्ति- युक्तसमवेतसमवाय एतान्यस्यासंभवाप्राप्तेश्व प्रसार मुपरचयत् दृष्टं, तदप्यसंगतम् । शब्दोल्लेखशून्यस्यापि साव- स्वात् शब्दे समवाय एवाकाशस्य श्रोत्रत्वेन व्यवस्थापि. यवेकरूपा धिगतिस्वजावस्य सविकल्पकतया व्यवस्थाप.। तत्वात्, शब्दस्य च गुणाभावात्, गुणत्वेनाथाऽऽकाशलिङ्गस्याभात,तमन्तरेणाच्यासदशायामपि प्रवृत्तेः। यत्पुनः सर्वदाऽनुमा- दाकाशसमवायित्वं निश्चितमिति समवाय इत्युक्तं शब्दत्वे नात् प्रवृश्यम्पगमे लिङ्गग्रहणाजावतोऽध्यकणानवस्थादृषण. समवेतसमवाय एव परिशयत् अक्कणस्य च विघातः कथ. अभ्यधायि, तद् युक्तमेव । यदपि पौर्वापर्य अप्रवृत्तमभ्यतं कथं मतल्लकणं व्यवच्छिनत्तीत्यन्यव्यवच्छेदार्थमिनियार्थसन्निकर्षः तारप्लिकमहणे क्षममिति पूर्वपक्वस्तु स्थाप्य लोकाभिमानादेवा. कारणमित्यभिधीयते । कारणत्वेऽप्यसंजविदोषाऽऽकारपरिध्यकं,मिनप्राव्यिवहारिकृत् च । तच्चतस्तु-स्वसंविग्नाजावान्न जिहर्षियाऽन्याननुयायि कारणवचन, न त्वन्याननुयायिकारणप्रत्यकानुमाननेद इत्युतरानिधानम्। तदप्यसंगतम,प्रत्यक्वानु. निवृत्तिरेवंभूतस्येनियार्थसन्निकर्षस्यैव कारणत्वाभिधानं, न. मानभेदस्यापारमार्थिकस्वे स्वसंवेदनमात्रस्याप्यपारमार्थिकत्वमा त्वन्तःकरणेन्धियसंवन्धस्य तस्य व्यापकत्वात्। श्रव्यापकत्वं तु शक्तेः सर्वशून्यत्ताऽऽपत्तिरिति निर्विकल्पकत्वाऽऽदिव्यवहारो दू. सुखाऽऽदिकानोत्पन्नावसंभवात् । अय संनिकर्षग्रहणमेवास्तुसं. रापास्त एव स्यातू । न च शून्यता चास्त्वित्यभिधानं युक्तिसंग. ग्रहणं व्यर्थ न संशयाऽऽदिज्ञाननिवृत्यर्थत्वात् संशोपादानस्य । सम्.प्रमाणमन्तरेण तदन्युपगमस्याप्यघटमानत्वात् इत्युक्तस्वा. तथाहि-सम्यग् निकर्षः संनिकर्षः । सम्यकत्वं तु तस्य यथोक्तनदेव सकलबाधकाः सविकल्पका, प्रमाणविषयत्वातू, सधि विशेषणविशिफलजनकत्वेन नैतदतिचाराऽऽदिपदोपादानथैय. कल्पकमध्यकं सिरुमिति व्यवस्थितप्रमाणं स्वार्थनिर्म तस्वभाव प्रसक्तेः तदर्थस्य संशब्दोपादानादेव लब्धत्वात् नाव्यभित्रा. कानमिति । अत्र च स्वस्य ग्रहणयोग्योऽर्थः स्वार्य इत्यस्यापि स. रादिविशेषणोपादानमन्तरेण तत्सम्यक्त्वस्य ज्ञातुमशक्ते,त. मासस्थाश्रयणाद् व्यवहारिजनापेत्तयाऽस्य यथा यत्र ज्ञान- दर्थस्य संशीतिकरणस्यातीन्द्रियस्य सम्यक्त्वं चा सम्या स्थाविसंवादस्तस्य तथा तत्र प्रामारयमित्यनिहितं भवति । तेन कार्यद्वारेणैव निश्चीयत इति तत्फवविशेपणार्थमव्यभिचारा35. संशयाऽऽदेरपि धर्मिमात्रापक्षया न प्रामाण्यव्याहतिः । एतेन दिपदोपादानं कारणं साधुस्वावगमनव्यापारः । नन्वेमपि संश"प्रत्यक्ष कल्पनाऽपोढमभ्रान्तम्।" इति प्रत्यकल कणं सांगता- दोपादानानर्थक्यम्, अव्यभिचाराऽऽदिपदोपादानात् । अथ तन्रिकल्पितमयुक्ततया व्यवस्थापितम् । (५)तत्राऽहुनैयायिका:-मा भूत् सौगतपरिकल्पितं निर्विकल्प फलस्य विशेपितत्यान्न संग्रहणस्य सभिकर्षषटकप्रतिपादनार्थकमध्यकं प्रमाणम्, "इन्द्रियार्थसन्निकर्षीत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्य स्वादेतदेव मधिकरपदं ज्ञानोत्पादे समर्थकारणं. न संयुक्तसंयो. मव्यजिचारि व्यवसायाऽऽत्मकं प्रत्यक्षम् ।" इत्येतवकणक्षित गादिकमिति संग्रहणालभ्यते । नन्वेवमपीन्द्रियग्रहणानर्थक्य तु पत्यकं प्रमाणम् । अस्यार्थः इन्द्रियं व्यत्वकरणत्वनियताधि नानुमान व्यवहार्यत्वात्। तथा हि-अर्थसन्निकांदुत्पन्नमित्य. धानत्वातीन्द्रियत्वं सत्परोकोपत्रब्धिजनकत्वात् चतरादिमनः निधीयमाने अनुमाने तिप्रसङ्गश्तीन्द्रियग्रहणम् । इन्द्रियविषये. पर्यतः,तस्याः परिच्छेद्य इन्द्रियार्थः 'पृथिव्यादिगुणा रूपाऽऽ. ऽर्थ मंनिकायस्पद्यते ज्ञान तत्प्रत्यक्कमनुमानाऽऽदिभ्यो व्य. दयस्तदर्याः" इति तदर्थलकणत्वात् । तदर्थ इतिनकणनिर्देशः, बच्चेदनेति। न चानुमानिकमिन्द्रियसंबन्धादिन्द्रियविषये समु. तदर्धत्वं शकणं,तदधत्वं पञ्चेन्द्रियार्थत्वं न तु तदर्या इत्येतावदे त्पद्यत इति। तथाऽवर्यग्रहणमनर्थकमिति चेत् । न स्मृतिफलवास्तु तदर्थक्करणम् पृथिव्यादिगुणग्रहणं तु न कर्त्तव्यं, ननु तद. सन्निकर्षनिवृत्यर्थत्वाद् । न ह्यात्मनः करणसंबन्धात् स्मृतिरुरथत्वेन सकणेन ये संगृहीतास्तेषां विभागा पृथिव्यादिगुणग्र. जायत इति जनकस्यापि प्रत्यक्षत्व स्थादमत्यर्थग्रहणे,तश्चेन्धित हणम् । तथा चाट्योतकर:-प्रथिव्यादिग्रहणेन त्रिविधं द्रव्यमुप यार्थग्रहणमनर्थसन्निकर्षजा स्मृतिः,प्रतीतेऽपि स्मर्यमाणत्वात्त. सब्धिनकणप्राप्त गृह्यते । गुण ग्रहणेन सदों गोऽस्मदाद्युपनब्धि स्य च सदा सचाऽत्पत्तिग्रहण कारकत्थ ज्ञापनार्यम्, ज्ञानग्रहण नक्षणप्राप्त प्राश्रितत्वविशेषणत्वाभ्यामेवं पृथिव्यादिगुणग्रहणं सुखाऽऽदिनिवृष्यर्थम । न च तुल्यकारणजन्यस्यात् ज्ञानसुखादीलकणविभागसूत्रोपलवणार्थम् । नन्वेवमपि रूपाऽदिग्रहणं व्य. मामेकत्वमिति,निवृत्यर्थ ज्ञानग्रहणं न कार्यम् । तुल्यकारण ज. य, गुणग्रहणेन संगृहीतत्वान्न विशेषक्षणप्रतिपादनार्थत्वात् । न्यत्वस्यासिहत्वात्। वक्ष्यति च चतुर्थेऽध्याये-"एकयोनयश्च पा. तथा च प्रतिपादितम्-पृथिव्यादिगुणस्य सतश्चमाहत्यमेव य. कजाः,"न च तेषामकत्वमिति व्यभिचारः,प्रत्यक्षविरोधा सुप्रति स्य तदप चतुग्राह्य,यत्तद्रूपमित्यभिधीयमाने घटाऽऽदातिप्रस- क एव। तथा हि-मालदादादिस्वभावाः सुखाऽऽदयोऽनुनयन्ते। तिम्तनिवृश्यर्थमवधारणम । तथापि रूपत्वेऽतिप्रसङ्गः,तनि- ग्राह्यतया च, ज्ञान स्वर्थावगमस्वभावं प्राहकतयाऽनु नूयत इति वृष्यर्थ पृथिव्यादिगुणग्रहणम् । एवं रसाऽऽदिवप्येकाऽऽदिव्य. झानसुखाद्यानेदोऽध्यकसिद्ध एव, विशिष्टाहपुकारण जन्यत्वातू चहारहेतुः संश्येत्यादि विशेषलकर्ष बैशेषिकमतासिस- सुखाऽऽ। सुखाऽदिजोत्पाद्यत्वाचन भिन्न तुजस्वमसिद्ध, ज्ञानवंत्र हटम । नन्वेव रूपादीनामपि विशेषगलवणं नवाच्यम, सुखाद्यौरतो बोधजनकस्य ज्ञापनार्थ ज्ञानग्रहणम,अव्यपदेशनत्रैव प्रसिरूत्वाभावप्रतिपत्तिज्ञापनार्थत्वात् रूपाऽऽदयो हिब- ग्रहणमप्यतिव्याप्तानवृष्यथेम, व्यपदंशः शम्दस्तेनेछियार्थसहुनिर्विषयत्वेन संप्रतिपत्रा शति पञ्चानामपि शकणाऽद्यभिधा- निकर्षण चोत्पादितमध्यकं शब्देऽनन्तभावात् स्यात् सन्नि २० Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचकख वृत्यर्थमव्यपदेश्य पदोपादनम्, नन्विन्द्रियविषयशब्दस्य सामान्यविषयत्वेन व्यपारासंभवादिन्द्रियस्य च स्वलक्षणविषयवामनयोरेवमेतन योनिम्मवित्वस्वकृतिज्ञातयस्तु पदार्थइत्यत्र निषेत्स्यमानत्वात्तद्भावभावित्वाच्चोजय जनत्वं ज्ञानस्यावगतमे तथाहि व्यापारे सत्वयं मौरितिविशिष्टकाले ज्ञानमुपजायमानमुपलभ्य एव सद्भावना कार्यकारणभावो व्यवस्थापिक नोजयज ज्ञानम् । न चान्तःकरणानधिष्ठितत्वदोषः, चक्षुषस्ते नाधिष्ठानात् शब्दस्य च प्रदीपवत् कारणत्वात् न च ग्राह्यस्त्रकाले शब्दस्य करणत्वमयुक्तम्. श्रोत्रस्यैव तदा करणभावात्, शब्दस्य तु तदा ग्राह्यत्वमेव गृहीतस्य चोत्तरकालमन्तःकरासहायस्यार्थप्रतिपती व्यापार इति भवत्यु जयजं गौरिति ज्ञानम् । न चास्य प्रमाणान्तरत्वं युक्तम्, चनयवि लक्षणात् शाब्दे श्रव्यपदेश्य विशेषणस्याभावात्प्रत्यके व सा. दृश्यशब्दस्वात् । न च शब्देनैव यज्जन्यते न शब्दमिति शाब्द लक णे नियमोऽपि शब्देन यज्जनितं शब्दमस्ति च प्रकारान्तरे एनद्रूप. मिति कथं न शाब्दम् । न चैतदत्रास्ति न चाप्रमाणव्यभिचारित्वान गर्म -त्र (७८) अभिधानराजडः | मध्येन भवति शब्देनापि जन्यत्वान्नाप्युपमानं परिशेष्यनामन युक्तम् देणा पिजनितत्वात् न शब्दस्यात्र प्राधान्यात् । प्राधान्यं च तस्य प्र तापसी न च व्याम्यते तथा च प्रत्यादिभाष्यकृत-पाद के नाम शब्द इति नम्व मिन्द्रियं तस्य स्वप्रतिन्यमात् शब्देनैव व्यपदेशः व्यपदेशक मैताऽऽपन्नशाननिवृत्यर्थमव्यपदे इमिति विशेषणमिति के स 3 निक प्रजातस्य ज्ञानस्य शब्देनानभिधीयमानस्य प्रत्यक्षत्वयुक्तम् एतत्प्रदीपेन्द्र सुबऽऽदीनामभिधीयमानत्वेऽपि प्रत्यायानिवृते नमस्यामिश्रीमान करणयपादतिः शक्तिनिमित्तत्वात्कारकशब्दस्य । न ह्यनिधीयमानार्थोऽन्यत्र त देवाति न चार्थ न्यायो नैयायिपगतः प्रमेयाचा प्रामादित्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् फ शेषनीयमानस्य स्वकारणकम स्वनिवृत्यर्थमेवम् शास्त मनेन विशेषणेन कृत्य तथादि भूपे शब्देन वा जातं ज्ञानमिति सर्वथा लक्षण युक्तिमदेव विशेषणं वाऽतिस्यात्यादिदोषनिय उपाय न परपत्र्युदासार्थम् इन्द्रियार्थसन्निकर्षादुपजातं शब्देन या जनितं व्यजिचारि ज्ञानं न प्रत्यक्षव्यवच्छेदकमित्यव्यनिद्रा मरीचिप्रदानस्य भाषाविश्येनावयते ममताबसपते मरीचिदेशं प्रति पूर्वानुकविषये येत् न मरीचिदेशे भ्रात तत इति चेद्य एवाचान्तः स उदकस्मरणादुदकदेश एव प्रव नेते, अयं तु भ्रान्त इत्ययुक्तमेतत्, प्रान्तिनिमित्तानावादिन्द्रिय 2 सिद्धेन स्मृति इदं तु कथमुदानस्याभ्यनं मरीचयोऽप्रतिभासमाना कति , पच्चक्ख उक्तमेतत्तेषु सत्सु जावादस्य । ननु यद्येतदनुदके उदकप्रतिभासभवत्यन्यत्र किमिति न भवेत्, न भवत्यन्यस्योदकेन सारूप्यान भावात् तस्मादकसरूपा मरीचय एव देशका लाऽऽदि सव्यपेक उदकज्ञानं जनयन्ति । तथाहि सामान्योपक्रमं विशेषपर्यवसान मिदमुदकमित्येकं ज्ञानं तस्य सामात्यवाबर्थः स्मृत्युपस्थापितवि शेषापेको जनकस्तिरस्कृतस्याऽऽकारस्यागृहीताऽऽकारान्तरस्य सामान्यविशिष्टस्य वस्तुनो विषयजनकत्वे तथाविधस्येन्द्रि येन संबन्धोपसेका शब्दसहायेन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वेन नाव्यभिचारिपदव्यवच्छेद्यस्वम्, अव्यपदेश्यपदेनैव निरस्तत्वान्न प्रथमाङ्गसन्निपातजस्य शब्दस्मरणनिमित्तस्येन्द्रियार्थसन्निकर्षप्रभवस्याशब्दजन्यस्याधनियारिपदायुमत्युपगमनीयं थोदकशब्दस्मृतेरयोगात्मा यो स्मृ तिरिति न्यायात् नचाउद शब्दस्य दृष्टिः किं सम्बिधीत वाता देशे करिव्यस्य नियम तरायमाणय स्तुमः सामाम्यविशिष्टस्य दर्शनान्तरं तत्सहचरितोद कस्बा नुरुमरणं, तस्मात्सामान्यवश्वाध्यारोपितोदक ग्रहणम्, तत उदकशब्दा नुस्मृतिस्ततोऽप्यनुस्मृती उपयुकखदायादिकउदकमिति ज्ञानमतो न पूर्वमुदकस्मृतेर्निमित्तं तदिन्द्रियार्थसत्रिवेनाभिचारि पापद्यमिति केचित् संप्रतिपाः। अपरे तु स्मर्यमाणशब्दसहायेन्द्रियार्थसन्निकर्षज मध्यव्यभिचारिपदापोह्यमेव मरीचिषूदकमिति शब्दो लेखवत् ज्ञानं मन्यम्ले अप्पपश्यद्ययं तु यत्र प्रथमत पनि कृष्टार्थ संकेतानभिशस्य श्रूयमाणात् शब्दात्पनसोऽयमिति ज्ञानमुत्पद्यते तत्र शब्दस्यैव तदवगत प्राधान्यात्, इन्द्रियार्थ सस्तु विद्यमानस्यापि गतावप्राधान्यात्तदेव देश, न पुनरयगत समयमा सचि न्द्रियार्थसन्निकर्षप्रजवः, तंत्र तत्सन्निकर्षस्यैव प्राधान्याद्वाचक स्य च तद्विपर्ययात् । ननु सामग्र्यां कस्य व्यभिचारः कर्तुः, कर स्य कर्मणो वा ? । तत्र स्वाकारसंवरणेनाकारान्तरेण ज्ञानजनगाव कर्मध्यनिवारण, कर्तृकरण पोस्तु तथाविधक सहकारि स्वादाविति मन्यन्ते भवत्यं व्यभिचारों वेि मध्यभिचारपदोपादानमर्थवानिन्द्रियार्थसन्निकर्षदेि चिसिन हि रूपयेद्रियार्थसनिक जनवि स्माद्यदेतस्मिंस्तदित्युत्पद्यते तयभिचारि ज्ञानं तद्व्यवच्छेदेन त स्मिंस्तदिति ज्ञानमव्यभिचारिपद संग्राह्यम् । नन्वेवमपि ज्ञानपदमनर्थकमव्यभिचारिपदादेव ज्ञानसिके, व्यभिचारित्वं हि ज्ञानस्मैव तद्व्यवच्छेदार्थमव्यभिचारित्वमपि तस्यैवेति शानपदमनकम, इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नस्याज्ञानरूपस्यापि सुखस्य व्यनिचारासन्निवृत्यर्थे ज्ञानपदमर्थवत् किं पुनः सुखं व्यभिचारि यत्परयोषिति । ननु कस्तस्य व्यभिचारो ज्ञानस्य के इति वाच्य म् [तस्तितिभावान् ज्ञानस्येऽपि सद्यभिचार्यसुखसाधने पराङ्गना सुखस्य भावात् समानयभिचारिख निवृत्यर्थ ज्ञानपदमर्थवदेतच केचिद् दूषयन्ति । न हि तापादिस्वभावत्वं पराङ्गनायां सुखमुत्पद्यते, अपि स्वाहा स्वरूपं, यथा एव सनायां सुखसाधनत्वादेव या शक्ति देतुत्वात् तस्याभाविनि काले दुःखसाधनत्वम् । न न यस्यैकश दुःखजन त्वं सर्वदा तद्रूपत्वमेव । अन्यथा पावकस्य निदाघसमये दुः खजनकत्वात् शिशिरेऽपि तज्जनकत्वमेव स्यात् । एवं देशाऽऽद्य Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७९) अनिधानराजेन्डः। पच्चरख पञ्चक्ख पेक्कयाsपिन नियतरूपता नावानाम् । उक्तं च भाष्यकृता-"सो. स्त्वर्थमन्तरेणानुद्भवन्तः कथं नार्थप्रभवाः ? । तदुक्तम-"नान्यऽयं प्रमाणार्थोऽपरिसंख्येय इति।" ततो व्यभिचाराभावान सुः। थेदन्तयोत चेत ।" न । इदम्ताविकल्पानामपि वस्तुप्रतिजाखनिवृत्या ज्ञानपदोपादानमर्थवत् । न चैवमनर्थकमेवैतत्, धर्मप्र. सवासंभवात् । न हि शब्दसंसर्गयोग्यार्थप्रतिभासतो विकल्पा तिपादनार्थत्वादस्य । शानपदोपात्तो हि धर्मी इन्द्रियार्थसनिक- वस्तुनिश्चायकाः । अन्यथा शब्दप्रत्ययस्याध्यकप्रतीतितुल्यर्षजत्वाऽऽदिभिर्विशिष्यते, अन्यथा धर्मजावे काव्यभिचारा- ता नवेत् । उक्तं च-"शब्देनाव्यावृतावस्थ, बुद्धावप्रतिजासता। दीन धमः तत्पदानि प्रतिपादयेयुः। न च विशेषणसामर्थ्यात् | अर्थस्य धाविव त-दनिर्देशस्थ वेदकम् ॥१॥" ति । तत्राथीधर्मिणः प्रतिलम्भ इति वक्तव्यम्,तथाऽभ्युपगमे प्रत्यक्ष प्रत्यक्क- कप्रभवरचं व्यवसायस्येति प्रत्यक्त्वमयुक्तम। मित्येव वक्तव्यं, शिष्यस्य सामर्थ्य लज्यत्वात यथोक्तविशेषण- अत्र नैयायिकोऽभिदधति-किमिदं विकल्पकत्वं परस्याभिविशिष्टं संशयज्ञानं जबति, व्यजिचारिप्रतियोगि भव्यभिचारि प्रेतम्-किं शाब्दसंसर्गयोग्यवस्तुप्रतिभासित्वम् । आहोस्विदनिकृत्वा तत्रैतत्प्रत्यकव्यवच्छेदकम् । न चास्येन्जियार्थसन्निकर्ष- न्यमानार्थग्राहित्वं, किं विशेषणविशिष्टार्थावनासित्वम् । उताजत्वं नास्ति, तद्भावितया तज्जन्यत्वस्य तत्र लिकः। अतस्तद्यव- 55कारान्तरानुषक्तवद्भासकत्वम, तत्र यद्याद्यः पक्कस्तदा व. छेदार्थ व्यवसायाऽऽस्मकपदोपादानम-व्यवसीयतेऽनेनेति क्तव्यम्-किमिद शब्दससर्गयोग्यार्थप्रतिभासित्वं विकल्पित्वं व्यवसायो विशेष सुच्यते। विशेषजनितं च व्यवसायात्म- पारिभाषिकमुत वास्तवम?। यदि पारिभाषिकं तदा न युक्तम्, कम्, संशयानं तु सामान्यजनितत्वात् नैवम् । अथवा- परिभाषाया अन्यानवतारात् । अथ चास्तव,तदपि प्रमाणाभानिश्चयात्मक व्यवसायाम शान त्वनिश्चयात्मकम्, वात् भवतु चा तस्य तद्रूपत्वं, तथापि कथमनध्यकृत्वम् ।प्र. अत एव विपर्ययाभिन्नं, व्यवस्यतीति व्यवसायः, अन्यपदार्थ- थार्थसामोदनुतत्वात् तस्येत्युक्तं विकल्पानां च तदसंभवाव्यवच्छेदेनैकं पदार्थाऽऽलम्बनत्वमस्य, तधिपरीतस्तु संश. नाध्यक्ता । ननु नीलाऽदिशानवत् शब्दार्थप्रतिभासित्वेऽपि यः । ननु च विकल्परूपत्वात तव्यवसाया 55रमकस्येन्छि- कथं नार्थप्रभवत्यं, तेषां स्वलकणाजिरतिरिक्तशब्दार्थस्थाभावायार्थजत्वे कथमस्य प्रत्यक्षफलता न व्यवसायाऽश्मकस्या- न तत्प्रभवत्वं तेषामिति चेत, नन्वेवमसदग्राहित्वं कल्पनाप्यध्यकताअनुसारेण व्यवस्थापनीया, तेनानैकान्ताऽऽत्मक- प्रसक्तम्, तश्च सामान्याऽऽदेः सस्वप्रतिपादनानिरस्तजातिधिस्थावस्तुमोऽकीकृतत्वाद्, भवतस्त्वेकान्तवादिनस्तयक्तितः शिष्टस्यार्थस्य शब्दार्थत्वेन प्रतिपादनात् । तदवासिनो ज्ञानतव्यवस्थापनासंजवात्, कुतः पुनर्विकल्पस्यानर्थजत्वं, श. स्य कथमसदर्थविषयत्वेन कल्पनात्वं नवेत्। न चार्थाभावेऽपि दार्थप्रतिभासस्य नावत्वात् । न हि विकल्पोऽर्थसामापेक्तः विकल्पानामुत्पत्तेः नाथैजत्वम, अविकल्पस्याप्यर्थाभावेऽपि समुपजायते, निर्विकल्पकं त्वर्थसन्निधानापेक्षी, तत्सामर्थ्यभ. भावादनथजत्वप्रसके । अथ तदध्यक्ष प्रमाणमेव नान्युपगदूभूनत्वात्प्रत्यकं प्रमाणम् । तदुक्तम-यो शानप्रतिनासमन्व. म्यते, तर्हि विकल्पानामप्ययं न्यायः समानः, तेऽस्तिदर्थायव्यतिरेकावनुकारयतीत्यादि । अथ शब्दार्थभतिजासित्वेऽपि ऽध्यक्वप्रमाणतयाऽभ्युपगम्यन्ते । असदर्थत्वं च विकल्पाविककिमिति विकल्पानां नार्थजत्वं, रूपाऽऽदेरर्थस्य स्खलकणत्वेन रुपयोर्वाधकप्रमाणाबसेयं,तच्च यत्र न प्रवर्तते तस्मात् कथमसव्यावृत्तरूपत्वात शब्दार्थानुपपत्तेबिकल्पप्रतिज्ञासस्याऽऽकार दर्थता । पतेन द्वितीयो विकल्पः प्रतिबिहितः । अथ विशेषण. स्यानु (!) तद्यतिरिक्तस्यार्थत्वानुपपत्तेः । सदसदूपस्य नित्य- विशिष्टार्थवाहित्वं कल्पनात्वंतवाकिं तथाभूतार्थाभावात् तद्स्वानित्यत्वाभ्यां तस्य जनकत्वनिषेधात्, अननुगतस्य चार्थत्वात् ग्राहिणो ज्ञानस्य विकल्पकत्वम् आहोस्विष्टिशेषणविशिष्टार्थना. स्वलकणस्य च सर्वतो व्यावृत्ततयाऽनुगतत्वासन्नवाद थजा हित्वेनैवेति वक्तव्यः। आयविकल्पे सिद्धसाध्यता असदर्थनाविकल्पा इतोऽध्यक्वार्थज्ञा न भवन्ति अवार्थसन्निपातवेलायां हिणः प्रत्यक्कप्रमाणत्वेनाभ्युपगमात् । न च द्वितीयपक्षादस्य प. प्रथमत एव तेषामनुभूतेः। यदि हि तदुद्भवास्ते स्युः, स्मृति- क्वान्तरत्वं द्वितीयपक्षस्य च प्रतिविधानं विहितमेव । अथ द्विमातरणानुजवत नत्पधेरन् । नचार्योपयोगेऽपि तामन्तरेण उत्पद्य- तीयः पक्कोऽभ्युपगम्यते,सोऽपि न युक्तः, नीलाऽऽविज्ञानस्यापि म्ते। तदुक्तम्-"अर्थोपयोगेऽपि पुनः, स्मार्स शब्दानुयोजनम् । श्र. अप्रत्यक्तत्वप्रसक्तेः । अथास्य न विशेषणविशिष्टार्थग्रहिता,भनु कधीयद्यपेकेत,सोऽथों व्यवहितो भवेत्॥१॥"यो हि यज्जनः स विशेषणविशिष्टाग्राहकत्वेनाध्यक्त्वस्य को विरोधः?,येन त. तापात एवेत्यविकल्पवत, न भवति च तदापातसमये विकल्प ग्राहिणोऽभ्यवसायस्थानध्यकता ?। अथ विशेषणविशिष्टार्थइति नार्थजपचं तेषां,स्मृतिव्यवहितत्वात्। न च अर्थस्य स्मृ- ग्राहित्वे विचारकत्वमभ्यतविरुरूम,अर्थसामोदनूतस्य वि. त्याऽन्यवधान, तस्यास्तस्सहकारित्वादिनि वाच्यम,यतोयदर्थ- चारकत्यायोगात्। असदेतत् विशेषणविशिष्टार्थावनासिनस्तस्य शानजनकत्वं तदा तजनने किमित्यसौ स्मृत्यपंक्षः । न च स्थाविकल्पवत विचारकत्वायोगात्,स्मरणाऽऽधनुसंबन्धात् सतया विज्ञानस्योत्पत्तिः, तन्नास्तिजनकः स पश्चादपि तेन स्या- मर्थस्य प्रमातुरविचारकत्वात्,कथं विशेषग्रहणादिसामग्रीप्रभदपायोपनेत्रधीः। अपि च-जात्यादिविशेषणविशिष्टार्थग्राहि- वस्य तस्याप्रत्यक्ताविशिप्रसामग्रीप्रभवस्यास्याप्रत्यकवे चकुविकल्पकानं न च जात्यादीनां सद्भावः, तत्वेऽपि तद्विशिष्टय. रूपानोकमनस्कारसापेकस्याविकल्पस्याप्रत्यकताप्रसक्तिः । हणं, बहुप्रयाससाध्यमध्यकं न भवति । उक्तं च न च विशेषणाऽऽदिसामध्यनपेक्ववादस्य प्रत्यक्ता,प्रतिनियतस्य "विशेषणविशेष्यं च, संबन्धं लौकिकां स्थितिम् । सामध्यपेक्कस्य विशेषणविशिष्टार्थावभासिनोऽपि प्रत्यक्वताविरो. गृहीत्वा संकलय्यैतत्, तथा प्रत्येति नान्यथा ॥१॥ धात । अन्यथा-रूपज्ञानस्याऽऽनोकाऽऽद्यपेकस्याध्यक्तत्वे रसशासंकेतस्मरणोपाय, रएसंकल्पनाऽऽत्मकम् । नं सामन्यन्तरसापेक्वमनध्यकं स्यात्, बिभिन्नम्बजावसामग्रीपूर्वपरपरामर्श-शून्ये तश्चाक्षुषे कथम् ? ॥२॥” इति । सापेक्षत्वात् । न च विशेषणविशिष्टार्थग्रहणे विशेषणविशेषसं. अतोऽर्थसम्निधानाभावेऽपि नावान्नार्थप्रभवा विकल्पाः || बन्धलाकिकस्थितीनां परामर्शः, यतः-विशेषणविशेष्यतलं. अथ मा भूवन राज्यादिविकल्पा अर्थप्रभवाः दन्ताविकल्या | बन्धानां न स्वतन्त्राणां विशिष्धार्थग्रहणात् प्रागवभासः, अपितु Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (50) पञ्चक्ख अन्निधानराजेन्डः। पच्चक्ख चक्षुरादिव्यापारे स्वतन्त्रनीलग्रहणवत् विशेषणविशिष्टार्थग्रहणं | यदपि विशेषणं विशेष्यं च इत्यादिदूषणमभिदितम्। तथा सङ्केसकृदेव, केवलं तत्र त्रयमिति प्रतिनासो विशिष्टार्थग्रहणस्याऽ. तस्मरणोपायमित्यादि च । तदपि प्रागेव निरस्तम्। यदपिकिन'. न्यथासंभवात् कथ्यते । न च यथाऽवस्थितबस्तुग्रहणं कल्पना- ध्यक्षयोरेकविषत्वे प्रतिभासभेदो न स्यात, दृश्यते च। तदुक्तम्ऽतीताऽऽदिग्रहणवत् । न च जात्यादित्रयस्याभिन्नभेदोऽध्यवसा- "शब्देनाव्यापृताक्षस्य।"इत्यादि । तदप्यसङ्गतम् शब्दाक्षप्रभव. यः,दएकशब्दयोभिन्नयोरभेदाध्यवसायो वा, कल्पनाद्वयस्थाप्य- प्रतिभेदस्य प्रसाधितत्वात् । शब्दजप्रतिपत्तौ शब्दावच्छेदेन वासंभवात् । तथाहि न जात्यादित्रयस्य वस्तुनोऽव्यतिरेकादसवा. व्यस्य कैश्चित प्रतिमासोपगमात् करणनेदादेकविषयत्वे प्रति. वानेदाभेदाध्यवसायो, द्वयोरप्यनुपपत्तेः। न हि जातेरनेदेऽस. नासभेदस्य च कैश्चिदन्युपगमात् नैकान्तेन तयोजिन्नविषयता वे वा तव्यवस्चिन्ने वस्तुग्रहणसंभवः,असतो जिन्नस्य वाम तन्न व्यवसायात्मककिञ्चिदस्ति अरूपत्वात् ,अनक्वार्थव्यवसा. दकत्वानुपपत्तेः। न च तत्प्रतिभासेऽपि प्रतिभासविषयस्य द्वि. यस्य ज्ञानरूपत्वात् ज्ञानग्रहणं न कार्यमिति चेत् । न । धर्मिदेशार्थ चन्द्राऽऽदेरर्थप्रमाणबाधितत्वात् प्रतिभासोऽप्रमाणं, यतो न द्वि. ज्ञानपदोपादानस्य दर्शितत्वाच्यत्,वसायामकग्रहणं तु धर्मनिचनमाऽऽदेरिव जास्यादेः किश्चिद्वाधकं वृत्तिविकाऽऽदेस्तद्वाध. देशार्थमिति न पुनरुक्तम् । ननु फलस्वरूपसामन्या विशेषत्वेनाकस्य निषेधात्। तन्न जात्यादित्रयस्याभिन्नस्याभेदप्रतिमासक. संभवान्नेदं लवणम् । तथाहि प्रत्यक्षफलविशेषणत्वे इन्छियायी रूपना, नापि दएकशब्दयौरभेदाध्यबसायः। यदि तत्राप्रतिपत्ति- सम्निकर्षजत्वाऽऽदिषु ज्ञानप्रत्यक्षशब्दयोः सामानाधिकरपयानुस्तदैकप्रतिभावच्छेदकावच्यभाषन ग्रहणं न भवेत,किं ताहि पपत्तिः । फलप्रमाणविधायकत्वेन शान हि फलं प्रत्यकं तत्सा. तदोदयावच्छेदकमवच्छेयं वा,अर्धान्तरापेक्वत्वात्तयोः। तथाहि- धकतमत्वात्प्रमाणमिति कथं तयोःसामानाधिकरण्यम्। न चैवं. दएकस्य दगिकार प्रति व्यवच्छेदकत्वेन प्रतिभालो, नैकत्वेना नुतं फलं, यतस्तत्प्रत्यक्ष यत इत्यस्याश्रुतत्वात् सत्र कलविशेष. एवं वाचकस्य पाच्यप्रतिपत्तौ द्रष्टव्यम् । वाचकाचिन्नवा- णपक्षः,अधैतहोषविपरिजिहीर्षया स्वरूपविशेषणपक्कासमाश्रीय च्यप्रतिनासपगमवादिनामेतन्मतम् । येषां तु नरस्थ एव वा. ते,सोऽयुक्ता पतविशेषणविशिष्टस्य प्रत्यक्वनिर्णयस्याऽऽकारकचका वापप्रतिपत्ती वाचकत्वेन प्रतिभातीति मतं.तेषामनेदा- स्य प्रत्यक्षत्वप्रसक्तः। न चाकारकस्यासाधकनमवात् प्रत्यक्त्वं ध्यवसायो दुरापास्त एव । अपि च-एवंवादिना तिरस्कृतस्वा- युक्तम्। अथ कारकत्वविशेषणमुपादीयते तथाऽपि संस्कारजन के कारस्याऽऽकारान्तरानुषक्तस्यार्थस्य ग्रहणं कल्पेतेति चतुर्थपक्क ऽतिप्रसङ्गः। अयैवविशिष्टमुपलब्धिसाधनं यत्तत्प्रत्यक्षम । नन्वे. एवाभ्युपगतोजयेत्। न चायमभ्युपगमः सौगतानां युका,स्वसि- वमप्य श्रुतपरिकल्पनाप्रसक्तिः। सामान्य वकणानुवादद्वारेण वि. कान्तविकल्पकमेतद्विज्ञानं भ्रान्तमध्यक्षाऽऽभासमभ्रान्तपदव्यत्र- शेषलवणाचधानान्ना श्रुतकल्पनेति चेन्नैवमपि द्वितीयालङ्गदर्शने च्यं सौगतलमये प्रसिकम् । तथाहि त्रान्तिसंहतिसंज्ञान- विनाभावस्मृतिजनके गोत्ववदर्थदर्शने च संकेतम्म्रतिजनकऽति. मनुमानानुमानिक, स्माताभित्राषिकं चेति प्रत्यक्कानसतिमिर- प्रसङ्गः, तन्निवृत्त्यर्थमपिलब्धिजनकत्वाध्याहार विपर्ययज्ञानमित्यत्र स्मातान्तिलाषिकं चेतीति शब्दपरिमापिताद्विकल्पव- जनकेऽतिप्रसङ्गः। विपर्ययज्ञानं हि सारूप्यज्ञानापजायते यथो त्पृथक समिमित्यतो विकल्पस्येवंजातीयकस्य प्रत्यक्षाभा- क्तविशेषणविशेषितात् तस्य चार्थोपलब्धित्वमिन्छिया धसन्निसत्यं प्रतिपादितं, कल्पनात्वे वाऽस्यानान्तपदोपादान तद्धघ- कर्षजत्वप्रतिपादनान सूत्रकारस्याभीष्टमेव । अथ तव्यावृत्तये वच्छेदार्थ प्रत्यकत्रकणेन युक्तियुक्तं स्यात् । तन्नचतुर्थपकाभ्यु!. अव्यभिचारिविशिष्टोपलब्धिजनकत्वाध्याहारः,तथा संशयझा. गमोऽपि न्यायोपपन्न इति नार्थसामर्थ्यानुनूतत्वादप्रत्यक्कतावि. नजनके प्रत्यक्त्वप्रसाक्तिः। अथ तन्निवृत्तय व्यवसायाऽऽत्मकार्यो कल्पानाम् । यश्चार्थोऽपीत्यादि दृषणमक्षजस्वे तेषां प्रतिपादित. पलब्धिजनकत्वाध्याहारस्तथाऽप्यनुमानेऽतिप्रसङ्गः यस्मात्या. म् । तदप्यसङ्गतम्, यतोऽर्धा निर्विकल्पोदूघाटकसामन्यन्तर्भूता. प्रतिपादिताशेषविशेषणाध्यासितविशिष्टोपलब्धिजनकं च प. चक्षुरादयः सहकारिणोऽन्योन्यसत्यपेका अपि सा विकल्पोपा- रामर्शज्ञानमध्ययनाऽऽदिभिरभ्युपगम्यते शति तस्यानुमितिफल. दनेनैव परस्परतो व्यवधीयते,तजननस्वजावत्वात तेषाम् । तथा जमकस्याध्यक्ताप्रसक्तिः। अधेन्ध्यिार्थसंन्निकर्षजोपलब्धिजसविकल्पकोत्पाद का अपिन चाम्त्यावस्था प्राप्तं निर्विकल्पोत्पादक नकस्यत्यध्याहारः,तथाऽप्युभयझानजनकस्य प्रत्यक्ताप्रमक्तिः। चक्षुगदिकमन्यनिरपेक्कमेव स्वकार्यनिवृत्तिकम,अन्यसनिधिस्तु यस्मादिन्द्रियजस्वरूपज्ञानात् केनचिद् देवदनोऽयमितिशब्द उ. तत्र हेतुनिबन्धनोपालम्भविषय इति वक्तव्यम्, न च किश्चिदेक चारित इन्जियशब्दव्यापारादेवदत्तोऽयमिति संकेत ग्रहण समये जनकमित्यादिविरोधप्रसक्तेश्चक्षुरादिवन्न स्मृत्यर्थस्यावधानम् । ज्ञानमुत्पद्यते यथोक्तविशेषणविशिष्टमिति तजनकस्य स्वरूपन च क्षणिकत्वस्मृतिकाने अर्थस्यातीतत्वात् तया तस्य व्यवधान ज्ञानस्य प्रत्यकताप्रसक्ति, तनिवृत्यर्यमव्यपदेश्यपदाध्याहार. कणिकत्वस्यास्मान् प्रत्यसिकत्वात् म्फटिकसूत्रे निराकरिष्यमा ति चेत, तद्य श्रुतस्य द्वितीयसूत्रस्य कल्पनाप्रसक्तिः । सत्यामपि णत्वात् । यदव्यर्थस्य स्मृतिसापेकत्वे दूषणमभ्यधाथि-"यः प्राग सूत्रकलपनायामव्याप्न्यतिव्याप्स्योरनिवृत्तिः, तुलासुवर्णाऽऽदीजनक इत्यादि" तदप्यसङ्गतम्। उपयोगविशेषस्यासिद्धत्वात्।त. नामबोधरूपाणामप्रत्यकत्वप्राप्तः सन्निकन्डियाऽदोनों चीन चाहिनावानां द्विविधा शक्तिः-प्रतिनियतकाजनने एका स्वरूप- च सन्निकर्षस्य प्रामाण्य सूत्रकृता नेष्ट, सन्निकर्षविशेषासदग्रशक्तिः। द्वितीया सहकारिस्वभावा तत्र प्राक् स्मरणात् स्वरूपशु- इणमिति वचनात ग्रहपा हेतोन प्रामाण्यम् । न च कर्म कर्तृरूप. क्तिः केवलान कार्य जनयति, यदातु समासादितसहकारिश ना तस्येति कर्मक विश्नकणस्य ज्ञानजनकत्वारकथं न तस्य प्राक्तिः स्वरूपशक्तिवति तथा कार्यमावि वयत्येव । न च स्वरू- मारयम । एवमिन्द्रियाणामपि प्रमाणत्वं सूत्रकृतोऽनिमतम,"इपशक्तेः सहकारिशक्त्या व्यतिरिक्तोऽव्यतिरिक्तो वा कश्चिदुप- न्द्रियाणि अतीन्ड्रियाणि स्वविषय ग्रहणलवणम्" ति बचनात्। कारः क्रियते, किं तु संभूय तात्यामेकं कार्य निष्पाद्यते। तथा च प्रमाण सहकारित्वास प्रमाणत्वम्, अन्यस्येन्षियात् प्रा. हि अन्त्यावस्थाप्राप्त कणवत सहकर्तृत्वमेव सर्वत्र सहकाराथों, गुपग्राहकस्यौपग्राहिणोऽनावात,जावेऽपय ज्ञानरूपत्वात्तस्य न प्र. नत्वतिशयाऽऽधानमिति कणभङ्गभङ्ग विस्तरेण प्रतिपादयिष्यते।। भाणता भवीदत्यतिव्याप्तिः तदवस्यैव । प्रदीपाऽऽदीनां वा साना Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्ख अभिधानराजेन्द्रः । पञ्चक्ख स्मकत्वेऽपि प्रमाणत्वं प्रसिद्ध लोके, तथा सुवर्णाऽऽदेः प्रमेया च भवतोऽनिष्टः । यच्च धूमाऽऽदिभावे विषयाधिगतेरनावात् तुला प्रामाण्यवदिति प्रामाण्य प्रतिपादितं सूत्रकृता।सूत्रस्य वा. तद्भावे च भावादित्युक्तम् । तदसंगतम् । यतो नैव सदज्ञानसथ:-यथा सुवार्माऽऽदि परिच्छिद्यते तदा तुला प्रमाणं,प्रमाणं चा. द्भावे काचित् तज्जन्यविषया विषयाधिगतिः, धूमाऽऽदिसद्भाव ऽनुमानमागपूर्वकं दशपसाऽऽदिज्ञानस्यानिन्छियार्थसन्निकर्षपूर्व- तु तस्याः सजावोऽनन्तरमुपलज्यत एव । अतो धमाऽयेष साकत्वात,तदभावश्च वस्त्राऽऽदिव्यवहितेऽपि भावात्। तथा प्रमेयं च धकतमम,अभिमानस्तु ज्ञानानन्तरमुपजायमानो धमाऽऽदिमावेयदा सुवर्माऽऽदिना तुलाऽन्तरमितेनानुमीयते, तदा सुवर्माऽऽदि. ऽप्यनुपजायमानो ज्ञानस्य न साधकतमत्वं प्रकाशयति,अपि त्व. व्यं प्रत्यकं प्रमाणमिन्छियार्थसनिकर्षजज्ञानजनकत्वात् । इन्द्रि- ाधिगमस्वरूपताम् । तथा हि-प्राधिगताबर्थोऽधिगत इत्यभिम. यार्थसन्निकर्षजं च पञ्चपरेखाऽऽदिज्ञानं तद्भाविनावित्वाऽऽदि. ताप्रभवति। ननु धूमाऽदिजावतो विषयाधिगतस्याजिमानस्यानेन नेन्द्रियादिसहकारि तत्सुवर्णाऽऽदि पञ्चपलरेखाऽऽदिज्ञानमु- प्रकारेण भावान्न तदभावान तद्गती साधकतमत्वं ज्ञानस्येति त्पादयत् प्रत्यक्षं प्रमाणं सुवर्णवदिन्धियार्थजज्ञानमुत्पादयन्तः निर्मये अध्यक्तताप्रसक्तिप्रेरणा तदवस्थैव । किं च-सुप्तावस्थोत्त. सर्व एव भावाःप्रत्यक्षप्रमाणतामाबिभ्रति स्मृतिसंशयविपर्यया- रकाझं घटाऽऽदिज्ञानोत्पत्तौ यद्यबोधरूपं तज्जनकं प्रमाणं नेष्यते, टीनां चेन्जियार्थसन्निकर्षेण सह व्यापार विशिष्टफलजनक. तदा प्रागपरज्ञानस्याभावात कस्य तत्फलं भवेत् । घटत्वसामा. स्वेन प्रत्यकोपयते । तथाहि-संशयविपर्यययोरपि बाह्ये विषये न्यज्ञानस्य घटज्ञानं कजमिति चेत् । ननु घटत्वज्ञाने किं प्रमाणस्वासम्बने स्वावच्छेदकत्वेनेन्द्रियार्थसन्निकर्षेण सह व्यापा म?,तदेवेति चेदकस्य प्रमाणफत्रताप्रसक्तिरभ्युपगम्यत पवेति । रादात्मप्रत्यकवादिनां चाऽऽत्मनो विशेषणत्वेन विशिष्टप्रती- पत्र विशेष्यकाने ऽपि तत्प्रसङ्गात् । न च विशेष्यज्ञानोत्पत्तौ वि. तिजनकत्वेन प्रत्यकत्वात्न न च तयोः सुत्रोपात्तविशेषणयो- মথ্যস্থানে সমাসলমান নর-নামমবার স্থান স্বग्यतासंदिग्धविपर्ययस्वभावत्वादतिव्याप्तिरपि यदेन्द्रियार्थसन्नि- तव्यमिडियार्थसन्निकर्षानन्तरं घटत्वाऽऽदिसामान्यज्ञानस्य दका लिगादनुमितमिद्रियं प्रतिपद्यते, तदा सकलसूत्रोपा- शनासत्र सन्निकर्षस्य प्रमाणत्वप्रसक्तेः,अज्ञानत्वान्नेति चेन्न, बिसविशेषयोगात् सन्निकर्षलक्षणलिङ्गाऽऽअम्बनस्य ज्ञानस्य तथा- शेषणानं विशेष्यज्ञानोत्पत्तौ प्रामाण्यं,तथा सन्निकर्षस्याऽपि विधफलजनकस्य प्रत्यकताप्रसङ्गाऽऽदेः, तच्चेन्जियस्यार्थ इति विशेषणशानोत्पत्तौ तदन्युगन्तव्यम् । तथाहि-सन्निकर्षप्रमाणं समासानाश्रयणे दूषणं द्रष्टव्यमिति । स्वरूपविशेषणपके अने. विशिष्टज्ञानसत्ताकारणत्वाद्विशेषणज्ञानत्वात् प्रमाणत्वाभ्युपगमे कदोषाऽऽपत्तिः। अथ ज्ञानप्रामाण्यवादिभिर्निीयस्य प्रामा- कारणनिर्मयाऽऽदीनां प्रमाणत्वं स्यात् । न च स्वयं संवेद्यत्वेन शमियत एवेति नानिष्टप्रेरणाऽवकाशः । तथाहि-तत्सद्भावे तेषामजनकानामपि प्रमाणत्वम् । अर्थान्तरफवादित्वहानिप्रस. विषयाधिगतिरिति लोकस्याभिमानो, यच्च तथाविधविषया. कात्नच नैयायिकैरर्थान्तरभूतं बोरिव फलमभ्युपगम्यते ।त. 'धिगमे करणं तत्प्रमाण, निर्णये त्वसति तदधिगतिरिति स | दभ्युपगमे वा तत्पक्ष निरासादयमपि निरस्त एव । अतो ज्ञानप्रपच प्रमाणम् । अत एव नाश्रुतसुत्रान्तरकल्पनादोषानुषङ्गोऽपि । माएवादिनः सुषुप्तावस्योत्तरकालं घटत्वाऽऽदिज्ञानाभावप्रसक्ते. नेतत्सारम। यतो निमय सति योऽयं विषयाधिगत्यभिधानः स घंटाऽऽदिज्ञानस्याप्यभावप्रसङ्ग इत्यशेषस्य जगत प्राध्याऽऽपत्तिः। कि साधकतमत्वाग्निर्णयस्याऽतिविषयाधिगतिस्वजावत्या- न च सुषुप्तावस्थायां छानसभावान्नायं दोषः,असंवेद्यमानस्य तदिति संदेहो, विशेषत्वभावात, साधकतमत्वे च सिद्धेत. दवस्थायां तस्य सद्भावासिद्धेशन च जाग्रत्प्रत्ययेन तत्सद्भावोऽ. प्रामाण्यावगतिः। अथ विषयाधिगतिस्वभावत्वेनैव निर्णयस्य वसीयते,तस्य तत्प्रतिबन्धासिद्धेः। तत्कार्यत्वान्न प्रतिबन्ध इति विषयाधिगत्यभिमानो, न साधकतमत्वेनेति भवतोऽपि विशे- चेन्न । वैशेषिकैः सर्वस्य ज्ञानस्य ज्ञातपूर्वकत्वानज्युपगमाद्विशेपहेतो वनाबोध स्वभावानामप्यर्थोपलम्भनिमित्तानां भावे पक्षानाऽऽदीनामेब विशेषणशानाऽऽदिपूर्वत्वं नान्येषां प्रतिबन्धा. विषयाधिगतिसिद्धेः । तथा च धूमाज्जातोऽग्निरिति व्यप नावात् बोधरूपताप्रतिबन्ध इति चेन्न। अबोधस्वभावादपि बोध. पदिशलोक उपलभ्यते, नाग्निशानादित्येवं चक्षुषः प्रदीपाऽऽदे स्योत्पश्यविरोधात् । अन्यथा धूमस्वनावादग्नेधूमोत्पत्तिन नवेत, श्वान्धकारे विषयाधिगतिसिकेः। तथा च धमाज्जातोऽग्निरिति तस्य तजननस्वभाववाददोष इति चेन्न। इतरत्राप्यस्य समानत्वाव्यपदिशल्लोकप्रसिकेज्यो नाग्निशानाऽऽदिरिति परच्छेदे अबो- त्। तया बोधाऽऽस्मिका कारणसामग्री बोषजननस्वभावत्वातं धस्वभावस्य तज्जनकस्य साधकतमत्वान्नार्थज्ञानस्य प्रमाण- जनयिष्यतीति न प्रतिबन्धः,तस्मादपि बोधाऽऽत्मकस्यापि प्रमा. ता। अथापि स्यात् साधकतमझानजनकत्वेनापि धूमादीनां णत्वमभ्युपगन्तव्यमित्यव्यापकत्वं बकणदोषः, तत्र स्वरूपविशेषतथा व्यपदेशः संभवतीति तत्तेषां ततः साधकतमत्वसिकिः।। णपकोऽपि युक्तिसङ्गतः, नापि सामग्रीविशेषणपक,तत्रास्योपतथा च धूमसद्भाव विषयाऽधिगतिरित्यभिमानाभावात सति चारिकत्वात् । तथाहि सामग्रीविशेषणपक्षे इन्द्रियार्थसनिकर्षोपस्वर्थकाने प्रत्येकशस्तेषामभावेऽपि भावाद्विषयाधिगत्यभिमा मित्युपपन्न मिति व्याख्येयम् । तश्चायुक्तम् । उत्पत्तिशब्द स्वरूपनेऽनन्तरवृत्तमर्थकानमेव साधकतमं, न विषयाधिगतौ ज्ञानस्य निष्पत्ती प्रसिद्धत्वात्। तथा-झानशब्दोऽपि सामग्रीविशेषणपके साधकतमता, विषयाधिगतिस्वरूपत्वात् तस्य न च किश्चिद्ध- झानजनकत्वात्सामन्यां ज्ञानमिति व्याख्येयम्। एवमव्यभिचारि स्तु स्वरूप साधकतमं, तद्विशेषस्थानिधानं च प्रमाणपदम्। व्यवसायाऽऽस्मकं च सामन्यं तथाविधफत्र जनकत्वादव्यपदेश्यअथ स्वविषये सव्यापारप्रतीततामुपादाय फलस्यैव प्रमाणोप- मिति, तच्छब्देन सहाव्यापारात् । तदेव सुत्रोपादत्तविशेषणयो. चारः। उकंच-"सव्यापारप्रतीतत्वात्, प्रमाण फल मेव सत्। गित्वं सामग्यस्य तथाविधफलस्य जनकेन न स्वत इति न युसध्यापारमिवानाति,व्यापारण स्वकर्मणि ॥५॥" इति चेत् ।न क्तिमस्पकोऽपि। तातर्थकं सूत्रम,न । फलविशेषणपकस्योपपत्तेमुख्यसद्भावे उपचारपरिकल्पनात् । बौरूपके तु न मुख्य सा. | नं तत्रापि यत इत्यध्याहारोऽस्त्येव दोषो न तावन्मात्रेण,सका धकमत्वं कचिदपि सिद्धमिति नोपचार अस्मन्मते तु- दोषविकलाज़िमतपतसिद्धे।। अतस्तथाविधं ज्ञानं यतो भमादीनां साधकतमत्वे प्रमाण फलपोमदः प्रसज्यते, सव वति तत प्रत्यक्वमिति सकमदोषविकलं प्रत्यकल कणं ११ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) भनिधानराजेन्डः। पच्चक्ख पञ्चक्ख सिरूम, नन्वेतस्मिन्नपि पके ज्ञानस्य प्रामाण्यं न लभ्यते, इष्टं च | त्तिरजिव्यज्यत इति । नवते अथ संयोगः, तदाऽर्थान्तरप्रसतस्य प्रामाण्यम, यदा ज्ञानं प्रमाणं तदाऽनादियुष्यः फलमि- क्तिरिति न तो वृत्तिर्भवेत् । अथार्थान्तरं वृत्तिः, तदा नाs. ति वचनात् नैष दोषः। ज्ञानस्याप्येवंविधफल जनकत्वेन प्रमाण- सौ वृत्तिः,अर्थान्तरत्वात् पटाऽऽदिवत् । अथार्थान्तरत्वेऽपि प्रतिस्वानुजवज्ञानचंशजायाः स्मृतेस्तथा चायमित्येतद् ज्ञानमिन्द्रिया. नियतविशेषलद्भावालेषामसौ वृत्तिः। नन्वसौ विशेषो यदि र्थसन्निकर्षत्वात् प्रत्यकं फलम, तत्स्मृतेस्तु प्रत्यक्कप्रमाणता, सु. श्रोत्रादिविषयप्राप्तिस्वरूपः, तदेन्षियार्थसन्निकर्षोऽभिधानान्तस्व दुःखसंबन्धस्मृतेस्त्विन्धियार्थसन्निकर्षसहकारित्वात्तथा ध्ये रेण प्रतिपादितो भवेत् । स च यद्यव्यभिचाराऽऽदिविशेषणवियमिति । सारूप्यज्ञानजनकत्वेनाध्यकत्रमाणता सारूप्यज्ञानस्य | शिष्टार्थोपलब्धिजनकः प्रत्यकं प्रमाणमभिधीयते,तदा अस्मत्पच सुखसाधनोऽयमित्यानुमानिकफजजनकत्वेनानुमानप्रमाण- कएन समाश्रितो भवेत् । अथ तथानूतोपझब्ध्या जनको न तर्हि जान च सुखसाधनत्वज्ञानमिति केचित् । अपरे तु बाह्येऽप्यर्थे प्रमाणम,असाधकतमत्वात् । अथार्थाकारा परिणतिः श्रोत्रादीनां विशेष कृपमसनिहिते विशेषणे मनः प्रवर्तत इति मनोसकण- वृत्तिः,तदाऽत्रापि वक्तव्यम-किमसौ परिणतिः श्रोत्रादिस्वभाबो. मिन्द्रियार्थसन्निकर्षजमध्यकप्रमाणफलमतत् ज्ञानमिति संभ्रति- नुनकर्म आहोस्त्रिदर्थान्तरमिति पक्वत्रयेऽपि च पूर्ववदोषाभिधान पन्नाः। नन्वेवमप्यव्यापकं लकणमात्मसुखाऽऽदिविषयज्ञानस्या- विधेयम् । न च श्रोत्रादीनां विषयाऽऽकारापरिणतिः परपकेऽसंप्रत्यक्तफत्रत्वान् । तच्च मनसोऽनिन्द्रियत्वं मनस इन्जियसूत्रे. नविनी,परिणामस्य व्यतिरिक्तस्याव्यतिरिक्तस्य वा संवादिन परिपठितस्वात् प्रत्यक्षफलं तावत्तद्विषयज्ञानस्याच्युपगम्यते । ति प्रतिपादितत्वात् । प्रतिनियताध्यवसायस्तु श्रोत्रादिसमुत्थो. असदेतत् । मनम्म इन्डियधर्मोपेतत्वेनेन्द्रियत्वादधिगतानाधिग. भयक्तफलं, न पुनरध्यक्ष प्रमाणम्,असाधकतमत्वात् । विशिछोतविषयग्राहकत्वमिन्द्रियधर्मः,ल च मनसि विद्यत एव, तेनेन्द्रिः । पलब्धिनिर्वतकत्वेनाध्यकत्वे अस्मन्मतमेव समाश्रितं भवेत,तन्त्र यधर्मोपेतस्य सर्वस्यैव प्रत्यकसूत्रे शजियग्रहणेनाविरोधः। ततः सालयमतानुसारिकल्पितमप्यध्यक्क्ष णमुपपन्नम । जैमिनिप. प्रत्यक्कसूत्र पवेनियत्वं मनसः सिर्फ, तत्सिकौ च नाव्याप्तिक- रिकल्पितमपि प्रत्यक्कलकणं सत्सङ्गप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुकि णदोषः । इन्जियसूत्रे च मनसोऽपाठः, तत्सूत्रस्य नानात्वे शन्छि- जन्म तत्प्रत्यक्षमिति। संशयाऽऽदिषु समानत्वाद्वार्तिककारप्रभृ. याणां सक्षणपरत्वात्सूत्रशब्देन (हे जात्यपेक्कया सूत्र एवोच्यते । तिभिनिरस्तमेव । यैरपि सम्यगर्थे च संशब्दो दुःप्रयोगः निवारण तेन लकणसूत्रसमूहोद्देशार्थ तत्सूत्र, तथा च जिघ्रत्यतेनेतिघ्राः | इत्यादिना तल्लक्षणं व्याख्यातं,तेषांप्रयोगस्यातीयत्वात्सम्यणं नुतं गन्धोपसम्धी कारणं घ्राणमित्यभिधीयमाने सन्निकर्षप्रा | | क्त्वं न विशिष्फलमन्तरेण ज्ञातुं शक्यं, फनविशेषणत्वेन च न सनः। तन्निवृष्यर्थ भूतमिति नूतखभावत्वं विशेषणम् । एवं च किञ्चित्पदं श्रूयत इति न कार्यद्वारेणाऽपि तत्सम्यक्त्वावगतिः,बु. अनेनेति चक्कूरूपोपलब्धौ कारणं सन्निकर्षे प्रसङ्गः, तन्निवापर्थ द्धिजन्मनःप्रमाणत्वं तुन संभवत्येव । बुद्धातृव्यापारलकणयोः भूतग्रहणं संबन्धनीयं प्रदोपे प्रसङ्गस्तनिवृत्त्यर्थमिझियाणामिति पूर्वमेव प्रमाणत्वनिषेधात् । यैस्तु नेदं प्रत्यक्षबक्षणविधानं किं तु चाच्यम् । एवं स्वगादिष्यपि योज्यम् । एवं च सूत्रकपनकमेतब- लोकप्रसिद्धप्रत्यक्षानुवादेन प्रत्यकस्य धर्म प्रत्यानिमित्तत्वविधा. कणार्य प्रत्येकमिनिष्याणां न पुनर्विभागार्थम, आदिसूत्रोहियस्थ नमिति व्याख्यातं,तैरपि वाच्यम्-कतरस्य प्रत्यकस्य धर्म प्रत्यमेदवतोविभागान्युपगमात्,विभक्तिविभागे चानवस्थाविभागार्थे निमित्तत्वं विधीयते किमस्मदादिप्रत्यक्षस्य,उत योगिप्रत्यकस्यबा बाह्यानामित्यध्यादारः कार्यः, स्वलकणसामाता मनसस्तु ति। यत्र यद्यार्थःपक्कास न युक्तः। लिफसाध्यताप्रसक्तः। द्वितीतदनन्तरं सकणानुपदेशो बैधात। तच्च तस्या भूतस्वानाव्या. यपक्षोऽध्ययुक्तः, योगिप्रत्यकस्य स्वमतेनासिकत्वात् न वासिक त्, भूतखानाव्येनेन्द्रियाणि व्यवविद्यन्ते भूतेभ्य इति वचनानि स्यानिमित्तत्वविधानम् । अन्यथा स्वरविषाणाऽऽदेरपि तं प्रत्यतु ममस एतल्लक्षणमिति । अत एव सर्वविषयत्वं मनसो न स्वि- निमित्तविधिर्भवेत्। न च योगिप्रत्यकं परेणाभ्युपगतमिति प्रतीन्द्रियाणि बाह्यानि सर्वविषयाणि तन्त्रयुक्त्या वा मनसोऽनभिः तस्य तदनिमित्तत्वं साध्यत इति वक्तव्यम्। इति विषयमाहिसं. धानं परमतमप्रतिषिकमनुमतमिति हि तत्र युक्तिः। न चैवं घाणा | पात्यादेगृध्रराजस्य तु चक्कुऽपि चक्षुः योजनशताबजासि श्रूयते दीनामप्यनभिधानं प्रसज्यते, घ्राणाऽऽदेरण्य नभिधाने स्वमत- | रामायणा दी। न च कादम्बर्याऽऽदेरिव काव्यत्वादस्याप्रमाणते. स्यैवाभावात् परमतमिति व्यपदेशासंभवात् । “अस्ति युगपज्जा- | तिन तन्निबन्धना वस्तुव्यवस्था,तारताऽपि प्रमाणभूतेऽस्यार्थनानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्" इति वचनात्। मनसोऽभिधानमिन्छि- | स्यसंसूचनात स्वार्थप्रतिपादकत्वेऽपि च तारता, यदि प्रमाणयत्वेन,इन्द्रियान्तरं त्वनजिधान वैधादित्युक्तम्,तनाव्याप्तिोष तस्तदनेनाभ्युपगतं तदा प्रमाणप्रसिद्धस्य नवतोऽपि प्रसिकत्वाति स्थितम् । श्रोत्रादिवृत्तिरविकस्पिोति विन्ध्यवासिप्रत्यकल. । त् कथं तदनिमित्तत्वसिद्धिः,अत एवातीन्द्रियं वस्तु नाङ्गीकुर्वतो. कणमनेनैव निरस्तम्। तथा हि-अविकल्पिका शाक्यदृष्टयाध्यक- ऽपरप्रतिपन्ने वस्तुन्यतीन्छियेऽसौ प्रमाणं प्रपव्यं, चेत्,तत्र ब्रूने, मतिःप्रमाणं न भवति । तथा विन्ध्यवासिपरिकल्पिताऽपि सा तस्त्वङ्गीकर्तव्यम् । अथ न ब्रूते,तदा तस्य प्रमाणाभावादेवा. प्रमाणं युक्ता । न च साङ्ख्यदर्शनकालिपतस्य श्रोत्रादेः पदार्थस्य सिद्धिन तमुक्तप्रमाणप्रतिषधात् । न ह्यतीन्द्रिये वस्तुनि प्रमाणं सिमिः,सत्कार्यबादसिकान्तसदर्थव्यवस्थिते.तस्य च निषिद्धत्वा- प्रतिषेधविधायि प्रवतितमुत्सहत इति । धर्यसिद्धत्वादिदोषैताकिं च-श्रोत्रादीनांवृत्तिस्तेभ्यो यद्यव्यतिरिक्ता तदा श्रोत्रादि- राघ्रातत्वात अथाऽपि स्यात् भवेदेष दोषः स्वतन्त्रसाधनपक्षे। कमेव,तश्च सुप्तमत्ताऽऽद्यवस्थास्वपिविद्यत इति तदाऽप्यध्यक्तप्रमा- न विदं स्वतन्त्रं साधनमपि तु प्रसङ्गसाधनम् । तच्च स्वतोऽप्र. णप्रसक्तिरिति सुप्ताऽऽदिव्यवहारोच्छेदः। अथ व्यतिरिक्ता तेभ्यो सिकेऽपि वस्तुनि परप्रसिकेन परस्यानिष्टाऽऽपादनमिति पैररभ्यवृत्तिस्तदा वक्तव्यम-किमसौ तेषां धर्ममात्रम्,पाहोस्विदर्थान्तरम। पगतं यथा सामान्याऽऽदिनिषधे। एतदप्ययुक्तम् । दृष्टान्तस्याप्ययदाद्यः पकस्तदा वृत्तेलत संबन्धो वक्तव्यः। यदि तादात्म्यं,त- सिकि। यथा च सामान्याऽऽदिनिषेधेन प्रसङ्गसाधनं प्रवते तदा श्रोत्रादिमानमेवासाविति पूर्वोक्तो दोषः। अथ समवायः, तदा था नैयायिकैः प्रतिपादितं सामान्याऽऽदिपरीक्तायाम् । किंच-प्रपुनः सिद्धिप्रसक्तिरित्यपि श्रोत्रादिसद्भावे सति नियतदेशावृ. साधनानुपपत्तिरत्र । यतःप्रसङ्गः सामपि विपर्ययफल शति पूर्व Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३) अभिधानराजेन्द्रः। पच्चक्ख पच्चक्ख प्रसङ्गः प्रदर्शनीयः,स च कथं प्रदर्शित इति वक्तव्यम् । अथ यो | नापि कर्तृकरणशक्तिवर्तमानसमयसंबन्धिनी माविकर्मशक्त्या गिप्रत्यकं धर्मग्राहक ननवति,विद्यमानोपलम्भनत्वात, न हेतो. तदोत्पद्यमानया सह स्वकार्वे व्याप्तिः । यत इति कथमगतार्थरसिकत्वात् । अथ तस्मिन् सिद्धय देवन्तरोपादानम् । तथाहि- विषयार्थजा प्रतिभा,ततो न प्रमाणफ सत्ययुक्तमेतदसमानका. विद्यमानोपलम्जनयोगिप्रत्यकं सत्संप्रयोगात्वात नास्याप्यसि सत्वेऽपि प्रतिभाविषयस्य कर्तृकरणव्यापारसमानकालतापप. कत्वात् । अयैतत्सिद्धये हेत्वन्तरमुपादीयते। विवादास्पदं सत्सं. तिः। तथाहि-करणं प्रतिनाजनकन वर्तमानसमयबस्तुपरिच्छे. योगजं, प्रत्यक्षत्वात्तच्चब्दवाच्यम,अस्मदादिप्रत्यक्षवदिति दृष्टा- दक, कि स्वनागतस्य, तेनाते वस्तुनि करणस्य व्यापाराव तः सर्वत्र वक्तव्यः । धर्माऽऽदिग्राहकत्वे वा धर्माऽऽदेरसत्वात् । न स्तुनश्च तेन रूपेण सत्वात् कथं प्रतिजा निर्विषया?। यदि च जा. विद्यमानोपलम्भकत्वमिति विपर्ययोऽविद्यमानोपलम्भनत्वे च वाजावविषय ज्ञानं निर्विषयं तहि चोदनाजनितंज्ञानं वाक्यप्रजवं न सत्संयोगजम् । असत्संयोगजत्थे वा न प्रत्यकताऽपि । तच्छन्द- बाक्यकाले कार्यस्यार्थस्यासस्वाद निर्विषयमासज्येत । अथ व. वाच्यम् । ननु भवत्येव प्रसङ्गपूर्वको विपर्ययः,तस्य त्वनेन किं स- र्तमानार्थग्रहणस्वभावोऽध्यक्तस्यैव न शब्दाऽऽदेः उक्तंच-"संवर्क द्भावो निषिध्यते,उत पकत्वमाप्राच्य विकल्पे धर्मासिस्ता हेतू. वर्तमानं च,गृह्यते चक्षुरादिना।" तथा एषा प्रत्यक्वधर्मतश्च वर्तमानामित्युक्तम्। द्वितीयेऽपि तस्य प्रमाणान्तरप्रसक्तिः, विशेषप्रतिषः | नार्थतैब,या सन्निकृष्टार्थवर्तित्वमाननु झानान्तरेश्वयमित्यसदेतधस्य शेषाज्यनुज्ञालक्षणत्वात् स्यादेतद्विशेषप्रतिषेधधर्मिण एव त्,मनोविज्ञानस्यातीतानागतार्थग्रहणे व्याघातानावात्।चक्षुरा. प्रतिषेधस्थस्य तद्रूपतयैवान्युपगमात् । न च धर्मसिद्धत्वाऽऽदि- दिप्रभवप्रतिपत्तीनां तु युक्तवर्तमानार्थग्रहणक्षणो धर्मः। ननु मा हेतुदोषः। यद्यर्थस्याभ्युपगमात् । असदेतत् व्याप्ती सत्यां प्रसङ्ग- नसस्यान्यथा चोदनाजनितस्यास्मादित्युक्तं मत्वैवमपि भाविकपूर्वकस्य विपर्ययस्य प्रवृत्तेः। न च प्रत्यक्षत्वस्य तस्य तच्चब्द- पता भावस्य सावधिः प्रागनावः । न च भिन्नकालत्याद्वस्त्ववस्तु. वाच्यत्वमन्यस्य वा सासंप्रयोगजत्वेन व्याप्तिसिकिः क्वचित्संजा- नोः संबन्ध इति कथं तस्य भाविरूपता। पत्र केचिदाहुःन तयोता । अथ प्रसङ्गसाधनवादिनि तस्सिद्धिस्तथाऽपि दोषो, न हि रसंबन्धिता,विशेषणविशेष्यतया प्रतिपत्तेः। नैतत् नहि संबन्धपृ. यत्तेन न गृह्यते तदन्येनापि न गृह्यत इति व्याप्तिसिद्धिः। तथा- वको विशेषणविशेष्यन्नावः,किंतर्हि भाविता नावस्योच्यते,बुबा हि-यथा प्रसङ्गसाधनवादिचकुर्नातिदूरस्थविषयमादि संपात्या- प्रतिजासमानस्याऽऽकारस्य कुतश्चिन्निमिनत्वात् प्रागभावाविदेगूधराजस्य चकुछ ऽपि चक्कुः योजनशतव्यवाहितावभासि श्रूय- शेषणता,तश्च निमित्तं जोजनाऽऽदिकार्य भ्रातृकृतं तद्भातुरनुगतस्य से रामायणाऽऽदौ । न च कादम्बर्यादेरिव काव्यत्वादस्याप्रमाण- नोपपद्यत इत्यनागमनकाल एव कायेन बुद्ध्यस्थापिनस्य भ्रातुः तेति न तन्निबन्धना वस्तुव्यवस्था अतोऽपि प्रमाणभूतेऽस्यार्थ- श्वस्तनागमनविशिष्टता प्रतिपद्यते। सद्व्यवहारनिवन्धनं च स. स्य संसूचनात् स्वरूपार्थप्रतिपादकत्वेऽपि च तारताऽऽदीनां स्वम्, तश्च विधिप्रतिभास एवातो विधिप्रतिमासस्वभावत्वान्न प्रमाणता सिदैव । यद्यव्याप्तप्रणीतत्वे निश्चयः,तथा वृषदंशचकु- निर्विषया प्रतिनासमानतामा निर्विषयत्वं तस्यास्तेन त्वर्थन श्वकुऐऽपि तच्चन्दवाच्यत्वेऽपिवाजिन्नाभिन्न स्वभावं दृष्टं तद यो. सह सन्निकर्ष इन्जियस्य वाच्यः। इन्द्रियार्थासनिकर्षजन्यस्य प्र. गिप्रत्यकं भविष्यति। एवं प्रतिवादिप्रत्यकेऽपि साध्यसाधनयो- त्यक्त्वानुपपत्तेः। अत्र केचित्प्रतिभासमादधति-श्वो मे भ्राताऽत्र योप्तिनिषेधो द्रष्टव्यः । अथ गृध्रवृषदंशचकुपोरेतत्स्वभावत्वेऽपि देशे आगन्तेति प्रतिभोत्पादैः वादे (१)श्चेन्द्रियेण संयोगात्तद्विशेरूपग्रहणप्रतिनियमः, नदि ते रसाऽऽदी कदाचित्प्रवर्तन्ते, तथा पणत्वाश्च श्वस्तनाऽऽयमनविशिष्टस्य भ्रातुःसंयुक्तविशेषणनावः योगिप्रत्यकस्यापि स्वविषय एवातिशयो भविष्यति । तदुक्तम. सन्निकर्षः। एतत्परेणानुविशेषेणविशेष्ययोरेकविषयत्वाच भ्राता "तत्राप्यतिशयो दृधः।" इत्यादि। तथा"अपि सातिशया दृष्टाः, विशेषणे स्वचक्षुरादेः सन्त्रिकर्षः,तदभावाद विशेषणाग्रहणे कथं प्रज्ञामेधाऽऽदिभिनराः" इत्यादि च एवमेतत् किं तु द्विविधं प्रत्य- विशेष्यबुद्धिः ?। अपि च श्वस्तनागमनविशिष्टनातक्षानं प्रतिना क्षम् बाह्यन्छियजं,मानसंच तत्र पूर्वस्यातीताऽऽदिग्राहकत्वनि. न देशाऽऽदिज्ञान,न चेन्जियत्वेन कश्चित्संबन्धः। अत एवार्थमपि षेधे रसाऽऽदिग्राहकाणामिवेतरेतरविषयाग्रहणे सिद्धसाध्यता। कानंन प्रतिभा यतो रूपिणामपि यशाने तदप्यागमपूर्वम्, अनेमानसस्य त्वतीताऽऽदिरपिविषयः,तस्य सर्वविषयत्वात्। तथा नोपायजन्यमार्षस्य दर्शयति । उपायश्व सन्निकलिङ्गशब्दस्व. हि-वादिप्रतिवादिनोर्मनस्पृष्टान्तं स्मार्तमतीतार्थनादिविज्ञानसि नावः,आगमग्रहणस्य प्रदर्शनार्थत्वात्। नाऽपि धर्मविशेषात,सद्धमाएवमनागतार्थाध्यवसायिना न संवादिप्रतिवादिनोस्तथा- निकर्षविनाऽपि प्रतिनायाः समुद्भवः, यतो धर्माधर्मयोः फलजविधं भव्यम् तस्य वा भूतार्थस्यापि स्पष्टा भूता नावनाप्रकर्षा नकत्वं साधनजनकत्वेनैव, यथा सुखाऽऽदिजन्ये शरीराऽऽदिर्ज. कामशोकप्पयादिकाने प्रतिपादिता, यत्पुनर्भूतार्थे प्रमाणद्वयपू. ननमेवं प्रतिभाया अपि धर्मविशेषजन्यत्वे केनचिदिम्झियार्थसर्वकं भावनाप्रकर्षसमुद्नूतं, तत्संवादात्प्रमाणं, विशदत्वाच्च प्र. न्निकर्षाऽऽदिनासनेन धर्मविशेषजनितेन भाव्यम्। अत एव सि. त्यकं । संभाव्यते च तथाविधं प्रत्यकं योगिनां यथाऽस्मदादीनां सुदर्शनमपिन प्रतित्रा,रथ्यापुरुषस्यापिनावात्। अनियतनिमिप्रातिभम्,श्वो मे भ्राता आगन्तेत्यनागतार्थाग्राहकम । न च संदि- तप्रजवत्वेन प्रमाणं प्रतिभेति यत्कश्चिदभ्यधायि,तन्नैयायिकैनिग्यस्वनावताऽस्या निश्चितत्वात्मत्वाद् बाधकाभावान विपर्ययः, राक्रियते एवं मनसस्तन्निमित्तत्वेन तत्र तत्र प्रतिपादनातानाप्यततोऽप्येनत्सर्वा प्रतिभासस्यार्थान सिद्धतिन प्रामाणं प्रातिभ- स्यालिङ्गशब्दमनवत्वं, तदभावेऽपि भाबादपमानजत्वाशङ्का म। इम्झियजमपि सर्व न सत्यार्थ सिमिति। तदप्यप्रमाणं भवे. दूरोत्सारिताऽतः प्रत्यकं प्रतिमा यद्येवं तदुत्पत्तावपि वक्तव्य. लू । अथ मा तत्प्रमाणं यद्वाध्यते,श्तरंतु प्रमाण प्रातिभेऽपिसमा- | माकिमत्रोच्यते-मनसः सन्निहितत्वातू तस्य विशिष्टार्थग्रहणे धिनम् । मतदाभासप्रतिभाया न प्रमाणफलता, अर्थजत्वानुपपत्तेः। शेषणविशेष्यत्रावः सम्मिकर्षः नियामकत्वेन पूर्व प्रदर्शितः,यथा तथाहि-कर्मशक्तिः स्वकर्तृकरणसहकृता क्रियानिवर्तिका कर्तृ- प्रत्यभिज्ञानोत्पत्ती स्मर्यमाणप्रमीयमानानुभवविशेषणं वस्तुत. करणशक्तिरेव कर्मशकिसहकृता, न चासती स्वरुयेणानागव. स्तस्याविषयो, न तावति बाह्यन्द्रियव्यापार इति मानसं प्रत्यवर्तमानकाल कर्तृकरणाभ्यां सह कर्मशक्तिः स्वकार्ये व्याप्रियते, भिकानं,तद्वत्प्रातिभमपि। तथा हि-प्रभाचो बाह्यार्यान्युपगमे म. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (न्) पञ्चक्रव अनिधानराजेन्द्रः। पच्चक्खणाया नमः स्वातन्ध्येण पूर्व निराकृतः। एवं मानसस्य प्रत्यकस्याविद्य- तावत् प्रत्यक्षमन विषये प्रवर्तितुमुत्सहते। न हि देवदत्तचकुस्त' मानोपलम्भकस्य सद्भावान प्रसङ्गसाधने व्याप्तिसिद्धिः तथा द्विषयेण पर्वताऽऽदिना सबमित्यस्मदादरकप्रभवा प्रतिपत्तिः। सर्वस्यैव स्थपत्यादेः क्रियमाणवस्तुग्रहणं प्रत्यक्कसिकमेव । किं अथानुमानं तत्सन्निकर्षप्रसाधनाय प्रवर्तते। ननु किं तदनुमान च-कथं जैमिनीया:स्थिरग्रहणवादिनो वर्तमानविषयमेव प्रत्य- मिति वक्तव्यमा चकुःप्राप्तार्थप्रकाशकं बाह्यत्वात त्वगादिवदि. कं संचक्कते,स्थिरग्रहणं हि वस्तुन एच भवति । यदि वर्तमानबि. स्येतदनुमानं तत्सन्निकषप्रसाधनं न चकुर्गोलकतदर्थयोरभ्य के शिष्टस्यैवातीतानागतकालविशिष्टग्रहणम, अभ्यथा स्थिरग्रहणा- वासनिकृष्टयोः प्रतिपत्तरध्यके बाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तभावः। तथा चोक्तम्-"रजतं गृह्यमाणं हि,चिरस्थायीति गृह्यते।" स्वेनास्य हेतोः कासात्ययापदिष्टत्वात् । वयविकणस्य च चनुततः परस्परव्याहतार्थाभिधानाद्यत् किञ्चित् तत्तदेवंम प्रत्यक- षोःसिद्धराश्रयासिहश्च हेतु अत एव स्वरूपासिद्धश्च। नह्यवि. स्यातीन्द्रियार्थग्रहणनिषेधः, पूर्वोक्तनीत्या संभाव्यते चातीन्छि- यमानस्याबयविनो बाह्येन्द्रियत्वमुपपन्नम् त्वगादिवदिति निदर्शयार्थग्रहणमध्यक्तस्य यथा संत्रवति तथा सर्वसिद्धौ प्रतिपा. नमपि साध्यसाधनविकन्नम्। अथ चःशब्दनात्र तश्मयोऽनिदितमिति नमुनरुच्यते । किञ्च-सत्संयोगत्वाऽऽद्यविद्यमानोपल- धीयन्त इति न प्रागुक्तदोषाधकाशः। न तेषामसिके । इतरथाs. म्नसमुच्यते, तत्र सतासीता (2) स्वाधुना सद्भिवेत्येतान् पक्वान् स्यानुमानस्य वैफल्याऽऽपत्तेराश्रयासिद्धो हेतुः। अथात एवानुमाव्युदस्याभिमतपक्कस्थापनं कृतम्। सति संप्रयोगे प्रयोगश्व विद्वि- नात तत्सिर्नायं दोषः,न। इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तातथाहि-तद्र. ना(१)प्रदर्शितोऽपीन्द्रियाणां व्यापारो,योग्यता वा । ननु नैयायि. हिमसिद्धावाश्रयासिकत्वदोषपरिहार,तमिश्च सत्यतो हेतोस्तकाभ्युपगत एव संयोगाऽऽदिस द्विविधोऽप्यतीतानागताऽऽदिन. सिकिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । अत एव स्वरूपासिद्धितणेऽर्थतः करणवास्यादिना इव कार्येऽर्थे न वार्यते। अथाविद्यमाने रपि हेतोः,तेषामसिद्धौ तदाश्रयबाहन्छियत्वासिद्धेः। यदि पुनकथं करणव्यापारःकरणत्वेनाभ्युपगतायाः चोदनाया अपि कथं गोलकादर्दिनूता रश्मयश्चकुःशब्दवाच्यार्थप्रकाशकास्तदि गोकार्येऽथै, ततो नान्तःकरणस्य विशेषः,तत्प्रमेयस्य त्रिकालाव. सकस्याजनाऽऽदिना संस्कार उन्मीलनाऽदिकश्च व्यापारो वैचिन्नत्वात् भाविरूपस्यापि वा तद्रूपत्वेन सतो वर्तमान वाऽ5- यर्यमनुभवेत्।अथ गोलकाश्रयास्त इति तन्निमीनिने असंस्का. पत्तिः। तथा चोकं व्यासेन-"अवश्य भाविनं नाशं,विकि संप्र. रे बा तेषामपि स्थगनमसंस्कृतिश्चेति विषयं प्रति गमनं तत्प्र. स्युपस्थितम । अयमेव हि ते काबः पूर्वमासीदनागतः ॥१॥" य- काशनं च न स्यादतस्तदर्थतन्मीलनं तत्संस्कारश्च । न च वैपुनः कार्य कालत्रयापरामष्टं शशशकाऽऽस्यं तत्र कथं प्रेरणा55. यीमनुनवेत् तर्हि गोक्षकानुषक्तकामलादेः प्रकाशकत्वं तेषां সব্যাথা। মাঘিনঘনাবিলনন ট্রান্স स्यात्। न हि प्रदीपः स्वक्षनं शनाकाऽऽदिन प्रकाशयतीति व्यापारः,तयन्तःकरणेऽप्येतत्तुल्यं, ततोऽविद्यमानोपलम्भस्य मा. दृष्टम् । यैरपि गोकान्तर्गतं तेजो व्यमस्ति तदा (?) तास्त नसाध्य कस्य सदभावान प्रसतो मानसाध्यकस्य सजावान प्रस- इत्यभ्युपगतं तेषामपादं दूषणं समानम् ।न दिकाचकृषिकान्तर्गअसाधने व्याप्तिसिद्धिरिति न प्रथमा व्याख्या। द्वितीयव्याख्या- ताः प्रदीपाऽऽदिरश्मयस्ततो निर्गच्छस्तद्योगिनमर्थ न प्रकाशयने तत्सतो व्यत्ययेऽपि च न संशयज्ञानव्युदासः। तत्र ह्ययमों न्ति । तदेवं रइमीनामसिन ते चतुःशब्दाभिधेयाः। अथ रसना. व्यवतिष्ठते-यद्विषयं विज्ञानं तेनैव संप्रयोगे इन्ष्यिाणां प्रत्यकं ऽऽदयो बाह्येन्द्रियत्वात्प्राप्तार्थप्रकाशका उपलब्धा बाह्येन्द्रियं च प्रत्वकाभासं स्वन्यसंप्रयोगजमिति । तत्र संशयज्ञानं सम्यगान- चकुः, ततस्तदपि प्राप्तार्थप्रकाशकं न च गोलकस्य बाह्यार्थप्राबत् यत्प्रतिभासि तेनैव संयोगे भवति । ननूभयाऽऽलम्बनत्वा- प्तिः संनविनीति पारिशेष्यात तश्मीनां तप्तिप्तिरिति राश्मिसि उभयप्रतिभासिसंशयज्ञानम् ,न चोभयाऽऽत्मकेनेन्द्रियसंबन्धः। किनात्यासन्नमसाजनशलाकाऽऽदिप्रकाशप्रसक्तः। किं च-ययद्यपि नोभयात्मकेन तेनेन्जियसंबन्धस्तथापि तत्वतः सामा. दि गोलकाद् मिर्गत्य बाबार्थेनाजिबनय तद्रशमयोऽय प्रका. म्यवान् पुरोऽवस्थितोऽधसि प्रतिभासमानाऽन्यतरविशेषाss- शयन्ति, न बर्थ प्रत्युपसर्पन्तस्त उपनज्येरन्, रूपस्पर्शविशेषभयो ऽतो यत्प्रतिभ्राति तेन सदेन्द्रियस्य संयोगे संशयज्ञानम- बतां तेजसानां वह्नयाठिनत् सतामनुपलम्भे निमित्ताभावात, देति। न चैतन्यवच्छेदाय किञ्चित्पदमुपात्तमिति नैतवकणात त. नचोपसच्यन्त इत्युपलब्धिलकणप्राप्तानामनुपलम्भादसवम । दधुदास तिन जैमिनीयमतेऽपि प्रत्यक्षबक्षणमनवद्यम् न चार्वा. अनुदनूतरूपस्पर्शत्वाद् उपसभ्यास्त इति चेत्, कि पुनरनुदूनकैस्तु प्रत्यकमपि तस्वतःप्रमाणमप्युपगम्यत इति न तद्विचार- तरूपस्पर्शतेजो व्यमुपसन्धं येनैवं कल्पना नवेत । अथ र. प्रयास सफल इत्यकपादविचारितमेव प्रत्यकल कणमनवद्यमि- इयते सतोरपि तैजसरूपस्पर्शयो रहेम्नोरनुतिः , न स्व. ति नैयायिकाः। असदेतत् । तदन्युपगमेनेन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्प. संतप्तोदकयोस्तेजस्त्वासिद्धेः दृष्टानुसारेण चानुपलप्स्यमानसत्वाऽऽदेरघटमानत्वात् । तथा दि-इन्द्रियं यदि चक्षुर्गोलकाऽऽ. नावः प्रकल्पनाः प्रभवन्ति । अन्यथा-भास्करकराःसन्तोऽपिनो. दिकमवयविरूपमभ्युपगम्यते, तदा तस्य स्वविषयेण व्यवदितं पलभ्यते, अनुभूतरूपस्पर्शत्वान्नयनेन रश्मिवदित्यपि कल्पदेशेन पर्वतादिना सनिकोंऽसिद्धः। न ह्यत्यन्तव्यवहितयोहि नाप्रसक्तेः । सम्म० २ काराम । अवधिमन केवलाऽऽस्ये मवाद्विनययोरिव चक्षुर्गोल के तदर्थयोःसन्निकर्षसंयोगाऽदिन स्वयं दर्शनलकणे वा व्यवसायदे, स्था० ३ ठा०३ उ०। कणः सिदान चावयविनक्षणं गोवालकाऽऽदिवस्तुसंबळ,त. स्वयं करणे, "पश्चक्खं संयमे च करेति ।” अहवा-राकर ग्राहकाभिमतप्रमाणस्य निषिद्धत्वात्। न च तदाधारःसंयोगाss. समकं प्रत्यकम् । नि० चू०४ उ. । प्रत्यक्षकरणचकुषे, दिकः संबन्धः समस्ति, पराभ्युपगतस्य तस्य निषित्वात्, निषे. प्रा० म.१०। स्यमानस्वाच । योऽपि कथञ्चित्पदार्थाव्यतिरिक्तं.संश्लेषपाकाष्ठजतुनोरिव संबन्धःप्रसिक,सोऽध्यवाहितेन पर्वताऽऽदिना स्ववि. पञ्चक्खणाण-प्रत्यज्ञान-न० । अवधिमन:पर्यायकवला55पयेण सह चतुर्गोनकस्यानुपपन्ना,तत्प्रसाधकप्रमाणानावात् ।अ. स्मके प्रत्यक्षस्वरूपे ज्ञानभेदे, नं० । ('णाण' शब्दे चतुर्थभागे पास्ति तत्प्रसाधकं प्रमाणमाननु तरिकं प्रत्यवमुतानुमानम् न । १६३० पृष्ठे विशेषः) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चखराक पचखणिक पत्थनिराकृत प्रत्याविषये यथा अभावणः शब्दः । स्था० १० ना० । पच्चकखपचयकारी - प्रत्यक्प्रत्ययकारी - स्त्री० । प्रत्यककेन ज्ञानेन साकादित्यर्थः यः प्रत्यया सर्वातिशयानन् पापदर्शनाध्यनिवारिचे नियमित्येवंरूपा तिपत्तिः । श्रयवा प्रतिमे वेदमित्येवं प्रतीतिः प्रत्यकप्रत्ययस्तस्करणशीलाः प्रत्यक्षप्र कार्यः प्रत्यात्यका वा प्रत्यक्षं प्रतिज्ञाया मू, स० १० अङ्ग | पच्चकखवण- प्रत्यक्षवचन- न० । एष देवदत्त इत्येवंरूपे व चने, श्रात्रा० १० २ भ० ६ उ० । प्रज्ञा० । पच्चक्खसि - प्रत्यक्षसिद्ध त्रि० । प्रत्यकज्ञानविषये न च कव्रलोकप्रत्यक् सिद्धेऽर्थेऽन्यत्प्रमाणान्तरं मृग्यते । आचा० १ शु० ए अ० ४ ० । (८५) अभिधानराजेन्द्रः । 6 3 पच्चकखाण - प्रत्याख्यान - न० । परिहरणीयं वस्तु प्रति श्राख्यानं प्रत्याख्यानम् | गुरुसाकिके निवृतिकथने सामायिक प ० ० १ ० ( पडदाहरणं तेतनिष चतुर्थभागे २३५२ पृष्ठे गतम् ) पवक्ते दयां, जीवाजी व पुरावे य पच्चक्रखाया जोगा, सावज्जा तेयलिमुष्णं ॥ प्रत्यकानीव दृष्ट्रा जीवाजीवान पुण्यपापे च सम्यक् चतुर्द्दश पूर्वसारणात् प्रत्यायता योगा सावधास्तेसलिन चा म० १ ० २ खराम | निवृत्तिद्वारेण प्रतिज्ञाकरणे, स्था० ३ ० ४ ० । आ० म० । प्रति । स्वेच्छाप्रवृतिप्र निकूलतामा चिकितकालादिमानाऽपानं प्र कथने प्रत्याययानम् महोतरमुकाविषय निवर्त्तने, प्रच० १ द्वार परिक्षया ज्ञाने प्रत्याख्यान परिया परिहरणे आ० ० १ अ० । ५० । (१) प्रत्यास्थानमधिकृत्य द्वारायामा नियुक्तिकार :पथकखाणं पथ-खाओ पच्चवखे च गुपए । परिसा कहानी य फलं व आईए बन्नेमा ॥ १ ॥ 'या' प्रकथने इत्यस्य प्रत्याङः : पूर्वस्य ल्युडन्तस्य प्रत्याख्यानं भवतितित्र प्रत्याख्यायते निषिध्यते मनोवाक्कायक्रियाजालेन किञ्चि निष्टमिति प्रत्याख्यानम् क्रियाक्रितोःकदिने ख्यानक्रियैव प्रत्याख्यानम् । प्रत्याख्यायते अस्मिन् सति प्रत्याख्या नम | "कृत्पल्युटो बढ़त्रम् ॥ ३।३।१३३॥ इति वचनात् । श्रन्यथायदीपः पत्याख्यानमित्यादौ । तथाप्रत्याख्यातीति प्रत्याख्याता गुरुविनेयश्च । तथा प्रत्याख्यायत इति प्रत्याख्येयं गोचरवस्तु । याणामपि तानार्थः । मानुपथ्यो परिया मितिशेषः तथा परिय परियः कथनीयमिति । तथा कथनविधिश्च कथनप्रकारच वक्तव्यः । तथा फलं चास्काऽऽमुष्मिकभेदं कथनीयम, श्रा दावे पर नेश इति गाथासमासार्थः। व्यासार्थं तु यथावसरं भाष्यकार एव वक्ष्यति ॥ १॥ श्र० ६ श्र० । श्रा० चू० । घ० । (२) एकार्था:नमियामासमासओ सुननुतिय बो । २२ पश्चक्खाणस्स विडिं, मंदमइत्रि बोहडाए || १ | नवा प्रणम्य, वर्द्धमान महावीरम् समासतः संक्केपेण, वक्ष्ये इत्यनेन संबन्धः । तथा सूत्रयुक्तित आगमाऽऽश्रितामुपपतिमाश्रित्य अथवा सूत्रं च युक्तिं चाऽऽधित्य, वक्ष्ये भगिष्यामि, प्रत्यानयानस्य नमस्कारसहितादिनस्य विधि विधानम् किममित्याह मन्दमनावि योधनं प्रयोधनं प्रयोजनमदिन स्तस्मै मन्दमतिविबोधनार्थाय । यतः पूर्वाऽऽचार्यैः प्रत्याख्यानविधिविस्तरेण महामतिसमधिगम्य एवोक्तः । इति माथार्थः ॥ १ ॥ अथ प्रत्याख्यानमेव पर्यायतो भेदतश्च निरूपयन्नाडपच्चवखाणं नियमो चरिचधम्मो व होति एगट्टा | मृलुचरगुणविस, चित्तमिवचियं सम ।। २ ॥ प्रति प्रवृतिप्रतिकूलतामा स्थानम् । तथा नियमनं नियमः, देयार्थेभ्य उपरमः । तथा चरति मोक्षं प्रति यानि येन जति च रिशब्देन तस्य व्ययछेदः शब्दः समु प्रस्था त एका अनिशायः निष्यनिधाय त्या शब्दा ति गम्यते । सूनानीय चारित्रमस्य मूलान्तरे स्यैव शाखाऽऽद्यवयववत् ये गुणास्ते विषयो गोचरो यस्य त मूलोत्तरगुणविषयम् । तत्र मूलगुणाः सर्वतो महाव्रतानि देशतहान उतरवस्तुतः विशुद्ध देश तश्च दिग्वताऽऽइयः। अय वोत्तरगुणा दशविध प्रत्याख्यानमना पच्चक्खाण तादि नमस्कारसहिताऽऽदि वाऽऽगमप्रसिद्धम । अत एव चित्रं बहुप्रकारम् इदं प्रत्याख्यानम्, वर्णितं भणितम्, समये प्रत्याख्यान नियुक्त्यादिसिद्धान्ते । इति गाथार्थः ॥ १ ॥ पञ्चा० ५ विव० । नाम दक्षिण इच्छ परिमेव जाये । एख पच्चक्खाणम्मि नापन्या ॥ २ ॥ नामप्रत्याख्यानं स्थापनाप्रत्याख्यानम् । ( दविए नि ) द्रव्यप्रत्याख्यानम् (अहिच्छति) दातुमिच्छा दिल्ला न दिल्ला श्र दिल्ला सेवायानम् अदित्वाप्रत्ययपडि प्रतिषधप्रत्याख्यानम् । ( एवं भवि त्ति) एवं भावप्रत्याख्यानं च । ' इति गाथादक्षं पते खलु पोशः (पश्चकखाणकिम नायश्वा । तु यथावसरं घट्ट्यामः । तत्र नामस्थापने गतायें। श्राव० ६ श्र० । (३) अधुना इव्यप्रत्याख्यानं प्रतिपादयश्राह-माझं उणा दविए खिंचें अदिष्या प नाव तं च । नामानिहाल मुत्तं, उत्रणाऽऽगारत्यनिक्खेवो । ए६ ॥ दम्म निन्हगाई, निव्त्रिसाई होइ खित्तम्मि | भिक्खाईमदाणे, अच्छि भावे पुणो दुविहं ॥ ६७ ॥ प्रत्याख्यामीति वा प्रत्यायते इतिया उमपुरुषैकव चने द्वौ शब्दौ । तत्राऽऽद्यः प्रत्याख्यामीति प्रतिशब्दः प्रतिषेधे, श्राह श्रभिमुख्ये, 'रूबा' प्रकथने । प्रति किम् ? श्रानिमुख् ख्यापनं सावधयोगस्य करोमि प्रत्याख्यामि । श्रथवा 'चकि' व्यक्तायां वाचि । प्रतिषेधस्यादरेणाऽनिधानं करोमि । प्रत्यानिमिया) निर्दिषयादभवति क्षेत्र तत्र निषाद دو Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) अभिधानराजेन्धः। पच्चक्खाया पच्चक्खाण গুহ ঈমান মাহিঙ্গাস্থিনিস্বল্প | संकेयं चेव अघाए, पच्चक्खाणं जब दसहा।" भिक्षादीनामदाने (अदिति) भिक्कणं भिक्का प्रतिको देमुत्तरगुणपश्चक्खाणे णं भते ! कविहं पण ?। गोच्यते प्रादिशब्दावनाऽऽदिपरिग्रहः। तेषामदाने सति अदिसेति वचने अदित्सति प्रत्याख्यानम। ( भावे धुण मुविई यमा ! सत्तविह पम्मत्त । तं जहा-दिसिव्वयं, नवजोगपरिनि) भाव इति द्वारपरामर्शः । जावप्रत्याख्यानं पुनर्चाि वधम- भोगपरिमाणं, अणत्यदंम्बरमाणं, सामाइयं देसावगासियं, तननावप्रत्याख्यानमिति-जावस्य सावद्य योगस्य प्रत्यासयानं पोसहावामा अतिहिसंविजागो, अपच्छिममारणंतियसंजावप्रत्याण्यानं, भावतो वा शुजात्परिणामोत्पादात भावदेतोनियाणार्थ वा भाव पवबा सावद्ययोगविरतिलक्षणं प्रत्याख्यानं लेहणाकूसणाराहणता ।। ज० ७ श०२ उ० । नावप्रत्याख्यानम् । इति गाथार्थः ॥ ९ ॥ অথম্যানसाम्प्रतं द्वैविध्य मेव दर्शयन्नाह दव्यनिमित्तं दव, दबनूनो उ तत्य रायमुश्रा । मुअ नोमुत्र सुअनुविहं, पुवमपुध्वं तु होइ नायव्यं । बव्यनिमित्तं प्रत्याख्यानं बनाऽऽदिव्यार्थमित्यर्थः । यथा नोमुअपच्चक्खाणं, मूल तह उत्तरगुणे अ॥ ८ ॥ केषाञ्चित् कपकाणां तथा प्रत्याख्यानं तथा भूम्यादी व्य. (सुप्रणासपत्ति) श्रुतप्रात्यायानं नोश्रुतप्रत्याख्यानं च (सु. वस्थितं करोति तथ द्रव्यभूतमुपयुक्तः स न करोति, त. यदुविहति) श्रुतप्रत्याख्यानं द्विविधम । द्वैविध्यमेव दर्शयति- वध्यभीष्टफारहितत्वाव्यप्रत्याख्यानमुच्यते । तुशब्दाद् व्य. (पुचमपुवं तु होइ नायब्वं ति) पूर्वश्रुतप्रत्याख्यानम्, अपूर्व- स्य द्रव्याणां व्येण द्रव्यरिति । भुमश्चायं मागः । (तस्थ श्रुतप्रत्याख्यानं च भवति ज्ञातव्यमिति । तत्र पूर्वश्रुतप्रत्यख्यान रायसुयंति) अत्र कथानकम-" एगस्स रनों धृता श्रमस्स प्रत्याख्यानसंहितं पूर्वमेव । अपनश्रुतप्रत्याख्यान स्वातुरप्रत्याख्या रम्मा दिम्मा, लो य मो, ताहे सा रमा पिणा आणीया, नाऽऽदिकमिति । तथा-(नोसुयपचक्खाणं ति) नोश्रुतप्रत्याख्यान धम्मं पुत्ति !करेहित्ति नणिया, सा पासमीणं दाणं देश, अम्मच, श्रुतमल्याख्यानादित्यार्थः । (मूले तह उत्तरगुणे यति)मूल या कत्तिो धम्ममासा तिमसंन खामित्ति पथक्खायं तत्थ गुणप्रत्यास्थानम्.उत्तरगुणप्रत्याख्यानं च तत्रमूलगुणप्रत्याख्या पारणए दंडिपीह अणेगाणि सतसहस्साण मंसत्याए उवणीनं च देशसर्वभेदम्,देशतः श्रावकाणां, सर्वतस्तु संयतानामिति।। याण, ताहे भत्तं विजन, जो नुजा तस्स नाणाविहाणि मंसतइहाधिकृतं सर्वम, सामायिकानन्तरं सर्वशब्दोपादानादिति गा. णि दिजांत, तत्थ साधू अदूरे बालेता निमंतिता, तेहिं थार्थ ।। ६८ ॥ श्च च वृद्धसंप्रदाया-"पश्चखाणे उदाहरणंचवदसंप्रदाया-पवास भत्तं गहिय, मंसं नेच्छति | सा रायधृया भणइ-कि तुभन रायधयार वरिले मंस न खयिय । पारणए अणगाण जीवाणं ताव कत्तियमासा पूर? ते भणंति-जावजीवाए कत्तिभो ति। घात्रो कीसहि संबोहिया पवदया। पुवं दब्बपञ्चकखाणं, किंबा, कहं बा? ताहे ते धम्मकहं कति, मंसदोसे परिकहे. पच्या भावपच्चखाणं जातं।" इति कृतं प्रसङ्गेन । प्रत्याख्यामी ति,पच्छा संबुझा पवाया । एवं तीसे इब्वपरचक्खा पmarति व्याख्यातः सूत्रावयवः। आव०६प्रामा• मा हा० । जावपच्चखाणं जायं।" आव०६अ। विशे। अत्र सूत्राणि । (४) मधुना अदित्साप्रत्याख्यानं प्रतिपाद्यते, तदं गाथाईम्काविहेण नंते ! पञ्चक्खाणे पामते । गोयमा! बिहे अदिछापञ्चक्खाणं, बंजरासमणाण अन ति॥३॥ पच्चक्खाणे पाते । तं जहा-मूझगुणपच्चक्रवाणे प . आंदत्साप्रत्याख्यानम्-हे ब्राह्मण ! हे श्रमण! अदिति नाम नसरगुणपच्चक्खाणे य । मूलगुणपञ्चक्खाणे णं जैते ! क दातुमिचान तु नास्ति, यद्भवता याचितं, तस्यादिरसैव वस्तुनः प्रतिषेधाऽऽस्मिकेति कृत्वा प्रत्याख्यानमिति गाथादनार्थः । इविहे पालने ?। गोयमा ! सुविहे पप्पत्ते । तं जहा-सव्यम् अधुना प्रतिषेधप्रत्याख्यानव्याचिख्यासयेदं गाथाशकलमाहलगुणपच्चक्खाणे य, देसमूत्रगुणपञ्चक्खाणे य । सन्बमू अमुगं दिजन मऊ, नथि ममं तं तु होइ पमिसेहो । लगगपच्चक्खाणे नंते ! कविहे पम्पते । गोयमा ! अमुकं घृताऽऽदि दीयतां मह्यम् । इतरत्वाद-नास्ति मम त. पंचविहे पसते । तं जहा-सव्वाश्रो पाणावाया ओ वेरम दिति, न तु दातुं नेच्ग, एष इत्थंभूतो भवति प्रतिषेधः, अयएणंजाच सव्वामो परिग्गहारो वेरमणं । देसपूनगुण- मपि वस्तुतः प्रत्याख्यानमेव प्रतिषेध एव प्रत्याख्यानम् । पचक्वाण ण ते! कडविहे पम्पत।। गायमा ! पंचविहे (५)इदानीं भावप्रत्याख्यानं प्रतिपाद्यते तत्रे गाथार्द्धमपम्लत्ते । तं जहा-यूलाओ पाणाइवायाओ वरमणं नाव मेसपयाण य गाहा, पञ्चक्खाणस जावम्मि । थूनाओ परिगहाओ बेरमाणं। उत्तरगुणपच्चक्खाणे | भरो! । शेषपदानामागमनोआगमेत्यादीनां साकादिहानुक्तानां प्रत्याकविहे पम्पत्ते । गोयमा! मुविहे पत्ते । तं जहा-सवृत्त. .ख्यानस्य संबन्धिना गाथा, कायेति वाक्य शेषः । इह गाथा प्र. निष्ठोच्यते निश्चितिरित्यर्थः । “गाथ" प्रतिष्ठालिप्सयोरिति धारगुणपच्चक्खाणे य, देहत्तरगुण पञ्चक्रवाणे य । सव्वुत्त तुवचनात् । (भावम्मित्ति) द्वारपरामर्शः। भावप्रत्याख्याने रगुणपच्चक्खाणे एं ते! काविहे पत्ते? गोयमाद- इत्यर्थः । श्राव० ६ अ.। सविहे पापत्ते । तं जहा अपेक्षा चाविधिश्चैवा-परिणामस्तथैव च । " गागयमइकतं, कोमीसहियं नियंत्रियं चेन । प्रत्याख्यानस्य विनास्तु, वीर्याजावस्तयाऽपरः॥॥ सागारमणागारं, परिमाणक निरवसेमं ॥१॥ अपेक्षा ऐहिकाऽऽनुष्मिकाथकाऽऽरिमका प्रविधिर्विधिव्यतिरकः, Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चक्खाण अनिधानराजेन्द्रः। पच्चक्खाण विधिश्चायम-"गिएहइ सयं गिदी य, काले विणएण सम्ममु. प्रदमा अविधिकृतप्रत्याख्यानमपि, भाज्यतां निरूप्यतामिति । वनत्तो। अणुभासंनो पश्व-त्यु जागो जाणगगासे ॥१॥" प्रयोगश्चैवम् अविधिप्रत्यख्यानमप्रत्याख्यानमेव, विपर्ययफलचशब्दो समुच्चयायौँ, पत्रकारोऽवधारणार्थः । तस्य चैवं प्रयो त्वात् । यद्यद्विपर्ययफवं तत्तन्न भवति प्रविधिप्रत्याख्यानमतः गः-अविधिरेव च, न तु विधिरपीत्यर्थः, तथा अपरिणामः | प्रत्याश्यानं न नवतीति ॥ ४॥ प्रत्याख्यानप्रतिपत्तौ निजश्रकारूपपरिणामाभावः। तथैव-यथा अपरिणामकृत प्रत्याख्यानस्य व्यप्रत्याख्यानतामाहअपेकाऽऽदयो जावप्रत्याख्यानविघ्नाः, तथैवायमपीति। चशब्दः अक्षयोपशमात त्याग-परिणाम तथा सति । समुच्चये । प्रत्याख्यानस्य भावतो नियमस्य,विनास्तु प्रतिघा- जिनाऽऽज्ञानक्तिसंवेग-वैकल्यादेतदप्यसत् ॥ ५॥ ता एव, अव्य प्रत्याख्यान देतव पते अपेकाऽऽदय इत्यर्थः। वीर्य कय उदीर्णस्य विरत्यावारककर्मणो विनाशः, तेन सहोपशधीर्यान्तरायकयोपशमाऽऽदिसमुत्थो जीवपरिणामः,तस्याभावो मस्तस्यैवानुदीर्णस्य विपाकोदयापेक्कया विष्कम्नितोदयत्वं कबीर्याजावः, तथेति यत्प्रकारा अपेक्षादयस्तत्प्रकारः प्रत्या- योपशमः,तभिषेधादक्षयोपशमात, त्यागपरिणामे प्रत्याख्येयव. सयानविघ्नोऽपरोऽन्य इति । अयं च परिणामे सत्यपि प्रत्या स्तुविवेकपरिणती, तथा तेन प्रकारेण देशसर्वविरतिनमस्कारख्यानापरिपालनदेवेन प्रत्याख्यानविघ्नो भवतीति ॥२॥ सहितादिप्रत्याख्यानप्रतिपत्तिलक्षणेन, असति अविद्यमाने।अ. अपेक्षाकृतप्रत्याख्यानं नित्वेनाप्रधानत्वाव्यप्रत्याख्यान नेन देशसर्वविरतिप्रत्याख्यानयोस्तथा तद्वतोरेव गृहस्थश्रमणमित्यस्यार्थस्य प्रतिपादनायापेकां निन्दन्नाह योनमस्कारसहिताऽऽद्युत्तरगुणप्रत्याख्यानस्य च व्यतोक्ता । लब्ध्यापेक्षया वत-दभव्यानामपि कचित । अथवा तथेति यथाविधक्षयोपशमे सति त्यागपरिणामो भवति, तथाविधे त्यागपरिणामे असति । एतेन चाविरतसम्यग्दृष्टीनां श्रूयते न च तरिकश्चि-दित्यपेक्षाऽत्र निन्दिता ॥३॥ वासुदेवाऽऽदीनामभव्याऽऽदीनांच प्रत्याख्यानस्यद्रव्यतोक्ता अथ लब्धिोजनाऽऽदिलान मादिर्येषां यशःपूजाऽऽदीमां ते लम्ध्या कथश्चित प्रत्याख्येयवस्तुत्यागपरिणामेऽपि सत्यनव्याऽऽदेः कथं दयः, तेषु तेषां वा अपेक्षा स्पृहा लध्याद्यपेक्का, तया, दिश. कन्यप्रत्याख्यानतेत्याशङ्कयाऽऽह-जिनाऽऽझायामाप्ताऽऽगमे भक्तिदो यस्मादर्थः । एतत प्रत्याख्यानम्,अभव्यानामपि सिकिंगम- बहुमानो जिनानाभक्तिसाच संवेगश्च मोकाभिलाषी जिनानायोग्यानामपि, पास्तां भव्यानामित्यपिशब्दार्थः । क्वचिद शाभक्तिसंबमोजिनाऽऽझाभक्तेर्वा सकाशात्संवेगो जिमालावस्थान्तरे,यथाप्रवृत्ति करणेन ग्रन्थिप्रदेशमागताना, श्रूयते श्राग जक्तिसंवेगः,तयोस्तस्य वा वैकल्यं विरहितत्वं जिनानाभक्तिमे आकर्यते। तथाहि-"असंजयभवियम्वदेवाणं ते! देवलो संवेगवैकल्यम,तस्मात्। एतमुक्तं भवति-अभव्यादीनां त्यागपसु नववजमाणाणं कहिं उववाए पन्नते ?। गोयमा ! जहनेणं परिणामस्य संवेगाऽऽदिविकल्पतया अपरिणामस्वात्तद्रव्यप्रजनणघईसु, उक्कोसेणं नवरिमगेवेजेसु ।" इह चासयतभ त्याख्यानमिति । एतदपि न केवलमवधिप्रत्याख्यानमपरिणामप्रविकलव्य देवा अभव्याः सन्तो ये देवत्वेन भाविनस्ते ध्या त्याख्यानमपि, असत् अशोभनं, जाबप्रत्याख्यानापेक्तया अप्र. ख्याताः। तथा-"पगमेगस्स ण भंते ! माणूसस्स गेवेजगा धानं कन्यप्रत्याख्यानमित्यर्थः॥५॥ देवसे केवड्या दम्विदिया अईया? । गोयमा ! अणंत ति।" ____ अथ वायर्यानावस्य द्रव्यप्रत्याख्यानहेतुतामाहकाव्येनियाणि च त्वगादीनि शरीराणीति तात्पर्यम् । ग्रेवेयको. उदग्रवीयविरहात, विष्टकर्मोदयेन यत् । पपातश्व साधुलि नैव, तत्र च प्रत्याख्यानमवश्यं भवतीति । भाह च-"प्राणोहेणाणता, मुक्का गेवेजगेसुन सरीरा । न य बाध्यते तदपि व्य-प्रत्याख्यानं प्रकीर्तितम् ॥६॥ तत्यासंपुग्ना- साहुकिरियाएँ उववाश्रो ॥१॥ " ततश्च किमि उदग्रमुत्कटं यद्वीर्य बीर्यान्तरायकमोपशमसंपन्नामपरिणास्याह-न चन पुनः, तदपक्काजनितप्रत्याश्यानं, किञ्चिद्वस्तु मुमु. मलक्षणं, तस्य विरहो विच्छेद उदग्रवीर्यविरदः तस्मादवधेः, कविवक्किनमोलकणं स्वफलाप्रसाधकत्वात् । स्वकासा क्लिष्टकर्मोदयेन तीब्रवीर्यान्तरायाऽऽदिकर्मविपाकेन कर्तृभूतेन, धकं हि वस्तु वस्तुत्वमाप्नोति, न पुनरम्पद्वन्ध्यासुनवदिति । यत् प्रत्याख्यानं प्रतिपन्नमपि सद् बाध्यतेऽनिभ्यते, वीर्योइतिशब्दो देवर्थः। ततश्च यतोऽपेक्काकृतप्रत्याख्यानमफलमतो हासेन हि जीवः विष्टं कर्म शम यति तदभावे च विष्टऽपेक्षा भावप्रत्याश्याने विघ्ननूता, अत्र प्रत्याश्यानविषये, जि. कर्मोदयो भवति । तेन च प्रत्याख्यानं बाध्यत इति घीयानशासने वा, निन्दिता गर्दितेति ॥ ३॥ भावः प्रत्याख्यानबाधने हेतुः । अथवा-क्लिष्कर्मोद येन यो बी. अथ विधेर्भावप्रत्याख्यानविनतामाद र्याभावस्तस्मात् प्रत्याख्यानं यदाभ्यते जोवनति, तदपि न केवलमबिधिप्रत्याख्यानं वीर्याभावप्रत्याख्यानमपि, व्यप्रयथैवाऽविधिना लोके, न विद्याग्रहणाऽऽदि यत । स्याख्यानमुक्तलकणं,प्रकीर्तितं तस्ववेदिभिः, अन्यैस्तु व्याख्याविपर्ययफलत्वेन, तयेदमपि भाव्यताम् ॥४॥ तं कालान्तरेण भावप्रत्याख्यानकारणत्वात् व्यत्वम, अस्य यथैव येनैव प्रकारेण,अविधिना विधानेन प्रसिकेन, लोके सकृत्संजातो दि भावान्तरं जनयति । यदाह-" सासंजाओ सामान्यजने,विद्याग्रहणाऽऽदि विद्यामन्त्रोपादानादि,यत् कि भावो, पायं भावंतरं जो कुग्ण।" इति । इह च द्रव्यशब्दो मपि यच्छन्दस्यह दर्शनात्तदित्यम्य च गम्यमानत्वान्न नैव त. योग्यतावाची द्रष्टव्य इति ॥ ६ ॥ उक्त अव्यप्रत्याख्यानम् । वियाग्रहणाऽऽदिकं भवति,स्वं स्वभाव न लभत इत्यर्थः । कय _ अथ भावप्रत्याख्यानमाहमित्याह-विपर्ययेण वाभितफलविपर्यासन, फनं यस्य तद्विप. एतद्विपर्ययाद्भाव-प्रत्याख्यानं जिनोदितम् । यंयफल, तद्भावस्तरवं तेन, मरणादिफत्वेनेत्यर्थः। दान्तिः सम्यक् चारित्ररूपत्वा-नियमान्मुक्तिसाधनम् ।। ७॥ कयोजनामाद-तथा तेनैव प्रकारेण, अप्रत्याख्यानत्वेनेत्यर्थः। एतद्विपर्ययादपेकाऽऽदिवतप्रत्याख्यामविपर्यासातू, अनपेका. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " पच्चक्रवाण ssदिकृतमित्यर्थः, भावप्रत्याख्यानमुक्तशब्दार्थ, भवतीति गम्यम। किम जिनोदितमभिहितम् २६ प्रयोग:यद्यस्य विपर्यतं तत्तस्याभावेऽवश्यं भवति । यथा बायाया भावे सत्यातपः, द्रव्यप्रत्याख्यानविपर्ययनूतं च भावप्रत्याख्यानमिति व्यप्रत्याख्यानाभावेऽवश्यं भवति प्रत्याख्यानसामान्ये सतीति । तच जावप्रत्याख्यानं किंफलमित्याह-नियमादवभावेन किसाधनं मोक्षकारणं साक्षात् पारम्पर्येण या कृत इत्याह- सम्यक् चारित्ररूपत्वाच्छोभनचरणस्वभावत्वात्तथा ध्यानादिगदिति दशन्त ऊा इति ॥ ७ ॥ अव्य प्रत्यास्थानं किमनर्थकमेव ?, नेत्याहजिनोक्तमितिसक्तया, ग्रहणे ऽव्यतोऽप्यदः । बाध्यमानं भवेशावरपाख्यानस्य कारणम् ॥ ८ ॥ - मरघटना पतत् प्रधानं ग्रह उपादाने - नवभावतः अपेतादि योगेन तो हीतम पीत्यर्थः भवेद्भावप्रत्ययानस्य कारणमिति योगः सदित्याह--जिनोक्तमाप्तप्रणीतमिति । एवमुल्लेखवती या सती शोभना प्रशस्ता महिमानविशेषा साजिनोमितिसङ्ग तिः, तया । अथवा जिनोतमिति देतोः, शेषं तथैव । बाध्यमानं निराक्रियमाणं, जवेत् स्यात् । जावप्रत्याख्यानस्थ परमार्थप्रत्या ख्यानस्य कारणं निमित्तं, जिनोक्तमिति सद्भक्तिर्हि व्यप्रत्याख्यामहे नामादिभात्रा स्यात् तेष नीसन सर्वमेवेति भावनेति ॥ ८ ॥ हा० अ० | सूत्र० । अव० । (६) दुई सुनोमुख, मुखं दुदा पुथ्यमेव नोपुव्थं । पुत्र नत्रमपुब्वं नोपुव्त्रसु इमं चेत्र ॥ ए ॥ त्यानं द्विविकार- सुनो प्रत्यास्यामोत्याचा पूर्वनयम अभिधानराजेन् विबुत प्रयत पूर्वनयमपूर्वे प्रत्ययानपूर्व मनो पुव्वसुर्य इमं च) नोपूर्व श्रुत प्रत्याख्यानाध्ययनमिति । तचोप पक्वानाने पूर्वषामिति गाथार्थः ॥५॥ श्रधुना नोश्रुतप्रत्याख्यानप्रतिपादनायाऽऽद नोपचक्लाणं अ , मूलगुणा चैत्र उत्तरगुणे । सूझे सधंदे इतरियं भावकहिअं च ॥ ६ ॥ मूलगुणा विदुविधा, समणाणं चैव साया च । ते पुण विजज्जमाणा, पंचविद्या हृति नायन्त्रा ॥ ७ ॥ भनिन श्याम उत्तरगुणे) मूलगु स्योरगुगा मूलभूत गुण एव प्रातिपि रूपत्वात् प्रत्याख्यानं वर्त्तते । उत्तरजूता गुणास्त्र एवाऽशुद्ध पि राम निवृत्तिरूपस्वास्नंपियं शविधमुत्तरगुणप्रत्याख्यानम् (मूले सन्धे देले ति) मूलगुणप्र स्वायाद्विधा सर्वगुणानं देश सावधानं पञ्च महावनानि (=0) गुणस् वर्त्तते यत उत्तरगुणप्राणमपि द्विवेषरूपानं शोतरगुण प्रत्याख्यानं च तत्र सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानं दशविधम्-"अणा पच्चक्रखाण गयमतं " इत्याद्युपरिष्टाद्वदयामः । देशोत्तर गुणप्रत्याख्यानं सप्तविधमीण गुणवानित्वारिशद मः पुनरुतरगुणद्विविधा हियं ।" यदित्वरं साधूनां किञ्चिदनिग्रहाऽऽदि श्रकाणां तु च. वारिधिकंतु कादिष्वपि न भज्यते का तु श्रीणि नीति गाथार्थ।। साम्प्रतं स्वरूपतः सर्वमूलगुण प्रत्याख्यानमुपदर्शयन्नाह - पाणवह मुसावा, अदय मेहुल परिमगडे चेद । समाणं मून्नगुणा, तिविद्धं तित्रिहेण नेयव्त्रा ॥ ८ ॥ 1 प्राणा द्वीन्द्रियादय । तथा चोक्तम्- "पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं [य] [] उच्चासनश्वा समधान्यदायुः प्राणा द तास्तेषां वियोगीकरणं तु हिंसा ॥१॥ " तेषां वधः प्राणवघो पायास्तस्मिन् अदनिधान इत्यर्थः । ( प्रदत्त नि) उपलणत्वाददत्तादाने परस्वापहारे इत्यर्थः (मेहुनि मैथुनमा सेवने (परमा) परिग्रहे चैव । एतेषु विषयभूतेषु श्रमणानां साधूनां मूलगुणाः प्रथमगुणास्त्रिविधत्रिविधेन योगत्रयकरणत्रयेन नेतच्या अनुसरणीयाः। इयमत्र भावना-श्रमणः प्राणातिपाताऽऽदिविरतस्त्रिविधं त्रिविधेन "तत्थ तिविद्धेत्ति-न करेश न कारवेश न करेंतं पि अन्नं समरणुजाण, तिविद्देणं ति मणेणं, बायाए, कारणं । " एवमन्यमपि योजनीयमिति गाथार्थः ॥ ८ ॥ इत्थं तावदुपद तिं सर्वमूलगुणप्रत्यास्थानम् । अधुना देश मूलगुणप्रत्याख्यानावसरः, तथच भावकाणां प्रती तिकृत्वाविशेषानुग्रहाय कर्मविधिरेषतः प्रतिपादनीयः । श्र० ४ अ० आ० चू० । श्रा० । स प्रत्यास्थानद्वारे पाण्यानंदाहरणमाहकोमीवर विझाए, जिनदेवे रयणपुच्छ करणा य । साएए सतुंजय-वीरे कटुणा व संबोध ॥ १ ॥ "साकेतनगरे कीण-शत्रु नृपः। जिनदेवधायको कोटरे ॥ १ ॥ नारा तस्य यत विस्मितस्तैचिन्नातोऽथ कैतानीति तमब्रवीत् ॥ २ ॥ जनवादमा सन्ति बहुन्यपि । सोपचार परं बिभेमि ते राज्ञो मा भैषीरिति सोऽब्रवीत् । तेन विज्ञप्तिका प्रैषि, रास्तेनोक्तमेत्वसौ ॥ ४ ॥ श्रावण स श्रानिन्ये, तदानीं व जिनेश्वरः । श्री वीरः समवासार्थी तत्र शत्रुञ्जयो नृपः ॥ ५ ॥ पराश्यसपछि। जिनजिना ॥ ६ ॥ रान सोम्या गती दृष्ट्वा समवसरणं, चिलातोऽतीव विस्मितः ॥ 9 ॥ प्रधुं प्रणम्य रत्नानि पप्रच्क्राथ सविस्तरम् । तस्याऽऽस्य द्रव्यरखानि, भावरत्नानि च प्रभुः ॥ ८ ॥ मार्च सामायिक सारं, सचतुवैिशतिस्तवम तातियीक बन्दनकं, प्रतिक्रमणसङ्गतम् ॥ ६ ॥ कायोत्सर्गस्तथा प्रत्याख्यानं रक्षानि भारतः । - Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (UN) अभिधान राजेन्द्रः । पच्चकखाण ॥ १० ॥ तेजानि दाणामपि चिलातः प्रतिबुद्धोऽथ, नावरत्नान्ययाचत । महावतानि रत्नानि स्वामी तस्य ततो ददौ ॥ ११ ॥ १. उत्तरगुणप्रत्याख्यानोदाहरणमाहवाणारसी नगरी अणगारे धम्मघोसधम्मजसे | मासस्स य पारणए, गोउलगंगाइ अणुकंपा ॥ १ ॥ " वाराणस्यां चतुर्मासीं धर्मघोषमुनिः स्थितः । तथा धर्मशास्तौ द्वौ, मासान्मासाच्च भोजिनी ॥ १ ॥ तुयंपारणकस्याहि मा नित्यवासिनी। कृत्या सूत्रार्थ पौरुष्य, गिरगाव महाऋषी ॥ २ ॥ शारदेना समाया यादीत पा तर तो मनसाऽप्यम्पु ताम् ॥ ३ ॥ गङ्गास्ततीरे, घोषानिर्माय क्रियान् अजूबा तामुपयुश्य च ॥ ४० काया सूरी निराकृत्य प्रतिदेवता । वनुकम्पया वर्षी, वादेलैर्भूमिरार्द्धिता ॥ ५ ॥ शांत वातराध्यायितो तो प्रामीयतुः। भिका तत्राऽऽददे ताभ्यां नैवोत्तरगुणाः कृताः ॥ ६ ॥ " श्रा० क० ४ अ० । (3) आयकधर्म: साधम्मस्स विहिं वृच्छामी धीरपुरिसपत्तं । जं चरिऊण सुविहिआ, गिरिणो वि सुहाएँ पार्वति ॥६॥ तथायुपेतसम्यतः प्रति प्रतिदिवस पतिभ्यः साध्यासानामनगारियां सामाचारी गुणोतीति आपक इति । उक्तं च-" यो ह्यभ्युपेतः सम्यक्त्वे, यतिभ्यः प्रत्यहं कथाम् । शृणोति धर्मसंज्ञा-म आवक उच्यते १ " आयकाणां धर्मः श्रावकधर्मः, तस्य विधिः तं च वक्ष्येऽनिधास्ये, किंतम् ?, धरपुरुषमं महासत्वमा बुकिङ्ग गणप्ररूपितमित्यर्थः संचरित्यादिना गृहिणोऽपि सुखम्बेदिकामुकानि प्राप्नुवन्तीति माचार्थः । तत्र ते 1 साभिगाय निरभि- मगहा य श्रहेण सात्रया दुविहा । पुण विजमाणा अहविहा इति नायव्या ॥ १० ॥ अभिगृह्यन्त इत्यजिग्रहाः प्रतिज्ञाविशेषाः, सह अभिग्रहैर्वइति साभिप्रा से पुनरकभेदा नयन्ति तथाहि-शगुणोत्तरगुणेषु सर्वेष्येकस्मिन् भवन्त्येव तेपामनिग्रहाः निर्माता अभियान से न केवलम् मोका विशेषेण निरूप्यमाणा अष्ट्रविधा भवन्ति ज्ञातव्या इति गा थार्थः । मिन एव यथा कृष्णपकलेला द्विविधा यथाधा तितोपदर्शनविहतिषिण पडमो दुनिवहे बीओ होइ। एमवि एव तव । ११ ॥ एहिं विदेशं किवि उथो हो । उत्तरगुणमओ अविश्य अम ।। १२ ।। २३ पच्चक्खाण कति इदयोप्सीनाद्विविधमति तकारी, तत्त्रिविधेनेति मनसा वाचा कायेनेति । एतदुक्तं भवतिप्राण न कस्यात्मना न कारयत्यन्यैर्मनसा वाचा कायेनेति प्रथम प्रस्यानुमतिरप्रतिषिद्या अपत्यादिपरिस भाषाकिरणेव तस्यानुमाप रिग्रहापरिग्रहयोरविशेषेण प्रब्रजिताऽप्रत्रजितयोरभेदापतेरिति भावना । अत्राऽऽह - ननुभगवत्यादावागमे त्रिविधेनेत्यपि प्रत्या ख्यानमुक्तमगारिणस्तु किस्म विशेषत धादि फिलमजिरेव प्रतिमां प्रति विपासनाय स प ति करोति तथा विशेष्य का चिमणस्यादिकं तथा स्यूलप्राणातिपालाssiदकं चेत्यादि, न तु सकल सावद्यव्यापारविरमणमधिकृत्येति । ननु च नियुक्तिकारण स्थूलप्राणातिपाताऽऽदावपि त्रिविधं त्रि विपति को विकल्प "बीरयणमिती सा भणिया ।" इति वचनाद्, अन्यथा पुनरधिकाः स्युरिति । अत्रो च्यते - सत्यमेतत् किं तु बाहुल्यपक्कमेवाङ्गीकृत्य नियुक्तिकारेन्यायाविशेषे काचिदेव समाचर्यतेन सामाचार्यमुपतिष इति द्विविधमिति स्थूलप्राणातिपान करोसिन कारयति द्विविधेनेति मनसा वाचा । यद्वा-मनसा कायेन । यद्वा-कायेन वाचा । इह च प्रपातोपसर्जन जावविकायां चार्थो वाऽऽशयः, तत्र यदा मनसा वाचा त्रिविधेनेत्यमिव निर्विकल्ये सर्वागारिणः सर्वमेव प्रत्याख्यानं भवतीति न कश्चिद्दोष इत्यलं प्रसङ्गेन । प्रकृतं स्तुमः धदुवणं न करोति न कारयति तन्म नखाऽभिसन्धिरहित एच बाचा सहिम कार्यव कायेन यदा तु मनसा कायेन न करोति न कारयति तदा मनसेवाजसन्धिमधिकृत्य करोत्यनु अनुमतिश्रुतिभिरपि सर्वत्रैवास्तीति भावना । एवं शेषा वि [का] अपि भावनीया इतेि । (गति) - विविधेनेति गाथार्थ (ए विधिशि) एक विपत्रिविधेन श्नदो एकमेकनि पो भवति भेदः। गुणसम प्रतिपन्नोत्तरगुणः सप्तमः । इह च संपूर्ण संपूर्णान्तरगुणभेदमनादृत्य सामान्येनैक एव भेदो विवचितः। (अविरयश्रो अहम त्ति) अविरतश्चैवाष्म इति श्रविरतसम्यग्दृष्टिरिति गाथार्थः । इत्थमेतेऽष्टौ भेदाः प्रदर्शिताः, एते एवं विभज्यमाना द्वात्रिंशद्भवन्ति ?, कथमित्यत आहपपतिर्ग दुर्ग एवं गिल्ड क्याई । अवावि उत्तरगुणे, अहवा वि न गिएहई ते वि ।। १३ । (ग) पञ्चातासमुद्धति ि क्तलक्षणाः षम् दा जवन्ति । ( चउकं वित्ति ) तथाऽणुव्रतचतुष्टयं गृह्णात्यपरस्तत्रापि पडेच मत गृह त्रापि षंडेव । (दुगं च त्ति ) इत्थमपुत्रतरूयं गृह्णाति तत्रापि मेव (पगं वत्ति ) तथाऽन्य पकमेवावनं गृह्णाति तत्रापि पमेव । ( गेण्ड वयाई ) इत्थमनेकधा गृह्णाति व्रतानि विचि त्वाब्रावकधर्मस्य । एवमेते पञ्च षट्काः त्रिंशदन्ति । प्रतिपन्नो सगुन विताउ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (0,0) अभिधान राजेन्द्रः । पच्चक्खाण अथवोरगुणों गुणादिलान् गृहात केल सम्यग्दर्शनना सढ द्वात्रिंशद्भवन्ति । तथा चाऽऽह - ( ग्रहवा विन वि) अथवा महति तामव्युचरगुणानिति के सम्यग्र हवेत गाथापैः । इदच पुनर्भूलगुणो वरनामाधारसम्प बर्चते। तथा चाऽऽह | 9 निस्संकिका निर्वाखिका निम्विनिगच्या अमृदिडी वीरवयम्मि एए, बत्तीसं सावया भणिमा ।। १४ ।। शादिस्वरूपमुदाहरणद्वारेणोपयामवीर भगवन्महावीरवर्डमानस्वामिप्रवचने, एते अनन्तरोक्तात्रिशुदुपासकाः धावकाः भणिता उक्ता इति गाथार्थः । " एए ये बती निविदा रोग वि सेसिजमाणा सीयानं समणोवालगस्स य भवंति कहूं ?, पााचार्य न करेइ मणसा १, अहवा-पाणातिवातं न करें‍ वायाए २, अहवा-पाणातिवार्य न करेश कापणं ३, अहवा पाणातिवायं न करे मणेणं बायाए य ४, श्रवा-पाणातिपातं ण करेति मणेणं कारण य ५, श्रहवा-पाणातिवायं न करेश वाया कारण य ६ अहवा-पाणातिपात न करेइ मणेण वायाए कारण य ७ । पते सत्त भंगा करणेणं । एवं कारवणेण वि एते चैव सत्त मंगा ७ ॥ १४ ॥ अणुमोयणेण वित्त मंगा २१ श्रहवान करे न कारवेश् मन सा १, अहवान करेश् न कारवेश वयसा २, अवा-न करेह न कारवे कारण ३, अहवान करे न कारवेश् मनसा वयसा ४ अहवान करे‍ न कारबेइ मनसा कायेन ५, श्रहवा-न करेश न कारवेद वयसा कापेन ६ | अहवान करे न कारेश मनसा वयसा कायेन ७ । एते करणकारोदि सत्त भंगा। एवं कारणामायणेहिं वि सत्त भंगा ७ । एवं कार मोयणेहिं वि सस भंगा ७ । एवं कारणा मोय. णेहिं वि सत्त भंगा ७ । एवमेते सत्त सस भंगा पगुणपचासाि भवति तमो गुणासो दियो पाणातिया न करे न कारयेद करते सम जाणाति । मणे वायाए कारणं ति, एस अंतिमविगप्पो ।४। पडिमापरिवास्स समणोबासगस्स तिविहं तिविहें नवसीति । एवं अतीताय काले परिक्कमंतस्स पगुणमासा भ वंति । एवं पशुप्पो वि काले पगूणपणासा जवंति। एवं प्रागते च काप्ने पञ्चकखे य तस्ल पगूणपश्वासाओ तिमि ॥ १४ ॥ सीचा भंग पचवाणम्पि जस्म उवाद्धं । सो खलु पच्चक्खाणे, कुसलो सेसा अकुसन्ना न || १५|| तिथि विद्यातिथि हुआ, तिथिका यहुति जोगे | , एति दुर्गति एवं चैन करवाई ।। १६ ।। पढमे लब्मइ एगो, सेसेसु परसु ति तिन तिति । दो नवति दो नवगा, तिगुणि असी आलजंग सयं ॥ १७ ॥ सीयानं सावयास हवः सीयालजंगसतगं जस्स विसोड़ीए होर उचल सो बलु प्रकुपण पंचा अन्वये गुणियं सत्त सयाणि सावयाणि भवंति । पव एकादिसंजोगवारे पत्र ततरा जेदा निर्देसिज्जति ।" तत्रेयमेकादिसंयोगपरिमाणदर्शन की ६० - पश्चवखाय अथेदं प्रत्याख्यानं यतिगृहस्थयोर्भेदेन व्यवस्थापयन्नादकरण तिगेोकं, कालतिगे तिघण संखियमिसीं । सम्वं विजओ गहियं, सीयान्नमयं पुण गिट्टीणं ॥ ३५४०॥ अत्र न करोमि न कारयामि इत्यादिकमेकैकं योगं मनःप्रभृतिना करणत्रयेण सह कालत्रिके चारयेत् । ततश्च त्रयाणां यो घनः विशतिः संख्यामाधित्य तत्संख्याम माणमृषीणां साधूनाम् अशेषः कस्मादतः सर्व सावद्यं योग प्रत्याख्यामि, इति साधोः प्रत्याख्यानं गृहीतं, ततस्तत्प्रत्याख्यानभङ्गकानामेतत्संख्या प्रमाणता, श्रसर्वसाव धयोगप्रत्याख्यायिनां पुनगृहिणां प्रत्याख्यानस्य सप्तचत्वारिंशदधिकं मङ्गकशतं विशेयमिति । इयमत्र भावना-त्रिवित्रित्यास्थानादतः सा त्यानस्य सप्तशति सूचिताः यन्न करोति तन्मनसा वाचा कायेन, एवं न कारयत्यपि म नसा वाचा कार्यन, एवं न समनुजानीते च मनसा वाचा कायेन इत्येवं वर्त्तमानकाले भवन्ति यमती ऽपि न भविष्यन्ति, भविष्यत्यपि नव, इत्येवं सप्तविंशतिभङ्गाः साधुप्रत्यख्यानस्य भवन्ति । गृहिणम्तर्हि कथं सप्तचरवारिश की सायं यो न करोति, न कारयति, नान्यं समनुजानीते, मनसा बाचा कायेन चेत्येको भङ्गः १, अथवा न करोति न कारयति नानुजानीते मनला वचसा च २, अथवा मनसा कायेन च ३, अथवा वचसा कायेन च ४, अथवा न करोति न कारय ति नानुजानीते मनसा ५, अथवा वचला ६, अथवा कायेन. ७, अथवा न करोति न कारयति मनसा वाचा कायेन प्र अथवा न करोति नानुजानीते त्रिभिरपि करणैः ए, श्रथ वा न कारयति नानुज्ञानीते त्रिभिरपि करणैः १०, अथवा-न करोति न कारयति मनसा वचसा ११, अथवा मनला का येन च १२, अथवा वचसा कायेन च १३, अथवा न कराति नानुजानीते मनसा वचसा १४, अथवा मनसा कायेन १५, अथवा वचसा कायेन १६, अथवा कारयति नानुजानीते मनसा वचसा १७ अथवा मनसा कायेन १०, अथवा वचसा कायेन १९ अथवा न करोति न कारयति मनसा २०, अथवा वचसा २१, अथवा कायेन २२, अथवा न करोति नानुजानाति मनसा २३, अथवा वचसा २४, अथवा कायेन २५, अथवा-न कारयति मनसा २६, अथ. बावचसा २७, अथवा कायेन २८, अथवा न करोति मनसा वचला कायेत २६, अथवान्न कारयति ३०, अथवा नानुजानीते ३१. अथवा न करोति मनसा वचसा ३२, अथवा मनसा कायेन ३३, श्रयवा वचसा कायेन ३४, अथवा न कारयति मनसा वचसा ३५, अथवा मनसा कायेन ३६, अथवा वचसा कायेन ३७, अथवा नानुजानीते मनसा वचसा ३० अथवा मनसा कायेन ३६, अथवा वचसा कायेन ४०, अथवा-न करोति म नसा ४१, अथवा वचसा ४२ अथवा कायेन ४३, अथवा न कारयति मनला ४४, अथवा वचसा ४५, अथवा कायेन ४६, अथवा नानुजानीते मनसा ४७, भथवा वचसा ४८, अथवा कामेन ४ मे वर्तमान दर्शितामती विध्यति च प्रत्येकमेतेाः । " Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैच्चक्खायण अभिधानराजेन्द्रः। पच्चक्खागा ततः सर्वेऽपि सप्तचत्वारिंशं शतं नानां भवति । अत्र चा. माणमइसंवरणं वाऽ-तीतस्स करोमि जं जणियं ॥३५४६।। यं नावार्थ: अतीतसावघयोग न करोमि न कारयामीत्यादिवचनतोऽती. "तिविहं तिबिहेण पढमा, तिविहं विदेण वीअश्रो हो। तकृतसावद्ययोगविषयं निन्दनमहामदानी करोमीत्यभिहितं सु. तिविहं पकविदेणं, दुविदं तिबिहेण ति व उत्थो ॥१॥ ठु तदा सावद्ययोगाऽऽसेवनं मया कृतम् इत्येवंरूपाया अनुमतेवा दुविहं दुविहेण पंचम, दुबिहेक्कविहेण छठो होछ । संवरणमतीतस्य सावद्ययोगाऽऽसेवनस्य इदानी करोमीति यपक () पिहं तिविरुण, दुविहेण य सत्तमहमश्रो। द्भणितं भवति-न करोमि इत्यादिना अतीतस्य संवरणं कपक्कविहमेकविहेणं, नया पढमम्मि, पकनंगो य । रोमीत्येतदुक्तं भवतीत्यर्थः ॥ ३५४६ ॥ सेसेसु तिनि तिमि य, तिनि य नव नव य तह तिथि ॥३॥ मव नब य हाँति कमसो, एए सब्बे वि पगुणवत्रा । परिहारान्तरमाहकालतिएणं गुणिया, सोयालसयं तु भंगाणं ॥४॥ अहना तयविरईश्रो, विरमे संपयमईयविसयाओ ! श्राद कहं पुगा मणसा, करणं कारावणं अतुमई य । संपइसावजा इव,पवजओ को मुसाबाओ? ।। ३५१७ ॥ जह वश्तणुजोगेहि, करणाई तह भवे मणसा ।। ५ ।। अथवा तस्मात साबद्ययोगादविरतिस्तदविरतिः तस्यास्तदतदहीणत्ता वयतणु-करणाईणमहव मणकरणं । बिरतरतीतविषयायाःसाम्प्रतसावद्यादिव विरमामि साम्प्रत सावजजोगमणणं, पन्नतं वीथरागेहि ॥ ६ ॥ महमित्येवमतीतकालविषयप्रत्याख्यानं प्रपद्यमानस्य को मृषा. कारवणं पुण मणसा, चितेइ कारमो एस साबजं। वादः?,न कश्चिदिति ॥ ३५४७॥ चितेज चकरो, सुतु कयं अणुमाई हो ॥ ७॥" माह-"ननु न करेमि न कारवमिन समाजाणामि" इत्ये. इत्यसं विस्तरेण। तदना तु प्रत्यादिग्रन्थाः समनुसर. तावतैव विवक्तितार्थसिकेः " करेंत पि अनं" इत्येतत्किणीया शति ॥ ३५४०॥ मर्थमुक्तम ? इत्याशक्याऽऽहपतेच भङ्गा यस्यार्थतोऽधगताः स एव सामायिकप्रत्यास्वानकु. न समाजाति गए, करेंतमन्नं पियं सुएऽभिहियं । शल इति दर्शयन्नाहसीयावं जंगसयं, पञ्चक्खाणम्मि जस्स उवाई। संभावणेऽविसद्दो, तदिहोजयसहमजकत्थो ॥ ३५४ ।। "न करेमि नकारवेमि न समणुजाणामि ।" इत्येतावतच सो सामाइयकुसमो, सेसा सव्वे अकुसमा उ ।।३५४१॥ गते सिद्ध यत्-"करेंतं पि अनं" इति प्रस्तुतसामायिक गतार्था ।। ३५४१॥ श्रुतेऽभिहितं, तदिह " करेंतमन्न" इत्युभयशब्दयोमध्यस्थो भत्र त्रिविधं त्रिविधेनेति गृहस्थप्रत्याख्यानस्य प्रथम न. मध्ये वर्तमानः, अपिशब्दः संभावने यथा स्यादित्येतदर्थम. माश्रित्यापपरिहाराबाह वगन्तव्यमिति ॥ ३५४० ॥ केई भणंति गिहिणो, तिविहं तिविहेण त्ति संवरणं ।। किं पुनरयमधिकं संभावयतीत्याहतंन जो निविलु, पन्नत्तीए विससेउ ॥ ३५४॥ न करेंतं पि तिन का-रवतमवि नावि याएजाएं। तो कह निप्फत्तीए-मनिसेहो त्ति सो सविसयम्मि। न समणुजाणेमि न का-रयामि अवि नाणुजाणामि३५४६ सापमेण नत्थ उ,तिविहं तिविहेण को दोसो॥३५४३॥ अन्नं पि अप्पयं पि व, सहसाकाराणा पयत्ततं । पुत्ताइसंतनिमि-त्तमित्तमेक्कारसिं पवनस्स। इह सयो संगहिओ, कत्ताकिरियापरंपरो ।। ३५५०॥ जपति केइ गिहिणो,दिक्खानिमुहस्स तिविहं ति॥३०४ा | यथा-आस्मानं सहसाऽऽकारादिना सायद्ययोगे प्रवर्तमानं सुष्ठ एताः तिस्त्रोऽपि पूर्वमुपोद्धाते " कि काविहं" इत्यादि. कृतमित्येवं न समनुजानामि, किं तु मिथ्यादुष्कृतदानाऽऽदिमा गाथायां कस्य सामायिकं भवतीतिद्वारे विस्तरेण व्याख्याता ततो निवर्तयामि, इत्येवं कुर्वन्तमपिशब्दात्कारयम्तमपि अ. पत्र, नवरं सामान्यन स्वविषयबहिर्भागे चिन्तामुत्सृज्य नुजानन्तमप्यन्यं न समनुजानामि, यथा चान्य कुर्वम्तं न प्रत्याख्याने क्रियमाणे नियुक्तावनुमतिनिषेध उक्तः,अन्यत्र तु वि. कारयामि, एवमपि शब्दात्कारयन्तमप्यन्यं न कारयामीत्याहशेषतो विषय बहिर्भागे त्रिविधं त्रिविधेनेति न दोष इति । यथा चान्यं नानुजानाम्येबमपिशब्दादनुजानन्तमप्यन्यं नानु. अपरस्स्वाह- . जानामि, इत्यादिप्रकारेण संभवन् सर्वोऽपि कर्तृक्रियापरम्पजुत्तं संपयमिस्सं, संवरणं कहमतीयविमयं तु । रकोऽपिशब्देनेह संगृहीत इति ॥ ३५५० ॥ कहमउणवन नेयं, कए व न कहं मुसावायो ? ॥३५४५।। अथवा त्रिकालोपसंग्रहार्थमपिशब्द इति दर्शयन्नाहयुक्तं साम्प्रतम्यतोः कालयोः सावधयोगस्य संवरणं प्रत्या- न करितं वा जणि ए.अविसदा न कयवंतमिच्चाई। त्यानं, तयास्तस्याऽद्याप्यनासेवितत्वात् । अतीतकासविषयं तु समईयमागमिस्सं, तह न करिस्सं तमिचाई ।। ३५५१ ॥ तत्कथं युक्तम, पूर्वमेव तस्याऽऽसेवितत्वात् । कथं च तदती. अथवा कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामीति वर्तमानकालमा. तसावधयोगप्रत्याख्यानमेकोनपश्चाशझेदं वक्तुं युज्यते, मूत्रत श्रित्य भणिते अपिशदात्समतीतमपि कालमनुसृत्य तद् अष्ट एवासनयात्?, कृते वा तस्मिन्नतीतसावधप्रत्याख्याने कथं न व्यं, कृतवन्तमप्यादिशब्दात्कारितवन्तमप्यनुज्ञातमध्यन्यं नानु. मृषान्नादः, असतविषयत्वादिति ? ॥ ३५४५ ॥ जानामीति । तथा-आगमिष्यन्तमपि कालमङ्गीकृस्याऽऽदिशब्दाअत्र परिहारमाह देनद्रश्यम, करिष्यन्तमप्यादिशब्दात् कारयिष्यसमप्यनुमानिंदणमईयविसयं, न करेमिच्चाइवयानोऽभिडियं । । स्यन्तमप्यन्यं नानुजानामीति । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चक्खाण ( २) प्रनिधानराजेन्द्रः। पच्चक्खागा अथवा अन्यथा त्रिकालोपसंग्रह इत्याह वचनोऽप्ययं सर्वशब्दो विशेषविषयो ज्ञेयः । ततश्च भविष्यसव्वं पञ्चक्खामि, त्ति वा तिकालोवसंगहोऽनिमो। कालसावद्ययोग इह जीवितभवपर्यन्त एव निरवशेषसअनिसद्दाश्रो तस्से-व कत्तकिरियाऽभिहाणं ति।३५५। वंशब्देन गृहीतः, अतीतसावद्ययोगोऽप्यमुमतिमात्रक एव निअथवा-सबै सावधं योगं प्रत्याख्यामि इत्यनेन सामा रवशेषः, तेन क्रोडीकृत इति भावः । पूर्वमुत्सर्गतः कालमय. गतः समस्तसावधयोगविषयं सर्वशब्दं कृत्वा अपवादन भ्याभिधानेन त्रिकालसंग्रहोऽभिमतः, अस्मादेव सामान्या बाधा प्रोक्ता, इह तु सामायिकसुत्रे नियम्त्रणाद्वारेण प्रथमत भिधानादतीते संप्रति भविष्यति च काले सर्व साधद्ययो. एव देशतो निरवशेषविषयता सर्वशब्दस्य दर्शिता, इत्येगं प्रत्याख्यामीति गम्यत इत्यर्थः । इदानीं तु"करेंतं पि अ. नं" इत्यत्रापिशब्दातस्यैव कासत्रयस्य संबन्धे कर्तृक्रियाऽ. तावन्मात्रो व्याख्याद्वयस्य विशेषोऽवसेय इति ॥ ३५५५ ॥ ।। ३५५६ ॥ निधानमनिहित, यथा वर्तमानकाले अई म करोमि, न का. रयामि, कुर्वन्तमन्यं न समनुजानामि, तथा अपिशब्दादतीते इत्थं चैतदनीकर्तव्य, यतः सूत्रान्तरेऽप्यभिहितम् । किम् ?, प्रविष्यति च काले ३ करोमि न कारयामि कुर्वन्तमन्यं न इत्याहसमनुजानामीति प्रत्यकमवगन्तव्यमिति ॥ ३५५२ ॥ समईयं पडिक्कमए, पाचुप्पन्नं च संवरेश त्ति । अत्रामपं परिहारं चाऽऽह पचक्खाइ प्रणागय-मेवं हई पि विनयं ।। ३५५७॥ एवं सम्बस्सासे सविसयोऽतीयागएK पि । सुबोधा, नवरमतीतप्रतिक्रमणेन तदनुमतिमात्रप्रत्याख्वानपावइ सम्बनिसेहो, भाइ तं नाववायाभो ।। ३५५३ ।। मुक्तम् “ पश्चक्खाइ प्रणागय " इत्यत्र" यावांवम"इनन्वेषमुक्तप्रकारेणातीतेनागते च सर्वस्मिन्नपि काले आसे. तिशेषः । ततश्च देशता निरबशेषविषयः सपशब्दः सि. वितस्याऽऽसेविष्यमाणस्य व सर्वस्यापि सावद्ययोगस्य नि. द्ध इति । प्रेधः प्राप्नोति । कुतः १, इत्याद-( सध्वस्सेत्यादि ) सर्वस्य "तस्स भंते" इत्यादेाख्यानार्थमाहसर्वशब्दस्याशेषविषयत्वादशेषविषयत्वेन पूर्वमिदैव ध्या- तस्म त्ति स संबज्कइ, जोगो सावज एव जोऽहिगो । ख्यातत्वादित्यर्थः । न चैतद्युक्तम्-प्रतीतलावद्य-योगस्या- तमिति विइयाहिगारा-दभिधेये किमिह तस्स त्ति ।३५५८। सेवितत्वाद् , आसेवितस्य प्रत्याख्याने मृषापादाऽऽविदो "तत्स" इत्यत्रासावधिकृत एव सायद्यो योगः संबध्यते । षप्रसगादू, भविष्यतश्च तस्य सर्वस्याऽपि प्रत्याख्यानदो अत्र परः प्राऽऽह-ननु प्रतिक्रमामीति क्रियायोगतो द्वितीयाषानुषङ्गादिति । भएयतेऽत्रोत्तरम-तदेतन प्राप्नोति । कुतः?, ३. धिकारात्तमित्यमिधेये वक्तव्ये किमिह षष्ठीनिर्देशात्तस्यान्यत्याह-अपवादादू अपवाद बाधितत्वादिति ॥ ३५५३ ।। त्वम् ?, इति ।। ३५५७ ॥ तमेव चापवादं दर्शयति गुरुराहभूयस्स पडिक्कमणाऽ-भिहाएओऽणुपइमेत्तमागहियं । संबंधनकवणाए, छट्ठीए अवयवलक्खणाए वा । जावजीवग्गहणा, एस्सस्स य मरणमज्जाया ॥३५५था। समतीयं सारज, संबंज्मावेइ न न सेसं ॥ ३५५ए । " तस्स अंते ! पमिकमामि " इत्यादिना प्रस्तुत एव सा- इस संबन्धनकणया अवयवकणया बा षष्ठ्या समतीत. मायिकसूत्रे प्रतिक्रमणस्यानिधानतो जूतस्यातीतसाद्ययोग कानविपयमेव सावा योग संबन्धयति । इदमुक्तं भवतिस्यानुमतिमात्रमेव प्रत्याख्येयत्वेनागृहीतं न पुनः, सर्वोप सा: गतयोगस्य संबन्धिनं तदवयवभूतं बा अतीनबद्ययोगः, तदनुमतेश्च प्रत्यास्याने न कश्चिन्मृषावाद .. सालमा प्रतिक्रमामीति सामान्येन संबन्धलक्षणया अव. न्तरमेव प्रागुक्तं यावज्जीवग्रहणात्पुनरेष्यतोऽपि सर्वसावध यवलक्षणया वा षष्ठधा तस्येत्यत्रातीतसावायोग संबन्धययोगस्य प्रत्याख्याने मरणमर्यादाऽपवादः, यावज्जीवमेव तं ति सूत्रकारः । न तु शेषं वर्तमानमेष्यन्तं वा, तस्य संत्रिप्रत्याचके न परत इति।। ३५५४ ॥ यमाणत्वात्, प्रत्याख्यायमानत्वाश्च प्रतिक्रमणस्य चातीतविन अथवाऽस्मिन्नेव सामायिकसुत्रे निरवशेषवचनोऽपि स षयत्वादिति ॥ ३५५ ॥ शब्दः प्रतिनियतविषयत्वेन व्यवस्थापित इति दर्शयन्नाद अत्र केषाश्चिन्मतमुपन्यस्य दूषयन्नाहअहवा जावजीव-ग्गहणाअोऽयागयावरोहोऽयं । अविसिटुं सावन्नं, संबज्काति केइ उट्ठीए । संप कासग्गहणं, न करोमिच्चाइगहणाश्रो ॥३५५५।। तन्न पोयणाजा-बो तहा गंथगुरुयाओ ॥३५६०॥ नूयस्स पमिक्कमणा-इणा य तेणेह सम्बसद्दोऽयं । पच्चित्तस्स पडिक्कम-णोय पायं व नूयविसयाओ। नेमो विसेसविसो,जओ य मुत्तंतरेऽनिहियं ।३५५६। तीयपमिकमणाओ, पुणरुत्ताइप्पसंगाओ ॥ ३५६१ ॥ अथवा सूत्र एव यावजीवग्रहणादनागतकालस्यायमबरोधः इह केचनाप्माचार्यदेशीयास्तस्येत्यत्र षष्ठ्या अविशिष्टमेव सुदी!ऽप्यनागतकारो यावज्जीवग्रहणाद नैयत्यविधानेन विशे. त्रैकालिकं सावद्ययोग संबन्धयन्ति । तदेतन युक्तं, अविशि घे व्यवस्थापित इत्यर्थः । “न करेमि न कारवेमि" इत्या- त्रकाक्षिकसाबद्ययोगसंबन्धस्येह प्रयोजनाभावात्, तदभावदिवचनात्तु साम्प्रतकालग्रहणमिति " तस्स नंते ! पमिक्क- श्वातीतस्यैव प्रतिक्रमणसंभवात् । अथ सामान्ययोग संबमामि" श्त्यादिसूत्रावयवे च भूतस्यातीतस्य साबधयोगस्य प्र- ध्य पश्चाद् विशेषेणातीतस्यैव तस्य प्रतिक्रमणं व्याख्यास्यत तिक्रमणाऽऽदिना,आदिशब्दान्निन्दाग विधानेन च विशेषविष. | इति श्राशङ्कयाऽऽह-तथा सति ग्रन्थगुरुताप्रसादिति । किचपतागर्भमतीतकाल ग्रहणमिति शेषः । येनवं, तेनेह निरवशेष- (पच्चित्तेत्यादि ) प्रायश्चित्तस्यैव प्रतिक्रमणरूपत्वात, प्राय Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चकखाण चितरूपमेव हि प्रतिक्रमणं, नान्यदित्यर्थः । ततः किमित्याहप्रायशिवस्य च प्रायो विषयत्वादादा यत्वात्किमिह सामान्य सावद्ययोग संबन्ध है। प्रायोग्रहणं चेद मिथ्या दुष्कृतदानाऽऽदे वर्त्तमान सावद्य योगविषयत्वादपीति । तथा - "तीयं परिक्कम पप्पन्नं संवरे अणागयं पञ्चकखाइ ।” इत्यादावतीतश्च प्रतिक्रमण काय सामन्याच्य योगसन्धः पत्यादिदोषप्रसङ्गाच्च सामान्यसाद्यमो हि " सवं सावज जोगं पञ्चकखामि ।" इत्यनेनैव प्रत्याख्यातः तस्येत्यत्र पुनरपि ब्रहमेनेति भावइति ॥३६०३६१ उपसंदबादसम्हा परिकमामिति तस्सावस्सं कम्पामिमद्दस्स | भव्वमिद कम्पणा तं च नूयसावज्जोऽणन्नं ॥ ३५६२|| तस्मात्तस्य प्रतिक्रमामीत्यस्य शब्दस्यावश्यं कर्मणा जाव्यम् । कमिया-कर्म पूर्वोकवियातयातीतला मान्यसाद्ययोगस्यावयवभूता भूतसाद्ययोग दुकाना न्यन्न संभवति, तस्मादिद्दातीतस्यैव सावद्ययोगस्य संबन्धो, नंतरयोरिति गाथार्थः ॥ ३५६२ ॥ (३) अभिधान राजेन्द्रः | "अथतिविद्धं तिविशेषं " इत्यत्रा शेषांशाहतिविदेति न जुतं, पश्पयविहिणा समाहियं जेण । अत्यविपया, गुणभावाय सि को दोस्रो १३५६३ बानि विविधं विविय प्रथममुद्दिष्टं तन युक्तमित्यर्थः । कुतः ?, इत्याह-येन यस्मात्प्रतिपहविधिनैवेतत्समाहितं समापितम् " या कावणं न करेनिन कारवेसिक चित्र परिहारमाद-विकल्पनया अर्थभेदोपदशनाद् गुणजावनया वा गुणजायनातः को दोषो न कश्चिदित्यर्थः । श्यमत्र भावना एवं के सामा विशेषरूपत्वं सर्वस्वार्थयतितिविद्धं ति" इत्यनेनैव वस्तुनः सामान्यरूपामधे वाया" इत्यादिना तु तस्य विशेषरूपता प्रकाशनादिति । पच एवम पुनरभिहिते सामायिक लक्षणे पो गुण तस्य संकती भावना निधिमवासनाम्यारोपिता प्रीति कोष इति निगाथार्थः ॥ २२६२ ॥ साधनान्तरमाह अहवा मणसा वाया, काय मा जये जहा न करेमि न कारवेमिय, न वाऽजाणे व पत्तेयं ३५६४ ।। अथवा "गणे वायाद" इत्यादिमानक एवोक्ते मनसा न करोमि वाचा न कारयामि कामेन नानुगामि प्रनिष्टं यथासंख्यं मा दिति "तिविद्धं तिविहेणं" इत्यनि हितं यतच मनना न करोमि न कारयामि नानुजानामि इत्येवं वाचा कायेन सह योगत्रयस्य प्रत्येकं संबन्धोऽभिमतः, स नाभविष्यदिति ॥ ३५६४ ॥ ततः किमित्यादतो तिहिं तिविहेणं, जछड़ पइपयसमापणानं । न करेमि चिप, मांगविभावा ।। २५६५ ।। याद-प्रति ति भएयते किमर्थम् २४ पच्चक्खाण पदसमापन हेतोः मनसा न करोमि, न कारयामि, नानुजानामि, एवं वाचा कायेन च सह योगत्रयस्य प्रत्येकं संबन्ध हेतोरित्यर्थः । त्रिविधं त्रिविधेनेत्यस्याभावे दूषणान्तरमप्याह( न करेमि इत्यादि) । अथवा त्रिविधं त्रिविधेन इत्यस्याभावे न करोमि इत्यादि प्रतिपदं योगा करणकारणानुविलक्ष यो विज्ञान दमितं वस्तु सायं स्यात् । तथा च सति प्रतिपत्तिगौरवं स्यादिति शेषः । इदमुकं जयति-त्रिविधं त्रिविधेनेत्येतस्याभावे " न करेमि मणेणं याया कापणं, ण कारवेमि मणेणं वायार कापणं, णानुजा• णामि मणें वायाए कारणं । " इत्येवमेकैकयोगविच्छेदेन करणत्रयसंबंधानकरणे प्रस्तुनामितोऽ साध्यो भवेत् । एवं च सति प्रतिपत्तिगौरवं स्यात् । अतः सु वप्रतिपत्यर्थे कर्तव्यं विविधं त्रिविधेनेति ॥ ३५६५ ॥ समाधानान्तरमाह 66 अहवा करेंतमन्नं न समजाखेऽविसओ नेयं । अत्यविकपणा, विसेसो तो समाजोज्जं ।। ३५६६ ॥ इत्यत्रापि अथवा 'करेतं पि अन्नं न समजाणामि शब्दात् यस पूर्व विकासविषयं ज्ञेयम् (तो) भक्तियत्ययादिदानानिया विशेषतः समायोज्यम् । कथमिति । तस्य कारितस्यानुमत रूप संवन्धि अनुमतिरिदानी प्रत्याख्यायते न तु कर कारणे, तयोः तर इतरका ल णानुमतयः प्रत्याख्येयत्वेन न वार्यन्ते, अविरुरूत्वादः इत्यस्याप्य स्य दर्शनार्थ त्रिविधम् इत्यादि कर्तव्यमिति ॥ ३५६६ ॥ विशे० ॥ (D) समणोग थे जंते! पुण्यामेव पाणावा अपचक्खाए जव । से णं भंते ! पच्छा पञ्चाइक्खमाणे किं करे। गोपमा ती पकिम बने, धाग eva | तीर्थ परिकममाथे कि तिथि सिविणं पमिक १ तिथि दुविण परकम २, तिविद्धं एविणं किम ३, दुविहं तिविद्देणं पक्किम ४, दुबि बिदेणं परि ए दुनिए परिक्रम ६ एग बितिपदिकम ७ एगविद्धं वि परिक्रमा एगविहं एगविहे परिकपड़, ए । गोयमा ! तिथि तिविहे परिक्रमा तिविवि देणं पकिम । तं चैव 9 , " " " मि " जाव एगविदं एगविणं प। तिषिद्धं तिनि परिकममा न करेट का वेश करते नाजाइ मणसा वयसा कायम वि विविदे कममा न करेड, न कारवे, करंतं नापुजामा वर्षमा २ अहवान करे न कारवे, रंतं नाणुजाण मरणसा कायसा ३ । ग्रहवा न करे:३ वसा कापसा निर्विद्धं विहे परिमाणे न करे ३ मसाए । अवा न करेइ ३ वयसा ६ । अहवान कोइ ? कापसा ७ दुविहं तिषिणं परिपमाणे न करे न कारवे, मणसा बसा कायसा · Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४) प्रनिधानराजेन्दः। पञ्चक्खागा पच्चक्खाण हवा न करे, करत नाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा चक्खाइ, एवं तं चेव नंगा एगणवयं जाणियबा० ६। अहवा न कारवेड, करंतं नाणुजाइ माणसा वयसा का- जाव अहवा करतं ना जाणइ कायसा । समणोवायसा १०॥ दुविहं दुविहेणं पडिक्कममाणे न करेशन का- सगस्स एं नंते ! पुवामेव थूलए मुसाबाए पञ्चक्खाए रवेश, मणसा वयसा ११ । अहवा न करेइ, न कारवेइ, म. भवइ । से पं भंते ! पच्छा पच्चाइक्खमाणे एवं जहा पाएसा कायसा १३। अहवा न करेइ, न कारवेइ वयसा णावायस्स सीयाझं जंगसय जणियं, तहा मुसाबायस्स कायसा १३ । अहवा न करेइ, करंतं नाणुजाण माणसा विनाणियव्यं, एवं अदिखादाणस्स वि, एवं थूझगस्स वयसा १४ । श्रहवा न कर, करतं नाणुजाणइ माहासा मेहुणस्स वि परिग्गहस्सजाव करतं नाणूजाणइ कायसा, कायमा १५ । अहवान परइ, करत नाणुजापाइ वयसा | एए खत एरिसगा समणोवासगा नवंति, नो खलु एरिकायसा १६ । अहवा न कारवेश,करतं नाणुजाणइ मण- सगा आजीवियोवासगा जवंति। सा वयसा १७ । अहवा न कारवेइ, करंतं नाणुजाणइ म. (समणोवासयस्स णं ति) तृतीयार्थत्वात्षष्ठयाः, श्रमणी. णसा कायमा १० । अहवा न कारवेइ, करतं नाणुजा- | पास केनेत्यर्थः । सम्बन्धमात्रविवक्षया वा षष्ठीयम । (पुवामेव ण वयसा कायसा १५ । दुविहं एकबिहेणं पमिक्क त्ति)प्राकालमेव सम्यक्त्वप्रतिपत्तिसमनन्तरमेवेत्यर्थः । (अ. ममाणे न करेइ, न कारवेश मणसा २० । अहवा न करे, पच्चक्न पत्ति)न प्रत्याख्यातो जवति, तदा देशविरतिपरि. णामस्याजातत्वात्। ततश्च-(से णं ति) स श्रमणोपासकः पश्चान कारवेइ वयसा २१ । अहवा न करे,न कारवेइ का- प्राणातिपातविरतिकाने (पच्चाक्खमाणे त्ति) प्रत्याचक्षाणः यमा २२ । अहवा न करेइ, करंतं नाणुजाणइ मणसा प्राणातिपातमिति गम्यते,किं करोतीति प्रश्नः । बाचनान्तरे तु२३ । अहवा न करे, करंतं ना जाणइ वयसा २४ । "अपश्चवाप" इत्यस्य स्थाने-“ पखाए ति" "पच्चास्त्र. माणे" इत्यस्य च स्थाने-" पचवावेमाणे ति" दृश्यते । अहवा न करेइ, करंतं नाणुजाण कायमा २५। अ तत्र च प्रत्यास्पातः स्वयमेव, प्रत्याख्यापर्यंश्च गुरुणा हेतुकत्री हवा न कारवेइ, करतं नाणुजाण मणमा २६ । अहवा प्राणातिपात प्रत्याख्यानं गुरुणाऽऽस्मानं प्राइयन्नित्यर्थ इति । न कारवेइ, करतं नाणुजाण वयसा २३ | अहवा न का- (तातमित्यादि) अतीतमतीतकासकृतं प्राणातिपातं प्रतिकामरखेइ, करतं न!गुजाइ कायसा २७ । एगविहं तिबिहेणं | ति, ततो निन्दाद्वारेण निवर्तत इत्यर्थः । (पदुप्पन्नं ति)। प्रत्यु रए वर्तमानकालीनं प्राणातिपातं संवृणोति, न करोतीत्यर्थः। पमिक्कममाणे न करेइ मणमा वयमा कायसा २६ । श्रः | अनागतं भविष्यकालविषयं प्रत्याख्याति,न करिष्यामीत्यादि। हना न कारवेश मण सा वयसा कायसा ३०। अहवा प्रति जागीते । (तिविहं तिविहेणमित्यादि ) इह च नव विककरते नाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा ३१। एक्कविहं ल्पा तत्र गाथा-"तिनि तिया तिनि दुया,तिन्नि य पक्का हवंति दुविहेणं पक्किममाणे न करे मणसा क्यसा ३२ । अ जोगेसु । ति उ एकति 5 एकति छ एक चेव करणाई।" हमा न करेइ मणसा कायसा ३३ । अहवा न करेइ ब पतेषु च विकल्पवेकाइश विकल्पा लभ्यते । पाहच-"एको तिमि य तियगा-दी नवगा तह य तिमि न य । भंगनवगस्स यमा कायसा ३४ । अहवा न कारवेइ मणसा वयसा ३५॥ एवं, भंगा पगृणपन्नासं ॥१॥" स्थापना । तत्र-(तिविति. अहवा न कारवइ मणसा कायसा ३६अहवा न का- | विहेण ति) त्रिविधं त्रिप्रकारं करणकारणानुमतिभेदात प्राणारचेइ वयसा कायसा ३७। अहवा करतं नाणुजाण इम- तिपातयोगमिति गम्यते, त्रिविधेन मनोवचनकायलकणेन णसा वयसा ३८। अहवा करतं नाणुजाणइ मणसा करणेन प्रतिकामति, ततो निन्दनेन विरमति । (तिविदं दुवि हेणं ति) त्रिविधं करणाऽऽदिभेदात, द्विविधेन करणेन मन:कायमा ३६ । अहवा करतं नाणुजाण वयसा काय प्रभृतीनामे कतरवर्जितद्वयेन । ( तिविहं एगविहेणं ति) सा ४० । एगविहं एगविहेणं पमिक्कममाणे न करेइ त्रिविधं तस्यैव एकविधेन मनःप्रभृतीनामेकतमेन करणेनेति । प्रयता पर । अहवा न करेइ वयसा ४। अहना न (इविहं तिबिहेणं ति)द्विविधं कृतादीनामन्यतमद्वयरूपं योग करेइ कायसा ४३ | अहवा न कारवेइ मणसा ४४।। त्रिविधेन मनःप्रभृतिकरणेन । एवमन्येऽपि । (तिवितिविदेणं महवा न कारवे वयसा ४ए। अहवा न कारवेद कायसा पडिकममाणे इत्यादि ) न करोति न स्वयं विदधात्यतीतकाले प्राणातिपातं मनसा हा हतोम्हं,येन मया तदाऽसौ न,हत इत्येव. ४६ । अड़वा करत नाणुजाणइ मणमा ४७ । अहवा मनध्यानात,तथा न नैव कारयति मनसैव यथाहा न युक्तं कृतं करतं नाणुजाण वयसा । अहवा करतं नाणुजा- यदसौ परेण न घातित इति चिन्तनात,तथा कुर्वन्तंविधानमुण कायसा 16 । पमुप्पणं संवरमाणे किं ति- पलकणत्वात्कारयन्तं वा समनुजानन्तं वा परमात्मानं वा प्रोणाविदेणं संवरेइ, एवं जहा पमिक्कमणेणं एगूण वमं नंगा तिपातं नानुजानाति नानुमोदयति,मनसैव वधानुस्मरणेन तद. नुमोदनात् । एवं न करोति, न कारयति, कुर्वन्तं नानुजानाति जणिया, संवरमाणे वि एगणवलं नंगा नाणियव्वा । बचसा, तथाविधवचनप्रवर्तनात् । एवं न करोति,न कारयति, प्रणाग पच्चक्खमाणे किं तिविहं तिनिहणं प कुर्वन्तं नानुजानाति कायेन । तथाविधाअधिकारकरणादिति। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पचक्खाण अभिधानराजेन्डः। पन्श्वखाण न चेह यथासंख्यन्यायो न करोति मनसा, न कारयति वचसा, तिक्रमणाऽऽदिमन्तः (नो खलु ति) नैव (परिसग त्ति) उ. नानुजानाति कायेन इत्येवंजक्षणानुसरणीयो, वक्तृविवक्वाधीन- तरूपा लकार्थानामपरिज्ञानात् । (आजीवियोवासय ति ) स्वात्सर्वन्यायानां वक्ष्यमाणविकल्पायोगाश्चेति । एवं त्रिविधं गोशालकशिष्यश्रावकाः ॥ भ०० श. ५००। त्रिविधनेत्यत्र विकल्प एक एव विकल्पः, तदन्येषु पुनर्द्धिती. तत्रेयमेकादिमंजोगपरिमाणप्रदर्शनपरान्यकर्तृकीगाथायतृतीयचतुर्थेषु त्रयस्त्रयः, पञ्चमषष्ठयोर्नव नव,सप्तमे प्रयोऽए. पंचएहणुबयाणं, एकगमुगतिगचनकपणएहिं । मनवमयोर्नव नति, पवं सर्वेऽप्येकोमपञ्चाशत् । एवमेबमतीत. पंच य तह दस पण इ-कगो य मंजोग नायचा ॥१॥ कालमाश्रित्य कृता करणाऽऽदियोजना । अथ चैवमेषा ऽतीतकाले घरातीए वक्खाणं पंचएहं अणुब्धयाणं पुब्बभणियाण ए. मनःप्रभृतीनां कृतं कारितमनुनातं धा वधं क्रमेण न करो कगगतिगचनकपणपहिं वितिजमाणाणं पंच य दस ति, न कारयति, न चानुजानाति, तन्निन्दनेन तदनुमोदननिषेधतस्ततो निवर्तत इत्यर्थः, तन्निन्दनस्याभावे हि तदनुमो. पण एकगो य संजोगे नायम्वा । एकेण वितिज्जमाणाणं दनानिवृत्तः कृतादिरसौ क्रियमाणाऽऽदिरिब स्यादिति,वर्तमा पंच । संजोगा कह? पंचघरपसु पगेण पंचव हति, दुगण वि तिजमाणाणं दस चेव । कहं । पढमावतीय घरेण एको १, प. नकालं त्वाश्रित्य सुगमेव भविष्यकालापेक्कया स्वेबमसी न करोति मनसा, तं हनिष्यामीत्यस्य चिन्तनात, न कारयति, ढमतश्यघरेण २, पढमच उत्थघरेण ३, पढमपंचमधरेण ४, बि. मनसैव तमहं घातयिष्यामीत्यस्य चिन्तनात, नानुजानाति म. तियततियघरेण ५, वितियच नत्थघरेण ६, वितियपंचयनसा भाविनं वधमनुश्रुत्य हर्षकरणात्, एवं बाचा, कायेन च रेण ७. ततियच उत्थघरेण ७, ततियपंचमघरेण ६, च उत्थतयास्तथाविधयोः करणादिति । अथ चैवमेषा भविष्यत्काले पंचमघरेण १०, तिगेण चितिज्जमाणाण दस चेव । कर? पढमनाप्रभृतिना करिष्यमाणं कारयिष्यमाणमनुमंस्यमानं वा मबिसियतश्य घरेण एको, पढवितियच उत्थधर गण विति श्रो २, पढमचिनियचउत्पघरग ३, पदमतानिय व उत्थोप.. वधं क्रमेण न करोति, न कारयति, न चानुजानाति । ततो निवृत्तिमन्युपगतीत्यर्थः, सर्वेषां मीलने सतचत्वारिंशद पढमततिय पंचमघर , पढमचउथपंचमघरमा ६, वितिय. धिक कशतं भवति, इह च त्रिविधं त्रिविधेनेति विक ततियचथघरण ७. चितियततियपंचमवरण , वितिय च उत्थपंचम घरेगा रुपमाश्रित्यापपरिदारौ वृद्धोक्तावेवम् ततियच उत्थपंचमघोग १०, चउक्कगेण चितिउजमाणाण पंच हवंति। कथं पढमतियततियच त्य"न करेश्चातियं, गिहिणो कह दो देसविरयस्त । घरेण पको, पढमवितियतनियपचमघरेण २, पढमबितियनभाइ चिलयस्स बर्वि, पमिसेहो एमईप पि॥१॥ नियच उत्पपचम घरण ३, पदमततियच उत्थपंचमघरेण ४,वि. केई भणति गिहिणो, तिविहं तिविहेण नस्थि संघरणं । तियततियचउत्थपंचमघरेण ५, पंचगेण चिंतिज्जमाणाण एतं न जो निद्दिटुं, इहेव सुत्ते विसेसे उ ॥२॥ को चेव भङ्ग ति गाथार्यः॥१८॥ तो कह निन्जुत्तीए-एमइनिसेहो त्ति सेसचिसयम्मि। पत्थ य एकगेण च जे पंचमंजोगा, गेण य जे दस इत्यादि साम व मत्थओं, तिविहं तिविदेण को दोसो ? ॥ ३ ॥", एपसि चाराणियापआपण अगयफलगा होनि । इह च-( सविसम्मि ति) स्वविषये यथानुमतिरस्ति । बयइकगसंजोगा- हुंति पंचएह तीसई नंगा। (सामध्ये व त्ति) सामान्ये वा, अविशेषे प्रत्याख्याने सति दुगसंजोगाण दस-एह तिन्नि सट्टी सया हंति ॥१६॥ (अमात्यो त्ति) विशेषे स्वयंजूरमणजलधिमत्स्यादौ "पुसाइसंतइनिमि-समेतमेगासि पवारस। जंपति का गिहि तिगसंजोगाण दस-न्हभंगसय एकवीस इकसहा । णो, दिक्खाभिमुहस्स तिविहं पि॥१॥" यथा च त्रिविधं चनसंजोगाणं पुण, चनसाट्ठिसयाणि अमियाणि ॥५॥ त्रिविधेनेत्यत्रा केपपरिहारौ कृती,तथाऽऽन्यत्रापि कार्यो। यत्रान- सत्तत्तरि सयाई, उसत्तराई तु पंचसंजोए।। मतेरनुप्रवेशोऽस्तीति । अथ कथं मनसा करणाऽऽदि', उच्यते। उत्तरगुण अविश्यमे-लियाण जाणाहि सवगं ॥२१॥ यथा-वाकाययोरिति । आह च सोनस चेव सहस्सा, अहमया चेय होति अहिया। "श्राहकहं पुण मण सा, करणं कारावणमएमई य । जह वश्तणुजोगेहि, करणाई तह भवे मणसा ॥१॥ एसो न सावगाणं, वयगहणविह। समासेणं ।। २२॥ तयहीणत्ता व इता-करणाईणं च अहव मणकरणं । पताश्वतम्रोऽप्यन्यकृताः सोपयोगा इत्युपन्यम्ताः । "एनामि साबजजोगमरणं, पमत्तं बीयराहि ॥२॥ भावणाविही श्मान्तावदिय स्थापना-सपर चाराणया कजकारावण पुण मणसा, चित करेउ एस सावजं । ति-थलग पाणातिपातं विहं तिविहेणं,मुविद दुहिंगग २ चिंतेई य कप जण, सुबु कयं अगुमई होइ ॥ ३॥" इति । विहं पक्कविहेणं ३,पक्कविहं तिविहेणं ,पकविहं दुविंदणं ५, ५६ च पञ्चस्वणुबनेषु प्रत्येक सप्तचत्वारिंशदधिकस्य भ. पकविहं एकविहेणं ६, एवं थूल गमुसावायादत्तमेहुणपरिग्गसु सकशतस्य भावाङ्गकानां सप्तशतानि पश्चत्रिशदधिकानि पक्रकेत्थ भेदा । पते सम्वे वि मिसिता तीसं हवंति । ततश्च यभवन्तीति यत् स्थविरा श्राजीयकैः श्रमणोपासकगतं वस्तु दुक्तं प्राक्-"वयएक्फगसंजोगा-णं, पंचगदं तीसह भंग ति" पृष्ठा गौतमेन च भगस्तित्तावमुक्तम, अथानन्तरोक्तःशीमा: तद्भावितं । श्वाणि दुगचारणिया-थलगपाणातिपातं थूनगमुश्रमणोपासका एव भवन्ति । न पुनराजीविकोपासकाः। प्रा. साबादं पच्चक्खाइविहं तिविहेणं १, थूलगपाणातिपातं जीविकानां गुणित्वेनाभिमता अपीति दर्शयन्नाह-(एए स्त्रमु मुवि तिबिहेणं, थूलगमुसाबादं पुरण विहं दुविहेण २, इत्यादि) पते स्खलु पत एव परिदृश्यमाना निर्ग्रन्थसाका थूलगपाणातिपातं २ यूलगमुसाबादं पुण चिहं एगघिहेणं इत्यर्थः। (एरिसग त्ति) शकाःप्राणातिपातादिवतीतप्र | ३, थलगपाणातिपात २३, घुल गमुमाबादं पुण एगविहं ति: Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चक्खाण अभिधानराजेन्सः। पच्चक्खाण विहेण ४, थूलगपाणातिपात २३, थूलगमुसाबादं पुण एमविहं पत्तेयं पत्तेयं वाबत्तरि, सव्वे वि मेलिता चत्तारि सता . सुविहेणं ५, थुलगपाणातिपातं २३, यूलगमुसाबार्य पुण एग- चीस हवंति। एवं यूलगपाणाश्वानो तिगसंजोगणं पूलगा. विहं पगविहेणं६.फले य एवं चूनगदत्तादाणमेहुगा परिम्गदेसु। दत्तादाणेणं सहचारियो । श्याणि थूनगमेहुणेणं सह चाएकेकवजगा सम्चे वि मेलिता चवीसं । पते य यूनगपाणा- रति-शूल गपाखातिवायं यूझगमेहुणं थूलगपरिम्पच पच. तिपातपढमघरममुंचमाणेण य लका । एवं वितियघरएसु क्खाह दुबिई सिविदेणं १, थूलगपाणातिवायं धूलगमेहुर्ण च पत्तेयं चउबीसं भवति । पते य सब्वे वि मिलिता चलासीसं २३, थूलगपरिग्गरं पुण इषिहेण २॥ एवं पुवकमेण नं. सतं चारितो १४४ थूलगमुसावादादि चितिज्जति-तस्थ यूल गा पर थूलगमेहुणपढमघरयममुंचमाणेण नका चिनियादिसु गमुसावादं थूलगप्रदत्तादाणं च पच्चक्खा दुविहं तिविहेणं पत्तेयं पत्तेयं, सब्वे वि मेलिता बत्तीसं । पए थूलगपाणा. १, यूनगमुसाबादं २३ थबगादत्तादाणं पुण दुविहं दुविदेणं २। तिवातपढमघरयममुंचमाणेण सका, वीयासु वि पत्तेयं पत्ते. पवं पुवकमेण उभंगा पायचा,एवं मेहुणपरिगहेसु वि पत्तेयं य, बत्तीसं २ सब्वे वि मेलिता दोसता सोलमुत्तरा, एवं यू. पत्तेयं गच्छ,सन्चेवि मेक्षिता अधारस । पते य मुसावायपढमघ- लगपाणातिवातो तिगसजोएणं धूलगमेहुणेणं सहचारिओ ण रयममुंचमाणेण लद्धा। एवं वितियादिचरगेसु वि पत्तेयं पत्तेयं पाय ) तिगमंजो पपाणातिवातो। इदानी मुसाबादो चितिजा. अट्ठारस अहारस भवति । एते सव्वे वि मेलिता अट्टत्तरं सतं ति-तस्य धूलगमुसाबाद यूनगादत्तादाणं थूलगमेहुणं .प. ति चारितो यूलगमुसाबादो । दाणि थूनगादत्तादाणं चिंति चक्खाति तिविहं तिविहेणं । घूलगमुसाबादं लगादत्तादा. ज्जति-तत्य यूजगादत्तादाणं यूलगमेहुणं च पञ्चक्खाति-दु. णं च २३, थूलगमेहुणं पुण दुविहं दुबिहेणं २, एवं पुवकमेविहं तिविदेणं १, घुलगादत्तादाणं २३, थूलगमेहुणं च पुण ण कभंगा, एवं धूलगपरिम्गहेण वि य मेशिता दुबालसा, दुविहं दुविहणं २, एवं पुब्बकमेण छम्भंगा णायचा । एवं एए य यूनगादत्तादाणपढमघरयममुंचमाणेण लका वितिया. थलगपरिगदेण बिछ भंगा, मेलिता वालस । पते य थूल दिसु वि पत्तेयं परोय सुवालस, सब्वे वि मिलिता वाबत्तरि। गादत्तादाणं पढमघरयममुंचनाणेणं हा वितियादिसु चि पए घूझममुसावादपदमघरं अमुंचमाणेण सद्रा वितियादिपत्तेयं पत्तेयं दुवालस भवति । एते सव्वे मिलिता वाबत्तीरें सुवि पत्तेयं पत्तेयं वावत्तरि, सब्वे वि मेलिता चत्तारिसहवति चारियं यूक्षगवदत्तादाणं । इदाणि थूल गमेहुणा चिंति. या वतीसा । एवं धूलगमुसाबाओ तिगसंजोगेण थूलगादत्ता. ज्जइ-तत्थ थूलगमेहुणं यूनगपरिम्गहं च पच्चक्वाइ वि. दाणेण सहचारितो । दाणिं घूझगमेहुणं सहचारिजंतिइंतिविहेमं १, थूलगमेहुणं २३, धूमपरिग्गई पुण दुषिहं तत्थ यूनगमुसाबादं धूलगमेहुणं यूलगपरिम्गहं पच्चक्वा. दुबिहेणं शपवं पुम्बकमेण जंगा । एते य थूलगमेहुणपढम. ति विहं तिबिदेणं १, थूलगमुसावादं थूल गमेहुणं च १३, घरचमाणेण लका, पवं बीयादिसु बि पत्तेयं पत्तेयं छ छ थूलगपरिणगई पुण उत्रिदं दुविहेणं २ एवं पुवकमेण - वति,सब्वे मेलिता छत्तीसं। पते य मूत्रानो प्रारम्भ सम्वे वि भंगा, पते थूलगमेदुणपढमघरमचमाणेष लद्धा वितियादिसु वि पत्तेयं पत्तेयं सहवंति । सव्ये घि मेनिता छत्तीसं पते चोयालसयदुत्तरसयं वायत्तरि छत्तीसं मेलिता तिन्नि सयाणि सहाणि हवंति। "ततश्च यदुक्तं प्राक्-" पुगसंजोगा वि यूनगमुसाबादपढमघरममुंचमाणेण लका वितियादिसु वि ण दसन्नं, तिन्निय सट्ठी सया हुंति ति" तदेतद् भाबितम । पत्तेय छत्तीसं उत्तीसं हवंति, सम्वे मिलिया दो सया सोलसुत्त. प्रदाणि तिगचारणिया-यूल गपाणातिवातं धूलगमुसाबादं धू रा चारित्रो, तिगसंजोगेण थनगमुसापात्रो । श्याणि धूलगादलगादत्तादाणं च पच्चक्खाइ सि विविहं तिविहेण यू तादाणादि चिंतिञ्जति-तस्थ थूलगादत्तादाणं धूलगमेदुणं यूनगलगपाणातिवातं शूलगमुसाबाई २३, पूलगादत्तादाणं पुण परिग्गहं पाबाइ २३, थूलगादत्तादाणं यूनगमेहुणं च २३, दुविधं विधेणं २,थूलगपाणाइवायं घूलगभुसावायं च दुबिई घूलगपरिगहं पुण विदं मुबिहेणं २,एवं पुश्वकम्मेण नंगा। तिबिहेणं, यूलगादत्तादाणं पुण विदं पगविहेण १, एवं पए यूजगमेहुणपदमघरममुंचमाण लकाबीयादिसु पत्तेय प. पुवकमेण भंगा,एवं मेहुणपरिमादेसु वि पत्तेयं पत्तेयं छ र, तेयं उछ,सम्वे विमेलिया उत्तीस,एए थूलगादत्तादाणपढमध. सब्वे वि मिलिता अट्ठारस । एए य यूलगमुसाबादपढमघरमुं. रमुंचमाण लखा चीयादिसुवि पत्तेय रत्तीसं छत्तीस,सब्वे मे. चमाणेण यलद्धा। एवं वितियादिसु वि पत्तेयं पत्तेयं अहा लिया दो सया सोलसुत्तरा । एप य मूलाओ मारन्न सम्वे वि रस२ हबंनि सव्वे पि मिसिता अतरसयं, यूनगपाणा भम्यालं उसया वतीसचउसया सोलसुत्तरा दोसया [बत्ती. तिवातं पढमघरमुखमाणेण सका। एवं वितियादिसु विपत्तय सुत्तरा चउसबा सोलसुत्तरंदोसया २] मेनिया एगवीससयाई पत्तेयं अटुत्तरं सतं भवति । पते सम्वे वि मिबिता सताणि सहाई भंगाणं वात ततथ यमुक्तं प्राग-"तिगसंयोगाण दसअडयालाजाप धुलगपाणातिवातो तिगसंजोएणं थूलग पहं भगसया एकविसतीसट्ठा।"तदेतद्भावितम् । श्यणि चमक. मुसाबापणं सहचारित्रो । श्याणि अदत्तादाणेणं सहचारि, चारगिया-तत्थ पूलगपाणावायं थूनगमुसाबायं थूलगादतस्थ घूलगपाणातियातं यूलगादत्तादाणे थूल गमेहुणं च पथ सादाणं घूत्रगमेहुणं च पचक्खाइ विदं निविहेणं यूझगक्वाति दुबिहतिविहेणं १, यूनगपाणावायथून गादत्तादाणा पाणादिपातादि २३, पूतमेहुणं पुण विहं विहेणं २, पर्व २३, थूलगमे दृणं पुण दुबिई विहेण २, पवं पुब्बकमेण छम्भ पुन्धकमेण नंगा यूप्रगपरिगण विउ, पर य मेलिया दुगा। एवं यूनगपरिगहे वि उम्मेलिता दुवालस। पए अदसा. वालस । एप य यूलगादत्तादाणपढमघरगममुंचमाणेण सद्धा, दाणे पढमघरयममुंचमाणेण लद्धा एवं बीयादि पत्तेयं प वितियादिसु वि पत्तय पत्तयं दृवालस वालम, सब्बे विमेसेयं वालस, सन्धवि मेलिता वायत्तरि हवंति। एए पा-1 लिया वाबत्तरि, रए पूनगमुम्मावायपढमघरमनुचमाणेण सका पाश्चायपढमघरयममुंचमाणेण लद्धा, एवं बीयादिस वि। ७२, बीयादिसु बि पत्तेयं पत्तेयं वावचरि वावत्तरि, सन्चे Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (B) अनिधानराजेन्द्रः । बच्चक्रखागा मेलिया चत्तारि सया बत्तीसा, एए थूत्रगपाणाश्वाय पढमघरममुंचमाण या बीयादिविप पारिस या बीसा, सवि मेलिया दो सहस्सा पंचसया बाणया पाणावा मुखावा धूलय मेहुणं धूलगपरिभाई पञ्चकस्लाइ दुविदं तिविद्देणं धूलगत २३ धूनपरिमा पुन बिष २ ए कमेणा मय पुत्रगमेहुणपदम घरमा का बीयादिसु पतेयं पत्तेयं सब्वे विमेलिया बसी । चूलगमुस्लावार्य पढमघरममुत्रमाणेण बुद्धा वितियादिसु विपत्तेयं पत्तेय तसं २। सब्वे वि मेज़िया दो सया सोलसुत्तरा । नगपाणातियायपढमघरममुंचमाषेण लद्धा बीयादिसु वि पत्तेयं दो सया सोलसुत्तरा, सच्चे वि मेलिता वालससया उ या । इदाणि श्रष्ठो विगप्पो थूल नपाणातिवांत धूलगदादाणं मे यूजगपरिम्म च परचसा दुहिं तिथिदेणं जगपाखाहवायं मूलगादसादाणं जमे २३ परिमाण दुविदेणं २ एवं पुण्यकर्मण मंगाए यूजगमेरमा लद्धा बीयादिपते - प " मेलिया छत्तीस, एए य थूत्र गाद सादाणपढमघरममुंचमायो का बीयादिसु बिपत्तेयं पत्तेयं छत्तीसं २, सम्मेलया दो सया सोत्रसुतरा । एप यूलगपाखाश्चाय पढनघरममुंच मायादिसु विप्रतेयं पचेयं ही सया सोलसुरा, सन्वेवि मेलिया दुषालसया उन्नया । इयाणि श्रन्नो विगप्पोखगनुखाचार्य प्रगादागमे हुगपरिपथ वादविदं तिषिणं १, चूत्रगमुखावायादि २३. धूलरिमाहं पुण दुविहं दुविद्देणं २, एवं पुग्वक्रमेण च नंगा, पए य धूअग मेहुण पढमघर ममुंचमाणेण लका बीयादिसु विपत्तेयं पत्तेमेलिया इसीसं । एप य थूलगादसादाणपढमघरम झुंचमाने का बीयादिमु वि घरं पीकी मेडिया हो या सोलसुरा प प मुसायापढमधरममुंचमाणेण सद्धा बीयादिसु बि पत्तेयं दो दो ये चिमेलिया वाल म मुलाओ आरग्न सध्धे विदो सहस्सा पंचसया वाणउया दुवाल सया भयाद मेलिया व सहस्सा चारि या अलीया ।" ततश्च यदुक्तं प्राकू-" तच संजोगाणं चचसडिलयाणि असीयाणि सि ।" तद्भावितम् । श्याणि पंचग धारणिया तत्थ यूलगपाणावायं धूलगमुसावार्य थूलगाद. दागमे धूलगपरिमाई व पावि तिथि १ गुलगपाणाश्वावादि २३, धूलपरिमाण दुई निदेणं २ एवं पुण्यकमेण भेगा प मेहुणपढमघरममुंचमाणेण लद्धा घीयादिसु वि पत्तेयं प मेलिया, परम प्रामें लया वीषादिसु पचेयं पतेयं छनी २, मेलिया दो] [] रा पर लगवायायपदमघरमसुचना. मेण लका बीयादिसु त्रिपमेयं पत्तेयं दुवानससया बन्न उया, सव्वे वि मेलिया सत्त व सया छाइन्तरा ।" ततश्च पर्क प्रा" सरिया रंतु जो " सद् भावितम् । उत्तरगुणभविश्यमिनियाण जाणाहि सम्बगं ति उत्तरगुणमादिपदि वो व मेदोऽविरसम्म बीश्रोमेलिया सम्मेनिणियाणा २५ पच्चकखागण शाहिये पचणे पमुख तं पुरा इल सहस्सेत्यादि गाथा भावितार्थेति । भाव० ६ अ० | दश० । अथाssदारभेदप्ररूपणायां सत्यां यद् जवति तद्दर्शयन्नाहतिचिहाइपो खनु, एत्य इमं वा जिदेिहिं । एच वय जेएमु ||२२|| पानकदार आदिश्य तथा धादि मातुर्विपरिग्रहः सावविशेषविधा दिभेदः तस्मामाथिकालङ्कारे अप्रवचने - दमाहारप्रत्याख्यानं, वर्णितमुक्कम, जिनेन्द्रैर्जिमनाथ कैः, पा महा प्रत्याकार (वय) इत एव त्रिविधस्य चतुर्विधस्य वाऽऽहारस्थ प्रत्याख्यानानापि अशनादिगद केवलं त्रिविधा दिने पदम मरिमिति योगः । यया तावचनादिपादयेतत्परिमायाम्येव महीयामीति | आद-चलेले वाच अनथामि अमेण च दग्वे अदम्य १" इति किमित्येवमादनमिति निर्वामति कृत्या बुधानां विवेकिनम् द्वि ३२ प्रतिनाद भांति जातो,विविधाद्वारस्य ए खलु जुनयिं । सम्बचिरईड एवं जे कई सा उ ॥ ३३ ॥ अन्ये जैनविशेषेभ्योऽपरे दिगम्बरा इत्यर्थः, भणन्ति युवति दित्याह-यतेः साधोः त्रिविधाऽऽहारस्य पानकवर्जस्य, न खलु नैच, युक्तं सङ्गतम् इदं प्रत्याख्यानं, कुत एतदेवमित्याह सर्वविरतेः स मस्तवस्तुविनिवृतत्वात् । किं चात त्यामु त्यानं स्यादित्यभ्युपगमन मे निविहारस्येत्येवंविशेषप्रतिपची। कथं तु न पुनः प्रकारे ण १, न कथञ्चिदित्यर्थः। सा सर्वाविरतिः । तुशब्दः पुनरर्धः, तत्प्रयोगा दर्शितपत्र एतदुक्तं भवति त्रिविधाऽऽहारस्य प्रत्या रूपाने सहारा प्रस्य स्थानाद सर्वविरतित्वं स्यात् । इति गाथार्थः ॥ ३३ ॥ - रम ह अपमान एवं एत्यं वि दंसि पुवं । तन्भोगामित करणे, सेसच्चागा तो अहिगो || ३४ ॥ श्रप्रमाद वृद्धिजन कम प्रमसतोत्कर्ष संपादकम, पतदाहारप्रत्यासानसूत्र सर्वसाद्ययोगविरति सामायिके सत्यमपीति एतद्दर्शितमुक्तम्, पूर्व प्राक् । तद्यथा- "सामाइए विसाव-जबागवे गुणकरं वयं अपना सण आणा विषेयं ॥ १ ॥ " इति । ततश्च तद्भोग एव पानकाऽऽहार एवा करणं विधानं तद्भोगमात्रकरणे, तत्र सति शेषत्यागादशनापहारपरिहारास फोडाप्रमाद अधिकः सर्वविरतिखामाथि प्रतिपत्निवामादावाउतरो नयति, अतःयोगविश्वाधितवादम विशेषोत्पादकत्याच नमसङ्गतं न भवति । इति गाथार्थः ॥ ३४ ॥ विविधाद्वारप्रत्यय हाभ्युपगमे परवचनमाशक्य परिहरन्नाह एवं कचिकले, दुबिस्व होनि तिमिणं । 四 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चक्खाण अन्निधानराजेन्डः। पच्चकखाण सच्चं जाणो णवरं, पाए ण अभपरिभोगो ।। ३५।।। व्यमिति दयम् ४ । साकारमाक्रियन्त इत्याकाराः, प्रत्याख्या नापवाद देतचोऽनाभोगाऽऽदया सहकारैः तथा विद्यमाना. पवमनेन प्रकारेणाप्रमादबुद्धिजनकतया त्रिविधाहारप्रत्या कारमनाकारम् । परिमाणकृतमिति दयादिकतपरिणाममिति ख्यानाच्युपगमे, कथञ्चित्केनचित्प्रकारेण वाताभिभचाऽदिना, भावना ७। (निरविसेसमिति)समग्राशनाऽऽदिविषयम् । कार्य प्रयोजने ग्लानत्वाऽऽदौ । पाठान्तरेण क्वचित्कार्ये, विवि इति गाथार्थः॥२॥ संकेतं चैवेति के चिहमष्ठाऽऽदि,सह वस्याप्यशनखादिमरूपस्याप्याहारस्य, श्रास्तां त्रिविधस्य, त. केतेन संकेत, चिह्नमित्यर्थः। (अकारा ति) कालाऽऽख्यमद्धामा प्रत्यास्यानम, न भवति न जायते, चिन्त्य चिन्तनीयम इदमे श्रित्य पौरुष्यादिकालमानमित्यर्थः१०। प्रत्याख्यानं तु दशबिधं, तनवम्मतं, भवत्येव द्विविधाहारस्यापि तदिति पराभिप्रा प्रत्याख्यानशब्दःसर्वत्रानागतादौ संबध्यते। तुशब्दस्यैवकाररायः । अत्रोत्तरमाह-सत्यमेवैतत् । एवं प्रसङ्गमन्युपगम्य तत्रैव यत्वाधवहितोपन्यासाशविधमेव । इह चोपधिभेदात्स्पष्ट पव विशेषमाह-यते साधोः, नवरं केवलम्, प्रायेण बाहुल्येन, वि. नेद इति न पुनरुकमाशइकनीयमितिाप्राह-इदं प्रत्याख्यानं प्रा. शिष्टग्लानाऽऽद्यवस्था मुक्त्वा (न) नैव, अन्यपरिभोगोऽशनपा णातिपाताऽऽदिप्रत्याख्यानवत् किं तावत्स्वयमकरणाऽऽदिभेदनकापेक्वयाऽपरस्य खादिम स्वादिमाहारस्य भोजनमस्ति, बेद. भिन्नमनुपाल नीयमाहोस्विदन्यथा ?, अन्यथेत्याह-स्वयमेवानु. नाऽऽदिष्वाहारग्रहण कारणेषु खादिमखादिमयोरात्यन्ति कतया पासनीय, न पुनरन्यकारापणे, अनुमतौ वा निषेध इत्याह-(हाउनुपयोगित्यात् । यतिग्रहणेन श्रावकस्य द्विविधाऽऽहारस्यापि गुणवएसे जद समाहि त्ति) अन्याहारदाने यतिप्रदानोपदेशे च प्रत्याख्यानमभ्युपगतम् । इति गाथाऽऽर्थः ॥३५॥ पश्चा०५विव०। यथा समाधिर्यथा समाधानमात्मनोऽप्यपीच्या प्रवर्तितव्यमि(सम्यक्त्वप्रतिक्रमणम् "समगोबासो पुवामेव मिनछत्ता प्रो ति वाक्यशेषः । उक्तंच-" भाषियजिणवयणाण, ममत्तरहि. ' पमिकम।" इत्यादिना सूत्रेण श्रावकस्य प्रत्याख्यानं 'सम्म- | याण नत्थि हु बिसेसो । अपाणम्मि परम्मि य, तो वजे पा. त' शब्दे वयते)(श्रावकवतानि स्वस्वस्थाने अष्टव्यानि) ममुजो वि॥१॥" इति गाथार्थः। श्राव. ६ (अ अधुना सर्वोत्तगुणप्रत्याख्यानमुच्यते । अथवा-देशोत्तरगुण- नागताऽऽदीनां व्याख्या स्वस्थाने) प्रत्याश्यानं श्रावकाणामेय भवतीति तदधिकार एवोक्तम्,सबों | স্মামখানমसरगुण प्रत्याख्यानं तु सेशत नभयसाधारणमित्यतस्तदनिधि. इह पुण अघारूवं, णवकाराऽऽदि पतिदिणावभोगि ति। स्सयाह पाहारगोयरं जइ-गिहीण जणिमो इमं चेत्र ।।३।। पञ्चकखाणं नत्तर-गुणेमु खमणाअं अणेगविहं। शहास्मिन् प्रकरणे,पुनःशब्दो विशेषद्योतनाथः,स चायम्-अका तेण य इहयं पगयं, तं पि अणमो दसविहं तु ॥१॥ काल,सैंव रूपं खभावोयस्य तदकारूपम्। प्रद्धारूपतांच प्रत्याप्रत्याख्यानं प्राइनिरूपितशब्दार्थम, उत्तरगुणेषु उत्सरगुणवि. ख्यानस्य तत्परिमाणनूतकासादनिनवविवकयेति । किं तदिपंर्य,प्रकरणात् साधूनां तावदिदमिति कपणाऽऽदि, कपणग्रहण त्याह-(नवकाराति)नमस्कारसहितप्रभृति दशधा। प्राचचतुर्थाऽऽदिभक्तपरिग्रहः। श्रादिग्रहणाविचित्रान्निपदग्रहः। भने- "नवकार पोरिसीए, पुरिमठेक्कासणेकठाणे या आर्यावलकविधमित्यनेकप्रकार,प्रकाराश्च वक्ष्यमाणाः, तेन चानेकविधेन, भत्तकै, चरिमे य अभिग्गहे विगई ॥१॥" ननु नमस्काचशब्दाऽक्तलक्षणेन च, अत्रेति सामान्येनोत्तरगुणप्रत्याख्यान- रसहिताऽपि न सर्बमध्यशाप्रत्याख्यानम, एकाशनाचानिरूपणाधिकारे । अथवा-चशब्दम्यैवकारार्थत्वासनैव, प्रति म्झाउने परिमाणकृतानिधानप्रत्याख्यानरूपत्वात् । यदाहसर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानप्रक्रमे प्रकृतमुपयोगाधिकार इति प. "दत्तीर्द व कबलेहि ब, घरदि निक्वाहि अहव इब्वे. यः । तदपि नेदं दशविधं तु मूत्रापेक्षया दशप्रकारमेष । ति हिं । जो जत्तपरिच्चायं, करेक परिमाण कममेयं ॥१॥" गाथार्यः॥ १॥ इति । तत्कथमुक्तमद्धारूपं "नवकाराइ ति"? । अत्रोच्यतेमधुना दशविधमेवोपन्यस्यन्नाह अद्धाप्रत्याख्यानपूर्वकं प्राय एकाशनाऽऽदि प्रतिपद्यते। तेन नअगागयमइकंत, कोमीसहि अंनिअंपिनं चेव । मस्काराऽअदिकंदविधमप्यद्धारूपतयोक्तमिति न दोषः । अथ शषभेदत्यागेन नमस्कारसहिताऽऽदिकमेव कस्माद् नण्यते', सागारमणागारं, परिमाणकडं निरविसेसं ॥२॥ इत्याह-प्रतिदिनमनुदिवसमुपयोगि प्रयोजनबत प्रतिदिनोपयो. संकेअं चेव अघाए, पञ्चक्वाणं तु दसविहं । गि, इतिशब्दो हेत्वयः। प्रतिदिनोपयोगित्वमेवास्य कुतः , इ. सयमेवऽशुपालणि अं, दाणुवएसे जह समाही॥ ३ ॥ त्याह-पाहारगोचरमशनाऽऽद्याहारविषयम् । यत आहारश्च प्रादारगाहादुगं। यः प्रतिदिनोपयोगीति । अथ किं यतीनामेवेदम ?, नैवम्, अत भाविअजिावयाणाणं, मंपत्तरहियाण नस्थि हविसेसो। आह-यतिगृहिणामुनयसाधारणमित्यर्थः। अनेन च ये श्राव काणां नमस्कारसहिताऽदिप्रत्याख्यानं न प्रतिपद्यन्ते, तन्मतअप्पाणम्पि परम्गि अ, तो बजे पीनमुनो विnal मपास्तम्। तत्र चोपपत्तिः प्रागुपदर्शिता। ( भणिमो सि) अनागतकरणादनागतं, पर्युषणाऽऽदावाचार्याऽऽदिवैयावृत्यक- भणामः, इदमेवानन्तरगाथोक्ततया प्रत्याख्यानमेव । चैवशब्द रणान्तरायसद्भावादारत एंव तत्तपःकरणमित्यर्थः। एवमतिका- पवकारार्थः । एक्कारश्च प्रत्याख्यानादू व्यतिरिक्तस्य पदान्तकरणादतिक्रान्तम्। भावना प्राग्वत्। (फोमीसहियमिति को। र्थान्तरस्य जणनीयतया व्यवच्छेदार्थः । इति गाथार्थः ॥३॥ टीभ्यां सहितम् ।मिलितोभयप्रत्याख्यानकोटिचतुर्धाऽऽदिश्चत पश्चा०५विवा स्था० ।नं। श्री। उपा०। घास। थाऽऽदिकरणमेवेत्यर्थः३। नियन्त्रितं चैव नितरां यन्त्रितं नियः रात्री भुक्तिमतां प्रातर्नमस्कारसहिनाऽग्रुपोषणप्रमुखप्रत्यात्रित, प्रतिकातदिनादी लानाऽऽयन्तरायनायेपिनियमतः कर्त- ख्यानं शुद्धचति, न बा, ति प्रक्षे, सत्तरम्-प्रत्याख्यानं - Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( w) अभिधानराजेन्सः। पच्चक्खाण पञ्चक्खाण त्यति, परं स्वजानतति । हो०३ प्रका0 । श्राकानाममा ! विकृतिकम । व्य. १ उ० । (प्रकाप्रत्याख्यानम' असापक तप्रत्याख्याने ऽवश्रावणं कल्पते, न बा?, शति प्रइने, उत्तरम्- खाण' शब्दे प्रथमभागे ५६५ पृष्ठे गतम्) भाकानामष्टमारततपसि भवभावणं न कल्पते, प्राचरणाया इदानीमुपसंहरमाहप्रभावात् । ही०२ प्रका। जणि मंदसचिहमेअं, पञ्चक्रवाणं गुरूवएसेणं । (६) श्राद्धाः प्रत्यायानं कदा गृहन्ति कयपञ्चक्रवाणविहि, इत्तो बुच्छं समासणं ॥१५॥ प्रतिक्रामकस्य च प्रत्याख्यानोच्चारात्पूर्व सचित्ताऽऽदिचतु. भणितं दशविधमेतत्प्रत्याख्यानं गुरूपदेशन कृतं प्रत्याख्यान शनियमप्रहणं स्यात्, अप्रतिक्रामकेणापि सूर्योदयात्प्राक् च. येन स तथाविधस्तम् । अत कर्ट्स बदये समासेन संक्षेपेणति गातुर्दशनियमग्रहणं यथाशक्तिनमस्कारसहित प्रन्थिसहिताऽऽदि. थार्थः ॥१६॥ श्राव०६ अ०(साकारद्वारम 'सागारक' शब्दे) इघासनकाशनाऽऽदियथागृहीतसचित्तव्यविकृतियत्यादि (१०) प्रत्याख्यानविधी दानविधिः । अथ प्रत्याख्यानविधि नियमाच्चारणरूपं देशावकाशिकं च कार्यमिति श्राविधि. प्रतिपिपादयिषुस्तद्वाराएयादवृत्तिलिखितानुयाद। कोदकेमश्वायम्-यतो नमस्कारसहितपौ. रुष्यादिकालप्रत्याख्यानं सूर्योदयात्प्रागेवोच्चारयितुं युक्तं, न तु गहणे श्रागारमुं, सामइए चेव विहिसमाउत्तं । तत्पश्चात, कालप्रत्याख्यानस्य " सुरे भार " इति पा- भेए भोगे सयपा-लणाऍ अणुबंधजावे य|| | बलात् सूर्योदयेनैव संवत्वसिके, शेषाणि संकेताऽऽदीनि ग्रहणमतीकरणं तद्विषये । विधिप्तमायुक्तं प्रत्याख्यानं न. तु पश्चादपि कृतानि शुद्धधन्ति । यतः श्राविधिवृत्तौ-" न णाम इति प्रकृतम् । एवमुनरपदेष्वपि योजना कार्या । तथा मस्कारसहितपौरुष्यादिकालप्रत्याख्यानं सूर्योदयात्प्राक् याचा प्राकारेषु प्रत्याश्यानापवादेषु। (सामइए चेव सि) सामायते तदा ाख्यति , नान्यथा, शेषप्रत्याख्यानानि सूर्योद- यिक एव च सामायिकप्रत्याख्याने सत्यपि प्रतिपत्तव्यमेवेद. यात्पश्चादपि क्रियन्ते, नमस्कारसहितं यदि सूर्योदया- मित्यादिलकणो विधिरिति गर्भः। (विहिसमाउत्तं ति) एते. प्रागुच्चारितं तदा तत्पूरवायपारुष्यादिकालप्रत्याख्यानं पुग्रहणाऽऽदिषु यो विधिविधानं, तेन सनायुक्त समन्वितं यक्रियते खस्वावधिमध्ये नमस्कारसहितोचारं विना सूर्योदया- तसथा, तथा नेदे अशनाऽदाबाहारभेदे, तथा भोगे भोजने, दनु कानप्रत्याख्यानं न शुद्ध्यति । यदि दिनोदयात्प्राग नमस्का- तथा स्वयं पालनायामात्मनैवाऽऽसेवायां, तथाऽनुवन्धो भोजरसहितं विना पौरुष्यादि कृतं तदा तत्पूर्तरूद्धमपरं कालप्र. नोत्तरकाशमपि स्वाध्यायाऽऽदिसव्यापाराभिवनात प्रत्या. स्यायानं न शुद्धति, तामध्ये तु शुद्ध्यतीति वृद्धव्यवहारः। ण्यानपरिणामाविच्छेदः । प्रत्याख्याताऽऽहारस्य हि स्वाध्यायाभाबकदिनकृत्येऽपि-" पश्चखाणं तु ज तम्मि।" इति गाथा दिन निर्वहति । ततो मुक्त्वापि यदि तमेव करोति तदा प्र. पालोचनयेयमेव बेला प्रतिपादिता संभाव्यते । प्रबचन- त्याख्यानेऽनुबन्धोवसीयत इति । तदेवमनुबन्धस्य नाव: सारोद्धारवृत्तावपि-" उचिए काले विहिण सि" गाथाव्या. सत्ताऽनुबन्धभावः तत्र च बिशिसमायुक्तमिति प्रकृतम्। चशब्द व्यायामुचिते का विधिना प्राप्तं यत् स्पृष्टं तद्भणितम् । समुच्चये । इति कारगाथासमासार्थः॥४॥ चमुक्तं नवति-साधुः धावको वा प्रत्याक्यानसूत्रार्य सम्य पतामेव वेशतो व्याचियासुग्रहणविधिप्रतिपादनार्थ तावदाहगवबुध्यमानः सूर्येऽनुन्नत एव खसाक्तिया चस्यस्थापनाऽऽ. चार्यसमकं वा स्वयं प्रतिपन्नवितितप्रत्याण्यानः पश्चाचा गिएहति सयं गहीयं, काळे विणएण सम्ममुवउत्तो । रित्रपवित्रगात्रस्य गीतार्थस्य गुरोः समीपे सत्रोक्तविधिना कृति- अणुजामतो पश्व-स्युजाएगो जाणगसगासे ॥५॥ कर्माऽऽदिविनयं विधाय रागाऽऽदिरहितः सर्वत्रोपयुक्ता प्राञ्ज- गृण्डाति प्रतिपद्यते,प्रत्याख्यानमिति प्रकृतम्। स्वयं ग्रहीतमा. लिपुटो लघुतरशब्दो गुरुवचनमनुश्चरन् यदा प्रत्याख्यान स्मना प्रतिपानं, विकल्पमात्रेण स्वसाक्षितथा वा चैत्यस्था. प्रतिपद्यते तदा स्पृष्टं भवतीति । तथा प्रत्याख्यानपञ्चाश. पनाऽऽचार्यसमक्षं वा । कदा गृहातीत्याद-काने पौरुष्यारिके कवृत्तावपि-“गिएहर सयं गहीयं काले" ति गाथा, गृ आगामिनि सति, न पुनस्तदतिफमे, अनागतकालस्यैव प्र. पहाति प्रतिपद्यते, प्रत्याख्यानमिति प्रानं, स्वयं गृहीतमात्म- त्याख्यानविषयत्वात्, अतीतवर्तमानयोर्मिन्दासंचरणविषयत्दा. ना प्रतिप, विकल्पमात्रेण खप्ताक्तितया वा चैत्यस्थापना दिति । तथा विनयन बन्दनकदानाऽऽदिना, अनेन प्रत्याख्याचार्यसमकं बा, कदा गृरहातीत्याह-काले पौरुष्यादिक प्रा नस्य विनयतः शुकिरुपदर्शिता ॥ ( पञ्चा०) वस्तु वस्तु गामिनि सनि, न पुनस्तदातक्रमे, अनागतकातस्यैव प्रत्याख्या प्रति प्रतिवस्तु, धस्तु च पुरिमाशिनाऽऽदि । इदं चानुनविषयत्वात, अतीतवर्तमानयोस्तु निन्दासंबरणविषयत्या भाषमाण इत्यनेन ज्ञायक इत्यनेन वा संबन्धनीयम् । तया दिति । इत्यं च बहुग्रन्थानुसारेण मालप्रत्याख्यानं सूर्योदया. झायको ज्ञाता, गृह्णाताति प्रकृतम् । अनेन च ज्ञानशुकिरस्यो. स्मागेवोहार्य, नान्यधेति तत्त्वम् । ५० २ अधिः । चैत्यपूजान ता, ज्ञानस्य दर्शनकस्थादर्शनशुद्धिश्च । पञ्चा०५ थिय० । म्तरं जिनगृहे प्रत्याचक्षते । अथ गृहत्यपूजाऽनन्तरं यत्क ज्ञायको ज्ञायकसमीप इत्युक्तम्, इह च चत्वारो भङ्गा भव. तंव्यं तदाह-तत इत्यादि । ततो देवपूजा ऽनन्तरं स्वयमात्मना न्तीति तउपदर्शनायाऽऽहजिनानामप्रतः पुरतस्तत्साकिकमिति यावत् । प्रत्याख्यानस्य नमस्कारसहिताऽऽद्यद्धारूपस्य अन्यि सहिताःसंकेतरूपस्य एत्यं पुण चउभंगो, विशेो जाणगेयरगयो । च करणमुच्चारणं, विशेषतो गृहिधर्मों भवतीति पूर्वप्रतिझातेन सुधासुधा पहर्म-तिमा उससेमुन विनामा ॥६॥ संबन्धः। ध०२ अधिः । नमस्कारपोरयादि दिवसप्रत्याख्या. | अब शायको शायकसमीप इत्यत्र ग्रहणविधेरवयवे, पुनःशमं न गृहाति, गृहीत्वा वा विराधयति, तर्हि प्रायश्चित्तं नि- म्दोऽस्यैव विशेषद्योतनार्थः। स चायम्-चतूरूपो चतुर्भत, Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) अनिधानराजेन्द्रः। पश्चक्खाण पच्चक्खाण जातावेकवचनम् । चत्वारो जङ्गका भवन्तीत्यर्थः । विज्ञेयो कुर्वन्त्याकार, कार्याभावादित्यर्थः । कान्तारवृत्ती, दुर्भिकतायां कानन्यः । किंविषयोऽसावित्याह-झायकः प्रतिवस्तु ज्ञाता, च दुर्भिवनावे ति भावः। अत्र क्रियते एतदेवनूतं प्रत्याख्यानं इतरश्चाज्ञायका, तौ, गत आधितो ज्ञायकेतरगतः। तुशब्दोऽव. निराकारम् । इति गाथासमासार्थः । आब.६० धारणे। तेन ज्ञायकेतरगत एवेति स्यात् । ते चामी-झायकसमापे नो कयपच्चक्खाणो, आयरिआईण दिज्ज असणाई । कायका १, झायकसमीपे अज्ञायकः २, अज्ञायकसमीपे ज्ञा- न य वियरइ पाबण ओ, वेआवश्यं पहाणयरं ॥१॥ यकः ३, असायकसमीपे अज्ञायक शति ४ । एतेषां च शुकेतरविभागमाह-शुद्धाशुही निर्दोष सदोषी, क्रमेण प्रथमान्ति. यतश्चैवमतः न कृतप्रत्याख्यानः पुमानाचार्याऽऽदिज्या, आदि. मावेबाऽऽद्यचरमावेव, श्राद्यस्य सम्यग्ज्ञानयोगात् शुद्धत्वम् । शब्दादुपाध्यायनपस्थिशिष्यकग्लामवृद्धाऽऽदिपरिग्रहः । दद्यात, किम् ?,अशनाऽऽदि स्थादेतहदतो वैयावृश्यलाभ इत्यत आह. अन्तिमस्य तु सर्वथा ज्ञानाभावादशुद्धत्वम्। विरतौ ज्ञानस्यैवम, भशुकिहेतुत्वादिति । तुशब्द एबकारार्थः, तत्प्रयोगो दर्शित एव । न च विरतिपालनाद्वैयावृस्य प्रधानतरं,सत्यपि तवाभे कि तेन ? शेषयोस्तु प्रथमान्तिमाभ्यामन्ययोः पुनर्वितीयतनाययोरित्या | इति गाथार्थः ।। २१॥ थेः, किमित्याह-विभाषा-शुद्ध्य शुद्धिविषये विविध भाषणम् । __ एवं विनेयजनहिताय पराभिप्रायमाशय गुरुराहकार्येति शेषः । इदमुक्तं भवति- कविच्छुबाशुद्धौ च तो नो तिविहं तिविणे, पच्चक्खाइ अन्नदाण कारवाणं । स्यातामिति गाथार्थः ॥६॥ सुष्पस्सन तं मणिणो, न होइ तब्भंगहेउ ति ॥५॥ विभाषामेव स्पष्टयन्नाह-- न त्रिविध करणकारणानुमतिभेदभिन्नं, त्रिविधेन मनोवाविइए जाणावे, ओहेणं तऍ जेडगाइम्मि । काययोगत्रयेण, पत्याख्यानात् प्रत्याचष्टे प्रक्राम्तमशनाऽऽदि,त. कारण यो उ ण दोसो, इहरा होइ ति गहणविही ॥७॥ तोऽनन्युपगतोपालम्भश्चोद कमतं (१) यतश्चवमन्यस्मै दानमन्य. दानम,प्रशनाऽऽदेरिति गम्यते,तेन हेतुभूतेन कारणं जिक्रिया. द्वितीय शायफसमीपे अज्ञायक इत्येवंतवणे भङ्गाके,न दोष इति गोचरमन्यदान कारणं, तपस्याऽऽशंसाऽऽदिदोषरदितस्य,त. संबन्धः । कथम्,ज्ञापयित्वा अोधेन सामान्येन, विशेषज्ञापनस्य तस्तस्मान्मुनेः साधीन भवति तद्नहेतुः प्रत्याख्यान जङ्गतुम, प्रत्याधानावसरे कर्तुप्रशक्यत्वात् । प्रत्यारपेयवस्वादिकमई तथाऽनच्युपगमादिति गाथार्थः ।। २२।। प्रत्यारानाप्रतिपत्तारं, प्रत्याख्यायत इति गम्यम् । तथा तृतीये किचअशायकसमीपे ज्ञायक इत्येवलकणे भड़के न दोष इति सं. पन्धः । कपित्याह-ज्येष्ठक आचार्यादिसंबन्ध) वृद्धनाता, सयमेवडणुपालणिअं, दाणवएमा य नेह पमिसिका। आदिशब्दात्तन्मातुलपितृपितृव्याऽऽदिग्रहः। तत्र विषये, कार. ता दिज जबइसिज व, जहासमाहीइ अन्नेसि ॥॥ णत एव पुष्टाऽऽसम्बनेनेव गुरूणां पूज्योऽयमित्यस्य पूजा कृता | स्वयमेवात्मनवानुपासनीय प्रत्याख्यानमित्युक्तं नियुक्तिकारण, भवतु,असन्तोषश्चास्य परिहृताऽस्त्वित्यादिनकणेन,न तु यथाक. दानोपदेशी च नेह प्रतिषिछौ, तात्मना आनयित्वा दानं श्रा. धयित् । तुशब्द एवकारार्थः । प्रत्याण्यानं प्रतिपद्यमानस्येति काऽऽदिकुमाऽऽख्यान तूपदेश इति यस्मादेव तस्माद्या, . शेषः। न दोषो नापराधा, "आणगो अजाणगसगासे।"इत्या | पदिशेत या, यथासमाधिना यथासामध्यन, मन्येत्यो बाला. कानङ्गरूपो भवति । अथोक्तविपर्ययमाह--इतरथाऽन्यथा अ. दिभ्य इति गाथार्थः ॥ २३ ॥ जापयित्वा प्रत्यागवानं यच्छतः, तथाऽऽयम्बनानावेऽप्यसमीपे अमुमेवार्य स्पष्टयन्नादसदू गृहत इत्यर्थः। भवति जायते दोषविशेष इत्येषोऽनन्तरो कयपच्चक्खाणी वि अ, आयरिअगिमाणपानाणं । का प्रहणविधिः प्रत्याख्यानादानविधानमिति । एवमायद्वार निगमितमिति गाथार्थः ॥ ७ ॥ पञ्चा०५ विव० । दिजासणाइ संते, लाने कयवीरिमायारो ॥२४॥ श्राह जह जीवघाए, पञ्चक्खाए न कारए अन्नं । संविग्गअन्नसंजो-आण देसिज सलगकुझाई। मंगलयाऽसणदाणे, धुवकारवणं ति न तु दोसो ॥२०॥ अतरंतो वा संभो-याए देसे जह समाही ।। ३५।। प्रत्याख्यानाधिकार एवाह परः । किमाह-यथा जीवघाते निगदसिका ॥ २४ ॥ “एन्थ पुरण सामायारी -सयं अनुजतो प्राणातिपाते प्रत्याययाते सत्यसौ प्रत्याख्यानं कारयस्यन्यमिति वि साहणं आणेता भत्तपाणं देजा, संतं वारियं ण बिगर हितब्वं, अप्पणी संते बीरिते अमो नाणावेयबो, जहा अजी कारयात जीवघातमन्यप्राणिनमिति । कुतः,भङ्गभयात्प्रत्यारूपा. अमुगरस आणिउं देहि, तम्हा अप्पणो संते बोरिए पायरिनभमभयादिति भावार्थः। अश्यत इत्यशनमोइनाऽऽदि,तस्थ दानमशनदान,तस्मिन्नशनदाने,अशनशब्दः पानाऽऽापत्रकणार्थः। यगिलाणचालवुलपाहुणगाईण गच्छस्स धसभाण कुहितो असनारहिं बालगिसंपन्नो आणेत्ता देजा बा, बावेजा बा, ततश्चैतदुक्तं जानि-कुन प्रत्याख्यानस्य अन्यस्मै प्रशनाऽऽदिदाने धर्व कारणमित्यवश्यं भुजिक्रियाकारणम्, अशनाऽऽदिलाने स. परिचिपसु संखडीप वा दवावेज । दाणेत्ति गयं । अबदेसेज्जा ति भोक्तुं नजिक्रियासद्भावात् ततः किमिति चेन्न तु दोषः, वा संविम्गअन्नसनोइयाणं, जहा-पयाणि दाणकुलाणि सग. प्रत्यापपानजङ्गदोष इति गाथार्थः ।। २० ।। श्राब०६अ। कुत्राणि वा अतरता संजोइयाण धि देसेज्ज, न दोसो, अह । पाणगस्स सन्नाभूमि या गतेण संखमी सुता दिट्टाबा हो. निजायकारणम्मी, महयरगा नो करंति आगारं । ज्ज वा, ताहे साहुणं अमुगत्थ संखडि ति एवं उबा कतारवित्तिदुनिख-याइ एअं निरागारं ॥१४॥ दिसेज्ज । वदि सेति गर्य। जहा समाई। नाम-दाणे उबए. निश्चयेन यातमपगतं कारणं प्रयोजनं यस्मिन्नतौ निर्यात. से य जहासामत्थं जश् तर प्राणेउं देइ, अह न तर ते कारणः,तस्मिन्साधा,महत्तराःप्रयोजनविशेषाः, तत्फलभावाम देवावेज्जा वा, उदिसेज्जा बा, जहा जहा साहणं अपनी . Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चक्खाण अभिधानराजेन्द्रः। पञ्चक्खाण चा समाही तहा तहा पयायव्वं । समाहिति वक्वाणियं ॥२४॥ अवयवार्थ तु जाध्यकार एवं वक्ष्यति इति, ताऽऽद्यद्वाराव. __ अमुमेवार्थमुपदर्शयन्नाद भाष्यकार: যদ্বমানঘানাযাसंविग्गअन्नसंभोइयाण, दंसिज्ज सहमकुलाई। पञ्चरत्राणं सच-नुनासिघ्रं जं जहिं जया कान्ने । अतरंतो वा संनो-श्याण दंसे जहसमाही ॥२५॥ तं जो सबह नरो, तं जाणसु मदहणसुद्धं ॥२०॥ मतार्था, नवरमंतरस्स असंभोश्यध्वं ॥२५॥ माय०६०। प्रत्याख्यानं सर्वभाषितं तीर्धकरप्रणीतमित्यर्थः । यदिति यरसप्तविंशतिविध-पम्वविधं साधुमूलगुणप्रत्यास्थाने, दश(११) धर्मकथामन्थनिमंधितमिथ्यात्वनाबाश्च भव्याःशुरूंप्र. विधमुत्तरगुणप्रत्याख्यानं, द्वादशाविधं श्रावकप्रत्याख्यानम्, यत्र स्याख्यानं प्रपद्यन्त शते । तदाह जिनकल्ये स्थविरकल्पे, चतुर्यामे पश्चयामे च धावकधर्मे वा। पंचविहे पच्चक्खाणे पसत्ते। तं जहा-सदहणसुद्धे, विण यदा सुनिने पुर्जिके वा, पूर्वाह्ने पराहे बा । काल शति चयसुके, अणुभासणासुदे, अणुपालणामुके, नावसुके। रमकाले पत्र यः श्रद्दधते नरस्तत्र तदभेदोपचाराः तस्यैव त(पंचविडत्यादि ) प्रतिषेधत आसमान मर्यादया कथन यापरिणतत्वाजानीदि मानशुद्धामति गाथार्यः ॥ २८ । प्रत्याख्यानम् । तत्र श्रद्धानेन तथेतिप्रत्यय लक्कणेन अहं निरवा ज्ञानशुद्ध प्रतिपाठातेअमानशुद्धम, श्रमानानावे हि तदशुद्धं भवति । एवं सर्वत्र पच्चक्रवाणं जाणइ, कप्पे जे जम्मि होइ कायम् । यह नियुक्तिगाया मूलगुण नत्तरगुणे, तं जाणसु जाणणासुकं ॥ २ए ।। "प बक्माण सम्व-नुदेसियं ६ महिं जया काले । प्रत्यास्थानं जानात्यगति, कल्पे जिनकस्पाऽऽदौ, यस्मत्या. तं जो सहर नरो, तं आपसु सद्दहणसुकं ॥१॥" ख्यान, यस्मिन् जति कर्तव्यं मुशोत्तरगुणविषयं, तजानीहि विनयशुद्धं यथाकिडकम्मरस विसोहि पउंजर जो सहीणगरि। झानशुरुम् । इति गाथार्थः ॥२५॥ मणवरण कायगुनो, तं जाणविणयो सुद्धं ॥१॥" विनय शुद्धमुच्यते - अनुजाषणाकं यथा किकम्मस्स विधि, पनई जो अहीणपरितं । "अणुभामा गुरुपयएं, अपवरपयवजणेहि परि सुख्। । मग वय का यगुत्तो, तं जाए मु विणयभो सुखं ।। ३०॥ पंजलि को अनिमुछो, तं जाणऽणुभासणासुद्धं ॥१॥" (कितिकम्मरलेत्यादि) कृतकर्मणो वन्दनकस्येत्यर्थः। विशुर्ति मागुनमाते-"वोसिरतति"शिप्यस्तु-"योसिरामिति" निरयद्यां करणक्रिशं प्रयु यः प्रत्यारपानकाले अन्यूनातिरिक्तो अनुपालनाशुद्धं यथा विशुष्मनोचावायगुप्तः सन, तत्प्रत्याख्यानपरिणामत्वा प्रत्या"कंतारे दुन्निक्खे, आयंक वा मह समुप्पो । ज्यान जानीदि बिनयता विनय शुधन्। इति गाथाऽर्थः ॥३०॥ जं पालियं न भगं, तं जागऽसपालणासुखं ॥१॥" अधुना अनुनापरणाशुरूप्रतिपाइयवाहजाधशुषं यथा अनासइ गुरुवयणं, अक्खरपयवजहिँ परिसुई। " रागेण व दोसेग ब, परिणामेण व न दृसिय जंतु। कांनती अभिमुहो, तं जाणगुनासणासुद्धं ॥३१॥ तं खलु पचपखाणं. भावदिसुद्धं सुगयव्वं ॥१॥" इति । कृतिकांप्रत्याख्यानं कुर्वन् अनुभाषते गुरुवचनं, लघुतरेण अन्यदपि षष्ठं झातशुशामिति नियुक्तासुक्तं, तदाद शब्देन भगतीत्यर्थः । कथमनुभाषते , अकरपदव्यजनः परि. " पचखाणं जाणा, कप्पे जे जम्मि होइ कायब्वं । मूलगुण उत्तरगुग्गे, तं जाण जाणसुद्धं ति ॥१॥" शुरुम् अनेनानुभावणापत्रमाह । नवरं "तुरुनश-घोसिरह लि । मोवि भगति-बासिरामित्ति । सेसं गुरुभणियसरिस स्था० ५ठा०३ उ० । जाणियचं । " किंभूतः सन् कृतमा जझिरनिमुखः, तजानी(१२) प्रत्याख्यानशुद्धिः नजाषणामिति गाथार्थः॥ २१॥ श्राव०६०।(अनुपासोही पच्चक्खाण-स्स छविही समण समयकेजाहिं। बनाशुभम 'अनुपालनासुक' शब्दे प्रथमभागे ३८८ पृष्ठे गतम) पनत्ता तित्थयरेहि, तमहं बुच्छ समासेण ॥ २६॥ दानी भावशुद्धमाहशोधनं झुद्धिः,सा प्रत्याख्यानस्य प्रागनिरूपितसम्दार्थस्य,पर रागेण र दोसेण क, परिणामेण च न दूसिधे जंतु । विधा षट्पकारा, भ्रमणसमयकेतुभिः साधुसिद्धान्तविज्ञभूतः, प्राप्ता प्ररूपिता, कैः ?, तीर्थकरैः ऋषभादिमिः, तामहं व तं खलु पञ्चक्ला, जावविमुई मुणेअव्वं ।। ३३ ।। दये । कथम् !, समासेन संक्षेपेरोति गाधार्थः ।। २६ ॥ रामेण वाऽजियाक्षणेन, द्वेश्रेण वा अग्रीतिलवाणेन, परिणाअधुना परविधत्वमुपदर्शयसाह-- मेन बेदकोकाऽधारासालक्षणेन स्तम्भाऽऽदिना वक्ष्यमाणेन, न दूषितं न कजुषितं यत्तु यदेव तत्सल्विति तदेव, समुशब्द सा पुण सद्दहणा जा-पणा यत्रिणय अणुनासाणा चेव।। स्वावधारणार्थत्वात्प्रत्याख्यानं भावशुद्धं, (मुणे यवं ति)काअपाक्षणा विमोही,नायरिसोही भवे छडा ॥२७॥ सम्पमिति गाथासमामार्थः (३३)"अवयदत्थे पुण-रागेण एस सा पुनः शुद्धिरेब पविधा । तद्यथा-प्रशानशुशिशांना. पृज्जत्ति अदं पि एवं फरेबित्ति पूजाहामि त्ति एवं रागेण जिविनय गुद्धिः, अनुभाषणाशुद्धिय । तथा-अनुपालनाशुद्धि- करे। दोखेण तदा करेमि जहा लोगो ममहत्तो पडद तेण ए. प्रवति षष्ठी । पावान्तरं चा-" सोही सहहा " इत्यादि ।। एस्स माढायंति ति, एवं मोसेणे परिणामेण मो इहलोगध्याए तत्र शुद्धिशब्दो द्वारोपलकणार्थः, नियुक्तिगाथा चेयमिति गा- नो परलोगटयार नोिित्तास वा अन्नपाणयस्थ पसरणाप्रासमासाः ।।१७।। | सण या जो एवं न करे तंजावसुः"॥ ३३॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२) अनिधानराजेन्द्रः। पञ्चक्खागा पञ्चक्खाण एहि छहिं गणे, पञ्चक्खाणं न दूसि जंतु | एवं जहा गरहा तहा पञ्चक्खाणे वि दो मालावगा भा. तं मुई नायव्यं, तप्पमिक्खे अमुझं तु ॥ ३४ ॥ णियब्बा। एभिरनन्तरव्यावर्णितैः षडियः स्थानकैः श्रद्धानादिभिः प्रत्या- (मणसेत्यादि) "कायसा वेगे पस्त्रक्साइ पावागणं क. ज्यानं न दूषितं न कलुषितम्, यत्तु यदेव,तसुद्धं ज्ञातव्यं, तत्प्र. म्माणं अकरणायाए " इत्येतदन्त एकः । " भहवा-पच्च. तिपक्के अश्रकानाऽऽदो सति अशुईतु ति गाथार्थः ॥ ३४॥ | खाणे तिबिड़े पन्नत्ते । तं जहा दोहं पगे अकं पच्चक्खाक परिणामेन वा न दृषितमित्युक्तं, तत्र परिणामं प्रति. हस्सं पगे अकं पच्चक्खाइ, कायं पगे पमिसाहरण पावाणं पादयन्नाह कम्माण करणयाए ।"शति द्वितीयः, तत्र कायमप्येकः प्र. थंजा कोदा अणानोगा, अणापुच्छा असंतई । तिसंहरति पापकर्माकरणाय । अथवा-कायं प्रतिसंहरति पा पकर्मभ्योऽकरणताय तेषामेवति । स्था० ३ ठा०१०। (नम. परिणामा उ अमुखो-पामो तम्हा बिन पमाणं ॥३५॥ स्कारसहितप्रत्याख्यानम् ' णमोक्कारसहियपच्चक्वाण' शब्वे स्तम्नान्मानात, क्रोधात्प्रतीतात्, अनानोगाविस्मृतेः, अनापृ. चतुर्थभागे १७६१ पृष्ठे " सूरे समाए " स्त्यादि सूत्रे न्या. उछातः, असन्ततः, परिणामतः, अशुद्धोपायो वा निमित्तं य ख्यातम) स्मादेवं तस्मात्प्रत्याख्यानचिन्ताया विद्वाप्रमाणं निश्चयनय. अधुना सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्येदमेव निरूपयन्नाह. दर्शनेन विक इति गाथासमासार्थः॥३५॥ "थंणं पलो माणिज्जा-अहं पि पवस्वामि, तो माणिज्जिस्सामि । कोहेण प. असणं पाणगं चव, खामं साइमं तहा। मिचोयणादि बामित्रो नेच्छह जेमिलं, कोहेण अभक्तक एसो आहारविही, चनधिहो होइ नायवो ॥३६॥ रे । अण्णाभोगेण न याणाइ-किं मम पश्चखाणं ति जिमि. भशनं मरामकौदनाऽऽदि, पानकं चैव जाक्षापानाऽऽदि,खादिम एण संभरियं अम्गं पथक्वाण । अणापुच्चा नाम-प्रणापुजा फलाऽऽवि, स्वादिम गुमाऽऽदि, एष आहारविधिश्चतुर्विधो ए नुज-मा वारिज्जाहामि जहा तुमे अभत्तको पञ्चपखाको। नवति ज्ञातव्यः । इति गाथार्थः ॥३६ ॥ भहवा-जेमेमि तो भणीहामि चीसरियं ति, नस्थि अत्य किंचि ___साम्प्रतं समयपरिभाषया शब्दार्थनिरूपणायाऽऽहप्रोत्तव्वं, एवं पञ्चक्खायति । परिणामओ असुद्ध त्ति दारं, सो आसं खुहं समेई , असणं पाणाणुबग्गहे पाणं । पुग्ववनिनो,यह लोगजसकित्तिमादि । अहवा-पसेव थंभादि. प्रवाउत्ति-अपि पच्चक्खामि, मा निकुम्भीहामि तिअ खे माइ खाइमं ती, साएइ गुणे तो साई ॥३७॥ वारण पश्चक्खाइ, एवं न कप्प, घिद नाम जाणमो, तस्स आशु शीघ्रं सुधं बुनुक्का शमयतीत्यशन, तथा प्राणानामिसुजवति, सो अन्नहा न करेइ । कम्हा । जम्हा जाणओ लियाऽऽदिनकणानामुपग्रहे उपकारे,यदर्तत इति गम्यते । त. तिम्हा वि पमाणं, जाणतो सुहं परिहरेश ति भषियं होश, स्पानमिति । स्वमित्याकाश,तच्च मुखबिवरमेव, तस्मिन्मातीति स्वादिमम् । स्वादयति गुणान् रसाऽऽदीन संयमगुणत्वाद् यत. सो पमाणति ।" तस्य शुकं भवतीत्यर्थः पञ्चक्वाणं सम्म। स्ततः स्वादिमं हि तपेन तदेवाऽऽस्वादयतीत्यर्थः । विचित्रनिहन मूलद्वारगाथायां प्रत्याख्यानमिति द्वारं व्याख्यातमा शेषाणि तु प्रत्याख्यानादीनि पञ्च द्वाराणि नामनिष्पत्रनिकेपास्तर्गतान्य. क्तिपागद् धमति रौति तद् भ्रमर इत्यादिप्रयोगदर्शनात्साधुरे. पायमन्वर्धः । इति माधार्यः ॥ ३७॥ उक्तः पदार्थः। पदविग्रह पि सूत्रानुगमोपरि व्याख्यास्यामि । किमिति !, अत्रोच्यते-येन स्तु समासभाक्पदविषय इति नोक्तः । प्रत्याख्यानं परमार्थतः सूत्रानुगमेन समातिं यास्यति । आव० मधुना चालनामाह.. ६०। (१३) मनसा वचसा सम्यो वि अाहारो, असणं सबो वि वुच्चई पाणं । दुविहे पञ्चक्रवाणे पात्ते । तं जहा-मणमा वेगे पञ्चक्खा सध्यो वि खाइम तिनसम्बो वि असामं हो ॥३॥ ति,बयसा वेगे पञ्चकवाति । अहवा-पञ्चकखाणे दुविहे प यचनम्तरोदितपदार्थापेक्षया प्रशनाऽऽदीनीति, यतः सोऽपि मते । तं जहा-दीहं एगे अकं पञ्चक्खाति, रहस्सं एगे चाद्वारश्चतुर्विधोऽपि तदर्थमरानं, सर्वोऽपि चोच्यते, पानक, सापि च स्वादिष, सर्व एव च स्वादिम भवति, अन्वर्धाअछ पञ्चक्रवाति । विशेषाना तथाहि-यथैवाशनमोदनमण्डकाऽऽदि बुध शमयति, (दुविदे पश्चक्नागे इत्यादि) प्रमादप्रातिकूल्येन मर्यादया स्या- एवं पानमपि तत्तथैव बाकावीरपानाऽऽवि,स्त्रादिममपि फाss. नं कथनं प्रत्याख्यानं, विधिनिषेधविषया प्रतिक्षेत्यर्थः । तब दि,स्वादिममपि गुडाऽऽदि,यथा च पानं प्राणानामबग्रहे वर्तसे, व्यतो मिथ्याप्टेः सम्यम्हाऽनुपयुक्तस्व कृतयतुर्मासप्र. पचमशमादीन्यपि। तथा चत्वार्यपि खे मान्ति, चत्वार्यपिचास्याख्यानायाः पारण कदिने मांसदानप्रवृत्ताया राजदितुरिये. स्वादयन्ति, आस्वाद्यते चेति न कश्चिद्विशेषस्तस्मादयुक्तमेव ति । भावप्रत्याख्यासमुपयुक्तसम्यम्हरिति,तच्च देशसर्वमूलगु- प्रेस इति गाथार्थः ॥ ३० ॥ श्यं चालना। प्रत्यवस्थानं तु य. णोत्तरगुणभेदादनेकविधमपि कारणभेदाद विविधम् । आह च. पि एतदेव, तथापि तुल्यार्थप्राप्तावपि रूढितोप्रयोजनं च मनसा चैकः प्रत्याख्याति बधाऽऽदिकं निवृत्तिविषयीकरोति, स्वाति वधाभदक निवृत्तिावषयीकरोति, संयमोपकारकमस्त्येव कल्पनया, अन्यथा दोषः ॥३८॥ शेष प्राक्वेिति । प्रकारान्तरेणापि तदाह-( अहवेत्यादि) तथा चाडसुगमम । स्था०१०१३०।। जा असणं चि सव्वं,पाणगमवि वज्जणम्मि सेसाणं । तिविधे पञ्चकवाणे पाते । तं जहा-मणसा वेगे पञ्च- हवा विसेसविवेगो, तेण विजताणि चउरो वि ।।३।। खाइ, वयसा वेगे पच्चक्खाइ, कायसा वेगे पच्चक्खाइ।। यद्यशनमेव सर्वमाहारजातं गृह्यते, ततः शेषापरिभोगेऽपि Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३) पनिधानराजेन्द्र पञ्चकखागण पानकाऽऽदि वर्जने उदका परित्यागे शेषाणामाहारभेदानां, निवृ चिर्न कृता भवतीति वाक्यशेषः । ततः का नो हानिरिति विशेषविवेक प्रति शेषाद्वार भेदपरित्यागः न्यायपत्यात्प्रेसबाय कल्पत इत्यपरिणतानां श्राद्धानां च न जायते (१), एवं सा माम्यविशेष नेदनिरूपणया सुखावसेयं सुखश्ररूयं च भवति । इति गाथार्थः ॥ ३६ ॥ तथा चाऽऽद असणं पाणगं चेत्र, वाइमं साइमं तहा । एवं पविम्मी सद्दिवं नं सुहो होइ ॥ ४० ॥ अशनं पानकं चैव खादिमं स्वादिमं तथा, पत्रं प्ररूपिते सामान्यविशेषभादनाख्याते तयादबोचात् धातुं सुखं भय ति-सुखेादयते पाप सुखम् । इति गाथार्थः ॥ ४० ॥ " श्राद- मनसाऽन्यथा संप्रधारित प्रत्याख्याने त्रिविधस्य प्रत्यापानं करोमीति चागम्य विनिता चतुर्विध्यस्येति गुरुणा पि तथैव दत्तमत्र कः प्रमाणम् ?, उच्यते-शिष्यस्य मनोगतो भाव इति । आह चअन्त्य निवदिए जम्म जो खलु मयोगओ जावो । सं खलु पचकखाणं न पमार्थ जखला ॥४१॥ अन्यत्र निपतिते व्यञ्जने त्रिविधप्रत्याख्यानचिन्तायां चतु विध इत्येवमादौ निपतिते शब्दे वः खलु मभोगतो नावः प्रत्याख्यापयतु विशेषणे अधिकतर संयमयोगक रणं किप्तचेतस्त्रोऽन्यत्र निपतिते, न तु तथाविधप्रमादात् यो मनोगतो भावः । तत्खलु प्रत्याख्यानं न प्रमाणम्, अनेनापान्तलगतरविवान्तरतिषेधमा प्रर्तकस्वादू व्यवहारदर्शनस्य बाधिकृतत्वात् श्रतो न प्रमाणं व्यजनं कायार्थवचनम् किमिति नासो जना तदन्यथाजावसद्भावात् । इति गाथार्थः ॥ ४१ ॥ त्यानं प्रधानं निराकारधिवदनुपानीयम तथा वाद फासि पालि चैत्र, सोहि तीरित्र्ां तहा | किचिमाराहि चैत्र, परिसम्म पप ॥ ४२ ॥ स्पृष्टं प्रत्याख्यानग्रहणकाले विधिना प्राप्तं, पालितं चैव पुनः पुनरुपयोग विजयरमेन रक्षितं शोभितं शेष भोजनानेन तीरितं वा पूर्वेकक नावस्थानेन, कीर्तितं भोजनवेलायाममुकं प्रत्याख्यांगं तत्पूभोकर मरे संभूतमेतदाज्ञापामा मद्द कर्मकारणं तत् अस्मिन् प्रयतितम्यमिति एवंभूत प्रत्याख्याने यत्नः कर्तव्य इति गाथार्थः ॥ ४२ ॥ उचिएकाले विहिणा में पतं फासि तवं नयिं । तह पास गपरियं ॥ ४३ ॥ गुरुदत्त से सतोश्रण - सेवण्याए श्र सोहि जाट | पुनेत्रियोत्रकाला - वरयाणा तीरिअं होइ ॥ ४४ ॥ भोकाले अमुर्ग, पथकला ति सरह किट्टी | आराहियं पयारेहिं सममेएहि निद्वविधं ॥ ४५ ॥ गाथात्रयमन्धक कम् पञ्चकखाण साम्प्रतमनन्तरं, पारम्पर्येण च प्रत्याख्यानगुणानादपञ्चकखाशम्मि कर, सबदाराति पिहि खाई । श्रसववुच्छेपण य, तम्हा वुच्छेणं होई ॥। ४६ ॥ प्रत्याख्याने कृते सम्यक निवृतौ कृतायां किमादवद्वाराणि भवन्ति पिहितानि तद्विषयप्रतिक्शन कर्मबन्धद्वाराणि भ पन्ति स्थगितानि यच्छेदेन च कर्मचार संवरनवेत्यर्थः किम्च्छेदनं भवति राि पयाभिलाषनिवृत्ति पति इति गाथार्थः ॥ ४६ तम्हा कुठेपण य, उलोवसमो जवे मसाणं । झोपसमे पुणो, पच्चक्खाणं हवः सुकं ॥ ४७॥ तावच्छेन च तद्विषयाभिन्नाषनिवृत्या च अतुलः अनम्यसदृश उपशमः माध्यस्थ्यपरिणाम्रो नवति मनुष्याणां पुरुषाणां जायते । पुरुषप्रणीतः पुरुषप्रधानका धर्म इति स्थापनार्थ मनुष्यग्रहणमनन्यधा श्रीणामपि वत्येव अतुलोपमे न पुनरनन्यसदृशमाध्यस्थ्य परिणामेन, पुनः प्रत्याख्यानमुक्कल कणं भवति जायते निष्फलम ते गाथार्थः ॥ ४७ ॥ तत्तो चरिचम्मो, कम्मविवेगो तो अच ततो केवलनाणं, ततो मुक्खो सया मुक्खो || ४० ॥ ततः प्रत्याख्यानात् शुद्धाच्चारित्रधर्मः स्फुरतीति वाक्यशेषः कर्मविनिर्जरासंध परिि शिवनकामाच्च कर्मविधेका पूर्वमिति मे पूर्वकरणं भवति । ततः अपूर्वकरणाद्वेणिक्रमेणकेवा नम, ततश्च केवलज्ञानान्द्र बोपग्रादिकर्मक्षयेण मोकः सदा सौक्यः wran नित्यसुखो भवत्येवमिदं प्रत्याख्यानं सकलकारले कर्तव्यमिति गाथार्थः ॥ ४८ ॥ मा ६० ६ अ० । घ० । पवमपि शुद्धयमानेन प्रत्याख्यानं कार्यमतस्तत्फलं प्रश्नपूर्व कमाद पच्चक्खाणं ते! जीवे किं जलयई । पच्चक्खाणं आमदाराई निचखाणं इच्छा निरोधं जाय, इच्छा निरो गए पंजीचे सव्यदधे विधीयतराहे सीयलए बिरह ।। १२ ॥ है प्रत प्रस्थापावेन गुणोतरगुणप्रत्ययानरूपेण जीवः किं जनयसि ?| गुरुराह दे शिष्य ! प्रत्याख्यानेन श्राश्रव द्वाराणि निरुणकि श्रतिशयेन श्रवृणोति । भत्र प्रत्यन्तरे कुत्रचित् प्राप्रियायामेन है। असरम शिष्य प्रस्थापानेनेानिरोधमादारादि या विरोधं जनयति निरोजी सर्व मीततृष्णो भवति सुतरामा चिनीका स्फोटिता तृष्णा बेन स सुविनीतसृष्णः श्रत्यन्तवीकृततृष्णः सन् शीतलीभूतो विहरति बाह्याभ्यन्तरसम्वादरहितो विचरति ॥ १३ ॥ उत्त० २६ अ० । पानमिदोषामेव कारसमन्वितं च गृह्यते पाहयते । अत नमुकारमोरिमीए, पुरियद्वेगास गो । चिभिच, नरमे भवति भिधित्सुरा मनिगाड़े बिगई ।। ७५।ा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) पच्चक्खाण अभिधानराजेन्द्रः। पञ्चक्खाण दो छच्च सत्त अट्ठ य, सत्तऽह य पंच उच्च पाणम्मि । प्रवाभावोऽपि स्याद्, एतत्सूचनार्थ प्रायोग्रहणम् । किंविधो. चरपंच अट नव य, पत्तेअंकिए नव य ।। ।। ऽसावप्रमाद इत्याह-विरतिस्मरणप्रधानः प्रत्यास्थयानिवृत्ति स्मृतिपरमः। प्रत्याख्यानजन्याप्रमादो दि विरति स्मारयत्येव, दो चेव नमुकारे, आगारा छच पोरिसीए च। अनेन चान्तरं फलमप्रमादस्योक्तम । तथा शुरूप्रवृत्तेरनवद्यासत्तेव उ पुरिमके, एगासण गम्मि अहेव ।। ५१॥ नुष्ठानस्य समृद्धिः संपूर्णता फलं यस्य स तथा । दृश्यतेच सत्तेगगणगस्स उ, अहेवायविसस्स आगारा। प्रत्याख्यानजन्याप्रमादवतां सत्प्रवृत्तिप्रकर्षः । अनेन पुनरस्य पंच अभत्तहस्स उ, छप्पाणे चरमि चत्तानि ।। ५२ ॥ बाह्यं फलमुक्तम् । इति गाथार्थः ॥ २४॥ नम्विदमाहारप्रत्याख्यानं त्रिविधाऽऽद्याहारजेदेन गृह्यमाणमप्र. नमस्कार इत्युपलकणत्वात् नमस्कारसहिते पौरुध्यां पुरि स्वाख्याताम्यतराहारविषयेऽभिध्वभावयुक्तत्वेनेतरत्र च द्वेमा एकासने एकस्थाने च आचाम्ले अभक्कार्थे चरमे च अ. पभावोपेतत्वेन सामायिक बाधते, सर्वत्र तस्य निरभिवाभिग्रहे विकृती, किम् ?, यथासंख्यमेते प्राकारा:-द्वौ षट् सप्त तास्वनावत्यादिस्याशझ्याऽऽहअष्टी सप्त भष्टौ च पञ्चपट पाने, चतुःपञ्च अष्टौ नय प्रत्येक पिएमको नवकः । इति गाथाद्वयाऽकरार्थः । भावार्थमाद शय सामाइयमेयं, वाहइ भयग्गहे वि सम्वत्थ । द्वावेव नमस्कारे प्राकारी, इह नमस्कारग्रहणात् नमस्कारस. समनावपवित्तिगिरि-त्ति भावो गणगमणं व ॥१५॥ हितं गृह्यते । तत्रद्वावेवाऽऽकारी, आकारोहिनाम प्रस्यास्यानेऽपवादे हेतुः ॥ ५० ॥ आव० ६ अ० । श्रा0 न्यू० । मच नैव, सामायिकं समभावलक्षणं कर्मताऽऽपन्नम, एतदापा.पं० ब० । ( पौरुपयादिप्रत्यायानसूत्राणि स्वस्थस्थाने हारप्रत्यारुपानं कर्त, बाधते विनाशयति । भेदेन त्रिवि. द्रष्टव्यानि) धाहाराऽऽदिल कषविकल्पेन ग्रहण प्रतिपत्तिःभेदग्रहणं, तत्रा पि, न केव चतुर्विधाऽऽहारग्रहण पत्रेति प्रतिका कुत पत. (१३) अय सामायिकविधिरभिधीयते । तस्य चैवं प्रस्तावना. पमित्याह-सर्वत्राऽऽहाराको समभावेन प्रत्याख्यातेतराऽऽदारननु सामाषिके सकासाघद्ययोगविरतिरूपे सति किमनेना. दयोस्तुख्यपरिणामेन ये प्रवृत्तिनिवृत्ती प्रमेणाप्रत्याख्यातप्र. अधारमायाख्यानेन,सकलगुणानां सामायिनवाऽप्तित्वात् । स्याख्यातायोःप्रवर्तन निवर्तने,तयोयोनायासद्भावः,स तथा, अत एव विदुघुष्यते-"रागद्वेषौ यदि स्यातां, तपसा किप्र. तस्मात्समभावप्रनिनितिभावत इति हेतुः । समभावताच योजनम् । तावेव यदि म स्णता,तपसा कि प्रयोजनम् ? ॥१॥" प्रत्यास्पातुःप्रत्याख्यातेतराऽऽहारविषये वेदनावैयावृत्याऽऽदि. इत्याशझ्याऽऽह नात डोपसर्गाऽऽदिना च शास्त्रोताऽम्यनेनैव प्रवृलेनिवृत्तेश्व सामाइऍवि हु साव-जचागरूवे उ गुणाकरं एयं ।। स्थानगमने प्रतीते श्व स्थानगमनयदिति दृग्वाम्तः । यथा हि अपमायबुडिजणग-तो आणाउ विषयं ॥१३॥ समभावत एव पचचित स्थानं गमनं घेतरेतरपरिहारचदपि न सामायिक बाधते, एवमिदमपाति । प्रयोगोऽन-बत्सम सामाथिके भात्मपरिणामधिशेषे, अपिशब्द उत्तरत्र संभत्स्यते। भावपूर्वकमगुष्ठानं तलामायिकं न बाधते, स्थानगमने व हुशब्दो चाक्पाल कारे। किंते, सावत्यानरूपे विनिखिलसपापव्यापारपरिहारस्वभावेऽपि, न केवल देशविरतिसम्य समभावपूर्वकं च भेदप्रत्यायमानम् । इति गाथार्थः ॥ १५ ॥ कत्वश्रुतसामायिके धव, तुराब्द एत्रकाराथों निन्नकमध । गुण प्रधाहारप्रत्याख्यानवत्सामायिके आकाराः किमिति मोक्ता करमेवोपकारकमेव, एतदाहारप्रत्याख्यानमनहरोत्तम् । कथा। पति परमतमाशङ्कमान पाहमिदमेवमित्याद-प्रमादवृद्धिजनकत्वेनाप्रमतताप्रकर्पोत्पाद- सामाइएँ आगारा, महातरगे विणेह पाता। कत्वात् । अनुभवन्ति च साधवोऽमुतोऽप्रमादवृद्धिम् । तथा मा. जणिया अप्पतरे विदु, णवकाराइभि तुच्छमिणं ॥१६॥ कातः सथिदादेशात् । श्रादिष्टं च सर्वधिदा सामायिकतामेतच्चनुांऽऽदि, तपसामादेशात् । श्राह च-"तबहउ च उत्था सामायिके सर्वविरतिरूपे, श्राकारा अपवादाः, (महइतर. ई, जाव य उम्मासिनो तवो हो ।" विझेयं ज्ञातम्य, गुण गे वि सि) साहारप्रत्यास्थानापेक्षया महत्चरकेऽपि वृहसरे, करमिति योगः । अतः सामायिक सत्यपादं युक्तम् । इति ऽपि, पहचरस्वं च तस्य यावजीधितया विविध त्रिविधेन च गाथाऽर्थः ॥१३॥ प्रतिपत्तेः । न नैव, इह प्रत्यास्थानाधिकारे, प्रशप्ताः प्ररूपिन चाप्रमादवृद्धि जनकल्यनस्यासिमित्याह ता, महसर एव विषये ते प्ररूपयितव्या भवतीति हृदयम। भरिगतान प्रापिताः पुनरपतरेऽस्यतिशयतुच्चेऽपि,मविशदोन एनो य अप्पमाओ, जायइ एत्यपिह अणुहयो पायं । चाहारप्रत्यास्थानस्याऽस्पतरत्वेनाऽऽकारभणनायोग्यतासं. विरतीसरणपहाणे, मुद्धपवित्तीतमिफओ ॥१४॥ सूचनाथः । दुशब्दो वाक्यालहकारार्थः । नमस्काराऽऽदी नमइतोऽनम्तरोक्कादाहारप्रत्याख्यानात्।तुशब्दः, चशब्दो चा पुन- स्कारसहितपौरुषीप्रनृतिके, तदेव तुच्छमसारमिदं नमस्कारस. रर्थः । अप्रमादोधमत्तता, जायते विशेषेण संपद्यसे । कानमा- | हिताऽऽदावाकारजणने सति सामायिक तदनणने युक्तिरहिर वो जायते, इत्याह-पित्य त्ति) अत्र सावद्ययोगविरतिरूपे सा. सत्यादिति गाथार्थः ॥ १६ ॥ मायिके। अथ किमत्र प्रमाणमित्याह-इहास्मिन्प्रत्याख्यानस्या अनोत्तरमाहप्रमादजननसकणेऽर्थे अनुभवः खसंवेदनं प्रमाणम, प्रायो बाहुब्येन, वीतरागाणानप्रमादस्थ जातत्वात्, अनुपयुक्तसाधू समभावे च्चिय तंज, जायसव्वस्थ आवकहियं च । मां पा न जायतेऽसौ, प्रत्याख्याने सत्यपीत्यप्रमादविशेषानु। ता तत्थ ण आगारा, पएणत्ता किपिह तुच्छसि ॥१७॥ Jain Education Intemational . . . Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्खाण लमनाव एव रागाऽऽदिविदित वैषम्यविरहितपरिणाम एव सति नान्यथा । तत्सामायिकम्, यद्यस्मात् जायते नवति । किं विषये समभाव इत्याह-सनं सर्वेषु पार्थेषु भिषाऽऽदिषु अनेन इन्यायाधित्य साविक कालदे ss यावत्कथितं यावज्जीविकम् । चशब्दः समुच्चये । तज्जायते इति वर्त्तते । ततस्मात्कारणद्वयात्, तत्र सामाधिके नाकारा नापवादाः प्रकृताः प्ररूपिताः, जिनैरिति गम्यम् । ततश्च किम ?, नदियर्थः कारविचारे, तुमसा बुकियुक्त स्वादिति । अयमत्र नावार्थ:- सामायिके नाकारा न बुक्काः, तस्याजन्म समभावरूप यदि गुरु चनतो ज्ञानाऽऽद्यवस्थायां प्रशस्ताऽऽलम्बनः काशिप्रतिवेषां करोति तदा तस्य समभावात सामायिकवाचि तरवारिक मल काराऽऽदिकरणेन ?। यदि च सामायिक तिपत्तिकाले सबै साबधं योगं प्रत्याख्यामि श्रन्यन वैरितीकारादेरित्येवं साकारं परमाखादि बायदिव्यवधिविशेबना प्रत्ययाति तदा वैरिकादिषु पचमासादिपरास मभावाभावात्सामायिकं नास्त्येवेत्याकार करण मनर्थकमित्येवं सामाकियाकाराजावः । इति गाथाऽर्थः ।। १७ ।। तदेव सामायिकस्य सर्वार्थनिरभिष्वङ्गवं मास्कधिकर च स्पष्टयत्राह तं खलु चिरासिंग, समया सन्वनावसि तु । कालावदिम्पत्रि परं, जंगभया यावदितेण ॥ १८ ॥ तत्सामायिक, खरवधारणे निशकमा नियमिष्यङ्गमेय निराशंसमेव तथा समयमा हेतु सर्व समस्त वस्तुगोचरमेव हि ( सवनाचविलयं ति ति ) तत्र निरभिष्वङ्गमेच तत्स्वमतया सर्वनामितियावेवे" जिय तं नं. जाय सम्बत्थेति" प्रावितम् । ननु तस्य कथं निरभिष्वङ्गएवं जीवनं देव परतोऽभिष्वङ्गमाचा अत्रोच्यते- कालावधावपि यावज्जीवत येत्येवंभूतमर्यादायामपि, किंभूते कालाधावित्याह-परमिति जीवनात्परतः, भङ्गजया. स्प्रतिज्ञाभ्रंशजीत्या कृते सतीति शेषः । नाबधिश्वेन न पुनर्मदान. परतः सावधं करिष्यामीत्येवं रूपेणेति शेषः । विप्रकृतम अनेन च भावकहिये ति ) भावितमिति गाथाऽर्थः ॥ १८ ॥ निदर्शनतः सामानिकमा कार णामविषय इति दर्शया जयऽज्झसियमुह-मजावतुमिह ही लगाएण । पण विसनो, भावेयन्त्रं पयते ॥ १७ ॥ जयो वाऽवाप्तव इत्युल्लेखेन रणावसरे रणजय मृत्युरिविजयावध्यवसितौ येन सुभटेन स सतन्य यो भावोऽध्यवसायः, तस्य तुल्यं सदृशं पतत केदारन होना चाइय राज्यैकभावकत्वात् रागाऽऽदिवैरिवारविधुरितास्तःक अपकारकरणपरायणत्वात् सामायिकवतचैतद्विव्यवसायसामाजैव च साम्य मतोऽपवात्रानामा काराणाम्, न विषयो गोचरः, तथाविधकरूपत्वात् जनयितव्यं भावनीयम, पतत् प्रयत्नेनाऽऽरेण । न बु (१०५) अभिधानराजेन्द्रः । و पचचक्खाण हथुपादेयविशेषे उपायविशेषतः वर्तमान भा बति । इति गाथाऽर्थः ॥ १६ ॥ यत एवेदमित्थं महत्तरमत पवाऽऽह एसो विष पसे दर्द जोगण वमओ समए । एक्सपाइयो, वीर्यति विद्दीय अइसा ॥ २० ॥ बस एवेदं सुभावतुल्यमत एव कारणात्प्रतिषेधो निवारणा दानं प्रति भ भाववर्जितानां वर्णितोऽभिहितः समये सिद्धान्ते । कस्य प्रतिषेध इत्याह-पतस्य सामायिकस्य । ननु वद्ययोग्यानामेतनिषेधो वर्जितला कथं भगवता महाबीरेण जन्मान्त रविदारितदिजीवा नीरस्थ सामायिकप्रतिपाततोऽपि सामापिकदानविधिरादिष्टस्य इत्याशया पातिनो Sयवश्यं सामाधिकात् प्रतिपतनशीलस्यापि श्रस्वामितरस्य । शब्दकार्थः बीजमिति मुाियययकारणमर्थ समाधिस्ततिकृत्वा विविध सामायिक दानप्रवर्तनं च । वति इति प्रकृतम् । प्रतिशायिना केवलिना भगवन महावीरेण । अतो पिशितपाव केवलिना तद्विधेः कृतत्वान्न तत्र भङ्गदोषः प्रकृत्यैव तस्य भादावगुणस्येव चित्रण विका इति गाथार्थः ॥ २० ॥ मनु यदि सुभटजावतुल्यत्वात् सामायिकेनाऽऽकारा नवन्ति, तदा सामायिकत्रतो नमस्कारसहिताऽऽदावपि ते न युक्ताः, सुभटभाव तुल्य भाववाधकत्वात् तेषामित्याशा तस्तपसयम-वारणजोगेस जवाया। मूलाबढाएँ] तहा, वकारादकिय आगारा ।। २१ । लस्य तु तस्यैव सुभरस्य प्रवेशश्च संग्रामे जयार्थिनः प्रवेशनं, निर्गनैश्व तत पत्र जयार्थिन पध निर्गमनं, वारणं शिव प्रतापस्य शत्रयां निवारणं थो यस प्रयोगावर प्रवेशनिर्गमवार योगा, प्र बेशनि प्रवारणान्येव वा योगा व्यापाराः प्रवेशनिर्गमकारयोगाः अतस्तेषु निराकरपायभूतेषु सामायिकसि पावभूतनमस्कारसहितादिषु यथा तु यथेष पचादा आकाशस्तत्कारण भजना अकृणा महसराऽऽकारादिकल्पा जबन्ति । कथमित्याह-मूत्राबाधया मूलभूतस्य मर्त्तव्यं जयो वाऽवातत्र्य इत्येवंलक्षणस्य अध्यवसायस्याविचलितया तथा तेनेच प्रकारेच नमस्कारादो नमस्कारसहिताsstt प्रत्याख्याने । आकारा अपवादा महत्तराऽऽदिलक्षणा मूलः बाधया सुनरनवकल्प सामायिकायाथया प्रयन्तीति गाथाऽर्थः ॥ २१ ॥ सुझाबाधामेव स्पष्टपना तस्स तेसु बितड़ा, णिरजिस्संगो र होड़ परिणामो । परियारसिंगासिको, उ यिमओ महारूवो ||२२|| न च नैव तस्य साम. विकत्रतः सुनटस्य च तेष्वपवादे ष्वपि सत्सु धास्तामन्यत्र । तथा तत्प्रकार इष्टानिष्टार्थतुल्य जीवितानपेक्षा निरभिस्तु निराशंस एव स Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) पश्चक्खाण अन्निधानराजेन्डः। पञ्चक्खाग न्, भवति जायते, परिणामोऽध्यवसायोऽन्यथारूप ति यो. ख्येयव्यस्यात्यन्तासद्भावेऽपि, पास्तां सजावे, प्रत्याक्या गः। किंतूतोऽसावन्यथारूपः, प्रतीकारः प्रायश्चित्तप्रतिपत्ति. नं,प्रत्याचवाणस्य प्रत्याक्यातुः, गुणकरमेष कर्मनिराल क्वणोन रूपः। सुभटपके शरणान्वेषणाऽऽदिरूपः । स पवालिङ्ग चिलं, पकारकरणशीलमेव भवति । कुत इत्याह-श्राश्रवनिरोधनातेन सिको यः स तथा । तुशब्दः पूरणार्थः। नियमादवइयं- वात् प्राश्रयस्य कर्माऽऽदानहेतोरचिरतलकणस्यान्तरार्थसा नावेन, अन्यथारूपः, सान्निवा इत्यर्थः । इदमुक्तं भवति-य. निरोधो निषेधो यतस्य यो भावः सत्ता स तथा तस्मादादि सामायिकवतो महत्तराऽऽद्याकारेषु सत्सु साजिव प. श्रवनिरोधभावात्, आशाराधनाच सर्वाऽऽशानुपालनाच्च । रिणामोऽभविष्यत्तदा तच्छुद्धये प्रायश्चित्तमकरिष्यत, न चै- सर्वविदो दि बाह्याभावेऽप्यातुरस्याविरत्यास्थार्थस्य प्रत्यावे. चम्, ततस्तस्याउकारेवपि सत्सु निरभिष्वा पव परिणा- यस्य सनावात् प्रत्याख्यानस्य सफलतां पश्यन्तस्तदादिशमोऽतः साधूक्तं मूत्राबाधयो । शति गाथार्थः ॥ २२॥ न्ति, रकाऽऽदीनां प्रवाजनश्रवणादिति गाथार्थः ।। ४७।। अपवादाऽऽश्रयणपिन मूलनायबाधा भवतीत्येतदेव सवि अधास्यैव समर्थनार्थमादशेषं दर्शयवाह न य एत्थं एगंतो, सगडाऽऽहरणाऽऽदि एत्थ दिलुतो । गण य पढमनाववाघा-यमो न एवं पि अवि य तस्सिी । संतं पिणास बढुं, होइ असंतं पि एवमेव ॥ ७ ।। एवं चिय होइ ददं, इहरा वामोहपायं तु ॥३॥ न च नैव, अत्रापि वाह्यपत्याख्येयद्रव्याभावे निर्विषयं प्रत्या. न च नैव, प्रथमभावव्याघात श्राद्याध्यवसायबाधा, प्रस्थास्यानपके सामायिकबाधा, सुभटपके जयाध्यवसायबाधा । ज्यानं जवतीत्यस्मिन्नपि पक्के, अपिशब्दाद्वाह्यसद्भावे सविषय. "मी" इति निपातः पादपूरणे । तुशब्दः पुनरर्थः । तत्संबन्ध मित्यत्रापि । एकान्तोऽवश्य जावः । अयं चार्थो स्थान्तासिक च दर्शयिष्यते । एवमपि अनन्तरोक्कापवादाऽऽश्रवणेऽपि । अपि इत्याह-शकटं यानं, तेनोपनक्कितमदाहरणं कथानकं शकटोचेत्यभ्युचये । तरिलद्धिःप्रथमभावस्य विशेषतो निष्पत्तिः, एव दाहरणं, तदादिर्यस्थ कुम्नाऽऽः शकटोदाहरणाऽऽदिः । अत्र मेवापवादाऽऽश्रयण एव, भवति जायते, दृढमत्यर्थमाकारवत, बाह्याभाचे प्रत्याख्यानं निर्विषयमित्यस्य पक्कस्थानकातिकत्वे प्रत्याख्यानाश्रयणस्थ तपायस्वाल,रिपुविजये प्रवेश दिभ साध्ये दृष्टान्तो निदर्शनम् । अत्रैव हेतुमाह-सदपि विद्यजनाया इति । इतरथा पुनरपवादयत् प्रत्याख्यानानाश्रयणे पु. मानमपि प्रत्याख्येय बस्तु, असत्पुनर्नष्टमेवेत्यपिशब्दार्थः । नश्यत्यपैति, पुण्यविपर्ययालघु शीघ्रम् । तथा भवति जायते, मा. व्यामोहप्रायं तु मूढताप्रख्यमेव सामायिक,सुभटस्य विजपाध्यवसानं वा भवेद्,उपायत एव तसिद्धेरिति गायाः ॥२३॥ असदप्यविद्यमानमपि प्रत्यागयेयवस्तु पुण्यवशास्पुनर्जातमे वेत्यपिशब्दार्थः । एवमेव लघेव । अथवा-सतो नाशः प्रायः ननु यद्यपि सामायिक सुमटाध्यवसायतुल्यं, तथापि कसापि प्रसिका असतस्तु भावो न तयेत्यत उच्यते-एवमेव यथा सप्राणिनः कालान्तरे तस्य प्रतिपातः संजवतीस्थतः तदपि सा. नश्यति तथाऽसदपि स्यादित्यर्थः । हेतुप्रयोगश्चवम्-अविद्यपवादमेव कर्तुं युक्तम् । अत्रोत्तरमाद-- मानार्थविषयं प्रत्यायपानमविषयमेवेत्यनेकान्तोऽसतोऽपि स. नजयाजानेऽपि कुतो, वि अग्गो हंदि परिसो चेव । स्वसंभवात्, शकट कथानके असतः शकटस्यैवेति गाथाऽकतकाने तब्जावो, चित्तखोवसमग्रोणेओ।। २४॥ रार्थः। कथानकं पुनरेवम-किल केनचित् द्विजातिना तथाउभयस्य-वर्तमान नवयस्य भाववैरिजयादपवर्गस्य च, सु. विधमुनिपुङ्गवचरणकमलमूले नानाविधविषयानियमान प्र. पटरष्टान्तापेक्कया तु मरणार विजयग्रवणस्य द्वयस्याभावो. तिपद्यमानान् मानवानवोक्यासंजत्रद्विषयत्वेन निष्फला पते ऽसत्ता उजयाभाबस्तत्रापि, पास्तां तदभ्रंशे। कुतोऽपि कस्मा- नियमा इति मन्यमानेनोपदासपरिगतबुकिना "यद्यसहिषयमदगि परीपहानीकभयाऽऽदे, अग्रतः पुरतः, सामायिकपत्तिय. पि प्रत्याभयान सफलं भवति ततो ममापि तवतु ।" इ. सेरनन्तरं तत्पालनाबसरे, सुजटपके तु संग्रामकाला इत्यर्थः। त्यसूयया मया शकटं न भोकञ्यमित्येवंभूतो नियमो वि. हन्दीत्युपप्रदर्शने । ईदृश एव-मत्तव्यं वा भाववैरिविजयोवावि- हितः । तस्य चान्यदा कथञ्चित् कान्तारोत्तीर्यस्यातिबुलुकिधेय इत्येवंविधएव, न पुनरपवादाभिमुखः, तद्भाव शति योगः। तस्य कयाचिन्नरपंतिसुतयोपवसननिमित्तमपूर्वमुद्धनितजल. कदेत्याह-तत्काले सामायिकप्रतिपत्तिकाझे, सुभटके तु सं. मप्रजन्मानमन्वेषमाणया पकानमय शकटं भोजनपाच्यां वि. प्रामाभ्युपगमकासे । कोऽसावित्साह-तद्भावः सामायिकप्रतिप- न्यस्य समुपहितं, ततोऽसौ दृष्ट्वा चिन्तयामास अहो सात्तिपरिणामा, अन्यत्र तु सुभटाभ्यवसायः ! कथमेतदेवाम धूक्तं साधुभिः, असंभाविनोऽपि वस्तुनः कश्चित्संभवो ज. स्याह-चित्रकयोपशमतः कर्मवयोपशमवैचिव्यात, यो का वतीति सविषयमेव सर्व प्रत्यास्यानं तदिदं शकटं भक्ष्यतव्यः । एवंविधो दितस्य क्षयोपशमो भवति, यतोऽवश्यप्रा. तया प्रासं, कथमहं स्ववाचा अभक्ष्यतया प्रतिकातं स्वबच. तव्यमनोमवेऽपि साधुसुजटस्याउदावुदात्त एव भावो म नविलोपनेन भवयिष्यामीति विभाव्य तत्परिहतवान् । संजावति । इति गाथार्थः ।। २४ ॥ तदेवं सामायिके विधिसमायुक्त- तसाघुबचनबहुमानश्च राजसुतासंबोधनार्थ सर्वो स्ववाती तमित्यनिहितम् । पश्चा० ५ विव०। स्थाः कथितवानिति संकेषतो रान्तः । इति गाथाऽर्थः ॥४॥ (१४) अथ कोऽपि यात्-विद्यमानार्थविषयमेव प्रत्याण्या पुनरपि प्रत्याख्यानस्य निर्विषयतापरिदारार्थमाहनमुपपद्यते, निवृत्तिफलत्वादिस्याऽऽह प्रोडेणाविसयं पि दु, ए होई एयं कहिं चिणियमेणा । बज्जाभावे वि इमं, पच्चक्खंतस्स गुणकर चेन । मिच्छासंसज्जियक-म्मो तहा सबभोगाओ॥ ४ || पासवनिरोहनावा, आणावाराहणाश्रो य ॥४७॥ भोघेन सामान्येन, अविषयमपि याह्या भावेन निर्गोचरमबाह्याभावेऽपि दुर्भिककान्तारादावशनादेाह्यस्य प्रत्या- पि, शकटलक्षणनियमबदू, अपिशब्द: संभावनायाम् । हुशब्दो Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यच्चक्खाण थाक्यालङ्कारे । न भवति न जायते एतत्प्रत्याख्यानम । कुत त्या देशात नियमेा तथा कुछ एतदेवमित्याह मिथ्या वियया विपरीत या संमितं सामयेन पाठारे "संसेजित" जीवेन स्वप्रदेशेषु संबन्धितम्, यत्कर्म चारित्रमोहाऽऽदि तत्तथा, राममिध्यासजिजिसमे या तथा सेनापि विशेन प्रकारचा कटाउभावपि शकटाऽध्या कायेनादेना सर्वे समागम संभायमानगावानां शकटादिप्रत्याख्येयार्थानां भोगः सर्वभोगस्तस्मात् । इति गाथाऽऽर्थः ॥ ४ए ॥ ( १०७ ) अभिधानराजेन्छ: सप्रेम प्रस्थापानं निष्कयमेव निपातिकर्मतः सर्वस्य भोगभावेनावश्यंतया तस्य जङ्गसंभवादि त्याशङ्काऽऽह चिरईए संवेगा तो जोगविगमजावेण | सफ सव्वत्य इमं भविरहं इमाणस्स ।। ५० ।। विरतेः प्रत्याक्यार्थेषु निवृतिपरिणामाद्धेतोः । तथा सं बेगा रित्रियातेपछिकारण भूतान्मोक्षा मिलापत्र पाध्यवसायात् । किमित्याह तस्य मिथ्या संसज्जित कर्म्मणः केवस्तत्कयस्तस्मात्तत्क्षयतः कारणात् । किम् ?, भोगस्य विरतिबिबाधकस्य कर्मजन्यस्य प्रत्यारूपानाथपभोगस्य विगमनायो थियो सत्ता भोगविगमनावस्तेन हेतुना, सफलं फलवत् । सर्वत्र स षु विद्यमानाविद्यमानेष्वर्थेषु इदं प्रत्याख्यानम् । कस्येत्याहपरिसंखारवियोगम्यस्य प्र स्पाक्पानापतिपतेः प्रतिपचायपि सांसारिक सत् परमार्थतस्त निष्फलमेवेति गाथार्थः ॥ ५० ॥ पञ्चा० ५ विव० । धावकस्य प्रतिक्रमणम । ध०२ अधि० । (प्रत्याख्यानविषये नि. होन सह विप्रतिपत्तिः अयि शब्दे प्रथनमागे । ६) (१४) यापानपरिणाममेव विधीयमानं पो ति, इति । तत्र प्रतिधीयतेकिमपरिमाणं सभी अणागयका अहापरिच्छेश्रो ? | जड़ जावदत्थि सत्ती, तो नए सच्चेय परिमाणं ।। २५३४|| सचिकिरिया, कालो सूरकिरियामेो व्य । नए परिमाणहाणी, प्रसंसा चैव तदवस्था ।। २५३५|| किमिदं नामापरिमाण है कि शक्तिपिठमीस्प रिमाणम है, उस सर्वानागताजा आस्पदपरि इति त्रयी गतिः । तत्र यदि यावदस्ति शक्तिस्तावददमिदं न सेविष्ये इत्यपरिमाणमिष्यते, ततस्ता नतु सेव शक्ति: परिमाणमापक्रम तदेव नि " गतमिति ॥ २५३४ ॥ कुतः ? इत्याह- ( सतीत्यादि ) ' या तावदिदं न सविध्ये इत्यादि शक्ति क्रियया प्रत्याश्यामस्याधिभूतः काल वानुमीयते याव कालं शक्तिस्तावन्तं कालमिदं न सेविष्ये इत्यर्थः । दृष्टान्तमाह-यथा सूर्याऽऽदिगतिक्रियया समयावलिकाऽऽदिः का लोsनुमीयते तथाऽत्रापि शक्तिक्रियया प्रत्याख्यानावधिकाल इत्यर्थः । अश्वेयमिति चेत्तदयुकम् यतो नन्येवं ति स्वा प्रतिज्ञातस्यापरिमाणपक्षस्य हानिः प्राप्नोति शक्तिक्रियाअनुमिता परिमाणदानी रूपमेवान्युपगमात पडुक " परचकवाय म्-" तं दुडं आलंसा होश ।" इति । अत्राऽऽह - (आसंसेत्यादि) ननु शक्तिरूपे अपरिमाणेऽपि त्वयेभ्यमाणे प्रशंसादोषस्त दवस्थ एव, शक्तेरुत्तरकालमिदं सेविष्ये इत्याशंसायाः त यस्यत्वादिति ॥ २४३५ ॥ शक्तिरूपे परिमाज्युपगम्यमाने न केवलं नयतः स्वपक्ष हानिः, किं त्वम्येऽपि दोषाः । के ?, इत्याह जह न जयभंगदोसो, मयस्स वह जीवओ चि सेवाए । arभंगनिन्भयाओ, पच्चक्खाणावस्था य ।। २५३६॥ इतियमेनीसची ति नाइयारो न यानि पच्ति । , न य सव्वन्यनियमो, एगेण वि संजयत्त त्ति ॥ २५३७|| यथा मृतस्य पत्वमुपगतस्य सुरलोकादो सुरकामिनीगादिभोगान् दोषो भवति तथारूपपरिमाणमभ्युपगस्त मते जीवतोऽपि भोगोपसेवा न दोषः प्राप्नोति एतावत्येव मम शक्तिः, अतो मत्प्रत्याक्यानस्य पूर्णत्व जीवनपि मुनम भोया हत्यभिप्राय चतस्तदद्भ्युपगमेन जीवतोऽपि प्रोगानामा दोषा वाजिनशासने | किं चेत्थमभ्युपगमे एतावती मम शक्तिः इत्यवष्टम्भवतो व्रतभङ्गनिर्भयत्वात्प्रत्याख्यानामवस्थैव स्याद्, एतावती मम शक्ति, शक्ति भोगावेचनात्पुनः प्रत्यावानात्पुनरप्यासेवना सुनःप्रस्यास्यावादिति किं पन्यानामतिचा तार चप्रायधितम् एक सर्वत न स्यादित्यर्थः पि ब्रतानि पानीपानीति ॥ २५३६ ॥ यदागमरुदं तत्सर्वमपि भवदभिप्रायेन प्राप्नोति सयुक्तिकं दर्शयन्नाद ( शक्तियमेत्यादि एतावत्येव ममधिका यवसायेन प्रतियां कुर्वतोऽपि साधी शक्त्यपरिमा णवादिनो नवतोऽभिप्रायेण नातिचारो, न चाऽपि वसन ङ्गः, न चापि प्रायश्चित्तम्, तथा सर्वव्रत परिपालननियमभ्र न स्यात्, शक्त्यवष्टम्जाद, एकवत परिपालनेनापि त्वदभिप्रायेण संयतत्वादिति ॥ ३५३७ ॥ अथ सर्वाऽप्यनागताका अपरिमाणमपि द्वितीयो विकल्प इष्यते खोऽपि न युक्त इति दर्शय अहना सम्माद्यागय-कालम्गहणं मयं परिमाणं । तेला पुन्नपणे, पओ वि जग्गन्नश्रो नाम ॥२५३८|| सिको सिओजिय, सम्यकपरपर चि उत्तरगुणसंवरणा-भावो चिय सव्वहा चैत्र || २५३७ ।। अथ सर्वस्याप्यनागतकालस्य ग्रहणमपरिमाणं भवतः तेन देवा जोमानासेवमानः, 'नाम' श्यामसाधु, अपूर्वप्रतिकृत्यसमध्य मागता तदपरिपालनादिति सुप्यमंवेति ।। २२२५ ॥ अपि चैवं सिपि संयव एव प्राप्नोति सर्वानागताकासंधरधरस्वामस्यापि सर्वान कालाभ्यन्तरब तित्वादित्यर्थः, बाजी व गुदीसविरति कालाय तवर्तिसाधुबदिति दृष्टान्तः स्वयमेव द्रष्टव्यः । भवतु सिद्धः संयतः, कोदोषः १, इति चेत् । तदयुक्तम, " लिखे नोसंजय, मोसंजयप, नोसंजया संजए।" इति वचनादिति । अपि च-अन्योऽपि दोषः कः १, इत्याह- ( उत्तरगुणेत्यादि) उच्चरगुणः पौरुषी पुरिमा Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) पञ्चक्खाण अभिधानराजेन्डः। पच्चक्खाण काशनकोपवासाऽदितपोरूपः संवरणं बहुभिराकारैगृही. नमपि प्रत्यसंगतमेवाऽपरिमाणप्रत्याख्यानमिति । तदेवं मुग्ध. तस्यैका सनकादिप्रत्याख्यानस्य नोजनानन्तरमाकारसं. | माभलं पा व्यक्त्याउनपेक्ष्य सामान्येनेवापरिमाणप्रत्याश्याने केपेण स्वरूपम, उत्तरगुणश्च संवरणं चोगुणसंबरणे, तयोरे- | दूषणान्युक्तानि ॥२५४१॥ वं सर्वानागतादाप्रत्याख्यानपक्केऽभ्युपगम्यमाने सर्वथैवाभावः अथ निर्वार्य किश्चिदभिकं प्रति दूषणमाहपाप्नोति, पौरुष्यादिषु सर्वामागतासाप्रत्याग्यानत्वानुपपत्तेः, एकाशनकाऽदिषु पुनस्त्वदभिप्रायेण सर्वाद्धाप्रमाणेषु संवरणं जो पुणरव्ययभावं, मुणमाणोऽवस्मभाविनं जण । कदाचिदपि न घटत इति व्यक्तमेचेति ।। २५३६ ।। वयमपरिमाणमेवं, पञ्चक्खं सो मुसाबाई ।। २५४२॥ प्रथापरिच्छेदोऽपरिमाणमिति तृतीयपक्कमपाकर्तुमाह- यः पुनरप्रेऽपि किञ्चिचास्त्रपरिकर्मितमतिर्षिको व्रतं गृण्हा. ति, विसत्वादेव व चीर्णवतः सुरखोकमेव गच्चति, इत्यवबु. अपरिच्छेए वि समा- एम दोसो जी मुए तेणं । यमानः सुरेषु चावतभावमविरतिभावमवश्यंजाविनं मुणन बयभंगजयाउ चिय, जावज्जीवं ति निहिडं ॥२५४०॥ जानानोऽपि व्रतं प्रत्याख्यानमपरिमाणं यावज्जीवपरिमाणरपतोऽपरिच्छेदरूपेऽप्यपरिमाणेऽभ्युपगम्यमाने पष सानाग- हितं नहास्युचरति स एवं वाणः प्रत्यक्षं साकादेव मृषा. ताद्वाप्रत्याश्यानोक्तदोषः समान एव । तथाहि-कालापरिच्छेदे। वादी, अन्यथा भपित्वा अन्धा करणादिति ।। २५४२॥ मापि प्रत्यास्याने कृते कि घटिकादिमानं कश्चित्का प्रती. अपि चचय प्रतिसेवां करोतु, आहोस्वित्सर्वमप्यनागतासाप्रत्याक्यानं जावो पच्चक्खाणं, सो जइ मरणपरमोवि तो भगं । पालयतु । यद्याद्यः पकः, तीनवस्था, यावद्धि घटिका प्र. ताकते ताबद् द्वे अपि घटिके किन प्रतीक्षते; यावरच दे अह नत्यि न निहिस्सइ,नावज्जीचं ति तो कीस ?||२५४३॥ . प्रतीकते तावन् तिनोऽपि किं न प्रतीकते ?, इत्यादि । अथ हि भावनसिको बिरतिपरिणामः प्रत्याख्यानमुच्यते, स च तीयः पत्तः, तर्हि मृतस्यापि भोगानासेबनानस्य बतभा पत्र, प्रत्यारयातुविजीवधिमेवास्ति, उत मरणपरतोऽपीति घ. सिद्धस्यापि संयतत्वम्, उत्तरगुणसंवरणाभायोति त पव चव्यम?। यानन्तरपनलाई भग्न तस्य प्रत्याक्यानम, सर. दोषाः । वपसंहरबाह-(सुप तेणेत्यादि) तेनैता परिमाणा- लोकान्दो भोगसेवमादवइयजाची तद्भत इत्यर्थः । प्रधाऽऽद्य प्रत्याश्यामदोषानजिवीक्ष्य प्रतननभायादेव वितरिहारेण पकस्त िपचनेगऽपि वावजीयम, इति परिमाणं प्रगुणेन भुत भागमे- सवं सावज्जं जोगं पड़चनामि जावज्जी- म्यानेन किंम निहिश्यते कि क्रियते, यनान्यच्चतस्यन्य तु पाए ।" इत्यत्र साधुप्रत्यासयानस्य यावज्जीवमिति परिमाण बचनेनोच्यते, इति ।। २५४३।।। मादिएम, अतो मुच्यतामपरिमाणताग्रह इति ।। २४८० ॥ अथ भावोऽन्यथा, घबर्म स्वन्यथा प्रोच्यते, तहि मायैव शाह-ननु सपरिमाणे प्रत्यायाने मयाऽऽशंसालक्षणो केवलमिति दर्शयशाह-- दोष उक्त एव, स कथम !, इत्याह जद अनव नायो चेतयो वयणमन्नहा माया। नासंसा सेपिस्सा-मि किं तु मा मे मयस्स वयचंगो। किंवाऽभिहिएँ दोसो,जावाओ किंवो गुरुयं ॥२५४४।। होही सुरसु को वा, बयावासो विमुक्कस्स ?।२५४२॥ हन्त ! यद्यन्यथैव यावज्जीवावधिक एच चेतसि नायः प्र. यावजीवावधिना प्रत्याख्यानं कुर्वतो मरणानन्तरमहं भो. त्याग्यानपरिणामः, अन्यथैव च यावज्जीवावधिपरिणामरगान् सेबिध्ये इत्येचंता हम्त !न कचिदाशंसा वर्सते-मेधं. हितमेव बका, तथैवेतयतो जानतः केवलेव माया नि. नृतेन परिणामेन सार्वधिकं प्रत्याख्यानं करोतीत्यर्थः ।किंतु मा श्रीयते । नाम्पत्फलं दृश्यते, अन्यथा विचिन्त्यान्यथा नापमे मृतस्य सुरेपूत्पन्चस्व स्वतो भोगानालेवमानक्व ब्रतमको | णादिति । अथवा-भ्रष्टव्योऽसि त्वम् किं भावे तथा वितेऽपि भविष्यति, इत्यध्यवसायेन मा मे तमङ्गस्तत्र न्यार, इत्येवंत "सावाजीबाप।" स्यभिहित धिः कश्चिद्वीक्ष्यते भवता, बेन तेनैव शुजपरिणामेनेत्तृतं प्रत्यास्थानं करोतीत्यर्थः,अतस्तत्र वचनेनापि नेदमभिधीयते ?। यदि या-कि नावात्सकाशात का प्राशंसा ?। हि स बिरत्यावारककर्मा लयोपशमावस्थ- (ब शि) वचनं गुरुकं प्रधानं पश्यसि त्वं, येन भावेs. स्वाइत्र स्वायत्तः, सुरलोके ववश्यं तश्यात्परायस इत्यतः म्यथा स्थितेऽपि वचनमन्यथा अभिदधासि ? । पतचायुक्तम् शक्यत्वाद् यावळीवाचधिना प्रत्याख्याति, परतत्वशक्यश्वान। भागमे मावस्यैवं प्रामाययेन, वचनस्य स्वप्रामाएयेनाभिधाना. प्रत्याख्याति, इति कथमाशंसादापत्रामयम्, इति । अययं धूया- दिति । २५४४॥ स्त्वं-किमितीत्थं व्रतजङ्गाद्विनंत्यसो ? ! अयं हि मृतो मुक्ति का पुनरयमागम श्त्याहथास्यनि, तत्र च कामभोगानाबाहतभनासनव एव, इति का अन्नत्य निवडिए वं-जणम्मि जो खझुमणोगओ भावो । क्तस्य त भसंकोभः । तदयुक्तम् । सांप्रतभिह मुक्तिगमनासंभवात,महाविदेदेष्यपि सर्वस्यापि तमननिश्चयायोगाविति। तं खल पञ्चक्खाणं, न पमाणं वंजणं छत्तणा ॥२५४।। अथ को पि तावन्मुक्ति गति,तस्य च निमुक्तस्य। मदभिमसे. ह केनापि त्रिविधाऽऽहाऽदिप्रत्याख्यानं कर्तुमध्यवसिपरिमाणे प्रत्याख्याने गृह्यमाणे मुताबपि महानतानुगमादए तम, अधिकतरसंयमकरणाऽऽक्तिप्तचेतसा पुनश्चतुर्विधमादार रिमाणप्रत्याण्यानस्य सफलता भविष्यतीति चोदित्यत्रा- प्रत्याख्यामीत्यादिव्यजनं शब्द बच्चरितः। एवं च मानसना"को वा बयेत्यादि" योऽपि मुक्ति गच्चति तस्यापि विमुक्तस्य चाननुवृत्त्या व्याजने शब्देऽन्यत्र निपतिते अन्यविषये समुच्चार निश्चितार्थस्य को बतानामवकाशः, किं व्रतानां साफल्यम् , रिते यः खलु प्रत्याख्यानविषयानेकसूक्ष्मविषक्षाऽतिकान्तः स्प. सत्कार्यस्य सिद्धत्वान्न किञ्चिदिति भावः। तस्मान्मुक्तिगामि ः प्रत्याख्यातुमनोगतो नाबस्तदेव प्रत्याख्यानं प्रमाणं, सपन Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (200) अभिधान राजेन्ड पञ्चकखाण प्रत्याक्यातृवियति मनोगत भावः प्रमा न तु व्यजनं, शब्द इत्यर्थः । कुतो न व्यजनं प्रमाणम् ? । नामभावानुरोधेन प्रवृत्तत्वात् । तदेवमागमेऽपि वचनस्याप्रामाएकत्वात् यदि यावज्जीवावधिको मनसो भावस्त्वयेष्यते तदा वचनेनापि यावज्जीवम इत्युक्ार्यतां किं मिध्याग्रहेण ? इति ॥ २५४५ ॥ विशे० एनभीय ज हाजोगं । जावज्जीवाभिगयं, ता पच्चखामि सावज्जं ॥१॥" आ० म०२ प्र० । " (१६) अव्यक्तज्ञानोऽपि सपापः तेनापि प्रत्याख्यातव्यम्सुमंते भगवया एत्रमक्खायं - इढ खड्नु पच्चखाकिरिया खाणं मपआया अपच्चक्खाणी यात्रि जवति, आया अकिरियाकुलले यावि जवति, आाया मिच्छासंत्रिया यानि भवति, आया एनं. तदमे यात्रि जवति, आया एगंतवाले याचि जवति, आया तमुले यात्रि जयति, आपण अवियारमणवयणकायर यात्रि भवति, आया अपमियमपञ्चकखायपात्र कम्मे यानि भवति । स खलु जगता अस्साए असं अ रिते अपिच्चकवायपानकन्ने स्वकिरिए असंतु एन एवाले एनमुचे से बाले अनिवार मशालवणकायपके पति पात्रे य से कम्मे फइ ।। १ ।। शास्मिन्नाङ्कारे। प्रत्याख्यानक्रिया नामाऽध्ययनं, तस्थायमाणः । जीवाजी न जानामिवाचरतिमा योगानुगततया स्वभावत एाप्रत्याख्यास्यापि जति अपि शब्दात्स एव कुतश्चिन्निमित्ताप्रत्याख्यान्यपि । तत्राऽऽत्मन पदर्शनार्थ तथाहि-स्थिरैकस्वभाव आत्मा । स च तृणकुज्ज करणेसमर्थनया किञ्चित्करत्वान्न प्रत्याख्यानक्रियायां भवितुमर्हति । बौद्धा मनोज्ञायात् ज्ञानस्य च क्षणिकतया स्थितेरभावात् कुतः प्रत्याख्यानक्रिवेति । एवमन्यत्रापि प्रत्याख्यामक्रियाया अभावो वाच्यः । तथा सदनुष्ठानं क्रिया, तस्यां कुशलः पाषेचा काकु मोति उबा मिश्याभवति । तथैकालेनाऽपरा - णिनोदयतीति दण्डः, तदेवंभूतात्मा पनि था नापादनागाबाबाल यति सुप्तप्तः तथादिन जानाति नातिरिद्वार तथा भाव स्वंभूतएवजातिनि पाद रूपणीयान्यपर्यालोचनीयानि मनोवाक्कायवाक्यानि यस्य स तथा । तत्र मनोऽन्तःकरणं, वाग़ वाणी, काय देहः, अर्धप्रतिसमूहामाया चोदनैव वाक्यार्थस्य गतार्थत्वाद्यत्पुनर्वाक्यमदणं करोति यापारस्वतया प्रा यशस्तत्प्रवृत्यैव प्रतिषेधविधानेन तयोरन्येषां प्रवर्तनं भव निकिया सन्भारमावि पातिमनोवाक्का २८ यवाक्यश्चापि भवतीति । तथा प्रतिहतं प्रतिस्खलितं प्रत्यावितिप्रतिपश्या पापक पन्चकखाण रात पापकर्मा, तत्प्रतिषेधादनुष्ठानपरा भय तितमे पूर्वोपरितोनियाला कमी किया सावधानुष्ठानः तथाभूतावृतो मना गुप्त गुप्तत्वाश्वात्मनः परेषां च दण्डदेतुत्वाद्दरामः, तदेवत श्च सन् एकान्तेन बालवद् वान्त्रः सुप्तवदेकान्तेन सुप्तस्तदेवं भूनका वाताऽविचारायविचारितरमणीयानि परमार्थ विचारगुणाया युक्त्या या घटन नि यस्य स तथा । यदि वा परसंबन्ध्यविचारितमनोवाक्कापायसद्वानिकिता प विज्ञानरहितः स्वप्नमपि न पश्यति, तस्य वाव्यक्तविज्ञानकर्म ज्ञानेनापि पापं कर्म क्रियत इति भावः ॥ १ ॥ अत्र चाऽऽचार्याभिप्रायं चोदको अनूद्य निषेधयति तत्य चोपए पन्नवर्ग एवं वयासी-संतणं मणेणं पात्र एतीया बीया पाविपाए. संत का पा चरणं ग्रहणं तस्स अमणक्वस्स वियारमणवयकायवकवि पावको जस् मणं पाव वत्तिए पाविपरेकारणं से देई ची एवं मणवति पावे कम्मे कज, अन्नपरीए गाए बचियनिय पात्रे कम्मे पाच कायचि पाये ये कम इस्समएक्वस्स सत्रियामणवनकायचकस्त सुविणमवि पासओ, एवंगुणजातीयस्त पात्रे को कज्वर | पुणरवि चोयए म पावणं असंतीया पचि परियार अनंतपूर्ण कारणं पावणं अनंतस्त्र अमलक्खस्स ब्रावियारमण वयणकायम अपस पाने कम्मे म त्य जे से एवानुमिच्छा वे एत्रमाहंनु ॥ २ ॥ (संतपणं इत्यादि) अविद्यमानेनाऽसता मनसाऽसत्प्रवृसेनाऽशोभनेन । तथा वाचा कायेन च पापेनासता । तथासवानू प्रतस्तथाऽमनरकस्याऽविचार मनोवाक्षायवादपस्य स्वममध्यपश्यतः स्वप्नान्तिकं च कर्म नोपचयं यातीत्येवम व्यक्तविज्ञानस्यापि पापं कर्म न बध्यते । एवंविज्ञानेन पाएं म क्रियत इति यावत् । कस्य हेतोः केन हेतुना केन कारणेन तत्पाप कर्म बध्यते ? नाथ कचिदव्य विज्ञानत्वात्पापकर्मधतुरिति भावः । तदेवं चोक एव स्वाभिप्रायेण पापकर्ममामा कम कर्मदर्शन प्राणानिपातादिप्रवृत्या मनना यांचा कायेन च तस्तत्यधिकं कर्म यध्यति । इदमेव स्पष्टनानतरसवान्समनफ स्थ सविचारननोबा काय वाक्यस्य रूपमपि पश्यतः स्पष्टवि तीन म पक Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९०) पच्चक्खाण अभिधानराजेन्द्रः। पञ्चक्खाण यव्यापारम्याउन्नावात् । प्रयतध्यापारमन्तरेणाऽपि कार्यबन्ध | तस्स गाहावइस्स वा गाहावइपुत्तस्स वा रमो वा रायपुइष्यते, एवं च सति मुक्तानामपि कर्मबन्धः स्यात, न चैतदि रिसस्म वा खणं निदाए पविसिस्मामि, खणं लहाणं बाहिप्यते, तस्मात् नैव स्वप्नान्तिकमविद्योपचितं कर्म बश्यत इति । तत्र यवतैरेव मनोवाकायच्यापारैः कर्मबन्धोऽभ्युपगम्यते स्सामि, पहारेमाणे दिया वा राम्रो वा मुत्ते वा जागरतदेवं व्यवस्थिते सति ये ते एवमुक्तवन्तः, तद्यथा- भविद्यमान माणे वा अमित्तभुते मिच्छासंगिते निच्चं पसढविनवायरेवाशुभयोगैः पापं कम क्रियते, मिथ्या त एवमुक्तवन्त इति चित्तदं भवति, एवं वियागरेमाणे समियाए बियागरे स्थितम् ॥ २॥ ।. तवं चोदनाचार्यपक्कं दूषयित्वा स्वपके चोयए इंता ! जवति ॥४॥ mu॥ व्यवस्थापिते सत्याचार्य प्राह (तस्थ खलु भगवया इत्यादि) तति वाक्योपल्यासार्थः ।खतत्थ पनवर चोयगं एवं बयासी-तं सम्मं जंमए पुब्बे | लुशब्दो वाक्यालक्कारे। नगवतैश्वर्याऽऽदिगुणोपेतेन चतुर्वि शदतिशयसमन्वितेन तीर्थकृता बधकदृष्टान्तः प्राप्तः प्रसदि. वृत्त-असंतएणं मणेणं पावएणं असंतियाए बत्तियाए। तःतत पथानाम वधः कश्चित्स्यादिति।कुतश्विनिमित्तारकु. पावियाए असंतएणं कारणं पावएणं अहणं तस्स - पितः सन् कस्यचिवधपरिणतः कश्चित्पुरुषो जवति । यस्या:पणखस्स अवियारमणवयकायवक्कस्स मुविष्णमत्रि अप- सौ वधकस्तं विशेषेण दर्शयितुमाह-( गाहावस वा. स्सो पावे कम्मे कज्जति, तं सम्म। कस्स तं हेतुं ।। स्यादि) गृहम्य पतिडपतिस्तत्पुत्रो वा। भनेन सामान्यत: प्राकृतपुरुषोऽनिहिता,तस्योपरि कुतश्विनिमित्ताधकः कश्चि. प्रायरिय पाह-तस्य खलु जगवया उज्जीवणिकायहेक संवृतः, सच पधपरिणामपरिणतोऽपि कस्मिश्चिकणे पा. पपत्ता । तं जहा-पुढधिकाइयाज्जाव तसकाश्या, इच्चेएहिं पकारिणमेनं घातयिभ्यामीति । तथा-राजा,तत्पुत्रस्योपरि कुहिं जीवणिकाएहिं आया अपमिहयपञ्चक्रवायपाव- पित एतस्कुर्यादित्याह-(स्वणं निहाय इत्यादि ) कणमवसरम (णिदाय ति) प्राप्य तथाविधस्य पुरे गृहे बा प्रबेक्याकम्मे निच्चं पसढविन बातचित्तदं । तं जहा-पाणाति मीत्येतदभ्यबसायी नवति । तथा-क्षणमवसरं शिक्षादिकंववाए जाव परिगहे, कोहेजाव मिच्छादसणमझे ।।३।। ध्वस्य लब्ध्वा तदुत्तरकालं तं वध्यं हनिष्यामीत्येवं संप्रधान तत्राऽऽचार्यः स्वमतमनूद्य तस्योपपत्तिकं साधयितुमाह रयति । एतमुक्तं भवति-गृहपतेः सामान्य पुरुषस्य, राज्ञो वा (तं सम्ममित्यादि ) यदेतन्मयोक्तं प्राम् यथा काष्टा व्यक्त. विशिवतमस्य कस्यचिद्वधपरिणतोऽप्यात्मनोऽवसरं सवाऽ. योगानामपि कर्म यध्यते, तत्सम्यक शोभनं युक्तिसतमिति। परकायंकणे सति तथा--वभ्यस्य च छिद्रमपेकमाणस्तदव. एवमुक्ते पर पाद-कस्य हेतोः केन कारणेन तत्सम्यगिति सरापेकी किश्चित्कासमुदारते, स च तत्रौदासीयं कुर्वाणोऽ. चेत?। पाह-(तत्थ खत्रु श्त्यादि) तत्रेति वाक्योपन्यामार्थम । परकार्य प्रति व्यग्रचेताः संकस्मिन्नवसरे वधं प्रत्यस्पतिखलुशब्दो चाक्यासकारे । भगक्ता वीरवर्द्धमानवामिना झानो जयति। स चैवंनुतोऽपि तथा तं वभ्यं प्रति नित्यमेव प्रशपरजीवनिकायाः कर्मबन्धदेतुत्वेनोपन्यस्ताः । तद्यथा-पृथिवी. व्यतिपातबिसदएको भवति। पवमविद्यमानैरपि प्रव्यक्तैरशुभै. कायिका इत्यादि, यावत्रसकायिका इति । कथमेते पर जीब. योगैरकेन्द्रियविमलेन्द्रिया वयोऽस्पष्टविकावा अपि मिथ्यावा. निकायाः कर्मबन्धस्य कारणमिति ? । माह-(पहिमित्यादि) विरतिप्रमादकपाययोगानुगतत्वात्माणातिपाताऽऽदिवोषधम्तो इत्येतेषु पृथिव्यादिषु षाजीवनिकायेषु, प्रतिहतं विनितं प्र. भवन्ति । बचते तसापेक्षमाणा उदासीना अव्यवरिणो न स्याख्यातं नियमितं पापं कर्म येन स तथा । पुनर्मश समासे भवन्तीति । अत्र च चध्यवधकयोः कणापेक्वया चत्वारो नाऽप्रतिढ़तप्रत्याक्यातपापकर्मा यात्मा जन्तुः, तथा तव. भक्ताः। तद्यथा-यभ्यस्या उनसरो, वधकस्य च, उभयोर्वाs. स्वादेव नित्यं सर्वकानं प्रकर्षेण शमः, तथा व्यतिपाते प्राण नयसरो, द्वयोरप्यवसर इति । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-"म. ग्यपरोपणे चित्तं यस्य स व्यतिपातचित्तः, स्वपरवाबदेनुस्वा. प्पणो अक्खाया एतरत वा पुरिसस्स विहं अलभमाणे इण्डः, प्रशधासौ व्यतिपातचित्तदरामश्चेति कर्मधारयः । को बहेड, तं जया मे बगो जविस्ता तरस पुरिसस्स ग्इिं इत्येतदेव प्रत्येक दर्शयितुमाह-(तं जहेत्यादि ) तद्यथा-प्रा. लभिस्लामि, तवा मे स पुरिसे अवस्सं बदयब्बे भविस्सइ,पर्व णातिपाते विधेये प्रशचित्तदएमः । एवं मृपावादादत्तावामी- मणो पहारेमावे।" इति सूत्रं निगवसिद्धम् । साम्प्रतमाचार्य थुनपरिग्रहेष्वपि वाच्यम् । यावम्मिथ्यादर्शनशल्यमिति तेषामिः! एव स्वाभिप्रेत परप्रयापूर्व कमाविर्भावयन्नाह-( से कि कन्द्रियविकोन्द्रियादीनामनिवृत्तस्वामिथ्यात्वाविरतिप्रमा। तु दु इस्पादि। प्राचार्याः चतो हि निर्णीतार्थेऽसुयया परं दकपाययोगानुगतत्य एज्यम् तद्भावाच्च ते कथं प्राणातिपा- प्रति-किमिति थे, तुरिति वितर्क, दुशब्दो वाक्या. तादिदोषवत्तया व्यक्तविज्ञाना श्रपि खप्नाऽऽद्यवस्थायामिति ते लहारे । किमसी बधकपुरुषावसरापेकी जिमवसरं प्रधारकर्मबन्धका पय?। तदेवं व्यवस्थिते यत्प्रागुक्तं परेण-यथा ना यन् पर्यासोचयनहर्निशं सुप्तो जाग्रदयस्थो वा तस्य गृहपते व्यक्तविज्ञामानामधनताममनस्कानां कर्मबन्ध इत्येतत् प्लबते ॥३॥ राको वा वध्यस्यामिरभूतो मिथ्यासंस्थितो निस्य प्रशवव्यतिसाम्प्रतमाचार्यः स्वपकसिमये दृष्टान्तमाद पातचित्तदराको भवत्याहोस्विनेत्येवं पृष्टः परः समतया मा. तत्थ खलु जगवया वहए दिलुते पडत्ते । से जहाणामए ध्यस्थ्यमवसम्बमानो यथाऽवस्थितमेवं व्यागृणीयात् । तय. वहए सिया गाहावइस्स वा गाहावपुत्तस्स वा रमो वा था-दन्त ! प्राचार्य ? नवत्यसावमित्रनुत श्तीत्यादि ॥४॥ रायपूरिसस्स वा खणं निदाणं निदाए पविसिस्सामि, स्वर्ण तदेवं दृष्टान्तं प्रदर्य दान्तिकं दर्शयितुमाहसणं बहिस्सामि पहारेभाणे, से किंतु हु नाम से बह जहा से बहए तस्स गाहावइस्स वा गाहावापुत्तसा रा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) निधानराजेन्द्रः । पञ्चकखाण रमो वा रायपुरिसस्स खणं निहाए पविसिस्सामि, खणं लणं वहिस्सामिति पहारेमाणे दिवा वा राम्रो वा सुवा जागरमाणे वा मित्तनूए मिच्छासंठिते निश्च पसढविवायचित दंडे, एवमेव वाले वि सन्वेसिं पाणा जा सव्वेंस सत्ताणं दिया वा राओ वा सुत्ने वा जागरमाशेवा अमित मिच्छासंडिने निच्च पदाचे उमाथाके । तं जहा-पाणातिवाप्०जाब मिच्छादंसण सल्ले । एवं खलु भगवया अक्खाए अमंजर अविरए अप्पमिहयपच्चकखा. पावकम्मे सकिरिए असंबुमे एगंतदंडे एगंतवाले एगंतया सेवाले अविवारमय काय सु विमपि पात्रे य से कम्मे कज्जइ ॥ ५ ॥ ( जहा से वह इत्यादि ) यथाऽसौ वधक इत्यादिना दृष्टा इमामेति यथासीयोऽसरापेक्षितया बध्यस्यस्यापसिमोड मित्रो भवत्येवमेवासा भवत्येव निवृतेायायाप्रि भवति वायमिति निशिचिमित उपपादयेत तचित्तदएमा । यथा- परशुरामः कृतवीर्ये व्यापाद्यापि त रानं सप्तवारं निःक्षत्रां पृथिवीं चकार । श्राह - अपकारसमेन कर्मणा न नरदेव शक्तिमाम् स्याद्वशेषरे॥१॥" इति सा मित्रतो मिथ्या विनीतश्च भवतीति । साभ्यतमुपखन् प्राक् प्रतिपादितमर्थमनुवदाह - ( एवं खबु भगवा इत्यादि ) यथाऽसौ बधकः स्वपरावखरापेकी सन तावडू जात यति अथवा निवृतत्वाद्दोष एव पचमध्ये दिपान तथाभूतारिताप्रतिहत्या तसत्क्रियाऽऽदिदोषदुष्ट इति । शेषं सुगमम् बात्पापं कर्म क्रियत इति ॥ ५ ॥ प्रदर्शन पूर्वप्रतिपादितार्थस्य मिगमनं कृत्वाऽधुना सर्वेषामेव प्रत्येक प्राणिनां दुष्टात्मा भवति, रतिपादयितुकाम जहा से वहए तस्स वा गाहावइस्स० जाव तस्स का रायपुरिसस पत्तेयं पत्तेयं चित्तं समादाय दिया जा राम्रो वा सुते वा जागरमाणे वा अभिराजू मि च्छा निचं पसढविडवायचित्तदंगे जवद, एवमेत्र वाले सन्पाणा जान सम्बेसि सताएं पत्ते प यं चित्तं समादाय दिया वा राम्रो वा सुरु बाजागरगाने या अमितानि पस वायचिचमे भवः ।। ६ ।। (जड़ा से वह इत्यादि) यथा असौ बधकः परामनोरवसरा. तरपुत्रस्य वाग्भ्यातस्य वा राजा पच्चक्खाण स्तत्पुत्रस्य चकमेकं पृथक् पृथक् सर्वेष्वपि वध्येषु घातकचितं समादाय प्राप्तावसरोऽहमेनं वैरिणं ममाधिविधायिनं पातयिष्यामरिये प्रति दिवा रात्री यावा या सर्वास्ववासु सर्वेषामेव वध्यानां प्रत्येकममित्रभूतोऽवसरापेतिया पि मिथ्या संस्थितो नित्यं प्रशव्यतिपातविसदको भवतेि। इति रागद्वेषाssकुलितो बाह्मवद्वालोऽज्ञानाऽवृत एकेन्द्रियाऽवेिरि तिसर्वेषामेव प्राणिनां विरो घातकविखं समादाय नित्यं मशकयतिपातचितइएको भवन तीतिप्रति बयासी तस्माद् पतिराजानुपात पशान्तर: कामाचरापेक्षितया वथमोऽयविरति निर्माते पमृ पावादादागमे घुमपरिष्वपि प्रतिज्ञा दे तुटतोप निगमनार्थ विधानेन पञ्चावयवत्वं वाक्यमिति। श्वपञ्चाय स्व सूत्राणां विजागो यः । तथथा-" श्राया श्रपञ्चकखाणी यावि भवति । ' इत्यत आरभ्य यावत् "पावे य ले कम्मे फाइ न्ति।" इयं प्रतिज्ञा । तत्र पशः प्रतिज्ञामात्रेणोकमनुक्तसम मिति कृत्वा चोदयति । तद्यथा-" तत्थ चोयर वर्ग एवं बवाली ।" इत्यत आरभ्य यावत् "जे ते एवमादसु मिच्छं ते ए मासु सि । " तत्र प्रज्ञापक श्योकं प्रत्येवं वदेत् । तद्यथा-वया पूर्व प्रतिज्ञाते तत्सम्यक् । कस्य हेतोः केन हेतुनेति चेत् ?, " बाइ "तस्थ खाना।" इश्यत श्रारभ्य यावत् "मिच्छादंसण" इत्यर्थ देतुः । लोकान्सास्प सिद्धिं दर्श माह-तकथा-"अड्डा खलु जगवया बढए दिने पाते।" इत्ये तदारभ्य यायचस्या खणं लसूणं वहिस्सामिति पहारमणेति । " तदेष्टा प्रइये, तत्र च हेतोः सतां स्वाभिप्रेतां परेण नाद" से किं तु हु णाम से २६५ । " इत्यादे रारभ्य यावत् " इंता भवति । " तदेवं देवोशन्ते सवं यो कर्मत्वं दर्शनार्थ ि तो: स परेशायुपगतामनुवदति जहा से पहए।" इश्यत आरभ्य यावत् "चं पसढविवायचितति । साम्प्रतं देतोः पकधर्मश्वमाद-" एवमेव वाले यावि। इत्यादत्त आरश्य यावत् "पावे य से कम्मे कज्जइति । " प्रतिपतिपादकाधि विभागतः प्रदर्शनाम तत्प्रतिपादयितुमाइ - "जहा से बद्दर तस् वा गाहावस्त्र।" इत्यादि यावत् णिच्वं पसढवायच बिप्रतिकोपपतिि मि । प्रयोगस्त्येवं यः सत्राप्रत्याख्यातक्रिय श्रात्मा पापानुबन्धीत प्रतिपादेषु प्रशस्यत पादित कदाचिद । पता व्यापादया राजध परिणामादनिवृत्वाच्यस्यामिश्रतस्तथागमा अपि चिरते. भावात्सर्वेष्यसि नित्यं प्रतिपा 1 त्युपशयः । यत एवं तस्मात् पापानुबन्धीति निगमनम् । एवं पायापाययोजनीयमिति मु बारिणं विधेयम प्रशठव्यतिपातवित्तदण्डत्वात्, तथा नित्यं प्रशादसा ऽऽदान चित्तद एकस्यादिति ॥ ६ ॥ ار 33 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) अभिधान राजेन्द्रः पञ्चकखाया तदेवं सर्वाऽऽत्मनः षष्वपि जीवनिकायेषु प्रत्येकममित्रतया पापानुबन्धित्वे प्रतिपादिते व्यभिचारं दर्शयन्नाहयो इठे समझे चोदक खबु बहने पाणा जे इस को दिपा पा पा नानिमया वा विभाया बा, जेसियो पसेयं पत्तेयं चित्तं समायान दिया वारा पापा जागरमाणे वा मित्तते:मिच्छाविते निनं पसढविडवायचित्तमे । तं जड़ा-पाणातिवा० नाव मिच्छाम । ७ ॥ ममित्रता इति ( णो णट्टे समके इत्यादि ) नायमर्थः समर्थ इति प्रतिप योग्यता-प्रसाध्यानां प्रत्येक सम आमा दर्शवितुं कारणमाद-दारियात्मके झोके बहवोऽनन्ताः प्राणिनः सूक्ष्मयाद रभेदभिन्नाः सन्ति । यद्येवंततः किमित्याह ते च देशकालस्वभावविप्रकृष्टास्तथाजूता बहवः सन्ति ये प्राणिनः सूक्ष्माऽऽदिविप्रकृशऽऽद्यवस्था अमुना शरीरस मुच्येरनेनेदमद्यपाि निकान श्रवणेन्द्रियेण विशेषतो नाजिमता इष्ठा न च विज्ञाताः प्रतिमेदानेन यमेायस्य मिठ भावः स्यात् । अतस्तेषां कदाचिवितानां कयं प्रत्येकं ब नितिन चीता प्रतिि प्रशुपतिपातचितदएडी नवतीति । शेषं सुगमम् ॥ १ ॥ एवं व्यवस्थितेन सर्वविषयं प्रत्याख्यानं युज्यते इत्येवं प्रतिपापा तत्य खलु भगत्रया दुवे दिडंता पणत्ता । तं जहा- सन्नि दितेय, अरानिदिय । से किं तं सन्भिदिते १ । जे इमे सचिदिवापगा तो जीवनिकाए पहुंच० नं जड़ा-पृढत्री कार्य० जाव तसकार्य से एगइओ पुढत्रीकारणं किम् करे विकाराने पिसणं एवं पूर्व श्रहं पुकारणं किच्वं करेमि विकारवेसि वि, पोत्र से एवं भवइ इमेणं वाले पते पृश्वीकारणं कथंकविकारावि, सेवा वीकायायो अमंत्रयafternचक्खाणपात्रकम्मे यानि अव । एवं० तलकारण से एगओ भी निका किर करे व फाराम एवं नई उज्जीवनिशा किस करेमि वि, कार सो क्षेत्र से एवं जव इमे वा सेव तर्हि जीवनकाकार विनिका अ संजय आदिव अविदकरला पावकम्मेहिं । तं जहापाचा निवारा विभा अवतार अविर पहियानाखायगावकर दिओ पावे य से करने कज्जइ । सेयंस244110 11 पच्चक्खाण (तत्य खलु भगवया इत्यादि) यद्यपि सर्वेष्वपि देशकालस्वभावविप्रकृष्टेषु कथासावितिप्रस्था पवार एव यति चार्थस्य सुखप्रतिपच ये भगवता तीर्थकृता । दष्टान्त इस प्ररूपितौ । तद्यथासंतिष्टान्तशिरान्तको चन इमे प्रत्यासन्नाः षभिरपि पर्याप्तिभिः पर्याप्ता कहासंज्ञा विद्यते येषां ते सांला पाणि येषां चेन्द्रः करपया पथकामध्ये कचिदेकर पजीवनिकायान् प्रतीत्येवंभूत प्रतियां नियमं कुद तथा निकायेषु मध्ये पृथिवीकार्य नैकेन बासुकाशिलपलपणादिस्वरूपेण कृ कार्यास प्रतिहस्तेन तस्मिन्नर्थ या करोति करत कामवृत्तस्य नियम यवसायः तद्यचैव पृथिवीकारोि कारयामि च तस्य च सामान्यतस्य विशेष भवति नानाश्वेतेन पृथिवीकार्यन कार्ये करोति, कारयति च स तस्मात्पृथिवीकायादनिष्ठोऽ प्रतिद्वतप्रत्याख्यातपादक जयति तब समस्यानमिदन वारियासाबा वनस्पतिष्वपि वाकयमताकायेन नागपानावगाहन. मापदोषकरण्याचा प्रयोग तेज कार्यपा मप्रकाशमादिषु | वायुनाऽपि व्यजगतालवृन्तेत्यादिव्यापारा दिषु प्रयोजनम् नपतिना तिि रसी कार्य लाद्यानुष्ठानं स्वयं करोति, कारयति च परस्य रासायि खरब परोपजीवनिकायैः सामान्येन कृस्वं करोमि, न का प्रतिसमस्या पापकर्मा भवति । एवं बाबा कम्। तद्यथे मया वक्तव्यमीदृग्नूतं तु न चकव्यम् । सच तान्मृषावादादमिवृतत्वादस्वयतो भवति । तथाऽदत्तादालमध्वाश्रित्य वक्तव्यम् । तद्यदेवं मयाऽखाऽऽदानं प्राहामिदं तु मिति तथा महाकु विरतस्वात्प्रत्यधिकं कर्म चिनोतीति । एवं देशकालस्वभा चिमपि जन्मुष्यमित्रोऽसौ भवति, तस्प्रत्ययिकं च कर्म सन्तोनिति किमेव सिंगोमा जलनीय यात्सर्वानपि पापादयतीति विकास्वादय सम् प्रवृत्तेः तत्प्रतिरपि तदनिवृत्तेः। यथा कश्चिद् ग्रामघा सादी प्रवृत्तः, यद्यपि न तेन विवचितकाले केचन पुरुषा दृष्टास्तयाऽप्यसौ तत्प्रवृत्तिनिवृतेरभावात्तद्योग्यतया तद्वातक त्यते इत्येवं कातिकेोपम्॥८॥ गितमा पाशुपता सोना प्रतिपाद्यते से किं तं निदिते । जे इमे श्रसन्नियो पापा । तं जड़ापुनाइमा काश्या, हा वेगइया तसा पाणा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चक्खाण अन्निधानराजेन्दः । पञ्चक्खागा जेसि को तक्काइ वा सन्नाइ वा पन्नाक्षामणा वा वई वा ते चाऽसंझिनाऽपि यद्यपि देशकाल स्वभावषिप्रकृष्टानां न स. पाने वा सयं वा करणाए अन्नेहिं वा कागवंतए करंतं वा बैषां दुःखं समुत्पादयन्ति, तथाऽपि विरसेरभावात योग्यसमणुजाणितए,ते विण बाले सबेसि पाणाणं जाव सम्वे तया दुःखपरितापक्लेशाऽऽदेरपतिविरता नबन्ति, तत्सद्भाबाच्च तत्प्रत्ययिकेन कर्मणा बध्यन्ते ।। ए॥ सिं सत्ताणं दिया वाराणो वा मुत्ते वा जागरमाणे वा अमि तदेच विप्रकृश्वषिषयमपि कर्मबन्धं प्रदश्योपसंजिहीपुराहततमिच्छासंठिया निच्च पसढविउवातचित्तदंमा जति | शति खयु से असमिणो घि सत्ता अहोनिसिं पाणातं जहा-पाणाइबातेजाव मिच्छासणसद्धे, इच्चे० जार तिवाए जवक्वाइजतिजाव अहोनिसिं परिग्गहे उवक्खापो चेव मणो, णो चेव वईपाणाणं जान सत्ताणं सुक्खण- इति०,जाव मिरजगदसणमझे उपक्खाइज्जति । एवं नूतवाद। ताए सोयणत्ताए जूरणत्ताए (तिप्पाषणताए) तिप्पणत्ताए सध्वजाणिया वि खलु सत्ता सन्त्रिणो हुज्जा असनिणो होंपिट्टण ताए परितप्पणत्ताए, ते सुक्खपसोयण जाव परि- ति, असमिणो दुजा सन्निणो होति होच्चा सत्री अतपणवहबंधणपरिकिलेसामो अप्पमिरिरमा भवंति ॥ए। दुवा अमनी। तत्थ से अवि विचित्ता अवि धूणिता असमु( से कितं असन्निदिते इत्यादि ) संज्ञान संका, सा विद्य- चिता अणशुताविता असनिकायाओ वा सन्निकार्य ते येषां से संधिनः,तत्प्रतिषेधादसंझिनो, मनसो कम्यतया अभा- संकमंति,सन्निकायाग्रो वा असन्निकार्य संकमंति, सन्निघासीमाऽतीवास्यवसायविशेषरहिताः,प्रसुप्तमसमूचिताऽऽदि. कायाश्रो वा सन्निकार्य संकमंति, असन्निकायाओ वा चदिति । ये इमेऽसीझनः । तद्यथा-पृथिवीकायिका यावनस्प. तिकाधिकार तथा षष्ठा अप्पे के प्रसाः प्राणिनो विकलेन्दि असभिकार्य संकमंति । जे एएसन्नी वा अमन्त्री वा सव्ध ते या यावत्संमूविमाः पञ्चेछिया:,ते सर्वेऽप्यसंझिनो, येषां न मिच्छायारा निचं पसढविलवायचित्तदंमा । तं जहा-पाणाहर्काऽऽदिविचारो मीमांसाविशिष्टविमों विद्यते । यथा-कस्य- तिवाए जाव मिच्छादसएसद्धे । एवं खलु जगवया अक्खाए चित्संझिनो मन्दमन्द प्रकाश स्थाणुपुरुषोचिते देशे किमयं स्था- असंजए अविरए अपडिहयपच्चक्खायपावकम्ने सकिगुरुत पुरुषः,इत्येवमात्मक ऊहस्तर्कः सम्भवति, बैवं तेषाम रिए असंबुढे एगंतदं एगंतवाले एगंतमुत्ते, से बाले असंशिनां तक संभवन्तीति । तथा सझानं संज्ञा-पूर्वोपलब्धार्थ तदुत्तरकासपर्या लोचना : तथा प्रज्ञानं प्रज्ञा-स्वबुध्योत्प्रेक्षणम, वियारमण वयकायबके सुविणमविण पस्सइ, पावे य से क. स एवायमित्येवंभूतं प्रशानं च । तथा मननं मनो, मतिरित्यर्थः। म्मे कजज ॥१०॥ सा चायग्रहाऽऽदिरूपा तथा प्रस्पष्टच वाक, सा च न विद्यते । (इति खलु ते इत्यादि ) इतीरूपमदर्शने । स्व शब्दो बाक्या. तेपामिति । यद्यपि वहीन्द्रियाऽऽदीनां जिहन्द्रियगनबिबराss. नार,विशेषणे वा । किं विशिष्टि?, ये इमे पृथिवीकायाऽऽददिकमस्ति तथाऽपि न तेषां प्रस्पष्टवर्णत्वम् । तथा न चैषां पापं योऽसंझिनः प्राणिनस्तेषां न तों, न संज्ञा,न मना, न बाक, न हिंसाऽऽदिकं करोमि कारयामीत्येवंभूताध्यवसायपूर्षिका मतिः, स्वयं कर्नु, बान्येन कारबितुं, न कुर्वन्तमनुमन्तुं वा प्रवृत्तितथा स्वयं करोम्यन्या कारयामि, कुवन्तं बासमनुजानामीत्ये. रस्ति । ते चाहनिशममित्रता मिथ्यासंस्थिता नित्यं प्रशव्य नुतोऽभ्यवसायो न विद्यते तेषाम। तदेवं तेऽप्यसचिनो बालबद् तिसराविसदरमा दुःमोत्पादनता यावत्परितापनपरिक्लेशाsबालाः सचेषां प्राणिनां घातनिवृनेरभावात्तयोग्यतया पातका देमतिबिरताः, अलंझिनोऽपि सन्तोहर्निशं सर्वकासमेव प्राव्यापादकाः। तथादिन्द्वीन्जियाऽऽदयः परोपचाते प्रवर्तन्ते,चंत- जातिपाते कर्तव्बे तयोम्यतया तदसंप्राप्तावपि ग्रामघातकद्भवणाऽऽदिना अनृतभाषणमपिविद्यते तेषामविरतत्वात केवलं वापाण्यावन्ते, याबन्मिथ्यादर्शनशल्ये पाख्यायन्त इति । कपरतन्त्राणां वागभावः । तयाऽदवाऽदानमपि तेषामस्त्येव, उपाण्यानं मा संशिमोऽषि योग्यतया पापकर्मानिवृत्तेरिदध्यादिभवणात्। तथेदमस्मदीयमिदं च पारक्यमित्येवंभूतवि. त्यभिप्रायः । तदेवं दर्शिते दृष्टान्तालये तत्प्रतियम्मेवार्थशेष चाराभावाचति । तथा तीवनपुंमकवेदोदयाम्मैथुनाविरतेश्च मेयुः। प्रतिवादयिधुं चोधं क्रियते । तद्यथा-किमेते सवाः संझिनश्च नसद्भायोऽपि । तथाऽशनादेः स्थापनात्परिग्रहसद्भाबोम्पीति । भबायस्वपलियतरूपा एवाऽऽहोस्वित्संझिनो भूत्वाऽसंज्ञित्वं एवं ऋधमानमायाकोभा यावांमध्यादर्शनशस्यसद्भावश्च तेषा- प्रतिपद्यन्ते, असंझिनोऽपि संस्थिमित्येवं चोदिते सत्याहामबगन्तव्यः । तद्भावाच्च ते दिवा वा रात्री वा सुप्ता या जायदय. ऽऽचार्य:-( सधजोणिया वि खलु स्यादि ) यदि वा-सत्येव. स्थाबा नित्यं प्रशव्यतिपाताचस्तदण्डा भवन्ति । तदेव- चता वेदान्तवादिना य एवं प्रतिपादयन्ति--"पुरुषः पुरुषत्वना शयितुमाह-(तं जहा इत्यादि)ते बसंझिनः क्वचिदपि मि. श्मठे,पनरपि पशुस्वमिति ।" तदत्रापि संझिनः संझिन एव भवृत्तरजावात्तत्प्रत्यायिककर्मबन्धोपेता भवन्ति । तया-जाणा- विष्वन्स्यसंझिनोऽप्यसंकिन इति तन्मतव्यवच्छेदार्थमाइ-(सध. तिपाते यावन्मिध्यादर्शन शल्यचन्तो भवन्ति । तद्वत्तया च ब. जोगिया बीत्यादि) याद -कि संझिनोऽसंझिकर्मवन्धं प्राकने यपि वैशिष्टयमनोवाम्यापाररहितास्तथाऽपि सर्वेषां प्राणि- सत्येव कोण कुर्वन्ति, किं वा नेति । एबमसकिनोऽपि संझिकमां दुःखात्पादनतया, तथा शोचनतया शोकोत्पादनत्वेन, त- मवन्धं प्राक्तने सत्येव कुर्वन्ति, पाहोस्विन्नेत्येतदाशङ्कघाऽऽहथा जरणतया; जुरणं वयोहानिरूपं तत्करणशीलतया, तथा (सव्वजोणिया वीत्यादि) सर्या योनयो येषां ते सर्वयोनयः, विभ्यो मनोवाक्कायेच्यः पातनं त्रिपातनं तद्भावस्तथा ।। संवृतचिवृतोभयशीतोष्णाभयसचित्ताऽचित्तोभयरूपा यौनय यदि बा-(निपणयाए त्ति)परिवेदनतया। तथा (पिट्टा- इत्यधः । न च नारकनिर्यनरामराः, अपिशब्दाद्विशिकयोताप) मुधिलोप्पहारण, परितापनतया बहिरन्तश्च पाडया, नयोऽपि । खस्पिति विशेषणे। एतद्विशिनधि-तन्मापेक्षया Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४) अभिधानराजेन्द्रः | पच्चकखाण बनविण्य । सर्वमयोऽपि सभ्याः पर्याय द्यते तावदशिनः करणतः सन्तः पश्चात्वंहिनो भवत्येकस्मि नेव जन्मनि अन्य जन्मापेक्षया केन्द्रियादयोऽपि सन्तः प चान्मनुष्याssदयो भवन्तीति । तथाभूतकर्मपरिणामात पुनभैग्यानव्यश्यपक्ष यवथानियमः भावाभयहिन कर्मानिचार वे पुनः कर्मवशगाव संज्ञिन भूषाऽसंशिनो भवनयनिका त्या संहिन इति वेदान्त बादिमतस्य प्रत्यचैव व्यभिचारः समुपलभ् संकियस्थायामसंहित्यं प्रतिग् तु पुनः संत्यजन्मान्तरेतुनार इति तदे संपकिनो कर्मपादम्यां गतिरविरुद्ध यथा प्रतिबुको निद्रोदयात्स्वपिति, सुप्तश्च प्रतिबुध्यते इत्येवं स्वाप तियोपोरोमन पदा बद्दीर्णे यच्च वद्धमास्ते, तस्मिन् सत्येव तदधिविच्या पृथककृत्य तथाविधूयाऽलमुनिधाननुताप्य, पते चाविचियादय अवारोप्येानिरूपा कोहि का सभ्याः सदेवनपरेका कामन्ति तथा संज्ञिकायाद संगियायमिति । तथा-नारकाः साव शेषकर्माणमनुवनेषु निक्षूप एवं देवा अपि प्रामस्तत्कर्मशेषता स्थाने त्पद्यन्तवनन्तव्यम् । अत्र चतुर्भङ्गकसंजयं सूत्रेणैव दर्शयति-साम्प्रतमध्यनार्थमुपजगह (जेसे(त्यादि) ये पते सर्वानिरपि पर्याप्तिभिः पर्याप्ता सध्या करन चचिकायापर्यतका अन्योन्य संक्रमभाजः संज्ञिनोऽसंटिनो चा सर्वेऽप्येते मिथ्या बाराः, अप्रत्याख्यानित्वादित्यभिप्रायः । तथा सर्वजीवेष्वपि प्रतिपादि भूताथ प्राणातिपाताच सप्यापारेषु वर्तत देव्यथितेोदकेन चेाद्यमानाऽ योगसंभवे कथं पाप कर्म वध्यत इत्येतन्निराकृत्य विर पापकर्मायं दर्शयति इत्यादि) एवमुकमीत्या, सत्यवधारणे, अनङ्कारे वा । भगवता तं कृतेत्यादिना यत्प्राक् प्रतिज्ञातं तदनुवदति यावत्पापं च कर्म क्रियत इति ॥ १० ॥ समानार राम संसारमवगम्य संयोक आधाप्रतिताः प्रशवितुमाह से कि कुछ कि कार कई संजयविश्यध्यपिचरखापावकम् नव ? । आचार्य शाहसस्य लघु जगण्याधिकाऊ तं जड़ा-पुढ सीकाया जाय उसकाइया से हाणामए पता (?) वा अगवामुखीण वा अल्लू वा कवाजेलवा का तामियाजा उदधिमा सजाय - मुक्रख समायमवि हिंशाकारं दुक्खं गये परिसंवेदेपि, इथे जापान सम्वे सचा दंडे वा०जाव कवा क्षेत्र वा आमा वा म्याने या वजनाचे वा तानिजमाणे वा जीव उदावेजमागे वा० जाव लोमुक्खण त्रा पञ्चवखाण पायमपि हिंसाका पडसंवेदेति एवं पचास पाणाजा सब्बे सत्ता न हंतव्वा० जाव ण उदयन्वा एसपम्येपुपि सासर समिच्च लोगं खेपभेडिं पवेदि । एवं से जिक्खू विरते पाणाइवायातो० जान मि सेभिकवू को दंतक्खाणं दंतेपक्खालेज्जा, पोज यो वमणं णो धूवणं तं पि न आदत्ते, सेक्यू करिए अलूसए अकोहे०जाव अलोने जबसेपरिनिब्बु, एस खलु भगवया अक्खाए संजयविरगपपथपाकम्मे अकिरिए संबुडे एक पाकि भवति वेमि ॥। ११ ॥ ( सेकिमित्यादि ) अथ किमनुष्ठानं स्वतः कुर्वन् किं वा परं कारयन् कथं वा केन प्रकारेण संयतविरतप्रतिहतपा कमीजन्तु संहिताया निधिवृषः तदभावाधरका त्रेता दि) तत्र संयमसहावे पजीवनिकाया भगवता हेतुत्वेनोपन्यस्ताः । यथा प्रत्याख्यानरहितस्य पजीवनिकायाः संसारमतिनिकधनस्येनोपन्यस्ता एवं त एव प्रत्याख्यानिनो मो. काय भवन्तीति । तथा बोकम्" जे जतिया व देऊ, भव र ते बेव तेत्तिया मोकले गाईया लोगा, दोषद वि पुण्दा भये तुला ॥ १ ॥ " इत्यादि । इदमुक्कं प्रबति था प्राणिनाममा धर्मः सर्वा पाणस्थिरस्वभावोनिवि । परिणामनित्यतायामपि सत्यां रूपाऽऽचच्यवनात् । तथा था दिव्योतिरिव शश्वाच्छानः परैः काचियस्त्रसितो, गुक्तिसंगतत्वारित्यनिवासः, अयमेवंभूत धर्मः समेत्या गोर भिक्षुर्निवृत्ता सर्वाऽऽनयद्वारेभ्यो दम्तप्रकालनाऽऽदिकाः किया वाद्यक्रियाया वायोपिया प्रा लिनामको पदको वायदे कालेनेवाली मोन परिसमामीति पूर्ववत् नयाः प्राये याः । ०२५०४ अ , (७) जीवाः किं मूल गुणप्रत्याख्यानिनः । इराककः- अश्वोक्तभेदेन प्रत्यासपिजीविशेषजो कंमूलगुणपालाणी, उत्तरगुणपथ१ काकी गोषमा ! जीवा मूलपच्च क्लाणी, उत्तरगुणपच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी वि । ने२३ अंकमुखी विपुछा गो? मनोविनो उचरगुणपच्चापि पच्चक्खाणी वि एवं जान चछरिदिया पंचिदियतिरिक्लजोगिया, मस्सा व जहा जीवा वामंत्र जोसिपमा जिया जाया । (द) (चिदितिरोणिया मसुता य जहा जीव चि) मूल गुणप्रत्यास्थानिक उत्तरगुता प्रायाध्या ! , Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चक्खाया अभिधानराजेन्द्रः। पश्चक्खागा निनोऽप्रत्यास्पानिन,नवरं पञ्चन्छियतियचो देशत पत्र मूलगु. खाणीणं अप्पाबहुगाणि तिथि वि जहा पढमे दंडए० पप्रत्यास्यानिनः, सर्वविरतेस्तेषामभावात् । इहचोक्तं गाथया"तिरिमाणं चारित, निवारियं अह य तो पुणो तसिं । जाव मस्ताणं॥ मुम्बा पहुयाण चिय, महन्वयारोवणं समय ॥१॥" (पएसि णमित्यादि) (सम्बत्योवा जीवा मूलगुणपक्मापरिहारोऽपि गाययैव णी शि) देशतः सर्वतो था ये मागुणवन्तस्ते स्तोकाः, देश"महन्वयसम्मा-बेवि चरणपरिणामसंभषो तेखि। सर्वामामुत्तरगुणवतामसंख्ययगुणत्वात् । श्ह व सर्वविरतेम बहुगुणावं पिजहा, केबलसंनुश्परिणामो ॥२॥" इति। पुये उत्तरगुग्णवन्तस्तेऽवश्यं मूलगुणयन्तो, वास्तु (१८) अय मूलगुणप्रत्याख्यानाऽऽदिमतामेवाहशत्वाऽऽदि स्वादुत्तरगुणवन्तः, स्याद्विकसा, य एव च तद्विकशास्त चिन्तयति एवेह मूलगुणवन्तो बाहाः तेथेतरेभ्यः स्तोका पत्र, बहुतरय. एएसि ते ! जीवाणं मूलगुणपरचक्खाणीणं उत्त तीनां दशविधप्रत्यास्थानयुक्तत्वात् । तेऽपि च भूलगुणिभ्यःसं. स्पातगुणा एव, नासंख्यातगुणाः, सर्वयतीनामपि संस्थातरयात् । रगुणपञ्चकखाणीणं अपचक्स्वाणीण य कयरे कयरेहि देशविरतेषु पुनर्मूलगुणवदभ्यो निता अप्युसरगुणिनो सत्यतो० जाब बिसेसाहिया वा? । गोयमा! सम्बत्योवा जीवा से, तेच मधुमांसारिधिचित्रानिग्रहवा दुसरा भदन्तीति मूलगुणपच्चक्लाणी,उत्तरगुणपच्चक्खाणी असंखेजगुमा, करवा देशधिरतोत्तरगुणवतोऽधिकृपोत्तरगुगवतां मजगुणवद् ज्योऽसंख्यातगुणत्वं भवत्यत एदाह-"उसरगुण एक्वाण) अपच्चक्खापी अणंतगुणा । एएसिणं भंते ! पंचिंदियति असंखजगण ति, अपक्षवाणी भगं गुम ति।" भनुष्ययचेरिक्खजाणियाणं पुरुला?। गोयमा! सत्रयोया जीया पंधि वितिय पत्र प्रत्यानिनोचे स्वप्रयास्पामिन एव, व. दियतिरिक्खजोणिया मूलगुण पच्चास्वामी, उत्सरगुपच्च- नस्पतिप्रतिकत्वालेवामनन्तगुम्त्वमिति । मनुष्यसूत्रे-"म. क्रवाणी असंखेनगुगा, अपच्चयवाणी अखेजगुणा। फवक्वाणी असंखेनगुपति" यदुतं तरसामिप्रदणेनाएएसि गंजते मरमाणं मूत्रगुण पचासणीयं पुच्छा। घसेवम्। इतरेषां संकपातत्यादिति । ( एवं अबदुगावि तिम्सि विजमा पढमिलकर सि)तत्रैकं जीशनामिदमेव, द्वितीय गोयमा ! सव्यत्योबा मस्सा मूलगुणपश्चावाणी, पम्चेम्जिन्यतिरश्चा, तृतीयं तु मनुष्याकाम् । शतानि चण्या उत्तरगुणपञ्चक्रवाणी संखेज्जगुणा, अपचर वाणी कसं- निशपणमूमगुप्याऽऽदिप्रतिबद्ध दण्डके इनानि, पत्रमिह खेजगुणा । जीवाणं ते ! कि मूलगुणपसरवाणी, दे- पीएयषि यांच्यानि । विसरमाद-" नवमित्यादि । " (पंचिदियतिरिक्सा जोणिया मस्सा समूलगुपचखाणी, अपचय वाणी। गोयमा ! जीता य प चेव ति) यथा जीचा सर्वोत्तरगुणप्रत्यारवान्यादय उक्ता एवं पञ्चेन्दियतिसचमूनगुणपच्चखाणी नि, देसमूत्रगुणपच्चखाणी पि, बधो मनुष्याश्च पास्याः । पञ्चनियतिशोऽपि सर्वोत्त. अपच्चस्वामी नि। मेरश्याणं पुर। मोयमा नेरक्ष्या रगुण प्रत्यापयानिनो भवन्तीस्यबसेयम् । देशविरतानादेशतः नो सचमुझगुणपरवाणी, नो मूल देसमुपरचक्लामी, सासरगुणप्रत्याक्यानस्याभिमतस्यादिति । भ० ७०२30) अपचक्रवाणी वि । एवंजाव चचरिदिया । पंपिंड़िय- (१) जीवा: १ प्रस्यास्यानिनोऽप्रत्यावयानिनो वातिरिक्खपुच्छा? मोयमा ! पंचिंदियतिरिसखा को सम जीवाणं भंते ! किं पञ्चकवाणी,अपवखाणी, पञ्चरखा. मृमगुणपच्चक्खाणी पि, देसमूलनुपरचरवाणी गि, णाऽपश्चखाणी गोयमा ! जीवा पञ्चक्रवाणी वि, अप. अपञ्चक्खाणी वि । मगुस्सा जहा जीवा, वाणमंतरजोर चखाणी नि। एवं तिणि चि, एवं मणुस्सावि। पंचिंदिय. सियवेमाणि या जहा नेहगा । परसि ते ! जीरा निरिक्खजोणिया प्रादिद्यविरहिया ने अपरचक्रवाणी सचमूनगुणपच्चरवाणीर्ष देसयामुणपरचक्खाणी अ. जाव घेमाणिया । एसित्ते डीवाय पचखापच्चक्खाणीण य कयरे कयरे० जाब विसेसाहिया का। पीणंजान विसेसाहिया वा । मोरया ! सम्बत्योबा गोयमा ! सम्वत्योवा जीवा सचमूक्षगुण पच्चक्खाणी, पञ्चत्रवाणी, पञ्चक्रवाणापक्वाशी शमखेज्जगुणण, अपदेसमझगुणपञ्चक्रवाशी असंखजगुणा, अपच्चक्खाण) वयवाणी अतगुणा । पंकिंदिगतिरिक्खमोणि सन अनंतगुणा। एवं अप्पावमाणि तिणि वि जहा पढमि- स्थोचा पवाखाणापचरखायी अपवक्रतापी संखेजपए दंए, नवरं सम्बत्योवा पंचिंदियतिरिक्खजोलिया। गुणा, मणुस्सा समस्योना पचाकामी, पववाहापचदेसमूहगुणापरचक्खाणी अपच्चरखाणी असंखेजगुणा । खाणी संसेजगुणा, अपरचराली असंखेज्जगुणा । जीचाणं मंते किं सबुतरण गपरचक्खाशी, देमुसरगुण न.७श...। पच्चक्खाणी. अपञ्चकवाणी। गोयमा ! जीवा समत- जीचा भं!पिचखाणी, अपच्चरवाणी, प. रगुणपच्चक्खाणी, तिमि वि पंबिंदियतिरिक्खनो- बवासाणापरवारलाणी ?। माया पीना पचपिया मणुस्मा, एवं चेत्र सेसा अपचक्खाणी० जागा यालाची वि, अपरचक्रवाणी गि, २०.दाखाणापच्चबेमाणिया। एसिणं भंते ! जीवा सन्चुत्तरगुणपरच. खाणी वि। सधजीवाणं धागोयमा ! मेराया Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण अभिधानराजेन्दः। पच्चवखाणा अपच्चक्खाणी०जाव चरिंदिया। सेसा दो पमिसेहेय- | णं सबपाणहिंजाव सम्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति बद-- ब्बा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया नो पच्चक्खाणी, अपच्च- माणस्स नो सुपच्चक्खायं तुप्पच्चक्खायं भवइ । एवं खलु से खाणी वि, पञ्चक्खाणापच्चक्खाणी वि, माया तिमि दुपच्चक्खाइए सव्वपाणेहिंजाव सध्यमसहिं पच्चक्वायवि सेसा जहा नेरक्ष्या। मिति बदमाो नो सबभासं नासइ, मोसं भासं नास, ए. (जीवा णमित्यादि)(पश्चक्खाणि ति) सर्वचिरताः । (अ- बं खयु स मुसाबाई सधपाणेहिजाब सव्वसत्तेहिं ति. पञ्चक्खाणि ति) अविरताः। (पश्चक्खाणापच्चक्खाणि ति) विहं विविहेणं असंजयविरयपडिहयपच्चाक्खायपावकम्मे देशविरता इति । (सेसा दो पडिसेहेयब्वे सि)प्रत्याख्यानदे। शप्रत्याख्याने प्रतिषेधनीये, अविरतत्वान्नारकाऽऽदीनामिति । सकिरिए असंवुडे एगंतदमे एगंतवाले यावि जवइ । जप्रत्याख्यानं च तज्ज्ञाने सति स्यादिति ज्ञानसूत्रम् स्स पं सधपाणेहिंजाब सन्धसत्तेहिं पच्चक्खायमिजीवा भंते! किं पच्चक्खाणं जाणंति, अपच्चक्खाण ति वदमाणस्स एवं अजिसमस्यागयं भवा-इमे जीवा, इमे जाणंति, पच्चक्खाणापच्चक्खाणं जाणंति । गोयमा ! जे जीवा, इमे तसा, इमे थावरा, तस्स णं सबपाणेहिं० पंचिंदिया ते तिणि वि जाणंति, अवमेसा न पच्चक्खा- जाव सबसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वयमाणस्स सुपच्चएं जाणंति । जीवा णं भंते ! किं पच्चक्खाणं कुवंति, खायं भवइ, नो दुपच्चक्खायं जवइ, एवं खलु से मुपच्चअपच्चक्खाणं कुवंति, पच्चक्खाणापच्चक्खाणं कुन- खाई सबपाणेहिंजाब सबसत्तेहिं वयमाणे सच्च ति? | जहा ओहिया तहा कुवणा । जासं भासद, नो मोसं जासः, एवं खलु से सच्चवाई सतत्रच (जे पंचिंदिया ते तिन्निवित्ति) नारकाऽऽदश्वो दएको न्नपाणेहिन्जाव सम्वसत्तेहिं तिविहं तिविहेणं संजयविताश्चेन्द्रियाः समनस्कत्वात्सम्यग्दृष्टित्वे सति परिकमा प्रत्या ग्यपडिहयपच्चक्खायपावकम्भे अकिरिए संवुडे एगंतपंकिख्यानाऽऽदित्रयं जानन्तीति । (अवसेसेत्यादि) एकेन्द्रियविक ए यावि भवइ, से तेण इणं गोयमा ! एवं वुच्च५० जाव सेजिया प्रत्याख्यानाऽऽदित्रयं न जानन्ति,अमनस्कत्वादिति । कृतं च प्रत्याख्यानं भवतीति तत्करणसूत्रं प्रत्यारयाबमामु. सिय दुपच्चक्खायं भवइ । बन्धहेतुरपि भवतीत्यायु सूत्रम् (खे वृक्षमित्यादि ) " सिय सुपच्चक्खाय सिय दुपच्चजीवा ण नंते ! किं पच्चक्खाणनिवत्तियाउया,अपच्च- खायं " ति प्रतिपाच यत्प्रथमं प्रत्याख्यानत्ववर्णनं कृतं क्वाणणिवत्तियानया, परचक्खाणापच्चक्खाणणिवत्तिया तयथासक्यन्यायत्यामेन यथाऽऽसन्नतान्यायमत कृत्येति द्र. व्यम। (नो एवं अभिसमयागयं भवत्ति )(बो) नैव प्रया है। गोयमा ! जीवा य, बेमाणिया य, पच्च- पत्रमिति बक्ष्यमाणप्रकारमभिसमन्वागतमवगतं स्यात् । (नो क्खाणनिवत्तियाउया, तिमि चित्रसेला पच्चखा- सुपच्चरखायं भवह सि)काराभावेन यथाघदपरिपालनाणनिवत्तिया नया । गाहा सुप्रत्याख्यातत्वाभावः। ( सम्वपाहिति) सर्वप्राणेषु।। " पच्चक्खाणं जाणइ, कुव्वति तेणेच भाउनिध्वनी। ( तिविह सि) त्रिविधं कृपकारितानुमतिभेदनि योग माभिस्य (जिविहरणं ति) त्रिविधेन मनोवाकायलकणेन कसपएमुद्देमम्मि य, एमए दंडगा चनरो।।१।।" रन (असंन्यविरबपनिमनपाचखायगावकम्मे ति) संयतो तत्र च (जीवा जेत्यादि ) जीवपदे जीवाः प्रत्याख्यामाऽऽदि. बाऽऽदिपरिहारे प्रवतः, विरतो बधाऽऽदेनिवृत्तः, प्रतिहत्रयनिवाऽऽयुष्का बाच्याः, वैमा नेकपदे व वैमानिका अप्येव | खान्रतीतजालसंबन्धीचि, निम्दानः प्रत्याख्याताविबाबागतप्रप्रत्याख्याना 5ऽदित्रयवतां तेषूत्पादात । ( अनसेस भि) बार- स्मारमानेन पापानि कर्माणि येन स तथा । ततः संयताऽऽदिपकाऽऽदयोऽनत्वाख्याननिवृत्ताऽऽयुपो, यतस्तेमु तस्येनाचिरतार. दागं कर्मबारबा तजस्तविषधादसंयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यान बोत्पश्चन्त इति । भ०६ श०४३०।००। श्रा.क.प्रा०म० तपापकर्मा । अत एव ( सकिरिए कि) कायिक्यादि. (२०) प्रत्याख्यान पर्षदि कथनीयम् कियायुक्तः स कर्मवन्धनो वा, अत एव (असंबु त्ति) असं. सेमणं भंते ! सव्वपाणेहिं सबभएहिं सधजीयेहिं सव्व वृताधव द्वारः । अत एव-( पगंतदं ति) एकान्तेन स. सहिं परचक्खायमिति वदमाण स्स सुपच्चक्खायं जवइ, बथैव परान्दरामयतीति एकान्तदएमः, अत पवैकान्तबालः, स. र्वथा बालिशोऽश इत्यर्थः । भ०७ २० २ उ० । नहा दुपच्चक्खायं । गोयमा ! सबपाणेहिंजाब सबम (२१) साम्प्रतं प्रत्याख्यातव्यमुक्तमप्यध्ययने द्वाराान्यार्यमादती १च्चालायमिति रदमाणस्म सिम सुपच्चक्खायं दवे नाव अकुहा, पञ्चक्वायव्ययं तु विन्नेयं । चवइ, सिप उपचक्खायं भव । से केणद्वेणं भंते ! एवं दव्यम्मी असणाई, अन्नाणाई न नावम्मि ॥ ६॥ पुस्चह-सपाहिजार सध्वसत्तेहिंजाब सिय पच्च सोनं नवष्टिाए, विणीअवविखत्ततमुवत्ताए। करवा भर । गोषमा! मस्स णं सत्रपाणेहिं जाव स एवंविहपरिमाए, पच्चक्खाणं कहे अव्वं ।। ७ ।। चलत्तेहिं पञ्चक्खायमिति वदमाणस नो एवं अभिसपमा व्यतो भावतश्च द्विधा प्रत्यारपातव्यं त विशेयम मध्यप्रस्थागयं भवइ-इमे जीना, इभे अमीवा, इमे तमा,इमे थावरा, तस्म स्यातव्यमशनादि,अशानादि तु भाये,भावप्रत्यास्या व्यमि: --- Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्खाप अभिधानराजेन्द्रः । पच्चक्खा तिगाथाऽर्थः ॥६॥ मूलद्वारगाथायां गतं तृतीयद्वारम् । इयाणि प्रत्याख्यानस्योत्तफलसकणस्य फलं कार्यमिह लोके परलो. परिसा, साय पुरवनिया लामाइयनिज्जुत्तीए सेलघणकुमग. के च भवति द्विविधं द्विप्रकारम् । तुशब्दः स्वगतानेकभेदप्रचामणि इण्यादि । श्द पुण सविससं भर परिसा दुविहा- दर्शनार्थः । तथा चाऽऽह-इहलोके धम्मिल्लाऽऽदय उदाहअवहिया, अणुवटिया य । वढियाए कहेयवं, अणुव. रणम् । दामनका3उदया परलोक ति गाथाऽकरार्थः ॥ १२ ॥ हियार नकदेयव्यं । जा जवाया सा दुविहा-सम्मोवाट्टया, कथानके तु-" धम्मिनोदाहरणं धम्मिहिमीप्रो. नायव । मिचोवटिया य । मिच्छोवट्ठिया जहा अज्जगोविंदो, ता. मादिशब्दतो आमोसहिमाश्या घेप्पति । दामनगोदाहरणं तु. रिसाण न बट्टर कहे । सम्मोवाहिया दुविहा-माविया, अ. | रायपुरे नयरे एगो कुलपुत्तगजातीमो, तस्स जिणदासो भाविया य । अन्नादियाए न बह । भाषिया पुचिहा-विणी. मित्तो, तेण सो सादुसगास नीरो । तेण मधमंसस्स पश्च. या, अविणीया य । अविणीया न बट्टा विणीयाए कहेयव्वं । क्खाणं गहियं । दुग्जिक्खे मच्चाहारो लोगो जाओ। श्यरो वि पिणीया कृविहा-वक्खित्ता, अव्यक्वित्ताय । वक्खित्ता सुणे। सालएहिं महिलाए य खिसिज्जमाणो गमो उधिन्नो दहं म. कम्मं च किंचि करेक, खिप्पं ति बा अन्नं वाचारं करे । अव्व. च्छ दई, पुणरावत्ती जाया । एवं तिन्नि दिवसे तिन्नि बारे क्खित्ता न किंचि मनं करेइ, केवझं सुणे । अञ्चक्वित्ताए गहिया, मुका थ। अणसणं का रायगिहे नयरे मणियार. कहेयध्वं । अम्वक्खित्ता दुविदा-उचलत्ता, मणुवनुत्ता य । अ. सेछिपुत्तो दामनगो नामेण जाओ। अहवरिसस्स कुवं मारीओ गुवसत्ता जा सुणे अन्नमम वा चितेह । वत्ता जा त. विनं, तत्थेव लागरपोयसत्यवाहस्ल गिहे चि। तत्थ रा. चित्ता तम्मणा । उव उत्ताए कहेयव्व।" तथा चाद-"सोउं उ. | यगिहे साहू भिक्खटुं पक्ट्ठिा । साहुणा संघामयलस्स कहिय. वहियार (गाहा ७०)" गतार्धा । एवमेला उहिया सम्मोवद्धि एयरस गिहस्स एस दारो अहिवती भविस्स । सुयं स. या जाविया । बिणीया अव्यक्तित्ता उपनत्ता य पढमपरिला- त्यवाहेण, पच्चनं चमााण अप्पिो । तेहिं दूरं ने अंगुधि जोम्मा कहणाए, सेसाओ तेवळ परिसाश्रो अजोगाओ अ. वेत्तं सिओ निविस प्रो को, नासतो तस्तव गोमंघिपण जोगणा इमा पढमा उवष्टिया सम्मोडिया भाविया । वि. गहिमओ, दत्तोत्ति जोवणत्यो जाओ । अन्नया सागरपोश्रो सत्य मीया अम्वक्खित्ता अणुवनुत्ता एसा पढश अजोगा एवं गओ, ते इटळूण उवाएण परियणं पुच्छह-को एस १ । कहिये तेवदि पि माणियचाश्रो। चहिया सम्मोहिया भाविया।थि. प्रणाहो नि हागो इमो । सोऽतिभीओ लेहं बाउ घरं पाचणीए य होइ बक्खित्ता उवउत्तिगा य जोगा । सेला अजो हि सिदिलो । गोगयगिहस्स बाहि परिस्तो देवाने भगाओ तेवहि पर्व पच्चक्खाणं पढमपोरिसीए फजिद । त. सुयर, लागस्यीयधूया विसा नाम कन्नगा, ताप अश्वणियावाघ ब्धशरत्ताप न कहेयच्चन केवलं पशखा, सवयनि माप दिको पिउमुद्दभुद्दियलेहंदवू वाप-एयस्स दारयस्स बस्सयं, सब्वमवि सुयनाणं ति।" मूलद्वारगाथायां परिषदिति असोहियमक्खियपायरल विसं दायध्वं, अणुसारफुसणोवि गतम् । अधुना कयनविधिरुच्यते । तत्रायं वृद्धवाद:-" काप महेश नगरं पविठ्ठाविसा प्रणेण विवाहिया। ग्रामो सागर. बिहीए कहेयचं, पढम मूसगुणा फद्दिज्जति पाणातियायवेरम पोयओ, माइधरअञ्चणियाविलजाणं सागरपोयस्स पुत्तभरण णाति, ततो साधुधम्मे कहिते पच्छा असत्तिस्स सावगध. सोउं सागरपोश्रो हिय उम्मेदेण मो, रक्षा दामनगो घरसामी म्मो, इयरहा करिउजते सलिछो वि सावधम्म पढम सोर्ड कओ, भोगभिकी जाया । अनया पुब्बावरएहे मंगलि पहि पु. तत्व विधिर्ति करेह, उत्तरगुणसुधि छम्मासियं आइकार्य रनो से नग्गीयं-"अणुपुखमावहता, विषणस्था तस्सवहगुणा जं जस्स जोग्ग पञ्चक्खाणं तं तस्स असढेण कहेयध्वं । " | होति। सुह दुक्खकच्छपुमओ, जस्स कयंतो यह पक्वं ॥५॥" ।। ७०।। आव०६ १० प्रा० चू०।। सोउंसयसहस्स मंगसिया देश एवं तिमिधारा तिश्वि सयअथवाऽयं कथनविधिः सहस्साणि । रम्रा सुयं पुच्छिपण सम्बो रनं सिटुं, तुद्वेण रक्षा प्राणागिको अत्थो, श्राणाए चेच सो कहेयव्यो । सेट्टी ठविओ। बोहिलानो, पुणो धम्माणुहाण, देवलोगागमणं । दितिय दिहता, कहणविहि विराहणा हरा ।। ७१ ॥ पवमा परलोपामहवा सुकेण पश्चक्याण रेवलोयगमणं पण श्राझा पागमः,तग्राह्यस्तद्विनिश्चितोऽर्थः-अनागतातिक्रान्तमा बोहिलामो सुकुल पचयादिसोक्तपरंपरेण सिद्धिगमण, कसि त्याख्यानादिः, पाशवाऽऽगमेवाऽसौ कथयितव्यो,न दृष्टा चपुण तेणेव जबगहणेण सिद्धिगमणं जवतीति।" . म्तेन तथा दार्शन्तिकः दृष्टान्तपरिच्छेद्यः प्राणातिपाताऽऽद्यनिवृ. अत एव प्रधानफसोपदर्शनेनोपसंहरमाहसानामेत दोषा भवन्त्येवमादिः दृष्टान्तात् दृष्टान्तेन कथयितव्यः। पच्चखाणपिणं से-विऊण जावेण जिणवरुदिडं। कथनेऽयं विधिरेष कथनप्रकारःप्रत्याख्याने वा। यद्वा-सामान्ये. पत्ता अणंतजीवा, सामयसुक्खं लई मुक्खं ।। ७३ ॥ नैश्वाऽऽकामायोऽर्थः सौधर्माऽऽदिरायैवासौ कथयितव्यः,न ह. प्रत्याख्यानामिदमनन्तरोचमासेव्य मावेनान्तःकरणेन जिनवरीशाम्तेन, तत्र तस्य वस्तुनोऽसम्भवात् । तथा दाष्ट्रान्तिक उत्पा. हिएं तीर्थकरकथितं प्राप्ता अनन्तजीवा,तायस्वरूपकथन पर प्र. दाऽऽदिमानात्मा,वस्तुत्वादू, घटवदित्येवमादिदृष्टान्तात् कथयि वृत्तिहेतुत्वात् तत्रोक्तमित्यनपराध पवेत्यलं विस्तरेण। जक्तोऽनु. तव्यः । एष कथनविधिः, विराधना इतरथा विपर्ययोऽन्यथा, गमः। श्राव०६०(प्रत्याख्याने मृपावादी पमिसेवणा'शब्दे वक्ष्य. कधनविधेरप्रतिपत्तिहेतुत्वात अधिकतरसंमोहादिति गाथा ते)तीर्थकृतां महाव्रतरूपस्य प्रत्याख्यानस्थ परिमाणम् । अधुन ऽर्थः ॥ ७१ ॥ मूलद्वारगाधोपन्यस्त उक्तः कथनविधिः । प्रत्याख्यानबारमाह-प्रथमजिनस्य ऋषत्रस्वामिमोहिमजिन(२३) प्रत्याख्यानफलम् स्य धीरस्वामिम इदं प्रत्याख्यानं-बहुत पञ्च यमा, प्राणातिपच्चक्खाणास्स फय, इह परमोए अहोइ सुविहं तु । पातनिवृपयानि पञ्च महावतानि, शेषाणामजिनस्वामिप्र. हलोए धम्मिलाई, दामनगमाइ परनोए ।।७।। धम्मिलहिगडनिामकग्रन्थात । यथावसुदेवहि पडी। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०) पच्चकखाण अभिधानराजेन्द्रः। पच्चक्खाण भृतीनां मध्यमानां द्वाविंशतितीर्थकृतां चत्वारो यमाः, मैथुन. तथा-" बटुजतं" इत्यादिकस्थाने तु नास्ति, तदा पारणको. व्रतवर्जाणि शेषाणि चत्वारि महाव्रतानीत्यर्थः। तेषां मैथुनस्य तरपारणकयोश्चैकाशनं विनाऽपि "भतं" इत्यादि प्रत्यापरिग्रहेऽन्तर्भावविवरणात्-"नापरिगृहीता स्त्री परितुज्यते" ख्याति, तत्र को देतुरिति प्रश्ने, उत्तरम्-यदेकाशनकसहि. तिन्यायात् । आं० म०१०१खराम । तोपवासं करोति तदा "सूरे उगए चउत्थभतं अभत" (२३) साम्प्रतं प्रत्याख्याता उच्यते प्रत्याख्याति पुनरेकाशनकरहितं करोति तदा "सूरे उम्गार अभत्त"प्रत्याख्यातीगविच्छिन्न परम्परा हश्यते । षष्ठप्रमुम्नप्र. पञ्चक्खाएण कया, पच्चक्खातिए वि सूत्रान। स्याख्याने तु पारण के उत्तरपारणके बैकाशनकं करोति,मधवाउभयमवि जाणगेअर, चउजंगो गोणि दिलुतो ॥६॥ न करोति तथापि"सूरे उम्गए हभ भभत्त" इति मूलगुण उत्तरगुणे, सन्चे दैसे अ तह य सुद्धीए । कथ्यते,तदकराणि तु श्रीकंल्पसून सामाचारीमध्ये सन्तीति बो. पच्चक्खापविहिन्न, पञ्चक्खाया गुरू होइ ।। ६६॥ ध्यम । ५० प्र० । सन०४ उल्ला० । केचन वदन्ति-नमस्कारस. हितप्रत्याख्याने दिते सूर्ये भोक्तुं करपते,योगशास्त्रे त्वह्रो मुखे. प्रत्याख्याता गुरुः, तेन प्रत्याख्यात्रा कृता प्रत्याख्यापयित. ऽवसाने च घटिकाध्यमध्ये भोक्तुं न कल्पते, घटिकाध्यमारयपि शिध्ये सुचा उद्विगना। न हि प्रत्याख्यानं प्रायो गुरुशिष्या.. म्भोऽपि किं प्रातः कररेखादर्शनात् नत सूर्योदयत इति ? प्रश्ने. चन्तरेण संभवति । अन्ये तु-"पच्चक्खाणेण कयं" इति पन्ति, उत्तरम--नमस्कारसहितप्रत्याख्या सूर्यादारभ्य मुहर्साभ्यन्तरे नत्पुनरयुक्तम्। प्रत्याख्यातुः नियुक्तिकारेण सातादुपस्यस्तत्वात्। प्रत्याख्यान जङ्गभयाद्भोक्तुं न कल्पते, " उग्गए सूरे नमुक्कारस. सूत्रानुपपत्तेः प्रत्याख्यापयितुरपि तदन्तरङ्गत्वादिति । अत्र च हि पच्चक्खामि " इत्यादि सूत्रव्याख्याने, योगशास्त्रवृ. झातयंशातिरेय चतुर्भङ्गो भवति । तत्र चतुर्भझे गोडधान्त ज्यादौ च तथैव दर्शनादिति । १६१ प्र० । सेन०३ उल्ला । मुन्कइति गाथासमासार्थः ॥ ६५ ।। भावार्थ तु स्वयमेवाऽऽह मश्रावका नमस्कारत्रयेण नमस्कारिकाऽऽदिप्रत्याख्यानं पारय. मलगुणेषु उत्तरगुणेषु च (सव्वे देमे य प्ति)सर्वमूल गुणेषु दे स्ति, तदकराणि वसन्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-मुत्कल श्राका न. शमूलगुणेषु च, एवं सर्वोत्तरगुणेषु देशोत्तरगुणेषु च । तथा मस्कारत्रयेण नमस्कारिकाऽऽदिप्रत्याख्यानं पारयन्तीत्यवति. च हो षड्डिधायां श्रद्धानाऽऽदिलक्षणायां प्रत्याख्यानविधिज्ञः नपरम्पराऽस्ति, परमेतदकराणि कुत्रापि दृष्टानि न स्मरन्तीति ! अस्मिविषये प्रत्याख्यानविधिवेत्तेत्यर्थः, प्रत्याख्यातीति प्रत्या. ३ प्र०। सेन०३ उल्ला त्रिविधाऽऽहारप्रत्याख्यानवतां श्राद्धानां ख्याता गुरुभवति आचार्यों नवति । इति गाथार्थः ॥६६॥ रात्रौ यत्तचित्तजलपान तम्कि ग्रन्थस्थमुत परम्परागतं, तत्र किइकमाइविहिन्नू, उवोगपरो असढभावो । कया युक्त्या दिवसे सचित्सजलं न शुध्यति, रात्रौ च शु. संविग्ग थिरपश्नो, पच्चक्खावितो जाषियो ॥६७॥ यतीति प्रश्ने, उत्तरम-दिवससंबन्धी विविधपत्याख्याने "त. इत्थं पुण चननंगो, जाणगे इअरम्मि गोणिनापणं । ह तिविहं पच्चक्खाणे नष्पति अपाणगस्स श्रागारा" इ ति वचनातू " अपाणस्स" इत्युच्चारो भवति । तथा च सुखासुखा पढम-तिमा न सेसेसु अविनासा ।। ६७॥ प्रासुकमेव जलं करपते, रात्रिकत्रिविधाऽऽहारप्रत्याख्याने तु कृतिकर्मादि विधिका वन्दनाऽऽकाराऽऽदिप्रकार इत्यर्थः। "पाणस्स" इत्युच्चारानावात्सचित्तजल मपि कल्पत इति । उपयोगपरश्च प्रत्पाख्यान एवोपयोगप्रधानश्च, अशवभावश्च, १८२ प्र०। सेन० ३ नखा। चम्पकाऽऽदिपुष्पवासितवारिसक. रूचित्तश्च, संविक्षो मोवार्थी, स्थिरप्रतिज्ञः न भाषितमन्यथा मावस्तु प्रत्याख्यानवतः श्राद्धभ्य पातुं कल्पते, न वेति प्रश्ने, करोति । प्रत्याध्यापयतीति प्रत्याख्यापयिता शिष्य एवंनृतो उत्तरम-सकलाईवस्तुप्रत्याख्यानवतस्तद्वारि कल्पते पातुमि. भवितस्तीर्थकरगणधरैरिति गाथार्थः॥६७॥ "पत्थ पुण पच्च. ति । २६० प्र० । सेन० ३ उल्ला । योगशास्त्रतृतीयप्रकाशवृत्ती क्वायतस्स,पश्चरखावेतस्स य चचभंगो,जाणगस्स पचपखाश्य "शुचिः पुष्पामिपस्तोत्रैर्देवमयऱ्या बंदमनि।" इति १२५ श्लोक. सुद्धं पञ्चक्खाणं,जम्हा दो वि जाणति किमपि पश्चक्खायं नमो. व्याख्याने पूर्व गएडूपाऽऽदिकं कृत्वा पश्चात्प्रत्याख्यानं प्रोक्तमस्ति छारसहिय, पोरिसिमाश्यं वा जाणगो अजाणगस्स जाणवेडं तरकमिति प्रश्ने, उत्तरम-योगशास्त्रे शुचिन्नवनप्रकारो लोकप्र. पञ्चक्खाइ,जहा नमोकारसहियादीणं अमुगं पश्चक्खायं ति सुकं, सिकोऽनुवादपरतया प्रोकोऽस्ति न ववश्यं विधेयतयेतिप्रत्या. चहा असु । अयाणगो जाणगस्स पच्चक्खा सुद्धं, पहुसं. ख्यानवतां गण्वपकरण विनाऽपि देवपूजा शुद्ध्यतीति न कश्चि. निद्वादिसु विभासा-अयाणगो प्रयाणगस्स पश्चक्खा असुद्ध. द्विरोधः । २३५ प्र० । सेन. ३ उल्ला०, शुरुकाल वेलायां नम. भापत्य दिटुंतो गावीओ। जावि गावीणं पमाणं सामित्रो वि स्कारसहितप्रत्याख्यानं कृतं भवति । ततो घटिकाद्वयं गृह्यते, जाणद, गोवालो वि जाण, दोरहघि जाणमाणाणं भितीमोर्चा किंधा सूर्योदयाद् घटिकाद्वयं गृह्यते, तद् व्यक्त्या प्रसामिति मुहं सामिओ देह, श्यरोगेपद इहलोइए चउभंगो। एवं जाण. प्रश्ने, उत्तरम्-शुद्ध कालवेसायांनमस्कारसहितप्रत्याख्यानं कृतं गो जाणगेण पच्चवावे सुर, जाणगा अयाणगेण कारणेण भवति, तत प्रारज्य घटिकाद्वयं गृधने इति। ८६प्र0) सेन०४ उ. पचक्खावेतो सुको, निकारणेण सुज्का,अयाणगो जाणगेण प- खासा नमस्कारसहितप्रत्याख्यानस्य फलमधिकं भवति, न बेति छ खावेश सुद्धो, अयाण प्रो प्रयाणपण पथक्खाबेदम सुको प्रश्ने, उत्तरम्-नमस्कारसहित प्रत्याख्यामस्य जघन्यकामानं इति गाथार्थः ।। ६८ ।। प्राप०६०। घटिकाद्वयं कधितमस्ति । यदा नमस्कारं गणयति तदा प्रत्या. (२४) प्रकीर्णकवार्ताः. गयानं पूर्ण जयतीत्यपि कथितमस्ति, तस्माद् घटिकाद्वयस्योपरि कश्चित्पारणकोतरपारणकयोधकाशन विना "सरे उम्गए। यावत्कालमुपयोगवान् । सेन० । पापधिकश्राद्ध। द्विती. प्रभत्ता" प्रत्यायपाति, यदा पारणकोत्तरपारण कयोकाशन यदिने प्राभातिकप्रतिक्रमगो द्यशनादप्रत्याख्यानामबाऽऽगाम. करोति तदा "उत्यजतं "प्रत्याख्याति शति रीतिदृश्यते। विषयं देशाधकाशिकमपि कस्मान्न कुरुते, अथ प्रत्याख्यानसा Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चकखाण (११) अनिधानराजेन्रूः । वद्यारगामिनि कुबेलामा पिकस्य कथं कुर्यादिति ने उर्थव्यव परंपरेत प्रत्याक्षरावगतिरिति १३०० अफ कर्कटिकादीनि पीजी घरं प्रा सुकानि भवति तथा विविधदाद्विहित्वापनि नामेकाशनकमध्ये तानि कल्पन्ते, न बेति प्रश्ने, उत्तरम् - आमाफलानि निन्यपिडिया यतः कटा जीवस्तथैव तिष्ठति । तथा त्रिविधाऽऽरकाशनके न विहारकाशन केापे सचिनस्यायनांन कन्ले पककलात्रिवि धाऽऽहारप्रत्याख्यानिनां कल्पन्त इति । ७५ प्र० सेन०४ उद्वा०| अनशमिश्राद्धस्य त्रिविधाऽऽहारप्रत्याख्यानं कारयित्वा राम्र सुनपानीयपानेनाशनस्य दूषणं लगति न तिने उत रम्-तथा कारणेनानशनस्य दूषणं न लगतीति । १३७ प्र० । सेन०४ चल्ला० । प्र्यशनप्रत्याख्यानकर्ता वान्तौ जातायां द्वितीयचार न वेति प्रश्ने, उत्तरम् तस्मिन्नेव स्थानके स्थिते यदि त वारंभी कहते, नान्यथा चेति । १५८ प्र० । सेन० ४ उल्ला० । प्रथमदिने चतुर्विधाऽऽहारो वासं कृत्वा द्वितीयदिनोपचासमेकी कृत्य पाष्टमाssदिकं प्रत्याख्याति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - प्रथमदिवसे चतुर्विधारकोप वा प्रत्ययति, द्वितीय दिवसे ए तुम्। यदि द्वितीयदिने पहाऽऽवि निवासः कृतो युज्यते, ईदशी सामावास्तीति । १४१ प्र० । सेन० ४ उल्ला० । कश्चित्प्रातः कृतनमस्कारि कासहितप्रयाण्याना प्रतिलेखनाथ त्रिविधाऽऽहारक्यानं करोति, स संध्यायां किं वा प्रत्याख्यानं विधा तीति प्रश्ने, उत्तरम् एकाशनाऽऽद्य प्रत्याख्यानी, विहितप्र तिलेखनाविविश्वाऽऽहारप्रत्याख्यानी च संध्यायां पानकाऽऽ. हास्यानं करोति प्रतिलेखनाविहारा वानस्तु चतुर्थिवाद्वारापाण्यानं करोतीतिपरम्पराऽस्ति । १६६० से०४ पानीयं त्रिविधाऽऽद्वारा पानितां पातुं शुद्धयति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - त्रिविधाढाप्रत्याख्यानिनां तत्पानीयमानं शुद्धयति, परमात्मनामाचरण नास्तीति १६ प्र० । सेन०४ उल्ला ०। तथा केनचित् श्राकेन योजनता पर गमनस्यास्यानं कृतं तस्य धर्मधमधिगन्तु कल्पते, न वा, यदि गच्छति, तदा केन विधिनेति प्रइने, उत्त. रम- प्रत्याख्यानकरणसमये विवेको विलोक्यते, तेन प्रायो मुख्यवृत्या प्रत्याख्यानं सांसारिकाऽऽरम्नस्य भवति, न तु धर्मकृ त्यस्य यदि च सामान्यतः कृतं तदा नियमित क्षेत्रोपरि यतनया गच्छति, तत्र च गतः सांसारिककृत्यं न करोतीति । ३६३ प्र० । सेन० ३० । पचविकृतिप्रत्याख्यानिना विकास गुरुमिश्रित चूरिमकं कल्पते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - पञ्चविकृ द्विचकानन्तरं गुरुमिश्रितं कल्पते इति । ३६ प्र० । सेन० ३ चा । येषां काि तिम्रस्यास्यानं भवति तेषां मोलिया खतालिका दिकं कल्पते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - - मोलियाख्यतैलविकृ तिनं भवति तत्र तेननिष्य पकानाऽऽद्यपि बिकृति भवतीति सेन० | मनुष्य सोकाद् बहिः क्वचिद्वात्रिरेव क्वचिद्दिवैव । कालप्रत्याख्यानं रात्रिभोजन्प्रत्याख्यानं च घटते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - मनुष्यलोका बहिष्कारप्रत्याख्यानं रात्रिभोजनप्रत्या तत्र पचवायभंग - व्यानं वेदत्यापेक्तया सम्यक्काल स्वरूपपरिज्ञाने भवत्यन्यथा तु संकेत प्रत्याख्यानमिति । १२५ । प्र० सेन ०१ उद्घाol जिनाऽऽलये प्रस्थावान पारवितुं यति न वेति प्रश्ने, उत्तरम् ति संप्रदाय इति । १०४ प्र० । सेन० २ उल्ला० । यावज्जीवं रा त्रौ चतुर्विधाऽऽहारप्रत्याख्यानवतः स्त्रीसेवने भङ्गो, न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - स्त्रीसेवने श्रोष्ठचुम्बने सति प्रत्याख्यानभङ्गो भवति, नान्यथेति श्राद्धविधिवचनादिति । २२० प्र० सेन० ३ उद्घा० । चतुर्दशनियमेषु द्विवाऽनि सचितानि प्रातः प्रायानं कि यमाने मुत्फलानि रक्षितानि तान्यहन्येव सांप पू. पीतानि अथ रात्री तेषां कार्ये समुत्पप्रमाणा दप्यपराण्यादातु कल्पन्ते न वेति प्रइने, उत्तरम् - श्राकानां चतुर्दशनियमेषु द्वित्राऽऽदीनि सचित्तानि प्रातः प्रत्याख्यानसम spiraधमुत्कलानि रक्षितानि भवन्ति, तदा तावतां दि वा परिनोगे रात्राधिकानि कल्पन्ते यहिच संध्यावप्येव तावन्ति मुलाने रक्षिताना रात्राधिकानि कप न्ते इति । ४११ प्र० । सेन० ३ उल्ला० । विषयसूची ( १ ) प्रत्याख्यानमधिकृत्य द्वारगाथा | ( २ ) प्रत्याख्यानशब्दै कार्यः । (३) द्रव्यप्रत्याख्यानम् । (४) यानम् । ( ५ ) भावप्रत्याख्यानम् । (६) ज्ञानप्रत्याख्यानस्य श्रुतप्रत्याख्याननोश्रुतप्रत्याख्यानेन विश्य तोतादादरम् (७) श्रावकधर्मः । श्रावका अष्टविधाः, तेऽष्टौ भेदावि भज्यमाना द्वात्रिंशतश्च । यति गृहस्थयोर्भेदेन प्र व्याख्यानम् । गृहिप्रत्याख्यानस्याद्यं जङ्गमाश्रित्य त्रैलिकप्रत्याख्याने." तिविद्धं तिविदेणे इत्यत्र चा क्षेत्र परिहारौ च । 33 (८) येन श्रान प्रत्काले न प्रत्याख्यातः स पश्चात्काले प्राणातिपातं प्रत्याचक्षाणः किं करोतीति प्रश्नः । बारमेपणा, सोरादिना विति त्तिश्च । प्रत्याख्यानस्य दशविधत्वम् । (ए) भाषाः प्रत्याख्यानं कदा गृह्णन्ति । (१०) पानविधी दानविधिः । ( ११ ) धर्मकथा मन्थनिमयित मिथ्यात्वजावाश्च भव्याः गु ऊं प्रत्याययानं प्रपद्यन्ते । (१२) द्विविधा प्रोचरम् । (१३) सामायिके सयाहारस्यायनेन किम्? दार प्रत्याख्यानवर सामायिके आकराः किमिति नोकाः?, अत्रोत्तरम् । निदर्शनतः सामायिकमाकाराणामविषयः । (१४) अथ कोऽपि या विद्यमानार्थ विषयमेव प्रत्याख्या नमुपपद्यते निफिया (१५) म्यानपानपारेसानमेव विधीयमानयो प्रतिविधीयते । (१६) अव्यक्तज्ञानोऽपि पापः । तेनाऽपि प्रत्याख्यातव्यस्वप Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२०) अन्निधानराजेन्दः। पच्चक्खाणनंग पञ्चक्खाय संकिष्टान्ती च । अप्रत्यानयानिनः संसारमवग इमा अभिक्खाऽऽसेवा-- ग्य संजातवैराग्यइचोदकः सूरि प्रति पृष्ठति । सकिनंजणम्मि बहुओ,मासो वितियाम्मि सो गुरू होति । (१७) जीवाः किं मूलगुणप्रत्याख्यानिनः १, इत्यादि । (१८)सूलगुणप्रत्याख्यानादिमवामपत्यादि। मुत्तणिवातो ततिए, चरमं पुण पावती दसहिं ॥१२॥ (१९) जीवाः प्रत्याख्यानिनोऽप्रत्याख्यानिनो वा। सगिति एकस्सि भजमाणस्स मासलाई, एस्थ सुत्तणिया(२०) प्रत्याख्यानं पर्वदि कथनीयम् । तो, चउत्थवारे चउगुरुं, पंचमबारे छटुबारे सत्तमबारे छेभो, (२१) प्रत्याख्यानविधिः। अहमधारे मूलं, नवमे मणबई, इसमवारे चरिमं पारंचीत्यर्थः। (२२) प्रत्यासयानफलम् । माणाइया य दोसा। (२३) प्रत्याख्याता । (२४) प्रकीर्णकवार्ताः। अप्परचो भवमो, एसगदोमोय अदढयो धम्मो । पच्चक्खाणकिरिया-प्रत्याख्यामक्रिया-खी । क्रियाभेदे, (प्र. माया य मुसावाभो, होति पइसापनोए य ॥ १३ ॥ त्याख्याननिकेपः 'पञ्चक्लाण' शम्देऽनुपदमेव गतः) जहा एस नमोक्कारा मंजइ तहा मूलगुणपञ्चक्वाण पि मूझगुणेमु य पगय, पनचक्खाणे इहं अधीगारो। नंजपवं अगीयगिहत्थाण य अप्पच्चयं जाणशवर्यते येन स होज्जहु तप्परचया, अप्पच्चक्खाणफिरियाओ। वर्णः, तत्प्रतिपक्कः अवर्णः । सो अपणो साहणं च, पथक्वाण भंगेण सगेण मूलगुणे विभंजपच्चक्खाणधम्मे समणधम्मे मूलगुणाः प्राणातिपातविरमणास्तेषु, प्रकृतमधिकारः, प्राणा बा अदढतं कयं भव, अन्नं पश्नं पविजद अन्नं पा करे। तिपातादेः प्रत्याख्यानं कर्तव्यमिति यावत्। वह प्रत्याख्यान त्ति माया, अनं जास अनं करे। ति मुसावाश्रो । पते दो वि क्रियाऽध्ययनेनार्थाधिकारः,यदि मूलगुणप्रत्याख्यान न क्रियते त. जुगनओ लब्जति । पोरिसिमाइए पन्नापयलोबो कमो भवर, त्रोपायं दर्शयितुमाह-प्रत्याख्यानाभावेऽनियतत्वाद्यकिञ्चनका. एसा संजमविराहणा, पच्चक्खाणं तुंज ति देवया पपु. रितया तत्प्रत्ययिका तनिमित्ताभावामुत्पद्यतेऽप्रत्याख्यानकि घा खित्ता करेज । या सायद्यानुष्ठानक्रिया तत्प्रत्यधिकश्च कर्मबन्धस्तन्निमित्तश्च कारणे पुण अपुग्ने वि काले जइ । संसार इत्यतः प्रत्याख्यानक्रिया मुमुकणा विधेयेति । सूत्र० २ श्रु० ४ ० । द्वितीये श्रुतस्कन्धे सूत्रकृतश्चतुर्थे ऽध्ययने , वितियपदमा पज्के, हुंजे अविकोविते च अप्पज्के । प्राच०४०। कतारोऽपगिलाणे, गुरू णिोगा य जाणे वि ॥१४॥ पच्चक्खाणज्यण-प्रत्याख्यानाध्ययन-न० । प्रत्याख्यानप्रति- खमणेण खामियं वा, णिन्बीयति सुन्यले वि नाऊणं । पाद के श्रावश्यकश्रुतस्कन्धस्य षष्ठे ऽध्ययने, प्राव० ५ ०। नस्सूरे वा सेहो, मुक्खमवाई व विनरंति ।। १५ ॥ श्रा० चू। श्रणपके सेहो वा अजाणतो मुंज नत्थि दोसो। कंतारे तिपञ्चक्खाणपोसहोववास-प्रत्याख्यानपोषधोपचास-पुं०। पौ अडाणपमिवनस्स पचपखाए पा भत्तं पप्पणं, रं व रुष्यादिविषयप्रत्याण्यानपर्वदिनोपचासयोः, भ०७ श०६ उ० गंतव्वं । अंतरे य भत्तसंभवो नस्थि, एवं तुजतो सुद्धो । पचक्खाएप्पवाय-प्रत्याख्यानपवाद-म०। प्रत्याख्यानं सप्र. श्रोमे विकलं म भविस्सर ति साहारण मुंज । गिलाणो भेदं यद्वदति तत्प्रत्याश्यामप्रचादम । नवमे पूर्वे, “पखा . बि बिगश्माश्पच्चक्खायं विज्जुबएसा मुंजाइ । अग्गियगवाहि णपुवस्स णं वीसं वत्यू पत्ता।" पदपरिमाणं चास्य ए वा राओ मुंज । पायरिोबएसेण घा तुरियं कहिं वि गं. काकोटिरशीतिश्च पदसहस्राणि । नं। आचास. तवं, तत्थ पोरिसिमाइ अपुष्प नोतुं गच्छ । बमओ वा मा. साइखवणे कते अईव किलतो अपुले चेव मुंजाविज। पु. परचक्खाणनंग-प्रत्याख्यानजङ्गा-पुं० । प्रत्याख्यानं गृहीत्वा वलसरीरस्स वा विगइपच्चक्खाणे विग दिज्ज। उक्सरे प्रत्याश्यातप्रतिसेवनातो भजने, नि. चू०। सेहो दुक्ख गमिस्सा ति कार्ड नमोकारे वेब वितरति, जे भिक्खू अतिक्खणं अजिक्खणं पञ्चक्खाणं, भंजइ स्त्रीराच्या चा विणासि दव्वं चिरकालमहाहि अपने पोरि सिमाश्पच्चक्त्राणे णमोकारो चेव वितरति । नि० ० १२ जंतं वा साइज ।।३॥ उ० । प्रातः प्रतिक्रमणे तपसः कायोत्सर्गमध्ये उपवसायअभिक्खणं नाम पुणो पुणो, नमुक्कारापच्चक्वाणं भंजं. मुकं तपः करिष्ये, ईदशं विचिन्त्य कायोत्सर्ग पारयति, पश्चातस्स चल हुं, प्राणादिया य दोसा। स्कस्यचिदाप्रदारुिचन्तितादभ्यं तपः करोति , तस्य प्रत्याश्या. मो सुत्तफासो मजङ्गो लगति, न बेति प्रश्ने, उत्तरम्-प्रत्याण्यानभङ्गो लग. पच्चक्खाणं जिक्खू, अभिक्खणाऽऽउट्टियाय जो मुंजे।। तीति । ८६ प्र०। सेन० २ उल्ला० । उत्तरगुणणिप्फा, सो पावति प्राणमादीणि ॥ ११ ॥ पच्चक्वाणविहिा-प्रत्याख्यानविधिक-त्रि । प्रत्याख्यानपाउहिया नाम प्राभोगो,जानान इत्यर्थः । नमोकाराई सत्ता विधिवेत्तरि, आव० ६ ०। रगुणपखाणं, पंच महेन्वया मूझगुणपच्चक्खाणं। इह उत्त पञ्चक्खाणापञ्चक्खाणि (ए)-प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानिन्.रगुण पच्चक्खाणणाहिगारो । पु० । देशविरते भ०६ श०४०। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२१) पच्चक्खाणावरण अभिधानराजेन्डः। पच्चभिराणा पच्चक्खाणावरण-प्रत्याख्यानावरण-पुं०। प्राडो मर्यादेषद पच्चक्खायपावग-प्रत्याख्यातपापक-त्रि०। प्रत्याख्यातं निरा. यस्वाद बासर्वविरतिप्रत्याख्यानमर्यादया अथवा-ईषत्सायद्य. | कृतं पापकं सावद्यानुष्ठानं येनासौ प्रत्याख्यातपायकः। सत्र.१ योगानुमतिमाविरतिरूपं प्रत्याख्यानमावृण्वन्तीति प्रत्याख्याना. श्रु० ८०। पापकर्मप्रत्याख्यातबत्ति, भौ०। चरणा इति व्युत्पत्तेःविशे० । "सर्वसावविरतिः, प्रत्याख्या. पच्चक्खावितअ-प्रत्याख्यापयित-त्रि० । प्रत्यास्यापयतीति ममिहोच्यते । तदाबरणसंज्ञात-स्तृतीयेषु निवेशिता ॥१॥". प्रत्याख्यापयिता । प्रत्याख्यानकारयितरि,बाब० ६ १०। त्युक्तस्वरूपेषु क्रोधाऽऽदिक.पायेषु,कम०१ कर्म। दर्शा विशे। पच्चक्खि-(ण)-प्रत्यक्षिन्-त्रि० । प्रत्यक्झानिनि आगमव्यर. पञ्चक्खाणावरणणामधिज्ज-प्रत्याख्यानाबरणनामधेय-त्रि० । हारिणि, व्य. १ उ.। प्रत्याश्यानं सर्वबिरतिलकणं, तस्यावरणा पतदेव नामधेयं येषां ते प्रत्याख्यानाऽऽधरणनामधेयाः। प्रत्यास्यानावरगाशब्दा. पच्चक्खीनुय-प्रत्यक्षीनुय-अव्य० । सावाकानविषयतां भिधेयेषु, विशे। प्राप्येत्यर्थे, प्रा. म. १ भ०२सएक। पच्चक्खाणि (प)-पत्याख्यानिन-त्रि०। सर्पविरते.भ. पञ्चक्खय-प्रत्याख्यय-त्रि० । प्रत्याण्यानविषये घस्तुनि, प्राश०४०। घ०६ अ०। पच्चक्वाणी-प्रत्याख्यानी-स्त्री० याचमानस्य प्रतिषेधवचने, पञ्चग्ग-प्रत्यग्र-त्रि०ानबीने, “पश्चगं अहिणवं च सन्जुषं।" ध०३ अधि. याचमानस्यादित्सा मेऽतो मा याचस्वत्यादि पाइ० ना० १६२ गाथा । प्रत्याख्यानरूपायां भाषायाम् , भ०१०श.३० । संथा। पच्छिम-पाश्चात्य-त्रि० । पश्चिमभागधतिनि, भ. १६ श० ३०। पच्चखानास-प्रत्यक्षाजास-पुं० । प्रत्यक्कस्य स्वरूपाभासे, पच्चच्छिमा-पश्चिमा-स्त्री० । दिग्भेदे, स्था० १००। रत्ना । सांव्यवहारिकप्रत्यक्षाभासं तावदाहुः पञ्चच्छिमुत्तर-पश्चिमोत्तरा-स्त्री० । दिग्भेदे, स्था० १००। पच्चम-क्षर-धा० । संचलने, “क्षरः खिर-झर-पज्झर-पच. सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमिन यदाभासते तत्तदाभासम् ॥२७॥ म" | 511१७॥ इत्यादिना क्रधातोः पपडाऽऽदेशः। "ए. सांव्यवहारिकप्रत्यकमिछियानिन्जियनिबन्धनतया द्विप्रकार उचड" करति । प्रा०४ पान । मागुपवर्णितस्वरूपम् ।।२७।। पच्चए-गम्-था।" गमे अई-प्रश्णु वजायज्ञप्तोषकुसा. माहरन्ति पकुलपच्च० "HE४।१६२॥ इत्यादिना गमधातोः पचडा. यथाऽम्बुधरेषु गन्धर्वनगरज्ञान,दुःखे मुग्वज्ञानं च ॥३०॥ देशः।" पच्चमुर । गब्यति । प्रा० ४ पाद । अत्राचं निदर्शनामनियनिबन्धनाभासस्य, द्वितीय परर. पच्चड़िया-प्रत्यधिका-स्त्री० । मल्लानां करणविशेषे, विशे। निन्छिपनियन्धनानासस्य । अवग्रहानासाऽऽदयस्तु तद्भदाः प्रा०म० । स्वयमेव प्राविझेयाः ॥ २८ ॥ पच्चनुजवमाणु-मत्यनुजवत-त्रि०। प्रत्येक वेदयमाने, जी. पारमार्थिकप्रत्यकानासं प्रादुकुर्वस्ति ३ प्रति०१ अधि०२ 801 रा पच्चाजयमाणे विहरद।" बि. पारमार्थिकप्रत्यक्षमिन यदाभासते तत्तदानासम् ।।३।। पा०१ श्रु०१०। स्थान(इटानिष्टाऽऽदिषु दण्मका 'बीई चयण' शब्दे यक्ष्यते) पारमार्थिकप्रत्यकं विकासकलस्वरूपतया द्विनेदं प्रागुक्तम् ।२९॥ उदाहरन्ति पच्चस्थि (ए)-प्रत्यर्थिन्-त्रि० । भर्थिनः प्रतिकूले, यः पर. स्य गृहीत्या न किमपि प्रयच्छति । व्य०१ उ० पा० ना० । यथा शिवाख्यस्य राजर्षरसंख्यातद्वीपसमुपु सप्तद्वीप-परचस्थिय-प्रत्यर्थिक-पुं०। प्रत्यनीके प्रतिवाधाऽऽदी, व्य. १ समुज्यानम् ।। ३०॥ जानि० चू०। शिवाऽऽख्यो राजर्षिः स्वसमयप्रसिद्धः, तस्य किन विना पच्चत्वय-अत्यवस्तत-न.1 आच्छादिते, जी. ३ प्रति०४ अपरपर्यायमयध्याभासं तादृशं वेदनमाथिर्ववेत्याहुः सैद्धा धिः । पुनःपुनराच्यादिते, शा० १ श्रु.७० अ। न्तिकाः । मनःपर्यायकेवलज्ञानयोस्तु विपर्ययः कदाचिन्न संभ. वति, एकस्य संयमविभिप्रादुतत्वात्, अन्यस्य समस्ता पच्चापण-प्रत्यपेण-10 । निवेदने, विशे० प्राचा। वरणक्षयसमुत्थत्वात् । ततश्च मात्र तदाभासचिन्ताऽवकाशः पचविणमा-प्रत्ययत-पि० । आविष्टकार्यसंपादनेन नि. ॥३०॥ रत्ना०६ परि। बेदने, स्था० ५ ठा०२ उ० । गाभ०। प्राचा। पच्चक्खाय-प्रत्याख्यात-त्रि.1 निराकृते, सूत्र०१ श्रु0001 पच्चन्नाम-प्रत्याच्यास-पु. । प्रत्युच्चारणे निगमने, विशे०। नयामत, सूब० २ पच्चजिया-प्रत्यभिज्ञा- स्त्रीस पवायमित्याकारे ज्ञाने,विशे। क्षु० ४ ०. प्रत्यभिज्ञाप्रामाण्यमप्रत्याख्यात-त्रि० । प्रत्याख्यातरि, "पशखाएण कया यद्यपिपवखावित्तए।" प्राव०६म.। "प्रत्यक्ताऽऽरनुस्पतिः, प्रमाणाभाव उच्यते । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चभित्ता अग्निधानराजेन्द्रः । पञ्चनिस्मानास साऽऽत्मनोऽपरिणामो वा, विज्ञानं वाऽन्य वस्तुनि ॥ १॥" इति । अनेकदेशकालावस्थासमन्वितं सामान्यं, अध्या सेति प्रत्यक्काऽऽधनुत्पतिः, श्रात्मनो घटाऽऽदिग्राहकनया प. दिकं च वस्त्वन्यत् प्रमेयमित्यपूर्वप्रमेयसद्भावः । तदुकम्रिणामाभावः प्रसज्य पक्ष, पर्युदासपके पुनरन्यस्मिन्धटधि. "गृहीतमपि गोस्वाऽऽदि, स्मृतिस्पृष्टं च यद्यपि। विक्तताऽऽरूपे वस्तुन्य नावे घटो नास्तीति विज्ञानम्, प्रत्यभा. तथापि व्यतिरेकेण, पूर्वबाधात्प्रतीयते ॥१॥ चप्रमाणमभिधीयते । तदपि यथासंभवं प्रत्यक्ताऽऽधम्नर्गतमेव । देशकालाऽऽदिभेदेन, तन्नास्त्यबसरो मितेः । तथाहि-" गृहीत्वा वस्तुसङ्गावं, स्मृत्वा च प्रतियोगिनम । यः पूर्वमवगतो नांशः, स च नाम प्रतीयते ॥२॥ मानसं नास्तिताज्ञानं, जायतेऽकानपेक्कया ॥१॥" इती. इदानीन्तनमस्तित्वं, न हि पूर्वधियाऽऽगतम् ॥" इति । यमभावजप्रमाण जनि का सामग्री। तत्र च भूतादिक वस्तु । नम्व जिन्नाभिन्नवस्तुविषयो निबन्धन प्रत्ययःप्राप्ता, प्यत एव प्रत्यक्षेण घटाऽऽदिभिः प्रतियोगिभिः संसृष्टम, असंसृष्टं वा चैतत् । यतो न भिन्नत्वेन प्रत्यभिज्ञानमभिन्नत्वेऽपि न प्रमेयभेदः। गृह्यत ? । नायः पक्का-प्रतियोगिसंसएस्य नुतलाऽऽदिव. प्रत्यनिहास्यपदेशोऽप्यस्य भेदाऽऽलम्बनत्वमेव द्योतयति यतो नै. स्तुनः प्रत्यकेण प्रणे तत्र प्रतियोग्यभावनादकत्वेनाना- ककनकप्रमेयगोचराणां भिन्नप्रभातृसंघन्धिज्ञानानां प्रत्यभिति चप्रमाणस्य प्रवृत्तिविरोधात् । प्रवृत्ती वा न प्रामा एयं, प्र. व्यपदेशा.नापि सर्वथा जिनेषु घटपटाऽऽदिषु. न च कालस्याती. तियोगिनः सस्वेऽपि तत्प्रवृत्तेः । बितीयपक्षे तु-अभावप्र. न्द्रियवाद्भित्रकाकप्रमेयप्रत्यभिज्ञानेन प्रमेयाऽतिरेक इति वक्त. माणवैयय, प्रत्यकेगव प्रतियोगिनां कुम्नाऽऽदीनामभावप्रति. व्यमा यतो यद्यपि न कश्चित्तत्र प्रमेयातिरेकः, तथापि घटाss. पतेः। अथ न संसृप नाप्यसंस्ष्ट प्रतियोगिभितलाऽऽदिवस्तु दया कदाचिउपलविताकारा अन्यदाग्नुपल कमाणाः सदसप्रत्यक्केण गृह्यते, वस्तुमात्रस्य तेन ग्रहणान्युपगमादिति चेत्। तया संदेहविषयतामापद्यन्ते,तत्स्वभावावधिका च प्रत्यभिशा तदपि उपम, संसृष्टत्वासंघयत्ययोः परस्परपरिहारस्थितिरूप- सेणं संदेहविषयतामपाकुर्वाणा प्रमाणतामनुने, यतो न विष. स्वनै कनिषधेऽपरविधानस्य परिहर्तुभशक्ययात्, इति सद. यातिरक व प्रामाण्यनिवन्ध प्रत्ययानां, किंतु संदेहापाकसदूपवस्तुप्रणप्रवणेन प्रत्यकणवायं वेद्यते । कचित्तु तर घट रणमपि संदिग्धस्य । यदा स्वावरतोपलब्धिसन्तानः पुनः पुनरमृत मिति स्मरणेन, तदेवेदमघट नुनलमिनि प्रत्यभिज्ञानेन नेन संदेहमा प्रत्यभिज्ञायन्ते मावास्तदा संदेहविन्दाधिक. "योऽग्निमान भवति, नाऽसौ धूभवान्" इति तण, "नात्र धृ. फवाभावान्मा प्रत्यभिज्ञाप्रमागाम। नव मधिकरपकमेव कं प्रमोऽनग्नेः"इत्यनुमानन,गृहे गगा नास्तीत्यागमेनाभावस्य प्रतीत: त्यमिक्षाज्ञानम्। अविफल्पकस्याप्यत्वग्राहिणः प्रत्यभिज्ञाज्ञानकाभावः प्रमाणे प्रवर्नताम् ? संभवोऽपि समुदायेन समु. स्य सद्भावात्। तपाहि-एकप्रमातृसंबन्धिाथनप्रत्ययानिविप. दाविनाऽवगम इत्येवल कणः ॥ संभवति खायी कोणः' यानारा तुजवतोऽद्यार्या चिकटपकं ज्ञानमनुनयन एव, एकत्यग्राहिच झान प्रत्यभिज्ञाशानच्यत इति कणिकानिध्यइत्यादिनानुमानास्पृथकातयादि-खारी द्रोणधती, सात्वात्, क्तिप्यपि शब्दमानास्वालोचनाप्रत्ययावगतमेव स्थैर्य, स एवापापसावधखारोवत । ऐतिचं स्वनिर्सिएप्रवक्तृप्यादपारम्पमि. नी होचुवाः । यधा-" बटे यकः प्रतिवसति " इति । यमित्य नन्तरम नुसंधान विकल्पोत्पत्तिदर्शनात। तथाहि-अर्थतप्रमाणम् , अनिर्दिष्टप्रवक्तृकस्थेन सांशयिकत्वात, भाप्तप. संसर्गानुमारियोऽनुभवा उपजातानीलविकल्पास यापाराऽनु. वक्तृ कस्पनिश्चये स्वागम इति । यदपि प्रालिममन्निराब्द सारिणो यथा नीलानुभवव्यवस्वा सांगतेभ्युपगता तथा पूर्णहएं व्यापारानपेक्कमकस्मादेव "अद्य मे मदीपतिप्रसादो नविता" पश्यामीत्युलेखवतोऽनुसन्धानविकल्पात्पूर्वदर्शनस्यानुद्यपश. ज्याधाकर स्पष्टतया वेदननुदयेन, तदप्यनिन्जियनिवन्धन ब्दावनालितः, तथा उनध्यधिगतिरूपत्वं विमिति न व्यवस्था तया मानसमिति प्रत्यक्षाकुकिनिक्षिप्तमेव । यत्पुनः प्रियाप्रिय. प्यते, पूर्वदृष्टमेव पश्यामीत्युलेखबानुपजायमानाय नुसंधा. प्राप्तिप्रभृतिफलेन सार्द्ध गृहीतान्यथाऽनुपपतिकान्मनःप्रसादो नप्रत्ययो न प्रत्यनिशा ध्यानामनुभवति । सम्मकाराम । गालिकादेति, तपिपीलिकापरतोत्सणोत्थज्ञान पदस्प पञ्चजिया नास-प्रत्यनिहाऽऽभास-पुं० । अयथार्थप्रत्याभयमनमानमेव । इनि न प्रत्यकपरोक्षलक्षण वैविध्यातिक्रमः झाने, रत्ना। शक्रेणापि कर्तुं शकरः ॥ १ ॥ रत्ना) २ परि० । तत्र प्रत्यभिज्ञाऽऽमासं प्ररूपयन्तिप्रत्यनिहाप्रामाण्यवाएडनम-न च प्रत्यभिज्ञानं प्रमाणम् । तत्र तुल्ये पदार्थे स एवायमिनि, पकमिश्च तेन तुल्य इत्यापाविज्ञानं, निश्चितं वाधवाजतम् । अgकारणारखधं, प्र. दिशानं प्रत्यभिज्ञानाभासम् ॥३३॥ भाग लोकमम्मनम् ॥१॥" इति प्रमाणाकणयोगात् । प्रत्यकंच प्रत्यभिज्ञानं हि नियंगृद्धनासासामाऽदिगोचरमुपवर्णित प्रत्यभिमेनिभाथसंबन्धानुविधान तम्त दम्पप्रत्यकपरिस- तत्र तिर्यकलामान्यालिडते भावे स एवामित ऊ ता नवनिकत्वाल पवायमित्यनुसन्धाना ऽशानस्य सामान्यस्यमाचे करिमन प्रव्ये तेन तुरुप इति ज्ञानम्, ग्राप्रन्यकत्वमयुक्त्तमिति वाच्यम् । सन्संप्रयोगजनकत्वन मरण दिशब्दावजातीयकमन्यदपि झानं प्रत्यांनशानातासामपधादाविनोऽप्यप्रत्ययस्य के प्रत्यकत्वेन प्रसिहत्वात ति॥३३॥ तंत्र-" हि स्मरगतो यमा प्रत्यक्षमितीरशम् । उदाहरन्तिवचनं राजकीय वा, लौकिकेनापि विद्यते ॥ १॥ यमनकजातनत ॥ ३४॥ नचापि स्मरणात्पश्चा-दिन्धियस्य प्रवर्तनम्। यमलकज्ञानयोरेकस्याः स्त्रिया एकदिनीम्पन्नयोः पयोमध्या. वार्थ के चापि, तत्तदानी प्रदुष्यति ॥ २॥ दक हितीयन तुलसोऽयमिनि जिज्ञाखिने स एवायमिति, तेनेन्डियार्थलंबन्धा-प्राग चापि यत् स्मृतेः। अपरत्र स एवायमिति युतुमने न तुल्पो ऽयमनि च विज्ञानं जायते सत्र, प्रत्यकमिति गम्यते ॥३॥" झानं प्रत्यभिज्ञानाभासन् ॥३६॥ रत्ना०६ परि Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमा अनिधानराजेन्द्रः। पच्चय पञ्चमाण-पच्यमान-त्रिका विपाकावस्थां प्राप्ते,उत्त० ३२०। मत्याकुलीकियमाणे, उत्त० २३ अ० । "णिरए रश्याणं, प्र. होणिस पच्चमाणाणं " सत्र १ श्रु०५ अ०१3०। पश्चय-प्रत्यय-पुं० । मवबोधे, स्था० १ ठा० । विश्वासे, बा. १४ वा व्या प्रतीतौ,अविसंवानिवचनत्वे, ज्ञा०१ श्रु०१ ० सर्वातिशयनिधानमतीखियाथै पदर्शनाव्यजिचारि चेदं जिन प्रवचनमित्येवंरूपायां प्रतिपत्ती,स०१० अङ्गा प्रत्यनिशानाऽदौ, विशे०। प्रत्यापयतीति प्रत्ययः । अन्तभूतण्यादप्रत्ययः । मा० म० १०१खएम। विशे० । प्रतीयने नेनार्थ इति प्र. त्ययः । कानकारणे, उत्त.१मा भने प्रव०। अथ प्रत्यय द्वारमाहपच्चयनिक्खेवो खबु, दयम्मी तत्तमाऽऽसगाई ओ। भावम्मि भोहिमाई, तिविहोपगयं तुनावणं ॥३१३१॥ कवानााण त्ति अहं, अरिहा सामाइयं परिकहे । तेसि पिपच्चो खलु सन्चएणू तो निसामिति ॥२१३शा प्रत्याययतीति प्रत्ययः, प्रत्ययनं वा प्रत्ययः, सनिकेपस्तन्न्यासः, बलुशब्दस्यापिशब्दार्थत्यान्सोऽपि सनिकेपः कारणानकेपव. श्रामस्थापनाऽऽदिभेदाचतुर्विधः। तत्र नामस्थापने प्रतीते । अव्ये अन्यविषयः प्रत्ययो शरीरभव्य शरीररूपः सुगमः। तद्यतिरि. क्तस्तु तप्तमा पकाऽऽदिः, आदिशब्देन घटतालचर्वणादिष व्यपारग्रहः । व्यं च तत्प्रत्यास्य प्रतीतिहेतुत्वात्प्रत्ययश्च द्र. व्य प्रत्ययस्तप्तमापकाऽऽदिरव, तजो वा प्रत्याग्यपुरुषगतप्रत्ययः। (नावम्मिति ) नावे जावप्रत्यये विचार्यवध्यादिस्त्रिविधी नावप्रत्ययः। अवधिमनःपर्यायकेवलज्ञानत्रयशकणो बालिकानपेत पत्र प्रत्याययति, अतस्ताधिकप्रत्ययत्वाद्भावप्रत्ययत्रिविध इत्यर्थः । मतिधुने तु बाह्य बङ्गं करणमपेक्ष्य प्र. त्याययतः, न साकादू, अतःकिलात्र न विवक्षिते । प्रकृतं प्र. स्तुनोपयोगस्नु सामायिकमनो कृस्य भावेन भावप्रत्ययनेति । ।। २१३१ ।। अत एव केवल मान्यहमिति स्वकीयादेव केवला. कणाद्भावप्रत्यथादर्दन् साकादेव सामायिकार्थमुपलभ्य सामा. यिक परिकथयति,तेषामपि श्रोतृणां गणधराऽऽदीनां ताशेषसंशयपरिचिण्या सर्व ति प्रत्ययो बोधनिश्चयो भवति । ततो यस्मात्सर्वज्ञप्रत्ययाते निशमयन्ति श्रावन्ति सामायिकम्, श्रत पव यत्कैश्चिमुच्यते-"सर्वज्ञोऽसाविति तत्तकासेऽपि बुभुत्सुनिः। तज्ज्ञानविज्ञान-रहित गम्यते कथम् ?॥१॥" इत्यादि । तद् व्युदस्तं भवति । अन्यथा चतुर्वेदोऽमित्यादिलोकव्यवहारानुपपत्तेः। इति नियुक्तिगाथावयार्थः ॥२१३२ ॥ अथनाध्यम्दवस दो वा, दयण व दन्नपच्चो नेभो । तबिरीमो जाने,सोविहनाणाइ अोतिविहो ।२१३॥ प्रत्यय पुरुषल कास्त्र प्रत्ययः प्रतीतिव्यप्रत्ययः, तथा - म्यानमारकादेः, द्रव्येण वाघटाऽऽदिना प्रत्ययो व्यप्रत्ययो केयः। यस्तु ब याद् बाह्याभ्येण वा न क्रियते, किंतु तद्विपरीतस्तनिरपेक पत्र साकादुपलम्भान्द्रवति सभाधरूपः प्रत्ययो भावप्रत्यर : स वावधिमनःपर्यायके व सझाननेदास्त्रि विध इति । अने• •बजावप्रत्ययेनेहाधिकारः।। २१३३॥ तथा चाहकेवलनाणित्तएओ, अप्प चिय पञ्चओ जिणिंदस्स । तप्पच्चक्खत्तपत्रो, तत्तो च्चिय गोयमाईणं ॥१३॥ जिनेन्द्रस्य तीर्थकरस्य केवलज्ञानित्वात्सामायिकाथै साका. ঢথ্য কথন আমৰ মা নামঃ, কলকানাল। भावप्रत्ययावष्टम्भेनेष तस्य सामायिकप्ररूपणादिति । गौतमाss. दीनामपि श्रोतृणांतत एव केवलज्ञानलकणादायप्रत्ययात्सामायिकश्रवणमिति गम्यते । कुतः, इत्याह-तस्य फेवलज्ञानिन: प्रत्यक्षत्वं तत्प्रत्यक्कर,तस्मात् । वमुक्तंजवति-सर्वसंशयपरिच्छे. दादिना कैवलज्ञान्यसौ.इत्यनुन्नवप्रत्यकद्वारेणैव गौतमादयो. वगच्चन्त्येव, ततस्तेषामपि वस्तुनः केवलकामलक्षणभा. षप्रत्ययादेच सामायिकश्रवणं प्रवर्तत इति ॥२१३४।। भाह-ननु कथमवश्यादिरेव त्रिविधो भावप्रत्ययः यापता मतिभुते भपि प्रत्यायनकलत्या. कथं न भावप्रत्ययः इत्याहजेहादिय मिटुं, सामइयं तोऽवहाइविसयं तं । न तु मइसुयपच्चक्खं, जं ताइँ परोक्खविसयाई॥१३॥ गेन यस्मात्कारणाजीवपर्यायत्वात् जीवस्य चाऽमूर्तत्यादतीनियमिन्द्रिय विषयो न भवति सामायिकम् , इताष्टं तत्त. बेदिनां तस्मादयध्यादिकानानामेव तद्विषयः । मतिश्रुतप्रत्यकं तु न भवति, यद्यम्माते मतिभुते परीक्षार्थविषये, इन्छिय. द्वारेणैवोत्पत्तेरिति ।। २१३५।। अत्र प्रेरकः प्राहजुत्तमिह केवलं चे-व पच्चो नोहि-माणसं नाणं । पोग्गसमेत्तविसयओ, सामश्यावया जं च ॥१३६।। ननु योच, तर्हि जीवपर्यायत्वाइमूतत्वेन सामायिक केवनज्ञानस्यैव विषयः, अतस्तदेवैकं भावप्रत्ययो युक्तं, न त्वयधिमनःपर्यायाने, तयोः पुत्रमात्रविषयत्वात, रूपिद्रव्य. विषयवादित्यर्थः। सामायिकमपि पौलिक भविपति, न, इत्याह-यद यस्माच्चारूपता मूता सामायिकस्य, जीप. पर्यायवादित्युक्तमवति । २१३६ ॥ सरिराहजंलेमापरिणामो, पायं सामाश्यं जवत्थस्स | तप्पचक्खत्तणो , तेसिं तो तं पि पञ्चक्खं ॥११३७।। यद्यस्माद्भवस्थस्य जन्तोः संबन्धि प्रायोऽव्य लेश्या जनित एवं परिणामोध्यवसायः सामायिकम् । सिम्स्यालेश्यापरिणामोऽपि सम्यक्त्वसामायिकं भवति, अतस्तव्यवच्छेदार्थ न. वस्थग्रहराम । भवस्थस्याप्ययोगिकेवलिनोऽश्यापरिणाम. को अपि सम्यक्त्ववारित्रसामायिके भवता,ततस्तन्निरासाथै प्रायोग्रहण, यस्मात्यायो ऽव्यलेश्याजनित पव परिणामो जयस्थस्य सामायिकम्। (तो तंपि पच्चक्खं दि) ततस्तदपि सा. मायिकं प्रत्यक्कम । केषाम, इत्याह-(तसिं ति) तेषामधिमन:पर्यायकानिनाम् । कुतः, न्याह-(तस्पचक्खस उसिनासा दस्यले श्यानांप्रत्यक्त्वं तत्प्रत्यवत्वं,तस्माताप्रत्यकन्चात्। इद मु. कं भवति-अवधिमनःपर्यायानिनोऽपि सामायिकपरिणामजनकानि श्याच्याणि साकास्पश्यन्ति, ततस्तद्द्वारेण तजनितप. रिणामरूपं सामायिकमपि तेगं प्रत्यवमुच्यते । मतिश्रुते तु Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४) अभिधानराजेन्डः पञ्चय पच्चय साकान्न किञ्चित्पश्यत इत्येतायता दनं तयाविप्रत्ययत्वे मोक्तमिति ।। २१३७॥ एवमप्यन्यदनिष्टमुत्पादयन्नाह पर:श्रोहाइपच्चयं चिय, जड़ तं न सुयं पि पच्चो पत्तो। पच्चक्खनाणिवाज-स्म तेण वयणन सफेयं ॥१३॥ भनु याक्तन्यायेनावध्यादिज्ञानत्रयप्रत्ययमेब सामायिक, ततः शुतज्ञानमपि हन्तन प्रत्ययः प्राप्तः । मा प्रापत, कि नः कृयते ?, इति चेत् । उच्यते-तेन ततः प्रत्यकमवधिमन:पर्ययकेवबरूपं झाने येषां ते प्रत्यकज्ञानिना, तद्वर्जस्य तान्ब. ज्जयित्वा, अन्यस्य कस्यापि वचनं न श्रद्धेयं प्राप्नोति न चैतदस्ति, चतुर्दशपूर्वधराऽऽदिवचनस्य प्रमाणत्वेनोक्तस्वादिति॥११३८॥ अत्रोत्तरमाहमुयमिह सामइयं चिय, पच्चइयं जं तो य तब्बयणं । पच्चक्खनाणिणो चिय, पच्चायणमेत्तवावारं ॥२१३६।। भनु श्रुतं श्रुतकानं यस्त्रया गणधराऽऽदिसंबळं प्रत्ययत्वेन गो. पते, तदिह श्रुतमामायिकमेव, सामायिकहेतुत्वान. म पुनरयत्किञ्चित् । तच्च प्रत्ययिकं प्रतीयतेऽर्थो यस्मादसौ प्रत्ययोज्यपादिज्ञानत्रयसवणः, स प्रत्यायकत्वेन यस्यास्तीति तस्व. त्ययिकं , सर्वामिलाप्याथैगोचरं सर्वद्रज्यसर्वपर्यायविषयं धु. तज्ञानमित्यादिरूपेण केवलाऽऽदिज्ञानत्रयात्यारयं,न तु केवला. उदिज्ञानप्रयत्स्वयमेव तत्प्रत्यय इत्यर्थः, ततः कथमत्र भावप्र. त्ययत्वेन तदथिक्रियते? | अथ वचनरुप न्यभुतं स्वया प्रत्ययो भिधीयते । तदप्य युक्तम् । कुतः १, इत्याद (जं तओ य त. वयर्ण इत्यादि ) यतश्च तस्य प्रत्यक्तानिनो व्याख्याविधि. भवृत्तस्य वचनं तद्वचनम् । कथंभूतम् इत्साह-प्रत्यकज्ञा. न एव प्रत्यायनमात्रमेव पराधबोधनमानमेव व्यापारो य. स्य तत्प्रत्यायनमात्र व्यापारम् । श्रतः केवलि प्रयक्तत्वेन श्रद्धीयमानत्वात्तदपि प्रत्ययः, न तु केवनाऽऽदिवत्स्वयमेवेति।।२१३६॥ यद्येवं , तर्दि किमिह स्थितम् ?-कि श्रुतं सर्वथैव प्रत्ययत्वेन नेहाधिकर्तव्यम् ?, श्त्याहमोहाइपच्चओत्ति य, जणिए तो.तं पिपञ्चमोऽजिहियं । श्रोहाइतिगं च कहतदलावे पच्चोहोन्ना॥२१४०॥ ततस्तदपि श्रुतं प्रत्ययोऽभिहित प्रत्ययत्वेनानाधिकृतं नवति । किंसाका?, , सामर्थ्यात् । कथम् , इत्याशझ्याह-अव. भ्यादिविविधोत्र प्रत्ययोऽधिक्रियते इति भणितेऽर्थापतेःश्रुतम पि प्रत्ययो गम्यते, किं पुनस्तदन्तरेण नोपपद्यते । इत्याह-अ. स्यथा तदभावे श्रुताभाव अवश्यादिज्ञानत्रयमपि कथं प्रत्ययो भवेत्। इदमुक्तं भवति-अवध्यादित्रयं प्रत्यय इति अन्यश्रुतेनैव परस्य प्रत्यारपते, तदनावे स्ववष्यादीनि मूकत्वावात्मनः प्र. स्ययत्वं परस्य प्रतिपादयितुं न शक्नुयुः, न चाप्रतिपादितं तत् प्रत्ययत्वं सिद्ध्येत, अव्यश्रुतमपि चोपचारात श्रुतज्ञाने ऽन्तर्भचति । अतोऽवयादिप्रत्ययत्वसाधकत्वात श्रुतस्यापीह प्रत्ययस्वमवगन्तव्यमा उतं च-" सुयनाणे उनिउत, केवले तयणंतरं । अपणो य परेति च, जम्हा तं परिभावगं ॥१॥" इति । तदेवमवध्यादयतयः प्रत्ययाः साहापुमा, श्रुतप्रत्यबस्तु सामादभिहितः॥२.४०॥ अथवाऽन्यथा त्रयः प्रत्यया भवतीस्याहपाया गुरषो सस्थं,ति पच्चयावाऽऽदिमो चिय जिस्ता सप्पच्चक्खत्तणो, सीसाण उ निप्पयारो वि।२१४१॥ था इत्यथवा, आत्मा, गुरवः, शास्त्रम इत्येवं त्रयः प्रत्ययाः। तत्राऽऽदिम माथ पवामिल कणः प्रत्ययो जिनस्य,केलित्वेम स्वप्रत्यकत्वादू, पास्मावष्टम्नेनैव जिनः सामायिकं कथयती त्यर्थः। शिष्याणां तु गणधरतविण्यप्रशिष्याऽऽदीनाम, आत्मगुरुशास्त्रलकणस्त्रिप्रकारोऽपि प्रत्ययो बिकेय इति ।। ११४१ ॥ तत्र सर्वोऽपि प्रेक्षाधान 'युक्तमिदम' इत्यात्मना कात्यैव प्रायः सामायिकप्ररूपणश्रवणाऽऽदिकायें प्रवत्त इस्पारमप्रत्ययस्य शि. प्येष्यप्यस्तोति पश्चाद्वक्ष्यति, अतो यथा गुरुप्रत्ययस्तथा दिदर्शयिषुगणधरापेकं तावदाहएस गुरू सव्वा, पञ्चक्खं सबसमयच्छेया । भयरागदोसरहिओ, तद्धिंगानाचओ जं च ॥ २१४॥ अणुवकयपराणरगह-परो पमाणं च जं तिहयणस्स । सामाइयनबएसे, तम्हा सद्धेयवयणो त्ति ॥ २१४३ ।। गणधराणां तीर्थकरो गुरुः; ततस्ते तत्प्रत्ययत्वेन सामायिक हापयन्ति । किं विधिस्य ते तस्य प्रत्ययत्वमुपकल्पयन्ति, इत्याह-एषोऽस्माकं गुरुः सर्वज्ञः प्रत्यकमनुभवसिकः सर्वसंशयच्छेदा अपरं च भयरागद्वेषरहितोऽयं, शहापरिग्रहाल. मासन्निधानवदनकाऽऽदितछिङ्गाभावात्। ततः सर्वज्ञत्वाद, भयरागादिशेषरहितत्वाच्च नायमनृतं कदाचिदपि भाषने, अतः सामायिकोपदेशे भयवचन इति संबन्धः ॥ २१४५ ॥ तथा-छानुपकृत भास्मोपकारे निरपेक एर परानुग्रहपरः, प्रमा. पास सकल त्रिनुवनस्य यस्मासू,ततःप्तामायिकोपदेश अम्मा कं श्रद्धेयवचनः । एवं जम्बूप्रभवाऽऽदीनामपि शिध्यप्रशिष्याणा निजनिजगुरुयु संभवगुणोद्भावनपूर्वकं सामायिकश्रवणप्रत्या यत्वं भावनीयम् ॥२१४३॥ शास्त्रस्य कयं ते प्रत्ययत्वमवगम्य प्रवर्तन्ते ?, इत्याहसत्यं च सम्वसत्तो-बगारिपुवावराविरोहीदं । सव्वगुणाऽऽदाणफलं, सव्वं सामाइसऊयाणं ॥१४ा। शास्त्रं चेदं सर्वसम्योपकारि, तथा पूर्वापराविरोधि, सर्वगुण. ब्रहणफलं च सर्चमध्ये तलामायिकाभ्ययनम्, अतः प्रमाणम. स्माकम, इत्येवं शास्त्रम्य प्रत्ययत्वमवधार्य तच्छ्रवणे प्रवर्तन्ते शिष्याः। भार-ननु श्रुतस्य शास्त्रस्य प्रथममव कथं सर्वसवो. पकारकत्वाऽऽदीनू गुणान् शिष्या जानन्ति । सर्व शास्त्रं ज्ञात्वा जामन्तीति चेत् । तवयुक्तम्, श्रुते शास्त्रे ताप्रत्ययाध्यवसायस्य निष्फलत्वात्, तमन्तरेणापि तच्वणस्य प्रवृत्तत्वात् । नैतदेवं, यतो वर्णिकामा नहेतोः कियवपि शास्त्रं श्रुत्वा तद्गुणान्विन्दन्ति शिष्याः, ततः शेपं ऋगवन्ति, आदिवाक्याटु बा समुदायार्थ वा गर्वादियः श्रुत्वा अक्षुतेऽपि शास्त्रे तदुणान् कारखा तवणे प्रवर्तन्त इत्वदोष इति ॥ २१४४ ॥ अथ शिष्याणामात्मप्रत्ययत्वमाहबुज्कामो पं निजमिव, विमाणं संसयादनाबाओ। कम्मक्खोवसमत्रो,य होइ सप्पच्चो तेसिं॥१४॥ बुद्धधामहे संविज्ञानरूपतया सामायिकाध्ययनमवगच्छामः । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) अभिधानराजेन्द्रः । पच्चय किमिवेश्वाह निमिव घटादित्वात्यय आत्मप्रत्ययस्तेषां शिष्याणां भवति, कुतो हेतोः पुनरयं स्वप्र स्वयस्तेषां भवतीत्याद संशयाऽऽद्य भावात्संशयः विपर्ययानव्यवसायानावत्वेनास्याध्ययनस्य तेषां सिद्धत्वादित्यर्थः । कमेयो परमाद्वा कृतविप्रत्ययस्त प्रवर्तत त्रयोदशगाथार्थः । विशे० आ० म० । कारणे, तं । निमित्से, स्वा०२ ठा० उ० । विशे० । अनु० । हेतौ स्था० २ ० ४ उ० । शा० । बिशे० श्रातुः । प्रत्ययशब्दः कारणत्वे । यत चक्तम् -" प्रत्ययः शपथकान हेतुविश्वासनिश्चये । " नं० । सम्प्रत्ययवृत्याकृष्या 3तथाssत्मगुरु लिङ्गानि प्रत्ययस्त्रिविधो मतः । सर्वत्र सनुच्छाने, योगानें विशेषतः ।। २२१ ।। तथेति वक्तव्यान्तरसमुचये धामानि रु लिङ्गानि चेति समासः । प्रतीयते भाव्याथोऽस्मादिति प्र स्ययः, विविधरित्रकारो मतः । सर्वत्र सदनुष्टाने फलाचिसंवा दिनि प्रयोजने योगमा विशेष विशेषेण मत इति । अस्य सर्वसदनुष्ठानातिशायित्वात् ॥ २३१ ।। गु " मनमेव त्रिविधं प्रत्ययं भावयन्नाहआत्मा तदभिलाषी स्याद्, गुरुराह तदेव तु । तोपनिपातश्च संपूर्ण सिद्धिसाधनम् ।। २२२ ॥ श्रात्मा सदनुष्ठानाऽऽराम्भणः पुंसोऽन्तरात्मरूपः स्वत एव सागतभित्र सदनुष्ठानानिया स्याद्भदेव ततो शुरुआतदेव तु देवाऽऽत्मनामा नासिक " निपानि खपदसोप भिंगारवत्तचामर भयप्पमागा पसत्थाई ॥ ९ ॥ इत्यापापा संमितता चा समुच्चये । किनिस्वाद सम्पूर्ण समलम् साधनम् चितिफ निष्पत्तिसूत्रम् ॥ २३२ ॥ अथ लिखिमेत्र जावयन्नाह सिवन्तरस्य सद्वीजं, या सा सिद्धिरिहोच्यते । ऐकान्तिक्यन्यथा नैव, पानशक्त्यनुवेधतः ॥ २३३ ॥ सिद्धन्तर फलस्तरसिद्धिरूपस्य स तुर्या सा सिद्धिरिह विद्वल्लोक उच्यते । कीदृशीत्याह - (प. कान्तिकी) नियमेनाखिद्धिरूपपरिहारवती सि कन्तरखीजानामेव नसा सिदिति स्वाद (पापत्यनुवेधत) सामर्थ्याचा यथा दि तथाविद्यस्यादि शख्यपिपार - - प्राणमपि मोदमासादयति किं वश्यं पति विध सिद्धिरमिथ्याऽभिनिवेशादिनि श्रावसानफज़ाय संपद्यते ॥ २३३ ॥ श्रमुमेवार्थमधिकृत्याऽऽद्द पच्चलिड का व्याप्ता । पवशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात्ततः पात एव असौ सिकिः संप्रत्यपाऽपि परतस्तावत्पात एवेत्यपिशब्दार्थः । तत्वसः परमार्थतः मतसम्म यथा विद्यमानपुपदसानः पुमान् स्वकाले पपि पालात्यनुवेधा स्परमार्थतः ः पात एव तथा प्रस्तुता यमनियमाऽऽदिसिद्धिरण्य नुबन्धविकला योजनीया पतित्वेनेति ॥ २३४ ॥ मा 1 संयोग साध्वी चैकान्तिकी नृशम् । स्यादित्ययोपेता तदेषा नियमेन तु ॥ २२५ ।। सिद्ध्यन्तराङ्गसंयोगात् सिद्ध्यन्तराणां प्रस्तुत सिकेरन्यसिविविशेषाणां याम्यानि संयोजनासा सङ्गता पुनः । ऐकान्तिकी सिद्धिः पातविकला, भृशमस्वयं परम्परापिपरामादित्य पेता मात्मगुदलिङ्गप्रतीतिसङ्गता, तत्तस्मात् एषा ऐकान्तिकी सिद्धि, नियमेन वश्यं तथैव तं मदप्रत्ययस्यैव तु ॥ २३५ ॥ समय न छुपायान्तरोपेषमुपायान्तरतोऽपि हि । हानिकानामपि यतस्तस्यपरो भवेत् ।। २३६ ।। महि मेव उपायान्तरोवेयं मृत्विमापायान्तरसाध्यं घ टादिकार्यमुपायान्तरतोऽपि हि पिडा छुपायान्तरादपि जवति, हा ठिकाना मपि बलात्कारचारिणां किं पुनस्तदन्यथाचारिणामित्यपिशब्दार्थः यतो यस्मात् तत्प्रत्ययपर आत्मादिप्र देसी यादे सहितमृत्पिणका उपकरणोऽपि न पटादि साधकर नाभावात् तथा ग्रामादिप्रत्ययविका योगी नैकान्तिक सिकिमाराधयितुं समर्थः स्वात् ॥ २३६ ॥ अथामेव पुरस्कुधा 1 " पतिः सिद्वितोऽयं मत्त एव हि । सिद्धिस्वावलम्बध तथा अन्यैर्नृरूपयोगिभिः ॥ २३७ ॥ पठितो निरूपितः सिद्धितः सिद्धिसमागमहेतु:, श्रयमात्मादिप्रत्ययः हि स्फुरम एवं कालिकादेव सो सिद्धिदम्बाबाझरीदुमणं दस्ताव करेरमात्र योगिनः मार्ग दर्शितया तस्वरूपैर्धार्मिकैरिति ॥ २३७ ॥ यां०बि० । पथ-प्रत्ययतम् प्रय्तप्रत्ययो हाना रणं घटाऽऽदिः स्वर्त्रया निरालम्बनज्ञानाभावेन तदचिनानावि त्वात् ज्ञानस्य । ज्ञानविषयमाश्रित्येत्यर्थे उत्त० १ अ० । पचयकरण-प्रत्ययकरणपाद सिद्ध्यन्तरं न संधत्ते, या साऽवश्यं पतत्यतः । पापविव प२२४ ।। मातरं प्रस्तुतकार्यसिद्धेः कार्याम्सरसिद्धिरूपम (न) जैव संबसं घटयति, या सिद्धिः, साऽवइयं नियमेन पतति निवर्ततेोऽवश्यं पाताचच्छक्त्याऽपि पातशक्त्याऽपि, अनुचि पच्चक्षि-प्रत्युत-श्रव्य । प्रत्युतस्य पश्चलित आ ३२ १ श्रु० १४ य० । पञ्चन्न - प्रत्यल - त्रि० । समर्थे, आचा० १० २ श्र० ३ उ० । पा६० ना० । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६) पच्चलिउ भनिधानराजेन्द्रः। पच्चप्पल देशः। “सा बसलोणी गोरमी, नवखी कवि विसगी । भर- पच्चाउमंत-प्रत्यापतत्-त्रि० । प्रतिवर्तमाने, औः। पचनिउ सो मरक, जासु न अम्ग कठि ॥१॥" प्रा०४ पाद । पच्चाएम-प्रत्यादेश-पुं०।रष्टान्ते, पाइ० ना० २१६ गाथा । पच्चवत्थय-प्रत्यवस्थत-त्रि.। प्राच्ादिते, प्रा० म० १ . पच्चागच्छाया-प्रत्यागमनता-स्त्री० । प्रागच्छतो गौरब्यस्या. १खएका भिमुखगमने, भ०१४ श०७०। पच्चवस्थाण-प्रत्यवस्थान-10 | प्रतीति परोक्तदूषणप्रातिकूल्ये पच्चागय-प्रत्यागत-ना प्रत्यागमे, उत्त० ३० प्र०। नावस्थीयतेऽस्तभूतण्यत्वादवस्थाप्यते युक्तिपुरस्सरं निर्दोष. मेतदिति शिष्यबुझाचारोप्यते येन तत्प्रत्यवस्थानम् । पञ्चाथरण-प्रत्यास्तरण-न०। समुननिय युरूकरणे, स्य० १००। प्रतिवचने , बृ० १ ० । समाधौ , स्था० १ मा । पच्चापिच्चिय-प्रत्यापिष्टित-न० । तृणविशेषस्य कुट्टितत्व" तस्न सहत्यमायाओ , परिहारो पावत्थाणमये रजोहरणे, स्था०५ ठा. ३१०। ।। १००७ ॥" ( तस्स नि ) तस्य चालनस्य परिहारः पच्चामित्त-प्रत्यामित्र-पुं० । शत्रुन्ते प्रातिबशिकराजे, का. १ प्रत्यवस्थानं, दूषितसिकिरित्यर्थः । कस्माद्योऽसौ परिहारः। भु. १० । स्था० । औ०। इत्याद-शब्दार्यन्यायतः-शब्दविषयिणा स्यायन शब्दसंभविया युक्त्या शब्दगतवणस्य परिहार, अर्थविषयिणा पच्चा मित्तया-प्रत्यामित्रता-स्त्री० । अमित्रसहायतायाम्, ज. ध्यायेनार्यसंजचिन्या युक्त्याsधंगतपणस्य परिहारः प्रत्यव. १२श० ७ उ०। स्थान, दूषितसिद्धिरिति भावार्थः । नयमतावशेषाच शनार्य- पच्चाया-प्रत्यायाति-स्त्री० । प्रत्यागमने, जन्म, स्था०४ गतदूषणस्य परिहारः प्रत्यवस्थानमित्यपि द्रव्यम् । इदमुक्तं ०१उ०। भवति-'करोमि नदन्त ! सामायिकम्' इत्यादी गुर्वा मन्त्रणव. प्रत्याजाति-स्त्री० । जन्मनि, स्था०४ ० १ ००। चनो भदन्तशब्द इत्युक्त, काश्चञ्चालनां करोति-नन्वेता गुरुविरदे भदन्तशब्दाऽनभिवानप्रसङ्गः,अभिधाने वानर्थक्पा55. पच्चार-उपासम्भ-उप-मा-मन-धा० । असतः सतो वा दिदोषासः । अत्र प्रत्यवस्थानमुच्यते-त्राचार्या नावे स्थापना दोषस्याभिधाने, “उपालम्भेञ्जपचार-वेल्लुवाः" ॥८।४। 5ऽचार्यस्य पुरतः सर्वाऽपि सामाचारी क्रियत इति नापनार्थ. १५६ ।। इत्युपातम्भेः पच्चाराऽऽदेदाः । 'पच्चारह। पालम्भ।' मिदम् । अन्यत्रापि चोक्तम्-"ठवण आयरियस्सा, सामायारी उपानम्नते । प्रा० ४ पाद । पजए एयं" इत्यादि । तथा दृश्यते चाहदभावेऽहत्प्रतिमोप पच्चारण-उपालम्भन-न । प्रतिभेदे, पाइ० ना० २६ए गाया। घेशनमिति । अथवा-गुरुदिरहेऽपि स्वाहव्यनिषेधा, विनय- | पच्चारुहंत-प्रत्यारोहत-त्रि० । अवतरति, श्री०। मूलधर्मोपदर्शनार्थ च गुरुगुणज्ञानोपयोगी विधेय इत्येतचा. नेन झाप्यते। यदि घा-नाम-स्थापना-द्रव्य-नावभेदाचतुर्वि पच्चानीद-प्रत्यालीद-त्रि० । यद् वाममूरुमग्रतो मुखमाधाय ध प्राचार्यः, नत्राऽऽचार्योपयोगरूपो योऽसौ भावाऽऽचार्यः शि दकिणमूलं पश्चान्मुखमपसारयति, अन्तरा वा, अत्रापि तयोरपि यस्य मनसि बर्सते, तद्विषयमिदमामन्त्रणं, मनोनिवर्तमान पादयोः पञ्च पादास्ततः पूर्वप्रकारेण युध्यते तत्प्रत्यालीदम्। गुणमयाऽचार्यनिबन्धनःमति नावः । अतो गुरुविरहोऽप्यत्रा युरूस्थानभेदे, व्य०१०पा.च. श्रा०म० । सिक एवेति भाषः । इत्येवमन्यत्रापि चालनाप्रत्ययस्थाने पच्चाव-प्रत्यावर्त-पुं० । एकस्याऽऽवसस्य प्रत्यभिमुख श्रावयथासंभवमभ्यूह्ये इति । तदनेन "संहिता च पदं चैव, पदा ते, जी०३ प्रति. अधि० । आ० म० प्रतिपुद्रलाऽऽवर्ते,वा र्थः पदविग्रहः । चालनप्रत्यवस्थाने, व्याख्या तन्त्रस्य पम् १२ द्वा०। विधा ॥१॥" विशे०। गुरुकथने, दश.१०। नीतितः पच्चासत्ति-प्रत्यामत्ति-स्त्री० । सादृश्ये सत्र.१ १०४ ०१०॥ पृष्ठसंशयनिरासे यथा युज्यत पवेसिद्धेः। ल। पच्चामन्नत-प्रत्यासन्नत्व-10 प्रत्यासत्तौ, सादृश्ये, विश०। पञ्चवर-देशी-मुशले, दे० ना०६ वर्ग १५ गाथा । पच्चासि (ए)-प्रत्याशिन्-त्रि. । प्रत्याशितुं शोलमस्यति पच्चवाय-प्रत्यवाय-पुं० । अनथ, बा० १६ द्वा० । व्यापा. प्रत्याशी । वान्तभक्षके, "परिमाय पमाय पचास।।" प्राम. । उन्मागरोगधर्मनशसकणेवनयेंषु, पञ्चा०४ विधाक- चा०१२०२०५०। स्व०। श्राचा० । अघिका उपघातहतुषु अध्यवसायाऽऽदिषु,! पच्चाहार-प्रत्याहार-पुं०। योगशास्त्रप्रसिके इम्झियाणां स्व. उत्त०१० अ०। स्वविपयेच्यो निराकरणे, वाच । “प्रत्याहारो हपीकाणापच्चा-पत्या-त्री चमरस्य पलस्य च लोकपालानामग्रहिषी- मेतदायत्तताफलः " (१) द्वा० २३ द्वा० । (अस्यार्थ: णां च सर्वबाह्यायां पर्षदि, स्था० ३ ०२०। 'घिरा ' शब्दे चतुर्थजागे २४१० पृष्ठे गतः ) पच्चाइक्खयाण-पत्याचक्षाए-त्रि०। प्राणातिपाताप्रियापच्चत्तरित्ता-प्रत्यवतीय-अव्य नीचैगैस्वत्यर्थ, रा०। ख्यानं कुर्वाणे, नश० ५३०। पच्चुत्थ-देशी-प्रत्युप्ते, दे. ना.६ वर्ग १३ गाथा। पच्चुत्व पञ्चानहाया-प्रत्यावर्त्तनता-स्त्री० । आवर्तनं प्रति योगेनार्थ- | पच्चत्यय-प्रत्यवस्तृत-त्रि० । उपरि आचादिते, कल्प. १ विशेषेषु सरोसरेषु विवक्विताऽपायप्रत्यासनतरा वा वि. अधि० ४ क्षण। स्त प्रत्यावर्तनास्तभावः प्रत्यावर्तनता। अवायाऽऽरयेशा-पचप्पा-प्रत्युत्पन्न-त्रि०। साम्प्रतमुत्पन्ने, अनु० । वर्तमाने, भिनियोधिज्ञानभेनं। आव०४ अ. सूत्रा वर्तमानकासीने, विशे० कल्प। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७) पच्चुप्पामग्गाहि (ण) अभिधानराजेन्द्रः । पच्चाकम्म पच्चुप्पएणग्गाहि (ए)-प्रत्युत्पन्नग्राहिन-त्रि० साम्प्रतमुत्पन्न पच्छंद-गम्-धा० । गती, "गमेर०-"।।४।१६२ ॥ इत्या. प्रत्युत्पत्रमुच्यते, वर्तमानकालनाबीत्यर्थः। सत गृहीतुं शी. | दिना गमधातोः पच्छन्दाऽऽदेशः । पच्चंदर । गच्छति । प्रा. समस्येति प्रत्युत्पन्नग्राही । वर्तमानकालनाविवस्तुमाहिरिण ४पाद। ऋजुसूत्रनये, अनु०। ग। पच्छंभाग-पश्चानाग-पुं० । दिवसस्य पश्चासमे भागे, पचुप्पेहिकण-प्रत्युपेट्य-अन्य । प्रतिस्येत्ययें, "वसहिप- प्र.१ पाहु० ३ पाहु. पाहु०॥ च्चुप्पेहिऊण ण संपपज्जा।" महा०१०। पच्छंवत्थुग-पश्चाद्वास्तुक-न पश्चाद् गृहे,प्रम०४ संबवार। पञ्चुरस-प्रत्युरस-न० । उरसोऽभिमुलं प्रत्युरसम् । उरोऽभि पच्छण-प्रक्षण-नावे त्वचो विदारणे,डा० १ ० १३ मुखे, प्रोघः। प्र० विपा० परचुवगार-प्रत्युपकार-पुं० । प्रत्युपकृते, स्था० ४०४० पच्छा -प्रच्छन्न-त्रि.। अप्रकटे, " पच्छप पमियर।" प्रा० पच्चूस-प्रत्यूष-पुं० । “ प्रत्यूषे षश्च हो वा" || २ ॥ १४ ॥ म०१०१खरामा रहसि, स्था०३ ग०४०। इति त्यस्य चः तत्सन्नियोगेन षस्य हः। पञ्चूहो । पञ्च-पच्चापापड-प्रच्चन्नपति-पुं०। जारे, " एते जोम्वणकिमगा, सो । प्रा०२ पाद । रात्रेश्वरमप्रहरे, स्था० ४ ठा० २| पच्छा पई महिलियाणं।" सूत्र० १४०४ मा १ उ। स०आव। पच्चएणपमिसेविणी-प्रच्चन्नप्रतिसेविनी-स्त्री० । प्रचलं प्र. पच्चूनकाससमय-प्रत्यूषकालसमय-पु. । प्रत्यूषकालनकणो तिसेवते इति प्रच्छन्नप्रतिसेविनी । जारेण गुप्तमैथुनकारियां यः समयोऽवसरः । ज्ञा. १ शु०१०। प्रभातसमये, कल्प. स्त्रियाम, सा च गर्भ न धरते। श्राव.४० । १अधि० ३ क्षण। पच्छाणपाव-प्रच्छन्नपाप-त्रि। कूटप्रयोगकारिणि, असदगुपच्चूह-प्रत्यह-पुं० विघ्ने, द्वा. १६ द्वा० । प्राचा०। विशे. । णं गुणवन्तमात्मानं व्यापयति,गुणरहितमात्मानं वा यो गुणवन्तं सूर्ये, पुं० । पाइ. ना० ६ वर्ग गाथा। व्यापयति, न तस्मादपरः प्रच्चन्नपापोऽस्तीत आय.४५.। पच्चे-देशी-मुशले, दे० ना० ६ बर्ग १५ गाथा। पच्छतोवाहत-पश्चादव्याहत-न । पश्चामुक्त गत्या प्रत्यागपच्चोइय-प्रत्योदित-त्रि० । परिकर्मिते, संथा। तलकणभेदे, श्रा० चू०१40"जहा जीवति भंते ! जीवे जी. पच्चोगिलमाण-प्रत्यवगिलव-त्रि० । योऽप्यास्वादयति, पति?। गोयमा! जीवति ता नियमा जीवे,जीवे पुण सिय जी वति, सिय नो जीबति ।" प्रा० चू०१ अ.। ५०। पच्चोणियत्त-प्रत्यवानिवृत्त-त्रिका कडमड़मुच्छल्य तत्रैव पुनः पच्छय-प्रच्छद-पुं० । वस्त्रविशेषे, " चित्तपरिचयपरिच्छेयं।" पुनः पतिते, कल्प०१ अधि० ३ कण । उत्पस्य निपतिते, प्र. भ०७ श०६०। "पिच्छोरी" इति ख्याते का.१ ७. १६ १०। उत्तरपटे, है। ० ३ आश्र द्वार। पच्चयाव-पश्चात्ताप-पुं० । स्वप्रत्यर्क जुगुप्सायाम्, श्रा० म० परचोतरित्ता-प्रत्यवतीर्य-श्रव्य । अधोवतीऽयेत्यर्थे, "जाण १०२ खएम। बिमाणाम्रो पश्चोतरिता।" प्राचा०२ . ३ चू०।। पच्चा-पश्चात-अव्य। मनन्तरे, भ०३ श. २ उ० । कम्प०॥ पच्चोय-प्रत्यबट-न० । तटसमीपवासिनि अभ्युनतप्रदेशे , पर्यन्तसमये, संथाof विवक्तिकाल स्याऽनम्तरे, तं० । परजी. ३ प्रति० ४ मधि । रा० । " फालियपमलपोयमा " खोके, "पच्या कामविवागा।" इत्यत्र यथा पश्चाच्छब्दस्य म्फाटिकपटलावच्यादितः। रा.। परभवविषयत्वम् । प्रतिपा० ना० । पच्चोरुहिता-प्रत्यवरुह-अव्या मध्ये प्रविश्येत्यर्षे, जी०३ पच्छाइ-प्रच्छादित-त्रिः । आचादिते, " पच्छाअनूमिमा. प्रति०४ अधिक। चश्माई।" पाइ० मा० १७६ गाथा । पच्चारयमाण-प्रत्यवपतत-त्रि।अधःपतति, " पच्चोबथमा- मन-वाटायक्त-० । तदागमनकामादनन्तरमायुक्त, णा जाई तत्थ पाणा जावजीवियाओ ववरोवे।" भ०१७ विजीवियाश्रा वबरोव।" भ०१७ पश्चा०१०विव०। श०१३. पच्छाकड-पश्चात्कृत-न०। पश्चात्कृतश्चारित्रं परित्यज्य गृ. पच्चोसक्कित्ता-प्रत्यवध्वष्क्य-अव्या प्रत्यवासयेत्यर्थे, व्याव हबासं प्रतिपन्नः। वृ०१०। मुक्तलिके, जीवा०११ अधि०। स्येंत्यर्थे, भ० १२ श०६०। व्यः । "पगडं तु बोच्चामि । सो विहो बोधव्यो,गि. पकृ-पथ्य-न० । “ हस्वात् श्य-श्व-स-सामनिश्चले " हत्थ सारूविए चव।" पश्चात्कृतं तु वक्ष्यामि, पश्चास्कृतो ॥७।२।२१॥ इति ध्यस्थाने पछः। हिते, प्रा.२ पाद । द्विविधः । तद्यथा-गृहस्थः, सारूपिकश्च । व्य०४ अ.1 मि० पच्छद-पश्चात्-अध्य"पश्चादेवमेवैवेदानी-प्रत्युत्तेतसः पर चू०। भावातीते, भाव०५०।। पम्बह जि एम्बहिं पञ्चलिउ एसहे" |४|४२० पच्छाकम्म (D)-पश्चात्कर्मन्-न । पश्चात् दानानन्तरं कअपनशे पश्चाग्दस्य स्थाने पदत्यादेशः प्रा०४ पाद। में भाजनधावनाऽदि यत्राशनाऽऽदै। तत्पश्चातकर्म। प्रश्न०५ प्रथमाऽऽद्यवृत्तरपरशब्दस्याणे, वाचा संबद्वार। भक्तदानात् पश्चात् यतिनिभिसं दस्ताऽऽदिधाब Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२८) पच्छाकम्म (ण्) अभिधानराजेन्द्रः। पच्छासंयुय ने, ध०३ अधिक। पश्चाजलोकनकमणि, आव ४ अ०। पत्र तु निरवशेष, तत्र साधुवामानन्तरं नियमतो हरंगात्र पं००।" कोण गिहिणिसिज्जा-गतस्य पस्थम्मि मह- वाप्रकासयति। ततो द्वितीयाऽऽदिषु समेषु भङ्गेषु पश्चारकर्मसंभसिए गिहिणो । उप्फुसणघोषणादी, करेज्ज पच्छाकम पान कल्पते, प्रथमादिषु तु विषमेषुजङ्गेषु तदसंभवारकल्पते तंतु।" पं० भा•१कल्प। प्रहीतुमिति।यदि चैतेम्वपि यदलेपकृतं सक्तुमएडकाsदि. या प्रसंसडेण हत्येण, दबीए भायणेण वा । शुष्कं गुरुपिपाकाऽऽदि,तयोरपि प्रहणं कल्पते। उक्त परिकर्मदिज्जमाणं न इच्छेज्जा, पच्नकम्म जहिंजवे ॥३५॥ द्वारम् ।। १०३२ ॥ वृः १ उ०। पं० । (भत्र विशेषः 'म. हाउस्थिय ' शब्दे प्रथमभागे ४६१ पृष्ठे गतः) पश्चात्कर्म भसंमृन हस्तेन अन्नाऽऽदिभिरलिन दव्या भाजनेन वा दी. सस्निग्धोदकाररूपं चतुदम्, अत्र प्रायश्चित्तमात्रामाम्लम् । पमानं नेमकेत् । किं सामान्येन , नेत्याह-पश्चात्कर्म भवति जीत.।"पुरेकम्मे य पच्चाकम्मे य पउम।" पं. ०१ यत्र दादौ, शुष्कमएमकादिवत् तदन्यन् दोषरहितं गृही. कल्पका "ज पुष्बकम्मं तं पच्चाकम्म, तं पुब्धकम्मं जं निक्खु. यादिति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ पभियाप घट्टमाणा।" श्स्यन्यत्र । भाचा० २ ० १०२ संसडेण य इत्येण, दबीए जायणेण वा । भ० २ उ० । पश्चात्काइदिनपदीयाचतुर्थी पिपोषणा। दिज्जमाणं परिच्छेज्जा, जं तत्येसणियं भवे ॥ ३६ ॥ प्राचा. २७०१.१० ११३० । यदि निजकानां सम्ब न्धी मानो, वैयो धा निजकोऽन्यस्य कुरुते चिकित्सा, सनि. संसून हस्तेन मन्मादिलिप्तेन तथा दग्यो नाजनेन यादी. चितं पश्चारकर्म । व्य• ६३.। यमानं प्रतीच्छेत् गृहीयातू । किं सामान्यत?, नेत्यादन्यत्तत्रैषणीयं भवति तदन्यदोषरहितमित्यर्थः। ६ च संप्रदाया. पच्छाग-प्रच्गदक-पुं०। प्रावरणरूपे करपे, "तिमेव पच्छा" संसद बस्थे संसट्टे म साबसेसे दवे, संस गा।" ० ३ उ०। पं० ब०। प्रथः । हरये संस मसे गिरवससे दवे, एवं मभंगा, पत्थ प. पच्छाग-पश्चादगति-सी० । गच्चतोऽनुगममे विनयभेदे, दमभंगो सम्वुत्तमो, असु पि जत्थ साबसेसं दग्वं तत्थ द्वा०२६ द्वा०। घिपण श्यरेसु पाकम्मदोसानो।" इति सूत्रार्थः। दश पच्छाणिवाइ (ण)-पश्चाभिपातिन-पि.। प्रत्रज्याग्रहणानx भ०१.। न्तरं चारित्रतो लिङ्गतो वा निपतनशीले, प्राचा०१ ध्रु०५ प्र. कर्मण्यपि विधिमाह ३०। संसहमसंसद्धे, साबसेसे य शिरवसेसे य । पच्चाणूताव-पवादनुताप-पुं० । हा मया कुएं कर्म कृतमित्येव. हत्थे मत्ते दब्बे, सुखममुके तिगहाणे ॥ १०३१॥ मनुतापे, उत्त. २० अ० । रा०। "पच्छाणुतायेण सुमज्जवसा. ण ।" मा०म० १ ०२खएक। इह निक्षादातुः संबन्धी हस्तः संसृष्टो वा प्रवेवसंसृष्टो पा पवाणुपाश्चि (ए)-पश्चादानुएवी-सी• । पाश्चात्यावारज्य पेन च काश्यिकाऽऽदिना मात्रकेण नितां ददाति तदपि सं. सत्रमसंसष्टं वा, हव्यमपि सावशेष वा स्याभिरवशेष घा, प्रतिमाम व्यत्ययेनानुपूर्वा परिपाटिः क्रियते यस्यां सा पक्षामतः संसृष्ठासंसृपसाचशेषनिरवशेषपदेईस्तमात्रकद्रव्यविषय नुपूर्वी । भानुपूर्षीभेदे, अनु। (अत्रोदाहरणमुत्कुमेणैव भवति रौ न भवन्ति । तद्यथा-संसृश्टो हस्तः संसृष्ट मात्र सा प्रत्युक्तम् 'माणुपुब्बी ' शम्दे द्वितीयभागे १४१ पृष्ठे) बशेष स्यम१. संसपोहतासंसमाप्रमा ग ताप-पश्चाताप-पु.भिनुतापे, भाष•४० प्रा०म०॥ ध्यम २, संमृधो हस्तः असंमई मात्र सावशेष हव्यम् ३ मा चू०। संसृष्टो हस्तः असंसृष्टं मात्र निरवशेष द्रव्यम् । एवम पच्चातावित-पश्चात्तापिक-पुं० । पश्चात्तापति, प्रम०३ संब. संसृष्टनापि हस्तेन चत्वारो प्रहाः प्राप्यन्ते । एतस्यामष्टभायां यानि त्रीणि स्थानानि इस्तमात्रकाव्यरूपाणि, यंत्र पश्चात्कर्मदोषो न भवति ते मङ्गकाः शुकाः, इतरे पशु पच्छानाग-पश्चानाग-पुं० । पाश्चात्यन्नागे, शा० १ ० १.। खाः॥ १०३१ ॥ पच्छाविकुचणा-पश्चाविकुर्वाणा-स्त्री. । पश्चाद विक्रिया. याम्, स.। अमुमैत्रार्थ स्पष्टयत्ति पच्चासंखमि-पश्चास्संखमि-स्त्री० । मृतकसंखौ, मरणाम पढमे भंग गहण, सेसेसु य जत्थ सावसेसं तु । स्तरं बहुभोजनार्थ महारसवत्याम्, भाचा० २ ० १.१ अमेसु उ अग्गहाणे, अलेनसुकवेमु ऊ गहण||१०३शा म०३ उ.। मस्यामष्टजनयां यः प्रथमो भङ्गस्त्रिाभिरपि पदैः शुरूस्त-पच्छासंजोग-पश्चात्संयोग-पुं० । श्यशुरादिकृते संबन्धे, - ग्रहणं भवति, शेषेष्वपि भगकेषु यत्र सावशेषं द्रव्यं श्राचा. १७०१०३ उ०। सूत्र.। भवति तत्र प्रहीतुं करपते । पश्चातकर्मसंभवात् अन्येषु निरव शेषपदेपु युकेषु नवग्रहणं, न कल्पते प्रहीतुमिति | पच्छासंथच-पश्चात्संस्तव-पुं०1" जे पचा इतरा। " भाभावः । इयमन भावना-ह हस्तो मात्रकं वा वे बा स्वयोगेन योहित्रादिसंबन्धे," नि०२ उ० (श्वासंस्तन पि. संसले वा न तद्वशेन पश्चात्कर्म संजबत्ति ,कि ताई व्यबशे. एडग्रहणनिषेधं 'संथव 'शब्दे वक्ष्यामि) न। तथाहि यत्र व्यं सावशेषं तत्रैते सावध खरशिटते पच्छासंय-पश्चात्संस्तत-त्रि०ा श्वशुरकुल संबन्धे, प्राचा.१ अपिन दात्री प्रकासयति, भूयोऽपि परिवेषणसंभवात् ।। पु. १चू. १०४ ३०॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (128) अभिधानराजेन्द्रः । पुपि संयुता इमे सामने जे पुत्र, दिट्ठा जडा व परिजिता वा त्रि । ते हुंति पुव्वसंयुय, जे पच्छा एतरा ति ॥ २०३ ॥ सामधे प्रतिपत्तिकालात्पूर्वे, पञ्चाद्वा । घढ़वा - सामलकाले व चिंतिज्जति । नि० चू० २३० । पति पा० पापं निसीति पाचित् जीव प्रायश्चित्त-न० अथवा शयश्वितं जीवं मनो वाsतिचारमसम. मिनितं शोधयतीति प्रायश्चित्तम् । जीत० | नं० पा० । प्रायः पापं विजानीया चित्तं तस्य विशोधनम् इत्युक्तेः । अथवा प्रकर्षेण अयते गच्छत्यस्मादाचारधर्म इति प्रायो मुनिलोक:, तेन चिश्यते स्मयनेऽतिचारवि शुद्ध्यर्थमिति निरुक्तात्प्रायश्चित्तम् । शोधिरूपेऽनुष्ठानविशेषे, ४० २ अधि०। पञ्चा० । 33 (१) अय प्रायश्विसनिय काभिनया उद्दया दिति जम्दा पति नपाईने । पावासोती पतिं ॥ ३ ॥ पापमनिकृन्तति यस्मातपति प्राकृतत्वेन "पायच्छ्रितमिति” भएयते निगद्यते, तेन तस्माप्रत्यचावि मनो नितेन हेतुना प्राधिमिति थार्थः। पञ्चा० १६ विष० । (२) सहकारी वि पतिं एवं भवति आयारे चसु य चू-लियासु नवएसवितधकारिस्स । पच्छिमपणे नखियं आए य पदे ॥ ७१ ॥ आयारो जयवंत रमाईयो उसु व मारनासु ि समोसाणासु (?) पचासु जो उपदेसो नदि इस चि । वसोक्रियेत इत्यर्थः । सो य परिलेापप्फोपति तं चित विवरीयं, करेतस्स, आयरंतस्स्लेत्यर्थः । पा 1 श्रथेः किं इद अज्जणे केवलं परि हवा?, नेत्युच्यते, असुपा वितकारिभिणायारो महिओ । किं मणायार एव केवलं नेित्युच्यते पर मो मोमवारी पाकिमवार प संधुते विकारिस्स केवलं पच्चित्तं तं ?, नेत्युच्यते-असुय पदेसु अापदा सूचककादश्रपया, तेसु विचितहका रिस्पतिं तं सः पूरणे नि० ० १ ० । दुःखप्रतिघात के अनु०यमंगल पाया। " सूत्र• १ ० २२० । (३) अथेदं प्रायश्चित्तं भावतः कस्य भवतीत्याहभागा संवेगपरस्वं । उनउत्तस्स जहत्यं, सेसस्स उदन्यतो एवरं ॥ ४ ॥ भव्यस्य मुक्तिगमनोचितस्य तस्याऽप्याहारु चेरागमद मानिस न जातियस्य तस्याऽपि संबे गपरस्य संविग्नस्य चारित्रिण इत्यर्थः । चर्णितमुक्तमागमे, तत्राधितम तस्याऽप्युपयुकस्य सर्वापरास्थानेषु चायधानस्य पचायकारकमित्यर्थः । ३३ पच्छित्त सम्यतिरिकस्य का पात्यादस्य कादन्यस्यति मवरं केवलं यतो प्रावशून्यत्वेनाप्रधानतया अयथार्थमि स्वर्थः । इति गाथार्थः ॥ ४ ॥ एतदेव भावयचाद सत्यत्वादणाप्रो, पायमिणं तेा चैत्र कीरंतं । यति निपाणियन् बुद्दनचेण ॥ ५ ॥ शास्त्रार्थया धनादागमार्थविराधनात् प्राणातिपाता ऽऽदिरूपात् प्रोग्रहणं दिसाऽऽदायध्यप्रमस्य "चा नियम पा" इत्यादिन्यायेन न प्रायद्विद्यमिति ज्ञापनार्थम इदमिति प्रायश्चियं भवतीति गम्यते । इह च प्रायश्चित शब्देन सद्विध्यमुपचारात्पापं गृह्यते । ततः किमित्याह या विधीयमानमविशुः प्राय विसम्पदेव प्रायश्चितमेव पापमेवेत्यर्थः संजायते संप शाकानिषिद्धानुष्ठानयज्ञास्यं यम, बुधजनेन स मयत्रोकेन । समयानभिजनो हि यथा कथंचिदपि क्रिय माणं तत्साध्वेव मम्यते, बुद्धिदोषादिति । अथवा शास्त्रार्थबाघनात्प्राय हवं द्रव्यप्रायश्चित्तं भवति, प्रायोग्रहणादन्यथाअपि योग्यताविषायां स्यादिति । तेनैवाधने प्रायश्चितमेव संजा " नैव क्रियमा प्रायश्चितम् स्वमेव यते । शेषं तथैष । इति गाथार्थः ॥ ५ ॥ एतदेव स्पध्याह दोसस्स जं णिमित्तं, होति तगो तस्स सेवाए उ । उ तक्खउति पयडं, लोगम्मि त्रि हंदि एयं ति || ६ || दीपस्यापराधस्य यस्तु गमिति । हृदयम् निमि कारणं भवति जायते तो दोषः तस्य निमिषस्य शाखारूपस्य तु नैव नान्यान 9 दोष " रणे, लोकेऽपि पृथग्जनेष स्तोको इन्द दर्शने दोषापणयम् इतिकः समाप्तौ । इति गाथाऽर्थः ॥ ६ ॥ पतच्च प्राथधितं प्रणचिकित्सास्यं पूर्वरजिदितमित्येतद्दर्शनाय प्रस्तावयन्नाद | दवणार, जोजितमेतं विदूर्हि समयस्मि । भावयतिमिच्छार, समं ति जतो इमे नहिये ||७|| यशोदाहरणेन श्वमानवेन करसेन योजितपीतम तत्प्रायश्चितम् विद्भिः समयको सिसिका योजितमित्याह भाषण चिकित्साय चरणातिचाररूपक्षतप्रतिक्रियायां सम्यग् यथावत् । इतिशब्दः समासः । यतो यस्मादिदं वक्ष्यमाणं मणिमुकं श्रीमा स्वामिभिः । इति गाथार्थः ॥ ७ ॥ यदुकं तदेव गाथाषट्केनाऽऽद विहो काय िवो जवानंनुगो व छायो । आगंतुगस्स कीरति, सम्बुकरणं ण इयरस्स ॥ ८ ॥ द्विविधद्वारा देवयमेवात स्मिन् कार्य प्रवतीति तद्भयो गएकाऽऽदिः, आगन्तुकश्च कटकस्य करारादिजन्य श्य क्रियते विधीयते, शब्योद्धरणं कण्टकाऽऽयुद्धारः, नेतरस्य मानवस्य भागाभावइति ॥ ॥ " Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चित्त प्रभिधानराजेन्द्रः । पच्छित्त. द्रव्यव्रणक्रियाविशेषं दर्शयनाद-- ताओ अतिक्खतुंडो, असोणितो केवलं तयामग्गो । उहरि अबउज्मा, सरोण मनिजइ वणो न ||६|| तनुरेव तनुका स्वरूपेण कृशः, अतीक्ष्णतुरमोऽनत्यन्त. प्रेदकमुखः, अन एखाशोणितोऽरुधिरप्राप्तः, केवलं नवरं, स्व लग्नः स्वमात्रावसक्तः, स एवंभूतः हास्यः। किमित्याहसत्याऽऽकृष्य देहाद, अपोह्यते बहिः प्रतिप्यते, शल्यो दे. हप्रविष्टः कपटकादिः शल्पशब्द: पुलिनकोऽपि प्राच्यानामस्ति । एवं तावच्छत्यविधिः। व्रणस्य तु को विधिरित्याह-व. णस्तु वणः पुनः, न मल्यते न मृद्यते, शल्याल्पत्वेन तवणस्याप्यल्पत्वाच्चल्योकारमात्रमेव तचिकित्सेति ॥६॥ तथालग्गुद्धियम्मि बीए, मलिज्जा परं अदूरगे सखे । नघरणमलणपूरण-दूरयरगए य तश्यम्मि ।। १० ।। तथा लग्नश्चासाबुदृतश्च लग्नोद्धृतस्तस्मिन् । द्वितीये, शल्य जति योगः। मल्यते मृद्यते, व्रण इति गम्यते । परं केवलं न तु कमलप्रणाऽऽदि विधीयते व्रणस्थ अदरगे शरीरानतिभेदके, शल्ये कण्टकाऽऽदी। तथा उकरणमननपूरणानि शल्पोद्धारव्र. णमर्दनकर्णमनपूरणानि, प्रथमावहुवचनलोपोऽत्र रश्यः। क्रियम्त इति गम्यते । दूरतरगते दितीयशल्यापेक्षया देहे दरतरावगाढे, तृतीयके शल्य इति ॥१०॥ तथामा वेपणा न तो उ-छरित्तु गालिंति सोणिय चनत्थे । रुभइ लहूं ति चेट्ठा, वारिजइ पंचमे वणिणो॥ ११ ॥ तथा मा बेदना मा जूरपोडा शल्यवतः। तुशब्दः पुनरों, जिपक्राइच (तो इति) तस्मादिनानिवारणार्थित्वलक्वणाले. तो, उद्धृत्य निकृष्य शव्यं वणाझाझयन्ति निःसारयन्ति, शोणितं रक्तं कियदपि । अनुस्वारस्य चाऽश्रवणं उन्दोवशात् । भिषज इति गम्यम् । चतुर्थे पुनः शल्ये। तथारुह्यते, व्रणेन रूदो भवत्यसावित्यर्थः । लघु शीघ्र शल्योहारानन्तरं चटानिरोध सति, इति कृत्या, चेाऽवगमनाऽऽदिक्रिया, वार्यते नि. विध्यते वैद्यः । पञ्चमै शल्ये गाढतरावगाढे ब्रणिनो प्रणवत इति ॥११॥ तथारोहे वणं बहे, हितमितमोजी अजुजमाणो वा।। तत्तियमेत्तं छिज्जति, सत्तमए पूइमंमादी ॥१२॥ रोहति निराश्रवीकरोति व्रणीति, प्रणं कतम् । क , तत् षष्ठे शस्ये उद्धृते । सति किंविधः सन्नित्याह-डितमित माजी पथ्या. ल्पाहाराभ्यवहारी, अनुजमानो वा भोजनत्यागी वा चिकिस्थानुगुपयत । तथा यावयल्पेन दृषितं ताबमानं तावत्प्र. माणम्। विद्यतेऽपनीयते, सप्तमके शल्ये उद्धने। किमित्याहपूतिमासादि अष्टपिशितमेदःप्रनृतीति ॥ १२ ॥ तह वि य अठायमाणे, गोण सखड्यादि रप्पुए वा वि। कीरति तदंगछेदो, सअहितो सेसरक्खट्ठा ।। १३ ॥ तथाऽपिवमपिचविधीयमाने कर्मणि, प्रतिष्ठति विसर्पति, गोनसखादिताऽऽदौ सरीसृपभीकतप्रभृती, मादिशादासोधे- रकखादिताऽऽदिपारग्रहः। रप्पुके वाऽपि वल्मीकरोगे, चाऽपीति समुच्चये। क्रियते विधीयते, तदङ्गच्गेदो दूषिताऽवयवकर्तन, सहास्ना वर्तत इति सास्थिकः। शेषरकार्थमवृषितामत्राणाये. ति, सप्तम एव शल्ये । इति गाथाषार्थः ॥१३॥ एवं तावद् व्यशल्योकारद्वारेण द्रव्यवणचिकित्सोक्ता, अथ भाववणेन तथैव प्रतिपादयिषु ववमाप्ररूपणायाऽऽदमूलुत्तरगुणरूव-स्स ताइण्णो परमचरणपुरिसस्स । अवराहसवपमनो, जाववणो होइ णायचो ॥१४॥ मूनोत्तरगुणा महावतपिष्मविशुद्ध्यादयस्त एव रूपमात्मा यस्य स तथा तस्य। तायिनः संसारसागरात्प्राणिपगपालकस्य, परमचरण पुरुषस्य प्रधानचरित्रसतणनरस्थ, अपराधशल्यप्रभवः पृथ्वीसंघद्याऽऽद्यतिचाररूपशव्यनिमित्तः,भाचवणो नावकतरूपो, भवति स्यात्, ज्ञातव्यो केयः। इति गाथार्थः ॥ १४ ॥ भाववणचिकित्साप्रस्तावनायाऽऽहएसो एवंरूवो, सचिगिच्छो एत्य होइ विशेो। सम्म भावाणुगतो, णिउपाए जोगिबुछीए ॥ १५॥ पप जावव्रणः, पवंरूप उक्तस्वभावः, सचिकित्सो वक्ष्यमाणप्रतिक्रियोपेतः, अत्र प्रायश्चित्ताधिकारे, भवति स्याद, विज्ञेयो ज्ञातव्यः, सम्यगविपरीततया नावानुगत ऐदम्पर्य संगतः,निपुण. या सूक्ष्मया, योगिबुवा समाधिविशेषवनरायबोधेन, योगिन पयाध्यात्मिकार्थविवेचनचतुरचेतसो भवन्ति । इति गाथायः॥ १५॥ अथ भावषणाचिकित्सा गाथाश्रयेण दर्शयन्नाहजिक्खायरियादि सुति, अतियारो कोइ वियडणाए । वितियो उ असमितो मि,त्ति कीस सहसा अगुत्तो वा१६॥ भिकाचर्यादिःभिकाटनप्रवृतिः, तत्र गमनाऽऽगमनयोns. तिचारः स भिकाटनाऽऽदिरेव । श्रादिशब्दाविहारभूमिगमना. ऽऽदिभवातिचारपरिग्रहः । शुद्धात्यपैति, अतिचारोऽतिक्रमः, कोपि कश्चिदत्यन्तमलाः प्रथमशल्यतुल्यः, विकटनया स्वालोचनयैव प्रथमशल्योधरणमात्रकलपनया, न तत्र मननाऽऽदि. वित्माकल्प प्रायश्चित्तान्तरमुपयोगीति । तथा द्वितीयस्तु हितायः पुनरतिचार समित्यादिभङ्गरूपः, शुद्ध्यतीति प्रकृतम। कथम् ?, असमितः समितिषु प्रमत्तः अस्मि भवाम्यहम् । इनि. शब्दोऽन्यत्र योदयते । कस्मात् कुतो हेतोः?, सहसा प्रयोजनमा न्तरेण, अगुप्तो वा गुप्तिप्रमत्तो वा, न किश्चिदप्यसमितत्वेऽगुप्तले वा पुष्टाऽऽलम्बनमस्ति इत्येवंविधपश्चासापरूपविकल्पन मिध्यापुष्कृतदानरूपा प्रतिक्रमणाचीकरसेत्यर्थः । श्यं च द्वितीयशल्योद्धारे व्रणमलनकरपे इति ।। १६ ॥ सदादिएमु रागं, दोसं व मणे गयो तइयगम्मि । पानं आणेमाणिज्जं, भत्तादि विगिंवण चनत्ये॥१७॥ शब्दाऽऽदिकेषु शब्दरूपप्रवृतिविष्टानिष्टविषयेषु, रागमभिव, द्वेषमप्रीतिम्, वाशब्दो विकलपार्थः। मनसि चेतमि, मनोमात्रेणेत्यर्थः । गतः प्रतिपन्नः, मुनिरिति गम्यते । तृतीय के चिकित्साविशेष वणमननपूरणकल्पे मिश्राऽऽरये सति शुद्ध्यतीति प्रकृतम् । तभयाह हि मनोगतरागाss. विशल्यमिति । तथा ज्ञात्वाऽवबुध्य, अनेषणीयमकल्प्यम, भक्ताऽऽद्यशनप्रभृति चतुर्धव्य शल्पकल्पम् । ( विगिचण Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ੧ਫਿਰ (१३१) अनिधानराजेन्द्रः। पच्चित्त ति) विवेचनात्तस्यैव पारिष्ठापनाद्विवेकाभिधानभावचि. तत्र मूलस्वरूपमाहकित्सारूपाणितनिर्गासनकस्पात, चतुर्थे तिचारशल्यवि. पाणातिवातपभितिसु, संकप्पकरसु चरणविगमम्मि । शेष, शुद्धधतीति प्रकृतीमति ॥ १७॥ मानद्दे परिहारा, पुण वयठवणं तु मूझं ति ॥ २१ ॥ नस्सग्गेण विसुज्झति, अइयारो कोइ कोइ न तवणं । प्राणातिपातप्रनृतिषु प्राणिवधमृपावादाऽऽदिप्वपराधेषु, संकतह विय असुज्कमाणे, छेविसेसा विमोहति ॥१॥ ल्पकृतेम्बाकुट्टिकाऽऽदिविहितेषु, चरणविगमे चारित्रानावे सति, तत्सर्गेणापि कायोत्सगौनिधभावचिकित्साविशेषेणाऽपि चे. मावृत्ते आवृत्तपरिणामे साधौ, कथं ? परिहाराहोपपरिहार. हानिरोधकल्पेन, न केवलं विवेकेन, शुद्धचत्यपैति, अति. माश्रित्य । पुनर्वतस्थापनमुत्तरकासं महावतन्यासम, तशचारोऽतिक्रमः, पञ्चमशस्यकल्पः । कोऽपि कश्चिद् दुष्ट. दः पुनरर्थः । मूलमिति मूलाभिधान प्रायश्चित्तमेतत् । इति स्वप्नाऽऽदिः, न तु सर्वोऽपि। तथा कोऽपि तु कश्चित् पुनरत्ति गाथार्थः ॥२१॥ चार: पृथिवीसंघटनाऽऽविषष्ठशल्यकल्पः। तपसा निर्विकृतिकाऽऽदिना षयमासापसानेन भावचिकित्साविशेषेण हितामत. अनवस्थाप्यमाहभोजनाभोजनकल्न, तथाऽपि च तेनापि च प्रकारेण त- साहम्मिगादितेया-दितो तहा चरणविगमसंकसे । पोरूपेण, अशुरूचत्यनपगच्छत्यतिचारशल्ये तिचारशल्यजनिते णो चिय तोऽकयम्मी, उविज्जति वएस प्रणबडो॥श्शा चा जावा, वेदविशेषाः श्रामण्यपर्यायच्चेदप्रकाराः पञ्चरात्रि साधम्मकाऽऽश्यः साधुप्रभृतयः, प्रादिशब्दादन्यसाधार्मবিশ্বাযা মাৰিামান্বিহাষা: ভূমিমাৱাভি कग्रहः। तत्संबन्धिद्रव्यस्योत्कृष्टस्य सविताऽऽदेर्यत स्तेयं चौर्य हार, वियोधपस्यनिचारशल्पमपनयन्ति, सज्जन्यभावनग त सथा, तदादिर्यस्य तत्तथा तस्मात्सामिकाऽऽदिस्तेयाऽऽदितः। घा नीरुजयन्ति, दविशेषाद्वा विशोधयन्त्याचार्याः । ति आदिशब्दावस्तताडनाऽऽदिग्रहः । इस्तताडनं चाऽस्थिमुएियगाथात्रयार्थः ॥१८॥ स्यादिभिर्मरणनिरपेक्षतयाऽऽस्मनः परस्य वा स्वपक्षगतस्य प. कथं पुनश्चेदविशेषेभ्योऽपराधशुद्धिर्भवतीत्यत ग्राह- परक्षगतस्य वा घोरपरिणामतःप्रहरणम। आहच-"कोसं ब. विज्ञति दमियभावो, तहोमरायणियन्नाव किरियाए। हुसो वा, पउहचित्तोय तेणियं कुणा , पहर जो सा प को, निरवक्खो घोरपरिणामो ॥१॥" कथं यत्साभार्मिकाssसंवेगादिपजावा, मुज्झहणाता तहाऽगाओ ॥१६॥ दिस्तेयाऽऽदीत्याह-तथा तेनाऽऽगमोक्तप्रकारेण “उक्कास" विद्यते ऽपनीयते । ( दृसियजाधो) दूषिताध्यवमायः, मायोः, स्त्यादिनोक्तरूपेण । किमित्याद-चरणविगमसंक्लेशे चारित्रा. तथा तेन प्रकारेण रात्रिन्दिवपञ्चकोशाऽदिना। अचमोलप, भावताभ्यवसाये जाते सति, न चोचिततपसि तदय. स चाऽसी रास्तिकच गुणरत्नव्यवहारी, तम्य भावोऽयमग. स्थायोग्यागमोक्ततपसि, अकृतेऽनासेविते, स्थाप्यत ग्रारोनिकभाचो न्यूनपयांयता, तस्य या क्रिया करम सा तथा प्यते, वतेषु महावतेषु यः सोऽयमेवंविधोऽनवस्थाप्यः । तद सया भवमरास्निकभावक्रिपया, लसुनाऽऽसदनत्यर्थः । ततश्च भेदोपचारात्प्रायश्चित्तमपि तथोच्यते । शत गाथाऽर्थः ॥२२॥ संबेगाऽऽदिप्रजावात् लघुताकरणजन्यमवगनियंदादिगसामान्, शुष्यति द्धिमनुभवनि, अपराधमाधिसमेन । श्रथ सविषयं पाराश्चिकमाहकोऽसाधित्याह-ज्ञाता बुद्धिमान् । अथवा-न्यायात सायुजमव्य. अएलोएणमूहट्टा-इकरतो तिव्यसंकिमम्मि । वहारात्, तयेति समधये । श्राझानं असे परेशाद. इष्टो य. तवमाऽनिवारपारं, अंचति दिक्खिज्ज ततो य ॥२३॥ मुपायो नगवद्भिस्तथाविधापराधाचौ। यदाह-"कोसंत. चमी, समतीतो सावमेसचरणो य । नेयं पणगाईय, पा. अन्योन्यस्य मुढस्य पुष्टम्य च यदतिकरणं तथाविधक्रियासु पौ नःपुन्यत्तिस्तत्तथा ततोऽन्योन्यमूदपुष्टातिकरणतम तत्राऽन्यो. घा जा धरह परियारो ॥१॥" इति गाथार्थः ॥१६॥ न्यस्याऽतिकरण परस्परेण पुरुषयोदविकारकरणम, मूढाति. एवं तावदालोचनादीनि सप्तप्रायश्चित्तानि निरूपितानि। करणं पश्चमनिद्रावशचिवनम् । इष्टातिकरणं तु द्विविधमअथ शेषनिरूपणप्रस्तावनार्थमाह कपायतो, विषयतश्च । तत्र स्वपके कषायतो सिङ्गिघात:विष. मूलाऽऽदिसु पुण अहिगत-पुरिसाजावाण णस्थि वणचिंता।। यतस्तु सिङ्गिनीप्रतिधवा । परपके तु कषायतो राजवधः, वि. एतेसि पि मरूवं, वोच्छामि अहापुवीए ।॥ २०॥ पयतस्तु राजदारसेवेति । अथवा-अन्योन्यमूढदुष्टाऽऽदिकरणत. मूनाऽऽदिषु मूलानवस्थाप्यपाराचिकेषु, पुनःशब्दो विशे. इति व्याख्येयम्। तत्र चाऽऽदिशब्दातीर्थकराऽऽद्याशातनाकरणषणार्थः । तावना चैवम्-आलोचनाऽऽदीनि गोदाहर परिग्रहमतीयसंक्लेश उत्कृषदुएपरिणामे सति, तपसा चतुर्थाऽऽ. णन चिन्तितानि, मूलाऽऽदिपु पुनः, अधिकतपुरुषाभावेन दिना समयोक्तेन,कालतःपरामासादिना द्वादशवर्षा-तन,भ. प्रस्तुतचरणरूपनरासद्भावेन हेतुमा, मास्ति न विद्यते, व्रण निचारपारमपराधान्तम, अश्चति गच्छति । (ततो यत्ति)ततश्चाचिन्ता कतनिरूपणा, मुनाऽऽदीनि हि चरणाभाव एव भव. तिचारपारगमनानन्तरं दीक्ष्यते प्रव्राज्यते, नान्यति । य एवं. न्ति, तत्र चातिचारासंनयान व्रणचित्तोपपद्यते, ततो वाणु विधः स पाराश्चिकः, तदभेदात् प्रायश्चित्तमाप पाराश्चिकम्। चिन्ताविरदेण ततम्वरूपनतिपादनाय प्रस्तावयन्नाह एतेषामपि इति गाथार्थः ॥२३॥ मुन्नाऽऽदीनामपि, आलोचनाऽऽदीनांतूकमेव, स्वरूपं स्वभावम्, इहैव मतान्तरमाहपदयामि भणियामि, यथानुपूर्वि अनुपूपनतिक्रमेण । ति अम्मोसि पुण तकनन-तदमऽबेक्खाएँ जे अजोग त्ति । गाथार्थः॥१०॥ चरणस्स ते इमे खयु, सझिंगचितिभेदमादीहिं ॥२॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त (28) अन्निधानराजेन्रुः । अन्येषामपरेषामाचार्याणां मतेन पुनःशब्दो विशेषणार्थः । स एव यत्रापराधः कृतो भवो जन्म तद्भवः, तस्मादपराधजवादम्योऽपरो यो नवोऽनागतः स तदन्यः, तद्भवश्च तदन्यत्र तद्भ तदन्यैयाजी चा:, अयोग्या इत्यनुचिता एव इतिशब्दस्यावधारणार्थत्वास्पा-चरणस्य चारित्रस्य तेजपा [का] उच्यन्त इत्यर्थः खारेश्वर आप यतिमा तयोर्यो मेरो विनि दिप नगे च चितिमेव प्रतिमान विनाशनेन च भत चैताकारिणो वर्तमान नवे नवान्तरेषु च चरणयोग्याः इतबोधिलानत्वात् । आद संजा परिस घाय चचत्ये, मूलग्गं । बोहिलाभस्स " ॥ १ ॥ इति गाथाथेः ॥ २४ ॥ विश्वित्यम तथा तदादिभिस्त प्रथेदमेव समर्थय शाहआसपविचिया, फिलिडियाए तब कम्पाणां । प्रत्यस्स संजवातो, पेयं पि असंगयं चेत्र ॥ २५ ॥ प्राविचित्रता परिणाम चिया तिचा दुष्टता, मिरुपक्रमतयेत्यर्थः। तथैवेति समय कर्मणां मोदीबांगाम किमित्याह--अर्थस्य तद्भवान्यमवयश्चरणयोग्य शानक्षणस्य संभवादुपपद्यमानत्वात् न नैव, इदमपि आचा तोराणिक 1 समेवातमेव वैराग्य एवकारार्थः । इति गाथा: #124 11 अथ प्रायश्चित्तस्य विचित्रतोपदर्शनेन मतान्तरमेव समयाद आगममाई यजतो, जगद्वारी पंचहा बिधिदि । आगम सुयाणा धा-रणा य जीए य पंचम‍ ॥ २६ ॥ यासारखचणमेयमि नहि समय । भामेवादिनेदा, तं पुरा मुत्तान गायन्त्रं ||२७|| भागमाऽऽदिश्व ज्ञानविशेषप्रभृतिः । मका लाि चकारश्व युक्तयन्तरसमुचयार्थः यतो यतो व्यहारः प्रायश्चितसमाचारः, पचधा पञ्चभिः प्रकारः, विनिदिजिने॥पचार मर्यादाऽतिविधिय पद्यतेऽथी बेनाखावागमः केवलमनःपर्याया अधिचतुर्दशदशन व पूर्वलक्षणः । वयवहारता चास्य व्यव हारहेतुत्वाद । तथा शुतं भुनानं शेषमानङ्गभेदम् । कपि प्रथमैकवचनलोपो द्रष्टव्यः । तथा--भाज्ञा चीतार्थो देशान्तरस्थगीतार्थस्य तत्समीपगमनाय विचाराणां गुडापोकान निवेदनामार्थमा पनि सामा ए बहु निवेदिताऽतिचार निःमयचारणम् । तथा जीव गीतार्थसंविग्नप्रवर्तितशुद्धव्यवहारः । शब्दौ स चन्द्रयार्थी । पञ्चम एच पञ्चमः ॥ २६ ॥ तत एतदनुसार, पवित्रदारानुसारेण कपालका रे, विश्वित्रं पच्छित्त बहुप्रकारमेव प्रायश्चितम प्रत्यक भात इत्यर्थः । वर्णिम समयेत्यादि भेदात् प्रतिषेचा पुरुषप्रभृतिप्रेदेन तत्पुनः प्रायधिव चित्वम् सूत्रादागमात् ज्ञातव्यं विशेयमिति । तत्राssगमव्यवहारिणां प्रत्यक्षज्ञानित्वात् समानेऽप्यपराधे भाषानुसार प्रायदिनादिष्याि तु थुतमात्राऽऽदिप्रामाण्य व्यवहारित्वात् एवं प्रतिषेधाया भा कुट्टिमादयमेन इन था एवं पुरुषस्याऽऽद्यार्थी पाध्याय मित्रायात्वमेकः प्रायशि विचित्रापि मतान्तरं मत माथाइवाचः ॥२७॥ प्रयोक्तविधि प्रायश्चित्तस्यैव परमार्थे प्रतिपादयन्नाहएयं च एत्य त अमुहरनमाण इवति बंधो। आणाविराहणाणुग-मेयं पि य होति दव्वं ॥ २८ ॥ भावादिगम सोविय भागो खियो पतिमेस सम्मं विसिओ चैत्र दिएओ ॥ २७ ॥ । " पुनः प्रायश्वितविषये तवं परमार्थी ब नावातः श्विरिणामात् मति स्यात् कम (पति)माध्य वसानम । श्राज्ञाविराधनामाप्तोपदेशाननुपालनामनुगच्छ स्वनुसरतीत्याङ्गाविराम भवतेि स्पाय 1 यमिति ॥ २८ ॥ शुभभावात्प्रशस्ताध्यवसायात तद्विगमोड rahara भवति । ( सोवियत्ति ) स पुनः शुभा आम्रानुगागमनुवारी भने नियोगेन नियमेन अनाकानुगाम्यशुभ एवेति भावः । प्रायश्वितं च विशुकः पुनः, एष एव शुभभाव एव सम्यकू यथावत् । किं स ६ एवमेवाविशेषा योजितावेव विज्ञेयो शेयः । इति गाथाद्वयार्थः ॥ २६॥ विशिष्ट माध्यवसायः प्रायश्चिमित्यु त्वमेव तस्य दर्शयन्नाह , 可 अरमाणाम्रो जो सुहायो बिसेस अडियो । सोइ होति विसिडो, ओहतो समयथीतीर ॥३०॥ मापसाना कृत्यायन सकाशात् पा शुभभावः प्रायश्चित्ततया विवक्तिसम्परिणामः, विशेपतो विशेषेणाऽधिकोऽनर्गतरः, स शुनभावः, इह प्रायश्चित्तप्रक्रमे, नवति वर्तते, विशिष्टोऽतिशयवान्, न नैव सामानभावार्थः समयनया ऽऽगमन्यायेन । इति गाथार्थः ॥ ३० ॥ व्यतिरेके दोषमा हरा पंजादीणं, आवस्यकत चित्तं ति त्रिमुखी, ततो रा दोसो समय सिद्धो ॥ ३१ ॥ इतरथाया शुभमामात्रस्यापि प्रापइत्यर्थः । ब्राह्मचादीनामादिदेवज्येष्ठपुत्रीप्रभृतीनाम् श्रादिशब्दात्सुन्द र्यादिपरिग्रहः किमित्याह श्रावश्यककरण पत्र प्रतीतात् । तुशब्दका सामान विशि प्रायेनेत्यर्थः । प्राकृि इति कृत्या, विद्युद्धिः कर्मविगमोऽभविष्यत्, ततो विशु । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चित्त (१३३) अभिधानराजेन्द्रः। पच्चित्त सकाशात्, न नैव, दोषो दूषणम्, समयसिक पागमो- मतो निकाचितकर्मकपणदेतुत्वात्, एतत् शुजभावरूपं प्राय: क्ता स्त्रीस्वल कणोऽभविष्यदू, शतिन शुभजायमानं शुद्धिनिमि- चित्तमिति गाथाऽर्थः ॥ ३५॥ समिति ॥३१॥ (अत्र बालीवृत्तान्तः 'बंभी' शब्द बक्यते) अथाऽविदितानुष्ठानेषु युक्तं प्रायश्चित्तं, न तु विहितेषु भिअथोपसंहरनाद काचर्याऽऽदिग्विति परमतमादर्शयन्नाहता एयम्मि पयत्तो, कायव्यो अप्पमत्तयाए । बिहियाणुचाणम्मी,एत्यं प्रानोयणाऽऽदि जे जणियं । सतिचल जोगेण तहा, संवेगविसेसजोगेण ॥३॥ तं कह पायचिकृतं, दोसाजावेण तस्स त्ति ॥ ३६ ।। यस्माद्विशिष्ट एव बाजभावः शुकिनिमित्तं भवति । तस्मादे. अह तं पि सदोस चिय,तस्स विहाणं तु कह णु समयम्मि । तस्मिन् विशिष्शुभभावे, प्रयत्नः समुद्यमः, कर्तव्यो बिधेया, न य णो पायच्चित्तं, इमं पितह कित्तणाओ न ॥३७॥ अप्रमत्ततया स्वप्रमादेनैव, स्मृतिबायोगेन स्थूलेतराऽऽद्यति. विहितानुष्टाने आपमोक्तक्रियायां भिक्काचर्यादिरूपायाम, चारस्मरणसामर्थ्य युक्ततया, तथेति समुच्चये। संवेगविशेष. अत्र प्रायश्चित्ताधिकारे, पालोचनाऽऽदि आलोचनाकायोयोगेननवभयातिशयसंबन्धेन । इति गाथाऽर्थः ।। ३२ ।। त्सर्गप्रति, यत्प्रायश्चितं, भणितमुक्तमागमे-" भत्ते पाणे अथ कस्माद्विशिष्टशुभभावे अप्रमत्तत्वाऽदिना सयणा-सणे य अरतसमणसेज्जासु । उचारे पासवणे, यस्नो विधेय इत्याह पणवीसं होति ऊसासा ॥१॥" इति वचनात् । तत्कथं प्रा. यश्चित्तम ?। न कथञ्चित् घटत इत्यर्थः। दोषानाधेन निएनेण पगारेणं, संवेगाश्मयजोगतो चेव । दोनत्या हेतुना, तस्य निकाटना दिविहितानुष्ठानस्य, इतिः अहिगयविसिहजावो, तहा तहा होति णियमेणं ॥३३॥ वाक्यसमाप्तौ ॥ ३६॥ अथ धे, तदपि विदितानुष्ठानमपि, एतेनोक्तेन प्रकारेणाप्रमत्ततास्मृतियसयोगलकणेन । संबेगा. आस्तां तदन्यत् । सदोषमेव सातिचारमेव, तस्य निकाsतिशययोगतश्चैव संवेगप्रकर्षसंवन्धत एव च, ह चैतेन प्रका टनादेविधानमुपदेशः, कथं केन प्रकारेण , नु इति वितकें। रेणेत्यनेमेव संवेगसंयोगस्य ग्रहणे यत्पुनः साक्वात्तग्रहणं, समये सिद्धान्ते न तविधिः प्राप्नोतीत्यर्थः। मन्वालोचना 55. तत्तस्य विशिएशुननावजनने मुख्यकारणताप्रतिपादनार्थम् । दिप्रायश्चित्तमेव न जवतीत्याशङ्कघाऽऽह-नच नो, प्रायश्चित्तम अधिकृतविशिष्ठभावो विशुद्धिहेतुप्रस्तुतप्रकृष्टशुभाध्यवसायः। पि तु प्रायश्चित्तमेव, श्दमप्यालोचनाऽऽद्यपि, आस्तां तप प्रा. तथा तथा जीववीयोतिशयेन,प्रवति स्यात, नियमेनावश्यंजा. दि, कुत त्याह-तथा कीर्तनात तु प्रायश्चित्तत्वेन संशब्दना बन । इति गाथाऽयः ॥ ३३ ॥ देव । तथाहि-" आलोयणपमिकमणे मीसविवेगे । " . ततश्च त्यादि । इति गाथाद्वयार्थः ॥ ३७॥ सत्तो तनिगमो खलु, अणुबंधावणयणं व होजाहि । सृरिराहजं इय अपुब्ध करणं, जायति सेढीय चिहियफसा ॥३॥ जम्मा पायच्चित्तं, विहियाण्हाणगोयरं चेयं । ततो विशिएशनभावात्, सद्विगमः खलु अशुजाभ्यवसायजात. तत्थ वि य किंतु सुहमा, विराह पा अतिशतीऍमं ३ कर्मविनाश एव, अनुबन्धापनयनं पाशुभभावजातकर्मानुब- भएयतेऽभिधीयते अत्रोत्तरम प्रायश्चित्तम्, न तु न प्रायश्त्रि. ग्धव्यवच्छेदोवा, वेति विकल्पार्थ नवेत्स्यात, सर्वथा तद्विगमा. सम्। तथा विहितानुष्ठानगोचरं च विधेयक्रियाविषयम्, चशब्दो भावे । अथ कथं तद्विगमो भवतीत्याद-यत् यस्माकेतोः, विशेषणसमुच्चये। तत्र प्रथमविशेषणेन-"तं कहपायच्छित्तं" श्त्यमुना प्रकारेण विशिष्टशुभन्नावलकणेन, अपूर्वकरण. इत्यादिप्रायश्चित्त दूषणं बदयमाणयुक्तिवानिराकृतम् । विमएमगुणस्थानकमपूर्वेषामभ्यवसायविशेषाणां स्थितिघाताss. तायेन तु "अह तं पि" इत्यादि विहितानुष्ठानदरणमिति । दीनामधि करणततम्, जायते भवति, श्रेणिश्वोपशमकरुपक- एतदालोचनाऽऽदिप्रायश्चित्तं, किंतु केवसं तत्राऽपि च विहिश्रेणिरूपा, विहितफमा सिद्धान्तनिरूपितप्रयोजनानुत्तरसौग्य- | तानुष्ठानेऽपि च, प्रास्तामितरत्र, सापा, विराधना - निर्वाणफना । इति गाथाऽर्थः ॥ ३४॥ एकना, अस्ति विद्यते, अतस्तस्या विराधनाया:, शम्यर्थमि. मथ प्रायश्चित्तरूपशुभभावस्य पुनरपि महार्थतां दर्शयन्नाह दमेतदासोचना 55वीति गाथाऽर्थः ।। ३० ॥ अथ कथमुपयुकस्यापि सूक्ष्मा बिराएवं निकाइयाण वि, कम्माण जणियमेत्थ खवणं ति । धना स्यादित्याशक्याऽऽहतं पि य जुज्जइ एवं, तु भावियब अओ एयं ॥ ३५॥ सम्बावत्थामु जओ, पायं धो नवत्यजीवाणं । पमित्यनेनैव न्यायेनापूर्वकरणश्रेणिजननरूपेण, निका- नणितो विचित्तनेदो, पुवायरिया तहा चाह ॥३६॥ चितानामपि उपशमनाऽऽदिकरणान्तराविषयत्वेन नितरांबद्धा. सर्वावस्थासु सरागवीतरागादिसमस्तपर्यायेषु, यतो यस्मा. मामपि, पास्तामनिकाचितानां कर्मणांझानाऽऽवरणाऽऽदीनाम, केतो, प्रायो बाहुल्यनायोग्यावस्थायां बन्धो न म्यादपीति मणितमुक्तमागमे-" तबसा उ निकाझ्याणं पि" इति वचः सूचनार्थ प्रायोग्रहणम् । बन्धः कर्मबन्धो, जवस्थजीपानां मात् । अत्र प्रायश्चितरूपशुभनावे, कपणं सर्वथा कयो भवती- संसारिजन्तूनां, न तु सिकानां, जणित उक्तः सिमान्ते । किविध ति यत्तदपि च, अनिकाचितकपणं तु निर्विचारमिस्यपि च. इत्याह-विचित्रभेदो बहुप्रकारः, कुत एतस्सिमित्याह-पू. शब्दार्थः । युज्यते संगच्छते, ततश्चैवं तु एवमेव कर्मचिग. sऽचार्या प्रतीतसूरयः, तथा च कर्मबन्धविचित्रतार्थत्वेन मकम्र्मानुबन्धापनयनहेतुत्वेनैवं, नाययितम्यं पर्या लोचनीय- भाडु वते । इति गाथाऽर्थः ॥ ३६॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त अनिधानराजेन्द्रः। पन्छिन यदाहुस्तदेव दर्शयन् गाथापञ्चकमाह यस्मात् सर्वावस्थासु कर्मबन्धोऽस्ति, कर्मबन्धानुमेया व सत्तविहवंधगा हों-ति पाणिणो पाउन्जियाणं तु।। विराधना, इष्यत चासो व्यतो बीतरागस्यापि छमस्थस्य तह मुहमसंपराया, छबिहबंधा विणिदिवा ।। ४० ॥ । चतुणामपिमनोयोगाऽऽदीनामनिधानात् तस्मात् । (पवं चिय सप्तबिधबन्धकाः सप्तप्रकारको पाजंकाः, नवन्ति स्युः, प्रा. त्ति) पवमेव विराधनाया:शोधनीयत्वेन पतद्भिक्षाटनाऽऽदिणिनो जीवाः, आयुर्जितानां त्वायुःकमविरहितानामेव, शे. कम, विहितानुष्ठान विधेयक्रिया । अत्र कर्मापनयनप्रक्रमे, षाणां ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदीनां, ताक एकत्र भये सकृदेव बध्यते। जबति स्याद, इतिशब्दः समाप्त्यर्थो गाथाऽन्ते योज्यः। किं विधं भवतीत्याह-कर्मानुबन्धच्छेदनं कर्मसत्ताऽवच्छेदकम, नधेति समुच्चये । सूक्ष्मसंपराया दशमगुणस्थानवर्तिनः, षधिो बन्धो येषां ते तथा । विनिर्दिष्टा उक्ता बागमे ॥४०॥ भनघमदोष ,परोक्तदूषणामा घातू । किंभूतं सदित्याह-आलो. कथं परिधबधा इत्याद चनाऽऽदियुतमालोचनाप्रतिक्रमणाऽऽदिप्रायश्चित्तसमन्वितमि ति गाथाऽर्थः॥४५॥ मोहाऽऽनयजाणं, पगमीणं ते न बंधगा जणिता। इवार्थे परमतमाशक्य परिहरनाहउपसंतखीण मोहा, केवमिणो एगविहबंधा ॥४१॥ चिहिताणुट्ठाणतं, तस्स वि एवं तिता कहं एयं । मोहाऽऽयुजर्जानां मोहनीया युकवर्जितानाम्, प्रकृतीनां कर्म. पच्चित्तं णणु भाति, समयम्मितहा विहाणामो।।४।। भेवानां, ते तुसूक्ष्मसंपरायाः पुनः, बन्धका आवर्जकाः, भणिता विहितानुष्ठनत्वं विधेयाक्रियात्वम्, तस्याप्यालोचनाऽऽदिप्रा. उक्ताः, तथा उपशान्तः सर्वथाऽनुश्यावस्था कीणश्व निर्माणो यश्चित्तस्याऽपिसानोति, भास्तां निकाऽटनाऽऽदेः। एवमुक्तन्यामोहो मोहनीयं कर्म येषां ते तथा । केबसिनश्च लयोगिकेव येन, विहितानुष्ठानमालोचनाऽऽदियुतं सत्कर्मानुबन्धच्छेदन भव. लिनः, एकविधबन्धा व्यक्तीमति ॥ ४१५ तीत्येवंशकणेन, इतिशम्दो वाक्यसमाप्तौ । यत एवं तसते पुण असमयरितिय-स्स बंधमाण पुण संपराय स्स | स्मात्, कथम्?, न कथञ्चिदित्यर्थः तदालोचनाऽऽदिप्रायश्चिमेलेसीपडिवपा, अबंधया होति विसया ||२|| समुख्यत इति परः । सूरिराह-नन्विति परमताकमायाम, ते पुनखयोऽपि द्वौ समयौ बन्धोदयविशिष्ग स्थितिरवस्थान भण्यते उच्यते, उत्तरमत्र समये सिद्धान्त, तथा तेन प्रकारेण यस्व तत् द्विसमयस्थितिकं योगप्रत्ययं सातवेदनीयमित्यर्थः, प्रायश्चित्तत्वेन, विधानाद्विहितत्वादिति गाथाऽर्थः ॥ ४६ ॥ तस्य, बन्धका अका, नतुन पुनः, संपरायस्य कषायप्र- अथवा प्रायश्चित्तमपि पिहितानुष्ठानमेवेति दर्शयन्नाह.. स्ययस्य, उपशान्तीणकषायत्वात्तेषाम, तथा शैलेश्ययो- विहियाणुहाणं चिय, पायच्चित्तं तदप्महा ण जवे । पवस्थासंजवः करण विशेषस्ता प्रतिपन्ना श्राश्रिता येते समए अभिहाणाओ, इहत्थपसाहगं णियमा ।।७।। तथा ते, अबन्धकाः कर्मबन्धरद्रिताः, नवान्ति स्युः, विक्रया विहितानुष्ठानमेव विहितक्रियैव, प्रायश्चित्तमालोचनाऽऽदिकज्ञातव्या इति ॥४२॥ मिति प्रतिका, समये सिमान्तेऽमिधानामुक्तत्वादिति देता, एवं प्रकृतियधापकया सर्वावस्थासु बन्ध निकाऽटनाऽऽदिवदिति दृष्टान्तोऽभ्यूछः। विपर्यये बाधकमाहउक्तोऽथ स्थित्यपेकया तमाह तत्प्रायश्चित्तम्, अन्यथाऽविहितानुष्ठाने सति, न जबेत्र अपमत्तसंजयाणं, बंधठिती होति अट्ठ उ मुहत्ता । जागते, इष्टार्थप्रसाधकं कर्मविशोधकमित्यर्थः । नियमादवश्यनकोशेण जहमा, जिम्ममुहत्तं तु विएणेया ।। १३ ॥ तयति। यदिधार्थसाधकं न जबति तद्विहितानुष्ठानमपिन भवति, अप्रमत्तसंपतानां लप्तमगुणस्थानकवक्षाम, बन्धतः स्थिति यथा हिंसाऽऽदि, इष्टार्थसाधक च प्रायश्चितम, अतो विहिना. स्य कर्मोऽवस्थानम् । भवति स्याद्, अप तु अष्टावेव, नुछानमिति । अथवा पूर्वोक्तार्थमेव भावयन्नाह-विहितानुष्ठामुहान नाझिकायमानान्, उत्कर्षणोत्कर्षतः, जघन्या तु नमेव प्रायश्चित्तम, तत्प्रायश्चित्तमन्यथा विहितानुष्ठानत्वा भावे न भवेद् अविहितानुष्ठानत्वादेवेति । नन्वेवं विहितासर्वाऽल्पा पुनः, भिन्नमुहूर्तमन्त मुहूर्त यावत् । तुशब्दः पुनरों योजित पव, विज्ञेया अवसेया, कषायाणां स्थिति नुष्ठानत्वे प्रायश्चित्तस्य निकाटनादिवच्चोध्यतैव स्यान्न शो धकतेत्याशपयाऽऽह-समये अभिधानाचक्रोधकतया प्रायश्चि. बन्धहेतूनां विद्यमानत्वादिति ।। ४३ ॥ तस्याऽऽगमेऽभिहितत्वादिष्टार्थप्रसाधकं नियमाद्विशोधकमेव जे उ पमत्ताऽगाउ-ट्टियाए बंधति तेसि बंधठिती। तदिति गाथाऽर्थः॥४७॥ संवच्चराणि अट्ठ उ, को सियरा मुहुत्तंतो ॥४४॥ अथ प्रायश्चित्तम्य विहितानुष्ठानत्वसमर्थनार्यवाहये तु ये पुनः, प्रमत्ताः प्रमत्तसंयताः षष्ठगुगस्थानकवर्तिनः सव्वा वि य पयजा, पायच्छित्तं भवंतरकमा । अनाकुट्टिकया अनुपेत्य करणेन प्राणातिपाताऽऽदी वर्तमाना ब पावाणं कम्माणं, ता एत्य पत्थि दोसो ति || 10॥ भनन्त्यावर्जयन्ति कर्म, तेषां बन्धास्थतिः कर्मबन्धावस्थानं संवत्सरान् वर्षाणि, अए तु अष्टावेव, उत्कर्षा उत्कृष्टा भवन्ति, सर्वाऽपि च समस्ताऽपि च, न केवलं तदेकदेशः। प्रव्रज्या इतरा जघन्या पुनः । मुहर्तान्तरमन्तर्मुहर्त यावदिति | महावतप्रतिपत्तिः, प्रायश्चित्तं विशुभिहेतुर्नयति, केषामि. गाथापचकार्थः ॥४४॥ त्याह-नवान्तरकृतानां जन्मान्तरोपात्तानाम, पापानां नवनि बन्धनत्वेन यानाम, कर्मणां प्रतीतानाम, यत एवं तत्तस्माद, प्रस्तुतयोजनामाह अत्र प्रायश्चित्तस्य विदितानुष्ठानत्वे, मास्ति दोषो न विद्यते ता एवं चिय एयं, विहियाणुहाणमेस्थ हवइ त्ति। दूषणं, प्रवज्यानक्षसप्रायश्चित्तस्य विहितानुष्ठानत्वान्युपगमात कम्माणुबंधयण-मण हे पालोयगाऽऽविजयं ॥४५॥' इतिशम्दः समाप्तौ । इति गाथाऽर्थः ॥ ४८ ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त किं पुनः सम्वरितस्य प्रायधितस्य ि चिस णवरि लिंग, इमस्म पाणमकरणया तस्स । दोसस्स तहा छ, नियमं परिमुरूप विति ॥ ४ए ॥ चीर्णस्य सम्यवस्थित हिम अस्य प्रायश्चितस्य प्राणाः प्रावेशिकरणार मपि संजायते । अकरणमना सेवनं, तस्य यमाश्रित्य प्रायश्चितं प्रतिपक्षम, दोषस्यापराधस्य प्रायधिचाईस्य तथेति समुच्चये, अन्येऽपरे सूरया नियमे याकरणमेवेत्येवंसराम, प्रा. येणेतिमि परिशुष्केषि दोष इति प्रक्रमः । ब्रुवतेऽभिदधति । श्रन्ये तु व्याख्यान्ति-निमरनिय बासंसारं तावना परिशुद्ध दोषविशुकये। इति गाथा ऽर्थः ॥ ४६ ॥ अर्थदमपि मनान्तरं तदाहविच्छ्रयणए संजप-ठाणापातंपि जुज्जति इमं पि । वह चैव पया, जबपिपराण सायं ॥ ५० ॥ निश्चयनयेन तश्वनयमतेन, परिणामत इत्यर्थः । संयमस्था मापाचरणसिं (१२५) अभिधानराजेन्द्रः । इदमपि आचार्यान्तरमतमपि, आस्तामस्मन्मतम् । केपामित्याइ-तत्र संयमप्रतिपानमेव प्रवृत्तानां व्याप्तानां भवि रहपराणां संसारछेदनप्रधानानाम्, साधूनां संयतानामिति गाथाऽर्थः ॥ ५० ॥ पञ्चा० १६ बिव० । 'पायच्छितं ओहियं निच्छद्दथं च । " पं० चू० ४ कल्प०। स्था० । प्रायश्वित्तसूत्रद्वयम 61 चव्वि पायच्छित्ते पन्नत्ते । तं जहा - पाणपाय च्छित्ते, दंसणपायच्छित्ते, चरितवायच्छिते, वियत्त किये। चन्त्रि पायच्छिते पण ते तं महापदिषणापायच्छिते, संतोषारोपणापायच्छिते, पलितंचणा पायच्छिते । तत्र ज्ञानमेव प्रायमि तदेव पानाचे प्राययिनीति शाह प्रायश्चितमि ति । एवमन्यत्रापि ( वियत्तकिश्चेति ) व्यक्तस्य भावतो गीतार्थस्य करणीयं व्यककृत्यं प्रायश्रितमिति गीता दिचनेन न करोति स पापवि शोधकमेव भवतीति यतिचारविशुद्ध यानि प्रायवित्यासोबत विशेषतोऽमितानि तानि तथा"" विशेषेण भवस्थाऽयोचित्प्रेम विशेषानभिहितमपि दत्तं वितीर्णमभ्यनुज्ञातमित्यर्थः । परिकग्मिध्यस्थगीतार्थेनमा विव प्रायश्वित्तमेव । " वियतकिच्चेति पाठान्तरम् । प्रीतिकृत्यं स्वप्रतिषेधसेवनमन्यस्येति प्रतिवेषणः । द्विचा परिणामभेदात् प्रतिषेषणीयमेदादा परि नामदास" परिसेवणाउ भावो, सो पुण कुलोत्र होजकुललो वा । कुसलेख होइ कप्पो, अकुसलपरिणामभो दप्पो ॥ १॥" प्रतिषेधयजेदा "गुडसरगुपि सेवा समासेण । मूलगुणे पंचविदा 1 विहा यरा || १ || ” तस्यां प्रायश्चित्तमाओचनाऽऽदि । तच्चेदम् "आ. किम मीस तदा पिउसमे सपने वसूल अणव-व्या य पारंचिए चेय ॥ १ ॥ " इति प्रतिषेवणाप्राय 33 पि श्चित्तम् । तथा संयोजन मेकजातीयातिचारमीलनं संयोजना परीक्षा खोज्युका उडताऽऽविना सोनाकर्मियो जनाप्रायश्चित्तम् । तथा आरोपण मेकापराधप्रायश्चित्ते पुनः पुरुरासेवनेन विजातीयप्रायश्चित्ताध्यारोपणमारोपणा यथा-परात्रिन्दियं समापनयने दि [[मपश्यदशरात्रदिन रातस्तस्याधिक सपो देयं न भवति तुतवान्तमानि इद तीर्थे परमासान्तत्वासपस इति । उतं च " पंचाय रोपणे याचा जाब दौति पासा तेरा परमार्थ प वरि कोसणं कुजा ॥ १ ॥” इति । श्रशेपणायाः प्रायश्चित्तमारो. मिति तथा परिकुचनमपराधस्य क्षेत्रका जावानां गोपायनमन्यथा सतामन्यथा भणनं परिकुडचना, परिचचना वा । उक्तं च- "दुत्रे लेसे काले, जाये पलितंचणा "पाहिज सेवियं च अाये । सुम्भिकले पुग्भिक्सो, हघेणं तह गि. लाणेणं ॥ १६॥ " इति । तस्याः प्रायश्वितं परिकुडचनाप्रायथितम्। विशेषोऽत्र व्यवहार पीछादय इति प्रायश्चि कालात इति कालनिरूपणसूत्रम् मी पोमादि सत्यमाणं तदेव काम प्रमाणकालः स च श्रद्धा कालविशेष एवं दिवसाऽऽदिसण मनुष्यतीति दुनिमायकाल दि बसपमाणं च दोर राई व । बज्र पोरिसेिश्रो दिवसो, राई चपोरिसी चेत्र ॥ १ ॥ " इति । स्था० ४ ० १ ० कतिविधं ( ४ ) अथ प्रायश्चित्तमिति कः शब्दार्थः १, प्रायधितमिति प्रपीय प्राथमिकाद्वारका प्रतिपादनाय द्वारगाथामाहपायच्छित्तनिरुतं, भेया जत्तो परूवणावहुलं । अऊपणाण बिसेसो, तदरिपरिमा व मुल्ये ॥ २४ ॥ प्रथमतः प्रायश्चित्तनिरुकं प्रायश्चित्तशब्दार्थो वक्तव्यः । ततः प्रायश्चित्तस्य भेदाः प्रतिसेवनाऽऽदयो वक्तव्याः । तदनन्तरं य सो निमितपणाम किमुकं भवति नि मिरज म परिकुनाप्रायभितं च पृथगुपपद्यते यतोनयेोः [: कल्वाध्ययनव्यवहाराध्ययनयोर्विशेषो नानात्वं वक्तव्यम्, तदनन्तरं तदाऽपि प्रायश्चित्ता परिषद् वाच्या, तः सुवार्थ द्वारा थापायः व्यासार्थं तु प्रतिद्वारं वक्ष्यति ॥ ३४ ॥ त सरप्रतिपादनार्थमाह पानं छिंदर जम्हा, पायच्छित्तं तु भछते तेणं । विचिचं विमोह तेण पछि || २५ || यस्मात् शोधिरूपो व्यवहारोऽपराध संखितं पापं निि विनाशयति तेन कारयन प्राय भयोदिवा मिद्धिः । अथ प्रायेण प्राये जीवमत्र चित्तशब्देन "चित्तन्त्रितवतोरजेदोपचारात् " जीवोअभिधीयते । तथा चाऽऽह चूिंकृत वित्तमिति जीवस्थाये करोति तेन कारणेना * कालनिरूपणा सूत्रं स्थानमूलपाठतो ज्ञेयम् । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित (१३६) अन्निधानराजेन्दः। पच्चित्त पश्चित्तं, प्रायः ययाऽवस्थित नबत्यस्मादिति प्रायश्चित्तमिति तशरीरैकदेशच्छेदनमिय शेषशरीरावयवपरिपालनाय क्रियेत व्युत्पतेः । गतं निरुक्तद्वारम ॥ ३५ ॥ भवच्छदाहित्वाच्चरः। (मूल त्ति) यस्मिम्समापतिते प्रायश्चित्ते इदानी भेदद्वारप्रतिपादनार्थमाह निरवशेषपर्यायोच्छेदमाधाय भूयो महानताऽऽरोपणं तन्मूलाईपरिवणा य संजो-यणा य आरोवणा य बोधव्या । स्वान्मूलम् । येन पुनः प्रतिसेवितेनोत्थापनाया अप्ययोग्यः पलिचणा च उत्थी, पायच्चित्तं च मुद्धा न॥३६॥ सन् किश्चित्कालं न तेषु स्थाप्यते यावन्नाद्यापि प्रतिवि. प्रतिषिद्धस्याऽऽसवना प्रतिपेवणा,अकल्पसमाचरणमिति ना. शिए तपश्चरणं भवति, पश्चाच चीर्णतफास्तहोषात् परती घोषु स्थाप्यते तदनवस्थिताईत्वादनवस्थितप्रायश्चिनम्। वः। चा समुच्चये । संयोजना शय्यातरराजपिण्डाऽविभेदभिमापराधजनितप्रायश्चित्तानां संकल्पनाकरणम्, अारोप्य (पारचिए चेव ति) अचू' गत। च । यस्मिन् प्रतिसेचित लिते इति आरोषणा । प्रायश्चित्तानामुपयुपर्यारोपणं यावत् प. अत्रकालतपसा पारमश्चितं, तपारश्चितमईतीत पाराचित म । एष संपार्थः । व्य०१ उ० । ग०। ध। विशे। ध. एमालाः, परतो वमानस्वामितीय भारोपणायाः प्रतिष र०। जीत० । पं० २० । प्रव० । पश्चा। धात् । परिकुश्चनं परिकुञ्चना, गुरुदोपस्य मायया लघुइापस्य कथनम्-यथा-सचित प्रतिव्य मया अचित्तं प्रतिदि. तस्स उ विमुछि, पच्छितं तस्त कनिया जेदा । ताम याहेति । एका प्रतिवनात आरज्य गम्यमाना चतुर्थी छहाणादीया खलु, परूवणा तसिमा होनि ।। एवमेतत् प्रायश्चित्तं चतुर्की भवति । तत्र-" यथोद्देशे निर्दे- मुकाएमु व तेमु य, छब्धिह एगिदियादि पंचविहं। शः" इति न्यायान् । प्रथमतः प्रतिपेवणोच्यो-सा च प्र. संघयामपरीतावा-नवणे चेव णिप्फन । तिवणा प्रहिवकनिषेव्यव्यतिरेकेण नोपपद्यते, सकर्मकक्रियायाः कर्तृकर्मव्यतिरेकणासंजवात् । व्य०१००(प्रति चरहा तु नाणवते, दमणवंते चरितवंते य । पेवणापायाश्चत्तं स्वस्थाने) ततो चियत्ति किच्चे, अहवा दवाइयं चनहा ॥ घालोचनाऽऽदिप्रति विहारूपं प्रायश्चित्तमिदं दशधा दश अहवा थतिकमादी, चनहा कोहाइयं च चउहा तु । प्रकारं, तामेव दशप्रकारतामुपदर्शयति णााऽतियारमादी, होती तिविहं ति पच्चित् ।। पालोयणपमिकमणे, मीसविगे तहा विउस्सगे। अहवा आहारोवहि-सज्जतियारे य होति तिविहं तु । तबदमून अणव-हिया य पारांचर चेच ।। ५३ ॥ उगम उप्पायण ए-साय तिविहं तु एकेके । मर्यादायाम् । सा च मर्यादा इयम्-“जह बालो जं. आलोयपमिकमणे, तदुनयमेवं तु होति तिविहं तु । पंतो, कज्जमकरजं च उज्जए भण। तं तह पाल पज्जा, मा सचित्त अचित्त मीसग, सिविहं चेदं मुगेयव्वं ।।। पामयविप्पमुको न " अनया मर्यादया 'लोकृ'दर्शने। च55दित्वात् णिचू । लोकनं लोचना प्रकटीकरणम् । अालोचना अहवा मत्तविह, व दमदा का वि होति पच्चित्तं । गुगेः पुरतो वचसा प्रकटीकरणमिति जावः । यत् प्राय आनोयण पमिकमणे, मीस विवेगे यवोसग्गे ।। चित्तमालाचनमात्रेण शुध्यति, तद् श्राझोचनाहनवा कारण छगनवे य तत्तो, सम्मे तुबरित मत्तमं दो । कार्योपचारात् आलोचनन । तथा प्रतिक्रमण होपान् प्रति- अविह वेद विहो, देसे सव्ये य वोधयो ।। निवर्तनमपुनःकरणतया मिथ्यादुष्कृतप्रदानमित्यर्थः । तदहै प्रायश्चित्तमपि प्रतिक्रमणमाकिमुक्त । भवति-प्रायश्चित्तं णवविह सवच्छेदो, दुह संजमुबह बजती मृले । मिध्यादुष्कृतमात्रेणैव शुद्धिमासादयति, न च गुरुसमक्षमा. कानंतरम्मि इतरे, पुण खेत तोवहिं च दसभेदं ।। लोच्यते । यथा सहसाऽनुपयोगतः श्लेष्माऽऽदिप्रादुपजातं अहवऽनह दुविहेदं, एगविहं वा वि होज नेयव्यं । प्रायश्चित्तम् । तथाहि--सहपाउनुपयु के यदि श्लेष्माऽऽदिशक्तिप्तं पं० भा० १ कल्प। भवति। न च हिंसाऽऽदिकदोपमापनस्ताह गुरुसमक्षमालो. ( आलोचनाऽऽदिव्याख्या स्वस्थाने ) (नपोऽहंग्रायश्चित्ते चनामन्तरेणापि मिथ्यामुष्कृतप्रदानमात्रेण शुध्यति । तत्प। मासिकानि प्रायश्चित्तानि ' तयारिह ' शब्दे चतुर्थभागे तिक्रमणाईत्वात् प्रतिक्रमणं, यस्मिन्युनः प्रतिविते प्रायश्चि २२०८ पृष्ठे गतानि) (संयोजनाप्रायश्चित्तं 'संजोप्रणा' शदेव. से यदि गुरुसमकमालोचयनि, आलोच्य च गुरुसंदिः प्रति- यते। (आरोपणाप्रार्याश्चत्तम 'आरोवणा 'शब्दे द्वितीयभागे कामति, पश्चाच मिथ्यादुष्कृतमिति ने तदा दाख्यति तत् ३८६ पृष्ठ गतम ) ( प्रतिकुवनाप्रायश्चित्तम् ' पनिउंचणा' भालोचनाप्रतिक्रमणलवणोजयाईत्वामिश्रम । तथा विये- घम्यते शब्द) कः परित्यागः, यत्प्रायश्चित्तं विधेक एव कृते शुछिमामा. (५) प्रायश्चित्तदानयोग्या पर्वत । इदानीम-" तदग्हिपदयति, नान्यथा, यथा प्राधाकम्मणि गृहीते तत् विधेकाऽऽई. रिसा य" इत्येतद् द्वारं याचिख्यासुः “द भाणयं पुरिस्वात् विवेकः तथा व्युत्तर्गः फायचेष्टानिरोधः । यहात्मा सजाया" इत्यवयचं व्याख्यान यन्नादमेंण कायचेष्टानिरोधोपयोगमात्रेण शुद्धयति प्रायश्चित्तं, यथा दुःस्वप्नजनित, तद् व्युत्सगोहत्याद् व्युत्सर्गः (तीन) य. बट्टनम अकप्पे, पच्छित्तं तस्स बरिणया नेदा। स्मिन् प्रतिसेविने निर्षिकताऽऽदिपामासपर्यवसानं तपो दीय जे जण पुरिमजाया, तस्स रिहा ते इमे हूंति ॥१५॥ गत्तोऽहत्वात्तपः, पस्मिन्पुनरापतिते प्रायश्चित्ते संदूषितपू. | ह का वर्तमानस्य तत्रो क्तविधिना यतनया प्रवृत्तेः प्राय बेपयायशावदः शेषपर्यायरवानिमित्त यो विषदपिश्चिाविषयरीवनापजायते त्यग्रहणमा प्रकल्प दपावते. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चित्त अभिधानराजेन्डः। पच्चित्त मानस्य यत्प्रायश्चित्तं, तस्य ये भेदाः प्रतिसेवनासंयोजना55. संप्रति पुरुषभेदमार्गणायामेव प्रकारान्तरमाह यस्ते वर्णिताः, ये पुनस्तस्य प्रायश्चित्तस्थाह योग्याः पुरुषप्र. अहवा साविक्खियरे, निरवेक्खा सचहा उकयकरणा। कारा, पुरुषभेदा इत्यर्थः । ते इमे वक्ष्यमाणस्वरूपा भवन्ति । इयरे कयाऽकया वा, थिराऽथिराहोति गीयत्था॥१६॥ तानेव दर्शयति अथ वेति प्रकारान्तरामदं पूर्व कृतकरणाऽकृतकरणभेदावा दौ कृत्वा पुरुषभेदमार्गणा कृता। अत्र तु सापेक्षनिरपेकभेदी कयकरणा इयरे वा, सावक्खा खलु तहेव निरवक्खा । तथा चा७४-(साविक्खियरे ति) द्विविधाः प्रायश्चित्ताः पुरुनिरवेक्खा जिण मादी सावक्खा पायरियमादी ।।१६।। पाः। तद्यथा-सापेक्वाः, इतरे छ । सापेका गच्छवासिनः । ते च कृतकरणा नाम-पष्ठाटमाऽदिनिर्विविधतपोविधानः प. विधा प्राचार्याः, नपाध्यायाः, भिकवश्च । निरपेक्का जिनकल्पि. रिकम्भितशरीराः इतरे भकृतकरणाः षष्ठाटमाऽऽदिमि- काऽऽदयः। तत्र ये निरपेकास्ते सर्वशः सर्वात्मना कृतकरणाः । स्तपोविशेषैरपरिमितहरीराः । तत्र ये कृतकरणास्ते ! तुशनस्य समुच्चयार्थत्वाद् अधिगताः, स्थिराश्च । इतरे विविधाः । तयथा सापेक्काः खलु , तथैव निरपेक्काः, सह सापेक्का द्विविधाः । तद्यथा-" फयाकया वा" इति पदैअपेक्षा, गच्चस्यति गम्यते । येषां ते सापेका गच्चवासिनः । कदेशे पदसमुदायोपचारात कृतकरणाः, अकृतकरणाश्च । निर्गता अपेक्षा येभ्यस्ते निरपेक्काः, ते त्रिविधा जिना. चशम्दः समुच्चये । कृतकरणा अपि द्विधा- स्थिराः, अस्थि दयः । तद्यथा-जिनकल्पिका, शुद्धपरिहारिकाः, यथा- राश्च । एकैके किंधा-गीतार्थाः, भगीतार्थाश्च । सूत्रे गीसन्दकल्पिकाख । पते नियमाः कृतकरणाकृतकर- तार्था इत्युपलकणम । ततोऽगीतार्धा अपि विवृताः ॥ १६२ ॥ जानामन्यतमस्यापि कल्पस्य प्रतिपाययोगात् सापेक्का अपि अथ किस्वरूपाः कृतकरणा? , इति कृतकरणस्वरूपमाहत्रिविधा भाचार्यादयः । तद्यथा-प्राचार्वाः, उपाध्यायाः, बहऽहमाइएहिं, कयकरणा ते उत्जयपरियाए । निवाश्च । पते प्रत्येकं द्विधात्वात्षट् नवन्ति । तद्यथा-श्रा- अहिगयकयकरण, जोगा य तवारिहा केई ॥१६॥ चार्याः कृतकरणाः, अकृतकरणाश्च । उपाध्याया अपि कृत. कृतकरणा नाम ये षष्ठ एमाऽऽदिनिस्तपोविशेषैरुभयपर्याये, करणाः, भकृतकरणाश्च । भिकवोऽपि कृतकरणा, प्रकृतकर श्रामण्ये, गाईस्थ्ये पर्याये वेत्यर्थः। परिकम्मितशरीरास्ते ज्ञात णाश्च । तत्र कृतकरणानां चिन्त्यमानस्वादस्यां गाथायामेते व्याः, तद्विलकणा इतरे सामादकृतकरणाः। भत्रैव मतान्तर कृतकरणा प्राह्याः॥१६० ॥ माढ (अहिगए इत्यादि) केचिदाचार्या ये मधिगतास्ते नियमात् अकयकरणावि दुविहा,अपहिगया अहिगया य बोधना। कृतकरणा इत्यधिगतानांकृत करणत्वमिष्यन्ति । कस्मादिति दत माह-( जोगा य तवारिहा इति) " निमिसकार. जं सेवेइ अहिगए, अणहिगए अस्थिर इच्छा ॥१६१॥ ण हेतुषु सर्वासां विनतीनां प्रायो दर्शनमिति " वृरूमहाऽऽचार्या उपाध्यायाश्च कृतकरणा अकुतकरणा वा निय. यैवाकरणप्रवादात् हेतावत्र प्रथमा । ततोऽयमर्थः-यतस्त. माद् गीतार्थाः, स्थिराव, तत हाकृतकरणा निकव एवं प्रा. महाकल्पश्रुताउदीनामायतका योगा व्यूढाः, तत प्राय. ह्याः । ते अवनकरणा भिवो द्विविधाः । तद्यथा-अनधि. तकयोगाही अनवनिति नियमतोऽधिगताः कृतकरणागताः, अधिगताश्च । अनधिगता नाम आगीतार्थाः । अधिगता। इति । तदेवं कृता पुरुषजेदमार्गणा । साम्प्रतमीषां प्रायगीतार्थाः। अपिशब्दः संभावने । स चैतत् संजावयति-ये | श्चित्तदानविधिर्वक्तव्यः-तत्र ये निरपेका जिनकल्याऽऽदयस्ते भिवोऽधिगतास्ते द्विविधाः । तद्यथा-स्थिराः, अस्थिराश्च ।। यत्प्रायश्चित्तमापनास्तदेव तेभ्यो न दीयते, द्विविषया गुरुमास्थिरा नाम धृतिसंहननसंपन्नाः, तद्विपरीता अस्थिराः। प्र. घवनिरपेक्षत्वात् । सापेक्काणां तु सापेकतयैव प्रायश्चित्तदाधिगताः अपि विधा-स्थिराः, अस्थिराइच। कृतकरणा अपि नविधी तद्विपया गुरुलाघवचिन्ता कर्तव्या॥१६३॥ भिववो द्विधा -अधिगताः । अनधिगताश्च । अनधिगता अपि तत्र यानि प्रायश्चित्तानि दातव्यानि तानि ঘ্যি-কথা, অব। সম্বিনা স্বাব ব্রিা-থি, संपतो गाथाडूयेनाऽऽदअस्थिराश्च । मत्रैव संकपतः प्रायश्चित्तदानविधिमाह- निन्धिइए पुरिमले, एक्कासा अंबिझे चमत्थे य । (जसेवेश इत्यादि ) यत्प्रायश्चित्तस्थान सेवते अधिगतो पणगं दस पन्नरसा, वीसा तह पासवीसा य ।।१६४॥ गीतार्थः। उपलकर्णमतव कृतकरणः, स्थिरश्च । तस्म, तदेव प. रिपूर्ण दीयते । तदेव प्रायश्चित्तस्थान प्राप्ते अनधिगते अस्थि मासो लहुओ गुरुगो, चउरो मासा हवंति बहुगुरुगा। रे, चशब्दावरुतकरणे च गुरोः प्रायश्चित्तदानविधी इच्छा सू. छम्मासा बहुगुरुगा, दो मूलं तह सुगं च ॥१६॥ प्रोपदेशानुसारेण स्वेचा। तथाहि-यदि श्रुतोपदेशानुमारतः निर्विकृतिक विकृतिप्रत्याग्यान, (पुरिमति) दिवसपूर्धा - कृतकरणः स्थिरोऽधिगत इति वा । कृतकरणादपि समर्थ इति प्रत्याख्यानम् । एकाशनाचाम्लचतुर्थीनि प्रतीतानि । (परणगं विकातो भवति, तदा यदेव प्रायश्चित्तमापनस्तदेव तस्मै दी. ति) रात्रिदिनानां पश्चकम् । (सहुगुरुयं ति) वक्ष्यमाणं पदन. यते । अथासमय इति परीक्कितस्ततो यथायश्चित्तं प्राप्तस्त- प्रापि व्याख्यानठो विशेषप्रतिपसिरिति विभक्तिपरिणामेन सं. म्याक्तिनमनन्तरं दीयते, तत्राऽप्यसमर्थतायां, ततोऽप्यमन्तर, बद्ध्यते । (पणगं ति) लघु रात्रिन्दिवपञ्चकं च । तय सघुरात्रि सत्राऽप्यसमर्थतायां ततोऽनन्तरम्। एवं यथा पूर्व क्रमेण ताबमेयं न्दिवपञ्चकमाचाम्लेन, एकस्यादिदिनैर्वा हीनं परिपूर्णम् । गुरु यावनिर्षिकृतिक, तत्राऽप्यसमर्थतायां पौरुषीप्रत्याख्यानं, तत्रा- रात्रिदिवपश्चकम् । एवं सति सघुरात्रिदिनदशकम । गुरुरा. प्यशक्ती नमस्कारसहितं गाढग्लानत्वाऽऽदिना, तस्याप्यसंभव विन्दिवदशकम। (पन्नारसत्ति) लघुरात्रिन्दिवपञ्चविंशतिकम, परमेवाऽऽलोचनामात्रेण अद्यापादनमिति । १६६॥ (मासो लहु गुरुत्ति) लाघुमासो, गुरुमालः । चत्वारो लघु३५ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छिन्त (१३८) अभिधानराजेन्डः। पत्ति मासाश्वत्वारो गुरुमासाः। पण्मासा लघवः, पएमासा गुरवः। तथा-वेदः कतिपयपर्यायस्य मूलं,मर्धपर्यायोच्छदेन व्रताऽऽरोपणम् (नहा दुगवत्ति)। अनवस्थाप्य, पाराश्चितच । इह पारा. श्चिनप्रायश्चित्तवर्ती प्रायो जिनकाल्पकप्रतिरूपको वर्तते । उतं च-"पारंचिउ पगागी, इचादि जिणकप्पियाडरूवगा।" इति । अनवस्थाप्यप्रायश्चित्तवयंप्येवंगुणः । उक्तं च"संघयण बिरिय पागम, सुत्तविहीए जो समुज्जुत्तो। निग्गहजुतो तवस्सी, पबयणसारे गहिय प्रत्यो।।१॥ तिलतुसविनागमित्तो, वि जस्स असुभो न विजए जावो । निज्जूहणारिहो सो, सेसे निज्जूहणा नत्यि ॥२॥ एयगुणसपत्तो, पावश्णवउप्पमुत्तमगुणोहो। एयगुणविष्पहीणो, तारिसगम्मी, नवे मनं ॥ ३॥” इति । एतौ चैकान्ततो निरपेकौ । सापेक्काणां त्वयं प्रायश्चित्तदानविधिः कथयितुमुपक्रान्तः, ततो मूत्रादारज्य प्रायश्चित्तदानविधिरुच्यते तथा चाऽहंपढमस्स होइ मूलं, विइए मूलं व दो गुरुगा। जयणाएँ होइ मुच्छो, अजयणगुरुगा तिविहभेदो।।१६६।। प्रथमस्याऽऽचार्यसा कृतकरणस्य सापेकस्य महत्यप्यपराधे सा. पेक्षत्वात्प्रायश्चित्तं मूलम् । उपनक्कमेतत्-तेनास्यवाकृतकरणस्यासमयत्वात् द इत्यापि द्रष्टव्यम् । द्वितीधे उपाध्याये कृतकरणे तथारुभायधृतिबल समर्थतायां मूलम, तरथा . दः । अकृतकरणे गुरु परमासिकम । इहाऽऽचार्य उपाध्यायो पा यदि यतनया करणे देशकालानुरूपं प्रायश्चित्तस्थानेऽवसिष्ठ, तदा शुद्धो, न प्रायश्चित्तविषयः, यतनया कारणे प्रवृतेः। श्रयतनया तु प्रायश्चित्तस्थाने प्रवृत्ती मूसं, दो बा। प्राचार्यस्य उपाध्यायस्य गुरुकादारभ्योक्तं, प्रकारेण त्रिविधः प्रायश्चित्तस्य नेदः, घरगुरु, हो, मूलं च । एवमुक्तानुसारेण भिदुष्वपि प्रायश्चित्तदानविधिरनुसरणीयः । एतदेव ब्याचक्षाण श्राहसव्वेसिं अविसिट्ठा, आवित्ती तेग पढमया मूलं । सावक्खे गुरु मूलं, कयाकए होइ पुण छेत्रो ॥ १६७ ॥ सावक्खो तिन कान, गुरुस्स कयजोगिणोजवे दो। अकयकरणम्मि छग्गुरु, इइ अठोक्कतिए नेयं ।। १६८ ॥ इति प्रायश्चित्तदानविधिरुक्तप्रकारेण कथयितुमभीयो यथा सर्वेषामाचार्यादीनामापत्तिः प्रायश्चित्तस्यापादानमविशि. टा, सापेकाणां च महत्यपराधे मृवं नामानवस्थाप्यं, पाराश्चि. तं चा। ततः प्रथमतया सर्वेषां मूलमापत्रमविशिष्टप्राधिकृय गुरुलाघवचिन्तया प्रायश्चित्तदानविधिरुच्यते । तत्र सायके गुरौ आचार्ये,गाथायां विभक्तिलोपः प्राकृतवान् । कृते कृतकर. णे। "प्रायश्चित्तं मूझ सापेके।" शति व बनात् । महत्थप्यपराधे गुरी सापेकत्वात् मूल मेव प्रायश्चित्तं, न वनवस्थाप्यं, पराचितं वेति ज्ञापितम् । एतदेव चोपजीव्य प्रागध्यवमस्मानि व्यायातम। प्रकृते अमृतकरणे, गुराविति संबन्धादाचारये भ. वति प्रायश्चित्तं छेदः। (सावेक्षो तिव कानमित्यादि) पत्र गुरुशब्देनोपाध्यायः प्रोच्यते, प्राचार्थस्योक्तस्वात् । गुरोरुपाध्या. यस्य, कृतयोगिनः कृतकरणस्थ, मुखं प्रायश्चित्समापनस्या पि सापेक शति कृत्वा प्रायश्चित्तं दो जवति । तस्यापि कृतकरणस्थ मनाक निरपेक्तायां मूत्रमिति प्रायश्चित्तम् । “वि. ए मूलं च दो उभारुगा (१६६)" इति वचनात् । अकृतकरणे तु तस्मिन्नेवोपाध्याये मूलमा पन्नेऽपि प्रायश्चित्तं षट् गुरुकाः। गुरवः षण्मासाः, प्राक् कृतकरणतया बेदप्रायश्चित्तस्याप्यनई. स्वात् । इति एवममुना प्रकारेण (अबढेकतिए इति) इह एकैकस्मिन्नाचार्याऽऽदौ स्थानेऽकृतकरणकृत करणभेदतो वे वे प्रायश्चि से । तयोइच द्वयोरेकमा प्रायश्चित्तमपक्रामति । द्वितीयं चो. सरस्थाने ऽनुवर्तते । एक च पोरर्द्धमित्यहीपक्रान्स्या, शेयं प्रा. यश्चित्तदानम् । इदमिति संक्किप्त मुक्तमिति। बिनयजनानुग्रहाय यन्त्रककल्पनया विशेषतो भाव्यते । तत्र यन्त्रकविधानमिदम्तिर्यग् द्वादश गृहकाणि फ्रियन्ते । अधोमुखं च विंशतिगृहाणि । एवं च द्वादशगृहात्मकानिर्विशतिगृहाणि । एवं च द्वादशगृहात्मिका विंशतिगृहपङ्क्तयो जाताः । तत्र विंशतितमायां पतौ दविणतोऽन्तिमे ये द्वे गृहके ते मुक्त्वा तस्या अधस्तात् दशगृहाऽऽस्मिका एकविंशतितमा पक्तिः स्थाप्या। तस्यामप्येकविंशतितमायां पङ्कौ ये द्वे अन्तिम गृहके ते मुक्त्वा अधस्तात् अष्टगृहास्मिका द्वाविंशतितमा पतिः स्थापनीया । तस्यामपि ये है अन्तिमगृहके ते मुक्त्वा तस्या अधस्तात् षम्गृहात्मिका योविंशतितमा प. डियंसनीया, तस्यामपि ये द्वे गृहके ते विमुच्य तस्या धस्ताश्चतुहात्मिका चतुर्विशतितमा पङ्किः स्थापयितव्या । तस्यामपि ये द्वे अन्तिम गृहके ते परित्यज्य तस्या अधस्तात द्विगृहात्मिका पञ्चविंशतितमा पङ्गिः स्थाप्यते, तस्या अधस्तादेकगृहात्मिका षर्विशतितमा पाडः । एवं षड्विंशपङ्क्त्यात्मकस्य यन्त्रकस्य सर्वोपरि तत्थापक्रमपक्तरुपरि प्रथमगृह के कृतकरण आचार्यः स्थापनीयः। द्वितीये गृह के अकृतकरणः । तृतीये कृतकरण उपाध्यायः । चतुर्थे स पवाकृतकरणः। ५श्चमे अधिगतस्थिरनिशुः कृतकरणः। षष्ठे स एवाकृत करणः । स. तने अधिगतास्थिरभिक्षुः कृतकरणः। अष्टमे स एवाकृतकरणः। नयमे अनधिगतस्थिरभिक्षुः वृत करणः । दशमे स एवाकृतकरणः । एकादशे अनाधिगतास्थिरभिक्षुः कृतकरणः । द्वादशे अनधिगतोऽस्थितेऽकृतकरणः । एवं स्थापयित्वा कृतकरणस्याऽऽचार्यस्य मूलं, तस्मिन्नेवापराधे. ऽकृतकरणस्य चंदः । उपाध्यायस्य मूलमापनस्य कृतकरणस्य दः । अकृतकरणस्य षएमासगुरु । तत्रेवापराधे निक्कोरधिगतस्य कृतकरणस्य षामासगुरु । अ. कृतकरणस्य षएमासलघु। अधिगतस्य भिक्कोरस्थिरस्य कृत. करणस्य षएमासलघु । अकृतकरणस्य चतुर्मासगुरु । श्रन. धिगतस्य निको स्थिरस्य कृतकरणस्य चतुर्मासगुरु। तस्यैव अकृतकरणस्य चतुर्मास लघु । अनधिगतस्य भिकोरस्थिरस्य कृतकरणस्य चतुर्मासलघु । तस्यैवाकृतकरणस्य मालगुरु १२। एवं प्रथमपत। मूनादारब्ध मासगुरुके निष्ठितम् । द्वितीयपत प्रथमे गृह के छेदः । द्वितीये पागुरु । तृतीये घरगुरु । चतुर्थ षट्लघु। पञ्चमे षट्ल घु। षष्ठे चतुर्गुरु। सप्तमे चतुर्गुरु। अष्टमे चतुर्लघु। नवमेऽपि चतुर्भधु । दशमे मासगुरु। एकादशेऽपि मासगुरु । द्वादशमे मासलघु । अत्र बेदादारब्धमासमधुके निष्ठितम । तृतीयपङ्कौ प्रथमे गृहके षट्शुरु । द्वितीये पट्ल घु। तृतीये षट्मघु। चतुर्थे चतुमासगुरु । पञ्चमे चतुर्मामगुरु । षष्ठे मास. लघु। सप्तमेऽपि चतुर्मास लघु । अष्टमे मासगुरु । दशमे मा. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५ ) अभिधानराजेन्ऊ: 1 पच्छित्त অল্প लघु । एकादशेऽपि मासलघु । द्वादशे जिनमा गुरु गुरुकादारब्धं भिनमासे गुरौ निष्ठितम् । चतुर्थपङ्क्तौ प्रथमे गृहके घु । द्वितीये चतुर्मासगुरु तृतीयेऽपि चतुर्मागुरु तु चतु मे पट्टे मासगुरु | सप्तमे मासगुरु । अनुमे मासलघु 1 नवमेऽपि मासलघु । दशमे भिमादमा निष्ठिनम् । तृतीये अमासलघु अब पम्गुरुकादारवं लघु भित्रमा पचमपट्टी प्रथमे मुद्दे चतुर्मासगुरु द्वितीये चतुर्लघु । चतुर्थे मासगुरु पश्चमेऽपि मासगुरु । षष्ठे मासलघु । सप्तमे मासलघु । अघुमे भिन्नमासो गुरु । नवमे भिन्नमासेो गुरु । दशमे भिन्नमासो लघु । एकादशे भिन्नमासो लघु । द्वादशे गुरु शितिराचिदिवम अनुरु विंशतिरात्रिदिवे स्थित पट्टपको 1 चतुर्मास लघु । द्वितीये मासगुरु । तृतीयेऽपि मासगुरु । चतुर्थे मासल छु। पञ्चमेऽपि मास पष्ठे गुरु पति सप्तमेऽचि गुरु पञ्चविंशतिकम् अश्मे लघु पचविंशतिकम् | नवमेऽपि लघु पञ्चविंशतिकम । दशमे गुरु विशतिकम् । एकादशमे गुरु विंशतिकम्। द्वादशे लघुविंशतिकं चतुर्मासघुकादारब्धं लघुविशति स्थितम्। प्रथमगृह के मासगुरु द्वि तीये मासलघु तृतीये मासलघु चतुर्थे गुरुपचविंशतिकम | पञ्चमे गुरुपञ्चविंशतिकम्। षष्ठे लघुपञ्चविंशतिकम्। सप्तमे लघुपातिकम् अन कम्। दशमे लघुविशतिकम् एकादशे लघुविशतिकम घाइ गुरुपञ्चदशकम् । अत्र मासगुरुकादारण्यं गुरुपत्रदशके पर्याप्तम् । श्रष्टमपङ्क्तौ प्रथमे गृहके मासलघु । द्वितीये गुरुपञ्चविंशतिकम् । तृतीये गुरुपञ्चवि शनिक चतुर्थे लघु पथमेशा बघु प गुरुविंशतिकम। अष्टमे लघुविंशतिकम् । नवमे लघुविंशनिकम् । दशमे गुरुपञ्चदशकम् एकादशे गुरुपञ्चदशकदशकम् [मत्र मासलादार 1 लघुके पदके पथ के गुरुपच विशतिद्विशितिकमनीये लघु विंशतिकम् । चतुर्थे गुरुविंशतिकम् । पत्र मे गुरुविंशतिकम। षष्ठे लघुविंशतिकम् । सप्तमे लघुविंशतिकम । श्रष्टमे गुरुपञ्चदशकम् । नवमे गुरुपश्चदशकम् । दशमे लघुपञ्चदशकम् । एकादशे लघुपवदशकम्। द्वादशे गुरुदशकम् । शितिकार गुरुदशके नितिम दशको रेशम द्विशतकम्। तृतीये गुरुविंशतिकम् । चतुर्थे लघुविंशतिकम्। पञ्च लघुविंशतिकम । श्रष्टमे लघु रकम नवमे लघुपञ्चदशकम्। दशमे गुरुदशकम । एकादशे गुरुदशकम् । द्वादशे दशकं लघु । अत्र लघुस स्थित शीत तुर्भे गुरुपञ्चदशकम् । पञ्चमे गुरुपञ्चदशकम् । सप्तमे ल घुञ्चदशकम् । अष्टमे गुरुदशकम् । नवमे गुरुदशकम् । दशमे लघुदशकम् । एकादशे लघुःशकम् । द्वादशे गुरुपञ्चकम् । अत्र गुरुविंशतिकादारब्धं गुरुपत्रके पर्याप्तम् । द्वादशपङ्की प्र घुस द्वितीये घुलघुम् ਰਚ षष्ठे गुरुदशकम् । श्रष्टमे लघुदशवम् । नवमे लघुदशकम् । दशमे गुरुपञ्चकम् | एकादशे गुरुपञ्चकम् । द्वादशे गुरुपञ्चकम् | बादघुघुविशतिकादारल 1 त्रयोदशपङ्क्तौ प्रथमे गृहके गुरुपञ्चदशकम् । द्वितीये पञ्च दशकम् । तृतीये लघुपञ्चदशकम्। चतुर्थे गुरुदशकम् । पश्चमे गुरुदशकम्। षष्ठे लघुदशकम् । सप्तमे लघुदशकम् । अष्टमे गुरुपञ्चकम् | नवमे गुरुपञ्चकम्। दशमे लघुपञ्चकम् । एकादशे लघुपञ्चकम् । द्वादशे दशकम् । अत्र गुरुपञ्चदशदशमेति चतुर्दशी प्रथम लघुञ्चदशकम् । द्वितीये गुरुदशकम् । तृतीये गुरुदशकम् । चतुर्थे लघुदशकम् । पञ्चमे लघुदशकम् । षष्ठे गुरुपञ्चकम् । सप्तमे गुरुपञ्चकम् | अष्टमे लघुपञ्चकम् । नवमे लघुपञ्चकम् । दशमे दशमम् । एकादशे दशमम् । द्वादशे अष्टमम् । अत्र लघुकामे निष्ठितम्। दशपकी प्रथमे गृहके गुरुदशकम्। द्वितीये लघुदशकम्। तृतीये लघु चतुगु रुपञ्चकम् । सप्तमे लघुपञ्चकम् । अष्टमे दशकम् । नवमे दशकम्। दशमे अष्टमम् | एकादशे अष्टमम द्वादशे षष्ठम् । अत्र गुरुदशकादार पनि प्रथमे गृहके लघुशकम् । द्वितीये गुरुपञ्चकम | तृतीये गुरुपञ्चकम् । चतुर्थे लघुपञ्चकम् । पञ्चमे लघुपञ्चकम् । षष्ठे दशमम् । सप्तमे दशमम् । अष्टमे अष्टमम् | दशमे षष्टम् । द्वादशे चतुर्थम् । अत्र बघु. दशकादारब्धं चतुर्थे निष्ठितम् । सप्तदशपतौ प्रथमे गृहके गुरुपञ्चकम् । द्वितीये लघुपञ्चकम् । तृतीये लघुपञ्चकम् । चतुर्थे दशमम् । पञ्चमे दशमम्। षष्ठे श्रष्टमम् । सप्तमे श्रमम्। श्रष्टमे नवमे एकादशे चतुर्थ आयामा समिति अत्र गुरुकादमायामा तिम अष्टादशपको प्रथम द्वित तृतीये दशमम् । चतुर्थे अष्टमम् । पञ्चने श्रष्टमम् । षष्ठे षष्ठम् । सप्तमे पम । अष्टमे चतुर्थम् । नवमे चतुर्थम् । दशमे श्राचामात्रम् । एकादशे आचामाम्लम् । द्वादशे एकाशनकम् । लघुमेकाशन मितिम् कोशि तितमायां पङ्कौ प्रथमगृह के दशमम् । द्वितीयेऽष्टमम् । चतुर्थे षष्ठम् । पञ्चमे षष्ठम । षष्ठे चतुर्थम् । सप्तमे चतुर्थम् । अप्रुभे श्राचामाम्लम् । दशमे एकाशनकम् । एकादशे एकाशतकम्। द्वादशे पूर्णप प्रथमे दमम्। द्विती पठम् तृतीयेचटुम्ब चतुर्थम् । पञ्चमे चतुर्थम् । षष्ठे श्रचामानम् अष्टमे एकाशनकम् । नवमे एकाशनकम् । दशमे पूर्वार्द्धम् । एकादशे पूर्वाद्वा निर्विकृतिकरण निर्विकृति के निष्ठितम्। एकविशी प्रथमे गृहके पि तीये चतुर्थम । तृतीये चतुर्थम् । चतुर्थ श्राचामाम्लम् । पञ्चमे आनामाम्लम् । षष्ठे एकाशनकम् । सप्तमे एकाशनकम् । अष्टमे पूर्वार्कम् । नवमे पूर्वार्द्धम् । दशमे निर्भिकृतिकम । पठादार मिर्चिकृतिके निष्टिनम द्वात्रिंश ङ्कां प्रथमे गृहके चतुर्थम् । द्वितीये श्राचामास्म । तृतीये आ चामालूम। चतुर्ये एकाशनम्। पञ्चमे एकाशनम्। षष्ठे पुत्रम् । पूर्वम्। निर्विकृति अतुि तिमी प्रथमगृह के बा पकाशनकम एक शकन् चतुर्थे पू Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) अभिधानराजेन्द्रः । पच्छित्त र्वार्द्धम | पञ्चमे पूर्वाम्। षष्ठे निर्विकृतिकम्। चतुर्विंशतितमप काशनम् द्वितीयेपूर्वा तृतीये पूर्वा चतुर्थे निर्विकृनिकम पनि प्रथम पूर्वा द्वितीये नििितक शितितमायां पट्टी निर्दि कृतिकमिति । तदेवम्-" कथकरणा इयरे वा ।" इत्यादिना ये पुरुषभेदाः प्रागुकास्तेषां प्रायश्चित्तदानविधिरुक्तः । संप्रति" से गित" इत्यादि यद् गारा मुकं तद्व्याख्यानार्थमाह अककरणा उ गीया, जे य अगीया य अक अथिराय। तेसा बत्ति अांतर, बहुतरियं व कोसो वा ।। १६७ ॥ ये गीतार्थाः । अधिगता इत्यर्थः । अकृतकरणाः । ये च अगीतार्थाः, अनधिगता इति भावः। ( अकय चि) प्रकृतकरणाः । चशब्दात् कृतकरणाश्च । अस्थिराय अकृतकरणातेषां कदाचित् आपत्तिप्रायश्चित्तं दीयते । यत् यत् प्रा. धिमा तदेव दीयते इति यावत्कदाचिनाविधाय समर्थतायां यत्प्रायधिसमापनं तस्यायन्ते । कदाचित्प्रभूतायामसमर्थता महन्तरितं बहुभिः प्राधिर नदीमा 'भोग' वा सर्व. स्य प्रायश्चितस्य परित्यागः । श्रालोचनामात्रेणैव तस्यामवस्थायां तस्य शुद्धिभावनात् यथा कृतकरणस्योपाध्यायस्य मूलमापन्नस्य तथाविधयोग्यतायां मूलं दीयते । अकृतकरणस्य पुनरसमर्थ इति कृत्वा छेदः, तथाप्यसमर्थतायां गुरु । एवं तावत्यं यावनिकृतिक । पीरुपमा नमस्कारसहित स्थापित्वभावतोऽसंभव एवमेवान किरिति । तदेवम्-" कयकरणा इयरे वा । " इत्यादिगाथाद्वयं सकऩमविभावितम् । अधुना " सावेक्खा आयरियमादी ।" इति यक्तं तत्र परस्वाऽऽक्षेपमाद " परिवादी तो सारखा तु किं कबो भेदो । एसि पच्चित्तं, दाणं चणं श्रतो तिविहो ॥ १७० ॥ नम्बाचार्योपाध्याययोरपि भिकुस्वस्यावस्थितत्वात् तदूग्र हणे तयोरपि ग्रहणमिति । किं किमर्थं सापेक्षाणां त्रिविध आचार्यादिक अभि बमुक्ते सुरिराह - (पपसि इत्यादि) पतेषामाचार्याऽऽदीनां यत् अाजवति प्रायश्चित्तं यच तस्य प्रायश्वित्तस्य समर्थासम पुरुवाssaपेकं दानं तत् पृथक पृथक अन्यत्, अतः सापेकाणामार्यादिकस्त्रिविधो भेदः कृतः । एतदेव सविशेषमाहकारणमकारर्थं वा, जयणा अजयला व नस्य पित्थो । पण कारणं, आयरियादी भवेतिमिदा ।। १७१ ।। इदं कारणं प्रतिसेवनाया इमकारणं तथा इयं यतना, इय. भयतना इत्येतनास्ति अगीतार्थे श्रगीतार्थस्य तु. अर्थात गी तार्थस्यास्तीति प्रतीयते । तत्राऽऽचार्योपाध्यायौ गीतार्थी भिकु. गीतार्थोऽगीतार्थश्च कारणे यतनया कारणे अयतनया पृथĮ क् पृथक् अन्यत्प्रायश्चित्तं सहासपुरुषाऽऽद्य पेकानुतुल्यपि प्रायश्चित्ते आपद्यमाने पृथगन्यो दानविधिरत एतेनाचार्या पच्छित्त स्त्रिविधा जवन्ति सूत्रे इति । बहुस्वेऽप्येकवचनं प्राकृतत्वात्, प्राकृते हि वचनव्यत्ययः क्वचिद्भवतीति । पनामेव गाथां व्याख्यानयति कज्जाकज्ज जयाजय- अविजाएं तो अगी जं सेवे । मां होइ तस्स दप्पो, गीओ दप्पो नए दोसा ।।१७२ ।। कार्य नाम प्रयोजनं सतत् प्रयोजकत्वात् कार णम् । अत पत्राम्यत्रोक्तम्- "कारणं ति वा, कज्जं तिचा एगट्ठा।" रायमर्थः गीतार्थः कारणं न जानाति यस्मिद् प्रा ते प्रतिसेवना न क्रियते, तथा कारणे अकारणे या प्रतिले. वनां कुर्वन् यतनामयतनां वा न जानाति, पताभ्यजानानो यः सेवते तस्य दर्पो भवति । सा तस्य दपिका प्रति सेवना भवतीति भावः । गीतार्थः पुनः सर्वाष्यप्येतानि जानाति, ततः कारणे प्रतिसेवते नाकारणे । कारणेऽपि यतनया न पुनरयतनया । ततः स शुद्ध एव न प्रायश्वितविषयः । भगीतार्थस्य त्वज्ञानतया दर्पेण प्रतिसेवमानस्य प्रामशिवसं यदि नाद प्रतिसेवते कारणेऽव्ययतनया बा तदा तुल्यमगीतार्थेन समं तस्य प्रायश्चित्तम् । तथा चाऽऽह गीए दवा जर दोसा ।" गीते गीतार्थे, दर्पण प्रवर्त मागे प्रतिसेयमायामिति गम्यते। कारणेपि प्रतिसेवनामयतमाने अगीतार्थेन तुल्यं तस्य प्रायश्चित्तमिति जात्रः । प्र. तिसेव्यमाने तुल्ये वस्तुनि दर्पेणापि क्रियमाणायां प्रतिसे वनायां यतनया प्रवृत्तौ न तुल्यं प्रायश्चितम् । कारणे पुनर्थतनया प्रवर्त्तमानः : शुद्ध एव न प्रायश्चित्तविषयः । तत्राऽऽचार्या उपाध्यायाश्च नियमात् गीतार्था इति गीतार्थत्वाका समाः केवलं प्रतिसेव्यमानं वस्तु प्रतीत्य विषमाः भिक्षवो गं - तार्थाऽगीतार्थ इव भवन्ति । प्रतिसेव्यमपि वस्त्वधिकृत्य द इति वस्तुतो गीतार्थविश्व पृथक विमिश्रं चिभिप्राय सिहासपुरुष याति प्रायश्चि पृथ विप्रायश्विचदागम् सरूप झोप दंमो वि किमुत उतरिए । तत्युच्छेद इहरा, निराशुकंपा न य विसो ॥ १७३ ॥ दरामोऽपि इति अपिशब्दस्य निम्नक्रमत्वात् लोकेऽपीत्येवं प्र. केहि महत्वपर महान् दएकोऽल्पेऽल्पीयान् तथा समानेऽपि दोघे अपधनस्याल्पो महान् धनस्य महान् । लोकेऽपि तावदेवं किमुत किं पुनरीरिकं कोनरसंहारे, तत्र दोष सामर्थ्यानुरूपो दरामः, तस्य सकलजनानुकम्पायाः प्रधानत्वात् । यदि पुनरल्पेऽपि दोषे महान्दराको महत्यल्पीयान् तथा यदि मारा चाचा योनिमा रायमस्थित्वं वाणपेत्य तदनुरूपो दमः स्यात् किं तु तुल्य एव तदा व्यवस्थाया श्रभावतः सन्तानप्र वृत्य संभवे तीर्थेच्छेदः स्यात् । तथा निरनुकम्पाया अनावः प्रायश्चित्तदायकस्य असमर्थ निक्षुप्रभृतीनामनुग्रहात् न च तस्य प्रायश्चित्तदायकस्य विशोधिरप्रायश्चित्तस्य, प्रायश्चिते ऽध्यनिमाषप्रायश्वित्तस्य दानतो महाशातनासंभवात् । "अय्य चित्य देव पच्चित्तं च्छित्ते श्रमतं आलाया तस्समइती उ ।" इतिवचनात् । ततः सापेक्षा श्राचार्याऽऽदय स्त्रिविधार उक्काः । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४१) प्रन्निधानराजेन्द्रः। पच्छित्त पच्छित्त तत्रैव प्रकारान्तरमाह त् स्तोको दएमः, तरुणे महान् । एतच (पुश्वुत्तमिति ) प्राअहवा कज्जाकले, जयाजयंते य कोविदो गीतो।। गेवोक्तम-" दोसविस्वापारुवो।" इत्यादिना, ततो न्याय्य. . दप्पा जतो निसेवे, अणुरूवं पावए दोसं ॥ १४ ॥ मनन्तरादितमिति । अयोति प्रकारान्तरे, गीतो गीतार्थः, स कारणमपि जा सम्प्रत्याचार्योपाध्यायभिक्षुणामेव चिकित्साविषये विधिनानाति, अकारणमपि जानाति, यतनामपि जानानि, अपत नात्वं दर्शयतिनामपि जानाति एवं कार्ये यतायते कोविदो गीताथों यदि दर्षे. तिविहे तेगिच्चम्मी, ज्यवाउमण साहुणा चेव । ण प्रतिसेवते,कारणेऽप्ययतनया, तदा सदायतनाहो निषेव- पावणमणिच्छते, दिलुतो भफिपोरहिं ।। १७६ ।। माणोऽनुरूपं दो प्रायश्चित्तं प्राप्नोति; दायतनानिष्पन्न त्रिविधे त्रिप्रकारे प्राचार्योपाध्याय भिकुलक्षणे, विचिकित्स्य. तस्मै प्रायाईचत्त दीयते इति भावः। माने, गीतार्थ इति गम्यते । ( उज्य नि ) ऋजु संस्फुटमेव कप्पे य अकप्पम्मि य,जो पुण अविणिचितो अकज पि। व्यापृतसाधुना व्याप्त क्रियाकथनं कर्तव्यम् । श्यमत्र भावना. कजमिति सेवमाणे, अदोसवतो असढभावो ॥१७॥ प्राचार्याणामुपाध्यायानां गीतार्यानां च भिकूणां चिकित्स्यमानाः पुनः कल्पे अविनिश्चितः किं कल्प्यं किमकल्ल्यमिति नां यदि शुद्ध प्राशुकमेषणीय लज्यते, तदा समीचीनमेव, न विनिश्चयरहितः सोऽकार्यमपि, अकल्प्यमिति जावः । कार्यमि. तत्र विचारः । अथ प्राशुकमेघणीयं न लभ्यते, अवश्यं च चि. नि करिव कमिनि बुना सेवमानोऽशठभावः । अत्र हेतों प्रथमा । कित्सा कर्तव्या, तदाऽशुद्धमप्यानीय दीयते,तथानते दीयमाने प्रभाववाददोषवान् न प्रायश्चित्तभागवतीति भावः। स्फुटमेव निवेद्यते-६८ मेवभूतमिति, तेषां गीतार्थत्वेनापजं च दोसमयाणं तो, देईनूओ निसेवई । रिणामदोषस्य चासंभवात् । अगीताभिकोः पुनः शुशालाभे चिकित्सामशुरून कुर्वन्तो मुनिवृपना यतनां कुर्वन्ति, न चा. निहोस केण हुज्जा, विधाणंतो तमायारं ।। १७६ ।। शुई कथयन्ति । यदि पुनः कथयन्ययतनया कुर्वन्ति, त. दे नूतो नाम गुणदोष परिज्ञानविकोऽशभावः । सयं दा सोडपि परिणामस्वादनिच्छन् यत् गाढा विपरितापदोषमजानानो नियते प्रतिसेवते तमेव दोषं विजानानः नमनुजवति, तन्निमित्तं प्रायश्चित्तमापद्यते तेषां मुभिवृषभाकोविदो गीतार्थ आचरन् समाचरन् केन हेतुना निर्दोषवा. णाम । यद्वातिपरिणामतया सोतिप्रसङ्ग कुर्यात्तस्मान्न कथनीन्, दोषस्याभावो निदात्र, तदस्यास्तीति निर्दोषवान, भवेत, य, नाप्ययतना कर्तव्या । अथ कथमपि तेनागीतार्थेन भिक्षुनेव भवतीति नावः । तीव्र दुष्टाध्यवसायभावात् । न खझु णा ज्ञातं भवेत, यथा अकल्पिकमानीय मां दीयते इति जानानस्तीव दुष्टाध्यवसायमन्तरेण तथा प्रवर्तते । तदा तदनिच्छन् प्रज्ञाप्यते। तथा चाह-(पमवणमाणिच्छते तदेवं दृष्टान्त मनिधाय पुनन्तिकयोजनामाह इति) अकीलकमानच्चत्यगीताथै निकी प्रज्ञापना कर्तव्याएमेव य तुसाम्म वि, अबराहपयम्मि वष्टिया दो वि । यथा ग्लानार्थ यदकल्पिकमपि यतनया सेव्यते तत्र शो, सत्य वि जहाणुरूवं, दनंनि दंडं दुवेएह पि ॥१७७।। ग्लाने यतनया प्रवृत्तेल्पीयान् दोषोऽशुद्ध प्रहणात्, सजिपि च पश्चात् प्रायश्चित्तेन शोधयिष्यते, न चाऽसावस्पीयान् पथमेवा नव प्रकारेण,अनेनैव दृशान्ते नेति भावः। द्वावपि जना, दोषो नाङ्गाकतव्यः, उत्तरकालं प्रतसंयम लाभात । तथा. बाम्तामेक इत्यापावार्थः । तुल्यऽपि ममानेऽप्यपराधपदे घ. हि-चिकित्साकरणतः प्रगुणीनुतः सन् परिपालयिष्यसि । तिनौ, तत्रापि तुल्ये ऽयपराधपदे द्वयोरपि, ततो यथाऽनुरूपं चिरकाल संयमम । समयप्रभावनइन कदाचिदम्यते तद्भव गातार्थागीतार्थयतनासंहननविशेषानुरूपं दरा, दजयन्ति प्र. एव मोक्षो यदि पुनः चिकित्लान कारयिष्यसि ततस्तदकर. यच्चन्ति । नम्मारप्रायश्चित्तभेदतः प्रायश्चित्त दानभेदतश्चाचार्याऽऽदि जतो मृतः मन्त्रसंयतो भविष्यसि, असंयतस्य नृयाकर्मिय कत्रिविधी भेदः कृतः तदेवमाचार्याऽऽदित्रिविधभेदसमर्थना. म्धस्तस्मादस्पन बदन्वेष्यतामेतद्विद्वत्ताया लक्करणम् । क्त योक्तरूपहष्टान्तवशनो गीतादिभेदत श्राभवत्प्रायश्चि च-" अप्पेण बहुमेसेज्जा. एये पंमियलक्खगामिति । "एवं सनामास्वं चौपदर्शितम् । इदानीमन एव पन्नावस्थाभेदतो प्रशापनां तरुणे क्रियात् । यः पुनीलः स वालवान गीतार्थ एव केवले शोधिनानात्वमुपदर्शयति ययाणित करोत्यव । यस्तु वृद्धस्तरुणो वाऽतिरोगग्रस्तांच किरलनीयः स प्रोत्साह्यते-महानुभाव ! कुरुभक्तप्रत्याख्यान, एमेव तु दिलुतो, तिविहे गीयम्मि सोहिना । साधय स्वं पूर्वमहर्षिीरवात्तमार्धे नजिजनवचनाधिगमफलमिबत्युमरिमो न दंडी, दिज्जइ लोए वि पुयुत्तं ।।१७।। ति । यदि पुनरेवमुत्साह्यमानोऽपि न भक्त.प्रत्यास्थानं क तुमिगीत गीता त्रिविधे त्रिप्रकारे बालतरुणवृद्धलक्षणे यत् । छति, तदा भपीपाताच्या दृष्टान्तः करणीयः । नरामी गशोधिनानात्वं तद्विषय एष पवानम्तरादितस्वरूपो दृष्टान्तः । न्त्री, पोतः प्रवहणं, दृष्टान्तकरणं चाग्रे ग्रन्थकारः स्वयमेव द. नयाहि-यथा कल्ल्याकल्प्यविधिपरिज्ञानर्विकलो कल्पनीयमपि शाययति । एष गाथासमासार्थः। कल्पनीयामसि बुद्ध्या प्रतिसेवमानो न दोपवान् जवति । कोचि. साम्प्रतमेनामव गाथां विवृणोतिदम्नु कल्पाकप्याज नानोऽकल्पनीय प्रतिसेवमानो दोषवान। एचमिहापि नुल्य प्रतिसेव्यमाने वस्तुनि नरुणे प्रभून प्रायश्चित्तं, महालाजेऽगीते. अजयण क[रण कहले नवे गुरुगा। समयत्वात् । बालवृद्धभोः स्तोकम,असमथस्वात नाचत जाव अतिपमंगं, असवमाण व असमाह। ।।१०।। न्याय,गता लोकेऽपि वस्तुसदृशः पुरुषानुरूपो दण्डो दीयते । अगीते धर्माता भिको झुद्धालाने प्रासुकैषीयामाभे, अ. तथाहि-बाले वृरू च महत्पपि अपराध करुणासदत्व.. हारेन चिकित्स्यमाने यदि अयतना बियते, कथ्यते वा तदा Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छिम प्रनिधानराजेन्द्रः । पच्छित मुनिवृषनाणामयतनाकारिणां कथयता प्रायश्चित्तं भवति गणं वनाईय सारविस्म.माझंवमेवी सम्वेऽ मुक्ख।।१०।। गुरुकाश्चत्वारो मासगुरवः । थमत्र भाषमा- यदि प्रयतमा. यो ग्लानः सनवमवबुध्यत समर्थो नुतः सनस्थिति करणतोऽकरणो वा हातं भवति-यथा ममान चिकि प्रभूतलोकप्रजाजनादिना तीयांव्यवच्छेदं करिष्यामि (भदु. मागिने------निषभाणां सवारों गुरुकाः । एत- वेति) अयबा-अहमध्येध्ये सूत्रतोऽर्थतश्च द्वादशाकं, दर्शनचामाबाराप्रवृत्तिनिषेधार्थ प्रायश्चिसम् । था पुनरनिच्चतोऽ प्रभावकाणि वा शास्त्राणि, यदि वा तपोलब्धिसमन्धितत्वात् समाधिप्रवृत्तेरनागादाऽऽविपरितापनानिष्पन्नमन्यदेव पृथगिति। तपोविधानेषु नानाप्रकारेषु ( उज्जमिस्सं ति ) उद्यमिष्यामि यदि वा सोऽतिपरिणामकत्वादनिप्रसङ्गं कुर्यात् । अथवा- उद्यम करिष्यामि । गणं वा गच्छं वा नीत्या समोरया चिकित्सायाः प्रतिषेधतोऽकल्पनीयमलवाने रोगपक्षियशा. सारयिष्यामि गुणैः प्रवृद्धं करिष्यामि । स एवं सालम्ब. समाधिस्तस्य स्यात, असमाहितस्य च कुगतिप्रपाता, त. सेवी पतैरनन्तरोदितैरासम्बनयंतनया चिकित्सार्थमकल्यमपि स्मासस्मिन् यतनया कर्तव्यम्, न च कथनीयमिति । प्रतिसेवमानः समुपैति प्राप्नोति मोक्कं मिलिमिति ॥ १८४ ॥ साम्प्रतं यदुक्तं भएमापातायां इष्टान्तः कर्तव्य इति, तत्र भ.। गतो नामनिष्पनो निक्षेपः । व्य०१ उ०१ प्रक० । राहीरष्टान्तं भावयति सम्प्रति सत्रालापकनिष्पनस्य निक्षेपस्यावसरः स च मुत्रे सनि जा एगदोसे अदहा उभंकी, भवति । सूत्रं चाऽनुगमे । म चानुगमो द्विधा-सूत्रानुगमो, सीलप्पए सा उ करेइ कज्ज । नियुक्त्यनुगमइच। तत्र निर्युक्त्यनुगमत्रिविधः। तद्यथा-निके. जा दुबमा संविया विसंती, पनियुक्त्यनुगमः, सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमः, उपोदातनिर्यु. न तंतुसीबंति विसासदारुं ॥ ११॥ कल्यनुगमस्त्वान्यां घारगाथाभ्यां लमवगन्तव्यः । तथ्याया भएकी गन्त्री, एकदेशे क्वचित् अढा, सा शीक्षाप्यते उद्देसे निद्देस, य निग्गमे खेत्तकाझपुरिसे य । तस्याः परिशीलनं कार्यते, तुशम्दो यस्मादर्थे, यतः सा तथा कारणपच्चयलक्वाण-नए समोयारणाऽमए ॥१॥ शीलिता सती करोति कार्यम् । या पुनः संस्थापिता सती किं कविहं कस्स कहि, केस कहि केचिरं हवा का। दुबला न कार्यकरणकमा, तां विषम्मदा नैव, तुशब्द पव. कारार्थी मित्रक्रमस्वादत्र संबध्यते । शील यन्ति, कार्यक कश्संतरणमविरहियं, नवागरिसफासणनिरुत्ती॥३॥ रणाकमवात । एष नए डीयान्तः । एतदनुसारेण पोतदृष्टा अनयोरर्य आवश्यकटीकातोऽवसेयः, महार्थत्वात् । सुत्रस्प. तोऽपि भावनीयः। शिकनियुक्त्यनुगमसूत्रप्रवृत्तौ नवसूत्रं भवसूत्रानुगमे,स चावस. नघणा रप्राप्त एव, युगपब सूत्राऽऽदयो नजन्ति । तथा चोक्तम-"सु. जो एगदोसे प्रदढो पोतो, सं सुनाणुनमी, सुत्तालावगकतो य निक्खेवो । सुसम्फासिय. निज्जु-त्तितया य समगं तु वञ्चति ॥१॥ सीलप्पए सो न करे कज्ज । विषयविभागः पुनरयममीषामवसातव्यःजो मुन्चलो संविभो वि संतो, होइ कयस्थो चोर्नु, सपयव्य नवे सुया घुगमो । न तं तु सीनंति विसमदारूं ।। १२ ।। सुखालावगनासो, नामादिनासविणिोगा। दान्तिक योजना वेवम्-यदि प्रभूतमायुः संजाव्यते, प्रगु सुत्तफासियनिज्जु-सिनिश्रोगो सेसो पयत्यादी। णी कुतश्च देहः संयमव्यापारेषु समर्थ शनि ज्ञायते तदा पायं सो श्चिय नेगम-नयादिनयगोयरो होइ । चिरकामसंयमपरिझापाननाय युक्ता चिकित्सा, अल्पेन प्रन: तमन्वेषयदिति वचनात् । यदा त्वायुः संदिग्धं, न च प्र. अत्रापपीरहा सामायिकाध्ययने निरूपिताविति नेह वि. गुणीकृतोऽपि देवः संयमव्यापारक्कमस्तदेवं प्रज्ञापना नि तायते। सूत्रानुगमे बाउत्खनिताऽऽदिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् । फला चिकित्सेति, न चिकित्सा कारयितुमुचितति ।। तश्चेदं सूत्रम्अन्यश्च जे जिका मासियं परिहारहाणं पाममवित्ता प्रारोएज्जा अंदेहियमारोगं, पउगो वि न पञ्चलो न जोगाणं । । अपलिचियं प्रायोएमाणस्स मासियं, पलि चियं श्राइइ सेवतो दप्पे, बट्ट न य सो तहा कजे ॥१३॥ लोएमाणस्स दोमासियं ॥१॥ संदिग्धमारोग्यम्, प्रतिरोगग्रस्तत्वातामच प्रगुणोऽपि प्रगुणी. __ अम्य व्याख्या-तल्लकणं चेदम-"सीहताच पदं चैव, पदार्थः कृतोऽपि योगानां संयमव्यापाराणां करणे प्रत्यक्षः समर्थ इति । पदविग्रहः । चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या सूत्रस्य परिधा जानानो यदि यतनया:प्यकलयं प्रतिसंवते, सदा स द ॥१॥"तत्राऽस्खलितपदोचारणं संहिता । सा चैवम-"जे. वर्तते । न च स तथारूपो दो गीतार्थेन करणीयः, दलित भिक्खू मासिय।" इत्यादि पाठः । अधुना पदानि-यः भि. कप्रतिसेवनाया दीर्घसंसारमूनत्वादिति प्रज्ञाप्यते । शुमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य प्रायोचयेत् । अपरिकु. यदि पुनरेवमपि प्रकाप्यमानो नावबुध्यते, तदा यतनया समा- उच्य आलोचयमानस्य मासिकंपरिकुष्य आलोचयमानस्य धिमुत्पादयानरुपेक्कितव्यम् । य: पुनस्तरुणो मनाक वृको वा मासिकमिति (१।अधुना पदार्थ:-अस्मिन्प्रस्तावे यत्पीप्रगुणीकृतः सन् तपासंयमाऽप्रदेषु प्रत्यलो भपितति ज्ञायतेविकायामक्तम्-" सुत्तस्थो " इति द्वारक, तदापतितम् । य तदा तं चिकित्सामप्रतिपद्यमानं प्रत्येवं ज्ञापना इति सर्वनाम, अनिर्दिघनामा निर्देशः । भिकायां याश्चायाम. काई अस्थिति अदवा होईनवोविहाणेस य उजमिस् यमनियमव्यवस्थितः कृतकारितानुमोदिसपारहारण भिकत इस्य Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त अभिधानगजेन्द्रः। बंशानो जिकु"सन्भिताशंसाः"५॥२॥३३ । इति प्रत्ययः। उपलकणमेतत्-ताली वृकस्तत्र भवं नासम्-माझवृतफलम्। यरिवा-नैरुता च शब्दव्युत्पत्तिः-बुध बुत्तुकायाम् । कृष्यति तस्मिक्षापि प्रायश्चित्तस्य दानविधिरालोचनाविधिश्न वक्तुमुप. भूकते भोक्तुमच्गत चतुर्गतिकमपि संसारमस्मादिति क्रान्तः, ततो यदादी कम्माभ्ययने मासिकं प्रायश्चि समुकं, संपादित्वात् कुल. मठप्रकारं कर्म, तं ज्ञानदर्शनचारि. तस्य पुनः इत्यादि । पुनःशध्दो विशेषणे । स चेम विशेष मोनप्रतपोभिनितीति जिनुः। “पृषोदराऽऽदया"॥३.२।१५५ । यति-तत्र हि सामान्यत एव मासिकं प्रायश्चित्तमुक्तम, इतीष्टरूपनिष्पत्तिः । मालेन निवृत्तं मासिकम् । " तेन नि. न दानविधिरालोचनाविधिति । इद पुनर्यवहारे तस्य मा. तेच" ॥६।२।७२।। इतीकण् । परिहियने परित्यज्यते, गुरु- सिकस्य प्रायश्चित्तस्येदं दानं भणितमालोचन विधिश्च । न मूलं गत्वा यत् तत् परिहारविषयः। "अकसरि च कार०" ॥३॥ केवलमस्यैव मासिकस्य प्रायश्चित्तम्य, कि त्वन्येषामपि मा. ३२६॥(पा.) इति कर्मणि घम्। तिष्ठन्ति जन्तवः कर्मकबुषिता सिकप्रायश्चित्तानां तत्रोक्तानां सामान्येन सूत्रस्य प्रवृत्तत्वात्। अस्मिन्निति स्थानम् । "करणाऽऽधारे" ॥५३।१२।।। इत्यनट्। एमेव सेसएसु वि, सुत्तेसु कप्पे नाम अज्य णे। परिदारः स्थान परिहारस्थानम् विशेषणसमासः । ( पडि. सेवितेति ) प्रतिशब्दो भृशार्थे, प्रकर्षे वा। सेविस्वा प्रति जहिं मामियावित्ती, तीसे दाएं हं भणियं ॥३॥ सेव्य । 'गतिक्वन्यस्तत्पुरुषः।। ३।१ । ४२॥" इति समासः। एवमेव अनेनैव प्रकारेण,कलो नाम्नि अध्ययने यानि शेषाणि "भनयत क्त्वोयप् ॥ ३।२।१५४ ॥ इति कावो यबादेशः। सूत्राणि " सपरिक्खे आवाहिरिए कप्पेश हेमंतगिम्हासु मास सत्रे ययः प्राकृतत्वात् । मालोचयेत् । लोचू दर्शने । चुराऽऽदि- वस्थप जर मासकप्पं भिड मासलहुँ । एवं निम्गंधीण वि स्यात् णिच् । पाच मयांदायाम । आ मर्यादया "जह बालो तहा।" अत्र (सपरिक्षेचे इति) सपरिकेपेऽपि वृतिवरजपतो" इत्यादिरूपया पासोचयेत् । यथाऽऽत्मनस्तथा गुरोः। गमकाऽऽदिसमन्धिते अथाह्ये ग्रामस्यात्यन्तमबहिर्भूते, उपाश्रये प्रकटीकुर्यात् । यच्छन्नस्तचन्दापेक्षोऽतोऽत्र तस्येति सा. इति गम्यते । (वस्थए ति) वस्तुम् । शेष मुगमम । तथा मर्यादवसीयते । तस्य ( पलिउंचिय ति) कुचु कुञ्चु कौटि "अभिनिव्वगडाए ताप जंगे मासलहूं।" अत्र "अभिनिवक्याल्पीनावयोः। परि सवैतो भावे । परि समन्तात् कुडिन्च- गमार" इति । अभिनिर्याकृतायां पृथग्निवितद्वारायां वसता. स्वा कौटिल्यमाचर्य परिकुडच्य। सूत्रे "मश्च ऋषिमादीनाम् ॥" वित्यर्थः । एवं शेषाएयपि सूत्राण्युश्चारणीयानि । तेषु शेषे. इनि विकल्पवचनतो रेफस्य सकारभावः । न परिकुडस्य चपि सूत्रेषु ( जाहिं ति) अगृहीतयोपलोऽप्येषशब्दः सामअपरिकुडच्य, अपरिपुच्य प्रासोचयमानस्य मासिकं लघुक यात बीप्सां गमयति, शेषत्राणामतिप्रभूनत्वात् । ततो. गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारतः प्रायश्चित्तं दद्यादिति शेषः।। ज्यमर्थः- यत्र यत्र मासिकी आपसिना (तीसे इति) अपरिकडच्य कौटिल्यमाचर्य प्रासोचयमानस्य द्वैमासिकं द. वाऽपि वापसार्थों अष्टव्यः, तच्छन्दस्य यच्चन्दापेकरवात् । चात, मायाकरणतोऽधिकस्य गुरुमासस्य भावात् । तथाहि- तस्यास्तस्या इह श्रादिसूत्रे दानं जणितमुपक्षणमेतत्-प्रा. यः प्रतिकडचयनालोचयति तस्य यदापनं तहीयते । अन्य- लोचनाविधिश्च । श्व मायाप्रत्ययो गुरुको मास ति। उक पदार्थः। अधुना बढे अपच्छिमसुत्ते, जिणयेरा लिई समकवाया । पदविग्रहः स च समासो भाष्य पदेषु भवतीति परिहारस्था. ममित्यत्र परिकुडच्येत्या च एव्यः । स च यथा भवति तहियं पि होइ मासो, अमेरती सो उ निष्फन्ने ।।३।। तथा दर्शित एव । संप्रति चालनाऽवसरः। तत्र चोदक भा. षष्ठे षष्ठोद्देशके, अपश्चिमसूत्रे जिनानां जिनकल्पिकानां, ह-यदि परिहार एवं स्थान ततो द्वयोरध्येकार्थत्वात् प. स्थविराणां च स्थितिः समाख्याता । तनाऽपि यदि जिनानां रिहारशब्दस्यैव ग्रहणमुचितम् । परस्योक्तार्थवादप्रयोगः । स्थविराणां च स्वकल्पस्थित्यनुरूप सामाचार्यक्रमः, ततो भवति "उतार्थानामप्रयोगः" इति न्यायात् । अत्राचार्यः प्रत्यवस्था- मामोमासरघु प्रायश्चित्तम । तथा चाह-(अमेरो सोच नं करोति-स्थानशब्दो नाम शब्दशक्तिस्वाभाव्यादनेकविशेषाऽऽ. निष्फनो ) स पुनर्मासो मर्यादातिकमतः स्वस्व कपस्थित धारसामान्याभिधायी । तेनैतद् ध्वनयति-अनेकप्रकाराणि ना. त्यनुरुपा सामाचायतिक्रमत इत्यर्थः । निष्पन्नस्तस्यायम मालिकप्रायश्चित्तेनोपन्यस्तेन प्रयोजन कल्पाध्ययनोक्तम. स्मिन्नादिसूत्रे दानमालाचनाविधिश्चोक्तः । अतोऽर्थ कलमासिकप्रायश्चित्तविषयदानाऽऽलोचनयोरनिधातुमुपक-- मासिकं प्रायश्विसमधिकृत्याऽऽदिसूत्रोपनिवन्धः कृतः। एष मात्, अतोऽत्र स्थानग्रहणम । पुनरप्याड-किं कारणं मासिकं प्रा. सूत्रार्थ ॥१॥ यश्वित्तमधिकृत्याऽऽदिमत्रोपनिबन्धः कृतः । अथ मतं-जघन्य. अधुना नियुक्तिकृतविस्तरं वक्तुकाम भादमिदं प्रायश्चित्तमत एतदधिकृप कृतो, जघन्यमध्यमोत्कृषु जेत्ति व सेति व केत्ति ब, निमा होति एवमादीया। प्रथमतो जघन्यम्याभिधातुमुचितत्वात् । तदलम्यक् । रात्रिदिव. पञ्चकस्य जघन्यत्वात् । जिक्स्स परूवणया, ने ति कर होइ निद्देमो ॥४॥ ___ अत्र भाष्यकृत् प्रत्यवस्थानार्थमिदमाद 'जे इति या ''ले इति बा' कियन्तो नामबाह दर्शयितुं शक्यन्ते । तत आह-पवमादिकाः। श्रादिशब्दाद् "एगे" इत्यादि. दुहतो भिन्नपलंबे, मासियसोही न वरिण या कप्पे ।। परिग्रहाद निर्देशाभवन्ति, सामान्यार्थे ति गम्यते । तत्र येति तस्स पुण इमं दाणं, जणियं प्राझोयणविही य॥१॥ निर्देशो यथा अत्रेव सूत्रे । अत्रैव " जे ण भंते ! पर प्रमकपाध्ययने प्राविसूत्रे-" आमे तालपन्न ब " इत्यादिरूपे तपणं अभक्खाणेणं अभावाजा।" इत्यादि "से" इति प्रलम्बते प्रकर्षण वृद्धि याति वृत्ताऽस्मादिति प्रलम्ब मूल. निर्देशो यथा-" से गामसि वा नगरंसि वा।" इत्यादि । स-"भकारि-" ॥३॥३॥१६॥ इति (पा०) घञ्प्रत्ययः तस्मिन्, के' इति यथा--"के भाग विरू।" इत्यादि । सामान्य च Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाच्छत्त अभिधानराजेन्डः। पच्छित्त विशेष निर्दिशन्तो "जे" इति निर्देश कृते जिक्कोर्भवति निर्देशो, लोचय । द्वितीयचारमालोचिते भणति-न सुष्ठ मयाऽवधा. यो भिमर्त्य इति तस्य च भिक्कोस्तथा निर्दिष्टस्य प्रकपणा रितमनुपयोगनावाद, अतः पुनरप्यालोचय । एवं विश्वपि मामानिनिक्षेपरूपा कर्तव्या। व्य०१ उ०१ प्रक। नि००। वारेषु यदि सरशार्थमालोचितं ततो सातव्यमेषो प्रतिकुश्चात (भिकुमासस्थानप्रतिसेवनाऽऽलोचनानां व्याख्या स्वस्वस्थाने) मायाची। अथ विसरशंतहि ज्ञातव्यमेष परिणामतः कुश्ची कुटि(६) मथ कस्य समीपे मालोचना दातव्या । नच्यते-बागमन्य. लो मायाव।। अथैक द्वौ वा बारानालोचनादापनेन मायावी पहारिणः, श्रुतव्यवहारिणो वा?। तथा चाद अपायावी वाकिं नोपलच्यते, येन श्रीवासनित्युक्तम ? उच्यते। आगमसुयववहारी, पागमतो गधिहो उ ववहारी । उपलज्यते परं स्फुटतरोपलब्धिनिमित्तं त्रीन वारानालोचाप्यते। तस्यापि च प्रत्ययो भवति-यथाऽहं बिलरशभणनेन माया. केलिमणोहिचोदम-दमनवपुब्बीउ नायब्वा ।।१३५।। बी कितः, ततो मायानिष्पन्नं मासंगुरु प्रायश्चित्तं पूर्व दात. "मागमसुयववहारिति" व्यहारिशब्दः प्रत्येकमनिसंबध्यते ।। व्यम्, तदनन्तरमपराधनिमित्तं प्रायश्चित्तमिति । मालोचना) विविधः । तद्यथा-भागमव्यवदारी, श्रुतव्यव. अत्रैवार्थे दृष्टान्तमादहारीचा त्रामतो व्यवहारी परिधः । तद्यथा-केवनी, केबलकामी । (मणोहि ति) पदैकदेशे पदसमुदायोपचा. तिभिन वाराजह दं-मियस्स पलिनियम्मि अस्सुबमा। राम् मनःपर्यायकानी, अबधिज्ञानी ।। चोइसदसनवपुब्ब) सुखस्स होई मामो, पलिउंचिइतं चिमं वऽयं ॥ १३० ।। इति) पूर्षिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । चतुर्दशपूर्वी, दशपू. दण्डिको नाम करणपतिः,तस्य यथा अपन्यायपीमितं कर. घी, नवपूर्वीच । ज्ञातव्याः एते चाऽऽगमव्यवहारिणः प्रत्यक णमुपस्थितम् किं मायाव्येषोऽमायावी चेति परिशानाय त्री. शानिन उच्यन्ते, चतुईशादिपूर्ववसमुत्थस्याऽपि ज्ञानस्य बारानपन्यायमुच्चारयितुमभियोगः । एवं श्रुतव्यवहारिणो. प्रत्यक्कतुल्यत्वात् । तथादि-येन यथा योऽतिचारः कृतस्तं तथा ऽपि प्रतीचारशल्यपीमितं प्रायश्चित्सव्यवहारार्थमुपस्थितमेष समेते नानन्तीति। प्रतिकुश्वनापरो, न वेति परिझानार्थ श्रीस्वारानुचारयितुं पम्हुढे पमिसारण, अप्पमिव जंत न खलु सारे। संरम्भः । ततो यदा श्रुतव्यवहारिभिखिकृत्व आलोचना प्रदापनेनाऽऽगमव्यवहारिभिः प्रथमवेलायामप्यागमवलेन तस्य जह पविज सारे, विहऽतियारं पि पच्चक्खी ।।१३६।। प्रतिकुश्चितं कौटिल्यकानं भवति, तदा तस्मिन् प्रतिकप्रत्यकी प्रत्यक्षज्ञानी, आगमन्यवहारीत्यर्थः। द्विविधमपि मू श्चित झातोऽश्वोपमा अश्वष्टान्तः क्रियते । यथा प्राचार्य ! (?) लगुणविषय मुत्तर गुणविषयं बाऽतिचारमालोचनीयम् । (पम्ह. शणु तापदिदमुदाहरणम्-"जहा कस्सा रो पगो अस्सो हे सि) विस्मृतं भवति । ततस्तस्मिन्विस्मृते प्रतिसारणं ' सम्बनकखणसंजुनो धायणपवणसमत्थो, तस्स सस्स करोति । यथाऽमुकं तबाऽऽलोचनीय विम्मृतमिति तदप्या- | गुणेणं अजेया सो राया सम्बे सामंतराइणो पाहापयति । लोचयति । केवलं यदि केवज्ञानाऽऽदिव नेतत् जानाति तदैष ताहे सामंतराहणो अप्पप्पणो सन्नासु भणंति-नऽस्थि कोह प्रणितः सन् शुम्भावत्वात् सम्यक् प्रतिपद्यते । "वर्त- फरिसे पुरिसो, जो तं हरित्ता आणे । सम्बेहि भणिय सो मानसामीप्ये वर्तमानबहा।" इति वचनतो भविष्यति परिसपंजरगो चिह । तत्थ नो पवनो सको हरिउ । एगस वर्तमान विधानात् प्रतिपत्स्यते इति तदा स्मारयति । यदि रमो एगेणं पुरिसैण भणिय-जइ सो मारेयवो तो मारेमि । पुनरेतश्वगरकृति-यथैष भरिणतोऽपि सन् न सम्यग् प्रति. ताहे रन्ना भाणिय मा अम्हं तस्स वा भवन वाहपसि । ततो सो पम्यते इति, तदा तमप्रतिपरस्यमानं न खलु नैव स्मारयति, तस्थ गयो । पच्चन्नपदेसट्टिपण लवणाया षीकाया निष्फलत्यातू । प्रमूढनदयो हि भगवानागमव्यवहारी । प्रत अग्रभागे जुष्कराटकं प्रोतं कन्वा दिकरुयधणुपण मिल्लेश, तेण एष दत्तायामप्यामेोचनायो यद्यासोचकः सम्यगावृतो ज्ञात. आसो विको, इपीका अश्वमाहत्य पतिता रिङ्गिणिकाकराटस्तनस्तरमै प्रायश्चित्तं प्रयच्छति । अथ न प्रत्यावृतस्ततो न को श्वशरीरऽनुप्रविष्टः । ततोऽसौ पासो तेण अम्बत्तसबेण प्रयच्छनीति श्रुतव्यवहारिणः । परिहाय पनुयगणजोगासणमपि चरंतो । ततो विजस्त प्राऽऽह अक्खातो। वेजेण परिचिंति कण भणियं- नत्थि अझो कोश कपपकपी उ सुए, आसोयाति ते उ निकावुत्तो। रोगो, अवस्समम्वत्तो कोई सहो । ताहे वेजेणं सो पासो सरिसत्यमपलिजेंची, विसरिसपरिणामतो कुंची ।।१३७॥ जमगसमगपुरिसेहिं चिक्खल्लेण प्रालिंपाबिनो । ततो जन्थ पढमं सुकं दिटुं, तत्थ फालेत्सा श्रवणीतो सो शुष्कपटकी. कल्पग्रहणेन दशाश्रुतस्कन्धकलाठयवहार। गृहीताः । प्रक मल्लो । जहा सो अस्सो मसलोन मकर सामनरायाणो नि. ल्पग्रहणेन निशीथः । कल्पश्च प्रकल्पश्च कल्पप्रकल्पम् । जिणि पुटबंसम्मपि तस्य प्रतिकुंवतंझानं भवति तदानासा. तदेगामस्तीति कल्पप्रकविपनः । दशा कलाव्यवहाराऽऽदिसूत्रा वश्वष्टान्तः क्रियते,स्वभावत पवाभ्य सम्यगालोचकत्वात्। तस्य धंधराः । तुशवदत्वाद् महाकलाश्रुनमहाकल्पनिशीथनियुक्ति. तु शुद्धम्य मासिकं परिवारस्थानं प्राप्तस्य प्रायश्चित्तं भवति पीठिकाधरान । भुतव्यवहारिणः प्रोच्यन्ते । तथाऽऽलोचक मासः। इतरस्य तु कृतप्रतिकृश्चितस्य तथापनं मासिकं प्रायत्रिकन्वखीन् बारान भालोचयन्ति। ते ोक द्वा बाराम्बालो. चित-अनेन प्रतिकुश्चनयानोचितमप्रतिकुश्चनया बेति विशे. श्वित्समिदं चान्यद् मायानिष्पन्नं मामगुरु । इति गाथार्थः। पं व बुभयन्ते । ततखीन चारान् श्रासोचापयन्ति । कथमितिः संप्रति य कम "जह इंझियस्म" इति तद्विनाययतिचेन्', उच्यते-प्रथम प्रायां मिझायमाण इव पोति । तनो श्री अत्यप्पत्ती अमरिम-मित्र यो दॉ पच्छ ववहारो। ते-नाममा गतवानहमिति न किमध्यौषमतो भूयोऽस्या- श्य मोनुत्तरियाम्म वि, कुंचियजावं तृ दति ।।१३।। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्छित्त अभिधानराजेन्द्रः । पच्छित्त नत्पद्यते यस्मादिति उत्पत्तिः, अर्थस्योत्पत्तिर्यवहार उच्यते, लाई मोतुं अन्नं न किंचि वश्यं । वेजो भण-कंदादाहिं तस्थामारपसे। करणव्यवहारे असशनिवेदने दएकः । य. | ते निकरिसियं सरीर, तो थयं पिवाहि । तेण पीयं सुदयरं । मत्र भावना-यथा कोऽपि पुरुषोऽपम्यायपीमितो राजकर- गिनाणीभतो पणो पच्छितो चिजो। तेण भणियं-सम्मं कहेहि। गमुपस्थितो निवेदयति-अहं देवद सेना उपन्यायेन पीडितः । कहियं-मच्छी मे खश्तो । ततो विजेण संसोहणवमणविरेथणततः कारणिकाः पृच्छन्ति-कथमन्यायः संवृत्तः । सोऽकथ. किरियाहि लट्ठीको । इमो उवणयो। जो पलिनन तम्स यत् कथिते करणः प्रतिव्रते, पुनः कथय । ततो भूयः कथयति । पश्चिमकिरिया न सका गुण का सम्मं । पुण इयरे रोग श्राततः पुनरपि वृत-भूयोऽपि कथय । तत्र यदि तिसृष्यपि सोयंतस्स सका।" बेवासु सरश बक्ति ततो ज्ञायते यथा अनेन यथावस्थितः त्रैमासिकम्सद्भावः कथितः । अथ विसरशं, ततो जानाति करणपतिः,एष जे भिक्खू तेमासियं परिहारट्ठा पमिसेवित्ता प्राप्रतिकुळच्य कथयति; ततः स निर्सयति किमिति राजकुबेऽपि लोएजा, अपलिगंचियं आलोएमाणस्म तेमासियं, समागतस्त्वं मृषा वदसीति पूर्व मायामृषाप्रत्ययं द एक ते (पच्छ यवहारो इति) पश्चाद् व्यवहारः कार्यते । व्यवहारेऽपि यदि पलि चियं प्रायोएमाणस्स चउमासियं ॥ ३॥ परो जितो जवति ततो द्वितीयवेवं दएमयते । एष दृष्टान्तः। (जे निक्खू तेमासियं परिहारहागामित्यादि) अत्र व्या. दाष्टान्तिकयोजनामाह-(क्य इत्यादि) एवमुक्तप्रकारेण लोको ख्या पूर्ववत् नबरं त्रैमासि कमिति त्रिभिमसिनिर्वृत्तं त्रै.. सरेऽपि वारत्रयमालोचनादापनेन यदि कुश्चितो भावो ज्ञातो मासिकम् । शेषं तथैव । केवलं त्रयो मासा अवस्थिताः, अन्यो भवति । ततस्तं कुश्चितनावं कुटिलभावं सात्वा पूर्वमा. मायाप्रत्ययनिष्पन्नश्चतुथों मासो गुरुदीयते इति चातुर्मामार्यो निर्सयति-किमित्यालोचनायामुपस्थितो मृषा बद- सिकम् । अत्र प्रतिकुश्चिकस्य दृष्टान्तः । तद्यथा-"दो रायासि। ततः (दंड ति) प्रथमतो मायानिष्पन्नेन मासगुरु- णो संगाम संगामेति । तत्थ पगस्स रमो पगो मणूसो सरसणंप्रायाचिलेम दराडयनि, पवाद यदापन्नं मासिकं, तेन द्वि. णं अतीव वद्धभो,सो बहूहि सल्लेहि सहितो।तेतस्स मछे बेज्जो नीयवेलं दपम्यति । अबणे, वणिजमाणेहि य सल्लेहिं सोऽतीव दुक्वाविज्जः । अथ वारत्रयमासोचनादापने ऽपि कथं श्रुतव्यवहा. तो पकम्मि अंगे सल्लो थिज्जमाणो वि क्वाविजामि ति रिणो मायामन्तर्गतां लक्कयन्ति । तत श्राह घेजस्स न कहितो। ताहे सो तेग सल्लेण विघट्टमाण पतं श्रागारहि सरेहि य, पुवावरवाहयाहि यगिराहिं। न गेएहस, मुबली भवति । पुणो तेण पुच्छमाणेण निना कुंचिय नावं, परोषखनाण। ववहरंति ॥१४॥ ब्बंधे कहियं । नीणितो सखे, पच्ग बन जातो।" अत्राप्यु. श्राकारा शरीरगता जावविशेषाः, तत्र यः शुद्धस्तस्य स. पनयः प्राम्बत। चातुमासिकम्घेण्याकाराः संबिनभायोपदर्शका नवन्ति, इतरस्थ तुन तादृशाः । स्वरा अमातोचयतः कस्य व्यक्ता विस्पष्टा अनु. जे भिवा चानुम्मासिय परिहारट्ठाणं पमिसेवित्ता जिताइच निस्मरन्ति, इतरस्य स्वव्यक्ता अम्पा कुभित आलोएज्जा, अपमिचियं पामोएमालस्स चाउम्मासि यं, गदाश्च । तथा शुद्धवाणी पूर्वापराच्याहता,तरस्य तु पूर्वा- पनि चियं पालोएमाणस्स पंचमासियं ।। ४॥ परविसंवादिनी । तत एवं परोकशानिनः श्रुतव्यवहारिण आ. अस्य व्याख्या प्राग्वत, नवरं प्रतिकुश्चनानिष्पनः पञ्चमो कारैः स्वरैः पूर्वापरयाहताजिश्व गार्मिस्तस्याऽऽसोचकस्य गुरुमासोऽधिको दीयते इति पाश्चमासकम् । अत्र प्रतिकुञ्चितनावं कुटिलनावं ज्ञात्वा तथा व्यवहरन्ति; पूर्व माया कुश्चके दृष्टान्तो मालाकार:-"दो मालागारा,कोमुंदीवारो प्रासप्रत्ययेन प्रायश्चित्तदान दरम्यन्ति, पश्चादपराधप्रत्ययेन श्रीभूतो ति पुष्पाणि बहणि पारामासो नस्चिगिता बी. प्रायश्चित्यमेनेति भावः । है।ए कलेकणं एगेगा पागडाणि कयाणि । बीपण न पागद्वैमासिकं प्रायाश्चनम् माणि कयाणि । जेण पागमाणि कयाणि नेण बद्वानो लद्धो, ने निक्ख दोमाभियं परिहारहाणं पम्मेि वित्ता पाना- जेण न पागडाणि कयाणि तस्स न कोइ कयगो अल्लीणो, एजा, अपन्निचियं माझाएमागास्स दोमासियं, पाल तेण नकको बानी । पचं जो मूल गुणाबरादे, उत्सरगुणावराहे चियं पासोएमाणस्म तिमासियं ॥ २॥ यन पगडे सो निमाण लानं न ल ह ।" __ पाश्चमासिकं पागमासिकं चयो भिक्षुर्वाभ्यां मासाभ्यां निवृत्त वैमासिक परिहारस्थानं जे भिक्खू पंचमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता प्रानोप्रतिसेव्य मालोचयति, तस्याप्रतिकुच्य मायामकृत्वा आ. लौचयतो द्वैमासिकं प्रायश्चित, शुभत्वात् । प्रतिकुडच्यालो. पज्जा, अपलिनंचियं अालोएमास्स पंचमासियं, पलि. चयतस्त्रैमासिकम्, प्रतिकुञ्चनानिष्पन्नस्य गुरुमासस्य प्रकपात। चियं पालोएमाणस्स छम्मासियं । कह द्वैमासिक परिहारस्थानमापनस्य प्रतिकुश्च कस्य दृष्टान्तः। (जे भिक्खू पंचमासिय परिहारहाणमित्यादि ) इदर्माप कुश्चिको नाम तापसः। तद्यथा-"कुंचिगो तासो, सो फलाणं तथैव, नानास्वमिदमा प्रतिकुश्चनायां पष्ठो गुरुमासोऽधिको दी. अहार अवि गतो, तेण नदीप सय मतो मच्छो दिहो । यने इति पागमासिकम् । अब प्रतिकुक्षके मेघरातः यथा. तेण अपसागारियं परत्ता स्वस्तो, सस्त तेण अणुचिया- "मेधे। गाजता नामेगे.मो परिसिता। एवं तुम पिानोपमित्ति कारण अजारतेण गेलनं जायं, तेण विजो पुस्तियो । बेजा। गजिता निजितं का पालो उमादत्तो, पलि चंबोसिमा दि. पच्च-किं ते खझ्य,जनी रोगी अपनी?मावसो भण-फ- प्रतिमा भवाहि सम्म प्राप्नोपहि।" Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चित्त (१४६) प्रभिधानराजेन्दः । पच्छित्त एतानेव शान्तान् गाथापून भाष्यकृदाह पीन्वारानबहून्बा चा वार' मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेधिकुंचिजोहे माझा-गारे मेहेपलिचिए तिगढाणा (१४१) तम,आलोचनाकाने चाऽप्रतिकुचनयाऽऽलोचितं, तस्मै एकमेव द्वैमासिकाऽऽदिपरिहारस्थानेषु प्रतिकुचितेषु यथाक्रमाममे मासिकं प्रायश्चित्तं दीयते, न तु यावतो वारान् प्रतिसेवना कुश्चिकाऽऽदयो दृष्टान्ताः । तथा-द्वैमासिक परिहारस्थानमा मासिकस्य कृतवान् तावन्ति मासिकानीति, कारणे प्रतिसेवपन्नस्य प्रतिकुश्चकस्य दृष्टान्तः कुञ्चिकतापसः। त्रैमासिक नायाः कृतत्वात् । अथ प्रतिकुञ्चनयाऽऽलाबनयति ततो हिती. परिवारस्थानमापनस्य योधः । चतुमासिकं परिहारस्था- यो मासो मायानिष्पन्नो गुरुीयते इति द्वैमासिकम् । एवं नमापनस्य मालाकारः। पाश्चमासिकं परिहारस्थानमापन शेषा एयपि द्वैमासिकाऽऽदिविषयाणि चत्वारि सूत्राणि नावनीस्य मेघः । (पलि उचिए ति) प्रतिकुश्वनायां कृनायामाचा यानि । नवरं द्वैमासिकसूत्रे तृतीयो मायानिष्पनो गुरुमासो येण सम्यगालोचय मा प्रतिकुञ्चय मा प्रतिकुश्चनां कारि. दीयते इति त्रैमासिकम् । त्रैमासिकसूत्रे चतुर्थों मायानिष्पन्नो स्युशलब्धः स सम्यक् प्रत्यावर्तते भगवन्मिथ्या मे दुष्कृतं, मास इति चातुर्मासिकम । चातुर्मासिकसत्रे पञ्चमो मायाप्रत्यय सती चोदना सम्यगाझोचयामीति । ततः स भूतव्यवहारी प्र- इति पाश्चमासिकम । पाश्चमासिकस्ने षष्ठो मायानिष्पनो गुरुतिकुञ्चिते कृते तं तथ प्रत्यावृत्तं सन्तं पुनरपि त्रीन्वारान् मास इति पाएमासिकम् । ततः परं पाएमासिके परिहाआनोचापयति । तत्र यदि त्रिभिरपि वारैः सरशमा नोच' रभ्याने आलोचनाकासे प्रतिकुञ्चनायां वा त एव स्थिताः यति ततो ज्ञातम्यो, यथा- सम्यगेष प्रत्यावृत्त इति । तदन षयमासाशति । न्तरं च यद्देयं प्रायश्चित्तं तद्दातव्यमिति । अथ विसदृशमा अमीषां पञ्चानामपि सुत्राणां सूचकमिदं गाथायाः पश्चारमलोचयति, ततो भणति-अन्यत्र स्वं शोधिं कुरु, नाहं तव पंच गमा नेयव्बा, बहूहिँ जखम्ममाहिं बा ॥१४॥ शक्कोम्वेतादृश्या प्रानोच नायाः सद्भावमजानानः शोधि क. पञ्च गमाः सूत्रप्रकारा सातव्याः । कमित्याह-(बहहिं . सु.मति । अथवा शिघ्यः पृच्छति-जगवन् ! एतानि मासाहीन त्यादि)" उक्नडममा" इति देशीपदमेतत् पुनः पुनः शब्दा. घरमासपर्यन्तानि परिहारस्थानानि कुतः प्राप्तानि ?। सूरिराह- थें अष्टव्यम् । उक्तं च-"नक्समम त्ति वा जो हुज्जो वा पु(तिगहाणा) क्रमाऽऽदित्रिकरूपात् स्थानात । किमुक्तं भवति? णो पुणो तिबा पगई।"पुनः पुनः शब्दार्थश्च वारं वारं बहुउऊमोत्पादनैषणासु यत् अकल्पाप्रतिसेवनया अनाचार भिर्वारैर्विशषिता बहुश प्रति बहु इति पदविशषिता इत्यर्थः। करणं तस्मादेतानि प्राप्नोति । अत्र चोदक आहसाम्प्रतं पाएमासिकं परिहारस्थानसूत्रमाहतेण परं पनि चियए वा अपलि चियए वा ते चेव ! बहुएम एगदाणे, रागो एकेकदाणे दोसोन। छम्मास्मा ॥५॥ एवमगीते चोयग!,गीयम्भि य अजनसेविम्मि ॥१४शा ( तेग परं पातवियर वा अपलि वियप वा ते चेव मनु यूयं न मध्यस्थाः ,रागद्वेषकरणात । तथाहि-बहुशः प्रति. नम्नाला ) नेत्यव्ययं तत इत्यर्थे । ततः पाश्चमासिकात् सेवितेवेनेषु पञ्चसु सूत्रेषु मासिकंषु परिहारस्थानेषु बहुशः परिहारस्थानात् परमित्येतदप्यव्ययं सप्तम्यर्थप्रधानम्, प. शब्दविशेषितेष्वपि एकमेव मासं प्रयच्थ, द्वैमासिकेषु परि. रस्मिन् पापमासिके परिहारस्थाने प्रति सेविते श्रासोचना. हारस्थानेषु बहुशः प्रतिसेवितेचप्यकं द्वैमासिकम, त्रैमासिकेषु काले प्रतिकुञ्चिते. प्रतिकुञ्चनया वा आझोनिने इत्यर्थः । ते परिहारस्थानेषु बहुशः प्रतिसेवितेष्यप्यकं त्रैमासिकम, चातु एवं प्रतिसेवनानिष्पन्नाः स्थिताः परमासाः, नाधिकं प्रतिकु- मासिकेषु परिहारस्थानेषु बहुशः प्रतिसेचितेष्वेकं चातुर्मासि. ञ्चनानिमित्तमारोपणन । कस्मादिति चेत ? उच्यते-इह जीन- कम्, पाश्चमासिकेषु परिहारस्थानेषु बहुशः प्रतिसबितेषु एक कल्पोऽयम्-यस्य तीर्यकरस्य यावत्प्रमाणपत्कृष्ट तपःकरणं पाश्चमासिकम्। एवं बहुकेषु बहुशः प्रतिसेवितेषु मासादिषुप. तस्य तीर्थ तावदेव शेषनाधूनामुत्कृष्ट प्रायश्चित्तहानम्। चर. रिहारस्थानेवेकदाने एकैकसंख्याकस्य मासिकाऽऽदेनीयध्वे. मतीर्थकरस्य तु भगवनो बरूमानस्वामिन उत्कृष्टं तपः पा. कं प्रयच्छथ तेषु गगः । आयेषु पञ्चसु सूत्रेषु एकैकदाने एकै. एमासिकं, ततोऽस्य तीयें सर्वोत्कृष्मपि प्रायश्चित्तदानं प. कवार यत् प्रतिसेवितं मासिकाऽऽदि तस्य परिपूर्णस्य एमासा एवेति पारामासिक परिदारस्थानं प्रतिसेव्य प्रतिकु- दानववं प्रयच्चय तेषु विषये द्वेष एव । तुशब्द एवका. जवनयाऽपासोचयतो नाधिकमारोपण मतस्त व पामासाः रार्थः । न च रागद्वेषयन्तः परेषां शोधिमुत्पादयितुं स्थिता उक्ताः। कमाः, सम्यक् प्रायश्चित्तदानविधेरकरणादिति । अत्र सूरिबहमासिकम राह ( एवमित्यादि ) अहो चोदक ! एवमादिकेयु पञ्चसु जे भिक्खू बहुसो मासियं परिहारहाणं पमिसेवित्ता सूत्रघु याव-मात्र प्रतिसेवितं तावन्मात्रस्य परिपूर्णस्य दामपानोपज्जा, अपविनंचियं आलोएमाणस्स मामियं, प मगीत अगीनाथै प्रतिसेवके । यत्पुनबहुशःशब्दविशेषितेषु प. ञ्चसुसूत्रेषु बहुशः प्रतिसेवितेम्वविमासिकाऽऽदिषु स्थानेष्वप्ये. मिचियं पालोएमाणम दोमासियं ।। ६॥ कैकसंख्याकस्य मासिकाऽऽदेदानं तत् गीते गीतार्थे अययो निक्षुबै हुशाऽपि त्रिप्रभृतिवारानपि, प्रास्तामेक, बौ बा तसेविनि प्रयतनया प्रति सेवके । ततो गीतार्थागीतार्थभेदेन यारावित्यपिशब्दार्थः । मासिक परिहारस्थानं प्रतिसेव्य मा. प्रतिसेबकस्य भेदादित्धं प्रायश्चित्तविधानमित्यदोषः । मोचयेत्, तस्याप्रतिकुच्या 5ऽलोचयतो मासिकमेकं प्रायश्चि अत्रैवार्थे दृष्टान्तमाहसम्। प्रतिकुच्यालोचनानिष्यन्नो गुरुमासो दीयते इति द्वै. मासिकम् । इयमत्र भावना-केनापि गीताथैन कारण प्रयतनया जो जत्तिएण रोगो, पसमह तं दहेजेस विज्जो। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चित्त .१४७) अनिधानराजेन्द्रः। पच्चित्त एवाऽऽगमसुयनाणी, सुज्झइ जेणं तयं देति ॥ १४३ ।।। पंचवणि तिपंचखग, अतुबमुल्ला य ाहरणं ।।१४६॥ यो रोगो यस्मिन्पुरुषेऽल्पो महान् वा पुरुषप्रकृतिमपेक्ष्य | काममित्यनुमतौ । काममनुमन्यामहे विषमाणि वस्तूनि प्र. पावन्माण प्रशाम्यति तस्य पुरुषस्य तत् तावन्मानं भेषजं तिसेवनालक्षणानि, तथाऽपि नसुनिश्चितम, सेषां शुद्धिस्तुस्था बैद्यः प्रयच्चति नाधिकम् एवममुना दृष्टान्तप्रकारेण, म. भवति, प्रतिसेवकनेदात् । एकत्र ह्यगीतार्थः प्रतिसेयकोऽन्यत्र कारस्य लोपःप्राकृतत्वात् । (प्रागमसुचनाणी ति) झानिशब्द : गीतार्थः । तथा चाऽत्र पञ्चवणिजां पञ्चानां वणिजां, त्रि. प्रत्येकमभिसंबध्यते । भागमशानिनः श्रुतझानिनश्च गीतार्थोंs- पश्च खराः पचदश गर्दभाः। पञ्चवणिक त्रिपश्चखराः कथंभूता गीतार्थश्च येन यावन्मात्रेण प्रायश्चित्तेन परिणामवशान् इत्याह सतुष्पमूल्या अतुल्यम असदृशं मूल्यं येषां ते तथा । साम्यति तस्मै तत् तावत्प्रमाणं प्रायश्चित्तं ददति,ततो यथोचि. नाहरणं दृष्टान्त:-" पंचवाणिया समभागसामाश्या बबहत्यप्रवृत्तेन रागद्वेषवत्तेति न काचित् कतिः। रति । तेमि पन्नास खरा बाभतो जाता ते घिसमभारवाहिसंप्रतिवदयमाणार्थसचिकामिमां संग्रहणिगाथामाह- तेण विसममोखतेण य समं विभाउमवायंता भडिमारद्धा, मुत्तं चोयग मा गद्द-भत्ति कोहारतिय दुबे य स्वक्षामा ।। ततो ते एकस्स बुद्धिमतस्स समीवमुवाठियां । तेण खराण अचाण सेवियम्मी, सव्वेसिं घेत्तुणं दिन्नं। १४४॥ मुखं पुच्चिया। तेहिं कहियं । ततो भण-समं विभयामिति, धीरा होह, मा भमेह । ततो तेण पक्को खरो सहिमोल्लो प्रथमतः प्रमाणत्वेन सूत्रमुपन्यसनीयम्, ततश्वोदकवचन परस बाणियगस्स दियो, दोसि खरा पसेयं तीसमोझा माकप्य मा इति प्रतिषेधो वक्तव्यः, तदनन्तरं गर्दभदृष्टान्तः, विश्यम्स बाणियगस्स दिन्ना । तिराई स्वराणं पत्तेयं बीसं तताऽभवनि सेविते अनेकवारं मासिके परिहारस्थाने तेषां सिं मोवं, ते तइयस्स वाणियगस्स दिना। चतुण्डं स्वराण सर्वेषां समविषमतया दिवसान् गृहीत्वा दत्तमेकं मासिक पत्तेयं पत्ररस मोलं, ते चवस्थस्स बाणियगरस दिशा । प्रायश्चित्तमित्युक्ते चोदकवचनमुक्तिप्य कोष्ठागारत्रयं ष्टान्त | पंच खरा पत्तयं बारसमोवा, ते पंचमस्स बाणियगस्स विना।" स्पेनोपन्यस्तम्यम्,तदनन्तरं च भूयः परयचनमाशस्क्य होख. बाटो रष्टान्ती करणीयाधिति गाथाऽकरयोजना। एतदेवाऽऽहभावार्य तु स्वयमेव भाष्यद्वक्ष्यति । तत्र-"सुतं विणिनुत्तममण, मा मह एत्थ एगसही न । चोयग मा" इत्येतद् व्याख्यानयनाद दो तीस तिनि वीसग,चर पारस पंच वारसगा ।।१७।। अवि य हु मुत्ते भणियं, सुत्तं विसमं ति मा जणसु एवं ।। पश्चानां वणिजां समजागसामाजिकानां विनियुक्तभायडानां संजवन सो हेज, अत्ता नेणालियं ब्रूया ॥ १४५॥ विनियुक्त व्यापारित भाएसंक्रयाणक यैस्ते तथा, तेषां पञ्चदश अपि चेति रागषवत्तानावहेत्वन्तरसमुचयने, प्रास्ता खरा अभूवन्निति वाक्यशेषः। ते च विषमभारवाहिनो विषममू. गीतार्थाऽगीतार्थभेदेन यधौचित्यप्रायश्चित्तदानतो न वयं पाश्च, तो यद्यपि समचिनागेन विनज्यमाना रूपतत्यनया रागद्वेषवम्तः, अपि च अन्यश्च सूत्रमेवंविधेष्वर्थेषु प्रमाणं, नवम्ति, तथाऽप्यतुल्यमूल्याइति परस्परं जण्डनमभूत । तत्र. सूत्र बह निश्चितं विषमास्वपि प्रतिसेषनासु तुल्यं प्रायश्चित्तं | एकोऽपरो मध्यस्थः समागत्य ब्रूते-मा भएम्यताहं समविभा भणितं, ततो न कश्चिद् दोषः। एतावता सूत्रमिति व्याख्यातम् । गेन विभज्य दास्यामीति । तत्रैका षधिकः षष्टिमूख्यः, एकतत्र चोदक आह-ननु सूत्रमेव विषमं न समीचीनं, परस्पर. स्य दत्त इति वाक्यशेषः । एवं द्वौ त्रिंशन्मूल्यौ द्वितीयस्य, विरुद्धत्वात् । तथा ह्यादिमेषु पञ्चसु सूत्रेषु यावत् प्रतिसे- त्रयो विंशतिमूल्यामतृतीयस्य, चत्वारः पञ्चदश मूल्याः चतु. वितं तावतः परिपूर्णस्य दानम्, उत्सरषु तु पञ्चसु सूत्रेषु बहुशः र्धस्य, पश्च द्वादशमूल्याः पञ्चमस्या यथा तेषां पश्चानां वणिजां प्रतिसेवितेम्वपि मासिकाऽऽदिवेंकैकसंख्याकस्य मासिकाऽऽदे- पञ्चदश खराः परस्परमतुल्यतया विभिन्नास्तथा केनापि दानं, न च विषमासु प्रतिसेवनासु समं प्रायश्चिसं दातुम. विभज्य दत्ता यथा तुझ्या बाजप्राप्तिमैवति, तथा साधूनामचितमिति । पतावता चोदक इति व्याख्यातम् । इदानीमेतदेव पि गीनार्यागीतार्थाऽऽदिनेदेनानेकविधानामागमव्यवहारिणां चांदकवचनमुत्क्षिप्यमिति व्याख्यानयति-(सुत्तं विसम ति अनम्यवहारिणां वा तथा कथञ्चनापि रासजस्थानीया मासा इत्यादि) एवमुपदर्शितेन प्रकारेण सूत्रं विषममिति मा भण विभज्य दीयन्ते यथा तुल्या विशोधिर्भवतीति। मा वादीः। यतः सूत्रस्य अर्थतः कर्तारो भगवन्तो वीतरागाः पतदेबाऽऽहसर्वज्ञा:-" नत्थं नासा रहा" इति वचनात । एवं परमा. कुसमविनागमरिसओ, गुरु साहू य होति वणिया वा। थतः प्राप्तिः कोणरागाऽऽदितया परिपूर्णयथावस्थिताऽऽप्रत्व. मक्कणसद्भावात्, न च तेषामित्थंभूतानामाप्तानां स हेतुः रासनसमा य मासा, मोवं पुण रागदासाउ ॥१४॥ कारणं संभवति, येन ते आप्ता अलीकं ब्युः । अलीकनाषणा. कुशन्नो विभागे कुशल विभागः, राजदम्ताऽऽदित्वान्युपगमाहतोः रागाऽऽदनिर्मुल का कषणात् । उक्तं च "रागाद्वा वेषाद्वा, स्कुश लशब्दस्य पूर्वनिपातः । तेन सदृशस्तुल्यो गुरुरागमन्य. मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् । यस्य तु नैते दोषा-स्तस्या वहारी वा श्रुतव्यवहारी बा, साधवश्च भवन्ति वणिज व ऽनृतकारणं किं स्यात् ? ॥१॥" चणिकतुल्याः। वाशब्द उपमानार्थः "वा विकल्पोपमानयोः" ननु यद्यप्येवं तयापि विषमारिण खसु प्रतिसेवनावस्तृनि, विष. इति वचनात् । रासभसमाश्च मासाः, मूल्य पुनः रागद्वेषामेषु च प्रतिसेवनावस्तुषु कथं तुल्यं प्रायाचित्तमिति ? ताह बेव । तुशब्द एवकारार्थः । तथाहि-यथा रासभद्रव्य गुणवृ विदानितो मुल्यवृदिहानी, तथा रागद्वेषवृद्धिहानिकृते प्रति. कामं विसमा वत्यू, तुझा सोही तहा वि खलु तसिं । । सेवनातः प्रायश्चित्तस्य वृद्धिदामी । यथा केनापि तीवराग Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८) अनिधानराजेन् पच्छित्त द्वेवाभ्यवसानेन मासिकं स्थानं प्रतिसेवितं, तस्य मासः परि पूर्णो दीयते । अपरेण मन्दाध्यवसानेन द्वे मासिके स्थाने प्रतिसेविते तस्य प मासोदीयते इत्यादि । ततो भवति मूल्ये रागद्वेषौ । एवं सक द्वैमासिकाचे कारणाभ्यामति से विनो रागद्वेषवृद्धिदानित उपयुज्य बहुधिस्तरं वक्तव्यम् । तदेवम्- "गमत्ति" व्याख्यातम्। अधुना "अद्धा एसेवियम्मि इत्यादि उपासते अभ्यास या कारणान्तरे तनया प्रतिबितं तत्र बहूनि मासिकस्थानान्यान्नानि तानि चाऽऽलोचनाकाले सर्वाण्यप्येकत्रेलायामालोचन, गुरु बालोचनाप्रदानविशेष जानाति यथैव गीतार्थः कारणे च प्रतिसेवना कृता परमयतनया, ततोऽयनायनिवारणार्थे सर्वेशमपि समयमतया दिवसान् गृहीत्वा मास एकस्तस्मै दत्तः, श्रगीतार्थी यो मन पनि मासिकस्यानानि प्रतिसेय वादा दुइ मया कृतमित्येवमादि निन्दनेरालोचितवान् सोऽप्येकेन शुध्यति । तथा गीतार्थोऽपरिणामको वा चिन्तयेत् द्वौ मासिकायापनोऽदं कथमेकेन मासेन शुद्धयामि । ततः श्रुतव्यवहारी तस्य प्रत्ययकरणार्थमे कैकस्यात् मासास्कतिया दिवसान् वा मासमेकं प्रपद्धति यथा द्वयोरपि मासोः प्रति ते र्द्धमासमर्द्धमासं गृहीत्वा इति । एवं हि सर्वेऽपि मासाः स फलीकृता इति तस्य महती धृतिरुपजायते । यस्त्वागमव्यबहारी, स न द्वैमासिकं प्राप्तस्य द्वावपि मासी सफलीकरोति, किं स्कंद द्वितीयं स्वजति स हि ततो या पदा पुनः निष्कारप्रतिवितस्य मासाविकमापस्य परिपूर्ण मा खादिकमेव बीसुं दिने पुच्छा, दितो तत्थ दंगलतिरण । ईदो रक्खा तेर्सि, जयमणं चैव मेमा ॥ १४५ । एवं गीतानागताच कारणे निष्कारणे वा पृथ शिष्यति किं कारणंगी सायांना कार निष्कारणे व विसिति है। अत्र " दो दो गारस्थिए" इत्यस्य व्याख्याया श्रवसरः । सूरिराह - (दितो तत्थ दंडनतिरण ) तत्र पुरुषभेदेन वि सदृशः प्रायश्चित्तदाने दृष्टान्तो दगरुत्झतिको दाको लातो गृहीतो येन स दलातः, सुखाऽऽदिदर्शनात् निष्ठान्तस्य परनिपातः । दष्कलातः, प्राकृतत्वात् स्वार्थिक इकप्रत्ययो पृथिवीकायिका इत्यत्र । तेन द एकवतिकेन गृहीतदएकेन राज्ञा इत्यर्थः । यथा तेन दण्डवातिकेन राज्ञा राजकार्ये प्रवृत्ताना रायोको विनिवारणायें, तथा शेषाणां भयजननं च भयोत्पादश्च स्या दत्येवमर्थ स्तोको दमः कृतः, तथा गीतार्थस्याऽऽदि पारण प्रतस्यायननाङ्गनिवारणार्थन्दा यथा वादा नादिरणामासनां सममता दिव सान् गृहीत्वा मालो दीयते । यथा च स राजा शेषस्य राजकार्याप्रवृत्तस्य कोष्ठागारकस्य सर्वात्मना दमं करोति एवं या निष्कारणप्रतिसेवी तस्थ मालाऽऽदिको दीयत । पति अथ के ते दएमाः, कथं च तेषां राजा दरानं कृतवानिति तत्कथानकमिदं गाथाद्वयमाददंगतिगं तु पुरसिंगे, उत्रियं पच्चंतपर निवारोहे | जतछतीस तीसं, कुंजग्गह आगया जेनं ॥ १५० ॥ कार्य ममेव कर्ज, कपाची विकी मे गहियं १ । एसपमा दस दस कुंभे दलह दं ।। १५१ ।। एगस्स पर्यकरन्न पश्चतिभ राया विरुद्ध । ततो तेण पयंडेण रम्ना तस्स पश्चासरणेसु तिसु पुरेसु तिनि मात्र जिया । गच्छ । पुराणि रक्खड़ । ततो तेसु नयरेसु पत्तेयं २ डिया पचेतिपरायणतेातुंरोदिया ते रोडिए ते पुरेसु पस्रशो को हागारा तेहिनो पत्तेयं पत्तेयं धरणस्ल तीसं तीसं कुंभा गहिया । ततो तेहि सो पतिम्रो राया जितो, आगया रम्रो समीवं कड़िये सवित्वरं तुझे गया। पुणे दि करतेदि धर्म गहिये। रक्षा नितियंजन कीरता मे पुणो पुणो न अप्पलप प्रोयदि कोठागारा विलुप्पेहिंति, न य अनसिं जयं भवति, तम्हा मे दंडा कायो। एवं चितिऊण भण- कामं मम कज्जे, तहा वि तुज्ऊं मए वित्ती कया आलि, ततो कयवित्तीहि कील भे धन्नं मऊ गहियं ? | तु एस माओ । ततो मत एस तुज्यं इंडो-ममं धनं देह । एवं भणिता राया अणुभाई करे। जेहि कोडागारेदितो ती कुंना गहिया ते अप्पाज्जस्स धन्नस्स दसकुंभे पक्खिवह, बी वीलं कुंभा मुक्का । " प्रकरयोजना प्रत्यारोपनिमितं पत्रिक पुत्रस्थापितेच प्रत्येकंमती ती कुंन साहति ) त्रिंशतस्त्रिंशतः कुम्मानां ग्रहो ग्रहणं कृतम् । तत स्तं प्रत्यन्तनृपं जित्वा आगतास्ते दएका राजानं निइतबन्तो यथा युष्मका शिव कुम्भा गृहीताः । राजा प्राऽऽह कामे परं बुध्वा मया वृत्ता हता आसीदिति मनमा तम्मा मेव प्रमादस्तस्माद् दयं दश दश कुम्भान् ददत । एष दृष्टान्तः। अयमथोपनयातिथयश रायको महगो दंडा व काय कोहारो । अनिवाइ वृद्दा पुण अजयपायारुण दंको ॥ १५२॥ तीर्थकरा राजानो राजस्थानीयाः साधवो दमाः दएक स्थानीयाः, कायाः पृथिवी कायिकाऽऽश्यः कोष्टागाराणि कोशिकानाः प्रयन्त परासी धनार्थ गीतार्थायतनाप्रसङ्गनिवारणार्थमगीतार्थस्य प्रमादनिवारणार्थे सर्वेषां प्रतिसेवितानां मासानां समविषमतया दिवसान् गृहीत्वा मासो दरको दीयते इति । अत्र पर श्राई पि बहुवि मासे एगो न दिजती एवं सेवा, एसि विषमेों । १५३ ।। बद्द यदि गीतार्थस्य कारणे अयतनया बहुकेष्वपि मासेषुः सूत्रे तृतीया स्यात् । प्रतितेषु कामा लोकिता इति कृत्वा पकी मालः प्रायश्चित्तं दीयते । ततः Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त इतः प्रभृति वयं बहूनि मासिकाऽऽदीनि प्रतिसेव्य ( एक्कसि ) एकवेलायां विकयिष्यामः । तत एकमेव मालाऽऽदिकं न प्स्यामडे इति चोदयति चोदकः । अत्राऽऽचार्य आह मा वय एवं एकसि, वियमेमो सुबहुए वि सेवित्ता । लग्निसि एवं चोयग !, देतो खल्लामखडगं व ॥ १५४॥ मावद मा बाहीरेवम् सुबयपि मासिकादीनि स्था नानि सेवित्वा प्रतिसेव्य (एक्कासि ) एकवेलायां विकदयिष्यामो येवमेकमासिकादिकं लप्स्यामहे इति । यत एवं कुर्वन् चोद क! लस्य से महान्तमपराधं, खल्वाटे खरुकां ददान श्व । अत्र "डुवे य खल्लामा इत्यस्यावसरः । द्वौ खल्वाटावत्र दृष्टान्तः । "एगी खल्लाको तंबोलवाणियको पछे विकिण, सो एक्केण चारभरूपोट्टेण पत्रे मग्नितो । अरे खल्लामवाणिया !पने देद । ते सकारण न दिना । अम्ने जणंति-योवा दिना । ततो ते चारममण बसिरे मृगादिन टक्करादिति । वायिण चितियं-ज कलडेमि तो में एस दुमितो मारेज्जा । तम्दा बीएण वेरनिज्जामणं करेमि । एवं त्रितिकूण उहित्ता इत्थो से मे दिपापडियो पहुंच से बालं दिनं । चारजडपोट्टो पुच्छर- किं कारणं तुमं न रुडो, मासि (HOU) अभिधानराजेन्द्रः | 33 श्रम्ह विलय सव्वखल्लामाण मेरिसा चेव वित्त । चारभ रूपविति ततो यो ति यं तारिसगस्स खरुगं देमि, जो मं अदरिहं करेजा । ताहे तेण एगस्स ठक्कुरस खनामगरल खरुगा दिना । तेण मारितो ।” पतदेवा 556खल्लाभम्मि खरुगा, दिना तंबोलियम एगें । सकारिता जयलं, दिनं बिइएण वोरवितो ।। १५५ ।। पकेन वामन ताम्बूलकस्य शिरसि सहवास टुका टक्करा दिशा, ततस्तेन वणिजा ताम्बूसिकेन सत्कार्य तस्मै युगलं दत्तम् । द्वितीयेन खल्वाटेन बपरोपितो मा रितः । एष दृष्टान्तः । अयमपनयः- एवं पोषण ! एका परिसेविण मासेणं । चिसि वियगंपुण, लजिडिसि मूलं तु पच्छितं । १५६ । चोदक (स) एक चार बहूनि मासिका नि प्रतिसेव्य एकवेलायां सर्वाण्यध्यासचितानीति मासेम मुक्तो द्वितीयवारमुपेत्य प्रतिसेव्य तथाऽऽलोचयन् कितस्वजावो मूलं तुशब्दात् छेदं वा, लप्स्य से, यथा लब्धवान् चारनटो मरणम् । अन्यच्च स चारभटपोत एकं मरणं प्रातवान् एवं पुनः संसारे अनेकानि मरणानि प्राप्स्यसि त. स्मात्प्रतिसेवक परिणामानुरूप एप प्राधान ssलोचनामात्रविशेषः कृत इति नान्यथा प्रमार्जनीयः । एतदेवाऽऽहअपने सेविए होट एगमासो छ । दिन बहु एगो सुपरिणामो जया सेवे ॥१५७॥ अशुभ परिणामयुक्तेन सेविते निष्कारणमयतनया प्रतिमे विनेत्यर्थः । एकस्मिन् मासे एको मासुः परिपूर्ण दीयते, ३८ पच्चित्त नसावेन प्रतिसेवनात् पुनः प्रत्यावृत्तेरभावाच पद् पुनः शुभपरिणामः सेवते, पुष्टमालम्बनमालख्य प्रतिसेवते इत्यर्थः । दुष्टाध्यवसायेन सेवित्वा पश्चाद् बह्नात्मनिन्दनं करो ति तस्य बहुवपि मासेषु प्रतिवियेको मादते। द कश्चिद्ददानादात्मानमपन जनास्थानं दुःखितं मन्यते तं प्रति दमदानादानफलमाहदिएणमदियो को हो उ दोएह बग्गाणं । सार्ण दिन हो, अनि सुक्खो हत्या || १५८ || द्वौ वर्गी | तद्यथा-साधुवर्गो, गृहस्थवर्गश्च । तयोर्द्वयोर्गबोर्डको सोऽच यथायोगं सुखदुःखजननः । तत्र साधूनां दत्तः सन् दएकः सुखः सुखहेतुः, अदत्तः सन दुःखकारणमिति सामर्थ्यास्यते । गृहस्थानामदसः सन् दरामः सुखं सुखावहः दत्तः सन् दुःखावह इति सामर्थ्यात् प्रत्येयम् । कस्मादेवमिति चेदत श्राद उच्यिदंडो साहू, अचिरेण उबेइ सासयं ठाणं । सोचको संसारपयट्टओ होइ ॥ १५५ ॥ बच्चियदंमो गिहत्थो, अमणवस विरहितो दुढ़ी होड़ । सोच्चिचियको, असणव सणजोगवं होइ । १६० । उत्पादितो तो दोन साधुधिरेणावति शाश्वतं स्थानं प्रायभि तप्रतिपच्या प्रतीचारमलापगमकरणत उत्तरोत्तर विगुरुसं यमल्लाभात् । स एव साघुरनुकृतदण्डः संसारप्रवर्तको भवति, अठवारा संसार तथा स्थोऽशनवसनविरहितो नोजनवस्त्रपरिदीनो दुःखीजवति स एवानुद्धृतदरकोऽशनवसननो गवान् नवति । सूत्रम् जे भिक्खु मासि वा दोमासि वा तेमासि वाहमामियं वा पंचमासिकाते परिहाराणाएं अपरं परिहाराणं परिसेबित्ता आलोएजा, अपनिनंचियं आसोपास्त्र मामियं वा दोमामियं वा मासि वा मासि वा पंचमासियं वा पतिउंचियं वा प्रालीएमाइस दोमासि वा मासिया भाउमा सियं वा पंनमामियं वासितेण पर पचिचिए या अपलि उचिए वा ते चैत्र छम्मासा || (मादिनाखियं वा ते मासि वा द भिक्षुर्मासिकं वा द्वैमासिकं वा त्रैमासिकं वा चातुर्मासिकं वा पाञ्चमासिकं वा वाशब्दाः सर्वे विकल्पार्था तथा चाऽऽद एतेषां परिहार स्थानानामन्यतमत् तस्येति सामर्थ्याद वसीयते । यरु दस्तावेहित्य या सिर्फ प्रेमाखानुस या पाचमसिना प्रतिच्यालोचयतः सर्वत्र आपन्नप्रायश्चित्तापेक्षा अधिक मायानिष्य गुरुमास इति मासिकादिकम156 वैमासिकं वा त्रैमासिकं या बासि या पाचमासिकं या बान्मासिकं वा । (तेण परमित्यादि) ततः पाञ्चमासिकात्परिहारस्थानात्परं परस्मिन् पापमखि परिहारस्थाने प्रतिि प्रलोचनायां प्रतिकुञ्चितेऽप्रतिकुञ्चिते बाप्त एव स्थिताः प मस्मिन् तीर्थे आरोपणाचा Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त ( १५०) पनिधानराजेन्द्रः | अत्र शिष्यः प्राऽऽद्दकापड, चिए बहुमो वि सेविए मरिसा | सुखी संजोगो पुण, तत्थंऽतिम सुत्त बी वा ।। १६१ ॥ आहिमानि पश्चापि सकल सूत्राणि सकसूत्रसामान्या प्रथम विवहितं द्वितीयानि पहल सूत्राणिश-शब्दविशेषितानिविशेषितत्वाविशेषाद्वितीय सूत्रम् । तत्र प्रथमसूत्रे मना आरोपणा कृता । इदमुकं भवतियत् प्रतिसेविनं तत्सर्वे परिपूर्ण दत्तं न पुनः किञ्चिदपि तस्मामुक्तमिति । द्वितीये सूत्रे बहुशोऽपि सेविते मालिका परि हारस्थाने पित्यासह प्रयमसूत्रगमसदृशी दत्ता एवं प्रथमः किं प्रसिद्ध्यर्थमारब्धः १ । आचार्य आद - ( संबोगो इत्यादि ) तृतीयस्मिन् संयोगः पपुःश दो विशेषणार्थः । स पञ्च संयोगज्ञापनार्थमिदं तृतीयं सूत्रमारब्धमिति । तथाहि पञ्चानां पदानां दशद्विक्संयोगे भङ्गाः, दश त्रिकसंयोगे पञ्च चतुष्कसंयोगे पञ्चपञ्चगेोग्येक योगे सूत्रेणाऽत्र साक्षात् गृहीतः । तथा चाsह तत्थंऽतिमसुत्रा ति) तत्र तेषु द्विकलंयोगाऽऽदिनङ्गकेषु मध्येऽन्तिमः पञ्चकसंयोगसूत्रेण गृहीतः । विनक्तिपोऽत्र प्राकृतस्वात् । अस्य ग्रहणादितरेपि सर्वे भङ्गका गृहीताः । किमित्रेत्यतश्राह (वल्ली वा ) वाशब्द उपमार्थे, बलवत् । यथा बनी अग्रे गृहीत्वा समाकृष्टा सर्वा समूला समस्या समाकृष्टा भवति, एवमेते - "अन्नयरं पडिसेवित्ता आलोएजा, श्रपलिवचि यं श्रालोमाणस्स मालियं वा दोमासियं वा, पलिनंचियं श्रालोएमाणस्स दोमासियं वा तेमासियं वा ॥१॥ एवं जे निक्खू मासियं वा तेमासियं वा ॥ २॥ जे भिक्खु मासियं वा चउमा. सियं वा ॥ ३ ॥ जे भिक्खु मास्सियं वा पंत्रमासियं वा ॥४॥ जे भिक्खू दोमालियं वा तेमासियं वा ॥ ५ ॥ दोमासियं वा चउमालियं वा |६|| दोमाखियं वा पंचमासियं वा ॥७॥ जे भिक्खू तेमालियं वा चनमालियं वा ||८|| तेमालियं वा पंचमालियं वा ॥ ॥ चनमालियं वा पंचमासियं वा ॥१०॥ " त्रिसंयोगे दश भङ्गा श्मे । तद्यथा-" जे भिक्खू मालियं वा दोमालियं वा तेमासियं वा एएलिं परिदारद्वारा णमन्नयरं । इत्यादि ||१|| जे भिक्खू मासियं वा दोमालियं वा चउमालियं वा || २ || मालियं वा दोमासियं वा पंचमासियं वा ॥ ३ ॥ मा सियं वा तेमासियं वा चचमासियं वा ॥ ४ ॥ मासियं वा तेमालयं वा पंचमालियं वा ॥ ५ ॥ मासियं वा चउमा सियं वा पंचमालियं वा ॥ ६ ॥ दोमालियं वा तेमासियं वा चउमालियं वा ॥ ७ ॥ दोमयं वा तेमालियं वा पंचमासियं वा ॥ ८ ॥ दोमासयं वाचमालियं वा यंत्रमासियं वा ॥ ६॥ ते मालियं वा चासियं वा त्रमासियं वा ॥ १०॥ पञ्चचतुष्कसंयोगे जङ्गा इमं " जे जिक्खू मासि यं वा दोमासिधं वा तेमासियं वा चाउम्मासिवा परिहाराम परिहाराणं इत्यादि ||१|| जे निक्खु मासियं वा दोमासियं वा तेमासियं वा पंचमा सियं वा ||२|| मालियं वा दोमालियं वा चउमालियं वा पंचमालियं वा ॥ ३॥ मासियं वा तेमासियं वा चउमालियं वा पंचमासियं वा ॥ ४॥ दोमासियं वा तेमासियं वा चउमासियं वा पंचमास्त्रियं वा ॥५। ” यस्त्वेकः पञ्चक संयोगे स भङ्गः साम्रात् सूत्रे ਵਿਰਚ गृहीत सूत्रम् "बदुख विमेति "बादल योगदर्शनपर अप्रका रेण बहुशःशब्दविशेषितद्वितीय पसंद "बहुसो वि" इतिपदविशेषितं चतुर्थसूत्रं वक्तव्यम् । तद्यथा"जे निक्खु बसो मासि या बहुसो दोमासि वा दुस मासिव मासि या बटुसोचमा प परिहाराणा परिहारहाणं बसो परिवा अपचिणरस मासि वा दोमासिय वा तेमासियं वा चाउम्मालियं वा, पनिरंचियं आलोएमाणस्स दोमालिया मयिं वा मयिं वासयाले परं पतिउंचिप वा अपलि बंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥” इति । निदाह जे भिक्सोमानियाई सुगंविभावि तु । दोमासि यतेमासिय- कयाइँ एगुत्तरा बुढी ॥ १६२ ॥ ( बहुसो इति ) त्रिप्रभृति, न केवलं बहुशो मालिकानि, किं तु (दोमा सिनेमा सिकाई इति) मालिकानि त्रैमा सिकान्यपि च बहुशः प्रतिसेवनया कृतानि उपलक्षणमेतत्चातुर्मासिकानि पञ्चमासिकानि पृव्यामि । एवंरूपं सूत्रं विभावितम्यम बहुशः विशेषित द्वितीयायातध्यम - ( पगुचरा बुद्धीति ) द्विकाऽऽदिसंयोगचिन्तार्या पदानामेको वृद्धिः कर्त्तव्या काऽऽदिसंयोगभङ्का प्रष्टव्या इति ख्यापितम, सूत्रस्य तथा तत्वासादि-अन्तिमः पञ्चसंयोगनिष्यभङ्गः स ण साक्कापातः । अस्य प्रहणादादिमा अपि द्विकसंयोमाविमा शस्तात गृहीता असे सूत्रेण विंशतिः सूत्राणि सूचितानि, तृतीयेनापि सुत्रेण रूपया पट्टिशतिद्विकारयोगे के सूत्र चतु शितिरिति सर्वमिलितानि संयोगसूत्राणि द्वापञ्चाशत् लसूत्राणि पश्च च बहुशःशब्दविशेषिता नीति सर्वसंख्यया द्वाषष्टिः सूत्राणि । पतानि च उद्धाताबुद्धानाऽऽदिविशेषरहितानि उक्तानि । साम्प्रतमेतेषामेवोद्वाताऽऽदिशेषपरिज्ञानार्थमिदमाहहम्पामा मृत्युतर दप्प कप्यतो चे संजोगा काया, ये मीसा चैव ।। १६३ ॥ उदास अनुद्वातं गुरु ते चनुदाते तथा मूसापराधे (उ) उतारा तथा दर्पे, कल्पतचैव कमे चैव, संयोगा श्रनन्त रोदिताः कर्त्त या भणितव्याः । कथमित्याह-प्रत्येकमेकैकस्मिन् उद्घातादि मिश्रका वा उदाता उद्घातसंयोगनिष्पन्नाः । उपलक्षणमेत तू, ते न केवलं संयोगाः, किं त्वादिमान्यपि दश सुत्राणि - दामा विशेष तित्रोद्वातविशेषले जे भिक्खू उग्धाइयं मालियं परिहारठाणं पडिसेवित्ता श्राबोएजा इत्यादि ) इत्येवमादिमानि पञ्च सकल सूत्राणि, पञ्चबहुशः शब्दविशेषितानि षड्विंशतिस्तृतीयसूत्र सूचितानि - द्वितियतुर्थ सूचितानि सर्वसंख्या सूत्राणि कम्यान एवं द्वाषष्टिः सत्राणि अनुद्धानिमानि अनुद्धताभि पानि तथा (जे अपश्यं परिहाराणं परिसेचित्ता आलोपज्जा इत्यादि) एवमेतास्तिस्रो द्वाष्टयः । सुत्राणां सर्वसंख्यया बरुशीतं सूत्रशतम् । अत्र च त्रिंशदसं · Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५१) अनिधानराजेन् पच्छित्त संयोग योगादिचाणि पाशं तं संयोगसूत्राणाम्। साम्य समुद्राद्धानमिषा तानि धारणीयानि जे मासि मायंपरिहरणं परिसेविता अप सिवियं भाषमाणस्स कथादवाधावा. पनि आममाणस्स उपायदां मासि वा श्र ग्यासि वा जे उद्याश्यमाखियं वा परि दारद्वारा परिसंवता" इत्येतद्ममुखा अनु तद्वैमासिकाऽऽदान्यपि वक्तव्यानि । एवमेते जङ्गाः पञ्च पते च उद्धतितमासिकेऽनुद्धातित मासिकद्वैमासिकाऽऽद्येकक संयोगेन लब्धाः । एवमुद्धातिते द्वैमासिकेऽपि पञ्च त्रैमासिकेऽपि पच, चातुर्मासिकेऽपि पञ्च पञ्चमासिकेऽपि पत्युभयोरप्येकक संयोगेन सर्वसंख्यया नङ्गाः पञ्चविंशतिः । तथावृद्धातितमासिके, द्वातितमासिके द्वैमासिकाऽऽदिद्विक. एवमनुद्धा । संयोगे मा दश मुद्धामा वैमासिकेतुर्मा सिके पश्चमासिके व प्रत्येकं दश दशेति सर्वसंख्यया उद्धा तितैकक संयोगे अनुद्धा तितद्विकसंयोगे जङ्गाः पञ्चाशत् । इह एकैकस्मिन् अनुयातिसंयोगे मासिक वैमासिकादि मेस पक्ष पक्षप्रतोद्धतिले सियोग दशमङ्गाते पञ्चभिर्गुण्यन्ते जातास्तत्र प्रङ्काः पडचाशव योगे न पच पच जाता पति पञ्चकसंयोगे प्रङ्ग पभिर्गुण्यन्ते जाताः पञ्च सर्वसंयथा उद्घातिनेकप पञ्चाशदधिकं शतम् १५५ । तथा पञ्चानां विकसंयोगे प्रङ्गादाद्विक योगश्चितायामेकैकस्मिन् अनुदानित संयोगेन दश दश प्रतिमनुद्धाति एक संयोगे पक्ष दश संयोगेश चतुष्प, पञ्चसंयोगे एक प्रत्येकं दशभिर्गुते इति जातं क्रमेण प्र नां पञ्चाशत् शतं शतं पञ्चाशत्, दश च। ५० । १०० । १०० । ५० । १० । सर्वसंख्या उद्धातिते द्विकसंयोगे भङ्गानां त्रीणि शतानि दशोत्तराणि ३१० | तथा पञ्चानां पदानां त्रिक संयोगे, 1 मगन्तायामप्येकस्मि मननुद्घातितसंयोगे जङ्गा दश दशेत्येक संयोगे पञ्च, द्वि 1 पश्च योगेश को पच पच एकः । प्रत्येकं दशभिर्गुण्यन्ते जाताः क्रमेणेयं भङ्गानां संख्या पञ्चाशत्शतं शतं पञ्चाशत्, दश। ५० । १०० । १०० १५० | १० | श्र प्रापि सामानि दशोत्तराणि ३९० । पञ्चानां चतुष्कसंयोगे नङ्गाः पञ्चवत् ( ? ) उद्धातिते चतुष्कसंयोगबिन्तायामेकस्मिन् अनुदुघातितसंयोगे भङ्गा पञ्च लभ्यन्त इति । तत्रैककसंयोगजाः पञ्च द्विकसंयोगजाः दश, त्रिकसंयोगजाः दश, चतुष्कसंयोगजा दश, पग एकम प्रत्येकं पञ्चभिर्गुले सो जाता क्रमेणेयं भङ्गानां संख्या पञ्चविंशतिः पञ्चाशत, पञ्चाशत् पञ्चविंशतिः, पञ्च । २५ । ५० | ५० | २५ | ५ | सर्वसंख्य या उद्धति चतुष्क संयोगे जङ्गानां पञ्चपञ्चाशदधिकं शतम् १५५ | पचकसंयोगे पञ्चानां पदानामेको नङ्क इत्युद्धातिते पञ्चकसंयोगविनायामनुद्धात एक संयोगाः पञ्च द्विसंयो गा दश चतुष्कसंयोगाः पञ्च पञ्चकसंयोग एकः, प्रत्येकमेक केन पयले पकेन वसुदेव म पच्छि न तद्यथा पञ्च दश दश पञ्चकः, एककः । ५ । १० । १० ।५ । तिने पञ्चसंयोग ३१ लत आरभ्य प्रङ्गानां सर्वसंख्यया नवशतान्येकषष्यधिका६ बिल सूत्राणि पडलस्वादिषु स संयोगतजानाति । एतावदेव बहुशःशब्दविशे पितेष्वपि विधिना सूक्षण पनि ९६२ संयापिण्डन मिश्रणावित्यु तराणि एकोनविंशतिशतानि १६२२ । एतानि च तृतीयच. तुर्थ सूत्राच्या मुत्पन्नानीति न तत्र पृथक् मिश्रकसूत्राणां संभय मिश्रकाणामेको १०२२. शीतं शतं प्राणामिति स संख्या सुषाणामेकविंशतिमोराणि २१००। तथा यस्मादपराधो द्विधा । तद्यथा मूलगुणे, उत्तरगुणे च । एतानि सर्वानरोदितानि सुषाण मूलगु खापराणनियमेनाप्यनिधातम्याम्सर गुणा परापानिधानेनापीत्येष राशिभ्यां गुपते जातानि चार ४२१६ अपराधोऽपि यस्मान्मूलगुणेषु च दतः करवतो वाऽप्ययत नया तत एष राशिर्जूयो द्वाभ्यां गुण्यते । जातान्यष्टौ सहआणि बावारि शतानि शिकायती संक्षेपतः संयाजयिता। जासो स भङ्गकपरिकामार्थमाद पण एकदुगतिगच उपण मेहिं । दस दस पंचग एकग, अब अनेगा एवाओ। १६४।। अत्र चैतस्मिन् सुसम पतयः प्रतिसेवनापसं ख्याकाः प्रतिसेवनाप्रकाराः पञ्चानां पदानामेककधिकाकचतुष्ककैरेकद्विकक कपयसंयोगे त भङ्गा मे इस इत्यादि - कामदर्शितामा समयसेवा, सतीऽयमर्थः पञ्च पञ्च, दश, दश पञ्चक इति तेभ्यो ऽवसेयाः । यथाऽध्यव सातव्यास्तथा प्रागेवोक्ताः । ( अब अणेगाड ए. या इति) श्रथवा न केवलमेतावत्य एवैताः प्रतिसेविताः, किं त्वम्यासामपि ज्ञावादनेका पता द्रष्टव्याः । ताश्चान्याः प्रतिसे नाभिरादियं परिसेविता आलोपा अपलिवियोगमात्र पंचरादिव - जोयमाणस्स पंचरादियं मासियं ।" एवं दशपञ्चदशवक्तव्यानि 1 विशतिपञ्चविंशतिरात्रिन्दिवेष्वपि सूत्राणि पवमेव पञ्च सुप्राणि बलापेनानियास्यामि तदनन्तरं संयोगपति यम् । सतयतु] संयोगसूत्रं परिशतिसूत्रात्मके बराशदविश पितम् । एवमेतानि सामान्यतो द्वाषष्टिः सूत्राणि भणित्वा तद तरमुद्धतनुतमिश्ररदः प्रागुकप्रकारे सा वत्सूत्राणि वक्तव्यानि यावदष्टौ सहस्राणि चत्वारि शता शिंदाने परिपूनि भवति पञ्चकादीनि मासिकप्रेमासिकादिभिः सह न पारसियानि यत उपरि पञ्चमं सातिरेकसूत्रं वक्ष्यति । तत्र च सातिरेकता पश्चका ऽऽदिभिरिति पुनरुक्तता स्यादिति । , - Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पबित्त साम्प्रतमेतेषां सुत्राणामर्थावगमेनोत्कलितप्रज्ञः सन् शिष्यः पृच्छति जह से बहुसो मा सिया सेवित्तु बहुई हरिं । तह देहा परिहार, दुपदं तिचि आमंति ।। १६५ ।। मासिकमासिकादिप्रायश्चित्ताऽपत्ति प्रतिपरि नामानुरूपमन्यथा येन प्रकारेण बहूनि माविकानि प्रतिसंस्य कदाचित् मासिकमेव प्रतिमा पद्यते मन्दाध्यवसायेन प्रतिदावर्तते। तद्यथा-कदाचिद् द्वैमासिकं तविणाऽध्यवसायेन प्रतिसेवनायाः कारणात् त्रैमासिकं यावत् षाण्मासिकं वा कदाचि दतियाना नातिं या ना तेन प्रकारेणास्ताद पिपरियानिमुपगच्छति तद्यथा-मासिक प्रतिव कदाचिद्भिन्नमासमापद्यते, कदाचित्पञ्चविंशतिराचिदिवं या पतिविध प्रकारो मासलकणौ यस्य तत् द्विविधं द्वैमासिकमित्यर्थः । तत एवं त्रिविधं त्रैमासिकं रामात् चानुमासिक मासिक पा मासिक प्रतीत्य प्राय यथाप्रेमसिके स्थाने प्रति कदाचिदेव मासि कम कदाचित् त्रैमासिकदाचित् या पाराचितम् प्रस्ताव द्वैमासिक प्र सायसिनते. कदाचित त्रिमासादयमयं त्रैमासिकम मासिक पाण्मासिके भाव श्रह - (श्रमं ति ) आमशब्दोऽनुमती समिति जावः । ( १५२ ) अभिधानराजेन्द्रः । केगा पुल कारणं जिणपचचाणि काणि पुरा वाणि नियति ताई, पोछा बहुं नाई ।१६६। शिक्षा-केनः कारन मात्रिकाऽऽही प्राथमि स्य वृद्धिहानी वा नवतः ? । श्राचार्य आह-श्रत्र कारणानि सर्वपरिनिनि पुनस्तान बा यादिवादकस्येव पश्यावृति वनायामप्रत रागाध्यानडानितो वा यदि वा पश्चात् -“दा ठु कथं हा दुई कारियं दुड्डु अयं इत्यनुतापकरणतो मासिक - तिसेवनायामपि भिननः पञ्चविंशतित्री रात्रिदिवानि । एवम रागद्वेष हानिकारकानि पुनः शिष्यः पृतनु पहि प्रतिनि निजना प शब्द एवकारार्थी मित्रत्वादव संवध्यते । केवल्यधमनः पर्या नारिय तथापि देशानुसरतोऽप्यन्ते ताण्डवार्थसम्मतमेतदस्माकं परिवत्त हानि चेति । (बोयग पुच्का बहुं नाउं ति) बहुशः शब्दविशेषितेषु त्रेषु बहुशब्दोऽस्ति समर्थ तुम चोदकस्य पृच्छा-यथा-भगवन् ! । तेषु तेषु सूत्रेषूपालस्य बहुशब्दस्य कोऽर्थ इति । श्राह 9 तिविद्धं च होड़ बहूगं जहन्नममंच को जहणेण तिमि बहुगा उक्कोंसे पंच चुलीया ||१६७।। त्रिविधं बहुकं भवति । तद्यथा- जघन्यं, मध्यमम, उत्कृष्टं च । तत्र जघन्येन त्रीणि बहूांन किमुक्तं जवति?- जघन्येन त्रयो मा सा बढ़वः, उत्कर्षतः पञ्चमासशतानि चतुरशीतानि चतुरशी त्यानि तेषां मध्ये यानि प्राधि यावत्पचशतानि जयशीत्यधिकानि तानि मध्यमतः । संप्रति यथा प्रायश्चित्तं दीयते तथा भणनीयम् । तत्र मासादाराज्य यावत् षण्मासास्तावत् स्थापनाऽऽरोपणापतिरेकेणापि सूत्रेणैव दीयते, ततः पराणि तु यानि सप्त मासाऽऽदीनि प्रायश्चित्तानि मध्यमानि उत्कृष्टं च यत्प्रायश्चित्तं तत् स्थापनाऽऽपत्रकार दयाह उवासंघपरासी- माणा पत्र व किचिया विका। दिडा निसीरनामे, सविता मायारा ॥ १६० ।। इति स्थापना-मानारोपणप्रकारेण धी भूज्यः संयाम्पो से शेषा मासास्तेष प्रतिनिय सपरिमाणतया व्यवस्थापनम् | स्थापनाग्रहणेन आरोपणाऽपि गृहीता या परस्परमन संवेधात्तय प्रत्यारोपणा, वक्ष्यमाणेन गणितप्रकारंण संचयमासानां षट्सु मासेषु समविषमतया प्रतिनियतदिवसग्रहणतो व्य वस्थापनम् ताभ्यां स्थापनाऽऽरोपणाभ्यां संचयनं संकलन सं चः किमु भवति मासानामुपतिना कृतायां कापि मासात्पदान्दिन कुश कुतोऽपि वा स्थापनापविमार संचयः । तथा-- ( रासि प्ति ) एष प्रायश्चित्तराशिः कुत उत्पद्यते १ प्रति वक्तव्यम् । तथा मानानि प्रायश्चित्तस्य वरू व्यानि यथा प्रथमतीर्थकृतस्तीर्थे प्रायश्चितमानं संवत्सरः, मध्यमानामष्ट मासाः तथा चरमस्य षण्मासाः । तथा प्रभबः प्रायश्चित्तदाने स्वामिनः केवलिप्रभृतयो वदव्याः । त था - ( किचिया सिद्धा इति ) क्रियन्तः खतु प्रायश्चित - दाः सिद्धा इति वक्तव्यम् ? । तथा पते सर्वेऽपि प्रायश्चि दानिशयन पिनमध्ययनेन केल या सर्वेऽप्यनावारा अतीवारा अतिक्रमाऽऽदयो निशीथनाकिन दृष्टाः । एष द्वारगाथा पार्थः । संप्रति प्रतिद्वारं व्यासाय जणनीयः, तत्र यान् प्रतिस्था पारोपणे कियेने बहुपसेवीयो, विगीतो अवि य अपरिणामो अत्रा प्रतिपरिणामो, सपच्चयकारणे उवणा ।। १६६ ।। प्रातिप्रतिपचारः पुरुषा मे गीतार्थः अगीतार्थः, परिणामकः, अपरिणामकः, अतिपरिणामकश्च । तत्र यः प्रायश्चित प्रतिपत्ता बहूनां मासिकस्थानानां प्रतिसेवी एकस्मिन् हि मासिके स्थाने प्रतिसेविते प्रायो न स्थापनाssरोपण विधिस्ततो वसे वीभ्युक्तम् । सोऽपि बागीतोऽगीतार्थः, Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਵਿਚਾਰ अभिधानराजेन्द्रः। पन्वित अगीता हि प्रायश्चित्तप्रतिपत्तरि च बहुम्वपि मासेषु 'प्रतिसेवितेषु न स्थापनारोपणे क्रियते, तस्य गीतार्थतया ता. ज्यं बिनापि यदुक्तार्थ ग्राहित्वात ततोऽगीतार्थ इत्युक्तम्, सो. ऽपि यदि परिणामको भवेत, तर्हि तमीप प्रतिस्थापनाऽऽ. रोपणे, तस्यापि परिणामकतया ताभ्यां विनाऽऽपि यमुक्तार्थप्र. तिपत्तेः । तस पाह-अपि च अपरिणामोऽपि-न विद्यते प. रिणामो यदुक्तार्थपरिणमनं यस्य स तथा प्रास्तामगीताथैः किं स्वपरिणामकश्चेत्यपिशब्दार्थः । अथवा-प्रतिपरिणामः-अतिव्याप्त्या परिणामो यथोक्तस्वरूपो यस्यासाबतिपरिणामस्तस्त्रत्ययकारणात्तयोरपरिणामातिपरिणामयोःप्र. स्ययो प्रान यावन्तो मास, प्रतिसेवितास्तावन्तः सर्वेऽपि सफीकृता इत्येवंरू स्यादिति हेतोः स्थापनामहरोनाssरोपणाऽपि गृह्यते इति भारोपणाऽपि क्रियते । तद्यथा-यावन्तो मासा दिवसा बा प्रतिसेवितास्तावन्तः सर्वे एकत्र स्थाप्यन्ते, स्थापयित्वा च यत्संकेपाई विशिकादिकं प्रति. सेवितं तत् स्थाप्यते, पषा स्थापना । तदनन्तरं येऽन्ये मासाः प्रतिसेवितास्ते सफलोकतव्या इत्येकैकस्माद् मासात परिसेबनापरिणामानुरूपाँस्तोकान् स्तोकतरान् समान विष मान् वा दिवसान् गृहीत्वैकत्राऽऽरोपयति एषा भारोपणा। एषा चोकर्षतस्तावत्कर्तव्या यावत्याः स्थापनायाः सह संकमण्यमानाः षण्मासाः पर्यन्ते, नाधिकाः, ततः स्था. पनारोपणयोर्यदेकत्र संकलनमेष संचयः । अयं स्थापनारोपणासंचयानां परस्परप्रविभक्तोऽर्थः । अनेन हि प्रकारेण प्रायश्चित्तदानेऽतिपरिणामकोऽपरिणामको ध। चिन्तयति सर्वे मासाः सफल कृता इति शुकोऽहमिति गीतार्थाs. गीतार्थपरिणामकयोः पुनर्न स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेण प्रायश्चित्तं दीयते. प्रयोजनाजावारिक त्वेवमेव । तथा चाऽऽहएगम्पिऽणेगदाणं-डणगेमु य एगदाणमेमेगं । जे दिज्जा तं गएहइ, गीतमगीतो अपरिणाम। ॥१७॥ योऽगीताsपि परिणामी तस्मै एकस्मिन्मासे प्रतिसेविते रागद्वेषहषात्तरोत्तरवृध्या प्रतिसेवनात यदि अनेकदानम्अनेके बहवो मासा दीयन्ते , अनकेषु वा मासेषु प्रतिसे. वितेषु कारणे मन्हाध्यवसायेन वा प्रतिसेवनात् तानाध्य. वसानतः प्रतिसेबनायां वा पश्चात् डा दुष्ठ मया कृतमित्यादि बहनिम्दनादेकदानमेको मासो दीयते । अथवा-एकस्मिन्मासे प्रतिसेविते एकदानमेकः परियों मासो दीयते. दुष्टाध्यवसायेन प्रतिमेवनात् पश्चाश्च हर्षगगद्वेषवृद्ध्यसंभवतो. ने कमासदानायोगात् । उपलकणमेनत, तेनैतदीप अष्टव्यम्बहुषु मासेषु सप्ताटाइदिसंख्येषु प्रतिसेवितेषु यदि बहवो मा. साः षट् पञ्च चत्वारो बा दीयन्ते , तदापि तत्सम्यक गृह्णाति, अद्धत्ते च शुद्धि प्राप्तोऽहमिति । ततस्तयोर्न स्था. पनारोपणाप्रकारेण प्रायश्चित्तदानमिति । यदि पुनरपरिणामकेऽतिपरिणामके बा अगीताणे न स्थापनारोपणाप्रकारेण प्रायश्चित्तं दीयते, तदा बहवो दोषाः। तत्रापरिणामके दोषं दर्शयतिबहुएम एगदाणे, सो चिय सुछो न सेसया मासा । अपरिणामे न संका, सफला पासा कया तेख ॥१७॥ बहुकेषु मासेषु प्रतिसेवितेषु यदा प्रागुक्तकारणवशात् एको मासः स्थापनारोपणाव्यतिरेकेणापरिणामके दीयते तदा तस्मिन्त्रपरिणामके एवमाशङ्का स्यात-यथा यस्यैकमासस्य मे दरं प्रायश्चित्तं स एवैको मासः शुद्धो, न शेषा मासा, त. तो नाद्याप्यहं शुरू ति । तस्मादेवभूता प्राशङ्का मा भूदित्यपरिणामके स्थापनारोपणाप्रकारेण सर्वे मालाः मफला: स्मृताः,समस्तमाससफल करणार्थ तत्र स्थापनाऽऽरोपणे क्रियेते इति भावः। अतिपरिणामके दोषानुपदर्शयतिउवणामित्तं प्रारो-वण ति नाऊणमतिपरीणामो। कुज्जा व अइपसंगं, बहुयं सेवित्तु मा विगळं ॥ १७॥ प्रतिपरिणामकेऽपि यदि बहुकेषु मासेषु प्रतिसेवितेम्बेको मासः स्थापनाऽऽरोपणाव्यतिरेकेण दीयते, ततः सोऽप्येवं चिन्तयेत्, भाषेत वा यथा-यदेतदागमे गीयते (मारोवण त्ति) प्रायश्चित्तमिति । ततः स्थापनामात्र, मात्रशब्दस्तात्पर्यार्थः विश्रान्तेस्तुख्यवाची। यदाह निशाधचूर्णिकृत - 'मात्रशब्दस्तुल्यवाचीति।' यथा हि स्थापना शक्राऽऽदेशकाऽऽदिलकणतारिखकार्थशून्या, पवमाऽऽरोपणाप्यागमे मायमाना तास्विकार्थशन्या बहुष्वपि मासेषु प्रतिसेवितेवेकस्य मासस्य प्रदानात् । यद्वा-स्थापनामात्रमारोपणेति ज्ञात्वा अतिपरिणामोऽतिप्रसकं कुर्यात् पुनःपुनस्तत्रैव प्रवर्तते, बहु केवीप मासेषु प्रतिसेवितेष्वेकस्य प्रायश्चित्तलाभ इति बुझेः । यद्धा. अकल्प्य प्रतिसेवनया बहून मासान् प्रतिसेन्य सर्वान् मासान् मा विकटयेत् नालोचयेत, किं वेकमेव, बहुवपि मा. सेषु प्रतिसेवितेवक एवं मासस्तत्वतः प्रायश्चितमित्यवग. मात् । तस्मादपरिणामकेऽतिपरिणामकेच सकलमाससफली. करणाय स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेण प्रायश्चित्तं दातव्यम् । वह स्थापनायाश्चत्वारि स्थानानि । तद्यथा-प्रथम त्रिंशत् स्थापनाऽऽत्मकं, द्वितीयं त्रयस्त्रिंशस्थापनाऽऽत्मक, तृतीयं पञ्चत्रिंशस्थापनाऽऽत्मक, चतुर्थमेकोनाशीत्यधिकस्यान राताSSR. कम । भारोपणाया अपि चत्वारि स्थानानि । तद्यथा-प्रथम विंशस्थाना3उन्मक तृतीय, पानिशस्थानाऽऽत्मकं चतुर्थमेकोनाशीत्यधिकस्थानकशतप्रमाणमतः साम्प्रतमेतेषां चतुको स्थापनास्थानानां चतुली चाऽऽरोपणास्थानानां यानि जघ. भ्यानि स्थानानि तानि प्रतिपादयति महा वीसिय पक्खिय, पंचिय एगाहिया न बोधचा। आरोवणा वि पक्षिय,पंचिय तह पांच एगाही ॥१७॥ स्थापनाया प्रथमस्थाने जघन्ये स्थापना विशिका विशतिरात्रिन्दिवप्रमाणा,द्वितीये पाकिकी,तृतीये पश्चिका पत्रदिवसा. रिमका,चतथे च एकाहिका एकाहमात्रा प्रारोपणाविप्रथमे स्थाने जघन्या पाक्तिकी, द्वितीये पाचका पञ्चदिनप्रमाणा, तृतीयेऽपि पत्रिका, चतुर्थ एकाहिका, सर्वजघन्यान्येतानि स्थापना रोपणास्थानानि । श्राह च चूर्णिकृत्-" पयाणि सवजहनगाणि रणाऽऽरोवणागणाण।" ति। इद न शायते कस्मिन् जघन्ये स्थापनास्थाने किं जघन्यमारोपणास्थानं भवति, तत्परिज्ञानामिन माहबीसा अधमासं, पक्खे पंचाहमारुहेजाहि । पंचाहे पंचाई, एगाहे चेव एगाह ।। २७४।। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५४) पत्ति अभिधानराजेन्डः। पच्चित्त विशिकायां विशिकारूपे जघन्ये स्थान स्थापनास्थाने जघ. না, অgয়াঘাষনিয়নমা বা লিমা ग्यमारोपणस्थानमर्कमासमारोहयेत, स्वबुद्धावारोपयेत, जा आरोपणा । ततः पचानामपगमे पश्चाशदधिकशतमा-- नीयादिस्यर्थः । तथा पने पक्कप्रमाणे जघन्ये स्थापनास्थाने ना एकोनत्रिशत्तमा मध्यमा। ततोऽपि पश्चानामपगमे पश्चाशपश्चाई पञ्चाहप्रमाणं जघन्यमारोपणास्थानम । तथा पश्चाहन शतप्रमाणा अष्टाविंशतितमा। एवं क्रमेणाधोऽधः पञ्च प. माणे जघन्य स्थाने पञ्चाई पश्चादप्रमाणमेव जघन्यमारो च परिहापयता तावन्नेयं यावत् प्रथमा पक्कप्रमाणेति । तथा पणास्थानम् । पकाहे एकदिनप्रमाण जघन्ये स्थापनास्था चाऽऽह-(पपणामत्यादि) एतेन पूर्वानुपृया पत्रपरि वृद्धिरूने जघन्यमारोपणास्थानमेकादमेव एकदिनप्रमाण एव । पेण, पश्चानुपूा पञ्चकापकृष्टिरूपेण प्रमाणेन, पूर्वानुपृया ज घस्यपदादारभ्य पश्चानुपूर्या मुत्कृष्टात् स्थानात प्रति ताबसंप्रति प्रथमे स्थापनास्थाने या जघ-या स्थापना, या च उ. तव्यं यावरमं स्थानं परिवृद्धौ सर्वान्तिमं स्थानं चरमम्, अपस्कृष्टा, तां प्रतिपादयति कृष्ट जयस्यमादिमं चरममिति। अथवेयं गाथा अन्यथा व्यारणा होइ जहन्ना, वीसा राईदिया पुन्नाई। स्थापते-पूर्व किल स्थापनायामारोपणायां च प्रत्येकं जघन्यपामढे चेव सय, उवणा नकोसिया होइ॥ १७५ ।। मध्यमोत्कृष्टभेद भिन्नानि स्थानान्युक्तानि, साम्प्रतमेकैकस्मिन् स्थापनास्थाने जघन्याऽऽदो कियन्त्यारोपणास्थानानि, पकैकप्रथम स्थापनास्थाने जघन्या स्थापना भवति पूर्णानि परि स्मिन वा प्रारोपणास्थाने कियन्ति स्थापनास्थानानीत्येतत् प्रति. पूर्णानि विशतिरात्रिन्दिवानि,विंशतिरात्रिदिवप्रमाणेतिभावः। पादयति-(पंचराइं परिबुडी इत्यादि) पूर्वस्मात् पूर्वस्मात स्थापउत्कृष्टा जति स्थापना पश्चषणं शतं, पश्चषष्टयधिकं रात्रिन्दि. नास्यानादारोपणास्थानाद्वोत्तरस्मिन्नुत्तरस्मिन् स्थापनास्थाने पानां शतम् । शेषाणि तु स्थानानि मश्यमानि । पारोपणास्थाने वा वृमिवति । यस्मिंश्च यदपेकया स्थापना. संप्रति प्रथमे भारोपणास्थाने या जघन्या आरोपणा, या चो- स्थाने भारोपणा,स्थान वा पञ्चानां वृद्धिर्भवति तस्मिन् नत्तद. त्कृष्टा, तां प्रतिपिपादयिषुराह पेक्या स्थापनास्थाने भारोपणाचिन्तायम, अरोपणास्थाने वा प्रागेवणा जहन्ना, पनर राईदियाइँ पुन्नाई। स्थापनास्थानचिन्तायामन्ते पञ्चानामपष्टिहनिनवति । एतेन नकोसं सढिसयं, दोसु वि पखेरगो पंच ॥ १७६ ॥ प्रमाणेन पचकपरिवृद्धिरूपेण पञ्चकहानिरूपेण च तावत झेयं यावदे कत्रान्तिमं चरममपरत्राऽऽदिमं चरममिति । तयाहि-विशि. प्रथमे प्रारोपणास्थाने जघन्या प्रारोपणा पानि पञ्चदश कायां स्थापनाथांजघन्या पाक्तिका श्रारोपणा,ततोऽन्या विशिका, रात्रिन्निवानि, उत्कृष्ट पुनरारोपणां जानीयात् षट्रिशतं षष्टय ततोऽप्यन्या पञ्चविंशतिदिनमाना ततोऽध्यन्याप्रिंशिका एवं पञ्च धिकं रात्रिदिवशतं, शेषाणि तु स्थानानि मध्यमानि, तत्परि- पञ्च भारोपयता तावन्ने यं यावत् तस्यामेव बिंशिकायांसास्कझानार्थमाह - (दोसु वि पक्खेवगा पंच) द्वयोरपिस्थापनाऽऽरो. टावधिकदिनशतप्रमाणा त्रिंशत्तमा प्रारोपणा तथा पञ्चधिपणयोः प्रत्येक जघन्यपदादारभ्योत्तरोत्तरे मध्यमस्थाने प्रक्षे. शतिकायां स्थापनायां जघन्या पाक्षिकी प्रारोपणा ततोऽयम्या पकः पञ्च पश्चगरिमाणो ज्ञातव्यो यावदुत्कृष्ट पदम् । इयमत्र त्रिंश दिना । एवं च परिवर्कयता तावातव्यं यावदेकोनप्रिंशभाचना-प्रथम स्थापनास्थाने जघन्या स्थापना विशिका, ततः तमा पञ्चपञ्चाशइधिकदिनशतमाना सर्वोत्कृष्ट प्रारोपणा । पश्चकप्रकरे अन्या द्वितीया पञ्चविंशतिदिनमाना, ततः पुनः अस्पामेकोनत्रिशदारोपणास्थानानि, पूर्वस्थापनापेकया अस्याः पञ्चकरकेपे तृतीया त्रिशहिना । एतं पञ्च पञ्च परिवर्कयता ताव स्थापनायाः पञ्चभिर्दिनः परिवर्द्धमानतया पर्यन्ते पश्चानां दिनाबनय यावत्पश्चपाएरात्रिदिवशतप्रमाणा त्रिंशत्तमा स्था- नां श्रुटितत्वात्। एवमुत्तरत्रापि भावनीयमा तथा विशाहनाया पनेति । तथा प्रथम प्रारोपणास्थाने जघन्या प्रारोपणा पक्क- स्थापनायां जघन्या पाकिको आरोपमा ततोऽप्यन्याविंशतिदि. प्रमाणा, ततः पाचकरकेपे विशतिदिनप्रम णा द्वितीया, ततो- ना। ततोऽप्यन्या पञ्चविंशदिना । एवं पश्च पञ्च परिवईयता ताबऽपि पञ्चकप्र के पञ्चविंशतिदिनमाना तृतीया । एवं यात्तरं नेयं यावत्सर्वोत्कृपा पञ्चाशशतदिना स्थापना,विशतितमारोपश्च पश्च परिवईयता तावन्नेयं यावत् पयधिकरात्रिदिवश- पणामस्यामठाविंशतिरारोपणास्थानानि । तथा पश्चशिहिनातप्रमाणा त्रिंशत्तमति। यां स्थापनायां जघन्या पाक्षिकी प्रारोपणातितोऽन्या विशतिएतदेव सुव्यक्तमाह दिना। ततोऽप्यन्या पश्चविंशतिदिना। एवं पञ्च पश्चाऽऽगेपयता पंचएहं परिबुटी, उक्किट्ठा चेव होइ पंचएई। ताचगन्तव्यं यावत्सवात्कृष्टा पञ्चचत्वारिंशदिन शतमाना सप्त. विशतितमाऽऽरोपणा । अस्यां सप्तविशतिरारोपणास्थानानि, एएण पगारोए, नेयम् जाव चरिमं ति ॥ १७७॥ कारणं प्रागेवोक्तम् । एवमुनरोत्तरस्थापनासक्रान्ताचम्तिममस्थापनायामारोपणायां प्रत्येक जघन्यपदादारभ्योत्तरोत्तर- न्तिम स्थान परिहरता तावन्नतव्यं यावत्पश्चषष्टिदिनशतायां स्थाना झालायां पञ्चानो परिवृद्धिी नव्या प्रत्येकम् । एवमेव त्रिंशत्तमायां स्थापनायामेकैव जघन्या पाक्षिका आरोपणा, चान्तिमस्थानादारभ्य क्रमेणाऽधोऽवस्थानजिज्ञासायां पञ्चा- नान्यति । तथा पाक्विक्याम रोपणायां जघन्या विंशतिदिना नामकृष्टिहानि वस्यवसातव्या । तद्यथा-पचयधिका रा. स्थापना, ततोऽन्या पञ्चविंशतिदिना मध्यमा, ततोऽप्य. त्रिदिवशतप्रमाणा सर्वोत्कृष्ट त्रिंशत्तमस्थापना, ततः पश्चाना. न्या त्रिंशहिना । एवं पञ्च पञ्च परिवर्डयता तावन्तव्य मपसारणे रात्रिन्दिपश्यधिकशतमाना एकोनत्रिंशत्तमा यावत्पश्चषडिदिनशतप्रमाणा सर्वोत्कृष्टा त्रिंशत्तमा स्थापना । मध्यमा । ततोऽपि पञ्चानामपगमे पञ्चश्वाशदधिकशतप्रमा. तथा विशिकायामारोपणायां जघन्या स्थापना विशतिदिना, णा अपाविंशतितमा एवं क्रमे गाधोऽधस्तात्पञ्चपञ्चपरिहापय- नतोऽन्या मध्यमा पश्चशितिदिना, ततोऽप्यन्या त्रिशहिना । ता तावन्तव्यं यावत् विशतिदिनप्रमाणा प्रथमा स्थापना।। एवं ययोत्तरं पञ्च पश्च विलगयता तावद् गग्तव्यं चावत्ष Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त अभिधानराजेन्छः। पच्चित्त यधिकदिनशतमाना सर्वोत्कृष्टा एकोनत्रिशत्तमा स्थापना ।। स्तव्यं यावत्पष्टिदिनशतमानायां त्रयस्त्रिंशत्तमायामारोपपूर्वाऽऽरोपणातो ह्यस्यामारोपणायां पञ्चदिनान्याधिकानि चो- णायामेकैकजघन्या पाक्तिकी स्थापनेति । तथा तृतीये स्थापरि हितानीत्येकोनत्रिंशदेवास्यामारोपणायां स्थापनास्था- पनास्थाने जघन्या १७चाहिका स्थापना । ततः पन्चामा नानि । तथा पञ्चविंशतिदिनायामारोपणायां जघन्या विशिका | प्रकेपेऽन्या मध्यमा दशदिना , ततोऽपि पच्चकप्रकेपेऽन्या पा. स्थापना , ततोऽन्या पञ्चविंशतिदिना मध्यमा , ततोऽप्यन्या क्विकी। एवं पच पच प्रक्षिपता ताबद गन्तव्यं यावत्पश्च सप्त त्रिशहिना। एवं पञ्च पञ्च परिवर्कयता तावन्नेयं यावत्पञ्च- निरात्रिन्दिवशतप्रमाणा पश्चत्रिंशत्तमा स्थापनेति । तथा तृतीये पञ्चाशहिनशतमाना सर्वोत्कृष्टाऽष्टाविंशतितमा स्थापना । - स्थाने जघन्याऽऽरोपणा पञ्चदिना, ततः पञ्चकप्रकेपेऽन्या म. स्यां हि प्रागुक्तयुक्त्याऽष्टाविंशतिः स्थापनास्थानानि । एवमु- ध्यमा दशदिना । ततोऽपि पञ्चकप्रक्केपेऽन्या पाक्तिका । एवं पश्च तरोत्तरारोपणासंकान्तावन्तिममन्तिम स्थापनास्थानं परिह प्रक्रिपता ताबमन्तव्यं यावत्पञ्चसप्ततिदिनशतमाना सर्वोत्कृ. रता नाबमन्तव्यं यावत्पष्टिदिनशतमानायामारोपणायां जघ. ष्टा पत्रिंशत्तमा प्रागेपणेति । संप्रति संबंधभावना-पाचन्या विशिका स्थापनेति । यथा च प्रथमे स्थापनास्थाने, प्रा- दिनायां स्थापनायां जघन्या भारोपणा पञ्चदिना , ततोऽन्या रोपणास्थाने च प्रत्येक संवेधतश्च भावना कृता, तथा द्वितीये, मध्यमा दिनदशकमाना, ततोऽपि अभ्या पाक्विकी। एवं पशु. तृतीये च कर्तव्या । तद्यथा-द्वितीये स्थापनास्थाने जघन्या दिनां स्थापनाममुञ्चता पञ्च पञ्च परिवईयता तावन्नेयं स्थापना पाक्तिका , ततः पञ्चकप्रपेऽन्या विशतिदिना , तया- यावत्पत्रिशत्तमा पञ्चसप्ततिदिनशतमाना सर्वोत्कृष्ट प्रा. ऽपि पश्चकप्रकेपेऽन्या पश्चविंशतिदिना । एवं पश्च पश्च प्रक्ति- रोपणा। अस्यां पचत्रिंशदारोपणास्थानानि । तथा दशदि. पता तावन्तव्यं यावत्पञ्चसप्तरात्रिदिवशतप्रमाणा प्रयस्त्रि- नायां स्थापनायां जघन्या पत्रादिका आरोपणा , ततोऽन्या शतमा स्थापनेति । तथा द्वितीय स्थाने जघन्या प्रासंपणा दशदिना, ततोऽप्यन्या पाक्विक एवं दशदिनां स्थापनाममुच. पश्चाहिका, ततः पञ्चकमक्केपे दशाहिका , ततोऽपि पश्चकपक्केपे ता पच पच परिवर्षयता तावान्तब्यं यावदुत्कृष्टा चतुर्विंशपाकिक।। एवं पञ्च पञ्च परिवद्धं यता तावन्नेयं यावत्पञ्च- समा सप्ततिदिनशतमाना प्रारोपणेति । अस्यां चतुरिंशदा. पष्ठदिनशतमाना श्रयस्त्रिंशत्तमा सर्वोत्कृष्टा अारोपणांत । रोपणास्थानानि । एवमुत्तरोत्तरस्थापनास्थानसंक्रान्ती प्रइदानी संवेधभावना-पाक्विक्यां स्थापनायां जघन्या पश्चा. न्तिममन्तिम स्थानं परिदरता तावातम्यं यावत्पञ्चसप्तहिका प्रारोपणा , ततोऽस्या दशदिना मध्यमा , ततोऽप्यन्या । तिदिनशतमानायां स्थापनायाकैव जघन्या पञ्चदिना प्रा. पाक्तिकी , ततोऽप्यन्या विंशतिदिना । एवं पञ्च पञ्च परि. रोपणेति । तथा पञ्चदिनायामारोपणायां जघन्या पञ्चदिना वर्कयता तावद् गन्तव्यं यावत्त्रयस्त्रिशत्तमा पचषष्टिदिनश- स्थापना, ततोऽन्या मध्यमा दशदिना, ततोऽप्यन्या पञ्चदशदितमाना सर्वोत्कृष्ट प्रारोपणा । अस्यां त्रयस्त्रिंशदारोपणास्थाना- नामारोपणामपरित्यजता पम्न परिवर्षयता तावद् गन्तव्यं या. नि। तथा विशिकायां स्थापनायां जघन्या पश्चाहिका प्रारो- वत्पस्वसप्ततिदिनशतमाना सर्वोत्कृष्टा पञ्चत्रिशत्तमा स्थाप. पणा, ततोऽन्या दशदिना, ततोऽप्यन्या पाक्विकी । एवं विशि- ना। तथा दशदिनायामारोपणायां जघन्या पञ्चदिना स्थापना , का स्थापनाममुश्चता पञ्च पञ्च परिवर्द्धयता तावन्तव्यं या. ततोऽन्या मध्यमा दशदिना स्थापना । ततोऽन्या पनदशदिना। पत्पष्टिशतदिनमाना सर्वोत्कृष्टा द्वात्रिंशत्तमा प्रारोपणाम. एवं दशदिनामारोपणाममुश्चता पञ्च परिवर्द्धयमानेन तावद् स्था द्वात्रिंशदारोपणास्थानानि , पूर्वस्थापनातोऽस्यां पश्च. गन्तव्य यावत् सप्ततिदिनशतमाना सर्वोत्कृष्टा चतुर्विंशत्तमा कपरिवृद्धरन्ते पञ्चानां त्रुटितत्वात् पश्चविंशतिदिनायां स्था. स्थापना । एवमुत्तरोत्तरारोपणास्थानसंक्रान्तावन्तिममन्तिम पनायां जघन्या पञ्चाहिका श्रारोपणा , ततोऽन्या मध्यमा स्थान परिहरता तावन्नेयं यावत्पञ्चसप्ततिदिनशतमानायां प. दशदिना ततोऽप्यन्या पाक्तिकी । पञ्चपश्चविंशतिदिनानां उचत्रिंशत्तमायामारोपणायामकैव जघन्या पनदिना स्थापनेस्थापनाममुग्नता पञ्च पञ्च परिवर्कयता तावन्नेयं यावत् ति। चतुर्थे स्थापनास्थाने भारोपणास्थाने च न पञ्चकवृद्धिर्ना पञ्चपञ्चाशद्दिनशतमाना सर्वोत्कृष्टा एकत्रिंशतमा आरोप- पिपञ्चकापकृष्टिः , कि तु वृद्वि निर्वा एकातरा । ततो यद्यपि गा। एवमुत्तरोत्तरस्थापनासंक्रान्तावन्तिममन्तिमं स्थानं प. तद्भावना अधिकृतगाथाक्षराननुयायिनी तथाऽपि विनेयजनानु. रिहरता तावन्नेयं यावत्पञ्चसप्ततिरात्रिदिवशतमानायां प्रहाय क्रियते । तद्यथा-चतुर्थे स्थापनास्थाने जघन्या स्थापस्थापनायाकैब जघन्या एकाहिका अारोपणेति । ना एकदिना, अन्या मध्यमा द्विदिना, अन्या त्रिदिना । एवमे. तथा पवाहिकायामारोपणायां जघन्या पाक्विकी स्थापना, कै प्रतियता तावन्तव्यं यावदेकोनाशात्यधिकशतमाना स. ततोऽन्या मध्यमा विशतिदिना , ततोऽप्यन्या पञ्चविंशति- वोत्कृष्ट एकोनाशीत्यधिकशततमा स्थापनेति । तथा चतुर्थदिना । एवं पञ्चादिकामारोपणामपरित्यजता पञ्च पच प. स्थाने जघन्याऽऽरोपणा एकदिना,ततोऽन्या मध्यमा द्विदिना,त. रिवर्द्धयता ताबद् गन्तव्यं यावत् पञ्चसप्ततिादनानां स. तोऽन्या त्रिदिना । एवमेकैकं परिवर्द्धयता तावमतव्यं यावदेबास्कृष्टा त्रयरिंशत्तमा स्थापना , तथा दशाहिकायामारो. कोनाशात्यधिकदिनशतमांना सर्वोत्कृष्ट एकोनाशीत्यधिकश. पणायां जघन्या पाकिकी स्थापना । ततोऽन्या मध्यमा विश ततमा प्रारोपणेति । संप्रति संवेधभावना-एकदिनायां स्था. तिदिना, ततोप्यन्या पञ्चविंशतिदिना । एवं दशाहिकामा- पनायां जघन्याऽऽरोपणा एकदिना,ततोऽन्या द्विदिना मध्यमा,त. रोपणाममुश्चता पश्च पश्च परिवर्द्धयता तावद् गन्तव्यं यावत् तोऽन्या त्रिदिना । एवमेकदिनां स्थापनाममुश्चता एकैकं परिव. सप्ततिदिनशनमाना सर्वोत्कृष्टा द्वात्रिंशसमा स्थापना । अ यता तावद् गन्तव्यं यावदेकोनाशीत्यधिकदिनशतमाना सस्यां द्वात्रिंशदेव स्थापनास्थानानि , पूर्वारोपणातोऽस्यामारो वोत्कृष्टा एकोमाशीतिशततमा आरोपणा । अस्यामैकोनाशीत्या पग्णायां पडनकवृद्धेरन्ते पजवानां श्रुटितस्वात् । एवमुत्तरोतरा | धिकशतप्रमाणान्यारोपणास्थानानि । तथाहि-द्विदिनायां स्था. रोपणास्थानसंकान्तावन्तिममान्तिम स्थान परिहरता ताब! पनायां जघन्याऽऽरोपणा एकदिना, ततोऽन्या द्विदिना मध्यमा, Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त प्रनिधानराजेन्द्रः। पच्छित ततोऽम्या त्रिदिना । पवं द्विदिनां स्थापनाममुञ्चता एकैकं प. सदिवमेभ्यः शोध्यते इत्यर्थः । ततो यच्छेपमवतिष्ठते तत्त. रिवर्षयता ताबन्नेयं यावदष्टसप्तत्यधिकदिनशतमाना सर्वो- स्या ईप्सिताया आरोपणाया उत्कृष्टा स्थापना जवति । य. स्कृष्टा अष्टसप्ततिशततमा भारोपणा । अस्यामष्टसप्ततिशतप्रमा- था पञ्चदशदिनाया प्रारोपणाया उत्कृष्टा स्थापना कातुमि. णान्यारोपणास्थानादीनि,पूर्वस्थापनातोऽस्यां स्थापनायामे. प्टा, ततः पञ्चदश अशीत्यधिकशतादपनीयन्ते, जात पत्र कस्य परिवृद्धरन्ते एकस्य त्रुदितवान् । एवमुत्तरोत्तरस्थापना. षष्ट्यधिक शतं, तावत्प्रमाणा पञ्चदशदिनाया श्रारोपणाया स्थानसंक्रान्ता अन्तिममन्तिमं स्थान परिहरता तावातव्यं उत्कृष्टा स्थापना। तथा विशतिदिनाया अारोपणाया उत्कृयाबदे कोनाशीत्यधिकशततमायां स्थापनायामेकैव जघन्या स्थापना किल ज्ञातुमिऐति विशतिरशीत्यधिकशतादपएकदिना प्रारोपणेति । तथा एकदिनायामारोपणायां जघन्या नीयते, जातं पश्यधिकं शतम् । एतावती विंशतिदिनाया प्रास्थापना एकदिना, ततोऽन्या मध्यमा द्विदिना, ततोऽन्या विदि. रोपणा वत्कृष्टा स्थापना । एवं सर्वत्रापि नावनीयम् । मा। एवमेकदिनामारोपणाममुञ्चता एकैकं परिवर्कयता ताबद्र- ___ साम्प्रतं प्रथमे स्थाने कियन्ति स्थापनास्थानानि,कियन्यारी. भनव्यं यावदेकोनाशीत्यधिकदिनशनमाना सर्वोत्कृष्टा एकोना. पणास्थानानि । कियन्तो वा स्थापनाऽऽरोपणास्थानानां शीतिदिनहानतमा स्थापना । अस्यामेकोनाशीत्यधिकशतसंख्या- संवेधतः संयोगा इत्येतत्प्ररूपणार्थमाहनि स्थापनाति । तथा द्विदिनायामारोपणायां जघन्या स्थाप. तीसं ठवणाठाणा, तीसं आरोवणाऍ गणाई । मा एकदिना, ततोऽन्या द्विदिना मध्यमा, ततोऽन्या त्रिदिना । वणाणं संवेहो, चत्तारि सया उ पाहा ॥१०॥ एवं द्विदिनामारोपणाममुचना एकै परिवयता तान्द्र न्तव्यं याबदष्टसप्तत्यधिकदिन शतमाना सर्वोत्कृष्टा अष्टसप्ततिश- प्रथमे स्थाने त्रिशत स्थापनास्थानानि, त्रिंशयारोपणायाः ततमा स्थापना । अस्थामष्टसप्ततिप्रमाणानि स्थापनास्थानानि, स्थानानि । एतश्च प्रागेवानेकशो भावितमिति न भूयो भाकारणं प्रागुक्तमनुसतव्यम् । एवमुत्तरोत्तरारोपणास्थामसं- व्यते। (बणाणमित्यादि) स्थापनायामारोपणाभिः सह कान्तावन्तिममन्तिम स्थान परिहरन् तावन्तव्यं यावदेको. संवेधाः संयोगाः सर्वसंख्यया चत्वारि शतानि पञ्चषष्टीनि नाशीरयधिकशततमायामारोपणायामेकैव जघन्या एकदिना भवन्ति ४६५ । तथाहि-प्रथमे विशतिदिनरूपे स्थापनास्थाने स्थापनेति । कैकस्मिन् स्थापनास्थाने प्रारोपणा ज. त्रिंशदारोपणास्थानानि, हितीये पञ्चविंशतिदिनरूपे रको. धन्या, मध्यमा, उत्कृष्ट च प्रतिपादिता। नाशत्, तृतीये अष्टाविंशतिः। एवमेककरूपहान्या तावद्वक्तव्य ततः साम्प्रतमुस्कृष्टाऽऽरोपणापरिशानार्थप्राह यावत्पावधिदिनशतरूप त्रिंशसमे स्थापनास्थाने एकमा रोपणास्थानम् । एतानि सर्वाएयप्येकत्र लिखितानि यथोक्तसंजावणा नदिहा, उम्बासा जणिया भवे ताए । रूयाकानि भवन्ति । स्थापनाग्रहण चारोपणाऽपि गृह्यने प्र. भारावण उक्कोसा, तीसे उवणाऍ नायव्वा ।। १७८ ।। नयोः परस्परं संवेधात् । तत एतदपि द्रष्टव्यम्-श्रारोपणास्थापक्षां मासानामशीतं दिवसहशतं भवति, ततः स्थापयित्वा नानां स्थापनाभिः सह संवेधाः सर्वसंख्यया चत्वारि शतानि १५८० या स्थापना दिति । यस्याः स्थापनाया उत्कृष्टा पञ्चषष्ठीनि भवन्ति । तथाहि-प्रथमे पञ्चदशदिनरूपे श्रा. आरोपणा ज्ञातुमिष्टा सा उदिष्टेत्यभिधीयते, उहिया पिम. रोपणास्थाने त्रिंशस्थापनास्थानानि, द्वितीये विशतिदिनरूपे तायनान्तरम् । तया परमासाःषरामासदिवसा कनकाकि एकोनत्रिशत.तृतीये अष्टाविंशतिः। एवमेकैकरूपहान्या तावद यन्ते । किमुक्तं भवति ?-तामुद्दिष्ट स्थापनां षएमासदिवसे. वक्तव्यं यावत्यष्टदिनशतप्रमाणे त्रिंशत्तमे प्रारोपणास्थाने प. भयोऽशीत्यधिकशतप्रमाणेभ्यः शोधयेत् । ततो बच्चेपमाति कविंशतिदिन स्थापनास्थानम् । एतच सर्व प्रागेव सप्राइच ने तत्तस्या ईपिसताया: स्थापनाया उस्कृष्टा प्रारोपणा भावितम् । एतानि च सर्वाएयप्येकत्र मिलितानि यथोक्तास. भवति कातम्या । यथा विंशतिदिनायाः स्थापनाया उकृपा प्रा. ख्याकानि जवन्ति । रोपणा ज्ञातुमिष्टा ततो विंशतिरशीत्यधिकशतात पामासदि. यथोक्तसंवेधसंख्यापरिझानार्थमेव करणगाथामाहपलसम्यानूतात् शोध्यते, जातं षष्ठ्यधिक शनमा । एषा वि. गच्चुत्तरसंबग्गे, उत्तरहीणम्मि पक्खिव आई। शिकायाः स्थापनाया उत्कृष्टा प्रारोपणा, नतः परमारोपणासा असंजवात, विंशत्या सह पक्षां मासानां परिपूनिभा अंतिमघाणमादिजुअं. गच्चगुण तु सम्बधणं ॥१८१|| धात्, पामासाधिकस्य च प्रायश्चिनस्याऽदानात् । तथा प- द यद्यपि प्रथम स्थाने त्रिशदारोपणास्थानानि, द्वितीय चर्विशतिदिनाया: स्थापनागाः किन उत्कृष्टा प्रारोपणा झा- एकोनत्रिशत. तृतीये अष्टाविंशतिरित क्रमः, तथापि संकलतुमिष्टा, ततोऽशीयधिकशतात् पञ्चविंशतिः शोधते , जा- नायां यथोसरमा निवेश्यन्ते इत्येकद्वियादिक्रमः । तत्र नं प चाशदधिक शतम्। एषा पञ्चविंशतिदिनाया उ- गच्चविंशत्रिंशतोऽस्थानानां भावात उत्तरमकम्. एको स्कृष्ट प्रारोपणः । एवं सर्वत्र नावनीयम्। सराया वृद्धभावात आदिरप्ये कः, साङ्कम्थानानामादायकस्य साम्प्रतमारोपणास्थाने उत्कृष्ट स्थापनापरिकानार्थमाइ- भावत गच्छस्य त्रिंशत उत्तरेण पकेन संवों गुणनं गच्ची. प्रारोवण उदिहा, उम्मास जाणगा भये ताए। तरसंवर्गस्तास्मिन् । किमुकं भवसि ? त्रिंशदेकेन गुण्यते, एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जाताः त्रिंशदेव । तत्र (उत्तरहीप्रारोवणारे तीसे, वणा उक्कोसिया होइ ।। १७ ॥ णमिति) उत्तरेणकेन हीन तस्मिन् कृते एकेन हीनं त्रिंशयारोपणा उद्दिष, यस्या आरोषणाया उत्कृष्टा स्थापना झा स्क्रियते इत्यर्थः । जाता एकोनत्रिंशत् । ततः प्रतिपेदादिमतुमिति जावःतया षण्मासा मकाः क्रियते, साषपमा- | मेक, जाता भूयरिंशत् एतत अन्तिमधनमन्तिमकस्थान नावमा Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पछि परिमाणम् । तत् आदिना एकेन युतं क्रियते, जाता एकत्रिंशत् सिस्यार्द्धं पञ्चदश, सा एकत्रिंशता गुण्यते, जातानि संबेधानां चत्वारि शतानि पञ्चषष्टानि ४६५ । थामन्य गणितप्रकार: दोरासी वाज्जा, रूवं पुरण पक्खिवाह एगत्तो | जतोय दें, ते गुणं जाए संकलियं ।। १८२ ॥ ( १५७) अनिधानराजेन्द्रः । थिइन राशी स्थापयेत् भवति-द्वी बारास्थि कत एकस्मिन् राशौ रूपं पुनः प्रक्किपेत्, जातः स एकत्रि शत्, यतश्च यस्माश्च राशेरर्द्धमात्मानं ददाति, तस्थाई विशदमयति नैकचिदिति त्रिशतोऽ ते तेन इतरो राशिशिरुणो गुरुपले गु णित च सति यत् जायते तत् जानीहि संकलितं सर्वे संघसंकलनं तथा चत्वारि शतानि पञ्चष्टानि ४६५ । चत्वारि स्थापनाथानानि चत्वारि चारोपयास्थानानि तत्र कस्मिन् स्थापनास्थाने कियन्ति स्थापनापदानि क स्मिन्नारोपणास्थाने कियन्त्यारोपणापदानीत्येतत्परिज्ञानाय करणमाह आसीया दिवससया, दिवसा पढमाण उणरुपणा | सोहित्त्तरनइए, ठाणा दुएई पि रूवजुया || १८३ ।। मां मासानामशीतं दिवसशतं भवति, तस्मादशीतात् दिवसात प्रथमयोःस्थापनापो धयेत्, शोधयित्वा च यत्र यत्तरा वृद्धिस्त तत् उत्तरम, त बाऽऽयेषु त्रिषु स्थापनास्थानेषु त्रिषु वाणास्थानेषु प चतरा वृद्धिरिति । तत्रोत्तरं पञ्च चरिमे स्थापनास्थाने चरिमे चारोपणास्थाने पदानामेकोत्तरा वृद्धिरिति तत्रोत्तरमेकः । त. रामशरणम सति पातितानिरूपयुतानि रपि स्थापनाssरोपणयोः स्यानानि । एष गाथार्थः । भावार्थस्वयम्पमासेषु किल दिवानामशतं शतमित्यशी शतं धियते १०० ततः प्रथमे स्थाने प्रथमायाः स्थापनाया दिनामि विज्ञातिः प्रथमाया भरोषणायाःजाता सशर्त तत उत्तरेण पञ्चलवणेन भागो हियते, सन्धा एकोनत्रिंशत्, सा रूपयुता क्रियते, प्रथम स्थापनाऽऽरोपणयोः प्रथमत पत्र शोवितत्वात, जाता त्रिशत्, एतावन्ति प्रथमे स्थाने स्थापनापदानितादेव बापापानि तथा थम स्थापनाया दिवसाः पञ्चदश, प्रथमारोपणायाः पञ्च उभयेषां मीलने जाता विंशतिः, अशीतिशतात् शोध्यते, जातं पष्टं शतं, तस्योत्तरेण पश्चकलक्षणेन भागो मते, सन्धा त्रि शत् रूपयुता क्रियते, जाता त्रयस्त्रिंशतः एतावन्ति द्वितीये स्थाने स्थापनापदान्तायमयेव चाऽऽरोपणाम स्थाने प्रथमस्थापनाया दिवसाः पञ्च, प्रथमाऽऽरोपपाया अपि पञ्च । उजयमलने जाता दश, ते अशीतात् शतादपनीयन्तं जातं सप्ततं शतम् १७० । तस्योत्तरेण पञ्चकल कर्णन भागोते लग्धः चतुखित् सा कले जनाए ४० अथ का स्थापना, श्रारोपणा च ?, कतिषु मासेषु प्रतिसे चितेषु तत्परिज्ञानार्थनाद दिवसे माणाओं विसोहइनु नं सेसं । इच्छिवरुवणाएँ जए, सुमाणे खित्रइ कोसं ॥ १८६॥ मानात् मासान दिवस परिमाशीत्यधिकशतरूपा विद्धितायाः स्थापनाया चिवहितायायणाय ये दिव साला विशेषत् विशोष व बच्चे तत् अधिकृतथा पस्या दिवसाः पूर्व विशोषितास्तया इत्यर्थः । आरोपणया नजेत, जागं हियात् । प्रागे च ते यदि राशििित ततो न किमपि प्रतेि केबलं सा आरोपणा कृत्स्नभागहरणात् कृत्स्नेति व्यवहियते । यदि पुनर्निर्लेपो न युद्ध्यति ततः विपति कोषं यस्मि प्रतेि समो भागहारो भवति स राशिः समकरणो कोषः । उब-"झोसिति वा समकरण त्ति वा एगई । " सा च श्रारोपणा श्रकृतनागहरणात् प्रकृत्स्नेति व्यवहर्त्तव्या । तथा च पथोक्तस्वरूपमेवमुपदर्शयति-नियमेोभाच्छी रामी । ततियमेनं पसिनाएँ जोसम्मं ॥ १०७॥ शुद्धं निभा प्र वस्येव वाऽऽरोपणापदानि । चतुर्थे स्थाने प्रथमस्थापनाया पक च्वति तावन्मात्रं प्रति पतत् कुत्स्नाऽऽरोपणाया उक्तशब्दा 1 पच्छित्त हिमं प्रथमारोपया अधिक जमीलने जाते हे दि ते अशीतात् शतात् शोध्येते । जातमष्टसप्ततं शतम् १७०८ । तस्योत्तरेण एकमेव भागो हियते यशवं रुपयुतं क्रियते जनमेजय चतुर्वे स्थाने स्थापनापानि, एतावन्त्येव चाऽऽरोपणापदानि । , " उसर भइए " इत्युक्तम्, तत्र कस्मिन् स्थाने किमुचरमित्युत्तर विभाग करणार्थमादउणरुववाण तिराई, उचरं तु पंच पंच विशेषा । गुलरिया एगा. सव्वा वि हवंति अद्वे ।। १८४ ॥ तिसृणामाधानां स्थापनानां तिसृतामाद्यनामारोपणानां पायाचरं पञ्च पञ्च विशेषाः तिष्यपि पदानां वधोतर पर प्रवचनुर्थी स्थापना, एका चतुर्थी आरोपणा, एकोतरिका । वृद्वय प्रवर्द्धमाना, ततस्तत्रोत्तरमेकं जानीयात्, मलख्या च सर्वा अपि स्थापनाऽऽरोपणा अष्टौ भवन्ति तनः स्थापनातत्र श्रारोपणा इत्यर्थः । संप्रतिकरणा बद्दर्शयतितीस ते तीसा विय, पणतीसा अनुणसीय सयमेव । पण या एवया चैवाणं ॥ १०५ ॥ एतानि चतसृणामपि स्थापनानां यथाक्रमं पदानि । तद्यथाप्रथमायात्रिंशत् द्वितीयायास्त्रयस्त्रिंशत् तृतीयायाः, पञ्चत्रि शत्, चतुर्थ्या एकोनाशीतं शतम् । एतावन्त्येव चतसृणा• मयारोपणानां यथाक्रमं पदानि । तद्यथा- प्रथमायास्त्रिंशत्, द्वितीयस्यास्त्रयस्त्रिंशत्, तृतीयस्याः पञ्चत्रिंशत्, चतुर्थ्याएफोनशी शतमिति । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त श्रीया को जो परिमाणम् । यथा केनापि पृष्टम- चिंशिका स्था पाणि कतिनिर्माः प्रतिविनिष्यन्ना है। उपयोदशभिर्मासैः कथमेतदीयते इति उच्यतेमासानामीत दिवस १२० 1 नोकिया स्थापनाया विशतिदिनानिि पायाः पञ्चदश दिनानि शोध्यन्ते, "ठवणाऽऽरुवपदिवसे माणादिति वचनात् शेषपरितम् इच्छिणाएँ नए " इति वचनात् । अधिकृता यादिना बारोपणया भागो द्विपते रात्र चोपरित नो राशिः शुद्धं भागं न प्रयच्छति, पञ्चसु व प्रचितेषु प्र प्रच्छतीति पञ्चसु व प्रक्रितेषु प्रयच्छतीति पञ्चपरिमाणो त्र झोषः प्रक्षिप्यते । ततो भागे हृते लब्धाः दश मासाः । तथा " दिवसा पंचाहिँ भन्या, दुरुवहीणा उ ते भवे मा सा । इति वदयमाणवचनात् स्थापनादित्रसानां विशतेः या ते द्विरुपाक्रमते स्थितौ द्वौ मासी स्थापनायाः । तथा पचदशदिनाया आरो पणायाः पञ्चभिगो दियते, लब्धात्रयस्ते द्विरूपहीनाः कृता जाता पको, लब्ध श्रारोपणाया एको मासः तेन, यदि वा प्रथमेयमारोपणेति लब्धमासा दश, एकेन गुण्यन्ते, जाता दशैव " एकेन गुणितं तदेव प्रबति " इति न्यायात् । ततो द्वौ स्थापनामासाचेक आरोपणामासा दश प्रागुक्ता इति सयौः प्रतिसेविता मासाखयोदय पृच्छति-शिकास्थापना पञ्चविंशतिदिना चाऽऽरीपणा कतिवि पन्नाः । उच्यते त्रयोविंशतिमा सैः। तथादि स्थापनादिवसा वि शतिरारोपयादिवखाः पञ्चताः पद्मस्वारिं तमासेयो शीतिशत संशोध्य जातं ततः 60 ( १५८) अभिधानराजेन्द्र ور पञ्चतनया आरोपनया तस्य जागो हियते । तत्रोपरितनो राशिः शुद्धं भागं म प्रयच्छति, पञ्चदशसु च प्रक्षिप्तेषु प्रयच्छतीति पञ्चदशपरिमाणोऽत्र कोषः प्रक्षिप्यते, लब्धाः परमाखाः । तथा श्र धिकृतारोपणायाः पञ्चभिगोयते, बन्धाः पञ्च ते द्वि. रूपहीनाः क्रियन्ते जातास्त्रयः, एतावन्त आरोपणाया मासायदि वे पारोपणेति "बुद्धं पि गुणसु तृ स्थिरुवणार जर माला ॥” इति वच्यमाणवचनात् ते प समासखमेष्यन्ते जाता अाश द्वौ स्थापनामासी प्र यश्चाऽऽरोपणामाला इति सर्वसंख्यया त्रयोविंशतिमासाः । अथवा अन्यथा कोषपरिमाणं कथयतिदाणा, विसोताण हवणार जो मेसो असि सो कोसेो ॥ १०८॥' मानान् परमासदिवखपरिमाणान् अशीलवान् स्थापनाद चसान् अधिकृत स्थापना वासरान् विशोष विशोष यदि आप अधिका गहीनं कुर्यात्, भागे च हृते यः छेदात् अंशानां विश्लेषः । रह विशेषे कृते सति प श्लेषः। स तावत्प्रमाणोऽकृत्स्नाऽऽरोपणायां जौषः। यथा परमासदिवसपरिमाण नातू अशीनशतात् विशिकायाः स्थापनाया दिवसा विंशतिरिति ततो विंशतिः शोध्यते, आतं - घधिकं शतम् १६० ततः पाक्षिक्यामारोपणायां संबधमासा भांग पिते स्थिताः पाश, अ पच्छिन्त धस्तात् बेनः पञ्चदश, तेज्यो दश विश्लिष्यन्ते स्थिताः पञ्च, श्रागतं पाश्चदशिक्यामकृत्स्नाऽऽरोपणायां पञ्चको झोषः । तथा अशीतशतात् स्थापनादिवसा विंशतिः शोध्यन्ते, जातं प शतम् १६० । ततः पञ्चविंशतिदिनाया श्रारोपणायाः संचय - मासा ज्ञातुमिष्ठा इति भागो शेषाद छेदस्तत्पञ्चविंशतिः तस्यादेशाः पञ्च दश श्रागतं पञ्चविंशतिदिनायामारोपणायां पक्षो कोषः । एवं सर्वत्र भावनीयम् । जत्य पुरा देइ सुद्धं, भागं आरोवणा उ सा कसिया । दोए पि गुणसु लद्धं, इच्छित्रणाएँ जइ मासा १८ यस्यां पुनरारोपणायामुपरितनो राशिः शुद्धं भागं प्रयस्कृति, न hisarपाचस्यावतिष्ठते इति भावः। सा श्रारोपण कृत्स्ननागहरणात् कृत्स्नेति प्रतिपत्तव्या यथा विंशतिदिना । तथाहि- केनापि पृष्टं विंशिका स्थापना विंशिका चारोपणा कति भिर्मासैः प्रतिविमिष्टादशभिर्मासैः कप मेतदवयमिति चेत् ? । उच्यते- मालानामशीतं दिवलशतं, यो विंशतिदिनानि स्थापनाया विशतिर्दिनान्यारोपणाचा शोध्यन्ते, जातं शेषं चत्वारिंशं शतम् । ततः -" इतिरुवणार भए " इति वचनात् विशिकया आरोपणया नागोयते, भागे हुने उपरि राशिर्मिल रस्ताणा, लब्धाः सप्त मासाः । ततः "दोराद्दं पि गुणसु ल, यत्रणाएँ जह माला । " इति वक्ष्यमाणवचनात् इयमारोप णा प्रागुक्तक्रमेण द्वाभ्यां मासाज्यां निष्पनेति सप्त माला द्वाज्यां गुण्यन्ते जाताश्चतुदेश मासाः । ततो द्वौ स्थापनामासौ द्वौ चारोपणमाखाविति समुदितास्ते तु प्रयन्ते आगतं विंशिका स्थापना विंशिका बाऽऽरोपणा अष्टादशनिसैर्निष्यति । ( दोएडं तु इत्यादि) द्वयोरपि आरोपणयोः करनार पायापाया पति मासा प तिभिर्मासैरीलिताऽऽरोपणा निष्पन्नेति यावत्, तनिभिर्गुणय, यद्येकेन मासेन निष्पन्ना तत एकेन गुणय इति द्वाभ्यां मा सायां निष्पक्ष तर्हि द्विकेनापि अथ भिस्तमित्यादि । पोरयारोपणो योन्यं पतिमासात इप्सितया भारोपणया गुणय, यदि प्रथमा तत एकेन गुण्यद्वितीयाम् अथ तृतीया तननिरित्यादि । एनश्च प्रागपि जावितम् । तदेवमशीतिशतात् स्थापनाऽऽरोपशोधतेषुच्छेषं यतो का संप्रति स्थापना रोपणादिव लेभ्यो यथा मासा भागच्छमिल मासेभ्यो वा दिवसास्तथा प्रतिपादयतिदिवसा पंच जया रूपहीला व ते नवे मासा मासा सहिया, पंचगुणा ते जवे दिवसा ||१०|| स्थापनाया श्रारोपणायाश्व दिवसाः पञ्चभिर्भज्यन्ते, प भिस्तेषां भागो हियते इति भावः । ततो भागे हृते ये धा स्ते द्विरूप नाः क्रियन्ते ततो रूपद्वयं स्फेटयते इति ज्ञावः । रूपद्वि वा स्फेटिते यदवशिष्यते ते भवेयुर्मासाः, यथा वि शिकायत स्थापनाया दिवसा शिवि हिपते रस्ते पिनाकपस्थिती बिशिका स्थापना द्वाभ्यां मासाभ्यां निष्पन्ना । तथा पाक्षिक्या रोपणादिनानि Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त (१५९) अभिधानराजेन्ड। पच्छित पाते विरूपहीनाः क्रियन्ते, स्थित एक, मागतं पाकिको श्रा- एष स यान्यमुनि पचदिनानि स्यक्तानि, तान्येव प्राकरारोपणा एकेन मासेन निष्पनाविंशिकारोपणा विशिकास्था- शिसमकरणार्थ प्रक्किप्तानीति समकरणः प्रक्षेपणीयो राशिपमा च द्विमासनिष्पन्ना भावनीया । तृतीयायाः पञ्चविंशतिः कॉपशम्नेनोक्तः । एवं सर्वत्र कोषभावना प्रावनीया । तथा दिनाया मारोपणा या दिवसाः पञ्चविंशतिः, तेषां पञ्चनि. बिशिकायां चाऽऽरोपणायामष्टादश किन संचया मासातेच्यो भांगहारो, लब्धाः पञ्च, ते द्विरूपहीनाः कृताः, स्थितात्रयः, द्वौ स्थापनामासौ शोधितौ, जाताः षोडश । अत्रविशतिभागतं पञ्चविंशतिदिना तृतीयाsरोपणा त्रिभिप्रोसैनिष्पन्ना। दिनारोपणा हिमासेत्येकैको मासो दशभिदिनिष्पन्नः, तत. एवं सर्वत्र जावनीयम् । (मासा दुरूवसहिया इत्यादि ) यति स्ते षोश दशभिर्गुण्यन्ते, जातं षष्ट शतम् १६० । ततः मासाः स्थापनायामारोपणायां वाऽधिकृतकरणवशात् लब्धा स्थापनादिवसा विशतिः प्रक्किप्यन्ते, जातमशीतं शतम् , नेदिवसाऽऽनयनाय द्विरूपसहिताः क्रियन्ते, ततः पाचगुणा. भागतमत्र द्वाभ्यां स्थापनामासान्यां दश दश वासरा गृही. स्ते भवेयुर्यथोक्ता दिवसाः । यथा बिशिकायाः स्थापनाया ताः, शेषज्योऽपि षोमशेभ्यो गातो दश दशेति । तथा वि. द्वौ मासौ, तो विरूपसहितौ क्रियेते, जाताश्चत्वारः, ते पञ्चभिः | शिकायां स्थापनायां पञ्च,पिंशिकायर्या चारोपणायां त्रयोधिगुण्यन्ते, प्रागतं विशिकायाः स्थापनाया विशतिदिनानि शतिः संचयमासा,तेभ्यो द्वौ स्थापनामासौ शोधिता, जाता तथा पाक्तिक्या प्रायपणाया एको मासः, ते द्विरूपसहिताः पश्चादेकविंशतिः पञ्चविशतिदिना चाऽऽरोपणा त्रिभिमांस. क्रियन्ते, जातात्रयः, ते पञ्चनिगुण्यन्ते । श्रागतं पाक्तिक्या | निष्पन्नत्यकैको मासः, स विभागैरष्टभिर्दिननिष्पन्नः, तत एभारोपणायाः पञ्चदश दिनानि, तथा पञ्चविंशतिदिनाया | कविंशतिरष्टभिर्गुणिता जातमष्षष्ठं शतं, त्रिभागगुणने चस. भारोपणायारयो मासास्ते हिरूपयुताः क्रियन्ते, जाताः बधा: सप्त, तेऽपि तत्र प्रतिप्यन्ते, जातं पञ्चसप्ततं शतं, त. पञ्च, ते पञ्च पञ्चभिर्गुपयन्ते, आगतं पञ्चविंशतिदिनानि । त्रविशतिः स्थापनादिवसाः प्रतिप्यम्ते, जातं पञ्चनवतं एवं मर्वत्र नावनोयम। शतम् १५५ अत्र पञ्चदश दिनानि कोष ति, तान्यपतदेवं करणान्यभिधायोपसंहारमाह नीयन्ते, जातमशीतं शतम्, अागतमत्र द्वाच्या स्थापनाकृताभ्यां वणाऽऽरोवणसहिया, संचयमासा हवंति एवइया । मासाभ्यां दश दश रात्रिदिवानि गृहीतानि, शेषेभ्यस्त्वेक विशतिमासेभ्यो गात्रतः सत्रिजागान्यष्टावष्टौ रात्रिन्दिवानि, कत्तो किं गहियंति य, ठवणामामे ततो सोह॥१७॥ केवलं तत्रापि पचदश दिनानि कोषीकृतानि । तदेवं स्थापूर्वम् “वणाऽऽरोवणदिवसे माणा उ विसोहरतु" इत्यादि पनातः शेषमासेज्यो गावतो यद् गृहीतं तत्प्रतिपादितम् । करणवशात ये लब्धा मासास्तेऽनन्तरोक्तकरणवशादानीताः,ये स्थापनाऽऽरोपणमालास्तरसहिताः क्रियते ततः शिष्यज्य एवं मधुना शेषमासेयो यद् येन्यो विशेषतो गृहीतं सत्प्रति. प्ररूपय-अस्यां स्थापनायामस्यां चाऽऽरोपणायामेतावन्तः सं. पादनाथे करणमाहचयमासाः सर्वप्रायश्चित्तसंकलनमासा जवन्ति , तदेवं यति रुवणाई जश्मासा, तइनागं तं करे तिपंचगुणं । भिर्मासैः प्रतिसेवितैयाँ स्थापना आरोपणा च निष्पन्ना, त. सेसं च पंचगुपियं, वणादिवसाजुया दिवसा ॥१६३।। देतत्प्रतिपादितम । अधुना तस्यां तस्यां स्थापनायामारोपणायां च संचयमासानां मध्ये कुतो मासारिक गृहीतमि- स्थापनामासेषु शोधितेषु यच्छेषमवतिष्ठते तत् प्रारोपणाति प्रतिपादनार्थमाह-( कत्तो इत्यादि ) शिष्यः पृच्छति- यां यतिमासास्ततिभागं तावत्संख्याकभागं करोति, कृत्वा तस्यां तस्यां स्थापनायामारोपणायां च सचयमासानां मध्ये चाय जागं त्रिपञ्चगुणं करोति, शेषं तु समस्तमपि पत्र. कुतो मालाकि गृहीतम् । अत्र सरिराह-(उचणा मासे | गुणम् । एतच्चैवं अश्व्यम्-पाक्षिक्यादिश्वारोपणामु यदि ततो सोदे) ततः संचयमाससंख्यातः स्थापनामासान् शो. पुनरेकदिना द्विदिना यावश्चतुर्दशदिना प्रारोपणा, तदा य. धयेत, शोधिते च सति तिदिना प्रारोपणा, ततिगुणं कुर्यात् , ततस्ते दिवसा स्थादिवसेहि जहि मासो, निप्फन्नो हवइ सव्वरुवणाणं । पनादिवसयुनाः क्रियन्ते, ततो दिवसाः षण्मासदिवसा भवन्ति । तद्यथा-प्रथमायां स्थापनायां प्रथमायांचागेपणा तइहि गुणिया उ मासा उवणदिए जुया उम्पासा ।१६श यां त्रयोदश संचयमासाः, तेभ्यो द्वौ स्थापनामासी शोधि. सर्वासामारोपणानां गतिमिर्दियसैर्मासो भवति निष्पन्नस्त- तो, जाता एकादश, अन्ये तु ब्रुवते-अत्रायं वृक्षसंप्रदायः-य. तिभिर्गुणितास्ते मासाः कर्तव्याः पुनः सानादिनयुक्तास्तत. धेकस्मात् मासादू निम्पन्ना प्रारोपणा, ततः प्रतिसेवितमा. स्ते षण्मासा भवन्ति, यथा प्रथमायामारोपणायां प्रयोदश सेभ्यः स्थापनायाः प्रागेपणायाश्च मासाः शोधयितव्याः । संचयमासाः, तेभ्यः स्थापनामासौ द्वौ शोधितौ, स्थिताः प- अथ यादिमासर्मिपन्नाऽऽरोपणा,ततःप्रतिसेवितमासंभ्यः स्था. श्वादेकादश । अत्रारोपणायामेको मासः, स पञ्चदशभिदिन- पनामासा एव शोध्यन्ते, नाऽऽरोपणामामा इति । ततस्तन्मतेन निष्पन्न शति,ते एकादश पञ्चदशानिर्गुण्यन्ते,जातं पश्चषष्टं शतम, द्वी स्थापनामासावेकश्शारोपणामास इति त्रयः संचयमामे. ततो विंशतिदिवसाः स्थापनासत्काः प्रदिप्यन्ते, जातं पश्चा. भ्यः शोध्यन्ते,जाता दशेति । तत्र स्वमते अधिकृताऽऽरोपणा एशीतं शतं, पश्च ऊंश इति । तद्युका जाताः षण्मासाः, आग कमासनिष्पन्नेत्ति एकादश एकभागेन क्रियन्ते, एकनागकृतं च तं द्वाच्या स्थापनीताज्यां मासाभ्यां दश दश दिनानि तत्तधारूपमेव जवतीति जाताः समुदिता एव ते एकादश, गृढीपानि, शेषेज्यस्त्वेकादशभ्यः पश्चदश पश्चदश दिनानि, ततः त्रिपञ्चगुणमिति वचनात पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते, जातं प. केवनं तन्मध्यात् पञ्चानां कोषः कृतः, पञ्च दिनानि इत्युक्ता- वषष्टं शतम् १६५ । तत्र स्थापनादिवसाः विशतिः प्रक्षिप्ताः, नीति भावः । कोषशब्दस्य तस्वतस्त्यागबाचित्वात् । अत जातं पश्वाशीतं शतम् । ततः पञ्चराविन्दिवान्यत्रकोपीकृतानी Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) अभिधानराजेन्द्रः । पति ति, ताम्यपसार्यन्ते, जातमशीतं शतम् । मतान्तरेण तु ते दश मासा एकभागीकृताः पञ्चदशभिगुपले जापा [म] [१५]पनादिवसा विश्वास प आदश प्रक्किष्यन्ते, जातं पञ्चाशीतं शतम् १६५ । पञ्च दिनानि फोन इति वानि ततोपनीयन्ते जातली दिवशतम भाग समा स्थापना मासान्यां दश दश दिनानि गृहीतानि शेषेभ्यस्त्वेकादशमासेभ्यः पञ्चदश पञ्चदश दिना मि. केवलं पञ्चदिनानि जोषीकृतानि । तथा विशिकायां स्थापनायां विशिकायारोपणायाम 3 द्वौ स्थापनामा सापनीती, जाताः षोरुश, ततोऽत्राऽऽरोपणा हा मासाम्पराय भागाभ्यां क्रियन्ते एकतोऽध्यष्टावधः, तत्रोपरितनमाद्यं भणम्ति, " पंचगुभिति" बचनात् पञ्चदशभिगुणयेत् जातं विशं शतम १२० अनास्वष्ट, " सेसं च पंचगुणियं " इति बनतः पञ्चनिर्गुण्यन्ते जाताश्चत्वारिंशत् ४० 1 उभयमीलने जातं षष्ट शनम् १६० । श्रत्र स्थापनादिवसा विंशतिः प्रक्षिप्ता, जातमशीतं शतम् आगतमंत्र द्वाभ्यां स्थापनामाला " दश दश राशिन्दवानि गृहीतानि महाभ्यो मासेभ्यः पञ्चदश पञ्चदश, अन्येभ्यस्त्वष्टाभ्यः पञ्च पश्चेति । तथा विशिका यो स्थापनायां पञ्च, विशिकायां चारोपणायां त्रयोविंशतिः संचयमालाः, तेज्य है। स्थापनामात्रौ शोधितौ, जाता पश्चा देवशतिः रोषणा त्रिभिर्मासैनिक विशतिः संचयमाला त्रिभागाः क्रियन्ते, जातास्त्रयः सप्तकाः पु• खाः । तत्र प्रथमे सप्तति पश्चगुणमिति वचनात् पञ्चदशमिगुण्यन्ते जातं पोरं शतम् अत्र पो प्रति पंचदश शोध्यम्ले जाता नवतिः ६० । शेषौ च द्वौ भागी सप्तकौ सेसं च पत्रगुणमिति वचनात् प्रत्येक पश्चभिन्ते जाता सभयत्र प्रत्येकं पचत्रियमने जाता सप्ततिः, सा पूर्वराशी प्रचिप्ता, जातं षष्ट्यधिकं शतम १६० । अत्र विशतिः स्थापनादिवसाः प्रक्किताः, जातमशीने शतम्, आगतमत्र द्वाभ्यां स्थापनाकृताभ्यां मासाभ्यां दश दश बासरा गृहीताः सप्तज्यो मासेभ्यः पञ्चदश चतुर्दशेभ्यो मासेञ्यः पञ्च पञ्च पञ्चदश बालराज्य कोष । कृता इति एवं स क्षेत्र मात्रनीयम् । तदेवे या स्थापना आरोपणा यतिनिर्मातिसेवितैर्निष्पक्ष यच स्थापनापामारोपणा यां व संचयमासानां मध्ये यतो मासात् यत् गृहीतं तदे सरस प्रतिपादितम् । अधुना यतः स्थापनाया श्रारोपणायाश्च मासाऽऽनयनाय करणमुक्तं, "दिवसा पंचहिँ भश्या" इत्यादि तत्प्रथमस्थान एव सनिलिवादेषु स्थानेषु तेषु व्यक्ति क्वचिदम्या विस्ता तदेव करणमाद दिवसा पंचहि जड़या, दुरूबदीया य ते भत्रे मासा । मासा दुखसहिया, पंचगुणा ते भवे दिवसा ।। १६४ ॥ अश्या व्याख्या पूर्ववत् ॥ १०२ ॥ जय बड़ी न होन जागे च पंचाई दिना । तमसो एगो छ दिखा ते चैव ॥१६४॥ पच्चित्त यत्र पुनः स्थापना भारोपणासु च पञ्चदिनाऽऽदिका निर्माते चंद् द्विरुपी वेदनाद कानुनयविनयाद्वयोरेव पयोरसं दिकासु तु चतुर्दश दिनपर्यन्तासु द्विरूपहीनतायां शून्यताऽऽपतेः। यदि वा-यासु स्थापनास्वारोपणासु चैकदिनाऽऽदिषु चतुर्दिन पर्यन्तापञ्चनिर्मागमुपरितनो राशियो तासु स्थापनास्वारोपधाको मासो दिया से देवसि ) दिनाम्यपि ताम्येच याम्युपाप्तानि न पुनर्माससंक्यों द्विरूपसहित] कृत्वा पनि गुदातम्यानीति भावः । अथ तो दिवस स्थापनायामारोपणाच प्रागुक रणमन्तरं कस्मात् मासात् प्रतिपच एकादीया दिवसा नायया जाप होंति पदमश्र एकातो मासाओ, निष्फला परतो डुगदीया ॥ १७६ ॥ एकस्मात् मासात् निष्पन्ना दिवसा एकाऽऽदयो ज्ञातव्याः, पाचतुर्दशन्ति किमु दिद शदिनपर्यन्ताः स्थापना आरोपणाच दिवसाः" पंचाई भ श्या" इत्यादिकरणप्रयोगमन्तरेणैवमेव एकस्मात् मात्रात् प्रतिशत परतो गद्दी चि) परत दिका स्थापमास्यारोपणाच "दुगीति "पदेकदेशे पदसमुदायोपचारात "दिवसा पंच मया दुपदीया " इति करणतो मासाः प्रत्येतव्याः । अत्रैव प्रकारान्तरमाह जवा दुरुबहीण, कम होता जा तु आगासं । तत्थ वि एगो मासो, दिवसा ते चैव दोएदं पि ॥ १७७ ।। यति बेति प्रकारान्तरे तच प्रकारान्तरमिदम-पूर्वे दश दिनाऽऽदिका चतुर्दशदिनपर्यन्तासु द्विरूपहीनताया एवासं भवत एको मास को यदि वा भवतु तथ द्विरूपहीनता, तथाऽप्येतत्करणवशात्तत्रैको मासः प्रतिपत्तव्य इति । तदे " करणमा रुइत्यादि) त्रयासुद कासु चतुईशनपर्यन्तासु पनि हते यस्म रूपदीने कृते जवेदाकाशं शून्यम्, तत्राप्येको मासो द्रष्टव्यः दिवसा अपि द्वयीनां स्थापनाऽऽरोप पानांत एवाऽऽशया ये उपासा न तु प्रागुक्तकरणवशतो माससंख्यात अनेतव्या इति भावः । अथवा आपनारोपणाने चर्चामा परि भवनाथ "ठवणारुवणादिवले, माणा उ बिसोदर तु जं लेखं । " इत्यादिकरणं कथं संचयमा तबाद उकोसापयानं मासा ने ढोति करणनिरिठा । ते वणामासया, संचयमासाथ सम्बासि || १५|| सर्वासामुत्कृष्टानामारोपणानां ये मासा भवन्ति करणनिदिष्टाः, " दिवसा पंचहि भश्या 31 इत्यादिना आरोपणाकर'णेन निर्दिशः, ते स्थापनामासयुताः, स्थापनायां ये करणवशतो लब्धमालास्तद्युक्ताः, संत्रयमामा इष्टव्याः । यथा विशिकाय दिनचतायामारोपातथादि स्थापना Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त अभिधानराजेन्द्रः । पच्छित्त बांद्वी मासौ सम्धौ,तौ च प्रागेव भांवितौ । प्रारोपणायाः पञ्च- ম: সন্ধাৰ আষা না নরুন্ধি মাখা মানুষ। भिर्भागो द्रियते, लब्धा द्वात्रिंशत् । सा द्विरूपहीना क्रियते, नुक्रमेणान्या अपि हातम्याः। यथा-" पढमा ग्वणा वासा, जाता त्रिंशत्,स्थापनामासौ सत्र प्रक्तिप्तावागतं वात्रिंशत्प्रतिसे. चोत्थी श्रारोषणा भवेतीसा । चीसा मासेहि, वी. विना मासा अथात्र कुतो मासात्किं गृहीतम?। उच्यते-द्वौ द्वा. सारादिया कोसो॥१॥" इत्यादि । अथानेन प्रकारेष त्रिशतः संचयमासेज्यः स्थापनामासौ शोध्येते । स्थिताः प. कियत्संख्याका गाथा अनुगन्तव्याः? । तत पाह-( एए. श्चात त्रिशत् मासाः । तत इयमारोपणा त्रिंशता मासैनिष्पन्ना णेत्यादि) पतेन क्रमेण चत्वारि शतानि पश्चषधानि गा. त्रिंशत्तमा वेति त्रिंशद्भागाः क्रियन्ते, प्रागत एकैकस्मिन् भागे थानां भवन्ति । इयमत्र भावना-विशिकां स्थापनाममुश्चएकैका मासाः । तत्र प्रथमतो भागः पञ्चदशनिर्गुण्यते, जाताः ता पश्च, पञ्च प्रारोपणायां प्रक्किप्ता तावन्नेतव्यं यावपञ्चदश, एष एकोनत्रिंशत् पञ्चभिर्गुण्यते, जातं पञ्चचत्वा- दम्तिमा प्रारोपणा । पतासु च संचयमामाऽऽनयनाय प्रा. रिशं शतम् । उभयमीलने षष्ठं शतम् १६० । अत्र स्थापना. गुक्तकरणलक्षणं प्रयोक्तव्यम् । तद्यथा-अशीतात दिवसशवियसा विशतिः प्रक्किप्ता, जातमशीतं शतम्, आगतमत्र द्वा तात्प्राक स्थापनाऽऽरोपणादिवसाः शोधयितव्याः। ततो यज्यां स्थापनीताज्यां मासाभ्यां दश दश दिवसा गृहीताः सकेषमवतिष्ठते तस्याधिकृताया प्रारोपणाया भागो इतव्यः, अकस्मात् पञ्चदश,शेषेभ्यः पञ्च पश्चेति । एवं सर्वत्र जावनी यम। तत्र यदि शुकं भागं न प्रयच्कृति, ततो यावता प्रक्रिन पतत्र प्रथमे स्थाने यावती प्रथमा स्थापना, यावती च प्रथमा. रिपूरों भागःशुरूपति, तावन्मात्रो कोषः प्रकेपणीयः । त. प्रदेपानन्तरं च भागे हते ये लब्धा मासास्ते यतिभिर्मारोपणा, यावन्तश्च तत्र संचयमासास्तदेतत्प्रतिपादयति सरारोपणा निष्पना ततिनिगुणयितव्या:,ततः स्थापनाऽऽरोपपढमा वणा वीसा, पढमा प्रारोवणा भने पक्खो। णामासा भपि तत्र प्रक्षिप्यन्ते, ततः समागच्चति प्रतिसवि. तेरसहिं मासेहि, पंच उ राइंदिया कोसोए तमासपरिमाणमिति कुतो मासात् किं गृहीतमित्य स्यामपि प्रथमे स्थाने प्रथमा स्थापना विशिका विशतिदिना,प्रथमा चा. जिज्ञासायां संचयमासेभ्यः प्रथमं स्थापनामासाः शोधयिरोपमा भवति पकः पक्कप्रमाणा । एषा स्थापनाऽऽरोपण च तव्याः, ततः शेषा ये मासास्तिष्ठन्ति ते यतिभिर्मासनिष्पप्रयोदशनिसिनिपन्ना। तथा एषाऽऽरोपणा अकृत्स्ना,ततोऽव. श्रा यत्संख्याका वा प्रारोपणा तावन्तो भागाः कर्तव्याः। श्यमस्थां झोषोऽनुदिति झोषपरिमाणमानम, पञ्चरात्रिन्दिवानि तत्र प्रथमो भागः पञ्चदशानिर्गुणयितव्यः, शेषाः सर्वेऽपि झोषः। एतद्विषया भावना प्रागेव कुता, न भूयोऽपि क्रियते । पञ्चभिर्गुणनीयाः । पते सर्वेऽपि दिवला एकत्र मीनयित व्या, यश्च कोषः प्रक्षिप्तः स शोधयितव्यः । ततः स्थाअधुना प्रथमस्थाने एव प्रथमस्थापनायां द्वितीयाऽऽरोपणा पनादिवसाः प्रतपणीयाः। आगतफलमप्येवं कथनीयम-यतिपावहिना जवति, यावन्द्रिश्च संवयमासे: स्थापना रोपणा व निष्पन्ना, तदेतत्प्रतिपादयति भिर्दियसैः स्थापनामासो नियन्त्रस्तति दिवसाः स्थापनी. कृतेभ्यो मासेभ्यः प्रत्येक गृहीताः, यावन्तश्च मासाः पञ्चदशपढ़मा ठवणा वीसा, विइया आरोवणा जरे वीसा ।। निगुणितास्ताबद्न्यः पञ्चदश पञ्चदश, शेषेज्यः पञ्च पश्चेति, अट्ठारस मासेहि, एसा पढमा भवे कसिणा ॥२०॥ एवं पञ्चविंशिकायामपि स्थापनायां पाक्षिक्यादब प्रारोपण प्रथमे स्थाने प्रथमस्थापना विंशतिद्वतीया प्रारोपणा भवे- জgথা, ব্যাবসা বায়ালিয়রমানা,হিংস্কাযা : द्विशिका विशतिदिना। एषा स्थापना प्रारोपणा च निष्पन्ना पनायां पाकिफ्यादय आरोषणा यावत्पश्चाशहिनशतमामा । एवं अष्टादशभिर्मासरेषा चाउरोपणा कृत्स्ना प्रथमा च सर्वासा तावद्यावश्चरमायां स्थापनायां पश्वपष्टदिनशतमानायां पाक्षिकृत्स्नाऽऽरोपणानामिति । एतद्विषयाऽपि नावना प्रागेव कृतेति क्यकारोपणा । एतासु च पूर्वभणितेन प्रकारेण चत्वारि शतान भूयः क्रियते। निपञ्चषानि गाथानां कर्तव्यानि । इति प्रथम स्थापनाऽऽरो. संप्रति प्रथम स्थाने प्रथमायां यावदना तृतीया प्रारोपणा,य. पणास्थानं समाप्तम्। तिभिश्च संचयमासैस्ते बन्ने अपि निष्पन्ने तत् प्रतिपादयति संप्रति द्वितीय स्थापनाऽऽरोपणास्थानं प्रतिपिपादयिषुरित्याहपदमा उवणा वीसा, तइया आरोवणा उ पणवीसा। तेवीसा मासेहिं, पक्खो न तहिं नवे कोसो ॥ २०१॥ तेत्तीस उवणपया, तेत्तीसाऽऽरोषणाएँ गणाई। वणाणं संवेहा, पंचेत्र सया न एगट्ठा ।। ३०३ ।। प्रथमस्थाने एव प्रथमा स्थापना विशतिदिना, तृतीया चाss. द्वितीय स्थान त्रयस्त्रिंशत्स्थापनापदानि, त्रयस्त्रिंशश्चाऽरोपरोपणा पञ्चविंशतिदिना । एषा प्रथमा स्थापना तृतीया चाऽऽ. रोपणा त्रयोविंशतिमासनिष्पना । श्यमप्यकृत्स्नाऽऽरोपणा इ. णायाः स्थानानि पदानि । एतच्च प्रागेव नावितमिति न भयो निकोषोऽत्रा भूत, अतो कोषपरिमाणमाह पक्का, तत्र तसा भाव्यते । संप्रति संवेधपरिमाणमाह-(ग्वणाणमित्यादि) तृतीयायामारोपणायां कोष इति शेषस्थापनाऽपिणानां दि. स्थापनानामारोपणानिः सह संवेधाःसर्वसंख्यया भवन्ति - मपरिमाणे संचयपरिमाणे वाऽतिदेशपरिमाणमाह शतान्येकपष्टानि एकपटवाधिकानि ५६१। कथमेतदवसातम्य मिति चेतू? सच्यते-ह संवेधसंख्याऽऽनयनाय प्रागुक्ता"-- एवं एयागमिया, गाहाभो होति श्राणुपुबीए । च्छोत्सरसावो" इत्यादि करणगाथा। गच्छश्चात्र प्रयस्त्रिंशत। एएण कमेण जये, चत्तारि सया उ पाहा।। २०३॥ तथा गगनयनाय पूर्वसूरिप्रदर्शितेयं करणगाथापवमुक्तेन प्रकारेण एषोऽनन्तरोदितो दिनमानाऽऽदिल कणो ठवणारोवाणविजया, बम्मामा पंचनागमाया ने। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पछि ( १६२ ) अन्निधानराजेन्थ चापतिसु चरमाऽऽदेस जागेको १२०४ | मासानां समाहारः पम्मासं, तस्मात् मासात् स्था पनारोपणादिवर्षिरहितात तदनन्तरं पश्च नागरकातू ये लधास्ते रूपयुताः सन्तो यावन्तो भवन्ति तावन्ति स्था पनापदानि एतावान् तत्र गच्छ इति भावः । एतच्च जिवाचेषु स्थानेषु ष्टयम मेस्थाने पदेशः मन जागो हर्त्तव्यः । एष गाथाऽक्षरार्थः । जावार्थस्स्वयम्प्रथमस्थाने प्रथमा स्थापना विशतिविना प्रथमा चारोपणा उपम , । ले जातं पा रिशं शतम, तस्य पश्चभिर्नागो हियते, लब्धा एकोनत्रिंशत् सा रूपयुता क्रियते, जाता त्रिंशत् । भागतः प्रथमे स्थाने त्रिंशत् गच्छः। तथा द्वितीये स्थाने प्रथमा स्थापना पश दिना प्रथम चारोपणादिना उद मानि विंशतिः, पपमा लदिव से ज्योऽशीतातप्रमाणेभ्यः शो- १६० तस्य पश्योि साप जग द्वितीये स्थाने त्रयरिमशःसरमेक दियेकः अत्र भा बना प्रागुका पिन क सध्या गायरिंशत् एकेन गुण्यले केन गुणितं तदेव भवतीति जताया उसन हीनाः क्रियते, जाता द्वात्रिंशत्, तत्राऽऽदिममेककल करणं प्रक्किपेत्, जाता भूयायति एतत् अन्तिमं धनम् । एतकान्तिमं धनमादिना एक केन युतं क्रियते, जाता चतुस्त्रिंशत् सा गान गुणवत स्थानिय इतिचतु किमले जातात ते परि परवशतान्येकषष्ठानि ५६१ । | संप्रत्यस्मि ती स्थाने कतिविना प्रथमा स्थापना कतिदिना च प्रथमाssरोपणा ला व प्रथमा स्थापना रोपणा तिः संयमानः प्रतिष्यितपादयति पापा पत्र पहना आरोषणा नये पंच , बोतीस मासे, एसा पदमा भने कलिया ।। २०५ ॥ द्वितीये स्थाने प्रथमा स्थापना पकः पक्कप्रमाणा, प्रथमा चा शेपणा जयति पत्रपत्र दिना । एषा स्थापना आरोपणाच निः प्रतिमित् दिवसभरात से माणा उ विलोड " इति वचनात् स्थापनादिवसाः पडब दश, आरोपणादिवसाः पञ्च उभयमीलने विंशतिः शोभन्ते, जातं षष्ठं शतम् १६० । ततोऽधिकृतया पत्रक अकृणया आरोपणया भागो हियते लब्धा द्वात्रिरात् मासाः । राशिश्नात्र निसैपः पः शुरू इत्येषा आरोपणा कृत्स्ना । तथा चाssढ-एवा आरो पणा जयति कृत्स्ता, कुररूनजागहरणात्। सामान्यस्यां कृस्ताssरोपणानां प्रथमा स्थापनादिवसा (१), तां का मालाऽऽनयनाय ने नाम क्रिपरले जात एकक प्रागन एको मालः श्रारोपणायामध्येको मासो लब्धः, " जत्थ उ दुरूषीणं न होज । " इत्यादिवचनात् । तत एकस्थापनामा एक प्रारोपणामास इति । मासी पूर्वराशौ चतुरान्मासाः प्रतिषेविताः कुतो मा गोडसे पच्छित्त साथ किंमत प्रतिसेवितमा एकः स्थापनामासः शोभ्यते, जातात्रयस्त्रिंशत्, ते प्रारोपणया पदमा भागे ते इतिपयले जा शितम १६५ । तत्र स्थापनादिवसाः पचदिवस प्रक्तिः, जात (?) स्थापनीतान्मासात् पद गृहीतानि तुपपति स्थापनादिना दिली या भारोपणा, यतिभिश्च संचयमासैः प्रतिसेवितैः सा प्रथ मा स्थापना, द्वितीया चारोपणा निष्पक्ष, तदेतत्प्रतिपादयतिपढमा उत्रणा पक्खो, वितिया आरोषणा नवे दसओ | अहारसमासे, पंच उ राईदिया जोसो || २०६ ।। द्वितीये त्याने प्रथमा स्थापना पक्को, द्वितीया खाऽऽरोपणादश दश दिनानि भवन्ति । एषा व स्थापना, आरोपणा व अष्टादशमासैः प्रतिसेवितैर्निष्पन्ना। तथाहि--अशीतात स्थापनादिवसा पश्च दश आरोपणादिवसभ जातं पच पचाशं शतम् १५५ आरोप भागो ततोऽधिकृतया दशमिया भागो कोष तथा बाद 66 पञ्चसु प्रक्षिमेषु प्रतीति पचको पचरात्रिन्दियानि कोष इति लब्धाः बोमा मासाः स्थापनायां च प्रागुक्तप्रकारेणैको मास आरोपणायास्तु दशाऽऽस्मि - कायाः भिभोगो हियते लब्धी हो तो पड़ीन कृती, जातं शुन्यम लब्ध पको मासः 'अश् वा दुरुकहीणे, क यस्मि हुआ जहि तु आगालं । तत्थ चि पगो मासो" इति मासी पूर्व प्रतेि भागतम द्वादश मालाः प्रतिलेषिताः । श्रय कुतो मालात् किं गृहीतम् । यते - बोरुशमासेभ्यो दश दश रात्रिदिवानि प कोबीकृतानि स्थापनामा सात्पञ्चदश, भारोपणामासादशकः प्रत्यय इति । यते-बोमश दशभिगुणिता जातं वधुं शतम १६ तास्ततः शेते जा स्थापनादिवसाः पञ्चदश, आरोपणादिवसा दश, उभयमीसमे पचविशतिः प्रक्षिप्यते जनमतं शतम् । पडमा उदया पक्व तया आरोषण नप : " वारसा मासे, एसा बिया भने कसिणा ॥ २०७ ॥ द्वितीयेयाने प्रथम स्थापना पनीया भि पक्षः । एश स्थापना आरोषणा द्वादशभिर्मासैर्निष्यन्ना । क धमवसीयते इति चेत् । उयते अशीतात् विवशता थापनादिवसाः पयश, आरोपणादिवसाच पन्चदश, उभयमी शिशोधिता जातं पश्चार्थशत १५० ि कृनया पञ्चदशविनया श्रारोपणया भागो हियते, लब्धा द श मालाः, प्रागुक्तप्रकारेण बैको मालः स्थापनायामेको मा प्रारोपणायामिति द्वौ मास तत्र प्रतिसौ, आगा मासे प्रतिसेया कुतेो मासात् किन म उच्यते - एकैकस्मात्पचदश वासराः । तथाहि द्वादश मा सामगुणा जनम दिवमिति । एवं एयागमिया, गाहाओ तिब्बीर | एकमेण जवे, पंचैत्र या उ एगडा || २०८ ॥ एवमुक्तप्रकारेण पतलूगमिका अनन्तरोकप्रकारा, गाथा प्रा. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चित्त प्रन्निधानराजेन्द्रः। परिउत्त नुपर्ष्या क्रमेण जयन्स्यम्या अपि ज्ञातव्याः कियासंख्याकास्ता ज्यः पत्रिंशत् एकः स्थापनामास: शोधितो, जाताः पाचएतेन क्रमेगा ज्ञातव्याः १इत्याह-एतेन कमेण भवन्ति पश्चश. त्रिंशत्, ते यधेकविध्यादिदिना मारोपणा पत्र दिना दशदितान्यकषधीनि गाधानामिति । इयमत्र भावना--पाक्तिकी स्था. मा पा, ततस्तथैवारोपणया संचयमासा गुपयन्ते पति पनाममुश्शता पारोपंणायां च पच पच प्रक्षिपता ताबमेत- बचनादन पचविनाऽऽरोपणेति पञ्चभिर्गुण्यम्ते, जातं प. ध्यं यावत् प्रनिशत् मासाः, पश्चषदिनशतमामा मारोप- सप्ततं शतम १७५ । स्थापनादिवसाच पञ्च तत्रैष प्रक्षिपता णा । ततो विंशतिदिनां स्थापनाममुशता पञ्चाहिकायामारोप. जातमशीतं शतमागतमेकैकस्मान्मासात पच पर रात्रिन्दिणायां पच पच प्रक्षिपता तावदन्तव्यं यावत्वात्रिंशत्तमा प. पानि गृहीतानि । पत्र भागःशुमा पतित इति कस्नैयारो. लिदिनशतमाना भारोपमा । एवं स्थापनासु पच पच प्रक्कि पणा सर्वासां व फत्माऽऽरोपणानामाचेति प्रथमा। तपा पता भारोपणासु बैंककं वानमुपरितमभागास्परिदरता ताब. बाऽऽह-"पसा पढमा भवे कलिणा।" बेतव्यं यात्राथानां पञ्चशतेनेकपानि जवन्ति । द्वितीय स्था पढमा उवणा पंच उ, विड्या प्रारोवणा भवे दस | पत्ताऽऽरोपणं स्थानं समाप्तम् । एगुणवीसमासेहि, पंचहिँ राइंदिया कोसो ॥११॥ संप्रति तृतीय स्थापनाऽऽरोपणास्थानं प्रतिपादयचिदमाह सुतीये स्थामे प्रथमा स्थापना पम्वपश्यदिना,वितीया भारोप. पणतीस उवणपया, पणतीसाऽऽरोषणाई गणाई। णा प्रबति पशवशदिना । एषा स्थापना द्वितीया चारोपमा बणाणं संबहे, छञ्चेव सया नवे तीसा ॥२०॥ निष्पमा एकोनविंशत्या मामः प्रतिसेचत तथा प्रशीतात् तृतीय स्थाने पचत्रिंशतस्थापनापदानि, पशियारोपणया शतात् पश स्थापनादिवसाः। उभयमीलने पचवश शोध्यम्ते, स्थानानि पदामि । एतदपि पूर्वमेव भाषितम् । संप्रति संवेध. जातं पशषष्ठं शतम् १६५। अस्य दशभिभीगो नियते । तत्र परिमाणमाह-(ठवणाणमित्यादि) खापनामामारोपणानि परिपूष्यों भागोम पसतीति परात्रिदिवानि झोषः प्रतिप्यते। सह संवेधा सर्वसंध्यया प्रबन्ति षट्शतानि त्रिशानि । तथा बाह-"पंचरिदिया जोन्सा" कोपेचप्रति सम्मान पतानि "गयुत्तरसंबिम्" इत्यादिकरणवशावानेतन्या सप्तदश मासा एकास्थापनाया मासा,एक भारोपणाया इति हो निगम: पाचत्रिशता कथमिति चेतव्यते-"ठवणा मासौतन प्रक्षिप्तौ जाता एकोनविंशतिरागतकोनविंशस्या - रोषणपिया।" इत्यादिकरणवशात् । तथाहि-मशीतात् शताव तिसवितमी सनिष्पन्नेति । प्रथकुतो मासारिक गृहीतम्।,उच्यते। पाचदिनानि प्रथमस्थापनाया, पञ्चदिनानिप्रघमारोपणाया प्रतिसेवितमासेभ्य एकोनविंशोरेकस्थापनामासः शाधितो, उभयमीलने वश शोज्यन्ते, जातं सप्तशतम १७०1 तस्य पाच जाता महादश मासाभित्र दशदिनाऽऽरोपणेति तेवशनिर्गुपय. मिर्भागो हियते, सम्धं चतुनिशत् । सा अपघुता क्रियते, ग्ते, जातमशीतं शतं,पश्वासरा कोष इति वश ततोऽपसारिता भागतः पञ्चप्रिंशत् गच्चा । उत्तरमेक मादिरप्येकः । ततः आतं पशसततं शतम्। तत्र स्थापनादिवसाः पच प्रतिता,जा. पञ्चशित पकेन गुण्यते । एकेन गुणितं तदेव प्रवतीति समशीतं शतम् । भागतं स्थापनीकृताम्मासापराश्रिन्दिवानि जाता पम्पत्रिशदेव, सा रत्तरेणकेन हीना क्रियते, जाता पहातानि । पचमोषीकृत्य कोषेभ्यो पश दशराविम्विधानाति । तुमिशत तनाऽऽविममेकं प्रतिपेत् । योऽभवत पचवितात। पदमा वाणा पंचन, तइया मारोषणा भये पक्खो। एतत् अम्तिमधनमम्तिमेस्पाने परिमाणम् । पतवादि- तेरसहि मासेहि, पंच य रादिया जोसो ॥ २१॥ पुतं क्रियते, जाता पर्तिशत, सागमान गुणयितव्यात. तृतीय स्थाने प्रथमा स्थापना पक्षपश्चदिना, तृतीया चारो. गपराज्ञिविषमत्वात्परिपूर्णमई मातीति पनिशर. पण भवति पक्षा पक्षप्रमाणा,एषा प्रथमा स्थापना तृतीया था. दीक्रियते, जाता प्रहावश, ते गच्छेन परिपूर्णेन गुपयन्ते, जा. रोपणाप्रयोदशनिःप्रतिसेवितर्मा सर्मिपन्ना । तथाहि-मशी. तानि षदातानि त्रिंशदधिकानि। तात् दिवसशतात् पश्स्थापना दिवसा, पशवश भारोपणा संप्रत्यस्मिन् तृतीये स्थाने कियदिना प्रथमा स्थापना, प्रथमा- दिषसाउभयमीलने विशतिः शोध्यम्ते,जातं पशिशतम् १६०। रोपणाच, साबस्थापनारोपणापकियनिःसंश्चयमासे तख्याधिकतया पनादिनया मारोपणया भागो हियते, तनसि. प्रतिसहित निष्पनेत्येतदभिधासुराह खो नागोग पततीति पञ्चमोषः प्रतिप्यते। तथा चाह-"पं. पदमा ठवणा पंच ड, पढमा भारोषणा जये पंच । पराशदिया मोसो।" झोषे व प्रक्किप्ते लब्धा एकादश एक स्थापनाया मास एक भारोपणाया इति द्वौ मासी तत्र प्रक्षिउसीमा मासेहि, एसा पढमा नये कसिणा ॥ २१०॥ तावागतं त्रयोदशभिर्मासैः प्रतिसवितमिपमा । भय कुतो तृतीये खाने प्रथमा स्थापना गपञ्चदिनप्रमाणा, प्रथमा मा. मासात किगृहीतम', उच्यते-प्रतिसेवितमासेभ्यस्खयोदशश्य रोपणा भवति पचपचदिना । एषा स्थापना भारोपणा. एकस्थापनामासः शोधितः स्थिताः पश्चात् द्वादश भारोपणा निष्पना शिता मासैः प्रतिसेवितः कथमिति चेत् । अव्य. एकमासनिष्पोत्येकभागीक्रियम्ते, पाचश्व भागः पञ्चदशते-मशीतात् शतात पाच स्थापनादिवसा पचमारोपणादि- भिः किस गुणयितव्य इति पश्चरशभिस्ते शावशापि गुएय. वसा, उभयमीसने दश शोधिता, जातं सततं शतम् १७०। म्ते, जातमशीतं शतं शतं, पञ्च झोष-इतितोऽपनीयन्ते जा. पतस्य पञ्चदिनया भारोपणया भागो हियते, सम्धाच- तं पयस शतं, तत्र पवस्थापनार्दषसाः प्रतिप्यते निशामासाः, पका स्थापनायां पूर्वप्रकारण मासा, एक प्रारो- जातमशीतं शतमागतमत्र स्थापनाकृताम्मासात्पच दिवसा पणायामिति नो मासौता प्रक्तिी, जाताः पत्रिंशत् मा- गृहीता, शेषेभ्यस्तु बादशमासेज्या पात्रकोषीकृत्य परश सामथ तो मासारिक गृहीतम। उच्यते-प्रतिसवितमासे, पश्चशेति ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चित्त प्रभिधानराजेन्मः। पच्छित्ते एवं एयागमिया, गाहाओ इंति आणुपुबीए । शतं, तस्य एकदिनप्रमाणयारोपणया भागो मिहयते, लएएण कमेण नवे, बच्चेव सयाई तीसाई॥ १३ ॥ ब्धमधमप्ततमेव शतम् । एकः स्थापनामास एक भारो. पणामास इति द्वौ नत्र प्रक्षिप्ता, लब्धमशीतं मासशनम् । अथ एवमुक्तेन प्रकारेण एतामिका अनन्तरोदितगाथा प्रानुपूर्ध्या कुतो मासारिक गृहीतम,चच्यते पकैकस्मान्मासादेकैको दि. कमेणान्या अपि भवन्ति सातव्याः। कियत्संख्याकाः ?, इत्याह- वसः। अत्र भागः शुद्धः पतित शति काम्नाऽऽरोपणा । असावन्या. एतेनानन्तरोक्तेिन क्रमेण जवन्ति गाथानां षट्शतानि त्रिशानि। सांकृत्स्नाऽऽरोपणानामाद्यति प्रथमा । तथा चाह-" एसा किमुक्तं भवति-पञ्चदिनस्थापनाममुञ्चता भारोपणायां च य. पढमा भवे कमिणा ।" भोत्तरं पञ्च पञ्च प्रक्किपता तावद गन्तव्यं यावत्पञ्चशिन्मा- पढमा वणा एको, विड्या आरोषणा जवे दोनि । मा पञ्चसप्ततशतदिना पारोपणा । पुनर्दशदिनां स्थापनां कृत्वा एगननयमासेहिं, एगो उ ताहि भवे कोसो ॥२१६।। অগীমায নাম্ব যান্সিয়লমা নম্বরলিহাল। चतुर्थे स्थाने प्रथमा स्थापना एक एकवामरा, द्वितीया मारोपणा। पवं स्थापनासु पञ्च पाच प्रक्किपता प्रारोपणास्खे. प्रारोपणा भवति द्विदिने द्विदिनप्रमाणा । एषा स्थापना भा. कैकमुपरितनं स्थान हापयता तावन्नेयं यावत् गाथानां रोपणा च निष्पना पकनवतिमासैः। तथाहि-अशीतात् एकषट्शतानि त्रिंशदधिकानि भवन्ति । तृतीय स्थापनाऽऽरोपणा स्थापनादिवसो, दावारोपणादिवसाः, उभयमीलने प्रयः शोस्थानं समाप्तम्। ध्यन्ते, जाताः पक्षात्रवतिमासा द्विदिना प्रारोपणेति द्वाभ्यां संप्रति चतुर्थ स्थापनाऽऽरोपणास्थानं प्रतिपिपादयिषुरिदमाद- गुपयन्ते, जातमशीतं शतम, एको कोष इति म ततः शोभ्यते, ततोऽभवदेकोनाशीतं शतम् । तत्र स्थापनादिवस एकस्तत्र प्र. भनणासीय उवणा-ण सयं आरोवणावि तह चेव । कितो, जातमशीतं शतम् । आगतमेकस्मात स्थापनीकृतात्मासोनस चेव सहस्मा, दसुत्तर सयं च संवेहो ॥१४॥ सात् एको दिवसो गृहीता, शेषज्य एक कोष। कृस्य द्वी द्वी दिवसाविति । चतुर्थे स्थाने एकोनाशीतं स्थापनापदानां शतं भवति , भारोपणाया अपि तथैव सातव्यम्। किमुक्तं भवति ?-भारोपणा पदमा उवणा एको, तझ्या भारोवणा जो तिनि । नामपि पदानां शतमेकोनाशीतं भवतीति । एतच्च प्रागेव एगट्ठी मासेहि, एगो न तहि भवे कोसो ॥१७॥ भाषितम् । संप्रति संवेधारिमाणमाह-स्थापनानामारोपणाभिः चतुर्थे स्थाने प्रथमा स्थापना एकः एकदिना, तृतीया मा. सह संवेध संयोगाः पोमशसहस्राणि दशोत्तर शतम् १६९१० रोपणा त्रीणि दिनानि । एषा स्थापना प्रारोपणा च निष्पन्ना जवतीति।पवंसख्याकाश्च संवेधाः "गच्चुत्तरसंधिग्गे " त्या- पकवष्टिमासैः। तथाहि-प्रशीतात दिवसातात् एकः स्थापविकरणवशादानेतन्याः । गचश्चात्र एकोनाशीतं शतम ।। नाया दिवसाय भारोपणायाः, उन्नयमीलने चत्वारः शोश्यन्ते, तपादि-प्रशांतात शतात्प्रथमस्थापनादिवस एकाधमाssरो. जातं षट्सप्ततं शतम् १७६। तस्य विभिभांगो रिहयते,प्रारोपणा. पणादिवस एक इत्युभयमीलने द्वौ शोधितौ, जातमष्टसप्ततं याखिदिननिष्पनत्वात्। तत्रभागःशुको न पततीत्येको कोषःप्र. शतम् । तस्य "चरमा देसनागेको " इति वचनादे केन भागो लिप्यते,जातं सप्तसप्ततं शतम्१७७(१)भागे कृते लब्धा एकोन. हिगते. सम्धमटसप्ततमेव शतम । तत्र पूर्व रूपं प्रक्किप्त, जात- पष्टिांसाः,एका स्थापनाया मास एकस्त्वारोपणाया ति द्वौ ममेकोनाशीतं शतम् । उत्तरमेक आदिरप्येकः, तत्र गच्छ सौ तत्र प्रतिप्ती, भागतमेकषधिनिर्मासैः प्रतिमेवितनिष्पना । एकोनाशीतशतकण उत्तरेणकेन गुरायते, जातं तदेव एकोना. अथ कुतो मासास्कि गृहीतम् ,उच्यते-संचयमासेभ्य एकषष्टि शीतं शतम,तत एकेन हीनं क्रियते, जातमसप्ततं शतं तत्रा. संस्थाकेभ्य एकः स्थापनामासः शोभ्यते, जाता परित्रिदिना दिममेकं प्रक्षिपेत् यस्तदेवानूदेकोनाशीतं शतम.एतदन्तिमध. अधिकृता प्रारोपणेति ते त्रिभिर्गुण्यन्ते, जातमशीतं शतनम्,पतत् आदिना एकेन युतं क्रियते, जातमशीतं शतं गच्चरा. मेको कोष इति । पकस्ततोऽपनीतो, जातमेकोनाशीतं शतमेकः शिरच विषम इत्यस्यैवाशीतस्य शनस्याई क्रियते, जाता नवतिः, स्थापनादिवसः, नत्र प्रक्षिप्तो जातमशीतं, शतमागतमेकस्मात सा गाछन परिपूर्णेन एकोनाशीतशतप्रमाणेन गुण्यते , सापनीकृतान्मासात एकदिनं गृहीतं, शेषेभ्यः षष्टिमासेश्य भागतं पोसशसहस्त्राणि, शतं दशोत्तरमिति । एक दिन कोषीकृत्य त्रीणि त्रीणि दिनामीति । सधाऽस्मिन् चतुर्थे स्थाने कतिदिना प्रथमा स्थापना, क एवं खलु गपियाणं, गाहाणं इंति सोनससहस्सा। तिदिनाच प्रथमाऽऽरोपणा, कतिनिश्च सा प्रथमा स्थापना,आ- सयमेगं दससहियं, नेयव्वं आणुपुबीए ।। १७ ॥ रोपणा च प्रतिसेवितैमर्मासैनिष्पनेत्यत माह पवमुक्तेन प्रकारेण गमिकानामुक्तरूपगमोपेनानां गाथामा पढ़मा उवणा एको, पढमा प्रारोवणा भर एको । मानपूर्व्या क्रमेण खलु निश्चितं भवति ज्ञातव्यामि पोडशपासीया माससया, एसा पदमा नवे कमिणा ॥२१५।। सहस्राणि शतमेकं च दशाधिकमिति । पतदुक्तं भवति-पक दिनां स्थापनाममुञ्चता अारोपणायां यथोत्तरमेकैकमारोपयता चतुर्थ स्थाने प्रथमा स्थापना पको दिवसा, एकदिनप्रमा. तावनेयं यावदेकोनाशीतदिनशता चरमारोपणा, द्विदिनाssणा इत्यर्थः। प्रथमा आरोपगा भवत्येक एकदिना। एषा स्था. दिष्वपि स्थापनास्वकाऽऽनिकाऽऽरोपणा ताबद झेचा बापस्वस्थ. पना भारोपणा च प्रशीतात शादशात्यधिकार मासश- चरमा आरोपणा । एवंषोडश सहस्राणि गाधानां शतक तार निष्पन्ना । तथादि-भशीतात शनात एकः स्थापनादिव. दशोत्तरं पूरणीयमिति । एतासुचस्थापनाऽऽरोपणासुमाखसा, एक आरोपणादिवस इति द्वो शोधिता, मातमयसमतं करण कुवंता पकादिषु चतुर्दिनपर्यन्तासु पञ्चभिर्भगमदद। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त मासु दिनादिषुतिरुपि मादिषु चतुर्दशदिनपर्यन्त जायमाने शून्ये मास को प्रहीतव्यः पर्व पञ्चदशदिनाऽऽ ( ११५ ) अभिधानराजेन्द्रः । गिपर्वतास एकोनविशतिदिनाऽऽदिषु चतुर्विंशतिदिनपर्य युद्धमासी एवं सर्वत्र पत् पूर्वसंक्याकान् मासान् ददता पञ्चके तु पूर्वे रूपमधिकं प्रतिपता जायनी देवस्थानाद्वारम् । अधुना राशिद्वामाद समाहिडाणा खघुसवला प परीसहाय मांडे ति । पनि प्रवमसागरोवम - परमाणु ततो असंखेज्ज ।। २५ ।। एव प्रायश्चित राशिः ः कुतः । उच्यते- यानि खल्य समाधिस्थामानि विशतिः, खलुशब्दः संभावने । स चैतत्संभावयति असं देशकालपुरुपद तो समाधिस्थानानि एवमेकि यतिः शवलानि, द्वाविंशतिः परीषदाः, तथा मोहे मोहनीये क मणिमतिभेदाः अथ मोदविषयाणि स्था मानि पतेभ्योऽसंगमस्थानेभ्य एप प्रायश्चित्तराशिपद्यते । सूयः शिष्यः पृष्ठत कियन्ति तान्यसंयमस्थानानि । ते पक्षितमेत्यादिपषोपमे सागरोपमे बायन्ति बानि नयन्ति किं तु व्याव हारिक परमाणुमात्राणि यानि बालाप्राणां खण्डानि ते भ्योऽसंख्येयानि । श्यमत्र जावना-यावन्ति खलु पल्यो बालाप्राणि ताम्रस्य संयमस्थानानि भवन्ति । नायमर्थः समर्थः पचन्ति सागरोपमे कालाप्राणि तावन्ति । यद्येवं तर्हि सागरोपमेयानि बालाग्राणि प्रत्येकम संख्येयखण्डानि क्रियन्ते, तानि च खण्डानि सांध्यबहारिकपरमाणुमात्राणि तावन्ति नवस्ति । नायमप्यर्थः । क्रियन्ति पुनस्तानि भवन्ति ? । उच्यतेसेतु-परमाणुभाषा - गमानि सूक्ष्म परमाणुमात्राणि द्रष्टव्यानि । तदसम्यक् । सूक्ष्मपरमाणवी हि तत्रानन्ताः, श्रसंयमस्थानानि चोकं प्रतोऽप्यसं प्रदेशप्रमाणानि इति तं राशिद्वारम् । अथ मानद्वारमाह वारस अप करा, मानवियं निपोर्टि सोहिकरं । ते परं जे मासा, संदष्यंता परिसति ॥ २२० ॥ मीयते परिच्छिद्यते बस्त्वनेनेति मानम् । तद् द्विधा-रुध्ये, भावे रात्र ज्येषु प्रस्थादिषु भावतः पुनरिदं मानं प्रायश्चित मानं जिनेस्ती कृद्भिस्त्रिविधं शोधिकरं भणितम् । तद्यथाप्रथमतीर्थकरस्य द्वादशमासा ईमानस्वामिनः पङ्कं षण्मासाः । इतोऽधिकं न दीयते किन्तु व. प्रतिमेव यथा-प्रस्थकेन मीयमानं धान्यं तावन्मीयते यावत् प्रस्थकस्य शिखा परिपूर्ण भवति ततः परमधिकमानमपि परि पतति । एवं पां मासानामधिकं यद्यपि प्रति सेवितं तथापि तत् स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेण संहन्यमानं परिशदति । तथाबाद(परमित्यादि उकरूप परमम परे ये मामास्ते व्यापनाऽऽरोपणाप्रकारे संहन्यमानाः संघात्यमानाः पारशदन्ति । तावन्मात्रेणापि च प्रायश्चित्तप्रतिपसारः शुद्ध्यन्ति, त्यसमा सम्बगनुष्ठेया प्रति संप्रति प्रारमाह केवलनाविष्णो यततो य ओहिनामानिया । ४२ पाछत्त चोदनववी कप्पधर पकप्पधारी व ॥ ३२६ ॥ (केषण पवनाणिणो (स) ज्ञानशब्दः प्रत्येक मजि संबध्यते, केवलज्ञानिनां मनःपयज्ञानिनश्च ततस्तदनन्तरमवधिज्ञानेन जिना अवधिज्ञानजिनानि विशा चिप्रदर्शक विशुद्वाचिज्ञाना इत्यर्थः ततापूर्व दशपूर्तिको नयपूर्विय परि पूर्व नवपूर्वधारा, किंतु नवमस्य पूर्वस्य यत् तृतीयमाचार नामक वस्तु तावन्मात्र पारियोऽपि नयपूर्वि तथा धरा कदाचारि निदाध्ययनं यार दोऽनुकसमुच्चयार्थः । तदेवानुमेन सूचितं दर्शयतिविपदे निश्चीत पेरिय आणाधारण जीते, य होति पणपछि ||२२२|| पीठिकाधराः नियम स्वामिकृत सूत्रानिशीकश्याप्रथम पीठिका गाथारूपाः । तथा भाज्ञायां धारणे जीनं च ये व्यव हारिणः- माज्ञायपारिहारियो, जीतबद रिणश्च । एते प्रायश्वित्तदाने प्रभवः । तदेवं गतं प्रद्वारम् । इदान कियन्ति सिद्धानि प्रायश्चित्तस्थानानीति द्वारावसरः । तत्र शिष्यः पृच्छति क्रियन्ति खसु प्रायश्चित्तानि ?। श्रावार्य शाहअर्धसूल पुनरिदं परिमाणम , पापा दो पेन समा इति वावया । विभिसा बीमा हुनि उपाय प॥ २२३ ॥ पंचसया चुलसीया, सन्धेसि मासियाण बोधव्वा । ते परं वृच्छामी, चानम्मासा संखेनं ।। २२४ ॥ अनुद्धातिता नाम गुरवः, उद्धातिता लत्रवः । निशीथनानि अध्ययने प्रथमोद्देश के अनुद्ध तिता गुरवो मासा अभिहिताः तेषामेत्रधिके भवतः । द्वि यती पद्धत मासा उपा मद्वातितानां मासानामेकर संचितानां त्रीणि शतानि द्वा शानि भवन्ति तेषां सर्वेषामासानामनुद्धः सितमा सानां बैकत्र मीलने मासिकानां प्रायश्वितानां बोरुव्यानि शतानि चतुरशीतानि ५८४ | ( तेण परमित्यादि ) अतः परं चातुर्मासिकानां संकेपं वक्ष्ये । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति सवा चोयाला, चाम्पास होताया। सतसया चडवीमा चाम्मासाथ उग्घाया ।। २२ ।। तेरससय अठसट्टा, चाम्मााण होत समेि से परं वृच्छा, सव्वसमासे संखेवं ।। २२६ ।। पहसतमानमाशोदेश के अनुयातितानि चा तुर्मासिकान्युक्तानि । पतेषामेकत्र संक्षिप्तानां भवन्ति षट्शतानि रिशानि६४४ गाथा होलिया इत्यत्र प्रथम प्राकृतस्थान एव द्वादशदेश पञ्चदशोदा दशको मलिदालित मेकेषु द्वातिताश्चतुर्मासिका उसा, तेषामेकत्र संक्षिप्तानां सप्तशतानामितिः ७२४ तुम्मानाभवति सर्वे 66 शानि Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्ति अभिधानराजेन्डः। पवित पवधानि १३६८ । (तेण परमित्यादि ) ततः परं सर्वेषां मासिकानां चातुमासिकानां यः समासो मीलनं तेन संकेपं सर्वसंख्यासंप्रवक्ष्ये ।। प्रतिकातमेव निर्वाहयातनव य सया य सहस्सं, गणाणं परिवरिमोहोति। बापमा गणाई, सत्तहिं भारोवणा कसिणा ॥२७॥ पानानां मामाऽदिपायश्चितस्थानानां प्रतिपत्तयः प्रतिपादनानि सहन नव च शतानि द्वापश्चाशच्च स्थानानि १९५२ भवन्ति । तथादि-सर्वाणि प्राशुक्कानि मासाऽविप्रायश्चित्तस्थामाम्येका मोलिताम्येतावन्तीति । सप्तभिः पुनरारोपणा कत्मना । अथकोऽश्य सत्रस्यानिसंबन्धः। सच्यते-मन्वेष पब संबन्धःकियन्ति प्रायश्चित्तानि सिकामि कियस्यारोपणा जपन्या, जघन्योता.तथा फरस्मा मत्स्नाश्च सिखाता प्रथमे खा. पनाहरोपणे स्थान पका जघन्या, शित कृया। एकैकस्या स्थापनायामारोपणाभिः सह संबेधे पकैकस्या उस्काया अपमानवस्वारिशतानि चतुनिशपिकामि ४१४ । वितीये स्थापनारोपणाम्याने एका जघन्या,त्रयशित का मजा प्रत्यास्कामा पशशतानि सप्तविशानि ५२७ तृतीये स्थापनाऽs. रोपणास्थाने एका जघन्या, पत्रिंशत् उत्कृष्टा, मजघन्योक. पाना पश्चाशतानि बतुवतामि ४६५। चतुर्थे स्थापनाऽऽरोपणा. न्याने एका जपन्या एकोनाशीतं शतमुकष्टामा पश्चरश. सामाणि शतानि त्रिशानि १५१३० भजधानोरकष्टानां तथा प्रथमे स्थापनाऽऽरोपणास्थाने सप्ततिरारोपणास्मा , भागहारिएय इत्यर्थः । झोषविरहिता इति यावत् । तामा:सास गणाणं, कोसाऽऽरोषणा जरे कसिणा। मेसा पत्ता फसिणा,ता खट्नु नियमा भएकोसा ॥२२८।। प्रथमे स्थापनारोपणास्थाने त्रिंशत् स्थापनास्थानामितेषां पसर्वेषामपि स्थानानामन्तिमारोपणा सत्कष्टा नवति। ताश्व सर्वसंक्यया प्रिंशत् । पताश्च नियमतो झोषविरहिता तिक. HTI, शेषाश्चोरकरारोपणाव्यतिरिक्तामामारोपणामी मध्ये झोपविरहिततया रस्मारोपणाश्चत्वारिंशत् । ताइच खलु नियमाभियमेन अनुरकहा, जघन्या मण्यमा वा स्पः । पता कष्ट, तामीसिता जाता सप्ततिः। भय कास्ता मनुस्वारस्वारिंशत् कामा: १,३त्यत माह पीसाए कबीसा, बत्त प्रसीया य तिष्ठि कसिणाभो । तीसाऍ पक्ख पणवीस तास पलाय पणसयरी ॥२६॥ पत्ता वीस पणती-स सचरी चेत्र तिमि कसिणाश्रो। पणयातार पक्वो, पण याला देव दो कसिणा॥३०॥ पणाए पछट्ठी, पणपसाए य पनवीसा य । सद्विग्वणारे पक्खो, बीसा तीसा य चत्ता य॥३१॥ सयरीए पणपणा, तत्तो पसत्तरीपक्ख पणतीमा। असतीए ठवणाए, बीमा पणवीस पपासा ॥२२ नई पक्ख तीसा,पणयाला व तिमि कसिणामो। सनिया बीस बत्ता, पंचुत्तरि पक्ख वीसा ॥१॥ दस्सुलरसइयाए, पापतीसा वीसउत्तरे पक्खो। बीमा तीसा य तहा,कसिणाभो विवि बीए य॥२३॥ तीसुत्तरि पणवीसा, पणतीसे पक्खिया नये कमिणा । पत्तामीसा वीसा, पक्षासं पक्खिया कसिणा ॥२२॥ विशिकायर्या विंशतिदिनायां स्थापनार्या विंशतिविशतिदि. मा । एवं चत्वारिंशदिना, प्रशीतिदिना चापतास्तिमोऽध्या रोपणा करूमा। तथा विंशति शिहिनायो स्थापनायामिमा परोपणाः कृत्स्नाः । तपथा-पक्का पविशतिनिशत्पश्चाशल्पशासप्ततिचा तथा बरवारिशति स्थापनायामिमास्तिक भारोपणामाः । तपधा-विशतिदिना, पश्चशिरिना.स. ततिदिना च। तथा पञ्चवस्वारिंशति स्थापनायामिमे रु. स्ने मारोपणे । तद्यथा-पना पक्षप्रमाणा, पश्चचत्वारिशप. अबबारिशरिनाकापश्चाशहिनायां स्थापनायामेका पत्र. पपिदिना रुत्स्ना भारोपणा । पचपाशाहिनायामध्येका पत्र विंशतिः १ । पशिदिमायां स्थापनायामारोपणा ना बत. मा तपथा-पको विशतिनिशत् स्वारिंशत् । सप्ततिदिमायां स्थापनायामेका पचानाशाहिना स्मारोपणा ५४ापच्चस. प्रतिदिनायो स्थापनायां रहने भारोपणे-पाकिकी, पम्बर्षिशरिना २ प्रशीतिविनायो स्थापनाया सिमकारमा भारोपणाः। तद्यथा-विंशतिः,पश्चशितिः, पश्चाशदिना । नवतिदिमायां खापनायामिमालिनः कुस्मा भारोपण-पकनिश. सपाचचत्वारिंशब। शतिकायां स्थापनायां कस्ले मारो. पणे-पञ्चर्षिशतिदिना, चत्वारिंशदिमा १३। पचासरशनिकाय पुनः स्थापनायामिमे करस्ने भारोपणे-पाक्षिकी, पविशतिदिनाचरा वशीचरशतिकायां स्थापनाया. का पशिस्फुरस्नाऽऽरोपणा १ । विशम्युत्तरवातिका स्थापमायामेतास्तिनः कस्स्ना भागेपणागतम्या-पाकिकी, बिशतिरिना, शिदिना व त्रिंशइसकातिकायां स्थापनायामेका पवर्षिशतिदिमा करना ऽरोपणा १ । पम्चशिपुत्राप्ति कार्या स्थापनायामेका पाकिक्यारोपणा करना । बवा. रिशऽत्तरदातिकायां स्थापनायां पुमरियमेका उत्स्ना मारा. पणा विशीतीदमा १। पञ्चाशत्तरशतिका स्थापनायामेका पाक्षिक्यारोपणा करना । एवमेताश्चस्वारिंशत् यिपु. किया, सर्वमिलिताः सप्ततिः मा भारोपणामशेषाः पक्षा बनवतित्रिंशसंख्या मकरस्नाारोपणाः। एवं शेषेष्वपि स्थाप. नारोपणास्थानेषु सरस्न कृत्स्नाऽऽरोपणानां परिमाणमुपयुज्य परिभाषनीयमिति । मतः परमेताला सर्वासामपि स्थापनारोपणानां स्वरूप ये. न लक्ष्यते तद्विभणिषुरिदमाहसब्याक्षि उवाणाणं, एतो सामनलक्खणं बुराई । मापग्गे जोसग्गे, हीणाहीणे य गहणे य॥ २१६॥ এখৰ খালীবন্ত আঃ খাবলা গাথি, णाश्चाग्योम्यानुयेषतो भवन्ति, तासां सर्षासामपि स्थापनामामारोपणानांत ऊर्व सामान्येन सकमब्यापितपालक-सक्ष्यते येन तासां स्वरूपं तकणमुकानुकस्वरूपं पाये । त्याह-मासाने प्रतिसेवितसंचयमासानां परिमाणे, तथा प्रति. सीवतमासाऽऽनयननिमित्रमेवारोपणादिवसभीगे शियमाये कियति प्रोपे एवं भागं दास्यतीति । एवं कोषाने जोपपरिमाणे नकणं वक्तव्यम् । तथा दीमाहीने च प्रहणे । हीन Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਚ मानिधानराजेन्धः। पच्चित्त प्राणं नाम विषमरणम्, प्रहीनग्रहणं समग्रहणम । पता रारोपणादिवसा पश्चविंशतिः उन्नयमीसमे पञ्चचत्वारिका पधा संजयमालेभ्यो भवति तथा लक्षणं वक्तव्यम् । प्रक्किप्ता, जातमधीतं शतम्। एवमम्यत्रापि भावनीयम मवरमे. तत्र मासपरिमाणविषय लक्षणमन्निधित्सुरिदं पूर्वोक्तमेव तस्कर्म कचिदेव प्रतिनियतेषु पदेषु कर्तव्यं, नावश्यं सर्वश्रेति । ताबदार संप्रति गुणकारवशेन यथा स्नाऽऽरोपणा परिकानं भर जहादि भवे भारुवणा, ततिभागं संकरे तिपंचगुणं। । ति तथा प्रतिपादयतिसेसं पंचहि गुणए, उवणदिखजुया छम्मासा ॥३७॥ जेण उपएण गुणिया,हि जयं सोण होति गुणकारो । यमर्थतः प्रागेव व्याख्याता, परमभ्यया कियान शब्दसंद | सस्सुवरि जेण गुणे, होति समं सो गुणकारो॥२॥ में इति योऽपि व्याख्यायते-संचयमासेज्यः स्वापनामा. सेषु शुरुषु यषम वतिष्ठते तत (जाति) यति मासा (जेण - परण गुणिया हि विशतिकायां स्थापना. भवस्यारोपणा। किमुक्तं भवति-यतिभिर्मासैनिकपत्रा प्रारोप-यां पाक्षिका भारोपणा दशभिर्गुणिता, जातं पशाशं शतम बाततिभागं तावत्संगयाकंभागं करोति, कृत्वा चाऽऽ (त्रि. १५० । तत्र स्थापमाविषसा विंशतिः प्रक्षिप्ता जातं सततं पम्यगुणमिति) विपाचगुणं पञ्चदशगुणं करोति। शेषं समस्त. शम् १७. । तदेवं दशभिर्गुणने जनाः पपमासा, एका. भनेकजागाऽस्मकमपि संपिपज्य पञ्चभिगुणायेत । ततावा. शनिर्गुणमे मधिका इति पाविस्थामारोपणापा समक. पनादिनयुताषएमासा प्रवन्ति । एतस्कर्म पश्चरशादि-रणं प्रतीत्यैतदशाको गुणकार तीयमत्स्नाऽऽरोप. बारोपणासुकर्सयम, एकाऽऽदिषु चतुर्दशदिनपर्यम्तासु पुन- पति प्रतिपत्तव्यम् । (तस्सुपरिरस्यादि) ख्याधिकृतस्य रारोपणासु पाबम्स्यारोपणाविनानि तावद्भिर्गुणयितव्यम् । एवं विशिकाऽऽदिरूपस्य पदस्योपरि विशत्प्रभृतिक स्थापनापये संचरमासाना मध्ये पावतो मासान यत पहीतं तदिनप्र- बेन गुणकारेण दशादिलक्षणेन गुणने पपमालदिवल. माणाभिधानतो मासपरिमाणविषयलकणमभिहितम । परिमाणं समं भवति स त गुणकारा, तेन गुणकारेण ___संप्रत्येतदेव प्रकारान्तरेणाभिभिरसुराह सा भारोपणा तस्मिन् स्थापनापदे स्पषगम्तम्या । पपा मतिभिनवे भारुवणा, ततिजागं तस्स पारसहि गुपए। पाक्तिक्यबाऽऽरोपणा शिरस्थापनाचाम् । तथाहि-पारशदि. उरणारोवणसहिया,छम्मासा होति नायव्या ॥२३॥ मारोपणा शनिगुणिताजानं पशाशं शत, निशस्थापना दिवसाः प्रविता जातमशीतं शतम् । एवं पचनस्वारिंश. घे संचयमासास्ते पूर्व स्थापनाऽऽरोपणामासबिशुकाः कर्तव्या रिने स्थापनाप नषभिः परिदिनेशभिः, पासप्ततिदिमे स. ततो (जानिसियतितमा प्रथमा हितीया तृतीया स्पादि भा. तभिः, मबतिदिने षभिः, पश्चोत्तरशतदिने पञ्चभिः, विशत्युरोपणा,ततिभागस्थास्ते कर्तव्यातायोकभागस्थास्ततःस. सरातदिने चतुर्मिः, पशिदुत्तरशतदिने त्रिनिः,पश्चाशशबामपि पञ्चदशभिर्गुण यति, गुणने च कृते स्थापनारोपणाऽऽदि. तदिने द्वाभ्यां परिशतदिने पकन समं षण्मासदिवसपरिपससहिताः कोषषिशुकास्ते पएमाला भवन्तिाप्रथानेकभाग | माणं भवतीति पशखरवारिंशवाविषु स्थापनापदेषु पाकि. मातीतस्य भनेकस्य भागस्य माचं भागं परशभिर्गुणयेत् । क्यारोपणा स्ना प्रतिपत्ताया। तथा विशिकायामारोपणा. शेषान् समस्तानपि, पम्वगुणानिति वाक्यशेषतता स्थापना पा पिशतिदिने स्थापनापदेशनि, बस्पारिशदिने सप्तभिः रोपणादिवससहिताः षण्मासा सातव्या भवति । तद्यथा- पपिदिने पनिशीतिदिने पञ्चभिः, शतदिने पनि विशतिः विशतिविनायो स्थापनाया पश्चदशदिमायां चारोपणार्या शतदिने विनियवारिातदिने प्राण्या, पष्टिशदिने ए. त्रयोदश संवयमासातेज्य एक मारोपणामासो, डो स्थापना. केन समं पपमासदिवसपरिमाणं प्रवतीति बिशिकाऽप्यारो. मासी। उभयमीमने प्रयो माला शोधिताजाता दशमासान पणा बिशिकाऽदिषु स्थापनापदेषु कृत्स्नेत्यपसेया । पर्व शेषा यमारोपणा प्रथमे स्थाने प्रथमेति ते दशमासा एकभाग- भारोपणा गुणकारैर्विचारयितम्या इति। स्पाः क्रियते, कस्वा पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते, जातं पञ्चाशंशसम् १५०। भत्र कोषपञ्चक इति पञ्चततो विशोधिता जातं एतदेव सुब्यकतरमाहपर बचावारिशं शतम् १४५ । तत्र स्थापनादिवसा विशतिः, जाहिं गुण प्रारोवण, उवणाजुत्ता हवंति एम्मामा । भारोपणादिवसाः पञ्चदशेति मीसिताः पत्रिशत ते प्रक्रिया तापायाऽऽरुणाम्रो, हति सरिसाजिमावाभो॥२४॥ म्ते, जातमशीतं शतमिति । तथा विशतिदिनाय स्थापना पतिभिर्यायनिर्गुणकारगुपयते स्म गुणा गुणिता भारोपणातपञ्चविशतिविनायां च भारोपणायां प्रयोविंशतिः सचपमासाः, तेभ्यो हो स्थापनामासी, प्रय भारोपणामालाः, सभ इनन्तरं स्थापनायुक्ता स्थापनाविवसयुक्ता षएमासा भवन्ति। यमीलने पक्षमासाः शोधिता जाता मष्टादश । श्यमारोपणा तावत्यो गुणकारसंख्यातुप्यास्ता भारोपणा, कृत्स्ना हात गम्यते । प्रतिपत्तव्याः कथंभूतास्तास्तावत्यः कृत्स्नाऽऽरोपणा प्रथम स्थाने तृतीयेति विभागस्था क्रियते, जाता पकैक स्याह-सरशाभिमापा:,पकानिस्तापा इति भावः। यथा पाकिमिनु भागे षट्पद । तत्राऽऽयो भागः पञ्चदशभिर्गुण्यसे,जाता की मारोपणा निशदिनाऽऽदिषुदशादिभिर्गुणकारमुणितातनवतिः । मत्र पको झोष इति तेभ्यः पादश शोधिता जा. दनन्तरं स्थापना दिवसयुक्ताः षषममासापरयतीति वश बा पासप्ततिः ७५ । शेषों बावपि भागी का मीलितो, कृत्स्ना भारोपणाः सरशामिलापार, पवमन्या अपि तेस्तै । जाता द्वादश, ते पञ्चभिर्गुपयम्ते, जाता षष्टिः, ते पूर्वराशी णकारस्तावसंख्याकै स्तेषु तेषु स्थापनापदेषु गुणिता, तदनप्रतिप्यन्ते, जातं पञ्चविंशतम । तत्र स्थापनादिवसाः विशति. तरं तत्स्थापनादिवसयुका पपमास परिकास्तावसंख्या• गापा मूले नश्यते। काः कृत्स्ना भारोपणाः सरणाभिमापा भावमीया। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त अनिधानराजेन्द्रः। पच्छिन संप्रति चालोचकमुखात् प्रतिसेवितमासाग्रं श्रुत्वा तत् मा. गसम्धेभ्यः शेषा ये एकद्धिकाऽऽदयो दृश्यन्ते, ते सर्वे लब्धासायं स्थापनायामारोपणायां च स्थापयित्वारोप्य न परस्मै नां पूरण नूतत्वादकस्माद् मासाद्भवन्ति कातम्याः । किमुक्त विविक्तमुपदर्शयदित्युपदेशमाह भवति ? तेषु कोषाभूतेष्वपि स एवैको मासो गृह्यते य: प. ग्वणाऽऽरोवणमासे, नाऊणं तो भणाहि मासगं । चदशदिनायां लब्ध इति । एवमेकविंशतिदिनाऽदिवपि भावनीयम। जेण समं तं कसिणं, जेणऽहियं तं च कोसगं ॥२४॥ मालोचकमुखात् प्रतिसेवितमासपरिमाणमाकरयं तदनन्तर संप्रति हीनाहीने ग्रहणे मकणं प्रतिपिपादयिषुर्यथास्थापमा. उधरोपणामामेभ्यः शेषसंचयमासेभ्यश्च दिवसग्रहण क्रियते, मेताबन्तो मासाः स्थापनायामेताबन्त मारोपणायामिति था. तथा प्रतिपादयतिस्वा ततः सञ्चयमासाग्रं विविक्तमाञोचकाय भण प्रतिपादय । यथा-मष्टापञ्चाशत प्रतिसेवितमासाः,प्रासोचकमुखादुपसम्धेः। होइ समे समगहणं, तह विय पमिसेवणा न नाऊणं । तत प्राचार्येण स्थापनाऽऽरोपणादक्केण विशिका स्थापना, प- हीणं वा अहियं वा, सम्बत्थ समं च गेण्हेजा ॥२४॥ शाशशतिका चाऽऽरोपणा स्थापिता,तत्र स्थापनाऽऽरोपणादि. स्थापनाऽऽरोपणानां दिवसपरिमाणे समे तुस्ये, यासु स्थाप. बसानामेका मीलने जातं सप्ततं शतम् १७०। ततः परामाम- नाऽऽरोपणासु मासेभ्यो दिवसग्रहणं समं भवति तावन्तः दिवसेभ्योऽशीतशतसंख्येभ्यः शोधित, स्थिताः पश्चात् दश, स्थापनामासेभ्यः प्रत्येक दिवसा गृहीताः, तावन्त प्रारोपतेषामधिकृतया पञ्चाशशतिकया भारोपणया भागो हियते, णामासेभ्योऽपीति भावः। शेषमासेभ्यो दिवसग्रहणं समं बितत्र भागो न लभ्यते इति चत्वारिंशं शतं प्रतिप्तम् । ततो पमं पा । यथा सप्तदिनायां स्थापनायां सप्तदिनायां चाऽऽरोपभागे ते लब्ध एको मासः, इयमारोपणा अष्टाविंशतिमास- णायाम तथाात्र पूर्वकरणप्रयोगतः पकिशतिसंचयमासो सम्धा, निष्पना अष्टाविंशतितमा चेति एकोऽटाविंशत्या गुणितो, जा- तत्र स्थापनाऽऽरोपणामासाज्यां सप्त सप्त दिनानि गृहीतानि,ये ता अष्टाविंशतिः २०। तत एवमालोचकाय कथयति-यथा हो चाऽऽरोपणया भागे हते लब्धाश्चतुर्विंशतिमासास्तेष्वेकस्मात्पस्थापनामासौ, अष्टाविंशतिरारोपणामासाः । पते मिलितानि- श्व दिनानि गृहीतानि, योनियोभषे पातितत्वात् । शेषेच्या शत् , अार्विशतिरन्ये मासा प्रारोपणाया भागे हुवे लब्धाः।। सप्त सप्त दिनानीति । एवमन्यास्खपि स्थापनाऽरोपणासु तुल्ये एवं सर्वत्र संचयमासाग्रमालोचकाय विवित भणनीयमिति । दिवसपरिमाणे स्थापनाऽऽरोपणामासेज्यस्तुल्यं निवसग्रहयन पुनरारोपणानागदारेण भागे विहयमाणे झोपविरहेण णम् । शेषमासेभ्यस्तुल्यं विषमं वा नावनीयम् । कासु चिरपुन: समं शुद्ध्यति तत् कृत्स्नमारोपणं भव्यम् । येन यावत्प्र स्थापनाऽऽरोपणासु यद्यपि दिवसपरिमाणं समं भवति, तथामाणेन तु दिवसमीलनचिन्तायां षण्मासपरिमाणमाधिकं भ. पि प्रतिसेवनां कात्वा कस्यापि मासस्प कीरशी प्रतिलेखनापति तच तावत्प्रमाणं पुनीषाग्रं झोषपरिमाणमवसातव्य. उत्कृष्टरागाद्यभ्यवसाया, मन्दरागाऽऽद्यध्यवसाया वा इति म्। यथा चिशिकायां स्थापनाया: पाक्विक्या आरोपणायां कात्वा तदनुरोधतः स्थापनाऽभरोपणासु दिवसग्रहणं कदाचिपञ्चेति । पतेन कोषपरिमाण लक्कणमुक्तं व्यम् । बीनं कदाचिदतिरिक्तं वा ॥ किमुक्तं नवति?-कदाचिदारोपजत्थ न सुरूवहीणा,न होति तत्थ न हवंति सामाव।। णायां दीनं, स्थापनायामधिकम । यथा विशिकायर्या स्थापनाया विशिकायामारोपणायाम् । अत्र हि द्वाभ्यामपि सापनामासाभ्यां एकाई जा चोदस, एक्काती सेस गहीणा ॥२४॥ प्रत्येक दश दिवसा गृहीताः। प्रारोपणामासयोस्पेकस्मात्पयह सर्वासा स्थापनानामारोपणानां च दिवसेच्यो मासा. अदश, पकस्मात्पश्च । अथ स्थापनाया मासयोरेकस्मात्पश्चदश नामुत्पादनाय पश्चनिर्जागो इतन्यः । तत्र भागे हते यल्लब्ध दिवसा गृहीताः,अपरस्मात्पञ्च। श्रारोपणामासाच्यां तु छायां सनियामा विरूपहीनं कर्तव्यम् । यत्र पुनरारोपणा शुद्धिहीना प्रत्येकं दश दशेति प्रतिसेवनाविशेषमन्तरेण तु स्थापनामा. लब्धमासा न भवति, एकाऽऽदिषु चतुर्दिनपर्यन्तासु पञ्चभि- सान्यामारोपणामासाभ्यां च प्रत्येक दश दश दिवसा गृह्यआंगदारस्थ एवासंभवात् । पञ्चदिनाऽदिषु नवदिनपर्यन्तासु म्ते इति । (सव्यस्थ समं ब गएहेजा)कदाचित्पनः सर्वच पञ्चनिर्भागे हते लम्धस्यापि(१) यो सपोरसंजवात् । दशदि स्थापमायामारोपणायाम, तथा भारोपणया भागे हते ये सम्धनाऽऽविषु चतुर्दशदिनपर्यन्तासु गुफिरूपापसरणे शून्यस्य भा. मासास्तेषुच समं विघसग्रहण भवति । यथा प्रथमे खाने स्था. पात तथा पकाऽऽदय पकदिनाऽऽदयो यावश्चतुर्दशदिनपर्यन्ताः पनायां विंशिकायामारोपणायां, द्वितीय स्थाने पाक्तिक्या स्थापना प्रारोपणाश्च स्वाभाविक्य एकस्मात्मासाद्रव्याः । स्थापनायां पाक्विक्यामारोपणायां, नृतीय स्थाने पञ्चदिनायां किमु जबति-स्वनावेनैव, न तु मासोम्पादननिमित्तकरणप्र. स्थापनार्या पञ्चविनायामारोपणायां चतुर्थ स्थाने एकदिनायां योगत एकस्मान्मासानिवृत्ता प्रतिपत्तच्या इति । सेस पुगहीणत) शेषाः पुनः पञ्चदशदिनादयः स्थापना प्रारोपणा. स्थापनायामेकदिनायां बाऽऽरोपणायाम एवमन्यास्वपि विध्यान दिदिनासु स्थापनाऽऽरोपणासु यथायोगं भाव नीयम्। भद्विकहीना केया, पञ्चभिर्भागे हते लब्धस्य द्विरूपढीनस्वाभावात उपचारतो विकहीना उताः। क्सिमा भारुवणाओ, क्सिम गहणं तु होइ नायव । सरिसेवि सेवियम्मी,जह कोसो तहखदु विसुच्छो॥२४॥ बरिं तु पंचभइए, जह सेसा तस्य के दिवसा न। ते सव्वे एगातो, मासातो हुँति नायव्वा ॥४३॥ यह भारोपणाग्रहणेन स्थापनाऽपि गृहीता इष्टव्या। तत्र - | तिसेवनां कुर्वता यद्यपि सपि मासाः सरशापराधप्रतिमेपाचदशादनायाः स्थापनाया मारोपणायाश्च सरपो- मनेन प्रतिसविताः, तथापि सहशे लेवितेऽपि सरश्यामपि मशादनाऽदषु स्थापनाऽऽरोपणासु पश्चनि मेहते, परिभा प्रतिसेबनायां याः स्थापनाऽऽरोपणाः परस्परचिवसमान Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनिछत्त अभिधानराजेन्द्रः। पच्चित्त षमाः, ताभ्यस्तदनुरोधेन प्रारोपणया भागे हते ये नग्धमा र्भागं हरेत । तत्र यनुग्धं तान् दिवसान् जानीहि, शेषं पुनसास्तेषु दिवसग्रहणं विषमं भवति ज्ञातव्यं, स्थापनाऽऽरोप र्जानीयात् दिवसभागान् स्थापनाssरोपणादिवसास्तान् णादिवसानां परस्परविषमस्वतस्तेष्वपि ग्रहणं विषमं भव. स्थापनाऽऽरोषणामासरेव भागो हव्यः, तथापि यलब्ध, तीति प्रतिपत्तव्यमिति भावः। एवं विषमासु कृत्स्नाऽऽरोपणा ते दिवसाः, यच्छेषं, ते दिवसन्नागा इति यथा प्रथमे स्वसहितं, याः पुनरारोपणा विषमा प्रकृत्स्नाच, तत्र दिवस स्थाने विशिकायां स्थापनायां चाऽऽरोषणायां पूर्वप्रकारेण प्रहणं कुर्वता यथा कोषो विशुद्धयति, तथा सामु निधि क प्रयोदश संचयमासा लब्धाः तेन्यः स्थापनामासौ द्वासंन्यं, नान्ययेति। वेफ आरोपणामासः, उभयमीलने त्रयः शोध्यन्ते, जाताः प. एवं खलु ग्वणातो, प्रारुवणाओ विसेसतो हंति । माइश । ततः स्थापनाऽऽरोपणादिवसाः पञ्चत्रिंशत, तरूदिता ये परामादिवसाः पञ्चचत्वारिंशं शतम १४५, ते किल तहि. ताहि गुणा तावइया, नायन्या तहेव कोसा य ॥२४६।। वसा तेज्यस्तन्मासैस्तैः शेषीभूतैर्दशनिर्मासैदशकेनेत्यर्थः। नाएवमुक्तप्रकारेण स्थापनात प्रारोपणा विशेषतो भवन्ति-वि. गो ह्रियते, ते च जागे लब्धाश्चतुर्दश, शेषास्तिष्ठन्ति पञ्च पवत्यो भवन्ति । तथादि-यदा स्थापनामासाकाः शेषाः आगतमेकैकस्मात् मासात् चतुर्दश चतुर्दश दिवसा गृदीताः, मासा यावन्तोऽधिक्रतायामारोपणायां मासास्तावत्संख्याका पञ्चपञ्च दिवसस्य दश भागाः। यदि वा एकस्मात् मासात प्रागाः क्रियन्ते, कृत्वा च प्रथमो नागः पञ्चदशगुणः क्रियते, चतुरः सान् दिवसान् गृहीत्वा शेषेषु मासेम्वर्कम; प्र. शेषाः पञ्चगुणाः। यदि वा सर्वा अप्यारोपणादिवसगुणा मासाः विपेत् , तत आगतं नवज्या मासेज्यः प्रत्येकं पञ्चदश दि. क्रियन्ते, एवमारोपणया दिवसपरिमाणं लब्धं भवति , घसा गृहीता एकस्माइश, पतत्प्रागुक्तमनुस्मारितम् । स्थापनादि । तदा एतावद्भिः स्थापनादिवसैः प्रक्तिप्तः पपमासाः पूर्यते इति बसानां विशतेः स्थापनामासाभ्यां भागो हियते, लब्धा एकैतदनुसारतः स्थापनादिवसाः स्थाप्यन्ते, तत भारोपणानु. कस्मिन्मामे दश दश दिवसाः, भारोपणामासस्त्वेक एव । त. होधिनी स्थापनेति स्थापनात प्रारोपणा विशेषवती । तथा त्र पञ्चदश दिवसा लब्धाः, भागतं स्थापनामासाभ्यां दश चाद-(ताहि गुणा तावश्या इति ) ताभिरारोपणामाससं. दश दिवसा लब्धाः, प्रागतं स्थापनामासाच्यां दश दश ख्याभिः, अारोपणादिवससंण्यानिवां आरोपणया भागेरते दिवसा गृहीताः । प्रारोपणामासात्पञ्चदश । एवं विषमदिवये लब्धा मासास्ते गुणा गुणिताः स्थापनारोपणादिवसयु सग्रहणं सर्वत्राऽऽनेतव्यम् । यत्र पुनः स्थापना आरोपणा च तास्ताबन्तः संचयमाला आगच्छन्ति, न तु स्थापनामास नास्ति, अकृतत्वात् । अथवा-संचिता मासा झायन्ते, तत्रा संख्यानिः स्थापनादिवससंख्याभिर्वा गुणिताः,ततो विशेष शीतस्य शतस्य सवितासैनांगे हते यखभ्यते तदिवस ग्रहण बस्यः स्थापनाभ्य भारोपणा ति । (नायब्बा तहेव कोसा य प्रत्येक मासेभ्योऽवगन्तव्यम । उक्तं च-"जहि नस्थि वण इति) झोषा अपि तथैव ज्ञातव्याः। तद्यथा-प्रारोपणया भागे प्रारो-वणा य नजति चिया मासा । सेवियमासेरि जप, रियमाणे यावता भागां न शट्यात तावत्प्रमाणा सातव्या अस्सीयं लरूमो गहियं ॥१॥" झोषा इति । एवं तु समासणं, जाणियं सामन्नसक्खणं वीयं । कसिणाआरुवणाए, समगहणं होति तिमु य मासेम् ।। एएण बक्खणेणं, कोसेयव्वा उ सव्वाश्रो ॥४॥ बारवणाऽसिणाए, विसमं मोसो जहा सुज्मे ॥२४७।। एवमुक्तेन प्रकारेण सामन्येनैव, तुशब्द पचकारार्थो जिनकृत्स्ना प्रारोपणा नाम या झोषविरहिता, तस्यां कृत्स्नाया- क्रमत्यादेवं संबध्यते-सामान्य लक्कणबीजमिव बीजं सकलसाभारोपणायाम्, प्रारोपणया जागेते ये लब्धमासास्तेवेकना. मान्यलकणावगमप्ररोहसमर्थ किञ्चिद्भणितम् , पतेनानम्तरोगा, तेविति वाक्यशेषः । समं दिवसग्रहणं नवति । अथ दिन बीजकस्पेन लक्षणेन सर्वा अपि कृत्स्ना अकृत्स्नाश्चाss. ज्याविभागस्थास्ततः प्रत्येक नागेषु स्वग्रहणं रुटव्यम् । रोपणाः झोषयितव्याः सुवुको शिष्यबुझौ च यथाऽवस्थिततया तद्यथा-प्राचभागगतेषु मासेषु प्रत्येकं पञ्चदशदिवसग्रहणं, प्रकपणीयाः। तदेवं कियन्तः सिका इति द्वारमुक्तम् । शेषभागगतेषु पुनः सर्वत्र पञ्चदिवसग्रहणमिति । अधुना "विट्ठा निसाहनामे " इति द्वारं व्याचिस्यासुराहअकृत्स्नायामारोपणायां पुनर्नियमतो विषमदिवसग्रहण, त- कसिणाऽकसिणा एथा,सिकाओं नवे पगप्पनामम्मि । बावश्यंभावि विषम दिवसग्रहण कोषव शाद्भवति । तथा चनरो अतिकमादी, सिका तत्थेव अज्कयणे ॥२५॥ चाद-कोषो यथा शुद्ध्यति तथा दिवसग्रहणं भवति, ततो विषममिति दिवसग्रहणविषयं च करणमिवम् । कृत्स्ना अकृत्स्नाश्चाऽऽरोपणा पता अनन्त रोदितसामान्य लक णा:प्रकल्पनाम्नि निशीथेऽश्ययने सिद्धाः प्रसिद्धाः। एतेन "दिजइ इच्छमि नाऊणं, वणाऽऽरोवण जहाहि मासेहि। ट्रा निसीहनामे" इति व्याख्यातम् । अधुना " तत्थव तदा गहियं तदिवसेहि, तम्माहिं हरे भागं ॥ ४॥ अतीयारा।" इति व्याख्यानयति-चिउरो इत्यादि) अतीचारा ये चत्वारोऽतिक्रमाऽऽदयस्तेऽपि सप्रायश्चित्तभेदास्तत्रैव प्रकस्पअस्यायमर्थः-यदि दिवसग्रहणं चातुमिच्छसि,ततः स्थापनाऽऽरोपणाः स्थापनाऽऽरोपणामासान्मासेभ्यः संचयमासेभ्यः नाम्न्यध्ययन सिका। संप्रति तानवातिक्रमाऽऽदीन दर्शयतिअहाडि, परित्यज्य च कुतो मासानिक गृहीतमिति जिज्ञासायां तहिमेच्या स्थापनाऽऽरोपणाशुरुशेषसंचयमासदिवमे. अतिकमे बइक चेवं, अतियारि तहा अणायारे । भ्यः । किमुक्तं नवति?षएमासदिय सेयः स्थापनाऽऽरोपणादि. गुरुप्रो य अतीयारो, गुरुयतरागो अणायारो ॥२५॥ धमरहितेच्यः तन्मासैः स्थापनाऽऽरोपणादिवससहितशेषष- अतिक्रमणं श्रतः श्रवणतो मर्यादोमानमतिकमः । विशेषण समासदिषसमासैः स्थापनारोपणामासशकशेषसचयमा पठभेतकरणतोऽतिक्रमो व्यतिक्रमः तथा प्रतिचरणं प्रहण ४३ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चित्त प्राभिधानराजेन्मः। पच्चित्त तो तस्यातिक्रमणमतीचारः । माचारस्य साध्वाचारस्याभा. इदा अर्थच्छेदाः, तेषु यो विंशतितमः प्राभूतम्वेदः, तस्मापः परिनोगतो सोनाचारः । एते चातिकमाऽऽदय प्राधा- विशंथ सिद्धमिति। कर्माधिकृत्यैवं व्याख्याताः । प्राधाकम्मणा निमन्त्रितः सन् यः अाऽऽह शिष्यः सर्व साधूक्तं, किन्तुप्रतिगोति सोऽतिकमे वर्तते, तद् ग्रहणनिमित्तं पदभेदं कु पत्तेयं पत्तेयं, पए पए भासिऊण अवराहे । चन व्यतिक्रमे गृह्वानोऽतीबारे जानोऽनाचारे, पवमन्यदपि परिहारस्थानमधिकृत्यातिकमाऽऽदयो ज्ञातव्याः । एतेषु च प्रा. तो केण कारणेणं, दोसा एगत्तमावना ।। ४५ ॥ यश्चित्तमिवम् अतिक्रमे मासगुरु,व्यतिक्रमेऽपि मासगुरू, काले ___ एकोनविंशताबुद्देशकषु पदे पदे सूत्रे सूत्रे, यदि वा उद्देशके प्र. लघु । अतीचारे मासगुरु द्वाभ्यां विशेषितम् । तद्यथा-तपोगुरु, त्येक प्रत्येकमेकस्य दोषस्य प्रति प्रत्येकम् । अत्राभिमुख्य प्रतिकालगुरु च। अनाचारे चतुर्गुरु,यस्मात गुरुकातीसारः, चशब्दा- शब्दो यथा प्रत्याग्नशलभाः पतन्तीत्यत्र, न वीप्सायामतः प्रत्ये. ऽनुक्तसमुपपार्थः, स चैतत् समुश्चिनोति-अतिक्रमात व्य- कशब्दस्य वीप्लाविवक्तायां द्विवचनम । अपराधान, अपराधे तिक्रमो गुरुक,तम्मादपि गुरुकोऽतीचार इति । ततोऽप्यतीचा. सात मासादिकं प्रायश्चित्तं दीयते इति उपचारतः प्रायाधिरादू गुरुतरकोऽनाचारः। त्तान्येबापराधशब्देनोक्तानि, सान् भणिस्वा यथा केषुचिदतत इत्थं प्रायश्चित्तविशेषः पराधेषु मासनघु, केषुचित् मासगुरू, केषुचित चतुर्मासगुरु। तस्थ ज न उ मुत्ते अतिकमादी न मिया केई । एवं सुत्रसोऽर्थतश्व केषुचिल्लघुपश्चक, केषुचिद् गुरुपञ्चकम् । एवं चोयग सुते सुत्ते, अतिकमादीउ जोए ज्जा ।। २५।। यावत् केषुचित् भिन्नमालगुरु, तथा केचिदपराधेषु पनघु, केषुचित दं, केषुचिद् मूलं, केषुचिदनवस्थाप्यं,केषुचित्पारातत्र पचमुकेन प्रकारेण भवेन्मतिश्चोदकस्य, यथा न तु श्चितम् । एवं दोषेषु प्रत्येक प्रत्येक प्रायश्चित्तानि भाविरवा भूय नैव सूत्रे निशोथाध्ययनलकणे, केचिदतिक्रमाऽऽदय उपव. इदमुक्तं, या एक पुरुषो गुरुकं मासिकमापन्नोऽपरो मघुम्माणि तासान्त, ततः कथं चत्वारोऽतिक्रमाऽऽदयस्तत्रैवाध्ययने सिकं, तोयोरपि कदाचित गुरुक मासिकं दद्यात,कदाचित् सिद्धा इति । सूरिराह-चोदक! साऽप्येष प्रायश्चित्तगणो. लघुनासिक, तथा एको लघुपश्चकमापन्नोऽपरो गुरुपञ्चक, तिकमादिषु भवति, ततः साक्वादनुक्ता अपि सूत्रे सूत्रे तान् तयोरपि कदाचिलघुपञ्चकं दद्यात्, कदाचिद् गुरुपश्चक, तथा अतिक्रमादीन योजयेत्, अर्थतः साचतत्वात् । पकः पन्चकमापनोऽपरो दशक, तयाईयोरपि कदाचित्पश्चक कथमर्थतः सूचिता इत्याह दद्यात,कदाचित् दशकम् एवं पञ्चदशकविंशतिरानिन्नमास. सम्वे विय पच्छित्ता, जे सुत्ते ते पमुबणाया। मासाद्वमासत्रिमासचतुमासपश्चमासषगमासच्छेदाऽऽविक्रमेण थेराण भवे कप्पे, जिणकप्पे चउसु वि पएमु ॥ २५३ ॥ तावद्वाच्यं यावरपाराश्चितम् । तद्यथा--एकः पश्चकमापोऽपर: यानि कानिचित् सूत्रेऽन्निहितानि प्रायश्चित्तानि तानि सर्वा. पाराश्चितं, तयाईयोरपि कदाचित्पञ्चकं दद्यात. कदाचित्पाराएयपि स्थविराणां कल्पे स्थविरकल्पिकानामनाचारं प्रतीत्य श्चितमिति । एवं दशकादिकमपि स्वस्थान गुरुलघुविकल्पतः जवन्ति, यतः स्थविरकल्पिकानां त्रिष्वतिक्रमादिषु पदेषु परस्थाने पञ्चदशाऽऽदिनि सह वक्तव्यं यावत्पाराश्चितम् । एता प्रायश्चित्तं म नवति । तथाहि-प्रतिश्रुतेऽपि यदि स्वतः तदोपपद्यते यदा दोषाणामेकलं भवति, तश्च दुरूपपाइमतः परतो वा प्रतिबोधतः पदभेदं न कुरुते, कृतेऽपि वा पदभेदे पृच्क्रति-(तो केणेत्यादि ) यतो दोषेषु प्रत्येकं प्रत्येक प्रायश्चिनेदेन गृहाति, गृहीतेऽपि यदि न तुझे. किंतु परिप्वापयति, तान्युक्त्वा पश्चात् दोषाणामेकत्वे सतीव प्रायश्चित्ताम्युक्तानि, तदा स मिथ्यादुम्कनमात्रप्रदानेनापि शुध्यनीति न सूत्राभिहि ततः कथय केन कारणेन दोषाः परस्परं गुरुगुरुतराऽऽदि. सप्रायश्चित्तविषयः, जानस्त्वनाचारे वसते इति तस्य सूत्रो तया महदन्तरामा अपि एकत्वमापा । कप्रायश्चित्तविषयता, जिनकल्पे जिनकल्पिकानां पुनश्चतुप्य. सरिरादतिक्रमाऽऽदिषु पदेषु प्रायश्चित्तं भवति,किं त्विदं प्रायस्ते न कुर्व जिण चोद्दस जातीए, आलोयण दुबले य आयरिए । न्ति। तदेवं सर्वमपि सूत्राभिहितं प्रायश्चित्तं, यतोऽनाचारमधिः एएए कारहोणं, दोसा एगत्तमाक्ना ॥२६॥ कृत्य प्रवृत्तम, अनाचारश्चातिकमाऽऽद्यविनाभावी, ततोऽर्थतः जिनं प्रतीत्य (चोइस ति) चतुर्दशपूर्वधरम् । उपलकणमैत. सुचितत्वात् प्रतिसूत्रमतिकमाऽऽदयो भोजनीया इति स्थितम । त, यावद्भिनदशपूर्वधरं प्रतीत्य, तथा-(जातीए त्ति) एकजा. ननु योतस निशीथे सिकं, ततो निशीथमपि कुतः सि- तीयं प्रतीत्य, तथा प्रामोचनां प्रतीत्य, दुर्वनं प्रतीस्थ, प्राचार्य खमित्यत आह प्रतीत्य दोषाणामन्यधात्वमपि भवति, तत पतेन जिनाऽऽद्यान निस्सीई नवमपुवा, पञ्चक्वाण स्म तइयवत्यूत्रो। श्रयणलकणेन कारणेन, दोषा एकत्वमापना, जिनादानमायारनामधेजा, वीसइमा पादुमच्छया ॥ २५४ ॥ तीत्य दोषाणामेकत्वमभूदिति भावः। तत्राऽऽद्ययोर्यथाक्रमं घृतकुटनात्रिकादृष्टान्ती,अपरयोस्तु वयो। प्रत्याख्यानभ्याभिधायक यन्नवमं पूर्व प्रत्याख्याननामकं तम्मा यथाक्रम मेकानेक अन्य मेकानेकनिषद्या च विषय इति दर्शयतिततत्रापि तृतीयादाचारनामयाद्वस्तुनः, तत्रापि विंशतित घयकुमगो उ जिगस्सा,चोदसपुन्धिस्स नानिया होड़। मात्माभृतच्छेदाभिशीथमभ्ययनं सिकम । श्यमत्र भावना-. पादपूर्वाऽऽदीनि चतुर्दश पूर्वाणि, तत्र नवमं पूर्व प्रत्याख्यान सने एगपणेगा, निसज्ज एगा अणेगा य॥ २५७ ॥ नाम, तस्मिन् विशतिर्वस्तूनि, वस्तूनि नाम अर्थाधिकारवि जिन जिनविषये घृतकुएमको दृष्टान्तः, चतुर्दशपूर्षित शेषा,तेषु विशती वस्तुषु तृतीयमाचारनामधेयं वस्तु, तत्र | नालिका भवति दृष्टान्तः, एकजातीयस्य एकानेकजन्यविषविशतिः प्राभूतच्छेदाः परिमाणपरिच्छिन्नाः प्राजुतशंब्दवाच्या या मालोचनापामेकाऽनेकनिषद्याविषयः। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छिल तत्र यथा जिनं प्रतीत्य दोषा एकत्वमापन्नास्तथा विन घृतकुण्ड प्रान्तेन भएयते उत्पत्ति रोगाणं, तस्समणे प्रसढे य विन्जंगी । नातिया देवहा घोसह तु ॥ २५८|| मिथ्यादृष्टिरुत्पन्नाबधिविभङ्गी, स हि चिकित्सां करोति, म साधुरिति पादानम् विभङ्गानिनो रोगाणामु स्पतिम् उत्पद्यन्ते रोगा अस्था इत्युत्पत्तिः निदानं तां ज्ञात्वा तथा तदित्यनेन रोगाः संबध्यन्ते राज्यन्ते उपशमं नीयन्ते रोगा वैस्तानि शमनानि श्रोषधानि तेषां रोगाणां शमनानि मनानि तानि श्रोषधानि यथावत्त्वादि जन्य रोगयोगतस्त्रिप्रकाराः, श्रामयो रोगः स येषां विद्यते ते आमयिनः, त्रिविधाश्च ते आमयिनश्च तेषां त्रिविधाऽऽमथिनां तथा श्रोषधगणं ददति प्रयच्छन्ति यथा नियमतो रोगोपशमां भवति । (1st) अभिधान राजेन्द्रः । " 1 ओषधाने च चत्वारो जङ्गाः। तद्यथापोको बि एके गोगाएको । ऐगेहिं पि अणे, पकिसेवा एव मासेहिं ।। २५७ ॥ कचित एकेन नकुटेन एको बालाऽऽदिको रोम प्रथमो मङ्गः सिकेन घृनफुटेन अनेकेयो यो दोष एव द्वितीयः । तथा क्वचिदने के घृतकुरेकोपमवगाढो रोगो वातादिकमुपयाति पत्र तृतीयः कविकुरनेके बाद उपाय लिए चतुर्थी भङ्गः । एवं प्रतिसेवा येकमेकासविषया चतुर्भङ्गिका एकानेकैर्मासैः शुध्यतीति घृतकुररष्ट्रात पलक्षणं तेन सामान्यत श्रोषधदृष्टान्तोऽपि द्रष्टव्यः । तत्राऽपि चतुर्भङ्गिका । तामेवाऽऽद एक्कोमा बिज्जं ति केवि कुबिया उ तिमि वायाऽऽदी। राती बहुए एकेकतो वा वि ।। २६० ।। केनौषधेन तथाविधेन केचित् बाताऽऽदयखयोऽपि कुपिताछिद्यन्ते, उपशमं नीयन्ते इति भावः । एष द्वितीयो भङ्गः । बहुपदो बाताऽऽदय रोगाि भङ्गः । तथा-( एक्केकतो बाबि सि ) एकेनौषधको वा assदिको रोगः बेदमुपयानि । एष प्रथमो भङ्गः । भङ्गत्रय तुमङ्गतिः स नायम् रोष घेरेको तारको रोगमा ङ्गः । श्यमंत्र भावना यथा विभङ्गज्ञानिनः सर्वरोगाणां निदानमेकानेकीचा चाचमाना उपसंप ताssवगणं प्रयुजते, तेन च प्रयुज्यमानेन घृतकुटेन औष येन वा केवलेन कदाचिनेको रोग उपशमं गीयते कदाचिदेकेन अनेकदा दाहिने भ गाि तो जिन केसिनोमा मास इत्ययमवश्यं मासेन शुद्ध्यतीति जनानास्तस्मै मासं प्रयच्छन्ति एव प्रथमो नङ्गः । तथा यद्यपि बहवो मासाः प्रतिस्थापि ते महानुभावतः प्रतिविता यदि वा प्रचात् हा दुष्टुं कृतमित्यादिनिन्दनैः प्रतिथूत्कृताः, तत एब एकेन मासेन शुद्ध्यतीति जानाना एक मासं प्रयच्छन्ति । यदि 1. पच्चिन्त बा-पञ्चरात्रादिकम् एष द्वितीयो नङ्गः । एकन मासेन, पञ्चत्राहिमाबाद मासिकादिपरिहर तू । तथा येन तीव्रेण रागाऽऽद्यध्यवसानेन एको मास एकं वा प राजाऽधिकं प्रतिसेवितंस किन मानेन दिना वा यती रामान् मासा प्रति उपर्यु परि रागद्वेषादिवृद्धिं पश्यन्तमपि मूत्रमपि पावरपाराचि तमपि प्रयच्छन्ति एष तृतीयो भङ्गः । अनेकैर्मासैश्वाऽऽदिभिर्वा पापितैरेकस्य मासस्य पञ्चरादिकस्या योजना तथा मासेषु प्रतिसेविनेषु मे बहु मांसे शोधिमासादयिष्यतीत्यवबुध्यमानाः स्थापनापा व्यतिरेकेण परमाखान् प्रयच्छन्ति परतः प स्यासंजवात् । एष चतुर्थी नङ्गः, अनेकैर्मासैरनेकेषां मासानां शोधनात् । : उपनययोजनामाह विगीव जिणा खलु, रोगी साहू य रोग अवराहा । सोही य ओसहाई, ती जिओ मिति ।।२६।। इह विचres*मे विभङ्गितुल्याः खलु जिनाः प्रतिपत्तव्याः रोगियो रोग साधा रोगा रोगापासू गुणोत्तरगुणापराधाः औषधानि ओषधतुल्याः शोधयः प्रायश्चित्तलक्षणाः, यतस्तया शोध्या कृत्वा जिना अपि शोधयन्ति, नैत्रमेष, तत ओषधस्थानी या शोधिः, एवं जिनं प्रतीत्य दोषः एकत्वमा पक्षाः । संप्रति यथा चतुर्विणामधिकृत्य दोषायामेकार्य भवति तथा प्रतिपादयति एसेव यदितो, विन्मंगिक हैं चिज्जत्थे हिं | भिसजा करेंति किरियं, सोहिति तदेव पुण्त्रधरा ॥२६२॥ एष एव नटण श्रोषधलकणो वा दृष्टान्तश्चतुर्दशपूविद्योऽपि योजनातेरा मिनातियां रोगापन कियां तथा चतुर्दशपूर्वरयोदशाबद्दशपूर्वधरा यावदभिन्नदशपूर्वधरा जिनोपदिष्टैः शास्त्रजिना चतुर्भवितः प्राणिनो ऽपराधमजानू शोधयन्ति ततस्तत्रापि कुटता केवलतो वा योजनीय इति । ग्रह पर मनु जिना: केव लहानसामध्ये प्रत्यरागादिवृद्ध पश्यन्ति ततस्तु विकल्पतः प्रायश्चित्तं दस्तु तथा ि दर्शनात् । चतुर्दशपूर्विणस्तु साक्कान्ना वेज्ञन्ते, ततः कथं ते तथा दद्युरिति । नैष दोषः । तेषामपि ज्ञानात् । तथा चात्र नालिकाष्टान्तः नाझीऍ परूवणया, जड़ तीऍ गतो उ नज्जए कानो । तह पुष्यधरा भावे, जाणंनिविभुक जेण ॥। २६३ ।। नालिका नाम घटिका, तस्याः पूर्वे प्ररूपणा कर्त्तव्या, यथा पादविर कालकाने साम "दाकिमपुष्का गारा, लोहमयी नालिंगा उ कायव्या । पिमाणं च मे सुप १ प्रवाहं शिवसजाया गयकुमारी । उज्यपि, कायचं नालिया ॥ . Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) अभिधानराजेन्द्रः | पच्छित्त अडवा दुवस्सजाया-ऍ गयकुमारी पुच्छवाले हिं । विहं विहिं गुणहिँ तेहि स, कायव्वं नालिया बिडुं ॥ ३ ॥ हवा सुवक्षमासे-हिँ चहिँ चचरंगुला कथा सुई । कायद य. 1 तया नानिकया यथोदकसंगलनेन दिवसस्य रात्रेर्वा गतो वा अतीतो वाऽवशिष्टो वा कालो ज्ञायते । धानात् दिवसस्य राषेची पतमेतावतिष्ठति पति तथा पूर्वधरा अपि चतुर्दशपूर्वराऽऽदय आलोचयतां जाव मनिप्रायं दुरुपलक्ष्यमत्यागमबढ़तः सम्यग्र जानन्ति, ज्ञाते च भावे यो येन प्रायनियति तस्मेि हो जिना एवं प्रच्छन्तीति न किञ्चिनुपपदे तुर्दशपूर्विणमधिकृत्य दोषा एकत्वमापन्ना इति भाषितम् । अधुना यथा जातिं प्रतीत्य दोषा एकत्वमापद्यन्ते, तथा प्र विपादयति मासच उमामि यहिं वेगं तु दिन सरिसं । असणाई दबाई, बिसरिसवत्थू जं गरुवं ।। २६४ ।। जातिर्द्विधायक जातजाति कजातिमधिकृत्येवमुतेमा चतुर्मास के बंदर सेवितेरे मासं चतु बहुषु लघुमासिकेषु प्रतिविध्येकवेायामालोचितेषु प्रति सेवनायां महानुभावकृस्यात् प्रतिसेवितमासानामपि स दशत्वात् ब्रोचनायामपि सर्वेपमानालामा लोचितत्वात् एकं लघुमासिकं दातव्यम् । एवं बहुषु गुमासिकेषु प्रतिसेवितेष्वकं गुरुकं, बहुषु लघुषु वैमासिके - ये लघु वैमासिकं, बहुषु घुगुरुमलिक गुरु कं मासिकम एवं त्रैमासिकातुमखिकपाखमासिकपाएमा सिष्यपि भावनीयम (वित्त) बि शशवस्तुषु यत् गुरुकं तद्दातव्यम् । तद्यथा बहुषु लघुगुरुमासिकेषु प्रतिसेविकं गुरुकं, बहुषु लघुगुरुद्वैमासिकेप्येकं गुरु वैमासिकम्। यं त्रैमासिक चातुर्मासिकपाञ्चमासिकपा केष्वपिष्टव्यम् । तथा बहुषु मास्तिकेषु बहुषु च द्वैमासिषु प्र. विसेदितेष्येवं वैमासिकम्। पर्व त्रैमासिकातुसिमा स्विकारामासिष्यपि मावशीयम मासिकेषु मासिकेषु प्रेमासिकंषु चातुर्मासिकेषु पाउनमासिकेषु पापमासिकेषु प्रति सेविते गमकमिति । संगति वदो पाणामेकानावयति बसाई इति इन प्रायधि प्रति दीनि अनपानखादित्यादिमा सम्येकान्काम्यधिकृत्य दोषाणामेकवमुपजायते, तत्र कव्यमधिकृत्यैवम् । अनेकानि अ शबैक द्रव्यविषयाण्याचामान्यभवद्माकमि चतुर्गुरु दीयते । यदि वा बन्याहृतान्यभवत्तत्रैकमाहत्तनिष्पमासिकं दीयते । एवमुकाऽऽई राजपिएमाऽऽदिष्वपि भावमीयम् । अनेकाचित्वमापाकर्मिकादिमधार्मिक प्रतिसेवेला कमा गुरु दते। एवं दुनेयपदा कमुदाय मासलघु दीयते चमक रूयविषये यथापदिष्यपि भावनीयम्। "विसरिसवत् गुरुयं । ” इत्येतदत्रापि संबध्यते । तद्यथा एकमशनं राजवि पच्छित पडोश्परमशनमानमम्य दामपरमाचा कमिकम कमेव गुरुमापाककिनिष् | ssical भावनीयम् । एतदेकद्रव्यमधिकृत्यो कम, श्रनेकद्रव्याएयधिकृत्येवम प्रशनाकर्तिमान बीजास्त संमिश्र वादादिशिकम माध्येमा धार्मिक निष्प चतुदीयते यत्र चागता यथा"एगो रहकारी, तस्स नज्जाए बहू अवराहा कथा, न य भन्तुना नाया । अनया सा घरं उग्धादुवारं पमोतुं पमायाश्रो सयझ यधरे ठिया । तत्य य घरे साणो पविठो । तस्समयं च पई श्रा गतो | तेण साणो दिट्टो । पच्छा सा अगारी आ गया, अवराइकारिणीतिमा पिडमारकाला विरोध मे बहू अवराहा अस्थि, ते विमाणाउं एस पिट्टिदिता इयाणि चैव साकडेमि गावी बच्चा वासी दारिया, कंसा जयमवि इस्थातो परियं भिन्नं, पमो वि तुम्हाणं नोति । एवमादिवराहेसु एक्कसरा कहिएसु तेण सा एक्कवारं पिदिया।" एवं लोकोत्सव अपराधयेक प्रायश्चित दण्डो दीयते "ग" गतम् । इदानीमालोचनादीनि चीणि द्वाराणि चानीति यथाक्रममिमे प्रान्ताः " आगारी दिई गमलोगे यते य अपराहा। जंगी चकमंगो सामीपत्ते व तेराम्ब ।। २६५ ॥ आलंबनायामगारान्तः येषु चापराधेषु विषयेषु गा दान्तस्ते अपराधा एकेऽनेके च । दुर्बले भएमष्टान्तः । तत्र च नरख्या चतुष्कनङ्गः, भङ्गवतुष्टयमिति भावः । श्रा चायें स्वामित्व प्राप्ते स्तेनदृष्टान्तता । तत्राऽसोचना विकल्या इमे निस्स विकणार, एगमलेगा य होड़ चतुभंगो । वीसरि उपविश्वतिचरिमे सिया दो वि ॥ २६६ ॥ ६ स्त्रीत्वेऽपि पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् निषद्यायां विकटनायां च नवति चतुङ्गी, चतुभङ्गानां समाहाराचा वेऽपि पुंस्त्वं प्राकृतात् कथं चतु कानेका च । एका निषद्या अनेका च । तथा एका विकट ना, अनेका वा । इयमत्र जावना एका निषद्या आलोचना । इहा लोचन दानेन गुरोर्तव्यापाराल चनां ददाति तावतो वारान् निषद्यां करोति । तत्र यदा विधिना अशेषानप्यती चारान् चिनैकवेलायामालोचयति तदा एक्स्यामेव निषद्यायां सर्वातीचाराऽऽलोचनात् प्रथमो य थोक्तो प्रङ्गः । ( वं सरि उस्सापप विश्य तसि ) द्वितीयो मोतियो न उपपदेषु किमु भवति १ - द्वितीयो नङ्ग एका निषद्या, अनेकाऽऽलोचना वि स्मृतातिचारस्य । यदि वा मायाविन आलो दिने गरे पुनः स्मरण तो मायाविनः पश्चात्सम्यगालोचनापरिमाण परि तस्य गुरौ तथा विनिर्दिए एव वन्दनकं दया आलोचयतो वेदितव्यः तृतीयो नङ्गः । श्रनेका निषद्या, एका झालोचना, प प्रभूतेन कालेन प्रतिबिस्य एकदिनाऽऽलोचनामा रयत अन्य यस्मिन् दिने विषयांकृत्यायतोभावम गुरी बटुकायिक भूमि यदि Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त गतप्रत्यागते भनेका निषद्या एका श्रालोचनेति । ( चरिमे लि. या दो वि) चरम अनेका निषद्या अनेक आझोचना, प्रत्येवंरूपे राजनायोपेतस्य स्थानों अपि कारणे विस्तृ तवं यदि पति-प्रभूतेन का न प्रभूतमासेवितमतो बहुविस्मृतमित्यम्यस्मिन् दिने झालोचयतः, यदिवा अपराधबाहुल्यत एकदिने नाऽऽनोचयितुमपारयतो परस्मिन्यालोचयतो यथोक (१०३) अभिधान राजेन्द्रः | - ङ्गः । तत्र एका निषद्या एकाऽऽलोचनेति प्रथमे भने एकमेव गुरुतरं प्रायशिसं दीयते शेषाणां सर्वेषामप्राधि तानामाच्छादकम् । तथा चोक्तम्- "तं वेगं ओढारुणं दिज ।" इति । अस्यायमर्थः तदेवैकं गुरुतरं प्रायश्चित्तं शेषाणां प्रा. पश्चित्तानामवघाटनमाच्छादकं दीयते इति । अत्र दृष्टान्तः कारयोगः । यथा हि पङ्कापनयनाय प्रयुक्तः कारयोगोऽशेषमपि महं शोधयति तयेकमप्यवधानं प्रायशि उक्तं च- जहा पंकात्रण पडतो खारजोगो मे समतं पिलो. देश तहा ओढाडणपच्छितं पि सेसपच्छिते सोहे ॥” इति अथवा स एवागारीदृशन्तः यथा सा अगारी एकापराधे दन्यमाना श्रन्यानप्यपराधान् कथयन्त्येकवारं पिट्टिता, यदि पुनर्बहवोऽपराधाः कृता इत्यन्यस्मिन्नन्यस्मिन् दिवसे एकैकमपराधं कथयेत् तर्हि यावतो वारान् कथयेत् तावतो वारान् हन्येत् । यत्रापि पयेकमपरस्मिन्याचयेत् तयो यावन्तोऽपराधास्तावन्ति प्रायश्चित्तान्याप्नुयादेकनिषद्यायाम् । कोयना पेकमेव दीयते इति । द्वितीयेन निवेदितमन सता पूनस् पिपादालोचयति तथापि या प्रथमे गुरमे कंपानामाच्या दतं तथा नाक्षोचितवान् ततो यावन्ति प्रायश्चित्तान्यालोचयति ता यति दीयते इति भित तस्य सत एकनिषद्ययाऽऽलोचना न समामुपगतात यस्मिन् दिने समातिनुपयते तस्मिन् दिने प्रथमनक इवैकं गुरुतरकं प्रायश्चित्तं दातव्यम् । अथ शठतया अन्यस्मिन्नम्यस्मिन्नदन्यालोचयति तहिं यावन्त्यपराधपदान्यायति तावन्ति प्रायानानि चरमभनेऽपि पठनायनो विस्तृत बहुप्र विलोचना समाप्तिमच्छति, ततस्तथाऽपि गुरुतरकमवधारणं प्रायश्चित्तं देयम अथ मायाचितया ततो यावन्स्यपराधपानि तावन्ति प्रायश्चित्ता नि दातव्यानीति । पूर्वमिदानकथयतिगावी पीया वासी, य हारिया भायणं च ते भिन्नं । जेव ममं मुदयं, करेहि पमओ श्रिते नही || २६७ || गावराइडे, अजेय कहेगार हम्मेसी | एवं पवि, दंको लोगुत्तरे एगो || २६८ ॥ अगारी गृहस्था रथकारस्य भार्या एकापराधत्र के शून्ये गृहे प्रविष्टा इत्येकस्यापराधस्य दण्के पिट्टितलकणे भर्त्रा क्रि. मानाचेतयत्-राधा मया कृत यो मा प्रतिदिवसमेवायं मां हन्यात् किं त्वचैवं मां सुतां ४४ ਪਰਦ · करोतु एवं चिन्नयित्वा श्रन्यानप्यपराधान्कथयति । यथागोमीसामु वालीव हारिता क्वापि मुक्ता, कस्मै समर्पिता वा न जानामि । तथा भाजनमपि कश्यिभाजनमपि ते तब संबन्धि, य जवान् शृङ्क्ते, हस्तात्पतितं सद् नग्नम । तथा पटोsपि तब संबन्धी न दृश्यते, केनाऽपि हृत इति भावः । एवं लोकोत देवि एकनिषद्यायामेकाऽऽलोचनायामित्यादि तुर्भयाम मायाविनोऽनेकेष्वपराधपदेषु दएक एको गुरुतरको दीयते । अथवा अालोचनाविषये ऽवमन्य गासु चोरिया, मारणदंको न सेसया दंगा | मग वि एको दंको न छ बिरुको ||२६|| गोरो, बहुपास पोरियाच कथाओ से जा कस्सर भाणं हरियं, कस्सा परओ, कस्ल६ हिरां कम्सह रूपं । अन्नया तेण रायउले खनं खणियं रयणा हिया । दिट्ठो " रक्खहिं, गहितो, रो उठवितो, तस्समयं च अछे वह वो नवट्टिया भांति अम्ह वि एण हम । ततो रक्षा रयणद्वारि ति काउं तस्स मारणदंडो पक्को घाणतो, सेसे चो रिवाइंड उत्थेव पविडा तथा नेपोरिका सुरतचोरिकानिमित्तं तस्यैको मारणदण्कः प्रयुक्तो, न शेषचोरिका से पलोकोऽयमेकपदेषु गुरुपदमिति पदको विषयः शेषकान मानक दोषाणामुपपादितम्। सांप्रतं दुर्बलं प्रतीत्य भाव्यते भएका दृष्टान्तः, तत्राऽपि भङ्गच तुष्टयम्। तद्यथा भएकी पत्रिका, बलीवर्दा बलिकाः १, एकी व लिका, की दुर्बलाः २, एम) दुर्बला, चक्षदि पत्रिका, एक दुर्वल पक्षात प्रथमे भने द्वितीये यावत् चलाव सावता मा पितेन भएडी न जज्यते तावदारोप्यते । परमभङ्गे यावन्मा त्रेण न भराडी भङ्गमुपयाति, याबच बलीवदी घाटुम तावदारोह्यते । एष दृष्टान्तः । 4 अयमुपनयः संघणं जह सग, घितीन घुज्जेहिं होंति उबणीया । विपतिचरिमे भंगे, तं दिजाई में तरह बोर्ड 1250|| यथा शकटं तथा संहननं शकटस्थानीयं खंडनममित्यर्थः । तोपनीताः चीरेवतुख्या तय प्रतिभा वः । अत्रापि भङ्गचतुष्टयम् । तत्र प्रथमनङ्गे यवदानं तत्सबै दीयते हितीये धृत्यनुरूपं तृतीये संहननानुरूपं, चतुर्थे धृतिसंहननानुरूपम् । तथा चाऽऽह - ( वियतिय इत्यादि) द्वितीय तृतीये नरिमेधित्यानुरूपं द मिति । साम्प्रतमाचार्यमधिकृत्य दोषाणामेकत्वं यथोपपद्यते तथा जायते। तथ स्वामित्वनमेवा निवमरण मूत्रदेवो, असे पिवासे व पहिन दंको । संकविगुरुदंडी, मुश्च जं वा तरड़ बोहुं ।। २७९ ॥ "एत्थ नगरे गया अपुत्तो मतो, तस्थ य रज्जचितहिं देवयाऽऽराद्यनिमित्तं आलो अदिवासि पो, इत्थी यछतो मूत्र Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७४) पच्छित्त अनिधानराजेन्द्रः। पच्छित वो चोरिय करतो आरक्खगेहि गहितो । तेहिं रज्जचिंतगहिं तो कजाकले जयमाणाजयमाणामु । पक्केण वाणिएण निही पज्झो आणत्तो नगरं हिमाविजइ। इतो य सो पासो हत्थी य सक्नाणतो,तं अम्लेहिं ना रनो निवश्यावणिो दमितो, निही मुक्कातो, अट्ठारसपयापरिवारहिं दिडो मूत्रदेवो । प्राण हे. य से हमो। एवं मरुपण विनिहीं दिछो, रम्मो निश्श्रो रमा सियापही अड़िया, हस्थिणा गुयुगुलाइयं । गंधोदकं करे घेत्तु पुचितो, तेण सम्बं कहियं । मरुगो पृइतो,निदी वि से दक्खि. अदिसिसो, खंधो य हितो।" सामुद्रिकलकणपाउकैरादिष्ट णा दिना। एवं जो कजे जयणागारी तस्स सव्वं मगरसेव 'एष राजा' इति तम्य चौरिकापराधाः सर्वे मुक्ताः, राज्ये मुख, जो कजे अजयणागारी तेसु वि जो अकजे जयणागारी स्थापितः। तथा चाह-नृपमरणमभूत ततोऽश्वोऽधिवासि- य, अजयणागारी य, वणिगस्सेव पच्छित् दिज, नवरं कजे सोऽश्वाधिवासे कृते तेनावन मूलदेवस्य पृष्ठं दत्तं, ततो मूत्र- अजयणाकारिस्स लघुतरं दिजः । देवो राजा बनुव, न पुनस्तस्य चौरिकादएमः कृतः । एष पतदेवाहरष्टान्तः । अयमुपनयः-पकस्य साधोबहुश्रुतस्य अपराधे वणिमरुगनिही य पुणो, दिलुता तत्थ होति कायवा। प्रायश्चित्तं दगमो गुरुकः संकल्पितः, प्राचार्याश्च काजगतास चाचार्यपदयोग्य इत्याचार्यः म्यापितः, गम्छे च सूत्रार्थ गीयस्थपगीयाण य, नवणया तेहिं कायव्वं ॥ २७३ ॥ सत्रुभयादिभिः संग्रहः कर्तव्यः । ततो यच्चक्नोति चौद्धं तद्दी गीतार्थानामगीतार्थानां च विषये वणिमहकनिधयः पु. यते। अथ न शक्नोति तर्हि न किश्चिद दीयते। तथा चाऽऽह नईष्टान्ता भवन्ति कत्र्तव्याः । तत्र वणिजा गीतार्थानामुपनयनं (संकप्पेल्यादि ) संकल्पितगुरुदण्ड प्राचार्यपदे स्थापितः सन् | कर्तव्यं,मरुकनाडगीतार्थानाम्, पवमेतश्चानन्तरमेव भावितम् । एवमेव मुच्यते, यद्वा शक्नोति वोढुं तबीयते इति । एवमा तत्र वणिक्मरकदृष्टान्तावेव भावयतिमार्यमधिकृत्य दोषा पकत्वमापन्नाः । अत्राह चोदक:-साधू. बीस बीस जंडी, वणि भरु सव्या य तुबमारो। तमिदं दोकावकारण, किम नया एतावत्प्रमाणया स्थापनाऽऽरो. वीसनागे मुंकमरु-गसरिच्छो इहमगीता ।। २७४ ।। पणाभ्यामा कृष्टिविकृपया इतः पश्च दिवसा गृहीता इतो दशेत्या. दिरूपया। गुरुणा ह्यागममनुसृत्य यत्प्रायश्चित्तमाभवति तत्स्था वणिजा मरुकेण च प्रत्येकं विंशतिभाएमयो गन्ध्यः कृताः। पनाऽरोपणाभ्यामन्तरेणैव दीयताम-दं ते प्रायश्चित्तमिति । कथनुताः?, इत्याह-सर्वास्तुल्यभएमाः तुल्यक्रयाणकाः, तत्र अत्र सूरिराह शौतिकको विशतितमे भागे प्रत्येकमेकैक विंशतितम भागं याचोयग! पुरिसा सुविहा, मीयागीय परिणामि इयरे य । चितवान्, वणिक् एका भामीमेव दत्तवान्, मस्कस्तु प्रत्येक प्रत्येक भागाच्य एकैकं विशतितम नागम् । अत्र वणिदोएहवि पच्चयकरणं, सब्वे मफला कया मासा ॥२७शा कमरशी गीतार्थो मकसदृशः (हमगीत इति) पुनरिह चोदक! पुरुषा द्विविधाः। तद्यथा-(गीयागीय त्ति) गीतार्थाः, अगीतोऽगीतार्थः । प्रगीतार्थाश्च । अगीतार्था द्विविधाः-परिणामिनः, इतरे च । अथवा-कार्याकार्येषु यतनाऽयतनयोर्निधिलाभे यो घणिग्मइतरे नाम-अपरिणामाः, अतिपरिणामाश्च । तत्र गीतार्थाना रुको तो दृष्टान्तो कर्तव्यो। तथा चाऽऽहमपि च परिणामिफानां परिहारस्थानमापनानां यत् दातव्यं तत्स्थापनाऽरोपणाभ्यामाकृष्टिविकृष्टया विना दीयते । अत्र अथवा वणिमरुपण य, निहि भ निवेइए वणिऍ दंगो। धान्तो घणिक-"एगो वाणियमो, नस्स बीसं भकीश्रो एगजा. मरुए पूय विस्सज्जण,श्य कज्जमकज्ज जयमजो ।।७।। तीयभंडारयायो साओ समनाराभो । तस्स गच्चतो सुं. अथवेति प्रकारान्तरे । तच प्रकारान्तरमिदम-पूर्व गीतार्थीगी. कदाणे सुंकियो नवट्टितो जणइ-सुकं देहि । वणिोजणह. ताधयोणिकमकदृष्टान्तावुक्ताबिदानीं तु कार्याकार्येषु य. किंदायव्वं । सुकिलो नणा-वीसतिमो नागो । ताहे वणिएणं तनायामयतनायां च निधिज्ञानोपलक्षितो वणिकमरकरसंकिरण य परिच्छित्तामा ओयारणपश्चारोहेसु विक्खेबो ह. हाम्तायुच्येते इति । वणिजा निधिलाभे अनिवेदिते वणिजो रा. वउ ति एका भी सुके दिना । एवं सम्वेसिं गीयत्थाणम का दएकः कृतः, मरुकेण निधिलाभे निवेदिने तस्मिन्महके रा. गीयत्वाण य परिणामगाणं विणा श्राविधिकहीए पाय क्षा पूजा कृता, विसर्जनं च प्रदान निधेः मरुकाय कृतम् । च्छित्तं दिजः । जे उण अगीयस्था अपरिणामगा च, ते जर इतिरेबममुना दृष्टान्तेन कार्यमकाय वाऽधिकृत्य यतमानोऽय एह मासाणं परेणं आवमा तेसिं दोराहं पच्चयकरणट्टा तमानइचोपनेतव्यः । यः कार्य यतनाकार। स महक व पूज्यः, सब्वे मासा ग्वाऽऽरोवणविहाणेण सफलीका दिज्ज. सर्वमपि च तस्य प्रायश्चित्त मुच्यते । कार्य अयतनाकारी ति।" तथा चाऽऽह-( दोएह वीत्यादि ) द्वयानामपि अ. श्रकार्य यतनाकारीच वणिगिव दरम्यते, नवरं कायेंऽयतनापरिणामकानामतिपरिणामकानां च प्रत्यय कारणं स्यादिति कारिणः स्तोको दरमः। हेतोः सर्वे मासाः स्थापना रोपणाभ्यां सफलाः कृताः । कान दृष्टान्तो मूखमरुकेन " मुक्खमरुगस्स बीस जंडोश्रो अत्राऽऽह-किमिति प्राचार्यस्य सबै मुच्यते, किमिति वा शेषाः साधवः सर्वे प्रायश्चित्तं बाह्यन्ते ? । अत्र निधिधाएगजातीयभाभरियानो सव्वाश्रो समभाराओ । तस्स ग. कछतस्स सुकाणे सुंकितो उबधितो भण-एगंमि दान न्तः । तथा चाहघच, किं मम प्रोयारणविक्खेवेण। मुक्खमरुगो भाइ-ओयारि मरुयसमाणो न गुरू, मुच्चइ पुव्वं पिसव्वं से। सा पकेकाता वीसहम जाग गेण्ड्स । संकिपण नस्ल सम्ब. साहू वणि प्रो व जहा, वाहिज्जह सव्बपत्तिं ॥२७॥ भाषा आयारित्ता एकेकायो वीसइनो जागो गहितो । म कथानकं प्रागक्तमेव । उपनयस्वन्यथा-यथा मरुको निरुगसारच्या अगीया, सुकियसरिसो गुरू। अदया। निदिदि चिलाभनिवेदनेन राज्ञोऽनुग्रहं कृतवान्। तथाचायोऽपि Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित अभिधानराजेन्द्रः। पच्छित्त कछोपग्रहं करोति, गच्चोपग्रहं च कुर्वन् भगवदाना पानय. बहुभिरपि मासैः प्रतिसेवितैश्चेदो मूलं वा न दातव्यम.अपरिति. ततो मरुकवास पूज्यः, सर्व च तस्य प्रायश्चित्तं मुच्यते सामाऽऽदिस्वभावत या तस्य दमूलानर्दस्वात् । किंतु स्थापना. प्रत्यदोषः। तथा चाऽऽह- महकसमानो गुरुरिति पूज्यते, प्रत रोपणाप्रकारण षण्मासा दीयन्ते। विकोविद गीतार्थे वा परिणाएव च (से) तस्य पूर्व प्रायश्चित्तं मुच्यते । साधुः पुनर्यया | मके तदेव षण्मासदानमन्यथा जबति-स्थापनारोपणाप्रकार. वणिक तथा अष्टव्यः, ततः सर्व प्रायश्चित्तं बाह्यने । अथ. मन्तरेणैवमेव दीयन्ते पम् माला इति नाचः। अयमत्र संप्रदाया. बा-"वणिमरुयनिही य पुणो(२७०)" इत्यत्र वणिष्टान्तो गी अविकोविदा उक्तस्वरूपा निष्कारणप्रतिसेवनया यतनया तार्थानां, मरुकष्टान्तोऽगीतार्थानाम, उन्नयेषामपि यादृशः प. प्रतिसेवनया वा अभीक्ष्णप्रतिसेवनया बा यदि कथमपि समासाऽलोचनायामाचार्यस्य विनयोपचारः करणीयस्तथा दमूनाऽऽदिकं प्राप्तास्तथापि तेषां छेदो मूल या न देयं, किमासिकाऽऽसोचनायामपि । इत्यत्राथै निधिष्टान्तः। तु षण्मासिकं तपः । यदि पुनरकोविदोऽप्युपेत्य पञ्चन्द्रिय घातं करोति, हण वा मैथुनं प्रतिसेवते, तदा दो मूखं तथा चाऽऽह या दीयते । विकोविदस्य पश्यां मासानामुपरि बहुम्वपिप्रप्रहवा महानिहिम्मी, जो उक्यारो स एव थोचे वि।। तिसेवितेषु मासेषु प्रथमवेलायामुदातिताः परमासा दीयन्ते, विणयादुवयारो पुण, जो सम्मासे स मासे वि ॥२७॥ द्वितीयवेलायामनुवातिताः, तृतीयवेलायां दो मूलं वा इति । अथवेति निधिशम्नस्यार्थान्तरार्थदृष्टान्तत्वोपदर्शने । महानि अथ कीदृशः कोविदः कीरशो चा अविकोविद इत्यत माहधाधुःख नितव्ये यो यादृश उपचारः क्रियते, स एव नादृश एव गीतो विकोवितो खलु, कयपच्छितो सिया अगीतो वि । स्तोकेऽपि निघावुत्खनितव्ये करणीयः । एवमपराधाऽऽसोचना. छम्मासियपट्ठवणा- तस्स सेसाण पक्खयो। २८०।। यामपि यादृशः परमासाऽऽलोचनायां विनयाऽऽद्यपचार:क्रिय गीतो गीतार्थः ना कृतप्रायाश्वित्तो विकोविदः, योऽप्युक्तो ते। अन्नाऽऽदिशब्दप्रशस्तव्य केत्रकालजावपरिग्रहः। स नाह. यथा प्राचार्य:-यदीदं भूयः सविष्यले ततः नेदं मूनं धावा. शो मासेऽपि मासिकाऽऽलोचनायामपि कर्तव्यः । स्यामः, सोऽपि कोविदः । तविपरीतोऽगीतार्थः । यश्च अत्राऽऽह पर:-यदिदं सूत्रखएक यूवं प्ररूपयष-" तेण परंप. प्रथमतया प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यते, यश्चोक्तोऽपि तथा न सम्यक् मिचिए वा अपलिउचिए वा ते चेव छम्मासा।" इति । परिणामयति स स्याजवेकोविदः । तत्र यदि कोविदः षट्सु म कमेष सर्वस्यापि नियम उत पुरुषविशेषस्य ? । सरिराद- मासेषु तपसा कर्तुमारग्धेषु अन्तरा यदि मासादिकं प्रतिसेव. सुबहिं मासेहि, छम्मासाणं परं न दायव्यं । ते तत्तस्य पूर्वप्रस्थापितषणमासस्य ये शेषा मासा दिवसा था अविकोवियस्स एवं, विकोविए अन्नहा होइ ।।२७८।। तिष्ठन्ति तेषां मध्ये प्रतिप्यते, न पुनः षण्मासपरिपूर्त्यनन्तरं तद्विषयं भिन्न प्रायश्चित्तं दातव्यमिति । तथा चाऽऽह-परामास. षण्मासेज्यः परतः सुबहुभिरपि मासैः प्रतिसेवितः प्राय. प्रस्थापनायांपएमासेषु तपसा कर्तुमारब्धेषु इत्यर्थः । तस्य श्चित्तं षण्मासानां परं सप्तमासाऽऽदिकं न दातव्यं, किं तु मासिकाऽऽदेरपान्तराले प्रतिसेवितस्य षण्मासस्य ये शेषा मा. पपमासावधिकमेच । यतोऽस्माकमेतावदेव भगवता वर्कमा. सा दिवसास्तिष्ठन्ति तेषां मध्ये अनुग्रह कृत्स्नं, न वा प्रक्षेपः । नखामिना तपाई प्रायश्चित्तं व्यवस्थापितम् । एतचैवमुक्त- माह एतत्पश्वमूलाई प्रायश्चित्तं कुत उत्पद्यते । सूरिराह प्रकारेण स्थापना 55रोपणालवणेन दातव्यमविकोविदस्य प. (७) मूनातिचारे प्रायश्चित्तम्रिणामकम्य अपरिणामकस्य वा अगीतार्थस्याश्यमत्र जावना- मुलातियार चेयं, पच्चित्तं होइ उत्तरहिं वा । सर्वस्याप्येष नियमो, यदुत-सुबहुष्वपि षण्मासेज्यः परतो मा तम्हा खलु मुनगुणे-उनतिक्कमे उत्तरगुणे वा ॥२०॥ सेषु प्रतिसेवितेषु प्रायश्चित्तं षयमासावधिकमेव दातव्यम् , न ततोऽधिकर्माप, केवल मेतायांस्तु विशेषः योऽपरिणामको. पतत् तपश्वेद मूबाई प्रायश्चित्तं यस्मात् भवति मुनातिऽतिपरिणामको बा तस्यागीतार्थस्य स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेण चारे मूलगुणातिचारे,प्राणतिपाताऽऽदिप्रतिसेवने इत्यर्थः। 3. सर्वान्मासामफलीकृन्य पाएमासिकं तपो दीयते; यस्तु वि तरैवी उत्तरगुणी पिण्डविशुरुधादिनिरतिवर्यमाणैर्भवति कोविदो गीतार्थोऽगीतार्थो वा परिणामका, तस्मिन्नन्यथा भव. प्रायश्चिनं,तस्मात् मूलगुणान् प्राणातिपाताऽऽदिप्रतिसेवनया, तिप्रायाश्चत्तदानम्। किमुक्तं भवति?-विकोविदस्य षण्मासानां उत्तरगुणान् वा उमादिदोषाऽऽसेवनया नातिक्रमेत् । परता सुबहुष्वपि मासेषु प्रतिसेवितेषु शेषं समस्तं त्यक्त्वा अत्र पर आहपएमासा दीयन्ते,न पुनरस्ति तत्र स्थापनाऽऽरोपणाप्रकार इति । मूमन्वयाइयारा, जयऽमुछा चरणसगा हंति । भाह पर:-यदि भगवता तपो प्रायश्चिने तत्कर्षतः षण्मासा उत्तरगुणातियारा,जिणसासणे किं पझिक्कुट्ठा॥२०॥ हाः, ततः परमासा तिरिक्तमासाऽदिप्रतिसेवने दा55 यदि मूलगुणातिचारा अशुद्धा इति कृत्वा चरणदंशका दि कस्मान दायते, येन शेषं समस्तमपि त्यज्यते , इति ।। भवन्ति, ततः साधूनामुत्तरगुणातिचाराश्चरणस्यानंशका: बाह प्राप्ता, मूत्रगुणातिचाराणां चरणभ्रशकतया प्रतिपन्नस्वात् । सुबहहि वि मासेहि, बेदो मूलं तहिं न दायच्वं । ततः किमुत्तरगुणा जिनशासने प्रतिष्टाः, न युक्तस्तेषां प्रति. अविकोवियस्स एवं, विकोविए असहा होइ ।।२७६।। षेधो, दोषाकारित्वादिति भावः । यो नामागीतार्थोऽपरिणामकोऽतिपरिणामको चा,यो वा बेदाऽऽ. उत्तरगुणातियारा, जयऽमुछा चरणभंसगा हुंति । विंकन भराति तस्य एवमवसातव्यम्-परमासानामुपरि तस्य। मूलधयातियारा,जिणसासणे किं पक्किदा॥२३॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित यदि सरगुण तिचाग अशुद्धा इति कृत्वा चरणशका भव न्ति ततो मूलतातिचारांहचरण भ्रशका न प्राप्नुवन्ति, उत्तरगुजातिचाराणां चरण भ्रशकतया प्रतिपत्वात् । तथा च सति वारा किसा अत्र सुहि मूत्रगुण उचरगुणा, जम्हा भंति चरणसेडीओ। सम्हा जिरो दोषि विपासा ॥२०४॥ यस्मात् मूलगुणा उत्तरगुणा वा पृथक पृथक युगपद्वा अनिवर्यमाणाश्चरणश्रेणीतः संयम श्रेणीतो भ्रंशयन्ति साधून ततो जिनैः सर्वपि मूलगुणातिचारा उत्तरगुणातिचाराश्च प्रति. कुष्टाः । अभ्यश्च मूल गुणेष्वतिचर्यमाणेषु सूत्रगुणास्तावना एव किंतु विनाशे उतरव माणेषूत रगुणास्तावता एव किं 1 तु मूलगुणा अपि हन्यन्ते । तथा चात्र दृष्टान्तमाह गादणे मूलं मून्नघातो व अग्गयं । लम्हा खलु मझगुणा, न संति नय उत्तरगुणा या २८५।। यथा तात ुमस्याग्रस्तदूव्याघातो मूत्रं हन्ति, मूत्रघातोऽपि चा हन्ति एवं मूत्रगुणानां विनाश उत्तरगुणानपि नाशयति उस गुणानामपि विनाशो गुणान् तस्मात् मूलगुणा तिचारा प्रगुणातियारा दि रधानां मूलगुणाः व संयतो यो ते अन्यतमगुणसमभावः, तेरामध्य कुन ( १७६) अभिधानराजेन्द्रः | अमिति । + सजता तह दुवे नियंता य । जाऽणुधावर ताव | वि त्र्णुधावर ताव | २८६ । कायेषु संमोऽनुधावति अनु जत् मूलगुणा उत्तरगुणाश्च वयेवर्तते । अणसज्जते य जा विस्वं ॥ २०७॥ सगुणानुधावन्ति तावदित्वरसामावनुधावतः यावश्चेस्वर सामायिकच्छेदोपस्थानिर्मन्थानुभावतः तद्यथा कुशः प्रति-याहि-यावन्मूलगुणप्रतिसेवना तापत्यति सेवको गुणप्रतिसेवना तावद्वकुशः । ततो यावतीर्थ शाय प्रतिसेयका अनुसत अनुष, सो प्रसक्तं प्रवचनमिति । :) मूलोत्तरगुणप्रतिलेबायां प्रायश्चित्तम्अथ मूवगुणप्रतिसेवनाचारप्रतिसेवनाथ पाचा शास्त्रविशेषः उत नास्ति । अस्तीति ब्रूमः । कविवाह मूलगुणे दयसुगडे, उत्तरगुणे वे सरिसवाई | पच्छित्त रक्खणडा, दोसुबिसु परणी ॥२८॥ गुणेषु राशिम उत्तरगुणा अि तदशेषता इतर म गुणगु सुप्रयुक्तं सत् शकट यथा नारवहनकर्म भवति, मार्गे च सुखं भवति तथा साधु मूलमुदसरगु कः सद्दीला सलमानसोब शिष्ट उत्तरोत्तरसंयमाध्यवसायस्थानपथे च सुखं वदति । अथ शकटस्य मूत्राङ्गानामेकमपि मूचाङ्कं जनं भवति, तहा न भार नामिि अपि शकट किपरका भार भवति मा कालेन पुनर्गताऽन्यान्यपरिशाइयमेव तदुपजायते । मिहापि मृगुखानामेकस्मिपि सूत्रगुणेनान मष्टादशशीलासहन भारवहनक्कूमता, नापि संयमश्रेणिपथे प्रवहनम, उत्तरगुणैस्तु कैश्चित् प्रतिसेवितैरपि भवति किय स्तं कालं चरण भारवहन क्षमता, संयमणिपथे प्रवर्तनं च । काग्रेन गुणप्रभवति समस्तचारित्रभ्रंशः, ततः शकटदृशन्तापपद्यते मूलगुणानामेकस्यापि मूलगुयस्य मा तत्काषिश उरगुणनाशे कामक्रमति इसको तदेवं ममपसादे तथा हि पर एक दिन एक यद्येको द्वौ बहवो वा सर्षपाः, उपलक्षण - मेला मानेस्वादकादिकै तत्र मदती शिक्षा प्रदिष्यते, तदा तयैकयाऽपि तवकणादेव समुपयाति पर्व चारिसमध्ये गतिमान भङ्गमुपयाति बहुभिस्तु चर्यमाणैज्यते, शिक्षाकल्पेन पुनरेकस्यापि मूलगुणस्यातिबारमेतत्कामं समुपगच्छतीति । तदेवं यस्मात् मूत्रगुणातरका आदिशब्दात् शिलादि परिग्रहः । तत्रापि मूल गुण। श्रपि दर्शविथाः। इयम भावना एकेनापि मूलगुणतर देव बारिश उपजायते उत्तरगुणविना पुनः कालेन । अत्र दृष्टान्तो रतिकः । तथाहि यथा दृतिक ब दकभृतः पञ्चमहाद्वारा:, तेषां महाद्वाराणामेकस्मिन्नपि द्वारे सुसफलीभूते लक्षणादेवको भवति सुधरेणाने काम पूर्वते । [प] महावतानामेकमिवमातासमस्तचारित्रशो भवति एकमूलगुनघासन घातात् तथाच गुयोग्यास एतन्निश्चयनयमतम् | व्यवहारतः पुनरेकत्रतभङ्गे तदेवैकं भग्नं प्र तिपत्तव्यम् शेषाणां तु भङ्गः क्रमेण, यदि प्रायश्चितप्रतिप नानुसंधत्ते इति । अन्ये पुनराहु:- चतुर्थमदावप्रतिसेवने त रामेत्र बारिशः शेषेषु नदात सेया महत्यतिर वा उत्तर पुनः कालेन चरणभ्रंशो यदि पुनः प्रायश्चितप्रतिपश्या नोवाजयति । नदेव कुतोऽय सेयमिति । उच्यते शकटद तात् तथाहि शकटस्य मूलगुणा द्वे चक्रे, उर्फी ?, श्रक्षश्च । ब - तस्मान्मे मूलगुणा उत्तरगुणाश्च निरतिचाराः स्युरिति पकापरणार्थी सम्पतिम्यम् पारणे दि मूलगुणा उत्तरगुणाश्च शुद्धा भवन्ति तेषु च द्वयेष्वपि खेषु, भन Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७७) अभिधान राजेन्ः | पच्छित्त गाथायामेकवचनं प्राकृतत्वात् । प्राकृते हि बचनव्यस्योप भवतीति । चरण द्विधारित्रमुखिः। शिष्य आह प्राणातिपाताऽऽदिनिवृत्यात्मकाः प सूलगुणास्ते ज्ञाताः ये तूत्तरगुणास्तान आनीमः, ततः कति उ सरगुणा इति ? | सूरिराह मिस्स जा विसोही समिती भावना तदो बिढ़ो । पमा निगहा वय, उत्तरगुण मो बियाणाहि २०७५ पियमस्य या शिधियां समितव यांसमित्यादिका, या का भावना महाव्रतानां यच विभेदं तपः याश्च प्रतिमा भिक्षूणां द्वादशाभिमायादेभिन पाउ " मो" इति पादपूरणे । विजानीहि । - एतेषां धोतरगुणानामियं क्रमेण संख्याबापाला अहेब व पानीसा बार बारस य चेत्र । उ, दम्बाइ चचरचिग्गह, भैया खलु उत्तरगुणाणं ॥ २६० ॥ गुणानां प्रागुकानां पिपरुषादीनां क्रमेण मो मेहा तथा विविशुः स्वारिशदो विश्व उमा, बोमशविधा उत्पादना, दशविधा पक्षणा च । समिम ।।। तद्यथा-पच ईयसमित्यादया तथा मन समितिः वाक्समिरिभाषामा पञ्चविंशतिः, एकैकस्य महाव्रतस्य पञ्चपश्वभावनालङ्कायास्यापि सर्वथा मेदा शादशदि तपो, बाह्याभ्यन्तरभेदात् । बाह्यस्याऽऽभ्यन्तरस्य च प्रत्येकं इति प्रतिमा "माई" इत्याि उपदिकाि बानिमहादेवसुता उत्तरगुणः।। प्रतिस्थापित णाम मे विशेष इति प्रतिपादयति निग्गय बहुंता विय, संचया खलु तड़ा असंचया । पाते बिहा पाप तापाया ॥२६२॥ प्रतिमा वर्तमा निर्मता नाम से सोमादिसामाना तो प्राधि कविता असंयताः नामिति संसारकाऽऽदिदर्शनादि मासामां परतः सप्तमाचादिकं पावरको मास म प्रायवित्तं प्राप्तास्ते संबधिताः तेषां मासेयः स्थापनाप कारण दिवसावधि मासिके वैमासिके वैमासिके मासिके मासिकेा पिकेशियामा नाम ः अनुदात गुरुः तये संचये असं ताश्च से संता ये चा वाता साम्प्रतमे मामेव गायां यथोक्तव्यायामेन व्यायामयतिपावा, निम्या ते तवा उ बोधव्या । पच्छित जे पुण वहंति तत्रे, ते बहंता मुणेयन्त्रा || २६२ ॥ मासादी आवरणे, जा उम्मासा असंच होई । छम्मामा परेणं, संचयं तं मुणेयब्नं ॥ २७३ ॥ देश दियाय श्विमापन्नास्ते निर्गता उच्यते कुतस्ते निर्ग यातायात निर्गतास्तपस्तपो पतिः। ये पुनन्ते तपसि तपोऽहें प्रायश्चि से वर्तमानात (मासाहीत्यादि) मासादिकं प्रायश्वि सस्थानमापत्रे मासादारभ्य यावत्बरमा साः, ताब सत्प्रायश्चितमसंचयम्-असंचयसंज्ञं भवति । षण्मासानु बज्यो मासेयः परेण परतो यत्प्रायश्चित्तं तत्संचयितं ज्ञातव्यम् । उ सामुद्रात विशेषस्तु सुप्रतीत इति न व्याख्यातः । संप्रति संचयासंचयेषूद्धातानुद्धतेषु प्रस्थापनविधि वित्ररिश्माह मासा मंच संचाऍ बहिं तु होड़ पडवणा । शेर पर संचय एकारस पपाई || २९४ ॥ असंघयिते प्रायश्वित्तस्थाने प्रस्थापना मासाऽऽदि मासप्रभृतिका, संबधिते पुनः प्रस्थापना नियमतः बभिर्मासयति । प्राप मा नामदानम् । तं व निशीथन्यूस" पट्टषणा नाम दाणं ति । " इयमत्र भावना असंचये प्रायश्वितस्यानविषये यो मालिकं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नस्तस्य मासिकी प्रस्थापना है। मालाचापस्य द्वैमासिकी, तू मासानापन्नस्य त्रैमासिका । एवं पापमासानापन्नस्य षाएमासिका । यः पुनः संचयाssपद्मस्तस्य नियमात् षाण्मासिक) प्रस्थापना । तत्राऽसंचये प्र स्थापनाया। पदानि त्रयोदश, संचये एकादश । तत्रासंबये प्रस्थापनाथाः पदानि त्रयोदशासूमि-सबतिय ज्ञेयतियं वा मतियं भावातियं च । चरमं च एकसरयं, पढमं तत्रवज्जियं विश्यं ॥ २९५ ॥ प मूलविक्रमनवस्थाप्यत्रिकं परमं केमिक पारास्थितं तद एकरपरमेकवारं दीयते प्रतिअब उद्धाते मालाऽऽदिकमापणस्य प्रथमवेलायामुद्वातो मासो दीयते । द्वितीपत्रे लाया मुखातचतुर्मासिकं, तृतीयआप मुमालिकं चतुर्थवेलायां वेदः, पञ्चमायामपि हवेलायामपिहिमा छेदः। सप्तमायामपि दशमयामनयन्थाध्यम एकादश मायामाध्यम पा दश पदानि प्रस्थापनायां यानि (प) प्रथम चयं परं गतं द्वितीयं संचयं पदं ( तबबजियंति ) माल चतु मायामादिमायाभ्यां पार्जितमेकादशपदं भवति । तदेव व्यायामपतिवयं इसे आप दो रहिये | उम्मतवादी, एकारसपपड़ि परमेहिं । २०५९६ ।। द्वितीयं खलु संचयितमुच्यते, तद् द्वाभ्यामादिपदाभ्यां राह तं मासादिक मायभूति रमेश देयम् । तत्राऽपीयं भावना संचयितं प्रायश्चित स्थानमाप Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७०) अन्निधानराजेन्डः। पच्चित्त पच्चित्त सस्य प्रथममुखातं पायमामिकं तपो दीयते, द्वितीयवेलायां तस्स मुवे तुट्टीओ, वित्तीय कया जुयलयं च ॥३०॥ दः, तृतीयवेलायां दः, चतुर्यवेलायामपि वेदः, पञ्चमवेलायां ___" एगो सेवगपुरिसो रायं मोलम्गा, सो राया तस्स म.पप्रवेझायां मन.सप्तमवेसायामपि मलम् अष्टमवेलायामन- वित्ति नहे. अनया तेण राया केण कारणेण परितो. वस्थाप्यं, नवमवेलायामनवस्थाप्यं, दशमवेसायामप्यनवस्थाप्यम् । सितो, ततो तेण रमा तस्स तुण पइदिवसं सुबममासगो एकादशवेलायां पाराश्चितमिति । वित्ती कया, पहाणं च से बत्थजुयलं विनं।" तथा चाऽऽदएतदेवाऽऽह (जहेत्यादि) ययेति दृष्टान्तोपन्यासे, माषकः सुवर्ममाषछम्मास तवो छेदा-इयाण तिग तिगतहेक चरमं च । । का सेवकपुरुषेण सब्धो, युगलं च बलयुगसं च । तस्य च संवट्टियावराहे, एकार पया न संचइए ॥ २७ ॥ सेवकपुरुषस्य द्वे तुष्ट्या जाते, एकं वृत्तिः कृता, द्वितीयं वनसंचयिते, कथंचते ?, इत्याद-संवर्तितापराधे संबर्तिताः पि. युगलमिति । एष दृष्टान्तः।। एमीनूता अपराधा यत्र तत् संवर्तितापराधम । तथाहि-बहुषु अयमुपनयः-- मासेषु प्रतिसेवितेषु स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेण तेज्यो मासेभ्यो एन उन्नयतरस्सा, दो तृट्ठीओ उ सेवगस्सेव । दिनानि दश दश पञ्च पश्चेत्यादिरूपतया गृढीस्वा पाएमा- सोही य कया मे ती, यावच्चे निउत्तो य ।। ३०१॥ सिकं तपो निष्पाधते, ततो भवति संचयि संवर्तितापराध, एवं सेवकपुरुषदृष्टान्तप्रकारेण उभयतरस्य सेवकस्येव से. तस्मिन्नेकादशपदान्येवं नवन्ति-प्रथमवेझायामुद्धातं पाएमासि. वकपुरुषस्येव द्वे तुष्टयौ नवतः। तद्यथा-एकं तावन्मे प्रायश्चि. कंतपः, ततः दादीनां त्रिकं त्रिकम् । किमुक्तं भवति?-तद- तदानेन शोधिः कृता, द्वितीय वैयावृत्ये नियुक्तस्य महती मे निबन्तर बेलायमपि यावत् दत्रिक, तदनन्तरमनवस्थाप्यत्रिक, जरा भविष्यति। तथा एकमेकवेलं या चरमं पागश्चितमिति । एवमनुद्धाति. अथ प्रायश्चित्तं बहन वैयावृत्यं च कुर्वन् यदि अन्यपि प्रा. तेऽपि संचयिते एकादश पदानि वाच्यानि । यश्चित्तमापद्यते तदा कथम् ? । उच्यते-- संप्रति येऽत्र प्रायश्चित्तस्यार्हाः पुरुषास्तान प्रतिपादयति सो पुण जइ वहमाणो, आवजह इंदियाइहिँ पुणो वि। पच्चित्तस्स उ अरहा, इमे उ पुरिमा चनधिहा इंति । तंपिय से प्रारुहिज्जइ, भिन्नाई पंचमासंतं ॥३०॥ उजयतर आयतरगा, परतरगा अमतरगा य ॥श्एना स पुनरुनयतः प्रायश्चित्तं बदन् वैयावृत्यं कुर्वन् यदि प्रायश्चित्तस्याही योग्या मे चतुर्विधाश्चत्वारः पुरुषा पुनरीप श्रोत्रादीनां पञ्चानामिम्ब्यिाणामन्यतमेनेजियेण, माभवन्ति । तद्यथा-नुभयनराः, श्रात्मतरकाः परतरकाः, अन्यत. दिशब्दात् क्रोधाऽऽदिनिश्च,स्तोकं बहु वा प्रायश्चित्तमापयते । रकाश्च । तत्र ये उत्कर्षतः परमासान् अपि यावत्तपः कुर्व- तत्र स्तोकं विंशतिरात्रिन्दिवादारज्य पश्चादानुपूा यावत् न्तोमानाः सन्तः प्राचार्यादीनामपि वैयावृष्यं कुर्वन्ति, पञ्चरात्रिन्दिवं, बहुपाराञ्चितादारभ्य पश्चादानुा यावत् तजभ्युपेतत्वात् ते उभयमात्मानं परं चाऽऽचार्याऽऽदिकं तारय- मासिकं तदपि (से) तस्य प्रारुह्यते,भिन्नाऽऽदि भिन्नमासाऽऽदि, न्तीत्युभयतराः, पृमोदराऽऽदिस्वाद् इश्वः। ये पुनः तपोबसिष्ठा प्रादिशब्दात्सकलमासाऽऽदिपरिग्रहः। पञ्चमासान्तं ५४चमासवैयावृश्यब्धिहीनास्ते तप एव यथोक्तरूपं कुर्वन्ति, न वै. पर्यन्तम । श्यमत्र नावना-स्तोकं बहु वा यथोकस्वरूपं यदि यावृष्यमाचार्याऽऽदीनामित्यात्मानं केवलं तारयन्तीत्यात्मतराः | प्रायश्चित स्थानमापनः,तथापि तस्य भिन्नमासाऽदि दीयते । स्वार्थिकप्रत्ययविधानात आत्मतरकाः । ये पुनस्तपः कर्तुमर्धा ___ कस्मादिति चेत् । अत पाह-- वैयावृष्यं चाऽऽचार्याऽऽदीनां कुर्वन्ति ते परं तारयन्तीति परतर. का येषां न तपसि वैयावृत्ये च सामर्थ्यमस्ति केवझम, उत्तय तवलिश्रो सो जम्हा,तेण र अप्पे विदिजई वहअं। युगपत्कर्तुं न शक्नुवन्ति, किं त्वन्यतरत, ते एकस्मिन् काले प्रा. परतरो पुण जम्हा,दिज्जइ बहुए वि तो योवं ॥३०३।। रमपरयोरन्यमन्यतरं तारयन्तीत्यन्यतरकाः। यस्मात्स उभयतरकः प्रायश्चित्ततपःकरणे धृतिसंहननबलि. प्रायनर परतरे विय, आयतरे अनिमहे यकिवते। ष्ठः, तेन कारणेन । रेफः पादपूरणे। "जेराः पादपूरणे"॥८ एककमसंचए, संचय नग्यायमाघाया ॥२ १२१२१७॥ इति वचनात् । अल्पेऽपिपञ्चगत्रिन्दिवाऽदिक प्रा. ॥ यश्चित्तस्थाने,बहुकं निन्नमासाऽऽदि दीयते । यम्माच परतः पर. मात्मतरश्च स परतरइच,मात्मतरपरतरः, उभयतर इत्यर्थः।। माचायांऽऽदिक वैयावृत्य करणतस्तारयति, ततो बहुके ऽपिपायश्चात्मतरः परतरो वा,पती द्वावपि प्रायश्चित्तवहनाभिमुखौ राचितिके प्रायश्चिचे प्राप्ते स्तोकं भिन्नमामाऽऽदि दीयते । भवतः, ततस्तस्मिन्प्रत्येक प्रायश्चित्तमभिमुखमुच्यते । यस्तु तदेवं स्तों के बहु के वा प्रायश्चित्तस्थाने प्राप्ते भित्रमासादि परतरोऽन्यतरको वा यावद् वैयावृत्यं करोति,तीच तयोः प्रा. दाने कारणमुक्तम् । यश्चित्तं निक्तिप्तं क्रियते,इति तनिक्षिप्तमभिधीयते । एकैकमनि संप्रति जिन्नमासाऽऽदि यथा दातव्यं, तथा प्रतिपादयतिमुख, निक्तिप्तं च द्विधा-संचयितमसंचयितं च । पुनरेकैकं द्विधा-उद्धातमनुद्घानं च । तदेतत् संकेपत उक्तम् । वीसऽट्ठारस बहुगुरु-जिन्नाणं मासियाणमावनो। इदानी विस्तरोनिधेयः, तत्र यः प्रथम सजयतरः, तस्येमं सत्तारस पसारस, बहुगुरुया मासिया हुँति ॥ ३०४॥ दृष्टान्तमाचार्याः परिकल्पयन्ति स उभयतरका प्रस्थापितं प्रायश्चित्तं वदन् वैयावृस्य च कुर्वन् यदि स्तोक बहु वा उद्धातमनुदातं प्रायश्चित्तस्थानजह मासो उदो , सेवयपुरिसेण जुयलयं चेव । । मन्यदापना, ततो यदि पूर्वप्रस्थापितं प्रायश्चित्तमुदातं, तमु. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त अभिधानराजेन्छः। पत्ति बातो निन्नमासो दीयते । यदि पुनरण्यापद्यते , ततो भूयो- अथानुद्धातितं प्रायश्चित्तं वदति तर्हि गुरुमासिकानन्तरं पूयो ऽपि भिन्नमासो दीयते । एवं विंशतिधारान् भिन्नमासो दात नूय आपत्तौ द्वौ गुरुको मासौ पञ्चदश वारान् दीयेते, तदन. व्यः २०। यदि विंशतेोरेभ्यः परतोऽपि नूय प्रापद्यते . त. स्तरं पञ्चदश वारान् श्रीन गुरुकामासानिति । ( सत्तचउक्के. सः स्तों के बहु के वा प्रायश्चिने प्राप्ते बघुमासो दीयते, पवं त्यादि) उद्धातितानां चतुष्काः सप्त जवन्ति । अनुरूातिनानाम, यूयो भूयस्तावद् यावत् सप्तदश वारा: १७ । नधरमत्र म्तो. अत्र गाथायां प्रथमा षष्टयर्थे । चतुष्काः पञ्च भवन्ति । सघु. कं पञ्चाऽऽदिकं भिन्नमासान्तं, बहु द्विमासाऽऽदि पाराश्चितान्त, काः पञ्च मासाः पञ्च बारान् भवन्ति । गुरुकाः पुनः पञ्चकाः ततः परतो यदि पुनरपि भूयो भय आपद्यते, ततोऽन्यत् स. पञ्च मासाः त्रीन् वारान् भवन्ति । इदमुक्तं भवति-उकातं सदशवारान् द्वैमासिकं दातव्यम् । अत्र स्तोकं पश्चकाऽऽदि प्रायश्चित्तं वहतः त्रैमासिकानन्तरं भयो भूय आपत्ती स. लघुमासपर्यन्तं, बहु त्रिमासाऽऽदि पाराश्चितान्तम् । एवं त्रैमा प्त वारान् लघुकाइचत्वारो मासा दीयन्ते । तदनन्तरं पञ्च सिकाऽऽदिवप्यधस्तनानि स्थानानि स्तोकमुपरितनानि बहुवे. वारान् लघुकाः पञ्च मानाः । अनुदातितं प्रायश्चित्तं बहतः दितव्यानि । ततः सप्तदशवारेभ्यः परतो यदि नूयः पुनःपु. त्रैमासिकानन्तरं पुनः पुनरापसौ पच वारान् गुरुकाः पच्च नरापद्यते , ततस्त्रैमासिक सप्तदशवारान दीयते १७। त मासाः, तदनन्तरं त्रीन मासान् पञ्च गुरुमासाः। तोऽपि परतो यदि पुनः पुनरापद्यते, ततः सप्तवारान् लघु चातुर्मासिकं दीयते ७ । ततोऽपि परतो यदि पुनर्रयो नुय साम्प्रतमत्रैवासंचये दातानुदाताऽऽपसिस्थानानां सुखाब. प्रापद्यते, ततः पञ्चवारान् लघुपाश्चमासिकं दीयते । यदि गमोपायमाहततोऽपि परतो नूय आपत्तिः, तत पकवारं लघुषाएमासिकं उकोसाउ पयातो, गणे ठाणे मुवे परिहरेज्जा। दीयते । तदनन्तरं यदि पुनरपि नूयो नूय आपत्तिः, तत- एवं दुगपरिहाणी, नेयच्या जाब तिम्मेव ।। ३०७॥ स्त्रीन वारान् छेदो दीयते ३। यदि ततः परमपि पुनः पुनरा- उत्कृष्ट नाम-उद्धातभिन्नमासगतं विशतिसकणं, तस्मादार. पत्तिस्ततस्त्रीस्वारान् मूलं दीयते ३। ततोऽपि परतो नूयो ज्यादातगते स्थाने यत्कृष्टं तदकिया अनुदातगतेषु स्थासूय आपत्ती वान वाराननवस्थाप्यदानं , तदनन्तरं यदि पु नेषु द्वौ परिहापयेत् । एवं द्विकपरिहानिस्तावत् ज्ञातव्या नरापद्यते तत एकं वारं पाराञ्चिन्दानमिति । पचमसंचयि. याबदुवातगतपञ्चकोत्कृष्टापेक्या अनुदाते त्रय शत। श्यमत्र तमुदातितं गतम्। प्रथासंचयितमनुवातितं प्रस्थापितं ततोऽस्पं भावना-सद्धाते भित्रमासे विंशतिः, अनुदाते द्विकपरिहान्या बा वा यदि प्रायश्चित्तस्थानमापद्यते, तर्हि गुरुको भिन्न प्रशदश, तधोद्धाते मासे सप्तदश, अनुदाते पञ्चदश । एवं मासो दीयते, ततः पुनः पुनरापसी सोऽष्टादश बारानदी- द्विमासे त्रिमासेऽपि । तथा उद्घाते चतुर्मासे सप्त, अनुदूघा. यते १८ । ततः परं नूयो नूय आपत्तौ पञ्चदश वारान् गु. ते पञ्च । तया उराते पञ्चमासे पञ्च अनुदाते त्रय इति । रुमासिकम् १५॥ ततः परं पश्चदश वारान् गुरुद्वमासिकम् १५॥ तदेवमापत्तिस्थानान्युक्तानि । सतः परं पञ्चदश बारान् गुरुत्रैमासिकम् १५॥ ततो नूयोs. (९) उद्घातानुद्घातदानविधिः । साम्प्रतमेतेषां दानविधिमाहपि परं पञ्चवारान् गुरुचातुर्मासिकम ५। ततः परं यदि नू. यो नूय आपत्तिस्ततस्त्रीन वारान् गुरुपाश्चमासिकम ३ । अट्ठऽट्ठन अवणेत्ता, सेसा दिजंति जाब उ तिमासे । सदनन्तरमेकवारं षड्गुरु १ ततः परं दनिक, ततोऽन. जत्थाटगावहारो, न होज्जतं कोसए सव्वं ।। ३०७॥ बस्थात्रिक, ततः परमेकं वारं पाराञ्चितम् । संप्रत्यक्षरा. ये भिन्नमासाऽऽदयो विंशत्यादिधारा आपन्नास्तेच्या प्रत्येकथों विवियते-यदि पूर्वप्रस्थापितमुद्धातमनुदातं च प्राय- मष्टावष्टावपनयेत, अपनीय शेषा दीयन्ते, एवं तावत बाध्य श्चित्तं बहन वैयावृष्यं च कुर्वन्नुभयतरः स्तोकं बहु वा यावत्त्रिमासाः त्रैमासिकम् । अयमत्र नावार्थ:--विशतिधारा: नूयो नूयः प्रायश्चित्तस्थानमापद्यते, ततो यथासंख्यमुखातं किलोखाता भिन्नमासा आपन्नाः, तत्रायौ निन्नमासा कोषिताः, प्रायश्चित्तं बहतो लघुभिन्नानां मासिकानां विंशतिवारान् शेषा द्वादश दीयन्ते । तेऽपि स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेणाधिक प्रदानम् । अनुद्धातं प्रायश्चित्तं बहतो गुरुभिन्नानां मासिकाना परिशाट्य पएमासाकुम्बा दीयन्ते, तथा अष्टादश अनुदाता मष्टादश बारान । तदनन्तरं भूयो भूय आपत्तावुद्धातं प्रायः भिक्षा मासा प्रापना,तेज्योऽष्टौ त्यक्ताः, शेषा दश भिन्नमासा: श्चित्तं बहतः सप्तदश पारान् बघुमासिका जबान्त, अनु । प्रदातव्याः । तेऽपि स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारणाऽधिकं समस्तदातं प्रायश्चित्तं बहतः पञ्चदश वारान् गुरुमासिकाः। मपि त्यक्त्वा षण्मासाः कृत्वा दानीया इति । तथा सप्तदश उग्घाश्यमासाणं, सत्तरसेव य अणुम्मुयंतेणं । बारा ल घुमासाः प्राप्ताः, तेभ्योऽष्टी परित्यज्य शेषा नव णायचा दोणि तिमि य,गुरुया पुण होति पारस ।३०५। लघुमासा दीयन्ते । पञ्चदश वारा गुरुमासा प्रापना, तेभ्यो अटी परित्यज्य शेषाः सप्त गुरुमासा देयाः । एवं वैमासिकसत्त चउका उग्धा-इयाण पंचेव होतऽणुग्घाया। त्रैमासिकेऽपि वाच्यम । सर्वत्र स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेणाधिक पंच लहुया न पंच न, गुरुगा पुण पंचगा तिमि ॥३०६।। स्यकथा षण्मामाः कृत्वा देयाः। प्रथाटककोषणाभिधानं उद्घातितमासानामनुद्धातितमासिकानां ये सप्तदश वारा- किमर्थम,एतदेव कस्मान्नोक्तम्- विंशत्याइयो भिन्नमासाऽऽदयः स्तानमुञ्चता कातव्यो द्वौ मासो, प्रयच मासा ज्ञातव्याः ये स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेण षण्मासीकृत्य दातव्या इति। तच्यतेपुनर्गुरुका द्वौ प्रयश्च मासास्ते पञ्चदश पारान् सातव्याः । मध्यमतीर्थकृतामष्ठमासिकी या तपोभूमिः, तदनुग्रहार्थमित्या किमुक्तं भवति?-द्धातितं प्रायश्चित्तं बहतो मासिकानन्तरं दोषः। उक्तं च निशीथचूनौ-"अटुमासिया मज्झिमा बोभू. भूयो भूय भापत्ती ही मासी सप्तदश वारान् दीयते । त- मी, तीए अणुगह करणथमट्ठभागहारमोसणा कया।" इति । तोऽपि पूयो भूय भापती सप्तदश बाराम् श्रीन् मासान् ।। यत्र पुनश्चतुर्मासिके वा पाध्यमासिके वा अष्टकापटारो न Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) अभिधानराजेन्द्रः । पच्छित भवेत्, महानामेवासंभवात् । तं सर्वे कोपयेत् सर्वमपि तत्परित्यजेत ; न किमपि तत्र दानं प्रयतीति भावः । कापहारे यवतिष्ठते तदेतदुभयं दर्शयतिपारस दस नयचैव य, ससेब जहगाई ठाणा । बीस हारस सतरस पर या बोधव्या ॥ ३०६ ॥ द्वादश दश नव सप्तेत्यमूनि अधन्यानि स्थानानि बोधव्यानि धन्यता वित्याद्यपेक्षयामी स्तोकस्यात् केषां - स्थान स्था श्वमुक्तं भवति विंशतिस्थानानामष्टका पहारे द्वादश स्था नामि, अष्टादशानामप्रकापहारे दश, लप्तदशानामष्टकापहारे नव पञ्चदशानामष्टकापहारे लप्तेति । पुणरबि जे बसेसा, जेहिं जेहिं पि बढ मासां । रिजोसे, उपासा सेस दायया ।। ३१० ।। अपहारे कृते सति पुनरपि बच्चां मासानामुपरि येव शेषा मासा वर्तन्ते (जेहिं जो पीत्यादि) मनुप्रविषय तस् । दिवसमय पूर्व स्थापितानां मासामामुपरि राति तत्सबै स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेण झोपि स्वा]] [[पदमासाः शेषा तथा अनुग्रह पूर्वस्था पदमास दिवसे सह परिपूर्वी कृत्य परमासा शेषा दातव्याः निरनुमानचिन्तायां परिपूर्द्धा बदमासाः शेषा देवा तु पूर्वप्रस्थापितमासविषय इति । य छोड़ दिवसे िगरिमामायति पक्ष बीचे दिवसे िगह पाचाय पकलेचो ।। १११ ।। सुभे तुतीया सप्तम्यर्थे । ततोऽयमर्थः पद दिवसेषु गतेषु रामालानां भवति प्रक्षेपः । इयमत्र भावना ये ते प्रस्थापिताः माला, तेषां चद् दिवला ब्यूढाः, तदनन्तरमभ्यान पपमा. लामापाततः पुत्रे प्रस्थापितपपमालानां पश्चातु शतिदिनाच्यन्ते पत्विा च तत्र पाश्चात्य पदमासा पिथा महिष्यते यथा पूर्वप्रस्थापितमासा म्यूदिवस पदमासाः भवन्ति एवं पाश्चात्यानामपि 1 मला दिवसा को पिता इति पत प्रतिसंहनादयां पुर्वमुपेक्ष्य महनम् एव मिश्राश्रमणानामा देशमा पुगरे स्वाद दिवसेषु पदमासा भवभये पूर्वप्रस्थापिता पदमासाहले पनि प रिहा हो रामासामापते चविषयते। किमुनि मासान पढ़ दिवसा प्रायश्वि सममभिषितं पूर्वप्रस्थापितमानानामपिदि बाषिताः। एतत् धृतिसंगमपेकानुप्रह करममिति । संप्रति निरस्तमाह एवं बारस माना, विणा व जेष्ठ पत्रणा | सह निरनुग्रहस्यागते खेचो ।। ३१२|| इह निरनुप्रह करने आवेशद्वयम् । एकस्तावश्यमादेशः- पूर्वप्रस्थापिता रामालानां चद् दिवसा व्यूढाः तेषु षट्सु दिवसेयूढेषु यत् पादमासिकमा त पूर्व पच्छित्त मासास्येव पद दिवसेषु व्यूहेषु परिसमाप्यते किं भषति ? - ये व्यूढाः षट् दिवसास्ते व्यूढा पष, शेषाः पञ्च मासाचतुर्विशतिदिवसाकोपिताः । यत्पुनरन्यत्पापमासिकं तत्प रिपूर्ण दीयते एवं पद् मासा परिचाि धृतिश्य निरनुग्रहन द्वितीय आदेश:पूर्वप्रानां पराभासानां पद दिवसाः शेषास्त अन्य सर्वमपि राम्यान्मासान्प्राप्तः सद सायन्ते पाचात्यं पारमासिकं परिपूर्ण दीयते वृतिहनमबलिष्ठत्वात् । एवं च षण्मासाः षमूनिर्दिश्व सैर्न्यमा: पूर्व स्वा पिताः, पाश्चात्याः परिपूर्णा बरामासाः । ततः सर्व संकलनया द्वादशमासाः षनिर्दिष सैयूना प्रवति । एषा ज्येष्ठा प्रस्थापना । नातः परा तपोऽहें प्रायश्चिते उत्कृष्टतरा प्रस्थापनाऽस्तीति भावः॥ अत्रापि सानुग्रह निरनुप्रहचिन्तां कुर्वन्नाह त्रिसग इत्यादि) पूर्वप्रस्थापितानां घमासान बदलु दिवसेषु गतेषु सदस्यप परमासा33दिकं तपस्तहारोष्यते पूर्वप्रस्थापिताश्च परामासार तेयेष दिवसेषुप्यपरिसमासा क्रिय I पुनः पद मासे रगतेषु व्यूढेषु पद् दिवसाः शेषा मध्यूढाः सन्ति, अन्यच समस्तमपि व्यूढमिति प्रायः । मत्रान्तरे अन्यत् पाएमासिकमापस्तत्परिपूर्वमारोप्यते प्राकमाश्च पीभूताः पढ़ दि बसास्त्यज्यन्ते । पतभिरनुग्रहकृत्स्नमिति । चोप रागदोसे, दुम्बल लिए जागर चक् भिधगिम्मिय, मासे चउमासिए मे ।। ३१३ ।। पोदयति तथाि पद दिवसेषीभूतेषु प्रन्यावादमा सिदि बसे परिसमाप्यते परि मी- पत्रिका समिधा करोति पुनः पूर्वप्रस्थापितषयमासानां पश्चसु मासेषु चतुर्विंशत दिमेषु म्यूढेषु पद दिवस पीना कोचिता मामिति बलियोपरि विद्वेष जानी-देवता कृत्या शरीरो मा एवं महीपतामस्य निरनुग्रहप्रायश्चितमिति । भवन्तः कुर्वतो दोनामदे म्यति अपरं निमीलयति एवमेकं सामा सिमे जीवापथ, अपरं निरमाय रथेति " मिश्री नाम-सत्कार निमंधनेन मयोदितो इति भ 9 । साम ध्यातादि दस्तो प्र हियमाणेषु क्रमेण प्रथम उपजायते। कामिनीम- महस्का प्रयाप्रिरूपतया परिणमितं स महत्यपि काष्ठादि के प्रि समय भवति, प्रदेश प्रदतसरह चोपायते । एवं दुर्बलस्य षट्सु मासेषु पूर्वप्रस्थापितेषु बहुषु ब्यूटेषु षट्सु दिवसेषु शेषीभूतेषु दिवा मासेषु पूर्वप्रस्थापितेषु दिवसेषु परेषु पम्प पारामासिक ती से, तत्सन्निभोऽरिष विषीदति धृतिसंहननदुर्बलस्यात् । यस्य पुनः पढ्सु मासेषु ब्यूहेषु पद दिवसेषु दोष अभ्यारोप्यते परमासादितः स प्र यामिति विकास विधाय " Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त (११) प्रन्निधानराजेन्द्रः। पच्छित्त तथा द्वौ बेटी । तद्यथा-मासजातः, चतुर्मासजातश्च । तत्र यदि ज्याप्रवृत्तिरिति पश्चादानुपूर्ध्या व्याख्या विधेया । पूर्वप्रस्थामासजातस्य बेटस्य चतुर्मासचेटाहारो दीयते तदा सोऽजीन पितमुद्घातमनुघातं च वहतो यथाक्रमं भिन्न भिन्नमासविद्राति । चतुर्मासजातस्य मास जातवदाहारो दीयते तदा स ते. विषये दानं विंशत्यष्टादशवारान् । किमुक्तं भवति ?-पूर्वप्रस्थापि. नाहारेण नाऽऽस्मान सन्धारयितुमलम् । एवं यो दुर्वनस्तस्य तमुदातं प्रायश्चित्त घहतो विशतिवारान् निनमासा दातव्याः। यदि वसिष्ठ प्रायश्चित्तबीयते तदा स विधाति, दुर्वअत्यात्मा. अनुबात बहतोऽधादश धारा भिन्नमासाः। (तेण परमित्यादि) सिकचेटवत् । बरिष्ठस्यापि यदि दुई प्रायश्चित्तं दीयते तदा स ततो भिन्नमासदानात् पश्चादानुपा पर, प्रागिति भावार्थः। तायता न विशुसिमासादयतीत्यशुद्धघा विषीदति । ततो यथा निकपणता निक्तिप्तता आसीत् विंशत्यष्टादशवारानमन्तरं म जिन्नाग्नी प्रनूतमिन्धनं, तथा मासजाते चेटे स्तोकमाहारं च. उद्धातं पूर्वप्रस्थापितं बहतो मासिकानां मघूनां मासिकौमा. तुर्मासजाते प्रनूतमा हारं प्रयच्छतो न रागद्वेषवता, योग्य- सिकानां सप्तदश निक्केपा नवन्ति । सप्तदशवारं दानं नवताऽनुरूप प्रवृतेः। तथा पुर्वले बलिष्ठे च यथोक्तरूपं प्रायश्चि तीत्यर्थः । अनुतातं पूर्वप्रस्थापितं वहतो मासिकानां निकेपाः बवाना न वयं रागद्वेषवन्तः । इति सक्त उभयतरकः । पञ्चदश भवन्ति, पञ्चदशवारं मासिकानां दानमित्यथैः। तथा(१०) श्वानीमास्मतरकाऽऽवयो वक्तव्या, परमुभय- द्वातितानां चतुष्का मासचतुष्टयानि सप्त प्रवन्ति । अनुया. तरसरशोऽन्यतर इति स एवोत्क्रमेण प्रथमतो भएयते । ताश्चतुष्काः पश्चजवन्ति तेषां पश्च मासा लघुकाः पश्चगुरुकाः तस्य स्वरूपमिदम् यथा एकेन स्कन्धेन ने कापोत्या पश्च जयन्ति । गुरुका:पुनः पश्वकाः पश्चमासाखयाइदमुक्तं भ. युगपत बोढुं न शक्नोति, तथा सोऽयम्यतरकः प्रायः पति-पूर्व प्रस्थापितमुखातं बहतत्रिमासदानानन्तरं सप्तवाराभित्तवैयावृत्ये युगपरकर्तुं न शक्नोति। स च संचयि- प्रत्यारोलघुमासादातम्या, तदनन्तरं पश्चवाराः पश्चमाला तमसंचयितं वा प्रायश्चिचमापनः । अथ च तदा गुरु- मघवः । अनुवातं पूर्व प्रस्थापितं बहतो गुरुमासत्रिमासदानापामन्यो. बेयावृत्यकरो न विद्यते ततस्तदापत्र प्राय. मन्तरं पञ्चवारा लघवचतुर्मासा दातण्या, उता परंगुरवा श्चितं निकित क्रियते । एतेन पयुक्तमयस्ताविक्षिप्तमिति तन् पश्चमासाखिवारा इति । तदेवमेकेषामाचार्याणा व्यायामभाषितमबसेयम। गुरूणां यावृत्य कार्यते, तब वैया. मुपदर्शितम् । भम्ये पुनरेवं व्यायामयन्ति-अन्यतरो नाम त्यं कुर्वन् यदीकियादिभिरन्यदापचते तस तु जोय। विषा-भास्मता, परनरश्च । तत्र माम्मतरस्थ प्रायश्चित्त. पदा तु यावृत्यं समाप्तं भवति तदा तहमाग्निक्किप्तं प्रायश्चित दामविधाममिदमः (सस बसका सम्घाश्याणमित्यादि) यदि मुरिक्तप्यते। पूर्षप्रस्थापितमुखातं बहन् यो भूयोऽन्यदापयते प्रायश्चितं समापन पदाम्ब्यिादिभिरन्यवापयते तदाऽनेन विधि तदा प्रथमत एप सप्त पारावातितामा सपना मासानांब तुका बातम्या सप्तबारा लघषश्चतुर्मासा देया, तबमम्तरं मादातव्यम् पशबारा सपषः पचमासातदनन्तरं पारन व तता सत चउका उग्या-क्ष्याण पंचेष होतऽग्याया। पर बारत्रिक सून, ततो पारत्रिकमनपस्याप्यं, तत एकवार पंच मह पंच गुरुगा, गुरुगा पुण पंचगा तिथि ॥३१॥ पाराशितम् । प्रधानुवातं पूर्वप्रस्थापितं बहन् पुनः पुनराप. सत्तारस पसारस, निक्खेवा हुँति पासि पाएं। पते प्रायश्चितं तत भादौ पचवारा मनुवाता गुरबाबा बीसवारस जिले, तेण परं निक्खिपणया ॥१५॥ स्वारा मासा दाने भवन्ति, तदनन्तरंभी पारान् पक्षमासा गुरषः, ततो पारत्रय नेवा, तदनन्तरंवारत्रयं मूलं, ततो पार. सोऽम्यतः पूर्वप्रस्थापित प्रायश्रित पर यदि स्तोकपा अयमनवस्थाप्यम्,तत पकवारं पाराशितम् । यस्स्वायत्तरेतरतदुपात वा प्रायश्चित्तस्थानमापना, ततो यदि पूर्वप्रस्थापितं स्तस्ये प्रायश्चित्तविधानम । ( सत्तारस पक्षारसेत्यादि) प्राधिसमुपातस्तत सानो भिन्नमासी दीयते । पदि पूर्वप्रस्थापितमुखातं प्रायश्चितं बहन् यदि भूयो तूपः स्तो पुनरापराने सनूयोऽपि भिसमासदामम् । एवं नूयो सूप प्रा. बापा पम्पत प्रायश्चित्तमापते, ततस्तस्य सप्तदशमापत्ती विशतिधारा निसमासा दातम्याः २० । तबमातरस. लिकामा निकेपा भवन्ति, सप्तवशवारं त्रैमासिकंदीयते साश पारा नघुमाला। १७ । पर्व विमासचिमासा प्रपिक- इति भावः । तदनन्तरं भूयो भव भापती सप्तदश मिक्के. ज्या । तदनन्तरमपियो नूप भापती सप्त मारामतुर्मासाः ७। पामासिकामाम् । तदनन्तर सप्तश मिकेपा मासिकानाम्। तता पर पहनाबारा पचलघुमासा तबमातरंजी तसा पर मिकेपणं वा निम्मे मिसमासस्प पितिबारागा ततः परं बारमय मूलम् । तदनन्तरं बार- पारा, तसा परं बारवयं वा, तदनन्तरं बारवयं ममम, धमनपस्पाप्यम् । तदनन्तरमेक बार पाराधितमिति । अष तदनन्तरबारमयममबसाप्पम् । तत एकबार पाराधितम । तस्य पूर्वस्थापितमनुपातितं, ततोऽाश पारा गुरुभित्रमा अनुबात पूर्वप्रथापित बहन् यदि शुषो रूपः स्तोका सादातम्या १०। तदनन्तरं पश्चरश बारा गुरुमासा. १५ वा प्रायश्चित्तमन्यदापयते तस्य पचवश गुरुणां मालि. एवं विमालारित्रमाला भपि वक्तव्या। तदनन्तरं पापारा. कानां निकेपा भवन्ति, पश्चदशवार मासिकं गुरु दीयते अस्वारो गृहमासा ततोऽपि पर प्रियारा पशगुरुमासा: इत्यर्थः। ततः परं मिकेपणता भिषमासाना गुरुणामयादश शततो पारत्रयं वातदनन्तरं बारवर्य ममम। ततः पर बारा, ततः परं पारत्रयं मूलं. ततोऽमयखाप्यधिक, तत ए. बारषयमनपस्थाप्यम् । एवं संचयिते ऽप्युदाते अनुपातेथ कचारं पाराशितमिति उक्तोऽन्यतः । साम्प्रतमात्मतरम्प बकम्यम् ,मबरमादिमास्तपोभेवा बक्तव्याः। किन्तु प्रथमत प्रायश्चित्तधाममुख्यते-संचयितमसंचयितंषा प्रत्येकमुवातम. पष पायमासिकं, सवनम्तरं देवत्रिकाऽदि भएकापहारा- नुवातं पापहम् यदि यो नूयः स्तोकं बाबाऽम्यविधिया. दिक पूर्ववक्तव्यमा प्रधुनाकरगमनिका-बह विचित्रा प्या. दिभिः प्रायश्चिचमारयते तदा सवार लघुमासिकंदी Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चित्त प्राभिधानराजेन्डः। पच्चित्त यते । ततः परंतूयो नूय आपत्ती चतुर्वारं अघुकं चतुर्मासं, तवारलघुमाासकदानानन्तरं नुयो भय आपत्ती तसंघ. ततः परं दत्रिक, तदनन्तरं मूलत्रिक, ततोऽनवस्थाप्यात्रकं. कानां पञ्चकं दातव्यम्, पञ्चवारान् चत्वारो मासा लघुका दा. तत एकवारं पाराञ्चितं, यदि पुनः पूर्वप्रस्थापितमनुद्धात व- तव्या इत्यर्थः । अनुदातं बहतः पस्चारगुरुमासिकदानानहन् स्तोकं बहु वाऽभ्यदापद्यते नूयो नूयस्ततः पञ्चवारान सरं चतुर्गुरुकाणां चतुष्कं चतुरो बारान गुरुकं देयं, ततः गुरुमासिकं दीयते, ततः परं श्रीन वारान् चतुर्गुरुक. वारत्रय परमुभयस्यापि दाऽऽदिचतुष्कं छेदमूत्रानवस्थाध्यपाराशि दातदनन्तरंवारत्रयमनवस्थाप्य, तत एकवारं पारा श्चितम् । तलकणं भवति पूर्वप्रकारेण शामबुद्ध्या ज्ञातव्यम् । एतदेवाऽऽह साम्प्रतं "झोसणा तउ परेणं," एतस्य व्याख्यानार्थमाहप्रायतरमाझ्याणं, बासा लहु गुरुग सत्त पंचव । तं चेक पुव्वभणियं, परतरए एस्थि एगखंधादी। चन तिग चाउम्मासा,तत्तो य चनधिहो भयो।३१६।। दो जोए अचयते, वेयावच्चट्ठया कोसो ॥ १५ ॥ मात्मतरो नाम-यस्य वैयावृत्य करणे लब्धिर्नास्ति । प्रादि. यत्पूर्वमन्यतरके जणितं यथा नास्त्येतत् यत (एगबंधाई) शम्मात्परतरपरिप्रहः प्रारमतर श्रादिर्येषां ते श्रात्मतराऽऽदया, एकेन स्कन्धेन एककालं वे कालं वे कापोन्यौ न उधेते इति मात्मतरा,परतराश्चेत्ययः । तेषामात्मतरादीनां प्रायश्चित्त. तोच परतरकेऽपि सर्व जणनीयम् । ततो द्वौ योगौ तपःकरदानविधिरुच्यते। तत्राऽऽश्मतराणामयम् । बद्धातं पूर्वप्रस्थापित पवयावृत्यलकणौ युगपदशक्नुवन् वैयावृत्यथै कोषः, त्यागः। स्यादेवमुच्यतेवहतां सप्त वारान् लघुमासा दीयन्ते । तदनन्तरं चतुरो वा. गन् चतुर्मासा लघवः । ततश्चतुर्विधो भेदः वेदमूत्रानवस्था तवतीयमसद्दहिए, तवबलिए चेव होइ परियाए । प्यपाराश्चितस्ल क्षणो दातव्यः । अनुद्धातं पूर्वप्रस्थापितं बहतां मुन्नो अप्परिणामे,अस्थिर अबदुस्तुए मूलं ॥३२॥ पश्चवारान् गुरुमासो दीयते । तदनन्तरं श्रीन बारान् गुरब यो मामाऽऽदिक पदमासमयन्तं तपोऽतीतो व्युत्क्रान्तः। किमुश्चतुर्मासाः । ततो यथोक्तरूपश्चतुर्विधो भेदः। संप्रति पर- तंत्रवति मासाऽऽदिना षण्मासपर्यन्तेन तपसा यो न शाति, तरस्य प्रायश्चित्तदानविधिरभिधीयते--परतरो नाम-यस्य तपोग्रहणमुपलकणम्। देशच्छेदमपि योऽतीतो,देशच्छेदेनापि यो यावृष्यकरणे सब्धिरस्ति, न तपसि, ततः स यदा तपः क. न शुद्ध्यतीति भावः। तस्य मूलं दीयते इति सर्वत्र संबध्यते । रोति न तदा वैयावृश्यं कर्तुं समर्थ इति । अत्रापि एकस्क तथा (असहिए इति) तपसा पापं शुध्यतीति पतधो न श्रद धेन कापातीद्वयं बोढुं न शक्यमिति दृष्टान्तो वक्तव्यः । धाति तस्मिन्नप्यश्रद्दधाने मूलम् । अथवा-अश्रद्धानो नाम-मियश्च प्रायश्चितं संचयितमसंचयितं वाऽऽपनस्तत् यावद् वै ध्याष्टिः, ततो योऽश्रधान एव सन् व्रतेषु स्थापितं पश्चात्स. यावृष्यं करोति तावनिक्षिप्तं क्रियते, वैयावृष्यं च कुर्वन् य कम्यत्वं प्रतिपन्नः सन् सम्यगावृत्तो भवति तस्य मूलं देयम वन्यदापद्यते तत्सर्व झोष्यते, वैयावृत्ये च समाप्ते तत् पूर्व यथा गोबिन्दवाचकस्य दत्तमिति । ( तबबलिए त्ति ) तपनिक्ति प्रस्थाप्यते, तश्च बहन् यदि भूयो भूय इन्धियाऽऽदि सा बलिको बलिष्ठस्तपोबलिकः। किमुक्तं नवति ?-महताऽपि भिरन्यदापद्यते तत नद्धातं पूर्वप्रस्थापितं बहतः सप्त बारा तपसा यो न काम्यति यत्र तत्र वा स्वल्पे प्रयोजने तपः न लघुमासिकं दीयते । तदनन्तरं पञ्च वागन् चतुझघुकम्। करिष्यामि इति विचिन्त्य प्रतिसेवते। यदि वा पापमासिके ततः परं वारत्रयं मूलं, ततः परं वारत्रयमनवस्थाप्यम। तपसि दत्ते वदति-समर्थोऽहमन्यदपि तपः कर्तुं तदपि मे देहीतत एकवारं पाराश्चितमिति । अनुद्धातं पूर्वप्रस्थापितं वहतः ति तस्मिन् तपोबलिके मूलम् । (परियार इति) यस्य देन जि. पर बारान् गुरुमासिकं दीयते । तदनन्तरं चतुरो बारान् धमानः पर्यायो न पूर्यते,स्तोकत्वात । अथ वादपर्याय बोन चतुगुरुकम् । ततः परं चारत्रयं दः, तदनन्तर वारत्रयं मलं, सम्यक श्रद्दधाति-यथा कोऽयमर्कजरतीयो न्यायः । कियत्प. ततः परं वारत्रयमनवस्थाप्यम्, तत एकवारं पाराश्चितम् । यस्य विद्यते, कियग्नेति। यदि विद्यते तर्हि मूलत एव ग्यितापतदेव सुव्यक्तार्यमाह म, यदि वा न किमपीति । यदि वा वक्ति- रत्नाधिकोऽहं बहु के ऽपि परिच्चिन्ने पर्याय अस्ति मे दीर्घः पर्याय इति न किमपि आवमो इदिएहिं, परतरए कोसणा तउ परेण । छेत्स्यति,तस्य सर्वस्यापि पर्याये हीनस्य पर्याये श्रज्ञानरहितस्य मासन्नहुगा य सत्त य, छच्चेव य हुंति मासगुरू ॥३१॥ पर्याये गर्वितस्य मूलम् । तथा यो बहुप्रायश्चित्तमापन्नोचनलहगाणं पणगं, चनगुरुगाणं तहा चनकं च । ज्य च धृतिसंहननान्यां मुबलत्वात्तपः कर्तुमसमर्थस्तम्मिन् तत्तो दादीयं, होइ चनकं मुणेयव्यं ।। ३१८॥ पुर्वते मूलम् । तथा योऽपरिणामत्वात् ग्रूते-यदेतत्तपः पाथमा. सिकं युष्मानिमें दत्तमेतेनाहं न शुद्धयामि, प्रायश्चित्तस्य बहुपरतरको वैयावृत्यं कुर्वन् यहीन्द्रियाऽऽदिभिः स्तोकं बहु स्वात् । तस्मिन्नध्यपरिणामे मूलम् । तथा यो धृतिदुर्बवा प्रापद्यते प्रायश्चित्तं, ततस्तस्मिन्परतरके ततो यावृश्य लतया पुनः पुनः प्रतिसेवते तस्मिन्नस्थिरे धृत्यष्टम्नरकरणादारभ्य यावद्वैयावृस्यं करोति तावत्परोपकारीति स्तोक हिते मूत्रम् । तथाऽबहुश्रुतोऽगीतार्थः। अथवा-अनवस्थाबहुधा यदस्यदापद्यते तस्य सर्वस्थ ऊोषणता परित्यागः । प्यं पाराश्चितं बा प्रापन्नः, तस्य चाबहुश्रुततया तहानायो. ततो वैयावृश्यसमाप्यनन्तरं पूर्वनिक्किप्तं प्रायश्चित्तमुद्धात ग्यता, तस्मिन्नप्यबहुश्रुते मूलं दातव्यमिति । बहनो नयो भृय आपत्ती मासबघुकाः सप्त भवन्ति दातव्याः, सप्त वारान् लघुमासो दीयते शति भावः । अनुदातं साम्प्रतमानार्यों विशेष दर्शयितुकामो यदेवाघस्तात्तावमुक्तं बहता पट जवन्ति मासगुरवो देयाः, षट् वारान् गुरुमासो। तदा दीयते इत्यर्थः । (चनलहुगाणमित्यादि) उद्धातं बहतास- जह मन्ने मासियं से-विऊण एगण सो उनिग्गच्छे । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त अभिधानराजेन्दः । पच्चित्त तह मन्ने मासियं से-विकरण चरमेण निग्गच्छे।।३।। कः प्रकालयति, तथाऽपराधपदानि जिनाऽऽइयो मासाऽऽदिभिः चोरको वाक्त-अहमेवं मन्ये-यथा मासिक परिहारस्थानं । शोधयन्ति । अथवा-निपन लेपम्य मनस्याजावा, कुटो जा. सेविस्था सोऽधिकृतः प्रायश्चिनप्रतिपत्ता पकेन, मासेनेति ग कुटः, स दृष्टान्तः । अत्र चत्वारो नङ्गाः । एकं वस्त्रमेकम ज. म्यते । निर्गच्छति द्धयति । तथा आस्तामन्येन द्वैमासिकाऽऽदि सकुटेन निर्वेपनं क्रियते १। एक वस्त्रमनेकै जेलकुटैः २। अने. ना। एतरप्यहं मन्ये । अतिशयख्यापनार्थ भयो मन्ये इत्युपादानम्।। कानि वस्त्राणि एकेन जल कुटेन ३ । अनेकानि वनाएयने हैमासिकं सेवित्वा चरमेण पाराश्चितेन निर्गच्छति शुद्ध्यति । जेलकुटैः ४। एवं चोद केनोक्त सत्याचार्य श्राह-सत्यमेतत् , यदा मास तत्र प्रथमहितीयनङ्गव्याख्यानार्थमाहकं सवित्वा कदाचिचरमेण शुद्ध्यति । इह मासिक सेवि एगुत्तरिया घमछ-करण छेयादि होंति निग्गमणं । स्वा मासेन शुद्ध्यनीत्यादिगमो गृहीतो, मासिक सेविस्वा च एएहिँ दोसवुही, कप्पिज्जइ दोहि गणेहिं ॥ ३५३ ।। रमेण शुद्धयतीत्यन्तगमः । श्राद्यन्तग्रहणे मध्यमम्यापि प्रहमिति शेषा अपि गमाः सूचिताः, मासिकग्रहणेन तद् द्वै- एकोसरिका घटस्थावृष्टिषदकेन परिसमापयितव्या । मासिकाऽऽदीन्यपि । तद्यथा-यथा मासं सेवित्वा मासेन नि. इयमत्र जावना-कोऽप्यल्पमनः पट एकेन जलकुटेन शुगच्छनि, तथा मासं सेवित्वा द्वाभ्यां मासाच्यां निगच्छति , ध्यति, स गृह एव प्रकाल्यते । एष प्रथम नमः । मासं सेवित्वा विनिर्मासनिर्गति, मासं सेवित्वा चतुर्भि- ततो मनिनतरः कग्निमयो वा पटो द्वाज्यां कुटाभ्यां एकिमा. मसिनिर्गपति, मासं सेवित्वा पञ्चभिर्मासनिगच्छति मासं सादयति, सोऽपि गृह एव प्रकास्यते । ततोऽपि मलिनतर. सेवित्वा षनिर्मासनिर्गच्छति, मासं सेवित्वा देन नि- स्त्रिभिः कुटैः, सोऽपि गृहे प्रकाल्यते । एवमेकोतरिका वृद्धि गच्छति, मासं सेवित्वा मूलेन निर्गगति , मासं से. स्तावनेया यावत्कोऽपि मलिनतरः षनिर्जल कुटैः शुद्ध्यत्ति, वित्वा अनवस्थाप्येन निर्गच्गति, मासं सेवित्वा परमेण सोऽपि गृह एव प्रकाल्यते । अत्र वनस्थानीयान्यपराधपपाराचितेन निर्गच्छति । तथा द्वैमासिकं लेवित्वा द्वा. दानि मलस्थानीयानि रागद्वेशाध्यवसायस्थानानि, सजनितो भ्यां निगच्छति , द्वैमासिक सेवित्वा त्रिनिर्मासैनिगच्चति । बा कर्मसचयः, जन्नकुटस्थानीयानि मासिकाऽऽदीनि प्रायः एवं यावद् द्वैमासिकं सेवित्वा चरमेण निगंवात ।। श्चित्तानि। तथादि-अल्पमपराधपदमेकेन मासेन गुभ्यति, ततो तथा त्रैमासिकं सेवित्वा त्रिभिर्मासनिर्गवति, त्रैमासिकं गुर्वपराधपदं द्वाभ्यां मासाम्यां, गुरुतरमपराधपद त्रिभिर्मासेवित्वा चतुर्जिासनिर्गच्छति । एवं यावस्त्रैमासिक सेनि. सः, ततोऽपि गुरुतरं चतुर्भिर्मासैयर्यावत् गुरुतरमपराधपदं ष. स्वा चरमेण निर्गच्चति । तथा चातुर्मासिकं सवित्वा चतुः | जिनमासैः । (छयादि होति निग्गमणमिति) वे गादगाढतराss. भिर्मासैनिर्गच्छति , यावच्चरमेण निर्गच्छति । तथा पञ्चमा दिमलाः परास्ते गृहान्निगत्य बहिः सरितमागाऽऽदि गत्वा प्रभूसिकं सेवित्वा पञ्चनिर्मासैनिंगच्छति । एवं यावच्चारमेण । तप्रजूततः कारगोमूत्रादिजिबहुवहुतरराच्चगेटनपिट्टनाऽऽदिनिगच्चति । तथा पापमासिक सेवित्वा पतिमांसमिर्गच्च- भिर्महन्महसमप्रयः शुक्रिमासादयन्ति । तथाऽपराधपदान्यपि ति, यावच्चरमेण निर्गच्छति । तथा ने सेवित्वा देन निर्ग- गाढगाढतराध्यवसायानिर्वसितानि वेवमनानवस्थाप्यपाराश्चि. स्पति, यात्रश्चरमेण निर्गच्छति । मूर्य सेवित्वा मूबेन निर्गच्छति, तैः पर्यायाऽऽदिभ्यो निष्काशनेन शुध्यति । ततो मिर्गमतुल्याः यावश्चरमेण निर्गच्छति । अनवस्थाप्यं सेवित्वा अनवस्थाप्येन छेदाऽऽदयो भवन्ति । अथ कथं जलकुटबहिनिगमतुल्यो मासा. निर्गच्छति, अनवस्थाप्यं सेवित्वा चरमेण निर्गच्छति । दिदाऽऽदय इति । प्रवाह-(पदि इत्यादि। एताभ्यामनअत्र शिष्यः प्राऽऽद-यस्मिनापने यत्तदेव दीयते तत् श्राप स्तरोदिताभ्यांद्वाच्या स्थानाज्यांमासादिदा दिवकणाभ्यां सिसमं दानमुचितम् , अन्यारशे त्वासेविते यदन्याशं दायते दोषवृद्धिस्तीवतीव्रतररागवेषाभ्यवसायवृद्धिः, तज्जनिता कर्मों पचयवृद्धि; कल्यते विद्यते, ततो मासाऽऽदिच्छेदाऽऽदयो तत्र को हेतुः । आचार्य प्राह जलकुटनिर्गमसमानाः। जिण निक्षेवणकुमए, मासे अपशिचमाण सट्ठाणं । साम्प्रतम् "पगुत्तरिया बमकपणं ति" व्याख्यानयतिमासेण विसुमिहिई, तो देति गुरूवएसेणं ॥ ३२॥ अप्पमलो होइ सुई, कोपमो जलकुमेण एक्केण । जिनाः केवलिनो, जिनग्रहणादवधिमनःपर्यायझानिनः चतुर्द मनपरिकारे नवे, कुरूपरिवृती तुजा छन्न् ॥३श्चा। शनपूर्वधरा गृहीताः । एते यथावस्थिताः संकेशविशोधिपरिक्षाने अपराधनिष्पन्न मालिकाऽऽदि, भावनिष्पन्नं च वैमासि. कोऽपि पटोपम: सर एकेर जन्नकुटेन शुचिर्भवति काऽऽदि यथा विशुध्यति तदा तद्विशोधिनिमित्तं प्रायश्चिसंद. शुवति । एष प्रथमजङ्ग उक्तः । मतपरिकी कुटपरिवृद्धि. दति । तत्राध्यवसानेन मासे प्रतिसेविते यद्यप्रतिकुञ्चितमात्रा- भवति । सा च तावत् यावत् । तुशभो चिशेषणः । स चै. चयति ततस्तस्मिन्नालोचनायामप्रतिकश्चतः स्वस्थानं मास- तद्विशिनटि एकेन यावत् पदस्य शुभिग्रह पत्र क्रियते । इय. मेव प्रयच्छन्ति । अथवा--यानि द्वैमासिकाऽऽदीनां प्रायश्चि- मत्र नावना-बहुमत्रपटो द्वाभ्यां जन्नकुटाभ्यां शुवति । बहुत्तानामहा एयध्यवसायम्थानानि तेर्मासा प्रतिसबिता, तत एष | मनतरत्रिमिनल कुरैः। एवं मत्रपरिवृद्धा जनकुटपरिवृकिस्तामालादिभिलिविंशोत्स्यतीति जिनाः केवानिवनतः,श्रु. बदबसेया यावत् बहुमलतमः षर्जिलकुदैः। एते च गृह एव प्र. तव्यवहारिणो वा गुरूपदेशेनाधिकमपि प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्ति। काल्यन्ते । एवमपराधपदान्यपि मासिकाऽऽदीनि माधूनां स्व. अत्र चार्थे-(निल्लेवणकुमए इति) निलेपनकुटपान्तः निःपः | पर्यायमण्मल्यादिरूपे गृहे एव स्थितानि मासिकाऽऽदिभिः को रजक, कुटो जनभूतो घटः । यथा जलकुरैर्वस्त्राणि रज- प्रायश्चित्तैः शोभ्यन्ते । एतेन द्वितीयो भा उपदर्शितः । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) पच्चित्त अन्निधानराजेन्छः। पच्चित्त "याई इंति निगमणं" इत्यस्य क्याल्यानमाह- लेन निर्गति । एवं यावनिर्विकृतिकन मिर्गवति । पर्व मसेतेण परं सरियादी, गंतुं सोहिंति पदुतरमलं तु । ऽपि नेतन्यं यावन्मूझं सेषित्वा निर्विकृति केन निर्गवति । एवं छेदे, एवं पारमासिके, एवं पाश्चमालिके, एवं चातुमासिके। मझनाणतेण करे, प्रायंचणजचनाणत्तं ।। ३२५ ॥ एवं त्रैमासिके, एवं मासिके, निन्नमासे, विशतिरात्रिन्दिवे, प. तस्मादनम्तरोदितात् पटात परंबातरमलं पटं सरिदादि । चदशराभिनिवे, दशरात्रिदिवे, पञ्चरानिन्दिय शमे, प्र. सरित् नदी। भादिशम्दान-लकूपतमागाऽऽदिपरिप्रहः । तत् एमे, षष्ठे, चतुर्थे, प्राचामाम्ले, एकाशनके, पूर्वा, निर्विकगत्या शोधयन्ति । एवं साधूनामप्यपराधपदानि दाऽऽविलिः तिकेच गमा वक्तव्याः, तथा एतेऽपि गमा रुष्टज्याः, सूत्रस्य पर्यायमण्डल्यादिरूपा गृहाद निष्काशनेन जिनाऽऽदयः शोध. सूचकत्वात् । निर्षिततिक सेधित्वा तेनैव निकृति केन बाध्यति। यन्ति । (मलनाणतेणेत्यादि) द्वितीयाऽऽदिपटेषु यथा यथा मम । निर्षिकृतिक कृत्वा पूर्वाचन निर्गच्छति । एवं यावधरमेण पारानामास्वं तथा तथा भारश्चनयानानास्वमपि । भादश्चनं माम. शितेन निर्गधति । तथा-पूर्वाई सेविस्वा पूर्वान निर्गति। गोमूत्रमजालिपिडकोखाऽऽदि पस्न माच्छोटनपिहनाऽऽदिषु पूर्षि सेविस्वा एकाशनेन निर्गवति । यावपरमेण एकाशन प्रयः । तमानास्वमपि । तथाहि-यथा यथा ममस्योपवयस्त. सेविस्था पकाशनेन निर्गकृति । एकाशन सेवित्वा भाचामाथा तथा बहुतरगौमूत्राऽऽदिप्रकेपो, बहुतर भाचोतनपि- मलेन निर्गपति यावपरमेण । एवमाबामाम्लादिषप्यूर्ट. नाऽऽदिषु प्रयवस्ततो नवति । मलनानारखे भावनया गमा वक्तव्याः। मामास्वमिव साधूनामध्यपराधपदेषु रागद्वेषापचयी मा मत्र शिष्यः प्राssसाविपकिस्तपःक्रियाविशेषवृद्धिति। जहम बहुमोमा-सियाई से बिय एगेण निग्गच्छे। बरमतृतीयभाण्याख्यानार्थमाह तहममे बहुसोमा-सियाइ सेवियपदहिँ निग्गच्छे ।।२०। बगुएहि जलकुमेलिं, पहूणि वस्थाणि काणि विविमुके। महमे मम्ये- याशी पहुन् बारा मासिकाउदीनि परिभष्पमसाणि पहणि वि, काणि चि मुज्जति एकेणं ॥३६॥ हारस्थानानि सेषित्वा पकेग मासेन सोऽपराधकारी निर्गकानिचित्राणि तथाविधगाढमनामि पनि निर्जलकुटे. पति, अपराधपदानियोति, मम्दानुभावेन प्रतिसेवनायक. बिएण्यन्ति । एषमपराधपदाम्पपि तथाविधामि पनि साथ- तस्यात् । तथा एतदपि मन्ये बदुशो परनि मासिकानि सेविश्वा को बहुभिर्मासैः धिमालादयन्ति । एतेन चतुर्भो व्याया- कदाविपभिर्मासनिर्गमति, पदिलामानुजानप्रतिसेब. तः । तथा कानिचिवकपमहानि पखापयन जलकुरेन at कस्वा स्यादिति भावाभिमा प्राचार्याणामिति बकायम, यस्यति । एवं मन्दानुमायेकतानि पहम्पपि साधूनामपराध रागद्वेषपविभानिषशत एकैमिभापतिस्थामे सर्वमार्याधता. पदाम्पेकेन मासेन एखन्ति । एष पतीयो भा उपदर्शिता। नामारोपणाभावात् । अब शिष्या माह-पथा रागवष्मिशतः प्राधित सत्रपदुकं वशम प्रायधिसंस्थान सेवित्वा दशमेनापति विपक्षमा, तथा कि रागोषहामिषशतामापचिहानि पशम सेवित्वा नवमेन शुपति तब रात मागुक्तमेपर्शपतिरप्युपलया। प्राचार्य माss-अपक्षमा । पगुत्तरिया परत-करण व्या हालिनिग्गमणं । तथा तदेव पति तेहिं तु दोसबुटी, सप्पत्ती रागदोसे ि॥ २२॥ नह ममे दसमं से-निकष निग्गच्छए । इसमेणं । एकोतरिका जमकरस्परविर्घटना नियमपितम्या । कि. तहमने इसमें से-पिकण नवमेण निग्गल्छ ॥३५॥ मुक्तं भवति - कोपि तपाविधापमा पर एकेन अमरेन महमे मम्-वधा दशमं प्रायभितं पाराशित प्रतिसेव्य परेमकामयते कोऽपिबदुसरममोशाभ्यां कुटायाम्। ततोऽपि बामेन पाराधितेन मापश्चिन निभति। तथा पतदपि पदुतरमनस्विमिा कुदा एवं पारद बहुसमा पनि कुरा एवं मम्पे-पशम पाराधित सविस्वा नबमेन अमवस्याप्यन प्राय- किमपि साधूनामपराधपदमतिप्रजूतरागद्वेषापयसापोपवित शिमग मिर्गसिति । माचार्य माह-सत्यमेतत् । स्वपर्यापमपरस्पादिरूपे पर पषाऽवस्थितामा पहिलो शर्म सेविस्वा परान याति कदाविसबमेनामिनया एति । किमपि स्तोकरागद्वेषाव्यवसायोपचितं पशभिर्मा. गापपा सऽधोमुना गमा। सबितातेवाऽमी-पम से. से। ततोगपि स्तोकरागपाश्यवसायोपचितं चतुभिर्माले। विस्था लेगा सूर्य सेविस्वा देन मिचति । एवं पापमा. पषमेकहानिस्तावकन्या पावरिकमप्यपतररागपाध्यमसिकेन पाशमासिकेन चातुर्मासिकेन त्रैमासिकमालिक- सायोपषितमेकेन राखातीति । (ऐयावी होति मग्गमण)यथा. नमासिकेग-वक्तव्यम् । वयम सेविस्था मिसमासेन निर्ग: केऽपि पटा मतिमततकनिमममा पहानिर्गत्यहि सरित. माता पाम सेविस्वा विशल्या राबिन्धिवनिर्गति । पराम | कागादि गत्वा बहुभिगोमूत्रादिभियभिचामोरमपि. लेविस्था पक्षशानीराविम्दिबैर्मिगति रिशमं सेविस्या दश- हमप्रकार गुपयन्ति तथा मिर्गमतुल्या दादयो नयन्ति।त. मभक्तम निर्गकति पयम सेविस्था मामेव मिर्गमयति । वयम पाहि-विशिषतिप्रबलरागद्वेषाम्यवसायोपचितमपराधप सासेषित्वा पठेन निर्गति दशमं सेविस्वा चतुर्धन निर्गन. अनावशमेनपाराधिताभिधानेन याति। किञ्चित्तोडीमरागः ति वशमं सेवित्वा भावापेन निर्गच्छति । दशर्म सेविका पाण्यषसायोपचितमनषस्थाप्येन । ततो कीमतररागद्वेषाप काशमोन निगमति । दशमं सेविस्था प्रोग निर्गमयति। सायोपवितं मूलेन । ततोहीमतमरागषापपलायोपवितो. बसम सेविस्था निर्षिकसिकेन निर्गवति । तपा-समवस्थाप्यं | मादाय पर्यायादिहानिकाशमेन भवन्तिावतो मि. सेविस्वाभनवस्थापन निर्गपति। प्रमवश्याप्यं सेवित्वा ममममस्याश्वेदादयःकस्मादेवं प्राधिनहानिः। (मतमा. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) पच्छित्त अभिधानराजेन्डः। पच्छित्त ह-(तेहिं तु इत्यादि ) ते रागद्वेषैस्तीव्रतीबतरवैराऽऽविदोष- त्तापयहिना वेपमानः पश्चात्तापकरणत एवं कम्पमानोऽन्तरम्तवृद्धः कोपवयवृकेरुत्पसिरतो यथा यथा रागद्वेषाभ्यवसा. श्चित्तमध्ये दह्यते ततो ज्ञायते स्थविरैरेतस्य रागद्वेष हानिरिति यवृद्धिस्तथा तथा प्रायश्चित्तस्यापि वृद्धिः, यथा यथा च | तदनुरूपं प्रायश्चित्तं प्रस्थाप्यते । रागषहानिस्तथा तथा प्रायश्चित्तस्यापि हानिरिति । वृहिपरिज्ञाननिङ्गमाहपतदेवाह जिण पम्पत्ते भावे, असदईनस्स तस्स पच्छित्तं । जिण निलेवाकुडए, मासे अपलिनचमाणे सट्टाणं । हरिसमिव वेदयंतो, तहा तहा वए उवरि ।। ३३४॥ मासेण विमुजिकहिई, तो देति गुरूवएशेणं * ॥३३॥ तस्य प्रायश्चित्तप्रतिपतुर्जिनैः सर्व प्रकर्षण कप्ताः प्रज्ञप्ता भावा जिनाः केवल्यवधिमनःपर्यायज्ञानिप्रभृतयः ते केवझाऽऽदिव. जीवाऽऽदिकास्तान जिनप्रज्ञप्तान भावान् अश्रद्दधानस्य । तथा लतो यथाऽवस्थितरागद्वेषाऽभ्यवसायहानिवृद्धीरुपलभमाना प्राणानिपाताऽऽदि कृत्वा पास्तां तदुत्तरकालं किं वालोचनानिलेपनकुटान् प्रागुक्तप्रकारेण दृष्टान्तीकृत्य यो यथा शुध्य. यामपि निधिलाभे हर्षामिव घेदयमानस्य यथा यथा हर्षगमन ति तस्मै तथा प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्ति । तथादि-मासा रा. तथा तथा प्रायश्चित्तमुपर्युपरि वर्द्धते । किमुक्तं नवति ? -स्थ. गद्वेषाध्यवसायैर्मासे प्रतिसेविते तदनन्तरमालोचनायामप्र. विरा अपि जिनप्राप्तभावाश्रमानेन तथा तथा हर्षगमनेम च तिकुञ्चति जिनाः केवलाऽऽदिवलतः श्रुतव्यवहारिणो गुरुपदेश- प्रतिसेचकस्य रागद्वषवृद्धिमवगच्चन्त्यवगत्य च तदनुरूपमुपतः, पाठान्तरं--"जिनोपदेशेन" मासेनैप विशोत्स्यतीति विज्ञाय युपरि प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्ति ।। स्वस्थान मासिकमेव प्रायश्चित्तं ददति प्रयच्चम्ति । यदि पुन: सूत्रम्मासिकं यावत्पारान्चितं वा मासा 5ऽदिरेव रागद्वेषाध्यवसाय जे निक्खु चानम्मासियं वा मातिरेगचाउम्मासियं वा 4. स्ततो हीनतरैर्वा प्रतिसवितम्। यदि वा-पश्चात् ढा पुष्टु कृतमि- चमासियं वा सातिरेगपंचमासियं वा एएसि परिहारहाणाणं स्यादिभिर्निन्दनैः प्रतनूकृतं तदा जिनाः केवलाऽऽदिबलतः, श्रु. अम यरं परिहारहाणं पमिसे वित्ता आलोए जा, अपलितव्यवहारिणो गुरूपदेशतस्तथा विज्ञाय तस्मै मासं भिन्नमास यावदन्ते निर्विकृतिकमपि प्रयच्चन्ति, ततो न कश्चिदोषः। उंचिय आलोएमाणस्स चाउम्भासियं वा सातिरेगचानपुनरप्याड चोदक: म्भासियं वा पंचमासियं वा सातिरेगपंचमासियं, पतिपत्तेयं पत्तेयं, पए पए नासिऊण अवराहे । निय आलोएमासस्स पंचमासियं वा सातिरेगपंचमासियं तो केण कारणेणं, ही जहिया व पटवणा॥३३॥ छमासियं वा, तेण परं पलिनंचिए चा अपलिचियर वा पदे पदे सुत्रगते प्रत्येकं प्रत्येकमपराधान् भाषित्वा ततस्त. ते चेत्र छम्मासा ॥१३॥ (५) दनन्तरमर्थतः केन कारणेन होना अत्यधिका वा प्रस्थापना यो भिनुश्चातुर्मासिकं वा सातिरेकचातुर्मासिकं वा पा. भणिता?। यथा स्तोके प्रायश्चित्तस्थाने बहु प्रयच्थ, बहु- ञ्चमासिकं वा सातिरेकपाश्चमासिकं वा पतेषां परिहारके वा स्तोकम, यदि बा सर्वथा कोषं कुरुथेति । स्थानानामन्यतरतू परिहारस्थानमालोचयेत, तस्याप्रतिकअत्राऽऽचार्य आह इच्या 5ऽनाचयतः चातुर्मासिकं वा सातिरेकचातुर्मासिकं वा मण पर मोहि जिवा, चउदस इसन्धियं च नवपुर्दिछ। पाश्चमासिक वा सातिरेकपाश्चमासिकं वा,दद्याद् इति शेषः । थेरे च समासज्जा, ऊणऽनहिया च पट्ठवणा ||३३शा यत्प्रतिसेवित तहयादिति भावः । तद्योग्यैरे वाध्यवसानेस्तमनःपर्यायशानिनं परमावधि प्रजूतावधि जिनं वा केवलज्ञानिनं स्य तस्य प्रतिसेवनात्,पालोचनायां वा तत्प्रतिकुश्चनात्। प्रति. चतुर्दशपूर्विणं दशपूर्विणं नवपूर्विणं च स्यचिराइच समासाद्या. कुडच्याऽऽसोचयतश्चातुर्मासिकप्रतिसेयकस्य पाश्चमासिकं सा 5ऽश्रित्य हीना अभ्यधिका वा प्रस्थापना भवति । इयमत्र मावा तिरेकचातुर्मासिकप्रतिसेवकम्य सानिरकपाश्चमासिकं, माना-मनःपरमावधिजिनाऽऽदयः प्रत्यक्कानिनः,ततः ते प्रतिसेव. यामिपन्नस्य गुरुमालशाधिकस्य दानात् । पाश्चमासिकप्रति. केषु रागद्वेषाऽयवसायस्थानानां हानि वृद्धि वा साकादवेकमा सेबकस्य सातिरेकपाश्चमासिकप्रतिमेबकस्य च षायमासिकं, णातुल्येऽप्यपराधपदे रागद्वेवानुरूप हीनमधिकं वा प्रस्थापय. परामा लापरम्प नगवदमानवामिता तपोदानस्थासंभवा. न्ति; ददतीत्यर्थः । त । (नेण परमित्यादि) ततः पाश्चमासिकास्थामात्परस्मिन्या. अथ ये मनःपरमावधिजिनाऽऽदयः प्रत्यककानिनस्तेषामेतत् । मासिके सातिरेके वा पापमासिके प्रतिसेवितेश्रामोचनाकाले युक्तम, रागद्वेषाध्यवसायवृद्धिहान्या सातादवेकणात । ये प्रतिकुश्चिते ऽप्रतिकुश्चिते वा त एव स्थिताः षण्मासाः प्रदात. पुनः स्थविरास्ते कथं रागद्वेषाणां हानि वृद्धि वा जानीयुः। व्याः, परतस्तपोदानस्य निबंधनात। तदेवं पञ्चमसूत्र मुक्तम् । सच्यते-बाह्यपश्चात्तापाऽऽदिलितः, तत्र हानिपरिक्षानलिज इदानी षष्ठं सुत्रमाहपश्चात्तापाऽऽदिक माह एवं बहमो वि नेयम् । हा दुडु कयं हा दु-द्रु कारियं दुटुमणुमयं मे त्ति । एवममुना प्रकारेण बहुशोऽपि बहुशःशब्देन विशिष्टमपि पत्र षष्ठ वक्तव्यम् । तश्चैवम्अंतो अंतो मज्द, पच्छातावेण वेवंतो ।। ३३३॥ "जे भिक्खू बहुसो चानम्मासियं वा बहुसो सातिरंगचाउ. प्राणातिपाताऽदि कृत्या, कारयित्वा, अनुमोघ च तमुत्तर- म्मासियं वा बहुसो पंचमासियं वा बहुसोसातिरेगपंचमासियं कानं हा इति विषादे. इष्ट अशोभनं मया कृतम् हा मुचु का- वा पपसि परिहारहाणाणं ममयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता रितम, हा दुध अनुमतम मे ममेत्येवलवणेन पश्चात्तापेन पश्चा. मालोजा, अपरिचिय बाझोपमाणस्स चाम्मासियं या "जिणाचपसेणं"ति पागन्तरम् । सारेगमानमासियंबा पंचमासियं वा सातिरेगपंचमासियंपा Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परित अभिधानराजेन्डः। पच्चित्त पलिउचिय बालाएमाणस्म पंचमासियं वा सातिरेगपंचमासि कहियं । तुहेण रना मुका । उम्मको जहा सो ददमित्तो निये छम्मासियं वा तेण परं पालउचिए वा अपलिउचिए बा ते रबलापो, भवि य मरणमम्भुवगतो, न य परावराहो सिद्धो, चेव छम्मामा इति ।" तदा पालोयणारिदेण अपरिस्साविणा नवियब्वं । जहा सा अस्याकरगमनिका पञ्चसूत्रानुसारतः कर्तव्या, नवरं बहु धणमित्तो नुयत्धं कहे-ममेसोऽवराहो ति । एवं प्रानोयशोऽपि चातुर्मासिके प्रतिसेविते यद्येक चातुमासिकं दत्तं गेण मूमुत्तरावरादा अपमिउंचमाणेण जाध्या कहेयवा।" सब बहुशोऽपि प्रतिसेवनाया मन्दानुनावकृतत्वात आलोचना- निकाचना किल तवत आलोचनाहीऽऽलोचकाभ्यां विना वेलायामप्येककालं सर्वेपामा लोचितत्वात् । एवं सातिरेकचा- म नवतीति त्रितयमपि सप्रपाचं विवक्षुरिदमाहतुर्मासाऽऽदावपि भावनीयम् । श्रानोयणारिहो पा-सोयों श्रामायणाएँ दोसविही। (११) पालोचनायां दन्तपुरकथानकम् । संप्रति वक्तव्यविशे- पणगातिरेग जाप-पवीस सुत्ते अह विमेसो ॥३३६॥ चमनिधित्सुराह आलोचना? याग् वक्तव्यः, तथा प्रासोचकश्च यथावस्थि. एनो निकायाणामा-सियाण जह घोसणं पुहविपालो । तो यारो भवति तादृशोऽनिधातव्यः, प्रासोचनाया दोषवि. दंतपुरे कासी या, आहरणं तत्थ कायव्वं ॥ ३३५ ।। पयो विधिः दोषनेदा वक्तव्याः। तथा (श्रह त्ति) पष सूत्रे वि. शेषो-यत चातुमासिकस्य पाश्चमासिकस्य वा पञ्चका. इत इति तृतीया) पञ्चमी । ततोऽयमर्थः-पतैरनम्तरो तिरेको रात्रिन्दिवपञ्चकेनातिरेकोऽत्य गलता। एवं पञ्चकवृद्ध्यावितैः सर्वैरपि सूत्रैमासिकानां मासनिष्पन्नानां मासिक ऽतिरेकस्तावद्वक्तव्यो यावत्पञ्चविंशतिः, पञ्चविंशत्यातिरेक इ. द्वैमासिकत्रैमासिकयावतधाएमासिकानां निकाचनोक्ता । नि स्यर्थः। इयमत्र भावना-सूत्रे चातुर्मासिकस्य पाश्चमामिकस्य काबना नाम-यत मासिकाऽऽदि प्रतिसेवितं तत् याबदद्यापि च या सातिरेकता सा दिमानां पञ्चकेन दशकेन पञ्चदशपालोचनाईस्य पुरतो नालोच्यते तावदनिकाचितमवसेयम् । केन विंशत्या पञ्चविंशत्या वा अव्येति । भालोचितं तु निकाचितं, तत " पालोपज्जा " इत्यादि. साम्प्रतमालोचना) याहग्जवति तादृशमुपदर्शयनि-- पदैनिकाचना भाविता द्रष्टव्या । तत्र आलोचनायामाहरणं कातं कर्तव्यम् । किं तदित्याह-(जह घोसणमित्यादि) यथे आलोयणारिहो खबु, निरावझावी उ जह उ दढमित्तो । त्याहरणोल्लेखोपदर्शने ; दन्तपुरे पत्तने पृथिवीपालो राजा दन्त. अट्ठी चेव गुणे हिं, इमेहि जनो उ नायब्चो ।।३३७।। वक्रनामा घोषणामकार्षीत् दन्ता न केनापि क्रेत्तव्याः, स्व. आलोचनाहः स्खलु निरपलापी-अपलपतीत्येवशालोऽपनापी, गृहे वसन्तः समर्पणीया श्त्येवंरूपामित्यादि । तदम्-“दं. निश्चितमपक्षापीति निरपलापी, भयमसौऽपरिश्रावति प्राधातपुरं नगरं, दंतवको राया, तस्स सच्चवती देवी, तीसे दो । धः। तथैव, तुरेवकारार्थः । रढमित्रोऽनन्तरकथानकोक्तस्तथैव हलो जामो-जह अदं लञ्चदंतमए पासाए कीनिजामि, कष्टव्यः, स चाभिगुणरेतेः बक्ष्यमाणस्वरूपैयुक्तो ज्ञातव्यः । राम्रो कदिय । रन्ना आमच्चो आणत्तो-सिग्घं मे दंते सबठवे. तानेव गुणानाहह । तेण नगरे घोसाधियं-जो अप्लो दंतो किणे, न देशवा आयारव आहारव ववहारवऽवीलए पकुवीय । घरे सते, तस्स सारीरो दंको । तत्थ नगरे धमित्तो सस्थ. निज्जव अवायदंसी, अपरिस्सावी य बोधन्वा ।।३३८॥ बाहो, तस्स दो भज्जाओ-धणसिरी, पलमसिरी ग । अन्न- प्राचारो कानाचाराऽऽदिरूपः पञ्चप्रकारः, सोऽस्यास्तीति या तासि दुन्ह वि कहो जाओ । तत्य धणसिरीए पळम- आचारवान् । आ-सामस्त्येनाऽऽनोचितापराधानांधारणमाधारः, सिरी भणिया-किमेवं गब्बमुबहसि, किं ते सञ्चवतीए विव सोऽस्यास्तीत्याधारवान्,आलोचकेनाऽऽयोच्यमानो यः सर्वमध. दंतमयो पासाम्रो कतो ?। ताहे पउमसिरीप असम्गाहो हि- धारयति स आधारवानित्यर्थः । व्यवडियोऽपराधजातं प्रा. तो-जह मे दंतमो पासाओ न किज्ज३, तो अल मे जीविए. यश्चित्त प्रदानतो येन स व्यवहार आगमादिकः पञ्चप्रकाण । न देश धणमित्तस्स बि उल्लावं । तस्स बयंसो दढमित्तो रः, सोऽस्यास्तीति व्यवहारवान्, यः सम्यगागमाऽऽदिव्यवहार नाम, तस्स कहियं । तेण जणियं-अहं ते इच्छं पूरेमि,ग्डाविया जानाति, ज्ञात्वा च सम्यक प्रायश्चित्तदानतो व्यवहरति, सव्यअसम्गाहं तादे सो दढमित्तो बणयरे दाणमाणसंगहिए करे- वहारवानिति नावः। तथाऽपवीमयति लजा मोचयतीत्यप। तेर्दि जणियं-किं प्राणमो,किं वा पश्च्यामो ?। तेण जणियं- वीडकः, आलोचक बजयाऽतीचारान् गोपायन्तं यो विचि. दते मे देह । तेदि य ते बंता सम्पूयगेहिं गोविया, सगडं त्रमधुराऽऽदिवचनप्रयोगैस्तथा कथञ्चनापि वक्ति यथा सलभरियं, नगरदारे पवेसिज्जंताण एगो खमपूयगो त्ति गोणे- जामपहाय सम्यगालोचयति सोऽपत्रीक इत्यर्थः । (प. ण गहीतो, दंतो पमित्रो । चोरो त्ति रायपुरिखेहि वणयरोग. कधी य सि) कुर्व' इत्यागमप्रसिद्धो धातरस्ति, यस्य विकुहिता,पुच्चिता-कस्सेते दंता ? सो न सादेह,पत्थंतरे दढमित्ते. बणति प्रयोगः । प्रकुर्वतीस्वेचं शीलः प्रकुर्वी । किमुक्तं भव. ण भणियं-मम पते दंता, एस कम्म करो, ततो वणयरो मुक्को, ति?-आलोचकेनालोचितेष्वपराधेषु यः सम्यक् प्रायश्चिनप्रदा. दमित्तो गहितो। रमा पुनिता-कम्सेते दंता? । सो प्रण- नत अालोचकस्य विशुद्धिमुपजनयति स प्रकुर्वीति । (निजव मम तिा पायंतरे दढमितं गाहियं साऊण धणमित्तो पागतो,रम्लो ति)निश्चितं यापयति प्रायश्चित्तविधिषु याप्यमालोचकं करो. पुरतो जण-ममेते दंता, मम दंडं सारीरं वा निमाई करह। ति निर्वाहयतीति यावदिति निर्यापः, अच्प्रत्ययः । अप. दढमित्तो भण-अहमेयं न जाणाभि, मम संतिया, दंता मम राधकारी यथोक्तं प्रायश्चित्तं कर्तुमसमों यथा निर्वहति त. निग्गरं करेह । एवं ते अनोन्नावराहरक्वाहिया रम्मा भणिया. था तदुचितप्रायश्चित्तप्रदानतः प्रायश्चित्तं कारयति स भो! तुम्भ निरपराधा, भूयत्थं कह । तेहिं सव्वं जहाभयं निर्यापक ति भावः। तथा इह लोकेऽपायांश्च दर्शयति . Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त अनिधानराजेन्द्रः। पच्छित्त स्येवंशीयोऽपायद । किमुक्तं जवति ?-यः सम्यगासोच यति, तथा यद् दृष्टमपराधजातं क्रियमाणमाचार्याऽऽदिनातदेवाऽऽसोकुशितं वा पालोचयति, दत्तं वा प्रायश्चित्तं सम्यग् न करो चयति नापरमिति तृतीय भालोचनादोषः ३ । (वायर ति) ति, तस्य, यदि त्वमसम्यगालोचयिष्यसि प्रतिकुञ्चितं वा क- बादरं दोषजानमालोचयति, न सूक्ष्म, तत्रावज्ञापरावादेष च. रिष्यसि, दत्तं वा प्रायश्चित्तं न सम्यक पूरायष्यसि, नत. तुधमानोचनादोषः ।।(सुहुम ति) सूक्ष्म वा दोषजात. स्तनूयान् मासिकाऽऽदिको दगमो नविष्यतीत्येवमिहलोकापा. मालोचयति, न बादरम् । यः किल सूक्ष्ममालोचयति स यान तथा संसारे जन्ममरणाऽऽदिक स्वया प्रनूतमनुभवितव्यं, कथं बादर नाऽऽलोचयिध्यतीत्येवंरूपजावसंपादनार्थमेवार्थस्ये. पुल भयोधिता च तवैवं भविष्यतीत्येवं परमोकापायांश्च दर्श ति । एष पश्चम पालोचनादोषः ५ । तथा (उममिति प्रच्छन्न. यति, सोऽपायदर्शीति भावः । तथा न परिश्रवतीत्येवंशी- मालोचयति । किमुक्तं भवति ?-लजालुतामुपदश्योऽपराधान. लोऽपरिधाबी, प्रासाचितं गोप्यमगोप्यं वा योऽन्यस्मै न | रूपशब्देन तथा 55लोचयति यथा केवलमात्मैव शृणोति, न गु: कथयति सोऽपरिश्राबीति जाचः । रुरित्वेष षष्ठ बालोचनादोषः ६ । (सदाउल सि) शब्दाकुलं ____ साम्प्रतमालोचकमभिधित्सुराह वृहरूकब्द यथा भवत्येवमानोचयति । इदमुक्तं नवति-मह ता शब्देन तथा मालोचयति यथा अन्येऽध्यगीतार्थाऽऽद. आलोयंतो एत्तो, दमाहि गुणेहिं तु होइ उबवेो। यः शृण्वतीत्येष सप्तम आलोचनादोषः । तथा (बहुजण जाकुलविणयनाणे-दसणचरणेहि संपन्नो ॥३३॥ ति) तथा बहुजनमध्ये यदालोचनं तद्वदुजनम् । अथवा. खंते दंते अमाई, अपच्छताची य होति बोधयो। बहवो जना पालोचनागुरवो यत्र तत् बहुजनमालोचनम् । किमुक्तं भवति?-एकस्य पुरत मालोच्य तदेवापराधजातमन्यआलोयणाएँ दोसे, एत्तो बुङ समामेणं ।। ३४०॥ । स्यान्यस्य पुरत मालोचयति, एषोऽष्टम भालोचनादोषः । इत ऊर्द्धमालोचयनालोचको वक्तव्यः , स च दशभिर्गुः । (अब्वत्त सि) अव्यक्तोऽगीतार्थस्तस्याव्यक्तस्य गुरोः पुरो गैरुपपेत एव युक्त एव भवति । तुरेवकारार्थो भिन्नक्रमस्वा यदपराधाऽऽलोचनं तदस्यक्तम् । एष नवम भालोचनादोषः । बत्र संबध्यते । तानेव गुणानुपदर्शयति-(जाइ इत्यादि) (तस्सेवी ति ) शिष्यो यमपराधमालोचयिष्यति तमेव सेवते जातिसंपन्नः, कुलसंपन्नः, मातृपक्को जातिः, पितृपकः कु. यो गुरुरसौ तत्सेवी, तस्य समीपे यदपराधाऽऽलोचनमेष म. लम । विनयसंपन्नः, ज्ञानसंपन्नो, दर्शनसंपन्नः, चरणसं. मातिचारेण तुव्यस्ततो न किमपि मे प्रायश्चितं दास्यत्यपत्रः कान्तः, दान्तः, अमायी. अपश्चात्तापी च बोध. स्पं वा दास्यति, न च मां खरएटयिष्यति-यथा विरूप व्यः । अथ कस्मादालोचकस्यैतावान् गुणसमूहोऽन्विष्यते । कृतं त्वयेति बुद्ध्या यदालोचनं तत्सेवी । एष दशम प्रा. उच्यते-जातिसंपन्नः प्रायोकृत्यं न करोति, अथ कथमपि । लोचनादोषः १० । तदेवमालोचनाविधिदोषा उक्ताः । कृतं तर्हि सम्यगालोचयति । कुलसंपन्नः प्रतिपन्नप्रायश्चित्त संप्रति यथाभूतेषु च्याऽऽदिवालोचनं तथाभूतभव्याऽऽदि. निर्वाहक उपजायते। विनयसंपन्नो निषद्यादानाऽऽदिकं विनय प्रतिपादनार्थमाहसर्व करोति सम्यगासोचयति । ज्ञानसंपन्नः श्रुतानुसारेल सम्यगालोचयति, अमुकश्रुतेन मे तहत्तं प्रायश्चित्तमतः शुकोऽ आसोयणाविहाणं, तं चिय जं दव्य खित्त काले य। हमिति च जानीते । दर्शनसंपन्नः प्रायश्चित्तात् शुद्धिं श्रद्धसे। नावे सुद्धममुघ, ससणिद्धे सातिरेगाई ॥ ३४२ ॥ चरणसंपन्नः पुनरतिचारं प्रायो न करोति, अनालोचिते बा. पालोचनाविधानं तदेवात्राऽपि सविस्तरमभिधातव्यम्। यदुक्तं रित्र मेन शुद्ध्यनीति सम्यगालो चयति । कान्तो नाम कमायु प्रथमसूत्रे-“दवादि चउरनिगाह" इत्यादिना ग्रन्थेन । ततः प्रा. कः, स कस्मिश्चित्प्रयोजने गुर्वादिभिः वरपरुषमपि भणितः गुक्तदोषवर्जिता मालोचना प्रशस्ते व्ये केले काले भावे सम्यक् प्रतिपद्यते, यदपि च प्रायश्चित्तमारोपितं तत्सम्यग्वहः च प्रागुक्तस्वरूपे दातव्या, नाप्रशस्ते र प्रतिसेवितं द्विति । दाम्तो नाम इन्द्रियजयसंपन्नः, स प्रायश्चित्ततपः सम्य. धा जवति-शुरुम् अशुच। तत्र यत शुफेन नावेन प्रतिसे. क करोति । माया अस्यास्तीति मायी, न मायी अमायी, सो. वितं यतनया च तत् शुकं, तब बुद्धत्वादेव न प्रायश्चित्त. उप्रतिकुञ्चितमालोचयति । अपश्चात्तापी नाम यः पश्चात्प. विषयः । यत्त्वशुद्धन भावेन प्रतिसेवितमयतनया च तदछ. रितापं न करोति हा पुष्ठ कृतं मया यत् आलोचितमि , तच्च प्रायश्चित्तविषयोऽशुरूत्वात, तस्मिश्चागुके प्रायदानी प्रायश्चित्सतपः । कथं करिष्यामीति, किम्वेवं मन्यते. श्चित्तानि केवलानि मासिकाउदीनि सातिरेकाणि च । तनसा कृतपुण्योऽहं यत्प्रायश्चित्तं प्रतिपत्रवानिति । अत ऊर्द्धमालो. तिरेकाणि (ससणिद्ध इति) सस्निग्धे हस्ते मात्र वा सति चनाया दोषान समासेन संक्केपेण बदये । तेन भिक्का ग्रहणतः, उग्लशयमेतत-तेन बीजकायसंघट्टनाss. प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति दिनाऽऽपि सातिरेकाणि कष्टव्यानि । आकंपइत्त अणुमा-इत्त जं दिट्ट बायरं सुहमं । । तत्र सातिरेकतामेव भावयतिउम्म सद्दाउझगं, बहुजण अव्यत्त तस्सेवी ॥ ३४१॥ पणगेणऽहिओ मासो, दस पक्खेणं च वीस लिने । आवर्जितः सन् प्राचार्यः स्तोक मे प्रायश्चितं दास्यतीति बु. संजोगा कायबागुरुलहुमीसेहि य शेगा ॥३४॥ व्या वैयावृत्य करणाऽऽदिभिरालोचनाचार्यमाकम्प्य अाराधय. ह मूलत पारज्या मूनि सर्वारयप्पालोचनासूत्राणि किल न प्रास्रोचयत्षेष आलोचनादोषः १ । तथा अनुमान्य अनुमान सर्वसंख्यया दश भवन्ति । तत्राद्यानि चत्वारि सूत्राणि कृत्वा लघुतरापराधनिवेदनातो मृद रामप्रदायकत्वाऽऽदिस्व. साक्षात्सूत्रत एव परिपूर्णान्युक्तानि, शेषाण तु षट् सूत्राण्यारूपमाचार्यस्याऽऽकरय यदालोचयत्येषोऽप्यालोचनादोषः।। मं द्वाभ्यां सूत्राभ्यामर्यतः सूचितानि । तानि चामूनि-सा. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) पच्छित प्राभिधानराजेन्डः। पच्छित्त तिरेकसूत्रम १। बदुसातिरेकसूत्रम २ । सातिरेकसंयोगसूत्र. स्ति । तस्सूचनार्थमिदमुत्तरार्द्धमाह--(संजोगा कायदा इत्यादि) म् ३ । बहुसातिरेकसंयोगसूत्रम ४ । नवमं सकलस्य साति- गुरवश्च लघवश्च गुरुवघवः,ते च ते मिश्राश्च गुरुलघुमिश्राः, रेकस्य च संयोगसूत्रम् ५ दशमं बहुशःशब्दविशिष्टस्य स. तैरनेकैः संयोगा भवन्ति कर्तव्याः । ते चैवमुचारणीयाःकलस्य बदुशःशब्दविशिष्टस्य सातिरेकस्य च संयोगसूत्रम् "जे भिक्खू सातिरेगउग्घायमासियं वा परिहारट्राणं पकि६। तत्र पञ्चमं सातिरेकसूत्रं पञ्चसुत्राऽऽत्मकम् । तश्चैवमुच्चार- सेवित्ता भालोपजा, अपलिउचिय पालीपमाणस्स सातिरेणीयम्-"जे भिक्खू सातिरेगमासियं परिहारहाणं पडिस- गमुग्धायमामियं घा, पलिउंचिय पालोएमाणस्स सातिरेगमुवित्ता पालोपज्जा, पलि चिय पालोएमाणस्स सातिरे. ग्घायदोमासियं वा, सातिरेगमणुग्घायदोमासियं वा । जे गदोमासियं।" इदं पञ्चमसूत्रे प्रथमसूत्रम् । अन मासिकस्य भिक्खू सातिरेगमुग्धायमामियं वा सातिरेगमणम्घायदोमासि. सातिरेका पूर्वान व्याख्यानयति-पञ्चकेन रात्रिन्दिवरच. यं वा परिहारट्टाणं पमिसेवित्ता।" इत्येवमुद्घतितपदममुश्चकेन मासोधिकः । ( इस त्ति ) दशभिरहोरात्रैः पकेण ता अनुदातद्वैमासिकाऽऽदीन्यपि वक्तव्यानि । एवमेते नरः (वीस ति)विंशत्या रात्रिन्दिवैजिन्नेन भिन्नमासेन, पञ्चविंशः पञ्च । एते अनुद्धातमासिके अनुदानमासिकद्वैमाप्तिकाssग्या दिनैरित्यर्थः । तत्र पञ्चकातिरिक्तो मासो-यथा केनाऽपि यधिसयोगेम लब्धाः । एवमुद्घातिते द्वैमासिकेऽपि पश्च, पा. शच्यातरपिण्डः सस्निग्धन हस्तेम मात्रकेण घा गृढीतः ञ्चमासिकेऽपि पश्चेत्युभयोरेककसंयोगेन सर्वसंख्यया भकाः तत्र मासः शच्यातरपिएमग्रहणात रात्रिन्दिवपश्चक, सस्निग्धे- पञ्चविंशतिः। तथा उद्घातसातिरेक मासिके।पयमनुद्घातसा. न हस्तेन मात्रकेण निवाग्रहणात् रात्रिन्दियदशकेनाधिको तिरेकमासिकद्वैमासिकाऽऽदिदिकसंयोगे नक्का दश । एवमुद्घामासो, यथा केनापि शय्यातरपिण्डः परीत्सकायानन्तरं नि- तिते सातिरेके द्वैमासिके त्रैमासिके चातुर्मासिके पाश्चमासिके क्विनः सस्निग्धेन हस्तेन मात्रकेण वा गृहीतः, तत्र मासः च प्रत्येकं दश दशेति सर्वसंख्यया उद्घातितकसंयोग अनुद्शग्यातरपिएडग्रहणात् रात्रिन्दिवपञ्चकं परीत्तकायानन्तर- घातिनद्विकसंयोगे जनाः पश्चाशत् । एवं तृतीय सूत्रानुसारतो निक्किप्तग्रहणात् । द्वितीयं रात्रिन्निवपञ्चकं सस्निग्धेन हस्तेन भास्तावद् वाच्या यावत्स संख्यया भङ्गानां नवशतान्ये. मात्र केण वा भिक्षाग्रहणात् । एवं पक्षाऽऽद्यतिरेकेपि नावना कषष्टयधिकानि ए६१ भवन्ति । एतावत एव च ए६. भ. कार्या । एवं द्वितीयतृतीयत्राऽऽदिष्यपि द्वैमासिकाऽऽदीनां सा. काः अष्टमेऽपि बदुशःसातिरकसंयोगसूत्रे भवन्ति । पमशीतं तिरेकता पञ्चकाऽऽदिभिभावीया। सूत्रपाठस्स्वेबम-"जे भि- शतं सूत्राणां प्राक्तनमिति सर्वसंख्यया पञ्चमषष्ठसूत्रेषु क्खू सातिरेगं दोमालियं परिहारहाणं पमिसेवित्ता मालो- सूत्राणामेकविंशतिशतान्यष्टोत्तराणि भवन्ति २१०८। एतानि च पजा, अपमिचिय पालोपमाणस्स सातिरेगं मासियं, पनि मूलगुग्णापराधाभिधानेनोत्तरगुणापराधाभिधानेन च प्रत्येक उचिय भालोपमाणस्स सातिरेगं तेमासियं । जे भिक्खू सा. वक्तव्यानीत्येष राशि भ्यां गुरुयते, जातान द्वाचत्वारिंशनानि तिरेगं तेमासियं परिदारहाणमित्यादि।" षष्ठमपि बहुश:- षोमशोत्तमणि ४२१६। एनानि च दर्पतः कल्पतो वाऽप्ययत-- शब्दविशिएं सातिरेकसूत्रं पञ्चसूत्रात्मकम् । तश्चैवमुच्चारणी- नया जवन्तीति द्वाज्यां गुपयन्ते , जातानि अष्टौ सहस्राणि यम्-"जे निक्खू बहुसो सातिरेगमासियं परिहारहाणं प. चत्वारि शतानि द्वात्रिंशदधिकानि ८४३२॥ एतावत्येव चाइदि. मिसेवित्ता मानोपज्जा, अपलि उचिय पालोपमाणस्स सा. मेषु सूत्रेषु सूत्राणि द्वात्रिंशदधिकानि ८४३२१ पतावन्स्येव चाऽ5तिरेगदोमासियं । जे भिक्खू बसो सातिरेगदोमासिय परि- दिमेषु सूत्राणि नवन्तीत्य टास्खपि सूत्रेषु सर्वसंख्यया सूत्राणा हारहाणं पमिसेवित्ता पालोपज्जा,अपलि उचिय पालोपमाण षोमश सहस्राण्यटौ शतानि चतुःषष्टचधिकानि भवन्ति १६. स्स सातिरेगदोमासियं, पलिचिय प्रासोएमाणस्स सातिरेग- ८६वा नवम सूत्रं सकलस्य सातिरेकस्य च संयोगाऽऽत्मक,तन तेमासियं।"इत्यादि सप्तमं सातिरेकसंयोगपत्रमाश्रमं पद्दशः सकलसंयोगा मासिकद्वैमासिकाऽऽदिसंयोगाः सातिरेकसंयोगाः सातिरेकसंयोगसूत्रम् । तत्र सातिरेकाणां मासिकाइदीनां सं- लघुगुरुपञ्चकदशकाऽऽदिसंयोगा। तत्र प्रथमतो लघुगुरुरहितप. योगाः सातिरेकसंयोगाः,तदास्मर्क सत्रं सातिरेकसंयोगसूत्रंत- श्वकादिसूत्राणि केवमान्युपर्यन्ते--"जे भिक्खू पणगातिरेगे देव बहुशःशब्दविशिएं बहुशः सातिरेकम् । तत्र सातिरेकाणि मासियं परिहारहाणं पमिसेवित्ता पालोपजा " इत्यादि । पश्च पदानि । तद्यथा-सातिरेक मासिकम् सातिरेक द्वैमासि. " जे भिक्खू इसगातिरेगं मासियं परिहारट्ठाणं सेवित्ता" कम् ।सातिरेकं त्रैमासिकम् ३ । सातिरेकं चातुर्मासिकम ४॥ इत्यादि । एवं पञ्चदशकेन विशव्या सातिरेकस्त्राणि मासिसातिरेकं पाश्चमासिकम् ५ । पञ्चानां च पदानां द्विकसंयोगे कविषयाणि वक्तव्यानि । एवमेव प्रत्येकं द्वैमालिकत्रैमासिकभङ्गा दश, त्रिकसंयोगेऽपि दश, चतुष्कसंयोगे पश्चपञ्चक- चातुर्मासिकपाश्चमासिकविषयाण्यपि पञ्च पञ्च सातिरेकसंयोगे एकः । एते च तृतीय चतुर्थसूत्रचिन्तायामिव भाव- सूत्राणि वक्तव्यानि, सर्वसंख्यया पविशतिसत्राणि । पर्व नीया सर्वसंख्यया भाः पकिंशतिः । एवमेव पशितिन- मधुचकाऽऽदिविषयाण्यपि पञ्चविंशतिसूत्राणि बाच्यानि । श्राः सातिरेकसंयोगसूत्रेऽपि नावनीयाः । उभयमीलने भना एवमेव पञ्चविंशतिसूत्राणि गुरुपञ्चकाऽऽदिविषयापयपि। सर्व. द्वापश्चाशत् । पश्च सूत्राणि पश्चमे सातिरेकसूत्रे,पश्च सूत्राणि षष्ठे मीलने पञ्चसप्ततिसूत्राणि । एतानि गुरुलघुविशेषरहितमासिपहुशः सातिरेकसूत्रेतान्यपयत्र मीसितानि जातानि सर्वसंख्यया काऽऽदिविषयाणि, तदनन्तरमेतावन्त्येव लघुमासिकादिविषद्वाषष्टिसूत्राणि ६२ । पतानि च उदातानुद्धातविशेषरहितानि । यारायपि वक्तव्यानि ततः पुनरप्येतावन्ति गुरुमासिकाऽऽविवि. तत पताबन्स्येबोद्धातविशेषपरिकशिताभ्यन्यानि सूत्राणि द्रष्टव्या. पयाणि, सर्वसंख्य या एककसंयोगे सूत्राणां वे शते पचविनिशपतावस्येव चानुदातविशेषपरिकलिपताम्यपि ६श एव. शत्यधिके १२५ । तदनन्तरम्-"जे भिक्खू पणगातिरेगमासि. मतास्तिनाद्वाषष्टयः सूत्राणां सर्वसंस्थया षडशीतं सूत्रशतम् __यं वा पणगातिरेगदोमालियं वा परिहारहाणं पकिसे वित्ता १८६। अत ऊद्धे तूदासमिधकाभिधानतः संयोगसूत्राणि भव. श्रालोपजा।" इत्यादि । तथा-"ज भिक्ख पणगातिरंगमा Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चित्त प्रभिधानराजेन्सः । पच्छित्त सियं दसगातिरेगमासियं वा परिवारद्वाणं पमिसे बित्ता आ- स्मकं सूत्रम; एवं दशमसूत्रमपि बहुशःसकलबहुशासातिरेकसोपज्जा ।" इत्यादि । एवं मासिकं पञ्चकं वा । द्वैमासिफ प. संयोगरूपं वक्तव्यम्। त्रकदशकाचदशकविंशतिपञ्चविंशति भैः सह पञ्च सूत्रा. तत्र येषु स्थानेषु पञ्चकं भवति तानि स्थानान्युपदर्शयतिणि वक्तव्यानि । एवं त्रैमासिकम् । चातुर्मासिके पञ्चमासिके च प्रत्येकं पञ्च पञ्चेति द्वैमासिकेन पञ्चकेन विंशतिसूत्राणि ससणिक वीयघट्टे, काएमुं मीसएमु परिवविए। सब्धानि । एवं दशकन पञ्चदशकेन विशत्या चविंशति- इचर मुहम सरक्खे, पण मा एमाझ्या हुंति ॥ ३४॥ विशतिसूत्राणि लज्यन्ते. इति पञ्चविंशयः शतम् । तदनन्तरं __ सस्निग्धे नोजनमानके सातिरेकभिक्काग्रहणेन, तथा बीजधले द्वैमासिके ५ञ्चकममुञ्चता त्रैमासिके पञ्चकदशकपश्वरश- बीजकायसंघट्ट कुर्वत्याः सकाशात् भिक्षाऽऽदाने, नथा कायेषु कविंशतिभित्रमासैः सह पञ्च मूत्राणि । एवं चातुर्मासिके पञ्च परीतेषु सचित्ते घु, मिश्रेषु वा सचित्ताचिनरूपेषु परीसकायेषु पचमासिके दश चेति पावदश मूत्रणि वक्तव्यानि । एवं परिस्थापिते परम्परस्थापिते.इतरस्मिश्चानन्तरस्थापिते गृह्यमाणे, दशकं पञ्चदशकं विशति पञ्चविंशति चाशुभचता पश्चदश तथा (सुहुमति) दमप्राभृतिकाग्रहणे, (सरक्चति) सरज. सूत्राणि लभ्यते इति सर्वमीलने पत्रसप्ततिसत्राणि । तथा स्केन हस्तेम मात्रकेण वा भिक्वाग्रहणे, सर्वत्र पञ्चकं भवतीति त्रैमासिके पक्षकाऽऽदितिः सह पञ्च सूत्राणि, पञ्च पास्चमा. वाक्यशेषः । कितवेव स्थानेषु पञ्चकं भवति किं कठिन्ये. सिकपञ्चकाऽऽदितिः सति दश मत्राणि । एवं दशकाऽऽदीन बपीति चेत् । नच्यते अन्येष्वपि तथा चाह (पणगापमाश्या यमुम्चता प्रत्येक प्रत्येक दश दश लज्यन्ते, इति पञ्बाश हुंति ) पञ्चकान्येवमादीनि पवमाद्यपराधहेतुकानि भवन्ति । त् सूत्राणि । तदनन्तरं चातुर्मासिके पम्बकममुचता तानि एवमादिश्वयेवण्यपराधेषु पञ्चकं अष्टव्यमिति भावार्थः।। घामासिकपश्चकाऽऽदितिः सह पश्च सूत्राणि चाच्यानि । एवं साम्प्रतमालोचनाऽहस्य यथा पञ्चकाऽऽदि परिझात, यथा च दशकाऽऽदीन्यमवता प्रत्येकं पञ्च पञ्चेति सूत्राणि । सर्बसं प्रायश्चित्तदानविधिस्तथा प्रतिपादयतिख्ययाऽतृवीयानि शतानि सूत्राणां भवन्ति । एतावम्ति अधु. पावकादिभिरण्येतावन्त्येव गुरुपचकाऽऽदिजिरपीति सर्वसं. समणि समादि अहियं,प रोक्वी सोच देंति अहियं तु । ख्यया पञ्चाशदधिकानि सप्तशतानि सूत्राणामापतानि च मा. होणाहिय तुझं बा,नाउं भावं तु पच्चक्खी ।। ४ ।। सिकद्वैमासिकाऽऽदीनां गुरुत्रबुधिशेषा जाधेन लब्धानि । ततो परीक्षषु विषयेषु नवं पागेतं, पारोकं विषयं ज्ञानं तदस्यामालिकाऽऽदीनां लघुविशेषचिवकायामप्येतावन्ति सूत्राणि स. ज्यन्ते । पतावस्येच च गुरुविशेषविवकायामपि । सर्वमीलने स्तीति पारोकी श्रुतम्यवहारी, शय्यातरं पिएमाऽऽदेराधिक स स्निग्धादि मालोचकमुखात् श्रन्या मास पञ्चकादिभिरद्वाविंशशनानि पञ्चाशदधिकानि २५५० । तदनन्तरम धिक, तुरेवकारार्थः । ददति प्रयच्चन्ति.पालोचकमुखात् श्रव. "जे भिक्खू पणगातिरंगमासियं वा पणगाईरेगदोमालियं णानुसारतः प्रायेण तस्य प्रायश्चित्सदानविधिप्रवृत्तेः । यः पुवा पपमि परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारहाण सेवित्ता।" न: प्रत्यकी प्रत्यक्षकानी केवल्यादिः स पञ्चकातिरिक्त मा. इत्यादीनि त्रिसंयोगावषयाणि । " जे भिक्खू पणगातिरे से श्रानोचिने भावमेव, तुरेवकारार्थः । रागद्वेषपरिणामलकगमा सयं वा पगागातिरेगहोमालियं वा पण तिरेगतिमा णं, ज्ञात्वा रागद्वेषपरिणामानुसारतः प्रतिसेवनातो दीननाथ सियं वा पणमातिरंगचानम्मासियं वा पपसि परिहार. कं या, यदि वा प्रतिसेवनातुल्यं प्रयच्छति । द्वाणाणं ।" इत्यादीनि चतुःसंयोगविषयाणि । " जे भिक्खू पगणगारेगमासियं वा पणगातिरेगदोमासियं वा पणगा साम्प्रतमस्मिन्नर्थतो नवमे सूत्रतः पञ्चमे सूत्रे संयोगविधितिरेगतमासियं चा पगगातिरेगवानम्मासियं वा पणगातिरे. । प्रदर्शनार्यमाहगपंचमासियं वा पसि परिहारट्राणाणमन्नयरं परिहारट्टारा।" इत्यादीनि पञ्चकसंयोगविषयाणि बहूनि सूत्राणि वक्त एत्य पमिसेवणातो, एकगद्गतिगचनक्कपणगेहिं। व्यानि । एतानि च गुरुलघुगतपरस्परसंयोगरहितान्युपदार्श छक्कगसत्तगअट्ठा-नबदसगेहिं अणेगाओ।। ३४६ ।। तानि। संप्रति मधुगुरुगतपरस्परसंयोगविषयाण्युपदश्यन्ते- हार्थतो नवमे सूत्रतः पञ्चमे सूत्रे माक्कादशकसंयोगस्यान्तिमा"जे भिक्ख लहुगपणगगुरुगपणनातिरंगपंचमासियं वा परि- नि चत्वारि पदान्युपात्तानि । नत पदंशकसंयोगो सर्शिनः । म बारदाणं पाविता आलोपज्जा।" इत्यादि ।" जे भिक्ख चायम-मासिकम् १ । सातिरेकमासिकम् २। वैमासिकम ३। बहुगपण नहुदसगातिरंगमासयं परिह राणं । " इत्यादि। सातिरेकडैमासिकम ४। त्रैमामिकम ५। सातिरेकत्रैमासिक"जे भिक्खू लहुगपणगगुरुदसगातिरेगमासियं परिहारट्रा- म् ६ । चातुर्मासिकम् ७ । सातिरेकचातुर्मासिकम् ८ । पा "इत्यादि। पवमासिकं लघुपश्वकं वाऽमुञ्चता तावडू- sचमासिकम् ९ । सातिरेकपाञ्चमासिकम १० । तेन चदशकव्यं यावद् गुरुनित्रमासः। एवं मासिकममुञ्चता पश्चका55- कसंयोगेन शेषा अध्येकका उदयः संयोगाः मूचिहास्तादानां सर्व विकसंयोगा, तदनन्तरसवें चतुष्कसंयोगा याब. नन्तरेण दशकसंयोगविकल्पस्यासंवभात । तथा चात्र पूर्वमूरयो स नवकसंयोगा वक्तव्याः, ततः परमेकादशकसंयोगो वा. बल्ली रष्टान्तमुपन्यस्यन्ति, सच प्राग्वद्भावनीयः । तत श्राह.. व्यः । ततो मासनघुममुचना पञ्चकदशकविंशतिपश्चर्वि- अत्राधिकृतेऽर्थतो नवमे सूत्रतः पञ्चमे मवे, प्रतिसेवनककशतीनां गुरुनघुभेइभिन्नानां द्विका 55दिसंयोगा दशकसंयो. विकत्रिकचतुष्काउचकैः षट्सप्तकाएकनवकदशकैरनेका: प्रगपर्यन्ताः सर्वे वक्तव्याः, ततः परमेवं मासगुरुममुश्चता तिसेवना उपात्तव्याः। किमुक्तं भवनि-दशानां पदानामेकद्विवक्तव्याः। एवं द्वैमासिकाऽऽदिस्थानेवारी प्रत्येकं संयोगतश्च काऽऽनिसंयोगेषु यावन्तो नामका जवान्त तावत्यः प्रतिसे. पक्षकादीनां सर्वे संयोगाः कर्तव्याः । पचमनकसंयोगा55. बना भनेन सूत्रेण सूचिता द्रष्टव्याः। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चित्त अभिधानराजेन्द्रः। पच्चित्त तत्रैककाऽऽदिसंयोगेषु भनसंख्याऽऽनयनाय फरणमाह- दोमिसया वावठा,दसुत्तरा दोसि उसया ज॥३५॥ करण एत्य य इमो. एकादेगुत्तरा दस ठवेनें । बीसालसयं पणया-झांसं दस चेव होंति एक्को य । हेट्ठा पुण विवरीयं, कान रूवं गुणयनं ॥३४७| तेवीस च सहस्सं, अव अणेगाउ नेयाओ ॥३५॥ अत्र त्रेकाऽऽदिसंयोगेषु भङ्गकसंख्याऽऽनयनाय करणमिदम्। पककसंयोगे दश भनाः, विकसंयोगे पञ्चचत्वारिंशत् ४५, पकाऽऽदीनेकोत्तरान् एकोत्तरवृद्धचा प्रवर्द्धमानान् दशकपर्यन्ता. पते प्रागेव भाविताः । त्रिकसंयोगे (वीसालसयं चेति ) नि. नहान् स्थापयित्वेत्यर्थः । अधस्तात् पुनर्विपरीतं गर्शि कु. शत्युत्तरं शतम् । तचैवम्-पश्चचत्वारिंशत् अष्टकेन गुणिता स्वा।किमुक्तं भवति?-य एक काऽऽदय एकोत्तरदशकपर्यन्ता प्र. जातानि त्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि ३६० । तेषां विकेनाऽध. काः पूर्वानुा उपरि स्थापितास्तेषामधस्तात् पश्चानुपू स्तनेन भागे हते राब्धंविंशतिशतम १२० । चतुष्कसंयोगे भक्त. र्पा एककाऽऽदय एकोत्तरदशपर्यन्ता अकाः स्थापनीयाः । कानां शते दशाऽधिके ११०। तथाहि-त्रिकसंयोगे लब्धं स्थापना- | 20 |||||| शतं प्रतिराशीक्रियते, प्रतिराश्योपरितनेन सप्तकेन गुण्यते, जा. अभरितना अङ्का गुणकारा, अधस्तना भागहाराः। तत्रैक तान्यष्टौ शतानि चत्वारिंशदधिकानि ४० । एतेषामधस्तनेन कसयोगसंख्यामिच्छन् अन्यदेकं सकलं रूपं स्थापयेत, स्था. चतुष्केण जागो हियत्ते,लब्धे द्वे शने दशोत्तरे। एवं सर्वत्रनापयित्वाऽन्तिम दशभेन गुणकारेण गुणयितव्यम् । तेन तस्य बना कार्या। पञ्चकसंयोगे भड़कानां द्वे शते द्विपउनाशदधिके गुणने जाता दशैव, एकस्य गुणने तदेव भवतीति वचनात्। २५२ । षष्ठकसंयोग जङ्गकानां दशोत्तरे के शते २१०। सप्तकसं. दसहिँ गुण रूपं, एक्कण हियम्मि भागे जं लम्। योगविंशत्युत्तरं शतम १२० । अष्टकसंयोगे पञ्चचत्वारिंशत Hशनवक संयोगे दश १०। दशकसंयोगे एकः। सर्वसंख्यया भ. तं पमिरासेकणं, पुण वि नहिं गुणेयव्वं ॥ ३४॥ कानां त्रयोविंशत्यधिक सहस्रा (अदुवा) अथवा-अनेका दशनिर्वाणयित्वा रूपमेकेनाधस्तनेन भागहारेण जागो हर- | इतोऽप्यतिप्रनुतसंख्याकाः प्रतिसेवनाः ज्ञातव्याः । कथमिति णीयः, जागे चहते यवन्धं तत्प्रतिराशीक्रियते, लब्धाश्चात्र चेत?, उच्यते-पता हि अनन्तरोदिताः प्रतिसेवनाः सामान्यत दश, " एकेन भागहारेगा यदेवोपरि तदेन लभ्यते।" इति ब. उक्ताः, तत एता एव नूय उद्घातविशेषण विशिष्ट ज्ञातव्या, चनात्। लब्धा एककसंयोगे भङ्गा दश,ते एकान्ते स्थापनीयाः, पता एव चानुद्घातविशेषणविशिष्टाः। तदनन्तरमनेका उद्घातान् प्रतिराश्य पकान्ते स्थापयित्वा विकसंयोगे भङ्गसंख्या. तानुरातसंयोगविकल्पतः, ततः सर्वा अपि पिरामीकृत्य मृल. मिच्छता तत् प्रतिराशीकृतं दशकलकणमङ्कस्थानं पुनरपि गुणोत्तरगुणापराधाभ्यां गुणायतव्याः । ततो दर्पकल्प्याभ्यामे. नवभिगुणयित्तव्यम, जाता नबतिः। वानेका भवन्ति । अथवा-अनेकप्रतिसेवनाऽऽनयनार्थमयं त्रिश. दोहरिऊण जागं, पमिरासेऊण तं पिजं । स्पदाऽऽमिका रचना कर्तव्या-मासिकम् १ । पञ्चदिनातिएएण कमेणं तू, कायव्वं आणुपुबीए ।। ३४६ ॥ रेकमासिकम २ । दशदिनातिरेकमासिकम् ३ पत्रदशदिना. तस्या नवतेरधस्तनेन द्विकेन जागं हियात्, भागे हते लब्धाः तिरेकमासिकम ४। विंशतिदिनातिरेकमासिकम ५।भिन्नमा. पञ्चचत्वारिंशत्, आगतं द्विकसंयोगे पश्चचत्वारिंशद् भगा। सातिरेकमासिकम ६। एवं द्वैमासिकत्रैमासिकचातुर्मासिकपातवं सूत्रत उभारणीया:-"जे जिक्खू मासियं च सातिरंग चमासिकेषु प्रत्येक षट्पट् स्थानानि बेदितव्यानि पञ्चषटूानि मासियं च १। जे मिक्ख मासियं वदोमासियं च २। जे भि. त्रिंशत् । एतेषु च त्रिंशतिपदेषु करणमनन्तरोदितं प्रबर्तयि - क्खू मासियं च सातिरेगदोमासियं च ३। जे भिक्खू मासियं च तव्यम् । तत्र सर्वेषामागतफलानामेकत्र संपिएमनेनेय सूत्रसंख्या तेमासियं च । जे भिक्ख मासियं च सातिरेगतमासियं च "कोडिसय सत्ततीसं, ........... (?. च होति लक्खाई। ५।" इत्यादि । ततो यल्लब्धं पञ्चचत्वारिंशल्लकणं तस्त्रिकसंयोगे एमालीससहस्सा, अट्ठसया अदियतेवीसा॥१॥"पता अपि भङ्गसंख्यामिन्नता प्रतिराशीकर्तव्यं, प्रतिराश्योपरितनेनाट सामान्यतः प्रतिसेवना उक्ताः, तत पता एवोद्घातविशेषणकेन गुणयेत् । एतेनानन्तरोदितेन क्रमेण सर्वध्वप्यास्थाने विशिधा ज्ञातव्या, तदनन्तरमेता पवानुद्घातविशेषणविशिघानुपूा सर्व कर्तव्यम् । grः, ततोऽने कानुधातसंयोगतः, ततः संपिण्ड्य मूलोत्तराकैरित्याह पराधाभ्यां गुणयितव्याः, तदनन्तरं दर्पकल्पाज्याम् । एवम नवरिमगुणकारेहि, हेढिल्लेहिं व जागहारोहिं। नेकाः प्रतिसेवनाः । व्य० १ उ०२ प्रक० । (१२) आलोचनां श्रुत्वा प्रायश्चित्तं यथा दद्यात्जा आइमं तु गणं, गुणित इमे होति संजोगा ॥३५॥ नपरितनगुणकारस्तस्य तस्य प्रतिराशीकृतस्य क्रमेण गुण सो क्वहारविहिम, अणुमन्जित्ता सुतोवदसेणं । नं कर्तव्यम्, गुणने च कृतेऽधस्तनैर्भागहारैनांगो दर्तव्यः, सीसस्म देइ प्राणं, तस्स इमं देहि पच्चित्तं ॥६३१॥ भागे च दृते यदभ्यते तेर्विवक्तितस्य त्रिकसंयोगाऽऽर्भङ्गः। सालोचना 55चार्यो व्यबहारविधिज्ञः कल्पव्यवहाराएतच्च तावत्कर्तव्यं यावदादिममङ्कस्थानम्, तत्रैवमुपरितनैर्गुण- ऽऽत्मके दश्रुते अनुसज्य पूर्वापरपोलोचनेन श्रुततारपर्यनिकारैः गुणिते, उपलकणमेतत्-अधस्तनै गहारैर्भागे हते पम्रो जत्वा श्रुतोपदेशन रागद्वेषतोऽन्यथा तस्य पूर्वप्रेषितस्य इमे वक्ष्यमाणसंख्याकाः क्रमेण संयोगा एकद्विकाऽऽदिसंयो स्वशिस्याज्ञां ददाति-यथा गत्या तस्येदं प्रायश्चित्तं देहि । गभङ्गा जवन्ति । किं तदित्यादतानेवाऽऽद पढमस्स य कज्जस्स य, दसविहमालोयणं निसामेत्ता। दस चेव य पायाना, वीसालसयं च दोस दसअहिया ।। नक्ख ते ने पीमा, सुके मासं तवं कुणम् ॥६ ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चित्त अनिधानराजेन्द्रः। पछित्त प्रथमस्य कार्यस्य दर्पलक्षणस्य संबन्धिनी दोऽऽदिपदभेदतो (गच्चंत व तस्स साहणो मनमिति) यदि मलं प्रायशितदशविधा दशप्रकारामालोचनां निशम्याऽऽकर्य परिभावितं,य- मापनो नवति तदेवं संदिशति-यो ऽन्यो दूरे साधुर्गच्छाथा नकाशब्देन मासः सूचितः, मासे मासप्रमेये प्रायश्चित्त- धिपतिर्विदति तस्य मूलं समीपं गच्छन्तु, तस्य समीपं ग. विषये (ने) भवतः पीमा व्रतषपीमा कल्याऽऽदिष्टपीमा स्वा मूलं प्रायश्चित प्रतिपद्यतामिति भावः । (अब्बावडा व पा पासीत् । साऽपिन (सुकत्ति ) शक्लै इति सांकेतिकी। गच्छे इति) अथानबम्थाप्यं प्रायश्चित्तमापनस्तत पर्व कथसंक्षेति बुद्ध्या ऽतीतं मासं तपः कुर्यात् । यति संदेश-यथा गच्छे अव्यापृता भवत, किश्चित कालं गयदि चातुर्मासं परामासं वा लघुप्रायश्चित्तमापनो भवेत, तदैवं च्छस्य वर्तमानिकामवहन्तस्तिष्ठन्तु ( अविश्या वा पविहरंतु कथयति इति) पाराश्चिता प्रायश्चित्ताऽऽपत्तौ पुनरेवं संदिशति-किठिन पढमस्स य कजस्स य, दसविहमालोणं निसामेत्ता। कालमद्वितीयका एकाकिनः प्रविहरन्तु तदेवं दर्पणाऽऽस. नक्ख ते भे पीमा, चनमासतवं कुणमु सुके ॥६३३॥ बिते प्रायश्चित्तम् । अधुना कष्टप्ये यतनया सेविते प्राऽऽहपढमस्स य कन्जस्स य, दसबिहमासोयणं निसामेत्ता । । विइयस्स य कज्जस्स य, तहियं चञ्चीसतिं निसामेत्ता। नक्खत्ते भे पीला, उम्मासतवं कुणसु सुके ॥१३॥ नमुकारे आउत्ता, जवंतु एवं भणिज्जासि ॥६३७।। गायाद्वयमपि व्याख्यातार्थम् । एवं ता उग्घाए, अघाएँ ताणि चेच किएहम्मि । हितीयस्य कार्यस्य कल्ल्यलकणस्य संबन्धिी चतुर्विशति निशम्याऽऽकर्य तत्रैवं संदिशति-नमस्कारे भवन्त भायुक्ता मासचनमासछम्मा-सियाणि छेयं अतो बुच्चं ॥६३५॥ प्रवन्तु, एवं भणेत ब्रूयात् । एवमुक्तेन प्रकारेण तावत् उद्धाते लघुरूपे मासचतुर्मास- एवं गंतुण तहिं, जहोवएसेण देहि पच्छित्तं । बामासलकणे प्रायश्चित्ते समापतितेऽनिहितम् । अनुदूघाते आणाएँ एस भणितो, ववहारो धीरपुरिसेहिं ।।६३८॥ गुरुके समापतिते तान्येव मासचतुर्मासषयमासानि "किएहमि" इत्यनेन पदेन विशेषितानि वक्तव्यानि । एवमुक्तप्रकारेणाऽऽचार्यवचनमुपगृह्य तत्र गच्छे यथोपदेशेन द्यथा ददाति प्रायश्चित्तम्। एष पाया व्यवहारः पुरुषैर्भणितः । "पढमस्स य कनस्स य, वसविहमाहोयणं निसामेत्ता। एसाऽऽणावहारो, जहावएसं जहकम जणितो (६३) नक्वते भे पीला, किरहे मासं तवं कुज्जा ॥१॥ एष आकाव्यवहारो यथोपदेशं यथाक्रम जणितः कथितः। ध्य. पढमस्स य कज्जस्स य, दसविहमाबोयणं निसामेत्ता। १ उ० प्रक०। नक्वते भे पीला, चउमासतवं कुणसु किरदे ॥२॥ (१३) संप्रति तेषां चातुर्मासिकं प्रतिसेव्याऽऽलोचयेतपढमस्स य कज्जस्स य, इसविहमालोयणं निसामेता। जे भिक्खू चानम्मासियं वा सातिरेगचाउम्मासियं मक्खत्ते भे पीमा, छम्मा सतवं कुणसु किराहे ॥३॥ (व्यं अतो वोच्छ ति) अतः परं दम् । उपलकणमेतत् पा पंचमासियं वा सातिरेगपंचमासियं वा एतोस परिमूनाऽऽदिकं च वक्ष्ये। हारहाणाणं अमयरंपरिहारहाणं पमिसवित्ता आलोएज्जा तदाह अपलिउगीचय आओएमाणस्स उवणिज उवइत्ता करणिज्ज दिंतु व भेजाणं, गच्छंतु व तस्स साहुणो मुझं । चेयावमियं जाव पुत्वं पमिसेविय पच्छा पालोऽयं जाव अनावमा व गच्छे, अबिइया वा पविहरंतु ॥६३६।। पलिचिएमाणस्स सम्वमेयं सगयं साहणियं० जाव आरुवाशब्दो विकल्पने । अथवा-यदि बेदप्रायश्चित्तमापनो भ हियन्ने सिया॥३०॥ जे भिक्खू बहुसो चाउम्मासियं वा० बति तदैवं संदिशति-भवन्तो भाजनं छिन्दतु । अत्र विशेषव्याख्यानार्थमिदं गाथाद्वयमाह एवं तं चेव आरुहियन्ने सिया॥१॥ इदं सूत्र परिहारप्रायश्चित्ततपःप्रतिपादकमतस्तविधेयमा"जाडगुन पणगे दस-राएँ तिनाग अफ पारसे । द--( णिज्जं बहत्ता इत्यादि ) यः परिदारतपःवीसाएँ तिनागृणं, भागाणं तु पणवीमा ||१|| प्रायश्चित्तस्थानमापनस्तस्य परिहारतपोदानार्थ सकलसामासच उमासबके, अंगुम चउरो तहेव च । धुसाध्वीजनपरिज्ञानाय सकलगच्छसमकं निरुपसर्गप्रत्ययं एए छेयवियप्पा, नायब्बा जह कमेणं तु ॥शा" कायोत्सर्गः पूर्व क्रियते, तत्कणानन्तरं च गुरुबॅमे-अहं ते पञ्चके पावरात्रिदिवसप्रमाणे दे समापन्ने एवं संदेशं कल्प्यस्थितोऽयं च साधुरनुपरिहारकः, ततः स्थापनीय स्था. कथयति-भाजन रूपस्याङ्गषम्नागं छिन्दन्तु । दशरात्रे च पयित्वा यत्तेन सह नाचारणीयं तत्स्थाप्यते इति दे समापतिते त्रिभागमङ्गस्य भाजनं चिन्दन्तु । पञ्चदशे स्थापनीयं वक्ष्यमाणमालोचनपरिवर्तनादि तत् सकरगच्च पञ्चदशरात्रे दे अमानस्य । विंशतो विंशतिरात्रिन्दि समक्ष स्थापयित्वा करप्यस्थितेनानुपरिहारिकेण च यथायोबच्छेदे त्रिजागोनम गुलम् । पञ्चविंशती पञ्चविंशतिरात्रिन्दि गमनुशिष्टपुपालम्भे परिग्रहरूपं वक्ष्यमाणवैयावृष्यं करणी. वच्छेदे धम्भागोनमहशुलम् । मासे मासप्रमाणे दे प्राप्ते परि यम, ताभ्यां क्रियमाणेऽपि यावृत्ये स्थापितेऽप्यालोचनाऽऽदौ पूर्णमेकमागुनम । चतुर्मासे चत्वार्यङ्गनानि । एमासे षडङ्गु. कदाचिस्किमपि प्रतिसवित्वा गुरोः समीपमुपतिष्ठेत-यथा भ. लानि नेद्यानि संदिशन्ति । एवमेते यथाक्रमेण दविक गवन् ! अहममुकं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः। ततः (से वित्ति) ल्पा: संदेशा ज्ञातव्याः। * ३७५ माथामुपजीव्येदं सत्रं व्याख्यायते । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) अभिधान राजेन्द्रः । पच्छित तदपि कृत्स्नं परिहाररूपति उद्यमाने श्ररोहयितव्य मातोषणाय स्पात् स्यादिश्वषयमत्राचारणे। आरोपितम्यं केवलं त कृत्स्नमारोहयितव्यमनुग्रहकृत्स्नेन निरनुग्रहकृत्स्नेन तस्य प्र. तिसेवितस्य गुरुसमकमालोचनायां चतुर्भङ्गी । तामेवाssढ- (पुपरिसेवियमित्यादि) पूर्वमिति पदैकदेशे पदसमुदायाप बारात पूर्वानुपूर्वेति ततोऽर्थः गुरुलघुप मायामानुपाऽऽदिक्रमेण प्रतिसेवितं पूर्वपूर्वानुपू वर्षा, प्रतिसेवमानुक्रमेणेति भावः आलोचितम् प्रथ भङ्गः तथा पूर्व गुरुलघुपर्यालोचना पूर्वानुमा #घुकाऽऽदि प्रतिसेवितं, तदनन्तर चतथाविधापप्रयोजनो पती गुरुला प्रतिसेवितम्। तिम् काऽऽद्यालोचितं पश्चात् लघुमासाऽऽदीति भावः । द्वितीनङ्गः तथा पचात् अनु प्रतिसेवितं गुरुलघुप नामन्तरेण पूर्वगुसमासादि प्रतिसेवितंत् पीति भावः श्रोचनायेायां तु पुर्वानु सोवितं पश्चात् गुरुमासाऽऽदीत्यर्थः । एष तृतीयो भङ्गः । तया पश्चानुपूर्या प्रतिसेवितं, गुरुन्नघुपर्य लोचनाविरहतो य थाकथन प्रतिसेवितमिति भावः । पश्चात् पश्चादनुपूर्व्या प्रतिमेण वायोचित यथाकथञ्चनाप्यालोचितमित्यर्थः । एष चतुर्थो भ ङ्गा । इद्द प्रथमचरमभङ्गावप्रतिकुनायां द्वितीय तृतीय भङ्गौ प्रतिकृनाध्यतिकुडचीकृत मे अप सिउचिए पनि चियमित्यादि ) या अपराधानापन्न मा. लोचनाभिमुखतदेवं कथित संकल्पितवान् बचा स प्यपराधा मया श्रालोनीयाः । एवं पूर्व संकल्पका अ तिने आलोचनाने लायाम प्रतिकृति प प्रथमो भङ्ग तथा पूर्वे संकल्पका अप्रतिम 1 तु प्रतिकृतिमात्रोवनीयेष द्वितीया पुसंकल्पकाले केनाऽपि प्रतिकुचितं यथा मया सर्व उपधालोनीयाः एवं पूर्व संकल्पकाले प्रतिब समय नाला ति एष तृतीयो भङ्गः । तथा पूर्व संकल्पकाले केनाऽपि प्र. तिकुञ्चितं यथा मया सर्वेऽपराधा आलोचनीयाः । तत एवं संपकाले प्रतिकुश्चित आलोचनावेलायामपि प्रतिकुचितमेवात एव चतुर्थो अङ्ग तथा प्रति तिमालोचयतो बीप्सा कल्प्येन व्याप्ता जवति । ततोऽयमथैः-निरवशेषमालोचयतः सर्वमेतत् यदापन्नमपराधजातम्, यदि कथमपि प्रतिनाहता स्यात् ततः प्रतिकुना निष्पक्रम यच गुरुणा सहासनाला समासेनासननिष्पत्रं, या चाऽऽलोचनाकाले असमाचार) तम्निष्पन्नं च, सकल नेवर स्वयमात्मना अपराधकारिणा कृतं स्वकृतम । (मादणिया इति ) संहत्य एकत्र मीलयित्वा यदि संचायिनं प्रायसियानमापन्नस्ततः पाण्मासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात्। यत्पुनः मामातिरिकं नास कोष मासादिकं प्रायधि स्थानमापन्नस्ततस्तद्दे प्रमिति वाक्यशेषः । ( जे एयाए हत्यादि) या साघुरेतबारीदिनया पारामादिया या प्रस्थापनयः प्राक् कृतस्थापराधस्य विषये स्थापना प्रायनिदानप्रापना तया प्रस्थापितः प्रायश्चित करणे प्रवर्ति पति तो निर्विशुमानस्त् प्राधिकुर्याय इत्यर्थः । यत् प्रमादतो विषयकायादिनियां प्रतिस् प्रतिसेवनायां यत्प्रायश्चित्तं सेवते, तदपि कृत्स्नमनुग्रह करने म निरनुग्रहकृत्स्नेन वा तथैव पूर्वप्रस्थापितातिथ्यं स्यात् । चापतिम्यमित्यर्थः । एष संपत सुत्रार्थः। व्यासार्थे तु जायका रोवदत्-" -" जे भिक्खू " इत्यादिसूत्रावयवस्य व्याख्यामतिदेशत श्रद्द जे चित्तविनामा, हेलियम्म बलिया एसा । सचिव इदं पिनेया, नातं ववपरिहारे ॥ २४ "जे निक्खु"यादिया एककद्विका संयोगोपन रोहित वर्णिता, सेवा अस्मिन्नपि सूत्रे वर्णव्या, यदि सैव वर्णयितव्या ततः को विशेषः ?| तत आद नानात्वं पूर्वसूत्राद्विशेषः स्थापनापरिहारे १५० १० २ प्रक० (परिहारपत्र ) (१४) ततः एवं पीरमा अाईचिए । कोत्रिय पमिवेज्जा. मेत्रिय कसिणेऽऽरुद्देयत्रो ॥ ३८५ ॥ एवमपि ययागममनन्तरोदितेनापि प्रकारे अनुशिष्ट्या दौ त्रिवि वैयावृत्त्ये क्रियमाणे कोऽपि प्रतिसेवेत प्रायश्वि तस्थानमापद्येत इति भावः (सेविय कवि इति) लपि कृनमारोपाय करने नाम निरवशेषम्। तेन "ठांवर पहिलेदिता स विकसि तत्थेव श्ररुदियव्वे लिया। " इति सूत्रपदं व्याख्यातम् । स्वमित्युकम्। तत्र पणार्थमाहपरिणाय मंचय, भाग्य बोपचे घाय निरवसे, कसि पुणे व होड़ || ३८६|| पारंचिमासी छम्मासा रुवण दिए । कालगुरू निरंतर वा अणुमहियं जने छ ।। ३८७ ॥ अनयोगीधयोर्यथासंख्येन पत्र योजना । सा चैत्र-कृत्स्नं पुनः शब्द वाक्यमेवार्थः चम्वावेमा प्रतिस्तत् स्मारोपयेत् तत्पुनःि पकारं नयति या प्रतिसेवने प्रति एवं ममरोपम अनुग्रहकृनम् अनु 1 म निरवशेष कुनमिति । तत्र पराञ्चितं प्रतिसेवनाकृत्स्नम्, ततः परस्यान्यस्य प्रतिसेवनास्थानस्यासंभवात् । संचयकृत्स्नम् - श्राशीतं मासशतं, ततः परस्य संचयस्याभावात । श्रारोपणाकृत्स्नम् - पाएमासिकं, ततः परस्य भगवतो वर्षमानस्वामिनस्तीयें आरोपणस्याभावात् । अनुग्रहकृत्स्नम् यत् षषां मासानामारोपितानां षट् दिवसा गतास्तदनन्तरमन्यान् परामास नू आपन्नस्ततो यत् अब्यूढं तत्समस्तं जोषितं पश्चात् य दन्यत् षाएमानिकमापन्नस्तद्वहति । तथा चाऽऽह (ब्रद्दिजगपनि सूतीया मतम्यर्थे पूर्वषण्मास संबन्धि पद् सु दिनेषु गतेषु यदन्यत् पाण्मासिकमारोपितमुह्यते यत्र यस्मात् पचमासाविशतिदिवसाधारोपिता नद 1 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिछत्त अभिधानराजेन्त्रः । पच्छित्त नुग्रहकृत्स्नम् । अनुग्रहकत्स्नग्रहणेन निरनुग्रहकृत्स्नमपि सूचितं वितं तत्तथैवाऽऽलोचयति,एषा प्रानोचनाऽनुपूर्वी (विबरीपबि. पष्टव्यम्। तच्चैवं भावनीयम-परामासे प्रतिस्थापिते पञ्च मा. इय ततिय ति) ययाक्रममुत्तरपूर्वयोः पदयोर्विपरीते,भाषप्रसाचतुर्विशतिदिवसा व्यूढाः, तदनन्तरमन्यत् पाएमासिक. धानोऽयं निर्देशः परीत्ये, द्वितीयतृतीयनको पूर्वानुपूया प्र. मापन्नस्तवहति पूर्वषण्मासस्य षट् दिवसा कोषिताः । अनुदा. तिसेवितं पश्चादानुपा भालोचितमिति द्वितीयः। पश्चादानु. तकरस्नम्-यत् काल गुरु,यथा मासगुरुकाऽऽदि । अथवा-निर. पूर्या प्रतिसेवितं पूर्वानुपूयाँ प्रायोचितमिति तृतीय इति भा. तरंदानमनुदातकृत्स्नम्। प्रत्र मासलघकाऽऽद्यपि निरन्तरंदी- वः। तत्रेयं द्वितीयभङ्गकभावना पूर्व लघुगुरुपर्यासोचनेन ल. यमानमनद्वातमवसातव्यम् । यदि चा-मनातं त्रिविधमातच. घुगुरुमासाऽऽदिक्रमेण यतनया प्रतिसवितम, तदनन्तरं तथावि. था-कालगुरु, तपोगुरु, उन्जयगुरु च । तत्र कालगुरु नाम-यत धकारणोत्पती मघुगुरुपञ्चकाऽऽदि, मालोचनावेलायां प्रथमतो श्रीमाऽऽदौ कर्कशे काले दीयते । तपोगुरु यष्टमाऽऽदि दीयते। सघुगुरुपञ्चकाऽऽदि कथयति,पश्चात मासाऽऽदि । कस्मादेवं कनिरन्तर बाजभयगुरु-यत् ग्रीष्माऽऽदौ काले निरन्तरं च दानम्। घयतीतिचेत । उच्यते-पाशङ्कासंभवात् । तथाहि-यदि मासा. निरवशेषकृत्स्नं नाम-यदापन्नं तत्सर्वमन्यूनमनतिरिक्तं दीयते । ऽऽदि कथयिष्यामि पूर्व पश्चात्पञ्चकाऽऽदितत एवं गुरूणां चिते स्थास्यति-यथा एषोऽयतनया प्रतिसेवी, कथमन्यथाऽसौ मा. अथाऽत्र कतमेन कृत्स्नेनारोपयितव्यम् । उच्यते साऽऽदि प्रथमतः प्रतिसेवितवान् । ततोऽयतनानिष्पन्नं च द्वे प्रा. एत्तो समारुहेज्ना, भागहकसिणेण चिप्ससेसम्मि । यश्चित्ते मह्यं दधुरिति पूर्वानुपूर्या प्रतिसेवते, पश्चादानुपा अाम्रोयणं सुणेत्ता, पुरिसज्जायं च विमाय ।। ३८७ ।। मालोचयति । तृतीयनले स्वियं नावना-पूर्व गुरुमाघवचिन्ता"पत्तो" इति प्राकृतशैलीवशात् षष्ठ्यर्थे पञ्चमी । अमीषां षमा विकलतया प्रथमतो गुरुमासाऽऽदीनि प्रतिसेवितानि, तदनन्तरं कृत्स्नानां मध्ये अनुग्रहकृत्स्नेन प्रागारोपितस्य चीर्णशेषेषु दिव. गुरुपक्षकाऽऽदीनि पालोचनावेसायां तु पूर्व लघुपञ्चकादीनि कथयति, तदनन्तरं गुरुमासाउदीनि । मा मह्यमयतनया सेषु मारोपयेत् । किं कृत्वा अनुग्रहकृत्स्नेनाऽऽरोपयेत्, इत्यत प्रतिसेवनाकारीति ज्ञात्वा अयतनानिष्पनं प्रतिसेवनाश्राह-मालोचना हा दुष्ठु कृतीमत्यादिनिन्दनपुरस्सर,श्रुत्वामा निष्पन्नं चेति प्रायश्चित्तक्ष्य दारिति बुद्ध्या । अथवाकर्ण्य, तथा पुरुषजातं धृतिसंहननाभ्यां दुबै विज्ञाय । इयमत्र पचमालोचयन्तं श्रुत्वा गुरबो ज्ञास्यन्ति-एष महानुभावो भावना-यदि षश्मासानापत्रो धृतिसंहननाच्या दुर्बलस्ततस्ते अनुप्रदकृत्स्वेन दीयन्ते । अथ तीव्राध्यवसायेन प्रतिसेचितं, रा. यतनया प्रांतसेबितवान्, ततो न प्रायश्विनप्राप्तिरिति न गद्वेषाध्यवसायकलुषितेन वाऽऽलोचित, धृतिसंहननाज्यां च मह्यं प्रायश्चित्तं वा दास्यन्ति । ततो द्वितीयभने तृतीयभाने दुर्बलः,ततस्ते निरनुग्रहकृत्स्नेनाऽऽरोप्यन्ते, षट्सु दिवस (?) च यदापन तहीयते, मायां च कृतवानिति मायानिष्पलो गुरुक इति गुरुमासोऽधिको दीयते । अथवा-"पच्या पमिसेषियं भारीप्यते इति जावः। पुब्वं पालोइयं।" इत्यत्र न पूर्वशब्दः पूर्वानुपूयंनिधायी, नापि संप्रति प्रतिसेवनाऽऽसोचनाविषयचतुर्भलिकामएमसूत्रम्-"पु. पहनादः पश्चादानुपूर्वीवाचकः, किं तु प्रसिद्धार्थप्र. वं पडिसेवियं ।" इत्यादि व्याख्यानयति तिपादकः । ततोऽयमर्थः-पश्चात प्रतिसेवते पूर्व प्राक पुवाणुपुन्धि दुविहा, पम्सेिवणए तहेव आलोए । प्रासोचयति । एष भङ्गः कथं जवतीति चेत् । अत माहपमिसंवण भालोयण,पुनि पच्छा व चउभंगो ॥३ ॥ (मायरियकारणा वा इति ) वाशब्दस्तृतीयभङ्गम्य प्र काराम्तरतास्यापनार्थः । आचार्यकारणात् , उपलकणमेसूत्रे पूर्वमिति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् पूर्वानुपूर्वीति तत अन्यस्माता कारणात्-पश्चात्प्रतिसेवते पूर्वमालोचयप्रतिपत्तन्यम । पूर्वानुपूर्वी नाम अनुपरिपाटिःला द्विविधा । तच. ति । इयमत्र भावना-प्राचार्याऽऽदिकारणतोऽन्यग्रामं गन्तुथा-प्रतिसेवने, तव मालोचे-मालोचनायाम् । तत्र प्रतिसेवने,मालोचनायां च पूर्व पश्चादितिपदाभ्यां चतुर्भशासाच कामः । यदि चा-कारणान्तरे समुत्पन्ने सात विकृतिमाहार यितुकाम आचार्य विज्ञायति-इच्छामि नदन्त ! युमाजि. यथा सूत्रे तथा उच्चारयितव्या । परं सूते पूर्व शब्दः पश्चाच रनुकाता सन् एतेन कारणेन अमुको विकृति मेतावन्तं कामपश्व साकापात्तः, पूर्वशम्दच पूर्वानुपूर्वी वाचकः, पश्चाबन्द. पश्चादनुपूय॑निधायी । तत एवं भाचारणं कष्टव्यम-पूर्वी माहारयितुमिति । एवं पूर्वमालोचना पश्चात्प्रतिसेवनोपजायते। अथवाऽयं तृतीयो जङ्गः शून्य एव अष्टव्यः, तथाऽनुनुपा प्रतिसेवितं पूर्वानुपूळ भालोचितम पूर्वानुपूर्या प्र. कायामपि कृतायां प्रतिसेवनानन्तरं नुय थालोचनात् । त. तिसवितं पश्चादानुपूर्या आलोचितम् । पश्चादानुपा प्रतिसे. था चा358-(पच्छा व सुनो ति) पश्चाप्रतिसेवना, पू. वित, पूर्वानुपा भालोचितम् ३। पश्चादानुपूा प्रतिसवितं, बमालोचनति शून्य एव अङ्गः,तुरेवकारायः । पश्चादानुपूर्या पालोचितम् ।। तत्र पयुक्तर-" पुवापुन्धि पढमो" इत्यस्य व्याख्यानमादचतुर्भङ्गीभावनार्थमेवाऽऽह. पच्चित्तऽणुपुबीए, जयणापमिसेवणाएँ मापुनी। पुवाणपुब्धि पढमो, विवरीए विडयतश्यए गुरुगो । एमेव विगमणाए, वितियतश्य माइणो गुरुगो ॥२५॥ पायरियकारणा वा, पच्छा पच्छा व सुलो उ ॥३॥ गुरुलघुपर्या लोचनया प्रायश्चित्तानुपूा प्रायश्चित्तानुपया पूर्वानुपूर्वी प्रतिसेवनायामालोचनायांच, एष प्रथमो भ. रिपाट्या, गुरुलघुपञ्चकाऽऽदिक्रमेणेत्यर्थः । यद् यतनया प्रति. कामस्य स्वियं भावना-गीतार्थः कारण समुत्पने सति लघु- सेवितमेषा प्रतिसेवनायामानुपूर्वी । एवमेव यथैव प्रतिसेवि. गुरुपालोचनापुरस्सरं लघुगुरुपञ्चकाऽऽदियतनया प्रतिसेयते, तवान् तथैव यत् आलोचयसि, एषा विकटनायामानुपूर्षी. पष। प्रतिसंबनाउनुपूर्वी तदनन्तरं गृहसकादो यतयथा प्रतिसे. ति द्वितीयठतीयभन्योः पुनर्वदापन्नं तावनियमतो दाय. पात Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) श्रान्निधानराजेन्छः। पच्चित्त पच्चित्त ते. केवलं मायिनो मायाविनस्तो भताविति द्वयोरपि भ. सुहमवायारा सब्वे अईयारा मप आलोयम्बा इति। पत्तो प्रा. अयोरधिको गुरुको मासो दीयते । यरियलमीवं, आयरिएणं सुटाढाइतो-धमोलि तुम, संप. ___साम्प्रतमनयोरेच नायो वनामाह शोसि तुमं न पुक्करं ज सम्मं आलोजा । ततो तुछेण सवं पुब्बं गुरूणि पमिसे-विजा। पच्छा लहाणि सेवित्ता।। जहा वित्तिय पनि चियमालोइय।" इह चिन्तावेझायामध्यम सहए पुग्नं कहए, मा मे दो देज पच्छित्ते ॥ ३ ॥ तिकुञ्चितमालोचनालायामध्यप्रतिकुञ्चितमिति प्रथमत: शुकः । (तं चैव य मकरिए इत्यादि ) यदेव प्रथमअत्र जितीयजनाबनायां गुरुशब्दो वृहदभिधायी लघुशब्दो भने व्याधोदाहरणे व्याधस्याऽऽगमनं तदेव द्वितीयभङ्गेऽपि sevarचकः। ततोऽयमर्थः-पूर्व गुरूणि लघुमासिकाउदीनि | बक्तव्यम् । तथैवाप्रतिकुश्चनवुवा व्याध प्रागत इति ब. प्रतिसव्य पश्चात् लघूनि अघुपञ्चकाऽऽदीनि प्रतिसेवते । कन्यमित्यर्थः । तद्यथा-" वादो सुंदरं मंसं घे इस्सराभिप्रतिसेभ्य च तदनन्तरमायोत्रनवेलायां लघुकानि लघुप मुहं संपठितो, चितेइ य-सव्वं मंसं मस्स दायध्वं ति । चकाऽऽदीनि कथयति, पश्च लघुमासकाऽऽदीनि । कस्मादेवं पत्तो ईसरसमीवं । " तेन च ईश्वरेण कारणे अकारणे या कथयतीति चेत् , अत अाह-मा मे इत्यादि) पूर्व मासलघु सहसा पूर्वापरमपयांलोच्य मत्सरितो, मत्सरस्तस्योत्पादितो, काऽऽदिकथने अयतनया प्रतिलेवितमेतत् गुरुणा विज्ञायत,ततो वे प्रायश्चित्ते गुरुर्दद्यात्-अयतनानिष्पन्न प्रतिलेबनानिष्पन्नं च। यथा किमिति स्वमुत्सूरे समागतः १, इति । तस्मात् मा मे वे प्रायश्चित्ते दद्यादिति पूर्व लघुपञ्चकाऽऽदि खरटाणजीतो रुट्ठो, सकारं देति ततियएऽसेस । कथयति । तृतीयजनभावनायां स्वियं व्याख्या-गुरुनघुपर्या लो- निक्खुणि याह चउत्थो,सहसा पसिउंचमाणे उ॥३६॥ चनामन्तरेण गुरूणि मासगुरुकाऽऽदीनि प्रतिसेव्य पश्चाद्वनि स नक्तप्रकारेण मत्सरितः सन् खरएटनभीत:-स्वरएटनलघुपश्चकादीनि प्रतिसेवते,प्रतिसेव्य च पूर्व लघुकानि लघु- मुक्तप्रकारेण निर्भर्त्सनं, तेन भीतः स्त्ररण्टन नीतो, रुटो रोपं पञ्चका ऽदीनि कथयति, पश्चात गुरुमासाऽऽदीनि । कस्मादेव गतवान् । ततस्तेन मन प्रतिकुश्चितं, न सर्व मांसं दत्तम् । कथयतीति चेत्, अत पाह-“मामे" इत्यादि पूर्ववत् । ततस्तस्मिन् सहसा मत्सरिते खरएटनभाते रुष्टे प्रतिकुञ्चिते अथ वा श्यं तृतीयभङ्गे विशेषतो भावना द्वितीयभङ्गस्योपनया कार्य: । स चैवम्-“मालोयगो विश्राअहवा जयपमिसेवि, ति नेत्र दाहेति म पच्छित्तं । गतो,पुच्छितो-केन कारणेन आगतोसि। भणियम अबराहमा. इय दो मजिकमभंगा, चरमो पुण पढमसरिसो न ||३०|| झोप । प्रायरिपणं खरंटितो-कीस तदा बियरिय, जहा अश्रय वेति प्रकारान्तरे, यतनया प्रतिसेवी प्रतिसेवनाकारीति वराई पत्तो?। पालोपंतो वा खरंटितो ततो तेण न सम्म. कास्वा नैव मम दास्यन्ति प्रायश्चित्तम् । पलकणमेतत् मालोइयं । " इति गतो द्वितीयभनः । तृतीभानाबनार्थमाहकलयं वा दास्यम्ति प्रायश्चित्तमिति हेतोरुक्तेन प्रकारेण कथ. (सकार देति ततियए उसेसं ) तृतीयभने स ईश्वरस्तस्य यति। तत रति एवममुना प्रकारेण द्वौ मध्य भङ्गो द्वितीयतृतीय. व्याधस्य सत्कार कृतवान्, ततः स व्याधस्तस्मै अशेषं स. भनौ,मायाविन इति शेषः । चरमः पुनर्भङ्गः पश्चादानुपूर्या मस्तं मांस ददाति । एषोऽज्ञरार्थः । भावार्थस्त्वयम्-" तदेव प्रतिसेवितं पश्चादानुपूर्याऽऽयोचितमित्येवंरूपःप्रथमसरशः । वाहो संपद्वितो मासं घेचु, चिंते३ य तं सब्वं मंसं मए दाययथा प्रथमे भको यथैव प्रतिसेवना तथवाऽऽत्रोचमेत्यमायाविनः वंति । पत्तो सिरसीव । ईसरेण सुदढ आढाइतो । तेण से स भगः,तथा चरमसङ्गेऽपि प्रतिसेवनाक्रमेणासोचना माया- सम्बं मंस दिन्नं । पचमालोयगो वि संपठितो पाए पमित्रं वशतोऽन्ययेत्येषोऽप्यमायिन पवेति प्रथमसाइबरमभ साहुँ पुच्चर-अमुगस्स आयरिस्त मज्झेण आगतोसिसो ङ्गः । तदेवं यतः प्रथमचरमभङ्गावमायाविनो, द्वितीतृतीयभ भण-आमं । केरिसो सो आयरितो-सुदाहिगमो, न वत्ति । को प्रतिकुश्चनायामतः प्रतिकुचनाप्रतिकुश्वनाविषयचतुर्भणी तेण भणियं-पुरहिममो । ताहे तेण चिंतियान सम्मं मर सूत्रखएकम् "अपविगंचियं" इत्यादि। पासोइयन्वं ति। श्रागतो गुरुसमी । तेण सम्ममाढातितो, एतद् व्याख्यानार्थमाह पुचितो य-किमागमणं । तेण जणियं-पालोउं ताहे पायपलिचण चनभंगो, वाहे गोणी य पढमतो सुच्छो। रिएणं सुटु उवहितो-धम्मोसि तुममिश्चादि विभासा । ते ण तुडेण सच्वं सम्म बालोइयं ।" गतः तृतीयो भाः। च. तं चेव य मच्चरिते, महसा पलिउंचमाणे उ ||३ || तुर्थभङ्गस्य त्वेषा भावना-" सो बाहो मंसं घेत्तुं पहितो,चिप्रतिकुश्चनमधिकृत्य विधिप्रतिषेधाभ्यां चतुर्भङ्गी गाथायां पुस्त्व. तेइ यन सव्वं मंसं मए दायत्रं । एवं पलि उंधिय प्रागतो। निर्देशः प्राकृतत्वात । सा चतुर्भङ्गी यथा सूत्रे तयोञ्चारणीया । ईसरेण खरंटितो। तेण य स्वरंटिएण पुब्वपनिउंचियभावेण तद्यथा-प्रप्रतिकुश्विते अप्रतिकुश्वितम्,अप्रतिकुञ्चिते प्रतिकुश्चि न सव्वं दिम । एवमालोयगे विनवणो कायवो।" सं. नम, प्रतिकञ्चिते अप्रतिकुञ्चितम, प्रतिकश्चिते प्रतिकुश्चितम, प्रति चतुर्वपि भङ्गेषु दृष्टान्तभावना-" जहां गोणी दोहितअस्यां च चतुर्भङ्गयां व्याधो, गोणी, चशब्दात भिक्षुकी च ह. कामा पन्हुया आगया, सामिणा उ वज्जिया।" गृहे प्रविश धान्तः। तत्र व्याधडपान्तोऽयम्-"जहा कोवि वादा कस्स ई. ती मधुरभणित्या नाम्ना उपाहता, आकारिता इत्यर्थः । सरस्स कयवित्तीतो मसं उवणे । अन्यथा सो चाहेमसं सुं- “ततो हत्येण पट्टा धूमाईहि य उवम्गहिया वलिमत्ताए य दर घेतु सरसमीपे संपष्ठिो । चिनेई य-मस्स सव्वं मंसं निउत्ता । भक्ने नियोजिता इत्यर्थः। " ततो सब्वं वीरं पदायव्यति। पत्तो इमरममावे, तेणं आजहो,स्वागतं सुस्वागतं | एहया ।" पवमालोचकेऽपि प्रागुक्तानुसारेण स्वयमुफ्नयो भाउबिसाहि त्ति । वाहेणं तुना सव्वं मंसं दिनं । एवं को वनीयः।" विइया गोणी दोहि उकामा पाहुया आगया, ना. सावरादी भासोश्यकामो पायरियसगासं पद्रितो, चितइय- ढाया, पिट्टिया वयंसाईहि । तोप न सवं खीरं दिध " . Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (204) श्रभिधानराजेन्यः । पच्छित्त एवमाचकेऽप्युपनयो भावनीयः । " तश्या गोणी अदोहेडकामा आगया, संझार बन्निमवार निवत्ता सव्वं पन्हुया । एमालय त्रिविभासा । उत्थी गोणी श्रदोदिउकामा श्र गया, सामिणा चिड़िया, सत्तरं न पन्हुया ।" अत्राप्यालोच. के तथैवोपनया मधुना चतुर्ष्वपि भङ्गषु निलुकोटतो जायते " काइ वि जिक्खुणी करत पुण्वपरिचियरस घरं अतिगया । तीर परिक्के खोरियं वित्तियं दिनं । गहियं माविमासा तयार निक्खुकीय , गया मियं णं । पच्छा से भावो परिणतो, अध्येमि ति घरं गया। तेहि माढाइया । तुट्टाए दिष्ां खोरियं । एवमालोय वि बिनासा भच्या भिवसुधी करसह पुण्यपरिखियरस घरं गया। ता परिक्के खोरियं चोरियं । चिंतियं चणाद दायव्वं ति घरं गया । भा नादाश्या खरंटिया य । इय ती न दिष्ां । ि चितियं चन्न दायन्त्रं । घरं गया। स्वागतं सुस्वागतम् बघ विसाहिति श्राणाहि श्राढाच्या । ती दिवं । एवमा होयगेवि उवण ३ । चउत्थीय भिक्खुणीए गहियं खोरियं । चितियं च पाप न दायन्त्रं ति घरं गया नाढाइया य । न दिष्ां । एमालय विभासा ।" "भिक्खुणि चाद।" इत्यादिचतु मिकी याचा उपलक्षणमंत भावनीयः । यथा भिकुकादिषु त्रिष्वपि तेषु स्वयं भिवादी प्रतिकृतिस्वामिना स्वार्थमा सदा प्र नादरः, खरण्टना वा कृता, तथा आलोचकेऽपि चतुर्थ स्वयं प्रतियायाचार्येण ससा कुतोऽमा खटना वा योजनीयेति । एतदेव विभावविषुरिदमाहपलिचिय पनि चियम्य चउरो हत भंगा छ । बाय गोणि भिक्खुरिण, चउ वि जंगेसु दिहंता । ३६ । अप्रतिकुचितं च प्रतिकुञ्चितं च भप्रतिकुञ्चितप्रतिकुचि तं. वस्मिन् । किमुक्तं जवति ? - प्रतिकुञ्चितप्रतिकुचिताभ्यां चस्वारो भगा भवन्ति चतुर्ष्वपि भङ्गेषु प्रत्येकं वाधो, गोश्री गोविन्ताः । ਹਾਥ हणिजे या पठणाए पठत्रिए निन्त्रिसमाणे परिसेविते, से विकसितचे य श्रारोहेयचे सिया ।" इति व्याख्यानयन्नाहआलोयणतिय पुणो, जा एसा अकुंचिया उभयतो वि । सच्चैव होइ सोढ़ी, तत्य व मेरा इमा होति ॥ २५५ ॥ आलमति) किमुक्कं भवति-ओखा पु नरेषा आलोचना या उनपतः संकल्यकाले झालोचनाका प्रतिकुञ्चिताविद्यतिं प्रतिमं यत्र सा, प्रतिकुडखनारहिता इत्यर्थः । सेव भवति शुद्धिः, उजयत्रापि प्रतिकुलनाया अभावात् । श्यमत्र जावना संकल्प काले 5व्यप्रतिकुञ्चितमालोचनाका ले ऽप्यप्रति कुडिचतमालोचयति । यदिवा इति प्रतिसेवनानुमतः प्राषयसानुलोमप्रतिकुचितमात्रोचयति । एष एव तरयवृष्या को मायाले शस्याप्यभावात् । सा चाऽऽलोचना श्राचार्यशिष्यभावे भवति । तत्र च शिष्याऽऽचार्याण मियं मर्यादा समाचारं । । तामेवाऽऽद आवार कपसोही सीहाग बसनको डुगा पूगे । हवा वि सहावेणं, निमंसुर मासिया तिथि || ४०० ॥ आचायें श्रालोचनाऽऽऽचार्य समीपे या आलोचक नोचनां प्रयुङ्क्ते तदा कथं शुद्धिः । उपलक्षणमेतत् कथमयुर्वा भ वतीति । उच्यते-भाचार्यस्त्रिविधः तद्यथा-सिंहानुगो, वृषनानुगः, क्रोष्टुकानुगञ्च । क्रोष्टुकः शृगालः। तत्र यो महत्यां निषद्यायां स्थिता सन् सूत्रमा बाचाविति यास लिहा नुगः । यः पुनरेकश्मिक स्थितः सत्यवा स वृषभानुगः । यस्तु रजोहरण निषद्यायाः पपा या स्थित वाचयति तिष्ठति वा स कोटुकानुगतः । इह यदक्ष आचार्य आलोचनाऽहो न प्राप्यते तदा वृषजस्यापि पुरत आलोचनाऽऽदेया, तदनावे गीतार्थस्य भिक्कारपीति वृ षभनिक्षू अपि प्राचार्यवत् सिंहवृषभक्रोष्टुकानुगतया प्रत्येकं त्रिविकल्पो वाच्यौ । श्रालोचका भपि त्रिविधाः । तथा श्राचाय वृषभा मिश्रा के केविनुगाः, वृचनानुगाः, क्रोष्टुकानुगाश्व | नवरं क्रोष्टुकानुगे विशेषः । स यदा निषद्यायां पादप्रोउने वा उत्कुटुको वा श्रालोचयति, तत्र यत्कुटुकः सन् अालोचयति ततः शुद्धिनिषथापादोनयोस्तु भजनम् किमुक्तं भवति विद्याचार्यो महाम्बा वृषभो यदि कामरान आलोचयति श्रोचनाउदैन कि या तदा विशेषका अवि सभावेण निमंसुर इति ) अथवा स आचार्यो वृषभो नि कुर्वा स्वजावेन, स्त्र आत्मीयो जावः स्वभावः, स्वशील मित्यर्थः तेनागो भवेत् । यदि वा कोपि धर्मअनिषद्यायामुपये नेच्छति तस्य कि " पढमतइएस पूया, खिसा इयरेसु पिसियपयखोरे । मेव खलु चप जंगे वियते ॥२७॥ पिसितं मांसं पयः क्षीरं, खोरकं वृष्याकारो जाजनविशे• बः । एतेषां समादारो द्वः। तस्मिन्विषये यथाक्रमं ये व्याध गोमिकस्तेषां यथा प्रथमे तृतीये च न पूजा स्वाम्यादिना कृता इतरयोस्तु प्रयोर्द्वितीय चरमयोभङ्गयोः खिसा खरपटना । एवमेव अनेनैव प्रकारेण चतुर्ष्वपि नङ्गेषु विकटत्यालोचयति खलुपनयः कर्तव्यः । तत्र व्याघान्तमधिकृत्योपनययोजनामाह उ । s " साधुः, ईसरसरिसो गुरू पाहो साहू परिसेवा मं । मणया पलितंच सकारी लगा होई ।। ३५० ॥ ईश्वरदशश्वरस्थानीयो गुरुयधो व्याघस्थानीयः । प्रतिमासम् (भूमयेति) देश स्थगनमित्यर्थः । स्थगनस्थानीया प्रतिकुञ्चना, सत्कारः स त्कारस्थानीया वीडता, स्थगनविषये लज्जाssपादनं भवतीति । समति" पालनिय योपमायस्स सम्यमेयं सकयं सासमे दिवसे उपहार से रक्षा पुश्तो।" पवनापि यो किंवा न कर्त्तव्या ?। तच्यते भवतु यो वा स वा नियमेन तस्य कृतिम्यम् यदि पुगने करो ति ततः प्रायश्चित्तमाप्नोति । अत्र दृष्टान्तो निःश्मश्रुको राजा-" जहा एगो राया निम्मंसुओ, तस्स कर्यावत्ती कासयो, सो परिभवेण न कयाइ उबडाप्ति, वालो नस्थिति का सो विणासितो।" एवमिहापि यो निषद्यां न करोति स प्रायfree मेन दमयते । " अष्मो कालवो कतो, सो सत्तमे स नि Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिछत्त (१५६) अन्निधानराजेन्डः। पच्छित्त । . .. सट्टापाणग पणं करोति, स विनीतोऽयमिति यशः प्राप्नोति । परलोके कानुगतयाऽऽलोचयतो सघुक एको मासः एष पादप्रोचने र. कर्मकपणतः सिस्मेिति । तत्पुनः प्रायश्चित्तं त्रीणि मा. जोहरणनिषद्यायां वा कोकानुगासोचनाऽहाऽचार्यसरशा. सिकानि, तानि च सदृशे सहशानुगे सरशानुगस्य पुरत भा. उसने उपविष्टस्य वेदितव्यः। यदा पुनरुत्कुटुकः सन्नामोचयनि लोचयति वेदितव्यानि। कथमिति चेत् । उच्यते-सिंदानुगस्या. तदा शुरू एव । पतानि च प्रायश्चित्तानि तपसा कालेन च चार्यस्य सिंहानग पवाऽऽचार्ये बालोचयत्येक मासिकम । गुरुकालेन च गुरुकानि कष्टव्यानि । तथा सिंहानुगवृषभानुवृषनस्य वृषभानुगस्य वृषभ एव वृषभानुगे आलोच यति द्वि गोष्ठुकानुगरूपाणां त्रयाणामाचार्याणां भिकयोऽप्यालोचका नसोयम् । भिको कोष्ठकानुगस्य निकावध क्रोष्टुकानुगे बालो. व, तेषामपि यथाक्रम तान्येव प्रायश्चित्तानि, नवरं तपसा चयति तृतीयमिति । एतत्स्वस्थाने प्रायश्चित्तमुक्तम् । बघूनि कालतो गुरूणि। रदानी स्वस्थानपरस्थानज्ञानार्थ स्वस्थानपरस्थानेषु प्राय तथा चाऽऽहश्चित्तं वक्तुकाम दमाह दोहिँ वि गुरूणि एते, गुरुम्मि नियमा तवेण कालेण । , परगणएगा य केइ गुरुवादी। वसभम्मि य तवगुरुगा,कालगुरू होति निक्खुम्मि ।४०३॥ सनिसिजाए कप्पो, पुंबनिसिजाएँ नक्कुप्रो ॥४०॥ गुराबाचार्ये आलोचके, जातावेकवचनम-गुरुषु प्राचार्येषु आलोचकेषु नवसु नियमादेतानि यथाक्रममनन्तरोदितानि प्रा. गुर्वादयो गुरुवृषभभिकवः केचित्स्वस्थानानुगाः, केचित परस्था. यश्चित्तानि द्वाभ्यां गुरुकाणि द्रष्टव्यानि । तद्यथा-तपसा, का. नानुगाः । तत्र प्राचार्यस्थ सती शोभना निषद्या सनिषद्या, त. लेन च । वृषभे,अत्रापि जाताबेकवचनम् वृषभेषु तपसा गुरुकास्यां स्थितस्य स्वस्थानानुगतवृषभस्य कल्पे स्थितस्य भिक्कोःपा. णि, कालतो लघूनि सामर्थ्यादवसीयते । निक्की, भिक्षु का. वोच्चनके निपद्यायां रजोहरणनिषद्यायाम् । यदि वा-यदुक्तं लतो गुरूणि, सामर्थ्यात्तपसा बघूनि भवन्ति । तदेवमालो. गुर्वादयो गुरुवृषभभिक्षवः । इयमत्र नाचना- प्राचार्यस्य महत्यां चनाऽईमाचार्य प्रतीत्याऽऽचार्यवृषभजिकुम्वासोचकेषु सप्तवि. निषद्यायामुपविष्टस्य यत् सिंहानुगतत्वमेतत्स्वस्थानम, वृषञान. शतिप्रायश्चित्तस्थानानि प्रतिपादितानि । गतत्वं, क्रोष्टुकानुगतत्वं च परस्थानम् । वृषभस्य कल्पेश्वास्थ. तस्य यत् वृषभानुगत्वमिदं स्वस्थानम्, यत्पुनमहत्यां निषद्या. अधुना सिंह वृषभकोछुकानुगरूपतया प्रयाणामालोचनाहाणां यां पापुकोऽवतिष्ठते एषा निकोः स्वस्थानानुगता । इह प्रोजक्र. वृषत्राणां ये पूर्वक्रमेणाचार्या अालोचका नब भवन्ति, तेषां मकनिषद्यायां चोपवेशनतः सिहानुगत्वम, कोष्टकानुगत्वं च यथासंख्य प्रायश्चित्तमादयत् तत् परस्थानमा जिकोः पादप्रोञ्छनके रजोहरणनिषद्याया- लहुया लहुओ मुद्धो,गुरुया बहुओ य अंतिमो सुच्छो । मुत्कुटुकत्वेनावस्थितस्य यत् क्रोष्टकानुगतत्वं तत् स्वस्थानम,य. छबहु चमबहु बहुओ, वसभस्स उ नवमुगणेसु॥४०॥ स्लनिषद्यायां कल्पे चोपवेशनतः सिंहानुगतत्वं, वृषनानुग वृषभस्याऽसोचनाईस्य सिंहानुगाऽऽदिरूपतया त्रिविधस्य नवंच नत् परस्थानम् । तत्रासिंदानुगस्याऽचार्यस्य सिंहानु. वसु स्थानेषु नवस्वाचार्येषु यथाक्रममिदं प्रायश्चित्तम्। तद्यथागः सनाचार्य आलोचयति एष प्रथमः १। सिंहानुगम्या. वृषभस्य सिहानुगम्य पुरतः सिंहानुगतया अालोचयत आचाऽऽचार्यस्य वृषभानुगः सन्नाचार्य मालोचयति एष द्वितीयः२। यस्य चत्वारो सघुमासाः। वृषनानुगतया अालोचयतो लघुको सिंहानुगस्याऽचार्यस्य कोठुकानुगः सन्नाचार्य इति तृतीयः ।.........(१) वृषभानुगस्याऽऽचार्यस्य सिंहानुगः सन्ना अघुमासः। कोष्ठकानुगतया आलोचयन् शुषः।.....(?) चार्यः भालोचयतीति नत्रमः ।। वृषाजस्य कोकानुगस्य पुरतः सिंदानुगततयाऽऽलोचयत प्राचार्यस्य प्रायश्चित्तं षट् लघवो लघुमासाः । वृषभानुगतया. पतेषां नवानामाचार्याणामालोचयतां यथासक्यमिदं प्रायः 55लोचयतश्चत्वारो अधुमासाः । कोठुकानुगतयाऽऽलोचतो वित्तम् लघुनासः । पासो दोन्नि न सुझो, चउ लहु लहुमो य अंतिमो मुद्धो। दोहिँ वि गुरुगा एते, गुरुम्मि नियमा तवेण कानेणं । गुरुया सहुया बहुगे, भेया गणियो नव गणिम्मि||६०२॥ बसम्म य तवगुरुगा,कामगुरू होति भिक्खम्मि ।४०५। गणिन्याचार्य बालोचना गणिन माचार्यस्याऽलोचकम्य भे | गुगै नवप्रकारे आलोचयति नियमादेतानि यथाक्रममनन्तरो. दा नच, ते चानन्तरमेवोपदर्शिताः । एतेषां च यथाक्रम प्रा- दितान प्राश्चित्तानि द्वाज्यां गुरुकाणि प्रतिपत्तव्यानि । त. यश्चित्तमिदम-(मासे इत्यादि) सिंहानुगस्याऽऽचार्यस्य परत: यथा--तपसा,काभेन च । वृषजस्येव सिंहवृषनके एकानुगतया सिंहानुगतया सोचयन् प्राचार्यस्य प्रायश्चित्तं मासलघु । विविधस्यानोचनाऽऽहस्य पुरतो वृषभे नवप्रकारे प्राप्तीचय. वृषभानुगत या प्रामोचयन् द्वो मासौ। क्रोएकानुगतया पाहोचति यथाक्रममनन्तरोदितानि प्रायश्चित्तानि तपसा गुरूणि, यन् शुकः । वृषभानुगस्याऽचार्यस्य पुरतः सिंहानुगतया प्रा. | सामथ्यात् कामतो लघूनि बेदितव्यानि । तथा वृपजस्यैव सिंसोचयन प्राचार्यस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघवो बघुमासाः । हवृषभकोछुकानुगतया त्रिप्रकारस्य पुरतो नवप्रकारे भिक्षावावृषभानुगतया बालोचयतो लघुको मास: । कोष्टकानुगतया- लोचयति यथासरूयमुक्तानि प्रायश्चित्तानि काल तो गुरूणि, सोचयन् शुद्धः । क्रोष्टुकानुगस्या 55चार्यस्य पुरतः सिंदा- सामर्यासपसि लघुनि भवन्ति प्रतिपत्तव्यानि । तदेवं वृषभतुगतया 55लोचयन् आचार्यस्य चत्वारो गुरुका: गुरुमासाः, मालोचनाई प्रतीत्य नवानामाचार्याणां मवानांवृषत्राणां नवाअषभानुगतयाऽऽसोचयतश्चत्वारो लघुका ल घुमासाः । कोष्ट- नां भिकूणामालोचयता प्रायश्चित्तमुक्तम् । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चित्त अनिधानराजेन्दः । पच्चित्त इदानी सिंहवृषनकोष्टकानुगतया. त्रयाणामालोचनाहाणां तुर्गुरु प्रायश्चित्तं,सिंहानुगस्य वृषनानुगीनूयाऽऽलोचयतो मासभितणां ये पूर्व क्रमेणाचार्या पालोचका नय, तेषां प्रार्याश्च. सघु । सिंहानुगस्य कोकानुगीभूय पादपोछने रजोहरण. तमाह-- निषद्यायां वा स्थितस्याऽऽलोचयतो मासलघु । उस्कुटुकः सन् चउगुरु च उमदु मुच्छो, उबदु चउगुरुग अंतिमो मुद्धो। । प्रास्रोचयन शुद्धः। वृषभानुगम्य पुरतः सिंहानुगो भूत्वा यद्यासो चयति नतः बरु लघुपरूमामा लघवः प्रायश्चित्तम् । वृषभानुबग्गुरु चउलहु लाहुओ,भिक्खस्स उ नवमु गाणेमु।४०६। गम्य पुरतो वृषभानुगीनूयाऽऽवोचयतश्चतुर्गुरुश्चत्वारो गुरुमाल भिकोरालोचनाऽहस्य सिंहवृषभकोष्टकानुगतया त्रिविकल्प. वृषभानुगस्य कोष्टकानुगीभूयाऽऽनोचयतो मासो लघुमासः । स्य नवसु स्थानेषु नवस्वासोचकेषु यथाक्रममिदम् । तद्यथा-- कोकानुगस्य पुरतो यदि सिंहानुगो भूत्वा आलोचयति निकोः सिंदानुगतस्य पुरतः सिंहानुगतया पालोचपत प्राचार्य ततः पम्गुरु षण्मासा गुरवः । क्राष्ट्रकानुगतस्य च पुरतो स्य स्वत्वारो गुरुकाः। वृषभानुगतया पालोचयत प्राचार्यस्य च. वृषभानुगीभूयाऽऽलोच यतः पालघु षण्मासा सघवः । कोष्ट. स्वारो गुरुकाः। वृषभानुगतया आलोचयतश्चत्वारोबघुका सघु. कानुगस्य पुरतः कोठुकानुाभूया लोचयतश्चतुर्गुरु। एतच समासाः। कोठुकानुगतयाऽऽलोचयन शुरू निकोवृषभानुगस्य पुर- दृशाऽऽसनपरिग्रहे प्रतिपत्तव्यम् । यदि पुनरुत्फुटुका सन्त्रासो. तःसिंहानुगतया मालोचयत प्राचार्यस्य पम् मघवो अघुमासाः। चयति तदा शुद्धः। वृषजानुगतयाऽऽलोचयतश्चत्वारो गुरुका गुरुमासाः । को. कानुगनया 55ोनयन् शुद्धः । भिको कोष्टकानुगस्य अत्रैव व्याप्त्या प्रायश्चितक्कणमाहपुरतः सिंहानुगतयाऽऽसो वयत प्राचार्यस्य प्रायश्चित्तं षट् सम्बत्य वी समासाणे, आलोपंतस्स चगुरू हुंति । गुरबो गुरुमासाः । वृषनानुगतयाऽऽलोचयतइचत्वारो लघवी विसमासण नीचतरे, अकारणे अविहिए मासो ॥४१०॥ मासाः । क्रोएकानुगतयाऽलोचयतोल घुमासः, सोयालो. चनाईः सरशासने सति प्रतिपत्तव्यः । उत्कुटुकस्त्वालोच. सर्वत्रापि सिंहानुगे वृषभानुगे व समे भासने उपविष्टस्य सत यन् कः । एतानि च प्राय चित्सानि तपसा कासेन च गुरुका ग्रामोचयतः । किमुक्तं भवति ?-यारशे श्रासने निषिष्ट आनोचणि द्रष्टव्यानि । तथा मिहानुगवृषभानुगरूपाणां त्रयाणामा नाहः, आत्रांचकोऽपि यदि तादृश पवाऽऽसने उपविष्टः सनालोचनाऽाणां भिकूणां वृषभा अध्यालोचका नव । तेषामपि य लोचयति तदा तस्य प्रायश्चित्तं जयति चतुर्गुरु चत्वारो थाक्रमममून्येव प्रायश्चित्तानि, नवरं तपसा गुरूणि कालतो गुरुमासाः । अन पत्र प्रा सिंदानुगस्य पुरतः सिंहानुगस्यैलघूनि । तथा त्रयाणां सिंहानुगाऽऽदिरूपाणां भिक्षूणामालोच. वालोचयतो, वृषनस्य पुरतो वृषभानुगस्याऽऽलोचयतः,कोनाहाणां निकवोऽध्यालोचका नब, तेषामपि यथाक्रमममन्येव प्रकानुगस्य पुरतः क्रोएकानुगस्य समानाऽऽसनस्याऽऽलोचयतप्रायश्चित्तानि, नवरं तपसा सघूनि कासतो गुरूणि । चतुगुरुकमुक्तम् । अथ विषमेऽधिके ग्रासने स्थितःसन् आलोचतथा चाह यति ततः पस्नघु, षरुगुरुवा । तत्र वृषनानुगस्याऽऽलोचयतः दोहिँ वि गुरुया एते, गुरुम्मि नियमा तवेण कालेणं । पर लघु कोठुकोनुगस्य पुरतः सिंहानुगस्याऽऽसोचयता पम् गुरु । पतव्यतिरिक्तमपि सामर्थ्यादसिनम । तत्र विषमें श्रावसभाम्म य तवगुरुगा,कालगुरू होति भिक्खुम्मि ४०७| सने नीचतरे स्थितः सन्नालोचयति ततःप्रायश्चित्तं मासो बघु. गतार्था । मासः । एतच्चाकारणे निधीदतो वेदितव्यम् । कारणे निषीसंप्रति व्याप्त्या प्रायश्वित्सलकणप्रतिपादनार्थमाह दन् शुभ एव । तथा आलोचनाकाले ये शेषा अप्रमार्जना55. सम्वत्थ वि मट्ठाणं, अमुंचमाणस्स मासियं लहुयं । । दयोऽविधयस्तेष्वपि प्रत्येक प्रायश्चित्तं मासाघु। परगणम्मि य सुखो,जइ उच्चतरो जो इयरो ।।४०॥ संप्रति "जे एयाए पट्टषणाए पटुविए निविसमाणे पडिसे. स्वस्थानं नाम स्वोचितमुपबशनत भासोचयन्नपि यदि न वित से विकसिणे तस्त्र आरोदेयब्वे सिया।" इत्येत. मुश्चति । ततस्तदमुञ्चतः सर्वत्रापि सवयाचार्यत्वाऽऽदिषु অ্যানাঘমারस्थानेषु प्रायश्चित्त मासिकं बघु । श्यमत्र जाधना-यद्यालो मासादी पट्टविए, जे अन्न मेवए तयं मव्वं । चनाऽईस्थाऽऽचार्यस्य सिंहानुगस्य पुरता सिंहानुग पत्र सन्ना चार्य पालोचयति , तथा वृषभस्य वृषभानुगस्य वृषभ एव साहणिकगं मासा. विजंते परे कोसो ॥११॥ वृषजानुग आलोचयति , तथा भिकोः क्रोदुकानुगस्य भि. মাথা মাথনা মাছিদানম্বন্ধয়া মধ্যবিন कुरेव कोष्ठकानुग आलोचयति , सत एतेषु त्रिवपि स्था प्रायश्चित्त करणे प्रवर्तिते यदन्यत् मासादि च सेवते प्रति. नेषु प्रत्यकं प्रायश्चिनं मासिक लघु पत-"मासिया विनि सेवते तत्संर्व संहत्य एकत्र मीलयित्वा पपमासा दीयन्ते, ति" प्रागेवोक्तमा परस्थाने चवतमानः सर्वत्र शको यदि नीच. यत्पुनः पएमासेच्यः परं तस्य समस्तस्यापि, गाथायां सप्तमी तरानुगः समालोचयति । इतर पालोचनाऽह: पुनरुच्चतरानुगो षष्ठ्यर्थे । कोषः परित्यागः। भवेत् । तदेव विभागत एकाशीतिविधप्रायश्चित्तमुक्तम् ।। सूत्रे "पटुवे" इश्युक्तम् । ततः प्रस्थापनाया भेदानाहइदानीमोघतो नवविध प्रायश्चित्तमाद दुविहा पट्ठवाणा खलु.एगमणेगा य होइ उणेगा य । चउगुरुय मासो वा, मासो उल्लहग च उगुरू मासो। तवतिय परियत्ततिगं, नेरस कजाणिय पयाणि ॥१२॥ बग्गुरुयं छहुयं, च.गुरुयं वावि वितिएणं ।। ४०॥ सा प्रायश्चित्तप्रस्थापना द्विविधा । तद्यथा-पका, अनेका च । सिंहानुगस्य पुरतः सिहानुगो सूत्वा यद्यालोचयति, ततश्च तनासंचयिता या सा नियमात् पारमासिकत्येकांवधा । साप Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छिल (१) अभिधानराजेन्द्रः | स्वमेवाद्विधाता, अनुदाता च अनेका मरियम(तवतियमित्यादि) तत्र पञ्चकाऽऽदिषु भिन्नमासान्तेषु परिहातपो न भवति तु मदत मासिकमेकं तपःस्था वैमासिकायामसिकमेन्द्तीयं तपःस्यान म । पाञ्चमासिकं परमासिकं च तृतीयं तपःस्थानम् । एतान्यपि प्रत्येकं द्विविधानि नद्यथा उद्यान अनु तपखिकम् (परियचतिगंति प्रापयस्य परावर्त्तः, तस्य त्रिर्फ परिवत्रिक तथ-बेइत्रिकं मूत्रिम अन स्थापयत्रिकं च । वेदो द्विधा उद्घातः, अनुद्घातो वा । पाराचितमेकम् । एतानि यानि त्रयोदश पदानि । एषा पाराश्चिवज अनेका प्रस्थापना । अथैतानि त्रयोदश पदानि प्रागेवानिहिता निकम है। उम्यवा - । इद तरस्थापित प्रतिसेवते तत् नमनेन निर मनपा आरोग्याि समिति झापनार्थम् "अ" इत्यादिसूत्र"अपत्ति उंचिए पक्षेिउंचियं । " इति प्रथमभङ्गानुगतमुक्तम् । एद्वितीय अपि सूत्रे प ये जे मासि या सातिरेगा उस्मा सियं वा " इत्यादि "०जाब पनि डंचिपं श्रपनि डंचियं, अपलि पनि पक्षिविपक्षिवियं पनि थिय प निचियमात्रोपमाणस्ल सव्यमेयं साहणिय० जाव आरोहेसिया "नामुमषिमेवचारणीयम्-"न वरं पचि अमिलोमाणस" इ तथैव सदाि तु वाचस्मासियं वा" इत्यादि । श्रस्य व्याख्या निरवशेषा प्राग्वत्, नवरमेषोऽत्र विशेष:--" पत्निचंचिए पनिउचियमालोपमाणस्से ति।" शेषं तथैव मारिषाणि चतु 1 नतानि एवं मासिकद्वैमासिकमुत्राप्युपयुज्य चतु कृतिःस्तरं भजनीयानि एवं बहुशशब्दविशिष्ट यपि प्रथम किरन बरवारि सुभाि प्रथमभङ्गानुगतसूत्रं प्रापातिदेशत कम द्वितीयतृतीयभ ङ्गानुगते सूत्रे प्राग्वद्वक्तव्ये । चतुर्थभङ्गानुगतं सूत्रं साकादतिदेशत आद..." एवं बहुलो वि । " इति । एवमनन्तरोदित सूत्रप्रकारे बहुशोऽपि बहुविशिष्यमपि सूत्रं बकस्य म् । तद्यथा-" जे भिक्खू बहुलो चानम्मालियं वा ब सो सातिरेगा उस्मासि वा बहुसो पंचमालियं या बहुसो सातिरंगपंचमासि पा पर्सि परिहारद्वाणाणं अनवरं परिद्वारा पसिना अपलिचि य भलोपमाणे वणिज्जं वचद्दत्ता कराणज्जं वेयावकियं ठ परिसेविता से विकसितत्व सि वि या परिवि पुर्व मालोइ० जाव पच्छा पडिबियं पचना आलोयं अपनिउंचिए अपनिउंचियं० जाब पलिवंचिए पत्त्रिनंचियं श्रतोपमाणस्स सव्यमेयं सकयं साहणिजे पयाप पटुवणाप० जाब तत्थेव आरोहेयव्वे लिया ।" इति । तदनन्तरं मासिकमासिकान्यपि सूत्राणि सम्यगुपयुज्य विस्तरतो Sनेकानि वक्तव्यानि । आह" से वि तत्थेव श्रारोहेय ने सिया । " इत्युक्तम् । तत्र कति भेदा आरोपणायाः ? । उच्यते- पञ्च । तथा चाह पवितियाय उविया, कसिणाऽकसिया तहेत्र हामहमा । पा आरोप पंचविदा, पायद्धितं पुरिमजाते ॥ ४१३ ।। श्रारोपणा पञ्चविधा पञ्चप्रकारा। तद्यथा-प्रस्थापितिका, स्थापिता, कृत्स्ना, अकृस्ना, हारुहडा च । एषा पचप्रकाराऽप्यारोपणा प्रायश्वित्तस्य । तच्च प्रायश्चित्तं पुरुषजाते कृतकरणाऽऽद यथायोग्यमवलेयम् । एष गाथासंक्के पार्थः । व्य० १ ३०२ प्रक ( स्त्रीणां विषये विशेषः ' इत्थी ' शब्दे द्वितीयभागे ६१७ पृष्ठेति) (१५) अश्या कृतमफलम् जयंत्र! मंदसदेहिं, पायच्छितं न कीर काहिंति किसिमणे, नाटकंपं विरुज्कए १ ॥ नारायादी हिं संगामे, गोयमा ! सलए नरे । सहबुदधरणे नवे दुक्खं, नानुकंपा विरुज्कए | एवं संसारसंगामे, गोतु बाहिरं भावमस्तुकरिता अनुकंपा अणोषमा ॥ य! सम्म देहत्थे, फुक्लिए होति पाणिणो । जं समयं निष्फ मे सनं, तक्खणा सो सुही भवे ॥ पतित्यपरे सिद्धे, साहू धम्मं पिबंचिछं | जंकलं कथं तेणं, निस्मरए ससुही जवे | पायणि को तत्व कारिए । जवे। जेणं योक्स्स श्री देसि पुस्करकरं कुरणचरं ॥ गोवा, वेदण मंगों जाव णो कपी । पिंडी पट्टबंधं च ताव णो किं परुज्झए । भावसस्म वार्षिक पहलुओ इमो भये । पच्छितो दुक्खरोहं पि, जाव वणं खिष्पं परोहए | [arj] किम विते, सुचंते जाणि वा । सो सम्पाबाई सम्मन्नुदेसि ॥ सुसाउ सीयले उदगे, गोयमा ! जाव णो पिए । परो गिम्हे विषाणते, ताब तडा छ उसमे || एवं शिपछि असदभावेनं चरे । ता तस्स तयं पात्रं, वहुए उण हायए । जय किंवा जं पमादेश करथइ । आग पुणो आतस्स, तेतियं किं न जाए ॥ १ गोयमा ! जब पमा, अति अहिम किए । घास जहा पच्छा विसं बड़े तह चैव पाव ॥ जयवं ! जे विदियपरमत्ये, सव्वपच्छित्तजाणगे । ते किं परेसि साइति नियमक जहडियं १ ॥ गोमादि जो कोइ सुद्धने । से विदिद्वे विभव्य धारियनेहि सझिए । एवं समाहू, पच्चिस ने शुर अनिल साहेती बहारो ॥ महा०२ ५० " अत्यंतस्स जहा पच्छा।" इत्यपि पाठः । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवित्त (१६) कीदृशः कस्योपदिशेत् - एवं स पेमपाहिं, बको साग चूमणं । जोव करेमाणे, दस ग्रहिए वा दिये दिले ॥ पमित्रोहिऊणं संविग्गे, गुरुपामूलं पत्रेसई । संपयं बोहियो सो वि, कुम्भुहेण जहा तुमं ॥ धम्मं लोगस्स साहेति, अत्तकज्जम्मि मुज्जसि । नृणं विकेणयं धम्मं, जं सयं णाचिसि ॥ एयं सो वयणं सोचा, दुम्मुहस्स सुनासि । थरथरस्स कंपतो, निंदिउं गरहेिडं चिरं ॥ हा हा हा हा अकज्जं मे भट्टसीझेण किं कथं १। जे तु सुत्तप्पसरे, गुंमि सुइकिमी जहा || घीधी घी, पेच्छ जं मेऽणुचिट्ठियं । अश्वचसमं नाणं, असुईसरिसं मए कयं ॥ ariगुरस देहिस्स, जा विवत्ती ण मे जवे । ता तित्ययरस पामूत्र, पायच्तिं चरामि हूं ॥ एसमागच्छती एत्यं, चिता ऐव गोयमा ! । घोरं चरिण पच्चित्तं संविग्गो प्रजासिओ ॥ घोरवीरं तवं कानं, असुहकम्मं खषेत्तु य । मुक्कज्जाणे समारुहिय, केवलं पप्प सिन्ऊदी ॥ ता गोयम ! छापणं, बहवो पवियारिया । लिंगं गुरु अपेयं, नंदिसेषेण जह कथं ॥ उस्सग्गं ता तुमं वुज्ऊ, सियंते य जहट्टियं । तवंत उदयं तस्त, महंतं श्रासि गोयमा ! | सहा विजा संपइने, तबे घोरं महातवं । गुणं ते मणुचिष्णं, तो विसरण णिज्जए ताहे ॥ विसजक्खणं मूत्रपणं, अणसणं तेण इच्चियं । इयं पिचारणसमणेहिं, चेव से जाव सेहियो । तात्रय गुरुस्स रयहरणं, अलियनं संतरं गओ । एते ते गोयमा ! चाए, सुयनिवच्चे वियालए जहा ॥ जाव गुरुणो स्यहरणं पव्वज्जा या अन् य । तावकज् न कायव्वं, झिंगमवि जिणदेसियं ॥ अन्नस्थ उज्जेव्वं, गुरुणो मोत्तूण अंजलि | जइ सो उत्रनामि उं सको, गुरू ता जवसामइ || अह अन्नो जवसामि सक्को तो वी तस्स कहिज्जई । गुरुणा वितयं अन्नस्स, गिरा व्यव्त्रं कयाइवि ॥ जो भमिया वी य परमट्ठा, जगडि वियागो । एवा तु पाईजा, गोयमा ! त्रिमंबर ॥ मायाए वंचणं तेण, सो भमिद्दी आमडो जहा । जय ! न याणमो को त्रि, मायासीलो हुया सढो । किंवा निमित्तमुत्रचरि, सो जमे बहु दुहट्टियो । (एए) अभिधानराजेन्द्रः । For Private ਰਚ । चरिमासन्नस्सतित्यम्म, गोयमा ! कंचलच्छवी ॥ आयरिओ आसि चूड़क्खो, तस्स सीसो सया सढो । महव्वाई वित्तू, यह सुत्तस्थं अहिज्जिया || ताब को कह जायं, गुणं बेरहि पीडिओ। चिंते जह सिते, एरिसो देसिओ विही ॥ ततो तस्स पमाणेणं, गुरुजणं रंजिउं दर्द । सदगुणं काळं, परुणाणसणं श्रियं ॥ कहामि तहाऽहं पी, देवयाए निवारिश्रो । दीहाऊ चिन्नमच्चू, भोगे जुंज जहिच्किए । झिंगं गुरुस्स अप्पे, अन्नं संतरं वये । जोग वेइया पच्छा, घोरवीर तत्रं चरे ॥ हवा हा हा अहंमूढो, श्रायसल्लेण सनि समा पेरिस जुत्तं, समयमवी मासि धारियो । पच्छात मे च्छित्तं प्रालोइत्ता लहू घरे । अवा आनोनं, पायात्री जत्तिश्रो पुणो ॥ ता दस वासे व्यायाम, मासखमणस्स पारणे । विमादीहिं, दो दो मासाण पारणे ॥ पणवीसं बाये तत्थं, चंद्रायण तत्रेण य । मदमाई, वासे अणूणगे ॥ महाघोरेरिसपच्छित्तं, सयमेवेत्य अणुचर । गुरुप मुझे वि एत्येयं पायच्छित्तं मेण भग्गनं ॥ हवा तित्ययरेस, किम बाइयो विही । जे महीयमाणोऽहं, पायच्छित्तस्समेन हवा सो वि जाणिज, सव्वन्नू पच्चित्तं मे ए अगलं । राजमित्य डुडु चिंतियं, तस्म मिच्छामि दुक्कडं ॥ एवं तु तं कई घोरं, पायच्छित्तं सयं मती । काऊ पि ससो सो, वाणमंतरियं गयो । हिडिमो चरिमवेय-त्रिमाणो तेण गोयमा ! | वेयंत आलोइत्ता, जड़ तं पच्छित्तं कुब्विया ॥ वाणमंतरदेवत्ता, चकगं तु गोयमा ! | || दोसतो तिथे, नरिंदघरमागओ ॥ निचं तत्य वरुत्राणं, संघट्टपादोसा तहिं । वादी समुपनो, किमी एत्थ समुत्थिए । तम्रो किमिएहिं खज्जतो, वणदेसम्म गोयमा ! | मुकादारो खिरं लेभे, बियाणंतो ताव साहुणो ॥ दूरेणेव लेने द-हू जाई सरेत्तु य । निंदिनं गरहिउं आया, अणसणं पडिवज्जिया ॥ कोसा खज्जतो, सुद्धभावेण गोयमा ! | अरहंतगतिं सरमाणो सम्मं उज्जियं तणू || कालं काय देविंद - महाघोससमाथि प्रो । Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (200) अभिधानराजेन्द्रः । पच्छित्त जाओ तं दिव्यदेव समजोत तच्चु ॥ ओ सताए जा, सा नियमीण पर्याकिया । तो विपरित बहु-अंत पंत कुले विश्र ॥ कालकमेण महुराए, मिवदस्व दयायणे । मुमो होऊण परिबुटो, सामन्नकाउम्मि परिबुद्धो ॥ एयं तं गायमा ! सिद्धं नियमीपुंजं तु आममे । जय सचं तु सुहन लिए, वगणे मणसा विमंत्रिए । को कह लें बियाणं, पाउण विसरहिं परियो । सच्छंद पायवित्तेण, भमियं जब परंपरं ॥ एयं नाऊथमिकं पि, सिद्धंतिगमासावगं । जायमाणो हु उम्मगं, कुज्जा जे सेवियाणि उ ॥ जो पु सुच्चा सुन्ना, अटुं वा गच्चा वएज्ज मग्गेणं । तस ग्रहणं च " एयं नाऊण मामा, विमग्गं नो पत्तए । तिमि । जयवं ! किचं काऊणं, पच्छित्त जो करेज्ज वा । तस्म लडयरं पुरो, जं प्रविं न कुव्लए । ता जुत्तं गोयमा ! मिणमो, वयणं मणसा विधारिडं । जहा काउमत्तं, पच्छित्ते त्रिमुझियं ॥ जो एयं वयणं सोचा, सदहे अणुचरे वा । मसीलाण सव्वेसिं, सत्यवाहो स गोयमा ! ॥ एसो काउंपि पच्चितं, पाणसंदेहकारयं । आणा वराहदीए दीवसिहं, पविसे सन्नभो जहा ।। भयचं ! जो बलं विरियं, पुरिसयारपरक्कमी । प्रणिगृहंतो तवं चर, पच्छित्तं तस्स किं भवे १ ॥ तसेयं होइ पच्छिते, असहजावस्स गोयमा ! | जो तं थामं बियाणेता, वेरी सत्तगवेक्खया | जो वलं वीरियं सत्तं, पुरिसधारं निराहए । सो सपच्छित्तपच्छित्तो, सढसीलो नराहमो ॥ नीयागोतं हं घोरं निरिए मुकामियं द्वितिं । बेदेतो तिरियजोणीए, हिंमिज्जा चनगईऍ सो ॥ से भय ! पावयं कम्मं परं बेइ समुद्धरे । पुणो मोक्खं पायच्चिता किं तहिं १ ॥ गोमा ! बासकोमी, जं गाहिं संचियं । पच्छित्तरी, पावहिं वियई || घणघोरंधयारतमतामसा, जहा सूरस्स गोयमा ! | पायच्छितं रविस्तव, पात्र कम्मं पणस्सए । वरं जड़ तं पच्छित जड़ भणियं तदसमुचरे असढजावो । मणिगूहिय लवीय पुरिसायार परकमे ।। अनं च काल पच्चित्तं सं थोत्रमच्चरे । जासिलो, अप्येो दीहं चाजग्गइयं परे ॥ For Private पच्छित जय ! कस्मालोएज्जा, पच्चित्तं को व दिज्ज वा । कस्स व पच्छित्तं देज्जा, आलोवेज्जा कहं पुणो गोयम ! आलोयणं ता के वलीणं च बहुसु वि । जो सहि गतूणं, सुद्धनावेहिं दिज्जए ॥ चलनाणीणं तया जावे, एवं हिमईवि । जस्म त्रिमलय रे तस्स, तारतम्मेण दिज्जई ॥ उम्मग्गं पन्नविंतस्स उस्सग्गे पडियस्स य । उस्सग्गरयणे चैव सव्वजावतरेहिण || वसंतस्स दंतस्स, संजयस्स तवसिणो । समिती गुत्तीपढाएस्स, दढवीरियस्स श्रमदजाविलो ॥ आलोपज्जा परिच्छेज्जा, देज्जा दाविज्ज वा परं । अभिसं तद्दिनं, पायच्छित्तं च अणुचरे || से जयवं ! केत्तियं तस्स, पच्चित्तं हवइ निच्छियं । पायच्छित्तस्स ठाणाई, केत्रइयाई कद्देढि मे ॥ गोयमा ! जं सुसीझाएं, समणाणं दसएह उ । खलियागपच्छिलं, संजई तं नवं गुणं ॥ एको पात्रे पच्छिलं, जइ सुसीलो दढव्वो । हसी विराडेज्जा, ता तं वः सयगुणं ॥ तीए पंचेंद्रिया जीवा, जोगीमके निवासियो । सामन्नं नवलखाई, सब्बे पासंति केवल्ली ॥ केवलनास ते गम्मा, केवली ताई पासति । ओहिनाणी बियाणे, णो पासे मापज्जवी | ते पुरिसा संघहंती, कोल्हे गमितिले जहा । सम्बेस सुरावे, रंतु मत्ता श्रहन्नया ॥ चक्कपतीइ गाढाई, काइयं बोसिरंति य । बाबा दो तिनि, सेसाइँ परियावई ।। पायच्छित्तस्स ठाणाई, संखाईयाइँ गोयमा ! महा०६ अ० । जयवं ! ता एयना एवं जं जणियं आसि मे तुमं जहा परिवाडीए तत्य किं न अक्खसि पायच्छित्तं तत्थ मज्झनी हवइ ? । गोयमा ! पच्छित्तं जइ तुमं तमानंदसि नवरं श्रमविया ते को सुविपारो फुो लहेजा एत्य पच्छित्तं पुणरवि पुच्छेज्ज । गोयमा ! संदेहं जाव अच्छिनं ताव निच्छ्रयं मिच्छत्तण वि अजिए तित्ययरस्स विभासियं वयां संघित्तु विवरीयं वा पत्ता सं पविसति घोरत पतिमिरबद्दलंघयारं पाया। नवरं सुधियारित्र्यं काउं तित्थवरा सयमेव यजति । तं जहा चेत्र गोयमा ! समगुणं । त्येगे गोयमा ! पाणी, पन्चज्जिय जड़ा तहा | विहीए तह चरे धम्मं, जह संसाराणमुच्चए | से जय ! कयरे से विद्या सिलोगो ।। गोयमा ! इमेणं । से विसिलागो । तं जहा Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०१) पच्छित्त प्राभिधानराजेन्डः। पच्छित्त " चिइबंदणपमिकमणं, जीवाईतत्तसम्भावं । उवइसेज्जा । से जयवं ! केवइयाई पायच्चित्तस्स एं समिइंदियसहगुत्ती-कसायनिग्गहणमुबोगं । पयाई १ । गोयमा ! पायच्चित्तस्स पयाई संखाईयाइं से नाऊण सुबीसत्तो, मामायारिं कियाकलावं च । भय ! तेसि पं संखाईयाणं पायच्छित्तपयाणं किं तं श्रामोश्य नीसदो, आगन्ना परमसंविग्गो।। पढमं पायच्छित्तस्सणं पयं। गोयमा! पदिणं किरियं । जम्मजरामरणनीग्रो, चउगइसंसारकम्मदहणट्ठा। से जयवं! किं ति पदिणं किरियं । गोयमा! जपणुसमया पयमियहियएण एयं, अणवस्यं चेव कायंतो ।। प्रहन्निसा पुणो चरमं जावऽणुट्टेयवाणि संखेजाणि भावजरमरणमयरपजरे, रोगकिलेसाइबहुविहतरंगे । स्सगाणि । से नयन ! केणं अणं एवं चुच्चइ जहा एं कम्मट्ठकसायग्गा-हगहिरनवजलहिमम्मि ।। आवस्सगाणि । गोयमा ! असेसकसिणटकम्मक्खयकारि नमिहामि जहमम-त्तनाणचारित्तलकबरपोभो। उत्तमसम्मइंसण चारित्तअञ्चतघोरवीरुग्मकहसुडकरतवसाह. कान्नं अजोरपारं, अंतं दुक्खाणमत्रमंतो ।। पढाए परूविज्जंति नियमियविभत्तं दिडपरिमिएणं कालता कइया सो दियहो, जत्याहं मसुमित्तसमपक्खो। समएणं पयंपएणाहंनिसाणुसमयमाजम्मं अवस्समेव तिनीसंगो विहरिस्सं, सुहकाणनिरंतरो पुणो भवनहूँ ।। त्यराइसु कीरति अणुष्टिज्जति उघडसिज्जति परूविएवं वरचिंतियभिमुहमाणो, हरिससंपनिहरिसमुद्बास जंति पन्नविजंति सययं, एएणं अढणं एवं बुवाभो, भत्तिनरनिन्जरो रोमंचकंचुपुनयंगो, सीनंगमह गोयमा! जहाणं आवस्सगाणि । तेसिं च गोयमा जे स्सट्टा-रसधरणे समोच्छयक्खंधो, छत्तीसायाकंच- निक्स्व कालाइक्कमेणं वेलाइक्कमणं समयाइकम्मणं अलनिवविवयास मिच्चत्तो, पमिबजे पयजं, विमुच्च सायमाणे अणोच उपमए अविहीए अनसिं व असर्फ समदमाणमच्छरापरिसो, निस्समनिरहुतमुहिसयाणधण उपायमाणो अनयरमावस्मगं पमाइयसंतेणं बलवीरिएमित्तबंधवधन्नमुवन्नहिरन्नमणिरयणसारभंगारो अञ्चंत एं सातलेहताए आवंबणं वा किंचि घेत्तूण विराश्यं परमचेरगावासणाजाणियपवरमहरसायपरधम्मसदापरो, पडरियाणाणं जहुत्तयानं समगुडेज्जा, से एं गोयमा ! अकिलिनिकबुस अदीमाणसो, जमनियमनाणचारित्त महापायच्छिती नवेज्जा । से भय ! किं तं वितियपायतबाइसयलनुवणेकमंगल अहिंसालक्खणखताश्दसविहध च्छित्तस्स / पयाई?। गोयया ! बीयं तऽयं चउत्थं पंचमं जाव म्माणुहाणे कंतरच्झक्खो, सम्वावस्सगतकालकरण एं संखाईयाणं पायच्चिनस्स गं पयाई ताव ६ पत्य सज्जायज्माणमानत्तो, संखाईयप्रणेगकसिणसंजमपए चेव पढपायच्चित्तपए अंतरोवंगाई समणुविंदा । से भयं! सु अविक्खलिओ, संजयविरयपमिहयपञ्चक्खायपावकम्मो, केणं अटेणं एवं बुच्च ?। गोयमा! जमो णं सव्वावस्सगकाप्रणियाणो मायामोस विवजिनो साहू वा साहुणीवा ए. लाणुपेह निम्बू णं रोवइन्जा ए रागदोसकसायगारवय. बंगुणकलिओ, जई कहवि पमायदोसणं असई कई वि यमकरासु णं अणेगपमायालंबणेसु च समजावंकत्थइ वायाई वा माणसाई वा तिकरणविमुखीए सव्य तरेहिं णं अञ्चंतविपाको जवेज्जा, केवलं तु नाणदंसनावं जावंतरे चेव संजममायरमाणो असंजमेणं छले ताचारित्ततवोकामनायज्जास सचम्मावमाणेसु अचंतं ज्जा, तस्स णं विसोहिपयं पायच्छित्तमेव, तेणं पायच्चित्ते. अगृहियवतमीरियपरक्कमे सम्मं अभिरमेज्जा जाब एं | गीयमा ! तस्स बिमुझि उवदिसिजा, न अन्नह ति | सम्मावस्सगेसु अनिरमेज्जा ताच णं सुमंबुढामवमहा० ? चू०। दारे हवेज्जा, जाव णं सुमंबुमासवदारे नवेज्ना ( निङ्कितप्रायश्चितम् ‘णिटुंकिय' शब्दे चतुर्थभागे ताव पं सजीनचीरिएणं अणाइभवम्गहणमंचिया२०६३ पृष्ठे गतम) णिहडकम्मरासीए एगंतनिट्ठवणेकवचलक्खो प्रसे भयवं! कविहं पायच्चित्तमबष्टुं । गोयमा! दमविई णिकोजा ण निरुजोशी नवेजा गं निद्दिद्वासेसकम्मपायचिकुत्तं नवइडं । तं च अणे गहा जाव पारंचिए । विमुक्कजाइजरामरणचनगइसंसारपासवंधणे य सम्बमुक्खसे जयवं ! केवइयं कालं जात्र इमस्स विही पायच्चि मिमोक्ख तेसोकसिहनिवासी नवेजा। एएणं प्रवेणं गो. यमा! एवं बुच्चा -जहा एत्थ चेव पदमपए असेसाई तमुत्तस्साहाणं चहिही। गोयमा ! जाच णं ककी नाम गाणे निहणं गच्चिय एक जिणाययणमंडियं च मह पायच्छित्तपयाई अंतरोगयाइं समणुविंदा । से भयवं ! सिरिप्पने अणगारे । जय ! उ पुच्चा । गोयमा ! उर्ल कयरे ते प्रावस्सगे ? । गोयमा ! णं चिश्वंदणादो। न के पुरिसे पुनगाने होही जस्स णं णमो सुयक्खंध | महा० १ चू० । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित (३.२) अभिधानगजेन्छः । पच्छित्त (१७) प्रायश्चित्तमकालम् भयवं! जस्स उण गणिणो सवपमायालंबणविष्पमुक्कस्मासे पुरंतपतसक्खणा अदछन्वे महापावकम्मे पारं- वि णं सुयासारेणं जहुत्तविहामोहिं चेव सययं श्राहन्निचिए अहा णं महाववस्ती हवेज्जा तओ सयरं मासक्ख- सं गच्छं सारवेमाणे सो न केइ तहाविहे मुट्ठसीले न समग्गं मणाणं सयरं दसमा सयां अट्ठमाणं सयरं अबढाणं स- समायरिजा तस्स वीयं किं पच्छिन्नमुवइसेज्जा । गोगमा ! या चनत्थाणं सयरं आयंबिलाणं सयर एगहाणाणं उपइसज्जा। से जयवं! केणं अटेणं ?। गोयमा! जो तेणं सयरं सुखायामेसणाणं सयरं निविगश्याणं जाब एं अपरिक्खियगुणदोसे निक्खमाए हविज्जा एएणं । से भ लोमेणं निहिसेज्जा एयं च पायच्छित्तं जे णं यवं ! किं तं पायच्छित्तमुवइसिज्जा ?। जे णं एवं गुणकलिए भिक्खू अवी सतो समणुजा, से णं आसन्नपुरेक्क गणी से णं जया एवंविहे पाश्मीझे गच्छे तिविहं तिबिहेणं देणए । महा०१०। वोसिरिता एं आयहियं न समणुढेज्जा, तया एणं संघव ज्के जवइसेज्जा । से जयवं! जया णं गणिणा गच्छे तिवि(१७) प्रायश्चित्तमुपदिशेत् हेण वोसिरिए हविज्जा,तया णं ते गच्छे असारेज्जा, जह से णं जयवं ! इणमो सयर अालोमपरिलो संविग्गे नवित्ता णं जहुत्तं पच्चित्तम चरित्ता गण अन्नस्म मेण केवइयं काझं जाव समष्टिहि य १ । गोयमा ! गच्छाहिवडणो नवसंपज्जित्ता गं समग्गमणुसज्जिा तो जावणं आयारमंगं वाएज्जा । जयवं! न पुच्छ। । गो णं आयरिज्जा,अहाणं सच्छंदताए तहेव चिढे तो यमा ! उ केइ समगुडेजा से णं वंदे से एंण पुजे से णं चउविहस्स वि समणसंघस्स वकंतं गच्छं आयरेजा। दहब्बे से णं सुपसत्यमंगले सुगहियनामधेजा तिएई पि सांगागां वंदणिज्ज त्ति, जेणं तु णो समणुढे से एणं पावे महा० १ चू०। से णं महापावे से महापावपाचे से दुरंतपंतनक्खणे जाव | से जयवं ! किं तं सक्सेिसं पायच्छितं जाव । वया स! णं अदटव्ये ति । जया गण गोयमा ! णमो पच्छित्तसुत्तं गोयमा ! वासारत्तियं पंथगामियं वसहिपारिभोगियं गवोच्छिन्जिहिइ तया णं चंदाइच्चाहरिक्वतारगाणं सत्त च्छायारमइक्कमणं संघायारमरक्कमणं गुत्तीने यपयरणं सअहोरत्ते ते य णो विष्फुरिजा, इमस्सणं वोच्छेदे गोयमा!! व्वमंडलधम्माश्क्कमणं अगीयत्यपयाण जाय कुसीनमंभोकसिणसंजमस्त अनावो जो णं सन्चपावणि हवगे वय- गजं अविहीए पयजादापोवहावागाजायं अनस्सग्गा सुपच्छित्ते सव्यस्स एणं तसंजमाणुष्ठाणस्स पहाणमंगे प- चत्योनयपत्रवाणजायं अणाययणेक्ककखणविरतणानायं रमविसोहीए पवयणस्सादि णं शवासीयसारजए पन्नत्ते ।। देवमियं राऽयं पक्खियं मासियं चाउम्मासियं संवच्छरियं इमे मन्चमवि पायच्चित्ते गोयमा ! जावश्यं एगत्थ सं- एदियं परसोइयं मूलगुणविराहणं प्रानोगाणानांगयं पिमियं हवेउजा तावइयं चेव एगस्स णं गच्छाहिवणो म- आनट्टिपमायदप्पकप्पियं वयसमाधम्मसंजमतबनियमयहर पवत्ताणीए य चनगुणं उबोज्जा जो सचमवि ए. कसायदंमगुत्तीयं मयनरगारवाईदियज बसणाइकं रोएनि देनियं हवेज्जा । अहासामिमे चेव पपायवसं गच्छे । घट्टज्माणरागदोसमोहमिच्चत्त दुहकूरावसायसमुत्थं मज्जा तमो भन्नेसि सम्मे धाबनवी रिए सुनुत्तरागयतरा. मत्त मुच्छापरिग्गहारंभजं असमिइतं पड़ीसं मासित्तगयमभुज्जमणुहवेज्जा,अहा णं किंचि सुमहंतमवि तप्रोणु- धम्मतरायसंतावुच्छेवगा समाहाणुप्पायगं संग्बाध्य हाणमभुगमज्जाता णं न तारिसाए धम्मसघाए कि तुम. आसायणा अन्नयरा अामायणयं पाणवहममृत्थं दुवार समावेजा जग्गपरिणामस्स निरस्थगमेत्र काय- मुमावायसमुत्थं अदत्तादाणगहणसमुत्थं मेहणसेवकोसे जम्हाणं तम्हा उ अचिंताएंतगिरणबंधि- णासमुत्थं परिग्गहकरणसमुत्थं राभोयाग समुत्यं मापुनपनावणं संजजमाणे वि साहुणो न मंजुजीत, सियं वाइयं काश्यं असंजमकरणकारावण अणुमासएवं सबमवि गच्छादिवपादी दोसणेव पवसेजा। एए. मुत्थं जाव णं नागदसणचरित्ताइयारसमुत्यं किं बहणा ण पबच्चड गोयमा ! महा णं गच्छाहिवड या इशमो स- जानइयाई तिगानचिइबंदणादो पायच्छित्तहागाई बमनि पच्छित्तं जावश्यं एगत्यं मंपिमि हमानावयं पन्नलाई तावइयं च पुगो विसेसेगणं गोयपा! असंखेयचेव चनगुणं नवसेजा । से भय ! जे णं गाणी अ- हा पनविज्जति एवं मंधारेज्जा जहा गं गोयमा ! पापमादी हवेजा णं सुयाणुसारेणं जहुत्तविहाणेहिं चेव यच्चित्तमुत्तस्स संखेजाओ निजुत्ती प्रो मंगहणाओ सययं अहनिसं गच्छंन सारविजा,तस्स किं पायच्छित्त- संखिज्जाई माअोगदाराइयं संखेजे अक्खर ते पमुवासिज्जा गायमा! अप्पत्ती पारंचियं उपज्जा ।से उजवे जाव पं दंसिज्जति उपदसिज्जति माघविज्जति Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त अभिधानराजेन्धः। पच्चित्त पनविनंति कालापिग्गाहत्ताए दवाभिग्गदित्ताए भावा मथैनं श्लोक विवरीषुराहभिग्गहित्ताए जावणं आपुवीए प्राणाणुपुबीए जहा. एकेकं सत्तदिणे, दाऊण अडच्चियंति उ तवम्मि । णु भोगं गुणहाणेसु नि वेमि । से भय ! एरिसे पति- पंचाइ होइ छेदो, केसि वि जहा कमो तत्तो ।। ७१५ ॥ तवादुल्ले, से जय ! एरिमे पच्चित्तसंघट्टे, से जयवं ! एफैकं तपश्चतुर्गुरुकाऽऽदि सप्त सप्तदिनानि दवा ततस्तपा. एरिमे पच्छित्तमंगहगे, अस्थि केई जे णं पामोइत्ता णं प्रायश्चित्तेऽतिक्रान्ते पश्चकाऽऽदिको भवति । केवाडिचहाचा. निंदित्ता णं गरहित्ता जाव णं अहारिहं तवोकम्मं पा याणामयमादेशः-यथा यत एव स्थानात्तपः कृतं प्रारब्धं तत यच्छित्तमणुचरित्ता णं सापनपाराहेज्जा परयणमाराहि आरज्य दोऽपि दीयते, चतुर्गुरुकादित्यर्थः। श्यमत्र नाव ना-तयोराचार्ययोः प्रथमतः सप्तरात्रं यावहिवसे दिवसे चतुजा (?) श्राराहिज्जा जाव णं आयहियट्टयाए नपसंप गुरुकं, यद्येतावति गते केनाप्यपरेण गोतार्थन प्राचार्यों न कज्जित्ता णं सकज्ज तमढे आराज्जा । महा० १ चू० । ल्पते अबहुश्रुतस्यागीतार्थस्य वा गणं दातुं धारयितुं वा ततः से जय ! एरिसं पप्प, पिसोहिं उत्तम वरं। प्रतिपद्यर्थ, संप्रन्यपि प्रायश्चित्तमिति प्रज्ञापितौ स्वयं या या. जे पमाया पुणो असई, कत्थर चुक्के खलिज्ज वा ॥ परती ततः प्रायश्चित्तमप्युपरतम । अथ नोपरमेत ततो द्वितीय सप्तरानं दिने दिने षद लघवः। तृतीयं सप्तरात्रं प्रत्यहं षड्गुरतस्म किं भवे मोहिपयं, मुफ चेत्र पलिक्विए। वः। यद्येतीस्थती ततः सुन्दरमेय, नोवेत्ततः बेदः प्रधावति,त. उया इणो समुलिक्खं, संसयमेवं वियागरे । के प्राचार्याः पञ्चरात्रिन्दिवादारज्य वेदं प्रस्थापयन्ति । अपरे गोयमा ! निंदिउं गरहियं. सुइरं पायच्छित्तं चरित्तु णं । पुन:-चतुरुकादिति पञ्चरात्रिन्दिवप्रस्थापनायां नूयोऽध्यादेशशिकावामि य तह बुच्छामि, एवं पाणं नरक्खए।। युगम्। तथधा-केचिदाचार्या लघुज्यः,केचिनु गुरुभ्यः पञ्चरा त्रिदिवेच्या नेदं प्रारभन्ते । तत्र संघुपञ्चरात्रिन्दिवप्रस्थापना सो सुरहिगंधगम्नेण, गंधोदयविमन्ननिम्मनपविते । प्रथमतो भाव्यते-सप्तरात्रत्रयानम्तरं तुरीयं सप्तरात्रं लघुपच. मज्निय खीरममुद्दे अमुईगडाएँ जड पडः ॥ कच्छेदः,पाचमं गुरुपञ्चकः, षष्ठं बघुरशरात्रिन्दवः सप्तम गुरुता पुण तस्स सापणi, ........................। दशराबिन्दिया,अष्टम बघुपचका, नरमं गुरुपञ्चदशका, दशम अह होज्ज देवलोगो, असुई गंधं मुफरिस ।। सघुर्विशतिराविन्दिवः, एकादशं गुरुविशतिराविन्दिवः, द्वादशं एवं कयपच्चित्ते, जेणं उज्जीवकायचयनियमं । लघुश्चविंशतिका, त्रयोदशं गुरुपञ्चविंशतिका, चतुर्दशं सघु मासिका, पञ्चदशं गुरुमासिकः,पोमशं चतुर्बघुमासिका, सप्तददसणनाणचरितं, सीनंगे वा नवगे वा। श चतुरुमासिकः, अष्टादश लघुषापमासिका, एकोनविशं स. कोहण व माणेण व, मायाझोभे कसायदोसेणं । तरात्रं गुरु पाएमासिकच्छेद इति सर्वसंख्यया त्रयविशं शतरागण पोसेण व, अत्ताणं मोहमिच्छत्तं । महोरात्राणां भवति । गुरुपञ्चकप्रस्थापनायां तु सप्तरात्रत्रहासेणं वावि जपणं, अहवा कंदप्पदप्पेणं ॥ यानन्तरं सप्ताहोरात्राणि प्रथमत पव गुरुपत्रकच्छेदः, नतः सप्ताह लघुवंशका एवं पूर्वोक्तविधिना गुरुदशकाऽऽदयोऽपि एएहि य अन्नेहि य, गारवमानंत्रणेहिँ जो खसे । षट्गुरुकामनाउदा सप्ताई सप्ताहं प्रत्येकं 5ष्टव्या इति । अत्र सो सबढविषाणा, पत्ते अत्ताण एगें निरए य ॥ चाष्टादशतिः सप्तरात्रैः पदशं शतं रात्रिन्दिवाना नवति । से भय ! किं आया संरकखेयव्ये उयादु छज्जीवनिका- यदा तु यतः प्रभृति तपः प्रायश्चित्तमुपक्रान्तं तत प्रारज्य छेद. यमामंजमो रक्खेयन्बो । गोयमा! जे कायसं जमे विवक्षा क्रियते तदा चतुर्थ सप्तरात्रे प्रथमत पब चतगुरुक दः, पञ्चमे पम्लघुकः षष्ठे षगुरुकः। एवं षङ्गिः सप्तरात्रतासंरक्खे से णं अशंतनुक्रवपओगाओ दोग्गइगमणाओ चत्वारिंशदिनानि जवन्ति । इत्थं त्रयाणामादेशानामन्यनअत्ता संरक्खे, तम्हा छकायाइसंजममेव रक्खयब्ध होइ।। मेनाऽऽदेशन ग्यिमानोऽपि यस्त्वात् यदा पर्यायो न विद्य. महा० १ चू०। ते, ततो यद्यपि देशनपूर्वकोटप्रमाणः पर्यायोऽवशिष्यते, (१५) अत्र परः प्राह-यदेतत्यायश्चित्तं भणितं किमेतायता तथापि स सोऽपि युगपदेकदिनेनैव विद्यते इति सर्वच्छपर्यवसितं, किंवा नेति । तथा चाह नियुक्तिकार: दवकणं, तो सूलं. ततो द्वितीय दिवसेऽनवस्थाप्यम्, तृ तीय पाराडिवतम् । अथ सामान्यतस्तपःस्थानानि, छेदस्यासत्तरत्तं तवो होइ, तो डेओ पहावई। नानि परसरंकि तुलानि, किंवा हीनाधिकानि?। उच्यतेएग छिनपरियाए, तो मृलं तो दुगं ।। ७१४॥ तुझ्यानि। सप्तरात्रमिति जातावेकवचनम् । ततोऽयमर्थः-त्रीणि सप्तरात्रा यत आहणि यायचतुवादिकं तपो भवति, नियपि सप्तररात्रेषु गतेषु य. तुझा चेव उवाणा,तबयाणं वंति दोएई पि । पनुपरनो ततः सप्तरात्रत्रयानन्तरं दः, तयोराचार्ययोरनिमुखं प्रकर्षेण धावति प्रधावति, छेदेनापि यस्य प्रभूतत्वात् पर्या पणगाइ पगवुधी,दोएह विम्मा निवा||७१६॥ यो न विद्यते, तस्मिन्नाचार्य दनाचिन्नपर्यायेणैकनैव दिव नाटयो योरपि स्थानानि तयान्येव भवन्ति, न ही. सेन मूवं, ततो द्विकमनवस्थाप्यपाश्चिमयुगम । नानि न.प्यधिकानीत्येवशब्दार्थः । कुत इत्याह-(पणगा Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त त्यादि । यतो द्वयोरपि तपश्वेदयोः पञ्चकं पञ्चरात्रिदिवान्यादौ कृत्वा पञ्चकवृद्ध्या बर्फमानानां मासेषु निष्ठापना भ यति । इयमंत्र] प्रायना लघुपम गुरुपापर्य मानि यान्येव तपःस्थानानि तान्येव छेदस्यापीति भावः । अथ कीदृशस्य गणधर पदाध्यारोपणा विधीयते १ । चध्यतेपढियार करणे व विठाणेहिं । द्वाणं संपतो, गुणपरिपट्टी अणुन्नाओ || ७१७ ॥ निशीथाध्ययनेपछि सूत्रतः संपूर्णेऽध्यधीते, ततः येतः सद्गुरुमुखादा कति गुणित परावर्तनानुद्रयाम स्यन्तं स्वभ्यस्वीकृते, धारिते चेतलि सम्यग् च व्यवस्थापि से, ततः करणे तदुक्ताया विधिप्रतिषेधरूपायान्याय विधाने उपयुक्त प्रमादरहितः केचित्याह-पानेषु पञ्चसु महावसे रात्रिजजनविरमणगाथा - तीयार्थे सप्तमी । पतैः बहिः स्थानैः पवितश्रुतगणितधारियांककरण समितिसमुदितैः प्रक बैंण संयुक्तः संप्रयुक्तो गणपरिवर्ती गच्छवार्ताकोऽनुज्ञात[स्तीकरण | (२०४) अभिधान राजेन्द्रः । अथवा सचनगदसमं परिहर जो बिहारी सो । तिविहं ताहिँ विसुद्धं, परिहरनवरण भए || ७१८ ।। सप्तविधमनिय यश्चित्तं परिहरति । कथंभूतं तदित्याह-त्रिविधं दानतपःकाल प्रयास के कम विपरिहारविषयेण यन मे देन परिहरति । तद्यथा मनसा, बदला, कायेन, स्वयं परि दरति अन्यैः स्वपरिवारसाधुभिः परिहारयति, अन्यान् पहिरो पनि प्रतिसेवनानि प्रतिसेवितामि सप्तविधा प्रायश्वितं भवति सा करणत्रययोगत्रयवि शुद्धं परिहरतीति भावः । अथ कथं सप्तविधं प्रायश्चित्तं तीन प्रक्रिया विवेका, व्युत्सर्गा, तपाई बेदनार्द्धमिति । अथ जानवस्याप्यपाराचिकानि कान्तयन्ि बुद्धिो दो छेदो, देशच्छेदो सक्षेओ मूलाणवचारमा यो अतो मत्त ॥ ७१ स " । दो द्विविधो दे कादिक पदमा पराि कानि शोकोनिमाणस्यापि पर्याय विश्व सामाम्पदेन विवया सप्तविधं प्रायश्चितम । छेदः ॥ अथ अष्टविधं कथं भवतीत्युच्यतेचिन पाम कोई भने अफ चिरवाई वा म्रो मूलं पुरा सजपाई व ॥ ७२० ॥ विद्यमानेऽपि पर्याये कश्विश्चिरप्रवजितश्चैतत् मूत्रं यदा न प्रा. दातस्य परमासादयन्दते दादयश्च भेदा भवेयुः । याताया रेण पर्यायस्य क्षेत्रकत्वात् । सद्योघाति मूलम्, भगित्येव निःशेषपर्याय त्रोटकत्वादित्यष्टविधं प्रायश्चित्तम् । अथ नवदिश वृदे पाते जिने ते नप होंति । जं वसई खित्तबाहिं, चरिमं तम्हा दस हवंति || ७२१ ।। येन कारणेन द्वादशवार्षिका 35दि के परिहाराय शिवसे व्यूढे सत्यनवस्थान्यो व्रतेषु स्थाप्येते नान्यथा तेन मूलादनवस्थाणमिति न्ति यमस्तदेव परिहार सोश | जनप्रमाणात देवस्थ व्याश्वरमं पाराञ्चितं विभिन्नमिति तस्माद्दश प्रायश्चित्तानिभवन्तीति । नको विहारकल्पिकः । वृ० १००१ प्रक० । ०१ ( सप्रायश्वितं निग्रंथों गृहमानं निष्क्रामति ) पच्छित्त · "पानिधि निमांचे गिरामागो बनाये वा नातिक्कम ॥ १२ ॥ " अस्य ( सूत्रस्य ) सबन्धमादछाडिगरणम्मि कवी, खामिएसमुपस्थिताए पच्चितं । सप्पमताभरणं, होति कितावमानी ।। अधिकरणे कृते कामिले च तस्मिन् समुपस्थितायाः प्रायशिवदीयते सतः साधिकरणानन्तरं प्रायश्चित्रमु कम् । अस्य व्याख्या प्राश्वत् । साऽपि प्रायश्चिता तत्प्रथमतायां प्रथमतः प्रायश्विन्ते दीयमाने भयेन कथमदमेतत् प्रायश्चितं वक्ष्यामीत्येव रूपेण विषमं भवेत् । यदिवा-प्रायश्चित्तं वहन्ती तपसा कलान्ता भवेत् । तत्रेयं यतना पायच्छित्ते दिो, जीताऍ विमज्जणं किलंताए । अती भरण खिचाएँ तेगिष्ठं । प्रायश्चित्ते दत्ते यदि बिभेति ततस्तस्या भीतायाः क्लान्तायाश्च विसर्जनं प्रायश्चित्तमुत्कलं क्रियते इत्यर्थः । अथ वह म्ती क्लाम्यते ततस्तस्या बढन्या अनुशिष्टिदीयते यथा मा बहु गतं स्तोकं तिष्ठति । यदि वा वयं साहाय्यं करिध्यान इति मनुष्याणामपि भयेन चिप्तविता भत ततस्तस्याः चिकित्सायाः कर्म कर्तव्यम् ॥ ८ ॥ ० ६ उ० । I C ( २० ) प्रायश्चित्तं निकुर्निर्ग्रन्थों ग्लायन्तीम् सपनं जिक्खु गिलायमाणे नो कप्पर तस्स गणावकदिवस निहित मिलाए करवाजा रोमाकागो विमुके तो पता बद्दल नाम य हारे विष्वे सिया । " अथाऽस्य सुत्रस्य कः संबन्धः । उच्यतेगिरगामिकम्प, खामिऍ समुहियस पछि । तप्पढमया - एव, होज्ज किते व वहमानो || १ || अधिकर कृते तस्मिन् प्रायश्वितं दी यते । ततः साधिकरणानन्तरं साचिणसूत्रम् अस्य व्यायाप्राम्यत" पछि मिक्तुं गिलायमाणं " इस्यु Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त कम्. तत्र यथा ग्लानिर्भवति तथा प्रतिपादयति- ( तप्पढमया इत्यादि ) तस्याऽधिकृतस्य साधोः तत्प्रथमतायां - चेत् कथमेत्यधियामि इत्येवंरूपेण यदि वा वहन् तपसा क्वान्तः सन् ग्लानो भवति । तत्रेयं यतनाप्रायश्चित्ते दते भीतः सन् यदि ग्लायति, ततस्तस्य विसजना क्रियते; प्रायश्चित्तं मुत्कलं क्रियते इति भावः । अध चढन् काम्यति ततस्तस्य वहतोऽनुशिष्टिदयते यथा मा मैत्रीः 'गतं, स्तोकं तिष्ठति । यदि वा वयं साहाय्यं करि पाम इत्यादि । यचैवमनुशिष्यमाणोऽपि भग भूयात्, ततस्तस्य जयेन प्तिस्य सतश्चैकित्स्यं चिकित्साकर्म कारयितव्यमिति । ००२३० । बहू (२१) व उदाहरणम्। प्राथदादरणगाथा पूर्वार्थमाह पायपिण, आहरणं सत्य होइ लगुत्ता। आचार्या धनगुप्ताख्याः, एकत्र नगरेऽभवन् । अपि दाते, प्रायश्चित्तं विदुस्तथा ॥ १ ॥ शुन्यामुपस्पानीऽऽदितिः । पार्श्वे वहति यस्तेषां स निस्तरति तत्सुखम ॥ २ ॥ शोधयत्यतिचारं वा अधिक कामोव निर्वृतिम् । - एवं प्रायश्विन॥३॥००४० (२२) प्रतिमा दोस चिणा" इति व्याख्यानार्थमाह जइ अस्थि नदीसंती, केइ करेंतऽत्य वणिज्जदिहंतो | संतमत विहिणा, मोयंता दो वि मुति ||४| "i (२०) अभिधानराजेन्द्रः । " चोदकः प्राऽऽड यद्यस्ति प्रायश्वितं ततः कस्मात्केचित्कुर्वन्तो न दृश्यन्ते । सुरिराह-उपायेन कुर्वन्ति ततो न दृश्यन्ते । तथा चात्र धनिकेन दृष्टान्तो; धारके सत्यसति न विभवे तोच धारकीद्वापि समास मनी एनदेय भाषयति स संभव जाडे, परिगतो ताहे देति तं स जा पुए असंतविवो, तत्थ विसेसो इमो होइ ॥ ए५॥ धनिक ही भारी धश्च । तत्र यः स यदैव याच्यते तदैव तत्सर्वे दातव्यं ददाति यः पुनरसनिमाणो विशेषो भवति । तमेचा35निरपेक्खति च 1 च चारण साव, अप्पा च धारण ।। ५६ ।। धनिको द्विधा-सापेक्ष निरपेकञ्च । तत्र सापेक्षो नामयो धारापात् अनुपायेनाति निरपेक्ष-कर्क शाग्रहेण धनस्य ग्रही, तत्र निरपेक्कस्त्राणि त्यजति । त चत्रमा नाम र सापेक्षः पुत्री पिरतिमानं वनं धाव कथमित्याह जो संतजना पा सो पारवा व नामेति ॥ ५७ ॥ योनिको निरपेोऽस्यास्वामी *૨ पवित पादेन सह बध्वा पातेन पतति स श्रात्मानं धनं धारणकं च नाशयति । यतः स तथा क्लिश्यमानो धनिकं जीविताssपरा नश्येत यदि वाऽश्मानं विनाशयेत् यद्वा-उभयमपि । ततस्त्रयस्यापि विनाशः । जो पुण सहती कालं, सो अत्यं लभ तिरखई तं च । न किलिस् य सयं पी, एव नवातो न सव्वत्थो || ए || यः पुनर्धनिको धारकमसद्दिजवं कृत्वा उपायेनास्मद्धनमुपादेयमिति विचिन्त्य फार्म सहते वयमाणप्रकारेण कार्य सहसेस लभते तं धारणकं रकति न स्वयमपि क्लिश्यति । एवमुपायः पुरुषेा सर्वत्र कर्तव्यः । अथ कथं काळं सहते इत्याह स जो धारेश्न व कुणमाणो उ कम्मं तु, निव्विसे करिसावणं ॥ एए ॥ मपेण काले, सो तगं तु निमयए । सिणितो, त्यो तस्म । ६० ॥ यो धारणको रूपकशतं दातव्यं धनिकानुमत्या प्रतिमाकाफिया या भो धनिकस्य प्रवेशयति सोऽल्पेन कालेन तत् ऋणं मोचयति एव दृष्टान्तः । श्रयमर्थोपमयस्तस्य । संतविभवेहि तुला, घितिसंघयणेहि जे उ संपन्ना | तेसपति निरहं धीरा ।। ६१ ।। ये भूतियां संपना युक्तता समिचैस्तुपास्ते धीराम महमनुहरहितं ०१०४० पारामासिकातु माहमिहिरा परिहारपसा या शोधिसीता निकृतिकादिमशोधि पञ्चकल्याणक दशकल्याणकोऽऽदि मात्र प्रायश्चित्त दानव्यवहारात् शोधिविषय एव । व्य० ३ उ० । (२३) कुतो निदान प्रायश्रितानि कानिि प्रथम प्रतिनिधिसुराद पियपच्छित्तं पञ्चकखाणस्स ततियवत्थुम्मि । पिकप कप्पो यद्वा ॥ ३३३ ॥ सर्वमपि प्रायभित्तं नवमस्य प्रत्याख्यानानिधस्य पूर्वस्य तृतीये वस्तुनि तत एव निर्यूढं दग्धं प्रकल्पो निशीथाध्ययनं, कल्पो व्यवहारथ । संप्रति " किं धति किं व बोनिं " इत्यस्य व्याख्यानार्थ माह सपथपरूत्रण अणुम-ज्जा य दस चोद्द ट्ट दुट्ठ दुप्पसहे । अनि पणिए-ण विद्या नित्यं च निव ॥ ३३४॥ स्वपदं नाम निजं स्थानं, तच्च प्रशापकस्य प्रायश्चित्तम् । त थाहि चारित्रस्य प्रवर्तकः प्रज्ञापक उच्यते । प्रज्ञापनं खाती. व प्रायश्वित्तदान इति स्वपदं प्रज्ञापकस्य प्रायश्वितं तस्य प्ररूपणा कर्तव्या । तथा यावच्च दर्शपूर्विणः तावद्दशानामपि प्रायश्वितानामनुभन Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउित्त अनिधानराजेन्द्रः। पच्चित्त प्रसज प्राचार्यस्तायदनुषजना । यदप्युच्यते-वदतः कुर्याणी व्यवहारानुरूपं पारोक्ती परोक्तशानी व्यवहरति । किं पुनव्यवदा वा शोधिन रश्यन्ते केचनेति । तद्रव्ययुक्तम । यत आह- तंव्यम?,उच्यते-दं वक्ष्यमाणं दशधा दशप्रकार प्रायश्चित्तम्। (अस्थिति) सन्ति तेऽपि केचित् न दृश्यन्ते, उपायेन वह तदेवाऽऽहमात् । अत्रच विनेतिहपान्तो धनिकेन वक्तव्यः । तथा तीय व चारित्रसहितमनुवर्तते । यदप्युक्तम्-निर्यामको ना. श्रावोयणपडिकमणे-मीसत्रिवेगे तहा विउस्सग्गे । स्तीति । तदप्ययुक्तम । यत आह (निजवप सि) नियापकोऽ. तवयमूल अपाच-द्वपायपारंचिए चेव ॥३४०॥ स्तिापपद्वारगाथासंकेपार्थः। आलोचना प्रायश्चित्तं, प्रतिक्रमणं मिथ्यापुष्कृतप्रदानलवर्ण, साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः “सपयपरूवणा" इत्यस्य व्या. मिश्रमालोचनाप्रतिक्रमणाऽऽत्मक,विवेकः परिष्ठापन,व्युत्सर्ग। स्थानमाह तपश्चतुर्थाऽऽदिषगमासपर्यन्तम् । वेदः प्रवज्यापयायस्य दिनपावगरस उपयं, पच्चित्तं चोयगस्स तमणिहूँ । मांसैर्वा परिहानिः । मूलं पुनर्वताऽऽरोपणम् । अनवस्थाप्यं,पारातं संपर्य पि विज्जद, तहा जहा मे निसामेहि ॥३३५।। चितं वा श्रामीषां च दशानां स्वरूपं प्रपञ्चतः पीविकायामुक्तं,क रूपाध्ययने वा, ततस्तस्मादवधार्यम् । तदेवम् " सपयपरूवणे प्रज्ञापकस्य स्वपवं प्रायश्चित्तम् । एतत् प्रागेव भावितम । त. ति" गतम । व्य०१० उ०। ("अणुसज्जणा य" इत्यादि गाथा: बोदकस्यानिटं नास्तीति लमारूढम् । सञ्चायुक्तम् । यतः सा 'तिस्थाणुसजण। 'शब्दे २३१७ पृष्ठे व्याख्याताः) प्रतमपि तद्विद्यते यथा कथ्यमानं निशामय । (२४) श्रावकस्य प्रायश्चित्तमस्ति । अथ ओ-परिधाऽऽवश्यकम. पासायस्स न निम्मं, निहावियं चित्तकारएहि जहा । तिचारशरिरूपं वर्तते । न च श्रावकाणामालोचनाऽऽदिदशप्रका. लीलविहाणं नवरं, आगारो होइ सो चेव ।। ३३६ ।। रशुद्धर्मध्यादेकाऽपि कल्पाऽऽविग्रन्येषूपलच्यतेन च तेषामतिचक्रवर्तिनी वर्द्धकिरग्नेन प्रासादो निर्मापितः, तमन्ये राजा चारा घटन्ते,संज्वलनोदय एव तेषामुत्तत्वात्। अत्रोच्यते यद्यपि मो हटा प्रात्मीयान् वर्द्ध कीनादिशन्ति-यथा चक्रवर्तिनः प्रा. श्रावकाणां प्रकल्पादिषु शुद्धिर्न दृश्यते, तथाऽप्यसौ श्रावकसादः, ईदृशाम् अस्माकं प्रासादान् कुरुत तेब्रुवन्-देव ! स जीतकल्यादेः सकाशादवश्यमभ्युपगन्तव्या, अन्यथोपासक. तादशः प्राप्तादोऽस्माभिने दृष्टः,ततक्याप्यालेख्य दर्शयन्तु,येन दशासु यदुक्तं किल भगवान् गौतममुनिरानन्दश्रावकं प्रत्या संवा तदनुरूपान्प्रासादानिर्मापयामः । ततस्तै राजनिश्चक- वादीतू-"तुमं णं आणंदः !, पास्स अट्ठस्त श्राला पाहि वर्तिनगरे प्रविरैः स्वस्वकीयश्चित्रकारैः प्रासादस्य निर्मा पमिकमाहि निंदाहि गरिहाहि अहारिहं तयोकम्मं पाय छितं पडिवज्जाहि।" इति कथं घटते। अत एव ज्ञाप. पणं फस केन्सु लेखापितं, निजप्रधानवर्षकिनां समपित, ते. रपि तदनुरूपाः प्रासादा निम्मापिताः, परं याशी लीलाच कादतिचारा अपि तेषां भवन्तीति सिद्धम् । यथा वा अतिचाकार्तिप्रासादस्य,न ताशी तेषाम । तथा चाऽऽह-तेषां प्राकृत रा. असंज्वलनोदयेऽपि भवन्ति तथा प्रागुक्तम् । किञ्च-" सम्वं वकिनिष्पादितानां प्रासादानां निर्मापणं नवर लीलाधि ति भाणिऊणं, विरई स्खलु जस्स सब्धिया नस्थि । सो स. होनं जातम, प्राकारः पुन नवति स एव यादृशश्वक्रवर्तिप्रा. ध्वविरवाई. चुकह देसं च सव्वं च ॥१॥" इत्यनया गासादस्य। थया सामायिक सूत्रं सर्वशब्दबजे श्रावकस्योक्तम् ॥१॥ चतुएतदेव किञ्चिद्भावयति विशतिस्तबस्तु सम्यग्दर्शन किनिमित्तत्वात, सम्यग्दर्शनस्य गंजा चक्की भोए, पासाए सिपिरयणनिम्मविए । च श्रावकस्यापि शोधनीयस्वात्, कतृविशेषस्य चानभिहि तत्वाञ्चोपपन्न एवास्य । किं च-ईर्यापथिकीप्रतिक्रमणस्य ग. किन च कारे तहा, पासाए पागयजयो वि ? ॥३३७॥ मनागमनशब्देन जगवत्यां शङखोपाख्यानके पुष्कलिश्रावकचक्री चक्रवर्ती शिल्पिरत्ननिम्मापिते वर्षकिरत्ननिष्पादिते कृतत्वेन दर्शितवाद्मनाऽऽगमनशब्दस्य चेर्यापयिकीपर्यायत. प्रासादे स्थितः सन् भोगान् हुङ्क्ते, तं च तथा दृष्ट्वा किं प्रा. या जगवत्यामेव तेषु तदाख्यानकेषु ओघनियुक्निचूण्य च कतजनोऽपि प्राकृतराजलोकोऽपि तथा प्रासादान न कार. प्रसिकस्वादोर्यापथिकी कायोत्सर्गे च चतुर्विशतिस्तवस्य प्रापति कारयत्येवेति नावः । परं न तादृशस्तेषां रूपविशेषः। यश्चिन्तनीयत्वाचासौ सिक इति ॥२॥ वन्दनकमपि गुणवत्प्र. ततः किमित्याह तिपत्तिरूपत्वाद् गुणवत्प्रतिपत्तश्च श्रावकस्याप्यविरुरूत्वात् कृ. जह रूवादिविसेमा, परिहीणा होति पागयजणस्म । णाऽऽदिभिश्च तस्य प्रवर्तितत्वात्सतमेवास्य । ननु "पंचमह व्वयजुत्ता, अनलसमाणपरिवजिअमई अ । संविग्मनिज्जन च तेन होति गेहा, एमेव इमं पिपासामो ॥३३॥ रही. किरकम्मको हवा साह ॥१॥" इति । अनया निर्ययथा प्राकृतजनस्य प्राकृतवद्धकिलोकस्य नथारूपसम्यक् क्तिगाथया साधुग्रहणेन श्राबकस्य व्यवच्छेदान्न सङ्गतं तस्य परिज्ञानाभाधेन रूपाऽऽदिविशेषाः कर्तव्याः तथा परिहीनाः यन्दनकम् । नैवम् । यतः साधुग्रहणं सत्र तदन्यवन्दनकोपनकप्रासादानां जवरित, न च ते न भवन्ति गेहाः प्रासादाः पवमि. रणार्थ,यदि तु व्यवच्छे दाम भविष्यत्तदा साच्या अपि व्यवच्छे. धर्माप प्रायश्चित्तं पश्यामः । दोऽजविष्यत् । न चासो सङ्गतो, मातुर्विशेषेण बन्दनकनिषेधापतदेव भावयति त् । तथा--" पंचमहन्वयजुत्तो" अनेन यथा महाबवग्रहणाएमेव य पारोक्खी , तयापुरुवं तु सो वि बवहरति । दणुननयुक्तस्य व्यवच्छेदः तथा पश्चग्रहणाश्चतुर्महाबतयुक्तकिं पुण ववहरियब, पायच्छित्तं श्मं सहा ।। ३३५॥ स्य मध्यतीर्थसाधारपि व्यवच्छेदः स्यात, न चेतदिष्टमित्यतो एवमेव वकिरयान्तगर्तन प्रकारेण तदनुरूप प्रत्यक्षाऽगम | निर्षिशेष बन्दनकपीति ॥३॥ ध० २ अधि० । पञ्चा०॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 'अहारिहं तवोकम्पं पायच्छित्तं परिवजा हि । इति प्रतीतपतेन च निशाचादिषु ग्रहिगाः प्रति प्रतिस्थाप्र तिपादनाथ तेषां प्रायश्चितमस्तीति ये प्रतिपद्यन्ते तन्मतम पास्तम् सापदेशेन गृहीवस्य जीत स्वात् । उपा० ३ अ (उद्धातिकमनुद्धातिकं वदतीति 'शब्दे प्रथमभागे ३६४ पृष्ठे गतम ) ( पञ्चनिअपुग्धाइय अंन्धानां प्रायश्चित्तम् तित्यागुणा देवतुर्थभागे २३१६ पृष्ठे प्रतिपादितम् ) ( पञ्चविधस्य व्यवहारस्य प्रायचिदानविधिरूपणा पवहार शब्दे प्रविष्य ) 6 ' विषय-सूची " ( २०७ ) अभिधानराजेन्ड (१) प्रायश्चित्तमिरुताभिधानम् । (२) प्रायश्विते अधिकारः । (३) जावतः प्रायश्चित्तं कस्य भवति । व्रणचिकित्सातुल्यं प्रा. यश्चित्तम् । व्यवण-भाव-चिकित्सा | छेदविशेषे मूलस्यावस्थाप्यस्य विषयं स 1 मनान्तरं च पाराचिकस्य व स्वरूपदर्शनम् । प्रायविवित्रितोपदर्शनेन मतान्तरम् । विशिष्टः शुभा अवसायः प्रायश्धिनमव्यतिरेके दोषमुपसंहारयषि शिष्ट शुभभावेऽप्रमतस्यादिना या महाता तानुष्ठानेषु युकं प्रायवित्र परमम् । कथमुपयुक्तस्यापि सुक्ष्मा विराधनास्यादित्याशङ्का । प्रकृति-स्थित्य - पेक्क्या बन्धः । सम्यक्चरितस्य प्रायलिम् प्रायश्रियं च (४) प्रायश्चित्तमिति का शब्दार्थः कतिविधं प्रायश्चित्तम् । मलद्वारतिपादनमा प्रायश्चित्तम् । (4)izar qdq, gæærmsgaweanings. बभेदमार्गणायां प्रकारान्तरम् । तत्र यानि प्रायश्चित्तानि दातव्यानि दृष्टान्त दार्शन्तिकयोजना । भाचार्योपाध्या यकित्साविधिनाना अस्वलितादि सुत्रधारणीयमित्यत्र संहिताया पकुचा व्यायथ (६) कस्य समीपे आलोचना दातव्या, अत्र चाश्वान्त [म] बारषयमालोचनापनेऽपि कथं नवहारिणो मायामन्तर्गता ? । सोदाहरणं द्वैविचतुष्पञ्चषड्बहु मासिकं प्रायश्चित्तम् । विषमेषु प्रतिसेवनावस्तुषु कथं प्रार्थोपनया के ले इमास्तेषां रा का कथं दमं कृतमिति तत्कथानकम् । सबहुन समपरिज्ञानं दमदानादानफलम् बहुराम्दार्थ येषां प्रतिस्थापना किये चादर्शनं अपरि यामतिपरिणाम के दोषादर्शिता मध्यम कृष्ट भिन्नानि स्थापनाऽऽरोपणयोश्च चत्वारि २ स्थानानि, कस्मिंश्त्र स्थाने तयोरेव कियन्ति पदानीत्येतत्परि शाम को परिमाणं स्थानेषु दिवसाप्रमा णम. राशि- मान-प्रभु द्वाराणि च कियन्ति सिद्धानि प्रायश्वितानीति द्वारम् अनुत्रा खारोपणासामान स्वरूप गुण न कृत्स्नाssरोपणापरिज्ञानम, 'दिठानिस हनामे' इनिनाद्यर्थम पत् निशोध सिर्फ ततो निशीथ ( सूत्र ) मपि कुतः सिद्धम् । जिनं प्रतीत्य घृतकुमोदाहरणम, श्रोषधदाने चतुर्भङ्गाच पछत तुर्दशपूर्विणामधिकृत्य नालिकाङ्क्षातम्, आलोचनादिद्वारत्रिकं तत्रासो चायें स्वामित्व प्राप्ते निधिलाभेऽपि च स्तेन दृप्रान्तः । सोपनयोगीता साथ कार्याकार्ययात्नेषु वणिक्मरुकशन्तौ । विकोविदाविकोविदस्वरूपं च । (७) सात मूलातिचारप्रायश्चितम् । (८) मूलोसर गुणप्रतिसेवायां प्रायश्चित्तमुत्तरगुणसंख्या त द्वतपुरुषविशेषश्च । संचयासंचयेषूद्धातानुद्धा तेषु प्र स्थापनविधिरसंचये च प्रस्थापनायाखयोश पदानि । प्रायखिताई पुरुषा] उजयतरस्य च सोपनपता प्रायश्चित्तं बद्दन् वैयावृत्यं न वढन् यद्यन्यत्प्रायश्चि मापद्यते तदा कथन ? असंचेये उदूघातानुद्धाताऽप तिस्थानानां सुखावगमोपायम् । (७) उद्धातानुद्धात दानविधिः । 1 (१०) अन्यतरस्वरूपम् इन्द्रियादिभिरन्यायविधिः न्यादृशे स्वासेविते यदन्यादृशं दीयते तत्र को हेतुः ? | सविस्तृविषये चतुर्भङ्गःश्च दशमं प्रायश्वि निषेय्य दशमेन, दशमं सेनयमेन शुद्ध दर्शनम् । स्थविरास्ते कथं रागद्वेषाणां दानिवृकिंवा जानी युरोत्तरं हानिवृद्धिपरिज्ञानलिङ्गं च । दन्तपुरकथानकं आलोचना क (११) स्तस्यार्थे गुणाः, आलोचकस्तस्य च दश गुणाइच । य घाभूनेषु यादिभ्यालोचनं पश्यामानि मात्रचनापञ्चकादि प्रायश्चित्तदानविधिः, अर्थतो नवमे, सूत्रतः पञ्चमे सूत्रे संयोगविधिश्च । एककाऽऽदिसंयो गेषु भङ्गसंख्याऽऽनयनाय करणं स्थापना च । (१२) नामक प्राश्चिदानं विकल्पाश्च (१३) चातुर्मासिकं प्रतिलेत्र्यालोचयेत् । (१४)निरोपम संभावना सब तुटतं प्रति सेवना लोचनाषिषय चतुर्भङ्गिकाख एक सुत्रम् | स्वस्थानपरस्थानज्ञानार्थमेतेष्वेव प्रायश्चितं, नयानामाचार्याणामालाच तम् । प्राप्त्या प्रायश्चित्तलक्षणमोघता नवविधं प्रा. यश्चित्तम् । (१५) अभ्ररूया कृतमफलम् । (१३) कीशेन कस्योपदिशेद (१७) प्रायश्चित्तमकालम् | (१८) प्रायश्चित्तमुपदिशेत् । (१३) वयासंयमि t पर्यवसितं कि पा नेति । कीदृशस्य गणधर पदाध्यारोपणा विधीयते १ । मूहानवस्थाप्यपाराञ्चिकानि कान्तवन्त्यत्रोत्तरं, अष्टविधं नवविधं दशविधं च प्रायश्चित्तम् । (२०) प्रायश्चित्तं भिकुर्निर्ग्रन्थीं ग्लायन्तीं तो कल्पते । (२१) प्रायश्चित्ते उदाहरणम् । 66 (२२) इदानीं प्रायश्चित्तमस्ति । श्रधुना नदीस धणिण विणा " इति व्याख्यानम् । सार्थोपनयः कथं का सहते इति । (२३) कुठो निद्रानि यानि कहानियत कि धरति किंचन' इति व्याख्या | Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०८ ) अन्निधानराजेन्रू | पच्छित्त (२४) भावकस्य प्रायश्चित्तमस्ति १ इत्यस्य सप्रतिविधानं विस्तृतमुत्तरम् । पतिकरण मासिक १० प्रयोग सङ्ग्रहे, स० ३२ सम० । प्रश्न० । (पच्छित्त' शब्दे ऽनुपद मेव कथांचा ) पच्चित्तववहार- प्रायश्चित्तव्यवहार- पुं० | व्यवहारदे, य० । पच्छितं ववहारं, सुण बच्छ । समासतो तुच्छं ।। १७६ ।। प्रायश्चिते व्यवहारं समासतो बदये तथा दरस ! - भू सो पुण्य चोदयति काले व हो जावे य चित्ते चित्ते, विदो पुण होइ दव्वम्मि ।। १७७ ॥ स पुनः प्रायश्वित्तव्यवहारश्चतुर्विधः । तद्यथा-व्ये, केत्रे, काले, भावे च । तत्र रुपये पुनर्द्विविधो भवति । तद्यथा अया। तत्र प्रथमतः सचित्ते विवकुरिमाहपुडविग भगणिमारुष इनसे दो सचित्ते । चित्ते पिंड नवही, दस पन्नरसत्रे 'सोलसगे ॥ १७८ ॥ संघट्टगपरिया - उद्दवणाऽऽवज्जणाऍ सहाणं दाणं तु चउत्थाssदी, तत्तियमित्ता च कलाणा ॥ १७६ ॥ 1 दिपा प्रत्येकं यदापतति प्रायि स्वस्थानमित्युच्यते । तच्च" ढक्काय चउसलहुया " इत्यादिना प्रागेवानितिम् । इह तु नाभि कि तद्वत्याह--चतुर्थाऽदि । तद्यथा पृथिव्यादिकं वनस्पतिपर्यन्त मेकेन्द्रियमपावयति जीविताद् व्यपरोपयति तदा श्रभक्तापायांम चतुरिन्द्रिये दशमम् । पञ्चेन्द्रिये द्वादशमम् । " तत्त्रियमित्ता च कञ्जाणा ।" इति । अथवा यस्य यावन्ति इन्द्रियाणि तस्य तावन्ति कल्याणानि प्रायश्चित्तम् । तद्यथा-पककल्याणकमेकेन्द्रियाणां परिताप मित्यर्थः । त्रीणि कल्याणकानि त्रीन्द्रियाणाम, एकाशन कमि ति भावः। चतुरिन्द्रियाणामाचाम्त्रम् । पञ्चेन्द्रियाणामनकार्थः। अधुना क्षेत्रद्वारं, कानद्वारं चाsse - जावयारोपण, मग्नातीर य होति खेसम्म । भिक्रखे य सुभिक्खे, दिया व राती व कालम्मि ।। १०१ ।। जनपद अध्यनिरोधके मागांतीने च यत् प्राधि व क्षेत्रे क्षेत्रविषयं भवति । इयमत्र भावना जनपदेऽपि व सन् संसरन्नपि चाध्वानं प्रतिपन्नानां यः कलास्तमाचरति, अध्वानं प्रतिपन्नो वा न यतनां करोति, दर्पेण बाध्वानं प्र तिपद्यते । तथा रोधकेऽपि सेनासु, तत्र यो विधिरभिहितस्तं न करोतिशेषातिकामना दिकमादाय सं अपना स " हवा थद्वारसगं, पुरिने इत्यीसु वज्जिया वीसुं । दसगं च नपुंमे आरोपण चितत्य || १८० || वर्जना नाम प्रत्राजनायां निषेधः । तत्र पुरुषेादकं व जितम् । स्त्रीषु वर्जिता विंशतिः । दशकं नपुंसकेषु । तत्राऽऽरोपनाप्रायश्चित्तं प्राकल्पाध्ययने सप्रपञ्चमभिहितमिति ततोऽवपार्थम् । "अचि पिंक वही (१७८) इत्यादि । अनित्ते प्रायश्चित्तं पि धोके छ । श्यमत्र भावना-पिएममुपधि वा दशनिरेपणादोषैः, पदाव्यवसायपूरकमिि तुनिरियुते बोडशभिर शुद्धं गृह तस्थ प्रायश्चिसं तदपि च प्राक कल्पाध्ययने पत्ववहार अभिहितमिति न भूयो भएयते तदेवं सचि इति द्वा गतम् । दयारा कालेकिमुकाम कम, श्रयतनां करोति । तथा दिवसे यः कल्पस्तं रजन्यामाचरति रजन्यामपि यः कल्पस्तं दिवा श्रथवा यो दिवसकल्पस्तं न्यूनमधिकं वा करोति एवं रात्रिकल्पमपि तेषु यत्प्रायश्वितं तत् कान्नविषयम् | सानामेव गाथांत ब वसमेव विकिरणं, संथरमाणं च खेत्तपच्छित्तं । अजय चेदये।। १०२ ।। कालम्मि उ संथरणे, परिसेवड़ अजयणावएसम्म | दियनिमिमेकर महिये वापि काले || १०३ ॥ सिमेऽपि संस्तरधिकरण के प्रायश्चित्तम् । तथा अध्वानेऽप्रयते श्रयतनायामध्वनः प्रपदेन वादाने वा दर्पण प्रायश्चित्तम् । तथा काले सुजिके संस्तर णेऽपि दुर्भिककल्पं समाचरति, दुर्मिके वा समापतितेऽ यतना दिवानिशामर्यादाया श्रकरणं दिवसस्य कल्पस्य रात्रौ रात्रिका दिवसे समाचरणमिति भावः यदि वाद एपस्य रात्रिकल्पस्थ ऊनमधिकं वा करणं तनिष्पन्नं कालक्षयं प्राधि " भावविषयमाद जोगति करणतिए, दप्पे पाएँ पुरिसे भावम्मि । एएसिं तु विभाग, बुच्छामि अहाणुपुन्त्रीए ।। १८४ ॥ योगत्रिकं मनोवाक्कायलकां, करणत्रिकं करणकारापणकारणानुमोदनारूपं, दन्निष्कारणमकल्पयम्य प्रतिसेवनम, प्रमादः पञ्चविधः पुरुष गुदमाः पतेषु प्रा पश्वितं तद्भवविषयम्यमेषामेव पदानां निगम समासेन वक्ष्ये | तत्र योगत्रिककरणत्रिक कारणमाहजोगतिए करणातिए, सुजासुभे तिविद्धकालनेएण । सत्तावीस भंगा, गुणा वा बहुचरा वा चि ।। १८० ॥ योगविके करण के विविधकाल मे संघार्थमा स्वविय हुतरावा | मनसा करोति १, मनसा कारयति २, म Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चित्तववहार (२०५) भाभिधानराजेन्दः । पच्छिमंत नसा कुर्बन मनसा जानाति ३। एवं च वचसा ३, कायेन ३ | तिपाताऽऽदिके अतीचारे यत्प्रायश्चित्तं तनावविषयमिति भावः। च। तत्र सर्वसंख्यया नव । पते चातीतानागतवर्तमानरूपका. तत्र निरपेक्वाणां प्रतिमाप्रतिपन्नाऽऽदीनां मनसाऽप्यतीचारसेवने सत्रिके चिस्यमानाः सप्तविंशतिर्भवन्ति । पते वा शुजव्या- प्रायश्चित्तम्,इतरेषां गच्छस्थितानामुभयेन वाचा कायेन 15पारसमाचरणविषयेऽपि इष्टव्यम् । यथा न करोति का. तीचारसेवने प्रायश्चित्तमिति ॥ १०॥ लप्राप्तमपि च सत्यं शुनं व्यापारम् १, न च कारय. वायामवग्गणादी, धावण मेवणं य होइ दप्पेणं । ति २, कुर्वन्तं नानुजानीते ३ । इत्यादि । तथैव उभयमी पंचचिहपमायम्मी, जं जहि पावज्जई तं तु ॥१५॥ सने चतुःपञ्चाशत् उक्तम् । द्विगुणा चा पते एककसंयोगे विकत्रिकसंयोगे च बहुतरा जवन्ति । ते चाऽऽवश्यक. यनिष्कारणं व्यायामवल्गनादि करोति। यदि वा-धावन, टीकायां प्रत्याख्यानचिन्तायामिव नावनीयाः । ततोऽवादि डेपनं वा ओष्ठाऽऽदेः प्रकेपणं तद्विषयं प्रायश्चित्तं भवति ज्ञातव्य. बहुतरा वाऽपि। म् । दर्पण तथा पञ्चविधे पश्चप्रकारे प्रमादे यं प्रमादमापद्यते अथ मनसा कथं करणमनुमननं वा । तत श्राह यत्र तद्भवति प्रमादविषयं प्रायश्चित्तम् । वावेमऽहमंबवणं, मणसा करणं तु होयऽवुत्ते वि । संप्रति पुरुषानाह गुरुमाईया पुरिसा, तुबऽवराहे वि तेसि नातं । अणुजाण जेणुप्पइ, मणकारण मो अवारते ॥१६॥ परिणामगाइया वा, हिमनिक्खंत असहू वा ।।' ए॥ कोऽपि संयतः कञ्चित्प्रदेशं दृष्ट्वा चिन्तयति-अस्मिन्नव. पुरं वाल थिरा चेव, कयजोग्गा य सेयरा। काशेऽहमानवणं बपामि, यद्यपि तेन तथा चिन्तयित्वा नोप्तमाम्रवणं तथाऽपि तत्तेन मनसा कृतमिति मनसा क अहवा सभावतो पुरिसा, होति दारुण जद्दगा ॥१५॥ रणम् । तथा केनचिद् गृहस्थेन संयत उक्तो यथा संयत! गुर्वादयः पुरुषास्तेषां तुल्येऽप्यपराधे प्रायश्चित्तमधिकृत्य भव. यदि त्वमनुजानासि तत एतस्मिन्नबकाशे आम्रवणं वपामि ति नानास्वम् । अथवा-त्रिविधाः पुरुषाः परिणामकाऽऽदयः। तस्मादनुजानीहि येनोप्यते इति एवमुक्के यदि निवारयति परिणामकार, अपरिणामकाः, अतिपरिणामकाइच । तेषामपि तदा घरं, अथवाऽनुक्तेऽपि मनसा कारापणं पटव्यम् । तुल्येऽप्यपराधे प्रायश्चित्तम् । अथवा-अन्यथा नवति । अथतदेव भावयति या अनेकविधाः पुरुषाः। तद्यथा-ऋद्धिमनिष्क्रान्ताः,असिमागहा इंगिएणं तु, पहिएण य कोसला। मनिष्क्रान्ताइच । असहा,ससहाश्च । पुरुषाः स्त्रीपुनपुंसकानि च, बालास्तरुणाश्व, स्थिरा अस्थिराइच, कृतयोगा भकृतयोअद्भुत्तेण उ पंचाला, नागुत्तं दक्षिणावहा ॥१७॥ गाश्च । सेतरा नाम-प्रतिपक्काः। एतेषामपि तुल्ये ऽप्यपराधे पुरुष एवं तु अणुत्ते ची, मणसा कारावणं तु बोधव्वं । भेदेन प्रायश्चित्तभेदः । अथवा-स्वन्नावतः पुरुषा द्विविधा भमणसाऽणुन्ना साहू, नूयवणं वुत्त वुप्पति वा ।। १८८॥ वन्ति । तद्यथा-दारुणा,भम्काइच। तत्र तुल्येऽप्यपराधे दाह णानामन्यत्माश्चित्तम्, अन्यद भड़काणामिति । भागधा भगधदेशोद्भवाः प्रतिपन्नमप्रतिपन्नं वा इशिताऽऽकारविशेषण जानन्ति । कोशमाः प्रेक्तितेन अबलोकनेन । पसंहारमाहपश्चाला अकोकेन । नानुक्तं दक्किणापथाः, किंतु साका. पायचित्ताऽऽनवती, ववहारेसो समासतो भणितो। चसा व्यक्तीकृतं ते जानते, प्रायो जडप्रज्ञत्वात् । तत एवं सति जेणं तु ववहारजा,श्याणि तं तू पवक्खामि ||१६| बचसाऽनुक्तेऽपि निवारणाभावात् मनसा कारापणं बो एषोऽनन्तरोदितः प्रायश्चित्ते भाभवति च प्रत्येकं पञ्चविधी द्धव्यम् । संत्रति मनसाऽनुज्ञातं भावयति-नृतवनमुप्तं पूर्व व्यबहारः समासतो भणितः । इदानीं तु येन व्यबहियते तं भारोपितम् । यदि बा-नुप्यते। प्रारोप्यमाणं तिष्ठतीति ज्ञात्वा व्यवहार प्रवक्ष्यामि । व्य०१.१० । (सच "ववहार" शब्दे साधुः चिन्तयति-शोजनं यदिह नूतवनमुप्तमुप्यते बा। एषा दर्शयिष्यते) मनसाऽनुका। पच्छित्ताणुपुब्बी-प्रायश्चित्तानुपूर्वी-स्त्री० । प्रायश्चित्तानुपरिएवं वयकायम्मी, तिविहं करणं विजास बुद्धीए । पाट्यां गुरुलघुमञ्चकाऽऽदिक्रमे, व्य. १००। द्वत्थाऽऽदिसमगर्टि, इय काए कारणमात्मा ॥२८या निय-पक्षिपिटक-न० । पक्विकासकणपिटके, भ. ७ पवमुक्तप्रकारेण वचसि काये च त्रिविधं करणं करणकारणानुमननलकणं स्वबुद्ध्या विनाषेत। तत्र वचसि सुप्रतीतम्,का. ये तु दुर्विभावमिति तद्भाबनामाह-(हत्यादि इत्यादि ) अ. पच्छिम-पश्चिम-त्रि० । पश्चात्-डिमच । " हृवात् थ्य-श्व-स. बापिकायेन स्वयं करणमिति प्रतीतम् । ततः कारणमाह सामनिश्चले"॥८।२।११॥ इति श्वभागस्य छः । प्रा० हस्ताऽऽदिसंज्ञा कायेन,गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे । कारणम्। २पाद | पाश्चात्ये सान्तिमे, नं0। ज्ञास्था०। प्रा० म०। तथा-छोटि नखच्चोटिकां ददतः कायेन अनुशा। पच्छिमओ-पश्चिमनस्-अव्य० । पश्चिमनागे, पश्चा०३ विव। एवं नवजेएणं, पाणाइवायादिगे न अइयारे। पच्छिमंत-पश्चिमान्त-न० । पश्चादनीके, " पच्छिमतपमागाहनिरवक्खमणेा विप-च्छित्तमियरेसि उभएणं ॥१५॥ रणे।" पश्चिमान्ते पश्चादनीके कस्यापि बिाजगीषी पताकाएवमुक्तेन प्रकारेण नवभेदेन,समाहारोऽयम् । नवभिभैदैःप्राणा- दरणमन्ते जयाय जीत, संथा। वचनापय कारण पाएन । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) पच्छिमखंध अभिधानराजेन्द्रः। पज्जत्ति पच्छिपखंध-पश्चिमस्कन्ध-पुं० । पश्चिमशरीरे, मा0 चू०। | पज्जण्या-पायनता-स्त्री । निष्पन्नस्य वस्त्रस्य नलिकापायके, श्रथ कोऽयं पश्चिमस्कन्धः, इति प्रश्शे व्याख्यायते-औदारिक- वृ०१०। बैंक्रियाहारकतेजस कार्मणानि शरीराणि स्कन्ध इत्याचक्ष्म- पज्जाओग-पयनुयोग-पुं०। प्रश्नाऽऽदिद्वारेण विचारणायाम, है। पश्चिमशरीर पश्चिमभव इति यावदक्तं स्यात्ताचदिवं सम्म०२ काएक । विशे० प्रा०म०। पश्चिमस्कन्ध इति कथमिद यस्मादयमनादौ संसारे परि. वमन् स्कन्धान्तराणि भूयांसि गृह्णाति मुञ्चति च तस्याऽऽद्यस पज्जणुजुज्जुपेच्छण-पर्यनुयोज्योपेक्षण-न । ऊनविंशतिमे मयमवाप्य स्कन्धमाचिर्भूतालाधारणकानदर्शनचारित्रबलीय निग्रहस्थानभेदे, स्या० । निग्रहस्थानप्राप्तस्योपकण, " निस्कन्धान्तरमन्यदात्मनोपादचे स पश्चिमस्कन्ध इति । प्रा० ग्रहस्थानप्राप्तस्यानिग्रहः पर्यनुयोज्योपेक्षणम ।" (गौत. चू०१०। सू० ५।३।११) पर्य्यनुयोज्योपेकणं लक्षयति-निग्रह स्थानं प्राप्तवतोऽनिग्रहः, निग्रहस्थानानुद्भावनमित्यर्थः । पच्छिमग-पश्चिमक-पुं०। चरमे, स्था० ५ ०१न। यत्र त्वनेकनिग्रहस्थानपाते एकतरोभावनं तत्र न पर्यपच्ची-स्त्री०। देशी-पेटिकायाम्, दे० ना०६ वर्ग १ गाथा । नुयोज्योपेक्षणम् । अवसरे निग्रहस्थानोद्भावनत्वावच्छिन्नानापच्छेपाय-ज० । देशी-पाथेये, दे० ना०६ वर्ग २४ गाथा । धस्यैव तस्यात् । ननु वादिना कथमिदमुद्भाव्यं, स्वकौपानविय रणस्यायुक्तत्वादिति चेत् । सत्यम् । मध्यस्थेनैवमुद्भाव्यम् । वादे पजपमाण-प्रजापत-त्रि० । प्रजापनकारके,भ०११ श०११००। च स्वयमुद्भावनेऽप्यदोषः । इतिविश्वनाथकृतवृत्तिः । वाच । पजंपिय-प्रजस्पित-त्रि० । प्रकृष्टवचने, वृ०१.०३ प्रक०। पज्जय-पर्यन्य-पुं० । सेचने, इन्द्रे, मेधे च । बाच० । " अत्धि गं भंते ! पज कालवासी दुट्टिकायं पकरेंति ? पजणण-प्रजनर-न० । प्रजन्यतेऽनेनापत्यं प्रजननम् । शिक्षा, दंता अस्थि।"०१४.२उ० शिश्ने, सूत्र० १ श्रु० ४ अ. १ उ० । मेहने, स्था० ३ ० ३ उ० पज्जत-पर्याश-नि० । पर्याप्तयो विद्यन्ते यल्यासौ पर्याप्तः । विशे० "प्रभाविध्यः"॥७।२।४६॥ इति मत्वीयो प्रन्यायः ।नं। पजणणपुरिस-प्रजननपुरुष-पुं० । प्रजन्यतेऽपत्यं येम तत्प्रज " घट्यो अः" ॥ १२४ ॥ इति हास्थाने जः । प्रा० मनं शिलिजम, तत्प्रधानः पुरुषः, परपुरुषकार्यदितत्वात् । ५ पाद । षट् पर्याप्तीः परिसमाप्तवति, श्रा०म० १० । पुरुषोंदे, सूत्र० १ श्रु०४ म. १००। कर्म० । प्रका० । पं० सं०। समस्तपर्याप्तिनिः पर्याप्त संपजहियध-प्रहातव्य-त्रि० । त्यक्तव्ये, “लोको जद बज्र शिनि, श्राचा०१ श्रु० अ०२ उ० । सर्वे जीवाः पर्याप्तका अपजह य तं पजहियवं।" प्राचा० १ श्रु० १ ० १ उ०। योतकाएनेति द्विविधाः। प्रशा०१ पद । लब्धे, अणु०७ वर्ग १ पज्ज-पद्य-त्रि० । बन्दोनिबके वाक्ये, यथा विमुक्ताध्ययनम् । अ० । परिपूर्णे, का० १ श्रु०१ मा स्था। "पज्जत्तं च पतं।" पाइ० ना० १८४ गाथा। स्वा०४ग.४ उ०। पज्जनग-पर्याप्तक-त्रि०ा पर्याप्त एच पावकः,पर्याप्तनामपार्मोदअधुना पद्यमाह याव। माग०२ उ० ('अपजसग'शब्ने प्रथमभागे ५६३ पृष्ठे पज्जतु होइ तिविह,सममकसमं च नाम दिसम च । दमक उक्तः) अवाप्तपर्याप्ती,आचा०१व०१ अ०१३०। "णारयपाएहि अक्खरेदि य,एव विहिम्मू कई बैंति ॥१७॥ देवतिरियमणुय गम्भजा जे असंखवासाओ। पर अप्पज्जत्ता पद्यम, तुशब्दो विशेषणार्थः । भवति त्रिविधं त्रिप्रकारम्-ख खमु.नववाए चेव बोधवा ॥" श्रा०। पर्याप्तिनामको दयानिज. मम, अर्द्धसमं जानाम विषमं च । कैः सममित्यादि । अत्राss. निजपर्याप्तियुते, कर्म०१ फम०। ह-पादैरक्षरैइन । परिश्चतुःपादादिभिः, अकरैर्गुरुल घुभिः । पज्जत्तणाम-पर्याशनामन्-न०। पर्याशयो विपन्ते येषां ते ।" अ. अन्ये तु ब्याचक्षते-लमं यत्र चतुर्वपि पादेषु समान्यवराणि । भ्रादिभ्यः" ॥७।२।४६॥ इत्यप्रत्ययेऽतः पर्याप्ताः, तद्विपाकवेद्य अर्द्धसमं यत्र प्रथमतृतीयोद्धितीयचतुर्थयोश्च समान्यक्क. कर्मापि पर्याप्तनाम | कर्म०। चतुर्विंशतितमनामकर्मदे,यदराणि । विषमं तु सर्वपादे ध्वेव विषमाकरमित्येवं विधिवाः यात स्वपर्याप्तियुक्ता भवन्ति जीवास्तत्पर्याप्तनामत्यर्थः । ते च उन्दःप्रकारक्षाः कवयो ववत इति गाथार्थः ॥१७८ ॥ दशक पर्याप्ता द्विधा-लब्ध्या, करणइच । तत्र ये स्वयोग्यपर्याप्तीः स. २० । वृत्ताऽऽदि गीयते यत्र ताशे गेयभेदे, जं० १ बक्व०। ी अपि समर्थ्य नियन्ते नावाग ते सब्धिपर्याप्ताः, ये च पु. पाय-न। पादहितं पाद्यम् । पादप्रकालनोदके, झा. १५० नः करणानि शरीरेन्द्रियाऽऽदीनि निवर्तितवन्तस्ते करणपर्याप्ता १६ अ०। इति । कर्म० १.कर्म० । प्रव० । श्रा। पं० सं०। (एतेनैव शरीपज्जत-पर्यन्त-पुं० । “कल्ल्युत्करपर्यन्ताऽऽश्चर्य वा" ॥१५॥ रोच्चाययोः सिष्योः शरीरनामाऽऽदि पृथगुपादानं 'णामकम्म' शब्दे चतुर्थनागे १६६६ पृष्ठे निहितम् ) इति श्रादेरत एवम् । "पेरंतो । पजंतो"प्रा०१पाद । प्रान्ते, पज्जत्ति-पर्याप्ति-स्त्री०। सामये, सूत्र. १ श्रु०१ १०४ २० । औ० । आद्यन्तलकण प्रान्त, विशे०।। आहारादिपुद्गल ग्रहणपरिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषे, सच पजए-० । देशी-पाने, दे० ना० ६ वर्ग १५ गाथा । पुरुसोपचयादुपजायते । किमुक्तं नवति ?--उत्पत्तिदेशमागतेन पज्जणय-पायन-न. । जलनियोलने, "नवपक्षणएणं ।" नवं प्रथमं ये गृहीताः पुद्गलास्तेषां तथाऽन्येषामपि प्रतिसमयं गृह्यप्रत्यग्रं(पजणपणं ति) प्रतरचितस्यायोधनकुट्टनेन तीक्ष्णीकृतस्य माणानां तत्सम्पर्कतस्तद्रूपतया जातानां यः शक्तिविशेष पाहा. पायनं जमनिवोलनं यस्थ तन्नवपायन,तेन । भ०१४श.७७०। रादिपुरवस्वन्नरलरूपताऽऽपादानहेतुर्ययोदरान्तर्गतानां पुद्ध. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जत्ति (११) अनिधानराजेन्दः । पज्जव विशेषाणामाहारपुऊलखबरसरूपतापरिणमनहेतुः सा पर्याप्तिः। कतिविधाः पर्यवाः ?, इतिसा च षोढा। तद्यथा-आहारपर्याप्तिः, शरीरपर्याप्तिः, इन्द्रिय. काविहा णं भंते ! पज्जवा पत्ता । गोयमा! दुविहा प. पर्याप्तिः, प्राणापानपर्याप्तिः, भाषापर्याप्तिः, मनःपर्याप्तिइच । उजवा पमात्ता । तं जहा-जीवपज्जवा य, अजीवपज्जवा य ।। इति। जी० १ प्रति। प्रव० । प्रज्ञा० । नं0। पं० सं० । कर्म० । (काविहा ण भते ! पजवा परमत्ता ?। इति ) अथ केदर्श० । स्था। (श्राला व्याख्या स्वस्वस्थाने)('जोवट्ठाण' नाभिप्रायेण गौतमस्वामिना भगवानेव पृष्टः ?। उच्यतेशब्दे चतुर्थभागे १५४८ पृष्ठे विशेषः) समस्लपर्याप्तिपर्याप्तता- उक्तमादी प्रथमपदे,प्रज्ञापना द्विविधाः प्राप्ताः। तद्यथा-तीवप्र. याम, उत्त. ३ अ० । प्रश्न । आहारशरीराऽऽदीनां निवृतौ, ज्ञापना, अजीवप्रज्ञापना चेति । तत्र जीवाश्च, अजोबाइच भ०३ श०१ उ० । नाम। एव्याणि । व्यलक्षणं चेदम् "गुणपर्यायवद् द्रव्यमिति।" ततो पज्जबंध-पद्मबन्ध-पुकाबल्दो निवकाव्यरचने, शा०१ श्रु०६० जीवाजीवपर्यायदावगमार्थमेवं पृष्टवान् । तथा च भगवानपि पन्जय-प्रार्जक-पुं० । पितुः पितामहे, ज० ६ श० ३३ ७० । का। निर्वचनमेबमाह-(गोयमा! उबिहा पजवा पपणत्ता। तं जहा. जीवपजवा य, अजीवपजवा य इति) तत्र पर्याया गुणा विशेषा "अज्जए पाजए वा वि, वप्पो पुल्ला पिउत्ति य।" दश०७ अ० धर्मा इत्यनान्तरम् । ननु सम्बन्ध प्रतिपादयतेदमुक्तम्,हत्वीपजयजोय-पर्याययोग-०। परिणतिसंबन्धे, सम्म०१ कारक । दयिकाऽऽदिजावाऽश्रयपर्यायपरिमाणाबधारणं प्रतिपाद्यत इति । पज्जयसमास-पर्यायसमास-पुंआ ये हि यादयः श्रुतशानाविना. औदयिकाऽऽदयश्च भावा जीवाऽऽश्रयास्ततोजीचपर्याया एव गगपलिच्छेदा नानाजीवेषु बद्धा लज्यन्ते तेषां समुदाये, वृ० १ म्यन्ते । अथ चास्मिन्निर्वचनसूत्रे द्वयानामपि पर्याया उक्ताः। ततो ल। लब्धपर्याप्तस्य सूक्ष्मनिगोदजीवस्य यत्सर्वजघन्यं श्रुत. न सुन्दर सम्बन्धः। तयुक्तम् । अभिप्रायापरिज्ञानात् । औदयि. मात्र तस्मादन्यत्र जीवान्तरे य एकः श्रुत शानांशो बिभाग को दि भावः पुलवृत्तिरपि भवति,ततो जीवाजीघभेदेनौदयि. पलिच्छेदरूपी वर्धते, तस्मिन्, कर्म०१ कर्म । कभाषम्य दैविध्यान सम्बन्धः, कथं न निर्बचनसूत्रयोबिरोधः। सम्प्रति सम्बन्धपरिमाणावगमाय पृच्छतिपज्जरइ-देशी-म्लायति, दे० ना.६ वर्ग २० गाथा। जीवपजवा णं ते ! किं संखेजा, असंखेजा, अणंपज्जरय-पर्जरक-पुं० । सीमन्तकप्रभाखारकेन्द्रका प्रावलिका ता? । गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखज्जा, अणंता । यां पञ्चत्रिंशत्तम महानर केन्द्रले स्था६ ठा० । से केणो णं वे ! एवं वुच्चइ-जीवपज्जवा नो संपज्जरयमक-पर्जरकमध्य-पुं० । सीमन्तकमध्यादुरावलि खेज्जा, नो प्रसंखेजा, अणंता ? । गोयमा ! असंकासु पचत्रिंशसमे नरकेन्डके, स्था० ६ ग०। खज्जा रहया असंखेजा असुरा असंखजा नागा पज्जरयावद्द-पर्जरकाऽऽवत-पुंग। सीमान्तकाबात्यश्चिमायां पञ्चत्रिंशत्तमे नरकेन्द्रके, स्था० ६ 10। असंखेज्जा मुबमा असंखेज्जा विज्जुकुमारा असंखेज्जा अ गिकुमारा असंखेजा दीवकुमारा असंखेज्जा उदाहकुमापज्जरयाव सिह-पर्जरकावशिष्ट-पुं०। सीमान्तकावशिष्टादविणायां पञ्चत्रिंशत्तमे नरकेन्द्रके, स्था० ६ ग०। रा असंखेजा दिसाकुमारा असंखेजा वाउकुमारा असंपज्जत-प्रज्यात-त्रि० । जाज्वल्यमाने, कल्प० १ अधि० खेज्जा थणियकुमारा असंखेज्जा पुढविकाझ्या असंखे३ कण। जा प्रानकाझ्या असंखेज्जा तेनकाइया असंखेज्जा पज्जलग-प्रज्वलन-पुं । प्रज्वथति दीपयति वर्णबादकरणेन वाउकाइया अणता वणस्सश्काश्या असंखेज्जा बेइंदिमागधवदिति प्रज्वलनः । तस्मिन् , स्था० ४ ग.१००। या असंखेजा तेइंदिया असंखेज्जा चनरिदिया असंदर्पित-पुं०। अबष्टम्भके, स्था० ४ ग०३ उ०। खज्जा पंचिंदियतिरिक्खजाोणिया असंखेज्जा मस्सा अपजनिय-प्रज्वलित-पुं० । जाज्वल्यमाने,ग. २ अधि०। श्राव। संखेज्जा वाणमंतरा असंखज्जा जोइसिया असंखेज्जा वेपज्जव-पर्यव-पु० । परि सर्वतो भावे, अवनमवः । तुदादिभ्यो माणिया। प्रणेता सिका। से एएणढे णं गोयमा ! एवं नक्कावित्यधिकारे, “अकितो बा।" इत्यनेन औणादिकोऽका- वृञ्च । तेणं णो संखेज्जा, नो असंखिज्जा, अणंता॥ रप्रत्ययः । अवने, गमद, वेदनमिति पर्यायाः । अथ बा (जीवपज्जवा णं जते । किं संखेज्जा इत्यादि ) इह यस्मादपर्यवणं पर्यवः, भावेऽब् प्रत्ययः । परिच्छेदे, प्रा. म. १ नस्पतिसिम्बर्जे सर्वेऽपि नैरयिकादयः प्रत्येकमसंख्येयाः, अ० । प्रज्ञा । अनु. । स्था० । धर्म, पर्यायाः पर्यवाः मनुष्येष्वसंख्येयत्वं समूमिमनुष्यापेक्कया, वनस्पतयः सिका. पर्यया धर्मा इत्यनर्थान्तरम् । ज० २५ श० ५०० । भ. इच प्रत्येकमनन्ताः ततः पर्यायिणामनन्तत्वाद्भवन्त्यनन्ता जी. नु० । विशेषे, आचा० १७० ३ ०२०। पर्याया गुणा वि बपर्यायाः, तदेव गौतमेन सामान्यतो जीवपर्यायाः पृष्टा जगवा. शेषा धर्मा इत्यनान्तरम् । प्रज्ञा०५ पद । विशे। ज्ञानाऽऽदि नपि च सामान्येन निर्वचनमुक्तवान् । विशेषे, स्था० १०श्राव। स्वपरभेदभिन्ने नवपुराणाऽऽदी श्दानी विशेषविषयप्रश्नं गौतम आहच, स.५ अङ्ग पर्यवा द्विविधाः । तद्यथा-गुणाः, पर्यायाश्च । ऐरइयाणं ते! केवघ्या पज्जवा पत्ता गोयमा ! अणं. सहवतिनो गुणाः, शुक्लाऽऽदयः। क्रमवर्तिनः पर्यायाः, नवपु. राणाऽऽदयः । तत्र गुणाः स्थूलाः। पर्यायास्तु तत्सूक्ष्माः। आ. ता पज्जवा पमत्ता।से केणढे ण ते! एवं वृच्चा--णेरइयाणं म०१०। आव०। अणंता पज्जवा पापत्ता गोयमा परइए परइयस्स दवट्ठा Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२ ) अभिधानराजेन्द्रः । पज्जव था तु पदेसच्याए तुल्ले उग्गादण्डयाए सिय हीणे सिय तुझे सिय अन्नहिए, जदि हीणे असंखेज्जइजागहीणे वा संखेज्जइभागहीणे वा संखेज्जगुपही वा असंखेज्जगुणही वा अह अन्भहिए असंखेज्जभागमन्नहिए - खज्जनागमन्नदिए वा असंखेज्जगुणमन्यहिए संखेज्ज - गुणमन्महिए वा विश्ए । सिय दीणे सिय तुल्ले सिय मन्नहिए, जइ हीणे असंखेज्जइभागही ले वा संखेज्जइनागही वा संखेज्जगुणहीणे वा असंखेज्जगुण ही व', यह अन्नहिए असंखेज्जइभागमन्महिए वा संखेज्जइनागमन्जरिए वा संस्खेज्जगुणमब्भहिए वा संखिज्जगु मन्भहिए वा । कालवष्यपज्जवेहिं सिय हीणे सिय तुल्ले सिय मन्नहिए, जदि हीणे अयंतभागहीणे वा असंखेजनागढीले वा मंखेज्जभागहीणे वा संखिज्जगुणहीले वा प्रसंखेज्जगुणहीणे वा अनंतगुल होणे वा अह - जहिए अनंतनागमन्नहिए वा असंखेज्जनागमव्यहिए बा संखेज्जभागमन्नहिए वा संखेज्जगुणमब्भहिए वा अ संखेनगुणमन्नहिए वा नहिए वा । नीलजहिं झोपिपज्जवेहिं पीयमपज्जवेहिं मुक्तिअपज्जवेदिय ब्रायन किए, सुम्निगंधपज्जवहिं दुभिगंधपज्जवेहिं बट्टाबडिए, तित्तरसपज्जबेहिं कडुयरसपज्जवेद्दि कसायरसपज्जवेदिं विनरसपज्ञ्जवेहिं महु पज्जवेहिय ब्राणवडिए, कक्खमफा सपज्जहिं म बुरफासपज्जवेहिं गरुयफासपज्जवेहि बहुयफासपज्जवेहिं सीतासपज्जा उसिणफासपज्जवेहिं णिद्धफासपज्जaft खफासपज्जवेहि य द्वाणवमिए आभिनिवोहियनागपज्जहिं सुगनाणपज्जवेहिं ओहिनाए पज्जवेहिं मप्रमाणपञ्जवेहिं सुयअन्नाणपज्जवेहिं विभंगनाणपज्जवेहिं चक्खुदंसणपज्जवहिं चक्खुदंसणपज्जवे हिं दिदंसणपज्जवेहिं छट्टा किए । से तेलट्ठे णं गोयमा ! एवं बुच्च पोरया णं नो संखेज्जा, नो प्रसंखेज्जा, अता पज्जत्रा पचना । अथ केमा जिप्रायेणैवं गौतमः पृष्टवान् ? । उच्यते- पूर्व किल सामान्य प्रश्ने पर्यायिणामनन्तत्वात् पर्यायाणामानन्त्यमुक्तम् । यत्र पुनः पर्यायण मानन्त्यं नास्ति तत्र कथमिति पृच्छति - (ने. रयाणामित्यादि) तत्राऽपि निर्वचनमिदम अनन्ता इति । अत्रैषं जातसंशयः प्रश्न इति । ( से केण णं भंते ! इत्यादि ) अथ केनार्थेन केन कारणेन केन हेतुना भदन्त ! एवमुच्यते-नैराणां पर्याया एवमनन्ता इति । भगवानाह - ( गोयमा ! मेर मेरयल दबट्टयाए तुल्ले इत्यादि ) अथ पर्यायाणामानयं कथं घटते ?, इति पृष्टे तदेव पर्यायाणामानन्त्यं यथायुक्युपनं नवति तथा निर्वचनीयं नान्यत् ततः केनाऽभि• प्रायेण जगवानेवं निर्वचनमवाचि ? जैरयिको नैराधिकस्य - For Private पज्जव व्यर्थतया तुल्य इति ? । उच्यते- एकमपि व्यमनन्तपर्यायमित्यस्य न्यायस्य प्रदर्शनार्थम् । तत्र यस्मादिदमपि नःरक जीवव्यमेकसंख्याऽवरुद्धमिदमिति नैरयिकस्य रुण्यातया तुख्यो, अव्यमेवार्थो इन्यार्थस्तद्भावो व्यार्थता, तथा तुल्य एवं तावद् अन्यर्थितया तुख्यत्वमभिहितम् । इदानीं प्रदेशार्थतामधिकृत्य तुल्यत्वमाह - ( परसहयाए तुझे ) इदमपि नारक जीवद्रव्यं लोकाऽऽकाशप्रदेश परिमाण प्रदेशमिति प्रदेशार्थतयाऽपि नैरयिको नैरयिकस्य तुल्यः प्रदेश एवार्थः प्र देशार्थः, तद्भावः प्रदेशार्थता, तथा प्रदेशार्थतया । कस्मादभिहितमिति चेत् ? । उच्यते द्रव्य द्वैविध्य प्रदेशनार्थम् । तथाहि -द्विविधं अव्यम् - प्रदेशवत्, अप्रदेशवश्च । तत्र परमापुरप्रदेश, द्विप्रदेशादिकं तु प्रदेशवत् । एतच्च यद्वैविध्यं पुद्गलास्तिकाय एव जवति । शेषाणि तु धर्मास्तिकायाऽऽदीनि द्रव्याणि नियमा प्रदेशानि । ( उगाहणध्याए लिय होणे इत्यादि) नैरयिकोSण्यात प्रदेशो ऽपरस्य नैरयिकस्य तुल्यप्रदेशस्य श्रवगाहनमवगादं शरीरोच्छ्रयोऽवगाहनमेवार्थोऽवगाहनार्थस्तावोऽवगा नार्थता, तथा अवगाहनार्थतया । ( सिय होणे इत्यादि) स्याच्छन्दः प्रशंसाऽस्तित्व विवादविचारणाऽनेकान्त संशय प्रश्नाssदिष्वर्थेषु । अत्राने कान्त द्योतकस्य प्रढ्यां, स्याकीनो, नैकान्तेन दीन इत्यर्थः स्यातुल्यो नैकान्तेन तुल्य इत्यर्थः, स्यादयधिको नैकान्तेनाभ्यधिक इति भावः । कथमिति चेत् ? । उच्यतेयस्माद्वद्दयति-रत्नप्रापृथिवीनरायकाणां भवधारणीयस्य वैक्रियशरीरस्य जघन्येनावनादनाया श्रङ्गुलस्या संख्ये यो भाग उ कर्षः सप्त धनूंषि प्रयो हस्ताः षट् चाङ्गुलानि । उतरोत्तरासु एकः पृथिवीषु द्विगुणं द्विगुणं यावत्सप्तमपृथिवीनैरयिकाणां जघन्यतोऽवगादनाऽङ्गुलस्यासंख्येयो भागः, उत्कर्षतः पञ्चधनुःश तानीति । तत्र ( जद होणेत्यादि) यदि हीनस्ततोऽसंख्येयभागहोमो वा स्यात्संख्येयभागहीनो वा संख्येयगुणदीनो वा स्यात् संश्येय गुणहीनो वा । अथाज्याधिकस्ततोऽसंख्येयभागाभ्यधि को वा स्यात् संख्येयनागाभ्यधिको वा संख्येयगुणाऽधिके वा असंख्येयगुणाधिको वा । कथमितिचेत् ? । उच्यते- एकः किल नारक उचैस्त्वेन पञ्च धनुःशतानि, अपरस्तान्येवाङ्गुनाऽसंख्ये• यभागीनानि, अगुलासंख्येय भागश्च पञ्चानां धनुःशतानामलंयेये जागे वर्तते, तेन सोऽङ्गुला संख्येयजागहीनः पञ्चधनुःशतप्रमाणोऽपरस्य परिपूर्ण पश्चधनुःशतप्रमाणस्यापेक्षयाऽसंख्येभागहीनः इतरस्थितरापेक्त्या संख्येयजागाभ्यधिकः । तथा पञ्चधनुःशतान्युच्चैस्त्वेनाऽपरस्तु तान्येव द्वाभ्यां त्रिवि धनुर्भिर्न्यनानि ते च द्वे त्रीणि वा धनूंषि पश्वानां धनुःशतानां संख्येयभागे वर्तते, ततः सोऽपरस्य परिपूर्ण पञ्चधनुः शतप्रमाणस्यापक्कया संख्येयभागहीनः, अपरस्तु परिपूर्णपञ्चधनुः शतप्रमाणः, तदपेक्षया संख्येयजागाधिकः, तथा एकः पञ्चविंशतिधनुः शतमुश्चैस्त्वेनाऽपरः परिपूर्णानि पञ्चधनुःशतानि पञ्चविंशं च धनुःशतं चतुर्भिर्गुणितं पञ्च धनुःशतानि भवन्ति । ततः पञ्चविंशत्यधिकधनुः शतप्रमाणोचैस्वेऽप्यपरस्य परिपूर्ण पञ्चधनुःशत प्रमाणस्यापेक्षया संख्येगुणहीनो प्रवति, तदपेक्षया त्वितरः परिपूर्ण पश्चधनुः शतप्रमाणः संख्ये गुणाधिकः। तथा एकोऽपर्याप्तावस्थायाम डुलस्यासश्येयभागावगाढे वर्तते, अन्यस्तु पञ्चधनुः शतप्रमाणाम्युच्चैस्त्वेनाङ्गुला संख्येयभागश्चासंख्येयेन गुणितः सन् पधनुःशतप्रमाणो भवति । ततोऽपर्याप्तावस्थायामङ्गुलासं Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जव अग्निधानराजन्छः। पज्जय ज्येयभागप्रमाणेश्वगाहे वर्तमानः परिपूर्णः पश्चधनुशनप्रमा. प्यते । षट्स्थानके च यत् यदपक्कया अनन्तभागहीनं तस्व णापेक्षया असंख्येयगुणहीना, पञ्चधन शतप्रमाणस्तु तदपे- सर्वजीवानन्तकेन भागे हते थल्लभ्यते तेनानन्ततमेन भागेन कया असंख्येयगुणाभ्यधिकः । (ठिाए सिय होणा इत्यादि) हीनं, यच तदपेक्कया साइण्येयनागदीनं तस्यापेक्वणीयस्थासयथाऽवगाहनया हानी वृकौ चतुःस्थानपतित उक्तस्तथा स्थि. ख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणेन राशिमा नागे ते यसभ्यते स्याऽपि वक्तव्य इति भावः । एतदेवाऽऽह-(जर होणे असंखे. तावता भागेन न्यूनम् । यश्च तदधिकृत्य साधेय नागहीनं त. जाभागहाणे वा इत्यादि) तकस्य किल नारकस्य त्रयस्त्रिंश- स्यापेक्षणीयस्योपसङ्ख्येयकेन नागे हते यलभ्यते तावता रसायरोपमाणि स्थितिः,अपरस्य तु ताम्येव समयाऽऽदिन्यूनानि । होनम । गुणनमण्यायां तु यद्यतः समययगुणं तदवाधिनत. तत्रयः समयाऽऽविन्यूनत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणस्थितिकः स मुत्कृष्टेन सस्येय केन गुणितं सत् यावावति तावत्प्रमाणमपरिपूर्णत्रयखिशालागरोपमस्थितिकनारकापेक्षया असंपयेय. वसातव्यम। यच्च यतोऽसस्येय गुणं तदवधिभूतमसङ्ख्येयम. भागदीना परिपूर्णः,प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकस्तु नदपेकया सोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणेन गुणकारेण गुपयते,गुणितं सत्याबद्भः असंख्येयनागाऽभ्यधिकः। समयादेः सागरोपमापेक्वया असं. वति तदवसेयम् । यश्च यस्मादनम्तगुणं तदधिभूतं सजीवा. क्येयभागमात्रत्वात् । तथा घसंख्येयः समयरेकाऽवलिका, नन्तकरूपेण गुणकारेण गुण्यते,गुणितं सत् याबद्भवति तावत्प्र. संख्याताभिरावनिकाभिरेक उच्चासनिःस्वासकाम, सप्तभि- माणं काव्यम् । तथा चैतदेव कर्मप्रकृतिसंग्रहिपयां षट्स्थानकरुच्चासनिःश्वासैरेकः स्तोकः, सप्तभिस्तोकैरेको नवः, सप्तस- प्ररूपणाबसरे नागहारगुणकारस्वरूपमुपवर्णितम "सञ्चजीवाणंसत्या७७ लवानामेको मुहूर्तः,त्रिंशता मुहू तैरहोरात्रः पञ्चदश- तमसंखलोगसंखेजगस्स जेठस्स भागो निसुगुणणातिसुता" निरहोरात्रैः पको, वान्यां पकाभ्यां मासो, द्वादशनिमांसः संव. सम्प्रत्यधिकृतस्त्रोक्तषट्स्थानपतितत्वं भाव्यते-तत्र कृष्णवर्णस्सरः, असंख्येयैः संवत्सरैः पस्योपमसागरोपमाणि । समया- पर्यायपरिमाणं तवतोऽनन्तसंख्याऽऽस्मकमप्यसनावस्थापनया धनिकोमासमुहतीदवसाहोरात्रपक्षमाससंवत्सरयुगीन.प. किल दश सहस्राणि १०००० । तस्य सर्वजीवानन्तकेन शतपरिपूर्णस्थितिकनारकापक्कयाऽसंख्येयभागहीनो भवति । तदपेक्ष- रिमाणपरिकल्पितेन भागो व्हियते, सम्धे शतम १००तकस्य या वितरोऽसंख्येयभागाभ्यधिकः । तथा एकस्य त्रयस्त्रिंश- किल नारकस्य कृष्णवर्णपर्यायपरिमाणं दशसहस्राणि, अपसागरोपमाणि स्थितिः, परस्य तान्येव पल्योपमैन्यूनानि, दश- रप तान्येव शतेन दीनानि ६१001 शतं च सर्व जीवानन्तभा. भिश्च पल्योपमकोटाकोटीनिरेक सागरोपम निष्पद्यते ततः प. गहारलब्धत्वादनम्ततमो भागः, ततो यस्य शतेन हीनानि दश स्योपमेन्यूनस्थितिकः परिपूर्णस्थितिकनारकापेक्वया संख्येय. सहस्राणि सोऽपरस्य परिपूर्णदशसहस्रप्रमाणकृष्णवर्णपायभागहीन, परिपूर्णस्थितिकस्तु तदपेक्षयाऽसंख्येयभागाभ्यधि- स्य नारकस्यापेक्रयाऽनन्तभागहीनः, तदपेक्वा तु सोऽपरः क. कः । तथा-एकस्य सागरोपममेक स्थितिरपरस्य परिपूर्णानि ष्णवर्णपर्यायाऽनन्तनागाच्यधिकः । तथा कृष्णवर्णपर्यायपरित्रयखिंशासागरोपमाणि। तत्रैकसागरोपस्थितिका परिपूर्ण माणस्य दशसहसंख्याकस्यासंख्येयमोकाऽकाशप्रदेशप्रमाणस्थितिकनारकापेक्कया सख्येयगुणदीमा, एकस्य सागरोपम परिकल्पितेन पश्चाशत्परिमाणेन भागहारेण भागो व्हियते, श्य प्रनिशता गुणने परिपूर्णस्थितिकस्वप्राप्तेः । परिपूर्णस्थि. लब्धे द्वे शते । एषोऽसंख्येयतमो भागस्तकस्य किल नारकतिकस्तु तदपेकया सम्यगुणाभ्यधिकः । तथा एकस्य द. स्य कृष्णवर्णपर्याया दशसहस्राणि शतद्वयन हीनानि 15001 शवर्षसहस्राणि स्थितिरपरस्य श्यत्रिंशसागरोपमाणि द. अपरस्य परिपूर्णानि दशसहस्राणि १००००। तत्र यः शतद्धशवर्षसहस्रापयसख्ये यरूपेण गुणकारण गुणितानि त्रयस्त्रिं. यहीनदशसहस्रप्रमाणकृष्णवर्णपर्यायःसपरिपूर्णकृष्णवर्णपर्या. शत्सागरोपमाणि भवन्ति । ततो दशवर्षसहनस्थितिकाय- यनारकापेक्वयाऽसंख्ययनागहीनः। परिपूर्ण कृष्णयजपर्यायस्तुत. सिंशत्सागरोपमस्थितिकनारकापेकया प्रमझयेषगुणहीनः, दपेक्वयाऽसंश्येयभागाधिकः । तथा तस्यैव कृष्णवर्णपर्याय. तपेक्षया तु प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकोऽसख्येयगुणा- राशेर्दशसहस्रसंख्याकस्योत्कृष्टसंख्येयकपरिमाणकल्पितेन दज्यधिक इति । तदेवमेकस्य नारकस्याऽपरनारकापेक्वया द्र. शकपरिमाणेन भागहारेण भागो श्यिते, सम्धं सहनम् । एप व्यतो व्यार्थतया प्रदेशार्थतया च तुल्यत्वमुक्तम् । केत्रतो | किल संख्याततमो भागः तोकस्य नारकस्य किल कृष्णवर्णपवगाहनं प्रति हीनाधिकत्वेन चतुःस्थानपतितत्वम् । कालतोपि यायपरिमाणं नवसहस्राणि ६००० । अपरस्य दशसहस्राणि स्थितितो हीनाधिकत्वेन चतु:स्थानपतितस्वम्। इदानीं नाबाऽऽ- १.०७नधसहस्राणि तु दशसहस्राणि सहस्रेण हीनानि। स. भयं हीनाधिकत्वं प्रतिपाद्यते-यतः सकलमेव जीवजन्यमजीव. हनं च संख्येयतमो भाग इति नबसहनप्रमाणकृष्णवर्णपर्याकव्य वा परस्परतो द्रव्यक्षेत्रकासनावविभज्यते, यथा घटः। यपारपूर्णकृष्णवर्णपर्यायनारकापेक्षया संख्येयभागहीनः तद. तथाहि-घटो कन्यत एको मार्तिकोऽपर: काश्चनो राजता55- पेक्वया स्वितःसंख्येयभागाधिकःसयकस्य नारकस्य किन - दिर्वा। केवत एक हत्या, अपर पाटलिपुत्रका कालत एकोऽ. इणुवर्णपर्यायपरिमाणं सहस्रम् अपरस्य दशसहस्राणि,तत्र स तनोन्यस्त्वैषमः परुतनो वा । नाबत एकः श्यामोऽपरस्तु र. इस्रदशके मोत्कृष्टसंख्यानककाल्पनेन गुणितं दशसहनसंख्याकाऽऽदि पवमन्यदपि। तत्र प्रथमतःपुस्तविपाकिनामकर्मोदय. कंजवतीति सहसंख्यकृष्णवर्णपर्यायो नारको दशसहस्रसंनिभित्तजीचौदायिकभावाऽऽधयेण हीनाधिकत्यमाह-(कावा- ख्याककृष्णवर्णपर्याय नारकापेक्षया संख्येयगुणहीनः, तदपक्कया मजहि सियाणे सिय तुल्ले सिय अम्महिए ) अस्याकर. परिपूर्ण कृष्णवर्णपर्याय:संख्येय गुणाभ्यधिक तथा एकस्य किन घटना पूर्ववत् । तत्र यया हानत्वमभ्यधिकत्वं वा तथा प्रति- भारकस्य कृष्णवर्ण पर्यायानं वे शते, अपरस्य परिपूर्णानि दश पादयति-(जा होणेत्यादि ) वह भावापेकया दीनाधिका सहस्राणि द्वे च शते संख्यय लोकाकाशप्रदेशपरिमाणप्रकल्पिस्वचिन्तायां दानी वृद्धौ च प्रत्येक पदस्थानपतितत्वमवा- | तेन पञ्चाशत्परिमाणेन गुणकारगुणितेन दशसहस्राणि जायन्ते। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१४) अभिधानराजेन्डः । पज्जव पज्जव ततो द्विशतपरिमाणकृष्णवर्णपर्यायो नारकः परिपूर्णक- ज्जवेहिं कसायरमपज्जवेहिं अंविनरमपज्जवेहिं महुररसपरणवर्णपर्यायनारकापेक्तया असंख्येयगुणहीनः, तदपेक्या स्वि. ज्जवेहिं कक्खडफासपज्जवेहिं मउयफासपज्जवे हिं गरुयफातरोऽसंख्येयगुणाभ्यधिकः ५, तथैकस्य किन नारकस्य कृष्णवर्णपर्यायपरिमाणं शतमपरस्य दशसहस्त्राणि शते च सपज्जवहिं लहुयफासपज्जवेहिं सीतफासपज्जवहिं उसिसर्बजीबानन्तकपरिकल्पिोन गुणकारेण गुणिते जायन्ते एएफासपमवेहिं निकफासपज्जवे हि लुक्खफासपज्जवेहिं दश सहस्राणि, ततः शतपरिमाणकृष्णवर्णपर्यायो नारकः श्रानिणिबोहियनाणपज्जवेहिं सुयनाणपज्जवहिं ओहिनापरिपूर्णकृष्णवर्णपर्यायनारकापेक्वयानन्तगुणहीनः, इतरस्तु त पज्जवोहि मअन्नाणपज्जवेहिं सुयअन्नापज्जवेहि विदपेनयाऽनन्तगुणात्यधिकः । यथा कृष्णवर्णपर्यायानधिकृत्य हानी वृक्षौ च षट्स्थानपतितस्वमुक्तमेवं शेषवर्णगन्धरसस्प भंगनाणपज्जवेहिं चक्रवदसण पज्जवेहिं अचखुदंसणपज्जशैरपि प्रत्येक षट्स्थानपतितत्वं भावनीयम् । तदेवं पुलविपा. वेहि श्रोहिदसणपज्जवहि य छठाणवमिए । से तेणढे णं के नामकर्मोदयजनित जीवौदायकभावाऽऽश्रयेण षट्स्थानपति. गोयमा! एवं वुच्च-असुरकुमाराणं अता पज्जवा पमतत्वमुपदर्शितम् । इदानीं जीवविपाकिज्ञानाऽऽबरणीयाऽऽदिक. त्ता । एतं जहा परइया जहा असुरकुमारा तहा नागकुमारा मक्कयोपशमभावाऽऽश्रयेण तदुपदर्शयति "प्राभिणिबोहियपज. वर्दि"इत्यादि पूर्ववत् । प्रत्येकमाभिनिबोधिकादिषु षट्स्थान विजाव थणियकुमारा। पुढविकाझ्याणं भंते ! केवड़या प. पतितत्वं भावनीयम् । श्ह द्रन्यतस्तुल्यत्वं बदता सम्मूछिमस. जवा पत्ता । गोयमा ! अणंता पज्जवा पमत्ता । मे प्रभेदनिर्भदवीजं मसूराएमकरसबदनभिव्यक्तदेशकाल क्रम- केणढे ए एवं बुच्च-पुढविकाझ्याणं अणंता पज्जवा पमप्रत्यवबद्धविशेषानेदपरिणतयोग्य व्यमित्यावेदितम् । अवगा.. चा। गोयमा! पुढविकाइए पुढविकाझ्यस्स दबट्टयाए तु. हनया चतु:स्थानपतितत्वमनिवहता क्षेत्रतः सङ्कोचधिकोच. वे, पदेसट्टयाए तुझे, ओगाहणहयाए सिय हीणे सिय तुल्ले धमा आत्मा, न तु जव्यप्रदेशसङ्ख्याया ति दर्शितम् । उक्तं चैतदन्यत्रापि-विकसनसोचनयोर्न स्तो व्यप्रदेशसङ्ख्याया सिय अभहिए । जइ होणे असंखेज्जनागहीणे वा संखेवृहिहासौ स्तः,केत्रतस्तु तावान्मनः,तस्मात स्थित्या चतु:स्थानप- जभागहीणे वा संखज्जगुणहोणे वा असंखिज्जगुणहीणे तितत्वं बदता आयुःकर्मस्थितिनिर्वर्तकानामध्यवसायस्थाना. वा । अह अब्भहिए असंखेज्जाभागअन्नहिए वा संखनामुत्कर्षांपकर्षवृत्तिरुपदर्शिता , अन्यथा स्थित्या चतुःस्थान: ज्जइभाग अनहिए वा संखेनगुणमब्भहिए वा असंखिपतितत्वायोगात् । प्रायुःकर्म चोपलकणं, तेन च सर्वकर्मस्थितिनिर्वतकेवध्यवसायोत्कर्षापकर्षवृत्तिरवसातव्या। कृष्णा जगुणमन्नहिए वा। विईए सिय हीणे सिय तो मिय अ. दिपर्यायैः षट्स्थानपतितत्वमुपदर्शयता एकस्यापि नारक- महिए। जड होणे असंखिज्जभागहीणे वा संखज्जभाग. स्य पर्याया अनन्ताः किं पुनः सर्वेषां नारकाणामिति दर्शि. हीणे वा संखज्जगुपहीणे वा । अह अमहिए असंखेतम् । अथ नारकाणां पर्यायाऽऽनन्त्यं पृष्टेन जगवता तदेव पर्या ज्जइनागअनहिए वा संखज्जइनागअन्नहिए वा संखेयाऽऽनन्त्यं वक्तव्यं, न त्वन्यतू, ततः किमर्थ द्रव्यक्केत्रकालभा. वाभिधानमिति । तदयुक्तम् । अभिप्रायापरिज्ञानात् । इह न सर्वे. जगुणमब्भहिए वा बाहिं गंधेहिं रसेहिं फासेहिं मइअन्नाणपां सर्वे स्वपर्यायाः समसंख्याः किं तु षट्स्थानपतिताः। एतच्चा- पज्जवेहिं सुय प्रमाणपज्जवेहिं अचखुदंसणपज्जनेहिं छनन्तरमेव दर्शितम, तच्च षट्स्थानपतितत्वं परिणामित्वमा हाण वडिए । अाउकाझ्याणं भंते ! केवड्या पज्जवा पणस्तरेण न भवति, तच्च परिणामित्वं यथोक्तरक्षणस्य द्रव्य. ता। गोयमा! आता पज्जा पामुत्ता। से केण भंते ! स्येति व्यतस्तुल्यत्वमन्निहितम् । तथा न कृष्णाऽऽदिपर्यायरेव एवं वुच्च-आउकाझ्या अर्णता पज्जा पत्ता ?। गोयपर्यायवान् जीवः, किं तु तत्तत्क्षेत्रसङ्कोचविको वधर्मतयाऽपि । तथा तत्तदध्यवसायस्थानयुक्ततयाऽपीति स्थापनार्थ केत्रकामा. मा! आनकाइए आनकाइयस्स दबट्टयाए तुझे, पदेसहज्यां चतःस्थानपतितस्वमुक्तमिति कृतं प्रसङ्गेन, तदेवमवसितं याए तुझे, जग्गाहणट्ठयाए चट्टाणवामिए,लिईए तिट्ठाणनैरयिकाणां पर्यायाऽऽनन्त्यम् । वभिए बन्नगंधरसफासमइअप्माण सुयअम्माण अचवखुदं. इदानीमसुरकुमारेषु पर्यायाग्रं पिच्चिषुराह साण पन्जदेहि य छट्ठाणवडिए । तेउकाइयाणं पुच्चा? गोयमा! असुरकुमाराणं जंते ! केवड्या पज्जवा पत्पत्ता ? । गोय अणंता पज्जवा पाप्मत्ता। सेकेण्डेणं भंते! एवं बुच्च-तेनुमा! अणंता पज्जवा पामत्ता । सेकेणढे णं नंते ! एवं काइयाणं अनंता पज्जवा पमत्ता । गोयमा! ते नकाइए तेनबुच्चइ-असुरकुमारााणं अणंता पज्जवा पाता । गोयमा: काइयस्त दबट्टयाए तुल्ले,पएमच्याए तुझे, ओगाहणट्ठयाए असुरकुमारे असुरकुमारस्स दमट्टयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए चनहाण व डिए । ठिईए तिहामिए वमगंधरसफासमइअ. तुझे,ओगाहणहाए चउहाणवमिए, ठिईए चनहारणवमिए, माणसुभअन्नाणअचचुदंसा पन्जवेहि य छट्ठाणवमिए। कानवनपजवहिं छाणवमिए । एवं नीलवन्नपज्जवे हि नो. वानकाइयाणं पुच्चा । गोयमा ! बाउकाझ्याप एंता हिब्बहालिहवामपज्जवेहिं सुकिचवमपज्जवेहि सुब्जिगंधप पज वा पत्ता । से केण नंते ! एवं बुच्चइ-वाउकाउजवेहिं ब्जिगंधपज्जवेहिं तित्तरसपज्जवहिं कसुपरसप- इयाणं अणंता पन्जना पमत्ता ।। गोयमा ! वानकाइए Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जव प्रनिधानराजेन्द्रः। पज्जव चाउकाइयस्स दबट्टयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, ओगाह- संख्येयभागस्यासंख्येय भेदभिन्नत्वादवसेयमा स्थित्या हीनत्वमा पट्टयाए चनट्ठाण वडिए। लिईए तिहाणवमिए वमगंधर धिकत्वं च त्रिस्थानपतितं, न चतुःस्थानपतितम्,अंसख्येयगुण वृद्धि हान्योरसम्नचात् । कथं तयोरसम्भव इति चेत् ?। उच्यतेसफासमप्रमाणसुय अप्लाणअचक्खुदंसणपज्जवेहि य - इह पृथिव्यादीनां सर्वजघन्यमायुः क्षुवकभवग्रहणं, कुखकहाणवमिए । वणस्सइकाइयाणं भंते ! केवश्या पजवा जवग्रहणस्य परिमाणमावलिकानां द्वे शते षट्पञ्चाशदधिके पत्ता गोयमा ! अणंता पज्जवा पामना। से केणढे एं मुहूर्ते च द्विघटिकाप्रमाणे, सर्वसंख्यया क्षुल्लकभवग्रहणानां प. भंते ! एवं बुच्चइ-वणस्सइकाइयाणं अणंता पन्जवा पप्प- चषष्टिसहस्राणि पश्चशतानि त्रिंशदधिकानि ६५५३६ । उक्त चता। गोयमा! वणस्सइकाइए वणस्सइकाइयस्स दबट्ठयाए "दोनि सया नियमा, छप्पन्नाई पमाणो होति । तुझे, पदेसट्टयाए तुझे, ओगाहणयाए चउट्ठाणवमिए । प्रावलियपमाणेणं, खुड्डागनवम्गहणमेयं ॥ १॥ हिए तिहाणवमिए, वमगंधरसफासमइप्रमाणमुयअ- पन्ना? य सहस्साई, पंचेच सयाई तह य पत्तीसा। म्याण अचखुदंसणपज्जवेहि य बढाणवडिए । से तेणढे एं खुड्डागभवग्गहणा, इति एते मुटुत्तेणं ॥ २॥" गोयमा ! बणस्सइकाइयाणं अणंता पज्जवा पमत्ता । वे- पृथिव्यादीनां च स्थितिरुत्कर्षतोऽपि संख्येयवर्षप्रमाणा, इंदियाणं पुच्छा । गोयमा ! वेदियाणं अणंता पज्जवा ततो नासंख्येयगुणवृद्धिहान्योः सम्नवः। शेषवृद्धिहानिपसत्ता। से केणढे णं नंते ! एवं बुच्चइ-वे इंदियोणं अणंता त्रिकभावना त्वेवम्-एकस्य किल पृथिवीकायस्थितिः परिपूर्णानि द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि, अपरस्य तान्यव सपज्जवा पत्ता । गोयमा ! वेदिए वेदियस्स दबटुया. मयन्यूनानि । ततः समयन्यूनद्वाविंशतिवर्षसहसूस्थितिका ए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुझे, नग्गाहणट्ठयाए सिय हीणे सिय परिपूर्णद्वाविंशतिवर्षसहसूस्थितिकापेक्कया असंख्येयनागतुझे सिय अभहिए । जदि हीणे असंखजानागहीणे दीना, सदपेक्कया वितरोऽसंख्येयभागाधिकः, तथा एकवा संखेज्जाभागही वा संखेजगुणहीणे वा असंखेज्जगु. स्य परिपूर्णानि बाविंशतिवर्षसहस्राणि स्थितिरपरस्य तान्ये वान्तर्मुदूर्नाऽऽदिनोनानि । अन्तमहूर्ताऽऽदिकं घाविंशतिवर्षसह. णहीणे वा । अह अब्जाहिए असंखेज्जनागमजहिए वा सूाणां संख्येयतमो नागः, ततोऽन्तर्मुहूर्ताऽऽदिन्यूनद्वाविंशतिवर्षसंखेजभागमन्नहिए वा संखेनगुणमन्नहिए वा असं- सहसूस्थितिकः परिपूर्णद्वाविंशतिवर्षसहसूस्थितिकापेक्वया सं. खेज्जगणमभहिए वा । ठिईए तिहाणवमिए, बालगंधर- स्येयभागहीनः,तदपेकया तु इतरः संख्यनागाज्यधिकः। तथा सफासाभिणिबोहियनाणसुअणाणमइप्रमाणसुय अम्मा एकस्य द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि स्थितिरपरस्यान्तमहतं मासो वर्ष वर्षसहसू वा अन्तर्मुहूर्ताऽऽदिकं नियतपरिमाणया संख्यया अचखुदंसणपज्ज वेहि य बढाणवमिए । एवं तेइंदि गुणितं द्वाविंशतिबर्षसहसस्थितिप्रमाणं भवति, तेनान्तमहूयाण वि, एवं चमरिदियाण वि, ण वरं दो दसणा च. ताऽऽदिप्रमाणास्थितिकः परिपूर्णद्वाविंशतिवर्षसदसूस्थितिकापेकवदंगणेहिं अचकवदंसणपज वेहि य उट्ठाणवमिए । पंचिं. कया संख्येय गुणहीनः, तदपेक्षया तु परिपूर्णद्वाविंशतिवर्षसहदियतिरिक्खजोणियाणं पजवा जहा णेरइयाणं तहा भा सूस्थितिका संख्येयगुणाच्यधिकः । एवमकायिकाऽऽदीनामपि लियचा । मणुस्साणं जेते ! केवइया पजना पत्ता ?। चतुरिन्डियपर्यन्तानां स्वस्वोत्कृष्टस्थित्यनुसारेण स्थित्या त्रि. स्थानपतितत्वं भावनीयम् । तिर्यक्पश्चेन्जियाणां मनुष्याणां गोयमा! आणंता पज्जवा पसत्ता । सेकेणढेणं नंते ! च चतु:स्थानपतितत्वं, तेषामुत्कर्षतस्त्रीणि पट्योपमानि स्थिएवं बुचइ-मणुस्साणं णंता पजवा पासा। गोयमा! तिः । पश्योपमं चासंख्येयवर्षसहसूपमाणमतोऽसंख्येयगुणवृमाणुसस्स दवट्ठयाए तुबे, पदेसट्टयाए तुझे,उग्गाहणहाए द्धिहान्योरपि सम्भवामुपपद्यते चतु:स्थानपतितत्वम् । एवं व्यन्तराणामपि तेषां जघन्यतो दशवर्षसहस्रस्थितिकत्वादुत्कचउढाणवमिए । लिईए चउट्ठाणवमिप, वगंधरसफा र्षतः पल्योपमस्थितिः, ज्योतिष्कवैमानिकानां पुनः स्थित्या साभिणियोहियनाणसुयनाणोहिनाणमणपज्जवनाण- त्रिस्थानपति तत्वं, यतो ज्योतिप्कामा जघन्यमायुः पल्योपमा. पज्ज वेहि य बहाणवडिए, केवलनाणपज्जवेहि तल्ले तिहिं भागः, उत्कर्षता वर्षलकाधिक पस्योपमं, वैमानिकानां जघन्य अमाणेहिं तिहिं दमणेहिं छट्ठाण वडिए, केवलदसणपज्ज- पल्योपममुत्कृष्ट प्रयलिशासागरोपमाणि दशकोटाकोटीसंवेहिं तुझे । वाणमंतरा ओगाहणहाए लिईए चउहाण ख्येयपस्योपमप्रमाणं च,सागरोपमतस्तेषामप्यसंख्येय गुणवृद्धि हान्यसम्भवात् । स्थितितः त्रिस्थानपतितता। शेषसुत्रभावना तु वडिया, बन्नादीहिं बढाणवमिया, जोइसियवमाणिया वि सुगमत्वातू स्वयं भावीया, तदेव सामान्यतो नैरायिकाऽऽदीनां एवं चेव, नवरं विईए च उट्टाणवमिए तिहाएवमिया ।। प्रत्येक पर्यायाऽऽनन्स्यं प्रतिपादितम् | (असुरकुमाराणं भंते ! केवल्या पजवा पम्पत्ता इत्यादि ) इदानी जघन्याऽऽद्यवगाहनाऽऽद्यधिकृत्य तेषामेव प्रत्येक नक्त पवार्थः प्रायः सर्वेषप्यसुरकुमाराऽऽदिषु, ततः सकसमा | पर्यायानं प्रतिपिपादयिषुराहपि चतुर्विशतिदगमकसूत्रं प्राग्वद्भावनीयं, यस्तु विशेष उपदश्यते तत्र यत् पृथिवी कायिकाऽऽदीनामवगाहनाया अङ्गत्रा जहन्नोगाहणाणं भंते ! णेरइयाणं केवइया पज्जवा पसमये यभागप्रमाणाया अपि चतुःस्थानपतितत्वं तदक्षणा पत्ता?। गोयमा ! अपंता पजवा पाता।से केपट्टेणं नं Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जव प्रन्निधानराजेन्डः। पज्जव ते! एवं बुरचइ-जहन्नोगाहणगाणं णरइयाणं अनंता प. ए। लिईए तुम्ने, बन्नगंधरसफासपज्जयोहिं तिहिं नाणेहि उजवा पसत्ता । गोयमा ! जहन्नोगाहणए औरइए जह- तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं दंसी नहाणवमिए । एवं उन्नोगाहणस परइयस्न दबड्याए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुझे, कोसहिए वि, अजहन्नुकोसटिईए वि एवं, णवरं सहाणे जग्गाहणट्टयाए तुल्ले, ठिईए चउहाणवमिए, वडगंधरसफा- चनहाए वडिए। जहएणगुणकामयाणं भंते ! ऐरयाणं के. मपज्जवेहिं तिहिं गाणेहि तिहिं आएणाणेहिं तिहिं दंस. वश्या पज्जना पत्ता । गोयमा भयंता पज्ज वा पम्पत्ता । पहिं छहाणवमिए । नकोसोगाहणया णं नंते ! गरइ- से केणढेणं ते! एवं बुच्चइ-जहएपगुणकालयाणं नेरयाणं कश्या पज्जवा पएणचा। गोयमा! अणंता प- इयाणं अता पज्जवा पएणत्ता । गोयमा ! जहागुण जवा पएणत्ता । से केणटेणं ते! एवं वुच्चइ-नकोसो. कालए नेरइए जहागुण कालगस्स नेरइयस्स दव्वट्ठयाए गाहणयाणं णेरझ्याणं अणंता पज्जवा पएणत्ता। गोय- तुल्ले, पदेसध्याए तुल्ो, भोगाहणट्टयाए चउहाणवमिए, मा! कोसोगाहणाए परइए उक्कोसोगाहणस्स गेरइय- विकीए चउहाण वडिए । कालवलपज्जवहिं तुन्ने, अषसेस्स दबट्टयाए तुने पदेसट्टयाए तुझे, जग्गाहण्याए सेहिं वगंधरसफासपज्जवहिं तिहिं नाणेहिं तिहिं अतुल्ले । वितीर सिय हीणे सिय तुल्ने सिय अन्नहिए। न्नाणी तिहिंदसणेहिंढाणवहिए। से तेणणं गोयमा ! जदि होणे अमखज्जइनागहोणे वा संखेजइनागहीणे वा।। एवं वृष-जहन्नगुणकालयाणं नेण्याणं अणंता पज्जया अह अब्भाहिए असंखजभागअन्नहिए वा संखेज्जनाग- पत्ता । एवं उक्कोमगुणकालए वि, मजहममणुकोस-- मन्माए वा, वन्नगंधरसफासपज्जवहिं तिहिं नाणेहिं ति. गुणकालए वि एवं चव, नवरं कालवळपज्जवहिं बहाणहिं प्राणाणेहिं तिहिं दंसणेहि उहाणवमिए । अजहन्नु वहिए एवं, अवसेसा चत्तारि बम्मा दो गंधा पंच रसा कोसोगाहणगाणं ते! णेरड्याएं केवड्या पज्जवा पाण- महफासा नाणियच्चा । जहष्माभिणियोहियनाणीणं भंसा । गोयमा ! अणंता पज्जवा पएणत्ता।से केणद्वेणं भं- ते नेरइयाणं केवइया पज्जवा पत्ता। गोयमा ! अयंता से! एवं नुच्च-अजहन्नुकोसोगाहणगाणं अर्णता पनवा पज्जवा पयसा । से केएहे एं जंते! एवं बुच्चइ-जहपएणत्ता ?। गोयमा ! अाजहन्नुक्कोमोगाहणए थेरइए अब मानिणि बोहियनाणीण नेरप्याणं अणंता पज्जवा पन्नहन्नुक्कोसोगाहणस्स रक्ष्यस्स दबट्टयाए तुल्ले पदेसहया- | नागोयमा ! जहाभिणिबोहियनाणी नेरइए जहन्नाए तुझे ओगाहणष्टयाए सिय होणे सिग तुझे सिय अ- जिणिवाहियनाणिस्स नेरइयस्स दव्यद्वयाए तुल्ले, पदेसजहिए । जहाणे असंखज्मभागहीणे वा संखज्जा- हुयाए तुने, उग्गाहणयाए चउहाणवढिए, वितीए चनागहीणे वा संखेज्जगुणहीणे वा असंखिज्जगुणहीणे वा। नहाणवमिए, वलगंधरसफासपजवेहिं छठाणयमिए । श्राभह अग्नहिए वा असखिज्जनागमकनहिए वा संखे- भिणि बोहियनाणपज्जवेहिं तुल्ने, सुयनाणोहिनाणपज्जज्जइनागमनमहिए वा संखिज्जगुण अनहिए वा असं-- गिहाणवदिए । एवं उक्कोसानिमिबोडियनाणी वि, खिजगुणमस्ताहिए वा । लिईए सिय हीणे सिय तुन्ले अलहामणुकोसानिणिचोहियनाणी चि एवं चेष, नवरंभासिय अन्नहिए । जदि होणे असंखेज्जभागहीणे वा सं- निधिबोहियनाए पज्जवहि सहाणे नहाणवडिए । एवं मयखेज्जभागहीणे वा असंभवज्जगुपहाणे वा संखेज्जगुणहीणे नाणी, मोहिनापी वि एवं चेव,नवरं जस्स नाणा तस्स अ. गा। अह अम्भहिए अमखेजभागअन्महिए वा संखेजइ- साणा नस्थि,जहा नाणा तहा ठाण विभाणियब्बा,ननागभन्महिए वा संखेज्जगुण अनहिए वा अभविनगुण- वरं जस्स अपाणा तस्स नाणा नस्थि । जहसचक्खदंसअम्नहिए वा, वन्नगंधरसफासपज्जयोहिं तिहिं नाणेटिं पीयंते ! नेरझ्याणं केवड्या पज्जवा पत्तागोयमा! तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं देसणेहिं उहाणवमिए । से ते- अणंता पजवा पाता।से केण णं ते ! एवं बुच्चाणढे णं एवं बुच्चइ-गोयमा ! अजहन्नुकोसोगाहणगाणं णे- जहाचकवदंसपी नेरइयाणं अणंता पज्नवा पमत्ता ? रइया अनंता पजवा पापुत्ता । जहण्यतिइयाणं भंते ! | गोयमा ! जहनचक्खुदंसणीण नेरइए जहनचक्खुदंमणिगोरइयाणं केवइया पजवा पाता। गौयमा ! अणता प एस्स नेरइयस्स दबट्ठयाए तुझे.पदेसघ्याए तुस्ले, श्रीउजवा पएणत्ता मे केणटेणं भंते ! एवं बुच्चर-जहन्ना गाहणट्ठयाए चनहाणवकिए, लिईए चउहाणवकिए. हिईयाणं गरइयाणं अगंता पन्जवा पत्ता ? गोयमा ! वनगंधरसफासपज्जवेहिं तिहिं नाणेहिं तिहिं अनाणेहि जहन्नद्वितीए नरइए जहन्नविइयस्स गरइयस्स दबहया- बढाणवमिए, चक्खुदसणपज्जवेहिं तुस्से. अचकवदंपतुल्ले,पदेशयाए तुल्ने,योगाहणट्टयाए चन्द्वाणवमि- सणपज्जवेहिं भोहिदसणपजचेदि कहाणवमिए । एवं Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जत्र ( २१७ ) अभिधान राजेन्द्रः । पज्जव - ता पज्जत्रा पछात्ता ? । गोयमा ! जहयोगाहणए पुढवि - काइए जहनोगाहणगस्स पुढविकाइयस्स दव्बट्टयाए तुल्ले, पट्टयाए तुझे, ओगाहणडयाए तुल्ले, वितीए तिट्ठाएकिए, वन्नगंधरसफासपज्जवेहिं दोहिं माहिं अचक्खुदंसणपज्जवेहिय छट्ठद्वाणकिए | एवं उक्कोसोगाह ए त्रि, जामरणुको सोगाहणए वि एवं चेव, नवरं सङ्काणे चट्ठाणवडिए । जहन्नवितीयाणं जंते ! पुढविकाइयाणं पुच्छा है। गोयमा ! अनंता पज्जवा पत्ता । से केण णं भंते! एवं वृच्चइ - जनवितीयाणं पुढविकाइयाणं प्रतापजवा पत्ता ? । गोयमा ! जाविती पुढविकाइए जह वेहि यावडिए । एवं उक्कोसगुणकालए वि. अजहसमको सगुणकालए वि एवं चैत्र, एवरं सट्टा बडाकिए | एवं पंच बन्ना, दो गंधा, पंच रसा, अह फासा भाणियव्वा । जहामइप्रभाणीणं जंते ! पुढविकाइयाणं पुच्छा है। गोयमा ! अता पज्जवा पत्ता से केराडे भंते ! एवं बुच्च - जहन्नमतिअन्नाणी पुढविकाइए, जहन्नम - तिन्नासि पुढविकाइयस्स दव्बडयाए तुल्ले, पदंसहयातु, गाइण्डयाए चट्ठालवकिए, वितीए तिडाकिए, वन्नगंधर सफासपज्जवेहिं बट्टाणवडिए, मतिअन्नापज्नवेहिं तुले, सुवमन्नाणपज्जवेहिं चक्खदंसपज्जो बाणवभिए | एवं उक्कोसमतिअन्नाणी वि अजहा मरणुकोसमति अपाणी वि एवं चेव, नवरं सहाणे छद्वाणवमिए । एवं सुयधाणी वि, अचक्खुदंसणीवि एवं चैव । एवं० जाव वणस्मइकाइया । जहयोगाहणगाणं भंते ! बेइंद्रियाणं पुच्छा है। गोयमा ! अता पज्जवा पमत्ता | सेकेण्डेणं भंते ! एवं बुच्चइ - जइसोगा हणगाएं वेइंदियाणं अता पज्जवा पत्ता ? । गोयमा ! जहयोगाहणए वेईदिए जहयोगा हणगस्स वेदियस्स दव्बट्टयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, श्रोगाहण्डयाए तुले । वितीतिडाडिए, गंधरसफासपज्जवेहिं दोहिं नाणेहिं दोहि अमाणेहिं अचक्खुदंसणपज्जदेहि बहाव दिए। एवं नकोसोगाढ़ए वि, नवरं णाणा नत्थि । अजहा कोसोगाहए जहा जहयोगाहए एवरं सहाणे श्रोगाहपाए चउडाए किए । जहाहितीयाणं जंते ! बेदियाणं पुच्छा ? गोयमा ! ना पज्जवा पात्ता से केलट्ठे अंत ! एवं बुच्चइ-जह पट्टितीयाणं वेइंद्रियाणं प्रतापजवा पत्ता? | गोमा ! जहाहितीए बेईदिए जहाहितियस दिवस व्याए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुझे, भोगाहट्टयाए चउफाणवडिए । वितीए तुले, वगंधरमफासज्जहिं दोहिं अन्नाणेढि अचक्खुदंसणपज्जचेहि छडा - एवडिए | एवं उक्कोसहितए वि, नवरं दो नागा अन्नहिया । हमको सहितीए जहा उकोसहितीए, नवरं विती विद्वाणकिए। जहागुणकालयाणं नंते ! वेदियाणं पुच्छा ? । गोयमा ! अता पज्जवा पणत्ता । से केलट्ठे जंते ! एवं बुच्चइ - जहा गुणकालयाणं वेइंदियाएं अता पज्जा पत्ता? । गोयमा ! जागुगकालए वेईदिए ज " तीस पुढविकायस्स दव्बच्याए तुले, पदेस याए तु, प्रोगाहण्डयाए चट्ठाण किए, ठिईए तुल्ले, बागंघर सफासपज्जवेहिं मतित्र्यन्न एसुय अन्नाणअचवखुदंसणपज्जवेहिय छट्टाएव किए। एवं उक्कोसहितीए वि, - जहन्नमकोसहित वि एवं चेत्र, वरं सट्टा तिद्वाणबमिए । जहन्नगुणकालयाणं भंते ! पुढविकाइयाणं पुच्छा ? | गोमा ! ता पज्जवा पात्ता । से केण्ट्ठे णं जंते ! एवं बुच्च - जहन्नगुणकालगाणं पुढविकाश्याएं प्रतापजत्रा पत्ता?। गोयमा ! जहन्नगुणकालए पुढत्रिकाइए जदगुणकागस्स पुढविकाइयस्स दन्त्रट्टयाए तुझे, पदेस याए तुझे, जग्गाइण्डयाए चट्टाण्वकिए, वितीए तिट्ठाणचदिए, कालमापज्जहिं तुझे, अत्रसेसेहिं गंधर सफासप गुणकालगस्स वेदियस्स दव्वइयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, उग्गहयाए चट्टान किए, वितीए विद्वाणबकिए । कालापज्जवेहिं तुले, अक्सेसेहिं वगंधरस फासपज्जवे ज्जवे कावडिए दोहिं अन्नाणेहिं अचक्खुदंसणप-हिं दोहिं नाणेहिं दोहिं प्रमाणेहिं अचखुदंसणपज़्ज हिं कोसचक्खुदंसणी वि, अजहछमणुको सचक्खदंसणी बि एवं चेव, नवरं सट्टा छडालब किए | एवं अचक्खुर्दसणी वि, हिदंसणी वि । जहयोगाहणगाणं भंते! - सुरकुमाराणं केवइया पज्जवा छत्ता १। गोयमा ! प्रांता पज्जवा पसत्ता । से केणडे णं भंते ! एवं बुच्चड़-जहमोगाइगाणं असुरकुमाराणं अता पज्जवा पत्ता ? | गोमा ! जोगाइए असुरकुमारे जहयोगाह रागस्स असुरकुमारस्स दव्डयाए तुल्ने, पदेसट्टयाए तुल्ले, उग्गाहट्टयाए तुल्ले, विईए चउट्ठाणचभिए, वमादीहिं बडा 1 ए, आनिणिबोहियना सुनाए ओडिनाए पज्जवे हिं तिहिं नाणेहिं विद्धि अन्नाणेहिं तिहिं दंसणेहि य बट्टायात्राए । एवं उक्कोसोगाहणए विं, एवं प्रजहासमणुक्को - सोगाहणए वि, नवरं उक्कोसोगाहणए वि असुरकुमारट्टि ती चालडिए, एवं जाव यणियकुमारो । जहन्नोग्राहणगाणं जेते ! पुढविकायाणं केवड्या पज्जवा पसत्ता । गोयमा ! अांता पज्जवा पाता । से केल अंते ! एवं बुच्चइ - जम्पोगा हणगाणं पुढविकाइयाणं ५.५ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जव (११८) अभिधानराजेन्षः। पज्जव बढाणवमिए, एवं उकोसगुणकालए वि, अजहलमणु धनुशतानि ताबदवसेयः, ततः सामान्यनैरयिकसूत्र हवात्रा उपयुपपद्यते अवगाहनतश्चतु:स्थानपतितता, स्थित्या चतु:कोसगुणकालए वि एवं चेव, नवरं सहाणे छटाणवमिए, | स्थानपतितता सुप्रतीता, दशवर्षसहस्रभ्य प्रारभ्योत्कर्षतस्त्रएवं पंच वाला दो गंधा पंच रसा अट्ट फासा जाणियब्वा । यस्त्रिंशत्सागरोपमाणामपि तस्यां लज्यमानत्वात । जघन्यजहमाभिणिबोहियनाणीणं भंते ! वेइंदियाणं केवइया स्थितिसूत्रेऽवगाहनया चतुःस्थानपतितत्वं तस्यावगाहनायां पजवा पाप्रत्ता गोयमा! अणंता पज्जवा पाता । से जघन्यतोऽहुलासख्येयभागादारभ्योत्कर्षतः सप्तपादोनधनुकेणटे जंते! एवं बुच्चइ । गोयमा! जहप्ताजिनिबोहिय षोऽवाप्यमानत्वात्, अत्रापि त्रीण्यकानीनि केषाश्चित्कदाचि स्कलया रुष्टव्यानि, संमूछिमासक्षिपश्चेन्द्रियेज्य उत्पन्नाना. नाणी वेइंदिए जहन्नाभिनिबोहियनाणी वेइंदियस्स दब मपर्याप्तावस्थायां विभङ्गस्थाऽनावात, उत्कृष्ठस्थितिचिन्तायाहयाए तुझे पदेसट्ठयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चनजाणव- प्रवगाहनवा चतुःस्थानपतितस्वम्, उत्कृष्टस्थितिकस्याऽवगाहकिए लिईए विट्ठाणरमिए, वगंधरसफासपज्जवेहिं छ- नाया जबन्यतोऽहुलासचेयभागादारभ्योत्कर्षतः पश्चानांधनु:हाणपिए, भाभिणिवोहियनाणपज्जवेहिं तुल्ले सुयना शतानामवाप्यमानत्वात् । ( अजहन्नुक्कोसटिईए वि एवं चेवे स्यादि) अजघन्योत्कृष्टस्थितावपि वक्तव्यं यथा जघन्यस्थितिणपजडिहाणवडिए, अचक्रवदसणपज्जवेहिं उटाणव सूत्रे उत्कृष्टस्थितिसूत्रे च, नवरमयं विशेषो-जघन्यस्थितिमिए, 'एवं नकोसाभिणिबोहियनाणी वि, अजहप्ताम सूत्रे उत्कृष्टस्थितिसूत्रे च स्थित्या तुल्यत्वमभिहितमत्र तु णुकोसानिनिबोदियनाणी वि एवं चेव, नवरं सहाणे छ- स्वस्थानेऽपि स्थितावपि चतु:स्थानपतित इति वक्तव्यम्, समहाण वकिए, एवं सुयनाणी वि, मुय अन्नाणी कि, पति- याधिकदशवर्षसहनेभ्य प्रारभ्योत्कर्षतः समयोनत्रयस्त्रिंशत्सा. अत्राणीवि,अचखुदंसपी विनवरं जत्य नाणा तत्य अ गरोपमाणामवाप्यमानत्वात । जघन्यगुणकालिकाऽऽदिसूत्राणि सुप्रतीतानि, नवरम् (जस्स नाणा तस्स अन्नाणा नस्थिति) नाण नस्थि, जत्य अन्नाणा तत्थ नाण नत्यि । जत्थ यस्य ज्ञानानि तस्याज्ञानानि न सन्तीति । यतः सम्यग्दृष्टेदंसणं तत्य नाण वि अयाण वि एवं चेत्र, तेइंदियाण झानानि मिथ्यावरज्ञानानि । सम्यग्दृष्टित्वं च मिथ्याष्टित्वोवि एवं, चनरिंदियाण वि एवं चेव, नवरं चकवदंसण- पमर्दैन भवति, मिथ्याष्टित्वमपि सम्यग्दृष्टित्वोपमर्दैन नवमन्जहियं । ति । ततो ज्ञानसद्भावे अज्ञानाभावः, पवमज्ञानसद्भावे "जहोगाहणाणं भंते !" इत्यादि सुगमम । ( नवरं विईए झाजाभावः । तत छक्कम-" जहा नाणा तहा प्रमाणा वि भाणियब्वा, नवरं जक्स असाणा तस्स गाणा न चउठाणवडिए इति) जघन्यावगाहनो हि दशवर्षसहस्राणि भवति ।" इति । शर्ष पासिकम् । पचमसुरकुमाराऽऽदिसतास्थितिकोऽपि जवति, रत्नप्रभायामुत्कृष्टस्थितिकोऽपि, सप्तमन रायपि भावजीयानि, प्रायः समानगमत्वात् । जघन्यावगारकपृथिव्यां तत्रोपपद्यते, स्थित्या चतुःस्थानपतितत्वात् । हनाऽऽदिपृथिव्यादिसने स्थित्या त्रिस्थानपतितत्वं, सण्येयव(तिहिनाणाहिं तिहिं अन्नाणाहिं ति) यदा गर्भव्युरकान्तिकसविपन्छिया नरकेषूत्पद्यन्ते तदा स नारकाऽऽयुःसं. र्षाऽऽशुष्कत्वात् । एतच्च प्रागेव सामान्यपृथिवीकायिकसूत्रे भावितम् । पर्यायचिन्तायामकाने एव मत्यज्ञानश्रुताशानलकणे बेदनप्रक्षमसमय एवं पूर्वगृढीतीदारिकशरीरपरिशाट करोति, वक्तव्ये न तु माने, तेषां सम्यवस्वस्पर्शोऽपि, तेषु मध्ये सम्यतस्मिन्नेव समये सम्यग्दृष्टेस्त्रीणि ज्ञानानि मिथ्यारस्त्रीणि वस्वसहितक्ष्य चोत्पादासनवात, "उन्नयाभावो पुढवाइपसु" अज्ञानानि लमुत्पद्यन्ते, ततोऽविग्रहेण विग्रहेण वा गत्वा वै. क्रियशरीरसततं करोति, यस्तु सम्मूचिमासशिपचेन्धिः इति 'बचनात् । अत पवैतदेवोक्तमत्र-(दोहि अनाणेहि यो नरकेपूत्पचते तस्य तदानी विभङ्गज्ञानं नास्तीति जघ इति) जघन्यावगाहनहीन्द्रियसत्रे-(दोहि नाणेहिं दोहि अन्ना. णेदि शशि) द्वीजियाणां दि केषानित अपर्याप्तावस्थायां सा. न्यावगाहनस्याकानानि भजनया अष्टव्यानि ले त्रीणि बेति । नत्कृष्ठावगाहनसूत्रे रित्या हानौ वृद्धौ च द्विस्थानपतितत्वम् । स्वादनसम्यकावमवाप्यते सम्यग्दृष्टश्व ज्ञाने रूज्यते शेषाणातद्यथा-असक्स्येयनागहीनत्वं वा सख्येयभागहीनत्वं वा , मकाने । तत उक्तम्-" द्वाभ्यां ज्ञानाच्या द्वाज्यामज्ञानाच्या मिति।" उत्कृष्ठावगाहनायां स्वपर्याप्तावस्थाया प्रभावात सातथा असण्येयनागाधिकत्वं वा समययनागाधिकत्वं या, न तु सङ्ख्ययाऽसण्येयगुणवृछिहानी । कस्मादितिचेत् ? उ. सादनासम्यक्त्वं नावाप्यते ततस्तत्र ज्ञाने न वक्तव्ये । तथा चा. ह-(पर्व उकासितोगाहणाए वि,नवरं नाणा नस्थिति) तथा च्यते उत्कृष्टावगाहना हि रयिकाः पश्चधनुःशतप्रमाणाः, तेच सप्तमनरकपृथिव्या, तत्र जघन्या स्थितिद्वाविंशतिसागरोप अजघन्योत्कृपाबगाहना किन प्रथमसमयादूर्द्ध नवति इति श्र पर्याप्तावस्थायामपि तस्यासम्भवात,सासादनसम्यक्त्ववांकामाणि, उत्कृष्ट प्रयस्त्रिंशसागरोपमाणि, ततोऽसल्येयास. ने,अन्येषां चाशाने इति।झाने चाऽशाने च वक्तव्ये। तथा चाहस्येयभागहामिवृहिरेय घटेत, न सङ्ख्येयगुणहानिवृतिस्तेषां (अजहन्नुकोसोगाहणाए जहा जहन्नोगाहणार इति) तथा ज. चोत्कृष्टावगाहनानां त्रीणि ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि वा नियमावे घन्य स्थितिसूत्रे व अशाने पर वक्तव्ये न तुझाने,यतः सर्वजधवितव्यानि, न भजनया,भजनाहेतोः संमूछिमासशिपञ्चेन्धि न्यस्थितिको स्ल उभ्या पर्याप्तको भवति । न च सध्यपर्याप्तकमयोत्पादस्य तेषामसम्मवात, अजघन्योस्कृष्टा बगाइनसूत्रे यदब. गाहनया चतुःस्थानपतितत्वं तदेवम, अजघन्योत्कृष्टावगाहनो ध्ये सासादनलम्य दृष्टिरुपपद्यते । कि कारणमिति चेत?,उच्यते हि सर्वजघन्याङ्गलासङ्खधेयभागात्परतो मनाक बृहत्तराङ्ग सब्धपयांप्तको हि सर्वसंक्लिष्टः सासादनसम्यम्हष्टिश्च मनाक लासायनागादारभ्य याबदाइलालयेय नागम्यनानि प शुभपरिणामस्ततः स तेषु मध्ये नोत्पद्यते, तेनाकाने पव सभ्यते Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१ ) अन्निधानराजेन्द्रः। पज्जव पज्जव नझाने । उत्कृष्ठस्थितिषु पुनर्मध्ये सासादनसम्यक्त्वसहितोऽप्यु- सफासपज्जवेहि तिहिं नाणेहिं तिहिं एणाणेहिं तिर्हि त्पद्यते इति तत्सूत्रे ज्ञानेऽकाने च बक्तव्ये । तथा चाऽऽह-(प. दसणेहिं बहाणवमिए । एवं नकोसगुणकालए वि, श्रचं सकोसटूिईए वि नवरं दो नाणा अम्भहिया इति ) एव जहन्नमाणकोसगुण कालए वि एवं चेव, नवरं सहाणे छट्ठामेवाजघन्योत्कृष्टस्थितिसत्रमपि वक्तव्यम् । प्रावस्त्राणि पाठलि. कानि । एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्छिया अपि वक्तव्याः, नवरं चतुरि. णवडिए। एवं पंच वाणा दो गंधा पंच रसा अफ फाप्रियाणां चतुर्दशनमधिकम्, अन्यथा चतुरिन्द्रियत्वाभ्योगा सा। जहन्नाभिणिबोहियनाणीणं जंते ! पंचिंदियतिरिदिति चकुर्दशनविषयमपि सूत्रं वक्तव्यम् । क्खजोणियाणं केवड्या पज्जवा पएणता ? । गोयमा ! जघन्याषगाहमा तिर्यकपश्चेन्द्रियस्त्रे आता पज्जवा पएणता।से केण्डेणं भते ! एवं बुच्च। जहापोगाहणगाणं ते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं गोयमा ! जहन्नाजिणिबोहियनाणी पंचिंदियतिरिक्खजोकेवड्या पजवा पत्ता ?। गोयमा ! अता पज्जवा हिए जहएणानिधिबोहियनाणिस्स पंचिंदियतिरिपमत्ता । से केणद्वेणं जंते ! एवं बुच्चइ-जहएणो क्वजोणियस्स दबट्टयाए तुझे पदेसट्टयाए तुने मोगागाहणगाणं पंनिंदियतिरिक्ख जोणियाणं अणंता पज्जवा हणट्ठयाए चउट्ठाणवमिए । वितीए चउठाणवमिए, वनपएणता। गोयमा! जहएपोगाहणए पंचिंदियतिरि गंधरसफासपज्जवेहिं बहाणवदिए । पाजिणिवोहियनाक्खजोणिए जहएणोगाहणगस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणि णपज्जवेहिं तुल्ले, सुयनाणपज्जवेहिं छट्ठाणवमिए । चयस्स दवट्ठयाए तुल्ले पदेसट्टयाए तुबे ओगाहणट्ठ खुदसणपज्जवेहिं अचक्खुदंसणपज्जवेहि य छटाणवहिए। याप तुझे लिईए तिढाणवभिए, पन्नगंधरसपासपज बेहिं एवं नकोसानिणिबोहियनाणी वि, णवरं वितीए तिहादोहिं नाणेहिं दोहिं अनाणेहिं दोहिं दंसापहि उट्ठा णवमिए । तिएिण नाणा तिएिण प्राणाणा तिणवमिए । नकोसोगाहणए वि एवं चेव, नवरं सिहिं हिण दंसणा सट्ठाणे तुल्ले, सेसेमु छटाणवमिए, अजहनाणेहिं तिहिं अनाणेहिं तिहिं दंसपेहिं बहाणवमिए । न्नुकोसाजिणिबोहियनाणी जहा उक्कोसानिणिबोडियनाजहा नकोसोगाहणए तहा अजहन्नमणुक्कोसोगाहणए वि, णी वि, नवरं वितीए चउहाणवमिए, एवं मुयनाणी नवरं ओगाहणट्टिईए चउढाणवमिए लिईए चउहाणवकिए। वि । जहएणोहिनाणीणं अंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिजहएणद्वितीयाj पंचिंदियतिरिक्खनोणियाणं देवश्या याण पुच्छा। गोयमा! अणंता पज्जवा पएणत्ता । से केपज्जवा पएणता ?। गोयमा! माता पज्जवा पाहणता। गहेणं ते ! एवं बुच्चा। गोयमा ! जहएणहिनाणी पंसे केण्डेणं ते ! एवं वृदइ-जहएणद्वितीयाणं पंकिंदि चिंदियतिरिक्खजोणिए महन्नो हिनाणिणस्स पाँचदियतिरिक्खनोणियाणं अणंता पज्जा पराणत्ता । गोयमा ! यतिरिक्खजोणि यस्स दबट्टयाए तुझे पदसट्टयाए तुल्ले, जहएणहितीए पंचिंदियतिरिक्खजोणिए जहएणहितीय ओगाहणहयाए चनहाणवडिए, वितीए तिघाणवमिए, स्स पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स दबट्टयाए तुझे पदेसह बन्नगंधरसफासपज्जवहिं आभिणिबोहियनाणसुधनाणयाए तुवे जग्गाहणट्टयाए चनहाण वडिए ठितीए दुबे, पज्जवहिं छटाणवडिए, ओहिनाणपज्जवेहिं तुल्ले अवएणगंधरसपज्जवेहिं दोहिं अएणाणेहिं दोहिं दंमोहि भाणा नत्थि । चक्खदंसापज्जवहिं अचक्रवदंसणछट्ठाण वडिए । उक्कोसद्वितीए वि एवं चेव, नवरं दो अ पज्जरेहिं बहाणवमिए । एव उकोसोहिनाण। वि, एणाणा दो दंसणा। अजहएणमणुक्कोसहितीए वि एवं| अजहन्नुक्कोसोहिनाणी वि एवं चेव, नवरं सहाणे चेव, नवरं वितीए चनड्डाणवमिए । तिरिण नाणा ति- छट्ठाणवमिए । जहा प्राजिणिवोहियनाणी तहा मइ छठाणवामए । जहा : हिण अण्णाणा तिएिण दंसणा। जहएणगुणकामगाणं अन्नाणी.सुयअन्नाणी य। जहा ओहिनाणी तहा विभंगभंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्चा ? । गोयमा ! नाणी य, चक्खुदंसाणी, अचक्रवर्दसणी य । जहा आजिअर्णता पज्जवा पएणत्ता। सेकेण्डेणं ते ! एवं वुच्चड णि बोहियनाणी ओहिदसणी तहा श्रोहिणाणी । जत्थ जहएणगुणकामगाणं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं - नाणा तत्थ अन्नाणा नस्थि, जत्थ अन्नाणा तत्थ नाणा पंता पजवा पएणता ? । गोयमा ! जहएणगण नस्थि । जत्य दमणा तत्थ नाणा वि अन्नाणावि अस्थि कालए पंचिंदियतिरिक्खजोणिए जहएणगुणकाझगस्स त्ति जाणियव्वं । इह तिर्यग्पश्चेन्द्रियसवयेयवर्धाऽऽयुष्क एव जघन्यावगाहनो भ. पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स दबयाए तुझे पदेसट्टयाए पति,नो सङ्ख्येयवर्षाऽऽयुष्कः। किं कारणमिति चत् उच्यतेतुझे ओगाहणयाए चउडाएवमिए ठितीए चउट्टाण- प्रसङ्येयवर्षाऽऽयुष्का हि महाशरीराः, ककुतिपरिणामस्थावकिए. कानवएणपज्जवहिं तुझे, असेसेहिं वएणगंधर- त.पुष्टाहाराः, प्रबलधातूपचया,ततस्तेषां नूयान् शुक्रनिको Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (220) अभिधान राजेन्द्रः । पज्जव भवति । शुक्रनिषेकानुसारेण च तिर्यकानुष्याणामुत्पत्तिसमये. ऽवगाहनेति न तेषां युगल्लिकानां जघन्यावगाहना लभ्यते, किन्तु सङ्क्षयेयवर्षाऽऽयुषाम् सयवर्षाऽऽयुषश्च स्थित्या त्रिस्थानपतितता, एतच्च भावितं प्राक् । तत उक्तस्थित्या त्रिस्थानपतितता इति । ( दोटिं नाणेहि दोहिं अनाहि इति ) जघन्यावगाहनो हि तिर्यक्पञ्चेन्द्रिय सङ्ख्ये यवर्षाऽऽयुषोऽपर्याप्तो भवति, सोऽपि काल्पकायेषु मध्ये समुत्पद्यमानस्ततस्तस्यावधिविभङ्गज्ञानासम्भवात् द्वे ज्ञाने द्वे अशाने उक्के । यस्तु विभङ्गज्ञानसदितो नरकादृस्य सख्येयवर्षाऽऽयुष्केषु तिर्यक्पञ्चेन्द्रियेषु मध्ये समुत्पद्यमानो वक्ष्यते स महाकायेषूत्पद्यमानो द्रव्यो नापकायेषु तथास्वाभाव्यात्, अन्यथाऽधिकृतसुत्रविरोधः, उत्कृ ष्टावगाहनतिर्यपञ्चेन्द्रिय सृत्रे - (तिर्हि नाहिं तिहिं अन्नाणेहिं इति ) त्रिभिज्ञानैस्त्रिभिरज्ञानैः षट्स्थानपतिताः त्रीण्यज्ञानानि । कथमिति चेत् ?, उच्यते-इह यस्य योजनसहस्रशरीरावगाहना स उत्कृष्टावगाढ्नः, स च सङ्गधेय वर्षाऽऽयुष्क एव भवति, प र्याप्तश्व । तेन तस्य त्रीणि ज्ञानानि श्रीण्यज्ञानानि च सम्भ न्ति । स्थित्याऽपि चासावुत्कृष्टावगाहनः त्रिस्थानपतितः, सहये वर्षायुकत्वात् । श्रजघन्योत्कृष्टावगाढसुत्रे स्थित्या चतु:स्थानपतितो, यतो जघन्योत्कृष्टावगाढ़ नोऽसङ्ख्ये यवयुको ऽपि लभ्यते, तत्रोपपद्यते प्रागुक्तयुक्त्या चतुःस्थानपतितत्वम् । जघन्यस्थितिकतिर्यकपञ्चेन्द्रियसूत्रे देऽज्ञाने एव वक्तव्ये न तु ज्ञाने, यतोऽसौ जघन्यस्थितिको लब्ध्यपर्याप्तक एव भवति, न सन्मध्ये सासादनसम्यग्दष्टेरुत्पाद इति । उत्कृष्टस्थितिकतिर्यपञ्चेन्द्रियसूत्रे - ( दो नारा दो अन्नाणा इति ) उत्कृष्टस्थितिको हि तिर्यक्पञ्चेन्द्रियत्रिपल्योपमस्थितिको भवति । तस्य च ज्ञाने तावन्नियमेन यदा पुनः बहमासविशेषाऽऽयुर्वैमानिकेषु rssयुषको भवति, तदा तस्य द्वे ज्ञाने लभ्येते । श्रत उक्तम्द्वं ज्ञाने द्वे अशाने इति । श्रजघन्योत्कृष्टस्थितिकतिर्यक्पञ्चे यसूत्रे (वि चन्हाणवडिए इति ) अजघन्योस्वष्टस्थितिको हि तिर्यक्पञ्चेन्द्रिय सख्येय वर्षाऽऽयुषको इपि सभ्यते, असङ्ख्येयवर्षाऽऽयुषकोऽपि समयो, न त्रिपल्योपमस्थितिकः, ततश्चतुःस्थानपतितता । जघन्यानिनिबोधिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रिय सूत्रे -- ( ठिईए उड्डाणवडिए इति ) असंख्ये वर्षायुवोऽपि हि तिर्यञ्चेन्द्रियस्य स्वभूमिकाऽनुसारेण ज धन्येनाऽऽभिनिबोधिक श्रुतज्ञाने लभ्येते । ततः संख्ये वर्षायुषो ऽसंख्येय वर्षाऽऽयुषश्च जघन्याऽऽनिनिबोधिकश्रुतज्ञान संभवाद्भवति स्थित्या चतुःस्थानपतितः, उत्कृष्टाऽऽभिनिबोधिक ज्ञानसूत्रे स्थित्या • त्रिस्थानपतितता वक्तव्या । यत इह यस्योत्कृष्ट अभिनियोविश्रुतज्ञाने स नियमात्संख्येयवर्षाऽऽयुश्च स्थित्या त्रिस्थानप तित एव यथोक्तं प्राकू श्रवधिसूत्रे । विभवगसूत्रेऽपि स्थित्या त्रिस्थानपतितता । किं कारणमिति चेत् ? उच्यते-असंख्येय वर्षाssयुषोऽवधिविजङ्गासम्नवात् । श्राह च मूत्रटीकाकार:- "ओहि बिभगेसु नियमा तिट्ठाणचडिप, किं कारणं ?, भन्न- ओद्दिवि नंगा असंखेज्जवासाचयस्त नत्यि यति ॥ "1 संप्रति अजीव पर्यायान् पृच्छति नहएयोगाइ गगाणं भंते ! मस्साणं केवझ्या पज्जवा पण । गोयम ! यंता पज्जना पएलता । से केण द्वे अंते ! एवं बुवइ जहाजोगाई गाणं मनुस्साणं प्रांता For Private पज्जव पज्जा पत्ता? । गोयमा ! जहएणोगाहणए मणुसे जहएलोगाइगस्स मस्सस्स दव्वध्याए तुने पदेसट्टयाए तु गाडया वितीए तिहारराव किए, वएण गंधरसफासपज्जहिं तिहिं नाणेहिं दोहिं अन्नाणेहिं तिहिं दंसहिं छट्टा किए | उकोसोगाहणए वि एवं चेव, नवरं विती सिय ही, सिय तुल्ले, सिय श्रम्भहिए । जइ ही संखेज्जइभागहीणे, अह अन्नहिए असंखेज्जभागमन्नहिए। दो नाला दो अन्नाला दो दंसणा | अजइणमणुक्कोसोगाहणए वि एवं चेत्र, नवरं ओगाहणट्टयाए चडाएवडिए, ठितीर चडाए किए। आइलेहिं च उहिं नाणेहिं छडाव किए, केवलनाणपज्जचेहि तुझे, तिहिं णाणेहिं दंसणेहिं बट्टाएव किए। केवल दंसणपजहिं तु । जहए द्वितीयाणं जंते ! मनुस्साएं केवइया पज्जवा पण्णत्ता । गोयमा ! ता पज्जत्रा पण्णत्ता । से के जेते ! एवं बुच्चइ ?। गोधमा ! जहएपडितीए मस्से जहए द्वितीयस्म मनुस्सस्स दव्त्रद्वयाए तुले पदेसट्टयाए तुल्ले श्रोगाहणडयाए चउट्ठाएब किए, वितीए तुले | वष्पगंधरसफासपज्जवेडिं दोहिं अण्णाणेहिं दोहिं दंसणेहिं छट्टाएव किए | एवं उक्कोसद्वितीए त्रि, नवरं दो नागा दो अाणा दो सा | अजहणमकोस द्वितीए वि एवं चेत्र, नवरं ठिईए चउट्ठाण किए, योगाद्दण्डयाए चट्ठा किए, आइल्लेहि चलहिं नाणेहि बडालवाए, केवलनापज्जहिं तुल्ले, तिर्हि असाणेहिं तिहि दंसणेहिं छडाकिए, केवल दस बापज्जवेहिं तुने । जहन्नगुणकालयाणं ते! मस्साणं केवइया पज्जना पएलना है। गोयमा ! अता पज्जवा पत्ता । से केण्डेणं नंते ! एवं बुच्च ? | गोमा ! जहए गुणकान्नए मणुसे जहए गुणकासमस्त दव्वट्टयाए तुल्ले पदेसइयाए तुझे श्रोगाह चाडिए । कालवम्पज्जवेहिं तुह्ने, अवसेसेहिं बन्नगंधर सफामपज्जवेहिं छाणवडिए, चाहं नाणेहिं छाणवदिए, केवलनागपज्जवेहिं तुले, तिहिं - नाणेहिं विद्धिं दंसणेहिं बट्ठाणवडिए, केवलदंसणपज - वेहिं तुल्ले, एवं ठको सगुणकालए वि, जहन्नमणुको सगुणकालए वि एवं चैत्र नवरं सट्टा छडा एव किए। एवं पंच व दो गंधा पंच रसा अड फासा जालियव्वा । जहएणानिोिहियनागीणं जंते! मनुस्साणं केवइया पज्जवा ता?। गोयमा ! अता पज्जवा पएलता । से केणडे भंते 1 एवं बुच्च ? । गोयमा ! जहन्नाभिणिबोहियनाणी मस्स जलाभिणिबोहियनाणिस्स मणूस्सस्स दव्बट्टयाएतुझे पदेस यार तुल्ले प्रोगाहणडयाए चलट्ठाण किए, Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२१ ) अभिधानराजेन्द्रः । पज्जव वितीए चनडाणबकिए, बनगंधर सफासपज्जवेहिं छाणवडिए, प्रभिणिषोहियनाणपज्जवेहिं तुले, सुयनाजहिं दोहिं दंसणेहिं उडाणवडिए । एवं नकोसाजिणिबोडियनाणी वि, नवरं प्रतिणिबोहियना एफज्जवेहिं तुझे, वितीय तिट्ठाण बकिए, तिहिं नाणेहिं तिहिं दंसबाडिए । जहन्नम को साजिबोद्दियनाणी जहा नकोसाभिणिबोडियनाथी, नवरं वितीय चरगणव किए, सवाणे वि वाणवकिए, एवं सुयनाणी बि । जहन्नोहिनाणीणं जंते ! मणुसालं केवइया पज्जना पएलता है। गोयमा ! प्रांता बजवा पण्णत्ता । से पट्टे जंते ! एवं बुच्च-गोयमा ! जहन्नोहिनाणी मणुसे जहन्नोहिनाणिस्स मरणमस्स दव्वट्क्याए तुल्ले पदेसट्टयाए तुझे श्रोगाहणम्याए तिट्ठाण बढिए, वितीए तिट्ठाण किए, बन्नगंधरसफासपज्जचेहिं दोहि नाणेहिं बाणडिए, ओहिनापज्जवेहिं तुल्ले, मणपज्जवनापज्जवेहिं, उट्ठा वडिए तिहिं दंसणेहिं द्वा डिएसना बाण व किए। एवं उक्को सोहिनाली वि, हमको सोहिनाणी त्रि एवं चैव, नवरं श्रोगाहणयाए चलट्ठाणवाडए, सट्टा बद्वाणवमिए । जहा हिनाणी तहा मणपज्जबनाए । वि जाणियन्त्रो, नवरं ओगाहण्डया तिडाव किए, जहा श्रभिनिबो हियनाणी वहा सुगभन्नार्थीय जाणिव्वो । जहा ओहिनाली तहा वि गनाणी विजाणियन्वो । चक्खुदंसणी, चक्खुर्दमणी | जहा आभिणिबोहियनाणी ओहिदंसणी तहा ओहिनाणी । जत्थ नाणा तत्थ अन्नाणा नत्थि, जत्थ अन्नाणा तत्थ नाणा नत्थि । जत्थ दंसणा तत्थ नापा त्रि, प्रभाणावि । केवलनाणीणं भंते! मनुस्साएं केवड्या पज्जना पछयत्ता १। गोमा ! अंतापज्जा पण्णत्ता । से केएट्ठेणं जने ! एवं वुच्चइ - केवल नाणीणं मनुस्साएं अनंता पज्जवा पयता । गोयमा ! केवझनाणी मस्से केवलनाणिस्स मस्स दव्वट्याए तुझे पदे सट्याए तुले ओगाह - याए चाण किए, ठिईए विट्ठाण किए, बन्नगं - सफा सज्जहिं छन। णत्र किए, केवलनाणपज्जवेडिं केवलना पंसणपज्जवेहिं तुल्ले । एवं केवलदंसणी वि मस्से भाणियन्त्रे । वाणमंतरा जहा अमुरकुमारा । एवं जोड़सिया मालिया, नवरं सवाणे टिईए विवाणकिए जाणियब्वे । सेत्तं जीवपज्जवा । जघन्यावगाहनमनुष्यसूत्रे (विता तिट्ठाणयपि प्रति) निर्थकप द्रवन्मनुष्योऽपि जघन्यावगाहनो नियमात् सख्येवर्षाssयुकः सयवर्षाऽऽयुष्कश्च शित्या त्रिस्थानपतित एवेति । (विहि नाणे इति) पक्ष या कश्चितीर्थकरोऽनुत्तरोपपातिक देवो वा अप्रतिपतितेनावधिज्ञानेन जघन्यायामवगाह्नायामुत्प For Private पज्जव द्यते, तदाऽवधिज्ञानमपि लभ्यते इति त्रिभिनिरित्युक्तम् । वि ज्ञानसहितस्तु नारका वृत्तो जघन्याबामवगाहनायां तो त्पद्यते, तथास्वाभाव्यादतो विभङ्गज्ञानं न सभ्यते इति द्वाभ्यामज्ञानाभ्यामित्युक्तम् । उत्कृष्टावगाहनामनुष्यसूत्रे -"ि ए सिय होणे लिय तुले सिय श्रम्भहिए जह होणे असंबेज्जभागढी जर श्रम्भहिए श्रसंखेज्जभाग मध्जहिए ।" उत्कृष्टावगाढना हि मनुष्यास्त्रिगन्यूवोच्छ्रयागिन्यूतानां स्थि तिर्जघन्यतः पत्योपमासंख्येय भागढीगानि त्रीणि पहथोपमानि, उत्कर्षतस्तान्येव परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि । जर्क जीवाभिगमे " उत्तरकुरुदेवकुराए मणुस्साणं ते! केवश्यं कालं ठिई पक्षसा ?। गोयमा ! जहणं तिनि पतिभोषमा पलिश्रोत्रमस्स असंखेज्जनागहीणाई नक्को सेणं तिनि पतिमोबमाईति ।" पदषोपमासंख्येयभागका प्रयाणां पल्योपमानामसंख्येयतमा जाग इति पल्योपमासंख्येयभागहीनः पल्बोपमत्रयस्थितिकः परिपूर्ण पल्योपमत्रयस्थितिकापेक्तयाऽसंख्येनागदीनः, श्रस्तु तदपेक्षया संख्येयभागाधिकः, शेषा वृद्धि हानयो न गरायन्ते । (दो नाथा दो अन्नाणा इति) उत्कृष्टापगाडना हि श्रसंख्येवर्षाऽऽयुषोऽसंख्येय वर्षाऽऽयुषां चावधिविभङ्गासम्भवः, तथास्वानाव्याइतो हे पत्र ज्ञाने द्वे चाज्ञाने इति । त था श्रजघन्यो कृष्टावगाहनः संख्ये वर्षाऽऽयुष्कोऽपि भवत्वनंसोय वर्षाऽऽयुष कोऽपि गन्यूनद्विगव्यू तोच्छ्रयः, ततोऽवगाहनयाSपि चतुःस्थानपतितत्वं स्थित्याऽपि तथाऽऽद्यैश्चतुभिर्मतिश्रुतावधिमनः पर्यवरूपैर्ज्ञानैः षट्स्थानपतिताः तेषां चतुर्णामपि ज्ञाना नां तत्तव्याऽऽदिसापेक्कक्कयोपशमबैचियतारतम्यभावात्केवलज्ञान पर्यवस्तुल्यता, निःशेषस्वावरणकयतः, प्रनृतस्य केवलज्ञानस्व भेदाभावात् शेषं सुगमम् जघन्य स्थितिक मनुष्यसुत्रे - (दो अनादि इति ) द्वाभ्यामज्ञानाभ्यां मत्यज्ञाननाशा नरूपाभ्यां पद्यानपतितता वक्तया, न तु ज्ञानाभ्याम् । कस्मादिति चेत् ? । उच्यते· जघन्य स्थितिका मनुष्याः सम्मूर्कितमाः, सम्मूर्कित. ममनुष्याश्च नियमतो मिथ्यादृष्टयस्ततः तेषामज्ञाने एव न ज्ञाने । उत्कृष्टस्थिति मनुष्यसूत्रे ( दो नाणा दो धारणा इति ) उत्कृष्टस्थितिका दि मनुष्यास्त्रिपल्योपमाऽऽयुषस्तेषां च तावद् ज्ञाने नियमेन यदा पुनः बरामासावशेषाऽऽयुषा वैमानिकेषु बकाss] सम्यक्त्व लाभात् द्वे झाने लज्येते, अबधिविभङ्गा - घासंख्येय वर्षाऽऽयुषां न स्त इति त्रीणि ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानीति नोक्तम् | अजघन्योत्कृष्टस्थितिमनुष्य सूत्रम जघन्योत्कृष्टावगाहनमनुष्यसूत्रमिव भावनीयम् । जघन्याऽऽभिनिबोधिकमनुयसूत्रे द्वेशाने वक्तव्ये, हे दर्शने । किं कारणमिति चेत्, खब्बतेजघन्याभिनिबोधि को हि जीवो नियमादवधिमनः पर्यवज्ञानविकचः, प्रबलज्ञानावरण कर्मोदय सङ्गावादन्यथा जघन्वाऽभिनि बोधिक ज्ञानत्वायोगात्, ततः शेषज्ञानदर्शनासंभवादाभिनियोधिकज्ञानपर्यवैस्तुल्यश्रुनपर्यवैर्द्वाभ्यां दर्शनाभ्यां च षट्स्थानपतिता उक्ता । उत्कृष्टाऽनिनिबोधिक सूत्रे - (विशेष तिट्ठा. वमिए शर्त) उत्कृष्टाऽऽभिनिबोधको हि नियमात्संश्येपवर्षा ऽऽयुरसंख्येयवर्षाऽऽयुषः, तथा जवस्वाभाव्यात, सर्वोत्कृष्टाऽऽभि निबोधिकज्ञानसंभवाद्, संख्येय वर्षाऽऽयुषश्च प्रागुक्तयुक्तेः स्थिमा त्रिस्थानपतिता इति जघन्याऽवधिसूत्रे उत्कृष्टावधिसूत्रे - वगाहनया त्रिस्थानपतितो वक्तव्यः । यतः सर्वजघन्योऽवधि येथोक्तस्वरूपी मनुष्याणां पारभविको न भवति, किं तु तद्भ Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२) पजव अभिधानराजेन्डः। पज्जव सभाबी,सोऽपिच पर्याप्तावस्थायाम,अपर्याप्तावस्थायां तयोग्य. स्य प्रदेशास्तस्यैव निर्विभागा भागाः । एवं त्रिकमधर्मास्तिविशुद्धयभावात्। उत्कृष्टोऽध्यवधिभावतश्चारित्रिणस्ततो जघन्या- काये भाकाशास्तिकाये च भावनीयम । एतावता चान्योन्याबधिरुत्कृष्ठावधि|ऽवगाहनया त्रिस्थानपतितः, अजघन्योत्क नुगमाऽऽस्मकावयचाबयविस्वरूपं धर्मास्तिकायाऽऽदिकं बस्त्विति टस्वबधिः पारजविकोऽपि सम्जवति, ततोऽपर्याप्तावस्था प्रतिपादितमा दशमोऽकासमयः। नन्वत्र पर्याया बक्तमपकान्ता. बामपि नस्य सम्भात, अजघन्यत्कृषाऽवधिरवगाहनया चतु: स्तत्कथं ब्यमात्रोपन्यासः कृतः? । उच्यते-पर्यायपायिणोः स्थानपतितः,स्थित्या तु जघन्यावधिभत्कृष्टावधिरजघन्योत्कृष्टा कश्चिदभेदण्यापनार्थः । एवमुत्तरोऽपि प्रन्थः । माहच मूलबधि; त्रिस्थानपतितः, असंख्येयवर्षाऽऽयुषामधेरसंन्नवात, टीकाकार:-अत्र सर्वत्र पर्यायपर्यायिणोः कश्चिदभेदस्थापसंख्येपवर्षाऽऽयुपांच त्रिस्थानपतितत्वात् जघन्यमनःपर्यचकामी, नामत्थं सूत्रोपन्यास ति। परमार्थतस्त्वेतद् द्रष्टव्यम्-धर्माउत्कृष्टमनःपर्यवज्ञानी, अजघन्योत्कृष्टमनःपर्यवज्ञान) स्थित्या स्तिकायत्वं धर्मास्तिकायदेशत्वं धर्मास्तिकायप्रदेशत्वमित्याविस्थानपतितः, चारित्रिणामेव मन पर्यवहानसद्भावात, चा. दि । (ते ण भंते ! कि संखेजा श्त्यादि) स्कन्धाऽऽदयः प्रत्येक रित्रिणां च संख्येयवर्षाऽऽयुष्कत्वात्। केवमशानसत्रे तु-(भो. कि संख्येया असत्येया अनन्ताः। नगवानाह-अनन्ताः। एतगाहणयाए चउठाणमिए इति) केवझिसमुद्धातं प्रतीत्य। देव भावयति-"से केणटुणं भंते !" इत्यादि पारसिकम् । संप्र. तथाहि-केवलिसमुद्भातगतः केवली शेषकेवलिभ्योऽसंख्येय- ति दमकक्रमेण परमाणुपुद्रमादीनां पर्यायाश्चिन्तनीयाः।द. गुणावगाहना, तदपेक्षपा शेषाः केवलिनोऽसंख्येयगणहीना- पडकक्रमश्वायम-प्रथमतःसामाम्येन परमापवादयश्चिन्तनीया, बगाहनाः, स्वस्थाने तु शेषाः केवमिनस्त्रिस्थानपतिता इति तदनन्तरमेव एकप्रदेशाऽऽद्यवगाढा,तत एकसमयाऽऽदिस्थिति। स्थित्या त्रिस्थानपतितत्वम, संख्येयवोऽयुपकत्वात्, व्यन्तरा काः, तदनन्तरमेकगुणकासकाऽऽदयः, ततो जघन्याऽऽधवगाह. यथा असुरकुमाराः ज्योतिष्का वैमानिका अपि तथैव, नवरं नाप्रकारेण, तदनन्तरंजघन्यस्थित्यादिभेदेन, ततो जघन्यगुणते स्थित्या त्रिस्थानपतिता वक्तव्याः। एतच प्रागेव भावितम् । कामादिक्रमेण,तदनन्तरं जघन्यप्रदेशादिना देनेति। नक्तंचउपसंहारमाद-(सेतं जीवपज्जवा इति) ते जीवपर्यायाः। "अणुमाश्त्रोहियाणं, खेसाऽऽदिपएससंगयाणं च । संपत्यजीवान् पृच्छति जहन्नायगाहणाई-ण चेव जहन्नाइदेसाणं ॥१॥" अजीवपज्जवाणं ते ! काविहा पएाता। गोयमा! प्रख्या अक्षरगमानका-प्रथमतोऽरवादीनां चिन्ता कर्तव्या,त. दनन्तरं केत्राऽऽदिप्रदेशसतानाम् । अत्राऽऽदिशब्दात्कालभावसुविहा पएणता । तं जहा-रूविधजीवपज्जवा, अरूवि परिग्रहः । ततोऽयमर्थ:-प्रथमतः केत्रप्रदेशैरेकाऽऽदिनिःसङ्गअजीव पज्जनाय । अरूवि अजीवपजवाणं भंते ! कतिविहा तानां चिन्ता कर्तव्या, तदनन्तरं कामप्रदेशेरेकाऽऽदिसमयैः, पत्ता । गोयमा ! दसविड़ा पएणत्ता । तं जहा-धम्मत्थि. ततो भावप्रदेशैरेकगुणकालकादिनिरिति । तदनन्तरं जघकाए,धम्मत्थिकायस्स देसे, धम्मस्थिकायस्स पदेसा,अध न्यावगाहनाऽऽदीनामिति । अत्र-अपिशब्देन मध्यमोत्कृष्टावगा. हना जघन्यमध्यमोत्कृष्टस्थितिजघन्यमध्यमोत्कृष्टगुणकालिकाम्पस्थिकाए,अधम्मत्थिकायस्स देसे, अधम्मस्थिकायस्स प. उऽदिवर्णाः परिग्रहः । ततो जघन्याऽदिप्रदेशानां जघन्यप्रदेदेसा,आगासत्यिकाए,आगासस्थिकायस्स देसे,आगामस्थि शानां मध्यमप्रदेशानामजघन्योत्कृष्टप्रदेशानामिति । कायस्स पदेसा, अच्छासमए । रूविअजीवपजवाणं नंते! क- भत्र प्रथमतः क्रमेण परमारवादीनां चिन्तां कुर्वन्नाहतिविहा पक्षाला ?। गोयमा! चनबिहा पाना । तं जहा- परमाणपोग्गलाणं जंते ! केवड्या पज्जवा पएणता? खंधा, खंघदेसा,खंधपदेसा,परमाणुपोग्गना । तेणं नंते ! किं गोयमा ! परमाणपोग्गलाणं प्राप्ता पउजवा पएणता। संखेज्जा, असंखंज्जा अणंता ?। गोयमा ! नो संखिज्जा, से केण्डेणं भंते ! एवं बुच्चइ-परमाणपोग्गलाणं अनंता नो अमंखिज्जा, अणंता । से कंटेणं जंते ! एवं बुच्च- | पज्जवा पत्ता । गोयमा ! परमाणपोग्गले, परमाणुपोग्गनो संखिज्जा,ना असंखिज्जा, अणं ता? | गोयमा! अणंता लस्स दबट्टयाए तुझे, पदेसट्टयाए तुल्ले, ओगाहण्यापरमाणपोग्गला, अणंता सुपएसिया खंधा.जाव अणंता एतले, विईए मिय हीणे सिय तुझे मिय अब्जहिए। दसपहेमिया खंधा, अणता मंखिज्जपदेसिया खंधा, अनंता | जड होणे संखेज्जहभागहीणे वा असंखेज्जभागहीणे वा अमेखि जपदेसिया खंधा,आता अणंतपदेमिया खंधा । से संखेज्जगुणहीणे वा असंखेज्जगुण होणे वा, अह अतेणटेणं गोयमा ! एवं बुबह-तेणं नो संखेजा नो अ- नहिए संखेनइनाममन्नहिए वा असंखेज्जइनागमनसंखेज्जा अाता। हिए वा संखेज्जगुणमभहिए वा असंखेज्जगुगमन(अजीवपजवाण इत्यादि) (रूविअजीवपजवा य अरूवि हिए वा । कालवनपज्जवेहिं सिय होणे सिय तुझे अजीवपज्जवा य इति ) रूपमिति, उपसकणमेतत्-वर्णगन्धर- सिग अन्नहिए । जइ होणे अनंतनागहीले वा असंसम्पर्शाश्व विद्यन्ते येषां ते रूपिणः, तेच ते जीवाश्च रूप्य- खिज्जनागहीणे वा संखिजभागहीणे वा संखिज्जगुणजीयाः, तेषां पर्याया रूप्यजीवपर्याया इत्यर्थः । तद्विपरीता अमप्यजीवपर्यायाः,अमूर्त्यजीवपर्याया इति भावः। (धम्मरिया हीणे वा असंखिज्जगुणहीणे वा अणंतगुणहीणे वा, काय इत्यादि) धर्मास्तिकाय इति परिपूर्णमवयवि व्यं धमा अह अन्नहिए असंखेज्जइनागमभहिए वा मखेज्जास्तिकायस्य देशः,तस्यैवाऽऽदिरूपो विभागः, धर्मास्तिकाय नागमभहिए वा संखिज्जगुणमनहिए वा असंखिज्ज Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जव अन्निधानराजेन्द्रः। पज्जव गुणमभहिए वा अणंतगुणमभहिए वा। एवं प्रवसेसन. अणंतपदेसियरस खंधस्स दबयाए तुले पदेसट्नन्नगंधरसफासपज्जवेहिं छहाणवमिए । फासाणं साय उ याए ब्वाणवमिए, ओखहणट्ठयाए चउवाणवमिए , सिणनियुक्खहिं बढाणवमिए । से तेणद्वेणं गोयमा ! ठितीए चनगाणवकिए, वनगंधरसफासपज्जवेहिं छदवाएवं वुच्चइ-परमाणुपोग्गलाणं अणंता पज्जवा पसत्ता । णवमिए । एगपदेसोगाढाणं पोग्गलाणं पुच्चा गोयमा! (परमाणुपोगलाणं ते! इत्यादि) स्थित्या चतुःस्थानप. अाता पज्जवा पसत्ता । से केपट्टेणं भंते ! एवं बुचः। तिनत्वं, परमाणोः समयादारभ्योत्कर्षतोऽसङ्ख्येयकालमत्रस्थानभावात् । कालाऽऽदिवर्णपर्यायैः षट्स्थानपतितता, एक गोयमा ! एमपदेसोगावे पोग्गले, एगपदेसोगाढस्म पोग्गस्यापि परमाणोः पर्यायाऽऽनन्त्याविरोधात्ाननु परमाणुरप्रदेशो सस्स दबयाए तुझे,पदेसट्याए छाणवमिए, ओगीयते ततः कथं पर्यायानन्याविरोधः, पर्यायाऽऽनन्त्ये नि गाहणवयाए तुझे, ठितीए चन्दवाण डिए, बन्नादिउबयमतःसप्रदेशवप्रसक्तेः तदयुक्तम्-वस्तुतवापरिक्षामात् । प. रिल्लचनफासेहिय बाणवदिए । एवं सुपएसोगाढे वि. रमाणुहि अप्रदेशो गीयते-व्यरूपतया सांऽशो मानवतीति,न तु काल नावाज्यामिति । "मपएसो दबट्टयाए उ" इति वचना. जाव दसपदेसोगाढे। संखज्जपदेसोगाढाणं पुन्गागोयमा ! त् । ततः कामभावाभ्यां सप्रदेशत्वेऽपि न कश्चिद्दोषः। तथा पर अणंता पप्पत्ता। से केपट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइगोयमा ! मारवादीनामसंख्यातप्रदेशकस्कन्धपर्यन्तानां केषाश्चिदनन्तप्र संखेजपदेसोगाढे पोग्गले संखिज्जपदेसोगाढस्स पोग्गास्म देशकानामपि स्कन्धानां तथा एकप्रदेशाबगाढानां यावत्संख्या- दवदव्याए तो.पदेसट्टयाए छहाणवमिए? ओगाहणट्टया. तप्रदेशाबगाढानां शीतोष्णस्निग्धरूकरूपाश्चत्वार एव पी इति तैरेव परमाएवादीनां षट्स्थानपतितता वक्तव्या,न शेषः। एउटाणवमिए, लिईए चउट्ठा एवमिए , चन्नादिउपरिक्षद्विप्रदेशकस्कन्धसूत्रे चटफासेहि य छाणवभिए । असंखेज्जपदेसोगाढाणं पुदुपदेसियाणं पुच्चा । गोयमा ! अणंता पज्जवा पमत्ता। छगी गोयमा ! अणंता पन्जवा पमत्ता। से केणणं भंते! से केणणं ते ! एवं बुच्चइ-गोयमा ! दुपदेसिप, दुपदे- एवं बुचइ गोयमा! असंखेज्जपदेसोगाढे पोग्ग ,असंखेसियस दन्न पाए तुल्ने,पएसट्टयाए तुझे, प्रोग्गाहणट्ठया- ज्जपदेसोगाहस्स पोग्गझस्स दबट्टयाए तुल्ले, पदेसध्याए ए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय प्रभाहिए। जहीणे प- छट्ठाणवकिए , ओगाहणढाए चउट्ठाणवाडिए,विईए चनएसहीणे, अह अन्नहिए पदेसमन्नहिए , ठितीए चउ- बाणवमिए, वस्मादिअदवफासहिं छदाणवडिए । एगद्वाणवमिए , बनादीहिं उपरिवेहिं चउफासेहि य द्वा- समयविईयाणं पुच्ला। गोयमा! अणंता । सेकेणवेणं गवडिए। एवं तियपएसिए वि,नवरं उग्गाहणहाए सिय हीणे जंते ! एवं बुच्चइ ? गोयमा ! एगसमयष्टिईए पोग्गले एगमिय तुल्ले सिय अजहिए , जड होणे पदेसहोणे वा 5- समयट्टिइयस्स पोग्गन्नस्स दव्वदयाए तुल्ले, पदेसठ्ठयाए पएसहीणे वा, अह अमहिए पदेसमभहिए वा,एवंजाव ब्दवाणवभिए, ओगाहणव्याए चउटगणवमिए, विदसपदेसिए,नवरं ओगाहणाए पदेसपरिवुष्ठी कायवाजा- ईए तुल्ने, वहादिअहफासेहिं छदाणवमिए । एवं ० जाब व दसपदेसिए, नवरं पदेसहीणे ति । संखेज्जपदसियाणं दमसमयट्टिईए । संखज्जसमयट्टिईयाणं एवं चेव,नवरं वि. पुच्छा? गोयमा ! अणंता पज्जवा पसत्ता। सेकेणणं भं- ईए सुगणवाहिए । असंखेचसमययिाणं पर्व चेव, वि. ते ! एवं बुच्चइ-गोयमा ! संखिजपदसिए,संखज्जपदेसि- ईप चनाणवदिए । एगगुणकालगाणं पुच्छा?। गोयमा! गस्स दबट्ठयाए तुबे, पदेसट्टयाए सिय होणे सिय तुल्ने अणंता । से केणढणं ते ! एवं बुच्च: । गोयमा! एगसिय अभहिए , जड होणे संरेखज्जभागहीणे वा संख- गुणकालए पोग्गले, एगगुण कासगस्स पुग्गास्स दवज्जगुणहीणे वा, अह अभहिए एवं चेव, ओगाहणया वि ट्ठयाए तुझे,पदेसदव्याए बाएवमिए, ओगाहणयाए, दुवाणवमिए , ठितीए चनहाणवमिए, बन्नादिउवरिझे चनवाणवाहिए ठिइए चलाए वमिए, कालवमपज्जचनफासपज्जवेहि य बढाणवमिए । असंखेज्जपदेसियाणं वहिं तल्ले, अवसेमेहिं बमगंधरमपज्जवेोहिंग्ट्ठाणवमिए, पुच्छा। गोयमा ! अणंता पज्जवा पहाता । से केणढणं | अबहिं फामेहिं ब्वाणवमिए । एवंजाब दसगुभंते ! एवं बुच्चा गोयमा ! असंखेज्जपदेसिए खंधे अ- णकालए, संखज्जगुणकालए वि एवं चेव, नवरं सहाणे संखज्जपदेसियस्स खंधस्स दवट्ठयाए तुझे, पदेसट्याए दुवाणवाडिए। एवं अमखिज्जगुणकालए वि,नवरं साचनबाणवमिए , ओगाइणव्याए चउगाणवडिए, व- णे चउट्ठाणवडिए। एवं अणंतगुणकालए वि,नवरं सहाणे बादिङवरिल्ले चळफासेहि य छगणवामिए । अणंतपदे- | बढाणवमिए । एवं जहा कालवएस्स बत्तबया नर्णिया, सियाण पुच्चा गोयमा! एंता पज्जना पमत्ता। से के तहा सेसाण वि वमगंधरसफासाणं बत्तवया नापियव्या ट्वेणं भंते ! एवं वृच्चद। गोयमा! अशंतपदेसिए खंधे. जाव अणंतगुणबुक्खे । जहाछोगाहणगाणं भंते ! दुपदे Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) अभिधानराजेन्द्रः । पज्जब सियाणं पुच्छा ? | गीयमा ! अता से केलणं भंते ! एवं बुइ ? । गोयमा ! जहयोगाहणए दुपदेसिए खंधे जहलोगाणगस्स दुपदेसियस्स खंधस्स दव्बडयाए तुझे, पदेसयार तुल्ले, विईए चउडाण किए, कालवा पज्जवेहिं छडाण किए, सेसवजगंधर सफासपज्जबेहिं बडालब किए, सीउसिणिक सुक्खफा सेहिं छट्ठाण दिए । से तेलडेणं गोयमा ! एवं वुश्चइ-जहभोगाहणगाणं दुपदेसियाणं पोगला प्रतापञ्जा पाता। उकोसोगाहणए वि एवं चैत्र, जहन्नमणुको सोगाइ नत्थि । जहन्नांगाहणगाणं तिपदेसिया पुच्छा ।। गोयमा ! श्रता । से केलट्ठेणं ते! एवं वुश्च । गोयमा ! जहा दुपदेसिए जहन्नोगाइणए उक्को सोगाहणए बि एवं चेव, एवं अजहन्नमपुकोसोगाइए वि । जहयोगाहनगाणं नंते ! चउपदेसियाणं पुच्छ । गोयमा ! जहन्नोगाहणए डुपदेसिए तहा कोमोगाइए चप्परसिए वि एवं अनइम्मको सोगाइए विचउपदेसिए, पावरं उग्गाहण्डयाए सिय हीणे सिय तुझे सियहिए, जहीणे पदेस होणे, ग्रह अन्भहिए पदेस अन्नहिए, एवं० जाब दसपदेसिए यन्त्रं, नवरं अजह कोसोगाए पदेसपरिवुडी कायन्त्रा० जाव दमपदेमियस्स सत्तपसा परिवृष्टिज्जंति । जढयोगाहणगाणं जंते ! संखेनपदेसियाणं पुच्छा है। गोयमा ! प्रणंता । सेकेण्डे ते ! एवं वृश्च । गोयमा ! जहमोगाइए संखेज्जपएसिए, जोगाइणगस्त संखेज्जपदेसियस्स दन्डयाए तुझे, पमध्यre Sडाबदिए, भोगाइण्डयाए तुझे, विईए चारिए, वनादिचचफासपज्जवेहिं उद्वापटिए । पत्र को सोगाहणरवि, अजहन्नमणुको सोगाइए बि एवं चैत्र नवरं सट्टाणे घाणवमिए । जहन्नोगाइणगाणं ते! असंखिजपदेसियाणं पुच्छा है। गोषमा ! श्रता । सेकेणद्वे भंते ! एवं बुबइ १ । गोत्रमा ! जहनोगाहणए अमखेज्जपदेसिए खंधे, जहछो गाइणगस्स श्र संखिज्जपदेसियस्म खंधस्स दव्बट्टयाए तुम्ले, पदेस याए चट्ठा किए, प्रगाढ ण्डयाए तुल्ले, विईए चट्ठाण - बढिए, बम्पादिवरिल्ले फासेहिं छडाव किए, एवं उकोसोगाढ़ए वि, अजन्नमणुक्को सोगाह ए वि एवं चैत्र नवरं सहाणे चउट्ठाणच किए। जहन्नोगाइणगाणं जंते ! प्रांतपलियाणं पुच्छा है। गांया ! आता से केहेणं जंते ! एवं बुच । गोया ! जहन्नो गाहणए तप देखिए बंधे, जभोगाहणस्स प्रणतपदेसियस्स संधस्स दन्डयाए तुल्ले, पदेस याए बडापत्र दिए, प्रोगाहणडयाए तुल्ले, विईए चाणडिए, वन्नादिच उप्फासेहि बहाव किए । उक्को For Private पज्जव सोगाहणए बि एवं चैब, नवरं ठिईए वि तुल्ने । अजह समाको सोगा हयगाणं भंते! अणतपदेसियाणं पुच्छा ? | गोयमा ! अणंता । से केएं । महायमको सोगाह - ए अणतपदेसिए खंधे, प्रजहन्नमणुको सोगाहणगस्स भ गत पदेसियस्स खंधस्स दव्त्रन्याए तुम्ने, पदेमहयाए बडाणवडिए, प्रोगाहट्टयाए चनद्वाणकिए विईए बन्नादि फासेहि बहाव दिए । जहन्नडिईयाणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं पुच्छा है। गोयमा ! प्रता से केल हे १। गोयमा ! जहन्नडिईए परमाणुमोग्गले, जहन्नहियस्स परमाणुपोग्गलस्स दव्वडयाए तुम्ले, पदेसडयाए तुम्ले, उगाने, ईए तुल्ले, बन्नाइ फासोई य उड्डाण किए, एवं उक्कोसडिईए वि, प्रजहन्नमाको सष्ठिईए वि एवं चेव, नवरं निईए चलडालब किए। महन्नष्ट्ठेिईया दुपदेसियाणं पुच्छा १ । गोयमा ! भयंता से के णं ? । गोयमा ! जहन्नडिईए दुपदेसिए, जहन्नहिईयस दुपदेसियस धस्स दव्बडयाए तुझे, पदेमडयाए तुल्ले, जग्गाहणच्याए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अन्भहिए, जइ ही पदेसहीणे, अह अन्नहिए पदेसइयाए अन्भहिए, विईए तुम्ले, बन्नादिचडफासेहि य छडाणत्रकिए। एवं उक्कोट्टई वि, जहन्नमकोसडिईए वि एवं वेव, नवरं विईए चट्टा बकिए, एवं जाब दस पदेसिए, नवरं पदेस परिवुड का यव्वा, भोगा हण्डयाए तिसु विगमएसुजाव दसपदेसिए नव पदेमा वृष्टिज्जंति । जद्दन्नविईयाणं भंते! संखेज्जपदेसियाणं पुच्छा १ । गोयमा अणंता। से केणद्वेणं ?। गोयमा ! जहन लिईए संखेज्जपदेसि - ए, जहडिया संखेज्जपदेसियस्स संघस्स दब्बड याए तु, पसाए हाव किए, प्रोगाहणडयाए दुड्डालवकिए, ठिईए तुझे, बह्मादिचडफासेहि य बडा किए वि एवं कोईिए वि, जहनपणुकोसडिईए त्रि एवं चैव, नवरं विईए चउडान किए। जन्नडिईयाणं जंते ! - खिज्जपदे सियाणं पुच्छा ?। गोयमा ! प्रांता से केलट्ठे ? | गोमा ! जहन असंखिज्जपएसिए, जहन्नडिईयस्म संखेज्जपदेसियस्स दव्बट्टयाए तुझे, पदेसट्टयाए चउद्वालबडिए, श्रगाहट्टयाए चडाव किए, विईए तुले, बन्नादिवरिल नफासेहिं ब्रहाणवर्डिए, एवं उक्कोसडिईए वि अन्नमणुको सट्टए वि एवं चैत्र नवरं निईए - डिए | जन्नतया प्रांतपदे सियाणं पुच्छा गोयमा ! अांता । से केारेण १ । गोयमा ! जहन्नडिप अणतपदेसिए जहटियस्स श्रणंतपदेसियस्स दन्त्रट्टयाए तुझे, पदेस या ब्राणबटिए, ओगाइण्डयाए उड्डाण Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५) श्रभिधामराजेन्द: / पज्जब बकिए, ठिईए तुम्ने, बन्नादिअडफासेहिं छडाब किए, एवं hresईए वि, जहन्नमणुको द्वितीय वि एवं चेब, नवरं ठिईए चउट्ठा किए । जहन्नगुण कालयाणं परमाखुपोग्गलाणं पुच्छा ? । गोयमा ! अनंता । से केणडेलं ? । गोयमा ! जहन्नगुणकान्नए परमाणुवोग्गले, जहन्नगुणकालगस परमाणुपोग्गनस्स दव्बट्टयाए तुझे, पदेसडयाए तृले, गाया तुल, टिए चउडालब किए, कालवन्नपज्जवेहिं तुम्ले, अब सेसा बन्ना नत्थि, गंधरसफासपज्जवे हिं छट्ठाण किए, एवं उकोसगुणकालए बि, एवं अजह न्नमणुको गुणकाल वि, नवरं सहाणे छट्टाणवडिए । नन्नगुणकालयाणं भंते ! दुपदेसियाणं पुच्छा ? । गोमा!ंता से केद्वेणं ? । गोयमा ! जहागुणकालए खुपदेसिए, जहा गुण का अगस्स दुपदेसियस्स दव्बडयाए तुझे, पदेस यार तुझे, गाइण्डयाए सिय दीये सिय तुल्ले सिय अन्नहिए, जड़ हीणे पदेसहीणे, अह अन्नहिए पदेसमहिए, विए चडाएव किए, कालबापज्जहिं तुले, अवसे सबष्ठादिवरिलचलफासेहि य छड्डाणवकिए, एवं उक्कोसगुणकालश्रो वि, अजहष्पमणुको सगुणकालए वि एवं चेत्र नवरं सङ्काणे ब्रड्डाण किए। एवं० जाव दसपदेखिए, नवरं पदेसपरिबुड़ी श्रोगाहणा तहेब | जसगुण कालयाणं जंते ! संखज्जपदेसियाणं पुच्छा ! | गोषमा ! अता से केलट्टेणं ? 1 गोयमा ! जहागु कालए संखज्जपदेसिए. जहा गुणकान्नगस्स संखेज्जपदेसिस्स दबाए तुल्ले, पदेस याए बुट्ठाण किए, प्रोगाइण्डयाए दुड्डाणबढिए, लिईए चलट्ठाण किए, कालबापज्जवहिं तुले, अवसेसेहिं बच्छादिचन रिल्लच फासेहिं बाणमिए, एवं कोसगुणकालए वि, एवं अजहछम सगुणकालए वि, नवरं सहाणे छडाणवदिए । महागुणकालयाणं भंते! प्रसंखिज्जपदे सियाणं पुच्छा ? | गोयमा ! अनंता । से केलणं १। गोयमा ! जहा गुणकालए असंखेज्जपदेसिए, जहागुणकालगस्स असंखेज्जपदेसियस्स दन्त्रट्टयाए तुझे, पदेसट्टयाए चनद्वाणत्र किए, लिईए चलट्ठाणवाकिए, काल व छपज्जवेदिं तुल्ले, अब सेसेहिं बादिवरिल्लच फासे हि य बडाणवडिए । एवं उक्कोसगुणकालए त्रि, अजम्पमणुको सगुणकालए वि एवं चैत्र, नवरं सङ्काणे छट्टाए । जहागुणकालयाणं जेते ! अ तपदेसियाणं पुच्छा ? । अनंता । से केद्वेणं १ । गोमा ! जहा गुणकान्नए अणतपदेसिए, जड़ए गुणकालगस्त अणतपदेसियस्स दन्त्रट्टयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए गाणयाए चनुझाव दिए, निईच पजय हाकिए, कासन्नपज्जबेदिं तुझे, अब सेसेहि यबदिडफासेहिं छाडिए । एवं कोसगुणकालए बि । एवं प्रजहमको सगुणकालए वि एवं चैव, नवरं सङ्का कालवडिए । एव नीललोहिया लिहसुकिल्ली सुन्जिगंधदुन्जिगंधति ककसायचं बिनमहुररसपज्जबेहि यबया जाणिवा, नवरं परमाणुपोग्गन्नस्स सुग्निगंधस्स ग्निगंधो न भवति, पुग्भिगंधस्स सुभिगंधो न भवाति, तित्तस्स अबसेमा न भांति, एवं करुयादीनि बि, सेस तं चेत्र । जहन्नगुणकक्खमाणं प्रांतपदे सियाणं पुच्छा । गोयमा ! अयंता से केयाणं ।। गोयमा ! ज गुणकक्खमे तपदेसिए, जहागुण कक्खडस्स अतपदेसियस्स दबाए तुल्ले, पदेसट्टयाए छट्टाएवढिए, श्रोगाहलगाए चउट्ठाणत्रडिए । निईए चटद्वाद किए, वसगंधरसेहिं बाणवडिए, कक्खमफासपज्जवेहिं तुले, भवसेसेहिं सत्तफासपज्जवेहिं छट्टाणबामेए, एवं उक्के सगुणकक्खमे विश्रामको सगुणकक्खमे त्रि एवं चैत्र नवरं सहाणे डाकिए। एवं मजयगुरुपलहुए वि जाणिय I | जहन्नगुणसीयाणं जंते ! परमाणुपोग्गलाणं पुअच्छा है। गोवा ! भयंता से केड्डेणं । गोयमा ! जहन्नगुणसीयाणं परमाणुपोग्गले जहन्नगुणमीयस्त परमापोमलस्स दबाए तुझे, पदेसच्याए तुले, भोगाइबाए तुझे, विईए चट्टान किए, वन्नगंधर सेहिं छट्टाएकिए, सीतफासपज्जहिं तुल्ले, उसिलफासो न जवति, निलुक्खफास पज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, एवं उको खगुणसी, जहन्नमकोसगुणसीते वि एवं चेत्र नवरं सङ्काणे छट्ठाणचकिए | जहन्नगुण सीताणं दुपदेसियाणं पुछ । गोयमाणंता से केपणं भंते ! १ । गोयमा ! जन्नगुणसी दुपदेसिए, जहन्नगुण सीयस्स दुपदेसियस्स दबाए तुले, पदेसट्टयाए तुझे, प्रोगाहणडयाए मिय ही सिय तुले सिय अन्नदिए, जदिं ढीधे पदेसहीणे, अह भरिए पदेसमभाहिए, विईए चउड्डाण किए, बगंधरसपज्जहिं उट्ठाणचडिए, सीयफासपज्जवेहिं तुम्ने, उसिणणिष्फलुक् खफास पज्जवेहिं छट्ठाणवडिए । एवं उकोसगुणसी बि अजहन्नम को सगुण सीते वि एवं चैत्र, नवरं सट्टा कट्टा वडिए । एवं० जाब दमपदेसिए, नवरं गाढण्डयाए पएसपरिवुडी कायव्वा० जात्र दसपदेसि - यस नव पदेसा विनंति । जहष्ठगुणसीयाणं संखज्जपदेसियाणं पुच्छा ?। गोयमा ! अणता से केद्वेणं १ । गोयमा ! जगुण सीते संविज्जपदेसिए, जहन्नगुणसीयस् संस्क्पदेसियस्स दव्बट्टयाए तुरसे, पदेसट्टयाए Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) अनिधानराजेन्द्रः | पर जत्र दुडिए, प्रोगाहट्टयाए बुडाडिए लिईए चट्टाएमए, सादीहिं बडाएबकिए, सीयफासपज्जवेहि य तुलने, उसिणनि लुक् खेहिं छडाएव किए, एवं नकोस - गुणसी व अजहन्नमणुको सगुण सीते वि एवं चैत्र नवरं सा बहाव दिए । जहमगुणसीयाणं असं खेन पदेमियाणं पुच्छा ? । गोयमा ! अता । से केण्डेणं जेते ! ? | मोमा ! जहष्णगुणसीते असंखेज्जपदेसिए, जहागुलसीवस संखेज्जपदेसियन दव्बडयाए तुल्ने, पदे मट्टयाए चडाब दिए, ओगाडयाए चट्टानव किए, विईए उडाकिए, बादिपज्जवेहिं बडाणवकिए, सीतफासपज्जवे तुस्त्रे, दिन सिल्लुक्खफासपजवोह बडाणवदिए, एवं कोसगुणसीते वि, जहन्नमणुक्को सगुण सीते त्रि एवं क्षेत्र, नवरं सहाणे वडिए । जहन्नगुणसीयाणं तपदेसिया पुच्छा, गोयमा ! प्रांता। से केरण ट्ठे ? | गोमा ! जगुणसी प्रांतपदेसिए, जहन्नगुण मी तस्स अणतपदेसियस्स दव्वङयाए तुल्ले, पदेसड्डयाए छट्टानव किए, श्रोगाद्दण्डयाए चलहाण वडिए, विर्डर चलद्वाल किए, दिपज्जहिं छाणचडिए, सीतफा सपज्जहिं तुझे, व सेहिं सत्तफासपञ्जवेहिं छडालब किए, एवं उक्कोसगुणसीनिमगुणसीते त्रि एवं चेत्र, नत्ररंस डाकिए,एवं उसि णिके लुक्ने जहा सीते परमाणुपोग्गलस्स तब परिपक्खो सन्वेसि न सनि ति जाणियां | जहन्नपदेसियाणां भंते! संघाणं पुच्छा ।। गोमा ! अनंता से पट्टेणं । गोयमा ! जहन्नपदेसिए खंधे, जन्मपदेसियस खंधस्स दव्बडयाए तुझे, पदेसट्टयाए तुरने, प्रोगाहट्टयाए सिय हीणे सिय तुम्झे सिय पन्जहिए, नदि ही पदेसहीणे, अहमन्नहिए पदेसमन्नहिए, टिईएच. लट्ठाणच किए, वन्नगंधरसनवरिल चलफासपज्जहिं छट्टावडिए । उक्कोसपदेसियाणं जंते! संधाणं पुच्छा ।। गोयमा ! अणता । सेकेण्डेणं । गोयमा ! उक्कोस एसिए खंधे, नकोस पदेसियस्स खंधस्स दव्बडयाए तुझे, पदेस याए तुल्ने, श्रोगाहणडयाए चनहाल किए, विईए चउट्टाणवडिए, बह्मादि अडफासपज्जहिं छट्टाणबढिए । अजह न्नमकोस पदमियाणं नंते ! खंधाणं केवइया पज्जवा पणता ?। गोयमा ! भयंता । से केणद्वेणं । गोयमा ! 1 जहमको सपदेसिए खंधे जहसमणुको सपदेसियम धस्स दबाए तुझे, पदेमहयाए बहाव किए, ओगाढणट्टयाए चट्टान किए, विईए चडाणवडिए, बबादि फासपज्जवेहि छडाव किए । जहनोगाहणगाणं भंते ! पोग्गलाणं पुच्छा है। गोयमा ! अनंता । से केणद्वेणं ?। गोयमा ! जहभोगाइणए पोग्गले, जद भोगा पञ्जव इगस्स पोग्गलस्स दव्बच्याए तुल्ले. पदेसट्टयाए बडाडिए, श्रोगाहण्डयाए तुम्ने, विईए चण्डालब किए, दिवार फासेहि य द्वाणकिए, नक्को सोगाहणए वि एवं चैत्र नवरं विई तुल्ले । अजाम को सोगा हणगाणं भंते! पोग्गलाणं पुच्छा । गोयमा ! अनंता से केलट्टे । गोमा ! हमको सो गाढ एए पोग्गले, जहन्नम - कोसोगा हणगस्स पोग्गलस्स दन्डयाए तुझे, पदे सडयाए छडाणवडिए, भोगाइण्डयाए चलडाणवकिए, विईएचउण दिए, पादि फासपज्जवेहि य छट्टा व किए । जहन्नईियाणं भंते! पोग्लाणं पुच्छा ? । गोयमा ! प्रांता । सेकेण | गोगा ! जहन्नट्ठिए । पोग्गले, जहन्नडिइयस्स पोग्गलस्स दव्बडयाए परसट्टयाए छट्ठानवकिए, प्रोगाहणडयाए चउडाएब दिए, विईए तुले, बन्नादि फास पज्जवेड़िय छट्टाएवडिए । एवं उक्कोसडिईए त्रि, जहन्नमणुकोसडिइए वि एवं चैत्र, नवरं ठिईए चउट्ठाणव दिए । जहन्नगुणकालयाणं भंते ! केवइया पज्जवा पत्ता ? | अता । से केण्डेणं ? । गोयमा ! जहन्नगुकाल पोग्गले, जब गुणकालगस्स पोग्गन्नस्स दन्त्रarre तुझे, पदे या छटालवडिए, प्रोगाहणट्टयाए चट्ठा डिए, विए चट्टा बडिए, कालवन्नपन हिं तुझे, त्र्वसेसेहिं बन्नगंधफासपज्जवेहिं छाए बडिए, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुचड़ - जहन्नगुणकाल या एं पोग्गलाणं अता पज्जवा पष्छत्ता । एवं नकोस गुणकालए वि, जहन्नम को सगुणकालए वि एवं नवरं सङ्काणे बाडिए । एवं जहा कालवापज्जवाणं वत्तव्वया भणिया तहा मेसाथ वि बागंधर सफामाणं वसव्वया जाणियन्त्रा, ०जाव जहन्नमामुकोमलुक्खे सङ्काणे छट्टाएमए । । से तं रूविअजीव पज्जवा । से तं श्रजीवपज्जवा । द्विप्रदेशकस्कन्धसूत्रे - ( प्रमाणबार लिय हीणे सिम तुळे लिय अम्भहिए इत्यादि ) यदा द्वावपि द्विप्रदेशको स्कन्धौ विदेशावगाढावेक प्रदेशावगाढी वा जत्रतस्तदा तुल्यावगाहनी, यदा त्वेको छिप्रदेशावगाढस्तदा एक प्रदेशाव गाढो द्विप्रदेशावगाढापेक्षया प्रदेशहीनो, द्विप्रदेशावगाढस्तु तदपेक्षया प्रदेशाभ्यधिकः, शेषं प्राग्वत् । त्रिप्रदेशस्कन्ध सूत्रे. ( भोगाइणयाए सिय हीणे इत्यादि ) यदा द्वावपि त्रिप्र देशको स्कन्धौ विप्रदेशावगाढौ द्विप्रदेशावगाढावेकप्रदेशाबगादी वा तदा तुख्यो, यदा त्वेकस्प्रिदेशावगाढो वा द्विप्र देशावगाढो वाऽपरस्तु द्विप्रदेशावगाढ एकप्रदेशावगाढो बा तदा द्विप्रदेशावगादेकप्रदेशावगाढौ यथाक्रमं त्रिप्रदेशावगाद्विप्रदेशावगाढापेक्षया एकप्रदेशहोनौ, त्रिप्रदेशावगाढद्विप्रदेशावगाढौ तु तदपेक्षया एकप्रदेशाज्यधिको, यदा त्वेकत्रिपदेशावगाढोपर एकप्रदेशावगाढप्रदेशावगाढा पेक्क या द्विप्रदेशही त्रिप्रदेशाव गाडस्तु तदपेकथा द्विप्रदेशाज्य Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जंव (२२७) अभिधानराजेन्धः। पज्जव धिकः। एवमेकैकप्रदेशपरिवृच्या चतुःप्रदेशाऽऽदिषु स्कन्धेवव- केवइया णं ते! सुयनाणपज्जया पपना एवं चेव, एवं गाहनामधिकृत्य हानिर्वृद्धिी तावक्तव्या यावदशप्रदेश- जाव केवननाएस्स, एवं मअन्नाणस्स मुय अणाणत कस्कन्धः । तस्मिंश्च दशप्रदेशकस्कन्धे एवं वक्तव्यम्-" जर होण परसहीणे वा उपएसहीणे वा. जाव नवपपसहीणे य । केवइया णं ते ! विभंगनाणपजवा पाता। मोय. वा, मह अभहिए पपसमजदिए वा उपपसमम्भदिए पा० मा! अणता विजमनाणपजवा पाता। जाव नबपएसमभाहिए इति ।" भावना पूर्वोक्तानुसारेण स्वयं मानिनिबोधिकज्ञानस्य पर्यवाः विशेषधर्मा प्राभिनियोधिकझा. कर्तव्या । सङ्क्यातप्रदेशकस्कन्धसत्रे-(ोगाहणट्टयाए बुट्टा. नपर्यवाः,ते च द्विविधाः,स्वपरपर्यायभेदात् । तत्र येऽवग्रहा. जबमिप इति) सङ्स्येयभागेन सङ्ख्ययगुणेन वेति । प्रस. यो मतिविशेषाः कयोपशमवैचिध्यात्ते स्वपर्यायाः,ते चाऽनन्ता। कायातप्रदेशकस्कन्धे-(प्रोगाढणच्याए चाणवमिप - कथम एकस्मादवग्रहादेरन्योऽवग्रहाऽऽदिरनन्तजागवृष्या विति) असहयातभागेन सायातनागेन साचातगुणेनाऽस. शुकोऽभ्यस्त्वसंख्येयभागवृद्ध्याऽपरःसंख्येयनागवृड्या अन्यतरः अपातगुणेनेति । अनन्तप्रदेशस्कन्धेऽप्यवगाहनार्थतया चतु:- संश्येयगुणवृद्धद्या तदन्योऽसंख्येयगुणवृद्धयाऽपरस्त्वननगुलास्थानपतितता, अनन्तप्रदेशाधगाहनयाऽसम्भवतोऽनम्तनागा. वृरुचेति । एवं च संख्यातस्य संध्यातभेदत्वादसंख्यातस्य चामन्तगुणाभ्यां वृष्हिान्यसम्नवात्, (एगपएसोगाढाणं पोग्गः ऽसंख्यातभेदत्वादनन्तस्य चानन्तभेदत्वादनन्ता विशेषा नवमाणं भंते ! इत्यादि ) अन-( दबयाए तुल्ले पदेसध्याए न्ति, अथवा-तज्ज्ञेयस्थानन्तत्वात्प्रति झये च तस्य भिद्यमानग्वाणवडिप इति) दमपि विवक्षितकप्रदेशावगाढपरमाएबा- स्वात, अथवा मतिज्ञानमविनागपरिच्छेदैर्वरूपा छियमानमनदिकं द्रव्यमिदमप्यपरैकप्रदेशावगाढं द्विप्रदेशाऽऽदिक एव्य' स्तनए भवतीत्येवमनन्तास्तत्पर्यायाः, तथा ये पदार्थान्तरप. मिति । यार्थतया तुल्यता प्रदेशार्थतया षट्स्थानपतिता, म. यास्ते तस्व परपर्वाया,ते च स्वपर्यायेभ्योऽनन्तगुणाः, पनन्तप्रदेशकस्याऽपि स्कन्धस्यै कस्सिनाकाशप्रदेशेऽवगाहसंभ. रेषामनन्तगुणत्वादिति । ननु यदि ते परपर्यायास्तदा तस्येति चात् । शेष सुगमम् । एवं स्थितिनावाश्रयारयपि सूत्राणि नव्यपदेष्टुं युक्तं, परसम्बन्धित्वातअथ तस्य ते, तदान परप. उपयुज्य भावनीयानि (जहीगाहणाणं भंते! सुपएसिवा. योबास्ते व्यपदेष्टव्याःस्वप्सम्बन्धित्वादिति अत्रोच्यते-यस्मात्त. एमित्यादि) जघन्या द्विप्रदेशकस्य स्कन्धस्यावगाहना एक. त्रासम्बद्धास्ते तस्मात्तेषां परपर्यायव्यपदेशो, यस्माचते परि. प्रदेशाऽस्मिका, सस्कृष्टा विप्रदेशाऽऽस्मिका । अझ अपान्तरानं त्यज्यमानत्वेन तथा स्वपर्यायाणां स्वपर्याया एतदित्येवं बिनास्तीति मध्यमा न लज्यते । तत उक्तम् (मजहन्नुकोसो शेषणदेतुत्वेन च तस्मिन्नुपयुज्यन्ते,तस्मात्तस्य पर्यवा इति न्य. गाहणो नस्थि इति) त्रिप्रदेाकस्य जघन्याऽवगाहना एकप्र. पदिश्यन्ते, यथा असम्परूमपि धन स्वधनमुपयुज्यमानत्वादिदेशरूपामध्यमा द्विप्रदेशरूपा, उत्कृष्टा त्रिप्रदेशम्पा । चतुःप्रदेश. ति । आह चस्य जघन्वा एकप्रदेशरूपा, उत्कृष्टता चतुःप्रदेशाऽऽत्मिका,मध्यमा "जश्ते परपज्जाया, न तस्य श्रर वस्स न परपनाया।" द्विविधा-वैविध्यप्रदेशाऽऽस्मिका च,त्रिप्रदेशाऽस्मिका । एवं च भाचार्य आईसति मध्यमावगाहनश्चतुःप्रदेशको मध्यमावगाहनचतुःप्रदेशा. जं तमिम असंबद्धा, तो परपज्जावववएसो ॥१॥ पेकया यदि होनस्तहिं प्रदेशतो हीनो नवति, अथावधिक चायमपञ्जायविसे-समारणा तस्स जमुवजुज्जति । सहतः प्रदेश तोऽधिकः। एवं पञ्चप्रदेशाऽऽदिषु स्कन्धेषु मध्यमा. सधणमिवासंबद्धं, हवंति तो पज्जवा तस्स ॥ " इति । घगाहनामधिकृत्य प्रदेशपरिवृख्या वृद्धिहीनिश्च ताबद्वक्तव्या (केवाइयाणं भंते ! सुयनाणेत्यादी) (एवं चेव त्ति) अनन्ताः . याचदशप्रदेशके स्कन्धे सप्तप्रदेशपरिवृतिः । सा चैवं वक्तव्या- तहानपर्यायाः प्रप्ता इत्यर्थः,तेच स्वपर्यायाः परपर्यायाचा तत्र "प्रजहन्नमणुकोसोगाहणए इसपपसिए अजहनमणकोसो. स्वपर्याया ये भूतज्ञानस्व स्वगता प्रकरथुताऽऽदयो नेदाः,तेचागाहणस्स दसपएसियस्म खंघस्न भोगाहणयाए सिय उनन्तायोपशमवैचिऽयविषयाऽऽननवाभ्यां श्रुतानुसारिणांबो. हीणे सिय तुल्ले सिय मजहिए, जहदीणे पपसहीणे दुपएस. धानामनन्तत्वादविभागपलिच्छेदानन्त्याच्च, परपर्यायास्त्वनदी० जाव सत्तपएसहीणे, अद मम्नहिए पपसभम्भाहिए त: सर्वभावानां प्रतीता एव । अथवा-श्रुतग्रन्थानुसारिकानं श्रु. कापसम्भहिए.जाव सत्सपएसम्भहिए।" इति । शेष सूत्रं सकानं, श्रुतप्रधश्चाक्षराऽऽत्मकोऽक्षराणि चाकाराऽऽदनि, स्वयमुपरि भावनीयं, सुगमस्वात, नबरमनन्तप्रदेशकोत्कृष्याव-तषां चैकैकमकरं यथायोगमुदात्तानुदात्तवारतभेदात्सानना. गाहनाचिन्तायाम्-(विईए चितुले इति)। उत्कृष्टावगाहनः सिकनिरनुनासिकभेदात् अपप्रयत्नमहाप्रयत्नभेदाऽऽदिभिश्च किलानन्तप्रदेशकः स्कन्धः स उच्यते यः समस्तलोकव्यापी संयुक्तसंयोगासंयुक्तसंयोगानेदात द्वयादिसंयोगभेदादभिधेयाss. स चाचित्तमदास्कन्धः, केवायसमुदातकर्मस्कन्धो वा,तयोचो. नम्त्याच नियमानमनन्तभेदं भवति, ते च तस्य स्वपर्यायाः प. भयोरपि दण्डकपाटमन्थान्तरपूरणकलक्षणश्चतुःसमयप्रमाण- रपर्यायाश्चान्ये ता एव । एवं चाऽनन्तपर्यापंतत् । पादचतेति तुल्यकालता। शेषसूत्रमापादपरिसमाप्तेः प्रागुक्तभावनानु- "एकेकमक्खरं पुण, सपरपज्जायनेयो भिम । सारेण स्वयमुपयुज्य परिभावनीयम् । प्रज्ञा०५ पद । (संहन- सम्बदबपज्जा-यरासिमा मुणेकवं ।। १॥ नानां पर्यायद्वारम, निर्ग्रन्थानां परिहारविशुद्धिकम्य च पयाय. जे लभर केवली से सवालसहिओ य पज्जवेगारो। द्वारं स्वस्वथाने) ते तस्स सपज्जाया, सेसा परपज्जवा तस्स ॥२॥" इति । भाभिनिवाधिकाऽऽविज्ञानपर्याया: पवं चाकराऽस्मकत्वेनाकरपर्यायोपेतत्वादनन्ताः श्रुतझानस्य पाया इति। एवं "जाव"त्ति करणादिद रश्यम्-"केवस्या ण केवडया एणं भंते ! आजिणिबोहियनाणपजवा पसाता।। भंते ! श्रोहिनाणपजवा पानता ?। गोयमा! अणंता प्रोहिनामोयमा ! अणंता आत्रिणियोहियना पज्जा पराचा ।। अपज्जचा पत्ता । केवश्या ण भते ! मापजवनापज्जवा Jain Education Interational Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२०) प्रनिधानराजेन्द्रः पज्जव पज्जवजायसत्यखेया पक्षता गोयमा ! भणंता मणपजचा पत्ता । केव- नविषयापेकयाऽनन्तगुणानीति। तेभ्योऽवधिकानपयंवा अनन्तया संनते। केवलनाणपज्जवा पएणता गोयमा! मणंता गुणाः, अवधेः सकलरूपिद्रव्यप्रतिव्यासापानपर्वायविषयकेबसनाणपउजवा पम्मच ति।" तत्राधिकानस्य स्वपर्याया- स्वेन विजनापेक्वयाऽनन्तगुणविषयत्वात् । तेभ्योऽपि भुताहान. येऽवधिज्ञानदा भवप्रत्ययकयोपमिकभेदाचारकतियग्मनु- पर्यवा अनन्तगुणाः, श्रुताकानस्य श्रुतज्ञानवदोघाशेन सम. प्यदेवरूपत्वात् स्वामिजेदादसंख्यातभेदतद्विषयततकेत्रकाल. स्तमूनांमूर्तध्वसर्वपर्यायविषयत्वेनावधिकामापेकयाऽनन्तगु दादनन्तभेदतविषयाव्यपर्यायजेदादविभागपलिच्छेदाच ते पाविषयत्वात्। तेभ्यः भुतकानपर्यवा विशेषाधिकाः, केषाश्चिच्छु. चैवमनम्ता इति मनःपर्यावहानस्य केवमानस्य च स्वप. ताकानविषयीकृतपर्यायाणांविषयीकरणात यतो ज्ञानम्वेन स्प याः ये स्वाम्यादिभेदेन स्वगता विशेषास्ते चामन्ता अन- पावभासं तत्तेभ्योऽपि मत्वज्ञानपर्यया अनन्तगुणा यतः श्रुतम्तद्रग्यपर्यायपरिष्वदापेक्वया अविनागपलिच्छेदापेक्वया बेति। ज्ञानमभिलाप्यवस्तुविषयमेव, मत्यज्ञानं तु तदनम्तगुणानामएवं मत्यकानाऽऽदित्रयेऽप्यनन्तपर्यायत्वमामिति । जिलाप्य वस्तुविषयमपीति । ततोऽपि मतिकानपर्यवा विशेषा. अथ पर्यवाणामेवाटपबहस्वनिरूपणायाsss. धिकाः, केषाश्चिदपि मत्यज्ञानाविषयीकृतभावानां विषयांकरएएसियां भंते! श्राभिणिबोहियनाणपज्जवाणं मोहिना । णात्तकिमन्यानापेक्कया स्फुटतरमिति, ततोऽपि केवलकानणपउजवा मणपज्जवनाणपज्जनाणं केवलनाणपज्ज पर्य वा अनन्तगुणाः, सर्वासानाविनां समस्तव्यपर्यायाणा मनन्यसाधारणावभासेनाबभासनादिति । भ०८० २१०। पाण य कयरे कयरे भाव विसेसाहिया वा । गोयमा! पज्जवस्कय-पर्यवैकक-न. । पर्यायविषयभूते एकके, स्था० ४ सम्बत्थोवा मणनाणपज्जवा, ओहिनाणपज्जा अांत ग०२०। (व्याग्या 'एक'शब्दे तृतीयभागे २ पृष्ठे करण्या) गुणा, सुयनाणपज्जवा अणंतगुणा, आनिणि बोहियना- पज्जवकसिण-पर्यवकृत्स्न-न । चतुर्दशपूर्वात्मके विस्तृतभुते, पजवा अणंतगुणा, केवबनाणपजवा अणंतगुणा । "पजवकसिणसमासो,पज्जवकसिणं तु चौहसा पुष्धा। सामाइ. पएसिणं भंते ! मप्रमाणपज्जवाणं सुयप्रमाणविभ- यंय कप्पो,होति समालो मुणेयधो । पाजवकसिणं तिविहं, गनाणपजवाण य कयरे कयरे जाव विमेसाहिया वा। सुत्ते अत्थे य तजए चेव । " पं० भा•५ कल्प । गोयमा ! सव्वत्थोवा विजंगनाणपज्जवा, सुय अप्पाणप-| पज्जबकाय-पर्यवकाय-पुं० । पर्याया वस्तुधर्मा यत्र परमाएवा. दो पिषिमता बहवस्तारशे सजाते, श्राव०५ भ०। जवा अणंतगुणा,पप्रमाणपज्जवा अणंतगुणा । पएसि पज्जवजात-पर्यवजा(या)त-त्रिकापर्यबा कामाऽदिविशेषा जाता णं भंते ! प्राजिगिबोडियनाणपज्जवाणं जाव केवलणा यस्य पर्यवजातःश्राहिताम्यादित्वात् जातशब्दस्योत्तरपदत्व. णपज्जवाणं मप्रमाणपज्जवाणं सुयप्रमाणपजवाणं वि- म । अथवा-पर्यवान् पर्यवेषु वा यातः प्राप्तः पर्यवयातः। नंगनाणपजवाण य कयरे कयरे जाव विसेमाहिया वा। अथवा-पर्यवः परिरक्षा परिका परिझानं वा । पर्यवमाप्त, गोयमा! सम्बत्योवा ममनाणपज्जवा, विनंगनाणपज्जना स्था० १ ग.। जातविशेषे, न० । "सुत्ते वा मे पज्जबजाय भविस्स।" स्था..म० ३३०। सूत्रार्थप्रकारे, स्था०५ अणंतगुणा, भोहिनाणपज्जवा प्रणंतगुणा, सुय प्रमाण मा.११. पर्यवोऽवस्थान्तरं जातो यत्र तत्पर्यवजातम् । कूपउजवा अणंतगुणा, मुयनाणपज्जवा विसेसाहिया, मइ राऽऽदिके, उद्धरिते, दयादिना विमिश्रिते करम्बाऽऽदिके पर्याप्रमाणपज्जवा भगतगुणा,माभिणिबोहियनाणज्जवा त्रि- यान्तरमापादिते, अयमप्यौदेशिकभेद कृताभिधानः । प्रश्न. सेसाहिया,केवलनाणपज्जवा अणंतगुणा,सेवं भंते भंतेत्ति । ५ संव. द्वार । व्यजातभेदे, पर्यवजातं तैरेवावाग्नि. (एपसि णमित्यादि ) ह च स्वपर्यायापेक्षा मल्पबहुत्व सृष्टतापाव्यैः यानि विधेणिस्थानि भाषावर्गणान्तर्गतानि भवसेय,स्वपरपर्यायापेक्षया सर्वेषां तुल्यपर्यायत्वादिति। तत्र स. मएषव्यपरघातेन भाषापयांवत्वेनोत्पद्यन्ते, तानि च्याणि प. बस्तीका मनःपर्यायानपर्यायाः , तस्य मनोमात्रविषयवात । वजातमित्युच्यते। प्राचा.१ ध्रु०१ चू.४१०१००। तेभ्योऽवधिकानपर्याया अनन्तगुणाः,मन:पर्यायझानापेकयाsa. पज्जवनायलेस्स-पर्यवज्ञातलेश्य-त्रिका पर्यवाः पारिशेष्याद धिज्ञानस्य द्रव्यपर्यायतोऽनन्तगुणविषयत्वात् । तेभ्यः श्रुतमा विशुद्धिविशेषाः प्रतिसमयं जाता यस्यां सा नथा, विशुद्धय । मप या अनन्तगुणाः, ततस्तस्य रूप्यरूपिकव्यविषयत्वेनान वर्दमानेत्यर्थः । सा सेश्या यस्मिस्तत्तथा। बासमरणनेदे,स्थान तगुणविषयत्वात् । ततोऽप्याभिनियोधिकहानपर्याया अनन्तगु. ३० ४ उ०। णा,ततस्तस्थाभित्राप्यानजिलाप्याच्याऽऽदिविषयत्वेनानन्तगु. पज्जवजायमत्थ-पर्यवजातशत्र-न शम्दाऽऽदिविषयाणां पर्य. णविषयस्यात् । ततः केवलज्ञानपर्याया अनन्तगुणाः,सर्वव्यप. या विशेषास्तेषु तन्निमित्र जातशत्रम । शब्दादिविशेषाऽऽपा. र्यायविषयायात तस्येति । एवमझानसूत्रेऽवल्पबहुत्यकारणं दनाय प्राण्युपघातकार्यनुष्ठाने, प्राचा०१६० ३.१००। पत्रानुसारेणोहनी यम्। मिश्रसूत्रे तु स्तोका मनःपर्यायझानपा- पनवजायसत्थखेषा-पर्यवजातशत्रवेदक-पु. । पयश. या। इहोपपत्तिः पावतेभ्यो विभतमानपर्यवा अनन्तगुणाः, खस्य खेदकः । पर्यायशस्त्रनिपुणे, यः शब्दादिपर्यायानिटामनापर्यायकानापेक्षयाविभङ्गस्य बहुतमविषयस्याता तथाहि-वि. स्मकस्वत्परिहारानुष्ठानं च शत्रभृतं चोति सोऽनुपघात. अजमानमूध उपरिमौवेयकादारभ्य सप्तमपृथिव्यम्ते केले कन्चात-संयममप्य शस्त्रजुतमात्मपरोपकारिणं नेति मृत्रिनम, तिर्यकावासाचातहीपसमुषरूपे के यानि रूपिकव्याणि तानि "जे खेयम्ले से पज्जवजातसत्थनेयमे से असत्थरस नेयम् कानिचिजानाति, कश्चित्तत्पर्यायांच, तानि च ममःपर्यायवा से पज्जवनातखेयो।" प्राचा० १ ३ १०१ उ° । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जवडिय पज्जवद्विय पर्यवार्थिक- पुं० । पर्येत्युत्पादविनाशी प्राप्नोतीति पर्याय वा सोऽस्ति यस्वास पर्यायार्थिका रा० परि सर्वे भावानामनित्यताऽज्युपगन्तरि जनय सम्म०१ काएम ("मूलणयमेण पज्जव जयस्स उज्जुसुषषय. दो साईया साहसादा ममेया" इति गाथा यांश भाग २४६८ पृष्ठे ता) (तथा ण य दव्वद्वियपक्खे, संसारो णेव पज्जवणयस्स । सासयवियत्तिवाई, जम्हा उच्छे श्रवाईय ॥ १७ ॥ " श्यं 'णय' शब्दे चतुर्थभागे १००० पृष्ठे व्याख्याता ) पाचिकं प्रपयन्ति (२३) अभिधानराजेन्द्रः । " पर्यायार्थिक अतु-ऋजुनः शब्दः समजिरूदा एवंभूतवेति ।। २७ ।। रत्ना० ७ परि० । (जुसूत्रादीनां व्याख्यातु स्वस्वस्थाने ) पर्यायार्थिक एवापि मुख्यगृभ्याऽय भेदताम् । उपचारानुभूतियां, मनुतेऽभेदतां त्रिषु ॥ ३ ॥ (पति) पर्यायार्थिकनया यवापि पचमेवंप्रकारेणोक खणे, मुखाप्रधानम्यापारेण अत्र अमे मापयति, पतयेतस्य नयस्य मदादिपदस्य यमित्यर्थः १. कपाऽऽद्दिश्य गुण इत्यर्थः २ घटादि पदस्य कम्बुग्रीवपृयुयुनाऽऽदिपर्याय इत्यर्थः ३, इत्थं त्रया सामपि मिथो नामाऽनन्तरकल्पना भिन्नाऽभिन्ना प्रदर्शिता, तो इम्यगुणचयाणां प्राधान्येन भेदोऽस्तीति ध्येयम् । या पुनः उपचारानुभूतिभ्यामुपधारो अनुभूतिर तुभवः, उपचारानुभूतिश्च ताभ्यां पर्यायार्थिकनयोऽपि भनेदताम अभाव रूप्याऽऽदिषु मनुते यनः घरादि मृद्रव्याऽऽद्यभिन्नमेवाऽऽस्ते, लक्षणया ज्ञानेन खेति शमां प्रतीतिं घटादिपदानां मृदादिरूव्येषु लकण प्रवृध्याऽङ्गीकुर्वतां न काऽपि कृतिरिति नावार्थः ॥ ३॥ सव्या० ५ अध्या० । पर्यायार्थिकषम्भेदानादपर्यायार्थिकषद स्वाऽऽयोजनादिनित्यकः । आन तु पर्यायो, मेरुशेन वाऽपः ॥ २ ॥ (पति) पास पहमे पर्यायार्थिकप मेदा पर्यायार्थिको नयः षट्कार इत्यर्थः । तत्र तेषु षट्सु नेदेषु, अनादित्यः पार्थिकः कथ्यते। न विद्यते श्रादिर्यस्यानादिः पूर्वकल्पनारहितः, उत्पश्यनाबात्, नित्य एव नित्यकः, स्वार्थे कः, सदैकस्वभावः, अनश्वअनादि नित्यकोत इन्द्रः। अशुद्धपर्याव कः प्रथमः क इत्र ?, अचनो मेरुगिरिरिव यथा मेरुः पुफलपर्यायेण प्रवाहतोऽनादिनित्य कोऽस्ति सङ्ख्यातकाले भन्योम्यपुद्रल संक्रमेणाऽपि संस्थानतः स एव मेरुर्वर्तते, एवं रक्षअनादीनामपि पृथ्वीपति " अथ द्वितीयः पर्यायार्थिकस्य कथ्यतेपर्यायार्थिकः सादि-नित्यः सिद्धस्वरूपवत् । (पति) पर्यायार्थिको द्वितीय सामादिसहिता सत्यथासिद्धस्या दि उपस्थित सर्वकर्मसिद्धपर्याय त्या परं ननित्येविनश्यत्यात् सिद्धपर्याया साकारतो राजसमंद भावनीयम् । पज्जवडिय अथ तृतीयं पार्थिका पुराना सागौणतयोत्पाद-व्यययुक् सदनित्यकः ॥ ३ ॥ चागतवानुपत्येन उत्पादक सद्यःसापनित्यका अनित्यशुद्धपर्यायार्थिकः कथ्यते सद्स देन यदा शुद्धमित्यर्थस्तदा अनित्यमुद्धपर्यायार्थिको भवति । कोडशः १ सत्यावश्ययुत्पादक व्यध उत्पादन्ययो ताभ्यां सहितः सतो हि वस्तु उत्प भवतः, तस्मात्सता गौणतया सत्ताया मप्राधान्येन उत्पादपययोः प्राधान्येन अनित्यशुकपर्यायार्थिकः ॥ ३ ॥ तत्र दृष्टान्तमाह । एकस्मिन्समये यद्वत पर्यायो नश्वरो जयेत् । एकस्मिन्समये पर्यायो नश्वरः पर्यायो बिनाशी भवेत् यद्वद्दू, शब्दो यथा पर्यायवाचकः, अत्र दि नाशं कथयतः पर्यायस्य व. स्वादोपे भागतः परं तु दर्शितं "प्राधान्या श्रीव्यं गौणत्वेन प्राधान्ययोः प्राधान्यविधिर्बलीयान् । " तस्माद्यस्य प्रधानत्वं त स्यैवोत्पत्तिनाशयोः समावेशः सत्ता हि भुवे नाशे च विपरी आत्मनो गौणत्वव्यपदेशि वर्तमानश्वमुभयत्र निक्षिपति इति । अथ चतुर्थभेदमुपदिशन्नाह - सच न चतुर्थाऽऽरूयो, नित्योऽशुरू उदीरितः ॥४॥ (तिन् अङ्गीकुर्वन् चतुर्थावयचतुर्थी मेदो नित्योर्थिक उदीरितः कथित इति कार्यः ॥४॥ मथामेवान्ते प्रि ययोत्पादव्ययधीय रूपैः शुकः स्वपर्यवः । एकस्मिन्समयेऽथातः, पर्यायार्थिकपञ्चमः ॥५॥ ( यचेति ) यथा एकसमयमध्ये स्वपयोपयुक्त स्पादव्ययधौम्यलक्षणैः शुद्धः । किं च-फोऽपि पर्यव उत्तरचरो रूपादिः पाकानुकूलपटे श्यामवर्णः पूर्वचरो नष्टस्तत उत्तरो रचर्ण शति प्रश्ना-रूपी घटः श्यामो वा रतिमा तथा तथाऽकारपरिचतपषः प्राप्यते इति हि पर्यायस्य शुरू तसा यदि को वति, समादर्शनमेवाशुकमिति । अथ पञ्चमं भेदोत्कीर्तन करोति ( अथेति ) अथातः परं पर्यायार्थिकः पञ्चमो शेयः ॥ ५ ॥ कर्मोपाधिविनिर्मुक्तो नित्यः शुकः प्रकीर्तितः । यथासिकस्य पर्यायैः समो जन्तुर्जवी शुचिः ॥ ६ ॥ नित्यशुद्धपर्यायार्थिकोऽस्ति । कीदृशः ?, कर्मोंपाधिश्चिमर्मुक्त:- कर्मण उपाधिकानामन्यद्रव्याणां कुतश्चित्संगतानामुपाधिः साहच तेन विनिर्मुको रहयः कर्मोपाधिषि निर्मुक्तः (बचत) वासनाविषयी करोति यथा भवी भवः संसारोऽस्तीति भवी संसारी, जन्तुः प्राणो सि कस्य कर्मोपाधिविनिर्मुक्तस्य सिद्धस्य, पर्यायैः समः सुविनिर्मलः, संसारे संसरतः प्राणिनोऽपि कर्माणि सन्ति, तानि च विचार्यमाणाभ्युपाधिरूपाणि वर्तन्ते यद्वत् अग्नेः शुद्धरूव्यस्था संयोगो धूम भीपाधिक एवं संजायते दि हापि विद्यमानाम्यपि कर्माणि अनात्मगुणत्वेनोपाधिकानि न्ति तस्य युकोऽपि प्रयुक्ततया विचिन्यमानः प्राणो सिद्धति कर्मोपाभावः सापि न विषकृणीयः । अथ ज्ञानदर्शनचारित्राणि उमाम्यपि वहिः प्रविवि तानि ततो नित्यशुद्धपर्यायार्थिकनेदस्य जावना संपद्यते ||६|| Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३०) अन्निधानराजेन्धः । परजवद्विय पज्जाभ अथ पायाधिकस्य षष्ठभेदोपकीर्तनमाह आह-गुणपर्याययोः का प्रतिविशेषः । मुच्यते-सदैव सहव. अशुद्धश्च तथाऽनित्य-पर्यायाथिकोऽन्तिमः । तिवावर्णगन्धरसाऽऽदयः सामान्येन गुणा उच्यन्ते । नहि यथा संमारिणः कर्मो-पाधिसापेक्षिकं जनुः॥ ७॥ मूर्ते वस्तुनि वर्णाऽऽदिकमात्रं कदाचिदपि व्यबच्चिद्यते एक(प्रयुद्धति ) कर्मोपाधिसापेकोऽशुको विनश्वरत्वादनित्यः | गुणकालत्वाऽऽदयस्तु द्विगुणकालस्वाऽऽद्यवस्थायां निवर्तन्ते एवमनित्यमादौ कृत्वा अशुद्धं ततो योजयित्वा पर्यायार्थिक एवेत्यतः क्रमवृत्तित्वात्पर्यायाः । उक्तं च--" सह वर्तिनो पदेन समुच्चार्यते तदा षष्ठोऽन्तिमो भेदोऽनित्याशुरूपर्यायार्थि गुणाः, यथा जीवस्य चैतन्यामृतत्वाऽऽदयः । क्रमवर्तिनः को निपद्यते । अथ तस्योदाहरणमाह-यथा संसारिणः सं. पर्यायाः, यथा तस्यैव नारकरवतियंगादय इति । ननु यद्येवं सारवासिजनस्य जनुजन्म कर्मोपाधिसापेक्षिक प्रवर्तते,जन्मम सर्दि वर्णाऽऽदिसामान्यस्य भवतु गुणत्वं तद्विषाणां तु रणव्याधयो वर्तमानाः पर्यायाः भनित्या उत्पत्तिविनाशशा कृष्णाऽऽदीनां न स्यात् अनियतत्वातेषाम ? | सत्यम् । वर्णा ऽऽदिसामान्यभेदानामपि कृष्णनीलाऽऽदीनां प्रायः प्रजूतका. लित्वात्, पुनरशुद्धाः कर्मसंयोगजनितत्वात् भवस्थितानां प्रा. लं सहवस्तित्वात् गुणत्वं विवक्षितमित्यलं विस्तरेण । णिनां भवन्तीति । अत एव मोकार्थिनो जीवाः जन्माऽऽदि आद-भवत्येवं, किन्तु पुद्रलादिकायद्न्यस्यैव संबन्धिनो गुपर्यायाणां विनाशाय ज्ञानाऽऽदिना मोक्षे यतन्ते, तस्मात् कर्मा णपर्यायाः किमिति गुणपर्यायनामत्वेनोदाहताः ?, न धर्मास्तिपयनित्यानि अशुकानि,तैः सापेक्षिकं जन्माऽऽद्यपि अनित्यमशुवं कायाऽऽदीनाम, न च वक्तव्य-तेषां ते न सन्तीति, धर्माधर्माचेत्यं योजनया निष्पन्नो नयोपि अनित्याशुरूपर्यायाधिकः कथ्य 55काशजीवकालाव्येष्वपि यथाक्रम गतिस्थित्यवगाहोपयोते इत्यर्थः॥ ७॥छाया०६ अध्या.।(पर्यायाधिकनयमतं सामायिकोदाहरणेन 'सामाइय' शब्द) (पर्यायाधिकनयविषये गवर्तमानाऽऽदिगुणानां प्रत्येकमनन्तानामगुरुलघुपर्यायाणां च विशेष: 'सुरुपज्जवठियणपमत' शब्दे दर्शयिष्यते ) प्रसिद्धत्वात् ।। सत्यं, किन्विन्छियप्रत्यकगम्यत्वात सुप्रतिपापज्जवणय-पर्यवनय-पुं० । परि समन्तादवनमवः पर्यवो विशे यतया पुद्रलरूव्यस्यैव गुणपर्याया उदाहता न शेषाणामित्य विस्तरेण, तस्माद्यकिमपि नाम तेन सर्वेणापि द्रन्यनाम्ना पः,तकाता वक्ता वा नयो नीतिः पर्यवनयः। पर्याार्थिकनये,"द. गुणनाम्ना पर्यायनाम्ना वा भवितव्यं, गातः परं किमपि नामा. व्यक्षिीय पजव-ठिो य सेसा विपज्जासि" सम्म०१काए। स्ति,ततः सर्वस्यैवानेन संग्रहात् त्रिनामैतदुच्यत इति । अनु। भाषा । विशेषाणामुपत्तिबलात्परिच्छेदे, सम्म०१ कापम । पज्जाणिस्सामम-पर्यायनिःसामान्य-ना पर्यायाद् निष्कान्तं पज्जवणाम-पर्यवनामन-न० । नामभेदे, अनु० । तद्विकलं सामान्यं संग्रहस्वरूपं यस्मिन्वचने तत्पर्यायनिःसासे किंतं पज्जवणामे। पज्जवणामे एगगुणकालए दुगुण- मान्यम् । पर्यायऋजुत्रनयविषयादन्यो व्यत्वादिविशेषः, कालए तिगुणकाझए० जाव दसगुणकालए संखिजगुणका स एच निश्चितं सामान्यं वचनम् । द्रव्यत्वाऽऽदिसामान्यविशेषामए असंखिजगुणकाझए अणंतगुणकालए, एवं नील जिधायिनि व्यार्थिकरूपप्रतिपादके वचने, सम्म. १ कारमा ("पज्जवनिस्साममं (७)" इत्यादिगाथायाः ‘णय। मोहिनहानिमुकिल्ला वि भाणियचा । एगगुणसुरजि शब्द चतुर्थभागे १८८८ पृष्ठे विस्तरः) गंधे मुगुणसुरनिगंध तिगुणसुरनिगंध जाव प्रणंतगुणसुर-पज्जनवाइ-पर्यायवादिन-पुं० । पर्यायनयमतानुसारिणि नय. जिगंधे । एवं दुरभिगंधो वि भाणियब्यो । एगगुण तित्ते० विशेषे, " उत्पत्तिविगमनौव्य-स्थापकं संप्रचक्षते । उत्पत्तिवि. जाव आगंतगुणतिते । एवं कमुकसायअंबिलमहरा वि| गमावत्र, मतं पर्यायवादिनः॥१॥" उत्त०१०। भाणि अन्या। एगगुणकख मे० जाव अत्गुण कक्खमें। पज्जवसाण-पर्यवसान-10 । निष्ठाफले प्रश्न०४ सम्ब० द्वार। एवं मउगरुअन्नहुप्रसीतनसिणणि सुक्खा वि जा अन्ते, स्था० २०१०। मिव्वा । से सं पजवनामे । पज्जवसिय-पर्यवसित-न० । पर्यवसानं पर्यवसितम्। भावे क्त प्रत्ययः। नं०। स्था० । समाधिमरणतोऽपुनमरणतो वाऽनशने, परिः समन्तादधन्स्यपगच्चन्ति, न तु द्रव्यवान सर्वदैवावति स्था० ३ ठा०४ 101 धन्त इति पर्यवाः । भयवा-परिः समन्ताद वनानि गमनानि 5. पज्जा -प्रज्ञा-स्त्री० । “को प्रा"३। ०३॥ इति कसं. व्यस्थावस्थान्तरप्राप्तिरूपाणि पर्यवा एकगुणकासत्वाऽऽदया,ते. बन्धिनो अस्य लुक । जद्वित्वे । पज्जा । मुक्यभावे णः । पमा । पां नाम पर्यवनाम । यत्र तु पर्यायनामेति पाठः, तत्र परिः सम प्रकृष्टबुझौ, प्रा०२ पाद । नादयन्तेऽपगच्छन्ति न पुनर्षव्यवस्सर्वदेव तिष्ठन्तीति पर्यायाः । अथवा-परिः सामस्स्येन पत्यभिगच्छति व्याप्नोति वस्तुतामि पधा-स्त्री० । अधिकारे, 'पज्जा अहिगारो।' पाई. २५० गाथा नि पर्याया एकगुणकालस्वाऽऽदय एब,तेषां नाम पर्यायनामेति । मधिरोहिण्याम, दे० ना० ६ वर्ग । सह गुणशब्दशिपर्यायः, ततश्च सर्वस्यापि त्रैलोक्यगतकाल. पज्जाअ-पर्याय-पुं० । परि समन्तादयन्तेऽपगच्छन्ति न पुनस्वस्यासकल्पनया पिमितस्य य एकः सर्वजघन्यो गुणोंश- व्यवत्सर्वदेव तिष्ठन्तीति पर्यायाः । अथ वा-परि सामस्स्येन मतेन कालकः परमारावादिरेकगुणकामक:--सर्वजघन्यकृष्ण पत्यभिगच्चति व्यानोति वस्तूनामिति पर्यायाः । “घय्यर्या इति । द्वाज्यां गुणाभ्यां तदंशाज्यां कालकः परमाएवादिरेव द्वि- ज्जः" | 0 |२|१४॥ इति यस्थाने उजः । एकगुणकालत्वागुणकालकः । एवं तावद् नेयं यावदनन्तैर्गुणैस्तदंशैः कालको | विषु, अनु. । अजीवानां मानुषत्ववाहयाऽऽदिषु च जीवानां उनन्तगुणकालकः स एवेति, एवमुक्तानुसारेणकगुणनीलका कालकताऽवस्थालवणेभ्यर्थेषु, स्था०१०म० पर्याया भेदा दीनामे कगुणसुरनिगन्धाऽऽदीनां च सर्वत्र भावना काति। । धर्माः बाह्यवस्त्यालोचनाप्रकारा इत्यर्थः। प्रा० म०१ अ.। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३१ ) अभिधानराजडः । पज्जा 1 मं० । पर्यायो विशेषो धर्म इत्यनर्थान्तरम् । स्था० ४ ठा० २ उ० । अनु० | विशे० स्वपरपर्यायादयोऽनेकप्रकाराः पर्यायाः विशे० तेच पर्याया विविध रूपरसादयो यु गद्भावनादयस्तुमभाविनः पुनः दा ययात्सर्वे विविधाः । इन्द्रो यो हरिरित्यादिशब्देऽनिष्यन्ते ते सर्वेऽपि शब्दपर्यायाः । ये त्वभिन्नापयितुं न शक्यन्ते श्रुतज्ञानविषयत्वादतिक्रान्ताः केवलाऽविज्ञा नविषयास्ते ऽर्थ पर्यायाः । पुनरेते द्विविधाः स्वपर्यायाः परपयवाध पुनस्तेऽपि केचित्स्वाभाविक केचित्पूर्वापरादिश यापेकिकाः पुनरेते सर्वे मार्तमानकाल मे त्रिविधाः । विशे० | नं० श्र० प्र० । ( अक्षरस्य के स्वपर्याबा के परपर्याया इति ' अक्खर' शब्दे प्रथम नागे १४१ पृष्ठे कम) गुणपर्याययोर्भेदः- सहवर्तिनो गुणाः, क्रमवर्तिनस्तु पर्यायाः । प्रा० म० १ ० । सदवर्तिनो गुणाः शुक्र. स्वाऽऽदयः । क्रमवर्तिनः पर्याया नवपुराणाऽऽइयः । श्रा० म० १ अ० इति गुण देतीया २०६ पृष्ठे विस्तरः) 6 3 दूरे ता अर्थ, गुणसद्दे चैव जान पारिच्छं । किं पज्जवाहिए हो-ज्ज पज्जने चेत्र गुणसया || || दूरे तात गुणगुणिनोरेकान्तेनाम्यत्वम, असंजावनीयमिति, यावद्गुणामक द्रव्यन्यप्राधितत्वादेकान्तगुणगुणिभेदस्य न च समवायनिमितोऽयमभेदपानमस्ति किं पयोयादधिके गुणशब्द उत पर्याय एव प्रयुक्त इति भभिप्रायश्चन्न पर्यायादन्यो गुणः पर्यायश्च कथञ्चिद् व्याssमकम् इति विकल्पः कृतः। यदि पर्याया गुणसं ततः । दो पुछ नया भगवया, दरिया नियया । एतोय गुणविसेसे, गुडियो वि जुज्जंतो ॥ १० ॥ द्वावेव मूलनयौ भगवता द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिको नियमित त प्रातः पर्यायादधिके गुणविशेषे ग्राह्ये सति तद्प्रादकगुणास्तिकनयेोऽपि नियमितुं युज्यमानः स्यात्, अन्यथा अव्यापकत्वं नयानां भवेत्, अर्हता वा तदपरिज्ञानं प्रसज्येत । न च जगवताऽसावुक इत्याह जं च पुण अरिया ते सुते गोयमाई | पज्जन्समा यिया, बागरिया तेल पज्जाया ।। ११ ।। यतः पुनर्भगवता तस्मिंस्तस्मन्पुत्रे वएणपजवेहि गंधपखवेहि" इत्यादिना पर्याय संज्ञा नियमिता वर्णाऽऽदिसु गौतमाssदियो व्याकृता, ततः पर्याया पत्र वर्णादयो गुणा इत्यभिप्रायः । अय तत्र गुण एव पर्यायशब्देनो कस्तुल्यार्थत्वादागमाचा य एव पर्यायः स एव गुण इत्यादिकात् ॥ ११ ॥ and ass परिगमणं पज्जाओ, अडेगकरणं गुणोति एगस्यं । तह वि न गुण चिजाइ, पज्जत्रणय देसणं जम्हा ||१२|| परि समन्तात्सहभादिभिः क्रमभाविनिश्वस्त प रिणतव्य गमनं परिच्छेदो यः स पर्यायो विषयविषयिणोरदेनेका वस्तुकरणं कलेशांनावानं विष परिभेदादेव गुण इति तुल्यार्थी गुणपर्यायी तथा न गुणार्थिक इत्यभिहितस्तीर्थकृता पवनपद्वावेव देशना यस्मात क्रेता जगवतेति । पज्जा गुणद्वारेापदेशनायां भगवतः प्रवृत्तिरूपम्यस्थतेन गु भाव इत्याद पति अस्थि समये, एगगुणो दसगुण अांतगुणो | रुवाईपरिणामो भावम्हा गुणविसेसो || १३ || जल्पन्तियगुणाम्यत्यवादिनो विद्यत एव सिकाए गुणकालय गुणकामद" इत्यादि रूपाऽदो पश स्तस्माद् रूपाऽऽदिर्गुणविशेष पवेत्यस्ति गुणाधिको नय उद्दिश्य भगवति । मत्राsse सिद्धान्तवाड़ी , गुगासदयंतरेण वि सं तु पज्जयविसेस खाणं | सिझर वरं संखा-ण सत्यधम्मो न य गुणो सि॥१४॥ रूपाऽऽद्यपि गुणशब्दव्यतिरेकेणाप्येकगुणकाल इत्यादि (?) त पर्यायविशेषसंख्यावाचकं वचः सिध्यति, न पुनः गुणास्तिकन प्रतिपादकता संयानं न गुणः शास्त्रधर्मत्वादयेत्यर्थ दृष्टान्तद्वारेण मुमेवार्थे दृढीकर्तुमाह जह दस दसगुणापि गम्म दस स विगुणस तव एवं पि दव्वं ।। १५ ।। यथा व ज्येषु एकस्मिन् वा रूम्ये दशगुणेते गुणाब्वातिरेकेऽपि दशवं सममेव राचैतदपि न विद्यते परमाणुरेगुण कृष्णदिदियेकाऽऽदिशब्दाऽऽधिकये गुणपर्याययो वस्तु मस्तयोः तुल्यमिति नानगुणानां पर्यायत्वे वाचक मुख्यसूत्रं गुणपर्यायश्चद् द्रव्यमिति विरुभ्यते, युगपदयुगपत्नाविपर्यायविशेषप्रतिपादनार्थत्वात् तस्य । न चैत्रमपि मतुष्ंयोगाज्याविभिन्न पर्यायसिद्धिर्नित्ययोगेऽत्र मतुविधानात् इथपर्याययोस्ताम्यात सदाि स्वात् । अन्यथा प्रमाणबाधोपपत्तेः संज्ञासंख्यास्वलक्षणार्थक्रि पादाकपचितमनुपपतिः। , पर्याययोर्भेदेकान्तप्रतिषेधे भनेदेकान्तवाद्यादएक्वा, जो पुण दव्त्रगुणजाइनेयम्मि | पुर्व परिको भाहरणमेतमेयं तु ।। १६ ।' एकान्तव्यतिरिक्ता ज्युपगमषादो यः पुनर्द्धव्यगुणजातिभेदेपुस यद्यपि पूर्वमेव प्रतिकिलो देकान्तादप्रामाण्यात् अभेदग्राहकस्य च सर्व ?I पिचपुत्तननिभश्व जाणं पुरससंबंधो। य से एगस्स पिउ, चि सेवाएं पिया हो ॥ १७ ॥ पितृपुत्रनप्तृभागिनेय भ्रातृभिये एकस्य पुरुषस्य संबन्धस्तेनासायेक एव पित्रादिभ्यासादयति वासानेकस्य पि तापुत्र संबन्ध इति शेषाणामपि पिता भवति । संबंधविसिद्धो, सो पुरियो पुरिसभावारिस भो । तह दव्यमिदिगगयं, रुवाइ विसेसणं बदइ ।। १० ।। यथा प्राग्दर्शितधन्यविशिष्टः पित्रादिव्यपदेशमावा सौ पुरुषः पुरुषरूपतया निरतिशयोऽपि संस्तथा यमन्द्रियगतं घ्राणरसनन्त्रकुस्त्वक्श्रोत्र संबन्धमवाप्य रूपरसगन्धस्प शस्यपदेशमा समते मध्यस्वरूपेण विशिष्टमपि न हि Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३१) पज्जाभ अन्निधानराजेन्द्रः। पज्जाम सन्मादिशब्दवानीर्वाणनाथस्येष पाऽऽविशम्बभेदाब | मैताक्षणं युज्यते, नचाऽपि षण्यस्यावेतनस्य गुणगुणिनोरत्य. स्तुभेदो युक्तः, तदा द्रव्याद्वैतकान्तस्थितेः कथशित भेदबादो । तभेदे मसस्थाऽपसेरसतोभ रविषाणाऽऽदेरिव साक्षणाकम्यगुणयोर्मिथ्यावाद इति ॥ १८ ॥ संभवात् इति द्रव्यार्थान्तरसूतगुणवादिनः । अस्य निराकरणायाऽऽह दम्बत्यंतरच्या, सत्ताऽमुत्ता व ते गुणा होज्मा। होज्जा हि गुणपडुरं, अणंतगुणकालयं तुजं दवं। जा मुत्ता परमाणु, णत्थि प्रमुत्तेसु अग्गाणं ॥२॥ नउ महरो महबो, होई संबंधो पुरिसो ।। १५ ॥ যা নামাজিম লাভ ছবি জয় द्रव्यादर्थान्तरभूता गुणा मूर्ता अमूर्ता वा भवेयुः। यदि मूर्ताः, परमाणो न तर्हि परमाणवो भवन्ति, मूर्तिमपाऽऽद्याधारमासादयेत् द्विगुणमधुररसः कुतो भवेत्। तथा नयनसंबन्धाद् यदि माम कृष्णमिति भवेदनम्तगुणकष्णं तत् कुतः स्यात, स्वात,भनेकप्रदेशकस्कन्धव्यवसामथाऽमृताः,मग्रहणं तेषां, बैषम्यभेदावगतेनयनादिसंबन्धभानादसंभवात् । तथा पु. कशित भेदः, यथाक्रममेकामेकप्रत्ययावसेयत्वात कश्चि. भाऽऽदिसंबन्धद्वारेण पित्रादिरेव पुरुषो भवेतन स्वल्पो महा. दभेदोऽपि, रूपाऽस्मना स्वरूपस्य रूपादीनां च छण्याम्वेति युक्तः, विशेषप्रतिपत्तरुपचितत्वे मिथ्यात्वे वा सामान्य उस्मकतया प्रतीतेरन्यथा तदनाबापते। प्रतिपत्तावपि तथा प्रसक्तेरिति भावः। अत्राऽऽह भैकान्तवादी सीसमईवित्थारण-मित्तत्थोऽयं को समुन्नाको । जाइ संबंधवसा, जइ संबंधितणं अणुमयं ते। इहरा कहामुहं चे-व नस्थि एवं ससमयम्मि ॥२५॥ नणु संबंधविसेसे, संबंधिविसेसणं सिद्ध ॥२०॥ शिष्यबुकिविकाशनमात्रार्थोऽयं कृतः प्रबन्धः, इतरथा कथनं संबन्धिसामान्यवशात यदि संबन्धित्वसामान्यमनुमतं तव, वैषां नास्ति स्वसिकान्ते-किमेते गुणाः गुणिनो भिन्ना माहो. मनु संबन्धविशेषकारेण तथैव संबन्धिविशेषोऽपि किं नाभ्यु- श्विदभिसा शति । भनेकान्तात्मकस्वारसकलवस्तुनः। पगम्यते । पवंरूपेच बस्तुतचे अन्यथारूपं तत्प्रतिपादयन्तो मिथ्यावा. सिद्धान्तवाद्याह दिनो भवतीत्याहजुज्जइ संबंधवसा, संबंधिविसेसणं ण पुण एयं । न वि अस्थि अन्नवादोन वितव्यानो जिनोवएसम्मि। एयणाइविसेसगो, रूबाइविसेसपरिणामो ॥१॥ तं चेव य मन्नता, अवमन्नंता नयाणं ति ॥ २६ ॥ संबन्धविशेषवशात युज्यते संबन्धिविशेषः यथा-दएमा- नेवास्त्यन्यवादो गुणगुणिनो प्यनन्यवादो, जिनोपदेशे द्वाद. दिसंबन्धविशेषजनितसंबन्धिविशेषसमासादितः संबन्धि शाले प्रवचने, सर्वत्र कथश्चिदित्याश्रयणात तदेषाम्यदेवेति या विशेषोऽवगतः । च्याद्वैतवादिनस्तु संबन्धिविशेषेनाऽपि संब. मन्यमाना आगममेवावमन्यमाना बादिनोऽभ्युपगतविषयावकाविधावशेषः संगते शति कुतो रसनादिविशेषसंबन्धजनि. पधायित्वादका भवन्ति, भन्युपगमनीयवस्वस्तित्वप्रतिपादतो रसाऽऽदिविशेषपरिणामः (१)। कोपायनिमित्तापरिकानात, मृपावादिवदिति तात्पर्याधः । नम्बनेकान्तवादिनोऽपि रूपरसाइरनन्तद्विगुणाऽदिवैषम्या सम्म० ३.काण्ड । परिणतिः कथमुपपन्नेत्याह परस्परं द्रव्यपर्याययोरत्यन्तं नेदः, इत्यत्र युक्तिमाहजन्नइ बिसमपरिणयं, कह एवं होडिइत्ति लवणीयं । उप्पायाइसहावा, पज्जाया जं च सासयं दध्वं । तं हो। परणिमितं, न वत्ति एत्थ स्थि एगंतो ॥ ॥ ते तप्पभवान तयं, तप्पभवं तेण ते जिन्ना ॥५६॥२॥ शीतोष्णस्पर्शयले ककदाविरोधात जरायते एकाऽऽम्रफला (सप्पायेत्यादि) यस्मा बुत्पादययपरिणामस्वभावाः पर्या. दो विषमपरिणतिः कथं नवतीति परेण प्रेरिते अपनीतं प्रद पाः, शाश्वतं नित्यं पुनर्जन्यम् । अपरं च-ते गुणास्तत्प्रभा शिंतमाप्तेन, तद्भवति परनिमित्तं व्यकेत्रकालजावानां सहका पा कण्यालुब्धाऽऽत्मलाभाः, न पुनस्तद् द्रव्यं तस्मनबं गुणेरिणां वैचित्र्यात प्रासादयति तदासम्रादि वस्तु विषमरूपतया ज्यो लब्धाऽऽत्मस्वरूपम; तेन तस्मामुक्तन्यायेन परस्परं भित्र परनिमितं भवति, नवा परनिमित्तमेवं तत्राप्येकान्तोऽस्ति, स्वभावत्वात् निमास्ते क्यपर्याया भन्योऽन्यव्यतिकिण स्वरूपस्यापि कथश्चिनिमित्तत्वात, तन्नद्रव्यातेकागतः सं. रति ॥२६५॥ व्यपर्यायाधिकनय प्रस्तावे, बिशे । एकार्थके, भत्री, सभ्यगुणयोमेकाम्तवादिना प्राक प्रदर्शिततमुकणस्यै मा०म०१ अ. विशेष प्रय पर्यायाभिधानं किमर्थम् । उच्य. कत्वप्रतिपयध्यक्षबाधितत्वाशकणान्तरं वक्तव्यम् । ते-प्रसम्मोहप्रतिपयर्थम । तथा चकः शशी निशाकरो रज. तदाह निकर उमुपतिरिस्येवमादिषु चम्बपर्यायेषु, प्रावित्यः सविता दमस्स लिईनम्म वि-गमो य गुणनखायं तु वत्तव्यं । भास्करो दिनकर इत्येवमादिषु सूर्यपर्यायेवभिहितेषु चन्द्रसू. थपर्यायाभिक सन् एकस्मिन् शशिपर्याये केनाप्युक्त समस्त. एवं सइ केवलिणो, जुज्जइ तंणो उदवियस्स ॥शा सर्यपर्यायव्युदासेन चपर्यायेषु सर्वेषु यदि वा सूर्यपर्याय व्यस्य लक्कणं वितिः, जन्म बिंगमो लक्कणं गुणानाम, एवं एकस्मिन् केमायुक्त समस्तचन्द्रपर्यायपरित्यागेन सर्वेषु सूसति केवझिनो युज्यत पतलकणं, नत्र किल केवलाश्मना पर्यायेषु संप्रत्ययो भवति, न तु मुह्यति । प्रा०म०१०। खित एव चेतनाचेतनरूपा अन्येऽथाकेयभावेनोत्पद्यन्ते, प्रश- भाब.४०। पर्यायो भेदो भाव इत्यनर्थान्तरम । मरूपतश्चादिफ्त (?) कथं वा केसिनः सकलशेयप्राहिणो । बिशे। भा००। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जाभ प्रभिधानराजेन्सः । पज्जाम मथ पर्यायभेदानाह अईरितः, यो यस्मायल्पकासपी पर्यायः स च तस्मादस्यत्व नस्वा जिनं प्रवक्ष्यामि, पर्यायोत्कीर्तनं मुदा । विवक्कया अशुखार्थपर्यायः कथ्यते ॥५॥ अत्र वृरुवचनसंमति दर्शयतिव्यन्जनार्थविजेदेन, तद् द्विभेदं समासतः॥१॥ नरोहि नरशब्दस्य. यथा व्यजनपर्ययः । जिनं वीतराग, मत्था नमस्कृत्य, पर्यायोस्कीर्तनं पर्यायाणा. बाझाऽऽदिकोऽर्थपर्यायः, सम्मतो जणितस्त्वयम् ॥६॥ मुस्कीर्तनं पर्यायोत्कीर्तन, मुदा हर्षेण, प्रवक्ष्यामि, यदित्युत्तरा मरो हि नरशम्दस्य यथा व्यम्जनपर्याय इति । यथा पुरुपेक्षायां, तत्पर्यायोत्कीर्तनं, समासतः संपाद, व्यजनार्थवि. प्रेदेन-यजनं चाऽर्थ,तयोविभेदः प्रत्येक योजना, यम्जनभै. पशब्दवायजम्ममरणकासपर्यन्त एकोऽनुगतनरवपर्याय,सब पुरुषम्य ध्यानपर्वायोऽस्ति, संमतिविषये बासादिकस्तु पुनदेनादेन,तत् कीर्तनं पर्यायस्य विभेदं द्विप्रकारमित्यर्थः ॥१॥ रथंपर्यायः कषितः। भयमिति इदमा प्रत्यकस्ये साक्षात्संसत्र व्यन्जनपर्यायः, त्रिकामस्पर्शनो मतः । मतौरष्टः इति । मत्र गाया-"पुरिसम्मि पुरिससहो, जम्मा. हितीयश्चार्थपर्यायो, वर्तमानानुगोचरः ॥२॥ श्मरणकालापज्जतो । तस्स उबालाईया, पज्जवजेया बहुतत्र तयो योरुत्कीर्तमयोर्मध्ये प्राणे यजमपर्यायः त्रिका विगप्पा ।। ३२॥"॥६॥ मस्पर्शनो मतोऽनुगतकालकलितः कथितः । यस्य हि निकास मथ केवलकानाऽऽदिका गुणग्यज्जनपर्याय एष भवतितस्पर्शनः पाया सच व्यजनपर्यायः। यथा हि घटाऽऽदीनां मृ. वार्थपर्यायो नास्तीत्येताहशी कस्पचिद् दिग्पटाऽभासस्याss. दादिपर्यायो व्याजमपर्यायो-मृन्मयः, सुवर्णाऽऽविधातुमयो वा शरकाऽस्ति तां निराकरोतिघटः कामयेऽपि मृदादिपर्यायत्वं व्यस्जयति । तथा द्वितीयो षड्गुणहानिधियां, यथाऽगुरुनघुस्तथा। भेदोऽर्थपर्यायः वर्तमानानुगोचर सूक्ष्मवर्तमानकालवी अर्थ- पर्यायः तणनेदाच, केवमाऽऽख्योऽपि संमतः ॥ ७॥ पर्यायः । यथाहि-घटाऽऽस्तत्तत्क्षणवर्ती पर्यायो यस्मिन् कामे पागुणहानिवृक्रियामगुरुलघुपर्यायाः यथा कथिताः परवर्तमानतया लितस्ततत्कासापेक्षा कृतविद्यमानत्वेनार्थपर्याय गुणहानिवृहिलकणा अगुरुलघुपर्यायाः सदमार्थपर्याया इनि. उच्यते इत्यर्थः॥२॥ बत् पर्यायः कणभेदात केवलायोऽपि संमतःकणभवात् अथ तयोः प्रत्येक वैविध्यं दर्शयन्नाद केवलकान पर्यायोऽपि भिन्न एव दर्शितः । यत:-" पढमद्रव्यतो गुणतो द्वेधा, शफनोऽशुरुतस्तथा । समयेऽयोगिभवत्थकेवलनाणे भपढमसमये सयोगिभवस्थके बल नाणे।" इत्यादिवचनात् । तरजुसूत्राऽऽदेशेन गुरुगुणस्याशुरुषव्यव्यञ्जनाऽऽख्य-श्चेतने सिद्धता यथा ॥३॥ प्यर्थपर्याया मन्तव्याः॥७॥ कव्यतो द्रव्यपर्यायो भवति, तथा गुणतो गुणपर्यायोऽपि सद्रव्यव्यजनोऽणुश्च, शुधपुलपर्यवः । प्रवति, एवं द्वधा द्विप्रकारः स्यात् । तथाहि-व्यव्यज घणुकाऽऽद्या गुणाः स्वीय-गुणपोयसंयुताः॥७॥ नपर्यायो, गुणन्यजनपर्याय इति । तथा-पुनस्तेनैव प्रकारेण शुक्रतः शुशद्रव्यव्यम्जनपयायः, भाखतोऽशुरून्यम्यम्ज. सद्व्यव्यजनोऽणुः शुरुजव्यव्यम्जनपरमाणुः शुदपु. नपर्यायश्च द्विप्रकारः। तत्र तेषु भेदेषु गुरुरव्यव्यम्जनाऽऽक्य: द्रलपर्यवः तस्य नाशो नाऽस्ति । तथा दस एकाऽऽदिका शुरुमव्यन्यजनपर्यायः, कस्मिन् भवति !, चेतने, यथा सिद्ध प्रशुरुषव्यन्यजनपर्यायाः संयोगजनितस्वात् । कीरया, ता-खेतनवग्यस्य यथा सिद्धपर्यायः । अयं हि केबलभावात् स्वीयगुणपर्यायसंयुताः पुलरुण्यस्य मशुद्धगुणव्यम्जनकेयः॥३॥ पर्यायास्ते निजनिजगुणाऽऽश्रिता मन्तव्याः । यतः परमापुनर्भदोपदेशमाह णुगुणो यः स च शुखगुणव्यजनपर्यायः, तथा-विप्रदे. शाऽऽदिगुणो यः स चाशुरुगुणव्यजनपर्यायः ॥८॥ अशुदमव्यव्यजनो,नराऽऽदिर्बहुधा मतः। सत्मार्थपर्यवाः सन्ति,धर्माऽऽदीनामितीव ये। गुणतोऽपीत्थमेवात्र, कैवस्यं मतिचिन्मुखः ।।४॥ कथयान्ति न किं तेऽमुं, जानन्त्यात्मपरार्थतः॥॥ प्रायब्यानपर्यायोऽशुरुश्यव्यञ्जनो नराऽऽदिः, श्रादिश धर्मादीनां धर्मास्तिकायाऽऽदीनां सदमार्थपर्यवाः समयमात देवनारकतिर्यगादयो बहुधा मताः तदपेक्कया नराऽऽदि. व्यन्जनयर्यायाः सन्ति, इतीब ये कथयन्स्येतारशं हवं कुर्वन्ति बंधा मतः । अत्र हि ज्यभेदः पुलसंयोगजनितोऽस्ति, मनु तेजना हवं त्यक्त्वा प्रात्मपरार्थतःनिजपरप्रत्ययारजुसूत्राऽऽहे. ध्याऽदिनेदेनवं भेदः। गुणतोऽपीस्थमेव । गुणव्यञ्जनपर्यायो द्वि- शेन चाऽ, कणपरिणतिरूपं पूर्वोक्तमर्थपर्यायमपि केवलज्ञाना. प्रकारः । तत्र प्रथम शुरुगुणव्यजनपर्यायः कैवल्य केवल- ऽऽविवत् न किं, किमिति कथं न जानन्ति हठं त्यक्त्वा कथं नासानाऽऽदिरूपः, द्वितीयोऽप्यशुद्धगुणव्यानपर्यायो मतिचिन्मुखः कोकुर्वन्ति । मतिश्रुतावधिमनःपर्यायरूप इति ॥ ४॥ किं च-तेषु धर्मास्तिकायाऽऽदिवपेक्तयाऽशुद्धपर्यायोऽपि पुनः कथयति भवति, न चेसदा परमायुपर्यन्तावश्रामः पुद्रलमध्येऽपि म ऋजसूत्रमवेनाऽर्य-पर्यायः कणवृत्तिमान | भवतीत्यभिप्रायेण कथयन्नाहभाज्यन्तरः शुरु इति, तदन्योऽशुरू रितः ॥ ५॥ | यथाऽऽकृतिश्च धर्माऽऽदेशको व्यजनपर्यवः । अजुमूत्रमतेन अजमत्राऽऽ शेनाऽर्थपर्यायः, प्राभ्यन्तरः शुकी-| साकस्य व्यसंयोगा-दशुद्धोऽपि तथा नवेत् ॥१०॥ उथंपर्यायः कणवृतिमान क्वणपरिणतः सम्यस्तदतिरिक्तोऽश- धर्मास्तिकायादेराकृतिलोकाऽऽकाशमानसंवानरूपा यथाव. Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४ ) अनिधानराजेन्ऊ | पज्जाय संते तथा शुद्ध व्यञ्जनःजनपर्यायः कथ्यते परनिरपेक्षत्वेनेति तथा शोकस्य व्याप संयोग जनपयोऽपि तथा प्रकल्प कम्यसंयोगात् निरपेक्षत्वं कथयविरोधात विरो धः कोऽपि नास्तीत्यर्थः ॥ १० ॥ अथाssकृतिः पर्यायो जविष्यति, संयोगः पर्यायो न भविष्यतीत्याशङ्कां परिदरसाद ११ ॥ प्राकृतैरिव संयोगः, पर्यत्रः कथ्यते यतः । उत्तराध्ययनेऽप्युक्तं पर्यायस्य हि लक्षणम् ॥ प्राकृतिवत्ययः कहते तो देतो पर्यायस्य लक्षणं, होति निश्चितम् उतराध्ययनेऽप्युक्तम् कथितम। ततोभय सणं समेदमपि श्रध्ययनादेवा सेयमिति ॥ ११ ॥ संयोग पुनस्तदेवाह एकत्वं च पृथक्त्वं च संख्या संस्थानमेव च । संयोगश्च विभाग - तीत्थं मनसि चिन्तय ।। १५ ।। एक पृथकत्वम् एतद्द्वयं तथा पुनः संख्य संस्थान सद् इयं च पुनः संयोगः विभागः तद् द्वयं प्रत्यादि प द्विश्यपरिणतं मनसि विलय गोरी त्यर्थः । तथा व तत्र गाथा- "पगतं च पुडुतं च संखा संद्वाणमेव य । संजो• गोविभागो पातुखणं ॥१॥" इत्येतयो क पदभावना भावयिताया। पुनः प्रकृतमेवार्थमाह " उपचारी न वागुको, यद्यप्यन्याऽऽश्रितो भवेत् । असता मनुष्याऽऽयस्त नाजुक योगकाः ||१३|| उपचारी शुकद्यप्यभितो भवेत् पर व्यसंयोगं स्यात् तथाप्युपचारी अशुरूतां नाप्नोति । अथ च पद्येवं कथविष्यथ यद् यदि च धर्मास्तिकायां परसंयोगोऽस्ति तदुपरितपर्याय इति कयते परं स्वपति न कथ्यते यातयास्वतुष्येत्यहारोऽस्तीति तत्तस्माद् मनुष्याऽऽदिपर्यायोऽप्यशुद्ध इति न कथ्यते, असद्भूतव्यवहारनयग्राह्यत्वेना सद्द्भूत इति कथ्यते । तद्धि तत्त्वादिपर्याय वदेक द्रव्यजन कावयवसङ्घातस्यै वायुरूरूपश्य जनपयोयच कथयन्ते चतुरस्रं समेदि• ति । तस्मादनपेाभ्यां शुद्धाशुद्धानेकमेव श्रेय इति । तदेवाप्रेतने पद्ये प्रतिपादयिष्यति । पुनरक्षरात्र असता मनुष्याऽऽद्यास्तदा अशुरूयोगका मेति ॥ १३ ॥ पुनः कथयति धर्माऽऽदेरन्यपर्यायेणाऽऽत्मपर्यीयतोऽन्यथा । अताविशेषो न जीवपुरुवयोर्यथा ॥ १४ ॥ धर्मास्तिकाचादेरन्यपर्यायेव परपयामप यथेाऽऽत्मपर्यायतः स्वपर्यायादन्यथा विषमत्वं विलक्षणत्वं कातव्यम् । यतः कारणादशुद्धताया विशेषो नास्ति, यथा-जीलपविषये मशुद्धताविशेषो नास्ति ॥ १४॥ पज्जा अथ प्रकारान्तरेण चतुर्विधपर्याया नयचक्रे कथिताः, तानेव दयाह स्वजातेश्व विजातेश्व पर्याया इत्यमर्थके । स्वभावाच विभावाच गुणे चत्वार एवच ।। १५ ।। थममुना प्रकारेण स्वजातेः पर्यायाः सजातीयप या विजातेः पर्याया विजातीयव्यपर्याय अर्थ व्यविषये भवन्ति । स्वनायाथ पुनर्विभावादिति स्वभावपर्यायाः विभावगुपत्त्या भेदात्ययाणां कथनीयाः, स्वजातीयव्यपर्यायः, विजातीresourयः, स्वभावगुणपर्यायः, विभावगुणपर्यायः, इति चत्वारो द्रव्यगुणयोर्भेदा भावनीया इति ॥ १५ ॥ अत्र पूर्वोक्तानां भेदानामुदारणमाह " चकं च मनुष्याच केवलं मतिचिन्मुखाः । दृष्टान्ताः प्रायिकास्तेषु नान्तर्भवेत्कचित्।। १६ । (ति) देशादिस्कन्धः स च सजातीय यायः, कथं तत् ? । द्वयोः परमादयोः संयोगे सति युक[मेतावता इयं स भवतीति जा ययः । मनुष्यामनुजादिपर्याया विजातीयरूपव इति, जीवपुङ्गन्नयोयोंगे सति मनुष्यत्वव्यवहारो जायते, एतावता विजातीयव्यद्वयं सङ्गत्यैकद्रव्यं निष्पन्नमिति वि. जातीयव्यपर्यायः २ । अथ केवलमिति केवलज्ञानं स्वभावगुणपर्यायः कथ्यते कथं तत्कर्मणां संयोगरहितत्वाल स्वायगुणपर्यायः ३ । अथ मतिचिन्मुखा मतिज्ञानाः प यादिनावगुणपर्यायाः कथ्यते। कथं तत् कर्मणां परतन्त्र स्वात् विनावगुणपर्यायाः ४ इति । एते हि चत्वारो दृष्टान्ताः प्राविका शातव्याः परमार्थतस्तु परमापपर्यायः चतुर्षु नान्तर्भवितुमईति विभागजनितपर्यायत्वात् । तदुक्तं सम्मती -अणु पाद आरकेति विख ततो + पुण त्रिभतो, ऋणु त्ति जाओ अणू होइ ॥ ३९ ॥ ( अस्पार्थः ' अगंतवाय' शब्दे प्रथमभागे ४२७ पृष्ठे यतः इत्यादिकं सबै विमृश्य विशेषमिति यांचे असंयोगे सति युकं निष्यते त्रिभ यणुकं जायते, त्रिभिस्य णुकैश्चतु र एकमुत्पद्यते, एवं महती पृथ्वी महत्य आपो, महान्तो वायव इत्यादि नैयायिकः प्रणीतत्वात् ॥ १६ ॥ पुनः प्रतिपिपादविराह | गुणानां हि विकाराः स्युः, पर्यायान्वपर्याः । इत्यादिकथयन् "देवसेना" जानानि कि हृदि १ ।। १७ ।। ? गुणविकारा पर्याय एवं पयातेषां भेदाधिकार पा विधायक "देव" दिगम्बराय नदि विजानाति है, अपितु जानीत्यर्थः पूर्वापररुद्धभाषणादसत्प्रलापप्राय पवेदमित्यभिप्रायः । किं चन्द्रव्यपर्याया एव कथनीयाः परं तु गुणपर्याया इति पृथग्नेदोस्कीर्तनं न कर्तव्यं द्रव्ये गुणत्वाधिरोपादू, गुणे च गुणत्वाभावादिति निष्कर्षः || १७ || कन्या० १४ अध्या० । क्रमे, परि पाटी पर्यायः परिपाटित्यनतरमा Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३५) पज्जाअलोग अभिधानराजेन्द्रः। पज्जुसवणाकप्प पजाअलोग-पर्यायलोक-पुं० । “दव्वगुणवत्तपज्जव-नावणु-| पज्जवनिय-पर्युपस्थित-त्रि० । परि सामस्त्येनोपस्थित उपर. भावे यनावपरिणामे । जाण विहमिमं, पज्जवलोगं समा. तः। परिसमाप्ते, भ० १५ श० । "पुत्तं रज्जे ग्वेऊणं, सामने सेणं ॥१॥" इत्युक्तलकणे लोकभेदे, मा०म०२०। पज्जुवाया।" श्रामण्ये चारित्रे पर्युपस्थिताः, चारित्रयोग्य. पजाअसह-पर्यायशब्द-पुं० । एकार्थकशब्दे, प्रा. म०१०। क्रियाऽनुष्ठानतत्पराः । उत्त०१८ अ। पज्जाउल-पर्याकल-त्रि.। "नया यो स्यः" ।।४।२६६॥ पज्जुवासण-पर्युपासन-न। सेवायाम, दशा० १. म. । स्था । सूत्रा निका। इति यस्य स्थाने यो वा । 'पज्जाउझो। पय्याकुलो।' परितो व्याकुने, प्रा०४ पाद। पज्जुवासणकप्प-पर्युपासनकाप-पुं० । पयुपासनसामाचार्याम्, पं. ना. । पजाभाइत्ता-पर्याभाज्य-व्य० । भागं कृत्वेत्यर्थे, " दातारे. पज्जूवासणकप्पो, मुत्ते कप्पो तहा चरित्ते य । सुण दायं पज्जानातित्ता ।" भाचा०२ श्रु०१ ०३०३७०। प्रज्जयाइसम्मि य, कप्पो तह वयणाए य ।। पज्जालेवा-प्रज्वान्य-अन्य० । प्रकर्षेण ज्वामयितुमित्यर्थे, कप्पो पमिच्छणाए, परियट्टापेहणाएँ कप्पो य । "अगणिकायं उज्जासत्ता पजामेत्ता कायं मायावेज्जा ।" मा. वितमविएस दोसु कि, एते सम्वे नवे कप्पा || चा०१ ० ८.४४० । जातमजामो अहुणा, दोसि वि एते समं तु वञ्चति । पजालिय-प्रज्वास्य-अध्य० । पुनः पुनःप्रज्वालनं कृस्वेत्यचे, दश०५ ०१ उ०। जातं णिप्पमं ति य, प्रगटे होति णायचं ॥ जातजातं करणं, जाते करणे गती तिह जिम्मा। पजिजज्जमाण-पाय्यमान-त्रि० । पानं कार्यमाणे, सूत्र. १ ध्रु. अज्जाए करणम्मि तु, अम्मतरी तं गती जाइ । ५०१. पज्जिया-प्राजिंका-स्त्री० । मातुः पितुर्वा मातामह्याम्, दश. जाई खलु हिप्पम, सुत्तेाऽत्येण तनुभएणं च । चरणेण य संजुत्तं, बतिरित्तं होति अज्जातं ॥ ७०। जातिकरणेण विसापरगतिरिक्खा गती उदोमि भवे । पज्जा -प्रधुम्न-न० । “म्नकोणः"॥८२॥४३॥ इति मनस्थाने णः । प्रा.५ पाद । प्रजिकाभिधामाया ब्रह्मदत्त चक्रिणो अहवा वि तिहा निना, नरगतिरिक्खा मणुस्सगती।। भार्यायाम, उत्स०१३ १०। कृष्णवासुदेवपुत्रे,स च कृष्णाक- दोवेसु वि तिलि गती, विमा वेमाणिएम नबनती। मिपयामुत्पद्यारिटनमेरन्तिके प्रवज्य शत्रुञ्जये सिरू इत्यन्तकृ. चउसु वि गतीम् गच्नति, अमतरि अजातकरणेणं ॥ दशासु चतुर्थे वर्ग षष्ठेऽध्ययने सुचितम । अन्त.४ वर्ग । सो जातमजाते, कप्पो अनिहितो इयाणि वक्वामि । पा० ० । श्रा. म. । आ. क०।(कमलामेसोदाहरणे ऽस्य किश्चिद वृत्तम) पं. ना. ६ क०। पज्जाखमासमा-प्रद्युम्नतमाश्रमा-पुंग। निशीथचूर्णिकृप-पज्जुबासमाण-पयुपासीन-त्रि० । सेबमाने, भ०१०१०। देशके, " सविसेसायरजुत्तं, काउ पणामं च प्रथदास्स । औ० म. प्र.। च० प्र० । तथारूपं श्रमणं पर्युपासीनस्य पयु. पासना किंफला ? भ० २ श०५ उ०। ('समणपज्जुबासणा' पज्जुमस्त्रमासमण-स्स चरणकरणानुपालस्स ॥२॥" नि. शब्देऽस्य विस्तरः) चू. १ उ०। पज्जुसवणाकप्प-पर्युषणाकल्प-पर्योसवनाकस्प-पुं०।पयांया पज्जुम्पगिरि-प्रद्युम्नगिरि-पुं० । उज्जयन्तरीलाञ्चयवभेदे, "गि ऋतुवृमिका द्रव्यकेत्रकालभावसम्बन्धिन सत्सज्यन्ते उज्झय. रिपज्जम्भवायारे, अंविषप्रासमण्यं च नामेणं।" ती०३ कल्प। स्ते यस्यां सा निरुक्तविधिना पर्योसवना । अथवा-परीति पज्जुएसरि-प्रद्युम्नसरि-पु० । चन्कुनालङ्कारयशोदेवसरिशि सर्वतः क्रोधादिभावेभ्य उपशम्यते यस्यां सा पर्युपशमना । प्ये, गासुद्युम्नः प्रद्युम्नानिधश्च यशोदेवसरिशिष्यःसूरिस्ततोऽ. अथवा-परिः सर्वथा एकके जघन्यतः सप्ततिदिनानि,उत्कृष्टतः प्यासीत् । ग०३ अधि.अयमाचार्यों विक्रमसंवत्-८०७मिते पएमासान् वसनं निरुतादेव पर्युषणा । तस्याः फल्प भाचारो, बर्तमान प्रासीत् । द्वितीयश्चैतन्नामा विचारसारनामप्रकरणग्र- मर्यादेत्यर्थः। पोसबनाकल्पः पर्युपशमनाकल्पः । “सकोसं स्थरचयिता, तृतीयश्च राजगच्छे अजयदेवसूरिगुरुः, स च वै- जोगणं विगईनवयं "इत्यादिके वर्षाकल्पे, स्था०१. ठा.न्यूद्यकशास्त्रे परिनिष्ठित भासीत, चतुर्थः चन्द्रगच्छ मूलशुद्धिधक- नोदरताकरणविकृतिनवकपरित्यागपीउकल काऽऽदिसंस्तारकारणप्रन्यकृत, पञ्चमोऽपि चागच्च पक्ष कनकप्रनसरिशिष्यः। उदानमित्यादि के वर्षाकल्पे, मा० ५० ५०० । सच विक्रमसंवत्-१३२२ मिते विद्यमान आसीत । जै..। (१) अपर्युषणायां पर्युषर्यातपज्जुदास-पर्युदास-पुं० । परि-उद्-अस-घन । निवारणे, फन. जे भिक्खू अपजोसवणाए पज्जोमवेड, पजोसर्वतं वा प्रत्यवायशुन्यतया जेदार्थकना बंध्ये, “प्राधान्यं हि विधे साइज॥॥ जे भिक्खू ण पज्जोसवेशण पज्जोसर्वन यंत्र, प्रतिषेधेऽप्रधानता। पर्युदासः स विडयो, यत्रोत्तरपदे न वा साइज्जइ ॥४॥ नमः ॥१॥" इत्युक्तलकणे निषेधे च । बाच.। विशे०। (वि.] "जे भिक्खू अपजोसवणाए पजोसचति" इत्यादि दो सुस्तरस्तु वाचस्पत्येऽस्ति) सा सुगम वति । श्मो सुचत्यो। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३६) पज्जुसवणाकप्प अभिधानराजेन्दः । पज्जुसवणाकप्प काताऽऽदिविस्तरस्तु मात्र लिखितः, साम्प्रतं REsकया तस्य पजोसवणाकामे, पत्ते जे भिक्खु णो बसेज्जाहि। विधयुधिनस्वाद्विस्तरजयाविशेषार्थिनाच कल्पकिरणाव. ज्यादयो विलोक्या, एवं सर्वत्रापि केयम् । अथैवं वर्णितस्व. अप्पत्तमतीते वा, सो पावति भाणमादीणि ॥५१॥ रूपः पर्युषणाकल्पः प्रथमान्तिमजिनतीर्थे नियतः, शेषाणां तु जे निक्खू पम्जोसवणाकाले पते ण पन्जोसवति, अप. अनियतः, यतस्ते हि दोषानाबे एकस्मिन् के देशोमा पूर्व. जोसवणए सि अपने अतीते वा जो पज्जोसवति तस्स | कोटिं यावत्तिष्ठन्ति, दोषसद्भावे तु न मासमपि। एवं महाप्राणादिया दोसा, बगुरु पचितं, एस सुत्नत्यो। बिदेऽपि द्वाविशीतजिनवरसर्वेषां जिनानां कल्पव्यवस्था (२) एकाधिकानि ताइमा णिज्जुत्तिगादा- केया। कल्प० १ अधि०१ कण । (कल्पसूत्रस्य वाचनीयवं पज्जोसवणाए अ-क्खराइ होति उ इमाइ गोणाई । 'कप्पसुच' शब्दे तृतीयभागे २३६ पृष्ठे उक्तम) (३) प्रथमं पर्युषणा कदा विधेयेस्याहपरियायषणाए पन्नोसवणा य पागइया ।। ५२।। पमिबसणा पाजुमणा, पज्जासबद्या य वासो य। तेणं कालेणं तेणं समपणं समणे भगवं महावीरे वा. पढमसमोसरणं ति य, उवणा जेहोगहेगड्ढा ॥५२॥ साणं सबीसइराए मासे विकंते वासावासं पज्जोसवेश (पजोसवण सि) पतेसिं प्रक्खयाण इमाणि पगहिताणि | ॥ से केणडेणं जते! एवं बुच्च-समणे जगवं महावीरे गोणणामाणि म भवंति । तं जहा-परियायत्रणा, पजो. चासाणं सबीसराए मासे विकते वासावासं पज्जोससवणा य,परिवसणा, पज्जुक्षणाबासाबासो. पढमसमोसरणं, बेई ? । जो णं पाएणं अगारीणं भगाराई कमियाई उबणा,जेठोग्गहो त्तिापते पगहिया। पतेसि श्मो अत्यो-जम्हा कंपियाई छनाई मित्ताई घटाई मट्ठाई संपधृमियाई पज्जोसवणादिवसे पठवजापरियागो व्यपदिश्यते व्यवस्थाप्यते संखा पत्तिया वरिसा मम उबट्टावियस्सति । तम्हा खाअोदगाइं खायनिद्धमणाई अप्पणो अढाए परिणापरियायहवणा भपति, जम्दा सनुवडिया व बब्बखे. मियाई भवंति, से तेण टेणं एवं वृश्चइ-समणे भगवं ससकारभावा परजाया, पत्थ परि समंता प्रोसविज्जंति, प- हावीरे वामाणं सवीसराए मासे विकंते वासावासं परित्यजन्तीत्यर्थः । अले य दम्बादिया पुरिसकालपायोग्गा घेत्तुं ज्जोसवेइ ॥॥ तहा गं गणहरा वि वासाणं सबीसपायरज्जंति तम्हा एगखेते चत्तारि मासा परिवसंतीति, त. म्हा परिबसणा नपणति, उदुवतियवाससमीवातो जम्हा इराए मासे विइकते वासावासं पज्जोसविति ।। ३ ॥ पुरिसेण उसंति सम्वविसासु परिमाणपरिचिनं तम्हा - जहा पं गणहरा वि वासाणं सवीसइराएजाव पज्जोसज्जुसणा भमति, पज्जोसवणा इति गतार्थम् । वर्ष इति वर्षा- विति, तहाणं गणहरमीमा वि वासाणं० जाव पजोकालः तस्मिन् वासः ३ प्रथम प्राधस्ययहण समीवातो स सविति ॥ ४॥ जहा णं गणहरसीसा वासाणं० जाव मोसरणं, ते य दो समोसरणं-पगं वासासु, वितियं उ. दुबके, जनो पोसवणातो बरिसं आढप्पति भतो पढगं | पन्जोसविंति तहा णं थेरा वि वासाणं. जाव पजोसममोसरणं भवति, वासकप्पातो जम्हा प्रशाा वासकप्प. विति ॥५॥ जहाणं थेरा वासाणं० जाव पज्जोसर्विति मेरा नविग्जति तम्हा सबके पकं मास खेत्तो उम्गहो भव- तहा जे इमे अजचाए ममणा जिग्गंथा विहरति, त, बालावासासु अत्तारि मासा तम्हा उवलिया भोगगहो एते वि अणं वासाणं जाव पजोसविति ॥ ६ ॥ जहाणं मेछो भवति । एषां व्यंजनतो नानास्वं,न स्वर्थः। एतेसि एगहियाणं पगं ग्वणाप परिगृह्यति,तम्मि णिक्वित्तेसवे णिक्खि जे इमे अज्जनाए समणा पिग्गंथा वि वासाणं सवीताजवंति । नि.चू०१०१०।स चैवम्-"पजोसषणाकप्पो" सराए मासे विकते वासावासं पज्जोसविति, तहा ति ( ६ गाथा) पञ्चा० १७ विव० । परि सामस्त्येन एं भई पि पायरिया बकाया वासाणं. जाव उषणा बसनं पर्युषणा, तत्र पर्युक्णाशब्देन सामस्त्येन ब. पज्जासचिंति ॥ ७॥ सन, बार्षिकं पर्व च यमपि कथ्यते, तत्र वार्षिक पर्व भाजपदसितपकवम्यां, कालकसूरेरनम्तरं चतुयामेवेति, अथ सामाचारीलक्करणं तृतीयं वाच्यं वक्तुं प्रथमं पर्युषणा मामस्स्येन वसनलकणश्व। पर्युषणाकल्पो द्विविधः-सासम्ब- कदा विधेयेत्या-"तेणं कामेणं" न्यादितो " वासावासं प. मो, निरालम्बनश्च । निरालम्बना,कारणाभाववान् इत्यर्थः। ज्जोसवेह" इति पर्यन्तम् । तत्र भाषाढचतुर्मासकदिनादारज्य स विविध:-जघन्या, उत्कृष्टश्च । तत्र जघन्यस्तावत्सांवत्सरि. विशतिरात्रिसहिते मासे व्यतिक्रान्ते जगवान् ( पज्जोसके. कप्रतिक्रमणादारज्य कार्तिकचतुमासप्रतिक्रमणं यावत ति) पर्यषणामकातू । (से केणणमित्यादि) तक सप्तति ७० दिनमान:, उत्कृष्टस्तु चातुर्मासिकः, अयं द्विविधो नार्येन केन कारणेन इति शिष्येण प्रश्ने कृते गुरुरुत्तरं दानिरालम्बनः स्थविरकल्पिकानां, जिनकल्पिकानां तु एको तं सूत्रमाह ॥१॥" जो " इत्यादितः "पज्जोसवेनिरालम्बनश्चातुर्मसिका, सालम्बनस्तु कारणिक इत्यर्थः । चि" यावत् । तत्र यतः प्रायेण अगारिणां गृहस्थानामगापत्र के मासकल्पः कृतस्तत्रैव चतुर्मासककरणे चतु- राणि गृहाणि (कझियाई ति) कटयुक्तानि ( उपियाईमंसिकानन्तरंच मासकरूपकरणे पाण्मासिका, अयमपि स्थ- ति) धवक्षितानि (छन्नाई) तृणाऽऽदिनिः (लित्ता ति) ग. बिरकाकानामेव, तथा पञ्चकाचक वृद्ध्या गृदिशाता- जाति (गुत्लाई ति) वृतिकरणादिभिः (घट्टाई) विषम Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३७) पज्जुसवाकप्प भन्निधानराजेन्द्रः । पज्जुसवणाकप्प मिनजमात (मलाई ति) पाषाणखगडेन घृष्ठा सुकुमाझीकृता- एगत्तपुढतेणं । पत्थ ण किंचि संभवति । अधिकरणे परं अक. नि(संपधूमियाई ) सौगयार्थ धूपैर्वासितानि । (खामोदगाई) जोयणमेराए गंतु पडियत्तए पुहत्तकरणे दुमादी अद्धजोकृतप्रणालीरूपजलमार्गाणि (सायनिद्धमणाई) सज्जितखा- यणं गतुं पहिए व काबस्स उवणा । अधिकरणे एगसं लानि, एवं विधानि (अप्पणो अठाए त्ति)आत्मार्थम् । (कडाई) परं उबके जा मेग सा बजिज्जति, स्थाप्यते गृहस्थैः कृतानि परिकर्मितानि (परिनुत्ताई) परिभुक्तानि (प. इत्यर्थः । कालाण चउएवं मासाणं उवणा विज्जति, रिणामियाई) परिणामितानि, अचित्तीकृतानि, ईशानि यतो आचरणतेनेत्यर्थः । कालेणं प्रासादपुमिमा कालेण नायंगृहाणि भवन्ति (से तेण हेणं ति) तेनाऽर्थेन तेन कारणेन भग- ति, काहिं बहहिं पंचाहेहिं गते गयति । कासम्मि पानसे वान् महावीरो वर्षाणां वर्षाकामस्य विंशतिरात्रे युक्ते मासेऽति. वायति, कालेसु कारणे पासाढपुस्लिमातो बीसदमासदिघसेसु कान्ते पयुषणामकार्षीत् । यतोऽमी प्रागुक्ता अधिकरणदोषा | गतेसु वायति । नाबस्सोदश्थस्स ग्वणा, भावाणं कोहमामुनिमाश्रित्य न स्युः ॥२॥ "जहा " इत्यादिका "पज्जोसविति मायालाभादीणं । अहवा-जाणमादीणं गहणं । अहवात्ति" पर्यन्ता सप्तसूत्री सुगमा । नवरं षष्ठसूत्र-(अज्जनाए त्ति) खाइयं भावं संकामंतम्स सेसाणं जावाणं परिवज्जणं भवति । अद्यकालीना,आयतया वा व्रतस्थविरत्वेन वर्तमाना। कल्प०३ भावेण णिजरहताप पगखेत्ते गयति णोऽहं ति । भावेहि सं. अधि० ए कण। गहनबम्गदणिज्जरणिमित्तं बाणा श्रमति । जावम्मि खित्तिए वा (४) पर्युषणास्थापना ग्वणा भवति, जाबेसु णस्थि ठवणा । अहवा-खोवसमिए ग्वणाएणिक्खेचो, छको दब्वं च दवणिक्खयो। भावे सुझातो नावातो सुद्धतरं भावं संकमंतस्स भावेसु ठवणा खेत्तं तु जम्मि खेत्ते, काले कालो जहिं जोश्रो।। भवति । एवं दब्वातिवणा समासेण अणिता । श्याणि पते चेव वित्थारेण जणीहामि । तत्थ पढमं काल ग्वणं नणामि । कि ओदयादीयाणां, भावाणं जो हि ठाणनावण । कारण ? जेण पग सुतं कालठवणाए गतं । जेणेव पुणो जावे, वेज्ज ते भावठवणा तु ।। पत्थ नमतिसामित्तयकरणम्मि य, अह करणे होति बन्भेया । कामो समयादीओ, पगयं कामम्मि तं परूवेस्सं । एगतपुदुत्तेहिं, दब्ने खेत्ते य भावे य॥५२॥ णिक्खमणे य पवेसे,पाउस सरए य वोच्गमि ॥२५॥ वणाए बिहो निक्खयो। तं जहा-णामउवणा, दबनवणा, खेत्तग्वणा, काबवणा, भावग्वणा । णामवणाश्रो गयाओ। कलनं कालः, कमिजतीति वा कालः, कासंससहो बा दबठवणा दुविहा-आगमतो, गोपागमतो य । पागमती जा. कालः । सो य समयादी। समयो पट्टसामियापारणादिहतेणं णए अणुवसत्ते । णोप्रागमतो तिविधा । तं जड़ा-जाणगस सत्ताएसेणं परवेयम्बों। आदिग्गहणातो श्रावलिया पुहुत्तो पसरठवणा, भवियसरीरठवणा, जाणगसरीरभवियसरीरव क्खो मासो उदू अयणं संबच्चरो जुग एवमा । एत्थ जेण पगयं तिरित्ता । जापागसरीरभवियसरीरबतिरित्ता दव्यहवणा इ. ति अधिकारसमप सिद्धं तमहं परूवेस्सं। उदुवद्धियवरिसमामा-इब्वं च दव्वणिक्खेवा । दवं परिमाणेन स्थाप्यमानं द. सकप्पखेसातो पानसे मिक्खमणं वासो, खत्त य पानसे चेव ब्बरवणा भवति, चसहोऽणुकरिसणे,कि अणुकरिसयति ।भ पवेसं बोच्छ। वासाखेत्तातो सरप णिव मणं उदुवक्कृियखेत्त ग्यते-इमं दश्च वा णिक्खममाणं दधस्स पमिवसभं गामस्स। पवेसं सरए चेव वोच्छामि। अधवा सरए णिम्गमणं पाउसे अंतरं पत्तियायकरणे खत्ते एगत्तबहमित्ते दब्वस्स ठवणा, पवेसं वोच्चामोत्यथैः। दवाण वा ग्वणा। जहा-कोर साह पगसंथाराजिग्गहणं उ. गाहावेति नहातीत्ययः। दवारण ग्वणा जहा-संधारगतिगपुमो काणाऽतिरित्तमासे, अव विहरिकरण गिम्ह हेमंतो। बारहणाजिम्गहणं भात्मनि वेति । करणे जहा दवे. ण चणा, इब्वेहि वा बणा । तत्य दम्वेण चाउम्मासि एगाई पंचाई, मासं व जहासमाहीए ॥ २६ ॥ जावेति । इब्येहि कुरकुसम्महि वा चातुम्मासं जाति, अ. चत्तारि हेमंतिया मासा, चत्तारि गिम्हिया मासा । एते अटु हवा चउसु मासेसु पक आयविलं पारेत्ता मेसकालं अभत्तटुं ऊणाऽतिरित्ता वा विहरित्ता भाति-पडिमापभित्रमाणं ए. करेति, एबमात्मानं स्थापयतीत्यर्थः । दचीह दोहिं आयंबि. गाहो, अहालंदियाप पंचाहो, जिणकप्पियाण सुरूपरिणयालहिचानम्मासं जावेति । अधिकरणे दचे ग्वणा दग्नेसु वा ण थेराण य मासो, जस्स जहा गाणदसणचरित्तसमाह) वणा, नत्थ दब्वे जहाणामए कलहमपसु नवियब्वं, दव्येसु नवति सौ तहा विहरित्ता वासाखेत सवैति; कहं पुण क. अणेगम्मि संथारमपसु वियब्वं । एवं उभेदा णातपुत्तहि णातिरित्ता चा उदुधडिया मासा प्रति तरथ कणा । दव्ये भणितं । श्दाणि खेत्तवणा-(खेत्तं तु जम्मि खेत्तत्ति)केत्र गाहायत्परिभोगेन परित्यागेन वा स्थाप्यते । जम्मि वा खेत्तवणा गविज्जति सा खेत्तठवणा । सा य सामित्तकरण अधिकरणाहिं काऊण मासकप्पं, तस्येव उवगयाण ऊणाऊ । एगत्तपुहत्तेहिं उम्भेया भाणियब्वा । श्याणि कासवणा चिक्खववासरोहे-ण वा वितीए विता पाणं ॥५३७।। (कालो जहिं जोश्रो सिकाले कालो,तत्थ वि सामित्तकरण- जत्य खेत्ते आसाढमासकल्पो कतो तत्थेव खेत्ते वासा. धिकरणहिं एगत्तपुढदि उच्नेयाऽणुभति । भावे जेया- वासत्तेण उबगया । एवं ऊरणा अहमासा, प्रासादमासे अ. सामित्त खत्तस्स एगगामस्स परिजोगो, खेत्ताणं तिमाही निर्गतां सप्त विहरणका भवन्तीत्यर्थः । अधवा इमेह प. मूलगामस्स पावसभगामस्स अंतर पल्लियार करणे खेत्तेण गारहिं कला प्रहमासा हवेज, स चिक्खवपंथा वास वा Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) अभिधानराजेन्द्रः । पन्जुसवणाकप्प पज्ज़सवाणाकप्प भज विणोबरमते, णयां वा रोहिलं, बाही वा असिवादिका. ऊजोसविति, तहाणं अम्हे विवामाणं मवीसइराए मासे विरणा, तेष मसिरे सव्वं ठिया अतो पोसादिया प्राप्साढं इक्कते वासावासं पज्जोसमो, अंतरा वि य स कप्पइ, नो ता सत्त विराहणाकामा भवंति। श्याणि जहा अतिपित्ता से कप्पः तं स्याण उवाणावित्तए ॥ ७ ॥ अट्ठ मासा विहारो तहा भवति । गाहा "जहाण" इत्यादितः "उवाणावित्तए सि"पर्यन्तं सत्रद्वयम् । वासाखेत्तालंजे, अट्ठाणादीसु पत्तमहिगाओ। तत्र (अंतराविय सि) प्रागपि तत् पर्युषणाकरणं कल्पत परंन कल्पते तां रात्रि जान्शुक्ल पञ्चमीरात्रिम् । ( उवाणासावगवाघानेण व, अप्पडिकमितुं जति वयति ।।२।। वित्तपति) अतिक्रमयितुम् । तत्र परिसामम्त्येन उषणं वसनं आसाढासुत्तनासावासपाउग्गा खेत्तं मगगतेहि बद्धं ताव जाव | पयुषणा । सा द्वेधा गृहस्थज्ञाता, गृहस्थैरशाता च । तत्र आसाढचाउम्मासातो परतो सीसतीराते माले अतिकते गृहस्थैरकाता यस्यां वर्षा योग्यपीउफन्नकाऽऽदौ प्राप्ते कस्पोक्तबर्फ, ताहे भहवयानो हस्सपंचमीर पजोवति । एवं णब मा | व्यक्केत्रकानभावस्थापना क्रियते,सा चाऽऽषाढपूर्णिमायां, यो. सा धीसतीराता बिहरणकालो दिवो । एवं अतिरित्ता अह ज्यकत्रानावे तु पञ्चपञ्चदिनवृध्या दशपर्वतिथिक्रमेण यावत मासा । अहवा साहू अघाणा पडिवमा सत्तुवसेणं आसा. श्रावणकृष्णदशम्यामेव । गृहि ज्ञाता तु द्वधा-सांवत्सरिकढचनम्मासातो परेण पंचाहेण वा जाच घीसराते वा मासे त्यविशिष्टा, गृहिझातमात्रा च । तत्र सांवत्सरिककृत्यानि-"सं. वासावंतं पत्ताणं अतिरित्ता अट्ट मासा विहारो भवति । वासरप्रतिक्रान्ति-बुञ्चनं चाऽष्टमं तपः । सर्वाईफक्तिपूजा च, अहवा-वासवजाप अवुटीए प्राप्नोए कत्तियणिग्गयाण प्रक संघस्य कामण मिथः॥१॥" एतत्कृत्यविशिधा नाद्रसित. भतिरित्ता भचंति । वसदिबाघाते वा कतियं वाचम्मासियस्त पञ्चम्यामेव, कालिकाचार्या देशाच्चतुर्थ्यामपि, केवलं गृ. आरओ चेव णिग्गया। अहवा-आयरियाणं कत्तियपोसिमाए हिज्ञाता तु सा यत् अभिवाते वर्षे चतुर्मासकदिनादार. परतो बा साहग णवत्तं नवति, अमं वा रोढगादिकंति । एस भ्य विंशत्या दिनवयमत्र स्थिताः स्मेति पृच्छता गृहस्थानां वाघावं जाणितूण कत्तियचाउम्मासिय अपडिक्कभियं जया पुरो वदन्ति, तदपि जैनटिप्पनकानुसारेण, यतस्तत्र युगमा बयंति तत्सो अतिरित्ता अझ मासा जति ।। ध्ये पौषो, युगान्ते चाऽऽवाढो वर्द्धते, नान्ये मासाः, तादृप्पन "एगाहं पंचमासं च जहासमाहीए" सि । अम्य व्याख्या कं तु अधुना सम्यग् न ज्ञायते, ततः पश्चाशतव दिनेः ५ युषणा युक्तेति वृक्षाः । अत्र कश्चिदाह- ननु श्रावणवृष्टी गाहापमिमापमिवणाण य, एगाहो पंचहो तहा लंदो। श्रावणसितचतुर्थ्यामेव पर्युषणा युक्ता, न तु नासितचतु थ्र्यो, दिनानामशीत्यापत्तः, "वासाणं सवीसराए मासे विजिणसुधाणं मासो, जिकारणातो य थेराणं ।। ५३॥ इकते" इति वचनबाधा स्यादिति चेत् ?, मैवम,अहो देवानु. जिण त्ति जिणकपिपया, सुकाणं ति सुद्धपरिहारियाणं । एतेसि प्रियाः ? । एवं आश्विनवृद्धौ चतुमासककृत्यम् आश्विनसितच. मासकप्पविहारो णिन्दाघायं कारणाभावा । वाघाते पुण थेर- तुर्दश्यां कर्तव्यं, यस्मात्कार्तिकसितचतुर्दश्यां करणे तु दिनाकप्पिया ऊणं अतिरित्तं वा वासं अत्यति । नां शताऽऽपत्या “समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसह. गाहा राए मासे विकंते सत्तरिरादिपहिं सेसेहिं ।" इति स. कणाऽतिरित्त मासा, एवं थेराण अनायव्वा । मवायाङ्गवचनबाधा स्यात् । न च वाच्यं चतुर्मास कानि हि आषाढाऽऽदिमासप्रतिबकानि, तस्मात्कार्तिकचतुर्मासक कार्तिइयरेस अहरिइतुं, णियमा चत्तारि अत्यंति ॥५३०॥ कसितचतुर्दश्यामेव युक,दिनगणनायां वधिको मासः काबचू. एवं ऊणातिरित्ता थेराणं अह मासा णायचा । इतरेण न | बेत्यविवरणादिनानां सप्ततिरेवेति कुतः समवायाङ्गवचनबापमिमा पडिवमा, अहालंदिया विसुद्धपरिहारिया जिणक- धा इति, यतो यथा चतुर्मासिकानि अाषाढाऽऽदिमासप्रतिबद्धापिया य जहा विहारेण अमरीतुं वासारत्तियाचरा सब्वे नि तथा पर्युषणाऽपि भाजपदमासप्रतिबद्धा तत्रैव कर्तव्या, णियमा अत्यति । दिनगणनायामधिकमासः कालचूलेत्यधिवक्तणादिनानां पञ्चावासावासे कम्मि खत्ते कम्मि फाले पविसियवं अतो शदेव, कुतोऽशीतिवार्ताऽपि, न च भाजपदप्रतिषत्वं पर्युप. भाति । गाहा णाया अयुक्त. बटुवागमेषु तथा-प्रतिपादनात् । तथाहि-"श्रआसाढपुलिमाए, वासावासासु हाँति गयन्वं । नया पज्जोसवणादिवसे आगए अज्जकालगेण सालिवाहणो मग्गमिरबहुलदसमी-ताजाव एकम्मि खेत्तम्मि ॥५३१॥ भणिश्रो भद्दवयजुराहपंचमीए पज्जोसवणा," इत्यादि पर्यु. षणाकल्पनौं । तथा-" तत्थ य सालिवाहणो गया, सौ अ (गयचं ति) नस्सम्गेण पज्जोसवेयश्व अहवा प्रवेष्व्यं,तम्मि पविट्ठात्रो तस्सग्गेण कत्तियपुस्लिमं जाव अत्यति । अववादे. सावगी, सो अकागज तं इंतं सोऊण निग्गओ अनिल मुहो, समण संघो अ, महाविभूए पविट्ठो कासगज्जो, पवि. ण मग्गसिरबहुलदसमी जाव ताव तम्मि एगखेत्ते अत्यति । द. हिमभणि अं-' भद्दवयसुद्धपंचमीए पजोसविन । समण. सरायम्गहणाता अपवातो दंसितो, असे विदो दसराता अ. स्थेज्जा, अवबातेण मार्गसिरमासं तत्रैवास्स्यत्यर्थः । नि० ० मंघेण पडिवर्मा, ताहे रमा भणि अं, तदिवसं मम लोगाए. वसीए इंदो अणुजाणेयधो होहि त्ति सादू चेए ण १० उ०। (५) प्राचार्याऽऽद्यनुसार द् वयमपि प्रकुर्मः पजवासिस्सं, तो टीए पजोसवणा किजट । पायरिपदि जणि अं-न वट्टति अतिक्रमितु । ताहे रम्मा भणियं-तो अणाग. जहा गां अम्हं पि अायरिया उबकाया वासापंजाव प. या उत्थीए पज्जोसचिजति । पायरियहि भणियं-एवं नवउ, Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउजवणाकप । साढ़े चार पोसवयं जगणादि कारणे वड त्थी पत्तिया, सा वारणुमता सव्वसाहूगं ।" इत्यादि श्रीनि शीशम देश पर्व यत्र कुत्रापि पर्युपानिरूपणं तत्र पदविशेषितमेव न तु यागमे 'भद्दवयसुद्ध चमीर पजोसविजइत्ति " पाठवत् "अभिप्ररिसे सायणपंचमी पर " पाठ उपलभ्यते, ततः कार्तिकमासप्रतिवद्ध चतुर्मास कृत्य करणे यथा नांध कमासः प्रमाणं तथा भाद्रमासमपिर्यकरणेना. धिकमासः प्रमाणमिति त्यज कदाग्रहं किं चाधिकमासः किं काकेन भक्षितः, किं वा तस्मिन्मासे पापं न लगति, खत बुभुक्का न लगति, इत्याद्युपहसन्मा स्वकीयं प्रहितत्वं प्रकरण यतस्त्वमपि अधिकाले सति त्रयोदशसु मासेषु जा सेष्वपि सस्सिरिणे" मासा " इत्यादि कं बदनधिकमासं नाङ्गीकरोषि । एवं चतुर्मासिक कामणेऽधि कवास मासा "इत्यादि, पाक्षिक कामअधिकविधिपि परलए दिवाणमिति" तथान्नवकल्पविद्वारा दियोको सरकार्येषु "आसामा प या इवादिचापि तथैव यादिवचनान्तरादिषु च अधिकातेजस अन्य निकार्याणि भिवर्द्धिते मासे नपुंसक इति कृत्वा ज्योतिःशास्त्रे निषिद्धानि । अपरमास्तामन्योधनप्रथमोप ऽपि श्रप्रमाणमेव, यथा-चतुर्दशीवृद्धी प्रथमां चतुर्दशीमवगद्वितीयायां चतुर्दश्याप वं तर्हि श्रप्रमाणे माले देवपूजामुनिदानाऽऽवश्य काऽऽदिकार्यम पिनकार्यम् दत्यकुं मालवतो पानि दिदि मुनिनादिन्यानि तानि तु प्रतिदि नं काम्ययानि व संध्याऽऽदि घश्यादीनि तान्यपि यं कञ्चन संध्याऽऽदिसमयं प्राप्य कर्ज. व्यान्येव, यानि तु भाद्रपदाऽऽदिमास प्रतिबद्धानि तानि तु त दूद्वयसंभवे कस्मिन् क्रियते इति विचार प्रथममव द्विती ये क्रियते इति सम्यग्विवारय । तथा च पश्य अचेतना वनस्पतयोऽधिकमासं नाहीयेनाधिकमासं प्रथमं प स्यिय द्वितीय एव मासे दुष्यन्ति यरुमावश्यकनियु जिल्ला करिया, चूम्रग अहिमासयम्मि घुटुम्मि । तु ह न खमं फुलेनं, जह पश्चंता करिति कमराई ॥ १ ॥ ,, तथा कश्चित् -" अनिवट्ठियम्मि वीसा, श्यरेसुं मवीसरे मासो ।” इति वचनबलेन मासाभिवृद्धों विंशत्या दिनेरेव सोचाऽऽदिविशिष्ट पणां करोति सययुकम् येन "अभिय नियम्मि वीसा " इति वचनं गृहिज्ञातमात्रापेकया, अन्यथाप्रसाद मासिए पज्जोसविति एस उस्सग्गो, सेसकाल पचास श्रीनिधनिंद समादेशक " 9 ( २३५ ) अभिधान राजेन्द्रः । 66 यखनादाचाडपूर्णिमाचमेवलोपावेशिक प्रकल्पा संध्या स्यात् स्थापना चैवम् अव्यस्थापना- तृणकगलबार मल्लकाऽऽदीनां प रोग दिनां च परिद्वार स 1 को न प्रवाज्यते श्रतिश्वषं राजानं राजामात्यं च विना, श्रचित्तव्यं वस्त्राऽऽदि न गृह्यते, मिश्रद्रव्यं सोपधिकः शिध्यान स्थापना - सक्रोशं योजनं ग्लानवेौषधादिकारणेन चत्वारि पञ्च वा योजनाति । पज्जसच खाकप्प कालस्थापना चत्वारो मासाः भावस्थापना क्रोधादीनां वि बेक, ईर्याssदिसमितिषु चोपयोग इति ॥ ८ ॥ कल्प० ३ भ धि०९ क्षण | (६) भाषपदपञ्चमीविचारः- वर्षा प्रायोग्यक्षेत्र प्रवेश:-" कदं पुण वालापाठां खेत्तं पविसंति ? इमेण विद्दिणावाहिहिया बसते-हिं खेच गातु दासपागं । कप्पं कहेतु उवणा, साबहुल पंचाटी ।। ५३२ ।। वाहिष्ठितति । जत्थ श्राढमासकप्पो कतो असत्य वा श्रासहिता वाससामायारीखेतं बसभेहि गाढेति, जावयंतीत्यर्थः । श्राढपुष्टिमार पत्रिट्ठा पडिवयाश्रो आरम्भ पंच दिया संधारण कामात पणगराती पोसाक कति ताई सावणसमीप वासकाल सामायारिं वेति । गाढा एत्यं प्रणनिगद्दियं, बीमतिरागं य बीससीमा ते परमनिग्गहितं गिहिणावं कत्तिओ जान ||३३|| एत्थ थिअसाहयामासाराबदुलपंचमी वास पज्जो विवि अप्पणी अणभिग्गद्दियं, श्रहवा- -जति गिडत्या पुच्क्रति - श्रज्जो ! तुज्के पत्थ वरिसाकालं ठिया, श्रह ण ठि या अभिमत संदिग्धं वच अन्यत्र वाऽद्यापि निश्चयो न भवतीत्यर्थः । एवं संदिग्धं कियत्कालं वक्तव्यं ? । उच्यते-चौसतिरायं वसतिमासं जति अभि विरिसं तो बीसतिरायं जाव श्रणनिम्गहियं श्रहं चंदव रिसं तीसवीसतिरायं जाव श्रभिग्गहियं नवति ( तेणंति) तत्कालास्परता भयो श्राभिमुख्येन गुडी हीतं छह व्यवस्थिता इति इह ठिया मो वरिसाकालं ति । किं पुरा कारण तिथीतिरातेय मात्र अपयदि गणा या कहो भारती कति उप , असिवादिकारणे अप वासं न गृह आरक अविनियम्मि वीसा, इयरस्स तु विंसती मासे || ५३४|| कवार असिवे नवे, आदिग्गहणतो रायडुडाइ | वासावासं न सुदुरपसि मादीकारतो श्राणादिया दोसा । श्रहवा गच्छति ततो गिढ़त्था जणंति-एते सम्पुसमा ण किंचिजाति, मुसावार्थ व नाति । विनामोति भणित्ता जेण नियता | लोगो वा जज्जासाढ़े पार्थ परिसरात तो धषं विक्कणति, लोगो घरादीणि छादेति हनादिकम्मणि या संठवेति । श्रणिग्गहिते गिहिगाते य आरतो कते जम्हा पचमादिया अधिकरणदोसा सम्दा अभिय बीसतिराते गते गिहिणातं करिति । तिसु दरसे सबीलतिराते मासे गते गिरणातं करेति जत्थ अधिमासगो पमतिर अभिरत जण प ति तं दवरिलं, सो य अधिमासगो मासगो जुगस्लगं ते मज्जे वा भवति, जति तो णियमा दो श्रासादा भवन्ति, अमके दो पोसा। सीसो पुस्तकाभियरिनिशतं चंदरिसे सीतिमा ? - जम्दा अभिवविरोमि मे सो मात्र अतितो Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४०) अभिधानराजेन्डः। पज्जसवणाकप्प पजसवणाकप्प तम्हा बीसदिणा अणजिग्गहियं तं कीरति, इयरेसु तिसु | गयचजत्थीए पज्जोसविज्जति । मायरिपण भणियं-एवं न. चंदवरिसेसु विसतिमासा इत्यर्थः । घउ । ताहे चमत्थीए पज्जोसवियं । एवं जुगप्पहाणेहिं च. गाहा उत्थी कारणे पवित्ता स चेवाणुमता सब्बसाधूणं । रमहा अं तेपुरियाओ जणिता-तुज्झे अहमासाए उवासं कातं पडि. एत्य ज पणगं पणगं, कारणियं जा सकीसती मासो । बयाए सव्वखजनोज्जबिहीहिं साधू उत्तरपारणाए पमिमुद्धदसमीठियाए च, आसाढीपुन्निमा सवणा ॥५३७॥ साभेत्ता पारेह, पज्जोसवणार अट्रमं ति काउं पाडिवयाए उ. तरपारणयं जवति, तं च सम्वलोगेण वि कयं ततो पभिति जत्थ उ आसाढपुन्निमाए वियं डगलादीय गेएहति पजोसव मरह दृषिसए सबणपूबउ तिवणो पबत्तो। णाप्पं च कहेति पंच दिणा ततो सावणबहुलपंचमीए पजोसवैति, संखित्ताभावे कारणे पणगेसुं बुठे दसमीए पजो इयाणि पंचगपरिहाणिमधिकृत्य कामाबग्रह उच्यतेसवेति, एवं पायरसीए, एवं पणगवष्ठिता वजंति जा घास. इय सत्तरी जहमा, असीति नउती दहुत्तरसयं च । पीसतिमासो पुलो, सो य सवीसतिमासो नवयसुरूपंच- जति वासति मग्गसिरे,दसराया तिन्नि नकोसा ॥५३६॥ मीपं युज्जति, अह प्रासाढसुझदसमीए वासाने पविट्ठा। अ. पमासा पविज, चउएह मामाण मकाओ । दवा-जत्थ श्रासाढमासकप्पो को तं बासपानग्गं खेत्तं अम्मं च णस्थि वासपानगंग ताहे तत्व पज्जोसवेति, बासं च ततो न सत्तरी होति, जहयो वा मुयग्गहो ॥ ५३७ ॥ गाढं अणुवरयं पाढतं ताहे तत्थेष फ्जोसवेंति, एकारसीमो काऊण मासकप्पं, तत्येव बियाणती तु मग्गसिरे । आढवर्ड मंगलादीयं गेएइंति, पज्जोसवणाकप्पं कहंति सालंबणाण बम्मा-सिओ अजेट्टो उ उग्गहो होइ ।।५३८|| ताहे आसाढपुसिमाए पज्जोसवेति । एस उस्सग्गो । सेस- इह इति उपप्रदर्शने , जे प्रासाढचाउम्मासियातो सबीसकानं पज्जो सबैताण अववातो। अववाते वि सीसतिरातमा- तिमासो पम्माप्त दिवसा ते वीसुत्तरमझातो साधितो, सेसा सांतो परेण अतिक्कामे उं ण वकृति सवीसतिराते मासे पुम्म, सत्तरी, जे भवयबहुसदसमीप पज्जोसावति तेसिं असी. जति वासस्नेतं ण लब्भति तो रुक्खहेका वि पज्जोसवेय- तदिवसा मज्झिमो वासाकालागढो भवति, ते सावणपुलि. ध्वं, तं पुम्मिमाए पंचमीए दसमीए एवमादिपव्वेसु पज्जो- माए पजोसति, तेसि णित्ती चेव वासाकालोग्गहो भ. सबेयव्यं, जो अपव्वेसु । सीसो पुच्छति-झ्याणि कह चमत्थी- बति, से सावणबहुसदसमीए पजोसवेति, तैसि दमुत्तरं दिव. प अपब्वे पज्जासविज्जति ? । आर्यारो भणति-कारणिया ससमं जेट्टो वासुग्गहो जवर, सेसंतरेसु दिवसपमाणं चत्तव्वं, चउत्थी अज्जकालगायरिएण पवत्तिया। कहं ?, जमते कारणं । पमाणातिप्पगारेहिं चरिसारत्तं एगखत्ते कत्तियच नम्मासियप. कालगायरिभो विहरतो उज्जेणि गतो, तत्थ वासावासंतरं डिवयाए अवस्स णिगंतव्वं । अह मग्गसिरमासे वासति, चि. ठिती, तत्थ णयरीए बलमित्तो राया, तस्ल कणि हो भायो क्खवजया ओमपंथा तो अवबातेण एक्क, नकोसेणं तिमि वा भाणुमित्तो जुवराया, तेसि भगिणी भाणुसिरीणामा, तस्स दसराया जाव सम्मि खेत्ते अत्थंति, मार्गसिरपौर्णमासी या पुत्सो बनभाणू णाम, सो य पगितिभदविणीययाए साह बेत्यर्थः । मगसिरपुसिमाए जं परतो जति वि सचिक्खता पं. पजुवासति, आयरिएहिं से धम्म कहितो पडिवुट्टो पब्वावि. था, वासं वा गाढं अणवरयं वासति, जति विष्न्तवं तेहिं तहा तो य, तेहि य बल मित्तभाणुमित्तेहिं कालगन्जो पज्जोसविते वि अवस्सं णिग्गंतव्वं, अहण णिग्गच्छति तो चउगुरुगा। ए. णिब्विसितो कतो। कति ?, आयरिया नणंति-जहा बझमित्त- वं पंचमासीतो जट्ठोग्गहो जातो काऊण मासगाही, जम्मि भाणुमित्ता कालगायरियाणं भागिणेज्जा भवंति, मानले त्ति खेत्ते कतो श्रासाढमासकप्पो, तं च वासावासपा उम्गं खत्तं का महतं पायर करेंति, अब्भुट्टाणादिय तोपुरोहियम्स प्र. अमम्मि अलके वासपाउम्गे खेत्ते जत्थ प्रासाढमासकप्पो पत्तिय, भणति य-पस मुद्दपासंडी बंतावितोहये रम्मो अ- कतो तत्थेव वासावासं चिता, तीले वासावासे चिक्खल्लागतो पुणो पुणो उहावतो आयरिएण णिपसिराकरणो पहिं कारणेहिं तत्थेव मम्गसिरं चिता, एवं सावणाण काकतो. ताहे सो पुरोहि तो पायरियस्स पफुहो रायाणं अ. रणा, अववाते उम्मासितो जेट्टोग्गही भवतीत्यर्थः । गुन्लोमेहिं विप्परिणामेहिं ति, एते सतो महाणुभाषा, पते जे गाहाण पहेणं गच्छति तेण पहेणं जति रमो णागच्छति ताणि जति अस्थि पयविहारो,चउपामिवयम्मि होति णिग्गमणं । वा अकमति तो असिव जवति, ताहे णिग्गता । एवमादियाण अहवा नि अणितस्स उ,मारोवण याऍ णिहिट्ठा ।।३।। कारणाण अमतमेण बिग्गता विदरंता पतिहाणं गवसंतेण पद्धिता पतिठाणसमणसंघस्न य भज्जकालगहि संदिष्टुं. वासाखेत्ते णिघिग्घेण चनरो मासा अयितुं कत्तियचाजावाहं पागच्छामि ताव तुज्केहिं णो पज्जोसवियव तत्थ यं उम्मास परिक्कमितं मग्गसिरबहुलपमिवयाए णिग्गंतम्बं । ए. मायवाहणो राया सावतो, सो य कागजं पंतं सोउं णि सो चेव चनपामिवो, चनुपाडिवए अणिताण अविसहा. गतो, अभिमुडो समणसंघो य, महया विभूतीए पविट्रो का. तो एसेव चउलहू सवित्यारो, जहा पुवं मिश्रो, वितिबगज्जो । पविठेहि य भणियं-नवयसुरूपंचमीए पज्जोसवि.. यसत्ते संभोगसुत्ते वा तहा दायबो चनुपामिवए, अप्पत्ते ज्जति । ममण संघण पमिवामं । ताहे रमा भणिय-तदिवसं अतिकंते वाणिते कारणे णिहोसा। मम लोगाणुवत्तीए इंदो अणु जाएयव्यो डोहिति साद घेत्ति तेग तत्थ अपत्ते इमे कारणाण पज्जुवासिस्सं तो नहीए पज्जोसवणा कज्जउ । आयरिपहि राया कुंथू सप्पे, अगणि गिलाये य मिलस्मसती। भणिय-ए वहति भतिकम्मिउं । ताहे रम्मा भणिय-तो अणा एएहि काराणहिं, अप्पत्ते होति निग्गमम् ॥ ५४०॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४१ ) अभिधानराजेन्द्रः । पज्जव या कप्प राया छुट्टी सप्पो सहि पट्टिया सही संचा गणीण वा बसही, दष्ठा, गिलाणस्स पडिचरणटुं गिनाणस्स पाओस, डिलस्य वा असति पते कारणेहि अ प्पयामि भवति । अड़वा इमे करणा कामसंघात यस जिक्खे | एहि कारणेहिं, अप्पत्ते होति निग्गमणं ।। ५४१ ॥ काइयभूमी संघाप संसत्तो दुल्लभं वा भिक्खं जातं, आय परसमुत्थे वा दोसे मोहोदय जात्रो, असिवं वा उत्प। ए सेहि कारणेहि पते ' णिग्गमणं भवति । 6 चप्पावर अनि निग्गमो इमेहि कारणेहिंबासं वण उवरमती, पंथा वा दुग्गमा सचिक्खता । एहि कारणेहिं, प्रतिकंते होति निग्गमणं ॥ ९४२ ॥ असित्रे श्रोमोयरिए, रायहुट्ठे नए व गेलो । प्रगाढकारणं, अतिकंते हो नि ।। ५४३ ।। अकंते वासाकाले वासं नोवरम, पंथो वा दुग्गमो अश्जलेख सचिखल्लो य । एवमापदि कारणे िचप्पाडिव ते णिग्गमणं नवति ॥ ५४२ || चढ़वा इमे कारसिनं वा वादि वा राय बोहिगा 35दिमयं वा आगाढं, श्रगाढकारणेण वा ण णिभ्गच्छंति । तेहि कारणेदि उपादि अति मिणं नवति । एसा कालवणा गता । नि० चू० १० उ० । येन शुक्रपञ्चमी चारिता भवति स यदि पर्युपणार्या द्वितीयोऽष्टमं करोति तदैकान्तेन पञ्चम्यामेकाशनकं करोति, उन यथा रुच्येति ? प्रश्ने, उत्तरम् अत्र येन शुक्लपञ्चमी धारिता भवति तेन मुख्यवृध्या तृतीयातोऽष्टमः कार्योऽथ कदाचित् द्वितीयातः करोति तदा पञ्चम्यामेकाशन करण तिबन्धो नास्ति, करोति तदा प्रव्यमिति ॥ १४॥ ही ० ४ प्रका० । (७) वर्षासु सकोशं योजनाबद्धः बामावामं पश्नोसविवा कप्पा नियान वा निगंथी वा सव्वश्रो समंता सकोसं जोधणं उग्गहं गिरिहत्ता गं चिट्ठिनं ग्रहानंदमवि उग्गहे ॥ ए ॥ ( बालावालं ति ) वर्षावासं चतुर्मासकम् । (पज्जो वि. चाणं ति ) पर्युषितानां स्थितानां निर्ग्रन्थानां साधूनां नि स सर्वततसृषु दि समस्तान् विदिश व सो योजनमपदं भय (महाम सि) अध्यर्थन्दशब्देन काल उच्यते तज्ञ यापा कानोकाsssः करः शुष्यति तावान्कालो जघन्यं लन्दं, प. वादोरात्रा उत्कृष्टं लन्दं, तन्मध्ये मध्यमं लन्दं, सन्दमपि कालं यावत् स्तोककालमपि श्रवग्रहे स्थातुं कल्पते, न तु अशा दम बहुकालमा स्परमाखाने काय कल्पते ना बाजे पदाऽऽदिगिरेखाग्रामस्थितानां षट्सु दिक्षु उपाश्रयात् सामने पायविदि इ कम्, तद्व्यावहारिकविदिगपेक्षया, नैश्वयि कविदिशामेकप्र पज्जुसबया कप्प देशात्मकरग दिना घातेषु त्रिदिको द्विदिक्क एकदिको वा अवग्रहो भाव्यः ॥ ए॥ कल्प० ३ अधि० ६ कृण । (८) क्षेत्रस्थापनाउभयत्रो फोर्म व तह जति खेतं । होति सकोसं जोयण, मोचूणं कारणज्जाए ॥ ५४४ !! Mera | बावरे दक्खिपुत्तरेण वा । श्रहवा भ ति सम्यग्र समंतासह दिसाए खेतपमाणं भवति, उभयतो वि मेलितं गतागतेन वा सकोसजोयं भवति, वासासु परिसं खेतवर्ष उपेति क्षेत्रावरं गृह्णातीत्यर्थः । सो यादगो सं चवदार पहुंच दिवं भवति । पग जम्रो प्रति उनमहोतिरियम्मि वि, अक्कोसं हरति सव्वतो खेत्तं । इंदपदमादिए, छद्दिसि सेसेसु च पंच || ५४५ | उ अहो बादओ य तिरियदिसाओ चउरो । पतेसु - सु दिसासु चिरिमकता सम्म समेता सको जो यणं खेत्तं भवति । तं च पयपव्वत्ते उद्दिसि संवंति द पयपव्वतो गयग्गपञ्चतो प्रष्यति । तस्स चवरि गामो । एवं ब दिलिप गाये संभवो भवति । श्रतिग्गहणातो भयो बिजो परिोपयतो नयति विसिओ संभवति । सु पवने दिया पंचभियंति समा घारण चद्दिसि संभवति । वाघायं पुण पहुच नो भवति । तिष्ठि दुवे एका वा, वाघाएगं दिसा हवति खेते । उज्जोपतो परेणं, बिसपडवं तु प्रक्तं ।। ५४६ ॥ एग दिलाए वाघाते तिसु दिसासु खेतं जयति, दो दिसासु वा दो दिसातित दिसा वाघाते दि तं भवति । को पुण वाघातो ?, महाडची पब्वतादि, विसमं वा समुद्दादि बिसमं समुदादिजाते कार ओ, जेण गामयोकुवा गरि वाघादिजाय भवति पर जं विश्वमचं णाम जस्ल गामस्स नगरस्स सिग्गमस्स बाउमा सम्यासु दिसासुमो त्थि गोकुल बा तत्थं मम तं च श्रखेचं भवति । दिमादिमा विधी 9 दगघ तिमि मत्त व उड़वासामु ण इति ते खेत्तं । चतुरादिती पट्टे को वि तु परे ॥ ५४७ ॥ दगघट्टो णाम जत्थ अरुजंघा जाव उदगं, उडुबजे तिष्टि दग संघट्टा घाण करे मे भिखारिया गवाण य भवति ण हणंतिय खेत्तं वासासु ससद्गसंघट्टाओ वहतिचा संघ इति ते वागतेण अवासालु अट्टगसंघका उ वहति खेलं, गयागतेण सोलल, जत्थ संघट्टतो परतो उद गण पगेण वि दुबके वासासु चउग्रहं संगच्छति तं लो य लेवो भवति । गता खेचणा । नि० चू० १० ४० । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जुवाकप्प (ए) मिकाक्षेत्रम वासावा पश्नोसविया कप्पड निम्चा वा णिरांचीणा वा सम्बच्च समता सकोर्स जोअणं जिक्लायरिया गं परिनियत ॥ १० ॥ ( २४२ ) अभिधान राजेन्द्रः । “वासावालं " इत्यादितो "गंतुं पंमिनिअर " इति पर्यन्तं सुगमम् ॥ १० ॥ पञ्चमदावसूत्रम् जत्य नई निच्चोयगा निच्चसंदणा नो से कप्पइ सव्यय समता सकोर्स जमणं जिक्खायरियाए पि नियत ॥ ११ ॥ राई कुणालाए, जस्य चकिया सिश्रा एवं पायं जले किच्चा एवं पायं थले किच्चा एवं चकिया एवं कप्पड़ सब्बओ समेता सकोर्स जोणं गंतुं परिनियत्तए || १२ || एवं च नो चक्किया एवं से नो कप्पइ सन्चो समंता गंतुं परिनियत्तम् ॥ १३ ॥ नई" इत्यादितो " नियत्तर "ति । यत्र नदी ( निबोगामित्योदकाप्रजा (निसं) मित्य स्पन्दना निरवशीला सन्तबाहिनीत्यर्थः ॥ ११ ॥ " - जत्थ न " इत्यादितो "सि" पात्रता रावती नास्त्री नदी कुणात्रायां पुर्यो सदा द्विकोशवाहिनी तारशी नदी लङ्घयितुं कल्प्या, स्तोकजनत्वात् । यतः (जत्थ चक्किय चि) यत्र एवं कर्त्तुं शक्नुवन्ति । किं तदित्याह - (सिय सि) यदि पायमित्यादि के पाजले जाता > प्रविष्य, द्वितीयं च जलादुपरि उत्पाट्य ( एवं चक्कयति ) पत्ता तामुती परतोनिका क हस्ते ।। १२ ।। यत्र वैवं कर्तुं न शक्नुयाज्जलं विलोज्य गममंस्तु न ते याद क संघट्ट, भेष, नामपर पोपरिशेषकाले त्रिनिर्दयते इति प्रायः। काम्यते चतुर्थ अमे दकसंघ त्रिसुपहन्यते एव लेपस्तु एकोऽपि क्षेत्रमु पति तु कि " परिनामेवे ।। १३ ।। वासादिया अस्येयाणं एवं बु - भवइ, दावे ते एवं से कप्पड़ दावित्तए, नो से कपड़ पमिगाहिए ।। १४ ।। वासावासं पज्जोसवियाएं गाणं एवं परिगाड़े एवं से कप परिगादिए, नो से कप्पड़ दावित्तए ॥ १५ ॥ वासावा पोपिया ं श्रत्येगइयाएं एवं वृत्त भव दात्रे जंते ! परिगाढेहि ते । एवं से कप्पर दावित्तए वि पगाचि नि ।। १६ ।। वासावासादिता परिगादिति पर्वतस्य सूत्रत्रयस्य शब्दार्थः सुगमः भावार्थस्वयम् चतुर्मासीस्थि साना अत्ययाति अवेद यत् केषां साधू पज्जुसवाकण्य नां गुरुनिरेवम् (उत्तपुत्रं ति) पूर्वमुक्तं प्रवति यत् ( भंते ति) हे भदन्त कल्याणिन् शिष्य ! ( दावे ति ) त्वं यानाय अशनादिकं दद्यास्तदा दातुं कल्पते न तु स्वयं प्रतिग्रहांतु । यदि यमुकं भवति स्वयं प्रतिपीया लावाय भ्यो दास्यति तदा स्वयं प्रतिग्रहीतुं ते तुम्य दि दद्याः प्रतिगृहीतं प्रति तदा तुम उभयमपि कल्पते । १४ । १५ । १६ । (१०) विकृतिनिषेधा वासावासं पज्जोसत्रियाणं नो कप्पड़ निग्गंथाल वा निगंथी वा इडाणं रुग्गाणं वक्षियसरीराणां इमाओ नव रसगियो अभिक्खां अनिक्खयां आराहिल वं जहा - खीरं १ दहिं २ नवणी ३ सपि ४ तिनं ५ गुडं ६ महुं ममं ॥ १७ ॥ वासावासमित्यादितो ' मंसं ति' पर्यन्तम् । तत्र ( ठाणं तानां तारूपवेन समर्थांनां तरुणः अपि केषियो गिलो निलशरीराश्च भवन्ति । अत उक्तम्- ( श्ररोगाणं व राणं आरोग्याबलवराणामी दशाम साधूनामिमा वक्ष्यमाणाः नवरसप्रधाना विकृतयोऽभीक्ष्णं २ वारं वारमाहारयितुं न कल्पन्ते, अभीक्ष्णग्रहणात्कारणे कल्पपेनकदाचितेपि तत्र विकृतयो घासाधिका साविका तत्रासाधिका या दु कालं चनुमा दुग्धदचिपकाना " पाप्राह्याः सायिकान्तु ततेगुस्यास्तिस्रस्ताश्च प्रतिलम्नयन् गृडी वाच्यो महान्कालोइस्ति ततो खानाऽऽदिनिमित्तं प्रहीष्यामः सतु गुण्डी त चतुर्मास यावत्प्रनृताः सन्ति, ततो ग्राह्या बालाऽऽदीनां च देया, न तरुणानाम् । यद्यपि मधुमांसमद्यनवनीतवर्जनं याजीवमस्त्येव तथापि अत्यन्तापवादशायां बाह्यपरिमो गाय कदाचिद्येपि चतुर्मास्यां सर्वथा निषेधः ० ३ भादे० १ क्षण । (११) इयाणि दवणা दवणाद्वारे बिगती संचारगत होए । सविधे आपने, दोसर गहलबहुयादी || ५४० ॥ श्राहारे बिगतीसु संथारगो मत्तगो लोयकरणं सच्चितो सेहो गलायाण प अचित्तानं महीया बोसि रणं, वासापाउाण संथारादिवाण गहणं, उडुबके चि गहिया कथावादी धरणं डगलगादिवाण व कारणानं । नि० चू० १० ब० । इदाणिं विगविण ति दारं । संचति ति गाथापच्चकं वि गती दुविधा संवतिया, असंवतिया य । तत्थ असंचश्या स्त्रीरहिमसणवर्णीयं के उम्माहिमगा य । सेला उ घयगुलमजखज्जगविहाणा व संचतिगाम्रो तत्थ मडुमजमंसठाणा य श्रपत्थाओ सेसा खीरादिया पसत्थाओ । पलत्थासु वा कारणे पमाणपत्तासु घेप्पमाणीसु दविश्री क ता जयति । - Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४३) पजसवणाकप्प अभिधानराजेन्सः। पज्जुसवणाकप्प णिकाणे प्रयतरविगतिग्गहे दोष उच्यते (१२) साहारस्थापनम् । "माहारे ति" पढमं द्वारम् । अस्य व्याख्याविगति विगतीजीतो, वियतिगयं जो तु लुंजते जिक्खू । पुवाहारोसवणं, जोगविही य सत्ति नग्गहणं । विगती विगतिसहावा, विगती विगति बन्ना नेति ॥५५०॥ संचतियमसंचतिए, दव्वविही य सत्थाश्रो ॥५४॥ विगतीए गहणम्मि वि, गरहियविगती य होइ कजम्मि। जो उमुवकृितो श्रादारो, सो प्रोसवेयवो। ओसारेयम्बो,परिगरहा लान पमाणे, पच्चय पादप्पमीयारो ॥ ९५१ ॥ त्यागत्यर्थः। जसे आवस्सगपरिहाणी ण जवति, तो चचरोलो पस्सत्थविगतिगहणं, तत्थ वि य असंचइयजाओ । उववासी अत्यत । अह ण तरति तो चत्तारि मासा दिवसूणा । संचतिय ण गेएहंती, गिमाणमादीण कज्जट्ठा ॥५५॥ एवं तिमि मासा अस्थित्ता पारेन । एवं जइ जोगपरिहाणी तो दोसा सा प्रस्थान मासं वा अतो परं दिवसहाणी जाव दिणे विगति खीरातिय, चीनच्छा विकृता वा गतीति विगती । सा दिणे आहारेमो जोगविवहीए श्मा जोगविही जा णमोकायतिरियगती, णरगगती, कुमाणुसतं, कुदेवत्तं च । अहवा रत्तो सो पोरिसीए पारेउ । जो पारिसियो पुरिमलेण पारे। विविधा गती, संसारेत्यर्थः । प्रहवा संजमो गती, तस्स उ । जो पुरिमकुश्तो पक्कासणयं करेउ । पवं जहास सीए भीतो बिगतियं ति विगतिप्रतिकारमित्यर्थः । विगती या जोगविवीए कायब्वा । किं कारण ?, वासासु चिक्खनुचि. जम्मि दबे गता तं विगतिमं भवति । तं पुण भसं पाणं सिविले सुक्खं भिक्खागहणं कजंति, समाभूमि च सुक्ख वा, जो तं विगति विगतिगतं भुजति तस्स श्मे दोसा- गम्मथंडिला हरियमातिपहिं दुविसो (?) अज्का भवति । विगतिसभाव ति खीरातिया जुत्ता, जम्हा संजमसभावा. आहारवण तिगयं । नि० चू० १० १० । तो विगतिसभा करेति । कारणे कर्ज उवचरित्ता पढि नित्यजक्तिकाऽऽदीनाम्जति-विगती विगतिसभावा । अहवा-बिगयसभावा। तं जे भिक्खू पज्जोसवणाए इत्तिरियं पि आहारति, श्राविकृतस्वभावं विगतसनावं जो मुंजति तं सा बला गरगादियं विगति णेति, प्रापयतीत्यर्थः । जम्हा एते दोसा हारं वा साइज्ज ।। २१ ।। तम्हा विगती पाहारेयवा । तो उदुबके वासासु विसे गाहासेण जम्हा साधारणे काले अतीव मोहुजवो भवति । वि. इत्तिरियं पीहारं, पज्जोसवणाएँ जो न आहारे । जगज्जियाइएदि य तम्मि काले मोहो दिप्पति । कारणे तयतिबिंदुमादी, सो पारति आणमादीणि || एएच ।। वितियपदेण गेहेज्जा, आहारेज्ज वा गेसमा गएहज्जा इत्तिरियं णाम -थोवं, एगसिवमवि अलद्धलवणादि था। श्र. गिलाणो वा पाहारेज्ज । एवं मायरियखालबुदुम्बबस्स बा हवाऽऽयारे तहामे सातिमिरियं चुएणगादि नतिमेत्तपाणगे गच्कोवग्गहा घेप्पज्जा । अधवा सहाणिबंधेण णिमंतजा । प. बिमत्तं । तयेत्ति तिलतुसतिभागमेतं । तिरिति यत्प्रमाणमा सत्याहिं विगतीहिं तत्थिमा विधी पसत्थविगतीतो खीर सष्ठप्रदेशनीसदंसकेन जस्म गृह्यते । पान के विन्मात्रमपि दहिं णवणीयं घयं गुसो तेलं मोगाहिमगं च अप्पसस्था उ मादिग्गहणातो खातिमं पि थोवं जो माहारेति पज्जोसव. महुमज्जमसा पायरियबाल बुहादियाणं कसु पसत्था प्र. संचया उ खीराच्या घपंति । संचतिया उ घयादिया णाए, सो भाणादिया दोसा पावति, चचगुरुं च परिक। उ ण घेति । तासु स्त्रीणासु जया कजभया ण सम्भ. पुब्बसु तथं करेंतस्स इमो गुणो भवतिति तेण ताोण घेप्पति । अह सवाणिबंधेण भणेश ताहे ते नत्तरकरणं एग-ग्गता य ालोयति बंदणया । बत्तम्या । जया गिलाणातिकजं नविस्सति तया घेत्थामो, मंगलधम्मकहावि य, पुज्वेसु य तहमणा होति । ५ए।। बासबुकसहाण य बहूणि काणि उप्पज्जति । महंतो य अहछचनत्यं सं-बच्चरचाउम्मासपक्खे य । कालोपतो तं सप्पो कत्येण घेत्यामो सिताहे सहा भणंति पासहिय तवे जणिते, वितियं असह गिलाणे य ।।५६६।। अम्ह घरे अस्थि अचित्तं, विगतिदव्वं च पभूतमाथि जाविपा ताव गेराहह, गिलाणकज्जे वि दाहामो । एवं भणित्ता उत्तरगुणकरणं कतं भवति, एगग्गया कया भवति, पजोससंचायं पिगिण्हेति । गेएहंताण य अधिचिमनावे भणंति. बणासु य परिसिया पालोयणा दायवा । वरिसाकालस्स व अहिला पज्जत्तं । सो य गिहित्ता बाल बुमुम्बमाणं दिज्जति आदीए मंगलं कतं भवति। सवाण धम्मकहा कायब्वा । पज्जो. बलियतरुणाणं ण दिज्जति । एवं पसत्थविगतिगहणं महुमज्ज. सवणाए जर अट्ठमं न करेति तो चउगुरू, चाचम्मासिए मंसादिगरहियविगतीणं गहणं । प्रागाढे गिलाणकज्जं गरदा न करेति तो चउल हुं,पक्खिए चउत्थं ण करोते तो मासगुरूं। लाभपमाणेति गरहंतो गएहति । अहो कज्जमिणं, किं कुणि जम्हा पते दोसा तम्हा जहाणितो तवो काययो । वितिय मो, अपहा गिलाणो ण पमपम । गरदियविगति लाभे य प. अषवादेण ण करज्जा, उपवासस्स असहू न करेज्जा, गि. माणपत्तं गगहंति. णो अपरिमितमित्यर्थः । जावति ता गिलाण लाणो वा न करेज्जा । गिलाणपडियरगो वा मो उपवासं वे. यावच्च पदो वि का असमत्थो । एवमादिहि कारणेहि स्स उबउज्जति, तमसाप घेप्पमाणीए दातारस्स पश्चयो भ. पज्जोसवणाप साहारतो सुको । नि० चू०१० २० । पति जोच अप्पणो अनिसासो तस्ल व पडिघाश्रो को भवति । पार्वादहीण वा पडिघातो भवति । पुवुत्ता पते गि. (१३) एवमाहारबिधिमुक्त्वा पानकविधिमादमाणगा गएहति, ण जीहलोलयाए ति | एवं विगतिध्वणा ग. | वामावासं पज्जोसबियस्स निच्चनत्तियस्स जिक्खस्स क. ता । निचु१००। पति सम्वाइं पाणगाई पझिगाहितए, वासावासं पज्जो Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जुसवणाकप्प सचियस्स उत्पनतियरस जिक्स कति तो पा गाई परिमातिए से जाओ, संसेइयं चासो दगं | वासावासं पज्जोसविषस्स चियस्स भिक्खु । सप कप्पंति त पाणगाई परिमातिए । मे जहा-तिसोदगं, तुसाद, नवोदगं वा वासावामं पश्जोसरियस अपभत्तियस्स भिक्खुस तम्रो पाएगाई पडिगाहित्तए । सं जदा आयामेवा, सोवीरं वा सुकविषमं वा । बासावासं पज्जोसत्रियस्य विकिट्टभत्तियस्स निक्खुस्स कम्पनि पुगे उसिवियमे पाडेगाहिचर से विय असित्ये नो वि य णं समित्ये । वासावासं पज्जोसत्रियस्स जत्तपडियाक्खियस्स भिक्खुरस कप्पइ एये उसिणविषमे परिगादिन से विणं असिस्नो वेव णं ससित्थे । सेत्रिय णं परिपूर - नो चेत्र णं श्रपरिपूर्ण से पिय परिमिए-नो क्षेत्र नं अपरिमिए ! सेविय बहुसंपले, नो चेत्र ।। २५ ।। वासेत्यादितः " संपने " इति यावत् । तत्र नित्यभक्तिकस्य सर्वाणि पानकानि कल्पते सर्वाणि वाराकानि त्रयमाणानि न पाताऽऽचाराकानि ( २४४ ) अभिधानराजेन्द्रः | - इमाम " उसेश्म संसेरम, तंडुलतिलतुसजवोद्गायामं । सोवीर सुद्धवियमं, अंत्रय अत्रामय कवि ॥ १ ॥ मालिंग दक्ख दारिम खज्जुर नान्त्रिकेर कर वोरजलं । आमलगं चिंचा पाणगाई पढमंगें भणिश्राई ॥ २ ॥ " कति उदिमं विदि संस्थेदिमं परवशतोदकेन सि. नजसंपोदकं ब्रह्मादिप्रधावनज, यवोदकं यवधावनजलम् । मायामी कदम-उदकम् पचनुनेनकिकल्यस्येदिवेदिमा पनि श्रीणि पानकानि पकिस्ता नि मध्यमतिरुप आयामको विकटानि ततः परं विभक्तानां तु एक कप यति कथम् यतः प्रायेणाष्टमोऽई तपस्विनः शरीरं देवताऽधितिष्ठति । (भत्तपडियाक्खियस्त ति ) प्रत्याख्यातभक्तस्य, अनशनिइत्यर्थः तस्यापिएको पि परम्पर गनाव; तदपि परिमितम्, अन्यथा अजीर्णे स्यात्, तदपि बहु संपूर्णम् परिसमाप्तं संपूर्णम् अतितोके दिमा स्याऽपि नोपशम इति ॥ २५ ॥ (१४) दत्तिसंख्यया ग्राह्यग्रहणम् वासावा पोस्सि सेवा दलिया जिस्म क यंती पंच दसीओ जोपास पडिगाडिच पंचपागम अहवा चत्तारि जोअणस्स पंच पाणगस्स, ग्रहवा पंच मोस्य पचारि पायगस्त। तस्य य एगा दसी बोला पज्जुब या कप्प सायण मित्तमात्र पमगादिभा सिया, कप्पड़ से दि तेणेव जत्तनेां पज्जोसवित्तप । नो से कप्पइ 5चं पि गाडाबड़कुशं भत्ताए वा पायाए वा निस्वमित्त वा प विति वा ।। २६ ।। तत्र वासावासमित्यादितः " पविसित्तर ति " यावत् ( संखासियत ) दचिपरिमाणत इत्यर्थः । तथ दतिशब्देनाऽल्पं बहु वा यदेकवारेण दीयते तमुच्यते इत्या द- लोणा सायण शि) प्रणं किन स्तोकं यते यदि ताम्मार्थ प्ररूपानस्य युद्धाति साऽपि दक्षिष्यते, प लकणं, तेन चतस्रस्तिस्रो द्वे एका षट् सप्त वा यथा अभि ग्रह वाच्याः । समग्रस्य व सूत्रस्य अयं नाव:- यावत्योऽन्नस्य पानकस्य वा दत्तयो रक्षिता भवन्ति तावत्य एव त स्य कल्पन्ते, न तु परस्परं समावेशः कर्तुं तेन द तिभ्योतिरिकं प्रीतुकपते । (१५) सप्तगुदमध्ये निषेधःवासावासं पजोसवियां नो कप्पड़ निग्गंधाण वा नियीणामा उपस्याओं सचपरंतरं संखमि समिअट्टचारिस इस एगे पुण एवमामु-नो कप्पड़ जाय उप स्याओ परेणं संखार्क सन्नियट्टचारिस्म इत्तए । एगे पुण एवमानो कप्पड़ जाव उस्सयाओ परंपरेणं संखसिंनिट्टचारिस्स इत्तए । २७ ।। बास्रावासमित्यादितवः "हसचि" इत्तर यावत् । तत्रोपायादारभ्य (सतघरंतर ति ) सतगृहये ( संकि ति ) संस्कृतिरोदनकः, तां गन्तुं साधोर्न कल्पते, भिकार्य तत्र न गच्छेदित्यर्थः । एतावता शय्यातरं गृहमन्यानि च पगृहाणि जेात्वेन साधुगुणानुरागि तथा उमादिदोषात् कर्मभूतस्य साधोः १ (निअसारिस्वति ) निषिद्धगृहेभ्यः सवृितः संरि वस्तस्य प्रतिषिद्धसर्जकस्येत्यर्थः । बहवस व्याचतेसप्तदान्तरे संखजनसंकुलजेनबालकृ कल्पते । अा सूत्रात वाह-पगे याद दि तीयमते - ( परेति ) शय्यातर गृहम् श्रभ्यानि च सप्त गृहाणि वर्जयेत् । तृतीयमते - ( परंपरेणेति ) शय्यातरगृहं तत एकं गृड ततः परं सप्त गृहाणि वर्जयेदिति भावः ॥ २७ ॥ कल्प० ३ अधि क्षण । (१६) उदउलंबागावासं पज्जोसत्रियाणां नो कप्पड़ निरयाणा का नि रवा उदगले वा ससिकेिरण वा कारणं असं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारितए ||४३|| से किमाहु भंते! सन सिंग हायपणा पचता । तं जहा-पाणी, पा लिलेहा, नहा, नहसिहा, जमुहा, अहरुडा, उत्तरुट्ठा । श्रह पुबिगर मे कार छिनसि एवं से कपड़वा पाणं वा खाइ वा साध्यं वा आहारित्तए ।। ४३ ।। , ( वासावा समित्यादि ) तत्र (उदगउलेणेत्यादि ) उदकाssई गलद्विन्दुयुक्तेन सस्निग्धेन देषदुकयुक्तेन कायेना 66 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४५) पज्जसवणाकप्य अभिधानराजेन्सः । पज्जुसवणाकप्प शनाऽऽदिकमाहारयितुं न कस्पते ॥ ४२ ॥ ( से किमाहु भंते भ्यस्यन्तिः गणधरस्तीर्थकविण्यः, गणावच्छेदको यः सात्ति) तत्र स तीर्थकरः किंकारणमाद । इति शिध्येण पृष्ठे धून गृहीत्या बहिः केत्र प्रास्ने, गधार्थ केत्रोपधिमार्गणाssगुरुराह-( सत्तेत्यादि) सप्त स्नेहाऽऽयतनानि जनावस्थानस्था- | दौ प्रधावनाऽदिकता सूत्रार्थोभयवित्, यं चान्यं वयापर्यानानि प्रक्षप्तानि जिनयंपु चिरेण जलं शुष्यसि तमिति । त. यान्यां लघुमपि पुरतः कृत्वा गुरुत्वेन कृत्वा विहरन्ति तयथा-पाणी हस्ती, पाणिरेखा पायरेखाऽऽदया, तासु दि चिरं मापृच्न्यैव भक्तपानाऽऽद्यर्थ गन्तुं कल्पते, न त्वनापृच्च्य । जलं तिष्ठति, नखा अखामा नखशिखास्तदननागाः, भमुहा भू- केनोखेनेत्याह-(इच्छामि णमित्यादि ) इच्छाम्यहं भवद्भिर नेत्राद्धरोमाणि । (महरुट्टा) दाढिका (उत्तरुता ) इमभू. नुज्ञातः सन् भक्तपानाऽऽद्यर्थ गन्तुम् । (ते य से वियरिज. णि । अथ पुनरेवं जानाति-यत् विगतोदको विन्दुरदितः कि. त्ति)ते प्राचार्याऽऽदयः (से)तस्स विनरेयुरनुज्ञां दधुः, तदा बस्नेहः सर्वथा निर्जलो मम कायः संजातः तदा कल्प- कल्पने, अथ न बितरेयुः, तदा न कल्पते । से किमाहु ते प्रशनाऽऽद्याहारयितुम् ।। ४३ ॥ भंते ति) तत्कुतो हेतोरिति शिष्यप्रश्ने गुरुराह-(भायरिया समाणि इत्यादि) प्रत्यपायम्-अपायं तत्परिहारं च जानन्तीति ॥४६॥ वासावासं पज्जोसपियाणं इह खा निग्गंयाण वा नि एवं विहारनूमि वा विआरभूमि वा अन्नं वा जं किंचि गंथीप वा इमाई अझ सुडमाई जाई छउपत्येणं नि पओयणं एवं गामाणुगाम जित्तए ।। १७॥ गंथेण वा निग्गंधीण वा अभिक्खणं अनिवखणं जा (एवमित्यादि) सत्र प्रथमपत्रे विहारमिर्जिनचैत्ये गमनम्, णियवाई पासियचाई पमिलेहियध्वाई जति । तं "विहारो जिनसमनि" इति वचनात् । विचारजमिः शरीरचि म्ताऽऽद्यर्थ गमनम् । (अनं वेत्यादि ) अन्यद्वा लेपसीवननिजहा-पाणमुडपं , पणगसुदुमं २, वीयमुहमं ३, ह- स्त्रनाऽऽदिकम् उच्चासाऽऽदिवर्ज सर्वमापृच्न्यैव कर्तव्यमिति रियमदुमं ४, पुप्फमुटुमं ५, अंमसुटुमं ६, लेणसुदुम ७, तस्वम । ( एवं गामाणुगामं दहज्जित्तए ति) प्रामानुग्रामं दिमिणेहमुहमं ...................."" ॥४४॥ हिमतुं निकाऽऽद्यर्थ ग्लानाऽऽदिकारणे घा, अन्यथा वर्षांश (भट्ट सुहुमाई इत्यादि ) अष्ट सूक्ष्माणि (अभिक्खणं ति) प्रामानुप्राति एमनमनुचितमेव ।। ४७ ॥ पारंवारं यत्रावस्थानादि फरोति तत्र तत्र ज्ञातव्यानि सू वासावासं पगोसवियाणं भिक्खू इच्छिज्जा अनयरिं प्रोपदेशेन (पासियवाई ति) चचुषा द्रष्टव्यानि ( पडिले- विगई आहारित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्चित्ता भाहियवाई ति) ज्ञात्वा दृष्टा च प्रतिलेखितव्यानि परिहर्त यरियं वा० जाव जं वा पुरो काउं विहरद, कप्पा से ज्यनया विचारणीयानि । कस्य० ३ अधि० क्षण । (प्राण सूक्ष्माऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने) आपुच्चिता आयरियं जाव पाहारितए-इच्छामि णं भंत! (१७) निकुरिच्छेद गृहपतिकुलम् तुम्नेहिं अनाठाए समाणे अन्नयरिं विगई श्रापासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छिज्जा गाहावकुलं हारित्तए, तं एवइयं वा एवइखुनो वा, ते य से वियपत्ताए वा पाणाए वा निक्वमित्तए वा पविसित्तए वा, रिज्जा, एवं से कप्पश् अनयरिं विगई प्राहारित्तए नो से कप्पइ प्रणापुच्चित्ता पायरियं वा नवज्झायं वा । ते य से नो वियरिज्जा, एवं से नो कप्पा अनयरिं विथेरं वा पवित्तिं वा गणिं वा गणहरं वागणावच्छइयं जं वा| गई पाहारित्तए, से किमाहु भंते ! आयरिया पश्चवायं पुरमो काउं विहर, कप्पा से आपछि आयरियं जाणंति ॥ ४ ॥ ना० जाच जं वा पुरो का विरहइ-इच्छामि | हितीये विकृत्याहारसूत्रे-(तं एवश्यं ति) तां विकृतिमे तावतीम् (पवाखुत्तो ति) एतावतो वारान् इत्यादि (ते असे भंते ! तुजकेहिं अजणुमाए समाणे गाहावइकुझं इत्यादि ) यथा ते तस्य वितरन्ति माज्ञां ददति, तथा म. जत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पवि- न्यतरां विकृतिमाहारयितुं कल्पते, नान्यथा ॥४८॥ सित्तए वा, ते य से वियरिज्जा एवं से कप्पड़ गाहा- वासावासं पज्जासबियाणं भिक्ख इच्छेना अपयर वाकुन्नं जत्ताए वा पाणाए वा निक्वमित्तए वा परिसित्त तेगिच्छ भाउट्टित्तए, तं चेव सवं जाणियन्नं ।। ४ ।। एवा. य से नो वियरिजना, एवं से नो कप्पा गाहावाकुलं तृतीये चिकित्सासूत्र-( भन्नयरं तेगिच्छ पाउट्टितपत्ति) भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा परिसित्तए वा. 'आउट' धातः करणाथै सैद्धान्तिकः, ततः अन्यतरां चिकिसे किमाइ भंते ! आयरिया पच्चनायं जाति ॥४६॥ । स्सा कारयितुम् माइयैव कल्पते । अथ ऋतुबश्वषांकालयोः सामान्या सामाचारी, वर्षास वासावासं पज्जोसवियाणं भिक्खू इच्छिजा अन्नयरं विशेषणोच्यत-वासावासमित्यादितः " जाणंतीति पर्यन्तं पोरानं कमाणं सिर्व धन्नं मंगलं सास्मरिय महाणसूत्रम् । तत्र (आयरियं वेत्यादि) प्राचार्यः सत्राचंदाता; हिगाचार्यों चा । उपाध्यायः सुत्राध्यापका, स्थविरो ज्ञाना. जावं तवोकर्म उपसंपन्जिसाण विहरित्तए तं चैव सव्वं ऽऽदिषु सोदतां स्थिरीकर्ता, उद्यतानामुपटकचा प्रवर्तको जाणियन्वं ॥ १०॥ वासावासं पज्जोसरियाणं निक्ख पानाऽऽदिषु प्रवतीयता; गणी यस्य पावें प्राचार्या सत्रागय इच्छिना अपच्चिममारणंतिअसलेहापासणाकूसिए ६१ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६) पज्जुसवगाकप्प अन्निधानराजेन्डः। पज्जुसवणाकप्प भत्तपाणपमियाइक्विए पाओगए काझं अणवख- स्वाध्यायं वा कायोत्सर्ग वा कर्तु, स्थानं वा वीराऽऽसना माणे वि विहरित्तए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ऽऽदिकं स्थातुम् ॥ ५२॥ असणं वा पाणं वा खाश्मं वा साइमं वा पाहारित्तए शय्यासंस्तार:वा नचारं पासवणं पग्दिा वित्तए बा, सज्कायं वा वासावासं पज्जोसबियाणं नो कप्पड निग्गंथाण वा निकरित्तए, धम्मजागरियं वा जागरित्तए, नो से कप्पइ अ- गयीण वा अणजिग्गहियमिज्जामणिएणं हुनए, प्राणापुच्छित्ता तं चेव सव्वं ।। ५ ।। याणमेयं, अाणजिग्गहियसिज्जासपियस्य चाकुएवं तपःसूत्रे ऽपि । संलेखनासूत्रे-( अपच्छिमेत्यादि ) इस्स अणहावंधिस्स अमियासणियस्स प्रणाताअपश्चिमं चरम मरणम् । अपश्चिमं मरणं न पुन: वियस्स असमियस्स अभिक्खणं अनिवखणं अपमिलेहप्रतिकणमायुर्दलिकानुनवलकगमावीचिकमरणम्, अपश्चि- णासीलस्स अपमज्जाणामीलस्स तहातहारूवाणं संम मरणम् एवान्तस्तत्र भवा अपश्चिममारणान्तिकी, जमे दुरागहए जवइ ।। ५३ ॥ अणायाणमेयं अनिम्गसंलिख्यते कशीक्रियते शरीरकषायाऽऽधनयेति संलेखना, सा च व्यभावभेदनिन्ना । (चत्तारि वि चित्ताई हियसिज्जासण यस्स नचाकुइयस्स अट्ठाबंधियस्स मिइत्यादि ) का तस्या (भूसण त्ति) जोषणं सेवा, तया यासणियस्त आयाविअस्स समियस्स अभिक्खणं अ(भूसिए त्ति) कपितशरोऽत एव प्रत्याख्यातजक्तपानोऽत भिक्खणं पमिन्नेहणासीलस्स पमजणासीलस्स तहा तहा एवं कालं जीवितकालं मरणकालं वा अनवकाइकन्ननजिलषम्बिहर्तुमिच्छत्तदपि गुर्वाक्षयेति तस्वम् (धम्मजागरिय ति) संजमे मुबाराहए नव ॥ ५४ ।। धर्मध्यानेन जागरिका धर्मजागरिका, तामपि जागर्नु गुर्वाइ.. वासावाममित्यादितः "भव ति" यावत् । तत्र (अयैव कल्पते। णजिम्महिएत्यादि ) न अनिगृहीते शय्यासने थेन सः ___ रत्नाऽऽदि गृह्णाति अनभिगृहीतशय्यासनः, अनभिगृहीतशय्यासन एव अनभि गृहीतशय्यासनिकः. स्वार्थे इकप्रत्ययः । तथाविधेन साधुना वामावामं पजोसबियाणं जिक्ख इच्छिज्जा बत्यं वा (हुत्तपत्ति) भवितुं न कल्पते । वर्षासु मणिकट्टिमेऽपि पी. पमिग्गरं वा कंबलं वा पायपंकणं वा अन्नयरिं वा उफतकाभिग्रहवतेच भाव्यम, अन्यथा शीतलायां भूमौ श. उनहिं आयावित्तएं वा पयावित्तए वा, नो से कप्पा एगं यने च कुन्नादिविराधनोत्पत्तेः। ( श्रायाणमधे ति ) कर्मबा अगं वा अप(डिपवित्ता गाहावश्कुझं भत्ताए वा णां दोषाणां चा आदानकारणमेतद् अनभिगृहीतशय्यास निकत्वम् । तदेव बढयति-- अणभिग्गदियेत्यादि ) अन. पाणार वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा असणं वा भिगृहीतशग्यासनिक इति प्राग्वत् । तस्य (अणुच्चापाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारित्तए बहिया विहा कुश्यस्स त्ति) उच्चा हस्ताऽऽदि यावत् येन पीपिलिकाऽऽदेवधो रभूमि वा वियारभूमि वा सज्कायं वा करित्तए, कान- न स्यात् , सर्पाऽऽदेर्वा दंशो न स्यात् । अकुचा "कुच" स्सग्गं वागणं वा ठाइत्तए, अत्यि इत्य के अहास परिस्पन्दे" इति वचनात् । परिस्पन्दरहिता,निश्चक्षेति यावत् । ततः कर्मधारयः। उच्चा कुत्राशय्या कम्बाऽऽनिमयी,सानो वि. मिहिए एगे वा अणेगे वा कप्पइ से एवं वत्तए-इम चते यस्य स अनुचाकुचिको नोचमपरिस्पन्दशय्याकः, तस्य ता अजो ! मुहुत्तगं वा जाणाहि जाव ताव अहं गाहा ( अणट्टाबंधियस्स त्ति ) अनर्थकबन्धिनः पक्षमध्ये अनबइकुलं. जाव काउस्सगं वा गणं वा गइत्तए, थक निष्प्रयोजनमेकचारोपरि द्वौ त्रीश्चतुरो वारान् कग्यासु ब. मे अपमिमुणेज्जा, एवं से कप्पा गाहावइकुझं तं चेव स. धान ददाति, चतुरुपरि बहूनि अट्टकानि वा बध्नाति । तथा वं जाणियन्त्र,से असे नो पमिसुऐज्जा, एवं से नो कप्पा | च स्वाध्यायनिघ्नपविसंघाऽऽदयो (?) दोषाः । यदि चैकाङ्गिक चम्पकाऽऽदिपदं लभ्यते तदा तदेव ग्राह्य,बन्धनाऽऽदिपलिमन्थगाहाबइकुलं 0 जाव गणं वा गइत्तए । ५२ ॥ परिहारात् , (अमियासणियस त्ति) अमितासनिकस्य वासावासमित्यादितः "वात्तए ति " पर्यन्तम् । तत्र अधकासनस्य मुहुर्मुहुः स्थानात् स्थानान्तरं गच्चतो हि । पत्थं वेत्यादि ) पादप्रोचनं रजोहरणं, ततो वस्त्राऽऽदि. सयवधः स्यात् । अनेकानि वा आसनानि सेवमानस्थ (अ. कमुपधिमातापयितुझेकवारम् अानपे दातु, प्रतापयितु पुनः णातावियस्स ति)संस्तारकपात्राऽऽदीनामातपे अदातुः (अपुनरातपे दातुमिच्छति, अनानापने कुन्युपनकाऽऽदिदोगोपत्तेः। समियस्य ति) ईर्याऽऽदिषु समितिषु अनुपयुक्तस्य । ( अभि. तदा उपधी प्रात पदस सति पकंवा अनेक बा साधुमप्रतिज्ञा- क्खणं ति ) वारं वारमप्रति लेखनाशीलस्य दृष्टा अनाप्रमा. पय गोचराको गन्तुं याचस्कायोत्सर्गेऽपि स्थान करूपते वृष्टि- जनशीलस्य रजोहरणाऽऽदिना, ईशस्य साधोः संयमो भयात्। त्यत्र कोऽपि यथा सनिहित स्तमेवं वक्तुं कल्पते यत् दुराराधो नवति । अत्र किरणावादीपिकाकाराभ्यां दुरा. मार्य ! समुपधि ताबजुदूरीमा जानाहि विनावय । ( जाव राधो दुःप्रतिपादय इति प्रयोगौ लिखितौ, तो चिन्यो । " :ताब ति) यावद (से अपमिसुणेज्जत्ति) स प्रतिशृणुया. खीषतः कृच्चाकृच्छात्खिस्" ।। ५।३।१३६॥ इति मुत्रेण खतू समीकुर्यात्, तवस्त्रसत्यापनं, तदा कल्पते गोनगऽऽदी ग. लूप्रत्ययाऽगमनेन दुराराध इति दुष्प्रतिपाल इति च भवनात्। न्तुमशनाऽऽद्याहारयितुं, बिहारनूमि विचारभूमि वा गन्तं न च वाच्यम् प्राडा प्रतिना च प्रतिव्यवधानात्खल न भविष्य Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जुसवणाकप्प (२४७) अभिधानराजेन्षः। पज्जसवणाकप्प तीति, "नपसों न व्यवधायोति"न्यायात्। किं च-समागच्च. श्लेष्मार्थम् । मात्रकाभावे वेलाऽतिक्रमेण वेगधारणे पातीत्यत्र आङा व्यवधानन " समो गमृच्छिज्याम्" ॥१॥३२॥ स्मविराधना, वर्षति च बहिर्गमने संयमविराधनेति । कल्प. इत्यादिनाऽऽत्मनेपदाप्राप्तेरस्य न्यायस्यानित्यत्वादत्रोपस- ३ अधि० ९कण। र्गस्य व्यवधायकत्वं भविष्यतीत्यपि न वाच्यम् । न हि खल्वि. इयाणि मत्तए त्ति दारंषये उपसर्गस्य व्यवधायकत्वम्, " उपसर्गात् खयोश्च " उच्चारपासवणखे-समत्तए तिमि तिमि गेएहति । ॥४।४।१०७॥ इति सूत्रण ईषत्प्रलम्नं दुष्प्रलम्भमित्यादिप्र. योगकापनादिति दिक। आदानमुक्त्वा अनादानमाद-"प्रणा. संजम-पाएसट्ठा, जिज्जेज व सेस नऊंति ।। ५५४॥ याणमित्यादितः "सुधाराहप जव ति" यावत्। तत्र कर्मणां वरिसाकाले उच्चारमत्तया तिमि, पासवणमत्तया तिथि, दोषाणां चा अनादानमकारणमेतत्-अभिगृहीतशय्यासनिक- तिम खेलमत्तया । एवं ण घेतम्या । इमं कारणं-जं संजर्माणस्वम्. लश्चाकुत्रशय्यावरवं संप्रयोजनं पक्कमध्ये सकृच्च शय्याब. मित्तं वरिसंते एगम्मि वाहहिते वितिय ततिएसु कजं करेति । न्धकस्वमिति । तदेव द्रढयति-अभिगृहीतशय्यामनिकस्य नचा. असिवादिकारणिपसु वा । आपसिए आगतेसु दलपज्जा, कुचिकस्य अर्थाय बन्धिनो मितासनिकस्य प्रातापिनो वस्त्रा- सेसेहि अप्पणो करेति । पगमादिभिम्रोण या मेसेहि कज्जं ऽऽऽरातप दातुः समितस्य समितिषु दत्तोपयोगस्याभीक्षणं प्र. फरैति । एवं सेसा जे उबद्धगहिया ते नऊति । सभी का. तिलेखनाशीलस्य प्रमार्जनाशील स्यदशस्य साधोः तथा तथा सं पडिलेहणा कज्जति-दिया, रातो वा । प्रवासंते जति प. तेन तेन प्रकारेण संयमः सुखाऽऽराध्यो भवति ॥ ५४॥ कस्प० रिभुजति ता मासल हुं । जाहे बा संपमति ताहे परिर्बुजति । ३ कण अधि। जेण अभिग्गहो गहितो सो परिवेति । उल्लो ण सिक्खि(१८) दाणि संथारग त्ति दारं यब्बो, अपरिणयसेदाणं ण बाइज्जति । मत्तए त्तिगयं । नि. चू० १० १०। करणे उद्गहिते उ-किऊण गेएहति अम्मपरिसामि। दाउं गुरुस्स तिएिण उ, सेसा गेएहंति एक्ककं ।।५५३॥ (२१) लोच:सबकाले जे संघारगा कारणे गहिता ते बोसिरिता चासावा पज्जोसवियाणं नो कप्पा निग्गंयाण वा निप्रो संधारगा अपमिसाऊ बासा जे गएइंति गुरुस्स तिपिण गंथीण वा पर पज्जोसवणाश्रो गोझोमप्पमाणमित्ते विकेदाउ णिवाते पवाते णिवायपवाए से साधू अहाराणिया. से तं स्यणि नवायणावित्तए अजेणं खुरमुंमेणं वा बुक्कए एकेक गएदति । नि० चू० १० उ०। (ऋतुबछिकं शय्या. सिरएणं वा होयत्वं सिया पक्खिया प्रारोचणा, मासिए संस्तारमन्यत्र नयतीति 'सिज्जासंधार' शब्दे बक्ष्यते) खुरमुंके, अद्धमासिए कत्तरिमुंके, छम्मासिए लोए, संव(१९) उच्चारप्रश्रवणनूमिः छरिए वा थेरे कप्पे ॥ ५७ ॥ वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पा निग्गथाण वा नि. ग्गंधीण वा तो नच्चारपासवणन्नूमीनो पमिलेहित्तए, वासाबासं पज्जोसवियाणमित्यादितः "संवच्छरिप धेरे कप्पे त्ति" यावत् । तत्र (परं पज्जोसवणाओ त्ति) पर्युषणातः परमान तहा हेमतगिम्हासु जहा पण वासासु, से किमाहु जंते ! षाढचतुर्मास कादनन्तरं गोझोमप्रमाणा अपि केशान स्थापनीवासामु णं ओसन्नं पाणा य तणा य वीया य पणगा य | याः, प्रास्तां दीर्घाः । “धुवलोश्रो उ जिणाणं, निच थेराण वा. हरियाणि य भवति ॥ ५५ ॥ सवासासु (५५५ नि०चू.)" इति वचनात् । यावत तां रजनी (उच्चारपासवणभूमीश्रोत्ति) अनधिसहिष्णोस्तिस्रो ऽन्तः, अ. भाषसितपश्चमीरात्रिम् । साम्प्रतं तु चतुर्थी रात्रि नातिक्रमयेत, धिसहिष्णाश्च बहिस्तिस्रः दूरव्याघाते मध्या भूमिः,तयाघा चतुथ्यांश्च अगिव लोचं कारयेत् । अयं नाव:-यदि समर्थते चाऽऽसन्नेति । आसन्नमध्यदूरभेदात्रिविधा नूमिः प्रतिले स्तदा वर्षासु नित्यं लोचं कारयेत् । असमर्थोऽपि तां रात्रि नो. खितव्या (न तहेत्यादि) न तथा हेमन्त ग्रीष्मयोर्यथा वर्षा येत् । पर्युषणापर्वणि लोचं विना प्रतिक्रमणस्याऽऽवश्यमक. सु (से किमाहुभंते ! त्ति) तत्कुत इति प्रश्ने गुरुराह-(वा. ल्यत्वात् । केशेषु हि अप्कायविराधना-तत्संसर्गाच्च यूकाः सं. सासु णं इत्यादि ) वर्षासु ( प्रोसन्नं ति ) प्रायेण प्रा मूचन्ति, ताश्च कण्डूयमानो हन्ति, शिरसि नखवतं वा स्या. णाः शखनकेन्जगोपकम्यादयः, तृणानि प्रतीतानि, बीजानि त् । यदि तुरेण मुरामापयति कर्तर्या वा तदाऽऽज्ञानङ्गाऽऽद्या तत्तद्वनस्पतीनां नबोद्भिन्नानि किशनयानि । पनका उल्ल दोषाः । संयमाऽऽत्मविराधना-यूकाश्विद्यन्ते, नापितश्च पश्चा. यो, हरितानि बी जेभ्यो जातानि । पतानि वर्षासु बाहुल्येन कर्म करोति, शासनापभ्राजना च। ततो सोचः (१) शिरोजेन । अवन्तीति ॥ ५५॥ अपवाद तो बासम्झानाऽऽदिना मुण्डितशिरोजेन नवितव्यं स्यात् तत्र केवलं प्रासुकोदके व श्रेयान् । यदि चासहिष्णुलौच कृते (२०) मात्रकद्वारम् ज्वराऽऽदिर्वा स्यात् कस्यचित् । बालो वा रुथारूम वा त्यजेसवासावासं पज्जोसबियाणं कप्पा निग्गंथाण वाणिग्गंधीण तो न तस्य लोव इत्याह-(अज्जणमित्यादि) आर्येण साधुना (लुकसिरपण ति) उत्सर्गतो लुश्चितशिरः प्रक्वाल्य नापिवा तओ मत्तगाई गिएिहत्तए । तं जहा-नच्चारमत्तए, तस्यापि तेन करौ कामयति । यस्तु क्षुरेणापि कारयितुम. पासवणमत्तए, खेलमत्तए ।। ५६ ॥ समों, व्रणादिमच्चिरा वातस्य कशाः कसया कल्पनीयाः। ( तो मत्तमा ति ) त्रीणि मात्रकाणि उच्चारप्रस्रवण- (पवित्रा प्रारोवण ति) कोऽर्थः १, पक्षे पक्के संस्तारकदव. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) पग्जुसवणाकप्प प्रनिधानराजेन्द्रः। - पज्जसवणाकप्प रकाण बन्धा मोक्तव्याः, प्रति लेखितव्याश्वेत्यर्थः । अथवा. कत्तरीए चगुरुमासा, लोय कारवतेण एते दोसा परिहभारोपणाप्रायश्चित्तं पक्के पके ग्राह्य सर्वकालं, वर्षासु विशेषतः। | रिया भवंति । (मासिए खुरमुंमे त्ति) असहिष्णुना मासि मासि मुएमनं गाहाकारणीयम । (श्रद्धमासिए कत्तरिमुंडे ति) यदि कर्ता पक्खियमासियछम्मा-सिए य थेराण तू भवे कप्पो। कारयति तदा पक्षे पक्के गुप्तं कारणीयम्। भुरकर्ताश्व लोचे कत्तरि खुर लोए वा,वितिए असह गिलाणे य॥२३॥ प्रायश्चित्तं निशीथोक्तं यथासंख्यं लघुगुरुमासमक्षण केयम्। (उम्मासिए लोए सि) पाएमासिको सोचः । (संबच्चरिप (वितिय ति) वितियपदेण सायं ण कारवेजा, असह सायं षा घेरे कप्पे ति) स्थविराणां वृद्धानां जराजर्जरत्वेनासा. ण कारवेज्जा, असह झोयं ण तरति अधियासेठ, सिरोरोगेण माद् दृष्टिरक्षार्थ च । (संबच्चरिए वा थेरकप्प ति) सांवत्स. वा, मंदचक्खुणा वा, लोयं वा असतो धम्म छड़ेजा, गिला. रिको वा लोचः, स्थविरकल्पे स्थितानामिति, अर्थातरुणानां णस्स वा लोश्रो ण फज्जति, सोयं वा करेति गिलाणो हवेज्ज । चातुर्मासिक इति ॥५७॥ कल्प० ३ अधि० कण । नि.चू०। पत्रमादिपदि कारणेहिं जहच कत्तरीए करेति तो पक्खे पक्खे । अह खुरेण, तो मासे मासे । पढम खुरेण वा कत्तरीप लोयकधुवमोनोज जिणाणं थेराणं निच्च वासवासासु । रस्स महुरोदयं हत्थधोवणं दिज्जति, पच्चा कम्मपरिहरणधं । अमह गिझाण यस्स य, तं रयणि तु नातिकमे ॥५५॥ भववादेण सोभो छम्मासेण कारावेयव्यो । थराण पस कप्पो वाणि सोए सि । उदुबद्ध वासासु वा जिणकप्पियाणं संबच्चरिए भणितो। नि.चू० १० उ० । धुवमोचो.दिने दिने कुर्वन्तीत्यर्थः। थेराण विपासासु धुवरोमो (२२) अधिकरणम्चेव । असगिलाणाण पज्जोसवणराति णातिकमति, पाउका- इयाणि अधिकरण ति। अधिकरणं काहो मम्मति । तं च जहा इयविराहणाजया संसजणभया य वासासु धुवोचो क- चउत्योहेसप वलियं तहा इहावि सबित्थरं दहवं । चण जति । लोए ति गतं । निचू.१० उ०। कायब्वं, पुषुप्पम्मं च ण चदीरियवं, पुवुप्पमं जा कमायनभत्र पर्युषणायां केशलोचः करताए ण स्वामियं तो पजोसवणासु अवस्स विडसाजे जिक्रव पज्जोसवणाए गोनोमाई पि बानाई उवा- वयाअधिगरण मे दिना-दुरुधगामोवलक्खियं पोतो गुणावेड, बायणावंतं वा साइजइ॥ ५० ॥ दो मनो य । तत्थ दुक्खगत्ति उदाहरणं । पायरियजणवयस्स गोलोममाया अपि न कर्तव्याः, किमुत दीर्घा । अहवा हस्त. अंतग्गामा पक्को कुंभारो, सो कुलालाणं नरिकण पचंतगाप्रायाः। भपिशन विशेषयति । (उवातिणावेति सि) पज्जो. म दुरूवर्ग जामयं गता। सवणारयगि प्रतिकामतीत्यर्थः । तेदिय दुरुत्तावेडिंगोटेहि पगंधाचं हरिउकामेहि भष्मतिगादासूत्र एगवइवं भमि, पासह तुज्के वि मज्ज खलहाणे । पज्जोबसणाकेसे, गावीलोमप्पमाणमेले वी। हरणे जामण जाणग, घोसण ता मयजुकेसु ।।५६२ ॥ जे भिक्खूवातिणती, सो पावति प्राणमादीणि एए| नो भो पेचह इमं मच्छर-पमेण वाल्लेखेगा भकी गच्छति तस्स चमगं पच्चित्तं, प्राणादिया य दोसा । तेण वि कुंजकारेण भणिय-पेयह नो श्मस्स गामस्स गोलोमविशेषणार्थमाह स्वसहाणाणि मज्जंति । अतिगया भी गाममफे गिता । तस्स ण विनिंगउबालो, ण अस्थि पुच्छेण पत्थिया वाला। तेहिं दुरूगन्धेहि गिलसिपण एगो बल्लो हमो, विकय गया मुजवसापीरोगाए, सेस गुरू होति हाणीए । ए७१ ।। कुलालातो य गामिचया जाचिता देह वश्वं । ते भणंति-तु में पक्केण बल्लेण भागयो। ते पुणो जातिता जाहे न दे णिमुदते पानवधो, नद्येसु य उप्पदा उ मुच्छति ।। ति ताहे सरयकाले सम्वम्माणि स्वनधारणेसु कताणि, तादे सा कंम्यं विगहे, कुन्जा व खयं तु प्रातोदे।। ५६॥ अम्गी विमो । एवं तेण सत्त वरिसाणि कामिता साधाणा । धुलोमो उ जिगाणं,बरिसामु य होति गच्छवासीणं । तादे अटुमे वरिसे दुरूवगगाममल्लपाहिं मलजुरूमहे वट्टमाख उतरणे चउपासो, खुर कत्तरि बहू गुरुगा ।।एए२|| भाणगो भणितो घोसेहि भो जस्स अम्हहिं प्रवरखं, तं खा मेमो, जं च गदेयं तं देमो, मा अम्हे भासेह, दहेश्रो । ततो कंठा । वासासु लोप अकज्जते मे दोसा-याउकाए णिसुदंते भाणपण उग्घोसियं । कुंजकारेण भाणगो भणितो-भो माढते आउचिराहणा, उल्लेसु य बालेसु कृपयानो संमुज. श्म घोसेहिति, कंप्रतो वा छप्पदादि विराहेति, कंसुअंतो वा स्वयं अप्पिण इतं वइल्लं, पुरूनगो तस्म कुंजकारस्स। करेउजा, तत्थ प्रायविराहणा । जम्हा पते दोसा तम्हा, धुवलोनो गाहा । उदुबद्ध वासासु वा जिणकप्पियाण धुवमोमो, मामहिंति बंधण,प्रमाणि वि सत्त वरिसाणि ॥५६॥ परकविषयाण बालासु धुवलोमो, धुवीयासमथो वा तं माणगेण उन्धोसियं, तं तेहिं पुरुयगब्बेहि सो कुंभकारी रयणि नातिकमे धेरकदिवो तसणे बरे नकोसेणं चउएवं समिता,विमा य से वालो। इमो उपसंहारो-जति ता तेहिं भ. मासाणं लोय करावेति । घेरस्स वि पवं, बरं उक्कोसेणं छ- संजापहिं प्रमाणीहिं होतहि खामिय, तेण वि खमिय, किम्मासा, जति उनुपरेवासासु वा खुरण कारावेति, तो मास. मग ! पुण संजएहि नाणीहि जयं कथं तं सव्वं पञ्जोसबसदुक सीप मालगुरूं, प्राणादिया य दोस।। पतिगाण वि- पाए समियब, बामेयब्वं च । एवं कारीद संजमाराहणा राहणा पच्छकम्मदोसा या आदेसंतरेण कारवेति, तो खद, कता नवति । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४५) अभिधानराजेन्छः। पज्जसवणाकप्प पज्ज़सवगाकप्प अहवा-इमो दिटुंतो पज्जोसवेति ग्गंधीण वा तो जवस्सया गिएिहत्तए । तं जहा-वेनचंपा कुमारणंदा, पंचऽच्छरा थेरणपण दुमवलए । बिया पमिलेहा, साइज्जिया, पमज्जणा || ६०॥ विहपासणयण सावग,इंगिणि उबवाय दिवरे ॥५६॥ "वासावासं पज्जोसवियाणं" इत्यादितः "पमज्जणा।" इति पेहण पमिमोदायण, पभाव नप्पाय देवदत्तपदे । यावत् । तत्र वर्षासु त्रय उपाश्रया ग्राह्या, जन्तुसंसक्त्या. मरणववातो वस-नयणं तह भीसणा समणा ॥५६॥ दिभयात्तमिति पदं तथेत्यर्थः । तत्र त्रिषु उपाश्रयेषु (बेउन्निगंधारगिरी देवय-पमिमा गुलिया गिलाणपरियरणं । या पडिनेह ति) द्वा पुनः पुनः प्रतिलेख्यो अष्टव्यौ इति भावः । ( साजिजया पमज्जण ति). साजिज' धातुरास्वा. पज्जोयहरण दुक्खररण,गहणेण गओ उवसमा ५६६॥ दने । तत उपनुज्यमानो य उपाश्रयस्तरसंबन्धिनी प्रमार्जना नि० चू० १० उ०। कार्या, यतो यस्मिन्नुपाश्रये साधवस्तिष्ठन्ति तं प्रातः प्रमार्ज• (अत्र चम्पानगरीवास्तव्याऽनसेनवृत्तं "दसतर" शब्दे चतु- यन्ति, पुनर्भिकांगतेषु साधुषु, पुनस्तृतीयप्रहरान्ते चेति दा. नागे २४७७ पृष्ठे गतम । तस्यैवानसेनस्य कुमारमन्दीप्ति रत्रयम् । ऋतुबके च बारद्वयम्, प्रसंसक्तेऽयं विधिः, संनामान्तरम) (टीकास्थोदायनवृत्तान्तमात्रमुपवण्ये तेऽधः)सिन्धु- सक्ते च पुनः पुनः प्रमार्जवन्ति, शेषोपाश्रयद्वयं तु प्रतिदिन सौवीरदेशाधिपतिर्दशमुकुटबद्धनुपसेव्य उदयनराजो विशुन्मा- हझा पश्यन्ति, कोऽपि तत्र ममत्वं माका दिनि, तृनीयदिने लिसमर्पित श्रीचीरप्रतिमाऽर्चनाऽऽगतनीरोगीनूतगन्धाराका- च पादोकनेन प्रमानयन्तीति । अत उक्तम ( वेडब्बिया प. र्पितगुटिकाभक्कणतो जासाभुतरूपायाः सुवर्णगुलिकाया मिलेद ति)॥६॥ कल्प०। (आज्ञां गृहीत्वा गोचरचर्या गन्तदेवाधिदेवप्रतिमायुताया अपहार माल यदेशनुपसव्यं व्या इति 'गोयरचारया' शब्द तृतीयभागे १००४ पृष्ठे कष्टव्याम) बएडप्रद्योतराजं देवाधिदेवप्रतिमाप्रत्यानयनोत्पन्नसंग्रामे (२४) योजनान्यवग्रहःबद्धा पश्चादागच्छन् दशपुरे वर्षासु तस्थौ, वार्षिकपर्वणि च वामावासं पज्जोसवियाणं कप्पा निग्गंथाण वा निस्वयमुपबासं चक्रे । नूपाऽऽदिष्टसुपकारेण भोजनार्थ पृएन च. पडप्रद्योतेन विषन्निया भ्रामस्थ ममाप्यधोपचास शति प्रोक्त ध्र गयी वा गिलाणडेले जाव चत्तारि पंच जोषणाई साधर्मिकेऽप्यस्मिन्नतमिते मम प्रतिक्रमणं न शुद्ध्यतीति तत्स- गंतुं पमिनियत्तए, अंतरा विय से कप्पड़ बत्तव्बए, नो घंखप्रदानतस्तद्भाले मम दासोपतिरित्यक्कराऽऽच्छादनाय स्वमु. से कप्पा तं रपरिण तत्येव उवायणा वित्तए ।। ६२ ।। कुटपट्टदानतश्च श्रीनदयनराजेन श्रीचएमप्रोत: कृमितोऽत्र श्रीउदयनर जस्येवाराधकत्वं, तस्यैवोपशान्तस्वात् । "वासेत्यादित उबायणाविनए ति" पर्यन्तम् । तत्र-(जाचे. कचिचोभयोरप्याराधकत्वम । तथाहि-अन्यदा कौशाम्यां सूर्या त्यादि ) वर्धाकल्पौषधवैद्याऽऽद्यर्थ ग्लानसारीकरणार्थ वा यामन्द्रमसौ स्वबिमानेन श्रीवीरं वन्दितुं समागच्चतः स्म। चन्दना बच्चत्वारि पञ्च योजनानि गत्वा प्रतिनिवर्तितुं कल्पते, न तु पदकास्तसमय विज्ञाय स्वकीयस्थानं गता । मृगायती च स. तत्र स्थातुं कल्पते । स्वस्थान प्राप्तमकमश्वेत्तदा तस्यान्तराऽपि बरगमनासमसि विस्तृते सति.रात्रि विकाय भीसा उपाय वस्तुं कल्पते, न पुनस्तत्रैव । एवं हि वार्याऽऽचाराराधनं मागत्यर्यापथिकी प्रतिक्रम्य निद्राणां चन्दनां प्रवर्तिनी क स्यादिति यत्र दिने वर्षाकल्पाऽदि लब्धं तहिनरात्रि तत्रैव मा. म्यतां ममापराध इत्युक्तवती । चन्दमाऽपि भो ! कुलीनाया तिक्रमयितुं कल्पते, फायें जाते सद्य एव बहिर्निर्गत्य तिष्ठेदिस्तबेदृशं न युक्तमित्युवाच । साऽप्यूचे-भूयो नेरशं करिष्ये , ति भावः। इति पादयोः पतिता तावता प्रवर्तिन्या निजाऽगात । तया इचेयं संवच्छरिअं थेरकप्पं अहात्तं अहाकप्पं महाव तथैव कमणेन केवलं प्राप्त, सपंसमीपास्करापसारणम्य. तिकरण प्रबोधिता । प्रतिन्यपि कथं सपोशाचीति - मग्गं अहातच्च सम्मं कारणा फासित्ता पालित्ता सोमन्ती तस्याः केवलं सात्वा मृगावती कमयन्ती फेवल जिना तीरिता किट्टित्ता राहित्ता प्राणाए प्रापामाससाद । तेनेरशं मिथ्यादुष्कृतं देयं, म पुनः कुम्भका लित्ता अत्यगइया समणा निग्गंथा तेणेव भवग्गहणण रक्षुल्लकदृष्टान्तेन । तथाहि-कश्चित् दाबको नामानि का- सिज्झंति, बुऊंति, मुच्चंति, परिनिन्यायति, सम्वदुक्खाणीकुर्वन् कुम्नकारेण निवारितो मिथ्यादुष्कृतं दरोऽपि न पुनस्ततो निवर्तते, ततः स कुम्नकारोऽपि कर्करैः चलकक णमंतं करिति, अत्येगइया दुच्चेणं भवग्गहणेणं सिमोटनं कुर्वन्पुनः पुनः क्षुल्लेन पीडयेऽहमित्युक्तोऽपि मुधा अंतिजाव अंतं करिति । अत्येगमा तारणं नवग्गहमिध्याकुकृतं ददौ ॥५६॥ कल्प०३ अधिक्षण । (विस्तरस्तु गणं० जाव अंतं करिति, सत्तहनवग्गहणाई पुण नाइ'महिगरण' शब्दे प्रथमभागे ८३ पृष्ठे उक्तम) कमति ॥ ६३ ॥ कषाया न कर्तव्याः-श्वाणि वाय त्ति दारं । तेसि चक्कणि क्नेबो पुम्वं बलियबा। जहा वटाणे कोहो चविधो । सदग । चेयं संवच्छरिमं थेरकप्पं ) इतिरूपप्रदर्शने । तं पूर्वोपर. रासमाणो, पुढविराश्समाणो, वासुबाराश्समाणो, पम्बपरा. शितं सांवत्सरिकं वारात्रिक स्थविरकरुपम । (अहासुत्तं) इसमाणो य । नि० चू०१० उ० । यथा सूत्रे भणितं तया, तु मुत्रविरुरूम । ( अदाकप्पं ) य था अत्रोक्तं तथा करणे कल्पोऽन्यथा स्वकल्प इति यथाक(२३) उपाश्रया: रूपम् । एतस्कुर्वतश्च (अहामगं) ज्ञानाऽऽदित्रयझक्षणो मार्ग इति बासावासं पज्जासबियाणं कप्पड निग्गंथाण वा नि- ' यथामार्गम् । ( अदात) अत एव यथातथ्य, सत्यामत्ययः । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जसवणाकप्प अनिधानराजेन्द्रः। पज्जसवणाकप्प (सम्म ) सम्यग् यथावस्थितम (कारण) उपनक्कणत्वात्का. न सहितम् (ससुतं) स्त्रसहितम् (सअत्यं) अर्थसहितम् यवादमानसैः (फासिसा) स्पृष्ठवा आसेव्य (पालित्ता) (सनभयं) उभयसहितं च (सवागरणं) व्याकरणं पृटा. पालयित्वा अतिचारज्यो रक्तयित्वा (सोजिता ) शोभयित्वा थंकथनं तेन सहितं सव्याकरणम् (तुज्जो भुज्जो उपदंविधिवत्करणेन (तीरित्ता) तीरयित्वा पावज्जीवम् पाराभ्य | से त्ति बेमि ) भूयो भूय उपदर्शयति इत्यद धीमीति । किट्टित्ता) कीर्तयित्वा अन्येभ्य उपदिश्य (श्रारादित्ता) श्रीभकबाहुस्वामी स्वशिष्यान् प्रतीदमुवाचेति । कल्प०१ पाराध्य यधोक्तकरणेन (बाणार अणुपाग्नित्ता) श्राशया | अधि. कण। जिनोपदेशेन यथा पूर्वः पावितं तथा पश्चात परिपाल्य (अ. (२५) सचित्तबाभ:स्थेगइया समणा निम्गंथा) सन्त्येके ये अत्युत्तमया तदनुपाल' याणि सनित्तति । जो पुराणो भावियसलो वा एते भो नया श्रमणा निर्ग्रन्थाः (तेणेव भवम्गहणेणं सिकंति) तस्मिा सचित्तो सेसाप चित्ताण पवाविज्जति, अद पन्चावेति नेव नवग्रहणेन भवे सिरुवन्ति कृतार्था भवन्ति । (बुज्झति)। ससहि खातो चउगुरूं, आगातिया य दोसा । वासामु प. बुधन्ते केवलज्ञानेन (मुशंति ) मुच्यन्ते कर्मपञ्जरात् (प. ब्वाचितो मा होहि ति णिहम्मो, तेण ण पवाविज्जति। रिनिम्बायंति) परिनिर्वान्ति कर्मकृतः सर्वतापोपशमनात शी. कहं निद्धम्मो भवति । उच्यते-बासंतेमाणीहि पाउलानोभवन्ति (सम्वयुक्खाणमंतं करिति ) सर्वदुःखानां शारी इयविराहणा भवति, ताहे सो भणाति-जइ पते जीवा तो रमानसानामन्तं कुर्वन्ति ( अत्धेगश्या दुश्चेणं जयगडणेणं० णिसामाणे किंभिक्खं गेरादह, वियारम वा गच्छह कह जाव अंतं काति) सन्त्येके ये उत्तमया तु तत्पाञ्जनया कि घा तुज्केहि सका साहवो य वासासुचलणे धोवंति, पायले. मीयनवग्रहणे सिध्यन्ति यावत् अन्तं कुर्वन्ति । (प्रत्येगश्या इणियाए णिल्लिहति ?, ताहे सो भणाति, असुर चिक्खद्व सरपणं नवग्गहणेणं० जाव भंत करिति ) सन्त्येके ये म. महिलण पाप प धोति, असुरुषो पतो समयस्स य को ध्यमया तत्पालनया तृतीयभवे यावत् अन्तं कुर्वन्ति । ( सत्त - धम्मो । एवं विपरिणतो उणिवस्त्रमति । अदया सागारियं नवग्गणा पुण नाइकमंति) जघन्ययाऽपि पतदाराधनया काउं साहयो पाए धोति, ततो असमायारी, पाउसदो. सप्ताष्टनवांस्तु पुनः नासिकामन्तीति भावः ॥ ६३ ॥ सो य, असमंजसं ति कार्ड ण सहति, णिद्धम्मो भवति, भो. मयैवं वर्णकः स्वबुध्या न प्रोच्यते, किन्तु जगवदुपदेशपार यणं मोप य उड़ाहेति, वासे पते प्रभाविते सेहे बसही. तत्याह तो अणिते जइ मंडलीए नुजति तो उड़ाई करति, पातेणं कालेणं तेणं समपणं समणे जगवं महावीरे रायगिहे णाश्चाए परोप्परसंकठं नुति, अहं पिणेहि बिट्टालिता, तादे विपरिणमति, अहा मंगलीए न तुजति, ताहे अममायानगरे गुणसिलए चेइए बहूणं समणाणं बहुगं समणीयं री समयाणं कता भवति, जति वा ते साहवो णिम्सम्गमाणे बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं बहूर्ण देवाणं बहूणं देवीणं मत्तपम उच्चारपासवणाति आयरंति, सो य तं दटुं विष. मऊगए चेव एवमाइक्खर, एवं जासह एवं पन्नवेड, एवं रिणामेज्जा, उमिक्खमते, नाहं च करेति । अह साहयो परूवे पज्जोवसणाकप्पो नाम अज्झयणं सअटुं सहेनअं| सागारयं ति काउं घरेति, तो आयविराहणा। अहणिम्सगते चेव णिसरंति, तो संजमविराहणा। जम्हा एवमादी दोसा सकारणं समुत्तं स अत्यं सनभयं सागरणं नुज्जो नुज्जो तम्हा वासास पज्जोसविते गण पवावेतब्दो। पुराणे सके संपू. उवदंसह त्ति बेमि ॥ ६४ ॥ पा। पते दोसा ण भवंति, तेण ते पवाविरजति कारणे पज्जो( तेणं कालेणं ) तस्मिन् काले चतुर्थारकपर्यन्ते (तेणं सम- सविते पज्जासधिज्जति अतिसती जाणि क करण जत्थ पुब्बुत्ता एण) तस्मिन् समये (समणे भगवं महावीरे ) श्रमणो भ. दोमा स्थि तं पञ्चावेति । अणतिसती वि अवोच्छिगवान महावीरस (रायांगडे नगरे) र जगृहनगरे समवस. तिमाश्कारणेहि पञ्चावति, इमं च जयण करेति. विचित्र रणावसरे (गुगणसिनए चेइप) गुणशन नाम चैत्ये (बहुणं स. महर्ति वसहि गेपहंति, आनुक्कायजीवचोदणे पाविज्जति, मणाणं) बहूनां श्रमणानां (बहूर्ण समणीणं ) बहूनां श्रमणी- असरीरी धम्मो जत्थि त्ति काउं मंडसी मोपसु जुतं करेति, माम् । बहूणं सावयाणं) बहूनां श्रावकाणाम (बहूगं सा- अमाए वा बसहीर चंति, जत्तेण य उवचरति। सचित्ते त्ति बियाणं ) बहूनां श्राविकारणाम् (बदणं देवाणं ) बहूनां दे गये । इदाज अचित्ते ति दारं । गरडगलमखमादाणं गहणं, बानाम (बहूर्ण देवाग) बहूनां देवीनाम (मझगए चव) वासाबगहियाण बोसिरणं, वत्थातियाण परणं, गराइ. मागत एव, न तु कोणके प्रविश्य प्रच्छन्नतयेति नाथः । याण जति जगेइंति तो मासत्रहुं. भायणे विणा गिलाणादि( एबमाइक्खा) एवमाख्याति कथयति (एवं भासा) एवं याण विगहणा, भायण विचिराधिते लेवेण विम्या, तम्हा यत. भापते वाग्योगेन ( एवं पण वेह ) एवं प्रज्ञापयति फरकयने. चावित्थारोगडितो एगकोणेऽप्पणो कज्जति, जति ण कर्ज त. न (एवं परूवेइ) एवं प्ररूपयति दर्पणे इव श्रोतृहदये स. लियादितो वि गिफति, अह कजं ता हितो गरजस्स म. कामयति । (जोसवणाकप्पो नाम अज्यणं) पर्यषणा- ज्के विजंति, पणयमादिसंसज्जण मयाभो भयं काउं तडिया कल्पो नाम अध्ययनम् (स ) अर्थेन प्रयोजनेन सहित, न डगलं च सव्वं पमिलेहंति व संजोपत्ता अप्पडिनुज्जमाणभतु निष्प्रयोजनम् (सहेजअं सहेतुकं हेतवो निमित्तानि, य. या ण हेटा पुएफके कीरति, गरेण य उ मुविज्जति,सह भायखेथा गुरूणां पृष्ट्वा सर्व कर्तव्यं, तत् वेग हेतुना, यत आचा- ण पमिलहिज्जति, अहापरिभुज्जमाणं भायणं णस्थि, ताहे म. योः प्रत्यपाय जानन्तीत्यादयो देतवस्तः सहितम (सकार- गं बिपित्तंग पमिहत्यं नरिज्जति। एवं काण य गणं काणा पं) कारणमश्वादो यथा अंतरा वि से कप्प'इत्यादिःते. बोसिरणं, का गहणं धरणं । दब्बवणा गता। Jain Education Interational Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पजसवमाकप्प अनिधानराजेन्सः। पज्जुसवणाकप्प श्याणि भावग्यणा य कालो वलितो, सुहं तत्थ पच्छित्तं वोढुं सक्कति, एगलेते चिरं अस्थियावं,तेण वासासु पच्चित्तं वुज्झति । अवि य-सीयन. इरिपमणभामाणं, मण वयसा कायए य दुचरिते । गुणण पलिया इंदियाइं भवंति,तहप्पणिरीहणत्थं तवो करजति, अहिकरणकसायाणं, संवच्छरिए वि प्रोसमणं ॥५५॥ पंचपगारसज्झाए उज्जमियचं, सत्तरमविहे य संजमे वारस. इरियासमिती,पसरणासमिती,भासासमिती। एतेसि गहसो भा. विहे य तवे अप्पा धणियं सुतु णिोयम्बा, णियुजितम्ययाणणिक्रमणासमिती, पारिछावणियासमिती य गहियाओ ए. मित्यर्थः। तासु पंचविहसमितीसु वासासु समिएण भवियध्वं । एवं उक्त गाहाचोदकाऽऽह-उदुबके कि असमितण नवितव्वं, जेण वासामु पं. पुरिमचरिमाण कप्पो, न मंगानं वकमाणनित्थम्मि । बसु वि समितीसु वासाउवत्तेणं भवियम्वमिति भणसु?।। तो परिकहिया जिणपरि-कहिए थेरावनी चेत्थ ।५८॥ आचार्य पाह पुरिमा उसजसामिणो सिस्सा, चरिमाणं नरिमसामिणो । पकामं तु सबकालं, पंचमु समितीसु होति जतियव्यं ।। तेसिपस कप्पो , वासासु पज्जोसविजंति वासं पडल,मा वासामु य अहिकारो, बहुपाणा मेदिणी जेणं ॥५॥ घामजिकमाणं पुण नणितं पन्नोलवेति बा, ण वा । जति दोमो कामं तु काममनुमतायें। यद्यपि सर्वकालसमितो नबति अस्थि तो पज्जोसवेति वा,ण वारजति इहरहा णो मंगलं बरूमा णसामितित्थे भवति,जेण य मंगनं तेण सम्वजिणाणं चरितादि सहा वि वासासु विससे अधिकारो कीरति, ज णं तदा बहुपाणा मेदिणी आगासमेति ति पुढवी। एवं ताव सम्बासि कहिज्जंति, समोसरणाणि य । सुधम्मादियाण थेराणं भाष. सामपणं भणियं। सिया कहिज्जात । याणि एकेकाए समितीए दोसा नमंति एरथ सुत्तणिबंधे य इमो कापी कहिज्जतिजासणे णेति बहो, दुमणेहओं ततियाए । सुत्ते जहा निबंधो, बग्घारियजत्नपाणमग्गहणं । शरिए चरिमामु दोमु य,अपेह अपसज्जणे पाणा५६० णाणहि तवस्ती अण-हियासि बग्घारिए गहणं एन्। (जासणे त्ति)सासमिती ते असमियस्त असमंजसं भासमा जो कप्पति निग्गयाण वाणिग्गंधीण वा बग्घारियट्टिकायसि गस्त मक्तिगादिसंपातिमाण मुहे पविसंताण बधो जवाते । पादावतिकुझं वा भत्ताए वा पाणाएवा णिक्खमित्तए वा परिसि भादिगाहणातो भाउक्काय फुसिचा सचित्तपुढविरो सचि. सए वा । वग्धारियं णाम-जं तिमि वासं पति,जत्थ वा णिच सवातो य मुहे पविसति । ततियासखासमिती पडिक्कमण वासकप्पो वा गति, जत्थ वा बासकप्पं भेसूणं अंतो कायं उज्जयणे सुत्ता हिताणुककमेण वासासु ससस्स विराहणा, किं उल्लेति, पयं बग्धारियवासं वरिसे ण कप्पति भत्तपाणं घेत्तुं, पुण अणुवन तस्स, उदउबपुषस्नेमा च हत्यमत्ताण णेदच्छेयं सुत्ते जहा णिबंधो तहान कल्पतीत्यर्थः । अबग्घारिए पुण दुक्खं जाणंति, स्निग्धकालत्वात् दुयो दुधियः प्राक्का भत्तपाणग्गहणं का कप्पति, से अप्पवुहिकायसि संत. इसकेदो परिखमति, अचित्तीभवतीत्यर्थः । (हरिए त्ति) हरिया. रुसरंसि, संतरमिति अंतरकप्पो, उत्तरमिति बासकप्प. समितीयप अगुवउत्तो छज्जीवणिकावे विराहेति । ( चरिमासु कंबली । श्मेहिं कारणेहि वितियपदे वग्घारियटिकाए घि सि) मायाणे मिक्खेवणासमिती, पारिजावविवासमिती व । भत्तपाणग्गहणं कज्जति-णाणही पच्छम् । (णाणट्टि त्ति)जदा पता दो चरिमाओ पयासु अणुवउत्तो जा पडिहषपमज्ज कोति साहू अज्जयणं सुतं खंधमंग वा अहिजति, बग्घारिय. मं करेति, दुप्पमिलेडियमुप्पमज्जियं करेति वा । एयासु बि वासं पमति, ताहे सो वग्धारिप वि हिंडति । अहवा-बुहाखू श्रगधियासो बग्घारिप हिंमद । पते तिमि बग्धारिते संतरुत्तरा एवं छज्जीबणिकायविराहणा भवति । हिंमंति। संतरुत्तरस्य व्यारूया पूर्ववत् । अहवा-दह संतरंज. पंचसमिओ अाहरणांतो जहा आवस्सए हासत्तीए चउत्थमादी करेंति, उत्तरमिति बानमुत्तादिपण मणक्यसकायगुत्तो, दुच्चरिताणिवणेच्चमालोए। अमंति। अहिकरणेसु दुरूनग, पज्जोए चेत्र दमए य ॥ ५६१ ॥ मणेणं वायाए कारण य जो गुत्तो गुत्तीणं उदाहरणा जहा संजमखेत्तचुयाणं, णाणहि तवस्सि अपहियासी य । श्रावस्सए । जं किंचि मूलगुणसूत्तरगुणेसु समितीसु गुत्तिसु श्रासज्ज निक्खकानं, उसूरकरणेण जतियव्यं ।। ५८५॥ पा उदुबके वासासु य दुच्चरियं तं वासासु खिप्पं बालो. संजमखसचुता व जेणाणी तवस्ती अणधियासीया, जोएव्वं । नि० चू० १०००। एते सम्बे भिक्खाकाने अत्तरकरणेण भिक्खग्गहणं करेति । (२६) श्मं च वासासु कायव्वं. के य पुण संजमे खेतपच्चित्ते बहुपाणा, कानो बलिओ चिरं विगय । । श्रोमियवासाकप्पं, लाउयपातं व लग्जती जत्थ । सकायसंजमतवे, धणियं अप्पा निओययो ।।१०।। । सज्मा एसणसोह), वरिस काले य तं खेत्तं ॥ ५७६ ।। अटुसु मुबद्धिपसु मासेसु ज पच्छितं संचियं णबुढं तं वा-' जन्य खेसे उभियवासा कप्पा लम्भति, जत्य अलानसामुगढवं । किं कारणं तं वासासु जुम्भते ? भाते-जेण वासा. पाता चाउकालो य सुज्मति, सज्कायो जत्थ य जसादीय ससुबहु पाणा भबंति, तं हिडतेहि वहिज्जति, सीयारणभावेण । वं एसणासुद्ध अम्भति, विविधं च धम्मसाहणोधकरणं जत्थ गाढा Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५२) अभिधानराजेन्द्रः । पज्जुसवणाकप्प लग्भति । कालवरिसी पाम-रातो वास, ण दिवा । महवा नि कलावे. चानृभिगमणयेच मोतुं वासति अथवा वाखासु पासति जो उब मकालरिसाए य जमतातो सिवादिकारणेहि चुना णाणद्वितवस्तिभधिया से तितिष्ठि बि एगगाद्दाए वक्खाणेति । गाढा वादी पासति वं च जातो पचलो पत्तुं । 可 खमगमय पारणए, चरती असहू व बालादी ॥२८७॥ माभिजुयल परिवारिं अकुलो पुव्वाधीतं लासेति, निवास हातो ग्रहीतुमसमय भवति सम गपारण वा वसति बालादी असढू वा वा संत असमत्या उपवास काता मे उत्तरकरण गच्छति । गाडा बाले यसती कुत्र पलाम र य प लाडिया तपस्सी, अणडियामि उत्तरविसेसो २०० रिसंवास कायव्वो, असहू कारणे वा (बालेति) उ दिवसा पोस्त ब ण अमति, उट्टियासति कुतवेणं, जाहे य एयं पत्लासप तहि वागमेण विणो उत्तयं कौर‍, तं सिरं काउं हिंरुति । तस्सऽसति विलमादितपणे दिडति पत्रम सादियान वासास वा उत्तरकरणविसेसो भणितो । सन्चो य एस पज्जोसवणाविधी भणितो । चितियपदेण पोसवणार ण पजोसवैति, अपजोसवणार वा सजाइदिकारणेदि सिप्रोमोयरिए, रायपुडे भए व गेलसे । अगरोह वा दो विसु ॥ ५८ ॥ पज्जो लचणाकाले पत्ते असिवं दोहिति सि णो तेख पसविता ओमर व पति या पा महलडाणातो वा चिरेण जिन्गया, तेण पज्जोसवणाय पज्जो. सवेज्जा, वोदियभरण वा निभाता अतितो पज्जोसवेति। एबं दोसु वि पत्तेसु अप्पा बहुं खाऊण पज्जोसविति, श्रपजोसवा वा पज्जो सर्वेति । नि० ० १० उ० । पर्युषणाकल्प सामायारी जे भिक्खू अस्थिर वा गारस्थिएव वा पज्जो सबे, पोवा साइनइ ॥ ५२ ॥ गादा पोसाकप्पं पज्जोसवाय जो तुना । गिद्दि ऋष्वतित्थियोस-नसंजतीयं च प्राणादी ||२७|| पोसणा ग स्थी असतित्थणीणं ओसवाण य संजतीण थ जो पते प उनोसवेति । एषामग्रतः पर्युषणाकल्पं पठतीत्यर्थः । तस्स गुरू, आणादिया य दोसा । गाहा गिरिमयतित्यिप्रस भगते विषा I पज्जुस कप्प सम्मीववाससंका-दिलो य दोसा समरिणवग्गे ||२८|| गिहत्था मित्थी एवं डुगं, अदवा अमतिस्थिगा ब्रह्मतिथि दु मंडिया रो लेखि पुरतो तथा-एहि सह समीपवासे दोसा भवंति इत्थीसु व संक्रमादिया दोला भवंति, संजती जर संजमगुणेहिं जबबेयाओ तथा चि समीपवासादीओ, संकादोसो य । गाहा दिसतो न चैव कप्पति, स्वेतं पच सुजितेसिं । सती पढ तारसिं दंडगमादित्यतो कडे ॥५एए॥ पज्जोसवणकप्पो दिवसतो कविज्जति, तस्य वि साहूण पति तं सा सुजाण होतो, पाचस्थाण वा कमुगस्ल असति मिमिगेण वा भज्जट्टिभो, सहि बतादे दिवसतो कहुति । . (२७) पर्युषण कल्पकपर्णे सामाचारी पज्जोसवणकपणे श्मा सामायारी- अपनी उचस्स पा दोसिए आवस्सए कते कालं घेतुं काले सुद्धे वा पशुवेत्ता कविज्जति । एवं उस वि रासोसु । पज्जोसवणारातीय पुण कपि सब्वे साधू समप्यावर्णीयं काउस्सगं करोति । पज्जो' सवणकपणस्स समप्यावणी करेमि काउस्सगं जं खंमियं जं चिराहियं पूरियंस को जाखिरा मि"जोकर" विशेष उस्सारता पुणो"कोयस्सुज्जोय करें" कढत्ता सम्बे साहवो किसीयति, जेल क ह्नितो तो ताहे कालस्स पडिक्कमति, ताहे वरिलाकालवऐ विज्जति । एसा विधी भणिता । कारले गित्य अतिथियपासस्थेय पज्जोसवेति । कई १, जघाति । गाड़ा विनयं गिरिओमा कति रचि एग्जादि । असती असंजतीणं, जयलाए दिवमतों कप्पे ॥ ६०० ॥ जति थियो वा भाग तो कि बेजा । एवं सेजियमादिइत्थी सुवि संजतीतो ति अपणो परिस्लए चेव रातो करूंति । ज पुण संजतीण संभोतियाण कझुंतियाण होज्ज तो अहाणाणं कुत्राणं आ पडिदुवारे संतोए साडी व अंतरे चिलिमिलि दाउ दिवस जति पूर्व जे भिक्खू पढसमोर देवपत्ताइ चीवराई परिणा परगावासा ॥ ५३ ॥ प चितिसमोर दुवतं पचासाचा मसमोसरणं जयंति। सेसा सुत्तपदा कंजा । तं वत्यपादादिगणं मागेजति प्राप्नोति कि उम्मसि पाति गुरु पावति । इमो सुध पद ति समोसरणे, वत्यं पायें व जे पडिम्गादे | सो आणा प्रणवत्यं मिच्छत्तविराहणं पांवे ॥। ६०१ ।। जो गेराहरु सो भाणाइक्कमं करेति, प्रणवत्था यते कता भ घति, मिच्छतं च जऐति, न यथा वादिनस्तथा कारिण इति मायविराणं पात Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जुसवगाकप्प भनिधानराजेन्मः। पज्जसवणाकप्प पढमे सरणे उवही,ण कप्पती पुब्धगहियअतिरित्ते । असिवाइकारणेहि, अहवा ण वासं मुट्ठ प्रारम् । अप्पत्तागं तु गह, उचहिस्सा सातिरेगस्त ॥६०।। अनिवयिम्मि वीसा, इयरेसु सवीतीमासो ॥५॥३॥ जइ पढमसमोसरणे कम्पति उवधी घेत्तुं,तो किं काय?। उ. कदाचित्तत्र केत्र अशिवं नवेत्, श्रादिशब्दात्, राजद्वियाऽऽरूयते-पुबगडितो अतिरित्तो उवधी परिभोजः । कथं पुण सो दिक वा भयमुपजायत, एवमादिनिः कारणैः । अथवा-तत्र क्षे. अतिरेगो उपधी घेतब्बो ?. उच्यते-अप्पहिति खत्तकाले अप. बेन सुष्ठ वर्ष वर्षितुमारब्ध, येन धान्यनिष्पत्तिरुपजायते, तत. सपत्तेहिं च उलंगो कायब्धो । सो श्मो चउजंगो खत्तयोणागे प. श्वप्रथममेव स्थिता वयमिन्युक्त पश्चादशियाऽदिकारणे समुप. सानो कालो १.कालतो नामेगे पत्ता न खत्ततो २,पंग खेसो स्थिते यदि गम्ति ततो लोको पात-पाही पते पारमानं वि कामओ वि पसा३,पगे णो खत्तो णो काबो पत्ता ४ाइमो सर्वत्रतया ख्यापयन्ति , परं न किमपि जानते, मृपावाद पढमभंगो उतुबहितो चरिममातकप्पो जत्थ कतो अमखेत्ता वा भाषन्ते-स्थिताः स्म शति जागत्वा सप्रति गच्चन्तीति सती कारण तो वा, तत्व वासं काउमाणो खेत्तलो, इमो त. कृत्या, अयाशिवाऽऽदिकारणेषु संातेवपि तिष्ठन्ति, तत प्रा. तियभंगो-जे चरिमखत्तं प्रासादसिमा जाता एते कासतो ए. झाऽऽदयो दोपाः । अपि च-स्थिता स्म इत्युक्ते गृहस्थाश्चिन्त. नाण, खेत्ततो इमो ततियभंगो-जे वरिसोत्तं प्रामाढपुम्निमार येयुः-अवश्यं वर्ष भविष्यति, यनैते वर्षारात्रं स्थिताः, ततो प्रविष्टाते नभपण वि पत्ता प्रामाढयुमिमं अपत्ताणं अतरे प्र. धान्य विक्रीणीयुः, गृहं वा छादयेयुः, इलाऽऽदीनि वा संस्था. द्वाणे वद्धमाणाण पवं उभरण वि अध्यत्ताण चरिमजंगो भव. पयेयुः । यत पवमाऽभितिवर्षे विंशतिरात्रे गते, इतरेषु ति । नि० ०१० उ०। च त्रियु चन्द्रसंवत्सरघु सविंशतिरात्रे मासे गते गृहिझातं (२८) अथ यस्मिन्काले वर्षावासे स्थातव्यं यावन्तं वा कालं | कुर्यन्ति। येन वा विधिना तदेतदुपदर्शयति अत्यउ पागं कारणि-गं जायसवीसती मासो। आसाढपुस्लिमाए, वामासु य होति अतिगमणं । मुछदसमीठियाण व, आसाढा पुर्णिमा सवणं । ए६४|| मग्गसिरबहुलदसमी-न जाव एकम्मि खेत्तम्मि।एए०|| अति प्राषाढ पूर्णिमायां स्थिताः पश्चाई यावद् दिवा सं. भाषाढपूर्णिमायां वर्षावासमायोग्ये केने गमनं प्रवेशः कर्तव्यं स्तारकड़गलाऽऽदि गृहन्ति रात्री च पर्युषणाकल्यं कथयन्ति, भवति । तत्र चाऽपवादतो मार्गशीर्षबहुलदशमी यावदेकत्र क्षे. ततः श्रावणबहुअपञ्चम्यां पर्युषणं कुर्वन्ति । अथाऽऽपाढपू. श्रे वस्तव्यमा एतच चिक्खल्लवर्षादिकं वक्ष्यमाणं कारणमी. निमायां क्षेत्र न प्राप्तास्तत एवमेव पञ्चरात्रं वर्षावासमायो. कृस्योक्तम् । उत्सर्गतस्तु कार्तिक पूर्णिमायां निर्गन्तव्यम् । ग्यमुपधि गृढीत्या पर्युषणाकल्प च कथयित्वा दशम्यां पदमेव भाययति युवा यन्ति । एवं कारणिकं रात्रिन्दिवानां पञ्चकं पञ्चक बबाहिडिय वसहि, खत्तं गाहित्तु वासपाउम्गं । यता तावन्नेयं यावत् सचिशात रात्री मासः पूर्णः । अथवा. आप.उगृहद दाम्यामेव वा केत्र स्थितास्ततस्तेषां पञ्चरात्रेण कप्पं कहितु बचणे, सावण बालस्स पंचाहे ।। ५७१|| गाऽऽदी गृहीत पर्युषणाको च कथिते आषाढतर्पिण. यत्राऽषाढमासकरूपं कृतम्तत्रान्यत्र वा प्रत्यासनग्रामे स्थिता मायां समवसरणं पर्युपणं नवति, एप उत्सर्गः, शेषं कानं प. वर्षा क्षेत्र वृषभैः साधुसामाघारी ग्राहयन्ति, ते च वृषञा वर्षी युषणमनुतिष्ठतां सर्वोऽपवादः । अपवादेऽपि सविंशतिरावान् प्रायोग्य संस्तारकतृण डगल कारमल्ल काऽऽदिकमुपधि गृहन्ति, मासान् परतो नातिक्रयितुं कल्पते, यद्येताच तोऽपि गत. तन आपाढक्षिमायां प्रविष्टाः प्रतिपद प्रारभ्य पञ्चविंशतिनि: वर्षा के न सभ्यते ततो वृक्षमूले ऽपि पर्युषणयितव्यम् । रहोभिः पर्युषणाकल्प कथयित्वा श्रावणबहुअपञ्चम्यां वर्षाका. अथ पश्चकपरिहाणिमधिकृत्य ज्येष्ठकल्पावग्रहप्रमणमाहल सामाचार्या स्थापनां कुर्वन्ति, पर्युषणयन्तीत्यर्थः। इय सत्तर। जहन्ना, असती उई दमुत्तरसयं च । पत्थ य अणजिग्गहिय, बीसतिरायं मचीसगं सासं । जति वासति मगसिरे,दम राया तिमि छक्कोसा एएश तण परमभिगहियं, गिहिजायं कित्ति जाव | | इतिरुपत्राशन, ये किनापाढपूर्णिमायां सर्विशतिरात्रे माअति थावणबहुलपञ्चम्यादी प्रात्मना पर्युषितऽपि अनलि- से गते पर्युषण यन्ति, तथा सप्तभिर्दिवसानि जघन्या वर्षागृहीतमनवधारितं गृहस्थानां पुरतः कर्तव्यम्। किमुक्तं भवति?- वासावग्रहो भवति, मापदद्धपञ्चम्या अनन्तर कार्तिकपयदि गृहस्था पृच्छेयुः-प्रार्या यूयमत्र स्थिता वा,न वेति एवं पृटे मिभायां सप्ततिदिवससद्भागत् । १५ ये भाद्रपदबदुल दशम्यां सति स्थिता वयमत्रेति सावधारणं न कर्तव्यं किंत साकारं,यया. पर्युवणयन्ति तेषामशीतिर्दियसा मध्यमो वर्षाकालावग्रहः । नाद्यापि कोऽपि निश्चयः, स्थिता अस्थिता वेति । इत्थमन- श्रावण पूर्तिणमा यां नवतिदिवसाः श्रावणबदुनदशम्यां दशोभिगृहीतं कियन्तं काल वक्तव्यम्, च्यते-यद्यनिवद्धिंतोऽसौ तरं दिवसशतं मध्यम एव वांकाला 35वग्रहो भवति । शे. संवत्सरस्ततो विशतिराभिन्दिवानि । अथ चोऽसौ,ततः स. पान्तरेषु दिवसपरिमाणं गाथायामनुक्तमपीत्थं वक्तव्यम्वितिगत्रं मासं यावदनभिगृहीतं कर्तव्यम् (तेणं नि)विक्ति भाजपदामावास्यां पर्युषण क्रियमाणे पञ्चसप्ततिदिवसाः, व्याययात्ततः परं विशतिरात्रात सविंशतिरात्रमासाद्वोऽद्धमाभि- भारूपदबहुल पञ्चम्यां पश्चाशीतिः, श्रावण शुध्द शम्यां पश्चनव. गृहीतं निश्चित कर्तव्य,गृहिजातं च गृहस्थानां पृच्छता ज्ञापना नि:, श्रावणामावास्यां पश्चोत्तरशतं, श्रावणबहुल पञ्चम्यां पश्चकर्नव्या, यथा वयमत्र बांकानं स्थिताः । एतच्च गृह जातं दशोत्तर शतम, पापाढपूर्विगामायां तु पर्युषिते विंशत्युत्तर दि. कार्तिकमासं याचत कर्तव्यम । कि गुनः कारणामयति काले व्य. बस शतं भवति । एवमेषां प्रकाराणामन्यतरेषां चा सममेकतीत एवं गृहजातं क्रियते, नागिति ? । अत्रोच्यते कंत्र स्थित्वा कार्तिकचातुर्मासिकप्रतिपदि निगन्तव्यम् । अथ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५४ ) निधानराजेन्द्रः | पज्जसव वाकप्प मार्गशीर्षे वर्षे वर्षति कमजऽऽकुला पन्थानः ततोउपधादेकं दशरात्र अथ तथापि वर्षपरमते वर्षेन तृतीयमपि दशरात्रमासतेीणि क तस्तत्र के श्रासितव्यं, मार्गशिरःपुमाली यावदित्यर्थः । उदयद्यपि कालापानीमा परतं वर्षति, यद्यपि च पानीयैः पूर्यमाणैः तदानीं गम्यते, त पश्यं निर्मम्तव्यम् एवं पाचमासिको उपाय संपन्नः । अथ तमेव षाण्मासिकमाहकाऊ मासकप्पं, तत्थेव विताऽतीतमग्गसिरे । मालवणाण उम्मा-सिश्रो उ जिट्टोग्गहो होति ॥ ५६६ || यस्मिन् केत्रे श्राषाढमासकल्पः कृतः तद्वर्षावासयोग्य मन्यश्च तथाविध क्षेत्र नास्ति ततो मासकल्पं कृत्या वर्षावा स्थितानां तातुर्मासान कमवदिभिररस मार्गशीर्षमासे निर्गच्छतां सालम्बनानामेवंविभाऽऽलम्बनसहि तानां पारमासिको ज्येष्ठा जवति एक मित्यर्थः । अह अस्थि पदवियारो, चडपस्वियम्पि होति निगमणं । अहवावि अणिताएं, आरोवण पुत्र निदिट्ठा ||७|| अधास्ति कर्दमवर्षाऽऽदिकारणभावात्पदविचारः, ततश्चतु मासानां पर्यन्ते यावत् प्रतिपश्नं तावत् निर्गमनं कर्तव्यम् । अथ ते पदप्रचारसंप्रवेऽपि निर्गच्छन्ति ततोऽनिर्गच्छतां पूर्वनिर्दिश मास्वकल्पे प्रकृते प्रागनिहिता चतुर्लघुकाऽऽरूया श्रारोपणा मन्तव्या । बृ० ३ उ० । (२) श्रथ द्विविधं पर्युषणाद्वारमाहपज्जोसवणाकप्पो, होति वितो तो य थेराणं । एमेव जिणापि य, कप्पो तिमहितो होति ॥ ३५४।। पारिक पिकानां जिनका भवति रात्र विराणां नियति एवमेव जनानामपि स्थितोऽस्थितका पर्युषणा करूपः प्रतिपत्तयः । इदमेव भावयति चाम्पासे, सतार राईदिया जहोणं । तिमतिमतरे, कारण बच्चासितऽपरे ।। ३५५ ।। उत्कर्षतः पर्युषणापश्चातुर्मासं यावद्भवति, भाषाढपूर्णि माया: कार्तिक पूर्णिमां यावदित्यर्थः । जघन्यतः पुनः सप्ततिरात्रिदिवानि, भाऊ कार्तिक पूर्णिमां यादि त्यर्थः विधेपणाकल्ये पूर्वपधिसाधवः पुनरस्थि तास्ते हि यदि वर्षारात्रो भवति तय पत्र क्षेत्रे तिष्ठन्ति, अन्यथा तु विहरति पूर्वपश्चिम अध्ययतरस्मिन्त्रशियाऽऽदौ कारणे समुत्पन्ने एकतरस्मिन् मासकलो पर्युषणाकल्पे वा मिर्तु किमुकं भवति शिवा ssदिभिः कारणे ऋतुबद्धं मासस्तूनमधिकं वा तिष्ठेयुः, वर्षास्वपि तैरेव कारणैश्चतुर्मासमपूरयित्वाऽपि निर्गच्छन्ति परामा ि इदमेवाss 1 थेराण सत्तरी खलु वासासु जितो उदुम्मि मासा छ । चासितो तु को मिला नियमss चउरो ॥ २५६॥ स्थविरा स्थविरसिकानां प्रथमपधिमतीर्थकर सप्ततिदिनानि खलु शब्द जघन्यत इत्यस्य विशेषस्य द्योत नाम, वर्षा पषणा भवति । तेषामेवमासमेकत्रावस्थानरूपो मासकल्पः स्थितो भवति । कार्य पुनरशिवाऽऽदौ न्यासितो विपर्यस्तोऽपि भवति, हीनाधिकप्रमाण ३स्वर्थः जिनानां तु प्रथमचरमतीकरसत्कजिनका मृतुबद्धे नियमादष्टौ मासकल्पाः, वर्षासु तु चत्वारो मासा न्यूनाधिकाः स्थिताः कल्पता तथा निरपवादानुष्ठान परत्वादयामिति भावः । दोसासति मक्जिमा, अत्यंत जाव कोडी वि विनय वासासु वि, अकदमे पानरहिए व ।। ३५७। जि पि मासक, कति विकार पप । जिनकपिका वि एवं, एमेव महाविदेहेषु || ३५८ ॥ यतु मध्यमा श्रस्थितकल्पिकाः साधवस्ते दोषाणामप्रीतिकतिबन्धादीनामसत्यभावे पूर्वकोटा मध्येकत्र आलेल धा वर्षावपि अकदमे पुनः चिखल्ले प्राणरहिते वसुधातले जाते सति विचरन्ति विहरन्ति ऋतुषप्रतिको बसघातो वा भवेत्वादिकं तनुकमपि मपि करणं प्राप्य मासक भिम कुर्वन्ति पूरयित्वा निर्वीरः जिनका अपि मध्यमतीकर सरका चमेव मास पश्चाल्या स्थिताः प्रति मेष महाविदेदेषु ये विकल्यिकाः, जिनका - उपस्थितककाः प्रतिपचम्याः । यतं पर्युषणकल्पद्वारम् । बृ० ६ ३० | प्रब० । घ० पं० भावा पं० प्यून | पञ्चा० जीत० । विषयसूची (१) पापपणे विचार (२) पर्युपकार्थिकानि । (३) प्रथमं पर्युषणा कदा विधेया ! ( ४ ) पर्युषणास्थापना । (x) (६) (७) पज्जुसवणाकप्प (८) क्षेत्र स्थापना | (२) नात्रम् । नुसाराद्वयमपि प्रकुर्मः। पञ्चमः प्राश्च योजन (१०) नवरस विकृतिनिषेधः । (११) स्थापना । ( १२ ) श्राहारस्थापनम् । (१३) पानकविधिः । (१४) दत्ति संख्यया ग्राह्यग्रहणम् । (१५) मध्येधः। (१६) उदकार्षेण सस्निग्धेन वा कायेनाऽशनाऽऽदिकरण निषेधः । (१७) भिरिच्छेदू गृहपतिकुलम् । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जसवणाकप्प प्राभिधानराजेन्द्रः । पट्टावलि (१८) ऋतुबद्धकाझे संस्तारकग्रहणाविषयविचारः। ज्ञा० । परिधानपट्टे, विपा. १ श्रु०३ अ० । त्रयः पट्टाः। तद्यथा(१६)उच्चारप्रश्रवण जमिः। संस्तारपट्टः, उत्तरपट्टः, चोलपट्टश्च । पि० । पं० । (२०) मायकद्वार। पट्टो वि होइ इक्को,देहपमाणेण सो य नइयो (२१) लोचविचारः। ।(४०१) (३२) अधिकरणम। पट्टोऽपि गणनयको नवति, सच पर्यन्तभागवर्तिवाटकब(२३) उपाश्रयाः। न्धयः पृपुत्वेन चतुरङ्गलप्रमाणः समतिरिक्तो वा दोघेण तु (२४) योजनान्यवग्रहश्चा स्त्री कटीप्रमाणः, सच देहप्रमाणेन वक्तव्यः, एलकटीभागा(२५) सचित्तलानः। या दीर्घः संकीणकटीभागायास्तु हस्व इत्यर्थः । (४०१) वृ०३ (२६ ) वर्षासु यत्कर्तव्यं तनिरूपणम् । उ० । नि० चू० । ललाटाऽभरणे, विपा० १५०६०। (२७) पर्युषणाकल्पकर्षण सामाचारी। पट्ट-देशी- धा० । पिवतीत्यर्थे, दे० ना०६ वर्ग १४ गाथा। (२८) यस्मिन् काले वर्षावाले स्थातव्यं यावन्तं वा घालं येन पट्टडा-पट्टवत-पुं० भूमिकरनिधनपट्टोऽस्त्यस्य । प्राकृते म. बा विधिना तदुपदर्शनम्। (२५) द्विविधपर्युषणाद्वारनिरूपणम् । स्वर्थीय इल्ला प्रधानकृषके राज्ञा प्रकृती, जं० ३ बक्क । पज्जसवणाकप्प-पर्युषणाकस्प-पुं० । वर्षाकालसामाचार्यामः। पट्टकार-पट्टकार-पुं० । पट्टकूमकुविन्दे, प्रका• १ पद। पञ्चा० १७ विव। पट्टण-पत्नन-न०। पतन्ति तस्मिन् समस्तदिग्भ्यो जना इति पत्त. पजाइय-प्रधोतित-पुं० । वह्निना ज्वालिते, सूत्र० १०५ नम । उस०३० अ०"पट्टणं वा" उभयत्रापि प्राकृतत्वेन निदें अ० १ उ०। शस्य समानत्वात् । प्रज्ञा• १ पद । जनस्थलनिगेमप्रवेश, जलस्थल योरन्यतरेण पर्याहारप्रवेशे, प्राचा०२०१०१ पजोत-प्रद्योत-पुं० । प्रकाशे,स०१ समाप्रा सूमा स्वनाम अ.न.कल्प। विविधदेशाऽऽगतपण्यस्थाने, ज०१श. ज्याते सज्जयिनीराजे, श्रेणिकभार्यायाश्वेटलणाया भग्निन्याशि १ विविधदेशपायान्यागत्य यत्र पतन्ति ताशे नगरपायाः पत्या, (आवश्यकनियुक्ति १०३ मूलगाथायामियकथा) विशेषे, स०४८ सम । रत्ननोएयाम्, सत्र.२० २० । "प्रद्योतनृपतेश्चास्ति, दिव्या रत्नचतुथ्य। (१८) रक्षखनी, नस०३० म. गछ । स्था० । “जलपट्टणं ख थल. लोहजयो लेखहारी, अग्निभीरुस्तथा रथः । पट्टणं च भवे ऽविद।" परनं द्विधा जनपसन,स्थापत्तनं च । स्त्रीरत्तं च शिवा देवी, गजोऽनलगिरिः पुनः ॥ १६ ॥ यन्न जनपधेन नाबादिवाहनादढं जाएगमपति तज्जलपत्तनं य. लोहजयोऽन्यदाऽगच्चद, भृगुकच्चं नृपाशया । था द्वीपं, यन्त्र तु स्थापथेन शकटाऽऽदो स्थापितं नायकमादभ्यो तदीशोऽह्त्येष, पञ्चविंशतियोजनीम ॥२०॥" याति तत् स्थलपस,यथा आनन्दपुरम । ५.११.२ प्रक.. प्रा. क०४०। आ०म० | आ०० । व्यानि.१०।। नि० ० । जलपत्तनं याजसमध्यवर्ति, यथा काननद्वीपः । प्राव. । (श्रेणिकशब्दे विस्तरः) (राजगृहनगराऽबरोधो. स्थापत्तनं च निर्जननूभागमाधि, यथा मथुरा । उत्त० ३० उभय कुमारेण तत्पराजयोऽन्यत्र) । स्था। प्राचा। जलस्थन्ननिर्गमप्रवेशे, यथा भृगुकपजोयगर-प्रद्योतकर-त्रि०। प्रद्योतं करोतीति प्रद्योसकरः ।। भवः । उक्तंच-"पत्तनं शकटैगम्यं, घोटकैनौजिरेव च । नौभि. प्रकाशकरे, ज०१ श० १ उ० । रेव तु यद गम्य,पट्टनं तत्प्रचक्षते ॥" व्य०१उ०। ओघ०। प्रश्न । जी० । प्राचा० । छादनकोशक, भौ० । पज्जोयगारि-प्रद्योतकारि (ए)-पुं०। श्रीरामशयबतीर्थे पूज्यमानवर्धमानप्रतिमायाम, ती०४३ कल्प। | पट्टबंध-पट्टबन्ध-पुं० । यस्य शिरसि पहो बदः तस्मिन्, प्रद्योत. पज्जायण-प्रद्योतन-पुं० । चन्द्रकुलीने देवसरिशिष्ये, ग.३ राजाय बमोन्मुक्ताय उदायनराजेन मस्तके पट्टो बकः । “त. प्पभिई पट्टयका रायाणो, पुच्वं मामबद्धा श्रासी।" श्रा. म. अधिक। १०। प्रा० चू०। पऊऊमाण-प्रझञ्झायमान-त्रिका शब्दायमाने, जं०१ वक्त।। पट्टसंठिय-पट्टसंस्थित-त्रि । पदवत शिनापट्टकाऽऽदिवत, शिपज्कर-प्रकर-पुं० । जलप्रस्रवणमार्गमिशेष, प्रज्ञा०२ पद। सापट्टकाऽऽकृती, "पट्टसंथियपसत्यविधिमपिहुल सोणीओ।" पवत शिलापट्टका:ऽदिवत् संस्थिता पसंस्थिता प्रशस्ता पकरिअ-प्रतरित-त्रि० । पतिते, " निदृश्यं खिरिमं निप्पियं प्रशस्तलकणोपेतत्वात विस्तीर्णा कांधः पृथुना दक्विणीसपनीसंदिपज्करिनं।" पाइ. ना.८० गाथा। रतः श्रोणिः कटेरग्रभागो यासांसाः पसंस्थितविस्तीर्णपृथु. पकाय-अध्यात-न० । चिन्तिते, अनु। बश्रोणयः । जी०३ प्रति.४०। पत्त-प्रयुक्त-त्रि० । खचिते, " वेअमिश्र पज्युक्तं, स्खचिरं पट्टमुत्त-पट्टसूत्र-न. मनयकीटजे सूने,प्रा० म०१ अाअनु। विच्छुरि जमिश्र।" पा३० ना० ८० गाथा । पट्टाकिद-पट्टाऽऽकृति-वि०। पसंस्थिते, स्था०६ वा। पट्ट-पट्ट-पुं० । सुवर्णसूत्रे, ( 'कलावत' इति भाषायाम) स्था०पावलि-पट्टावलि-स्त्री० । पट्टपरम्परायाम्, ताश्चानेकविधा ५ वा. ३२० । तत्प्रचुरे वस्त्रे. ज्ञा० १ श्रु० १ अ०। । पट्ट | अने करने कत्र दर्शिताः, यथा गच्चाउचारटीकाकृता विजयवि. सूत्रमये वस्त्रे. भ. ११ श.११ २० । शाके, सूम.१० पाहु। मलगणिना गच्छाऽऽचारवृत्यन्ते । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टायलि अय प्रशस्तिलिख्यते प्रतिजगदानन्दः सुरसुरमरमणीयः। प्रणते हितप्रणेता, शासननेता जयति वीरः १ ॥ १ ॥ तत्पदषभानु-गंणी सुषम्म २ यथार्थनामाऽजुन्। बोधतशत श्री जम्बूकेवली रमः ।। २ ।। श्रीमान् प्रभवस्वामी ४ गणनाथ गुणमभिः सलिलनाथः । शय्योऽपि सूरि-र्मणकविता सोऽजनिष्ट ततः ५ ॥ ३ ॥ निजगविनिकृणी शो तत्पश्रीमती सं७ ॥ ४३ नवम स्थूलभद्रस्तयोर्विनेोऽन् शिष्योत्तम नदीयौ सूरिमहागिरिसुहस्तिगुरू ॥ ५ ॥ जिनकल्पपरिक प्रथमः प्रथया चितः प्रथयति स्म । : प्रति संप्रति नृपं ॥ ६ ॥ सदन व सुस्तिशिष्य कोटि का कन्दका वजायेताम् कौसिमभूत १० ॥ ७ ॥ ११गवान् १२ गिरि-गिरि १३॥५॥ तस्य पत्रे समज (२५६) अभिधानराजेन्द्रः । ॥ स्वामी । विज्ञान-पूर्वी १४५॥ श्रीवज्रसेन संज्ञ - स्तत्पद् पूर्वाद्विचूलिकाऽऽदित्यः १५ । मूलं चान्द्रकुलस्या- -जनि च ततश्चन्द्रसूरिगुरुः १६ ॥ १० ॥ पूर्वगन जलधिः १७ श्रीमांश्च देवसूरि-स्तदीयपट्टेऽभवद् वृद्धः १८ ॥ ११ ॥ १४, सतोमानदेय 550 मायोज २० ।। १२ ।। श्रीमानतुङ्गसुरः कर्त्ता भक्तामरस्य गणनती २१ । श्रीमान् वीरः सूरिः २२, ततोऽपि जयदेवसूरीन्द्रः २३ ॥१३॥ श्रीदेवानन्दगुरु २४ विक्रमसूरि २५ गुरुश्च नरसिंहः । २६ का समुद्रोऽथ २७ ॥ १४ ॥ मित्रमय सारे पुनरेव मानदेय २० २३३० ।। १५ ।। श्री मद्रविप्रभ गुरु ३१- गरिमालङ्कारगुरुशादेवः ३२ । सुयुम्नः प्रयुक्तानि दिवासी ३३ ॥ १६ ॥ विहितोपधानवाच्य ग्रन्यस्तस्माच्च मानदेवाऽऽख्यः । सूमिनियमति सततम् २४ ॥ १७ ॥ ( केचिदिदं सूरिद्वयमिह न वदन्ति ) सम्मादिन्द्र .. ३५ उद्योतनश्च सूरिः दूरीकृत दुरिवारव्यूहः ३६ ॥ १८ ॥ ४८६ मते याति 1 : श्रभवत्तत्र प्रथमः सूरिः श्रीह्निः ३७ ॥ २१ ॥ रूपतिदेव तत्र घटेलीखेटक सीमाच निसंस्थवरचटाधः । सुन् संस्थापयामास ॥ २० ॥ युग्मम इति श्री सर्वदेवसूरि-र्ज पुनरेव गुरुचन्द्रः ३९ ॥ २२ ॥ ४० १६ ॥ श्री मुगुरुः४१२३॥ श्री अजितदेवसूरिः प्राच्यस्तस्माद् बखूप शिष्यवरः । पट्टावलि वादीति देवसूरि द्वितीय शिष्यस्तदीय इद ४२ ॥ २४ ॥ तत्रादिमा बभाषे गुरुर्विजयसिंह इति मुनिपसिंहः ४३ । तस्याप्युभौ विनेयौ वचतुर्भूमिविख्यातो ॥ २५ ॥ ख्यातस्तत्र शतार्थः, सोमशुभसृरिपुङ्गवः प्रथमः । श्रमणी गुणगणमथिनीरनिधिरन्यः ॥ ४४ ॥ ६६ ॥ शिष्या मणिरत्नस्ततो गन्थन्। विदित नून पेराम्बावे सभाजस्ते ॥२७॥ गणी विधूममणि मिश्राव । उपसंपन्नाश्चरणं, विधिना संवेगनन्तश्च ॥ २८ ॥ आचाम्लाऽसयल पेज शरकर द्वितरणि- १२८५ वर्षे ख्यातस्तत इति तपागः ४५ २६ (विशेषकम् ) "विशेष ४६ रशियात ३० ॥ श्रीविद्यानन्द गणी, प्रथमोऽन्यो धर्मघोषसुरिरिति ४७ ॥ अथ सोमप्रभसूरिः ४०, तस्य विनेयास्तु चत्वारः ॥ ३१ ॥ (१) श्रीपरमार (२) । श्रीम श्रीरे पट्टे श्रीमति ३४॥ तेषां त्रयोविनेयास्तत्र श्री चन्द्रशेखरः प्रथमः ॥ ३३ ॥ सृविजयानन्दोऽन्यस्तृतीयका देवसुन्दरा गुरवः । श्रीसमरे पाप तेषां पञ्च च शिष्याः, प्रथमे श्रीज्ञानसागरा गुरवः । कुलमण्डनाद्वितीयाः श्रीगुणराया३५॥ तुषा गुरवा श्री सोमसुन्दरमयः । असं पचमा अषि गुरवः सारा३६ ॥ श्री सुन्दरगुरोः पट्टे श्रीन्गणाः। अभवन् युगप्रधानाः ५१, शिष्यास्तेषां च पञ्चैते ॥ ३७ ॥ श्रीमुनिसुन्दरसूरिः, १, श्रीजयचन्द्रो गुरुरमधाम २ । श्री भुवनसुन्दरगुरु - जिनसुन्दर ४ सुरिजिनकीर्तिः ॥ ३८॥ श्री सोमसुन्दरगुरोः, पट्टे मुनिसुन्दरो युगप्रवरः ५२ । तत्पमुकुटरशेखरो गुरुतंसः ॥ ३३ ॥ श्राद्ध विधिसूत्रवृत्या धनेक ग्रन्थनिर्मितिपदिष्ठः ५३ । लक्ष्मीसागर सूरि-तत्पदमण्डनमतिगरिष्ठः ५४ ॥ ४८ ॥ सीसी गुरुगुणी म श्री हेमविमलसूरि-स्तदीयपट्टे गुरुः समजूत ५६ ।। ४९ ।। अथ दुःषमोत्थदोषात, प्रमादवशचेतला ममत्वभृतः । श्रभवन्मुनयः प्रायः, स्वाचाराऽऽचरणशैथिल्याः ॥ ४२ ॥ किमि तत् शास्त्रोक 131 काद्यनादेयताचैरिवोच्चैः पतितं प्रभूतैः ॥४३॥ इतश्च. - श्री विमल र दूरीकृतकल्मषः ससृरिगुणम । झाम्वा योग्यं तूर्ण, धर्मस्वाऽयुदयसंसिद्ध्यै ॥ ४४ ॥ सौभाग्यपूर्ण संवेगीरीरनिधिम । श्रानन्दविमलसूरि, निजपट्टे स्थापयामास ५७ ॥४५॥ ( युग्मम) धन्या नागरसंकाशा- स्वपोनिस्तपैर्भृशम् । सर्वे ॥ ४६ ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावलि श्रीमदानन्दविमल प्रसवः शासनाद गुगेः । शश्वत् शुक्रिया मनः ४७ युग्मम्) अथ कुमाननीय सहायकम सविनयं नयनिर्मल मानसं मुदमधाद्विशदां गुरुपुङ्गवः ॥४८॥ 1 " समतासहिता हित्वा वस्त्राऽऽदिपरिग्रहे ममताम् ॥ ४९ ॥ श्रीविक्रमनृपकाबानू, भुजनगशरशशि १५८२ मिते गते वर्ष । चकुवरणोद्धरणं शरणं संवेगवेगवता ॥ ५० ॥ युग्मम् ) तदा च तेषां जगदुत्तमानां संविग्नतासाररसप्रसितः । चरित्र-पतिभू॥५१॥ गुरदास्येः निर्ममत्वः शरीरेऽपि तपस्तेपे सुदुस्तपम् ॥ ५२ ॥ अथ तदालभ्यस्वरूपाचकः । कृतवानुपवस्त्राणा-मशीत्यभ्यधिकं शतम् ॥ ५३ ॥ अदादिपध्यायः । निर्विकारवकारैष चतुःशतचतुर्थकैः ॥ ५४ ॥ चक्रे पुनस्तपस्तपः। ततो विहरजिनं समाश्रित्य ॥ ४३ ॥ धीरविभोः पष्ठानि नवेक्षण २२६ मिलान ।। पाणिमुखेषु प पष्ठानि बहूनि चान्यानि ॥ ५६ ॥ द्वादशानि प्रभुः पश्च, चक्रे प्रथमकर्मणः । सानि पञ्चान्तरायस्य, नवेच दशमानि तु ॥ ५७ ॥ दर्शनपरस्यापि महनीयस्य कर्मणः । (२५७) अभिधान राजेन्द्रः | नि विनिशमकानि । (युभ्यम्) येथे माझे तथाऽऽयति बनि अममाम्ये कृनवान् जगवान्नाम्नो, न च जज्ञे कर्मणस्तु तपः ॥ ५६ ॥ तपोभिरेवं विदितैरनेकै-रनुत्तरैः श्रीगुरुकु जरोऽसौ । पुः शोषास्तसमस्त शेषः, समं समग्रैर्दुरितैः स्वकीयम् | ६० | वदन्ति तस्येति जना निरीक्ष्य, निरीहताज्ञानपहिचा अवातरत् सर्वगुणः किमेष श्रीमान् जगदगुरू ६२ ।। मस्था मर्जरसराय। हस्तमःपङ्कमपास्तदोषः, स सुरिभानुर्व्यह रश्चिय ॥ ६२ ॥ तिल तिल के श्रीम-त्यहम्मदाबाद संहिते । विक्रमनृपतेः समतिक्रान्ते रसनवतिथि: ५१६ मितेऽब्दे ॥ ६३ ॥ मिश्रीमानामानन्दविमलसूरिः । ... ||६४॥ *************** ************** *****... फिलगता। श्रीमान् स सुरिस्तु बभूव सप्त त्रिशा बृहद्गच्छप सर्वदेव ३७ ॥ ६५ ॥ तपोऽभिधाऽऽदिस्त्विह पञ्चचत्वा रिंशो ४५ जगचन्द्रमुनीन्द्र चन्द्रः । मुनी त्रयोदशाः श्रीगुरवो बनूयुः ५६ ।। ६६ ।। एवं श्रीजिनः संन्निध श्रानन्दविमल गुरवः, श्रीमन्तः ः सप्तपञ्चाशाः ५७ ॥ ६७ ॥ श्रसंस्तदीयपट्टे, प्रभव श्रीविजयदानसुराः । सर्वत्र विजयवन्तो, नयवन्तः समयवन्तश्च ५० ॥ ६८ ॥ पति विज्ञयन्ते सर्वा निःश्रीमती हरविजयाऽऽहाः ॥ ६२ ॥ सौभाग्य भाग्यमसाकारणं सदा वेषाम् । वैराग्यमुत्तमतमं, चारित्रमनुत्तरतमं च ॥ ७० ॥ येषां गुणान पर्णयितुमावादमा न जायताम यानाम् ॥ ७१ ॥ श्री विजय सेनसूरि--प्रमुखैर्मुनिपुङ्गवैर्विंगत दोषैः । सेवित पदारविन्दा, श्रीगुरवस्ते जयन्ति तराम् ४९ ।। ७२ ।। तेषां श्रीगुरुप्रसादास संतानन्दः १६३४तो ॥ ७३ ॥ शिष्यो नूरिगुणानां युगोत्तमाऽऽनन्द विमलसूरीणाम् । निर्माताकार विजयमिलः ॥ ७४ ॥ ( युग्मम ) ७६ (म्मम विद्यामा विवेकविला विद्वांसः । सानन्दविजय, विपि प्रतिम ॥ ७५ ॥ शोधनखिताऽदिविधाः समुद्योगम् स्युमा उपकृत्य प्रत्यक्षरं गणनया, वृत्तेमानं ससुत्रकम् । सहस्राः पञ्चसाद्धनि शतान्यष्टावनुष्टाम् ॥ 99 ॥ यामी मेरी। तावतिरियं धीरे - वीच्यमाना श्रधिः । श्र० । पहिज्जेत - पाटयमान- त्रि० । सिरिकिलत्तिकादिवादनप्रका रेण वाद्यमाने श्रा० चू० १ ० । पट्टिया - पट्टिका - स्त्री० । धनुर्यष्टौ औ० ।" सरासणपट्टिश्रा ।" शानामुपरि कन्या स्थानीये ०३ पह श्रुता ४ उ० रा० । जं० । पट्टिसंग - देशी- ककुदे, तालुस्थाने, दे० ना० ६ वर्ग २३ गाथा । पट्टिसपट्टिश-पुं० प्रहरणविशेषे उत० १६० प्र० । पट्टुहिम - कुब्ध - त्रि० । सकर्दमजले, “ खउरिथं उच्चलयं पट्टश्रिं जाण कलुसजलं ।" पा० ना० ८० गाथा | पह पृष्ठ शि० शरीरावशे० प्र० उप तनभागे, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार उपरितने, सूत्र० १० ५ अ० १ ० ।" तत्रिमं पठं च तलं ।” पाइ० ना० ११२ गाथा । म वि० पामिनि कुराले जी० प्र०२०० , मविलम्बितकारिणि, रा० प्रधाने, उपा० ७ प्र० । अग्रसरे, कला १ अधि० ३ ऋण । श्रग्रगामिनि श ० १ ० १ श्र० । प्रश्न० । पुं० प्रश्ने, स्था० ॥ तिपश्येत्यर्थः परपा जयेत् ॥ ७८ ॥ " ne प्रश्नमागमाह उप पाते तं जहा संप, पुग्गह पडे, अ जोगी, अगुलोमे, तहणाणे, अतणा । (विहेत्यादि) प्रच्छनं प्रश्नस्तत्र संशयः प्रश्नः क्वचिदये मं शये सति यो विधीयते । यथा-" ज‍ तवसा श्राणं, संजम भोगी तो ति ने कह ए। देवत्तं जति जई, गुरुराह म. राजन Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५८) अभिधानराजेन्बः । पट्ठ पवणा यथा-" सामनओ विसेसो, अनोणनो ब्व होज्ज जइ अन्नो। णिहविंसुं । समायं पडर्विसु विसमायं णिहविमु २ । सो नत्थि खपुष्फ पि ब, गन्नो सामसमेव तयं ॥१॥” इति । विसमायं पट्टविसु समाय णिविंसु३ । विसमायं पट्टविंसु अनुयोगीति । अनुयोगो व्याख्यान, प्ररूपणेति यावत् । स यत्रा. | विसमायं णिहर्विसु। गोयमा ! अस्थगया समायं पट्ठस्ति, तदर्थ यः क्रियत इति जावः । यथा-" चहि समएहिं लोगो।" इत्यादि प्ररूपणाय "काहिं समपहि" इत्यादि विसु समायं णिहविंसुजाव अत्थेगइया विसमायं पट्टविसु । अन्धकार एवं प्रश्न यति । अनुलोमेऽनुलोमनार्थमनुकूल कर विसमायं णिढविमुपासे केद्वेणं जंते ! एवं वुच्चइगाय परस्य यो विधीयते, यथा केम भवतामित्यादि । (तह अत्थेगइया समायं पट्टचिंसु समायं तं चेत्र । गोयमा ! जीवा नाणे नि ) यथा प्रच्छनीयार्थे प्रष्टव्यस्य ज्ञानं तथैव प्रच्छक चनविहा परमत्ता। तं जहा-अत्यंगइया समाउया समोव. स्यापिकानं यत्र प्रश्ने स तथाझानो, जान-प्रश्न इत्यर्थः । स च गौतमाऽऽदेयथा-"केवरकालेणं भंते ! चमरचंचा रायहा बामगा, अत्येगझ्या समानया विसमोववस्मगा, अत्येगणी विरहिया उपवारण ।" इत्यादिरिति । पतद्विपरीवस्त्वत. श्या विसपानया विसमोववागा । तत्य णं जे ते समाउथाज्ञानेऽजानन प्रश्न इत्यर्थः चिद "छबिहे अटू।" इति या समोववाागा ते णं पावं कम्मं समायं पट्टविसु समायं पातस्तत्र संशयादिभिरर्थो विशेषणीय इति । स्था० ७ ० । णिविम; तत्थ पं जे ते समाजया पिसमाववागा पट्टवण-प्रस्थापन-न० । प्रारम्भे, "इमं पुण पध्वर्ण पहुच्च।" ते पंपावं कम्मं समायं पट्टविंम् विसमायं णिविस । इदं पुनः प्रस्तुतं प्रस्थापन प्रारम्नं प्रतीत्य प्राश्रित्य । अनु० । तत्य णं जे ते विममाउया समोववक्षगा ते णं पावं कम्म पट्टवाणा-प्रस्थापना-खो । प्रायश्चिसदाने, " पट्टबणा नाम दा. विसमायं पट्टविंसु समायं णिविसु । तत्थ णं जे ते विसण ति । " व्य० १ उ०। प्रस्थापनाभेदाः । माया विसमोववागा ते णं पावं कम्मं विसमायं पट्टविमु प्रस्थापनाया भेदानाह. विसमायं णिविसु से तेणडेगोयमा ! तं चेव । मलेदुविहा पट्टवणा खलु, एगमगा य होयऽणेगा य । स्मा णं भंते ! जीवा पावं कम्म एवं चेव । एवं सबढाणेतवतियपरियत्ततिगं, तेरस ऊ जाणिय पयाणि || मुवि० जाव अणगारोवनत्ता एते सम्वे वि पया एयाনা মাথগ্রিলথানা ৱিাৰঘা। নয়খা-যা, ঋনগ্ধা । ए वनव्वयाए जाणियब्वा । णेरडयाणं भंते ! पावं कम्म नत्रासंचयिता सा नियमात् पारमासिकीत्यकविधा । सा कि समायं पट्टविसु समायं शिट्ठविसु पुच्छा । गोयमा ! ऽपि स्वमेनचिन्तायां द्विधा-उद्घाना, अनुराता च । अनेका पुनरियं भवति-यमित्यादि । तत्र पञ्चकाउदिषु भिन्नमासान्नेष अत्येगइया समायं पट्टविंसु,एवं जहेव जीवाणं तहेव भाणिपरिहारतपो न भवति, किंतु मानादिष, ततो मासिकमेव यवं० जाव अणागारोवत्ता । एवं जाव वेमाणि या जस्म तपः स्थानकं द्वैमासिकाऽऽदि यावच्चातुर्मासिकमेतत् द्विती- जं अस्थि तं एए. कमेणं नाणियब्व,जहा पावणं कम्मेणं यं तपःस्थानम् । पाश्चमासिक परमासिकंच तृतीयं तपःस्था दंगो , एवं एएणं कमेणं अहम् वि कम्मपगडीसु अट्ठ नम् । एतान्यपि प्रत्येक द्विविधानि । तद्यथा- नद्धातानि, अ. नुद्धातानि च । एतत्तपत्रिक (परियत्ततिगं ति) प्रव्रज्यापर्या. दंगा भाणियचा, जीवादिया वेमाणिया पज्जवसाणा ।। यस्य परावर्तस्तस्य त्रिकं परिवर्तत्रिकम् । तच दत्रिक,मुन्न (जीवा नंते ! पावमित्यादि) (समायं ति) समकं बहविकमनवस्थापयत्रिकं च । छेड़ो द्विधा-उद्धातः, अनुदाता था। बो जीवा युगपदित्यर्थः। (पटुर्विसु त्ति) प्रस्थापितवन्तः प्र. पाराञ्चितमेकमेतानि यानि त्रयोदश पदानि एषा पाराञ्चि- थमतया वेदयितुमारब्धवन्तः । तथा समकमेव ( निविसु तवर्जा अनेका प्रस्थापना । अथैतानि त्रयोदश पदानि प्रागवा त्ति) निष्ठापितवन्तो निष्ठां नीतवन्त इत्येकः । तथा-समकं निहितानि,किमर्थ मिह पुनरुच्चायन्ते । उच्यते-स्मरणार्थम् । अ. प्रस्थापितवन्तो (चिस्तम ति) विषमं यथा भवति विषमतथवा-यदेतत्प्रस्थापितोऽपि प्रतिमेवते तत्कृत्स्नमनुग्रहकृत्स्नेन येत्यर्थो निष्ठापितवन्त इति द्वितीयः । एवमन्यौ छौ ( अत्थेगनिरनुग्रहकृत्स्नेन वा प्रारोप्यते, प्राकृतत्वं त्वनुग्रहकृत्स्नेनैवा श्या समाउया इत्यादि) चतुर्नङ्ग।। तथा (समाउ स्ति) समाऽऽरोपितमिति झापनार्थम् । व्य०१ उ० । युष उदयापेक्कया समकालाऽऽयुष्कोदया इत्यथः । (समोबवासप्रस्थापितिकाऽऽदिनेदचतुष्टयं व्याख्यानयति गत्ति) विचकिताऽऽयुषः कये समकमेव जचान्तर उपपन्नाः पट्टविनिया बहते, वे यावञ्चहिया वितिया च । समोपपन्नकाः, ये चैवंविधास्ते समकमेव प्रस्थापितवन्तः, सकसिणा कोमविरहिया, जाहि कोसोमा अक्रसिणा उ ।। मकमेव च निष्ठापितवन्तः । नन्वायुः कम्मैवाऽऽश्रित्यैवमुपपत्रं यदारोपित प्रायश्चितं वदति एप प्रस्थापितिका आरोप भवति न तु पाप कर्म,ता नाऽऽयुष्कादयापेकं प्रस्थाप्यते, निष्ठा. णाया वैयावृत्य करण हारिधर्सएरः भाचार्यप्रभृतीनां घयावृत्यं प्यते वति। नैवम् । यतो भवापेकः कर्मणामुदयः कयश्चेष्यते। न. कुर्वन् यत्प्रायश्चित्तमाचलस्तस्यारोपितमपितं क्रियते, याव. तश्व-(नदयखयक्ष प्रोवसमेत्यादि) अत एवार-(तस्थ रण यावृत्यपरिसभाप्तिर्गवति । हो सोमावेशकालं कर्तपसमर्थ जे ते समाया समोचवलगा ते णं पावं कम्मं समायं पवि. इति कृत्वा सा आरोपणा स्पापितिका । व्य० १ उ०। सुसमायं निटुबिसु ति) प्रथमः । तथा (तस्थ ण जे ते स. माउया विसमावबएपग त्ति)समकालाऽऽयुष्कोदयाः विषमता प्रथमत्या वेदनारम्ने, पापकर्मप्रस्थारम्भः या परभवोत्पन्ना मरणकालवेषम्यात । (ते समायं पठविसु जीवा णं ते! पावं कम्मं किं समायं पट्टविमु समायं | ति) आयुष्कविशेषोदयसम्पाद्यत्वात्पापकर्मवेदनविशेषस्य Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडवणा ( विसमायं पिष्ठर्विसु त्ति ) मरणवैषम्येण पापकर्मवेदन विशेपस्य विषमता सम्भवादिति द्वितीयः तथा-( बि. समाउया समोवश्वालायुकोदयाः समका भवान्तरोत्पत्तयः ( ते णं पाचं कम्मं विसमायं पविसु, स मायं निर्विति) तृतीयः । चतुर्थस्तु ज्ञान पवेति । इह तान्प्रात्पूर्वकम (240) अभिधानराजेन्द्रः । पशुवास किह ए दु. समाउउब्वसु चगो । किह व समज्जिएसए, गमणिज्जा श्रत्थश्रो भंगा ॥ १ ॥ पडुबाए भंगा, पुच्छा भंगालोमओ वच्चा ।" यथा पृच्छाभङ्गाः समकप्रस्थापनाऽऽदयो न बाध्यन्ते तथेद समाssssssदयो ऽन्यत्र अन्यथा व्याख्याता अपि व्याख्यया इत्यर्थः । न० २० श० १४० । नाम (कति क पाप कर्मस्थापनको सम् ० २६ श० २४० । 66 " पट्टाविय - प्रस्थापित - त्रि० । स्थष्ठा- थक्क-विष्ठ-निरप्पाः ॥ ८ । ४ । १६ ॥ इति सूत्रेण स्थास्थाने ठेत्यादेशः । प्रा० ४ पाद । प्रकर्षेण स्थापिते, सुत्र० २ ० ६ श्र० । पद्विपृष्ठि स्त्री" खरायां स्वराः प्रायेोऽपभ्रंशे" || ४ | ३२६ ॥ इति सूत्रेण ऋकारस्य स्थानेऽकारः । प्रा० ४ पाद । श्रा॰ चू०|" द्वितीयतुर्थयोरुपरि पूर्वः ॥ ८ । २ । ६० ॥ द्वितं यतुर्ययोर्द्वत्वप्रसङ्गे उपरि पूर्वौ भवतः, द्वितीयस्योपरि प्र मातुर्थस्पोपरि तृतीय इत्यर्थः । इति उकारोपरि टकार प्रा० २. पाद । प्राकृतत्वात् पृष्ठशब्दस्य ' पछि ति ' आदेशः । पीठ " इतिख्याते शरीरावयवे, उत्त० ३ ० । 35 66 "e: तरोवनगाणं जंते ! परश्या पावं कम्मं किं समायं पर्विसु, समायं हिर्विसु पुच्छा । गोयमा ! प्रत्येगइया समायं पवि समायं शिवं. त्येगइया समार्थ पि विसमा द्विविंसु । से केणणं भंते! एवं वृचइ- प्रत्येगइया समायं विसृतं चेत्र । गोयमा ! णंतरेवबागा - रया विद्या पत्ता । तं जहा - अत्थेगझ्या समाजया समो या गया समाया विसमोवणा । तस्थ ने ते समाजपा समोववागा ते णं याचं कम्यं समार्थ पर्वसु पद्म-मस्थित त्रिः ठा-थम-चिह्न-भिरण्याः" ॥। पात्रं पट्टर्विसु, समायं शिवं । तत्य णं जे ते समाज्या विसमोववधागा ते णं पार्थ कम्यं समा प िविसमार्थ - चिंशु, से लेणद्वेणं तं चेत्र । सलेमा मेरो । णं ! वत्रगा गोरड्या पार्श्व कम्मं एवं चेव० जाव णागारोवचत्ताए | एवं असुरकुमारा वि । एवं० जाव बेमाणिया, पावरं जं जस्म अस्थितं तस्य भागिय एवं ाणारणिज्जेण त्रिदंरुयो । एवं शिरवसेसं० जब अंतरा वं भंते! जंतेजार एवं एवं गमएां २ बंधि उद्देगपवामी सव्वा वि इह वि जाणियन्त्रा ● जाव अचरिमो त्ति | अ ंतरन हेसगाणं च एद वि एगाए बचन्नया, सेसा सच एका वसव्यया । ४ । १६ ॥ इति स्थास्थाने टुः । प्रा० ४ पाद । प्रयाते, भा० म० १ अ० । पट्टितून पत्रिस्वा स्त्री "वरवःतूनः || ४ | ३९२ ॥ इि । ॥ ८ । । पैशाच्यां क्वाप्रत्ययस्य तूनाऽऽदेशः । भणित्वेत्यर्थे, प्रा०४ पाद । परु- पट- पुं० । उत्तरीयवस्त्रे, ज्ञा० १ श्रु० १६ अ० | पृथुलबत्र, अतमित्यादि) द्वितीय रोप पद्मका द्विविधाः - ( समाउया समोवबाग ति) अनन्तरोपपसमयप्रतिपत्यमे व न स्यादायुः प्रथमसमय वर्तित्वात्तेषाम् । ( समोघवागत ) मरणानन्तरं परमपरापूर्व गत्यायन्तरोपपन्नका उच्यन्ते । (समाया विसमोगल विषमोक्षकत्वमिहापि मरणादिति चतुर्थी भ शान्तरोपपन्नेषु न सम्भवतोऽनन्तरोपपन्नत्वादेवेति द्वितीय शेषामपि नाव पि) मनन्तरोपवनादानम्तरा रिकानन्तरपर्या सिमा पकमला पट्ठवय प्रस्थापक-पुं० । प्रारम्भके, " पटुत्रणश्रो श्र दिवसो ।" ( ९ ) प्रस्थापनकश्च प्रारम्भकश्ध दिवसः । आव० ६ श्र० । पविषमस्यापित १० नि००० ३० स्थि रीकृते ० १२० ४ उ० मनुष्यगतिज दरपर्याप्तभावे वयश कीर्ति नामसोदावेन व्यवस्था पिते, प्रज्ञा० २१ पद । भ० । पडविया - प्रस्थापिता- स्त्री० । बहुध्यारोपितेषु यन्मास गुर्वादिप्रायधिरुपस्थापयति वासवासी प्रस्थापिता आरोपणादे, स्था० ५ डा० २ उ० । "जं वद्दति पच्चित्तं सा पठवितिका जयति ।" नि० चू० २० उ० । - - [झा० १ ० १ ० । से पहुंचा - प्रत्यञ्चा - स्त्री० । प्रत्ययायाम, "सित्थं नीवा गुणो व पचा य ।" पाइ० ना० १२२ गाथा | पडंत- पतत्- त्रि० । भ्रश्यति, अनु० । - पथि| १ | परंतरिय - पटकान्तर- न० । वस्त्रविशेषान्तरे, तं । परंतु प्रतिश्रुत्स्त्री० [प्रतिरूपं भूपते-"पृथिवी - प्रतिमूषिक- हरिद्रा - विभीतकेषु अत् ॥ ८८ ॥ इति इकारस्यात्वम् । "वक्राऽऽदावन्तः” । ८ । १ । २६ ॥ " सर्वत्र लवरामचन्द्रे " ॥ । २ । ७ए ॥ इति इत्यनुस्वारः । र लुक् । " शत्रोः सः ॥ ८ । १ । २६० ॥ इति षस्य सः । "स्त्रियामादविद्युतः " ॥ ८ । १ । १५ ।। इति तस्य आ । “प्रत्यादौ डः” ॥ छ्र । १ । २०६ ॥ इति तस्य कः । प्रा० ० १ पाद | ज्यायाम्, दे० ना० ६ वर्ग १४ गाथा । पककार पटकार - पुं० । तन्तुवाये, प्रइन० २ श्राश्र० द्वार | पटवर देशी विदूषक ३३०० २५गाया। पडक - देशी- धवले, दे० ना० ६ वर्ग १ गाथा । पदम देशी-गिरिंग दे० ना० ६ वर्ग २ गाथा | परुमला - देशी-चरणाऽऽघाते, दे० ना० ६ वर्ग ८ गाथा । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६०) अभिधानराजेन्डः। पममस पमाली पसमस-देशी-सुसंयमिते, दे. ना. ६ घर्ग ६ गाथा। च्छवासीणं जे उग्गाहिए समाणे चाहिं अंगुलीहिं जंतुए न पाबंति । अहवा-दाहत्ताणेण अढाइज्जाहिं छारुदत्तणेण दिव. पा -देशी-चरणाऽऽघाते. दे. ना.६ वर्ग ८ गाथा। को हेरथो।" वृ० ३०० । नि० चू । प्रव०। औ० । ध०। पक्षण-पतन-न। पाते, नि० चू०१०।" पडण ति वा उ. पं०व०। ज्मण सिवा एगटुं।" नि. चू०४२० । बाह्वादेः खङ्गच्छेदा पमनग-पटलक-न। पटल पुष्पनाजने, स्था०७ठा। दिना पाते, तं० । वाँऽऽदिविनाशे, ज्ञा०१श्रु०१ ०। मरणभेदे, "पमणं तु नपत्तिता।"(५०६ गा०।) हुं उपपतित्ता पमवा-देशी-पटकुट्याम, दे० ना. ६ वर्ग ६ गाथा। ओ गड वस्त्रमेवने डिरिमकवत् तं पुण पक्षणं । " नि० च. पम्माम्य-पटशाटक-पुं० । पटरूपः शाटकः पटशाटकः । ११ २०। ('बालमरण' शब्दे विस्तर) शाटको हि शटनकारकोऽप्युच्यते, इति तदृव्यवच्छेदार्थ पटपझमंगव-पटमएमप-पुं०। पटमये मण्डपे, प्रा०क०१०। ग्रहणम । अथवा-शाट को वस्त्रमात्रं, स च पृथुनः पटोऽभि धीयते पटशाटकः । भ०६ श.३३ ३० । परिधाने, पृ०.. पममाण-पतत्-त्रि० । पतितुकामे, वृ० ६ ३० । आचा। उ०२प्रक। पटश्च शाटकश्च द्वन्तः । उत्तरीयपरिधानवस्त्रयोः पमयाणग-पटतानक-न०। पर्याणस्याधो दोयमाने अश्वो। झा०१ शु. २ अ.। पकरणे, झा० १ श्रु०१७ भ० । पमह-पटह-पुं०। बातोद्यविशेष, प्रज्ञा० ३३ पद । आमम्बर, पडन्न-पटल-म० । संघे, सूत्र०२ श्रु०३ अ. । वृन्दे, अनु। ___ "ढोल" इतिख्याते, स्था०७०। नं० प्रा० म० । विशेः । समानजातीयवृन्दे, श्रा० चू०५ अ० । समूहे, ज्ञा० १ ७० जारामपटटे, “नगाड़ा" इतिख्याते, औ०। भ• । स च किश्चि. १२ अ.। ध० । भिक्षाऽवसरे पात्रप्रच्चादकेषु, प्रश्न० ५ सम्ब. दायत उपर्यधश्च समप्रमामाणः। प्रा० म०१०। द्वार। यानि निकां पर्यटभिः पात्रोपरि स्थाप्यन्ते । वृ० ३ ०। स्थाप्यन्त । वृ० ३००।पमागा-पताका-स्त्री० । “प्रत्यादी डः" ।।१।१०६॥ इति तस्य नीबे, दे० ना.६ वर्ग ५ गाथा । पाइ० ना० । डः। प्रा० ५ पाद । "बिंधाई वेजयंतीओ, पडाया के उणो धया पटनकानां प्रमाणमाह हुरुमा ॥" पा० ना. ६८ गाथा । चक्रसिंहाऽऽदिवाञ्छनापे. तिविम्मि कानए, विविहा पमझा तु होति पातस्स ! ते,भाश०३३३०। गरुमसिंडाऽऽदिचिह्नरहिते, औ० । ध्वजल. कणरहिते, प्रायो हस्तिनामुपरि वर्तिनि (झा० १७०० अ० ) गिम्हसिसिरवासासु, उक्कोममजिकमजयप्पा ॥२॥ तिर्यपटरूपे लोकप्रसिद्धेऽथे, राप्रश्न। ज्ञा० । आ० म०। विविधे कालच्छेद कालविभागे त्रिविधानि पटकानि पात्र- विपा०। मत्स्यजेदे, जी०१ प्रति । । स्य भवन्ति । इदमेव व्याचष्टे -ग्रामशिशिरवर्षासु प्रत्यकमुकृ. पमागापमामा-पताकातिपताका-स्त्री० । मत्स्यभेदे, जी० १ धानि मध्यमानि जघन्यानि च, तत्र यान्यत्यन्त दृढानि तानि । प्रति० । “सपमागापमागमंमिए।" सह पताकया वर्तत प्रति इदमेव भावयति सपताक, नच तदेकां पताकामातकम्य या पताका सा अलि. गिएहासु तिनि पमझा,चउरो हेमंत पंच वासाम। पताका, तया मएिकतं यत्तत्तथा । प्रका०पद । नकोसगा उ एते, एत्तो वाच्छामि मजिकमगा रनणा पडानाहरण-पताकाहरण-न। पताकायाश्चारित्राऽऽराधनावेप्रामेषु चतुर्यु मासेषु त्रीणि पटनानि जवन्ति, कालस्या- जयन्त्या हरणं ग्रहणं पताकाहरणम् । विजिगीषया पताकानत्यन्तस्निग्धत्वात, चत्वारि हेमन्ते, पञ्च वर्षांसु, एतान्युत्कृष्टानि हणे, “एमा महब्बयचच्चारणा पमागाहरण।" लोके हिमालमन्तव्यानि, अत कर्द्ध मध्यमानि वक्ष्ये । युकादिषु वस्त्रमाभरण व्यं वा ध्वजाग्रे वध्यते,तत्र यो येन प्रतिज्ञातमेवाऽऽद युकादिना गुणेन प्रकर्षवान् स रकमध्ये पुरतो त्या गृहातीति गिम्हास होति चउरो, पंच य हेमंत उच्च वासासु। पताका हरतीत्युच्यते । एवमत्राऽपि पाकिकाऽऽदिषु महावतोमज्किमया खलु एसे, एत्तो न जहन्नए वोच्छं ॥२॥ चारतः समुपजातचारित्रविशुद्धिप्रकर्षः साधुः प्रवचनोचाया चारित्राऽऽराधनापताकाया हरण करोतीति । पा० संथा। ध। ग्रीमेषु चत्वारि पटल कानि, हेमन्ते पञ्च, वर्षाषु षट्, मनाक जी तथा प्रसूततराणामेव स्वकार्यसाधनात, एतानि खलम पडायाण-पर्याण-न। "पर्याणे मावा"॥ १.२५२ ॥१. ध्यमकानि मन्तच्याति । ाणे रस्य डा इत्यादेशो भवति वा । इति रस्य विशिष्टस्य मः। अन ऊर्द्ध जघन्यानि वदये "पडायाणं । पल्लागं । " प्रा०१ पाद । गिम्हासु पंच पडझा, हेमंते छच्च सत्त वामासु । पहानी-पटानी-स्त्रीपटसमूहे, व्य० । तिविहम्मि कालकेप,तिविहा पमना ज पानस्म ।२UR मुत्तृणं माधणं, तेएं गहिता पनत्यम्म । ग्रीष्मेषु पञ्च पटलकानि, हेमन्ते घट, वर्षासु सप्त, पतानि ज.. हेहा उपरिम्मि ठित, सीसम्मि पमानियवहारी ॥५०॥ चन्यानि । एवं त्रिविधकालच्छेदे त्रिविधानि पटकानि पात्रस्य: साधनामवकाश मुक्या तेन पूर्वग्वामिना शय्यानरण चक्रयिकभवन्ति । नक्तं पदयकानां गणनाप्रमाणम् । स्य नाटकं गृहीत,गृहीत्वा च प्रोषितः, तस्मिन्प्रोषित अधस्ताद्व. अथ प्रमाणाप्रमाणं, तत्र च विशेषचूाणे:-"एत्थ निगाया च. ऋयिकम्य नाममुपरि माले साधवः। अथवा-अधस्तात शाझायां बरसा पहला जताण माझमए देहा अह अंगलाई लंबांत, ग.थिता: साधवः उपरि माले बक्रायकस्वस्म रतान्मधमुच्या Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडाली (१६.) अभिधानराजेन्छः। पडिक्कमण ते। एवं मिश्रेस्थितानां यदा शालायां साधन उपरि माझे वक्रायः पडिकिति-प्रतिकृति-स्त्री० । स्थापनायाम, प्राचा.१ श्रु.३ कस्य भाप तदा पहाली गति भागमस्योपरीति न काचित्ला प्र.१ उ०। कृते कार्ये यः क्रियते विनयः स प्रतिकृतिरूपत्वाधनां क्षतिः । अथ-वक्रयिकस्य भाएममधस्तास् शानायामुप- तू प्रतिकृतिः । औपचारिकविनयभेदे, व्य०१०। रिमाने तिष्ठन्ति साधवः पडाली च गनात तदा वक्रायकश्चिन्तयति उपरिमाने पडाली गति,तत्र साधूनां कष्ट, मम तु भा. पडिकुट्ठ-प्रतिकुष-त्रिका निवारिते,पश्चा० ४ विव०। निचू । गममधस्तात् शाज्ञायां ततो विनश्यतीति एवं चिन्तयित्वा प. स्था० । निराकृते, दर्श०४ तत्व : पिं०। हालीं न गदयति,तत्र यद्यन्योऽपि कश्चित् न बादयति तदा व्यः पडिकुडकुन-प्रतिकष्टकुन-न । हिरामनाय निषिद्धकुले, प्रतिबहारः कर्तव्यः, व्यवहारेण गदयितव्य शति । व्य०७ उ०। वृ०। कुएकुल द्विविधम-इत्वरं,यावत्कथिकं च । इत्वरं सूतकयुक्तम् । पक्ती, दे. ना.६ वर्ग गाथा। यावतकथिकमभोज्यम् । दश•५१.१००। पति-प्रति अन्य०।"प्रत्यादौ मः"॥७॥१॥२०६ ॥ इति तस्य पस्किट्रिलगदिस-प्रतिकदिवस-पुंगलप्रत्ययःप्राकृते स्वा. डः। प्रतीपे प्रातिकूल्ये भवः। प्राभिमुख्ये, चं० प्र०२० पाहु०। प्रतिकुष्टा एवं प्रतिकुष्टेखकाः, तेस ते प्रतिकुष्टचकदिवसाः। प्रतिषेधे, विशे०। प्राचा। वीप्सायाम्, प्रा. म० १ ० । प्रतिविद्धादवसेषु, “पमिकुहिल्लगदिवसे,बज्जेजा अहमि च नव. प्रतिपाद्याथै, प्रा.चू०४०। मि च । टुिं न च वस्थि वा-रसिं च दोएिंड पि पक्वाणं ॥१॥" पडिप्र-देशी-विघाटिते, देना०६ वर्ग १२ गाथा। य० १ न । सेवा 5ऽदित्वाद् वा द्वित्वम् । प्रा०२पाद । पडिग्ग-अनुत्रज-धा० । अनुगमने, "अनुवजेः पमिअम्गः" पमिकूलग-प्रतिकृतक-त्रि०ा सेवाऽऽदित्वात् वा द्वित्वमा प्रा. 1८।४।१०७॥ इति सूत्रे'पडिअम्ग' आदेश पाडगाश्पाद । प्रतिपन्थिनि,प्रश्न०१ आश्रद्वार । प्रत्यनीके,स्था०३ अनुव्रजति । प्रा०४ पाद । ग.४३०। विपरीतवृत्ती, स्था०४1० ३ उ० । अनभिमते, पमिक-देशी-उपाध्याये, दे. ना० ६ वर्ग ३१ गाथा । आचा०२ श्रु०१चू०२ अ० २ उ० । द्वेषिणि, प्राचा० १७० २०३371 पमिअमित्त-प्रत्यमित्र-पुं०। यः पूर्व मित्रं भूत्वा पश्चादमित्रो पमिकूलभासि (ण )-प्रतिकूलजाषिन्-त्रि०। प्रतिकृतं प्रति. यातः तस्मिन् शत्री, प्रा० घू. १ अ । जी । लोमं भाषते वक्तीत्येवंशीलः प्रतिकूल नाषी । उत्त० १२ १०। पमिअर-देशी-चुल्लीमूले, दे. ना.६ वर्ग १७ गाथा। सम्मुख वादिनि, “ अज्झा बयाण पमिकल नासी, पनाससे कि पमिली -देशी-त्वरित, देना.६ वर्ग ७ गाथा। तु सगासि अम्हं।" उत्त० १२ अ० । पडिआमय-प्रत्यागत-न० । प्रत्यागमने, आ. चू०१०। पमिकून्नया-प्रतिकूलता-स्त्री. । विरोधितायाम,डा०१४ द्वा । परिपायपिायय-प्रत्यात्मनियत-त्रि० । प्रात्मानमात्मानं प्र. पडिकूलवयाण-प्रतिकृतवचन-म० । प्रस्तुतस्य मधुरवचोभिर्माविनियतफलसंपादके, द्वा० ११ द्वा०। गमप्रतिपाद्यमानस्वरलिष्टरभाषणे, दर्श०४ तव । पडिपार-प्रतीकार-पुं० । चिकित्सायाम, प्राब.४०। | पमिकलिय-प्रतिकलित-त्रि० प्रतिभाषिते, नि० १६० १ वर्ग ६ अ०। पमित्तरण-प्रत्युत्तरण-न० । नालिकया उसकृत्तरणे, नि.चू. पमिकंत-प्रतिक्रान्त-त्रि० । निवृत्ते, प्रा.म.१०। प्रा० १०.। पमिएलिभ-देशी-कृतार्थ. दे. ना० ६ वर्ग ३२ गाथा। चू० । सर्वातिचारप्रतिनिवृत्ते, पा०। । पमिकतन-प्रतिक्रान्तव्य-त्रि. । निवर्तितव्ये, मिथ्यापुष्कृते पमिकत्ता-प्रतिकर्तृ-त्रि० । चिकित्सके, स्था० ४ ग. ४ ३० । । दातव्ये, प्रा० म० १ ० । पडिकप्पिय-परिकृत-त्रि०ा कृतसत्राहाऽऽदिसामप्राके,बिपा.१ पमिकमण-प्रतिक्रमण-न। प्रतीत्ययमुपसर्गः प्रतिपाद्ययं वर्तध्रु० २ अ । भ०। ते।'कमुपादविक्केपेऽस्य ल्युमन्तस्य प्रतीपं प्रातिकृस्येन वा कमपमिकम्म-परि (प्रति ) कर्भन-न । गुणान्तरोत्पादने, स्था० ण प्रतिक्रमणम् । पतदुक्तं जवति-शुनयोगज्योऽशुभात संका. १० बरपात्राऽऽदेश्दनसीवनाऽऽदौ,स्था० ०२ उ०। म्तस्य शुभेष्वेव प्रतीपं प्रतिकूल वा क्रमण प्रतिक्रमणमिति । समनाऽऽदिके पाटीप्रसिके,स्या०४ ग०३ उ० । वसत्यादि उपचसंरकणे, स्था० १० ग.। " स्वस्थानाद्यत् परस्थानं, प्रमादस्य धशागतः। पदिकम्मविमुछि-परि (प्रति ) कर्मविशक्छि-स्त्री० । परि तत्रेच क्रमानुयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥१॥ कर्मणा वसत्यादिसंरक्कण लकणेन क्रियमाणेन संयमस्य विशु क्षायोपशमिकाद्भावा-दौदयिकस्य वशं गतः।। कौ, स्था० १० ठा। तनाऽपि च स एवार्थः, प्रतिकूनं गमात्म्मृतः ॥२॥" पडिकम्भावघाय-परि (पति) कोपघान-पुं० । वस्त्रपात्रादे. प्रति इति क्रमणं वा प्रतिक्रमण,शुभयोगषु प्रतिप्रतिवर्तनमित्य धः। वक्तं च "प्रतिप्रतिवर्तनं वा,शुभेषु योगेषु मोकफादेषु। नि:श्छेदनसेवनाऽऽदिनाकल्पनायाम्, स्था० ५ ठा०२ उ० । शव्यस्य यतर्य-तद्वा केयं प्रतिक्रमणम् ॥१॥"शुभयोगेभ्योऽशुभा. पकिय-प्रतिकृत-न । प्रत्युपकारे, स्था०४ ग०४ उ०। । योगान्तरं क्रान्तस्य शुभेष्वेव योगेषु गमने,प्राव० ४ ०।ध०। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिकमा प्रनिधानराजेन्द्रः। पडिकमण प्रतिनिवृत्तौ,उत्त० २६ 0 । स्था। प्रा०मिथ्यादुष्कृतदाने, ग) एसो पमिकमणस्स य, निक्खे वो विहो होई॥ ४ ॥ १ अधि० । स्था०1०म० व्या पश्चा० । प्रवाभा प्रतिक्राम. तत्र नामस्थापने गतार्थे;व्यप्रतिक्रमणमनुपयुक्तसम्यग् दृष्टेलकप्रतिक्रान्तव्यो । प्रतिक्रामकव्याख्या-"शुभमंगलं"स्तुतित्रयम् । ध्यादिनिमित्तं वा उपयुक्तस्य निवस्य पुस्तकाऽऽदिन्यस्तं वा । (१)ह च यथा करणात् कर्मकोंः सिद्धिः तद्व्यतिरेकेण क्षेत्रप्रतिक्रमणं यस्मिन् कत्रे व्यावय॑ते क्रियतेचा,यतो वा प्रतिकरणत्वानुपपत्तेः.एवं प्रतिक्रमणादपि प्रतिक्रामकप्रतिकाम्तव्य. क्रम्य ते स्खलाऽऽदेरिति।कालप्रतिक्रमण द्वधा ध्रुवम,मध्रुवं च । सिद्धिरित्यतास्त्रतयमप्यभिधित्सुराह नियुक्तिकारः तत्र ध्रुवं नरतैरावतेषु प्रथमचरमतीर्थकरतायध्वपराधी भवपमिकमणं पमिकमओ,पमिकमिअव्वं च आणुपुब्बीए।। तु वा मा वा ध्रुवमुन्नयकासं प्रतिक्रम्यते। मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु तु अध्रवं कारणजाते प्रतिक्रमणमिति भावप्रतिक्रमण द्वधा-प्र. तीए पच्चुप्पन्ने, अणागए चेव कामम्मि ॥१॥ शस्त,चाप्रशस्तं च । अप्रशस्तं मिथ्यात्वाऽऽदे, प्रशस्तं सम्यक्ताप्रतिक्रमण निरूपितशब्दार्थम, तत्र प्रतिक्रमयतीति प्रतिक्राम 5वेरिति । अथवाघत एवापयुक्तस्य सम्यग्दृऐरिति प्रशस्तेनात्राका की, प्रतिक्रीमतन्य च कम अशुभयोगलक्षणमानुपूर्ध्या अधिकारः। प्रतिचरणा व्याख्यायते-'चर' गतिभवणयोरित्यपरिपाच्या प्रतीते अतिक्रान्ते प्रत्युत्पन्ने वर्तमाने ऽनागते चैव स्य प्रतिपूर्वस्थ ल्युडन्तस्य प्रतिचरणेति जवति, प्रतीतेषु तेष्वएमते, काले प्रतिक्रमणाऽऽदि योज्यमिति बाक्यशेषः । श्राह धेषु चरणं गमनं तेन तेनाऽऽसेवनाप्रकारेणेति । श्राव०४०। प्रतिक्रमएमतीतविषयम् । यत उक्तम्-"अतीतं परिकमामि,प. श्रा० म०। (प्रतिचरणाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने) पत्रं संघरेमि,अणामय परचक्खामि।" इति। तत्कथमिह का. सत्रये योज्यते इति ?। नुच्यते-प्रतिक्रमणशब्दो ह्यशुभयोगवि. सम्प्रति विनेयानुग्रहाय प्रतिक्रमणाऽऽदिपदानां यथाक्रम :निवृत्तिमात्रार्थः सामान्य शब्दः परिगृह्यते, तथा च सत्यतीत न्तान् प्रतिपादयन्नाह. विषयं प्रतिक्रमणं निन्दाद्वारणाऽशुभयोगविनिवृत्तिरेव प्रत्युत्प. अच्छाणे पामाए, दुचकाए विसजोषण तलाए । प्रविषयमपि संवरद्वारेणाऽशुभयोगनिवृसिरेव अनागतनिषय. दो कन्नानो पक्षमारि-श्रा य वत्यं अ अगए अ॥१शा मपि प्रत्याख्यानद्वारेणाऽशुभयोगनिवृत्तिरेवेति न दोष इति गा. अध्यानः प्रासादः दुग्धकायः विषनोजनतभागं वे कम्ये प. थाऽवगर्थः ॥२॥ तिमारिका च वस्त्रं चागदश्च । पाव०४० । साम्प्रतं प्रतिक्रामकस्वरूपप्रतिपादनायाऽऽह | নয় মনিমপন্থন:जीवो न पडिक्कमओ, अमुहागणं पावकम्म जोगाणं । "पुरे काऽपि नृपः कोऽपि, सौधं क तुमना बहिः । काणपसत्था जोगा, जो तेन पमिकमे साद ॥॥ सूत्रमाच्छोटयद्भव्ये, दिने न्यास्थ च रककान् ॥१॥ जीवः प्राङ्निरूपितशब्दार्थः । तत्र प्रतिक्रामतीति का कत्रे च यदि कोऽप्यन, प्रविशेन्मार्य एव सः। मकः, तुशब्दो विशेषणार्थः । न सर्व एव जीवः प्रतिक्रा अपसत्पदेस्तैश्चे-तैरेव मोज्यः पुमानसौ ॥॥ मकः,कि तहिं सम्यग्दृष्टिरुपयुक्तः। के प्रतिक्रामकः, अशु व्याक्षिप्तानां च तेषां द्वौ, ग्राम्यौ प्राविशतां नरौ । भानां पापयोगानामसुन्दराणां पापकर्मव्यापाराणामित्यर्थः । रक्तकैरगैया युक्तौ तौ कम्पितासिनिः ॥३॥ माह-पापकर्मयोगा शुभा एवं जवन्तीति विशेषणानर्थ अरे! प्रविष्टौ किमिह, धृष्ट एकोऽवदत्तयोः । क्यम् , न, स्वरूपान्याख्यानपरत्वाइस्य, प्रशस्ती च तो योगी दोषः कोऽत्रेति निविशे-नश्यस्तत्र हतः स तैः ॥४॥ च स्थानं च प्रशस्त योगौ च ध्यानप्रशस्तयोगा ये तानधि. जीतो द्वितीयस्तेष्वेव, पदेवस्थाद्वभाण तान् । कृत्य न प्रतिक्रमेत न प्रतीपं वर्तेत साधुः, अपि तु तान् से. अजामन् प्राविशं मामा, हतस्वाऽऽदेशकारिणम ॥५॥ वेत, मनोयोगाधान्य ख्यापनार्थ पृथग् ध्यान ग्रहणं, प्रशाम्त उक्तस्तै यदि तेरेव, पदैस्त्वमपसर्पसि। योगोपादानाच ध्यानमपि धर्म शुक्ल ने प्रशस्तमवगन्तव्यम् । तमुक्तिस्तेऽय भीतोऽसौ, तथाकार्षीदमोचितैः॥६॥ पाह-"यथोद्देशं निर्देशः" इति न्यायमुखवय किमिति प्रतिक जोगभोगी स संजा-उनाभोगी च परोऽभवत् । मणमनभिधीय प्रतिक्रामक उक्तः। तथाऽऽद्यगाथागतमानुपूर्वी. इयं व्यप्रतिक्रान्ति-भावे चोपनयः पुनः॥ ७॥ प्रडणं चातिरिच्यत इति । उच्यते-प्रतिक्रामकस्याल्पवक्तव्य. राजा तीर्थकगेऽश्वा च, संयमो रक्ष्य इत्यवक। ता तत्कधीनस्वाञ्च क्रियाया इत्यदोषः । इत्थमेयोपन्यासः क ग्राम्येणेव व्यतिक्रान्तः, स एकेन कुसाधुना ॥ ८॥ मान्न क्रियत इति चेत् १, प्रतिक्रमणाध्ययनानामनिष्पन्ननिके सहती रक्ककै राग-द्वेषाऽऽद्यैः सुचिरं भवे । पप्रधानस्यात्तस्येत्यलं विस्तरणेति गाथार्थः। उक्त प्रतिक्रामक लसो दुमतिर्जन्म-मरणानि पुनः पुनः॥५॥ साम्प्रतं प्रतिक्रमणस्यावसरस्तच्छदार्थ पर्यायाचिख्यासु. यस्तु प्रमाददोषेण, जास्वतिक्रान्तसंयमः। प्रतिक्रामति संसार-भीरुस्तैरेव दगमकैः ॥ १०॥ राह स निर्वाणसुखाऽऽभोगी, जायते मुनिपुङ्गवः। पमिकमणं पडिचरणा,परिहरणा चारणा नित्त । अक्षा प्रतिक्रमणायां दृष्टान्तो दर्शितोऽधुना ॥ २१॥" निंदा गरिहा सोही, पमिकमणं अट्टहा होइ ।। ३ ॥ प्रा० क०४.। प्रतिक्रमणं तस्यतो निरूपितमेवाधुना नेदतो निरूप्यते, तत्- साम्प्रतं प्रत्यहं यथा श्रमणेनेयं शुतिः कर्तव्या तथा मालाका. पुनर्नामाऽदिभेदतः षोमा जवति । तथा चाऽऽह रदृष्टान्तं चेतसि निधाय प्रतिपादयन्नाहनाम ग्वणा दविए, खिते काझे तहेव नाचे । मोलोएमालुंचण-विमीकरणं च भावसाही भ। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्किम आलो अम्मि आरा - हा अणालोड़ए भयणा ||१५|| अवलोकनमासुञ्चनं विकटीकरणं च नाववृद्धिश्च यथेह क चिनिपुणमालाकारः स्वस्याऽऽरामस्य सदा द्विसंध्यमवलोकन कतिक कुसुमानि समयुतनेति तेषामाञ्चनं करोति 1 तर विकसिततानां भेदनं विभजनमित्यर्थः चशब्दात् पश्चाद् ग्रन्थनं करोति, ततो ग्राहका गृह्णन्ति ततोऽस्याभिलषितार्थनाभो जवति । भावशुद्धिश्च वित्तप्रसादलक्कणा, अस्या एव विवक्तितत्वात्, अभ्यस्तु विपरीतकारी मालाकारस्तस्य न भवति, एवं साधुचिप्रत्युपेतादिव्यापारा उच्चाराऽऽदिमित्र स्युपाघातः का रस गु देवािकस्य मुखका प्रत्यु कार्यस लोफर्म करो. : ( २६३ ) अभिधान राजेन्द्रः । विका मोचनं प्रतिपनानुवोमेन धनं ततो यथाक्रमं गुरोनिवेदनं करोति कुतः भारुपजायते श्रविभावात कायोपमिकप्राप्तिरित्यर्थः । इत्थमुकेन प्रकारेणाऽऽोचिते गुपधजा निवेदिने नाममाना भवति अनादि भावना-कदाचिद्भवति कदाचिन्न भवति । तत्रेयं भवति "आलोयणापरिणओ, सम्मं संपट्टिओ गुरुसगासं । जर अंतरो का, करेज्ज आराहऔं तह वि ।। १६ ।। " एवं तु न भवति । " गारवे, बहुसुमरण या विदुष्परियं । जोन कर गुरु न सोम इति गाथार्थ।। १७ ॥" इत्थं चाssलोचनाऽऽदिना प्रकारेणोभयकालं नियमत एव प्रचमचरमतीर्थकर खातिचारेण निरतिचारे या साता शुद्धिः कर्तव्या, मध्यतीर्थंकरतीर्थेषु पुनर्नैव किं त्वतिचारवत एव शुद्धिः क्रियते । श्राव० ४ ० । सर्पमिणो धम्मो, पुरिमस्सय पच्छिमस्स य निस्स मजिपाथ निशाणं, कारणजाए पछिकम ॥ १८ ॥ प्रतिमो धर्मः कर्तव्यः अस्य च जिनस्य ती सानानादि विवेक उयकालं चापराधो भवतु दा. मा वा नियमतः प्रतिक्रान्तव्यं, शत्वात्प्रमाद बहुल वाचतेयेवस्थानेषु मध्यमानां जनानामजितादीनां पा पर्यन्तानां कारणे जाते अपराध एवोपत्रे सति क्रमणं सदैव भवत्यशतत्वात्, प्रमादरहितत्वाच्चेति गाथार्थः ॥ १८ ॥ तथा चाऽऽड़ ग्रन्थकारः 3 जो जांडे आओ, सो परमाणम्मि । सोनाडे परिक्रम, ममिवार्थ जिणवराणं ॥ २५ ॥ यः साधुरिति दोगः यदा यस्मिन्काले पूर्वी आप प्रप्ने प्राणातिपाता ससदेय तस्य स्था मस्य एकाक्येव गुरुप्रत्यया प्रतिक्रामति मध्यमानजिन बराणामिति गाथार्थः । भाव० ४ श्र० । जीत० । कल्प० । वृ० । प्रय० । अथ प्रतिक्रमणद्वारमाढ सपाको धम्मो, मिस्त य पच्छिमस्मय जिणस्स | ममियाण जिलाएं, कारणजाए परिक्रमणं ॥ ३४७ || पटिकमया परिक्रमणः वजयकालं पविधाssवश्यक करणयुक्तो धर्मः पू. वैस्य पश्चिमस्य च निस्यायें भवति प्र मादबहुलत्वात् तत्वाच्च मध्यमानां तु जिनानां तीर्थे का रणजाते तथाविधे अपराधे उत्पन्ने सति प्रतिक्रमणं भवति, त सीसाधूनामत्वात् प्रमादरहितत्वाद 1 अथाऽस्यामेव पूर्वाद्धं व्याचष्टेगमागमणवियारे, सायं पाप्रो य पुरिमचरिमाणं । नियमेण परिक्रमणं, अतिरो होइ वा मा वा ॥ ३४० ॥ गमनागमनेषु चैत्य वन्दनाऽऽदि कार्येषु प्रतिश्रयासि तत्परता भूयः प्रत्यागमने (विचारे) परिसंप्र जाते पूर्वमा मामा भतुवा मा वा तथाषे नियमेतेषु प्रतिभाति। परः प्राऽऽद अतिमहोति निरस्य पडिक | भवति एवं चोदा !, तत्थ इमं होति पातं तु ॥ ३४९ ॥ श्रतिचारस्याऽस्वत्यजावे न तु निरर्थकं प्रतिक्रमणं भवति । सूरिराहक एवं प्रतिक्रमणस्य निरर्थक न भवति न घटते, किं तु सार्थकं प्रतिक्रमणम् । तत्र च सार्थकत्वे इदं ज्ञातमुदाहरनि सति दोसे हो गद्दो, जति दोस्रो एत्यि तो गदो होति । वितिपत्र इणात दोसे, हा गुणं दो व तदभावा ॥ ३५० ॥ दोसं दंतूण गुणं करोति गुणमेव दोसरहिते वि । ततिय तिमिच्छ्रकरस्स उ, रसायणं दंदिवसुतस्स | ३५१| जति दोसो तं बिंदति, असंतदोसम्मि णिज्जरं कुणइ । कुसल नितगिच्छिरसायण-मुत्रीयमिदं पडिकमणं । ३५२ | एगस्स रनो पुतो अब बल्लहो । तेण वि तयं अणायं किवि तहाविदं रसायणं करायो जेण मे पुलस्स कया रोगो न हो ति वेज्जा सहाविया मम पुनस्स तिमिच्छंकरेड । जेण निहो होइ । ते भांति करेमो । राया जण - कोरसाणि तम्ह ओ सहाणि । एगो भण-मम आस मेरिसं जर रोगो अस्थितो वसामेश, श्रह नस्थि तं चैव जीवंत मारे। विश्ओ भणइ-मम श्रसहं जर रोगो अस्थि तो उवसामे, अह नस्थितो न गुणं न दोसं करे | तओ जण जइ रोगो अस्थि तो वरूत्र जो०परिणाम पुग्यो य रोगो न पउम्मतः । पत्रमा यकिरन्ना तश्या वज्जेण किरिया कारिया एव ममं पि परिक मणं जक अइयर दोस्रो अस्थित तेलि बिसोहिं करोति । अढ नधि अइयारो तो चारित करे । श्रभिनव कम्मरीगस्स य श्रागमं निरंभ । श्रधाक्षरगमनिका - प्रथमवैद्यस्यपचेन सति दो रोगसंभवे माने अनरोग भ यति निषो नास्ति प्रत्युत। द्वितीयस्य तु वैद्य इति तद्भावेषाभावे Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६४ ) अभिधानराजेन्ः | पक्किमण तु करोति, दोषं करोति दोषरहितेऽपि गुणमेव वर्णाऽऽदि पुष्टयभिनव रोगाभावाऽश्मक करोति । ततस्तृतीय समाधिकरस्य तृतीयस्य वैद्यस्य रसायनं दमकसुन योग्यमिति कारितम् । एवं प्रतिक मणमपि यद्यवचारता दोषा भवन्ति ततस्तं विना, अथ नास्ति दोषः ततो दो महत कमेनिजेश क रोति परिसस्य तृतीयवैद्यन्य रसायनो पनयं प्रापित प्रतिक्रमणं मन्तव्यम् ग प्रतिक्रमद्वारम् । बृ० ६ उ० । (२) नियम पंचपने जाप कसायमिकमणे, जोगपकिमये, मिच्छसि नामिकमणे । इदं च विषयभेदात्पधेति । तत्राऽऽभवद्वाराणि प्राणातिपा मादीनिभ्यः प्रतिक्रमणं करणमित्यर्थः अवद्वारमतिक्रमणमसंयमप्रतिकमणमिनियम मिध्यात्व तिक्रमणं यदाभोगानगरमध्यागम तिरेवं कषायप्रतिक्रमणम् योगप्रतिक्रमणं तु यमनक यस्यापाराणामशो मनानां व्यावर्त्तनमित्यानद्वारादिप्रतिक मणमेव विवक्षितविशेषं भावप्रतिक्रमणमिति । श्राट च " मिच्नलाइ नगर न य गच्छावे नाजाणाइ । का भणियं नाव डेकम १ ॥ इति । विशेषविज्ञायां तूका एव चत्वारो जेदाः । यदाहपिकांसह जमे परिक्रमणं । कामायाण परिक्कर्मणं, जोगाण य अप्पसत्थाणं ॥ १ ॥ इति । स्था०५ बा० ३३० । (३) पातिक्रमणम छप परिकम पते तं जहा उधारक पासवपडिक्कमणे, इत्तरिए, आवकहिए, जं किंचिम सोमं तिर । (पिकिमत्यादि ) प्रतिकम 1 दलकणं मिथ्या दुष्कृतकरणमितिज्ञावः । तत्रोचारोत्सर्गे विधाय यदीयपत्रिका प्रतिक्रमणं तदुच्चारप्रतिक्रमणमेवं प्र श्रवणविषयमपीति । उक्तं च- "उच्चारं पासवर्णभूरिषु उपउती। भरत दरियाव परिक्रम॥१॥ बोसिर मत्तगेज्जर, न पडिक्कमई य मत्तगं जो उ । साहू परिवेश, नियमेण पडिक्कमे सो उ ॥ २ ॥ " इति । ( इत्तिरियत्ति ) । इत्वरं स्वकल्पकालिकं देवसिकरात्रिmissa (श्रावक हियति ) । यावत्कथिकं यावज्जीविकं महाव्रतभक्त परिक्षानाऽऽदिरूपं, प्रतिक्रमणत्वं चाऽस्य निवृत्तित्र कृणा योगादिति । किंथिमिति खेलघाणाधिन गोगानाभोगसह साकाराद्यरूपं परिशि सम्पतद्विषयं मिथ्येदमित्येवं प्रतिपत्तिपूर्वक मियादुष्कृतकरणं यत् किञ्चिन्मिथ्याप्रतिक्रमणमिति । उक्तं च" संजमजोगे अन्जु डियस्स जं किंचि तहयमायरियं । मिष्यंत पियामि का॥१॥ च्या० ६ ठा । तथा पडिक्कमपण य खेलं सिंघाणं वा अध्यकिले हापमज्जिचं तह य । सिरिय पडिक तंपि मारुं ॥१॥ इत्यादि । तथा - (सोमणंतिए ति ) स्वापनान्तिकं स्वपनस्य सुतिक्रियाया अन्तेऽवसाने भवं स्वापनान्तिकम् । सुप्तोत्थिता डियो प्रतिक्रामन्ति साधव इति । अथवा स्वप्नो निद्रावशे विकल्प स्तस्याऽन्तो विजागः स्वप्नान्तस्तत्र जवं स्वाप्तान्तिकम् । स्ववि शेत्रे दि प्रतिक्रमणं कुर्वन्ति साधवः । यशह- " गमनागमणबिहारे सुमरा नाथानसंवारे र यावहिया परिक्कमणं । १ । । यतः - श्राउलमानला सां "इत्यादि प्रतिकमणसूत्रम तथा पातादिष्वगत्या प्रतिक्रायोत्सर्गणप्रतिम मेवमुकम् -" पाविमुखाया असमे यमेगं तु अणूणं, ऊतासाणं भवेज्जाहि । १ ।। " स्था०६ ३० । (४) ना धर्म इत्यादि तत्प्रतिक्रमणं देवसिकाऽऽदिभेदेन निरूपयन्नाहपडिकमणं देसि रा-इथं च इत्तरिअमावकहियं च । पक्खि चाम्यासिभ संबद्धरि उत्तम अ ||२१|| प्रतिक्रमणं प्राकृनिरूपितशब्दार्थ देवसिकं दिवसनिर्वृतं रा त्रिकं रजनिनित्तम परं स्वल्पकालिकं देवसिका या वरकथिकं यायजीव बादल पाक्षिक पतिचार निर्वृत्तम् | देवसिकेनैव शोधिते सत्यात्मनि पाक्षिकाऽऽदिकि मम गृहसज गेहूं पदयपि सेोवि तह विपक्खसंधीए । सोहि सविसेसं, एवं हपि नाय एवं चातुर्मास किम् एतानि प्रति म्येव उत्तमार्थ व मकप्रत्ययाने प्रतिकमणे भवति निवृ तिचान्तरपेति गाथासमुदायार्थ॥ २९ ॥ ४० ॥ यावत्कथिकं प्रतिक्रमणम उचारे पासवणे, खेले सिंयाएर परिक्रमणं । जोगमणानोगे, सहसकारे परिकमणं ।। २४ ॥ उधारे पुरीषे प्रश्रवणे मूत्रे, खेले श्लेष्मणि, सिङ्घानके ना सोमणि सति सामान्येव प्रतिक्रमणं - वति ॥ २४ ॥ प्राच० ४ श्र० । भोगे आपण जो अचारो को पुणो तस्य । नाम अता, परिक्रमणमजाला इयरे ||२८|| प्रत्युपेचिताऽऽदिविधिविवेके तु न ददाति तथा आभोगे अनाभोगे सहसाकारे सति योऽतियारस्तस्य प्रतिक्रमणम्-"आनोगे जाणते-ण जो अध्यारो को पुणेो तस्म । जातम्मि उता, पडिकमणमजाण्या इयरे ॥ १८ ॥ अनाजोगः सहमकारों इत्थं लऋणो पुवं अपासिवं णं बुठं पादम्मि जं पुणो पासे न य तरह, नियते तु पायं सहसाकरणमेतं ।" तस्मि श्च सति प्रतिक्रमणम् । अयं गाथाऽक्करार्थः इदं पुनः प्राकरणिकम्भतं पाच पोरे बड़ीकरयंवरमेव व नियमेण परिक्कमे साहू । हत्थलया आगंतु मुजि पंथे या तो नदीत 1 प मां ॥१॥ श्राष० ४ ० Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६५ ) अभिधानराजेन्द्रः । परिक्रमा प्रतिमुच्यते तत्पुनरोचनः पञ्चा भवतीत्याद निर्देशिका: मिच्छत्तपडिकमणं, तक्षेत्र अस्संजमे परिक्कमणं । कसायाण परिकरणं, मोगाण व अप्पसत्याणं ॥ ३२॥ संसारपरिकमांच हो अणुपुब्बी । भावपडिकमणं पुण, तिविद्धं तिविहे अन्नं ॥ ३३ ॥ मिथ्यात्वमोहनीय कर्मपुत्रलाविश्य विशेषादात्मपरिणामो मि. व्यास्वं तस्य प्रतिक्रमणं तत्प्रतिक्रान्तव्यं वर्तते यदा प्रो. गागागसखाकरावं गतस्तस्य प्रतिक्रान्तम्यमित्य थे। तथैवायमेयमविषये प्रतिक्रमणम्यः प्रा णातिपाताऽऽदिणः प्रतिक्रान्तभ्यो वर्तते, कषायाणां प्राकृनिरू पिशब्दार्थानां क्रोधादीनां प्रतिक्रमणं, कषायाः प्रतिक्रान्तव्याः, योगानां च मनोवाक्कायानामप्रशस्तानामशोभनानां प्रति• क्रमणम्, तेच प्रतिक्रान्तया इति गाथार्थः ॥ ३२ ॥ संसरणं संसारकाम रभवानुभूति णास्तस्य प्रतिक्रमणं चतुर्विधं चतुयकारं नानुपू परिपाठ भ निरा देव महादानी सामन्तस्य प्रतिकाव्यम् । निरामय विशेष शुभमराम तुभ्यो मायाऽऽचनास्वनाऽऽदिल कणेभ्यो निराशं से नैवापवर्गाभिलाषि सान प्रतिकान्तकमणं पुण, तिथि तिथिडणं नेयव्वं । " तदेतदनन्तरोदितं भावप्रतिक्रमणं पुनस्त्रिविधं त्रिवि पुनःशब्दस्य पत "मिसादिन गच्छति न गच्छति जाति 1 काहिं तं भणियं भावपमिकमणं ॥ १ ॥ " मनसा न नति यथा शोन शाक्यादिधर्म, वाचा सेन तैः स नियोजनं करोति त था न गच्छावेति मनसा न चिन्तयति कथमेष तच्चनिकाssदिः स्यात्, वाचा न प्रवर्तयति यथा तच्च निकाऽऽदिन च काये• नन तकनिकाऽऽद्दीनामपयति । णाणुजाणाति कश्चित्तच्चनि• कादिति न तद् मनखाऽनुमोदयति तुच्छत्यास्ते, वाचा न सुष्ठुारब्धं कृतं चेति भणति, कायेन न नखबोटिकाऽऽदि प्रय छति। पश्मसंयमादिष्वपि विभाषा कार्येति गायार्थः ॥ ३३॥ इत्थं विषादिवरं भावप्रतिम वसूला कषायाः । तथा चोक्तम्- " कोहो य माणो य अणिग्गिया, माया य लोभो य पवट्टमाणा । चसारि एए कलिणा कलाया, सिं संता ॥तिक्रमण व उदा दरणमुच्यते- "केई दो संजया संगार काऊण देवलोगं गया इश्रय गम्मिनयरे एगस्ल सेट्ठिस्ल भारिया पुत्तनिमित्तं नागदेवा उपाय दिया। सामणियं होत ते पुतो देवलो यो ति । तेलिमेगे चश्ता तीए पुणे जाओ। "नागदतो" भि सेनामारिकाविसारी जाति परिचियं, तेणं गंधव्वनागदत्तो भन्नछ । तम्रो सो मित्तजणपरिनियति देखो व बहुपयो ति सोना देवी अनि जाड़े सो जेण से जोहरसारणं स तारकस्यो गण तर उजागि दूरलामंचीय वयति, मित्तेहि तस्स कहियं पसलभखेनागो पडिक्कमगा ति गतो तस्स मूत्रं पुच्छर- किमेत्थ ? देवो भाइ- सप्पो । गंधनागदतो प्रणमामो तुमे मम पनि पि देवो तपपरिम, खइओ विन मरई । धनागदतो श्रमरिसिश्रो भणः श्रहं पिरमामि तत्र संतिपदि सहि । दे वो जणति-मरसि जर खज्जसि, जाडे नियंत्रेण लग्गो ताढ़े मंडलं हि देवेण चदिसि पि कयाचिया पा से सम्बं मिलणं परियणं मेले ऊणं तस्स समक्खं इमं भणइ । गंधब्वनागदतो, इच्छा सप्पे खेसिनं इदयं । सोइ कहिं विखज्जड, इत्य हु दोसो न कायन्त्रो ॥ ३३५॥ गन्धर्वनगर इति नाम ससा की डितुमत्र यं यदि कथनस्विकारेण खाद्यते भ क्ष्यते ( एत्थ हु ) श्रस्मिवृत्तान्ते दोषो न कर्त्तव्यो मम भवदूभिरिति गाथार्थः ॥ ३४ ॥ यथा चतसृष्वपि विकुपितानां सर्पाणां माहात्म्यम साथकथयत् तथा प्रतिपादयन्नादतरुणदिवायरनयो चिज्जुपाचंचलग्गजीहालो । घोरमहाविस दाढो न-का इच पज्जनिश्ररोसो ||३५|| तदबाकर जनबोदिताऽऽदित्य पनयने लोचने यस्य स तरुणदिवाकरनयनो, रक्तात इत्यर्थः विद्युलतेव चञ्चसा जि. हायस्य स विद्युत चोरा रौद्रा महाविषाः प्रधानविषयुक्ता दंष्ट्रा भास्यो यस्य स घोरमाविषदंष्ट्रः। उ क्लेत्र निर्गतज्वालेव प्रज्वलितो रोषो यस्य स तथोच्यते इति गाथार्थः ॥ ३५ ॥ को जेण मस्सो कथमकथं वा न जाणइ बहुं पि । अहिस्समाणमच्चुं, कह गिज्जसि तं महानागं ।। ३६ ।। (रुको) दष्टो येन सर्वेण मनुष्यः कृतं किश्चिदकृतं वा न जानी• ते स बह्नपि श्रयमानोऽयं करण्डस्थो मृत्युर्वर्तते मृत्युहेतुस्वान्मृत्युः यतश्चैवमतो कथं गृहीष्यसि त्वं महानागं प्रधानल पमिति गायार्थः ॥ ३६ ॥ श्रयं च क्रोधसर्पः पुरुषेषु योजना स्वबुद्ध्या कार्या, क्रोधस मतिस्तदिवाकर चतीत्यादिमेरितुंगसरसो, अफणो जमलजुअलजीहालो । दाहिणपासम्म विश्र, माणे विट्टई नागो ||३७|| मेरे गिरिस इथे फणा यस्याउसी मफण, शालिक पलभाभ्यामि ततः मृत्युः मृत्युवाद 'ला' बादाने यात आददतीत मा युग्मा जिल्ला यस्य स यमलयुग्मजिह्नः । कररामकन्यासमधिकस्थितः दक्षिणदिपासस्तु दाक्षिय मानेन हेतुना उपरोधमान वर्तते नागः सर्प इति गाथार्थः ॥ ३७ ॥ कोण मसोथो न गणेइ देवरायमपि । तं मेरुपपनिर्भ कह किसिसे महानागं ||३८|| (डक्को) इष्टः येन सर्पेण मनुष्यः स्तब्धः सन्न गणयति देवराजममितिमिन्यंभूतं मेरुपर्वतमय कथं प्रष्यसि त्वं महानागं प्रधानसमिति गाथार्थः ॥ ३ ॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६६) पडिक्कम अनिधानराजेन्डः। पडिकमगा अयं च मानसर्पः एवमभिधाय ते मुक्ताःसमनिअवेद्वहनगई, सत्यिअलंकाफकिअपडागा। एएहिँ अहं खो, चनहि विश्रामीविसेहि घोरेहिं । मायामई म नागी, निअकिवचणाकुसना ॥३॥ विसनिग्घायणहे, चरामि विविहं तवोकम्मं ।। ४६।। सललिता मृदी बेल्लहना स्फीता गतिर्यस्याः सा सललित सो खो पमित्रोमो य,पच्छा देवो भणति-फिह जातं न बेखहलगतिः स्वस्तिकलाग्छनेनाङ्किता फणा पताका यस्याः गति वारिज्जतो, पुवनाणिया य तेण मित्ता अगद छुहंति, मा. सा स्वस्तिकलाञ्चनाङ्कितफणापताकेति वक्तव्य गाथानङ्गभ सहाणि यन किंचि गुणं करेति। पन्ग तस्स सयणो पापसु प. यादन्यथा पाठः । मायाऽऽत्मिका नागी निकृतिकपटवञ्चनाकु मित्रो जीवावेहि ति। देवो भणति एवं चेव अहं पि खायो,ज. शला निकृतिरान्तरो विकारः, कपटं वेषपरावर्तिताऽऽदि बाह्यः, परिसं चरियमणुचर तो जीवति, जति णाणुपति तो उ. भाज्यां या वञ्चना तस्यां कुशला निपुणेति गाथार्थः ॥ ३६॥ जीवाविप्रो पुणो विमरति, तंत्र चरियं गाहादि कदेति । तं चमि वाग्गाही, अणोसहित्रलोभ अपरिहत्थो य। पभिरह (खतितो त्ति) भक्षितः चतुर्भिराशीविषैर्भुजगेघ/सायचिरसंचिअविस्ण,गहणम्मिवणे वसइ नाणी ॥४०॥ रै बैर्षिषनिर्घातहेतुं विषनिघांतननिमित्तं चरामि भासेवयाइयमेवं नृता नागी रोका, त्वं च व्यालग्राही सर्पग्रहणशीलः, मि विविध विचित्रं चतुर्थ षष्ठा ऽष्टमादिभेदं तपःकर्म तफअनौषधिवनश्च औषधिवनरहितः, अपरिहतश्चादत्तश्च, सा च क्रियामिति गाथार्थः ॥ ४६॥ चिरसश्चितविषा गहने सङ्कले वने कार्यजाले वसति ना- सेवामि सेलकाणण-सुमाणमुन्नघररुक्खमलाई। गीति गाथार्थः ॥ ४०॥ पावाहीणा तेसिं, खणमत्रि न उवेमि वीसनं ॥ १७॥ होही ते विणिवाओ, तीसे दातरं नवगयस्स । अच्चाहारो न सहइ, अनिकेण विसया उइज्जति । अप्पासहिमंतबलो,न हु अप्पाणं चिगिचिहिसि ॥४॥ जायामायाहारो, तं पि पगामं न इच्छामि ॥ ४० ॥ भवीप्यति ते विनिपातः तस्या दंष्ट्रान्तरमुपागतस्य प्राप्तस्य ओसनकयाहारो, अहवा विगविवज्जिाहारी। अस्पं स्तोकमोषधिमन्त्रबलं यस्य सोऽपौषधिमन्त्रयः यत. विवमतो नैवाऽऽत्मानं चिकित्सिध्यसीति गाथार्थः॥४१॥ नं किंचि कयाहारो, जबउजिअ थोत्रमाहारो ॥ ४६ ।। इयं च मायानागी योवाहारो यो, जणि ओ अ जो होइ थोवनिहो । उत्थरमाणे सव्यं, महानो पुग्नमेहनिग्योसो। थोबोबहिनवगरणो, तस्स य देवा वि पणमंति ॥५०॥ उत्तरपासम्मि विप्रो, लोभेण विभई नागो ॥१२॥ सिधे नमंमिळणं, संसारत्था य जे महाविज्जा । (उत्थरमाणे त्ति) अभिभवन सर्व वस्तु,महानालयो यस्येतिम बुच्छामि दंडकिरिश्र, सन्यविसनिवाराणि विज ॥५१॥ हालयः,सर्वत्रानिवारितत्वात् पूर्णः पुष्कलावर्तमेघस्येव निधोपों मां पाणइवायं, पच्चक्खाइ त्ति अझिअवयणं च । यस्य स तथोच्यते । करएडकन्यासमधिकृत्याहं-उत्तरपा सचमदिनादाणं, अबंजपरिग्यहं साहा ।। ५॥ ध्वस्थितः उत्तरदिग्न्यासस्तु सर्वोत्तरो खोज इति ख्यापनार्थः। अत एवाह-लोभेन हेतुभूतेन (बियट्टति ति) व्यावर्तते सेवामि भजामि शैलकाननश्मशानशून्यगृहवृक्तमूलानि, शै. रुष्यति वा नागः सप इति गाथार्थः ॥ ४॥ माः पर्वताः, काननानि दूरवर्तिवनानि, शैलाश्च का ननानि चेत्यादिद्वन्द्वः क्रियते । पापाहीनो पापसाणां दहो जेण मास्मो, महसायरइवातिमुप्पूरं । तेषां क्षणमपि नोपैमि न यामि विश्रम्भं विश्वासमिति सम्वविससमुदयं खलु, कह गेज्कसि तं महानागं ॥४॥ गाथाः ॥४७॥ अत्याहारः प्रभूताऽऽदारः न सहति प्रा. हो येन मनुष्यो भवति महासागर श्व स्वयंभूरमण व कृतशल्या न सहते न कमते, मम स्निग्धमल्पं च जोजनं भदुप्पूरस्तमित्यनूतं सर्वविषसमुदयं सर्वव्यसनकराजपथं क. विष्यति इत्येतदपि नास्ति, यत अतिस्निग्धेन मृलणप्रचथं ग्रहीष्यसि त्वं महानाग प्रधानसर्पमिति गाथार्थः ॥ ४३ ॥ रेण विषयाः शब्दाऽऽदय उदीयन्ते उनेकावस्थां नीयन्त,ततश्च भयं च लोभसर्पः यात्रामात्राऽऽहारः यावता ययात्रा सर्पते तावन्तं भक्कयामि एए ते पावाऽऽही, चत्तारि वि कोहमाणमपालोहा । तमपि, न प्रकामं पुनः पुनर्नेच्छामि इति गाथार्थः ॥ ४॥ उत्सन्नं प्रायशः अकृताहारस्तिष्ठामीति क्रिया । अथवाजेहि सया संतत्तं, जरियमिव जगं कलकश ॥४॥ विकृतिभिर्वर्जित आहारो यस्य मम सोऽहं विकृतिवर्जिएते ते पापा अहयः पापसांश्चत्वारोऽपि क्रोधमानमायालो. ताहारस यत्किश्चिच्छोभनम शोभनं वौदनाऽऽपि कृतमाहारो जाः, यैः सदा संतप्तं सत् ज्वरितमिब जगद तुवन कलकला- येन मया सोऽहं तथाविधः ।(उवाजिय थोवमाहारो ति) यते नवजलधौ कथतीति गाथार्थः ॥४४॥ उपयज्य स्तोकः स्वल्पाहारो यस्य मम सोऽहम् उपयएएहिं जो न खजद, चाहिं पासीविसेहिं पावहिं। ज्य स्तोकाहार इति गाथार्थः ॥ ४५ ॥ एवं क्रियायुक्तस्य अवसस्स नरयपमणं, नत्थि से प्रारंबणं किंचि ॥४॥ क्रियान्तरयोगाश्च गुणानुपदर्शयति-स्तोकाऽऽहारः स्तो कभणितश्च यो जति स्तोकनिषश्च स्तोकोपध्युपकरणः पजिर्य एव वद्यसे भक्ष्यते चतुभिराशीविषैः तुज.पापैरशो- नपधिरेवोपकरणं तस्य चेत्यंभूतस्य देवा अपि प्रणमन्तीति भनस्तस्य वशस्य सतो नरकपतनं भवति, नास्ति न विद्यते गाथार्थः ॥ ५० ॥ एवं जद अणुपालेति तो उठेति. (से) तस्य भासम्बनं किश्चित् येन न पतन्तीति गाथाः ॥४५॥ जणति परं, पवं पि जीवंतो पेउछामो पुवाभिमुहो विप्रो Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६७ ) अभिधानराजन्यः | पडिक्कमण किरियं पोजिउ कामो देवो भणति सिके गाहा । सिद्धाम्मुक्तान्नमस्कृत्य संसारस्थाश्च ये महावैद्या केवलित्रतु पूर्ववत तां नमस्कृत्य द सर्वविषनिवारण विद्यामिति गाथार्थः ॥ ५१ ॥ सर्व संपूर्ण प्राणातिपातं प्रत्यास्थाति प्रत्याचष्टे पप महात्मेति अमृतवचनं च सर्वे चाइताऽऽदानम्, अब्रह्मपरिग्रहं च प्रत्यास स्वाहेति गाथार्थः ॥ ५२ ॥ एवं मणिश्रो उडिओ सम्माविसी से कडियन सद्दति पापिडि पुणां विच देणावि पुणे व पहातो पि श्री, तश्याए वेलाए देवो नेच्छति, पासाइओ उठविश्र, पडि स्सुयं भम्मापियरं पुल्कित्ता तेण समं पदाविश्र, एस्मि वणसंगे पुम्बभवं कदेति, संबुको पत्तेयवुद्धो जाओ । देवो वि डिगओ । एवं सो ते कसाए सरीरकरंडप कोण को वि संचरितं न देति एवं सो औदयियस्ल भावस्ल प्रकरणयाप अडियो पनि सामरिया सिद्ध नाथपरिकमं । (५) प्रतिक्रमणनिमित्तम् 3 श्राह किं निमित्तं पुणे पुणो परिकमिज्जद, जदा मकिमाणं तदा कीस न कज्जे पडिकमिज ?। श्रइरिय श्राह एत्थ वेजेण दितो । एगस्स रनो पुतो श्रतीव पित्रो, तेण चिंतियं-माल रोगो भविन्सति, किरियं करावेंमि । तेण वेज्जा सदाविया, मम पुत्तस्स तिमिच्छ्रं करेह, जेण निरोगो होइ । ते भांति करेमो । राया भणति केरिसा तुज्ऊ जोगा। एगो भणति - जइ रोगो अ त्थिता वसामेति, अह नत्थि तं चैव जीवतं मारेति । वितिभ भणति ज६ रोगो अस्थि वसामेति, अन्नदान गुणं न दोसं क रेति । ततिश्रो भगति जइ रोगो अस्थि उबसामेति श्रहनस्थि तो वन रूजवणलावन्नन्ताए परिणमति । वितिको विही अणागयपरिताणे भाणियो । ततिषण रन्ना कारिया किरिया परिक्रमणं जति दोसा बत्थिता विसोहिअंति जनस्थि तो सोहि रित्तस्म सुद्धायरिया भवद्द । उक्तं संप्रस ॐ प्रतिक्रमणम् । अत्रान्तरे अध्ययनन्दार्थो निरूपणीयः । स चान्यत्र व्यक्त्रेण प्ररूपितत्वान्नेहाधिक्रियते । गतो नामनिपनो निक्षेपः। साम्प्रतं सूत्रालापक निष्पत्रास्य निक्षेपस्याज्व सरः, स च सुत्रे सति भवति, सूत्रं च सूत्रानुगम इत्यादिप्रपञ्च बक्तव्यः । आव० ४ श्र० । ध० । ध० र० । (६) प्रतिक्रमणविधिषैवं प्रतिक्रमणदेगी उतासाघुनायकेणापि अनुयोगद्वार किरणे " इनिपदस्य करणानि तत्साधकतमानि देहरजोहरणमुखपत्रिकादीनि यथार योग नियुकानि येन स तिकरः सम्य थाऽवस्थानन्यस्तापकरण इत्यर्थ इति वृत्तिः । तथा जो मुहपडलेला दणं देत गुरु नस" इतिहास मिसीडी गिर" इति विवाहका "पांगता पोतियाविकीप करेई पोलदाइ " || १ || इति च व्यवहार न्यूर्णिरित्येवमादिस्थप्रामाण्यात मुखवस्त्रिकार जोहरणाऽऽदियुकेन द्विभ्यं विचिनाप्रमाने साहित मनुष्ठानमत्यन्तं दृढं जायतइति द्वे च नमः परिक्कमण स्कारपूर्व स्थापनाऽध्यायें स्थापयित्वा पञ्चाऽऽचारविशुस्व प्रतिक्रमणं विधेयम् । अत्र ऽऽह कश्चित् (ध०) तथा तत्रैव यद• परमुकम् " बसिरं निगुतं पवेि इत्यादि । तदपि न युक्तं भवेद् । यतश्चतुः शीर्षत्वं वन्दनात सति भवन साचाभावे स्थापना चार्यस्याप्रयुपगमे च एवं शिकनिष्कमपि दूरापास्ते एव अवधिभूतगुरोः स्थापनाऽऽचार्यस्य वाऽनावात् । न च हृदयमध्य एव गुरुरस्तीति वाच्यं तथा सति प्रवे शनिर्गमयोरविषयत्वादिति । तस्मात् " अक्खे वराडप वा, कठे पुत्थे अ चित्तकम् । सब्जावमसम्भावं, गुरुडवणा इ सराऽऽवकहूं ||२||" इतिवचनप्रमाणाश्च साधुभावकाणां स्थाप नाचार्य स्थापनं समानमेवेति व्यवस्थितम् । पञ्चाऽऽचाराश्च झा नदर्शनचारित्रतपोवीर्याssवारा इति । तत्र सामायिकेन चारि• शुद्धिक्रियते १ तुशितिस्तवेन दर्शनाचार स्य २, वन्दनकेन ज्ञानाऽऽद्याचाराणाम् ३, प्रतिक्रमणेन तेषामतिवापनयनरूपण प्रतिक्रममाशुद्धानां तदतिवाराण कायोत्सर्गेण ५ नपत्राचारस्य प्रत्याख्यानेन ६, वीर्याssवार"बारिश विसोही, कीर सामाश्रण इह किरयं । " इत्यादि गाथाः प्रसिद्धाः। तत्र च कारक चैत्यन्दनाधिकारो गमवचनप्रामाण्यात् 9 जर गमनागमणाई, आसोदअ निंदिऊण गरहिता । किमिच्छाकर मिश्र प्रणिता ॥ १ ॥ सकाउ गुरुवसिम रिता थे। जं श्रयहिश्रं विश्वं दणार हिज उवउत्तो ॥ २ ॥ पति करें जा नावश्चणं तु कुजा, तह र विमलचित्तो ॥ ३ ॥ " इत्यादियुध पूर्वमीयधिक प्रतिकामति 1 तां मनसोपयोगं दस्या श्रीन् वारान् पदन्यासभूमिः प्रमार्जनीया, एवं च तां प्रतिक्रम्य साधुः कृतसामायिकश्च श्रावक श्र दौ श्रीगुरुवन्दनं विधत्ते, सर्वमप्यनुष्ठानं श्रीदेवगुरुव न्दनविनय बहुमानाऽऽदि भक्तिपूर्वकं सफलं जवतीति । आद च "विणयाही श्रा विजा, हिंति फलं शह परे श्र लोगस्मि । न फलति विजयीणा, वस्त्राणि व तोयहीणाणि ॥ १ ॥ प्रसीदजिण कम्मा सायरनमुकारेस विज्ञाता ॥ २ ॥ " य इति हेतो:" पदम गारे बंदे, जायज १ ज २ । 3 जियो त्यति नामजिये २-४ ।। १ ।। तिम्रणवत्र जिणे पुण, पंचमए ५ विहरमा जिण बठे ६ | सत्तमए सुनाएंं ७ अहम सवसिद्धपुई ८ ॥ २ ॥ तित्थादि वीरपुर, नवमे ए इसमे श्र उज्जयंत थुई १० । अट्ठावया इदास ११. सुदिठिसुरलमरणा चरमे १२ ॥ ३ ॥ नमु १ जे प्रश्न २ अरि ३, लोग ४ सव्व ५ पुक्ख ६ तम ७सिक ८ जो देवा । उखि १० चसा ११ बेया वच्च १२ अहिगारपढमपया ॥ ४ ॥ " इति चैत्यचन्दनजायगा थोकैर्द्वादशभिरधिकारैः पूर्वोक्त Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६८ ) श्रनिधानराजेन्द्रः | पडिकमा विधिना देवादिवाचनुरादिकमाश्रमः श्रीगुरुन व छते । लोकेऽपि हि राज्ञः प्रधानाऽऽदीनां च बहुमानाऽऽदिना स्त्रसमीहितकार्यसिद्धिर्भवति । अत्र राजस्थानीयाः श्रीतीर्थकराः, प्रधानाऽऽदिस्थानीया आचार्याऽऽदय इति । श्राकस्तु तदनु "समयको यां" इति मति बरियारादि विधिमिनिमरिशसाधकानू सम्यक प्रणिपत्याचारजारभरित वायन काय तशिराः सकलातिचारवी जम्-"सवस्स वि देवसि' इत्यादि सर्वमविश्वा मिथ्यादुष्कृतं दते । इदं च समतिक्रमणी जकभूतं ज्ञेयम् । अन्यत्राऽपि च ग्रन्थाऽऽदौ आदी बीजस्य द शनात् । तन बत्थाय ज्ञानाऽऽदिषु चारित्रं गरिष्ठं, तस्य मुकेरनन्तरकारणत्वात् । ज्ञानाऽऽदेस्तु परम्पराकारणत्वात् । (०) इति तोराही परिवार" करोमि मंत्र सामाइ "इत्यादिपषा जायनरूपमेन माणणं कायोत्सर्गे कुर्यात् का पोरस साधुःप्रातस्त्यतिलेखनायाः प्रभृति दिवसात पति यतः पापड-तरमुदतप मुहकजे । जाब इमो तस्सग्गो, अश्श्रार ताव चिनेजा ॥१॥" इति मगसा संचारच "सवणासने" इत्यादिगा मनः, (६०) एतदतिचारचिन्तनं मनसा संकलनं च श्रीगुरु मम कमालाच नार्थम्, अन्यथा तत्वस्यग् न स्यात् । लोकेsपि हि राजादीनां निपि विज्ञयं मनसा संप्रधार्य, नमस्कारपूर्वका जानुपश्या काग या पोरस पारवा स्वभागपिडिकादि प्रमृज्योपविश्य च श्रीगुरु बन्दनका मार्च मुखत्रिक कार्य द्वापि प्रत्येकं पञ्च प्रति शिष्य पूर्वोपचिनका 23 इत्या रधारितातीचानार्थ यापूर्व कायोत्सर्गे स्वमनोऽवधारितान् । देवसिकात चारान् -" इकारेण संसि भगवन्! देवसि बालोपनि दिसूत्रं चारित्र विशुद्धिहेतुकमुच्चरन् श्रीगुरुसमक्षमालोचयेत् । एवं देवसिकातीचाराऽऽलोचनानन्तरं मनोवचनकाय सकना तयार संपादकम् "सय विदेसि" इत्यादिपवेद"इ याकारेण संसिद भगवन्" इत्यनेनानन्तराऽऽजीचा रायश्वितं च मात गुरवश्च "पक्किम" इति प्रति मरूपं सविधायश्विते द्वितीयं प्रायश्वितमुपदिशन्तिमिथ्यानुष्कृताऽऽदिरूपम्। (घ) प्रथमप्रायश्विस वालोमेष राशि इन "पडिक्कम द्" इति जात्रन्ते इत्युक्तं दिनचर्यायां, तथा च तद्वाधा-"गं. भीरमगुणनिदिणो, मिनापदिक महति न जंपर जणंति तं पर गुरू रुड्डा || १ ||" रुष्टा इव जणतत्यर्थः । ततो विधिनोपविश्य समजावस्थितेन सम्यगुपयु मनलाइनवस्याप्रसङ्गभीवेन पदे पदे संवेगमापनाने देशमशका देगा आज सर्वे पञ्चपरमेष्ठिनमस्कार पूर्व कर्मकर्तव्यमित्यादी पयते समभावस्थेच प्रतिक्रया सामायिकस जमते तद देवकिनीचाराणामो घाऽऽसोचनार्थम् -" इच्छामे पडिमे जो मे देवसियो अहमारो ओ इत्यादि भयते तदनुपपते यात्र धम्पस्स " इति सास्तु सामायिकानन्तरं मा 33 पडिकमण " बत्तारि मंग" इत्यादि भाग्गुति, तत प्रोघतोऽत चाराssनार्थमपदिकादि चनार्थे तु तदनुपपथिकों तक शेषाशेपाचार विक्रमार्थादव चेयं निन्ना रीतिः । प्रतिक्रमणसूत्रं च तथा भणनीयं यथा स्वस्य पवनः शृएवतां च परेषां संवेगभराद्रोमाञ्चो भवति । दुनिया" भवति तदा सुचं न केवल सेसि तद व अनसिं जद नयजलन्नवेणं, पप पर हुंति मंत्रो ॥ १ ॥ इति सकजाति वारनिवृत्याद्वारे लघुभूत उनिति पर्वतोभावत्या अम्भुडियोमि इत्यादिसूत्रं प्रान्तं यावत्पठति । ततः प्रतिक्रान्ताती बारा श्रीगुरुषु स्वकृतापराधक्रमणार्थे वन्दनकं ददाति प्रतिक्रमणे हि सामान्यतत्वारि बन्दनकानि द्विकरूपाणि स्युः, तत्र प्र थममालोचनवन्दनकम १, द्वितीयं कमणकवन्दनकम् २, तृती यमाचाऽस्मिकपूर्वमापणाय ३ प्र त्याख्यानवन्दनकम् ४, इति । ततो गुरून् कमयति पूर्वोक्तवि घिना, तत्र पञ्चकमध्ये तु ज्येष्ठमेवैकम् श्राचीणीभिप्रायेणेदमुक्तम्, अन्यथा तु गुरुमादिं कृत्वा ज्येष्ठानुक्रमेण सर्वान् कमयेत्, पञ्चप्रभृतिषु सत्सु त्रीन् गुरुप्रभृतीन् कश्येत् इदं द दीनामः अपनायेत्यर्थ त्युकं प्रवचनोद्वारवृसी रात का योत्सर्ग करणार्थम् - " परिक्रमणे १ सज्जार २, काउसगावराह ३-४ पाहुण ५ " इत्यादिवचनाहम्हनकदानपूर्वकं भूमि प्रमृज्य जे मे के कसाया " इत्याद्यक्षरसूत्रितं कषायत्रतुपातकमणमनु पाप राइहिर्निःसृत्य " 1 " आयरिअनऊ ए 33 इत्यादि सुत्रं पठति । तत्राऽऽद्य कार्यविधीयते चारित्रं पारि ण शुद्धं जयति तद्भाचे तस्याऽसारत्वात् । ( ध० ) ततश्च चारित्रप्रकर्षते कषायोपशमाय च " श्रयरियउबज्जा"दायं पतित्वा चारित्राचाराि वचनात् प्रतिमा शुद्धिनि मिथं कायोरस] विकी "करे मंते ! सामा"३कायोत्सर्गे चिकीर्षुः स्वादिषपछिको कति 13 सबै मनुष्ठानं समापरिया स्थितस्य सफाम इव प्रतिक्रमणस्याऽऽदौ मध्येऽवसाने च पुनः पुनस्तत्स्मृत्यर्थमुचार्यमाणं गुणवृद्धये एव । श्राह च 'आइमकाउलो, पक्किमंतो का सामइअं । तो किं कवी, तमं च पुणो वि लग्गे ॥ १ ॥ समभावमि विअप्पा, वस्सां करित्र तो अ परिक्कम । एमेव य समभावे विप्रस्स तइअं पि वस्लग्गे ॥ २ ॥ सरकार-ससुपालु न त पुणता ॥३॥" निम्नानु वारियरचा विपति इति विस्तव कायोत्सर्गे, सम्यग्दर्शनस्य सम्यगृज्ञानहेतुत्वाज्ज्ञानादर्शनं ग रिष्ठन, इति ज्ञानाचारात्पूर्वे दर्शनाचारविशुद्धय भरतत्रत्वन्नत्वेनासन्नोपकारित्वाच्छ्रीऋपनादिस्तुतिरूपं चतुर्विंशतिस्तत्र. म्, "सत्र अरिहंत बेइयां" इत्यादि सूत्रं च पठित्वा तद मेवाशनिनिरूपं करोति च तपासामायादिपूर्वपचार " 33 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनिकमण [विशुपये "पुक्खर परदीय" इत्यादि सूत्रम् "सुख भागबम करेमि काउस इत्यादि पतितुति स्तवचिन्तनरूपं कायोत्सर्गे कुर्यात् । पारयित्वा च तं ज्ञानद शनचारित्राचारनिरतिचारसमाचरणफलभूतानां सिद्धानां "सिद्धार्थइति स्वयं पतितुतिस्तव नितीपश्चारिमा बारविहेतुः कायोत्सर्गः एक पारिवार दिवसात यात्रपनि म तिर (२६) अभिधानजेन्द्रः । 39 | को इतिवचनात्पूर्वेकयुक्त्या चारित्राचार हा मायायारेश्यो शिदाचित संनायते ? नातनयोः तृतीयचतुर्थयोर्शना बारामा चार विशुद्धिहेतुकयोरिति स्थितम् । अथ सिद्धस्तवपठनानन्तरमासनोपकाबिते तो मानो यन्तार श्री ततोऽपि चाप्रापदनन्दीश्वरादिबहुत नमस्कारपाम्" बार अस" इत्यादिगाथां पठति पारि द्यावाणां विधाय सकतवमनुष्ठानस्य श्रुतहेतुकल्या समृद्धयम् अदेवयाद करेमि काउ स्थ" इत्यादि निचितायाः स्मर्तुः कर्म कहेतुत्वेन * श्रुतदेवतायाः कायोत्सर्ग कुर्यात्तत्र च नमस्कारं चिन्तयति । देवताद्याराधनस्य स्वल्पयन साध्यत्वेनाष्टो च्वासमान वा कायोत्सर्ग इत्यादि हेतुः संनाय्यः पारवत्या च तं तस्याः स्तुतिपतिदेया भगवई" इत्यादि मन्येन दीप वाति ताया अपि स्मृति तस्याः कायोत्सर्गानन्तरं तस्या एव स्तुति भणति । यच्च प्रत्यहं क्षेत्रबतायाः स्मरणं, त तृतीये वतेऽभीक्ष्णाव ग्रह याचना रूपभावनायाः सत्यापनार्थ संज्ञाध्यते । ततः पञ्चमङ्गलभणनपूर्व संदंशकं प्रविशतितमुख कार्य प्रतिविषय श्रीगु चन्दन दयावा" इति भणित्वा जानुभ्यां स्थित्वा कृतमसति पूर्वकं स्तुतित्रयं पति, पूर्वोक्तचन्दनकदानं श्रीगुइया कृतावश्यक विनेयस्य या युध्यामा प्रतिकमिति विपनार्थ लोकेऽपि राजादीनामादेशं विधाय प्रयातेषामादेश करणं निगद्यते, एवमिहापि ज्ञेयम् । एतदर्धश्चायम् - इच्छाम अ नित्रषामः, अनुशास्ति गुत्रज्ञां, प्रतिक्रमणं कार्यमित्येवं रूरांतां च वयं कृतवन्तः स्वाभिलाघपूर्वकं न तु राजवेष्ट्यादिना । इत्थं संभावना विधानं च " इच्छामो असा " इति जनानन्तरं श्री गुरूणामादेशस्याश्रवणात् । एवं च प्रतिक्रमणं संपूर्ण जातम् । तत्पूर्वीभवनाथ संपन्ननिभैर प्रमोदप्रसराकुलयमान स्वरेण वर्धमानाक साधनायकत्वात् श्रीमानस्थ स्तुति नमोऽस्तु मानायइत्यादिरूपं श्रीगुरुभिरेक प्रतिक्रमणे तु श्री गुरुपर्वशेषमान सुचनार्थे तिसृष्वपि स्तुतिषु नणितासु सतीषु सर्वे साधवः युगपत्पति" बालमन्दमुखीणां नृणां चारित्र काणाम अनुग्रहार्थे त्याच संस्कृतेऽनधिकारित्वसुचनात् "1 कृतः॥१॥ श्राविका नमोऽईदिनन्तु मानाय पादिस्थाने संसाराचानलेत्यादि च पठन्ति । प्रति आवश्यकता केन विरचिताविश्यावश्यकेडी पकाया मम । पनिकमण मणे तु विशालनेत्यादिकेची पू अधिकारिवाद नमोस्तु वर्षमात्यादीनां पूवेन पतीत्याय श्रीगुरुनाथस प्रतिस्तुतिप्रान्तम्- " नमो खमासमणाणं इति गुरुनमस्कार। साधुभिते । तन्नृपाचा प्रतिवार्तामा जी वेत्यादि भणनवत्, श्रीगुरुवचः प्रतीच्छादिरूपं संजायते । स्तुतित्रयपाठानन्तरं शक्रस्तवपाठः । तत उद्दारस्वरेकः श्रीजि नस्तयं कथयति, अपरे च सर्वे साबधानमनसः कृताकजलयः यति स्नानम्तर सरक त्यादिपडिया चतु:श्री 99 देवनमसारस्य चतुकम भ्रमणप्रदानं यावत् ज्ञेयम। श्राद्धस्य तु "अाइजेसु" इत्यादि नयनाधिपम इदं देवगुरुपद प्रतिक्रमणस्य प्रारम्भ अन्ते च कृतम् ।" आद्यन्तग्रहणे मध्यस्यापि प्रणम" इति म्यायात सर्वत्राप्यवतीति । यथा शक्रस्तस्यादावन्ते "नमो" इति भणनम् । ततोऽपि द्विषं सुव जयति " इति न्यायेन पूर्व चारित्राचारा पिकायोत्सर्गे पुनः प्राणातिपा तबिरमणाद्यतिचाररूपदे वसिकप्रायश्चित्तविशोधनार्थे चतुश्च सुशितिस्तचिन्तनरूपं कायरे कुरुते चा वर्ग:सामाचारीपन केतिक्रमणस्याऽऽदो ि क्रियते तदनु तथैष पारविश्या चतुर्विंशतिस्तयं च मङ्गलार्थ पत्याकमाश्रमणपूर्व मानवामुपविश्य सावधानमा पाकुरुते विधिना पीपास्वाद परम प्रतिक्रमणं पञ्चाचारविशुद्ध प्रागुकम अत्र तु ज्ञानदर्शनचरित्राचाराणामेव यथास्थान च तपोवीर्याचारयोः तथा च प्रतिज्ञाहानिरिति चेत् ! मैयम्एतनाद्याचारानान्तरीयका इति प्रतिपादितैव । तथाहिसायं साधोः कृताहारयत्यस्यानस्य कस्यापि कृतान्यतरप्रत्याख्यानस्य तद्भवति । प्रातरपि षाण्मासिक प्रनृतिनम. स्कारसहितान्तं प्रत्याख्यानं करोतीति स्फुटैव तप आचारकिः। यथाविधि यथाशक्ति प्रतिकामवीर्याचारिि प्रतीतैवेति । अनि प्रायश्वितम्। तथाहि काले भावश्यकाऽकरणे चतुधुः । मण्डल्यप्रतिक्रान्तौ कुशीलैः मह प्रतिशान्ती च चतुधुः । निद्राप्रमादादिना प्रतिक्रमणे न मितिः, तत्रैकस्मिन् कायोत्सर्गे भिन्नमासः । यो घुमासः त्रिषु गुदवासः । तथा गुरुनिरपारि कायोत्सर्गे स्वयं पारणे गुरुमासः सर्वेष्वपि कायोत्सर्गेषु चतुर्मधुः । एवं वन्दनेष्वपि योज्यमिति व्यवहारसूत्रे । तथा साधवः प्रतिक्रमणानन्तरं तथैवान्तरमुहूर्तमात्रमासते, काचिदाचार्या अपूर्वी सामाचारीमपूर्वमर्थं वा प्ररूपयेयुरित्युकमाघभिर्युक्तिवृत्तौ । इति देवसिकप्रतिक्रमणविधिः । घ० २ अधि० । (७) प्रतिक्रम नमो अरिहंताणं० | १| करेमि जंते ! सामाइयं० । २ । चत्तारि मंगलं- अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगसं, केवपित्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमाअरिहंता लोगुत्तमा, सिदा लोगुत्तमा, माहू लोगुत्तमा, केवलिपणच धम्मो लोगुत्तमो बचारि सरणं पवज्जामि Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण (२७०) अभिधानराजेन्डः। पाडिकमा मरिहते सरणं पवजामि, सिके सरणं भवज्जामि, साहू तह मोदअंतराश्य-निस्सेसखयं पदुध पतसिं । सरणं पवजामि, केवलिपपात्तं धम्म सरणं पवजामि ।। भावस्खप लोयस्स उ, हवंति ते उत्तमा नियमा!। १०।। हवा पुण सनिवाए, उदयभावे जे भणिया । । (करेमि नंत, सामाइयं इत्यादि । जाब बोसिरामित्ति) अस्य पुव्वं भरदंताणं, जे भणिया खाड्या भावा ।। ११॥ व्याख्या समक्षणं चेदम्-"संहिता च पदं चैव" इत्यादि। म. तेहि सया जोगेणं, निप्पज्जा सन्निवाश्मो नावो। धिकृतसूत्रस्य व्याख्यानलकणा योजना सामायिक दृष्टव्या। तस्स वि य भाषलोग-स्स उत्तमा होति नियमेणं ।। १२॥" माहे स्वस्थान एव सामायिकाभ्ययने उक्तं सूत्रं,पुनः किमभिः सिकाः प्राइनिरूपितशब्दार्थाः एव, तेऽपि च त्रिलोकस्य काधीयते । पुनरुक्तदोषप्रसङ्गात् । उच्यते-प्रतिषिकाऽऽसविता. यिकभाव लोकस्य चोत्तमाः प्रधाना लोकोतमाः। दिसमभावस्थितेनेव प्रतिक्रान्तव्यमिति ज्ञापनार्थम । अथवा तथा चोक्तम्पविषघातार्थ मन्त्रपदे न पुनरुक्तदोषोऽस्ति, तन्द्रागविषघ्नं " लोउत्तमत्ति सिद्धा, ते उत्तमा होति खत्तलोयस्त । पुनरुक्तमकुष्मपदम् । तेलोकमत्थयस्था, जं भणियं होति ते नियमा ॥१॥ रागविषघ्नं चेदं यतश्च मनमपूर्वकं प्रतिक्रान्तव्यम् । भतः सूत्र निस्सेसकम्मपगती-ण वा वि जो होति खाइयो भायो। कार एष तदभिधित्सुराह तस्स वि हु उत्तमा ते, सम्बपथमिवज्जिया जम्हा ।।२॥" (चत्तारि मंगलं) मसलं प्राक्निरूपित शब्दार्थम् । तत्र चत्वारः साधवः प्रारूनिकपित शब्दार्था एच, ते च दर्शनकानचारित्रपदार्था मझलमिति। क एते चत्वारः । तान् प्रदर्शयन्नाद-(प. नावलोकस्य उत्तमाः प्रधाना लोकोत्तमाः । तथा चोक्तम्रहंता मंगलमित्यादि ) अशोकाचष्टमहाप्रातिहादिरूपां पू. "लोगुचमति साह, पडते भावलोयमेयं तु । दसणणाणजामहन्तीत्यहन्तस्तेऽन्तो मालमा बितं मातं येषां ते सि चरिता-णि तिनि जिणइंदनणियाणि ॥१॥" केलिप्राप्त कास्ते व सिखा ममम । निर्वाणसाधकान् योगान् साधय धर्मः प्राकनिरूपितशब्दार्थः। स च क्षायोपशमिकापशमिकक्काम्तति साधवस्ते च मङ्गलम् । साधुग्रहणाच्चाचार्योपाध्याया यिकभावलोफस्योत्तमः प्रधानः लोकोत्तमः तथाचोक्तम्-"धगृहीता पकव्याः ,यतो न हि तेन साधधः। धारयतीति धर्मः म्मो सुयचरणी य, पुहा विमोगुत्तमो सि नायबो। खयश्चमकेवलमेषां विचत इति केलिना,केवलिभिः सह प्राप्तः प्रसा मिभोवसमिय-खश्यं च पश्च लोग तु॥"यत एवं लोकोत्तमाः। पितः केमिप्रकप्तः, कोऽसौ धर्मः श्रुतधर्मः, चारित्रधर्मश्च मालम् । अनेन कपिलादिप्राप्तधर्मव्यवच्छेदमाह । अईदादीनां अत एव सरण्याः । तथा चाह-" चत्तारि सरणं पवजामि" च ममता। अथवा-कथं पुनः लोकोत्तमत्वम् ? । आश्रयणीयस्वात् । श्रातेभ्य पव हितमामात्सुखप्राप्तेः, अत एव च लोकोत्तमत्वात्तेषा. श्रयणीयत्वमुपदर्शयन्नाह-(चत्तारि मरणं पवज्जामि) चतु. मिति, पादच-"वत्तारिनोगुत्तमा"। अथवा-कुतः पुनरहदा रससंसारनयपरित्राणाय शरणं प्रपद्ये,प्राश्रयं गच्छामि । देन पीता मगमता?, लोकोत्तमत्वात् । तथा चाह-"चत्तारि तानुपदर्शयन्नाह-( अरहंतमित्यादि ) अर्हतः शरणं प्रपद्ये सांलागुत्तमा" चत्वारः खल्वनन्तरोक्ता बक्ष्यमाणा वा सोकस्य सारिकदुःखत्राणायातः श्राश्रयं गच्छामि,क्ति करोमीत्यर्थः। भाबलोकादेरुत्तमाः प्रधाना लोकोत्तमाः। क पते चत्वारः१।। एवं सिमान् शरणं प्रपद्ये । साधून शरणं प्रपये। केवसिप्र. तान्प्रदर्शयन्नाद-(अरहंता लोगुत्तमा इत्यादि) अर्हन्तः प्रा. क्षप्तं धर्म शरणं प्रपद्ये। इनिरूपित शब्दाधाः । शोकस्य भावलोकस्य उत्तमा प्रधानाः। इत्थं कृतमङ्गोपचारः । प्रकृतं प्रतिक्रमणसूत्रमादतथा चोक्तम् इच्छामि पनि कमिठं, जो मे देवसि प्रो अध्यारो " अरहंता ताव तहिं, तु उत्तमा होति भावसोयरस । कओ, काइओ वाइओ माणसिओ, नस्सुत्नो उम्मग्गो कम्हा जं सन्नासिं, कम्मपगीए सस्था ॥१॥ भुणभावं तु पमुच्च, वेयणियाऊ य णामगोसस्स । अकप्पो अकरणिज्जो पुज्माओ विचिंतिओ प्रणायारो नावस्सोदश्यस्स, नियमाते उत्तमा होति ॥३॥ अणिच्छियव्यो अस्समणपाउग्गो, नाणे दंसणे चरित्ते मुए एवं चेव य नूत्रो, उत्तरपगतीविसेसणविसि । सामाइए,तिएहं गुत्तीणं चउएहं कसायाणं पंचएई महन्बयाणं भन्न हु उत्तमत्त, समासो से निसामेह ॥ ३ ॥ छाहं जीवनिकायाणं सत्तएहं पिंझेमणाणं अट्ठए पत्रयणसायमणुयात. दोन्नी, उ नाम गतीसिमा पसस्था या माऊणं नवएहं बंजचेरगुतीणं दसविहे समणधम्मे समणाणं मणयगतिपणिदिजाइ-ओरालियतेयकम्मं च ॥४॥ ओरालियगुवंगा, समच नरसं तहेव संगणं । जोगाणं जं खंमियं जं विराहियं तस्स मिच्छा मे उक्कम ।४। वारोभसंघयणं, वझा रसमंधफासा य ॥५॥ " इच्छामि पमिक्कमि " इत्यादि यावत् तस्स मिच्छा अगुरुलहुं उबघायं, परघाउसासविहगगति पसस्था । मे पुक्क ति" इन्गमि प्रतिक्रमितुं यो मया देवसिक तसवायरपजत्तग-पत्तेयधिराधिराच ॥ ६॥ अतिचारः कृतः इत्येवं पदानि वक्तव्यानि । अधुना पदार्थः-इ. सुभमुज्जोयं सुजगं, सूसरं चापज्ज तह य जसकिती। च्यामि अनिवषामि, प्रतिक्रमितुं निवर्तितुं, कस्थ?, यः, त्यतितत्तो णिमिणतित्यग-रणाम इगतीसमित्ता॥ ७॥ चारमाह-मयेत्यात्मनिर्देशो, दिवसेन निवृत्तो दिवसपरिणामो तत्तो उच्चागोयं, चोत्तीसहि लह उदयभावहिं। वा दैवसिका, अतिचरणमतिचारः, अतिक्रम्य गमनमित्यर्थः । ते अत्तमा पढाणा, अणपतुल्लाजवंतीद ॥ ८॥ कतो निर्वतितस्तस्येति योगः, अनेन क्रियाकालमाद-"मिछासवसमिश्री पुण भावो, अरहंताणं न बिज्जए सो ह। मे दुक" अनेन तु निष्ठाकालमिति भावना । स पुनरतिचार खाइगनावस्स पुणो, आवरणाणं वनं ति ।। पाधि नानेकधा नवत्यत आह-कायेन शरीरेण निर्वृत्तः का Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिकमण यिकः, कायकृत इत्यर्थः । वाचा निर्वृत्तो वाचिकः, वाककृत इत्यर्थः । मनसा निर्वृत्तो मानसः, स एव (मानसिश्रो सि) मानसिको, मनःकृत इत्यर्थः । ऊर्द्ध सुत्रानुत्सूत्रः, सूत्रानुक्त इत्यर्थः । मार्गः क्कायोपशमिको नायः ऊर्द्ध मार्गीन्मार्गः, कायोपशमिक भावत्यागेनौदायक जावसक्रम इत्यर्थः । कल्पत इति कल्पः, न्याय्यः कल्पो विधिराचारश्चरणकरण व्यापारः न कल्पोऽकल्पः, खूप इत्यर्थः । करणीयः सामान्येन कर्तव्यः, न करणीयोऽकरणीयः हेतुमात्र यत पर योगमार्गः इत्यादिरुक्तस्तावत्कायिको वाचिका । अधुना मानसमाह- दुष्टो क्षणः तथा विधितितः दुर्विचिन्तितः, अशुभ एष चलचित्ततया । यत एव अयुभोत एवानाचारः, आचरणीय भाचारो न श्राचार अनाचारः, साधूनामनाचरणीयः । यत एवानावरणीय अत एवानष्टव्यः मनागपि मनसापि न प्रार्थनीयः । यत एवेत्थंभूतोऽष्टव्यत एवासावश्रमणप्रायोग्यो न श्रमणप्रायोग्यः अश्रमणप्रायोग्यः, तपस्थ्यनुचित इत्यर्थः । किं विषयोऽयमतिखारः ?, इत्याह चनागोरि ) ज्ञानदर्शनचारित्रयः । अधुना नासु) विषमत्यादि. कानोलकर्णविपरीत अकासवाध्यायादिरतिचारः । ( सामाइए ति ) सामायिक विषयः, सामायि कग्रहणात्सव सामायिक पारित्र सामाग्रिहणम् । सम्यक्त्व सामाधिकार शादिति चारं तु भेदेनाह" तिराहं गुप्ताणं" इत्यादि । तिसृणां गुप्तीनां तत्र प्रविचाराप्रविचाररूपा गुप्तयः । चतुर्णी कवायाणां क्रोधमानमा पञ्चानां प्रतिपाद निकायां पृथायिका सप्तानां पिकेपणानामसमृशदानमा समा इत्यादि । (सप्त पिषणानां व्याख्या C पसणा शब्दे तृतीयभागे ७१ पृष्टे द्रष्टव्या ) ( आव० ) एष खलु समा खार्थः व्यासार्थस्तु न्यायसेवा खानां केचित्पन्ति ता अपि चैवंता एव, नवरम् - चतुर्थ्या नानार ह्यायामसीका ि (२७१) अभिधान राजेन्द्रः । मातृ तथा प्रथमा तिखा तथा पञ्च समितयः । तत्र प्रविचाराप्रविचाररूपा गुप्तयः । समितयः प्रविचाररूपा एव । तथा चोक्तम्- "समिश्र नियमा गुप्तों, गुप्तो समियतमि भयापों तिगुतो विस॥" नाम श्रासां स्वरूपमुपरिष्टादयामः । दशविधे दशप्रकारे, श्रमणध सामान्य अस्यापि स्वरूपमुपरिपामः । श्रस्मिन् त्रिगुत्यादिषु च ये श्रामणा योगाः, श्रमणानामेते श्रमणास्तेषां आम योगानां व्यापाराणां सम्यक्प्रतिसे वनश्रमानप्ररूपणा लक्षणानां यत्, खरितं देशता भग्नं, यद्विराचितं तनपुरेापादितं तस्य वनविराधनद्वाराऽऽयातस्य चारित्रातिचारस्यैव तद्राचरस्य ज्ञानादिगोवरस्य च दैवसिकातिचारस्यैतावता क्रियाकालमाहतस्यैव" मिठा मे का प्रमादमिथ्येति प्रतिक्रमामीति दुष्कृतमेतदकर्तव्यमिदमित्यर्थः । गाथा सिद्धार्थ कर किया यमकरणे अ परकम 3 पडिक्कमण अस्सा यता, विवरीयपरूवणाए य ॥ प्रतिनिवारितानामकास्थाध्यायादीनामतिबाराजां करणे निष्पादने मागि सीपं प्रतिमहिनामा का स्वाध्यायादीनां योगा नामकरणे मिया ने उनसे बने प्रतिक्रमणम्, अश्रद्धाने च तथा केवलिप्रणीतानां पदार्थानां प्रतिक मणमिति वर्तते विपरीत प्ररूपणाय च अन्यथां पदार्थकथनायां प्रतिक्रमणमित्यर्थः । अनया व गाथया यथायोगं सर्वसूत्रा पानि तद्यथा सामायिकसूत्रे प्रतिराग तयां करणे, कायस्तु स तस्याकरणे, सामाधिकं मोक्षकारण मिश्याने' खामाधिक' इति प रूप प्रतिक्रमणमिति एवं मद योज्यम्। स्वारो मङ्गमित्यत्र प्रतिषिको रकरण इत्यादिना प्रकारेण मेघातिचारस्य समासेन प्र तिणमुकम्। (८) सांप्रतमस्यैव विभागेनोच्यते, तत्राऽपि गमनागमना विचारमधिकृत्याहाकिम हरियावहियाप इत्यादि सायंप्रतिक्रमण सूत्रम् (द्वितीय जागे 'हरियाहिया' शब्दे १३० पृष्ठेयम इथं गमनागमनानिवारप्रतिक मणमुक्तम् । अव० ४ प्र० । ध० । (ए) भतैव प्रायश्चित्तम्इरिया अडिए जनपालाइ आलोएमा पुरिमहूँ । ससरकखेहिं पाएहिं अप्पमज्जिएहिं इरि परिक्रमेज्जा रिमरि परिकमे मिच्ाकारो तिथि वाराओ वा । गाणं डिमं सीसनागं पमज्जेज्जा चिन्त्रिगं । कसेवाहता था, पिणा इरिवं पविकमे, मिच्छावा समुदेमंद मापुच्छण च हिया कर्म 可 दावि इरियं परिभेा शिब्बिवं एवं इरि पि कमेत्तु दिवसावसेसियं ए संवरेज्जा आयामं । महा० १ चू० । प्रतिक्रमणे श्रनोचनानन्तरं " ठाणे कमणे" इत्यादि कथयित्वा गमनागमनालोचनादेशो मार्ग्यते । तत्र केचित्कथयन्ति न मार्ग्यते । तदाश्रित्य यथा जवति तथा प्रसाद्यम तथा केवि त्कथयन्ति दस्तशत द्वहिर्गमने गमनागमना लोचनादेशो मार्ग्यते, विद्याप मिति । अतरम्प्रतिक मानोचनानन्तरं "कमणे" इत्यादि कथयित्वा गमनागमनालोचना देशो मार्गणीयो काय ते । तथा पौषधमध्ये स्थरिमलादिकार्ये बदित्या आगमनानन्तरं गमनागमनालोचनं ज्ञायत इति ।। २२ ।। ही०४प्रका० (१०) अनावर्तनस्यानाति चारप्रतिक्रमणं प्रतिपादयन्नाहइच्छामि परिकमिनं पगापसिज्जाए निगाममिज्जाए उबट्टा परिणाएं आनंदणपसारणाए उपसंघट्टखाए कूप ककराइए बीए माइ आमोसे सरका मोसे आउल पाउझाए सोयाबत्तियाए इत्थीविष्परियासि याए दिविपरियासियाए मरणचिप्परिया सियाए पापाजोषयविवरियासियाए जो मे देवसिओ अपारो कमो बस मिच्छा मे तुकडं । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण प्रनिधानराजेन्द्रः। पमिकमण रामि प्रतिक्रमितुं पूर्ववत्, कस्य ?, स्याह-प्रकामशय्यया लखबरा उरोतुजपरिसश्च संश्यसंहिपयांप्तापर्याप्तभेदात२०, हेतुभूतया, यो मया देवशिकोऽतिचारः कृतस्तस्येति योगः। एवं तिर्यग्भेदाः ४०, कर्मभुषः १५ अकर्मभुवः ३. अन्तरही. अनेन क्रियाकालमाह-(मिका मे कति) अनेन निष्ठा. पा.५६ पथम १०१, एषां गर्नजानां पर्याप्ताऽपर्याप्ततया २०२, कालमेवेति भावना । एवं सर्वत्र योजना कार्येति । (भाषा) समूग्जस्वम पुनः३०३ मनुष्यभेदाः, भवनपतयः १०, व्यस्तरा! ('पगामसिजापति व्याख्या 'पगामसजा 'शम्भे गतानुपद- १६, घरस्थिरभेदभिनज्योतिषकाः १०, कल्पना १२, प्रेवेय. मेष) तथा हेतुभूतया स्वाध्यायायकरणतहतिवारः । प्रति. कगारमणुत्तरोपपातिमः ५, लोकाम्निका ए, किष्विपिका दिवसं प्रकामशग्यव निकामशरयोज्यते तया हेतुनूतया, अत्रा- ३. भरतराषतताव्यदशकस्था:-"अमे१पाणे १ सयणे ३, प्यतिचारः पूर्ववत् । उननं तत्प्रथमतया वामपार्थेन सुप्तस्य । पत्थे लेणेम ५ पुष्फ ६ फम ७ विज्जा । पदुफल भ. दक्विणपायन बर्तनमुखर्तनम् उवर्तनमेघोद्वर्तना तया। परिवर्तन | वियत्तमा १०, जंभगा दसविहा हुंति ॥१॥" ति। जम्मपुनामपानव वर्तमं तदेय परिवर्तना तया,मत्राप्य प्रमृज्य कुष. काः १०, परमाधार्मिकाः १५, सबै पर्याप्तापर्याप्त दात १५८ तोऽतिबार। माकुश्चनं गात्रसोधनमकणं तदेवाकुचना तया, देवभेदाः।सबै मिलिताः ५६३ जीवभेदाः (अतुर्थभागे 'जीव' प्रसारणमामा बिकेपःतदेव प्रसारणा तया, भाबकुपकु. शम् १५३६ पृष्ठेऽप्युक्ताः) "अभिहयेत्यादि" १० पदगुणिताः निराम्तप्रतिपादितविधिमकुर्वतोऽतिचारः । ५६३०, रागद्वेषगुणिताः २१२६०, योगत्रयगुणिताः ३३७००, (११) तथा चोक्तम्-(कुक्कुटिराम्तः) कृतकारितानुमतिभिर्गुणिता। १०१३४० । पते कामत्रयगु. " कुमकुडिपायपसारे, जहभागासे पुणो विमाउंटे। णिता: ३०४०२०, तेऽहंस्लिम्साधुदेवगारमसाविनिगुणिताः एवं पसारिक, मागासे पुणो विपाटे ॥१॥ १८२४१२० जाताः । पतदर्थाभिधायिन्यो गाथाः । यथाभतिकुंटियत्ति ताडे, अहियं पायस्स पपिहया गति । "चउपसमय भाचत्ता, तिगहितिसया सयं च अडनउयं । तहिय पमजिकण, भागालेणं तु मेऊणं ॥२॥ चउगादसगुणमिच्छा, पण सहसा छसयतीसा य ॥१॥ मेरश्या सत्सविड़ा, पज्जनपज्जत्तणेण चउदसहा । पादं गाये तु तहि, मागास एव पुणो वि माटे । ममता संखा, तिरिनरदेवाण पुण एवं ॥२॥ एयं घिहिमकरतो, मतियारोतत्य से होति ।।३॥" भूवगिाबाउणंता, बीस सेसतरुधिगम अधि । षट्परिकानां यूकानां साहनमविधिना स्पर्शनं पदपदिकासंघ गम्भेभरपजे पर, जल, थल नह३ उर४ भुभावीसं ॥३॥ नं तदेव पट्पदिकासंघहना तया, तथा-(कूप ति)कूजिते । पनरसतीसरपन्ना, कम्माऽम्मा तहंतरहीवा। सति योऽतिचारः, फूजितं कासितं तस्मिन्नविधिमा मुखवत्रि. गम्भयपजनपज्जा, मुकअपज्जा तिसयतिभि ।। ४॥ कां करंबा मुम्बे नाऽधाय कृत इत्यर्थः। विषमा धर्मवतीत्यादि भषणा परमां जंजय, वणयर दस पनर इस य सोलसग । शरयादोषोचारणं फर्कायतमुच्यते तस्मिन्सति योऽतिचारः, घरथिरजोइस दसगं, किब्बिस तिअनय य सोगंता ॥५॥ बह चार्तध्यानजोऽतिचारः । क्षुते प्रविधिना जमिनते, ('मामो कपपा गविजऽणुसर, वारस नव पण पज्जअपजसा । से 'ससरफ्ना 'व्यागमा 'प्रामोस' शब्दे द्वितीयभागे २१२ पृष्ठे अमनप्रसयं, भभिदय-बत्ति प्रमाईहि दसगणिपा॥६॥" पता) एवं जाप्रतीतिचारसंभवमधिकृस्योक्तम् । अधुना सुप्तस्यो एवं चरुयते-(भाउस सोयण इन्धीवि० पतेषां व्याच्या स्व २ शब्द अपच्या) स पुन मूलगुणोत्तरगुणविषयो जयत्यतो भेदेन तर अभिहयपयाश्दसगुण, पणसहसा छसयतीसया भेमा। शयनाड-(वीविपरियासियाए ति) स्त्रिया विपर्यासः स्त्री ते रागदोसदुगुणा, कारसदासया सही॥७॥ विपर्यासः विपर्यासोऽब्रह्मने वन तस्मिन् भवास्त्रीवैपर्यासिकी मणवयकाए गुणिया, तित्तीससहस्सस ससय सीमा। तया. स्त्रीदर्शनानुरागतः तदवलोकनं दृष्टिविपर्यासः तस्मिन् न. कयकारणागुमश्य, लक्खसहस्सा तिसयामा ।।८॥ पा रविवषर्यासिकी तया, एवं मनसा अध्युपपातो मनोविप कातिरोण गुणिमा, तिलक्खचउसहस्सवीसअहिश्रा य । यांसः तस्मिन् भवा मनोवैपर्यासिकी तया, एवं पानभोजन अरिहंतसिद्धसाहू, देवगुरुअप्पसखीहिं ।। पर्यासिया रात्री पाननोजनपरिभोग एव तद्विपर्यासः अ. अट्टानस मक्खाई, चवीससहस्सएगीसहिा। मया हेतुनूतया, य त्यतिचारमाह-मयेत्यात्मनिर्देसः, दिवसे. इरिया मिच्छा दुका-पमाणमेनं सुए भणिभं ॥ १०॥" ननिर्वृत्तो विवसपरिमाणो वा देवसिकः, प्रतिचरण मतिचारः, अस्यां च विश्रामाष्टकोविङ्गनपदानि " इच्ग-गम-पाण-प्रो. भतिक्रम इत्यर्थः, कृतो निवर्तितः। (तस्स मिच्ना मे दुक्क सा, जे मे एगिदिअभिहया तस्स । अझ संपयवतीसं, पयार ति) पूर्ववत । माह-दिवा शयनस्य निषिद्धत्वादसंभव पचा वन्नाण सहसयं ।। १॥"ध.२ अधिक। स्यातिचारस्य नापवादविषयत्वादस्य १, तथाहि-अपवादतः (१३) एवं स्वरवर्तनस्धानातिचारप्रतिक्रमणमभिधायदानी सुप्यत पय । दिवास्वानखदादाविदमेव वचनं ज्ञापकम् । आ. गोचरतिचारप्रतिक्रमण प्रतिपादनायाद६०४ म०। पमिकामामि गोयरचग्यिाए निक्खाबरियाए उग्घाम११२) अत्र च त्रिषष्ट्यधिकपञ्चशतीमितानां जीवानामेवं मि. फवामपाडणाए साणावच्छादारासंघट्टणाए मंमियपाच्यापुस्कतं दीयते, तद्भेदाच-अष्टादश लक्षाः चतुर्विशतिस. दुडियाए बलिपाइमियाए वणापाहुडियाए संकिए हस्त्रा: एक शतं विशतिश्च १८२४१२० भवन्ति । तद्यथा सहसागारे प्रणेसणाए पाणजोयणाए बीयभोयाणासप्तवरकभवाः पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदेन १४, भूजलज्वलनवारवः | नम्तवनस्पतयः पर्याप्ताऽपर्याप्तसूक्ष्मबादरजेदैः २०, प्रत्येक बना ए हरियभोयगाए पच्छाकम्मियाए पुरेकम्मियाए अदिपातद्वित्रिचतुरिन्जियान पर्याप्ता अपर्याप्ताश्चति , जलस्थ- हमार दगसंमहहटाए स्यसंसट्टाढाए पारिसाढणीपाए Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमिक्कमण (२७३) अभिधानराजेन्डः। पडिक्कमण पा। वणियाए ओहासणनिक्खाए जं नग्गभेणं उप्पा- | गोयरपभिट्ठो कहं वा विक वा नभयकडं चा पत्थायणेसणाए अपरिमुषं पमिग्गाहियं परिभुत्तं वा जंन प-| वेज वा, उदीरेज वा, कहेज वा, निसामेज वा कहं । रिद्ववियं तस्स मिछा मि मुक्कडं। गोयमा ! यो य नत्तं वा, पाणं वा, भेसज्ज वा, जेण प्रतिक्रमामि निवर्तयामि, कस्यां?, गोचरचर्यायां योऽतियार विनियं, जं जहा य वित्तियं, जहा य पदिग्गहियं, तं तहाइति गम्यते, तस्येति योगः। गोइसरणं गोचरः चरणं चर्या सव्वं प्रणाऽऽनोएज्जा पुरिम | महा० १ चू० । गोचर श्व चर्वा तस्यां गोचरचर्यायां, कस्यां भिवार्थ चर्या (१४) पवं गोचरातिचारप्रतिक्रमणमुक्तं, अधुना स्वाध्यानिकाचर्या तस्यां, तथाहि-बाजालाजनिरपेकः खस्वदीन. यातिचारप्रतिक्रमणं प्रतिपादयन्नाहचित्तो मुनिरुत्तमाधममध्यमेषु कुखध्वनिष्टानिष्टेषु वस्तुषु राग. पमिकमामि चाउकालं मज्कायस्म अकरणयाए, उन्नो पापगमेन भिक्कामदतीति । कथं पुनस्तस्यामतिचार?,इत्याह(उग्घामकवाडग्यारणाए ) उद्धाटमदत्तागलमीपत्स्थगितं वा, कालं मोवगरणस्स अपमिलेहणाए दुप्पमिलेहणाए अकिं तत कपाटं तस्योद्धाटनं सुतरां प्रेरणमुद्धाटकपाटोद्धाट' प्पमज्जणाए दुप्पमज्जणाए अश्क्कमे बइक्कमे अश्यारे अणानमिदमेबोद्धाटकपाटोद्धाटना तया हेतुनूतया, वह चाप्रमार्जिता. यारेजो मे देवसिमो अइयारोको । तस्स मिच्छामि दुक्कर। 5ऽदिज्योऽतिचारःतथा श्ववत्सदारकसंघट्टनयेति प्रकटार्थम, प्रतिकमामि पूर्ववत् । कस्य चतुकानं,दिवसरजनीप्रथमचर. मएमीप्रानृतिकया, बलिप्रानृतकया,स्थापनाप्रानृतिकया,मासां मयामेस्वित्यर्थः । स्वाध्यायस्य सूत्रपौरुषीलकणस्थाकरणया, स्वरूपम् अनासेवमया हेतुनूनयेत्यर्थः। यो मया देवसिकोऽतिचारः कृतः, “मंडीपाहुमिया सा-इंमि आगएँ अग्गकूरमंडी य । तस्येति योगः, तथा उत्नयका प्रथमपश्चिमपौरुषी लक्षणं,जा. अनंमि भावणम्मि, काउं तो देश साहुस्स ॥१॥ पडोपकरणस्य पात्रधनादेः, अप्रत्युप्रेक्षणया पुःप्रत्युप्रेशणया। तत्थ पवत्तपदोसो, न कप्पए तारिसाण सुबिहियाण । तत्राऽप्रत्युप्रेकणा मूखत एव चक्षुषाऽनिरीक्ष्णा, दुःप्रत्युप्रेरणा चसिपादुझिया भयह, चउहिसिं काहं अच्चणियं ॥२॥ दुनिरीकपा तया, अप्रमार्जनया-दुःप्रमार्जनया-तत्राप्रमार्जनाअग्गिम्मि व निविकण, सित्ये तो देर साहुणो निक्ख । मूलत एव रजोहरणाऽऽदिनाऽस्पर्शना, दुःप्रमार्जना तु-विधिमा साचिन कप्पर उवणा, जा भिक्खयराण बिया च ॥३॥" प्रमार्जनेति, तथा-अतिक्रमे, व्यतिक्रमे, अतिचारे,अनाचारे, यो आधाऽऽकर्मादीनामुहमाऽऽविदोषाणामन्यतमेम संकिते गृहीते मया देवसिकोऽतिचारः कृतः, तस्य मिथ्या पुष्कृतमित्येतत्प्रासति योऽतिचारः । सहसाकारे वा सत्यकल्पनीये गृहीत ग्वत् । श्राव०४ अध०। (अतिक्रमाऽऽदीनां स्वरूप प्राम' इति अत्र च तदपरित्यजतोऽविधिना वा परित्यजतो योऽतिचा. शब्दे गतम्) र, अनेन प्रकारणानेषणया हेतुनुतया, तथा-(पाणभोयणार | (१५) अयं चातिचारः संतपत एकविधः बिस्तरतस्तु द्वि. त्ति) प्राणिनो रस जादयः, भोजने दध्योदनादौ, संघट्यन्ते विधास्त्रविधी यावदसंरपेयविधः। संकेपचिस्तरतो पुनर्दिधिविराभ्यन्ते च्यापासान्ते वा यस्यां प्राततिकायां सा प्राणि- धं प्रति संक्षेपः, एकविध प्रति विस्तरः, इत्येवमन्यत्रापि यो. भोजना तया, पतेषां च संघट्टनाऽऽदिदातग्राहकप्रभवं विकेय- ज्यम् । विस्तरतस्त्वनन्तविधसूत्रे एकविधाऽऽदिभेदप्रतिक्रममत पवातिचारः । एवं (बीयभोयणाए) बीजानि जोजने यस्यां णप्रतिपादनायाऽऽहसा बीजभोजना तया, एवं हरितभोजनपा, (पच्चाकम्मियाए, पमिकमामि एगविहे-असंजमे । पमिकमामि दोहिं बंधपुरे कम्मियाप त्ति) पश्चात्कर्म यस्यां पश्चाजलोकनकर्म भवति, हिं-रागबंधणेणं,दोसबंधणेणं । परिकमामि तिहिं दंमेहिंपुरः कर्म यस्यामादाविति,(अदिट्ठहमार ति) अरष्टाऽऽहतया अस्टोरकेपनिकेपमानीतयत्यर्थः। तत्र च सवसंघट्टनाऽऽदिनाऽति मणझणं, वयदंडेणं, कायदंझणं । पडिकमामि तिहिं गुत्ती. चारसंभवः। (दगसंसदहमापत्ति) उदकसंबद्धाऽऽनीतया हस्त हिं-मणगुत्तीए, बयगुत्तीए, कायगुत्तीए । परिकमामि तिहिं मात्रगतोदकसंसृष्टया वा जावना। एवं रजःसंसृष्टाऽऽहतया । न सोहि-मायासोणं,णियाणसनेणं,मिच्छादसण सोणं । पवरम-रजापृथिवीरजोऽभिगृह्यते, (पारिसामणीयाए स्ति) परि मिकमामि तिहिं गारवेहि-इडीगारवेणं, रसगारनेणं, सायाशाट उज्जनकणः प्रतीत एव तस्मिन् नवापरिशाटनिका तया, | गारवेध पडिकमामि तिहिं विराहणाहि-नाणपिराहणाए, (पारिहाणियाए ति-(श्राव०) अर्थोऽस्य 'पारिठावाणिया' शब्द) (ओहासणजिक्खाए त्ति) विशिष्टद्रव्ययाचनं,समयपरि दसणविराहणाए, चरित्तविराहणाए । भाषया “ओहासणं ति भाई" तत्प्रधाना भिक्का तया, कियदत्र (पडिक एगवि०) प्रतिकमामि पूर्ववत् । एकविधे एकप्रकारे भणियामो भेदानामेवंप्रकाराणां बहुत्वात,ते च सर्वेऽपि यस्मा- असंयमेऽविरतिलकणे सति प्रतिषिरकरणाऽऽदिमा यो मया पुरमोत्पादनैषणास्ववतरस्यताह-(जं उग्गमेणं इत्यादि) यत देवसिकोऽतिचारः कृत इति गम्यते । तस्व मिथ्याधुकृतमिति किंश्चिदशनादि, उमेनाऽऽधाकाऽऽदिलक्षणेन, उत्पादनया संबन्धः । पदयति च-(सज्झाए न सझावं तस्स मियामि धायादिलकणया, एषणया शङ्काऽऽदिलकणया, अपरिशुरू- दुक्कडं) पवमन्यत्रापि योजना कार्वा । पाव० ४ ० । मयुक्तियुक्त, प्रतिगृहीतं वा, परिभुक्तं वा,यन्न परिष्ठापित, कथ- (एकविधाडसंयमस्वरूपम् असंजम' शम् प्रथमभागे श्चित्प्रतिगृहीतमपि यनोज्जितं, परिनुक्तमपिच भावतोऽपुनःकः | २३ पृष्ठे गतम् । असंयमस्य बहवो भेदा अपि तत्रैव प्रतिपारणाऽऽदिना प्रकारेण नोज्झितं,एवमनेन प्रकारेण यो जातोति- दिताः) ( रागद्वेषानेदेन वन्धनद्विविधत्वम्-'बंधण' शब्दे. वारः, "तस्न मिच्यामि उकडं" इति पूर्ववन् । प्राव०४०। वहयते । तत्र रागबन्धनव्युत्पत्ति:-' रागवधा 'शम्म एव्या। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७४) पडिक्कमण प्रनिधानराजेन्द्रः। पडिक्कमण देषवन्धनव्युत्पत्ति:- दोसवन्धण' शब्दे चतुर्थभागे २६४१ मणं, परिग्गहाम्रो वेरमणं । पमिक्कमामि पंचहिं समिईहिंपृष्ठे गता) (दएमस्वरूपम् दण्ड' शब्दे चतुर्थभागे २४२० इरिभासमिईए, भासासमिईए,एमणासमिईए, पायाण भंडपृष्ठे विस्तरता प्रतिपादितम् । तत्र मनोदएम-मणदंड' शब्दे पश्यते ! वचोदएड:- वरदम' शब्दे, तत्रोदाहरणं चापि तत्रैव।। । मत्तनिक्खेवणासमिईए, जच्चारपासवण खेलजयसिंघाणपारिकायदपड:- कायदा' शब्दे तृतीयभागे ४६५ पृष्ठे गतः )। ट्ठावणियासमिईए। पमिकमामि छहिं जीवनिकाएहिं-पुढवी(गुप्तिशब्दार्थ:-' गुत्ति' शब्द तृतीयभागे ६३३ पृष्ठे गतः ।। कारणं, आऊकारणं, तेजकारणं, वाऊकाएणं, वणस्स. तत्र मनोगुप्तेत्रिविधत्वम्-'जोग' सब्दे चतुर्थनागे १६१६ इकारणं, तसकाएणं । पडिक्कपामि छहिं लेसाहि-किएह. पृष्ठे गतम् । बाग्गुप्तिम्-'बागुत्ति' शब्दे सोदाहरणां व्याख्या. क्यामि । कायगुप्तिः कायगुत्ति' शब्दे तृतीयभागे ४४९ पृष्ठे खेसाए, णीललेसाए, काजोसाए, तेउलेसाए, पहलेप्रतिपादितव)(शल्यभेदाः तदव्युत्पत्तिश्वः सख' शब्दे । तत्र साए, सुक्क साए । मायाशल्यम-मायास' शब्दे । निदानशल्यम् णियाणस. (क्रियाशब्दार्थःस्वरूप तद्भेदाश्चः-किरिया' शब्दे तृतीयभागे 'शने चतुर्थभागे २१०८ पृष्ठे गतम् । मिथ्यादर्शनशल्यम्-५३५पृष्ठे, तत्प्रतिक्रमणं चाऽपि ५५० पृष्ठेऽस्ति । तत्र कायिक्या:'मिगदसणसल्ल' शब्दे बयते)(गौरवस्वरूपम्-'गारव' 'कायिकी' शब्द तृतीयभागे ४०४ पृष्ठे गता । अधिकरणिक्या: - शब्ने तृतीयभागे ८७० पृष्ठे गतम् । तत्र ऋषिगौरवव्युत्पत्तिः 'भगिरणिया' शन्दे प्रथमभागे ८०५ पृष्ठे गतम् । प्राषिक्या:. 'इकिगारव' झाब्दे द्वितीयभागे ५८३ पृष्ठे गता। रसगौरवस्वरूप. 'पाउसिया' शम्दे । पारितापनिक्याः 'पारिताबरिणया' शब्दे म्-'रसगारव' शब्दे । सातागौरवस्वरूपम्-'सायागारब' शब्दे वक्ष्यते । प्राणानिपातिक्या:-'पाणाइवायकिरिया' शब्दे । ) पक्ष्यते) (विराधनास्वरूपम्-'विराहणा' शब्दे वक्ष्यते । तत्र शा. (कामगुण राम्दार्थ:- कामगुण' शब्दे तृतीयभागे ४३४ पृष्ठे नबिराधना-'णाणबिराहणा' शब्दे चतुर्थभागे १६६३ पृष्ठे गता। गतः । तत्र शब्दस्य..'सह' शब्दे । रूपस्य-रूब' शब्द । दर्शनविराधना-'दसणविराहणा' शब्दे चतुर्थनागे २४३५ पृष्ठे रसस्य 'रस' शब्दे । गन्धस्वरूपम्-'गन्ध' शब्द तृतीयभागे विशेषतोऽस्ति । चारित्रविराधना-विराहणा' शब्द) ७६४ पृष्ठ गतम् । स्पर्शविस्तरः-- फास' शब्देऽस्मि पमिकमामि चनहिं कसाएहिं कोहकसाएणं,माणकसाएणं, नेव भागे घदयते ) ( पञ्चमहावतशब्दार्थ:-'पंचम मायाकसारणं लोभकमाएणं । पमिकमामि च नहिं सन्नाहिं हब्वय ' शब्दे । तत्र प्राणातिपातविरमणम्-' पाणावा. यबेरमण ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते । मृषावादविरमश्राहारसनाए, जयसन्नाए, मेहुणसन्नाए, परिग्गहसन्नाए । णम- मुसावायवेरमण ' शब्दे । अदत्तादानविरमणम् । पमिकमामि चाहिं विगहाहि-इत्थीकहाए, जत्तकहाए, दे- 'अदत्तादाणवेरमण' शन्दे प्रथमभागे ५४० पृष्ठे गतम् । सकहाए, रायकहाए । पमिकमामि चनहिं काणेहि-अटेणं | मैथुनविरमणम्-'मेहुणवेरमण' शब्दे । परिग्रहविरमणम्जाणेणं, रुदेणं जाणेणं,धम्मे झाणेणं, सुक्केणं झाणेणं । परिग्गहवरमण' शब्दऽस्मिन्नेव भाग वक्ष्यते ) ( समिां र्थ:-'समिर' शब्दे । तर्यासमितिखरूपम् इरियासमिर' ( कषायस्वरूपं तद्भेदाश्च-' कसाय ' शब्द तृतीयभागे ३९४ पृष्ठादारस्यगताः । तत्र क्रोधकषायः-' कोहकसाय' शब्दे द्वितीयत्नागे ६३१ पृष्ठे गतम् । भाषासमितिव्युत्पत्तिस्तच. ब्दार्थस्त उदाहरणं च- भासासमि' शब्दे वदयते । एषणासशम्ने तृतीयजागे ६८५ पृष्ठे प्रतिपादितः । मानकषाय:• माणकसाय' शब्दे वदयते । मायाकषायः- मायाक मितेविस्तर:-'एसणासमिर' शब्दे तृतीयभागे ७२ पृष्ठे गतः। साय' शदे द्रष्टव्यः । लोभकषाय:-' लोभकसाय' शम्दे प्रादानजाममात्रकनि केपणासमितिव्याख्या--भादाणभंकमत्त. णिकरनेवणासमिर' शब्दे दि० भा०२१६ पृष्ठेऽवलोकनीया। उ. विस्तरतः प्रतिपादयिष्यामि ) ( संचास्वरूपम् - ' सम्मा' चारप्रस्रवणस्नेलशिकाणजल्लपारिष्ठापनिकासमितिव्याख्या... शब्ने । 'सत्रातदारसंशा--' 'आहारसम्मा'शब्दे द्वितीयजागे चारपासवणखेलसिंघाणजवपारिद्वावणियासमिह' शन्दे द्वि५२७ पृष्ठे गता । भवसंझा-'भयसम्मा' शब्दे कष्टव्या । भैथुन. तीयभागे ७३३ पृष्टे विस्तरतः प्रतिपादिता) (परजीवनिकायसंका मेहुणसम्मा' शब्दे । परिग्रहसंशा-'परिग्गहसम्मा' शब्दे ) व्याख्या-'जीवणिगाय' शब्दे चतुर्थभागे १५५२ पृष्ठे गता । (विकथास्वरूपम्-'विगहा' शब्दे । तत्र स्त्रीविकथा... तत्र पृथिवीकायिकस्य--'पुढवीकाश्य' शब्देऽस्मिन्नेव ना. । स्थिकहा'शब्दे द्वितीयत्नागे ५८५ पृष्ठे अश्या, तद्भेदाश्चापि गे वक्ष्यते । अपकायिकस्वरूपम् श्राउकाय' शब्दे द्वितीयभा. तत्रैव । भक्तविकथा बिस्तरत:- भत्तकहा' शब्दे । देशचि गे २० पृष्ठेऽस्ति । तत्र तेजस्कायिकविस्तर... तेउकाइय' कथा..'देसकहा' शब्दे २६२७ पृष्ठे गता | राजविकथा-- शब्दे चतुर्थनागे २३४३ पृष्ठस्ति । वायुकायिकभेदा:-'वाउ. 'रायकदा' शब्दे ) (ध्यानशब्दार्थः सद्भेदाः स्वरूपंच-काण' काश्य' शब्दे बटव्याः। वनस्पतिकायिका-यणप्फ' शब्द । शब्द चतुर्थनागे १६६१ पृष्ठे गताः। तत्रासध्यानस्य. 'अट्टज्माण, 'वणफरकाश्य' शन्दे च वक्यते । त्रसकायिकशब्दार्थ:--'तशब्दे प्रथमभागे २३५ पृष्ठे गतम् । रौषध्यानस्य- 'रोद्दज्माण' सकाय' शब्दे चतुर्थभागे २२१४ पृष्ठे गतः।) (बेश्याविस्तर. शब्दे । धर्मध्यानस्य च धम्मज्माण' शन्दे चतुर्थनागे २७१६ 'लेस्सा' शब्द । तत्र कृष्ण लेश्याऽर्थः-'किराह लेस्सा'शब्दे। पृष्ठे गतम । शुक्लभ्यानस्य-'सुकाण' शब्दे वक्ष्यते ) नीमेश्याव्याख्यानम-गील लेस्सा' शब्दे चतुर्थभागे ११५४ परिकमामिपंचाहि किरियाहिं (आव) पडिक्कमामि पंच पृष्ठे गतम् । फापोतलेश्या च-' काऊलेस्सा' शब्दे तृतीयभागे हिं कामगुणेहि-सद्देणं,रूप, रसेणं,गंधेणं, फासणं । पमि- ४२८ पृष्ठे गता । तेजोलेश्याऽर्थविस्तर:--'तेकलेस्सा'शब्दे। कमामि पंचहि महब एहि-पाणावायाअोवेरमणं, मुमा- पालेश्या च-पम्ह लेस्सा' शब्दे । शुक्लेश्या च-मुक्क वायानो वेरमा, अदिवादादाओ वेरमणं, मेहुणाओ वेर- लेस्सा' शब्दे)। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७५) पमिकमण अभिधानराजेन्डः। पडिक्कमण पडिकमामि सत्तहिं भयट्ठाणेहिं । प्रहहिं मयहाणेहिं। पृष्ठे गताः) (त्रयस्त्रिंशदाशातनाभेदा:- अासायणा' शब्दे द्वितीय जागे ४०१-१२ पृष्ठे, अहरादीनामाशातनास्वरूपं, त. नवहिं बंजनेरगुत्तीहिं । दसविहे समणधम्मे । इगारसहि द्विवरणं च-तस्मिन्नेव शब्दे ४८३ पृष्ठे, तथा-असज्जाइए सज्झाउवासगपमिमाहिं । वारसहिं भिक्खुपडिमाहिं। तेरसहिं इयं पाठोऽपि तस्मिन्नेव शब्देऽस्ति । विवरणं च-'असज्काकिरिआगणेहिं । चनदसहिं नूअगामेहिं । पन्नरसहिं प. | श्य' शब्द प्रथमभागे ८२७ पृष्ठऽस्ति) तथा (सज्काइए ण रमाहम्मिएहिं । सोलमहिं, गाहासालसएहिं । सत्तरसविहे समाइयं ति ) तथा-स्वाध्यायिके अस्वाध्यायिकविपर्ययलक्षणे असंजमे । अधारसविहे अबंभे । एगुणवीसाए णाय न स्वाध्यायितं, इत्थमाशातनाया योऽतिचारः कृतः, सस्य मिथ्यानुष्कृतमिति क्रिया पूर्ववत् ।। ज्यणेहिं । वौसाए असमाहिट्ठाणेहिं । एगवीसाए सब "एअं सुत्ताणबद्धं, प्रत्येण पि होर विही अं। लेहिं । बावीसाए परीसरहिं । तेवीसाए सूअगमज्यणेहिं । तं पुण अवामोह-त्यमोहश्रो संपवक्खामि ॥ १२ ॥ चनवीसाए देवहिं। पणवीसाए भावणादि। बन्धीसाए द- तित्तीसार उवरि, चौतीसं बुध्वयणप्रतिसेसा। साकप्पववहाराणं उद्देसणकाहिं । सत्तावीसाए अणगा- पणतीसवयण अइसयं-छत्तीसं उत्तरऊयणा ॥१३॥ रमुहिं । अट्ठावीसाए आयारप्पकप्पेहिं । एगुणतीसाए पा एवं जह समवाए, जा सयभिसरिक्ख होइ सयतारं। (तथाचोक्तम्-"सतभिसया णखत्ते सतेगतारे तदेव पक्षो।) वमुअप्पसंगेहिं । तीसाए मोहणिघाणेहिं । एगतीसाए सि असंख असंखेहि, तह य अणतेहि गणेहिं ।। १४॥ घाइगुणेहि । वत्तीसाए जोगसंगहहिं । तेत्तीसाए भासाय- संजममसंजमस्स य, पमिसिद्धारकरणाइआरस्स । ग्णाए । अरिहंताणं पासायणाए० (आर०) सजाइए ण हो पमिकमणं तं, तेत्तीसेदि तु ताई पुणो ।। १५ ।। सज्काश्यं तस्स मिच्छामि दुक्कडं । (आव०४०) अपराहपदेखंतु, अंतगया हॉति णियम सम्बे थि । (सतनयस्थानभेदाः- भयाण' शब्दे वक्ष्यन्त) (अष्टौ मद सम्वो बि इआरगणो, दुगसंजोगादिजो एसो ॥१६॥ एगविहस्साऽसंजम-स्स हब इह दोहपज्जवसमूहो। स्थाननेदाः 'मयहाण' शब्दे द्रष्टव्याः) (नव ब्रह्मचर्यगुप्तयः-बंभ. एवमि प्रारविसीहि, काउं कुणती णमोकारं ॥ १७॥" चरगुत्ति' शब्द अष्टव्याः) (दशबिधश्च श्रमणधर्मः-'सम प्राव०४ अ०। णधम्म 'शने कष्टव्यः) ( एकादशोपाशकप्रतिमानां भेदाः, स्वरूपं च-नबासगपडिमा' शब्दे द्वितीयन्नागे १०६४ पृष्ठ अथक प्राक्तनाया अशुनाऽऽ लेवनायाः प्रतिक्रान्त अपुनःकरघटव्यम्) (द्वादशभिक्षुप्रतिमानां विशेषः--'भिक्खुपरिमा' शब्दे णाय प्रतिक्रामन् नमस्कारपूर्वक प्रतिक्रमणं प्रतिक्रामयनाद । वयते) (त्रयोदश क्रियास्थानानि किरियाट्ठाण' शब्दे तृती. अन्न सूत्रम्यभागे ५५३ पृष्ठे गतानि)(चतुर्दश भूतनामा:-'नुयग्गाम' शब्दे नमो चउन्नीसाए तित्थयराणं उसनाइ-मझवीर-पज्जबवक्ष्यन्ते) (पश्चदश परमाउधार्मिकनिरूपणम्--'परमादम्मिय' साणाणं,इणमेव निग्गंथं पावयणं-सचं, अणुत्तरं,केवलियं, शब्दे अष्टव्यम्)(षोडशभिः-गाथोषोडशः सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्क- पडिपुणं,नेयाउयं, संसुधं, सरगत्तणं,सिधिमग्गं,मुत्तिमार्ग, धाध्ययनैः । तेषां स्वरूपम्-'गाहासोझसग' शब्दे तृतीयभा णिजाणमग्गं, शिवाणमग्गं. अवितह-मविसंधि सम्बदु. गे ८७४ पृष्ठ गतम् ।) (सप्तदशाऽसंयमभेदा:-'असंजम' शब्दे प्रथमभागे ८२३ पृष्ठे गताः) (अष्टादशविधमब्रह्म-'अचंभ' क्ख-पहीणमग्गं । शब्दे प्रथमभागे ६७५ पृष्ठे गतम्) ( एकोनविंशतिविधं (नमो चमब्बीसाए तित्थयराणं नसभाइमहावीरपजवसाणाश्वाताध्ययनविवरणम्-‘णायज्झयण' शब्दे चतुर्यनागे २००३ णं ति) नमश्चतुर्विशतितार्थडुरेभ्य ऋषनादिमहावीरपर्यवसा. पृष्ठे गतम्) (विशतिरसमाधिस्थानानि ' असमाहिहाण' नेभ्यः, 'प्राकृते षष्ठी चतुर्थ्यर्थ एव भवति।' तथा चोक्तम्-"बहु शब्द प्रथम नागे ७४२ पृष्ठे अष्टव्यानि) (एकविंशतिः श- वयणेण दुवयणं, लिविभत्ती' भा च उत्थी । जह हत्था तह बलपरीषहनामानि..' सबले परीसह ' शब्दे अध्यानि )| पाया,नमोत्यु देवाहिदेवाणं ॥१॥" इत्थं नमस्कृत्य प्रस्तुतस्य गुण(द्वाविंशतिपरीषहाः- 'परिषह ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यन्ते) व्यावर्णनायाऽऽह-"णमेव णिगंध पावयणं सचं अणुत्तरमि. (त्रयोविंशतिः सूत्रकृताताध्ययननामानि-'स्यगम' शब्दे षट स्यादि" इदमेवेति सामायिकाऽदिप्रत्याख्यानपर्यन्तं द्वादशाकं व्यानि ) (चतुर्विंशतिर्देवभेदाः 'देव' शब्दे चतुर्थभागे २६१३ बा गणिपिटक, निर्ग्रन्था बाह्याभ्यन्तरग्रन्थनिर्गताः साधवः पृष्ठे गताः) (पञ्चविंशतिर्भावना:--'भावणा' शब्दे कष्टव्याः) निधानामिदं नैन्थ्य, प्रावचन मिति प्रकर्षणानिविधिनोग्य. (पविशतिर्दशाकल्पव्यवहागेद्देशनकाला:-. नद्देसणकाल' न्ते जीवादयो यस्मिस्तत्प्रावचनम् । इदमेव नैर्ग्रन्ध्यं प्रावधन शब्दे हितीयभागे ८१४ पृष्ठे गताः) (सप्तविंशतिरनगा. किम्?, अत पाह-लतां हितं सत्यं,सन्तो मुनयो गुणाः पदार्थी रगुणाः-'अणगारगुण' शब्द प्रथमजागे २७८ पृष्ठे गताः) | वा सदनुतं वा सत्यमिति । नयदर्शनमपि स्वविषये सत्यं नय. (अष्टाविंशतिविधभाचारप्रकल्पस्वरूपम्-' आधारपका त्येव?,श्रत पाह-(श्रणुत्तरंति)नास्त्यस्योत्तरंसिकान्तं विद्यत शम्मे द्वितीयभागे ३४६ पृष्ठे गतम्) ( एकोनत्रिशद्विधं पाप- श्त्यनुत्तरं, यथावस्थितसमस्त वस्तुप्रतिपादकत्वादुत्तममित्यश्रुतप्रसङ्गम-'पावसुयप्पसंग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे पक्ष्यते) र्थः । यदि नामेदमित्यं नूतमन्यदप्येवंभूतं भविष्यतीति ?, प्रत (त्रिशमोहनीयस्थान नेदाः- मोहणिजहाण' शब्द अष्टव्याः) पाह-(केवलियं ति) केवलमद्वितीय, नापरमित्थंनूतमित्यर्थः। (एकत्रिशसिद्धानामादिगुणा:--'सिकाइगुण' शब्द वक्ष्यन्ते) यदि नामेदमित्थंगतं तथाप्यन्यस्याऽसभवात्तथाप्यपवर्गप्रापफै. (द्वात्रिंशोगसंग्रहाः'जोगसंगह' शब्दे चतुर्थभागे १६५० । गणैः प्रतिपूर्ण न नविष्यतीति, अत पाह-(पडिपुन ति) प्रति. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पकिमया ( २७६ ) अभिधान राजेन्द्रः । पूर्णमपवर्गप्रापकैर्गुणैर्भृतमित्यर्थः । भृतमपि कदाचित आत्मकभरतया न तज्ञयनशीलं भविष्यतीति ?, अत आइ- ( नेश्रायंति) नयनशी नैयायिक, मोक्षगमकमित्यर्थः नैयायिक मध्य संशुद्धं संकीर्ण नाऽऽजेपेण नैयायिकं भविष्यतीति ?, अत आह(संत) शुद्ध शुद्धं क x एवंभूतमपि कथंचितास्वाभायानानं भवति बन्न विकृन्तनाय वितीत्यत आह (स) कृतीति कर्त्तनं शल्यानि मायामा निरोप कसं शकते, भवनिबन्धनमाया छेदकमित्यर्थः परम स्वाऽऽह - (सिमिगं मुनि) सेधनं सिद्धिः हितार्थप्राप्तिः, सिकेमार्ग सिकिमार्गे । मोचनं मुक्तिः, अहितार्थ कम्र्मविच्युविस्तस्या मार्गे मुक्तिमार्ग इति मुक्तिमार्गे के पान दिदि तार्थप्राप्तिद्वारेणाऽद्दितकम्मैधिच्युतिद्वारेण च मोक्षसाधकमिति भावना अनेन च केवलादिविकलाः सकका मुक्ता इति पूर्ण पनिरासमाद- विप्रतिपणिनिरासार्थमेवा-ि मार्ग मां याति तदिति "ब" ||३|३|११३॥ इति वचनात् कर्मणि ल्युट् । निरुपमं यानं निर्याणम् ईषत्प्राग्नाराऽऽयं मोक्षपदमित्यर्थः । तस्य माय निर्याणमार्ग इति । निर्याणमार्गे विशिष्टनिर्याणप्राप्तिकारणमित्यर्थः । अनेनानियतसिद्धिक्षेत्रप्रतिपादनपर दुयनिरासमाह - ( णित्राणमगं नि) नितिन सकल कम्पास्यति मियर्थः निर्वाणस्य मार्गों निर्वाणमार्ग इति निर्माणमार्ग परमनिवृति कारणमिति हृदयम् | अतन च निस्सुखदुःखा मुक्तात्मानः, इति प्रतिपादनपरनिश समाद निगमयना-अति " विधि सम्पति सत्यम् अि सिचेाऽपरविदेहादिषु भावात सर्वःख प्रोणमार्गे सर्व मोक्षः, तत्कारणमित्यर्थः । सांप्रतं परार्थकरणद्वारेणास्य चिन्तामणित्वमुपदर्शयन्नादइत्थं विश्रा जीवा, सिति, वुज्ऊंति, मुच्चंति, परिशिब्याति यदुकखाणमंत करेति । तं व सहामि, पत्तियामि रोमि, फासेमि, पालेमामि तं महंत, पचिनो, रोपंत, फासतो, पालतो, पालतो तस्य धम्मस्स केवपिनचस्प, अडिओमि आराहणार | विरोमि विराहणाए । । (हथं दिश्रा जीवा सिज्यंति न्ति) मात्र नैर्ग्रन्थ्ये प्रावचने स्थिता जीवाः सिध्यन्तीति, अणिमाऽऽदि संयमफलं प्राप्नुवन्ति । (बुज्छंति बुनियाद कर्मा परिभवति परिसमायिकमुकं भव वि-सम्पति शारीरमानसभेदाविनाशं कुर्वन्ति नियतिमात्र चिन्तामणिक कर्मम मतिं नमाि मं यो धर्म का सामान्येनैवमेयमिति (पनियम) प्रतिपद्याः प्रीतिहरणद्वारेण (रोमि ) रोनामि अमित्रापातिरेकेानाभिमुखतया मोरया त्र * मृतकोऽपीत्यपि पाठान्तरम् एकान्ता कङ्कमित्यर्थ इत्यपि पाठः । पकिमया प्रीतिः पिताद मीतिसङ्गावेपिन सर्वदा रुचि (फासमिति) स्तामि खेनाद्वारेतिमिति अनुपालयाने पौनःपुन्यकरणेन तं धम्मं सतोत्यादि) दानः प्रतिपद्यमान शेखपन् स्मृशन्, अनुपालयन्, (तस्ल धनस्थ अयोि बाराहात) तप धम्मेश्य प्रागुकस्यथितोऽस्मि आराधनावामधनाविषये (रिओम विराणा विरतोऽसि निवृत्तोऽस्मि, विराधनायां विराधनाविषये । एतदेव भेदेनाह जमं परिवाणामि । संज्ञयं उपसंपज्जामि | अभं परियाणामि । बजं उवसंपज्जामि । कप्पं परियाणामि । कथं उनसेपज्जामि । अष्ठाणं परियाणामि । नाणं उपसंपामि । प्रतिरियं परियाणामि किरिय व संपज्जामि मिच्छत्तं परियाणामि । सम्भतं नवसंपज्जामि । हि परियाणामि | बोहिं नवसंपज्जामि । मगं परियाणामि । मग्गं जब संपज्जामि । ( असं परियाणामि, संज यमं प्राणातिपाताऽऽदिरूपं परिजानामीति, परियात्रिकाय प्रत्याश्यानपारेश्या प्रत्यारूपामीत्यर्थः । तथा - संयमं प्रागुकस्वरूप उपसंपद्यामप्रताम इत्यर्थः तथा अमे परियाणामि, यं उपमितस्यानिषमलक्षणस्य विपरीतं ब्रह्म, शेषं पूर्ववत् । प्रधाना संयमाङ्गत्वाश्चाब्राह्मण इति वा । तत्परिहारार्थमनन्तमिदमाह श्रसंयमाङ्गत्वादेवाह - (अक परियाणामि । कप्पं जब संपजामि) अकल्पोऽकृत्यमाख्यायते, अयोग्यं वा कल्वस्तु कृत्यमिति । इदानीं द्वितीयं श्रन्धकारणमाश्रित्याह-यत कम्पो मा अधिरती हिंद परियाणा मे उपसंप जामि ) प्रज्ञानं सम्यग्ज्ञानादन्यत्. ज्ञानं तु भगवद्वचनर्ज ज्ञान ने परिवार परिणाम - यं वपज्जामि ) अक्रिया नास्तिकवादः, क्रिया सम्यग्वादः । सुनी बन्धकारणमा बिदा (मिष्नं परियामि सम्म तृतीयं उपसंजाति) मिपारवं पूर्वोकं सम्यमपि प स्वादेवाऽऽह - (अहिं परियाणामि, बोर्डि उवसंपजामि) अवोकार्ये, बोवस्तु सम्यक्त्वस्येतिदान सामा न्येनाऽऽह - ( श्रमगं परियाणामि, मगं उवसंपज्जामि ) अमा मिपाश्वादिमार्गस्तु सम्यग्दर्शनादिरिति । इदानीं उभस्थत्वादशेषदोषशुद्ध्यर्थमाह जं संजरामि । जं च न संभरामि । जं पडिक्कमामि । जं चन परिकमामि । तस्स सव्वस्व देवसियस्थ अश्यारस्म, पटिकमामि । समणोऽहं संजय - विरय- परिय- पञ्चकखाय-पात्रकम्पो, अडियो, दहिसंपन्न, माया-मो (जं समरामि जंण संतराम परिस्मिरामि यच्च उग्रस्थो नाभोगाति तथा जं परिक्रमामि जं च ण पक्किमामि यतिक्रमा जोगादिखात् द्विदि न प्रतिक्रमामि विदितमनेन प्रकार क श्चिदविचारः कृतः ( तरुल सबरस देवसियाइरस्स Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७७) पडिक्कमगा अनिधानराजेन्छः । पडिक्कमगा पडिक्कमामि ति) कण्ठयम् । इत्थं प्रतिक्रम्य पुनरकुशल- मित्ती मे सव्वनूएस, वेरं मज्क न केणई ॥१॥ प्रवृत्तिपरिहारायाऽस्मानमालोचयन्नाद-(समणोऽहं, संजय. निगदसिका एवेयम् । नवरम्-(इति सटीका गाथा 'खामणा' विरय-पमिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मो,अणियाणो,दिट्टिसंपलो, शब्दे तृतीयभागे ७३७ पृष्ठे गता)"सब्वे जीचा खमंतु मे त्ति" मायामोसविवन्जियो ति) श्रमणोऽहं तत्रापि न चरकाऽऽदिः कि मा तेषामप्यतान्तिप्रत्ययः कर्मबन्धो भवत्विति करुणयेदमाह । तहिं ,संयतः सामस्त्येन यतः, इदानीं विरतो निवृत्तः, अतीत. समाप्तौ स्वरूपप्रदर्शनपुरस्सरं मङ्गलमाहस्यैष्यस्य च निन्दा-संवरणद्वारेण । अत एवाऽऽह-प्रतिहत-प्रत्या एवमहं श्रासोइय-निंदियगरहियगुंबियं सम्म । ख्यात-पापका प्रतिहतमिदानीमकरणतया,प्रत्याख्यातमतीतनिन्दया,पण्यमकरणतयेति,प्रधानोऽयं दोष इति कृत्वा । तच्छून्य तिविहेण पमिकतो, चंदामि जिणे चनब्बीमं ।। तामात्मनो नेदेन प्रतिपादयन्नाह-(अनियाणो सि) निदानरहित निगदसिका। एवं दैवासकं प्रतिक्रमणमुक्तम् । रात्रिकमप्ये. सकलगुणमूल नूतगुणयुक्ततां दर्शयन्नाद-दृष्टिसंपन्नः, सम्यग्द बंभूतमेव । नबरम्-यत्रैव देवसिकाऽतिचारोऽनिहितस्तत्र त. र्शनयुक्त इत्यर्थः । वक्ष्यमाण व्यवन्दनपरिहारायाऽऽह-माया- | स्मिन् रात्रिकातिचारो बक्तव्यः । पाह-यद्येवम्-" इच्छामि मृषाविवर्जिकः, मायागर्भमृपावादपारहारीत्युक्तं भवति।। पमिकमि गोयरचरियाए " इत्यादिसूत्र तत्रानर्थक, रात्राएवंभूतः सन् किम्-अत्र सूत्रम् वस्य सम्भवादिति , उच्यते-स्वप्नादी संजबादित्यदोष इ. अलाइजेसु दीव-समुद्देसु षयरसमु कम्मनूमीसु । युक्तोऽनुगमः। नया:प्राम्बत् ति शिष्यहितायां (वी) प्रतिजावंत के वि साहू, रयहरण-गुच्च-पमिगहधारा॥१॥ क्रमणाध्ययनम् । श्राव०४०। ध०। (देवसिक-प्रतिक्रमण वेलाच तत्परिसमाप्तिदशोपकरणप्रत्युपेक्क्षणासमनन्तरभाविपंचमहव्वयधारा, सूर्योदयपरिमेया। यत:-"आवस्सयस्स समप,णिद्दामुहं चयंति अहारससहस्ससीलंगधारा । अक्खयाऽऽयार-चरित्ता, पायरिया। तहतं कुणंति जह दस, पमिखेहाणंतरं सो॥१॥" इति । ध०३ अधिक। ते सव्व सिरसा मणसा म-त्यएण वंदामि ॥२॥ (१६) रात्रिकप्रतिक्रमणविधिर्यथाअवा दीव.(व्याख्या 'माइज दीव'शब्दे प्रथमजागे २५८ पाश्चात्यनिशायाम पौषधशालायां गत्वा स्वस्थाने वा स्था. पृष्ठ) पारस (व्याख्या 'कम्मनूमि' शब्दे तृतीयभागे ३४० पृष्ठे) पनाऽऽचार्यान संस्थाप्य र्यापथिकीप्रतिक्रमणपूर्व सामायियावन्तः केचन साधयो रजोहरण-गोच्छ-प्रतिग्रहधारिणः। नि कं कृत्वा कमाश्रमणपूर्वम्-" सुमिणपुम्सुमिणबहडापाणहाऽऽदिव्यवच्छेदायाऽऽह-पञ्चमहाव्रतधारिणः, पञ्चमहाव्रतानि प्रतीतानि, अतस्तदेकाङ्गविकलप्रत्येकबुकाऽऽदिसंग्रहाय अंराश्यपायच्छित्तविसोहणत्वं कानस्सग्गं करेमि" इत्यादि जणित्वा चतुर्विशतिस्तबचतुष्कचिन्तनरूपं शतोच्चासमान, पाह-अशाशशीलाङ्गसहस्रधारिणः। तथादि केचिद्भगवन्तो स्त्रीसेवाऽऽदिकुस्थप्नोपलभ्भे तु अष्टशतोच्चासमानं कायोत्सर्ग रजोहरणाऽऽविधारिणो न भवन्स्यपि। तानि चाऽष्टादशशीलाङ्ग सहस्राणि दयन्ते-तत्रेयं करणगाथा-'जोए करणे०' इति गाथा कुर्यात्। रागाऽऽदिमयः कुस्वप्नः,द्वेषाऽऽदिमयो दुःस्वमः । एत द्विधिस्तु-नमस्कारेणावबोध इति प्रथमद्वार उक्त एव । श्ह ('अठारससी लंगसहस्स' शब्द प्रथमभागे २५१ पृष्ठे सटीका च-सर्व श्रीदेवगुरुवन्दन पूर्व सफलमिति चैत्यवन्दनां विधाय गताऽस्ति) स्थापना त्वियम्-('गुरुकुलबास' शब्दे तृतीयभागे कमाश्रमणद्वयपूर्व स्वाध्यायं विधत्ते, यावत्प्राजातिकप्रतिक्रमण. ए४० पृष्ठे समुपन्यस्तास्ति) इयं तु भावना बेला। तदनु चतुरादिकमाश्रमणैः श्रीगुर्वादीम्वन्दित्वा कमाथ"मणेण ण करे आहारसमाविष्पजढो सोइदियसंखुडो पुढवी. कायसंरक्षणी खंतिसंपम्मो १,"एवं आउनकायसंरक्षणो मणपूर्वम्-" राइअपडिकमण ठाउं" इत्यादि भणित्वा भूनि हिनशिरा:-"रावसविराइअ." इत्यादिसूत्रं सकलरात्रिका. खंतिसंपम्पो २, एवं ते ३ वाऊ-४ वणस्सा - बि.६ति-७ चन पंचिदिय-९ अजीचेसु दस १० भेदा । एते खंतियममुयंतेण तिचारची जकजूतं पवित्वा शक्रस्तवं भवति । “प्राक्तनं चैत्यव. लकार एवं महवादिसुवि इक्किके दस २ अभंति,एवं सय १००, न्दनं तु स्वाध्यायाऽऽदिधर्मकृत्यस्य प्रतिबद्धं, न तु रात्रिकाssaएवं साइंदियममुयंतेण लका १०० । एवं चक्खुइंदियादिसु वि श्यकस्येति ।" एतदारम्भे मङ्गलाद्यर्थ पुनः शक्रस्तवेन संकेपइकिसयं । जाया पंचप्तया ५००। एते वि आहारसन्नाअपरि देववन्दन,ततो व्यतो नाचतश्चोत्थाय-"करेमि भंते ! सामाइवागेण लद्धा । भयादिसन्नादिसु वि पत्तेयं, एवं पंच २ सतं, भं" इत्यादिसूत्रपाठपूर्व चारित्र-दर्शन-शानातिचारविरुधर्थ जाता दो सहस्सा २०००, एए (ण करेति त्ति) पतेण सका। ण कायोत्सर्गत्रयं करोति । प्रथमे द्वितीये कापसर्गे चतुर्विंशतिकारवति एतेण विदो सहस्सा२०००। करतं णाऽणुजाणाति ए. स्तवमेकं चिन्तयति । "सायमनोसकमिति" वचनात् । तृती. तेण वि दो सहस्सा २०००,जाता बसहस्सा ६०००, पते मणेण येत साम्ध्यप्रतिक्रमणानकवर्द्धमानस्तुतित्रयात्प्रभृति निशातिलद्धा, वाया, काएहि विसहस्स त्ति (६०००)(६०००) चाराँश्चिन्तयति । “यतः-दिवसाबस्सयअंते, जं थुतिअगंतनिजाता अहारस सहस्स त्ति १००००।" अकताऽऽचारचारित्रि. साइारे याजाव चियं उस्सग्गं, चिंतिज्जसु ताव अश्यारेत्ति" णः अवताचार एव चारित्रम्, तान् सर्वान् गच्छगत-निर्ग श् च पूर्वोक्तयुक्त्या चारित्राऽऽचारस्य शानाद्याचारज्यो वैशिताऽऽदिनेदान् शिरसोत्तमाङ्गेन, मनसाऽन्तःकरणेन, मस्तकन ष्ट्येऽपि यदेकस्यैव चतुर्विंशतिस्तवस्य चिन्तन, तखात्री प्राबोवन्द इति वाचा। ऽल्पव्यापारत्वेन चारित्रातिचाराणां स्वल्पत्वाऽऽदिना संजाव्यते। ततः कायोत्सर्ग पारयित्वा सिहस्तवं पवित्वा संदंशकप्रमार्जइत्थमभिवन्ध साधून पुनरोघतः सकलसवक्षामणमिति नपूर्वमुपविशति । अत्र च प्राभातिकप्रतिक्रमणे प्रादोषिकप्रतिक्र. प्रदर्शनाया 55ह मणवप्रथमे चारित्रातिचारविद्युस्किायोत्सर्गे निशातिचारचि. खामेमि सबजीवे य, मव्वे जीवा खमंतु मे। स्तनं यन्त्र कृतं, तन्निनाभितूतस्य सम्यग् स्मरण न स्यादिति । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण तृतीये कायोत्सर्गे च सावधानी तत्यात्म्यस्वादिति तत्र निशातिवाचिन्तनमिति द्वाईम् बत बर्फ पनि दामो न सरह, अबारेमा व घट्ट तुझे किमकरणे दोसावा, गोसाई तिथि वसा ॥१॥" (एषा गाथा 'काउस्स. भा' शब्दे तृतीयभागे ४२१ पृष्ठे सटीकाऽस्ति ) इति ततः पूर्वयन्मुखातिनःपूर्वयन्दनादिविधिः, प्रतिक्रमणसूत्रा ऽनन्तर कायोत्सर्गे यावन् ज्ञेयः । पूर्वे चारित्रावावरायां प्र ये पृथक कायोत्सर्गाणां कृतत्वेन तं तेषां समुदितानां प्रतिक्रमणेनाशुद्धानां शोधायाभ्यं कायोत्सर्गः सम्भाव्यते काल्सीवीि पति- जीबीपीरेण पापासितवं कादि है, जीवो क्लिन शक्रोम कहिनोन मासिन शक्नोमि । एवं विभि चतुःपञ्चदिनैरुनं पारामासिकं कर्तुं शक्नोषि ?, पुनर्वक्ति न शक्लोमिदिन पारामासिकं कर्तुं शक्रोषि ?, न शक्रोमियमेकादशतः पञ्चपञ्च दिनमेोन शहिनानि पातयति एवं पञ्चमे द्वितीये, माऽपि मेरे जीवत्वमेकमालिक क - शक्रोमि तत पकदिनं कर्तुं न शक्नोमि एवं दोनो मं कर्तुं शक्नोषि न शक्नोमि । द्वात्रिंशतमं, त्रिंशत्तमं, अष्टायेंशतितमं षर्विशतितमं चतुर्विंशतितमं द्वात्रिंशतितमं विंशतितमं, अष्टादशं षोमशं चतुर्दशं द्वादशं, दशमं, अष्टमं षष्ठं, चतुर्थ, कर्तुं शक्नोषीत्यादि विचिन्त्य यत्तपः कृतं स्यात्तत्र करणेच्छायां करिष्य इति वक्ति । अन्यथा तु शक्नोमि । परं नाय मनो वर्तत इति । मायामा निर्विकृति के काशनादिषु यत्र यति निधाय पारवा कायोत्सर्गे मुख बिनापूर्व वन्दन के दवा मनश्चिन्तितश्वानं विधते । यत उकं दिनचर्यायाम " सामादयान पुग्गुलो पुति तस्मादितिय विद्वाणमपच ॥ पंचादिणं, पण मासं चइत्तु तेष दिन हुँ । तीर्ण नयकारसदिये जा ||२||" ४०२ प्रि (२७८) अभिधान राजेन् । او - 33 तपश्चिन्तनविधिः 'काला' शब्दे ४११ तनुमति णत्वविश्व स्तुतित्रया पाठपू चैत्यानि वन्दते । इदं च प्रतिक्रमणं मन्दस्वरेणैव कुर्यात् । श्रभ्ययाऽऽरजिणां जागरणेनाऽऽरम्नप्रवृत्तेः । ततश्च साधुः कृतपीयधः आपको वा ममयेन भगवन् ! बहु बेलंदावन करेम" इति भगति बेलासम चीन बीनि कार्याणि 'बहुचेल' इत्युच्यन्ते ततध चतुःश्रदन्तेस्तु"" इत्यादि प्रतिनिधिः२अधि (१) पादप्रति तथा नियमेन प्रत्यहं प्रतिक्रमण कणो भवति तस्याललाय. ध्यायतिक्रमविर किती रात्र याती शे शुध्यतीति । दी० ४ प्रका० । अथ पाक्षिकादिप्रतिक्रमणविधिः वानि च देवसिक-रात्रिकाच्यां शुद्ध सत्यामपि सूक्ष्मबादरा पक्किमण तिचारजातस्य विशेष शोधनाचे काम्यतः जह गेहं पदिवस पि सहित विपचसंधी हिज्ज सविसेस एवं विना ॥१॥" पाक्षिके पूर्ववदि प्रतिक्रमणं प्रतिक ततः कुमा 'देखि पतिकरण संसिद भगवन् ! "पाखी मुदती पकिहुं" इत्युक्त्वा तां कायं च प्रतिनिस्य बन्दनके दवा संबुद्धान् श्रीगुर्वादीन कमयितुं कमाप्रधानं च सर्वमनुष्ठानं सफलमिति ज्ञापयितुम् "अनुष्ठिओ मि संबुकाबामणेणं अरिखा" इति प्रणित्वा 61 पारस एवं विसायं परस राई, जं किंचि अप" एतत् खामणसूत्र तृतीयभागे ४२१ पृष्ठे गतमस्ति ) इत्यादिनागुरुभिःथापनाचायें काम, शिष्यः को वा श्रीगु दोन मयति श्री पञ्च वा यदि शेप इच्छाकारेण संदिसह नगवन् ! पक्खिश्रं आलोयमि ?, इच्छं लोम, जो मे पविम" इत्यादिसूत्रं भणित्वा संक्षेपेण विस्तरेण वा पाकिकानती चारानालोच्य 'सन्स विप "इत्यादि गुरु" परिक्रमत" इच्छ मि " प्रभिश्वा" बजभ्येणं " इत्यादिना गुरुदत्तमुपवासादिरूपं प्राधि प्रतिपदापुर प्रत्येक मानव गुरुर या पूर्व भणति "देवसि परिक्षा भगवम् बोरामे फारि अमुक तपोधन स भगति " माधव दामि " कमा श्रमणपूर्व गुरुरा--"अडियो म पत्ते खामणेतर पाखामेोऽपि अहमद समेतु" भणिवा भूमिविहितशिराः पुनर्भणति-" इच्छं खामि परिव अं. परपदं दिवस पर इत्यादिस्तु ""स्वादि "उस समइति प "" भवति, एवं सर्वेऽपि साधवः परस्परं क्षमयन्ति । लघुवाचनाचाप्रतिम सापेक्षः प्रथमं म बलिः सर्वेपि धारयाधिक गुर्वभावे तु सामान्यसाः प्रथमं पाचार्य मयन्ति बाद दो शेषी एका अि परं वृकश्रावको मुकप्रमुख समस्तावकान् "वांकुंवा " इति भविस्या" अडियो मि प्रत्येकखामणेणं अमितरपत्रि चमेलि" (प्रणति) इतरे-"अहम खाि इतरेवेति प्रतिदिव सायं परस राईण भयो नास्य मिच्छामि तुकडे" ततो वदनकवानपूर्व देखि ओमपति कारेण संसिद्ध भगवन् ! पचिणं परिक्रमावेद है, "गुरुपति" परिक्रम, ""ति कथनपूर्व सा माषिकसूत्रमा पडिक जो मे पवियो " इत्यादिभत्तिमाश्रमणपूर्वकारेण संदिसह भगवन्! पतिं मिसि "गुरुद Sन्यो वा साधुः, सावधानमना व्यक्तकरं नमस्कारत्रिकपू पाक्षिक कथयति इतरे चाभ्रमणपूर्व "संभ लेमिति" जणित्वा यथाशक्ति कायोत्सर्गादौ स्थित्वा शुएवन्ति । पाक्किकसूत्र मणनानन्तरम् - "सुत्र देवया नगवई" इति स्तुति भणित्वोपविश्य पूर्वविधिना पाकिकप्रतिक्रमणसूत्रं पि त्वत्प्राय च तच्छेषं कथयित्वा " करेमि नंते ! सामाइअं - स्वादियं पतित्या प्रतिक्रमणेनाऽयुधानामती चाराणां - 66 6 एव दि Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) पडिक्कमण भनिधानराजेन्द्रः। पडिक्कमण विशुद्ध्यर्य द्वादशचतुर्विंशतिस्तवचिन्तनरूपं कायोत्सर्ग कुर्यात् ।। सिकयोः पञ्चसांवत्सरिके च सप्तगुर्वाद्याः कस्याः, यदि वो ततो मुखवत्रिकाप्रतिलेखनापूर्व वन्दनकं दत्वा क्षमाश्रमण- | शेषौ तिष्ठत इति चातुर्मासिकसांवत्सरिकप्रतिक्रमणक्रमः । पूर्व " इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! अम्भुट्टिो मि स. (१२) एतद्विधिसंवादिन्यश्चेमाः पूर्वाssचार्यप्रणीता गाथा:माप्तखामणेणं अजितरपक्खि स्वामे उं" इत्यादि जणिस्वा कमणकं विधत्ते । अत्र-पूर्व सामान्यतो विशेषतश्च पा पंचविहाऽऽयारविसु-किहेउमिह साह साबगो वा वि। विकाऽपराधे कृमितेऽपि कायोत्सर्ग स्थितानां मकाप्रभा पकिकमणं सद गुरुणा, गुरुविरहे कुण इक्को वि ॥ १ ॥ बमुपगतानां किश्चिदपराधपदं स्मृतं भवेत, तस्य कमणनिमित्तं बंदिसु देहयाई, दाउंड राइए जमासमणे । पुनरपि कामणकरणं युक्तमेव । तत उत्थाय " इच्छाकारे. भूनिहिश्रसिरो सयला-प्रारमिच्चाकर दे ॥२॥ ण संदिसह भगवन् ! पाखीस्वामणां खाम ? इच्छं" ततः सामाइमपुवमिच्छामि ठाउं काउस्समामिच्चाइ । साधवश्चतुर्भिः कमाश्रमणैः चत्वारि पालिककमणानि कु. सुत्तं जणि पसंदि-भुअकुप्परवरिअपहिरणओ ॥३॥ वन्ति । तत्र च राजानं यथा माणवका अतिकान्ते माजव्य- घोङगमाहअदोसे-हि बिरदिनं तो करेइ उस्सगं । कायें बहु मन्वन्ते । यत अखाएमतबलस्य ते सुप्तु कालो नाश्रिहो जाणुकं, चवरंगुन ठविभकपिट्टो ॥४॥ गतोऽन्योऽप्येवमेवोपस्थितः, एवं पाक्षिकं बिनयोपचारम् । "इ. तत्थ य धरेइ दियप, जहक्कम दिणकर अ अपारे। धामि स्वमासमणो पियं च मे" इत्यादिप्रथमकामसूत्रेण पारेतु नमोक्कारेण, पढ चउवीसथयं दंड।।५।। तथास्थित एव साधुराचार्यस्य करोति । १। ततो द्वितीय-कम संडासगे एमजिअ, उवविभित्र अलग्गविश्यबाजुओ। णके चैत्यसाधुवन्दनं निवेदयितुकाम:-" इच्छामि खमा. मुहणंतगं च कार्य, पेहए पंचवीस इहं ॥६॥ समणो पुचि" इत्यादि जणति ।२। तदनु तृतीये-श्रात्मानं गु उहिअठियो सविणयं, विहिणा गुरुणो करे किश्कम्मं । सन् निवेदयितुम्--" इच्छामि खमासमणो अनुदिओ हं तुम्न बत्तीसदोसरहि अं, पणवीसावस्सगविसुद्धं ॥ ७॥ पह" इत्यादि भणनि । ३ । चतुर्थे तु-यच्छिका ग्राहितस्तमनु अह सम्ममवणयंगो, करजुगविदिधरिअपुत्सिरयदरणो । प्रहं बहुमन्यमानः " इच्छामि स्त्रमासमणो अदमवि पुवाई" परिचिंति अश्यारे, जहक्कम गुरुपुरो विपडे ॥ ८ ॥ इत्यादि वक्ति ।४। (पताश्चतस्रः कमापना मूल-पातः तृती मह उवविसित्तु सुत्तं, सामाअमाइग्रं पढिपयो। यजागे ४२१-४२२ पृष्ठे गताः सन्ति) एतेषां चतुर्णी पाक्षिकक्क- अनुहियो म्हि इच्चा-पढा दुहश्रो चित्रो विहेणा ॥६॥ मणकानां प्रत्येकमन्ते "तुम्भेहि समं १, अहमवि बंदामि चेह- दाकण बंदणं तो, पण गाइसु जसु खामए तिनि । आई २, पायरिअसंतिनं ३, नित्थारपारगा होद इति ४," किरकम करिभायरिअ-मागाहातिगं पढ ॥१०॥ (पतन्निरूपिका सव्याख्या गाथा तृतीयभागे ४२१ पृष्ठे गतारित) इभ सामाइनस्स-गसुत्तमच्चरित्र कानसम्गचित्रो। श्रीगुरुक्ती शिष्य:-" इच्छं ति " भणति । श्रावकाः पुनरेकै चिंता उजो अटुगं, चरित्तप्रश्नारसुरिकए ॥११॥ नमस्कारं पठन्ति । तत:-" इच्छामो अनुसट्टि ति" अणित्वा विहिणा पारिसम्म-ससुछिदेउं च पढ उजो अं । वन्दनदेवसिकक्कमणकवन्दनाऽऽदि दैवसिकप्रतिक्रमणं कुर्यात् । तह सवलोअरिहं-तचेाराहणस्सगं ॥१२॥ श्रुनदेवतायाः पाक्षिकसत्रान्ते स्मृतस्न तहिने तत्कायोत्सर्ग- कारं जोमगरं, चितिअ पारे सुरूसम्मत्तो। स्थाने भवनदेवतायाः कायोत्सर्गः। केत्रदेवतायाःप्रत्यहं स्मृ. पुक्करबरदीब, कह सुश्रसोहानिमित्तं ॥ १३ ॥ तौ नवनस्य केत्रान्तर्गतत्वेन तवतो भवनदेव्या अपि स्मृतिः पुण पणवीसुस्सासं, उस्लम्गं कुणइ पारए विहिणा। कतैव । तथापि पर्वदिने तस्या अवि बहुमानाईत्वात कायो तो सयकुसताकरित्रा-फलाण सिद्धाण पढ थयं ॥२४॥ त्सर्गः साक्षाक्रियते, स्तवस्थाने च मलार्थमजितशास्तिस्त- अह सुमसमिबिहउं, सुभदेवीए करे नस्सन्गं । वपाच इति । अत्रापि पाक्षिकप्रतिक्रमणे पञ्चविधाऽऽचारविशु- चितेश नमोकार, सुण व देई व ती थुरं ॥ १५ ॥ फिस्तत्तत्सूत्रानुसारेण स्वयमच्यूह्या । सा चैवं संमाध्यते-काना. एवं जिससुरीए, उस्सग्गं कुणा सुण देश थुई। 5ऽदिगुणवत्प्रतिपत्तिरूपत्वाद्वन्दनकानि संयुद्धक्षमणानि च का. पदिऊण पंचमंगल-मुवषिसा पमज संडासे ॥ १६ ॥ नाऽऽचारभ्य, द्वादश "लोगस्स"कायोत्सर्गानन्तरं प्रकटवतुशि पुत्रविहिणेव पेदिम, पुत्ति दाऊण बंदणे गुरुणो । तिस्तवकयनेन दर्शनाचारस्य,अतिचारानोचनप्रत्येककम- इच्चामो अणुसहिति भणि आणूहितो ठाइ ॥ १७ ॥ णकवृहल्लघुपातिकसूत्रकबनसमाप्तिपाकिकक्षमणकाऽऽदिनिश्वा. गुरुपुष्गहरो पुति-छि बलमाणस्वरस्सरो पढ । रित्राचारस्य,चतुर्थतपःप्रभृति द्वादश लोगस्स' कायोरलगा. सकस्थयथयं पढिज, कुसाद व पच्छित्तबस्सगं ॥ १८ ॥ दिभिवाह्याभ्यन्तरतपत्राचारस्य, सर्वैरप्यतः सम्यगाराधितै- एवं ता देवसिम, राइअमवि एवमेव नवरि तहिं । बीयाssचारस्य शुद्धिः क्रियते । एतदनुसारेण चातुर्मासिकलांव- पढमं दामिच्छामि कम पढ सक्ययं ॥ १६ ॥ सरिकप्रतिक्रमणयोरपि संत्राम्यम् । इति पाक्षिकप्रतिक्रमणकमः। हिाकरे विहिणा, उस्सग्गं चितए अउजोधे । (१०) चातुर्मालिकसांवत्सरिकयोरपि क्रम एष एव । नवरम्- बी सणसुद्धा-प चितए तस्थ इममेव ॥ २० ॥ नाम्नि विशेषः। कायोत्सर्गेऽपि चातुर्मासिकप्रतिक्रमले विंशति- ताप मिसाइनार, जहक्कम चितिकण पारे । चतुर्विशतिस्तवचिन्तनं,सांवत्सरिकप्रतिक्रमणे व चत्वारिंशश्चत सिस्थवं पढित्ता, पमज संडासमवविम॥ २१ ॥ विशतिस्तवाः, तदन्ते एको नमस्कारश्च चिम्त्यते । कमणके व.. पुवं व पुत्तिपैहण-बंदणमालोसुत्त पढणं च । "चउपहं मासाणं, अटुराहं पक्वाणं, इगसयवीसराइंदिमा" बंदणखामणवंदण-गाहातिगपढणमुस्सग्गो ॥ २२ ॥ तथा-"बारसरह मासा, चउबीसएडं पक्खाणं,तिनि सयस. तत्थ य चिंता संजम-जोगाण न हो। जेण मे हाणी । ट्रराशंदयाण" इत्यादि वक्तव्यम् । साघवश्व-पाक्षिकचता। तं पमिबजामि तवं.ग्म्मासं तान काउमझें ॥ २३॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमिक्कमण (२८." अनिधानराजेन्दः। पडिक्कमण पगाइगुणतीसू-णय पि न सहो न पंचमासमचि । तुल्यत्वात् । यथा किल-धनधान्यसमृद्धबहुजनसमाकुले विवि. एवं चउ-ति-दुमासं, न समत्थो एगमासमधि ॥ २४ ॥ धसौधराजोरमणीये प्रचुरचारुसुरमन्दिर शिखरविराजित किति. जा तं पितेरसुणं, चउतीसइमाइअं तुहाणीए । प्रतिष्ठिते नगरे,शौर्यादिगुणरत्नसारस्य सदाऽलकितनीतिबेलाजा चउत्थं तो आय-बिलाइजा पोरिसि नमो वा ॥ २५॥ चलयस्याऽसाधारणगाम्नीर्यशालिनोऽपर्वलावण्यभाजः पा. जं सक्कं तं हिपए, धरेत्तु पारे पेहए पुत्ति । थोनिधेरिव जितशत्रो राज्ञो, मनोरथशताऽऽप्तो बहुविधोपचादानं बंदणमसढो, तं चित्र पच्चक्खए बिहिणा ॥ २६ ॥ चितविधिलब्धः सकलान्तःपुरकमलबनराजहंसिकाया श्व धाइच्छामो अणुसढेि ति भणि उबविसिप पढ तिमि घुई। रिणीदेव्या श्रात्मजः स्वजीवितव्यादण्यतिप्रियः कुमारः सममिउसद्देणं सक-त्ययाइ तो चेइए वंदे ॥ २७ ।। स्ति स्म । तेन च राज्ञा, मा मम पत्रस्य कश्चनाऽपि रोगो भ. अह पक्खिधं च उहसि-दिणम्मि पुर्य व तत्थ देवसिनं । विष्यति, ततोऽनागतमेव केनापि भिषजा क्रियां कारयामीति सुतंतं पमिकमिउं, तो सम्ममिमं कम कुण ॥ २० ॥ विचिन्त्य वैद्याः शब्दिताः, भणिताश्च 'मम पुत्रस्य तथा क्रियां मुहपत्ती बंदणयं, संबुझा वामणं तहाऽऽलोए । कुरुत यथा न कदाचनाऽपि रोगसंनवो भवति' तैरप्युक्तम्बंदणपत्तेअखाम-णं च बंदणयमह सुत्तं ॥ २६ ॥ कुर्मः। ततो राजाऽनिहितं कथयत तहि,कस्य कीरशी क्रियेति । सुत्तं अजहाणं, उस्सम्मो पुत्तिवंदणं तह य । तत्रैकेनानिहितम्-मदीयोषधानि यद्यग्रे रोगो भवति, ततस्तपज्जतिअखामणय, तह चउरो गेभवंदग्णया ।। ३० ।। माशु शमयन्ति । अथ नास्ति, ततस्तं प्राणिनमकाएक एव मारपुग्धविहिणेव सवं, देवसिधे बंदणाश्ता कुणा। यन्ति । ततो राझोकमलमेतैरौषधैः स्वहस्तोदरप्रमईनशूलव्य. सेजसुरी उस्सग्गो, संतित्थयपढणे भेत्रो अ॥ ३१॥ थोत्थापनन्यायतुल्यैः। द्वितीयेनोक्तम्-यद्यस्ति रोगः ततस्त. एवं चित्र चउमासे, बरिसे अ जहम विही णेओ । मुपशमयन्ति । अथ नास्ति ततः प्रयुक्तानि प्राणिनो न दोष, नापक्वचनमासवरिस-सुं नवरि नामम्मि माणतं ॥ ३२॥ ऽपि कञ्चन गुग्णं कुर्वन्तीति । राज्ञा चोक्तम्-एतैरपि भस्माऽऽहुतितह नस्सगुजोआ, बारस वीसा समंगलग चत्ता। कलौः पर्याप्तम् । तृतीयेन च गदितम्-मदीयौषधानि यदि रोगे सबुखामणं तिप-णसत्तसारण जहसखं ॥३३॥" ध०२ अधिक सति प्रयुज्यन्ते तता तं रोग निर्मूल का कषन्ति । अथ न (२०) पक्कारतादिध्यवश्यं प्रतिकमणं कर्तव्यमिति सकारणं विद्यते रोगस्तथापि तस्य देहिनस्तानि प्रयुक्तानि बन्नवर्मसोदाहरणं च प्रदर्शितम् । रूप-यौवन-लावण्यतया परिणमन्ति । अनागतव्याधिप्रतिब. शिवशम्मैकनिमित्तं, विनाविघातिनं जिनं नत्वा । न्धाय च जायन्ते । एवं चोपश्रुत्य राज्ञा तृतीयभिषजा स्वपु. धक्ष्यामि सुखविबोधां, पाकिकसूत्रस्य वृत्तिमहम् ॥ १॥ त्रस्य क्रिया कारिता । जातश्च व्यङ्ग-वनी-पलित-स्खलीत्यापतच्चूरायनुसारादू, ग्रन्थान्तरविवरणानुसाराच । दिदोषवर्जितो निरामयकमनीयमूर्तिः प्रकृबुद्धिवशासी नव. प्रायो विवरणमत-द्विधीयते मन्दमतिनापि ॥२॥ नीरदोदारस्वरश्चेति । एवमिदमपि प्रतिक्रमणं यद्यतिचारदो. पाः सन्ति ततः तान् शोधयति, यदि न सन्ति ततश्चातत्र चाईनप्रवचनानुसारिसाधवः सकलपापमलमूलसाव- रित्रं शुरुतरं करोतीति । ततः स्थितमिदमतिचारी भवतु घयोगनिवृत्ता अपि सुविशुद्धमनोवाकायवृसयोऽध्यनाभोगप्र. वा, मावा, तथापि प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थेषु पक्षान्तादिषु मादादेः सकाशात्प्रतिषिककरणकृत्यकरणादिना समुत्पन्नस्य प्रतिक्रमणं कर्तव्यमेवेति । मूत्रोत्तरगुणगोचरस्य बादरेतरातिचारजातस्य विशोधनार्थ (२१) आवश्यक-पाक्तिकचूपयत्रिप्रायेण पाक्तिकादिप्रतिकसदा दिवसनिशाबसानेषु प्रतिक्रमणं विदधाना अपि पक्क मणविधिः। यतुमास-संवत्सरान्तेषु विशेषप्रतिक्रमणं कुर्वन्ति, उत्तरकर. केन पुनर्विधिनेति चेत् ?। उच्यते-" इह किर साहुणो णविधानार्थम तथादि-यथा कश्चित्पुरुषस्तै सामनकजल्लादिभिः कपसयल वेयालियकरणिज्जा सुरत्थमणबेलाप सामाझ्याश्सु कृतशरीरसंस्कारोऽपि धूग्नविलेपनभूवणवस्त्रादिनिरुत्तरकर तं कत्तिा दिवसाइयारार्चितणथं काउस्सगं करेंति । तत्थ ण विधत्ते, एवं साधवोऽपि प्रतिदिनप्रतिक्रमणेन विशुद्धच. य गोसमुहणंतगाइयं अहिगयचेट्ठा कानसम्गपज्जवसाणं दिवरणा अपि पाक्तिकाऽऽदिषु विशेषप्रतिक्रमणेनोत्तरकरणं कुर्व- साश्यारं चितितं । तओ णमोकारेण पारिता चउबीसत्ययं पढंन्ति । शुकिविशेष कुर्वन्तीत्यर्थः । किञ्च-" जह गेहं पह- ति। तो संडासगेपडिलेहिता उक्कयनिविट्ठा ससीसोवरियं दिवस, पिसोदियं तह वि पक्वसंधीसु । सोहिज्ज कार्य पमजंति । तओ परेण विणएण तिगरणविसु किश्कसविसेसं, एवं इहयं पि नायव्वं ॥१॥" तथानि- म्मं करेंति । एवं वंदित्ता उत्थाय नभयकरगहियरोहरणा म. त्यप्रतिक्रमणे सक्षो बादरो वाऽतिचारोऽनाभोगादिना घि- द्धावणयकाया पुश्वपरिचितिए दोसे जहा रायणियाप संजयजा. स्मृतो जवेत । स्मृतो बा जयगौरवादिना गुरुसमकं न प्रतिका. साप जहा गुरू सुषंति तहा पयमाणसंवेगा मायामयविमुक्का त: स्यात् । प्रतिक्रान्तोऽपि परिग्माममान्द्यादसम्यक प्रतिका. अपणो विसुकिनिमिसमालोयति । ज नस्थि अश्यारो ता. तः स्यात् । अतः पाकिकादिषु तं स्मृत्वा सातसंबेगा:प्रति. हे सीखणं संदिसह त्ति नणिए गुरूहि पमिक्कमह त्ति जाण. कामन्ति । अथवा-पाक्षिकाऽऽदिषु विशेषप्रतिक्रमणेन प्रतिका- यवं, अह अश्यारो तो पायच्छित्तं पुरिमा दिति । नो मन्तो विस्मृतमयतिचारं स्मरन्ति प्रायशः। अथवा-प्रथमचर. गुरुदिापभिवापायच्चित्ता विहिणा निसिश्ता समन्नाबट्टिमतीर्थराणां काबविशेषनियतोऽयं विधिः,यदुत पाक्षिकाऽऽदिषु या सम्प्रमुबत्ता अणवत्थपसंगनीया पर पप संवेगमाचज. विशेषेण प्रतिक्रमितव्यम्। यथा-'सूत्रार्थ-पौरुषी-प्रत्युपेकणादीनि माणा समसगा देहे अगणेमारणा पयं पपण सामाश्यप्रतिनियतकाल कर्तव्यान्यनुष्ठानानीति' अथवा-अतिचाराउना. माइयं पमिकमणमुरा कति । जाब तस्म धम्मस्स ति पदं, घेऽपि युक्तं पाक्षिकाऽऽदिषु विशेषप्रतिक्रमणं तृतीयौषधक्रिया- तो उद्धहिया अनुद्दिश्रो मि पाराहणाए चाश्यं जाव Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कम 'वंदामि जिणे चति भणिता गुरु विवितितम्रो साहू दिया मांतिष्ठामि माम मितरपत्रिकामे गुरु-मामे (२०) अनिधान राजेन्द्रः । तु सिलाई-दिवसाणं परसराई रा किवि अपलियं परति" इत्यादि एवं जह तिथि वा पंच बा, बाढम्मासिए संबधकरिप व सच - कति बासु सम्ये खामिति । यं जा म राइणियस्स भणियं एत्थ कणिण जे कामे चि पुढं वह तो पापियाम कति वा जो हो हो बेच कवि भगा-गामा ! अतिपवि चामेमो परसादं दिवसानं पलप "इत्यादि" इम व भूमिमिडिया कपजी अ-अर्थ समसिमे तुम्मे पारस " हत्यादि । सीखो सम्ब कि समयमा मामेएवं प्रागुक समाजपहिं उसमतरा, मा ते चितिजा-'एस मोयतरो, अम्हे उत्तमसि काउं पश्यसिरो खामे कि । एवं सेला वि अहारायणिया नामेति० जाय दुधरिमो बरिमं ति । ताहे सध्ये करिम्मा प्रतिदेयं परित परि परिक्रमामा । गुरू भइ सम्मं परिक्रमह ।" इति पा० हिन्दनाथाभावश्वकाभिप्रायस्तु जहाराशिवाय उडिओ बेखामेइरे बिहारा शिया सम्ये चि अप्रति पतियं खामेमो पारसपदं दिवसाणं " इत्यादि । एवं सेसा वि जहारानिया यानि पच्छादित प्रति-दे चलियं पण्डिचतं पक्त्रियं पडिक मात्रैइ ति । तओ गुरू, गुरुलदिट्ठो वा पक्खियं परिक्कमणं कइ । सेसगा जहासन्ति काउस्वगाइडिया धम्मणोगा सुति। " दं सूत्रम्नित्यंकरे व तिथे अतित्यासिद्धे यतित्यसि सिके जिये रिसी मह-रिसीव नाणं च दामि ॥ १ ॥ पा०| (२२) पाक्षिकं चतुर्दश्यामेव । तत्रापि पाक्रिकं च चतुर्दश्यामेव, यदि पुनः पञ्चदश्यां स्था लदा चतुर्दश्यां पाचिकेोपवासस्यकत्वात् पाक्षिकमपि षष्ठेन स्यात् । तथा च "अट्टम - छठ वउत्थं, संवच्चरचा मासप कखीसुं।" इत्याद्यागमविरोधः । तथा यत्र चतुईशी गृहीता न पात्र पाक्षिकं तदेशी तथादिमी इस उपवास करणं ।” इति पाक्तिक चूस । तथा "सा गरचंदो कमलामेला वि सामिलगाले धम्मं सोऊण गहिश्रा पाणि सावगाचि सति सागरवंदो अहमि उली परे मसाणे पगराइथं मा सो दिवस उपवास करे" इति।" अरहंता साहूणो अ वंदे अन्धा ।" इति चाऽऽवश्यकच्चू । तथा " संते बनवीरिपुरिसक्कारपरक्कमे भट्ठमि· चलसी जाण पंचमी सणा-यामास च न करि ज्जा, पि " इति श्रीमहानिशीथे प्रथमेऽध्ययने * कचित् पुस्तकेऽधिकः पाठः, स च ग्रन्थेऽवलोस्य 1 13 इति पालिका पतिपादकाराचि । तथात्मकरणे महमिक्सचरमारि 39 इति व्यवहारभाष्यषष्ठो देश के च । तथा-" पक्लस्स मम खलु मासस्स व पचिव मुणेयं । इत्यादिव्याख्यायां बुलै चूर्ण व पाकिकशब्देन चतुर्दश्येच ध्यायाता, ततश्चतुईशी पाक्षिकयोरैक्यमिति निश्चीयते, अन्यथा तु कचिदुभयोपादानमपि स्यादेव । चातुर्मासिकांवरसरिके तु पूर्व पूर्णिमापयोः क्रियमाणे अपि श्रीकाकाचा पडिक्कम चरणातुर्दशी चतुथ्योः क्रियेते । प्रामाणिकं चैतत् सर्वसम्म तत्वात्। उक्तं च कम्प्रभाध्ये" असढेण समायं जं करपइ के मसान निपारिश्रम बहुजणमयमेचमापरि श्रं ॥ १ ॥ " इति । तथा धुवाधुवनेदाद् द्विधा प्रतिक्रमणस् त अर्थ भरतैरतेषु प्रथमचरमतीर्थकरी भवतु म परम का प्रतिक्रमणं कर्तव्यम् अयं मध्यमतीर्थ करतीर्थेषु विदेदेषु च कारणे जाते प्रतिक्रमणम्य दा परिश्रमणो धम्मो पुरिमस्स व परिमस्थ व जिपरस म ज्झिमगाण जिणाएं, कारण जाप परिक्कमयं ॥ १ ॥ घ०२धि० । संप्रति तृतीयमधिकारं पाक्तिकविचारण सङ्कणं गाथाश्रयेणाऽऽहपक्कमकर, विवयंती के णेय जायति । पिणं हे हारामो उजपड़ा जेण ॥ १ ॥ सत्यपिनो परिपुरिपवरेहिं । तं नो जुज्ज कार्ड, प्रणवस्था जेण तकरणे ॥ २ ॥ जं पिए हु पुब्बसूरी-हिँ पिच्चियं तं पिधम्म निरयाण । नहु पिच्छ गुज्जर, उमत्वाणं विसेसेा ॥ ३ ॥ पप्रतिक्रमणकृते परस्परं विवदन्ते तथाहि पाि श्याम् उभयेषामपि सुमतं सूत्रो करवात्। केऽपि न सर्वे, नेव कातिचारप्रतिक्रमणं पञ्चदश्यां विधीयते, अन्ये तु चतु मजाले निधनं नृपतिम् (हे सि) वयं दारयाम उद्वृष्य करणतः स्फाटयामः उभयया परिग्रहेण चतुर्दशीप्रमेन च येन यस्मात् का रणात् शाखणितमपि, आस्तामनणितमित्यपिशब्दार्थ य निकगणादिकं यत् (नो) नैवाऽऽ चरितं सेवितं पूर्वसूरिभिश्चिरन्तमाऽऽचार्यैतत्प्रतिविम) कर्तुं युज्यते, ताशकरणे तु अनवस्था अप्रतिष्ठा, पतदन्यदन्यथा करिष्यतीत्येवंकपा, येन यस्मात्करणे पूर्वाऽऽपायांना सेवितविधाने भव तीति क्रियाद्वारा दृश्यः यदि न श्रुतचिरन्तनाऽऽचार्यैर्निश्चितं तदपि न केवलं स्वयमनिश्चितं ननित्यर्थः धर्मनिरतानां प्रधानोपशमाभृतरसलम्पदानां (नहु) नैव निश्चेतुमवधारयितुं युज्यते, उद्मस्थानामतीन्द्रियज्ञानवर्जितानां विशेषेणाऽऽदरेण । तथाहि पञ्चदश्यां पाक्तिक चतुर्दश्यां वा पाक्तिकमिति निर्धार्य नोक्तम्, पाक्तिकं तु प्रोकं सामान्येन तत्र दशाश्रुतस्कन्धे तावदित्यम्-"क्यो सहि समाहितार्थ जियायमाणास श्माई इस विश्वस माहिठाणारं समुप्यदपुरवाई समुप्यज्जेरजा ।" इदं सूत्रम् । यूरस्य पचे भयं परियं पक्खिर पोसो परिय पोसामा समाहिपसाणं ति" नाणे इंस 1 परि समाहिपसाणं ति गाणे यमाणा भिषायमा णाणं हमारे दस चित्तसमाहिणाणि असमुदपद्मपुत्राणि - Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८२) पडिक्कमण अभिधानराजेन्छः। पमिकमण मुपज्जेज्जा।" पत्र पाक्तिकं जिनम्, चतुर्दशी अष्टमी चभिन्ने बोमशीरूपं दिनद्वयम्, कते तु प्रहण कृष्णचतुर्दशीसहितं तदेव इति केचिद् व्याचक्षते । पोषधशब्देन चतुर्दश्यष्टम्योः संघ. अयमझातं प्रवति । ज्ञाते तु यदि कृष्णचतुईइयां ग्रहणं पूर्वसेवा ग्धकरणात् "चाउसिअहमीसुबा पोसहो" इत्येवं व्या. लक्षणं ततो दिनद्वयं, कृते स्वेकमेवेत्यादि ग्रहणे तु काते एक क्याने पञ्चदश्यां पाक्तिकम् । अत्र तु पाक्तिकशब्देन संबन्ध. दिनमझाते तु दिनद्वयम् । न हि शुक्लचतुर्दश्यां पूर्वसेवा भवति । करणात् चतुर्दश्यष्टम्योः "चाउद्दसि प्रहमासु वा पक्नि- ये तु चतुईयां पाक्तिकं वदति ते चन्छग्रहणदिनद्वयं पौर्णिमा. पपोसहो" इति पाक्तिकं चतुर्दशी कथयति । परमत्र मते प्रतिपलकणमझाते त्वेकमेव, शुक्लपके परिवर्तनं नेत्युभयोरपि चतुर्दशीग्रहणं निरर्थक जवति, पाक्तिकशब्देनैव चतुर्दश्या प्र. मतस्वात् । मादित्यग्रहणे च झाते दिनदयमझाते तु दिनत्रयं हणात् "अट्टमीए चा" इत्येतदेख भणितव्यं स्यात् । पूर्व. भवति । किं च-यन्मते चतुइंशीपातिकं तन्मते चतुर्दशीग्रहणं व्याख्याने तु पौषधप्रस्तावाचतुर्दश्यष्टमीपौषधमपि प्रतिपादि- "चाउसिग्गहो होह कोई " इत्यत्र तनिरर्थकं स्यात्, चतु. समित्यनिन्धम, व्यवहार भणितम् । कारणेनाऽऽचार्यः पृथ- ईश्या व्यवस्थितत्वात किंन ग्रहणेन । अन्य प्रका भत्रायें गेकाकी एकरात्रादिकं बसतीत्येतस्मिन् प्रस्तावे बदन्ति यदा सांवत्सरिकं पञ्चम्यामासीत् तदा पाक्षिकानि "विज्जाणं परिवाडी, पन्चे पव्वे य देति पायरिया। पञ्चदश्यां सर्वापयऽभूवन् । यत:-"इप सत्तरी जहन्ना" इत्येतत् मासमासियाणं, पब्वं पुण होश मज्झत॥१॥" पदमित्थं घटते । तथादि-नापद दिनानि दश, अश्वयुक्कार्तिपक्खा पम्चस्स बि मऊ गाहा कमासदिनषष्टिश्च, मीलिते च सप्ततिर्भवति। "अभिववियम्मि " पक्खस्स अट्टमी खलु, मासस्स य पक्खियं मुणेयध्वं । बीसा, श्यरम्मि सवीसनो मासो।" एतदपि युज्यते, यताप्रा. अन्न पि हो। पर्व, उचरागो चंदसूराणं ॥१॥" वणः परिपूर्णः,भापदादनानि चविंशतिमीलिते च पञ्चाशत् । पक्खपच्चस्स मऊ--अहमीबहुलायामास तिका मासस्स पवमनभिवर्किते, अभिवस्तेि तु विंशतिरेव श्रावणदिनरहिता। माझ पक्खिय किण्हच उहसीए विज्ञासाहणावयारो।" साम्प्रतं चतुर्थी पर्युषणा, ततश्चतुर्दश्यां पाक्तिकानि घटन्ते । भाह--यद्येवम्-“एगरायगहणं काय दुरायं तिरायं वेति न यतो भाजपददिनान्यकादश, अश्वयुदिनानि त्रिंशत, कार्ति. वत्त" प्रत उच्यते गाहा-"चाउहसिग्गहो हो.. कोइ अहवा कदिनान्येकोनत्रिंशन, सर्वेषां मीलने सप्ततिः, सविंशतिमासबि सोलसिग्गहणं । वत्तं तु अणज्जते,होइ तुराय तिरायं वा ।।" श्व । एकमाषाढदिनं, श्रावणदिनानि त्रिंशत्,भाद्रस्य त्वेकोनश्य गाथा व्याख्यानाही, परं न व्याख्याता, काठेत्युक्तम् । स. त्रिंशत,मीलितेच सविंशतिमासे भवति विंशतिश्च तथैव,परबस्याप्येतस्य किश्चिदव्याख्यातस्याऽपि पूज्यैः कथितार्थः कयते--विद्यानां देवताऽऽधधिष्ठितमत्राणां परिपाटि परावर्तनं मेकदिन आषाढमासान्त्यक्षपणीयमिति । यथोच्यते एवं सति पर्वणि पर्वणि बक्ष्यमाण सक्कणे,चकारोऽनधारणे, स च व्यबहिः षष्ठं स्यात् पाक्षिके,भवतु मासस्तर्हि पाक्षिकषष्ठेन क्रियते इत्य स्माभिरुच्यते, किं तु चतुर्थेन, चतुर्दश्युपवासश्च पर्वणितपो तो योज्यः ददत्येव, अनेकार्थत्वाद्धातूनां कुर्वन्ति, भाचार्याः सू. रयः । पर्वस्वरूपमाह-मासार्द्धमासिकयोः पर्व पुनर्नवति मध्यं विधानमते तन्न लगत्येतदप्यनिन्द्यम्। तथा-"दिवसो पोसहो पक्खो वइकंतो" इत्यादिपाक्षिकक्षामणकस्य चूण्यो स्पष्टतरं बक्ष्यमाणम् | तुःपूरणे । तदेवाऽऽह-पक्कस्य प्रतीतस्य, अष्टमी व्याख्यानमिदम्-पौषधोऽष्टमीचतुर्दश्युपवासकरणम्। पौषधं तिथिल कणा, खलुरवधारणे साच जिनगता । मासस्य पुनः प्र. तु प्रतीतमिति व्याख्यान्तरं स्यादपि व्याख्याने न चतुर्दशीव्यतीतस्य पाकिमनिश्चितरूपम् यदि पुनरक चतुर्दशी पञ्चदशी वा वस्थितमिति यदि चात्रापि,किं क्रियते तथा च तत्रोत्रम्-“पोजणिप्यते ततो निश्चितः स्यात् । यतूक्तं चूर्णिकृता पाक्तिकण्या सहोत्ति"अट्टमिचउद्दसीसु तवउववासकरणं,सेसं कंठमिति। क्यानं कुर्वता-"मासस्ल माझ पक्खियं किराहपक्खस्स च उद्द. यदि तत्रापि किञ्चिद्व्याख्यान्तरं क्रियते ततःसंदेहोअप स्यात् सीप विज्जसाहणावयारो" तब सम्यग् नाश्वगम्यते । तथाहि परतन्त्रमध्ये स्वादितरसतृप्तानांन मनांसि प्रीणयति।एवमन्ययदि कृष्णचतुर्दशी परिपाटी पाकिकमित्युच्यते ततो "विज्जा. शास्त्रान्तरोक्तं मध्यस्थैर्भूत्वा विचारणीयम् । तत्त्वं तु सर्वशा साहणावयारो" अत्र उपचारशन्दो नावबुध्यते । न हि उपचार. विशिष्टभुतविदो वा विदन्ति । श्रावकापेक्षया तु पञ्चदश्यपि शब्देन परिपाटिर्मण्यते स्वसमयबादिभिः । किं चैवं व्याख्याने विशेषणोक्ता तथा चाऽऽवश्यकचूर्णी-“सब्वेसु कालपब्बसु, शुक्लचतुर्दशीपाकिकशब्दव्याख्यानं न स्यात, भएयते च तन्मते विसिट्ठो जिणमए तवो जोगो । अट्ठमिपरागरसीसुणियमेण शुक्लचतुर्दश्यपि पाकिकम् | पूज्यास्तु वदन्ति-उपचारशब्देन पूर्व हवेज पोसहिनी ॥१॥” सामान्यतस्तु तेषामपि भगवत्यादासेवाऽत्र भएयते, ततः कृष्णाचतुर्दश्यां पूर्वसेवा नूतनमन्त्रग्रहण. विदमुक्तम्--" चाउद्दसट्ठमुद्दिट्ठपुन्नमासीसु णं पडिपुग्नं पोसह जपल कणा क्रियते। पाक्षिके च पञ्चदशीलकणे परिपाटिः पराव समणुपालेमाणे ति ।” इति सप्रपञ्चभावनायुक्नगाथाऽर्थः । तनं विधीयते,इत्थं व्याख्याने पौर्णमास्यपि पाक्षिकं भवति,परि. यद्येवं ततः किमित्याहपाटीव पउने शुक्लचतुर्दश्यां तु पूर्वसेवा न क्रियते इति सर्वजनप्रतीतम् । कृष्णचतुर्दश्यां चारुम्फुरो मन्त्रो भवत्यतस्तत्र पूर्व सेवा तम्हा रे जीव! तुमं, मन्नसु धम्मत्थमप्पणो एवं । म क्रियते इति द्विरात्रसाधकगाथाया अपि पूज्यव्याख्यानं चतुई- तं कुण जं आयरियं, जस्सट्टे तस्स सद्दहणं ॥४॥ श्यां कृष्णायां ग्रहोऽभिनवविद्याग्रहणाऽऽदिरूपो भवति जायते तस्मात्कारणारे जीव! इत्यामन्त्रणे । त्वं भवान् मन्यस्व जानीको ऽप्यनिर्दिएनामा,अथवाअपाति विकल्पार्थः। षोडश्या प्रती. हि धर्मार्थ क्षान्त्यादिनिमित्तमात्मनो जीवस्य एवं वक्ष्यमाणतायां,ग्रहणं योऽपि रागलक्षणं भवतीति संबध्यते ।व्यक्तं स्पष्ट, न्यायेन तत् कुरु विधेहि, यत् पाक्षिक्यादि श्राचारतपञ्चदश्यां षोमश्यां वा ग्रहणं जातमित्यज्ञायमाने ऽनवबुध्यमाने मासेवितं पूर्वाऽऽचारितिगम्यते। यत् शास्त्रे सिद्धान्ते तस्य द्विरा त्रिरात्रं वा भवति वसितव्यमाचार्यस्य । इत्थमभिप्राय:- शास्त्रोक्लार्थस्य श्रद्धानमेतदिति । अयमाभप्रायः-शास्त्रोक्तं यदि कृष्ण चतुर्दश्यां ततो ग्रहणं न कृतं भवति, ततः पञ्चदशी- | निश्चितमपि यनासेवितं पूर्वपुरुषैः केनाचत् कारणेन Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८३ ) अभिधान राजेन्द्रः । पक्किमगा तदन्यथा न क्रियते, तदाचरणाभावात्ः कृतं तु क्रियते । यथा बहुगुणं भवति तथा त एव जानते इति गाथार्थः । समर्थितस्तृतीयः पाक्षिकविचारणलक्षणोऽधिकारः । जीवा० ३ श्रधि० । जं य इमं गुणरयण - सायरमविराहिऊण तिष्णसंसारा । ते मगलं करिता, अहमवि आराहणाभिमुो || २ || (जे इति) ये महामुनयः चशब्दो मङ्गलान्तरसमुच्चयार्थः । इमं जनशासनप्रसिद्धं (गुणरणावरं ति) गुणा महामताssaयस्त एव रत्नानि विशिष्टफलहेतुत्वात्सर्ववस्तुसारत्वाच्च गुणरत्नानि तान्येव बहुत्वात्सागर इव सागरः समुद्रो गुणरत्नसागरः, तम् । किमित्याह-- श्रविराध्य अखण्डम नुपाल्य, तीर्णसंसारा लङ्घितभवोद्धयो जातास्तान् परमारमनो मङ्गलं कृत्वा, शुभमनोवाक्कायगोचरं समानीयेत्यर्थः । अ हमपि न केवलमुक्तन्यायेनापकात् ते तीभषायाः किं त्वमपि संसारावर धनार्थमेवाऽऽराधनायाः संपूर्ण मोक्षमार्गानुपालनाया श्रभिमुखः संमुखः, कृतोद्यम इत्यर्थः, आराधनाऽभिमुखः संजात इति ॥ २ ॥ तथा मम मंगलमरिहंता, सिद्धा साहू सुयं च धम्मो य । वंती गुत्ती मुत्ती, अज्जवया महयं देव ||३|| ( मम इति ) मम मे, मङ्गलं श्रेयः कल्याणमिति यावत् । क एते ? इत्याह- ( अरिहंत त्ति ) अशोकाऽऽद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूप] पूजामन्तीत्यन्तस्तीर्थनायकाः । तथा-(सिद्ध ति) खितं व कर्म ध्यानं येषां ते सिद्धाः शुध्यामान लनिर्दग्धमैन्धना मुक्रिपदभाजो जीवाः । तथा (साडु सि निर्वाणसाधकान् योगान् साधयन्तीति साधवो मुनयस्त ग्रहणात्राऽऽचार्योपाध्याया अपि गृहीता एव द्रष्टव्याः । यतो न हि ते न साधवः । तथा - ( सुयं च ति ) श्रूयत इति श्रुतम् सामाविकाऽऽद्यागमः । पश्णस्तगतभेदप्रदर्शनार्थः । तथा - ( धम्मो यति) धारयति दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानमिति धर्मश्चारित्रलक्षणः चशब्दः स्वभेदप्रदर्शकः । तथा क्षान्तिः क्रोधपरित्यागो, गुप्तिः संलीनता, मुक्तिर्निलभता । कापि " अहिंसा खंती मुत्ती " इति पाठः स च सुगम एव । श्र जेवता मायावर्जनं, मार्दवं मानत्यागः चः समुच्चये, एवशब्दः पूरणे. अनेनापि गाथाइयेन मङ्गलमुकम् तत्प्रयोजनं व प्राग्वत् । न चात्र स्तोतव्यपदानां पौनरुक्त्यचिन्ता कार्या स्तुतिवचनेषु पुनरुक्कदोषानभ्युपगमात् । ग्राह व “सम्भा भागती-सहेसु उवसपपासु | संतगुणकित्त खासु य न होंति पुगरुत्तदोसा उ ॥ २ ॥ " अथाऽऽराधनाङ्गभूतामेव महावतोच्चारणां कर्तुकाम " इदमाह लोगम्मि संजया जं, करेंति परमरिसिदेसियमुयारं । अहमवि उवडिओ तं महवयउच्चारणं कार्ड ||४|| लोके तिर्यग्लोकलक्षणे, सम्यग्यताः संयताः साधवः, यां म हावतोचारणां प्रत्यहमुभयकालं विशेषतस्तु पक्षान्ताऽऽदिषु कुर्वन्ति विति, किंविशिष्ट महाव्रतोच्चारसाम्, अत आह परमर्षिभिस्तीर्थकरगणधरैर्देशिता कथिता परमपिदेशिता, तां पुनः कथं भूताम् ?-उदारां विशिष्कर्मक्षयकारणत्वात्प्रधानाम् अत एव वादावियमेव प्रतिज्ञाता. अन्यथा तीनदे रप्यत्र करिष्यमाणत्वात् श्रहमपि न केवलमन्ये साधव इत्यपिशब्दार्थः । उपस्थितः महाभूतोऽभ्युद्यत इति यावत् तां पूर्वोविशेषणविशिष्टां महान्ति बृहन्ति तानि च तानि व्रतानि च नियमा महाव्रतानि महत्वं चैतेषां सर्वजीवा55दि विप्रवेग महाविषयत्वात् उक्त पदमम्मि सब्जीया, बीए चरिमेय सव्वदव्वाई। सेसा महव्वया खलु, तदेकवेसेण दव्वाणं” ॥ १ ॥ इति (तदेकदेसेणं ति) तेषां द्रव्याणामेकदेशेनेत्यर्थः । तथा पायजीवं त्रिविधं त्रिविधेनेति प्रत्याख्यानरूपत्वाच्च तेषामिति, देशविरतापेक्षया महतो वा गुगिनो व्रतानि महावतानीति तेषामुच्चारणा समुत्कीर्तना महाव्रतोचारणा महतोबार वा तां तु विधातुमिति । (२३) महाव्रतोच्चारणातवेदमादिसूत्रम् पकिमया से किं तं महत्रयउच्चारणा ? | महव्त्रयउच्चारणा पंचविहा पत्रता राईभोपणविरमणा ॥ ५ ॥ अथास्य सूत्रस्य का प्रस्ताव इत्युच्यते प्रसूमि एतस्यादापन्यस्यचिदं ज्ञापयति पृच्छतो मध्यस्थस्य दुमितोऽर्थितो विनेयस्य भगवदर्हदुपदिष्टतत्वप्ररूपणा का र्या नान्यस्य । तथा चोक्तम्- " मध्यस्थो बुद्धिमानर्थी, श्रोता पात्रमिति स्मृतः।" इति पात्रं योग्योऽहऽधिकारी य देवमिति माध्यवनप्रदानाधिकारे समभावव्यवस्थितानां सर्वत्र सत्त्वहिताय चोद्यतानां महापुरुवाणां किं योग्यायोग्यविभागनिन न हि परहितार्थमिह महादानोयता महीयांसोऽर्थिगुणमय दानक्रियायां प्रवर्तन्ते दयालय इति । अत्रोच्यते ननु यत एव शुभाध्ययनप्रदानाधिकारे समभावव्यवस्थिताः सर्वसत्त्वहितोद्यताः महापुरुषाय गुरवोऽत एव योग्यायोग्यविभागनिरीक्षणं म्याय्यं मा सहयोग्याने तत्सम्यनियोगाइमार्थिजनार्थ इति न खलु तवतोऽनुचितप्रदानेन दुःखहेतुना विषेकिन मजिनमनुयोजयन्तोऽप्यनवगतपरार्थसंपादनोपायाः पुरुषा भवन्ति दयालव इत्यवधूय मिथ्याभिमानमालोव्यतामेतदिति । श्राह क इवायोग्यप्रदाने दोष इति । उच्यते स ह्यचिन्त्यचिन्तामणि कल्पमनेकभवशतसहस्रोपात्तानिदुष्टाष्टकम राशि जनित दौर्गत्यविच्छेदकमपीदम योग्यत्वादवाप्य न विधिवदासेवते, लाघवं चास्यासावापादयति, ततो विधिसमासेवक व फल्यास प्रविधिसमासेवको महदकल्याण्मासादयतीति । उक्तं च 3 4. श्रामे घडे निहतं, जहा जलं तं घडं विणा से । इस वितरह प्यारे दि॥ १ ॥ ततोऽयोग्य प्रदाने दातृकृतमेव वस्तुतस्तस्य तदकल्यासमित्यप्रसङ्गेन तु से दी मागच देशीसिद्धी निपातोऽधार्थे द्रव्यः स च वाक्यासार्थः किमिति परप्रश्ने । ततश्वायं वाक्यार्थः अथ किं तद्वस्तु महाव्रतोच्चारणा, प्राकृत शैल्याऽभिधेयवालेङ्गवचनानि भवन्तीति न्यायादेवं द्रष्टव्यम् । अथ का सा महाव्रतांच्चारणेति ?, एवं सामान्येन केनचित्प्रश्ने कृते सति भगवान्गुरुः शिष्यवचनानुरोधेनार्थ किञ्चि विकुं प्रत्यु Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिकमा भनिधानराजेन्दः । पडिक्रमण उचार्याऽऽह-महानतोच्चारणाऽभिहितस्वरूपा पञ्चविधा प. त्रतःसमयक्षेत्रगोचरात्कालतो रात्र्यादिसंभवात्, भावतोराअप्रकारैष प्रज्ञप्ता प्ररूपिता, न चतुर्विधा, प्रथमपश्चिमती- गद्वेषप्रभवात् रात्रिभोजनात् रजनीजेमनाद्विरमणमिति ॥६॥ र्थकरतीर्थयोः पश्चानामेव महाबतानां भावात् । यदाह- एवं सामान्येन व्रतषट्कमभिहितम् । "पंच जमा पढमंतिम-जिणाण सेसाण चत्तार।" इति । अथ विशेषतस्तत्स्वरूपमिरूपणार्थमाहअनेन चागृहीतशिष्याभिधानन निवेचनसूत्रणतदाह-सातत्य खलु पढमे भंते ! महब्बए पाणाइवायाभो बेरमणं, मेव सूर्य गणधरप्रश्नतीर्थकरनिर्वचमरूपं, कि तर्हि ।किशिदेव, पाहुण्येन तु तदृन्धमेव । तथा चोक्तम्-" मत्थं सव्वं भंते ! पाणाइवायं पञ्चक्खामि, से सुहम वा वायर वा भासा मरहा, सुतं गंथंति गणहरा णिउणं ।" इति। ततम तसंवा थावरं वा नेव सर्व पाणे भइवाएज्जा. नेवऽभेहिं पा. यदा तीर्थकरगणधरा एवं प्रज्ञनेत्येवमाहुस्तदाऽयमोंऽव- णे भइवायाविजा, पाणे अइवायंते वि भन्ने न समणुसेयोऽन्यैरपि तीर्थकरगणधरैः प्ररूपितेति । यदा पुनरम्यः जाणामि । कश्चिदाचार्यस्तन्मतानुसारी प्राप्तति प्राह-सवा तीर्यकरग तत्र तेषु षहसुनतेषु मध्ये, स्खलुशवादन्येषु च मध्यमणधरैरेष देशितेत्ययमों द्रष्टव्यः । किं विशिष्टा सा,इत्या. तीर्थकरप्रणीतेषु चतुर्यामपु, वाक्यालङ्कारार्थी या खलुशनः, ह-रात्रिभोजनविरमणं निशि अमनधर्जनं षष्ठं यस्यां मा प्रथमे सूत्रक्रमप्रामाण्यादाचे, "भंते ति" गुरोरामन्त्रणम् । रात्रिभोजनविरमणषष्ठा। अस्य च साधारणथुतित्वादन्त!,भवान्त, भयान्त इति या अथ रात्रिभोजनविरमणषष्ठं पञ्चविधस्थमुपदर्शयन्नाह संस्कारो विधेयः, तत्र भदन्तः कल्याणः सुखचोच्यते, रतं जहा-सच्चामो पाणाइवायाम्रो बेरमणं १, सच्चामो दूपत्वात्त तुत्वादेति, तथा-भवस्य संसारस्यान्तो विनामुसावायाश्रो वेरमणं २, सव्वाश्रो अदिनादाणाश्रो वेरमणं शस्तनाऽऽचार्येण समाश्रितसत्त्वानां क्रियत इति भवान्तक३, सव्वाश्रो मेहुणाओ बेरमणं ४, सव्वाश्रो परिग्गहाम्रो रत्वात् भवान्तः, तथा-भयमिहपरलोकादानाकस्मावश्लोबेरमणं ५, सब्बाओ राईभोयणाश्रो वेरमणं ६। काजीविकामरणभेदात्सप्तधा वक्ष्यमाणलक्षणम्, एतस्य म. प्रविधभयस्य यमाचार्य प्राप्यान्तो भवति स भयान्त इति। तयत्युपदर्शनार्थः । सर्वस्मानिरवशेषात्रसस्थावरसूक्ष्म- एतच्च गुर्वामन्त्रणं गुरुसाक्षिकैष व्रतप्रतिपत्तिः साध्वीति बादरभेदभिन्नात्कृतकारितानुमतिभेदाच्चेत्यर्थः । अथवा-- सापनार्थ सर्वशुभानुष्ठानगुरुतन्त्रताप्रतिपादनार्थ चेति । व्यतः षडजीवनिकायविषयात्, क्षेत्रतत्रिलोकसम्भवात्, महच्च तत् व्रतं च तस्मिन्महावते. महत्त्वं चास्य श्रावककालतोऽतीताऽऽदे राज्यादिप्रभवाद्वा, भावतो रागद्वेषसमु संम्बन्ध्यणुवतापेक्षयेति । अत्रान्तरे सप्तचत्वारिंशदधिकस्थात् प्राणानामिन्द्रियोछासाऽऽयुरादीनामतिपात प्राणिनः प्रत्याख्यानमशताधिकारः, तच्चोपरिटावच्यामः । प्राणा सकाशाविसंश. प्राणातिपातः, प्राणिप्राणवियोजनमित्यर्थः । इन्द्रियाऽऽदयस्तेषामतिपातो विनाशः प्राणातिपाती जीवतपाद्विरमण सम्यग्ज्ञानश्रद्धानपूर्वकं निवर्तनमिति ॥१॥ स्य महावु खोत्पादनं, न तु जीवातिपात एव, तस्माद्विरसमा--सर्वसद्धावप्रतिवेधारऽसद्धावीद्वातनार.ऽर्थान्त- मणं सम्यग्ज्ञानश्रद्धानपूर्वकं सर्वथा निवर्तनम्। भगवतोगोहिमहोदाककाऽऽदिभेदाच्य), अशवा-इव्यतः हाई- शामितिशेषः। यतश्चैवमत उपादेयमेतदिति चिनिभिग्य धारितकापाउदिन्यविषयात्, क्षत्रतः सर्वलोकालोक- सर्व निरवशेष, न तु परिस्थूरमेव, भदन्तेति गुर्वामन्त्रण, गोचरात, कालतोऽतीताऽऽद राज्यादिवर्तिनी बा, भावतः प्रतिपदमनुवृत्तिज्ञापनार्थ च पुनरस्यापन्यासः, प्राणातिकषायनोकषायाऽऽदिप्रभवात् मृषाऽलीकं वदनं वादो मृषा पातं जीवितविनाशं, प्रत्याख्यामि परिवर्जयामीत्यर्थः । अथचादस्तस्माद विरमण विरतिारेति ॥२॥ तथा सर्वस्मात्कृता- वा-प्रत्याचक्षे संवृताऽऽत्मा साम्प्रतमनागतप्रतिषेधस्याऽऽदिभेदान्, अथवा-द्रव्यतः सचेतनाचेतनद्रव्यविषयात्. क्षे- उदरेणाभिधानं करोमीत्यर्थः। अनेन प्रतार्थपरिशानाऽदिप्रती ग्रामनगरारण्याऽऽदिसम्भवात् कालतोऽतीताऽऽदे रा. गुणयुक्तो व्रतार्ह इत्यावेदयति । उक्तं चध्यादिप्रभवाद्वा, भावतो रागद्वषमोहसमुत्थात् श्रदत्तं स्वामि "पढिए कहिय अहिगय, परिहर उवठावणाएँ कप्पो त्ति । नाऽवितीर्ण तस्याऽऽदानं ग्रहणमदत्ताऽऽदानं तस्माद्विरम- छक्कं तिहिं विसुद्धं, परिहर नवपण भेएण ॥१॥ णमिति ॥ ३॥ तथा-सर्वस्मात्कृतकारितानुमतिभेदात्, अ. पडपासाउरमाई, दिटुंता हुंति वयसमारुहणे। थवा-द्रव्यतो दिव्यमानुषतरश्चभेदात् रूपरूपसहगतभेदाद्वा. जह मलिणाइसु दोसा, सुद्धाइसु नेयमिहई पि ॥२॥" क्षेत्रतत्रैलोक्यसंभवात्, कालतोऽतीताऽऽदे राज्यादिसमु- एयार्सि लेसो विवरणं पढियाए सत्थपारनाए छजीस्थाद्वा. भावतो रागद्वेषप्रभवात्, मिथुनं स्त्रीपुंसद्धन्वं, तस्य वणियार वा, तीए चेव कहियाए गुरुणा वक्खायाए, कर्म मैथुनं, तस्माद्विरमणमिति ॥ ४॥ तथा--सर्वस्मात् कृ. अहिगयाए अत्थी परिन्नायाए, सम्म परिहरंतो उवट्टाताऽऽदे, अथवा-द्रव्यतः सर्वद्रव्यविषयात्. क्षेत्रती लोकसं- वणाए कप्पो जोग्गो, परिहारमेव वक्खाणेइ-(छकं ति) छभवात्, कालतोऽतीताऽऽदे रात्र्यादिप्रभवाद्वा, भावतो राग- जीवनिकाप, तिहिं मणवयकाएहि, विसुद्ध परिहरह नवएद्वेषविषयात् परिगृह्यते आदीयते परिग्रहणं वा परिग्रहस्त- ण भेएण पत्तेयं मणाइकयकारियाणुमइसरूवेण, सम्मं च स्माद्विरमणमिति ॥५॥ तथा-सर्वस्मात्कृताऽऽदिरूपाहिवा परिक्खिऊण उवट्ठाविजइ नऽण्णहा, इमे य इत्थं दिटुंता। मगृहीतं दिवा भुक्तम् ! दिवा गृहीतं रात्रौ भुक्तम् २ रात्री ?- इलो पडो न रंगिजाइ, सोधियो चेव रांगेजह । असोहिए होतं दिवा भुक्तम् ३, रात्री गृहीतं रात्री भुक्नमिति ४ चतुर्भ- । मूलपाए पासाओ न कीरह, सोहिए चेव कीरह। वमणाईरुपारचेयर्थ । अथवा-दव्यनश्चतुर्विधाहारविषयानो-! हि असोहिण पाउरे भोपहन दिजद, मोहिए चेव दिजा। Jain Education Interational Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिकमण आइसहाओ अविर परियं न किजजद, संठविए चैव किज्जइ । एवं पढियकहियाइहिं असोहिए सीसेन याच जि साहिए व फिज असोहिए य करणे गुरुणो दोसो, सोहियापालणे सीसस्स दोसो " इति कृतं प्रसङ्गेन । प्रकृतमुच्यते तत्र यदुक्तं सर्व भदन्त ! प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि तदेतद्विशेषतोऽभिधित्सुराह - ( से सुहमं वेत्यादि) 'से' शब्दो मागधदेशीप्रसिद्ध शब्दार्थ स बोपन्यासे तथा सूक्ष्मं वा बादरं वा असं या स्थावरं वा । सूक्ष्मः परिगृते न तु सूक्ष्मनामकमसूक्ष्मः तस्य कामेन व्यापादनासंभवात्, पारोऽपि स्कूली, वाशब्दी परस्परापेक्षया समुच्चये, स चैकैको द्विधा - त्रसः, स्थावरश्च । तत्र सूक्ष्मत्रतः कुन्ध्यादि स्थावरो वनस्पत्यादि, वादरस्तु सो गवादिः, स्थावरः पृथिव्यादिः । अत्रापि वादी समु च्चये । एतान् पूर्वोक्तान् नैव स्वयमात्मना प्राणिनो जविान् (अ) विभक्तिव्यत्ययादतिपातयामि विनाशयामि मारयामीति यावत्. नैवान्यैरात्मव्यतिरिक्तजनैः प्राणिनोऽतिपातयामि, प्राणिनोऽतिपालयतोऽप्यन्यान् परान्न समनुजानाम्यनुमोदयामि पा० (विशेषतः प्राणातिपातस्वरूपं पाणाइवाय' शब्दे वक्ष्यते ) कथमित्याह जाजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएं न करेमि न कारवेम करतं पि अनं न समगुजाणामि वस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । ( जावजीवार इत्यादि ) " जावजीवाए ति " प्राकृतत्वाजीवनं जीवः प्राणधारणं यायची याचीयम्। यावदिय" ||३|१|३१|| (सिद्धहं०) इत्यनेनाव्ययीभावसमासः । ततश्च यावजीवं प्राणधारणं यावत् अथवा लाक्षणिकवलीपाचायजीयं भायो यावजीवता, तया यावत्रीचतया श्र प्राणोपरमादित्यर्थः । परतस्तु न विधिनापि प्रतिषेधो विधावाशंसादोषप्रसङ्गात् प्रतिषेधे तु सुराऽऽदिषु श्रविरतेषूत्पन्नस्य भङ्गप्रसकिमित्याह तिस्रो विधा यस्य प्राणातिपातस्पेति म्यते असी त्रिविधस्तं त्रिविधेन, एतदेव दर्शयति-मनसान्तः- करणेन, वाचा वचनेन, कायेन शरीरेण । श्रस्य च करणस्य कर्म उक्तलक्षणः प्राणातिपातः, तमपि वस्तुतो निराका fter सूत्रेणैव दर्शयन्नाह न करोमि स्वयं, न कारयाम्य कुर्यन्तमप्यन्यं न समनुजानामि नानुमन्येऽहमिति । श्रवा556- किं पुनः कारणमुदेशक्रममतिलभ्य व्यत्ययेन निर्देशः कृतः ? इति । अत्रोच्यते-करणाऽऽयत्ता कृताऽऽदिरूपा क्रिया प्रवर्त्तत इति दर्शनार्थम् । तथाहि कृतादिरूपा क्रिया मनःप्रभृतिकरणवशा एव करणानां भावे क्रियाया अपि भावात् श्रभावे चाभावात्करणानामेव तथाक्रियारूपेण परिणतेरिति भावः । श्रपरस्त्वाह-न करोमि न कारयामि कुर्वन्तं न समनुजानामीत्येतायता प्रथेन गते अप अप्यन्यमित्यतिरिच्यते तथा चातिरिक्रेन सूत्रे नार्थ इति। अत्रोच्यते-साभिप्रायकामदमनुक्रस्याप्यर्थस्य संग्रहार्थ, यस्मात्संभवनाथयमपिशब्द उभयपदमध्यस्थ एतदावेदयति-यथा कुर्वन्तं नानुजानामि एवं कारयन्तमप्यन्यमनुज्ञापयन्तमप्यन्यं न समनुजानामीति तथा यथा वर्त्तमानकाले कुर्वन्तमन्यं न समनुजानामि एवमपिशव्दादशीतकाले कृतवन्तमपि अनु ७२ 6 (२=५ ) अभिधानराजेन्द्रः । पक्किमण शापितवन्तमपि, एवमनागतकालेऽपीति, तथा न क्रियाक्रियावतोर्भेद एवातो न केवला क्रिया संभवतीति ख्यापनार्थमन्यग्रहणमिति । तथा तस्य त्रिकाल भाविनोऽधिकृतप्राणातिपातस्य संबन्धिनमतीतमवयवं न तु वर्त्तमानमनागतं वा, अतीतस्यैव प्रतिक्रमणत्वात् भदन्तेति गुर्वामन्त्रणं प्राग्वत्, प्रतिक्रमामि मिथ्यादुष्कृतं तत्र प्रयच्छामीत्युकं भवति, तच्च द्रव्यतो भावतश्च संभवति । तत्राऽऽये कुलालोदाहरणम् 3 "फिर एगया एगस्स कुंभगारस्स कुडीए साइडिया त त्थेगो चिह्नगी चपलत्तणेण तस्स कुंभगारस्स फोलालाणि अंगुलियayari पाहाणेहिं विधेइ । कुंभगारेण पडिग्गिश्रो दिट्ठो भणिश्रो खुट्टगा ! कील मे कोलालागि कासि ? | खुड्डगो भइ-मिच्छामि दुक्कडं न पुणे विंधिस्सं मरणागं पमायं गयो मिति । एवं सो पुणो वि केलीकिलत्तणेण विधेऊरा बोओ मिच्छामि दुई देश । पच्छा कन्नामोडओ कुंभकारेण सढो त्ति नाऊण तस्स खुड्डगस्स दियो । सो भरा-दुक्खविथोऽहं कुंभकारो भगर मिला मि दुकडं । एवं सो पुणे पुणे कन्नामोडयं दाऊण मिच्छा मि बुक करे। पच्छा वेली भग-सुंदर म च्छामि तुक ति कुंभकारी भनुम्भ वि परिसंच मिच्छामि दुई ति । पच्छाठियो विधेषव्यरस ।" किं च "दुक तिमिच्छा तं चेच निसेवई पुला पार्थ । पच्चमुसाबाई मायानियडीपसंगी य ॥ १ ॥ " द्रव्यप्रति क्रमणम् । 1 भावप्रतिक्रमणे तु मृगावत्युदाहरणम्"भगवं वद्धमाणसामी कोसंबीए समोसरिश्र । तत्थ चंदसूरा भगवो दगा सविमाणा ओरग्रा तरथ मिगावई श्रजा उदयणमाया उ दिवसो ति काउं चिरं ठिया । सेसाओ साहु तित्थगरं वन्दिऊण पडिगयाश्रो, चन्दसूरा विखट्टा पत्ता ताहे सिग्यमेव पिपालीहूयं मिगाचं वि संभत्ता गया सोवस्वर्य, साहुगीओ विकवावस्वयाची अत्यंति । तच मिगाय आलए पत्ता अदा भन्न फीस अजे चिरं दिवासि जुनं नाम तुझ उत्तमकु लपसूयाए एगागिणीए एच्चिरं श्रत्थिउं ति । सा सभा - वे मिला कि भरामाणी अजापानि चडिया | अरजचंदखाए वेतिविताए बेलार संचारणगयाए निद्दा आगया, मिगावईए वि तिव्वसंवेग मावन्नाए पायवडियाए चेव केवलनाएं समुप्पन्नं । सप्पो य तेणं मग्गेणं समागम, अञ्जनंदसार संधारणाओ हत्थो लंबर। मिगावईए मा खजिहि त्ति सो हत्थो संधारगं चडाविश्री । सा विबुद्धा भराइ किमेवंवितुसितिमि च्छामि दुक्कडं, निद्दापमापणं न उट्टविवासि । मिगावई भराइएस सप्पो मा भे खाहिर त्ति अओ हत्थो चडाविश्रो । भ इ-- कहिं सो ? सादारइ । अज्जचन्दा अपेच्छमाणी भराइअज्जे ! किं ते अइसन । सा भराइ श्रामं । तो किं छाउमत्थिश्रो, केवलिओ त्ति । सा भण्इ केवलिओ त्ति । पच्छा अज्जचंन्दणा मियावईए पाएसु पडिउं भणइ-मिच्छामि दुकडं, केवली आसाहति।" इदं भावमतिक्रमणम् । किञ्च - जइ य पडिकमियव्वं, श्रवस्स काऊण पावयं कम्मं । तं चैव न कायचं, तो होइ पए पडिकंतो ॥ १ ॥ " तथा Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण (निदामि गरिदामीति ) अत्राऽऽत्मसाक्षिकी निन्दा, परसाक्षिकी गही जुगुप्सोच्यते । निन्दाऽपि द्रव्यतो, भावतश्च संभवति । तत्र द्रव्यनिन्दा चित्रकरदारिकाया इव"सा फिर चित्तगरदारिया ओवरथं पचिसि कथादागि पिहिऊण चिराग मणिवर वीराणि य पुरी कार्ड अप्पा निन्दिवाइया जहा तुमं वित्तगरदारिया एयाणि ते पि इसंतिषाणि वेलाणि श्राभरणगाणि य इमा पुरा पहंसुपरयणमाझ्या रायसरी अन्नाओ व उन्नयकुलपसूयाश्री राया मोड़े राया तुम अपत्त तामाक रेसि त्ति । एसा दव्वनिंदा। " , भावनिन्दा ( २८६ ) अभिधानराजेन्द्रः | 66 'साहुणा श्रप्पा निंदियव्वी-' जीव ! तर हिंडते नारयतिरियस कह चि माणुस सम्मत्तनागरितानि तदाणि, जेसि पसारण सव्वलोप माराणिजो पूयणिजो य, ता माग काहिसि जहा अब उत्तमवरितो दसि । " तथा - " हा दुदु कथं हा दुइ-दु कारियं श्रणुमयं पि हा दु | तो अंती उज्झइ. सिरो व्व दुमो वणदवे" ॥१॥ इति । गोऽपि द्रव्यती भावतश्च भवति तत्र इव्यगहीयां मरुकउदाहरणम् "आनंदपुरे नपरे मो मरुओ सो सुहार समं संवासं काऊ उवज्झायस्स कहें, जहा सुविषय सुहाए समं संवासं श्रमिति । " भावगर्हायां तु साधुरुदाहरणम्"गंतरा गुरुगा, काऊराव अंजलि विश्यमूलं । जह अप्पणो तह परे, आणवणा एस गरिह त्ति ॥ १ ॥ " किं जुगुप्सा ?, इत्याह श्रात्मानमतीतप्राणातिपातक्रियाकारिरामाण्यम् तथा ब्रजामीति विविधं विशेष वा भृशं त्यजामि अतीताणातिपातमिति गम्यते बाद ययेवमतीतप्राणातिपातप्रतिकममात्र मस्य सूत्रस्वेदम्पर्य न प्रत्युत्पन्न संचरणमनागतप्रत्याख्यानं येदि । नैतदेवम्- "सच्वं भंते! पाणावा परचक्ामि ।" इत्यादिना तदुभयसिरि ति । श्रपरस्त्वाह- ननु सर्वे भदन्त ! प्राणातिपातं प्रत्याख्यामीत्युके प्राणातिपातनिवृत्तिरभिधीयते, तदनन्तरं च व्युत्सूजामीतिशप्रयोग वैपरीत्यमायते तच यममांसा ऽऽदिविरमण क्रियाऽनन्तरं व्युत्सृजामीतिप्रयुक्ते तद्विपक्षत्यामी मांसभक्षणनिवृतिरभिधीयते । एवं प्राणातिपातविरत्य नन्तरमपि प्रयुक्ते व्युत्सृजामीतिशब्दे ऽवग स्वत इति न कविदोष इति सर्वोपि द्रव्यभावनेदाद द्विधा । तत्रोदाहरणं प्रसन्नचन्द्रो यथा 'खितिपट्टिए नगरे पसन्नचंदो राया । तत्थ य भगवं महावीरी समोसढी । तो गया धम्मं सोऊण संजायसंयेगी पर गीयाथो जाओ। अक्षया जिसक पि जिउकामों सत्तभावणाए अप्पा भावें । तें काले तेणं समर रायगि मा पडिमं पडिवो तत्थभग म हावीरो समोसढी । विरइयं देहिं समोसरणं । लोगो य बंदगी व पाणिया सुमुहम्मदनामी वि पराची तत्येय आगया पसन्द पडिमडियं पाऊस समय मणि-एससी असामी जो त हा परिसर पडियी अहो से धन्नया, अडो से कयपुन्नयत्ति । दुम्मुद्देगं भणियं कुतो एयस्स पडिक्कम' या जो असंजायचलं तं जे विऊस पओ सां तबस्सी दाइपहिं परिभविजय, नगरं च उत्तमं खयं पडिवनं, ता एवमणेण बहुलोगो दुक्खे ठचिश्रो, ता स 1 हा व एसो ति । ताहे तस्स रायरिसिणो कोवो जाओ चितियं चारो को मम पुत्तस्स करेति नूराममुगतो ता किं तेण पयावत्थं गश्रो वि सं वावाएमि माणसंगामेण रोहरभारी पवन हत्था हथि आण असं पावार ति विभासा इत्थंतरे शिश्री भग वो बंदिउं निग्गच्छद्द, तेरा दिट्ठो बंदिश्री य । तेरा ईसि पि न निस्कार ती संणिरण वितिर्थ-सुकन्याari भगवंता ईदिसम्मि भाणे कालगयस्स का गई भव इत्ति भगवंतं पुच्छिस्लामि तत्र गओ बंदिऊण पुच्छि - श्री भगर्व जम्मा डिओ मए बंदिश्री पन्न चंदो तम्मि मयस्स कहिं उववाश्रो भवइ ? | भगवया भ शियं आहे सत्तमपुढवीण तओं सेखिपण चिंतियंहा कि यंति। पुणो विपुच्छरसं । एत्थंतरम्मि पसन्न चंदस्त माणसे संगामे पहाण नायगेण सहावडियस्स असिसत्तिचक्ककप्पगीपमुहाई खयं गयाई पहरणाई, तओ रोग सिरताण वाचाणमिति परामुखियमुत्तमं जावलोयं कर्म पासति तम्रो संवेगमा अर्थता मुज्झमाणपरिणामेण असा निंदि पट्टी समाहिमपुर सुभा एस्तर से भगवं पुणो वि पुजारिसे भागे संप स चंदो वह तारिसे मयस्स को उववाश्रो ? | भगवया भणियं श्रणुत्तरसुरेसुं । तश्रो सेणिरण भणियं पुब्वं किमन्नहा परूवियं उयाहु मया श्रनहाऽवहारियं ति । भगवया भणियं - नन्ना परूविश्रं नावि तर श्रन्नाऽवगयं । तश्रो सेखिएण भणियं कमेति । तम्रो भगवया सच्वो वुत्तं तो साहिश्रो । एत्थंतरम्मि पसन्न चंद महरिसियो समीचे दिव्वो देवदुंदुहिसणाहो महंतफलवलो ओडाइओ तथा लेखिए भणियं भयवं ! किमेयं ति । भगवया भरियं-तस्व वि सुज्झमाण परिणामस्त केवलनाणं समुप्परणं | तो देवो से महिनं करेति त्ति व्यसना । एवं प्रसन्नचन्द्रो वव्युत्सर्गयोरुदाहरणं विशेष इति । पा० । (प्रत्याख्यानभेदाः 'पञ्चकखाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २६४ पृष्ठे गताः ) , प्रकृतमुच्यते दह व सूक्ष्मं वा बादरं वेत्यादिना द्रव्यमाणानिपातनेन बैंक सजातीयसमिति न्यायाच्य विः प्राणातिपात उपलक्षित इत्यतस्तदभिधानाया 558से पाणाइवाए चउबिहे पन्नत्ते । तं जहा- दव्वओो, खित्तओ, कालओ, भाव। दव्य गं पारणाइवाए छसु जीवनिकास, खेतो गं पारणाइवाए सव्वलोए, कालओ गं पाणावा दिया वा राम्रो वा, भावओो णं पाणाइवाए रागेण वा दोसेण वा । ( सेति ) स पूर्वोक्तः प्राणातिपातः प्राणिप्राणवियोगः, चतुर्विकारः मितिः तद्यथा-व्य तो द्रव्यप्रधानतात्सल्य फालत कालं प्रतीत्य, भावतः भावमुररीकृत्य । एतानेव व्याच-द्रव्यत इति व्याख्येयपदपरामर्शः एमिति वाक्यालङ्कारे। प्राशातिपातः पद पदजीनामाऽऽदि Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिक्रमण प्राण संभवतः प्राणानिपातः सर्प के विग्ल का 35 विभ दीति । कालती मिति शग्यत् प्राणातिपादिवावास वा समुच्चये । रात्रौ रजन्यां वा समुच्चय एव स्यादिति । भाधतो, समिति प्राग्वदेय, प्राणातिपातो रागेण मांसाऽऽदि खाऽऽयभिप्रायल सेना55परामस्वरू वादी समुच्चये स्यादिति भावपदमुत्या चतु भङ्गिका चात्र । तद्यथा द्रव्यतो हिंसा भावतश्च १ तथा द्रव्यतो न भावतः २ तथा भावतो न द्रव्यतः ३, तथा-न द्रव्यतो न भावत इति ४ । तत्रायं भङ्गकभावार्थ:-द्रव्यतो, भावतश्चेति । 'जह केंद्र पुरिसे मियवहार परिस्ते मियं पसित्ता आयचाहियकोदरादजीये सरं निखिज्जा से व मिगे तेरा सरेण विद्धे मए सिया एसा दव्वओो हिंसा, भावओो वि । या पुनर्द्रव्यतो न भावतः सा खल्वीर्याऽऽदिसमितस्य साधोः कारणे गच्छत इति । (२८७) अभिधानजे | 1 उक्तं च"उच्चामि पाए, हरियासमियरस संकमाए। वावज्जेज्ज कुलिंगी, मरेज्ज तं जोगमासज्ज ॥ १ ॥ न उ तस्स तन्निमित्तो, बंधो सुमो वि देसि समए । अणवज्जो उवांगे- सव्वभावेण सो जम्हा ||२||" इत्यादि । या पुनवतो न इम्जा के रिसे मंदमंदवाले पर संठियं ईसि वलिवकार्य रज्जुं पासित्ता एस श्रहि त्ति तथ हा परिणामपरिप विकास दुनिएला भाषी हिंसा न दओ ।" चरमभङ्गस्तु शून्य इति । एवं प्राणातिपातं मेोऽभिपायाथ तस्वतीतकालविहितस्य सविशेषनिन्दाप्रतिपादकं सूत्रमाह- जे गए इमस्त पम्यस्त केवलिपद्मवस्य अहिंसालक्खस्स सच्चाहियस्स विण्यमूलस्स खतिप्पहारास्स अहिरानजिगर उवसमप्यभवस्स नवभवेरगुत्तरस अपयमाणस्स भिक्खावित्तिस्स कुक्खीसंक्लस्स निरग्गिसरस संपलालयस्य चत्तदोसस्स गुगाहियस्स निव्वियारस्स निवित्ती लक्खणस्स पंचमहव्वयजुत्तस्स असंलिचियरस अविवाइयस् संसारपारगामिस्स निव्यारागमणपज्जव साग फलस्स पुचि पाणयाए असवणarrator भगमेणं अभिगमेण वा पमाए रागदोसपडिबद्धयाए बालयाए मोहयाए दयाए किड्डयाए तिगास्वगख्याए उकसायवगएवं पंचिदियोस पप्पनभारियाए सायासोक्खमशुपालयतेां उह वा भवे असे वा भवग्गहोमु पाणाइवाओं को वा काराविओ करतो वा परेहिं समा । तं निंदामि गरिहामि तिहिं तिविणं मणं वायाए कारणं || अत्र च यो मयाऽस्य धर्मस्य केवलिप्रज्ञप्ताऽऽदिद्वाविंशतिवि शेषविशेवितस्य पूर्वमज्ञानताऽऽदिभिश्चतुर्भिः प्रसादाऽऽदिसिकाइश कारः प्राणातिपातः कृतस्तं निन्दाया दिसंवस्थी (त) परिक्रमा इति योगः । भाषामा वा यदिति पदं व्याख्येयम् । मयेति प्रतिक्रामक साधुरासानं निर्दिशति । श्रस्य स्वहृदयप्रत्यक्षस्य धर्मस्य कात्सर्ववारिवाऽऽत्मकस्य, त्र - " जंपि य मए इसस्स धम्मस्स" तथा " जं पि य इमं श्रम्हार्ट इ. मस्त धम्मस्स " इत्यादि पाठान्तरायुक्तानुसारतः स्व. यं व्याख्यानीति किविशिष्ट, सर्व१ तथा दिना प्राणिसंरक्षणं लक्ष नि यस्यासौ अहिंसालक्षणः सत्त्वानुकम्पानुमेय संभव इत्यर्थस्तस्य । २ । तथा सत्येनावितथभापरं नाधिष्ठितः समाश्रितः सत्याधिष्ठितः सत्यवचनव्याप्त इत्यर्थस्तस्य । ३ । तथा - विनयो विनीतता मूलं कारणं यस्यासौ विनयमूलो विनयप्रभव इत्यर्थस्तस्य । ४ । तथा क्षान्तिः क्षमा प्रधाना सारभूता यस्यासौ क्षान्तिप्रधानस्तस्य |५| तथा हिरण्यं रजतं सौवकिं सुवर्ण कनककलशाऽऽदि न पिथेते हिरण्यसीव के यवासी अहिरण्यसाय किम उपलक्षणत्वात्सर्वपरिहरहित इत्यर्थस्तस्व |६| थोपशम इन्द्रियनइन्द्रियजयत्तस्मात्प्रभवो जन्मोत्पत्तिर्यस्वासी उपमप्रभव इन्द्रियमनोनितलभ्य इत्यर्थस्तस्य । ७। तथा नवर्याणि दिलीपात् वसतिकथा 5वास्तानि संरक्षित नवग्रह्मचर्यमि | म । तथा न विद्यन्ते पचमानाः पावका यत्रा. गुप्तस्तस्य सौ पचमानः, पाककि पावितिवृत्तसत्त्वासेवित इत्यर्थः । अथवा पचने पचमानो, न पचमानोऽचमानो धर्मो, धर्मधर्मिणोरभेदोपचारात् एवमन्यजापि द्रष्टव्यम् | ६ | अतएव मायाक्कादे परत या साधककालमा मातिस्तस्य १० तथाकुक्षावेव बहिः सञ्चयाभावाज्जर एव शस्वलं पाथेये यप्राती कक्षिदम्यतस्तस्व । ११ तथा निर्गतमः पावकाच्छरणं शीताऽऽदिपरिवाणं यत्र । श्रथवा निर्गते स्वीकाराभायाशिर पिने यत्राली भिरभिरणः । निर्धन स्मरणं बलाली निरक्षिस्मरणस्तस्य । १२ । तथा-संप्रज्ञालयति मत्वं सम्मा ली, तस्य, कप्रत्ययोपादानाद्वा सम्प्रज्ञालिकस्य, सम्प्रक्षालि तस्य वा सर्वदोपसल रहितस्य । १३ । अथ [ तथा ] त्यक्का हानि नाता चनावमापादिता इति यावदोष मिथ्यात्वाज्ञानाविषणानि वेनामी अथवा saiतिलक्षणो यस्मिन्नसौ त्यक्तद्वेषस्तस्य । १४ । श्रत एव गुणग्राहियों गुणशीलस्य प्रत्ययविधानाद्गुणा हिकस्य वा पाडास्तरम् । तथाहि वारद गुणयहणपरा एव भवन्यन्यथा धर्मस्यैवाभावप्रसङ्गात् । यदाह - " नो खलु अपरिवडिए, निच्छी मलिए व स म होइन परिणामी जु " | १२ तथा नियो विकास काममा यस्मादस निर्विकारस्वरूप १६ तथा निस्सिर्वा योगोपरमभावस्य । १७ । तथा पञ्च महाव्रतयुकस्येति प्रतीनं नवरम्-अहिंसालक्षणस्येत्याद्यभिधानेऽप्यस्याभिधा नं मानतानां प्राधान्यापनार्थमनुमहाजनसंग्रहार्थ च तथाहि नावासादानं कल केनापि विशेषानिहितमतो युज्यते श्रस्य विशेषणस्योपन्यास इति । १८ । तथानव निधिदोदकज्जूरीस्यादेः पर्युषित 3 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८८ ) अभिधानराजेन्थः । परिक्रमा स्य सञ्चयो धारणं यत्रासावसंनिधिसञ्चयस्तस्य । १६ । तथा - श्रविसंवादिनो दृष्टेष्टाविरोधिनः। पाठान्तरे वा श्रविसंवादितस्य सद्भूतप्रमाणावाचितस्येत्यर्थः ॥२०॥ तथा-संवा रपारं भवावतीरं गमयति तदारूप्र यतीति संसारपारगामी तस्य रूप्रत्ययोपादानात् संसा पारगामिकस्य वा । २१ । तथा निर्वाणगमनं मुक्तिप्राप्तिः, पर्यवसाने श्रानुषङ्गिकसुरमनुजसुखानुभवपर्यन्ते, फलं कार्य यस्यासौ निर्वाणगमनपर्यवसानफलस्तस्य । २२ । एवंविधस्य धर्मस्य पूर्व प्रतिपत्तिकालात्प्राक् श्रज्ञानतया सामान्यतोऽवगमाभावेन | १ | तथाऽश्रवणतया प्रज्ञापकमुखादनाकरी नभावेन २ अथवा श्रवणेऽपि [ अवोहिए नि] अयोध्या अबोधेन यथावद्धर्मस्वरूपापरिज्ञानेन । ३ । अथवा व्यवहारतः श्रवणावगमसङ्गावेऽपि [ अणभिगमे ति ] अनभिगमेन सम्यगमतिपत्वेत्यर्थः । अथवा ( अभिगमेस यति विभव्यित्ययादभिगमे वा सम्यग्धमेतिपती वा प्रमादेन मद्यविषयाऽऽदिलक्षणेन १ तथा रागद्वेषप्रतिबद्ध तया रागद्वेषाऽऽकुलतयेत्यर्थः २ तथा बालवया शिशुतया अपण्डिततया वा । ३ । तथा मोहतया विचित्ततया मोहनी - कर्म्माssयत्ततया वा |४| तथा मन्दतया कायजडतया, अ लसतयेत्यर्थः । ५ । तथा-( किड्ड्याए त्ति) कीडतया केलीकिया, तादिक्रीडनपरतयेत्यर्थः । ६। तथा विगीररुकतया ऋद्धिरसातलगीवत्रिक भारिकतया । ७ । तथा चतुःपायोपवेन कोधाद्यगमनेनेत्यर्थः तथा पञ्चेन्द्रिया स्पर्शनादिपीकाणामुप सामीप्येन परा श्रायत्तता, वर्णलोपात्पञ्चेन्द्रियोपवशस्तेन यदार्त्तमार्त्तध्यानं, सत्यर्थः, पञ्चेन्द्रियपा तेन तथा-(पड़प्पन्नभारियाए त्ति ) इह प्रत्युत्पन्नं वर्त्तमानमुत्पन्नं वोच्यते, तत श्च प्रत्युत्पन्नश्चासौ भारश्च कर्मणामिति गम्यते । प्रत्युत्पन्नभारः, स विद्यते यस्यासौ प्रत्युत्पन्नभारी, तस्य भावः प्रत्युत्पन्नभारिता तया कर्मगुरुतयेत्युक्तं भवति । पाठान्तरस्तु प्रतिपूर्ण भारितया भावार्थ पूर्ववत् १० तासातासा तवेदनीय कर्मणः सकाशात्सुखं शर्म सातसुखम् अथवा सातं च तत्सुखं च सातसुखमतिशयसुखं तदनुपालयताअनुभवता सुखाऽऽलक्रमनसेत्यर्थः पाठान्तरेण तु सदा सर्व काले सुखमनुपालयति व्यक्तम् ॥११॥ (स) विन्दुलोपात् इद यास्मिनुभूयमाने भवे मनुष्यजन्मनि, अन्धेषु वा अस्माज्जन्मनोऽपरेषु भवग्रहणेषु जन्मोपादानेषु प्राणातिपातः कृतो वा स्वयं निशितः कारितो वावैविापितः पिमा वा विधीयमानः पररन्धः समनुज्ञातोऽनुमोदि तस्तं प्राणातिपातं निन्दामि स्वप्रत्यक्ष जुगुप्से, तथागहमि गुरुसमक्षं जुगुप्से, त्रिविधं कृतकारितानुमतिभेदा कार त्रिविधन त्रिप्रकारेण करसेन तदेवाऽऽदमनसा वाचा कायेनेति प्रतीतमेव ॥ (२४) साम्प्रतं त्रैकालिकप्राणातिपातविरतिं प्रतिपादयन्नाहअयं निंदामि, पप्पन्नं संवरेमि, अणामयं पच्चक्खामि सव्वं पारणाइवायं । अतीतमतीतकालकृतं निन्दामि तथा वर्त्तमा न समयसम्भविनं संवृणोमि, भवन्तं वारयामीत्यर्थः । तथाअनागतं भविष्यत्कालविपयं प्रत्याष्यामीति पूर्ववत् किं । पंडिकमगा तदित्याह सर्व समस्तं न पुनः परिस्रमेय प्राणातिपातं जीवितविनाशम् । इदमेवानागतप्रत्याख्यानं विशेषयन्नाहजावज्जीवre अणिसिहं नेव सयं पाणे अइवाए जा नेवनेहिं पाणे वायवेजा पाणे अवायंते वि ने न समजाणामि । यावज्जीवं प्राणधारणं यावत् अनिश्रितोऽहम् इहपरलोकाशंसाविप्रमुक्तोऽहं ममेतो व्रतानुपालनात्किञ्चिदमरसुखं या भृयादित्याकाङ्क्षारहित इत्यर्थः । नैव स्वयं प्राणानसून ( अवाज्जत्ति ) उतोरतिपातयामि विनाशपा नैवान्यैः प्राणान ( ) अतिपातयामि प्राणानतिपातयतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि, क्वापि " नेव सयं " इत्यादि पदानि न दृश्यन्ते । कतिसाक्षिकं पुनरिदं प्रत्याख्यानमिति चेत् , उच्यते-अदादिपञ्चकसाचिकम् । एतदेव दर्शयति तं जहा - अरहंतसक्खियं सिद्धसक्स्वियं साहसक्खियं देवसक्खियं सक्खियं । तद्यथेत्युपदर्शनार्थः, श्रर्हन्तस्तीर्थकरास्ते साक्षिणः समक्षभाववर्त्तिनो यत्र तत्, " शेषाद्वा " ।। ७ । ३ । १७५ । इति कप्रत्ययविधानादईत्साक्षिकं प्रत्याख्यानक्रियाविशेषणं - तत्। एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यम् । तथाहि इहे क्षेत्रवर्त्तिनोऽन्य क्षेत्रव तिनो वा तीर्थकराः केवलवरज्ञानप्रधानचक्षुषा ममेदं प्र त्याख्यानं पश्यन्तीत्यतस्तत्साक्षिकमुच्यते एवं विजा मुक्ति पद प्राप्ताः साक्षिणो दिव्यज्ञानभावेन समक्षभाववर्तिनो यत्र तसिद्धसाक्षिकम् आह उभयप्रत्यक्षभावे लोके साक्षिकव्यवहा री रूढः, न चात्र प्रत्याख्यान कर्तुः सिद्धाः प्रत्यक्षाः अतीन्द्रि ज्ञानगोचरत्वात्तेषां तत्कथं ते तस्य साक्षिणः । उच्यतेश्रुतवासितमतेस्तत्स्वरूपशस्य तस्य ते भावकल्पनया प्र त्यक्षा इवेति कथं न साक्षिण इति । तथा-साधवो मुनयस्ते सातिशयज्ञानचन्त इतरे वा विरतिप्रतिपत्तिसमयसमीपवर्तिनः साक्षिणो यत्र तत्साधुसाक्षिकम्। तथा देवा भ नपत्यादयस्ते जिन भवनाऽऽद्यधिष्ठाविनस्तिर्यग्लोकसरि वा विरतिप्रतिपत्तिक्रमभाविनत्यवन्दनापचारा त्समीपमुपगताः स्वस्थानस्था या कथञ्चिदद्वीपसमुद्रान् प्रति प्रयुक्तावधयः साक्षिणो यत्र तद्देवसाक्षिकम् । यदाह चू र्णिकार:- “ विरहपडिवत्तिकाले चिइवंदणादणोवयारेण अवस्समहासंनिहिया देवया सविहामि भवर अतो देवसक्खियं भणियं । ग्रहवा भवणवइजोइसवेमा - या देवा खात्था देव महापत्तीबहिणा दीदीच पज्जवेहिं समुदं समुद्दपज्जावेहि बहवे नारयतिरियमरण्यदेवेयभावले पेमाला साहु पि पाहावायरिई पडियक्षमा पेच्छति विसेस तिरियजम्भगा दियरा दिसिविदिसासुं चरंति त्ति । " तथाऽऽत्मा स्वजीवः स स्वसंवित्प्रत्यक्ष विरतिपरिणामपरिणतः साक्षी यत्र तदात्मसाक्षिकम् । इह च ससाक्ष्यं कृतमनुष्ठानमत्यन्तदृढं जायत इति साक्षितः प्रतिपादिताः । पृथग्जनेऽपि प्रततिमेवैतद्यदुत ससाक्षिको व्यवहारी निश्चलो भवतीति । एवं च कृते यत्पद्यते तदाह एवं हवइ भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयप Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिकमण अभिधानराजेन्दः। पडिकमण चक्खायपावकम्मे दिया वा राश्रो वा एगो वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा । एवमिति प्रागुक्तप्रत्याख्याने संपन्ने सति, किमित्याहभवति जायते, क इत्याह-भिक्षुर्वेति-प्रारम्भत्यागाधर्मकायपरिपालनाय भिक्षणशीलो भिक्षुः। एवं भिक्षुक्यपि,पुरुषोत्तमो धर्म इति कृत्वा भिनुर्विशेष्यते । तद्विशेषणानि च भिक्षुक्या अपि द्रष्टव्यानीत्याह-संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा-तत्र सामस्त्येन तः संयतः सप्तदशप्रकारसंयमापेतस्तथा विविधमनेका द्वादशविधे तपसि रतो विरतस्ततश्च संयतश्चासौ विरतश्च संयतविरतः । तथा प्रतिहतं स्थितिहासतो अन्थिभेदेन विनाशितं प्रत्याख्यातं च हेत्वभावतः पुनर्वृद्धयभावेन निराकृतं पापमशुभं कर्म ज्ञानाऽम्बरणीयाऽऽदि येन स तथाविधस्ततः पुनः पूर्वपदेन सह कर्मधारयः । दिवा वा दिवसे वा, रात्री वा रजन्यां वा, एकको वा कारणिकावस्थायामसहायो चा, पर्षद्गतो वा साधुसंहतिमध्यवर्ती वा, सुप्ती वा रात्रिमध्ययामद्धये निद्रागतो वा, जाग्रद्वा निद्रावियुक्तो वेति । साम्प्रतं प्राणातिपातविरतिमेव स्तुबन्नाहएस खलु पाणाइवायस्स वेरमणे हिए सुहे खमे निस्सेसिए अणुगामिए सब्बोसि पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसि सत्ताणं अदुक्खगयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपीडणयाए अपरियावणयाए अणोदवणयाए महत्थे महागुणे महाणुभावे महापुरिसाणुचिथे परमरिसिदेसिए पसत्थेतं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मोक्खयाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए त्ति कद्दु उवसंपजित्ता णं विहरामि। (एस त्ति) लिङ्गव्यत्ययादिदमधिकृतम्,खलु निश्चयेन,प्राणातिपातस्येति विभक्तिव्यत्ययात्प्राणातिपाताज्जीवहिंसायाः (वेरमणे ति) विरमणं निवृत्तिर्वर्तते । किमित्याह-(हिए त्ति) हितं कल्याणं तत्कारित्वाद्धितं पथ्यभोजनवत् । तथा-सुखं शर्म तद्धेतुत्वात्सुखं पिपासितशीतलजलपानवत् । तथा-क्षम युक्त सङ्गतमुचितरूपमिति यावत् । तथा-(निस्सेसिए त्ति) प्राकृतत्वन यकारलोपात् निःश्रेयसो मोक्षस्तत्कारणत्वान्निःश्रेयसं तदेव निःश्रेयसिकम् । तथा-प्रानुगामिकमनुग. मनशीलं भवपरम्पराअनुबन्धिसुखजनकमित्यर्थः । कथमिदमेवंविधमित्याह-सर्वेषां निःशेषाणां प्राणा इन्द्रियपञ्चक मनःप्रभृतित्रिविधबलोच्छासनिःश्वासाऽऽयुलक्षणा असवो विद्यन्ते येषां तेऽतिशायनार्थमत्व यात्प्रत्ययविधानासमग्रप्राणधारिणः प्राणाः, पञ्चेन्द्रियप्राणिन इत्यर्थः । तेषाम् । तथा-सर्वेषां समस्तानामभूवन् भवन्ति भविष्य. न्ति चेति भूतानि पृथिवीजलज्वलनपवनवनस्पतयः कालप्रयव्यापिसत्तासमन्वितास्तेषाम् । तथा-निरुपक्रमजीवितेन जीवन्तीति जीवाः देवनारकोत्तमपुरुषाऽसङ्ख्येयवर्षाऽऽयुस्तिर्यड्नरचरमशरीरिलक्षणा यथोपनिबद्धजीवनधर्माणस्ते. षाम् । तथा-सर्वेषां लोकोपकारमात्रहेतुसत्त्वोपेतत्वात्सत्त्वाः सोपक्रमाऽऽयुषस्तिर्यङ्मनुष्याः असम्पूर्णप्राणभाजो द्वित्रि चतुरिन्द्रयाश्च तेपाम् । क्वाप्यमीषां परस्परमेवं विशेषो दृश्यते। यथा-" प्राणा द्वित्रिचतुःप्रोक्ताः,भृतास्तु तरवः स्मृताः। जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा इतीरिताः ” ॥१। ए. कार्थिकानि वैतान्यत्यादररक्षणीयताख्यापनाय नानादशज्ञ. विनेयानुग्रहाय प्रयुक्तानीति । एतेषां च (अदुक्खणयाए त्ति) अदुःखनतया अदुःखोत्पादनेन, मानसिकासातानुदीरणेनेत्यर्थः । तथा-शोचनतया शोकानुत्पादनेन । तथा-अजूरणतया शरीरजीर्णत्वाऽविधानेन, दृश्यन्ते चाऽऽरम्भिको जना भारवाहनाऽऽहारनिरोधकशलताशारानिपाताऽऽदिभिर्वृषभमहिषावकरिकरभरासमाऽऽदीनां शरीराणि जूरयन्तोऽतस्तदकरणेनेति । तथा-अपनतया स्वेदलालाऽश्रुजलक्षरण - कारणपरिवर्जनेन । तथा-अपांडनतया पादाऽऽद्यनवगाहनेन। तथा-अपरितापनतया समन्ताच्छरीरसन्तापपरिहारतः । तथा अनवद्रावणतया उत्वासनकरणाभावेन, मारणपरिहरणेन वा । किं च-इदं प्राणातिपातविरमणपदं महार्थ महान प्रभूतोऽर्थः फलस्वरूपाऽऽद्यभिधेयं यस्य तन्महाध महागी. चरम् । तथा-महांश्चासौ गुणश्च महागुणः,सकलगुणाऽऽधार. त्वान्महावतानामिति । तथा-महानतिशायी अनुभावः स्वर्गापवर्गप्रदानाऽऽदिलक्षणं माहात्म्यं यस्य तन्महानुभावम् । तथा-महापुरुषैस्तीर्थकरगणधराऽऽदिभिरुत्तमनरैरनुचीर्णमे. कदासेवनात्पश्चादप्यासेवितं महापुरुषानुचीर्णम् । तथा-परमर्षिभिस्तीर्थकराऽऽदिभिरेव देशितं भव्योपकाराय कथितं परमर्षिदेशितम् । तथा-प्रशस्तमत्यन्तशुभं सकलकल्याणकलापकारणत्वात् , यतश्चयमतस्तत्प्राणातिपातविरमणं दुःखक्षयाय शारीरमानसानेकलेशविलयाय, कर्मक्षयाय शानाऽऽवरणाऽऽद्यदृष्टवियोगाय मोक्षाय,पाठान्तरतो मोक्षतायै,प. रमनिःश्रेयसायेत्यर्थः । बोधिलाभाय जन्मान्तरे सम्यक्त्वाऽ5दिसद्धर्मप्राप्तये, संसारोत्तारणाय महाभीमभवभ्रमणपारग. मनाय, मे भविष्यतीति गम्यते, इति कृत्वा इति हेतोः, उ. पसंपद्य तदेव सामस्त्यनाङ्गीकृत्य,विहरामि मासकल्पाऽऽविना सुसाधुविहारेण वत्ते, अन्यथा व्रतप्रतिपत्तेर्वैयर्थ्यप्रसङ्गादिति । अथ व्रतप्रतिपत्तिं निगमयन्नाहपढमे भंते ! महव्वए उवडिओ मि सव्याओ पाणाइवायाप्रो वेरमणं । प्रथमे भदन्त ! महाव्रते,किमित्याह-उप सार्माप्येन तत्परि. णामाऽऽपत्त्येत्यर्थः । स्थिती व्यवस्थितोऽस्मि अहं,ततश्च इत प्रारभ्य मम सर्वस्मानिःशेषात्प्राणातिपाताजीवहिंसाया विरमणं निवृत्तिरिति । अत्र च भदन्त ! इत्यनेन गुर्वामन्त्रणवचसाऽऽदिमध्यावसानोपन्यस्तेन गुरुमनापृच्छय न किञ्चित्कर्त्तव्यं कृतं च तस्मै निवेदनीयमेवं तदाराधितं भवतीत्येतदाह । दोषाश्चेह प्राणातिपातकर्तृणां नरकगमनाल्पाऽऽयुबहुरोगित्वकुरूपाऽऽदयो वाच्याः । इत्युक्तं प्रथमं महावतम् । इदानी द्वितीयमाहअहावरे दोच्चे भंते ! महव्वए मुसावायाप्रो वेरमणं,सव्यं भंते ! मुसावायं पच्चक्खामि, से कोहा वा १ लोहा वा २ भया वा ३ हासा वा ४,नेव सयं मुसं वएजा, ने Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६० ) अभिधान राजेन्द्रः । पक्किमण वहिं मुसं वायवेज्जा, मुसं वयंते वि ने न समरणुजामि, जावज्जीवतिविहं तिविहणं मरणेणं वायाए काएसे न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि अर्थ न समगुजाणामि, तस्स भंते पडिकमामि निंदागि, गरिहामि, अपाखं बोसिरामि ॥ अथेति प्रथममहावतानन्तरे अपरम्यस्मिन द्वितीये सूत्रक्रमप्रामाण्याद् द्विसङ्ख्ये, द्वितीयस्थानवर्त्तिनीत्यर्थः । भदन्त महायते किमित्याह-मृषावादी ! मणं सम्यग्ज्ञानश्रद्धानपूर्वकं सर्वथा नियर्तनं भगवतोक्तमि ति वाक्यशेषः । स च मृषावादश्चतुर्विधः । तद्यथा सद्भावप्र तिषेधः साधोद्भावनम् २ अर्थान्तराभिधानम् २ ग हवचनं च ४ । तत्र सद्भावप्रतिषेधी यथा- 'नास्त्यात्मा, ना. स्ति पुरपं पापं पेयादि" पात्वं चास्वाऽऽत्माऽऽभावे दानध्यानाध्ययनाऽऽदिसर्वक्रियावैयर्थ्यप्रसङ्गात् जगद्वेि व्याभावप्रसङ्गाच्च । असद्भावोद्भावनं यथा - "श्यामाकतन्दुलमात्र आत्मा ललाटस्थो, हृदयदेशस्थः, सर्वगतो वेत्यादि ।” अलीकता चास्य वचसः श्यामाकन्दुतमात्रे ललाटस्थे हृद देशस्थे या मनि सशरीरे सुखदुःखानुभवानुपपत्तेर्निंगत्मनि वस्तुनि वेदनाया अभावात्, सर्वजगद्यापित्वे सर्वत्र शरीरोपलम्भः सुखदुःखानुभवश्चाविशेषेण स्यान्न चैवं दृश्यते तस्मादलीतेति । श्रर्थान्तराभिधानम् -" गामश्वं ब्रुवाणस्पेत्यादि" कामे कामया काणमाह । एवमन्धकुजदासाऽऽदिष्वपि भावनीयम् । अथया परलोकमदगी हो वचनं गोवचनम्। तथ-दम्यन्तां वलीद ssदयः, प्रदीयतां कन्या वरायेत्यादि ।” यतअवमत उपादेयमेतदिति विनिश्चित्य सबै समस्तं भवन्त ! मृषावादमनृतवचनं प्रत्याख्यामि । ( से त्ति ) तद्यथा - क्रोधा. द्वा कोपात्, लोभाद्वा श्रभिष्वङ्गात् । श्राद्यन्तग्रहणाश्च मानमायापरिग्रहो वेदितव्यः । भयाद्वा भीतेः, हास्याद्वा हसनात्सकाशात् अनेन तु प्रेमद्वेषकलहाभ्याख्यानाऽऽदिपरिग्रहः । वाशब्दाः समुच्चये । श्रस्मात्किमित्याह-- (नेव सयं मुखं वएज्जत्ति ) नैव स्वयमात्मना, मृपा मिथ्या, वदामि वच्मि, नैवान्यैः परेषा वितथम् (वायांवेज्जति) वादयामि भा पयामि, मृषावदतोऽपि भाषमाणानप्यन्यानपरान् न नैव समनुजानामि अनुमोदयामि । कथमित्याह-यावज्जीवं या. यत्प्राणधारणम्, त्रिविधं कृतकारितानुमतिभेदात् त्रिप्रकार विविधमाका करन देवाऽऽ म नसा, वाचा, कायेनेति । श्रस्य च करणस्य कर्मोक्तलक्षणो मृषावादस्तमपि वस्तुतो निराकार्यतया सूत्रेणैव दर्शयशाह न करोमि स्वयं न कारयाम्यन्धः कुर्वन्तमप्यन्यं न सम नुजानामि तथा तस्य विकाल भाविनोऽधिकृतमृषावादस्य संवन्धनमतीतमय महन्त ! प्रतिक्रमामि भूतान्मृषावादा विऽहमित्युक्तं भवति । तसाच्य निवृत्तिदनुमते विरमण मिति । तथा निन्दामि गर्हामीति । श्रवाऽऽत्मसाक्षिकी निन्दा, परसाक्षिकी गह। श्राह च--" मणसा मिच्छादुक्कड. करणं भावेण इह पक्रिम सरिता निंदा गरिदा गुरुसमक्षं १ ॥ " सवरिवस्य स्वप्रत्यक्षमेव प ध्यातावों निन्देति । किं जुगुप्से, इत्याह-आत्मानमतीतनृपा परिक्रमा वादभाषि " तथा व्युत्सृजामि भूतमृषावाद परित्यजा मि. इह च कोचाद्वा भयात्यादिना भावतो मृषावादीभि हितोऽनेन चैकग्रहणे तज्जातीयग्रहणमिति न्यायाच्चतुर्वि धी मृपाबाद उपलक्षित इति । अतस्तदभिधानायाऽऽहसे- मुसावा व पत्ते तं जहा दव्वओो खित्तओ. कालच्यो, भावओो। दब्बओ गं मुसावाए सम्बद खेतां मुसावाए लोए वा अलोए वा कालो सावा दिया वा राम्रो वा, भावओो गं मुसावाए रागेण वा दोसेण वा ।। (ति) पूर्वानिति सुपायादधतुर्विधःद्यथा-द्रव्यतो द्रव्यप्राधान्यमाश्रित्य १, क्षेत्रतः क्षेत्रमङ्गीकृत्य २, कालतः कालं प्रतीत्य ३, भावतो भावमधिकृत्य ४ । द्रव्यतो, रामित्यलङ्कारे, मृषावादः सर्वद्रव्येषु, अन्यथाप्ररूपण धर्माधर्मादिसमस्तपदार्थेषु १ क्षेत्र समिति सर्वत्रालङ्कारमात्रे मृषावादः सोके या लोकचिपये, अलोक वा अलोकविषये । २ कालतो मृषावाद दिया या दिवसे अधिकरणभूत विषयभूते वा रात्री वा रजन्यामाधारभू तायां वा । ३ । भावतो मृषावादो-रागेण वा मायया लोभलक्षणेन वा तत्र मायया श्रग्लानोऽपि ग्लानोऽहं ममानेन कार्यमिति पक्रि. भिक्षाटन परिसिया वा पादपीडा मंत्रति भाषते इत्यादि । लोभेन तु शोभनतराऽन्नलाभे सति प्रा तस्यैपयत्ययमिदमिति इत्यादि । वा तवं दास इत्यादि मा नेन तु बहुश्रुत एव बहुश्रुतोऽहमित्यादि । उपलक्षणत्वाद्भहास्याsssह द्रव्याः। तत्र भयात्किञ्चिद्वितथं कृत्वा प्रायश्चित्तभयाच कृतमित्यादि भाषते । एवं हास्याऽऽदिष्वपि वाच्यमिति । ४ । द्रव्यभावपदप्रभवा चतुर्भङ्गिका चात्र द्रष्टव्या । सा पुनरियम् - "दव्य नामेगे मुसावाए, नो भावओो । भावश्री नामेगे मुसावार, नो दव्वओ। एगे दव्वश्रो वि, भावो वि । एगे तो दव्वओ, नो भावओ । तत्थ कोइ कंचिहि सुजु भाइ इथे तर पनिगाइ वीलिंगा दिति । सो पुरा दया विवि भगइन बिन्ति एस व्य मुसावाओ, न भावओो । अवरो मुसं भणिहामि त्ति परिण सहसा सच्च भराइ एसो भावग्रो, न दव्व । श्रवरो मुसं भािमिति परिमुचैव भइ एस वि भाव वि । चरिमभंगो पुरा सुन्नोति ॥ कोषमानस्वरूपेण 99 जं मए इमरस धम्मस्स फेलिप चस्स अहिंसालस्वस्स सच्चाहिट्ठियस्स विण्यमूलस्स खंतिष्पहाणस्स अहिरणसोवयस्स उवसमप्यभवास नवयंभचेरगुत्तस्स अपयमाणस्स भिक्खावित्तिस्स कुक्खी संचलस्स निरग्गिसरास्स संपक्खालियम्स चचदोसस्स गुणम्गहियस्स निव्वियास्स्स निविपीलवखस्स पंचमहल असंनिहिसंचय अविवाइस संसारपारगामिस्स निव्वाणगमणपजवसागफलस्स पृथ्वि पाए असणया अवोहिए अगभिगमे अभिगमेण वा पमाए रागदोसपडियाए बालयाए मोहयाए दबाए फिड्डयाए निगारबगुरुवयाए - Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्रमण (२६१) अभिधानराजेन्द्रः। पमिकमा कसाओवगएणं पंचिंदियोवसट्टेणं पड़प्पन्नभारियाए सा- क्खणस्स सच्चाहिडियस्स विणयमूलस्स खंतिप्पहाणस्स यासोक्खमणुपालयंतेणं इहं वा भवे अन्नेसु वा भवग्गहणे- अहिरनसोवन्नियस्स उवसमप्पभवस्स नवबंभचेरगुत्तस्स सु मुसावाओ भासिओ वा भासावित्रो वा भासिज्जंतो अपयमाणस्स भिक्खावित्तिस्स कुक्खीसंबलस्स निरवा परेहिं समणुन्नाओ तं निंदामि गरिहामि तिविहं | ग्गिसरणस्स संपक्खालियस्स चत्तदोसस्स गुणग्गाहियस्स तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं अईअं निंदामि पडु- निम्वियारस्स निवित्तिलक्खणस्स पंचमहब्बयजुत्तस्स प्पन्नं संवरेमि अणागयं पञ्चक्खामि सव्वं मुसावायं जाव- असंनिहिसंचयस्स अविसंवाइयस्स संसारपारगामिस्स निजीवाए अणिस्सिोहं नेव सयं मुसं वएज्जा, नेवऽन्नेहिं बाणगमणपज्जवसाणफलस्स पुचि अन्नाणयाए असव. मुसं वायावेज्जा, मुसं वयंते वि अन्ने न समणुजाणामि । णयाए अवोहिए अणभिगमेणं अभिगमेण वा पमाएणं तं जहा-अरहंतसक्खियं सिद्धसक्खियं साहुसक्खियं देव- रागदोसपडिबद्धयाए बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डसक्खियं अप्पसक्खियं एवं हवइ भिक्खू वा भिक्खुणी वा याए तिगारखगरुययाए चउक्कसाओवगएणं पंचिंदियओवसंजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खायपावकम्मे दिया वा राओ सट्टेणं पडुप्पन्नभारियाए सायासोक्खमणुपालयंतेणं इहं वा वा एगो वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा, एस भवे अन्नेसु वा भवग्गहणेसु अदिन्नादाणं गहियं वा गाहाखलु मुसावायस्स वेरमणे हिए सुहे खमे निस्सेसिए आणु- वियं वा घेप्पंतं वा परेहिं समणुनायं तं निंदामि, गरिहामि, गामिए सब्वेसिं पाणाणं सव्वेसि भूयाणं सम्बेसि जीवाणं तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं अईयं निंदामि, सब्वेसिं सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए पडुप्पन्नं संवरेमि,अणागयं पच्चक्खामि, सव्वं प्रदिन्नादाणं अतिप्पणयाए अपीडणयाए अपरियावणयाए अणोद्दवण- जावज्जीवाए अणिस्सिोहं नेव सयं अदिन्नं गिरहेजा, याए महत्थे महागुणे महाणुभावे महापुरिसाणुचिप्ले परम- नेवऽन्नेहिं अदिन्नं गिणहाविज्जा, अदिन्नं गिएहंते वि अन्नं रिसदेसिए पसत्थे तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए माक्खा- न समणुजाणामि । तं जहा-अरहतसक्खियं सिद्धसए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए ति कहु उवसंपन्जित्ता णं क्खियं साहुसक्खियं देवसक्खियं अप्पसक्खियं एवं हहिरामि । दोचे भंते ! महव्वए उवटिश्रो मि सब्बाओ | वइ भिक्खू वा भिक्खणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खामुसावायाओ वेरमणं ॥ यपावकम्मे दिया वा राम्रो वा एगो वा परिसागओ एतत् सकलमपि सूत्रं मृषावादाभिलापेन प्राग्वत्समवसे वा सुत्ते वा जागरमाणे वा एस खलु अदिनादाणस्स यमिति, नवरमिह दोषाः मृपाभाषिणां जिह्वाच्छेदाविश्वास वेरमणे हिए मुहे खमे निस्सेसिए आणुगामिए सव्वेसि सूकत्वाऽऽदयो वाच्याः । इत्युक्तं द्वितीयं महाव्रतम् । पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसि जीवाणं सव्वेसि सत्ताणं साम्प्रतं तृतीयमाह अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अहावरे तच्चे भंते ! महब्बए अदिनादाणाओ वेरमणं, अपीडायाए अपरियावणयाए अणुद्दबणयाए महत्थे मसव्वं भंते ! अदिसादाणं पञ्चक्खामि, से गामे वा नगरे वा हागुणे महाणुभावे महापुरिसाणुचिमे परमरिसिदेसिए पअरमे वा अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा सत्थे तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मोक्खाए घोहिअचित्तमंतं वा नेव सयं अदिमं गिरहेजा, नेत्रउन्नहिं अ लाभाए संसारुत्तारणाए ति कह उपसंपज्जित्ता णं विहदिमं गिराहावेज्जा, अदिम गिएहंते वि अन्नं न समणुजा रामि । तच्चे भंते ! महब्बए उवडिओ मि सवाओ अदि नादाणाप्रो वेरमणं । पा० । णामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए का (अदत्ताऽऽदानविरमणव्याख्या 'अदत्तादाणवेरमण' शएणं न करेमि,न कारवेमि, करतं पि अन्नं न समाजाणा ब्दे प्रथमभागे ५४० पृष्ठे गता) मि. तस्स भंते ! पटिकमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं अधुना चतुर्थमाहवोसिरामि । अहावरे चउत्थे भंते ! महब्बए मेहुणाम्रो वेरमणं, सव्वं से अदिन्नादाणे चउबिहे पणत्ते । तं जहा-दव्वो , खे- भंते ! मेहणं पच्चक्खामि, से दिव्यं वा माणुसं वा तिरिक्खतो, कालो, भावो । दव्यत्रो णं अदिनादाणे गहण- जोणियं वा नेव सय मेहुणं सेविजा,नेवऽन्नेहि मेहुणं सेवाधारणिज्जेसु दब्बेसु, खित्तमओ णं अदिन्नादाणे गामे वा वेजा, मेहुणं सेवंते वि अन्नं न समणुजाणामि, जावजीवाए नगरे वा अरणे वा, कालो णं अदिन्नादाणे दिया वा तिविहं तिविहणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि, न कारराओ वा, भावो णं अदिनादाणे रागेण वा दोसेण वा।। वेमि, करंतं पि अन्नं न समाजाणामि तस्स भंते ! पडिजं मए इमस्स धम्मस्स केवलिपएणत्तस्स अहिंसाल- कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोपिरामि ।। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६२ ) अभिधानरा जेन्सः | पडिकमण अथापरस्मिन् चतुर्थे चतुःसङ्घये भदन्त ! महामते मैथु नाद्विरमणं जिनेनेोक्तमतः सर्वे भदन्त ! मैथुनं मिथुनकर्म प्रत्याख्यामि । ( से त्ति) तद्यथा देवं या मानुषं या तैर्य ग्योनं वेत्यनेन द्रव्यपरिग्रहः । तत्र देवानामिदं दैवमप्सरोमरसंबन्धीति भावः । मनुष्याणामिदं मानुषं, स्त्रीपुरुष. सत्कमित्यर्थः । तिर्यग्योगी भयं तैर्यग्योनं वडवाश्वादिप्रम वमित्यर्थः । (नेव खयमित्यादि ) गतार्थम् । अत्र च देयं ये त्यादिना इव्यतो मैथुनमुकम् अनेन च चतुर्विधमैथुन पलक्षितमित्यतस्तङकाम आह से मेहुणे चउन्वि पाते। तं जहा दव्य खित्नओ, कालओ, भावो ४ । दव्व णं मेहुणे रूवेसु वा रूवसहगएसु वा, खितो गं मेहुणे उडलोए वा अहोलोए वा तिरियलोएवा, कालं मेहुणे दिया वा राम्रो, वा भावओो सं मेहुणे रागेण वा दोसेण वा ।। तन्मैथुनं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् । तद्यथा- द्रव्यतः १, क्षेत्रतः २० कालतः ३, भावतः ४ । तत्र द्रव्यतो मैथुनं रूपेषु वा रूपसहगतेषु वा द्रव्येषु भवति, तत्र रूपाणि निर्जीवनि प्रतिमारूपाण्युच्यन्ते, रूपसहगतानि तु सजीवानि पुरुषाइनाशरीराणि भूषणसहितानि तु रूपसहगतानि क्षेत्रतो मैथुनम् ऊर्ध्वो वा मेरुनशाना ऽऽदिषु संभ बति, अधोलोके या अर्थाग्राममापतिभवनाऽऽदिषु तिर्यग्लोके या द्वीपसमुद्राचलाऽऽदिषु। (पा० ) [ ऊर्ध्वीप्रमा गं स्थितिश्च' उडलोग ' शब्दे द्वितीयभागे ७५२ पृष्ठे प्रतिपादिता ] [ अधोलोक वक्तव्यता ' अहोलोय ' शब्दे प्रथमभागे ८१२ पृष्ठे गता ] [ तिर्यग्लोकवृत्तम् तिरियलोगशब्दे चतुर्थभागे २३२२ पृष्ठे गतम् ] प्रकृतमुख्यतेकालतो मैथुनं दिवा वा रात्री वा स्यात् । भावता मे धुनं रागेण वा मायया लोभलक्षणेन द्वेषेण या कोपमानलक्षणेन । तत्र मायया मैथुनसंभवो यथा-' एगो साहू एगाए अगारी संजायसंबंधी बाहुज्ञपार गरदस्त परिवारणाविरहमती निवड गुरुदिनंद जहा भव ! दु स मे गाढमुदरं ता अगुजाह जे पच्चासन्नगि ग तू हापयन्तम्गिणा पवावेनि गुरुणा वि श्रविन्नायपरमत्थे विसज्जिश्रो गन्तुरा अगारिं पडिसेवित्ता समागश्रो भइ-' उवसंता में वेयरा ति । ' लोमेन तु मैथुनसम्भवो ऽमुने।दाहरणेन भावनीयः'तगराए नयरीए अरिहमित्तो नाम आयरिश्रो विहरइ । त स य समीपे दत्तो नाम वाणियश्री भद्दाए भारियाए पुत्तेगय अरहन्नएस सद्धिं पव्वइओ । सो तं खुड्डगं न कयावि मिक्वा हिंडावे, पदमालियाई पीसर एवं वसो सुकु मालो जाओ, साहरा य अप्पत्तियं, जं सो भिक्खाइसु न हिंडा, परंतीवन तरंति किंचि मणि । अन्नया सोखती कालच तो साह ितरस दो तिन्निदि बसे भत्तं दाउ भिक्खाए ओयारिओ, सो सुकुमालसरीरो गिम्हें उपर हेडा व उती पस्यो श्रतीव तराहाभिभूत्रों छायाए वीसमंतो एगाए पउत्थवश्याए मणियमदार निवभवडिया रिद्धी, श्रीरालमुकुमालसरीतिका ती तहिं अनुराधां जाओ तो डीए सद्दावित्ता पुच्छिश्रो- ' किं मग्गसि त्ति । तेत्तं ' भि परिक्रमण - 6 क्खति । ' तत्र श्ररणाए दवाविया से य मोयगा । तो पुणो पुच्छि किं निमित्तं तुमं धम्ममिमं करोसि ?। सो भइसुदनिमित ती जंपियंस एवं तोमर स मार्ग भीगे भुजाहि मा हाथ सुहं परिव्याऊ असा गवसंदिजमुद्रापार अध्यायं किलेसे सि' सो विउ तज्जिश्र उवसग्गज्जतो य पांडेभग्गो पच्छन्ने ठिश्रो भोगे अजर, साहूहि य मग्गिश्रो, न दिट्ठो, पच्छा से माया उम्मतिया जाया पुनसोगेण नयरं भमंती अर नयं विलयंती जं जहिं पासइ तं तहिं सव्वं भणइ श्र रहन्न दिट्ठोत्ति । एवं विलवमाणी भयइ, जावन्नया तेणोलीयणगएण दिट्ठा, पच्चभिन्नाया। तत्रो ताहे चैव श्रोरित्ता पाए पडिओ । सा वि तं पेच्छिऊण ताहे चैव सत्थचित्ता जाया । ताए भन्नइ' पुत्तय ! पव्वयाहि ' मा ति त्थयराण माणं विराहिय दोग्गई जाहिसि ।' सो भइ-'अम्मो ! न तरामि दीहकालं संजमं परिवालिउं, जइ परं ग जिम विप्यमविहिणा कालं करेमि मायार भणियं एवं करेहि मा पुरुष ! अजय भविव संसारसागरे निमजाहि" यतः" वरं पवेद जलिये हुवास सं न याचि भगं विरसं वयं वरं हि मच्चू सुवि कम्मुणो, न याचि सीलक्खलियस्स जीवियं ॥ १ ॥” इति । पच्छा सो गुरुगा आलोय पडितो। समारोवियपंथ महव्ययभरी कयास भविष तांहे थे तत्ससिलायले पायवगम करे, मुहते सुकुमालसरीरीति नवदीय पिंडी व उस लीग सि 1 कोपेन पुनर्यथा "एगो साहू गामंतराओ गुरुसमीपमागच्छती अंतरा परि वाइयं संमुहमिति पेच्छिय एयाए पवयणपच्चयाए वयं भंजामिति पट्टचित्तो तत्थेव तं पडिसेवित्ता गुरुसगासमागओ कांदे जहा मए परिव्यापार वर्ष भांति मानेन पुनर्यथाएगम्म गच्छे एगो तर मोहरामि तं गा तरुण महिला श्रभोववन्ना चिंते-' श्रहो रहावट्ट हाइविभूसावियारविरयस्स वि इमस्स साहुस्स लावन्नसिरित्ति। तत्र सा तं बहुसो श्रोभासेद्द, न य सो तमभिलसइ, तो अन्नया तीए भणियं, जहा " फुडं तुमं नपुंसगो सि जो दहासुरचितं मणहरजो पि मं न मासि तसा वि संजायाहंकारेण सा दर्द पडिसेवियत्ति " इह च वेदप्रभवत्यान्नप्रवृत्तेर्वेदोदयसत्ता सर्वत्र समयसंपति यादिचतुङ्गी पुनरियन" ना मेगे मेहुणे, नो भावओ । भावओ नामेगे, नो दव्वो । एगे दव वि, भाव वि । एगे नो दव्वओो, नो भावओो । तत्थ अरतदुट्टाए इत्थियाए बला परिभुजमाणीए दव्वश्रो मेहु नो भाव। मेलापरिणय तदसंपत्ती भा वो नो दव्व । एवं चैव संपत्तीए द्व्य वि, भाव वि । चत्थो पुरानो त्ति । 9 जं मए इमस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स अहिंसालक्खणस्स समाहियस्स विश्वमूलस्स संतिष्पहारास्स अहिरसोवन्नियस्स उवसमप्पभवन्स नवयंभचेरगुत्तस्स अपयमास्स भिक्खावितिस्स कुक्खीसंबलस्स निरग्सिरस , Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडकमा संपक्खालियस्स चत्तदोसस्स गुणग्गाहियस्स निव्वियारस निवित्तीलक्खणस्स पंचमहव्त्रयजुत्तस्स असंनिहिसंचयस्स विसंवाइस संसारपारगामिस्स निव्वाणगमपज्जवसाणफल+स पुव्विं अन्नाणयाए असवण्याए eater अभिगमेणं अभिगमेण वा पमाएणं रागदोसपविद्धयाए बालाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए तिगारवगरुयाए चक्कसाओवगएवं पंचिदियवसट्टे पडुपन्नभारियाए सायासोक्खमणुपालयंतेणं इहं वा भवे यन्नेसु वा भवग्गणेसु मेहुणं सेवियं वा सेवावियं वा सेविज्जंतं वा परेहिं समान्नायं तं निंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेण वायाए कारणं अईयं निंदामि, पप्पन्नं संवरेमि, अणायं पच्चक्खामि सव्वं मेहुणं जावज्जीवाए अणिसिहं नेव सयं मेहुणं सेविज्जा, नेवनेहिं मेहुणं सेवाविज्जा, मेहुणं सेवते व अन्ने न समजाणामि । तं जहा - अरहंतसक्खियं सिद्धसक्खियं साहुसक्खियं देव - सक्खियं अप्पसक्खियं एवं हवइ भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडि हयपच्चक्खायपावकस्मे दिया वा राम्रो वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ने वा जागरमाणे वा एस खलु मेहुणस्स वेरमणे हिए सुहे खमे निसेसिए श्रगामिए पारगामिए सन्धेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अदुक्खगयाए असोयणयाए अरणयाए अतिप्पणयाए अपीsure अपरियावण्या अणोद्दवणयाए महत्थे महागुणे महाणुभावे महापुरिसाणुचिम्से पर मरिसिदेसिए पसत्थे तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मोक्खाए बोहिलाभाए संसारुतारणाए ति कट्टु उवसंपज्जित्ता गं विहरामि । उत्थे भंते ! महव्व उवद्विओ मि सव्वाओ मेहुणा - ओवेरमणं ॥ ( २६३ ) भनिधानराजेन्द्रः । एतत्सकलमपि सूत्रं गतार्थम् ; दोषाचे हाब्रह्मसेविनां वधवन्धनायशः कीर्ति पण्डकत्व बन्ध्यावैधव्याऽऽदयो वाच्याः । इत्युक्तं चतुर्थ महाव्रतम् । अधुना पञ्चममाह हावरे पंचमे भंते ! महत्वए परिग्गहाओ वेरमणं, सव्वं भंते! परिग्गहं पञ्चकखामि, से अप्पं वा बहुं वा अणुं वा धूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं परिग्गहं परिगिरहेज्जा, नेवनेहिं परिग्गहं परिगिएहाविज्जा, परिग्गहं परिगिरते वि अनं न समरणजाणामि, जावज्जीवाए ति विहं तिविणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि, न कारवेमि, करतं पिनं न समगुजाण मि । तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निंदामि गरिहामि, अप्पा वोसिरामि || 158 For Private पडिक्कमण श्रथापरस्मिन् पञ्चमे भदन्त ! महाव्रते, किमित्याह परिगृह्यते स्वीक्रियत इति परिग्रहो, धनधान्यहिरण्याऽऽदिः, तस्माद्विरमं भगवतोकमतः सर्वे भदन्त ! परिग्रहं प्रत्याख्यामि । ( से त्ति ) तद्यथा - अल्पं वा बहु वा अणु वा स्थूलं वा चित्तवद्वा चित्तवद्वेत्यनेन द्रव्यपरिग्रहः । व्याख्या तु पूर्ववत् । " नेत्र सयं" इत्याद्यपि पूर्ववदेव अन चाल्पं वेत्यादिना द्रव्यपरिग्रह उक्तः, अनेन चतुर्विधपरिग्रह उपलक्षित इत्यतस्तदभिधानायाऽऽहसे परिग्ग च मत्ते । तं जहा दव्त्रत्रो, खित्तश्रो, कालो, भाव । दव्त्रत्र गं परिग्गहे सचित्ताचित्तमीसे दव्वे, खेत्तणं परिग्गहे लोए वा अलोए वा, का गं परिग्गहे दिया वा राम्रो वा, भावओो गं परिग्गहे परवा महग्घे वा रागेण वा दोसेण वा ॥ स परिग्रहश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः। तद्यथा-द्रव्यतः ४। तत्र द्रव्यतः सर्वद्रव्येषु श्राकाशादि सर्वपदार्थेषु । यदाह चूर्णिकारः- “गामधरंगणाइपरसेसु ममीकरणाओ आगासपरिग्गहो, चंकमणपएसममीकारकरणाय धम्मदव्यपरिग्गहो, ठाणनिसीयणतुयट्टणपएसममीकारकरणाओ श्रधम्मपरिग्गहो, मायापिइमाइपसु जीवेस ममत्तकरणाओ जीवदव्वश्र परिग्गहो, हिरमसुवन्नाइएस दव्वेषु ममन्तकरणाश्रो पोग्गलदव्यपरिग्गहो, सीउरहवरिसकालेस रिउछक्के वा अन्नयर सुच्छियस्स कालपरिग्गहो त्ति ।" क्षेत्रतः परिग्रहो- लोके वाऽलोके वा लोकालोकाकाशममत्वकरणादिति भावः । सव्वलोए त्ति" क्वचित्पाठः सङ्गतश्चायम् ग्रन्थान्तरैः सह संवादात् । कालतः परिग्रहो दिवा वा रात्रौ वा, दिनरात्र्यभिलापादित्यर्थः । प व्यते च - " रयणिमभिलारिया श्रो, चोरा परदारिया य इच्छंति । तालायरा सुभिक्खं, बहुधन्ना केइ दुम्भिक्खं ॥ १॥" दिनरात्र्यधिकरणविवक्षया वा कालपरिग्रहो भावनीयः । भावतः परिग्रहोऽल्पार्धे वाऽल्पमूल्ये महार्घे वा बहुमूल्ये द्रव्ये रागेण वाऽभिष्वङ्गलक्षणेन द्वेषेण वा श्रप्रीतिलक्षणेन, अन्यद्वेषेणेत्यर्थः । द्रव्याऽऽदिचतुर्भङ्गी पुनरियम - "दव्वओ नामेगे परिग्गहे तो भावओो । भावओ नामेगे नो दव्वओो । एगे दव्वओ विभावओो वि । एगे नो दव्वत्र नो भाव । तत्थ अरत्तदुटुस्स धम्मोवगरणं दव्वओ परिग्गहो नो भावश्रो । मुच्छ्रियस्स तदसंपत्तीए भावओो नो दव्व । एवं चेव संपत्ती दव्वश्रेो विभावओो वि । चरमभंगो पुरा सुन्नो । " जं गए इमस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स अहिंसालक्खण सच्चा हिडिस विण्यमूलस्स खंतिप्पाणस्स - हिरम सोवन्नियस्स उवसमप्पभवस्स नववंभचेरगुत्तस्स अपयमाणस्स भिक्खावित्तिस्स कुक्खीसंवलस्स निरग्गिसरस्स संपक्खालियस्स चत्तदोसस्स गुणग्गाहिस्स निव्वियारस्स निवित्तिलक्खणस्स पंचमहव्वयजुत्तस्स असंनिहिसंचयस्स अविसंवाइस्स संसारपारगामिस्स मिव्वाणगमणपज्जवसाणफलस्स पुबि अन्नाणयाए असवण्याए rater wefभगमेणं अभिगमेण वा पमाएणं रागदोaisaure बालवाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६४) अभिधान राजेन्द्रः | पक्किमण तिगारवगरुययाए चक्कसावगएवं पंचिंदिओवसट्टे पडुप्पन्न भारियाए सायासोक्खमणपालयतें इहं वा भवे नेवा भवग्गहसु परिग्गहो गरियो वा गहावियो वाघिष्पतो वा परेहिं समन्नाओ, तं निंदामि । गरिहामि तित्रिहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं अईयं निंदामि, पडुप्पनं संवरेमि, अणागयं पच्चक्खामि सव्वं परिगतं, जावज्जीवre अस्सिओ हं नेव सयं परिग्गहं परिगिरहेजा, नेवनेहिं परिग्गहं परिगिरहावेजा, परिग्गहं परिगिरहंते व अनेन सममुनाणामि । तं जहा - अरहंतसक्खियं सिद्धसखियं साहुसक्खियं देवसक्खियं अप्प - सक्खियं, एवं वइ भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय - विरय- पडिय - पञ्चकखायपावकम्भे दिया वा राम्रो वा ओवा परिसागओ वा सुत्ने वा जागरमाणे वा एस खलु परिग्गहस्स वेरमणे हिए सुहे खमे निस्सेसिए गामि पारगामि सव्वेसिं पाणाणं सव्धेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अदुक्खयाए असोarrrr अजूरणयाए अतिप्पाणयाए अपीडणयाए अपरियाणा वणयाए महत्थे महागुणे महाणुभावे महापुरिसाणुचिष्मे परमरिसिदेसिए पसत्थे तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मोक्खाए बोहिलाभाए संसारुतारणाए तिकट्टु उवसंपज्जित्ता गं विहरामि । पंचमे भंते! महव्वए उबहि मि सव्वा परिग्गहा वेरमणं ॥ एतदपि सूत्रं पूर्ववड्याख्येयम् । दोपाश्चेह परिग्रहिणां वधवन्धनमारणदुःखितत्वनरकगमनाऽऽदयो वाच्याः । इत्युकं पञ्चमं महाव्रतम् । साम्प्रतं षष्ठं व्रतमाह अहावरे छट्टे भंते ! वए राईभोयणाओ वेरमणं, सव्र्व्वं भंते ! राईभोयणं पच्चकखामि, से असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा नेव स राई भुजेजा, नेवनेहि राई भुंजावेजा, राई भुंविनेन समगुजाणामि, जावजीवाए तिहिं तिविहणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि, न कारवेमि, करतं पिनं न समगुजाणामि । तस्स भंते! पडिक मामि निंदामि, गंरिहामि, अप्पाणं बोसिरामि । अथापरस्मिन् पठे भदन्त ! व्रते किमित्याह-रात्रिभोजनातू - रात्रौ गृह्णाति रात्रौ भुङ्क्ते, रात्रौ गृह्णाति दिवा भुले, दिवा गृह्णाति रात्रौ भुके, दिवा गृह्णाति दिवा भुङ्क्ते संनि चिपरिभोगे, इत्येवंविधभङ्गचतुष्कस्वरूपान्निशाऽभ्यवहारा द्विरम भगवतो मतः सर्वे भदन्त ! रात्रिभोजनं प्रत्याख्या मि । तद्यथा श्रशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा इत्यनेन द्रव्यपरिग्रहः । तत्राश्यत इत्यशन मोदनाऽऽदि, पीयते इति पानं मृद्विकापानादि, खायत इति खाद्यं खर्जूराऽऽदि, स्वाद्यत इति स्वायं ताम्बूलाऽऽदि । एतच्च नैव स्वयं रात्रौ भुजे नैवा For Private पक्किमण न्यैः रात्रौ भोजयामि, रात्रौ भुञ्जानानप्यन्यान्न समनुजानामीत्येतत् यावज्जीवमित्यादि च भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । अत्रानं वेत्यादिना द्रव्यतो रात्रिभोजनमुक्तम्, अनेन च चतुर्विधं रात्रिभोजनमुपलक्षितम् इत्यतस्तदभि धातुमाह सेराई च पन्नत्ते । तं जहा दव्बओ, खिकाल, भाव ४ । दव्य गं राईभोय असणे वा पाणे वा खाइमे वा साइमे वा, खित्तश्र णं राईभोयणे समय, कालओ गं राईभोयणे दिया वा राम्रो वा, भावणं राईभोयणे तित्ते वा कडुए वा कसाए वा अं बिले वा महुरे वा लवणे वा रागेण वा दोसेण वा ॥ तद्वात्रिभोजनं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् । तद्यथा द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कीलतो, भावतश्च । तत्र द्रव्यतो रात्रिभोजनम् अशने वा पाने वा खाद्ये वा स्वाद्ये वा, क्षेत्रतो रात्रिभोजनं-समयेन कालविशेपेणीपलक्षितं, क्षेत्र समय क्षेत्रमर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रलक्षणम् । तस्मिन् संभवति न परतः, मनुष्यलोकप्रसिद्धदिनरजन्यभावात् । कालतो रात्रिभोजनं दिवा वा, सन्निधिपरिभोग इत्यर्थः । रात्रौ वा रजन्यां वा, भावतो रात्रिभोजनं भवति, केत्याह-ति वा चिभिटिका दौ, कटुके वा आर्द्रतेमनाऽऽदौ, कषाये वा बल्लाssदौ, अग्ले वा तक्राऽऽरनालाऽऽदौ, मधुरे वा क्षीरदव्यादौ, लवणे वा प्रकृतिज्ञारे तथाविधजलशाक्ाऽऽदौ, लवणेोत्कटे वा अन्यस्मिन् द्रव्ये, रागेण वाऽभिष्वङ्गलक्षणेन, द्वेषेण वा श्रनभिष्वङ्गलक्षणेनेति । कापीदं पदद्वयं न दृश्यत एव । द्रव्याऽऽदिचतुर्भङ्गी पुनरियम्-" दव्वओ नामेगे राई भुंजई नो भावश्रो । भावश्र नामेगे नो दव्यो । एगे दव्व विभाववि। एगे नो दव्वश्री नो भावश्रो तत्थ अग्गए सूरिए उगाओ त्ति, अत्थमिए वा अणत्थमिश्री त्ति अर तदुत, कारणांश्री रयणीए वा भुंजमाणस्स दव्यश्री राई भोयां नो भावो । राईए भुंजामि त्ति मुच्छियस्त तदसंपत्तीए भावो नो दव्व । एवं चैव संपत्ती दव्य वि भाव चि । चत्थभंगो सुन्नी । " जं मए इमस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स अहिंसालक्खएम्स सच्चादिट्ठियस्स विण्यमूलस्स खंतिप्पहाणस्स अहिरनसन्नियस समप्पभवस्स नववंभचेरगुत्तस्स अपयमाणस्स भिक्खावित्तिस्स कुक्खीसंवलस्स निरग्गिसरणस्स संपक्खालियस्स चत्तदोसस्स गुणग्गा हिस्स निव्वियास्स निवित्तीलक्खणस्स पंचमहव्वयजुत्तस्स असंनिहिसंचयस्स विसंवाइस संसारपारगामिस्स निव्यारागमणपज्जवसाणफलरस पुत्रि अन्नागयाए वायाए are भगमे अभिगमेण वा पमाएवं रागदोपविद्धयाए वालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए तिगावगुरुययाए चउकसाएणं पचिदिवस पड़प्पन्नभारियाए सायासोक्खमगुपालयतेणं इहं वा भवे वासुराईभोयणं भुंजियं वा भुंजावियं वा Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६५ ) अभिधानराजेन्द्रः । परिक्कन भुंजत वा परेहिं समन्नायं तं निंदामि गरिहामि, तिविहं तित्रिणं मणेणं वायाए कारणं श्रयं निंदामि, पप्पन्नं संवरेमि, अणायं पच्चक्खामि सव्वं राईभोयणं जावजीवाए अणिस्सिओ हूं नेव सयं राई भुंजेज्जा, नेवऽन्नेहिं राई भुंजावेजा, राई भुंजते वि अन्ने न समगुजाखामि । जहा - अरहंत सक्खियं सिद्धसक्खियं साहुसक्खियं देaai aurataयं एवं हवइ भिक्खु वा भिक्खुणी वा संजयविरयपाडहयपच्चक्खायपावकम्मे दिया वा राम्रो वा ओवा परिसाग वा सुत्ते वा जागरमाणे अ, एस खलु राईभोयणस्स वेरमणे हिए सुहे खमे निस्सेसिए आगामि सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं दुक्खणयाए असोयणयाए अजूर या तिप्पण्याए अपीडणयाए अपरियावण्याए . या महत्थे महागुणे महाणुभावे महापुरिसाणुचिने पर रिसिदेसिए पसत्थे तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मोक्खाए बोहिलाभाए संसारुतारणाए ति कट्टु उवसंपजिताणं विहरामि । छडे भंते ! वए उवडियो मि सव्वाओ राईभोयणाओ वेरमणं । एतत्सूत्रं सकलमपि प्राग्वत् । एतच्च रात्रिभोजनवतं प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थयोः ऋजुजडवक्रजडपुरुषापेक्षया मू. लगुणत्वख्यापनार्थे महाव्रतोपरि पठितं, मध्यमतीर्थकर तीर्थे पुनः ऋजुप्राज्ञपुरुषापेक्षयोत्तरगुणवर्ग इति । दोषाश्चेह रात्रिभोजिनां पिपीलिकाशलभाऽऽदिसच्चविनाशाऽऽदयो वाच्याः । इत्युकं पष्ठं व्रतम् । अथ समस्तवताभ्युपगमख्यापनायाऽऽहपंचमहयाई राईभोवेरमणछट्टाई अत्तहिययाए उवर्सपञ्जित्ता गं विहरामि । इत्येतान्यनन्तरोदितानि पञ्च महाव्रतानि रात्रिभोजनवि रमणषष्ठानि, किमित्याह - ( अत्तहियट्टयाए त्ति आत्मने जीवाय हितो मोक्षस्तदर्थमात्महितार्थाय श्रनेनान्यार्थे तत्त्वतो व्रताभावमाह, तदभिलाषानुमत्या हिंसाऽऽदावनुमत्या. दिभावात् । उप सामीप्येन संपद्याङ्गीकृत्योपसम्पद्य विहरामि सुसाधुविहारेण वर्तेऽहं तदभावेऽङ्गीकृतानामपि व्रतानाभावप्रसङ्गादिति कृता महाव्रतोच्चारणा । साम्प्रतं महाव्रतानामेव यथाक्रममतिचारानुपदर्शयितुमाहप्पसत्था व जे जोगा, परिणामा य दारुणा । पाणाइवायस्स वेरमणे, एस कुत्ते अइक्कमे ||१|| रूपकम् । प्रशस्ता हिंसाहेतुत्वादसुन्दराः चशब्दो वक्ष्यमाणपदापेक्षया समुच्चयार्थः । ये केचन योगा अयतवङ्क्रमणभाषणाssert व्यापाराः, परिणामश्च भूतघाताध्यवसायाः, चः पूर्वपदापेक्षया समुचये, दारुणा रौद्राः, प्राणातिपातस्य प्राणि(प्राण) प्राणस्य, विरमणे निवृत्तविषोऽयमुको भगवद्भिः प्रतिपादितोऽतिक्रमोऽतिचारः, इति मत्वा तान् परिह'रेदिति भावः । एवमुत्तरत्रापि भावना कार्या । परिक्कमण द्वितीयवतमधिकृत्याऽऽहतिव्वरागाय जा भासा, तिव्वदोसा तहेव य । मुसावायरस वेरमणे, एस कुत्ते इक्कमे ॥ २ ॥ तीरागा उत्कटविषयानुबन्धा या काचिद्भाष्यत इति भा पा भारती, तीद्वेषा उग्रमत्सरा, तथैव चेति समुच्चयपूरणार्थान्यव्ययानि, मृपावादस्य वितथभाषणस्य, विरमणे वि तावेोऽयम् उक्को जिनैर्गदितोऽतिक्रमो देशभङ्गः सर्वभङ्गो वेति भावः । तृतीयवतमाश्रित्याऽऽह उग्गहं च अजाइत्ता, अविदि य उग्गहे । अदिष्पादाणस्स वेरमणे, एस कुत्ते इमे ॥ ३ ॥ अवगृह्यत इत्यवग्रह श्राश्रयः, तमयाचित्वा तस्मात् स्वामिनः स्वामिसंदिष्टद्वा सकाशादननुज्ञाप्य तत्रैव यदवस्थानमिति गम्यते । तथा श्रविदत्ते वाऽवग्रहस्वामिनाऽवितीsars प्रतिनियताऽवग्रहमर्यादाया बहिरित्यर्थः । यच्चेष्टनमिति वाक्यशेषः । श्रदत्ताऽऽदानस्य विरमणे एष उक्लोऽतिक्रमो विराधनेत्यर्थः । चतुर्थव्रतमङ्गीकृत्याऽऽह सद्दारूवार सागंधा- फासाणं पवियारणा । मेस वेरमणे, एस वृत्ते अकमे ॥ ४ ॥ कारस्येहाssमिकत्वात् शब्दाश्च प्रक्रमाद्वेणुर्वाणाकामिनीसमुत्थकलध्वनय, एवं रूपाणि ललनाऽऽदिमनोहराऽऽकृतयः रसाश्च मधुराऽऽदिविशिष्टा ऽऽस्वादाः, गन्धाश्च स्रक्चन्दनाऽऽदिदिव्य परिमलाः, स्पर्शाश्च मृदुतूलीयोषिदङ्गाऽऽदिस्पशस्ते तथा तेषां प्रविचारणा रागात्प्रतिसेवना, मैथुनस्याब्रह्मासेवनस्य, विरमणे एष उक्कोऽतिक्रमो ऽतिचारः, तस्मादेतान कुर्यादिति हृदयमिति । परिग्रहव्रतमुररीकृत्याऽऽह इच्छा मुच्छाय गेही य, कंखा लोभे य दारुणे । परिग्गहस्स वेरमणे, एस कुत्ते कमे ॥ ५ ॥ इच्छा मूर्च्छाच गृद्धिश्च काङ्क्षा लोभश्च दारुण इत्येकार्थानिधबोधनायोपन्यस्तानि । अथवा इच्छा अनागताऽऽन्तरार्थप्रार्थना, मूर्च्छा च हृतातीतनष्टपदार्थशोचना, गृविश्व विद्यमानपरिग्रहप्रतिबन्धः, श्रमात विविधार्थमार्थना काङ्क्षा, तो लोभः काङ्क्षा लोभश्च चशब्दाः समुच्चये, किंविशिष्ट ?| दारुणस्तीत्रः परिग्रहस्य विरमणे एव उक्ताऽतिक्रम इति पूर्ववत् । तमुररीकृत्याऽऽड्मत्तेय आहारे, सूरखेत्ते य संकिए । राईस वेरमणे, एस ते कमे ॥ ६ ॥ साधूनां हि कवलापेक्षया भोजनमानमिदम् । यदुत - " बत्तीसं किर कवला, आहारो कुच्छिपूरओ भणियो । पुरिसस्स म हिलियाए, अट्ठावीसं भवे कवला ॥ १ ॥ " षड्भागकल्पितजठरापेक्षया त्विदम् - " अर्द्ध असणस्स सवं, जणस्स कुज्जा दवस्त दो भागे । वाउपविवारणड्डा, छम्भागं ऊणगं कुजा ॥ १ ॥ ।" ततश्चास्माच्छास्त्रीय भोजन माणाधिकोऽतिमा Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमिकमा अनिधानराजेन्द्रः। पमिकमा प्रश्च पूर्ववदाहारी भोजनं, भक्त इति गम्यते। दिवाऽपि हि स्थितः समारूहः सन् , क्वेत्याह-श्रमणधर्मे श्रमणानां सासमधिकभोजने कृते रात्री भुक्तानगन्धोद्गाराः प्रजायन्ते,व धूनां धर्मः शान्त्यादिलक्षणः समाचारः तस्मिन्, किं करोमनं वा कदाचित्, तत्र च रात्रिभोजनदोषः,समुद्गिलितगलने मीत्याह-प्रथममायं व्रतं यमम् (अणुरक्खे त्ति) अनुरच प्रभूततरा दोषा इति । सूरस्याऽऽदित्यस्य क्षेत्रम् उदयास्त. क्षामि सर्वातिचारविरहितं पालयामि. किंविशिष्ट इत्याहलक्षणं नभःखण्डं सूरक्षेत्रं, तस्मिंश्च शङ्किते उदयक्षेत्रमागतो (विरया मोत्ति) वचनस्य व्यत्ययाद्विरतोऽस्मि निवृत्तोऽहं, वा, न वा, अस्तदेशं प्राप्ता वा, न वा दिनकर इत्यारेकिते कस्मात्प्राणातिपाताज्जीववधादिति । एवमन्यदपि द्वितीयाआहारो, भुक्त इति वर्तते । रात्रिभोजनस्य विरमण उक्तो. अऽदिवताभिलापि सूत्रपञ्चकमेतदनुसारेण समवसेयमिति। ऽतिक्रम इति व्याख्यातमेव । दर्शिता महावतेवतिचाराः। अथ प्रकारान्तरेणापि महावतरक्षणमभिधातुमाहसाम्प्रतं यथा तान्येवातिचाररहितानि परिपालितानि भ. आलयविहारसमिओ, जुत्तो गुत्तो ठिओ समणधम्मे । वन्ति तथा दर्शयितुमाह पढम वयमणुरक्खे, विरया मो पाणाइवायाभो॥१॥ दंसणनाणचरित्ते, अविरहित्ता ठिो समणधम्मे । श्रालयविहारसमिओ, जुत्तो गुत्तो ठिो समणधम्मे । पढमं वयमणुरक्खे, विरया मो पाणाइवायाओ ॥ १॥ बीयं वयमणुरक्खे, विरया मो मुसावायाओ ॥२॥ दसणनाणचरित्ते, अविराहित्ता ठिो समणधम्मे।। श्रालयविहारसमित्रओ, जुत्तो गुत्तो ठिो समणधम्मे । बीयं वयमणुरक्खे, विरया मो मुसावायाभो ॥ २॥ तइयं वयमणुरक्खे, विरया मो अदिन्नदाणाओ ॥३॥ दसणनाणचरित्ते, अविराहित्ता ठिो समणधम्मे । आलयविहारसमिओ, जुत्तो गुत्तो ठिओ समणधम्मे ।' तइयं वयमणुरक्खे, विरया मो अदिन्नदाणाश्रो ।। ३॥ चउत्थं वयमणुरक्खे, विरया मो मेहुणाओ ॥ ४ ॥ दसणनाणचरित्ते, अविराहित्ता ठिो समणधम्मे। श्रालयविहारसमिओ, जुत्तो गुत्तो ठिश्रो समणधम्मे । चउत्थं वयमणुरक्खे, विरया मो मेहुणाश्रो य ॥ ४ ॥ पंचमं वयमणुरक्खे, विरया मो परिग्गहारो॥५॥ दसणनाणचरित्ते, अविराहित्ता ठिो समणधम्मे । आलयविहारसमिओ, जुत्तो गुत्तो ठिो समणधम्मे । पंचमं वयमणुरक्खे, विरया मो परिग्गहाओ ॥ ५॥ छड़े वयमणुरक्खे, विरया मो राईभोयणाओ॥ ६ ॥ दंसणनाणचरित्ते, अविराहित्ता ठिो समणधम्मे । आलयविहारसमिओ, जुत्तो गुत्तो ठिो समणधम्मे । छठं वयमणुरक्खे विरया मो राइभोयणो ॥ ६ ॥ तिविहेण अप्पमत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ॥७॥ दर्शनं च सम्यग्दर्शनं, शानं चाऽऽभिनियोधिकाऽऽदि, चा. (आलए त्ति) सूचकत्वादालयवर्ती, सकलकलङ्कविकलनिल रित्रं च सामायिकाऽऽदि दर्शनज्ञानचारित्राणि कर्मताss यनिषेवीत्यर्थः । (एवं विहार त्ति) यथोक्तविहारण विहरन् । पन्नानि. अविराध्य अखण्डितानि परिपाल्य, विराधना च तथा-ईर्याऽऽदिसमितिपञ्चकेन समितः। तथा-युक्तो नाग्न्या. ज्ञानदर्शनयोः प्रत्यनीकताऽऽदिलक्षणा पञ्चविधा । यदाह स्नानभूशयनादन्तपवनशिरस्तुण्डमुण्डनभिक्षाभ्रमणक्षुत्पि" नाणपडियानन्हव-श्रच्चासायणतदंतरायं च। कुणमा पासाशीताऽऽतपाऽऽदिसहनगुरुकुलवसनाऽऽदिलक्षणः श्रणस्सऽइयारो. नाणविसंवायजोगं च ॥१॥” तत्र ज्ञान मणगुणैः समन्वितः। तथा-गुप्तित्रयेण गुप्तः, स्थितो व्यव. प्रत्यनीकता पञ्चविधज्ञाननिन्दया । तद्यथा प्राभिनिबोधिक स्थितः श्रमणधर्मे क्षान्त्यादिके यत्यनुष्ठाने,प्रथममाद्यं व्रतंय. ज्ञानमशोभनं, यतस्तदवगतं ज्ञानं कदाचिदन्यथेति, श्रुत मम्, अनुरक्षामि सदातिचारविरहितं पालयामि, ( विरया शानमपि शीलविकलस्याकिश्चित्करत्वादशोभनमेव, श्र मोत्ति) वचनव्यत्ययाद्विरतोऽस्मि प्राणातिपातात् । इत्येवं वधिशानमप्यरूपिद्रव्यगोचरत्वादसाधु, मनःपर्यायज्ञानम शवसूत्राण्यपि द्वितीयाऽऽदिवताभिलापेन नेतव्यानि, नवरं पि मनुष्य लोकावधिपरिच्छिन्नगोचरत्वादशोभनं, केवलक्षा सप्तमसूत्रस्योत्तरार्द्ध विशेषो, यथा-त्रिविधेन मनोवाकायलनमपि समयभेदेन दर्शनशानप्रवृत्तेरेकसमये अकेवलत्वा क्षणेन करणेनाप्रमत्तः सुप्रणिहितः, रक्षामि स्वजीवितमिवादशोभनमिति । दर्शनप्रत्यनीकता तु क्षायिकदर्शनिनोऽपि ऽऽदरेण पालयामि महाव्रतान्युक्तलक्षणानि पञ्चेति पञ्चश्रेणिकाऽऽदयो नरकमुपगता इत्यतः किं दर्शनेनेति निन्द संख्यानीति। या। निह्नवो व्यपलापः स च झानस्यान्यसकाशे अधीतम इदानीमेकाऽऽधेकोत्तरवृद्धिकानां दशान्तानां शुभाशुभस्था. न्यं व्यपदिशतो जायते, दर्शनस्यापि सम्मत्यादिदर्शनप्रभाव नानां परिवर्जनाङ्गीकारकरणद्वारेण महानतपरिक्षणाभि. कशास्त्राण्यधिकृत्यैवमेव द्रष्टव्यम् । अत्याशातना तु शानस्य धानायाऽऽह"काया वया य ते च्चिय, ते चेव पमाय अप्पमाया य। सावजजोगमेगं, मिच्छत्तं एगमेव अन्नाणं ।। मोक्खाहिगारियाणं, जोइसजोणीहि किं कज्ज ॥१॥" दर्श- परिवजंतो गुत्तो, रक्खामि महव्यए पंच ॥ १॥ नस्य तु किमेभिः सम्मत्यादिभिः कलहशास्तरिति । अन्तरायं अवयं पापं, सहावधन यो वर्त्तते स सावद्यः, स चासौ यो. द्वयोरपि कलहास्वाध्याययिकाऽऽदिभिः करोति । ज्ञानविसं- गश्व व्यापारः,तमेकमेकभेदं सकलनिन्द्यकर्मणां सावद्ययोगचादयोगोऽकालस्वाध्यायाऽऽदिना, दर्शनविसंवादयोगस्तु श- त्याव्यभिचारादिति । तथा-मिथ्या इत्येतस्य भावां मिथ्यात्वं काकाक्षाऽऽदिनेति । चारित्रविराधना पुनः सावद्ययोगानु- मोहनीयकम्मोदयजन्यो विपर्यस्ताध्यवसायरूपो जीवपरिमत्यादिलक्षणा विचित्रेति । एतान्यविराध्य, किमित्याह- णामः, तन्निमित्तलौकिकदेवताऽऽदिवन्दनाऽऽदिक्रिया चत. Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमिक्रमण (२६७) अभिधानराजेन्द्रः। पमिकमण देकम आभिग्रहिकानाभिग्रहिकनिवेशिकानाभोगिकसांशयि- नां वाऽसंप्रयोगचिन्तनम् । एवं शूलशिरोरोगाऽऽदिवेदकभेदात्पञ्चविधमपि, उपाधिभेदतो बहुतरभेदमपि वा विप नाया अपि विप्रयोगप्रार्थनम् २। इष्टशब्दाऽऽदिविषयाणां र्ययसाम्यादेकप्रकारम् । तथा-(एव त्ति अनुस्वारलोपादेवम्, सातवेदनायाश्चावियोगसंप्रयोगप्रार्थनम् ३ । देवेन्द्रचक्रवमिथ्यात्ववदेकविधमित्यर्थः । ( अन्नाणं ति) नमः कुत्सार्थ ादिसम्बन्ध्यद्धिप्रार्थनं च ४ । शोकाक्रन्दनस्वदेहतात्वात् कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं संशयविपर्ययानध्यवसायाऽऽत्मको डनविलपनाऽऽदिलक्षणलक्ष्यं तिर्यग्गतिगमनकारणं विशेज्ञानाऽऽवरणदर्शनाऽवरणकर्मोदयप्रभवो जीवस्थावबोधपरि- यम् । तथा-रोदयतीति रुद्र अात्मैव, तस्य कर्म रौद्रं, तदणामः, तत्प्रभवग्रन्थविशेषाश्च तदप्युक्तक्रमेणानेकविधमप्य- पि सत्त्वेषु वधवेधबन्धनदहनाङ्कनमारणाऽऽदिप्रणिधानम् १। बोधसामान्यादेकविधमिति । किमित्याह-परिवर्जयन् परिह. पैशुन्यासत्यासद्भूतभूतघाताऽऽदिवचनचिन्तनम् २ । तीव्ररन्, गुप्तो मनोवचनशरीरैः संवृतःसन् रक्षामि सुविशुद्धानि कोपलोभाकुलं भूतोपघातपरायणं परलोकापायनिरपेक्षं पपरिपालयामि महाव्रतान्युक्तलक्षणानि पश्चेति पश्चसङ्ख्या- रद्रव्यहरणप्रणिधानम् ३ । सर्वाभिशङ्कनपरं परोपघातपनीति। रायणं शब्दाऽऽदिविषयसाधकद्रव्यसंरक्षणप्रणिधानम् ४। तथा उत्सन्नवधादिगम्यं नरकगतिगमनकारणं समवसेयम् । एते अणवजजोगमेगं, सम्मत्तं एगमेव नाणं तु। च, किमित्याह-परिवर्जयन् गुप्तः सन् रक्षामि महावतानि उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ॥२॥ पञ्चेति। तथाअनवद्ययोगं कुशलानुष्ठानम् , एकं सकलकुशलानुष्ठानाना दुविहं चरित्तधम्म, दुन्नि य झाणाइ धम्मसुक्काई। मनवद्ययोगत्वाव्यभिचारादेकप्रकारम् । तथा-सम्यक्त्वमिति । सम्यकशब्दः प्रशंसार्थः, सम्यगित्येतस्य भावः सम्यक्त्वं, उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महब्बए पंच ॥ ४॥ दर्शनमोहनीयक्षयक्षयोपशमोपशमाऽविर्भूतो जिनोक्ततत्त्व- द्विविधं देशसर्वचारित्रभेदाद् द्विप्रकार,चर्यते मुमुक्षुभिरासेश्रद्धानरूप श्रात्मपरिणामः, तच्चोपाधिभेदादनेकप्रकारमपि व्यते तदिति, चर्यते वा गम्यतेऽनेन निर्वृताविति चरिश्रद्धानसामान्यादेकमेव एकप्रकारमेव, एकजीवस्य चैकदै- त्रम् । अथवा चयस्य कर्मणां रिकीकरणाच्चरित्रं निरुकस्यैव भावादिति । तथा-(नाणं तु त्ति ) तुशब्दस्या. क्लन्यायादिति चारित्रमोहनीयक्षयाऽऽद्याविर्भूत आत्मनो प्यर्थत्वात् ज्ञानमयेकविधमेव, तत्र शायन्ते परिच्छिद्यन्ते विरतिरूपः परिणामस्तल्लक्षणो धर्मः श्रेयश्चारित्रधर्मस्तं, द्वे अर्था अनेनेति ज्ञानमावरणक्षयक्षयोपशमाऽऽदिसमुत्पन्नो म च द्विसंख्ये च ध्याने प्रणिधाने धर्म्य शुक्लं च धHशुक्ने, तत्र तिश्रुताऽऽदिविकल्पाऽऽत्मको जीवस्यावबोधपरिणामः,तच्चाने श्रुतचरणधर्मादनपेतं धर्म्य, तच्च सर्वशाऽऽज्ञाऽनुचिन्तनम् कमप्यवबोधसामान्यादेकमुपयोगापेक्षया वा। तथाहि-लन्धि १। रागद्वषकषायेन्द्रियवशजन्त्वपायावचिन्तनम् २ । शानातो बहूनां बोधविशेषाणामेकदा संभवेऽप्युपयोगत एक ए 5 वरणाऽऽदिशुभाशुभकर्मविपाकसंस्मरणम् ३ क्षितिवलय. व सम्भवत्येकोपयोगत्वाज्जीवानामिति । नन्ववबोधसामा द्वीपसमुद्रप्रभृतिवस्तुसंस्थानाऽदिधर्माऽऽलोचनात्मकम् ।। न्यात्सम्यक्त्वज्ञानयोः कः प्रतिविशेषः?। उच्यते-रुचिः स जिनप्रणीतभावश्रद्धानाऽऽदिचिह्नगम्यं देवगत्यादिफलसाधकं म्यक्त्वं, रुचिकारणं तु ज्ञानम् । यधोक्तम्-" नाणमवायधि ज्ञातव्यम् । तथा-शोधयत्यष्टप्रकारं कर्ममलं शुचं वा शोकं ईश्रो, दसणमिटुं जहोग्गहेहारो। तह तत्तरुई सम्म, रोइ क्लमयत्यपनयतीति निरुक्तविधिना शुक्लम् । एतदपि पूर्वगज्जइ जेण तं नाणं ॥१॥ " एतत्किमित्याह-उपसम्पन्नः प्र तश्रुतानुसारिनानानयमतैकद्रव्यगतोत्पत्तिस्थितिभङ्गाऽऽदि. तिपन्नी युक्तः श्रमणगुणैः रक्षामि पालयामि महाव्रतानि पर्यायानुस्मरणाऽऽदिस्वरूपम् अवधासंमोहाऽऽदिलिङ्गगभणितस्वरूपाणि पञ्चेति पञ्चसङ्ख्यापरिच्छिन्नानीति । म्यं मोक्षाऽऽदिफलप्रसाधकं विज्ञेयम्। शेषं प्राग्वद् शेयमिति। तथा तथादो चेव रागदोसे, दुन्नि य झाणाइ अट्टरोदाई। किएहा नीला काऊ, तिन्नि य लेसाउ अप्पसत्याउ । परिवज्जतो गुत्तो, रक्खामि महब्बए पंच ॥३॥ परिवजंतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ।। ५ ॥ (किराह त्ति) विभक्तिव्यत्ययात्कृष्णाम्, (एवं नील ति) द्वावव द्विसङ्ख्यावेव, कावित्याह-रागश्च द्वेषश्च रागद्वेषौ, नीलाम् ( काउत्ति) कापोती चेत्येतास्तिस्नस्त्रिसंख्याः, तत्र अनभिव्यक्तमायालोभलक्षणभेदस्वभावमभिष्वङ्गमात्रं चशब्दो योजित एव, लिश्यन्ते लिप्यन्ते प्राणिनः कर्मणा रागः, अनभिव्यक्तकोधमानलक्षणभेदस्वभावं. प्रीतिमात्र यकाभिस्ता लेश्याः कृष्णाऽऽदिद्रव्योपाधिका जीवपरिणामतु द्वेषः, तो परिवर्जयन्निति योगः । तथा-द्वे च द्विसङ्ख्ये च विशेषाः । श्राह च-"श्लेष इव वर्णबन्धस्य कर्मबन्धस्थिध्यायते चिन्त्यते वस्त्वाभ्यामिति ध्याने, ध्याती वा ध्याने, तिविधाय ।" तथा-कृष्णाऽऽदिद्रव्यसाचिव्यात्,परिणामो अन्तर्मुहर्तमात्रकालमेकाग्रचित्ताध्यवसाने । यदाह-"अंतो. यात्मनः। स्फटिकस्यैव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥१॥" मुहुत्तमित्तं, चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि । छ उमत्थाणं झाणं, इति । ताः किंविशिष्टा इत्याह-अप्रशस्ता अप्रशस्तस्वरूपजोगनिरोहो जिणाणं तु ॥१॥" ते एव नामग्राहमाह-श्रात त्वात् क्लिटकर्मबन्धहेतुत्वाचारित्राऽऽदिगुणलाभविघातनिमि. च रौद्रं चाऽऽतरौद्रे, तत्र ऋतं दुःखं तस्य निमित्तं तत्र वा भवम् , ऋते वा पीडिते प्राणिनि भवमात, तवामनोज्ञानां त्तत्वाञ्चासुन्दराः। किमित्याह-परिवर्जयन्नित्यादि पूर्ववदिति। शब्दरूपरसगन्धस्पर्शलक्षणानां विषयाणां तदाश्रयभूतवाय तथासाऽऽदिवस्तूनां वा समुपनतानां विप्रयोगप्रणिधानं, भावि- तेऊ पम्हा सुक्का, तिनि य लेसा उ सुप्पसत्थाउ । ७५ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमगा (२६८) अनिधानराजेन्जः। पडिकमग उपसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महब्बए पंच ॥ ६॥ न, मनःकायसत्येन, वाकायसत्येन चेति । तथा-(तिविदेण प्लेउ ति) तैजसीम् (पम्ह सि) पनाम् (सुक ति) शुक्लां चे. वि सञ्चविउत्ति) त्रिविधेनाऽपि. मनोवाकायलकणेन करत्येतास्तिनस्त्रिसंख्याः,चशब्दः प्राग्योजित एव । लेश्याः परि णेन सत्यविहान् संयमझा, शुद्धसंयमपासक इत्यर्थः। अनेन णामविशेषाः, सुप्रशस्ताः शुभस्वरूपत्वात् शुभकर्मबन्धहेतु च त्रिकसयोगमतः प्रदर्शित इत्येवं सत्यविकल्पेन संयमेन त्वाचारित्राऽऽदिगुणलाभकारणत्वात् शुभगतिनिबन्धनत्वा. रक्कामि परिपाल यामि, महावतानि पञ्चेति ॥ व सुन्दराः । किमित्याह-उपसंपन्न इत्यादि पूर्ववदिति । तत्र तथाकृष्णा वर्णतः स्निग्धजीमूतगवलव्यालभ्रमराजनाऽऽदिस' चत्तारि य दुहसेज्जा, चउरो सन्ना तहा कसाया य।। मानवणे,रसतो रोहिणीपिचुमंन्दकटुकतुम्बकाऽऽदिसमधि परिवज्जंतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ॥८॥ कतमरसैः,गन्धतःकुथितगोकडेवराऽऽदिसमधिकतमगन्धैः चतनश्चतुःसया, चशब्दोऽभ्यश्चये, शेरते आस्विति शस्पर्शतः फकचाऽऽदिसमधिकतमस्पर्शः,सकलकर्मप्रकृतिनि स्याः, पुखदाः शय्याः दुःख शय्याः, ताश्च व्यतोऽतथाविप्यन्वभूतैः कृष्णद्रव्यैर्जनितत्वात्कृष्णाभिधाना। नीला तु वर्ण धस्वरूपा, भावतस्तु दुःस्थचित्ततया श्रमणतास्वभावा: तो नीलाशोकगुलिकावैडूर्येन्द्रनीलचापपिच्छाऽऽदिसमवणः, प्रवचनाश्रमानरपराभप्रार्थनश्कामाशंसन ३स्नानाऽऽदिरसतो मरिचपिप्पलीनागराऽऽदिसमधिकतररसैः, गन्धतो | प्रार्थनविशेषिता मन्तव्याः। (वा.) प्रथमा दुःखशय्या-प्रयमृततुरगशरीराऽऽदिसमधिकतरगन्धैः, स्पर्शतो गोजिह्वा55- चनाथकानरूपा । तथा द्वितीया-परलान प्रार्थनरूपा । तथा दिसमधिकतरकर्कशस्पर्शः सकल प्रकृतिनिष्यन्दभूतींलद्र तृतीया-कामाऽऽशंसनरूपा । तथा चतुर्थी-स्नानाविप्राधनव्यैर्जनितत्वान्नीलाभिधाना । कापोती तु वर्ण तोऽतसीकुसु- विशेषिता च। पा० । ('हसेजा' शब्दे चतुर्थभागे २६०३ पृष्ठे मपारापतशिरोधराफलिनीकन्दलाऽऽदिधूम्रद्रव्यतुल्यवर्ण, गता) तथा-चतचतुःसयाकाः का श्त्याह-संज्ञानानि संका रसनः तरुणाम्रपाल कपित्याऽऽदिसमधिकरसैः, गन्धतः कुधि- असातवेदनीयमोहनीयकर्मोदयजन्याश्चेतनाविशेषाः । ताश्चे. तसरीसृपाऽऽदिसमधिकगन्धैः, स्पर्शतः कोरपलाशतरुपत्रा- माः-आहारसंशा १, भय संज्ञा २, मैयुनसंज्ञा ३, परिग्रह संशा दिसमधिकस्पर्शः सकल प्रकृतिनिध्यन्वतैः कपोताऽभव्य- च ४। (पा.) (आहारसंझा 'आहारसम्मा ' शब्दे द्विनिष्पन्नत्वाकापोती संहातैजसी तु वर्णतो बहिज्याल शुकमु. तीयभागे ५२७ पृष्ठे गता) ( भयसंकास्वरूपम् जयसम्मा' खर्किकतरुणार्कहिणुझुकाऽदिलोहितद्रव्यसमानवणः,रसतः शब्दे अष्टव्यम् ) (मैथुनसंज्ञा ' मेहुणसम्मा' शब्दे ) ( परिप्र. परिणताऽऽम्रसुपक्ककपित्थाऽऽदिसमधिकरसैः, गन्धतो-विच. हसंज्ञा 'परिगहसम्मा' शब्दे बयते) तथा-कपायांश्चेति । किन्नपाटलाऽऽदिसमधिकगन्धैः स्पर्शतः शाल्मनीफातूनाss. तेन चतुविधप्रकारेण कषाश्चि परिवर्जयन्निति । तत्र कृषदिसमधिकस्पर्शः तेजोवर्णव्यनिष्पन्नत्वातैजसी संज्ञा । पद्मा न्ति विलिखम्ति कर्म केत्रं सुखदुःखक तयोग्य कमुषयन्ति बाजीतु-वर्णतो हरिकाहरितामाऽदिपीतव्यसमवर्ण, रसतो बर. वमिति निरुक्तविधिना कराया। उक्तं च-"सुह दुक्खबहुसईय, वारुणीमध्वादिसमधिकरसः,गन्धतः शतपत्रिकापुटपाकगन्धा कम्मक्वतं कसंति ते जम्हा । क झुसंति जं च जीवं, तेण कसाय ऽऽदिसमधिकतरगन्धैः, स्पर्शतो नवनीतरुताऽऽदिसमधि. त्ति बुचंति ॥१॥" अथवा कषति हिनस्ति देहिन ति कप: कतरसुकुमारस्पर्शः, पद्मगर्भाउन्नाव्यनिष्पन्नत्वात्पमाऽभि- कर्म, भयो वा तस्या या लाभहेतुत्वाकर्ष वा प्राययन्ति धाना । शुक्का तु वर्णतः शकुन्देन्दुहारक्षीररजताऽऽदिस| गमयन्ति देहिन इति कषायाः । उक्तं च-"कम्मं कसं भव। शवणः, रसतो मृद्धीका खण्डकीरख‘रशर्कराऽऽदिसमधिक- वा, कममाश्रोसि जो कमाया उ । कसमाययंति व जओ. तमनर, गन्धतः-कर्पूरमालतीमाल्यादिसमधिकतमसुर- गमयंति कसं कसाय त्ति ॥१॥"तेमे, क्रोधो, मानो, माया, भिगन्धैः,स्पर्शतः शिरीषपुष्पाऽऽदिसमधिकतमसुकुमारस्पशैंः लोभश्च । (पा.)(कोधकपायः 'कसाय' शब्द तृतीयभागे शुक्लद्रव्य जनितस्वाच्छुक्लाऽभिधाना । पा०। (विशेषतो ले ३६३ पृष्ठे गतः) (मानकपायः 'माण कसाय' शब्द बक्ष्यते, श्याविस्तरः स्वस्वस्थाने) 'माण' शब्दे च विस्तरः) (मायाकषायः 'मायाकसाय' शब्दे, 'माया' शब्दे च वयते)(लोन कपायः 'लोन 'शब्दे मणसा मणसच्चविक, वायासच्चेण करणसचेण । अव्यः )" परिवजंतो" इत्यादि पूर्ववत् ॥ ८ !! तिविहेण वि सञ्चाविऊ, रक्खामि महव्यए पंच ।। ७॥ तथाअस्य प्राकृतचूर्यनुसारिणी व्याख्येयम्-मनसा शुभस्वभाव रूपेण चेतसा करण नुतेन रक्षामि महाव्रतानि पञ्चेति सर्व चत्तारि य सुहसिज्जा, चउव्विहं संवरं समाहिं च ।। त्रयोगः। किंविशिष्टः सन्नित्याह-(मणसञ्चविउ ति)मनसः उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्यए पंच ।। ६ ।। सत्यं मनःसत्यं. मन:संयम इत्यर्थः । स चाकुशलमनोनिरोः | चतस्रश्चतुःसंख्या: । चः समुच्चये। का इत्याह-सुखदाः श. धकुशल मनःप्रवतेनलवणः, तं वेनि सम्यगासेवातो जाना- रयाः सुखशय्याः । एता दुःखशरयाविपरीताः प्रायः प्रागि. मोति मनःसत्यविद्वान्, तथा-बाक्सत्येन कशझाकुशलवचः | बावगम्तव्याः। (पा.)(चत्वारोऽपि सुखशय्याः 'सुहसेज्जा' मोदीरणनिरोधलक्षणेन वाक्संयमेन करणभूतेन, तथा-करण- शब्दे वक्ष्यन्ते) तथा-चतुर्विध चतुःप्रकारमा कमित्याह-संवसत्येन क्रियातथ्येन,कायसंयमेनेत्यर्थः । स च सति कार्य उप- रं संयमम (पा०) (संवरस्य बहवो नेदाः 'संजम' शब्द योगतो गमनाSामनाऽदिविधानं तदभावे तु संलीनकरच. 'संघर' शब्दे च वक्ष्यन्ते)तथा-(समाहिं चेति) समाधान रणावयवस्यास्थानं यदिति। अनेन च जनयाभिधानेना- समाधिः प्रशस्तजापाविरोधलक्षण:, स च दशेनझानतपश्चारि. न्यदपि दिकसंयोगभङ्गवयं सुचितम् । तद्यथा-मनोवाक्सत्ये। विषयनेदाचतुर्विधा, दशनाऽऽदीनां समस्तानां वा अनिधि Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिकमग (२६) अभिधानराजेन्छ। पमिक्रमण . इतिकृत्वा तमुपसंपन्न इत्यादि पूर्ववदिति । ( समाधि तथाभेदाः 'समाहि' शब्द बक्यन्ते) बिहमभितरयं, बझं पि य विहं तवोकम्भ । पंचेव य कामगुणे, पंचेव य अण्हवे महादोसे ।। उवसपनो जुत्तो, रक्खामि महब्बए पंच ॥ १३ ॥ . परिवज्जतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ॥१०॥ षद्विधं प्रायश्चि सविनयवैयावृत्यस्वाध्यायध्यानोत्सगोदास्पट पञ्चैव मनोजशब्दरूपरसगन्धस्पर्शभेदात्पञ्चसंख्या एव, चश. प्रकारम् । (प्रम्भितरयं ति) लौकिकैरमनिलक्ष्यत्वासन्तान्तरीय श्व परमार्थतोऽनामेव्यमानस्वान्मोक्षप्राप्यन्तरत्वामाऽऽभ्यन्तरं, दोऽधौन्तरानिधानसमुच्चयार्थः के त्याह-काम्यन्ते रागाऽऽतुरैः तदेवाऽभ्यन्तरक, तपःकति योगः। ( पा०)(बझ पिय बप्राणिभिरनिकालयन्त इति कामा अभिलषणीयपदार्थाः, त विहं तवो कम्ममिति) बाह्यमिव्यासेव्यमानस्य लौकिकैरपि एवाऽऽत्मसंयमनैकहेतुत्वाद् गुणाःसूत्रनन्तवः, आत्मगुणोपघात. तपस्तया ज्ञायमानत्वात्यायो बहिः शरीरतापकत्वाति बाधकारणत्वाद्वा गुणाः कामगुणाः अथवा-कामस्य मदनस्या. मपि चेतिसमुद्यये, षट्विधमनशनाऽवमौदरिकावृत्तिसङ्केपरभिलाषामात्रस्य बा संपादका गुणा धर्मा: पुनलानां काम सपरित्यागका यकलेशप्रतिसंलीनताभेदात्पदाकारम। किं तदिगुणाः, ते चानर्थहेतवः । (पा०) ( तेषामनर्थ हेतुत्वं 'काम त्याह-तपति दुनोति शरीरकर्माणीति नपस्तस्य कर्म क्रिया गुण' शब्दे तृतीयभागे ४३४ पृष्ठे दर्शितम्) तान् कामगुणान् तपःकर्म, तपोऽनुष्ठानमित्यर्थः। तत्रानशनमभोजनमाहार त्याग परिवर्जयन्निति योगः। तथा-पश्चैव प्राणातिपातमृपावादादत्ता. इत्यर्थः । (पा०) । तपःकर्मविषये 'तबोकम्म' शब्दः चतुर्थनागे दानमैथुनपरिप्रभेदात्पश्चसंख्या एवं,त्रः समुच्चये । के इत्या. २२११ पृष्ठान्तर्गतो अष्टव्यः ) "उवनो" इत्यादि पूर्ववदिति । ह-प्रास्नात्यादत्ते कर्म यैस्ते आम्नवा आबा इत्यर्थस्तान्, तथाकिंविधानित्याह-महान्तश्च ते दोषाश्च महादोषाः,दारुणदुःखहेतुत्वात्प्रकृष्टदूषणानि तान् । शेषं पूर्ववदिति । सत्त भयद्वाणाई, सत्तविहं चेव नाणविभंगं । तथा परिवज्जंतो गुत्तो, रक्खामि महब्बए पंच ।। १४॥ सप्तहलोकाऽऽदि भय मेदात्सप्तसंख्याति, जयं मोहनीयप्रकृतिपंचिंदियसंवरणं, तहेव पंचविहमेव सज्झायं । समुत्थ आत्मपरिणामः,तस्य स्थानान्याश्रया भयस्थानानि । उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ॥११॥ (पा.) (भयस्थानभेदवत्तव्यता' भयाण' शब्दे वक्ष्यते) तत्र इन्दनादिन्छो जीवः सर्वविषयोपलब्धिजोगनक्कणपर तथा-सप्तविधमेव सप्तप्रकारमेव (नाणविघ्नंग ति) पूर्वापरमैश्वर्ययोगात्,तस्य निलमिति इन्द्रियं श्रोत्राऽऽदि । तच द्विविध निपातनाद्विभङ्गज्ञान, तत्र विरुद्धो धितथो चा, अयथावस्तुम् इव्येन्द्रियम, भावेजियं च । (पा०) (इन्द्रियस्य सर्वो विकरूपो यस्मिस्तद्विभङ्ग, तच तज्ज्ञानं च साकारत्वादिति वि. यधिकारः, तद्भेदाच 'इंदिय' शब्दे द्वितीयभागे ५४८ पृष्ठे भङ्गज्ञानं, मिथ्यात्वसहितावधिरित्ययः । ( पा०) चिनाकानगताः) पञ्च च तानीन्द्रियाणि, तेषां संवरणं इष्टानिष्टविषये। वक्तव्यता "विनंगणाण" शब्द)(परिवज्जतो ति) विभकाषु रागद्वेषांच्या प्रवर्तमानानां निग्रहणं पञ्चेन्द्रियसंघरणं तदु. नोपनब्धार्थप्ररूपणां परिहरन्नित्यर्थः । “ गुत्तो" इत्यादि पू. पसंपन्नः । (तहेव ति) तथैव तेनैव प्रकारेण पञ्चविधमेव | ववदिति । वाचनाप्रच्छनापरिवतनी ऽनुप्रेकाधर्म कथाभेदात्पञ्चप्रकारम-- . तथापि, तत्र वक्ति शिष्यस्तं प्रति गुरोः प्रयोजकनावो वाचना, पिंडेसण पाणेसण, उग्गह सत्तिकया महज्झयणा । पाठनमित्यर्थः । गृहीतवाचनेनापि संशयाऽद्युत्पत्तौ पुनः प्रष्ट- उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महब्बए पंच ॥ १५ ।। व्यमिति पूर्वाधीतस्य सूत्राऽऽदेः शङ्किताऽऽदो प्रश्नः प्रच्छनेतिप्र. पिण्डः समयभाषया नक्तं,तस्यैषणा ग्रहणप्रकाराःपिएमपणाः। छनाविशोधितस्य मा भूद्विस्मरणमिति परिवर्तना, मुत्रस्य (पा०) (पिएमषणाचिस्तरः । पिसणा ' शब्दादवगन्त. गुणनमित्यर्थः । सूश्वदर्थेऽपि संमवति. विस्मरणमतः सोऽपि व्यः ) पानेषणा अप्येता एव, नवरं चतुझं नानावं, तत्र ह्यापरिभावनीय इत्यनुप्रेक्कण मनुप्रेक्षा, चिन्तनिकेत्यर्थः । एवम. यामसौवीरकाऽऽदि निलेपंबिझेयमिति । (पनिषणाविषयः 'पा भ्यस्तश्रुतेन धर्मकथा विधेयेति धर्मम्य श्रुतरूपस्य कथा व्या. णेसणा' शब्दादवगन्तव्यः ) (उग्गह त्ति) सूचकत्वादवप्रहरिः ख्या धर्मकथेति । एवं पश्चविध किमिन्याह-(सज्झाय ति) मा- अवगृह्यत इत्यवग्रहो वसतिः तत्प्रतिमा अनिग्रहा अब!, शोजनमा मर्यादयाऽध्ययनं श्रुतस्याधिकमनुसरणं स्वाध्याय. हप्रतिमाः । ( पा०)[सत्तिक्कय ति] सप्त सप्तकका अनुदेशकर, स्तमुपसंपन्न इत्यादि पूर्ववदिति । यैकसरत्वेनैकका अध्ययनविशेषा आचाराङ्गस्य द्वितीयश्रुत. तथा न्धे द्वितीयचूडारूपाः,तेच समुदायतः सप्तेति कृत्वा सप्तकका छज्जीवनिकायवहं, छप्पि य भासाउ अप्पसत्थाउ । निधीयन्ते, तेषामेकोऽपि सप्तकक इति व्यपदिश्यते, तथै परिवज्जंतो गुत्तो, रकवामि महपए पंच ।। १२ ॥ नामत्वात् (पा०) [ सप्तककानां वक्तव्यता 'सत्तिकाय' शम्, परजीवनिकायानां पृथ्वीकायाऽकायतेजाकायवायुकायवनस्प वक्ष्यते ] [ महज्जयण ति] सूत्रकृताङ्गस्य द्वितीय श्रुतस्कर तिकायत्रसकायतकणपधिप्राणिगणानांवधो विनाश पम्जी महान्ति प्रथम श्रुतस्कधाध्ययनेभ्यः सकाशाद् ग्रन्धनो बृहन्त वनिकायवधस्तं,तथा पडपि च अलीकाऽऽदिभेदात् षट्सङ्ख्याः ध्ययनानि (पा०)[ अत्र बिस्तरः 'सयगड' शब्द) अपि च । काः? इत्याह-भाष्यन् प्रोच्यन्ते इति भाषा:.बचनानी "उवसंपन्नो जुत्तो" इत्यादि सूत्रं तु प्राग्यदिति । त्यर्थः। ताः किंविशिष्टा इत्याह-अप्रशस्ता गुरुकर्मबन्धहेतुत्वा- अट्ठ मयट्ठाणाई, अट्ट य कम्मा तेसि बंधं च । दसुन्दराः । (पा०) [नापाभेदाः 'भासा'शब्दे] शेषं प्राग्यदिति। परिवज्जंतो गुत्तो, रक्खामि महब्बए पंच ॥ १६ ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिक्रमा अष्टौ जातिकुल बल रूपतपरैश्वर्य श्रुतलाभनेदादष्टसंख्यानि मदखामानि मदभेदादिका या जातिः, पेयुकाऽऽदिकं वा शरीरन्दरूपम् - मानाऽऽदि तपः, सम्पदः प्रनृत्यम् पश्य बहुशाखा - तम् अभिलषितवस्तुप्राप्तिर्लानः । श्रत्र च दोष:-" जात्यादि मदोन्मत्तः, पिशाचचद्भवति दुःखितःचेह । आत्यादिहीनतां पर भवे व निःसंशयं बजते ॥ १॥” इति। अष्ट व ज्ञानाssवरणद र्शनावरणवेदनीयमोहनीयाऽऽयुष्कनामगोत्रान्तराय मूलप्रकृतिभेदाद संक्यानि कर्माणि [तेसबंध ] शाम कर्मणां बन्धोऽभिनव ग्रहणं तं खतहर्जनं च केतुपरिहारः समयसेयं परिवर्जयत्यादि पूर्ववदिति [ मदस्थानविस्तरः ' मयाण' शब्दे वक्ष्यते ] ( ३०० ) अभिधान राजेन्द्रः । 3 तथा अट्ठय पवयणमाया, दिट्ठा अट्ठविहनिट्ठियहिं । उनसंपत्र जुनो, रक्खामि महत्वए पंच ।। १७ ।। अशी समित्यादिमेदादसंख्या एका नस्य द्वादशाङ्गस्य मातरश्व सत्प्रसूतिहेतुत्वान्मातरो जनन्यः प्रवचनमातरः | [ पाo ] [ 'पवयणमाया' शब्दे विस्तरः ] दृष्टा उपलब्धाः, कैरित्याह-अष्टविधा अष्टप्रकारा निष्ठिताः क गता अर्थः प्रक्रमात् ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिपदार्था येषां ते तथा तैरष्टविधनिष्ठितार्थैजिनैरित्यर्थः । "नवसंपनो जुतो " इत्यादि पूर्ववदिति । नव पावनियाणाई, संसारत्था य नवविहा जीवा । परिवज्जं तो गुत्तो, खखामि महत्वए पंच ॥ १८ ॥ तथा - (यानि पापानि पापनिबन्धनानि निदानानि नोवाऽऽदिप्रार्थनाखानि पापमिदानानि तानि परिवर्जये निति योगः । [ पा० ] तथा-संसरन्ति कर्मवशवर्तिनः प्राणिनः परिभ्रमन्ति यस्मिन्निति संसारः, तत्र तिष्ठन्तीति संसारस्था समुच्चये नयविचाः पृथिव्यांचा युवनस्पतिद्विषिचतुः पत्र मे संख्या के इत्यादीप्रमा परिवर्जयादि पूर्ववदिति [ पा० | दो पूर्ववदिति । नवभचेागुत्तो, दुनवविहं बंभचेरपरिसुद्धं । उपसंपन्नौ जुत्तो, रक्खामि महब्बए पंच ॥ १६ ॥ [[]] सुचकत्यानामुतिभिस्तत्र ब्रह्मम स्मैक तानतः सुसंवृतस्वति पा० ) [ नय ब्रह्मचर्य गुप्तिविचरणम् ' बंभचेरगुप्ति' शब्दे वक्ष्यते ] तथा[[]] दशका रमित्यर्यो, ब्रह्मचर्य मैथुनविरर्ति, परिशुद्धं निर्दोषं तचौदारिकवैधिनस्य मनोवाक्कायैः करणकारणानुमतिया जायते । पा० । तथा उवघायं च दसविहं, असंवरं तह य संकिलेसं च । परिवज्जंतो गुत्तो, रक्खामि महत्वए पंच ॥ २० ॥ उपननमुपघातस्तं दशविधमृद्गमोपपातादिनेादरा प्रकारं वर्जयन [ पा० ] [ उपघातस्य भेदाः सवधाय श पटकमा द्वितीयागे ८० पृष्ठे दर्शिताः ] [ श्रसंबरं तह यत्ति ] संवरण संवरः, न संवरोऽसंवरः तम् । [ पा० ] ( संकिलेस च त्ति ) संक्लेशोऽसमाधिः तं च दशविधं परिवर्जयन्त्रित्यादि पूर्ववत पा० (असमाधिनेशा असमादिशब्दे प्रथ ममा ४२ पृष्ठे गताः) 6 तथा.. सच्चसमाहिडाणा, दस चेत्र दसाउ समणधम्मं च । उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ॥ २१ ॥ सन्तः प्राणिनः पदार्था मुनयो वा, तेज्यो हितं सत्यं, त दशविश्वम् । ( पा० ) ( सत्यस्य बढवो नेदाः, ते च 'लच ' शब्दे दर्शयिष्यन्ते ) ( समादिद्वाण ति ) समाधेः रागाऽऽदिरहितचित्तस्य स्थानान्याश्रयाः समाधिस्थानानि तान्यपि दश । (पा०) (समाधिस्थानमेवा'समा' शब्दे दर्श क्वचित्तु - "चित्तसमाहिद्वाण ति " पाठः, तत्राप्ययमेवार्थी, नवरं सत्यदशकं न व्याख्येयमिति । [ दस चेत्र दलाओ ति] दशैय दशसंख्या पचदशाधिकाराभिधायक हुवचनान्तं स्त्रीलिङ्गं शास्त्रस्याभिधानमिति । ( पा० ) ( श्व दशाः 'दमा' शब्दे चतुर्थभागे २४८४ पृष्ठे दर्शिताः ) ( समधम्मं चति ) श्राम्यन्तीति श्रमणाः साधवः तेषां धर्मः क्षान्त्यादिलक्षणः श्रमणधर्मस्तं च दशविधम, उपसंपन्न - स्वादि पूर्ववत् [ पा० ] शेषं प्राग्यदिति । (२४) अथाऽशालनाणमादआसायणं च सव्वं, तिगुणं एक्कारसं विवज्र्ज्जतो । उपसंपतो, रक्खामि महव्यए पंच ।। २२ । आय झानाऽऽदिलाभं शातयत्याशातना, श्रदारवत्ययति योगः किसिम सामान्येन चत्रा(तिगुणं एकार शिव वारणे गुणा गुणकारका वस्य सवितादर्शका दशाकं प्रयशनमाऽऽशातमा इत्यर्थः । एकादशानां त्रिगुणितानां त्रयत्रिशत्संख्योपपत्तेरिति भावना । अथवा-वन्त्रनव्यत्ययात् प्रक्रान्ताशातनाशब्दसंबन्धाश्च त्रिगुणा एकादश वाऽऽशाननाः कर्मताऽऽपन्ना विवर्जयन् परिहरन्, तथोप संपन्नः प्रतिपाद्यतामिति सामर्थ्या मरक्षामिमाना ( आशातनाया बड़बो भेदा: ' आलायणा' शब्दे द्वितीयभागे ४७ पृष्ठे शुभकार जनद्वारेण कृता महाव्रतोच्चारणा । साम्प्रतमनुक्तस्थानातिदेशस्कर्तुमादएवं तिदंडविरओ, तिगरणसुद्धो तिसइनीसल्लो तिविहे पडितो, रक्खामि महत्वए पंच ।। २३ । एवं प्रागुक्तले श्वाऽऽदि स्थान वस्त्रि एक घिरतो, दण्ड्यते चारि त्रैश्वर्यापहारतो निःसारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डास्त्रयश्च ते दुष्प्रयुतमनवाकयमेक्षः त्रिसंख्याः दस्ते तदण्डविरतः उदाहरणानि चात्र मनोहर को 135 ये:.." सो फिर एगया महावार वायंते जणू अहोसिरो चितो चिट्ठर । साहुणो य' अहो तो सुहज्ऊ णोवगओ विदेश ि इमारको साहू पुछि किमेश्चिरं काश्यंति ?। सो भण - Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्किम । संपयं खरतरो मारुश्रो वायर, जइ ते मम पुत्ता इयाणि वल्ल राशि क्षेत्राखीत्यर्थः । पली थी तेर्सि वासारचे सर साए भूमी सुबह खालिसंपया होजा एवं मए चितियं । तो वरिपरि पारियो डियो एयमाद जमसु म चिंते सोमणदंडो " ( पा० ) ( वाग्दण्डः 'दंड' शब्दे यक्ष्यते ) ( कायदएड: 'कायदंड' शब्दे द्वितीयभागे ४६२ पृष्ठे गतः) तथा (तिगरणसुद्धो सि) त्रीणि च तानि करशानि मनःप्रभृतीनि त्रिकरणानि ते शुद्ध निर्दोषत्रिकरणानि वा शुद्धानि सर्वदोषरहितानि यस्य स त्रिकरणशुद्धः । आह-त्रिदण्डविरतत्रिकरणशुद्ध एव भवत्यतः कित हणेन ? । सत्यम् । सावद्ययोगनिवृत्तस्त्रिदण्डविरत उच्यते, निरवद्ययोगप्रवृत्तस्तु त्रिकरणशुद्धः । अथवा - करणरूपसावद्ययोगविरती दण्डत्रयविरत उच्यते, करणकारणानुमतिरूपसावद्ययोगविरतस्तु त्रिकरणशुद्ध इति न दोषः अन्यथा यानयोर्विशेष भावनीयः यतो गम्भीरमिदमार्षमिति । ( पा० ) ( तिसझनील पदव्याच्या 'तिसल्लनीसल्ल' शब्दे चतुर्थभागे २३३१ पृष्ठे गता ) ( तिविपडित) विविध प्रकारंण करणेनेति गम्यते । प्रतिक्रान्तः सर्वातिचारप्रतिनिवृत्त, रक्षामि महाव्रतानि पञ्चेति ! " अथ महाव्रतोचारणं निगमयन्नाह इथे महवयउचारणं घिरतं समुद्धरणं पिइवलयं वदसाश्रो साहणट्टो पावनिवारणं निकायणा भावविसोही पडागाहरणं निज्जूहरणा राहणा गुणाणं संवरजोगो पसत्थज्झाखोया नया व नाणे परमट्टो उत्तमट्टो एस तिस्थंकरेहिं रहरागदोसमहोहिं देसिओ पवयणस्स सारो जीवनकायसंजम उवएसियं तेल्लोक्कसक्कयं ठाणं अवभुवगया || इत्येतदनन्तरोकं महायताबारणं तत्कीर्तनं कृतमिति - षः । श्रत्र च को गुण इत्याह- (थिरत्तमित्यादि ) अथवा तत् कथंभूतमित्याह - (धिरतं ति) महामतेष्वेव धर्मे वा स्थेर्यहेतुस्यात् स्थिरत्वं निश्चलत्वं भवति चासन्समा सम्वि शेषस्य तत्करणश्रवणाऽऽदिभ्यः संवेगातिशयान्महाव्रतेषु धर्मे वा नाकम्पतेति । शल्यानां मायाशस्वाऽऽदीनामुद्धरण कारणापोद्धरणमिदमिति तथा वृश्वित्तसमाधेलम्भी प्रतियले तत्कारणत्वान्महावतोचारणमपि तिल, स्वार्थिककप्रत्ययोपादानाद प्रतियलकम् । धीवलं या भूतिया ददातीति धृतिबलवं पीपल वेत्युच्यते जायते चासकृतद्वासितमतेतिपलमिति । एवमन्यत्रापि भावना कार्या । तद्यथा-व्यवसायो दुष्करकरणाध्यवसायः, तथा( साहो नि ) साध्यते अनेन साध्यमिति साधनं साधकतमकरणं. तलक्षणोऽर्थः पदार्थः साधनार्थः, मोक्षायपरमपुरुषार्थनिष्यत्युपाय इत्यर्थः तथा-( पावनिवारणं ति) पा पस्याशुभकर्मणा निवारण निषेधकं पापनिवारणम्। तथा(निकायण सि) निकाय नेय निकालना स्वप्रतिपत्ति 3 तरनिबन्ध इत्यर्थः । शुभकर्मणां वा निकालनाहेतुत्यान्नि काचनेदमुच्यते, न च सरागसंयमिनामयमथों न घटत इति । तथा - (भावविहित) भावस्याऽऽत्मपरिणामस्य जलमि वस्त्रस्य विशोधिकार सत्याद्भावविशेधिर्माचनिर्मलत्यहेतु ઉદ ( ३०१ ) अभिधानराजेन्द्र " परिक्रमा रित्यर्थः । तथा-(पडागाहरणं ति) पताकायाश्चारित्राऽऽराधनावैजयन्त्या हरणं ग्रहणं पताकाहरण मिदम्, लोके हि मल्लयुद्धrssदिषु वस्त्रमाभरणं द्रव्यं वा ध्वजाग्रे बध्यते, तत्र यो येनादिनागुणेन प्रकर्षवान् स रङ्गमध्ये पुरतो भूत्या गृहातीति पताकां हरतीत्यते । चत्रापि पाक्षि काऽऽदिषु महाव्रतोच्चारणतः समुपजातचारित्रविशुद्धिकर्षः साधुः प्रवचनोक्तायाचारिषाऽऽराधनापताकाया हरणं करोतीति । तनिष्काशन कर्म शत्रूणामात्मनगरान्निवसनत्यर्थः । तथा राधना अखरामनिपादना । केषामित्याह-गुणानां मुक्तिप्रसाधकजीवव्यापारासा म (इति) मनकामन ः। दूपो योगो व्यापारः संवरयोगः । अथवा संवरेण पञ्चाऽऽभव निरोधन योग संस्था संयोग इति तथा पत्र स्थानीय सि) ने धर्मशुणभाष्य वसानेोपयुक्तता संपन्नता, प्रशस्तध्याने वोपयुक्तता प्रशस्तध्यानोपयुक्तता, महाव्रतोश्चारणं कुर्वतः शृण्वतो वा नियमादम्यतर ध्यानसंज्ञादिति तथा यानाति यु समताच विनक्रिययात् ज्ञानेन तत्यागमेन सम्यग्ज्ञानफलत्वादि ति भावः । चूर्णेतु - " जुत्तया यत्ति " पाठो व्याख्यातः । तत्र युक्ता वाटादशशीला समिति तथा परम त्ति ) परमार्थः सद्भूतार्थः, अकृत्रिमपदार्थ इत्यर्थ इति, कचित्पदार्थः परमार्थोऽपि परमाण्वादिवदुत्तमो न भवत्यत श्रा ह - उत्तमश्चासावर्यश्चोत्तमार्थः प्रकृष्टपदार्थः, मोकफलप्रसाध करवेग महामतानां सर्ववस्तुधानस्यादिति भावः सति ] बिध्यस्ययादेतन्मतारखं प्रचचनस्य सारो देशित शत संबन्धः । अथवा एष इत्यनेन सार इत्येतस्य लि ङ्गं गृहीतमिति । कैरित्याह-तीर्थ करैः प्रवचनगुरुभिः । किंविधैरित्याहरतिक्षारित्रमोदमीय कर्मदयजन्यस्तथाविधान पश्चित्तविकारः रागश्च समकारों द्वेपश्चाद, रतिरागबास्तान्मथ्नन्ति व्यपनयन्तीति रतिरागद्वेषमथनाः । तैः किमि. स्वाहदेशित केला लोकेनोपदितः प्र अवस्य पादशाङ्गार्थस्य सारो निष्पन्दः महाव्रतानि तीर्थ करे नार्थस्य सारभूतानि कवितामस्यतो मुमुकुणा तेषु महानादरो विधेय इति भावः । ते च भगवन्तस्तीर्थकराः पीयनिकायसं पृथिव्यादिवसहरक्षामुपलक्षणत्वान्मृषावादाऽऽदिपरिहारं चोपदिश्य भव्येभ्यः कथयित्वा उपलक्षणत्वात्स्वयं कृत्वा च त्रैलोक्य सत्कृतं लोकश्यपूजितं स्थान प्रदेश सिद्धिक्षेत्रमित्यर्थः अभ्युपगताः संप्राप्ता इत्यनेनापि महाव्रतानामत्यन्तोपादेयतां सूचपतीति । अथ महाव्रतोत्कीर्तनापरिसमाप्तौ मङ्गलार्थ प्रत्यासन्नोप । कारित्वाद् विशेषतो महावीरस्य स्तुतिमाह नमोऽस्यु ते सिद्ध बुद्ध सुत नीरव निस्संग मारामुरण गुणसागर मत मध्यमेव असरीर ! नमो महइ महावीर बदमाश सामिस्स नमोऽत्य ते घर भगवओ तिकडु । antarrase भवतु, कस्मै ते तुभ्यं, हे वर्धमानस्वा मिन्निति प्रक्रमः । किंविशिष्ट ?, सिद्ध कृतार्थ बुद्ध केवलज्ञानेनावगत समस्त वस्तुतत्व, मुक्त पूर्ववद्धकर्मबन्धनस्त्य Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण अभिधानराजेन्धः। पडिकमगा क्त,नीरजः वध्यमानकर्मरहित!, अथवा--मीरय ! निर्गतौत्सु- स्तीर्थकरगणधराऽऽदिभ्यो वेति भाव ।यैरिदं वक्ष्यमाणं वाक्य, निःसत! पुत्रकल मित्रधनधान्यहिरण्यसुवर्णाऽदि. चितम् . अस्मभ्यं प्रदत्तं, अथवा-वाचितं परिभाषितं, सूत्रासकलसंबन्धविकल ! (मानमूरण त्ति) सर्वगर्वोहलन ! गुण- र्थतया विरचितमित्यर्थः । षविधं षट्प्रकारमवश्यकरणारत्नसागर! इति व्यक्तम्। तथा-अनन्तज्ञानाऽऽत्मकत्वादन- दावश्यकं, गुणानां वाऽभिविधिना घश्यमात्मानं करोती. म्तस्तस्याऽऽमन्त्रणम् अनन्त !, मकारः प्राकृतशैलीप्रभवः । त्यावश्यकं, किंविशिष्टम् ?,भगवत् सातिशयाभिधयसमृद्धथाअप्रमेय ! प्राकृतज्ञानापरिच्छेद्य, अशरीर ! जीवस्वरूपस्य छ दिगुणयुक्तम् । अस्थैः परिच्छेत्तुमशक्यत्वादिति । तथा- नमो नमस्कारोऽस्तु पड्डिधत्वमेयोपदर्शयन्नाहभवतु, कस्मै ?, ते तुभ्यम् , किंविशिष्टत्याह--महति गरीय- तं जहा-सामाइयं,चउवीसत्थो ,वंदणयं,पडिक्कमणं,कासि, प्रक्रमात् मोक्षे, कृतमते ! इति गम्यते । पुनरपि किंवि- उस्सग्गो,पच्चक्खाणं; सव्वेहिं पि एयम्मि विहे आवस्सशिऐत्याह-विशेषेणेरयति मोक्षं प्रति गच्छति गमयति वा ए भगवंते ससुत्ते सत्ये सगंधे सनिज्जुत्तिए ससंगहाणप्राणिनः प्रेरयति वा कर्माणि निराकरोति, वीरयति वा रा. ए जे गुणा वा भावा वा अरहंतहिं भगवंतेहिं पनत्ता गाऽऽदिशत्रून् प्रति पराक्रमत इति वीरः, निरुक्तितो वा पारः । यदाह " विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते । वा परूविया वा ते भावे सद्दहामो,पत्तियामो, रोएमो,फातपोवीर्येण युक्तश्च, तस्माद्वीर इति स्मृतः ॥१॥” इतर- | सेमो, पालेमो, अणुपालेमो। वीरापेक्षया महांश्चासौ वीरश्चेति महावीरस्तस्याऽऽमन्त्रणं तद्यथेत्युदाहरणोपदर्शनार्थः, सामायिकं सावद्ययोगविरतिहे महावीर!, पुनरपि किंविशिष्ट?, वर्धमान स्वकुलसमृद्धि- प्रधानोऽध्ययनविशेषः१,चतुर्विंशतिस्तव ऋषभाऽऽदिजिनगुहेतुतया पितृभ्यां कृतवर्धमानाभिधान ! कुतस्ते नमस्का- णोत्कीर्तनाधिकारवानध्ययनविशेषः २, वन्दनकं गुणवत्प्ररोऽस्त्वित्याह-(सामिस्स ति ) विभक्तिव्यत्ययादितिक- तिपत्तिप्रधानोऽध्ययनविशेष एव ३, प्रतिक्रमणं स्खलितनित्वेति प्रत्येकमभिसंबन्धाश्च स्वामीतिकृत्वा प्रभुरितिहेतोः, न्दाप्रतिपादकोऽध्ययनविशेष एव ४, कायोत्सर्गो धर्मकायातथा नमो नमस्कारोऽस्तु ते इति । कुत इत्याह-(अरहो तिचारव्रणशोधकोऽध्ययनविशेष एव ५, प्रत्याख्यानं विरत्ति)उक्तहेतुभ्यामशोकाऽऽद्यष्टमहाप्रातिहार्याऽऽदिरूपां पूजाम- तिगुणकारकोऽध्ययनविशेष एव ६, सर्वस्मिन्नपि समस्तेऽ. हतीत्यर्हन, स इति कृत्वा नमोऽस्तु ते। कुत इत्याह-(भग- प्येतस्मिन्ननन्तरोक्ने षइविधे षड्भेदे, आवश्यके भणितस्व. वतो ति) भगवानिति कृत्वा भगवानिति हेतोः। तत्र भगः रूप, भगवति समप्रैश्वर्याऽऽदिमति, सह सूत्रेण मूलतन्त्ररूसमग्रेश्वर्याऽऽदिलक्षणः। उक्तं च-"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य,रूपस्य पेण वर्तत इति ससूत्रं, तस्मिन्सहार्थेन तवयाख्यानरूपेण यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतीङ्गना वर्तत इति सार्थ तस्मिन्, सह ग्रन्थेन सूत्रार्थोभयरूपेण ॥१॥" स विद्यते यस्येति भगवानिति । अथवा-" महरमह वर्तत इति सग्रन्थं तस्मिन् , सह निर्युक्त्या प्रतीतरूपया त्ति" रूढिवशादतिमहान, स चासौ वीरश्चेति महावीरः, स वर्तत इति स नियुक्तिकं तस्मिन्, सह सङ्ग्रहण्या निचासौ वर्द्धमानश्चेति महावीरवर्धमानः, स चासौ स्वामी, र्युक्त्यैव बह्वर्थसंग्रहणरूपया वर्तत इति ससङ्ग्रहणिकम्, तस्मै । तथा-नमोऽस्तु तेऽर्हते, तथा-नमोऽस्तु ते भगवते तस्मिन्,ये केचन गुणा विरतिजिनगुणोत्कीर्तनाऽऽदयो धर्माः, इतिकृत्वा इतिहेतोः यतस्त्वमुक्तविशेषणोऽतस्ते नमास्त्वि- वाशब्द उत्तरपदार्थापेक्षया समुच्चये,भावाः क्षायोपशमिकाति भावः । अथवा-कथं नमोऽस्त्वित्याह-(तिकटु त्ति) 5ऽदिपदार्था जीवाऽऽदिपदार्था वा,वाशब्दः पूर्वपदापेक्षया स. त्रिःकृत्वः त्रीन् वारानिति,प्रतिवाक्यं च नमस्कियाऽभिधानं सुच्चय एव, अर्हद्भिदेवाऽऽदिकृतसपर्या भगवद्भिः समप्रैश्वस्तुतिप्रस्तावाददुष्पमिति । यथा-महाव्रतोश्चारणं कर्मक्षयाय र्यादिमद्भिः,किमित्याह-प्रज्ञप्ताः सामान्येनेोद्दिष्टाः,प्ररूपिता तथा श्रुतोत्कीर्तनमपि कर्मविलयायेति। विशेषेण निर्दिष्टाः । वाशब्दौ पूर्ववत् । तान् भावानुपलक्षणमहायतोत्कीर्तनं निगमयन् श्रतोत्कीर्तनं कर्तुकाम इदमाह- त्वाद् गुणांश्च ( सहहामो त्ति) श्रद्दध्महे सामान्येनेदमेचैएसा खलु महन्वयउच्चारणा कया इच्छामो सुयकित्तणं तत् इति श्रद्धाविषयीकुर्मः। (पत्तियामो त्ति) प्रतिपद्यामहे काउं। प्रीतिकरणद्वारेण, (रोएमो त्ति) अभिलाषातिरेकेण रोचयाएषाऽनन्तरोता, खलुर्वाक्यालङ्कारमात्रे, महावतोच्चारणा मः, श्रासेवनाभिमुखतया रुचिविषयीकुर्म इत्यर्थः । न च प्रीतिरुचीन भिन्ने, यतः क्वचिद् दध्यादौ प्रीतिसद्भावेऽपि न महावतसंशब्दना , कृतोतयायेन विहिता, साम्प्रतम् सर्वदा रुचिरतो विभिन्नताऽनयोरिति । (फासमो त्ति) स्पृइच्छामोऽभिलपामः, श्रुतकीर्तनामागमग्रन्थाभिधानसंशब्दनां, कर्तुं विधातुमिति । (पा०) (तच श्रुतम् 'सुय' शामः श्रासेवनाद्वारेण छुपामः। “ पालमो त्ति" पाठोऽशुद्ध इव लक्ष्यः, (अणुपालेमो त्ति) अनुपालयामः पानःपुन्यशब्दे वक्ष्यते) करणेन । यदि पुनः प्रसिद्धत्वात् “पालमो ति" पदमवश्यं तत्र तावदल्पवाव्यत्वादावश्यकश्रुतसमुत्कीर्तनाय तदुपदेशकनमस्कारपूर्वकं सूत्रमाह व्याख्येयं, तदा पालयामः पौनःपुन्यकरणेन रक्षामः, एतच कतिपयदिनपालनेऽपि स्यादतः-शानुपालयामः पालनादनु नमो तसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइयं छब्धिहमाव- पश्चादाजन्मापीत्यर्थः पालयामाऽनुपालयामः। स्सयं भगवंतं । तथानमो नमस्कारोऽस्त्विति गम्यते, केभ्यः?,इत्याह-तेभ्यःक्ष . ते भावे सद्दहंतेहिं पत्तियंतेहिं रोयंतेहिं फासंतेहिं पालतहिं अमाश्ररश्माज्ञमादिगुणप्रधानमहानास्त्रियः स्वार- पालतेहिं अंतो परबस्स वाइयं पहियं परियट्रियं गछियं Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०३) अभिधानराजेन्द्रः पडिकमा अणुपेहियं पालियं तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मो क्खा बोहिला भए संसारुतारणाए तिकट्टु उवसंपज्जित्ता संविहरामि । "" सान् भावान् अयानैरेवमेवैतदिति सामान्येन प्रतीति कु वः प्रतिपद्यमानविंशतिकरण द्वारेण मन्यमानः रोच यांद्भरभिलाषाऽऽतिरेकेल सपनाभिमुखतया रुचि विषय कुर्वद्भिरित्यर्थः । स्पृशद्भिरासेवनाद्वारेण पद्भिः पालयद्भिपरतिपद्मापि न विद्मः तदङ्गीकारे च पूर्वयदविशेषा यः। अनुपालयद्भिः पौनःपुन्यकरन र अन्तर्मध्ये पक्षस्य चन्द्राभिधानार्द्धमासस्य यत्किमपि पाश्रिन्ये भ्यः प्रदर्श पठितं स्वयमधीतं परिवर्तितं सूत्र पूर्वी तस्याऽऽदे शङ्कित छनं विदितमित्यर्थः अनुप्रेक्षितमर्थविस्मरणभवाऽऽदिना चिन्तितम् अनुपालितम् एमिरेव प्रकारैरनमनुष्ठितं तद् दुःखक्षपाय शारीरमान सासातोच्दा कम्मैवाय ज्ञानावरणाऽयरचनाशाय, मोक्षाय परमनिः अयलाय, पौधिलाभाय प्रेमीवाप्तये, संसारोत्तारणाय भवभ्रमणपारगमनाय अस्माकं भविष्यतीति गम्यते । इतिकृत्वा इतिहेतोरुपसंचा त्य, विहरामीति पचनव्यत्ययादिहरामी मासकल्पा55दिना साधुविहारेण वर्त्ताम इति । 1 तथा अंतो पक्खस्स जं न वाइयं न पहियं न परिवहियं न पुच्छियं नापेहियं नागपालियं संते वले संते वीरिए संते पुरिसकारपरकमे तस्स आलोएमो, पडिकमामो, निंदामो, गरिहामो, विट्टेमो, विसो हेमो, अकरणयाए अब्भुट्टेमो, अहारिहं सयोकम्मं पायच्छितं पडिवजामो तस्स मिच्छामि दुकटं । अत्र नविशेषितसूत्राणि पूर्ववद्वयाख्येयानि, कस्मिन् विद्यमानेऽपि वाचनाऽऽदि न कृतमित्याह सति विद्यमाने बले शारीरे प्राणे, तथा सति विद्यमाने वीर्ये जीवप्रभवे प्रासे एय तथा सति पुरुषकारपराक्रमे तन पुरुषकार: पुरुषाभिमानः, स एव निष्पादितफलः पराक्रम इति, (तस्स आलोपमो त्ति) विभक्तिव्यत्ययात्तदवाचिताऽऽदिकमालोचथामो गुरवे निवेदयामः तथा (पडिकमामो ति) प्रति क्रमामा प्रतिकमयं कुर्मः तथा-( निंदामो ति) निन्दा मः समजुगुप्सामहे। ग्राह च सचरित्तपच्तावो दिति " ( गरहामो सि) गहमो गुरुसमक्ष जुगुप्लामहे । श्राह च - " गरहा वि तहा जाइयमेव नवरं परप्पयासराय त्ति । " तथा - (विउमा त्ति) व्यांतवर्तयामं चित्रोटयामो, विकुट्टयामा वा श्रवाचनाऽऽद्यनुबन्धं व्यवच्छेदयाम इत्यर्थः । ( विसोहेमो ति) विशोधयामः प्रकृतदोषमलिनमात्मानं विमलीकुः । तथा-अकरणतया पुनर्न करिष्याम इत्येवमभ्युतिष्ठामभ्युपगच्छाम इति पचाईमपराधा55द्यपेक्षया यथोचितं तपःकर्म निर्विकृतिकाऽऽदिकं, पापच्छेदकत्वात्पापनि प्रायश्चित्तविशोषकत्वाद्वा प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यामहे श्रभ्युपगच्छामः, तथा तस्य यन्न वाचितमि त्यादेरपराध मिखाकृतं त्वदोषप्रतिपत्तिर्गर्भपाता पासून मिथ्यादुष्कृतमिति वाक्यं प्रयच्छाम इति । समु स्कीर्तितमावश्यक :1 पंडिकमण इदानीं तव्यतिरिक्तस्थावसरः तदपि विविध प्रथमम् । राधा-कालिकं सांत्कालिकं च यदि दिवसनिशाप्रथमप पीपी पचास्वाध्यायिकाभावे पटते तत्कालेन नि कालिकम् (तच्च 'कालिग' शब्दे द्वि०मा० ४६६ पृठे गतम्) यत्पुनः कालवलापश्ञ्चविधास्वाध्यायिकवर्ज्य पठयते तदुत्कालिकम् । तत्र तात्कालिकसमुत्कीर्तनायाऽऽहनमो तेसिं खमासमणा जेहिं इमं वाइयं अगवाहिर उकालियं भगवंतं । तं जहा दसवेयालियं, कवियाकष्पिषं, चुल्लकप्पसुर्य, महाकष्पसुयं श्रवाइयं, रायप्पसेणइयं, जीवाभिगमो पचत्रणा, महापवणा, नंदी, अनुओगदाराई. देविंदत्य, तंदुलवेयालियं, चंदाविज्झयं, पमायप्पमायं, पोरिसिमंडल, मंडलप्पनेसो गरिविजा, विजाचरणविशिओ, काणविभत्ती, मरणविभत्ती, आयविसोही, संलेहगासुर्य, बीयरागसुर्य, विहारकप्पो, चरणविही, आउरपचक्खाणं, महापच्चक्खाणं । 'नमो' नमस्कारोऽस्त्विति गम्यते, तेभ्यः क्षमाश्रमणेभ्यः, सूत्रार्थदातृभ्य इत्यर्थ । यैरिदं वक्ष्यमाणं, वाचितमस्मभ्यं प्रदत्तमङ्गवाद्यं प्रवचनपुरुषाङ्गेभ्यो बहिर्भवम् उत्कालेन निर्वृत्तमुत्कालिकं भगवत् महार्थत्वसमृद्ध्यादिगुणवत्त यथा ( दसवेवालिये ति) चिकालेनापराहलयन मि तं वैकालिकं दशाध्ययननिर्माणं च तद्वैकालिकं च मध्यपदलोपा दशवेकालिकम् (पा०) (दशवेकालिकम्यता दसवेयालिय ' शब्दे चतुर्थभागे २४८० पृष्ठादारभ्य द्रष्टव्या) ( कपयापित प्रतिपादकं काकल्यम् (कविवाकविय' शब्दस्य प्रम्यविशेपप्रतिपादकत्वं कपियाकपिय' शब्दे तृतीयभागे २५० पृठे इयम्) तथा (चुल कप्पसुर्य महाकण्यसु ति) कल्पना स्थविरकल्पा55दितत्प्रतिपदिकं तं मल्पार्थे च (अस्योत्कालिकश्रुतप्रतिपादकत्वम् 'चुल्लकप्पसुयशब्दे तृतीया ११६ यम्) द्वितीयं महाप्रये, महार्थ च [" महारूप्पसुष" राजेऽस्य विशेषो वपते ] तथा [ चाहत ] प्राकृतत्वात् वर्ण श्रीपा तिकम् उपपतनमुपपात देवनारकजन्म सिद्धिगमनं च समधिकृत्य कृतमध्ययनमीपपातिकम् [अस्य बहुविस्तरः श्रवाइय' शब्दे द्वितीयभागे ६६ पृष्ठे गतः ] [ रायप्पइति ] राशः प्रदेशिनान्नः प्रश्नानि तान्युपलक्षयभूताम्यधिकृत्य प्रणीतमध्ययनं राजयश्रीषसि 6 " , तस्येति। [विस्तः 'रायणीय' शब्दे वदयते] तथा(जीवाभिगमात्ति) जीवानामुपलक्षणत्वादजीवानां चाभिगमो ज्ञानं यत्र स जीवाभिगमो ग्रन्थः । [ पा० ) ( तविशेषः 'जीवाभिगम' शब्दे तृ० भागे १५६३ पृष्ठे गतः ] तथा-परवति ] जीवाssदीनां प्रज्ञापनं प्रज्ञापना [ सर्वा वव्यता 'पराग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वदयते ] बृहत्तरा प्रज्ञापना महाप्रज्ञापना [ श्रत्र विशेषः 'महापरणवसा 'शब्दे विलाकनीयः ] एते च समवायाङ्गस्पोपा इति । तथा-[ मंदि ति] न नन्दी, नन्दस्यनवेति वा भव्यप्राणिन इनि नन्दी, पारागस्वरूपप्रतिपादको विष इति । [नन्दस्वरूव 'दि' शब्द अनुभाग १७५२ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०४ ) श्रभिधान राजेन्द्रः । पडिकमण पृष्ठे प्रतिपादितम् ] तथा - [ अणुोगदाराई ति] ' श्रनुयोगो व्याख्यानं, तस्य द्वाराण्युपक्रमाऽऽदीनि चत्वारि मुखान्यनुयोगद्वाराणि तत्स्वरूप्रतिपादको ऽध्ययनविशेषः, अभेदोपचारादनुयोगद्वाराणीत्युच्यते । [ श्रनुयोगद्वाग्वक्तव्यता 'अ गदार' शब्दे प्रथमभागे ३५८ पृष्ठे 'अणुश्रोग' शब्दे ३५५ पृष्ठे च गता ] तथा [ देविदत्थओ ति] देवेन्द्राणां चमरवैरोचनाssदीनां स्तवनं भवनस्थित्यादिस्वरूपाऽऽदिवर्णनं यत्रासौ देवेन्द्रस्तव इति । [ अत्र देवेन्द्रस्तवग्रन्थो विलोकनीयः ] तथा - [ तंदुलवेयालियं ति ) तन्दुलानां वर्षशताssयुष्कपुरुषप्रतिदिन भोग्यानां संख्याविचारेणोपलक्षितो प्रन्थविशेषः तन्दुलवैचारिकमिति । ( श्रत्र विस्तरः ' तंदुल - वेयालिय ' शब्दे चतुर्थभागे २१६८ पृष्ठे द्रष्टव्यः ) । तथा( चंदाविज्भयं ति ) इह चन्द्रो यन्त्रपुत्रिकाऽक्षिगोलको - ह्यते, तथा श्रा मर्यादया विध्यत इति श्रावेध्यं, तदेवाऽऽवेध्यकं, चन्द्रलक्षणमावेध्यकं चन्द्राऽऽवेध्यकम्, राधावेध इत्यर्थः । तदुपमानमरणाऽऽराधनाप्रतिपादको ग्रन्थविशेषश्चन्द्राऽऽवेध्यकमिति । ( श्रत्र विशेषचिन्तायां चंदाविज्भय' शब्दस्तृतीयभागस्थः १०६७ पृष्ठगतो विलोकनीयः ) तथा - ( सूरपरत्ति त्ति) ( 'सूरमत्ति ' शब्देऽत्र विशेषः ) तथा - ( पमायप्पमायं ति ) प्रमादाप्रमादस्वरूपभेदफलविपाकप्रतिपादकमध्ययनं प्रमादाप्रमादम् । (तत्र प्रमादस्वरूपम् ' पमाय ' शब्दे वक्ष्यते ) प्रतिपक्षद्वारेणाप्रमादाऽऽदयो वाच्या इति ( पा० ) ( पोरिसिमंडलं ति ) पुरुषः शङ्कुः शरीरं वा तस्मान्निष्पन्ना पौरुषी । इयमत्र भावना - यदा सर्वस्य वस्तुनः स्वप्रमाणा छाया जायते तदा पौरुषी, इत्येतच्च पौरुषी मानमुत्तरायणान्ते दक्षिणायनाऽऽदौ वैकं दिनं भवति, तत ऊर्द्धमङ्गलस्याटावेकपटिभागा दक्षिणायने, वर्धन्ते उत्तरायणे च हसन्तीति । एवं पौरुषी मण्डले २ श्रन्या २ प्रतिपाद्यते, तदध्ययनं पौरुपीमण्डलमिति । ( अत्र चूर्णिः ' पोरिसीमंडल ' शब्दे वक्ष्यते ) तथा ( मंडलप्पवेस इति ) यह चन्द्रसूर्ययोर्दक्षिणोत्तरेषु मण्डल प्रवेशेो वर्ण्यते तदध्ययनं मण्डलप्रवेश इति । ( विलोकनीयश्चात्र ' मंडलप्पवेस ' शब्दः) तथा( गरिवजति ) गुणगणेोऽस्यास्तीति गणी, स चाssवार्यस्तस्य विद्या ज्ञानं गणिविद्या । ( पा० ) - ( श्रस्मिन् विषये 'गरिवज्जा' शब्दस्तृतीयभागस्थः ८२५ पृष्ठगतो विलोकनीयः ) तथा ( विज्जाचरणविच्छिन ति ) ( अत्र 'विज्जाचरण विणिच्छय' शब्दो विलोकनीयः ) तथा - ( भागविभत्ति त्ति) ध्यानान्यार्तध्यानाऽऽदीनि तेषां विभजनं यस्यां ग्रन्थपद्धती सा ध्यानविभक्तिः । ( श्रस्योत्कालिक श्रुतप्रतिपा दकत्वम् -' भाविभत्ति' शब्दे चतुर्थभागे १६७६ पृष्ठे गतम् ) तथा (मरणविभत्तित्ति ) मरणानि प्राणत्यागलक्षणानि ( पा० ) मरणानां विभक्तिर्विभजनं विचारणं यस्यां ग्रथपद्धती क्रियते सा मरणविभक्तिरिति । (अव विशेषः, भेदाश्व 'मरण' शब्दे दर्शयिष्यन्ते ) तथा ( श्रायविसोहि त्ति ) श्रात्मनो जीवस्यालोचनाऽऽदिप्रायश्चित्तप्रतिपत्यादिप्रकारेण विशुद्धिः कर्मविगमलक्षणा प्रतिपाद्यते यत्र तदध्ययनमात्मविशुद्धिः । तथा - ( संलेहणासुयं ति ) द्रव्यभावसंलेखना प्रतिपाद्यते यत्र तदध्ययनं संलेखनाथुतम् । तत्र द्रव्यसंलेखनोत्सर्गतः 'चत्तारि विचित्तारं, विगईनिज्जूहियाइ चत्तारि ” इत्यादिका । भावसंलेखना तु क्रोधाऽऽदि " For Private परिक्रमण कषायप्रतिपक्षाभ्यास इति । तथा - ( वीयरायसुयं ति ) स रागव्यपोहेन वीतरागस्वरूपं प्रतिपाद्यते यत्राऽध्ययने त द्वीतरागश्रुतम् । तथा - ( विहारकप्पो त्ति ) विहरणं विहारो वर्तनं तस्य कल्पो व्यवस्था स्थविरकल्पाऽऽदीनामुच्यते ra ग्रन्थेऽसौ विहारकल्पः । ( ग्रन्थविशेषप्रतिपादकत्वमस्येति विहारकप्प' शब्दे वदयते ) तथा ( चरणविहि ति] चरणं बताऽऽदि । यथोक्तम्- "वयसमणधम्मसंजम-वेयावयं च भगुत्ती । नाणाइतियं तवको हनिग्गद्दा इय चरमेयं ॥ २ ॥ एतत्प्रतिपादकमध्ययनं चरणविधिः । [श्रत्र बहुविस्तरः ' चरणविद्दि' शब्दे तृतीयभागे ११२८पृष्ठे दर्शितः ] तथा - [श्राउरपच्चक्खाणं ति ] आतुरः क्रियातीतो ग्लानस्तस्य प्रत्याख्यानमातुरप्रत्याख्यानम् - [ चूर्णिकृतोको विधिश्वाऽत्र 'आउरपच्चक्खाण' शब्दे द्वितीयभागे ४१ पृष्ठे दर्शित: ] तथा - [ महापच्चक्खाणं ति ] महच्च तत्प्रत्याख्यानं चेति समासः । [ पा० ] एतदपि पूर्ववद्व्याख्येयम् । [ पा० ] [ अत्र विस्तरः 'महापच्चक्खाण ' शब्दे वक्ष्यते ] सव्वहिं पि यम्म अंगबाहिरे उक्कालिए भगवंते ससुते सत्ये सग्गं सनिज्जुत्तिए ससंगहणिए जे गुणा वा भावा व अरहंतेहिं भगवंतेहिं पन्नत्ता वा परूविया वा ते भावे. सहामो, पत्तियामो, रोएमो, फासेमो पालेमो, अणुपालेमो, ते भावे सदहतेहिं पत्तियंतेहिं रोयंतेहिं फासतेहिं पालं तहिं पालते हि अंतो पक्खस्स जं वाइयं पढियं परियट्टियं पुच्छ्रियं श्रणुपेहियं पालियं तं दुक्खक्खयाएक मक्खया मुक्खाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए तिकडु उवसंपज्जित्ता गं विहरामि । तो पक्खस्स जं न वाइयं न पढियं न परियट्टियं न पुच्छियं नाणपेहियं ना पालियं संते बले संते वीरिए संते पुरिसयारपरक्कमे तस्स आलोएमो, पडिकमामो, निंदामो, गरिहामो, विउट्टेमो, विसोमो, करणयाए अन्भुट्टेमो, श्रहारिहं तवोकम्मं पायत्तिं पडिवज्जामो तस्स मिच्छामि दुक्कडं । इदमपि सूत्रं प्राग्वत्समव सेयमिति । समुत्कीर्तितमुत्कालिकम् । श्रथ कालिकोत्कीर्तनायाऽऽह णमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइयं श्रंगवाहिरं कालियं भगवंतं । तं जहा - उत्तरज्झयणाई, दसाओ, कप्पो, ववहारो, इसि भासियाई, निसीहं, महानिसीहं, जंबूदीवपन्नत्ती, सूरपन्नत्ती, चंदपन्नत्ती, दीवसागरपन्नत्ती, खुड्डिया विमाणपविभक्ती, महल्लियाविमाणपविभत्ती, अंगचूलियाए, बंगचूलियाए, विवाहचूलियाए, अरुणोववाए, वरुणोववाए, गरुलोकवाए, वे समणोववाए, वेलंधरोववाए, देविंदोववाए, उट्ठाणसुए, समुट्ठाणसुएँ,नागपरिपावलियाणं, निरयावलियाणं, कप्पियाणं, कप्पवर्डिस याणं, पुष्फियाणं, पुप्फचूलिया, वरिहयाणं, वहिदसाणं, आसी विसभावणाणं, दिट्ठीविसभाव Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिकमया गाणं चारणभावणाणं महासुमिरणभावणा णं तेयगनिसगाणं सव्वहिं पि एयम्मि अंगबाहिरे कालिए भगवंते स / सत्सगं संनिज्जुत्तिए ससंगहणिए जे गुणा वा भावा वा अरतेहिं भगवंतो पन्नता वा परूविया वा, ते भावे सदहामो, पत्तियामो, शेएमो, फासेमो, पालेमो, अणुपालेमो, ते भावे सदतेहिं पत्तियंतेहिं फासंतहिं पालितेहि अनुपालितेहिं अंतो पक्खस्स ने बाइयं पडियं प रियहियं पुच्छि अनुपेहिवं अपालिय तं दुक्खक्खयाए कम्मवखयाए मुक्खाए बोहिलाभाए संसारुतारणाए तिउवसंपज्जित्ताणं विहरामि । अतो पक्खस्स जं न कट्टु वाइयं न परियं न परियहियं न पुरियं नाशुपेहियं नापालिय संत बले संते वीरिए संते पुरिसवारपरकमेत स्लोमो, पडिकमामो, निंदामो, गरिहामो, विउमो विसोहेमो, करणयाए अन्भुट्टेमो, अहारिहं तवोकम्मं पायच्छत पडिवज्जामो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥ एतदपि पूर्ववद् व्याख्येयम् । नवरम्-" (उत्तरज्झयणारं ति) उत्तराणि प्रधानान्यध्ययनानि रुढिवाद्विनयतादीन्येव पविशत् प्रथमाङ्गोपरि पाठातराध्ययनानीति पा० (अत्र विशेषः 'उत्तरज्झयण ' शब्दे द्वितीयभागे ७६४ पृष्ठे प्रतिपादित) [दखाओ सि] दशाध्ययनाऽऽत्मको प्रत्यविशेषो दशाः, दशाश्रुतस्कन्ध इति यः प्रतीत इति । [ दशाश्रुतस्कन्धविषये 'दसासुयक्खंध ' शब्दश्वतुर्थभागे २४८५ पृष्ठस्थोऽवलोकनीयः ] ( कप्पो त्ति ) कल्पः साध्वाचारः, स्थfarmerssदिर्वा तत्प्रतिपादकमध्ययनं कल्प इति । [ कल्पस्य सर्वो विषयः कप्प शब्दे तृतीयभागे २२० पृष्ठे मतः । कल्पव्यवहारयोर्भेदः ववहार शब्दे परते ] ( चचहारीत्ति ) प्रायश्चित्तगोचरव्यवहारप्रतिपादकमध्ययनं व्यवहारइति । [ व्यवहारविषये बहुवक्तव्यता, सा च ' ववहार ' शदे दर्शविष्यते ] ( इतिभासियाई ति ) पयः प्रत्येक बुद्धसाधवः [पा०] तैर्भाषितानि पञ्चचत्वारिंशत्यवान्य ध्ययनानि श्रवणाऽऽयधिकारवन्ति ऋषिभाषितानि । [पा०] [ वृद्धसंप्रदायश्चात्र ' इसि भासिय शब्दे द्वितीयभागे ६३५ पृष्ठे गतः ] (निसीहं ति) निशीथो मध्यरात्रिस्तमहोभूतं पद्भ्ययनं तनिशीथम, आचाराङ्गमत्वर्थः । [ निशीथवक्तव्यता सिसीह शब्दे चतुर्थभागे २१४० पृष्ठे गता ] अस्मादेव प्रन्थार्थाभ्यां महत्तरं महानिशीथम [महानिशीथवक्तव्यता 'महाणि सीह' शब्दे वक्ष्यते] (जंबुद्दीवपन्नाति सि जम्बूद्वीपाऽऽदिस्वरूपप्रज्ञापनं यस्यां ग्रन्थपती सा जम्बूद्वीपतिः। [ सर्वोऽन्यस्था विषयः जंबूदीयपराणसि' शब्दे चतुर्थभागे १३७६ पृष्ठे गतः ] ( सूरपन्नति ति) सूरचरितप्रज्ञापनं यस्यां सा सूरप्रशतिः केचिदेनामुत्कालि कमध्ये satयन्ते । तदपि युक्तम् । नन्द्यध्ययनेऽप्यस्या उत्कालिकमध्ये ऽधीतत्वादिति [अत्रार्थे सुरपति' शब्दो विलोकनीयः ] ( चंदपरणत्ति ति ) चन्द्रचारविचारप्रतिपादको अन्धधन्द्रशतिः। [ चन्द्रप्रशतिविषये चन्द्रि विलोकनीयः ] ( दीवसागरपन्नत्ति त्ति ) द्वीपसागराणां 4 " 6 ७७ 6 6 (३०५ ) अभिधान राजेन्द्रः । " पडिकमया प्रज्ञापनं यस्यां प्रभ्थपद्धती सा द्वीपसागरप्रशतिः । [ द्वीपसागरमशप्तिविषयेऽपि द्वीपसागरप्रशमिग्रन्थो विलोकनीयः ] इह चावलिकाप्रविष्टेतरविमानप्रविभजनं यस्यां ग्रन्थपद्धती सा विमानप्रविभक्तिः, सा बैकाऽल्पग्रन्थार्था तथा अन्या महाप्रस्थार्था, अतः झिका विमानप्रविभक्तिः, महती वि मानविभक्तिः । [स] अङ्गस्याचारादेश्चूतिका यथाऽऽचारस्यानेकविधा इहोक्तानुक्तार्थसङ्ग्रहा55मिका चूलिका [अंगलिया प्रथमभागे ३७ पृष्ठे व्यास्याता ] ( बग्गचूलिय चि) इह वर्गों ऽध्ययनाऽऽदिसमूह, य थाऽन्त शास्यष्ठी वर्गों इत्यादि. तस्य पुलिका वर्गपूतिका [ वर्गचूलिकावक्तव्यता ' गोट्ठिल ' शब्दे ६५० पृष्ठे गता ] (विवाहयति) व्याख्या भगवती तस्याश्चलिका व्या व्यावृलिका [विशेषश्यात्र विवाहपति शब्दे दर्शविष्यते ] [ अरणीयपार सि] हायसी नाम देवः तत्समनिबद्धो ग्रन्थस्तदुपपातहेतुरोपात (पा०) (अरुणोप पातविशेषचिन्तायाम् ' अरुणोववाय ' शब्दः प्रथमभागे ७६६ पृष्ठस्थोऽवलोकनीयः ] एवं वरुणेोपपातः। [श्रत्रार्थे व रुणोयवाय शब्दो विलोकनीयः ] गरुडोपपातः [ अत्रायें 'गरलायचाच 'शब्दस्तुतीयभागे ८२२ पृष्ठेस्थो द्रष्टव्यः] वैमरणोपपातः [वैश्रमणोपपातविषये 'देसमवायशब्दो द्रष्टव्यः] वेलंधरोपपातः [वेलंधरोपपातार्थः 'वेलंधरोववाय' शब्दे विलोकनीयः ] देवेन्द्रोपपातः [ अस्योत्कालिकतभेदत्वम् ' देविंदोववाय ' शब्दे चतुर्थभागे २६२७ पृष्ठे गतम् ] (उद्वासु ति) उत्थानछ्रुतमध्ययनम् । [ पा०] अत्र चूर्णि 'उठ्ठाणसुय ' शब्दे द्वितीयभागे ७५० पृष्ठे गता ] [ समुट्ठासुपति] समुत्थानश्रुतमध्ययनम् । "तं पुरा समत्तकजे तस्सेव कुलस्स वा गामस्स वा जाव रायहाणीए वा से वेव समणे कय सङ्कप्पे तुट्ठे पसन्ने पसन्नलेस्ले समसुहासत्थे उवउत्ते समुट्ठाण सुयमज्भयणं परियछेद एवं दोन्नि तिनि वा वारे, ताहे से कुले वा गामे वा जाव रायहाणी वा पचिते सुपसत्थमंगलकलयलं कुणमाणे मंदार गईए सलीलयं आगच्छंते समुट्ठाइ, श्रवसर त्ति वृत्तं भवइ । एवं कयसंकष्पस्स परियद्वंतस्स फुवुट्ठियं पि समुट्ठेइ । इतः षष्ठयन्तानि श्रुताभिधानानि दृश्यन्ते, विभक्तिविपरिणामात्प्रथमान्तानि व्याख्येयानि । अथवा - णकारस्यालङ्कारार्थत्वात्प्रथमान्तान्येवामूनि द्रष्टव्यानि । अथवा प्रथमातान्येवामूनि पठनीयानि, क्वापि तथैव दर्शनात्। नागपरिक्षा (गागति) नागो नागकुमारस्तर समयनिषद्धमध्ययनम् । " तं जया समणे उवउत्ते परियट्टेइ तया श्रकयसंकम्पस्स वि ते नागकुमारा तत्थत्था चेव परियारांति, वंदंति, नमंसंति, बहुमाणं च करेंति, संघमाइयकज्जेस य वरदा भयंतीति ।" नागकुमाराणां स्थितिः 'ठिह' शब्दे चतुर्थभागे १७१६ पृष्ठे गता ) (उच्छ्वासनिःश्वासक्रियाच 'आण' शब्दे द्वितीयभागे १०६ पृष्ठे दर्शिता) (आहार 'आहार' शब्दे वि तीयभागे ५०४ पृष्ठे दर्शितः ][ एतेषामसुरकुमारसममाहारः 'सम' शब्दे दर्शयिष्यते ][ लागकुमार शब्दोऽप्यवलो कनीयः ] ( निरयावलिओ ति) निरयालिकाः वायु बलियापविद्धा इयर व निरया तग्गामियों व नरति रिया पसंगी भिजंति ।" [ निरयायलिकाय यता सि * एवं वरुणोपपातगरुडोप ० वैश्रमणोप • वेलंधरोप • देवेन्द्रोपपातेष्वपि वाच्यम् । 33 66 6 4 " · Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०६) अभिधानराजेन्द्रः। पमिक्रमण पमिकमा रयावलिया' शब्दे चतुर्थभागे २१०६ पृष्ठे गता] [कप्पिया अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, पाहावागरणं, उत्ति सौधर्माऽऽदिकल्पगतवक्तब्यतागोचराः प्रन्थपद्धतयः विवागसुयं, दिट्टीवाश्रो । सव्वहिं पि एयम्मि दुवालसंगे कल्पिका उच्यन्ते । [ कल्पिकावक्तव्यता ‘कप्पिया' शब्दे तृतीयभागे २४० पृष्ठे प्रतिपादिता] [कप्पवाडिसियाउ ति] गणिपिडगे भगवंते समुत्ते सत्थे सग्गंथे सनिज्जुत्तिए स• सोहम्मीसाणकप्पेसु जाणि कप्पप्पहाणाणि विमाणाणि संगहणिए जे गुणा वा भावा वा अरहंतेहिं भगवंतेहिं पताणि कप्पडिसयाणि, तेसु य देवीश्रो जा जेण तयोवि. सत्ता वा, परूविया वा, ते भावे सद्दहामो, पत्तियामो, रोसेसेण उववन्नाश्रो, इडिं च पत्ताश्रो, एवं जासु सवित्थरं एमो, फासेमो, पालेमो, अणुपालेमो ते भावे सहहंतेहिं पवधिज्जद, तायो' कल्पावतंसिकाःप्रोच्यन्त इति। [अत्रा. त्तियंतेहिं रोयतेहिं फासंतेहिं पालंतेहिं अणुपालंतेहिं अंतो थे तृतीयभागे २३५ पृष्ठस्थः ‘कप्पडिसया' शब्दो विलोकनीयः ] [ पुफियाश्रो त्ति] इह यासु ग्रन्थपद्धतिषु पक्खस्स जं वाइयं पढियं परियट्टियं पुच्छियं अपेहियं गृहवासमुकुलपरित्यागेन प्राणिनः संयमभावपुष्पिताः सु. अणुपालियं तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मुक्खाए खिताः, पुनः संयमभावपरित्यागतो दुःखावाप्तिमुकुलनेन बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए तिकटु उपसंपज्जिता णं मुकुलिताः, पुनस्तत्परित्यागादेव पुष्पिताः प्रतिपाद्यन्ते ताः विहरामि, अंतो पक्खस्स जे न वाइयं न पढियं न परिपुष्पिता उच्यन्ते । [वशाध्ययनाऽऽत्मिका पुष्पिकेति 'पुष्किया' शब्दे प्रतिपादयिष्यते] [पुष्फचूलियाश्री त्ति] पूर्वो यद्रियं न पुच्छियं नाणुपेहियं नाणुपालियं संते बले संते तार्थविशेषप्रतिपादिकाः पुष्पचूडा इति ।['पुष्फचूलिया' वीरिए संते पुरिसयारपरक्कमे तस्स पालोएमो, पडिक्कमामो, शम्देऽत्रार्थे विवारो निरूपयिष्यते ] [वरिहदसाश्री त्ति ] | निंदामो, गरिहामो, विउद्देमो विसोहेमो, अकरणयाए अवृष्णिरन्धकवृष्णिनराधिपः, तद्वक्तव्यताविषया दशा वृष्णि भुठेमो, अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जामो, तस्स दशा उच्यत इति ।[अस्या विषये बही वक्तव्यता 'वरिहदसा' शब्दे ] [पासीविसभावणाश्रो त्ति ] श्राश्यो दं मिच्छा मि दुक्कडं। प्रास्तासु विर्ष येषां ते आशीविषाः । ते च द्विविधाः-जाति- एतच्च प्राग्वत् व्याख्येयं, नवरं गणिपिटकम् प्राचार्यस्यार्थ तः, कर्मतश्च। [पा०] [आशीविषभावना 'प्रासीविसभा- सारप्रधानभाजनमित्यर्थः । (आयारो त्ति ) आचरणमाचावणा' शब्दे द्वितीयभागे ४८८ पृष्ठे गता] [ दिट्ठीविसभा- र:, आचर्यत इति वाऽऽचारः, शिष्टाऽऽचरितो ज्ञानाऽऽद्याघणाश्रो त्ति ] दृष्टौ विपं येषां ते दृष्टिविषाः, तत्स्वरूप- सेवनविधिरित्यर्थः । तत्प्रतिपादको अन्थोऽप्याचार एवोप्रतिपादिका दृष्टिविषभावना इति । [अङ्गबाह्यकालिकक्षुत. च्यते [आचारभेदाः 'प्राचार' शब्दे द्वितीयभागे ३४० विशेषत्वम् दिविधिसभावणा' शब्दे चतुर्थभागे २५१६ पृष्ठे दर्शिताः ] आचारप्रतिपादको ग्रन्थः (तत्स्वरूपम् पृष्ठे गतम् ][चारणभावणाश्रो ति] अतिशयबहुगमनाऽऽग- 'आयारंग ' शब्दे द्वितीयभागे ३४१ पृष्ठादारभ्य दर्शिमनस्वरूपाच्चरणाच्चारणाः सातिशयगमनाऽऽगमनलब्धि- तम् ) [ सूयगडो त्ति ] ' सूच ' सूचायाम् , सूचना. सम्पन्नाः साधुविशेषाः, ते च द्विविधाः-विद्याचारणाः, जला- त्सूत्रं,सूत्रेण कृतं सूत्रकृतं, स्वपरसमयाऽऽदिसकलपदार्थर, चारणाश्च । [पा०] [ चारणभेदाः 'चारण' शब्दे तृतीय- चकं यदित्यर्थः। ['सूयगड' वक्तव्यता 'सूयगड' शो भागे ११७३ पृष्ठे गताः] [ महासुमिणभावणाश्रो ति] म. दर्शयिष्यते] [ठाणं ति] तिष्ठन्त्यासते वसन्ति यथावदभिधेहास्वप्नानि गजवृषभसिंहाऽऽदीनि भाव्यन्ते यासु ता महा. यतयैकत्वाऽऽदिविशेषिता प्रात्माऽऽदयः पदार्था यस्मिस्तत् स्वप्नभावना इति। [अत्र 'महासुमिणभावना' शब्दो वि स्थानम् अथवा-स्थानशब्देनेहैकाऽऽदिकःसङ्ख्याभेदोऽभिधीलोकनीयः] [तेयगनिसग्गाणं ति] तैजसनिसर्गो पर्यते यते, ततश्चात्माऽऽद्यर्थगतानामेकाऽऽदिदशान्तानां स्थायासुतास्तैजसनिसर्गा इति अत्र चाऽऽशीविषभावनाऽऽदि- नानामभिधायकत्वेन स्थानमाचाराभिधायकत्वादाचारवदिप्रन्थपञ्चकस्वरूपं नामानुसारतो दर्शितं,विशेषसंप्रदायश्च न ति। [विशेषतः स्थानशब्दार्थः। तत्प्रतिपादकग्रन्थवक्तव्यता च दृष्ट इति । एतान्यपि पत्रिंशदध्ययनान्युपलक्षणभूतानि 'ठाणंग' शब्दे चतुर्थभागे १६१५ पृष्ठे दर्शिता] [समवाश्री द्रष्टव्यानि, यता भगवतो वृषभस्वामिन श्रादितीर्थकरस्य च- त्ति समिति सम्यक् अवेत्यधिक अयः जीवाऽऽदिपरिच्छेदः तुरशीतिप्रकीर्णकसहस्राणि तथा मध्यमानामजिताऽऽदीनां समवायः,तद्धेतुश्च ग्रन्थोऽपि समवाय इति[समवायशब्दार्थः पार्श्वपर्यन्तानां जिनवराणां संख्येयानि प्रकीर्णकसहस्राणि, 'समवाय' शब्दे,तत्प्रतिपादकग्रन्थवक्तताऽपि तव प्रतिपाद. यस्य यावन्तः शिष्यास्तस्य तावन्तीत्यर्थः । तथा चतुर्दश- यिष्यते] [विवाहपएणत्ति ति] विशिष्टा वाहा अर्थप्रवाहाप्रकीर्णकसहस्राणि भगवतो बर्द्धमानस्वामिन आसन्निति । स्तत्वार्थविचारपद्धतय इत्यर्थः,तेषां प्रज्ञप्तिः प्रज्ञापनं व्याख्याउक्तं कालिक, तदभिधानाच्चाऽऽवश्यकव्यतिरिक्तं , तद्भण- नं यस्यां सा विवाहप्रशप्तिः । पूज्यत्वेन नामान्तरतो भगवनाच्चाङ्गबाह्यं श्रुतमुक्तम् । तीत्यपीयमुच्यते। [भगवत्या व्याख्या 'विवाहपरणत्ति 'शसाम्प्रतमङ्गप्रविष्टश्रुतसमुत्कीर्तनायाऽऽह. ब्दे करिष्यते] [नायाधम्मकहाश्रो त्ति ] शातान्युदाहर णानि, तत्प्रधाना धर्मकथा ज्ञाताधर्मकथा । [तद्वक्तव्यता नमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइयं दुवालसंग 'णायाधम्मकहा' शब्दे चतुर्थभागे २००६ पृष्ठे गता] [उवागणिपिडगं भगवंत। तं जहा-आयारो, सूयगडो, ठाणं,सम- सगदसाश्रोत्ति] उपासकाः श्रावकास्तद्गतक्रियाकलापप्रवाओ,विवाहपन्नत्ती, नायाधम्मकहाओ, उवासगदसाओ, तिबद्धा दशाध्ययनापलाक्षता उपासकदशाः [उपासकदशा Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण (३०७) प्राभिधानराजेन्दः । पमिकमा अवक्तव्यता 'उवासगदसा' शब्दे द्वितीयभागे २०६४ पृष्ठे वि- कीर्तिः, श्रीश्च कमनीयता श्रुतिहृदयाऽऽनन्ददायितेत्यर्थः, ध. स्तरतोगता] [अंतगडदसानो ति] अन्तो विनाशः, स र्मश्चाभिधेयत्वेन सर्वोपाधिविशुद्धोऽहिंसाऽऽदिकः, प्रयत्न च कर्मणस्तत्फलभूतस्य वा संसारस्य कृतो यैस्ते अन्त श्वाभिधेयतया सर्वप्रमादवर्जनरूप उद्यमः, अथवा-प्रयत्नो कृतास्ते च तीर्थकराऽऽदयस्तेषां दशाः प्रथमवर्ग दशाध्य- माहात्म्यं, प्रभावः सामर्थ्यमिति यावत्। सुप्रसिद्धश्चतदागम. यनानीति तत्संख्ययोपलतिता अन्तकृद्दशा इति । [अन्त- स्वरूपवेदिनामिति । ये चेदं सम्यगवैपरीत्येन कायेन कायकृद्दशाब्याख्या, तद्वक्तव्यताच 'अंतगडदसा' शव्दे प्रथम- प्रवृच्या मनोमात्रेणत्यर्थः, स्पृशन्ति ग्रहणकाले विधिना गृभागे ६१ पृष्ठे दर्शिता] [अणुत्तरोववाइयदसानो ति] कन्ति, पालयन्ति पुनः पुनरभ्यासकरणेन रक्षन्ति, पूरयन्ति उत्तरः प्रधानो नास्योत्तरो विद्यत इत्यनुत्तरः, उपपतनमु- मात्राविन्द्वक्षराऽऽदिभिरध्येतृदोषादपरिपूर्ण परिपूर्ण कुपपातो, जन्मेत्यर्थः, अनुत्तरश्चासावुपपातश्चत्यनुत्तरोपपातः, बन्ति तीरयन्ति अविस्मृतं जन्मपारं नयन्ति, कीर्तयन्ति सोऽस्ति येषां तेऽनुत्तरोपपातिकाः सर्वार्थसिद्धिविमानप- स्वनामभिः स्वाध्यायकरणतो वा संशब्दयन्ति, सम्यगाश्वकोपपातिन इत्यर्थः, तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धा दशा दशा- शया आराधयन्ति सम्यग्यथावत् प्राज्ञया तदुक्तार्थरूपया ध्ययनोपलक्षिता अनुत्तरोपपातिकदशा इति। [अनुत्तरो- गुरुनियोगात्मिकया वा आराधयन्ति तदुक्तक्रियाकरण. पपातिकदशाविचारः 'अणुत्तरोववाइय' शब्दे प्रथममागे तः फलदं कुर्वन्तीत्यर्थः, तेभ्योऽपि नम इति प्रक्रमः। (अ. ३८३ पृष्ठे वर्णितः] [ पहावागरणं ति ] प्रश्नाश्च पृच्छ , हंच नाराहेमि) यच्चाहं नाराध्यामि प्रमादतो नानुपालयाव्याकरणानि च निर्वचनानि, समाहारत्वात्प्रश्नव्याकरणं, | मि, ( तस्स त्ति) षष्ठीसप्तम्योरभेदात्तस्मिन्नाराधनविषये तत्प्रतिपादको ग्रन्थोऽपि प्रश्नव्याकरणमिति ।[प्रश्नव्याकर- (मिच्छा मि दुकडं ति) मिथ्या मे दुष्कृतमिति स्वदुश्चरिणस्वरूपविवरणम् 'पराहावागरण' शब्दे दर्शयिष्यते] [वि. तानुतापसूचकं स्वदोषप्रतिपत्तिसूचकं वा प्रतिक्रमणमिति वागसुयं ति] विपचनं विपाकः, शुभाशुभकर्मपरिणाम परिभाषितं वाक्यं प्रयच्छामीत्यर्थः। इत्यर्थः तत्प्रतिपादकं श्रुतं विपाकश्रुतम् [विपाकचतवक्त- साम्प्रतं प्रस्तुतसूत्रपरिसमाप्तौ श्रुतदेवतां विज्ञपयितुमाहव्यता 'विवागसुय' शब्दे दर्शयिष्यते] [दिट्टिबायो त्ति] दृष्टयो दर्शनानि, वदनं बादः, दृष्टीनां वादो दृष्टिवादः, दृष्टीनां सुयदेवया भगवई, नाणावरणीयकम्मसंघायं । वा पातो यत्रासौ दृष्टिपातः, सर्वनयदृष्टयो यत्राऽऽख्यायन्ते तेसिं खदेउ सययं, जेसि सुयसायरे भत्ती ॥१॥ समवतरन्ति चेति भावः । [सर्वोअप दृष्टिवादविषयः 'दि. श्रुतमहत्प्रवचनं, श्रुताधिष्ठात्री देवता श्रुतदेवता, संभवति ट्ठिवाय' शब्दे चतुर्थभागे २५१३ पृष्ठादारभ्य दर्शितः ] च श्रुताधिष्ठातृदेवता । यदुक्तं कल्पभाष्ये-" सव्वं च लक्ख. इत्युत्कीर्तितं सामान्यतोऽङ्गप्रविष्टभुतम् । [अङ्गप्रविष्टभुत- | गोवेयं, समहिटुंति देवता । सुत्तं च लक्षणोवेयं, जेण सव्वविषये चूर्णिः 'अंगपविट्ठ' शब्दे प्रथमभागे ३८ पृष्ठे दर्शिता] राणुभासियं ॥१॥” इति।भगवती पूज्या, शानाऽऽवरणीयसाम्प्रतं श्रुतदातृपालकेभ्यो नमस्कारम् आत्मीयप्रमाद कर्मसङ्घातं ज्ञानाऽऽशातनाया उद्भूतं [शाननं ] कर्मविषये मिथ्यादुष्कृतं चाऽऽह निवहं तेषां प्राणिना, क्षपयतु क्षयं नयतु, सततमनधरतं, नमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइयं दुवालसंगं ग येषां किमित्याह-श्रुतमेवातिगम्भीरतया अतिशयरत्नप्रचुर तया च सागरः समुद्रः श्रुतसागरस्तस्मिन् भक्तिर्बहुमानो णिपिडगं भगवंतं, सम्मं कारण फासंति, पालंति, पूरंति, विनयश्च, समस्तीति गम्यते। ननु श्रुतरूपदेवताया उक्तरूपतीरंति, किटृति, सम्म आणाए आराहंति, अहं च ना- विज्ञापना युक्ता, श्रुतभक्तः कर्मक्षयकारणत्वेन सुप्रतीतत्वाराहेमि, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । त्, श्रुताधिष्ठातृदेवतायास्तु व्यन्तराऽदिप्रकाराया न युक्ता, (नमो) नमस्कारोऽस्तुतेभ्यः क्षमाश्रमणेभ्यः क्षमाऽऽदिगुण तस्याः परकर्मक्षयेऽसमर्थत्वादिति। तन्न । थुताधिष्ठातृदेवगणप्रधानमहामुनिभ्यः स्वगुरुभ्यः तीर्थकरगणधराऽऽदिभ्यो तागोचरशुभप्रणिधानस्यापि स्मर्तुः कर्मक्षयहेतुत्वेनाभिहिवेति भावः, यैरिदं प्रागुतं वाचितं प्रदत्तं, परिभाषितं वा तत्वात् । यदुक्तम्-" सुयदेवयाएँ जीए. संभरणं कम्मखयकरं सूत्रार्थतः प्रणीतमित्यर्थः, द्वादशाङ्गं द्वादशानामङ्गानां समा- भणियं । नत्थि त्ति अकज्जकरी व, एवमासायणातीए ॥२॥" हारो द्वादशाङ्गम् । [द्वादशङ्गियाः नित्यत्वम् ‘बारसंगी' श इति । किञ्च-दहेदमव व्याख्यानं कर्तुमुचितं. येषां सततं श्रुत. ब्द दर्शयिष्यते) किंविशिष्पमित्याह-(गणिपिडगं ति) गुण सागरे भक्तिस्तेषां श्रुताधिष्ठातृदेवता झानाऽऽवरणीयकर्मगणः साधुगणो वास्याऽस्तीति गणी प्राचार्यः, तस्य पिटक सङ्कातं क्षपयत्विति वाक्यार्थोपपत्तेः, ब्याख्यानान्तरे तु श्रुतमिव रत्नाऽऽदिककरण्डक इव पिटकं गणिपिटकं, सर्वार्थ रूपदेवता श्रुते भक्रिमतां कर्म क्षपयात्विति सम्योपपद्यते, सारकोशभूतमित्यर्थः । पुनरपि किंीवशिष्टम्-(भयवंतं ति)। श्रुतस्तुतेः प्राग्बहुशोऽभिहितत्वाश्चेति। ततः स्थितमिदमहभगः समग्रेश्वर्याऽऽदिलक्षणः यदुक्तम्-"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, त्पाक्षिकी थुतदेवतेह गृह्यते इति । पा०। रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, पसां भग इती- (२६) साम्प्रतं शेषप्रतिक्रमणविधिरुच्यते-"तो उद्धट्ठियपजाना ॥१॥" इङ्गना नाम,सा विद्यते यस्य तद्भगवत्,तवेह सम- क्खपडिक्कमणसुत्तकित्तणावसाणे विहिणा निसित्ता'करेमि प्रैश्वर्य सातिशयाभिधेयविभूतिः। यदवाचि-"सचनईणं जा भंते ! सामाइयं' इत्यादि सव्वं निविटुपडिकमणं कविता उ. होजवालुया सब्बउदहिजं सलिलं । एत्तो वि अणंतगुणो.अ. द्धट्टिया तस्स धम्मस्सऽभुट्टिी मि त्ति एयमाइयं 'चंदामि त्थो एगस्स सुत्तस्स ॥१॥" रूपंच निर्दोषत्वसारवचहेतुयु- जिणे चउव्वीसं ति' बालावगपज्जवसाणं सुत्तं कहंति कतत्वालइकृतत्वाऽऽदिगुणगणसंपाद्यं यशश्च विश्वव्यापिनी हिए य 'करेमि भंत! सामाश्यं प्रचार काउस्सग्गदंडगुच्चा Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०८) पमिक्कम अनिधानराजेन्द्रः। पमिकमण रणपुरस्सरं उद्घट्टिया चेव मूलुत्तरगुणेसु जं खंडियं तस्स मिति । अत्राऽऽचार्यों ब्रूते-[अहमवि खामेमि तुम्भे त्ति ] पायच्छित्तनिमित्तं उस्साससयतिगपरिमाणं काउस्सगं करें- प्रतीतार्थमेवेदमिति । अत्राऽऽह कश्चित्-"नणु पुव्वमेव सामति । तत्थ चारस उज्जोयगरे चिंतंति । चउमासिए पंचसउ- वो विसेसो विपक्खियावराहखामणं कयं, ता किं पुणो स्सासमाणं उज्जोयगरे वीसं संवच्छरिए अछुत्तरसहस्सु इयाणिं पक्खियं खामेह ?।" उच्यते-" काउस्सग्गट्ठियाणं स्सासमाणं उज्जोयगरे चालीसं नमोकारं चिंतंति, तो सुभेगग्गभावमुवगयाणं किंचवराहपयं सुमरियं होजा, विहिणा पारित्ता चउधीसत्थयं पढंति । पच्छा उवविट्ठा मु तस्स खामणानिमित्तं पुरो खामणगं करेमो ति । अहवाहर्णतगं कायं च पडिलेहित्ता किइकम्मं करेंति, तश्री ध. सव्वहेह पक्खपडिक्कमणपरिसम्मत्ती, तो पुब्विल्लखामणरणियलनिहियजाणुकरयलुत्तमंगं समगं भणति" गाणतरं जं किंचि पत्तियं वितहकिरियावइराइणा समु प्पन्नं तमिह खामिज्जा त्ति । श्रहवा विही चेव सो कम्मइच्छामि खमासमणो ! अन्भुडिओ मि अभितरपक्वियं क्खयहेऊ भयवया तइयवेजोसहपभोगसरिसो दरिसिखामेउं पन्नरसएहं दिवसाणं पन्नरसण्हं राईणं जं किंचि अप ओ, ता कायब्वमित्थ वि खामणगं न कोइ पज्जणुज्जोगो त्तियं परपत्तिय भत्ते पाणे विणए वेयावच्चे आलावे संलावे कायब्वो, आणा चेवेह भागवई पमाणं ति। " ततो यथा उच्चासणे समासणे अंतरभासाए उवरिभासाए जं किंचि म- राजानं पुष्यमाणवा अतिक्रान्ते माङ्गल्यकार्ये बहु मन्यन्ते ज्झ विणयपरिहीणं सुहम वा बायरं वा तुब्भे जाणह, अहं यदुत अखण्डितबलस्य ते सुष्टु कालो गतोऽन्योऽप्येवमे वोपस्थितः, एवं पाक्षिकं विनयोपचारं द्वितीयक्षामणकसू. न जाणामि, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। अहमवि तुम्भे खामामि । प्रेण तथा स्थिता एव साधव प्राचार्यस्य कुर्वन्ति । अस्यार्थः-इच्छाम्यभिलषामि, क्षमयितुमिति योगः। (ख' तच्चेदम्मासमणो त्ति) हे क्षमाश्रमण! ओकारान्तत्वं च प्राकृतत्वा इच्गमि खमासमणो ! पियं च मे जंभे हट्ठाणं तुद्वाणं त्। न केवलमिच्छाम्येव किंतु (अम्भुट्ठिो मि त्ति) अभ्युत्थितोऽस्मि प्रारब्धोऽस्म्यहम् । अनेनाभिलाषमात्रव्यपोहेन क्ष अप्पायकाणं अभग्गजोगाणं सुसीलाणं सुबयाणं सायमणक्रियायाः प्रारम्भमाह-(अभितरपक्खियं ति ) पक्षा रियउवज्ज्झयाणं नाणेणं दंसणेहं चरित्तेणं तवसा अभ्यन्तरसंभवमतिचारमिति गम्यते । क्षमयितुं मर्षयितुमिति प्पाणं भावमाणाणं बहुसुभेणं भे दिवसो पोसहो पक्खो प्रस्तावना । क्षामणमेवाऽऽह ( पन्नरसरह दिवसाणं ति) वइक्कतो अन्नो अभे कल्लाणणं पज्जुवडिओ सिरसा पञ्चदशानां दिवसानां ( पन्नरसरहं ) पञ्चदशानां [ राईणं मणसा मत्थएण बंदामि । ति] रात्रीणामभ्यन्तरमिति शेषः । (जं किंचि ति) यत्कि- (इच्छामीत्यादि ) तत्रेच्छामि अभिलषामि वक्ष्यमाणं वस्तु, श्चित्सामान्यतो निरवशेष वा । (अपत्तियं ति) प्राकृतशैल्या. हे क्षमाश्रमण! कुतोऽपि कारणादप्रियमपि किञ्चिदिष्यत प्रीतिकमप्रीतिमात्रम् । [परपत्तियं ति ] प्रकृष्टमप्रतिक प. इत्याह-प्रियमभिमतं.चशब्दः समुच्चये। मे मम,किं तदित्याहरप्रत्ययं वा परहेतुकमुपलक्षणत्वादस्याऽऽत्मप्रत्ययं चेति द्र यद् भे) भवतां, हृष्टानांरोगरहितानां तुष्टानां तोषवताम् । अव्यम् । भवद्विषये मम जातं वा, मया जनितमिति शेषः । थवेदं हर्षातिरेकप्रतिपादनार्थमेकार्थिकपदद्वयोपादानम्, अ"तस्स मिच्छा मि दुक्कडमिति" संबन्धः। तत्रभक्त भोजनवि ल्पा तङ्कानामल्पशब्दस्याभाववचनत्वात् सद्योधातिरोगवषये, पाने पानविषये, विनये अभ्युत्थानाऽऽदिपे, वैयावृत्ये र्जितानां सामान्येन वा नीरोगाणं स्तोकरोगाणां वा,सर्वथा नि औषधपथ्यदाना दिनोपष्टम्भकरणरूपे, पालापे सकृजल्पे, रुजत्वस्यासंभवात् । (अभग्गजोगाणं ति) अभग्नसंयमयोगानां संलापे मिथःकथायाम् । “उच्चासणे समासणे चेति" व्यक्त- [सुसीलाणं सुब्बयाणं ति] व्यक्तम्। साऽऽचार्योपाध्यायानामम्. (अंतरभासाए त्ति ) अन्तरभाषायामाराध्यस्य भाष- नुयोगाऽऽद्याचार्योपाध्यायोपेतानां ज्ञानाऽदिना आत्मानं भामाणस्यान्तरालभाषणरूपायाम् , उपरिभाषायामाराध्यभा- घयतां बहुशुभेन प्रत्यर्थश्रेयसा ईपदूनशुभेन वा, सर्वथा शु. षणानन्तरमेव तत्तदधिकभाषणरूपायाम् । इह समुच्चया- भस्यासंभवात् ।[भे इति ] भो भगवन्तः! दिवसो दिनं, किंर्थश्चशब्दो लुप्तो द्रष्टव्यः। यत्किञ्चित्समस्तं सामान्यतो वा विधः?, पौषधः पर्वरूपः । तथा-पक्षोऽर्द्धमासरूपो व्यतिका(मझ ति) मम विनयपरिहाणं शिक्षावियुतत्वमनौचि. न्तोऽतिलक्वितः। अन्यश्च पक्ष इति वर्तते। [भ] भवतां कल्यात्यमित्यर्थः । संजातमिति शेषः । सामस्त्यं सामान्यरूपतां वा णेन शुभेन, युक्त इति गम्यते। पर्युपस्थितः प्रक्रान्त इति । विनयपरिहीणस्यैव दर्शयन्नाह-सूक्ष्मं वा, बादरं वा, वाश- एवं पुष्यमाण इव मङ्गलवचनमभिधाय प्रमाणमाह-शिरसा ब्दी द्वयोरपि मिथ्यादुष्कृतविषयतातुल्यतोद्भावनार्थी, (तु- मनसेति व्यक्तम्, चशब्दश्चेह समुच्चयार्थो द्रष्टव्यः। [मत्थ. ब्भे जाणड त्ति) यूयं जानीथ, यत्किञ्चिदिति वर्तते । (अहं पण वंदामि ] नमस्कारवचनमव्युत्पन्नं समयप्रसिद्धमतः नयाणामि त्ति) अहं पुनर्न जानामि, मूढत्वात् । यत्कि- शिरसेत्यभिधायाऽपि यन्मस्तकेनेत्युक्तं तददुष्ट,यथैषां वली. चिदिति वर्तते, अप्रीतिकविषये, विनयपरिहीणविषये च | वहानामेव गोस्वामीति गोस्वामिनशब्दस्य स्वामिपर्याय(मिच्छा मि दुक्कडं ति) मिथ्या मे दुष्कृतमिति । स्वदुश्च- तया लोके रूढत्वादिति। रितानुतापसूचकं स्वदोषप्रतिपत्तिसूचकं वा प्रतिक्रमण अत्राऽऽचार्य श्राहमिति परिभाषितं वाक्यं प्रयच्छामीति वाक्यशेषः । अ. तुमहिं समं ति। थवा-[ तस्स त्ति] विभक्तिपरिणामात्तदप्रीतिक, विनयपरि- युष्माभिः सार्धं सर्वमेतत्संपन्नमित्यर्थः । हीणं च मिथ्या मोक्षसाधनविपर्ययभूतं वर्तते [मे] मम अथ चैत्यवन्दापन,साधुवन्दापनंच निवेदयितुकामा भणन्तितथा दुष्कृतं पापमिति स्वदोषप्रतिपत्तिरूपमपराधक्षमण- इच्छामि-खमासमणो ! पुचि चेइयाई वंदित्ता नमंसित्ता Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०६ ) अभिधानराजेन्द्रः । परिक्रमा तुम्भ पायमूले विहरमाणेणं जे केइ बहुदेवसिया साहुयो दिडा समाया वा वसमाखा वा गामाग्रगामं बृहजमारणा वा रायणिया संपुच्छंति, श्रमरायणिया बंदंति, अ जया वंदति, अजियाओ बंदंति, सावया बंदंति, साविया वंदंति, अहं पि निस्सल्लो निक्कसाओ तिकट्टु सिरसा मणसा मत्यरण वंदामि, अहमवि वंदावेमि चेहयाई । इच्छाम्यनिलयामि चैत्यचन्दापनं साधुवन्दापनं च भवतां निवेदयितुमिति वाक्यशेषः [ खमासमणी ] इति व्यक्रम्। [ पु िति ] पूर्वकाले विहारकालात् [ बेहयाई ति ] जि. नप्रतिमाः [बंदित ति ] स्तुतिभिः [नमंति] प्रामतः, संघसत्कचैत्यवन्दना ह्येतदहं करोमीति प्रणिधानयोगात् । क्व पन्दित्वेत्याह-[तुम्भति ] युष्माकं [ पादमूले ति ] चरणसनिधी, ततक्ष [ विहरमाणे ति ] प्रा. मानुग्रामं संचरता मया [ जे केइ ति ] ये केचन सामान्यतः [ बहुदेवखिया ] बहुदिवसपर्यायाः (साहु दिट्ठा) इति व्यक्तम् । किविधास्त इत्याह- ( समाणा पति जबलप रिज्ञयात् वृद्धपासितया श्राश्रितक्षेत्रादहिर्वर्तिनी ( यस माणा व ति ) विहारवन्तो, विहारश्च तेषामृतुबद्धे मासकस्पेन, वर्षाकाले चतुर्मासकल्पेनेत्यत एवाऽऽह - (गामागामं दूइज्जमाणा वत्ति ) ग्रामश्च प्रतीतोऽनुग्रामश्च तदनन्तर इति ग्रामानुग्रामं, तद्भषन्तो गच्छन्तः । अथवा ग्रामाऽऽदिष्वेकरात्रिकं वसन्तः, श्रहिण्डका इत्यर्थः । वाशब्दाः समुच्चयाथः । इह स्थाने तेषु मध्ये इति वाक्यशेषो यः । [ रायविति ] रानिका भावरत्नव्यवहारिणः, गृहत्या या आचार्या इत्यर्थः [ संपृच्छंति सि] मां प्रनयन्ति मया वन्दिताः सन्तो भवतां शरीरकुशलाऽऽदिवासांमिति गम्यम् [ श्रीमरायणिय ति] अवमानिका भवतः । प्र तीत्य लघुतरपर्याया आचार्या एवं चन्दन्ते भवतः प्रणमन्ति । कुशलाऽऽदि तु । प्रयन्त्येय. [ अजवा बंदंति ] सामान्य साधवो वन्दन्ते, एवमार्यिकाऽऽदयोऽपेि । तथाऽहमपि तान् यथारएसाधूनि शल्यादिविशेषणो बन्दे शेषं प्राग्वत् तथा( अहमवि वंदावेमि चेइयाई ति ) तान् यथादृष्टसाध्वादीन् चन्द्रापयामि चैत्यानि यथा श्रमुत्र नगराऽऽदौ युष्मत्कृते चै. त्यानि पन्दितानि तानि च सूर्य वन्दध्यमित्येवमिति । एवं शियोः सप्राचार्यः प्रत्युत्तरयति । यथा मत्थर बंदामि अपि तेसिं ति । मस्तकेन वन्देऽहमपि तानिति । ये मम वातीसंप्रनादि कुर्वन्तीति भावः । " अत्रे भवंति श्रहमवि वंदावेमि ति " । तत श्रात्मानं गुरूणां निवेदयन्ति तृतीयज्ञामणसूत्रेण । तच्चेदम इच्छामि खमासमणो ! उवडिओ मि तुब्भरहं संतियं अहाकणं वा वत्थं वा पडिग्गई वा कंचलं वा पावपुंच वा अक्खरं वा पयं वा गाहं वा सिलोगं वा अ वा हेउं वा पसिणं वा वागरणं वा तुम्भेहिं चियत्तेणं दिनं मए अविणण पडिच्छियं, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ति । परिक्कमण [ इच्छामि खमासमणो त्ति ] इह स्थाने श्रात्मानं निवेदयितुमिति वाक्यशेषो दृश्यः । [ उवडिओ मिति ] उपस्थितोऽस्मि श्रात्मनिवेदनायेति शेषः । ( तुम्भराई संतियं ) युष्माकं सत्कं युष्मदीयमिदं सर्वे पदस्मत्परिभोग्यम् । किंभूतं किं तदित्याह - ( अहाकप्पं ति ) यथाकल्पं क त्यानतिक्रान्तं स्थविरकल्पोचितं कल्पनीयं वेत्यर्थः । बखाssदि प्रतीतं, नवरं (पडिग्गहं ति) पात्रम् ( पायपुंछ ति ) पादमोह रजोहरणम् (अ व ति) अर्थ: सूत्राभिधेयः प्रा कृतत्वाच्च नपुंसकनिर्देशः (पसि वत्ति ) प्रश्नः पण्डिताभिमानी परी माननिग्रहाय परप्रश्नयति (बागरणं ति) व्याक रणं, तथैव परेण प्रश्निते यदुत्तरं दीयते, वाशब्दाः समुश्चयाथः। एवं यखादिनिवेदनद्वारेणाऽऽत्मानं गुरूणां निषेध युष्माभिरेवेदं बखादिकं मे दत्तम् । इत्यावेदने त च संभविनमविनयं शमयन्निदमाह ( तुम्मेत्यादि) (तु भेति मामः (चियन्ते ति ) प्रीत्या दत्तं मया त्व विनयेन प्रतीक्षितम् । अत्र यदिति शेषो दृश्यः (तस्स ति) त त्र मिथ्यादुष्कृतमिति प्राग्वत् । एवमुक्ते श्राचार्यो ब्रूतेआयरियसंतियं ति । पूर्वाचार्य सत्यमेतदिति किं ममात्रेति । अहङ्कारवर्जनार्थे, गुरुषु भक्तिव्थापनार्थ बैतदिति । अथ यच्छ ग्राहितास्तमनुग्रहं बहु मन्यमाना आहु:इच्छामि श्रहमपुव्वाई खमासमणो । कयाई च मे किइकम्माई आगारमंतरे विणयमंतरे सेडियो सेहावियो संगहि गहि सारि वारिओ चोइओ पडिचोइओ चियत्ता मे पडियोयणा उबडिशोऽहं तुम्भयहं तबसेपसिरीए इमाओ चाउरंत संसारकंताराओ साहद्दु नित्थरिस्सामि तिकड सिरसा मसा मत्थएण वंदामि । ( इच्छामि इत्यादि ) इच्छामि अभिलषामि, श्रहमपूर्वाण्यनागतकालीनानि, कृतिकर्माणीति योगः । कर्तुमिति वाक्यशेषः "लमासमणी" इति व्यक्तम्। तथा कृतानि पूर्वकाले चः समुचये । (मेति) मया कृतिकम्मणि वैयावृष्यावशेषाः भवतामिति गम्यते । तेषु च (आयारमंतरे त्ति ) श्राचारान्तरे, क्वचित् ज्ञानाऽऽद्याचारविशेषे विषयभूते श्राचारव्यवधाने वा सति शानाऽऽदिक्रियाया प्रकरणे सतीति भावः । तथा - ( विणयमंतरे ति विनयान्तरे आसनदानाऽऽदिवि ) नयविशेषे विषयविभूते विनयविच्छेदे वा, तदकरणे इत्यर्थः, ( सेहिश्रोत्ति ) शिक्षितः स्वयमेव गुरुभिः शिक्षां ग्राहित इत्यर्थः सेधितो निष्पादित प्राचारविशेषविनयविशेषेषु कुश लीकृत इत्यर्थः, (सेवाविश्रोति) शिक्षापितः सथापितो घा उपाध्यायाऽऽदिप्रयोजनत, तथा (संगहिओ सि) संगृहीतः शिष्यत्वेनाऽऽश्रितः। तथा (उयग्गद्दियो सि) उपग्रहीत, शाना 55दिभिर्वखाऽऽदिभिधोपटम्भितः तथा सारियो ति) सारितो हिते प्रवर्तितः, कृत्यं वा स्मारितः । (वारिश्र (ति) अहितानिवारितः (चोरी सि) संयमयोगेषु स्वलि तः सयुक्तमेतद्भवादृशां विधातुमित्यादिवचनेन प्रेरितः । ( पडिचो त्ति ) तथैव पुनः पुनः प्रेरित एव ( चियत्ता में पडिवायस सि ) वियता प्रीतिविषया. नत्वङ्कारादप्रीतेति (A) मम प्रति प्रेरणा भवद्भिः क्रियमाणेति । उपलचैत , . Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिकमा क्षादेरिति । ततब्ध (उपट्टियां ति) उपस्थितो-हमस्मि प्रतिप्रेरितार्थ संपादनाविषये कृतीयम इत्यर्थः । तथा तुम्भराहतयतेसरी) युष्माकं तपस्तेजः श्रिया भवदीयया तपःप्रभावसंपदा हेतुभृतया (माओ) प्रत्यक्षात् (चाउरंत सारकंताराम्रो चि चतुरन्तं चतुर्विभागं नरकादिभेदेन तदेव चातुरन्तं । तश्च तत्संसारकान्तारं च भवारण्यमिति समासः । तस्मात् (साइड सि) संहत्य रूपायेन्द्रिययोगा :त्ति) दिभिर्विमात्मानं संक्षिप्त्यर्थः । नित्यरिस्सामिति) लङ्घयिष्यामि इति कट्ट) इति कृत्वा इतिहेतोः। "सिरसा मणला मत्थपण वंदामि त्ति” प्राग्वत् । इह भगवन्तमिति वाक्यशेषः । ( ३१० ) अन्निधानराजेन्द्रः । रहाऽऽवार्यचनम् नित्थारगपारगा होह । 1 निस्तारकाः संसारसमुद्रात् प्राणिनां प्रतिज्ञायाश्च पारगाः संसारसमुद्रतीरगामिनो भवत यूयमित्याशीर्वचनमिति । " पच्छा देवसियं पडिक्कमंति । तत्थ खामणानिमित्तं किइकमंकरेता भांति इच्छामि खमासमणो ! अब्भुट्टिश्रो मिश्रभि तरदेवसियं खामेडं, जं किंचि अपत्तियमित्यादि । पच्छा साहुदुर्ग सामेति तम्रो आयरियस् य अभियानिमि किकम्मं करैति, तो दुरालीयं वा दोजा, दुप्पट वा होजा, अणाभोगाइला कारण ती पुसी वि कवसामाइयाइसुतच्चारणा चारित्तविसोहणत्थमेव पंचासुस्सासपरिमाकाउसमा कति तो नमोकारेण पारेता विशुद्धचरि विसुद्ध वरितदेखया सणावसुद्धिनिमित्तं नामुकितगं करेति "लोगस्सुओयगरे " इत्यादि। त दिनिमित्तं पलासपरिमाणं काउसम्म करैति । तश्रो नमोकारेण पारिता नागवियुद्धिनिमित्तं सुपनाराय यं पढंति - " पुक्खरबरदीवडे " इत्यादि । तत्र सुयना विसुद्धिनिमित्तं पवीसूसासपरिमाणं काम करैति तो नमोकारेण पारिता सिद्धत्ययं पदंति "सिद्धा बुद्धा से" इत्यादि। "तत्र सेजादेवपाए काउस्सगं करेति । तत्थ य सत्तावीसूसासे पूरैति ।" इत्यावश्यकचूर्णिः "आवरण अट्ठत्ति, तो विहिणा निसिइसा मुहपोत्तियं ससीसोवारयं कार्य च पडिलेहिता आयरियस्स बंद करेति । तं च जहा रनो मरसा श्रास्त्तियाप पेसिया पणामं काऊण गच्छं ति । तं च सुकयं काऊण पुणो परणामपुव्वगं निवेदेति । एवं साडुयो वि गुरुसमारट्टा बंद पुन्वगं चरिताविसोहि का ऊण पुणो विसुकवकिकम्मा संता गुरुणी निवेदेति भ यवं कर्म पेस आयविसोहिकारगं ति 'निवेयरथं ति' तं च काऊल पुो उड़या आयरियाभिमुद्दा विसरइयंजलि पुडा चिति, जापायरिया बहमासीओ सदसा वा तिथि रंधा भति। इमे चि अंजलिमउत्था कार समतीय नमोक्कारं करेति ।” सबहुमानं शिरसा प्रणमन्तीत्यर्थः। केचित्र "नमो मासमा ति भयंति। पच्छा सेसमा वितिथि हुई तच भतितं सुतप रिसी ने अथपोरिसी भांति, जरस अनिवा इंति सि सि पुरा ताप चिति जाव गुरुयुगह करैति । तो पढमथुइसमत्तीए थुई कहुंति, विणश्री त्ति, सेसाश्री दोनि सहेब भांति "एष सूत्रोक्तः पाक्षिकप्रतिक्रमण विधिः ॥ चाउम्मसिय संवन्धरिए वि एस चैव विही । वि परिक्कम खेसो खामणगकाउस्सग्मेसु सो पुल लाघव दंसियो वेष तहा चाउम्मासियसंवच्छ रिपसु मूलगुणउत्तरगुणाइयाराणं आलोयणं दाऊण पडिक्कमंति त्ति, खेत्तदेवमाप य उस्लग्गं क रैति के पुल चाम्बासिंग सेरजादेवया वि उस्स क रेति । तहा श्रावस्सए कप निरइयारा वि पंचकलाणगं गेहूंति पुण्यगहिए व अभिगडे निवेदेति । ते य सम्म जर नासुपालिया तो तव्विसुद्धिनिमित्तं उत्सर्ग करेंति, पुलो विति निरभिग्गहाल व न बर अति सं वच्छुरिए य श्रावस्सर कए पज्जोसवणाकप्पो कहिज्जइ । तत्थ दिवस कडिउं चैव न कप्पर, नावि संजइगिहत्थपासस्थाई पुरो, जन्धपि तं पच्च कहिअर जहापुरे मूलचेयघरे दिवसम्रो सम्पजणसमवं फडिजर । तत्थ वि साहू नो कहर, पासत्थो कडुइ, तं साहू सुरोज्जा, न दोसो, पासत्थाण वा कड्डगस्स असह दंडिगेण सहेहिं वा श्रव्भथिओ, ताहे दिवस पि कहर तत्थ विही " चेव पंचरत्तेण श्रप्पणी उवस्लप पाओसिए श्रवस्लप कर कालं घेतं काले सुद्धे श्रसुद्धे वा पटुवेत्ता कडिजइ । एवं चउसु राई पोसवणाराई पुरा कहिए सच्चे साहबो समण्यावसिय काउस्वयं करेति पजोसचयस्व सम प्यावणियं करैति काउस्सगं, जंखंडियं जं विराहियं जं च न पडिपूरियं खच्वो दंडओ कहियव्यो० जाव पोखिराम त्ति । "लोगस्सुज्जोयगरं" चिंतेऊण उस्सारेत्ता पुणे "लोग जयगरं "कता सच्चे साइयो निसीति, जे कहि ओ सो तांहे कालस्थ परिक्रमा, ताहे परिसाकाला ठविज्जइ । तं जहा - ऊणोयरिया कायव्वा, विगइनवगपरि ओकायो, जम्दा निद्धों काली, बहुपाया मेहली, वि ज्जुगज्जियाईहि य मयणो दिप्पर, पीढफलगाइसंथारगाणं उच्चारपासवण खेल मलगाण य जयणाए परिभोगो काययो नि सोधी काय सेहो न दियो अभियो उबही न गयो, दुगुखं परिसोवग्ग होयगरणं धरेयव्वं, पुग्वगहियाणं छारडगलाईणं परिचाओ काययो इयरेखि धारणं कायव्यं पुष्वावरे सकोसजीयाओ पर न गंतव्वं । " इत्यादि । किं च" पक्खचाउम्मास संवच्छुरियपव्वसु जहक्कमं चत्थमतवो चेइयवंदण परिवाडी सङ्घारा धम्मका य कायव्वति ॥ या पसंगी राहयविही भन्नइ-पढमं चिय सामाइयं कडिऊण चरित्तविसुद्धिनिमित्तं पणवीसुस्तासपरिमाणं काम करेति च नमोस पारिता सुद्ध निमित्तं चवीसाथ पति पणवीसुवासपरिमाणं काउस्सग्गं करिति । एत्थ वि नमोक्कारेण पारेत्ता सुयना - विद्धिनिमित्तं सुयनाथ कति तत्थ प पाउसियथुइमाइयं श्रहिगय काउस्सग्गपज्जंतमइयारं चिंतेति । श्रहकिंनिमित्तं पढमका उस्लग्ग एव राहयाइयारं न चिंतेंति ?, किं वा पदममेव तिथि काउसो करैति उच्यते-निहामि भूया न संभरंति, सुठु श्रइयारं न चिंतंति, माय अंधयारे वदंताणं अधोभवणं अंधारे या असणाओ मंदसा न समं बंदण देति चि कार्ड पच्चूसे तह निसाइयारं चिं तंति, आइए यतिनि काउस्सग्गा भवंति न पुरा पाओसिए जहा को तितो विलेयारं नमोकारेण पारेसा सिद्धाण थुई काऊण पुव्वभरिएण विहिणा वंदित्ता - Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमिकमण अनिधानराजेन्द्रः। पमिकमा लोएंति, तो सामाइयपुब्वगं पडिक्कमंति, तो बंदणपुब्वयं ह-श्रावकधर्मातिचाराद्, जातावेकवचनं, पञ्चम्यर्थे षष्ठी, खामेति. तो कयकिइकम्मा सामाइयपुव्वयं काउस्सग्गं ततो शानाऽऽद्याचारपञ्चकस्य चतुर्विशशतसंख्याऽतिचारेकरेंति, तत्थ चिंतेति-कम्मि नियोगे निउत्ता वयं गुरूहि तो भ्यः प्रतिक्रमितुमिच्छामि । इति गाथार्थ.॥१॥ तारिसं तवं पव्वजामो जारिसेणं तस्स हाणी न भवइ । सामान्येन सर्वव्रतातिचारप्रतिक्रमणार्थमाहतो चिंतेति-छम्मासं खवणं करेमो न सकेमो, एगदिवसे- "जो मे वयाइआरो, नाणे तह दंसणे चरित्ते ।। ण ऊणं तहावि न सकेमो, एवं जाव एगूणतीसाए ऊणं, एवं सहुमो य बायरो वा, तं निंदे तं च गरिहामि ॥२॥" पंचमासे, तो चत्तारि । तो तिन्नि, तो दोन्नि, तो य इति सामान्येन, 'मे' मम सर्वव्रतातिचारोऽणुव्रताऽऽदिएकं, तो एगेण दिणेण ऊणं० जाव चउदसहिं ऊणं न मालिन्यरूपः पञ्चसप्ततिसंख्यः संजात इति शेषः। तथा-शाने सक्केमो, तो वत्तीसइमं । तीसइमं जाव चउत्थं, आयंबिलं शानाऽऽचारे कालविनयाऽऽद्यष्टप्रकारे वितथाऽऽचरणरूपः । एगट्ठाणयं एक्कासणयं पुरिमढ निविगइयं पोरािसं नमोकार तथा-दर्शने सम्यक्त्वे शङ्काऽऽदीनां पञ्चनामासेवनाद्वारेण, सहियं व त्ति । एवं जे समत्था तवं काउं तमसढभावा हि. निःशङ्किताऽऽद्यष्टविधे च दर्शनाऽऽचारे अनासेवनाद्वारेण, यए करेंति, पच्छा वंदित्ता गुरुसक्खियं पव्वजंति, सब्वे य तथा-चारित्रे समितिगुप्तिलक्षणेऽनुपयोगरूपोऽत्तीचारः, चनमोकारचिंतगा समग उडेति, बोसिरावेति, निसीयंति य । शब्दात्तपोवीर्याऽऽचारयोः संलेखनायां च। तत्र बाह्याऽऽभ्यएवं पोरिसिमाइसु विभासा । तो तिनं थुईओ जहा पुव्वं, न्तरभेदात्तपो द्वादशधा,वीर्य मनोवाक्कायरिंधा,अतिचारता नवरमप्पसद्दगं देति, जहा घरकोइलाई सत्ता न उडेति । चानयोर्धम स्वशक्लिगोपनात्, संलेखनायास्तु पञ्चातिचाराः। तश्री देवे वंदेति, तो बहुवेलं संदिसावेति । तश्री मुह-| एवं चतुर्विंशत्यधिशतसंख्यातिचारमध्ये यः सूक्ष्मो वाऽनुपंतगं पडिलेहित्ता रयहरणं पडिलेहिंति । पुणो ओहियं | पलक्ष्या, बादरो वा व्यक्तः, तं निन्दामि मनसा. पश्चात्तापेन संदिसावेति, पडिले हिंति य, तो वसहि पमन्जिय कालं नं च गहें गुरुसमक्षमिति ॥२॥ निवेदेति । अन्ने भणंति-थुइसमणंतरं कालं निवेएंति एवं प्रायोऽन्यव्रतातिचारा अपि परिग्रहात्प्रादुर्भवन्ति, अतः च पडिकमणकालं तुलेति, जहा पडिकमंताणं थुइअवसाणे सामान्येन तत्प्रतिक्रमणायाऽऽहवेव पडिलेहणवेला भवइ त्ति।" पा०। " दुविहे परिग्गहम्मी, सावज्जे बहुविहे य श्रारम्भ । (२७) श्रावकप्रतिक्रमणम् कारावणे अकरण, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥३॥" प्रतिक्रमणं तु सामान्यत ईर्यापर्थिकीप्रतिक्रमणभणनेनैव द्विविधे परिग्रहे सचित्ताचित्तरूपे, सावद्ये सपापे, बहुविधेसिद्ध, न च विचित्राभिग्रहवतां श्रावकाणां कथमेकेन प्र- ऽनेकप्रकारे,प्रारम्भे प्राणातिपातरूपे कारणेऽन्यैर्विधापने,कतिक्रमणसूत्रेण तदुपपद्यत इति वाच्यम् । प्रतिपन्नव्रत- रणे स्वयं निवर्तने,चशब्दात् क्वचिदनुमतावपि, यो मेऽतिचास्यातिचरणे प्रतिक्रमणं युक्तम्, अन्यस्य तु अश्रद्धानाऽऽदि रस्तमित्यनुवर्तते, तं निरवशेष (देसिनं ति) आर्षत्वाद्दवसि. विषयस्यैव प्रतिक्रमणसमाधानस्य सुलभत्वात् । ननु साधु- कम, एवं रात्रिकपाक्षिकाऽऽद्यपि स्वस्वप्रतिक्रमणे, अशुभप्रतिक्रमणाद्भिन्नं श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रमयुक्तं, नियुक्तिभाष्य- भावात्प्रातिकूल्येन क्रमामि प्रतिक्रमामि । निवर्तेऽहमित्यर्थः। चूर्यादिभिरतन्त्रितत्वेनानार्षत्वात् । नैवम् । आवश्यकाss- उक्तं च-"स्वस्थानाद् यत्परस्थानं, प्रमादस्य वशागतः। तदिदशशास्त्रीव्यतिरेकेण निर्युकीनामभावेनौपपातिकाऽऽापा. त्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥१॥” इति । शानां च चूर्ण्यभावेनानार्षत्वप्रसङ्गात्, तत्प्रतिक्रमणमप्य अधुना शानातिचारनिन्दनायाऽऽहस्ति तेषाम् । (ध०) तस्मात्साधुवच्छावकेणापि श्रीसुधर्म- "जं बद्धर्मिदिराहि, चउहि कसाएहि अप्पसत्थेहिं । स्वाम्यादिपरम्पराऽऽयातविधिना प्रतिक्रमणं कार्यमित्यलं | रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि ॥४॥" प्रसङ्गेन । ध०२ अधिक। यद्बद्धं यत् कृतमशुभं कर्म, प्रस्तावाद्विरतिनिबन्धका(२८) श्रावकप्रतिक्रमणविधिः प्रशस्तेन्द्रियकषायवशगानां शानातिवारभूतम् । यदुक्तम् " तद् ज्ञानमेव न भवति, यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः । श्रावकप्रतिक्रमणस्येदानीमवसरः, तत्र कृतसामायिकेन प्रः | तिक्रमणमनुष्ठेयं, तस्य च सर्वातिचारविशोधकत्वेन विशि. तमसः कुतोऽस्ति शक्ति दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ॥१॥" टश्रेयोभूतत्वान्मङ्गलाऽऽदिविधानार्थ प्रथमगाथामाह इन्द्रियैः स्पर्शनेन्द्रियाऽऽदिभिः स्पर्शाऽऽदिविषयसंबद्धसंभू तसाधु-सौदासराज-प्राणप्रियकुमार-मथुरावणिक्-सुभद्राधे"वंदितु सव्वसिद्धे, धम्मायरिए असव्वसाहू । ष्ठिम्यादिवत् । तथा-चतुर्मिः कषायैः क्रोधाऽऽदिभिरप्रशस्तैइच्छामि पडिक्कमिउं, सावगधम्माइधारस्स ॥१॥" स्तीब्रौदयिकभावमुपगतैर्मण्डूकक्षपक-परशुराम-धनश्री-मवन्दित्वा नन्वा, सर्व वस्तु विदन्ति सर्वेभ्यो हिता वेति सार्वा- म्मणादिवत् रागेण दृष्टिरागाऽऽदिरूपेण गोविन्दवाचकोस्तीर्थकृतः, सिद्धयन्ति स्म सर्वकर्मक्षयानिष्ठितार्था भवन्ति त्तराभ्यामिव, द्वेषेणाप्रीतिरूपेण गोष्ठामाहिलाऽऽदिवत्, वा स्मेति सिद्धाः, सार्वाश्व सिद्धाश्च सार्वसिद्धास्तान् । तथा शब्दौ विकल्पार्थो (तं निंदे ) इत्यादि प्राग्वत् ॥४॥ धर्माऽऽचार्यान् श्रुतचारित्रधर्माऽऽचारसाधून्, धर्मदातन्वा, साम्प्रतं सम्यग्दर्शनस्य,चक्षुर्दर्शनस्य च प्रतिक्रमणायाऽऽहचशब्दादुपाध्यायान् श्रुताध्यापकान् । तथा सर्वसाधूंश्च स्थ- "आगमणे निग्गमणे, ठाणे चंकमणे अणाभोगे। बिरकल्पिकाऽऽदिभेदमिन्नान्मोक्षसाधकान् मुनीन् , चः समु. अभियोगे अनियोगे, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥५॥" चये । एवं च विघ्नवातोपशान्तये कृतपश्चनमस्कार इदमाह- प्रागमने मिथ्याहाधिरथयात्राऽऽदेः संदर्शनार्थ कुतूहलेना(इच्छामि ) अभिलषामि प्रतिक्रमितुं निवर्तितुं, कस्मादित्या- ऽऽसमन्ताद्गमने,निर्गमने च, यद्धमित्यनुवर्तते । तथा-स्थाने Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्किमण मिध्यादृषिदेवकुलादापूर्ध्वस्थाने, बम च तत्रैतस्ततः परिष्वष्कणे, क सतीत्याह श्रनाभोगे अनुपयोगे, अभियोगे राजाभियोगाऽऽदिके,नियोगे श्रेष्ठिपदाऽऽदिरूपे, शेषं पूर्ववत् ॥५॥ ( ३१२ ) अभिधान राजेन्द्रः । साम्प्रतं सम्यक्त्वातिचारप्रतिक्रमणायाऽऽह" संका १२ विगा ३. पसंस ४ तह संघयो कुलिंगीसु सम्मत्तस्स इयारे, पडिक्कमे देलिश्रं सव्वं ॥ ६ ॥ 35 तत्र तावद्दर्शनमोहनीयकर्मोपशमाऽऽ दिसमुत्थी उक्त श्रद्धानरूपः शुभ आत्मपरिणामः सम्यक्त्वं, तस्मिंश्च सम्यक्त्वे श्रमणोपासकेन शङ्काऽऽदयः पञ्चातिचारा ज्ञातव्याः, न समाचरितव्याः । ६० इदानीं चारित्रातिचारप्रतिक्रमणमभिधित्सुः प्रथमं सामा म्येनांरम्भनन्दनार्थमाह 1 "कायसमारंभे, पवणे य पावशे य जे दोसा । अत्तट्ठा य परट्ठा, उभयट्ठा चैव तं निंदे ॥ ७ ॥ ” षट्कायानां भूदकाग्निवायुवनस्पतित्रसरूपाणां समारम्भे परितापने, तुलादण्डन्यायात् संरम्भाऽऽरम्भयोश्व सङ्कल्पापद्रावणलक्षणयो:, तेषु सत्सु ये दोषाः पापानि, न त्वतीचारा, अनङ्गीकृते मालिन्याभावात् क सति ?, पचने च पाचने च चशब्दादनुमती च किमर्थमित्याह आत्मार्थ स्वभागा परार्थ प्राघूर्णकाऽऽद्यर्थम् उभयार्थ स्वपरार्थे, चशब्दोऽनर्थकषाऽऽदिकृतदोषसूचकः, एवकारः प्रकारेयत्ताप्रदर्शकः । यद्वाआत्मार्थ मुग्धमतित्वात् साध्वर्थमशने कृते मम पुण्यं भ विष्यति, एवं परार्थेौभयार्थावपि । श्रथवा पदकाय समारम्भाऽऽदिष्वयनेनापरिशुद्धजलाऽऽदिना ये दोषाः कृतास्ताश्व निन्दामीति ॥ ७ ॥ साम्प्रतं सामान्येन चारित्रातिचारप्रतिक्रमणायाऽऽह" पंचरहमसुवधाएं, गुब्बयाणं च लिएहमइयारे । सिक्खा उडं, पडिक मे देखि सम्यं ॥ ८" कण्ठ्या, नवरम्, अनु सम्यक्त्वप्रतिपत्तेः पश्चात्, अणूनि वा महामतापेक्षया लघूनि प्रतानि अणुव्रतानि तानि पश्चेति मूलगुणाः, तेषामेव विशेषगुणकारकाणि दिग्नताऽऽदीनि त्रीणि तानि तानि बाधितानि शिक्षावतानि पुनरित्वरकालिकानि, शिक्षकस्य न पिव पुनः पुनरभ्यस नीयानि चत्वारि सामायिका 55॥ ॥ अधुना प्रथममाह " पढमे श्रणुब्वयम्मी, धूलगपाणाइवायविरईश्री । श्रयरियप्पसत्थे, इत्थ पमायप्यसंगेणं ॥ ६ ॥ " प्रथमे सर्वमतानां सारत्यादादिमे, अगुवते ऽनन्तरोकस्वरूपे, स्थूलको बाह्यरुपलक्ष्यत्वाद्वादशे गत्यागत्यादिव्यलिङ्गद्धित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियजीयसंबन्धिनां प्राणानामिन्द्रियादीनामस्यार्थमतिपाती विनाशुरतस्य विरतिनिवृत्तिस्तस्याः स काशादतिचरितमतिक्रान्तम् एतच सर्वविरतिसंक्रमेऽपि स्यात् । न च तत्प्रतिक्रमणामत बाद अप्रशस्तै फोधादि नौकभावे सति प्राणातिपात प्रमाद) प्रसङ्गेन प्रमाद मयाऽऽदिः पञ्चचा तत्र प्रसजनं प्रकर्षेण प्रथ सेनं प्रसङ्गस्तेनः एकग्रहणे तजातीयग्रहणादाकुपाचैरपि यहा विरतिमाश्रित्य यदाचरितं वक्ष्यमाणवधयन्धाऽत्रिकसाध्वनुष्ठितमिति ॥ ८ ॥ 3 तदेवाऽऽह "वह बंध विच्छे २ अइमारे ४ भतपाणयोच्छे ५|| पढमवयस्स इयारे, पडिक्कमे देखियं सव्वं ॥ १० ॥ वो द्विपदादीनां निर्दयताडनं बन्धो रज्ज्वादिभिः संयमनं, विच्छेदः कर्णादिच्छेदनम् अतिभारः शक्त्यनपेतं गुरुभा राधरोपणं, भक्तपानव्यवच्छेदो अपाननिरोधः, सर्पत्र क्रोधादिति गम्यते । एतच प्रथमवतातिचारानाम् शेर्पा प्राग्वत् । वधाऽऽदीनामतीचारता च प्रागतिचाराधिकारे भावितैय, अनाभोगातिक्रमाऽऽदिना वा सर्वत्रातिचारतायसेया ॥ १० ॥ 66 परिक्कमण द्वितीयत्रतमाह "बीर अम्मी परिधूलगलियचयरियो | श्रायरियमप्पसत्थे, इत्थ पमायप्पसणं ॥ ११ ॥ " द्वितीये अणुव्रते, परीत्यतिशयेन स्थूलकमकीर्त्यादिहेतुरलीकवचनं कन्यालीकादि पञ्चधा । तत्र द्वेषादिभिरकि म्यां विषकन्यामित्यादिवदतः कन्या अलीकम १ पचमपक्षी बहुक्षीरां गामित्यादिवदतो गवालीकम् २ परत्कां भूमिमात्मसत्कां वदतो भूम्यलीकम् ३ उपलक्षणानि चैतानि सर्वद्विपदचतुष्पदापदालीकानां, न्यासस्य धनधान्यादिस्थापनिकाया हरणमपलापो न्यासापहारः ४ । अत्र पूर्वत्र चादत्ताऽऽदानत्वे सत्यपि वचनस्यैव प्राधान्यविवक्षणात् मृषावादत्वं लभ्यदेयविषये प्रमाणीकृतस्योत्कोचमत्सराऽद्यभिभूतस्य कूटसाक्षिदानात् कूटसाक्षित्वम् ५। अनयोश्च द्विप rssantन्तर्भावेऽपि लोकेऽतिगर्हितत्वात्पृथगुपादानम् । एतस्य पञ्चविधा लीकस्य वचनं भाषणं तस्य विरते, आयरिए " इत्यादि प्राग्वत् ॥ ११ ॥ अस्याविचारप्रतिक्रमणायाह सहसा रहस्सदारे, मोसुवएसे य कूडलेहे य । बीयपस्या, पडिकमे देसि सच्वं ॥ १२ ॥" तत्र (सहस ति) सूचनात्सूत्रमिति सहसाऽनालोच्याभ्याख्यानमसोपाधिरोपणं चौरोऽयमित्याद्यभिधानं सहसाऽभ्याख्यानम् ? | रहस्येकान्ते मन्त्रयमाणान् वीच्येदं चेदं च राजविरुद्धाऽऽदिकमेते मन्त्रयन्ते इत्याद्यभ्याख्यानं रहो ऽभ्याख्यानम् २ | स्वदाराणां विश्रब्धभाषितस्यान्यस्मै कथनं स्वदारमन्त्रभेदः । ततो द्वन्द्वं कृत्वा तस्मिन् ३ । श्रज्ञातमन्त्रीपधातुपदेशनं पोपदेशस्तस्मिन् ४ अन्यमुद्राक्षरविन्द्रादिना कूटस्यार्थस्य लेखनं कूटखस्तस्मिथ, शेर्पा प्राग्वत् ॥ १२ ॥ इदानीं तृतीयवतमाह " तर अव्ययम्म, भूलगपरव्यहरणविरईओ । श्रायरियमप्पसत्थे, इत्थ पमायप्पसंगेणं ॥ १३ ॥ " तृतीये अव स्थूलके राजनिग्रहा 55दिहेतुः परद्रव्यहरणं, तस्य विरतिरित्यादि प्राग्वत् । अस्यातिचारप्रतिक्रमणाया 35 "तेनाहडप्पश्रोगे, तप्पाडरूवे विरुद्धगमणे य । 33 तुलकुमारी पडिकमे देखि सयं ॥ १४ ॥ स्तंगाचैरास्तैराइतं देशान्तरादानीतं किञ्चित्कुकुमादि तत् समर्थमिति लोभाद्यत् काल ककये गृह्यते न लेना हतम् । (अंगिस) सूचनात् तस्करप्रयोगः, तदेव कुर्वन्तीति Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१३) अन्निधानराजेन्द्र पडिक्कमण स्कराचौराः । तेषामुद्यतकदानाऽऽदिना हरणक्रियायां प्रेर प्रयोगः २ । (तप्पाडरुव लि) तस्य प्रस्तुतकुङ्कुमा दे: प्रतिरूपं सदृशं कुसुम्भाऽऽदि, कृत्रिमकुङ्कुमाऽऽदि वा तत् प्रक्षेपेण व्यवहारः तत्प्रतिरूपव्यवहारः ३ । विरुद्धनृपयोः राज्यं विरुद्धराज्यं तत्र ताभ्यामननुज्ञाते वाणिज्यार्थमतिक्रमणं गमनं विरुद्धगमनम् ४ फूटतुला कूटमानं तद् न्यूनाधिकाभ्यां व्यवहरतः ५ । यदाह-' उचियं मोत्तूरा कलं, दव्वाइकमागयं उरिसं । निचडियमचि जाणतो, परस्स संतं न गिरिहजर ॥ १ ॥ एतेषु क्रियमाणेषु यद् यद्धमित्यादि प्राग्वत् ॥१४॥ तुर्यव्रतमाह "चउत्थे श्रणुव्वयम्मी, निच्चं परदारगमणविरईश्रो । आयरियमप्पसत्थे, इत्थ पमाणप्पसंगेणं ॥ १५ ॥ " चतुर्थ अवते नित्यं सदा परे श्रात्मव्यतिरिक्ताः तेषां दाराः परिणीतसंगृहीतभेदभिनानि कलत्राणि तेषु गमनमा सेवनं तस्य विरतेरित्यादि प्राग्वत् ॥ १५ ॥ अस्यातिचारप्रतिक्रमणाया 556 " अपरिग्गहिश्रा इत्तर, अरांग वीवाह तिब्वश्रणुरागे । चउत्थवयस्सऽइयारे, पडिक्कमे देसिश्रं सव्वं ॥ १६ ॥ " अपरिगृहीता विधवा, तस्यां गमनमपरिगृहीतागमनम् । ( इतर ति ) इत्वरमल्पकालं भाटीप्रदानतः केनचित् स्ववशीकृता वेश्या, तस्यां गमनम् इत्वरपरिगृहीतागमनम् । (अरांग ति) अनङ्गः कामस्तत्प्रधाना क्रीडाऽधरदशनाssलिनाऽऽद्या तां परदारेषु कुर्वतो ऽनङ्गक्रीडा, वात्स्यायना55शुक्लचतुरशीतिकरणासेवनं था ( वीवाह ति) परकीया पत्यानां स्नेहाऽऽदिना विवाहस्य करणं परविवाहकरणं स्या पत्येष्वपि संख्याऽभिग्रहो न्याय्यः ४, ( तिव्वश्रणुरागे ति ) कामभोगतीत्रानुरागः कामेषु शब्दाऽऽदिषु भोगेषु रसाssदिषु, तीव्रानुरागोऽत्यन्तं तद्ध्यवसायः ५, स्वदारसन्तो पिराध त्रय पचान्या अतिचाराः, आयौ तु भङ्गावेव स्त्रिया अपि तचैव यज्ञाऽतिक्रमा-35दिभिरतिचारता अवसेया पतानाश्रित्य । यद् बद्धमित्यादि प्राग्वत् ॥ १६ ॥ " पञ्चमाण्वतमाह "इस पंचमम्मि आयरियमप्यसत्यम्मि । परिमाण परिच्छेष, इत्थ पमाणप्पसंगेणं ॥ १७ ॥ " इतस्तुर्यव्रतानन्तरं, धनधान्याऽऽदिनवविधपरिग्रहप्रमाणलक्षणे पञ्चमे अणुव्रते यदाचरितमप्रशस्ते भावे सति, क्व विषये ?, परिमाणपरिच्छेदे परिग्रहप्रत्याख्यानकालगृहीतप्रमाणोलङ्घने । श्रत्रेत्यादि प्राग्वत् ॥ १७ ॥ अस्यातिचारप्रतिक्रमणाया 53“नखित्तवत्युं रुप्यसुवने व कुवियपरिमाणे । दुपए चउप्पयम्मी, पडिक्कमे देसिश्रं सव्वं ॥ १८ ॥ " धनम्--गणिमाऽऽवि (०) धान्यं श्रीह्यादि (०) क्षेत्रम सेतुकेतूभयात्मकम (०) रूप्यम्, रजतम्। सुवर्णम्-कनकम् (०) कुपितं स्थालक बोला55दि (०) द्विपदमन्त्री दास्यादि । चतुष्पदम्- गवाश्वादि (०) शेर्पा प्रायत् ॥१०३ साम्प्रतं त्रीणि गुणव्रतानि तथाऽऽद्यप्रतिक्रमणायाऽऽह" गमणस्स य परिमाणे, दिसासु उद्धं श्रहे अतिरिश्रं च । 5. ७६ पडिक्कम बुसिइअंतरजा, पदमम्मि गुणव्वर निंदे ॥ १५ ॥ " अत्र गमनस्य च परिमाणे गतेरियन्त्ताकरणे, चशब्दाद् यदतिक्रान्तं कविषये दिचु तदेवाऽऽह - [ उति ] ऊम् [ध० ] श्वमवस्तिर्यदिशोः [ घ०] [हि] वृद्धि कोऽर्थः सर्पादि [४०] [सहअंतर ति] स्मृत्यन्तर्द्धा स्मृतभ्रंश इत्यर्थः । [अ०] प्रथमे [ध० ] गुणाय व्रतं तस्मिन् यदतिचरितमित्यादि प्राग्वत् ॥ १६ ॥ साम्प्रतं द्वितीयं गुणवतम्। तच्च द्विधाभोगतः, कर्मता । भोगोऽपि द्विधा उपभोग - परिभोगभेदात् । तब उप इति स कृत् भोग श्राहारमाल्याऽऽदेरासेवनमुपभोगः, परीत्यसकृद्भोगो भवनाङ्गनाऽऽदीनामासेवनं परिभोगः । तत्र गाथामाह-" मज्जम्मि य मंसम्मि य, पुष्फे य फले य गंध मले य । भोगपभोगे, बीयम्मिगुणम्बर निंदे ॥ २० ॥" श्रावकेण तावदुत्सर्गतः प्रासुकैवणीयाऽऽहारिणा भाव्यम्, श्रसति सचित्तपरिहारिणा, तदसति बहुसावद्यमद्याऽऽदीन् वर्जित्वा प्रत्येकमिश्राऽऽदीनां कृतप्रमाणेन भवितव्यं, तत्र मद्यम- मदिरा, मांसम् - पिशितं चशब्दाच्छेषाभक्ष्यद्रव्याणा • मनन्तकायाऽऽदीनां च ग्रहः । तानि च प्रागुक्तानि पञ्चोदुम्ब र्यादीनि पुष्पाणि करीरमधुका 55दिकुसुमानि शब्दात्संसक्तपत्रादिपरिग्रहः फलानि जम्मूषित्यादीनि पच मद्याऽऽदिषु राजव्यापाराऽऽदौ वर्तमानेन यत्किञ्चित्कायणाऽऽदि कृतं तस्मिन्, एतैरन्तर्भोगः सूचितः, बहिस्त्वय-[ गंध मलेसि] गन्धा-वासाः मास्पानि-पुष्पस्रजः, अत्रोपलक्षणत्वाच्छेषभोग्यवस्तुपरिग्रहः । तस्मिन्नुक्तरूपे, 'उपभोगपरिभोगे' भीमो भीमसेन इति न्यायादुपभोगप रिभोगपरिमाणाऽऽये 'द्वितीये गुणवते' अनाभोगा 55 दिना यइतिक्रान्तं तनिन्दामि ॥ २० ॥ 9 " अत्र भोगतोऽतिचारप्रतिक्रमणायाद" सच्चिते परिबद्धे, अप्पोल दुप्पोलिए य श्राहारे । तुच्छोहिया, पडियमे देसिय सम्बं ॥ २१७" कृतसचिचप्रत्यक्यानस्य कृततत्परिमाणस्य वा समितिरिक्लमताभोगादिनाऽभ्यवहरतः सचिताऽऽहारोऽतिवार १ एवं वृकस्थं गुन्दाऽऽदि राजादनाऽऽदि वा सास्थिकफलं मुखे प्र क्षिपतः सचित्तप्रतिबकाऽऽहारः २, एवमपक्कस्यानिना संस्कृ तस्यापरिणत कणिक्कादेः पिष्टस्य भक्षणमपौषधिभक्णता ३, कस्य पृयुका दे धिता । तुच्छा असे त्वादसा कोमल मुद्रादिकात पतस्तु सिद्विषये "परिश्रमे" इत्यादि|२१| अत्र व्रते भोगोपभोगोत्पादकानि बहुसावधानि कर्मतोऽङ्गारकर्माऽऽदीनि पञ्चदश कर्माऽऽदानानि तावकमपादानानि श्रावण शेयानि, न तु समाचरणीयान्यतस्तेषु यदनाभोगा. ऽऽदिनाऽऽचरितं तत्प्रतिक्रमणाय गाधाद्वयमाह"गाडीमाडीमा एवं वाणिज्जं चैव य दंतलक्खरस के सविसविसयं ॥ २२ ॥ जंतपीलण - कम्मं निलंबणं च दवदाणं । खु सरदद्दनलायसोर्स, ब्रस २३॥" कर्मशब्दः पूर्वार्धे प्रत्येकं योज्यः, सेनाऽङ्गारकर्म, बनकर्म, शकटकर्म, भारककर्म, स्फोटकर्म चेति पञ्च कर्माणि । ( घ० ) Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१४) पडिक्कमण आभिधानराजेन्छः। पमिक्कमण उत्तरान पञ्चवाणिज्यान्याह-[ वाणिजं इत्यादि ] विषयश- विचारमाऽनेनेत्यधिकरणं मुशमोदूस्खलाऽदिसंयुक्तमर्थक्रियाब्दः प्रत्येक योज्यः, ततो दन्तविषय वाणिज्य दन्तवाणिज्य- यां प्रगुणीकृतं तश्च नदधिकरणं च तद्भावः संयुक्ताधिकरणता। म् । एवं लाकाऽऽदिष्वपि [ध.] पञ्चविधं वाणिज्यम् [ध०] इह विवेकिना संयुक्तं गन्धाऽऽदि न धरणीयम, तद् दृपा जनो कर्म श्रावको वर्जयेदिति संटङ्कः । [जतपीलण ति] यन्त्र- गृहन्न निवारयितुं शक्यते, विसंयुक्ते तु स्वत एव निवारितः सलूखलाऽऽदौपीमन-धान्यखानाऽऽदि,तेन कर्म जीविका यन्त्र- स्थात् ४, (भोगाइरित्त त्ति) उपभोगपरिजोगातिरिक्तता, त. पामनकर्म, [निलंछण ति] नितरां लानम-अङ्गावयव- दाधिक्यकरणे ह्यन्येऽपि तत्तैयामल काऽऽदि याचित्वा स्नानाs. च्छेदस्तेन कर्म जीविका निलीवनकर्म । [ दवदाणं ति] अ. दौ प्रवर्तन्ते (दमम्मि अणहाए त्ति) अनर्थदण्डाऽऽण्ये (तच. रएयेऽग्निप्रज्चालनम् (सरदह इत्यादि) सरोजदतटाकशोषः। म्मि) इत्यादि प्राग्वत् ॥ २६ ॥ सारणीकर्षणेन,ततो जलनिष्कासनमित्यर्थः, (असईपोसं ति) | साम्प्रतं शिकावतानि, तत्र प्रथम सामायिक, तत्स्वरूपं च पू. वृत्यर्थ दास्यादिषुःशीलजन्तुपोषणं, लिङ्गमतनं, सूत्रे च एवं- वमुक्तमेव, तस्यातिचारप्रतिक्रमणायाऽऽह-- खमुशब्दो गाथापर्यन्ते लम्बध्येत, ततश्चैवप्रकाराणि खरकर्मा- ___ "तिविहे दुप्पणिहाणे, अणवट्ठाणे तदा साविहूणे । णि गुप्तिपासाउदीनि च, 'खुनिश्चयेन, सुश्रावको वर्जयेदिति सामान वितहकर, पढमे सिक्खावए निदे ॥ २७॥" ॥२२॥२३॥ त्रिविधं त्रिप्रकारं 'दुष्प्रणिधानं ' कृतसामायिकस्य मनोवाक्कासाम्प्रतमनर्थदण्डाऽऽख्यं तृतीयं गुणवतम् । तत्रार्थो देहस्वजना- | यानां दुप्रयुक्तता, तत्र मनसा गृहाऽऽदिव्यापारचिन्तनम १, ऽऽदीनां कार्य, तदभावोऽनर्थः, ततः प्राणी निःप्रयोजनं पुण्य- बाचा सावद्यकर्कशाऽऽदिनापणम् २, कायनाप्रत्युपेक्षिताप्रमाधनापहारेण दण्ड्यते,पापकर्मणा विलुप्यते येन सोऽपध्यानाss. जिंतस्थपिडलाऽऽदौ निषदनाऽऽदिविधानम् ३, अनवस्थानम्चरिताऽऽदिकश्चतुर्धाऽनर्थदण्मस्तस्य मुहूर्ताऽऽदिका लाऽवधिना | सामायिकका झावधेरपूरणं यथा कथश्विद्वानारतस्य करणस४, निषेधोऽनर्यवएस्वतंतत्र चापध्यानाऽऽचरितपापोपदेशो वता- तथा-स्मृतिविहीन निकाऽऽदिप्रमादात् शून्यतयाऽनुष्ठितम् ५, धिकारस्थव्याख्यानादेवायसेयौ । हिंस्रप्रदानप्रमादाऽऽचरिते तु। पतामाश्रित्य सामायिके प्रथमे शिक्काव्रते वितथाकृते सम्य. बहुसावद्यत्वात् साकारसूत्रकृदेव द्विसूया 5ऽहं गननुपालिते योऽतिचारस्तं निन्द मीति ॥ २७ ॥ " सत्यमिंगमुसमजंतग-तणकट्टे मंतमूलभेसजे। अधुना देशावकाशिकं व्रतम्--तच पूर्व योजनशताऽऽदिना दिने दवाविर वा, पडिक्कमे देसियं सव्वं ॥ २४ ॥ यावज्जीबं गृहीतदिग्वतस्य तथाऽनीएकालं गृहशय्यास्थानाएहाणुवणवनग-विलेवणे सहरूवरसगंधे। देः परतो गमननिषेधरूपम, सर्वव्रतसंक्तपकरणरूपं चा। बत्थासणाभरणे, पमिक्कमे देसियं सव्वं ॥ २५ ॥" अस्यातिचारप्रतिक्रमणाया 55ह-- शस्त्रानिमुशन्नानि प्रतीतानि,यन्त्रकम्-गन्यादि, तृणम् -महार "प्राणवणे पेसवणे, सद्दे रुवे य पुग्गलक्खवे । ज्जुकरणाऽऽदितुर्दर्भाऽदिबावणकृमिशोधनं बहुकरी वा,का. देसावगासियम्मी, वीप सिक्खाबए निंदे ॥ २८॥" ष्ठम-अरघयष्यादि, मन्त्र'विषापहाराऽऽदिः,वशीकरणाऽऽदि. | गृहाऽऽदौ कृतदेशावकाशिकस्य गृहाऽऽदेवहिस्तात् केनचित् वा,मूलम्-नागदमन्यादि,ज्वराऽऽद्युपशमनमिका वा गर्भशा किञ्चितस्त्वानयत आनयनप्रयोगः १, एवं प्रस्थापयतःप्रेष्यतनाऽऽदि वा मूत्रकर्म,भेषजम् सांयोगिकन्यमुश्चाटनाऽऽदिहे. प्रयोगः२,गृहाऽऽदेबंहिःस्थस्य कस्यचित् काशिताऽऽदिना का. तुः, पतच्चत्रादिप्रभूतनूतसवातघातहेतुभूतं दाक्विपयाऽऽद्य. र्यकरणार्थमात्मानं ज्ञापयतः शब्दानुपातः३,एवं स्वरूप दर्शयतो नावेऽन्येभ्यो यद् दत्तं दापितं वा तस्य"पमिक्कमे"इत्यादि प्राग्व माला दावारुह्य पररूपाणि वा प्रेकमाणस्य रूपानुपातः४,निय. त्॥१४॥ स्नानम-अभ्यङ्गपूर्वकमङ्गप्रकालनं, तच्चायतनयात्र. त्रितत्रादिःस्थितस्य कस्यचित् बेष्ट्रादिक्केपणेन स्वकार्य ससंसक्तभूम्यां संपातिमसत्वाऽऽफुले वाऽकाले वस्त्रापूतजलेन | स्मारतः पुद्गल केपः५, "देसावगासियम्मि" इत्यादि प्राम्बत् ।२८॥ यत्कृतम्,उद्वर्तनम-संसक्तचूर्णाऽऽदिभिः उद्वर्तनिकाश्च नन. अधुना पोषधोपवासः-तत्र पोषं पुष्टिं प्रक्रमाकर्मस्य धत्त स्मनि किप्तास्ततस्ताः कीटिकाकुलाः श्वाऽऽविभिभयन्ते,पादै- इति पोषधः--अवश्यमष्टम्यादिपर्वदिनानुष्ठेयो व्रविशेषः, तत्रोो मृद्यन्ते,वर्णकः कस्तूरिकाऽऽदिःविलेपनं कुडूमनन्दनादि, पवसनं पोषधोपवासः। तद्भेदास्तु पोषधवते नक्तास्ततोऽवएते च संपातिमसत्वाऽऽद्ययतनया कृते,शब्दो वेणुवीणाऽऽदीनां सेयाः। अत्र चातिचारप्रतिक्रमणायाऽऽहकौतुकेन श्रुतः शब्दो वा निश्युचैःस्वरेण कृतस्तत्र, "आउज्जो. "संथारुच्चारविही-पमाय तह चेव जायणाभोए । यणविणए" इत्याद्यधिकरणं यदभूत, रूपाणि-नाटकाऽऽदौ पोसहविहिविचरीए, तइए सिक्खावए निदे ॥ २६ ॥" निरीकितानि, रसः- अन्येषामपि तद्गृद्धिहेतुर्वर्णितः, एवम् संस्तारका-कम्बलाऽऽदिमयः, उपलक्षणत्वाच्चय्यापीठफलगन्धाऽऽदन्यपि,अत्र विषयग्रहणातजातीयमद्याऽऽदिप्रमादस्य 55कादि च, (उच्चार ति) उच्चारप्रश्रवणभूमयो द्वादश द्वादश पञ्चविधस्यापि ग्रहः । यद्वा-श्रालस्येम तैलाऽऽदिजाजनास्थ विएमूत्रस्थण्डिलानि, एषां विधौ प्रमादः, कोऽर्थः, शय्यागनं प्रमादाऽऽचरितं,तस्मिँश्च"पडिको" इत्यादि प्राग्वत् ॥२५॥ यां संस्तारके च चक्षुषा अप्रत्युपेक्तिते दुष्प्रत्युपेक्तिते वोअत्रातिचारप्रतिकमणायाऽऽह पवेशनाऽऽदि कुर्वतः प्रथमोऽतिचारः१,एवं रजोहरणाऽऽदिना "कंदप्पे कुक्कुइए, मोहरिअहिगरणभोगप्ररिते।। अप्रमार्जिते दुष्प्रमार्जिते च द्वितीयः २,एवमुच्चाराऽऽदिनूमी. दंडम्मि अणहाए, ताम्मि गुणब्बए निंदे ॥ २६ ॥" नामपि द्वावतिचारी, मतः प्रोच्यते-(तह चेव त्ति ) तथैव कन्दप्पो माहोद्दीपकं हास्यं १,कौकुच्यं नेत्राऽऽदि विक्रियागर्भ जबत्यनाजोगे अनुपयुक्ततायां सत्यामित्यतिचारचतुष्यम ४, हास्यजनक विटचेष्टितम् २,मौखयम्--असंबद्धबहुभाषित्वम् ३, तथा-'पौषधविधिविपरीतः'-पोषधविधेश्चतुर्विधस्यापि वि. (भधिकरण त्ति) संयुक्ताधिकरणता तत्राधिक्रियते नरका- परीतोऽसम्यक्माल नरूपः, यथा-कृतपौषधस्य कुधाऽऽद्यार्तस्व . Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्किमण पौषधे पूर्वेभ्यः स्वार्थमादाराऽऽदे हरथमार्थ कारविध्ये इत्यादि ध्यायतः पञ्चमोऽतिचारः । पाठान्तरं धा- ( प्रोयणाभोयत्ति ) भोजने श्राहारे, उपलक्षणत्वात् देहसत्काराऽऽदी श्रोग-उपभोगः कदा पोषक पूर्वी भविष्यति येनास्या दि तत्परतेति पञ्चमा । एवं पचनिरतिचारैः पविधिविपरीत वैपरीत्ये सति " तइए " इत्यादि प्राग्वत् ॥ २९ ॥ साम्प्रतमतिथिसंविभागाऽऽख्यं तुर्ये शिक्काव्रतम् । तत्र तिथि पर्वाऽऽदिल्लौकिकव्यवहारत्यागाद्भोजनकानोपस्थायी श्रावकस्थातिथिः साधुरुच्यते । तस्य सङ्गतो निर्दोषो न्यायाऽऽगतानां कल्पनीयान्नपानीनां देशकालश्रद्धा सत्कारमयुक्तः प मारे विशिष्ट भागमा दानमतिथिसंविनागः । अत्र चायं विधिः-तीन न पारण कदिने साधुसद्भाषे ऽवश्यमतिथिसंविभागतमा सेय पारयितव्यम्, अन्यदा स्वनियमः । यदाद्-" पढमं जईण दाऊण " इत्यादि । अत्रातिचारप्रतिक्रमणायाऽऽह "विणे, पिदिणे वचपस मध्ये कालाकमदाणे, चउत्थे सिक्खावर निंदे ॥ ३० ॥ 19 यस्याऽऽदान बुद्ध्याऽतिकमा 55दिभिरनाभोगेन वा 'स चियादीनपितः पितेति प्रथमो ऽविचार १, एवं सचित्तेन पिदधतः सवित्तपिधानता २, स्वकीयमपि परकीयमिदमित्यभिद्धतः परव्यपदेशः ३, किमादप्यहं न्यून इति मारयोदतो मत्सरिता साधु निमन्त्रयमाणस्य कालातिक्रमः । शेषं प्राग्वत् ॥ ३० ॥ साम्प्रतमत्र यागाऽऽदिना दत्तं तत्प्रतिक्रमणायाऽऽह (३१५) अभिधानराजेन्ड सुहिपसु यदुद्दिसु य, जा मे अस्संजयसु अनुकंपा रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि ॥ ३१ ॥ " साध्विति विशेष्यं गम्थं संविभागवत प्रस्ताबाद ततः साधुदितं ज्ञानाऽऽविषयं येषां ते सुतास्ते तो पुनः खितेषु रुजा तपसा 9 धिषु वा पुनः किंविशिष्टेषु ? 'न' स्वयं स्वच्छन्देन यता उद्यता अस्पतास्तेषु गुइया रितु त्वर्थ या मया कृताऽनुकम्पा अन्नाऽऽदिदानरूपा प्रक्तिः, अनुकम्पाशब्दे मात्र मतिः सूचिता । यधोम-"आरपा अनुकंपयो महाभागो बच्चायुकंपणा, अकिया तिथे ॥१॥" [रागेव पुत्राऽऽदिप्रेानतु गुणवत्वबुद्धपातथा द्वेषेण द्वेषोऽत्र साधुनिन्दा ऽऽख्यः, यथा श्रदत्तानाघनधान्याss दिरहिता मलाऽऽलिसकलदेदा ज्ञातिजन परिस्वचाः कुधा SSfः सर्वया निर्गतका श्रमी, श्रत उपष्टम्नाह इत्येवं निन्दा पूर्व पाउनुकम्पा साऽपि निन्दा नदी 35 युतुत्वा तू । यदागमः- "तहारूवं समयं वा माहणं वा संजयबिरयपडि पचकापाचकम्मं दीखता निंदिता बिगिरह क्षा श्रवमशिन्ता श्रमपुत्रेणं अवीश्कारगेणं असणपाणखाइमसारमेयं परिसाशित असुदीहालयसार कम्मं पकरे।" यज्ञामादिषु शे 'द्वेषेण दगपाणं पुप्फफ ' इत्यादि तद्वतदोषदर्शनान्मत्स रेण, अथवा असंयतेषु षविधजीवबधकेषु कुलिङ्गिषु, रागेण एकप्रामोत्पत्यादिप्रीत्या, द्वेषेण प्रवचनप्रत्यनीकताऽऽदिदर्शनोज 1 देवानं निन्दामि च पुनरीदिनि दाऽऽहै जिनैरपि वार्षिकं दानं ददद्भिस्तस्य दर्शितत्वात् ॥ ३१॥ 36 - परिक्रमण 55 सम्प्रति साधुषु न दत्तं तत्प्रतिक्रमितुमाह"सासु विभाग, न कभी मरणकरण संतेनिदे तं च रिहामि ३२ ॥ नबरं तपकारणकरण के तपसः पृथगुपा दानमनेन निकाचितान्यपि कर्मणि कीयन्ते इति प्राधान्य. ख्यापनार्थम् ॥ ३२ ॥ संप्रति संलेखनातिचारान्परिजिहीर्षुराद" परप जीबियमर य आसपभोगे । पंचविहो यारो, मा मज्भं हुज मरणं ते ॥ ३३ ॥ " अत्राssशंसाप्रयोग इति सर्वत्र योज्यं, तत्र प्रतिक्रामकं प्रतीश्लोको मलकस्तथाऽऽशंसा-राजा स्यामित्याद्यनिलाप स्तस्याः प्रयोगो व्यापार इहलोकाऽऽशंसाप्रयोगः १, एवं देवः स्यामित्यादिपरलोकाप्रयोगः २ तथा कचित्कृतानशनः प्रभूतपौरजनात विद्दितमामहसावलोकमा मन्द रुवृन्दवन्दनसम्मर्ददर्शनात् श्रस्तोकविवेकिल्लोक सस्कृत श्लोकसमाकर्षात्पुरतः संभूय भूयो भूयः धार्मिक जनविधी मानोपबृंहणश्रवणात् अनघसमस्तसङ्घजनमभ्यसमारब्धपुस्तकवाचनमाख्याऽऽदिखाकर निरीक्षणाचे मन्यते प्रतिपा नशनस्थापि मम जीवितमेव सुरं वः यत विधा मद्देन विभूतितजीविताशंसाप्रयोगः तथा क शिनः प्रागुकपूजा ऽऽद्यभावे धाऽचाल वा चिन्तयति - किमिति शीघ्रं न म्रियेऽहमिति मरणाऽऽशंसाप्र योगः ४, तथा कामभोगाऽऽशंसाप्रयोगः, तत्र कामौ शब्दरूपौ भोगाः-गन्धरसस्पर्शाः, यथा ममास्य तपसः प्रभावात् प्रेत्य सोनाग्यादि नृपादिति पञ्चविधोऽतिवारो मा मम सुधा मरणा पावरमास इति ३३ ॥ सर्वोच्चता गययोस्तमुद्दिश्य तैरेव प्रति कामशाह 66 'कारण कायश्यस्सा, परिक्कमे वाश्यस्स वायाए । मणसा माणसियस्सा, सव्वस्त वयाइभारस्स ॥ ३५ ॥ " कायेन बधादिकारिणा शरीरेण कृतः कास्तिस्र्थ स्कायोत्सर्ग नपरे प वाचा सहसाऽज्याण्यानदानाऽऽदिरूपया कृतस्य वाचिकस्य बाचैवमिदुष्कृतकरणादिलक्षणया, तथा मनसा देवत [55] श55 तो मानसिकस्तस्य मनसेव दामित्याद्यात्मनिन्दापरेण सर्वस्य व्रततिचारस्य प्र तिक्रमामीति सामान्येन योगत्रयप्रतिक्रमण मुम् ॥ ३४ ॥ सम्प्रति विशेषतस्तदेवाऽऽह"दयसागा-रासाय समय जो निंदे ३५ ।। " वन्दनं चैत्यबन्दनम् (ध०) (तद्विधिः 'चेश्य बंद ण' शब्दे तृतीय जागे १२६६ पृष्ठादारभ्य दर्शितः, ' वंदण' शब्दे च दर्शयिष्यते ) गुरुवन्दनंच)(गुरुन्दनविदिशब्दे दर्शयिष्या मि) अनामि स्थूलप्राणातिपातादीनि पौष्यादिप्रत्यया नरूपा नियमा वा शिक्का ग्रहणाऽऽसेवनरूपा द्विविधा, तत्र ग्रहशिक्षा सामायिकादेषाग्रहणरूपा यदाह "सायगरस जयमाया पनिया सु वि अत्थओ बि, पिंकेसणायणं न सुतश्र, अत्थम पुण उल्लावेणं सुणइति ।" आसेवनशिक्षा तु नमस्कारेणावबांध Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण अनिधानराजेन्द्रः। पडिक्कमण इत्यादि दिनकृत्यलकणा, गौरवाण-जात्यादिमदस्थानानि,ता- होर पहरेगलहुप्रो, मोहरियभरु व्व प्रारबहो ॥४०॥" नि प्रतीतानि, ऋचादीनि वा,बन्दनं च व्रतानि चेत्यादि द्वन्द सुबोधा। नवरं मनुष्यग्रहणमेतेषामेव प्रतिक्रमाहत्वख्यापनार्थस, स्तेषु, तथा-संज्ञाः आहार १जय २ मैथुन ३ परिग्रह ४ रूपा (भालोनिंदिओ त्ति) आलोचितनिन्दितः सम्यककृताऽऽलोश्चतनः। तथा पराः षट्सशा:-क्रोधमान २ माया ३सोभ४ चननिन्दाविधिरित्यर्थः, गुरुसकाशे इत्यनेन चाऽगुरोरगीतार्थालोक ५ोमरूपाः,मीलिताइच दश,पञ्चदश वा, ताश्च प्रा. ऽऽदेरन्तिके प्रात्मनैव वा क्रियमाणाया अलोचनायाः शुद्धहारादि४क्रोधाऽदि४सुखदुःखमोहवितिगिच्छाशोकधौ. भावो दर्शितः, (ओहरिमन्ना व ति) अपहृतभार श्वेति ॥४०॥ घरूपाः, मासु च लोकसंज्ञामीलने षोमशापि, तथा-कषः सं. संप्रति श्रावकस्य बहारम्भरतस्याच्यावश्यकेन दुःखान्तो भ. सारस्तस्याऽऽयो लाभो येभ्यस्ते कषायाः क्रोधाऽऽदयः, तथा. वतीति दर्शयितुमाहदएज्यते धर्मधनापहारेण प्राणी येस्तेऽशुभमनोवाकायरूपा द- "आवस्सपण एप-ण सावो जवि बदरओ हो। एमा, मिथ्यादर्शनमायानिदानशल्यरूपा बा, तेषु तथा गुप्तिषु अ. मुक्खाणमंतकिरियं, काही अचिरेण कालंण ॥४१॥" शुभयोगनिरोधरूपासु, तथा ईर्याऽऽदिषु पञ्चसु समितिषु, च श्रावश्यकेनतेनेति षड्विधभावाऽऽवश्यकरूपेण,न तु दन्तधावशब्दादशनप्रतिमाऽऽयशेषधर्मकृत्येषु च, निषिककरणाऽऽदि नाऽऽदिना द्रव्याऽऽवश्यकेन श्रावको यद्यपि ब रजा बहुबध्या मा योतिचारस्तकं निन्दामीति ॥ ३५ ॥ मानकर्मा बहुरतो वा विविधसावधाऽऽरम्नाऽऽसक्तो भवति साम्प्रतं सम्यग्दर्शनमाहात्म्योपदर्शनायाऽऽह तथापीत्यध्याहाराद् दुःखानां शारीरमानसानाम् (अंतकिरि"सम्मद्दिही जीवो, जानि हु पावं समायर किंचि । य) अन्तक्रियां विनाशं करिष्यत्यचिरेण स्तोकेनैव कालेन । अत्र अप्पी सि हो बंधो, जेण न निद्धंधसं कुणइ ॥ ३६॥" चान्तक्रियाया अनन्तरहेतुर्यथाख्यातचारित्रं तथाऽपि परम्परासम्यगविपरीता दृष्टिर्बोधो यस्य सम्यग्दृष्टिर्जीबो यद्यपि हेतुरिदमपि जायते सुदर्शनाऽऽदेरिवति ॥ ४१ ॥ध०। (सुदर्श कथञ्चिदनिर्वदन् पापं कृष्याद्यारम्भ समाचरति, किश्चित् स्तो नवृत्तम 'काउस्सग्ग' शब्दे तृतीयभागे ४२७ पृष्ठे दर्शितम) कं निर्बाहमात्रमित्यर्थः । हुरत्र तथाऽपीत्यर्थे, ततस्तथाप्यल्पः संप्रति विस्मृतातिचारं प्रतिक्रमितुमाहपूर्वगुणस्थानापेक्षया स्तोका, (सि त्ति) तस्य श्रावकस्य भवति "आलोयणा बहुबिहा, न य संभरिया पडिकमणकाले। बन्धो शानाऽवरणाऽऽदिकर्मणां, कुत इत्याह-येनेति । यस्मान्न (निरूधसं ति) निर्दयं क्रियाविशेषणमिदं, कुरुते प्रवर्तते पशु मूलगुण उत्तरगुणे, तं निंदे तं च गरिहामि ॥४२॥" कपठ्या, नवरे बालोचना गुरुज्यो निजदोषकथनम्. उपचार घनिवन्धनबाणिज्योधतचारुदत्तवदिति ॥ ३ ॥ध०।(चारु रात्तत्कारणनूना प्रमादक्रियाऽप्यालोचना (पमिक्कमणकाले ति) दत्तवृत्तम् 'चारुदत्त' शब्दे तृतीयभागे ११७६ पृष्ठे गतम्) सालोचनानिन्दागहीऽवसरे ॥ ४२ ॥ ननु स्तोकस्य विषस्य विषमा गतिरित्यल्पस्यापि बन्धस्य एवं प्रतिक्रामको दुष्कृतनिन्दाऽऽदीन् विधाय विनयमूलधर्माका गतिरित्यत आह SSराधनाय कायनान्युत्थितः "तस्स धम्मस्स केवसिपन्न"तं पिहुसपडिक्कमण, सप्परिश्राव सउत्तरगुणं च । तस्स ति" प्रणित्वा मङ्गनगर्भमिदमाहखिप्पं नवसामई, बाहि व सुसिक्खिओ विज्जो ॥ ३७॥" " अभुठिओमि पारा--दणा विरो बिराहणाए । तदपि यत्सम्यक दृष्टिना कृतमपं पापं सह प्रतिक्रमणुन षट् तिविदेण पमिकतो, बंदामि जिणे चनधीसं ॥ ४३ ।।" विधाबश्यकन वर्तत इति सप्रतिक्रमणं सपरितापं पश्चात्तापानुगतं. पकारस्य द्वित्वमार्षत्वात्, सोत्तरगुणं च गुरूपदिष्टप्राय तस्य गुरुपाचे प्रतिपन्नस्य धर्मस्य श्रावकधर्मस्य केवलिन श्चितचरणान्वितं, कि शीघ्रमुपशमयति निष्प्रतापं करोति क प्राप्तस्य अभ्युत्थितोऽस्म्याराधनाय उद्यतोऽहं सम्यग् पा. पयति वा श्रावकः, हुरित्यस्यात्रैवार्थत्वात् निष्प्रतापं करोत्येवे. लनाथ, विरतश्च विराधनाया निवृत्तः खएमनायाः त्रिविधनेत्यर्थः, कमिव?, इत्याह-व्याधिमिव साभ्यरोगमिव सुशिक्वितो त्यादि सुगमम् ॥ ४३॥ वैद्य इति ।। ३७॥ एवं भावजिनान्नत्वा सम्यक्त्वशुरुचर्य त्रिलोकगत स्थापनाई. द्वन्दनार्थमाहदृष्टान्तान्तरमाह "जावंति चेश्याई, अबहे अतिरिअलोए । "जहा बिसं कुछगयं, मंतमूसविसारया । सम्बाई ताई बंदे, हह संतो तत्थ संता॥४४॥" विज्जा हणति मवेडिं, तो तं हव निविसं ॥ ३० ॥" कपठ्या, नवरं ( मह संतो ति) स्थितः। कएठ्या, नवरं (विज्जा इति) वैद्याः (तं ति) तत्पापं यद्यप्यसौ साम्प्रतं सर्वसाधुवन्दनायाऽऽहविषाऽऽर्तस्तेषां मन्त्राकराणां न तथाविधमर्थमवबुध्यते तथा " जावंत के विसाद, भरहेरचए महाविदेहे । ऽप्यचिन्त्यो दि मणिमन्त्रौषधीनां प्रभाव इति तदक्करश्रवणे सहि तेसि पणओ, तिविहेण तिदंडविरयाणं ॥ ४५ ॥" पि गुणः संपनोपद्यते ।। ३७ ॥ दान्तिकमाह यावन्तः केचित्साधनो जिनस्थविरकल्पिकाऽऽदिभेदभिन्नाल. "एवं अविहं कम्मं, रागदोससमन्जियं। स्कर्षतो नवकोटिसहस्रसंख्याः, जघन्यतस्तु द्विकोटिसहस्रप्रः पालोयतो य निहतो, निष्पं हण सुप्तावो ॥ ३५॥" मिताः, जरतैरावतमहाबिदेहेषु, चशब्दात्संहरणादिनाऽकर्मन्नकराठ्या, नवरं सुशन्दः पूजार्थः स च "कयवयकम्मो ". म्यादिषुच, सर्वेच्यस्तेयः प्रणतत्रिविधेनेत्यादि सुगमम् ॥४॥ त्यादिना पूर्वोक्तषट्स्थानयुक्तस्य भावभावकत्वस्य सूचकः, । पवमसी प्रतिक्रामकः कृतसमस्तचैत्ययतिप्रणतिर्मविष्यकाएनमेवार्य सविशेषमाह सेऽपि शुभभावमाशंसन्नाह"कयपाबो वि मणुस्सो, आलोश्यनिदिनो गुरुसगासे। "चिरसंचियपावपणा-सणीद भवसयसहस्समहणीए । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिकमण सजणविधिमा मे दि६ ॥ कख्यान कथया नामोच्चारणगुण रिनादेया च यतु) जन्तु ॥४६॥ संप्रति पूर्व जन्मान्तरेऽपि समाधिमा 66 मम मंगलमरहंता, सिद्धा साहू लुां च धम्मो य । सम्मद्दिकी देवा, दितु समादि च बोर्डि च ॥ ४७ ॥ मम मलमा सिका, साधवः तं च गमः धर्मधरिषदको अष्टम्यम्। "बसारि मंगले" इत्यादी मान अत्र तु धर्मान्तर्गतस्येऽपि तस्य पृचपद कामक्रियाभ्य समुदिताभ्यामेव मोकइति पाक्तिका देवाश्च देव्यश्चेत्येकशेषाद्देवा यक्काम्बाप्रभृतयो दद तु प्रयच्कन्तु समाधि वित्तस्वास्थ्यं, बोधि प्रेत्य जिनधर्मप्राप्तिरूपाम् । आइ-ते देवाः समाधिदाने किं समर्थः, न बा ?, यद्यसमर्थास्तर्हि तत्प्रार्थनस्य त्रैयर्थ्यम् । यदि समर्थस्तर्हि दूजयाम्येभ्यः किं न मम्यते योग्यानामे ते समय मायोम्यानां योग्यतेप्रमार्थ किं तेर जागलस्तन । सर्वत्र योग्य प्रमाणं परं न वयं विचाराक्रमनियतिवाद्यादि कामयादिना किंतु जिनम सानुयायिनः। तच सर्वनयसमुदा/मकस्याद्वाद मुनतिमेदि " सामग्र वै जनिका इति वचनात् । तथादि-घटनिष्पत योग्यतायामपि आसीवरोऽपि तत्र सहकारिकारणम् । एवमिहापि जीवयोग्यतायां सत्या अपि तथा तथा प्रत्यूहनिराकरणेन देवा अपि समाधिबोधिदाने समर्था भवन्ति तारित कि प्रार्थनेति ॥ ४७ ॥ (३१७ ) अभिधानराजेन्यः | " 39 김 30 तेइति मनु स्वीकृत प्रतिक्रमणं युकं न इतिवाराऽसंभवादितिचेत्, मैवमः यतो नातिवरेष्वेव प्रतिक' मणं, किंतु चतुर्षु स्थानेषु इति । येषु चतुर्षु स्थानेषु प्रतिक्र मणं भवति तदुपदर्शनयाद " परिसिकाणं करणे, किञ्चाणमकरणे श्र पडिकनणं । अस्सद्दण अ तहा, विवरी अपरूवणाए य ॥ ४८ ॥ " प्रतिषिद्धानां सम्यक्त्वादिमाशिन्यावादी मां करणे त्यानां चाङ्गकृतादनियमानामकर निगोद 55विचार तथा विपरीतकपणायामू--उ मार्गदेशनायाम, श्यं हि चतुरन्तावचभवभ्रमातुरीच्या देवितस्यां चानाभोगाऽऽदिना कृतायां प्रतिक्रमणं भवतीति ॥४८॥ घ० (श्रावकस्य धर्मकथनेऽधिकारोऽस्ति ?, अथवा-नास्तीति प्रश्नोतरम् -' धम्म कहा ' शब्दे २७१४ पृष्ठे गतम् ) साम्प्रतमादिसंसारसागर 35वर्गानां वानामम्यो म्यं रसयात्तत्कृमणाया556 "खामेमि सब्वजीबे, सब्वे जीवा खमंतु मे । मिश्री मे सब्वनूपसु, वेरं मज्झ न केाइ ॥ ४६ ॥ " कमयामि सर्वजीवन-समयेध्य प्यानमा तेन वा तेषां कृता पीडा तयोरपगमाद् मर्षयामि सर्वे जीवाः काम्यन्तु मे दुवेष्टितम, अत्र देतुमाह- मैत्री मे सर्वभूतेषु, वैरं मम न केनचित् मातुभिस्तान् सर्वान् स्वशक्त्या यामिन केहितामपि विघाते तेंमिति बैरं हि भूि रम्परानुपाचिकमदादीनमिति ४० साम्प्रतं प्रतिक्रमाध्ययनमुपसंद्रनवसानमप्रमा र्थमाह पक्किम "एमआय मंदिर दुस तिविद्वेण परिक्कतो, वंदामि जिणे च उन्चीसं ॥ ५० ॥ कराव्या नवरं (दुता थिए मां पापकारि पमित्यादिना सम्यगिति व सर्वत्र योग्यम् इत्येवमस्परुचिस स्वबोधनाय प्रतिक्रमण सूत्र के पार्थोऽच विखितो विस्त रास्तु तचूर्णितावसेयः । 33 अत्र प्रसङ्गतोऽन्यान्यपि शेषशायि व्याख्यायन्ते"परिवार सीसे सादम्मिए कुर्ते गणे य । ओ मे के कसाया, सब्बे तिविण खामेमि ॥ १ ॥ आचायें उपाध्याये शिष्ये साधर्मिकं कुले गणेये (मे) मया केsपि कषायाः कृताः सन्ति, तान् सर्वान् अहं त्रिविधेन मनोवाक्काययोगेन कमयामि ॥ १ ॥ सव्वस्त समण संघ-स्स भगवओ अंजलि करिन सीसे । सव्वं खमावश्या, खमामि सव्वस्स अहयं पि ॥ २ ॥ " सर्वस्य श्रमणसङ्घस्य भगवतः अञ्जलिं कृत्वा शीर्ष सर्व कमयित्वा क्षाम्यामि सर्वस्य च श्रहमपि ॥ २ ॥ सव्वरस जीवरासि स्स जावओ धम्मनिदिश्रनिश्रचिन्तो । सव्वं खमावता, खमामि सम्बस्स अहयं पि ।। ३ ।। " सर्वस्य जीवराजवितो धर्मे निहितं निजचित्तं येन स तथा ईशः सबै क्षमयित्वा क्षाम्यामि सर्वस्य अमपि । ३६०२ अधि० । पाक्षिकप्रतिक्रमणे कारि सुपाखी कृते 66 सुखतपशरीरनिराबाधसुखसंजमयात्रानिरवदी" कथनीयं न वा इति प्र उरम्-तथापाकिकप्रतिकमणे संक्रामणाऽदो तेस्कारि सुपात्री" इत्यादिपठ नमधिकं संभाग्य सामाचार्यादायदर्शनात् ४२०२ प्रा० सालपुत्रकुम्भकारकृतं प्रतिक्रमणसूत्रमिति घोष सत्यो, न वा, कस्य कृतिर्वा सा ? इति प्रश्ने, उत्तरम् - श्रारूप्रतिक्रमसूत्रार्थम् इतिपञ्चावृती प्रतिकारकृतमिति घोषस्तु तथ्येतर इति त्रायते २८ ६१०१ प्रका० । द्वयोः श्रा योः प्रतिक्रमण करणसमयेऽथवा सामायिके हते सति एकस्य हस्तारपण बरचसके पालिले उभयोर्मध्ये कस्येधिक समायाति । किमुनावपि प्रतिक्रामतः, एको बेति प्रश्ने, उत्तरम् - द्वयोः श्राद्धयोः प्रतिक्रमण करणाऽऽदौ साबधानतयैकेन चरवलको गृहीतो भवति अथ यदि दितीयदस्तन हेतुना तदा तस्यापथिक समायाति यदि गृहीतोऽध्य सावधानतयैव तोप्रयोपीयांधिको समायातीत १॥ हो० ४ प्रका० । (२) विराधनायां प्रायश्चित्तानि जेणं पडिक्कमंतेइ वा वंदतेइ वा सज्झायं करेंतेइ वा परिभमितेइ वा संचरंतेइ वा गएर वा टिएइ वा पट्ठलग्गे वा उट्ठियलम्मे वा कारण वा फुसियलग्गे भवेजा, से सं आयंबिलं न संवरेक्षा तो चउथे । (महा० ) तेयं वा गिलागणं वा जइ णं कहिं वि केणइ कारणं जाएणं अस गीयत्थगुरुणो णणनाएणं सहसा कयादी पट्ठपडिक्कमं कयं हवेज्जा, तत्र मासं ० जाव अवंदे चउमासे०जाव नूखं Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्किमपण वयं च जे पढमाए पोरिसीए अइकंताए तझ्याए पोरिसीए मइताए भने वा पार्थ वा पढिगाहेज्जा वा परिजेज्जावा, तस्स पुरिम | महा० १ ० । " सम्बलो चडत्थं ।" सर्बरिमस्तु प्रतिक्रमणे भते चतुर्थम् । जीत० तथा प्रभातप्रतिक्रमणसमये प्रथमतः कुसुमिमायणियं काउसमा चतुकस्य मार्ग 44 सागर a: करोति, तदा " चंदेसु निम्मलयरा " इति यावत् बरगंजीरा" इति तथा प्रभात प्रथमसः "कुसुमिणमिणकाउस्सम " चैत्यन्दनांकृत्या चत्वारि क्षमाश्रमणानि ददाति ततः स्वाध्यायं करोत्युत स्वा. ध्यायं कृत्वा तमाश्रमणानि ददातीति प्रश्ने, उत्तरम् - प्रभातप्रतिक्रमणसमये प्रथमतः "कुसुमिणडुसुमिण ओह डायणियं कामसभां " चतुर्लोकस्य मानं करोति, " तदा बंदेसु नि. उमलयरा इति यावत्सागरवर गम्भीरेति यावद्वेति । अत्र सामान्येन " चंदेसु निम्मलयरा " इति यावत्करोति, यदा पुनः स्यातुर्यतातिचारो जातो भवति तदा नमस्कारमेकमधिकं चिन्तयतीति ॥ २ ॥ तथा--प्रभातप्रतिक्रमणे प्रथमतः कुसुमिणमिणकाउस्सी, "बैत्यन्द चत्वारि कमाश्रमणानि ददाति ततः स्वाध्यायं करोत्युत स्वाध्यायं कृत्वा क्षमाश्रमणानि ददातीति । अत्र प्रभाततिक्रमणे प्रथमतयतुकस्य मार्ग कायोत्सर्गे द कृत्वा चत्वारि कमाश्रमणानि च दवा कमाश्रमणयुगेन स्वाध्यायं च कृत्वा प्रतिक्रमणं करोति । यत उक्तम्-" इरि या कुसुमिलग्गो, जिणमुणिवंदण तहेव सभाओ । सब इस बि सक्कत्थउ, तिनि य उस्ला कायन्वा ॥ १ ॥ 39 एषा गाथा श्री सोमसुन्दरसरिकृत सामाचारीमध्ये वर्तते, तथा श्रीबिजवानसुरयो ऽपीत्यमेव कृतवन्तस्तस्थितया ययमपि तथैव कुर्म इति स्वाध्यायानन्तरं चत्वारि माश्रमानि देया नीतिवापि प्रन्ये वर्तते तस्यापि प्रतिषेधो नास्ति, परं यथा वृद्धाः कृतवन्तस्तदानीं कुर्म इति ॥ ३ ॥ ० ४ प्रका० वर्षमध्ये कति प्रतिक्रमणानि चतुर्मास पूर्णिमायामनुसदा प्रतिक्रमणानि पञ्चविंशतिरावितिय बभूवुः, तथा तामि शाखा करवलेन विधीयमानानि परम्परातो शाखारभिधानं प्रसाद्यमिति प्र सरम् अत्र वर्षमध्ये प्रतिक्रमणानि पञ्चविंशतिराि तिर्थेति कापि कामात शाखमध्ये तु देव किचातुर्मासिकांसानि पञ्च प्रतिक्रमणानि प्र तिपादितानि सम्तीति । १५ । ही० ४ प्रका० । रात्रौ ये सुबत्रक्षिकां भक्तयन्ति तेषां साम्ध्यप्रानातिकप्रतिक्रान्तिः किमती यथा वा इति प्र उत्तरम्-रात्री सु प्रतिकां प्रणयन्तीत्यत्र "अविधिकया वरमक वस् वणं कहंति गोत्था। पायच्डिसं जम्दा, अकप गुरु कप ॥ १ ॥ इति प्रतिकमचहेतुमगाथानुसारेण प्रतिष मकरणमेव सुन्दरं प्रतिभाति १२ । ६ ० ३ प्रका० । पाक्तिक प्रीतकमणगताऽर्थः कामणावसरे "निरपारगपारगा हो " इति कथ्यते तदा आपका दिभिरपि किमेतदेवी"" इति तत्र आपकाऽऽदिभिः स" कथनीयं न तु नित्यारा हो" इति तथा-पक्षिमिपर्यन्ते गायार्थस्य 99 66 33 ( ३१८ ) अभिधानराजेन्द्रः | 9 पडिकमा देशहित्यादिपाप्रतिक्रमणाः कथयिता अतधकस्य कासमेकं कविता शान्ति कथयति एतावतैत्र शुद्ध्यति, द्वितीयवारं "पंच सोगहल काउस्लग्गस्ल" करणे विशेषो ज्ञातो नास्तीति १ । ४०४ प्रका० तथा तेलान इति प्ररम-तथा-खादिमानमेन प्रतिक्रमणा55देशप्रदानं न सुविदिताऽऽचरितं परं कापि तदभावे जिन 35 दमदासंभवेन निवारथिनशक्यमिति २२ । ६० ३ प्रकार | पाक्तिका ऽऽदिप्रतिक्रमणमध्ये वैस्यबन्दनादारभ्य कि सूयात्पश्यन्निवार्यते २४ पाक्षिकादिप्रतिक्रमणे मारा 66 नारिक स्थानं यावत्पुनः प्रतिक्रमणं क्रियते ३५ इति प्रश्ने, उस रम- पाक्षिका ऽऽदिप्रतिक्रमणमध्ये त्यचन्दनादारभ्य मोस" यावत्पचेदिनिवार्यमाणं परम्परया दृश्यते परं ताराणि नोपल ३४ पाक्षिकतिक्रमणे पाक्षिकाविचाराचादजायते सदा सत्यवमरे चैत्यन्दनादि पुनः कर्तव्यमिति संय दायः ॥ ३५ ॥ ही ० २ प्रका० । (३०) प्रतिक्रमणफलम् - पडिक्कमणें भंते ! जीवे किं जणयइ ?| पडिक्कमणेणं वयच्छाई पेहेरे, पिरियवयच्छिदे पुरा जीवे निरुद्धासने अ सवलचरिते असु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहते सुप्पfure विहरइ ॥। ११ ॥ हे भदन्त ! प्रतिक्रमणेन जीवः किं जनयति । गुरुराह हे शिय! प्रतिक्रमणेन अपराधेभ्यः पश्चानिवर्तनेन वाणि पिदधाति, व्रतानां प्राणातिपातविरमणाऽऽन छिद्राणि श्रतीचारान् स्थगयति रुणद्धि, पिहितव्रतच्छिद्रः सन् पुनर्जीवो निरुद्धाऽभ्यो भवति निरुद्धाश्रव नरशवलचारिणोऽष्टसु प्रवचनमातृषु उपयुक्तः सन् समितिगुप्तिषु सावधानः सन् अपृथकृत्यः संयमयोगेभ्योऽभिन्नः सन् प्रणिहितो विहरति, सुप्रणिहितानि असन्मार्गात् निषेध्य सन्मार्गे व्यवस्थापितानीन्द्रियाणि येन स सुप्रणिहितेन्द्रियः सन्मार्गप्रस्वापितेन्द्रियः साधुः खमार्गे विहरतीत्यर्थः ॥ ११॥ उत०२४ अ०] प्रतिक्रमलाई प्रायश्चित्तभेदे व्य०१ ४० भाष०| आ०चु०| मावश्यकान्तर्गते स्वलननिन्दाप्रतिपादकेऽध्ययनविशेषपा (३२) श्रायाः प्रतिक्रमणं कुर्माया बन्दनकदानावसरे कि मुख afai शुद्धभूमौ मुञ्चन्ति किमुत पादपुञ्छनोपरि मुखव कां मुक्त्या बन्दनकादि ददतीति मझे, उत्तरम् -प्रति*मणं कुर्वाणाः श्राद्धा बन्दनकदानावसरे मुखवस्त्रिकां शुद्धभूमी रजोहरसोपरि वा मुखन्ति नान्यत्रेति विधिरिति १७। प्र० सेन० १ ० तथा गुरुपादुका प्रतिक्रमणादिकं शुद्धयति न वेति प्र उत्तरम् - केवलदेववन्दनं विना सर्वप्र तिक्रमणादिकं शुद्धयतीति नयपादुकापुष्पादिभिरत ह ति प्रतिक्रमणाऽऽदिन शुद्ध्यतीति वाच्यं, पुष्पाऽऽद्यर्चितजिनप्रतिमानामप्रेsपि प्रतिक्रमणा-विक्रियायाः शुद्ध्यमानत्वादिति । ४४२० | सेन०२ उल्ला० तथा पाक्षिकप्रतिक्रमणमुखपत्रिकाप्रतिलेखनानन्तरं पौषधि बिना प्रतिक्रमणसूत्रादेशो दत्तो शुद्धयति न वेति मने, उत्तरम् - मुख्यवृष्या पौषधिकस्य दी यते वृद्धचरित, परमेकान्तो हातो नास्तीति । १२० Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१६.) अनिधानराजेन्द्रः | कदा नि पडिकमण 66 प्र० । सेन०२ उल्ला तथा पाक्षिकप्रतिक्रमणे चायते इति प्रश्ने, उत्तरम् - धत्ययन्दनादित भारभ्य शान्ति यावत् विचार्यत इति परम्पराऽस्ति । १२१ प्र० से० २ उज्ञा० । तथा सन्ध्याप्रतिक्रमणे षडावश्यक सूत्राणि कानीति मरने, उत्तरम् नमो अरिहंताणं "इत्यादि प्रश्ने, संपूर्णनमस्कार, "करेमि भंते ! सामाइ " इत्यादित " अप्यायं बोसिरामि इत्यन्तं प्रथमं सामायिकाध्ययनम् १। "लोगज्जपगरे" इत्यादितः सिद्धा सिद्धि मम दिसं तु" इत्यन्तं द्वितीयं चतुर्विंशतिस्तवाध्ययनम् २। “इच्छामि खमासमणो! बंदिडं जावणिज्जा निसिडीआर अगुजारा मेम" इत्यादि तृतीयं बन्दनकाध्ययनम् ३। “तारि मंगल० इच्छामि पडिक्कमिउं जो मे देवसिप्रो० " " इच्छामि प fro "" 'इरियावहिआए०' "" इच्छामि पडिक० " " मसिजाए०" इत्यादि चतुर्थ प्रतिक्रमणाध्ययनम् ४। "इच्छामि ठाउं का स्लग्गं० " " तस्स उत्तरीकरणेणं० अनत्थऊससिएवं सम्वतीय अरिहंतश्चा""पुरवरवी पणा 39 """"देवाचराणं०" "इच्छामि मासमणी ! अम्मुट्ठियो मि अभितरदेवसि सामे० " "इच्छामि खमासमणो! पित्र्यं च मे जं भे" इत्यादि पञ्चमं का योत्सर्गाध्ययनम् ५। "उग्गए सूरे नमुकारसहियं पचखामि" इत्यादीनि सर्वाण्यपि प्रत्याख्यानसूत्राणि षष्ठं प्रत्यायानाध्ययनं च ६ । इमानि प्रतिक्रमणे षडावश्यक सूत्राणि परम्परया ज्ञेयानीति । ५१ प्र० । सेन० ३ उल्ला० । तथा-प्रतिकमणहेतुगर्ने रात्रिकप्रतिक्रमविधी रात्रिकप्रायश्चितकायोत्सर्गस्वतः चैत्यवन्दनं ततः स्वाध्याय एव पञ्चात्मतिक्रम सादी चत्वारिशमा भ्रमन्युक्तानि सन्तीति एवं तु न कि यते, तत्किं बीजमिति प्रश्ने, उत्तरम् - यतिदिनचर्याऽऽदौ स्वाध्या यादनु चत्वारि क्षमाश्रमणानि प्रोक्तानि, धाडदिनकृत्यवृतिवन्दारुवृत्त्यादौ तु स्वाध्यायादनु प्रतिक्रमण स्थापनमुपतं ततस्तानि स्वाध्यायं कुर्वन् ज्ञायते ऽयं विधिः-परम्प या बाहुल्येन यमाणोऽस्ति सामावारीविशेषेण योनयथा विरुद्धमेवेति । १६२ प्र० । सेन०३ उल्ला० तथा-SSत्मीयप्रतिक्रमणविधिः संपूर्णः क मूलसूत्रेऽस्तीति प्रश्ने, उत्तरम् - आवश्यकवृष्यावश्यकचूदी कियान विधिरुपल भ्यते कियांस्तु सामाचार्यादाविति । २०६० सेन०३एला । तथा - सांवत्सरिकप्रतिक्रमण कायोत्सर्गे चत्वारिशलोकोद्योतकरान् कथयित्वा तत्प्रान्ते एको नमस्कारो वक्तव्यः, पचात्कायोत्सर्गः पारणीयः कचिच, प्राते नमस्कारं वक्तव्यं, न ब्रूते तेन किं प्रमाणमिति प्रश्ने, उसरम्- सांवत्सरिकप्रतिक्रमणे सनमस्कारत्वारिंग/लोको द्योतकरकायोत्सर्गः प्रतिक्रमण हेतुगर्भपा रम्पर्येणापि तथैव क्रियते इति । २८५ प्र० । सेन० ३ उल्ला' । तथा पाश्चात्यरात्रौ साधुसमीपे समागत्य यत् श्राखाः प्रतिक्रमणं कुर्वाणा दृश्यन्ते, तस्याक्षराणि कुत्र ग्रन्थे सन्तीति मरने, उत्तरम् - सामाचार्यनुसारेण यथा पीचधकर गाय पायात्यरात्री समीपमागमनं दृश्यते, तथा प्रतिकमखाते, तदयुक्तिमद् ज्ञायत इति ३११ प्र० । सेन० ३ उज्ञा० | तथा पाक्षिके प्रतिक्रान्तौ श्रावै रुच्यमानास्त पत्राचाराssaतीवाराः साधुभिः श्रूयन्ते केवल साधवश्च प्रतिक्रान्तास्तानतिवारान् कथयन्ति, न वा, साम्प्रतं तु न केचित्कथयन्ती परिक्रमण ति प्रश्ने, उत्तरम् केवल साधुभिः पाक्षिकप्रतिक्रमणे क्रियमाणे तपद्माचाराचतीचारा यथायान्ति तदा स्वयं कथनीयास्त स्प्रवृत्तिरपि दृष्टाऽस्तीति । ३३२ प्र० । सेन०३ उल्ला० । तथा"देवसिअराइअपरिवति" कायोत्सर्गनितिगत तितमगाथार्थी हारिभद्रयां वृत्ती व्याख्यातोऽस्ति त स्मिन् प्रतिक्रमणे त्रयोगमा प्रतिपादिताः सन्ति ते पञ्चस्वपि प्रतिक्रमणेषु यत् ख्यातं यथा समासा गमा भवन्ति तथा व्यक्ताः प्रसाद्या इति प्रश्ने, उत्तरम-देवखिकादिषु पञ्चसु प्रतिक्रमणेषु प्रारम्भानन्तरं यत्प्रथमम्- "करेमि भंते!" इत्या सुधारणं स प्रथमगमप्रारम्भस्तदनु प्रतिक्रमणसूत्रपाठाव रं, यत्- "करेमि भंते !" इत्याद्युच्चारणम् स द्वितीयागमप्रारम्भस्तस्योचारादर्षाक् प्रथमगमस्य समाप्तिः, तथा तृतीयवेलायां यत्" करेमि भंते!" इत्याद्युच्चारणं स तृतीयगमस्य प्रारम्भस्तस्य पूर्व तु द्वितीयगमस्य समाप्तिः तृतीयगमसमातिस्तु तत्तत्मतिक्रमणसमाप्तिं यावदिति श्रीआवश्यक गृहपृष्यनुसारेणासीयते इति २०१० सेन० ३ उल्ला० तथा सं ध्याप्रतिक्रमणवत्प्रातः प्रतिक्रमणे श्राद्धानां प्रतिक्रमणसूत्राssदेशो न दीयते, तत्र को हेतुरिति प्रश्ने, उत्तरम् - प्रातः प्रतिकमणं वाढस्वरेण न कर्त्तव्यमित्यागमीया रीतिः, श्राद्धानामा. देशदाने ते प्रतिक्रमणसूत्रधावणार्थ वाढस्वरेण कथयम्तीति तद्विलोपः स्यादिति प्रातःप्रतिक्रमादेशोद इति । २६६प्र० । सेन०३ उल्ला० । तथा खाद्यस्तनिकाऽऽदीनां प्रतिक्रमणकरणादीरणा क्रियते, त्रिवारं सामायिका कं बोच्चार्यते तद्युक्तमयुक्तं वेति प्रश्ने, उत्तरम् - खाचस्तfrerssari प्रतिक्रमण करणेोदीरणा करणं न युक्तं, यदि च ते स्वयं प्रतिक्रमणं कुर्वन्ति पौषधाऽऽदिदण्डकं त्रिवारच्चरन्ति तदा द्रव्यक्षेत्रकाला भावानुसारेणानुकूलाऽऽदिगुणसंभवः स्यात्तदोच्चार्यते यस्माच्या ऽप्येवं दृश्यते"तहा सव्वाणुना. सव्वनिलेहो श्र पवयणे नत्थि ।" इति। ४२२५० । सेन० ३ उल्ला० । तथा खाद्यमण्डल्यां प्रतिक्रमणं कुर्वन्ति तत्कचितं प्रतिभावान स्वयनादिकं यतिनांच शुपतिना तथा उपयखाऽऽदित्यायाने ये कसेल्लक पानीयं पिवन्ति तेषामुपवस्त्राऽऽदिकं कार्यते, न वेति प्रश्ने.. तरम्-द्रव्यक्षेत्रकालभाषानुसारेण प्रश्नोत्तरचदनुसंधेया इति ४२२ प्र० । सेन० ३ उल्ला० । तथा प्रोनकस्योपरि स्थि त्या प्रतिक्रमणं कृतं शुद्धयति न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - त परि कृतं न शुद्धयतीति प्रतिक्रमणादिकथनवेलायां तु तत्रोपवेष्टव्यमिति । ४८७ प्र० । सेन० ३ उल्ला तथा पत्रस्वं विना स्थापना प्रतिक्रमणं क्रियते तदा ज्ञामणरुषिधि कथमिति प्रश्ने, उत्तरम् स्थापना प्रतिक्रमण करणे प्रथमं स्थापनाssarर्यस्य पचादृद्धानुक्रमेण यतिद्वयस्य चतुष्कस्य पदकस्य च क्षामणकं क्रियते, यति विना स्थापनाया एवेति । २५० सेन ४ उल्ला तथा द्वाविंशतितीर्थकर वारके “कारणजाप पडिकमणं" इत्युक्तमस्ति तत्पश्चानां प्रतिक्रमशानां मध्ये किं नामकमिति प्रश्ने, उत्तरम् - "कारणजाए पडि "एनत्याक्षिकाद्यामित्यमाहान भयकाले प्रतिकमणं तु सर्वेषां भवतीति बोध्यम् । ६३ प्र० सेन० ४ उल्ला० । तथा कालिकसूरिभिः पाक्षिकदिने चतुर्मासमानीतंत तिक्रमणानि न्यूनानि भवन्ति तत्कथमिति प्रश्ने, उत्तरम् - तिक्रमणानां न्यूनत्वेऽधिकत्वे वान कश्चिद्विशेषो यतः पूर्वा: Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कम चार्याणामाचरणमेचाथ प्रमाणं यथा कल्पसूत्रस्य श्राव था दानां पूर्वाचार्या चरस्यैव क्रियते इति ११९ प्रसेन०४ उल्ला०| संध्याप्रतिक्रमणे सामायिकोश्वारानन्तरं स्वाध्यायनमस्कारत्रयं कथयित्वा वन्दनकप्रत्याख्यानमुखबखिका प्रति लिख्यते सा शमाअमणं दच्या प्रतिलिक्यते, किंवा क्षमाश्रम विना, तथा सा किं कथयित्वा प्रतिलिख्यते इति प्रश्ने, उत्तरम् - सामायिकं कृत्वा विखणि संदिलाई "प्रमुखक्षमाश्रमणचतुष्टयं दच्वा नमस्कारत्रयं व कथयित्वा क्षमाश्रमणपूर्वकम् "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सुद्धपनि पडिलेहुं" इत्यादेश पूर्व मुखवस्त्रिकां प्रतिलिख्य वन्दनकद्वयं च दत्त्वा प्रत्याख्यानं कर्त्तव्यमिति । १६१ प्र० । सेन० ४ उल्ला० । 64 विषयसूची (१) प्रतिक्रमण - प्रतिक्रामक प्रतिक्रमयितव्यसिद्धिः । ( २ ) श्राश्रवद्वार - मिथ्यात्व-कषाय-योग- भावभेदात् प्र. तिक्रमणस्य पञ्चविधत्वम् । ( ३२० ) अभिधान राजेन्द्रः | (३) उच्चार-प्रस्रवण- इत्वर- यावत्कथिकाऽऽदिभेदेन पविधत्यम् । (४) देवसिकादिभेदेन प्रतिक्रमण निरूपणम् । (५) प्रतिक्रमण निमित्तम् । (६) प्रतिक्रमणविधिप्रकारः । (७) प्रतिक्रमणसूत्रम् । (८) प्रतिक्रमणनिषेचनषिभागनिषेचनम् । (१) अत्रैव प्रायश्चित्तम् । (१०)वर्तनस्थानातिचारप्रतिक्रमणम् । ( ११ ) तत्र कुक्कुटिदृष्टान्तः । ( १२ ) त्रिषष्ट्यधिकपञ्चशतीमितजीवानां मिथ्या दुष्कृतं दीयते तद्भेदनिरूपणम् । (१३) गोयरातिचारप्रतिकमणप्रतिपादनम् । (१४) स्वाध्यायाऽऽयतीचारमतिक्रमण प्ररूपणम् । (१५) तत्र प्रतिक्रमण भेदख्यापनम् । (१६) रात्रिकप्रतिक्रमविधिः । ( १७ ) पाक्षिकाऽऽदिषु प्रतिक्रमणम् । (१८) चातुर्मासिकसांवत्सरिकप्रतिक्रमणक्रमः । (१६) अन पूर्वाचार्यप्रणीतगाथाः । (२०) पक्षान्ताऽऽदिषु प्रतिक्रमणं कर्तव्यम् । (२१) श्रावश्यक चूर्ण्यभिप्रायेण पाक्षिकाऽऽदिप्रतिक्रमणविधिप्रतिपादनम् । (२२) पाक्षिकं चतुर्दश्यामेव । (२३) महामतोचारणा। (२४) त्रैकालिकप्राणातिपातविरतिप्रतिपादनम् । (२५) आशातनावर्जनतो महामतलक्षणम् । (२६) शेषप्रतिक्रमणविधिः । (२७) श्रावकप्रतिक्रमणम् । (२८) कृतसामायिकश्रावकप्रतिक्रमणविधिः । (२६) विराधनायां प्रायश्चित्तानि । (३०) प्रतिक्रमणफलम् । (३१) प्रकीर्णकविषयाः । परिकमणारिह-प्रतिक्रमणाई १० प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतं पढिकमारिह तदम् | स्था० १० ठा० । व्य०। प्रतिक्रमणं दोषात् प्रतिनिवर्तनमपुनःकरणतया मिध्यादुष्कृतप्रदानमित्यर्थः तदर्द प्रायश्चितमपि प्रतिक्रमणम्। फिस भवति-प्रायश्चित्तं मिथ्यादुष्कृतमात्रेव विमासादयति न च गुरुसमक्षमालोच्यते । यथा - सहसाऽनुपयोगतः समाऽऽदिप्रक्षेपादुपजातं प्रायचित्तम् । तथाहि सहसाऽनुपयुक्ते यदि लष्माऽऽदि प्रक्षिप्तं भवति । न च हिंसाऽऽदिकं दोषमापनस्तर्हि गुरुसमक्षमालोचनामन्तरेणाऽपि मिथ्यादुष्कृतप्रदानमात्रेण शुद्धच ति । तत्प्रतिक्रमलाई त्वात् प्रतिक्रमणम् । व्य० १ ० प्रव० । जीत० । इदानीं प्रतिक्रमणार्हमभिधित्सुराहगुती य समितीसु य, पटिरूबजोगें नहा पसत्थे य बहकमे अणाभोगे, पायच्छितं पडिकमणं ।। ६० ।। गुप्तयस्तिस्रः । तद्यथा - मनोगुप्तिः, वचनगुप्तिः, कायगुप्तिः । तासु समितयः पञ्च तद्यथा ईर्यासमितिः भाषासमितिः आदानभाण्डमात्रनिक्षेपहासमिति, उच्चारप्रभवसलेल पाणजलपारिष्ठापनिकासमिति । एतासु च सहसा कारभोगतो या कथमपि प्रमादे सतीति वाक्यशेषः । प्रायश्चित्तं प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतप्रदानलक्षणम् । इयमंत्र भावना - सहसाकारतो ऽनाभोगतो या यदि मनसा दुधिन्तितं तथा वचसा दुर्भाषितं कायेन श्वेष्टितं तथाईयां यदि कथां कथयन मजेत् भाषायामपि यदि गृहस्थभाषया दहरस्वरेण वा भाषेत पणायां भलपानगये. पवेलायामनुपको भारडोपकरणस्याऽदाने निशेष या प्रमार्जयिता प्रत्युपेक्षिते स्थण्डिले उच्चाराऽऽदीनां परिष्ठापविता च न हिंसादोपमापन्नः । उपलक्षणमंत् तेन यदि कन्दर्पो वा हासो वा श्रीभकबीरजनपदकथा वा तथाक्रोधमानमायालोमेषु गमनं विषयेषु वा शब्दस्पर्शरसरूप गन्धलक्षणेष्वनुषङ्गः, सहसानाभोगतो वा कृतः स्यात् तत एतेषु सर्वेषु स्थानेषु मिथ्या दुष्कृतप्रदानलक्षणं प्राधि तमिति । तथा-प्रतिरूपयोगे प्रतिरूपविनयाऽऽत्मके व्यापारे तथा प्रशस्ते यो यत्र करणीयो व्यापारः स तत्र प्रशस्तः, " इच्छामिच्छा" इत्यादिस्तस्मिन्नपि वा क्रियमाणे प्रायधिसे प्रतिक्रमणम् । इद्द प्रतिरूपग्रहणं शाना 55दिविनोपलक्ष णम्। ततोऽयमर्थः- ज्ञानदर्शनचारित्रप्रतिरूपलक्षण प्रकारविनयाकरणे “इच्छामिच्छा, तथाकारा" 35दिशस्तयोगाकर ऐ उपलक्षणमेतत् श्राचार्यादिषु मनसा प्रदेषादिकरणे चाचा अन्तरभाषादिकृती कायेन पुरोगमनादी प्रतिक्रमणं प्रायश्चित्तम् । तथा उत्तरगुणप्रतिसेवनायाम् " बरक्कम " इति मर्यादाकथनं, तेनातिक्रमे च प्राग्व्याख्यातस्वरूपे, तथा अनाभोगादकृत्यप्रतिसेवने मिथ्यादुष्कृतप्रदानाऽऽत्मकं प्रतिक्रमं प्रायश्चित्तम् । इति गाथासमासार्थः ॥ ६० ॥ व्यासार्थं तु भाष्यकृयाचिव्यासुः प्रथमतो गुतीसु य समिसु " इति व्याक्यानयति केवलमेव अगुतो, सहसाणाभोगओ व अप्प हिंसा | तहियं तु पटिकमयं आउट्टि तयो न वा दाणं ॥ ६१ ॥ एवकारो भिन्नक्रमः, अगुप्त एव गुप्तिरहित एव, 'केवलम्' 56 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२१) पडिक्कमणारिह भाभिधानराजेन्सः । पमिग्गहेत्ता उपलक्षणमेतत् , तेन समितिरहित एव केवलमित्यपि द्र-| संप्रति यद् मूलगाथायाम्-" अतिक्कमे अणाभोगे" इत्युव्यम् । केवलग्रहणमगुप्तत्वमसमितत्वं चैकं केवलं, न तु पन्यस्तं, तयाख्यानयनाहगुप्तत्वासमितत्वप्रत्ययं प्राणिव्यापादनमापन्न इति प्रतिपा- अवराह अतिक्कमणे, वइक्कमे चेव तह प्रणाभोगा । दनार्थम् । तथा चाऽऽह-अप्पहिंसा] अल्पशब्दोऽभाववाची। भयमाणे य अकिच्चं, पायच्छित्तं पडिक्कमणं ॥१६॥ अल्पा नैव काचन प्राणिनो हिंसा,भवेदिति शेषः। कथमगुप्तोउसमितो वेत्यत आह-[सहसा पदैकदेशे पदसमुदायोपचा अपराधे उत्तरगुणप्रतिसेवनरूपे अतिक्रमणे, तथा व्यतिरात् सहसाकारोऽनाभोगतो वा । तत्र सहसाकारो नाम क्रमे च , तथा अनाभोगतोऽकृत्यमिति मूलोत्सरगुणप्रति"पुव्वं अपासिऊणं, छूढे पाए कुलिंगयं पासे । न य तरह नि सेवनालक्षणं भजमाने प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतं प्रायश्चित्तम्। यत्तेउं, जोगं सहसाकरणमेयं ॥१॥" इत्येवंरूपः । अनाभोगो तदेवमुक्तं प्रतिक्रमणार्ह प्रायश्चित्तम् । व्य० १ उ० । विस्मृतिः । (तहियं तु पडिक्कमणमिति ) तत्र सहसाकार स्था० । ग०। तोऽनाभोगतो वा केवल एवागुप्तत्वे असमितत्वे च सति पडिक्कमिउं-प्रतिक्रमितुम्-अव्य० ।प्रतीपं क्रमितुमित्यर्थे, "इ. प्रायश्चित्तं 'पडिक्कमणं,' यदि पुनः (आउट्टि त्ति) उपेत्य अ. च्छामि पडिक्कमिउं।" ध०२ अधिक। गुप्तत्वमसमितत्वं वा करोति तदा प्रायश्चित्तं तपोऽह, न वा पडिक्कमित्तए-प्रतिक्रान्तुम्-अव्य० । प्रतिक्रमणं कर्तुमित्यर्थे, दानं, तपस इति गम्यते। कथमदानमिति भावत उच्यते स्था० २ ठा० १ उ०। यदि स्थविरकल्पिका उपेत्यागुप्तत्वमसमितत्वं वा मनसा समापन्नास्ततस्तपोऽहं प्रायश्चित्तं तेषां न भवति; गच्छनि पडिक्कमित्ता-प्रतिक्रम्य-अन्य० । प्रतिक्रमणं कृत्वेत्यर्थे, प्रा. गैतानां तु मनसाऽप्यापनानां चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तमिति । चा० २ श्रु० ३ चू०। तदेवं गुप्तिषु समितिषु वेति व्याख्यातम् ॥ ६॥ पडिक्कमियव्य-प्रतिक्रान्त त्रि० । मिथ्यादुष्कृतदानेन पापाइदानी प्रतिरूपयोगपदव्याख्यानार्थमाह निवर्तितव्ये, प्रा० म०१०। पडिरूवग्गहणेणं, विणो खलु सूइयो चउविगप्पो। पडिक्खर-देशी-पुं० । रे, दे० ना.६ वर्ग २५ गाथा। नाणे दंसणे चरणे, पडिरूवचउत्थो होति ।। ६२ ।। पडिक्खलण-प्रतिस्खलन-न० । स्थित्युष्टम्भकाभावात् पतने, प्रतिरूपशब्दोपादानेन चतुर्विकल्पः चतुष्पकारः खलु वि आ० म०१०। नयः सूचितः । चतुष्पकारतामेव दर्शयति-शाने ज्ञानविषयः, दर्शने दर्शनविषयः, चरणे चरणविषयः, चतुर्थः प्रतिरूपको पडिखंध-देशी-पुंन । जलवहने,जलवाहे च ।देना०६ बर्ग विनयो भवति । व्य०१ उ०। २८ गाथा। संप्रति "गुत्तीसु य समिईसु य" इत्यादिगाथायां यदुक्तम्- | पडिखंधी-देशी-स्त्री०। जलवहन, जलवाहे च । देना.६ "पसत्थे य" इति, तत्र प्रशस्तग्रहणव्यवच्छेद्यं दर्शयति- वर्ग २८ गाथा। तत्थ उ पसत्थगहणं, परिपिट्टणछेजमाइ वारेइ । दिगमण-प्रतिगमन-न। व्रतभजने,बतमोक्षे,व्य०१०उ० । ओसन्नगिहत्थाण य, उहाणाई य पुव्वुत्तो ॥१७॥ पडिगय-प्रतिगत-त्रि० । यत प्रागतस्तत्र गते, सू०प्र०१ पा'जोगे तहा पसत्थे य' इत्यत्र यत्प्रशस्तग्रहणं कृतं तत् अप्र | हु. १ पाहु०पाहु । रा०। स्वस्थानं गते,भ.१श०१०। शस्तयोगपरिपिट्टनच्छेदाऽऽदिकं वारयति निराकरोति,न त. पडिग्गह-पतग्रह-पुं० । आचेलकाऽऽधारे, है । पत भक्तं दकरणे प्रतिक्रमणं प्रायश्चित्तं भवतीति भावः। तस्या-प्रशस्तत्वेन तत्करणस्यैव प्रायश्चित्तविषयत्वात् । तथा ये अवस पानं वा गृह्णाति इति पतग्रहः। लोहाऽदित्वादच् प्रत्ययः । सानाम् उपलक्षणमेतत्, पार्श्वस्थकुशीलादीनांच,तथा-गृ पात्रे, दशा०१० अ० कल्प० भ०। प्रश्नः। पा०/प्राचा हस्थानां, पूर्वोक्ता उत्थानाऽऽदयो भ्युत्थानाञ्जल्यासनप्रदाना भारडे, शा०१श्रु०५०। वृ० औ । प्रवः । नि.चू०। दयस्तानपि वारयति, तेषामपि तान् प्रति अप्रशस्तत्वात्। दृष्टिवादस्य सिद्धश्रेणिकापारकर्मभेदे,स०१२ अङ्ग। व्या(पा त्राधिकारः सर्वोऽपि 'पत्त'शब्दे वक्ष्यते ) पतन् ग्रह इव अत्रैव प्रायश्चित्तयोजनमाह पतग्रहः । संक्रम्यमाणप्रकृत्याधारे, क० प्र०। जो जत्थ उ करणिज्जो, उहाणाई उ अकरणे तस्स । परिणमई जीसे तं, पगइऍ पडिग्गहो एसा। (२) होइ पडिक्कमियव्वं, एमेव य वाएँ माणसिए ॥६॥ यस्यां प्रकृती आधारभूतायां तत् प्रकृत्यन्तरस्थं दलिक यो योग उत्थानाऽऽदिरभ्युत्थानाञ्जालप्रदानादिको यत्र | परिणमयति आधारभूतप्रकृतिरूपतामापादयति, एषा प्रकआचार्याऽऽदिविषये करणीय उक्तस्तस्य तत्राकरणे प्रति- । तिराधारभूता पतग्रह इत्युच्यते ॥२॥क०प्र० २ प्रक० । क्रमितव्यं भवति, मिथ्यादुष्कृतं प्रायश्चित्तं भवतीति भावः।। पं०सं०। तदेव तत्कायिकप्रतिरूपयोगविषये उनमेव, अनेनैव प्र. प्रतिग्रह-पुं० । प्रतिग्रहपतग्रही पर्यायौ। है । कारेण वाचिके मानसिकेअप योग प्रतिरूपे वक्तव्यम् । य पडिग्गहधारि (ण)-प्रतिग्रहधारिन्-त्रि० । पात्रधारिणि था-वाचिको मानसिकोऽपि यः प्रतिरूपयोगी यथा यत्र करणीय उक्तस्तस्य तथा तत्राकरणे मिथ्यादुष्कृतं प्राय स्थविरकल्पिकाऽऽदौ,कल्प.३ अधि. क्षण। प्राचा। श्चित्तमिति । चशब्दोऽनुक्नसमुच्चयार्थः। तेन इच्छामीत्यादि-पडिग्गहेत्ता-परिगृह्य-श्रव्य स्वीकृत्येत्यर्थे, "पिंडवायं पप्रशस्तयोगाकरणेऽपे मिथ्यादुष्कृतं द्रष्टव्यम् । डिग्गहेत्ता।" आचा०२ १०१ चू०१० ३ उ० । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनिष (३२२) अभिधानराजेन्द्रः। पमिगिन पडिय-प्रतिघ-त्रि०। प्रतिहते, अनु० । पडिच्छमाण-प्रतीच्छत-त्रि० । गृह्णाति, कल्प० १ अधि० ५ परिपात-प्रतिघात-पुंग निराकरणे, वृ०३ उ० स्था। प्रश्न०1। क्षण । सेवकाऽऽदिभिहियति, कल्प०१ अधि०५ क्षण । परिचंद-प्रतिचन्द्र-पुं०। उत्पाताऽऽदिसूचके द्वितीये चन्द्रे, । उत्पातातिसरतीयमान पडिच्छयण-प्रतिच्छदन-न।आच्छादने, शा०१श्रु०१०। मनुः । भ.जी। | पडिच्छयपडिच्छय-प्रतीच्छकप्रतीच्छक-पुं० । प्रतीच्छकपरिचक-प्रतिचक्र-न। अनुरूपे चक्रे, समुदाये, नं० । प्रव०। स्यापि प्रतीच्छके, नि०चू०११ उ० । "पडिच्छगस्स जो पुणो परिचरग-प्रतिचरक-पुं०।हारिके, ये परराष्ट्राणि स्वयं प्र अप्लो पडिच्छह सो पडिच्छगपडिच्छगो भपत्ति।" नि०चू० ११ उ० । (अन व्याख्या 'पडिच्छग' शब्देऽनुपदमेव गता) नचारितया गवेषयन्ति । वृ०१ उ०३ प्रक० पडिच्छायण-प्रतिच्छादन-न । गुह्यप्रदेशस्य प्रच्छादने,प्रा. परिचरणा-प्रतिचरणा-स्त्री०। प्रतिक्रमणभेदे, आव०४०। चा०१ श्रु०८०७ उ०।। (अस्याः सर्वा वक्तव्यता 'पडियरणा' शब्ने वक्ष्यते) पडिच्छिा -देशी-सी०। प्रतीहारिणि,चिरप्रसूतायामपि। दे० परिवरिय-अतिचर्य-अव्या विधिनाऽऽराध्येत्यर्थे, “गुरुमिह स ना.६ वर्ग २१ गाथा। पर्य परिचरिय मुणी, जिणमयनिउणे।” दश• अ०३ उ० पडिच्छिऊण-प्रतीच्छय-श्रव्य० । गृहीत्वेत्यर्थे, “सुद्धं परि परिवार-अतिचार-पुं०। चारो ज्योतिश्चारस्त विज्ञान प्रति-च्छिऊणं अपरिच्छेए ।" नि० चू० २० उ०। चार प्रतिकूलश्चारो प्रहाणां वक्रागमनाऽऽदिस्तत्परिक्षान-पडिच्छिय-प्रतीष्ट-त्रि० । पुनःपुनरिष्टे भावतो का प्रतिपन्ने, माअथवा-प्रतिचरणं प्रतिचारो रोगिणः प्रतीकारकरणम् । भ०१ श०४ उपतत्येव गृहीते, कल्प०१ अधि०१ क्षण। जं. २ बकः। द्विसप्ततिकलास्वेकोनपश्चाशत्तमकलायाम्, प्रतीप्सित-त्रि० । गृहीते, “विमणेण पडिच्छियं।" दश०५ पा.१४०१०। परियोभणा-प्रतिचोदना-स्त्री०। प्रतिकूला चोदना प्रोत्सा. अ०१ उ० । “ आयरिश्रो भवउ तेहिं पडिच्छिउँ।" श्रा० म०१ । हना प्रतिचोदना। भ०१श०१ उ०। पुनः पुनः स्खलितस्य निपुर शिक्षापणे, व्य०४ उ० । श्रसकृत्खलिताऽऽदौ धिक प्रतीच्छित-त्रि० स्वीकृते, व्य०६ उ०। तजन्मत्यादिनिष्ठुरवाक्यैर्गाढतरप्रेरणायाम, ध०२अधिः। पडिजागर-प्रतिजागर-पुं० । अनुपालने, प्राचा० १०२ परिचोदय-प्रतियोदित-त्रि० । तथैव पुनः पुनः प्रेरिते, पा.। | अ०१उ० । जागरस्य प्रतिनिधिः प्रत्यवेक्षणाय गृहमवेक्ष . पापुनः पुनरेवं कुर्वित्येवमभिहिते, प्राचा. १श्रु० ८० खेति नियोगे, वाच०। १०। पडिजागरग-प्रतिजागरक-पुं० । “पियधम्मो पियवादी, पिपरिचोएता-प्रतियोदयित-त्रिका उपदेष्टार,स्था०३ ठा०३ उ०। यागमो अप्पकोउहलो य । अजं गिलाणियं खलु. पडिजग्गति एरिसो साहू॥१॥" इत्येवंलक्षणलक्षिते (०३ उ०) साधुपरिपाभ-पेशी-पुं०ासमये, देवना०६ वर्ग १६ गाथा। विशेषे, स्था० ४ ठा० ३ उ०। प्रा० म०। परिषद-पेशी-पुं० । मुखे, दे० ना.६ वर्ग २४ गाथा । पडिजागरण-प्रतिजागरण-न० । जागरणकरणे,“पडिजागपपिपग-प्रतीक-त्रि०। गच्छाम्तरादागत्य सूत्रार्थस्य वा रणं उभयकालम्मि।" व्य०६ उ० । प्रतीव प्रतीच्छा, तया चरति प्रतीच्छकः। व्य०१उ०। प- पाडजागरमाण-भातजावत' गणपतिनि सूत्रार्थितदुभयग्राहके, व्य० ३ उ०। १ उ० । स्त्रियाम् "पडिजागरमाणी।" भ०११ श०११ उ०। से पुण पडिच्छमाणो, पडिच्छगो तस्स जो पुणो मला। पडिजायणा-प्रतियातना-खी । प्राप्तानां चाधिसहने, सूत्र० गिपति एगंतरितो, पडिच्छगपडिच्छगो सो उ ॥४३८।। १श्रु० ३०१ उ०। पडिणिसण-देशी-शिके परिधेयवस्ने, दे. ना. ६ वर्ग तणस्स, तेणतेणस्स था जो पडिच्छति स पडिच्छगो । प. रिच्छगस्स जो पुणो अन्नो पडिच्छति स पडिच्छगपडिच्छगो | ३६ गाथा। भवति। संतरमेव एगंतरं नन्नत्ति अने भणंति [गएहति ए पडिणिभ-प्रतिनिभ-त्रि० । सदृशे, यत्रोपन्यासनये वादिनोगंतरिड सि] तेणस्स पडिच्छमाणो तेणतेणपाडेच्छो , एक्के पन्यस्तवस्तुनः सदृशं वस्तूत्तरदानायोपनीयते स प्रतिनिकर्ण अंतरिता परिच्छगा भवन्तीत्यर्थः । नि० चू० ११ उ० । भः । हेतुभेदे, स्था० । “पडिनिमे।" श्रस्य व्याख्या यत्रोपन्यासोपनये वादिनोपन्यस्तषस्तुनः सदृशं वस्तूत्तरपरिणा-प्रतीच्छना-बी० अन्यगणे सूत्रार्थग्रहणे,नि०चू० दानायोपनीयते स प्रतिनिमः। यथा-कोअप प्रतिजानीते १०। (अन्ययूधिकगृहस्थपार्श्वस्थाऽऽदीन् प्रति प्रतीच्छ यदुत-यो मामपूर्व श्रापयति तस्मै लक्षमूल्यमिदं करोटकं तिति' भएणउत्थिय' शये प्र० भा०४७३ पृष्ठे उक्तम्) ददामीति, स च श्रावितोऽपि सन्नापूर्वमिति प्रतिपद्यते, तत परिच्छम-प्रतिच्छन-मि०। माच्छादिते, ज्ञा० १ श्रु० ३ एकेन सिद्धपुत्रेणोक्तम्-"तुझ पिया मज्भ पिऊ, धारेह मा उपरि प्रापरणान्विते, उत्त०१० । सम्पातिमसव- अरणयं सयसहस्सं । जइ सुयपुव्वं विजह, अह न सुयं जीवरक्षार्थ संदते, पार्श्वतः कटकुज्याऽऽदिनाऽऽच्छादिते, खोरयं देहि॥१॥” इति । प्रतिनिभता चास्य सर्वस्मिन्त्रउत्त०१०। प्युक्त श्रुतपूर्वमेवेदं ममेत्येवमसत्यं वचो वाणस्य परस्य Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाडिणिभ अभिधानराजेन्छः। पडिपीयता निग्रहाय-तव पिता मम पितुर्धारयति लक्षमित्येवंविधस्य द्वि- भावणं भंते ! पडुच्च पुच्छा ? । गोयमा ! तो पडिणीया पाशरज्जुकल्पस्यासत्यस्यैव वचस उपन्यस्तत्वादिति । अस्य चोपपत्तिमात्ररूपस्याप्यर्थज्ञापकतया ज्ञातव्यमुक्तमिति । अ. पमत्ता। तं जहा-णाणपडिणीए, दंसणपडिणीए, चरिथवा यथा रूढमेव ज्ञातमेव । तथाहि-त्रायं प्रयोगो-नास्त्य सपडिणीए ॥ श्रुतपूर्व किञ्चित् श्लोकाऽऽदि ममेत्येवमभिमानधनं घूमो व. (रायगिहे त्यादि ) तत्र (गुरू णं ति) गुरून तखोपदेशका - यम्, अस्ति तवाचतपूर्व वचनं तव पिता मम पितुर्धा- प्रतीत्याऽऽश्रित्य प्रत्यन कमिव प्रतिसन्यमिव प्रतिकूलतया रयत्यन्यून शतसहस्रमिति यथेति तथा स्था०४ ठा०३, ये ते प्रत्यनीकाः, तत्राऽऽचार्योऽर्थव्याख्याता, उपाध्यायः उ।दश। सूत्रदाता, स्थविरस्तु जातिश्रुतपर्यायैः । तत्र जात्या षष्टिसाम्प्रतं प्रतिनिभमभिधित्सुराह वर्षजातः श्रुतस्थविरः समवायधरः, पर्यायस्थविरो विश तुज्झ पिया मज्झ पिऊ, धारइ अणूणयं पडिनिभं ति।। तिवर्षपर्यायः एतत्प्रत्यनीकता चैवम्तव पिता मम पितुर्धारयत्यन्यूनं, शतसहस्त्रमित्यादि ग. "जश्चाईहि अवएणं, विभसइ वट्टइ नयावि उववाए । म्यते । प्रतिनिभामेति द्वारोपलक्षणम् । अयमक्षरार्थः । भा अहिश्रो छिहप्पही, पगासवाई अणणुलोमा ॥१॥ वार्थः कथानकादवसेयः । तश्चेदम् -" एगम्मि नगरे एगो अहवा वि वए एवं, उवएस परस्स दिति एवं तु । परिष्वायगो सोवन्नएण खोरएण तहि हिंडति । सो भणइ-जो दसविहवेयावश्चे, कायब्वं सयं न कुव्वंति ॥२॥" मम अस्सुयं सुणावह तस्स एयं देमि खोरयं । तत्थ एगोसाव (गई णमित्यादि) गतिमानुषत्वादिकांप्रतीत्य,तहलोकस्य श्रो. तेण भणियं-"तुझ पिया मम पिउणो,धारेइ भरपूणगंस प्रत्यक्षस्य मानुषत्वलक्षणपर्यायस्य प्रत्यनकि इन्द्रियार्थप्रतिकूयसहस्सं । जइ सुयपुव्वं दिजउ, अह न सुयं खोरयं देहि।" लकारित्वात् पञ्चाग्नितपस्विवदिहलोकप्रत्यनीकः, परलोको इदं लौकिकम् । अनेन च लोकोत्तरमपि सूचितमवगन्तव्यम् । जन्मान्तरं, तत्प्रत्यनीक इन्द्रियार्थतत्परो, द्विधालोकप्रत्यतत्र चरणकरणानुयोगे येषां सर्वथा हिंसायामधर्मस्तेषां नीकश्च चौर्याऽऽदिभिरिन्द्रियार्थसाधनपरः (समूहं णमित्याविध्यनशनविषयोद्रेकचित्तभङ्गादात्महिंसायामप्यधर्म ए. दि)समूहं साधुसमुदायं प्रतीत्य, तब कुलं चन्द्राऽऽदिकं त. वेति,तदकरण द्रव्यानुयोगे पुनरदुष्टं मद्वचनामेति मन्यमानो त्समूहो गणः, कौटिकाऽऽदिस्तत्समूहः सङ्घः, प्रत्यनीकता यः कश्चिदाह-अस्ति जीव इत्यत्र वद किश्चित,सच वक्तव्यो चैतेषामवर्णवादाऽऽदिभिरिति । कुलाऽऽदिलक्षणं चेदम्यद्यस्ति जीव एवं तर्हि कुटाऽऽदीनामप्यस्तित्वाजीवत्व " एत्थ कुलं विराणेय, एगायरियस्स संतई जाओ। प्रसङ्ग इति गतं प्रतिनिभम् । दश०१ अ०। तिराह कुलाणमिहो पुण, सावेक्खाणं गणो होह ॥१॥ सव्वा वि नाणदसण-चरणगुणविभूसियाण समणाणं । पडिणिवेस-प्रतिनिवेस-पुं० । गाढानुशये, विशे० । समुदाओ पुण संघो, गणसमुदाश्री त्ति काऊणं ॥२॥" पडिणि (नि)बुइ-प्रतिनिति-स्त्री०। प्रागतो. स्था० १ ठा० ।। (अणुकंपमित्यादि) अनुकम्पा भकपानाऽऽदिभिरुपष्टम्भ स्तां प्रतीत्य, तत्र तपस्वी क्षपकः, ग्लानो रोगाऽऽदिभिरसपडिणिहि-प्रतिनिधि-पुं०। प्रतिबिम्बे, है। मर्थः, शैक्षोऽभिनवप्रवजितः एते हनुकम्पनीयाः भवन्ति, तपडिणीय-प्रत्यनीक-त्रि०। प्रतिकूले, पातु । स्था०। उत्त०। दकरण करणाभ्यां च प्रत्यनीकतेति ।। सुयं णमित्यादि ) श्रुतं श्राचा०। प्रतिकूलवृत्ती, शा०१ श्रु०२ अका पंचू० । नि० चूत सूत्राऽऽदि तत्र सूत्र व्याख्येयं,अर्थस्तव्याख्यानं नियुक्त्याछिद्रान्वेषिणि, जी० ३ प्रति०४ उ० । उत्त० । दि, तदुभयमेतद्वितयम् । तत्प्रत्यनीकता च-“काया वया प्रत्याकाः य ते श्चिय, ते चेव पमाय अप्पमाया य । मोक्खाहिगारियाणं, जोइसजोणीहि किं कजं ॥१॥" इत्यादि दूषणोद्भावनम् । (भारायगिहे नयरे जाव एवं वयासी-गुरू णं भंते ! पडुच्च वमित्यादि) भावः पर्यायः, स च जीवाजीवगतः, तत्र जीयस्थ कइ पडिजीया पएणत्ता ? । गोयमा ! तो पडिणीया प प्रशस्त,अप्रशस्तश्च तत्र प्रशस्तःक्षायिकाऽऽदिः,अनशस्त:हात्ता । तं जहा-पायरियपडिणीए, उवज्झायपडि।ए, विवक्षयौदयिकः। क्षायिकादिः पुनानाऽऽदिरूपोऽतो भावार हेरपडिणीए । गई णं भंते पडुच्च कइ पडिणीया पामत्ता। शानाऽऽदीन प्रति प्रत्यनीकस्तेषां वितथग्ररूपणतो दूषणतो वा। यथा-"पायसुत्तनिवद्धं, को वा जाणइ पणीय कणयं । गोयमा ! तो पडिणीया पलत्ता । तं जहा-इहलोगप सा खरगणतं, दागेल विण। उ हवा त्ति ॥१॥" एते डिणीए, परलोगपडिणीए, दुहलोगपडिणीए । समूहं गं च प्रत्यनीका अपुनःकरण नाऽभ्युन्धिताः शुद्धिमहम्ति, शुभंते ! पडुच्च कइ पडिणीया परमत्ता ? । गोयमा ! तो द्धिश्च व्यवहारादिति । भ०८ श०८ उ०। स्था० । (व्यपडिणीया परमत्ता । तं जहा-कुलपडिणीए, गणपडिणाए, वहारवक्तव्यता- ववहार' शब्दे करिष्यते । प्रनिकलव ती शिलाऽऽक्षेपककूलाल कश्रमणवत् दोपानीकं प्रति वर्तते संघपडिणीए । अणुकंप पडुच्च भंते ! कइ पडिणीया पु इति प्रत्यनीकः । उत्त०१०। (कुल बालककथा ' फलवाच्छा ?। गोयमा ! तर पडिणीया पलता। तं जहा-तव लग' शब्दे तृतीयभागे ६३६ पृष्ठे दर्शिता) स्सिपडिणीए, गिलाणपडिणीए. सेहपडिणीए । सुश्रणं पडिणीयता-प्रत्यनीकता-स्त्री। कार्योपघातकतायाम्, भ. भंते ! पडुच्च पुच्छा। गोयमा! तो पडिणीया पप्रमत्ता। तं | १२श. ६ उ. । ज्ञानस्य विराधना शानस्य प्रत्यनीकजहा सुत्तपडिणीए, अत्थपहिणीए, तदुभयपाडणीए ।। तादिलक्षणा । उक्तं च-" नाणपडिणीय णिराव" प्र Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिगीयता । त्यनीकता पञ्चविधा ज्ञानविषया तथथा ग्राभिनियोधि कज्ञानमशोभनं यतस्तदयगतं कदाचित्तथा भवति कदाचि दन्यथेति । श्रुतज्ञानमपि शीलविकल्पस्याऽकिञ्चित्करत्या दशोभनमेव । श्रवधिज्ञानमप्यरूपिद्रव्यागोचरत्वादसाधु । मनः पर्यायशानमपि मनुष्यलोकावधिपरिच्छिन्नगोचरत्वादशोभनम् । केवलज्ञानमपि समयभेदेन दर्शनज्ञानप्रवृत्तेरेकसमये केवलवादशोभनमिति भाव ४० पदिशीत-मत्यनीकत्व-न अनिष्टा रणे कर्म कर्म परिणीयवंद- प्रत्यनीकवन्दन न० आहारस्य उ काले, णीहारुभयो य होइ पडिणीए ।" श्राहारस्य, नीहारस्य वा, उभवस्य मूत्रपुरीषलक्षणस्य काले यत्र वन्दते तत् प्रत्यनी कम्, इति लक्षणलक्षिते सप्तमे वन्दनदोषे, बृ० ३ उ० । ध० । श्रा० चू० 1 1" पडिप्पत्त-प्रतिज्ञप्त–त्रि० । वैयावृत्यकरणाऽऽद्यर्थे परैरुक्ले, श्रा चा० १ श्र० ८ श्र० ५ उ० । पटिया प्रतिज्ञा स्त्री० | ऐहिकामुष्मिकरूपायां प्रतिज्ञायाम, [ष०१०१००| प्रकरणं यत् स्वयं प्रतिज्ञातं तदस्यो संपाद्विधेयमिति उक्रं चांगुणीयजननी जन नीमिव स्वा-मत्यन्तशुद्धयामनुवर्तमानाम् । तेजस्विनः सुमनपि संत्यजन्ति सत्यवतव्यसनिनो न पुनः प्रतिशा म् ॥ १ ॥ " आचा० १० २ श्र० ५ उ० । पडितत सिद्धत - प्रतितन्त्रसिद्धान्त पुं० । स्वस्वशास्त्रसिद्धे परतन्त्राऽसिद्धे सिद्धान्तभेदे, वृ० । " ( ३२४ ) अभिधानराजेन्द्रः । जो खलु सर्ततसिद्धो न य परतंते सो तु पडिर्ततो । निचमनिचं सव्वं नियानि च इवाइ ।। १८५ ॥ यः खल्वर्थः स्वतन्त्रसिद्धो, न च परतन्त्रेषु स प्रतितन्त्रसिद्धामतः। यथा-सन्तीति नित्यं सांख्यानां सर्वमनित्यं क्षणिकादिनां, सर्व नित्यानित्यमातानामित्यादि । ०१०१० यथा-सांख्यानां नाऽसत श्रात्मलाभो, न च सतः सर्वथा विनाश इति सूत्र० १४० ११ श्र० । पडितपण- प्रतितर्पण - न० । संविग्ने तप्यति अनुतपने, व्य० ७ उ० । पडितप्पिय प्रतितर्पित त्रि० । भक्तपानप्रदानाऽऽदिना सोपष्टभीकृते व्य० १ ० विनयाऽऽहारोपध्याऽऽदिभिः प्रत्युप कृते, स० ३० सम० । पडितप्पियसाहु-प्रतितर्पितसाधु त्रि० । प्रतितर्पिता भक्लपानप्रदानादिना सोपष्टम्भीकृताः साधवो येन सः साधूपएम्भं कृतवति, श्री० । 1 पडिति पतिति स्त्री० मरणे ०५४०। परिषद्ध - पतिस्तब्ध - धन उत्त० १२० पडिथिर - देशी - पुं० । सदृशे दे० ना० ६ वर्ग २० गाथा । पडिदिसा - प्रतिदिश् - स्त्री० । विदिशि, स्था० ४ ठा० ३ उ० । पडिदुर्गुछय-प्रतिजुगुप्सक त्रि० श्रप्रासुकोदकपरिहारिणि, सूत्र० १० २ श्र० २ ३० । - परिपुरलगा परिदुवार प्रतिद्वार न० स्थूलद्वारापान्तरालपनि लघु - । - द्वारे, प्रशा० २ पद । स० । द्वारं द्वारं प्रतीत्यर्थे, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार । रा० । पडिदुवारदेसभाग- प्रतिद्वारदेशभाग - पुं० । द्वारदेशभागं प्रतीत्यर्थे श्र० रा० । , पडिपंथ - प्रतिपन्थ - पुं० । प्रतिकूलत्वे, सूत्र ०१ श्रु०३ श्र० १० । परिपक्ख प्रतिपक्ष पुं० भूपते. स्वा०४ डा० १४० । परिपह प्रतिपथ पुं० प्रतिकूलः पन्थाः प्रतिषथः । अप्रेतनमार्गत्यागेन पश्चान्मार्ग, उत्त० २७ श्र० । श्राचा० । निषिपथि, यथा सचित्तपृथिव्यां गच्छति, नि० चू० १३० । पडिपाय- प्रतिपाद- पुं० । मूलपादानां प्रतिविशिष्टोपष्टम्भकरणाय पादे, रा० । ॥ पडिपिंडिन - देशी - न० । प्रवृद्धे, दे० ना० ६ वर्ग ३४ गाथा । परिपुच्छण प्रतिप्रच्छन- न० शरीरादिवार्ताप्रश्ने ०१ ० [१] [अ०] पूर्वीततस्य पृच्छायाम् नि० ० १०३० परिपुरणा-प्रतिदृष्छा श्री० [पृछा प्रश्नस्तस्याः प्रति वचनं प्रतिपृच्छा । वृ० ४ उ० । सूत्रार्थयोः शरीरवार्ताया वा प्रतिप्रच्छुने, बृ०४ उ० | उत्त० । स्था० । प्रतिपृच्छना - गुरोः पुरतः सन्देहप्रच्छने, उत्त० २६ श्र० । श्र० । स्वाध्यायभेदे, उत्त० । - अस्याः फलम् - श्रथ गृहीतवाचनेन पुनः संशयाऽऽदौ पुनः प्रच्छनं प्रतिपृच्छति श्रतस्तत्फलं प्रश्नपूर्वकमाह परिपृच्छयाए से भंते! नीवे किं जगाया है। पदिपुच्छगयाए णं सुत्तत्थतदुभयाई विसोहेइ, कंखामोहणिज्जं कम्मं ।। २० ।। हे स्वामिन ! प्रतिममया पूर्वाधीनस्य सूत्राऽऽदेः पुनः मनेन जीवः किं जनयति ? प्रतिमनया सूत्रार्थतदुभयानि दिशोधयति सूत्रार्थयोः संशयं निवार्य निर्मलत्यं पि धत्ते । तथा काङ्क्षामोहनीयं कर्म व्युच्छ्निति, काङ्क्षाशब्देन संदेहः, काङ्क्षया सन्देहेन मोहनं काइक्षामोहनं, तत्र भवं काक्षामोहनीयम् एतत्कर्म विशेषेणाऽपनयति इदमि त्थं तत्वम्, अथवा इदमित्थं, नास्ति वा इदं मम अध्ययनाय योन्यमित्यादि घटना काइला बाड़ा तमेव मोहनी कर्म अनमिनहिकमिध्यात्वरूपं तत् विनाशयति ॥२०॥ उत्त० २६० नं० ॥ गुरुनियोगे पुनः प्रवृत्तिकाले गुरोः प्रच्छना प्रतिप्रमादादिना कार्यकाले पुनर्गुरुप्रतिपृच्छारूपे सामाचारीभेदे पञ्चा० । अथ प्रतिपृच्छामाह पडिपुच्छणा उ कज्जे, पुव्वणिउत्तस्स करणकालम्मि | कर्जतरादिहे विधिद्वा समयके ऊहिं ।। ३० ।। प्रतिच्छायाः करणं प्रतिमना पुनः, तुशब्दः पुनरर्थः, कार्ये प्रयोजने, पूर्वनियुक्तस्य पूर्वकाले गुरुभिर्व्यापारितस्य सतः निर्दिशति योगः कवेत्याह- करकाले विधानाय सरे, कस्मादेतदेवमित्याह - कार्यान्तरं प्रागुपदिष्टकार्यादन्यत् Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२५) पनिपुणा अन्निधानराजेन्द्रः। पमिपुलवीरिय कार्य तदादिर्यस्य तनिषेधादेः स तथा, स एव हेतुर्निमित्तं पडिपुच्छणीय-प्रतिप्रच्छनीय-त्रि० । असकृत्प्रच्छनीये, रा०। कार्यान्तराऽऽदिहेतुः, तस्मात् कार्यान्तरादिहेतोः, द्वितीया- | ... याः पञ्चम्यर्थत्वात् । निर्दिष्टोपदिष्टा, समयकेतुभिः प्रकाशक पडिपुच्छमाण-प्रतिपृच्छत-त्रि० । पुनः पुनः पृच्छति, प्रा. तया प्रवचनचिह्नभूतैरिति गाथार्थः ॥ ३०॥ चा०१ श्रु०४ १०२ उ०। कार्यान्तराऽऽदिहेतूनेव दर्शयन्नाह पडिपुच्छा-प्रतिपृच्छा-स्त्री०। प्रति पुनरपि पृच्छा प्राग्नियुक्नेकजंतरे ण कज्जं, तेणं कालंतरे व कज्जति । न कार्यकरणकाले प्राग्निषिद्धेन वा पुनः प्रयोजनतः कर्तु कामेन गुरोः प्रच्छनं प्रतिपृच्छा। पश्चा०१२ विव०।जीताभ। अग्लो वा तं काहिति, कयं व एमाइया हेऊ ॥ ३१ ॥ विशे० पृच्छा प्रश्नस्तस्याः प्रतिवचनं प्रतिपृच्छा । व्य०२ उ०। प्रतिपृच्छां कुर्वतः शिष्यस्य गुरुः कदाचित्कार्यान्तरं प्रा- स्था०। श्रा०म०। श्रादिष्टस्य कार्यस्य करणकाले पुनः प्रगादिष्टकार्यादपरकार्यम् । अथवा-न कार्य नास्ति प्रयोजनं, च्छने, वृ०१ उ० २ प्रकः । एष सामाचारीभेदः प्रतिपृतेन यत्कार्यमादिष्टमासीत् । कालान्तर वाऽवसरान्तरे वा, च्छनाशब्देन दर्शितः । प्रा०म०१ अ०। शङ्कितस्य विनाऽधुनैव कार्य विधेयम् । वाशब्दो विकल्पार्थः । अन्यो वा स्मृतस्य गुरोः पुनः प्रतिपृच्छायाम्, एष खाध्यायभेदः। आदिष्टादपरः साधुः, तत्प्रागादिष्टं कार्यम् , करिष्यति, कृतं प्रा० चू० १०। वा विहितं वा तदन्येनेति त्वमास्स्वेत्यादिशेत् । एवमादय एवंप्रभृतयो गुरुविकल्पाः | आदिशब्दादधिकृतकार्यस्यैव पडिपुरम-प्रतिपूर्ण-त्रि० । अन्यूने, शा०१ श्रु०१०। रा। विशेषो गृह्यते। हेतवः, कारणानि भवन्ति । प्रतिपृच्छायाः स०। नि० । स्वप्रमाणेनाहीने, जी०३ प्रति०४ उ०। अन्यूकरण इति शेषः। इति गाथाऽर्थः॥ ३१॥ नातिरिक्रमाने, राका सर्वाऽवयवसंपन्ने, कल्प०१ अधि०३ अहवा वि पवित्तस्सा, तिवारखलणाएँ विहिपओगे वि। क्षण । “पडिपुन्नपाणिपायसुकुमालकोमलतलेहिं ।" प्रति पूर्णस्य पाणिपादस्य सुकुमारकोमलानि अत्यन्तकोमलापडिपुच्छण त्ति नेया, तहि गमणं सउणवुड्डीए ॥३२॥ नि तलानि येषां ते। कल्प०१ अधि०३क्षण। अत्र किरणाअथवाऽपीति प्रतिपृच्छायां हेतोः प्रकारान्तरत्वसूचनार्थः।। वलीकारेण प्रतिपूर्णानां पाणिपादानाम् इति योगो लिखितः। प्रवृत्तस्य चिकीर्षितकार्यकरणाय गमने व्यावृत्तस्य सतः सतु चिन्त्यः। "द्वन्द्वश्च प्राणितूर्यसेनानानाम् ।" २।४।२॥ साधोत्रिवारस्खलनायां त्रीन् वारान् यावत्तत्प्रतिहतौ स- इति सूत्रेणावश्यमेकवद्भावात् । सकलस्वांशयुक्ततयोत्पन्नत्याम्, दुनिमित्तादिति गम्यम् । विधिप्रयोगेअप दुर्निमि- त्वात् । भ०६ श०३१ उ०।स्वरूपतः पौर्णमासीचन्द्रवत् । तप्रतिघातविधिश्व प्रथमस्स्खलनायाम्-अष्टोच्वासप्रमाणः स्था०६ ठा०। दशा। श्री० अंशेनापि स्वकीये समस्तककायोत्सर्गो, द्वितीयायां तु तद्विगुणः, तृतीयायां संघाटक- लोपेते, उत्त० ११० षोडशकलाभिर्युक्त, उत्त०११ अ०। ज्येष्ठकरणपश्चात्करणमित्यादिलक्षण इति। प्रतिपृच्छना उक्त- विषयादिभ्यो विरक्तत्वेनाऽखरडे, उत्त० ३२ अ०। अपवर्गनिरुक्ला । इति एषा सामाचारी, ज्ञेयाऽवसेया । विधेयतयेति प्रापकगण ते केवलज्ञाने, श्राव. ४० । ध।भाधनशेषः । प्रतिपृच्छोत्तरकालं च (तर्हि ति) तत्र विवक्षितका- धान्याऽदिपदार्थभृते, उत्त०२ १०। आव० । हीनाधिकाक्षयसिद्धिस्थाने , गमनं गतिः, कार्यम् । शकुनवृद्धया सनि- राभावात् । श्रा० म० १ ० । दश । विशे। सूत्रतो बिन्दुमित्तवर्द्धनेन शुभशकुने सतीत्यर्थः । इति गाथार्थः ॥ ३२॥ मात्राऽऽदिभिरन्यूने अर्थतोऽध्याहाराऽऽकाङ्गादिरहिते गुणप्रतिपृच्छायामेव मतान्तरमाह वत्सूत्रे,अनुशअल्पग्रन्थत्वाऽऽदिभिःप्रवचनगुणैः संशुद्ध मार्गे, पुव्वणिसिझे अप्लो, पडिपुच्छा किल उवहिए कज्जे । औ० । निरवयवतया सर्वविरत्याख्ये मोक्षगमनैकहेता, एवं पि नत्थि दोसो, उस्सग्गाईहि धम्मठिई ॥ ३३॥ सूत्र. १ १० ११ अ० । “पडिपुससव्वमंगलभेप्रसमा. पूर्वनिषिद्धे प्राक्कालनिवारिते गुरुणा क्वचिच्चिकीर्षितकार्ये गमे।" प्रतिपूर्णा एव प्रतिपूर्णका न तु न्यूना एवंविधा विषयभूते, अन्ये अपरे सूरयः, प्रतिपृच्छा कार्येत्याहुः। किले ये सर्वमङ्गलभेदा मङ्गलप्रकाराः सकलकल्याणप्रकाराः तेषां त्याप्तप्रवादसंसूचनार्थः । कदेत्याहुः१, उपस्थिते प्राप्तकरणा समागमः सङ्केतस्थानमिव, यथा सङ्केतस्थाने सङ्केतकारिवसरे, कार्ये पूर्वनिधारितप्रयोजने, प्रार निवारितमपि क यो जना अवश्यं प्राप्यन्ते, तथा तस्मिन् कलशे रहे अवश्य थश्चिदनुजानीयादिति कृत्वा । ननु यत् पूर्वमनुचितत्वेन नि सर्वे मङ्गलभेदाः प्राप्यन्ते इति भावः। कल्प०१ अधि०३ क्षण । षिद्धं तदेव पुनरनुजामतः कथं न दोषोऽनौचित्यस्य नादव. पडिपमघोस-प्रतिपूर्णघोष-न ।गुरुवत्सम्यगुदात्ताऽऽदिघोषैरस्थ्यादेत्याशङ्कयाऽऽह-एवमप्यनेनापि प्रकारेण निषिद्धस्या- विकले,ग०२ अधिः। प्रा०म० । तथाविधे गुणवत्सूत्रे,यद्धि नुशालक्षणेन,नास्ति न भवति,दोषोऽनुचितानुशालक्षणः। यत उदात्ताऽऽदिघोषैः परावर्तनाऽऽदिकाले उच्चारयति । विशे। उत्सर्गाऽदिभिरुत्सर्गापवादाभ्याम् । श्रादिशब्दः स्वगतभेद- अनु। संसूचक इति बहुवचनं व्याख्यातम् । धर्मस्थितिधर्मव्यव. पडिपुष्पभासि(ण)-प्रतिपूर्णभासिन्-त्रि० । अस्खलितास्था। तथाहि-यदेवोत्सर्गतो निषिद्धं,तदेव तत्कालोत्पन्नका. रणान्तरापेक्षयाऽपवादतो विधेयं स्यात् । आह च-"उत्पद्यते हीनाक्षरार्थवादिनि, सूत्र. ११० १४ श्रा हि साबस्था,देशकालामयान् प्रति।कार्य यस्यामकार्य स्या- | पडिपुष्पवारिय-प्रतिपूर्णवीर्य-पुं० । वीर्यान्तरायस्य निःशेषतः त्,कर्मकाय तु बजयेत् ॥१॥” इति गाथार्थः ॥३३॥ उक्ता प्रति- । क्षयात् निःशेषवीर्यशालिनि तीर्थकृति," से वीरिएणं पडिपृच्छा । पश्चा०१२ विव०गला पाचू ध०। उत्तका अनु। पराणवीरिए,सुदंसणे वा णगसब्बसेडे।"(६)सूत्र०११०६अ। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२६) परिपुदियया अभिधानराजेन्डः। पमिबद्धसिज्जा पडिपुदियया-प्रतिपूर्णेन्द्रियता-स्त्री० । अविकलेन्द्रियता. पडिबद्धया-प्रतिबद्धता-स्त्री० । गाढसंबन्धे, तं०। रूपे शरीरोपसंपनेदे, व्य. १० उ० । बहुपरिपूर्णेन्द्रियतेति पडिबद्धसरीर-प्रतिबद्धशरीर-वि० । दृढाषयवकाये यूनि, सू. नामान्तरमस्याः । दशा० ४ प्रा। प्र०२श्रु०२०। पडिपूइय-प्रतिपूजित-त्रि० चन्दनाऽऽदिचर्चिते,शा०११०१० पडिबद्धसिज्जा-प्रतिबद्धशय्या-स्त्री० । द्रव्यतो, भावतश्च प्रपडिपूयग-प्रतिपूजक-त्रि० । पूजाकारिणि, स. ३० सम०। तिबद्धे उपाश्रये, वृ०। पडिपेहिता-प्रतिपिधाय-अव्य० । स्थगित्वेत्यर्थे, सूत्र. २ श्रु. नो कप्पइ निग्गंथाणं पडिबद्धसेज्जाए वत्थए ॥३१॥ २०। (नावं मृत्तिकाऽऽदिना प्रतिपिदधाति इति 'णईसंता अस्य संबन्धमाहर'शले चतुर्थभागे १७४५ पृष्ठे उक्तम् ) इति ओहविभागणं, सेज्जा सागारिका समक्खाया। पडिप्फद्धि (ण)-प्रतिस्पर्धिन्-त्रि। "अतः समृद्धयादौ तं चेव य सागरियं, जस्स अदूरे स पडिबद्धो ॥ ४४५॥ वा"॥१॥४४॥ इति वा दीर्घः । 'पडिप्फद्धी। पाडिप्फद्धी।' [इति ] एवमोधेन विभागेन व सागारका सागारिकपरोत्कर्षाभिकाइक्षिणि शत्रौ, प्रा०१ पाद । युक्ता शय्या प्रतिश्रयापरपर्याया समाख्याता, तदेव सागारिपडिप्फलिअ-प्रतिस्फलित-त्रि० । स्खलिते, " खलियं पडि. कं यस्योपाश्रयस्यादुरे श्रासने, स प्रतिबद्ध उच्यते ॥४४५॥ प्फलिअं।" पाह. ना. २४५ गाथा। तत्र निर्ग्रन्थानामवस्थानमनेन प्रतिषिध्यते अनेन संबन्धेनापडिबंध-प्रतिबन्ध-पुं० । प्रतिघातरूपे प्रमादे, नि० १ शु. ३ ऽऽयातस्याऽस्य सूत्रस्य व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां प्र तिबन्धशय्यायां द्रव्यतो, भावतश्च प्रतिबद्धे उपाश्रये वस्तु वर्ग ४ अ०। विधाते, शा. ११०१०। श्रासने, श्राव. मिति सूत्रार्थः। ३० शय्यातराऽऽदिवस्तुषु, पश्चा०१७विव०। श्रभिष्व. अथ नियुक्तिविस्तरःले, मा० १ १०५१० । प्रश्न । नाम ठवणा दविए, भावम्मि चउव्विहो उ पडिबद्धो । नत्थि णं तस्स कत्थइ पडिबंधे । से पडिबंधे चउबिहे दबम्मि पहिवंसो, भावंम्मि चतुनिहो भेदो ॥४४६ ।। परमत्ते। तं जहा-अंडए इवा, पोयए इवा, उग्गहिए इ वा, नाम-स्थापना-द्रव्य-भावभेदाच्चतुर्विधःप्रतिबद्धः। तत्र नापग्गहिए इ वा । जंणं जंणं दिसं इच्छइ तं गं तं णं मस्थापने गतार्थे । द्रव्यतः पुनरयम्-पृष्ठवंशो बलहरणं स दिसं अपडिबद्धे । यत्रीपाश्रये गृहस्थगृहेण सह संबद्धः स द्रव्यप्रतिबद्ध उ. (नत्थि इत्यादि) नास्ति तस्य भगवतो महापद्मस्यायं पक्षो च्यते । भावे तु चिन्त्यमाने चतुर्विधो भेदो भवति । यदुत कुत्रापि प्रतिबन्धः स्नेहो भविष्यतीति । (अंडर इव तद्यथात्ति) एडजो हंसाऽदिर्ममायमित्युल्लेखेन वा प्रतिबन्धो भ. पासवणठागरूवे, सद्दे चेव य हवंति चत्तारि । पति । अथवा-अण्डकं मयूर्यादीनामिदं रमणकं मयूराऽऽदेः दव्वेण य भावेण य, संजोगे होइ चउभंगो ॥ ४४७॥ कारणमिति प्रतिबन्धः स्यादिति, अथवा-अण्डज पट्टसूत्र प्रस्रवणे, स्थाने, रूपे शब्दे चेति चत्वारो भेदाः, तत्र यस्मिजमिति था। पोतजो हस्त्यादिरयमिति वा प्रतिबन्धः स्यात् । न् साधूनां स्त्रीणां वा कायिका भूमिरेका सा प्रनयणप्रतिअथवा-पोतको बालक इति वा। अथवा-पोतकं वसमिति बद्धा । यत्र पुनरेकमेवोपदेशनस्थानं स स्थानप्रतिबद्धः। यत्र या प्रतिबन्ध: स्यात् । श्राहारेऽपि च विशुद्ध सरागसंयमव स्थितैभाषाभूषणरहस्यशब्दाः श्रूयन्ते, स शब्दप्रतिबद्धः। तत्र तःप्रतिबन्धः स्यादिति दर्शयति-(उग्गहिए व त्ति) प्रव द्रव्येण च भावेन च संयोगे चतुर्भश्री भवति । तद्यथागृहीतं परिवेषणार्थमुत्पाटितं, प्रगृहीतं भोजनार्थमुत्पाटित द्रव्यतो नामकः प्रतिबद्धो, न भावतः१, भावतो नामकः प्र. मिति । अथवा-अवग्रहिकमित्यवग्रहोऽस्यास्तीति वसतिपी तिबद्धो, न द्रव्यतः, एको न द्रव्यतो, न भावतः ३, एको ठफलकाऽदि, श्रीपग्रहिकं वा दण्डकाऽऽदिकमुपधिजात द्रव्यतोऽपि, भावतोऽपि४।। म् । तथा-प्रकर्षेण ग्रहोऽस्येति प्रग्रहिकमैधिकमुपकरण एवं चतुर्भङ्गन्यां विरचितायां विधिमाहपात्राऽऽदीति । अथवा अण्डजे वा पोतजे वेत्यादि व्याख्येयम् । इकारस्त्वागमिक इति । (जं जं ति) यां यां दिशं, चतुत्थपदं तु विदिन, दन्चे लहुगा य दोस आणादी। णामेति वाक्यालगरे । तुशब्दो पाऽयं तदर्थ एव इच्छति संसदेण विबुद्ध, अहिकरणं सुत्तपरिहाणी॥ ४४८॥ तदा विहर्तुमिति शेषः । ता तां दिशं विहरिष्यतीति संबन्धः। चतुर्थपदमत्र वितीर्णमनुज्ञातं, चतुर्थभङ्गवर्तिनि प्रतिथये स्था०६ ठा० । कल्प० । सूत्रः । व्याप्ती, अविनाभावे, रत्ना० स्थातव्यमित्यर्थः । द्रव्यप्रतिवद्धे तिष्ठतां चत्वारो लघुकाः, ६ परि०ा वेधने, सूत्र० ११० ३ १०२ उ० । आशाऽऽदयश्च दोषाः। साधूनां संबन्धिना आवश्यकनिषेधिपडिबंधणिराकरण-प्रतिबन्धनिराकरण-न०।साधुशय्यात. कीप्रभृतिना संशब्देन विबुद्धेषु गृहस्थेष्वधिकरणं भवति । रयोर्योऽत्यन्तोपकारकभावेन स्नेहस्तनिरासे , पश्चा० १७ अथाऽधिकरणभयानिस्संचारास्तूपणीकाश्चाऽऽसते, ततः विव। सूत्रार्थपरिहाणिः। पडिबद्ध-प्रतिबद्ध-त्रि.। संरुद्धे, प्रश्न. ३ श्राय द्वार । व्य. प्रधाऽधिकरणपदं व्याख्यानयतिपस्थिते. पश्चा०१३ विव० । संथा। आऊ जोवण वणिए, अगणि कुटुंबी कुकम्म कुम्मरिए । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७) पडिबडसिज्जा अनिधानराजेन्डः। पडिबडसिज्जा तेणे मालामारे, उम्भामगे पंथिए जंते ॥ ४४६॥ स्थित एव करोति वन्दनकं, स्तुतीश्च हृदयेनैव प्रयच्छ ति । यद्वा-यदा ते गृहस्थाः प्रभाते स्वयमेवोत्थिताः तदा अस्या व्याख्या प्राण्यत्-साधूनां गृहस्थानां च सधं विना आवश्यकं कुर्वन्ति । (विंधण दुगम्मि ति) परावर्तयतां यत्र असंखडशब्देन विबुद्धाः स्त्रियः (आउ त्ति)अकायाऽऽहरणार्थ सूत्रे अर्थे वा रात्री शङ्कितं तस्य चिहं तमभिशानकरणंबजन्ति । (जोवणं ति) रथकाराऽदयः शकटे गवादीन् योज यथा अमुकस्मिन्नने श्रुतस्कन्धे अध्ययने उद्देशके वा इदं यित्वा काष्ठाऽदिहतोरटवीं गच्छेयुः वणिजो घृतकुतुपाऽऽदि शङ्कितमस्तीति तत्सर्व दिवा प्रश्नायत्वा निःशङ्कितं कुर्वन्ति । कंगृहीत्वा प्रामान्तरं व्रजन्ति । (अगणि त्ति)लोहकाराऽऽदय तथाउत्थिता अम्रिप्रज्वालनाऽऽदिककर्मणि लगन्ति । कुटुम्बिनो ह- जणरहिए वुजाणे, जयणा भासाए किमुय पडिबद्धे । लाऽऽदीन् गृहीत्वा क्षेत्राणि गच्छन्ति ।कुकर्मणो मत्स्यगन्धे दढतरसरऽणुप्पेही, न य संघाडेण परिवते ।।४५३।। बागुरिकाऽऽदयो मत्स्याऽ द्यर्थ गच्छन्ति । कुत्सितो मारणीयसवस्यातीव वेदनोत्पादकत्वाभिन्द्यो यो मारो मारणं स वि यदि तावज्जनरहितेऽप्युद्याने वसतां रात्री भाषायां यतचते येषां ते कुमारिकाः, सौकरिका इत्यर्थः। तेऽपि स्वकर्मणि नामात्रं चतुष्पदपक्षिशरीसृपाऽऽदयो जन्तवो विबुध्यन्तामिलगन्ति । स्तेनःप्रभातमिति कृत्वा पन्थानं धावन् गच्छेत् मा. तिकृत्या, ततः किं पुनद्रव्यप्रतिबद्धे प्रतिधये, तत्र सुतरां यतना कर्तव्येति भावः यस्तु दृढतरस्वरो वृहता शब्देन लाकारः करण्डं गृहीत्वा पारामं गच्छति उझामका पारदा भाषणशीलः स वै रात्रिकं स्वाध्यायमनुप्रेक्षया करोति, म. रिकः स लब्धसंकेत उग्रामिकां गृहीत्वा पलायेत् । पथिको नसैवेत्यर्थः। येऽपि च साधवो न दृढतरस्वरास्तेऽपि सहा. बुद्धः पथि प्रवर्तते यान्त्रिका विबुद्धाः सन्तो यन्त्राणि वाह टकेन न परिवर्तयन्ति, किंतु पृथग्, गतः प्रथमो भगः । यन्ति । यस्मादेते दोषास्तस्मात्पुरुषेष्वपि न स्थातव्यम् ॥ अथ द्वितीयभनभावतः प्रतिबद्धो न द्रव्यत इत्येवंलक्षणं अथाधिकरणभयातूष्णीकास्तिष्ठन्ति तत एते दोषाः- निरूपयति आसज निसीही वा,सज्झायं न करिति मा हु बुज्झेजा। भावम्मि उ पडिबद्धे,चउरो गुरुगा य दोस आणाऽऽदी। तेणासंकालग्गण, संजमायाएँ भाणादी ॥४५०॥ ते वि य पुरिसा दुविहा, भुत्तभोगी अभुत्ता य ॥४५४ । मा गृहस्था विबुध्यन्तामिति कृत्वा "श्रासज" इति श- भावे भावतः प्रतिबद्ध प्रतिश्रये तिष्ठतां चतुर्गुरुकम् श्रापं नोचरन्ति मासलघु, नैधिकी वा न कुर्वन्ति पश्चरा- शाऽऽदयश्च दोषाः । ये पुनस्ते भावप्रतिबद्धे वसन्ति ते पुरु. त्रिन्दिवानि, स्वाध्यायं सूत्रपौरुषीं न कुर्वन्ति मासलघु, श्र- षाः साधवो द्विविधाः । केचिद् भुक्तभोगिनो ये स्त्रीभोगान् र्थपौरुषीं न कुर्वन्ति मासगुरु, सूत्रं नाशयन्ति चतुर्ल बु, अर्थ भुक्त्वा प्रवजिताः, केचित्तु अभुक्नभोगिनः कुमारप्रवजिताः। नाशयन्ति चतुर्गुरु । एतेन सूत्रपरिहाणिरिति पदं व्याख्यात- एषा पुरातनी गाथा। म्। तथा-साधूनामावश्यकीशद, पदनिपातशब्दं वा श्रुत्वा ते अथास्या एव व्याख्यानमाहगृहस्थाः स्तेनोऽयमित्याशङ्कया साधुना समं युद्धाय लगेयुः, भावम्मि उ पडिबद्धे, पन्नरससु पदेसु चउगुरू होति । ततश्च युध्यमानयोः संयमाऽऽत्मभाजनानां विराधनाऽऽदयो एक्केक्काउ पयाओ, हवंति आणाइणो दोसा ॥४५॥ दोषाः, यत एवमतो द्रव्यप्रतिबद्धायां वसती न स्थातव्यम् । भावप्रतिबद्ध चतुर्भिः प्रश्रवणाऽऽदिभिः पदैः षोडश भक्ता द्वितीयपदे तिष्ठेयुरपि कर्तव्याः । तद्यथा-प्रश्रवणप्रतिबद्धः, स्थानप्रतिबद्धो, रूपप्र. अद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए । तिबद्धः,शब्दप्रतिबद्धश्च * । इत्यादि । अत्र प्रथमभङ्गादारभ्य गीयत्था जयणाए, वसति तो दव्वपडिबद्धे ॥४५॥ पञ्चदशसु पदेषु च चतुर्गुरवः प्रायश्चित्तम् । प्रादेशान्तरेण अध्वनिर्गताऽऽदयः त्रिःकृत्वः श्रीन वारान् द्रव्यती भावतो था प्रथमे भने चत्वारः चतुर्गुरवः, चतुर्णामपि पदानां तवा प्रतिबद्धमुपाश्रयं मार्गयित्वा यदि न लभन्ते ततो गी- पाशुद्धत्वात् । द्वितीये भने त्रयश्चतुर्गुरवः,त्रयाणां पदानां तत्रातार्था यतनया द्रव्यप्रतिबद्ध वसन्ति । ऽशुद्धत्वात्। एवमनया दिशा यत्र भने यावन्ति पदान्यविशुयतनामेवाSS खानि तत्र भवेयुश्चतुर्गुरवः एकैकस्माच पदाङ्गकादाबाss. पापुच्कण आवासिय,आसज निसीहि वा य जयणाए । दयो दोषाः । यस्तु षोडशो भङ्गः स चतुर्वपि पदेषु शुद्ध इति न तत्र प्रायश्चित्तम् । वेरत्ती आवस्सग जो जाहे चिंधण दुगम्मि ॥४५२।। प्रश्रवणाऽऽदीनामेवान्योऽन्यसंभवमाहयदा कोअप साधुः कायिकभूमौ गन्तुं गच्छति तदा ठाणे नियमा रूवं, भासासहो य भूसणा भइयो। द्वितीयं साधुमापृच्छ ध निर्गच्छति,स च द्वितीयः स्पृष्टमात्रएवोत्थाय दण्डकहस्तो द्वारे तिष्ठति यावदसौ प्रस्याग काइयठाणं नत्थी, सद्दे रूवे य भय सेसे ॥४५६॥ रुकृति, एषा प्रापृच्छयतना । आवश्यकीम् "आसज्ज" यत्र साधूनां स्त्रीणां चैकमेयोपवेशनस्थानं तत्र नियमात् शब्द, नैषेधकीं च यतनया यथा गृहस्था न शुरवन्ति परस्परं रूपमवलोक्यते भाषाशब्दश्च श्रूयते, भूषणशब्दवैरात्रिकवेलायामपि यः पूर्वमुत्थितस्तेन द्वितीयः साधु- स्तु भाज्यः साभरणानां स्त्रीणां भवति, इतरासां न भवयतनया हस्तेन स्पृष्ट्वा प्रतिबोधयितव्यः, स च स्पृष्टमात्र तीत्यर्थः। कायिकी प्रस्रवणं,तस्य स्थानं नास्ति,लोकजुगुप्तिएव तूणीभावेनोत्तिष्ठति । ततो द्वावपि कालभूमौ गत्वा ततया कायिकीभूमावुपवेशनाभावात् भाषाभूषणशब्दरूपावैरात्रिक तनया गृह्णीतः। यथा-पार्श्वस्थितोऽपि न शृणी- णि तु भवन्तीतिभावः । शब्दरूपे च शेषाणि भज विकल्पय । ति आवश्यकं यो यदा यत्र स्थितो विबुध्यते स तदा तन । • पुस्तके पाठत्रुटितो विभाति । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२८) अभिधानराजेन्द्रः । पडिसिज्जा किमुक्तं भवति ? - शब्दे प्रश्रवणस्थानरूपाणि भवन्ति वा, न वा, रूपेऽपि प्रस्रवणस्थानशब्दा भवन्ति वा न वेति । एतेष्वेव दोषानुपदर्शयति परोभयदोसा, काइयभूमी य इच्छणिच्छंते । संकाए गमणे तू. वोच्छेद पदोसतो जं च ॥ ४५७ ॥ यत्र संयतानामविरतिकानां चैका कायिकी भूमिस्तत्राऽऽत्म परोभयसमुत्था दोषाः । तत्र संयत एवाविरतिकां रहसि दृष्ट्वा यदाऽऽत्मना तुभ्यति एष आत्मसमुत्थो दोषः । यस्तु सा स्त्री तस्मिन् संयते क्षुभ्यति स परसमुत्थः । यत्तु साधुर्विरतिकायाविरतिकाsपि साधौ क्षोभमुपगच्छति स उभयसमुत्थो दोषः (इच्छागच्छत्ति) यदि स्त्रिया प्रार्थितः साधुस्तां प्रतिसे वितुमिच्छति ततो व्रतभङ्गः, श्रथ नेच्छति ततः सा उड्डाहं कुर्यात् । (संक ति) श्रविरतिका कायिकी भूमौ प्रविष्टा पश्चा त् संयतमपि तत्र गच्छन्तं दृष्ट्वा कोऽपि शङ्कां कुर्यात्, यदेमद्य द्वावप्यत्र त्वरितं प्रविष्टौ तद् मैथुनार्थमिति । तत एकस्यानेकेषां वा साधूनां व्यवच्छेदं कुर्यात् ( पदोसतो जं व त्ति ) तदीयाः पतिदेवराऽऽदयः प्रद्वेषतो यद् ग्रहणाऽऽकणाऽऽदिकं करिष्यन्ति, तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । यत्राविरतिकानां साधूनां चैकमेवोपवेशनस्थानं तद्दो पानाह- दुग्गूढा छहं, तदंसणे भुत्तभोगिसइकरणं । वेव्वयमासु य, पडिबंधुचयाऽऽसंका ।। ४५८ ॥ दुर्गूढानां दुष्प्रावृतानां स्त्रीणां यानि षड्भागानि गण्डकुचोरःप्रभृतीनि तेषां दर्शने भुक्तभोगिनांतु स्मृतिकरणं कौतुकमुत्पद्यते, तथा वैक्रियं वाताऽऽदिविक्रियाविशेषान्महाप्रमाणं सागारिकम्, अथवा विकुर्वितं नाम महाराष्ट्रविषये सागारिकं दृष्ट्रा तत्र विण्टकः प्रक्षिप्यते सा चाविरतिका तादृशेङ्गनदाने प्रतिसेवितपूर्वा ततो वैक्रियं, विकुर्वितं वा । श्रादिग्रहणात्पैकिं वा सागारिकं दृष्ट्रा सा स्त्री तत्र साधोः प्रतिबन्धं कुर्यात्, उड्डश्चकं वा कश्चिदगारः कुर्यात् । श्राशङ्का वा लोकस्य भवतिएते श्रमणका न सुन्दरा येनैवं महेलाभिः सममासते । सर्वेष्वपि प्रस्रवणाऽऽदिस्थानेषु सामान्यत इमे दोषाःivarta अगुत्ती, लजाणासो य पीइपरिवुड्डी । साहु तवोवासो, निवारणं तत्व परिहाणी || ४५६ ॥ स्त्रीभिःatha तिष्ठतां साधूनां ब्रह्मचर्यस्यागुप्तिर्लज्जानाशश्च भवति, परस्परमभीक्ष्णं संदर्शनाऽऽदिना प्रीतिपरिवृद्धिरुपजायते, लोकश्चोपहासोक्तिभङ्गया ब्रवीति अहो श्र मी साधवस्तपोवने वसन्ति । निवारणं च राजादयः कुर्वन्ति मा एतेषां मध्ये कोऽपि प्रवज्यां गृह्णीत । ततश्च तीर्थपरिहाणिः तीर्थस्य व्यवच्छेदो भवति । रूपप्रतिबद्धे दोषानाह चकमियं ठिय जंपिय, मोडिय विप्पेखियं च सविलासं । गारेय बहुविहे दद् भुत्तेयरे दोसा ||४६० ॥ चङ्क्रमितुं राजहंसवत् सलीलं पदन्यासः स्थितं कटिस्तमेनोर्द्धस्थानं, मोटितं गात्रमोदनं विविधमर्धाक्षिकटाक्षाssदिभिर्भेदैः प्रेक्षितं विप्रेक्षितं तच्च सविलासं सविक्षेपसहितं सविस्मितं सुखं च । एवमादीनाकारान् बहुविधान् दृष्ट्रा भुकानामितरेषां चाभुक्तानां स्मृतिकरण कौतुकाऽऽदयो दोषाः For Private पडिब सिज्जा श्रविरतिकानां पुनर्नानादेशीयान् साधून् दृष्ट्वा इत्थमभ्युपपातो भवेत् जल्लमलपंकियाण वि, लावन्नसिरी जहेसि साहूणं । सामन्नम्म सरुवा, सयगुणिया आसि गिहवासे ||४६१ ॥ जलं च कठिनीभूतं कफाऽऽदि मलः पुनरुद्वर्तितः सन्निर्गच्छति, जलेन मलेन च पतितानामप्येषां साधूनां देहेषु भ भ्यङ्गोद्वर्तनस्नानविरहितेष्वपि यथा लावण्यश्रीः शोभालक्ष्मीः श्रामण्येपि सुरूपोपलभ्यते, तथा ज्ञायते नूनममीषां गृहस्थत्वे शतगुणिता लावण्यलक्ष्मीरासीत् । शब्दप्रतिबद्धे दोषानाहगीयाणि य पढियाणिय, हसियाणि य मंजुलुल्लावा । भूसणसद्दे राह -स्सिए अ सोऊण जे दोसा ॥ ४६२ ।। स्त्रीणां संबन्धीनि भाषाशब्दरूपाणि यानि गीतानि च पठितानि च मञ्जुलाच माधुर्याऽऽदिगुणोपेता उल्लापाः, ये च वलयनूपुराऽऽदीनां भूषणानां शब्दाः, ये च रहसि भवा राहसिकाः पुरुषेण परिभुज्यमानायाः स्त्रियाः स्तनिताऽऽदयः शब्दा इत्यर्थः । तान् श्रुत्वा ये भुकसमुत्था दोषास्तन्निष्पनमाचार्यः प्रायश्चित्तं तत्र भवे प्रतिबद्धे तिष्ठन् प्राप्नोति । अथ स्त्रियः साधूनां स्वाध्यायशब्दं श्रुत्वा यद्विनयेयुस्तदर्शयतिगंभीरमहुरफुडविस- यगाहओ सुस्सरो सरो जह सिं । सज्झायस्स मणहरो, गीयस्स णु केरिसो आसी १ । ४६३॥ गम्भीरो नाम यतः प्रतिशब्द उत्तिष्ठते मधुरः कोमलः स्फुटो व्यक्ताक्षरः, विषयग्राहकोऽर्थपरिच्छेदपटुः, सुस्वरो मालवकौशिक्यादिस्वरानुरञ्जितः, एवंविधः स्वरो यथा एषां साधूनां संबन्धी स्वाध्यायस्य मनोहरः श्रूयते, यदा गृहवासे विश्वस्ताः संगीतमेते विद्दितवन्तस्तदानीं तस्य कीदृशो नाम शब्द आसीत्, किन्नरध्वनयस्तदानीमभूवन्निति भावः । उक्ताश्चतुर्ष्वपि प्रस्रवणाऽऽदिप्रतिबद्धेषु दोषाः । अथ " ते पुरा पुरिसा दुविहा" इत्यादि पश्चार्द्ध व्याख्यानयति - पुरिसा यत्तभोगी, भुत्तभोगी य केइ निक्खता । कोहल सइकरणे, भवेहि दोसेहिंर्म कुआ || ४६४ ॥ ते पुनः सङ्घातपुरुषा द्विविधाः केचिद् भुक्तभोगिनः केचित्तु श्रभुक्तभोगिनो निष्क्रान्ताश्च ते व तत्रोपाश्रये स्मृतिकरणकुतूहलोद्भवा दोषा ये उत्पद्यन्ते तैरिदं कुर्युः पडिगमणमन्नतित्थिग, सिद्धी संजइ सलिंग हत्थो य । अद्धाणवाससावय- तेणेसु च भावपडिबद्धे ||४६५॥ प्रतिगमनं नाम भूयोऽपि गृहवासं गच्छेयुः । यद्वा- कश्चित्पा र्श्वस्थाऽऽदिभ्यः समागतः स तेष्वेव व्रजेत्, अन्यतीर्थिकेषु वा गच्छे वा सिद्धपुत्रिकां वा संयती वा स्वलिङ्गस्थितः प्रतिसेवेत, हस्तकर्म वा कुर्यात् । यत एते दोषा श्रतो न भावप्रतिबद्धे स्थातव्यं भवेत् । श्रावश्यके तत्राऽपि स्थातव्यं भ वति । किं पुनस्तदित्याह - ( श्रद्धाण इत्यादि ) श्रध्वप्रतिप नास्ते साधवो नवां वसति न लभन्ते, वर्षे वा निरन्तरं पतति चतुष्पदाः स्तेनाऽऽदयो ग्रामाऽऽदौ बहिरुपद्रवन्ति एतैः कारणैर्भावप्रतिबद्धे तिष्ठन्ति । Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिबद्ध सिज्जा एतदेव व्याचष्टे बिहनिग्गया व जइ, रुक्खे जोड़पटिबद्ध उस्से वा । ठायंति अह व वासं, सावयतेणाइ तो भावे ||४६६॥ "विह त्ति" श्रध्वा ततो निर्गताः स्वयं प्रतिपन्ना वा त्रिः कृत्वा शुद्धाया वसतेरन्वेषणाय यतित्वा यदि न लभन्ते ततो वृक्षस्वाधस्ताद्वा ज्योतिर्ग्रतायां द्रव्यप्रतिषायां वा वसती तिष्ठन्ति । ( श्रह त्ति ) श्रथ पुनर्वृक्षस्याधस्तात् (उस्से व त्ति) अवश्यायो वा वर्षे वा निपतति श्वापदस्तेनाऽध्दयो या तत्रोपयन्ति ततः (भावे) भावप्रतिपदायां सन्ति । तत्र चेयं यतना " (३२६ ) अभिधानराजेन्द्रः । भावम्मि ठापमाणे पढमं ठाणं तु रुवपटिबद्धे । तहियं कडग चिलिमिली, तस्सऽसती ठंति पासवणे । ४६७ | भावप्रतिवद्धे तिष्ठन्ति प्रथमं स्थानं तु रूपप्रतिवद्धे तव चावान्तराले फटकं चिलिमिलिकां वा प्रयच्छन्ति तस्य रूपप्रतिबद्धस्याभावे प्रस्रवणप्रतिबद्धेऽपि तिष्ठन्ति । तत्राsपि कायिकी मात्र व्युत्सृज्यान्यत्र परिष्ठापयन्ति । , असई व मतगस्सा, निसिरयभूमी वावि असईए । वंदे बोलकरणं, तासि बेलं च वर्जिति ।। ४६८ ॥ मात्रस्वाऽसत्यभावे अन्यस्था पर कापिकीभूमे रभावे वृन्देन विभूतिसासन महता शब्देन बोल कुर्वन्तस्तस्यामेव कायिकभूमी प्रविशन्ति तासां यागारीणां कायिकीन्युत्सर्जनवेलां वर्जयन्ति प्राण इति । यद्धस्याभावे शब्दाप्रतिबद्धेऽपि तिष्ठन्ति । तत्र भूसणभासासद्दे, सज्झायज्झाणनिच्चमुपयोगो । उपगरण सयं वा, पेल्लण अन्नत्थ वा ठाणे ||४६६ || प्रथमं भूषणशब्दप्रतिवद्धे तदभावे भाषाशब्दप्रतिचजेपि तिष्ठन्ति तन चोभयत्राऽपि महता शब्देन समुदिताः सन्तः स्वाध्यायं कुर्वन्ति । ध्यानलब्धिमन्तो वा ध्यानं शुmissदिभेदभिन्नं ध्यायन्ति । एतयोरेव स्वाध्यायध्यानयोर्नित्यमुपयोगः कर्तव्यः पणभाषाप्रति स्थान प्रतिबद्धे तिष्ठन्ति । तत्रोपकरणेन स्वयं वा विप्रः सन्तः तथा मालयन्ति यथा तासां प्रेरणं भवतिः श्रवकाशो न भवतीति भावः । श्रन्यत्र वा स्थाने गत्वा दिवसे तिष्ठन्ति, स्थानप्रतिबद्धस्याभावे रहस्यशब्दप्रतिबद्धे तिष्ठन्ति । परियारसहजपणा, सदे वए चेव तिविह तिविहाय । उदारापउत्साही भाइया जस्स जा गुरुगा ||४७० || पुरुषेण स्त्री परिभुज्यमाना यं शब्दं करोति स परिचारशब्द उच्यते । तत्र यतना स्वाध्यायगुणनाऽऽदिका कर्तव्या । ( सद्दे वर चेव तिविह त्ति ) शब्दतो वयसा च सा स्त्री त्रिविधा । तद्यथा मन्दशब्दा मध्यमशब्दा, तीवशब्दा च । वयसा तु स्थविरा मध्यमा तरुणी च । (तिविहा यत्ति ) पुनरेकैका विविधा श्रपद्रावणिभर्तृका, प्रोषितभर्तृका. स्वाधीनभर्तृ का चेति तत्र पूर्वमपाच भर्तृकार्या विरायां स्थातव्यम् । तदसंभवे प्रोषितभर्तृकायां स्थविरायां, तदप्राप्तावपद्रावणप्रोषितभर्तृकारेच प्रथममध्यमय स्तत्तद्रूप मेण स्थातव्यम् । ततः स्वाधीनभर्तृकायां स्थविरायां मन्दश८३ परिबद्ध सिञ्जा ब्दायां ततस्तस्यामेव मध्यमशब्दायां ततस्तीवशब्दायां त दभावे मध्यमतरुण्योरपि यथाक्रमं मन्दमध्यमतीव्रशब्दयोः स्थातव्यम् । अथवा-( जस्स जा गुरुग ति) यस्य साधोर्यो मन्दाssदिकशब्दो रोचते तेन या युक्ता सा तस्य गुरुरागात् गुरुका तेन च सर्वप्रयलेन तथा गुरुकलिया प्रतिबद्धः प्रतिश्रयः परिहर्तव्यः । श्रथवाऽयमपरः क्रम उच्यतेउदारण परिट्ठविया, पत्थ कन्ना सभोइया चेव । धेरी ममतरुणी, सहकरी मंदसदा य ॥ ४७१ || कन्याशब्दो बन्धानुलोम्यान्मध्ये श्रभिहित श्रादौ कर्तव्यः । ततः पूर्व कन्यायामपरिणीतायां तद्भावे अपद्रावणम कायां ततो भर्तृपरिष्ठापितायां दौर्भाग्यात्पत्या परित्यक्तायो तदलाभे प्रोषितभर्तृकायां स्थविरायां स्थातव्यं तदप्राशास्वेव शब्दकरी मन्दशब्दा च । चशब्दान्मध्यमशब्दा, तीव्रशब्दा चेति विधा । तत्र पूर्वे मन्दशब्दायां ततो मध्यमशध्दायां ततस्तीमशम्दयामपि स्थातव्यम् । "संह वए चेव तिविद्द तिविह त्ति" व्याख्यानयतिथेरी मज्झिम तरुणी, वरण तिविहति तत्थ एक्केका । तिव्वकरी मन्झकरी, मंदकरी वेव सहेणं ।। ४७२ ।। स्थविरा, मध्यमा, तरुणी, चेति वयसा त्रिविधा स्त्रीतप्रकैका त्रिविधा-तीराव्दकरी, मध्यमशब्दकरी, मन्दशव्दकरी पति शप्न त्रिविधा । अघ प्रतिबद्धादिषु चतुष्यपि या भाष्यकृता स विस्तरं यतना भोला तामेव निर्बुक्रिदेकगाथया संगृाsse.पासवणमत्तएणं, ठाणे अन्नत्थ चिलिमिलीरूवे । सज्झाए झाणे वा, आवरणे सदकरणे वा ॥ ४७३ ॥ कायिकीप्रतिबद्धे स्वाध्यायो, ध्यानं वा श्रावरणं वा कर्णयोः स्वगर्न विधेयम्। तथापि शब्दे या शब्दकरणं त या शब्दः कर्तव्यो यथा तयोः शब्द उपशाम्यति । अथाऽस्याश्च पश्चार्द्ध व्याचष्टे " बेराफर में वावि परिजिये बाहिरं च इअरं वा । सो तं गुणेड़ साहू, झाणसलद्वी उझाएजा || ४७४|| वैराग्यकरमुत्तराध्ययनादि । यद्वापि परिजितं स्वभ्यस्तं परावर्तमानमस्खलितमागच्छतीति भावः । तच्चाङ्गबाह्यं वा प्रज्ञापनाऽऽदि. इतरद्वा श्रङ्गप्रविष्टम् आचाराऽऽदि यद् यस्य साधी-रागच्छति स तत्सूत्रं तथा गुणयति यथा परिचारणशब्द न पते यस्तु ध्यानसन्धिसंपन्नः स ध्यानं ध्यायति । दोसु विलद्धि करणे, उदेइ तह वि सब करे सरं । जह लजियाथ मोहो, नासर जगर्गतकरणं वा ॥ ४७५!! द्वयोरपि खाध्यायभ्यानयोर्यः सापुरलब्धिकः स्वकर्णी - गयति तथाऽपि शब्दश्रवणे शब्द तथा कुर्यात् यथा तया र्लज्जितयोर्मोहो नश्यति किमेवं भो न पश्यसि त्वमस्मान व स्थितान् यदेवं चेष्टितानि पुरुषे ? | यद्येवमप्युक्तो न तिष्ठति ततो जनकान्तं कुर्वन्ति यथा पश्यत पश्य तभी इन्द्रदत्त ! सेोमशर्मन् ! अर्थविगुप्त इत्थमस्माकं पुर तो अपने द्वितीयभङ्गः । 9 1 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३०) अभियान राजेन्द्रः । परिषद्ध सज्जा अथ तृतीयभङ्गमाहउभभो परिवार, भयया पभरसियाएँ कायम्या । दव्वे पासवयम्मिय, ठाणे रूवे य स य ॥ ४७६ ।। उभयतो- श्रव्यती भावता या प्रतिबद्धा वसतिः तस्यां पञ्चाशिकायां भजना भङ्गकरचना कर्तव्या । तद्यथा-द्रव्यतः प्रतिबद्धा, भावे च प्रस्त्रवणस्थानरूपैः प्रतिबद्धा न शब्देन । द्रव्यतः प्रतिबद्धा, भावतः प्रस्त्रवणस्थानशब्दैः प्रतिबद्धां, नरूपेण । द्रव्यतः प्रतिबद्धा, भावे च प्रस्रवणस्थानाभ्यां प्रतिबद्धा । द्रव्यतः प्रतिबद्धा, भावतः प्रस्रवणरूपशब्दाभ्याम् ४। एते चत्वारो भङ्गाः वानप्रतिबद्ध रदेनापि च लभ्यन्ते जाता अ भङ्गाः । एते प्रखवणप्रतिबद्धपदेन सम्धा एवं प्रवाप्रति बज्रपदे ऽप्यष्टौ लभ्यन्ते जाताः षोडश भङ्गाः । श्रत्र च षोडशो भङ्गो द्रव्येण प्रतिबद्धः, भावतः पुनः प्रस्रवसाऽऽदिभिरित्येवंलक्षणो नाधिक्रियतेः उभयतः प्रतिबद्धाया अधिकारादत्र च भद्रे भावतः प्रतिवायाभावात् । ततो मे आया पञ्चदश भन्नकाः तेषु तिष्ठतो दोषानादउभयपद्वार, ठायंते आणमाइणो दोसा । सेव पुष्वभाणिया, तं चैव य होइ वितियपर्व ॥ ४७७ ॥ उभयतः प्रतिवद्धायां वसती तिष्ठतामाशाय दोषाः ये प्रथमद्वितीयभङ्गयोः पूर्व शब्दकरण । दय आत्मपरोभयस मुत्थाssदयश्च दोषा भणिताःत एवाऽत्राऽपि समुदिता वक्तव्याः । यच प्रथमद्वितीयभयार्द्वितीयपदमुकं तदेवात्राSपि ज्ञातव्यम् । गतस्तृतीयो भङ्गः चतुर्थस्तु भङ्गो न द्रव्यतः प्रतिबद्ध नापि भावतः इत्येवंलक्षणः। स चोभयथाअपि निर्दोष इति न काचित्तदीया विवरणा । 1 निर्धन्धीनां प्रतिबद्धशय्यायां वासनिषेधः " नो कप्पर निग्गंथीणं पडिबद्धसिजाए बत्थर ।" अत्र भाष्यम् पसेवकमो नियमा, निधी पि नवरि चढलहुगा । सुत्तनिवाम निहोसपटिबद्धे असइ उ सदोसे ||४७८ || एष एव क्रमो द्रव्यभावोभयप्रतिबद्ध व्याख्यापरिपाटिरूपो नियमाद् निर्व्रन्थीनामपि चक्रव्यः, नवरं प्रति तन्तीनां तासां चतुर्लघुका मोदका प्राह-यथेयं तईि सूत्रं निरर्थ कम है। आचार्य: माऽऽहू- सूपनिपातो निर्दोषप्रतिश्रये सति प्रायधितं सदोषप्रतिपदे द्रव्यम् । अथ निर्दोषप्रतिको न प्राप्यते ऽतस्तस्यासत्यभावे सदोषप्रतिबद्धेऽपि स्थातव्यम् । आऊजोपणमादी, दम्बम्मि तदेव संजई पि । नाणतं पुरा इत्थी, नच्चासने न दूरे य ॥ ४७६ ॥ द्रव्यप्रतिवद्ध संयतीनामप्कायरा कटयोजना व्यस्तथैव भय परं तासां खागारिकनिप्रये तिष्ठन्तीनां न दोषः (ना गुरु इत्थि त्ति ) स पुनः प्रतिबद्धः स्त्रीभिरेव वसन्तीभिर्शालयोन पुरुष पनिन्येभ्यो निधीनां नानात् स च सं पतीनां प्रतिश्रयः खागारिकगृहस्य नावास, न चातिपूरे भवति । तद्यथा अनियमादी भगिणी, जा यत्र सगोरे अम्भरहियाउ । विहवा वसंति सागा रिवरस पासे अदूरम्मि ।। ४८० ॥ परिबन्द सिज्जा आर्थिका पितामही था. आदिशम्याज्जनम्यादिपरिग्रहः । भगिनी प्रतीता, याश्चान्या अपि भ्रातृजायाप्रभृतयः सागारिकस्य शय्यातरस्याभ्यर्हिताः पूज्या विधवाः सागारिकगृहस्थपार्श्वे पूरे वसन्ति ताभिईन्यतः प्रतिषजे प्रतिभये वस्तव्यमिति । आह च एयारिसगेहम्मी, वसति बीउ दव्यपरिबद्धे । पासववादी व पया, ताहि समं होंति जयखाए ॥४८१॥ एता मे श्रीमन्यतः प्रतिबद्धे मतिन्यो वसन्ति तत्र च स्थिताः प्रस्रवणाऽऽदीनि पदानि यतनया धारकग्रहणा35दिरुपया ताभिः समं कुर्वन्ति पतनिर्दोषं द्रव्यप्रतिबद्धमुच्यते । 3 नोदकः प्राह-पद्यत्राप्यप्कायशकढयोजनाऽऽदीन्यधिकरणानि भवन्ति ततः कथं निर्दोष भवतीत्युच्यतेकार्म अहिगरणादी, दोसा वपशीय इत्यियासुं पि । से हवंति सम्झा, अथिस्सियागं असम्झाउ ॥ ४८२॥ काममनुमतमस्माकं यदधिकरणादयो दोषा प्रतिनीनां श्रीप्रति भवन्ति परं ते पुनः दोषाः साध्याः । "आपुच्छण श्रवासिय, श्रासज्ज निसीहि वा य जयणाए । ( ४५२)" इत्यादिगाथोक्तया यतनया तेषां परिहर्तुं शक्यत्वात् । ये तु तासामनिः बितानां तदाऽऽदिसमुत्थिता दोषा भवन्ति ते असाध्याः। असाध्यदोषपरिहारेण च साध्यदोषानाद्रियमाणानां यतनया च तत्परिहारं कुर्वतीनां न कचिद्दशेषः उष्यप्रतिबद्धे विधिः । अथ भावप्रतिबद्धे विधिमाह पासवणारूव - सदा य पुमं समस्सिया जे उ । भावनिषेधो तासिं, दोसा ते तं च वियपदं ।। ४८३ ॥ 1 ये च प्रस्रवणस्थानरूपशब्दाः पुमांसं पुरुषमाश्रितास्तैः, प्र. तिबा या शय्या तस्यां तासां साध्वी मायनिबन्ध सा भावप्रतिबद्धेति भावः । श्रथ च दोषास्त एव पूर्वोक्ताः, द्वितीयपदमपि तदेव मन्तव्यम् । वस्तु विशेषस्तमुपदर्शयतिविपयकारणम्मी, भावे चिद्वंति पूवलियखाए । ततो ठाये रूवे, काइयसविकारसदेव ||४८४|| द्वितीयपदे कारणे अभ्यनिर्गमनादी निर्दोषोपाश्रयस्यामा सौ भावप्रतिवद्धे तिष्ठन्त्यः प्रथमं पूपलिकाबादस्य व क्ष्यमाणशब्दस्य प्रतिवजे तिष्ठन्ति ततस्तस्यैव स्थानप्रतिषजे रूपप्रतिबद्धे काविक्या पायुकावस्य वायो युत्सृजतः शब्दो भवति, तेन सविकारे सदोषे तथैव प्रस्रवणप्रतिबद्धे तिष्ठन्ति । पूपलिकाखादकस्य स्वरूपमाहनउइ-सयाऊश्रो वा, खट्टामल्लो अजंगमो थेरो । अमेण उडविज्जर, भोइज सो व अमेयं ॥ ४८५ ॥ यः स्थविरो नवतिवार्थिको वा शतायुरको बा.संपत वर्ष इत्यर्थः । खट्टामल्लो नाम - प्रबल जराजर्जरितदेवतया यः खाया उत्थातुं न शक्नोति अत एवाऽसावजङ्गमः अम्पेन Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३१) पमिबडसिज्जा अन्निधानराजेन्डः। पडिमट्ठाइ(ण) परिचारकाऽऽदिना उत्थाप्यते, अन्येन चासो भोज्यते पडिबिंब-प्रतिबिम्ब-न । चिक्कणपदार्थषु बिम्बाकृतिसंक्रभोजनं कार्यते, एष पूपलिकाखादकः । मणे,श्रा० म. १० सूत्र० प्रतिमायाम् , "पडिमा पडिवि. अस्यैव व्युत्पत्तिमाह - वं।" पाहना० २१७ गाथा । पूवलियं खायंतो, चवचवसदं तु सो परं कुणइ । पडिबुज्झमाण-प्रतिबुध्यमान-त्रि. । सावधानीभवति , कैएरिसो वा सदो, जारिसओ पूर्वभक्खिस्स ॥४८६॥ ल्प.१ अधि०५ क्षण । पूपलिकां भक्षयन् दन्तानामभावाद्यस्मादसौ परं केवलं पडिबुद्ध-प्रतिबुद्ध-त्रि । जागरिते,कल्प. १ अधि० ३क्षण । चपचपशब्दं करोति, तेन पूपलिकाखादकः । यादृशो वा अनिद्रे, अप्रमादिनि,उत्त० ४ अ.। मिथ्यात्वाज्ञाननिद्राऽपगपूपभक्षिणः शब्दो भवति ईदृशो यस्य भाषमाणस्य शब्दः मे सम्यक्त्वविकाशं प्राप्ते दश० ११० । भावं क्लः । प्रतियोस पूपलिकाखादकः। धे, प्राचा० ११०५ १०५ उ०।। सो वि य कुटुंतरितो, खाहु त्थू माइ कुणइ जत्तेणं। पडिबुद्धजीवि (ण)-प्रतिबुद्धजीविन्-त्रि० । प्रमादनिद्रारपरिदेवइ किच्छा हिय-यऽवितक्तो विगयभावो । ४८७॥ हितजीविते, दश०२ चू० । प्रतिबुद्धम् प्रतिबोधः, द्रव्यतो सोऽपि पूपलिकाखादकः स्थविरः संयतीप्रतिश्रयस्य कु. जाग्रत्ता, भावतस्तु-यथावस्थितवस्तुतत्वावगमः, तेन जीड्यान्तरितो वर्तमानः (खाहु त्थूमाइत्ति) काशित-निष्ठीवने, वितुं,प्राणान् धर्तु शीलमस्येति प्रतिबुद्धजीवी। यदि वा-प्रतिते द्वे अपि यत्नेन कटेन करोति, कृच्छाचासौ परिदेवते क- बुद्धः द्विधामपि प्रतिबोधवान् जीवतीत्येवंशीलः जीवी-प्रतिरुणति । वितर्कमकुर्वन् विगतभावो निरभिसन्धिहृदयः, बुद्धजीवी। कोऽभिप्रायः?-द्विधा प्रसुप्तेष्वपि अविवेकिषुन ग. सप्तममूर्तितादिरिवाव्यनचेतनाक (?)इत्यर्थः। ईदृशेन पूपलि- तानुगतिकतया यं स्वपिति,किं तु प्रतिबुद्ध एव यावज्जीवमाकाखादकशब्देन प्रतिबद्धे प्रथम स्थातव्यम् , तदभावे तस्यैव स्ते । (उत्त०) (तत्र च द्रव्यनिद्राप्रतिषेधे अगडदत्तोदाहस्थानप्रतिबद्धे, ततो रूपप्रतिबद्धे, ततः प्रतिहते बद्धेऽपि । रणम् 'अगडदत्त' शब्दे प्र० भा० १५३ पृष्ठादारभ्य गतम्) आह-किमत्र पूपलिकाखादकप्रतिबद्ध रागोद्भवो न भवति। भावसुप्तेषु तु तपस्विनः, ते हि मिथ्यात्वाऽऽदिमोहितेष्वपि उच्यते जनेषु यथावदवगमपूर्वकमेव संजमजीवितं धारयन्तीति । अवि होज विरागकरो, सद्दो रूवं च तस्स तदवत्थं च। उत्त० ४ अ० । प्रतिबोधः प्रतिबुद्धमेतत् प्रतिबुद्धं तेन जीवितुं शीलमस्येत्येतत्प्रतिबुद्धजीवी । प्रतिबोधेन जीवनठाणं च कुच्छणिजं, किं पुण रागोब्भवो तम्मी ॥४८८|| शीले, प्राचा० १ १०५ १०५ उ० । अपीत्यभ्युञ्चये । यो भवेत् पूपलिकाखादकस्य संबन्धी काशितपरिदेवनाऽऽदिकः शब्दो. यश्च तदवस्थं तस्यामवस्थायां पडिबुद्धराय-प्रतिबुद्धराज-पुं०। मल्लितीर्थकरेण सह प्रववर्तमानं वलीपलिताऽऽदिकं रूपं, यत् तस्य विएमूत्रश्ले- जिते साकेतनिवासिनि इक्ष्वाकुराजे, स्था० ७ ठा० । शा० । माऽऽद्यशुचिपङ्किलं कुत्सनीयं जुगुप्साऽऽस्पदं स्थानं, तानि ( येन च नागयज्ञे स्वभार्यायाः पद्मावत्याः श्रीदामगप्रत्युत विरागकराण्येव, कुतः पुनस्तत्र रागोद्भवो भवि एडे विस्मितो मिथिलापतिपुत्र्या मल्ल्याः श्रीदामगएडवप्यति । अथ पूपलिकाखादकप्रतिबद्धं न कल्प्यते ततो यथा र्णनं श्रुत्वा तत्र दूतः प्रेषितः, इति 'मल्ली' शब्दे वक्ष्यते) निर्ग्रन्थानां कटकचिलिमिलिकाऽऽदिका यतना भणिता,तथा पडिबोहग-प्रतिबोधक-पुं० । प्रतिबोधयतीति प्रतिबोधकः । निर्ग्रन्थीनामपि द्रष्टव्या। विशे० । गृहचिन्तके, यो गृहं चिन्तयन् यो यत्न योग्यस्तं तत्र अत्र परः प्राह व्यापारयति । व्य० ३ उ०। प्रतिबोधयतीति प्रतिबोधकः । एयारिसे पि रूवे, सद्दे वा संजईण जइऽणुप्मा । सुप्तस्योत्थापके, नं०। समणाण किं निमित्तं,पडिसेहो तारिसे भणियो॥४८६॥ पडिखोहिय-प्रतिबोधित-नि० । व्यक्तचेतनापति, झा० १ योताहशे पूपलिकाखादकसंबन्धिनि रूपे शब्दे वा संय शु०१०। तीनामनुशा क्रियते तर्हि श्रमणानां किं निमित्समीडशे स्थ पडिभजिउकाम-प्रतिभक्तुकाम-त्रि०। प्रतिपतितुकामे, व्य० विरखीसंश्रिते रूपाऽऽविप्रतिबद्धे प्रतिषेधो भणितः तेषामपि तत्र वस्तुं युक्तमिति भावः । ४ उ०। सूरिराह पडिभयकर-प्रतिभयकर-त्रि । भयजनके, स०११ अङ्ग । मोहोदएण जइ ता, जीवविउत्ते वि इत्थिदेहम्मि । पडिभाग-प्रतिभाग-पुं०। प्रतिरूपो भागः प्रतिभागः। प्रदिहा दोसपवित्ती, किं पुण सजीवए देहे ॥४६॥ तिबिम्बे, प्रा० म० १ ० । अंश, अनु० । यदि तावता मोहोदयेन जीववियुक्तऽपि स्त्रीदेहे पुरु- पडिभासंत-प्रतिभाषत-त्रि०। बुवाणे, सूत्र० १ ० ३ ० षाणां प्रतिसेवनादोषप्रवृत्तिदृष्टा, तर्हि किं पुनः सजीवदेहे स्थविरायां संबन्धिनि, तत्र सुतरां भविष्यतीति भावः । श्र | पडिभेअ-प्रतिभेद-पुं० । उपालम्भने, पाइ० ना० २६६ गाथा। तस्तेषां तत्रापि प्रतिषेधः कृतः, निर्ग्रन्थीनां तु पुरुषिकाखादकप्रतिबद्धे स्वल्प एव दोषः, अनिश्रितानां तु महानिति। पडिमट्ठाइ (ण)-प्रतिमास्थायिन्-पुं०। तिमया एकरात्रिवृ० १ उ० ३ प्रक०नि० चू०। क्यादिकया कायोत्सर्गविशेषेणैव तिष्ट तीत्येवं शीलो यः स Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३२) पडिमट्ठाइ (ण) अनिधानराजेन्छः। पडिमा प्रतिमास्थायी, स्था० ५ ठा० १ उ० । भितुप्रतिमाका- तिमा। [स्था०] [यवमध्या चन्द्रप्रतिमा 'जवमझवंदपडिमा' रिणि, स्था०७ ठा० । वृ०। शब्दे चतु० भा० १४३०पृष्ठे व्याख्याता] यस्यां तु कृष्णप्रतिपपडिमंगी-प्रतिमाङ्गी-स्त्रीगरचनायाम, जिनप्रतिमानां सत्काऽ. दि पश्चदश भुक्त्वा एकैकहान्या अमावास्थायामेकं, शुक्लपगीरचना क्रियमाणा दृश्यते, सा युक्तिमती,न वेति प्रश्ने,उत्त तिपदि चैकमेव, ततः पुनरे कैकवृद्धया पूर्णिमायां पञ्चदश रम्-यद्यपि लोहितसंस्कारे किश्चिदपावित्र्यं श्रूयते तथाऽपि भुङ्क्ते सा, बज्रस्येव मध्यं यस्यास्तन्वित्यर्थः।सा वजमध्या नामग्राहं निषेधाक्षरानुपलम्भादिदानींतनकाले स्थाने स्थाने चन्द्रप्रतिमेति स्था०२ ठा. ३ उ०। प्रतिक्षायाम, प्रव० ६७ तथा प्रवृत्तिदर्शनाद् बहूनां पूजाकरणान्तरायप्रसङ्गाश्च सर्वः द्वार । स्थाअभिग्रहप्रकारे, यथा मासाऽऽद्या भिक्षुप्रतिमा। थान निषेधः। १५ प्र० । सेन. २ उल्ला। . ओघ स०। दश ध० स्था० श्राचा०। उत्ताशा० । व्य० । पडिमा-प्रतिमा-स्त्री०। सद्भावस्थापनायाम , दश० १ अ०। चत्तारि सेजपडिमानो परमत्ताओ। चत्तारि वत्यपडिमाबिम्बे, आव० ३ ० ।" पडिमा पडिबिवं।" पाइ० ना. ओ पामत्तायो। चत्तारि पायपडिमाओ परमत्तायो । चत्तारि २१७ गाथा । “जिपपडिमादसणेण पडिबुद्धं ।” दश०१ ठाणपडिमाओ पसत्ताओ। श्र०। (जिनप्रतिमाऽधिकारः सर्वोअप'चेइय' शब्दे तृ०भा० स्था० ४ ठा० ३ उ० । (पृथक् पृथगेषां व्याख्या) १२०५ पृष्ठादारभ्योक्तः) प्रतिपत्ती, स्था। तपोभेदाऽऽत्मिकाः प्रतिमा आहदो पडिमाओ पएणत्ताओ । तं जहा सुयसमाहिपडिमा पंच पडिमाओ परमत्तायो। तं जहा-भद्दा, सुभद्दा, महाचेव, उवहाणपडिमा चेव । दोपडिमाओ परमत्ताो । तं जहा भद्दा, सबओभद्दा, भदुत्तरपडिमा । विवेगपीडमा चेव, विउस्सग्गपडिमा चेव । दो पडिमाओ | "पंच" इत्यादि व्यक्तं,नवरम्-भद्रा,महाभद्रा३,सर्वतोभद्रा पपत्ताओ। तं जहा-भद्दे चेव, सुभद्दे चेव । दो पडिमाओ ४ च द्विचतुर्दशभिर्दिनैः क्रमेण भवतीत्युक्तं प्राक् । सुभद्रा पएणत्ताओ। तं जहा-महाभद्दे चेव, सव्वतोभद्दे चेव । दो | त्वदृष्टत्वात् न लिखिता । सर्वतोभद्रा तु प्रकारान्तरेणाप्यु: पडिमाओ पामताओ । तं जहा-खुडिया चेव मोयपडिमा, च्युते । द्विधेयम-क्षुल्लिका. महती च । तत्राऽऽद्या चतुर्थामहल्लिया चेव मोयुपडिमा । दो पडिमाओ पन्नत्ताओ । तं ऽऽदिना द्वादशावसानेन पञ्चसप्ततिदिनप्रमाणेन तपसा भव ति । अस्याश्च स्थापनोपायगाथा-"एगाई पंचंते, ठवियं म. जहा-जत्रमझ चेव चंदपडिमा, वइरमज्के चेव चंदपडिमा । ज्झे तु पाहमणुयंति । उचियकमेण य सेसे, जाण लहुं सब्ब(दो पडिमा इत्यादि) प्रतिमा प्रतिपत्तिः, प्रतिशेति यावत् । तोभदं ॥२॥” इति । पारणकदिनानि तु पञ्चविंशतिरिति स्थासमाधानं समाधिः प्रशस्तभावलक्षणः,तस्य प्रतिमा समाधि पना। महती तु चतुर्थाऽऽदिना षोडशावसानेन षलवत्यधिकप्रतिमा दशाक्षुतस्कन्धोका द्विभेदा-श्रुतसमाधिप्रतिमा,सामा दिनशतमानेन तपसा भवति । अस्या अपि स्थापनोपायगायिका अदिश्चारित्र समाधिप्रतिमा च । उपधान तपस्तत्प्रति था-"एगाई सत्तंते, ठवियं मज्झे तु आदिमणुयंत । उचियमा उपधानप्रतिमा द्वादशभिक्षुप्रतिमा ('भिक्खुपडिमा' कमेण य सेसे, जाण महं सव्वोभई ॥ १ ॥” इति । शदेऽस्या व्याख्या) एकादशोपासकप्रतिमाश्चेत्येवं रूपेति । पारण कदिनान्येकोनपञ्चाशदिति २ स्थापना । भद्रोत्तरप्रविवेचनं विवेकस्त्यागः, स चाऽऽन्तरायाणां कषायाऽऽदीनां, तिमा द्विधा-क्षुल्लिका, महती च । तत्राऽऽद्या द्वादशदिना बाह्यानां गणशरीरभक्तपानाऽऽदीनामनुचितानां तत्प्रतिप, विंशान्तेन पञ्चसप्तत्यधिकाऽऽदिशतप्रमाणेन तपसा भवति । सिर्विवेकप्रतिमा, व्युत्सर्गप्रतिमा, कायोत्सर्गकरण मेवेति । अस्याः स्थापनोपायगाथा-" पंचाई अनवते, ठवियं मज्झे भद्रा पूर्वाऽऽदिदिक्चतुष्टये प्रत्येकं प्रहरच तुष्टयकायोत्सर्गक- तु श्राहमणुयंति । उचियकमेण य सेसे, जाणह भद्दोत्तरं रणरूपा अहोरात्रद्वयमानेति। सुभद्राऽप्येवं प्रकारेणैव सम्भा खुडं ॥१॥” इति । पारण कदिनानि पञ्चविंशतिरिति ३। व्यते, अद्दष्टत्वेन तु नोक्नेति महाभद्राऽपि तथैव. नवरमहो महती तु द्वादशाऽऽदिना चतुर्विशतितमान्तेन द्विनवत्यधि. रात्रकायोत्सर्गरूपा अहोरात्रचतुष्टयमाना सर्वतोभद्रा तु द- कदिनशतत्रयमानेन तपसा भवति । तत्र च गाथा-"पंचाश उदितु प्रत्येकमहोरात्रकायोत्सर्गरूपा अहोरात्रदशकम इऽऽगारसंते, ठवियं मज्झे तु श्राइमणुयंति । उचियकमेण य माणेति (क्षुद्रिका सर्वतोभद्रप्रतिमा ' खुड्डागसव्वोभद्द- सेसे, महई भदोत्तरं जाण ॥१॥” इति । पारण कदिनान्ये को. पडिमा' शब्दे तृतीयभागे ७५३ पृष्ठे गता ) मोकप्रतिमा प्र- नपञ्चाशदिति। उक्तः कर्मणां निर्जरणडेतुस्तविशेषः। स्था. स्रवणप्रतिमा, सा च कालभेदेन शुद्रिका (अस्यार्थः "खु- ५ ठा. १ उ. । “एगा अहम्मपडिमा।” धर्मप्रतिपक्ष भूत. ड्डिया" शब्दे तृतीयभागे ७५३ पृष्ठे गतः) महती च भव- स्त्वधर्मः, तद्विषया प्रतिमा प्रतिक्षा, अधर्मप्रधानशरीरा वा तीति । यत उक्तं व्यवहारे-"खुडियाणं मोयपडिमापडिवन्न अधर्मप्रतिमा, सा एका । (स्था) “एगा धम्मपडिमा।" स।" इत्यादि । इयं च द्रव्यतः प्रस्रवणविषया, क्षेत्रतो स्था०१ठा० । संथा । प्रवाश्राव० । धः। (एकादशो. ग्रामाऽऽदेहिः, कालतः शरांद निदाधे वा प्रतिपद्यते, पासकप्रतिमाः 'उवासगपडिमा' शदे द्वि० भा०१०६५ पृटे भुक्त्वा चेत् प्रतिपद्यते चतुर्दशभक्तेन समाप्यते, अभुक्त्वा तु प्रपञ्चिताः) (प्रकीर्णक विषयाः 'पढिमा' शब्दे वयते) षोडशभक्तन, भावतस्तु दिव्याऽशुपसर्गसहनमिति । एवं अथ प्रतिमापालनरूपं जन्म संबन्ध्येव कृत्यं स्वातन्त्र्येणाऽहमहत्यपि, नवरं भुक्त्वा चेत्प्रतिपद्यते षोडशभक्केन समाप्य. ते.अन्यथा त्वष्टादशभक्तेनेति ।यवस्येव मध्यं यस्याः सा यव विधिना दर्शनाद् ध्यानात्, प्रतिमानां प्रपालनम् । मध्या, चन्द्र इव कलावृद्धिहानिभ्यां या प्रतिमा सा चन्द्रप्र- यासु स्थितो गृहस्योऽपि, विशुद्ध यति विशेषतः ॥७॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३३) पमिमा अभिधानगजेन्द्रः। पमिमा (विधिना)दशावतः धाऽद्यागमप्रतिपादनेन दर्शनं,सम्य- छट्टीए बंभयारी सी, फासुत्राऽऽहार सत्तमी। क्चं, तत्प्रधाना, तेनोपलक्षिता वा प्रतिमाप दर्शनं, सा वजिजा वजमहारं, अद्भुमि पडिवन्नो॥ ७॥" श्राद्या प्रथमा यासां प्रतिमानां ता दर्शनाऽऽद्यास्तासाम्, षष्ठयां पुनरयं विशेषःएकादशसंख्यानामित्यर्थः । (प्रतिमानाम् ) अभिग्रहविशेषा " पुब्बोइअगुणजुत्ती, विसेसी विजिअमोहणिजो अ। णाम् (प्रपालनम् ) प्रकर्षेण पालनं, विशेषतो गृहिधर्मो वजह अबंभमेगं-ती अराई पि थिरचित्ती ॥८॥ भवतीति अन्वयः । आसां पालने किं भवतीत्याह-(या सिंगारकहाविरो, इत्थीएँ समं रहम्मि णो ठाइ। स्वित्गदि )यासु प्रतिमासु (स्थितः ) निष्ठः (गृहस्थोऽपि) चयइ अ अतिप्पसंग, तहा विभूसं च उकोसं॥६॥ यतितामप्राप्नुवन्नपि, प्रास्तां कृतसर्वसङ्गत्यागोऽनगार इत्य एवं जा छम्मासा, एसोऽहिगी इहरहा दिटुं। पिशब्दार्थः । (विशेषतः) असंख्यगुण्या गुणश्रेण्या (वि जावजीवं पि इम, बज्जइ एअम्मि लोगम्मि ॥१०॥ शुध्यति) क्षीणपापो भवति। अथ पुनः काः प्रतिमाः यासु अवरेण वि आरंभ, नवमीए नो करावए । स्थितो गृहस्थोऽपि विशेषतः शुध्यति ?। उच्यते इसमीए पुणो दिटुं, फासुग्रं पि न भुंजए ॥११॥ "दसण १ वय २सामाइअ, ३, शिक्खित्तभरो पायं पुत्ताइसु अव सेसपरिवारे । पोसह ४ पडिमा ५अबंभ ६ सच्चित्ते ७। धौवममत्ती अ तहा, सब्वत्थ परिणो नवरं ॥१२॥ श्रारंभ ८ पेस ६ उद्दि लोगववहारविरो, बहुसो संवेगभाविश्रमई । ट्ठ १० वजए समणभूए अ॥१॥” इति । पुटवोइअगुणजुत्तो, णव मासा जाव विहिणा उ॥ १३॥" तत्र शकाऽदिदोषरहितं प्रशमाऽऽदिलिङ्गं स्थैर्यादिभूषणं दशम्यां पुनरयं विशेषोऽपि, यथामोक्षमार्गप्रासादपीठभूतं सम्यग्दर्शनं,भयलोभल जाऽऽदिभिर उद्दिट्टकडं भत्तं, विवजए किमुत्र सेसमारंभ। प्यतिचरन् मासमात्र सम्यक्त्वमनुपालयतीत्येषा प्रथमा प्र से होइ अखुरमुंडो, सिहलि वा धारई कोड ॥१४॥ तिमा १। द्वौ मासौ यावदखण्डितान्यविराधितानि च पूर्व जं णिहिअमत्थजायं, पुट्ठी णिश्रएहि गवार सो तत्थ । प्रतिमाऽनुष्ठानसहितानि द्वादशा-पिव्रतानि पालयतीति द्वि- जइ जाणइ तो साहइ, अह णवि तो बेइ ण वि जाणे ॥ १५॥ तीया । त्रीन् मासानुभयकालमप्रमत्तः पूर्वोक्तप्रतिमाऽनुष्ठा- जइ पज्जुवासणपरो, सुहुमपयत्थेसु णिच्चतलिच्छो । नसहितः सामायिकमनुपालयतीति तृतीया ३ चतुरो मासां पुब्बोदिअगुणजुत्तो. दस मासा कालमासेण ॥१६॥ श्चतुष्पा पूर्वप्रतिमानुष्ठानसहितोऽखण्डितं पौषधं पाल पगारसीसु निस्संगो, धरे लिंग पडिग्गहं।। यतीति चतुर्थी ४ । पञ्चमासाँश्चतुष्पा गृहे तद्वारे कयलोश्रो सुसाहु व्व, पुवुत्तगुणसायरो ॥१७॥ चतुष्पथे वा परीषहोपसर्गाऽऽदिनिष्कम्पकायोत्सर्गः पूर्वोत पुव्बाउत्तं कप्पड, पच्छाउत्तं तु ण खल एअस्स। प्रतिमाऽनुष्ठानं पालयन् सकलां रात्रिमास्त इति पञ्चमी ५ । ओयणभिलिंगसूत्रा-इ सब्वमाहारजायं तु ॥१८॥” इति ॥ एवं वक्ष्यमाणास्वपि प्रतिमासु पूर्वपूर्वप्रतिमाऽनुष्ठाननिष्ठ आवश्यकचूर्णी त्वित्थम्-" राइभत्तपरिगणा पंचमी, सचिः ताऽवसेया, नवरं परमासान् ब्रह्मचारी भवतीति षष्ठी ६ । ताहारपरिगणा" इति षष्ठी, “दिशा बंभचारी, राम्रो परिमासप्तमासान् सचित्ताऽऽहारान परिहरतीति सामील एकडे"त्ति सप्तमी।"दिया विराओ वि बंभचारी.असिणाराए मासान् स्वयमारम्भं न करोतीत्यष्टमी । नवमासान् प्रेष्य वोसटकेसमंसुरोमनहे" त्ति अष्टमी। "पेसारंभपरिगणाए"त्ति रप्यारम्भं न कारयतीति नवमी १ दशमासानात्मार्थ नि दशमी, “उद्दिट्ठभत्तविवजए समणभूए" त्ति एकादशीति पन्नमाहारं न भुक्त इति दशमी १० । एकादशमासाँस्त्य ॥७॥ध०२ अधि०। (अत्र बहुविस्तरः ' उवासगपडिक्सको रजोहरणाऽऽदिमुनिवेषधारी कृतकेशोत्पाटः स्वायत्ते मा' शब्दे तृतीयभागस्थ १०६५ पृष्ठेऽवगन्तव्यः) षु गोकुलाऽऽदिषु वसन् प्रतिमाप्रतिपन्नाय श्रवणापासकाय "उद्दिट्टपेच्छसंगय-उज्झियधम्मे चउत्थए होइ।" उद्दिष्टपात्रं भिक्षां दत्त इति वदन् धर्मलाभशब्दोच्चारणरहितं सुसा प्रेक्षासंगतिकपात्रमुज्झितधर्मकं च चतुर्थमिति चतस्रः पाधुवत्समाचरतीत्येकादशी ११। उक्तं च ऋगवेषणे प्रतिमाः। बृ०१ उ०१ प्रक० । (वस्त्रस्य गवेषणे " दमणगड़िया नेया, सम्मत्तजुअस्स सा इहं बुंदी। प्रतिमा 'वत्थ' शब्दे) (प्रतिमाप्रतिपन्नस्योपाश्रयप्रत्युपेक्षणं कुग्गहकलंकरहिआ, मिच्छत्तखोवसमभावा ॥१॥ 'पडिलेहणा' शब्द ) ('एगल्लविहारप्पडिमा' स्वस्थाने उक्ता) विया पडिमा गया, सुद्धाणुव्वयधारण । (सवभावनायां पञ्च प्रतिमा भवन्ति इति सत्तभावणा'शब्द) मोकप्रतिमा-"दो पडिमाओ *" इत्यादिसामाइअपडिमा ऊ, सुद्धं सामाइथं पि ॥२॥ सूत्रद्वयम्। अस्य संबन्धमाहअट्ठमीमाइपव्वेसु, सम्म पोसहपालणं । पडिमाहिगार पगते, हवंति मोयपडिमा इमा दोमि । सेसाणुटाणजुत्तस्त, चउत्थी पडिमा इमा ॥३॥ निकंपो काउसग्गं तु, पुवुत्तगुणसंजुश्री। ता पुण गणम्मि वुत्ता.इमा उ बाहिं पुरादीणं ।।८७॥ करेद पव्वराईसुं, पंचमी पडिवन्नो ॥४॥ प्रतिमाधिकारः प्रकृतस्तत इमे अपि द्वे मोकप्रतिमे इह भवअसिणाणविअडभोई, मउलिउडो दिवसबंभयारी श्र। तः,प्रतिमाप्रस्तावादिमे अपि प्रतिमे अत्रोपन्यस्ते इति भावः, रति परिमाणकडो, पडिमावज्जेसु दिअपसु ॥५॥" केवलमयं विशेषः-ता अनन्तरोदिताः प्रतिमा गणे स्थितस्योटीका-(मउलिउड त्ति) श्रवद्धकच्छः ॥५॥ क्नाः,इमे पुनः पुराऽऽदीनां बहिःस्थितस्येति संबन्धः अनेन सं. "झायइ पडिमाइठिी, तिलोगपुजे जिणे जिअकसाए । बन्धेनाऽऽयातस्यास्य (सूत्रस्य)व्याख्या-द्वे प्रतिमे प्रज्ञप्त, तद्यथा. णिअदासपच्चणा, अराणे वा पंच जा मासा॥६॥ * सत्रदयं पुस्तके नास्ति, ततो व्याख्यातोऽनमयम् । Jain Education Interational Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिमा क्षुल्लिका च मोकप्रतिमा, महती वा मोकप्रतिमा । मोकः काये. की तदयुत्सर्गप्रधान प्रतिमा मोकप्रतिमा, तब चुकां मि ति प्राग्वत् । मोकप्रतिमां प्रपन्नस्यानगारस्य कल्पते (से) तस्य प्रथमनिदाघकाल समये वा वरमनिदाघकालसमये या बहि ग्रमस्य वा, यावत्करणान्नगराऽऽदिपरिग्रहः । राजाधान्यां वा बने वा, एकजातीयमसंघातां वनं चिदुर्गे नानाजातीषमसं घाते पर्वते प्रतीते पर्वतचिदुर्गे अनेकपर्वतसंघातरुपे या यदि प्रतिमामारोहति प्रतिपद्यते तदा चतुईशेन भन पारयति समापयति, अधाभुक्त्वा आरोहति तदा षोडशकेन भक्तेन पारयति तेन च जातं मोकं कायिकी आघातव्याः आगमने च दिवा आगच्छति, एवं महत्या अपि प्रतिमायाः सूत्रं वाच्यं, विशेषोऽपि पाठासेद्ध एव । व्य० ६ उ० । ( मोयपडिमा 'शब्दे विस्तरः ) यवमध्यचन्द्रतिमा-" दो पडिमाओ पाओ तं जहा- जबरज्मा य, चंदपडिमा ” इत्यादि । अस्य संबन्धप्रतिपादनार्थमाह पगया अभिग्गहा खलु, एस उ दसमस्स होति संबंधो । संखाय समवत, आहारे या वि अहिगारे ॥ १ ॥ प्रकृताः खलु नवमोद्देश के चरमसूत्रेष्वभिग्रहाः, श्रत्रापि त एवाभिग्रहाः प्रतिपाद्या इत्येष दशमस्य दश मोद्देश काऽऽदिसू त्रस्य संबन्धः श्रथवा नवमोद्देश के चरमानन्तरसूत्रे आहारे या अभिहिता संख्या सा अत्राप्यनुवर्तते तत आहारया प्रशस्ता वा दशमे देशकाऽऽदिसूत्रस्थाधिकारप्रवृत्तिः सूत्राक्षराणि सामान्यतः सुप्रतीतानि । विशेषं तु भाष्यकारी व्याख्यानयतिजवमज्झ वरमज्झा, वासट्ट चियत्त तिविह तीहिं तु । दुवि च सह सम्मं, अरणाओ तित्थनिक्लेवो ॥२॥ यवमध्येति पदं, वज्रमध्येतिपदं तथा व्युत्सृष्ट इति, त्यक्त इति त्रिविधमुपसर्ग, त्रिभिर्मनोवाक्कायैः सम्यक् सहते, यदि वा द्विविधात् उपसर्गात् अनुलोमरूपात् त्रिभिः सम्यक सहते, तथा - श्रज्ञातः तीर्थनिक्षेप इति व्याख्येयमेष द्वारगाथासंक्षेपार्थः। 5 ( ३३४ ) अनिधानराजेन्द्रः | . सांप्रतमेनामेव विवरीषु प्रथमती वचमध्येति, वज्रमध्येति च व्याख्यानयतिउनमा जव चंदे - वा. जवमचंदपरिमाए । एमेव य विइयाए, वज्जं वरं ति एगट्ठे || ३ || मध्यचन्द्रप्रतिमाया यवेनोपमा, चन्द्रेरोव यवस्येव मध्यं यस्याः सा यवमध्या, चन्द्राऽऽकारा प्रतिमा चन्द्रप्रतिमेति व्युत्पत्तेः । एवमेव द्वितीया श्रपि वक्तव्या वज्रमणचन्द्रप्रतिमाया वजेणोपमा चन्द्रेण च पञ्जीव मध्यं यस्याः सा वज्रमध्या, चन्द्राऽऽकारा प्रतिमा चन्द्रप्रतिमा, प्राकृतमधिकृत्य वज्रशब्दस्य पर्यायेण व्याख्यानमाह - ( वजं वरं ति एग ) इयत्र भावना - शुक्लरक्षस्य प्रतिपदि चन्द्रविमानस्य दृश्यपञ्च शभागस्य एका कला दृश्यते, द्वितीयायां द्वे कले, तृतीयाय तिस्रः कलाः, एवं यावत् पञ्चदश्यां परिपूर्णाः पञ्चदश कलाः । ततो बहुलपक्षस्य प्रतिपदि एकैकया कलया ऊनो दृश्यते चतुर्दशकलदश्यन्ते द्वितीयायां त्रयोदशतीय " पडिमा स्यां द्वादश, यावदमावास्यायामेकाऽपेि न दृश्यते । तदेवमयं मास आदावूनो मध्ये संपूर्णोऽन्ते पुनरपि परिहीनो, यवो ज्यादावन्ते च तनुको मध्ये विपुलः । एवं साधुरपि भिक्षां गृह्णाति शुक्लपक्षस्य प्रतिपदि एकां, द्वितीयस्यां द्वे, तृतीयस्यां तिस्रः, यावत्पञ्चदश्यां पञ्चदश ततो बहुलपक्षस्य प्रतिपदि पुनञ्चतुर्दश द्वितीयायां त्रयोदश यावच्चतुर्दश्यामेकाममावस्यायामुपोषितः। ततश्चन्द्राऽऽकारतया चन्द्रम तिमा आदावन्ते च भिक्षावास्तनुत्वान्मध्ये विपुलत्वात् यवमध्योपमितमध्यभागा तथाऽमुमेव यवमध्यं चन्द्रप्र तिमामधिकृत्यान्यत्रोक्तम्- "एकैकां वर्द्धयेत् भिक्षां, शुक्ले कृष्णे च हापयेत्। भुञ्जीत नामावस्याया मेष चान्द्रायणे विधिः॥१॥" बज्रमध्यायां चन्द्रेण प्रतिमायां बहुलपक्ष आदी क्रियते, तत एवं भावना-बहुलपशस्थ प्रतिपदि चन्द्रविमानस्य चतु शकला दृश्यन्ते, द्वितीयस्थां त्रयोदश, यावश्चतुर्दश्यामेका, अ मावास्यायामेकाऽपि न ततः पुनरपि शुक्लपक्षस्य प्रतियदि चन्द्रविमानभ्यैका कला दृश्यते द्वितीयायां है, याच त्पञ्चदश्यां पञ्चदशाऽपि तदयं मास आदायन्ते व पृथुलो मध्ये तनुको, वज्रमप्यादावन्ते च विपुलं, मध्ये तनुकमेवं साघुरपि मियां युद्धाति बहुलपक्षस्य प्रतिपदि चतुर्दश द्वितीयस्यां त्रयोदशपाचश्यामेकामेच अमावास्यायामुपयसति ततः पुनरपि शुक्लपक्षस्य वयेकां भिक्षांद्व तीयस्यां वै यावत्पञ्चदश्यां पञ्चदशेति । तत एषाऽपि चन्द्रा5 कारतया चन्द्रप्रतिमा सादावन्ते च विपुलनयामध्ये व ननुतया, वज्रमध्योपमितमध्यभागा वज्रमध्या । एतदेव यवमध्यचन्द्रप्रतिमामधिकृत्य सूचयन्नाह - परणरसेव य काउं, भागे ससिगं तु सुकपक्खस्स । जा बहुए व दत्ती, हाव ता चैव काले ॥४॥ शशिनं शशिविमानं पञ्चदश भागान् कृत्वा यथा शुक्लपक्षस्याssदित श्रारभ्य कलाः प्रतिदिवसं च संवर्द्धन्ते, एवं दत्तयोsपि प्रतिपदि आरभ्य यावद्वर्द्धयते, ता एव कालेन कृष्णेन पक्षेण क्रमेण हापयेत् । वृ० । (दत्तयस्तु दति शब्दे चतुर्थभागे २४४६ पृष्ठे प्रतिपादिताः) एवं विपरीतक्रमेण वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमायामपि द्रष्टव्यम् । भत्तट्ठी खव वा, इयरदिणे तासि होइ पट्टवत्र । चरि असद्धवं पुण, होइ अभत्तट्ठमुज्जवणं ॥ ५ ॥ तयोर्यवमध्यवज्रमभ्यप्रतिमयोः प्रस्थापक आरम्भ इतरस्मिनारम्भदिवसात पाचात्ये दिने भक्तार्थी या भवति पको वा चरमदिवसे पुनविषये श्रद्धावान् श्रद्धामपि न करोति । एतद् यवमध्यचन्द्रप्रतिमामधिकृत्योक्तं वेदिततम्यम् । उद्यापनं पुनर्द्वयोरपि प्रतिमयोरभहार्थमवसेयम् । संघ परियार, सुत्ते अत्थे य जो भवे वलिओ । सो पडिमं पडिवा, जवमयं वरमज्झ च ॥ ६ ॥ संहनने श्रद्यत्रयान्यतमस्मिन्पर्याये जन्मतो जघन्येन एकोनत्रिंशद्वर्षेषु, उत्कर्षतो दशोनायां पूर्वकोट्यां, प्रवज्यापर्यायेण जयन्तो विश्व उत्कर्षती देशानायां पू को समर्थ व जघन्यतो नवमस्य पूर्वस्य तृतीयमा चारवस्तु, उत्कर्षतः किञ्चिन्नानि दशपूर्याणि पर्व संहनने पर्याये सति यः सूत्रे अथैव भवति वलिको पलीयान् प्रति Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिमा मां यवमध्यां, वज्रमध्यां च प्रतिपद्यते । तदेवं यवमध्य-वज्रमध्येति गतम् । व्य०१० उ० (काया 55दिपदानामर्थः स्वस्वस्थाने सप्तसप्ततिका भिक्षुप्रतिमा व स्वस्थाने) कायोत्सर्गे, आ. म०१ श्र० । प्रव० । ग०। शरीरें, बृ०१ उ०३ प्रक० । (सागारिकापाश्रये न स्थातव्यमिति सागारिकप्ररूपणायां प्रतिमाप्ररूपणं 'वसह ' शब्दे वक्ष्यते ) जिनप्रतिमानां यथा भूस्थाने कृष्णता कियते तथैवीवो रहता क्रियते न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - शाश्वतमतिमानुसारेण भ्रस्थाने कृष्णवाकर णवदोष्ठयोः रक्तताकरण मविरुद्धमिति । १४ प्रश्न० । सेन० २ उल्ला० । 9 पडिमागिह- प्रतिमागृह - न० । चैत्यगृहे, नि० चू० १२ उ० । परिमाज्य प्रतिमायुत- त्रि० सागारिकसहिते नि० चू० १ 1 उ० । बृ० । (३३५) अभिधानराजेन्ड परिमाण - प्रतिमान प्रतिरूपं समानम | गुरुजा35दौ, प्रतिमीयते तदिति प्रतिमानं गुज्जाऽऽदिना मीयते । अनु० । अथ प्रतिमानप्रमाणं पचिमा से किं तं परिमाणे ? पडिमा जं पडिमिणिज्जइ । तंजहा गुंजा, कागणी, निष्फावो, कम्ममासयो, मंडलओ, सुवयो। पंच गुंजाओ कम्ममासओ, कागण्यपेषा पत्तारि कागणीओ कम्ममासत्र, तिमि निष्फावा कम्म मासओ, एवं चउको कम्पमासओ काकश्वषेयेत्यर्थः वारसम्ममासया मंडलओ एवं अडपालीसं कागणी । मंडल सोलसम्ममासया सुवष्णो, एवं चउसकागणीओ सुबो एएवं परिमारूप्यमाणं किं पयोयणं । एएवं परिमाणप्यमाणेयं सुवम्परजतमणिमोतियसंखसिलप्पालादीणं दनाणं परिमाणप्यमाणानिन्नितिलक्खयं भवइ । से तं परिमाणे ॥ ( से किं ते पडिमाणे इत्यादि) मीयतेऽनेनेति मानं मेयस्य सुवर्णाssदे: प्रतिरूपं सदृशं मानं प्रतिमानं गुज्जाऽऽदि । श्रथवा प्रतिमीयते तदिति प्रतिमानं तत्र गुज्जा चोडिया १, सपादा गुजा२ि कात्रिभागोन गुजाइयेग वा निवृत्तो निष्पावः ३ त्रयो निष्पावाः कर्म्ममाषकः ४, द्वादश काका को मएमलक: 2, पोडश कमाषका एकः मेवाकियापन जा त्यादि ) पञ्च गुञ्जा एकः कर्म्ममाषकः । अथवा चतस्रः काकएय एकः कर्ममापक यदि वा त्रयो निष्पावका एकः क माषकः । इदमुक्तं नवति-अस्य प्रकारत्रयस्य मध्ये येन केन - प्रतिकि खारेणन कश्चिदर्थमेद इति च ममा इत्यादि च काकिणीमिपित्ताच्चतुष्को कर्ममापक इति स्वरूपविशेषणमात्रमिदं, ते द्वादश कर्ममात्रका एको एकलकः, एवमष्टचत्वारिंशत्काकिणी भिर्मएकलको भवतीति शेषः । भावार्थः पूर्ववदेव षोडश कर्ममाषकाः सुवर्णः । श्रथवा चतुःषष्टिः काकिग्य एकः सुवर्णो, भा परिमापू वार्थः स एव । एतेन प्रतिमानप्रमाणेन किं प्रयोजनमित्यादि ग तार्थम् ! नवरं रजतं रूप्यं मणयश्चन्द कान्ताऽऽदयः शिलाराजपट्टकः गन्धपट इत्यन्ये शेषं प्रतीतम् । यावत्तदेतत्प्रतिमानप्रमाणम् । अनु० । स्था० । पारमाधर प्रतिमाधर पुं० प्रतिमप्रति आकाः पर्वदिवसीयधान् रात्रिका भने कथं कुन्तीति रीतिः प्रसाद्येति प्रश्ने, उत्तरम् -स्थाघ्यायचे प्रतिमा का योगनपा कं च कुर्वन्तीति वृद्धवादः । १६५ प्र० । सेन• ३ उल्ला० । प्रतिमाधरः श्रावकः श्राविका वा चतुर्थीप्रतिमात प्रारभ्य चतुष्पसामाि पोषविधायोपवासं करोति, पूर्णिमायां वैकाशन कृत्वा पौ षधं करोति, तदा मुख्यवृत्या पार्किक पूमि योश्चतुर्विधाऽऽहारः पष्ठव कृतो युज्यते, कदाचिच्च यदि तवथा शक्ति भवति तदा पूर्णिमायां चाम्लं निर्विकृतिकं वा क्रियते, एवंविधाकराणि सा माचारीप्रन्थे सम्ति, परमेकाशन के शास्त्रे दृष्टं नास्तीति । ४२ प्र० । सेन० ४ उमा० । पडिमापाडीमा - प्रतिमाप्रतिमा- स्त्री । प्रतिमा कायोत्सर्गः, सेव प्रतिमा प्रतिमाप्रतिमा । पञ्चा० १० विच० । पञ्चम्यामुपास प्रतिमायाम् पञ्चमाद्वारे व चतुष्पथे या परिग्रहोप गऽऽदिर्निष्कम्पकायोत्सर्गः पूर्वोकप्रतिमानुष्ठानं पालयन् सकलरात्रिमास्ते इति पश्चमी । घ० २ आंध० । ( "उवासगपरिमा" शब्दे द्वि० भा०६५ पृष्ठेयाः स्वरूपमुक्तम्) परिमापदिवस प्रतिमात्रतिपत्र पुं० [प्रतिमा निक्षुप्रतिमा - । द्वादशसमयप्रसिद्धास्ताः प्रतिपन्नोऽभ्युपगतवान् । निक्षुप्रतिमां प्रतिपन्ने, स्था० ४ ० १ उ० । परिमापूषण - प्रतिमापूजन १० पौषधिका पट्टपट्टिकानिचि प्रतिमां पूजयति न वेति प्र उत्तरम् - पौषधिका कार बिना पट्टाssदिकं न पूजयतीति ज्ञेयमिति । २४० प्र० । सेन० ३ उला। प्रतिष्ठित प्रतिमा यात प्रश्ने, उत्तरम् - आञ्चलिक प्रतिष्ठिता अपि प्रतिमा द्वाइजल्पपट्टकानुसारेण गुरुवचनात् पूज्या पत्र "तम्हा सानुना सत्वमिसेदोपचयणे स्थि" इत्यारानुसरणीयेति । ३६०प्र० ०३०सरे अमुखकोशबन्धः प्रोकोऽस्ति स कया रीत्या बध्यते, वस्त्रद्वयाद् यदा भवति पुजकस्य शरीरे तोरीयालय मुख शक्यते, यदि तृतीयं वस्त्रं मुख कोशबन्धनिमित्तं भवति तदा युक्तमुक्तवानेव या उतरम् पूजाव सोबन्ध उत्तरीयाले तु तृतीय कवियों देवपूजा स मोरील मे समारयोग्यमेव बि. धेयं, तेन न किमप्यशक्यमिति । ४०१ प्र० । सेन० ३ उल्लाप विका जिनालये, देवासरे व प्रतिमायाः प्राल करोति न वेति तथा योनाथाय देवकरोति प्रश्ने, उत्तरम् - देवगृहे. देवावसरे च श्राविका प्रतिमायाः प्र चासनं करोति तथा पूजाम था ज्ञाता धर्मकथा ऽङ्गे द्रौपद्या यौवनावस्थायां स्नपनपूर्वकं पूजा प्रतिमाचराः स्वाध्याय Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३६ ) त्र्यभिधानराजेन्द्रः । पडिमा पूय या कृतेति बोध्यम् । ४०५-४०६ प्र० । सेन० ३ उल्ला० । ( ' दुबई' शब्दे चतुर्थभागे २५७तिपादितस्रादयः आजा जातास्तेषां तीर्थप्रति मापूजने लाजो न वेति प्रश्ने, उत्तरम् -यदि शरीरस्य, तथा बखादीनां च पावित्र्यं स्यादनिषेधातोति परं प्रतिमापूजने लाभ एव ज्ञातोऽस्तीति । ४७१ प्र० । सेन०३ उल्ला आचार्योपाध्यायका जिमगृति सम्ति जि नतिमापूजार्थमा केसरपुष्पा 55 तासानं क्रियते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - मुख्यवृध्योपाध्यायप्रशंशपाकाकरणविधिः परम्परा ज्ञातो नास्ति स्वर्गवासाचार्यस्य पा दुकाकरणविधिरस्ति ततो जनार्थ श्रीमति पादुका न पूज्यते देवव्यत्वात् । तथा श्रीखण्डादिकं साधारणं भवति, तेनापि प्रतिमाः पूजयित्वा पादुका पूज्यते, परं पाडु कामयित्वा प्रतिमा नाऽव्यंते, देवाऽऽशातनानयादिति । १३० प्र० । सेन० ४ ० । परिमानंदण - प्रतिमावन्दन-१० पूर्व नगृहं कदाचित्किञ्चिद् जक्त्या तावन्मात्रं द्रव्यनिङ्गिव्येण कृतं, तत्र प्रतिमाः वन्द्यन्ते न वेति प्रश्ने, उत्तरम् -तत्रस्यजिनप्रतिमावन्द्यत इति ज्ञायते । ए२ प्र० । सेन० ४ उ० । ( सयपि प्रतिमायादगाधिकार२२१ पृष्ठे द्रष्टव्यः ) ( बहवः प्रतिमाशब्दार्था इति पडिमा शब्देऽनुपदमेव समर्थितम) (बन्दनशदार्थ बंद शब्दे बहुते " पडिमासयग - प्रतिमाशतक- न० । प्रतिमाविषयशङ्कानिरासा के शतक की परिमिते यशोविजयोपाध्यायकृते विशेष प्रति० । "पेन्द्र श्रेणिणती नुसारक्तितः । प्रतिमाशतक ग्रन्थः, प्रथयतु पुण्यानि भविकानाम् ॥ १ ॥ पूर्व न्यायविशारदत्यावेदं कारयां प्रदतं बुधैययाऽऽचार्य पदं ततः कृतशतग्रन्थस्य यस्यार्पितम् । शिष्यार्थनया नया जमानां शिशुः सोऽयं ग्रन्थमिमं यशोविजय इत्याख्याभृदाख्यातवान् ॥ २ ॥ अस्य प्रतिमाविषया मेकाऽऽशकाऽपदारनिपुणस्य । संविग्नसमुदयस्य, प्रार्थनया तन्यते ग्रन्थः ॥ ३ ॥ यस्मिन् देविकुरु । व्याख्येयं मङ्गलैरेव, मङ्गलान्यत्र जाग्रति ॥ ४ ॥ 33 प्रति० । (श्रस्य सर्वोऽपि विषयः ' वेश्य' शब्दे तृतीयभागे १२०५ पृष्ठा - दारभ्योक्तः ) पडिमिअमाण प्रतिमीयमान प्र० परिगमाने क्यो०२ पाहु० । परिमुंडा प्रतिमुण्डना स्त्री० निषेधने ०१०२० बहुसो पुछता, इच्छाकारं न ते मम करिति । पडिमुंडणाऍ दुक्खं, दुक्खं च सलाहिउं अप्पा ॥। १०४७॥ बहुशो भूयो भूयः पृच्वद्यमाना अपि ते लाघवः कदापि अन्य सहमतिस्तत्र गत प्रतिनिधियोऽपि यथा पूर्ण भवता करणेनेति । एवं प्रतिमुपनया महन्मानसं दुखमुपद्यते । इत्यादि । वृ० १ ००२ प्रक० । परियरणा पडिमोयग प्रतिमोचक - त्रि० । धर्मकथोपदेशदानाऽऽदिना संसारसागराचार के तीर्थ करणाराऽऽदी आया० १ ० २ अ० ६ उ० । - परिय पतित थि० गते ४२० हात्परिभ्र० ३ उ० । शा० । पतने, भावे कप्रत्ययविधानात् । शा० १० १ अ० । परियम प्रतीत्य-अन्य परिष्ठि सम् साखियां पडियचाणं । " सूत्र० १ ० १ २० २३० । पडियपटोवजीवि ( स ) - पतितपिएटोपजीविन् श्र० प्रा मरुिडोका 55 सद्दशे अने सू० १ ० १०० पडियरग - प्रतिचरक - पुं० । ग्लानव्यापारके, नि०यू० १ उ० । अपराधाऽऽपन्नस्य प्रायश्चित्ते दत्ते तपः कुर्वता ग्लायमानस्य वैयावृत्य करे, व्य० १ ४० । पडियरण - प्रतिचरणा स्त्री० । 'चर ' गतिनङ्कणयोः इत्यस्य प्रतिपूर्वस्ययुस्तस्य प्रति इति यति धेषु चरणं गमनं तेन तेनासेवनामारेति प्रतिचरणा । प्रतिक्रमणे, भावः । प्रतिचरणा षविधा । तथा चाऽऽह नामं वा दविए, खित्ते काले तहेव भावे अ । एसो परियरगाए, निवखेषो छ व्यहो होइ ||५|| तत्र नामस्थापने गतार्थे । द्रव्यप्रतिचरणा अनुपयुक्तस्य ल म्यग्दृष्टेः तेषु तेष्वर्थेष्वाचरणीयेषु चरणं गमनं तेन तेन प्रका रेण यष्ट्यादिनिमित्तं वा उपयुक्तस्य वा ह्निवस्य सचिताssदिषयमेतिप्रतिचरणा व्याख्यायते क्षेत्र या प्र तिचरण क्षेत्रप्रति शालिगोपिकाऽऽद्य शामि श्राऽऽदीनि प्रतिचरन्ति । भावप्रतिचरणा द्वेधा प्रशस्ता, अप्र शस्ता च । मिथ्यात्वाज्ञानाविरतिप्रतिचरणा अप्रशस्ता | सम्यग् दर्शनज्ञान चारित्रप्रतिचरणा प्रशस्ता। श्रथवा- भोघत एवोपयुसम्पताधिकार प्रतिक्रमणपर्यायतावास्यायता शुभयोगेषु प्रतिक्रमणं बर्तनं प्रतिक्रमणमुक्तम् । प्रतिचरणाऽप्येवं भूतैव वस्तुनः । श्राव० ४ ० | अकार्यपरिहारे, कार्यप्र वृत्तौ च । आ० चू० ४ भ० । इयाणि परिणाम पासापण दितो भवति — नगरेसमा तपा दिसावी, भरिको से भार उनि सा अमेण लग्गिया मंरुणपसाइ बावडा ण तरल पासायइस अवलोयणं करेति तम्रो तस्स एगं खरं परियं । सा चितेति किं पत्तियं करेहिति त्ति । अनया पिप्पल पायो जा किं करोसियाओ ती ते बहुते पासश्रो भगो दियओ आग पाखाय ते सा निच्छूदा असो पासाओ कारियो । अन्ना य नज्जा प्राणीया, भणिया य जइ एस पासाश्रो विणस्लति तो ते श्रहं नस्थि । एवं भणिरुण दिसाजताए गओ ला से महिला तं पासायं सत्र्याय रे - तर विकसि कम्मे पासा वा तुड़ियानि पासति तं संग्वेति किंचिदाऊण .. Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडियरणा सश्रो सो पासाओ तारिलो चेव अत्यति। वाणियपण आागरण दिडो, तुद्वेण सव्वस्त सामिणी कया, विचल जोगसमन्नागया जाया । इथर असणवलपरहिया अच्चतं खभागिणी जाया । एसा दव्यपरिचरणा । भावे दिर्घतस्स उचणओ-वाण्यिगथायेाऽऽयरिपण पासायत्थाणीओ संजमो परिचरियो त्ति । खाणात गण साना सायासोबले पण परिवरि सोणिय संसारे नाणं जाओ जेण परिवरि अक्ष संजमपासाओ घरि सो निव्वाणसुदभागी जाबो ।” इति । ० ४ ० । विश्व परिवरिकण परिवरिक मतिचर्य - अ० जहाभूतं जातं ।" नि० ० १ उ० । पडिया प्रतिज्ञा श्री उद्देगे, "बाहुडिया" साधुमुद्दिश्ये त्यर्थः । श्राचा० २ ० १ ० ५ ० १ उ० पडियाइक्खिय - प्रत्याख्यात- त्रि० । अतिस्थापिते, नि० यू० १ ० । निषिद्धे, नि० चू० १ ० । परिवाद - प्रत्यानन्द पुं०चित ( ३३७ ) "पनिधानराजेन्द्रः । " औ०सु० पढियार प्रतीकार- पुं० शे० प्रा० पूर्वस्विकर्मणो १०० १४० प्रतिचार - पुं० । अङ्गव्यापारे श्राचा० १०८ श्र० उ० | परिवारकम्प - मतिचारकर्म ( ) १० प्रतिचारका शा० १ ० १३ श्र० । पडियारगत - प्रतीकारगत त्रि० । प्रतीकारः पूर्वोऽऽवरितस्य कर्मणो मे गताः प्राप्त स्वकृत कर्म"डि यारगता पगे. जे पते एव जीविणो ।” सूत्र ०१ श्रु०३ श्र०१ २० | पडियारि ( ख ) - प्रतिचारिन् त्रि० प्रतिकारके व्य०१०। परिरंजन - देशी-२० मग्ने, दे०जा० ६ वर्ग ३२ गाथा पडिरह प्रतिरथ - अध्य०। रथं रथं प्रतीत्यर्थे, न० ७ श० उ० । पडिरूव-प्रतिरूप - त्रि० । प्रतिविशिष्टम साधारणं रूपं यस्य तत् प्रतिरूपम् । अथवा प्रतिकृणं नवं नवमित्र रूपं यस्य तत् प्रतिरूपम् । जी० ३ प्रति०४ अधि० । सुन्दररूपे, कल्प० १ अधि०५ क्षण । तं प्रज्ञा० रा० औ० [झा० । चं० प्र० । प्रति० । जं० प्रा० म० । जी० । उपा० नि० । ष्टारं अष्टारं प्रति रमणीये, स० औ० । ज्ञा० स्था० । विपान | प्रारूप प्रति प्रतिविम्बं निप ततथा । उत्त० १ ० । सुविहितप्राचीनमुनीनां रूपे, उत्त० १ 61 ० सूत्र प्रतिबिम्बे, प्रतिनिधौ, सम्म० ३ काएम | रा० । अनन्यसदृशे, सूत्र० २ ० ७ ० । सदृशे झा० १ ० १ ० । उचिते. भ० १५ श० । अपरूपकं । " अज्ञानविलसि तमित्यर्थः । सुत्र० २ श्र० ६ अ० । यथोचिते, ज्ञा० १ ० १ ० । उचिते, दश० ६ अ० १ ० । झा० । रा० । श्रौत्तराहाणां भूनानामिन्द्रे, स्था० २ ठा० ३ ० प्रा० । विनयभेदे, व्य० । संप्रति प्रतिविप्रतिपादनार्थमाद " पडिवो खलु विओ, काय वइ-मणे तहेव उवयारे । अट्ट चहि दुविहो, सत्तविह परूवणा तस्स ॥ ६६ ॥ 可以 पडिरूवया प्रतिरूप उचितः यतु विमयकाराद्यथा-का कायनिमित्तः, एवं वाचि वाचिकः । मनसि मानसिकः । तथा उपचारे औपचारिक सहयादि) यथासंख्यं पदघटना- कायिको विनयोऽष्टविधः । वाचिकश्च तुर्विधः । मानसिको द्विविधः । औपचारिकः सप्तविधः । ( प रुवणा तस्स ति ) तस्य कायिकाऽऽदिनेदभिन्नस्य चतुष्प्र कारस्य प्रतिरूपविनयस्य प्ररूपणा । व्य० १ उ० । भूतभेदे, प्रज्ञा० १ पद । पडिमारूव-प्रतिमारूप-पुं० । प्रतिमारूपे श्रावकधर्मे, तज्जि नवमसूरिकृतप्राकृताऽऽलापकरूपदी पाकि स्ति-" परिमारूयो सावगधम्मो वुच्छिस्सिइ । " इति तेन तत्रव्यपुस्तके पानि वेति उत्तरम् - जिनवम रिश्तालापकरूपो दीपालिकाको हट नास्ति, जिनप्रभ सूरिकृतस्त्वालापकरूप एव वर्त्तते । तत्र च " परिमारुवो सावगधम्मो वुब्बिजिस्ल६ ।" इत्यक्कराणि न सन्तीति । ४६ प्रश्न० । सेन०१ उल्ला० । परुिवजोग-प्रतिरूपयोगयोजन न० प्रति विनयः कायिका 55दिभिहितस्तदनुगता योगा मनोवाक्कायाः, तेषां योजनं व्यापारणमवश्यकरणमविभक्तवि भागयोजनम् । व्य० ३ उ० । औपचारिक विनयनेदे, दश० ६ अ० १३० । पडिरूवया-प्रतिरूपता - स्त्री० । प्रतिः स्थविरकल्पिक मुनिसदृशं रूपं बेषो यस्य स प्रतिरूपः, तस्य भावः प्रतिरुपता । स्वरिकाम्यारित्ये० २९ ० अस्याः फलम् - पडिरूवाए गं भंते! जीवे किं जणयइ ? | पडिरूवयाएगं लाघवं जणयइ, लहुभूए गं जीवे अप्पमत्ते पागडलिंगे पसत्थलिंगे विसुद्धसमते सत्तसमितिसम्मत्ते सव्यपाणभूयजीवसत्तेसु वीससणिजरूवे अप्पपडिलेहे जिइंदिए विपुलतवसमितिसमभागए व्यवि विहरड़ ।। ४२ ।। हे भगवन् ! प्रतिरूपतया जीवः किं फलं जनयति?, प्रतिरूपतायाः कोप्रति इति स्थावर यस्य स प्रतिपा तस्य जाबः प्रतिरूपमा, तयास्थविरकल्पिक साधुवेषधारित्वेन जीवः किं न गुरुरादे शिष्य, प्रतिरूपतया जीयो ज घुन् जनयति अधिपत्यमुपायतः उपयादिपरित्यागेन, नायतस्तु अतिवात्येन लघु तिलभूत जयोतिसाद कटं स्थविरकल्पाऽऽदिवेषेण स्फुटं लिङ्गं चिह्नं यस्य स प्रकट लिङ्गः, पुनः प्रशस्तलिंग प्रशस्तं समानं रजहरमुख सिकादिकं यस्य स प्रशस्त पुर्विशुन मलसम्यक्त्वः, पुनः सत्वसमितिसमाप्तः सत्वं च समतयश्च सवसमितयस्ताभिः समाप्तः संपूर्णो, धैर्यसमितियुक्तः इत्यर्थः । ततः पुनः सर्वप्राणन्तजीवसखेषु विश्वसनीयः वि योग्य प्रति । पुनस्ताद पतिलेखः प्रतिलेखनं प्रतिलेखः प्रत रवान् पतिलेखनावान् भवतीत्यर्थः पुनः स जिते "" Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिख्वया यो भवति, पुनर्विपुलतपःसमितिसमन्यागतश्चापि विहरति । विपुलानि विस्तीर्णानि तपांसि समितवा विपुल तपःस मितस्तानिरागतः सहितः सन् विहरति द्वादशविन पता समिति गुप्तिसहित दो रिति ॥४२॥ उत्त० २० भ० पढिरुवा प्रतिरूपा खो० चतुर्थकुलकरस्यानिचन्द्रस्य भा र्यायाम, श्रा० म० १ अ० । स्था० स० । श्रा० ० । (अनिचन्द्रकुल करव कव्यता 'अभिवंद' शब्दे प्र० भा० ६१४ पृष्ठे गता ) ( श्रत्र विशेष वक्तव्यता कुलगर' शब्दे तृ० ना० (५६३ पृष्ठे गता ) 1 पडिलंभ - प्रतिलम्भ-पुं० । प्राप्तौ सूत्र० २ श्रु० ॥ श्र० । पडिलंभिय- प्रतिलभ्य - अव्य० । अवाप्येत्यर्थे, सूत्र० १० - (२३८) निधानराजेन्द्रः । f १३ श्र० । - परिलग्गल १० देशी ०० ६ व ३१ गाथा पडिलाभ - प्रतिलाभ - पुं० । प्राप्तौ तुर्यव्रतप्रत्याख्या निश्रेष्ठिविजयश्रीविजययोः प्रतिलाजने चतुरशीतिसहस्रलाघुप्रतिज्ञानमयं भवतीत्यङ्कराणि सन्ति यतीर्थक रस्य वारके वे तज्जातमिति व्यक्त्या प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम् - अयं संबन्धः प्रघोषेण श्रुतोऽस्ति, प्रकारेण स्वेवं यथा"बसन्तपुरे शिवकरमेष्ठी श्री धर्मदास भ मम लकसाधर्मिक मोजनप्रदाने मनोरथोऽस्ति परं किं करोमि तथाविधं धनं नास्ति । गुरुभिरभाणि श्रहं भृगुकच्छे श्रीमुनिसुव्रतखामि वन्दनार्थे गतः। तत्र जिनदासाभिधः श्राद्धो, भार्या सुदागदेवी, तया युतो वस्त्रभोजनाऽऽद्यलङ्करणीयं तद्वात्सल्येन बकधर्मिक भोजनदानपुण्यं भविष्यति, अतस्तेन तथा तदनु पृष्टं चतुष्पथे भोजिनदास ! सुनी की दवा, कोटी लोकाः कथयन्ति तेन वार्षिकं गुरुमुखा त् शीत्रोपदेशमाल व्याख्यां श्रुत्वा एकान्तरितब्रह्मयनं प्रतिपनम, एवं सुहागदेव्याऽपि साध्वीपार्श्वे एकान्तरितशील - तं प्रतिप, नवितव्यवशात्परस्परं पाणिग्रहणं जातम् । ततो य• स्मिन् दिने जिनदासस्य मुनि दिने निय मास्मिन् दिने दिने तस्यानिग्रहः गुरुसमीपे त्रयमेवप्रतिपमित्युपदेशतर न्धानुसारेण उपहारला करन्धानुसारेण कलाधर्मिक प्रतिलाभनपुण्यं भवति इत्यक्कराणि सन्ति । ४७ प्र० । सेन० ३ उल्ला० । पटिलाभित्ता प्रतिलाभविकरोतीत्येवंशीले प्रतिलाभने स स्था० ३ ठा० १ उ० | श्रमणं वा ब्राह्मणं वा प्रातुकं प्रतिला जब एकान्ततो निर्जरामप्रासुकं व प्रतिलाभ्य बहुतरां निर्ज मल्पं पापकर्म करोति । भ० ० श०५ उ० । (" लमणमाह एपडिसन' शब्थे, 'आता १३ पृष्ठे च समर्थितम) पडिलेहग- प्रतिलेखक - नि० प्रतिलेखतीति प्रतिलेखकः । प्रचचनानुसारेण स्थान।ऽऽदिनिरीक्षके खाधी, और पडिलेहणा - प्रतिलेखना स्त्री गोचरा पद्मस्य शय्याऽऽदेअकृषा निरीक्षणे, आव० ६ श्र० । प्रश्न० | आचा० । सम्म० । प्रत्युपेक्षयात्री प्रतिलेखनशदार्थ प्रतिलेखन तत्रैकाधिकानि । श्रघः । प्रतिलेखनाद्वारव्याख्यानायाऽऽह · 3 भोग मरण गवे - सणा य ईहा अपोह पडिलेहा । पिक्खण निरक्खणा वि य, आलोय पलोयणे गट्ठा ॥ १८ ॥ माभोगनमा 'भुज'पासनाभ्यवहारया भिविधिना वाऽऽभोगनं पालनमाभोगः प्रतिलेखना जवति । मागणं मार्गमा मृगपणे अशेषाच यदन्वेषणं सा मार्गणेत्युच्यते । गवेषणं गवेषणा, अशेषदोषरहितवस्तुमार्गणं गवेषणेत्युच्यते । ईहनमीहा, 'ईह ' वेष्टायाम् शुरुवस्त्वन्वेषणरूपा चेष्टा ईहेत्युच्यते सा च प्रतिलेखन प्रवृति अपोहनमोअपोद पृथग् भाव उच्यते, तथा च चकुषा निरीक्ष्य यदि तत्र सश्वसंभवो भवति तत उद्धारं करोति सध्वानामन्यलाभे सति स चापो प्रति प्रतिलेखन प्रति खना, प्रति भागमानुसारेण निरुपणमित्यर्थः । सा च प्रति प्रणवं दर्शनं प्रेक्ष निरीक्षण निरीक्षण, निधि दर्शन अधिक दर्शन 'क' निरीक्षणे अयोगे कार्थिकः यथा उपेक्षणेति शब्दादा भोगाSS पाप प्रतिलेखनाद्वारस्य पर्यायशब्दाः । श्रलोचनमालोकः मर्यादानिविधिना assलोकनमित्यर्थः। प्रलोकनं प्रलोकना, प्रकर्षेणालोकमित्यर्थः । (ग) एकाधिकाम्यति द्दिष्टानिजवन्ति पुंल्लिङ्गता च प्राकृत लकण्वशात् भवत्येव । यथा..' जस्तो, तवो, सल्लो' इति नपुंसकलिङ्गा अपि शब्दाः प्रयुज्यते । प पर लेखकम् अत्र तु कानिचिपुंसकानि कानिचित् श्रङ्गानि कानिचिङ्गानि त नपुंसकस्य नपुंसकान्येतिशेएमीकृत्य नपुंसकस्याि पर्यायानिधानमदुष्टं तथाऽन्यत् प्रयोजनं संस्कृते चैकस्यैव शब्दस्य त्रयमपि भवति । यथा तटः, तटी, तटमिति भेदे ऽत्र मिलिङ्गाः शब्दाः केन कारणेन पर्यायशब्दा भवन्तीति । प्र तिलेखनासह किं से केवला गृह्यते किमन्यदपि । अन्य दपि । किं तत् " पडिलेहय" इत्यादि । श्रथवा का पुनरव प्ररूपणेति तदर्थ प्रीति पडिलेहणा 3 पडिले पडिले - हणा य पडिलेहियव्त्रयं चेव । कुंभादीसु जह तिय, परूवणा एवमिहयं पि ॥ १६ ॥ " " प्रतिलेखतीति प्रतिलेखकः प्रतिवचनानुसार स्थाना35दिनिरीक्षकः साधुरित्यर्थः । चशब्दः सकारणा55 दिस्वगतभेदानां समुदायका प्रतिनं प्रतिलेखना " दुविधा खलु पडिलेहणा ” इत्यादिना ग्रन्थेन वक्ष्यमाणलक्षणा, चशदो भेदसूचकः प्रतिलेख्यत इति प्रतिलिपि "ठाउ वगरणे" इत्यादिना वक्ष्यमाणम् । चशब्दः पूर्ववत्, पवकारोऽवधारणे । नातस्त्रिकादतिरिक्तमस्ति । आह-कथं पुनः प्रतिले. खकप्रतिलेखितव्यचरतुकयोः प्रणमिति । दण्डमध्यम न्यायात् । अथवा प्रधेय कुम्भादिकम्भी घट आदिशम्यात कुण्टा देहः यथा येन प्रकारेण त्रिर्फ कि Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३६) पमिलेहणा अनिधानराजेन्द्रः। पमिलेहणा तयं, त्रीणीत्यर्थः । (परूवण त्ति) प्ररूपणा (एवं ति) तथा लणं ति) पुरीषमुत्सृज्य प्रभूतेन पयसा क्षालनं कुर्वन्ति तेन प्रकारेण, इहेति प्रतिलेखनायाम् । अपिशब्दः साधर्म्यह- (दव्वे त्ति) द्वारपरामर्शः । इयं तावत् बाह्या द्रव्यतः प्रत्युपेटान्तप्रतिपादनार्थः। यथा-कर्ता कुलालः, करणं मृत्पिण्डद- क्षणा, तत श्राह-अनन्तरगाथायामभ्यन्तरायाः प्रत्युपेक्षणाएडाऽऽदि, कार्य घटः, परस्परापेक्षितया नैकमेकेनाऽपि वि-| याः प्रथममुपन्यासः कृतः, एवं तावत् बाह्या प्रत्युपेक्षणा भनेति तथा प्रतिलेखना क्रिया, सा च कर्तारं प्रतिलखकम- वति । ततस्तामेव व्याख्यातुं युक्नं, न तु बाह्यामित्युच्यते पेक्षते, प्रतिलखितव्याभावे चोभयोरभावः, तस्मात् त्रीण्ये- प्रथमं तावद् बायैव प्रत्युपेक्षणा भवति, पश्चादभ्यन्तरा, तानि प्रतिलेखकः, प्रतिलेखना, प्रतिलेखितव्यं चेति । अतो बाबैव व्याख्यायते । श्राह-किमिति इत्थमेव नोपन्याइह च “ यथोद्देशं निर्देशः" इति न्यायमङ्गीकृत्य प्रतिले- सः कृतः । उच्यते-आभ्यन्तरप्रत्युपेक्षणायाः प्राधान्यख्यापखकः कर्तृत्वात्प्रधानश्चेत्यतस्तव्याख्यानार्थमाह नार्थमादावुपन्यासः कृतः एवं तावद् बाह्या प्रत्युपेक्षणा द्रएगो व अणेगा ना. दुविहा पडिलेहगा समासेणं । व्यतोऽभिहिता। ते दुविहा नायव्वा, निकारणिया य कारणिया ॥२०॥ इदानीं बाह्यां प्रत्युपेक्षणां भावतः प्रतिपादयन्नाहसुगमा । नवरम्-( निकारणिया य ति) चशब्दागच्छत्, विकहा हसिप्रोग्गाइय, भिन्नकहा चक्कवाल बलियकहा। तिष्ठविशेषणे चात्र द्रष्टव्ये इति । श्रोघ० । ( प्रतिलेखक- माणुसातिरियावाए, दालणारयणया भावे ॥ १६५ ।। स्याशिवाऽऽदिकारणैर्गमनविधिः 'विहार' शब्दे वक्ष्यते) विकथा विरूपा कथा । अथवा-विकथां स्त्रीभक्तचौरजनइदानीमेषां श्रमणानां सर्वेषां मध्ये ये शुद्धास्तेष्वेव संवसनं पदकथां कुर्वन्तो व्रजन्ति । तथा हसन्त उद्गायन्तश्च वजकरोति, नेतरेष्वित्यमुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाह न्ति [भिन्नकह ति] मैथुनसंबद्धा रामसिका कथा तां कु वन्तो बजन्ति [चक्कवाल त्ति ] मण्डलबन्धनस्थिता ब्रजन्ति जइ सुद्धा संवासा, होइ असुद्धाण दुविह पडिलेहा । [बलियकह त्ति] षट्पदिका ग थाः पठन्तो गच्छन्ति [माणुअभिंतर बाहिरिया, दुविहा दव्वे य भावे य ॥१६३॥ सतिरियावाते त्ति] मानुषाऽऽपाते तिर्यगापाते संशां व्युयदि शुद्धाः संवासाः,शुद्धाः के अभिधीयन्ते । प्रशस्तश्रुत सृजन्ति [दालण ति] परस्परस्याङ्गुल्या किमपि दर्शयन्ति । गुणाः, तथा प्रशस्ताहातगुणाश्च । तचैवंविधेषु संवासं इयमेव आचरणता [भावे ति] द्वारपरामर्शः । इयं बाह्य संबसनं करोति । “होइ असुद्धाण दुविह पडिलहा।" भावमङ्गीकृत्य प्रत्युपेक्षणा, या अशुद्धानपि साधून रष्ट्रा प्रविभवति अशुद्धानां द्विविधा प्रत्युपेक्षणा । तत्राशुद्धा अप्र शन्ति, कदाचित्ते गुरोरनादेशेनैव एवं कुर्वन्ति । शस्तक्षुतगुणाः, तथा-अप्रशस्तात्यन्तगुणा अशुद्धा अभि एतदेव प्रतिपादयन्नाहजीवन्ते, तद् द्विविधं प्रत्युपेक्षणं भवति । कथम्?-(अम्भि- बाहिं जइ वि असुद्धा,तह वि य गंतूण गुरुपरिक्खायो । तरापिरिचा) एका आभ्यन्तरप्रत्युपेक्षणा, साभ्यन्तरेत्यर्थः। अहव विसुद्धा तह वि उ,अंतो दुविहा उ पडिलेहा ।१६६। अपरा बाखप्रत्युपेक्षणा । (दुविहा दब्वे य भावे य ) एकैका च प्रत्युपेक्षणा द्विविधा-( दवे य भावे य) याs. बाह्यां प्रत्युपेक्षणामङ्गीकृत्य यद्यप्यशुद्धास्तथाऽपि प्रविश्य सौ अभ्यन्तरा प्रत्युपक्षला सा द्रव्यतो, भावतश्च भवति, गुरोः परीक्षाः कर्तव्याः। अथवा-बाह्यप्रत्युपेक्षया विशुद्धा याऽपि वाच्या प्रत्युपक्षला साऽपि द्रव्यतो भावतश्चेति | एव भवन्ति, तथाऽपि तु अन्तरतः श्राभ्यन्तरतया प्रत्युद्विविधैव। पेक्षणामाश्रित्य द्विविधैव प्रत्युपेक्षणा भवति कर्तव्या द्रव्यइदानीं बाह्यां प्रत्युपेक्षणां द्रव्यतः प्रतिपाद्यन्नाह तो, भावतश्च । इदानीमसौ श्राभ्यन्तरप्रत्युपेक्षणामङ्गीकृत्य द्रव्यतः परीक्षां करोति साधर्मिकाऽऽसन्नेषु भिक्षाचर्यायां घट्ठाइ तलिय दंडग-पाउण संलग्गती अणुवोगो । प्रविष्टः सन्। दिसिपवणगामसूरिय-वितहं विच्छोलणं दव्वे ।।१६४॥ पविसंतो निमित्तमणे-सणं च साहइण एरिसा समणा। (घट्ठाह त्ति) धृष्टा जङ्घासु दत्तफेनकाः, श्रादिशब्दात्त मट्ठा- अम्हं च ते कहंती, कुक्कुड खरियाइठाणं च ।। ६७ ।। ऽऽदयो गृह्यन्ते। (तलिग त्ति) सोपानका उपानगृढपादाः दिंडग ति] वैत्रलग्नाः दण्डकैः गृहीतैः। [पाउणमिति ] प्रावृ. प्रविशन भिक्षार्थ निमित्तं पृच्छयते गृहस्थैस्ततश्च न कथयतं यथा संयत्यः प्रावृण्वन्ति इति कल्पं तथा तैःप्रावृतम्। (सं ति, अनेषणां क्रियमाणां गृहस्थेन निवारयति । ततः स गृहलग्गहत्ति) परस्परं हस्तावलगिकया ब्रजन्ति । अथवा-(संल स्थः कथयति-(ण परिसा समणा) नास्मदीया एवंविधाःश्रग्गर त्ति) युगलिता बजन्ति (अणुवीगो त्ति) अत्र प्रयुक्ताः मणा अस्माकंहिते निमित्तं कथयन्ति, अनेषणायामपि गृहवजन्ति र्यायामनुपयुक्ताः। एवं बहिर्भुवं गच्छन्तःप्रत्युपेक्षि न्ति, एवमभिधीयते गृहस्थेन (कुक्कुड त्ति) कुकुटप्रायोताः,इदानीं संक्षाभूमि प्राप्ताँस्तान् संयतान् प्रत्युपेक्षेत (दिसि ऽयमिति एवं तावत् भिक्षामटता प्रत्युपेक्षणा कृता । इदानीं ति) भागमोक्तं दिग्विपर्यासनोपविशन्ति (पवण त्ति) पवन दूरस्थ एव उपाश्रयप्रत्युपेक्षणां करोति [खरिया इत्यादि] स्य प्रतिकूलमुपवेष्टव्यं, ते तु श्रानुकूल्येन पवनस्योपविशन्ति । 'खरिया' द्वन्धक्षरिका, तत्समीपे स्थानमुपाश्रयः । आदिश[गाम ति] ग्रामस्याभिमुख्येनोपवेष्टव्यं ते तु पृष्ठं दश्वोपवि ब्दावरिकासमीपे वा । इयं तावद्वसतिबाह्या प्रत्युपेक्षणा। शन्ति [प्रिय त्ति ] सूर्यस्याभिमुखनोपवेष्टव्यं, ते तु पृष्ठं द इदानीमुपाश्रयाभ्यन्तरे द्रव्यप्रत्युपेक्षणां कुर्वनाहस्वोपविरान्ति । एवमुक्तेन प्रकारेण वितथं कुर्वन्ति [उच्छो- दबम्मि ठाणफलए, सेजा संथार काय उच्चारे । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमिलेहणा (३४०) अभिधानराजेन्डः। पमिलेहणा द्रव्यमिति द्वारपरामर्शः [ ठाणफल ति] स्थानमवस्थितिः अभितर बाहिरिया, दुविहा दव्वे य भावे य ॥४०६।। फलकानामवस्थितिं पश्यति,तानि हि वर्षाकाल एवं गृह्यन्ते, द्विविधा प्रत्युपेकणा भवति, कतमे ने द्वैविध्ये इत्यत आहन शेषकाले, सन प्रविष्ट शेषकालेऽपि फलकानि संगृहीता उद्मस्थानां संबन्धिनी, केवलिनां संबन्धिनी च । सा चैकैका नि पश्यति [ सेजाउ ति शेरतेऽस्यामिति शय्या श्रास्तरणं, द्विविधा-याभ्यन्तरा, बाह्या च । या छदमस्थानां साऽभ्यम्बरा तदास्तृतमेवाऽऽस्ते, संस्तारकस्तृणमयः प्रकीर्यते । अथ तृ बाह्या च, याऽपि केवलिनां साऽपि बाह्याऽऽज्यन्तराच। (दब्वे णानि स्वपद्भिः संस्तृतानि तत्र संस्तारके पश्यति [काय भावे य ति) याऽसौ बाह्या प्रत्योकणा सा व्यविषया, त्ति ] कायिकीभूमि गृहस्थसंबद्धां पश्यति, ( उच्चार त्ति) याऽप्यसौ अभ्यन्तरा सा नावविषया। गृहस्थैः सह पुरीषव्युत्सर्ग कुर्वन्ति । अथवा-[ उच्चारं ति] तत्र केवलिनः प्रत्युपेकणां प्रतिपादयन्नाहश्लेष्मणः परिष्ठापनमङ्गणे कुर्वन्ति, एवं स साधुः पश्यति । इयमभ्यन्तरा द्रव्यप्रत्युपेक्षणा । पाणेहि उ संसत्ता, पडिलेहा होइ केवलीणं तु । इदानीमभ्यन्तरां भावप्रत्युपेक्षणां प्रतिपादयन्नाह-- संसत्तमसंसत्ता, छउमत्थाणं च पडिलेहा ॥४०७।। कंदप्पगीयविकहा, विग्गह किड्डा य भावम्मि ॥१६॥ प्राणिभिः संसक्तं व्यं तद्विषया प्रत्युपेकणा भवति केवलि. नाम । (मसत्तमसंसत्त त्ति) ससक्तव्यविषया, तथा असं[कंदप्पगीयविगह ति] कन्दर्पगीतविकथाः कुर्वन्ति । सक्तद्रव्यविषया च छद्मस्थानां प्रत्यपेकणा भवतीति । अाह - तथा-[विग्गह त्ति] विग्रहः कलहस्तं कुर्वन्ति । (किड "यथा म्यासः तथा निर्देशः" इति न्यायात् प्रथमं वक्षस्थानां त्ति) पाशकपकैः क्रीडन्ति [भावम्मि ] भावविषया प्रत्यु व्याख्यान युक्तं, पश्चात् केवलिनामिति नच्यते प्रधानत्वात् पेक्षणा । उक्ता अभ्यन्तरा भावप्रत्युपक्षणा । श्रीघ०। केवलिना प्रथमं व्याख्या कृता, पश्चाच्छद्मस्थानामिति । बाहपथिप्रत्युपेक्षणम् तत्कथं प्रथम मेयमुपन्यासो न कृतः ?, उच्यते-तत्पूर्वकाः केसो चेव य निग्गमणे, विही य जो वनिो उ एगस्स । बनिनो भवन्तीत्यस्यार्थस्य झापनार्थमिति । दव्वे खेत्ते काले, भावे पंथं तु पडिलेहे ॥ २१६ ॥ अनेनैव कारणेन केवलिनः प्रत्युपेक्वणं स एव विधिर्य एकस्य निर्गमने उक्तः, "वीसमण पउसे" कुर्वन्तीति प्रदर्शयन्नाहइत्येवमादिको विधिरुतः । इदानीं पथि व्रजतो विधिरुच्यते. संसजइ धुवमेयं, अपेहियं तेण पुन्वमेव केवलिणो। स चायम्-[दव्वे खेत्ते काले भावे पंथं तु पडिलेहे ति] पडिलेहियं तु संस-जइ त्ति संसत्तमेव जिणा ॥४०८।। द्रव्यतः, क्षेत्नतः, कालतो, भावतश्च मार्ग प्रत्युपेक्षेत। संसज्जते प्राणिभिः सह संसर्गमुपयाति ध्रुवमवश्यमेतद्वस्त्रा. इदानीमेतानेव द्रव्याऽऽदीन् व्याख्यानयनाह अदि अप्रत्युपेवितं सत् तेन पूर्वमेव केवलिनः प्रत्युपेकणां कुर्वकंटग तेणा बाला, पडणीया सावया य दवम्मि। न्ति, यदा तु पुनरेवं संविधते * इहमिदानी वस्त्राऽऽदि प्रत्युपे. वितमपि उपनोगकाने संसजत, तदा ससक्तमेव (जिण त्ति) समविसमउदयथंडिल-भिक्खायरियंतरा खेत्ते ।।२२०॥ संसक्तमेव जिनाः केवग्रिनः प्रत्युपेकन्ते न स्वनागतानेब प. तत्र कण्टकाः,स्तेनाः,व्यालाः,प्रत्यनीकाः, स्वापदनि, एतेषां लिमन्यदोषान् । उक्ता केवलिनो ध्यप्रत्युपेकणा। पथि यत् प्रत्युपेक्षणं सा द्रब्यविषया प्रत्युपेक्षणा भवतीति श्वानी केवलिन एव भाबप्रत्युपेक्वणां प्रतिपादयन्नाहद्वारम । तथा-समविषमोदकस्थमिअभिक्काचर्यादीनां या. नाऊण वेयणिजं, अइपहुयं थोवगं च श्रोदइयं । ऽन्तरे प्रत्युपेकसा सा केत्रतः प्रत्युपेक्षणा । कम्म पडिलेहेउं, वच्चंति जिणा समुग्घायं ॥४०६।। इदानी बायप्रत्युपेकणां प्रतिपादयन्नाह ज्ञात्वा वेदनीय कर्म अतिप्रनृतम्-पुष्कल च स्तोकं च कर्म दिय राउ पच्चवाओ, य जाणई सुगमदुम्गमे काले । प्रत्युपेक्ष्य ज्ञात्वा इत्यर्थः । इत्यत आह-(बच्चति जिणा समुग्घायं भावे सपक्खपरप-क्खपेल्ला निन्हवाईया ॥२२१॥ ति) जिनाः केवलिनः समुद्घातं व्रजन्ति,अत्र च जावः कर्मण उदिवा प्रत्युपायो, रात्री वा प्रत्युपायो न काल प्रत्युपाय इत्येता दया,दियिको नाव इत्यथः। उक्ता कंचालना दयः,श्रादयिको नाव इत्यर्थः। उक्ता केवलिनी जावप्रत्युपेकमा । ज्जानाति । तथा-दिवाऽयं पन्थाः सुगमो दुर्गमो वा, रात्री वा इदानीं उद्मम्थव्यप्रत्युपेकणामाहसगमो, दुर्गमो बा । एवं यत्परिझानं स कामतः प्रत्युपेक्षणा संसत्तमसंसत्ता, छउमत्थाणं तु होइ पडिलेहा । भावतः प्रत्युपेकणा श्यं यदुत स विषयः स्वपकेण परकेण चोदग पसायनासा, आरक्खा हिंडगा चेव ॥४१०॥ वा आक्रान्तो व्याप्तः, कश्वासी स्वपक्का, परपक्वश्च श्रत (संप्सत्त ति) संसक्तव्यविषया । (असंसत्तत्ति) असं. आह-(निन्हवाईया) निलवकाऽऽदिः स्वपक्कः, श्रादिग्रहणा सक्तव्यविषया च, उद्मस्थानां भवति प्रत्युपेकण।। अत्र चोदघरकपरिव्राजिकाऽऽदिः, परपक्ष एभिरनवरतं प्राय॑मानो लो. क पाह-युके तावत्संसक्तवस्त्राऽऽदेः प्रत्युपेक्षणां कर्तुम्, अस. को न किञ्चिदातुमिच्छति इत्येवं यद् निरूपणं सा भावप्रत्युपे. सक्तस्य तु कस्मात्प्रत्युपेक्वणा क्रियते ? । प्राचार्य आह-यथा क्षणा। घ०। (सार्थप्रत्युपेकणा 'विहार' शब्दे )(व. आरककहिएमकयोर्यथासङ्ख्येन प्रसादविनाशौ संजाती । सतिप्रत्युपेक्षणं वसत्यां मागतायाम् ' वसहि' शब्दे ) तथा अत्रापि अपव्यम्-" तत्य किंचि नगर, तत्थ राया (संस्तारका अवश्यं प्रत्युपंक्ष्याः इति 'संथार' शब्दे वक्ष्यते) तेण चोरनिमाहत्थं प्रारक्खियो नवो सो पग दिवसं हिप्रतिलेखनाद्वारमाह मति, एवं हिंडतो चोर न किंचि पासर, ताहे विओ नि. एत्तो पडिलेहा छउ मत्थाणं चेव केवलीणं च । संविद्रते इति व्याकरणविरुद्धम् । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहिया विनो, चोरेहिं प्रागमियं जहा वीसत्थो जाओ श्रारक्खिश्रो, तादे एगदिवत्रेण सव्वं रागरं मुठं ताहे पगे जागरा उवधिया मुहाम्रो ।राया जण बाहरह आरक्खियं तं बाहरिता पुच्छि ओ किं तुमे श्रज्ज इिंडियं णगरे ? | ताहे सो भणइ-न इिंडिय ताहे रुठो राया भण३ - जइ ग्राम पत्ति दिवसे चोराण मु स्त्रोताणं चैव गुणो, ता पण पमायं कथं तो अणेण मुसाबियं तम्रो लोनिम्मादिश्रो राणा । अनो वविश्रो, सो पुण जविन दिक्खर चोरे, तह विरति रति सयलं हिंडति । श्रह तत्थे - गदिवसे अंतरस्थाप गयं नाऊन चोरेहिं खतं खयं, लो यागयले यो राणा पुि तुम कि हिंडाल ? | सो भण-श्रमं हिंडामि । ताहे राणा लोगो पुद्धि मंदिरासी सिरह यात्रिओ साहू प गरणं नगरस्थाणी कुंपणी चारा, नाणण चरि ताणि दायित्थागणीयाणि, संसारो दंको। एवं केण वि आयरि यदि ओसीसो वि दिये दिवे परिमेदेहि जय ताहे पडिले इति । एवं तस्स पडिलेहंतस्स संसत्तो उवही, ण सको साहेब ततो तेरा तित्थगराणानंगो को, तं चैव अपरजायं एवं विश्र ण य सयंक तित्थगराऽऽणा कया, वत्थं च परिजोगं जायं । अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह 35 (२४१) अभिधानराजेन्ः | 9 तित्वयरा रायायो, साहू आरक्खि मंडगं च पुरं । सरिसा य पाणा, हारियं तिगरयणं भवो दंडो ॥ ४११ ॥ सुगमा उका स्थविषया वेणा । इदानीं भावप्रत्युपेक्षणां प्रतिपादयन्नाहकिंकय किंवा सेसे, किं करणज्जं तवं व न करेमि । पुव्वावर त्तकाले, जागरओ भावपाडलेहा ॥। ४१२ ॥ सुगमा बरं ( वावरत्तकाले सि) पूर्वरात्रकाले रात्रिप्रहरद्वयस्यान्तः, उपरिष्टादपररात्रकालं, तस्मिन् जाप्रतश्चिन्तयतः । एवं उक्का छद्मस्थविषया भावप्रत्युपेक्षणा । ओघ० । 66 देहमतिलेखना: दिपिडिलेह एगा, पष्फोडा तिन्नि तिन्नि अंतरिश्रा । अक्खोडा पक्खोडा, नव नव मुहपुत्ति पणवीसा ॥ १ ॥ पायाहिण ति तिश्र, बाहुसु सीसे मुद्दे श्र हिअए । पिट्ठी हुति चउरो, छप्पाए देहे पणवीसा ॥ २ ॥ " एताम्र देहप्रतिलेखनाः पञ्चविंशतिः पुरुषानाश्रित्य शेयाः स्त्रीणां तु गोप्यावयवगोपनाय हस्तद्वयवदनपादद्वयानां प्रस्वेकं तिस्रः तिस्रः प्रमार्जना इति पञ्चदशे भवन्तीति प्रय चनसारोद्धारवृत्ती तथा मुखवत्रिकाकायप्रतिलेखनायां सुमनसः स्थिरीकरणार्थमेवं विचिन्तयेत् "सुत्तत्थतत्तदिट्ठी १, दंसणमोहत्तिगं च ४ रागतिगं ७ । देवाईतत्ततिगं १० तह य अदेवाइतत्ततिगं १३ ॥ १ ॥ नाणाइतिगं१तहत राहा १६ तिनियुत्तिइति२५ मुद्दतगपडिले-हार कमसो विर्वितिजा ॥ २ ॥ हासी र अधर में भयसांगडया व ६ जिजा भुलं पेतो, सीसे अपसत्थले सतिगं ६ ॥ ३ ॥ गारवतिगं च वयणे १२.उरि सल्लतिगं९५कसायचउ पिंट्टे १६। ८६ मिलेगा जुग जीव २५ तपेार विजाणामियं ॥ ४ ॥ जवि पडिहार, हेऊ जियरल जिसाऽथा व तह वि इमं मणमक्कड नियंतणत्थं मुणी विति ॥ ५ ॥ " ध० २ अधि० । त्रिकालप्रत्युपेक्षा अथ विस्तरार्थ प्रकटविदुः " यथो देशं निर्देशः इति वचनप्रामाण्यात्प्रथमतः प्रत्युपेक्षणा द्वारमभिधातुकाम इमां प्रतिद्वारगाथामाहपडिलेहगाउ काले, अप्पांडिलेदोस वि काएमु । डिगनिखेवण्या, पढिलेहण्या सपडिवक्खा ॥ ८२२|| प्रतिलेखना, तुरेवकाराय भिन्नक्रमश्च काल एच कर्तव्या. नी अकाले अप्रतिलेखने प्रायश्चित्तम्- (दोस सि) दोषा चारमायाः, तैर्दुष्टां प्रत्युपेक्षणां कुर्वतः प्रायश्चित्तम् । (छसु विकारसु त्ति) षड्जीवनिकायेषु स्वयं प्रतिष्ठित उपधिर्वा प्रतिष्ठित इति प्रतिग्रहनिक्षेपणं ब र्षा विधेयं प्रतिलेखना समतिषक्षा साऽपवादा भवतीत्ये तानि द्वाराणि वक्तव्यानीति समासार्थः ॥ २२ ॥ व्यासार्थ तु प्रतिद्वारमभिधित्सुराह 13 सूरुगए जिला, पडिलेहणियाए आढवण कालो । थेराऽन्यम्मी, उपहासो तुलेयब्बो || ८२३ ॥ सूर्ये सति जिनानां जिनकल्पिकानामेकप्रणतजातीयग्रहणत्रितिवचनादपरेषामपि गच्छनिर्गतानां प्र तिलेखनाया श्रारम्भणकालो मन्तव्यः । स्थविराणां स्थवि - रकल्पिकानामनुमते सर्वे प्रत्युपेक्षया आरम्भकाल स चोपधिना तोलयितव्यः । कथमिति चेत् ?, उच्यते-इह प्राभातिकप्रतिलेखनायां भूयांसः आदेशाः सन्ति अतस्तत्प्रतिपा दकः पञ्चवस्तुवृष्युको वृद्धदालियते" को पडि लेहणाकालो, एगो भण्इ-जया वायसा वासंति तया पडिलेहिजड, तो पट्टवित्ता मसाज - उडिय श्रवरो भइ - जाहे पगासं जायं। श्रन्नो पुरा - जाहे पडिस्सए परोप्परं पच्चयगा दीसंति अने भतिजाहे हत्थाओ दीति । यरिया भरांति - एए सव्वे वि श्रणापसा, अपसिद्धान्तत्वात् । जो अंधकारे पडिस्सए हत्थरेहाथो उट्ठिए वि सुरेन दीति पायसाहसेस व अंधकार ति पडिलेडला न सुज्झइ । तम्हा इमो पडिलेहणाकालो श्रावस्तए कए-तिहिं थुहिंदित्तियादि जहा पहिलेहाकाली भवर तहा आव स्वयं काय, मेहि पदसद पडिलेहिपहि जहा सुरो उद्देह hi मुहपत्ती रयहरणं, दुन्नि निसिज्जा य चोलपट्टो य । संधारुत्तरपट्टी, तिनि विप्पा मुख्या ॥ १ ॥ जीवदय पेहा, एसो कालो इमीइ ता नेश्रो आवस्वगते. इसपेदा उम्मम सूरे ॥ २ ॥ चूर्णिकृत पुनराह यथाऽवश्य के कृते एकद्विविभाकरतु विजये गृहीत एकादशभिः प्रतिलेखितेरादित्य उति स प्रारम्भकालः प्रतिलेखनिकायाः कतरे पुनरेकादश- पंच ग्रह जोजना, तिनि विकास एगो उचियो दो सखिया। संथारपट्टी, उत्तरपट्टो, दंडश्री एगारसमो त्ति ।” गतं प्रतिलेखनाकाल इति द्वारम् । बृ० १ उ० ३ प्रक० । “असे भांतिएकारसमो इंडो से सहिमादि उदिते पहिले 66 हंति । ततो सायं पट्टवैति । " नि० चू० २ उ० । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४२) पमिलेरणा अभिधानराजेन्द्रः । पमिलेगा इमो भाणपडिलहणकालो [मुह इति ] मुखवस्त्रिका [रय इति] रजोहरणम् , "णिसेचतुभागवसेसाए, पढमाए पोरिसीएँ भाणदुगं ।। ज्जा" रजोहरणस्य उपरितनपट्टः [चोले त्ति] चोलपट्ट कः। [ कप्पतिग ति] एक और्णिकः, द्वौ सूत्रिकी [ दुपपडिलेहणधारणता, भणिता चरिमाएँ णिक्खवणे ।६३१।। दृत्ति ] संस्तारकपट्टः, उत्तरपट्टकश्च [थुति त्ति] प्रतिक्रपढमचरमपोरिसीहिं, पडिलेहणयाएँ कालेसो॥ मण समाप्तौ ज्ञानदर्शनचारित्रार्थ स्तुतित्रये दत्ते सति एतेषां पढमपहरच उभागावसेसा य चरिम त्ति भएणति, नत्थ मुखवत्रिका दीनां प्रत्युपेक्षणासमाप्त्यनन्तरं यथा सूर्य उद्काले भाणदुर्ग पडिलहिज्जति, सो भत्तट्टी, इतरो वा । जति च्छे येव प्रत्युपेक्षणा काल इति । श्रोधः । “एवं आयरिश्रा भत्तट्टी तो अणिक्खितेहिं चेव पढति सुणति वा। अहाऽभत्त भणंति-सब्वे वि अणादेसा सच्छंदा अंधयारे पडिस्सए ट्ठी तो णिक्खिवति,एस भयणा,एस उदुबद्धे वासासु वा वि. हत्थरेहानो उगए वि सूरे ण दीसंति, इमो पडिलहणाकालो ही । अरण भणंति-वासासु दो वि णिक्खिवंति.चरिमपोरि श्रावस्तए कर तिहिं थुईहि दिन्निाहिं तहा पडिलहणाकासीए पुण उग्गहो, तीए चेव पडिलेहिउं णिक्खिवंति, ततो लो जहा एएहिं दसहि पडिलेहिपाहि [ जहा ] सूरो उ?ई, सेसोवकरणं, ततो सज्झायं पटुवैति । पढमगाहा-एस चरम "मुहपोतीरयहरणं [१]" इत्यादि काऽनुपदगता गाथा। पोरिसीसु कालो। काले त्ति दारं गतं । नि० चू०२ उ०। तस्याः फलितमाहश्राह-वेलायां न्यूनाधिकायां प्रत्युपेक्षणायां क्रियमाणायां "जीवदयट्ठा पेहा, एसो कालो इमीद तो श्रो। दोष उक्तः, कस्यां पुनः वेलायां प्रत्युपेक्षणा कर्तव्या ?, तत्र श्रावस्लगाइ अंते, दसपेहा उ?ई सूरो॥३६॥" केचन पाह सुगमा। ध०३ अधिः। अरुणाऽऽवस्सगपुन्छ, परोप्परं पाणिपडिलेहा ॥४३२॥ गाहा[अरुणावस्सगपुव्वं ] अरुणाऽऽदावावश्यकं पूर्वमेव तबिवरीमो उ पुणो,णो होज्जा होति तु अकाले ।६३२। कृत्वा ततः अरुणोद्गमसमये प्रभास्फुटनवेलायां प्रत्युपेक्षणा तविवरीतो अकालो--पडिलेहणार-जति पुण अखाणे वा क्रियते । अपरे त्वाहुः-अरुणे उद्गते सति प्रभायां अमेण वा वाया य कारणेण पढमाए ण पडिलहियं ताहे अ. स्फुटितायां सत्याम, यावश्यकं प्रथमं पूर्व कृत्वा ततः प्रत्यु- काले वि पडिलेहेति जाव चउत्थीण उग्गाहति ताव पडिले. पेक्षणा क्रियते । अन्ये त्वाहुः-[परोप्परं ति] परस्परं यदा मु- हियब्वं । जति वा पडिलेहियमेते चेव चउत्थी ओगाहति तह खानि विभाव्यन्ते,तदा प्रत्युपेक्षणा क्रियते । अन्ये त्वाहुः "पा वि पडिलेहियब्वं । अकाले त्ति दारं गतं । नि०चू०२ उ०। णिपडिलेहा" यस्यां वलायां पाणिरेखाः दृश्यन्ते, तस्यां अथ प्रत्युपेक्षणादोषद्वारं विवृणोतिवेलायां प्रत्युपेक्षणा क्रियते ॥४३२॥ [४३२ श्रोध.] । लहुगा लहुगो पणगं, उकोसादुवहि अपडिलेहाए । वेलायां च न्यूनायामधिकायां वा प्रत्युपेक्षणा न कार्येति भावः । कालं त्वङ्गीकृत्य-" ककडअरुणपगासं ।" दोसेहि उ पेहंते, लहुश्रो भिन्नो य पणगं च ॥२४॥ इत्यादिना गाथार्धमाह । अत्र वृद्धसंप्रदायः-" कालेण उत्कृष्टाऽऽशुपधीनामप्रत्युपेक्षणे प्रायश्चित्तं लघुकाः लघुकः ऊणो जो पडिलेहणाकालो, तत्तो ऊणं पडिलेहेर, तत्थ पञ्चकं चेति । उत्कृष्टमुपधि न प्रत्युपेक्षते चत्वारो ल बुकाः, भणइ-को पडिलेहणाकालो ? । ताहे एगो भण्इ-जाहे कु- मध्यमं न प्रत्युपेक्षते मासल बुजवन्यं न प्रत्युपेक्षते पञ्चकम् । कुडो वासह पडिक्कमित्ता ताहे पडिलेहावउ, तो पट्ट अथ षट्सु कायेष्विति पदं व्याचष्टेवित्ता पडिलेहउ । अण्णो भणइ-अरुणं सरीरं भवद । काएसु अप्पणा वा, उवही च पइट्ठिोऽत्य चउभंगो । अण्णो-जाहे पगासंती पहाफुट्टणवेला । अवरो भणइ मीससचित्तअणंतर-परोप्परपइहिए चेव ॥ ८२५ ॥ परोप्परं अरणोरणं मुहाणि दीसंति । अरणो भणइजत्थ हत्थरेहाश्रो दीसंति त्ति । एतेषां विभ्रमे निमित्तमाह प्रत्युपेक्षमाणः षट्सु कायेषु अात्मना प्रतिष्ठित उपधिर्वा "देवसिश्रा पडिलेहा, जं चरिमाए त्ति विम्भमो एसो।। ते प्रतिष्ठित इत्यर्थः, चतुर्भगी। तद्यथा-स्वयं कायेषु प्रतिकुक्कुडगाऽऽदेसिस्ता, तहिंधयारं ति तो सेसा ॥ १६॥" ष्ठितो नोपधिः, उपविः प्रतिष्ठितो न स्वयम् स्वयमपि प्रतिदेवसिकी प्रत्युपेक्षणा वस्त्राऽऽदेः यस्माच्चरमायां,तदनु एव ष्ठित उपधिरपि प्रतिष्ठितः, स्वयमयप्रतिष्ठित उपविरप्यप्रस्वाध्याय इति एषा भ्रान्तिः । कस्य?, कुर्कुटाऽऽदोशिनश्चोद तिष्ठित इति। एते च षटकाया मिश्रा वा भवेयुः सविता वा, कस्य, तत्रान्धकारमिति कृत्वा । ततः शेषा अनादेशाः । एतेषु साधुरुपधिर्वा अनन्तरं वा परम्परं वा प्रतिष्ठितो भवेध०३ अधिक। त्। अत्र च प्रायश्चितं “छकायचउसु लहुगा।" इत्यादिगा थाऽनुसारेणावगन्तव्यम् । यस्तु द्वाभ्यामप्यप्रतिष्ठितः स एए उ अणाएसा, अंधारे उग्गए वि हु ण दीसे । शुद्ध इति। मुह रय णिसिज चोले,कप्पति दुपट्ट युइ सूरो॥४३३॥ अथ दोषद्वारस्य वाव्यताशेषं, प्रतिग्रहनिक्षेपण पदं च एते सर्वे एवमनादेशा असत्पक्षाः, यतः [अंधारे उग्ग व्याख्यानयतिते विहु ण दीसे] अन्धकारे उद्गतेऽपि सूर्य एव वा न दृश्यते, तस्मादसत्पक्षोऽयं, शेषं पक्षत्रयं सान्धकारत्वाद् दृषितमेव द्र आयरिए य परित्रा, गिलाण सरिसखमए य चतुगुरुगा। टव्यम्। तत्कस्यां पुनर्वेलायां प्रत्युपेक्षणा कर्तव्या इति?,श्रत उडु बंधे मासलहुओ, बंधणधरणे य वासासु ॥२६॥ पाह-[ " मुहरयणि लेजचोले कप्पतिग दुपट्टथुइसूरो]।। [भापरिए यत्ति ] षणी सप्तम्योरर्थ प्रत्यभेदादावार्यस्य Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४३) पमिलेहगा अनिधानराजेन्द्रः । पमिलेहणा [परिन ति] मत्वर्थीयप्रत्ययलोपाद् परिज्ञा तपः कृतभनप्र- श्राव-तेषु तिष्ठतः प्रत्युपेक्षणां कुर्वन् संघटनाऽऽदिवाधनात् प्रत्याख्यानस्य [गिलाण सरिसखवय त्ति ] ग्लानस्य ग्लान- कथं न दोपभार भवतीति। उच्यते-नदीहरणोपलक्षितं पुत्र सदृशश्च यः क्षपको विकृष्टतपस्वी,तस्य एतेषां चतुमुपधि ज्ञातमत्र भवति । कथमित्याह-(तणू य धूरे य पुत्तम्मि त्ति) यदि प्रत्युपेक्षते तदा चत्वारो गुरवः । चशब्दात्माघूर्णकस्थ- यथा कस्यचित्पुरुषस्य द्वौ पुत्रौतयोरेकस्तनुकः कृशशरीरः, विरशेषाणामग्लानोपमस्य च क्षपकस्योपधिमप्रत्युपेक्षमाणा- द्वितीयस्तु स्थूलोऽतीव पीवरगात्रः, स चान्यदा ताभ्यां सनां चतुर्लघवः [ उरु इत्यादि पश्चार्द्धम् ] यदा सर्वारयपि हितः कश्चित् ग्राम गछन्नपान्तराले एकामपारगम्भीरां नदीवस्त्राणि प्रत्युपेक्षितानि भवन्ति तदा यान्यतिरिक्तानि भाज- मवतीर्णवान् स च नदी प्लवनतया सुखनैव स्वयं तां तरीतुं नानि तानि प्रत्युपेक्षन्ते, प्रतिग्रहमात्रकं च यदि तदानीभेव शक्ता, परं पुत्रावद्यापि तरणकलायामकोविदाविति कृत्वा प्रत्युपेक्षते तदा मासल बु, असामाचारीनिष्पन्न मिति भावः । तनुके स्थूले च पुत्रे उभयेऽपि तारयितुं प्राप्त सति स किं अतः सूत्रपौरुषीं कृत्वा चतुर्भागावशेषायां पौरुष्यां प्रत्युपेक्ष्य करोतीत्याहद्वे अपि ऋतुबद्ध काले धारणीयेन निक्षेप्तव्यः । अथ ऋतुव- जह से हविज ताओ, तारिज्ज तो दुवग्गे वि । द्धे प्रति ग्रह मात्रकं वा न धारयति उपकरणं वा दवरकेन थूरो पुण तणुअतरं, अवलंबतो वि बोलेइ ॥ ८३१ ॥ न वध्नाति तदा मासलघु । अग्नि-स्तेन-दण्डिक-क्षोभा यदि (से) तस्य पितुः शक्तिः सामर्थ्य भवेत् ततो (दुवग्गे ऽऽदयश्च ओघनियुक्तिप्रतिपादिता दोषाः । बर्षासु पुन वित्ति) देशीवचनत्वात् द्वावपि पुत्रावुत्तारयेत्, नैकमप्युरुधि न बध्नाति प्रतिग्रहमात्रकं च प्रत्युपेक्ष्य निक्षिपति, पेक्षेत । अथ नास्ति तस्य तथाविधं सामर्थ्य, ततो यस्तयोः अथोपधि बध्नाति भाजने वा धारयति तदा मासलघु । कृशशरीरस्तं तारयति, लघुभूतशरीरतया तस्य सुखेनैव विशेषतश्चूर्णिकृता त्वस्या एकगाथायाः स्थाने गाथाद्वयं तारणीयत्वात् । यस्तु स्थूरशरीरो जडः स तनुकतरं स्तोकलिखितं यथा मात्रमप्यवलम्बमानो निजशरीरभारिकतयैवाऽऽत्मानं तं च गुरु पच्चक्खाया लहु, गिलाण सरिसखमए य चउगुरुगा। नद्यां बोलयति अतस्तमुपेक्षते । एष दृष्टान्तः । अयमोंपाहुणगा सह बाले, बुड्ढे खमए य चउलहुगा ॥२७॥ पनया-पितृस्थानीयः साधुः पुत्रद्वयस्थानीयाः स्थिरशरीचउभागवसेसाए, पडिग्गहं पच्चुवेक्ख न धरेइ ।। रसंहननिन. पृथिवीकायाऽऽदयः । ततः साधुना प्रथमतो निर्विशेष परकायाः स्थिरसंहनिनश्च रक्षणीयाः । अथाउडुबद्ध मासलहूं, वासासु धरिति मासलहुं ।। ८२८ ॥ न्यतरेषां विराधनामन्तरेणाध्वगमनाऽऽदिषु प्रत्युपेक्षणाइदं च गाथाद्वयं भावितार्थमेव । ऽऽदीनां प्रवृत्तिरेव न घटामञ्चति, ततः स्थिरसंहननिनां अथ प्रतिलेखनिका सप्रतिपक्षेति पदं भावयति- पृथिव्यादीनां विराधनामभ्युपेत्यास्थिरसंहनिनस्त्रसाऽऽदयो असिवे ओमोयरिए, सागारभए य रायगेलन्ने । रक्षणीया इति। अस्यैवार्थस्य समर्थनाय द्वितीयं दृष्टान्तमाहजो जम्मि जया जुज्जइ, पडिवक्खेतं जहा जोए ॥२६॥ अंगारखड्डपडियं, दट्टण सुयं सुयं विइयमन्न । प्रतिपक्षी नाम द्वितीयपदम्, अशिवे अशिवगृहीतः सन्नशक्नोति प्रत्युपेक्षितुमवमौदर्ये तु प्रत्यूष एव भिक्षां हिण्डितुं पवलित्ते नीणितो, किं पुत्ते ण य कुणइ पायं ॥३२॥ प्रारब्धवन्तः,अतो नास्ति प्रत्युपेक्षणायाः कालः,सागारिको यथा नाम कश्चित्पुरुषस्तस्य पुत्रद्वयम्,अन्यदा च रात्रौ तद्वा प्रेक्षमाणों मा तं सारमुपधिमद्राक्षीदिति कृत्वा, भये गृहे प्रदीपनकं लग्नं, तद्भयादेकः पुत्रः पलायमानः सहसवा बोधिकस्तेनाऽऽदिसंबन्धिनि सारोपकरणहरणभयान्न वाङ्गारभृतायां गर्तायां निपतितः, स च गृहपतिद्धितीयं प्रत्युपेक्षन्ते, राजा वा प्रत्यनीकस्तदाहर्निशमध्वनि वहन्तो पुत्रमादाय गृहान्निर्गतो यावन्नश्यति पुरतः स्वपुत्रमगारन प्रत्युपेक्षेरन् ग्लानत्वे वा वर्तमान एकाकी तिष्ठन्न प्रत्युपे गर्तायां पतितं पश्यति, तं सुतं तथाभूतं दृष्टा द्वितीयमक्षते । एतैः कारणैर्न वा प्रत्युपेक्षेत, अनागतेऽतीते वा काले न्यं सुतं (पवलित्ते नीणितो त्ति) पञ्चम्यर्थे सप्तमी प्रदीप्ताप्रत्युपेक्षेत, त्वरमाणैर्वा श्रारभडाऽऽदिभिर्वा दोषैर्दुष्टां प्रत्यु द् गृहान्निष्काशयन् निजपारिणामिकमत्या विचार्य परिच्छेपेक्षणां न कुर्वते. असमर्थो वा गुर्वादीनामप्युपधि न प्रत्यु दकुशलः सन् किमङ्गारगर्तायां निपतितपूर्वे पुत्रे पादं न पेक्षेत, एवं यो यत्र शिवाऽऽदौ यदा यस्मिन्नवसरे प्रतिपक्ष करोति, अपि तु करोत्येव, कृत्वा च तदुपरि पादं सुखेनैव प्रत्युपेक्षणाकाले प्रत्युपेक्षणाऽऽदिको युज्यते तं तथा तत्र तां लङ्यतीति भावः। बोजयेदिति । अथ तदुपरि पादं न दद्यात् स्वपुत्रं कथं पादेनाऽऽक्रमामीअथ षट्सु कायेषु प्रत्युपक्षमाणस्य प्रायाश्चत्तं भवतीत्यर्थः, तिकृत्वा, ततः को दोष स्यादित्याहतत्र प्रत्युपेक्षणा न कर्तव्येति यदुक्तं, तदेव दर्शयति तं वा अणकमंता, चयइ सुयं तं च अप्पगं चेव । तसवीयरक्खणट्ठा, काएसु वि होज कारणे पहा । नित्थिनो हुँतं पि हु, पुत्तं तारिज जो पडितो ॥८३३।। नदिहरण-पुत्तनायं, तणू य थूरे य पुत्तम्मि ॥ ८३०॥ वाशब्दः पातनायां, सा च कृतैव,ततो गर्तानिपतितं तं पुत्रं पादनानाक्रामन् स पिता त्यजति पुत्रं तं च, स्वहस्तगृहीत. असाश्च द्वीन्द्रियाऽऽदयः, बीजानि च शाल्याऽऽदीनि, तेषा- मात्मानं च, उभयोरप्यङ्गारगर्तापातेन विनाशसद्भावात् । मस्थिरसंहननानां रक्षार्थ कायेष्वपि पृथिव्यादिषु दृढसं- अपि च स स्वयं निस्तीर्णः सन् कदाचित्तमपि पुत्रं तारयत् हनने कारणतः प्रत्युपेक्षणा भवति। न च प्रायश्चितम् । यः पूर्व गर्तायां पतित इति । एष द्वितीयो दृष्टान्तः । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलेवा उपनययोजना तु प्रागुक्तोपनययोजनानुसारेण कर्तव्येति । गतं प्रत्युपेक्षणाद्वारम् । पृ० १ ० । ( ३४४ ) अभिधानराजेन्द्रः । इदानीं प्रत्युपेक्षणीयमुच्यते, तत्प्रतिपादनायाऽऽह ठाणे उवगरणे वा, थंडिले अवथंभ मग्ग-पडिलेहा । किं आदी पडिलेहा, पुनरादे चैव अवरहे ।। ४१३ ।। स्थानं कायोत्सर्गऽदि त्रिविधं वच्यति । तथा उपकरणं पा त्रकादि, स्थण्डिलं यत्र कायिक्यादि क्रियते, श्रवष्टम्भः - श्र एम्भनं तत्प्रत्युपेक्षणा मार्ग कर्म यदेतत्परकमुपन्यस्तं, एतद्विषया प्रत्युपेक्षणा भवति (किं श्रादी पडिलेहा पुव्व रहे) किमादिका प्रत्युक्षणा पूर्व मुख्यािऽऽदिति अ पराह्ने किमादिका, तत्रापि मुखवस्त्रिकाऽऽदिकेति द्वारगाथेयम् । इदानीं भाष्यकारः प्रतिपदं व्याख्यानयति । तत्र सामान्येन सर्वाणि च द्वाराणि व्याख्यानयन्नाहठाणनिसीबतुपट्टण - उबगरणाईस गणनिक्रखेवे | पुत्रि पडिले च क्खुणा उ पच्छा पमज्जेजा || ४१४ ॥ स्थानं कायोत्सर्गः तं कुर्वन् चक्षुषा प्रथमं प्रत्युप भात् प्रमार्जयति । तथानिषीदनमुपविशनं त्वग्वर्तनं स्वपनम्, तथा उपकरणाऽऽदीनां ग्रहणनिक्षेपे च । आदिग्रहणात् स्थण्डिलमवष्ट॑म्भश्च गृह्यते । एतानि सर्वाण्येव पूर्व चा प्रत्युपेक्ष्य, पश्चाइजोहरणेन प्रसृज्यन्ते । ओघ० । ( स्थानद्वारम् ‘काउस्सग्ग' शब्दे तृतीयभागे ४१७ पृष्ठे विवृतम् ) इदानीमुपकरण द्वारतिपादनायाऽऽहउवगरणादीयाणं, गहणे निक्खेवणे य संकमणे | ठाण निरिक्ख पमजण, काउं पडिलेहए उवहिं ॥ ४२० || उपकरणादीनां प्रहरी आदाने यत् स्थानं तद् निरीषप निरूप्य प्रयुज्य च उपधिः प्रत्युपेक्षणीय इत्यत्र संबन्धः । तथा उपकरणाऽऽदीनां निक्षेपणे च यत् स्थानं तद् निरीक्ष्य सृज्य च उपधिः प्रत्युपेक्षणीयः । तथा उपकरणादीनामेव यत् संक्रमणं स्थानान्तरसंक्रमणं तस्मिन यत् स्थानान्तरं निरीक्षण प्रमार्जनं कृत्वा उपमित्युपत योऽयमादिशब्दः स उपधिकारप्रतिपादकः, उपकरण 155: गृह संक्रमणेषु यत् स्थानं तत्स्थाननिरीक्षयं प्रमाजनमुक्रम्। इदानीमुपकरण प्रत्युपेक्षणाप्रतिपादनायाऽऽहउवगरण वत्थ पार्य बत्थे पहिलेहणं तु बोच्छामि । वदे अवर, मुहांनगमाइपडिलेहा ।। ४२१ ॥ उपकरण्प्रत्युपेक्षणा द्विविधा (पत् पारति) विषया पात्रविषया व प्रत्युपेक्षा उच्यते यतः प्रवजितस्य प्रथमं बोपकरणंच दीयते न पात्रोपकरणम् सा च वरपेक्षा सा च कस्मिन्काले भवतीत्यत आह- ( पुज्य अपर पूर्वायुपेक्षणा भवत्यपराहे च किमादिका पुनः प्रत्युपेक्षता भवतीत्यत आह-हतगमादिपडिले सि खफा आदी यस्याः प्रत्युपायाः सा मुखपत्रिकादिकात् कदा पूर्व अपरा चेति । 19 पडिलेह तत्र मुखवत्रिकाऽऽदिकवस्त्रप्रत्युपेक्षणायामयं विधिःउड्डुं चिरं अतुरियं सर्व्वं वा वत्थ पुव्व पडिले । तो वितियं पप्फोडे, तइयं च पुणो पमजेज्जा ।। ४२२॥ न यो कायोर्द्ध व आचार्यमतेन भविष्यति, बोदकमतेन च वक्ष्यमाणम, तत्र वस्त्रोद्धे कायोर्द्ध च यद्वा भवंति तथा प्रत्युपेक्षेत [धिरं ति] स्थिरं सुकृत्या प्रत्युपे क्षेन। [ अनुरियं ति) त्वरितं स्तिमितं प्रत्युत रीक्षेत सव्वं ति] सर्व वस्त्रं तावत् पूर्व प्रथमं प्रत्यु पेक्षेत चक्षुषा निरीक्षेत, एवं तावदर्वाग्भागः परभागोऽपि परानृत्य एवमेव चक्षुषा निरीक्षेत [ तो वितियं पप्फोडि ति ] ततः द्वितीयायां वारायां प्रस्फोटयेत् य प्रस्फीटिमा कर्तव्या इत्यर्थः [ तइयं च पुणो पमजेजत्ति ] तृतीयायां वारायां हस्तगतान् प्राणान् प्रमार्जयेदिति । इदानीमेनामेव गाथां भाष्यकारो व्याख्यानयन्नाहवत्ये का तम्मिय, परवयणं ठिम्रो गहाय दसियंते । तं न भवइ उकुओ, तिरियं पेहे जह विलिचे ॥ ४२३ ॥ तो द्विविधा खोर्थ काय येत्येते तस्मिन्नु [परचयणं ति] परधोदकस्तस्य वचनम्। किं तदित्याह[ ठिश्रो गहाय दसियंत त्ति ] स्थितस्य ऊर्द्धस्य गृहीत्वा दशान्तं वस्त्रं प्रस्फोटयति बोर्ड कायोर्द्ध वेति भवति । एवमुक्ते सति श्राचार्य ग्रह - [ तं ण भवति त्ति] तदेतन्न भवति यचोदकेनाभिहितम् । कुतः ?, यस्मात् [ उक्कुडओ तिरियं पेहे ] उत्कुड़कः स्थितः तिर्यक प्रचार्य वस्त्रं प्रत्युपेक्षते, पत देव वचनं बोर्ड कायोर्द्ध या नान्यत् । यथा चन्दनाऽऽदिना विलिप्ताङ्गः परस्परमङ्गानि न लगयति, एवं सोडापे प्रत्युपेते तचैवम् उत्कुकस्य कायो भवतीति तिर्वसा रितस्स वस्त्रस्य वस्त्रोद्धे भवतीति "उद्धं ति” (४२२) भणितम् । हदानी स्थिरादीनि पदानि भाष्यकार एव व्याख्यानयन्नाह घेतं वरं अतुरियं तिभागवुडाएँ बक्खुला पेहे। तो वितियं परफोडे, तइयं च पुणो पमलेला ||४२४॥ गृहीत्वा च स्थिरं निविडं दृढं वस्त्रं ततः प्रत्युपेक्षेत. अ त्वरितं स्तिमित व ततः प्रत्युपेक्षेत इति भावः । (तिभागी ति) भागववृद्धयेत्यर्थः चक्षुषा प्रत्युपेक्षेन ततः द्वितीयायां प्रस्फोटयेत् तृतीयायां प्रमार्जयेत् पूर्ववत् । , इदानीं प्रत्युपेक्षणां कुर्वता इदं कर्तव्यम्अणच्चावियं अचलियं, अणाणुबंधिं अमोसलिं चैव । छप्पुरिमा व खोटा, पाणी पाणे पमज्जणवा ||४२५|| तत्र प्रत्युपेक्षणां कुर्वता वस्त्रमात्मा वा न नर्तयितव्यः, तथाऽचलितं वस्त्रं शरीरं च कर्तव्यम् (श्रणाणुबंधि त्ति) अनुबन्धः सोऽस्मिन्नस्तीति अनुबन्धिन अनुवन्धि अननुचन्धि, तत्प्रत्युपेक्षयान अनवरतं प्रस्फोटनाऽऽ कर्तव्यं किं ति सान्तरं सविच्छेद इत्यर्थः (अमोलि तिन मोशली किया यस्मिन् प्रत्युपेक्षतइमोशलि प्रत्युपेक्षणं यथा मुशलं कुट्टिते ऊर्द्ध लगति, अधस्तिर्यक्, एवं न प्रत्युक्षणा कर्तव्या । किंतु यथा प्रत्युपेक्षमाणस्य ऊर्द्ध पीठिषु न Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४५ ) अभिधानराजेन्धः | पाडलेइया लगति, न च तिर्यक्, न भूमौ तथा कर्तव्यम् (छप्पुरिमा ) तन वस्त्रस्य चक्षुषा निरूप्यावीभागं त्रयः पुरिमाः कर्तव्याः, तथा परामर्थ्य अपरभागं निरूप्य पुनरपि यः पुरिमाः कर्त न्याः । एवमेतेषु पुरिमाः पदद्वारा प्रस्फोटनानीत्यर्थः नव च खोडकाः कर्तव्याः। पाणेरुपरि (पाणी पाणे पमज्जण्य त्ति) प्राणिनां कुन्ध्यादीनां पासी हरते प्रमार्जनं नयेव वारा: कर्तव्या इयं द्वारगाथा । " इदानीं भाष्यकारः पूर्वार्द्ध व्याख्यानयन्नाहवत्थे अप्पाणम्मिय, चउह अणच्चावियं अचलियं च । अणुबंध निरंतरया, तिरि उडद पट्टणा मुसली ||४२६|| वस्त्रे आत्मनि इत्यनेन पदद्वयेन भङ्गचतुष्टयं सूचितं भवति । ततयानेन प्रकारेण अनवितं चतुर्दा भवति । कथम्? - "वत्थं श्रणञ्चावियं अप्पा च श्रणच्चावियं एगो भंगो। तथा वत्यं गच्चावियं अप्पाणं सचापि तथा ब त्थं वावियं अन्याण गुरुचावि तथा वत्थे पि नच्चावियं अप्पाणं वि राच्चावियं । एस चउत्थो । पत्थ पढमो भंगी सुद्धा ।" एवम् ति अलिपे च उरो भङ्गा यथा-वत्थं प्रचलितं श्रप्पाणं श्रचलियं । तथावत्थं चलिये अप्पाणं श्रवलियं । तथा वत्थं अचलियं श्रप्पाणं चलियं । तथा वत्थं पि चलियं अप्पा पि चलियं । पत्थ पडोमेगी सुख (अनुबंधनिरंतर ति ) अनुबन्धनिर न्तरता उच्यते, ततश्च न अनुबन्धेन नैरन्तर्येण प्रत्युपे - क्षणा कर्तव्या । इदानीम् " श्रमोसलि ति " यन्नाह - [ तिरि उहह पट्टणा मुसलि चि] विविधा गुलीना ऊर्द्ध घट्टना, अधोधना थेति । तत्र प्रत्युपेक्षां कुर्वन पण तिर्यक कुत्पादि घट्टति स्पृशति, ऊँ कुद्रिकाऽऽदिपटलानि धट्टयति व्याख्यान यांत एवं मुली, किंतु अमुशली न किञ्चित् प्रत्युपेक्षां कुर्वन् वस्त्रेण घट्टयति । इदं तावत् पूर्वोक्तमनर्तिताऽऽदि कर्त्तव्यम् इदं तु वक्ष्यमाणं न कर्तव्यं, किं तदित्याह आरभडा सम्मद्दा, वज्जेयव्त्रा य मोसली तइया । पफोडणा चउत्थी, विक्खित्ता वेश्य छ दोसा ॥४२७॥ ( श्रारभ त्ति ) आरभटा प्रत्युपेक्षणा न कर्त्तव्या, ( संमद्द सि संम वर्जनीया च मौराली तृतीया, प्रस्फोटना व चतुर्थी, विक्षिप्ता पञ्चमी, वेदिका षष्ठी इति द्वारगाथेयम् । इदानीं भाष्यकारः प्रतिपदं व्याख्यानयति । तत्राऽऽद्यावयवं व्याविषयासुरा चितरकर व तुरिये अर्थच गेरहारभडा । अंतोन होज्ज कोणा, खिसिया तत्थेव संमदा ||४२८|| वितर्थ विपरीतं वत्करणं तदारभटाशब्देनोच्यते सा चा रमा प्रत्युपेक्षा न कर्तव्या इत्यर्थ वा विकल्पे इयं चा भटोच्यते, यदुत त्वरितमाकुलं यदन्यान्यवस्त्रग्रहणं तदारभटाशब्देनोच्यत सा च प्रत्युपेक्षणा न कर्तव्या । त्वरितमन्यास्पर्श न कर्तव्यमित्यर्थः । प्रारमदेति भणितम् । इदानीं संमर्दा व्याख्यायते तो कोणा निसिषण तत्थेव संमद्दा) मध्यप्रदेशे वस्त्रस्य संचलि ताः यत्र भवन्ति सा समोच्यते सा प्रत्युपेक्षणा, ना ८७ पडिले हा 33 दशी क्रिया न कर्तव्या (खिसीयणं तत्थेव त्ति) तवैव अ वधिकायामुपविश्य प्रत्युपेक्षणं करोति सा वा संमदच्य ते सा च न कर्तव्या इति । " संमदत्ति भणियं । " इदानी मीलीपजनप्रतिपादनायाऽऽहमोसलि पु०बुद्दिट्ठा, पफोडण रेणुगुंडिए चेव । विखे तु विखेवे बेय पण च खोसा ।। ४२६ ॥ भैशली पूर्वमेवोदिया, पूर्वमेव भणिता इत्यर्थः । " मोसलि त्ति " गता । इदानीं “पप्फोड त्ति” व्याख्यायते - तत्राऽऽह( पप्फोड रेडिए वेव) प्रनने प्रस्फोटनं त णुगुण्डितस्यैव वस्त्रस्य करोति, यथाऽन्यः कश्चित् गृहस्थो रेगुना गुण्डितं सद् वस्त्रं प्रस्फोटयति, एवमसावपि इयं च न कर्तव्या । " पप्फोडण त्ति " गतम् । इदानीं “ विक्खित्त त्ति" भण्यते । तत्त्राऽऽह - ( विक्खेयं तु विखेवे ) विक्षेपं तु तं विद्धि. यत्र वस्त्रस्यान्यत्र क्षेपणम् । एतदुक्तं भवति- प्रतिलेखfarar aantes जवनिकाऽऽदौ क्षिपति । अथवा-विकबलाञ्चलानाम् यत् क्षेपणं स उच्यते स च प्रत्युपेक्षणायां न कर्त्तव्यः । " विक्त्रित्तत्ति गतम् । इदानों वेदयत्ति " व्याख्यायते तत्राऽऽह (बेश्य त्ति ) वेदिका पञ्चप्रकारा ।" तं जहा - उडुं वेश्या, अधो वेश्या, तिरियं वेश्या, दुहतो वेइया, एगो वेदया । तत्थ उवेश्या उपरि जागा हत्थे काऊल पडिहद । अधोया अधीजाणुगाणं हत्थे काऊण पडिलेइ । तिरिय बेहया सडगावं मम परिहति, दुओ या बाहू अंतरे दो वि जागा काऊ प डिलेडेर गओ बेहया जाए चाहाणं अंतरे काऊ पडि लेइ ।" इदं वेदिकापञ्चकं प्रत्युपेक्षणां कुर्वता न कर्तव्यम् । ( उदास ) पते चारभटादयः प्रत्युपेक्षां कुर्वता न कर्तव्या इति । तथा एते च दोषाः प्रत्युपेक्षणायां न कर्तव्याः । पसिडिल पलपलोला, एगा मोसा अगरूव पुगे । कुणइ पमाणे पमायं. संकिऍ गणगोत्रगं कुजा || ४३०॥ (पसिढिलं ) हढं न गृहीतम् [ पलंब त्ति ] प्रलम्बमानाञ्चलं एकान्ते गृहीतं ततख प्रलम्बते । [ लोला इति भूमी लालते हस्ते वा पुनर्लोलयति प्रत्युपेक्षयन् ।" लोल त्ति गये ।" [ एगा मोस सि] मत्सरं गऊगा पित्तविभा गावसेसं जाव ऐति, दोहिं वि पासेहिं जाव गिरहण इत्यर्थः । अवा-तिहिं अंगुली घेत्तर्यतो एकाए वे गेगर हवारोगा मोसा " इति केचित्पठन्ति । तत्र न एके श्रामणी श्रनेअसे गपगार के स्पर्शा इत्यर्थः । [ अगरूप रा ति ] कंपेति । अथवा अरोगाणि एगओ काऊण धुणइ । तथा[कुर पमाणे पमायं ति ] पुरिमेषु खोटकंषु यत्प्रमाणमु क्रं भवति तान पुरिमादीनां न्यूनाधिकार या करोति । (किए गण कुरज ति शङ्किता पासी गणना श ङ्कितगणना तामुपगच्छति या प्रत्युपेक्षणा साशङ्कतगणनापगता ताम् एवं गुणविशिष्टां न कुर्यात्। एतदुकं भवति पुरि मादयः शङ्कितान् जानाति कियन्तो गता इति, ततो गणनां करोति तथा अनाभोगाद्धिते सति गनी गणना पगच्छतीति गोपगता गणनामुप्रत्युपे रोमाऽरीन् गण रन्नित्यर्थः गाथयम् । " Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलहणा अभिधानराजेन्दः । पमिलेहणा इदानी भाष्यकार: प्रतिपदं व्याख्यानयनाह अरुणावस्सगपुव्वं, परोप्परं पाणिपडिलेहा ॥ ४३५ ।। पसिढिलमघणमणिसयं, विसमग्गहणे च कोणं च । खोटका यदि ऊना अधिका वा क्रियन्ते, ततः अशुद्धता भूमीकर-लोलणया, कत्तणगहणेग आमोसा ॥४३१॥ । भवति। प्रमार्जनाच नवसंख्या यदि न्यूना श्रधिका वा क्रियते ततोऽशुद्धता भवति, वेलायां च न्यूनायामधिकायां वा प्र(पसिढिलत्ति) प्रसिथिलमघनमदृढं गृह्णाति। अतिशयं वा, त्युपेक्षणायां क्रियमाणायामशुद्धा भङ्गका भवन्ति विशेयाः । अश्रुटितं वा प्रसिथिलमुच्यते। "पसिढिल त्ति"गतम्। [पलंव तिभएयते। विषमग्रहणे सति लम्बकोणं भवति वस्त्रम्। ["प उत्तरार्धव्याख्या तु पूर्व गता । श्रोधः । लवंति"गतम्।"लोला"भए यते अत्राह[भूमीकरलालणया] उपधिविपर्यासः। यदुक्तम्भूमौ लोलयति. करे हस्ते वा लोलयति प्रत्युपेक्षयन्। 'लोल पुरिसुपहिविवच्चासो, सागारिएँ करेज्ज उवहिवच्चासं । ति"गतम्। [एगामोस त्ति भएयते तत्राऽऽह-[कत्तण गहणे- आपुच्छित्ता च गुरुं, पडुच्चमाणेतरे वितहं ।। ४३७॥ गश्रामोसा] मध्ये च वस्त्रं गृहीत्वा तावदाकर्तनं करोति या- | तन विपर्यासो द्विविधः-पुरुषविपर्यासः, उपधिविपर्यासवत् त्रिभागशेषग्रहणं जातम् । इयमेका मोसा, एकं घर्षणमि- श्च । तत्र उपधिविपर्यासप्रतिपादनायाह-(सागारिए करेत्यर्थः । अथवा-अाकर्षण ग्रहणे च अनेक प्रामोसा अनेका- ज उवहिवच्चासं ति)सागारिके स्तेनाऽऽदिके सत्यागते विनि स्पर्शनानि तद्वस्त्रमनेकधा स्पृशति । " एकामोस ति" | पर्यासः क्रियते । प्रत्युपेक्षणायां प्रथमं पात्रकाणि प्रत्युपेक्षन्ते,' गतम् । पश्चाद्वस्त्राणि । एवमयं प्रत्युषसि विपर्यासः प्रत्युपेक्षणायाः। "अणेगरूवधुण ति" [४३० गा०] भरपते एवं विकालेऽपि सागारिकानागन्तुकान् ज्ञात्वा इदानीं पुरुधुणणं त्तिएह परेणं, बहूणि वा घेतु एकमो धुणइ । षविपर्यास उच्यते। तत्राह-(श्रापुच्छित्ता च गुरूं,पहुश्शमा ऐत्ति) आपृच्छय गुरुमात्मीयामुपधि ग्लानसत्कां वा प्रत्युपेखोडणपमजणासु य,संकिए गणणं करे पमाई च ॥४३२।। क्षणे पुरुषविपर्यास उच्यते। कदा?अत अाह-(पडुच्चमाणे) धूनना कम्पना त्रयाणां "पुरिमाणां" परत उपरिष्टायत्तत्क- यदा आभिग्रहिका उपधिप्रत्युपेक्षकाः (पडुच्चं ति) पर्या. रोति । अत्र च त्रयाणां परत इति यदुकं तदेकवस्त्रापेक्ष- प्यन्ते तदेवं करोति । (इतरे वितहं ति । इतरे आभिग्राहि या बहूनि वा गृहीत्वा वस्त्राणि एकीकृत्य योगपधेना. का यदा न सन्ति तदा प्रथममात्मीयामुपधिं प्रत्युपेक्षमापि प्रस्फोटयति 'अणेगधुणे त्ति" भणियं । "कुणह पमाणे णस्थ वितथमनाचारो भवतीत्यर्थः । पमायं ति" भलाते। तथाऽह-[खोडणपमजणासु य खोट- तत्र न केवलं प्रत्युपेक्षणाकाले उपधिविपर्यासं कुर्वतो विनकेषु नवसु , प्रमार्जनासु च नवसु न प्रमादं करोति । " कु तथमनाचारो भवति । णड पमाणे पमायं ति " गतम् । “संकि गणणावगं ति" एवं च वितथं भवतिभमाह। अप्राह-संकिर गणण करे पमादी यत्ति ] शङ्किते पडिलेहणं करेंतो, मिहो कहं कुणइ जणवयकहं वा । सति गणनां करोति यः स प्रमादी भवति । एवमियमित्थंभूता देइ व पच्चक्खाणं, वाएइ सयं पडिलहइ वा ॥४३८॥ प्रत्युपेक्षणा न कर्तव्या इति स्थितम् । ओघ०। ( प्रमादप्रति लेखना 'पमायपडिलेहा' शब्दे वक्ष्यते ) अप्रमादप्रातले प्रत्युपेक्षणां कुर्वन् मिथः कथां मैथुनसंबद्ध कथां करोति । खना 'अपमायपडिलेहा' शब्दे प्रथमभागे ५६६ पृष्ठे गता) जनपदकथां वा प्रत्याख्यानं वा,श्रावकाऽदेर्ददाति,वाचयति किञ्चित्साधुं पाठयतीत्यर्थः । (सयं पडिलहर वा) स्वयं अनतिरिका कर्तव्या प्रत्युपेक्षणा, किंविशिष्टा पुनः क प्रतीच्छति-श्रात्मना वा पालापकं दीयमानं प्रतीच्छति गृर्तव्येति । श्राह हाति । एतच्च वक्ष्यमाणं कुर्वन् परणामपि जीवनिकायानां श्रणाणतिरितपडिलेहा, अविवज्जासाइ पढमत्रो सुद्धो। विराधको भवतीत्यर्थः । पहमं पयं पसत्थं, सेसाणि उ अप्पसत्थाणि ॥ ४३३ ॥ इत्यत श्राहअन्यूना अनतिरिक्ता अविपर्यासेन प्रत्युपेक्षणा कर्तव्या। ए. पुढवीआउक्काए तेऊवाऊवणस्सइतसाणं । भिः त्रिभिः पदैः श्रष्टा भट्टाः सूचिताः। तेषां चैषा स्थापना पडिलेहणापमत्तो, छएहं तु विगहरो होई ॥४३॥ एतेषां प्रथमं पदं प्रशस्तं शे सुगमा ॥ ४३६ ॥ पाणि तु अप्रशस्तानि श्र-- कथं पुनः पराणामपि कायानां विराधकः ?,श्रत पाहनादयानि। घडगार पलुट्टणया, मट्टिय अगणी य कुंथुबीयाइ । इदानीं भाष्यकारः शुद्धाशुद्धप्रदर्शनायाऽऽह उदगगया य तसेतर, उम्मुकसंघट्ट झावणया ॥४४०॥ ण वि ऊणा णतिरित्ता,अविवञ्चासा वि पढमो सुद्धो। स हि साधुः कुम्भकाराऽऽदिवसतौ प्रत्युपेक्षणां कुर्वन्ननुसेसा हुँति असुद्धा, उवरिल्ला संति जे भंगा ॥ ४३४ ।। पयुक्तः तोयघटादिपु प्रलोटयेत् । स च तोयभृतो घटः मृतिनापि न्यूना, नाप्यतिरिक्ला, विपर्यासन च, 'अत्र प्रथमो भ काऽग्निबीजकुन्थ्वादीनां उपरि प्रलुठितः, ततश्चैतान् व्यापाका शुद्धः, शेषं सुगमम् । दयेत, यत्राग्निस्तत्र वायुरप्यवश्यंभावी । अथवा-अनया भ गया षमा कायानां व्यापादकाः ( उदगगया य तसेतर त्ति) इदानीं ये अशुद्धाः सप्त भङ्गका दर्शितास्ते एवं भवन्ति ये असा उदकघटे पूतरकाऽदयः (इतर ति ) वनस्पतिकाखोडणपमज्जवेला-सु ण च ऊणाहिया मुणे यया । । याश्च । तथा वस्त्रान्ते नवे उल्नुकं संघट्टये चालयेत्, त Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४७) पडिलेहणा निधानराजेन्धः। पडिलेहगणा तश्च-[झावणय त्ति तेनोल्नुकेन चालितेन सता प्रदीपन | सेसु पुब्वं पायरियस्स. परछा परिणीयतो गिलाणसेहादिसंजात, ततश्च संयमाऽऽत्मविराधना जातेति । अथोपयुक्तः याण अमहा उक्कमो । उक्कमे पडिलेहणाए य पच्छित्तं) प्रत्युपेक्षणां करोति, तत एतेषामेव परणां जीवनिकाया इदाणि पडिलेहणदारं गाहानामाराधको भवाते। . एतदेवाऽऽह पडिलेहण पप्फोडण, पमजणा चेव जा जहिं कमति । पुढवीआउक्काए-तेऊवाऊवणस्सइतसाणं । तिविहम्मि वि उवहिम्मी, तमहं वोच्छं समासेणं ।६२६। पडिलेहणमावन्नो, छण्हं आराहो होइ॥ ४४१॥ चक्खुणा पडिलेहणा उक्कोडगप्पदाणं, पप्फोडणा मुहपोसुगमा, गवरं पाराधकोऽविराधको भवति, न केवलं त्तियरयहरणगोच्छगहिं पमजणा। एताओ तिविहोपकरणे प्रत्युपेक्षणा, अन्योऽपि यः कश्चिद्यापारो भगवन्मते सम्यक् जहसमझिमुक्कोसे जाजत्थ संभवति तं समासतो भणामि । युज्यते, स एव दुःखक्षयाय भवति । गाहातदेवाऽऽह पडिलेहणा य वत्थे, पाए य भवंति दोसा तु । जोगे जोगे जिणसा-सणम्मि दुक्खक्खयाएँ पउजंते । पडिलेहणा पमजण, पातादीयाण दोसया होति ॥६२७।। अन्नोन्नमवाहाए, असवत्तो होइ कायव्यो ॥४४२॥ | वत्थे पडिलेहणपप्फोडणाश्रो दोसा भवंति पाणित्ति हत्थो, योगे योग इति वीप्सा, ततश्च व्यापारः जिनशासने दुःख- | तत्थ पडिलेहणपमजणाश्रो दोसा भवंति श्रह णिविडति क्षयाय प्रयुज्यमानः । कथम?, अन्योन्याबाधया परस्परमपी- त्ति पप्फोडणा, सा प्रविधित्ति काऊण भवति । पाते दण्डगे, डया । एतदुतं भवति-यथा क्रिया क्रियमाणा अन्येन क्रि- आदिसद्दातो पीठफलगसंथारगसेजाए य पडिलेहणपमयान्तरेण न बाध्यत एवमन्योन्याबाधया प्रयुज्यमानः असप- जणा दोसा भवंति। लोऽविरुद्धो भवति कर्तव्य इति । पायवत्थेसु पप्फोडणप्रदर्शनार्थमाहइदानीं फलं प्रदर्शयन्नाह रर्ति पमञ्जणं पुण, भणिता पडिलेहणा य णत्थि ति । जोगे जोगे जिणसा-सम्मि दुक्खखयाएँ पउजते । पडिलेहगा केति पायरिया भणंति-पडिलेहिए पाते जर्मगुएक्कक्कम्मि अणंता, वटुंता केवली जाया ।।४४३॥ लीहिंाहिंडति सा पप्फोडणा, पडलवत्थेसु । गोच्छकपदेसे सुगमा । नवरम्-एकैकस्मिन् योगे व्यापारे वर्तमाना अन. सरियाहिं णियमा पमजणा संभवति, न केषाञ्चिन्मतमित्यम्ताः केवलिनो जाता इति।। थैः । इदार्ण पडिलेहणपमजण पप्फोडणादिवसतो का कत्थ संभवति ति भएणति-(पडिलेदोगाहा*) पादादिए उवकरणे एवं पडिलहिता, अईअकाले अणंतगा सिद्धा । जहा संभवदिवसतो तिरिण वि संभवति । राश्रो य पप्पोचोयगवयणं सययं, पडिलेहामो जो सिद्धा ॥४४४॥ डणपमजणा य दोसा भवंति पडिलेहणाण संभवति अ. एवं प्रत्युपेक्षणां कुर्वन्तः-अतीतकाले अनन्ताः सिद्धाः। ए. चक्खुविसयाश्रो । पडिहेण त्ति दारं गतं । नि० चू०२३० । बमाचार्येणोक्ने सति (चोदगवयणं) अत्र चोदकवचनं चो गाहादकपक्षः किं तदित्याह-[सययं पडिलेहामो] यद्येवं प्रत्यु- चाउम्मासुक्कोसे, मासिय मज्झे य पंच य जहाले । पेक्षणाप्रभावादनन्ताः सिद्धाः ततः सततमेव प्रत्युपेक्षणामेव तिविधम्मि वि उवधिम्मी, तिविधा आरोवणा भणिता ६३७ कुर्मः, किमन्येन योगेनानुष्ठितेन, यतस्तत एव सिद्धिर्भवति। उक्कोसे चाउम्मासो । मज्झिमे मासो, जहन्ने पणगं। तिप्राचार्य आह विधा जहममज्झिमणुकोसा। सेसेसु अवतो, पडिलेहंतो वि देसमाराहे । गाहाजइ पुण सव्वाराहण-मिच्छसि तेणं निसामेहि ॥४४शा इत्तरिओ पुण उवधी, जहलो माझिमो यणातव्यो । शेषेषु योगेषु अवर्तमानः सम्यक् शास्त्रोक्लेन न्यायेन प्र सुत्तणिवातो मज्झिमा, तमपडिलेहेंति य आणादी ॥६३८॥ त्युपेक्षणां कुर्वन्नपि देशत आराधक एवाऽसौ, न तु सर्व | इत्तरगहणातो जहरणमझिमे सुत्तणिवाश्रो, मज्झिमे तममाराधितं भवति । तेन यदि पुनः संपूर्णाऽऽराधनामिच्छसी- पडिलेहंतस्स प्राणाइया दोसा इमे संजमदोसा। त्यादि सुगमम् । प्रोघः। गाहागाहा घणसंताणगपणगे, घरकोइलियादिपसवणं वा वि । पडिलेहणा तु तस्सा-काले सहोस णिद्दोसा । हितण? जाणणट्ठा. विच्छयतह सेट्टकारी य ॥६३६।। हीणतिरित्ता य तहा, उक्कमकमतो य णायव्या ॥६२५॥ घणसंताणगेत्ति । अपेहिए लूनापुडगं संबज्झति, पणगो उइदाणि हाणातिरित्तेत्ति दारं पडिलेहणगाहा। (पडिलेहण ल्ली अपेहिते भवति । गिहिकोइला पसवति । हियणटुं वा पप्फोडण-पमज्जणाय त्ति) ततो अहीण मतिरित्ता कायव्वा । संभारियं भवति. गिम्हे विच्छुगसप्पादिया पविसंति, अपेहीणातिरित्ते दारं गतं । उक्कमकमतोत्ति दारं-उवधिपुरिसे हिते तेहिं वि श्रायविराहणा भवति । सेट्टयारिया धणातिसु । उवधिम्मि पच्चूसे पुवं मुहपोती, ततो रयहरणं। रियारिहं करेज । जम्हा एते दोसा तम्हा सब्वोवही दुसंमं ततो णिसज्जा, ततो बाहिरणिसेजा, चोलपट्टो, कप्पं, उत्तर पडिलेहियब्वो। पह, संथारं, पत्तं, दंडगो य एस कमो । असहा उक्रमो पुरि- * सार्द्धगाथा पुस्तके नास्ति । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४८ ) अभिधान राजेन्द्रः | पडिले हा कारणे पुरा श्रपेतो वि श्रदोसो । इमे य ते कारणाअसित्रे ओमोरिए, गेलद्वारा संभम भए वा । तेयपरे सागार - संजमहेतुं व चितिपए || ६४० ॥ अलिवगहितो ण तरति तप्पाडेयरगा वा वाउलत्तणश्रो, श्र वमेय एच्चिय श्राराद्वा हिंडिउं पडिलेहणाए रात्थि काला गिलाणेो ण तरति लगानी श्रद्धारा सत्ययसो स पेहे अगिणिमादिभमा ए पेहे, बोहिगादिभए वा पेहे ते य परे सायही य या पेलिडिति ण पेहे कसियहि सि वागारिए पति पावलंवगाण वा अग्गतो व पेहेति सं जमहे वा महियाभिरणवाससवित्त वितियपदेश - हितीसुद्ध इति नि० ० २ ० । धुवं च पडिलेहिजा, जोगे सापाय केवलं । , सिजामुचारभूमिं च संथारं अदुवाऽऽसणं ॥ १७ ॥ तथा धुवं च नित्यं च यो यस्य काल उक्तोऽनागते परिभोगे च तस्मिन् प्रत्युत सिद्धान्तविधिना योगे स ति सति सामध्ये अतिरिकम्। किं तदित्याह-पात्रक म्बलं, पात्रग्रहणादलाबुदारुमयाऽऽदिपरिग्रहः । कम्बल ग्रहणादूर्णसूत्रमयपरिग्रहः । तथा शय्यां वसतिं द्विकालं त्रिकालं च उच्चारभुवं चानापातवदादि थण्डिलं, तथा--संस्तार कं तृणमयाऽऽदिरूपम् । अथवा असनमपवादगृहीतं पीठकाssदि प्रत्युपेक्षेत | इति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ उच्चारं पासवर्ण खेल सिंघाण जलियं । " फासुयं पडिलेहित्ता, परिहाविज संजए ||१८|| उच्चारं, प्रस्रवणं, श्लेष्मसिङ्घाणजल्लमिति प्रतीतानि । एतानि प्रासकं प्रत्युपेक्ष्य, स्थण्डिलमिति वाक्यशेषः । परिष्ठापयेत् व्युत्सृजेत् संयत इति सूत्रार्थः । दश०८ श्र० । पात्रप्रत्युपेक्षणायां कथं स चाऽऽराधको भवत्यत आहपंचिदिएहि गुतो, मणमाइतिविहकरणमाउतो | तवनियमसंयमम्मि जुत्तो आराहगो होइ। ४४६ ॥ पञ्चभिरिन्द्रियैर्गुतः मानसाऽऽदिना त्रिविधेन करणेनाऽऽयुः यज्ञवान् तपसा द्वादशीयन युक्तः, नियम इन्द्रियनिय मो. नोनियमय, तेन बुक्का, संयमः सकाराः 'पुढ विकारयो, आउकाओ, बाउकाओ का दिय-इंद्रिय बरिदिय-जीवकायसंग पे पेहा पमजणं परिट्ठावणं वणस्सकाए ।” अत्र यः संयतः स मोक्षस्य आराधको भवति, प्रवज्याया वा आराधकः । द्वारगाथा इयम् । इदानी भाष्यकार एनां गाथां प्रतिपदं व्याख्यानयति तत्र " पंचिदिएहिं गुत्तो" इति प्रथमावयवं व्याख्यानयन्नाहइंदियविसयनिरोहो, पत्तेसु य रामदोसनिग्गहणं । अकुसलजोगनिरोहो, कुसलोदव एगभावो वा ||४४७|| इन्द्रस्याऽनि इन्द्रियाणि तेषां विषयाः शब्दाः तेष यी निरोधः सः पद्रियते श्रयमानां श हादिविषयाणां विरोध तथा (पत्ते यांन हनि तथा प्राप्त मीरागष्वपि शब्दाऽऽदिषु विषयेषु रागद्वेपोर्नग्रहणं मनसा पञ्चेन्द्रियगुप्तना । तव शब्दाऽऽदि पडिलेइडा विषयप्राप्तौ रागं न गच्छति, श्रनिष्टशब्दाऽऽदिविषयप्राप्तौ द्वेष न गच्छति । भणिता पञ्चेन्द्रियगुप्तता । इदानीम् 'मणमादितिविकरणउत्ता भसति । " तत्राऽह (कुसल जोगनिरीहो अकुशलानामशोभनानां मनोवाक्काययोगानां व्यापाराणां निरोधः अकुशल योगनिरोधः सः । त्रिविधकरणगुप्तता । तथा ( कुसलादयत्ति ) कुशलानां प्रशस्तानां मनोवा कायव्यापाराणां य उदयः सः । विविधकरण गुप्तानाम् । तथा ( एगभाषी व तिन कुराले योगेषु प्रवृत्तिर्नाऽप्यकु शलेषु योगेषु प्रवृत्तिर्या मध्यस्थिता सा च त्रिविधकरणगुप्तानां भविता विविधकरणगुप्त इदानीं भवति । अम्भितर बाहिरियं तवोवहा दवालसविहंषि । , इंदियो पुव्युत्तो नियमो को हाइओ बीओ || ४४८ ॥ अभ्यन्तरं पाहां च तप उपधानं तप उपदधतीत्युपधानम उपकरोतीत्यर्थः तत्र उपधानं द्वादशविधमपि तप उच्यते । " तवो गतो" नियमो भइ त्ति । स च द्विविधः - इन्द्रियनियमः, नन्द्रियनियमथ तत्र इन्द्रियतः इन्द्रियाण्यकृत्य पूर्वो नियमः कोधादिकः । श्रादिमहात्मानमायालोमा गृहा न्ते एतेषां नियमो निरोधः । " नियमे त्ति गयम् । इदानीं " संजमो भाइ" स च सप्तदशप्रकारः । तत्राऽऽह पुढवि दय, अगणि मारय, वास्स वितिचउकपंचिंदी | अज्जीवपत्थगाइस, गहिए अस्संजमो जेणं ॥ ४४६ ॥ पुडवीदग अगणिमारुयवरणस्स वेदियतेई दियचरिदिपंचेंद्रिया" तथा (अजीव ति) अजीदेषु नपुस्त काऽऽदिषु गृहीतेषु असंयमो भवति । यतः तत्र प्रायम् आदिशब्दात् " दूसपणगं तरणपणगा, चम्मपरागं ।” एतेषु परिग्रहीतेषु असंयमः परितेषु च संयमः । 66 " तथा पेहित्ता संजमो वृत्तो, उपेहित्ता वि संजमो । पमज्जेत्ता संजमो वी, परिठावित्ता वि संजमो ॥। ४५० ।। प्रेक्ष्य संयमचक्षुषा यन्निरूपणं ततश्चैवं पूर्व चक्षुपा निरूपयतः प्रेक्षासंयम उक्तः ( उवेहित्ता वि संजमो ति) उपेक्षा द्विप्रकारा, तां कुर्वतः संयम उक्तः । तां च वच्यति । (पसजेत्ता संजमो ति ) प्रमार्जयतः संजम उक्तः ( परिठाता वि संजय सि) परिष्ठापयतः परित्यजतोऽपि पानकात रिक्का संयम उक्तः एमनीवाकयमशि विधः उक्त एव द्रष्टव्यः । इदानीं भाष्यकृद् व्याख्यानयति-प्रथ मगाथार्द्धार्थ - एकाकि (करेणिक) गमनयतनायां उक्तः, श्रजीवपुस्तकाs दिसंयमोsपि श्रचित्तवनस्पतिगमनयतनायां व्याख्यात एव द्रष्टव्यः । इदानीं यदुपन्यस्तम्- "अहिता वि संजमं" इत्यादि तत् न क्वचिद् व्याख्यातमिति व्याख्यानयन्नाह ठाणा जत्य चेते, पुव्र्व्व पडिलेहिकरण चेइज्जा | संजयगिहिचोयणा उ, चोयख वावार उप्पेहा ॥ ४५१ ॥ स्थानस्थानं कायोत्सर्गादि आदिग्रहणाक्षिपदनस्थानं च गृह्यते । ततः स्थानाऽऽदि यत्र चेतयते ' चिती ' संज्ञाने, जानाति, वेष्टते, करोति कर्तुमालतीत्यर्थः । तत् पूर्व प्र धर्म प्रत्यु चक्षुषा निरीक्षते सततयते स्थान का Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमिलेहणा अभिधानराजेन्डः। पमिलेहगा योत्सर्गाऽऽदि । अयं प्रेक्षासंयमः। इदानीमुपेक्षासंयम उच्यते. पात्रकाणि प्रत्युपेक्षणीयानीत्येवमुपयुज्य पुनः तल्लेश्य एव सा चोपेक्षा द्विविधा-कथम?, संयतव्यापारोपेक्षा,गृहस्थव्या. प्रत्युपेक्षणाभिमुख एव यतिः प्रवजितः पात्रसमीपे उपविश्य पारोपेक्षा च। तत्र यथासंख्यं चोदना-चोदनविषयसंयतस्य उपयोगं करोति मतिं व्यापारयति । कथम्?, श्रोवेन्द्रियेण पा. चोदनविषया व्यापारोपेक्षा। एतदुक्तं भवतीति-साधुं विपीद | के उपयोगं करोति,कदाचित्तत्र भ्रमराऽऽदि गुञ्जति पुनस्तं न्तं दृष्ट्रा संयमव्यापारेषु चोदयतःसंयमव्यापारोपेक्षा । उपे- यतनयाऽपनीय तत् पात्रकं प्रत्युपेक्षते तत्र वा चक्षुषा उपयोग शाशब्दश्चात्र-ईत' दर्शने । उप सामीप्येन ईक्षा उपेक्षा, गृह- ददाति, कदाचित्तत्र मूषिकोत्कीर्णाऽऽदिरजो भवति ततस्थस्य च व्यापारोपेक्षा-गृहस्थम् अधिकरणब्यापारेषु प्रवृ. स्तन् यतनया अपनयति, घ्राणेन्द्रियेण चोपयोगं करोति, क. तं दृष्ट्रा अधिकरणव्यापारेषु प्रवृत्तं चोदयतः गृहस्थव्या- दाचित्तत्र सुरुडविकाऽऽदिर्मर्दितो भवति,पुनश्च घाणेन्द्रियेण पारोपेक्षोच्यते । उपेक्षाशब्दश्चात्र अवधारणायां वर्तत इति । ज्ञात्वा यतनया अपनयति, जिह्वया रसं च शात्वा यत्र गइदानी “परिट्टवित्ता वि संजमो" व्याख्यायते, तत्राह- म्धस्तत्र रसोऽपि ,गन्धपुद्गलैरोष्ठा यदा घातो भवति तदा उवगरणं अइरेगं, पाणाई वाऽवह१ संजमणा । जिह्वायां रसं जानातीति, स्पर्शनेन्द्रियेण चोपयोगं ददाति, कदाचित्तत्र मूषिकाऽऽदिः प्रविष्टः सन्निःश्वासवायुश्च शरीरे सागारियअपमजण-संजमा सेसे पमजणया ।। ४५२ ।। लगति, ततश्चवमुपयोगं दत्त्वा पात्रकाणि प्रत्युपेक्षते । उपकरणं वस्त्राऽऽदि यदतिरिक्तं गृहीतं, तथा-[पाणाइ वा] - इदानी भाष्यकृत् किश्चिद् व्याख्यानयन्नाह-- तथा पानकाऽऽदि वा यदतिरिक्तं गृहीतं तत् [अवहट्ट त्ति] परित्यज्य,किम् ? [संजमणा] संयमो भवतीति। श्रादिग्रहणा- पडिलेहणियाकाले, फिडिए कल्लाणगं तु पच्छित्तं । भक्तं वा परित्यक्तं, परित्यज्य संयमः । इदानीं “पमजेत्ता वि पायस्स पासवेट्ठो, सोयादुवउत्त तल्लेस्सा ।।४६१॥ संजमो” व्याख्यायते-सागारियअपमजणसंजमो] सागारि प्रत्युपेक्षणाकाले [फिडिए अतिक्रान्ते, एककल्याणकं यतः काणामग्रतः पादाप्रमार्जनम्, असावेव संयमः। [ससे पमज प्रायश्चित्तं भवति, अतः पूर्वमुपयोगं प्रत्युपेक्षणाविषये कणय ति] शेषेषु सागारिकाऽऽद्यभावेषु प्रमार्जनेन च संयमः। रोति । किंविशिष्ठोऽसौ उपयोगं करोतीत्यत आह-[पायइदानी योगत्रयसंयमप्रतिपादनायाऽऽह स्स पासवेट्ठो] पात्रकस्य पार्श्वे उपविष्टः श्रोत्राऽऽदिभिरुपजोगतिग पुयभणियं, समत्तपडिलेहणाएँ सज्झायो । युक्तः तल्लेश्यः तश्चित्तो भवतीति । चरिमाए पोरिसिए, ताहे पडिलेहें पत्तदुगं ॥ ४५३ ।। कथं पुनः पात्रप्रत्युपेक्षणां करोतीत्यत आहयोगत्रयं पूर्वमेव ब्याख्यातम्-"मणसाइतिविहकरणमाउ- मुहणंतएण गोच्छं, गोच्छगगहियंगुलीहि पडलाई। तो" इत्यस्मिन् ग्रन्थे, अत्रापि तथैव द्रष्टव्यम् । उक्तः सप्तदश- उक्कुडुयभाणवत्था, पलिमंथादीसु तेण भवे ।।४६२॥ प्रकारः संयमः । तत्प्रतिपादनाच्च उताऽथ वस्त्रप्रत्युपेक्ष रजोहरणमुखवस्त्रिकया गोच्छुकं वक्ष्यमाणलक्षणं प्रमार्जयणा । तत्समाप्तौ च किं कर्तव्यमित्यत आह-(समतपडिले ति, पुनः तदेव गोच्छकमगुलीभिहीत्वा पटलानि प्रमार्जहणाएँ सभाओ) समाप्तायां प्रत्युपेक्षणायां स्वाध्यायः क'र्तव्यः, सूत्रपौरुषीत्यर्थः, पादोनपहरं यावत् । इदानीं पात्रप्र यति । अत्राऽऽहः परः-[उक्कुडुयभाणवत्था] उत्कुटुकस्य भा. त्युपेक्षणामाह--(चरिमार ) चरिमायां पादोनपौरुष्यां प्रत्युपे जनवस्त्राणि गोलकाऽऽदीनि प्रत्युपेक्षयन् ततो वस्त्रप्रत्युपेक्ष णा उत्कुटुकेनैव कर्तव्या। प्राचार्य पाह-[पलिमंथादासु तेण क्षेत [ताहे ति] तदा तस्मिन् काले स्वाध्यायानन्तरं पात्र भवे तदेतत् भवति यच्चोदकेनोक्तं, यतः पलिमन्थः सूत्रार्थयोकद्वितीयम्। इदानीमिदमुक्तं चरमपौरुष्यां पात्रकद्वितयं प्रत्युपेक्षणायां भवति.कथम्?, प्रथममसौपादपुञ्छने निषीदति,पश्चात् पात्र कवखप्रत्युपेक्षणायाम् उत्कुटुको भवति, पुनः पात्रकप्रेक्षणातत्र पौरुष्येव न ज्ञायते, किंघमाणा?, तत्प्रतिपादनायाऽऽह-- यां पादपुञ्छने निषीदाते, एतत्तस्य साधोश्चिन्तयतः सूत्रापोरिसिपमाणकालो,निच्छयववहारिओ जिणक्खायो । र्थयोः पलिमन्थो भवति, यतः अतः पादपुञ्छने निषरणेनव निच्छयो करणजुओ, ववहारमो परंवोच्छ॥४५४|| पात्रकवस्त्रप्रत्युपेक्षणा कर्तव्या इति । पौरुष्याः प्रमाण कालो द्विविधः-निश्चयतो, व्यवहारतश्च ततः किं करोतीत्यत श्राहज्ञातव्यः। तत्र निश्चयपौरुषीप्रमाणकालप्रतिपादनायाऽऽह चउकोणभाणकत्तं, पमज पायकेसरिय तिउणं तु । अयणातीयदियगणे, अट्ठाणेगडिभाइए लद्धं । भाणस्स पुष्फगधं, इमेहि कजेहि पडिलेहा ॥४६३।। उत्तरदाहिणमादी, पोरिसिपयसोहि पक्खेवो ॥४५॥ पटलानि प्रत्युपेक्ष्य पुनः गोच्छुकं वामहस्तानामिकाहल्या गृश्रोध ( 'पोरुसी' शब्दे व्याख्यास्यते) हाति, तत. पात्रककेसरिकां पात्रसुखवस्त्रिका पात्रकस्थामेव पतस्यां चरमपौरुष्यां पात्रकाणि प्रतिलेख्यन्ते, स च पात्र गृहाति, [चतुकोण त्ति ] चतुःपात्रबन्धकोणान् सत उपकः प्रत्युपेक्षणसमये पूर्वमेनं व्यापारं करोति, अत पाह-- रिस्थापितान् प्रमार्जयति, पुनर्भाजनस्य कर्त्तमपि प्रमार्जयति, उवउंजिऊण पुवं, तल्लेसो जइ करेइ उपोगं । पुनश्च पात्रकं केसरिकमेव त्रिगुणं तिस्र एव वारा बाह्यतः, श्रभ्यन्तरतश्च तिन एव वाराप्रमार्जयति ततः भाण्डस्य पासोएण चक्खुणा घा-णएण जीहाएँ फासेण ॥४६०॥ त्रकस्य पुष्पकंबुनतत एतानि वक्ष्यमाणलक्षणानि कार्याणि उययुज्य उपयोगं दत्त्वा पूर्वमेव यदुत सारा पस्यां चलायां । यदि न भवन्ति ततः प्रथमं बुधगन्धं पात्रकस्य प्रत्युपेक्षते । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलेहगा ( ३५." अनिधानराजेन्डः। पडिलेहगा कानि पुनस्तानि कार्याणि, अत आह पत्तं पमजिऊ गं, अंतो बाहिं सइत्तु पप्फोडे । मूसियर यउक्के रे, घण संताणए ति य । केइ पुण तिनि वारे, चउरंगुलभूमिपडणभया ॥४६८।। उदए मट्टिया चेव, एमेव पडिवत्तिओ ॥४६४॥ इदानीं तत्पात्रे केसरिकया पात्रकमुखवस्त्रिकया तिस्रो कदाचित्तत्र मूषिकोत्कीर्ण रजो लग्नं भवति,ततस्तद् यतनया- वारा बाह्यतः प्रमृज्य संपूर्ण, ततो हस्ते स्थापयित्वा अभ्यउपनीयते।तथा-(संताणए त्ति)कदाचित्तथा पुनः सन्तानको न्तरं तिस्रो वाराः पुनः समस्तं प्रमृज्यते, ततः [सइत्तु वा " कोलियतंतुयं लग्गं होति " तत् यतनया:- पप्फोडे त्ति ] सकृदेकां वारामधः कृत्वा बुघ्नं प्रस्फोटयेत्, पनीयते । तथा-( उदए त्ति) कदाचिदुदकं लग्नं भवति, एवं केचिदाचार्याः प्राप्नुवन्ते । केचित्पुनराचार्या एवं भणमाज़्या भूमेरुन्मज्ज्य लगति, तत्र यतनां वक्ष्यति (मट्टिया न्ति-यदुत त्रयो वाराः प्रस्फोटनीयम् । एतदुक्तं भवतिचेव ) तथा कदाचित् मृत्तिका लगति, तत्र यतनां एकां वारां प्रमृज्य पश्चादधोमुखं प्रस्फोटयते, पुनरपि प्रवक्ष्यति । एवमेताः प्रतिपत्तयः प्रकारा भेदा यदि न मृज्य प्रस्फोटयते । एवमेताः त्रयो वाराः प्रस्फोटनीयम् । भवन्ति,ततः बुध्नं प्रत्युपेक्षते । तत्र पात्रकं भुव उपरि कियदुरे प्रत्युपेक्षणीयमिति । अकुतः पुनरुत्कीर्णाऽऽदिसंभव, इत्यत पाह त आह-[ चउरंगुलभूमि त्ति] चतुर्भिरगुलैर्भुव उपरि नवगपवेसे दूरा, उक्करो मूसगेहि उक्कियो । धारयित्वा प्रत्युपेक्षणीयं मा पतनभङ्गभयं स्यादिति । एवं निमहिहरतणू वा, ठाणं भेतृण पविसे य ॥४६५॥ तावत्प्रत्यूषे वस्त्रपात्रप्रत्युपेक्षणा उक्ला । (णवग ति) नवकप्रवेशे यत्र ग्रामाऽऽदौ ते साधव अावा इदानीमुपधिपत्रकं च प्रत्युपेक्ष्य किमुपधेः कर्तव्यं, कच सिताः स नव अभिनवो निवंशः कदाचिद्भवति, तत्र च पा पात्रकं स्थापनीयमित्यत आहत्रकसमीपे मूषकैरुकीर्णतेन रजसा पात्रकं गुगडब्धते ।“ मू वेंटियबंधण धरणे, अगणित्तेणे य दंडियक्खोभे । सगरय उकिरण ति भाण "(णि द्धमाहेहरतणू व त्ति) तथा उउबद्धधरणबंधण, वासासु अबंधणा ठवणा ॥ ४६६ ।। स्निग्धायां सार्द्रायां भुवि ( हरतरणू व त्ति) सलिलविन्दव उपधेर्विण्टिकानां बन्धनं कर्तव्यम् ( धरण त्ति ) पात्र उन्मज्य लगन्ति,ततो भुव उन्मजापानकं स्थानकं भित्वा प्र- कस्याऽऽत्मसमीपे श्रात्मोत्सङ्गे धरणं कार्यमनिक्षिप्तमित्यर्थः। विशेत्, स लग्नो भवेत्, तद्यतनां वक्ष्यति-"उदए ति गयं।" किमर्थं पुनरेतदेवं क्रियते यदवधिका बाह्यतः पात्रकमनि इह कस्मादुदकमस्थान एवोक्तम् ?, उच्यते--पृथिवीकायस्य क्षिसं क्रियते इत्युच्यते--अग्निभयात्प्रदीपनकभयात् , स्तेनकघनसन्तानस्य च तुल्ययतनाप्रतिपादनार्थम् । भयात् , दण्डिक क्षोभाश्चतदेवं क्रियते । कस्मिन् पुनः तथा-- काले एतदेवं क्रियते, कस्मिन् पुनरेतदेवं न क्रियते ?, कोत्थलगारिय घरगं-घणसंताणाइया व लग्गेजा। इत्यत पाह-( उउबद्ध त्ति ) ऋतुबद्ध उच्यते-शीउक्केरं सटाणे, हरतणु चिहिज जा सुक्खे । ४६६॥ तकाले उष्णकाले च तस्मिन् पात्रके धरणमुपधेर्बन्धनं कर्तव्यम् (वासासु त्ति) वर्षाकाले (अबंधण त्ति) उपकोत्थलकारिका गृहकं लगति गृहिका गृहकं मृन्मय धेरबन्धनं कर्तव्यम् उपधिर्न बध्यते (ठवण त्ति) पात्रकं करोति । तत्र यतनां वक्ष्यति " मट्टिए त्ति भणितं ।” च निक्षिप्यते एकदेशे स्थाप्यते, प्रयोजने उपधेरबन्धनं घनसन्तानिका च कदाचिल्लगति आदिशदात्तु दण्ड निक्षेपणं पात्रकस्य च वक्ष्यति। काऽऽदिः । इदानीं सर्वेषामेव तेषां यतनाप्रतिपादनाया इदानीं भाष्यकारो व्याख्यानयन्नाह35ह-( उत्केरं सट्ठाणे ) मूषिकोत्केरः स्वस्थानमुच्यते, रयताण भाणधरणं, उडुबट्टे निक्खिवेज वासासु । यतनया मूषिकोत्केरः मध्य एव स्थाप्यते । (हरतणू ) अथ हरतनू अधस्तात्सलिलविन्दव उन्मृज्य लग्नास्ततस्ताव अगणीतेणभएण व, रायक्खाभे विराहणया ॥४७०॥ वत्प्रतिपादयति-यावदेते शोषमुपच्छन्ति, ततः पश्चात्पात्रं रजस्त्राणस्य,भाजनस्य च धरणमनिक्षेपणं कर्तव्यं,कदा?,ऋ. प्रत्युपेक्ष्यते । “ उदए त्ति" गतम् । तुबद्धे शीतोष्णकालयोर्वर्षासु पुनर्भाजनं निक्षिपेत् एकान्ते, किमर्थं पुनर्भाजनस्थ उत्सङ्गे धरणं क्रियते ?,अत आह- अगइयरेसु पोरिसितिगं, संवेक्खावेत्तु तत्तियं छड्डे । णी) अग्निभयेन स्तेनभयेन वा राजक्षामेण वा मा भूदाकुलसव्वं वावि विगिंवइ, पोराणं मट्टियं ताहे ॥४६७।। । स्यागृह्णतः पलिमन्थेन आत्मविराधना, संयमविराधना च । (इयरेसु त्ति) “कोत्थल कारियाघणसंताणमादियाणं" (पो परिगणमाणी गेल्हे - ज डहण भेदो तहेव छक्काया । रिसितिगं संवक्खावेत्त त्ति) प्रहरप्रयं यावत्पात्रके (सं गुत्तो व सयं डझे,हीरेज व जं च तेण विणा ॥४७॥ वैक्खावेत्तु) प्रतिपाल्य यदि तावत्या अपि वेलाया नापै. ति ततः पात्रस्थापनाऽऽदेः तावन्मावं स्थित्वा परित्यज्यते। अग्न्यादिक्षोभे सति उपधिर्यावद् गृह्यते. (भेदो इति) आकु(सव्वं वावि विगिचइ) अन्येषां वा पात्रस्थापनाऽऽदीनां सद्भा- लस्य निर्गच्छतः अनशनं पात्रकं गृह्णतः भेदो वा विनाशो भवे सर्वमेव तत् पात्रस्थापनाऽऽदि परित्यजति (पोराणं म- बेत्, ततश्च पटकायस्याजप विराधना भवति। (गुत्तो व सयं ट्टियं ताहे ति । अथ तत्कोथलिकागृहकं न सचेतनया डझे) संमूढो वा उपधिपात्रकग्रहणे स्वयं दह्यात्, स्तनकसं. मृत्तिकया कृतं, किं तु पुराणमृत्तिकया, ततस्तां पुराणां क्षा वा सति उपधिपात्रकग्रहणव्याक्षेपेण स्तेनकैम्लेंच्छरपमृत्तिकाम् । ( ताहे त्ति) तस्मिन्नेव प्रतिलेखनाकाले अपन- हियते (जं च तेण विण त्ति) यच्च तेन उपधिपात्रकाऽऽदिना यति, यदि तत्र न मूषिका प्रवेशिता इति । । भवति आत्मविराधना,संयमविराधना च,तत्तदवस्थमेवेति । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमिलेरणा अभिधानराजेन्द्रः । - पमिलेहणा श्राह--किं पुनः कारणं वर्षासु उपधिर्न बध्यते, पात्रकाणि वा निक्षिप्यन्ते? । उच्यतेवासासु नत्यि अगणी.णेव य तेणा वि दंडिया सत्था । तेण अवंधण ठवणा, एवं पडिलेहणा पाए ॥ ४७२ ॥ वर्षासु नास्त्यग्निभयं,नाऽपि च स्तेनभयं स्तेनाश्चात्र पल्लीपतिकाऽऽदयो द्रष्टव्याः; यतस्त एव वर्षासु प्रव्यथिता नाऽऽगच्छन्तीति । दण्डिनश्च राजानः वर्षासु स्वस्थास्तिष्ठन्ति, विग्रहस्य तस्मिन्कालेऽभावात् । अतस्तन कारणेन (अवंधण त्ति) प्रबन्धनमुपधेः (ठवण त्ति) पात्रकं च पार्श्वनिक्षिप्तं न हियते,अपितु स्थाप्यते मुच्यते । एवं प्रत्युपेक्षणा पात्रविपया प्रतिपादिता । श्रोध०। मार्गप्रत्युपेक्षणा । इदानीं मार्गद्वारं प्रतिपादयन्नाहपंपे तु वच्चमाणो, जुगतरं चक्खुणा उ पडिलेहे ।। अइदूरचकावपासे, सुहुमतिरिच्छागएँ ण पेहे य ।।५१२॥ पथि वजन युगान्तरं चतुर्हस्तप्रमाणं तन्मात्रान्तरं च चक्षुपा प्रत्युपेकेत किं कारणम् ?,यतः अतिदूरचक्षुषा प्रेक्षिते सति सूक्ष्मान् तिर्यगागतान प्राणिनः न (पेहे) न पश्यति, दूरे प्रतिष्ठितत्वाञ्चक्षुषः। अचासन्ननिरोहे, दुक्खं ददु पि पादसाहरणं । छका पविकरमणं, सरीरे तह भत्तमाणे य ॥ ५१३ ॥ अथ शत्यासन्ने (निरोहे त्ति ) निरोधे चक्षुपः सतः दृद्धा प्राणिनं दुःखेन (पादसाहरणं ) पादप्रणिनिपतनं धारयती. त्यर्थः । अतिसन्निकृष्टत्वाच्चक्षुषः (छक्कायविऊरमणं ति ) पटकाविराधनां करोति, शरीरविराधनां, तथा भक्तपानविराधनां च करोति । इदानीमस्या एव गाथायाः पश्चार्द्ध व्याख्यानयन्नाहउडमुहो कहरत्तो. अवएक्खंतो विअक्खमाणो य । बायरकाए वहए, तसेतरे संजमे दोसा ।। ५१४ ।। ऊर्द्धमुखा वजन् कथासु च रक्तः सक्तः [अवएक्खंतो ति] पृष्ठतोऽभिमुखं निरूपयन [ वियक्खमाण त्ति ] विविधं सर्वासु दिनु पश्यन् । स एवविधः बादरकायानपि व्यापाबयेत् , त्रसेतराँश्च पृथिव्यादीन् स्थावरकायाऽऽदीन्, ततश्च संयमे संयमविषया एते दोषा भवन्ति । इदानीं शरीरविराधनाप्रतिपादनायाऽऽहनिरवक्खो वचंतो, आवडिओ खाणुकंटविसमेसु । पंचएह इंदियाणं, अन्नयरं सो विराहेजा ।। ५१५ ॥ निरपेक्षो व्रजन श्रापतितः सन् स्थाणुकण्टकविषमेषु, वि. पमस्तु गर्तः, तेप्वापतितः पश्चानामिन्द्रियाणां चक्षुरादीनामन्यतरत् स विराधयेत्। इदानीम्-"भत्तपाणे य त्ति" अवयवं व्याख्यानयन्नाहभत्ते वा पाणे वा, आवडिवडियस्स भिन्न भाणे वा।। छक्कायविऊरमणं, उड्डाहो अप्पणो हाणी ॥ ५१६ ।। भापतितश्चासौ पतितश्च तस्य साधार्भग्ने भिन्ने पात्रके सति पत्रके वा, भक्ते, पानके, ततः पट्कायव्युपरमणं भपति, उडाहश्च भवत्यात्मनश्च हानिः क्षुधावाधनं भवति । कथं पुनः पदकायव्युपरमणम्, उड्डाहश्च-- दहि घय तक पयमं विलं च सत्थं तसेतगण भवे । छक्कम्मिय जणवायो,बहुफोडा जं च परिहाणी ।।५१७।। तानि गृहीत्वा कदाचित् दाधघृततक्रपयःकाञ्जिकानि भवन्ति, ततश्च तानि शस्त्रं,केषाम् ?,प्रसानामितरेषां च पृथिव्यादीनां भवत् पट्कमिति प्रचुरे तस्मिन् भक्त लोकेन दृष्टे सति जनापवादो भवति [ बहुफोड ति] बहुभक्षका एते इति । या च श्रात्मपरितापनाऽऽदिका हानिः, सा च भवति । तथा पात्रविराधनायां याचनादोपं प्रदर्शयन्नाहपायं च मग्गमाणे, हवेज्ज पंये विराइग्गा दविहा । दुविहा य भवे तेणा, पडिकमे सुत्तपरिवाणी ॥५१॥ पात्रं च अन्येपति सति प्रामाऽदौ भवत् पधि विधिना जि. विधा श्रात्मानित धर्मामाधना शिवि स्तनाश्च द्विविधा भवन्ति-उपाधस्तेनाः, शरीरस्तेनाश्चेति । लब्ध कृच्छात्पात्रे तत्परिकर्पयतः तद्व्यापारे लग्नस्थ सूत्रार्थपरिहानिः। एस पडिलेहणविही, कहिया भे धीरपुरिसपन्नत्ता । संजमगुणइड्डाणं, निग्गंथाणं महरिसीणं ॥५१६।। अथं च प्रत्युपेक्षणाविधिः कथितः (भे) भवताम् किंविशिगे?,धीरपुरुषैः प्रज्ञप्तो गणधरैः प्ररूपितः संयमगुणराख्यानां निर्ग्रन्थानां महर्षीणां कथित इति । तथाएयं पडिलेहणविहि, जुजंता चरणकरणमाउत्ता। साहू खमंति कम्म, अणेगभवसंचियमणतं ॥५२०॥ पतं प्रत्युपेक्षणाविधि युजन्तः कुर्वाणाः चरण करणयोगयुक्ताः सन्तःसाधवः क्षयन्ति कर्म.किंविशिप,अनेकभवसंचितमुपात्तम्। (अणतं) अनन्तकर्मपुगलनिवृत्तत्वाइनन्तम्, अनन्तानां वा भवानां हेतुर्यत्तदनन्तं क्षपयन्तीति । श्रोध। __ अालोचनान्तरम्आलोएत्ता सव्वं, सीसं सपडिग्गहं पमजित्ता। उड़महे तिरियाम्म य, पडिलेहे सव्वओ सव्वं ।।७।२।। एवमेवा मानसी आलोचना,वाचिकी चाऽऽलोचना उक्का। ओघ० संशाया आगत्य चरमपौरुष्पां प्रत्युत्थाय, इदानीं सामाचारीति व्याख्यायतेसबाउ आगो चरि-मपोरिसिं जामिऊण अोगाढं । पडिलेहिय अप्पत्तं, णाऊण करेइ सज्झायं ॥३४॥ एवं साधुः संशां व्युत्सृज्य श्रागतः पुनश्चरमपौरुषी चतुर्थप्रहरं ज्ञात्वा अवगाढमवतीर्णः । ततः किं करोतीत्यत आहप्रत्युपेक्षणां करोति । अथाऽसौ चरमपौरुष्यामपि भवति ततः अप्राप्तां चरमपौरुषी ज्ञात्वा स्वाध्यायं तावत्करोति यावच्चतुर्थी पौरुषी प्राप्ता। पुबुद्दिट्ठो य विही, इहई पडिलेहणाइ सो चेव । जं एत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छ समासेणं ॥३३॥ अत्र च प्रत्युपेक्षणायां पूर्वोद्दिष्ट एव विधिः मुखवनिको Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५२) अन्निधानराजेन्डः। पमिलेहणा पडिलेहणा पधिप्रत्युपेक्षणा, एवमादि । तथा पात्रस्यापि सा चाऽहीना। विवृतमनाच्छादितममालगृहं चोर्ध्व विवृतं तदेव गृहं विवृत"उवउत्ततल्लेला" इत्येवमादि । इहाऽपि स एव प्रत्युपेक्षणा- गृहम् । उक्तश्च-"अनाउडं जं तु चउद्दिसि पि, दिसामहो यां विधिद्रष्टव्यः । यदत्र नानात्वं योऽतिरिक्तो विधिर्भवति, तिमि दुवे य एका । अहे भवे तं वियडं गिहं तु, उहं अमातं विधिमहं वक्ष्ये समासेन संक्षेपेण । लं च अतिच्छदं च ॥१॥” इति । तस्मिन्वा । वृक्षस्य करीपडिलेहगा उ दविहा, भत्तट्ठिय एयरा य णायव्वा ।। राऽऽदेर्निर्गलस्य मूलमधोभागस्तदेव गृहं वृक्षमूलगृहम् । दोएह वि य आइ पडिले-हणा उ मुहर्णतयसकायं ६३६। तस्मिन्वेति, प्रत्युपेक्षया चौपाश्रये शुद्ध गृहस्थं प्रति तद. तत्र ये तत्प्रत्युपेक्षकास्ते द्विविधाः-भक्तार्थिका भुक्ताः, (ए. नुशापनं भवतीत्यनुज्ञापनासूत्रम् । (एवमिति) एतदेव "प. तरा य) इतरे च उपवासिकाश्च ज्ञातव्याः। तयोरपि भक्ता डिमापडिवन्न" इत्यााच्चारणीयं, नवरं प्रत्युपक्षणास्थाने र्थिकाभक्तांर्थिकयोरादौ प्रथम प्रत्युपेक्षणा तुल्या इयं चैव अनुशापनं वाच्यमिति । अनुशाते च गृहिणा तस्योपादानवेदितव्या (मुहणंतसकाय त्ति) मुखवस्त्रिकायां प्रत्युपेक्षते, मित्युपादानसूत्र, तदप्येवमेवेति । ( उवाइणिसए ति ) ततः कायं शरीरं प्रत्युपेक्षते मुखवारकया चैव, इयं ताव उपादातुं गृहीतुं, प्रवेष्टुमित्यर्थः. एवं संस्तारकसूत्रत्रयमपि। अतार्थिकाभक्कार्थिकयोः तुल्या। नवरं पृथिवीशिला यः प्रसिद्धः काष्ठश्चासौ शिलेवाऽऽयप्रत्युपेक्षणाविधिं प्रदर्शयति तिविस्तराभ्यां शिला, सा चेति काष्ठशिला, यथा संस्तु तत्तो गुरू परिन्ना, गिलाण सेहाऽऽइ जे अभत्तट्ठी । तमेवेति यत्तृणाऽऽदि यथोपभोगाई भवति, तथैव यल्ल भ्यत इति । स्था० ३ ठा०४ उ०। संदिसह पायमुवहिं, च अप्पणो पट्टगं चरिमं ॥६३७॥ भुक्त्वा स्थण्डिलप्रत्युपेक्षणम् । इदानीं ततः मुखवत्रिकाप्रत्युपेक्षणानन्तरं [ गुरु त्ति ] गुरोः संबधिनीमधि प्रत्युपेक्षन्ते [परिन्नत्ति परिक्षा प्रत्याख्यानम् । भुक्तानां विधि प्रतिपादयन्नाहग्लानस्य एतदुक्तं भवति-अनशनस्थस्य संबन्धिनीमवधि प्र. पग मत्तग सयमो-पाहाऽऽइ गुरुमाइया अणुनवणा । त्युपेक्षन्ते । तथा-शिक्षकोऽभिनवप्रवाजितः शिक्षणार्थमर्पि- तो सेस भाणवत्ये, पायपुंछणगं च भत्तट्ठी ॥६३८।। तस्तदीयामुपधि तस्यैवाग्रतः प्रत्युपेक्षान्ते । श्रादिग्रहणाद् वृ. मुखवत्रिका प्रत्युपेक्ष्य तयैव कार्य प्रत्युपेक्षेत, ततः (पट्टगं द्धाऽऽदेः संबन्धिनीमुपधि प्रत्युपेक्षन्ते,ये अभक्कार्थिनस्ततस्त | ति) चोलपटक प्रत्युपेक्षन्ते । पुनश्च गोलको यः पत्रकस्योपरि एवमनेन क्रमेण कुर्वन्ति प्रत्युपेक्षणाम् । ततः गुरुं संदिशाप दीयते । " पच्छा पडिलहणीय पत्तावधिपडलाइ रयत्ताणं च यित्वा "संदिसह इच्छाकारेण उवहिं पडिलेहामि।" एवं पत्तेयं चेव जह मत्तमो अइरिको तो सो चेव पढमं निक्खिप. भणित्वा पात्रं पत्तद्ग्रहं प्रत्युपेक्षन्ते, ततश्च सकलामुपधि ति।" पुनश्च मात्रकं निक्षिप्य स्वकीयमवग्रहं पतगृहं प्रत्युपे. प्रत्युपेक्षन्ते तावद्यावच्चोलपट्टकं चरमम्, भूमिमपि प्रत्युपेक्ष क्षन्ते,ततो गुरुप्रभृतीनाम् एका उपधयः प्रत्युपेक्षन्ते। भलान्ते-" एस ताव अभत्तट्ठियाण पडिलेहणविही।" श्रोध० ।। र्थिकैः (अणुराणवण त्ति) ततो गुरुमनुज्ञापयन्ति, यदुतपं० २० । ध०। प्रति० । स्था० । “संदिलह अवधि पडिलेहामो त्ति ।” ततः शेषाणि गच्छ प्रतिमाप्रतिपन्नानामुपासकानां प्रत्युपेक्षणा साधारणानि पत्रकाणि वस्त्राणि च अपरिभागानि यानि पडिमापडिवनस्स णं अणगारस्स कप्पंति तो उवस्स- तानि प्रत्युपेक्षन्ते । ततः स्वकायं पादपुञ्छनकं रजोहरण च गं पडिलेहित्तए । तं जहा-अहे आगमणगिहंसि वा, अहे प्रत्युपेक्षन्ते । भक्कार्थिका एवमनेन क्रमेण प्रत्युपेक्षणां कुर्वन्ति । वियडगिहंसि वा,अहे रुक्खमूलगिहंसि वा । एवमणुनवेत्तए, जस्स जहा पडिलेहा, होइ कया सो तहा पढइ साहू । उवाइणित्तए । पडिमापडिवनस्स णं अणगारस्स कप्पंति त- परियट्टे च पयो , करेइ वा अन्नवावारं ॥६३६।। श्रो संथारगा पडिलेहत्तए । तं जहा-पुढविसिला,कट्ठसिला, पुनश्च यस्य साधोः यथैव प्रत्युपेक्षणा भवति कृता परिमहासंघट्टमेव । एवमणामवित्तए, उवाइणित्तए। निष्ठिता स तथैव पठति परिवर्तयति वा गुणति, पूर्वप ठितप्रयत्नेन तत्करोति वा अन्यः साधुना अभ्यर्थितः सन् प्रतिमा मासिक्यादिकां भिक्षुप्रतिक्षाविशेषलक्षणां प्रतिपः | व्यापार किश्चिदिति कर्म प्रयोग वा । यदि वा-अन्यथा मोऽभ्युपगतवान् यः स तथा, तस्यानगारस्य कल्पन्ते युज्य व्यापार तूर्णनाऽऽदि करोति ।। न्ते, त्रय उपाश्रीयन्ते भज्यन्ते शीताऽऽदित्राणार्थ ये ते उपाश्रया वसतयः, प्रत्युपेक्षितुमवस्थानार्थ निरीक्षितुमिति । | चउभागऽवसेसाए, चरिमाए पडिक्कमित्त कालस्स । [अहे त्ति ] अथार्थः । अथशब्दश्चेह पदयेऽपि त्रयाणाम- उच्चारं पासवणे, ठाणे चउवीसयं पेहे ।। ६४०॥ प्याश्रयाणां प्रतिमा प्रतिपन्नस्य साधाः कल्पनीयतया तुल्यता- एवं स्वाध्यायाऽऽदि कृत्वा पुनश्चतुर्भागावशेषायां चरमपीप्रतिपादनार्थः । वा विकल्यार्थः. पथिकाऽऽदीनामागमनेनोपे रुष्यां प्रतिक्रम्य कालस्य ततःस्थण्डिलानि प्रत्युपेक्षन्ते । कितं तदर्थ वा गृहमागमनगृहं सभाप्रपाऽऽदि । यदाह- श्रागं | मर्थम् ?, उच्चारार्थ तथा प्रस्रवणार्थ च स्थानाने चतुर्विशतितुगो रत्थजणो जहिं तु, संठाइ जं वा गमणम्मि तेसि । परिमाणानि प्रत्युपेक्षन्ते । तं आगमो किं तु विदू वयंति, सभापवादउलमाइयं वा ॥ इदानी च ताः स्थरिडलभूमयः प्रत्युपेक्षणीया इत्यत आह१॥” इति । तस्मिन्नुपाश्रये यस्तदेकदेशभूतः, प्रत्युपेक्षितुं क अहियासियाउ अंतो, आसन्ने मज्झ दर तिनि भवे । ल्पत इति प्रक्रमः । तथा-[वियडं ति] विवृतमनावृतं, तच्च देधा-अधः, ऊ च। तत्र पार्थत एकाऽऽदिदिक्ष्वनावृतमधो । तिनेव अगहियासी, अंतो छ रुच बाहिरो ।।६४१॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५३ ) अभिधानराजेन्द्रः । पडिले अधिकासिका भूमयः संज्ञावेगेनानुत्पीडितः सुखेनैव गन्तुं शक्नोति, ता एवंविधा अन्तर्मध्ये श्रङ्गणस्य तिस्रः प्रत्युपेक्षणीयाः। कथम्?,एका स्थण्डिलभूमिर्वसतेरासन्ना, श्रन्या मध्ये, अन्या दूरे: एवमेतास्तिस्रः स्थण्डिलभूमयो भवन्ति । तथा अन्यास्तिस्र एव तस्मिन्नेवाङ्गणे श्रसन्नतरे भवन्ति । श्रनधिकासिकाः संज्ञावेगेनोत्पीडितः सन् याति, ता अपि तिस्र एव भ वन्ति - एका वसतेरासन्नतरे प्रदेशे श्रन्या मध्ये. अन्या दूरे । एवमेव अन्तर्मध्ये श्रङ्गणस्य षड् भवन्ति, तथा पट् च बाह्यत इति श्रङ्गणस्य वहिः षडेवमेव भवन्ति । एमेव य पासवणे, वारस चडवीसयं तु पेहित्ता | कालस्स यतिभि भवे, ग्रह सूरो अत्थमुवयाइ ॥ ६४२॥ एवमेव स्त्रवणे कायिकायां द्वादश भूमयः प्रत्युपेक्ष्यन्ते, षडङ्गणमध्ये, षडङ्गणबाह्यतो भवन्ति । एवमेताः सर्वा एव उ चारे कायिका भूमयश्चतुर्विंशतिः, ताः प्रत्युपेक्ष्य पुनश्च कालस्यापि ग्रहणे तिस्र एव भूमयः प्रत्युपेक्षणीया भवन्ति । ताश्च कालभूमयो जघन्येन हस्तान्तरिताः प्रत्युपेक्ष्यन्ते । एवमनेन प्रकारेण कृतेन श्रथ-यथा सूर्यः - अस्तमुपयाति तथा कर्त्तव्याः । श्रोघ० । बृ० । उच्चारप्रस्स्रवणभूमीनां प्रत्युपेक्षणासूत्रम् जे भिक्खू सप्पा उच्चारपासवण भूमिं ण पडिलेहेर, पडिलेहंतं वा साइज्जइ ॥ १३८ ॥ साप्पा ग्राम - चउभागावसेसचरिमाप उच्चारपालवणभूमीश्री पडिले हेयव्वाओ त्ति, ततो कालस्स पडिलेहेति एससाणुप्पा, जति ण पडिलेहेति तो मासलहुं, श्रारणादिया दोसा । गाहा पासवणुच्चारं जो, भूमीय अणुपदे पडिले । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ॥ २६०॥ पडिलेहिते इमे दोसाबक्कायाण विराधण, अहिविच्छुखाणुमुत्तमादीसु । वोसिरणणिरोधें, दोसालू संजमा यापि ॥ २६१ ॥ पडिलेहिते जति वोसिरति ततो दव्वओो छक्कायविराहणा संभवति । भावतो पुरा विराधित्ता एस संजमविराहणा । अपडिलेहिते - अहिविच्छुगादिणा खज्जति श्रायविराहणा । श्रपडिलेहिते मुत्तेण वा, पुरीसेण वा, श्रादिसदातो वंतपित्तादिणा पायं लेवाउज, ततो उवकरविणासो वा, सेहविपरिणामो वा । श्रपडिलेहियं वा थं डिलं ति गिरोहं करेति ण वोसिरति । एवं च - " मुतगिरोहे चक्खु, वच्चणिरोहे य जीवियं चयद । " एत्थ वि श्रयवि राहणा । जम्हा एते दोसा तम्हाचतुभागऽवसेसाए, चरिमाए पोरिसीऍ तम्हा तु । पयतो पडिले हिज्जा, पासवरणच्चारमादणं ।। २६२ ॥ चरिमा पच्छिमा, पयतो प्रयत्नवान् भवे । कारणे ण पडिलेहेजा वि गेल रादुट्टे, अद्धा संभमे भएगरे । ८६ पहिले हा गामगाम वियाले, अपने वाण पडिलेहे ॥ २६३ ॥ गिलाणो ण पडिलेहति । मासकष्पविहारे गामाओ गच्छतो श्रमो अणुकूलो गामो गामाशुगामो, तं वियाले अणुपत्तो पडिले । एतेहि कारणेहिं श्रप्पडिलेहेतो सुद्धो । सूत्र जे भिक्खू तओ उच्चारपासवणभूमीओ न पडिलेहेड न पडिलेहंतं वा साइज्जइ ॥ १३६ ॥ तो त्रयः सूचनात्सूत्रमिति द्वादश विकल्पप्रदर्शनार्थ प्रयो ग्र हणम्-अपडिलेहंतस्स मासल हुं, आणा दिया य दोला । पासव चारगाहा (२६०) श्रंती वेिसणस्स काइयभूमी, बहि णिवेसणस्स । एवं चैव छकाइयभूमीओ, एवं पासवणे वारस सरणाभूमीश्र एवं च ता सव्वाश्रो चउव्वीसं. जो एया ण पडिलेहति तस्स श्राणादिया दोसा । सो श्राणा गाहा - ( २६० ) छक्कायगाहा ( २६१ ) किं णिमित्तं तिथि तिरिण पडिले हिज्जंति ?, कयाति एक्कस्स वाघातो भवति, ततो वितियाssदिसु परिट्ठविज्जति पासवणे तपो अपहरणे चेलगओ दितो भाणियव्वो, अधियासिका कोवि श्रतीव उव्वाहितो जाव दूरं वश्चति ताव श्रायविराहणा भवे, तेरा आसरणे पेहे । वितियपदे गेलएणगाहा (२६३ ) ” नि० चू० ४ उ० । कालग्रहणम्- पडिले पत्ते, वडज्झइ पावकंबलं । पडिलेहणायणाउत्ते, पावसमये ति बुच्चइ ||६| पडिलेहइ पमत्ते, किंचि हु निसामिया । गुरुं परिभावए निच, पावप्रमणे ति बुच्च ॥ १० ॥ उत्त० १७ अ० । ( इति ' पापसमण ' शब्दे व्याख्यास्यते ) प्रविधिप्रत्युपेक्षणे प्रायश्चित्तम् दिया तुट्टेज दुवालसं पडिक्क्रमणं काउं गुरुपायमूलं बसहिं संदिस्सावेज्जा, ताण ण पच्चुप्पेहह, चउत्थं वसहिं पचचुप्पेहिऊणं ण संपवेएजा, छटुं वसहि असंपवित्ता सं रयहरणं पच्चुप्पेहिजा, पुरिमडुं रयहरणविहीए पच्चुप्पेहिताणं गुरुपायमूलं मुहणंतगं पच्चुप्पेहिय उवहिं संदिसावेज्जा, पुरिमङ्कं मुहणंत गं अपचुप्पेहri raहिं संदिस्सावेज पुरिमङ्कं असंदिसावियं उवहिं पच्चु - पेजा, पुरिम अणुवत्ता वसहिं वा पच्चुप्पेहिजा, दुवाल विहीर वसहिं वा अन्नयरं वा भंडमत्तोव - गरणजायं किंचि अणुवउत्तमप्पमत्तो पच्चुप्पेहिजा, वालसं वसहिं वा उवहिं वा भंडमत्तोवगरणं च अपडिहियं वा दुप्पाडलेहियं वा परिभुंजेजा, दुवालसं वसहिं वा उवहिं वा भंडमत्तोवगरणं वा ण पच्चुप्पेहिजा, उवट्ठा एवं वसहिं वहिं पच्चुपेहित्ता गं जम्मि पएसे संथारयं जम्मि उ पसे उवहीए पच्चुष्पेहणं कयं तं थामं निउणं लहुलहुयं तं दंडापुंडगेण वा रयहरणेण वा साहरेत्ता णं तं च कयवरं पच्चुप्पेहितुं छप्पइयाओ ण प - Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५४) पडिलेहणा अभिधानराजेन्छ। पमिलोम डिगाहिया दवालसं छप्पइयारो पडिगाहिताणं तं च क- श्चोपधौ विच्युतलब्धे विस्मारितप्रतिलेखने प्रतिलेखन इति यवरं परिहवेऊणं इरियं णं पडिक्कमेजा, चउत्थं अपचुप्पे- गुरूणामनिवेदिते चाऽऽचामाम्लम् । इदं च मुखवत्रिका. हियं कयवरं परिद्ववेजा उवट्ठावणं जइ णं छप्पयानो हवे रजोहरणव्यतिरिक्तस्योपधेः प्रायश्चित्तं झयम् । जीत० । मा त्रकस्य भिक्षापात्रकस्य प्रमादनाप्रतिलेखने पञ्चत ज्याण कं जा,अहा णं नत्थि तो दुवासं। एवं वसहि उवहिं पच्चु प्रायश्चित्तम् । जीत(यथाछन्दः 'अहाछंद' शदे प्रथमपहिऊणं समाहिं खइरोल्लगं च ण परिहवेजा, चतुत्थं अ- भागे ८६४ पृष्ठे प्रतिलखनाविषयां शङ्कामकरोत् ) संध्यागुग्गए मूरिए समाहिं वा खयरोल्लगं वा परिवेजा, आ प्रतिलखनायां पश्चाद्धर्मध्वजप्रतिलेखनं विधीयते, प्रभातप्र तिलेखनायां च पूर्व. तत्र को हेतुरिति प्रश्ने, उत्तरम्-ओघयंबिलं हरियकायसंततेइ वा वीयकायसंततेइ वा त नियुक्तियतिदिनचर्याऽदिपु तथाक्तिरेव हेतुरिति ।८०प्र०। सकायेवंइंदियाइहि वा संतते थंडिले समाहिं वा सन १उल्लाकाथावकैः पौषधोपधानाऽऽदिष संध्याप्रतिखइरोल्लगं वा परिद्ववेज्जा, अन्नयरं वा उच्चाराइयं बोसिरि- लखनायां क्रियमाणायां “ पडिलेहणा पडिलहावउ " इज्जा, पुरिमड्डे एक्कासणगायंबिलमहक्कमणं जइ णं गो उद्दव त्यादेशमार्गणानन्तरं यतिकाजकोद्धारे उपधिमुखपोत्तिका प्रतिलेखनानन्तरं उपधिप्रतिलेखने कृते तत्काजकीद्धारः णं संभवेजा, अहा णं उद्दवणा संभावित खमणं तं कृतो विलोक्यते,न वेति प्रश्ने,उत्तरम्-पूर्व काजकाद्वारे कृतेच थंडिलं पुणरवि जागरिऊणं नीसंक काऊण पुणरवि ऽप्युपधिप्रतिलेखनानन्तरं तत्काजकोद्वारः कृती विलोक्यत श्रालापत्ता णं जहाजोगं पायच्छित्तं ण पडिगेहेज्जा तो इति । १५२ प्र० । सेन.२ उल्ला। व्याख्यानवेलायां कृतसाउपहारगं समाहि परिहरेमाणे सागारिएवं संचिक्खीयए मागिकः श्राद्ध आदेशमार्गणापूर्वक प्रतिलेखनां करोति, अन्यथा वेति प्रश्ने,उत्तरम्-सामायिकमध्ये प्रतिलेखनाऽऽदेशसंचिक्खियमाणो वा परिवेजा,खवणं अपचुपोहय थंडिल्ले मार्गणं यौक्तिकमिति । १६५ प्र० । सेन०२ उल्ला० । मुत्कलः जं किंचि वोसिरेजा, तत्थोवट्ठावणं । एवं वसहि उवहिं श्राद्धः स्थापनाप्रतिलेखनां करोति, तथा-" पडिलेहणा प. पच्चुप्पेहित्ता णं समाही, खइगेलगं च परिद्ववेत्ता णं ए- डिले हावू" इत्यादेशं मार्गयित्वा प्रतिलिपान्यथा वेति प्रश्ने, गग्गमणसो आउत्तो विहीए सुत्तत्यमणुसरेमाणो इरियं उत्तरम् मुत्कलः श्राद्धः प्रतिलेखनाऽऽदेशं मार्गयित्वा मुख वत्रिका प्रतिलिख्य परिधानवस्त्रं परावृच्य च स्थापनाः न पडिक्कमेना, एक्कासणं मुहणंतगेणं विणा इरियं पडि प्रतिलिखति, परं पौषधसामायिकं विना" पडिलेहणा पकमेजा, वंदणपडिक्कमणं वा करेजा, जंभाएज्ज वा, स डिलहावू" इत्यादेशं न सार्गयाति परम्पराऽस्तीति । ५४ ज्झायं वा करेजा वायणादी सव्वत्थ पुरिमर्दू, एवं च । प्र० । सेन० ३ उल्ला।। इरियं पडिक्कमित्ता णं सुकुमालपम्हलवोप्पडअविकिट्टेणं पडिलेहणासील-प्रत्यपेक्षणाशील-त्रि० । प्रमार्जनाशीले, कअविद्धदंडेणं दंडापुंछणगेणं वसहि ण पमज्जे एक्कासणगं ल्प. ३ अधिक क्षण। बाहिरियाए वा वसहिमोहारिज्जा, उवट्ठावणं वसहीए दं- पडिलेहणिया-प्रतिलेखनिका-स्त्री० । प्रतिपूर्वकस्य लिख' डापुंछणगं दाऊणं कयवरं ण परिवेज्जा, चउत्थं अप- अक्षरविन्यासे इत्यस्य भाव ल्युडन्तस्य प्रयोगः। " उपच्चुहियं कयवरं परिहोज्जा दुवालसं जइ णं छप्पइयाओ र्गेण धात्वर्थो, बलादन्यत्र नीयते।” इति न्यायादागमानुसण हवेज्जा, अहा णं हवेज्जा तो णं उवट्ठावणं वसहीसं रेण क्षेत्राऽऽदेर्निरूपणायाम् , ध०३ अधिक। तियं कयवरं पच्चुप्पेहमाणेण जाओ छप्पइयाओ.तत्थ अ- पडिलेहित्तए-प्रत्युपेक्षितुम् अव्य० । निरीक्षितुमित्यर्थे, स्था० सऊणं अमेसिऊणं समुच्चिणिय समुच्चिणिय पडिगा ३ ठा० ३ उ०। हिगा ताओ जइ ण ण सबसि भिक्खुणं संविभाविऊ- पडिलेहित्ता प्रत्युपेक्ष्य-श्रव्य० । दृष्ट्वा यथावदुपलभ्येत्यर्थे, देज्जा तो एक्कासणगं, जइ सयमेव अनणा तात्रो आचा०१ श्रु०१०७ उ० । पर्यालाच्याऽगम्येत्यर्थे,श्राचा० १थु०८० ३ उ० । सूत्र० । चक्षुवा प्रमृज्यत्यर्थे, दश. ५ छएणइयाओ पडिग्गहेज्जा, अह णं ण संविभाविउं अ०१०। पौनःपुन्येन सम्यक् प्रमृज्येत्यर्थे, दश०५०१ दिज्जा,ण य अत्तणो पडिगाडेज्जा,तो पारंचियं, एवं उ० । चक्षुषा प्रमृज्येत्यर्थे, दश ५ अ १ उ.। आचा। वसहिं दंडापुंछणगणं विहीए य पमज्जिऊणं क- पडिलेहिय-प्रत्युपेक्षित-त्रि• । पर्यालोचित, श्राचा १ भु. यवरं पच्चुप्पेहेऊणं छप्पइयाओ संविभाविऊणं वयं च ४ श्र०२ उ० । कपवरं ण परिवेज्जा, परिढवित्ता णं दसमं विहीए पडिलहियध-प्रतिलखितव्य-त्रि० । परिहर्त्तव्यतया विचाअचंतोव उत्ता एगग्गमणे से पयंपएणं तु सुत्तत्थोभयं रणीये, कल्प०१ अधि०५ क्षण ।। सरमाणे जेणं भिक्खु ण इरियं पडिलमेज्जा तस्स य पडिलोम-प्रतिलोम-त्रि०। प्रतिकूले, व्य०२ उ० । सूत्र । पआयंविलखमणं पच्छित्तं निदिसिज्जा । महा० १ चू० ।। श्चान्मुखे, विशे० । उक्तविपरीते,उत्तः१ अ०। इन्द्रियमनसोरप्रतिलेखनाविस्मारणे विस्मार्य प्रतिलेखनां गुरूणामनि- नाल्हादकत्वात् अनुकलगन्धाऽदित्वाद् विपरीतगन्धाऽऽदौ, वेदने प्रेक्षेत जघन्यम्, मध्यमस्य, उत्कृष्टस्य च सर्वस्मि- श्राचा०२ श्रु०१०२ अ०२ उ०। स्था० । यत्र प्रातिकू Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलोम अनिधानराजेन्द्रः। पडिवाज्जनकाम ल्यमुपदिश्यते तादृश आहरणतद्देशभेद, यथा-" शठं प्रति से कि तं पडियक्खपएणं ?। पडिवक्खपएणं नवेसु गाशठो भूयात् । स्था० ४ ठा० ३ उ० । मागरणगरखेडकबडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसंनिवेअधुना प्रतिलोमद्वारावयवार्थव्याचिख्यासयाऽऽह सेसु संनिविसमाणेसु असिवा सिवा अग्गी सीअलो विसं पडिणोमे जह अभयो, पजोयं हरइ अवहिओ संतो। महुरं कल्लालघरेसु अंबिलं साउग्रं जे रत्तए से अलत्तए गोविंदवायगो वि य, जह परपक्खं नियत्तेइ ॥८॥ जे लाउए से अलाउए जे सुंभए से कुसुभए आलवंते प्रतिलोमे उदाहरणदोरे यथा अभयोऽभयकुमारः प्रद्योतं विवलीअभासए । से तं पडिवक्सपएणं । राजानं हतवान् ,अपहृतः सन्नित्यतत् ज्ञापकमिह च त्रिका- विवक्षितवस्तुधर्मस्य विपरीतो धमा विपक्षः तद्वाचकं पदं लगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थी वर्तमाननिर्देश इत्य तरार्थः। भावार्थः विपक्षपदं, तनिष्पन्नं किञ्चिन्नाम भवति, यथा शृगाली अशिकथानकादवसय १ स्थाऽऽवश्यके शिक्षायां तथैव द्रष्टव्य- वाऽप्यमाङ्गलिकशब्दपरिहारार्थ शिवा भए पते । किं सर्वदा?, मिति । एवं ताबमोकिकं प्रतिलोमम् । लोकोत्तरं तु द्रव्यानुयो- नेत्याह-('नवेसु' इत्यादि ) तत्र ग्रसते बुद्ध्यादीन् गुणानिगमधिकृत्य सूचयन्नाह-गोविन्दत्यादिगाथादलम् । अनेन च ति ग्रामः प्रतीतः, आकरो-लोहाद्युत्पत्तिस्थानं, नगरं-क. चरणकरणानुयोगमप्यधिकृत्य सूचितमवगन्तव्यम् । श्रा- ररहितं, खेट-धूलीमयप्राकारोपेतं, कबर्ट कुनगरं, मडम्बं सद्यन्तग्रहण तनमध्यपतितस्य तद्ग्रहणेनव ग्रहणात्तत्र चर- तो दूरवर्ति सन्निवेशान्तरं, द्रोणमुख-जलपथस्थलपथोपेतं, णकरणे । " को निषि वि पडिकूलं, कातव्वं भवभपण मन्ने पत्तनं नानादेशाऽऽगतपण्यस्थानम् । तच्च द्विधा-जलपत्तनं, सिं। अविणीतीमच गाण उ, जयणाएं जहोचियं कुजा ॥१॥" स्थलपत्तनं च । रत्नभूमिरित्यन्ये । आश्रमः-तापसाऽऽदिस्थाद्रव्यानुयोग तु गोपन्द्रवाचकोऽपि च यथा परपक्ष निवर्तय- नं, संबाधः-अतिबहुप्रकारलोकसङ्कीर्णस्थानविशेषः, सन्निवेतीत्यर्थः। "सो य किर तबस्मिी श्रासि, विणासणनिमित्तं शो-घोषाऽऽदिः । अथवा ग्रामाऽऽदीनां द्वन्द्वे ते च ते सपव्वही। पच्छा भावो जाओ।" महावादी जात इत्यर्थः । निवेशाश्चेत्येवं योज्यते, ततस्तेषु ग्रामाऽऽदिषु नूतनेषु निवेसूचकमिदमत्र श्यमानेष्वाशिवाऽपि सा मङ्गलार्थ शिवेत्युच्यते, अन्यदा त्व" दवट्ठियस्स पजव-णयठियमेयं तु होइ पडिलोमं । नियमः, तथा-कोऽपि कदाचित् केनाऽपि कारणवशेनाग्निः सुहदुक्खाइ अभावं, इतरेणियरस्स चोइज्जा ॥१॥ शीतो, विषं मधुरमित्याद्याचष्टे, तथा-कल्पपालगृहेषु किलाअन्ने उ दिट्ठवादि-म्मि किंचि बूया उ किल पडिकूलं । ऽऽम्लशब्दे समुच्चारिते सुरा विनश्यति । अतोऽनिष्टशब्दपदोरासिपइन्नाए, तिन्नि जहापुच्छ पडिसहो ॥२॥" रिहारार्थमम्लं स्वादूच्यते. तदेवमेतानि शिवाऽऽदीनि विशेउदाहरणदोषता त्वस्य प्रथमपते साध्यार्थासिद्धेः, द्विती पविषयाणि दर्शितानि, साम्प्रतं त्वविशेषतो यानि सर्वदा यपक्षे तु शास्त्रविरुद्धभाषणादेव भावनीयति गाथार्थः। दश० प्रवर्तन्ते तान्याह-(जो अलत्तर इत्यादि ) यो रक्तो ला१ अ०। अपवादे, ओघ०। क्षारसेन, प्राकृतशैल्या कन्प्रत्ययः, स एव रश्रुतेर्ल श्रुत्या पडिलोमइत्ता-प्रतिलोमयित्वा-श्रव्य० । प्रतिलोमान् कृत्वा अलक्लक उच्यते, तथा--यदेव लाति प्रादत्ते धरति प्रक्षिप्त जलाऽऽदि वस्तु इति निरुक्तेलाबु तदेव लाबु तुम्बकमभिविवादाध्यक्षान् प्रतिपन्थिनो वा सर्वथा सामर्थ्य ऽसति प्रति धीयते, य एव, च सुम्भकः शुभवर्णकारी स एव कुसुंभकः, लोमं कृत्वा विधीयमाने विवादोंदे, स्था०६ ठा० । (बालवते त्ति) बालपन्-अत्यर्थ लपन्नसमञ्जसमिति ग-' पडिलोमपरूवणा-प्रतिलोमप्ररूपणा-स्त्री० । पश्चादानुपूर्व्या म्यते, स किमित्याह (विवलीयभासए ति) भाषकाद् प्ररूपणायाम् , नि० चू० १ उ । विपरीतो विपरीतभाषक इति राजदन्ताऽऽदिवत् समासः । पडिवंसय-प्रतिवंशक-पुं० । लघुवंशे, " लोहियक्खपडिवं अभाषक इत्यर्थः । तथा हि-सुबद्धसंवद्धं प्रलपन्तं कश्चिद् दृष्टालोके वक्तारो भवन्ति-अभाषक एवाऽयं द्रष्टव्योऽसासगा।" रा०। रवचनत्वादिति । प्रतिपक्षनामता यथायोगं सर्वत्र भावनीपडिवक्ख-प्रतिपक्ष-पुं० । प्रतिकूलः पक्षः प्रतिपक्षः । विरो- या । ननु च नोगौणादिदं न भिद्यते इति चेत् , नैतदैवं, धिनि, स्या० । यथाऽबहुश्रुतस्य बहुश्रुतः प्रतिपक्षः । नि. तस्य कुन्ताऽऽदिप्रवृत्तिनिमित्ताभावमात्रेणैवोक्तत्वाद् , अस्य चू०१ उ० अन्यशब्दार्थ, व्य०७ उ० । अभिहितार्थविप. तु प्रतिपक्ष धर्मवाचकत्वसापेक्ष वाद् इति विशेषः । अनु । यये, श्रा० म०१०। तुल्पपक्षे, प्रोघ० । द्वितीयपदे, वृ० अपवादे. यथा शृगाली अशिवाऽप्यमाङ्गलिकशब्दपरिहारार्थ १ उ०२ प्रक० द्वितीयपक्षदृष्टान्तभूते, स्था० ४ ठा० १ उ० । शिवा भएयते, किं सर्वदा?,नेत्याह-"नवेसु” इत्यादि । श्रीया शत्रौ, “सत्तू परी अमित्ता,रिऊ अराई य पडिवक्खो" पाइ पडिवक्खवयण-प्रतिपक्षवचन-न। उत्तरवचने,जी०१ प्रतिक ना० ३५ गाथा। पडिवक्खवाय-प्रतिपक्षवात-पुं० । शीतोष्णाऽऽदिके वांत, पडिवखदुगंछा-प्रतिपक्षजुगुप्सा-स्त्री० । मिथ्यात्वप्राणि मिथ्यात्वप्राणि- प्राचा० ११०१०७ उ०। वधाऽऽावेगे, पश्चा०१ विव०। पडिवञ्जमाण-प्रतिपद्यमान-त्रि० । अङ्गीकुर्वति, प्राचा० १ पडिवक्खपय-प्रतिपक्षपद-न । विवक्षितवस्तुधर्मस्य वि- श्रु० १ अ०७ उ०। परीतो धर्मो विपरीतपक्षस्तद्वावकं पदं विवक्षितपदम। पडिवजिउकाम-प्रतिपत्तकाम-त्रि० । अभ्युपगन्तुमनसि, प. विरुद्धार्थ के पदे, अनु०। श्वा० १% विव०। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम (३५६) पडिवज्जिकण अभिधानराजेन्द्रः । पमिवासुदेव पडिवजिऊण-प्रतिपद्य-अव्य० अङ्गीकृत्येत्यर्थे, श्रा०।दश। प्रा० म०१०। प्रदीप इव निर्मूलमेककालमुपगच्छति अगृहीत्वेत्यर्थे, प्राचा०२ श्रु० १ चू० २ ० १ उ०। वधिज्ञानभेदे, कर्म०१ कर्म। प्रा० म.। पडिवजित्तए-प्रतिपत्तुम-अन्य । अभ्युपगन्तुमित्यर्थे, स्था० से कि त पडिवाइ ओहिनाणं । पडिवाइ ओहिनाणं जं २ ठा. १ उ०। णं जहणं अंगुलस्स असंखिजयभार्ग वा संखिज्जयपडिवज्जियव्य-प्रतिपत्तव्य-त्रिका अङ्गीकर्तव्ये. उत्त०३२ अ०। भागं वा बालगंग वा बालग्गपुहत्तं वा लिक्खं वा पडिवण-प्रतिपन्न-नि।आधिते, स्था० ७ ठा० । समाश्रिते, लिक्खपुहत्तं वा जूयं वा जूयपुहुत्त वा जवं वा जवसूत्र.२क्षु० १ ०स्थाजाचा अभ्युप- पुहुत्तं वा अंगुलं वा अंगुलपुहुत्तं वा पाउँ वा पागतवति, स्था०४ ठा०१ उ०। उपुहुर्त वा विहात्थि वा विहत्थिपुहुर्त वा रयणिं वा रयपडिवत्ति-प्रतिपत्ति-खी। प्रतिपदनं प्रतिपसिः। परिच्छित्ती, णिपुहुत्तं वा कुच्छि वा कुच्छिपुहुत्तं वाधणुं वा धणुपुहुत्तं आ० म० १० । प्रकृतयोऽपि प्रतिपत्तिहेतुत्वात्प्रतिप वा गाउयं वा गाउयपुरत्तं वा जोयणं वा जोयणपुहुत्तं तय इत्युच्यन्ते, प्रतिपद्यते यथावदवगम्यते भाभिरिति प्र. तिपसयः । “लाभाऽऽदिभ्यः" इति करणे तिप्रत्ययः । पा० वा जोयणसयं वा जोयणसयपुहुत्तं वा जोयणसहम०१०। परमतरूपे (सू०प्र०१पा०प्र०) द्रव्याss- सं वा जोयणसहस्सपुहुत्तं वा जोयणलक्खं वा जो. दिपदार्थाभ्युपगमे, नं। पञ्चा। प्रति।स। सम्यक्रिया- यणलक्खपूहतं वा जोयणकोडि वा जोयणकोडिपउभ्युपगमप्रतिपादने, विशे० गत्याविवाराणामन्यतरैकपरि- हुत्तं वा जोपणकोडाकोडिं वा जोयणकोडाकोडिपहत्तं पूर्णगत्यादिद्वारेण जीवाऽऽदिमार्गवायाम् कर्म. १ कर्म । वा उक्कोसेणं लोग वा पासित्ता णं पडिवएज्जा । से तं प्रारम्भे, अङ्गीकारे, दश०४ भाल. भतिवचनप्रदाने, . ३ उ० । नि०१०। परिपाट्याम्, भाव ४० । भेने, प्र. पडिवाइ ओहिणाणं ॥ ५॥ कारे, आ. चू०१०। “निच्छयत्यशिवलि प्रवाहिति।" (से कि तं' इत्यादि) अथ किं तत्प्रतिपाति अवधिशानम् । श्रा० चू०१०। सूरिराण-प्रतिपात्यवधिज्ञानं यत् अवधिज्ञानं जघन्यतः पडिवत्तिसमास-प्रतिपत्तिसमास-पुं० । प्रतिपत्तिद्वारद्वया सर्वस्तोकतया अइलस्यासंख्येयभागमात्रं वा संख्येयभाग मात्रं वा बालाऽयं वा बालामपृथक्त्वं वा लिक्षां वा बालानाऽऽदिमागणायाम्, कर्म०१ कर्म०। एकप्रमाणां लिक्षापृथक्त्वं वा यूकां वा लिक्षाष्टकमानां यू. पडिवत्थूवमा-प्रतिवस्तूपमा-स्त्री० । दूरान्तरेऽप यत्किाञ्च. कापृथक्त्वं वा यवं वा यूकाष्टकमानं वा यवपृथक्त्वं सामान्येन भ्राम्यतामुपहासो व्यज्यते तद्व्यञ्जकेऽलङ्कारे, वाऽङ्गलं वा अङ्गुल पृथक्त्वं वा, एतावदुत्कर्षेण सर्वप्रचुरप्रति० । (स च'चेइय' शब्दे तृ० भा० १२१३ पृष्ठे “का. तया लोकं दृष्ट्वा उपलभ्य प्रतिपतेत् प्रदीप इव नाशमुपया. के" इत्यादिना श्लोकन दर्शितः) यात्, तस्य तथाविधक्षयोपशमजन्यत्वात् । तदेतत् प्रतिपापडिवन-प्रतिपन्न-त्रि० । अभ्युपगते, “पडिवन्नं श्रम्भुवगयं।" त्यवधिज्ञानं, शेषं सुगमम् । नवरं कुक्षिद्धिहस्तप्रमाणा, धनुपाई ना० १८८ गाथा। श्चतुर्हस्तप्रमाणम् “पृथक्त्वं, सर्वत्रापि द्विप्रभृतिरा नवभ्य" इति सैद्धान्तिक्या परिभाषया द्रष्टव्यम् । नं० । पडिवयण-प्रतिवचन-न । श्रादेशे, विशे।" देहि मे पडि पडिवाइय-प्रतिपादित-त्रि० । प्रवेदिते, प्रकथिते, आचा० १ वयणं तं तस्स वयणं । " श्रा० म०१ श्रा। श्रु० २०३ उ० । तीर्थकरगणधरैः कथिते, श्राव०४०। पडिवयमाण-प्रतिपतत-त्रि० । उचैर्गत्वा पुनः पतति, प्राचा० पडिवाय-प्रतिपात-पुं० । ध्वंसे, प्रा० म० ११० । विशे। १ श्रु०६१.४ उ०। अधःपाते, " जइ उवसंतकसाओ, तहइ अणंतं पुणो वि पप्रतिपद्यमान-त्रि० । प्रथमं प्राप्नुवति, “ पडिवजमाणश्रो डिवायं । " भ०२ श०१ उ० । नाम जो तप्पढमताए आभिणिबोहियणाणं पडिवजति । " प्रतिवाद-पुं० । उत्तरपक्षे अष्ट०५ अष्ट०। परोपन्यस्तपक्षप्रश्रा०चू०१०। तिवचने, द्वा० २३ द्वा०। पडिवया-प्रतिपत-स्त्री०। पक्षस्य प्रथमतिथौ, सू० प्र० १० प्रतिवात-पुंगाघ्रायकविवक्षितपुरुषाणां प्रत्यभिमुखवायौ, पाहु० । चं० प्र०। श्रा०म०१०। पडिवा-प्रतिपत्-स्त्री० । कृष्णप्रथमतिथौ, मा० क० १ अ० । पडिवाल-प्रतिपाल-धा० धातवोऽर्थान्तरेऽपि इति । प्रतीक्षचं० प्र०। णे, रक्षणे च । पडिवालइ ।' प्रतीक्षते, रक्षति वा । प्रा०४ पडिवाइ (ण)-प्रतिपातिन्-त्रि० । प्रतिपननशीलं प्रतिपा पाद। ति । उत्कर्षण लोकविषयं भूत्वा प्रतिपतति, स्था० ६ ठा। पडिवासदेव-प्रतिवासदेव-पुं० । वासुदेवानां प्रतिश पुषु प्रतिपतनशीले, नं0। विशे० । स्था० । श्रा० म०। प्रतिपा. तिलकाऽऽदिषु, ति। तिसम्यग्दर्शनमापशमिकं क्षायोपशमिकमित्येतत्सम्यग्दर्श एएसि गं नवराहं वासुदेवाणं नव पडिसत्त होत्था, तं नभेदे, (व्याख्या 'दंसण 'शब्दे चतुर्थभागे २४२६ पृष्ठे गता) कियन्तमपि कालं स्थित्वा ततो ध्वंसंगमनस्वभावे, जहा आसगीवेजाव जरासंधे०जाव स चक्केहिं । स०। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५७) पाडवासुदेव अनिधानराजेन्द्रः। पडिसलीणया तथा चत्तारि पडिसंलीणा पण्णत्ता । तं जहा-मणपडिसंलणे, "अस्सग्गीवे तार', मेरऍ महुकेटभे निखंभे य । वइपडिसलाणे, कायपडिसलीणे, इंदियपडिसंलीणे । बलि पहिराए तह रा-वणो य नवमे जरासंधे ॥१॥ इति । क्रोधाऽऽदिकं वस्तु वस्तु प्रति सम्यग् लीना निरोएए खलु पडिसत्तू, कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । धवन्तः प्रतिसलीनाः । तत्र क्रोधं प्रति उभयनिरोधनोसव्वे वि चक्कजोही,सब्वे विहया सचका ॥२॥" इति।स। दयप्राप्तविफलीकरणेन प्रतिसलीनः क्रोधप्रतिसंलीनः । उक्तं श्रा० म० । ति। श्रा० चूछ । प्रतिवासुदेवमाता काते च-" उदयस्सेष निरोहो, उदयं पत्ताण वाऽफलीकरणं । स्वप्नान् पश्यतीति प्रश्ने, उत्तरम्-सा त्रीन् स्वमान् प जं पत्थ कसायाणं, कसायलीणया एसा ॥ १ ॥" श्यतीति । यदुक्तममितसिंहसूरिकृतशान्तिचरित्रे षष्ठप्रस्तावे इति । कुशलमनउदीरणेनाकुशलमनोनिरोधेन च मनः प्र"प्रत्यर्थिचक्रिणां त्रीश्चा-न्येषामुत्तमजन्मिनाम् । एकैकमम्बि तिसंलीनं यस्य सः,मनसा वा प्रतिसंलीनो मनःप्रतिसलीनः । काः स्वप्नं,पश्यन्त्येषां हि मध्यतः॥१६॥" इति । तथा-सप्तति एवं वाकायेन्द्रियेष्वपि, नवरं शब्दाऽऽदिषु मनोशाऽमनोशेषु शतस्थानकेाप। किं च-तान् गज १ कुम्भ २ वृषभा३ऽऽख्यान् रागद्वेषपरिहारी इन्द्रियप्रतिसंलीन इति । स्था०४ठा० २उ० । पश्यतीति परम्परया झेयम् । ८१प्र० सेन०३ उल्ला०। प्रतिवासुदेवस्य कियन्ति कानि च रत्नानि स्युरिति प्रश्ने, उ पंच पडिसलीणा पमत्ता। तं जहा-सोइंदियपडिसंलीणे, त्तरम्-प्रतिवासुदेवस्य रत्नसंख्यायां रत्नानां तु नियमः शा जाव फासिंदियपडिसंलीणे। को दृष्टो नास्ति, तेन चक्राऽऽदीनि तानि यथासंभवं भवि- प्रतिसलीनेतरसूत्रयोः पुरुषो धर्मी उक्तः,संवरेतरसूत्रयोस्तु घ्यन्तीति संभाव्यत इति । ३२६ प्र० । सेन०३ उल्ला० । धर्म एवेति । स्था०५ ठा०२ उ० । पडिवित्यरविहि-प्रतिविस्तरविधि-पुं० । परिकररूपे परिग्रहे, पडिसलीणया-प्रतिसंलीनता-स्त्री० । इन्द्रिय कषाययोगधिषसूत्र. २ नु०२०। यायां गुप्ततायाम् , विविक्तशयनाऽऽशनतायां च । स्था०६ पडिविद्धसण-प्रतिविध्वंसन-न० । विनाशने, सूत्र. २ श्रु० | ठा०पा। २०॥ प्रतिसलीनताभेदाःपडिविरय-प्रतिविरत-त्रि० । सावधयोगेभ्यो निवृत्त प्रवीज से किंतं पडिसलीणता। पमिसंलीणता चउविहा परमत्ता। ते, स०३० सम० । सूत्र०।" एगञ्चाो अबंभसमारंभात्री तं जहा-इंदियपडिसलीणता,कसायपडिसलीणता,जोगपडिपडिविरो।" औ०। संलीणता,विवित्तसयणासणसेवणया। से किं तं इंदियपडिपडिविहाण-प्रतिविधान-न । प्रतीकारे, विशे०। आक्षेप- संलीणता?। इंदियपडिसलीणया पंचविहा परमत्ता। तं जहानिराकरणे, विशे। सोइंदियविसयप्पयारणिरोहा वा सोइंदियविसयप्पत्तेमु वा पडिवह-प्रतिव्यह-पुं० । तत्प्रतिद्वन्द्विना तत्प्रतिभयोगोपाय- अत्थेसु रागदोसविणिग्गहो चक्खिदियविसय० एवं० जाव प्रवृत्तानां व्यूहे, जं० २ वक्षः । कलाभेदे, श्री०। फासिंदियप्पयारणिरोहो वाफासिंदियविसयप्पत्तेसु वा अत्थेपडिवेस-प्रतिवेश-पुं० । प्रत्यासन्नगृहे, वृ० १ उ० २ प्रक। सुरागदोसविणिग्गहो। सेतं इंदियपडिसलीणया। से किंतं प्रातिशिकनरेन्द्राः सीमातटवर्तिनः प्रत्यन्तराजानः । व्य० कसायपडिसलीणया। कसायपडिसलीणया चउब्विहा प४ उ० । विक्षेपे, दे० ना०६ वर्ग २१ गाथा । मत्ता । तं जहा-कोहोदयणिरोहो वा उदयप्पत्तस्स वा कोहस्स पडिसंखविय-प्रतिसंक्षिप्य-अव्य० । मुष्टिग्रहणेण संक्षिप्ये-- विफलीकरणं,एवं०जाव लोभोदयणिरोहो वा उदयप्पत्तस्स त्यर्थे, भ० १४ श०७ उ० । लोभस्स विफलीकरणं । से तं कसायपडिसलीणया। से पडिसंखा-प्रतिसंख्या-स्त्री। व्यपदेशे, प्राचा० ११.५ किंत जोगपडिसलीणया। जोगपडिसलीणया तिविहा पश्र.६ उ०। मत्ता । तं जहा-अकुसलमणणिरोहो वा कुसलमणउदीरणं पडिसंजलण-प्रतिसज्वलन-न० । क्रोधाग्निनाऽऽत्मन उद्दी वा मणस्स वा एगत्तीभावकरणं । से किं तं वइपडिसलीणपने, श्राचा० १ श्रु० ४ १०४ उ० । या। वइपडिसलीणया तिविहा पामत्ता । तं जहा-अकुपडिसंत-प्रतिश्रान्त-त्रि० 1 विश्रान्ते, ६०१ उ० ३ प्रक० । सलवइगिरोहो वा कुसलवइउदीरणं वा वइए वा एगनीप्रतिकूले, दे० ना.६ वर्ग १८ गाथा। भावकरणं । से किं तं कायपडिसलीणया । कायपडिसपडिसंधाय-प्रतिसन्धाय-अध्य० । सह गन्तृभावेनाऽऽनुकूल्यं लीणया जेणं सुसमाहियपसंतसाहरियपाणिपादे कुम्मो इव प्रतिपद्येत्यथै, सूब०२ श्रु. २ अ०। गुत्तिदिए अल्लीणपल्लीणे चिट्ठइ ।सेतं कायपडिसलीणया। पडिसंलीण-प्रतिसंलीन-पुं। क्रोधाऽऽदिकं वस्तु वस्तु प्रति से तं जोगपडिसलीणया। " सम्यग्लीने निरोधवति, स्था। श्रोत्रेन्द्रियस्य यो विषयेष्विष्टानिष्टशब्देषु प्रचारः श्रवणचत्तारि पडिसंलीणा परमत्ता । तं जहा-कोहपडिसंलीणे, लक्षणा प्रवृत्तिः, तस्य यो निरोधो निषेधः स तथा, शब्दानां माणपडिसंलीणे मायापडिसलाणे,लोभपडिसंलणे । स्था०।। श्रवणवर्जनमित्यर्थः । (सोइंदियविसयेत्यादि ) प्रोग्रेन्द्रिय ६० Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५८) पमिसलीगाया अन्निधानराजेन्द्रः ।। पमिसुया विषयप्राप्तेषु चाऽर्थेषु इष्टानिष्टशब्देषु रागद्वषविनिग्रही राग-पडिसार-देशी- पटुतायाम्, पटावित्यन्ये, दे० ना ६ वर्ग द्वेषनिरोधः। (मणस्स वा एत्तीभावकरणं)मनसो बा (एग १६ गाथा। त्ति त्ति) विशिएकाग्रत्वेन एकता तद्रूपस्य भावस्य करणं एक पडिसारित्र-देशी-स्मृत्याम्, देना० ६ वर्ग ३३ गाथा । ताभावकरणम् , अात्मना वा सहकतानिरालम्बनत्वं तद्पो भावस्तस्य करणं यत्तत्तथा। (वइए वा एगीभावकरणं ति) पडिसाहण-प्रतिसाधन-न० प्रतिकथने,सूत्र०१ श्रु०११ श्रा वाचो वा विशिष्टकाग्रत्वेन एकतारूपभावकरणमिति । (सु-परिमाहरणा-प्रतिसंस्मरणा-स्त्री० । तन्मनःप्रतिकूलतया समाहियपसंतसाहरियपाणिपाए त्ति )सुष्ठु समाधिप्राप्ती व विस्मतार्थस्मारणायाम, भ.१५ श०। हिर्वत्या स चासौ प्रशान्तश्चान्तवृपया यः स तथा । संहतमविक्षिप्ततया धृतं पाणिपादं येन स तथा । ततः कर्म पडिसाहरिय-प्रतिसंहृत्य-अव्य० । विकीर्णनालान् बाहुना धारयः। (कुम्मी इव गुत्तिदिए त्ति) गुप्तेन्द्रियो गप्त इत्य- संगृह्येत्यर्थ, भ०१४ श०७ उ०। र्थः । क इव ?, कूर्म इव । कस्याश्चिदवस्थायामिति । अत ए.पडिसिद्ध-प्रतिषिद्ध-त्रि० । निवारिते, नि० चू० १ उ० । वाऽऽह-(अल्लीणपल्लीणे त्ति) अालीन ईपल्लनिः पूर्व प्रलीनः " पडिसिद्धा वारिओ।” पाइ० ना० २६३ गाथा । पञ्चा। पश्चात्प्रकर्षेण लीनः। ततः कर्मधारयः।भ. २५ श०७ उ०। श्राव० । जी । विधेयतया निवारिते, पञ्चा० ६ विव० । निः चू। निराकृते, पं०व०२ द्वार । पडिसंवेयग-प्रतिसंवेदन-न। अनुभवे, सूत्र० १ श्रु० ७ पडिसुइ-प्रतिश्रुति-पुं० । भरतक्षेत्रजे द्वितीयकुलकरे, जं० २ अ०। श्राचा०। वक्ष । भविष्यति ऐरवतवर्षजे कुलकरभेदे, ति। सः। पडिसंसाहणया-प्रतिसंसाधनता-स्त्री०। अनुव्रजने, भ०१४ पडिसुणणा-स्त्री० प्रतिश्रवण-न० । अङ्गीकरण, कल्प० ३ श०३ उ०। अधि०६क्षण । श्राचा० । श्राधाकर्मनिमन्त्रणान्तरं प्रतिभूपडिसंहार-प्रतिसंहार-पुं० । निवर्तने, सूत्र०१ श्रु० ७ ० । यते अभ्युपगम्यते यत् प्राधाकर्म तत् प्रतिश्रवणम् । प्राकृतनिरोधे, स्था० ३ ठा० १ उ०। त्वात्स्त्रीत्वम् । दोषभेदे, पि० । पडिसत्तु-प्रतिशत्रु-पुं० । प्रतिकूले शत्रौ, "एए खलु पडिसत्तू, संप्रति प्रतिश्रवणस्य स्वरूपमाहकित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं ।" स० । उपयोगम्मि य लाभं. कम्मग्गाहिस्स चित्तरक्खट्ठा । पडिसत्थ-प्रतिसार्थ-पुं० । प्रतिकूलसार्थे, सार्थप्रतिकूले, निः आलोइए सुलद्धं, भणइ भणंतस्स पडिसुगणा ॥११६॥ चू० ११ उ०। इह यो गुरुरुपयोगकरणवेलायां कर्मग्राहिण श्राधाकर्मपडिसहय-प्रतिशब्दक-पुं० । सेवके, सूत्र० १ श्रु०७१। ग्रहणाय प्रवृत्तस्य शिष्यस्य चित्तरक्षार्थ मनोऽन्यथाभावनिपडिसरोम्मुयाण-प्रतिसरोन्मोचन-न० । कङ्कण विमोचने,ध० वारणार्थ दाक्षिण्याऽापेतो लाभं भगति लाभ इतिशब्दमु ञ्चारयति । तथा-श्राधाकर्मणि गृहस्थगृहादानीय श्राला२ अधिः । पञ्चा। चिते श्राद्धिकयदं करोटिकया दत्तमित्येवं निवेदिते (सुलपडिसलागा-प्रतिशलाका-स्त्री० । शलाकामहाशलाकामध्य द्धं) शोभनं जातं यत् त्वयेदं लब्धमिति भणति । तस्य शलाकायाम्, प्रतिशलाकाभिनिष्पन्नत्वात् पल्योऽपि प्रतिश गुरोरित्थं भणतः प्रतिश्रवण नाम दोषः । सूत्रं तु स्त्रीत्व. लाकेति । पल्पोपमपरिज्ञानार्थपल्ये, कर्म० ४ कर्मः। निर्देशः प्राकृतत्वात् । प्राकृते हि लिङ्गं व्यभिचारि । यदाह पडिसा-शम-धा० । उपशमे, "शमेः पडिसा-पडिसामौ" || पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे-"लिङ्गं व्यभिचार्यपीति ।" प्रतिश्र४।१६७॥ इति शमधातोः पडिसाऽदेशः।"पडिसाइ समइ।" वणं च नामाभ्युपगमः । पिं० । वाचनां प्रयच्छता गुरोः सूत्रशमयत, प्रा०४पाद । ग्रहणे, “ पडिसुणणाए हजारो ।” गुरौ वाचनां प्रयनश-धा० । अदर्शने, “ नशेर्णिरिणास-णिवहावसेह-प. च्छति सति सूत्रं गृह्यमाणेन तथाकार: कार्य इत्यर्थः । डिसा-सहावहराः"||४|१७८॥ इति नशेः पडिसाऽऽदेशः। ध०३ अधिः। श्रा० म०। 'पडिसाइ।' नश्यति । प्रा० ४ पाद । पडिसुणमाण-प्रतिशएवन-त्रि । अभ्युपगच्छति, " श्राहा. पडिसाअ-देशी-धर्धरकण्ठे, दे. ना० ६ वर्ग १७ गाथा। कम्मणिमंतण,पडिसुणमाणे अतिक्कमो होइ।" व्य. १ उ० । श्रावा० । ज्ञा० । औ०। पडिसाडणा-परिशाटना-स्त्री।'शट रुजायाम्, परिपूर्व। प. पडिसत्ती-देशी-प्रतिकूल, दे० ना० ६ वर्ग १८ गाथा । रिशटति परिभ्रश्यति तमन्यः प्रयुक्ते, पूर्ववत् णिच् । परिशाट्यते इति परिशाटना । "णिवेच्यास०" ॥५॥३१२६॥ इत्या- पाडमुय-पातश्रुतदिना अनप्रत्यये प्राप् । च्यवने,प्रकिरणे, "चवणं ति रोवणंति | जम्बूद्वीपे भरते वर्षे भविष्यति सप्तमे कुलकरे, स्था१०ठा। य पकिरण पडिसवणा य पगट्ठा।" व्य०१ उ० । पडिसुया-प्रतिश्रुता-स्त्री० । प्रवज्याभेदे, पं०भा०। पडिसाम--शम--धा० । शान्ती, "शमेः पडिसा-पडिसामौ ।" चतुरो तु गोणपाला, सत्था हीणं जतिं तु अडवीए । ॥८।४।१६७ ॥ इत्यनेन पडिसामाऽध्देशः। “पडिसामइ।" शमयति । प्रा०५पाद ! __ पडिलाहेंति पहट्ठा. दोहि दुगुंछाइयं तहियं ।। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५६) अभिधानराजेन्द्रः । परिसुया दियलोगगता तत्तो, चत्तु दुगंधी दसने दासतं | ततो मिगाय हंसा, सोवागा वित्तसा भूता ।। दुतित्यरं, पुच्छति किं सुलभ दुलहवोहिऽम्हे | तित्थकर हविग्धं, अम्मापितरो करेहिंति ॥ तो ओहिणा य याणसि, माहणपुत्तत्तणगमुसुगारे | सो माह पुतो, पुच्छति मित्तिए य भवे ।। ते काउ समणरूवं, उसुगारपुरम्मि आगता कहए । बहुजणतातादीणं, तो पुच्छे माहणो ते उ ।। होज्जऽम्ह किंचऽवचं, पच्चाह भूया दिया तु होहिंति । दो जमलदारगा तू, कुमारगा पव्त्रइस्संति || मा तेसि करेजासी, विग्धमवस्सं च तेसि पव्वज्जा । होहित वोत्तूण गता, चरन्तु उववस्पजातेसु ।। बालत्ते अम्मपियरो, भांति समणाण सरिसतवणं । रक्खस माणसखायग, भवंति दट्ठूण ते पुत्ता ' मालिज, दूरं दुरेण परिहरिज्जाहि । मा भक्खेज्जा ते भे, ते वि य तेसिं पडिसुर्णेति ॥ रत्थादि जत्थ पास - ति संजते ते तत्र पलायंति । अह अन्नया णगरबहिं, चेडे पासंति वदतो ॥ वेंति ते अम्मापियरो, दिट्ठाऽम्हे चेड वंदमाणा तु । वि समणरूवरक्ख - स भक्खति य चेड रूपाई ॥ चिंते तम्मापित, अतिवीसत्था इमे उ जायंति । मा पव्वएज इहई, अल्लियमाणा तु समणें । सउवज्झाया एते, वइयं निज्जंतु तत्यऽहिज्जंतु । इय संचितऊं, वइयं गीता ततो तेहिं || वइयाएँ समम्मी, मणोभिरामो तु अस्थि वडरुक्खो । अहमद कयाई, ते तु रमंते गता तहियं । सत्था हीणा यजती, तिसियकिंलंता तु आगता तहियं ॥ एत्थ करेमो सिक्ख, बडहे पट्टिया तत्तो । तो ते भयाभिभूता चेडविलग्गा तमेव वडरुक्खं । जति विय तस्माहो, ठातुं पविसंति भिक्खट्टा | वरियं वत्तेत गुरू, तहियं अज्झयण गलिगगुम्म त्ति । तो ते सरंति जातिं गुरुमित्थं वंदितुं वेति ॥ अम्मापयरो पुच्छिय, पव्वज्जं भुपेम सेसं तु । जह उसुगारज्झयणे, वक्खातं सुत्तालावे | एसा पडिता खलु, पव्वज्जा । पं०भा०१ कल्प | पं०चू० । पडि सुवास यस हस्तसंकुल प्रतिश्रुतशतसहस्र संकुल - त्रि० । प्रतिशब्दकला संकुले, भ० ६ ० ३३ उ० । पाडसूयग - प्रतिसूचक - पुं । नगरद्वारसमीपेऽल्पव्यापारत्वेनाऽवतिष्ठमाने, व्य० १ उ० । 11 पाडेमूर - प्रतिसूर्य - पुं० | इन्द्रधनुषि, जी- ३ प्रति०४ अधि० । अनु० । प्रतिकूले, ३० ना० ६ वर्ग १६ गाथा | For Private परिसेवग पडिसेज्जा - प्रडिशय्या स्त्री । उत्तरशय्यायाम् भ० ११० ११ उ० । पाडसेवग - प्रतिसेवक - पुं० संयमप्रतिकूलार्थस्य संज्वलन - कषायोदयात् सेवकः प्रतिसेवकः । संयमविराधके. भ० २५ श० ६ उ० । ध० । “ शिक्कारणे वि भिक्खू, कारण प डिसेवते य पंचा उ । " प्रतिसेवको नाम-यो भिक्षुः निष्कारणेऽपि कारणाभावेऽपि पञ्चकाऽऽद्दीनि प्रायश्चित्तस्थानानि प्रतिसेवते । व्य० ३ उ० । प्रतिवद्धं सेवते - ति प्रतिसेवकः । प्रतिसेवनकारिणि, व्य० १३० । प्रतिसेवकद्वारम् पडसे व उसांधू, पडिसेवण मूल उत्तरगुणा य । पडिसेवियन्वयं खलु दव्वादि चतुव्विधं होति ॥ ७६ ॥ तत्थ पडि सेवगो त्ति दारं । पडि सेवणं पडिसेवा पडिसेवयतीति पडिलेवगो, सो य साहू, तुसद्दो श्रवधारणे । पूरणे वा । तस्स पडि सेवास्सिमे भेदा- पुरिसा, पुंसगा, इत्थी श्री । तत्थ पुरिसे ताव भणामि - पुरिसा उक्कोस मज्झिम - जहणणया ते चउन्विधा होंति । कपट्टिता परिणता, कडजोगी चेव तरमाणा ॥ ७७ ॥ एसा भहवासामिकता गाहा-पडि सेवग पुरिसा तिविहाउक्कोस - मज्झिम जहरणा । एते वक्खमाणलरूवा जे उक्कोसादि ते चेव चउव्विहा होति । कहं?, उच्यते-भंगविगप्पेण । साय भंगरयण गाहा इमा-संघणे संपणा, धितिसंपम्मा य होंति तरमाणा । सेसे होति भयणा, संघयणधिती य इतराय ॥ ७८ ॥ संघण संपणा, घितिसंपण्णा य होति, एस पढमभंगी । तरमाणा गतिसंपण्णा सिग्धं चिट्ठउ भणित्ता उ० जमणं तं सेसं होति पढमभंगो भणितो, सेसा तिमि भंगा, तेसु भयणा । भयणा णाम- सेवत्थे किं पुण तं भजं संघयणं वितियभंग संघयणेण भयधितिवज्जियं कुरु सो य इमो संघयणसंपलो, णो धितिसंपल । वितीयत्ति तियभंगो धिईए भज्जो, णो संघयणभज्जो । सो य इमो णो संघयणसंपसे धितिसंपरणो । इयर ति । इयरा णाम-संघयणधितिरहिता । सो चउत्थो भंगो इमो—णो संघयणसंपरणो. णो धितिसंपरणो । एवं एते भंगा रचिता । चोदगाह जति उक्कोसाऽऽदि पुरिसतिगं तो भंगविगप्पिया चउरो ण भवंति, श्रह चउरो, तिगं ण भवति परणवगाइ, जे इमे भंगविगप्पिया चउरो, एते चैत्र तत्र भरांति । कहं ?, भरगति पुरिसा तिविहा संघ - धितिजुया तत्थ होंति उक्कोसा । एगेतरजुत मका, दोहिं विजुता जहा उ ॥७६॥ उकोसगा तु दुविहा, कप्प पकपट्टिता व होजाहि । कप्पट्ठिता तु खियमा, परिणत कडजोगि तरमाणा ॥ ८० ॥ पढमभंगिल्ला उक्कोसो, सेसं पुव्वद्धस्स कंठं । एगेतरजुता णाम - वितियततियभंगा, ते दोवि मज्भा भवंति दोहिं वि वि. जुता णाम- संघयणं चिती य । एस चउत्थो भंगो। एए जहरखा भवंति । पप चउरो वि त। भवंति । जे ते भंगविंग Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिसेवग पिया चउरो पुरिसा, ते अणेण पच्छद्धभिहिए चउवि - कप्पेण चिंतियया कप्पड़िता ग्राम जहानिदिए कये टि ता, ते यजिकप्पिया । तप्पडिवक्खा कप्पट्ठिता । पकपणा पकप्पो, मेदेवर्थ तं संठिता पकष्पडिता, अववादसहित कप्पे ठियत्ति भणियं भवति । परिणता गाम-सुत्तेण वरण य वत्ता। तप्पविक्खा गाम अपरिणता । कडजोगी णाम - चउत्थादिनवे कतजोगी, तप्पडिवक्खा अकडजोगी, तरमाणा ग्राम जे जं तवोकम्मं आदति तं नित्थरंति तप्पडिवचफ्ला अतरमाणा, पच्छुक वधायें । इयादि भंगविग पिया पुरिसा कप्पा कप्पट्ठिता वा होज्जा । कप्पपकप्पा पुव्यवक्खाया एव । इयाणि तरमाणा सण्णासियं पदं समोयारिजति कप्पे पकप्पे वा ठिता पढमभंगिल्ला गियमा तर माणा कयकिचं पयं । इदाणि कञ्यपकप्पट्ठिता पत्तेगसो चितिजति कप्पट्टता जिसकपिया, तुसदो पलेयाणयमधारणे । परिणया सुणं पयसा य खियमा कडजो गियो तं वियमा तरमागा ते विमा कम्पड़िता गता, पकप्पट्ठिता भरणंति । + श्री भरणतिजे पुण 'ठिया पकप्पे, परिणत कडजोगि वावि ते भइया । वरमाणा पुलियमा, जेथे उभय ते बलिया ॥८१॥ जे इति हिंसे। पुण इति पादपूरणे । पप्ये धरकप्पे, परिणयक जोगिते भया भवसो पसेयं । कई भरया है, जेणं थेरकपिया गीता श्रगीता य संति, वयसा सोलसवासारतो परतो य संति, तम्हा ते भज्जा, तरमाणा पुण णियमा | कम्हा ?। उच्यते जेणेउ उभयेण ते वलियाश्रभयं नाम-संघपणचितिसामन्याओं व जं तवोक्रम्मं आदति तं नित्यति । यतो पदमभंगी। ( ३६० ) अभिधानराजेन्ऊ: इयाणि मज्झिमपुरिसा वितियभंगिल्ला भरणंतिमज्झा वितीय ततिया, नियम पकप्पट्ठिता तु गायव्वा । वितिया परिणत कदजोगिताएँ भइया तरे किंचि ॥८२॥ (मज्झति ) ममिपुरिसा (दितिय ति ) वितियभंगो ( ततिय त्ति ) ततियभंगो ( शियमा इति ) श्रवस्सं शियमसहाओ जिए कप्पासो, पकप्पावधारणं पकप्पो थेरकप्पो, गायव्वं बोधव्वमिति । तु श्रवधारणे किमवधारयति - इमं दोराह वि मज्झिल्लभंगाणं सामलमभिहियं । विसेसो भ प्रति-(वितिया इति) वितियमंगला परिणय कडजोगि ति भइया पूर्ववत् (तरे किंचित) तरति शक्नोति किि दिति स्वल्पतरमिति । 1 भरगतिसंघणेण तु जुत्तो, अदढधिती ण खलु सव्वसोऽतर ति । देहस्सेव तु सगुणे - भज्जते जेण अप्पेणं ॥ ८३ ॥ संघणेण यत्ती संपण इत्यर्थः अददधिई धितिविरहि तः । ण इति पडिसेहे । खलु अवधाणे । सव्वसो सर्वप्रकारेण अतरः असमर्थः द्विप्रतिषेधः प्रकृतिं गमयति, तरत्येवेत्यर्थः । कहं धितिविरहितोवेतरो भरणति, देहस्सेव उ सगुणी देई सरीरं गुणो उपमा पडिसेहे भज्जति वि सायमुवगच्छति । जेणं यस्मात् कारणात् अप्पेणं स्तोकेनेत्यर्थः। गतो पितियभो । " पडिसेबग वाणि तति ततिधितिसंपमो, पडिण्य कडजोगि वावि सेवए भइतो । एगे पुण तरमाणं तमाहु मूलं धिती जम्हा || ४ || (तति स ) ततियभंगो धितिसंपणो घृतिसंयुक्तः संघयणविरहितः अविसदा किंचि तरति चितिसंपत्वात् । पुग्वद्धस्स से कंटुं । (एगे ति) एगे श्रयरिया पुण विसेसेण (तरमाणं ति) समत्थं तदिति तहयभंगलं. आडुरित उक् वन्तः । कम्हा कारणा तरमाणं भणति भवस्य मूलं घिती जम्हा। कई पुण दुविसंघवन्पत्ती भवति । भरणति सामुदया संघ, पिती तु मोहस्स उसमे होति । तह वि सती संघयणा, जा होति धिती य साहीणे ॥८५॥ णाम इति छुट्टी मूलकम्मपगडी तस्स वायालीसुत्तरभेपसु अट्टमो संघयणभेो णाम, तस्स पुक्खा पुक्लसरीरसकृणं भवति। (पिति त्ति) धितिसंघयणं, मोहो णाम-उत्थी मूलकम्मण्पगडी. तस्स समाधिती भवति । विसेसो चरित्तमोक्खओवसमा । तत्थ विसेस णो कसायच रिमोहणीयओवसमा तत्थ विसेसची अभरमाणगो कज्जति । जर वि भिरणापत्ती कारणाणि तहा वि सति संघयणे सति विज्जमाणे संघयणे ( जा इति ) जारिसी होति घिती ण सा संघयणहीणे भवति । तम्हा तहयभंगो श्र तरमानगो, केमतेणं पुणो तरमाण एव । गओ ततिओ भंगो। इयाणि पडत्यो 1 चरिमो परिणतकडजो-गिताएँ भइऊण सव्वसो अतरो । रातीभविजय - पोरिसिमादीहि जं तरति ॥ ८६ ॥ चरिमो चचत्थनंगो, सेसं पुत्ररूस्त कंठं । जो धितिसरीरसंघयही कह सव्वलो भतरो ण भवति । उच्यते- (रातीपुण भतेत्यादि) जं यस्मात्कारणात् एवमादि प्रत्याख्यानं तरति तम्हा ण सव्वलो अतरो । गओ चउत्यो भंगो । गधो पुरिपरिसेवगो | शनिपुंगि पुरिसपुंसा एमे व होति एमेव होंति इत्थीयो । वरं पुण कप्पठिता, इत्थीवग्गेण कातव्वा ||८|| णपुंसगा दुविहा - इस्थिण पुंखगा य, पुरिसपुंसगा य। इस्थिण पुंगा पचावाजा, जे ते पुरिसणपुंसगा अप्पडिसे. वियोजनाचविधियमंतांसह उचढता विसा देवसत्ता । एते अटा पुरिसा उकस्वगादिचउसु भंगेसु कप्पडियादिविकहिं चिंतिता तहेव चिंतितेयब्वा । इथियाओ विपत्र जिनका तिमो नाम स्त्रीपक्षः। परिसेवगोत्ति दारं गये । नि० चू० १४० । यदाचार्येण वक्तव्यं तदाह वेसकरणं पमाणं, न होइ न इ मज्जणं नऽलंकारो । साइजिएल सेवी, अयमएवं असेवी उ ॥ २०१ ॥ व्य० २ उ० | ( इयं गाथा 4 ओहावण' शब्दे तृतीयनागे १३४ पृष्ठे व्याख्याता ) Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६१) पमिसेवणा अभिधानराजेन्द्रः। पमिसेवगा पडिसेवणा-प्रतिसेवना-स्त्री०। प्रतिसेव्यते इति प्रतिसेवना । ततः प्रतिसेवनाया विशेषतः प्ररूपणामाहप्राधाकोपजननहेतुविशेष, पिं० । तत्र प्रथमतः प्रतिसेवना- पडिसेवणा उभावो,सो पुण कुसलो य होज्जकुसलो वा। स्वरूपं वलम्म, तथाऽपि य श्राधाकर्म स्वयमानीय तुझे स कुसलेण होइ कप्पो, अकुसलपरिणामो दप्पो ॥३६॥ प्राधाकर्मप्रतिसेवी प्रतीत एव । केवलमिह ये परेणोपनीतमा. धाकर्म भुजानस्य न कश्चिद्दोष इति मन्यन्ते तन्मतविकुट्टनार्थ प्रतिसेवना द्विविधा-अध्यरूपा, भावरूपा च । प्रतिसेवनक्रि यायाः कर्तृकर्मगतत्वात् नत्र या तस्य वस्तुनः प्रतिसेव्यमानता परेणोपनीतस्याऽऽधाकर्मणो भोजने प्रतिसेवनादोषमाह सा द्रव्यरूपा प्रतिसेवना । यस्तु जीवस्य तथा प्रतिसेवकत्वपरिअनेणाऽऽहाकम्म, उवणीयं असइ चोइओ भणइ । णामः सा नावरूपा प्रतिसेवना,सब चेह ग्राह्या,परिणामानुरूपरहत्थेणंजारे, कढतो जह न डज्मा हु॥११४॥ पतः प्रायश्चित्तविधिप्रवृत्ते तथा चाऽऽह-(पमिसेवणा उनाएवं खु अहं सुद्धो, दोसो देतस्स कूडउवमाए।। बो) प्रतिसेवमा नाम, तुरेवकारार्थो भिन्नक्रमश्च,भाव एव जीव स्याश्यवसाय एव नान्या। स च भावो द्विधा-कुशलेोऽकुशलसमयत्यमजाणतो, मूढो पडिसेवणं कुणइ ॥११॥ श्व । तत्र कुशलो ज्ञानादिरूपोऽशलोऽधिरत्यादिरूपः,तत्र या अन्येन साधुना भक्ताऽऽदिकमाधाकर्म उपनीतं गृहस्थगृहादा- कुशलेन परिणामेन बाह्यवस्तुप्रतिसेवना,सा कल्पः, पदैकदेशे नीम समर्पित, तद् योऽभाति स प्रतिसेवनां करोतीति संब- पदसमुदायोपचारात्कल्पप्रतिसेवना, कल्पिका इति भावः। घः। स चाधाम नुजानः केनाप्यपरेण साधुना धिग्गहो महे या पुनरकुशलपरिणामतः प्रतिसेवना, सा पंः-पंप्रतिसव. या भवान् विद्वानपि संयतोऽध्याथाकम्मै नजीतेति चोदि- ना, दपिका इत्यर्थः। तो विकिप्तः सन् प्रत्युत्तरं भणति-यथा न मे कश्चिद्दोषः,स्वयं भादकिमेषां त्रयाणामपि परस्परमेकत्वम,अन्यत्वं वा ।उच्यते. ग्रहणस्याभावान ।योहि नाम स्वयमाधाकर्म गृहीत्वा तुझे तस्य उभयमपि । कथमित्यत आहदोषो,यस्तु परेणोपनीतं नुके तस्य न कश्चित् । तथा चात्र दृष्टा. तो यथा-परहस्ते नानारान कर्ष यन्त्र दह्यते,एवमहमयाऽऽधाक नाणी न विणा णाणं, नेयं पुण तेसऽणनमन्नं च । र्मभोजी, (खु। निश्चितं शुद्ध पव,दोषः पुनर्ददतो, यथा परस्य इय दोएहमनाणत्तं, भइयं पुण सेवियव्वेण ॥४०॥ स्वहस्तेनाङ्गारानाकर्षतः, एवं कूटया उपमया, अलीकेन ह. यथा शान बिना अन्तरेण ज्ञानी न नवति, कानपरिणामपटान्तेन, समयाथै भगवत्प्रवचनोपनिषदम् । " जस्सट्टा प्रारं रिणततयैव झानित्यव्यपदेशभावादिति । तयोनिशानिनोरेकभो,पाणिवहो ऐड तस्स नियमेण । पाणिवह वयभंगो, बयभं. त्वम् । (श्य दोपदमनाणतं ति)इति एवं शानिज्ञानगतेन प्रकारेण गे दुम्गई चेच ॥१॥" इत्यादिरूपमजानानोऽत एव मूढः प्रतिसे. द्वयोः प्रतिसेवकप्रतिसेवनयोरनानात्वमेकत्वं, प्रतिसेवनामन्तरेधनं कुरुते । तदेवमुक्तं प्रतिसेवनस्य स्वरूपम् । पिं० । प्रती ण प्रतिसेवकस्याऽप्यनावात् प्रतिसेवनापरिणामपरिणतावेव सेवना प्रतिसेवना। संयमानुष्ठानात प्रतीपसंयमानुष्ठाने, ओ- प्रतिसेवकत्वव्यपदेशप्रवृत्तेः। (यं पुण तेसणसमन्नं च ति) घका प्रतिषिकस्य सेवना प्रतिसेवना। अकल्पसमाचरणे, व्य. पुनःशब्दो विशेषद्योतने । स चामुं विशेष द्योतयति-न ज्ञानका. १२.चारित्रभ्रंशनायाम, वृ०१००३प्रक० । निनोः परस्परमविज्ञेयेनापि सहाय एकत्वं,किं तु केयं, तयोहानप्रतिसेवनाभेदाः-- झानिनोरनन्धत्। तथाहि-यदाज्ञानी प्रास्मालम्बनकानपरिणा मपरिणतस्तदा ज्ञानज्ञानिनोरेकत्वं, यदा बाऽऽरमव्यतिरिक्तघटा. पडिसेवो य पडिसे-वणा य पडिसेवियव्वयं चेव । द्यासम्बनशानपरिणामपरिणतस्तदा इस्वमात्मनो घटाऽऽदीनामएएसिं तु पयाणं, पत्तेयपरूवणं वृच्छं ।। ३७॥ न्यत्वात्,झानमपि यहाऽभिनियोधिकाऽऽविस्वरूपाऽऽसम्बनं सदा प्रतिषि सेवते इति प्रतिषेवकः, प्रतिसेवनक्रियाकारी । चः झानशेययोरेकत्वम्, यदा तु स्वव्यतिरिक्तघटाऽऽद्यासम्बनं तदाऽ. सनुचये । प्रतिसेवना प्रकल्प्य समाचरणम् । प्रतिसेवितव्यमा न्यत्वं घटाऽऽदीनां ज्ञानात् मूर्तामूलतया पृथग देशाऽऽदितया च कल्पनीयम् । एतेषां त्रयाणामपि पदानां प्रत्येकं प्ररूपणां वदये। निन्नत्वात् (भइयं पुण सेवियम्वेण इति)अत्रापि इतीत्यनुवर्तते, प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति इति उक्तेन प्रकारेण प्रतिसेवकप्रतिसेवनयोरनानात्वं भक्तं विका पडिसेवओं सेवंतो, पडिसेवण मूल उत्तरगुणे य । ल्पितं पुनर्नानात्वं सेवितव्येन प्रतिसेवितव्येन,कदाचिदनानास्वं, कदाचिन्नानास्वमित्यर्थः। तथाहि-यदा प्रतिसवको हस्तका. पडिसेबियन दवं, रूवि व सिया अरूवि व्व ॥३८॥ दि प्रतिसेवते तदा प्रतिसेवकप्रतिसवितव्ययोरेकत्वमित्यर्थः, प्रतिसेवको नामाकलप्यं सेवमानः, प्रतिभवना अकल्प्यसमाच यदा पुनःप्रथमतया कीटकाऽऽदिसवब्यापादनाऽऽदि प्रतिसेवते रणम्। सा च द्विधा--(मूल उत्तरगुणे य इति) गुणशब्दः प्रत्ये तदा नानास्वं कीट का दिसत्वानां साधोः पृथग्भूतत्वात्प्रतिसेकमपि संबध्यते । मूलगुणविषया, उत्तरगुणविषयाचा यश्च कार्य वनात यदा प्रतिसेव्यमानता तदा सा प्रतिसेवितव्यादनम्यवेति समाचर्यमाणं मूत्रगुणप्रतिघाति,उत्सरगुणप्रतिघाति बा तत्प्रति प्रतिसेवनाप्रतिसेवितव्ययोरेकस्वनानात्वचिन्ता नोपपद्यते । अथ सिवितव्यम्। तच द्रव्यं, पर्यायो वा। तत्र पर्याया द्रव्य एवान्तर्नु प्रतिसेवनाप्रतिसेवकस्याध्यवसाया, स तर्हि यदात्मव्यापादनताविवक्षिताः,भेदाभावादिति व्यं ब्यमातथा चाऽऽह-द्रव्यं विषयस्तदा प्रतिसेवकत्वं, यदा तु बाह्यरूयादिप्रतिसेवनावि- । सब स्यात कदाचिपि प्राधाकऽऽद्योइनाऽऽदिवा विकरपे, षयः तदा नानात्यम, स्यादेः प्रतिसेव कादन्यस्वात् । अरुपि बा अाकाशाऽऽदि.तदपि हि मृपावादाऽऽदिधिषयतया | संप्रति यत्प्राक् मूनोत्तरगुणविषयतया प्रतिसेवनाया वैविध्यनवति कदाचित्प्रतिसेवनीयम्, इह प्रतिसेवनामन्तरेण न प्रति. मुक्तं तद्विभायिषुराहसेयकस्य सिमिः, नापि प्रतिसेवनीयस्य। मूलगुण उत्तरगुणे, दुविहा पडिसेवणा समासेणं । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडि सेवणा - मूलगुणे पंचविहा, पिंडविसोहाऽऽइया इयरा ॥ ४१ ॥ प्रतिसेवना समासेन संकेपेण द्विविधा । तद्यथा मूलगुणविष तब मूलगुणविषय पचविप्राणानि पातमृषावादादत्ताऽऽदानमै धुनपरिग्रहरूपा । इतरा उत्तरगुणविषाशुद्ध्यादिविषया अनेकविधा । अत्रादिशब्दा स्वमित्यादिपरिग्रहः । किमुक्तं जवति ? -मूत्रगुणेषु प्राणातिपातविरत्यादिषु, उत्तरगुणषु पिण्कविशुद्ध्यादिषु यथाक्रमं प्रतिसे धना प्राणातिपाताऽऽदिलक्षणा पञ्चावधा । श्रधाकम्मोपभो गानिका अनेकविधेति । तत्र मूलगुणप्रतिसेवना संरम्भा दिनेशभित्र उत्तरगुणातिक्रमादितः । (२२) अभिधानराजेन्द्रः । तथा चाऽऽद्द साक - कमे य अइयारे तह अरणायारे । सारंभ समारम्भे, आरंभ रागदोसाऽऽदी || ४२ ॥ 39 सा उत्तरगुणप्रतिसेवना पुनरतिकमे, व्युत्क्रमे, श्रतीचारे, तथा धना भवति गुणप्रतिसेवना अतिक्रम दिवमूलनासंरम्भे समारम्भ, आरम्भे खकारेति भावार्थः । नेच संभायो रागद्वेषाऽऽदितः । रागतो, द्वेषतः, आदिशब्दादज्ञानतश्च । तत्र रामतो यथा चिलातीपुत्रस्य सुसुमाबधः। द्वेषतो यथा सत्यकें द्वैपायनव्यापादनम् । अज्ञानतो ब्राह्मणाऽऽदीगादिः नतु "वयोद्देशस्तथा निर्देश इति प्रथ मोगुणाचातरगुणप्रति सेवना । अत्र तु विपर्यय इति कथम १, उच्यते--इड प्रायः प्रथम सः किला उपाध्यवसायः स तृषा गुणप्रति कुरुते । पश्चादनिशिया नामशिष्यापना विपर्ययेणोपन्यास इत्यदोषः । व्य० १ ० १ प्रक० । मूलगुणे पञ्च प्रतिसेवनाः, अनाचारे चतुर्मास लघु । मूलगुणे पञ्चविधा प्रतिसेवनेति यदुक्तं, तत्र पञ्चविधत्वं दर्शयति पाणिवह मुसावा, दत्ते मेहुण परिग्गहे चैव । मूलगुणे पंविहा, परूवणा तस्सिमा होड़ || ४५|| " व्य० १ ० १ प्रक० । ( ' मूत्रगुणपरिसेवणा ' शब्दे व्याख्या) साम्प्रतमस्यामेव सा पुण अतिक्रमेत्यादिकाय गाथाय यद् मूलांचर गुणप्रतिसेवन यो पिये येणे वन्य सनमकारि, तत्र 'कारणमा केपपुरस्सरमुपन्यस्यन्नाहः चोes किमुत्तरगुणा, पुत्रं बहु थोव लहुयं च । अति मूलगुणे सेविते पच्छा || ११ || चोदयात प्रश्न शिष्यो, यथा-किमुत्तरगुणा उत्तरगुणप्र तिसेवनगरीमुक्ता ?, "यथोद्देशं निर्देशः" इति न्यायाकि पूर्व मूलगुरु पविना कुमुचितेति जाव । अत्रोत्तरमाह-बहन उ तरगुणाः स्तोका गुणा तथा लघु शीघ्रम, उत्तरगुणानां सेवकः प्रतिसेवनःश्चात् मूलगुणान्ले घते प्रतिसेव प्रायश्चि विशुद्ध मनसो यच्छत प्रायश्चि समिति, कदाचित्सेवनात तथाऽपराधे कबका भवन्ति समातिमय प्रायश्विचमिति । तं मुखत्रया.. गुरुमन्त तत्र ययोपचारराः प्रतिसेवनाप्रायश्चितमुच्यते, तपाइ पडिसेवियम्मि दिज, पछि इहरहा उ पडिसेहो । ते पडिसेवण च्चिय, पच्छित्तं तं चिमं दसहा || ५२ || प्रतिसेविते प्रतिषिद्धसेविते यस्मात् प्रायश्चित्तं दीयते, इतरथा प्रतिषिद्या वनमन्तरेण प्रतिषेधः प्रायश्चित्तम्य ततः प्रतिसेवना प्रायश्वितस्य निर्मितमिति कारणे कार्योपचाराद प्रतिसेवमेव प्रायश्चित्तम् । व्य० १ ० १ प्रक० । तत्र प्रतिसेवनायाख्यानार्थमाद पडिसेवया - मूलुत्तर पडिसेवा, मूले पंचविह उत्तरे दसहा । एकेका वि यदुविहा. दप्पे कप्पे य नायव्या ॥ ३० ॥ प्रतिसेवा नाम प्रतिसेवनासा च दिया (सरल) "देकदेशे पदसमुदायेोपचारात गुणातिचारप्रनिसेवना उत्तरगुणा तिचारप्रतिसेवना च । तत्र ( मूले पंचविहति ) मूर्त मूलगुणातिचारप्रति सेवना पञ्चविधा पञ्चप्रकारा, मूलगुणातिचा. प्राणनिपातादवित्। उतरे उत्तराि चारप्रतिसेवना दशधा दशप्रकारा, उत्तरगुणानां दशविधतया दतियामपि दशविधा उत्तराद शविधं प्रत्याख्यानम् । तद्यथा अनागतमतिक्रान्तं कोटीसहितं नियन्त्रितम् । साकारमनाकारं, परिमाणकृतं निरवशेष सांकेतिकमा प्रत्याख्यानं च । अथवा इमे दशविधा उत्तरगुणाः । तथापि एक विशोधिरेक उत्तरगुणः, पञ्च समितयः । पञ्च उतरगुणाः । एवं तयोर्बाह्यं षष्ठं भेदं सप्तम उत्तरगुणः, अभ्यन्त पदमष्टमः, मिक्षुप्रतिमा द्वादश नवमः, अभिग्रहा व्यक्षेत्रकाल नावनेदभिन्ना दशमः । एतेषु दशविधेषू नरगुणेषु याऽतिचारप्रतिसेवना क्रियते सा दर्पिका, या पुनः कारणे सा कहिपका । अत्र शिक्षः पृि किह भिक्खू जयमाणो आवज मासिये तु परिहारं । कंटगप च छलणा, भिक्खू वि तहा विहरमाणो ॥ ३६ ॥ केनप्रकारे विमान सुनाया प्रयत्न मासिकं परिहारं प्रायश्वि नया सर्वत्र प्रवृतेरिति भावः । श्रावार्य आह - ( कंटगेत्यादि ) कण्टकाकीर्णः पन्थाः कण्टकपथस्तस्मिन्नित्र यतनयाऽपि व र्तमानस्य कलना व हिरन्यतमाना मासिकमा प्रस्थानमिति । 91 अन दृष्टान्तान्तरमाह तिक्खम्म उदगवेगे, विसमम्मि विज्जलम्मि वच्चतो । कुणमाणो विपत्तं अवसो जह पावर पदर्थ ||४०|| तशी उदकवे करये यदि याविषय अतिदुर्गमे विज्ञले समस्थाने प्रजन् पुरुषः कुर्वप्रिय नमो यथा प्राप्नोति पतनम् । इह समसुविहियाणं. सम्वपयत्तेस वी जयंताखं । कम्मोदयपव्वइया, विराहणा कस्स इ हवेजा ॥ ४१ ॥ घमणा विचारणं शक्याऽऽ. दयोऽपि च ततस्तद्व्यवच्छेदार्थ सुविद्दितग्रहणं, शोभनं वि. हिमनुष्ठानं येषां ते धमसरुन्देन सद विशेषण समासः | तथा--प्रागुक्तप्रान्तप्रकारेण श्रमणसुत्रि Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६३) पडिसेवणा अभिधानराजेन्दः । पमिसेवगा हितानां सर्वप्रयत्नेन सर्वाऽऽत्मना स्वशक्त्यनलिक्रमेण । अपि व्याघातो भवेत् । अनालोचिते यदि म्रियते ततो दीघसंसा. शब्दो भिन्नक्रमः,म चै योजनीयः-यतमानानामपि मध्ये कस्या री भवति। ऽपि कर्मोदय प्रत्ययिका कर्मोदय हेतुका विराधना भवेत् । सन एव न भरायने. श्राह-किमेकाम्तेनैव प्रतिसेवना कर्मोदयप्रत्ययिका,उतान्योऽ तं न खमं खुपमातो*, मुहत्तमांव श्रासि ससल्लेणं । पिकश्चित्प्रकारः प्रतिसेवनाया अस्ति?। उच्यते-अस्तीति बूमः।। आयरियपादमूले, गंतूण समुद्धरे सल्लं ॥ ४६॥ तथा चाऽऽह यस्मादचिन्तितः पतति जीवितस्य व्याघातः, अनालोचितेच अनावि हु पडिसेवा, साउन कम्मोदएण जा जयतो। मृतस्य दीर्धसमारिता, तस्मात् (पमातो इति) अत्र दकार स्य लोपः प्राकृतत्वात् । प्रमाद वशेन मशल्येनानीचारश. सा कम्मक्खयकरणी, दप्पाजयकम्मजणणी उ ॥४२॥ स्ययुक्तेन मुहूर्तमप्यालितुं न मम । स्वयु निश्वितं कृत्वाकर्मोदय हेतुका या प्रतिसेवना सा तावदेकाऽस्येव, किं स्व उचार्यपादमूले गत्वा प्रासोचनाविधानेन प्रायश्चित्ततिप.. म्याऽपि कर्मोदय हे तुकाया व्यतिरिक्ताऽपि प्रति सेवा प्रति स्या शख्यमतीचाररूपं समुद्धति विशोधयेत् । सेवनाऽस्ति । ( सा च न कम्मोदएणं ति ) तुशब्दो ऽव्ययत्वे. यस्मातनानेकार्थत्वात् हेतौ । ततोऽयमय:-यतः सान्या प्रतिसेवना ल्लो, जह भणियं सासणे जिणवराणं। न कमोद येन कर्मोदयहेतुका, कमोद यहेतुकत्वे अन्यथा यो उद्धरियसव्वसल्लो, सुज्झइ जीवो धुयकिलेसो॥४७॥ गात् । सा च कारणे, तत्राऽपि यतनया एव्या। तत्र या यथा भणितं जिनवराणां जगवतामईतां शासने तथा झाकारण (जयतो त्ति) यतमानस्य प्रतिसेवना सा कर्मवयक यते, जिनवचनतो ज्ञायते इत्यर्थः । (न हु ) नैव, सशस्यो. रगी-कर्मवयः क्रियतेऽनयेति कर्मवयकरिणी, करण अनद। तीचारशल्यपरिकल्पितस्तपश्चरणादिकं प्रनूतमपि कुर्वन शु. सा हि नाचशस्य सतः कम्मोदयहेतुका, किंतु सूत्रोक्तनी उधति । " अविसुद्धस्स न बक, गुणसेढी तत्तिया ठा।" त्या कारणे यतनया यतमानस्य ततस्तत्रााषिराधनात् सा कर्मक्कयकारिणी । या पुनः प्रतिसेवना दर्पण, या च क इति वचनात् । कि त ?.उद्धृतसर्वशल्यः सन् तपश्चरणाऽऽदि लपेऽव्ययतनया सा कर्म जननी । तथा चाssE-(हप्पा जयक भावतो धुतक्लेशोऽपगमितसमस्तकर्मजालो जीवः शुरुयति मुम्म जगणी उ)या दर्पण कारणेऽपि चायतमानस्य प्रति सेवा क. ताऽऽत्मा भवतीति । व्य० १०२ प्रक। प्रतिसेवकस्य प्रायश्चित्तम्-सीसो पुच्छति-पयं, पुण में जन्यते अन या कर्मजननी । तदेवं यतो दर्पण कल्प्ये ऽपि चायतनया प्रतिसेवना कमजननी। तत इदं सिद्धम् परिवतं किं पुण पमिसेविणो, अपरिसेविणो जइ पमि सेविणो तो जुत्तं, अह अपमिसेविणो तो सच्चे साह पडिसेवणा उ कम्मो-दएण कम्ममवि तन्निमित्तागं ।। सपायचित्ता, सपायचित्तिणो य चरणअसुद्धतं, चरणाअन्नोन्नहेउसिद्धी, केसि वीयंकुराणं व ॥ ४३ ॥ सुद्धी श्री य अमोक्खो, दिक्खादि णिरत्थया । प्रतिसेवना कमोदयेन । किमुकं भवति?-प्रतिसेवनाया हेतुः गुरू भणइ.. कमोदयः,कर्माऽपि च तन्निमित्त प्रतिसेवनानिमित्तकम् , क- तं अइपसंगदोसा, णिसेवतो होति ण तु असेविस्स । मणोऽपि हेतुः प्रतिसेवना इति नावः। एवं तेषां प्रतिसेव. पडिसेवए य सिद्धे, कत्तादि व सिज्झए तितयं । ७२॥ नाकर्मणामन्योन्यं परस्परं हेतुमिहिः हेतुभावमितिः । तदिति पूर्वप्रकृतापेकं अति अत्यर्थः । प्रसङ्गो नामकेषामिव परस्परं हेतुभावसिकिरित्यत पाह-वीजाकुरयो. अवशस्यानिष्प्राप्तिः । जस्स अपमिसेवंतस्स पछि रिव, गाथायां द्वित्वेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात् । तथा तस्सेसो अतिप्पसंगदोसो जवति । वयं पुण णिमे - बीजमरस्य हेतुरङ्करोऽपि च वीजस्थ हेतुरित्यनयोः वतो इच्छामो णो अणि सेवन ॥ सहवा-तं पच्छित्तं, परस्पर देतुभावः, तथा कर्मप्रतिसेवनयोरपि । अति अरुचत्थे,पसंगो पाणादिवायाऽऽदिसु, सिजति जेण स दिवा खलु पडिसेवा, सा उ कहं हुज पुच्छिए एवं । दोलो, अतिपसंग एव दोसो अतिपसंगदोसो, तेण अं. भामइ अंतोवस्सऍ, बाहिं व वियारमादीसुं ।। ४४ ॥ तिपसंगदोसेण दुट्ठो णिलेबति त्ति, आचरतीत्यर्थः ।। र चक्षुरादिप्रत्यकतः स्वस्थ स्वसंवेदनप्रत्यक्केण दृष्टा होति जवति, प्रायश्चित्तमिति वाक्यशेषः। ण पडिसेहे, तु.. स्त्रनु प्रतिमेचा सातु केत्रतः क्व भवेत् इति एवममुना प्रका अवधारणे, असे विस्स प्रणाचरतः, तुरुद्दोऽवधारणे अपमिलेरंण पृणे ससि भायते नत्तरं दीयते । अन्तः मध्ये नपाश्रये वणो न भवत्येव, पमिसेविणो विनिच्छियं भवति जो य उपाश्रयस्य, बहिया विचाराऽऽदिषु विचाराऽऽदिनिमित्तं ब. सो पडिसवति सो य पमिसेवगो, तम्मि सिके पमिसेवणा, हिनियंतस्थ उपलकणमेतत् । तेन कालतः प्रश्ने दिवा रात्री वा, पमिसवितवं च सिकं भवति । स्याम्मतिः कई पुण पमिसेजावत: प्रश्न दर्पण कल्पेन इत्यपि वक्तव्यमिति । वगसिद्धीओ पडिसेवणा पडिसेवियब्बा, गण सिद्धी, पत्थ दि. तो भाति-कत्तादि व सिज्झतेत्ति तितयं जा करेति सोक. पडिसेविएँ दप्पणं, कप्पणं वा वि अजयणाए उ । ता, कत्ता श्रादी जेसिं ताणिमाणि कत्तादणि । ताणि य कन विणजइ वाघातो, कं वेलं होज जीवस्स ।। ४५ ॥ रणकज्जाणि जहा कत्तरि सिद्ध कत्ता करणं कजारिण सि. दर्पण कल्प्येनाप्य यतनया प्रतिसंवित मासिकाऽऽदिकमतीचा. द्वाणि नवंति । कदं?, उच्यते-स कत्ता तकरणेहिं पयतं कुर्वारं प्राप्तेन संगमुपगच्चता आलोचना प्रयोक्तव्या । एतच चि. णो तत्थं कजमजिणिप्पायति, इव प्रोवम्मे, एवं जहा प. न्तयितव्यं, नाऽपि नैवं ज्ञायते-कां वेलां कस्यां वेलायां व्या. किसेवणाए पडिमेवियम्वेगा य पडिसेबगो जवति, तम्सि. घातो, 'जीव' प्राणाधारणे, जीवनं जीवस्तस्य, जीवितस्येत्यर्थः। *पमादतो' इन्यस्य स्थाने प्राकृत्वात् । पमावो।' Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६४) पमिसेवगा अनिधानराजेन्द्रः। पमिसेवणा कीओ ताणि विसिकाणि । एवं सिझते तितयं ति । तितयं | दप्पणं जं पडिसेवति तं मूलगुणा वा उत्सरगुणा वा, कारणे णाम पमिसेवगाऽऽदि। वि जं पडिसेवति तं पडिसेवियव्वं । तं चिमं गाहापच्छद्धण गहियं । नि०चू०१ उ० (पूर्वगताऽदिश्रुतनिषिद्धवस्तूनां सा. तं चिम धोर्यद्विधा प्रतिसेवा भवति तद्विधा प्रतिसेवा 'सहसकारपपडिसेवतो तु पडिसे-वणा य पडिसेवियव्वयं चेव । डिसेवणा' शब्दे वक्ष्यते) (मूलगुणप्रतिसेवनायाः सर्वोऽपि एतोसं तिएहं वी, पत्तेय परूवण वोच्छं । ७३ ॥ विषयः 'मूलगुणपडिसेबरणा' शब्दे वच्यते) पत्तेयमिति-पुढो पुढो पगरिसेण कषणं परवणं, स्वरूपकथ- दाणि उत्तरगुणपडिसेवणा भरणति ते उत्तरगुणा पिंडममित्यर्थः। सेसं कं । नि० चू० १ ३० । विसोहादि अणेगविहा, तत्थ पिंडे ताव दप्पियं, कप्पियं च प्रतिसेवना भएयते पडिसेवणं भरणति । एवं पमिसेवणसिको पडिसेवगपमिसेवियब्याण वि तत्थ दप्पिया इमेहिं दारेहिं अणुगंतव्वामिद्ध।। एवं निसु बि सिकेसु चोदक आह-भगवं । जहा पिंडे उग्गम उप्पा-यणसण संजोयणा पमाणे य । घमाऽऽदिवत्यूशुपत्तिकाले कत्ताकरणकज्जा रामश्चतं भिषा इंगालधूमकारणे, अहविहा पिंडणिज्जुत्ती ॥ ४५६ ॥ सादीसति, किमिह पडिसेबगपमिसेवणापमिसेवियव्याणं निया भष्मति। पावग पाह-सिया एगतं, सिय मम। एताए गाहाए वक्खाणं विदेसणिमित्तं भरणति । कहं भमति पिंडस्स परूवणता, पच्छित्तं चेव जत्थ जं होति । माणी ण विणा गाणं, णेयं पुण तेसज्णयममं वा । श्राहारोवधिसे जा, एक्केकं अट ठाणाई ।। ४५७ ॥ इय दोगह अणाणनं, भइतं पुण सेवितब्धणं ।। ७५ ॥ पिंडस्स परूवणा असेसा जहा पिंडणिज्जुत्तीए तहा का. यव्वा, पच्छित्तं च जत्थ जत्थ अवराहे जं जं जहा कप्पपेढिशानमस्यास्तीति ज्ञानी.ण इति पमिसे हे, विना ऋते,अभाचा. याए वक्खमाणं तहा दट्ठव्वं । श्राहारोत्ति । एस आहारपिदित्यर्थः । ज्ञायते अनेनेति ज्ञान,झानी झानमन्तरेण न भवत्येवे. डो एवं अट्ठहिं दारेहिं वक्खाणितो, एवं उवहीए सेज्जाए स्यर्थः । ज्ञायते इति शेय,ज्ञानविषये इत्यर्थः.पुण विसेसणे । किं पक्केवं अट्ठ उग्गमादिदारा दट्टब्वा । विसेसयति ,भतेसाणायाममं वा तेषामिति शानिज्ञानयोः प्र " उवहिएँ उग्गम उप्पा-यणेसण संजोयणा पमाणे य । णाणं, अभिम, अपृयागत्यर्थः । अभ्यं जिाणं, पृथगित्यर्थः, वा इंगालधूमकारण, अट्टविहा उवहिणिज्जुत्ती ॥१॥ पूरणे, समुच्चये वा । चोयग आह -कह?,उच्यते जया णाणी णा. साझाएँ उग्गमउप्पा-यणसणे य संजोयणा पमाणे य । गेण गाणादियाणं पज्जाए चिंतति, तदा तिएह वि एगत्तं ध इंगालधूमकारणे, अट्ठविहा सेजणिज्जुत्ती ॥२॥" म्माऽऽदिपर मज्जायचिंतणे अम्मतं । अहवा भिसे वाणेये उव. एस दप्पियापडिसेवणा गता। उत्तस्स नवयोगा अपमं णेयं, अणुव उत्तस्स अनं । एष दु. इदाणी कप्पिया भएणतिधान्तः। श्याणि नियोजना-श्य एवं (दोपहं ति)पडिसेवगपडिसे असिवे प्रोमोदरिए, रायडुढे भए व गेलम्मे । धणाणं वाणा भावो णाणतं, न णाणसं अणाणत. एगत्तमि अहाण रोधए वा, कप्पिय तीसू वि जयणाए ॥४५८।। ति बुत्तं भवति । भश्यं नज-सिय एगसं, सिय अपणतंति वुत्तं नवति । पुण ति सद्दोऽवधारणात्थे, सेवियध्वं णा असिवं उद्दाइयाए अभिद्दुतं, श्रोमं दुभिषखं, राया वा म-ज उवनुज्जति, तेण य सह पमिसेवगपमिसेवणाण य दुट्ठो, बोहिगादिभएण वा णट्ठा, गिलाणस्स वा, श्रद्धाणएग भयणिज्जं । कहं । उच्यते-जदा करकम्मं करोति तदा पडिवरणगा वा, णगरादिउवरोहे वा ठिता, (तीसू वित्ति) तिगह बि एगतं, जदा बाहिरवन्धु पलंवति पमिसेवति आहारउवहिसे जासु (जयणाए इति)पणगहाणीप जाव चउतदा अणतं । अहवा जे पमिसवति भावपरिणते गुरुपण विगेरहमाणाण कप्पिया पडिसेवणा भवतीत्यर्थः । पगतं, जे पुण णो सेवति तम्मि अपरिणयत्तानो प्राणतं । चोदग आह-मूलगुण उत्तरगुरणेसु पुव्वं पडिसेहो भणितो, समासतोऽभिहियं पडिसेवगादि ततियसरुवस्स वित्थरणि ततो पच्छा कारणे पडिसेहस्सेव अणुमा भणिता, तो जा मित्तं णिक्खेवणाविरणासो कजति । नि०चू०१ उ०। (दश अणुमा सा किमंग तेण सेवणिज्जा उत नेति । विधा दर्पप्रतिसेवना, चतुर्विशतिविधा कल्पिकाप्रतिसेवना. आयरिय पाह'ववहार' शब्दे वक्ष्यते) कारणे पडिसेवा विय, सावज्जा णिच्छए अकरणिज्जा । इदाणि पडिसेवणेति दारं बहुसो विचारइत्ता, अधारणिजेसु अत्थेसु ॥४५६।। दप्पे सकारणम्मि य, दुविधा पडिसेवणा समासेणं। कारणं असिवाऽऽदी, तम्मि असिवाऽऽदिकारणे पत्ते जा कारणपडिसेवा सा सावजा णाम बंधात्मिका,सा णिच्छपण एक्केका वि य दुविधा, मूलगुणे उत्तरगुणे य ॥८॥ श्रकरणिज्जा,णिच्छोणाम परमार्थः। परमत्थोश्रकरणाया तत्थ वयणं-“पडिसेवण मूल-उत्तरगुणे यत्ति।" सा पडि- सा, अविशब्दात् किमंग!पुण अकारणपडिसेवाए जं श्रायरिसेवणा दुविहा-दप्पे, सकारणम्मि य । दप्प इति जो अणेग- पणाभिहिए । चोदगाह-जा सा अणुमा पडिसेवा णिच्छचायामजोरगं वग्गणादिकिरियं करेति णिकारणे स दप्पो।। पण अकरणिजा तो तीए अणुसं प्रति नैरर्थक्यं प्राप्नोति । (सकारणम्मि य त्तिणाणदंसणाणि अहिकिञ्चसंजमादिजो. | आचार्य श्राह-ण नैरर्थक्यं । कह?,भ-मति-बहुसो पच्छद्धं । बहुगेसु य असरमाणे सुपडिसवति सो कप्पो (समासेणं)संखेचे- । सो अणेगसी वियायारत्ता वियारऊण अप्पबहुत्त. अधार या एकेका वि त्ति वीप्ता । दपिया दुविहा कपिया दुर्भया, गिजेसु अत्थेसु प्रवर्तितव्यमित्यर्थः। अहवा-धारिज्जतीति Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६५ ) अभिधानराजेन् पडि सेवा धारणा के भनि अत्था, ते व गाणदंसणचरिता तेसु अधारणिजे पत्ते अप्पय बहुसा विचारता प्रवर्तितव्यमित्यर्थः । पुनरप्याह चोदकः णाणकप्पियाए परिसेवं असा असेतस्व श्राणाभंगो भवति । श्राचार्य श्राह जति विय समणुमाता, तह वि य दोसो वज दिट्ठो । दधम्मता हु एवं गाभिक्खणिसेब खियता ॥ ४६० ॥ जइ वि श्रकप्पियपडिसेवणा श्रणुमाता, तहा वि वज्जणे आणाभंगदासो न भवतीत्यर्थः । अणुशाय अतिस्स जं चान्यो गुणे। दधम्मया पच्छ व भक्षणदोसा भवंति ण य जीवेस विद्या भवति, तम्हा कविषय डिसेवा वि सहसा नेव णो पडिसेवेज्जा । सा पुरा कतमेसु परिसेवियर कण्पिया पढिसेवा भवति । भवति गाहा जे सुचे अवराहा. परिबुट्टा ओओ य सुत्थे । कति कपियपदे, मूलगुणे उत्तरगुणे य ||४६१॥ "जे सुत्ते श्रवराहा पडिकुट्ठा" अस्य व्याख्याहत्थादि वायतं, सुत्तं श्रहो तु पढिया होति । विधिसुत्तं वा ओहो, जं वा आहे समोतरति ।। ४६२ ॥ " जे भिक्खू हत्थकम् करेति, करेतं वा सातिजति।" एयं हत्थकम्मसुतं भरत । एयं सुतं यदि काउं जाव एगुणवीसमस्य अंते वाया पते सुने जं पडि सिद्धं । श्रतो य सुत्तत्थे ति ।" अस्य व्याख्या - श्रहतो पे दिया होति । श्रहो णिलीहपेढिया, तत्थ जे गाहासुतेण वा श्रत्थेण वा श्रत्था पडिसेहिता । श्रहवा विहिसुत्तं श्रहो भस तितं व सामरवादिविधियति तत्थ जे अत्था पि सिद्धा । श्रहवा जं वा ओहे समोतरह सो श्रहो भवति । उरसग्गो ओहो ति बुतं भवति तत्थ स कालिय परति तं स ओहो भगति एयम्मिसु तेरा वा श्रत्थे वा पडिकुट्ठा शिवारिया इत्यर्थः ति कप्पियापदे, वायपदे इत्यर्थः । अथवा ते मूलगुणा वा उत्तरगुणा वा | दप्पण समास खाणं मणि । दाणि सभेया भरणंति । तत्थ दप्पो ताव दप्प अप्प गिरालं-व वियत्ते अप्पसत्थे वसत्थे । अपरिच्छि अकडनोगी, अागुताची य विस्संके |४६३। एवं गाहा समोयरिजति । श्रवाऽन्येन प्रकारेणावतारः-दपिया कणिवा पडिवणा भणति प्रकारेण दष्यकप्पवेलाविभागो भवति । नि०० १४० ("बायाम" ४६४ इत्यादिका दर्पविषया गाथा 'दप्य' शब्दे चतुर्थमा २४५५ पृठे गता) अकप्पो ति दारं कायापच्छदं । काय नि पुढवादी, परिपाकरैति ते या काहि हत्यत्तादी संस ट्ठा, झ त्यहि अपरिहिं भिक्खं गेरहाते, जहा-उदउल्ला ससाणेद्धा स सरकखेत्यादि, एस कप्पो भरणाते । जं वा श्रगीयत्थेण श्राहारउवहिसेजादी उत्पादियं तं परिभुंजं तस्त अप्यो भवति । श्रकप्पो गओ । " निरालंबत्ति ।" अस्य व्याख्या - सालम्ब सेवापरिज्ञाने सति परिसेवा निरालम्ब सेवनाऽवबोधो भवतीति कृत्वा सालम्यसेवा पूर्व व्याख्यायते संसारगङ्गपडितो. खाणार अचलचि समारुहति । मोक्ख तडं जध पुरिसो, वल्लिविताणेण विसमाओ । ४६५ । संखारो गति, गड़ा बड़ा दबे अगडादिभाषे सं सार एक गड़ा संसारगडा, ताए पडितो नाग अवलंबि समुत्तरति । आदिग्गहणतो देखा परिना समारुदति त उत्तरतीत्यर्थः । ( मोक्खो त्ति) कृत्स्नकर्मक्षयात् मोक्षः, तड तीरं जहा जेण पगारे (वलि न्ति) को संववल्लिमादी. वियां णाम श्रणे गाणं संधाता । श्रहवा वल्लिरेव वियाणं, वित एखत इति विषाणं तेरा शिचितास जहा पुरिसो बिसमाओ सच्यं समुत्तरति वहाणादि संसारगडातो मो तई उत्तरतीत्यर्थः । ताण नागादीणि अवलंबिर्ड प्रति जती भन्नति गाणादी परिबुड्डी, भविस्सति मे य सेवतो वितियं । तेसिं पडा, सालवणिसेवा एसा ||४६६।। गाणदंसण वरताण बुट्टी फासी भविस्मत्ति में तो ि वाणादी संघणट्ठा, संघणा खास महणं गुणनं श्रतो सेवनादित्यर्थः चितियं वा तं सेवति एवासाबसेवना भवतीत्यर्थः । शिकारपडिया, अपसस्थालंत्रणा व जा सेवा । अनुगे विवरिथ को दोसो वा गिरालंवा ॥४६॥ श्रकारणे चैव पडिसेबति एसा निरालंबा । श्रप्पसत्थं या आवले कार्ड परिपनि एला यि गिराया। कि पुलं अमुवि परि थे, अहं आवरामि को खति वायणि आपति जहर गंड जिला वा परिपत् दोसातत्य को लिया, एवमादेवा विलंब संवत्यर्थः । "शिवसेतिगर्त ।" दाशिवियति दारं सेवितं तु वितियं गेलम्बाइ असंयतेां । हो वि पुणो तं चिप वित्तको सेतो ॥४६८ || जं वितियपदेण श्रववायपदेश सिसेवितं गिलाणादिकारपुणे। तं बेच हट्टो समत्यो वि सर्वतो पिसकियो भवति । कियं करणजं व्यकं त्वं न सभवति त्यक्क कृत्यः त्यक्तचारित्र इत्यर्थः “वियत्ते त्ति गतं । " " इयाणिं श्रपत्थे "त्ति दारं । श्रप्यसत्यभावेण पडिसे. वति त्ति वृत्तं भवति, जहा बलवनस्वहेतु, फापभोई बिथो किं पुरा जो अशिसेवते पम्पमादिडा ।। ४६६ ॥ बलं मम भविस्सति ति मंसरसमादि श्राहारेति, सरीरस्स वा वरणा भविस्सतीति य तानि पाणं करेति, बलवरणेहिं रूवं भवतीति एतान्येवाऽऽहारयति । हेऊ कारणं. फासुगपजी अवि पत्यसंभावणे, कि संभावयति स वि ताव फागभाई असत्यपाडेतेवी भवति किं पुण प Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिसेवगा अनिधानराजेन्द्रः। पडिसेवगा सद्ध अविसुद्धं श्राहारं कम्मादी वरणो, आदिग्गहणातो __णाणादियं बालंबणं अवलंबमाणो सालंबो भरणति, तं परूववन्नाश्रो घेप्पंति । अप्पसत्थेति गतं । सत्थमालंबणं अवलंबमाणो सालंबो भरणाते। तं पसत्थमाइदानी वीसत्थति दारं लंबणं श्रालंबिऊण सावज णिसेविऊण णाणुतप्पति पच्छा, सेवंतो तु अकिञ्च, लोए लोउत्तरम्मि वि विरुद्ध । सालंबपदं सुद्धं,सालंबित्वात् अणाणुतावी पदं असुद्धं अपश्चापरपक्खे सपक्खे वा, वसित्या सेवणमलजे ॥४७॥ त्तापित्वात्, एवं अम्माण वि पदाणं सुद्धासुद्धाण मीसा पडि. सेवंतो प्रतिसेवतो अकिञ्च पाणाऽऽदि वायाऽऽदि ।अदया सेवा भवतीत्यर्थः । जं वा अन्नतरपमाएण पडिसेवितं तं अकिच्चं ज लोकलोउत्तरविरुद्धं, तं पडिसेवंतो सपक्खपर- पच्छाणुतावजुत्तस्स असुद्धसुद्धं भवति एसा मीसा पडिसेपक्षातो ण लजति, सपक्खो सावगाऽऽदि. परपक्खो मि- वा भवतीत्यर्थः। ध्यादृष्टयः । एसा चीसत्थलेवणा इत्यर्थः बीसत्थेति गत। एसाए मीसाए पडिसेवणाए का आरोवणा?। भरणतिइदाणि अपरिच्छिय त्ति दारं पसह विदू तु अएणतरे ॥ ४७४ ॥ अपरिक्खिउमाय वए, णिसेवमाणे तु होति अपरिच्छं ।। पन्नटुविऊ उ अन्नतरे । पण्ण त्ति वा परणवण त्ति वा वितिगुण जोगमकातुं, वितियासेवी अकडजोगी॥४७१॥ न्नवणत्ति वा परूषण तिवा एगटुं। अट्ठो णाम-मीसियाए पअपरिक्खिउ पुब्बद्धं । अपरिक्खिउं अनालोच्य आयो ला डिसेवणाए पच्छित्तं । विदू नाम-ज्ञानी। अण्ण तरेत्ति मीसपभः, प्राप्तिरित्यर्थः व्ययो लब्धस्य प्रणाशः, ते य आयव्वर डिसेवणा वि कप्पेति, मीसपडिसवणाए जे विद् ते पायअनालोचिते पडिसेवमाणस्स अपरिक्वपडिलेवणा भवती- च्छित्तं परूवयंतीत्यर्थः। त्यर्थः । “अपरिच्छ त्ति" गतं । अकडजोगि त्ति दारं-तिगुणं अथवा दसएह वि पदाण इमं पच्छितंपच्छदं । तिन्नि संखा तिमि गुणाश्रो तिगुणं, असंथरातीसु दप्पेण होति लहुया, सेसा काहेमि परिणते लहुो । तिन्नि वारा एसोणय संणिसिउ जाता, ततियवाराए वि तब्भावपरिणतो पुण, जं सेवति तं समावज्जे ॥४७६।। ण लब्भति तदा चउत्थपरिवाडीए अणेसणियं घेतब्बं एवं दप्पेण धावणादी करेमित्ति परिणते चउलहुगा भवति । सेतिगुणं जोर्ग काऊण, जोगो व्यापारः, वितियवाराए चेव । सा अकप्पादिया घेप्पति,ते करेमि त्तिपरिणते मासलहुभवअणेसणीयं गेराहति जो सो अकडजोगी भन्नति । "अकड- ति । एतं पारणामणिप्फरणं जतो पुण तब्भावपरिणो भव. जोगि त्ति” गयं । ( अणाणुतावित्ति दारं 'अणाणुतावि (ण)' ति। तस्य भावस्तद्भावः,दप्पादिश्राण अपणो स्वरूपे प्रवर्त्तशब्दे प्रथ. भा० ३०६ पृष्ठे गतम्) नमित्यर्थः । पुनर्विशेषणे, पूर्वाभिहितप्रायश्चित्तादयं विशेषः । हिस्संकेति दारं आयसंजमपवयणावराहणाणिप्फ पच्छित्तं दटुब्वमिति । करणे भए य संका करणे कुव्वं ण संकइ कुतो वि । अहवा-मीसा पडिसेवणा इमा दसविहा भरणतिइहलोगस्स ण भायइ, परलोए वा भए एसा ॥४७३॥ दप्पपमादऽणभोगा, आतुरे आवतीसु तह चेव । संकणं संका अनिरपेक्षाध्यवसायेत्यर्थः । णिग्गयसंको तिंतिणे सहसक्कारे, भय-प्पदोसा य वीमंसा ॥४७७।। निस्संको, निरपेक्षेत्यर्थः । सा य निस्संका दुविहा-करणे भए य सूचग पाह-करणं क्रिया,ते कारतो णिस्संको। भयं दप्पषमादाणभोगा, सहसक्कारो य पुधभणिताओ। णाम-अपायोद्वेगित्वं । संक त्ति । इह छंदोभंगभया णि गा- सेसाणं छएह पी, इमा विभासा तु विश्लेया ॥४७८।। रलोवो द्रष्टव्यः । करणणि संकतार वक्वाणं कराते । करणे दप्पो, पमादो. अणाभोगो,सहसक्कारो य, एते इहेव आदीए कुब्वंण संकति कुतो वि त्ति। कुतो वि न कस्व विदाशंकते- पुव्वं वरिणया भाणया, तो सेसाणं विभासा अर्थकथनम् । त्यर्थः । भयणिस्संकार वक्खाणं करेति । इहलेागरस पच्छ “आतुरे त्ति” अस्य व्याख्याद्धं । भर पस ति। एलाभर णिस्तंकता इत्यर्थः । सेसं कंठं। । पढमवितियइते वा धितो व जे सेवे आतुरा एसा। इदाणे एतासु दससु वि असुद्धपडिसेवणासु पच्छितं भाइ दयादिअलामे पुण, चतुविधा आवती होति ॥४७॥ मूलं दससु असुद्धे-सु जाण सोधिं च दससु सुद्धसु।। पढमो खुहापरीसहो, वितियो पिवासापरीसहो, बाधितो सुद्धमसुद्धवइकरे, जरसादिणा, एत्थ जयणाए पडिलेवमाणस्त सुद्धा परिसे(दससु असुद्धेसु त्ति) दससु विपतेसु पदेसु दप्पादिएसु अ- वणा। अजयणाए तरािणप्पन्नं पच्छितं भवति । "श्रावतीसुद्धपरसु मूलं भवतीत्यर्थः अथवा-मूलं दससु,दससुदप्पा- सुय" । अस्य ब्याख्या-दब्वादिपच्छदं । दव्वादि,आदिसद्दादिसु मूलं भवतीत्यर्थः । असुद्धेत्ति एतेसु दप्पादिएसु दससु तो खेत्तकालभावा घेप्पंति । दब्बतो फासुगं दब्वं ण लभअसुद्धपदेसु पडिसेविजमाणस चारित्रमसुद्धं भवतीत्यर्थः । ति, खेत्तनो अद्धाणपडिवरण ताण प्रावती, काल तो दुब्भिएतेसु चेव दससु दप्पादिसु सुद्धेस चारित्रविसुद्धि जानीहि। क्खादिसु श्रावती, भावतो पुण गिलाणस्स श्रावती, एत्थ कथं पुनरेषां सुद्धासुद्धं भवतीति ?। उच्यते-वर्तमानावत्त- जेण एयाए चउविहाए श्रावतीए पडिसेवति तेण एसा मानयोरित्यर्थः सुद्धमसुद्धधतिको ति । किोव सुद्ध, किवि सुद्धा पडिसेवणा, अजयणाए तमिकन्नं पच्छितं भवति । असुद्धं । तेसि सुद्धासुद्धाणं मेलश्रो वतिकरो भएणति ।। "प्रावईसु ति" गतं दारं। एत्थ वक्खाणगाहा " तितिणे त्ति” अस्य व्याख्यासालंबो सावजं, णिसेवते णाणुतप्पते पच्छा । दवे भावे तितिण, भयमभिओगेण सीहमादी उ। जं वा पमायसहिओ, एसा मीसा तु पडिसेवा ॥४७॥ कोहादी तु पदोसा, वीमंसा सेहमादीणं ॥४८॥ Jain Education Intemational Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिसेवगा (३६७) अभिधानराजेन्द्रः। पडिसेवा पाए तितिणो दुविहो-दब्वे, भावे य। दवे ते वरुयदारुयं श्र- उदयग्गिचोरसावय-कतार का सती वसणे ॥ ४८५।। ग्गिमाहियं तिाडातेडेति । भावे अाहारादिसु अलब्भमाणेसु एताप्रो दो दारगाहात्रो! तिडितिडेति । असरिसे वा दव लद्धे तिडितिडेति । तिति दसणणाण चरणातिक्षि वि एगगाहाएं वक्खाणेतिणियत्तं दप्पेण करेमाणस्स पच्छितं। कारणे वयाइसु सुद्धो। दंसणपभावगाणं, सत्थाऽणटाएँ सेवती जं तु । "तितिणात गतं ।""भए ति।"अस्य व्याख्या-भयमभियोगे. ण सीहमादी द्वितीयपादः । अभिप्रोगो णाम-केणइ रायादि णाणासुतत्थाणं, चरणेसण इत्थिदोसा य ।। ४८६ ॥ णा अभिउत्तो पंथं दंसेहि, तद्भयाद्दर्शयति सीहभयाद्वा वृक्ष दसणप्पभावगादीणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छियसंमतिमारूढः। एत्थ सुद्धा।श्रणाणुतावितेण पच्छिनं भवति । पदो- मादि गेराहतो असंथरमाणे जं अकपियं पडिसेवति जस त्ति।" अस्य व्याख्या-कोहादी उपश्रोसे तृतीयः पादः। यणाए तत्थ सो सुद्धो । चरणे त्ति । जत्थ खेत्ते एसणादोकोधादिरहिं कसारण पदोसेण पडिसेवमाणस्स असुद्धो सा इस्थिदोसा वा ततो खेत्ताओ चारित्रार्थिना निर्गन्त. भवति, मूलं से पच्छितं कसायणिप्परणं वा ।"पदोले त्ति ध्यं ततो निग्गच्छमाणोज किाचे अकप्पियं पडिसेवति जयगतं ।" वीमंसा सेहमाणं ति चतुर्थः पादः । वीमंसा प- णाए तत्थ सुद्धो। रीक्षा, सेहं परिक्खमाणेण सचित्तगमणादिकिरिया कया तवपवयणे दो वि दारा एगगाहाए वक्खाऐतिहोज, किं सद्दहति, ण सद्दहति तो सुद्धो । णेहो ति तवं काहं,कते विकिटे व लायतरणादी। ___ अहवा इमे मीसियपडिसेवणापगारा अभिवादणाऽऽदि पवयण,विएहुस्स विउधणा चेव ।४८७) देसच्चाई सबचाई, दुविधा पडिसेवणा मुणेयवा।। तवं काहामित्ति घताऽऽदिणेहं पिवेज्ज,कते वा विकिट्टतवेअणुवीइ अणणुवीती,सइंच दुक्खुत्त बहुसो वा॥४८१॥ परेण लायतरणादीप पिएज्ज । लाया णाम-वीहिया सम्मिचारित्तस्त देसं चयतीति देसचाती, सब्वं चयतीति स उ भट्टे भुज्जित्ता ताण तंदुले सु पेज्जा कजति, तं लायतव्वचाई, एसा दुविहा पडिलेवणा समासेण णायव्वा । रणं भमति । तं विकिट्टतवपारणाए आहारकम्मियं पिएज्ज, अणुवीई चिंतेऊण गुणदोसं सेवति, अणणुवीई सहसा एव | मा अरणेण दोसेण दब्वादिणा रोगो भवेज।श्रादिग्गहणातो पडिलेवति । सति त्ति । एगस्ति, दुक्खुत्तो दोबारा, बहुसो श्रामलगसकरादयो गृह्यन्ते, जयणाए सुद्धो । “पवयणे त्ति" त्रिप्रभृति बहुत्वम्। अस्य व्याख्या-अभिवादणपच्छदं । पवयणटुतार किाचे प“देसच्चाइ ति" अस्य व्याख्या डिसेतो सुद्धो, जहा कोति राया भरोज्ज. जहा धिज्जाजेण ण पावति मूलं, णाणादणं च जहि धरति किंचि। तीपा अभिवायणं करेह, आदिग्गहणातो अती वा मे विउत्तरगुणाववादे, देसच्चाएतरा सव्वा ।। ४८२॥ सयाओ णीहहा। एत्थ पवयणहियट्टयाए पडिसती सुद्धो। जण अबराहेण पडिसेवति तेण मूलं पच्छितं ण पावति, जहा बिन्दु श्रण गारो, ते रुसिएण लक्ख जोयाणं विसा देसच्चागी पडिसेवणा । जेण वा अवराहेण पडिसे गुब्वियं रूवं, लवणो किल आलोडितो वलपण तेण । अ. वितेण णाणदलण बरित्ताण किंचि धरति सा वि देसच्चा हवा-जहा एगेण राइणा साधवो भणिता-धिज्जाइयाण गी पडिसेवणा। उत्तरगुणपडिसेवा वा देसच्चाई पडिसेव पाएस पडह, सो य अरणुसट्ठिमादीहिं ण ठाति, ताहे संघसा णा । (इतरा सव्व त्ति) इतराणाम जाए मूलं पावति,णाणा मवातो कतो। तत्थ भणियं जस्ल काइ पवयणुभावणलदीण वा ण किंचि धरति, गा वि देसच्चागी पडिसेवणा। ती अस्थि, सो तं सावज्जं वा असावज वा पउंजउ । मूलगुण पडिसेवा वा एसा देससव्वच्चागी पडिसेवणा तत्थेगेण साहुणा भणियं-अहं प्रयुंजामि, गतो संघो राइभवतीत्यर्थः । णो समीवं, भणियो य राया, जेसि धिज्जाइयाणं अम्हहिं पापसु पडियव्वं तेसि मम वातं देहि, तेसिं सयरह अम्हे ___ "अणणुवीइ त्ति'. स्य व्याख्या पायेसु पडामो, णो य एगेगस्त, तेरण रराणा तेण ताहे कयजा तु अकारणसेवी, सा सवा अणणुवीइतो होति । संघी एगपासे ठितो, सो अ अतिसयसाहू कणवीरलयं अणवाई पुण णियमा, अप्पज्झे कारणा सेवा ॥४८३।। गहंकण अभिमंतेऊण य तेर्सि धिजातीयाणं सुहासणट्ठाणं पुव्वद्धे जा अकारण तो पडिसेवा गुणदासे अचिंतेऊण सा तं कणवीरलयं चंदणाऽऽगारेण भमाडेति, तक्खणादेव करणणुवीती, पडिसेवापमाणतो एक्कसि दो तिमि वा पर तेसि सब्वेसि धिज्जातीयाणं सिराणि णिपडियाणि, 'यो वा पडिसेवति । "अणुवीइ त्ति"अस्य व्याख्या-अणुवी- ततो सो साहू रुट्ठो रायाणं अंतियं भणति, दुरात्मन् ! पुण पच्छद्धं । असिवादीकारणे आत्मचराः अपरायत्ते- जति गट्ठासि तो एवं ते सबलबाहणं चुरणेमि, सो राया त्यर्थः । सो पुण गुणदोसे विचिंतिऊण जं जयणाए पडि भीतो संवस्त पापसु पडितो उवसंतो य । अरणे भणंतियति. एस से अणुवीती पडिलेवा भवतीत्यर्थः । भणिया जहा सोवि राया तत्थेव चुगिणतो। एवं पवयणत्थं पडिसेमौसिया पडिसेवणा। वंतो वि सुद्धो। ___ इदाणि कप्पियापडिसेवणाभेया भांति “समिति त्ति" अस्य ब्याख्यादंसणणाणचरिते, तवपवयणसमितिगुत्तिहेतुं वा । इरियं ण सोधइस्सं, चक्खुणिमित्त किरिया तु इरियाए। साधम्मियवच्छल्ले-ण वावि जयले गणस्सेव ॥४८४॥ खित्ता वितिया ततिया, कप्पेणऽद्धणेसिसकाए ॥४८॥ संघस्साऽऽयरियस्स व, असहुस्स गिलाण बालवुडस्स। विकलक्खिदी इरियं गा सोहिस्सामीति काउं चक्खुणि Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६८) पडिसवणा अभिधानराजेन्दः । पमिसेवणा मित्तं किरियं करेज्जा । क्रिया नाम-वैद्योपदेशात् ओषधपा-1 __ कंतारे पलंबादी, वसणं पुण वाइ गीताऽऽदी ॥४६२॥ नमित्यर्थः । एष पडिसेवणा इरियासमितिनिमित्तं । खित्तचि उदकवाहो पानीयप्लवेत्यर्थः । अगि ति, दवाग्निरागच्छतादिश्रो होउं वितियाए भासासमितीए असमत्तो तप्पसम तीत्यर्थः । चोरा दुविहा-उवकरणसरीराणं ।सावरण वा उण?ताए किंचि श्रोसहपाणं पडिसेवेज । ततिय ति एमणा त्थितो सीहवग्धादिणा, भयं वोधिगाण समीवातो उप्पमं । समिती, ताए अणेसणिज्जं पडिसेवेज, श्रद्धाणपडिवणं पसि अमतरे कारण उप्पन्नं इमं कारणं पडिसवणं कवा अद्धाणकप्पं वा पडिसेवेज । एसणादोससु वा दससु रेज्जा थंभणिविजं मंतेऊणं थंभेज । विजाभावे वा पलायति, संकादिएस गेण्हेज। रोडेन नश्यतीत्यर्थः । पलाउंवा असमत्थो श्रान्तो वा आदाणे चलहत्यो, पंचमिए काइभूमाऽऽदी। सचित्तं रुक्खं दुरुहेज्जा इत्यर्थः । चोरसावयबोहियाण वा विगडाइ मणअगुत्ते, वइ काए खित्तचित्ताऽऽदी [४८६॥ उवरि रोसं करेज्ज । तथा रोसेण अप्मतरं परितावणादिवि आयाणे ति आयाणणिक्खेवसमिती गहिता,ताए चलहत्थो गप्पं पडिसेवेज्ज, तथाऽप्यदोष इत्यर्थः । "कंतारे ति" अस्य होउं किंचि पडिसेंबज । चलहत्थो णाम-करण वाउणा ग- व्याख्या-कंतारे पलंबादी । कतारं नाम-श्रध्वानं, जत्थ भहिती, सो असतो पमजति, असतो णिक्खेवं करोति, एसा सपाणं ण लम्भति, तत्थ जयणाए कयलगमादी पलंवा गेपडिसेषणा तप्पसमणट्ठा वा ओसह करेज । पंचमिए त्ति रहेज्ज। श्रादिसहाम्रो उदगादी वा, श्रावतीचउब्विहा दव्वपरिट्ठवणासमिती गहिता । ताए किंचि कातियभूमीप वच्च- खेत्तकालभावावती, चउरमतराए किंचि अकप्पियं पडिमाणो विराहेज । आदिग्गहणातो समाभूमीए वा संठविज सेवेज्ज तत्थ वि सुद्धो। "वसणं ति।” अस्य व्याख्या-बसणं "तीए गत्तिहेउं व ति" अस्य व्याख्या-विगडाह पच्छद्धं। पुण वाइगीतादी। वसणं णाम-तम्मि वसतीति वसणं,तस्स विगडं मजंतं कारणे पडिसेवियत्तेण पडिसेविपण मणसा वा वसे बदृतीति बसणं, सुअब्भत्थो वा अन्भासोवादाणं श्रगुत्तो भवेज, वायाए वा अगुत्तो हवेज्ज कायगुत्तिए वा श्र- भणति,पुण अवधारण। बाइगं णाम-मज्जंतं कोति पुब्वभागुत्तो खित्तचित्तादिया हवेज्ज । वितो धरेउं ण सकेति, तस्स तं जयणाए आणे उं दिजति । साहम्मिययच्छल्लाइ आणं बालवडपज्जवसाणा णवरहंदा- | गीता इति। कोइ चारणाऽऽदि दिक्वितो वसणतो गीगाराण एस गाहाए वक्खागं करेति ग्गारं करेज्जा। आदिसहातो पुब्वभावितो कोपि पकतंबूलवच्छल्ले असियमुंडो, अभिचारणिमित्तमादि कजेसु । पत्तादि मुहे पक्खवेज्जा । आयरि ऽसाहु गिलाणे, जेण समाधी जुयलए य॥४६॥ एतऽस्मतराऽऽगाढे, सदंणो णाणचरणसालंबो। साहम्मियवच्छल्लयं पडुच्च किंचि अकप्पं पडिसेवेज, जहा- पडिसेवितुं कडाई, होइ समत्थो पसत्थेसु ॥ ४६३ ।। अजवारसामिणा असियमुंडो णित्थारितो,तत्थ किं अकप्पि- एतदिति यदेतद्याख्यानं दसणाऽऽदि जाव वसणेति । पतेसिं यं?, भपति-"तहेवासंजतं धीरो" सिलोगो कंठः । (कजेसु अन्नतरे श्रगाढकारणे उप्प पडिसेतो वि सदसणा भवति । त्ति) कुलगणसंघकजेसु समुप्पन्नेसु अभिचारकं कायव्वं, अ- सह दंसणेण सदसणा। कहं ?, यथोकश्रद्दधानत्वात् । अहवाभिचारकं णाम-वसीकरणं, उच्चारणं वा रमो वसीकरणमं- णाणचरणाणि सहदंसणेण प्रालंबणं काउंपडिसवंतो कहं तेण होम कायव्वं । णिमित्तमादीणि वा पउत्तब्वा । श्रा- पडिसेवंतो?, उच्यते- (कडाइ त्ति) कडाई नाम-कृतयोगी । दिग्रहणातो चुम जोगा अायरियस्स असहिलो गिलाणस्सय तिक्खुत्तो को योगो अलाभे पणगहाणीतो गेराहति, से जेण समाधी तत्कर्तव्यमिति वाक्यशेषम् । जुयलं या जुयलं एवं पणगहाणाए जयणाए पडिलेवर्ड होति भवति, सम. णाम-बालबुहा, ताण वि जेण समाधी, तत्कर्तव्यमिति । स्थो त्ति पभुत्ति वुत्तं भवति।सोय पभू गीतार्थात्वात् भवति, सीसो पुच्छति-को असहू, कीसे वा जुयलं पडिसिद्धं दि. केसु?, उच्यते-पलत्थेलु, पसत्था तित्थकराणुमपा जे कारक्खयं तेर्सि वा जेण समाही तं काए जुयला घेतुं दायब्व णा,प्रत्युपेक्षादिका इत्यर्थः। अहवा-होति समत्था पसत्थस्तु । मिति आयरिओ भणति गीयस्थत्तणतो समत्थो भवति, अगीनो समत्थो ण भवति णिवदिक्खिताऽऽदि असहू, जुयलं पुण फजदिक्वंतं । पसन्थेसु, तित्थकराणुला, तेवित्यर्थः । पणगादी पुण जतणा, पाओग्गहाऍ सव्वेसि ।।४६१॥ एसा उदप्पिया क-प्पिया य पडिसेवणा समासेणं ।। णिवो राया, प्रादिसद्दातो जुवरायसटिअमच्चपुरोहिया य, कहिया सुत्तत्थो पे-हियाएँ देओन वा कस्स ॥४६४|| एते असहू पुरिसा भसंति । ते कीस असहू?. भलाइ-अं- एसा दप्पिया कप्पिया पडिसेवणा समासेणं संखेवणं तपंतादीहिं अभाचितत्वात् । जुयलं बालबुड्डा. ते य कारणे कहिता इत्यर्थः नि० चू०१ उ०।(मासिकाऽऽदिप्रायश्चिदिक्खिया होजा । जहा वइरसामी अजरक्खियपया य । त्तस्थानं प्रतिसव्याऽऽलोचयेत् इत्यादि प्रायश्चित्तसूत्राणि जेण तेसिं समाधी भवति तं पाणगादि जयणाए घेत्तवं । 'पच्छित्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १३६ पृष्ठे गतानि)। प्रायोग्यं नाम-समाधिकारकं द्रव्यम् । सव्वेसि ति पायरिय- ___ साम्प्रतं प्रतिसेवनास्वरूपं चतुर्थभेदं व्याचिख्यासुर्गाथोअसहुगिलाणसवुढाणं ति भणियं भवति। जयणाए अलब्भ- त्तरार्द्धमाहमाणे पच्छा जाव आहाकम्मेण वि समाधानं कर्तव्यामित्यर्थः । आसेवइ थिरभावो, आयंकुवसग्गसंगे मि (३६)। इदाणि उदयादाण वलण जवसाणाणं अट्टरहं दाराणं आसवते,सम्यक् सेवते परिपालयति,स्थिरभावो निष्पकम्प. एगगाहाए वक्खाणं करेति मनाः, पातको ज्वराऽऽदिरोगः, उपसर्गा दिव्यमानुषतर्यग्योउदयग्मितेणसावय-भएसु थंभणि पलाउँ रक्खं वा।। निकामसंवदनीयभेदाच्चतुर्भेदाः।ध०र०२ अधिक लक्षा Jain Education Intemational Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६६ ) अभिधानराजेन्द्रः । परिसेवकप पडि सेवणाकम्प - प्रतिसेवनाकल्प - पुं० । शुद्धाशुद्धप्रतिसेवनासामाचार्य्याम्: पं० भा० । इयरिंग पडि सेवणाकप्पो, तत्थ गाहाबोच्छं पडि सेवाए कप्पं तु । जारिसयं सेविज्जति, सुद्धमसुद्धं समासेणं ॥ गहण - पडि सेवाए, णिव्याघाते तव वाघाते । वाघाते दुयगहणं, णिव्वाघाते तियहणं ॥ पडिसेवणा व दुविहा, गहणे परिभुंजणे य गायव्वा । एकेका वि यदुविहा, णिव्वाघाते य वाघाते ॥ वाघातिमं च सुद्धं, गेहति असुद्धं च एतदुयगहणं । परिभुंजती वि एवं णिव्वाघातम्मि वोच्छामि ॥ उग्गमादी सुद्धं गेहति, परिभुंजती य तियमेत्तं । अह को पुण वाघातो ? परूवणा तस्सिमा होति ॥ असिवे, ओमोदरिए, रायदुडे, भए व आगाढे । छक्कादुमुवादा-य वाघाते णिव्वाघाते य ॥ सुद्धमसुद्धं वा जाहिं, हवा सच्चित्तमीसगं वा वि । एतेसिं दोहं तु, वाघाते गहण - भोगो य ॥ निव्वाघा बराह वि, अच्चित्ताणं तु गहणं । कायाणं गहियस्स य, परिभोगो तस्स होति कायव्वो । परिभोगे वाघातो, गहिते पच्छा तु होज्ज तं गातं । जह हाकम्मं ती, ताहे य तयं न परिभुंजे ॥ वाघाते सेवतो, किच्चमेयं ति चिंतए साहू | होति तहा णिज्जरओ, जो पुण इणमो समायरति ॥ पूजारसपडि बद्धो, यसमाणं च अणुयत्तीए । चरणकरणं णिगृहति तं जाण अणुत्तियं समणं ॥ पूजारसहेडं वा, वेत्ती जह किच्चमेव एयं तु । मासे देहिन्ति पुणो, जह एसो अकिच्चकारि ति ।। अहवा उसमाणं, तु आणुयत्ती य पेतिको दोसो । हाकम्मादीसुं, वरं या कीरतु सयं तु ॥ सो गूहति चरणादी, एवं तुच्छं खु तस्स सामां । तम्हा तु य रूवेज्जा, सृद्धं मणं तुडाचरणं ॥ स्सिाए पदं पीहिति, अण्णत्थ विहरंतयं ण रोएति । तं जाण मंदधम्मं, इहलोगगवेसगं समयं ॥ हवा उम्मग्गो खलु, निस्साणं तं तु पीहए जो तु । तस तु च्छेद तत्थं, ण कहे दोसा इमे तहियं ॥ पंचमहव्वय (त) भेदो, बक्कायवहो य तेणऽणुष्माओ । सुहसीलविया, कहे य जो पयणरहस्सं । ॥ पं० भा० ५ कल्प | 'गहणपडिसेवणा' पडिसेवणा पुरा दुविहा गहण य भवइ, परिभुंजणे य पडि सेवणा भवइ: एक्केक्का दुविहा- निब्वाधार य वाघाप य । वाघाप दुविहं पि गेरहन्ति, असिवाइम्मि सुद्धं च डिसेवकप्प एसो ६३ पाडसेह श्रसुद्धं च । निव्वाधार तिविहं पि सुद्धं गेराहन्ति श्रहाराह । उग्गमा तिहिं श्रसुद्धं पि कयाइ रहन्ति । को य पुण वाघाओ जत्थ श्रसुद्धं घेप्पर ? । गाहा-' असिवे श्रोमो ' असिवाइसु कारणेसु छक्काओ उप्पायणं पि करेइ, किमुक्तं भवति - छक्कायमुप्पायणं ति । सचित्तमीसयाणं वा वाघार गहणं । निव्वाघार पुरा श्रचित्ताणं छरहं पि कायाणं गहणं जोणिपाडुडियाइसु कुल-गणा इकज्जेणं, न पुरा पडिसेवतेण करिज्जं करेमि त्ति चिंतेयव्वं । कुल-गण-संघ चेइयविणासाइसु कारणेसु. नाण-दरिसण चरित्तट्ठा वा पडिसेवमाणा सुद्धा जयगाए। गाहा - 'पूय रस ' कोइ मंदधम्मो पूयासक्कारहेउं किच्च मेयं ति भासइ, रसहेउं वा मासे पुणो न दाहेति श्रहवा उसन्नाण श्रणुयत्ती पभणइ को दोसो ? आहाकम्माइसु उम्मग्गपडिवनो त्ति सो दटुव्वो, उम्मग्गो नाम नागवइरित्तो चरणाइ निगूहइ । गाहा - ' निस्साणपयं, सिद्धमेव । पंचमहव्वयभेश्रो छक्कायवहो य तेऽरणाओ । गाहा । एस पडि सेवा कप्पो । पं० चू०५ कल्प । पडि सेवणाकुसील - प्रतिसेवनाकुशील - पुं० । “ सम्यगाराधनविपरीता प्रतिगता वाऽऽसेवना प्रतिसेवना, सा पञ्चसु ज्ञानादिषु येषां ते प्रति सेवनाकुशीलाः । स्था० ५ ठा० ३ उ० । श्रसम्यगाराधनाकुशीले भ० २५ श० ६ उ० । पडि सेवणापायच्छित्त- प्रतिसेवनाप्रायश्चित्त- न० । प्रायश्चित्तभेदे, स्था० ४ ठा० १ उ० । ( प्रतिसेवनाप्रायश्चित्तं ' पच्छि न्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १३५ पृष्ठे गतम् ) पडिसेवणिज्ज- प्रतिसेवनीय - त्रि० । प्रतिसेवनाविषये, तच्च व्रतपट्कादीन्यष्टादश स्थानानि । तद्यथा-" वयछकं कायछकं, अकप्पो गिहभायणं । पलियंक- णिसिज्जा य, लिखाणं सोहवज्जणं " जीत० । पडि सेवा - प्रतिसेवा - स्त्री० । प्रतिसेवनं प्रतिसेवा - संयमानुष्ठानविरुद्धाचरणे, ध० ३ श्रधि० । पडिसेवि - प्रतिसेविन् त्रि० । श्रवश्यं प्रतिसेवके, ग० २ - धि० । (मूलगुणप्रतिसेवया चारित्रभ्रंश इति मूलगुणप्रतिसे वी न वन्द्य इति कृतिकर्माधिकारे, कृतिकर्माधिकारश्च तृतीयभागे ५०६ - ५२५ पृष्ठे गतः ) पडिसेविता - प्रतिसेवितु - त्रि० । सावद्यप्रतिसेवके, स्था०७ठा०| पडिसेविय - प्रतिसेवित- त्रि० । मैथुनादौ प्रतिसेवाकर्मणि, कल्प० १ अधि० ६ क्षण । पडिसेवियन्त्र - प्रति सेवितव्य - त्रि० । प्रतिसेवनाकर्मणि, व्य० १ उ० । ( तच्चतुर्विधं ' पडिलेवणा' शब्दे दर्शितम् ) पडिसेह - प्रतिषेध- पुं० । निराकरणे, सूत्र० २ श्रु० ५ अ० | बृ० पं० चू० । निवर्तने, शा० १ श्रु० ८ श्र० । पडिसेहम्मि तु छक्कं ( ५ ) ॥ प्रतिषेधे प्रतिषेधविषयं षट्कं नाम स्थापना - द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव-लक्षणं निक्षेपणीयम् । तत्र नाम्नः प्रतिषेधो-न वक्तव्यममुकं नामेतिलक्षणः । यथा अज्जए य पज्जए वा, वि (व ? ) प्पो चुल्लपिङ त्तिय । 66 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिमेह माउला भायरिगज्ज त्ति, पुत्ता नतुहिय त्तिय ॥ १ ॥ हे हो हल तिने त्ति, भट्टा सामि य गामिय। 33 लगो लवसु म ? त्ति, पुरिसं ते च मा लये ॥ २ ॥ " इत्यादि । स्थापना, आकारों, मूर्तिरिति पर्यायाः । तस्याः प्रतिषेधी यथा-" वितहं पि तहा सुत्तं, जो तहा भासप नरो । सोविता पुढो पावे - किं पुरा जो मुसं वए ॥ द्रव्यप्रतिषेधो--ज्ञशरीर- भव्यशरीरव्यतिरिक्तः पुनरयम्-"नो कप्पर निधारण वा निधी या आने, ताल-लेवे अलि पडिगाहित्तए "त्ति | क्षेत्रप्रतिषेधो यथा-"नो कप्पइ निगंधाण वा निग्गंधीण वा श्रद्धाणगमण एतर कालप्रतिषेधो यथा-"अत्थं गयम्मि श्राइच्चे, पुरत्थाय श्रणुग्गए. आहारमइयं सव्वं मरणसा वि न पत्थए” भावप्रतिषेधः- श्री. दयिकभावनिवारणरूपो यथा-" कोहं माणं च मायं च लोभं च पाववडणं, वमे चत्तारि दोसे उ इच्छतो हिय मप्पणी " इत्यादि वृ० १ ३०२ प्रक० । विपक्षप्रतिषेधनेश्रनुमानवाक्यस्य दशमेऽवयवे, दश० १ श्र० । 33 | प्रतिषेधं प्रकटयन्ति प्रतिषेोऽसदंशः ॥ ५७ ॥ ( ३७० ) अभिधान राजेन्द्रः । तस्यैव वस्तुनो योऽयमसदृशोऽभावस्वभावः स प्र तिषेध इति गीयते ॥ ५७ ॥ श्रस्यैव प्रकारानाहु:स चतुर्था प्रागभावः प्रध्वंसाभावः इतरेतराभावः, अत्यन्ताभावश्च ॥ ५८ ॥ प्रा वस्तुत्पत्तेरभावः प्रध्वंसचासावभाव इतरेतरस्मिन्नभावः, अत्यन्तं सर्वदाऽभावः । विपिप्रकारास्तु प्राक्तनेनचिरे, अतः सुकृद्भिरपि नाभिदधिरे, रत्ना० ३ परि० । प्रतिषिध्यतेऽनेनेति प्रतिषेधः । य । " पाडेसे उपकारो मफारो नो अ तह नकारो । अब्भावदुहिकाले देसे संजोगमाइ अ ।। ११ ।। प्रतिषिध्यतेऽनेनेति प्रतिवेधः, को ? वर्णः, स चतुर्द्धा - कारः, मकारः, नोकारः, तथा नकारश्च । तत्र अकारस्तद्भायतिषेधं करोति. मकारः पुनर्विविधकालविषयं प्रति धम्, तद्यथा- प्रत्युत्पन्नविषयम्, श्रनागतविषयं च । नोकारो देशप्रतिषेधम् । नकारा पुनः संयोगादि संयोग-समवाय सामान्य विशेषचतुष्टयप्रतिषेधं करोति पृ० १ ४०२ प्रक० । वितथाचरणे. ० ० १ ० । उत्सर्गावस्थायामाज्ञायाम्, “पडिसेहो णाम जा श्राणाउसग्गावत्थावणीयं च सूत्रमित्यर्थः " नि० चू० २० उ० । पडिसोयगमणया प्रतितोपनता-त्री० प्रतिश्रोतसा ग मनं प्रतिश्रोतोगमनं तद्भावस्तत्ता । प्रवाहप्रातिकूल्ये, भ० । ६ श० ३३ उ० । । पटिसोयपारि पतिश्रोतारिन्- त्रि० । सूादारभ्य प्रतिश्रयामि मुलचारिणि, स्था०५ डा० ३ ४० नचादिप्रवाह विपरांतना मिनि, स्था० ४ ठा० ४ उ० । पडिमोपा-यति श्रतोऽनुग०ि प्रतिश्रतोऽनुगच्छति य प्रतिधीतोऽनुगः । प्रतिगामिनि द्वा० १४ द्वा० । पडु - पटिस्सय प्रतिश्रय पुं० प्रतीयते साधुभिरिति प्रतिश्रयः। वसतौ वृ० २३० । " पडिस्सए ठाइऊण पच्छा श्रागतो आ० म० १ श्र० । पडिस्सुय-प्रतिश्रुत- त्रि० । श्रभ्युपगते, स्था० ४ ठा० ३३० | प्रतिज्ञाते, स्था० १० ठा० । प्रतिशब्दे, ज्ञा० १०५ श्र० । नि० १० चू० । पटिस्सुवा प्रतिश्रुताखी० । प्रतिभुतान् प्रतिज्ञातार या सा प्रतिश्रुता, शालिनद्रभगिनीपतिचम्पकस्पेषज् स्था० १० ठा० । - पहित्य- त्रि०देशी प्रतिपूर्ण जी० ३ प्रति० ४ ० तिरेकिते अतिप्रभूते, "पडिहत्था अतिरेकिता श्रतिप्रभूता" इत्यर्थः । जी० ३ प्रति० ४ अधि० । दे० ना० । पडिहय-प्रतिहत त्रि० । निराकृते, श्री० । प्रतिस्फलिते, आ म० १ ० । प्रस्खलिते, औ० । भ० । प्रतिस्खलिते, सूत्र० २ श्र० ४ ० । प्रतिषेधिते, ज्ञा० १ ० १६ श्र० । अनु० । विभि ते, सूत्र० २ श्रु० ४ श्र० । पहियपच्चक्रलापावकम्म प्रतिहतमत्याख्यातपापकर्मनत्रि० । “ प्रतिहतं स्थिति हासतो ग्रन्थिभेदेन प्रत्याख्यातं हैत्वभावतः पुनर्हृदयभावेन पापं ज्ञानावरणीयादि येन स तथाविधः | पापकर्म प्रत्याख्यातवति, दश० ४ ० । पा० । पहिरंत प्रतिहरतु त्रि० । धातूनामर्थान्तरेऽपि वृत्तेः पुनः पूर्यमाण इत्यर्थे प्रा० ४ पाद 33 " पडिहा - प्रतिभा - स्त्री० । नवनवोन्मेषशालिन्यां प्रज्ञायाम्, “प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मता " वाच० । पडिहाराय प्रतिभानयत् त्रि० । प्रतिभानमौत्पत्रियादिबुद्धिगुणसमन्वितत्वेनापतिभवं विद्यते यथाऽसी प्रतिभानवान् । अपरेणाऽऽक्षिप्तत्वे ऽनन्तरमुत्तरदानसमर्थ, सूत्र० १ ध्रु० १३ ० | उत्पन्नप्रतिभे, सूत्र० १० १४ अ० । उत्पन्नद्धी, सूत्र० १० १४ श्र० । पडिहार-प्रतिहार - पुं० । नियुक्तपुरुषे, प्रतिहार इव प्रतिहारः । सुरपतिनियुक्ते देवे, प्रव० ३८ द्वार । परिहारय-प्रतिहारक- वि० सर्वदेवमुक्ते जाव संतारागं लहुयं पडिहारयं गो श्रहाबद्धं ॐ० १ ० २ श्र० ३ उ० । पडिहारी मनिहारी स्त्री० [प्रतिहारेऽग्रद्वारे दण्डकहस्ता - । ति ष्ठति या सा तथा । द्वारपालिकायाम्, बृ० १ ० ३ प्रक० । श्रा० म० । पडी प्रतीचीन वि० अपरदिग्भागे, आचा० १ ० १ ० १०२०। पश्चिमत इत्यर्थे “पापडीया" प्राची नं पूर्वतः प्रतीचीनं पश्चिमतः प्रायता दी प्राचीनती चीनायता । स० ६००० सम० । " । । पडीगवाय प्रतीचीनवात पुं० वायुका स्था० ७ डा० पड़ (अ)- प ( क ) ० स्वा०८ डा० रा० सू- दक्षे, । त्र० । पं० व० । पडुपवणायच लियचवल पागडतरंगरंगतर्भगखोम्भमाणसोमंतनिम्मलु दम्मी सहसंबंधाचा णावनिपतभासुरतराभिरामं "कल्प १ अधि० ३ । " - 19 " अप्पंड 33 श्रचा० २ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहुच ० ७ 39 66 पडुच्च-प्रतीत्य- अव्य० । अधित्य इत्यर्थे सू० १ अ० । सम्म० | दशा० । स्था० । सूत्र० । पहुच्च ति पप्प त्ति चा, अहिकिच्च त्ति वा एगट्ठा । श्र० चू० १ ० । आचा० । स्था० । उत्त० । अनु० । प्रतीत्य प्रकृत्य अधिकृत्य इत्यर्थे, अनु०| पडुच्चकरण-प्रतीत्यकरण - न० । किञ्चित्प्रतीत्य किञ्चित्कर, "एसेच कमी निवमा जे लेवे व भूमिकम्मे व ते सालचा उसालं, पडुच्च करणं जइ निस्सा ॥ यथा त्रिशालगृहं कर्तुकामः साधून प्रतीत्य चतुःशालं करोति । " बृ० १ उ० २ प्रक० । पच्चमक्खिय-प्रतीत्यनचितन० । अङ्गुल्या गृहीत्वा तैलेन वा, घृतेन प्रक्षिते, पं० ० २ द्वार । पहुचयण-मतीत्यवचन-न० समीक्षितार्थवचने " प्रती त्यचचनं समीक्षितार्थवचनं सर्वश्यचनमित्यर्थः " सम्म० ३ काण्ड | ( ३७१ ) व्यभिधानराजेन्द्रः | पटुच्चसच्च-प्रतीत्यसत्य-न० प्रतीत्याऽऽनित्य वस्त्वन्तरं स स्वं प्रतीत्यसत्यम् सत्यभेदे प्रशा० ११ पद यथा अनामि का कनिष्ठिकां प्रतीत्य दीयते से मध्यम प्रतीत्य स्वेति । प्रश्न० २ सम्व० द्वार । सच्चा णं भंते ! भासापज्जत्तिया कतिविहा पम्मत्ता १। गोमा ! दसविहा पम्पत्ता, तं जहा जणनयसच्या स मुदितसच्चा, उपासच्या, नामसच्चा, स्वच्चा पशुसच्चा ववहारसच्चा, भावसच्चा, जोगसच्या, उबम्मसच्चा । ( ' पहुच्चसच्चे 'ति ) प्रतीत्याऽऽश्रित्य वस्त्वन्तरं सत्या प्रतीत्यसल्या । यथा अनामिकायाः कनिष्ठामधिकृत्य दीर्घ त्वम् मध्यमामधिकृत्य न्हस्वत्वम् । न च वाच्यं कथमेकस्या -हस्वत्वं दीर्घत्वं च तात्त्विकं परस्परविरोधादिति । यतो ( १ ) मिद्यनिमित्य परस्परविरोधाभाव एव । यदि कनिष्ठ मध्यम या एकामलिमङ्गीकृत्य महस्वत्वं दीर्घत्वं च प्रतिपाद्येत ततो विरोधः संभवेत् एकनिमित्त परस्परविरुद्ध कार्ययासंभवात् । यदा त्वैकामधिकृत्य ह स्पत्यम् अपरामधिकृत्य दीर्घत्वं तदा सत्यालयो रिच भिननिमित्वात्परस्परमविरोधः । अथ यदि तात्वि के हस्व-दीर्घत्वे, तत ऋजुत्व वक्रत्वे इव कस्मात्ते परनिस्पेन प्रतिभासते । तस्मात्परोपाधिकत्वात् काल्पनि के इभे इति । तदयुक्तम् । द्विविधा हि वस्तुनो धर्माः-सहकारिव्यङ्गयरूपाः, इतरे च । तत्र ये सहकारिव्यङ्गयरू पास्ते सहकारिसम्पर्कवशात्प्रतीतिपथमायान्ति यथा पृथिय्यां जनसम्पर्क गन्धः इतरे वयमेवापि यथा कर्पूरादि गन्धः ? | हस्वत्व-दीर्घत्वे अपि च सहकारिव्यङ्गयरूपे, ततस्ते तं सहकारिणमा पानिष्यक्तिमापात इत्यदोषः, प्रज्ञा० । ११ पद | पडुपहवाइयपटुपटहवादित न० पपटहस्य महति शब्दे 1 कल्प० १ अधि० १ क्षण० । पडुपवणाहय- पटुपत्रनाहत - त्रि० । अमन्देन पवनेनाऽऽस्फालिते, कल्प० १ अधि० ३ क्षण । " पप्पा विकास पप्पा प्रत्युत्पन्न - त्रिप्रति साम्यतमुत्पन्नं प्रत्युत्पन्नम् । यर्तमाने श्र० म० १ ० । पा० । स्था० । वर्तमानकालभाविनि. आचा० १ ० ४ ० १ उ० । भ० । जं० । ऋतु० । वर्त मानकालीने भ० श०५ उ० । वार्त्तमानिके स्था० १०टा० । पप्पण्णगंदि - प्रत्युत्पन्ननन्दि (न्) - पुं० । प्रत्युत्पन्नेन लनव-शिष्यादिना प्रत्युत्पन्न वा जातः सन् शिष्या55चादिरूपेण नन्दति यः स प्रत्युत्पनन्दनन्दनन्दरानन्दः प्रत्युत्पन्न नन्दिर्यस्य स प्रत्युत्पन्नन्दिः । वर्त्तमा ननन्दिके, स्था० ४ ठा० २ उ० । पटुप्पएगदास प्रत्युत्पन्नदोष त्रि० । प्रत्युत्पन्न वार्त्तमानिकी भूतपूर्व इत्यर्थः, दोषो गुणेतरः, स चातीतादिदोषसामान्यापेक्षया विशेषः, अथवा प्रत्युत्पन्ने सर्वथा वस्तुन्यभ्युपगते विशेषो दोषोऽकृताभ्यागम-कृतविप्रणाशादिः, स दोषः सामान्यापेक्षया विशेष इति । विशेषभेदे, स्था० १० ठा० । पडुप्पएराभारिया प्रत्युत्पन्नभारिता खां० प्रत्युत्पन्नं वर्च मानमुत्पन्नं बोच्यते तत प्रत्युत्पन्नवासी भारब्ध कर्मणामि ति गम्यते प्रत्युत्पन्नभारः, स विद्यते यस्याऽसौ प्रत्युत्पन्नभारी, तस्य भावः प्रत्युत्पन्नभारिता कर्मगुरुकतायाम्, पा पडुप्पणत्रयण- प्रत्युत्पन्नवचन - न० । वर्त्तमानवचने, यथा-" पप्रणयय" वर्त्तमानवचनं करोति । चा०२०१ चू० ४ ० १ उ० । प्रज्ञा० । पप्पावास प्रत्युत्पन्नविनाश-पुं० प्रत्युत्पन्नस्य वस्तुनी विनाशो विनाश तस्मिप्रिति समासः। उदाहरण द अधुना प्रत्युत्पन्नविनाशद्वारमभिधातुकाम श्राह । होंति य पपन्नविणा- सम्मि गंधव्विया उदाहरणं । सीमो वि कथन, अभोवज्जिज्ज तो गुरुणा || ६८ || भवन्ति प्रत्युत्पन्नविनाशे विचार्ये गान्धर्विका उदाहरणं लौकिकमिति । तत्र प्रत्युत्पन्नस्य वस्तुनो विनाशनं प्रत्युप नविनाशनम् तस्मिन्निति समासः गान्धर्विका उदाहरणमिति ययुक्तं तदिदम् जहा एगमि नगरपाि यो, तस्स बहुयाओ भयणीओ, भाइणिज्जा य, तस्स घरस्स सभीवे राउलया गंधव्वीया संगीयं करेंति । दिवसस्स तिमि बारे महिला संगीत सु गंधबिर अभांचा किंपि कम्मदार्थ न करेति । पच्छा तेण वाणियए चिंतियं जहा विखड्डा एताउति । को उवाओ होज्जा, न विणस्संति त्ति काउं मित्तस्स कहिये तेरा भरणति यणो परसमीपे वामंत करा वेहि । तेण कयं । ताहे पाडहियाण रूपए दाउं वायाबेश | जाहे गंधया संगीययं यावचैति तां ते पाहिया पहे दिन, सादि य फुर्सति गायति । तां सि गंधयियाणं विग्धो जाओ, पडहसदेश यस सुध्यति गी यसो राम्रो ते राउले उचद्विना । याणि सदावि ओ । किं विग्धं करे ? त्ति । भगति मम घरे देवी, श्रहं तस्स तिनि वेला पडहे दवावेमि । ताहे ते भणिया-जहा नत्थ गायह। किं देवस्स दिवे दिवे अंतराइयं कज्जति । एवं श्रायरिएण वि सीसेसु श्रगारीसु श्रभोववज्जमाणेसु तारिसी उवाओ कायचो जहा तेसिं दोसस्स Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७२) पप्पलविणास अभिधानराजेन्द्रः। पढम तस्स णिवारणा हवति । मा ते चिंतादिएहि गरयपडणा- व्यतो जीवस्यैव। यतश्चैवमतः सिद्धः प्रतिष्ठितः,प्रतिषेधध्वदिए अवाए पाहिति । निः, नास्ति जीव इति प्रतिषेधशब्दादेवेत्यर्थः । ततस्तस्माउक्तं च ज्जीवः, आत्मेत्यत्र बहु वक्तव्यं, तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तर. " चिंतेइ, दळुमिच्छइ, दीहं णीससह, तह जरो, दाहो। भयात् । इति गाथार्थः ॥७२॥ व्याख्यातं प्रत्युत्पन्नविनाशद्वाभन्नाऽरोअग, मुच्छा, उम्मत्तो, ण याणई. मरणं ॥१॥ रम् । दश० ११०। पढमे सोयइ वेगे, दद्रुतं गच्छई बितियवेगे । पडुप्पामविणासि-प्रत्युत्पन्नविनाशिन्-त्रि०। प्रत्युत्पन्नं विनीससइ तइयवेगे, आरुहइ जरो चउत्थम्मि ॥२॥ | नाशयतीत्येवंशीलं प्रत्युत्पन्नविनाशि । अन्तरायकर्मभेदे, डज्झइ पंचमवेगे, छठे भत्तं न रोयए वेगे। स्था० २ ठा०४ उ०। सत्तमियम्मि य मुच्छा, अट्टमए होइ उम्मत्तो ॥३॥ णवमे ण याणई किंचि, दसमे पाणेहिं मुच्चह मणुसो।। पडुप्पामसेवि-प्रत्युत्पन्नसेविन: । प्रत्युत्पन्नं यथालब्ध एतेसिमवायाणं, सीसे रक्खंति पायरिया ॥४॥ सेवते भजते नानुचितं विवेचयतीति प्रत्युत्पन्नसेवी, यथापरलोइया अवाया, भग्गपइराणा पडंति नरएसु । लब्धसेवके, पुरुषजाते स्था०४ ठा०२ उ० । ण लहंति पुणो बोहिं, हिंडति य भवसमुद्दम्मि ॥५॥" पडप्पाम-प्रत्यत्पन्नज-त्रि० । वर्तमानार्थशायके । अमुमेवार्थ चेतस्यारोप्याऽऽह शिष्योऽपि विनेयोऽपि. क्वचिद्विलयादौ । यदीत्यभ्युपगमदर्शने । अभ्युपपद्यत अभिष्वङ्गं पडुप्पवाइय-पटुप्रवादित-त्रि०। पटुना दक्षपुरुषेण प्रवादि. कुर्यादित्यर्थः । तत्र गुरुणा प्राचार्येण। तः।रा। स्था० । निपुणपुरुषप्रवादिते, सू०प्र०१६ पाहु। किं च प्रज्ञा वारेयच्चु उवाएण, जइ वा बातूलिओ वदेज्जाहि । | पडुप्पाएमाण-प्रत्युत्पाद्यमान-त्रि० । गुण्यमाने, जी० ३ सव्वे वि नत्थि भावा,किं पुण जीवो स वोत्तव्यो॥६॥ प्रति०४ अधि०। वारयितव्यो निषेद्धव्यः, किं यथा कथंचित ? नेत्याह-उपा- पडुह-तुभ्-धा० । संचलने, " तुभेः खउरपडहौ" ॥८।४। येन प्रवचनप्रतिपादितेन यथाऽसौ सम्यग् वर्तत इति भा- १४३ ॥ इत्यनेन तुभधातोः पडहादेशः । पडुहइ । तुभ्यति । वार्थः। एवं तावल्लौकिक चरणकरणानुयोगं चाऽधिकृत्य । प्रा० ४ पाद। व्याख्यातं प्रत्युत्पन्नविनाशद्वारम् । अधुना द्रव्यानुयोगमधि-पडोयार-प्रत्यवतार-पुं०। प्रति सर्वतः सामस्त्यनाऽवतीयन्ते कृत्याह- यदि वा बालिको नास्तिको वदेत् कि सर्वेऽपि वातालका नास्तिका वदत् कि सर्वेऽपि व्याप्यन्ते यैस्ते प्रत्यवताराः । घनोदध्यादिवलयेषु.प्रशा० ३० घट-पटादयः ( णस्थि ति) प्राकृतशैल्या न सन्ति भावाः पद । अवतरणे, जं०२ वक्षः। पदार्थाः । किं पुनर्जीवा-सुतरां नास्तीत्यभिप्रायः, स वक्तव्यः सोऽभिधातव्यः । प्रत्युपचार-पुं० । प्रतिकूले उपचारे, भ०१५ श०। किमित्याह प्रत्युपकार-पुं० । उपकारं प्रत्युपकारे, पिं० । जं भणसि नत्थि भावा. वयणेयं अत्थि नत्थि जड अत्थि। पडोयारे-प्रत्युपचारयितम-श्रव्य प्रत्युपचारं करोतु,इत्यर्थे एवं पइन्नाहाणी, असो णु निसेहए को णु ?॥ ७०॥ कारयितम-श्रव्य० । प्रत्युपकारयत्वित्यर्थे, “धम्मिएण यद्भणसि यद्रवीपि न सन्ति भावाः न विद्यन्ते पदार्था पडोयारेणं पडोयारेउ गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं" भ०१५श० । इतिवचनमिदं भावप्रतिषेधकम् अस्ति-नास्तीति विकल्पी। किं चातः ? यद्यस्ति एवं प्रतिज्ञाहानिः--प्रतिषेधवचनस्या: पडोल-पटोल-पुं०।स्त्री० । वल्लीभेदे; प्रशा० १ पद । आचा। पि भावत्वात्तस्य च सत्त्वादिति भावार्थः। द्वितीय विक- ल० प्र०। ल्पमधिकृत्याह-(असतो णु त्ति) अथाऽसन निषेधते, कोपडिया-पडिका-खी० । अभिनवप्रसूतायां गवि, महिष्यां नु निषेधकः? वचनस्यैवासत्यादित्ययमभिप्रायः । इति गा- च । व्य०३ उ०। धात्रयार्थः। पड़ी-स्त्री० । देशी-प्रथमप्रसूतायाम्. " पड्डी पढमपसूत्रा', यदुक्तं किं पुनर्जीवः ? इत्यत्रापि प्रत्युत्पन्नविनाशमधि दे० ना०६ वर्ग १ गाथा । कृत्याह पढ-पठ-धागाभणने; "गे ढः "॥८।१।१६६ ॥ इति ठस्य णो य विवक्खापुवो, सद्दोऽजीकुम्भवो मुणेयव्यो। न य मा वि अजीवस्स उ,सिद्धो पडिसेहो जीवो॥७॥ ढः । पढइ । पठति । प्रा० १ पाद । चशब्दस्यैवकारार्थत्वनाऽवधारणार्थत्वान्न च नैव विवक्षा पढ(द)म-प्रथम-त्रि० । " मेथि-शिथिर--शिथिल प्रथमे थस्य पूर्वो विवक्षाकारण इच्छाहेतुरित्यर्थः । शब्दो ध्वनिः, अजी ढः"८।१।२१५ ॥ इति थस्य ढः । प्रा० १ पाद । आये, वोद्भवोऽजीवप्रभव इत्यर्थः । विवक्षापूर्वकश्च जीवनिषेधकः प्रश्न २आश्रद्वार । अनु। विपा-1" पढमं ति पहाणं. शब्द इति मा भूद्विवक्षाया एव जीवधर्मत्वासिद्धिरित्यत अहव पंचराहं पढमं पहाणतरयं व मंगलं पुव्वभणियत्थं "। श्राह-न च नैव, साऽपि विवक्षा यद्यस्मात्कारणादजीवस्य, विशे० । जीवादीनामर्थानां प्रथमाऽप्रथमन्वविचारपरायणे घटादिष्वदशनात् । कितु मनस्त्वपरिणतान्वितद्रव्यसाचि- व्याख्याप्रशप्तिसूत्रस्य अष्टादशशतकप्रथमोद्देश। Jain Education Interational Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७३) अभिधानराजेन्डः। पढम. पढम तत्रत्या वक्तव्यता चैवम्-तत्र प्रथमोद्देशकार्थप्रतिपाद- । सिद्धिए वि । णोभवसिद्धिप्रणोप्रभवसिद्धिए णं भंते ! नार्थमाह जीवे णोभव० पुच्छा, गोयमा ! पढमे, णो अपढमे । णो" तेणं कालेणं, तेणं समएणं रायगिहे. जाव एवं व भवसिद्धिणोअभवसिद्धिए णं भंते ! सिद्धे णोभव०, एवं यासी-जीवे णं भंते ! जीवभावणं किं पढमे, अपढमे । पुहत्तेण वि दोएह वि। गोयमा ! णो पढमे, अपढमे । एवं णेरइए जाव वेमाणिए। ('भवसिद्धिए' इत्यादि ) भवसिद्धिक एकत्वेन, बहुत्वेन सिद्ध ण भंते ! सिद्धभावणं किं पढमे, अपढमे ?। गोयमा! च यथा आहारकोऽभिहित एवं वाच्यः-अप्रथम इत्यर्थः । पढमे, णो अपढमे । जीवा णं भंते ! जीवभावणं किं प- यतो भव्यस्य भव्यत्वमनादिसिद्धम्, अतोऽसौ भव्यत्येन ढमा, अपढमा ?। गोयमा ! णो पढमा, अपढमा । एवं जा- न प्रथमः । एवमभवसिद्धिकोऽपि । ('नोभवसिद्धिअनोत्रव वेमाणिया । सिद्धाणं पुच्छा, गोयमा ! पढमा, णो भवसिद्धिए णं' इत्यादि) इह च जीवपदम्, सिद्धपदं च षअपढमा । ड्विंशतिदण्डकमध्यात् संभवति, न तु नारकादीनि, नोभ वसिद्धिकनोअभवसिद्धिकपदेन सिद्धस्यैवाऽभिधानात् । त('तेणं' इत्यादि) उद्देशकद्वारसंग्रहणी चेयं गाथा क्वचिद् योश्चैकत्वे, पृथक्त्वे च प्रथमं वाच्यम् । दृश्यते-"जीवा-5ऽहारग-भवसरिण-लेसा-दिट्ठी य संजयकसाए । नाणे जोगु-वोगे, वेए य सरीर-पज्जती” ॥ १॥ संक्षिद्वारेअस्याश्चार्थ उद्देशकार्थाधिगमाधिगम्यः । तत्र प्रथमद्वाराभि. सएणी णं भंते ! जीवे सरिणभावेणं किं पढमे पुच्छा, धानायाऽऽह-('जीवे णं भंते !' इत्यादि) जीवो भदन्त!जी- गोयमा ! णो पढमे, अपढमे । एवं विगलिंदियवज्जं जाव वभावेन जीवत्वेन,किं प्रथमः प्रथमताधर्मयुक्तः। अयमर्थः वेमाणिए । एवं पुहत्तेण वि । असणी एवं चेव एगत्तकिं जीवत्वमसत् प्रथमतया प्राप्तम्, उत ( ' अपढमे 'त्ति) अप्रथमोऽनाद्यवस्थितजीवत्वः? इत्यर्थः । श्रनोत्तरम्-('नो पुहत्तेणं, णवरं-जाव वाणमंतरा। णोसपणीणोअसली जीवे, पढमे, अपढमे ' त्ति) इह च प्रथमत्वा-प्रथमत्वयोर्लक्षण- मणुस्से, सिद्धे पढमे, णो अपढमे । एवं पुहत्तेण वि। गाथा-"जो जेण पत्तपुवो, भावो सो तेणऽपढमश्रो होइ । ('सराणी' इत्यादि) संशी जीवः संशिभावेन अप्रथमः, जो जं अपत्तपुब्वं, पावइ सो तेण पढमो उ ॥१॥ ति । अनन्तशः संशित्वलाभात् । (“विगलिदियवज्जं जाव वेमा('एवं नेरइए' त्ति) नारकोऽप्यप्रथमः, अनादिसंसारे नार णिए 'त्ति) एक द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियान् वर्जयित्वा शेवा नाकत्वस्य अनन्तशः प्राप्तपूर्वत्वादिति । ('सिद्धे णं भंते !') रकादिधैमानिकान्ताः संशिनोऽप्रथमतया वाच्या इत्यर्थः । इत्यादौ ('पढमे त्ति) सिद्धेन सिद्धत्वस्य अप्राप्तपूर्वस्य प्राप्त एवमसंयपि । ('नवरं-जाव वाणमंतर' त्ति) असंशित्वत्वात्-तेनाऽसौ प्रथम इति । बहुत्वेऽप्येवमेवेति । विशेषितानि जीव-नारकादीनि व्यन्तरान्तानि पदानि अप्रआहारकद्वारे थमतया वाच्यानि, तेषु हि संज्ञिपि भूतपूर्वगत्याऽसंज्ञिआहारए णं भंते ! जीवे आहारभावणं किं पढमे, अ त्वं लभ्यते, असंधिनामुत्पादात् । पृथिव्यादयस्त्वसंक्षिन एव, पढमे । गोयमा ! णो पढमे, अपढमे । एवं जाव वेमाणि- | तेषां चाऽप्रथमत्वम्, अनन्तशस्तल्लाभादिति । उभयनिषेधए । पोहत्तिए वि एवं चेव । अणाहारएणं भंते ! जीवे अ- कपदं च जीव-मनुष्य-सिद्धेषु लभ्यते, तत्र च प्रथमत्वं णाहारभावेणं पुच्छा, गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपदये।। वाच्यम्, अत एवोक्तम्-('नोसरणी' इत्यादि) णेरइए जाव वेमाणिए णो पढमे, अपढमे । सिद्धे पढमे, णो लेश्याद्वारेअपढमे । अणाहारगाणं भंते ! जीवा अणाहारगा पुच्छा, सलेस्ते णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! जहा आहारए, एवं गोयमा ! पढमा वि, अपढमा वि । णरइया जाव वेमाणि पुहत्तेण वि । कराहलेस्से जाव सुकलेस्से एवं चेव । णवरं या णो पढमा, अपढमा । सिद्धा पहमा, णो अपढमा । ए जस्त जा लेस्ता अस्थि । अलेस्से णं जीवा, मणुकेके पुच्छा भाणियन्वा । .. स्सा, सिद्धा, नोसामीणोअसामी ॥ ('श्राहारए णं' इत्यादि) आहारकत्वेन नो प्रथमः,अनादिभवे ('सलेस्से णं ' इत्यादि) ('जहा श्राहारए ' ति) श्रअनन्तशः प्राप्तपूर्वत्वाद् श्राहारकत्वस्य । एवं नारकादिरपि । प्रथम इत्यर्थः, अनादित्वात् सलेश्यत्वस्य इति । ('वरं सिद्धस्तु आहारकत्वेन न पृच्छयते,अनाहारकत्वात् तस्येति । जस्त जा लेस्सा अत्थि ति) यस्य नारकादेर्या कृष्णादि('अणाहारए गं') इत्यादौ (सिय पढमे' त्ति) स्यादिति लेश्याऽस्ति, सा तस्य वाच्या । इदं च प्रतीतमेव । अले. कश्चिज्जीवोऽनाहारकत्वेन प्रथमः, यथा-सिद्धः । कश्चिच्चा श्यपदं तु जीव-मनुष्य सिद्धध्वस्ति, तेषां च प्रथमत्वं याच्य प्रथमः, यथा संसारी, संसारिणो विग्रहगतावनाहारक नोसंज्ञिनोअसंक्षिनामिवेति । एतदेवाऽऽह-('अलेस्से णं' त्वस्य अनन्तशो भूतपूर्वत्वादिति । ('एक्केके पुच्छा भाणि इत्यादि )। यब्व' ति) यत्र किल पृच्छावाक्यमलिखितं तत्र एकैक दृष्टिद्वारेस्मिन् पदे पृच्छावाक्यं वाच्यमित्यर्थः। सम्मदिट्ठीए णं भंते ! जीवे सम्मदिष्टिभावेणं किं पढमे ? भव्यद्वारे पुच्छा , गोयमा! सिय पढमे, सिय अपढमे । एवं एगिदिभवासिद्धिए एगत्त-पुहत्तेणं जहा आहारए । एवं अभव- यवज्जं जाव वेमाणिए । सिद्धे पढमे, णो अपहमे । पुहति ६४ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढम अनिधानराजेन्द्रः। पढम या जीवा पढमा वि, अपढमा वि, एवं जाव वेमाणिया । अकषायो जीवः स्यात् प्रथमः, यथाख्यातचारित्रस्य प्रथमसिद्धा पढमा, णो अपढमा । मिद्दिडीए एगत्त-पुहत्ते लामे स्याद् अप्रथमः, द्वितीयादिलाभे । एवं मनुष्योऽपि । सिद्धस्तु प्रथम एव सिद्धत्वानुगतस्याऽकषायभावस्य प्रथणं जहा आहारगा। सम्मामिच्छादिट्ठीए एगत्त-पुहत्तेणं मत्वादिति । जहा सम्मदिट्टी । णवरं-जस्स अत्यि सम्मामिच्छत्ते । शानद्वारे('सम्मट्टिीए णं' इत्यादि ) ('सिय पढमे, सिय अप णाणी एगत्त-पुहत्तणं जहा सम्पट्ठिी । आभिणिबोढमे' त्ति ) कश्चित् सम्यग्दृष्टिीवः सम्यग्दृष्टितया प्रथमः, यस्य तत्प्रथमतया सम्यग्दर्शनलाभः । कश्चिञ्चाऽप्रथ हियणाणी जाव मणपज्जवनाणी एगत्त-पुहत्तेणं एवं चेव । मः, येन प्रतिपतितं सम्यग्दर्शनं पुनर्लब्धमिति । ( एवं ए. णवरं जस्स जं अत्यि । केवलणाणी जीवे, मणुस्से, सिद्धे गिदियवज्ज ति) एकेन्द्रियाणां सम्यक्त्वं नास्ति, ततो ना- य एगत-पुहत्तेणं पढमा, णो अपढमा । अएगाणी मइ. रकादिदण्डकचिन्तायामेकेन्द्रियान् वर्जयित्वा शेषः स्यात् अण्णाणी, सुअण्णाणी, विभंगणाणी एगत्त-पुहतेणं प्रथमः, स्याद् अप्रथम इत्येवं वाच्यः, प्रथमसम्यक्त्वला. भापेक्षया प्रथम, द्वितीयादिलाभापेक्षया त्वप्रथमः । सिद्ध जहा आहारए । स्तु प्रथम एव, सिद्धत्वाऽनुगतस्य सम्यक्त्वस्य तदानीमेव (‘णाणी' इत्यादि ) ('जहा सम्महिट्टि' त्ति) स्यात् भावात् । ('मिच्छादिट्ठी' इत्यादि) (जहा आहारग' त्ति) प्रथमः, स्याद् अप्रथम इत्यर्थः । तत्र केवली प्रथमः, अकेवएकत्वे, पृथक्त्वे च मिथ्यादृष्टीनामप्रथत्वमित्यर्थः , अना. ली तु प्रथमज्ञानलामे प्रथमः,अन्यथा त्वप्रथम इति। ('नवरंदित्वाद् मिथ्यादर्शनस्येति ।( 'सम्मामिच्छादिट्ठी' इत्यादि) जं जस्स अत्थि' त्ति) जीवादिदण्डकचिन्तायां यद् मति(जहा सम्मदिट्ठि' त्ति) स्यात् प्रथमः, स्याद् अप्रथमः प्रः | ज्ञानादि यस्य जीव-नारकाइरस्ति तत् तस्य वाच्यमिति । थमे-तरसम्यगमेथ्यादर्शनलाभापेक्षया इति भावः। ( न- तच्च प्रतीतमेव । (केवल नाणी' इत्यादि ) व्यक्तम् । वरं जस्स अस्थि सम्मामिच्छत्तं ति) दण्डकचिन्तायां यः | ['अन्नाणी इत्यादि जहा आहारए ' त्ति अप्रथम इत्यर्थः, स्य नारकादेर्मिश्रदर्शनमस्ति स एवेह प्रथमा-प्रथमचि- अनादित्वेन अनन्तशोऽज्ञानस्य सभेदस्य लाभादिति । म्तायामधिकर्तव्यः। योगद्वारेसंयतद्वारे सजोगी, मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी एगत्त-पुहसंजते जीवे, मणुस्से य एगत्त-पुहत्तणं जहा सम्मदिट्टी। त्तेणं जहा आहारए । णवरं-जस्स जो जोगो अस्थि । असंजए जहा आहारए। संजयाऽसंजए जीवे पंचिंदिय अजोगी जीव-मणुस्सा सिद्धा एगत्त-पुहत्तेण पढमा, णो तिरिक्वजोणिय-मणुस्से एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्मद्दि अपढमा । ही । णोसंजए, णोअसंजए, णोसंजयाऽसंजए जीवे, | (सजोगी' इत्यादि] एतद् अपि आहारकवद् अप्रथम सिद्ध य एगत्त-पुहत्तेणं पढमे, णो अपढमे ।। मित्यर्थः। ('जस्त जो जोगो अस्थि 'ति) जीव नारका. ('संजए' इत्यादि) इह च जीवपदं मनुष्यपदं च-पते द्वे एव दिदण्डकचिन्तायां यस्य जीवाइयों मनायोगादिरस्ति, स स्तः-तयोश्चैकत्वादिना यथा सम्यग्दृष्टिरुक्तः, तथाऽसौ तस्य.वाच्या, स च प्रतीत एवेति । ('अजागी' इत्यादि) वाच्यः स्यात् प्रथमः, स्यादप्रथम इत्यर्थः । एतच्च संयम- जीवो मनुष्यः सिद्धश्च अयोगी भवति, स च प्रथम एवेति । स्य प्रथमे-तरलाभापेक्षयाऽवसेयमिति । ('असंजए जहा आ. उपयोगद्वारेहारए' त्ति ) अप्रथम इत्यर्थः, असंयतत्वस्य अनादित्वात् । सागारोवउत्ता, अणागारोवउत्ता एगत्त-पुहत्तणं जहा ( 'संजयाऽसंजए' इत्यादि ) संयताऽसंयतो जीवपदे, अणाहारए । पञ्चेन्द्रियतिर्यपदे, मनुष्यपरे च भवति, इत्यत एतेषु एक ('सागार' इत्यादि) ('जहा प्रणाहारए' त्ति) साकास्वादिना सम्यग्दृष्टिवद् वाच्यः-स्यात् प्रथमः, स्यादप्रथम इत्यर्थः। प्रथमा-प्रथमत्वं च प्रथ-तरदेशविरतिलाभापेक्ष रोपयुक्ताः, अनाकारोपयुक्ताश्च यथाऽनाहारकोऽभिहितस्तयेति । ('नोसंजए, णोअसंजए इत्यादि) निषिद्धसंयमा-सं था वाच्याः, ते च जीवपदे स्यात् प्रथमाः, अनादित्वात् तल्लाभस्य । सिद्धपदे तु प्रथमाः, नो अप्रथमाः, साकारायम-मिश्रभावो जीवः, सिद्धश्च स्यात् स च प्रथम एधेति । ऊनाकारोपयोगविशषितस्य सिद्धत्वस्य प्रथमत एव भाकषायद्वारे वादिति । सकसायी कोहकसायी० जाच लोभकसायी एगत्तणं, पु. वेपद्वारेहत्तेणं जहा आहारए । अकसायी जीवे सिय पढमे, सिय सवेदगोजाव णसावेदगो एगत्त-पुहत्तेणं जहा आहाअपढमे । एवं मणुस्से वि | सिद्ध पढमे, णो अपढमे । रए। णवरं जस्स जो वेदो अत्यि। अवेदश्रो एगत्त-पहलेपुहत्तेणं जीवा, मणुस्सा पढमा वि, अपढमा वि । सिद्धा णं तिसु वि पदेसु जहा अकसाई । पढमा, णो अपढमा । ( सवेदग इत्यादि जहा आहारए ' ति ) अप्रथम ('सकसायी' इत्यादि) कपाथिण आहारकवदप्रथमाः एवेत्यर्थः। ('नवरं- जस्स जो दो अस्थि' त्ति) जीवादिअनादित्वात् कपायित्वस्येति । ('अकसाथी' इत्यादि) दराडकचिन्तायां यस्य नारकादेयों नपुंसकादिवेदोऽस्ति स Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढम अभिधानराजेन्दः। पढमवय तस्य वाच्यः, स च प्रतीत एवेति । ( अवेषश्रो' इत्यादि) पढमाजण-प्रथमजिन-पुं० । प्रथमे रागादीनां जेतरि, अवेदको यथा अकषायी तथा वाच्यखिष्वपि पदेषु जीव । | "उसमेणामं अरिहा कोसलिए, पढमराया, पढमाजणे, मनुष्य-सिद्धलक्षणेषु । तत्र च जीव-मनुष्य-पदयोः स्यात् पढमकेवली, पढमतित्थंकरे, पढमधम्मवरचक्कवट्टी समुप्रथमः, स्याद् अप्रथमः, अवेदकत्वस्य प्रथमे-तरलाभापेक्षया। सिद्धस्तु प्रथम एवेति। प्पज्जित्था"। शरीरद्वारे प्रथमजिनः प्रथमो रागादीनां जता, यद्वा प्रथमो मनःप. ससरीरी जहा आहारए । एवं कम्मगसरीरी । जस्स जं र्यवज्ञानात्, राज्यत्यागादनन्तरं द्रव्यतः, भावतश्च साधुप दवर्तित्वेन, अत्राऽवसर्पिण्यामस्यैव भगवतः प्रथमतस्तद्भअत्यि सरीरं । णवरं-आहारगसरीरी एगत्त-पुहत्तेणं जहा वनात् । जिनत्वं च अवधि मनःपर्यवः केवलज्ञानिनां स्थासम्मट्टिी । असरीरी जीवो, सिद्धो एगत्त-पुहत्तेणं पढ- नाङ्गे सुप्रसिद्धम् । अवधिजिनत्वे तु व्याख्यायमाने क्रममो, णो अपढमो। बद्धसूत्रमिति श्रोतृणां प्रति ज्ञायत । जं. २ वक्षः । कल्प० । ('ससरीरी' इत्यादि ) अयमपि श्राहारकवद् अप्रथम पढमहाणि-प्रथमस्थानिन्-त्रि० । ' पढमठाणि ' शब्दार्थ, एवेति । ('नवरं-श्राहारगसरीरी' इत्यादि जहा सम्मदि- पञ्चा० १६ विव०। टुिंति) स्यात् प्रथमः, स्याद् अप्रथम एवेति । पडमठाणि-प्रथमस्थानिन्-त्रि० । अव्युत्पन्नबुद्धौ, पञ्चा० पर्याप्तिद्वारे १६ विव। पंचहि पज्जत्तीहि, पंचहिं अपज्जत्तीहिं एगत-पुहत्तण ज- पढमतणुतिग-प्रथमतनुत्रिक-न। प्रथमा श्राद्या यास्तनवः हा आहारए। गवरं जस्स जा त्थि, जाव वेमाणिया हो। शरीराणि तासां त्रिकं त्रितयं तत्र औदारिक वैक्रिया 55. पढमा, अपढमा। हारकस्वरूपे आये शरीरत्रये, कर्म १ कर्म । ('पंचाहिं ' इत्यादि ) पञ्चभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तकः, तथा पढमतित्थंकर-प्रथमतीर्थडुर-पुं० । आद्य चतुर्वर्णसंघसंस्थापपञ्चभिरपर्याप्तिभिरपर्याप्तक आहारकवद् अप्रथम इति । के उदिततीर्थकृन्नामनि तीर्थकरे,ऋषभे जं:२ वक्ष कल्प० । ( ' जस्स जा अस्थि' ति) दण्डकचिन्तायां यस्य याः पढमदियह-प्रमदिवस-पुं० । आधदिने, यथा प्रतिष्ठोत्सपर्याप्तयः सन्ति तस्य ता वाच्याः, ताश्च प्रतीता एवेति । वे अधिवासनादिनम् । पञ्चा०८ विव०। अथ प्रथमा-प्रथमलक्षणाभिधानाय पढमादिवस-प्रथमदिवस-पुं० । 'पढमदियह' शब्दाथें, पञ्चा० आह, इमा लक्खणगाहाजो जेण पत्तपुचो, भावो सो तेण अपढमो होइ। ८ विव० । सेसेसु होइ पढमो, अपत्तपुब्बेसु भावेसु ॥१॥ पढमधम्मवरचक्वट्टि-प्रथमधमेवरचक्रवर्तिन-पुं० । प्रथमो ध मवरो धर्मप्रधानश्चक्रवर्ती । यथा चक्रवर्ती सर्वत्राऽप्रतिहत('जो जेण' गाहा ) यो भावो जीवत्वादिः, येन जीवा वीर्येण चक्रेण वर्तते तथाऽयमपीति भावः । प्रथमे धर्मनायदिना कर्चा, प्राप्तपूर्वोऽवाप्तपूर्वो भावः पर्यायः, स जीवादि के, जं०२ वक्ष। स्तेन भावेन अप्रथमको भवति । ('सेसेसु' त्ति)सप्तम्या. स्तृतीयार्थत्वात् शेषैः प्राप्तपूर्वभावव्यतिरिक्तैर्भवति प्रथमः, पढमपयावइ-प्रथमप्रजापति-पुं० । श्रीऋषभदेवे, इक्ष्वाकूणां किंस्वरूपैः शरैः ? इत्याह-अप्राप्तपूर्ववैरिति गाथार्थः। महाराजे, स्था० ६ ठा०। भ० १८ श०१ उ०। पढमपाउस-प्रथममा-पुं०।श्रापाढे,प्रावृऋतौ, “श्रासाढी पढमंगपरिमाण-प्रथमाङ्गपरिमाण-न० । प्रथमाङ्गसंख्यायाम, पढमपाउसो" "अहवा छरहं उतूणं जेण पढमी पाउसो व. प्रथमाङ्गस्याष्टादशसहस्रपदानि सन्ति,तत्रैकपदप्रमाणं किय रिणज्जति तेण पढमपाउसो भएणति" नि० चू० १० उ० । स्? इति प्रश्ने, उत्तरम्-पढमं पायारंगं अट्ठारसपयसहस्लप- स्था । पुंस्त्वं चाऽस्य "प्रावृट् शरत्-तरणयः पुंसि"॥८ रिमाणं पर सेसंगा वि य दुगुणा दुगुणपमाणाई"॥२॥ एवमे १॥ ३१ ॥ इति सिद्धहेमसूत्रेण । प्रा० १ पाद। कादशाङ्गानां त्रिकोटी,सप्तपष्टिलक्षाः,चत्वारिंशत्सहस्रपदानि | पढमभिक्खा-प्रथमभिक्षा-स्त्री । निष्क्रमणानन्तरं प्रथमल. भवन्ति । तत्रैकपदस्य ५१,०८,८६,८४० एतावन्तः श्लोका ब्धभिक्षायाम, यथा “संवच्छरेण भिक्खा, लद्धा उसमेण अष्टाविंशत्यक्षराणि च भवन्ति, इत्यनुयोगद्वारवृत्ताविति ॥ लोगनाहेण । सेसहि धीयदिवसे. लद्धाश्रो पढमभिक्खाओ" ८३ प्र० । सेन०३ उल्ला० । श्रा० म०१ श्रा पढमकरण-प्रथमकरण-न। पाद्यपरिणामविशेष, पश्चा०३ पढमभिक्खायर-प्रथमभिक्षाचर-पुं।ऋषभदेवे, तेनैव प्रथम विव। भिक्षायाः प्रवर्तितत्वात् । कल्प. १ अधि ७ क्षण । पढमकसाय-प्रथमकपाय-पु. ।अनन्तानुवन्धिसंज्ञिकपायेषु, पढमराय (याण)-प्रथमराज-पुं० । ऋषभदेवे,इहाऽवसर्पिण्यां क. प्र.२ प्रक० । पं० सं । नाभिकुलकराऽऽदिष्टयुग्मिमनुजैः, शक्रेण च प्रथममभिषि पढमकेवलि-प्रथमकेवलिन्-पुं०। श्राद्यसर्वशे ऋषभदेवे,जं. २ वक्षः। पढमवय-प्रथमवयम्-पुं० । कुमारत्वे, श्रा० म०१ अ.। - पढमचंदजोग-प्रथमचन्द्रयोग-पुं० । प्रथमे प्रधाने चन्द्रयोगे, स्त्वं चास्य " नमदाम-शिरो-नभः" ॥८।१।३२॥ इति कल्प.२ अधिः४क्षण । सिद्धहमसूत्रेण । प्रा०१ पाद् । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमसमय अभिधानराजेन्डः। पढिदण पढमसमय-प्रथमसमय-त्रि० । प्रथमः समयः प्राप्तो यस्य स सू०प्र० 'सि (सु)-औ-जस्' इति वचनत्रयात्मिकायां प्रतथा । उत्पत्तिप्रथमसमये, स्था०८ ठा० । नं०। थमाविभक्तौ । “णिद्देसे पढमा होइ" अनु० । स्था० । पढमसमयउववामग-प्रथमसमयोपपन्नक-त्रि०। प्रथमः समय पहमाणुओग-प्रथमानुयोग-पुं० । तीर्थकरादिपूर्वभवादिव्याउपपन्नानां येषां ते प्रथमसमयोपपन्नकाः । प्रथमसमयोपप- | ख्यानग्रन्थे, स्था० १० ठा। त्तिकेषु, स्था० २ ठा० १ उ०। ('अपढमसमयउववरणग' पढमालिया-प्रथमालिका-स्त्री० । सर्वेभ्यः साधुभ्यः प्रथममेव शब्दे प्रथमभागे ५६६ पृष्ठे अस्य दण्डक उक्तः) किश्चिद् भोजने, ध० ३ अधि । विशुद्धपिण्डं गृहीत्वा पढमसमयएगिदिय-प्रथमसमयैकेन्द्रिय-त्रि० । प्रथमः समयो त्रिभिः कारणैस्तत्र बहिरपि प्रथममालिकां करोतील्याशा । येषामेकेन्द्रियत्वस्य ते प्रथमसमयाः, ते च ते एकेन्द्रिया- कारणानि च-उष्णकालः, संघाटकोऽसहिष्णुः, क्षपकश्चेति । श्चेति विग्रहः । एकेन्द्रियत्वप्रथमसमयवर्तिनि प्राणिनि, यतः-"पुरिसे, काले, खवगे, पढमालिश्र तीसु ठाणेसु" स्था० १० ठा। त्ति । तत्र चायं विधिः--अप्राप्तायां भिक्षावेलायां पर्युषितानं पढमसमयएगिदियणिवत्तिय-प्रथमसमयैकेन्द्रियनिर्वर्तित गृहीत्वा जघन्यतस्त्रिभिः, उत्कर्षतश्च पञ्चभिः कवभिक्षापुं० । प्रथमः समयो येषामेकेन्द्रियत्वस्य ते तथा. ते व ते भिर्वा अन्यपाते, एककरे वा कृत्वैकान्ते प्रथममालयति । गुएकेन्द्रियाश्चेति प्रथमसमयैकेन्द्रियास्तैः सद्भिर्य निर्तिताः वर्थ तु एकस्मिन् मात्रके भक्तम, द्वितीये च संसक्तपानकर्मतयाऽऽपादिता अविशेषतो गृहीतास्ते तथा । प्रथमसम कं पूर्वमेव पृथक्कुर्यादिति । तत्राऽपि क्षेत्राद्यतिक्रान्तादियैकेन्द्रियैः कर्मतामापादितेषु पुद्गलेषु, स्था० १० ठा०।। दूषण रहितमेव भोक्तव्यस्,न पुनस्तद्दोषसाहतस; तस्य य तीनामकल्प्यत्वात् । तदुक्तम्पढमसमयचगरिदिय-प्रथमसमयचतुरिन्द्रिय-त्रि० । चतुरिन्द्र "जमणुग्गए रविम्मिश्र, ताव खित्तम्मि गहिअसणाई। यत्वस्थ प्रथमसमये वर्तमाने प्राणिनि, स्था०१० ठा० । कप्पड़ न तमुवभुत्तुं खित्ताइअंति समश्रो ति ॥१॥ पढमसमयजिण-प्रथमसमयजिन-पुं० । प्रथमः समयो यस्य असणाईअं कप्पई, कोसदुगभंतराउ आणेउं । स तथा, स चाऽसौ जिनश्च सयोगिकेवली प्रथमसमयजि- परी.अाणिज्जंतं, मग्गाइअंति तमकप्पं ॥२॥ नः । प्रथमसमयकेवलिनि, स्था० ४ ठा० १ उ०। पढमप्पहराणीयं, असणाई जईण कप्पए भत्तं । पढमसमयणेरइय-प्रथमसमयनरायक-विक नैरायकत्वस्य प्र. जाव तिजामे उहुं, तमकप्पं कालहक्कतं ॥ ३ ॥ इति । ध०३ थमसमये वर्तमाने प्राणिनि, स्था० १० ठा। अधि० । वृ० । श्रोघ०। पढमावलिया-प्रयमावलिका-स्त्री०। श्राद्यावलिकायाम-"पपढमसमयतेइंदिय-प्रथमसमयत्रीन्द्रिय-त्रिका त्रीन्द्रियत्वप्रथ ढमाऽवलियाए एगमेगाए" प्रथमा उत्तरोत्तरावलिकापेक्षया मसमयवर्तिनि जीवे, स्था० १० ठा०। श्राद्याश्चतस्र श्रावलिका यस्मिन् स प्रथमावलिकाकः, तपढमसमयसजोगिभवत्थकेवलनाण-प्रयमसमयसयोगिभव अ अथवा प्रथमा मूलभूताद् विमानन्द्रका प्रारभ्य या स्थ केवलज्ञान-न । प्रथमसमये (वर्तमानः) सयोगीचा. चावलिका विमानानुपूर्वी, अथवा उत्तरोत्तरावलिकापेक्षया सौ भवस्थश्च प्रथमसमयसयोगिभवस्थः, तस्य केवलशा- एकैकस्यां दिशि या प्रथमा श्राद्या श्रावलिका । तस्याम्, स० नम्, प्रथमसमयवर्तिसयोगिभवस्थसंबन्धिकेवलज्ञाने, स्था० ६२ सम। २ ठा.१ उ०। पढमिल्लुग-प्रयमे (मि) लुक-त्रि० । प्रथममेव प्रथमेल्लुपढमसमयसिद्ध-प्रथमसमयसिद्ध-त्रि० । सिद्धत्वस्य प्रथमसमये | कम, देशीवचनत्वात्, विशे। आये, श्राव० ५ ० । उत्त। वर्तमाने आत्मनि, स्था. ४ ठा. १उ०।" पढमसमय-| संथा। पं. व० : "पढमिल्लुगम्मि ठाणे, दोहि वि लहुगा" सिद्धस्स णं चत्तारि कम्मंसा जुगवं खिज्जंति। तं जहा-धेय. वृ. १ उ० ३ प्रक०। णिज्जं, आउयं, णाम, गोयं” स्था० ४ ठा० १ उ०। पढमिब्लगसंघयण-प्रथमसंहनन-त्रि० । वज्रऋषभनाराचसंपढमसमोसरण-प्रथमसमवसरण-न० । वर्षाकाले, “ बितियस- हननोपेते, पं० व ५द्वार० । मोसरणं उदुबद्धं, तं पडुच्च वासावासोग्गहो पढमसमो पढिअपठित्वा-श्रव्य । "क्त्व इअ-दूणौ" ॥८।४।२७१॥ सरणं भरणति"। (द्वितीयसमवसरणमृतुवद्धस्, तत् प्रती. इत्यनेन क्त्वाप्रत्ययस्य शौरसेन्यामिश्रादेशः। ' भणित्वा' त्य वर्षावासावग्रहः प्रथमसमवसरणं भरायते ) निचू | इत्यर्थे, शौरसेनीसत्कोऽयं शब्दः । प्रा० ४ पाद । १ उ.। वृ०। (प्रथमसमवसरणे वस्त्रग्रहणं' वत्थ' शब्दे) "पढमसमवसरणं, ठवणा, जेटोग्गहो ति एते एगट्ठिया " | पढित्ता-पठित्वा-श्रव्यः । 'भणित्वा' इत्यर्थे, 'पठित्वा' इ. नि० चू० १० उ०। त्यतः संस्कृतरूपादेव निष्पन्नोऽयस्' ॥८।४ । २७१ ॥ सूत्र पढमसरयकालसमय-प्रथमशरत्कालसमय-पुं० । मार्गशीर्षे, | चाऽस्य निर्देशः । प्रा०४ पाद । समयभाषया मार्गशीर्ष-पाश शरद् अभिधीयते, तत्र मार्ग पहिदण-पठित्वा-अव्य० । “क्त्व इश्र-दूणी" ॥ ८।४। शीर्षस्य प्रथमत्वात् । भ०१५श। २७१ ॥ इत्यनेन क्वाप्रत्ययस्य दूणादेशः। भणित्या' इत्यपढमा-प्रथमा-खी प्रतिपल्लक्षणायां तिथी, प्र०१३ पाहु। थे, प्रा०४ पाद । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७७) पढिमा अनिधानराजेन्द्रः। पढिमा पढिमा-प्रतिमा-स्त्रीय।"चूलिकापैशाचिके तृतीय-तुर्ययोरा यतः स्वयं पूर्वधरस्ततः पूर्व दत्तोपयोगोभविष्यति, पूर्वधरा. द्य-द्वितीयौ " ॥८।४ । ३२५ ॥ इति सूत्रे निर्दिष्टी ऽऽशया च प्रतिमा प्रतिपन्नोऽस्तीति प्रश्न उत्तरस-यथा प्रतिऽयं शब्दः । बिम्बे, प्रा० ४ पाद । अभिग्रहविशेषे, "तत्सं. माप्रतिपत्तुः स्वयं पूर्वधरत्वम् तथाऽऽशादातुरपि,तथाऽपित योश्छमस्थत्वे तस्मिन्समये श्रुतोपयोगाभावोऽपि भवति तेन बन्धिप्रतिष्ठितं जिनबिम्बं वन्धं तर्हि ते कथं न वन्द्याः । स कथं चुभ्यति इत्याशङ्कानिरवकाशः इति।१४२प्र० सेन०३ इति प्रश्ने, उत्तरम्-"पासत्थो उसनो फुसीलसंसत्तउ अ उल्ला पञ्चशतधनुःप्रमाणायाःप्रतिमायाः पूजनं कया युक्त्या हाछंदो। दुगदुगदुगेण तिविहा, अवंदणिज्जा जिणमयम्मि" देवैर्विधीयते किंच कुर्य्यादुत्प्लुत्य वा ? तत्र राजप्रश्नीयमध्ये ॥१॥ इत्यादिवचनात्तेषामवन्द्यत्वम्, प्रतिमानां त्वन्यतीथिकपरिगृहीतप्रतिमाव्यतिरेकाणान्यासां वन्द्यत्वमस्तीति । महत्परिमाणशरीरं सूर्याभदेवेन कृतमित्युक्तम्, उत्प्लुत्य तु न शोभते, यथा भवति तथा प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम्१३० प्र०। सेन०२ उल्ला० । अभिनिवेशमिथ्याकूप्रतिष्ठि प्रतिमानुसारेण देवाः शरीरं कृत्वापूजां कुर्वन्ति, अनभिधातं जिनबिम्बं वन्द्यतां प्राप्तं तत्र किं बीजम् ? इति प्रश्ने, उत्तरम्-श्रात्मपूर्वसूरिभिस्तद्वन्दनादौ अनिवारणमेव बीजम् किं. ने त्वविवव बीजामति संभाव्यते।१८३ प्रासेन०३ उल्ला। जिनालये क्षेत्रपालप्रतिमाया मानने,पूजने, सिन्दूरचढापने च च शास्त्रेऽभिनिवेशमिथ्याष्टित्वं निन्हवानां प्रोक्तम्, सांप्र सम्यक्त्वस्य दूषणं लगतिन वाइति प्रश्ने,उत्तरम् क्षेत्रपालप्रतीना रक्तमतिनो दिगम्बरं विहाय निन्हवा इति न व्यवहि तिमायाः क्षेत्ररक्षाकरत्वेन सिन्दूर-तैलचढापने दूषण न लगयन्ते, तथैव गुर्वादीनामाशासद्भावादिति । १३१ प्र० । सेन० ति,मानने तु सम्यक्त्वस्य दूषणं लगतीति । २१७ प्र०। सेन०३ २ उल्ला० । अप्रतिष्ठितजिनबिम्बमर्चयतः, पादादिनाऽऽशात. उल्ला० अष्टम्यां प्रतिमायां खयमारम्भकरणनिषेधोऽस्ति.तत्र यतो वा लाभालाभौ न वा ? इति ।लाभश्चेत्तर्हि प्रतिष्ठायां कि सचित्तपुष्पादिभिः पूजां करोति न वा? इति प्रश्ने उत्तरम्-तत्र प्रयोजनम् ? इति प्रश्ने, उत्तरम्-अप्रतिष्ठितप्रतिमानां वन्दने पूजां करोति परंप्रयोगेण सचित्तपुष्पादिभिः कारयति,परंतत्र व्यवहारो नास्तीति कथं लाभः? अाशातनाकरणे तु प्रत्यवा स्वयं सचित्तपुष्पादिभिः पूजां न करोतीति । २२६ प्रनसेन०३ यो भवत्येव, तासु तीर्थकराकारोपलम्भादिति ॥१३३ प्र०। उल्लाग पञ्चम्यां प्रतिमायां कच्छटिकावालनं निषिद्धमस्ति तसेन०२ उल्ला० । श्राद्धविधिवृत्ती प्रतिमायाः सृष्ट्या नवाङ्ग दाश्रित्य कश्चिद्वक्ति-रात्रौ चतुर्दितु कायोत्सर्गे एव कच्छटिका तिलककरणमुक्तं तत्र प्रथमं किंवामपादे तत्कर्तव्यम् अथवा न वालनीयाऽन्यदा सर्वकालं कच्छटिका वालनीयैव तदाधि. दक्षिणपादे ? इति प्रश्ने, उत्तरस-जिनप्रतिमायाः पूजाकरणा- त्य,कथमस्ति?इति प्रश्ने, उत्तरम्-पञ्चमीप्रतिमाती बद्धकच्छ वसरे नवाङ्गेषु तिलकानि दक्षिणचरणादारभ्याऽङ्गसृष्ट्या इत्येवं ग्रन्थे दृष्टमस्तीति कायोत्सर्गकाले पव कच्छटिका मो. विधेयानीति २१३ प्रवासेन०२ उल्ला०। प्राचार्यादीनां प्रतिमा- च्येति यो वक्ति स एवं प्रष्टव्यः-एवंविधान्यक्षराणिक सन्ति ? स्तूप-प्रतिष्ठाऽक्षराणि कुत्र ग्रन्थे सन्ति ? इति प्रश्ने, उत्तरस- इति। ३०७प्रासेन०३उल्लासचन्दनवत्प्रतिमानां कस्तूरीलेपः आचार्यमूर्ति स्तूपयोःस्थापनमन्त्रो यथा-"उँनमो आयरिया- क्रियते नयेति प्रश्न उत्तरम्-जिनप्रतिमानां कस्तूरीलपोन कि. ६. भगवंताणं, नाणीणं, पंचविहायारसुट्टियाणं; इह भगवंतो यत इत्यक्षराणि न सन्ति,प्रत्युत सामान्यतस्तत्करणाक्षराणि प्रायोरमा अवयरंतु, साहु-साहुणी-सावय-सावित्रापूयं प- श्राद्धविध्यादा सन्ति, यक्षकईममध्यगता तु कस्तूरी सांप्रडिच्छंतु, सब्वसिद्धिं दिसंतु स्वाहा” अनेन मन्त्रेण वासक्षे तमपि जिनार्चने व्यापार्यमाणा दृश्यते इति । ३६५ प्र०ा सेन पः । उपाध्याय-मूर्तिस्तूपयोः "उँनमो उवज्झायाणं, भगवंता. ३ उल्ला० । प्रतिष्ठितजिनप्रतिमाविक्रयकारिभिः समुच्छेदितणं, बारसंगपढणपाढगाणं,सुनहराणं, सज्झायज्माणसत्ताणं; नाम-लक्षणाः श्राद्धैव्यव्ययेनगृहीताः सन्ति.तेन तन्नामोचा. इह उवज्झाया भगवंतो अवयरंतु, साहु-साहुणी सावय सा- रावसरे कस्य जिनस्येयं प्रतिमेति वक्तुं कथं शक्यते? ततो वियापूनं पडिच्छंतु, सव्वसिद्धिं दिसंतु" अनेन मन्त्रेण वा यदि लक्ष्मादिकरणविधिर्भवति तर्हि तथा प्रसाद्यमिति प्रश्ने, सक्षेपः। साधु-साध्वीमूर्ति स्तूपयो:-"ओनमो सव्वसाहूणं,भ उत्तरम् प्रतिष्ठितजिनप्रतिमानामभिधान-लक्षणादि प्रायस्तु गवंताणं, पंचमहब्वयधराणं, पंचसमियाणं, तिगुत्ताणं, तव न कर्त्तव्यम् पुनः प्रतिष्ठाकरिशातत्वादिकारणेन यद्यावश्यक नियम पाण-सणजुत्ताणं, मुक्खसाहगाणं, साहुणो भगवंतो कर्त्तव्यं भवति तदा तद्विधाय प्रतिष्ठितवासक्षेपादिना शुद्धि. इह अवयरंतु भगवईउ साहुणीउ इह अवयरंतु, साहु-सा- भवतीति ज्ञायते इति । ४१ प्र.। सेन०४ उल्ला० । श्राहुणी सावय-सावित्राकयं पूनं पडिच्छंतु, सब्वसिद्धिं दिसंतु वकः, श्राविका वा चतुर्थीपौषधप्रतिमा वहते, तस्य सास्थाहा” अनेन मन्त्रेण वासक्षेप इत्याचारदिनकरे श्रीवर्द्ध माचार्यनुसारेण चतुर्विधाहारपोषधः कर्त्तव्यः कथितोऽस्ति, मानसूरिकृते, इत्यादिग्रन्थानुसारेण प्राचार्यादीनां प्रतिमा- तथा समवायाङ्गवृत्त्यनुसारेण तु त्रिविधाहारः संभवति, स्तूपप्रतिष्ठापनाक्षराणि ज्ञेयानीति ॥ ७ प्र० । सेन०३ उल्ला। तस्मात्त्रिविधाहारपौषधं विहाय चतुर्थी प्रतिमां वहते,किंवा विक्रयकारिसमुच्छेदितनाम लाञ्छनानां प्रतिष्ठिताहत्प्रति न? इति प्रश्ने,उत्तरम् प्रवचनसारोद्धारादिग्रन्थे श्राद्धचतुर्थमामां पुनर्लक्ष्मादिकरणं शुद्धयति नवा? इति प्रश्ने, उत्तरम- प्रतिमायां चतुष्पीदिने परिपूर्पश्चतुष्पकारपौषधः कथितो. तासामभिधान लक्ष्मादिकरणं प्रायोन शुद्धयति, कदाचित्का- ऽस्ति, तदनुसारेणाऽटप्रहरपौषधश्चतुर्विधाहारोपवासः करणे यद्यावश्यकं कर्तव्यं स्यात् तदा तद्विधानानन्तरं प्रतिष्ठि- र्तव्यो युज्यते,परं सामाचार्यनुसारेणैतावान् विशेषी शायतेतवासक्षेपादिना शुद्धिर्भवतीति श्रीभगवत्पादानामनुशिष्टिरि। यत्पक्षिकायां षष्टकरणशक्तिर्न भवति तदा पूर्णिमायाति ॥ २५ प्र० । सेन०३ उल्ला० । प्रतिमाधरो यतिर्यदि परीष- ममावस्यायां त्रिविधाहारीपवासस्तथाऽऽचाम्लशक्त्यभावे हादिना न तुभ्यति तदाऽवधिज्ञानादि प्राप्नोति,यदि च तुभ्य- निर्विकृतिकमपि कर्त्तव्यम्, तत्र प्रथमोपवासस्तु शास्त्रानुसा ति तदोन्मत्तरोगातङ्कादिवा प्राप्नुयात् परं स कथं तुभ्यति?| रेण चतुर्विधाहारोपवासः कर्त्तव्य इति ज्ञायते । समवायाङ्ग Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / (३७८) पढिमा अभिधानराजेन्डः। पगढपव्व वृत्त्यनुसारेण तु त्रिविधाहारोपवासः कर्त्तव्य इति व्यक्तिर्न से किं तं पगगसुहुमे । पगगसुहुमे पंचविहे परमत्ते । तं शायते । ४८ प्रासेन०४ उल्ला अष्टमप्रतिमा-नवमप्र. जहा-किण्हे, नीले, लोहिए, हालिदे, सुकिले । अत्थि तिमयोरारम्भवर्जनस् दशमप्रतिमायां सावद्याहारवर्जनं च क्रियते,अन्यथा वा? इति प्रश्ने, उत्तरम्-अष्टमप्रतिमायामार- | पणगसुहुमे दव्वसमाणवरमे नाम पएणत्ते । जे छउमत्येणं म्भोऽष्टमासान् यावत् खकायेन त्यज्यते. नवम्यामप्यारम्भो वा निग्गंथेणं वा, णिग्गंथीए वा जाव पडिलेहियव्वे भवइ । नवमासान् यावत्परेण न कार्यते, दशम्यां च दशमासान् या. | से तं पणग-सुहुमे । वत्स्वार्थनिष्पन्नाऽऽहार-पानीयादिवस्तु न गृह्णाति, परार्थनि. ('से किं तं पणगसुहुने')तत् कः सूक्ष्मः पनक::गुरुराह-('पपनाहारादिकं तु गृह्णाति इति । १३२ प्रा सेन०४ उल्ला०। णगसुहुमे पंचविहे परणत्ते') सूक्ष्मपनकः पश्चविधःप्रसप्तः। परपक्षिणां प्रतिमास्थापनादिके प्रतिष्ठा अर्प्यते न वा? इति (तं जहा') तद्यथा-(किरहे जाव सुकिल्ले') कृष्णः यावत् शुप्रश्ने, उत्तरम्-यदि ततस्तदाशातना न भवति तदा तत्पः । क्लः (अस्थि पणगसुहुमे तद्दव्वसमाणवन्नए नाम पन्नत्ते')तिष्ठापणे न कार्या बाधेति । १३६ प्र०। सेन. ४ उल्ला०। । स्ति सूदमः पनका, यत्रोत्पद्यते तद्रव्यसमानवर्णः प्रसि. प्रथिमन्-पुं०। पृथुत्वे। द्धः प्रक्षप्तः। ('जे छउमत्थेणं निग्गंथेणं वा, निग्गंथीए वा पढिय-पठित-त्रि० । अधीते, पञ्चा० १६ विव० । जाव पडिलेहिअव्वे भवई') यश्छमस्थेन साधुना, साध्व्या पढियब्व-पठितव्य-त्रि० । अन्वाख्यानविधिना अध्येतव्ये, पं. यावत् प्रतिलेखितव्यः भवति । पनक उल्ली; स च प्रायः प्रावृषि भूकाष्ठादिषु जायते; यत्रोत्पद्यते तद्रव्यसमवर्णसू०१ सूत्र। श्व ('नाम पन्नत्ते') इत्यत्र नाम प्रसिद्धौ ( से तं पणगसुहुमे) पण-पण-न। पानतादिषु विमानभेदे, स०१६ सम। स सूक्ष्मपनकः। कल्प०३ अधिक्षण। पञ्च-पञ्चसंख्यायाम्। पणगाइ-पञ्चकांदि-न० । समयभाषात्वात् पञ्चक दशकप्रपणअ-पनक-पुं० । देशी-पङ्के, दे० ना०६ वर्ग ७ गाथा । भृतौ प्रायश्चित्ते, पञ्चा० १५ विव० ।। पणपत्ति-देशी-प्रकटिते, दे० ना० ६ वर्ग० ३० गाथा । पण-प्रनष्ट-त्रि० । प्रकर्षण नष्टो दृष्टयगोचरतां गतः । उत्त. पणअन्न-पञ्चाशत-त्रि। पंचावण' शब्दार्थे, (अस्मिन्नेव ४ अ. अदृश्यतां गते, अपगते, सूत्र०१ श्रु. १०२ उ० । भागे ५४ पृष्ठे अस्य साधना दृश्या) पणइ-प्रणयिन-त्रि० । स्नेहयुक्ते, " रमणो कतो पणई,पा- पणजम्मणक्खत्त-प्रनष्टजन्मनक्षत्र-न. । अज्ञानजन्मभे, त त्परिज्ञानमग्रेतनशब्दे । ज्यो० २० पाहु । णसमो पियसमो दहश्रो" पाइ० ना०६१ गाथा । पणग-पञ्चक-न । पञ्चावयवे समुदाये । पञ्चरूपकमूल्ये, पणदीव-अनष्टदीप-त्रि० । प्रनष्टसम्यक्त्वे, उत्त०४ अ वृ०३० ।'पणग' त्ति समयभाषात्वात् पञ्चक-दशक- पणट्टपब्व-प्रनष्टपर्वन्-न । क्षयपर्वणि, ज्यो । प्रभृतिना क्रमेण प्रायश्चित्तवृद्धिर्वधनं यथा यथा विकटयती. तश्चैवम्-अमावस्या पौर्णमासीप्रतिपादकैकोनविंशतितमाति प्रकृतम् इह च लघावऽतीचारे पञ्चकं नाम प्रायश्चित्त. त् प्राभृतादनन्तरं प्रनटपर्वप्रतिपादक विंशतितमं यथानुम्। ध०२अधि। पूर्व्या क्रमेण वक्ष्यामि, प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिपनक-पुं० आगन्तुकप्रतनुद्रवरूपकर्दमे, वृ०६ उ० । "प्रा. जइ कोई पुच्छेज्जा, मूरे उद्वितियम्मि अभियस्स। गंतूयपयणुभो, दुश्री पणश्रो" आगन्तुकप्रतनुको द्रुतश्च प नका, वृ०६ उ० । स्था०। प्रतले कर्दमविशेषे, भ०७श.६ एका कला, पडिपुन्ना किं पव्वं का तिही होइ । उ० । प्रश्न । पञ्चवर्णे साकुरे, अनङ्कुरे वा अनन्तवन कोऽपि शिष्यः पृच्छति यदि सूर्य उत्तिष्ठति उदयमाने श्र. स्पतिविशेष, वृ०४ उ० । नि० चू० । काष्ठादौ उल्लीविशेषे, भिजितो नक्षत्रस्य एका परिपूर्ण कला सप्तपष्टिभागरूपा श्राचा०१ श्रु०१०२ उ० । श्राव.। कल्प० प्रा००। चन्द्रमसा प्रतिपत्ता भुक्ता भवति तदा तस्मिन् दिवसे कि पनक उल्लिरिति वनस्पतिविशेषः । दश०८ अ । नि० पर्व वर्तते,का वा तिथिः? एवं शिष्येण प्रश्ने कृते सति सूरिः चू । पिं० । प्रज्ञा । दशा। शेषनक्षत्रदर्शनादिति विवक्षितं नष्टपर्व जानीयादिति । तद्विषयं करणमाह. पणगजीव-पनकजीव-पुं। पनकश्चासौ जीवश्च पनकजीवः, नं. । वनस्पतिविशेषे, विशे। (तस्य शरीरमानमतिसूक्ष्म नक्ख ताउ अभिजि-मुपादाय संखिवेऊण । स्, एतच्च 'श्रोहि' शब्दे प्रथमभागे १४६ पृष्ठेऽदर्शि)। इच्छिअकलूणकालम्मि, इणमो भवे करणं इसित्ता ॥ पणगमट्टिया-पनकमृत्तिका-स्त्री० । पृथ्वीकायभेदे,स च नद्या. नक्षत्रात् पूर्वमभिजितमुपादाय याः कलास्ता एकत्र संदिपूरलावितदेशे नद्यादिपूरेऽपगते यो भूमौ अक्षणमृदुरूपो क्षिपन् मीलने ततो या [इसित्ता] विवक्षिताः कलास्ताजलमलाऽपरपोयः पङ्कः स पनकमृत्तिका; तदात्मका जीवा भिरूने काले सति इदं वक्ष्यमाणं भवति करणम् । अपि अभेदोपचारात् पनकमृत्तिका । जी०१ प्रतिप्रज्ञा। तदेवाह छेऊण इच्छियं तेरसेहि तिनउइपडितं तु । पणगसुहम-पनकसूक्ष्म-न। पनक उल्ली, स च प्रायःप्रावृटकाले भूमिकाष्ठादिषु पञ्चवर्णस्तद्रव्यलीनो भवति स एव संगुणए अट्ठारस-हि सएहिं तीसेहिं भइया । सूक्मस् । स्था०८ ठा० । सूक्ष्मभेदे, कल्प० । तम्मि एगसट्ठीउ, विभत्ते जं लद्धा ते य होति पक्रदेवा। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्डपञ्च ( ३७६ ) अभिधानराजेन्द्रः | पारसभागलद्धा, पत्रमा असगा व तिही ॥ दिया अपनी मीप्सितकलारूपं यत् शेर्पा सभ्यते रात्र त्रयोदशभिः शतस्त्रिनवत्यधिकभजेत् फ्ते च सति यत् शेषमतेि तत्प्रतिराश्यते प्रतिराश्य च तस्मि कथा प्रविभक्ते च सति यल्लभ्यते ते प्रक्षिप्ताः प्रक्षेपणीया राशयो ज्ञातव्याः तेषु च प्रतिक्षिप्तेषु प्रतिराशौ, तस्य पञ्चदशभिर्भागे ते यलभ्यते तानि पर्वाणि यानि अंशास्तु तिथयः एवं करणगाथाक्षराचे संप्रति भावना कि यते तत्र यत्पृष्टम् उदयति सूर्ये अभिजित एका कला चन्द्रमसा भुक्ता स्यात् तत्तस्मिन् दिवसे किं पर्व वर्तते, का वा तिथिः ? इति । तत्र सा एका कला त्रयोदशभिः शतैस्त्रिनवतिअधियजातानि त्रयोदश शतानि त्रिनवत्यधिकानि १२६३ तेषामष्टादशनिः शतैखिनवत्यधिकैर्भागो न लभ्यते इति शेषः करणविधिविधीयते । तत्र प्रयोदश शतानि ि नवत्यधिकानि प्रतिराश्यन्ते प्रतिराश्य च मूलराशेखिय या भागी हिते, लन्धा द्वाविंशतिः२२ सा प्रतिराशी प्रतिक्षिप्यते जातः प्रतिराश्वितुर्दश शतानि पञ्चदशोणि १४१५ तेषां यह दशभिर्भागो हियते लग्धाः चतुतिः ३४ शेषास्तिष्ठन्ति पञ्च, आगतं च पुनर्नवतितमे पर्वणि पञ्चम्यामुदयति सूर्य अभिजितः कला चन्द्रमसा प्रतिपन्ना भवति तदा किं पर्व वर्तते का वा तिथिरिति । तत्राभिजितः कला एकविंशतिः, श्रवण नक्षत्रस्य सप्तषष्टिः, धनिष्ठाया एका कलेति। सर्वकलनेन जाता एकोननवतिः खिता धनिष्ठासाका एका शोध्येत स्थिता पचाशीति एवं राशि प्रयोदशभिः शतैखिनचत्यधिकैर्गुणयेत् जातमेकं लक्षं त्रयोविंशतिसहस्राणि नय शतानि सप्तत्यधिकानि १२३६७७ तेषामष्टादशभिः शतेभागो हियते लग्धं त्यज्यते स्थितानि शेषाणि त्रयोदश शतानि सप्तषष्ट्यधिकानि १३६७ तानि प्र. तिराश्यन्ते १३६७ तत श्रादिमस्य राशेरेकषष्ट्या भागहरणं सध्या द्वाविंशतिः सा प्रतिराशी व प्रदिष्यते जातानि त्रयो दश शतानि नचाशीत्यधिकानि १३०३ तेषां पञ्चदशभिगो न्दियते लब्धा द्विनवतिः, शेषास्तिष्ठन्ति । तत श्रागतं द्वि. नवतितमे पर्वणि नवम्यामुदयति स्यै धनिष्ठाया एका क. ला चन्द्रमसा प्रतिपन्नेति, एवं सर्वत्रापि भावना भावनीया । सम्पति नजन्मनक्षत्र परिज्ञानार्थकरणमाहसमझकिए वासे, कोइ पुग्छेज्ज जम्मनक्खतं । जायरस बरिससंख पचाणि तिर्हि व डाविज्जा छिन् ॥ वरिससंखं पंच, सेसाणि कुणसु पचाणि । ततो उ वट्टमाणं, सोहेज्जा एवं तिहिरासिं ॥ " वसेसं साहितो, संपयकालमिव आणए व सव्वं । जं जं इच्छसि किंचि, अणागयं वा वि खेवेणं ॥ (समर) समतिक्रान्तेषु पाँपु कोऽपि स्वकीयं जन्मनक्षत्रं पृच्छेत्, यथा किं मम जन्मकाले नक्षत्रमासीत् ?, इति । एवं पृष्ठ सति ज्ञातस्य सतस्तस्य या वर्षसंख्या अति क्रान्ता तां पर्वाणि, तिथीश्च स्थापयेत्, स्थापयित्वा च वर्ष संख्यां पञ्चविषयां हन्यात् किमुक्तं भवति पञ्चवरूपा छित्वा च शेषाणि संख्या खुर्द सहते वावती हिम्यान या शेप या नि वर्षाणि तिष्ठन्ति तानि पर्वाणि कुरु, कृत्वा च पर्वराशि पयमिय पर्व मानः पर्वपुरुषः संप्रदायान् चतुरशीतिसंख्यो वर्तमानः समस्तोऽपि एक मीयते ततो वर्तनानं पराशिम तिथिराशिररूपः इत्यंभूतं च वर्तमानं पर्वराशि तिथिराशि शोधाअवधिराशि व प्रक्षिपेत् प्रक्षिप्य पाधिकयुगपशपवित्या शेवं पूर्वोपदेशन कुर्यात् एप करण गाथाक्षरार्थः । भावना स्वियस - कस्यापि जातस्य नव वर्षाणि त्रयो मासाः एकः पक्षः, पञ्च दिवसाः एष जातस्य कालः । अत्र किं चन्द्रनक्षत्रम्, सूर्यनक्षत्रं वा ? । श्रत्र स्थापना प्रथमतः सर्वोपरि नव वर्षा धियन्ते तेषामधस्तात् ये मासाः तेषां वाऽधस्तात् पञ्चमी । अत्र वर्षराशेः पञ्चसंज्ञितेन युगेन भागो न्हियते स्थितानि शेषाणि च त्वारि तानि पर्वाणि कर्तव्यानि तत्र वर्षे चतुर्विंशतिः प र्वाणि ततश्चत्वारः चतुर्विंशत्या गुण्यते जाता परणवतिः, aिy मासे पद पर्वाणि तान्यपि तत्र प्रक्षिप्यन्ते ब वयेकोऽधिको मासः संवृत्तस्तत्र च द्वे पर्वणी ते अपि प्रक्षिप्ते यदि चैकं पर्व, तदपि तत्र प्रक्षिप्तम् जातं सर्वसंख्यया पोरं पर्वत तो वर्तमानानि चतुरशीतिपर्वाणि शोच्यन्ते स्थितानि शेषाणि एकविंशतिः पर्वाणि पञ्चतोऽ अष्टौ न शुध्यन्ति तत् एकविंशतेरेकं रूपमादाय पञ्चदश भागाः क्रियन्ते, ते च पञ्चदश पञ्चसु मध्ये प्रक्षिप्ता जाता विंशतिस्ततोऽशुद्धा स्थिता द्वादश आगतं युगादी विशते पर्वसु गतेषु द्वादश्यां चन्द्रगतं सूर्यगतं वा यत् नक्ष त्रं तत् तस्य नक्षत्रमवसेयस्। यथायोगमन्यस्याऽपि जन्मनक्षत्रमानतपस एवमनागतमपि जन्मनक्षत्रमानविवयमिति । इति श्रीमलयगिरिविरचितायां ज्योतिष्करण्डकटीका यां नष्टपर्वप्रतिपादकं विंशतितमं प्राभृतं समाप्तम् । ज्यो २० पाहु० । , पणठवाबाह-प्रनष्टव्यावाध - त्रि० प्रकर्षण नष्टाः क्षीणा व्याबाधा येषां ते तथा सर्वयाबाधवर्जितेषु, पं० सू० १ सूत्र । पसंधि प्रनष्टसन्धि नि० । सर्वथाऽनुपलच्यमाण पत्रा - त्रि० । यसन्धी, प्रव० ४ द्वार । प्रशा० । परातीस पञ्चत्रिंशत् श्री० । पञ्चाधिकत्रिशसंख्यायाम्, स० ६८ सम० । पराद्ध प्रणद - त्रि० । परिगते, श्र० । 1 3 पणपन्निय- पञ्चप्रज्ञप्तिक-पुं० । व्यन्तरभेदे, प्रव० १६४ द्वार । पबंध पचन्ध पुं० । प्रतिज्ञा • ०१०[यथोदाहरणम् उप्पनिया शब्दे द्वितीयभागे ८५७ पृष्ठ [उदाहृतम्] स ( होड ) नियमविशेषचन्ने, यदि भवा निर्यात इदमहं भवते दास्यामीति समयकरणं पणबन्धः । वाच० । 6 परामऊण प्रणम्य अव्य० प्रकर्षेण भावपूर्वक मनोचाकायैर्नत्वत्यर्थे ध० १ अधि० । श्राव० । पणमिच्छ पञ्चमिध्यात्व न०पञ्चकारे मिध्यात्वे कर्म० ४ कर्म० 0 1 - - ० । परामय ममित नतुमारभे प्रशन्दस्यादिकमर्थित्वात् । श्रघ० । ज्ञा० । जं० । - Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८०) पणमुत्ति अन्निधानराजेन्छः। पणिहाण पणमुत्ति-पणमुक्ति-स्त्री० । राजकुले व्यवहारविशेषे, आ० पणियघर-पण्यगृह-न० । 'पणियगिह' शब्दार्थे, प्राचा० २ म०१०। श्रु०१ चू० २ १०२ उ०। पणय-प्रणत-त्रि.1 निम्ने, रा०। जं० । प्रहीभूते, सूत्र० १ पणियद्र-पणितार्थ-पुं०। पण्यवस्तुनि, दश०७०। प्राणिश्रु०२ अ०३ उ० । आचा० । प्राप्ते, सूत्र०१ श्रु० ४ अ० १ उ० । खर्वे, स्था० ४ ठा० १ उ० । [अत्र चतुर्भङ्गी 'पुरिसजाय' द्यूतप्रयोजने, दश०७०। शब्दे वक्ष्यते पणियभंड-पणितभाएड-ना पणितं व्यवहारस्तदर्थ भाण्ड. प्रणय-पुं० । स्नेहे, शा०१ श्रु०६०। म्, पणितं वा क्रयाणकं तद्रूपं भाण्डं न तु भाजनमिति पणि. पणयखेइय-प्रणयखेदित-न० । प्रणयरोषणे, शा०१श्रु०६अ। तभाएडम् । पणितार्थभाण्डे, भ० १५ श० । पणयभंग-प्रणयभङ्ग-पुं प्रार्थनाभङ्गे, बृ०३ उ०। पणियभूमि-पणितभूमि-स्त्री० । भाण्डविश्रामणस्थाने, भ० १५ श० । वज्रभूम्याख्याऽनार्यदेशे, कल्प०१ अधि०६ क्षण । पणयासण-प्रणतासन-न० । निम्नासने, जी०३ प्रति०४ अ. तत्र हि वीरस्वामिनामेकं चातुर्मास्यं जातस् ।। धि०। रा००। पणव-पणव-पुं० । भाण्डपटहे, लघुपटहे च । जं० ३ वक्षः। तए णं अहं गोयमा ! गोसालेणं मंखलीपुत्तेणं सद्धिं परा०। प्रश्न । भ० । कल्प० । शा० । पणवो भारडपटहो ल णियभूमीए ब्वासाई लाभ, अलाभ, सुहं. दुक्खं, सकारं, घुपटह इत्यन्ये । औ००। असक्कारं पच्चणुभवमाणे अणिच्चजागारियं विहारत्था । पणस-पनस-पुं०। [कटहर ] वृक्षभेदे, प्राचा० २ श्रु० २ पणितभूमेरारभ्य प्रणीतभूमौ विहृतवानिति योगः । भ० चू०१३ अ०। १५ श०। पणसुन्न-पश्चशून-ज०। पंचसुरण 'शब्दार्थे, प्रव० ३५ द्वार। प्रणीतभूमि-स्त्री०। मनोभूमिः । भ० १५ श०। पणाम-प्रणाम-पुं० । नमस्कारे, पातु । विनये, आव०२०। पणियसाला-प (णित ) एयशाला-स्त्री० । हट्टे, प्राचा० १ प्रणिपाते, स चोत्कृष्टतः पञ्चाङ्गो ज्ञातव्यः । संघा० १ अधिक शु० शाह अ०२ उ० । “पणियसाला जत्थ भायणाणि वि मा०1"तिन्नि चेव पणामा" संघा०१ अधि०१ प्र- कति वाणिय कुम्भकारो वा एसा पणियसाला । नि० चू० स्ता० । [पणामत्रिकस् 'चेश्यवंदण' शब्दे तृतीयभागे १२६८ १६ उ० । श्राचा० । घङ्घशालायास्, दशा० १० अ०।। पृष्ठे व्यख्यातम्] कोलालियावणो खलु, पणिसाला............" | अर्पि-धा० । “अरल्लिवचंचुप्पपणामाः" ॥८।४। ३६॥ इति | कोलालिकाः कुलालक्रयविक्रयिणस्तेषां श्रापणः पणितशाअर्पर्यन्तस्य पणामादेशः । पणामइ । अर्पयति । प्रा०४ पाद । ला मन्तव्या। किमुक्तं भवति-यत्र कुम्भकारा भाजनानि वि पणामय प्रणामक-त्रि० । प्रणामयन्ति प्रापयन्ति, दुर्गतिमि- | क्रीणते, वणिजो वा कुम्भकारहस्ताशाजनानि क्रीत्वा यत्रा ति प्रणामकाः । शब्दादिविषयेषु,सूत्र०१ श्रु०२ १०२ उ०। पणे विक्रीणन्ति सा पणितशाला । वृ०२ उ०। पणामहज्ज-प्रणामहार्य-त्रि० । उपलक्षणत्वात् प्रणामदानादि- पणिवइय-प्रणिपतित-त्रि० । नमस्कृते, नं०।। नाऽऽवर्जनीये, पिं०। पणिवाय प्रणिपात-पुं०। प्रणमने, पञ्चाङ्गः प्रणिपातः। दप्रणामित्र-प्रणामित-त्रि० । नमस्कृते, " पणामिअं दिसमुव- ०१ तत्त्व । संघा। णीअं" पाइ० ना० १८४ गाथा । पञ्चाङ्गप्रणिपातादीनां व्याख्यानायाऽऽह.. पणायग-प्रणायक-त्रि० । प्रकर्षेण स्वतन्त्रतया नायके, व्य० दो जाणू दोम करा, पंचमगं होइ उत्तिमंगं तु । १उ०। सम्मं संपणिवाओ ओ पंचंगपणिवाओ ॥ १८॥ पणालिया-प्रणालिका-स्त्री० । पारम्पर्ये, सूत्र०१ श्रु०१३१०।। द्वे जानुनी अष्ठीवन्ती । द्वौ करौ हस्ती, पञ्चममेव पञ्चपणास-प्रणाश-पुं०। अपनयने, प्रा०म० १० । श्राव। मकं भवति वर्तते; उत्तमाङ्गं तु शिर एव इत्यनेन पञ्चाङ्ग उच्छेदे, विशे०। इति व्याख्यातस् । अथ प्रणिपातव्याख्यानायाऽऽह-एतैरेव प. पणि-देशी त्रि० । प्रकटे, दे. ना० ६ वर्ग ७ गाथा। अचाभरङ्गैः सम्यग् भक्तितो भून्यासतः यः स प्रणिपातः प्रपणिदि-पश्चेन्द्रिय-पुं०। पञ्चेन्द्रियपर्याप्तिपर्याप्ते, कर्म०२ क- णामोऽसौ शेयो ज्ञातव्यः । पञ्चाङ्गप्रणिपातः पूर्वोक्तचि. म । प्रश्न। र्वचन इति गाथार्थः । पञ्चा० ३ विव०। पणिज्जंत-प्रणीयमान-त्रि०।वश्ये,अधीने,कृतलौकिकसंस्कारे पणिवायदंडय-प्रणिपातदण्डक-पुं० ।" नमोऽत्थु णं अरहच, वाच०। ताणं भगवंताणं" इत्यादिके सूत्रे.ध०२ अधि०। (अत्राला. पणिय-पणित-न०। भाण्डे, शा. १ श्रु० १०। विक्रेये व- पकाः सम्पदश्च 'चेइयवंदण' शब्दे तृतीयभागे १३१८ पृष्ठे स्तुनि. रा । होडादिके व्यवहारे, शा. १ श्रु० ३ ०। व्याख्याताः) पणियगिह-पण्यगृह-न०। पण्याऽपणे, प्राचा०२ श्रु०१ चू० पणिहाण-प्रणिधान-न० । चेतःस्वास्थ्ये, व्य० १ उ० । ग०। २०२ उ०। जत्थ भराई अच्छति तं पणियगिहं " नि० उत्त०। दश। प्रव० । ऐकाये, द्वा०५द्वा० । प्रशस्तावधा. चू०१२ उ०। | ने, द्वा०२२ द्वा०। चित्तोपयोगे, पञ्चा०३ विव। पं० सू०। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणिहाण अनिधानराजेन्द्रः । पणिहि रढाध्यवसाये, आव०४ अ न्तःकरणवृत्ती, सूत्र०२९० पणिहाण-प्रणिधानवत-त्रिका एकाग्रमनसि, उस०१६अ। २१०। पणिहाणं ति वा, अज्झवसाणं ति वा, चिटुं ति "संकाठाणाणि सव्वाणि वज्जेज्जा पणिहाण " उत्त. वा एगट्ठा । नि० चू०१ उ० ! प्रणिहितिः प्रणिधानम् । १६ अ०। एकाग्रतायास, स्था। पणिहाणजोगजुत्त-प्रणिधानयोगयुक्त-वि। प्रणिधानं चेतःविधा प्रणिधान प्रतिपादयति स्वास्थ्यस. तत्प्रधाना योगा व्यापारास्तैर्युक्तः समन्वितः तिविहे पणिहाणे पसत्ते। जहा-मणपणिहाणे, वयप- प्रणिधानयोगयुक्तः । व्य० १ उ० । दश । प्रणिधानं मन. णिहाणे, कायपणिहाणे । एवं पंचेंदियाणं जाव वेमाणिया. स शुभमैकाम्यं तद्रूपस्तत्प्रधानो वा योगो व्यापारस्तेन युक्तोऽन्वितः । अथवा-योगो मनोनिरोधस्ततश्च प्रणिणं । तिविहे मुप्पणिहाणे पलत्ते, तं जहा-मणसुप्पणिहा धान-योगाभ्यां युक्तो यः स तथा। पञ्चा०१५ विव०। प्रणे, वयसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे। णिधानरूपयोगैः, प्रणिधान-योगाभ्यां वा युक्ते । “पणिप्रणिहितिः प्रणिधानमेकाग्रता, तब मनःप्रभृतिसम्बन्धि- हाणजोगजुत्तो, पंचहि समितीहि तीहिं गुत्तीहि " पंचा०१५ भेदात् विविधेति । तत्र मनसः प्रणिधानं मनःप्रणिधानस, विव० । सम्म। एषामितरे । तच्च चतुर्विशतिदण्डके सर्वेषां पञ्चेन्द्रियाणां पणिहाणपुरम्सर -प्रणिधानपुरस्सर-पुं० । प्रणिधानमेकाम्यं भवति,तदन्येषां तु नास्ति, योगानां सामस्त्येनाऽभावादिति। तत्पुरस्सरम् । उपयोगप्रधाने, पौरविव। अत एवोक्तस्-(एवं पंचेंदिया-इत्यादीति)। प्रणिधानं हि धान र पणिहाय-प्रणिधाय-श्रव्याश्रित्येत्यर्थे, भ०१५ श० । अशुभाशुभमेदस् । अथ शुभमाइ-('तिविहे' इत्यादि) सामान्य पेचयेत्यर्थे, झा०१श्रु.१००। सूवम् । विशेषमाश्रित्य चतुर्विशतिदण्डकचिन्तायां मनुष्या. णामेव, तनाऽपि संयतानामेवेदं भवति, चारित्रपरिणामरू पणिहि-प्रणिधि-पुं० । प्रणिधाने, मनसो विशिष्टकाप्रत्ये, पत्वादस्येति । (सुप्रणिधान-दुष्पणिधानस्वरूपं स्वस्व. प्रश्न ५सम्ब० द्वार० । पाचू । प्रणिधानमवधानं चरश्च । स्थाने) स्था०३ ग०१०। है । दश। __ चतुर्धा प्रणिधानम् प्रणिधिनिक्षेपःचउबिहे पणिहाणे पामते । तं जहा-मणपणिहाणे, व जो पुचि उद्दिडो, यारो सो अहीणमइरित्तो । यपणिहाणे, कायपणिहाणे, उवगरणपणिहाणे । एवं नेरइ दुविहो य होइ पणिही, दव्वे, भावे य नायवो ॥५६॥ यः पूर्व क्षुल्लकाचारकथायामुद्दिष्टः श्राचारः सोऽहीनातिरियाणं । पंचेंदियाणं जाव वेमाणियाणं। क्तस्तदवस्थ एवेहापि दृष्टव्यः इति वाक्यशेषः । सुराणत्वाप्रणिधिः प्रणिधानं प्रयोगः, तत्र मनसः प्रणिधानमार्त-रौ- नाम-स्थापन अनादृत्य प्रणिधिमधिकृत्याऽऽह-द्विविधश्च द्रधर्मादिरूपतया प्रयोगो मनःप्रणिधानस् । एवं वाक्काययो- भवति प्रणिधिः । कथम् ? इत्याह-द्रव्य इति द्रव्यविषयः । रपि । उपकरणस्य लौकिक-लोकोत्तररूपस्य वस्त्र-पात्रादेः भाव इति भावविषयश्च ज्ञातव्यः। इति गाथार्थः ॥५६॥ संयमाऽसंयमोपकाराय प्रणिधानं प्रयोग उपकरणप्रणिधान तत्रस् । (पवमिति ) यथा सामान्यतस्तथा नैरयिकाणामिति । दव्ये निहाणमाई, मायपउत्ताणि चेव दव्वाणि । तथा चतुर्विंशतिदण्डकपठितानां मध्ये ये पञ्चेन्द्रियास्तेषा भावेदिय-नोइन्दिय, दुविहो उ पसत्थ अपसत्थो ॥६०॥ मपि वैमानिकान्तानामेवमेवेति । स्था०४ ठा०१ उ० । दर्श०। प्रयोगे, श्राव०६अ।। द्रव्य इति द्रव्यविषयः प्रणिधिर्निधानादि, प्रणिहितं नि धानं निक्षिप्तमित्यर्थः । श्रादिशब्दः स्वभेदप्रख्यापकः। मायाकइविहा णं भंते ! पणिहाणे पालत्ते । गोयमा ! तिविहे प्रयुक्तानि चेह द्रव्याणि, द्रव्यप्रणिधिः पुरुषस्य स्खीवेषण पणिहाणे पएणते । तं जहा-मणपणिहाणे, वइपणिहाणे, पलायनादिकरणम् । स्त्रिया वा पुरुषवेषेण चेत्यादि । तथा कायपणिहाणे । णेरइयाणं भंते ! कइविहे पणिहाणे परम भाव इति । भावप्रणिधिविधः-इन्द्रियप्रणिधिः, मोहन्द्रि यप्रणिधिश्च । तत्र इन्द्रियप्रणिधिद्धिविधः-प्रशस्तोऽप्रशस्तते । एवं चेव । एवं जाव थणियकुमारा । पुढवीकाइयाणं श्च । इति गाथार्थः ॥ ६॥ पुच्चा, गोयमा ! एगे कायपणिहाणे पएणत्ते, एवं जाव व प्रशस्तमिन्द्रियप्रणिधिमाहः-- णस्सइकाइयाणं बेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा! दुविहे पाण- सद्देसु य रूवेसु य, गंधेसु रसेसु, तह फासेसु । हाणे पएणत्ते । तं जहा-बइपणिहाणे य, कायपणिहाणे न विरजइ न वि दुस्सइ, एसा खलु इंदिअप्पा ही ॥६॥ य। एवं जाव चरिंदियाणं । सेसाणं तिविहे जाव वेमाणि- शब्देषु च, रूपेषु च, गन्धेषु, रसेषु, तथा च स्पर्शषु-पतेष्वियाणं । भ०१८ श०७ उ०। न्द्रियार्थेविष्टाऽनिष्टेषु चक्षुरादिभिरिन्द्रियैोऽपि रज्यते, नाऽपि द्विष्यते । एष खलु माध्यस्थ्यलक्षणः इन्द्रियाणिधि: (प्रणिधानलक्षणम् 'धम्म' शब्देचतुर्थभागे २६७० पृष्ठे गतम्) प्रशस्तः । इति गाथार्थः।। ('जय वीयराय!जगगुरु! होउ मम' इत्यादि प्रणिधानसूत्रं 'चेहयवंदण' शब्दे तृतीयभागे १३२० पृष्ठे व्याख्यातम्) ('णि अन्यथा त्वप्रशस्तः, तत्र दोषमाहयाण' शब्दे चतुर्थभागे २१०५ निदानकरणदोषविचार उक्तः) | साइादअरस्साह उ, मुकाहि सहमाच्छा ६६ पपाणा Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणिहि (३८२) अनिधानराजेन्द्रः। पणिहि आइयइ प्रणाउत्तो, सदगुणसमुट्टिए दोसे ॥६२॥ उपसंहरमाहश्रोत्रेन्द्रियरश्मिभिः श्रोत्रेन्द्रियरज्जुभिः मुक्ताभिरुच्छ- एसो दुविहो पणिही, सुद्धो जइ दोसु तस्स तेसिं च । लाभिः । किमित्याह शब्दमूछितः शब्दगृद्धो जीवः, प्रा. एत्यो पसत्यमपसत्थ-लक्षणमझप्पनिष्फलं ॥ ६८॥ दत्ते गृह्णाति अनुपयुक्तः सन्, कान् ? इत्याह-शव्दगुणसमुः। एषोऽनन्तरोदितो द्विविधः प्रणिधिः इन्द्रिय-नोइन्द्रियत्थितान् दोषान्-शब्द एवेन्द्रियगुणस्तत्समुत्थितान् दोषान् लक्षणः शुद्ध इति निर्दोषो भवति । यदि योर्वाधाऽभ्यबन्ध-वधादीन् श्रोत्रेन्द्रियरज्जुभिरादत्त इति गाथार्थः । म्तरचेष्टयोः तस्येन्द्रिय-कषायवतस्तेषां चेन्द्रिय कषायाणां शेषेन्द्रियातिदेशमाह सम्यग् योगो भवति । एतदुक्तं भवति-यदि बाह्यचेष्टायाजह एसो सद्देसुं, एसेव कमो उ मेसरहिं पि। मभ्यन्तरचेष्टायां च तस्य प्रणिधिमतः इन्द्रियाणां कषा. चाहिं पि इंदिरहिं, रूवे, गंधे, रसे, फासे ॥ ६३ ॥ याणां च निग्रहो भवति, ततः शुद्धः प्रणिधिः, इतरथा त्वयथेष शम्वेषु शब्दविषयः श्रोत्रेन्द्रियमधिकृत्य दोष उक्तः, शुद्ध एवमपि तत्त्वनीत्याऽभ्यन्तरैव चेष्टेह गरीयसी इत्याहएष एव क्रमः शेषरपि चक्षुरादिभिश्चतुर्भिरपीन्द्रियैर्दोषा अत एवमपि तत्त्वे प्रशस्तं चारु, तथाऽप्रशस्तमचारुलक्षणं मिधाने दृष्टव्यस्तद्यथा-"चक्खिदियरस्सीहि उ" इत्यादि। प्रणिधेरध्यात्मनिष्पन्नमध्यवसानोद्गतम् । इति गाथार्थः । अत पवाऽऽह-रूपे, गन्धे, रसे, स्पर्श, रूपादिविषयः । इति एतदेवाऽऽहगाथार्थः। माया-गारवसहिओ, इंदिय-नोइंदिएहिं अपसत्यो । अमुमेवार्थ दृष्टान्ताभिधानेनाऽऽह धम्मत्या अपसत्थो, इंदिअ-नोइंदिअप्पणिही ॥६६॥ जस्स खलु दुप्पणिहिया-णि दियाई तवं चरंतस्स। माया गौरवसहितः मातृस्थानयुक्तः,ऋद्धयादिगौरवयुक्तसो हीरइ असहाणेहिं सारही वा तुरंगेहिं ॥ ६४ ॥ श्वेन्द्रिय-नोइन्द्रिययोर्निग्रहं करोति;मातृस्थानत ईर्यादिप्रत्युयस्य खल्विति-यस्याऽपि दुष्प्रणिहितानीन्द्रियाणि पेक्षणं द्रव्यक्षान्त्याद्यासेवनस्; तथा--यादिगौरवावेत्यप्रविश्रोतोगामीनि, तपश्चरत इति तपोअप कुर्वतः । शस्त इत्ययमप्रशस्तः प्रणिधिः। तथा धर्मार्थ प्रशस्त इति मास तथाभूतो व्हियते अपनीयते, इन्द्रियैरेव निर्वाणहेतो या-गौरवरहितो धर्मार्थमेवेन्द्रिय-नोइन्द्रियनिग्रहं करोति श्चरणात् । दृष्टान्तमाह-अवाधीनैरववशैः, सारथिरिव रथ यः स तदभेदोपचारात् प्रशस्तः सुन्दरः इन्द्रियनोइन्द्रियनेतेव, तुरङ्गमैरवैरिति गाथार्थः । उक्त इन्द्रियप्रणिधिः । प्रणिधिर्निर्जराफलत्वाद् इति गाथार्थः। नोइन्द्रियप्रणिधिमाह साम्प्रतमप्रशस्ते-तरप्रणिधेर्दोष गुणावाहकोहं, माणं, मायं, लोभ, च महब्भयाणि चत्तारि । अट्ठविहं कम्मरयं, बंधइ अपसत्थपणिहिमाउत्तो। . जो रुंभइ सुद्धप्पा, एसो नोइंदिअप्पणिही ॥६५॥ तं चेव खवेइ पुणो, पसत्थपणिहीसमाउत्तो ॥ ७० ॥ क्रोधम्, मानम्, मायाम्, लोभं चेति; एषां स्वरूपमनन्तानु अष्टविधं शानावरणीयादिभेदात्कर्मरजो बध्नाति श्रादत्ते । बध्यादिभेदभिन्नं पूर्ववत् । एत एव महाभयानि चत्वारि, का? इत्याह-अप्रशस्तप्रणिधिसमायुक्तः प्रशस्त-प्रणिधी सम्यग्दर्शनादिप्रतिबन्धरूपत्वात् । एतानि यो रुणद्धि शुद्धा व्यवस्थित इत्यर्थः। तदेवाष्टविधं कर्मरजः क्षपयति पुनः। त्मा उदयनिरोधादिना; एष निरोद्धा क्रोधादिनिरोधपरि कदा ? इत्याह-प्रशस्तप्रणिधिसमायुक्त इति गाथार्थः । णामानन्यत्वात् नोइन्द्रियप्रणिधिः कुशलपरिणामत्वात् । संयमाद्यर्थ च प्रणिधिःप्रयोक्तव्य इत्याहइति गाथार्थः। दंसण-नाण-चरित्ताणि संजमो तस्स साहणडाए । एतदनिरोधे दोषमाह पणिही पउंजिअव्वो, अणाययणाई च वज्जाई ॥७१॥ जस्स वि य दुप्पणिहिया, होति कसाया तवं चरंतस्स । दर्शन-शान चारित्राणि संयमः सम्पूर्णः। तस्य सम्पूर्णसंयमसो बालतवस्सी विव, गयएहाणपरिस्समं कुणइ ॥६६॥ स्य साधनार्थ प्रणिधिः प्रशस्तःप्रयोक्तव्यः । तथा अनाययस्यापि कस्यचिद्वयवहारतपस्विनः; दुष्पणिहिता अनि- तनानि च विरुद्धस्थानानि वर्जनीयानि । इति गाथार्थः । रुद्धा भवन्ति कषायाः क्रोधादयस्तपश्चरतः तपः कुर्वत इत्य. एवमकरणे दोषमाहर्थः। स बालतपस्वीय उपवासपारणकप्रभूततरारम्भको जी. दुप्पणिहिअजोगी, पुण लञ्छिज्जइ संजमं अयाणंतो। वो गजनानपरिश्रमं करोति; चतुर्थ-षष्ठादिनिमित्ताऽभिधानतः प्रभूततरकर्मबन्धोपपत्तेः। इति गाथार्थः । विठ्ठद्धो निसटुंगो- व्व कंटइल्ले जह पडतो ॥७२॥ अमुमेवार्थ स्पष्टतरमाह दुष्पणिहितयोगी पुनः सुप्रणिधिरहितः प्रवजित इत्यर्थः । सामलमणुचरंत -स्स कसाया जस्स उक्कडा होति । लग्छ यते खण्डयते संयममजानानः-संयत एवेति।रपान्तमा. मन्नामि उच्छुफलं, व निष्फलं तस्स सामन्नं ।। ६७॥ ह-विएब्धो निसृष्टाङ्गस्तथा श्रयत्नपर: कराटकवति श्वभ्राद्री यथा पतन् कश्चिल्लन्छ यते तदसौ संयमे । इति गाथार्थः । श्रामण्यमनुचरतः श्रमणभावमपि द्रव्यतः पालयतः इत्यथैः कषाया यस्योत्कटा भवन्ति क्रोधाऽऽदयः, मन्ये इतुपु व्यतिरेकमाहपमिव निष्फलं निर्जराफलमधिकृत्य तस्य श्रामण्यम् । सुप्पणिहिअजोगी पुण, न लिप्पइ पुनभणिश्रदोसेहिं । इति गाथार्थः। निद्दहइ कम्माई, सुक्कतणाई जहा अग्गी ॥७३।। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणिहि पोल्य - पणिहिय- प्रणिहित त्रिः संवृते ०५ सम्ब० द्वार । व्य। वस्थिते. आव० ४ श्र० । पणीय-प्रणीत त्रि० । प्ररूपिते, अनु० । श्राख्याते, आव० ४ अ०] सून०। प्रहसे, भाव ३ अ अर्थकथनद्वारेण प्ररूपते. नं० । सम्यगाचीर्णे सूत्र० १० ११ श्र० । शुभतया प्रकृष्टे, भ० ५ श० ४ उ० । स्निग्धे श्र० । गलत्स्नेहबिन्दुके भोक्तव्ये, प्रति०। आव ० ॥ भ० दश । स्था० प्रणीतं नाम यूस्नेहं घृतपूरादिकमाईमज्जकम् यद्वा वहिः स्नेहेन प्र शिवमण्डकादि, अपरं वा स्नेहावगाढं शराऽऽदि प्रणीतमुच्यते। तथा चाह 39 6 । प्रणिहितयोगी पुनः प्रणिहितः प्रमजितो न लिप्यते विन्धादिभिः संवृताभ्रषद्वारत्यात् । निईदति च कम्मणि प्राक्तनानि तपःप्रणिधिभावेन । दृष्टान्त माह-शुष्कतृणानि यथा अग्निर्निदति तद्वदिति गाथार्थः । तम्हा अपसत्थं, पणिहाणं उज्झिऊण समणेणं । परिहासम्म पसत्ये मणिओ आयारपाणिहि ति ॥७४ || यस्मादेवमप्रशस्तप्रणिधिर्दुःखदः, इतरस्तु सुखदः । तस्मा दमशस्तं प्रणिधानमप्रशस्तं प्रणिधिमुत्वा परित्यज्य ध मयेन साधुना प्रणिधान प्रणिधी प्रशस्ते करवाये यत्ना कार्य इति वाक्यशेषः निगमयचाह अणित आचारप्रणिजं वादि। नेहागाई कुसरं तु एवमाई पणीयं तु । ०५० धिरिति गाथार्थः । दश०८ अ० । (श्राचारप्रणिधिः 'आयारप सिहि' शब्दे द्वितीयभागे ३५८ पृष्ठे उक्तः ) पणीयभत्त-प्रणीतभवत न० तदुग्धादिके, पृ० ५४० । व्यवस्थापनेत २३ अ मायायाम्, सा च द्विधा द्रव्य पणीयभोषण-प्रणीतभोजन-न० गलत्स्नेहभोजने, “जे पु । प्रणिधिः, भावप्रणिधिश्व । गतनेहं परणीयमिति तं हा वैति " यत्पुनर्गलनेहं भोबुहा जनं तत्प्रणीतं बुधास्तीर्थकृदादयो ब्रुवते । पिं० । पणीयमाहार-प्रणीताहार - पुं० । गलत्स्नेहे श्राहार्य्यवस्तुनि, "आहार उम्मीपुरा, पक्षीयमाहारभीयणा होति । वाईकरयाहरणं. कलाषपुरोइउज्जाये" उदाहरणमित्थकम्म शब्दे वध्र्यते । नि० चू० १३० । पणीयरसपरिच्चा-ममतिरसपरित्यागिन् त्रि० गत दुग्धादिविन्दु भक्तपरित्यागाभिप्राहिणि, औौ० । पणीयरसभोड़ प्रणीतरसभोगिन् वि० गलत्स्नेहविन्दुभी कार, स्था० ६ ठा० । “एगे पणीश्ररसभोई सिया " इति चतुर्थे ब्रह्मचर्ये, आचा० २ ० ३ ० १ श्र० । प्रणीतरसभोजिन् कि० गलत्स्नेह विन्दुभोक्तरि स्था०ठा०| पणीयरसभोयण- प्रणीतरसभोजन- न० । गलत्स्नेहरसाभ्यषहारे, " विभूसा इत्यसंसग्गो, पण रसोध । नरस्त उत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥५७॥ " ६०८ श्र० । पशु-पक्षि- चा० प्रकर्षेण क्षेपये. "पिगलत्या-षणसोल-पेल गोल- बुद्द हुल परी घप्ताः " ॥ ८ ॥४। १४३ ॥ इत्य न शिशादेश पहर पोखर पशुपि स्स । पशुतो। पणुलिश्रं । प्रा० ४ पाद।' कम्मारं परनुज्ञयामो" प्रकर्षेण स्फेटयामः । उत्त० १२ श्र० । ( ३८३ ) अभिधानराजेन्द्रः | तत्र द्रव्यप्रणिधौ उदाहरणस्भरुच्छे जिणदेवो, भयंतमित्ते कुणालभिक्खू अ | पठाण सालवाहण, गुग्गुल भगवं च नहवाणे ॥ २०३ ॥ भरपुरे 155सी भूपतिर्नरवाहनः । स समृद्धयाऽऽत्मकोशस्य. श्रीदमप्यवमन्यते ॥ १ ॥ इतः प्रतिष्ठानपुरे, पार्थिवः शालवाहनः । बलेनाऽपि समृद्धः स रुरोध नरवाहनम् ॥ २ ॥ अनयत्यरिशीर्षाणि यस्तस्याऽदान्महर्द्धिकः । लक्षं विपक्षं तत्तस्य नित्यं निघ्नन्ति तद्भटाः ॥ ३ ॥ हा | तस्याऽपि भटाः केप्या55 - निन्युः सोऽदान किंचन। सोऽथ क्षीणजनो नंष्ट्वा, पुनरेति समांतरे ॥ ४ ॥ पुनर्नवा तथैवैति नाभूरामः । अथैको मायया हालं, सचिवो निरवास्यत ॥ ५ ॥ स परंपरा शासी रुकच्नराधिपः । अपास्तोऽल्पापराधोऽपि, निजामात्यस्ततः कृतः ॥ ६ ॥ ज्ञात्वा विश्वस्तं सोऽवक् तं राज्यं पुण्येन लभ्यते । तदन्यस्य भवस्यार्थे, पाथेयं कुरु पार्थिव ! ॥ ७ ॥ धर्मस्थानविधानाथै-ईव्यमव्याययन्तः । पक्षेज्जम प्रणीयक पुं० चन्द्रं गृहतो राहोरेकाइने कृष्ण पुनले ० ० २० पाहु० । आगान्मन्त्रगिरा हालः पार्थिवोऽथाऽऽह मन्त्रिणम् ॥ ८ ॥ मिलितोऽसि किमस्य त्वं, सोऽवदन्न मिलाम्यहम् । अथान्तःपुरभूषादि-द्रविणैस्तं तदाऽक्षिपत् ॥ ६ ॥ हालेऽथ पुनरायाते, निर्दव्यत्वाचनाय सः । नगरं जगृहे हालो, द्रव्यप्रणधिरेषिका ॥ १० ॥ आचार्यो जिनदेवोऽभूत्रैव भृगुपत्तने । वादिनौ भ्रातरौ भिक्षू, भदन्तक कुणालकौ ॥ ११ ॥ वादितः पटहस्ताभ्यां जिनदेवगुरुस्तदा । गतोऽभूदित्वा तेन स वारितः ॥ १२ ॥ जातो राजकुले वाद-स्तौ द्वावपि विनिज्जिता । दभ्यतुस्तावमीषां न सिद्धान्तावगमं विना ॥ १३ ॥ उत्तरं शक्यते दातुं शाठयाद्गोविन्दवत्ततः । पोल्न - प्रविष्य - अव्य० । 'प्रेर्य' इत्यर्थे, सू० १ ०८ श्र० । प्रणुद्य-अव्य० । 'प्रेर्य' इत्यर्थे. सूत्र० १० ८ श्र० । पयोग-पगति स्त्री० [बासादीनामिव परप्रेरणाद गता, स्था० ८ ठा० । प्रणोदनगति - स्त्री० । बाणादीनामिव पर प्रेरणाद् गती, स्था० ८ ठा० । व्रतं जगृहतुः पश्चात्पठतां भावतोऽभवत् ॥ १४ ॥ क• ४ अ० । आ॰ चू॰ । आव० । मायाशल्ये, तन कार्यमिति योग- पणोल्लय-प्रक्षेपक - त्रि० । प्रेरके, “ संग्रहत्वमस्य । स० ३२ सम० । दश० । अचा० १०५०२३० । - - - परिसहा परोक्षर Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणोल्लय अन्निधानराजेन्द्रः। पम्मत्तिकुसल प्रणोदक-त्रि०। प्रेरके, श्राचा०१ श्रु०५ १०२ उ०।। | पलात्त-प्रज्ञप्ति-स्त्री । प्रशाप्यन्ते प्रकर्षण बोध्यन्ते अर्था यापणोल्लि-प्रणोदिन-पुं० । प्राजनकदराडे, प्रश्न. ३ श्राश्र० सु ताःप्रज्ञप्तयः । सूर्यप्रक्षप्त्यादिषु, स्था। द्वार। प्रज्ञप्तयःपएण-प्रन-त्रि० । प्रकर्षण जानातीति प्रक्षः । शानप्रभया तो पन्नत्तीओ कालेणं अहिज्जति-चंदपन्नत्ती, मूरश्रेष्ठ, सूत्र० १७० ६ ० । निर्मलावबोधे, उत्त०८ अ०। पन्नत्ती, दीवसागरपन्नत्ती ।। प्रकर्षण केवलज्ञानित्वाद् जानातीति प्रक्षः, स एव प्राशः।। (तश्री इत्यादि ) कालेन प्रथमपश्चिमपौरुषीलक्षणेन हेसूत्र० १ श्रु० ६ ० । केवलझानिनि, उत्त० ८ ० ।। तुभूतेनाऽधीयन्ते । व्याख्याप्रज्ञप्तिर्जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिश्च न विव. तीर्थकरे, स्था०५ ठा०३ उ० । गणधरे, नं० । अनु० । प क्षिता, त्रिस्थानकानुरोधादिति । स्था०३ ठा०१ उ०। रिडते, द्वा० १७द्वा० सोधयुते, स्था० ७ ठा० । अनु० । अङ्गबाह्यप्राप्तयःप्राज्ञ-त्रि० । निर्मलावबोधे. सूत्र. १० ६ ०। प्रशस्येदं चत्तारि पण्णत्तीयो अंगबाहिरियाओ पसत्तामओ,तं जहाप्राशम् , गीतर्थेनोपात्ते सूत्र०२ श्रु० १ भ०। चंदपमत्ती, सूरपामती, जंबुद्दीवपएणत्ती,दीवसागरपणती। पर्ण-न० । दले, पत्रे, स्था० १० ठा। अङ्गान्याचारादीनि तेभ्यो बाह्या अङ्गबाह्याः। व्याख्याप्राप्तिपार्ण-त्रि० । पाद जाते, पर्ण संबन्धिनि वा अग्न्यादी, रस्ति पञ्चमी, केवलं सालप्रविष्टेति एताश्चतस्न उक्ताः। प्राचा०१ श्रु०१०४ उ०। स्था०४ ठा.१उ । पत्र-त्रि० । पद्धातोः क्तप्रत्यये रूपम् । गते, वाच । नामादिनिक्षेपःपण्य-न० । भाण्डे, शा०१ श्रु०६०। प्राप्तिरपि नामादिभिश्चतुर्दा, तत्र प्राप्तिरिति नाम, पएणग-पन्नग-पुं० । सर्प, जं०१ वक्षः। यथा-प्रज्ञप्तिर्विद्यादेवी । स्थापनाप्रज्ञप्तिः-प्रज्ञप्तिशब्दा. र्थक्षसाध्वादिः । द्रव्यप्राप्तिर्विधा-आगमतः, नो-आगपरमगतिल-पत्रकतिल-पुं० । दुर्गन्धितिले, व्य०१ उ०।। मतश्च । तत्रागमतः-तदर्थशानानुपयुक्तः । नोभागमपएणगद्ध-पन्नगार्द्ध-न० । पन्नगस्य सर्पस्याऽद्धे. जी० ३प्र. तस्तु शरीर-भव्यशरीरो-भयव्यतिरिक्तद्रव्यप्राप्तिभेदाति०४ अधि०।"श्रह पक्षगद्धरूवा पसगसंठाणसंठिया" जी० त्रिधा । तत्राद्यौ भेदी सुबोधौ. उभयव्यतिरिक्ता द्रव्यप्रश३ प्रति० ४ अधि०। रा०। प्तिर्द्विधा-लौकिकी, लोकोत्तरा च । एकैकाऽपि त्रिविधा-स. पएणगद्धरूव-पन्नगार्द्धरूप-त्रि० । सार्द्धरूपे. यादृशं पन्न चित्त-मिश्र- द्रव्यविषयभेदात् । तत्राऽऽद्या यथा-प्रियासोनूगस्योदरच्छिमस्य पुच्छत ऊर्वीकृतमधमधोविस्तीर्णमुपh- पस्य मन्दुरासमानीतयज्ञापनम् । द्वितीया-तस्यैव रथक्षापरि चातिश्लदणं भवतीत्येवंरूपं येषां तानि तथा । भ० पनम्, तृतीया-तस्यैव पर्याणादिपरिष्कृतयज्ञापनम्, रथ१५ श०। स्य वाऽश्वादियुक्तस्य शापनम् । लोकोत्तरा तु सचित्तविपएणगभूय-पनगभूत-त्रि० । नागकल्पे, विपा०१ श्रु० ७ षया, यथा-प्रव्राजनावार्यस्य नवप्रवजितं प्रति शाल्याअ०भ०। दिसचित्तशापनम्, सैव द्वितीया-शस्त्रपरिणतशाल्यादिक्षा पनम्, सैव तृतीया-दुष्पक्वशाल्यादिशापनं चेति । अथ पएणगरिउ-पनगरिपु-पुं० । गरुडे, पक्षिराजे, वाच । है। भावप्राप्तिरपि द्विधा-आगमतः, नोश्रागमतश्च । तत्रागपएणगा-पन्नगा-स्त्री० । श्रीधर्मजिनस्य शासनदेव्याम्. श्री मतस्तदर्थशानोपयुक्तः । नोभागमतस्तु भावप्रशप्तिर्विधाधर्मस्य पन्नगा देवी। मतान्तरेण कन्दर्पा, गौरवर्णा, मत्स्य प्रशस्ता--प्रशस्तभावप्रज्ञप्तिभेदात् । तत्र अप्रशस्तभावप्रज्ञवाहना चतुर्भुजा, उत्पला-ऽङ्कुशयुक्तदक्षिणपाणिद्वया, प्तिर्यथा-ब्राह्मण्याः स्वसुताः प्रति जामातृभावनिवेदनम्, पदमा ऽभययुतवामपाणि या च । प्रव० २७ द्वार। प्रशस्तभावप्रज्ञप्तिरियमेव अर्थतोऽईतां गणधरान् प्रति, परमत्त-प्रज्ञस-त्रि०। प्ररूपिते, तीर्थकर- गणधरैः प्ररूपिते, नं० सूत्रतो गणधराणां स्वशिष्यान् प्रति । जं० १ पक्ष । निक प्रज्ञाऽSH-त्रि० । प्रज्ञा बुद्धिस्तयाऽऽप्तं संप्राप्त तीर्थकरगण चू०। चं० प्र०। भगवतीसूत्रे, प्रति०। प्रज्ञप्तिलक्षणातु महाधरैः। स्वत्रज्ञया प्राप्ते, नं०। विद्यासु, प्रा०चू०१०। कल्प० । प्रा०म० ।संशयापनप्राज्ञाऽस त्रि० । प्राशात्तीर्थकरादाप्तं गणधरैः। तीर्थकरोप. स्प मधुरबचनैः प्रज्ञापने, दश०३अध० । स्वसमय परदेशादाप्ते, नं0 । भ० प्रणीते, श्रा०म० १० । समुपादेय- समयप्ररूपणायाम्, व्य०३ उ०। तया प्रकाशित, शा. १ थु० ११०स्था० ।पा। सूत्रः । | परमत्तिकुसल-प्रज्ञप्तिकुशल-पुं०। कथाकुशले, व्यः । प्राक्षश्छकैराप्तं प्राक्षाप्तम् । छकपुरुषपरिकर्मिते.रा। विशे। संप्रति प्राप्तिकुशलमाहपञ्चा० । योग्यीकृते, " लट्टपमत्तसेउसीमा " योग्यीकृता । कृता लोगे, वेए, ससमए, तिवग्ग-सुत्त-ऽत्याहियपेयालो। बीजवपनस्य सेतुसीमा यस्याः सा । औ०। प्रज्ञपित-त्रि० । कथिते, रा०।। धम्म ऽस्थ काममीसग-कहासु कहणवित्थरसमत्थो ।१४३। पएणत्तगंडवियोयण-प्रज्ञाऽऽसगएडविवोकन-त्रि० । प्रशया जीवाजीवं बंधे, मोक्खं गतिरागतं सुहं दुक्खं । विशिष्टपारकर्मविषयया बुद्ध्याऽऽते प्राप्ते अतीव सुष्प परिका पन्नतीकुसलविऊ-परवादिकुदंसणे महणो ॥ १४४ ॥ मिते इति भावः, गएडोपधानके, यत्र तत्तथा । चं.प्र. लोके, वेदे समये वाऽऽस्मीये प्रवचने यानि शास्त्राणि २० पाहु । उपरि कर्मितगण्डोपधाने, भ० ११ श० ११ उ०। तेषु सूत्रार्थयोहीतं पेयालं परिमाणं येन स सूत्रार्थ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमत्तिकसले प्रनिधानराजेन्द्रः। परमवणा गृहीतपेयालः । सम्यविनिश्चितसूत्रार्थ इति तात्पर्यार्थः । यप्ररूपणा नियमतः कुसमयान्मनात्येव, उक्तः प्राप्तिकुतथा धर्मकथासु, अर्थकथासु च द्वित्रिसंयोगतो धर्मा-अर्थ- शलः। व्य०३ उ०। कामकथासु कथयितव्यासु ('कहणवित्थर' ति) विस्तरेण पत्तिखेवणी-प्रज्ञप्तिक्षेपणी-स्त्री०। कथाभेदे, (व्याख्या 'अकथने समर्थः-धर्मा-ऽर्थ-काममिश्रकथासु विस्तरकथाकथनसमर्थः। तथा जीवस्, अजीवस, धर्मस्, मोक्षस्, गति | खेवणी' शब्दे प्रथमभागे १५२ पृष्ठ गता) स्था०४ ठा०२ उ०। स्, प्रागतिस्, सुखस्, दुःखमधिगस्य प्राप्ती कुशलः । कुतः? | पएणत्तिपक्खेवणी-प्रज्ञप्तिपदेपणी-स्त्री० । कथाभेदे, (अस्याः बस्याह-यतो विद् विद्वान् , पतदुक्तं भवति-यतो लोक-वेद- वक्तव्यता 'अक्खेवणी' शब्दे प्रथमभागे १५२ पृष्ठे गता) समया-ऽऽचाराणां सम्यग्वेत्ता ततो जीवानां नारकादीनास्, | पमपत्तिया-प्रज्ञपत्तिका-खी । आर्य्यरोहणानिर्गतस्योहह. अजीवानां धर्मास्तिकायादीमास्, बन्धस्य मिथ्यात्वा-ऽविर गणस्य शाखायाम् , कल्प० २ अधि०८ क्षण । ति-प्रमाद-कषाय-योगप्रत्ययकस्य,मोक्षस्य सकलकौशाऽपगमरूपस्य, ज्ञान-दर्शन-चारित्रहतुकस्य तथा येन येन कर्म पमप्प-प्रज्ञाप्य-त्रि० । प्रज्ञापनीये, प्रति । या कृतेन नरक-तिर्यग्-देवभवेषूत्पत्तिर्भवति तबूपाया गते, पारस-पञ्चदशन्-त्रिापश्चाधिकेषु दशसु,सू०प्र०१पाहुन. येन च कर्मणाकृतेन मनुष्यभषे समुत्पत्तिस्तबूपाया प्रागते, तथा सुखं यथा प्राणिनामुपजायते तथाभूतस्य, यथा दुःखं पप्परसी-पञ्चदशी-खी पौर्णमास्याम् चं०प्र०२पाहुनजंग तथा दुःखस्य प्ररूपणायां कुशलः । तथा परवादिनो यत् । ['पुसमासी' शब्दे वक्तव्यता]। कुदर्शन तस्मिन्मथनः, किमुक्तं भवति-परवादिनः प्रथम पसरह-पञ्चदशन्-त्रि०। पञ्चाधिकेषु दशसु. पञ्चदशशम्दे भाषन्ते यथा युष्माभिः कुदर्शनमग्राहि, ततस्ते न सहमाना | __ "पञ्चाशत्-पञ्चदश-दत्ते"॥ ८।२।४३॥ इत्यनेन च इत्यविप्रतिपद्यन्ते, ताँश्च विप्रतिपद्यमानान् युक्तिभिस्तथा म. स्य णत्वे "दश-पाषाणे हा"॥८।१।२६२ ॥ इत्यनेन श ध्नाति यथा स्वदर्शनपरित्यागं कुर्वन्तीति । एष इत्थंभूतः | इत्यस्य हत्ये" संख्या-गद्दे रः "॥८॥१। २१६॥ इत्यनेन प्राप्तिकुशलः। द इत्यस्य रत्वे च 'पएणरह' रूपनिष्पत्तिः ॥प्रा०२ पाद । साम्प्रतमचैव दृष्टान्तमाह पएगवं-प्रज्ञावत-त्रि० । प्राशे, बुद्धिमति, दश. ७०। पपत्तीकुसलो खलु, जह खुड्गणी मुरुंडरायस्स । "दुम्मर दुहए वा वि नेवं भासिज्ज पनवं" प्रक्षा हेयो-पादे. पुट्ठो कह न वि देवा,गयं पि कालं न याणंति ॥१४॥ यविवेचनात्मिका मतिस्तद्वान् । विवेचके, उत्त०२०। तो उहितो गणिवरो, राया वि य उहितो ससंभंतो। पएणवग-प्रज्ञापक-पुं० । यथावस्थितं सूत्रार्थ प्रज्ञापयतीति अह खीरासवलद्धी, कहेति सो खुडगगणी तो ॥१४६॥ प्रसापकः । गुरी, नं० । विशे। आचार्य, सूत्र०२ भु०४०। जाहे य पहरमेत्तं, कहियं न य मुणइ कालमह राया । । भेदभणनतो बोधके, भ० श.३१ उ. प्रज्ञापयति सूत्रार्थ तो बेति खुङगगणी, रायाण एव जाणाहि ॥१४७॥ प्ररूपयति शिष्येभ्य इति प्रज्ञापकः । व्याख्यातरि, प्रा० म. जह उहिएण वि तुमे,न विनायो एत्तिो इमो कालो । १अः। विशे० । अनु। इय गीयवादियविमो-हिया उदेवा न याति ॥१४८॥ पण पएणवगदिसा-प्रज्ञापकदिशा-स्त्री० । प्रज्ञापको व्याख्याभन्भुवयं च रगणा, कहणार एरिसो भवे कुसलो । ता, तदाश्रयेण या दिक् प्रज्ञापकदिक्, "पत्रवतो जयभिमुहो सा पुब्वा सेसिया पयाहिण तो। तस्सवऽणुगंतव्वा अग्गेससमयपरूवणाए, महेति सो कुसमए चेव ॥१४६॥ ईया दिसा नियमा" इत्युक्तलक्षणे दिग्भेदे, प्रशापको यस्या प्राप्तिकुशलो यथा शुल्लकाचार्यो मुण्डराजस्य, तथा चा- | दिशोऽभिमुखस्तिष्ठति सा पूर्वा, शेषास्त्वाग्नेय्यादिका दि. न्यदा तेन राशा पृष्टः शुल्लकगणी-कथं नु देवा मतमपि कालं शो नियमात् तस्यैव प्रशापकस्य प्रदक्षिणातः प्रदक्षिणेनानुन जानन्ति ? ततः एवं पृष्टः सन् गणिवरः सहसा बासना. गन्तव्याः इति गाथार्थः । प्रा०म०१अ.। विशे० प्राचा. दुत्थितः। तमुत्थितं दृष्ट्वा राजाऽपि ससंभ्रान्तः सममुत्थितः। (प्रज्ञापकदिग्भेदाः, तन्नामानि, तत्संख्या,तत्स्थितिश्च 'दिसा' ततोऽथाऽनन्तरं स चुल्लकगली क्षीरमिवाऽथति कथयन् शब्दे चतुर्थभागे २५२३ पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादिता । ज्ञानयस्या लब्धेःसाक्षीरावा,सा लब्धिर्यस्याऽसौ क्षीराश्रवल- संपत्तीच्छायां तस्याः प्रधानत्वात् ) ब्धिः।स इत्यंभूतः स्वसमयानुगतं किमपि कथयति ('जाहे य' इत्यादि ) यदा च प्रहरमात्रं कालं यावत् कथितम्, अथ पसवगपरूवग-अज्ञापकमरूपक-त्रि०। प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापक: च तावन्तं कालं राजा गतमपि न जानाति । ततो राजानं प्रशापकश्वासी प्ररूपकति विग्रहः। अवबोधकमरूपके.द. श्रूते चुल्लकगणी-पवमनेन प्रकारेण वक्ष्यमाणमपि जानी श०३०। हि । तदेवाऽऽह-('जह उट्टिएण घि' इत्यादि ) पथा उत्थि. पावणा-प्रज्ञापना-स्त्री० । सामान्यविशेषरूपतः प्रज्ञापने तेनाऽपि त्वया न विज्ञातोऽयमेतावान् कालो गतः कथा- स्था०१. ठा०मा० । यथावस्थितार्थप्ररूपणायाम, सूत्र रसप्रवृत्तेनेति । एवमनेन प्रकारेण गीत-वादित्रविमोहिता गातन्वादिवावमोहिता १७०३१०१ उ० अनु। भेदेन कथने, प्रमा० । देवाः प्रभूतमपि गतं कालं न जानन्ति । एतच्च राक्षा तथै वाऽभ्युपगतम्।जाता महती प्रतिपत्तिः ईरशः खलु कथायाः तिविहा पण्णवणा परमत्ता, तं जहा-हाणपम्नगवा, कथनीयायाः प्रक्षप्तेः कुशलः, स च तथाभूतः स्वसम- दंसम्पन्नवणा, चरिचपन्नवणा: Jain Education Interational Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावणा (३८६) भन्निधानराजेन्द्रः। परमवणा (तिविहा इत्यादि ) परं प्रशापनाभेदायभिधानम् । तत्र विधेन मनसा, वाचा, कायेन, अनेन योगत्रयव्यापारविकलं ज्ञानप्रज्ञापना भामिनिबोधिकाविपञ्चधा मानम् । एवं दर्शनं द्रव्यवन्दनमित्याह । अभिवन्ध अभिमुखं वन्दित्वा प्रणम्येशायिकादि त्रिधा इत्यादि। स्था०३ ठा०४ उसूत्र०।"पन्नात्त त्यर्थः। अनेन समानकर्तृकतया पूर्वकाले च क्वाप्रत्ययविबापाषण सिवा,विपत्ति वा.परूवण सिवा एगट्ठा।" नि०पू० धानाद् नित्यानित्यैकान्तपक्षव्यवच्छेदमाह, एकान्तनित्या. १उ०म०नि००।फलकथने,कल्प०३ अधि०६क्षण । नि. नित्यपक्षे क्त्वाप्रत्ययस्याऽसम्भवात् । तथाहि अप्रच्युताऽनु. दर्शनायाम् सम्म०१काएडाप्रकर्षेण निःशेषकुतीथितीर्थकरा त्पनस्थिरैकस्वभावं नित्यस, तस्य कथं भिन्नकालक्रियासाध्येन यथावस्थितस्वरूपनिरूपणलक्षणेन झाप्यन्ते शिष्यबु यकर्तृत्वोपपत्तिः ? आकालमेकस्वभावत्वेनैकस्या एव खावाऽऽरोप्यन्ते जीवा-उजीवादयः पदार्था अनयेति प्रज्ञापना कस्याश्चित् क्रियायाः सदा भावप्रसङ्गात् । अनित्यमपि प्रकहिता-हितप्रवृत्ति निवृत्युपदेशयथावस्थितजीवाविपदार्थशा त्यैकक्षण स्थितिधर्मकस, ततस्तस्याऽपि भिन्नकालाकियाइय. पनात्प्रहापना । प्रज्ञा० १ पद । अनु०।। कर्तृत्वाऽयोगः, अवस्थानाभावादित्यलं विस्तरेण, अन्यत्र सुचर्चितत्वात् । क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियासापेक्षत्वादुत्तर "जयति ममदमरमुकुट-प्रतिबिम्बच्छमविहितबहुरूपः। क्रियामाह (वंदामि जिणवरिंदं इत्यादि ) 'शूर' 'वीर' विक्राउद्धर्तुमिव समस्तं. विश्वं भवपकतो वीरः॥१॥ न्तौ । बीरयति स्म कषायादिशन् प्रति विकामति स्मेति जिनवचनामृतजलधि, बन्दे यद्विन्दुमात्रमादाय । वीरः । महांश्वासी वीरश्च महावीरः । इदं च महावीर इति अभवन्नूनं सस्वा, जन्मजराव्याधिपरिहीणा ॥२॥ नाम न यारच्छिकस्, किंतु यथावस्थितमनन्यसाधारण परीप्रणमत गुरुपदपकज-मधरीकृतकामधेनु-कल्पलतम् । षहोपसर्गादिविषयं धीरत्वमपेक्ष्य सुरासुरकृतस्, उक्तं चयदुपास्तिवशानिरुपम-मश्नुवते ब्रह्म तनुभाजः ॥ ३॥ "अयले भयभेरवाणं, खंतिस्वमे परीसहोवसग्गाणं देवहिं जामतिरपि गुरुचरण-पास्तिसमुभूतविपुलमतिविभवः। कए महावीरे" इति । अनेनाऽपायापगमातिशयो ध्वन्यते। तं समयानुसारतोऽहं, विदधे प्रक्षापनाविवृतिम् ॥४॥ कथंभूतर इत्याह जिनवरेन्द्रम्-जयन्ति रागादिशबूनभिभअथ प्रज्ञापनेति कःशब्दार्थः? उच्यते-प्रकर्षेण निःशेयकुती. वन्ति जिनास्ते च चतुर्विधास्तद्यथा-श्रुतजिना, अवधिजि. चितीर्थकरासाध्येन यथावस्थितस्वरूपनिरूपणलक्षणेन हा नाः, मनःपर्यायजिनाः, केबलजिनाः । तत्र केवलिजिनत्वप्रप्यन्ते शिष्यबुखाबाजरोप्यन्ते जीवा-जीवादयः पदार्था अन. तिपत्तये बरग्रहणम् । जिनानां बरा उत्तमा भूत भव-भाषि. पेति प्रज्ञापना । इयं च समवायाख्यस्य चतुर्थास्योपार तदु भावस्वभावावभासिकेवलज्ञानकलितत्वाद जिनवराः। ते चा. बतार्थप्रतिपादनार्थस् । उक्त प्रतिपादनमनर्थकमिति चेत्, न, उतीर्थकरा अपि सम्तः सामाग्यकेवलिनो भवन्ति, ततस्ती. उक्तानामपि विस्तरेणाऽभिधानस्य मन्दमतिविनेयजनानु. र्थकरत्वप्रतिपस्यर्थमिन्द्रग्रहणम् । जिनवराणामिन्द्रो जिप्रहार्यतया सार्थकत्वात् । इयं चौपालमपि प्रायः सकलजीवा. नवरेन्द्रः प्रकृएपुण्यस्कन्धरूपतीर्थकरनामकर्मोदयात्तीर्थजीवादिपदार्थशासनात् शाखस्, शास्त्रस्य चादौ प्रेक्षावतां कर इत्यर्थः । अनेन हानातिशयम् , पूजातिशयं चाह । प्रवृस्पर्थमवश्यं प्रयोजमादित्रितयस्,मङ्गलं च वक्तव्यम्।उक्तं सानातिशयमन्तरेण जिनेषु मध्ये उत्तमत्वस्य, पूजातिब-"प्रेक्षावतां प्रवृस्यर्थ, फलादित्रितयं स्फुटम्। मङ्गलं चैव शयमन्तरेण जिनवराणामपि मध्ये इन्द्रत्वस्याऽयोगात् । शास्त्रादौ, वाच्यभिष्टार्थसिद्धये ॥१॥" इति । प्रशा। तं पुनः किम्भूतम् ? इत्याह-त्रैलोक्यगुरुम्-गृणाति यथा पस्थितं प्रवचनार्थमिति गुरुः,त्रैलोक्यस्य गुरुप्रैलोक्यगुरुः, ववगयजरमरणभए, सिद्धे अभिवंदिऊण तिविहणं । तथा च भगवान् अधोलोकनिवासिमवनपतिदेवेभ्यः, तिर्यबंदामि जिणवरिंद, तेलोकगुरुं महावीरं ॥१॥ ग्लोकनिवासिव्यन्तर-नर-पशु-विद्याधर-ज्योतिकेभ्यः ऊर्ध्व लोकनिवासिवैमानिकदेवेभ्यश्च धर्म विदेश, तम् अनेन वागमुयरयणनिहाणं जिण-वरेणं भवियजणणिव्वुइकरेणं । तिशयमाह । एते चाऽपायापगमातिशयादयश्चत्वारोऽप्यतिउवदंसिया भगवया, पन्नवणा सव्वभावाणं ॥२॥ शया देहसौगन्ध्यादीनामतिशयानामुपलक्षणम्. तानन्तरेणैवायगवरवंसाओ, तेवीसइमेण धीरपुरिसेणं । तेषामसम्भवात्। ततश्चतुर्विंशदतिशयोपेतं भगवन्तं महावीदुदरघरेण मुणिणा, पुबसयसमिद्धबुद्धीण ॥ ३॥ रंबम्दे इत्युक्तं दृष्टव्यम् ।आह-जनु अषभादीन् व्युवस्य किसुयसागरा विणेऊ-ण जेण सुयरयणमुत्तमं दिसं। मर्थ भगवतो महावीरस्य वन्दनम् ?। उच्यते वर्तमानतीर्था धिपतित्वेनाऽसन्नोपकारित्वात्। तदेव आसन्नोपकारित्वं द. सीसगणस्स भगवत्री, तस्स णमो भज्जसामस्स ॥४॥ शयति- [सुयरयणं इत्यादि] अत्र प्रज्ञापनेति विशेष्यम् । शेष अज्झयणामणं चित्तं, सुयरयणं दिहिवायणीसंदं। सामानाधिकरण्येन,वैयाधिकरण्येन च विशेषणम्। [जिणवरे. जह परिणयं भगवया, अहमवि तह वएणइस्सामि ॥५॥ णं ति] जिनाः सामान्यकेवलिनस्तेषामपि वर उसमस्तीर्थक वात् जिनवरस्तेन सामाद महावीरेण अन्यस्य वर्तमानती. सिद्धाभ नामादिभेवतोऽनेकधा, ततो यथोक्तसिजप्रतिप र्थाधिपतित्वाभावात् । इह छमस्थक्षीण नाहजिनापेक्षया सास्पर्थ विशेषण माह व्यपगतजरामरणमयान् । जरा बयोहा मान्यकेवलिनोऽपि जिनवरा उच्यन्ते, ततस्तत्कल्पं मा सामिलक्षणा, मरणं प्राण त्यागरूपस, भयमिहलोकादिभेदा सीद्विनेयजन इति तीर्थकृत्वप्रतिपत्तये विशेषणान्तरमाहसप्तप्रकारस, उक्तं च "बह-परलोगा-वाण-मकम्हापा भगवता-भगः समग्रेश्वर्यादिरूपः । उक्तं च-'ऐश्वर्यस्य सः जीव-मरण मसिलोए " इति । विशेषतोऽपुनर्भावरूपतया। मग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याऽर्थप्रयनस्य, पराणां अपगतानि शानि जरामरणभयानि येभ्यस्ते तथा तान्,त्रि- भगातीना" ॥१॥ भमोऽस्थाऽस्तीति भगवान्, अतिशयने Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८७) पलवगा अभिधानराजेन्छ। परमवणा बतुप्रत्ययः। अतिशायी च भगो बर्द्धमानस्वामिनः शेषप्राणि सागरावृता असावयासन्नतरोपकारित्वादस्मविधानां न. गणापेक्षया त्रैलोक्याधिपतित्वात् । तेन भगवता परमाई. मस्काराई इति तनमस्कारविषयमिदमपान्तराल एवाम्यकम्त्यमाहेमोपेतेनेत्यर्थः। पुनः कथंभूतेन इत्याह भव्यजननि तकं गाथावयम् -(वायगवरवंसानो इत्यादि) वाचकाः प॑तिकरण भव्यस्तथाविधाऽनादिपारिणामिकभावात् सिद्धि पूर्षविदः. वाचकाच ते वराश्च वाचकवराः वाचकप्रधानाः, गमनयोग्यः,स चाऽसौ जनश्च भव्यजनः,निर्वृतिनिर्वाणं सक तेषां चंशःप्रवाहो वाचकवरवंशस्तस्मिन्, सूत्रे च पश्चमीलकर्ममलापगमनेन स्वखरूपलामतः परमस्वास्थ्यम् तछेतुः निर्देशः प्राकृतत्वात् । प्राकृते हि सर्वासु विभक्तिप्यपि सम्यगदर्शनाचपि"कारणे कार्योपचारात्" निर्वृतिस्तत्करण सर्वा विभक्तयो यथायोगं प्रवर्तन्ते। तथा चाह-पाणिशीलो निर्वृतिकरः, भव्यजनस्य निर्वृतिकरो भव्यजननिर्वृति निःस्वप्राकृतव्याकरणे-" व्यत्ययोऽप्यासास्" इति । बयोकरस्तेन । आह भव्यग्रहणमभव्यव्यवच्छेदार्थम् अन्यथा तस्य विंशतितमेन तथा च सुधर्मस्वामिन प्रारभ्य भगवानार्यनैरर्थक्यप्रसङ्गात् । तत इदमापतितं भव्यानामेव सम्य- श्यामनयोविंशतितम एव, किम्भूतेन ? धीरपुरुषेण, धीर्बुग्दर्शनादिकं करोति, नाऽभव्यानाम् । न चैतदुपपत्रं भगव- विस्तया राजत इति धीरः, धीरश्चासौ पुरुषश्च धीरपु. तो वीतरागत्वेन पक्षपातासम्भवात् । नैतत्सारं सम्यग्वस्तु-। रुषस्तेन, तथा दुर्द्धराणि प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणानि तस्वाऽपरिवानात् । भगवान् हि सवितेव प्रकाशमविशेषेण | पञ्च महाव्रतानि धारयतीति दुर्द्धरधरस्तेन, तथा मन्यते प्रवचनार्थमातनोति,केवलमभव्यानां तथास्वाभाब्यादेव ता. जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिस्तेन, विशिष्टसंवित्समन्विमसखगकुलानामिव सूर्यप्रकाशो न प्रवचनार्थ उपदिश्यमा तेनेत्यर्थः । पुनः कथंभूतेन ? इत्याह-पूर्वश्रुतसमृद्धबुद्धिना. नोऽपि उपकाराय प्रभवति । तथा चाह वादिमुख्यः-"सद्धर्म पूर्वाणि च तत् श्रुतं च पूर्वश्रुतम्, तेन समृदा वृद्धिमुपगता बीजवपनानघकौशलस्य, यल्लोकबान्धव ! तवाऽपि खिलान्य बुद्धिर्यस्य स पूर्वश्रुतसमृद्धबुद्धिस्तेन । पाह-यो वाचकवरवं. भूषन् । तन्नाद्भुतं खगकुलेविह तामसेषु, सूर्याशवो मधुक- | शान्तर्गतःस पूर्वश्रुतसमृद्धबुद्धिरेव भवति,ततः किमनेन वि. रीचरणावदाताः" ॥२॥ ततो भव्यानामेव भगवडूचनादुपका शेषणेन ? सत्यमेतत्। किन्तु पूर्वविदोऽपि षट्स्थानकपतिता रोजायते इति भव्यजननिर्वृतिकरणेत्युक्तस् । किम् ? इत्याह- भवन्ति, तथा च चतुर्दशपूर्वमिदामपि मतिमधिकृत्य षट्('उवदंसिय' ति) उप सामीप्येन यथा श्रोतृणां झटिति यः स्थानकं वक्ष्यति । ततश्राधिक्यप्रदर्शनार्थमिदं विशेषणमित्या थावस्थितवस्तुतत्त्वावबोधो भवति तथा स्फुटवचनैरित्यर्थः। दोषः समिद्यबुद्धीण इत्यत्र 'णा' शम्दस्य हस्वत्वस्, 'द्धि'श. वर्शिता श्रवणगोचरं नीता उपदिष्टा इत्यर्थः। काऽसौ ? प्रशा. ब्दस्यच दीर्घता पार्षत्वात् । तथा श्रुतमनर्वापारत्वात् सुभा. पना, प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते जीवादयो भाषा अनया शब्द षितरत्नयुक्तत्वाच्च सागर व श्रुतसागर: "व्याघ्रादिभिर्गी संहत्या इति प्रज्ञापना. किंविशिष्टा? इत्यत माह- तरजनि. णिस्तद्गुणानुक्ती" इति समासः। तस्मात् 'विणेऊण' ति। धानस,हरतानि द्विविधानि भवन्ति, तद्यथा-द्रव्यरवानि, देशीववनमेतत् । साम्प्रतकालीनपुरुषयोग्यं वीनयित्वा इत्यभावरतानि । तब द्रव्यरत्नानि वैडूर्य मरकतेन्द्रनीलादीनि, र्थः। येनेदं प्रज्ञापनारूपं श्रुतरत्नमुत्तम प्रधानम्, प्राधान्यं च भाषरत्नानि श्रुत-मतादीनि । तद्रव्यरत्नानि न तात्त्विका. न शेवश्रुतरखापेक्षया किंतु स्वरूपतः । वसं शिष्यगणाय नीति भाषरलैरिहाऽधिकार तत एवं समासः श्रुतान्येव तस्मै भगवते शानैश्वर्यधर्मादिमते, पारात् सर्वहेयधर्मरत्नानि श्रुतरत्नानि, न तु श्रुतानि च रत्नानि च. नाऽपि भ्यो यातः प्राप्तो गुणारत्यार्यः, स चासौ श्यामश्च आर्यश्रुतानि रत्नानीति, कुतः इति चेत् उच्यते प्रथमपो श्यामस्तस्मै, सूत्रे च षष्ठी चतुर्थ्यर्थे द्रष्टव्या-चट्ठिविभत्तीए श्रुतव्यतिरिक्तद्रव्यररिहाधिकाराभावात्. द्वितीयपक्षे तु भन्न चउत्थी" इति वचनात् । अधुनोक्तसंबन्धैवयं गाथा। श्रुतानामेव तात्विकरत्नत्वात् शेषरत्नैरुपमाया प्रयोगात्। (अज्झयणं इत्यादि) अध्ययनमिदं प्रशापनाख्यम्, ननु यदी. निधानमिव निधानं श्रुतरत्नानां निधानं श्रुतरत्ननिधानस् । यमध्ययनं किमित्यस्याऽऽदावनुयोगादिद्वारोपन्यासो न कि. केषां प्रज्ञापना इत्यत आह-सर्वभावानास, सर्वे च ते भा यते ?। उच्यते-नायं नियमो यदवश्यमध्ययनादावुपक्रमा. वाश्च सर्वभावा जीवा जीवा-श्रव-बन्ध-संबर - छुपन्यासः क्रियत इति । अनियमोऽपि कुतोऽवसीयते? इति निर्जरा-मोक्षाः । तथाहि-अस्यां प्रज्ञापनायां पत्रिंशत्प- चेत् उच्यते-नन्धध्ययनादिष्वदर्शनात् । तथा चित्राधि. दानि; तत्र प्रज्ञापना-बहुवक्तव्य-विशेष चरम-परिणाम- कारयुक्तत्वाच्चित्रम, श्रुतमेव रनं श्रुतरत्नस, रष्टिवादस्य संक्षेषु पञ्चसु पदेषु जीवा-ऽजीवानां प्रशापना ! प्रयोगपदे कि- द्वादशस्याङ्गस्य निःभ्यन्द इव दृष्टिवादनिःष्यन्दः, सूत्रे नपुं. यापदे चाऽऽश्रवस्य "काय वास्मनःकर्मयोग आश्रवः" सकतानिर्देशः प्राकृतत्वात् । यथा वर्णितं भगवता श्रीम ति बचनात् । कर्मप्रकृतिपदे बन्धस्य प्ररूपणा। समुद्घात- महावीरवर्द्धमानस्वामिना इन्द्रभूतिप्रभृतीनामध्ययनार्थस्य पदे केवलिसमुदातमरूपणायां संवर निर्जरा-मोक्षाणां त्र वर्णितत्वात्। अध्ययनं वर्णितीमत्युक्तस, अहमपि तथा वर्णयाणाम् । शेषेषु तु स्थानादिषु पदेषु क्वचित् कस्यचिदिति । यिष्यामि। प्राह कथमस्य छमस्थस्य तथा वर्णयितुं शक्तिः? अथवा-सर्वभाषानामिति द्व्य-क्षेत्र काल-भावानाम् । एत. नैष दोषः सामान्यनाभिधेयपदाथेवर्णनमात्रमधिकृत्यैवमाभिः व्यतिरेकेणाऽन्यस्य प्रज्ञापनीयस्याऽभावात् । तत्र प्रज्ञापना- धानात् । तथा च महमपि तथा पर्णयिष्यामीति । किमुक्तं पदे जीवा-उजीवद्रव्याणां प्रशापना । स्थानपदे जीवाऽऽधार- भवति-तवनुसारेण वर्णयिष्यामि. न स्वमनीषिकयेति । स्य देवस्य। स्थितिपदे नारकादिस्थितिनिरूपणात् कालस्य। षत्रिंशत् पदानिशेषपदेषु संख्या-सानाविपर्याय व्युत्कान्स्युच्ट्रासादानां भा. पानामिति । मस्याम गाथायाः "अज्झयणमिदं चित्तं " पलवणा १ ठाणाई २, इत्यनया सहाभिसम्बम्धः। केवलं येनेयं सस्वानुग्रहाय भूत- बहुवत्तवं ३ ठि३४ विसेसा य ५। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमवणा अभिधानराजेन्द्रः। पक्षवाणिज्ज वकंती ६ उस्सासो ७ [' से किं तं पराणषणा !' इति] अथाऽस्य सूत्रस्य का समा जोणी यह चरिमाई १० ॥१॥ प्रस्तावः? उच्यते,प्रश्नसूत्रमिदम् । एतच्चादावुपन्यस्तमिदंशाभासा ११ सरीर १२ परिणाम १३, पयति-पृच्छतो मध्यस्थबुद्धिमतोऽर्थिनो भगवदहदुपदिष्टत त्वप्ररूपणा कार्या, न शेषस्य । तथा चोक्तम्-"मध्यस्थो बु. कसाया १४ इंदिय १५ प्रयोगे य १६ । द्धिमानर्थी, श्रोता पात्रमिति स्मृतः" । तत्र-से-शब्दो लेसा १७ कायडिइया १८, मागधदेशीप्रसिद्धो निपातस्तत्र-शब्दार्थे । अथवा अथसम्मत्ते १६ अंतकिरिया य २० ॥२॥ शब्दार्थे, स च वाक्योपन्यासार्थः । किं इति परप्रश्ने, (तं ति) भोगाहणसंठाणा २१, तावदिति द्रष्टव्यम्,तच क्रमोद्योतने। तत एष समुदायार्थ: तिष्ठन्तु स्थानादीनि पदानि प्रष्टव्यानि वाचः क्रमवर्तित्यात्, किरिया २२ कम्मे इयावरे २३ । प्रशापनाऽनन्तरं च तेषामुपन्यस्तत्वात् । तत्र तावदेतावत् (कम्मस्स) बन्धए २४ (कम्मस्स) वेय (ए) २५ वेयस्स, पृच्छामि-कि प्रयापना! इति । अथवा प्राकृतशैल्या अभिधे. बंधए २६ वेयवेयए २७॥३॥ यवलिङ्गवचनानि योजनीयानि इति न्यायादेवं द्रष्टव्यम्-सत्र भाहारे ५८ उवओगे २६, का तावत्प्रज्ञापना' इति । एवं सामान्येन केनचित्य कृते पासण्या ३० सणिण ३१ संजमे ३२ चेव । सति भगवान् गुरुः शिष्यवचनानुरोधेनाऽऽरार्थ किश्वि. मोही ३३ पवियारण ३४ वे च्छिष्योक्तं प्रत्युचार्याऽऽह-(पनवणा दुविहा पत्ता इति) यणा ३५ य तत्तो समुग्धाए ३६ ॥४॥ अनेन चागृहीतशिष्याभिधानेन निर्वचनसूत्रेणतदाचष्टेन अस्यां च प्रज्ञापनायां षट्त्रिंशत्पदानि भवन्ति; पदस, प्र. सर्वमेव सूत्रं गणधरप्रश्न-तीर्थकरनिर्षचनरूपम्, किंतु किकरणस, अर्थाधिकार इति पर्यायाः। तानि व पदान्यमूनि. चिदन्यथाऽपि,बाहुल्येन तु तथारूपम् । यत उक्तम् "बत्थं ('पनवणा' इत्यादि) गाथाचतुष्टयम् । तत्र प्रथमं पदं प्र. भासर अरिहा, सुतं गंयंति गणहरा निउणं " इत्यादि । शापनाविषयं प्रश्नमधिकृत्य प्रवृत्तत्वात् प्रज्ञापना ।१एवं। तत्र प्रशापना इति पूर्ववत्। द्विविधा द्विप्रकारा, प्रक्षप्ता प्रकद्वितीय स्थानानि । २। तृतीयं बहुवक्तव्यम् । ३। चतुर्थ पिता।यदा तीर्थकराएव निर्वस्तारस्तदाऽयमों ऽबसेयो-भस्थितिः।४। पञ्चमं विशेषः। ५। षष्ठं व्युत्क्रान्तिः, व्युत्का न्यैरपि तीर्थकरै यदा पुनरन्यः कश्चिदाचार्यस्तन्मतानुसारी स्तिलक्षणाधिकारयुक्तत्वात् । ६ । सप्तममुच्यासः।७अष्ट तदा तीर्थकर-गणधरैरिति। द्वैविध्यमेवोपदर्शयति-(तं जहामें सम्शाः । ८ । नवमं योनिः । ६। दशमं चरमाणि, चर जीवपनवणा य,अजीवपन्नवणाय) तथा इति वक्ष्यमाणभे. माणीति प्रश्नमुद्दिश्य प्रवृत्तत्वात् । १० । एकादशं भाषा ॥११॥ दकथनप्रकाशनार्थः । जीवन्ति प्राणान् धारयन्तीति जीवाः। द्वादशं शरीरस् । १२ । त्रयोदशं परिणामः। १३ । चतुईशं प्राणाश्च द्विधा-द्रव्यप्राणाः, भावप्राणाश्च । तत्र द्रव्यप्राणा कषायाः । १४ । पञ्चदशमिन्द्रियस् । १५ । षोडशं प्रयोगः।१६। इन्द्रियादयः, भावप्राणा शानादीनि । द्रव्यप्राणैरपि प्राणिनः सप्तदशं लेश्याः । १७ । अष्टादशं कायस्थितिः । १८ । एकोन संसारसमापनानारकादयः केवलभावप्राणःप्राणिनो व्यपग. विंशतितमं सम्यक्त्वस् ।१६। विंशतितममन्तक्रिया ।२०। एक तसमस्तकर्मसका सिद्धाः। जीवानां प्रज्ञापना जीवप्रशापना। विंशतितममवगाहनास्थानस् ।२१। द्वाविंशतितम फ्रिया ।२२। न जीवा अजीया जीवविपरीतस्वरूपाः, ते च धर्मा-ऽधर्मात्रयोविंशतितमं कर्म । २३ । चतुर्विंशतितमं कर्मणो बन्ध ऽऽकाश-पुद्रलास्तिकाया-ऽद्धासमयरूपाः, तेषां प्रज्ञापना भ. का, तस्मिन् हि यथा जीवः कर्मणो बन्धको भवति तथा जीवप्रक्षापना । चकारी योरपि प्राधान्यस्यापनाौँ । न प्ररूप्यत इति तत् तथानाम । २४ । एवं पञ्चविंशतितमं का खल्विहाऽन्यतरस्थाः प्रज्ञापनाया गुणभावः, एवं सर्वत्राप्यक्षमवेदकः। २५ । षड्विंशतितमं वेदस्य बन्धक इति वेदयते. रगमनिका कार्या । (जीवाजीवप्रज्ञापनयोर्मेंदा जीवाजीषभेअनुभवतीति वेदस्तस्य बन्ध एव बन्धकः, किमुक्तं भवति दानां प्ररूपणया गतार्था इति)। प्रशा०१पद। कति प्रकृतीर्वेदयमानस्य कतिप्रकृतीनां बन्धो भवति ? इति एतद्दीकाकार:तत्र निरूप्यते ततस्तद्वेदस्य बन्ध इति नाम । २६ । एवं कां नमत नयभङ्गकलितं, प्रमाणबहुलं विशुद्धसद्बोधस् । प्रकृति वेदयमानः कति प्रकृतीर्वेदयते इत्यर्थप्रतिपादकं वेद जिनवचनमन्यतीर्थिक कुमतनिरासैकदुर्लखितस्॥१॥ वेदको माम सप्तविंशतितमम् । २७ । अष्टाविंशतितममाहार जयति हरिभद्रसूरि-शकाकृतिकृतविषमभावार्थः। प्रतिपादकत्वादाहारः । २८ । एवमेकोनत्रिंशत्तममुपयोगः । यद्वचनवशावहमपि. जातो लेशन विपतिकरः ॥२॥ २६ । त्रिशत्तमं पासणय' त्ति दर्शनता । ३०। एकत्रिंश कृत्वा प्रज्ञापनाटीकां. पुण्यं यदवाप मलयगिरिरनघम् । समं सज्ञा । ३१ । द्वात्रिंशत्तमं संयमः । ३२ । त्रयस्त्रिंश तेन समस्तोऽपि जनो, लभतां जिनवचनसरोधम् ॥३॥ सममवधिः । ३३ । चतुस्त्रिंशत्तम प्रविचारणा । ३४ । प. | प्रज्ञा० ३६ पद । ('सुय' शब्दे निक्षेपः) अत्रिंशत्तम वेदना । ३५ । षट्त्रिंशत्तमं समुद्घातः । ३६ । त· | पल्लवणाजोग्ग-मझापनायोग्य-त्रि० । प्रज्ञापनीये अभिलाप्ये, देवमुपन्यस्तानि पदानि ॥ श्रा० म०१०। साम्प्रतं यथाक्रमं पदगतानि सूत्र णि वक्तव्यानि, तत्र पासवगिज्ज-प्रकापनीय-वि० । प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते इति प्र. प्रथमपदगतमिदमादिमं सूत्रम् - ज्ञापनीयाः। वचनपर्यायत्वेन श्रुतक्षानगोचरे, विशे। अभिलासे किं तं पावणा पएणवणा दुविहा पसत्ता । तं जहा प्ये विशे० । सुखादयोध्ये. ध०२ अधिः । तदन्यो हि स्वाजीवपएणवणा य, अजीवपएणवणा य । ग्रहादरुत्यविषयानिवर्तयितुं न शक्यते इति श्रालोचना Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८६) पावणिज्ज . प्रन्निधानराजेन्द्रः । परमापरिसह प्रदानयोग्ये, पञ्चा० ११ विव० । कथंचिदनाभोगादन्यथा प्र- परमाण-प्रज्ञान-न० । प्रकृष्टं ज्ञानं प्रशानम् । जीवाजीवपदार्थवृत्तौ,तथाऽपि गीतार्थेन संबोधयितुं शक्ये, पश्चा० ३ वि० । परिच्छेत्तरि शाने, प्राचा. १ श्रु०४१०४ उ० । सदसद्विवेपरमवणी-प्रज्ञापनी-स्त्री० । प्रज्ञाप्यतेऽर्थोऽनयेति प्रज्ञापनी । के, प्राचा० १श्रु०४.१ उ० । स० । बोधे, सूत्र०१ १० अर्थकथन्यां वक्तव्यायां भाषायाम् ,भ० १० श. ३ उ०।। ११०२ उ० । प्रज्ञायते येन तत्प्रज्ञानम्, यथावस्थितवस्तु. विनीतविनेयजनस्योपदेशदाने, ध०३ अधि। भ०। प्रशा। ग्राहिणि शाने, आचा० ११०१०७ उ० । पदार्थाऽऽविर्भा. प्रज्ञापनी यथा-हिंसादिप्रवृत्तौ दुःखितादिर्भवति । दश० ७ बके, श्राचा. १ श्रु०६ अ. ३ उ० । प्रकर्षेण शायतेऽनेनेति अ०। शिष्यस्योपदेशे हेतुरूपा भाषा। संथा। प्रज्ञानम् । खपरावभासकत्वादागमे, आचा०११०५ १०५ पहाविय-प्रज्ञापित-त्रि०।सामान्य विशेषपर्यायळकतीकरणे- | उ.। श्रुतक्षाने, प्राचा०१ श्रु०६०४ उ० । मत्यादिक्षाने च, श्राचा १ श्रु० ३ १०१ उ०। न प्रकटीकृते, उत्त. २६ असामान्यतो विनेयेभ्य कथि. ते, अनु० । प्रश्न । ग । नि० चू०। परमाण-प्रज्ञानवत्-त्रि० । प्रकर्षेण ज्ञायतेऽनेनेति प्रज्ञानं स्वपरावभासकत्वादागमः,तद्वन्तः प्रज्ञानवन्तः। आगमस्य वे. पएणवेता-प्रझापयित-त्रि० । प्रज्ञापके, इमं सावज्जं ति प त्तरि, प्राचा० १ श्रु.५१० ५ उ० । सश्रुतिके, प्राचा. १ राणवेत्ता पडिसेवेत्ता भवह" स्था० ७ ठा० । २०६०२उ०। प्रकृष्टं ज्ञानं जीवाजीवपरिच्छेत, तद वि. पएणवेमाण-प्रज्ञापयत-त्रि । बोधयति, औ०। द्यते यस्याऽसी प्रज्ञानवान् । प्राचा.११० ४ १०४ उ० । शानिनि, प्राचा०१ श्रु०६ १०४ उ०। पामसमत्त-प्रज्ञासमाप्त-त्रि० । प्रज्ञायां समाप्तः प्रशासमाप्तः, | पएणापरिसह-प्रज्ञापरिषह-पुं० । प्रज्ञायतेऽनया वस्तुतत्त्वमिपटुप्रक्षे, सूत्र. श्रु०२ अ० २ उ०।। ति प्रशा बुद्धचतिशयः, स एव परीषहः प्रशापरीषहः । परमसममिय-प्रज्ञासमन्वित-त्रि०।ौत्पत्तिक्यादिबुद्धया स. प्रव०८६ द्वार । प्रज्ञया गर्वाऽकरणे, प्रक्षाया अभावे उद्धेगा. मन्विते, सूत्र.१ श्रु०४ अ०१ उ०। ऽकरणे, भ०८ श. ८ उ० । मनोज्ञप्रज्ञाप्राग्भारप्राप्ती, नो पएणरह पञ्चदश-त्रि० ।' पञ्चदश' शब्दार्थे । गर्वमुद्हेत् । प्रज्ञाप्रतिपक्षणाऽप्यऽबुद्धिकत्वेन परीषहो भवप्रणा-प्रज्ञा-स्त्री० । प्रशानं प्रज्ञा, विशिष्टक्षयोपशमजन्यायांप्र ति-नाहं किञ्चिजाने, मूर्योऽहं सर्वैः परिभूत इत्येवं परि तापमुपागतस्य कर्मविपाकोऽयमिति मत्वा तदकरणात् पभूतवस्तुगतयथावस्थितधर्माऽऽलोचनरूपायां संविति,इयं चा रीषहजयः ।प्रव०८६ द्वार। "प्रशां प्रशावतां पश्यन् , श्राभिनिबोधिकशानविशेष एव । नं० । श्रा० म०प्र० । विशे। त्मन्य प्रशतां विदन् । न विषीदेन वा माद्येत्, प्रशोत्कर्षमुपास्वयं विमर्शपूर्वके वस्तुपरिच्छेदे, मतिज्ञानविशेषे, स. २२ गतः ॥२०॥" ध०३ अधि। समः । उत्त० । स्वबुद्धयोत्प्रेक्षणे, सूत्र. २ श्रु० ४ साम्प्रतमनन्तरोक्तपरीषहान् जयतोऽपि कस्यचिद् शानावश्र० । मतौ, सूत्र. २ श्रु० १ ० । सूक्ष्मार्थविषया रणापगमात्प्रशाया उत्कर्षे, अपरस्य तु तदुदयादपकर्षे उत्सेयां मतौ, भ. १६ श० ३ उ० । स्था० । शाने, सूत्र क-वैक्लव्यसंभव इति प्रज्ञापरीषहमाह१ श्रु. १२ अ०। स (गण)न्न त्ति वा. सइ तिवा, मति त्ति वा, पन त्ति वा एगट्टा । नि० ०१ उ० प्रा०च। से नूणं मए पुव्वं, कम्माऽमाणफला कडा। सूत्र । विशिष्टपरिकर्मविषयायां बुद्धौ, चं० प्र०२० पाहु। जेणाऽहं नाभिजाणामि, पुट्ठो केणइ कण्हुइ ॥४०॥ सूत्र० । प्रज्ञायतेऽनया वस्तुतत्त्वमिति प्रशा, हेयोपादेयविवे- अह पच्छा उइज्जंति, कम्माऽस्माणफला कडा । चिकायां बुद्धी, उत्त० ७ अ। सूत्रः । बुद्धधतिशये श्राव०४ एवमासासि अप्पाणं, णच्चा कम्मविवागयं ॥४१॥ अ० । क्रियासहिते शाने, उत्त० ७ अ० । सम्यक्त्वज्ञातौ, • से ' शब्दो मागधप्रसिद्धया अथ-शब्दार्थे उपन्यासे, आचा० १ १०४ अ.१ उ०। तीक्ष्णबुद्धौ,सूत्र १श्रु०१३१०। नूनं निश्चितम् , ' मया ' इत्यात्मनिर्देशः । पूर्व प्राक्, से पत्रया अक्खय सागरे वा, महोदही वा वि अणंतपारे। क्रियन्त इति कर्माणि , तानि च मोहनीयादीन्यपि असौ भगवान्, प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा, तया अक्षयो न संभवन्त्यत आह-अक्षानमनवबोधस्तत्फलानि ज्ञानावतस्य झातव्येऽर्थे बुद्धिः प्रतिक्षीयते, प्रतिहन्यते वा, तस्य रणरूपाणीत्यर्थः । कृतानि ज्ञाननिन्दादिभिरुपार्जितानि । हि बुद्धिः केवलज्ञानाख्या, सा च साद्यपर्यवसाना कालतः, यदुक्तम्-"ज्ञानस्य ज्ञानिनां चैव, निन्दा-प्रद्वेष मत्सरैः। द्रव्य-क्षेत्र भावैरप्यनन्ता । सूत्र. १ थु०६० । केवलज्ञा उपघातैश्च विश्व, ज्ञानघ्नं कर्म बध्यते"॥१॥ 'मया' ने, सूत्र०१ श्रु० ६.१ उ० । प्रज्ञा बुद्धिरीप्सितार्थसंपाद- इत्यभिधानं च स्वयमकृतस्योपभोगाऽसंभवात् । उक्तं चनविषया कुटुम्बकाभिवृद्धिविषया च, तद्योगाद् दशाऽपि "शुभा-ऽशुभानि कर्माणि, स्वयं कुर्वन्ति देहिनः । स्वयमे. प्रशा, प्रकर्षेण जानातीति प्रज्ञा दशदशानां पञ्चम्यां दशा. वोपभुज्यन्ते, दुःखानि च सुखानि च ॥१॥" कुत एतत् ? याम्, स्था० १० ठा० । तं । " पंचमी उ दसं पत्तो. आणुपु- इत्याह-येन हेतुना अहं नाभिजानामि नाभिमुख्येनाऽबबुव्वीए जो नरो । इच्छियत्थं विचिंतेति, कुडुंबं वाऽभिकख- ध्ये पृष्टः केनचित्स्वयमजानता, जानता वा (कराहु त्ति) ति ॥५॥" दश०१ अ० ।(अस्या गाथाया अर्थः 'दसा' सूत्रत्वात्कस्मिश्चित्सूत्रादी, वस्तुनि वा प्रगुणेऽपीत्यभिप्रायः, शब्दे चतुर्थभागे २४८४ पृष्ठ मूलगाथायां प्रतिपादितः)प्रकर्षे न हि स्वयं स्वच्छस्फटिकवदतिनिर्मलस्य प्रकाशरूपस्याण शायते उत्सर्गाऽपवादतत्त्वमनयेति छेदश्रुतगर्भायां रह-| ऽऽत्मनोऽप्रकाशकत्वम्, किंतु ज्ञानावृतिवशत एव । उक्त स्यवचनपद्धतौ, वृ० १ उ० १ प्रका। हि " तत्र ज्ञानावरणीयं, नाम कर्म भवत्ति येनाऽस्य । तत् Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३००) अभिधानराजेन्क | पह्या परिसद् पञ्चविधं ज्ञान - मावृतं रविरिव मेधैस्तथा ॥ १ ॥ " अथवा ( से खुरां ति ) से शब्दः प्रतिवचनवाचिनो ऽथशब्द स्थायें स हि केनविरवित्पर्यनुयुक्तस्तथाविधविम भावेन स्वयमजानन् कुत एतन्ममाऽज्ञानमिति चिन्तयन् गुरुवचनमनुत्याऽऽत्मानमात्मनैव प्रतिपति से इति) अथ नूनं निश्चितमेतत् । शेषं प्राग्यत् । आह-यदि पूर्व कृतानि कर्माणि किं न तदेव वेदितानि उच्यते, अथेति वक्तव्यातरोपन्यासे, पश्चादयाधीत्तरकालमुदीर्यते विपश्यन्ते कर्मारयज्ञानफलानि कृतान्यलर्क * मूषिकविषविकारवत्, तथाविधद्रव्यसाचिव्यादेय तेषां विपाकदानात् । ततस्तद्विघाताचैव पत्नी विधेयः न तु विषाद। एवममुना प्रकारेणाऽऽश्वासय स्वस्थीकुरु, कम् ? श्रात्मानम्, मा वैक्लव्यं कृथा इत्यर्थः। उक्तमेव हेतुं निगमयन्नाह - शात्वा कर्म्मविपाकं कर्म्मणां कुत्सितविपाकम् । इत्थं महाऽपकर्षमाश्रित्य सूत्रद्वयं व्याख्यातम् । एतदेव तदुत्कर्षपक्ष एवं व्याख्यायतेोत्कर्षते परिभावनीयम्' से ' इत्युपवासे नूनं मया पूर्व कर्मास्यनुष्ठानानि ज्ञानप्रशंसादीनि ज्ञानमिह विमर्शपूर्वको बोध तत्फलानि कृतानि येनाऽहं ना, अपिशब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टत्वा आऽपि पुरुषोऽप्यभिजानामि, पृष्ठः पर्वतुयुक्तः, फेनाऽव्य विवक्षितविशेषेण सर्वेणापीत्यर्थः । कस्मिश्चिद् यत्र तत्राऽपि वस्तुनि । अथ इत्युत्कर्षानन्तरम् (श्रपत्थ ति) श्रपथ्या' नि मायतिकटुकानि कर्माण्यज्ञानफलानि (उरिति शि) सूत्रत्वात् तियत्ययेन उदेष्यन्ति " वर्तमानसामीप्ये वर्तमाना" || ३ | ३. १३१॥ पाणि०) इत्यनेन वर्तमानसामीप्ये वा लडि उदीर्यन्ते सन्निहितकाल एवावेष्यन्तीत्यर्थः अयं चाऽऽशयः-उत्लेको हि ज्ञानावरणकारणम्, अवश्यवेद्यं च तत्, तदुदये च कुतो शानम् ? अनियते वाऽस्मिन् क उत्सेकः १ इत्येवमालोचयन्नाश्वासय- प्रज्ञावलेपावलुप्तवेतनमात्मानं स्वस्थीकुरु, शात्वा कर्मविपाकम् । इह च तन्त्रन्यायेन युगपत्र्थद्वयसंभवः । तन्त्रं च देयंप्रसारितास्तन्तवः, ततो यथा तदेकम् अनेकस्य तिरधीनस्य तन्तोः संमाहि तथा यदेकेन अनेकार्थस्याऽभिधानं स तन्त्रन्याय इति सूत्रद्वयार्थः ॥ ४०-४१ ॥ उत० पाइटी० २ अ० । 3 अस्मिंश्च प्रस्तुतसूत्रसूचितमुदाहरणमाहउज्जेणी कालखमणा, सागरखमया सुवरणभूमीए । इंदो आउयसे, पुच्छ सादिव्वफरणं च ।। १२० ।। ( ' उज्जेणी' ) उज्जयनी, कालक्षपणाः, सागरक्षपणाः, सुवर्णभूमौ इन्द्र श्रायुष्कशेषं पृच्छति सादिव्यकरणं चेति गाथारा ॥ १२० ॥ भाषार्थस्तु बुद्धसम्प्रदायात् का तव्यः । उत्त० पाइटी० २ श्र० । स च ( अज्जरक्खिय शब्दे प्रथमभागे २१५ पृष्ठे आर्थरक्षितकथावदन भावनीयः ) अत्र माऽपकर्षोपरि कालिकाचार्य सागरचन्द्रयोः कथाउज्जयनीतः कालिकाचार्याः प्रमादिनः स्वशिष्यान मुतया सुधर्णकुले स्वशिष्यसागरचन्द्रस्य समीपे प्राप्ताः । सागरच. न्द्रस्तु तानेकाकिनः समायातान् नोपलक्षयति । कालिकावार्या अपि न किचित्स्वस्वरूपोपलक्षणं दर्शयन्ति । अन्यदा सागरचन्द्रेण पर्षदि सिद्धान्तव्याख्यानं प्रारब्धस्, चम. कृता लोकाः सागरचन्द्रस्यास्यानं प्रशंसन्ति कालिकाचार्या * अलर्क उन्मत्त श्वा । पदसमत्थ " णां सागरचन्द्रेण पृष्टस् मद्व्याख्यानं कीदृशम् ? तैरुक्तम्भव्यम् । तेन च आचार्यैः समं तर्कवादः प्रारब्धः । परं तुल्यतया वक्तुं न शक्नोति । भृशं चमत्कृतः । अथ शि. ष्यास्ततः शय्यातरेण तिरस्कृताः त्रपां प्राप्ताः स्वगुरुं गवेपयन्तम्मलिताः 'कालिकाचार्याः समायान्ति इति प्र सिद्धिं कुर्वाणाः सुवर्णभूमौ प्राप्ताः । सागरचन्द्रः ' कालिकाचार्याः समायान्ति इति वृद्धस्य पुरा प्रोक्तवान् । - दः प्राह मयापि श्रुतमस्ति । सागरवन्द्रस्तेषां सन्मुख मायातः । तस्य तैः पृष्टम् किमत्र कालिकाचार्याः समायातास्सन्ति न वा ? तेनोक्तम् एकोऽत्र वृद्धस्समायातोऽस्ति, नापरः कोऽपीति । तेऽप्युपाश्रयान्तः समायाता उपलक्षि ताः कालिकाचार्याः प्रणतास्ते, सागरचन्द्रेण पश्चादुपपद तेषां मिथ्यादुष्कृतं दत्तम्- हा ! मया श्रुतलवगर्वाssध्मातेन श्रुतनिधयो यूयमाशातिता इति च कथितस् । कालिका चार्यैरुक्त-वत्स ! श्रुतगर्वो न कार्यः, यथा सागरचन्द्रेण तमदः कृतस्तथाऽपरैर्न श्रुतमदः कार्यः । उत्त० २ श्र० । परखापरिसहविजय पज्ञापरिहविजय पुं० अपाङ्ग पूर्व प्रकीर्णकविशारदस्य तर्का - ऽध्यात्मनिपुणस्य मम पुरस्तादन्ये सर्वेऽपि भास्करस्य पुरः खद्योता इव निष्प्रभा इति ज्ञा. नानन्दस्य निरसने, आव० १ अ० । । तीक्ष्ण बुद्धया परणामय-मज्ञामद-पुं० सीधा जन्ये मदे. "परणामयं पेय तयोमयं च विश्राम गोमयं च भिक्खु" सू श्र० १ ० १३ श्र० । पराणावरगुत्तमङ्गाकरगुप्त पुं. स्वनामख्याते दार्शनिके. पि. दुषि, नं० । पण्णावंत - प्रज्ञावत् - त्रि०। क्रियासहितज्ञानयुक्ते, उत्त० ७ श्र० । पकास पम्चाशत् स्त्री । पञ्चाऽऽयुषायां दश संख्यायाम् रा पणणासग पञ्चाशत्क वि० पञ्चाशवर्षजाते, "पद्मासनस्स चक्खुं हाय " तं० । पराणासा - पञ्चाशत्-स्त्री० । “पञ्चाशत्पश्चदश दत्ते "|| ८ |२| ४३ ॥ इति संयुक्तस्य णे परणाला ।' पण्णास ' इत्यर्थे, प्रा० २ पाद । पछी पत्नी श्री० यशसवन्धिन्यां भायायाम् सामान्य भार्यायास्, उत्त० २२ श्र० । परह-प्रश्न- पुं० । मध्-नङ् | "सूक्ष्म श्न-ष्ण-स्न-ह-क-वर्णाां एधः" ॥ ८ । २ । ७५ ॥ इति श्नस्य एहः । प्रा० २ पाद । पृच्छायाम्, आगमोक्तरीत्योपस्थितस्य साधुक्रियाकप ० ३ अधि अङ्गुष्ठ बाहु· प्रश्नादिकासु मन्त्रविद्यासु, स० १० अङ्ग । पहा - प्रस्नव - पुं० । स्तनस्तन्ये " श्रागयपरहया " पुत्र. स्नेहेन स्तनागतस्तन्या । अन्त० १ ० ३ वर्ग ८ श्र० । पण हवाहणय - प्रश्नवाहनक - न० स्थविरसुस्थित सुप्रतिबुद्धाभ्यां निर्गतस्य कोटिकगणस्य चतुर्थे कुले, २० क्षरा सिरिपरवाह कुलसम्भूय हरिसउरीयाका रभूश्रो अभयदेवसूरी" ती० ३८ कल्प। परहसमत्थ- प्रश्नसमर्थ-त्रि प्रश्नविषये प्रत्युतरदानसमर्थे, सूत्र० १० २ अ० २३० । - 1 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६१) अभिधानराजेन्धः। पाहावागरण पएहावागरणदसा पएहावागरण-प्रश्नव्याकरण-न। प्रश्नाश्च पृच्छाः, व्याक- पणहावागरणे शं एगो सूयक्खंधो, दस अज्झयणा एकरणानि च निर्वचनानि समाहारत्वात्प्रश्न व्याकरणम् । त.| सरगा, दससु चेव दिवसेसु उदिसिज्जंति, एकंतरसु श्रात्प्रतिपादको प्रन्थोऽपि प्रश्न व्याकरणम् । पा०। प्रश्नाः यंबिलेसु निरुद्धसु पाउत्तभत्तपाणएणं अंग जहा थाछाविप्रश्नविद्यास्ता व्याक्रियन्ते अभिधीयन्तेऽस्मिन्निति प्रश्नव्याकरणम् । प्रषचनपुरुषस्य दशमेले । अयं च व्यु यारस्स। त्पत्स्यर्थोऽस्य पूर्वकालेऽभूत् । इदानीं त्वाश्रवपञ्चक संघर- इति श्रीप्रश्नव्याकरणं दशमा समाप्तम । पञ्चकन्याकृतिरेवेहोपलभ्यते, अतिशयानां पूर्वाचार्यरैदयुगी. - “नमः श्रीवर्धमानाय, श्रीपार्श्वप्रभवे नमः । नानां पुष्टालम्बनप्रतिसेविपुरुषापेक्षयोत्तारितत्वादिति। अस्य नमः श्रीसरस्वत्यै, सहायेभ्यो, नमो नमः॥१॥ च श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिसंबन्धी पश्चमगणनायकः इह हि गमनिकाथै यन्मयाऽभ्यूहयोक्तं, सुधर्मस्वामी सूत्रतो जम्बुखामिनं प्रति प्रणयनं चिकीर्षुः सं किमपि समयहीनं तद्विशोध्यं सुधीभिः। बन्धा-ऽभिधेय-प्रयोजनप्रतिपादनपरम "जम्बूदणमो अण्ड- न हि भवति विधेया सर्वथाऽस्मिन्नुपेक्षा. य-संघरविणिच्छियं पषयणस्स । निस्संदं घोच्छामि. निच्छ- दयितजिनमतानां तायिनां चाऽनिवर्गः॥२॥ यत्थं सुभासियत्थं महेसाहि" ॥ प्रश्न १ श्राश्रद्वार । स०। परेषां दुर्लक्षा भवति हि विवक्षा स्फुटमिदं, प्रश्नव्याकरणदशा विशेषाकृद्धानामतुलवचनशानमहसाम । निराम्नायाऽधीभिः पुनरतितरां मादशजनैसे किं तं पाहावागरणाई ? पहावागरणेमु णं अट्ठत्तरं स्ततः शास्त्रार्थे मे वचनमनघं दुर्लभामिह ॥ ३ ॥ पसिणसयं, अहुत्तरं अपसिणसयं. अटुत्तरं पसिणाऽपसि- ततः सिद्धान्ततत्त्वः, स्वयमा स्वयत्नतः । णसयं । तं जहा-अंगुहपसिणाई.बाहुपसिणाई, अदागप न पुनरस्मदाख्यात एव ग्राह्यो नियोगतः॥४॥ तथैवं माऽस्तु मे पापं, संघमत्युपजीवनात् । सिणाई अन्ने वि चित्ता दिव्वा विज्जाइसया, नागसुव. वृद्धन्यायानुसारित्वा-द्धितार्थ च प्रवृत्तितः ॥५॥ लेहिं सदिं दिव्या संवाया आघविजंति । पहावा- यो जैनाभिमतं प्रमाणमनघं व्युत्पादयामासियान्, गरणाणं परित्ता वायणा, संखिज्जा अणुभोगदारा, प्रस्थानैर्विविधैर्निरस्य निखिलं बौद्धादिसम्बन्धि तत् । संखिज्जा वेढा, संखिज्जा सिलोगा, संखिज्जाओ नानावृत्तिकथाः कथापथमतिकान्तं च चके तपः, निज्जुत्तीउ, संखिज्जाओ संगहणीउ, संखिजाउ पडिवत्ती निःसम्बन्धविहारमप्रतिहतं शास्त्रानुसारात्तथा ॥ ६॥ तस्याऽऽचार्यजिनेश्वरस्य,मदवद्वादिप्रतिस्पर्खिनउ, से णं अंगड्याए दसमे अंगे, एगे सुयक्वंधे, पणया स्तद्वन्धोरपि बुद्धिसागर इति ख्यातस्य सूरे धि । लीसं अज्झयणा, पणयालीसं उद्देसणकाला, पणयाली- छन्दोबदनिबद्धबन्धुरवचःशब्दादिसल्लषमणः । सं समुद्देसणकाला, संखिज्जाई पयसहस्साइं पयग्गेणं, श्रीसंविग्नविहारिणः श्रुतनिधेश्चारित्रचूडामणेः॥ ७॥ संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता शिष्येणाऽभयदेवाख्य-सूरिणा विवृतिः कृता। प्रश्नव्याकरणाङ्गस्य, श्रुतभक्त्या समासतः॥८॥ तसा, अणंता थावरा, सासयकडनिबद्धनिकाइया जिण निवृतिककुलनभस्तलचन्द्र-द्रोणाल्यसूरिमुख्येन । पनत्ता भावा आपविजंति, पन्नविज्जति, परूविज्जति, पण्डितगणेन गुणवत्प्रियेण संशोधिता चेयम् ॥ ६॥ दंसिज्जंति, निदंसिर्जति, उवदंसिर्जति, से एवं पाया, प्रश्न०५ सम्ब० द्वार। एवं नाया, एवं विन्नाया, एवं चरणकरणपरूवणा - पएहावागरणदसा-प्रश्नव्याकरणदशा-स्त्री० । प्रश्नानां वियविज्जइ । से तं पण्हावागरणाई ।१०।। चाविशेषाणां यानि व्याकरणानि तेषां प्रतिपादनपरा दशा अथ कानि प्रश्नव्याकरणानि ? प्रश्नः प्रतीतः, तद्विषयं नि दशाध्ययनप्रतिबद्धा ग्रन्थपद्धतय इति प्रश्नव्याकरणदशा। र्वचनं व्याकरणम, तानि च बहूनि ततो बहुवचनान्तता, तेषु प्रश्न०१ आथ द्वार०। दशमे अके. पा०। प्रश्नव्याकरणेषु अष्टोत्तरं प्रश्नशतम्, या विद्याः, मन्त्रा वा पणहावागरणदसाणं दस अज्झयणा पएणत्ता। तं जहाविधिना जप्यमानाः पृष्टा एवं सन्तः शुभाशुभ कथयन्ति उवमा, संखा, इसिभासियाई, आयरियभासियाई, महाते प्रश्नाः, तेषामष्टोत्तरं शतम् । याः पुनर्विचा, मन्त्रा वा वीरभासियाई, खोमगपसिणाई, कोमलपसिणाई, अदागपविधिना जप्यमाना अपृष्टः एव शुभाऽशुभं कथयन्ति ते5प्रश्नाः तेषामष्टोत्तरं शतम् । तथा ये पृशः,अपृष्टाश्व कथय. सिणाई, अंगुट्टपसिणाई, बाहुपसिणाई ॥ न्ति ते प्रश्नाऽप्रश्नाः, तेषामष्टोत्तरं शतमाख्यायते । तथा: प्रश्नव्याकरणदशा होक्तरूपा न, रश्यमाना तु पञ्चाम्येऽपि च विविधा विद्यातिशयाः कथ्यन्ते, तथा नागकुमारैः श्रव पञ्चसंवरात्मिका। इतीहोक्तानां तूपभादीनामध्ययनाना. सुपर्णकुमारैः, अन्यैश्च भवनपतिभिः सह साधूनां दिव्याः मक्षरार्थःप्रतीयमान एवेति । नघरम्-(पसिणाई तिमश्नविद्या संयादा जल्पषिधयः कथ्यन्ते-यथा भवन्ति तथा कथ्यन्ते यकाभिः समकादिपु देषतावतारः क्रियत इति । तत्र क्षामकं इत्यर्थः । शेषं निगद सिद्धम् । नवरम्-संख्येयानि पदसहस्रा- वस्त्रम् (महागो) प्रादर्शा,अष्टो हस्ताषयवः, बाहधी भुजा णि विनवतिलक्षा, षोडशसहस्रा इत्यर्थः।नं। स०अनु०।। इति । स्था०१० ठा। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८२) निधानराजेन्द्रः । पहा पहा - प्रश्न - पुं० । स्त्री० । पृच्छायाम्, " वेमाऽजल्याद्याः त्रियाम् ॥ ८ । १ । ३५ ॥ इत्यनेन अजल्यादिपाठात् वा स्त्रीत्वम् । प्रा० १ पाद । । पहु- प्रस्तुत - त्रि० । स्तनविश्लिष्टपयसि, “सूक्ष्म-श्न-ण- स्नह्र-एह-दणां एहः || ८ |२| ७५ ॥ इत्यनेन राइत्वम्, प्रा० २ पाद । पतण - पतन - न० । निपाते, शा० १ श्रु० १५० । पतणतणावंत-प्रतणतणावमान त्रि० प्रकर्षेण तरातरा सि शब्दं कुवार्णे, गर्जति । भ० १५० । रा० । पतणु ( अ ) - प्रतनु ( क ) - त्रि०। अल्पे “पङ्को खलु चिक्खिझो. आगंतु पतलुओं दो पी" स्था० ५ ० २४० । पतणुकरण-मतनुकरण पुं० संसारक्षयकारके, शा०म० २ अ०।" पतकरी संसारं परिषेण तप करेति " अ० चू० २ श्र० । पताका-पताकास्त्री० । "तदोस्तः " ॥ ८ | ४ | ३०७ ॥ इत्यनेन पैशाच्यां तकारस्य तकारविधानसामर्थ्यान तकारस्याऽऽदे. शान्तरम् । ध्वजार्थे । प्रा० ४ पाद । , 6 3 पतिट्ठा - प्रतिष्ठा - स्त्री० । देवस्थापनायाम्, प्रतिष्ठायां प्रतिमायां नेत्रोन्मीलनेऽखने मधु क्षिप्यते नवा ? इति प्रश्ने, उत्तरम् - सांप्रतं प्रतिष्ठायामजने मधुशब्देन शर्कराऽभिधीयत इति सेव प्रक्षिप्यते । ३१६ प्र० । सेन० ३ उल्ला० । ( अत्र विस्तरः 'परट्टाशब्देऽस्मित्रेय भागे १ पृष्ठे गतः । प्रतिष्ठाविधिश्व 'हव' शब्दे तृतीयभागे १९६६ पृष्ठे गतः । आचारदिनकरादिवन् प्रतिद्वाराणि लभ्यन्ते तानि च पडिमा श विभागे ३७७ पृष्ठे गतानि प्रतिष्ठां कृत्वैव प्रतिमाः वन्दनीयाः अस्मिन् विषयेऽपि पडिमा शब्द विली ' कनीयः ) । पतिद्वारा प्रतिष्ठानन० जसोपानमूलप्रदेशे रा० प्रकार णे, प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार । ( अत्र विस्तरः 'पट्ठाण' शब्दे ऽस्मिन्नेव भागे २ पृष्ठे गतः ) पतिष्मती-म० निस्तीर्णे जन्मपरिपालिते, प्र०१ " 1 सम्व० द्वार । पति-पति- पुं० । पाति रक्षतीति पतिः -भतार, नि० चू०४ उ० पातु न० वल्कलतनुनिष्पत्रे, आचा०२ ० १ ० ५ श्र० १ उ० । “ पद्म तुम न० । पतुल' शब्दार्थे, आचा० २ ० १ चू० ५ ० १ उ० । पतेरसपास पत्रयोदशवर्ष-२० प्रकर्षेण त्रयोदशे वर्षे . एहिं मुणी सयणेहि समये आसि पतेरसवासे । राई दिवं पि जयमाणे अपम से समाहिए झाइ ॥ ४॥ 'एतेषु ' पूर्वोक्तेषु ' शयनेषु' वसतिषु स मुनि: ' जगत्त्र यवेत्ता ऋतुबद्धेषु वर्षासु वा श्रमणः ' तपस्युद्युक्तः स. मना वासी निश्चलमना इत्यर्थः कियन्तं कालं याचत इति दर्शयति- पतेलसवा । त्ति ) प्रकर्षेण त्रयोदशं यावत्समस्तां रात्रि दिनमपि यतमानः संयमानुष्ठान ७ पन्त युक्तवान् तथाऽप्रमतो निद्रादिप्रमादरहितः समाहितः मनाः ' विस्रोतसिकारहितो धर्मध्यानं शुक्लध्यानं वा ध्या यतीति ॥ ४ ॥ श्राचा० १ ० १ ० १ उ० । 6 पतेलसवास - प्रत्रयोदशवर्ष - न० । पतेलसवास-प्रत्रयोदशवर्ष न० । पतेरसबास' शब्दायें, 6 आचा० १४० १ ० १ उ० । पतेस - प्रदेश - पुं० । “ तदोस्तः " ॥ ८ । ४ । ३०७ ॥ पैशाच्या मिति सूत्रेण दकारस्य तकारः । प्रकृष्टावयवे, प्रा० ४ पाद । (अत्र विस्तरः 'पएस' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २२ - २६ पृष्ठे गतः) । पतोदय- पतदुदय- न० । पतितपताके स्थाने, भ० ३ श०४ उ० । पत्र - पत्र - न० । पर्णे, स्था० ४ ठा० ३३० निम्बा - ऽश्वत्थादिपबजाते, रा० । प्रश्न० । दले, भ० १ ० १ उ० । दुमपत्तर पं रए जहा निवडर राइगणाण श्रश्वर । उस० १० अ० । [झा० । जी० । विशे० । दश० । लिखनाधारे, वाच पतन्ति ग छन्ति तेनेति पत्रम् | पक्षपुढे, सूत्र० १० १४ श्र० । वाहनमात्रे, वाच० । पत्रस्य चतुर्विधो निक्षेपो द्रुमस्येव वेदितव्यः । उत्त० १० ० । ( कस्य वनस्पतेः पत्रं कियज्जीवम् ? इति 'असंतजीव ' शब्दे प्रथमभागे २६२ - २६४ पृष्ठे गतस् । ' प. तेयजीव' शब्दे च वक्ष्यते ) प्राप्त - त्रि० प्राप्ते, अधिगते, वाच० । पात्र न० । पतग्रहादिभाजने, उत्त० ६ श्र० । प्रश्न० । अथ पात्रस्य सर्वोऽधिकारः । पात्रनिक्षेपः-- तच्च पात्रं चतुविधस् । तद्यथा नाम उवणा दविष, भावम्मि चउंम्विहं भवे पाये । एसो खलु पायस, निक्खेवो चउव्विहो होइ ॥ ६१४ || नामपात्रस्, स्थापनापात्रस्, द्रव्यपात्रस्. भावपात्रमिति चतुर्विधं पात्र एप तु पात्रस्य निक्षेपश्धतुर्विधो भवति । तत्र नाम-स्थापने सुगमत्वादनादृत्य द्रव्य भावपात्रे प्रतिपादयति दब्बे तिविहं एगिं दिविगलं पंचिदिएहि निष्फर्म । भावे आया पत्तं, जो सीलंगाण आहारो ॥। ६१५॥ द्रव्यविषयं त्रिविधं पात्रम् । तद्यथा एकेन्द्रियनिष्पन्नस् वि. कलेन्द्रियनिष्प व एकेन्द्रियनिष्पक्षमपि लावुकादि वि कलेन्द्रियनिष्पत्रं शुक्तिखादिपञ्चेन्द्रियनिष्पन्नं कृत दन्त शृङ्गपात्रादि । भावे भावविषयं पात्रम् आत्मा । किं सर्व एच पथम् ? इत्याह-यः पूर्वोक्तानामष्टादशसहस्रसंख्यानां शीलाऽङ्गानामाधार श्राश्रयः स श्रात्मा साधूनां सम्बन्धी भावपात्रम्-भाजनस्, आधार इति पर्यायवचनत्वात् । दृ० १ उ० १ प्रक० । श्राचा० । कारणे पात्रग्रहणम्अतरंतचालडा, सेहाऽऽदेसा गुरु अहो | साहारयोग्गहाल दिकारणा पायग्रहणं तु ॥ १ ॥ (अ) खाना आदेशाः प्राघूर्णकाः (अससि) सु कुमारी राजपुत्रादिः प्रमजितः साधारणाय महात्सामान्योप टम्भार्थस्, अलब्धिकार्य चेति । स्था० ३ ठा०३ उ० । श्राचा० । कप्पर निम्गंधावा, निम्गंचखिं वा तच्च पापाई चा Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (42) अभिधानराजेन्द्रः | पस रितए वा, परिहरितए वा । तं जहा लाउयपाए वा, दारुपाए वा महिमापाए वा । स्था० ३ ० ३ ० | पुनर्भायपात्रोपयोनिना व्याधिकारः, तदपि त्रिविधम् लाग्य दारुम महिष, विविदं उकोस मन्किम - जहनं । एकेकं पुरा तिविहं महागडऽयं सपरिकम्मं || ६५७|| अलामयम्, दारुमयम्. मृत्तिकामयं च । पुनरेकैकं त्रिवि धम्-उत्कृष्टम्, मध्यमम् जघन्यं वा । उत्कृष्टं प्रतिग्रहः, मध्यमं मात्रकम् जघन्यं टोप्यारका 55दि। एकैकं पुनस्त्रिधा यथाकृतम्- अल्पपरिकर्म, सपरिकर्म च । बृ० १३० १ प्रक० । (२) पात्रस्य गणना - प्रमाणाऽऽदीनि द्वाराणि, पात्रैषणाएगं पायं जिक- प्पियाण येराण मत्तओ बीओ । एयं गणणपमाणं, पमाणपमाणं अम्रो बोच्छं ।। १००० ॥ एकमेव पात्रकं जिनकपिकानां भवति, स्थविरकल्पि कानां तु मात्रको द्वितीयो भवति । इदं तावदेकव्यादिकं गणनाप्रमाणम्, इत ऊर्ध्वं प्रमाणप्रमाणं वक्ष्ये । तत्र पात्रकस्य प्रमाणप्रमाणं प्रतिपादयग्राहतिनि वितत्थी चउरं-गुलं तु भाणस्स मज्झिमपमाणं । इत्तो ही जहन्नं, अइरेगयरं तु उक्कोसं ।। १००१ ॥ समवर व दोरपण मविज्जइ-तिरिच्छ्रयं उहमहो य । सो दोश्रो तिनि वितत्थी चत्तारि अंगुला जइ होइ तो पयं भाणस्स मज्झिमं प्रमाणं । इतः अस्मात्प्रमाणात् पीनं तद् जघन्यं प्रमाणं भवति, अथातिरिक्तं प्रमाणं म ध्यमप्रमाणाद्भवति तदुत्कृष्टम्, उत्कृष्टप्रमाणमित्यर्थः । तथा - इदमपरं प्रकारान्तरेण पात्रकस्य प्रमाणं भवतिइमं तु पमारी, नियगाहाराउ होइ निप्फनं । कालप्यमाणसिद्धं उदरपमायेण य वयंति ||१००२ || इदमन्यत्प्रमाणं निजेनाऽऽहारेस निष्पत्रं वेदितव्यम् । एतदुक्तं भवति- काञ्जिकादिद्रव्योपेतस्य चतुर्भिरङ्गुलैयूनं पात्रकम्, तत्साधोर्भक्षयतः यत्परिनिष्ठितं तत् तादृग्विधं मध्यमप्रमाणं पात्रम्, तथैवंविधं कालत्रमाणेन भीमकाल-नासिद्धं पात्रकं भणन्ति, उदरप्रमाणेन च सिद्धम् । तदित्यं कालप्रमाणसिद्धं पाषकम् उदप्रमाणसिद्धं च वदन्ति प्रतिपादयन्ति । कालममा सिद्धं पात्रकम् उमापसिद्धं च पात्र प्र तिपादय शाहउकोसतिसामासे, दुगाउमदारामागच्यो साहू | परंगुलुखभरियं, जं पज्जतं तु साहुस्स ।। १००३ ।। उत्कृष्टा द पिपासा यस्मिन् काले स उत्कृष्ट एमासः कालः, तस्मिन्नुत्कृष्टरमासकाले द्विगव्यूतमानादागतः साधुधतुर्भिरन्यूनं भृतं यत् सत् पर्याप्तं साधोर्भयति सदर कालप्रमाणोदप्रमाणसिद्धं पात्रकं मध्यमं भवति । एयं चैव पमाणं, सविसेसारं अगुग्गहपवत्तं । कंत. रे दुम्भिक्ले, रोहगमाईसु भइयवं ।। १००४ ॥ एतदेव पूर्वोक्तं प्रमाणं यदा सविशेषतरम् अतिरिक्तरं भवति तदा तदनुमहार्थे मवृतं भवति-इसरेण पाण ६६ पन्त अन्येभ्यो दानेनानुग्रह आत्मना क्रियते । तच कान्तारे महतीमटवीमुती अन्येभ्यो ऽप्यर्थमनुमदाय भवति, येन बहूनां भवति । तथा दुनि अलभ्यमानायां निक्षायां बहु अटित्वा बालाssदिभ्यो ददाति । तब्वातिमात्रे भाजने सति भवति दानम् । तथा रोधके कोट्टोपरोधे जाते सति कश्चिद्भोजनं श्रद्धया दद्यात् तत्र तत् नीयते, येन बहूनां भवति । एतेषु भजनीयं धनीयं तदतिमा पात्रकम् । इदानीमेतदेव भाष्यकारो व्याख्यानयनाहवेयावचकरो वा, नंदीभाणं घरे उनग्गहिरं । सो खलु तस्स विसेसो, पमाणजुत्तं तु सेसाखं ॥ १००५ ।। ओघ (अत्र नन्दिभाजनसरका सर्वा चरुव्यता 'संविभावस' शब्दे चतुर्थभागे १७५७ पृष्ठे गता ) (३) अथ पात्रविषयं तमेवाऽभिधित्सुराहदव्यमाणं अतिरे-गे हीणें दोसा तहेव भववाए । लक्खयमलक्खया, तिविहं वृच्छेय आखाऽऽदी।। ३१३ ।। को पोरुसी व कालो, आगर चाउल जहाजयगाए । चोद असती असिव-प्यमाणव ओमण मुहे या ३१४| इव्यमिह पात्रे, तस्य यद्वयमाणं प्रमाणम् १ | अतिरिक् हीने च पात्रे दोषा चक्रव्याः । तथैवाऽपवादे कारणे हीनातिरिक्तधारणलक्षणे २ । पात्रस्य किं लक्षणम्, किं वा डालक्षणम् ३ विविध उत्कृष्टाऽऽदिभेदाद् तथा कृतादिभेदा ar त्रिप्रकार उपधिर्यथा गृह्यते ४ | यथोक्तक्रमाश्च विपर्यस्तेन ग्रहणे प्रायश्चित्तम्, श्राशाऽऽदयश्च दोषाः ५ ॥ ३१३ ॥ तथा - (कोत्ति) कः पात्रं गृह्णाति ६ । ( पोरिसित्ति) बहुबन्धनबद्धं पात्रं धारयता सूत्रा - ऽर्थपारुष्यौ द्वे अपि छापयित्वा परं पानं गवेषणीयम् ७ । ( कालो ति ) तस्य व गवेषणानुकूलक्रियाकाल इति आकरः कुत्रिकापणा-वि यत्र पाचं गवेष्यमाणं लभ्यते । (बाउल सि) तन्दुलधावनेन उपलक्षयत्वावृटकादिना भावितं किं कल्पते नवा इति १० । ( जहन्नजयण त्ति) जघन्यं पञ्चकप्रायश्चित्तम्, जयन्यानि वा सर्षपाऽऽदीनि तद्युक्तमपि पात्रं यतनया ग्रहीतव्यम् ११ चोदकः प्रेरयति कथं बीजभूतमपि पात्रमनुज्ञा यते ? १२ । सुरिराह-यदेतद्वीजयुक्तपात्रमहणमनुज्ञातं तदसत्तायां पानकस्याग्भावे, यत्र वा भाजनानि लभ्यते ताऽपान्तराले या अशिवम् १३ ( पमाण उपभोग पण ति ) यदि प्रमाणयुक्तं पात्रं न लभ्यते तत उपयोगपूर्वकं पात्रस्य छेदनं विधाय प्रमाणं विधेयम् १४ । ( मुद्दे पति) अवसपरिकर्मकयोर्मुकरणं भवति न पथाते १५ । एवमेतानि द्वाराणि प्ररूपणीयानि इति द्वार गाथाद्वयसंक्षेपार्थः । साम्प्रतमेतदेव विवरीषुराहपमाणऽतिरंगधरणे, चउरो मासा हांत उपाया। यो व दोसा, विराणा संजमाऽऽयाए ॥ ३१५ ।। प्रमाणाऽतिरिक्तपात्रस्य धारणे चत्वारो मासा उघातिका भवन्ति, आज्ञाऽऽवयश्च दाषाः, विराधना व संयमाऽऽत्मविषया । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्त ( ३६४ ) अभिधानराजेन्द्रः । इदमेवभाषयति गणणाएँ पमाणे य, गणयाएँ समतओ पडिमा हम्रो । पलिमंथ भरुव्वहरा, अतिष्पमाये इमे दोसा ।। ३१६ ।। गणनया, प्रमाणेन च, पात्रस्य प्रमाणं द्विविधम्-तत्र गणनायां समात्रको मात्रकसहितः प्रतिग्रहो मन्तव्यः । अत ऊतीयाऽऽदिकं पात्रं धारयति, ततः कर्मणि नादौ प्रत्युपेक्षणाऽऽदिषु च महान् परिमन्धो भवति । अध्वनि बहूनि पात्राणि वहमानस्य भारः, बहूपकरणो ब्रहको जनोपहास्यो भवति-अहो ! भारवाहकोऽयमिति । उत्र चाऽतिप्रमाचे प्रमाणद्वयातिरिक्ते पात्रे पते दोषाः। तद्यथा भारेण वेयणा वा, अभिहणमाई य पेहए दोसा | इरियादि संजमम्मि य, छकाया भाणभेो य ॥ ३१७॥ प्रभूतपात्रपहने भारणा कान्तस्य वेदना (अ) तुरङ्गमादीनि अभिघातं प्रहारं प्रयच्छन्ति तं न पश्य विदिशा खाणुक एटकाऽऽदीनि न प्रेक्षते, एवमात्मविराधनायामीर्याऽऽदिकं न शोधयति, ततश्च षट्कायविराधना । अनुपयुक्तो वा प्रस्खलितो भाजनभेदमपि विदघ्यात्, पते गणनातिरिक्ते दोषा उक्ताः । प्रमाणातिरिक्ते तु पात्र हमे दोषा:भाणऽप्पमाणगहणे. भुंजणे गेलमऽभुंजे उन्भमिगा । एसपेल भेदे, हाणि अडते दुहि दोसा ।। ३१८ ॥ ( माणऽप्यमाणसि ) अकारमपादममाणस्याऽतिबृहत्त रप्रमाणस्य भाजनस्य ग्रहणे इमे दोषाः, तदतिबृहत्तरं भाजनं परिपूर्णमपि भृत्वा यदि सर्वमपि भु ततो ज्यऽऽदि कंगना भवेत्, अथ न भुते तत उद्भामिका भय ति । अतिबृहत्तर व पात्रं यदा गृहिणाऽपि न पूर्यते तदा एषणाप्रेरणम् । पीडनं कृत्वाऽपि विभृयात्, भरितं वाऽतिमारेण प्रतिस्वरप मेदमुपगच्छेत् ततो भाजनेन विरहिते आत्मनः कार्यपरिहाणिः, तनिष्पन्नं प्रायश्चितम्। गुरुत्वेन वाssत्मसंयमविराधनालक्षणा द्विविधा दोषा भवन्ति । त थाऽत्र आत्मविराधना ईयों पर्यटतोऽतिभारेण कटीस्क मधाऽऽदिकं परिताप्यते संयमविराधनायामीर्यामशोधयन् चकायान् विराधयेत् । गतमतिरिक्तद्वारम् । (४) अथ दीनद्वारमाहहीणप्पमाणधरणे, चउरो मासा हवंति उग्धाया । मणाऽऽदियो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽताए ॥ ३१६ ॥ यत्प्रतिग्रहस्य, मात्रकस्य वा प्रमाणं वक्ष्यते, ततो हीनं यदि धारयति तदा चत्वारो मासा उद्घातिमा भवन्ति । एतच्च प्रतिग्रहे मन्तव्यम, मात्रके तु मासलघु । श्राह च निशीथचूर्णिकृत् -" पडिग्ग्रहगे चउलहुँ. मत्तगे मासल हुँ ।” आशाऽऽदयश्च दोषाः, विराधना च संयमाऽऽत्मविषया । इदमेव भावयति ऊणेण न पूरिस्सं, आकंठा तेरा गिरहते उभयं । मा लेवकडं ति पुगो तत्थुवओोगो न भूमीए ॥ ३२० ॥ 'कन प्रमादीने मीनेनाऽमरिनामात्मानं पूरविब्ये, तत श्राकण्ठात्तत्र भाजने उभयमपि कूयं कुसणं च ग्र ਧਾਰ हाति, ततो मा पात्रबन्धो लेपकृतो भवेत्, तत्रैव पात्रकबन्धखरराटने उपयोगो भवति, न पुनर्भूमौ । अनुपयुक्तस्य चेमे दोषा:वाणुकंटगविसमे अभिवमादी व पेहए दोसा । इरियाएँ गलियतेयग- भागयभेद व छकाया ।। ३२१ ।। यायामनुपयुक्तः स्थाना कटकेन या विध्यते विषमे या भूभागे निपतेत, गवादिकृताभिघाताऽऽश्व दोष मे क्षमात्मविराधना संयमाराधनायेवम्-अनुपयुक्त ईर्ष्या न शोधयेत्, भाजनाच भक्तं पानकं वा परिगलेस्, तच प्रगलितं विलोक्य स्तेनाः परिपूर्ण सुतमिदं भाजनमस्तीति परिभाव्य प्रहरेयुः । अथ कुत्रापि प्रणालितस्ततो भाजनमेव, पायविराधना या भवेत् । ? गुरुपादुम्बले बाले उडे गिलाणे" सेदे व । लाभालाभद्वाणे, अनुकंपा लाभयोच्छेदो || ३२२ ॥ प्रमाणहीनं भाजनं धारयता गुरुप्राचूर्णकक्षपक दुर्बला बालः, वृद्धः, ग्लानः, शैक्षश्व परित्यक्ता मन्तव्याः । तथा क्षेप्रत्युपेक्षणायै प्रेषितस्तेनापयसा भाजनेन कथं लाभालाभपरीक्षां करोतु | अध्वनि प्रपन्नानां संखडिर्भवेत्, तत्र पर्याप्त लभ्यमाने ती भाजने कि नाम तु विधिनाऽभव नि वा कश्विद् दानश्रद्धालुरनुकम्पया प्रायादुपस्थाप्यते तत्तद्भाजनं भरति । तत्र साधारणं भाजनमुपस्थापयितव्यम् । हीनभाजने पुनरुपस्थाप्यमाने तस्य लाभस्य यचच्छेो भवति, निर्जरायाथ लामो न भवतीति संग्रहपासमासार्थः ॥ ३२२ ॥ अनामेव विवरीषुः प्रथमतः प्रायश्वित्तमाहगुरुमा य गुरुगिलाणे, पाहुणखमए म पलहू होंति । सेहस्स होइ गुरुओ, दुब्बलजुगले व मासलहू ॥ २२२ ॥ गुरूणां ग्लानस्य चोपष्टम्भमकुर्वतश्चतुर्गुरुकाः, प्राघूर्ण - कस्य, क्षपकस्य चोपष्टम्भाऽकरणे चतुर्लववो भवन्ति, शैशस्याsदाने मासगुरुका दुर्बलयुगलस्य च बालवृद्धलक्षणस्वादाने मासलघुः ॥ ३२३ ॥ अप्पर परिचाओ, गुरुमाईणं अदितदितस्स । अपरिच्छिए य दोसा, वोच्छेओ निजरालाभे ॥ ३२४|| लघुतरभाजनं गृहीतं गुर्वादीनां यदि ददाति तत आत्मपरित्यागः अथ स्तोकमिति कृत्वा न ददाति ततो गुर्वादीनां परेषां परित्यागः कृतो भवति । तथा प्रमाणहीनं भाजनं गृहीत्वा क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थं गतः कथं लाभालाभं परीक्षेत। ततोऽपरीक्षिते ये दोषास्ते मनपरीक्षिते मन्त म्याः । अध्वनि प्रपन्नानां च संसडिर्भवेत् । दानादो या कधिनुकम्पया प्रभूतं भक्रपानं दद्यात् । यद्वा-स्वस्थानेता विद्याधर समेत तत्र लघुतरभाजने भ पानलाभस्य. निर्जरायाश्च व्यवच्छेदो भवति ॥ ३२४ ॥ अयलकभाजनस्यैव दोषान्तराभिधानायाऽऽद्दलेवकडे बोस, सुपखे लग्गे य कोडिते सिहरे । एए हवंति दोसा, डहरे भागे य उड्डाहे ।। ३२५ ।। वाऽऽदिना तवनमा भाजनमा मारितं ततः (वोसट्रे ति) प्रलठिते तो चैतद्भाजनं लेपकृतं क्रियते. अथ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त पात्रलेपनयात् तत्र युकमेव भक्तं शृह्णाति ततस्तद्भ भुञ्जानस्य गल के, उदरे वा लगेत, लग्ने च तत्राऽजीर्णे भचेत् (कोडित) गाई चरितं वम्यमाने या पाचकं मत्येव शिखरं वा पात्रस्योपारे भव शिखां कुर्वन्तं - ष्ठा लोको यात्-अहो असंतुष्ट बहुमतका अमी एव मुझहो भवेत् पते उदरे भाजने दोषाः ॥ ३२५ ॥ अथैनामेव भावयति ( ३६५ ) अभिधानगजेन्डः | घुरा घुषणे दोसा, बोसते य काय आयुसिये । सुके लम्माञ्जीर, कोडिएँ सिहरे व उट्टाहो ॥ ३२६ ॥ प्रतिभृतत्वेन तक-तीमनाऽऽदीनि प्रलोठयतो यत्पानकं लेपकृतं, तस्य धावनाऽधावनयोरुभयोरपि दोषाः । तत्र धावने प्लावनाऽऽत्रयः, अधावने तु रात्रिभोजनवतभङ्गः । (वोसते बति) परिगलति भक्रपाने पराणां कावानां विराधना । अ वा-नोन परिमलता धरारीरस्थात्मविराधना । शु. - मक् श्रातमात्रं भुज्यमाने गलके उदरे वा लग्ने - जीर्णे भवेत् । तत्र च ग्लानाऽऽरोपणा । कोडितं गाढं चम्पितं सद् पावकं भज्येत शिखरे च भस्योपरि शिवाय विधीयमानायामुड्डाहो भवति यत एवमादयो दोषाः, ततः प्रमासयुक्तमेव प्रीतम् ॥ ३२६ ॥ की पुनस्तत्प्रमाणम् है इत्याशङ्कय प्रमाणमाहतिथि वितत्थी चवरे -गुलं च भागस्स मज्झिमपमाखं । एतो ही जहं, अतिरेगयरं तु उक्कोसं # ॥ ३२७॥ पात्रस्य परिधिं दवरकेण मीयते यदा स मानदवरकस्तिस्रो वितस्तयश्चत्वारि गुलानि च भवन्ति, तदा भाजनस्य पात्रकस्य तद् मध्यमप्रमाणम् । इतो मध्यमप्रमाणहीनं यत् पात्रं तद् जघन्यम् । श्रतिरिक्ततरं तु मध्यमप्रमाणावू बृइत्तरमुत्कृष्टम् ॥ ३२७ ॥ 1 अथवा कोसतिसामासे, दुगाउअद्वायमागओ साहू । चउरंगुलवज्र्ज भराणजित्तवं हेद्वा ॥२२८॥ उत्कृष्टस्तुमासः स उच्यते यस्मिन्नतीव प्रबला पिपासा समुझतति, स च जेष्ठः, श्राषाढो वा; तस्मिन्काले द्विस्यूतप्रमाणादध्वन आगतो यः साधुः, तस्य ईदृशकालाध्वनिस्य यच्चतुरङ्गुल वर्जमुपरितनैश्चतुर्भिरश्गुलैयूनमधस्तात् भक्तपानस्य सूतं सत्पर्याप्तं भवति तदित्थंभूतं पात्रकस्य प्रमाणं मन्तव्यम् ॥ ३२८ ॥ एयं चैव पमाणं, सविसेसरं असुग्गहपवतं । कंतारे दुब्भिक्खे, रोहगमाईसु मइयब्वं *|| ३२६ ॥ एतदेव प्रमाणं सविशेषतरं समधिकतरं यस्य भाजनस्य भवति तदनुग्रहवृत्तं गच्छस्यानुपदार्थ प्रवर्तते। कथम् ?, इत्याह- ( कतार ) महत्यामटव्यां वर्तमानस्य तदुतीर्णस्य वा गच्छस्यानुग्रहार्थं तद् गृहीत्वा वैयावृत्यक पर्यटति । दुर्भिक्षे ऽप्यलभ्यमानायां निशायां तद्गृहस्था विरमटि त्या बालाऽऽदिभ्यो ददाति । एवं नगरस्य रोधके संजाते, आदिशब्दाद् अपरेषु वा भयविशेषेषु कश्चिद्दनश्रद्धालुर्यावदेसिन भाजने माति तावत्प्ररमपि भक्तपानं दद्यात् तत्र तदतिरिक्रमाजनं भव्यं सेवनीयम् ॥ ३२६ ॥ • एता नियुक्तिगाथा भोष नियुक्त्या मिलन्ति ३६३ पृष्ठे । पस अथाऽपचादद्वारमनिधित्सुः कारणैरधिकं हीन या चारयति तानि तावद् दर्शयति अनाणे" गारवे लु-द्धे" असंपत्ती धारो चेव । लहुलहुआ गुरुगा, चउत्यो युद्धो उ जायभो ||३३० ॥ यद्यज्ञानेन हीनाधिकप्रमाणं भाजनं धारयति ततो लघुमासा, गौरवेन धारयतश्वत्वारो यः सोमनं - लोभ इत्यर्थः तेन धारयतश्वत्या गुरवः । असे प्राप्तिर्नाम प्रमाणयुक्तस्य पात्रस्याप्राप्तिस्तस्यां यो हीनातिरिकं धारयति स चतुर्थो प्राप्तिधारकः शुद्धः तथा बायको नाम - पात्र लक्षणाऽशक्षणवेदी स लक्षणयुक्तीनाधिकाणमपि धारयति, ततः शुद्ध इति द्वारश्लोकसमासार्थः ॥३३०॥ अथैनामेव विवृणोति , हीणातिरेगदोसे, प्रजाश्रो सो धरिज्ज हीगऽहियं । पगई थोवभोई, सति लाभे वा करे तोसं ।। ३३१ ॥ पात्रस्य ये हीनाऽतिरिक्तविषया दोषाः पूर्वमुक्तास्तान् यो यतिर्न जानीते स हीनाधिकप्रमाणं धारयेत् । तथा कश्चित् ऋद्धिगौरवयुक्तः सत्यपि भक्तपानलाभे प्रकृत्यैव स्तोकमोजी वल्पाहारोऽयं महात्मेतिष्यापनार्थमचमं हीनप्रमार्थ भोजनं करोति सति पर्यासे लाने संतोष या कुर्यात् ॥ ३३९ ॥ किं पुनस्तस्य ऋद्धिगौरवम् ?, इत्याहईसरनिक्लेतो वा आयरियो वा वि एस डहरे । इति गारवेण ओमं प्रतिप्यमाणं विमेहिं तु ॥ ३३२ ॥ ईश्वरनिष्कान्तो वा राजाऽऽदिमहर्दिकः प्रमजित आचार्यो बाप साधु यदेवं डहरेण लघुना भाजनेन मां पर्यटति इत्येवं गौरवेण यशः प्रवादलिप्सालक्षणेनाऽवमं भाजनं करोति । अतिप्रमाणं पुनः पात्रममुना कारणेन करोति ॥ ३३२ ॥ अणियिबलविरो, बेयायचं करेति अह समयो । मम तुल्लो न य कोई, पसंसकामी महल्लेणं ॥ ३३३ ॥ अथेत्युपन्यासे ग्रहो अयं भ्रमणः पुरुषामा अनिहित बलवीर्यो महता भाजनेन सकलस्याऽपि गच्हस्य वैयावृष्यं करोति, एवं प्रशंसाकामी. नास्ति कोऽपि मम बाहुबलमकृत्यः स इति स्थापनार्थमतिरिक्तं भाजनं - रोति ॥ ३३३ ॥ अथ सुपपदं व्यायअंतं न होइ देयं, थोवासी एस देह से सुद्धं । " उक्कोसस्स व लंभे, कहि घेत्थं महल्ललाभणं ॥ ३३४ ॥ पुलकभाजनेनहाङ्गणस्थितं साधुं दृट्टा गृहस्वामी भएति स्तोकाशी स्वोकाऽऽहारोऽयं मुनिः, अतोऽस्य अ न्तशान्तभक्तं न देयम् किं तु अस्य प्र य एवं विचिन्त्य तुन्धतया हीनप्रमाणं करोति तथा उत्कृष्टस्य शालिमुष्णदास्यादेष्यस्य प्रभूतस्य लाभे सति चिन्तयति-अनेन प्रमाणोपेतभाजनेन पूर्व सामान्यमस्य सूतेन पश्चादुत्कृष्टव्यं लभ्यमानं कुत्र महीष्यामीति वि चिन्त्य लोभन महत्तरं भाजनं गृह्णाति ॥ ३३४ ॥ अथासंप्राप्तिज्ञायकपदे व्याख्यातिजुत्तपमाणस्सऽसती, हीऽतिरिक्तं चउत्यो धारेति । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६६) अन्निधानराजेन्डः । पत्त लक्खणजुऐं हीणहिय,नंदी गच्छ8 वा चरिमो।।३३।। व्रणे च प्रत्येकं चतुर्गुरुकः । शेषेषु पुष्पकव्यतिरिक्तेषु कुयुक्तप्रमाणं यथोक्तप्रमाणोपेतं तदनेकशी गवेष्यमाणमपि यादिस्थानेषु भिन्ने चतुर्लघुकाः । हुण्डे, मादिशम्यादाता. न प्राप्यते,अतस्तस्याऽभावे हीनं वा अतिरिक्तं वा पात्रं च. ऽऽनाबद्धे, दुष्पूते, कीलकसंस्थाने, अवर्णाऽऽनये, शबले च तुर्थः संग्रहगाथोक्तक्रमप्रामाण्यादसंप्राप्तिमान् धारयति। त- मासलघु ॥ ३४०॥ गतं लक्षणाऽलक्षणद्वारम् । था यल्ल तणयुक्तं लक्षणाऽलक्षणवेदी हीनाधिकप्रमाणमपि (६) अथ त्रिविधोपधिद्वारमाहभानाऽऽदिवृद्धिनिमित्तं धारयाते । तथा गच्छस्योपग्रहकर तिविहं च झेइ पायं, अहाक अप्प सपरिकम्मं च । यन्नन्दीभाजनं तद् गच्छाथै चरमश्चरमद्वारवर्ती शायको धा. पुवमहाकडगहणं, तस्साऽऽसति कमेण दोनियरे॥३४१॥ रयति ॥३३॥ गतमपवादद्वारम् । त्रिविधं च भवति पानम्-अलावुमयम्, दारुमयम्, मृत्ति(५) अथ लक्षण द्वारमाह कामयम् । पुनरेकैकं त्रिविधम्-यथाकृतम् अल्पपारकर्मा, वह समचउरंस, होइ थिरं थावरं च वजहूं। सपरिकर्म च । पूर्व यथारुतस्य प्रहणम्, तस्याभावे क्रमेण हुंडं वायाइदं, भित्र व अधारणिजाई ।। ३३६ ।। इतरेदे पात्रके प्रहीतव्ये । प्रथममल्पपरिकर्म, तदप्राप्ती वृत्तं वर्तुलम्, तदपि समचतुरस्र बुझपरिधिना, कुक्षिपरि- बहुपरिकाम्पीत्यर्थः ॥ ३४१॥ धिना च तुल्यं, स्थिरं सुप्रतिष्ठानं रष्ठं वा, स्थावरमप्राति विपर्यस्तद्वारमाहहारिकम्, वर्णाव्यं स्निग्धवर्णोपेतम्। पाठान्तरेण- 'धन्नं च तिविहे परूवियम्मी, वोच्चत् गहणे लहुग प्राणाऽऽदी। त्ति।" एतैर्गुणयुक्तं धन्यंशातविधिना वहनमित्यर्थः। एवंवि छेदणभेदणकरणे, जा जहिं पारावेणा भणिता ॥३४२।। धं लक्षणयुक्तमुच्यते । तथा हुण्डं विषमस्थिति कविनतं यथाकृताऽदिभेदात् त्रिविधे पात्रेप्ररूपितेसति,ततो विपर्यक्वचिदवनतमित्यर्थः । वाताऽऽषिद्ध निष्पत्तिकालमन्तरेणाऽयंगपि शुष्कम्, अत एव संकुचितं बलिभृतं च संजा स्तग्रहणे चतुर्लघुकाऽऽख्यं प्रायश्चित्तम्,प्रामाऽऽदयश्च दोषा वक्तव्याः। तत्र यथाकृताऽऽदिप्ररूपणा तावद्विधीयते-यथातम् । भिन्नं नाम-सच्छिदं, राजियुक्तं वा । एतान्यलक्षणतया अधारणीयानि ॥ ३३६ ॥ कृतं नाम-पूर्वकृतमुखं प्रदत्तलेपंच सर्वथा परिकर्मरहितम्। अल्पपरिकर्म तु पात्रं तदुच्यते यदायुसं यावत् च्छिद्यते, अथ लक्षणाऽलक्षणयुक्तयोरेव गुणदोषानाह अर्धाक्गुलात्परतः छिद्यमानं बहुपरिकर्मकमपुनरेकैकं त्रि. संठियम्मि भवे लाभो, पतिद्वा सुपतिहिए। धा-उत्कृष्टमध्यमजघन्यभेदात् । तत्रोत्कृष्टस्य यथाकृतस्यो. निजले कित्तिमारोग. वमड्ढे नाणसंपया ॥३३७।। त्पादनाय निर्गतस्तस्य योगमकृत्वाऽल्पपारकर्म गृह्णाति तदा ९डे चरित्तभेमो, सबलम्मि य चित्तविन्भर्म । चतुर्लघवः। तथा यथाकृतं योगे कृतेऽपि न प्राप्यते तदाऽ ल्पपरिकर्म, अल्पपरिकर्मणो योगमकन्या बहुपरिकर्मग्रहण दुप्पुए खालसंठाणे, नत्थि ठाणं ति निदिसे ॥३३८॥ चतुर्लघवः, आशाऽऽदयश्च दोषाः । एवं मध्यम-जघन्ययोरपउमप्पले अकुसलं, सधणे वणमाइसे । पि भावना कर्तव्या । नवरं मध्यमस्य विपर्यासन प्रहणेमासअंतो बाहिं च दड्डे उ, मरणं तत्थ निद्दिसे ॥३३६॥ लघु, जघन्यविपर्यासनहणे पञ्चकम् । अपि च-सपरिकर्मणि संस्थिते वृत्तसमचतुरस्ने पात्रे धार्यमाणे विपुलो भक्त पात्रे छेदन-भेदनाऽऽदि कुर्वतो या यत्नाऽऽरोपणा पीठिकार्या पानाऽऽदिलामो भवति । सुप्रतिष्ठिते स्थिरे पाने चारित्रे पात्रकल्पिकद्वारे भाणिता, सैवेहाऽपि मन्तव्या ॥ ३४२॥ गणे प्राचार्याऽऽदिपदे वा प्रतिष्ठा स्थिरता संजायते। नि अथ 'कः' इति द्वारं विवृणोतिLणे व्रणविकले कीर्तिरारोग्यं च भवति । वर्णाव्ये स्निग्ध ___ को गिएहति गीयत्यो, असतीए पायकप्पिो जो उ । वर्णपिते मानसंपत् प्रस्तुतसूत्रार्थलाभरूपा भवति । हुण्डे उस्सम्गऽववाएहिं, कहिजती पायगहणं से ॥ ३४३॥ विषमसंस्थिते चारित्रस्य भेदो, सुलोत्सरगुणविषयाश्चारित्रा- का संयतः पानं गृह्णाति । सूरिराह-गीतार्थः परिक्षाततिवारा इत्यर्थः । शब विचित्रवर्णभ,तत्र विते विभ्रमं क्षि- सकलच्छेदश्रुतार्थः पात्रकं गृह्णाति । अथ नास्ति गीतार्थतचित्तताऽऽदिरूपसम्भवं,तं जानीयात् “दुप्पुयं" नाम-पुष्प- स्ततो यः पात्रकल्पिको गृहीतपत्रिषणासूत्रार्थः स गृहाति। कमूलेन प्रतिष्ठितं, कीलकसंस्थानं तु कूर्पराऽऽकारं कील- तस्याप्यभावे यो मेधावी तस्य पानग्रहणमुत्सर्गतः, अपकदीर्धम् ईररी पात्रे गणे चरणे वा स्थानं नास्तीति निर्दि- चादतश्च कथ्यते, ततोऽसौ पात्रं गृह्णीयात् ॥ ३४३ ॥ शेत् । पचोत्पलेऽधः पनोत्पलाऽऽकारपुष्पकयुक्ते साधूना अथ पौरुषीद्वारमाहमकुशलं भवति । सवणे वणमादिशेत् , पात्रकस्वामिनो हुंडाऽऽदि एकबंधे, सुत्तत्ये करिते मग्गणं कुजा । मणो भवतीति भावः । अन्तर्बहिर्वा दग्धे सति पात्रके मर- दुगतिगबंधे मुत्तं, तिण्हुवरि दो वि वजेजा ।। ३४४ ॥ णं निर्दिशत् ॥ ३३६ ॥ अथवं प्रायश्चित्तमाह यत्पात्रं हुण्डम् , अादिशचा दुष्पूतम् , कीलकसंस्थितम्, शवलं च यद्वा-एकबन्धम् एतानि परिभुजानः सूत्रार्थपौरुदहे पुष्फगभिये, पउमुप्पले सबणे य चउगुरुगा। । प्यादे अपि कुर्वन् यथावताऽऽदे पात्रस्य मार्गणां कुर्यात् । सेसगभिमे लहुगा, हुंडादीएसु मासलहू ॥ २४॥ । द्विविधं त्रिविध वा पात्रं परिभुज्यमानसस्ति ततस्तत्र पौअन्तर्बहिर्या वग्धे पात्र, तथा पुष्पकं पात्रकस्य नाभिः, तत्र | रुषी कृत्वाऽर्धपौरुषीं दापयित्वा मार्गयति । अथ प्रयाणां पनि तस्मिन्, तथा पमोत्पलाशकारपुष्पकयुक्ते, स-। बन्धानामुपरि चतुःप्रभृतिस्थानेषु तत्पानं नमस्ति, ततः Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्त (१८७) अभिधान राजेन्द्रः । सूत्रार्थपौरुष्यों द्वे अपि वर्जयेत्, सूर्योदयादारभ्यैवाऽपरं पावकं मार्गयतीति ॥ ३४४ ॥ (७) अथ कालद्वारमाह चारि हाकड, दो मासा होंति अप्पपरिकम्मे । ते पर मग्नियम्मिय असती गहणं सपरिकम्मे || ३४४ || हुण्डशबलताऽऽथपलक्षण युक्तं पात्रं धारयता चतुरो मासान् यथाकृतं मार्गचितव्यम्, चतुर्षु मासेषु पूर्वेष्वपि यदा व थाकृतं न प्राप्यते तदा द्वौ मासावल्पपरिकर्मगवेषणे भवतः, ततः परं मार्गितेऽप्यल्पपरिकर्मण्यप्राप्ते परमास्यां पूर्णीयां सपरिकर्मणो प्रदर्श करोति ॥ ३४५॥ " तच्च कियन्तं कालं गवेषणीयम् १, इत्याहपणयालीस दिवसे मग्गिचा जो न लग्भए ततियं । तेण परेण न गिरहइ, मा तं पक्खेण रजेजा ।। ३४६ ॥ पञ्चचत्वारिंशतं दिवसान् तृतीयं बहुपरिकर्म मार्गयित्वा यदि न लभ्यते, ततः किम् ?, इत्याह- ( तेरा पर सि) प्राकृतत्वात् पञ्चम्यर्थे तृतीया, ततः पञ्चवत्वारिंशतो दिवसेभ्यः परं परिकर्म शुद्धाति कुत इति चेत् इत्युच्यते यथाकृतमधे कालादारभ्य सार्वसासु मासेषु गतेषु प चदशभिर्दियर्यरात्री भवति । तेन च पक्षमा कालेम मा तत्पात्रकं रज्येत, मा लितं सत् प्रगुणीभवेत् । किमुकं भवति वर्षाकाले पात्रस्य परिकर्म कर्तुं न लभ्यते, बहु परिकर्मणि च पात्रे छेदनभेदनाऽऽदि प्रभूतं परिकर्म विधेयम् । तच्च पक्षमात्रेण न कर्तु पार्यते श्रतः पञ्चचत्वारिंशदिवसेभ्यः परतो न ग्रहीतव्यमिति ॥ ३४६ ॥ गतं कालद्वारम् । (८) श्रथाऽऽकरद्वारमाह कुचियसिद्धगनिएव पचपीडमाउदासगाई | कुत्तिय वितियं, आगरमाईसु वा दो वि ।। ३४७ ।। यथाकृतं पात्रकं कुत्रिकाऽऽपणे मार्गयितुं सिद्धपुत्रकस्य वा, नियस्य या प्रपचभ्रमणस्य वा एकादश प्रतिमां पूरवि त्या वा श्रमणोपासको गृहं प्रत्यागतस्तदादेव पार्श्वे य धाकृपा प्राप्यते कुत्रिकापराव शेपेषु सिद्धपुत्रका 55दिषु द्वितीयमपरिकर्म प्राप्यते अथवा अकरादिषु हि अल्पपरिकर्मणी प्राप्येते ॥३४७॥ तद्यथा आगर नई कुदंगे, बाहे तेथे य भिक्ख जंत विही। कय कारिये च की जड़ कप्पड़ पेपिडं बनो ! || ३४८ || श्राकरो भिल्लपल्ल्यादिर्यत्राऽलावूनि प्राप्यन्ते, नद्यो, यास्तुम्बकैस्तीर्यन्ते, कुडङ्गं नाम-यत्र च खरडतुम्बकानि ज्ञायन्ते । ( बाहे तेण्य त्ति ) व्याधपल्ल्यां, स्तेनपल्ल्यां वाऽखावूनि लभ्यन्ते (मिक्स ति) ये मिक्षाचरा अलाबुकानि गृहीत्वा भिक्षां पर्यटन्ति । ( जंत त्ति ) यन्त्रशालासुगुडाssदीनामुत्सेवनार्थम लाबूनि धार्यन्ते । एतेषु स्थानेषु (विहि त्ति ) विधिना पात्रकं ग्रहीतव्यम् । कः पुनर्विधिरित चेत् ?, उच्यते तत्राऽऽकराऽऽदिषु गत्वा च भाषणे ते दापकेन दर्शितव्यम् कस्यार्थमेतत् कृतम् तत स्तेऽमि युग्माकमर्थे कृतम् कारितम्, फीतं वा यदि कल्पते ततः श्रार्य ! गृह्यताम् । एवमुक्ते सति न गृह्णातीति संप्रमाथासमासार्थः॥२४ १०० अधेनामेव गाथाइयेन विवृणोति ۱۶ आगर पचीमाई, निरचुदग नदी कुडंगमुस्सरणं । बाहे तेथे भिक्खे, जंते परिभोग संसतं ॥ ३४६ ॥ तुम्हाऍ कमि, अनेसाऍ अहवण सया | जो घेप्पड़ च तदडा, एमेव व कीययामिचे ।। ३५० ।। आकरो नाम मित्र को या त प्रायो ऽलानि प्रभूतानि प्राप्यन्ते । तथा नित्योदका श्रगाधजला मद्दानयी पत्र प्रामा35 अलाबुभिस्तीर्यन्ते तत्र पात्राणि प्राप्य ते । कुड वृक्षगहनम्, तत्र तुम्बिकानामुत्सरणं वापनं क्रियते, यथा तासामेव नदीनां कूलेषु ये वृक्षकुडङ्गास्तेषु तुम्बिका अवाप्यन्ते । व्यापम स्तेन पांच तुम्बकेषु काजिक पानीयाऽऽदीनि प्रक्षिप्यन्ते, तत्र कौलाल भाजनाभावात्। मिचावरा भिक्षार्थ मला पूनि इन्ति यन्त्रशालाSSदिषु च गुडोत्सेचना तोरला मूनि गृह्यन्ते । एतेष्वाकरादिषु यस्य प्रतिदिवसं परिभोगः क्रियमाणो विद्यते, तत्पानकं जन्तुभिरसंसकं भवतीति कृत्वा ग्रहीतव्यम् ॥१४६॥ पात्रे व दर्शिते कस्यार्थमेतत् कृतम् ? इति पृष्टो दाता ब्रूयात्युष्माकमर्थाय कृतमिदम् कारितं वा । अथवा अन्येषां साधूनामर्थाय कृतम् । 66 श्रवण त्ति " निपातः यथार्थे. स्वामात्मनोऽर्थाय कृतमिदमस्माभिः । यद्वा-य एव भिक्षावरो ग्रहीष्यति तस्यार्थाय कृतमिदं वापविकमित्यर्थः। एवमेव च क्रीतप्रायमित्यादिकमपि वक्रव्यम्। यच्चात्मार्थ कृताऽऽदि के तत्कल्पते, आधाकम्बिकाऽऽदिकं तु न कल्पते ॥ ३५० ॥ गतमाकरद्वारम् । " (६) अथ चाउलद्वारमाह चाल उहोदग तू-यरे य कुसणे तहेव तक्के य । जं होइ भावियं तं कप्पति भइयव्वर्ग से ।। ३५१ ।। जलभावियं तं अविगते" सीओोदगेण गेयईति । मजसवेल्लसप्पी मधुमादी भाविध भतियं ।। ३५२ ।। पत्त • ( चाउलं ति ) तन्दुल धावनम्, उष्णोदकं प्रतीतम्, तुवरं कुसुम्भोदकाऽऽदिकम्, कुसणं मुद्गदाल्यादि, तस्य यदुदकं तदपि कुसणम्, तक्रं प्रतीतम् । एतैर्यद्भावितं तत्कल्पते । शेषमेतद्विपरीतजल भावितं यत्पात्रम्, तदविगते ऽपरिणते शीतोदकेन गृहन्ति। मज्जा - वसतिल सपिर्मध्वादिभिस्तु भावितं भक्रं विकल्पितम्। तथाहि यदि तेषां मजाऽऽदीनामपत्रा निःशेषा अध्ययतुं शक्यते ततोते अथवा वि कटादिनावितं यत्र युगपदुतिं तत्र न ते अ नुज्झितं तु गृह्यते ॥ ३५२ ॥ पात्रग्रहण एवं विधिमाह भासणा य पुच्छा, दिट्ठी रिक्के सुहं वहते य । संसद्वे निक्खिते, सुक्खे व पगासे दय ।। ३५३ ।। सत्य पाणमाई, पुच्छा मूलगुण- उत्तरगुणे य । तिद्वाणे विखुतो मुझे ससिसिद्धमादी ।। २५४ ॥ दाहिणकरेण कोर्स, पेनुं भाग बाम मणिबंचे। घइति वारे, तिथि तले तिथि भूमी ।। ३५५ ।। " Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६८) प्रनिधानराजेन्द्रः। पत्त पत्त तसे बीयम्मि वि दिहे, न गेएहती गेण्हती तु अद्दिढे । . गहणम्मि उ परिसुद्धे,कप्पति दिट्ठहि वी बहुहि ॥३५६॥ पताश्चतस्रोऽपि गाथाः पीठिकायां सविस्तरं व्याख्याता इति नेह भूयो व्याख्यायन्ते । गतं चाउलद्वारम् । (१०) अथ जघन्ययतनाद्वारमाहपचित्तपण जहणं, तेण उ तब्बुड्डिए य जयणाए। जहन्ना व सस्सवादी,तेहि उ जयणेयर कलादी॥३५७॥ जघन्यं प्रायश्चित्तपञ्चकं, तेन यतना जघन्ययतना। कथम ?, इत्याह-ते वृद्धाः पश्चकादिवृद्धिरूपया यतनया पात्रकासतायां यतन्ते। अथवा-सर्षपाऽऽदीनि बीजानि जघन्यानि, सूएमाणीत्यर्थः। तैर्युक्तं पात्रकं वयमाणया पदभागकरवृद्धियतनया गृहन्ति, इतराणि तु बादराणि बीजानि,कला(या)श्चणकास्तदादीने, अादिशब्दाद् मसूराऽऽदीनि च ॥३५७॥ ___ अमुमेवार्थ विवरीषुराहछब्भागकते हत्थे, सुहमेसु पहमपव्वे पणगं तु ।। दस बितिए रायदिणा, अंगुलिमूलेसु पारस ॥३५८।। इह हस्तः पहभागः क्रियते, तत्र प्रथमपर्वरस्थको भागः, द्वितीयपर्वणि द्वितीयः, अङ्गुलिमूलानि तृतीयः, आयुषो रेखा चतुर्थः,अङ्गुष्ठबन्धः पञ्चमः अङ्गुष्ठमतिक्रम्य शेषः सबोंडअप षष्ठो भागः । एवं षड्भागीकृते हस्ते प्रथमपर्वमात्रे सूचमबीजे, पञ्चकं पञ्चरात्रिन्दिवानि प्रायश्चित्तम् । द्वितीयपर्वमात्रेषु दश रात्रिन्दिवानि प्रायश्चित्तम्, अङ्गुलिमूलेषु पश्च दश रात्रिदिवानि प्रायश्चित्तम् ॥३५॥ ... वीसं तु आउलेहा, अगुटुंतो य होति पणवीसा। पसइम्मि होइ मासो, चाउन्मासो भवे चउसु ॥३५६।। आयुरेखामात्रेषु विंशतिरात्रिन्दिवानि, अष्ठान्तमात्रेषु पञ्चविंश तीरानिन्दिवानि,प्रसृतिप्रमाणे त्रु मासलघु, चतुष्पसृतिप्रमाणेषु चत्वारोमासा लघवः। एवं सूक्ष्प्रबीजेषु प्रायश्चित्तमुक्लम ॥३५६॥ अथ बादरबीजेषु तदेवातिदिशन्नाह - एसेव कमो नियमा, मूलेसु वितियपधमारद्धो । अंजलिचउक्क लहुगा, तच्चिय लहुगा अर्णतेसु ।। ३६०॥ एष एव क्रमो नियमाद्मूले वपिचण काउदिबीजेषु मन्तव्यः। नवरम्-द्वितीयपर्वाण्यादौ कृत्वाऽत्र प्रायश्चित्तक्रमः प्रारभ्यते-द्वितीयपर्वमात्रेषु बादरपीजेषु पञ्चकम् ,अङ्गुलिमूलमात्रेषु दशकम्, आयूरेखामानेषु पञ्चदशकम् अकाष्ठमूलमात्रेषु विंशतिः, प्रसूतिप्रमाणेषु भिन्नमासः, अङ्गुलिमात्रेषु मासल यु, अलि वतुष्कपरिमाणेषु चतुर्लघु । एतत्प्रत्येकबीजविषयं भणितम् अनन्तबीजेषु सूक्ष्प्रस्थूलेषु यथाक्रममता न्येव प्रायश्चित्तान गुरुकानि कतव्याने ॥३६०॥ निकारणम्मि एए, पच्छित्ता वत्रिया उ बीएसु । नायचा आणुपुब्बी, एसेव उ कारणे जयणा ।। ६१॥ एतानि प्रायश्चितानि निष्कारणे बीजेषु बीजपुते पात्र गृ. ह्यमाणे वर्णितानि, कारणे तु पात्रकस्याऽसत्तालक्षणे आनुपू या प्रथमपर्वादिरूपया एपैव पञ्चकाऽऽदिका यतना कर्त्तव्या। श्रथ यथाकृते प्रथमपर्वप्रमाणानि बीजानि,अल्पपरिकर्मकंच शुद्धं प्राप्यते, अनयोरेकतरत् गृहीतमुच्यते, यथाकृतं प्रायम् ,नाऽल्पपरिकर्म । एवं द्वितीयपदिश्वपि वक्तव्यभ, यावद्वजराकरउभृतमपि यथाकृतं ग्राह्यम् ॥३६१॥ तथा चाऽऽहवोसर्ट पि हु कप्पइ, बीयाईणं अहाकडं पायं । न य अप्पसपरिकम्मा, तहेव अप्प परिकम्मा॥३६२।। आगन्तुकानां बीजाऽऽदीनां (वोसट्टमपि) आकण्ठभृतमपि यथाकृतं पात्रं कल्पते, न चाऽल्पपरिकर्म शुद्धमपि, तथैवमेवाल्पपरिकर्मकमागन्तुकबीजानां भृतमपि कल्पते,न च सपरिकर्मकं शुद्धमपि ॥३६२॥ अत्रैवैदम्पर्यमाहथूला वा सुहमा वा,अवहंते वा असंथरंतम्मि । आगंतु संकामिय, अप्पबहु असंथरंतम्मि ॥ ३६३ ॥ यथाकृते स्थूलानि वा चणकाऽऽदीनि बीजानि भवन्तु, सूक्ष्माणि वा सर्षपाऽऽदीनि, यदि तस्य प्राकनं भाजनं,' नवरं गत्वा तदवहमानकं,तेन वा भाजनेन न संस्तरति,सर्वथा वा भाजनं तस्य नास्ति । एवमसंस्तरतोऽल्पे बहुत्वं तोलयित्वा बहुगुणकरमिति कृत्वा यथाकृतमागन्तुकबीजानां भृतमपि बीजानि यतनयाऽन्यत्र संक्रमय्य ग्रहीतुं कल्पते ॥३६३॥ गतं जघन्ययतनाद्वारम् । अथ " असई," "असिव ति" द्वारद्वयमाहथूलसुहमेसु वुत्तं, पच्छित्तं तेसु चेव भरिओ वि। . जं कप्पइ त्ति भणियं, ण जुज्जई पुचमवरेणं ।।४६४॥ स्थूलसूक्मेषु बीजेषु पूर्व सप्रपञ्च प्रायश्चित्तमुक्तम् संप्रति तैरेव बीजै तोऽपि यथाकृतप्रतिग्रहो ग्रहीतुं कल्पते, इत्येवं यद्भणितं, तदेतद् युष्माकं पूर्वमपरेण न युज्यते ॥३६४।। गुरुराहचोयग! दुविहा असई,संताऽसंता य संत असिवाऽऽदी। इयरा उ झामिताऽऽई,संते भणियाउ सा सोही ॥३६॥ हे नोदक! द्विविधा असत्-सदसत्ता, असदसत्ता च । तत्र सत्ता नाम-यत्र ग्राम नगरे वा भाजनानि सन्ति तत्राऽपान्तराले वा अशि,स्वग्रामे वायेषु कुलेषु लभ्यन्ते तेषु शिवम्, श्रादिशब्दादवमौदाऽऽदीनि तत्राऽपान्तराले, वा विद्यन्ते, अथ चाऽस्ति भाजनं, परं नवरं गत्वा न तावद्वहति । यद्वातद्भाजनमतिलघुतरमतो न तेन संस्तीर्यते । इतरा-असदसत्ता। सा पुनरियम्-पात्रं ध्यामितं प्रदीपनकेन दग्धम, आदिशब्दात् स्तेनर्वाऽपहृतं, भग्नं वा । एवंविधयोरण्यसतयोर्यथाकृतमागन्तुकधीजानां भृतमपि कल्पते, न पुनः शुद्धमल्यपरिकर्म, यत्पुनरस्माभिः शोधिः प्रायश्चित्तमुक्तम्, सा द्विविधाया अलत्ताया अभाव सति पात्रं यो गृहाति, तद्विषया मन्तव्या ॥३६॥ किं चजो उ गुणो दोसकरो, ण सो गुणो दोसमेव तं जाणे । अगुणो वि होति उ गुणो,विणिच्छो सुंदरो जस्स ३६६। यस्तु यः पुनः गुणो दोषकर आत्मोपघाताऽऽदिदोषजनकः, स परमार्थतो गुण एव न भवति, किन्तु दोषमेव तं जानीयात् , दोषकारणत्वात् । यस्य तु विनिश्चयः सुन्दरः, स कथश्चिदगुणोऽपि परिणामसुन्दरतया गुण एव भवति, गुणकारणत्वात् । एवमिहापि यथाकृते यत्स्थापितान्यागन्तुकवीजानि यतनयाऽन्यत्र संक्रामयतः स्वल्पसंघट्टनदो Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्निधानराजेन्डः । पत्त षः, न तत्र सूत्राऽर्थयोः पारमन्थः, न च छेदनभेदना35. शक्यते तत्र गन्तुम् । शैक्षस्य वा तत्र सागारिकचारित्रस्य दिनाऽऽत्मोपधातः । अपि च-तद् गृहीतं सत् तस्यामेव वे- वा चोरिकाऽऽशुपसर्गसमुत्थो भेदः.श्वापदाः सिंहाऽऽदयस्तेषां लायां भकपानग्रहणे उपयुज्यते, एवं सदोषमपि तद् बहु- वा भयम् , पवमादिभिः कारणैस्तृतीयमपि बहुपरिकर्म पात्रं गुणम् अपरिकर्माऽऽदौ अपरिक्रम्यमाणे सूत्रार्थपरिमन्थः, स्वस्थाने गृह्णीयात् ॥ ३७१ ॥ छेदनाऽऽदिनाऽऽत्मोपघातः, इत्यादयो बहवो दोषाः ॥३६६॥ उनमेवार्थ सिंहावलोकितेनाह(११) अथ सगुण मपि तावदहुदोषतरम् “अपमाण उवा आगंतुगाणि य जो, चिरपरिकम्मे य सुत्तपरिहाणी । गछयण त्ति" द्वारमाहअसइ तिगे पुण जुत्ते, जोगे ओहोवही उवग्गहिए । एएण कारणेणं, अहाकडे होति गहणं तु ।। ३७२ ॥ यथाकृते यानि बीजानि तान्यागन्तुकानि, चिरकालपरिछेयणमेयणकरणे. सुद्धो जं निजरा विउला ॥ ३६७ ।। कर्मणि च क्रियमाण सूत्राऽर्थपरिहाणिः । एतेन कारणेन यथाकृतं श्रीन वारान् मार्गितं परं न लब्धम् , ततो वा यथाकृतस्य ग्रहणं कार्यम्. नाऽल्पपरिकर्माऽऽदेः ॥३७२॥ रत्रिक योगे व्यापारे युक्त कृतेऽपि यथाकृतस्याऽप्राप्तो, पुनः (१२) अथ मुखद्वारमाहशब्दोऽवधारणे स चैतदवधारयति-वारत्रयात्परतोऽल्पप विइय-तइएसु नियमा, मुहकरणं होज्ज तस्सिमं माणं । रिकर्मकमेव ग्रहीतव्यम् । अथ तदपि न प्राप्यते, ततो बहुपरिकर्माऽपि ग्राह्यम् । एष अोधोपधौ च सर्वस्मिन्नपि वि. तं चिय तिविहं पायं, करंडगं दीह वटुं च ।। ३७३ ।। धिरवसातव्यः। एवं च क्रमाऽऽगतमल्पपरिकर्माऽऽदि गृही- द्वितीयतृतीययोरल्पपरिकर्म-सपरिकर्मणोनियमात्तु मुखत्वा तत्रोपयुक्तो यः छेदन-भेदने करोति,स शुद्धो, न प्रायश्चि- करणं भवेत् । तस्य च मुखस्य इदं वक्ष्यमाणं मानम्-तत्र तभाग् । कुतः ?, इत्याह-यद्यस्माद्यक्तिमागतं विधि विद यस्य मुखं विचारयितव्यं तत् त्रिविधं करण्डकं करण्डकाधानस्य निर्जरा विपुला भवति ॥३६७॥ ऽऽकारम्-बहुपृथुत्वमल्योच्छ्रयम् , दीर्घमल्पपृथुत्वं बहून्छ. ननु चाल्परिकर्माऽऽदौ छेदनाऽदिपरिकर्मसम्भवादात्मसंय यम्, वृत्तं चतुरस्रम् ॥३७३॥ एतेषां मुखप्रमाणमाहमावराधना भवति,ततः कथं तस्य ग्रहणमनुज्ञायते ?,उच्यतेचोयग ! एताए चिय, असईए अहाकडस्स दो इयरे । अकरंडम्मी भाणे, हत्थो उड्ढे जहा ण घट्टेति । एयं जहमगमुहं, वत्थु पप्पा विसालतरं ।। ३७४ ।। कप्पति य छेपणे पुण, उवोगं मा दुवे दोसा ॥३६॥ अकरएडके करए डकाऽऽकाररहिते दी, समचतुरने वा हे नोदक ! या पूर्व द्विविधा असत्ता प्ररूपिता, एतयैव भाजने हस्तः प्रविश । निर्गच्छन् वा यथा ऊर्य कर्ण न यथाकृतस्या ऽसत्तया द्वे इतरे अल्पपारेकर्म-सपरिकर्मणी क घट्टयते न स्पृशति, एतत्सर्व जघन्यं मुखप्रमाणम् , अतः रूपेते प्रतिग्रहीतुम्. परं तयोः छइनाऽऽदौ महता प्रयत्नेन य परं वस्तु बृहत्तरपात्रादिकं प्राप्य प्रतीत्य विशालतरं मुखं उपयोगं करोति स द्वौ संयमाऽऽत्मावराधनालक्षणी दोषी मा भूतामिति कृत्वा ॥ ३६८ ॥ क्रियते, यत्पुनः करण्डकाऽऽकारं पात्रं तस्य विशालभव मुखं कर्त्तव्यम्, अन्यथा तद् दुष्प्रत्युपेक्षं भवति ॥३७४॥ एष प्रति. अहवा वि कोऽणेणं, उवोगोन चेय लब्भती पढमं । ग्रहविधिरुक्तः, बृ० ३ उ०। हीणाधिकं च लब्भति, सपमाणे तेण दो इयरे ॥३६॥ से भिक्खू वा अभिकंखेजा पायं एसित्तए, से जं पुण अथवा कृतोऽनेन साधुना उपयोगो मार्गणव्यापारः, परं न लभ्यते प्रथमं यथाकृतं पात्रम् । अथवा लभ्यते, परं पायं जाणेजा । तं जहा-अलाउयपायं वा, दारुपायं वा, स्वप्रमाणतो हीनाधिकम् तेन कारणेन द्वे इतरे-अल्पपरि महियापायं वा, तहप्पगारं पायं जे निग्गंथे तरुणे० जाव कर्मसपरिकर्मणी यथाक्रमं गृह्णाति ॥ ३६६॥ थिरसंघयणे, से एगं पायं धरिजा, नो विइयं ।। कुतः ?, इति चेदुच्यते स भिक्षुरभिकाले त् पात्रमन्वष्ठम् , तत्पुनरेवं जानीयात् । जह सपरिकम्मलंभे, मग्गंते अहाकडं भवे विपुला । तद्यथा-अलाबुका दिकम् । तत्र च यः स्थिरसंहननाऽऽपेत निजरमेनपलंभे, वितियस्सियरे भवे विउला ।। ३७० ॥ एकमेव पात्रं विभृयान्न द्वितीयम् स च जिनकल्पिकाऽदिः। यथा सपरिकर्मणोऽलापरिकर्मपात्रकस्य लाभेऽपि यथा. इतरस्तु मात्रकसद्वितीयं पात्रं धारयेत् , तत्र संघाटके सकृतं मागयतो विपुला निर्जरा भवति , तथा गथाकता. त्येकस्मिन् भक्तं द्वितीये पात्रे पानकं,मात्रकं त्वाचार्याऽऽदिप्रा. लाभे इतरस्मिन् बहुपरिकणि लभ्यमानेऽपि द्वितीयस्या- योग्यकृतेऽशुद्धस्य वेति । आचा०२ श्रु. १ चू०६ अ० २उ०। ऽल्पपरिकर्मणः, उपलतणत्वादपरिकर्मणोऽन्यलाभे बहुपार (१३) अलावुपात्रं गृह्णातिकर्ममार्गण विपुलैव निर्जरा द्रष्टव्या ॥ ३७० ॥ जे भिक्खू लाउपायं वा, दारुपायं वा, मट्टियापायं वा अथवा सयमेव परिघट्टेइ वा, संठवेइ वा, जाति वा, परिघट्टतं असिवे प्रोमोदरिए, रायड्ढे भए व गेलने । वा संठवतं वा जमवियंतं वा साइज्जइ ॥२४॥ सेहे चरित सावय-भए य ततियं पि गिरिहज्जा।।३७१।। इत्यादि । भाष्यं यथा प्रथमोद्देशके तथाऽत्र पि । यत्र यथाकृतमलपरिकर्म वा भाजनं प्राप्यते,तत्राऽपान्तराले वाशिवमवमौदर्य राजद्विष्टं भयं वा बोधिक स्तेनापदिसमु | लाउऍ दारुऍ पाए. मट्टियपाए य तिविधमकक्के । त्थं वर्तते. ग्लानत्वं वा तस्य साधोः संजातं, तत्प्रतिबन्धेनन । बहुअप्पअपरिक्कम्मे, एक्ककं तं भवे कमसो ॥१६२॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (..) पत्त अभिधानराजेन्द्रः। श्रद्धंगु १ पुव्व २ तिगिण वि ३ उक्कोस ४ तं चेव ५ भत्त अद्धाणे ओरुद्धो कतो, ममत्थ पायं ति पेलवग्गहणं करेज्ज । ६ वढे ७ परिष? ८ पडमा ६ एता गाहा नव।। प्रणालोइयपुव्वाऽवक्खारिणो पेलवा एए ति ण देज्ज, अ हवा अद्धाणेद्धो रुट्ठो संतं पि ण दिज्जा। घट्टित संठवियाणं, पुचि जमिताण होतु गहणं तु । गाहाअसती पुबकताणं, कप्पति ताहे सयं करणं ॥ १६३ ॥ अतिआतुरो सि दीसति, अद्धाणगय पिजेण मगंति । तत्र परकरणं प्रतिषिद्धम्, इह तु स्वयं करणं प्रतिषिष्यते। भद्दमदोसा एए. इतरो संतम्मि पुण देज्जा ॥ १६७॥ नि० चू०२ उ०। इयरोत्ति पत्तो । सेसं गतार्थम्।। ___नायकमनायकं वा पालं याचते जम्हा एवमादी दोसा भवंति । गाहाजे भिक्खू सणायगं वा, अणायगं वा, उवासगं वा, तम्हा सहाणगयं, नाऊणं पुच्छिऊण अोभासे । अणउवासगं वा गामंतरंसि वा, गामपहंतरंसि वा पडिगाई वितियपदे असिवादी,पडिवसभाऽऽदीसु जयणाए।१६८। भोभासिय अोभासिय जायइ, जायंतं वा साइज्जइ॥४७॥ सटाणं घरे ठियं पाऊणं ति अस्थि एयस्स पायं दिटुं वा, तं पुच्छितं-कस्लेदं ति । अण्णण कहियं असुगस्त । ताहे इमो सुत्तत्थो । गाहा प्रोभासियब्वं, अमाए अपुच्छिते वा पुखुत्ता दोसा भवंति । जे भिक्खू णायगाई, पडिमामे अंतरा पडिपहे वा । वितियपदण अद्धाण गयं पि जयणाए प्रोभासेन्ज, जत्थ जहुओभासेजा पायं, सो पावति प्राणमादीणि ॥ १६३ ॥ तेण विधिणा पाया लब्भंति तत्थ जति असिवाऽअदकार णा ताहे तत्थेव पडिवसभाइसु श्रद्धाणगय पि जयणाए नायगो पुरसंथुतो, पच्छा संथुप्रो वा । पुवसंथुतो-माति श्रोभासेज। पितियाऽऽदिगो,पच्छा संयु-सासससुराऽऽदिगो, असंथुप्रो का जयणा ?, इमएयव्वदरित्तो, सणायगो अणायगो सव्वो वि एसो उवा विप्पभिति घरादिट्टे, गाढं वा विक्खुणं तहिं दहूं । सगो, अणुवासगो ति। विति घरेण हिट्ठो, से किं कारण ताहे दीवेंति ॥१६॥ अस्य व्याख्या जाहे णायं-णिस्संकियं पयस्स अस्थि पायं, दिटुं वा, ताहे साधु उवासमाणो, उवासो सो वती व अवती वा । अचिर त्ति गतो श्रोभासेज्जा,जर ताहे दिएणं तो लद्धं । प्रह सो य सणायग इतरो, एवडणुवासे विदो भंगा॥१६४॥ सो भणज्ज-घरपती जाणति । ताहे सो घरट्टितो श्रोभासिसाधू चेहए वा पोसह उवासंतो उवासगो भवति,से उवा- ज्ज ति । अहण दिट्ठो ताहे घरे भरणति-अखेज्जह सगो पुणो दुविहो-वती, अवती वा । अणुव्वया जेण गहिया तस्स, जहा तुझ समीवं पव्वइशा श्रागय त्ति । पुणो बिसो वती,जो दसणसावगो सो अवती,सोसणायगो इयरत्ति तियदिणे एवं, ततिए वि एवं, ततो वा घरे अदितु, अहगतार्थः। जो वि अणुवासगो सो वि सणायगो,अणायगो वा, वा घरे दिट्ठो, तस्स पुण गाई विक्खुणोति । किंचि एते दो भंगा। घरकयव्वताए अतीव अक्खाणितो पि गतो, ण मग्गितो पडिग्गामं अंतरपडिबंधस्स य इमं वक्खाणं । गाहा त्ति । अहवा गाढं विक्खुणं ति साहुस्त संबज्झति । गाढं अतीव विक्खुणं विसूरणं, जाहे अतीव साहू विस्तरन्तीपडिगामो पडिक्सभो, गाभंतरे दोरह मज्झ खेत्तादी । स्यर्थः। ताहे अण्णत्थ वि श्रद्धाणठितं ददर्छ भणंति-अम्हे तुगामपहो पुण मग्गो, जत्थ व अस्मत्य गिहवजं ॥१६॥ ज्झ सगासं प्रागता घरे य तो वारा गविट्ठो आसि, पडिवसभी अंतरपल्लिगो वा असो वा पडिग्गामो भमति, ताहे सो भणज्ज-किं कज्जं ? । ताहे साहुणो तस्स कारणं दोरहं गामाणं अंतरे मज्मे खेत्ते खलए वा पहं प्रति पडि. दीवेति । तुज्झ पायं अत्थितं देहि ति। पहो भमति । उज्झामाऽऽदि गतस्त वा अभिमुहो पहे मिले गाहासा, एस पडिपहो वा, वासद्दाश्रो गिह बजेत्ता अण्णत्थ ताहे चिय जति गंतुं, ददाति दिढे च भणति एजाह । वा जत्थ परिसारत्थाऽऽदिसु मग्गइ, एवमादिसु ठाणेसु ज- तो कप्पती चिरेण वि, अदिहेतु उग्गमेकतरं ॥३०॥ ति तं सणायगादिपायं श्रोभासेजा, तो आणाऽऽदिया दो जति तेहिं साइहिं तं पायं ण दिटुं आसि, तो जति दोसा, चउलहुं च पच्छित्तं । सा ता ताहे च्चिय तेहिं साइहिं सहर गंतुं देति तदा इमे य भहपत्तदोसा भवंति कप्पति, अह भणति-पुणो पवजह, तो उग्गमदोलकरअसती य भद्दो पुण, उग्गमदोसे करेज सब्जेहिं । णाऽऽसंकाए ण कप्पति, पच्छा प्रह तं साहहिं दिटुं पत्तं पत्तो पेलवगहणं, अद्धाणे भासितो कुजा ॥ १६ ॥ आसि, जति भणेज्ज-पुणो एब्रह, तोतं चेव पातं सुचिरेण वि देतस्स कप्पति, अएणं ण कम्पति। भो चिंतेति-एयस्स साधुस्ल अतीव आदरो दीसति, सुत्तंजेण अद्धाण गयं भासते भारियं, से किवि कज । सो भद्दगो जे भिक्ख णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अअसति पायस्त सोलसराहं उग्गमदोसाणं अतरेण दोसेण करता देजा,सबेहि वा उग्गमदोसेहिं बहुपाए करेत्ता देज। णउवासगं वा परिसा मज्झा ओवट्टित्ता पडिगाहगं अोभापगपापसु सम्घुग्गमदोसा ण संभवन्तीत्यथः । पत्तो पण! सिय शोभासिय जीयइ, जीयंतं वा साइअइ ॥४८॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०१) भनिधानराजेन्दः । पत्त गाहा राई विरूवरूवाई महद्धणमुल्लाइं पायाई अफासुयाई० जाब जे भिक्खू णायगाई, परिसामज्झाउ उडवित्ता थे। यो पडिग्गहेजा। ओभासेजा पायं, सो पावति प्राणमादीणि ॥ २०१॥ “से भिक्खू वा " इत्यादीनि सूत्राणि सुगमानि, यावकंठा चउल९ पच्छितं, प्राणाऽऽदिया य दोसा। न्महार्घमूल्यानि पात्राणि लाभे सत्यप्रासुकानि न प्रतिइमे अरणे य दोसा गृण्डीयादिति, नवरम्-(हारपुडपाय त्ति) लोहपात्रमिति, एवमयोबन्धनाऽऽदिसूत्रमाप सुगमम् । आचा०२ श्रु० १ दुपद-चरप्पदहरणे, डहणे वा सजणघरखलक्खेत्ते । चू०६१०१ उ.। तस्स परी मित्ताण व, संकेगतरे उभयतो वा ॥३०२॥ जे भिक्खू अयपायाणि वा, तंबपायाणि वा, तउयपायाजो सो परिसामग्झातो उछितो, तस्त जे अरी. अरीण षा जे मित्ता, तेसिं तदिवसं चेव अहासमावत्तीए दुपद-दा णि वा, सीसपायाणि वा, कंसपायाणि वा, रुप्पपायाणि सो, दासी वा. चउप्पदं वा अश्वादिणद्धं हरियं वा अडाडाए, वा, सोवप्मपायाणि वा, जायरुप्पपायाणि वा, मणिपायातेसि वा कोर सयको उहीवितो, घरं, खलथाणं वा दह, णि वा, दतपायाणि वा, कणयपायाणि वा, सिंगपायाणि खित्तं वा खयं, ते संकेज, कम्झं पब्बइपणं अमुगो परि वा, चम्मपायाणि वा, चेलपायाणि वा, सेलपायाणि वा, सामझातो श्रोसारिओ ति, तेसि एगतरं संकेज-साडं उपवातं उस्तारितं । अहवा उभयं पि संकेज । तत्थ संकाए कणयपायाणि वा, सिंगपायाणि वा, अंकमायाणि वा, संचउगुरु, णिस्संकिए मूलं, जंवा ते रुट्टा डहणहरणतावणा खपायाणि वा, वहरपायाणि वा करेइ, करतं वा साइज्जइ। ऽऽदी करेजा. तं णिप्फलं पावेज्जा । जम्हा एवमादी दोसा, । जे भिक्खु अयपायाणि वाजाव वइरपायाणि धरेइ, तम्हा परिसमज्झाउ गायगादी णो कप्पति उस्सारेउं ।। धरतं वा साइजह । २ जे भिक्खु अयपायाणि वा० जाव कारणे पुण कप्पति। वइरपायाणि वा परिभुंजइ, परिभुजतं वा साइजइ । ३। जे तं च इमं कारणंअसिवे प्रोमोयरिए,रायदुहे भए व गेलाणे । भिक्खू अयबंधणाणि करेइ, करतं वा साइजइ । ४ । जे भिक्खू सेहे चरित्त सावय-भए व जयणाएं प्रोभासे ॥२०३॥ अयबंधणाणि वा धरेइ, धरतं वा साइजइ । ५ । जे कंठा, णवरं जयणाए प्रोभासेति। भिक्खू तउयबंधणाणि वा भुंजइ, मुंजत वा साइजइ। ६ । अस्य व्याख्या जे भिक्खू सीसबंधणाणि करेइ, करतं वा साइअइ । ७। परिसाए मज्झम्मि वि, अट्ठाणोभासणे दुविह दोसा। जे भिक्खू सीसबधणाणि धरेइ, धरतं वा साइज ।८। तिप्पभितिगिहादिटे, दीवणता उच्चसद्दणं ॥२०४॥ जे भिक्खू सीसवंधणाणि वा भुंजइ, भुंतं वा साइजइ । जत्थ न होज्जा संका, संकेज्जजणाउ जे वयणपंतो। । है । जे भिक्खू कंसबंधणाणि वा करेइ, करतं वा साइसो पडियरइय तुरिओ, अण्णण व उट्ठवावे इ॥२०॥ जइ । १० । एवं धरेइ, धरतं वा साइजइ । ११ । एवं जे अहापोभालणे दुविधा भद्दपंतदोसा भणिया, ते चेव भुंजइ, भुंजंतं वा साइजह।१३। जे भिक्ख रुप्पबंधणापरिसामझातो वि उटुविजंते दोसा भवंति । अह आगाढं णि वा करेइ, करतं वा साइजह । १३ । एवं धरेद, धरंतं विक्सणं ताहे भएणति-तिप्पभितिगिहादितु इदाणिं तुज्म सगासं भागता । किं कज्जं ?, ताहे साधू भति-इहेव वा साइज्जइ। १४ । एवं भुंजह. मुंजतं वा साइजइ।१३, भणेमो, किंवा एगंतं भणामो । तेण अम्भणुराणा, तत्थेव जे भिक्खू सोवएणबंधणाणि वा करेइ, करवा साइजह । भएन । एगते ट्ठामो, ताहे एगते ओसारिजति । तत्थ वा १६ । एवं धरेइ, धरतं वा साइनइ । १७ । एवं भुंजइ, साह बहुजणाझे मग्गंतो संकति। तत्थ से सावू तं पडि भुंजतं वा साइज्जह । १८ । जे भिक्खु जायरुप्यधणाणि ग्गहसामि सयमेव उट्टितं पडियरर ति, पडिक्खा सिबुत्तं वा करेइ, करतं वा साइज्जह । १९ । एवं धरेइ, धरंतं वा भवति । अह त्वरितो अएणण परिसामझातो उट्टवावेति, एस जयणा नि० चू०१४ उ०। साइज्जह । २० । एवं भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ । २१ । (१५) महाधनानि अयःपात्राऽऽदीनि-- जे भिक्खू मणिबंधणाणि वा करेड़, करतं वा साइज्जइ । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जाई पुण पायाई जा- २२ । जे भिक्खू मणिबंधणाणि वा घरेइ, धरतं वा साइणेजा विरूवरूवाई महद्धणमलाई। तं जहा-अयपायाखि ज्जा । २३ । जे भिक्ख मणिबंधणाणि वा भुं वा, तउपायाणि वा, तंबपायाणि वा, सीसगपापाणि वा, वा साइज्जइ । १४ । जे भिक्खू कणयषणाणि वा हिरम्मपायाणि वा, सुवरमपायाणि वा, शरिअपायाणि वा, करेइ करतं वा साइजई। २५ जे भिक्खू कणयबंधणाहारपुडपायाणि वा, मणि-काय - कंसपायाणि वा, संख- णि वा धोर, धरतं वा साइजह । २६।जे भिक्खू कणयसिंगपायाणि वा, दंतपायाणि वा, चेलपायाणि वा, सेल- बंधवाणि वा धंद, भुमंतं वा साहजइ । २७ । जे पायाणि वा, चम्मपायाणि वा अस्मपराणि वा तहप्पना- भिक्खू दतवद्याणि वा करेइ, करतं वा साइजह । २८ । Jain Education Interational Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०२) अनिधानराजेन्द्रः। जे भिक्खू दंतधणाणि वा धरेइ, धरतं वा साइजइ। है। मासो लहुओ गुरुओ, चउमासा होति लहुय गुरुगा य । जे भिक्खू दंतबंधणाणि वा भुंजइ, भुजंतं वा साइज्जइ । छम्मासा लहु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ ४ ॥ ३० । जे भिक्खू सिंगबंधणाणि वा करेइ, करंतं वा सा- एगादिया० जाव तिन्नि कहावणा जस्स मुलं, एवं धरतइज्जइ । ३१ । जे भिक्खू सिंगबंधणाशि वा धरेइ, धरतं स्स मासलहुं । चउरादिया. जाव अट्ठारकहावणाजस्स वा साइज्जइ । ३२ । जे भिक्ख सिंगबधणाणि वा भुंजइ, मोल्लं, एयं धरतस्स मासगुरूं। वीसाए चतुलहुं इक्वीसाइ० जाव सयं पूरं, एत्थ चतुगुरुगा । एगुत्तरादियसयाउ. भुंजतं वा साइज्जइ । ३३ । जे भिक्खू चम्मबंधणाणि वा जाव अडाइजा सया, पत्थ छल्लहगं। एदुवरि एगुत्तरवुहाए. कारेइ, करंतं वा साइज्जइ । ३४ । जे भिक्खू चम्मबंधणा जाव पंचसया, एत्थ छगुरुगा। एवं सहस्से छेदो । दससहणि वा धरेइ, धरतं वा साइजइ । ३५ । जे भिक्खू चम्म- स्सेसु मूलं । पन्नासाए सहस्सेसु अणवट्ठो । सयसहस्से बंधणाणि वा मुंजइ, भुंजत वा साइज्जइ । ३६ । जे भि पारंचियं । एकेके ठाणे प्राणाइया दोसा। खू चेलबंधणाणि वा करेइ, करंत वा साइज्जइ । ३७ । इमे-अायसंजमविराधना दोसाजे भिक्खू चेलबंधणाणि वा धरेइ, धरंतं वा साइजइ भारो भय परितावण-मारण अधिकरण अहियकसिणम्मि । । ३८ । जे भिक्खू चेलबंधणाणि वा भुंजइ, भुंजतं वा सा पडिलेहऽऽणाए लोवो, मणसंतावो उवादाणं ॥ ५ ॥ इज।। ३९ । जे भिक्खू सिलबंधणाणि वा करेइ, करतं पमाणातिरित्ते भारो भवति, अथवा-भारभयाण विहरति। वा साइजइ । ४० । जे भिक्खू सिलबंधणाणि वा घरेइ, भएण वाण विहरह-मा मे एयं उक्कोसे पत्ते हीरेन्ज, भा रेण वा परितावितइ, तेणगाहें वा दिट्ठो गहिओ परिता. धरंतं वा साइजइ । ४१ । जे भिक्खू सिलबंधणागि वा विजइ, मा स चावलं कहा ति तेणगा वा मारेज, भुजति, भुंजत वा साइजइ । ४२ । जे भिक्खू अंकबं- तैणगेहि य गहिए पाए अहिकरणं, अथवा अइरितं अनुधणाणि वा करेइ, करतं वा साइज्जइ । ४३ । जे भि- पयोगित्वात् अधिकरणं, एते गणणाधिके, पमाणाहिके. क्खू अंकबंधणाणि वा घरेइ, धरतं वा साइजइ । ४४ । मुलाधिक य दोसा भणिया। मुल्लपमाणकसिणं च जइ प डिले हंति तो तेणगा पंडया य त्ति, हरंति य ते, अतोजे भिक्खू अंकबंधणाणि वा भुंजइ, भुंजतं वा साइजइ पढिलेहिए उवहिणिप्फरणं संजमविराहणा य, गणणा। ४५ । जे भिक्खू संखबंधणाणि वा करेइ, करतं वा इरितं जइ पडिलेहेइ तो सुत्तस्थपलिमंथो, अप्पडिलेहिए साइजह । ४६ । जे भिव खू संखबंधणाणि वा धरेइ, धरतं उवहिणिप्फरणं संजमविराहणा य अतिरित्तग्गहणा अप्पवा साइज्जइ । ४७ । जे भिक्खू संखबंधणाणि वा भुं- डिलेहणाए, प्राणालोपो को भवति । कसिणोऽवराहे जइ, भुंजतं वा साइजइ । ४८ । जे भिक्खू वइरबंध मण संतावो भवइ-परिसं तारिसं मझ पायं पासि त्ति, खेत्तादिए भवे कसिणं च, सहस्सउ णिक्खिवउकामम्स णाणि वा करेइ, करतं वा साइजइ । ४६ । जे भि उवादाणं भवइ । जम्हा पते दोसा तम्हा महद्धणमोल्लाई पाक्ख वइरबंधणाणि वा धरेइ, धरतं वा साइजइ । ५० ।। याई ण धरे, किंतु अप्पाई। जे भिक्खू वइरबंधणाणि वा भुंजइ, भुंजतं वा गाथासाइजइ । ५१ । वितियपदे गेलप्मे, असताएँ अभाविते व गच्छम्मि । श्रयमादिया कंठा । हारपुडं णाम-अयमाद्याः पात्रविशे- असिवादी परलिंगे, परिक्खणडा विवेगो वा ॥६॥ षाः । मौक्निकलताभिरुपशोभिता मणिमादिया कराठा । मु. अगदो महसंजोगो, तं पि य रजतादि अहव वजेट्ठा । क्ला शलमयं चेलमयं वा, सप्पो स्खलियं वा पुडियाकारं कज्जइ । प्रथमसूत्रे स्वयमेव करणं कज्जइ । द्वितीयसूत्रे मल्लगमभावितम्मी, पइदिण दुलभे व रयमादी ॥७॥ अन्यकृतस्य धरणम्, तृतीयसूत्रे अयमादिभिः स्वयमेव अगदमाइया, ते वेज्जुवदेसेण गिलाणस्सोसहं ठविजति, बन्धं करोति । चतुर्थसूत्र अन्येन अयमादिभिर्बद्धं धारयति ।। महसंजोए वा वेजट्टा वा घेप्पइ।राया रायमचो वा पब्बाविउं गाहा सिया, तस्स य कणगमाइया उवट्टियस्स कंसभायणे मा छद्धो, गेलन्नं वा भवेज, तेण कणगादि घेप्पेज, असइत्ति अयमाई पाया खजु, जत्तिययेत्ताउ आहिया सुत्ते।। लाउयमादियाऽभावे अयमादियं गेरिहज, तत्थ वि अप्पमुलं, तबंधणबद्धं वा, नाणि धरे तन्धि आणादी ॥२॥ गच्छे वा अभाविया अस्थि. तेसिं अट्ठाए मल्लगं गिराहेला, करणधरणे आणाअणवत्थमिच्छत्तविराहणा य भवर, च मलगे य पतिदिणं अलभंते दुल्लभे वा रयताऽदि घेप्पेज । तुगुरुगं च से पच्छितं । ' गाथाइमो य भावपडिसहो भन्नति गच्छे च करोडादी, पतावणट्ठा गिलाणमादीणं । तिन्नज्वारस वीसा, सतमड्डाइज्ज पंच य सयाणि । असिवे सपक्खपत्त, रायढे च परलिंगे ॥ ८ ॥ सहस्सं च दससहस्सा, परणास तहा सयसहस्सा ॥३॥ । उबग्गहट्ठा वा करोडगाई गच्छे धरि जंति, गिलाणस्स Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०३) अभिधानराजेन्सः। वा किंचि ओसहं छोटुं उरहे पयाविज्जा । श्रादिगहणाओ प्रोमरायडादिसु, कारणे या परलिगं करंतो गेरहेजा। गाहाभुजइ ण व त्ति सेहो, पारक्खणट्ठा व गेराह कम्पादो। विसरिसवेसनिमित्तं, होज्ज व पंडादिपबइए ॥६॥ सेहस्ल चा परिकवण निमितं पाडिहारियं घेपेज्जा, अहवा-कोह अवाणिज्जो कारणेण पब्वाविश्रो, तस्स य विसरिसो वेसो कायक्वोत्कारणे संमत्ते तस्स विवेगो कायव्यो। नि०चू११ उ०। (१५) परगलितं पापं धरतिजे भिक्खू परगवसियगं पडितहकं घरेइ, धरतं वा साइज्जइ ॥२७॥ (जे भिक्खू परगवेसित्यादि) परः अस्वजना, भगवतुकाऽऽदि, शेष पूर्वसूत्रवत् द्रष्टव्यम् । गाहा संजतपरे गिहिपरे, उभयपरे चेव होति बोधब्बे । एते तिमि विकप्पा, णायव्वा होति तु परस्मि ॥१६६।। लज्जाएँ गारवेण व, काऊण समूहपेच्छितो वाति । मित्तहि दापितोवा, णिस्सो लुद्धो विमं कुन्जा ॥२०॥ असिवे प्रोमोदरिए, रायड्ढे भए व गेलए। सेहे चरित्त सावय-भए व जयणा गवेसेज्ज ॥२०१॥ संतासंतसतीए, गवेसणं पुधमप्पणो कुजा । तो पच्छा तु परणं, जतणाएँ गवसणं कारे ॥२०२।। पुव्वं भट्ठालद्धे, णियं परं वा वि पट्टवेत्तूणं । पच्छा गंतुं जायति,समणुब्बू ति य ही वि ॥२०३॥ सुतंजे भिक्ख वररावसियं पडिगहकं धरेइ,धरंतं वा साइजहा२८ "जे भिक्खू वरगविट्ठेत्यादि। वरशब्दप्रतिपादनार्थमाहजो जत्थ अधितो खलु, पमाणपरिसो व होइ जो जत्य । जम्मी वरसद्दो खलु, से गामए रद्विताऽऽदी तु ॥२०४॥ जो पुरिसो जत्थ गामे ण गराऽऽदिसु अद्यते, अर्षितो वा. खलुशब्दः अबधारणाथै। गामणारादिसु कारणेसु पमाणीकतो, तेसु वा गामादिसु धणकुलादिणा पहाणो परिसि पु. रिसे वरशब्दप्रयोगः, सो य इमो हवेज (गामए त्ति) गाममहत्तरः, (रहिति) राष्ट्रमह तरः, प्रादिशब्दतो भोइयपुरिलो वा, शेषं पूर्ववत् । एत्तो (१६०) पच्छा (१६२) असिवे (१६४) इत्यादि गाहाश्री। संतासंतसतीए, गवेसणं पुधमप्पणो कुज्जा ।' तो पच्छा जतणाए, परं गावटै पि कारेजा ॥२०॥ एसो बलवं भणितो, सो गहवति सामि तेणाऽऽदी ।२०६। (जो त्ति) यः पुरुषः यस्य पुरुषस्योपरि प्रभुत्वं करोति सो बलवं भएणति,अहवा-अप्रभू वि जो बलवं सो वि बलवंभरणति, सो पुण गृहपतिः, गामसामिगो वा, तेणगादि वा। शेषं पूर्ववत् । एत्तो (१६.) पच्छा (१६२) असिये (१९४) भिसे (१६५) इच्चाइ गाहारो। संतासंतसतीए, गवेसणं पुव्वमप्पणो कुज्जा । पच्छा तू बलयंते, जतणाएँ गवसणं कारे ।। २०७॥ सुतंजे भिक्खू लवगवेसियं पडिग्गहकं घरेइ, धरंतं वा साइजइ ।। ३०॥ (जे मिक्खू लवगविटेत्यादि) दाणफलं लविऊणं पडिग्गह मग्गति । दाणफलं लविऊणं, लावावेड गिहिअम्मातित्थीहि । जो पायं उप्पाए, लवगविहं तु सो होति ॥२०८।। दाणफलं अप्पणा कहेति, गिहिरणनित्थिएहि वा कहावेत्ता जो पायं उप्पादति, पयं लवंगविटुंभमति । नि०चू०२उ०। (१६) निजगवेषितं पात्रमजे भिक्ख णिययगवेसियगं पडिणहकं धरेइ, धरंतं वा साइजइ ॥ २६ ॥ इत्यादि। नियगः स्वजनः. स साधुवचनाद् गवेषति, तेनाऽम्विष्टं या. चितं, तं गवेसितं गृराहतीत्यर्थः ॥ २६ ॥ उदया बारस एक्केछ (१७६) अद्धंगुलं (१६१) जं पुब्ब० (१६२) पढम०(१६६) वितिय (२०१) घट्टि० (२००) पच्छा० (२०२) (नि० चू०१ उ०) एताओं चेव गाहारो । एस सुत्तत्थो। अधुना नियुक्तिविस्तरः-- संजतणिए गिहिणिए, उभयणिए चेव होइ बोधने । एते तिमि विकप्पा, णिययम्मी होंत नायव्वा॥१८॥ जो गिहत्थोपायं गवेसतिजति सो निजत्वेनाऽविष्यते,साधोर्यस्य च तत्पात्रमस्ति गृहिणः संजतणिए एगो गिहिणिए, एवं ठाणकमेण चउभंगो कायब्बो, चतुर्थः शून्यः, तृतियभंगे जह षि संजयस्स णिो, तहा वि गिहिणा मग्गावयति इमेहिं कारणेहिं आसम्मतरो भयमा-ऽऽयति उबरोवकारिता चेव । इति खीयायारवं वी, णीएण गवेसए कोई ॥१८॥ स्वजनत्वेनासन्नतरो भजतु, इतरो वा, प्राति वा स यस्य करोति.उपकारप्रत्युपकरणे वा प्रतिवद्धः इतिः कारणोपदर्शने । परशब्द एण्यत्सूवस्पर्शने आद्यत्रयभङ्गप्रदर्शनार्थः । गाहाएत्तो एगतरेणं, णितिएणं जो गवेसणं कारे। भिक्खू पडिग्गहम्मी, सो पावति प्राणमादीणि ॥१६॥ तिराह भंगाणं एगतरेणाऽवि जो पडिग्गहं गवेसइ, सो पा- . वति प्राणमादीणि। दातुमप्रियं, तथाऽप्येवं दादतिलजाए गारवेण व, कातूण समूहपेच्छितो वा यि । मित्तहि दावितो वा, णिस्तो लुरो विमं कुञ्जा ॥१६॥ बहुजए मज्मे मग्गितो लजाए ददाति, जेग मग्गितो त जे भिक्खू बलावेसियं पडिग्रह धरेइ, धरं वा सा-- इज्जइ ।। २६॥ (जे भिक्खू बलगविद्येत्यादि) बलं सारीरं,धनजनपदादि बा। गाहाजो जस्सुवरि य पभू, बलियतरोवा वि जस्स जो उवरि। । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०४) अन्निधानराजेन्द्रः। पत्त स्स गारवेण देति, बहुजणमझ मग्गिो , बहुजणेण (१७) अयोबन्धनाऽऽदीनिखुत्तो देति मित्ताण पुरो मग्गिो , मित्तेहिं भणिश्री दाते, से भिक्ख वा भिक्खुणी वा से जाई पुण पायाइं जाणेनिस्सो दरिद्दी, तम्मि वा भायणे लुद्धो इमं कुज्जा। जा विरूवरूवाइं महद्धणबंधणाई । तं जहा-अयबंधणाणि पच्छाकम्मपवहणे, अचियत्ता संखडे पदोसे य । वा. जाव चम्मबंधणाणि वा अन्नयराई तहप्पगाराई महएगतर उभयतो वा, कुजा पच्चारतो जो वि ।।१६२।। भ्रूणबंधणाई अफासुयाई णो पडिग्गहेजा ।।२।। तं दाउं श्रप्पणो विसूरंतो अमस्त भायणस्स मुहकर प्राचा०२ शु.२ चू०६ १०१ उ.। णं करोति, पच्छाकम्मं वा करति, अमं वा अपरिभोगं सुत्रंपवाहेजा, संजए गिहत्थे वा चियत्तं करेज, अचियत्तेण जे भिक्खू पायं एगेणं बंधेण बंधति, बंधतं वा साइजहासंभवं वित्तिवोच्छदं करेज, साहुणा गिहत्थेण वा सद्धि दो विउवितो अ संखडं करेज । साहुस्स, गिहत्थ जा॥४५॥ स्स वा ओभओ वा पश्रोसेज, पच्छारो वा सव्वसाहूणं (जे भिक्खू पायं एगण इत्यादि) उस्सग्गेण ताव प्रबंपदूसेज, पत्थारो वा डहण-घाय-मारणाऽऽदि सयं क धणं पात्रं घेत्तव्वं, एगबंधणमपि करेंतस्स ते चैव श्रादिगो रेज, कारये च। दोषाः, शेष सभाष्यं पूर्ववत् । कारणी पुण गिहिणा मग्गावेउं कप्पेज जे भिकाख पायं परं तिएहं बंधाणं बंधति. बंधतं वा सासंतासंतसतीए, थिर अपजत लब्भमाणे वा । इजइ ॥ ४६॥ पडिसेधणेसणिजे,असिवाऽऽदी संतो असती ॥१६३।। (जे भिक्ख पायं परं तिराह इत्यादि) उववासग्गियं सुतं, संतं विद्यमानं, असंतं विद्यमानं, संतसु चेव विसूरति, | दोसा ते चैव, मासगुरूंच से पच्छित्तं। असंतेसु वा विसूरेइ । तत्थ संतासंती इमा-अत्थिरं हुंडं तिएह तू बंधाणं, परेण जे भिक्खु बंधती पायं । अपजत्तं वा,अत्थि वा गिहकुलेसुण लभंति, रायादिणा वा विहिणा वाऽविधिणावा,सो पावति प्राणमाईणि॥२४१।। पडितेधिए ण लम्भंति । असिवादीहिं पा संतश्रो असती। संतासंतसतीए, अथिरअपजत्तलब्भमाणे वा। असिवादी इम पडिसेधणेसणिज्जे, असिवादी संतो असती ॥२४२।। असिवे प्रोमोदरिए, रायदुट्टे भए व गेलम्मे । अखिये ॥२४३॥ सेहे ॥२४४॥ भिमे वा ॥२४५॥ इत्यादि पूर्वत् । असती दुल्लह पडिसे-वो य गहणं भवे पाए ॥१४॥ संतासंतसतीए, परेण तिए ण बंधियव्वं तु । भाणभूमीए अंतरा वा आसवं, एवं श्रेमि रायदुट्टे भए घा गिलाणो ण सकेति पायभूमि गंतुं, दुल्लभपत्ते वा देसे एवंविधे असते, परेण तिराहं पिबंधिजा ॥ २४६ ॥ राइणा वा पडिसिद्धा, एरिसाए संतासंतीए गिहिगविट्ठ एवं ताव दिट्ठ अतिरेगवंधणं, तं पुण केवतियं कालं अलस्स गहणं भवे। ख्खणं धरेयव्वं । नि० चू०१ उ० । ग। श्रसंतासंती इमा जे भिक्खू अतिरेगबंधणं पायं दिवाओ मासाश्रो परेणं भिशे व झामिते वा, पडिणीए साणतेणमादीसु । घरेइ, धरंतं वा साइज्जइ ।। ४७ ।। एएहि कारणेहि, णायव्व असंतो असती ।।१६शा (जे भिक्खू अतिरेगेत्यादि) दिवड्डमासातो परं धरंतस्त भिवं, झामियं दड्ड पडिणायसाणतेणमादीहिं हडं, असं श्राणादिणो दोसा, मासगुरुंच से पब्छितं, ण केवल मतिच णत्थि, एवं असतो असंता सता गया। रेगबंधणमलक्षणं विवड्डातो परंण धरेयवं, एगबंधणादुविहाऽसतीए इमं विधि कुजा वि अलक्षणं न घरेयचं । संतासंतसतीए, गवसणं पुव्वमप्पणो कुजा। अवलक्खणेगवंध, दुगतिगअतिरेगबंधणं वा वि । तो पच्छा जतणाए, णीएण गवेसणं कारे ।।१६६॥ जो पायं परिवह, परंदिवडायो" मासाओं ॥२४७॥ दुविहासतीए पुथ्वं अप्पणो कुजा, सयमलम्भमाणे पच्छा। कंठा। जयणार णिवेण गवेसावर । जो एगबंधणादि धरेति, तस्स इमे दोसाअहवा गविटे अलद्धे इमा विही सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं तहा दुविधं । पुवं भट्ठमलद्धे, णियं परं वा वि पट्टवेत्तर्ण । पावति जम्हा तेणं, अन्मं पायं वि मग्गेज ॥ २४८ ॥ पच्छा गंतु जायति, समणुचूहंति य गिही वि ॥१६७।।। निथाराणं आणाभंगो, अगवत्था रगेण धारितं असो धि घरेति, भिन्छ तं-ए जहा वाइणों तहा कारिणो, पायपुवं संजयण गावटुं ण लद्धं, ताहे संजतो णियं परं वा मंजमपिराहणा वस्खभाणगादाहिं अतिरेगबंधणमलक्खपुव्वं तत्थ पट्ठवेति. गच्छ तुम तो पच्छा अम्हे गमिस्लामो, तुझ य पुरतो तं माग्गस्तामो, तुम उबबूहे जासि, जतीण ण अवि सूरता अजस्खा । भसदाणेण महतो पुण खंघा बझति उवहिते जति ण हुँदं सबलं वाता-इटुंदुभकत खीलसंठितं चेव । लम्भति पच्छा भगेजालु विदेहि ति । एवं पदोलादयो दोसा परमप्पसं च सवणं, अलक्खणं दडू दुधरणं ।। २४६।। परिहरिया भवंति । नि० चू०२ उ० । समचउरंसं जंग भवति हुं, कृष्णाऽऽविचित्तलाणि ज Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त स्स तं सबलं, अणिष्फलं वाताइद्धं टोप्पडयं ति वुञ्चति । जं उचित उ डायति वालिये पुणे पतितं दुष्कतं । जं ठविजंतं ण ठाति तं खीलसंठितं । जस्स हो गाभी माती उपलानी या तं पप्पलं कंडगा 55दिखयं सव्वणं । एताणि अलक्खणाणि दडदुव्वाणि यदहं अ गिरणा, पंचवरोववेयं दुव्वलं, एकस्मिन्नपि न पततीत्यर्थः । अहवा - प्रबालाङ्कुरसंनिभं सुवरणं, सेसा सब्वे दुव्यथा, अनिष्ठा इत्यर्थः अहवाल एगबंधना 55दि. जं थापयच आगमे । ४०५ ) अभिधानराजेन्द्रः । इमा चरितविराहणा हुंडे चरितभेदो, सबले चित्तविन्भमो । दुष्पत्ते खीलसंडाणे, गणे व चरणे व सो ठाणं ।। २५०॥ पउमुप्पले अकुसलं, सव्वणे वणमादिसे । तो बहिं च दड्ढे, मरणं तत्थ शिद्दिसे ।। २५१ ।। दुव्यम्य पाए गीत्थ गायरस आगमो तम्हा एते ण धारेज्जा, मग्गणे य विधी इमो ॥ २५२ ॥ चरणविणासी गाण दंसण-परिविराहणा, सरीरस्स जं पीडाभवणं तं सव्वमकुसलं भवति, सेसं कंठं । अवलखरोग, मुत्तत्थ करतो" मग कृज्जा । दुगतिगबंधे सुत्तं, तिरहुवरिं दो वि वज्जेज्जा ।। २५३ ॥ हुंडादिलक्वगथपत्ते गहिरण सुलत्थपरक तो जहा भत्तपाणं गवेसति तहा सलक्खणमभिषं वा पा यं उप्पारति, दुगतिगबंधणे सुत्तपोरिसिं काउं श्रत्थपो रसीला मिगति भिसे व हिंडतो नि जे परेश तो व या दहं णानिभिए वा एते सुरथ पोरिति सरनामा सो जाव भिपप हिंडतो मग्गति, केरिसं पायं ?, केण वा कमेण तं केन्तियं वा कालं मग्गियव्वं ? | चत्तारि अहाकए, दो मासा होंति अप्यपरिकम्मे । तिथि परं मज्जा, दिवमासं सपरिकम्मं ।। २५४ ।। चत्तारि मासा अहाकडं पायं मग्गियव्वं, जाहे तं चउहिं वि व लयं तदुपरि दी गाला अन्यपरिकम् मग्गिय आहे पण मति तां परिकम्मं दिवमाम जा । किं कारणं ? | जाव तं श्रद्धमासेण परिकस्मिज्जति ताव वासाकालो लग्गति, तम्मि परिकम्भणा सत्थि । 1 " एवं विमग्माले जति पावं तारिसंग व लभेजा । चेकडे जाव व गो लम्भती पायें ।। २५५ ।। जारि भागने भणियं स जति तारिन स ज्जा तं च अणुकडेज्जा । भणिया परिकम्मणा उस्सगेण, अववाय । नि० चू० १३० । (१) प्रतिमा भिक्खू जाजा चउहिं पडिपाहिं पायं एसित्तए, तत्थ खलुइमा पदमा परिमा सेभिया किसी वा उद्दि सिव २ पाये जाए | तं जहा थलाउपपार्थ वा दारुपाय वामपि वा तपगारे पार्य सर्व या संमाएजा० नाव १०२ पन्त पडिग्गजा, पढमा पडिमा १। अहावरा दोच्चा पडिमा से भिक्खू वा भिक्खुणी या पेहाए पाये जाएजा तं जहागाहावई वा० जाव कम्मकरिं वा, से पुव्वामेव थालोएजा, आउसो ति वा भागी ति वा दाहिसि मे एतो अवरं पायें । तं जहा अलाउपाय वा दारुपायं वा महियापार्य वा तहयगारं पायं सयं वा से जाएज्जा० जान डिग्गहेज्जा, दोच्चा पडिमा । २ । अहावरा तच्चा पडिमा - से भिक्खू वा भिक्खु० वा से जं पुण पाये जाणिज्जा तं जहा संगतियं वा वैजयंतियं वा तप्यगारं पायं सयं वा ०जाव परिग्गजा, तथा पांडवा । ३ । अहावरा पडत्था पडिमा से भिक्खू वा भिक्खुणी या उपपमयं पाये जाएजा जावएखे बहवे सपा मारणा० जान शिमगा यावति, तहयगारं पार्थ सयं वा जाएजा • जाव पडुिग्गहेज्जा. चउत्या पडिमा । इच्चेइयाणं चउरहं पडिमा अमपरं पडिमं, जहा पिंडेसगाए । तथा प्रतिमाचतुष्टयमाणयपि यावन्यनीति - वरम् - तृतीयप्रतिमायां ( संगइयं ति ) दातुः स्वाङ्गिकं परिभुक्तप्रायम् । ( वैजयंतियं ति ) द्वित्रेषु पात्रेषु पर्यायेम पार्थ यावेत आ०२० २० ६ अ० २ उ० । वृ० । (१८) अथ कतिभिः प्रतिमाभिः पात्रं गवेषणीय, उच् उ पेक्ख संगय, उज्झियधम्मे चउत्थए होइ । सच्चे जब एको, उस्सगाई जयं पुच्छे ||६५६ || उदिष्टपात्र प्रेक्षापात्रम् संगतिका 1 " च चतुर्थमिति चतस्रः पात्रगवेषणायां प्रतिमाः, गच्छवासिनः प्रतिमाचतुष्टयेनापि पात्रं गृह्णन्ति, जिनकल्पिकानामधस्तनाभ्यां द्वाभ्यामग्रहणम् - उपरितनो परेकतरस्याम भिग्रहः । अथ गौरवभयादतिदिशन्नाह - ( सव्वे जहन्न एको त्ति) यद्यस्य नास्ति वस्त्रम् इत्यारभ्य सर्वे वा गीतार्था निश्रा वा जघन्यत एको गीतार्थो निश्रा वा इतिपर्यन्तं यथा वस्त्रविषये भाषितं तथा पात्रेऽपि सबै तमेव भावनीयम्। नवरम् - पायाऽमिलापः कर्त्तव्यः । (उम्सम्पादन) कायोत्सर्गाssदिकम् ।" आवाससोहि अखलंत समग उस्सग्ग इत्यादि गाथोकं प्रायश्चित्तं तथैव वक्तव्यं ( जयं पुच्छत्ति ) यतः मानपूर्वोक्तां यतनां कुर्वन् पृच्छेत् । किमुकं भवति - नावभावितव्यम् किं तर्हि भाषिकुलं तत्रापि पादर्शिने कदम कमी कि भविष्यनि इति पृच्छाचतुष्टयं तथैव कर्त्तव्यम्, किंबहुना य एव वस्त्रस्य विधि एवं तु गयितुं चायरिया दिति जस्स जं न त्थि समभाग कर पजह रावणियो भवे ॥१॥" इति पर्यन्तः, प्रायः स एव पात्रस्याडावे द्रष्टव्यः, यस्तु विशेषः उपदर्शयिष्यते । संप्रति मासतुष्कं विभावविराहउट्टि तिगेयरं, पेहा पुरा दट्टु एरिसं भगइ । दोरहेगयर संग पाहा पर तु ॥ ६६० ॥ 33 1 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त (४०६) अभिधानराजेन्डः। पत्त त्रिकस्य जघन्याऽऽदित्रयस्कतरं यद् गुरुसमक्षं प्रतिज्ञातं पात्रस्य लक्षणं ज्ञात्वा विज्ञाय अलक्षणं व बुद्धा भूयः पुनः तदेव याच्यमानमुहिष्टपात्रमिति प्रथमा, प्रेक्षापात्रं पुनई-। लक्षणोपेतं ग्राहां, यतो लक्षणोपेतस्याऽमी गुणाः, अलक्षणट्रा अवलोक्य यदीडशं प्रयच्छति भगति तत्प्रेक्षापूर्वकं स्य चैवं दोषा वक्ष्यमाणा भवन्ति,तस्मालक्षणोपेतं ग्राह्यम् । याच्यमानत्वात् प्रेक्षापात्रमिति द्वितीया । अथ तृतीया तच्चेदम् तस्याश्च स्वरूपमाचाराङ्गे द्वितीयश्रुतस्कन्धे षष्ठाऽध्ययने प्र. बटुं समचउरंस, होइ थिरं थावरं च वामं च । थमाद्देशके इत्थमाभिहितम्-"अहावरातचा पडिमा-सेभिक्खू हुंडे वाताइद्धं, भिन्नं च अधारणिजाई ॥१००८॥ वा भिक्खुणी वा से जं पुण पायं जाणजातं जहा-संगइयं वा वैजयंतिथं वा।"अथ किमिदं सङ्गतिकं,किं वा वैजयन्तिकमि वृत्तं वर्तुलं, तत्र वृत्तमपि कदाचित्समचतुरस्रं न भवतीत्याह-(दोरहेगयरमित्यादि) इह कस्यविदगारिणो द्वे पात्रे,स त्यत आह-समचतुरस्रं सर्वतः, तथा स्थिरं च यद्भवति च तयोरकतरदिने २ वारकेन वाहयति, तत्र यस्मिन् दिव सुप्रतिष्ठानं तत् गृह्यते नान्यत् , तथा स्थावरं च यद्भसे यद्वाह्यते तत् संगतिकमभिधीयते, इतरत् वैजयन्तिकं, वति न परकीयं परवत् याचितं कतिपयदिनस्थायि, तयारकतरं यदभिग्रहविशेषण गवेष्यते,सा तृतीया प्रतिमा। तथा वर्य स्निग्धवर्णोपेतं यद्भवति तद्राह्य, नेतरत् । उक्तं चतुर्थी प्रतिपादयति लक्षणोपेतम् । इदानीमलक्षणोपेतमुच्यते-हुण्डं वचिनिम्न क्वचिदुन्नतं यत् तदधारणीयम् (वाताइद्ध त्ति) कालेनैव दव्वाऽऽs दबहीणा-हियं तु असुगं च मे न घेत्तव्यं । शुष्कं संकुचितं बलिभृतं तदधारणीयं, तथा भिन्नं रादोहि वि भावनिसिढे, तमुज्झिउं भट्ट णोभद्रं ॥६६१।। । जियुक्तं सछिद्रं वा, एतानि न धार्यन्ते, परित्यज्यन्त इत्यर्थः। उज्झितं चतुर्दा-दिव्यक्षेत्रकालभावोज्झितभेदात् । तत्र द्र इदानी लक्षणयुक्तस्य फलं प्रदर्शयन्नाहव्योभितं यथा-केनचिदगारिणा प्रतिज्ञातम्-इयत्प्रमाणात् संठियम्मि भवे लाभो, पइट्ठा सुपइदिए । हीनाधिकं पात्रममुकं वा कमठप्रतिग्रहाऽऽदिकं पात्रं मया न ग्रहीतध्यं, तदेव केनचिदुपनीतं, ततः प्रागुक्तयुक्त्या द्वाभ्या निव्वणे कित्तिमारुग्गं, वन्नड्ढे नाणसंयया ॥ १००६ ॥ मपि भावतो निसृष्टं तदवभाषितमनवभाषितं वा दीयमानं संस्थिते पात्रके वृत्तचतुरस्र ध्रियमाणे लाभो भवति, प्रतिद्रव्योज्झितम्। ष्ठा गच्छ भवति सुप्रतिस्थिते स्थिरे पत्रके, निर्वणे क्षताssक्षेत्रोज्झितमाह दिरहिते कीर्तिः आरोग्यं भवति, वर्णात्ये ज्ञानसंपद्भवति । अमुइच्चगं न धारे, उवणीयं तं च केणई तस्स । इदानीमलक्षणयुक्तफलप्रदर्शनायाऽऽहजं तुज्झे भरहाई, सदेस बहुपत्तदेसे वा ॥ ६६२ ॥ । हुंडे चरित्तभेओ, सबलम्मि य चित्तविब्भमं जाणे । अमुकदेशोद्भवं पात्रं न धारयामि, तदेव च केनचि- दुष्फए खीलसंठाणे,गणे व चरणे च णो ठाणं ॥१०१०॥ दुपनीतं तदुभाभ्यामपि पूर्वोक्तहेतोः परित्यक्त क्षेत्रो- हुण्डे चारित्रस्य भेदो विनाशो भवति । शवले चित्रले ज्झितम् , यद्वा-पात्रमुज्झेयुर्भरताऽऽदयः, भरतो नटः, विभ्रमो चित्तविप्लुतिर्भवति, दुष्पात्रे अधोभाग अप्रतिष्ठिते आदिशब्दाचारणाऽऽदिपरिग्रहः । स्वदेशं गताः सन्तो, प्रतिष्ठिते प्रतिष्ठानरहिते,तथा कीलसंस्थाने कीलकं दीर्घमुचं बहुपात्रदेशे वा, तदपि केत्रोज्झितम् । गतं तस्मिश्च एवंविधे गणे स्वगच्छे चरणे चरित्रे वा न कालोज्झितमाह प्रतिष्ठानं भवति । दगदोछिगाऽऽइ जं पु-बकालजुग्गं तदनहिं उज्झे । पउमुप्पले अकुसलं, सब्बणे वणमाइसे । होहि तहेस्सइ काले, अजोग्णयमणागयं उज्झे ॥६६३॥ अंतो बहिं व दड्डे, मरणं तत्थ निदिसे ॥१०११॥ "दोछिगं" तुम्बकं,दकस्य जलस्य यध्रियते तुम्बकं,तदा पभोत्पलहे? स्थासगागारे पात्रके अकुशलं भवति, दिशब्दात्तक्रतुम्बकाऽऽदिकं च यत्पूर्वस्मिन् ग्रीष्माऽऽदौ काले सवणे भवति पत्रकस्थायिनः । तथा-अन्तः अभ्यन्तरे,बहियोग्यं तदन्यस्मिन् वर्षाकालाऽऽदाबुझेत, भविष्यति वा ए र्षा दग्धे सति मरणं तत्र निर्दिशेत् । प्यति कालेऽयोग्यमतोऽनागतमेव यदुज्झेत् , तदुभयथाऽपि इदानीं मुखलक्षणं प्रतिपादयन्नाहकालोज्झितं ज्ञातव्यम् । अकरंडगम्मि भाणे, हत्थो उड्डे जहा न घटेइ । भावोज्झितमाह- - - ... एयं जहन्नयमुहं, वत्थु पप्पा विसालं तु ॥१०१२।। लधुण अम्मपाए, स देइ अनस्स कस्सइ गिही वि। करण्डकः वसन ग्रन्थितः समतलकः करण्डक्रस्येवाऽऽकारो सो वि अनिच्छइ ताई, भावुझिय एवमाईयं ॥६६४॥ यस्य तत्करण्डक, न करराडकमकरएडकं वृत्तासमचतुरलब्ध्या अन्यान्यभिनवानि पात्राणि पुराणानि स गृही अन्य- स्त्रमित्यर्थः । तस्मिन् एवंविधे भाजने पात्रके मुखं कियस्य कस्यचिद्ददाति, अपि च तानि दीयमानानि यदा नेच्छति मावं क्रियते?। अत आह -हस्तः प्रविशन् ऊर्द्ध करणे यथा न तदा एवमादिकं भावोज्झितं द्रष्टव्यम् । बृ०१ उ०१प्रक० । घट्टयति न स्पृशति एतज्जघन्यमुखं पात्रकं भवति वस्तु प्रा(२०) तश्च पावकं लक्षणोपेतं ग्राां, नालक्षणोपेतम्, एत- प्य वस्त्वाश्रित्य मुखनैव गृहस्थो ददाति इत्येवमाद्याश्रित्य देवाऽऽह विशालतरं मुखं क्रियत इति । ओघ०। पायस्स लक्खणमल-क्खणं च भुज्जो इमं वियाणित्ता । दाता वदेत् तैलाऽऽदिना म्रक्षयेत्लक्खणजुत्तस्स गुणा, दोसा य अलक्खणस्सेमे १००७ से गण एताए एसणाए एसमाणं पासित्ता परो वइज्जा-आ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०७) पत्त अभिधानराजेन्डः। उसंतो समणा ! एजासि तुमं मासेण वा जहा वत्थेसणाए, गहगं अंतो अंतणं पडिलहिज्जा,सअंडादि सब्वे आलावगा से णं परो णेता वदेजा-आउसो त्ति वा भइणीति वा भाणियव्या,जहा वत्थेसणाए णाणत्तं तेल्लेण वा घएण वा आहारेयं पायं तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए णवणीएण वा वसाए वा सिणाणादि०जाव अप्पयसि वा वा अन्भंगेत्ता वा तहेव सिणाणाइ तहेव सीतोदगादि कं- तहप्पगारंसि थंडिलंसि पडिलेहिय पडिलेहिय पमजिय पदादिं तहेव, से णं परो णेता वदेज्जा-आउसंतो समणा! मज्जिय तो संजयामेव आमजेज्जा,एवं खलु तस्स भिमुहुत्ता जाव अत्थाहि ताव अम्हे असणं वा पाणं क्खस्स भिक्खुणीए वा सामग्गिय सबढेहिं सहितेहिं सवा खाइमं वा साइमं वा उवकरेंसु वा उवक्खडेंसु वा तो ते | या जएज्जा ति वेमि ।। १५२॥ वयं आउसो! सपाणं सभोयणं पडिग्गहं दा., तुच्छए (तथा से णमित्यादि) स नेता तं साधुमेवं ब्रूयात्-तथा:पडिग्गहए दिमे समणस्स णो सुटु साहु भवइ । तिरिक्तं पात्रं दातुं न वर्तत इति मुहूर्तकं तिष्ठ त्वं, याव(से इत्यादि ) एतयाऽनन्तरोक्तया पात्रैषणया पानमन्वेषितं दशनादिकं कृत्वा पात्रकं भूत्वा ददामीत्येवं कुर्वन्तं निसाधु प्रेक्ष्य परो ब्रूयाद्भगिन्यादिकं,यथा तैलाऽऽदिनाऽभ्यज्य षेधयेनिषिद्धोऽपि यदि कुर्यात्ततः पात्रं न गृह्णीयादिति । साधवे ददस्वेत्यादि सुगममिति । प्राचा. २ श्रु० १ चू० ६ यथा दीयमानं गृह्णीयात्तथाऽऽह-(से इत्यादि ) तेन दात्रा अ०१०। दीयमानं पात्रमन्तोपान्तेन प्रत्युपेक्षतेत्यादि वस्त्रवनेयमि(२१) पात्रप्रयोजनम् । आह-कस्माद्भाजनग्रहणं क्रियते ?, त्येतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यमिति । आचा० २ श्रु०१चू० । प्राचार्यस्त्वाह ६ .१ उ.। यदि पात्रार्थ योजनात्परं गच्छतिछक्कायरक्खणट्ठा, पायग्गहणं जिणेहि पप्पतं । जे य गुणा संभोगे, हवंति ते पायगहणे वि । १०१३॥ जे भिक्खु परं अद्धजोयणमराए पायवडियाए गच्छइ,गषट्कायरक्षणार्थ पात्रकरहितः साधुः भोजनार्थ षडपि च्छंतं वा साइजइ ।। ११० ।। कायान् ब्यापादयन्ति यस्मात्तत्पात्रग्रहणं जिनः प्रशप्तं प्ररू. मूलवसभगामाी जाव अद्धजोयणं ति मेरा भवइ, अद्धपितम्.ये च गुणाः मण्डलीसंभोगे व्यावर्णिता भवन्ति त पव जोयणाओं परो रजाइ, पायग्गहणं करेति,तो आणाइया गुणाः पात्रकाहणेऽपि भवन्ति,श्रतो ग्राह्यं पात्रमिति । य दोसा भवंति। के ते गुणाः?,इत्यत पाह गाहाअतरंतबालवुड्डा, सेहा एस्सा गुरू असहुवग्गो । परमद्धजोयणाओ, संथरमाणसु णवसु खत्तेसुं । साहारगुग्गहाऽल-द्विकारणा पायगहणं तु ॥१०१४॥ जे भिक्खू पायं खलु, गवेसती आणमादीण ॥१०॥ ग्लानकारणात् बालकारणात् वृद्धकारणात् शिष्यकारणात् उस्सग्गेणं जाव उज्झामगखेतं, तम्मि पायं गवेसियव्वं, पप्राघूर्णककारणात् गुरुकारणात् असहिष्णू राजपुत्रः कश्चित्प्र- रतो आणादिया दोसा, तम्हा णो परतो उप्पाएज्जा। भ्रजितः तत्कारणात् साधोरवग्रहो श्रवष्टम्भः अनेन पात्रकेण गाथाक्रियते,पतेषां सर्वेषामतः साधारणावग्रहाद्धेतोः अलब्धिमान कश्चिद्भवति,तस्याऽऽनीय दीयते पतश्च पात्रकेण विना दातुं भिक्खु वसहीसुलहे, णवसु तह चेव पायवत्थादी । न शक्यते, अस्मात्कारणात् पात्रकग्रहणं भवति । उक्तं पात्र- जोयणमद्धे चउगुरु, अडुटेहिं भवे चरिमं ॥ ११ ॥ कप्रमाणम् । ओघ । ध०। पं० व० । प्रव०। अंतरपल्ली लहुगा, परतो खलु अद्धजोयणे गुरुगा । श्राधाकर्मिकाऽऽदिपात्राणि ततियाएँ गवेसिजा, इतरांहिं अट्ठहिं सपदं ।। १२ ॥ से पुवामेव आलोएज्जा-आउसो त्ति वा भइणीति वा णो उदुबद्धे अटुसु मासखेत्तेसु, वासाखत्तेसु य एतेसु णवसु खलु मे कप्पइ आधाकम्मिए असणे वा पाणे वा खाइमे वा खेत्तसु जह चेव भत्तपायमुप्पाए तहा पायबस्थादिए वि, जह साइमे वा भुत्तए वा पायए वा मा उवकरेहि मा उवक्खडेहि पुण संथरंतो परतो अद्धजोयणाओ प्राणेति, तो इमं पअभिकखसि मे दाउं एमेव दलयाहि से सेवं वयंतस्स परो च्छितं, जइ अंतरपल्लिाश्रो आगेति तो चउलहुगा. अंतरपअसणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उपकरेत्ता उवक्ख लिपाश्रो परो श्रद्धजोयण मेत्तानो मूलं, वसतिगामाश्री तं च जोयणं, एत्थ चउगुरुगा, खेत्तवाहि जोयणे छल्ल हुं, दिडेत्ता सपाणं सभोयणं पडिग्गहगं दलएजा, तहप्पणारं पडि बढे छग्गुरूं, दोहिं छेदो, अड्डाइज्जोहं मूलं, तिहिं प्रणवट्ठो ग्गहगं अफासुयं० जाव णो पडिणाहेजा, सिया से परो उव- अद्धहि पारंचियं, प्राणाइया य दोसा। दुबिहा य विराहणित्ता पडिग्गहगं णिसिरेजा,से पुवामेव आलोएजा-आ- णा, तत्थ श्रायविराहणा कंटकखाणुमाइया, संजमे छउसो ति वा भइणी ति वा तुमंचेव णं संतियं पडिग्गहगं अं कायादिया, तम्हा खेत्तवत्थेहि ण गवेसियवं, खेत्तातो श्रद्धतो अंतणं पडिलेहिस्सामि । केवली व्या आयाणमेयं अंतो जोयणमब्भंतरं गवसंतो,कालतो सुत्तत्थपोरुसिं काउं तइया ए पोरुसीए गवेसइ, जइ इतराहिं गवसइ तो अभिक्खासेपडिग्गहगसि पाणाणि वा वीयाणि वा हरियाण वा, अह वाए चउलहुगा, अट्ठमा वा, एए पारंचियं पावइ, खेतब्भंतरे भिक्खु णं पुन्बोवदिट्ठा पतिप्मा, जं पुवामेव पडि-! अलम्भमाणे विहरते चेय भायणभूमि गंतव्वं । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०%) अभिधानराजेन्द्रः। पत्त गाहा मेव पेहाए पडिग्गहं अवहट्ट पाणे पमञ्जिय रयं ततो संजवितियपदं गेलेमे, वसही भिक्खुमंतरे । यामेव गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसेज वा, णिसज्झाय गुरूजोगे, सुणणे वत्तणाइणो ॥ १३ ॥ कखमेज वा॥ गेलन्नाइयाण इमा व्याख्या । गाहा ( से इत्यादि) स भिक्षुहपतिकुल पिण्डपातप्रतिज्ञया दुहओ गेलामम्मी, वसही भिक्खू व दुल्लभं उभए। प्रविशन् पूर्वमेव भृशं प्रत्युपेक्ष्य पतग्रह, तत्र च यदि अंतर विगिट्ट सज्झा -उ नत्थि गुरुणं च पाउग्गं ॥१४॥ प्राणिनः पश्येत्ततस्तानाहृत्य, निष्कृष्य त्यक्त्वेत्यर्थः । तथादुहतो गेलनं-अप्पणो, परस्स वा । अहवा-प्रणागाढं गाढः | प्रमृज्य च रजस्ततः संयत एव गृहपतिकुलं प्रविशद्वा, त्ति। दुहत्तोत्ति खत्तकाले रुप्रतिक्कम करेति, गिलाण कारणे निकामेद्वेत्येषोऽपि पात्रविधिरेव, यतोऽत्रापि पूर्व पात्रं सण सयं गिलाणो गिलाणवावडो वा ण तरति गंतुं जत्थ भा म्यक् प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य च पिण्डो ग्राह्य इति पात्रगतैव यणा उप्पज्जति ताहे दूरातो वि भायणा,अंतरपाल्लयासु श्रा- | चिन्तेति किमिति पात्रं प्रत्युपेक्ष्य पिण्डो ग्राह्य इति ?, अणि जंति,अनंतरपोरिसीए वा गेराहेजा। अथवा-भायणदोसा, प्रत्युपेक्षिते तु कर्मबन्धो भवतीत्याह-केवली धूयाद्यथा-कभिक्खं दुल्लभं,बसही वा दुल्लभा, उभयं वा दुल्लभं । अहवा उ मोपादानमेतत् , यथा च कर्मोपादानं तथा दर्शयति-अन्तः भये गिलाणस्स य भिक्खा, वसही य दुल्लभं । अहवा उभए मध्ये पतग्रहकस्य प्राणिनो द्वीन्द्रियाऽऽदयः, तथा-बीजानि सुत्तत्थपोरिसीतो वि अकाउं पादग्गहणं करेति। अहवा-बा रजो वा पर्यापोरन् भवेयुः, तथाभूते च पात्रे पिएडं गृलवुड्ढा उभय,तेहिं पाउलो गच्छो संकामेण सक्कति गाम हृतः कर्मोपादानं भवतीत्यर्थः । साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतितराणि चाविगिट्ठाणि अहवा तम्मि भायणादेसे सज्झातो न शाऽऽदिकं यत्पूर्वमेव पात्रप्रत्युपेक्षणं कृत्वा तद्गतप्राणिनो र. सुज्झति, गुरूण वा भत्तपाणादीयं पायोग्गं नस्थि, श्रागाई जवापनीय गृहपतिकुले प्रवेशो निष्क्रमणं वा कार्यमिति । जोग्गं वा वहति । आचा०२ श्रु०१चू० ६ अ०२ उ० । (अभिहतव्याख्या अणुश्रीगो गाहा-अणुओगो पट्टविउ त्ति अत्थं सुणे 'अभिहड' शब्दे प्रथमभागे ७३३ पृष्ठे गता) ति त्ति बुलं भवति, अभिण वधारितं वा सुत्तत्थं ण किश्च पात्रे शोतोदकादिबत्तेति, भायणभूमीए वा मासकप्पपाउग्गा खेत्ता अप्पा, ग- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं० जाव समाणे च्छस्य आधारभूता न भवतीत्यर्थः । सबालवुड्डस्त वा ग सिया से परो आह९ अंतो पडिग्गहगंसि सीओदगं परिच्छस्स वत्थपाओग्गं नत्थि । भाएत्ता णिहड्ड दलएजा, तहप्पगारं पडिग्गहगं परहत्थंसि गाहाएएहि कारणेहि, गच्छं आसज्ज तिनि चतुरो वा । वा परपादंसि वा अफासुयं० जाव णो पडिग्गाहेजा, से य गच्छति निब्मयं भा-णभूमि वसहादिए सुलहं ॥१॥ पाहच्च पडिग्गहिए सिया खिप्पामेव उदगंसि साहरेजा, एवमादिरहिं कारणहं भायणभूमिं गच्छा ण गच्छति, गः | से पडिग्गहमायाए पाणं परिहवेज्जा,ससणिद्धाए वा भूमीए च्छमासजति,तिचउरो वा साहू णिभयं भाणभूमि गच्छति, णियमेजा से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उदउल्लं वा ससतेय गीयत्था वसभा वञ्चंति,तेसि अप्पाणं सुलभं भत्तपाणव- णिद्धं वा पडिग्गहं णो आमजेज वा० जाव पयावेज वा । सहिमादी भवति,गणनाप्रमाणातिरिक्कमपि ग्रहीतव्यं,कुतः? अह पुण एवं जाणेजा-वियडोदए मे पडिग्गहए छिम्मसिगाहाआलंबणे विसुद्धं, दुगुण तिगुणं चउग्गुणं वा वि। णहे तहप्पगारं पडिग्गह,ततो संजयामेव आमजेज या जाव खेताकालादीऽऽओ, समणुमायो य कप्पम्मि ॥१६॥ पयावेज वा से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पवि विसुद्धे बालंबणे दुगुणो तिगुणो वा चउग्गुणो वा पादपट्ठो य सिउकामे सपडिगगहमायाए गाहावइकुलं पिंडवातपडियाए घेतव्यो,अविसहातो वत्थादश्रो वि खेतातीओ अद्धजोय पविसेज वा, णिक्खमेज वा; एवं बहिया वियारभूमि वा णातो परतो,कालातीतो वासासु गहणं करेति, दुमा वा पू- | विहारभूमि वा गामाणुग्गामं दृइज्जेज्जा, तिव्बदेसियाए रेता गहणं करेति,रातो वा, एतं सव्यं कारणे विमुखे अणु- जहा-वीइयाए वत्थेसणाए.णवरं-एत्थ पडिग्गहे,एयं खलु सायं,अप्पे पकप्पो गच्छवासो, अहया पिसीहझयणं । नि० नय भिक्खस्स भिक्खणीए वा सामग्गियं ।। १५४ ।। चू०११ उ०। (२२) यादृशं पात्रमादाय भिक्षार्थ गच्छेत ( से इत्यादि ) स भिनुहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिशया प्रविष्टः सन् पानकं याचेत, तस्य च स्यात्कदाचिसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडयायपडिया त्स परो गृहस्थोऽनाभोगेन प्रत्यनीकतया तथाऽनुकम्पया ए पविढे समाणे पुव्यामेव पेहाए पडिग्गहगं अबहड पाणे विमर्पतया वा गृहान्तः मध्य पवापरस्मिन् पनहे स्वपमञ्जिय रयं तओ संजयामेव गाहावइकुलं पिंडवायपडि- कीये भाजने आहत्य शीतोदकं परिभाज्य विभागीकृत्य याए णिक्खमेज वा,पविसेज वा । केवली वूया-आउसो ! (णिहट्ट त्ति) निस्सार्य दद्यात् , स साधुः तथाप्रकार शी तोदकं परहस्तगतं परंपाधगतं वा अप्रासुकमिति मत्वा न आंतो पडिपाहगंसि पाणे वा बीए वा रए वा परिया- प्रतियडीयात् । तद्यथा-अकामेन विमनस्केन वा प्रतिगृहीतं बजेजा, अह भिक्खू णं पुयोवदिट्ठा पतिामा जं पुव्यामे स्थात्ततः त्रिभेव तस्यैव दातुरुदकभाजने प्रक्षिपेत् , अनि Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत sarः कृपाss समानजातीयोदके प्रतिष्ठापनविधिना प्रतिठापनं कुर्यात् तदभावे वा लायागर्ता प्रक्षिपेत्सति चान्यस्मिन् भाजने तत्सभाजनमेव निरुपरोधिनि स्थाने मुमेदिति तथा इत्यादि)सभापत स्यार्जनादि कुर्यादस्तु कुर्यादितिः। फि (इत्यादि) ला सतह एव गच्छेदित्यादि सुगमं यावदेतत्तस्य भिक्षोः सामथ्र्यमिति · श्राचा० २ ० १ ० ६ श्र० २ उ० । ( २३ ) प्रतिग्रहनिकाया ऋतुबद्धं वसतिजे भिक्खू पडिग्गहरिणस्साए उदुबद्धं वसइ, वसंतं वा साइज्ज || ४ || जे भिक्खू पडिग्गहगणीसाए वासावासं बस, बसंते वा साइज्जइ ॥ ५० ॥ से मासकप्पवासाजोग्गा खेत्ता, ते मोत्तु एत्थ पाए लभिस्सामा सिजे पति एस पाणिस्सा भवति । एताए पायणिस्साए गाहा उडुबद्धे मासवासं, वासावासे तहेव चउमासं । पचासा भिक्खु सो पावति आणमाई || २०६ ॥ जर चिचदे मासं वसति परिखाकाले व चमासं नहा विपाताऽऽसाए कालातिक्रमं अकरेंतस्स विश्राणादिया दोला, चउलहुं च से पच्छिलं । श्रवा तं उदुवद्धं वासावासं वा पायरिणस्साए तो पुरती भावपापमितं वसिम इहं व मो आगया तदद्वाए । इति कहते सुतं, अध तीते ताणि तिय दोसा || २०७|| जाह हे सावग ! अम्हे पायणिमेत्तं वसामी, इहं वा श्रागता वरं पाए लभिस्सामो, एवं कहतस्य चउलहुं सुत्तणिवातो ति अथ मालकण्यातीतं वसति, वासातीतं वा वसति, तो मासल, चउलहू य, जे रिस्साए दोसा वमत्ता ते सव्ये श्रावजंति, तम्हाण वसेजा । भयकारणत्ते पायणिस्साए विश्वसेजा। ( ४०१ ) अभिधान राजेन्द्रः । - गाहा असि श्रोमोपरिए राय भए व गेल । अद्वारा रोए वा, जयशाए तत्थ निवसजा ।। २०८ ॥ कंठा । वरं वसियच्वे । इमा जयगा गाहा गेलम्म सुत्त जोए, इति लक्खेणं गिही परिविति । जाउमा पाया, तं परिबंधमवति || २०६।। उपवासाका था अतिरिक्त वसंता गिलाणलक् सुत्तग्नाडी वा इद सुतपाटी सरति गाढाना माजी या इस जोगो सुरति इति उपसणे, एचमादीहि लक्खेहिति प्रशस्तभावमायाकरणमित्यर्थ । गिट्टी परिविति, जेलि पाया अस्थि गिहीणं तेसि समाणं परिवयं करेति जायते पाया कि श्रीणिमिदं कुर्वतीत्यर्थः ण प तेसिंग क हिंनि जहा- हे पाणिमित्तं दिता नेतत्वतिवर्ध कथयन्ति । नि० चू १४ उ० । प्रतिग्रहनिश्रया ऋतुबद्धं वसति- जे भिक्खू अगं पडिगाहं गाणं उद्दितिय गणिं सम्मु ९०३ रिसियगखिये अतिय मममस्सेत्रिय परिवर परिवियरंतं वा साइज्जइ ||५|| अतिरेकज्ञापनार्थमिदमुच्यते दो पायामाता, अतिरेगं तइथगं पमाणातो । वि परिभणिया सर्व च गेरहंति जा जोग्गा ।। ५१ ।। दोपायाणि वित्ता-पडिमो मत गो य । जति तनियं पायं गेरहति तो अतिरेयं भवति । श्रटवा जं पमाणं भणियं ततो जति पशुतरं गदति एवं अतिगं भवति वा इमेण प्रकारेण प्रतिरेनं हवेज्जा-ते साहू पाचाणि मामी नि संपड़िता आयरिरणं भणितारणा णि संदिद्वाणि, जहा-वीस आणे असे वर्धा अंतरा सं भोइसाहुणो पासंति, तेहि पुच्छिता -कतो संपट्टित्ता ? | तेहि कहियं श्रायरिरण पट्टियामो वीसं पाप श्राणां ति । तांडे ते भांति जानिया तुझे मंदिर तावति गहिएहि जइ प्रमाणि लभेजह, तो गेरहेछ, अम्हे श्रायरियं श्रणुराणातिस्सामी, एवं होउ ति ते गता, लद्धा य, अतिरेगला गहिया थ एवं अतरंगपरिग्गहां हुजा, घटाव पाउग्गाणि लम्भंति ति काउं बहूणि गहियाणि श्रप्पछंदेणं अणिट्टे वि अतिरेंगपरिगहो होज्जा । नि० चू० १४ उ० । पत्त (२४) पात्र कप्पर निरगाण वा निम्गंधी वा अति रेगं पडिह अमरस अदूरमवि श्रद्धाणं परिवहित्तए वा, पा रित्तए वा परिगहित्तए वा सो वाणं धारेस्स, अहं वा रस्साम, अन्ने वा धारेस्सइ, णो से कप्पड़ त अणापुfear orमंत अनन्नेसिं दाउ वा श्रगुप्पदा वा, कपति से तं पुच्छि आमंतिय अमरसिं दाउं या अप्पदा वा ।। ११ ॥ ॥ अस्य संवन्धादिपादार्थमाह वही दूरद्धा, साहम्मियते रक्खणे चैव । अर्चने उ इमं अतिरेपग्मि सुतं ।। २१० ॥ अनन्तरचे इसके विरत पनि उपय ध्यन अनंतयत्युपदेशः पेय व विपति हा विषय तसा पावरका स्थापनेसा न्यरक्षणे वर्तमाने इचि सूत्रसतिरेकपि याधिकापि पार्थ। २९०॥ संव येतायातस्यास्य (११) व्याख्यानां वा निर्भयतां वा अतिरेक तिरिक्कं पतम् अन्यस्य अर्था पथनं साका चियायं परिग्रहीतु भावशेष वचनम् श्रमको गणबाव कोऽन्यो वा विशेष निर्दिष्टः साधुः, तस्य भविष्यतीति भावः । अहं वा एनं धारयिष्यामि ममैव भविष्यतीति भावः । श्रभ्यो वा समिति सर्वत्र वाक्या लङ्कारे, धारविष्यति यस्याऽहं दास्यामि नत्र (से) तस्य कल्पनेवर विशेोधननिर्दिष्टम Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१०) अभिधानराजेन्द्रः | पत्त मनापृच्छय अनामन्त्र्य वा अन्येषां यदृच्छया दातुं वा अनुप्रदातुं वा कल्पते ( से तस्य तान् आपृच्छत्र आमन्त्र्य च अन्येषां दातुं या अनुमानुं वा एष तुषार संस्कारः ॥१०॥ अधुना भाष्यकृत्सामान्यविशेषव वनरूपयोरुदेश निर्देशयोः स्वरूपमाह- साहम्मिय उद्देसो, निदेसो होइ इत्थि पुरिसाणं । गशिवाय उदेसो, अय गणी बायो इयरो ।। २११ ॥ साथमिक इत्युद्देशो भवति स्त्रीयां पुरुषाणां वाऽभिया नमिति निर्देशः । श्रथवा--गणी वाचक इत्युद्देशः अमुको ग णी, अमुको वाचक इतीतरो निर्देशः । सम्प्रति निर्युक्तिविस्तरःऊणातिरितघर, पउरो मासा हवंति उन्धाया । आगाइयो व दोसा संपट्टणमादि पलिमंथो । २१२ ॥ गणनया प्राणेन च ऊनस्यातिरिक्तस्य वा उपकरणस्य धरणे प्रायश्चितं चत्वारो मासा उद्घाता लववः, श्रज्ञाऽऽदयश्च दोषाः । तथा पात्रपरिकर्म्मणां कुर्वन् तज्जातान् प्राणान्तादिशब्दात्परितापयति अद्रावयति वा, ततस्तनिमित्तमपि तस्य प्रायश्चित्तम् । तथा प्रतिदिवसभयकालं पात्राणि अन्यजातिरिक्तमुपकरणं प्रत्युपे क्षमाणस्य परिप्रन्थः सूत्रार्थव्याघातः तस्मात् गणनया प्र मायेन सूधीमुपकरणं धातव्यम् । तपात्रमधित्यतिरेकेावनदो पापा अतिरंग तययं पमाणातो । , धारते व भारे पडिलेह परिबंधो।। २१३ ।। पात्रे तीर्थकराने तथा पात्रमव तत्र यदि तृतीयं युद्धात तदातिरेकं भवति च प्रमाणं पा वस्योकं ततो यदि वृहत्तरं गृह्णाति तदा प्रमाणतोऽतिरेकम् । तत्र गणनया प्रमाणेन चातिरिकं पात्रं धारयति कर्मणा तज्ज्ञातप्राप परितापनमपद्रावणं च । तथा श्रध्वनि तद्वहने भारः, उभयकालं प्रतिदिवस प्रति परिमन्थः । श्रपरः प्रश्नमुपदर्शयति चोदेसी अतिरेगे, जह दोसा तो परेड ओम तु एकं बहूण कप्पर, हिंडंतु य चक्कत्राणं ।। २१४ ॥ अत्र परश्वोदयति यद्यतिरेके पात्र गृह्यमाणेऽनन्तरोक्तदोषात (वमं गणनया हीनं पात्रं धारयतु, यथा यथा श्र ल्पोपविता तथा बहुबहुतरगुण संभवात् । कथं तथा हीनं धारयत्वानां जातां करते नाश्वक्रव सेन एकस्मिन् दिने एको द्वितीय इत्यादिरूपेण हिण्डन्तान् । एतदेव स्पष्टयतिपंचमेगपा, दसमेत एक एको पारे । संघट्टणादि एवं न होंति दुविहं च मम्मि | २१५ । पञ्चानां जनानामेकं पात्रं भवतु तेषां च मध्ये एकैकमे चक्रचालन मे पातु यस्मिन् दिवसे पारण कं सत्यमेव तेषां परिपाख्या दश पत्त मदशमातिक्रमे दिवसे वारको भवति। एवं च संघट्टना 55यो दोषा न भवन्ति । किं च तेषां यद् द्विविधमवममवमौदर्य पञ्चानामेकस्य पात्रस्य भवेत्तदमोदये च दशमदशमाति क्रमेण वारणात् तद् गुणो भवति । एतदेवाऽऽह 9 आहारे उवगरणे, दुविहं ओमं च होति तेसिं तु । सुत्ताभिहिद च कथं बेहारियलक्खां चैव ।। २१६ ।। द्विविधं द्रव्यभावभेदती द्विप्रकारमवमं भवति, तेषामाहारे उपकरणे व आहारविषयं भावपकरणविषयं यावम मित्यर्थः । सूत्रे यामिति वैहारिकलक्षणं गच्छतामल्योपधिताऽल्पोहारता च प्रकृतं भवति । एतदेवाह बेहारिया मध्ये, जह सिं जण महलिये अंग । मइला य चोलपट्टा, एगं पायं च सव्वेसिं ॥ २१७॥ मन्ये यथाऽमीषां देहारिकाण जवेन शरीरोच्छेदेन म लिनमङ्ग, यथा च मलिनाश्वोलपट्टास्तथा सर्वेषामेकं पात्र भवति । न एकपात्रग्रहणे विहारिकलक्षणं कृतं भवति । अत्राऽऽचार्य श्राह जेसि एसवदेसो तित्गरागं तु कोरिया आणा । चउरो य घाया, रोगे दोसा इमे होंति ।। २१८॥ येथामेष उपदेशस्तैस्तीर्थकराणामाज्ञा कोपिता, तीर्थकरैः पात्रद्वयस्य प्रत्येकमनुज्ञानात् तेषां च प्रायश्चित्तं चत्वारो मा सा श्रनुद्धाता गुरवः, यत इमे वक्ष्यमाणा अनेक दोषा भवन्ति । तानेवाऽऽहअद्धा गेलने, अप्पर बयाईँ भिमारिए | देसबालबुड्डा, सेहा खमगा य परियन्त्ता ॥ २१६ ॥ श्रध्वनि ग्लानत्वेन च श्रात्मा परश्च तैस्त्यक्तः । इयमंत्र भावना-ये अध्वनिर्गता विस्मरणतः पतितोपधयः स्तेनोपहूतोपधयो वा भिन्नपात्रा वा तद्विषये श्रात्मा परो वा त्यक्को भवति, यदि तेषां पात्रं ददाति तदा श्रात्मा त्यक्तः, पात्राभाषे भिटानासंभवात् । अथ न ददाति अध्वनितस्त्य त्या अपि बहुनामे पातित एकेन पात्रेण य दानीतं न तेन पदवोऽध्वनिर्गताः संस्तरेषु तथा सान विषयेऽप्यात्मा परो वा त्यक्तः स्यात् । तथाहि--यदि ग्लानस्य ददाति तत्पार्थं तदात्मा त्यक्तोऽथ न ददाति तदा परो ग्लान इति अन्यस्याध्यनिर्गतानां ग्लानस्य या तत्या स्वयं कुलालभाण्डं वाचतिकं स्यात्तथाऽनीनं यांचे कथमपिभित तदा तन्मूल्यदाप्ये कलहा उदयो वा दोषाः स्यु (बयाई ति) बताम्यपि च परित्यज्ञानि स्युर्यतः प्रत्येक पात्रग्रह से एकत्र भक्तपानं वा गृहीत्वा प्रत्युदान्य प्रक्षिपति महतां त्वेकपात्राभ्यनुज्ञाने शीतोष्णानि संसक्तासंलक्लपानानि गृह्णतः प्राणानां त्रिराधना । तथा च व्रतानि परित्यक्तानि (भिन्न ति) एकं पार्थ कदायि निषं स्यात् तदा कुतंम्पसका लभ्यते उत्पत्र मायतः स एव परिमन्यदोषः कुलालभड प्रदोषाला एकपात्रपरि प्राचार्या आदेशाः प्राघूर्णका बालबुद्धा: शैक्षकाः क्षपका परित्यका यत ए 1 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४११) अभिधानराजेन्धः । पत्त पत्त कपात्राऽऽनीतमेकस्यात्मनो भवति, प्राचार्याऽऽदीनां किं ददातु, कुत्र च तेषां प्रायोग्यं गृह्णातु ततस्ते एवं परित्यक्ताः। अत्र पूर्वार्द्धव्याख्यानार्थमाहदेंते तेसिं अप्पा,जढो उ आदाणे ते जढा जं च । कुजा कुलालगहणं, वया जढा पाणगहणम्मि ॥२२०॥ तेषामध्वनिर्गतानां ग्लानानां च ददति आत्मा परित्यक्तो भवति,अदाने ते अध्वनिर्गताऽऽदयः परित्यक्ताः,यश्च तेषां पा. त्रं दवा स्वयं कुलालभाण्डग्रहणं कुर्यात् तत्राप्यनेके दोषाः, ते च प्रागेव भाविताः, व्रतानि परित्यक्तानि भवन्ति । पानग्रहणे, पानग्रहणं भक्तोपलक्षणं, संक्ततभक्तपानग्रहणे इत्यर्थः । भावना सर्वत्र प्रागेव कृता । पुनरपि परः प्रश्नययति-- जह होंति दोस एवं. तम्हा एकेक धारए पत्तं । सुत्ते य एगभणिय, मत्तयउवदसणा चेम्हि ॥२२॥ दिन्नज्जरक्खिएहिं, दसपुरनगरम्मि उच्छुघरनामे। वासावासठितहिं, गुणनिष्फत्ती बहुं नाउं ।।२२२॥ एवमुक्कप्रकारेण बहूनामेकपात्राभ्यनुज्ञायां भवन्ति दोषाः,तस्मात् एकैका,एक पात्रं धारयेत्,न मात्रकं युक्तं पात्रमनुशातम् । तथा चोक्तम्-" जे निग्गंथे तरुणे बलवं से पगं पायं धरेज, नो वीयं ” इति । ततो ज्ञायते नानुज्ञातं तीर्थकरैर्मात्रक ग्रहणं केवलमिदानीमार्यरक्षितैराचार्यैर्दशपुरनगर इक्षगृहनाम्नि उद्याने वर्षावासस्थितैर्बह्वीं गुणनिष्पत्ति सात्वा मात्रकस्योपदेशना दत्ता कृता। सा च यैः कारणैः कृता, तान्युपदर्शयतिदरे चिक्खल्लो वु-टिकायसज्झायमाणपलिमंथो। तो तेहिं एस दिनो, एस भणंतस्स चउ गुरुगा ॥२२३॥ ते आर्यराक्षता प्राचार्या दशपुरनगरात् दूरे इक्षुगृहनाम्नि उद्याने वर्षारानं स्थिताः, मार्गे च कर्दमोऽतिप्रभूतो वृष्टिवर्ष,तदप्यतिशयेन प्रभूतं पतति,ततः प्रायोग्ये श्राचार्याऽऽदीनां लभ्यमाने यदि न गृह्यते तदा ते परित्यक्ता भवन्ति । अथ गृह्यतेतर्हि कुत्र पानीयं भैक्ष वा गृह्यताम् । अथ नीत्वा प्रत्यागम्यते तदा कायानामप्कायहरितकायानां विराधना स्वाध्या यध्यानानां च परिमन्थो व्याघातः, ततस्तरेतैः कारणरेष मा. त्रकस्योपदेशो दत्तः। सूरिराह-यथोत्रकारणवशादायराक्षितेरेष मात्रकोऽनुज्ञातो न तीर्थकरैरिति । एवं भणतो वदतस्तत् प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः,तीर्थकरैरप्यनुज्ञानात्। एतच्चाऽग्रे दर्शयिष्यते । यदपि चोक्तम्-"जे निग्गंथे तरुणे बलवं से एगं पायं धरेज्जा नो वीयं।" इत्यादि सूत्र, तदपि गच्छनिर्गतविषयं,न स्थविरकल्पाऽऽश्रितं, न च तेन कारणे जातेनाऽऽर्यरक्षितर्मात्रकानुशा कृता, तदेवैकं केवलं, किं त्वन्यदपि मात्रकानुशायां कारणकदम्बकमस्ति । तदेवाऽऽहपाणदयखमणकरणे, संघाडासतिविकप्पपरिहारी । खमणासहु एगागी, गेएहति ऊ मत्तए भन्तं ॥२२४॥ थेराणेस विदिनो, ओहोवहिमत्तगो जिणवरेहिं । आयरियादीषऽडा, तस्सुवभोगो न इहरा उ ॥२२॥ प्राणिदयानिमित्तं कोऽपि साधुः क्षपणं कुर्यात, तस्य यः संघाटकः स क्षपणं कर्तुं न शक्नोति, न च तस्याऽन्यः संघार कः विद्यते, ततो यदि त्रयो जनाः संभूय भिक्षामटन्ति तदा जनानां विकल्पो भवति, तस्य परिहरणाय एकाकी हिण्डते, सद्वितीयस्य संघाटकवतः साधोः प्राणिदयाथै क्षपणकरणे संघाटाभावे विकल्पपरिहारी क्षपणकरणास. मर्थो भिक्षामेकाकी हिण्डमानः पतइहे पानकं गृह्णाति, मात्रके भक्तम्। अनेन कारणेन स्थविराणामोघोपधिरूपो मात्रको जिनवरैर्वितीर्णोऽनुज्ञातः, श्रोधनियुक्तौ तथाऽभिधानात्। एतेन यदुक्तं तीर्थकरैर्नानुज्ञातो मात्रक इति तन्मिथ्यत्याविदितम् ,अत एतस्यैवं युवतश्चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तम्। तथा तस्य मात्रस्योपभोगे प्राचार्याऽऽदीनामाचार्यग्लानप्राघूर्णकबालवृद्धाऽऽदीनामर्थाय तत्प्रायोग्यग्रहणाय, उपलक्षणमेतत्-संसक्तभक्तपानशोधिकरणाय च प्रागुक्लकारणव्यतिरेकेण प्रायेणानुशातः, इतरथा तूक्तकारणव्यतिरेकेण नानुशातः, एतच परिभाव्य तत आर्यरक्षितैश्चिन्तितं प्रायःप्राणरक्षणाय संसक्लभक्तपानविशोधिकरणाय च मात्रक एकपरिभोगोऽनुशाता, शेषकालं त्वलोभाऽऽद्यसङ्गनिवारणाय प्रतिषिद्धः। तथाऽऽहगुणनिष्फत्ती बहगी, दगमासे होहिति ति वियरंति । लोभे पसजमाणे, वारेंति ततो पुणो मत्तं ॥२२६॥ गुणनिष्पत्तिबही दकमासे वर्षारात्रे भविष्यतीति तत्प्रारम्भसमये भगवन्त आर्यरक्षिता मात्रकपरिभोगवन्त आर्यरक्षि. ता मात्रकपरिभोगं वितरन्त्यानुजानन्ति, ऋतुबद्धे तु काले प्राचार्यादिप्रायोग्यग्रहणलक्षणं कारणमतिरिच्यान्यत्कारणं न समस्ति, केवलं लोभ एव प्रसज्जते । तथाहि-यत् यत् उत्कृष्टं तत्तत् लोभेन मात्रके गृह्णाति,तत इत्थं लोभे प्रसज्जति तनिवारणायाऽऽचार्याऽऽदिप्रायोग्यग्रहणाभावे पुनर्मात्रक तदा वारयन्ति । एवं सिद्धं गहणं, आयरियाईण कारणे भोगो । पाणदयट्ठपभोगो, वितियो पुण रक्खिअजाओ॥२२७।। एवमुक्तप्रकारेण मात्रस्य ग्रहणं सिद्ध, यतः सूत्रे श्रोधनियुपत्यादी प्राचार्याऽऽदीनां कारणे प्राचार्याऽऽदिप्रायोग्यग्रहणलक्षणे मात्रकस्याभोगोऽनुज्ञातः, द्वितीयः पुनरुपभोग आर्यरक्षितात् प्राण दयाऽर्थ प्रवृत्तः । कारणाभावे तु मात्रकपरिभोगे प्रायश्चित्तम् ।। तदेवाऽऽहजत्तियमित्ता वारा, दिणेण आणेइ तत्तिया लहुगा। अट्ठीह दिणेहि सपयं,निकारण मत्तपरिभोगे ।।२२८।। निष्कारणे कारणाऽभावे मात्रकस्य परिभोगे यावन्मात्रान् बारान् दिवसेनैकेन तेन मात्रेणाऽऽनयति भावतो लघुका मासास्तस्य प्रायश्चित्तमष्टभिर्दिनैः स्वपदं पुनर्वताऽऽरोपणं, मूललक्षणमष्टमं प्रायश्चित्तमिति भावः। जे उति न घेतब्बो, मत्तो जे वा य तं न धाति । चउगुरुगा तेसि भवे, आणाऽऽदिविराहणा चेव ॥२२६॥ जे बुवते-न ग्रहीतव्यो मात्रको, ये च तन्मात्रकं न धारयन्ति, तेषां प्रत्येक प्रायश्चितं भवति चस्वारी गुरुका, श्राशाऽऽदयश्च दोषाः, प्राणविपत्तेः संयमविराधना वा। अन्यच्चलोए होइ दुगुंछा, वियारपडिग्गहेण उड्डाहो । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१२) पत्त अभिधानराजेन्द्रः। पत्त आयरियाई चत्ता, वारत्तथलाएँ दिट्ठतो ॥२३०॥ मः । ते चाभिग्रहिका नाजनैः कार्यमन्येन चौपधिः कार्यमिति यदि येनैव पतब्रहेण भिक्षामटति तेनैव विचारे विचार- कृत्वा तत्पादाय अब्यापारिता एवं गच्छन्ति, अत एव ते भूमौ गच्छति, तर्हि लोके जुगुप्सा जायते, तथा च सति आत्मबन्दस उच्यन्ते, पात्मनैव परप्रेरणाभावनैव उपधेरानय. भवति प्रवचनस्योडाहः, प्राचार्याऽऽदयश्च मात्रकापरिभोगे नाय उन्दोऽभिप्रायो विद्यते येषां ते आत्मच्चन्दस प्रति व्युत्पत्तेः, त्यनाः । अत्रार्थे वारबस्थल्या दृष्टान्तः। तेषामसत्यभाव ये योग्याः समर्था द्विविधे औधिके औपग्रहि। उपसंहारमाह के चोपधाबुत्पाद्ये, तनाचार्यो निर्युक्ते व्यापारयति । सम्हा उ धरेयव्यो, मत्तो य पडिग्गहो य दोमेते । दुविहा छिन्नमछिन्ना, भणंति लघुको य पडिसुणते य । गणणाएँ पमाणेण य, एवं दोसा न होतेए ॥२३१।। गुरुवयण दूरे तत्थ तु, गहिते गहणे य जं वुत्तं ।२३६। यत एवं पात्रस्य मात्रकस्य वाऽधारणे दोषास्तस्मान्मा- अन्निग्रहिका अपि प्राचायमाप्रच्छच पात्राणामानयनाय त्रकं पतहहश्च द्वावप्येतो धारयितव्यो। कथमित्याह-गणना- गच्छन्ति । ये वा नियुक्ताः ते विविधाः। तद्यथा-छिन्नाश्चाऽजिमधिकृत्य एकैकः प्रमाणत ओघनिर्युक्त्यभिहितप्रमाणेन एवं | माः। जिन्ना नाम- ये भाचार्येण संदिष्टा यथाविंशतिः पात्राएया. चैते अनन्तरोदिता दोषा न भवन्ति । नेतव्यानि । अच्चिन्ना येषां न परिणामनिरोधः,तत्र ये तावनियुः (२५) नवपुरासपात्रग्रहणम् क्तास्तेषां विमानां विधिरुच्यते-तत्र छिन्नषु त्रिभिः प्रकारैतिजइ दोण्ह चेव गहणं, अइरेगपरिग्गहो न संभवति । रिक्तपतद्ग्रहसंभवः,तत्राऽऽऽपि प्रकारे त्रमा प्रकाराः। तद्यथाअह देइ तत्थ एग,हाणी उड्डाहमादीया ॥२३२॥ एकः साधुः चिन्नानां संदेशं श्रुत्वा तत्रैव समकमाचार्यस्य भूत. यदि द्वयोरेव पात्रकमात्रकयोर्ग्रहणं ततोऽतिरिक्तः पत कमाश्रमणाः! अनुजानीत युष्माकं योग्येषु परिपूर्णषु पनद्महेषु हो न संभवति, तदभावाञ्च कथमध्वनिर्गताऽऽदीनां पतहं। लब्धेषु यद्यन्येऽपि बनेरन् ततस्तान्यपि मम बोग्यानि गृह्णन्तु ददाति,देयस्याभावात्। अथाऽत्मीयं तमेकं पतहमध्वगाss एवं ब्राणःशुरूः। अत्रैवमाचार्य नानुकापयति,कि खेवमेव तान् दीनां प्रयच्छति,स्वयं तु केवलेन मात्रकेण सारयति । तत श्रा बजतो बूते, तर्दि तस्मिन्नेवं भणति प्रायश्चित्तं लधुको मासः, ते ह-अथ तयोः पात्रकमात्रकयोर्मध्ये एकं पतहं ददाति, तदा चेत् वजन्तः प्रतिशृगवन्ति ग्रहीयाम इति तदा तेषामपि प्राद्वितीयस्य हानिरिति,येनैव भिक्षामटति तेनैव विचारभूमा यश्चित्तं प्रत्येकं बघुको मासः, हिसायो व्रजतस्तान संजोगि. वपि गच्छतीति लोके जुगुप्साप्रसङ्गतःप्रवचनस्योडाहः,मा. कान् हवा वचीतिक यूयं संप्रस्थितास्तेरवाचि-पात्राणामानय. दिशब्दादाचार्याऽऽदयश्च तेन परित्यक्ता इति परिग्रहः । त नायाऽचार्येण प्रेषिताः। ततस्तान्स ब्रूते-यावन्ति युष्माकं सदि. स्मादफलं सूत्रमनवकाशादिति । प्राचार्यों ब्रवीति-सूत्रनि पानि तापत्सु परिपूर्णेषु यद्यन्यानि यूयं लभध्वं ततोऽस्माकं का. पातः खल्वयं कारणिकः। रणेन तान्यपि प्रतिगृहीत एवंभणति प्रायश्चित्तं लघुको मासः, किं तत्कारणमिति चेदत आह तेऽपि यदि प्रतिशृपयन्ति तदा तेषामपि प्रत्येक प्रायश्चित्तं अतिरेग दुविह कारण, अभिणवगहणे पुराणगहणे य । लघुको मासः। तृतीखो लजालुतया न शक्नोति स्वयमा चार्यान् विज्ञापयतुम् । अथवा कोऽपि शउत्वेन अन्येन नाणअभिखवगहणे दुविहे, वावारिऍ अप्पच्छंदे य ॥२३३॥ यति । यथा-कैते प्रेष्यन्ते, तान् यते-यूयमाचार्यान् भणत यु. द्विबिधेन प्रकारेण द्वाभ्यां कारणाच्यामतरेकस्यातिरिक्तस्य धमाकं परिपूर्णेषु लब्धेषु यद्यन्याग्यपि लभध्य तदा मम कारपतग्रहस्य संभवः। तद्यथा-अभिनवग्रहणेन पुराणग्रहणेन च। णेन प्रतिगृगहीत, एवं भणति तस्मिन् प्रायश्चित्तं लघुको तत्र यत्तदभिनवग्रहणं तत् द्विविधं द्विपकारम्। तद्यथा-व्यापा. मासः । सोऽपि यदि शठत्वेन जाणयति तस्य वदीच्छन्ति रिताश्च गृह्णन्ति, प्रात्मकन्दसा च | गाथायां सप्तमी तृतीयाथें, तर्हि तेषां प्रायश्चित्तं मासलघु, तस्मात् तेनेयम, यथा प्राकृतत्वात्। न प्रणामीति लजालोबचनेन पुनराचार्या भणन्ति तत्र तथ द्विविधमप्यभिनवग्रहण मेभिः कारणैर्भवति यदा तत्समकमाचार्यो भणितः, प्राचार्यण च समनुज्ञातं. भिन्न व भामिए वा, पडिणीए तेणसाणमादिहडे। तदा यबभ्यते अतिरिक्त लक्षणं युक्तमयुक्तं वा तत्तसेहोवसंपयासु य, अभिनवगहणं तु पायस्स ॥२३४।। स्यैव दातव्यम् । द्वितीयप्रकारमाह-(गुरुवयणेत्यादि) कोऽपि प्रमादतो भिन्नं वाऽग्रेतनं पात्रमग्निना वा भ्यामितं दग्धं पथि गच्चतो दृष्टा ब्रूते, यथा- ममापि योग्यानि भाजनानि प्रत्यनीकेन हृतमजिनं वा स्तेनैः श्वाऽऽदिभिर्वा हवमायादिश गृहीत, तत्र यदि प्रत्यासनस्तदा तद्वच प्रतिग्राह्यम् । किमु के जवति ?-श्रासनप्रदेशात्प्रतिनिवृत्य गुरुः पृच्छति यो-यथा देनात्र गालाऽऽदिपरिग्रहः शक्कका चा केचिदुपपन्नास्तेषु ना. जतानि दातम्यानि, पतैः कारणैरभिनरस्थ पात्रस्य ग्रहणं भवति। अम्का साधुरेवं प्रवीति- ममाप्यर्थाय जाजनानि प्रतिगृह्णीत । अश्वा-तमेव प्रेघान्त,त्वमेवाऽऽचार्य विज्ञपय,एवं कुर्वत्सु तेषु देसे सखुवहिम्मि य, अभिग्गही तत्थ होंति सच्छंदा । प्रायश्चित्तं लघुको मासः । अथ दूरे गतास्तान् सांभोगिकान् तेसिं सति निज्जोए, जा जोग्गा विह उवहिम्मि ।२३५॥ दृष्ट्वा ब्रूयरस्माकमपि योग्यानि भाजनानि गृहीत । ते युः-प्र. तत्र ते व्यापारितानां स्वच्छन्दलांच मध्ये स्वच्छन्दसो. तिगृहीष्यामः,परं तत्र प्रमाणं गुरुवचः। तथा चाऽऽह-तत्र दूरावन्ति अभिग्राहिण अभिग्राहिकास्ते चाभिग्रहिका द्विविधा गतानां प्रार्थने सात गृहीते च तद्योग्ये पात्रे गुरबः प्रमाणीकर्त. भवन्ति। नद्यथा-देशे सबस्मिंचोपवावुत्पाद्ये किमुक्तं नवतीति व्याः, तृतीयो विंशतरधिकं लकणयुक्तं पात्रं दृष्ट्वा स्वयं गृएक पयमनिग्रहं प्रतिपन्नाः,यथा उपधिटेशं, पासादिकं वय- हाति, एवं स्वयं ग्रहण व दुक्तसूत्रे तत्संभवति, अतिरिक्त पात्र मुत्पादयिष्यामः। अपरे चैषं प्रतिपन्ना: समुपधिमुत्पादयिष्या- सम्भवतीति गाथार्थः। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त (४१३) अभिधान राजेन्द्रः । साम्यतमेनामेव विवरीपुरा गिरह बीस पाते, तिमि पगाराउ तत्थ अतिरेगे। तत्थेव भगइ एगो मझवि गेराहे जहा अजो ॥ २३७॥ गृह्णीत विंशतिः पात्राणि इत्युक्ते तत्रातिरेके त्रयः प्रकारा भति, एकताssवार्यमनुज्ञाप्य ब्रूते ममापि योग्यान्यार्थ मा. अनानि गृह्णीत । आयरिऍ भणाहि तुमं, लज्जालुस्स न भांति आयरिए । नाऊण व सढभावं, नेच्छंतिहरा भवे लहुगो ।। २३८ ॥ अपरोऽयं ते स्वमाचार्थान् भण, यथा-मा अधिकान्यपि नजानि प्रसिद्धति रुप यो ल खाता आचार्यान्तस्य कारणे न भणन्ति बाऽऽचार्यान् यदि च शठभावं तस्य हावा 9 35 तथा शब पियति लघुको मासः । जर पुरा आयरिएहिं सयमेव पटिस्सुयं भवति तस्स । लक्खणमलक्खणजुयं, अतिरेगं जं तु तं तस्स ॥२३६॥ यदि पुनस्तस्य बि इता आचार्य स्वयमेव तस्य लज्जालोरतिरिक्तपात्रग्रहणं प्रतिभुतमङ्गीकृतं तदा बल्लभ्यते व्यतिरिक्तं पात्रं लक्षणयुक्तमलक्षणयुक्तं वा तत्तस्य दातव्यम् । गत एकः प्रकारः । द्वितीय प्रकारमाह चितिओ पंथे भगती, आसभागं तु विभवैति गुरुं । तं चैव पेसवंती, दूरगयाणं इमा मेरा || २४० ।। द्वितीयस्तान् पथि हड्डा भणति ममाऽपि योग्यानि भाजनानि प्रतिगृहीत । अथवा स गुरुं विपयन्ति । अथवा-तमेच साघुमन्यर्थमानं प्रेषयन्ति बजारमा विज्ञायत कुता मासपुरमा रिमा मर्यादा सामाचारी । तामेवाऽऽह गोदामो अतिरेर्ग, तत्य पुरा विषाणगा गुरु अम्ह देति तदेवं वा, साहारणमेव ठार्वेति || २४१|| दूरगतान् वांभोगका कम यं पात्रमा रातस्य यम्-अतिरिकं पाया तत्र पुनर्विज्ञायका अस्माकं गुरवस्तदेव वा अतिरिक्त पात्र दास्यामि, अन्यद्वा को जानाति, कदाचिदतिरिक्तं पात्रं सुन्दर मिति कृत्वा स्वयं प्रतिगृएदन्ति, यस्य वा छष्टं तस्मै ददति एवं साधारण स्थापयन्ति । उक्तो द्वितीयः प्रकारः । तृतीयमाह तभी लक्खराजु, अदियं बसाएँ ते सर्व गेहे । तिमि विगप्पा, होततिरेगस्स नायन्त्रा || २४२ ॥ तृतीयः प्रकारः पुनरवर ते प्रेषिनासा विधिक पात्रं स्वयमेव गृह्णन्ति । पते त्रयो विकल्या अतिरिक्तस्य पा श्रस्य संभवाय ज्ञातव्याः । तदेवं व्यापारितानां विन्नानि गतानि । तुमाहसच्छंद पडिमा गहिते गये व तारिसं भणियं । अलधिरवधारणिर्म, सो वा अभोव से धरए ॥ २४३ ॥ १०४ पत्त स्वच्छन्दा नाम श्रभिमाहिकास्ते श्रव्यापारिता पवाऽऽचार्यागते पदि दियाः संदिशस्ततस्तेषामपि सेवा माचारी या प्राकू व्यापारितानां विनानामुक्ता । (परिभवण त्ति ) प्रतिज्ञापना नाम विधिना पात्राऽऽदीनां मार्गणा कर्त्तव्ये. पदेशम् उमाद्धानि पापानि प्रतिह्मा त्युपदेशदानमिति भावः । तदा गृहीते ग्रहणे च यादृशं कल्पाध्ययनपीठिकायां भणितं तादृशं कर्त्तव्यं तत्र यावन्ति संदिन्यायासात दिन केनचित् मणिपूर्व यथा ममापि योग्यं पात्रं प्रायमिति तदा श्रलं समर्थ स्थिरं दृढं चिरकालावस्थाषि पात्रं धारणीयमितिभ्यामनुय चिन्तयन्ति प्रायोग्यमेतत्प्रात्रं तस्मात् गृह्णीमो, गृहीते स एव ग्रा. द कश्चिन्तयति श्रहमाचार्यानुज्ञातं धारयिष्यामि, यदि बास बाऽऽचार्यो धारयिष्यति, भन्यो वा साधुर्धारयिष्यति, एवमतिरिकपतङ्ग्रहसम्भवः । सम्प्रतिग्रहणे च यद्भणितं कपपीठिकाय सब विनेयजमानुषहाय दर्शयतिमोमादी, गहणे उ विहिं नहि पजेति । गहिए व पगासमुद्दे, करेति पडिलेह दो काले ॥ २४४॥ अथ मन्थनमधोमुखं कृत्वा प्राणाऽऽदीन् खोटनेन भूमौ यतनया पातयन्ति । श्रमुं विधिं तत्र ग्रहणे प्रयुञ्जन्ति । गृहीते च तानि पाणि प्रकाशमुखानि करोनि तथा द्वौ काल प्रातपराप्रत्युप 1 - संप्रति तेषु पात्रेषु विधिमाह-पाणी उ गुरुणा दोनुं गहिए गया जहवुडुं । गेहंति उन्हे खलु ओमादी मत सेसेनं || २४५|| आनीतेषु तु भजनेषु प्राचार्येण प्रधानं सुलक्षणं पात्र मात्रकं व परितोषण भाजनानि या तां दातव्यति तावन्तो भागाः क्रियन्ते ततो ये गतास्ते यथावृ यधारणाधिकतया पतद्द्महान् गृह्णन्ति तदनन्तरं ये गतानामेवा मरक्षाधिकास्ते यथारनाधिकृतया मात्रकाणि गृहन्ति, तदनन्त रं यैः सदा न गृहीतास्ते अवमरत्नाधिकाः, शेषाश्च साधवो यधारत्नाधिकतया पतद्द्महान् मात्र काणि च गृह्णन्ति । तदेवं व्यापारितानां स्वच्छन्दसां च विशानि ! साम्प्रतमेषामेव यानामनानि विभणिषुरिदमाहएमेव अवि, गहिए गहने व मोतु व्यतिरेगं । एतो पुराणगहणं, वोच्खामि इमेहि उपदेहि || २४६ ॥ पवमेव प्रकारेणानिषु अपि हीसुद्धीतेच महमेव विधिरनुधरपीयो मुबा अतिरेक नयति अतिरि कः पतद्ग्रह एव न सम्भवति परिमाणकारणादिति तत्सम्भ बविधिर्न वक्तव्यः । सम्प्रति पुराणग्रहण मेभिर्वक्ष्यमाणैः पदैवेदयामि | तान्येव पदान्याह आगमगमकालगते, दुल्लभ तहि कारणेहि एएहिं । दुविहा एगमणेगा, अग गिट्ठिनिधिट्ठा || २४७ ॥ महारं गमद्वारे कर गच्छे पुराणग्रहणसम्भवः । तत्र ये पात्राणि ददति ते द्विविधाः एको वा अनेकेवाः येषामपि ददाति तेऽपि द्विविधाः एको Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१४) अन्निधानराजेन्द्रः। पत पत्त वा, अनेके वा, दानं च निर्देशपूर्वकं, यथा अमुकस्य दास्या. प्रथमो जङ्गः। एकोऽनेकान्निदिशतीति द्वितीयः । अनेक पकमिमि, तत्र यदा एकस्यापि ददाति तदा तनिर्दिशति-अमुक- ति तृतीयः अनेके अनकानिति चतुर्थः। ते पुनर्निर्देश्याः। के. स्य दास्यामि । वे वनेके ऽनिर्दिष्टा वा, अपरिमितसंख्याकतया त्याद-गणी, वृषभो, निक, कुल्लकवा गण) द्विविध आचार्य निर्देशाकरणात् । एष द्वारगाथासकेपार्थः। उपाध्यायश्च। एवमेते पाच जवन्ति या अपि खियो निर्दिशति साम्प्रतमेनामेव व्याचिश्यासुः प्रथमत प्रागमद्वारमाह- ता अपि पश्च। तद्यथा-प्रतिनी,अजिसेव्या,निनुका,स्थाबरा, भायणदेसा एंतो, पाए घेत्तृण एति दाहं ति । कुलिका च। दाऊणवरोगच्छइ, भायणदेसं तहिं घेत्तु ।। २४८ ॥ __ तथा चाऽऽहभाजनदेशा न यस्मिन् देशे भाजनानि सनवम्ति तस्मात् एमेव इत्यिवग्गे, पंच गमा अहव निद्दिसति मीसे । देशादानन्दपुराऽऽदावागच्छन् श्रागन्तुकामः पूर्वकृतानि गृही. दाउं बच्चति पेसे, ति वावि नीते पुण विसेसो ॥२५॥ स्वा समागच्छति, साधुभ्यो दास्यामीति बुरूपा । गतमागम- एवमेव अनेनैव संघातगतेन प्रकारेण स्त्रीवर्गे निर्देिश्यभाने प. द्वारम् । अधुना गमद्वारमाह-अपरः साधुरानन्दपुराऽऽदिकात् | श्व गमा प्रवन्ति । अथवा-यानेकान् निर्दिशति तत्र मिश्रान् देशान् नाजनदेशं गन्तुकामस्तवान्यान्यपि पात्राणि ग्रहीष्या. निर्दिशति-संयत्तानपि निर्दिशति, संयतीरपि। तदेतदागमद्वारे मि, सुमनत्वादिति पुराणानि पात्राणि दावा गच्छति । गतं ग. ऽभिहितम्। संप्रति गमद्वारे वक्तव्यं, तथापि तव नवरं दया मद्वारम्। व्रजति,प्रेषयति च,अग्रे गतः, नीते पुनर्विशेषः । स चाऽयम्-ना. इदानी कासद्वारमाह तानि भागनानि समाने निर्दिशति, असमाने वा। संथतस्य ल. मानों वर्गः संपतकोऽलमानः संयतीवर्गः । अत्र च पत पव कालगयम्मि सहाए, भग्गे वंऽमस्स होइ अतिरेगं । चत्वारो जनाः। तद्यथा-संयतः संयतं निर्दिशति,सयताः संयपत्तो लंबतिरेगे, दुल्लभपाए विमे पंच ।। २४६ ॥ तमामयतः संयतान्.सयताः संयताम् । एवं समाने निदेशे च. कस्यापि साधा सहायः कालगतः, प्रतिभग्नो चा, ततस्त- स्वारो भलाः। एवमसमावनिर्देशेऽपिण्या : तद्यथा-संयतः सं. स्य पात्रमतिरिक्तं लम्बते, इत्यन्यस्य द्वितीयस्य साधारति. यती निर्दिशतिर,संयतः संयती: २,संयताः संयतीम् ३.संयताः रिक्तं पुराणं पात्र च भवति । गतं कालगतद्वारमाअधुना दुसंभ- संयती:४ एवं कासगते प्रतिजग्ने वा सहाये दुसंनद्वारे च ऋष्टव्यम्। द्वारमाह-र्सनानि पात्राणि यस्मिन् देशे म दुर्लभपात्रस्त. सच्छंदमणिदिवे, दालण निद्दिट्ठमंतरा देंति । स्मिञपि मानि वक्ष्यमाणानि पञ्च नाजनानि धारयेत् । दे. शे पात्राणि दुर्थाभानि, तत्रेमान्यतिरिक्तानि भियन्ते । त चतुलहु आदेसो वा, लहुगा य इमसि अदाणे ॥२५२॥ यथा--नन्दीपतग्रदो १, विपतग्रहः २, कमठकम् ३ । तत्र यदि न निर्दिष्टममुकम्यामुकानां वा दातव्यमिति तदा विमात्रक ४, प्रश्रवणमात्रक ५ च । तरकार्यप्ररूपणा चैत्र स्वच्छन्दो यौ रोचते तस्मै ददाति, यदि पुननिर्दियः ततो या. कार्या-नन्दीपत होऽतिशयितः महान् तद्महस्ते चान्च. निर्दिशति एकामकान्मिश्रवासेषां दातय्यम । पतनिर्दिष्ट प्रा. मि अधमौदर्ये परचक्रावरोधे च प्रयोजनम् । तथा च कश्चित् यणम् । अथ यस्य निर्दिष्टः सोऽन्यत्र अन्तरा नपान्तराले अन्य. ब्रूयात-दिने दिने युष्माकमहमेकं पात्रं जरिष्यामि, ततस्तत्र स्य ददाति तदा तसिन् अन्यस्मै ददति प्रायश्चित्तं चनदीपात्रं धार्यते, पतेन कारणेन गच्छपग्रहानमित्तं धार्यते। स्वारो लघुकाः, आदेशो वा अत्र विद्यते, मतान्तरमप्यस्ती. विपनग्रहः पतग्रहात्किञ्चिदूनः । स एतदर्थ धार्यते, कदा तिनायः। तदिदं माञ्चिन्मतेनान्यस्य दागे अगवस्थाप्य ते निपतग्रहो भिद्यते, अन्यच्च भाजनं तस्मिन् देशे नं, तत प्रायश्चितमिति । अमीषां वक्ष्यमाणानामवाने चत्वारो लघवः। पतेन कार्य भविष्यति। कमठकः सागारिकरवणाय ध्रियतेच, केषामित्यादतथा कदाचिदे काकी जायते, तत्र च नक्तं पतग्रहे गृहीतं, पा. अद्धाण बालवुड्डे, गेलने जुंगिए सरीरेणं । नीय मात्रके, यत्र चनोजनकरणार्थमवतीणस्तत्र सागारिकाम्त- पायंऽच्छिनासकरक-संजताणं पि एमेव ॥२५३॥ तो यत्रैव नुक्ते तत्र वसतिमहती। तैरतिजुगुप्सा कियेत, त. अध्वनि वर्तमानानामध्वनिर्गतानामित्यर्थः उपलक्षणमेतत्तस्तवणाय कमठ के भोजन करोति । तथा बिमात्र मात्र- तेन चावमौदर्यनिर्गतानामशिवनिर्गतानामन्तरा विस्मरणतः कान् मनाक् समधिक ऊनतरो वा, तत्र मात्रकः कदाचित् पतितोपधीनां,तथा बालस्य शरीरेण जुङ्गितस्य हीनस्य,केनाभिद्यताऽन्यत्र देशे भोजन दुर्भ, तत एतेन प्रयोजनं भविष्यती लेन हीनस्येत्यत आह-पादेन,ईक्षणेन,नासया,करेण, कर्णेन वा, तिमध्रियते । प्रश्रवणमात्रकोऽपि सागारिकभयेन यतनाकर. णाय ग्लानस्थाऽऽचार्याणां वाऽर्थे ध्रियते। एषा कार्यप्ररूपणा । एवमेव संयतीनामप्यदानेप्रायश्चित्तम् एष द्वारगाथासंक्षेपार्थ। संप्रति तामेव विवरीषुराहसंप्रति "दुविहा एगप्रणेगा" इत्यादिव्याख्यानार्थमाह अद्धाण ओम असिवे, उडूढाणं वि न देंति जं पाए । एगो निदिस एगं,एगे मेगा अणेग एगं वा । बालस्सऽज्झुववातो, थेरस्सऽसतीए जं कुब्जा ॥२५॥ णेगाऽणेगे ते पुण, गणि वसभे भिक्खु खड्डे य॥२५०॥ अध्वनिर्गतानामवमौदर्यनिर्गतानामशिवनिर्गतानामरूढा-- ये पात्राणि प्रयच्छन्ति ते द्विविधाः। तद्यथा-एको वा स्याद. नामन्तरा विस्मरणतः पतितस्तेनापहृतोपधीनां यदि नदनेके बा,येभ्योऽपि ददति पात्राणि ते ऽपिद्विविधाः-एको वास्या- दाति तदा प्रायश्चित्तं चत्वारो लयवः । यच भाजनैदनेके वा, तत्रैको नियमतोऽनेके विकहिपता निर्देशा भवन्ति । विनामप्राप्स्यन्ति तनिमित्तमपि तस्य प्रायश्चित्तम् । अन्न चतुभलिका-एको दाना एक संप्रदानं निर्दिशति । प्रा. तथा बालस्य उत्कृष्टमात्रकं दृष्ट्वा तद्विषये अध्युपपात उचार्यस्यामुकत्य वृषभस्य भिकोः क्षुल्लकस्य वा दास्यामि । एष । त्कृष्टोऽभिलाषो भवति, ततः मात्रकं याचते स यत् याचते Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त अभिधानाजेन्डः । पत्त तत् तस्य दातव्यम्, पादाने चत्वारो लघुकाः । यतस्तस्मिन्न- (२६) सम्प्रति निर्दिष्टख दाने विधिमाहदीयमाने रोदिति, शाल्ला च महती परितापनोपजायते, अह एते उन हुज्जा, ताहे निद्दिट्ठ पायमूलं तु। ततः शून्यसिको भवति, भूतेन चानस्य ते वृद्धस्याप्यदाने हत्यारो लघवः। स हि भाजनानि याचिहुं न शको गंतूण इच्छकारं, काउं तो तं निवेदेति ॥२५६।। ति, ततोऽदाने यत् अकृत्या प्राप्नोति तनिष्पन्नमपि तस्य अथ एते अध्वनिर्गताऽऽदयः प्रायुक्ता न स्युस्ततो यस्य प्रायश्चित्समापद्यते । गतं बालद्वारं, वृद्धद्वारं च । निर्दिष्टं तस्य पादमूलं गत्वा इदं पात्रं मया युष्मन्निमि. संप्रति ग्लानद्वारमाह समानीतमिच्छाकारेण गृहीत, एवमिच्छाकारं कृत्वा अतरंतस्स अदेंते, तापडियरगस्स गवि जा हाणी ! निवेदयति समर्पयति। जुंगिते। पुजनिसिखो, जातिविदेसेतरो पच्छा।।२३।। अदिवे पुग्ण तहियं, पास अहवा वि तस्य अप्पाहे । अतरतो ग्लान्प्रतिचारकस्य च यदि न ददाति,तामापश्चि- अह उन नजई ताहे,ओसरणे संतिसु विमग्गे ॥२६॥ संत एएचदारोलघवः। तथा माजनमृरो प्ररिचारकंकाविना अथ स न दृष्टो यस्य निर्दिष्टं ततोऽन्यस्य हस्ते कृत्वा ग्लानस्य हानिस्ततिमिरमपि प्रायश्चित्तम् ।गतं ग्हानद्वारम्। तत्र प्रेषयति, आथवा साधुं श्रावकं वा तत्र वजन्तं संदेजुङ्गितद्वारमाह-जुङ्गितो द्विविधो-जात्या,शरीरेण या जात्या शयति, यथा-तय योग्यं पात्रं मयाऽऽनीतम्. इच्छाकारणाऽऽ. असांभोगिक इतरश्किपादोगतादक्षम इत्यादि । एष द्विवि- गत्य गृहीत, प्रेषयत वा कमपि यो नयतीति। श्रथ पुनःस न धोऽपि पूर्वमेव प्रतिषिद्धो यथा प्रमाजपिहुंच कल्पते, केवलं ज्ञायते क्वापि तिष्ठतीति ततस्तेषु क्षुल्लकेषु समवसरणेषु यो जातिजुड़ितः स विदेश कथगप्पशाततया ब्राजितः, मृगयेस! इयमत्र भावना-अज्ञायमाने समवसरणं साधुमेइतरः शरीरेण जुङ्गितः प्रवाजितः सन् पश्चात् स्यात् । लापकरूपं गत्वा पृच्छति, यथा अमुकः कुत्र विद्यते, तत्र जातीऍ जुंगितो पुण, जत्य न नाइ तहिं तु से अत्थे।। यदि स्वरूपतो न दृष्टो नापि वार्तयोपलब्धस्तथा द्वितीये अमुगनिमिर विगलो, इयरो जहि नइ तहिं तु ॥२५६।। समवसरणे पृच्छयते,तत्राप्यदृष्टे अनुपलब्धे वा तृतीये पृछय. यो जात्या जङ्गितो विदेशे कथमप्यदायते तस तिष्ठति, | ते। एवं त्रिषु तुलकेषु समवसरणेषु मध्ये यत्रैकतरस्मिन् इतरः प्रवाजनानन्तरं पावत् शरीरेण जडितो परमातुक दृष्टस्तत्र तथैव समर्पयति । अथ न दृष्टः केवलमुपलब्धवानिमित्तमेष विकलो जात इति इायते तक सिति, म्यत्र सया यथा अमुकस्थाने स तिष्ठतीति स तत्र स्वयं वा नतिष्ठतो लोकानामात्ययो भवति. केचिदेवं मन्यन्ते-पारदा यति, अन्यस्य वा हस्ते प्रेषयति । रिकाऽऽदिभिरपराधैः प्राजितो जुङ्गित इति । अथ त्रिष्वपि समवसरणेषु न दृष्टो जे हिंडंता काय-यहं ति जे विय कारंति उड्डा ! नाप्युपलब्धस्तदाऽऽहकिंतु हु गिहिसामन्ने, विजुंगितो लोकसंका उ ॥२५७॥ एने वि महंतम्मि उ, उग्घोसेऊण नाउ तेहि तहिं । जे जुङ्गिता हिण्डमानाः पादाऽऽदिविकलतया कायान् पृथि अह नत्थि पवत्ती से, ताहे इच्छा विवेगो वा ॥२६॥ वीकायप्रभृतीन प्रन्ति येऽपि च दृश्यमानाश्छिन्ननासिका. महति समवसरणे पुनरेकस्मिन्नधि कुत्रामुक इत्युद्धोपदयः प्रवचनस्योडाहं कुर्वन्ति,यांश्च दृष्टा लोकस्य शङ्कोपजाय- णां कृत्वा यदि स्वयं दृष्टस्तत इच्छाकारपुरस्सर तथैव ते यथा किं-तुहुनिश्चितम्। गृहिसामान्ये च गता श्रमी इति समर्पयति, अथ वार्तयोपलब्धस्तर्हि तत्र स्वयं नयति अतेषां भाजनानि दातव्यानि, अदाने चत्वारो लघवः । तथा न्यस्य वा प्रेषयति, संदेशयति । अथ तत्राऽपि भयो नाहिण्डमाना यत् कायान् प्रन्ति, रच प्रवचनस्योडाहकरणं प्युपलब्धस्ततो द्वितीयं वारं महत् समवसरणं न गच्छति, तनिष्पन्नमपि तस्य प्रायश्चित्तम् । किंतु इच्छया खयं तत्पात्रं धारयति, सन्यस्मै वा ददाति। तथा (विधेगो वेति) परिष्ठापयति वा । अथ येणं ददतामेकस्थाने पायऽच्छिनासकरक-न गिते जातिगँगिते चेव । केषां वा सकाशात् ग्रहीतव्यं ते किं सांभोगिका उताऽसांवोच्चासे चउलहुगा, सरिसे पुव्वं तु समणीणं ।।२५८।। भोगिकाः एवं प्रश्ने । रुते प्रथमत एकानेकप्ररूपणामाहशरीरे जुड़िताः पञ्च । तद्यथा-छिन्नपादः, अक्षिकाणो वा, एगे व पुन्वभणिए, कारण निक्कारणे दुविहभेदो। छिन्ननासः, छिन्नकरः, छिन्नकर्णः, षष्ठी जातिजुङ्गितः । तत्र आहिंडग ओहाणे, दुविहा ते होंति एकेका ॥ २६॥ यदि षडपि जुङ्गिताः, भाजनानि च दारापानि विद्यन्ते, एक एकाकी द्विविधभेदः पूर्वमोधनियुक्तौ भणितः । तद्यतदा सर्वेषामपि दातव्यानि । अथ सर्वेषामपि भाजनान न | था-कारणे निष्कारणे च । पुनः साधवो द्विविधाः-अहिपूर्यन्ते तर्हि यावतां पूर्यन्ते तावतामुपन्यस्तक्रमेण दातव्या राडका अवधावने च । ते एकै द्विविधा भवन्ति वक्ष्यमाणनि । विपर्यासे उक्लकमव्यत्यासेन दाने प्रायश्चितं चत्वारो भेदेनेति गाथासमासार्थः। लघवः। अथ संयता संयत्यश्च जुङ्गिताः सन्ति तत्र भाजनस साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतः कारणैकप्रतिपादनाम्भवे सर्वेषामवशेषण दातव्यम् । अथ तावन्ति भाजनानि न थैमाहपूर्यन्ते,ततः संयतीसमुदाये छिन्नपादाऽऽदिक्रमेण दातव्यम् । अथ संयतोऽपि छिन्नपादः, संयत्ययि छिन्नपादा, एवं सर्वत्र असिवादीकारणिया, निक्कारणिया य चक्कथूभाऽऽदी । विभाषा कर्त्तव्या। तत्राऽऽह-सदृशे जुड़ितत्वे पूर्व श्रमणानां उवएस अणुवएसा, दुविहा आहिंडगा हुंति ॥२६३।। दातव्यम् पश्चात्सति सम्भवे संयतानाम्, अन्यथा विपर्यासे अशिवाऽऽदिभिरादिशब्दादवमादर्यराजद्वेषाऽऽदिपरिग्रहः।का त एव चत्वारो लघवः। रणैरेकाकिनः कारणिकाः,चक्रस्तूपाऽऽदी आदिशब्दात्प्रतिमा Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त अभिधानराजेन्डः। पत्त निष्क्रमणाऽऽदिपरिग्रहः । तेषां वन्दनाय गच्छन्त एकाकिनः प्रतिनिवर्तते,सच यदि तस्मिन्नेव दिवसे गच्छं प्रत्यागतस्तईि निष्कारणिका ये माहिएडकास्ते द्विविधा भवन्ति । तद्यथा- रुषितस्तदा तदेव तदुपकरणस्य विवेचनं प्रायश्चित्तदानमनु उपदेशतोऽनुपदेशतश्च । तत्रोपदेशेन ये ते द्वादश संवत्सरा- शिष्ट्यादीनि च क्रियन्ते,आदिशब्दादुपवृंहणाऽऽदिपरिग्रहः । णि सूत्रं गृहीत्वा द्वादश संवत्सराणि तस्यैव सूत्रस्यार्थ संप्रति स्थानत्रयेण संवेगभावनामाहगृहीत्वा य आचार्यकं कर्तुकामः स द्वादश संवत्सराणि दे. अजेव पाडि पुच्छ, को दाहिइ संकियस्स मे उभए । शदर्शनं करोति,तस्य बजतो जघन्योन संघाटको दातव्य उ. दसणकं उबवूहे, कं थिर करे कस्स वच्छल्लं ॥२६६।। स्कर्षणानियताः साधवो, य अनुपदेशेन देशदर्शनं कुर्वन्ति,ते बैत्यानि वन्दिण्यामहे इत्यविधि कृत्वा व्रजन्ति । साहिति सीयत, चरणे सोहिं च काहिती का मे। ओहावेता दुविहा, लिंगे विहार य होंति नायव्वा । एव नियत्तणुलोम, गाउं उवहिं च तं देंति ॥२७०॥ अद्यैव उभयस्मिन् सूत्रे अर्थे च शङ्कितस्य कः प्रतिपृच्छां एगागी छप्पेते, विहार तहि दोसु समणुना ॥३६४ ॥ दास्यति, पषा शाने चिन्ता।दर्शकमहमिदानीमुपवृहिस्यामि, अवधाबिनो द्विविधाः-लिङ्गेन,विहारेण च । लिङ्गेनोत्प्रवाजि. कं वा स्थिरं करिष्यामि,कस्य वा वात्सल्यमधुना करिष्यामि, तुकामा विहारेण पार्श्वस्थविहारेण विहर्तुकामा भवन्ति शात- चारित्रे चिन्ता, सा चरणे सीदन्तमिदानी कः सारयिष्यति, ग्याः । षडप्येते कारणिकाः१.निष्कारणिकाः२, उपदेशिकाः को वा मे प्रायश्चित्सस्थानमापन्नस्य शोधि करिष्यति । ३, अनुपदेशकाः ४.लिनेनावधाविनः ५,विहारेणावधाविनश्च एवं चिन्तयन्संवेगमापन्नः सम्प्रति निवर्तते, तस्य प्रतिनिवृ६। प्रायेणैते एकाकिनो विहरन्ति, गच्छन्ति वा, उपदेशिका त्तस्य गरुळ प्रत्यागतस्यानुलोमता कर्त्तव्या धन्योऽसि त्वं पद्यपि नियमतः ससहायास्तथापि येन गच्छानिर्गतास्तेन यंनाऽऽत्मा प्रत्यभिज्ञातः, एवमनुलोमतां कृत्वा तस्य तमेएकाकिनो भण्यन्ते । इतरेऽपि पञ्च यद्यपि वृन्देन हिए डन्ते । वोपाधं प्रयच्छन्ति । तथापि गच्छानिर्गता एकाकिनःप्रोच्यन्ते।तत उक्तं षडप्येते ___ संप्रत्यविधाविनमधिकृत्य प्रतिपिपादयिषुराहविहारिणः एकाकिनः (तहि त्ति) तेषु षट्सु मध्ये द्वयोः दुविहा इहावि वसभा, सारेति भयाणि वा सि साहेति । समनुज्ञातयोः सांभोगिकाः। तद्यथा-अशिवाऽऽदिकारणिका उपदेशा हिण्डकाच,तैरानीतानि भाजनानि ग्रहीतव्यानि, शे अट्ठारस ठाणाई, हयरस्सिगयंकुसनिभाई ॥ २७१ ॥ पैरानीतानां भजना, कारणे गृह्यन्ते निष्कारणेनेति । द्विविधमप्यवधाविनमाचार्यमापृच्छय वजन्तं वृषभाः सा रयन्ति, शिक्षयन्ति, भयानि वा (से) तस्य साधयन्ति कथनिक्कारिणिए तुवदे-सिए य आपुच्छिऊण बच्चंते। यन्ति, रतिवाक्यचूलिकाभिहितानि अष्टादशस्थानरूपाणि अणुसासंति उ ताहे, वसहा उ तहिं इमेहिं तु ॥२६॥ हयरस्मिगजाङ्कशनिभानि । एतया अनुशिष्टया अनुशासितो निष्कारणिका अनौपदेशिकश्च यद्याचार्यमापृच्छय ब्रजति | यदि तिष्ठति ततः सुन्दरम् , अथ न तिष्ठति तर्हि यत् ख. तदा तत्र बजते एभिर्वक्ष्यमाणैर्वचनैर्वृषभा अनुशासति । गूढेनोपहतमावारभाण्डं, यद्वा असाम्भोगिकेभ्यः समागतकैर्वचनैरित्याह स्योपसंपन्नस्य संबन्धि तस्य दीयते, अग्रेतनं तु साम्भोगिएसेव चेइयाणं, भत्तिगतो जो तवम्मि उज्जमती । कमुपकरणं निवर्त्यते। इइ अणसटे चिट्ठइ, असंभोगायारभंडं तु ॥ २६६ ॥ संविग्गमसंविग्गे, सारूवियसिद्धपुत्तमणुसटे। एष एव चैत्यानां भक्तिगतो भक्तिमुपनतो यस्तपसि द्वा आगमणं आणयणं, तं वा घेत्तुं न इच्छंति ॥ २७२ ॥ दशप्रकारो यथाशक्ति उद्यच्छति, एवमनुशिष्यमाणे यदि ति- संविनाः साम्भोगिका असाम्भोगिका वा, उद्यतविहारिणः ष्ठति ततः सुन्दरम् , अथ न तिष्ठति यत्तस्य साम्भोगिकमुप. असंविनाः पार्श्वस्थाबसन्नकुशीलसंसक्तयथाच्छन्दाः, सारूकरणं तन्निवय॑ते. इतरदसाम्भोगिकमाचारभारडं समर्प्यते। पिकसिद्धपुत्रो नाम-मुण्डितशिरस्को रजोहरणरहितोऽलाअथ कथमसाम्भोगिकमाचारभाएडमुपजातमत श्राह वुपात्रेण भिक्षामटन् सभार्योऽभार्यो वा एतैरनुशिष्टस्य य दि अागमनं तत उपहतोपकरणस्य अनुपहतोपकरणस्य खग्गूढेणोवहयं, अमणुन्ने सागयस्स वा जे तु । वा प्रायश्चित्तदानम् । ते वा सावग्नाऽऽदयो गृहीत्वा तस्याअसंभोगियउवगरणं, इहरा गच्छे तगं नत्थि ॥२६७॥ ऽऽनयनं कुर्वन्ति. अथ स प्रानयनं नेच्छति तदा वक्ष्यमाणो यत उपकरणं खगूढेनोपहतं, यदि वा यत अमनोज्ञेभ्योऽ- विधिः । एष गाथासंक्षेपार्थः। साम्भोगिकेभ्य आगतस्योपसंपन्नस्य संबन्धि तत श्रासा साम्प्रतमेनामेव व्याचिख्यासुराहम्भोगिकमुपकरणमाचारभाएडमितरथा प्रकारद्वयव्यतिरिक्त- संविग्गाण सगासे वुत्थो तेहिं अणुसासियनियत्तो। नान्येन प्रकारेण तकत् असाम्भोगिकमुपकरणं गच्छे ना- लहुओ न चेव हम्मति, इयरे लहुगा उवहतो य।।२७३॥ स्ति न सम्भवति । यदि संविग्नानां समीपे उषितः तैश्चानुशिष्टः प्रतिनिवृत्तो तिहाणे संवेगो, सावेक्खो नियत्तते दिवससुद्धो। वसतिं समागतः तदा तस्य प्रायश्चित्तं लघुको मासः । मा सो रुटु विवेचण, तं चेवऽणुसहिमादाीण ॥२६८॥ न च तस्योपधिरुपहन्यते, यं चान्तरा लभते,गृह्णाति चोपधि तस्य गच्छानिर्गतस्य कदाचित् त्रिभिः स्थानैः संवेगः स्यात्. सोऽपि नोपहन्यते, संविग्नानां समीप उषितः संविग्नैः सहागाथायां सप्तमी प्राकृतत्वात्,एकवचनं समाहारत्वात्। तद्यथा गमनाच्च, इतरे नाम असंविग्नाः पावस्थाऽऽदयः सारूपिकमानेन, दर्शनेन, चारित्रेण च । ततः संवेगसमापन्नः सापेक्षः सिद्धपुत्राश्च, तेषां समीपे याषितास्तैश्चानुशिष्टः प्रतिनिवृ Jain Education Interational Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त तस्तस्याऽऽगतस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघवः । उपकरणं च तस्योपम्यते यदा इन्दस्य सकारी उपितस्य वतुर्गुरुकम् । ( ४१७) अभिधानराजेन्द्रः | साम्प्रतमागमनद्वारमाह संविम्माऽदगुसिद्धो, तदिवस नियचो जह वि न मिलेग्जा । नय सज्जइ वइयादिसु, चिरेण वि हु तो न उवहम्मे | २७४ | संविग्नैः,आदिशब्दादसंविग्नैश्चानुशिष्टो यदि तत्र नोषितः, किं तु तस्मिन्नेव दिने न मिलति न च वजिकाऽऽदिषु सजति, ततश्विरेणाप्यागच्छतो (हु) निश्चितं तस्योपकरणं नोपहन्यते श्रानीयमानस्य तृपदम्यते । 9 एतदेवाssह गागियस्स सुविणे, मासो उवहम्मते य से उवही । तेण परं चउलहुगो, आवज्जइ जं च तं सव्वं ॥ २७५॥ बलादानीयमान एकाकी समागच्छन् यदि रात्री स्वपिति, तदा तस्यैकाकिनः स्वप्ने प्रायश्चित्तं लघुको मासः, उपधिश्व तस्योपहन्यते । अथ तस्माद्दिवसात्परमपि लगति, तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः। श्रथ व्रजिकाऽऽदिष्वपा· न्तराले सजति, यच्च तत्र प्राप्नोति, तनिष्पन्नं सर्वे तस्य प्रायश्विमापद्यते । सम्प्रति “ ते वा घेतुं नेच्छतीति" द्वारव्याख्यानार्थमाहसंविग्गेरणुसिट्ठो, भणेज जइ अहं इहेब अत्थामि । भष्यति ते पुच्छ, अणिच्छ तेर्सि निवेयति ॥२७६॥ सो पुण पडिच्छतो वा, सीसे वा तस्स निग्गतो हुआ । सीसं समगुन्नायं, गेहंतियरम्मि भयणा उ ॥ २७७॥ संविग्नैरनुशिष्टो यदि ब्रूते - श्रहमिहैव युष्माकं समीपे तिहामि, तदा स प्रष्टव्यो येषां समपात् त्वमागतस्तस्यशिष्यो या त्वं भवसि प्रातीद्धिको या? तब यदि शिवस्तर्हि भवते तान् ग्रात्मवान् श्राचार्यानापृच्हस्व, मुक्क सापय । अथ स आपृच्छति, तर्हि तेषां निवेदय न्ति । यथा- पोष्माकी स्वास्माकं पार्श्वे समागतो वर्ततेस बहुधाऽनुशिष्टः परं प्रतिनियतुं नेच्छति किं तु ते युष्माकं पार्श्व स्वास्यामि एवं निवेदने कृते यदि ते समनुजानन्ति ततः प्रतीच्छन्ति अथ नानुजानन्ति ततो न प्र तीच्छन्ति । इतरो नाम-प्रतीच्छिकस्तस्मिन् भजना । तामेव प्रतिपादयति , उम उदि समाधियम्मि पेति । वायंति समानार्थ, कडे परिच्छेति उ परिच्छं ।। २७८ ॥ तस्य प्रातीच्छुकस्य प्रथमतः प्रश्नेन परिभाव्यते किमेतस्य श्रुतस्कन्धrssदिकमुद्दिष्टमस्ति, किंवा नेति । तत्र यशुद्दिष्टं या परिसमापितं तदा न प्रतीच्छन्ति किं तु ते यामेव समीपे प्रेषयन्ति तत्र यदि समनुजानन्ति धूपनेवैनं वाचयत तदा तैः समनुज्ञातं वाचयन्ति श्रन्यथा न प्रतीहन्ति । अधोदिष्टं धृतस्कन्धादि परं कृतं समाप्ति नीतं, तदा कृते तस्कम्यादी प्रतीकं प्रतीच्छति । श्रय न किमप्युद्दिष्टमस्ति तदाऽऽपि तमागतं प्रतीच्छन्ति । एष विहारेणाधावी भणितः । १०५ पन्त संप्रति लिङ्गावधाविनमाहएवं ताव विहारे, लिंगोहावी वि होइ एमेव । सो किमु संक्रमसंकी, संकि बिहारे य एगगमो ॥ २७६ ॥ एवमुक्रेन प्रकारे बिहारे विहाराधावी उक्लो, लिङ्गावचा. यी अन्योऽप्येवमेव भवति स पुनर्लिङ्गाधावी द्विधा-शङ्की श्रशङ्की च । शङ्की नाम-यस्यैवं संकल्पः यदि मम स्वजना जीविष्यन्ति, यदि वा तत्साधारणधनमविनष्टं स्यात्, यदि च मां ते वदिष्यन्ति, उन्निष्क्रामेति तदा उन्निष्क्रमामि । यदि पुनस्ते खजना मृता भवेयुस्तद्वा साधारणं विनष्टं, न वा कश्चिन्मां देत निष्कामेति तदा पार्श्वखाऽऽदिविहारमभ्युत्थास्यामि एवं सङ्कल्पं कुर्वन शङ्की एवं रूपसङ्कल्पविलोशी तत्र शङ्किनि लिङ्गाधाविनि विहारे च विहाराधाविनि एक एव गमः । किमुक्तं भवति ? यत् विहारावाधाविन्युकं तत् लिङ्गाधाविन्यपि शनि वक्रव्यमिति । संविग्गमसंविग्गे, संकमसंकीएँ परिणइ विवेगो । पडिलेहरा निक्खिवणं, अप्पणों अाएँ अन्नेसिं ॥ २८० ॥ सशङ्की श्रशङ्की वा पथि अनुशिष्यमाणो यदि संविग्ने अवि वा परितो भवति वसति था. तदा तस्योपक रणमुपहतमिति तस्य विषेकः कर्तव्यः । अथ स गतथिन्तयति तदुपकरणं तेषामेव दास्यते मम वा भविष्यति तदा निष्क्रामतो वा उभयकालं प्रतिलेखयतो यतनया विनिक्षिपापकरणं नोपहन्यते प्रत्यागच्छन्नदि मजि काऽऽदिषु सजति तल उपहन्यते अथ न सजति नोपन्यते । इतिगाधाशिपार्थः । संप्रत्यस्या एव विवरणमाह घे गारलिंग, बती व अवती व जो उ ओहावी । तस्कटिपदार्थ वाऽऽसज्ज जोन्गं ॥२८१ ॥ यो सिनावाची स द्विधा अगारलिया गृह ति, स्वलिङ्गसहितो वा श्रत्र योऽगारलिङ्गं गृहीत्वा श्रवधावति तस्यैव विधिः पथि बजन केनाप्यनुशि यदि निवर्त ते उपतिष्ठते च मां प्रवाजयेति तदा तस्य मूलं दीयते, स पुनरगारतिगृहीत्वा संप्रस्थितो मती या स्थादवती या अतानि वा गृहीत्वा भजति, वसन् त्यर्थः । तस्योभयस्यापि कटीपट्टको दातव्यो वस्तु वाऽऽसाच यद्योग्यं तद्दातव्यम् । किमुक्कं भवति ? - मा प्रद्वेषं यायात् दारुणस्वभाषी बात उपरि प्राचरणमवि दीयते अथवा राजाऽऽदिः प्रवजितस्तस्य सुन्दरे द्वे वस्त्रे दातव्ये । तदेवमगारलिङ्गावधावी भणितः । सम्प्रति स्पलिङ्गाधाविनमधिकृत्वाऽऽहजड़ जीविहिंति जइ वा, वितं धणं धरति जइ व वोच्छंति । लिंग मोच्छिति संका, पविट्ठ वुच्छे व उवहम्मे ॥ २८२॥ स्वलिन योपधावति सद्विचाराही अशी च तव शङ्की एवं सङ्कल्पयति यदि मम ते स्वजना जीविष्यन्ति यदि वापि तत्साधारणं धनं धरते, विद्यते वा, मां वक्ष्यन्ति सिद्धं मुझेति, दक्षिकामेति तदा उनिष्टमिष्यामि इत्येवं शङ्कायान् पथि केनाप्यनुशिष्टः सन् संविद्यानामसंविद्यानां या उपाध्ये प्रविशति तदा तस्योपकरणमुपहन्यते देवं सशङ्कलिङ्गावधावी उक्तः । 1 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१८ ) अनिधानराजे | पत्त सम्प्रति निःशङ्कलिङ्गावधावी भयते । नि शङ्को नाम-य एवं स ङ्कल्पयति श्रवश्यतया उन्निष्क्रमितव्यमिति । तस्य विधिमाहसमुदाचारिगाण व भीतो गिहिपततकराणं वा । सो देखो, पवि बुच्छे वि न विहम्मे ||२८३|| समुदानं भैक्षं, तस्य भयेन । किमुक्तं भवति ? यद्यहमिदानीं लिङ्गं मोदयामि ततो न कोऽपि मह्यं भिक्षां दास्यति, किं तु मामुपवजितुं दृष्ट्रा मध्येऽतिलीना भविष्यन्ति, ततः समुदानभयेन चारिकास्तेयां वा भयेन अन्तरा गृहस्थप्रान्ताः संवतभद्रकाः तेनाच या भवेन उपधि नीत्या तेनोपचिना युक्तः स संविग्नानामसंविग्नानामुपाश्रये उपविष्ट उरतो वातथापि प्रत्यागच्छतोऽस्योपनिपहन्यते तेनाप्युपधिना समन्वितः स भावतो गृहस्थ इति कृत्वा । नीसको बासिडो, दुवदमहं यह खु ओहामि । संविग्गा य गण, इयरेहिं विजाणगा गेरहे ॥ २८४ ॥ शब्दारे जिन सेविनैरविनैव अनुशिष्टो यथादिनिष्यसि किमुपनयसि ततः स ब्रूते-सुपधिं तेषां समीपं नयत, श्रहं (खु) निश्वि नमवधाविष्यामि तत्र यदि संविग्नानां हस्ते प्रेपयति तदा तैगनीतस्य ग्रहणम्। अथागतानां हस्ते प्रेपयति तदा तारेतरैरानीतं, यदि सर्वे गीतार्थास्ततो गृह्णन्ति परिभुञ्जते च । अभागीतार्थमिथास्तदा कारणिकानामेकाकिनां भजतां दद ति परिष्ठापयन्ति वा । नीसंकितो व गंतू - दोहि वग्गेहि चोदितो एति । तक्खण निंत न हम्मे, तहि परिणय वत्थु उवहम्मे ॥ २८५॥ निःशङ्कितोऽपि गत्वा यदि द्वाभ्यां वर्गाभ्यां, संविग्नैरसंवियह दो सन्तेषामुपायान् यदि लक्षणमेव निर्गच्छति तदा तस्योपधपम्यते । अथ नःक्षणं न निर्गच्छति, वसति वा तदा उपहन्यते । अथवा-य वितस्यैयं परिणामो जायते--अवेव तिष्ठामि तदापि तस्योपधेर्यातः, ततस्तस्योपधिः कथमन्यागत इति कृत्वापरिष्ठाप्यते । सम्प्रीत" पडिले निक्वणमप्पणोद्वार सिं" इत्यस्य व्याख्यानमाह अट्ट परट्ठा था, पडिलेहिय रसितो व उन हम्मे । पावतस्स उनवरिं पवेस वइयासु वा भयणा || २८६ ।। स्वतः सन् य चिन्तयति तेषामेयमुपकरणं दास्यते । प्रवा-मम भवति एवमात्मार्थ वा उभयकाले प्रायुपे रशिद या समुचये तुरवधारणे भिन्नक्रमश्व । नैव हन्यते, नवरं केवलं प्रत्यागच्छतो जिकाऽऽदिषु प्रवेशतजनाः किमुक्की भ यति स प्रत्यागच्छ यदि माजिदन्यने । अथ न सजाते नोपहन्यते । अपुग देवजीवी, तो सारून्दियसिद्धपुत्तलिंगीणं । चिरयानावे तुमत्य भये ॥ २८७|| अथ सोनुशिपि न प्रतिनिवृत्तः किन्न जीवति शीलनुपजीवी, साकिन पत्त सिद्धपुत्रत्वेन वा स्थित इत्यर्थः । सारूपिको शिरोसुण्डो रजोहरणरहितोऽलावुपात्रेण भिक्षामति, समायाऽभावा सिद्धपुत्रो नाम सकेशो भिक्षामटति वा, न 'वा,वराटकैर्विटलकं करोति यदि धारयति तस्य प्रत्युत्थितस्य यः पूर्वउपधिर्यस्य सारुपिकत्वेन सिद्धपुत्रत्वेन पातिता यदुत्पादितं तदुपहन्यते न था है तत आह कश्चि द्भणति, सारूपिकसिद्धपुत्रलिङ्गिनामुपकरणमुपहन्यते, तत्र भवति । कुत इत्याह--चरणाभावादुपहननमनुपहननं वा चरवतामुपधिर्न च सारूपिकसिद्धपुत्रलिङ्गिनश्चरणवतः । सो पुण पच्चुट्ठितो जड़, तस्स उवहयं तु उबगरणं । असती यवती अन्नं, उग्गार्वेतेति गीयत्थो ॥ २८८|| स पुनः प्रत्युत्थितो यदि तस्योपकरणमुपहतम् । श्रथवानास्ति तहिं गीतार्थोऽन्यमुपधिमुद्गमयन् पति श्रागच्छति । कुल कुलस्थाने उत्पादयन् आगच्छतीत्याहसंजयभावियलेणे तस्स असतीए उ चक्खुवेतिहयं । तस्सऽसति पेंटलहए, उप्पारं तु सोए ।।२८६॥ संयमभावित क्षेत्रं नाम से संयतत्वेन स्थितस्तसिन्संयतभावित क्षेत्रे उत्पादयन् तस्यासत्यभावे चक्षुर्व्यतिहते हष्ट्या परिचिते तस्याप्यभावे टिलते। विराटटतं नाम-यत्र पूर्व चिराट लेराहारोपथिव्या उत्पादितास्तस्मिन् उत्पादयन् गच्छति । , जाति एस वा सावग दिहीउ पुव्यभुसिया वा । विंटल भाव सिंह, किं धम्मो न होइ गेर हेज्जा ।। २६० ॥ सच उत्पादयति उत्पादने विशुद्ध तांध दोषान् तेभ्यः कथयति । यदि वा यत्र संयतत्वेन विहृतो, दृष्ट्या वा पूर्व भुपिताः परिरचेतास्ते श्रावकाः, ते च स्वत एव दोबान् जानन्ति ततो दोषविशुद्धं प्रयच्छन्ति । यच्च विराटलक्षेत्रं तत्र गीतार्थो यदि उत्पादयति तदाऽऽदितः प्रतिब्रूतेनाहमिदानीं वेण्टलं करिष्यामि, यद्येवमेव ददध्ये ततः प्रतिगुहामि, यमुक्ते यदि ते कि मार्क सुधा द न भवति, ताज इति दधस्ततो वृद्धाति । , एवं उपाए, इपरं च विगिंचिक तो एति । असतीऍ जहालाभं, विगिंचमाणे इमा जयणा ॥ २६ ॥ वक्ष्यमाणा यतना कर्तव्या । किमुक्लं भवति ?-यत् यत् सांभौगिकं लभ्यते तस्य वत्सदृशमांग तत्परते | एतदेवा55उवहयउग्गहलंभे, उग्गहण विविंच मत्त भत्तं । पत्ते तत्थ दवं, उग्गहभत्तं गिहिदवेणं ॥ २६२॥ पहुचंते काले, दुल्लभदवभाविते व खेत्तम्मि । मत्तगदवेण धोवर, मत्तगर्लभ वि एमेव ॥ २६३ ॥ उपहतस्य असांभोगिकस्यावग्रहणस्य श्रवग्रलाभे विवे या परिष्ठापनं कर्तव्यम् । एवं च तस्य पतः सांभगिकों, मात्र सांभोगिकं तत्र यदसांभोगिकं तस्मिन् भक्तं प्रायं य सांभोगिकं तत्र पानीयं ततो मात्रके तेन भक्रं ग्राह्यं पत महपानीयेन तस्य कल्पो दातव्यः, यदि मात्रके गृहीतेन Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१६) अभिधानराजेन्द्रः | पत्त भक्तेन संस्तरणं तत्र मात्र के द्रवं गृह्णाति अवग्रहे पतग्रहे भक् तत्र भुक्त्वा गृहस्थभाजनेन पार्नायमानीय पतग्रहस्य कल्पो देयः । अथ यावता कालेन गृहस्थात्पानीयमानीयते तावान् कालो न प्राप्यते दुर्लभं तत्र द्वयं न तेनेयतस्ततो गृहस्थेभ्यो द्रवं लभ्यते । यदि वा तत् क्षेत्रमभावितं संयतैरतो गृहस्था न ददति भाजनं यत्र पानीयं गृह्यते तदा मात्रकगृहीतेनैव पानीयेन पतद्द्महो पाव्यते प्रज्ञास्यते, तथाऽपि स नोपन्यते एवमेव अनेनैव प्रकारेण मात्रकस्यापि सांभो गिकस्य लाभ असांभोगिकस्य परिष्ठाप्यते पत वा सांभोगिकं विभाषा कर्तव्या तद्यथा- पतद्महे भग्राही मात्र पानीयम अथ मात्रके संसक्तं भक्तं पानं वा गृहीतमाचार्याऽऽदिप्रायोग्यं वा पतद्ग्रहे च पानीयं तदा गृहस्थ भाजनेन पानीयमात्रकस्य प्रक्षालनं कर्तव्यम् । अथ कालो न प्राप्यते दुर्लभं या द्रवमभाषितं वा तत् तदा तद्द्महपानीये मैच मात्रकं प्रक्षाल्पते नोपहन्यते इति । 1 अत्र परः प्रश्नमाह चोए मुदमुद्धे, फणिं तु तं तु उवहम्मे । भन्नइ संफासेणं, जेसुवहम्मे न सिं सोही || २६४ ॥ परोदयति तत् शुभ पानीयं या अ मात्र, पतग्रहे वा प्रक्षिप्तं संस्पर्शनोपहन्यते, ततः कथं शुद्धिरिति । श्राचार्य श्राह-भण्यते उत्तरं दीयते । येषां संस्पर्शेनोपहन्यते तेषां न कदाचनापि शोधिः । एतदेव भावयति वाहत्थछि, सहस अणाभोगतो व पक्खिते । अविमुहम्मद असुद्ध सुद्वेज इयरं वा ॥ २६५ ॥ यदि तब मवमुपघातस्तर्हि असांनोगिके भाजने वद् सुहीतं भलं पानं वा तेन लिप्ताभ्यां वत्सभौगिकं भाजनं स् श्यते तदप्यसांभीगिकं जातं, तत्संस्पर्शतोऽन्यान्यपि न च त कालं सर्वाण्यपि परिष्ठापयितुं शक्यन्ते । न चान्यानि तायन्ति लभ्यन्ते, ततो न कदाचनाविशुद्धिः, तथा सहसा नामयस्वरमाग सांभाविकात् सांभोगिक प्रक्षिपति तदयांभो गिकमुपजायते । अनाभोगो नाम एकान्तविस्मरणं तेनाच्य सांभगिकं जायते (अविसुति) कथञ्चिदनाभोगतोऽचि शुद्धस्योद्गमाऽऽद्यतमदोषस्य हवे तद् भाजनमशु स्यात् न च तदिष्यते, तस्मान्न संस्पर्श मात्रेणोपहननम् । श्रन्य । धान संस्पर्शतो भवति तथा इतरदशन संस्पर्शतः शुद्धयेत शुद्धीभूयात् न्यायस्योभयत्रापि समानत्वात् । न चैतदस्ति तस्मात् यत्किञ्चिदेतत् । व्य० ८ उ० । (२७) प्रतिग्रहमनलमखरं धारयते जे भिक्खू पहिग्गहगं असलं अथिरं अधुवं अधारणिजं घरे, परंते या साइज्जइ ॥ ८ ॥ जे भिक्खू पटिग्गहं अलं थिरं धुवं धारणिज्जं य घरे, परंतं वा साइज ||६|| इमो सुत्तत्थो अलमपजचं खलु अधरमदङ्कं तु होति वायव्वं । पन्त धुवं च पाडिहारिय, अलक्खणमहारणित तु ॥ १५२ ॥ कंठा । अणलं अथिरं श्रधुवं अधारणिज्जं - एतेसिं तु पदाणं, भयणा पम्परसिया तु कायव्वा । एतो एगतरेणं, गेहताऽऽणादिया दोसा ।। १५३ ॥ एतेसिं चउरणं पदाणं भंगा सोलस कायव्वा । श्रतिमो सुदो सेसा रस पितरेण वि गेरहंतस्स आणादिया दोसा । सुपर सुप पढमे भंगे चउरो, लहुगा सेसे होति भषणा तु । जो परसो भंगो, एतेसुतंतिमो सुद्धो ॥ १५४ ॥ पढमभंगे चत्तारवि पदा श्रसुद्धा सेसपदेसु भयण त्ति । जत्थ भंगपदे जति पदा असुद्धा तत्थ तत्तिया चउलहु दायव्वा । पदमभंगातो धारम्भ जाव परणरसमो भंगो, एतेसु सुताणवातो अंतिमो पुण सुद्धत्तणतो अपच्छित्ती । अगलादियाणं हमे दोसा कार्ड श्रद्धावादीले त देतस्स उभयत्र हाणी | अरिमते सुनत् बंधये चरणं ।। १५५ ।। श्रद्धापडिया दिया अलपाई अभिसमिति देश देति तो अदाणी एवं अगले उभयहा वि दोसा । श्रथिरं श्रदढं तम्मि भग्गे श्ररणं मग्र्गेतस्ल सुत्तस्थाणं दाणी अलवा एखाधा करेज अधुवं पाडि हारियं तस्मि गहिते अमरगंतस्थ सुत्तस्थहाणी असतो वा एखाद्या करेज, अह भ पंपति गणे रणभेदो भवति । पुणरवि धुवे दोसो भरणतिअवम्मि भिक्खकाले गहियागहितम्मि मग्गणे जं तु । दुवा विराणा पुरा, धारणिजम्मि पुव्युत्ता ॥ १५६ ॥ अयं पाडिहारियं ते येतं भिक्लाकाले भक्ते तत्थ भिखाए गहियाए श्रगहिताए वा पुव्वसामिला मग्गितं, तस्स तं देति, तो अपणो परिहाणी, श्रहण देति, तो पुव्वसामी रूसति रुद्रो य जं तु काहिति बसहीतो दिया रातो वा श्रसियावेजा, तस्त वा दव्वस्त मस्त वा वोच्छे इं करेज, असम्भवयरोहिं वा श्राश्रोसेज, श्रधारणिज्जं श्रलक्खण जुत्तं तम्मि धरिज्जते दुविधा विराहणा भवति श्रायसंजमेसु सा व पुण्युत्ता णित्ती हुंडे चरितमेदी, सम्मिय वित्तविन्ध्यमं दुष्यसे बलसंधा तु गिद्दिसे ॥ १ ॥ " ( वृ० ३ उ० ३३८ गाथा ) जम्हा एवमादी दोसा ता चिरं भुवं धारण धारय । 3 अववादतो अणलादियाविधययासमोर, रायट्ठे भए व गेलले । सेहे चरित सावय भए य जयणाऍ गेरहेजा ।। १५७ ।। एते अलियाऽऽदिया भावभूमी होज अंबाज सार गेरिति का जया, इमा-बचारि मासे अडाकडे गवेसेजा, दोमाले अव्यपरिकम्मं बहुपरिकम्मं दिवईति । 1 , Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त (४२०) अभिधानराजेन्दः । पत्त वर्णमत्पात्रमवर्ण करोति जम्हा एवमादिया दोसाजे भिक्खू वलमंतं पडिग्गहं विवामं कर, करतं वा तम्हा तु अपरिकम्म, पातमहालद्ध परिहरे भिक्खू । साइजइ ॥१०॥ ने भिक्खू विवमं पडिग्गहं वएणमंतं | परिभोगमपाओग्गं, सप्परिकम्मे य वितियपदं ॥१६२।। करेइ,करतं वा साइजइ ॥११॥ जे भिक्खू णवए मे पडिग्गहे उस्लग्गेण अपरिकम्मं पायं घेत्तव्यं, जहालद्धस्स य पादलब्भे ति कडु तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाएज स्स परिहारोऽतिपरिभोगो भिक्खुणा कायव्वा. इमं वितियवा, मंखेज्ज वा, भिलिंगेज्ज वा, मखतं वा भिलिंगंतं पदं-(परीभोगमपाश्रोग्गं ति) विसेण वा गरेण वा मज्जैण वा साइज्जइ ॥१२॥ जे भिक्खू णवए मे पडिग्गहं लम्भे त्ति भावियंतस्त धोवणादी करेज्ज, छगणमट्टियादीहिं वा णि रवारेज । अहवा-अप्पबहुपरिकम्मं लद्धं, तस्स णियमा धोकटु लोद्रेण वा कक्केण वा एहाणेण वा चुम्मेण वा वण वणए घंसणादि कायब्वं । वा उल्लोलेज्ज वा, उच्छोलेज्ज वा, उल्लोलंतं वा उच्छोलतं गाहावा साइज्जइ॥१३॥ वएणड्डमवि य पायं, मा हरिही तस्सवमकरणे य । __इमो सुत्तत्थो जे तुस्सग्गे दोसा, कारणे ते चेव जयणाए ॥१६३।। पंचएहं वरमाणं, अन्नयरं जं तु पात दुब्बएणं । बमविवश्चासकरणे जे उस्लग्गे दोसा भणिता, कारणगहिदुव्वा च सुवर्ष, जो कुज्जा आणमादीणि ॥१५८॥ । यं वमर्ल मा हारिह त्ति विवरण करतो जयणाए सुद्धो। सुभवसं दुब्वमं करेति, दुव्वमं पातं सुवर्म करेति, जो एवं अथवाकरेति तस्स प्राणादिया दोसा भवंति । कारिणे हसित मा सिं-गणा तु मुच्छा च उज्जते जत्थ । गाहावाविवश्चासं पुण, बालेवे पायधोणाऽऽदीणि । तत्थ विवस्मयकरणं, अझोवाए य बालस्स ॥१६॥ दुग्गंधं च सुगंधं, जो कुज्जा आणमादीणि १५६॥ तं वरणडं पायं सलक्खणं णाणगच्छवुड्डिणिमित्तं हंसितं ति हडमित्यर्थः । मा तस्स पुव्वसामी सिंगणं करिस्सति पढमपादेण वरणविवश्चाससुत्तं गहियं, वितियपादेण णो त्ति, अतो तस्स वरणविवज्जयं करोति । अहवा-तं धरणहूं णवं पादं लद्धमिति धोवणादी करेज,एयं सुत्तं गहियं, तति दटुं पुणो पुणो मुच्छा उप्पज्जति, तत्थ वा विवरणं कज्जति, यपापण णो सुब्भिगंधं पादं लद्धमिति सीतोदगादीहिं धो अणपज्झो सीहो वा अजाणतो करेज्जा, बालस्त वा अपर, एयं सुत्तगहियं। एसा भद्दबाहुसामिकया गाहा । एतीए धिकं अज्झोववाती, वरणहूं कीरति त्ति, एवं कीरज । तिरिण वि सुत्ता फासियब्वा। कहं पुण वरणविवश्चासोाभमति-उरहो तु उरणोदगेण पुणो पुणो धोव्यमाणं छगणा नघप्रतिग्रहमुच्छोलयेत्दीहि य ालिप्पमाणं विवरणं भवति, तेल्लादिणा मंखिजं. जे भिक्खू णवए मे पडिग्गहे लद्ध त्ति कटु सीओदगवितं खदिरबीयककलादीहि य पुणो पुणो धोव्वमाणं मंखेऊण यडेण वा उसिगोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा, पधोएय धूमट्ठाण कज्जति । एवमादिपहिं विवरणस्स वरणो ज्ज वा, उच्छोलंतं वा पधोवंतं वा साइज्जइ ॥ १४ ॥ जे भवति। ___ कीस पुण वरणहूं विवरणं करेति । भएणइ भिक्खू णवए मे पडिग्गहे लद्ध त्ति कडे बहुदिवसीएणं तेमा णं परो हरिस्सति, तेनाहडगं च सामि मा जाणे । लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा मंखेज्ज वा, वसं कुणति विवर्ण, हरणे नवरि संभवोणत्थि ॥१६॥ भिलिंगेज्ज वा, मखतं वा भिलिंगंतं वा साइज्जइ ।। १५ ॥ घण्णुजलं मा मे परो हरीहि त्ति तेण विवमं करेति। अहवा जे भिक्खू णवए मे पडिग्गहे लद्धे त्ति कट्टु बहुदिवसिएण तं पातं तेणाहडं, मा मे एयं पुब्वसामी जाणिस्सति, तेण लोद्रेण वा कक्केण वा एहाणेण वा पोउमनुस्मेण वा वाम्मेषा विवरणं करेति । विवरणं पि तेणाहडं ति काउंसो पुब्व- ण वा उल्लालेज्ज वा, उबट्टेज्ज वा, उल्लोलतं वा उव्वद्वंतं सामी जाणिस्सइ, तेण वन्नई करेति । अहवा-यमई करेति वा साइज्जइ ॥ १६ ॥ जे भिक्खू णवए मे पडिग्गहे लद्धे त्ति रागेण चउगुरुं, विवस्मकरणे हरणसंभवो णस्थि । कट्ट बहदिवसिएण सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियणिरत्थे परिकम्मणे इमे दोसा डेण वा उच्छोलेज्ज वा, पधोवेज वा उच्छोलंतं वा पधावत घंसणे आतवघातो. तदभवागत संजमे पाणा। वा साइज्जइ॥१७॥ जे भिकाव सुब्भिगंधे पडिग्गहे लद्धे धुवणे संपातिमवहो, उप्पीलग चेव भूमिगते ॥१६१॥ त्ति कह इन्भिगं करेइ करतं वा साइज्जइ ।१८। जे भिक्खू धोवणे कक्कादिणा य आघसणे अातोवघातो हत्थकंडगं दुभिगंधे पहिग्गहे लद्धे त्ति कटु सुब्भिगंधे करेइ, करतं वा भवति, परिस्समो वा । किं च-तदुभवा वा पाणा, श्रागंतुगा या पाणा विराहिज्जति, एस संजमाविराहणा । संपातिमा य साइज्जइ ।। १६ ।। जे भिक्खू सुभिगंधे पडिग्गहे लद्धे ति विवज्जंति, अतिउच्छोलणधोवणेण जे भूमिगता पाणा तेइ कह तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा बसाए वा मंखेज्ज उप्पीलाविज्जति। वा, भिलिंगेज्ज वा, मखंत वा भिलिगंतं वा साइज्जइ ।२०। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२१) अनिधानराजेन्द्रः। पत्त जे भिक्खु सुभिगंधे पडिगगहे लद्धे ति लोदो रुकवा.तरूणं छल्ली लोइं भमति । वमो पुण हिंगुलगा. दी तेल्ल मोहतो, चुराणो पुण गंमुणिगाऽऽदिफला चुन्नीकता। केण वा एहाणेण वा चुरणेण वा वरणेण वा उल्लोलेज्ज एतेहिं एकसि पासणं, पुणो पुणो पधंसण । चउत्थसुत्ते वा,उबढेज्ज वा, उल्लोलंतं वा उबट्टतं वा साइजइ ॥१॥ कक्कादिहि चेव बहुदेवसिरहिं, सेसं तं चेव, एयस्स पुण जे भिक्खू सुन्भिगधे पडिग्गहे लद्धे ति कटु सीओदगवि- अणवस्स पातस्स एते धावणादिया पगारा करोति, वरं मे यडेण वा उसिखोदगवियडेण वा उच्छोल्लज्ज वा, पधो- णवाकारं भविस्सति ति। जहा अणवपाते चमरो सुत्ता वेज वा, उच्छोलंतं वा पधोवंतं वा साइजइ ।। २२॥ भणिता तहा दुग्गंधे वि चउरो सुत्ता भाणियबा, णवर तत्थ दुग्गंधे मे पातं सुगंध भविस्सति त्ति धोवणादिपयारे जे भिवखु सुन्भिगंधे पडिग्गहे लद्धे ति कट्ट बहुदिवसिएणं करेति त्ति । तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा मंखेज वा, गाहाभिलिंगज्ज वा,मंखंतं वा भिलिंगतं वा साइजइ ॥२३।। जे उच्छोल दोसु आघं-से दोसु आणादि होंति दोसा तु । भिक्ख सुब्भिगंधे पडिग्गहे लद्धे ति कट्ठ बहुदिवसिएणं लो- किं पुण बहुदेसीयं, भमति इणमो निसामेहि ॥१६६।। द्वेण वा कक्केण वा एहाणेण वा चुण्णण वा वरण वा उ- श्रणवपाए जे चउरो सुत्ता, तेसु जे आदिल्ला दो सुत्ता,एसु खोलेज वा,उबढेज्ज वा,उल्लोलंतं वा उबटुंतं वा साइज्जइ उच्छोलणपधोवणा भरणति। पच्छिमा पुण दो मुत्ता, तेसु ॥ २४ ॥ जे भिक्ख गंधे पडिग्गहे लद्धे ति कहु बहुदि श्राधसणपघंसणाऽऽदि भरणति । सेसं कठं। गाहाबसिएण सीओदगावियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उ दगकक्कादीहि नवेहि, बहुदेवसितेहिं तु जे पातं । च्छोलेज वा,पधोवेज्ज वा, उच्छोलतं वा पधोवंतं वा सा एमेव य दुग्गंधं, धुवणुबट्टेत आणादी ॥१६७|| इजइ ॥ २५॥ जे भिक्खू दुन्भिगंधे पडिग्गहे लद्धे ति कट्ठ दोसा नामं पसती, तिप्पभिति परेण वा वि बहुदोसा। तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा मंखेज वा, कक्कादि अणाहारेण वा वि बहुदिवसवुत्थेणं ॥१६८॥ भिलिंगेज वा,मखतं वा भिलिंगतं वा साइजइ ॥२६॥जे भि सुत्ते पाता बहुदेवसितेण वा एक्को पसती, दो या क्खु दुब्मिगंधे पडिग्गहे लद्धेति कद लोखूण वा ककेया वा| तिरिण वा पसती, तो दोला भए गति, तेराई परेण बहुरहाणेण वा चुम्मेण वा वामेण वा उल्लोलेज वा, उबट्टेज वा, दोसा भरणति, अणाहारादि कक्केण वा संवासितेण पत्थपउल्लोलंतं उबईत वा साइजह ।। २७ ।। जे भिक्खू दुब्भि गरादिसंवासितं, तं पि बहुदेवसियं भस्मइ । अणाहारियगहणं अणाहारिमे चउल हुं, आहारिमे पुण चउगुरुं भवति । गंधे पडिग्गहे लद्धे ति कड्ड सीओदगवियडेण वा उसिणो इमे दोसादगवियडेण उच्छोलेज वा,पधोवेज्ज वा,उच्छोलंतं वा प घंसणे आतुवघातो, तदुभवाऽऽगंतु संजमे पाखे । घोवंतं वा साइजइ।।२८॥ जे भिक्खु भिगंधे पडिग्गहे लद्धे ति कडबहुदिवसिएणं तेल्लेण वा घएण वाणवणीएण | धुवणे संपातिमवहो, उप्पीलणे चेव भूमिगते ॥१६॥ पूर्ववद् वक्तव्या। वा वसाए वा मंखेज वा भिलिमेज वा, मंखत वा भिलिंगंतं जम्हा एते दोसाबा साइजइ ।।२६।। जे भिक्खू दुब्भिगंधे पडिग्गहे लद्धे ति तम्हा उ अपरिकम्म, पादगहा लद्ध धारए भिक्खू । कट्टु बहुदिवसिएणं लोद्रेण वा कक्केण वा एहाणेण वा परिभोगमपरिभोगे, पामोग्गं जं सपरिकम्मं ॥१७॥ पउमचुण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा, उबट्टेज्ज वा, उल्लोलतं | पूर्ववत् कराठा। वा उयत वा साइज्जइ ॥३०॥ जे भिक्खू दुब्भिगंधे पडि इमो बहुदेवसियस्त अववाते वितियपदग्गहे लद्धे ति कटु बहुदिवसिएणं सीओ दगवियडेण वा उ- अभियोगे विसकए वा, बहुरए मज्जादिदुब्भिगंधे वा । सिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा,पधोवेज वा, उच्छो कक्कादाहि दवेण व, कुज्जा बहुदसिएणं पि ॥१७१।। लतं वा पधोवंतं वा साइज्जइ ॥३१ ।। पातं वसीकरणजोगेण भावितं, विसेण वा भावितं, इमो सुतत्थो बहुरएण वा घटुं, अश्वत्थं मलिनमित्यर्थः । मज्जादि दुएमेव य अणवे वी. वियडे बहुदेसि कक्क बहुदेसी। ग्गंधदब्वेण वा भाषितं, दुग्गंधं तं एवमादिएहि कारसुत्ता चउरो एए, एमेव य चउरो दुगंधे ॥१६५॥ | हिं बहुदेवसिएणं दवेण वा कक्केण वा धोवति वा, णो णवं अणवं जुएं, सीयदगं सीतोदगं तो वि य वियर्ड श्राघंसिज्जति वा, मा मज्जाऽऽदिगंधेण उडाहो भावेति व्यपगत जीवं उसिणे ति तावितं,तं चेव ववगयजीवं,एक स्सतीत्यर्थः। सिं धोवणं पुणो पुणो पधोवणं । वितियसुत्ते एसेवत्थी, रण (२८) पृथिव्यां प्रतिग्रहमातापयेत्चरं बहुदिवसेहिं सीओदोसिणोदएहिं वत्तव्यं । ततिय । जे भिक्खू अणंतरहियाए पुहवीए पडिग्गहगं पायावेज्ज सुते कको, सो दव्वं संजोगेण वा असंजोगेण वा भवति, वा, पयावेज्ज वा, पायावंतं वा पयावंतं वा साइज्जइ २०६ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त (४२२ ) अभिधानराजेन्द्रः । || ३२ || जे भिक्खू सरक्खाए पुढबीए पडिग्गहगं श्राया वेज्ज वा, पयवेज्ज वा आयावंतं वा पयावंतं वा साइज्जइ ।। ३३ ।। जे भिक्खू ससणिद्धार पुढवीए पडिगहगं आया वेज्ज वा, पयावेज्ज वा श्रयावतं वा पयातं वा साइज ॥ ३४ ॥ जे भिक्खू चित्तमंताए सिलाए चित्तताए लेलुए कालोवासंसि दारुए० जाव पइट्ठिए स सपा सबी सहरिए सउस्सेसउतिंगपणगदग - मट्टियमक्कडासंताणए पडिग्गहगं आयावज्ज वा, पयावेज्ज वा, आयातं वा पयावतं वा साइज || ३५ ॥ जे भिक्खू यूांसि वा गिलेलुयंसि वा उसकालंसि वा कामजालंसि वा पडिग्गहगं आयावेज्ज वा, पयावेज्ज वा, श्र यावतं वा पयातं वा साइज्जइ ॥ ३६ ॥ जे भिक्खू कुलियंसि वा भित्तिंसि वा सेलंसि वा लेलुंसि वा अंतरिक्खजायंसि वा जं आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा, श्रयावंतं वा पयातं वा साइज्जइ ॥ ३७ ॥ जे भिक्खू खद्धंसि वा सिवा मंचसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मियलंसि वा अम्मरंसि वा अंतरिक्खजायंसि वा दुवद्धे पनिक्खिते पडिग्गहगं आयावेज वा, पयावेज वा, आयातं वा पयातं वा साइज्जइ ॥ ३८ ॥ जे भिक्खु खंधंसिवा भंसि वा मंचंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मियतलंस वा अंतरिक्खजायंसि वा सपाडेग्गहगं आयावेज वा, पयावेज वा आयावंतं वा पयावंतं वा साइज्जइ ॥ ३६ ॥ जे एते सुतपदा जहा तेरसमे उद्देसगे तहा वक्खाणेयव्वा वरं तत्थ ठाणादी भणिया, इह पुण पातस्स श्राताव णाऽऽदी वतव्वा । इमा सुत्तफासिता गाहा मादी थूणा - दीएँ सुकलियादिखंधमादीसु । जो पातं आता, सो पावति आगमादीणि ।। १७२ ॥ पुढवीमादीए, विराहणा रावरि संजमे होति । संजमे तविराहण, पातम्मि य से सगपदेसु || १७३ || अंतरहिताऽऽदिवस जाव संताप त्ति, एतेसुपातं आतावैतस्स पाओ संजमविराहणार भवति, सेसा जे धूणादिया पदा तेसु पायावेतस्स श्रयविराहणा. संजमविराहणा, पाय विराहणा य भवति । संजमावेराहणा पुढवादिसु कायणिकगं जत्थ श्रायविराहणा तत्थ चउगुरुं, पातविराहणा चउल हुँ । थूणादिसु इमे दोसा थूणादि दुडिए, भंते लट्ठि रज्जुदुब्बद्धे । पत भवंति दोसा, भूमीए कूडमादीसु ।। १७४ ॥ थूणादि दुडिपस रज्जुवेदमादिसु वा दुब्बद्धे च लट्ठियस्स श्र संभंतस्स उत्तारेंतस्स य भेदो पायल्स भवति, उयद्दति श्रारुभगोतरणे जे मालोहडे दोसा भणिता ते For Private पत्त इह पयावणे भवंति । भूर्माप कूडमुहादिसु वा ठविते ते दोसा ण भवतीत्यर्थः । सव्वे सुत्तपदेस इमं गाहावितियपदमणप्पज्झे, आतंवि विकोविते व अप्पज्झे । पञ्चवाते उ वा से, असती आगाढे जाणमवि ॥ १७५ ॥ पुव्वद्धं कंठं भूमपि जइ ठविज्जति तो गोणमादिपहिं पचवातो भवति, समभूमीए वा श्रवगासो रात्थि, आगाढे बा रायदुट्टातिगो श्रपागडो अत्यंतो जाणतो वि धूणादि - सु विलपजा । गोणे गाहागोण सामादी, कप्पट्टगहरण खेलगट्टाए । ससाणद्ध हरितपाणा - दिएसु पालंब जयगाए || १७६ ।। समभूमीप ठवितं गोणेगं भजति, साणो वा हरति । कप्पडुगेण व हरिज्जेज्जा सावासगभूमी, कप्पट्टगाणं खेलगट्ठाणं सा वासभूमी श्राउक्कायससणिद्धा हरिया वा उट्टिता कुंथुमादिपर्हि वा पाहि संसत्ता, एवमादिहिं कारणेहि जहा श्रायसंजमपायविराहणा ण भवति तहा जयणार श्रीगाहिय परेण विहासे लंवेति । तसपाणजातादि जे भिक्खू पडिग्गहाओ तसंपाणजायं णीहरइ णीहरा, णीहरियमाह दिज्जमाणं पडिग्गहएइ पडिग्गहंतं वा साइज ।। ४५ ।। श्रहिणवपातग्गहणे तसपाणजायं जो णीहरिता गेरहति, तस्स चउलहुं, तसपाणा वेइंदियादिणो चउग्विधा भवंति । श्रहवा तसा दुभेदा आगंतु तज्जाता, दुविधा पाणा हवंति पातम्मि | आगंतुगप्पवेसो, परप्पओगा सयं वा वि ।। १७६ ॥ श्रायंतुगा पिपीलिगाऽऽदी, तत्थेव जाव तज्जाया, ते य धुकुंथुगादी, आगंतुगाणं पवेसो सयं वा भवति, परेण वा पवेसिता । गाहा एएसामातरं, तसपाणं तिविह जोगकरणं । जे भिक्खू बीहट्टू, पडिच्छए आगमादीणि ॥ १७७॥ तिविधजोगकरणं, जोगो तिविधो मणमादि, सयं करणादि, करणंतं पि तिविधं, पत्थ वारणविधीए व भेदा, तेसु णीहरिजमाणेसु संघट्टणादिश्रावसे लट्ठाण पडिच्छंत्तं विलुगादिशा वा आयविराहणा, परेण वा णीहट्टु दिजमाणे जो पsच्छति तस्स श्राणादी दोसा । इमं वितियपदंअसिवे प्रोमोयरिए, रायद्दुडे भए व गेलणे । तुका उदुविहा, हुमा थूला य नायव्वा || १७८ || एते असिवाऽऽदिया भायणदेसे वा, अंतरे वा, तत्थ श्रगच्छेतो व जाणि य तसपाणजाई सीहट्टु लग्भंति, ताणि गिरहूंतो सुद्धो, गद्दिते वा पच्छा दिट्ठो तं नीहरंतो सुद्धो । Personal Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त सुतं भिक्खू पडिहा सहबीयाई णीहरइ, गीहरावेइ, णीहरियमाहहु दिजमाणं पडिग्गहेइ, पडिग्गर्हतं वा साइजइ ॥ ४२ ॥ (४२३ ) अभिधानराजेन्द्रः । आगंतु गाहा (१७६ ) आगंतुगा सरिसवादी, तदुत्था तस्सेव कणगा, पुणे आगंतुगा दुविधा-सराहा, थूला य । सराहा सरिसवाई सुरिमादी, धूला वदरणिष्फावादी । सीसो पुच्छति - काओ श्रसही श्रो, को वा वीयति श्रतो भमति सणसत्तरसा धमा, ओसहिगहण होंति गहिताओ । arraणम्मि करणे, एते चैव विराधणसमत्था ॥ १७८ ॥ जवगोधूमसालिवीहिकोद्दवरालगोतिलमुग्गमासश्रयसीच णगादिणिष्पावमसूरचचलगतुवरिकुलत्था, सणो सत्तरसमो। सेसं कंठं । इमं वितियपदंअसिवे अमोरिए, रायद्दुट्ठे भए व गेल । गाहा एएसामण्णतरं, जो बीयं तिविहजोगकरणणं । णीहरिऊण पडिच्छति, सो पावति आणमादीणि । १७६ | सुमेषु पच्छित्तं भणियं । पूर्ववत्कठा । सीहे चरित्तसावय, पुव्वा गहिए य जयणाए ।। १८० ॥ कंठा वरं ( पुवगहिए त्ति ) गहणकाले सुद्धो, जइ पच्छा परिकम्मणकाले वितिया दीसंति तो इमा जयणा गाहा जति पु पुव्वं सुद्धे, कारिजंतम्पि वितिय ततिए वा । तिय पंच सत्त वीया, दीसंति तहा वि तं सुद्धं ॥ १८१ ॥ वितियं परिकम्मं, ततियं बहुपरिकम्मं, तेसु जति विपरिकम्मणकाले तिरिण वा वीया, पंच वा. सत्त वा वीयकणा दीसंति, तहा वि तं सुद्धं चैव विहिगहणातो । चोदगाऽऽह-गहणकालातो पच्छा बीएस दिट्ठेसु कहं सुद्धं भवति । श्राचार्य्याऽऽह जह भवे आहच्चति, पाणाऽऽदिजुतम्मि भोयणे गहिते । दस वितिए रातिदिणाण, अंगुलिमूलेसु पण्णरसा : १८२ । जहा भत्तं पां वा सुयविहितविहाणेण उवउत्ते गहियं श्रश्वति सहसा तुरियगहणं एवं पाणादिजुते गहिए भत्तपाणे श्रालोगति, भायणे पडियमेत्तो चेव श्रालेोगितो, निरीक्षित इत्यर्थः । तत्थ गहणकालातो पच्छा तसवीयादिट्ठा, ते य ज विसोहेउं सक्केति तो विसोहित्ता तं भत्तपाणं अंजति, दोस्रो श्रह ते पाणिणो विसोधेउं ग सकंति, ताहे तं भत्तपाणं विचिंति । जहा भत्ते, तहा पाने वि दटुव्वं, ण दोष इत्यर्थः । एस तदुत्थेसु विधी भणितो । इमो श्रागंतुगेसु -"तत्थ पुण"*गाहा-जं श्रहाकडं पायं तत्थ जर गिहीहि श्रागंतुगा बीया श्रहाभावेण छूढा होज, तं तारिसं वीयसहियं लब्भति, अक्षं च श्रप्पपरिकम्मं स* इयं गाथा पूर्वमन्थे विलोक्या । पत्त व्वदोसविरहियं सुद्धं लब्भति, कयगं गेरहतु, उस्सग्गश्रो सुद्धं लब्भति, अप्पपरिकम्मं गेरहति, श्रह शिक्कारणे श्रागंतुगवीयसहितं गेरहति तत्थ पच्छित्तमग्गणा । कमो इमो - "छभाग *" गाहा - अंगुलीणं श्रग्गपव्वा पढमो भागो, वितिश्रो मज्भवारे भागो, ततितो अंगुलिमूले भागो । श्राउरेहार उत्थो भागो, श्रंगुट्ठगस्स अभंतरकोडीए पंचमो भागो, सेसो छट्टो भागो । एवं छन्भागेसु कप्पितेसु जति णिक्कारणे पढमपोरपमाणमेत्तेसु पादे दीसमाणेसु गेरहति तो पंचराईदियाणि पच्छित्तं, वितियपव्त्रमेत्तेषु दसराइंदिया, ततियपव्वमेत्ते पनरस राईदिया । For Private गाहा संतुलेहा, गुट्ठेऽते तु होंति पणुवीसा । संतम्पि होति मासो, चाउम्मासो भवे चतुसु ॥ १८३॥ चउत्थे आउलेहप्पमाणमेतेसु वीसं राइंदिया. पंचमे गुमूलमाणमेत्सु भिम्समासो, छट्टेण भागेणं पलती चैव पूरति, पसतिमेते मासलहुं, वितियपसतीए विति मासो, ततियपसतीए ततियमासो, चउत्थपसतीए चउत्थमासा, एवं चलहुगं जातं, श्रतो परं दुगुरोण पारंचियं पावेयव्वं, इदाणि थूलादि गाहाएसेव गमो नियमा, यूलेसु वितियपत्रमारद्धो । अंजलि चउक लहुगा, ते चिय गुरुगा असंतेसु ॥ १८४ ॥ धूलवेयाणं वितियपव्वमेत्तेसु परागं, अंगुलिधूले दस, उरेहार पणरस. अंगुते वीसं, पसतीर मिसमासो, श्रंजतीत्यर्थः । वितियंजलीए वितिओ मासो, ततियार ततिश्रो, चउत्थंजलीए चउत्थो मासो । एवं चउत्थं लहुजातं । श्रतो परं दुगुणबुडीप पारंचितं पावेयव्वं । श्रमे भरांति-दो दो छभाए विवति वारससु मासलहुं कायव्वं स एवांजलिरविरुद्ध इत्यर्थः । चउसु अंजलीसु चउलहुँ । एवं परितेस प च्छित्तं श्रते वि एतेण चेव, करछु-भागक्कमेण एते चैव पण गादिया पच्छित्ता, गवरं गुरुगा कायव्वा । गाहा किारणम्मि पाए, पच्छित्ता वमिया य बीएसु | नाव बी, एसेव तु कारणे जयणा ।। १८५ ॥ पुग्वद्धं कंठं कारणे पुणे पत्ते जया आगंतु कबीयसहितं गेहति तदा एतेरा चैव पगगा वि पच्छितापुले मेरा गेरातो सुद्धो, जया, एसेव परागादिगा इत्यर्थः । श्रह कारणे वि पणगादिभेदतो वोश्वत्थं गेरहइ, तो चउलहुं भवति । जहा कारणे करछु-भागादिपसु वीरसु दिट्ठेसु विकप्पं तहा इमं गाहा वोस पि हु कष्पति, बीयाऽऽदीणं अहाकडं पायं । अप्पसपरिकम्मा, बहु वा अप्पं सपरिकम्मा ।। १८६ ।। वोस भरितं जति श्रहाकडं पादं भरियं वीयां लम्भति, तहा वितं चैव श्रहाकडं घेत्तव्वं, ण य बहुपरिकम्मं सुद्धं श्रपपरिक्रम्मस्स श्रलति बहुपरिकम्ममेव वोस पि बीए श्रवणेत्ता गेरहतीत्यर्थः । चोदगो भणति पुग्वं सोही सति कप्पं भणिऊण इदाि * श्यं गाथा पूर्वग्रन्थे विलोक्या । Personal Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२४) अभिधान राजेन्द्रः | पत्त माद बोस पि कप्पर सि पुव्यावरविरुद्धं माया 35- कारणे अवलंबतो व दोसो-कामिरसु सं तासंतती वा बालसु सीतेसु जाव ते अप्प रिकम्मा परिकम्मिजिदंति तो बहुपरिहाणी. महाकर्ड पुरा तक्खणादेव परिभुज्जति श्रवि य वीपसु संघट्टणं चेव केवलं, दोस्रो वि जो बहुगुणी स पित्तन्यो गुणो वि जो बहुदोसो स परित्याज्य इत्यर्थः । सुतं जे भिक्खू पडिग्गहाओ कंदाणि वा मूलाणि वा पत्ताशिवा पुप्फाणि वा फलाणि वा बीयाणि वा हरियाणि वाणीहरइ खीहरावे, मीहरियमाहहु दिजमार्ग पडि हे पडिग्गने वा साइनइ ||४३|| जं भूमीप अवगाढंतरस जाव मूलं फुइति ताव हो भरणति, भूमीओ उवरि जाव डाली व फुट्टति ताव संघो भष्ठति, सा डाली भरणति, सालातो जं फुट्टति तं पवालं भवति । सेसा पदा कंठा । सुतं जे मिक्स पडिम्भहाओ पुढवीकार्य श्रीहरे, गीहरावे, श्रीहरियमाहरु दिज्जमा या पडिन्महेद, पडिग्मगतं वा साइज्जइ ॥ ४४ ॥ जे भिक्खू पडिग्गहाओ आउकायं णीहरति खीहरावेद, सीहरियमाहरु दिज्जमार्ग परिग्गहेर, पदिग्ग वा साइजइ ॥। ४५ ।। जे भिक्खु परिग्गदाओ कार्य श्रीहर, गीहरावेर, श्रीहरियमाहरु दिन्नमार्ग डिग्महे, पटिग्गतं वा साइज ।। ४६ ।। एतेसिं सुत्ताणं इमो श्रत्थो बीएसुं जो उगमो नियमा कंदाऽऽदिषसु सो चेव । पुवीमादी, पुब्बे अवरम्मि व पदम्मि ।। १०७ ।। वरं ते कंदाऽऽदिपसु गुरुगं पच्छित्तं भाणियव्वं । सेसं सव्वं उस्सग्गऽववातेणं जहा बीएसु तहा भाणियव्वं । नि० ० १४ ० ( पात्रस्य निष्कारणम् विकारस शब्दे चतु० भा० २०२२ पृष्ठे गतम्) | (निर्वन्ध्या अपात्रकया न भवितव्यमिति 'अपाइया' शब्दे प्रथ० भा० ६०५ पृष्ठे उक्तम्) (पाचा लेपकरणम् लेव शब्देवपपते ) (पावसीवनार्थ सूचीपाचनथ सू' शब्दे) योग्ये पार. सामके व्य०१० उ० अधिकारिणि "पसंति वाि षा एगट्टे” दशा ०४ अ० । श्र०यू० । पत्तं नाम-सुत्तत्थ तदुभयएस गहणधारणशक्तिरित्यर्थः । नि० १ ४० ए० विपा० (२४) पारिणामिका पारिणामिकातिपारिणामिकभेदात्र F 1 विधं पात्रम् । । ००३ अधि २ ल० साधुभिः पोष पिकथादेय मात्रकासि पावकाशीय द्विः प्रतिलेख्यान्युत व्यापारणावसरे एव व्यापारसीयानीति प्रश्ने, उत्तरम् साधुभिः, पौषधिकश्राद्धैश्च मुख्यतो मात्रकाण्यपि पात्राणि इव द्विः प्रतिलेख्यानि, व्यापारणावसरे च प्रसृज्य व्यापारबीयानीति । २५ प्र० । सेन० २ उल्ला० । विहृतपात्रकाणि पुपितानि चतुर्मासके पितानि कल्पन्ते न वेति प्रश्ने, पत्तकप्पिय उत्तरम् - पूर्ववितपात्राणि पुनर्लेपितानि चतुर्मास कि हृतानि कल्पन्ते इति । ७५ प्र० । सेन० २ उल्ला० । प्राप्त - त्रि० । उपगते. शा० २ श्रु० १ वर्ग १ अ० । उपार्जि• ते प्राप्तिमुपगते, दिपा २ ० १ ० गृहीते ०५० ४ उ० । परिच्छिन्ने भ० ५ श० ४ उ० । लब्धे, 66 पत्तभवनवतीरं । " प्राप्तो लब्धो भवः संसारोऽर्णवः समुद्रो भवार्मवस्तस्य तीरं पर्यन्तो येन तम् । दर्श० १ तत्व । विषयसूची (१) पात्रनिक्षेपे पात्रस्य चातुर्विध्यादे निरूपये "नामे ठपणा" (११४) इत्यादिगाथा | ( २ ) पानस्य गणनाप्रमाणाऽऽदीनि द्वाराणि । (३) अथ पात्रधिषयं तमेवाऽनिधित्सुराह (४) अथ हीनद्वारम् । (५) अथ लक्षणद्वारम् । ( ६ ) अथ विविधोपधिद्वारम् । (७) अथ कालद्वारम् । (८) अथाऽऽकरद्वारम् । ( ६ ) अथ 'वाउल' द्वारम् । (१०) अथ जघन्ययतनाद्वारम् । (११) अथ सगुणमपि तावद्वहुदोषतरम् " अपमाण बोगदेवदति " द्वारम् । (१२) अथ मुखद्वारम् । (१३) पाडति । (१४) महाधनानि अपात्राऽऽदीनि । (१५) परगवेषितं पार्थ धरति । (१६) निजगवेषितं पात्रम् । (१७) अयोवन्धनादीनि । (१८) प्रतिमाः पात्रग्रहणे । (१६) अथ कतिभिः प्रतिमाभिः पात्रं गवेपणीयम् । (२०) तच पात्र लक्षणोपेतं प्रार्थ, नालक्षणोपेतम् । (२१) पात्रप्रयोजनम् । (२२) यादर्श पात्रमादाय भिक्षार्थ गच्छेत् । (२३) प्रतिग्रहनिकाया ऋतु वसति । (२४) अतिरिक्रपाचम् । (२५) नवपुराणपात्रग्रहणम् । (२६) संप्रति निर्दिस्य दाने विधिः । (२७) प्रतिग्रहमनलमस्थिरं धारयते । (२८) पृथिव्यां प्रतिग्रहमातापयेत्। (२८) पारिणामिकाऽपारिणामिका उतिपारिणामिकमेदा त्रिविधं पात्रम् । पत्तइव पत्रकित त्रि० संजातकुत्सिताश्पपत्रे, झा० १०७०। पतक ध्थिय पत्रकल्पिक पु० । पात्रग्रहणादिसामाचारी, धृ० १ उ० । सम्प्रति पात्रमिति । पात्रकल्पिकद्वारम् - अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगया परिछणे य चतुगुरुगा । दो हि गुरू तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा ||४७६ ॥ माथा तथैव द्रष्टव्या नवरमिद्ध सूत्रमाचरान्तर्गतं पा साध्ययनं, तस्याप्राप्ते यदि पात्राऽऽनयनाय प्रेषयति तदा Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्तकप्पिय प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः । द्वाभ्यामपि गुरवः- तपसा, कालेन च । श्रथ सूत्रं प्राप्तः परं नाद्यापि तस्यार्थः कथितः तदा चत्वारो लघुकाः, तपसा गुरवः । श्रथ कथितोऽर्थः परं नाद्यापि सम्यगधिगतः तदाऽपि चत्वारो लघुका, का सेन गुरवः। अथाऽप्यधिगतोऽर्थः श्रद्धानविकृत परं ना द्यापि परीक्षितः तदाऽपि चतुर्लघवः, तपसा कालेन च लधुकाः । श्रतः सूत्रं पाठायत्वा तस्यार्थे कथयित्वा सम्यग धिगते चार्थे पात्राय परीक्ष्य प्रेषणीय इति । बृ० १उ० । ( पात्रनिक्षेपः ' पत्त' शब्देऽनुपदमेव गतः ) ( ४२५ ) अभिधान राजेन्द्रः | अत्र वैपरीत्यकरणे प्रायश्विमाहवोच्चत्थे चउ लहुआ, आणाइविराहणा य दुविहा उ । arrrrrकरणे, जा जहि आरोवणा भणिया ||६६३ ॥ विपर्यस्तेन ग्रहणे करणे वा चतुर्लधुकाः, उपलक्षणत्वालघु मासरात्रिन्दिवपञ्चके श्रपि । इदमुक्तं भवति उत्कृष्टस्य यधाकृतस्यापात्रे पात्रस्योत्पादनाय निर्गतः तस्य योगमकृत्या ऽल्पपरिकर्मोत्कृष्टमेव गृह्णाति चतुर्लघु परिकर्म या प्रथमतया गृहाति चतुर्ला योगे कृतेपि न लभ्यते तदाऽल्पपरिकर्म गयेपणीयम् तस्योत्पादनाय निर्गतः प्र धमत एव सपरिकर्म गृहाति चतुषु इति श्रीणि चतु शुकानि एवं मध्यमस्यापि त्रिषु स्थानेषु त्रीणि मासिकानि । जघन्यस्य स्थानकत्रयेऽपि त्रीणि रात्रिन्दिवपञ्चकानि । यथा यथाकृताऽऽदिविपर्यस्तग्रहणे प्रायश्चित्तमुक्तं तथेोत्कृष्टाऽऽदीनामपि परस्परं विपर्यस्तम प्रायश्चितमय सातव्यम् तयया उत्कृष्टस्य प्रतिग्रहस्यार्थाय निर्गतो मध्यमं मात्रकं युद्धा ति मासिकं, जघन्यं टोप्परिकाऽऽदि गृह्णाति पञ्चकं, मध्यमस्य निर्गते तु गुद्धाति चतुधु जयवं गृह्णाति पञ्चकं ज घन्यस्य निर्गत उत्कृष्टं गृह्णाति चतुर्लघु, मध्यमं गृह्णाति मासिकम्। तदेवं विपर्यस्त ग्रहणे प्रायश्चित्तमुक्तम् । सम्मति विपर्यस्तकर निधीयते उत्कृष्टं भक्त्या मध्यमं करोति पार्क मध्ये संयोज्योत्कृष्टं करोति चतुर्लघु तदेव भङ्क्त्वा जघन्य करोति पञ्चकं, जघन्ये संयोज्योत्कृष्टं करोति चतुर्लघु, मध्यमं करोति मासिकम् आशाऽऽदयश्च दोषाः, बिराधना च । विराधना च द्विविधा संयमे, आत्मनि च । तथा चाह - पात्रस्य वेदनं भेदनं वा कुर्वत श्रात्मविराधना परितापमहादुःखादिका, संयमविराधना तु तता वि नमस्ते ततो या यस्यां संयमविराधनायानात्मविराधनायां वा श्रात्मव्यपरोपणा भणिता सा तस्यामभिधातव्या, तत्रामविराधनाय या सामान्यतधनुर्गुरु, संयमविराध नायां " छायचउसल हुगा " इत्यादिका कार्यनिष्पन्ना। यत एवं ततो न विधेयं विपर्यस्तकरणम् । बृ० १३० १ प्रक० । 1 अथ पानस्यैव विशेषविधि विभणिपुराओभासणा व पुच्छा, दिहे रिते मुद्दे बहते य । संसद्वे उक्खिने, सुके अपणास दणं ।। ६६५|| पात्रस्योत्पादनायामवभाग कर्त्तव्यं तत्र पृच्छति शिष्यःकिट पात्र प्रस्तताऽदम् है एवं रिकम् अधिकं वा ? कृतमुखमकृतमुखं वा वहमान कमवहमान या संम संसूनिशिया शुष्कमा वा ? प्रकाशमुख १०७ पतकप्पिय प्रकाशमुर्ख वा । इत्यष्टी पृच्छा घासां निर्वचनं स्वयमेव सूरिरभिधास्यति । तथा - (ट्टू ति) दृष्ट्रा चक्षुषा निरीक्ष्य पार्थ यदि निर्दोषं तदा युद्धाति । अथेनामेव गाथां विचरीषुः प्रथमद्वितीयपृच्छयौरेकगाथया परिहारमाददिट्ठमदिट्ठे दिट्ठ, खमतरमियरे न दीसए काया | दहिमाईहि अरि, वरं तु इयरे सिया पाया ।। ६६६ ।। दृष्टादृष्टयोः पात्रयोर्मध्ये दृएं. क्षमतरं समशब्द हद चुक्कार्थः ततब्ध क्षमरतमहादतिशयेन गृहम् कुत इत्याहइतरस्मिर (नदी सयत्ति) प्राकृतत्वादेकवचनम् न दृश्यन्ते, कायाः पृथिवीकायाऽऽदयः, तथा दध्यादिभिरित्यादि प्रह मोदकादिपरिग्रह तैरतिरिक्तं पूर्ण वरम् इतरस्मिन रिले स्युर्भवेयुः कदाचित् प्राणाः कुन्धुप्रभृतयो जीवाः । यदि पुनर्न तत्र प्राण संभवस्तदाऽपि सम्यगुपयुज्य गृह्णतां न दोषः । अथ कृतमुखाऽकृतमुखयोः किं कृतमुखं ब्राह्यमुनाकृतमुखम् । उच्यतेअयमुद्दे दुष्पस्सा बीयाई छेयथाऽऽद दोसा था। मादते फावते अओ पनं ।। ६६७ ।। अकृतमुखे भाजने दुर्दश्या श्रप्रत्युपेक्ष्या बीजाऽध्दयो जीवाः, तव बीजानि तत् दुत्थानि श्रादिशब्दात्त्र साऽऽदिपरिग्रहः, छेदनमेदनयोर्वा दोषास्तत्र भवेयुः यत एवं ततोऽकृतमुखं परि र्तव्यम् । अथ वहमानका वहमानकयोः कतरत् श्रेष्ठमित्याहकुन्ध्वादयः सत्त्वा श्रवहमानके प्रायः सम्भवन्ति, श्रतः प्रासुकेन चादिना वहमानकं व्याप्रियमाणं यत्तत्पात्रे धनाय हितमिति धन्यं, संयमधनोपकारकमित्यर्थः । " अथ संसृष्टाऽऽदिपृच्छात्रयं प्रतिविधत्तेएमेव य संस, फामुएय पसत्थ नाह पटिकुद्धं । उक्खितं च खमतरं, जं चोल्लं फासुगदवेणं ।। ६६८ ॥ एवमेव यथा वहमानकं तथा संसृष्टमपि यत्प्रासुकेन भक्ताssदिना सं रतिं तत्प्रशस्यमाशुकेन पुनः संसृष्टं प्रति कुटं निक्षिप्तम् उत्क्षिप्तनिक्षियोर्मध्ये यदा प्रयोगव गृहिणा पात्रमुत्तमात् क्षमतरं युक्ततरम् बचाई प्रासुकं द्रव्येण ताऽऽदिना तत्पानं श्रेयः अर्थादापत्रमप्राशुकेनाई परिहार्यम् । 3 अथ किं प्रकाशमुखं गृह्यतामप्रकाशमुखं वा - जं होइ पगासमुह, जोग्गयरं तं तु अप्पगासा तु । तसवीवाह अद, इमं तु जयर्थ पुणो कुरा || ६६६ | यज्ञपति प्रकाशमुखम् योग्यतरं संयमा55 मविराजमाया अभावाद्विशेषेण योग्यप्रकाश मुखभाजनान् इत् पा त्रस्य प्रशस्याप्रशस्यरूपतामुपवर्ण्य तस्यैव विधिशेषमभिधातुमुपक्रमते " तसवीया इत्यादि पचाम्। तत्पार्थ पश्चार्द्धम् प्रत्युपेक्ष्य यदि सजीवा55दिकं जन्तुजातं किञ्चित् न पश्यति तद्रष्ट्रा इमां वक्ष्यमाणां यतनां पुनः करोति । 1 · 39 तामेवाऽऽह श्रमेषपासमाई, पुन्हा मूलगुण उत्तरगुणे प । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२६ ) निधानराजेन्द्रः । पत्तकण्पिय तिद्वाणे तिक्तो, सुद्धो ससिद्धिमाई || ६७० ॥ (ओमंथ त्ति ) तत्पात्रमवाङ्मुखं कृत्वा त्रीणि स्थानानि समाहितानि त्रिस्थानं मणिवधहस्ततल भूमिकालक्षर्ण तल त्रिःकृत्यः त्रीन् वारान् प्रत्येकं प्रस्फोटयेत्, ततः प्राणास्त्रसाः, आदिद्वीजानि याद न गृहाति पृच्छा मूलगुणोतरगुणे । यदि शिष्यः पृच्छति के मूलगुणाः के चोत्तरगुणाः । श्रत्र निर्वचनम वक्ष्यते । ( सुद्धो ससिद्धिमाईसु सि) वाकायः प्रतिप्यमाण आसीत् तदचनाऽपनीताकायतया कदाचित् सस्निग्धं भवेत् तच्च यदि विः कृत्वः प्रस्फोessदिविधिं कुर्वता न परिभावितं तथाऽपि श्रुतज्ञानप्रामागययलेन शुद्ध आदिशब्दाद्वीजफायपरिग्रहः । एतदेव भावयति , दाहिणकरेण कोणं. घेत्तुत्ताणेण नाम मणिबंधे । फोडेइ तिन्निवारे, तिनि तले तिनि भूमीए || ६७१ ।। दक्षिणेन फसानेन पात्रश्य को कर्ण हत्या पात्र वाङ्मुखं त्रीन् या कृत्या वामहस्तस्य मणिबन्धे जीन वारान प्रस्फोट यति ततखीन वारान् हस्ततले, श्रीन् भूमिकायामिति । तसत्रीया तु दिद्वे, न गिराई गिरती य अरिडे । गहसम्म उ परिमुद्धे, कप्प दिहि वि बहू ||६७२|| नवकृत्वः प्रस्फोटित सति असीजाऽऽजिन्जातं तं यदि तदा न हाति अथ न त गृहाति श्र महताऽपि प्रयत्नेन प्रत्युपमासानि तदा बीजाउदामि समयपि शुषित्वान दानि ततः परिशुद्धं निर्दोषमिति मत्वा पात्रस्य ग्रहणं कृतं तत उपाश्रयमागतैस्तानि दृष्टानि ततः को विधिरित्याह-कल्पते बहुभिरपि वीजाऽऽदिभिः पश्चात् दृष्टेरिति । किमुक्रं भवति तत्पापमप्राकमिति म त्वा न भूयोऽयारिणः प्रत्यर्धतेन या परि थ > येन गृहीतत्वात् किं त्वेकान्ते बहुप्रासुके प्रदेशे तानि वीजानि यतनया परिष्ठापयेत् । पत्तरह दिय' शब्दे द्वितीयभागे ५५७ पृष्ठे उक्तम् ) स्वनामख्याते ग्रामे, यत्र वीरः प्रतिमया स्थितः, तत्रैव शून्यागारे स्कन्दी नाम ग्रामकूटपुत्रो दास्या सह रेमे । श्रा० म० १ श्र० । आ०चू० । भिकाया नगर्यो हिस्से बैसे "तस्थ से पंचमे पहारे से गं आलम्भिवार रायरीप बादया पत्तकालंसि बेलि रोस्व सरीरगं विप्यजदामि २०१५ २० पत्तग-पात्रक - न० । पिठरिकाविशेषे. भ० १५ श० । पत्रक - न० लेखे, बृ० १ ० १ प्रक० । पत्तगधुवण पात्रकधावन - न० । पात्रमलाऽऽदिप्रक्षालने, पं० व० २ द्वार । 35 पत्तचारण - पात्रचारण- पुं० । नानाद्रुमफलान्युपादाय फलाऽऽश्रयप्राण्यविरोधेन फलतले पादोत्पनिक्षेपले ग २ श्रधि० । i । पत्ता पत्रच्छ वि० [पय रा० पत्तच्छेज-पत्रद्वेष न० अत्तरशतपत्रा मध्ये विपक्षिसंस्थाकपचच्छेदने हस्तला २ ० ० क लाभेदे, शा० १ ० १ ० । कल्प० । पचच्छेजकम्म ( रा ) - पत्रच्छेयकर्मन् न पत्रच्छेयनिष्णादिते वस्तुनि श्राचा० २ ० २ चू० २ ० । पराइ प्राप्तार्थ त्रि० अधिकृतकर्मणि निष्ठाङ्ग २०१४ ० १ उ० । बहुशिक्षिते, सुन्दरे च । दे० ना० ६ वर्ग ६८ गाथा । अनु० । चउरा निउणा कुसला, छेत्र विउसा बुधा य प तट्ठा । पाइ० ना० ६० गाथा । कृतप्रयोजने, उपा० ७ श्र० । पत्त - पत्तन - न० | नानादेशाऽऽगतपण्यस्थाने. अनु० । बाणफल देना० ६ वर्ग ६४ गाथा ( पट्टण 'शब्देऽ स्मय भागे २४५ पु सर्वमुक्तम् ) पत्तट्ट - । 6 ', पत्ता- प्रापणा-श्री० सूत्रस्थापरिवर्तनायाम् पं० चू. ४ कल्प | पत्ताव्वाण -माप्तनिर्वाण वि० । प्राप्तं कपायाऽऽदिशमनेन निर्वाणं शीतीभावो येन स प्राप्तनिर्वाणः । उपशान्तकषाये, उत्त० २५ अ० । अथ " पुच्छा मूलउत्तरगुणे ति" अस्य निर्वचनमाहमुहकरणं मूलगुणा, पाए निक्कोरणं च इयरे उ । गुरुगा गुरुगा लहुगा विसेसिवा चरिमए मुद्धो ||६७३। पात्रस्य यन् मुखकरणं तन्मूलगुणाः, यत्पुनर्मुखकरणानस्तरं तद्यन्तवर्तितो निरस्योत्किरणं धिष्फोरणमित्यमीयते तदितरे उत्तरगुणाः अत्र चतुर्भार्थ - समर्थ संयतार्थमेव चोत्कीर्णमिति प्रथमो भङ्गः । संयतार्थ कृतमुखं स्वार्थमुत्कीर्णमिति द्वितीयः । स्वार्थे कृतमुखं संयता पत्ततिलमंडगसगडिया-पात्रतिलभाण्टकशकटिका श्री. । पात्रवृतिखानां भारडकानां च सुरमयभाजनानां भूतायां गन्त्र्याम् भ० २ श० ५ उ० । मितिनीयः स्वार्थ कृतमुखं स्वार्थमेयोत्कीर्ण पत्तपाडमा पात्रमतिमा खी० पाचपडमा' शब्दायें स्था०४ मिति चतुर्थः । अत्र त्रिषु महेषु प्रायश्चित्तम् । तद्यथा- प्रथमे भारी गुरुकाः तपसा कालेन गुरवः द्वितीयेऽपि चतुर्गा, तपखा गुरदः, कालेन लपवतीयेच तुर्ला, कालेन गुरवः तपसा लवः । चरमे चतुर्थे भद्रे शुद्ध उभयस्यापि स्वार्थत्वादिति व्याख्यातः पात्र कल्पिकः । वृ० १ ० १ प्रक० । पत्तकयवर पत्रकचवर - पुं० पत्राण्येव कचवरः । पत्रस्वरूपे कचवरे, जंः २ बक्ष० । पचकारि ( ग ) - प्राप्तकारिन् त्रि० प्राप्यकारिधि, स्पष्टार्थ ग्राहिणि विशे (इन्द्रियाणां प्राप्यायाप्यकारित्वम् ई ० ठा० १ उ० । पचपल्लव पत्रपल्लवपुं० अत्यभिनव ०१०१० पत्तभार-पत्रभार-पुं । दल वये, ज्ञा० १ ० १ श्र० । “नवकहरियभिसंतपत्त भारंखकारगम्भीरदविणिजा ।" राग चौ० । पत्तय-पत्रक-नलतात्पादिसम्बन्धिनि, (अ) ग न्धद्रव्यविशेषे, श्राचा० १ ० १ ० ५ उ० । गेयभेदे, स्था० ४ ठा० ४ उ० । । पत्तरह-पत्ररथ-पुं० पक्षिविशेषे, "खडणा खगा खता पतरहा अंडया विहंगा य ।” पाइ० ना० ४१ गाथा । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्तल पत्तल - पत्रल ०" विद्युत्पत्रीतान्धाः ८ ११७३ इति स्वाथै लः प्रा० २ पाद पत्रशब्दार्थे पत्रसि पत्तसमिद्धं ।” स्कन्धपत्रलमिति वचनात् । रा० । पदमवति. जं० २ वक्ष० । चं० प्र० । श्रा० म० । धण्पत्तलछायाबहुल- फुल्लइ जाम्ब कयम्बु" प्रा० ४ पाद। तीक्ष्णे, "पत्तसमिद्वे पत्तलं ।” पाइ० ना १३६ गाथा । दे० ना० । 66 पत्तविच्छुया - पत्रवृश्चिक - पुं० । चतुरिन्द्रियजीवभेदे, जी० १ प्रति० ( ४२७ ) अभिधानराजेन्द्रः । ० । प्रज्ञा० । पत्तर्वेटिय-पत्रवृन्तक-पुं० । त्रीन्द्रियजीवभेदे, प्रशा० १ पद । पत्तसगडिया - पात्रशकटिका - स्त्री० । पलाशाऽऽदिभृतायां गव्याम् भ० २श १ उ० । पत्तसमिद्ध - पत्रसमृद्ध - त्रि० । पत्तसमिद्धं पत्तलं । पाइ० 39 ना० १४० गा० । 61 पत्तसमुग्ग-पात्रसमुद्ग - पुं० । पात्रभृतसमुद्गे, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । पत्तहार - पत्रहार - पुं० | त्रीन्द्रियजीवभेदे, प्रशा० १ पद। जी० । पत्ताबंध पात्रबन्ध - पुं० । श्रधिकोपधिभेदे, येन वस्त्रखण्डेन चतुरप्रेण पालयं धार्यते । ०३४० औ०प० पं०० । | अथ पात्र कबन्धाऽऽदीनां प्रमाण निरूपणायाऽऽहपचाचपमासं, भाणपमाखेव होइ काय । चतुरंगुलं कर्मता, पत्ताबंधस्स कोणा ॥ पात्रक बन्धप्रमाणं भाजनप्रमाणेन कर्त्तव्यं भवति । यदि मध्यमं जपन् वा पात्रं भवति तदा पात्रचन्ध तद नुसारेण करणीयः । श्रथोत्कृष्टुं प्रमाणं पात्रं तदा सोऽपि गुरुतरः कार्यः। किं बहुना ? - यथा ग्रन्थौ कृते सति पात्रकस्य चन्धस्य कोणाश्चतुरङ्गलमध्ये कामन्तो भवन्ति प्रत्येरतिरिक्रश्चतुरङ्गुला अञ्चला यथा भवन्तीति भावः, तथा पात्रक बन्धमाविधेयम् । रयतागस्स पमाणं, भाणरमाणेण होति कायव्वं । पापाहिां करितं मचतुरंगुलं कमति । रजस्त्राणस्य प्रमाणं भाजनप्रमाणेन कर्त्तव्यं भवति । कथमित्याह प्राक्षिण्येन पे कुर्वन् पालस्य मध्ये यं चतुरगु लं चत्वार्यङ्गुलानि रजस्त्राणमतिक्रामति तथा रजस्त्राणमाणं विधेयम् । वृ० ३ उ० । " पत्ताबंधस्स णं गंठी उच्छोडिजाण साहेजा चउत्थं ।” महा० १ चू० । पत्तामोड- पत्राssमोट- पुं० । तरुशाखामोटितपत्रे, नि० १० ३ वर्ग ३ श्र० । भ० । पत्तासव - पत्राssसव - पुं० । धातकीपत्ररससारे श्रासवे, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । प्रज्ञा० । पताहार पत्राऽऽहार पुं० पत्रकाद्वारे यानप्रस्थे श्री० । पत्ति (ए) - पत्रिन् - पुं० । पत्रं पक्षः श्रस्त्यस्य इनि । पक्षिणि, शरे, श्येने रथिनि पर्वते ताले व पते त्रि० वाच० । प्राप्ति - स्त्री० । लाभे, अनु० । सूत्र० । श्रा० चू० । पात्री - स्त्री० । जलाऽऽद्याधारे भोजनयोग्ये श्रमत्रे वाच० । जं० २ यक्ष० । पत्तेयनाम (ग) प्रीतिरेव प्रीतिक, स्वार्थिकफप्रत्ययो पतिय प्रीतिक पादानेऽपि रूडेर्नपुंसकतेति । प्रीती, स्था० ४ ठा० ३ उ० । प्रीतिसमुत्पाद के वचने, उत्त० १ उ० । प्रीतिकरे, कल्प० ३ अधि० ६ क्षण । प्रतीत त्रि० । उपपत्तिभिः प्रतीते, स्था० ६ ठा० । पत्रित - त्रि० । संजातपत्रे, ज्ञा० १ श्रु० ७ श्र० । प्रातीतिक न० प्रतीतिः प्रयोजनमस्येति प्रातीतिकम। प्राकृतत्वाद्रूपनिष्पत्तिः । शपथाऽऽदौ, उत्त० १ श्र० । पतियमास प्रतीयमान- वि० रोचयति तं सहमा प सियमारोह रोयमाह । " एकार्थते । श्रावा० २० १ चू० २ ० २ उ० । पत्तिया पत्रिकाखी. सुरभिपत्रे, आचा० १ ० १ ० - ५ उ० । - । पत्तिसमिद्ध - देशी - न० | तीक्ष्णार्थे, दे० ना०६ वर्ग १४ गाथा | पत्ती-पत्नी- स्त्री० । भार्यायाम्, “जाया पत्ती दारा, घरिणी भजा पुरंधी य ।" पाई० ना० ५६ गाथा । पत्तेय प्रत्येक न० एकं प्रति प्रत्येकम् । अत्राऽऽभिमुख्येप्र विशब्दन सायाम् एकं प्रतीत्यर्थे, “पणे पत्ते वणडपरिक्खित्ताश्रो ।” जी० ३ प्रति० ४ श्रधि० । वीप्सायामव्ययीभावः । एकमेकं प्रतीत्यर्थे, श्राचा० १ ० ४ ०२ उ० ॥ पाइ० ना० । एकैकस्मिन् श्राचा० १ ० १ ० ६ उ० । प्र शा० पृथक्पृथगित्वर्थे, दश० १ ० विशे० । पत्ते पुढी पुढो । नि० चू० १ उ० प्रश्न० । सूत्र० । श्र० । श्राचा० । । पत्तेयजीव - प्रत्येकजीव - त्रि० । प्रत्येको जीवो येषां ते तथा । असाधारणशरीरेषु श्राचा० १ ० ४ श्र० ५ उ० । ( 'वएफइ ' शब्दे विवेकः ) पचेपणाम(स) -त्येकनामन्न० नामकर्मकर्म० । पत्तेय तणू पत्ते-उदए दंतट्ठिमाइ थिरं ॥४६॥ प्रत्येोदयेन प्रत्येकनामकर्मोदय वशाज्जन्तूनां प्रत्येकं तनुः पृथक् पृथक् शरीरं भवति । यदुदयादेकैकस्य जन्तोरेकैकेशरीरमादारिकं वैकियेया भवति नामेत्यर्थः । कर्म० १ कर्म० । पं०सं० ।" पत्तयथिरं सुभं च नायव्वं (८) । " याचं जीवं प्रति मिनं शरीरमुपजायते तत् प्रत्ये कनाम, तस्योदयः प्रत्येकशरीरिणां प्रत्येकशरीरिणश्च नारकामरमनुष्यीन्द्रियादयः पृथिव्यादयः कपित्थादितरव । नतु यदि प्रत्येकनाम्न उदयः कपित्थादिना मिष्यते तर्हि तेषां जीवं जीवं प्रति मिनं शरीरं भवेत् न च तद् भवति यतः कपित्थाम्यस्यपी सेवादीनां मूलस्कन्धत्वक्शाखाऽऽदयः प्रत्येकसंख्येयजीवा इष्यन्ते । यत उक्कं प्रज्ञापनायामेकास्थिकबहुवी जवृक्षप्ररूपणाऽवसरे-" एएसिं मला अजिजीविया कंदा वि चंदा विताला पवाला विपत्ता पतेय जीविया ।" इत्यादि मूलाssदयश्च फलपर्यन्ताः सर्वेऽप्येकशरीराऽऽकारा उपलभ्यन्ते, देवदत्तशरीरचन्यथाहि देवदत्तरामसडमेकरूपमुपलभ्यते, न मूलाग्योऽपि तत एकशरीरात्मकाः कपित्थादयस्ते चासं Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२८) पत्तेयणाम अभिधानराजेन्डः। . पत्तेयसरीर बोयजीवास्ततः कथं ते प्रत्येकशरीरिणः । उच्यते-प्रत्ये- वा कदाचिद्भवति । तथा चोक्तम्-"पत्तेयबुद्धाणं पुवाहीयं करारीरिण एब ते, तेषां मूलाऽऽदिष्वसंख्येयानामपि जीवा- सुयं नियमा हवह, जहलेणं एक्लारस अंगा, उक्कोसेणं भिन्नमां भिन्नभिन्नशरीरसम्भवात् , केवलं श्लेषद्रव्यविमिश्रितस- दसपुब्बी, लिगं च से देवया पयच्छइ, लिंगवजिश्रो वा कलसर्षपवतेरिव प्रबलरागद्वेषोपचिततथारूपप्रत्येकनामक- भवइ,जतो भणियं-"रुप्पं पत्तेयबुहा इति ।" प्रा०म०१ अ०। मपुगलोदयतस्ते, तथा परस्परविमिश्रशरीरा जायन्ते । तथा पत्तेयबुद्धसिद्ध-प्रत्येकबुद्धसिद्ध-पुं० । प्रत्येकबुद्धत्वे सिद्धे, बोतं प्रज्ञापनायामेव स्था० १ ठा० । पा० । ये हि प्रत्येकबुद्धाः सन्तः सिद्धाः। "जह सगलसरिसवाणं, सिलेसमिस्साण पट्टिया वट्टी। ध०२ अधि० । प्रशा। पत्तेयसरीराणं, तह होति सरीरसंघाया ॥१॥ पत्तेयरस-प्रत्येकरस-पुं०। एकमेकं प्रति भिन्नो रसो येषां ते जह वा तिलपप्पडिया, बहुएहि तिलहि मीसिया संती। प्रत्येकरसाः । अतुल्यरसे, "चारि समुद्दा पत्तेयरसा पत्तेयसरीराणं, तह होति सरीरसंघाया ॥२॥" परमत्ता। तं जहा-लवणोदए,वारुणोदए,खीरोदए,घनोदए।" गाथावयस्याप्ययमक्षरार्थः-यथा सकलसर्षपाणां श्लेषद्र- स्था०४ ठा०४ उ०।। व्येण मिश्रीकृतनां वर्तिता वलिता वर्तिः, यथा वा बहु- पत्तेयसरीर-प्रत्येकशरीर-पुं०। प्रत्येकनामकर्मोदये वर्तमाने, भिस्तिलैर्विमिश्रिता सती तिलपर्पटिका भवति, तथा प्र. न च नारकाऽमरमनुष्यद्वीन्द्रियाऽऽदयः पृथिव्यादयः कपिस्येकशरीराणां शरीरसंघाताः । इयमत्र भावना-यथा तस्यां स्थाऽऽदितरवश्व व्याख्याताः। पं० सं०३ द्वार।(बणप्फर शब्दे वर्ती सकलसर्षपाः परस्परं भिन्नाः नान्योन्यानुवेधभाज- व्याख्या) स्तथा प्रदर्शनात् , अत एव सकलग्रहणं, येन स्पष्टमेवान्यो- सम्प्रति प्रत्येकवनस्पतिजीवप्रमाणमाहन्यानुवेधाभावः प्रतीयते । एवं वृक्षाऽऽदावपि मूलाऽऽदिषु पत्तेया पजत्ता, पयरस्स असंखभागमित्ताओ। प्रत्येकमसंख्येया अपि जीवाः परस्परं विभिन्नशरीराः, यथा लोगा असंख अपज-त्तयाण साहरणमणंता ॥२३॥ च ते सर्षपाः श्लेषद्रव्यसंपर्कमाहात्म्यात्परस्परं विमिश्रा जातास्तथा प्रत्येकशरीरिणोऽपि प्रत्येकनामकर्मपुगलोदयतः पर्याप्ताः प्रत्येकवनस्पतिजीवाः घनीकृतस्य लोकस्य सम्बपरस्परसंहता जाता इति । पं० सं० ३ द्वार । न्धिनःप्रतरस्य असङ्ख्यतमे भागे यावत् अाकाशप्रदेशास्ता. वत्प्रमाणा भवन्ति । अपर्याप्तानां पुनः प्रसेकतरुजीवानामसपत्तेयदुक्ख-प्रत्येकैकदुःख-त्रि० । प्रत्येकमेकं दुःखं प्रत्येकैक- इम्ख्यया लोकाः परिमाणं. पर्याप्तापर्याप्तानां च साधारणजीदुःखम्। एकैकस्यासाधारणादुःखे, "पत्तेयबुक्ने जीवाणं,"प्र- वानामनन्तलोकाः। प्रशा०१ पद। त्येकैकदुःखं जीवानां, स्वकृतकर्मफलभोगित्वात्। स्था०१ठा। द्वीन्द्रियाऽऽदीनां प्रत्येकशरीरवत्त्वम्पत्तेयबुद्ध-प्रत्येकबुद्ध-पुं०।प्रतीत्यैकं किश्चिद् वृषभादिकम "वेइंदियमागासे, पाणवहे उवचए य परमाणू । निल्यताऽविभावनाकारणं वस्तु बुद्धाःबुद्धवन्तः परमार्थमिति अंतरबंधे भूमी, चारण सोवक्कमा जीवा ॥१॥" प्रत्येकबुद्धाः। प्रत्येकपरमार्थवत्सु तेषु, (करकण्डादीनां कथा रायगिहे. जाव एवं वयासी-सिय भंते ! जाव चत्तारि करकडादिशब्देषु)('णमि'शब्दे चतुर्थभागे१८०७पृष्ठे मीलकः) पंच वेइंदिया एगयो साहरणसरीरं बंधति,बंधतित्ता तो स्वयंबुद्धप्रत्येकबुद्धानां च बोध्युपधिश्रुतलिङ्गकृतो विशेषः । पच्छा आहारेंति वा, परिणामेंति वा, सरीरं वा बंधति । तथाहि-स्वयंबुद्धानां बाह्यनिमित्तमन्तरेणावबोधिः, प्रत्येकबुद्धानां तु तदपेक्षया करकरावादीनामिवेति उपधिः । स्वयं णो इणहे समहे, वेइदिया णं पत्तेयाहारा पत्तेयपरिणामा बुद्धानां पात्राऽऽदि द्वादशविधः । (स्था० ) प्रत्येकबुद्धानां तु पत्तेयसरीर बंधति, बंधतित्ता तो पच्छा आहारेंति वा, नवविधः प्रावरणवर्ज इति । स्वयंयुद्धानां पूर्वाधीते श्रुते परिणामेंति वा, सरीरं वा बंधति । तेसि णं भंते ! जीवाअनियमः, प्रत्येकबुद्धानां तु नियमतो भवत्येव लिङ्गप्रति- | ण कइ लेस्साओ परमत्ताओ । गोयमा ! तो लेस्साओ पत्तिः । स्वयं बुद्धानामाचार्यसन्निधावपि भवति, प्रत्येकबुद्धा परमत्ताओ। तं जहा-कएहलेस्सा,णीललेस्सा,काउलेस्सा। नां तु देवता प्रयच्छतीति । स्था० १ ठा। नं० । श्रा० चू० । गुरुसन्निधौ वा गत्वा (लिङ्गं) प्रतिपद्यते, यदि च एकाकी एवं जहा एगणवीसइमे सए तेउकाइयाणंजाव उन्नति, चरणसमये, इच्छा च तस्य तथारूपा जायते, तत एकाकी णवरं सम्मविट्ठी वि, मिच्छट्ठिी वि, णोसम्मामिच्छादिट्ठी, विहरति, अन्यथा गच्छवासे श्रवतिष्ठते । श्रथ पूर्वाधीतं दो णाणा, दो अम्माणा, णियमं, णो मणजोगी, वइजोश्रुतं तस्य न भवति तर्हि गच्छं चाऽऽवश्यं न मुञ्चति । तथा चोक्तं चूर्णी-“पुब्बाहीयं सुयं से हवइ वा, जह से नत्थि तो गी वि, कायजोगी वि, आहारो णियमं छद्दिसिं । तेसि णं लिंग नियमा गुरुसन्निह पडिवज्जद, गच्छे विहर इति । भंते ! जीवाणं एवं सप्लाइ वा,पालाइ वा, मणेइ वा, वईति अह पुयाहीयसुयसम्भवो अत्थि, तो से लिंगं देवया पय- वा, अम्हे णं इटाणिढे रसे, इटाणिढे फासे,पडिसंवेदेमो । च्छइ, गुरुसभिहे वा पडिवज्जइ, जइ य एगविहारावहरण- जो इण्ट्रे समझे. पडिसंवेदेति पुण ते, ठिई जहमेणं समत्थो, इच्छा च से, तो एको चेव विहरइ, अन्नहा गच्छे विहरह" इति । प्रत्येकबुद्धानां तु पूर्वाधीतं श्रुतं नियमतो अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वारस संवच्छराई, सेसं तं चेव । एवं भवति । तच जघन्यत एकादशाङ्गानि,उत्कर्षतः किश्चिन्यूना तेइंदियाणए वि, एवं चउरिदियाणए विणाणत्तं इंदिरसु नि दशपूर्वाणि,तथा लिङ्गं तस्मै देवता प्रयच्छति, लिइरहितो ठितीए य, सेसं तं चेत्र, ठिती जहा परावणाए । सिय Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्तेयसरीर (४२६) अभिधानराजेन्डः। पत्थग भंते जाव चत्तारि पंच पंचिंदिया, एगयो साहारणस- पत्तेयसरीरिदधवग्गणा-प्रत्येकशरिद्रव्यवर्गणा-स्त्री०। प्र. रीरं, एवं जहा बेइंदियाणं, णवरं छ लेस्सा तिविहा दिट्ठी त्येकशरीरिणां यथासंभवमौदारिकवैकियाहारकतैजसकाचत्तारि णाणा तिमि अमाणा भयणाए तिविहा जोगा। मणेषु शरीरनामकर्मसु प्रत्येकं विस्रसापरिणामेनोपचयमातेसिणं भंते ! जीवाणं एवं समाइ वा पमाइ वा जाव पत्रेषु सर्वजीवानन्तगुणेषु पुद्गलेषु,पं० सं० । वईइ वा अम्हे ण आहारमाहारेमो ?। गोयमा! अत्थेगइयाणं " पत्तेय वग्गणा इह, पत्तेयाणं तु उरलमाईणं । पंचराइसरीराणं, तणुकम्मपएसगा जे उ॥१॥ एवं समाइ वा परमाइ वा मणेइ वा वईइ वा अम्हे णं आहा नत्थे के कपएले, वीसलपरिणामउवचिया होति । रमाहारेमो, अत्थेगइयाणं णो एवं समाइ वा जाव बईइ वा सबजियाऽणंतगुणा. पत्तेया वग्गणा ताओ ॥२॥" अम्हे णं आहारमाहारेमो,आहारेंति पुण ते । तेसि भंते ! नत एकपरमारावधिकस्कन्धरूपा द्वितीया प्रत्येकशरीरिद्रजीवाणं एवं सखाइ वाग्जाव वईइ वा अम्हे णं इटाणिटे व्यवर्गमा, एवमेकैकं परमाएवधिकस्कन्धरूपाः प्रत्येकशरी रिद्रव्यवर्गणास्तावद्वक्तव्या यावत्कृष्टप्रत्येकशरीरिद्रव्यवर्गसद्दे इट्ठाणिढे रूवे इट्ठाणिढे गंधे इटाणिढे रसे इट्ठा णाः। पं० सं०५ द्वार। णिडे फासे पडिसंवेदेमो ? । गोयमा ! अत्थगइयाणं एवं पत्तोवग-पत्रोपग-त्रि० । पत्राण्युपगच्छतीति पत्रोपगः । बहसमाइ वा. जाव वईइ वा अम्हे ण इटाणिद्वे सद्दे० जाव लपत्रे, स्था० ४ ठा० ३ उ०। पत्रप्राप्ते, स्था० ३ ठा० १ उ०। इहाणि फासे पडिसंवेदेमो, अत्थेगइयाणं णो एवं सणा पत्रोपेते, प्राचा०२ श्रु०२ चू० ३ अ० । ति वा पम्माति वाजाव वईति वा, अम्हे णं इटाणिहे सद्दे पत्थ-पथ्य-न० । पथि मोक्षमार्गे हितं पथ्यम् । क्षपक}ण्या जाव इटाणिढे फासे पडिसंवेदेमो,पडिसंवेदेति पुण ते । तेणं गुणत्रये, " पत्थं सेयं णिव्युई णिव्वाणं सिचकर चेव " इभंते ! जीवा किं पाणाइवाए उवक्खाइजति पुच्छा । गो- त्येते एकार्थाः । सूत्र०१२०११ श्र०। स्था०। रोगोपशमहेयमा ! अत्थेगइया पाणाइवाए उवक्खाइअंति० जाव मि- ती, भ.१श०८ उ० । हिते, संथा० । जी०। भ०। प्रारोग्यच्छादसणसल्ले वि उवक्खाइजंति, अत्थेगइया णो पाणा- करे, शा. ११० १२ १०। आव० । इवाए उवक्खाइजति, णो मुसावाए उवक्खाइजति० जाव प्रस्थ-पुं०। कुडवचतुष्टयपरिमिते मागधतुलामाने, "चत्तर णो मिच्छादसणसल्ले उबक्खाइज्जति । जेसि पि य णं चेव कडवा,पत्थी पुण मागहो होइ।" चत्वारश्च कुसुवा एकल पिरिडता एकःप्रस्थो मागधो भवति,सोऽपि च धीरमप्रमाणजीवाणं ते जीवा एवमाहिजंति तेसि पि णं जीवाणं अ चिन्तायां सार्धानि द्वादश पलान्यवगन्तव्यः।ज्यो०२पाहु"दो स्थेगइयाणं विएणाते णाणते, अत्थेगइयाणं णो विमाए असईओ पसई,दो पसईश्री सेइया,चत्तारि सेहया कुडो,चणाणत्ते, उववाओ सम्बो० जाव सब्बट्टसिद्धाओ. ठिती त्तारि कुडवा पत्थो,चत्तारि पत्था ढगं।"(दो असईओ पसई जहोणं अंतोमुदुत्त, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, छ इत्यादि)धान्यभृतोऽवाङ्मुखीकृती हस्तोऽसतीत्युच्यते। द्वा भ्यामसतीभ्यां प्रसूतिः। द्वाभ्यां प्रमृतिभ्यां सेतिका भवति । ससुग्घाया केवलवजा, उव्वट्टणा सब्बत्थ गच्छंति० जाव चतसृभिः सतिकाभिः कुडवः । चतुर्भिः कुडवैः प्रस्थः। सव्वट्ठसिद्ध त्ति, सेसं जहा बेइंदियाणं । चतुर्भिः प्रस्थैराढक इति क्रमः । ६० ३ उ० । औ० । (रायगिहेत्यादि) (सिय ति ) स्यात्कदाचिन्न सर्वदा (ए. अनु०। सूत्र०। गो ति) एकत एकीभूय संयुज्येत्यर्थः । ( साहारणसरीरं प्रार्थ-पुं० । भावे णिजन्तादच्प्रत्ययः । प्रार्थने, रा०। बंधति त्ति) साधारणशरीरमनेकजीवसामान्यं बध्नन्ति प्रथ-पत्थकामुय-पत्थ्यकामुक-त्रि०। पथ्यमिव पथ्यमानन्दकारणं मतया तत्वायोग्यपुद्गलग्रहणतः। (ठिई जहा पलवणाए त्ति) वस्तु । भ०१५ शा पथ्यं दुःखत्राणं तत्कामयते यःस तथा। तत्र त्रीन्द्रियाणामुत्कृष्टा एकोनपञ्चाशद्रात्रिन्दिवानि, चतुरि- कृपया परेषां सुखदुःखप्राप्तिपरिहारेच्छौ, भ० १५ श० । न्द्रियाणां तु षण्मासा जघन्या तूभयेषामप्यन्तर्मुहूर्तम् चत्ता- प्रति०। रि नाण त्ति)पञ्चन्द्रियाणां चत्वारि मत्यादीनि ज्ञानानि भवः न्ति, केवलं त्वनिन्द्रियाणामेवेति । (अत्थेगइयाण त्ति) सं पत्थग-अस्यक-पुं० । काष्ट घटिते मगधदेशप्रसिद्ध धान्यमानशिनामित्यर्थः । ( अत्यगइया पाणाइवाए उवक्खाइजति विशेष, अनु० । विशे० । ज्ञा० । ('णय' शब्द चतुर्थभागे त्ति) असंयताः (अत्थेगइया नो पाणाइवाए उवक्खाइजंति १८७६ पृष्ठे प्रस्थकदृष्टान्तप्ररूपणा कृता) त्ति) संयताः (जेसि पिणं जीवाणमित्यादि) येषामाप जीवा प्रस्थकमानम्नां सम्बन्धिना प्राणातिपाताऽदिना ते पञ्चेन्द्रिया जीवा ए- दब्बलीए कंडियाणं बलियाए छंडियाणं खयरमुसलपच्चाहवमाख्यायन्ते-यथा प्राणातिपातादिमन्त एत इति तेषामपि याणं ववगयतुसकणियाणं अखंडियाणं अफुडियाणं फजीवानाम् अस्त्ययमों यदुतैकेयां सझिनामित्यर्थो विज्ञातं नानात्वं भेदो यदुतैते वयं बध्यादयः, एते तु बधकाऽऽदय लगसरिसयाणं एक्किक्कवीयाणं अद्धतेरसपलियाणं पत्थए इति, प्रत्येकेषामसज्ञिनाभित्यर्थः, नो विज्ञातं नाना- ण । से वि यणं पत्थए मागहए, कल्लं पत्यो १, सायं पत्थो त्वनुक्तरूपमिति ॥ भ० २० श०१ उ०। २, चउसद्विसाहस्सीओ मागहो पत्थो । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३० ) अभिधान राजेन्द्रः । पत्थग दुर्बलिया खिया करितानां पव पराक्रमत्यादिता नां सूर्यादिना खदिरमप्रत्याहतानां व्या नामखण्डानां संपूर्ण वयवानामस्फुटितानां राजिरहितानां (फलगसरिसयाणं) फलकवीनितानां कर्कराऽऽदिकर्षणेन, एकैकवीजानां वीननार्थे पृथक् २ कृतानामित्यर्थः, एवंविधानां सार्द्धद्वारपलानां तन्दुलानां प्रस्थको भवति णं वाक्याल ङ्कारे। पलाऽऽदिमानं यथा पञ्चभिर्गुजाभिर्माष: पोडमा: कर्षः, शीतिगुञ्जप्रमाण इत्यर्थः । स यदि कनकस्य तदा सु पर्णसंज्ञः नान्यस्य रजताऽऽदेरिति । चतुर्भिः कर्वैः पलमिति, विंशत्यधिकशतत्रयगुआप्रमाणमित्यर्थः ३२० | सोडापे च प्र स्थकः मगधे भवो मागध इत्युच्यते । (कल्लं ति) स्वः प्रातःकाल इत्यर्थः । प्रस्थो भवति भोजनायेति ( सायमिति) संध्यायां प्रस्थो भोजनायेति २ । एकस्मिन्मागधप्रस्थके कति तन्दुला भवन्ति ?, इत्याह- (चउसट्टित्ति) चतुःषष्टितन्दुलसाहस्रिको मागधप्रस्थो भवत्येकः तं पया पुरा आसी, ही माणा उ तेऽघुणा । माणभंडाणि धन्नाणि, सो हि जाण तहेव य ॥ १ ॥ व्य० १ उ० । पल्ये, विशे० । पार्थक - त्रि० । समीहके, सूत्र ० १ श्रु० २ श्र० २ उ० । पत्थगद्ध - प्रस्थकार्द्ध - न० | कुडवद्वय मितमगधंदेशप्रसिद्धे धाम्यमानविशेषे रा० । पत्थड - प्रस्तट- पुं० । प्रस्तरे, रा० । प्रस्तारे, जी० ३ प्रति० ४ अधि० | रचनाविशेषवत्समूहे. स्था० ३ ठा० ४ उ० । सू० प्र० । प्रतरे, स० । भवनानामपान्तराले, प्रज्ञा० २ पद । विमानप्रस्तटा अन्यत्र | स० ६२ सम० । पत्थडोदय प्रस्तुतोदक० समजले ०६०० पत्थण - प्रार्थन - न० । श्रभिलषितस्य चिन्तने, उत्त० ३२ प्र० । श्रनुमतौ सूत्र० १ ० ७ श्र० । पत्थराया प्रार्थना श्री स्वार्थे तत् परं प्रति दृष्टार्था | च्ञायाम् भ० १२ श० ५ उ० । पत्थणा - प्रार्थना - स्त्री० । अभिलाषे, आव० ४ श्र० । पं० सू० । प्रशंसायाम्, पञ्चा० ४ विद० "तिरथवरा मे पत्रीयंतु" इति मोक्षप्रार्थनावाक्यानि 'चेहयवंदण ' शब्दे तृतीयभागे १३१६ पृष्ठे व्याख्यातानि ) ( “आरोग्गं बोहिलाहं समाहिवर. मुत्तमं दितु । ” इति "शियाण" शब्दे चतुर्थभागे २१०६ पृष्ठे व्याख्यातम् ) यामामये दि चक्रवट्टि - तणावगुणरिद्धिपत्थणामइयं । " आव० ४ पत्थयण पथ्यदन न० । शम्बले, संथा० । ज्ञा० । परणाम पार्थनायक- वि० 61 66 संबलं च पाहिजं । पाइ० ना० १५५ गाथा । पत्थर - प्रस्तर - पुं० । स्तस्य थोऽसमस्तस्तम्बे |” ||८|२|४५|| इति स्तस्य थः । प्रा० २ पाद प्रतरे, शा० १ ० १ श्र० । पाषाणे, व्य० १ उ० । श्रा० म० । पत्थरंतर - प्रस्थारान्तर- न० । पापाणान्तरे, स्था० ४ ठा० १३० । परवरण-पस्तरण न आस्तरण (विलीना) पत्थर तथ 。 66 ० । पत्थयणं वा फलगा घेप्पंति । ” नि० चू० २३० । पत्थरमलिय- देशी - कोलाहलकरणे, दे०ना०६ वर्ग ३६ गाथा । पत्या‍ पाथरसीया प्रस्तरसीता श्री० प्रस्तराकुले क्षेत्रे ०१ उ० १ प्रक० । पत्थरि प्रस्तृत त्रिः । विस्तृते, “पत्थरिश्रं श्रत्थुश्रं । ” पाइ - ना० २१४ गाथा । पत्थरेत्ता प्रस्तीर्य-श्रव्य० । प्रस्तृतान् विधायेत्यर्थः । स्था ६ ठा० । पत्थव - प्रस्ताव - पुं० प्र-स्तु - घञ् । “घञ्वृद्धेर्वा ॥ ८ ॥ १६८ ॥ इति सूत्रेण वैकल्पिका 53कार प्रा० १ पाद अवसरे, देशः प्रस्तावisवसरो विभागः पर्याय इत्यनर्थान्तरम् । श्र० म० १ श्र० । दश० । विशे० । पत्था-प्र-स्था-धा० । प्रस्थाने, अवस्थितौ नि० १ ० ३ वर्ग ३ श्र० । " पत्थाण - प्रस्थान - न० । प्रयाणे, “पपसुं प्रत्थाणं, पत्थाणं ठायं च काय " ० प० परलोकसाधनमार्गे नि० १० ३ वर्ग ३० ॥ भ० । पत्थार - प्रस्तार - पुं० । स्थापनायाम्, अनु० । प्रायश्चित्तरचनाविशेषे पु० । षट् कल्पस्य प्रस्ताराः । सूत्रम् छ कप्परस पत्थारा पम्मत्ता । तं जहा - पाणाइवायस्स वावयमाणे १, मुसावायस्स वायं वयमाणे, २ अदिन्नादाणस्वायं वयमाणे २, अविरश्याचायं वयमाणे ४, अपुरिसवायं वयमाणे ५, दासवायं वयमाणे ६, इच्चेवं कप्पस्स छ पत्थारे पत्थरेत्ता सम्मं पडिपूरेमाणे तट्ठाणपत्ते सिया ॥ २ ॥ अस्य सूत्रस्य सम्बन्धमाह तुल्ल हिरणे संखा, तुल्लहिगारो विवाइओ दोसो । हवा अयमधिगारो, सा आवत्ती इहं दाणं ॥ ६६ ॥ द्वयोरप्यनन्तरप्रस्तुतसूत्रयस्तुल्याधिकरणमसंख्यासमानः पद संख्यालक्षणो ऽधिकार इत्यर्थः । यद्वानिको दोषः तुल्याधिकार, उभयोरपि मूत्रयोर्वचनदीपोऽचिकृत इति भावः । अथवा श्रयमपरी अधिकार उच्यते सा पूर्व शोधरापत्तिषु या, इह तु तस्या एव शोधेर्दानमधिक्रियते । श्रनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्य (२ सूत्रस्य) व्याख्या कल्पः साधुसमा चारः, तस्य संबन्धिनस्तद्विशुद्धिकारणत्वात्प्रस्ताराः प्रायतिरचनाविशेषाः पद प्रशताः तद्यथा प्राणातिपातस्य चाई पाती वाचं वदति साधोः प्रापधिनप्रस्तारो ऽधिकार उच्यते एकः । एवं मृषावादस्य वादं वदति द्वितीयः । श्रदत्तादानस्य वादं वदति तृतीयः । श्रविरतिव्रते यद्वा न विद्यते विरतिरस्याः सा अविरतिका स्त्री वा वदति चतुर्थः । पुरुषो नपुंसकस्तद्वादं वदति पञ्चमः । दासवादं वदति प ष्ठः । इतीत्युपदर्शने. एवंप्रकारानेतान् पद कल्पस्य प्रस्तारान प्रायश्चित्तरचनाविशेषान प्रस्तीर्य अभ्युपगमत आम नि प्रस्तुताः स्वधिया प्रस्तारयिता श्रभ्याख्यानदाता साधुः सम्यगमतिपूरयन् भ्रभ्यान्येवार्थस्यासद्भूततया अभ्याख्यानसमर्थनं कर्तुमशक्नुवत् तस्यैव प्राणातिपाताऽऽदिकर्तुरिव स्थानं प्राप्तं तत्स्थानप्राप्तः स्यात्, प्राणातिपाताऽऽदिका Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्चार री च दण्डनीयो भवेदिति भावः । अथवा प्रस्तारान् प्रस्तीर्य चिरन्तनस्याचाऽऽर्येणाभ्याख्यानदाता श्रप्रतिपूरयन् अपरापरप्रत्ययवचने समर्थ सत्यमकुर्वन् तत्स्थानप्राप्तः, कसंव्य इति शेषः । यत्र प्रायधिरूपदे विवदमान यदीरमारभते तत्पदं प्रापणीय इति भावः । एष सूत्रार्थः । अथ भाष्यकारी विषमपदस्याव्यामाह न ( ४३१ ) अभिधान गजेन्द्रः पत्थारो उ विरचणा, स जोतिसदगणितपच्छित्ते । पच्छिते तु परायं तस्स तु भेदा बहुविगप्पा ||७०|| प्रस्तारो नाम - विरचना स्थापना इत्यर्थः स च चतुर्दा ज्योतिष प्रस्तारः, छन्दः प्रस्तारो, गणितप्रस्तारः, प्रायश्चि प्रस्तारश्चेति । श्रत्र प्रायश्चित्तप्रस्तारेण प्रकृतं तस्य च प्रायश्चित्तस्यामी बहुविकल्पा श्रनेकप्रकारा भेदा भवन्ति । तद्यथा उग्घातमणुग्धाते, मीसे य पसंगि अप्पसंगी य । आवजणदाणाई, पडुच्च वत्युं दुक्खे षि ।। ७१ ।। इह प्रायश्चित्तं द्विधा - उद्घातम्, अनुद्घातं वा । उद्घातं लघुकं तच्च लघुमासाऽऽदि । श्रनुद्धातिकं गुरुकं तच्च गुरुमासाऽऽदि । तदुभयमपि द्विधा मिश्र, सशब्दादमिथं च । मिश्र नाम - लघु मालाऽऽदिकं तपःकालयोरेकतरेण द्वाभ्यां या गुरुकं, गुरुमाखाऽऽदिकं वा तपसा कालेन या शभ्यां वा लघुकम् । श्रमि तु लघुमासा 55दिकं तपःकालाभ्यां द्वाभ्यामपि लघुकं गुरुभासाऽऽदिकम् द्वाभ्यामपि गुरुकम | उभयमपि च तपःकालविशेषरहितं पुनरपि द्विधा-प्रसङ्ग अग्रसहि च प्रसङ्गि नाम प्रतिसेवा रूपेण शङ्काभोजिकाघाटिका 55दिपरम्परारूपेण या प्रसन युक्तम् । तद्विपरीतमप्रसङ्गि । भूयोऽप्येतदेकैकं द्विधा - श्रापत्तिप्रायश्चित्तं, दानप्रायश्चित्तं च । एतत्सर्वमपि प्रायश्चित्तं च द्विपक्षेऽपि श्रवणपक्षे, श्रमणीपक्षे च वस्तु प्रतीत्य मन्तव्यः । वस्तु नाम - श्राचार्याऽऽदिकं, प्रवर्तिनीप्रभृतिकं च । ततो यस्य वस्तुनो यत्प्रायश्चित्तं योग्यं तत्तस्य भवतीति भावः । ए प प्रायश्चित्तप्रस्तार उच्यते । 3 " सम्मं श्रपडिपूरेमाणे ति " पदं व्याचष्टेजारिसएणऽभिसतो, स चाधिकारी ण तस्स सगणस्स । सम्म अपूरयंतो, पच्चंगिरमप्पणो कुणति ॥ ७३ ॥ पारशेन दर्तुरमारखाऽऽदिना अभ्याख्यानेन स सार भिशप्तोऽभ्याख्यातः स तस्य स्थानस्य नाधिकारी न योग्यः, अप्रमत्तत्वात् । श्रतोऽभ्याख्यानं दत्वा सम्यगुप्र तिपूरयन् अनिर्वायन आत्मनः प्रत्यािं करोति तं दोषमात्मनी लगयतीत्यर्थः । कृता विषमपद्याख्या भा व्यकृता । सम्प्रति निर्युक्तिविस्तरः । दमेव य पत्धारा, पाणरहे मुसे अदत्तदा अविरति अपुरिसवादे, दासे वाई व वदमासे ॥७३॥ डेव प्रस्तारा भवन्ति । तद्यथा- प्राणवधवादं मृषावादवादमदत्ताऽऽदानवाद-मविरतिकावाद-मपुरुषवाद, दासवादं च बनिति । इति । ः। पत्चार तत्र प्राणवारे प्रस्तारं तावद्विधित्सुराहदद्दूर सुगाए सप्पे, मूसग पाणातिवादुदाहरणा । एतेसिं पत्थारं वोच्छामि महाणुपुव्वीए || ७४ ।। प्राणातिपाते एतान्युदाहरणानि निदर्शनानि भवन्ति द दुरः, शुनकः, सर्पों, मूषकश्चेति । एतेषामेतद्विषयमित्यर्थः । प्रस्तारं प्रायश्चित्तरचनाविशेषं यथानुपूर्व्या वक्ष्यामि । तत्र दर्दुरविषयं तावदाह प्रोमो चोदितो, दुपहियाऽऽदी संपसारेति । अहमविणं चोदिस् य य लम्भति तारिसं छिदं । ७५ अवमोऽवमरानिको राक्षिकेन दुः प्रत्युपेक्षिताऽऽदिषु स्खलि तेषु भूयो भूयो बोद्यमानः संप्रसारयति मनसि पर्यालोचयति । ( अहमद ) एनं रात्निकं नोपविष्यामि एवं पर्यालोच्य प्रयत्नेन गवेषयतोऽपि तादृशं हि रात्विकस्य न लभते । अमेण घातिए द- दरम्म दट्टु चलणं कर्त ओमो । वितो एस तुमेण वत्ति वितियं पि ते त्थि ॥ ७६॥ अन्यदा च मिक्षा 55दिपर्यटते अन्येन केनाऽपि दधातिते रात्निकेन तस्योपरि चरणं पादं कृतं दृष्ट्वा श्रवमो ब्रवीति - एष दर्दुरस्त्वया अपद्वाविः । रात्निको वक्ति-न म या अपायितं द्वितीयमपि मृषावादवतं ते तव नास्ति । एवं भणतस्तस्येयं प्रायश्चित्तरचना पचति भणाति आलोय निकाए पुच्छिते शिसिद्धे य । साहु गिहि मिलिय सच्चे पत्थारो जाव वयमाणो ॥७७॥ मासो लहुआ गुरुओ, चउरो लहुगा य होंति गुरुगा य । छम्मासा लघु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥७८॥ स एवमुत्वा ततो निवृष्याऽऽचार्य सकाशं मजति मासलघु, श्रागत्य भणति यथा तेन दर्दुरो मारितः, एवं भणतो मासगुरु । योऽवमाभ्याख्याता स गुरूणां सकाशमागतः, आचार्यश्राक्रम्- (घालोय ति ) सम्यगालोचय किमयं भवता दर्दरो मारितः । स प्राह-न मारयामि । एवमुक्ते प्रत्याख्यानदातुश्तु (निकाय ति) इतरो निकाचयति । रा निस्तु भूयोऽपि तायदेव भगति तदा चतुर्गुरु । अवमरानिको भणति - यदि न प्रत्ययस्ततः तत्र गृहस्थाः सन्ति, ते पृयन्तां ततो वृषभा गत्या प्रति पृष्टे च सति पट् लघु गृहस्थाः पृष्टाः सन्तः (निसिद्धे ति) निषेधं कुर्वन्ति ना स्माभिर्दर्दुरव्यपरोपणं कुर्वन् दृष्ट इति षट्गुरु । ( साहु त्ति ) ते साधवः समागताः श्रालोचयन्ति नापद्रावित इति तदा छेद (गिदि ति ) अथैवमभ्याख्यानदाता भणति गृहस्था असंवता यत्प्रतिनाम वैतदलीकं सत्यं या यते, एवं भणतो मूलम् अयासी भगति ( मिलिय त्ति) गृहस्था यूयं चेक मिलिता अहं पुनरेक इति ब्रुवते श्रनवस्थाप्यम् । सर्वेऽपि यूयं प्रवचनस्य बाह्या इति भ रातः पाराञ्चिकम् । एवमुत्तरोत्तरं वदतः पाराश्चिकं यावप्रायश्विन्तरो भवति । अचेदमेव भावयति किं साहं, अडामि पाणवहकारिणा सद्धिं । सम्म आलोएत्तिय, जा तिमि तमेव वियडेति ॥७६॥ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३२) अभिधानराजेन्डः। पत्यार पत्थार रास्निकं विना स एकाकी समायातः । गुरुभिरुक्तः किमे- योगचिकित्सानिमित्तानि जल्पति । एवंविधवषावादवादं वदककी त्वमागतोसिस प्राऽऽह-नाहंप्राणवधकारणासार्द्ध- तः प्रायश्चित्तप्रस्तारो भवति । मटामि । पवमुक्ने रात्निक आगतःशुरुभिरुक्तः सम्यगालोचय स चाऽयमकोऽपि प्राणी त्वया व्यपरोपितो,न वेति। स प्राह-न व्यपरो- वच्चइ भाणइ आलो-यय णिकाए पुच्छिए णिसिद्धे य। पितः। एवं बीन् बारान् यावदालोचाप्यते, यदि त्रिष्वपि वा- साहु गिहिम्मि य सव्वे,पत्थारो जाव वदमाणे ॥४॥ रेषु तदेव विकटयति अालोचयति, तदा परिस्फुटमेव मासो लहुओ गुरुओ, चउरो लहुगा य होति गुरुगा य । कथ्यते। तुमए किर ददुरओ,होत्ति सो वि य भणाति ण मए त्ति । छम्मासा लहु गुरुगा, दो मूल तह दुगं च ॥८॥ गाथाध्यमपि गताथस् । तेण परं तु पसंगो, धावति एक्के य वितिए वा ॥८॥ अथादत्ताऽऽदाने मोदकग्रहणदृष्टान्तं भावयतिकिलेति द्वितीयस्य साधोर्मुखादस्माभिः श्रुतं-त्वया दर्दुरो जा फुसति भाणमेगो, वितिओ अमत्थ लहुए ताव । हतो विनाशितःस प्राऽऽह-न मया हत इति। ततः परमेयंभ लद्धण णीति इयरो, तद्दिस्स इमं कुणति कोइ ॥८६॥ णनानन्तरं प्रसङ्गः प्रायश्चित्तवृद्धिरूप एकस्मिन् रात्निके एकत्र गृहे शिक्षा लब्धा, साउनमेन गृहीता, यावदसौ एको. द्वितीये वा अवमरानिके धावति। किमुक्तं भवति?-यदि तेन अमरालिको भाजनं स्पृशति सभ्यगादिष्टः तावत् छितीयो रालिकेन सत्यमेव दर्दुरो व्यपरोपितस्ततो यदि सम्यगा रत्नाधिकोऽन्यत्र संखड्यां अम्डुकान सम्वा च निगच्छति, इ. लोचयति भण्यमानो भूयो भूयो निहते तदा तस्य प्राय. तरः पुनरवमस्तान् मोदकाम् दृष्ट्वा कश्चिदीर्थ्यालुरिदं करोति. श्चित्तवृद्धिः। अथ तेन न व्यपरोपितस्तत इतरस्याभ्याख्यानं "बचाई" गाहा (४) "मासो सहुभो" गाहा (५)वधति) निकाचयतः प्रायश्चित्तं वर्धते। संजिवृत्य गुरुसकाश जति, आगस्य च भणति आलोचयेति, इदमेव भावयति रत्नाधिकेनादत्ता मोदका गृहीता ति । शेष प्राम्बत् । एक्कस्स मुसाबादो, कारं निण्हाइणो दुवे दोसा । अथाऽविरतिवादे प्रस्तारमाहतत्थ वि य अप्पसंगी, भवति एक्को व अन्नो वा ॥१॥ रातिणियवातितेणं, खलियमिलियपेल्लएण उदएणं । देवउले मेहुणम्मि य, अक्खाणं वा कुडंगे वा ॥८॥ एकस्याभ्याख्यानदातुरेक एव मृषावादलक्षणो दोषः, यस्तु। दर्दुरवधं कृत्वा निहते तस्य द्वौ दोषौ । एकःप्राणातिपातदो कश्चिदवमरालिको रत्नाधिकेनाभीक्ष्णं शिष्यमाणः चिन्तयति एष रत्नाधिकवातेन रत्नाधिकोऽहमिति गर्षेण मां दशषिधचषो,द्वितीयो मृषावाददोष इति । तत्रापि चाभ्याख्याने, प्रा. कबालमामाचार्यामस्खलितमपि कषायोदयेन तर्जयति । यथा णातिपाते च कृतेऽप्येकोऽन्यो वाऽवमरालिको यद्यप्रसंगी भ हे पुष्ट! शिष्यक! स्वनितोऽसीति तथा मां भिन्नतरमपि पदं वति तदा न प्रायश्चित्तवृद्धिः। किमुक्तं भवति?-यद्यवमरात्नि पदेन विच्छिन्नं सूत्रमुचारयन्तं हा दुष्ट शक्क किमिति मिसितमुशाकोऽभ्याख्यानं दवा न निकाचयति, यो वा अभ्याख्यातः रयसाति तर्जयति। तथा(पिवरण त्ति)अन्यैः साधुभिवार्यमाणोऽसोऽपि न रुष्यति, तदा न प्रायश्चित्तवृद्धिः। अथाभ्याख्याती पिकषायोदयतो मां हस्तेन प्रेरयति । अथवेषा सामाचारी-र. भूयो भूयः समर्थयति, इतरोऽपि भूयो रुष्यति, तदा प्राय नाधिकस्य सर्व वन्तव्यमिति, ततस्तथा करोमि यथेष मरुलश्चित्तवृद्धिः । एवं दर्दुरविषयः प्रस्तारो भवति । शुनकसर्प धुको भवति, ततोऽन्यदा द्वावपि निकाचर्यायै गती तृषितौ मूषकविषया अपि प्रस्तारा एवमेव भावनीयाः । गतः प्राणा बुभुक्तिी चेत्येवं चिन्तितवन्तौ यदस्मिन्नार्यादेवकुले कुरो तिपातप्रस्तारः। बा वृतविषमे प्रथमालिकां कृत्वा पानीयं पास्याम इति । पर्व सम्प्रति मृषावादाऽदत्ताऽऽदानयो-प्रस्तारमाह- चिन्तयित्वा तो सुखं स्थिती । अत्रान्तरे अवमरनाधिका मोसम्मि संखडीए, मोयगगहणं अदत्तदाणम्मि । परिवाजिकामेकां तदभिमुखमागच्चम्ती रष्टा स्थितो, लध एप आरोवणपत्यारो, तं चेव इमं तु णाणत्तं ।। ७२ ॥ इदानीमिति चिन्तयित्वा तं रत्नाधिकं वदति-अहो ज्येष्ठाऽऽय! कुरु त्वं प्रथमालिका पानीयं घा, अहं पुनः संज्ञा ब्युस्मृदयामि । मृषावादे संखडीविषयं दर्शनम् , अदत्तादाने मोदकग्रहण एवमुक्त्वा स्वरितं वसतावगत्य मैथुने अभ्याख्यातुं दातुं यम , एतयोर्द्वयोरप्यारोपणायाः प्रायश्चित्तस्य प्रस्तारः स | थाऽऽलोचयति, तथा दर्शयतिएव मन्तव्यः । इदं तु नानात्वं विशेषः जेट्टजेण अकज्ज, सजं अज्जाघरे कयं अजं । दीणकलुणेहि जायति, पडिसिद्धो विसति एसणं वहति । उवजीवितोऽत्थ भंते !, मए वि संसहकप्पोऽत्य ।।८।। जंपति मुहप्पियाण य, जोगतिगिच्छानिमित्ताई ॥८३॥ । ज्येष्ठाऽऽघेणाद्य सद्य श्दानीमार्यागृहे कृतम कार्य मैथुनसेवाल. कस्यामपि संखड्यामकालत्वात्प्रतिसिद्धः साधू अन्यत्र गतैः, | कर्ण, ततो पदत्र तसंसर्गतो मयाऽपि संसृष्टकल्पो मैथुनततो मुहूर्तान्तरे रत्नाधिकेनोक्तम्-वजामः संखड्यामिदानी | प्रतिसेवनेऽस्मिन् प्रस्तावे उपजीवितः । अत्राऽप्ययं प्रायश्चित्त. भोजनकालः सम्भाव्यते । अवमो भणति-प्रतिषिद्धोऽहं न प्रस्तार:--("वञ्चति भणाति गाहा" (८४) ("मासोल. प्रजामि । ततोऽसौ निवृत्याऽऽचार्यायेदमालोचयति-यथाऽयं | हुप्रो गाहा" (0५) अवमरात्निको निवृत्य गुरुसकाशं ब्रजदीनकरुणवचनर्याचते, प्रतिषिद्धोऽपि च प्रविशति, एषणां ति लघुमासः । श्रागम्य च (गुरुत्तण त्ति) ज्येष्ठाऽऽर्येण मया वहति प्रेरयति । अथवा एष गृहं प्रविष्टो मुखप्रियाणि चाऽकृत्यमासेवितमतो मम तावन्महानतान्यारोपयत, पवं रत्ना Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३३) अभिधानराजेन्द्रः । पत्थार पत्थिव धिकस्य लघूजयनानि प्रायेण भणतो गुरुमासस्ततोऽधिक आ- जाणंतो वात्रि पुणो, विविंचणट्ठा वदे जाहिं ।। ६४ ॥ गतः । सूरिणा मणितः किं त्वया संसृष्टकल्प प्रासेवितः । स हितीयपदे अनाभोगेन सहसा वा प्राणवधाऽऽदिविषयं बाद. प्राऽऽह-नाऽऽप्लेवितः,ततश्चतुर्लघु,श्तरो निकाचयति चतुगुरु, मुक्त्वा नुयः समावर्तिते प्रत्यावर्तित मिथ्या दुष्कृतं न पुनः करइत्यादि प्राम्बदूषष्टव्यम्। गतोऽविरतिकाबादः। णेन दद्यादित्यर्थः 1 अथवा-जानन्नपि पुनःशब्दो विशेषणे । अथापुरुषवादमाह स चैतद्विाशनाठि-योऽयोन्यः स हि प्रवाजितस्तस्य विवेचनार्थ तइउत्ति कधं जाणसि, दिट्ठा णियया से तेहि मे वृत्तो। प्राणातिपाताऽऽदिवादमपि वदेत् , यतमो बुझे जिनो गणे वट्टति ततिश्रो तुझं, पवावेतुं मम वि संका ।।८।। निर्गति (?) । बृ०६ न. । स्था० । संग्रहाऽऽदिदीसति य पाडिरूवं, थितचंकमितसरीरभासाहि । के नयराशा, प्रस्तार्यते येनेति प्रस्तारः। सम्म.१काएक। " तित्थयरबयणसंगहविसेसमूलवागरणी । " विस्तारे, नि. बहुसो अपुरिसवयणे, सवित्यराऽऽरोवणं कुजा ॥१०॥ चू० उ०प्रस्तार्यत इति प्रस्तारः। कटे, वृ० १ उ०३ प्रक० । कोऽपि साधुस्तथैव निद्रान्वेषी भिकातो निवृत्य रत्नाधि. (पत्यारो अंतो बहि, अंतो बंधाहिँ चिन्निमिलि उीर ।" कमुद्दिश्याऽचार्य भणति-पष साधुम्तृतीयस्त्रैराशिकः। आचार्यः [ २०१ ] इत्यादि गाथा 'वसहि' शब्दे ) कटकमदें, बृ० १ प्राह-कथ जानासि ? प्राऽऽह-मयेतस्य निजका दृष्याः तैरहमु. उ०३ प्रक०। तः-वर्तते युष्माकं तृतीयः प्रवाजयितुम्। तता ममाऽपि हृदये शङ्का जाता । अपि च-अस्य साधोः प्रतिरूपं नपुंसकाऽनुरूपं पत्यारपसंग-प्रस्तारप्रसङ्ग-पुं० । प्रस्तारः प्रस्तरणं, प्रसङ्ग उत्त. स्थितचक्रमितशरीरभाषादिभिलवणैश्यते, पर्व बहशः अ. रात्तरदुःखसम्नव इत्यथः । प्रस्तारप्रसजेने, नि००४ उ०। पुरुषवचने नपुंसकवादे वर्तमानस्य सविस्तरामारोपणां कर्या-पत्यारी-देशी-स्त्रीकानिकरे.प्रस्तरे च । देना०६ वर्ग६९गाथा। त। तद्यथा-" वञ्चति नणति गाहा" (G४)"मासोल हुओ सस्तारके, "पत्था संथरो।" पाइ० ना०१५३ गाथा। गाहा" (८५)। स निवृत्य एकाकी प्रतिश्रयं व्रजति लघु- पत्याव-प्रस्ताव-पु । समये, पाइ० ना०६७ गाथा । मासः, आगतो गुरून भणति एष साधुस्त्रैराशिक एतदीयसः । ज्ञातकैरुक्त, श्री गुरुमासः । शेष प्राग्वत् । पत्थावाय-पथ्यावात-पुं० । वनस्पत्यादिहिते वाया, न०५ अथ दासवादमाह श०२ उ०। खरउ त्ति कहं जाणसि, देहाऽऽयारा कति से हंदी। पत्यित्र-प्रार्थित-पुं० । प्रार्थनं प्रार्थो,णिजन्ताद च । प्रार्थः संजाछिक्कोवण दुभंडो, णीयाऽऽसी दारुणसभावो ॥११॥ तोऽस्मिन्निति प्रार्थितः । अभिलाम के ( जी० ३ प्रति०४ कोऽपि साधुस्तथैव रत्नाधिकमुद्दिश्याऽऽचार्य जणति-प्रयं अधिः । नि) प्रार्थनारूपेऽ, विपा. १ श्रु. १ अ०भ०। साधुः खरको दास इति । प्राचार्य श्राद-कथं जानासि इतर: जगवदुत्तरप्रार्थनाविषये, विपा० १ श्रु०१० । अभिलषित, प्राऽह-एतदीयनिजकैर्मम कथितम् । तथा देहाऽऽकाराः कुब्ज दशा.१ प्रकल्प ज्ञान सन्धं वाडिकते,भ०११श०५ न०। ताऽऽदयः(से)तस्या हन्दीत्युपदर्शने । दासत्वं कथयन्ति । तथा सन्धुमाशंप्तिते, ज्ञा०११०१० । चिन्तिते. श्री०।"चितिए (छिकोवण त्ति)शीघ्रकोपनोऽयम् ।"दुभंडो"नाम-असंवृतपरि कप्पिर पत्थिप मणोगए संकप्पे ।" एकार्थाः । विपा० ११० धानाऽऽदिः, नीचाऽऽसी नीचतरे सासने नपवेशनशीलः,दा १ अ०॥ रुण स्वभाव इति प्रकटाथः । प्रस्थित-त्रि० । “स्था ठा-यक-चिटु-निरप्पाः" ॥ ८॥ ४॥ १६॥ "अथ देहाऽऽकार ति" पदं व्याख्याति इति बाहुबकत्वान्न ठत्वम् । प्रा०४ पाद । प्रवृत्ते, "पत्याणे प. देहेण वा विरूवो, खुजो वडभो बाहिरप्पादो।। स्थियं।" (पत्थागो त्ति) प्रस्थाने परसोकसाधनमा प्रस्थित फुडमेव से आयारा,कति जह एस खरउ ति ।।१२॥ प्रवृत्तं फलाऽऽद्याहारणार्थ, गमने वा प्रवृत्तम । भ० ११० ९ स प्रा55-देहेनाप्ययं विरूपः। तद्यथा-कुब्जो,बडलो,बाह्यवादो । शीघ्र इत्यर्थे, दे० ना० ६ वर्ग १० गाथा । धा। एवमादयस्तस्थाSSERT स्फुटमेव कथयन्ति यथा खरको पत्थिया-अस्थिका-स्त्री० । पिटके, वंशमयभाजनविशेष, विपा. दास इति। १ श्रु० ३ अ०। अथाऽऽनार्य माह पत्थिव-पार्विव-त्रिका पृथिवीधिकारे ऽधे.यथा पार्थिव शस्त्रं पृ. केइ सुरूव दुरूका, खुजा वडभा य बाहिरप्पाया। थिर्वाधिकारनिष्पन्न शस्त्रम् । सूत्र०१ श्रु०८ अ । पृथिवीश्वर न हु ते परिभवियव्वा,क्यर्ण च अयारियं वोत्तुं ॥३|| राजनि, ज०। इह नामकर्मोदयवैचियतः केचिनीचकुलोत्पना अपि दासा- ३६ नृपगुणाः पत्रिंशताऽधिकप्रशस्तैः पार्थिवगुणयुकः। 35दयः सुरूपा भवन्ति; केचित्तु राजकुलोत्पा दुरूपा ते चमेकुब्जा बडभा वाह्यपादा अपि प्रवन्ति ग्रनो (नहु) मेव "अव्यङ्ग लक्षणपूर्ण २-रूपसंपत्ति ३ भृतनुः । ते परिभवितव्याः, अनाये च वचन दासोऽयमित्यादिकं वक्तं श्रमदो ४ जगदोजस्व) ५. यशस्वी ६ च कृपालुहत् ॥१॥ नथोग्यः । अत्रापि प्रायश्चित्तप्रस्तार:--"वश्चति भणाति गाहा" कलासु कृतकमा ८ च, शुद्धराजकुमोद्भवः ।। (1)|"मासो अदुओ" गाहा (८५)। गतो दासबादः। वृतानुग १०खिक्ति ११ श्व, प्रजारागी१२ प्रजागुरुः१३॥२॥ अथ हितोपदमाह समर्थनः पुमानां, त्रयाणां सममात्रया १४ । विइयपयमणाभोगे, सहसा वोत्तूल वा समाउहो। कोशवान् १५सत्यनंधश्च १६, चरा १७ दूरमन्ना ॥३॥ १०५ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्थिव अन्निधानराजेन्द्रः। पद्धर असिहको द्योगी १६ च, प्रवीणःशस्त्र २० शास्त्रयोः २१।। येषां मण्डलानां तानि प्रदक्षिणाऽऽवर्तानि । मेरुदाक्षणत आनिग्रहा २२ ऽनुग्रहपरो २३, निलञ्चो पुष्टशिष्टयोः२४॥४॥ । वर्ते, जी० ३ प्रति ४ अधिः । उपार्जितराज्यश्नी २५-दानशौण्डो २६ ध्रुवं जयी २७। पदित्त-प्रदीप्त-त्रि०। प्रकर्षण दीप्तः प्रदीप्तः। अत्यन्तदीप्ते, न्यायप्रियो २० न्यायवेत्तार,व्यसनानांपासकः ३० ॥५॥ ज्ञा०१श्रु.१०। अन्त । अञ्चार्यवीर्यो ३१ गाम्नीयौँ ३५-दार्य ३३ चातुर्यभूषितः३४। पदिसा-प्रदिश-स्त्री० । प्रगता दिक् प्रदिक् । विदिशि, आचा. प्रणामावधिकक्रोध३५-स्ताविकः सात्विको ३६ नृपः॥६॥" ०१.६ उ एते पाठसिद्धार्थाः । जं. ३ बक्का । " नरनाहो पत्थिबो नि पदिस्स-प्रदृश्य-अव्य० । प्रकर्षेण दृष्ट्वेत्यर्थे, “पदिस्सा य , वो राया।"पाइ ना० १०० गाथा। दिस्सा वयमाणा।" भ० १८ श० ८ उ० । पत्थीण-देशी-न। स्थूलबस्ने, दे० ना० ६ वर्ग ११ गाथा। | पदीय-प्रदीप-पुं० । प्रदीपयतीति प्रदीपः। विशे० । ज्वलिपत्थुय-प्रस्तुत-त्रि० । अधिकृते, पंचा० १० विव० । श्राव० । तोज्ज्वले, प्रश्न०२ श्राश्र० द्वार । दीपे प्रकाशवत्यर्थे, विशे० । अनु. । विशे० । सूत्र। पदीविय-प्रदीपित-त्रि० । उज्ज्वालिते, को। पत्थेमाण-प्रार्ययमान-त्रि० । अभिलपति, " अन्नं पि य से नाम, कामा रोग त्ति पंमिया विति । कामे पत्थेमाणे,रोगे पत्थर पदुक्खेव-प्रत्युत्क्षेप-पुं० । मुरजकंसिकाघातोत्थानध्वनौ, स्था०७ठा० बसु जंतू ॥१॥" दश०२ अ०। प्रतिकेप-पुं० ।मुरजकंसिकाघातोत्थानध्वनौ,स्था० ७ ठा० । पद-पद-न। पद्यते इति पदम् । अर्थपरिसमाप्तियुक्ने शब्दे, पं०चू०१ कल्प । " अत्थुवलद्धी जत्थ तु, तं होति पदं ति।" पट्ट-प्रदृष्ट-त्रि०। प्रद्वेषमापन्ने, वृ० ३ उ० । प्रद्वेष गते, पं०भा०१ कल्प । भ० । (' पय प्रकरणे विस्तरं वक्ष्यामि) उत्त० ३२ अ०। पदम्भेइय-पदोदभेदक-न० । पदविभागपदार्थमात्रकथनपरे पद--गम-धा० । गती, " गमेरई-अइच्छाणुबजावज पारायणे, व्य०३ उ०। सोकुसाकुस-पच्चड्ड-पच्छंद णिम्मह-णी-णीण-णीलुक-पदअ-रम्भ-परिअल-वोल-परिअल-णिरिणास-णिवहावसेहाव पदूमिय-प्रदून-त्रि० । प्रकर्षण क्लेशिते, वृ० ३ उ० । हराः" ॥८।४। १६२ ॥ इति सूत्रेण गमधातोः 'पदश्रा' पदेस-प्रदेश-पुं० । धर्मास्तिकायादीनां परमनिकृष्टेऽशे, उआदेशः । पदभाइ । गच्छति । प्रा०४ पाद । त्त०१ अ०। पदग-पदक-पुं०। पिशाचभेदे, प्रज्ञा० १ पद । पदेसयंत-प्रदेशयत्-त्रि० । प्ररूपयति, विशेः । पदग्ग-पदान-न । पदानामग्रं पदाग्रम् । पदपरिमाणे, नि० पदेससंजोग-प्रदेशसंयोग-पुं० । प्रदेशानामितरेतरसंयोगा चू०१ उ० । स०। पदप्रमाणे, प्राचा० ११०१ अ.१ उ. ऽऽख्ये संयोगभेदे, उत्त०१०। ('संजोग' शब्दे विवृतिः) पदवणा-पदस्थापना-स्त्री० । गणिवाचनाऽऽचार्याऽऽदिप- पदोस-प्रद्वेष-पुं० । अतिमाने, नि० चू०१ उ० । “पदोसण दप्रतिष्ठापने, ध०२ अधिक। पडिसेवमाणस्स असुद्धो भवति ।" नि चू. १ उ० । सूत्र। पदबद्ध-पदबद्ध-न० । गेयपदैनिबद्ध, स्था० ७ ठा। । प्रदोष-पुं। दिवसाऽवसाने, पञ्चा० २ विव०। पदमग्ग-पदमागे-पुं० पदानां मार्ग सोपाने, पदमार्ग संका-पद-पद्र-न० । लघुग्रामे, " गामहडं खेडयं पहं।" पाइल मति, "जे भिक्खू पदमग्गं वा संकम वा अवलंवणं वा अन्न | ना० १५२ गाथा । ग्रामस्थाने, दे० ना०६ वर्ग १ गाथा । उत्थिएण वा गारथिएण वा कारेति, कारंतं वा साइजह"पद्धह-पद्धति-स्त्री०। प्रक्रियायाम्, प्रतिः । पती, स्था० । ११ । नि० चू. १ उ० । ('अरणउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे २ ठा०४ उ० । परिपाट्याम, श्रा० म० १ ०। ४८८ पृष्ठे व्याख्यातमिदम्-११ सूत्रम् ) पद्धंसाभाव-प्रध्वंसाभाव-पुं० । नाशाऽपरपर्यायसंसर्गाभावे, पदविग्गह-पदविग्रह-पुं० । पदपृथक्करणे, प्रा० म०१ श्रा। रत्ना । प्रध्यसाभावं प्राऽऽहुःपदसम-पदसम-न० । पदं गेयपदं नासिकाऽऽदिकमन्यतरब. यदुत्पत्तौ कार्यस्यावश्यं विपत्तिः सोऽस्य प्रध्वंसान्धनेन बद्धं यत्र स्वरेऽनुयाति भवति तत्तत्रैव यत्र गीते भावः ।। ६१॥ गीयते तादृशे गेयगुणे, स्था० ७ ठा० । यस्य पदार्थस्योत्पत्तौ सत्यां प्रागुत्पन्नकार्यस्यावश्यं निपदाण-प्रदान-न० । वितरणे, आव०४०। यमेन, अन्यथाऽतिप्रसङ्गाद् , विपत्तिर्विघटनम्, सोऽस्य कापदाहिण-प्रदक्षिण-पुं० । प्रकर्षेण दक्षिणे, जी• ३ प्रति० ४ र्यस्य प्रध्वंसाऽभावोऽभिधीयते ॥ ११ ॥ उदाहरन्तिपदाहिणावट्ट-प्रदक्षिणावर्त्त-पुं० प्रकर्षेण सर्वासु दिक्षु विदि यथा कपालकदम्बकोत्पत्ती नियमतो विपद्यमानस्य कसुच परिभ्रमतां चन्द्रादीनां दक्षिणमेव मेरुर्भवति यस्मिन्ना लशस्य कपालकदम्बकम् ॥ ६२ ॥ रत्ना०३ परि० । बत्तमण्डलपरिभ्रमणरूपे स प्रदक्षिणः, प्रदक्षिण अावनों पद्धर-देशी-ऋजी, दे० ना०६ वर्ग १० गाथा । अधि। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३५) पहार अभिधानराजेन्छः। पबालसंत पद्धार-देशी छिन्नलागूले, दे. ना० ६ वर्ग १३ गाथा । पप्पुय-प्रष्णुत त्रि० । जला, " पप्पुयलोयणा प्रोससिय. पधाविय-प्रधावित-त्रि० । इतस्ततः प्रकर्षण गते, प्रश्न० रोमकूवा।" (प्रा०म०१०। शा० । प्रश्न।) प्रष्णुतलो ४ आश्रद्वार। विगतगती, प्रश्न०३ श्राश्र0 द्वार । चना पुत्रदर्शनप्रवर्तितानन्दजलेन । भ०६ श० ३३ उ० । पधविय-प्रधापित-त्रि० । धूपाऽऽदिना धूपिते, प्राचा०२७० पप्पंदण-प्रस्पन्दन-न०। प्रचलने,सूत्र०१०११०१ उ०। १ चू०२ अ० १ उ०। पप्फाडा-देशी-अग्निभेदे, दे० ना०६ वर्ग गाथा पधोवण-प्रधावन-न । प्रकर्षण हस्ताऽऽदेर्धावने, आचा०२ श्रु०१ चू०११०६ उ० । शीतोदकाऽऽदिना पुनः पुनर्धाव. पप्फिडिअ-देशी-नका प्रतिफलिते. दे० ना०६ वर्ग २२ गाथा । ने, नि चू०१ उ० । (अङ्गादानं धावतीति — अंगादाण' पप्फुअ-देशी-नदीघे,उड्डीयमाने च देना०६ वर्ग ६४ गाथा। शब्दे प्रथमभागे ४० पृष्ठे उक्तम् ) ( पादानामुच्छोलनाप्रधावनम् ' अणायार ' शब्दे प्रथमभागे ३१४ पृष्ठे उक्त पप्फुल्ल-प्रफुल्ल-त्रि० । विकसिते, "पफुल्लकेसरोवचिया।" प्र. म्) (अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे ४८० पृष्ठ तैर्गृह फुल्लैर्विकसितैः केसरैरिति, केसरोपलक्षितरुपचिता । उपस्थैश्च पदानां प्रधावनमुक्तम् ) चितशोभाके, जी० ३ प्रति० ४ उ०। पन्थ-पथि-पुं० । " वर्गेऽन्त्यो वा” ॥ ८।१। ३० ॥ इति | पप्फोडण-प्रस्फोटन-न० । प्रकर्षेण स्फोटनं प्रस्फोटनम्। सूत्रेणानुस्वारस्य नकारः। मार्गे, प्रा० १ पाद । झाटने, ध० ३ अधिः । उत्त० । प्रश्न । स्था० । प्रास्फोटने, पन्धव-बान्धव-पुं० । स्वार्थे अण् । " चूलिकापैशाचिके तृ-| सकृदीषद् वा स्फोटनम्, अतोऽन्यत्प्रस्फोटनम्। दश०४ अ०। प्रश्न । प्रकर्षेण रेणुगुण्डितस्येव वस्त्रस्य धूनने,स्था०६ठा। तीयतुर्ययोराद्यद्वितीयौ"॥ ८।४ । ३२५ ॥ इति बस्य प (आचार्यपादप्रस्फोटनम् 'अइसेस' शब्दे प्रथमभागे १२ कारः। भ्रातरि, प्रा०४ पाद । पृष्ठे उक्तम् ) पत्रय-पत्रग-पुं० । सर्प, “उरो श्रही भुवंगो, भुवंगमो पप्फोडिअ-प्रस्फोटित-त्रि० । 'पप्फोडिय' शब्दार्थे, “पपन्नो फणी भुत्रो।" पाइ० ना०२६ गाथा। प्फोडियं च पक्खोडिअं।" पाइ० ना० २४३ गाथा। पनयरिउ-पन्नगरिपु-पुं । गरुडे, “विणयसुश्री खयरात्रो, पप्फोडिय-प्रस्फोटित-त्रि० । प्रकर्षेण विदारिते, ध० २ अ तक्खो पन्नयरिऊ गरुलो।" पाइ० ना० २५ गाथा । धि० । निर्भाटिते, चूर्णिते, दे० ना०२७ गाथा । श्रा० म०। पबाड-मृद्-धा० । क्षोदे, “ मृदो मलमढ-परिहट्ट-खडु-चडु-पप्फोडियमोहजाल-प्रस्फोटितमोहजाल-पुं० । प्रकर्षेण स्फोमडु-पचाडाः"॥८।४ । १२६ ॥ इति सूत्रेण पन्नाड' टितं मोहजालं मिथ्यात्वाऽऽदि येन सः । ध०२ अधिक। आदेशः । 'पन्नाडइ ।' मृद्नाति । प्रा० ४ पाद । संथा । विवेकिनां मोहजालविलयाऽऽपादके श्रुतधर्मे, लक। पन्नाडिय-मर्दित-त्रि० । चूर्णिते, "पनाडियं परिहटि- पप्फोडेमाण प्रस्फोटयत-त्रि०। प्रस्फोटनं कारयति झाटयति, अं।" पाह. ना० १७८ गाथा। " पप्फोडेमाणे वा पमज्जेमाणे वा णाइलमइ।" स्था०६ ठा। पपिआमह-प्रपितामह-पुं० । ब्रह्मणि, श्रा० म०१ अ०। पबंध-प्रबन्ध-पुं० । प्रकृष्टोऽन्यबन्धेभ्यो विलक्षणः पूर्वाव स्थापरित्यागेनोत्तरोत्तरावस्थारूपतया परिणामेन यो बन्धः पपोत्त-प्रपौत्र-पुं०। पुत्रपुत्रे, विशे०।। स प्रबन्धः। अनेकक्षणेषु एकद्रव्यताऽऽपादके बन्धे, अने०१ पप्प-प्राप्य-अव्य० । आश्रित्येत्यर्थे, भ० १६ श०८ उ० । श्रा- अधि० । उपाङ्गोलप्रपश्चनपरे ग्रन्थे,नि०१ श्रु०३ वर्ग १ अ०। साद्येत्यर्थे, यश०३ अ०। “पदुश्च त्ति वा पप्प सि वा अहि- पबंधण-प्रबन्धन-न० । प्रबन्धन करणे, “कहाए अपबंधकिच्च त्ति वा एगट्ठा।" प्रा० चू०१ श्र०। णे।" स० १२ सम। पप्पग-पर्पक-पुं०। वनस्पतिविशेषे, सूत्र०२ श्रु०२०। न- पबंधवित्ति-प्रबन्धवृत्ति-त्रि० । प्रकृष्टोऽन्यबन्धेभ्यो विलक्षणः वतृणे गृहे, वाच०। पूर्वाऽवस्थापरित्यागेनोत्तरोत्तरावस्थारूपतया परिणामेन यो पप्पड-पर्पट-पुं० । पर्प-श्रटन् । मुद्गचणकाऽऽदिपिष्टकृते वृ बन्धः स प्रबन्ध इत्युच्यते। तेन वृत्तिर्वर्त्तनं स्वभावलाभो त्ताऽऽकृतौ अग्नितापसहकृतभक्ष्यपाके "पापड" इति ख्या यः पदार्थानां सर्वक्षणेषु एकद्रव्यानुवृत्ती । त्रिकालकोटि स्पर्शिन्यां नित्यतायाम, अने०१अधिक। ते पदार्थ, प्रव. ३७ द्वार । नि० चू० । प्रशा० । जी० । सौराष्ट्रमृत्तिकायाम, उत्तरदेशभवे सुगन्धद्रव्ये च । स्त्री०। गौ० | पबाल-प्रवाल-पुं० । नवाकुरे, स्था०४ ठा०४ उ०। ईषदुन्मीडीए । बाच० । जं० २ वक्षः। पर्पटाऽऽकृती शुष्कमृत्ख लितपत्रभवे पल्लवे, प्रबालाः ईषदुन्मीलितपत्रभवाः । जी०३ राडे, “पप्पडगो णामसरियाए उभयतडेसु पाणिपण जरे प्रति०४ श्रधि०। जं। विद्रुमे,शा०१ श्रु०१७ अकाराप्रश्न। ल्लिया भूमी, सा तम्मि पाणे ओहट्टमाणे तारेया होउं उरहे- जी०। प्रज्ञा० । स्था० । भारत्नविशेष, प्रा०म०१०। ण छिन्ना पप्पडी भवति।" नि० चू० १ उ० । जं०। पबालंकुर-प्रबालाकुर-पुं० । रत्नविशेषस्य प्रबालाभिधानपप्पडिया-पपेटिका-स्त्री०। शष्कुलिकायाम्, “ तिलपप्पडि स्याङ्कुरे, प्रा० म०१०। या।" तिलशकुलिका । प्रशा०१ पद। पबालमंत-प्रबालवत-त्रि। विशिष्टप्रबालाहुरोपेते, शा० १ पप्पीअ-देशी-पुं०। चातके, दे० ना० ६ वर्ग १२ गाथा। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३६१ पअलि(ण) अभिधानराजेन्डः। पभावई पबालि (ण)-प्रबालिन्-पुं० । प्रबालवैशिष्ट्यशालिनि वृ. पभजण-प्रभञ्जन-पुं०। ऋषभदेवस्य शततमे पुत्रे,कल्प०१श्रते, स्था०५ ठा०३ उ०। | धि०७ क्षण। मानुषोत्तरपर्वतस्य प्रभञ्जनकूटाधिपतिदेवे,डी। पबाह-प्रबाध-पुं० । प्रकृष्टायां पीडायाम् , विपा० १ श्रु० १ | औत्तराहाणां वायुकुमाराणामिन्द्रे, स्था० २ ठा०३ उ० । श्र० । शा०। प्रशा० । भ० । "पभंजणस्स णं वाउकुमारिंदस्स वायालीसं पबुद्ध-प्रबुद्ध-त्रि० । प्रकर्षेण यथैव तीर्थकृदाह तथैवावगत- भवणावाससयसहस्सा।" स. ४६ सम० । लवणसमुद्रे तत्वे, प्राचा० १२० ५ ० ५ उ०। ईश्वराऽऽख्यमहापातालाधिपतिदेवे, स्था०४ ठा०२ उ०। . पबोधण-प्रबोधन-नाविज्ञप्ती, प्रकर्षेण बोधने, विशे०। पभकंत-प्रभकान्त-पुं० । विद्युत्कुमारेन्द्रयोईरिकान्तहरिसिंपबोहण-प्रबोधन-न। 'पबोधण' शब्दार्थे, विशे। हयोर्लोकपाले, स्था० ४ ठा०१ उ०। पन्भट्ट-प्रभ्रष्ट-त्रि० । प्रकर्षेण स्खलिते, सूत्र०१ श्रु० ४ ० पभव-प्रभव-पुं० । पराक्रमे, है । प्रभवनं प्रभवः । प्र१ उगाव०। प्रश्न। “पिअपभट्टवगोरडी।" प्रा०४पाद। सूती, उद्गमे, पञ्चा० १३ विव० । उत्पत्ती, स्था० ६ ठा० । " पभवो पसू इति एगट्ठा । " पं० भा० ५ कल्प । पब्भार-प्रारभार-पुं० । ईषदवनतपर्वतभागे, शा. १ शु०१ | उत्त० । विश० । सम्भवे, आव० ५ ०। प्रभवन्ति प्र० । ईपदवनते गिरिदेशे, भ० ५ श. ७ उ० । ईष सर्वाणि शास्त्राणि अस्मादिति प्रभवः । प्रथमे उत्पत्तिदवनते वस्तुमात्रे, स्था० १० ठा० । अनु० । शा० । कारणे, नं० । विशे० । नि० चू। आर्यजम्बूनाम्नः काश्यतं० । भ० । यत्कटमुपरि कुब्जाप्रवत् कुजं तत्प्राग्भारम् । यद् पा-यत्पर्वतस्योपरि हस्तिकुम्भाऽऽकृति कुजं विनिर्गतं पगोत्रस्य प्रभवनामशिष्ये, कल्प०२ अधि• क्षण । (स च चौरपतित्वे पूर्व जम्बूस्वामिना प्रतिबोधित रति 'जंबू' तत्प्राग्भारम् । नं० । पुद्गलानचये, शा० । समूहे, गि शब्दे चतुर्थभागे १३७१ पृष्ठे उक्तम् ) “सुहम्मं अग्गिवेरिगुहायां च ।दे० ना० ६वर्ग ६६ गाथा । साणं, जंबूनामं च कासवं । पभवं कश्चायणं वंदे, वच्छ सिपन्भारगइ-पारभारगति-स्त्री० । द्रव्यान्तराऽऽक्रान्तस्य गति- जंभवं तहा ॥१॥"न। भेदे, यथा नावादेरधोगतिः । स्था०८ ठा० । ..पभवसिरी-प्रभवश्री-पुं० । श्रीवीरजिनात्सप्तपश्चाशदानन्दपब्भारा-प्रारभारा-स्त्री० । प्राग्भारमीषदवनतमुच्यते । तदेवं विमलगुरोः शिष्ये, ग. ३ अधिः। भूतं गात्रं यस्यां भवति सा प्राग्भारा । पुरुषस्य सप्ततिवर्षादू पभा-प्रभा-स्त्री० । प्रकाशने, स्वरूपेणावस्थाने, अनु० । प्रमशीतिवर्षपर्यन्तं दशवर्षाऽऽत्मिकायां दशायाम्, "संकुचियबलियचम्मो, संपत्ती अहमि दसं । नारीणमणभिप्पेश्रो, ज कान्तौ, रा. । औ । नं. । प्रकाशे, स० । दीप्ता, श्री। राए परिणाभित्रो॥१॥" स्था० १० ठा० । नं० । दश। स० । प्रशा० । अर्काऽऽभायाम् , द्वा० २० द्वा० । (व्या ख्यातैषा · जोगदिट्टि' शब्दे चतुर्थभागे १६३६ पृष्ठे ) पभोत्र-देशी भोगे, दे० ना० ६ वर्ग १० गाथा । वणे, अन्त० १ श्रु. ३ वर्ग ८ अ० । आत्मानुभवे, द्वा० पम-प्रभ-पुं० । हरिकान्तहरिसिंहयोर्भवनपतीन्द्रयोः प्रथमे २४ द्वा०। लाकपाल, स्था० ४ ठा० १ उ० । खनामख्याते चित्रकरे, पभागर-प्रभाकर-पुं०। श्रीऋषभदेवस्यैकोनसप्ततितमे पुबे, श्रा० चू०४ अ०। द्वीपसमुद्रविशेषाधिपती देवे, द्वी०। । कल्प०१ अधि०७ क्षण। पभंकर-प्रभङ्कर-पुं० । सप्ततितमे महाग्रहे, " दो पभंकरा।" पभाचंदसरि-प्रभाचन्द्रसूरि-पुंचान्द्रकुलीये चन्द्रप्रभसूरिस्था० २ ठा० ३ उ०। चं० प्र० । कल्प० । सू०प्र०। सौधर्मदे- शिष्ये, येन प्रभावकचरित्रनामा ग्रन्थो रचितः । स च वैक्रवलोकस्थविमानभेदे, स०३ सम० । पञ्चमदेवलोकस्थविमा- मीये सं०१३३४ मिते विद्यमान आसीत् । जै. इ०।। नभदे, स०८ सम० दक्षिणयोः कृष्णराज्योर्मध्ये शुभङ्करा- पभाय-प्रभात-पुं० । उषःकाले, श्री।स्था । अनु। परपर्यायलोकान्तिकविमाने, स्था०८ ठा। पभायतारगा-प्रभाततारका-स्त्री० । प्रभातसमयर्वे, “पभापभंकरा-प्रभारा-स्त्री० । चन्द्रस्य सूर्यस्य च चतुर्थ्यामग्रम- MARATH STAR लोयगा" प्रभातमायेनार. हिष्याम्, भ०१० श०५ उ० । जी० । जं०। सू०प्र०।शा का ज्योतिः, ऋक्षमित्यर्थः, सा हि स्तोकतेजोमयी भवतीस्था०। ( अनयोः पूर्वोत्तरभवकथा ' अग्गमहिसी' शब्दे ति तया लोचनमुपमितमिति । अणु० ३ वर्ग १०। प्रथमभागे १७२ पृष्ठे उक्ना) वत्सकावतीविजयक्षेत्रयुगल- भाव-प्रभाव-पुं। माहात्म्ये, पश्चा०४ विव० शा० । सामराजधानीयुगले, " दो पभंकरात्रो।" स्था० २ ठा० ३ उ०। ये, ध. २ अधिः । प्रश्न । षष्ठ्यां गौरणानुशायाम् , नं। "वच्छगावईविजए पभंकरा रायहाणी,पमत्तजलाणई।" .. पभावई-प्रभावती-स्त्री० । चेटकमहाराजदुहितरि वीतभ४ वक्ष । यनगरराजोदायनभार्यायाम् प्रा० चू०४ अ. पाव० । प्रा. पभंकरावई-प्रभङ्करावती-स्त्री० । वत्सकावतीविजयराजधा क. नि.चू। गाभ।('उदायण 'शब्दे द्वितीयभागे भ्याम, यत्र ऋषभस्वामी पूर्वभवे केशवो नाम जातः। प्रभङ्क ७८६ पृष्ठ वक्तव्यता ) पार्श्वनाथभार्यायां कुशस्थलेशप्ररैव प्रभङ्करावती । श्रा० चू० १ अ०। सेनजिन्नृपपुत्र्याम्, कल्पः १ अधि० ७ क्षण । मल्लिजिपभंगुर-प्रमहगुर-त्रि० । प्रकृष्टविनशनशीले, आचा० १ नमातरि कुम्भकराजभाोयाम्, ती० १८ कल्प । शा.। १०८१०३ उ०। स० । तिः । प्रव० । स्था० । बलदेवपुत्रस्य निषधस्य Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभाव प्रभिधानराजेन्दः । पभावग भाव्याम्, श्रा० चू० १ अ । सागरचन्द्रमातरि, आव०१। विज्जादि, तेसिं सम्मतो। एते अट्ठ वि पुरिसा तित्थं पगा. अहस्तिनापुरनगरराज्ञो बलस्य भार्यायां महाबलकुमारस्य संति, परपक्खे श्रोभावेति । भणिया दिटुंता । नि० चू० मातरि, भ० ११ श. ११ उ० । (कथा 'उदायण' शब्दे १ उ०। (अत्र प्रभावनमकुर्वतां प्रायश्चित्तं 'दंसणायारातिद्वितीय भागे ७८८ पृष्ठे । 'दसउर' शब्दे चतुर्थभागे २४७७ यारपायाच्छत्त 'शब्दे चतुर्थभागे २४३७ पृष्ठे प्रतिपादितम्) पृष्ठे च गता) दर्शनप्रभावकाऽऽचार्यनिन्दापभावग-प्रभावक-पुं० । दर्शनोद्भावके, प्रवः ।“ अट्ठ पभा केण वि गुणेण दंसण-पभावगं पिच्छिकण आयरियं । वग त्ति" विवरीषुराहपावयणी धम्मकही, वाई नेमित्तिो तवस्सी केई कसायनडिया, तं पि हु हीलंति मूढमई ।। ७५॥ य । विजा सिद्धो य कवी, अहेव पभावगा भणिया ।।१४८॥ केनाऽपि अनिर्दिएनाना गुणन जीवस्य निर्मलीकरणस्व भावेन दर्शनप्रभावक, सर्वज्ञशासनप्रकाशकं प्रेक्ष्याऽऽचार्य प्रवचनं द्वादशाङ्गं तदस्यास्त्यतिशयवदिति प्रावचनी युग सूरि केऽपि, न सवें, कषायनटिताः क्रोधाऽऽद्यभिहताप्रधानाऽऽगमः, धर्मकथा प्रशस्याऽस्याऽस्तीति धर्मकथी, यः स्तमपि दर्शनकबलमित्यपिशब्दार्थः । हीलयन्ति तिरस्कुर्वक्षीराऽऽश्रवाऽऽदिलब्धिसंपन्नः सजलजलधरध्वानानुकारिणा न्ति मूढमतयः कुबोधत्वाऽऽदिवाधितधिषणा इति गाथार्थः । नादनाऽऽक्षेपणीविक्षेपणीसंवेगजननीनिवेदनीलक्षणां चतु अमुमेवार्थ सिद्धान्तभणित्या निवारयन्निदमाहविधांजनितजनमनःप्रमोदप्रथां धर्मकथां कथयति,वादिप्रतिवादिसभ्यसभापतिरूपायां चतुरङ्गायां परिषदि प्रतिपक्षप्रति कप्पम्मि वि भणियमिणं, सूरिणाऽऽसायगा इमे भणिया। क्षेपपूर्वकं स्वपक्षस्थापनार्थमवश्यं वदतीति वादी,निरुपमवा. जे सयलजणसमक्खं, भणंति एवं अहम्माणी ॥ ७६ ॥ दलब्धिसंपन्नत्वेन वावदूकवादिवृन्दारकवृन्दरप्यमन्दीकृतवा कल्पऽपि छेदग्रन्थे न केवलं शेषशासने इत्यपिशब्दार्थः । भगविभव इति भावः । निमित्तं त्रैकालिकलाभालाभप्रतिपादकं णितमुक्तमिदं पूर्वोक्तम् । कथमित्याह-सूरीणामाचार्याणामाशास्त्र, तद्वेत्यधीते वा स नैमित्तिकः, सुनिश्चितातीतादि शातका अवशाकारका इमे वक्ष्यमाणा भणिताः प्रतिपादिनिमित्तवेदीत्यर्थः । विप्रकृष्टमष्टमप्रभृतिकं दुस्तपं तपोऽस्या ताः, ये अनिर्दिष्टनामानः साध्वादयः सकलजनसमक्षं समस्तीति तपस्वी । (विज त्ति) मतुष्प्रत्ययलोपात् विद्यावान्, स्तलोकप्रकट भणन्ति गदन्त्येवं वक्ष्यमाणनीत्या, अहंमाविद्याःप्राप्त्यादयःशासनदेवतास्ताः सहायके यस्य स विद्या निन आत्मोत्सेकिन इति गाथार्थः । वान्, वज्रस्वामिवत् । अञ्जनपादलेपतिलकगुटिकासकलभू कल्पोक्नमेवाऽऽहताऽऽकर्षणवैक्रियत्वप्रभृतयः सिद्धयः,ताभिः सिद्धयति स्मे इड्डिरससायगरुया, परोवएसुज्जया जहा मंखा । ति सिद्धः। " कवते नवनवभङ्गीवैदग्ध्यदिग्धैः पाकातिरे- । अत्तघोसणरया, पोसंति दिया व अप्पाणं ॥ ७७ ॥ करसनीयरसरहस्याऽऽस्वादमेदुरितसहृदयहृदयाऽऽनन्दैनिः- परोपदेशोद्यता अन्यधर्मकथननियुक्ता मखा इव विचित्रशेषभाषावैशारद्यवैदग्ध्याहृद्यैर्गद्यपद्यप्रबन्धैर्वर्णनं करोतीति फलकग्राहिनरविशेषा इव, यथाशब्द उपमानार्थः, स च योकविः । एते प्रवचन्यादयोऽष्टौ प्रभावयन्ति स्वतःप्रकाश- जितः, एवमभिप्रायः-मइखो हि परेभ्यः कथयति, स्वयं च कस्वभावमेव देशकालाऽऽद्यौचित्येन सहायकरणात्प्रवचनं न करोत्येवमेतेऽपि आत्मार्थ घोषणरताः स्वकार्यप्रतिपादप्रकाशयन्तीति प्रभावकाः कथिताः,तेषां च कर्म प्रभावना, नासनाः, पोषयन्ति उपचिन्वन्ति द्विजा इव ब्राह्मणा इचासा च सम्यक्त्वं निर्मलीकरोतीति । अन्यत्र पुनरन्यथाऽपौ ऽऽत्मानं स्वमेवं वदन्त प्राचार्याऽऽशातका इति हृदयमिति प्रभावका उक्ताः । तथाहि कल्पगाथार्थः। "अइसेस इडि१ धम्मकहि, २ अत्रैवार्थे सूत्रेणव ससंबन्धां किञ्चिद् न्यूनां गाथामाहवाई ३ पायरिय ४ खवग ५ नेमित्ती ६। अन्नं च एत्थ दोसो, लोयविरुद्धं हविञ्ज इय बयणं । विज्जा ७ य रायगणसंमया य ८ तित्थं पभावेति ॥१॥" रीढा जणपुजाणं. वयणाउ ................ अस्य ब्याख्या-तत्र अतिशेषा अवधिमनःपर्यायशानाम- अन्यच्चत्यभ्युच्चये । अत्राऽऽचार्यावर्णवादकरणे दोषो दृषणं घोषध्यादयोऽतिशयास्तैस्तै ऋद्धियस्यासौ अतिशेवर्द्धिः, लोकविरुद्धं जननिन्धं भवेजायतेति वचनमेवं प्रतिपादनम् । राजसंमता नृपवल्लभाः, गणसमता महाजनाऽऽदिबहुमता कस्मात् ?, रीढा अवज्ञा जनपूज्यानां लोकमान्यानां बचइति ॥ ६४८॥ प्रव० २३ द्वार । जीवा० । संथा।ध। नात् पश्चाशकभणनात्। तव हि लोकविरुद्धानि प्रतिपादयता अइसेसइड्डि धम्मकहि, वादी आयरिय खमग मित्ती। भणितम्-“बहुधम्मचरणहसणं, रीढा जणपूयणिज्जाणं।" विजा रायागणसं-मता य तित्थं पभाति ।। ३३॥ इति किश्चिदूनगाथार्थः॥४॥ एवं स्थिते जीवोपदेशं साधिकगाथया प्राह(अइसेस त्ति) अतिलयसंपराणो, सो य अतिसओ मणोहि .................. ता तुम जीव ।। ७८ ॥ अहसया अज्झयणा य । (इड्डि त्ति) इड्डिदिक्खिता रायाऽऽमञ्चपुरोहितादि । (धम्मकहि त्ति) जे अक्वेवणिवि मा मा कुणसुअवम, सया विखलु तेसि कसाय नडिओ वि। खेवणिणिवेयाण संवेयाणए धम्ममातिक्खंति । वादी-वाय- जेण भवपंजराओ, मुच्चासि निस्ससय झ ति ॥७६।। द्धिसंपराणा अजेो। अायरियो सपरसिद्धंतपरूवगी। खमगो तस्मात्वं जीव ॥७॥मा कुरुभवशां सदापि तेषां दर्शनप्रभावमासियाऽऽदि। नेमित्ती अटुंगणिमित्तसंपराणो। विजासिद्धो काऽऽचार्याणां कपायनटितोऽपि, येन भवपारात् सुच्यते निजहा-अजख उडो। रायसंमतोरायवल्लभेत्यर्थगणा पुरवाउ- संशयं भनितीति गाथाऽक्षरार्थः । दर्शनप्रभावकाऽऽचायनि Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभावग म्दाविचारयनत्रयोदशोऽधिकारः । जीवा० १३ अधि० । दश० । नि० ० । संथ ० । ध० । (४३८) अभिधानराजेन्द्रः । प्रभावणा प्रभावना - स्त्री० । जिनशासनोद्भावनायाम्, पञ्चा० ६ विव० । स्वतीर्थोन्नतिकरणे, उत्त० २८ श्र० । धर्मकथाssदिभिस्तीर्थापनायाम् ०१ अधि० प्रभाग्य विशे पतः प्रकाश्यते इति प्रभावनान्युत्पत्तेः शिए।" श्वासथो०॥३ ॥३॥ १०७ ॥ इत्यादिना ( पाणि० ) भावेऽनप्रत्ययः । स चार्थात्प्रवचनस्य | व्य० १ उ० । वृ० । प्रभावना धर्मकथा प्रतिवादिनिर्जय पुष्करतपश्चरणाऽऽदिनिर्जितवचनप्रका शनं, यद्यपि च प्रयचनं शाश्वतत्वात 3 सुरासुरनमस्कृतत्वाद्वा स्वयमेव दीप्यते, तथाऽपि दर्शनशुद्धिमात्मनो येन गुणेनाधिकः सत्य प्रभावयति यथा भगवदाचार्यवज्रस्यामिप्रभूतिक इति । प्रव० ६ द्वार । जिनशासनस्योत्सर्पणकरणे, ध० ३ अधि० । प्रभवति जैनेन्द्र शासनं, तस्य प्रभवतः प्रयोजकत्वे, ध० २ अधि० । धर्मकथाऽऽदिभिरर्थख्यापनायाम्, “पभावणाए उ दाहरणं ते वेच अजवारा अहा तेहि अगनिहाय सु मकाइगाई आऊण सासणस्स उम्भावना कता, एवमक्खारायं जहा श्रावस्सए तहा कहेयव्वं । " ( तचाख्यानकम् 'अजवइर' शब्दे प्रथमभागे २१८ पृष्ठे विस्तरत उक्तम् ) "एवं साहुणा वि सव्वपयत्तेण सासणं उष्मावेयव्वं ।" दश० ३ ० | ग० । संथा० । जीत० । नि० चू० । "चोदग आह सु जिणारां पचयणं सभावसिद्धं स इयाणि साहियव्वं ? गुरू भाइ कामं सभावसिद्धं, तु पवयणं दिप्पते सयं चैव । तह वि य जो जेहिओ, सो तेरा पभावए तं तु ॥ ३१ ॥ कामसदोऽभिचारिवरथे अमवस्ये या इद तु अत् agat | सो भावी सभावो सहजभावः श्रादित्यतेजोयक्ष परकृतेत्यर्थः । तेन स्वभावेन सिद्धं प्रख्यातं प्र चितमित्यर्थः । तुः पूरणे। 'प्र' इत्ययमुपसर्गः नितंब पर्ण पाचपणं पय पहाणं वा वयपययपगतं वा 3 पस पायपदीयते भावते सोमते इति भणियं भवति । सयमिति प्यासी अन्धक सणे । एवसहो श्रवधारणे । (तह वि य त्ति) जइ वि य एवस. देणावधारियं पवयणं सयं पसिद्धं तह वि य पभावणा भ राखति शब्द जहासम्भवं योजो, जोगापु रिसो विद्वेष अति अधिक प्रबल जो गारुद्दिgea सोगारो गिदेसे. तेगारो वि जेगारस्त गिद्देसे प्रख्यापयति तदिति प्रवचनम् । श्रमूदिहथि रीकरणयच्पभावणारां सरूचया भणिता। निचू० १४० तीर्थभावनानिमित्तं प्रतिवर्षयोऽपि गुरुप्रवेशः संघपरिधापनिका प्रभावनाऽऽदि च कार्यम् । ध०२ अधि० | धर्मार्थिना भावशुद्धिर्विधेयेत्युपशमतामिच्छता शासनमालिन्यं सर्वथा रक्षणीयम् । श्रन्यथा महाननर्थ इतेि दशयन्नाह - यः शासनस्य मालिन्थे नाभोगेनाऽपि वर्तते। स तन्मिथ्यात्वहेतुत्वादन्येषां प्राणिनां ध्रुवम् ॥ १ ॥ बघ्नात्यपि तदेवालं, परं संसारकारणम् । विपाकदारुणं घोरं, सर्वानर्थविवर्धनम् ॥२॥ पभावणा यः कोऽपि श्रमणाऽऽदिः शासनस्य जिनप्रवचनस्य मालि लोकविरुद्धाचरणेनोपघाते । श्राह च "दा तो विजतो दुशमं कुसर मोहिं चहारे नीहारे, टि डिगणे ॥ १ ॥" अनाभोगेनापि अज्ञानेनापि किं पुनराभोगेनाऽपि, व्याप्रियते स प्राणी तेन जिनशासनमालिन्येन करणभूतेन मिथ्या बहेतुर्विपर्ययोजनफलमिध्यात्पतुः तद्भावस्तत्वम् । अथवा - तस्मिन् जिनशासनविषये मिथ्यात्वहेतुत्वं मिथ्यात्वभावजनकत्वन- तन्मिथ्यात्वहेतुत्वं तस्मातन्मिथ्यात्व हेतुत्वात् केषां मिथ्यात्वहेतुत्वादित्याह श्रन्ये पामात्मव्यतिरिक्रानां ये हि तस्यासदाचारेण जिनशासन हलियन्ति तेषां प्राणिनां जीवानां भुवमवश्यन्तया बनात्यपित्प्रदेशेषु संवन्धयत्यपि न केचलं तेषां तञ्जनयति तदेव मिध्यात्वमोहनीयकमैव यद्यप्राणिनां जनितं नयन्यच्छुभं कर्मान्तरम्, अलमत्यर्थे निकाचनाऽऽदिरूपेण, परं प्रकृष्टं, संसारकारणं भवहेतुं, विपाकदारुणं दारुणविपार्क, घोरं भ वान, सर्वार्थविवर्धनम् निखिलप्रत्यूह हेतुम् । ननु सम्यम्दृष्टिर्न मिथ्यात्वं बध्नाति मिथ्यात्वहेतुकत्वान्मिथ्यात्वप्रकृतेः। श्रयते शासनमालिन्योत्पादनाऽवसरे मिथ्यात्यो दयात् मिथ्यादृष्टिरेवाऽसावतो मिथ्यात्वबन्ध इति ॥ १ ॥ २ ॥ उक्तविपर्यये गुणप्रतिपादनायाऽऽहread यथाशक्ति, सोऽपि सम्यक्त्वहेतुताम् | अन्येषां प्रतिपद्येतदेवाऽऽप्नोत्यनुत्तरम् ||३|| , यस्तु यः पुनः प्राणी, उन्नतौ प्रभावनायां, शासनस्य इति वर्तते । यथाशक्ति सामर्थ्यानुरूपं वर्तत इत्यनुवर्तते । तंत्र साधुः प्राचनिकत्वाऽऽदिना शासन वर्तते । यदाह - " पावयणी धम्मकही. " ( ६४८ गाथा प्रव० २३ द्वार • पभाव शब्दे साथ दर्शिता ) धावकस्तु कार्यप रिहारतो विधिमता जिनविवस्थापनयात्राकर शेन जिनभयनगमन जिनपूजनाऽऽदिना साधुसाधर्मिककृपणाss@चितकरणपुरस्सरभोजना चेति । सोऽपि शासनप्रभावकः प्राणी, न केवलं शासनमालिन्यकारी स्वय्यापारानुरूपं फलमासाद्यति. शासनप्रभावकोऽपि स्वप्पापानुरूपमेव फलमवाप्नो तीत्यपिशब्दार्थः । सम्यक्त्यनुतां तरणेन सम्यग्दर्शनलाभस्य निमित्तभावम् अन्धेषामात्मव्यतिरिक समुपजनितशाखनपक्षपातानां प्रतिपद्य स्वीकृत्य दन्यस्मि न् जन्मनि तदेव सम्यक न तु मिध्यात्वम् आप्नोत्या सादयति, अनुत्तरम् - सर्वोत्तममज्ञाविकमित्यर्थ इति ॥ ३ ॥ सम्यक्त्वस्वरूपमाह प्रचीती संप्रेशं, प्रशमाऽऽदिगुणान्वितम् । निमित्तं सर्वसौख्यानां तथा सिद्धिमुखावहम् ॥ ४ ॥ प्रो निःसताफतां गतस्तीय उत्कटः संशोऽनन्ताऽनुबन्धिकपायलक्षणो यस्तित्तथा । पतोऽनन्तानुबन्ध्युदये तन्न भवतीति । यदाह - " पदमिल्नुपाण उदय, नियमा संजोयशा कसावाणं सम्मतंभ, भयसिद्धी यापि न लहंति ॥ १ ॥ "प्रशसाऽऽदिगुणान्वितं प्रथम Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३६) पभावणा अभिधानराजेन्डः। पभावगा संवेगनिर्वेदानुकम्पाउऽस्तिक्यलक्षणगुण संगतम् । यदाह- 'उ. क्षयं नयति मालिन्यं, नियमात्सर्ववस्तुषु ।।८।। बसम संवेगो वि य निब्वेश्रो तह य होइ अणुकंपा अस्थित्तं श्रत एतस्माजिनशासनोन्नतिकरणादुन्नति जातिकुलरूपधीयराए भवाते सम्मत्तलिंगाई ॥१॥" भवन्ति सम्य- विभवाऽऽदिगुणैरुन्नतित्वमामोत्यासादयति,जातो जातौ भवे गदृष्टेः सद्वोधसामर्थ्यात् प्रशमाऽऽदयो गुणाः, विशिष्टक्रोधा- भवे, हितः शुभानुबन्ध उदय उद्गमो यस्याः सा तथा तां दीनामभावात्।प्राह च-"तन्नास्य विषयतृष्णा प्रभवत्युश्चैर्न हितोदयां, कल्याणानुबन्धिीमित्यर्थः । एतेनार्थप्राप्तिकारिदृष्टिसंमोहः अरुचिर्न धर्मपथ्ये न च पापक्रोधकण्डूतिः ॥१॥ त्वमुक्तम्।शासनोन्नतिकरणस्याथानर्थप्रतिघातकत्वमाह-क्षआदिशब्दादन्येषामपिजिनशासनकुशलताऽऽदिगुणानां परि- यमपुनविन विनाशं नयति प्रापयति, मालिन्यं दूषणभावग्रहः । तथाहि-"जिणसासणे कुसलया, पभावणा य णयसे- मात्मन इति गम्यते । नियमादवश्यन्तया, सर्ववस्तुषु जातिघणा थिरया ।भत्तीय गुणासम्म-त्तदीवगा उत्तमा पंव ॥१॥" कुलबुद्धयादिसमस्तभावविषये, अतः कर्तव्योन्नतिरिति ॥८॥ इति। तथा निमित्तं कारणं,सर्वसौख्यानां समस्तनरामरभवसं- हा०२३ अष्ट। अन्ये तु चतुर्थाऽऽदीनां श्लोकानां स्थाने सूत्रपञ्चश्लोकान् भवाऽनन्दविशेषाणाम् ।श्राह च सम्मत्तम्मि उ लद्धे, ठइयाई नरयतिरियदाराई । दिवाणि माणुताणि य,मोक्यसुहाईस पठन्ति । यः शासनस्योन्नतौ प्रवर्तते सोऽन्येषां जीवानां सहीणाई ॥१॥” तथेति समुच्चये । सिद्धिसुखावहं निर्वाण लौ म्यक्त्वहेतुतां प्रतिपद्य तदेव सम्यक्त्वमनुत्तरमवाप्नोतीति ख्यप्रापकम् । ननु मोक्ष पुखं न सम्यक्त्वमाश्राद्भवत्यपि तु स तृतीश्लोकेऽभिहितमथ यथाऽसौ सम्यक्त्वहेतुतां प्रतिपद्यते म्यग्दर्शनादित्रयात् ।यदाह-" सम्यग्दर्शन ज्ञानवारित्राणि तथा दर्शयन्नाहमोक्षमार्गः।"ततः कथं सम्यक्त्वं सिद्धिसुखाऽऽवहामिति । तत्तथा शोभनं दृष्ट्वा, साधु शासनमित्यदः । पोच्यते-सस हायस्य सम्यग्दर्शनस्य सिद्धिसुखसाधकत्वात् प्रतिपद्यन्ते तदेवेके, बीजमन्येऽस्य शोभनम् ॥४॥ सामन्यन्तर्भावेन तदावहता न विरुद्धा, बीजा दिसामग्य तदिति प्रवचनोन्नतिहेतुभूतं पूजाऽऽद्यनुष्ठानं, तथा तेन म्त विनो वर्षस्येवाइरहेतुतेति ॥४॥ विशिौदार्याऽऽदिना प्रकारेण, शोभनं शासनान्तरासंभविअथ पूर्वोक्तस्य प्रवचनमालिन्यस्य त्वेन प्रधानं, दृष्ट्वा अवलोक्य, साधु प्रधान, शासनमाहतप्रववजनमुपदिशाह चनं यत्रैवंविधमत्युदारमनवद्यम नुष्ठानम् इति एवं प्रस्तुतबोअतः सर्वप्रयत्नेन, मालिन्यं शासनस्य तु । धादित्यर्थः। अद एतदनन्तरश्लोकोपात्तं सम्यक्त्वं,प्रतिपद्यन्ते प्रेक्षावता न कर्तव्यं, प्रधानं पापसाधनम् ॥ ५॥ समाश्रयन्ते,तदैव तस्मिन्नेव काले, यदा जिनशासनं प्रति पश्रानाभोगविहितमपि शासनमालिन्यं घोरसंसारकारणमि क्षपात उत्पद्यते,एके केचन भव्याः,बीजमिव बीजं कारणं शाथ्यात्व कर्मनिबन्धनं भवति । अत एतस्मात् कारणात् सर्वप्र सनपक्षपातरूपं प्रतिपद्यन्त एवेति । अन्ये सम्यग्दर्शनप्रतिपयलेन सर्वाऽदरेण मालिन्य दूधणं,शासनस्य प्रवचनस्य,तुश तृभ्योऽपरेऽस्य सम्यग्दर्शनस्य, शोभनमबन्ध्यं, कालान्तरे चोऽवधारणार्थः तस्य च प्रयोगं दर्शयिष्यामः। प्रेक्षावता बु अवश्यं सम्यग्दर्शनफलजननाविति ॥४॥ द्धिमता,न कर्तश्चम् नैव विधातव्यम् । कुत इत्याह-प्रधानमु. अथ सम्यक्त्वीजस्य हेतुबां प्रतिपद्यमानः कथं सम्यत्कृष्टं,पापसाधनमशुभकर्मनिषन्धन, यत इति गम्यमिति ॥५॥ क्त्वहेतुतां प्रतिपद्यते इत्यभिधीयते इति । अत्रोच्यते-बीजकुत एतदेवभित्याह स्य कालान्तरे सम्यक्त्वजननादेतदेवाहअस्माच्छासनमालिन्या-जातो जातो विगर्हितम् । सामान्येनापि नियमाद् ,वर्णवादोत्र शासने । प्रधानभावादात्मानं, सदा दूरीकरोत्यलम् ।। ६॥ कालान्तरेण सम्यक्त्व-हेतुतां प्रतिपद्यते ॥ ५॥ अस्मादनन्तरोक्तिमिथ्यात्वबन्धकलच्छासनमालिन्यात्प्रव सामान्यनाऽपि अविशेषेणाऽपि,जिनशासनमपि साध्वित्येचनापभाजनात्,जाता जाता भवे भवे,वीप्साबचनेन मालि वंपरिणाम प्रास्तां पुनर्विशेषेण जिनशासनमेव साध्वित्येवंन्यकारिणोऽनन्तं भवसन्तानं दर्शयति । विगर्हितं जात्यादिही शासनान्तरव्यपोहेनाऽपि, नियमादवश्यंभावेन, वर्णवादः नतयोत्पत्तेर्विशेषेण निन्दितम् । श्रात्मानमिति योगः। प्रधान श्लाघा, सम्यग्दर्शनबीजमित्यर्थः । अत्रेति प्रत्यक्षे प्रत्यासन्ने भावात्प्रभुत्वादात्मानं ख,सदा सर्वकालं,दूरीकरोति अनासन्नं जैन इत्यर्थः । लोके वा शासने प्रवचने, कालान्तरेण वर्णवा. विदधाति,अप्राप्तव्यप्रभुत्वं करोतीत्यर्थः अलमतिशयेनेति । दकरणकालादन्यः कालः कालान्तरं तेन, कियताऽप्यागामिशासनस्य मालिन्यं वर्जनीयमित्युपदिश्य तस्यैव यद्विधेयं कालेनेत्यर्थः । सम्यक्त्वहेतुतां सम्यग्दर्शननिमित्तता, प्रतितदुपदिशन्नाह पद्यते भजते, सम्यक्त्वं जनयतीत्यर्थः॥५॥ कर्तव्या चोन्नतिः सत्यां, शक्काविह नियोगतः । एतदेव दृष्टान्तेन भावयन्नाहअबन्ध्यं कारणं ह्येषा, तत्त्वतः सर्वसंपदाम् ॥७॥ चौरोदाहरणादेवं, प्रतिपत्तव्यमित्यदः । न केवलं शासनस्य मालिन्यं वर्जनीयं, कर्तव्या च कौशाम्ब्यां स वणिग भूत्वा,बुद्ध एकोऽपरो न तु ॥६॥ विधेया चोन्नतिः प्रभावना, सत्यां विद्यमानायां शक्ती चौरोदाहरणात् स्तेनयोर्शातात्, एवमनेत प्रकारेण कासामर्थ्य, इहेति प्रक्रान्ते जिनशासने, नियोगतो नियमेन। लान्तरसम्यक्त्वहेतुतालक्षणेम, प्रतिपत्तव्यं प्रत्येतव्यम् , कस्मादेवमित्याह-अवन्ध्यं फल साधकं बीजमिव कारणम् , इतिशब्दो याक्यपारेसमाप्तौ, वक्ष्यमाणदशन्ताधोपदर्शनाएषा शासनप्रभावना, हि यस्मात्कारणात्तत्वतः परमा- थी वा। श्रदः पतद्वर्णवादरूपवीजस्वरूपम्। चौरोदाहरणं भार्थतः, सर्वसंपदा समस्तश्रियामिति ॥७॥ वयवाह-कौशाम्ब्यां नगा, स शासनवर्णवादकारी चौरः, ..कथमित्याह वणिक् वाणिजको, भूत्वा उत्पद्य, बुद्धी बोधि प्राप्त एका, श्रश्रत उन्नतिमाप्नोति, जाता जातौ हितोदय म । परोऽन्यो, न तु नैवेत्यक्षरार्थः । भावार्थः कथानकगम्यः। त Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभावणा चेदम्-कौशाम्यां नगदी धनवज्ञाऽभिधान पाल-वस्तुपालाऽभिधानान्योऽन्यमतिस्नेहन्ती नेहा देव प्रायः समति समीती समधनी सुतावभवताम् । अन्यदा श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामी तत्र विहरन्नाजगाम । ततोऽसावमरवरविनिर्मितस्य रत्नाऽऽदिप्रभापटलविपुल जलमध्यगतस्य विचित्र पत्रपत्रियोपेतसहस्रपत्रोपमस्य रज ततपनीयमणिमयविशालशालयलयत्रयस्य मध्यगतः केश रनिकरा55कारकायो मधुकरनिकरकल्पाशीकानोफनिक द्धगगनाऽऽभोगः गगनतलोपनिपतत्कलहंसगुगलकल्पोपमी यमाननिर्मलधवलचामरयुगो मतमधुकरनिकरभङ्काररवरम्यतममहाध्वनिः जगज्जननियन्त्रक मोहवरत्रात्रटत्वोटनपटीयांसं सुरनिवहसंकुल संसदि सद्धर्माकुण्ठकुठारमुपदिशति स्म । ततः तत्रत्यो नरपतिः समवगतपारगताऽऽगमनबार्तो ऽन्तःपुरपुरजनाऽऽदिपरिवृतो भक्तिनरावर्जितमानसो जिनान्तिकमाजगाम । तावपि नैगमनायकतनयौ भक्तिकौ तुकाभ्यां तत्राऽऽगती। ततो भगवताभिहिते जन्तुसन्तान स्य कर्मबन्धहेतौ वर्णिते मुक्तिकारणे, दर्शिते भवनैर्गुण्ये, प्र कटिते निर्वाणसुखानमये मोहनिद्राविद्रावन दिनकर करनिकरैरिवाम्भोजराजयो भगवद्वचने प्रतिबुद्धा भूषांसो भव्यजन्तवः, ततस्तयोरपि वणिग्वरनन्दनयोज्येष्ठस्य संपना बोधिद्वितीयस्य तु वज्रतन्दुलस्येव दुर्भेदत्वेन बोधिर्नाभवत्। ततो ज्येष्ठस्य हर्षोऽजनि - श्रहो धन्योऽहं येन मयाऽनर्यागुपारभवञ्जलनिधिनिमन सर्मपानपात्रमेधमवा तम् इतरस्य तु क्लिष्टकर्मणो माध्यस्थ्यमेवाभवत्। तनः प रस्परस्याभिप्रायमरी यथा वायोर्धर्मपरिणतिविशेषे मेदो भूत् । ततो ज्येष्ठो भगवन्तं पप्रच्छ वदुत भगवंस्तुल्य स्नेहयोरावयोस्तुल्य एव विभूतिरूपविनयाऽ-दिसंबन्धोऽभवदू, अधुना पुनर्मुक्लिफल कल्पतरुकल्पसम्यक्त्वविभूतिप्राप्ता. चतुल्यता जाता मम मित्रस्य तद्विकल्पत्वात्, तत्किम व कारणम् ? । ततो भगवानुवाच भो भद्र ! भवन्तौ ज न्मान्तरे ग्राममहत्तरसुतावभूताम्, ततो व्यसनोपहतौ चौपरायणावभवताम् अन्यदा ग्रामान्तरं गत्वा गाः श्रपहृतवन्तौ ततस्ताः स्वस्थानं नयन्तौ दण्डिपाशिकान् पश्चा लग्नान् विज्ञाय तद्भयात् पलायमानौ गिरिंगहरे प्राविशताम्, शैलगुहायां चाऽऽतापपन्तं महातपस्विनमपश्यताम् ततस्त्वं संवेगमागतोऽवोचः- यथा सुलब्धमस्य जन्म योऽयं परित्यक्कसकलपुत्रकलत्रमित्राऽऽदिसंबन्धः सन्तोषसुखसागरावगाढो धर्मनिरतचित्तो विषयविरतः स्वर्गापवर्गसंसर्गय तपस्यति । मादृशास्त्वधन्या उभयलोकगर्हितमनर्थफलं, क्लेशवफलं च वीर्यमाश्रिता इत्येवंविधा साधुप्रशंसा भवतो बोधिबीजमजनि, इतरस्य तु यतिद्वेषो बोधिवीजदाही संजातः इदं भवतोर्भावाभावकारणमिति ॥ ६॥ 1 उपसंहरन्नाह— इति सर्वप्रयत्नेन, मालिन्यं शासनस्य तु । प्रेक्षावता न कर्तव्य मात्मनो हितमिच्छता ।। ७ ॥ स्पष्टः ॥ ६॥ " कर्तव्या चोचतिः * उन्नति, प्रभावना । कर्तव्यं च किमित्याह ( ४४० ) अभिधानराजेन्द्रः । सत्यां शकाविह नियोगतः । धर्म- प्रधानं कारण येषा तीर्थकृनामकर्मणः ॥ ८ ॥ पभासचित्तगर दा० २३ अष्ट० संवत्सरवासरे पूगीफलसहितनाणकप्रभावनां लान्ति न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-पूगीफलादिसहितांत या रहितां वा प्रभावनां लान्ति, पश्चाद् यस्मिन् ग्रामे या रीतिस्तदनुसारेण प्रवर्तितम्यमिति ॥ १४२ प्र० । खेन०४ उहा० । पभावाल प्रभावाल पुं० तरुविशेषे जं० २० । । पभास - प्रभास - पुं० । श्रीवीरजिनस्यैकादशे गणधरे, कल्प० १ अधि० ६ । आ० सू० स च निर्वाणविषयसंदेहयुत वीरान्तिकमागत्य छिन्नसंशयः प्रवव्राज गणधरो जातः । ( ' गणहर' शब्दे तृतीयभागे ८१७८१८ पृष्ठे तन्मातापि वादयो दर्शिताः ) ( णिव्वाण' शब्दे चतुर्थभागे २१२१ पृष्ठे वक्तव्यता ) " एकादशो गणधरः, श्रीवीरस्य गणेशितुः । प्रभासो नाम पावित्र्यं यस्य चक्रे स्वजन्मना ॥ २४ ॥ ती० १० कल्प। वैभारगिरेः पेरण्यवतवर्षीयविकटावृत्तये ताढ्यपर्वतराजदेवे, स्था० ४ ठा० ३ उ० । “दो पभासा ।" स्था० २ ठा० ३ उ० | साकेतराजस्य महाबलस्य चित्रकरे, श्राव= ४ अ० । श्रीप्रभनृपोपदेश के साधुगुरौ, ध० ३ अधि । खनामख्याते भरतवर्षस्य पश्चिमदिग्भागस्थे तीर्थ मेरे, ती० ४१ कप। श्रा०क० भरते हि पूर्वादिक्रमेण "मागहे वरदामे पभावे प्ति " त्रीणि तीर्थानि । जं० ६ वक्ष० संथा० । स्था० श्रा म० पृ० तच पाण्डवश्व राजपुत्रयोर्मतिसुमत्योः प्रवहणे श्रोत्पातिन भाग्यमाने स्कन्दरुद्राविषमानुपा 'न्ती सुस्थितेन साधनमहिम्न कृते तत्वेन जात म् इति धृतिमतित्वे उदाहृतम् । श्राच० ४ श्र० श्रा० चू० । पभासचित्तगर- प्रभासचित्रकर- पुं० । स्वनामख्याते चित्रकरे, तत्कथा "पिलसंतनागनागसंग परमिड्थ सायं । कलासविहरसिहरे, व कितु बरुलहरं ॥ १ ॥ राया महाबलो रिउ - रुक्खाण महाबलु व्व तत्थऽत्थि । सो अत्थावविट्ठो, अन्नदि पुच्छर दूयं ॥ २ ॥ भो मम रायंतरभा-विरायलीलावियं न किं प्रत्थि । सो भइ सामि ! सव्वं पि श्रत्थि मुत्तूण चित्तसहं ॥ ३ ॥ जयरामणोहारिविचितमित्तअवलोयसेरा रावाणी। जं कि ती वि फुडं, कुरांति चंकमणलीलाश्री ॥ ४ ॥ इय आयत्रिय रक्षा, महल कोहलपुरियमणेण । श्राट्ठो वरमंती, तुरियं कारेसु चित्तसहं ॥ ५ ॥ दीरविसालसाला, बाकिया सुहच्छाया । उज्जाणमहिव्व लहुं, महासहा तेरा निम्मावेया ॥ ६ ॥ श्राया नरवणा. चित्तयरा चित्तकम्मकयकरणा । विमलपहासभिहाणा, तत्तो तुरियं पुरपहाणा ॥ ७ ॥ श्रद्धद्धविभारणं, विभत्ता श्रपिया सहा तेसिं । दावित अंतरा जब णियं च वृत्ता निवेशेवं ॥ ८ ॥ भी तुम्मेहिं कम्म कयापि न डु चिविव्यमस्तु । नियनियमई निउणं, इह् चित्तं चित्तियव्वं च ॥ ६ ॥ विद्धी न मन्नियच्चा, जहविनाणं काहि पलाश्री । श्रहमहमिगाइ तत्ती सम्म कम्मं कुति इमे ॥ १० ॥ जाय गया इस्मासा, तो पुट्ठा उस्तु ते रन्ना । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४१) पभासचित्तगर अभिधानराजेन्षः। पमज्जण विमलेण तो भणिय, निष्फन्नो देव ! मह भागो॥११॥ पभासमाण-प्रभासयत्--त्रि• । सूक्ष्मवस्तूपदर्शनतः (स्था० मेरु व्व तयं भागं. सुवन्नरुइरं विचित्तभूभागं । ८ ठा०) शोभयति, भ. २ श०५ उ० । जी। औ०। पिच्छित्तु निवो तुट्ठो, महापसायं कुणइ तस्स ॥१२॥ पुट्ठो भणइ पहासो, चित्ताऽऽरंभ पि देव ! न करेमि। पभिइ-प्रभृति-श्रव्य । पादौ,स्था. ६ ठा०। ०।०प्र०। जं अज्ज वि मे विहियं, भूमीए चेव परिकर्म ॥१३॥ | उत्त। अनु। तं भूकम्मं नणु के-रिसं ति भूवेण अवणिया जवणी। पभीय-प्रभीत-त्रि० । प्रकर्षण त्रस्ते, उत्त० ५ अः। ताव सविसेसरम्म, सुचित्तकम्मं तहिं दिस॒॥१४॥ पभु-प्रभु-त्रि०। समथे, स्था०४ ग०४ उ० भ० । प्रभषितो भणिो सो रन्ना, रे !कि अम्हे वि विप्पयारेसि। ष्णौ, भ० १५ श०। वश्येन्द्रिये, सूत्र०१ श्रु० १११०। शत, अन्नो विन वंचिज्जर, किं पुण सामि त्ति सो आह ॥ १५॥ | 'भ० १ श. १ उ० । सूत्र । स्वामिनि, प्रा०म० १ अ०। उपडिबिंबसंकमो दे-ब! एस इय भणिय तेण परियच्छी। पाश्रयस्वामिनि, वृ. २ उ० । स्वगृहमानायके, प्रव० ६७ दिन्ना तो निवेणं, सा दिट्ठा केवला भूमी ॥ १६ ॥ द्वार । गृहपती, निचू.२ उ० । राजनि, "पभू राया, अणुअह विम्हिएण रना, पुढे कीरद किमेरिसा भूमी। प्पभू जुवराया।" नि००२ उ०। “पभुत्ति पा जोग्गो त्ति सो भणइ देव! एरिस-महाएँ चित्तं हवाइ सुधिरं ॥१७॥ वा एगट्ठा।" नि० चू० २० उ० । बन्नाण फुरह कंती, अहियं सोहं धरंति रूवाई। पभुत्त-प्रभुत्व-न । सामर्थ्ये, वृ० १ उ. ३ प्रक०। पिच्छंताण जणाणं, भावुल्लासो भिसं होई ॥ १८ ॥ पभूतदसि (ण)-प्रभूतदर्शिन-त्रि.। प्रभूतं प्रमादविपाकाऽऽतं सुणिउं तस्स विवे-गराइणाऽऽइणा पहि?ण । निउणो को पसाओ, सपसायं पभणियं च इमं ॥१६॥ दिकमतीतानागतवर्तमानं वा कर्मविपाकं द्रष्टुं शीलमस्येएमेव इमं चिट्ठउ, चित्तसहा मे चलंतचित्तजुया। ति प्रभूतदी। साम्प्रतेक्षिततया । न यत्किञ्चनकारिणि प्रा. होउ अपुवपसिद्धि, त्ति एस पुण उवणी इत्थ ॥२०॥ चा० ११० ५ १०४ उ.। सायं संसारो, राया सूरी सहा य मणुयगई। पभूतपरिमाण-प्रभूतपरिज्ञान-त्रि० । प्रभूतं स्वत्वरक्षणोपाचित्तयरो भवियजिओ, चित्तसहाभूसमो अप्पा ॥२१॥ यपरिक्षानं संसारमोक्षकारणपरिक्षानं वा यस्य स प्रभूतपभूपरिकम्मंसु गुणा, चित्तं धम्मो वया रूवाई। रिशानः। यथाऽवस्थितसंसारस्वरूपदर्शिनि, प्राचा० १ श्रु. बन्नसमा इह नियमा जियविरियं भावउल्लासो ॥ २२ ॥ ५१०४ उ.। एवं प्रभासाभिधचित्रकृद्वद्, पभूतसंभार-प्रभूतसंभार-पुं० । प्रभूतवस्तुसामयाम् “पभूकार्यात्मभूमिर्विवुधैर्विशुद्धा । तसंभारसभिता पोसमाससतभिसयजोगट्टनिता ।" जी०३ येनोज्ज्वलां धर्मविचित्रचित्रां, प्रति० ४ अधिः । शोभामनन्यप्रतिमां दधीत ॥ २३॥" इति प्रभासकथा ( ३१ गाथा ) धर०१ अधि० । पभय-प्रभूत-मि० । अतिप्रचुरे, प्रा. म. १ श्र। राणा प्रचुरे, शा. १ शु. १०। उत्त।। स्था० । बहुशब्दार्थे, पभासण प्रभासन-न०। प्रकर्षेण द्योतने,स्था०२ ठा०२ उ०। स्था. ४ ठा०२ उ० । अनेकशब्दार्थे अनु।। प्रभासनं च चन्द्राणामेव । चंदा य पभासिंसु।"चन्द्राणां सौ. म्यदीतिकत्वात् वस्तुप्रभासनमुक्तमादित्यानां तु खररश्मित्वा पभूयग्ग-प्रभूतान-न०। कस्यचिदपेक्षया प्रभूते, यथा-"जी वा पोग्गलसमया, दव्वा य पज्जवा चेव । "प्राचा० २ त् । स्था० ४ ठा०२ उ० । क्षु०१ चू०१ १०१ उ० । पभासतित्थ-प्रभासतीर्थ-न० । स्वनामख्याते भारतवर्षस्य प. पभूयतरय-प्रभूततरक-न० । बहुतरके, प्रा० म०१०। श्चिमदिक्तीथे, यत्र सिन्धुनदी समुद्रं प्रविशति । तत्र भरतदिग्जययात्रायां तु, " उत्तरपच्चच्छिमं दिसि पभासतित्था पभूयरयण-प्रभूतरत्न-त्रि०। प्रभूतानि रत्नानि मरकताऽऽदीनि भिमुहे पयाते यावि होत्था।" जं० ३ वक्ष० प्रा० चू०।। प्रवरगजाश्वाऽऽदिरूपाणि वा यस्यासौ प्रभूतरत्नः। उत्त०४ अ० । प्रचुरप्रधानगजाश्वमणिप्रमुखपदार्थधारणि, उत्त. पभासतित्थकुमार-प्रभासतीर्थकुमार-पुं० । प्रभासतीर्थदेवे, ४०) श्रा० चू०१०। पमक्खण-प्रमूक्षण -न०। अभ्यञ्जने, भ० ११ श० ११ उ० । पभासमाण-प्रभासमान-त्रि० । दीप्यमाने, कल्प० १ अधि. पमञ्जण-प्रमार्जन-न । प्रतिलेखनं चक्षुषा निरीक्षणम् , प्रमा२क्षण । जनं च रजोहरणाऽऽदिभिः। ध०३ अधि० पुनः पुनर्मार्जने, पभासयंत-प्रभासयत-न० । लोकप्रसिद्धस्याऽऽकाशस्यापि नि० चू०३ उ०। भूमिशुद्धी, पञ्चा०६ विवः । प्रकर्षण शो. शिखरं स्वकान्त्या शोभयन्तमित्यर्थः, कल्प०१ अधि०३क्षण। धने, प्राचा०२७०१चू०११०६ उ०। संमार्जने, नि.. पभासा-प्रभासा-स्त्री०। प्रभासनिबन्धनत्वादेकोनषष्टितमगौ २०। पं०व०। (श्राचार्यपादप्रमार्जनम् 'अइसय' शब्द याहिंसायाम्, प्रश्न०१ संब० द्वार। प्रथमभागे १३ पृष्ठे ३० पृष्ठ च उक्तम्) (वर्षासु उपाश्रयाः पभासिय-प्रभाषित-त्रि० । प्रकर्षण भाषिते, "वइजोगेण प्रमार्जनीयाः ‘पज्जुसवणाकप्प' शदेऽस्मिन्नेव भागे २४६ पृष्ठे पभासिय-मणेगजोगंणधराण साहणं।” (१६ ) प्रकर्षेण उक्तम्) (शरीराङ्गाणां हत्तपादाऽदीनामामार्जनप्रमार्जने 'अ. भाषितः प्रभाषितः। गणधराणाम्। सूत्र० १० १० णायार' शब्दे प्रथमभागे ३१४ पृष्ठे, अण्णमराणकिरिया'शब्दे १उ०। ४८० पृष्ठे च उक्ते) मूलत एव रजोहरणा दिनाऽस्पर्शनायाJain Education Interations Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्तसंजय गुडाए पमज्जा भू. ६०३ अधि० रजोदरणाऽऽदिव्यापाररूपे प्रश० १ पमत प्रमत्त पुं० प्रमायन्ति स्म मोहनीयादिकमादयप्रमा संव० द्वार । प्रमार्जनविधिः- वसति प्रमार्जयेत् । यदुकं पञ्चवस्तु के" पडिले हिऊण वसई, गोसम्म पमजणा उवसहीए । श्रवरण पुरा पढमं, पमजणा पच्छ पडिलेहा ॥१॥ " यतिदिनचर्यायाम (४४२ ) अभिधानराजेन्द्रः । " विजा परिया पभावसमयम्मि सय पच्छ । पुतीतपडिलेदर, समंतरमेव महे ॥१॥ इत्यं च जीवसंसक्रिरहितायामपि पसार इयं वर्षासु च वारत्रयं जीवसी च बहुशऽपि वसति प्रमार्जयेदित्यवसेयम्, तथापि बहुजीवोपमर्दे त्यजेदपि तदुकं दिनाम्दुलि पडिले उम्म वासासु तथ मरहे । पराई बहुसो पमज्जर, असंपट्टे त ( ) हि गच्छ ॥ १ ॥ " वसतिप्रमार्जनं च यतनानिमितं सा चान्धकारे न स्यादित्युपधिप्रतिलेखनाऽनन्तरमेव प्रातस्तच्छ्रेयः तदुकं तत्रैव" को देऊ है, जिससा, एसा जयणा निमि समवावि रविकरहधवारे, वसीर पमजरों से । ॥ १ ॥” इति । तच्चाव्याक्षिप्तेनोपयुक्तेन च गीतार्थेन विधेयं, न तु विपरीतेन, अविध्यादिदोषात् यदुकं पञ्चवस्तु"वसही पमशिन वा विकलेवविवाजिल गीव उबउत्तेण विवखे, सायब्बो होइ अविही उ ॥ १ ॥ " इति । तेनापि सदा परमलेन मृदुना प्रमाणोनि च दडमान प्रमार्जनीया बखति, न त कचरो धनाऽऽदिना यतस्तत्रैव " सह पहले मिया, पीप्पड माइरहिपण जुत्तें । श्राविद्धदंडगेणं. दंडगपुच्छ्रेण णs. रणं ॥ १ ॥ " इति । यतना च वसतिं प्रमा पिराडीभूतरेगरेस्त वयं विधियेतिदिनचर्याथाम्" सूरे सपना जपणार ऊरायाविविकणं ॥ १ ॥ संगदिया पीडा लंड तो सं पुव्वं च ले भूई, वोसिरिया नवं च गिरहंति ॥ २ ॥ जो तं पुंजं खंड, इरिश्रावहिशा हवेह निश्रमेणं । संसत्तगवसहीए तह हवर पमज्जमाणस्स ॥ ३ ॥ " अत्र च श्रभिग्रहिकोऽनाभिग्राहको वा साधुर्दण्डान् प्रमार्जयेत् ततस्तभूवि यतः श्रभिदियो मिग-हिओ व दंडे पमजर साह पडिलेहि कमसो दंडो कुड्डोवरं भूमिं ॥ १ ॥ " प्रतिलेखनं चक्षुषा निरीक्षणं, प्रमावरजोहरणादिनिरिति विवेका यतस्तय 1 गिरि फिर पडिले भएता रयहर माहिं पक्ष बेविगीश्रव्था ॥ १॥ " ध० ३ अधि० । पमजण्या - प्रमार्जनका - श्री०। मूलत एवं रजो हरणाऽऽदिना स्पर्शनायाम् ०३ अधि० । मजशिया प्रमार्जनिका स्त्री शलाकाऽऽदीनां परके " शा० १ ० ७ श्र० । पर्मणी प्रमार्जनी ने पं० ०३ द्वार । वसतेः शुद्धिकरण्याम् ध० ३ अधि० । श्राचा० । मजेमाण- प्रमार्जयत् प्रि० । प्रमार्जनं कारयति, स्था० ७ डा० । - यतः संज्चलनकषायानेद्राऽऽयन्यतमप्रमादयोगतः संयमयो गेषु सीदन्ति स्मेति प्रमत्ताः कर्त्तरि कप्रत्ययः । नं० । पञ्चानां प्रमादानामन्यतरेण प्रमादेन युक्रेषु, व्य० ३ उ० । श्रावा० । विषयमूच्छितेषु श्राचा० १ ० १ ० ५ ० । ('पारंविय' शब्दे व्याख्यास्यामि) विकथाऽऽदिप्रमादसहिते. द्वा १६ द्वा । श्राचा० । सूत्र० । स्था० । शा । मद्याऽऽदिप्रमादवति श्रवा० १ श्र० ३ ० ४ उ० । विषयाऽऽदिभिः प्रमदेहिमद् व्यवस्थिते श्राचा० १ ० ५ श्र० २३० ॥ प्रमर्दनं प्रम प्रमादः स च मदिराविषयकपायनिद्राविकथानामन्यतमे सर्वथा प्रमत्तमस्यास्तीति प्रमत्तः । प्रमादवति, कर्म० २ कर्म० । पमत्तभाव प्रमत्तभाव-पुं० प्रकर्षेण मत्तभावः । उन्मत्तभावे, तं । 0 पमत्तसंजय - प्रमत्तसंयत- पुं० । संयच्छति स्म सम्यगुपरमति स्म संवतः "गत्यर्थकर्म ||४|१|१२|| (०) इति प्रमाद्यन्ति संयोगेषु सीदति स्म प्राग्वत् कर्तरि क्रः प्रमच यद्वाप्रसदनं प्रमाद च मदिराविषयकपायनिद्रावि कथानामन्य तमः । सर्वथा प्रमत्तमस्यास्तीति प्रमत्तः प्रमादवान् " अभ्रादिभ्यः ॥७२॥४६॥ (हैमं०) इत्यप्रत्ययः । प्रमतश्चासौ संयतयप्रमत्तसंयतः कर्मः २ कर्म० पं० [सं०] । दर्श किञ्चि मादयति सर्वविरते, स० १४ सम० । षष्ठगुरु स्थान वर्तिने, पञ्चा० १६ विव० । 1 । - पत्त संजयस्स णं भंते ! पमत संजमे वट्टमाणस्स सव्वा विय से पमत्तद्वा कालओ फेव चिरं होइ ? मंडिया एगे जीवं च जहां एकं समयं उक्कोसेणं देसूखा पुफोडी, गावाजीचे पहुच्च सव्वदा । ( पत्तेत्यादि ) ( सव्वा वि य णं पमत्तद्धति) सर्वाऽपि च सर्व कालसम्भवाऽऽपि च प्रमत्ताद्धा प्रमत्तगुणस्थानककालः कालतः प्रमत्ताद्वा समूहलक्षणं कालमाश्रित्य कियचिरं कियन्तं कालं यावद्भवतीति प्रश्नः । ननु कालक्ष इति न वाव्यन्, किमन्दिरभित्यमेव गतार्थत्वात् नैवं त्य रूप व्यथार्थ वा भवदिः यमित्यपि प्रश्नो यथावधिज्ञानं क्षेत्रतः किमभिवरं भवति, त्रयत्रिशत्सागरोपमाणि, कालतस्तु सातिरेका षट्षष्टिरिति । (एकं समयं ति ) कथम् ? । उच्यते-प्रमसंयमप्रतिपत्तिसमयसमनन्तरमेव मरणात् । (देसूणा पुञ्चकोडिति ) किल प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तप्रमाणे एव प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानके, ते च पर्यायेण जायमाने देशोनपूर्वक यावत् उत्कर्षेण भवतः । संदिपूर्वकोटिरेव परमायुः स च संयमा सर्वेषु गतेव लभते महान्ति चाप्रमतान्तर्मुह प्रमत्तान्तर्मुहूर्त कल्प्यन्ते । एवं चान्तर्मुहूर्तप्रमाणानां प्र मतदानां सर्वास मीलनेन देखोना पूर्वकोटी कालमान भवति । अन्ये त्वाहुः - श्रष्टवर्धनां पूर्वकोटीं यावदुत्कर्षतः प्रमसंयतता स्यादिति । भ० ३ ० ३ उ० । पमत संजयगुणद्वारा ममनसं पतगुणस्थान न० प्रमत्तसंयतस्प गुचखानम् । बडे गुरुस्थान के कर्म० विशुद्धयविशुद्धि Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४३) अनिधानराजेन्द्रः। पमत्तसंजयगुणहागा प्रकर्षाप्रकर्षकृतः स्वरूपभेदः । तथाहि-देशविरतिगुणापेक्षया स्वरूपम्। परः स्वस्मादन्यः, अर्थ इति यावत् । ती विशेएतद्गुणानां विशुद्धिप्रकर्षोऽविशुद्धयप्रकर्षश्च । अप्रमत्तसंय- पेण यथाऽवस्थितस्वरूपेण, अवस्यति निश्चिमोतीत्येवंशीतापेक्षया तु विपर्ययः। एवमन्येप्वपि गुणस्थानेषु पूर्वोत्तरापे- लं यत् तत् स्वपरव्यवसायि । ज्ञायते प्राधान्येन विशेषो क्षया विशुद्धविशुद्धिप्रकर्षाप्रकर्षयोजना द्रष्टव्या । कर्म० २ गृह्यतेऽनेनेति ज्ञानम् । एतच्च विशेषणम्-अज्ञानरूपस्य कर्म । प्रव०। पं० सं०। व्यवहारधुराधौरेयतामनादधानस्य सन्मात्रगोचरस्य स्वपमह-प्रमर्द-पुं० । संमते, परस्परसंघर्षे, " चंदेण सह जोयं समयप्रसिद्धस्य दर्शनस्य, सन्निकर्षाऽऽदेश्वाऽचेतनस्य नैयाजोएंति।" चन्द्रेण सह प्रमर्दरूपं योगं युञ्जन्ति । सू०प्र० १० यिकाऽऽदिकल्पितस्य प्रामाण्यपराकरणार्थम् । तस्याऽपि च पाहु०११ पाहु० पाहुचन्द्रेण सार्द्ध प्रमंद चन्द्रो मध्येनते प्रत्यक्षरूपस्य शाक्यैर्निर्विकल्पकतया प्रामाण्येन जल्पितस्य, षां गच्छतीत्येवंलक्षणं योग संबन्धं योजयन्ति । स०८ समः। संशयविपर्ययानध्यवसायानां च प्रमाणत्वव्यवच्छेदार्थ व्य वसायीति । स्पष्टनिष्टाचमानपारमार्थिकपदार्थसार्थलुएटापमहण-प्रमर्दन-न० । कठिनस्याऽपि वस्तुनश्चूर्ण नकरणे, कशानाद्वैताऽऽदिवादिमतमत्यसितुं परेति । नित्यपरोक्षबुद्धिम०।जी। वादिनां मीमांसकानाम् एकाऽऽत्मसमवायिज्ञानान्तरप्रत्यक्षपमद्दमाणी-प्रमृदनती-स्त्री०। रूतं कराभ्यां पौनःपुन्येन विरः शानवादिनां यौगानाम् , अचेतनज्ञानवादिनां कापिलानां च लं कुर्वन्त्याम् , “पमद्दमाणी य ।" (५७४ गाथा) पिं०।। कदाग्रहग्रहं निग्रहीतुं स्वेति । समग्रलक्षणवाक्यं तु परपरिपमयवण-प्रमदवन-न०। हस्तिनापुरनगरे मलिदत्तकुमारस्वा कल्पितस्यापिलब्धिहेतुत्वाऽऽदेप्रमाणलक्षणत्वप्रतिक्षेपार्थमिके उद्याने, शा०११०८ अ श्रा० मा तेतलिपुरनग म् । तथाहि-अर्थोपलब्धेरनन्तरहेतुः, परम्पराहेतुर्वा विवक्षारोद्याने, “तेतलिपुरं नाम नगरं,पमयवणे उजाणे।" शा०१ ञ्चके । परम्पराहेतुश्चेत् । तर्हि, इन्द्रियवदञ्जनाऽऽदेरपि प्रा माण्यप्रसङ्गः । अथाऽनन्तरहेतुरिन्द्रियमेव प्रमाणम् , तत् श्रु०१३ अ.। श्रा० म०। किं द्रव्येन्द्रियम् भावेन्द्रियं वा? । द्रव्येन्द्रियमप्युपकरणपमया-प्रमदा-खी० । स्त्रियाम् , वृ०४ उ०। रूपम् , निर्वृत्तिरूपं वा ? न प्रथमम्, तस्य निर्वृत्तीन्द्रिपमयाकमकरण-प्रमदाकर्मकरण-पुं० । प्रमदाः स्त्रियस्तासां योपष्टम्भमात्रे चरितार्थत्वात् । नाऽपि द्वितीयम्, तस्य भावेयत्कर्म तत्स्वयमेव करोतीति प्रमदाकर्मकरणः।" कृद् बहुल. न्द्रियेणाऽर्थोपलब्धौ व्यवधानादानन्तर्याऽसिद्धेः । भावेन्द्रिम्" इति वचनात्कर्तरि अनट्प्रत्ययः । स्त्रीणां कण्डनदल- यमपि लब्धिलक्षणम् , उपयोगलक्षणं वा ? | न पौरस्त्यम्। नपरिवेषणोदकाऽऽहरणप्रमार्जनाऽऽदिकरणशीले नपुंसके, तस्यार्थग्रहणशक्तिरूपस्यार्थग्रहणव्यापाररूपेण तेन व्यवधाबृ. ४ उ०। नात् । उदीचीनस्य तु प्रमाणत्वेऽस्मल्लक्षितमेव लक्षणमक्ष. पमह-प्रमभ-पुं० । शिवसेवके, पाइ० ना० २६६ गाथा। रान्तरैराख्यातं स्यात् । न च नास्त्येवामूदृश मिन्द्रियमिति पमाइ-प्रमात-पुं० । प्रमाकर्तरि, रत्ना। भौतिकमेव तत् तत्रानन्तरो हेतुरिति वक्तव्यम्, व्यापारतल्लक्षणम्-तदित्थं प्रमाणनयतवं व्यवस्थाप्य संप्रति तेषां। मन्तरेणाऽऽत्मनः स्वार्थसंवित्फलस्यानुपपत्तेः । न धव्यापृत तब कश्चिदविप्वम्भावनावस्थितेरखिलप्रमाण नयानां व्या प्रात्मा स्पर्शाऽऽदिप्रकाशकः, सुषुप्त्यवस्थायामपि प्रकाशप्र. पकं प्रमातारं स्वरूपतो व्यवस्थापयन्ति सङ्गात् । न च तदानीभिन्द्रियं नास्ति, यतस्तदभावः स्यात् । प्रमाता प्रत्यक्षाऽऽदिमसिद्ध आत्मा ॥ ५५ ॥ अथ नेन्द्रियं सत्तामात्रेण तद्धेतुः किन्तु मनसाऽर्थेन च सनि कृष्टमिति चेत् । ननु सुषुप्त्यऽवस्थायामपि तत्तादृशमस्त्येव, प्रमिणोतीति प्रमाता किंभूतः क इत्याह-प्रत्यक्षाऽऽदिप्रसि- मनसःशरीरव्यापिनः स्पर्शनादीन्द्रियेण, स्पर्शनाऽऽदेश्च तू. शः प्रत्यक्षपरोक्षप्रमाणप्रतीतः, अतत्यपरापरपर्यायान् सततं लिकाऽऽदिना सन्निकर्षसद्भावात् । न चाऽणुपरिमाणत्वाद् मगच्छतीत्यात्मा जीवः । रत्ना० ७ परि० । (प्रमातृनित्यत्व- नसः शरीरव्यापित्वमसिद्धमिति वाच्यम् तत्र तस्य प्रमाणेसिद्धिः 'श्राता' शब्दे द्वितीयभागे १६५ पृष्ठादारभ्य द- न प्रतिहतत्वात्। तथाहि-मनोरंपरिमाणं न भवति,इन्द्रिय. र्शिता) त्वाद् नयनवत्।नच शरीरव्यापित्वे युगपज्ज्ञानोत्पत्तिप्रसङ्ग, प्रमादिन-पुं० । विकथामद्याऽऽदिप्रमादवति, प्राचा० १० ताक्षक्षयोपशमविशेषेणैव तस्य कृतोत्तरत्वात् । इति नैतत्प्र३१०१ उ01 द्वारा माणलक्षणमधुणम् । अाचक्ष्महि च मतपरीक्षापञ्चाशतिपमाण-प्रमाण-न०। प्रकर्षेण संशयाऽऽद्यभावस्वभावेन मीयते "अर्थस्य प्रमितौ प्रसाधनपटु प्रोचुः प्रमाणं परे, परिच्छिद्यते वस्तु येन तत्प्रमाणम् । रत्ना०१ परि०। श्रा०म०। तेवामञ्जनभोजनाऽऽद्यपि भवेद् वस्तु प्रमाण स्फुटम् । विशे। उत्त०। प्रमितिःप्रमाणम्। हेयोपादेयप्रवृत्तिनिवृत्ति- श्रासन्नस्थ तु मानता यदि तदा संवेदनस्यैव सा । रूपतया पदार्थपरिच्छित्ति करणे, सूत्र.१श्रु०१२० । ज्ञान म्यादित्यन्धभुजङ्गरन्ध्रगमवत् तीथैःश्रित त्वन्मतम् ॥१॥" (१) अथ प्रमाणस्याऽऽदी लक्षणं व्याचक्षते इति। "अनधिगतार्थाधिगन्त प्रमाणम्" इत्यपि प्रमाणलक्षस्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् ॥ २॥ णं न मीमांसकस्य मीमांसामांसलता सूचयति, प्रत्यभिज्ञानअत्र चादग्धदहनन्यायेन यावदप्राप्तं तावद्विधेयम् इति विप्र- स्याप्रामाण्यप्रसङ्गात् अथात्रापूर्वोऽन्यर्थः प्रथते,“इदानीन्ततिपनानाश्रित्य स्वपरेत्यादिकम्, श्रव्युत्पन्नान् प्रति प्रमाण- नमस्तित्वं, न हि पूर्वधियागतम् ।" इति चेत् । इदमन्यत्रापि म्, प्रमाणप्रमेयापलापिनस्तूद्दिश्य द्वयमपि विधेयम् । शेष | तुल्यम्. उत्तरक्षण सत्त्वस्य प्राक्क्षणवर्तिसंवेदनेनाऽवेदनात् । पुनरनुवाद्यम् । तत्र प्रमाणमिति प्राग्वत् । स्वमात्मा शानम्य पर्वोत्तरक्षणयोः सवस्यैक्यात् कथं तेन तस्याऽऽवेदनम्, Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४४ ) अभिधानराजेन्द्रः । प्रमाण गृह्य इति चेत् । प्रत्यभिज्ञागोवरेऽपि तुल्यमेतत्, "रजतं - मार्ग हि. चिरस्थायीति गृह्यते" इति वचनात् प्रागेव तज्ञेदने च तदिदानीमस्ति न वा, कीटक वाऽस्ति इति तद नन्तरं न कोऽपि संदिदीत । ततोऽपार्थमेवगिति विशेषणम् व्यवच्छेद्याभावात् । न चाव्यापकत्वदोषः प्रकृतलक्षणे, प्रत्यक्ष परोक्षलक्षक्विव्यापकत्वात् । नाप्यतिव्यापकत्व कलङ्कः , संशयाऽऽद्यप्रमाणविशेषेष्यवर्त्तनात् । नाप्यसंभवसम्भवः प्रमाणं स्वपरव्यवसायि ज्ञानम्, प्रमाणत्वान्यथाऽनुपपत्तेः, इत्यतस्तत्र स्वपरव्यवसाविज्ञानत्यसिद्धे।। ra चायं कण्टकोद्धारप्रकारः । तथाहि न तावदत्र पक्षप्रतिक्षे पद क्षदोष संश्लेषः । श्रयं हि भवन् किं प्रतीतसाध्यधर्मविशेषणत्वम्, अनभीप्सित साध्यधर्मविशेषणता, निराक तसाध्यधर्मविशेषणत्वं वा भवेत् ?, इति भेदत्रयी विवलीय तरलाक्षीणामुन्मीलति । तत्र न तावत् प्रतीतसाध्यधर्मविशेपणत्वमत्राSSख्यायमानं संख्यावतां ख्यातये, यतः प्रसिद्धमेव सायं साधयतामेतन्मज्जति आपो वा इत्यादिवत् न चै तत् प्रमाणलक्षणमद्यापि परेषां प्रसिद्धिकोटिमाटीकिए । नाऽप्यथाऽनभीतसाध्यधर्मविशेषणता भाषणीया. साहि स्वानभिप्रेतं साध्यं साधयतामधीमतां धावतिः शीडोदनस्य नित्यत्वसाधनवत्, न चाऽऽर्हतान्तमेतत् प्रमाणलक्षणमनाकाङ्क्षितम् । नाऽपि निराकृतसाध्यधर्मविशेषणत्वमत्रोपपत्तिपद्धतिप्रतिबद्धतां दधाति तद्धि प्रत्यक्षेणानुमानेनाऽऽगमेन वा साध्यस्य निराकरणाद् भवेत् । न चैतदनुष्णस्तेजोऽवयवी, नास्ति सर्व जैनेन रजनिभोजनं भजनीयमित्यादिवत् प्रत्यक्षानुमानागमादिभिर्वाधासंबन्धवैर्य धानमीय तें । तस्मान्नात्र दोषः पक्षस्य सूक्ष्मोऽप्युत्प्रेक्षितुं पार्यते । नापि हेतोःसाविरुद्धता, व्यभिचारो वा भवेत्। यदि तावदसिद्धता, तदाऽपि किमन्यतरासिद्धिः उभवासिविभवेत्। अन्तरात्तदाऽपि वादिनः प्रतियादिनो वाऽम्यतरस्येयमसिद्धिः स्यात् यदि वादिनः तदा किं स्वरूपद्वारेण श्राश्रयद्वारेण, भिन्नाधिकरणताद्वारेण, पक्षैकदेशद्वारेण, प्रतिज्ञार्थैकदेशद्वारेण वाऽसौ स्यात् ? । स्वरूपद्वारेण चेत् । तत्कि हेतुस्वरूपे विप्रविपत्तेः श्रप्रतिपत्तेः, संदेहावा ? | न प्राच्यः प्रकारः सारः प्रमाणत्वाऽऽख्यहेतुस्वरूपे समस्तप्रामाणिकपरिषदामविवादात् नापि द्वितीयः प्रमा[णस्वरूपमप्रतिपद्यमानस्य वादिनोऽप्रामाणिकत्वप्रसङ्गात् । नापि तृतीयः सर्वदेवानिर्णीतप्रमाण स्वरूपस्य प्रतिपत संदेहानुत्पादात् न खलु सकलकालमनाकलितस्थारत्वस्य स्थात्पुरुषत्वले संदेह कस्यापि संपद्यते, तत्वरूपप्रतिपती वा कचित्कर्ष सर्वथा प्रमाणस्वरूप संशयः स्याद् । आश्रयासिद्धिव्यधिकरणासिद्धी तु वादिनो जैनस्य दोवावेव न संमतीः अस्ति सर्वशः सुनिश्चितासंभवद्वाधकप्रमाणत्वात् उदेष्यति शकटं कृतिकाइवाद इत्यादेर्गम कत्वेन स्वीकृतत्वात् । संमतत्वे वा न तयोरतावकाशशङ्काशत्रुसंकथा: प्रमाणस्य धर्मिणः सकलवादिनामविवादास्प दत्वात् प्रमाणत्वहेतोस्तत्र वृत्तिनिर्ण पाच पदेशाि साऽपि नात्र साधीयतां दधाति सा हि संपूर्णपक्षाच्य पकत्वे सति संमधिनी, सचेतनास्तरचः स्वापात्हाया " " 3 पमाण दिवत् न चैतद्भास्ति । नान्यनित्यः शब्दोऽनित्यत्वाऽऽदि त्यादिवत् प्रतिज्ञाऽर्थैकदेशाखिताऽभिधानीया, तस्थास्तच्य तः स्वरूपासिद्धिरूपत्वाद्; अन्यथा धर्मिणोऽपि हेतुत्वे तत्प्रसङ्गात् स्वरूपासिद्धिचात्र न यथा स्येमानमास्तिराघ्नुते तथाऽनन्तरमेव न्यरूपि, इति न वादिनः साधनमसिद्धमेतत् । नापि प्रतिपादिनः तत्राप्येवंप्रकार • प्रकारकल्पनाप्रबन्धस्य प्रायः समानत्वात् । श्रत एव वादिप्रतिवाद्युभयस्याऽपि नामिदम् । एवं च कथमिदं साधनमसिद्धि दधीत नापि विरुद्धान्धकी पर्ककलङ्कितमेतत् विपक्षाद्व्यावृतत्वात् । नापि व्यभिचा रपिशाचसंचारदुः संचरं, यतो निर्णीतविपक्षवृत्तित्वेन संदिग्धविपक्षवृत्तित्वेन वाऽत्र व्यभिचारः प्रोच्येत ? । न तावदावेन, अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वादित्यादिवद्विपक्षे वृत्तिनि याभावात्:स्वपरव्यवसायिज्ञानस्य हि विपचः संशयाऽऽदि र्घटादिश्व, न च तत्र कदाचन प्रमाणता वरिवर्ति । नापि द्विसीवेन विषादापन्नः पुमान् सर्वो न भवति दिवद्विपक्षे वृत्तिसंदेहस्यासंभवात्; संशय घटादिभ्यः प्रमासत्यस्यावृतित्वात्। तन्ननिकान्तिकत्वमपि दूषरामत्रोपटीकते। इति न देतोरपि कलङ्कलिकाऽपि प्रोन्मील ति निदर्शनं पुनर्मोपदर्शितमेाऽइति न दोषार म्भः । भवतु वा तदपि व्यतिरेकरूपं संशयघटाऽऽदिन चात्र कश्चित् दूषण कणः । स खल्वसिद्धसाध्यव्यतिरेका, अमिडसाधनव्यतिरेकः अविव्यतिरेक संदिग्धसाध्यव्यति रेकः संदिग्धसाधनव्यतिरेकः संदिग्धव्यतिरेकः अव्य तिरेकः, श्रप्रदर्शितव्यतिरेकः, विपरीतव्यतिरेको वा स्यात् ? । तत्र न तावदाद्याः षट्, घटाऽऽदौ साध्यसाधनव्यतिरेकस्य स्पष्टनिष्टङ्कनात् । नापि सप्तमः, व्यापात्र व्यतिरेकनिर्णयात् । नाप्यष्टमनवमी यत्र न स्वपरव्यवसायिज्ञानत्वं न तत्र प्रमाणत्वमिति व्यतिरेकोपदर्शनाद् इत्यतो नि कलङ्कादनुमानासह सिद्धेरनवयमिदं लक्षणम् ॥२॥ | (२) अथानेच ज्ञानमिति विशेषणं समर्थयन्तेअभिमतानभिमतवस्तुस्वीकारतिरस्कारक्षमं हि प्रमाणम्, अतो ज्ञानमेवेदम् ॥ ३ ॥ अभिमतमुपादेयम्, अनभिमतं हेयम् । तद् द्वयमपि द्वेधामुख्यं गौणं च । तत्र मुख्यम् - सुखं दुःखं च । गौणं पुनःतयोः कारणं कुसुमकुट्टमकामिनीकटाक्षाऽऽदिकं खलकलहकालकूटकण्टकादिकं च । एवंविश्वयोरभिमतानभिमतयस्तुनोय स्वीकारतिरस्कारी प्राप्तिपरिहारी तय समर्थः प्रापकं परिहारकं चेत्यर्थः । श्रनयेोरुपलक्षणत्वादेतदुभयाभावस्वभाव उपेक्षणीयोऽप्यनार्थी लक्षयितव्यः । रामगोचरः खल्पमित द्वेषविषयोऽभिमतः रागद्वेषद्वितयानालम्बनं तु तृणाऽऽदिरूपेक्षणीयः । तस्य चोपेक्ष के प्र माणं तदुपेक्षायां समर्थमित्यर्थः । हियसाद, यस्मादमि मतानभिमतवस्तुस्वीफारतिरस्कारक्षमं प्रमाणम् अन इदं ज्ञानमेच भवितुमर्हति नाऽज्ञानरूपं सन्निकर्षादिकम्। प्रयो गश्च प्रमाणं ज्ञानमेव, अभिमतानभिमतवस्तुस्वीकारतिर स्कारक्षमत्वात्, यत्तु नैवं न तदेवं यथा स्तम्भः, तथा चेदम्, तस्मात्तथा ॥ ३ ॥ * प्रकारो विकल्पः । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमा अन्निधानराजेन्द्रः। पमागा उपपत्यन्तरं प्रकटयन्तिन वै सन्निकर्षाऽऽदेरज्ञानस्य प्रामाण्यमुपपन्नम्, तस्याथोंन्तरस्येव स्वार्थव्यवसितौ साधकतमत्वानुपपत्तेः ॥ ४॥ श्रयमर्थः-यथा सम्प्रतिपन्नस्य पटाऽऽदेरर्थान्तरस्याज्ञानरूपस्य स्वार्थव्यवसितौ साधकतमत्वाभावात् प्रामाण्यं नोपपत्तिश्रियमशिश्रियत्, तथा सन्निकर्षाऽऽदेरपि । प्रयोगः-संनिकर्षाऽऽदिर्न प्रमाणव्यवहारभाक्, स्वार्थव्यवसितावसाध. कतमत्वाद्, यदेवं तदेवम्, यथा-पटः, तथा चायम् , तस्मात्तथा ॥४॥ (३) [सन्निकर्षोपरि विचारः] अथाऽस्य साधनस्या सिद्धिसंबन्धवैधुर्य व्यञ्जयन्तः सूत्रद्वयं बुवतेन खल्वस्य स्वनिर्णीतौ करणत्वं, स्तम्भाऽऽदेरिवाऽचे. तनत्वात् , नाऽप्यनिश्चिती, स्वनिश्चितावकरणस्य कुम्भाऽऽदेरिव तत्राऽप्यकरणत्वात् ॥ ५॥ अस्येति संनिकर्षाऽऽदे,करणत्वं साधकतमत्वम् ।नाऽव्यर्थनिश्चिताविति, अस्य करणत्वमिति योगः। तत्राऽपीति, अर्थनिश्चितावपीत्यर्थः। शेषमशेषमुत्तानार्थम्। प्रयोगौ तु-सन्निकर्षाऽऽदिः स्वनिर्णीतौ करणं न भवति,अचेतनत्वात्य इत्थं स इत्थम् , यथा स्तम्भः,तथा चायम् ,तस्मात्तथा । सन्त्रिकर्षाऽऽदिरर्थनिश्चिती करणं न भवति, स्वनिश्चितावकरणत्वात् , य एवं स एवम् . यथा स्तम्भः, यथोक्तसाधनसंपन्नश्वायम् , तस्माद्यथोक्नसाध्यः। अत्र केचिद्यौगाः संगिरन्ते"संनिकर्षाऽऽदिर्न प्रमाणव्यवहारभार"इत्यादि यदवापि,तत्रा. 5ऽदिशब्दसूचितकारकसाकल्याऽदेः काममप्रामाण्यमस्तु,सनिकर्षस्य तु प्रामाण्यापकों नोमर्षप्रकर्षसिद्धये,तस्यार्थोपलब्धौ साधकतमत्वावधारणेन स्वार्थव्यवसिताबसाधकतमत्वादित्यत्र हेत्वेकदेशस्य सिद्धेः। यत्तु तत्सिद्धौ साधनमधुनैयाभ्यधुः, तदसाधीयः, प्रदीपेन व्यभिचारात् , तस्य स्वनिश्चितावकरणस्याप्यर्थनिश्चिती करणत्वादिति । तदेतत् त्रपापात्रम् अर्थोपलब्धौ संनिकर्षस्य साधकतमत्वासिद्धेः। यत्र हि प्रमात्रा व्यापारिते सत्यवश्यं कार्यस्योत्पत्तिः, अन्यथा पु. नरनुत्पत्तिरेव, तत्तत्र साधकतमम् , यथा छिदायां दावम् , न च नभसि नयनसंनिकर्षसंभवेऽपि प्रमोत्पत्तिः । रूपस्य सहकारिणोऽभावात् तत्र तदनुत्पत्तिरिति चेत् । कथमसौ रूपेऽपि स्यात् ?, न हि रूपे रूपमस्ति, निर्गुणत्वाद् गुणानाम् । नाऽपि तदाधारभूते द्रव्ये रूपाऽन्तरमस्ति, याववव्यभाविसजातीयगुण द्वयस्य युगपदेकन त्वयाऽनभ्युपगमात् । अवयवगतं रूपमवयविरूपोपलब्धौ सहकारि समस्त्येवेति चेत् । कथं ध्यणुकाऽवयविरूपोपलम्भो भवेत् ?, न हि ब्यणुकल कणाऽवयवत्रयवर्तिरूपमुपलभ्यते, यतः सहकारि स्यात् । अनुपलभ्यमानमपि तत्तत्र सहकारीति चेत्, तर्हि कथं न तप्तपाथसि पावकोपलम्भसं. भवः १ तदवयवेष्वनुपलभ्यमानस्य रूपस्य भावात् । यदि च रूपं सहकारि कल्पते, तदा समाकलितसकलनेत्रगोलकस्य दूराऽऽसन्नतिमिररोगावयविनः कथं नोपलब्धिः ? । अथाऽत्यन्ताऽऽसत्यभावोऽपि सहकारी, न चाइसौ तिमिरेस्तीति चेत् । नन्वियमासत्तिरात्मापेक्षया, श- ११२ रीरापेक्षया, लोचनापेक्षया. तदधिष्ठानापेक्षया वा विवक्षाचक्रे प्रेक्षादक्षण ?। श्राधे कल्पे, कथं कस्याऽपि पदार्थस्योपलब्धिः ?, व्यापकस्याऽऽत्मनः सर्वभावरासत्तिसम्भ. वात् । द्वितीये,कथं करतलतुलितमातुलिङ्गाऽऽदेरुपलम्भः ।। तृतीये, कथं क्वाऽपि चाक्षुषप्रत्यक्षमुन्मज्जेत् ?,चक्षुषः प्राप्यकारित्वकक्षीकारेण सर्वत्र खगोचरेणाऽऽससिसद्भावात् । तुरीये, कथमधिष्ठानसंयुक्ताअनशलाकायाः समुपलब्धिः ।। अथ येनांशेन तस्यास्तत्र संसर्गः स नोपलभ्यत एव । नैवम् , अवयविनो निरंशत्वेन स्वीकारात् । अपि च-कथ. मुदीची प्रति व्यापारितनेत्रस्य प्रमातुन काञ्चन काञ्चनाचलोपलब्धिमनुभवामः । न च दवीयस्त्वान्न तत्र नेत्ररश्मयः प्रसतुं शक्काः, तेषां शशाङ्केऽपि प्रसरणाभावाऽऽपत्तेः। अथ तदालोकमिलितास्ते वर्धन्ते, तर्हि खरतरफरनिकरनिरन्तराऽऽपूरितविष्टपोदरे मरीचिमालिनि सति सुतरां सुरादिमभिसर्पतां तेषां वृद्धिर्भवेत् । न च दिनकरमरीचीनां नितरां कठोरत्वेन तैस्तेषां प्रतिघातः, तदाऽऽलोककलापाऽऽकलितकलशकुलिशाऽऽदिपदार्थानामप्यनुपलम्भाऽऽपत्तेः। ततो न सन्निकर्षसद्भावेऽप्यवश्यं संवेदनोदयोऽस्ति । नापि तदभावेऽभाव पच,प्रातिभप्रत्यक्षाणामार्षसंवेदनविशेषाणां च त. त्कालाविद्यमानवस्तुविषयतया संनिकर्षाभावेऽपि समुद्भवात् । तन्न सन्निकर्षस्य साधकतमत्वं साधुत्वसौधाध्यासधैर्यमार्जिजत् । यं च प्रदीपेन व्यभिचारमुदचीचरः, सोऽपि न चतुरचेतश्चमत्कारचञ्चुः, प्रदीपस्य मुख्यवृत्या करणत्वानुपपत्तेः, नेत्रसहकारितया करणत्वोपचारात् । यथा चोपचारादर्थव्यवसितौ करणमयं, तथा स्वव्यवसितावपि, न हि प्रदीपोपलम्भे प्रदीपान्तरान्वेषणमस्ति । किं त्वात्मनैवाऽऽत्मानमयं प्रकाशयतीति क्व व्यभिचारः। तन्न सन्निकपस्यार्थव्यवसितावसाधकतमत्वमसिद्धम् । अनयैव दिशा कारकसाकल्याऽऽदेरप्यर्थव्यवसितावसाधकतमत्वं समर्थनीयम् । इति न हेत्वेकदेशासिद्धिः । रत्ना० १ परि। (४) नायनरश्मिविचार:अथ यद्यपि नायना रश्मयोऽध्यक्षतो न प्रतीयन्ते, तथा:प्यनुमानतः प्रतीयन्ते।अनुमानं च तेजोरश्मिवत् चक्षुः,रूपा दीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात्, प्रदीपकलिकावदिति तद्रश्मिसत्वप्रतिपादक,नैवं भास्करकरसत्त्वप्रतिपादकं क्षपायामनुमानमस्ति, न निशायां बहुलान्धकारायां वृषदंशचक्षुर्बाह्याऽऽलोकसव्यपेक्षम्,अप्रकाशकचाक्षुषत्वात्,दिवा पुरुषचखुर्वदित्यस्याऽनुमानस्य रात्रौ तत्सत्वप्रतिपादकस्य भावात् । अथ वृषदंशाऽऽदेश्चाक्षुषं तेजोऽस्तीत्यर्थसिद्धेर्न किञ्चित् भास्करज्योतिषा अनुभूतरूपेण प्रकल्पितेन, तर्हि मनुष्याऽऽदीनामपि तदस्तीति किमुद्भूतरूपेण बाह्यतेजसा तेषां कृ. त्यम् ? अथ यद्यथा दृश्यते तत्तथाऽभ्युपगम्यत इति तु दिवा नायनं सौर्य भवेदेवं यदि तथा दर्शनं स्यात् यावता यथा रात्रौभास्करकरा दर्शनं तथा दिवा चाक्षुषरश्म्यदर्शनं,यथा वा दिवा भास्करावभासनं तथा क्षपायां वृषदर्शने लोकावलोकनम्। विशेषस्त्वयम्-एकदा भास्कररश्मयोऽन्यदा नायनारते. ऽनुमेया इति । अथान्धकारावष्टधनिशीथिनीसमयेऽपि भास्करकरसंभवे नक्तश्चराणामिव रूपदर्शनं स्यात्, न,संतोऽपि Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४६) अन्निधानराजेन्द्रः। पमाया पमाग तदा तत्करान नराणां रूपदर्शनजननप्रकृताः यथा त एव वासरे उलूकाऽऽदीनाम्, भावशक्तीनां विचित्रत्वात्, तस्मादनुपलम्भात् क्षपायां यथा नभास्करकरास्तथा नायना रश्मयोsन्यदेति स्थितम् । यदपि परेण प्रोक्तम्-दूरस्थितकुड्याऽऽदिप्रतिफलितानामन्तराले गच्छतां प्रदीपरश्मीनां सतामप्यनुपलम्भदर्शनानानुपलम्भात् तदभावसिद्धिरिति,तदप्यनेनैव निरस्तम् । रविरश्मीनामपि पायामभावासिद्धिप्रसक्नेः। किं चयोगिन आत्ममन संयोगो यदा सदसवर्गाऽऽलम्बनमेकं शानं जनयति तदा सकलसदसद्वर्गः तस्य चेत्सहकारी तर्षर्थवत् प्रमाणमित्यत्रार्थः सहकारी, यस्य विशिष्टप्रमितौ प्रमातृप्रमे याभ्यामर्थान्तरं तदर्थवत्प्रमाणमिति विरुध्यते । सहकारीचेदसौ देशाऽऽद्यन्तरितोऽपि तर्हि तत्कुड्याऽऽदेः प्रभासुरतयोत्पत्तीप्रदीपो देशव्यवहितोऽपिसहकारीति नान्तराले तद्र. श्मिसिद्धिः। ततो न तैरनुपलम्भव्यभिचारः। अत एव ताप्यमानमुदकं तेज उखाऽऽदिव्यवहितमप्युष्णस्पर्श जनयिष्यतीतिनोदके उष्णस्पर्शोपलम्भादनुद्भूतनास्वररूपस्य तेजसःसिद्धिः। यदपि चक्षुः खरश्मिसंबद्धार्थप्रकाशकं तेजसत्वात् प्रदीपवदित्यनुमानम् अनेन किं चक्षुषो रश्मयः साध्यन्ते, उतान्यतः सिद्धानां ग्राह्यार्थसंबन्धस्तेषां साध्यत इति? । आद्य पक्ष तरुणनारीनयनानां दुग्धबलक्षतया भासुररश्मिरहितानामध्यक्षतः प्रतीतेरध्यक्षबाधितकर्मनिदेशान्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदियो हेतुः । अथ यदध्यक्षप्रहणयोग्यसाध्यमध्यक्षत एव तत्र नोपलभ्यते तत्र तद्वाधः कर्मणः । यथा-अनुष्णोऽ. ग्निः,सत्वादिति, न चाध्यक्षग्रहणयोग्या नायना रश्मयः, सदा तेषामदश्यत्वात्,न। पृथिव्यादिद्रव्येऽप्येतेषां साध्यप्रसक्तः (?) तथाहि-रश्मिवन्तो भूम्यादयः, सत्वात्प्रदीपवदित्यप्यवमातुं शक्यत्वात् । यथैव हि तैजसत्वं प्रदीपे रश्मिवत्तया व्याप्तिमुपलब्धं, तथा सवमप्यस्यान्यथाऽपि सम्भवेन तैजसत्वस्येति कुतो विभागः। अथ भूम्यादेस्तत्साधनेऽध्यक्षबाधः। न । दुग्धवलक्षाबलालोचनानामपि तत्साधने तद्विरोधः समानः । अथ वृषवंशवक्षुबोऽध्यक्षतो वीच्यन्ते रश्मय इति कथं तद्विरोधः। ननु यदि तत्र ईक्षन्तेऽन्यत्र किमायातम्. त एवाम्यत्र तत्साधने हेम्नि पीतत्वप्रतीतौरजते पीतत्वप्रसङ्गः। प्रमाणसाधनमुभयत्र तुल्यम् । अथ तत्र तत्प्रतीयन्ते नान्यत्र सत्त्वेन ते साध्यन्ते,अपिच अनुमानतस्तत्तु दृष्टान्तमात्रम्, न म्वत्र नेत्रत्वादिति यदि हेतुः, तैजसत्वादित्यस्याऽऽनथक्यम्। अत एव प्रकृतसिद्धेरध्यक्षबाधा चात्रापि तदवस्थितैव, तैजसत्वादित्यस्य हेतुत्वे प्रदीपदृष्टान्तेनवार्थसिद्धेःवृषदंशनेत्रनिदर्शनमनर्थकम् न च तस्य तैजसत्वं प्रतिसिद्धमिति तत्साधनविकल्पनात् तदपेक्षया दृष्टान्तदोषः न च रश्मिववाद्विडाललोचनस्य तैजसत्वं सिद्ध मण्यादीनामपि तत्प्रसक्तान चरश्मियच्चान्मण्यादीनामपि तैजसत्वम् उष्णप्रभाया एव तैजसत्वात्। अन्यथा तरुणतरुकिशलयानामपि तैजसत्वं स्यात् न च नारीनयनानां तैजसत्वं सिद्धमिति सिद्धो हेतुः। न च रशिमवरवादेव तेषांतत्साध्यते इतरेतराऽऽश्रयदोषप्रसक्तः,सिद्ध भास्वरप्रभावत्वे तैजसत्वसिद्धिस्ततश्च भास्वरप्रभाववेच त. सिद्धिरिति कथं नेतरेतराश्रयदोषः । अथ तैजसत्वं चक्षुषः, रूपाऽऽदीनां मध्यं रूपस्यैवप्रकाशकत्वात्प्रदीपवदित्यतोऽनुमानात् तैजसरबसिद्धेर्नेतरेतराऽऽश्रयदोषः। नन्वत्र भाव ररूपोष्णस्पर्शतेजोद्रव्यसमवेतगोलकस्य भावकार्यद्रव्यं यदि शब्दवाच्यं तदा तस्य तैजसत्वसाधने अध्यक्षावरोध, तद्विपरीतरूपस्पर्शाऽऽधाररूपतया अध्यक्षतः प्रतिपत्तेः । तथा हि-अबलापारावतबलीवर्दाऽऽदीनां चक्षुषो धवललोहितनीलरूपतयोष्णस्पर्शविकलतया वाऽऽध्यक्षतः प्रतिपत्तिः सिद्धव । न च गोलकव्यतिरिक्तं चक्षः तद्ग्राहकप्र. माणाभावात् सिद्धमित्याश्रयासिद्धिः स्वरूपासिद्धिस्वरूपस्यैव प्रकाशकत्वादिति हेतुरनैकान्तिकश्च । तुहिनकरनिकरेण तस्य रूपस्यैव प्रकाशकत्वेऽप्यतेजसत्वात् । न । त. स्यापि पक्षीकरणाददोषः व्यभिचारविषयस्य पक्षीकरणादेकान्तिकत्वे सर्वत्रानकान्तिकहेत्वभावप्रसक्तेः। न चैवं, जलानलयोः विशेषगुणशङ्करादभेदसिद्धेः । न च तनिकरान्तर्गतं तेजस्तत्रापि रूपप्रकाशकमिति न व्यभिचारः, प्रदीपेडप्यन्यस्य तदन्तर्गतस्य तत्प्रकाशकस्य प्रकल्पनात् दृष्टान्ता. सिद्धिप्रसक्तेः प्रत्यक्षबाधोभयत्र च रूपसम्बन्धेन रूपस्यैव प्रकाशकेन च व्यभिचारः, न चाऽसौ रसाऽऽदेरपि प्रकाशक इन्द्रियान्तरपरिकल्पनाशिफलप्रसक्तः। रूपप्रकाशकत्वं च रूपज्ञानकत्वं, तच्च नीलरूपे विद्यते, अन्यथाऽर्थवत्प्रमाणमित्यप्रार्थसहकारित्वं तस्य न स्यादिति तेन व्यभिचारः। अथ द्रव्यत्वे सति तैजसत्वं करणस्य चक्षुषो रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वादिति विशेषणान सम्बन्धरूपाऽऽभासनमनेकान्तः। ननु यथा सम्बन्धाऽऽदेरद्रव्यादेरप्यतैजसस्य रूपक्षानजननं तथा चक्षुषोऽपि किं स्यात् । न चादर्शनादित्युत्तर समर्थम्, दर्शने निवृत्तेऽनिवर्तकत्वात्प्रदीपवदिति दृष्टान्तस्यापि रूपप्रकाशकत्वासिद्धेः साधनविकलता दृष्टान्तस्य । न च प्रदीपे सति प्रतिनियतप्राणिनां रूपदर्शनसम्भवात्तस्य रूपप्रकाशकत्वमञ्जनाऽऽदिसंस्कृतचक्षुबां तभावेऽपि रूपदर्शनसद्भावात् । न च यदन्तरेणापि यद् भवति न तत्कायमितरत् तत्कारणम्, अन्वयव्यतिरेकनिबन्धनत्वात् तदावस्य । अथ प्रदीपे सति यद् दर्शनं तत्तदभावे न भवति यतु तदभावे भवति न तत्तत्राऽपि तत्सदृशम्,न चान्यस्य च व्य. भिचारे अन्यस्यासौ अतिप्रसङ्गात्। असदेतत्यतो यादृशमेव रूपदर्शनमालोके संस्कृतचक्षुषा तदभावेऽपि तादृशमेव तत्, भेदानवधारणात् । तथाहि-तद्भेदकल्पने न किश्चित् कस्यचिद्वस्तुनः सदृशमिति सौगतमतानुप्रवेशः स्यात्, रूपप्रदीपयोश्च सहोत्पन्नयोर्युगपदर्शने प्रदीपवद्रूपस्याऽपि प्रदीपप्रकाशकत्वाद् रूपं तैजसं भवेत्, अन्यथा न प्रदीपोऽपि तैजसः स्यात्,तजनकत्वाविशेषात्तयोः। न चान्यदा प्रकाशकत्वोपलब्धिसिद्ध एव तदापि प्रकाशकः,अन्यदाऽप्यञ्जनाऽऽदिसंस्कृतचक्षुषां तदभावेऽपि रूपदर्शनसद्भावात् तस्य तत्प्रकाशकत्वासिद्धेः अथ तस्मिन् सति कदाचित्कस्यचिद्रूपदर्शनात्तस्य तत्प्रदर्शकत्वंतर्हि नक्तञ्चराणां संतमसे रूपदर्शनात्, तदभावे तदभावात् हेतुफलभावस्य सर्वत्र तन्निबन्धनत्वात् तमोऽपि रूपप्रकाशत्वात्प्रदीपवत्तैजसं भवेत् अन्यथा हेतोरनेनैव व्यभिचारः स्यात्।ालेोकाभाव एव तम इति चेत्,न,श्रालोकस्याऽपि तमोऽभावरूपताप्रसक्तः। पालोकस्य तरतमादिरूपतयोपलम्भात् नाभावरूपतेति चेत्,न तमस्यप्यस्य समानत्वा त्। यथा चाऽऽलोकः प्रतिभासविषयस्तथा तद्विषयः। न चाऽऽलोकप्रतिभासाभाव एव तम प्रतिभासः,इतरत्राप्यस्य समानत्वात् न च चक्षुापाराभावेऽपि तत्प्रतिभाससंवेदनादा. Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमागा मन्निधानराजेन्द्रः । पमाया लोकप्रतिभासाभाव एव तमःप्रतिभासः, प्रतिनियतसामग्री- रपि भेदे तेषां सामर्थ्यप्रतिघातात् , न जलेन ते प्रतिहल्यभवविज्ञानायभासित्वात् प्रतिनियतभावानां तमसः तदतत्प्र- न्ते । स्वच्छजलेनाऽपि तेषां प्रतिघातात्, तद्व्यवहितस्याऽभवविज्ञानावभासित्वात् ,मालोकस्य च तद्विपर्ययात्। यद्वा- प्यप्रकाशनप्रसङ्गात् , अथ तेषां तत्र प्रकाशनयोग्यता ताई ऽऽलोकस्याप्यचतुष्ये सत्यपिखप्नशाने प्रतिभासनात्तमोक्षा- तत एतेऽप्राप्तमप्यर्थ प्रकाशयिष्यन्तीति व्यर्थ संयुक्तसमनाभावरूपता भवेत् । अथाऽऽलोकस्य रूपप्रतिपत्ती हेतुभा- वायाऽऽदिसनिकर्षप्रकल्पनम् । अपि च-समवायसंबन्धिनिपान भावरूपता तर्हि तमसोऽपि नक्तश्चररूपप्रतिपत्ती षेधे चक्षुषो घटरूपेण संयुक्तसमवायप्रतिबन्धस्याऽभावात् हेतुभावो विचत इति नाभावरूपता भवेत् , तदेवमालोकस्य तबूपाप्रकाशकत्वात् कथं नाऽसिद्धो हेतुः, रूपाऽदीनां मध्ये वस्तुत्वे तमसोऽपि तदस्त्विति तेन हेतोयभिचारः । भवतु रूपस्यैव प्रकाशकत्वादिति । अथेह तन्तुषु पट इति बुद्धिः संचाऽऽलोकाभाव एव तमः, तथापि न व्यभिचारापरिहारः,त. । बन्धनिबन्धनत्वादिह कुराडे दधीति बुद्धिवदित्यतोऽनुमाना. दभावस्य तैजस्यापि तत्प्रकाशकत्वात्।अथ तमोऽभावेऽपिरू- त् समवायसिद्धः, न, संयुक्तसमवायसंबन्धाभावः नेह बुध्या पदर्शनान्न तस्य तत्प्रकाशकन्वं, तर्हि नक्कञ्चराणामालोकामा- संबन्धमात्रसाधने, घटतद्रूपयोः कथञ्चित्तादात्म्यसंबन्धाभ्यु. वेऽपि रूपदर्शनादालोकस्यापि न सन्प्रकाशकत्वं भवेत् । अ.| पगमात् सिद्धसाध्यताप्रसङ्गात् । अथ कथश्चित्तादात्म्यसंबथामदादीनां किमालोकाभावे रूपदर्शनं न भवति, भव- न्धः तद्बुद्धिनिमित्तत्वेन प्रतिपन्न इति कथश्चित् तादात्म्यसंत्येव, कथमन्यथाऽन्धकारसाक्षात्करणम् घटरूपदर्शनं किं ने- धन्धेविरोधोनेष्यते, तर्हि भावाभावयोः कथश्चित्तादात्म्यमा. ति चेत्, बहलतमोव्यवधानात्, तीब्राऽऽलोकतिरोहिताल्प- वे समवायाऽऽदेरसंभवादसंबन्धः स्यात्। तथा चाभावे नमरूपवत्, प्रदीपोपादानं तु तस्य व्यवच्छेदार्थम् । अत एवान्य. क्षाणां सत्रिकर्षाभावाद् नाऽक्षतस्तत्प्रतिपत्तिः स्यात्, त्रोक्तम्-"तमोनिरोधे वीक्ष्यन्ते, तमसा नावृतं परम् । घटा- विशेषणविशेष्यभावस्य भावाऽभावयोः संबन्धस्य भावात् दिमित्यादि।" प्रदीपस्य च घटरूपव्यवधायकतमोऽपनेतृत्वे नाऽयं दोष इति चेत् । न । भावाऽभावाभ्यां तस्यानर्थान्तरत्वे तैजसं चक्षुः रूपाऽऽदीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात्,प्रदी-] तावेव स एव वा स्यात्, अर्थान्तरत्वे भावाभावयोः तद्भापवदिति साधनयिकलत्वात् दृष्टान्तस्य निरस्तं द्रष्टव्यम् । वेप न विशेषणविशेष्यरूपता, ताभ्यां तस्याऽसंबन्धात्, न चान्यत एव तस्य रश्मयः सिद्धाः, केवलमनेन प्राप्तार्थ- संबन्धे वाऽऽभ्यां तस्य परेण संबन्धनिमित्तेन विशेषणविप्रकाशकत्वे तेषां साध्यत इति वक्तव्यम्, तत्सद्भावप्रतिपा- शेष्यभावेन भवितव्यं, तस्याऽपि संबन्धनिमित्तेनापरेण तेने दकस्य प्रमाण पणाभावात् । अथ पद्यप्राप्तार्थप्रकाशकं चक्षुर- त्यनवस्था भवेत् , तस्मात्कथञ्चित्तयोः तादात्म्यमभ्युपगन्तविशेषेण सर्व प्रकाशयेत् , तन्न, अर्थानां नियतशक्तित्वात् ,य- व्यम् । अन्यथा भावस्याध्यक्षप्रमाणग्राह्यता न भवेत् , तदेवं तो य एव तत्र योग्यः स एव तत्प्रकाशयति, अन्यथा संयु. समवायासिद्धनाक्षस्य रूपेण संबन्ध इति न तेन तस्य ग्रहणं क्लसमवायाविशेषाच्चक्षुर्यथा कुवलयरूपं प्रकाशयति तथा त. परपक्षे भवेदिति चतुषो घटेन संयोग एव, अयुतसिद्ध गन्धमपि प्रकाशयेत् , तथा चेन्द्रियान्तरवैफल्यम् । अथ यो- त्वात् , द्रव्यसमवेतानां गुणाऽऽदीनां संयुक्तसमवाय एवेत्या ग्यताभावान तत्तद्गन्धमवभासयति तर्हि योग्याताभावात् दिषोढाः सन्निकर्षप्रतिपादनमयुक्तम्, संयोगसमवायविशेषप्राप्त्यभावेऽपि नातिव्यवहितमिति सन्निकटं वा तबूपं प्र- विशेष्यभावसंबन्धानामभावेन तदनुपपत्तेः संयोगाऽऽदे. काशयतीति सर्वत्र योग्यतैवाऽऽश्रयणीया नापरसंबन्ध. श्वाभावः प्रतिपादितो यथाऽवसरमिति न पुनः प्रतिपाद्यप्रकल्पनेन कृत्यम्,रश्मयो वा कुतो न लोकान्तरमुपयान्तीति ते । अथवा-अस्माकं चक्षुषः प्राप्तार्थप्रकाशकत्वं, प्रमाणाs. प्रेरणायां परेणाप्ययोग्यतैव तत्रतरत्र तु योग्यता प्रति- भावान सिद्धं, तथा भवतोऽप्यप्रासार्थप्रकाशकत्वं तस्य विधानत्वेन बक्तव्या; तथा यस्य कारणाद् भिन्नमेव कार्य तत एव न सिद्धमिति कथं " रूपं पुणपासाई अपुटुं तु" तस्य भेदाविशेषात् सर्व सर्वस्मात् कुतो नोत्पद्यत इति इत्यभिधानं युक्तिसङ्गतम् । न, तस्याप्राप्तार्थप्रकाशने अनुमाचोये योग्यतातो नापरमुत्तरमिति सैवात्राप्यभ्युपगमनी- नसद्भावात् । तथाहि-अप्राप्तार्थप्रकाशकं चक्षुरित्यासमार्थाया। किंच-यदि प्राप्तार्थप्रकाशकं, चक्षुः स्फटिकाऽऽधम्तरित प्रकाशकत्वात्, यत्पुनःप्राप्तार्थप्रकाशकं तदत्यासन्नप्रकाशकवस्तुप्रकाशकंन स्यात् , तद्रश्मीनां विषयं प्रति गच्छतां स्फ- मुपलब्धं, यथा श्रोत्रमत्यासनेऽर्थे ऽप्रकाशकं च चक्षुस्तस्माटिकाऽऽदिना प्रतिबन्धात्।नच तैस्तस्य ध्वस्तत्वादयं न दोषः, दप्राप्तार्थप्रकाशकमिति व्यतिरेकी हेतुः। न चायमसिद्धो हेतुतद्यहितदर्शनसमये स्फटिकाऽऽदिव्यवधायकस्यादर्शनप्रस गोलकस्थस्य कामलाऽऽदेः पदमपुटगतस्य चालनाऽऽदेस्तेना मात्, तदुपरि व्यवस्थापितस्य चाऽऽधारविनाशोत्पातप्रस- प्रकाशनात्, कथमन्यथा दर्पणाऽऽदेः परोपदेशस्य वा तत्मक्लेश्च न हि परमाणवो दृश्याः कस्यचिदाधारभूता वा,अवय- तिपयर्थमुपादानं भवेत् अथसाध्यनिवृत्ती नियमेन तत् निवविकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्ने,अन्यस्यावयविनाशूत्पत्तेरदोषश्चेत्, र्तमानप्त्यासमार्थप्रकाशकत्वं नियमेन व्यावर्तते, चक्षुष इष न, तदा तद्यवहितस्यादर्शनप्रसक्नेः । तथा च यदा व्यवधा तस्याप्यत्यासन्नार्थीप्रकाशकत्वात्तत्तोनायं व्यतिरेकी हेतुन यकदर्शनं न तदा व्यवहितदर्शनं, यदा च व्यवहितदर्शनं कर्णशकुलीप्रविष्टमशकाऽऽदिशब्दस्य तेन प्रकाशनात् , स्पन तदा व्यवधायकदर्शनमिति प्रसज्येत, न चैवम् . युगपत् | र्शनाऽऽदौ त्वविवाद एव, चक्षुःश्रोत्रमनसामप्राप्तार्थकारित्वद्वयोर्दर्शनात् । श्रथाशूत्पत्तनिरन्तरव्यवहितप्रतिपत्तिविभ्रमः, मिति च नादप्राप्ताप्रकाशक श्रोत्रमिति न साध्यनिवृत्ती तर्हि तदभावस्याऽपि आशुत्पत्तेरभावप्रतिपत्तिविभ्रमस्तथा साधननिवृत्तिस्तद् नायं व्यतिरेकी हेतुरिति सौगतः । यथा किंन भवेत् ,भावपक्षस्य बलीयस्त्वादिति चेन्न. भावाभावयोः सर्वगताऽऽत्मपक्षे साऽऽत्मकं जीवच्छरीरं, प्राणाऽऽदिमत्वापरस्परस्वकार्यकरणाविशेषात् । किं च-कलुषजलाऽऽद्या दितिहेतुः, न, प्राप्तकारित्वे श्रोत्रस्य चक्षुष इवात्यासन्नविवृतस्यार्थस्य किन ते प्रकाशकाः,स्फटिकादेरिव जलाऽऽदे- षयप्रकाशकत्वं न स्यादिति मशकादिशब्दस्य प्राप्तप्रत्यक्षतः www.jainehibrary.org Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमागा (४४८) अभिधानराजेन्मः। पमाण प्रकाशकत्वेन प्रतीयमानस्याप्राप्तार्थप्रकाशकत्वं तस्याध्यक्ष- च्चार्थग्रहसं स्मृतिफलसन्निकर्षनिवृत्यर्थमित्युक्तम्। तदप्यसं. बाधितम, अग्नावनुष्णत्ववत् । अथ दूरे शब्दोनिकटे शब्द इति गतम् । स्मृतिवत् शानस्याप्यर्थजन्यत्वासिद्धेस्तजन्यत्वात् प्रतीतेः प्राप्तार्थप्रकाशकं श्रोत्रमिष्यते,न सदेतत्,यतः साका तस्य तद्ग्राहकत्वे समये चिरातीतानागतार्थग्राहकत्वं तस्य रशानपक्षेऽनाकारज्ञानपक्षे वाध्यमभ्युपगम इति वाच्यम् । न न स्यात्, तथाभूतस्यार्थस्य तत्प्रत्ययजनकत्वात्, तथा च सतावत्प्रथमः पक्षः शब्दाऽऽकारस्य शानगतस्याज्ञानावभासे वंशशानं सकलपदार्थग्राहकं न भवेदिति प्राक् प्रतिपादितम् । दूरनिकटव्यवहारानुपपत्तेः । अन्यथा स्वसंवेदनाऽऽकारेअप यदपि ज्ञानग्रहणं सुखाऽदिनिवृत्त्यर्थमिति प्रतिपादितम् । तदतत्प्रसक्तिर्भवेदिति सर्वत्राऽऽसनदरव्यवहारे घटमाने प्यसङ्गतम् । सुखाऽऽदेर्शानरूपत्वानतिक्रमात् । अन्यथाव्यावर्त्यः कः स्यात् । श्राकाराऽऽधायकस्याऽऽसन्ना35. हादाऽऽधनुभवो न स्यात्, तत्तह्राहकस्यापरस्यानुभवदित्वात् तावहारस्तर्हि परपक्षेऽप्येतदुत्तरं समान भवे- स्यानवस्थाऽऽदिदोषतो निषिद्धत्वात् । यदपि भिन्नहेदिति किं तत्प्रतिक्षेपः, सक्यं हि परिणामेप्येवमभि- तुकत्वं सुखाऽऽदेः प्रतिपादितं, तदपि सुखाऽऽदेः धातुं, कर्णशषकुल्यनुप्रविष्टस्य शब्दस्य ग्रहणेअप तत् सामान्यस्यासिद्धिरसङ्गतम् । यश्च प्रत्यक्षविरोधः प्रतिप्रथमकारणस्य दूरत्वात् दूरव्यवहारो. विपर्ययाच्च विपर्यय पादितो शानसुखयोरेकत्वे शानमर्थावबोधस्वभावं सुखाऽऽदिइति। द्वितीयपक्षस्तुन युक्तः, सौगतस्यानभिमतत्वात्।थप- कमालादाऽऽदिखभावं ततो भिन्नमध्यक्षतोऽनुभूयत इति । रापेक्षया प्राप्तार्थप्रकाशकं श्रोत्रमित्यभिधीयते दूराऽदिव्यव- सोऽप्यनुपपन्नः। यतः खावबोध एव विज्ञाने अव्यभिचरितो हारात् ते तद्विषये चक्षुर्वदिति नैवं परसिद्धेनानुमानेन प्रमा धर्मस्मरणाऽऽदिशानरूपतायामप्यर्थावबोधरूपताया अभाणेतरसामान्यव्यवस्थाऽऽदेश्चार्वाकस्योत्पश्यनित्यत्वाऽऽदिना वात् । एतच्चार्थोपलब्धिरिति विशेषणमुपपादयता प्रमाणे सुखाऽऽदेरचेतनत्वप्रसाधनं साङ्ख्यस्य वा निषिद्धं भवेत् ।बौ. परेणाप्यभ्युपगमे च स्वावबोधरूपतानुशानाव्यभिचरिता द्धाभ्युपगतेनानुमानेनोत्पत्त्यादिना च तेनापि स्वाभिप्रेतसाध्य सुखाऽऽदावप्यस्ति । अन्यथा तस्याऽनुभव एव न स्यादिस्य साधयितुं शक्यत्वात्। यश्च वातादेरागतस्य ग्रहणेभप ति प्रतिपादितम्। ततश्चाक्षुषाऽऽदेर्शानरूपतायां कथमध्यक्षदूरायद् व्यवहारं प्रतिपद्यते परः स कथं तत एव त्वदीयं विरोधः, अदृष्टविशेषप्रभवत्वेन च सुखाऽऽदे दे सुरूपक्षानस्य साध्यं प्रतिपद्येत । यदि च स्वोत्पत्तिदेशस्थ एव श्रोत्रण विरूपधानात् शानरूपतया भेदो भवेत्, अदृष्टविशेषजन्यताया गृधेत नाऽऽगतस्तहि कथमनुवाते शब्दस्य तद्देशोत्पत्तिक अविशेषात्। तन्नसुखाऽऽदिव्यवच्छेदार्थ शानपदोपादानं युक्तस्यैव श्रवणं, शब्दाविनाशे अनुकूलवाते श्रवणं, मन्दवाते म्। अव्यपदेश्यपदोपादानमप्यनर्थकम् । व्यवच्छेद्याभावात् । मनाक् श्रवणं भवेत् न च प्रतिकूलवाते शब्दस्य नाशितत्वात् अथोभयजं ज्ञानं व्यवच्छेद्यमिति चेत् । न । तस्याध्यक्षतायां श्रोत्रस्य वाऽभिहतत्वान्न श्रवणं, शब्दविनाक्षे अनुकूलबात दोषाभावात् । अथ शब्दजन्यत्वात्तस्य शब्देऽन्तर्भावः,नन्वक्षस्थस्यापि तथा श्रवणप्रसक्तः, शब्दस्य विनष्टत्वाद्यवहितदेश जत्वादध्यक्ष किमिति नान्तर्भावः ? । शब्दस्य तत्र प्राधान्याथस्य च तस्य श्रोत्राभिघातहेतुत्वानुपपत्तेः, अन्यथा भत्राss च्छाब्दं तदिति चेत् । न । अध्यक्षलिङ्गातिक्रान्त एव शब्दस्य दिव्यवस्थितस्यापि तस्य तदुपघातकत्वं स्यादनुकूलवातेन प्राधान्येन व्यापारोपगमात् अथोभयजज्ञानविषयस्यापि ततस्य तत्प्रतिप्रेरणात्तेन तत्श्रवणे प्राप्तः शब्दः श्रयत इ. दतिक्रान्तत्वं तीव्यपदेश्यपदोपादानमन्तरेणापि शाब्द एव ति प्राप्त, तथाऽपि तत्र दूरादिव्यवहारे श्रोत्रमप्राप्तप्रकाश तस्यान्तर्भावो भविष्यतीति तद्यवच्छेदार्थमव्यपदेश्यपदोपाकमतः सिद्ध्यतीति कथं न व्यतिरेकी हेतुः न च चक्षुःश दानमनर्थकम् । अथोभयजत्वादस्य प्रमाणान्तरत्वं स्यादसमेन नायनरश्म्यभिधानादत्यासन्नप्रकाशकत्वाच्च तेषाम: त्यव्यपदेश्यग्रहणेनाक्षप्राधान्ये प्रत्यक्षता, शब्दप्राधान्ये तु शात्यासन्नाप्रकाशकत्वादिति हेतुरसिद्धः, तेषां प्रत्यक्षाऽदिप्रमा ब्दतेति कथं प्रमाणान्तरता । न चोभयोरपि प्राधान्यं, सामणाविषयत्वेन सद्भावासिद्धेरिति प्रतिपादनात् तदसिद्धताऽऽ. ध्यामकस्यैव साधकतमत्वात्तेनैव च व्यपदेशप्राप्तेः । यदपि दिदोपवैकल्याच्च हेतोरप्राप्तार्थप्रकाशकत्वं चक्षुषः सिद्ध व्यभिचारशाननिवृत्यर्थमव्यभिचारिपदमुपात्तम् । तदप्ययुमिति “रूपं पुण पासई अपुटुं तु" इति न युक्तिविकलं वचः, लम्। तत्प्रतिपाद्यस्यार्थस्य परमतेनासङ्गतेः। तथाहि-अदुष्टक तदेवमिन्द्रियार्थसन्निक!त्पन्नत्वं प्रत्यक्षस्यासिद्धम् । यदपि रणप्रभवत्वं बाधारहितत्वं वा अव्यभिचारित्वं प्रवृत्तिसातत्वतः करणेन्द्रियसम्बन्धस्य सुखाऽऽदिशानोत्पत्तावसम्भवे मर्थ्यावगमव्यतिरेकेण न ज्ञातुं शक्यमिति खतः प्रामाण्यन तस्याव्यापकत्वादभिधानमिति । तदप्यसम्बद्धम्। यथाही निराकरणप्रस्तावे प्रतिपादितमिति प्रवृत्तिसामर्थ्यमेवाव्यन्द्रियार्थसन्निकर्षों यथोक्लन्यायेन रूपिज्ञानोत्पत्ती न संभ भिचारित्वं, तच्च विषयप्राप्त्या विज्ञानस्याव्यभिचारित्वं पीति न प्रत्यक्षलक्षण तथाऽन्तःकरणेन्द्रियसंबन्धोऽप्यन्तः शायमानं किं प्रतिभातविषयप्राप्त्याऽवगम्यते, आहोखिदप्रकरणस्य परिकल्पितस्यासिद्धत्वात्तत्संबद्धयस्य दुरापास्त तिभातविषयप्राप्त्या?, तदोदकमाने किमुदकावयवी प्रतिभात्वात् । यथा चान्तःकरणस्यासिद्धिः तथा खनिर्णय शानस्य तः प्राप्यते, उत तत्सामान्यमाहोखिदुभयमिति पक्षाः तत्र साधयद्भिः प्रदर्शितम्। यदप्यव्यभिचारादिकार्यविशेषणो यद्यवयवी प्रतिभातः प्राप्यत इति पक्षः, स न युक्तः, अवय विनोऽसत्वे प्रतिभासं प्रति विषयतासम्भवात्, सत्वेऽपि पादानमन्तरेण सन्निकर्षस्य साधुत्वं ज्ञातुं न शक्यत इति श्रभिधानं, तदप्यसङ्गतम्। परपक्षे अव्यभिचाराऽऽदिधर्मोपेतस्य न तस्य पराभ्युपगमेन प्रतिभातस्य प्राप्तिः,कृष्यादीववर्तनाशानकार्यस्यैवासिद्धेः कथं ततः सन्निकर्षस्य साधुत्वावगमः, भिघातोपजातावयवक्रियाऽऽदिक्रमेण ध्वंससम्भवात् अथाकार्यत्वानवगमश्च । स्वसंविदितत्वानभ्युपगमे झानान्तरप्र वस्थितव्यूहरवयंवरारब्धस्य तस्य तज्जातीयतया प्रतिभातत्यक्षतायामनवस्थाऽऽदिदोषोपपत्तेःप्राक् प्रतिपादनात् । य-1 स्यैव प्राप्तिः, नन्वेवमप्यन्यःप्रतिभातोऽन्यश्च प्राप्यत इति क५। तदवभासिनो ज्ञानस्याव्याभिचारिता। न ह्यन्यप्रतिभासने Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण म्यत्र प्राप्तावप्यभिचारिता । अन्यथा मरीचिकाजलप्रतिभासे दैवात् सत्यजलप्राप्तौ तदवभासिनस्तस्याव्यभिचारिता भ वेत् । न च तद्देशजलप्रापकस्याव्यभिचारितेति नायं दोषः, यतो देशस्यापि भास्करकरानुप्रवेशाऽऽदिनाऽवयवक्रियाक्रमेण नाशात् तत्त्वानुपपत्तिः, न चैवं व्यभिचारवादिनः चन्द्राको विज्ञानं विनाऽस्य तदवस्थपदार्थोत्पादितत्वात् तदव्यभिचारि भवेत् । अथ प्रतिभातोदकसामान्यतदन्यमि चारीति पक्षः । सोऽप्ययुक्तः । एकान्ततो व्यक्तितो मिनस्य वा सामान्यस्यासत्त्वेन प्रतिभासप्राप्त्यालम्बनत्वायोगात्; सच्वेऽपि तस्य नित्यतया स्वप्रतिभासज्ञानजनकत्वायोगात्, अजनकस्य च परे ज्ञानविषयत्वानभ्युपगमात् शा नविषयत्वेन तस्य पानावगाहनाऽऽचर्थक्रियानिवर्त्तकत्वानाक्रियार्थिनां तज्ञानात् जला33गुपादानार्था प्रवृत्तिर्भवेत्। न च समवायात्सामान्यावगमेऽपि व्यक्ता व्यक्त्यर्थज्ञानार्थिनां प्रवृत्तिः अन्यप्रतिभासे अन्यत्र प्रवृत्तियोगात् योगे वाऽतिम योगायोगाऽतिप्रसङ्गात्। न च समवायस्यातिसूक्ष्मतया जातिव्यक्तयोरेकलोलीभावेन जातिप्रतिपत्तावपि भ्रान्त्या व्यक्तौ प्रवृत्तिः, तत्ज्ञानस्यातस्मिंस्तद्ग्रहणरूपतया भ्रातिरूपत्वादव्यभिचारित्वायोगात् । न च समवायेऽपि जाते. फ्री सम्भवति संभवे अप तस्य व्यापितया सर्वकस्य प्रतिनियतव्यक्तिनिमित्तत्वानुपपत्तिः न च नित्यस्य तस्य ज्ञानजनकत्वमपि संभवीति समाहिणि ज्ञाने अ तिभासमानस्य कथं भ्रान्तिहेतुता अप तस्य संभवति प्रतिभासनेऽपि स्वरूपेण प्रतिभासनात् कथं भ्रान्तिनि मित्तता । न च सामान्यस्य प्रतिपत्तौ सामान्यसाध्यार्थक्रियार्थितया तदर्थिनां प्रवृत्तिः ज्ञानाभिधानलक्षणायास्तदर्थक्रियायास्तदेव निष्पत्तेः व्यापकत्याच सासाम्यस्य न प्रतिनियत देश कालप्रवृतिविषयतेति प्रवृत्यभाषात् तत्सामर्थ्यं तदभावात् न तदवभासिनी ज्ञानस्याउत्यभिवारिताऽयगति । अथ प्रतिभाततद्वदप्राप्तव्यभिचारित्वमिति पक्षः, सोऽप्यसंगतः। श्रवयविसामान्ययोरभावे तद्वत् पक्षस्य दूरापास्तत्वात् । अथ प्रतिभातार्थप्राप्त्या व्यभिचारिता, न. श्रवयवानामपि यणुकं यावदवयवित्वात् परमाणुनां वार्षादर्शने अप्रतिभासनान कथं चिरप्रतिभाता र्थप्राप्त्या ज्ञानस्याव्यभिचारितासम्भवः । किं च प्रवृत्तिसा मनाप्यभिचारिता पूर्वोदितज्ञानस्य किं लिङ्गभूतेन ज्ञायते उताध्यक्षरूपेण ? | यद्याद्यः पक्षः, स न युक्तः । तेन सह संबन्धानपतेः अयगती वा न प्रवृत्तिसामध्ये॑न प्रयोजनम् अथ द्वितीय, सोपेन युक्तः प्यस्तेन पूर्वज्ञानेन सह इन्द्रियस्य सम्रिकर्षाभावातद्विषयज्ञानस्वाध्यक्षफल तानुपपतेः केशी काssदिज्ञानवत्तस्य निरालम्बनत्वाच्च कथमव्यभिचारिताव्यवस्थापकत्वम्न वाविद्यमानस्य कयविषयभावः स म्भपति, जनकत्वाकारार्थकत्वमद्दष्वा ऽऽदिधर्मपत्य सत् पादसत्यं पात्राऽऽदीनां विषयहेतुत्वेन परिकल्पितानामसति सर्वेषामभावात् । अथात्मान्तःकरण सम्यधिनं व्यभिचारिताविशिष्टं ज्ञानमुत्य गृह्यत इति तद्व्यभिचारताऽवगमः । नन्यप्राप्यव्यभिचारित्वं कि ज्ञानधर्म उत तत्स्वरूपम्। यदि तथमतदान निष्यसामान्यनिरूपणे नापादित्यनयोग यदि ज्ञानात् प्रागुत्पस्तदा न तद्धम्मों धर्मिणमन्तरेण तस्य तद्धर्मत्वात् सोन्यादेऽपि तादात्म्यात्तदुत्पत्तिसमवायाऽऽदि ११३ 1 (४४६, अभिधानराजेन्द्रः | 1 पमाण संबन्धाभावे तस्य धर्म इति व्यपदेशानुपपत्तिः पश्चादुत्पादे पूर्व व्यभिचारित शानं स्यात् । किं या व्यभिचारितादिको धर्मो ज्ञानाद् व्यतिरिक्तो व्यतिरिक्को वा यदि व्यतिरिकस्तदा तस्य ज्ञानेन सह सम्बम्धो वाच्यः स न समवायलक्षणः, तस्याऽसिद्धेः सिद्धावपि ज्ञानस्य धर्मतया श्रव्यभिचारिताऽऽदिधर्माधिकरणयोगात् धर्माणां धर्माधिकरणता त्विष्यत एव । अन्यथा ज्ञाने व्यभिचारीत्यादिव्यपदेशानुपपत्तिर्भवेत्, न व्यभिचारिताऽऽदीनामपि धर्माणां सत्यप्रमेयत्वशेयत्वाऽऽद्यनेकधर्माधिकरणतया धर्मिरूपतेय प्रसक्तिरिति कस्यचिद्धर्मस्वापरधर्मस्थानधिकरणस्याभावात् धर्माभाविगो धर्मिणोऽप्यभावप्रसक्तिः । नाऽपि विशेषणविशेष्यभावलक्षणोऽसौ तस्याप्यपरसंबन्धकल्पनया सम्बन्धित्वेऽनवस्थाप्रसक्तेः, असंबद्धत्वे तत्सम्बन्धा इति व्यपदेशानुपपत्तेः । नाऽप्यसावेकार्थसमवायः, श्रात्मन्येवाव्यभिचारिताssदयो धर्माऽर्थान्तरस्वरसप्रसक्तेः । न च समवायाभावे एकार्थसमवायः संभवी न चान्यः सम्बन्धो न पररभ्युपगम्यते । किञ्च यदि अव्यभिचारितादयो धर्मा अर्थान्तरभूताज्ञानस्य विशेषणत्वेनोपेयन्ते, तदैकविशेषणावच्छिन्नज्ञानप्रतिपत्तिकाले परविशेषणावह्निस्य तस्य प्रतिपतिरित्य शेषविशेषणानयनं तत्सामान्या व्यवच्छेदकं भवेद्, अपरविशेषणावच्छिन्नतत्प्रतिपत्तिकाले ज्ञानस्य ज्ञानान्तरविरोधितया तपाऽसच्चात् अथ निर्विकल्पकमपदनेकविशेषगावच्छिन्नस्य तस्य प्रतिभासान्नायं दोषः, तर्हि व्यवसायाssत्मकमिति पदमध्यक्षलक्षणेनेोपादेयम्. श्रनिश्चयाऽऽत्मकस्याप्यध्यक्षफलत्वेनाऽभ्युपगमात् श्रथ विशेषजनितं व्यवसायात्मकम्, नन्वेवं सामान्यजनितं विशेषणं ज्ञानमध्यक्षफलं न भवेत् यदि वाऽनेकविशेषविकिज्ञानाधिगतिरेक ज्ञानं कथमेकानेकरूपवस्तुनाऽभ्युपगतं भवेत् । अथाव्यतिरिस्तहिं ज्ञानमेव नाव्यभिचारिताऽऽदि, तदेव वा तदज्ञानमित्यन्यतरदिवसात् तत्साम श्रीव्यवच्छेदस्ततो भवेत् । अथ व्य भिचारिताssदिज्ञानस्वरूपमेव तदा विपर्ययज्ञानेऽध्यव्यभिचारिताप्रसक्तिः ग्रंथ विशिष्टं ज्ञानमव्यभिचारिताऽऽदिस्वभावम् । ननु विशेषणमन्तरेण विशिष्टता कथमनुपपतिमती, विशेषणस्य वैकान्ततो मेरे सैय संबन्धासिद्धेरभेदेन विशिष्ठता, कथ चित् भेदे परपक्ष सिद्धिः। तन्नाव्यभिचारितापदोपादानमर्थवत् इतोऽप्यपार्थकम् इन्द्रियार्थसन्निकर्षपदेनैव तयावर्त्तस्यापोदि. तवत्, तथा मरीच्युदकज्ञानव्यवच्छेदायाव्यभिचारिपदोपादा नं. तशाच उदकं प्रतिभाति न वनेन्द्रियसम्बन्धः विद्य मानेन सह संबन्धानुपपत्तेः। विद्यमानत्वे वा न तद्विषयज्ञानस्य व्यभिचारिता, विद्यमानार्थज्ञानवत् । श्रथ प्रतिभासमानोदकसम्बन्धाभावेऽपि मरीचिभिः सम्बन्धादिन्द्रियस्य तत्सप्रिकर्षप्रभवं तत् । अत एव मरीचीनां तदालम्बनत्वं तस्य तान्वयव्यतिरेकानुविधानात् तदेशं प्रति प्रवृत्ते मिथ्या त्वमपि तत् ज्ञानस्योत्पादालम्वनमन्यत् प्रभातीति कृत्यानन्व प्रतिभासमानं कथमालम्वनम्। यदि ज्ञानजनकत्वादिन्द्रियाSSदेरप्यालम्बनत्यप्रसरव्यापकत्वम् तदधिकरादि त्वालम्बनं त्वपरस्याभिमतम्, तस्मात्तदवभासित्वमेव श्रालम्बन माने मरीचयः प्रतिभारित योदकाका रतया ता एव तत्र प्रतिभ न्ति ननु तान्युदकाssकारता यद्यव्य तिरिका. परमार्थसती च तदा प्रतिपत्तेने व्यभिचारित्वम् श्राम्परमार्थसती, तदा तासामप्यपरमार्थतत्वप्रसक्तिः किंच J Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५०) अभिधानराजेन्दः । पमाण पमागा पारमार्थिकोदकतादात्म्ये मरीचीनां तदुदकज्ञानवत् मरी- व्यभिचारिपदापोधता विशेषेऽप्यस्य प्रामाण्येऽध्यक्षत्वे वाsविज्ञानमपि वितथं भवेत् । न च उदकाऽऽकार एकस्मिन् प्र. व्यभिचारिपदमपार्थकम् । अपोह्याभावात् । यदि च-सामान्यतीयमाने मरीचयःप्रतीयन्त इति वक्तुं शक्यम्।अतिप्रसङ्गात्। वानर्थः स्मृत्युपस्थापितविशेषापेक्षा स्य जनकः कथमस्य अथ व्यतिरिक्ता ताभ्य उदकाऽऽकारता, तर्हि तत्प्रतिपत्तौ विपर्ययस्तता, विद्यमानविशेषविषयत्वात् । अथ स्मृत्युपकथं मरीचयः प्रतिभान्ति, अन्यप्रतिभासेऽप्यन्यप्रतिभासा- स्थापिनत्वाद्विशेषस्य, अविद्यमानविशेषत्वे विषयतया तस्य भ्युपगमेऽतिप्रसङ्गात्। किश्च-केशोन्दुकशाने किमालम्बनं,कि विपर्यस्तता, न तु तत्राऽविद्यमानः स्मृत्युपस्थापितो विशेषः वा प्रतिभातीति वक्तव्यम् । अथ केशोन्दुकाऽऽदिकमेवाऽऽलम्ब- कथं तजनको, येन सामान्यवानर्थस्तदपेक्षस्तजनकः परिगीनं.प्रतिभाति च तदेव तत्र.तर्हि मरीच्युदकशानेऽपि तदेवाल- येत, तथाऽपि तजनकत्वे इन्द्रियस्य स्वदेशकालासन्निहिताम्बनं.तदेव प्रतिभातीति किं न भवेत् । न च तदक्षानस्य प्रती- र्थापेक्षस्य ज्ञानजनकत्वादर्थेन सन्निकर्षकल्पनात् तस्य प्रमायमानाभ्यालम्बनत्ये मिथ्यात्वम्, अपितु प्रतिभासमानस्या- णस्य चार्थवत्त्वकल्पना विशीर्येत । तथा चेन्द्रियार्थसन्निकसत्यत्वेन, अन्यथा केशोन्दुकज्ञानस्य मिथ्यात्वं न भवेत्,न म- त्पन्नमित्यर्थवत्प्रमाणमिति च न वक्तव्यं स्यात्। श्रथ जरीचिदेशं प्रति प्रवृत्तिः, मरीचिव्यालम्बनत्वं तद्देशस्यैवमा- नकस्य तत्र न प्रतिभास इति स्मृत्युपस्थापितस्य तस्य न लम्बनत्यप्रसक्तः । न च प्रतिभासमानान्यार्थसन्निकर्षजत्वं जनकता, तीविद्यमानस्य न जनकत्वमिति विद्यमानविशेतत्मानस्य सत्योदकशाने अस्यादृष्टेः, न वा प्रतीयमानस- षविषयत्वेन तमानस्याऽपि पर्यस्तत्वे तद्यवच्छदार्थमव्यभिकर्षजन्यस्य तस्य तज्जत्वमभ्युपगन्तुं युक्तम, अन्यथा- भिचारिपदोपादानमनर्थकं भवेत् । सामान्यवतोऽर्थस्य के . ऽनुमेयदहनझानस्याऽपीन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वं स्यात् । अथ वलस्य तजनकत्वे तस्यैव तत्र प्रतिभासः स्यात् । यदपि मन एव तत्रेन्द्रियं, तस्य च दहनेन सह प्रतीयमानेन ना- तिरस्कृतस्वाऽऽकारस्य परिगृहीताऽऽकारान्तरस्य तस्य स्ति सम्बन्धः, इहापि तर्हि प्रतीयमानेनोदकेन न सम्ब तज्जनकत्वंतत्राऽपि वस्तुनः स्वाऽऽकारतिरस्कारे वस्तुत्वग्धः, चक्षुषो मरीचीनां तु न प्रतीयमानत्वमिति ताभि- मेव न स्यादिति कथं तस्य सामान्यविशिष्टता। तथाहि-मरी. रपि कथं तस्य सम्बन्धः? यच्च सामान्योपक्रमं विशेषपर्य- चीनां मरीच्याकारतापरित्यागे वस्तुत्वमेव परित्यक्तं भवेत्, बसानमिवमुक्कमित्येकं शानं. तस्य सामान्यवानर्थः स्मृत्युः | स्वाऽऽकारलक्षणत्वाद्वस्तुनः। न चाऽऽकारान्तरस्य परिग्रहः पस्थापितविशेषापेक्षो जनकः तिरस्कृतस्वाऽऽकारस्य परिगु- सम्भवति,वस्त्वन्तरस्य वस्त्वन्तराऽऽपत्तिरूपत्वात् । तदापहीताऽऽकारान्तरस्य सामान्यविशिष्स्य वस्तुनो जनकत्वे त्तिरूपत्वे वा मरीचय उदकरूपतामापन्ना इति तत्प्रतिभातथाविधस्येन्द्रियेण सम्बन्धोपपत्तेः । इन्द्रियार्थसन्निकर्षजो | सशानं सत्योदकज्ञानवदविपर्यस्तमिति तद्व्यवच्छेदार्थमविपर्यय इति तदन्यतरसम्बद्धं, पराभ्युपगमेनास्याऽनुपप. व्यभिचारिपदोपादानं कार्य भवेत् , सामान्यविशिष्टस्य च तः । तथाहि-सामान्योपक्रममिति यदि सामान्यविषय- वस्तुन इन्द्रियसंबद्धविपर्ययज्ञानजनकत्वे यत्रांश तस्येन्द्रिमिति ज्ञान तथा मरीच्युदकयोः साधारणमेकं सा- यसम्बन्धोत्पाद्यत्वं तत्राध्यक्षता. प्रमाणता चान्यत्र तद्धिमान्यमिदमिति शानस्य विषयो वक्तव्यः । न चैकान्त- पर्यय इत्येकज्ञानमध्यभाणं, नद्विपर्ययरूपं च भवेदित्युतो व्यतिभिन्नमभिन्नं वा सामान्य संभवति, सम्भवेऽपि क्लम्। यदपि यत्सन्निधाने यो दृष्ट इत्यादि। तदप्ययुक्तम्।शब्दासत्यद्रव्यत्वव्यतिरिक्तस्य मरीच्युवकसाधारणस्य तस्य न बच्छेदेनोदकमिति ज्ञानस्यानुत्पत्तेः। न हघुदकवच्छेषोऽप्यन सद्भावः,सत्यद्रव्यत्वाऽऽदेश्च ज्वलनाऽऽदावपि सद्भाव इति ज्ञान विशेषणभूतो प्राह्यतया प्रतिभाति, तथा प्रतीतेरभान मरीच्युदकसाधारणत्वम, तातरङ्गायमाणत्वं भयसाधा- वात् । शब्दविशिष्टोदकप्रतिभासाभ्युपगमेशप यदि शब्दस्मररणं सामान्यं पराभ्युपगमेन न संभवत्येव, सत्वेऽपि न णाद्यन्तरेण नार्थनिश्चयस्तदाऽनवस्थादोषप्रतिपादनात् न तद्तस्य तदुभयनियतत्वम्, अन्यत्राऽपि सद्भावोपपत्तेः । वि- ध्वनिस्मृतिर्भवेत् । अथ शब्दस्मरणाऽऽधन्तरेणाप्युदकाऽऽदे. शेषपर्यवसानमित्येतदपि यदि विशेषग्राहिकं तदा सा- निश्चयस्तदा जैनमतानुप्रवेशाच दोषासक्तिः काचित्।एवं संशमान्यग्राहकानुपपत्तिः । न हीदमित्येतस्य ज्ञानस्य विशेष- यज्ञानव्यवर हदेदार्थव्यवसायाऽऽत्मकपदोपादानमापन कर्त्तव्य. प्राहिताऽनुभूयते, नन्वेवं सामान्यविषयो भिन्नस्वरूपत्वात् मू-इन्द्रियार्थसनिकर्षोत्पत्रपदेनैव तस्यापि निरस्तत्वात् । न कथं सामान्यग्राहिता अस्य । अथोदकमिति ज्ञानविशेषग्रा- हि पराभ्युपगमेन स्थाणुर्वा पुरुषोवेति संशयज्ञानमेकमुभयोहि, तर्हि भिन्नावभासमिदमुदकमिति शानद्वयं प्रसक्तं, प्र. लेखीन्द्रियार्थसन्निकर्षजं सम्भवति, असम्भवप्रकारच पूर्ववतिभासभेदस्याऽन्यत्रापि भेदनिबन्धनत्वात् तस्य चात्रापि दनुस्मृत्या प्रापि वक्तव्यः,सविकल्पकाध्यक्षप्रसाधनप्रकारश्चभावात् , शानद्वये भेदमिति सामान्यावभासि सत्यार्थविषयं कान्ताक्षणिकपक्षे न सम्भवत्येव । यःप्राग् जनको बुद्धरित्यासन्निकर्षप्रभवम् , उदकमिति त्वविद्यमानविशेषावासि न देषणस्य तत्राविचलितस्वरूपत्वात् । यथा वा क्षणिकैकान्ते सत्सन्निकर्षप्रभवं, यदसत्यार्थ न त व्यभिचारिपदोपादा. सहकार्यपेक्षा न सम्भवति भावानां, तथा प्राक् प्रतिपादिभव्यवच्छयं. युक्तसन्निक!त्पन्नपदेनैवापोहितत्वात् । यच्च तमिति न पुनरुच्यते यदपि संशयज्ञानव्यवच्छेदार्थ व्यवसभिकर्षजं सामान्यज्ञानं तवयभिचारि न भवतीति नाव्य- सायाऽऽत्मकपदमित्यभिधानम्, तत्र सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेभिचारिपदव्यवच्छेद्यम्। अथैवमुदकमित्युल्लेखद्वययुक्तमेकक्षा षाप्रत्यक्षाद्विशेषस्मृतेश्च किस्विदित्यनवधारणाऽऽत्मकः नं. तर्हि सामान्ये तत्प्रत्यक्ष प्रमाणं च विशेषे अनध्यक्ष प्रत्ययसन्देहो व्यवच्छेद्यतयाऽभिमतः । तत्र च किं प्रतिमप्रमाणं वेति कथमेकं ज्ञानमध्यक्षानध्यक्षरूपं प्रमाणाऽप्र भाति-धर्मिमात्रं, धर्मो घा?। यदि धर्मी वस्तु सन् प्रतिमाणरूपं च नाभ्युपगतं भवेत् । अथ सामान्येऽप्यध्यक्ष प्रमाणं भाति, तदा नास्थापनेयता,सम्यग् शानत्वात् । अथावस्तु सन् खेदमभ्युपम्यते, तहीन्द्रियार्थसभिकर्षजत्वाभावादस्य ना. सर्वत्र प्रतिभाति, तदाऽव्यभिचारिपव्यावर्तितत्वान त Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५१ ) अभिधानराजेन्द्रः । प्रमाणि 3 थावर्त्तनाय व्यवसायपदोपादानमर्थवत् श्रसन् धर्मः प्रतिभाति, तदाऽत्रापि वक्तव्यं, किमसौ स्थाणुत्वपुरुषत्वयोरन्यतरः, उभयं वा ? | यदि स्थाणुत्वलक्षणो वस्तु सत्कथमस्य ज्ञानस्य व्यव. यता सम्यज्ञानन्वादिति । अथाऽपारमार्थिको उसी रात्र प्रतिभाति तथाप्यव्यभिचारिपदापोह्यतैव मिथ्याज्ञानत्वात्। एवं पुरुषलक्षण प्रतिभासेऽप्येतदेव दूषणं वाच्यम्। उभयस्याSपि तारिवकस्य प्रतिभासेन तत्ज्ञानस्य सन्देहरूपतेति नापोद्यता, उभयस्याप्यतात्विकस्य प्रतिभासे तद्विषयज्ञानस्य विपर्ययरूपता न संदेहा ऽत्मकतेत्यव्यभिचारिपदापोद्यतैव । श्र चैकस्य धर्मस्य ताविकत्वमपरस्यतत्विकत्वमेवमपि तारिचकधर्मावभासित्यात्मानमव्यभिचारिताविरुधर्मावभासित्वाच्च तदेव व्यभिचारीति एकमेव ज्ञानं प्रमाणमप्रमाणप्रसशम् । न च संदिग्धाऽऽकारप्रतिभासित्वात् सन्देदशानमिति याच्यम् यतो यदि संदिग्धा 3.5कारता परमार्थतोऽर्थे विद्यते तथा वाचितार्थगृहीतरूपत्वा सन्देहशानता, सत्यार्थज्ञानवत् । अथ न विद्यते तदा श्रव्यभिचारिपदेन तद्राहिज्ञानस्यापोदितत्वद्यवसायम तद्व्यवच्छेदायोपादीयमानं निरर्थकम् । अथ न किञ्चिदपि तत्र प्रतिभाति, न ताई तपेद्रियार्थसन्निकर्षजत्वमिति न तद्वयवच्छेदाय व्यबसाया 55अमकपदोपादानमथवत्। तन्न तदपि प्रत्यक्षलक्षये उपादेयम्। यदपि स्वफलस्वरूप सामग्रीविशेषणत्वेनासम्भवास् नेदं लक्षणमिति । तदयुक्तमेवाभिहितम् । अस्य पक्षत्रयेऽप्यधटमानत्वात् । यदपि यत इत्यध्याहारात्फलविशेषणपक्षाऽऽश्र यणम् तद्व्यखङ्गतम्। यतोऽपरिच्छेदस्वरूपस्याभ्यक्षप्रमाणताविशिष्टप्रमीतजनकं तत्कृत्यप्रत्यक्षमिति विशेषात् प्रमा प्रमेयव्यतिरिक्रस्प प्रमाण तासविकर्षादिप्रमाणत्वाभिम तव्यतिरिक्तस्य तज्जनकस्य प्रमाणतेत्यपि वकुं शक्यत्वात् । न च सामग्यस्य, सन्निकर्षस्य वा साधकतमत्वात् प्रमाणता, साधकतमत्वस्य प्रमाणसामान्यलक्षणप्रस्तावे निरस्तत्वात् । यदीन्द्रियादेरचेतनस्य प्रमाणत्वं प्रतिपादितम्। तद्यति प्रसङ्गतोऽघटमानकम्। यदि ज्ञानसद्भावेन काचित्तम्या विष याधिगतिः, अक्षाऽऽदिसद्भावे तु विषयाऽधिगतिभिन्नोपजाय देवाधिगति जनकस्य प्रमाण तेति। तद्य समीक्षि ताभिधानम्। ज्ञानस्यैव यथास्थितार्थाधिगतिखभावतया प्रमा हत्यात्, परिणामफलामेदाविरोधस्य च प्रतिपादितत्वात्प्र पक्षाऽऽदिसावे तु विश्वाधिगतेरसिद्धत्वात् तथादियापारदादिसङ्गावेऽपि व्यासवतसो न विषयाधिगति सत्यस्वमज्ञाने त्वक्षाऽऽदिव्यापाराभावेऽपि यथावस्थिताधिगतिरुपलभ्यत इति न साऽक्षाऽऽदिकार्या, नचासावभिमतः, श्र कार्यापरपरिकल्पितमनोऽस्य प्रागेव निि वचवाऽधिगतमिति तस्य साधकतमत्वाभिमानो न साधकतमताव्यवस्थापकः तदभावेऽपि विषयाधिगतिसद्भावात् । ज्ञानेनाधिगत इत्यभिमानस्तु ज्ञानस्य साधकतम ताव्यवस्थापक एव, ज्ञानाभावे तदधिगतेरभावात् परम्परया तूपचरितमर्थाधिगती साधकतमत्यमार्न प्रतिषिभ्यते अस्मदादिप्रत्यक्षस्य साचात्स्वार्थाधिगतिस्वभावस्याक्षाऽऽदिप्रभवत्वात् तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तमितिवचनात् । पतेन प्रातिमस्थानाप्रभवस्यापि स्वार्थावगतिरूपस्य विशदतयाऽध्यक्षप्रमाणता प्रतिपादिता द्रष्टव्या । तेन यत्रेन्द्रियार्थसन्निकर्ष जत्वाभावप्रतिपादनेन मीमांसकैः पमाण दूषणमभ्यधापि यच्च नैया विकर्मनो ऽक्षार्थजत्य समर्थनेनोत्सरं प्रतिपादितम्। तदुभयमप्ययुक्ततया व्यवस्थिते । शेषं त्वत्रयथास्थानं प्रतिविहितत्वान्न तत् प्रत्युच्चार्य वृष्यते । तत्रैकान्तवादिप्रकल्पितमध्यक्षलक्षणमनवद्यम् किं पुनस्तदनपथम् । "वार्थसंवेदनं स्पष्ट मध्यक्षं मुख्यगौणतः इत्येतत् नीन्द्रियज्ञानमशेषविशेषाऽऽलम्बनमध्यक्षसर्वज्ञसिद्धौ प्रतिपा मु दितम्, गौणं तु संव्यवहारनिमित्तमसर्षपर्यायद्रव्यविषयमिन्द्रियानिन्द्रियप्रभवमस्मदाऽऽद्यध्यक्षं विज्ञानमुच्यते । अस्य च स्वयोन्योऽर्थः स्वार्थः, तस्य संवेदनं विशतया निर्णयस्वरूपं तेन संशयविपर्ययानध्यवसायलक्षणस्याज्ञानस्य संव्यवहारानिमित्तस्य नाभ्यक्षतामसक्लिन नाऽप्यज्ञानरूपस्येन्द्रियादेरविकल्पजासो, परिकल्पितस्येन्द्रियजमानसयोगिज्ञानस्यसंवेदनरूपस्य स्वं चार्थश्च स्वार्थी, तयोः संवेदनं स्वार्थवेदनमित्यस्यापि समासाऽऽश्रयणादर्थसंवेदनस्यैव प्रेमिनीयवैशेषिकाः परिकल्पितस्य परोक्षस्य तदेकार्थसमवेतानन्तरशानग्राह्यस्यास्वसंविदितस्वभावस्याध्यक्ष ताव्युदासः। विज्ञामवादिपरिकल्पितस्य च स्वरूपमात्रग्राहकस्य प्रमाणप्रमे यस्वरूपस्य च सकलस्य क्रमाक्रमभाव्यनेकधर्माऽऽक्रान्तस्यैकरूपस्य वस्तुनः सद्भावेऽध्यक्षप्रमाणस्यैकस्य क्रमवसिंपययवशात् तथाव्यपदेशमासादयतव्यातुर्विध्यमवग्रदेहावावधारणरूपतयोपपन्नम् । तत्र विषयविपविसंनिपातान न्तरमाद्यं ग्रहणमवग्रहः । विषयस्य द्रव्यपर्यायाऽऽत्मनोऽर्थस्य विषयिणश्च निवृत्युपकरणलक्षणस्य द्रव्येन्द्रियस्य ल ब्ध्युपयोगस्वभावस्य भावेन्द्रियस्य विशिष्टपुद्गल परिणतिरू पस्यार्थमहरू योग्यतास्वभावस्य च यथाक्रमं सन्निपातो यो ग्यदेशावस्थानं तदनन्तरोद्भूतं सतामात्रदर्शनस्वभावं दर्श नमुत्तरपरिणामं स्वविषयव्यवस्थापनविकल्परूपं प्रतिपाद्यम् । अवग्रहः पुनरगृहीतविषयाकाङ्क्षणम् ईदा तदनन्तरं तदीहितविशेषनिर्णयः । वायोऽचेतनविषयस्मृतिहेतुः । तदनन्तरं धारणा अत्र च पूर्वपूर्वस्य प्रमाणता उत्तरोत्तरस्य प्रमाणफलतेत्येकस्यापि मतिज्ञानस्य चातुर्विध्यम्, कथञ्चित्प्रमाणभेदोपपन्नः । सम्म० २ काण्ड । (५) निर्विकल्पक ज्ञानप्रामाण्यवादिनः प्रतिपादनम् । अथ व्यवसायीति विशेषणसमर्थनार्थमाहुःतद् व्यवसायस्वभाव, समारोपपरिपन्धित्वात् प्रमाणत्वाद्वा ॥ ६ ॥ तत्प्रमाणत्वेन संमतं ज्ञानं व्यवसायस्वभावं नियात्मकमित्यर्थः, समारोपः संशयविपर्ययानव्यवसायखरूपोऽनन्तरमेव निरूपविष्यमासः, तत्परिपन्धित्यं तद्विरुद्धत्यं यथाऽवस्थितवस्तुप्राहकत्वमिति यावत् । प्रमाणत्वाद्वा त थाविधं वाशब्दो विकल्पार्थ: तेन प्रत्येकमेवा हेतू प्रमासत्याभिभतज्ञानस्य व्यवसायस्वभावत्वसिडी समर्थावित्यर्थः । प्रयोगौ तु प्रमाणत्वाभिमतं ज्ञानं व्यवसायस्वभावं, समारोपपरिपन्यित्वात् प्रमाणत्वाद्वा यत् पुनर्नैवं न तदेवं, यथा - घटः, प्रोक्तसाधनद्वयाधिकरणं चेदं तस्माद् व्यवसायस्वभावमिति । " त्रैकदेशेन पक्षस्य प्रत्यक्षप्रतिक्षेपमाचक्षते भिक्षवः । तथाहि संहतसकलविकल्पावस्यायां नीलादिदर्शनस्य व्यवसा यवन्ध्यस्यैवानुभवात् पक्षीकृतप्रमाणैकदेशस्य प्रत्यक्षस्य व्यवसायस्वभावत्वसाधनमसाधीयः । तदसाधिष्ठम् । यतः केन प्रत्यक्षेण तादृशस्य तस्यानुभवोऽभिधीयते द्रवेण K Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५२) पमाण अभिधानराजेन्छः। पमागा मानसेन, योगिसकेन,स्वसंवेदनेन वा नाऽऽद्येन, तत्रेन्द्रि- | मिति को विरोधः?, इति चेत्, इह तावत् प्रमाणत्वहेतोयकुटुम्बकस्य व्यापारपराङ्मुखत्वात् । न च द्वितीयेन, याप्तिरुपदर्श्यते-प्रमाणं खल्वविसंवादकमवादिषुः सौगताः, तस्येन्द्रियज्ञानपरिच्छिन्नपदार्थानन्तरक्षणसाक्षात्कारदन अविसंवादकत्वं चाऽर्थप्रापकत्वेन व्याप्तम् , अर्थाप्रापकस्यात्वात् । न तृतीयेन, अस्मादृशां योगिप्रत्यक्षस्पर्शशून्यत्वात् । विसंवादिन्वाभावात् निर्विषयज्ञानवत्, तदपि प्रवर्तकत्वं न योगी तु तथा जानातीति कोशपानप्रत्यायनीयम् । नापि व्यापि, अप्रवर्तकस्यार्थाप्रापकत्वात् , तद्वदव । तदपि विषयोतुर्येण, यतः-तत्स्वरूपोपदर्शनादेव प्रमाणं स्याद्, अनुरूप पदर्शनकत्वेन व्यानशे, स्वविषयमुपदर्शयतः प्रवर्तकत्वव्यविकल्पोत्पादकत्वाद्वा । आधे पक्ष, प्रत्यक्ष क्षणक्षयस्वर्गप्रा वहारविषयत्वसिद्धेः, न हि पुरुषं हस्ते गृहीत्वा क्षानं प्रवपणशक्याऽऽदावपि प्रमाणतामास्कन्देत द्वितीयपक्षोऽप्यक्ष तयति, स्वविषयं तूपदर्शयत् प्रवर्तकमुच्यतेऽर्थप्रापकं चेति । मा, संहतसकलविकल्पाऽवस्थाभाविनीलाऽऽदिदर्शनानन्तरं तत्रेदं चर्च्यते-किं दर्शनस्य व्यवसायोत्पत्तौ सत्यां विषनीलाऽऽदिरयमित्यर्थोलखशेखरस्यैव विकल्पस्य प्रायेणानु- | योपैदर्शकत्वं संजायेत ?, समुत्पन्नमात्रस्यैव वा संभवेत् । भवात् । यत्रापि नीलाऽऽदिज्ञानं ममोत्पन्न मिति शानोल्लेखी | प्राचिकविकल्पे, विकल्पकाले दर्शनस्यैव विनाशात् क विकल्पः, तत्रापि ज्ञानमात्रोल्लेखित्वादस्य तत्रैव दर्शनस्य नाम विषयोपदर्शकत्वं व्यवतिष्ठेत् ? । द्वितीयकल्पनायां प्रामाण्यं स्यात् , न तु तनिर्विकल्पकत्वे । अपि च, विकल्प- पुनः किमनेन कृतक्षौरनक्षत्रपरीक्षाप्रायेण पश्चात् प्रोल्लसता स्यापि कथं सिद्धिः? । स्वसंवेदनप्रत्यक्षादिति चेत् । तस्या- नीलाऽऽदिविकल्पेनापेक्षितेन कर्त्तव्यं ?, तमन्तरेणापि विऽपि स्वरूपोपदर्शनमात्रात् प्रामाण्ये तदेव दूषणम्। विकल्पा- | षयोपदर्शकत्वस्य सिद्धत्वात् । तथा च-" यत्रैव जनयेन्तरोपजननात् पुनरनवस्था। तथा च कथं स्वसंवेदनस्य देना, तत्रैवास्य प्रमाणता ।" इति राद्धान्तविरोधः, व्यप्रामाण्यसिद्धिः, यतस्तेन बाधा पक्षांश स्यात् । अथ यन्त्र वसायं विनैव विषयोपदर्शकत्वसद्भावे प्रामाण्यस्यापित निर्विकल्पकं तत्रैव विकल्पेन सहोत्पद्यते, यथा-विकल्पो | विनैव भावात् , तन्मात्रनिमित्तत्वात्तस्य । कथं चैवं क्षणक्षविकल्पान्तरेण, विकल्पेनाऽपि सहोत्पद्यते च प्रत्यक्षम् । यस्वर्गप्रापणशक्त्यादावपि दर्शनस्य विषयोपदर्शकत्वं न प्रसन चेदं न निषेधसाधनं, गन्धर्वविकल्पदशायामपि गो | ज्यते? थाध्यवसानपर्यवसानो व्यापारो दर्शनस्य, इत्यध्यसाक्षात्कारणात् , अन्यथा समयान्तरे तत्स्मरणानुत्पत्तिप्र- ससायव्यापारवत एवाऽस्य विषयोपदर्शकत्वमवतिष्ठते, न सङ्गात् , इत्यनुमानबाधितः पक्षकदेश इति चेत् । तदपि पुनस्तमन्तरेणेति चेत् तदप्यल्पम्, निर्विकल्पककार्यत्वेन ब्यकवलितं कालेन । कालान्तरे स्मरणसद्भावात् व्यवसायाss. वसायस्य ततो भिन्नकालत्वात्तेन तस्य व्यापारवत्वानुपपत्तेः। स्मकस्यैव प्रत्यक्षस्य प्रसिद्धेनिर्विकल्पकस्य संस्कारकारण- अस्तु वैतत्, तथाऽपि तद्व्यापारभूतोऽसौ व्यवसायो दर्शनत्वविरोधात् , क्षणिकत्वाऽऽदिवत् । अथाऽभ्यासप्रकरणवु- गोचरस्योपदर्शकः, अनुपदर्शको वा स्यात् । यद्यपदर्शकः, छिपाटवार्थित्वेभ्यो निर्विकल्पकादपि प्रत्यक्षाद् , गवादी सं- तदा स एव तत्र प्रवर्तकः, प्रापकश्च स्यात, ततोऽपि संस्कारः स्मरणं च समगस्त । न नु क्षणक्षयाऽऽदौ, तदभावादि- वादकत्वात्प्रमाणं, न पुनत्तत्कारणीभूयमाभेजानं दर्शनप । ति चेत् । तदप्यल्पीयः। भूयोदर्शनलक्षणस्याभ्यासस्य क्षण- अथानुपदर्शकः, कथं शेनं, जननात् स्वषिषयोपदर्शक्षयाऽऽदावक्षोदीयसः सद्भावात् । पुनः पुनर्विकल्पोत्पाद- कम्, अतिप्रसङ्गात्-संशयविपर्ययकारणस्याऽपि तस्य स्वरूपस्य चाभ्यासस्य परं प्रत्यक्षसिद्धत्वात् , तत्रैव विवादात्।। विषयोपदर्शकत्वाऽऽपत्तेः । दर्शनविषयसामान्यव्यवसायिक्षणभिदेलिमभावाभिधानवेलायां क्षणिकप्रकरणस्याऽपि भा- त्वाद्विकल्पस्य तजनकं दर्शनं स्वविषयोपदर्शकं, नेतरदिवात् । बुद्धिपाटवस्य क्षणिकत्वाऽऽदौ नीलाऽऽदौ च समान- ति चेत, तदशस्यस्, दर्शनविषयसामान्यापोहलणस्यावस्तुत्वात् , तत्प्रत्यक्षस्य निरंशत्वेन कक्षीकाराद् , अन्यथा विरु- त्वात्, तद्विषयव्यवसायजनकस्य वस्तूपदर्शकत्वविरोधासुधर्माध्यासेन तस्य भेदाऽऽपत्तेः। अर्थित्वस्याऽपि जिज्ञासि- त। अथ दृश्यविकल्प्ययोरेकीकरणाद् वस्तूपदर्शक एव व्यतत्वलक्षणस्य क्षणिकवादिनःक्षणिकत्वे सुतरां सद्भावानी- वसाय इति चेत्, नन्वेकीकरणमेकरूपताऽऽपादनम्.एकत्वालाऽऽदिवत् । अभिलषितत्वरूपस्य तु तस्य व्यवसायजननं ध्यवसायो वा ? । प्राचि पक्षेऽन्यतरस्यैव स तवं स्यात् । प्रत्यनिमित्तत्वाद्, अनभिलषितेऽपि वस्तुनि कस्यापि व्य- द्वितीये तु उपचरितमेवानयोरक्यम्, तथा च कथमेष व्य. वसायसम्भवात् । ततो नाशवस्तुवादिनः क्वचिदेव स्मर- वसायो विषयोपदर्शकः स्यात् !, न हि पण्डः कुण्डोनी समगस्त । तथाच-यद्यवसायशून्यं शानं न तत् स्मृतिहे- त्वेनोपचरितोऽपि पयसा पात्री पूरयति । किं च-तदेतुः, यथा क्षणिकत्वाऽऽदिदर्शनं, तथा चाऽश्वविकल्पकाले कत्वाध्यवसायो दर्शनेन विकल्पेन, ज्ञानान्तरेण वा भवेगोदर्शनमिति प्रसङ्गः, तथा च तत् स्मृतिहेतुर्न स्यात्, भ- त ? नाऽऽद्येन, दर्शनश्रोत्रियस्याध्यवसायश्वपाकसंस्पर्शासं. वति च पुनर्विकल्पयतस्तदनुस्मरणं, तस्मात्तद्वयवसाया55- भवात् , न च तस्य विकल्प्यं विषयतामेति । न द्वि. त्मकमिति प्रसङ्गविपर्ययः । एवं च स्मरणात्तस्य व्यवसा- तीयेन, विकल्पकोणपस्य दृश्यदाशरार्थ गोचरयितुमपर्यायाऽऽत्मकस्यैव सिद्धर्व्यवसायस्य च व्यवसायान्तरेण समा- सत्वात् । नापि तृतीयेन, निर्विकल्पकसविकल्पकविकल्पनकालत्वाभावाद्विकल्पेनाऽपि सहोत्पद्यमानत्वादिति हेतु-। युगलातिक्रमेण दृश्यविकल्प्यद्वयविषयत्वविरोधात् । न च रसिद्धिबन्धकीसम्बन्धबाधित इति सिद्धम् । अथ न तदुभयागोचरं ज्ञानं तदुभयैक्यमाकलयितुं कौशलमालव्यवसायस्वभावत्वेन समारोपपरिपन्थित्वप्रमाणत्वहेत्वो- म्बते । तथाहिन्यद्यन्न गोचरयति न तत्तदैक्यमाकल ाप्तिरूपाऽपादि, तदभावेऽपि व्यवसायजनकत्वमात्रेण त- यितुं कुशलस्, यथा-कलशज्ञान वृक्षवशिशपात्वयोः, तथा योः क्वचिद्भावाविरोधात् । अनुमानं हि व्यवसायस्वभावं प्रकृतमिति । तन्न व्यवसायजननात् प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यसत्समारोपपारपन्थि, प्रमाणं च, प्रत्यक्षं तु व्यवसायजनक- | मुपपादकम् । कथं चैतत् क्षणक्षयस्वर्गप्रापणशक्त्यादाव Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५३) पमागा अाभिधानराजेन्डः। पमाण प्यनुरूपं विकल्पंकदाचिन्नोत्पादयति।स्वविकल्पवासनाबल- शानाद् ग्राहकान्सकाशात, अन्यो ग्राह्यतया पृथराभूतोऽसमुज्जृम्भमाणाक्षणिकत्वाऽऽदिसमारोपानुप्रवेशादिति चेत् ।। चेतनः, सचेतनो वा, अर्थोऽर्थक्रियार्थिभिरर्थ्यमानः, परः परतदपेशलम्, नीलाऽऽदावपि तद्विपरीतसमारोपप्रसक्तः, कथा | शब्दवाच्यः । रत्ना० १ परि०। (ज्ञाननस्य स्वप्रकाशस्वविमन्यथा विरुद्धधर्माध्यासात्तद्दर्शनभेदो न भवेत् ?, न ह्य- चारः ‘णाण' शब्दे चतुर्थभागे १६६६ पृष्ठादारभ्य कृतः) नंशं दर्शनं क्वचित्समारोपाऽऽक्रान्तं, कचिन्नेति वक्तुं युक्तम् । (६) ज्ञानस्य प्रामाण्यं स्वतः, परतश्चाप्रामाण्यम् । अथो अथ तत्तद्यावृत्तिवशादनंशस्यापि दर्शनस्य तथा परिकल्प त्पत्तीस्वनिश्चयेच ज्ञानानां स्वत एव प्रामाण्यम्, अप्रामाण्य नावदोषः,समारोपाऽऽक्रान्तेभ्यो हि व्यावृत्तमसमारोपाऽऽक्रा तु परत एव यजैमिनीया जगुः, तन्निराकुर्वन्तिन्तम्, असमारोपाऽऽक्रान्तेभ्यस्तु व्यावृत्तं समारोपाऽऽक्रान्तं तदुच्यते इति। तदप्यसूपपादम्।यतो व्यावृत्तिरपि वस्त्वंशं तदुभयमुत्पत्तौ परत एव, इप्तौ तु स्वतः, परतश्च ॥२०॥ कञ्चिदाश्रित्य कल्प्येत.अन्यथा वा अन्यथा चेत्, चित्रभानु- अत्र ल्मबलोपे पञ्चमी, परं स्वं चाऽपेक्ष्येत्यर्थः, ज्ञानस्य हि रप्यचन्द्रव्यावृत्तिकल्पनया चन्द्रतामाद्रियेत । वस्त्वंशाss- प्रामाराधमप्रामाण्यं च द्वितयमपि ज्ञानकारजगतगुणदोषरूपं श्रयणपक्षे तु, सिद्धो विरुद्धधर्माध्यासः।तथाहि-तद्दर्शनं येन परमपेक्ष्योत्पद्यते । निश्चीयते स्वभ्यासदशायां स्वतः, अनभ्या. स्वभावेन समारोपाऽऽक्रान्तेभ्योऽपि व्यावर्तिष्ट, न तेनैवास- सदशायां तु परत इति । तत्र ज्ञानस्याच्यासदशायां प्रमेयामारोपाऽऽक्रान्तेभ्योऽपि,येन चामीभ्यो व्यावर्त्तत न तेनैव है- व्यन्निचारि, तदितरचास्मीति प्रामाण्याप्रामास्यनिश्चयः संभ्योऽपि तयोर्द्वयोरपि व्यावृत्तयोरैक्याऽऽपत्तेः । यदि पुनः बादकबाधकहानमनपेक्ष्य प्रादुर्भवन् स्वतो भवतीत्यभिधीखभावभेदोअप वस्तुनोऽतत्स्वभावव्यावृत्या कल्पित एवे. यते, अनभ्यासदशायां तु तदपेय जायमानोऽसौ परत इति। ति मतम् , तदा कल्पितस्वभावान्तरकल्पनायामनवस्था __ अत्रै मीमांसका मीमांसामांलग्नतां दर्शयन्ति-स्वत एवं स्थेमानमास्तिनुवीत । ततो न व्यवसायजननादस्य प्रामा सर्वथा प्रमाणानां प्रामा एवं प्रतीतिकोटिमाटीकते । तथाहिण्यमनुगुणं, किं तु व्यवसायस्वभावत्वादेव । एवं प्रामाण्य सदुत्पत्तिप्रगुणा गुणाः प्रत्यकेण, अनुमानेन वा प्रमीयेरन् । सहचरं समारोपपरिपन्थित्वमपि वाच्यम् ॥६॥ यदि प्रत्यकेण, तत् किमन्छियेण, अतीन्द्रियेण वा । नैम्ब्येिसमारोपपरिपन्धित्वादियुक्तमिति समारोपं प्ररूपयन्ति ण, अतीन्डियन्छियाधिकरणत्वेन तेषां तद्ग्रहणायोग्यस्यात् । नाध्यतीन्धियण, तस्य चारुविचारगोचरचरिष्णुत्वाभावात् । अतस्मिंस्तदध्यवसायः समारोपः ॥ ७॥ अनुमानेन तान् निरणेमहीति चेत् । कुतस्तत्र नियमनिर्णयः श्रतत्प्रकारे पदार्थे तत्प्रकारतानिर्णयःसमारोप इत्यर्थः ॥७॥ स्यात् ?, प्रत्यक्काद् गुणेषु तत्प्रवृत्तः परास्तत्वात्। तथा च-"द्वि. अथैनं प्रकारतः प्रकटयन्ति gसंबन्धसंवित्ति-करूपप्रवेदनात् । द्वयम्वरूपग्रहणे, सति सविपर्ययसंशयानध्यवसायभेदात्त्रेधा ॥८॥ संबन्धवेदनम् ॥ १॥" नाप्यनुमानान्, तत एवं तनिश्चिता वितरेतराऽऽश्रयस्य, तदन्तरात् पुनरनवस्थायाःप्रसक्तः । ततो उत्तानार्थमदः॥८॥ न गुग्णाः सम्ति केचिदिति स्वरूपावस्थेभ्य एव कारणेज्यो अथोद्देशानुसारेण विपर्ययस्वरूपं तावत् प्ररूपयन्ति जायमानं तत् कथमुत्पत्ती परतः स्यात् । निश्चयस्तु तस्य प. विपरीतैककोटिनिष्टङ्कनं विपर्ययः॥६॥ रतः कारण गुणज्ञानादू, बाधकानावकानात्, संवादिवेदनाद्वा विपरीताया अन्यथा स्थिताया एकस्या एव कोटेवस्त्वंश- स्यात् ।। तन्त्र प्राच्य प्रकारं प्रागेव प्रास्थाम, गुणग्रहणप्र. स्य निष्टकूनं निश्चयनं विपर्यय इति ॥६॥ वीणप्रमाणपराकरणात् । द्वितीये तु, तात्कालिकस्य, कामाअत्रोदाहरन्ति स्तरजाधिनो वा बाधकस्याभावज्ञानं तनिश्चायकं स्यात् ।। पौरस्त्यं तावत् करहाटकनिष्टङ्कनेऽपि स्पष्टमस्त्येव । द्वितीय यथा शुक्तिकायामिदं रजतमिति ॥१०॥ तु न चर्मचकुषां संभवति । संवादिवेदनं तु सहकारिरूपं यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, अप्रेऽपि सर्वत्र । शुक्तिकायामर- सत्तन्निश्चयं विरचयेद, प्राहकं का?। नाद्याभद्, भिन्नकाल. जताऽऽकारायामिदं रजतमिति रजताकारतया शानं विप- स्वेन तस्य सहकारित्वासंभवात् द्वितीयपके तु, तस्यैव र्ययो विपरीतख्यातिरित्यर्थः । इतिशब्द उल्लेखार्थः, अगप। ग्राहक सत्, नविषयस्य, विषयान्तरस्थ वा । न प्रथम उदाहरणसूत्रं चेदम्-अन्येषामपि प्रत्यक्षयोग्यविषयविपर्य- पक्षः, प्रवर्तकज्ञानस्य सुदूरनपुत्वेन ग्राह्यत्वायोगात्। द्वितीये याणां पीतशबानादीनां, तदितरप्रमाणयोग्यविषयविपर्य- तु, एकसन्तानं, भिन्नसन्तानं वा तत् स्यात् ।। पकव्येऽपि, याणां हेत्वाभासाऽऽदिसमुन्थज्ञानानां चोपलक्षणार्थम् । तैमिरिकाऽऽलोक्यमानमृगाङ्कमण्मल ध्यदर्शिदर्शनेन व्यनि अत्रविवेकाख्यातिवादी वदति-विवादाऽऽस्पदमिदं रजत- चारा । तद्धि चैत्रस्य पुनः पुनमंत्रस्य चोत्पद्यत एव । तृतीये पु. मिति प्रत्ययो न वैपरीत्येन स्वीकर्तव्यः, तथा विचार्यमाण- ना, अर्थक्रियाझानम, अन्यद्वा तद् भवेत् । न पौरस्त्यं, प्रवर्त. स्य तस्यानुपपद्यमानत्वात्, यद्यथा विचार्यमाणं नोपपद्यते,न कस्य प्रामाण्यानिश्चये प्रवृत्यभावेनार्थक्रियाया पवाभावा. तत् तथा स्वीकर्तव्यं, यथा स्तम्भः कुम्भरूपतयेति। न चेदं त् । निश्चितप्रामाण्यातु प्रवर्तकज्ञानात प्रवृत्तौ चक्रकम नि. साधनमसिद्धिमधारयत् । रत्ना०१ परि० । (साकाराना- श्चितप्रामाण्यात्प्रवर्तकात् प्रवृत्तिः, प्रवृत्तेरक्रियाकानं, तस्मा. कारद्वयाऽऽत्मके उपयोगप्रमाणमिति — उवोग' शब्दे व प्रवर्तकशानस्य प्रामाण्यनिश्चय इति । कथं चाधक्रियाका. द्वितीयभागे ८६० पृष्ठे व्याख्यातम्) नस्यापि प्रामाण्यनिश्चयः । अन्यस्मादयक्रियाशानायोदयअथ प्रमाणलक्षणसूत्रोपात्तं परशब्दं व्याख्यान्ति- नवस्था । प्रवर्तकशानाचेदूअन्योन्याऽऽश्रयो दोषः । स्वतश्चेत्, ज्ञानादन्योWः परः ॥१५॥ प्रवककानस्यापि तथैवास्तु । अन्यदपि विज्ञानमेक Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंमाग निधानराजेन्द्रः। पमाना सन्तान, भित्रसम्वाने वा? द्वयमपि चैतदेक जातीयं, जिन्नजा- वादि-संवादिवेदन स्वित्यादि । तत्र संपादिवेदनारसाधनमिनी. नीयं वा चतुष्टयमपि नैताभिचाराभिचारदुःसंचरम् । तथा 'सिप्रतिभासविषयस्य, विषयान्तरस्य वा ग्राहकात प्रामाण्य हि-एकसन्तान भिन्नसन्तानं चैकजातीयमपि तरनतरतुङ्गता निणय इति ब्रमः । भवति हि तिमिरनिकुरम्बकरम्बिताउलो. सरङ्गतरङ्गिणीतोयज्ञान, भिन्नजातीयं च कुम्नाम्भोरुहाऽऽदि- कसहकारिकुम्नाऽवभासस्य तत्रैवैकसन्तानं भिन्नसन्तानं च ज्ञानं मरुबसुन्धराचारिचतुरतातरणिकिरणश्रेणिसंगिसलिल. निरन्तराऽऽलोकसहकारिसामर्थ्य समुद्भूतं संवेदनं संवादक. संबदनस्य न संवादकमिति न तावपि तत्परतः । अप्रा. म् । न च तैमिरिकाऽऽदिवेदनेऽपि तत्प्रसङ्गः, तत्र परातोबामापयं तूपसौ दोषापेकत्वात्, शप्ता तु बाधकापेकत्वात् परत धकात् । स्वतः सिद्धप्रामाण्यादुत्तरस्याप्रामापयनिर्णयात् विपवेति । अत्रानिदमहे-यत्तात्र गुणाः प्रत्यक्षेणानुमानेन वा षयान्तरग्राहकमपि संबादकमेव, यथार्थ क्रियामानम । न मीयेरनित्यादि न्यगादि । तदखिलं न खलु न दोषप्रसरेऽपि चात्र चक्रकावकाशः, प्रवर्तकप्रमाणप्रामाण्यनिर्भयाऽऽदिप्रयो। प्रेरयितुं पार्यते। प्रथाध्यक्षणव चक्कुरादिस्थान् दोषानिश्चिक्यिरे जनायाः प्रथमप्रवृत्तेः संशयादपि नावात् । अर्थक्रियाझानस्य लोकाः । किं न नैर्मस्याऽऽदीन् गुणानपि ।। अथ तिमिरा- तु स्वत एव प्रामाण्यनिश्चयः, अभ्यासदशावत्येन दृढतरअऽदिदोषाभावमात्रमेव नैर्मल्या , न तु गुणरूपमिति क. स्यैवास्योत्पादात्। न च साधननिनासिनोऽपि तथैवायमस्त्विथमध्यकेण गुणनिश्चयः स्यात् । एवं तर्हि नैर्मल्याऽऽदिगुणा- ति वाच्यं, तस्य तहिलवणत्वात् । अन्यइप्येकसन्तानं जिननावमात्रमेव तिमिराऽऽदि, न तु दोषरूपमिति विपर्ययकल्पना सन्तानं चैकजातीयं च यथैकदम्रदर्शनं इम्रान्तरदर्शनस्य, कि न स्यात् । अस्तु चा दोषाभावमात्रमेव गुणः, तथापि जिनजातीयं च यथा निशीथे तथाविधरसास्वादनं तथाभूनायं तुच्छः कश्चित् संगच्छते, "जावान्तरविनिर्मुक्तो, भायो- तरूपस्य संवादकं भवत्येव । न चमिथ्यापाथःप्रथायाः पायोन्तरे जानुपलम्भवत् । अभावसम्मतस्तस्य, हेतोः किं न समुद्भ. कुम्नाऽऽदौवा संवेदन संबादनं प्रसज्य ते, यतो न खलु निखिन पः ॥१॥” इति स्वयं भट्रेन प्रकटनात् । तदपेक्कायामपि च कथं प्रागुक्तं संवेदनं संवादकं संगिरामहे, किं तर्हि ?, यत्र पूर्वोक्ता न परतःप्रामाण्योत्पत्तिः । अथाऽऽसतां नैर्मल्य ऽदयो गुणा- रत्रवानगोचरयोरव्यभिचारमतत्रैव । किंच-स्वत एव प्रामास्तथाऽप्यधिष्मानप्रतिष्ठानेव तान् प्रत्यकं साकात करोति, एयनिमयवर्णनसकनानेन स्वशन्न प्रात्मार्थः आत्मीयार्थो वा न करणस्थान, तेषां परोकत्वात् । तर्हि तत एव दोषानपि त. कथ्येत् ? । नाऽऽद्यः पकः, स्वावबोधचिधानेऽप्यन्धया बुद्ध्या स्थानेव तत्साकास्कुर्यादिति कथं दोषा अपि प्रत्यक्ष्याः स्वधर्मस्य प्रामाण्यस्य निणेतुमशक्तेः। द्वितीये तु, प्रकटकस्युः। प्रथाप्रामाण्यं विज्ञानमात्रोत्पादक कारणकलापातिार- पटनाटकघटनपाटचं प्राचीकटत्, प्रकारान्तरेणास्मन्मनाऽऽश्रक्तकारकोत्पाद्य, विज्ञानमात्रानुवृतावपि व्यावर्तमानत्वात्, यद. यणात्-अस्माभिरपि आत्मायेनैव ग्राहकेण प्रामाण्यनियस्य नुवृत्तावपि यद्यावर्तते तत् तन्मात्रोत्पादककारणकापातिरि- स्वीकृतत्वात् । अथ येनैव ज्ञानमा निणीर्यते तेनैव तत्प्रामातकारकोत्पाद्यम,यथा पाथःपृथ्वीपवनाऽऽतपानुवृत्तावपि व्या. ण्यमपि, इति स्वतः प्रामाएपनिर्णयो वायते । नन्यर्थप्राकट्योवर्तमानः कोरूवाकुरस्तदतिरिक्तकोसबोत्पाद्यः, इत्यनुमानाद्. स्थापिता पतेः सकाशात् त्वया ज्ञाननिर्णीतिस्तावदनीप्सादोषप्रसिकिरिति चेत् । चिरं मन्दतावान्, दमेव ह्यनु मामे । अर्थप्राकट्यं च यथार्थत्वविशेषणविशिष्ट,निर्विशेषणं या मानमप्रामाण्यपदं निरस्य प्रामाण्यपदं च प्रतिप्य गुणसिका. अर्थापत्तिमुत्यापयेत् ।। प्राचिपके, तस्य तद्विशेषणग्रहणं प्र. बपि विदध्यादू, इति कथं न दोषवद् गुणा अपि सिद्धयेयुः १, थमप्रमाणात,अन्यस्मात, स्वतो वा भवेत प्रथमपके, परस्पयतो मोत्पत्तौ परतः प्रामाण्यं स्यात । प्रतिबन्धश्च यथा राऽऽश्रयप्रसङ्गः निश्चितप्रामाण्याकि प्रथमपमाणायथार्थत्वविदोषानुमाने तथा गुणानुमानेऽपि निर्णेयः। कथं धाऽऽदित्यग. शिष्टार्थप्राकट्यग्रहणं,मस्माच प्रथमप्रमाणे प्रामाएयनिर्णय इति । स्पनुमाने तनिर्णयः। ष्टान्ते तु यथाऽत्र साध्यसाधनसं द्वितीयविकलो तु, अनवस्था-अन्यस्मिन्नपिदि प्रमाणे प्रामाबन्धोद्रोधोऽस्ति, तथा गुणानुमानेऽपि । यश्चावाचि-निश्चयस्तु रायनिर्णायकापश्युत्थापकस्यार्थप्राकट्यस्त्र यथार्थवधिशेतस्य परत इत्यादि । तत्र संवादिवेदनादिति ण कारण. षणग्रहणमन्यस्मात्प्रमाणादिति । अथ स्वतस्तविशेषणग्रहणम् । गुणकानबाधकाभावज्ञानयोसपि च संवादककानरूपत्वं प्रति तथाहि-स्वसंविदितमर्थप्राकट्य तथाऽस्मानं निर्णयमानं स्वपद्यामहे-याशोऽर्थः पूर्वक्षाने प्रथापथमवतीर्णस्तारश एवा. धर्मभूतं यथार्थत्वमपि निर्णयते, तथा च-ततोऽनुमीयमाने काने उसी येन विज्ञानेन व्यवस्थाप्यते तत्संवादकमित्येतावन्मानं स्वतःप्रामाण्याप्तिरिति । तदेतदनबहातमा एवं सत्यप्रामाण्य. हि तलक्षणमानवकिरे धीराः । यस्तु गुणग्रहणप्रवण. स्यापि स्वतो क्षप्तियसक्तेः । स्वतो निश्चित तथ्यविशेषणादर्थप्रमाणपराकरणपरायणातिदेशप्रयासः, प्रयास व केवझमय प्राकट्याविज्ञानमनुमीयमानमास्कन्दिता प्रामाण्यमेवानुमीयते। मजनि भवतः, दोपसंदोहवद्गु गगणेऽपि प्रमाणप्रवृत्तेरनिवा ततः कथं प्रामाण्यवदप्रामाण्यस्याऽपि स्वतो नितिन स्यारणात्। यत्तु बाधकाभावकानपते विकल्पितं तात्कालिकस्य का त्। अथ तत्र बाधकादेवाप्रामाण्यनिर्णयो न पुननिनिणायकालान्तरभाबिनो वेत्यादि । तत्राऽऽद्यविकल्पपरिकलानापी दु, एवं तर्हि संवादकादेव प्रामाण्यस्यापि निर्णयोऽस्तु, इतित. यसी, न खलु साधन निर्मासिसंवेदनादयकाले काप कस्या दपि कथं स्वतो निर्णीतं स्यात् । निर्विशेषणं चेत् तदर्थप्राकऽपि बाधकस्योदयः संभवी, उपयोगयोगपद्यासम्नवात, नधि व्यमर्थापश्युत्थापक, तापमाणेऽपि प्रामाण्यनिर्णायकार्थापत्यु. ध्यत्कालस्य तु बाधकस्याभावज्ञानात् प्रामाएयनिहयो निरवद्य स्थापनाऽऽपत्तिः,अर्धप्राकट्यमात्रस्य तत्रापि सद्भावात् । इति सएव । न च चर्मचक्षुषां तदभावो भवितुमईति, यदग्रममग्र त्रोक्तव व्यवस्था सिद्धिसौधमध्यमध्यरुकत्।२०ारना०१परिक सामग्रीसंपाद्यसंवेदनं न तत्रभाविबाधकावकाश इत्येवं तन्नि (७) विशेषतो मीमांसकमनिराकरणम् अत्राऽहुर्मीमा संथात् । यदि च भाविवस्तुसंवेदनमस्मादृशां न स्यादेव, तदा सका:-अर्थतथास्वप्रकाशको ज्ञातृव्यापार प्रमाणं, तस्यार्थ. कथं कृत्तिकोदयात् शकटोदयानुमानं नास्तमियात् । यत्पुनर- ' तथास्वप्रकाशकत्वं प्रामाण्यम । तब स्वतः उत्पत्ती, स्व. Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५५) पमाण प्रभिधानराजन्तः। पमाया कार्ये अथावस्थितार्थपरिच्छेदनक्कणे, स्वकाने च । विज्ञानो जानि, अनुपलभिः, स्वभाव, कार्य च।" इति । "श्रिरूपाविला. स्पादकसामग्रीव्यतिरिक्तगुणाऽऽदिसामन्यन्तर प्रमाणान्तरस्व. लिङ्गिविज्ञानमनुमानम् ।" इति च । तत्र स्वभावहेतुः प्रत्य. संवेदनग्रहणाउनपेक्षत्वाता अपेक्वात्रयरहितं च प्रामापयं स्वत क्वगृहीतेऽर्थे व्यवहारमात्रप्रवर्तनफलः, यथा शिशपात्वाऽऽदि. उच्यते । अत्रच प्रयोग:-ये यदा प्रत्यनपेक्तास्ते तत्स्वरू वृकाऽऽदिव्यवहारप्रवर्तनफलः। न चाकाऽऽश्रितगुणलिङ्गसंबपनियताः, यथाऽविका कारण सामन्यहरोत्पादने, अनपेक्ष्य न्धः प्रत्यक्षतः प्रतिपन्नो, येन स्वभावहेतुप्रजवमनुमानं तत्संबच प्रामाण्यमुत्पत्ती, स्वकार्ये, शप्तौ चेति । न्धव्यवहारमारचयति। नापि कार्य हेतुसमुत्थम्, अक्षाऽ:श्रितपत्र परतः प्रामाण्यवादिनःप्रेरयन्ति-अनपेकत्वमसिरूम । गुणलिङ्गसंबन्धग्राहकत्वेन तत्प्रभवति । कार्यहेतोः,सिद्ध कार्य. तथा हि-उत्पत्ती तावत्प्रमापयं विज्ञानोत्पादककारणव्यतिरिक्त कारणभावे, कारणप्रतिपत्तिहेतुत्वेनाभ्युपगमात । कार्यकारणगुणाऽऽदिकारणान्तरसापेक्कम्, तदन्वयध्यतिरकानुविधायित्वा. भावस्य च सिकिःप्रत्यक्तानुपलम्नप्रमाणसंपाद्या । न च लोचना. त् । तथा च प्रयोगः-यश्चक्षुराद्यतिरिक्तभावाभावानुविधा- दिगतगुणाऽऽश्रितलि जनसंबन्धग्राहकत्वेने प्रत्यक्तप्रवृत्तिः,येन थि, तत्तत्सापेकम्, यथायामा एयं, चक्षुराद्यतिरिक्तभावाभावा. तत्कार्यत्वेन कस्यचिल्लिकस्य प्रत्यक्कतः प्रतिपत्तिः स्यात्। तन्न नुविधायि च प्रामाण्यामिति स्वभावहे तुः, तस्मा दुत्पत्तौ पर• कार्यहेनोरपि प्रतिबन्धप्रतिपत्तिः॥ अनुपलब्धस्त्वेवंविधे विषये. तः। तथा स्वकार्य च सापेकत्वात्परतः। तथाहि ये प्रतीकि- प्रवृत्तिरेव न सम्भवति, तस्या अनावसाधकत्वेन व्यापारातप्रत्ययान्तरोदया न ते स्वतो व्यवस्थितधर्मकाः, यथाऽप्रा. भ्युपगमात् । न चान्यद्विभमन्युपगम्यत इत्युक्तम् । न च प्रमारायाऽऽदयः। प्रतीक्कितप्रत्ययान्तरोदयं च प्रामाण्यं तत्रेति त्यवानुमानव्यतिरिक्त प्रमाणान्तरमिति नेम्ब्यिगतगुणप्रतिप. विकण्याप्तोपलब्धिः। तथा इप्तौ च सापेकत्वात्परतः । त. त्तिः । यन्त्र क्वचिदपि प्रमाणेन प्रतिभाति, न तत्समथादि-ये संदेहविपर्ययाध्यासिततनवस्ते परतो निश्चितयथा- वहारावतारि, यथा शशङ्गम्, न प्रतिभान्ति च कचि. पस्थितस्वरूपाः, यथा स्थायवादयः, तथा च संदेहविपर्यया- दपि प्रमाणेनातीन्द्रियेन्जियगुणा भवद युगता इति कुत. भ्यासितस्वभाचं केषाश्चिन्प्रत्ययानां प्रामाण्यमिति स्वभावहतुः। स्तेषां विज्ञानोत्पादककारणव्यतिरिक्तानां प्रामाण्योत्पादकअत्र यत्ताबदुक्तम-प्रामाण्यं विज्ञानोत्पादककारणव्य- त्वम् । अथ कार्येण यथार्थोपलध्यात्मकेन तेषामधिगमः । तिरिक्तगुणाऽऽदिकारणसव्यपकमुत्पत्तौ, तदसत, तेषामस- तदप्ययुक्तम् । यथार्थत्वायथार्थत्वे विहाय यदि कार्यस्य उपवात् । तदसत्वं च प्रमाणतोऽनुपलब्धः । तथाहि- काभ्यास्यस्वरूपं निश्चितं भवेत् , ता यथार्थत्वलकणः का. म तावत् प्रत्यकं चारादीन्द्रियगतान् गुणान् प्रहीतुं समर्थ यस्प विशेषः पूर्वस्मात्कारणकलापादनिष्पचमानो गुणाऽऽण्यं म । अतीन्द्रियत्वनेछियाणाम, तद्गुणानामपि प्रतिपत्तुम स्वोत्पसौ कारणान्तरं परिकल्पयति । यदा तु यथार्थबोपन्नशक्तः । अथाऽनुमानमिन्द्रियगुणान् प्रतिपद्यते । तदप्यसम्यक् । ब्धिः स्वोत्पादककारणकलापानुमापिका, तदा कथमुत्पादकअनुमानस्य प्रतिबद्धलिङ्गनिश्चयबमोत्पत्त्यभ्युपगमात् । प्र. श्यतिरेकिगुणसद्भावः । अयथार्थत्वं तूपनब्धेः कार्यस्य वितिबन्धश्च किं प्रत्यकणेन्छियगतगुणैः सह गृह्यते लिङ्गस्य, शेषः पूर्वस्मात्कारणसमुदायादनुपपद्यमानः स्वोस्पत्ती सामाहोस्विदनुमानेनेति वक्तव्यम् । तत्र यदि प्रत्यक्कामन्छियाss. मम्यन्तरं कल्पयति अत एव परतोऽप्रामाण्यमुच्यते,तस्योत्पश्रितगुणैः सह सिङ्गसंबन्धग्राहकमन्युपगम्यते । तदयु. सौदोषापेकत्वात् । न चेन्नियनर्मल्याऽऽदिगुणत्वेन वक्तुंशक्तम् । इन्छियगुणानामप्रत्यक्त्वे तद्गतसंबन्धस्या ऽपय प्रत्यक क्यम् । नैर्मल्यं हि ततस्वरूपमेव, न पुनरौपाधिको गुणः । स्वात् । “विष्ठसंपन्धसंवित्ति नैकरूपप्रवेदनात्।" इति वचना तथाव्यपदेशस्तु दोषालाबनिबन्धनः । तथाहि कामलाऽऽदि. त् । अथानुमानेन प्रकृतसंबन्धः प्रतीयते । तदप्ययुक्तम् । दोषासवानिर्मलमिन्छियमुच्यते,तत्सस्वे सदोषम् । मनसोऽयतस्तदप्यनुमानं किं गृहीतसंबन्धलिङ्गभवम्, उताऽगृहीत. पिमिकाऽऽधभावः स्वरूपम्, तत्सद्भावस्तु दोषः । विषयस्थासंबन्धलिङ्गसमुत्थम । तत्र यद्यगृहीतसंबन्धलिङ्गप्रनवं, तदा पिनिश्चलत्वाऽऽदिस्वप्नावः, चलत्वाऽदिकस्तु दोषः । प्रमातु. किं प्रमाणम् उताऽप्रमाणम् ?। यद्यप्रमाणं, नातः संबन्धप्र रपि क्षुदाद्यनावः स्वरूपम्, तत्सद्भावस्तु दोषः। तदुक्तम्तीतिः। अथ प्रमाणम, तदपि न प्रत्यक्कम, अनुमानस्य पा "इयती च सामग्री प्रमाणोत्पादिका।" तदुत्पद्यमानमपि प्रमामाथेविषयत्वेन प्रत्यवत्वानभ्युपगमात्, प्रत्यक्वपकोक्तदोषाच्च। णं स्वोत्पादककारणव्यतिरिक्तगुणानपेक्वत्वात स्वत उच्यते । किंतु अनुमानम, तश्चानवगतसंबन्धन प्रवत्तत इत्यादि वक्त. नाप्येततक्तव्यम, तज्जनकानां स्वरूपमयथार्थोपलभ्या समव्यम् । अथाऽवगतसंबन्धम, तस्याऽपि संबन्धः किं तेनैवा. धिगतं, यथार्थत्वं तु पूर्वस्मात्कार्याबगतात्कारकस्वरूपादननुमानेन गृधेत, उताऽन्येन । यदि तेनैव गृह्यत इत्यज्युपगमः। पद्यमानं फिमिति गुणाऽऽख्यं सामन्यन्तरंन कल्पयति ?,प्रक्रिसन युक्तः। इतरेतराऽऽश्रयदोषप्रसङ्गात् । तथाहि-गृडीतप्रति. याया विपर्ययेणाऽपि कल्पयितुं शक्यत्वात् । यतो न लोकः ब-धं तत्स्वसाधप्रतिबन्धग्रहणाय प्रवर्तते , तत्प्रवृत्ती च प्रायशो विपर्ययज्ञानात्स्वरूपस्थं कारणमप्यनुमिनोति, किंतु स्वोत्पादकप्रतिबन्धग्रह इत्यन्योऽन्यासंश्रयो व्यक्तः । अथाऽन्ये सम्यगशानात् । तथाविधे च कारकानुमानेऽशक्यप्रतिषेधा प. नानुमानेन प्रतिबन्धग्रहाभ्युपगमः । सोऽपि न युक्तः । अन ?क्तप्रक्रिया । नाऽपितृतीयं यथार्थत्वाऽयथार्थत्वे विहाय कार्यघस्थाप्रसङ्गात् । तथाहि-तदप्यनुमानमनुमानप्रतिबन्धग्राहक मस्तीत्युक्तम् । अपि च-अर्थतथानावप्रकाशनरूपं प्रामाएयम्, मनुमानान्तराद् गृहीतप्रतिवन्धमुदयमासादयति, तदप्यम्य तस्य चकरादिकारणसामग्रीतो विज्ञानोत्पत्साबप्यनुत्पत्यभ्युपतोऽनुमानाद् गृहीतप्रतिबन्धामित्यनवस्था। कि च-तदनुमानं गमे विहानस्य किं स्वरूपं भवद्भिरपरमभ्युपगम्यत इति व. स्वजापतुप्रभावितं, कार्यदेतुसमुत्थम्, अनुपलब्धिलिङ्गप्र- क्तव्यम् । न च तद्रूपव्यतिरेकेण विज्ञानस्वरूपं प्रवन्मतेन सं. भवं वा प्रतिबन्धप्राहकं स्यात् । अन्यस्य साध्यनिश्चायकत्वेन भवति, येन प्रामाण्यं तत्र विकानोत्पत्तापयनुत्पश्नमुत्तरका. सोगतरनभ्युपगमात् । तदुक्तम्-" त्रिरूपाणि च त्रीएयेव शिवं तत्रैवोत्पत्तिमभ्युपगम्येत, भित्ताबिच चित्रम्। किच-यदि Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाय स्वामग्रीतो विज्ञानोत्पतापिनमा समुत्पद्यते कि तु तिरिसामग्रीतः पचाद्भवति तदा सात् कारणभेदाश्च भेदः स्यात् । श्रन्यथा-" श्रयमेव जेदो भेद बहुत विश्याः कारण स दको विश्वमेकं स्यात् ।” इति वचः परिप्लवेत । तस्माद्यत एव गुणविकल सामग्रील कृणात्कार पाहिज्ञानमुत्पद्यते तत एव प्रामादयमपीति गुणधरादिभाषानुविधाविश्वादित्यसको देतुः । अत एवोत्पत्तौ सामम्यन्तरानपेकत्वं नासिरूम् । अनपेकत्वविरुरूस्य सापेक्षत्वस्य विपक्के सद्भावात् । ततो व्यावर्त मानो हेतुः इतिकारिय भाव इति भवत्यतो देतो: स्वसाध्यसिद्धिः । अर्थतथास्व परिच्छेदरूपा च शक्तिः प्रामाण्यम् । शक्तयश्च सर्वजावानां स्वत एव नवतिमोत्पादककारकसाधनमस्तस मानप्रामाण्यमिति गम्यतामून दिसतीश म न्येन पार्यते ॥ १ ॥ नैव सत्कार्य दर्शनसमाश्रयणाभिधीयते किं तु या कार्यधर्मः कारणकलापेऽस्ति स एष कारणकलापापजायमाने कार्ये तत एयोदयमासादयति य थामृविद्यमाना रूपायो घटेऽपि 39 एतच माने मृत्तिकरूपाऽऽदिंद्वारेणोपजायन्ते । ये पुनः कार्यधर्माः कारणेऽविद्यमाना न ते कारणेभ्यः कार्ये उदयमासादयन्ति, न तत एव प्रादुर्भवन्ति किं तु स्वतः । यथा घटस्यै 1 काऽऽरणशक्ति तथा विज्ञानेापदेश क्तिः चक्षुरादिषु विज्ञानकारणेष्वविद्यमाना न तत एव भवति, किं तु स्वत एव प्राडुर्भवति । किं चोकम्-" आत्मलाभे हि भावानां कारणपेकिता जत्थान कार्येषु प्रवृत्तिः स्वयमेव तु "तथाहि "एच55 दि, घटो जन्मन्यपेक्षते । उदकाऽऽहरणे तस्य तदपेक्षा न वि यते ॥ १॥" इति अज्ञानकारणादुपजायमान स्वात्प्रामाण्यं परत उपजायत इति यद्यनिधीयते, तदज्युपगम्यत एव प्रेरणादेरपि अपयविधियायप्रभयायाः प्रामाण्योत्पश्यन्युपगमात् । तथाऽनुमानबुद्धिरपि गृहीताविनाभागानन्यापेक्षत्रियुपजायमाना तत एव गुडीप्रामाण्योपजायत इति सर्वत्र विज्ञानकारणकलापव्यतिरिककारणातरानपेकमुपजायमानं प्रामाण्यं स्वत उत्पद्यत इति नोत्पत्ती परतः प्रामाण्यम् ॥ नापि स्वकार्येऽर्धतथाभाव परिच्छेदकणे प्रवर्त्तमानं प्रमाणं स्वोत्पादककारणव्यतिरिक्तनिमित्ता के प्रवर्धत प्रत्यभिधातुं शक्न यतस्तमितान्तरमपेक्ष्य स्वाप्रमाने कि संवादयत्ययमय प्र स्वित्स्योत्पादक कारणगुणानपेय प्रयते इति विकल्पय मतत्र यथार्थ विदा क दूषणमापतति । तथाहि प्रमाणस्य कायें प्रवृत्ती सत्याम वार्थिनां प्रवृतिः प्रवृतार्थ कियाज्ञानोत्पलिचणः संवादः तं च संवादमपेक्ष्य प्रमाणं स्वकार्येऽर्थतथाभावप रिच्छेदलक्षणे प्रवर्त्तत इति यावत्प्रमाणस्य स्वकार्ये न प्रवृ सिने तावदकार्थि प्रति तामन्तरे नार्थक्रियाशा नसंवादः सद्भार्थ बिना प्रमाणस्य तदस्य स्वकार्ये न प्रवृत्तिरिति स्पष्यं च दूषणमिति । न च भाषि संवादप्रत्ययमपेक्ष्यमा प्र · (४५६) अभिधानराजेन्द्रः । धातुमभाविनोऽसवेन विज्ञान स्वायें प्रवर्तमानस्य सहकारित्वासम्भवात्। तत्रापि किं गृहीताः पमाण स्वोत्पादक कारणगुणाः सन्तः प्रमाणस्य स्वकार्थे प्रवर्त्तमा नस्य सहकारित्वं प्रपद्यन्ते भाविता इत्यथाऽवि विकल्पद्वयम् । तत्र यद्यगृहीता इति पक्क्षः । स न युक्तः । अगृहीतानां सवस्येवासिदेः सहकारित्वं दूरसारितमेव । अथ द्वितीयः । सोऽपि न युक्तः, अनवस्थाप्रसङ्गात् । तथा हि-गृहीतस्वकारणगुणापेचं प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तते, स्वकारणगुणानमपि स्वकारणगुणानाचे प्रमाण कारणगुणपरि लक्षणे स्वकार्यकारणापेक मित्यनवस्यामवतारो दुर्निवार इति । अथ प्रमाणकारण गुणज्ञानं स्वकारयगुणज्ञानानपेक्षमेव प्रमाण कारणगुणपरिषद स्वा सर्दि प्रमाणमपि स्वकारणाम कमेवारिक कार्ये प्रमा णस्य स्वकारणगुणज्ञानापेक्षणमिति न स्वकार्ये प्रवत्तमानं प्रमा मन्याम्स " जातेऽपि यदि विज्ञाने, तावन्नार्थोऽवधार्यते । यावत्कारणगुरूत्वं न प्रमाणान्तराङ्गतम् ॥ १ ॥ तत्र ज्ञानान्तरोत्पादः, प्रतीक्ष्यः कारणान्तरात् । या किन परिच्छिन्ना, शुद्धिस्तावदसत्समा ॥ २ ॥ तस्याऽपि कारण शुरू-र्न ज्ञानस्य प्रमाणता । तस्याध्यचमिती ॥३॥" इति। तेन त्वयान्याः" इति प्रयोग तस्मात्स्यसामग्रीत उपज्ञायमानं प्रमाणमयपरिच्छेदश युक्तमेवोपजायत इति स्वकार्येऽपि प्रवृति स्थित नापि प्रमाणं प्रामाण्य निकायेत्यपक्रम् उपक्रमाणं किं स्वकारणजानते हो ति विकल्पऽयम् । तत्र यदि स्वकारणगुणानपेक्षते इति पक्षः कक्षीक्रियते । सोऽसङ्गतः । स्वकारणगुणानां प्रत्यक तत्पूर्वकानुमाना ह्यत्वेनाऽसश्वस्य प्रागेव प्रतिपादनात् । अधाभिधीयते यो कार्यविशेषः स स गुणवत्कारवि शेषपूर्वको, यथा प्रासादाऽऽदिविशेषः । कार्यविशेषश्च यथास्थितार्थपरिच्छेद इति स्वभावदेतुरिति । पतसंस् परिच्छेदस्य पद्यावस्थितार्थपरासि तथाहि-परिच्छेदस्य यथावस्थित कि संवादिनाद्वारा नेति विकल्पाः । तत्र यदि गुणवत्कारणजन्यत्वेनेति पक्तः । स न युकः। इतरेतराऽऽजयदोषप्रसङ्गात् तथाहि-कारण जपान परिच्छेदस्य यथावस्थितरित परिच्छेदवाकारणजन्यत्वमिति पर - SSयत्वम् । अथ संवादित्वेन ज्ञानस्य यथावस्थितार्थ परि च्छेदत्वं विज्ञायते । एतदप्यचारु | चक्रक प्रसङ्गस्यात्र पक्षे दुनिवारस्वात् । तथाहि न यावद्विज्ञानस्य यथावस्थितार्थपरि च्छेदलको सिध्यति, दलको विशेष विति न तावत्पूर्वक प्रवृ सिवान न प्रवृत्तिर्न तावदर्थक्रियासंवा दः, यावश्च न संवादो न तावद्विज्ञानस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदरिति चक्रका प्रशेष प्रतिपादितः ॥ अबाधार विज्ञानस्य यथार्थपरिच्छेदयत्री यते । वायुपगमविरोधा 1 विरोधश्व बाधाविरहस्य तुच्छस्वभावस्य सत्वेन ज्ञापकत्वेन वाऽनङ्गीकरणात् । पर्युदासवृत्या तदन्यज्ञानलक्कणस्य तु विज्ञा नपरिषद्विशेषविषयकत्वानुपपतेः अर्था स्थितार्थपरिक्षण विशेष विज्ञानस्व Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण खोप युक्त इतरेतराम्रो तथा हिला यातयामापरिष्द स्वासविनयाभावसिद्धिरिति परिस्फुटमितरेतरा55श्रयत्वम् । तन्न कारणगुणापेक्षा प्रामाण्यज्ञप्तिः । अथ संवादापेक्षः प्रामाख्यविनिश्चयः। सोऽपि न युक्तः यतः संवादक ज्ञानं किं समानजातीयमभ्युपगम्यते, आहोस्विद्भि जातीयमिति पुनरपि विकल्पद्वयम् । नत्र यदि समानजातीयं संवादकमभ्युपगम्यते, तदाऽत्रापि वन्यम् । कि मेकसन्तानप्रभवं भिन्नसन्तानप्रभवं वा १ । यदि भिन्नसन्तानप्रभयं समानजातीयं ज्ञानान्तरं संवादकमित्यभ्युपगमः । श्रयमप्यनुपपन्नः, श्रतिप्रसङ्गात् । श्रतिप्रसङ्गश्च देवदत्तघटविज्ञानं प्रति यघटान्तरविज्ञानस्यापि संवा दकत्वप्रसक्तेः । अथ समानसन्तानप्रभवं समानजातीयं शानान्तरं संवादकमभ्युपगम्यते, तदाऽत्रापि चक्रव्यम्-कि तत् पूर्वप्रमाणाभिमतविज्ञानगृहीतार्थविषयम्, उत भिन्नविपयमिति । तत्र यथेकार्थविषयमिति पक्षः । सोऽनुपपन्नः । एकार्थविषयत्वे संवाद्यसंवादकयोरविशेषात् । तथा हि-एकविषयत्वे सति यथा प्रानमुत्तरकालभाविनी विज्ञानस्यैकसन्तानप्रभवस्य समानजातीयस्य न संवादकम्, तथोत्तकालभाव्यपि न स्यात् । किं च तदुत्तरकालभावि समानजातीयमेकविषयं कुतः प्रमाणमेव सिद्धं येन प्रथमस्य प्रामाएवं निधापयति । तदुत्तरकालमाविनोऽन्यस्मात्तथाविधादेवेति चेत्, तर्हि तस्याप्यन्यस्मात्तथाविधादेवेत्यनवस्था । श्रथोत्तरकालभाविनस्तथाविधस्य प्रथमप्रमाणाप्रामाण्यनिश्चय, वहिं प्रथमस्योत्तरकालभाविनः प्रमाणान्तन्निश्चयः, उत्तरकालभाविनोप प्रथमप्रमाणादिति तदे वेतरेतराश्रयत्वम् । अथ प्रथमोत्तरयोरेकविषयत्वसमानजातीयत्वैक सन्तानत्वाविशेषेऽप्यस्त्यन्यो विशेषः, यतो विशेषादुत्तरं प्रथमस्य प्रामाण्यं निश्चाययति, न पुनः प्रथममुत्तरस्य । स च विशेष उत्तरस्य कारणशुद्धिपरिज्ञानानन्तरभावित्वम् । ननु कारणशुद्धिपरिज्ञानमर्थक्रियापरिज्ञानमन्त रेण न सम्भवति, तत्र च चक्रकदोषः प्राक् प्रतिपादित इति नार्थक्रियाज्ञानसंभवः । संभवे वा तत एव प्रामाण्यनिश्चयस्य संज्ञातत्वात् व्यर्थमुचरकालभाविनः कारणशुद्धिज्ञानविशेषसमन्वितस्य पूर्वप्रामास्थाचगमहेतुत्वकल्प नम् । तन समानजातीयमेक सन्तानप्रभवमेकार्थमन्तरज्ञान पूर्वज्ञानप्रामाण्यनिश्चायकम् । श्रथ भिन्नार्थे तत् ज्ञानं पूर्वज्ञानप्रामाण्यनिश्चायकम् । तदप्ययुक्रम्। एवं सति शुक्रिका यां रजतज्ञानस्य तथाभूतं शुक्रिकाशानं प्रामाण्यनियाय स्यात् । तन्न समानजातीयमुत्तरशानं पूर्वज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चायकम् । श्रथ भिषजातीयं प्रामाण्यनिश्चायकमिति पक्षः । तत्रापि वक्तव्यम् । किमर्थक्रियाज्ञानमुतान्यत् ? । तत्रा' म्यदिति न चक्रव्यम् घटशानस्यापि पटज्ञानप्रामापनिआापकत्वप्रसङ्गात् । अथार्थक्रियाज्ञानं संवादकमित्यभ्युपग अयमपि न युक्तः अर्थक्रियाज्ञानस्यैव प्रामाण्पनिश्ववाभा से प्रवृष्याद्यभावत अक्रदोषेणासंभवात् । अथप्रामाण्यनिध याभावेऽपि संशयादपि प्रवृत्तिसंभवान्नार्थक्रियाज्ञानस्यासम्भवः तर्हि प्रामाण्यनिश्चयो व्यर्थः । तथाहि प्रामाएयनिश्वयमन्तरेण प्रवृतो विसंवादभाक् मा भूवमित्यर्थक्रियार्थी प्रामाण्यनिश्चयमन्वेषते सा च प्रवृत्ति १९५ ( ४५७) अभिधानराजेन्यः । 9 स्वनिधयमन्तरेणापि संजातेति व्यर्थः प्रामाण्यनिश्वयप्रवासः किं चयंक्रियाज्ञानस्यापि प्रामाण्यनिश्चायकत्वेनाभ्युपगम्यमानस्य कुतः प्रामापनिश्चयः । तदयार्थकियाशा नादिति वेत्, अनवस्था पूर्वप्रमाणादिति चेदन्योन्याश्रयदोषः प्राक् प्रदर्शितोऽत्रापि । श्रथार्थक्रियाज्ञानस्य स्वत एव प्रामाण्यनिश्चयः । प्रथमस्य तथाभावे प्रद्वेषः किंनिबन्धनः ।। तदुक्तम् - पमाच 'यथैव प्रथमं ज्ञानं तत्संवादमपेक्षते । संवादेनापि संवादः पुनग्यस्तथैव हि ॥ १ ॥ कस्यचित्तु यदीष्येत, स्वत एव प्रमाणता । प्रथमस्य तथाभावे, प्रद्वेषः केन हेतुना ? ॥ २ ॥ संवादस्याऽथ पूर्वेण, संचादित्यात्माता। श्रन्योऽन्याऽऽश्रयभावेन, न प्रामाण्यं प्रकल्पते ॥ ३ ॥ " इति । अथापि स्यादर्थक्रियाशानमर्थाभावे न इमिति न तत्खा माण्यनिश्चयेऽन्यापेक्षं, साधनज्ञानं त्वर्थाभावेऽपि दृष्टमिति तमामाण्यनिश्चये ऽर्थविज्ञानापेक्षमिति । तदप्यसङ्गतम् अर्थक्रियाज्ञानस्याप्यर्थमन्तरेण स्वप्नदशायां दर्शनात्, न च स्वजाग्रद्दशाऽवस्थायाः कश्विद्विशेषः प्रतिपादयितुं शक्यः । अथार्थक्रियाज्ञानं फलावात्रिरूपत्वान्न प्रामाण्यनिवेश्यापेक्षं साधनविनिर्मासि पुनर्मानं नार्थक्रिया वासरूपं भवति तत्स्वप्रामाए पनिश्चयेयापेक्षम्। तथाहि जलावासिनि ज्ञा ने समुत्पन्ने] पानावगाहनाद्यर्थिनः किमेतत् ज्ञानविभासि ज लमभिमतफलं साधविष्यति उत नेति जातात मारयविचारं प्रत्याद्रियन्ते । पानावगाहनार्थावासाने तु समुत्पन्नेऽवाप्तफलत्वान्न तत्प्रामाण्यविचारणाय मनः प्रणिदधति । नैतत्सारम् अवाप्तफलत्वादित्यस्यानुत्तरत्वात् । तथाहि--यथा ते विचारकत्वाज्जलज्ञानावभासिनो जलस्य किं सवमुतासच्वमिति विचारणायां प्रवृत्तास्तथा फलशाननिर्मासिनो ऽप्यर्थस्य सप्पासच्यविचारणायां प्रचर्त्तन्ते। अ यथा तत तवयासिनोऽर्थस्यावस्वान स्याऽवस्तुविषयत्वेनाप्रमाणतया शक्यमानस्य न तज्जलावभासिप्रवर्त्तकज्ञानप्रामाण्यव्यवस्थापकत्वम् । ततश्चान्यस्य तत्समानरूपतया प्रामाण्यनिश्चयाभावात्कथमर्थक्रियायो प्रवृत्तिविधिनप्रामाण्याद ज्ञानादित्यभ्युपगमः शोभनः । किच-मिजातीय संपादकानं पूर्वस्य प्रामात्वनिश्चायकमभ्युपगम्यमानमेकार्थे, भिन्नार्थे वा ?। यद्येकार्थमित्यभ्युपगमः । स न युक्रः भचम्यतेनाघटमानत्यात् । तथाहि रूपज्ञानाद्विजातीयं स्पर्शाऽऽदिज्ञानं तत्र च स्पर्शादिकमाभाति न रूपम्, रूपज्ञाने तु रूपं, न स्पर्शाऽऽदिकमाभाति; रूपस्पर्शयोश्च परस्परं भेदः, न चावयवी रूपस्पर्शज्ञानयोरेको विषयतयाऽभ्युपगम्यते, येनैकविषयं भिन्नजातीयं पूर्वज्ञानप्रामारव्यवस्थापकं भवेत् । अपि च-एकत्किं येन स्वरूपेण व्यवस्थाप्ये ज्ञाने सोऽर्थः प्रतिभाति, किं तेनैव व्यवस्थापके, उताम्पेन तत्र यदि तेनैवेत्यभ्युपगमः स न युक्तः । ययवस्थापकस्प तावदम्पत्येन स्मृतिप्रमाणत्वेन व्यवस्थापकत्वासंभवात् अथ रूपान्तरेण विज्ञाने प्रतिभाति । नन्वेवं संयाद्यसंवादरूपेोरेकविषम स्था दिति द्वितीय एव पक्षोऽभ्युपगतः स्यात् । स चाऽयुक्तः । पूर्ववाऽपि भिन्नविषयस्यैक सन्तानप्रभवरूप विजातीयस्य प्रामा Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण ( ४५८ ) अनिधानराजेन्द्रः । रायव्यवस्थापकत्वप्रसङ्गात् । तथा किं तत्समानकालमर्थकयाज्ञानं पूर्वज्ञानप्रामाण्यनिश्चायकमाहोस्विद्भिन्नकालम् ? । यदि समानकाल, किं साधन निर्मासिज्ञानमादि उत सभाही ति पुनरपि विकल्पइयम् ? यदि तद्मादि तदसत् । ज्ञानातरस्य चारादिमानेष्वप्रतिभासनात् प्रतिनियतरूपा55दिविषयत्वेन चक्षुरादिज्ञानानामभ्युपगमात् । अथ तदमाहि न तर्हि तज्ज्ञानप्रामाण्यनिश्चायकम् । तदग्रहे तद्वतधर्माणामप्यग्रहात् । अथ भिन्नकालम् । तदप्ययुक्तम् । पूर्वज्ञानस्य क्षणिकत्वेन नाशादुतरफालभाविविज्ञानेऽप्रतिभासनात् । भासने वोत्तरविज्ञानस्यावद्विषयत्वेनाप्रामाण्यप्रसक्तिस्तद्प्राइकत्वेन न तत्प्रामाएपनिश्चायकत्वम् । तदग्राहकं तु भिकालं सुतरां न तनिश्चायकमिति न भिन्नकालमप्येकसन्तानजं मिश्रजातीयं प्रामाण्यनिश्चायकमिति न संचादापेक्षः पूर्वप्रमाणप्रामाण्यनिश्चयः । तेन शप्तावपि "ये यद्भावं प्रत्यनपेक्षा " इति प्रयोग हेतोर्मासिद्धिव्याप्तिस्तु सा व्यविपक्षातयितत्वव्यापकात्सापेक्षत्वाभिवर्तमानमनपेक्षत्वं तनियतत्वेन व्याप्यते इति प्रमाणसिद्धैव । यतश्च न पूर्वोक्तेन प्रकारेण परतः प्रामाण्यनिश्चयः संभवति, ततो "ये संदेहविपर्ययविषयीकृताऽऽत्मताचाः" इति प्रयोगे व्या प्यसिद्धि हेतोधासिद्धता सर्वप्राणभृतां प्रामाएपसंदे विपर्ययाभावात् । तथा हि-ज्ञाने समुत्पन्ने सर्वेषामयमर्थ इति निश्चयो भवति । न च प्रामाण्यस्य संदेदे विपर्यये वा खत्येष युक्तः तदुक्रम्" प्रामाण्यग्रहणात्पूर्व स्वरूपेणेव संस्थितम्। निरपेक्षं स्वकायें " इति स्वार्थनिहि प्रमाणकार्य न च तत्र प्रमाणान्तरमपेक्षते गम्यते । न चैतत्संशयविपर्ययविषयत्वे सम्भवतीति प्रमाणाप्रमाणयोरुत्पत्ती तुल्यं रूपमिति न संवादविवादा बन्तरेण तयोः प्रामाण्याप्रामाण्ययोर्निश्चयः । तदसत् । श्रप्रमाणे तदुत्तरकालमवश्यंभाविनौ बाधककारणक्षेत्रप्रत्ययौ, तेन तत्राप्रामाण्यनिश्चयः । प्रमाणे तु तयोरभावः कुतोऽप्रामाण्याऽऽशङ्का । श्रथ तत्तुल्यरूपे तयोर्दर्शनात्तत्राऽपि तदाशका । साऽपि न युक्ता । त्रिचतुरज्ञानापेक्षामात्रतस्तत्र तस्या निवृत्तेः । न च तदपेक्षातः स्वतः प्रामाण्यव्याइतिरनवस्था स्पाशीयम्। संवादकशानस्यामा माल्याऽऽशङ्काव्यवच्छे एव व्यापारादपरशानानपेक्षणाच्च । तथा हि-अत्याधके ज्ञाने पर बाध्यमानप्रत्यय साधर्म्यादिप्रामाण्याऽऽशङ्का तस्यां सत्यां तृतीयज्ञानापेक्षा, तश्चोत्पन्नं यदि प्रथमज्ञानसंवादि, तदा तेन न प्रथमज्ञानप्रामाण्यनिश्चयः क्रियते, किं तु द्वितीयज्ञानेन यत्तस्याप्रामाण्यमाशङ्कितं तदेव तेनापाक्रियते; प्रथमस्य तु स्वत एव प्रामाण्यभिति एवं तृतीयेऽपि कथञ्चित् संशवोत्पती चतुर्थज्ञानापेक्षायामयमेव न्यायः । तदुक्तन्-" विरान जन्मनो नाधिका मतिः। प्रा 1 त्र, र्थ्यते तावतैवैकं, स्वतः प्रामाण्यमश्नुते ॥ १ ॥ " इति । यत्र च दुष्टं कारणं यत्र च बाधकप्रत्ययः स एव मिथ्याप्रत्यय इत्यस्याप्ययमेव विषय चतुर्थज्ञानापेक्षा त्यापेक्षाऽभ्यु पगमवादत उक्का, न तु तदपेक्षाऽपि भावतो विद्यते । श्रथ तृतीयशानं द्वितीयज्ञानसंवादि, तदा प्रथमस्याप्रामापनि -- अथ यः स तु ततोऽभ्युपगम्यत एव किं तु द्वितीयस्य यदप्रामाण्यमाशङ्कितं तत्तेनापाक्रियते, न पुनस्तस्य द्वितीयप्रामानिश्चायकत्वे व्यापारः । यत्र त्वभ्यस्ते विषये ऽर्थ तथात्व पमाण शङ्का नोपजायते तत्र बलादुत्पाद्यमाना शङ्का तत्कर्तुरनर्थकारिणीत्यादितं वार्तिकहता धारादि यो मोहादजातमपि बाधकम् । स सर्वव्यवहारेषु संशयाऽऽत्मा यं व्रजेत् ॥ १ ॥ " इति । न चैतदभिशापमात्रम् । यतो ऽशङ्कनीयेsपि विषयेऽभिशङ्किनां सर्वत्रार्थानर्थप्राप्तिपरिहारार्थिनामिष्टानिष्ट्रप्राप्तिपरिहार समर्थप्रवृत्यादिव्यवहारासंभवान्न्याय-प्राप्त एव क्षयः । स्वोत्प्रेक्षितनिमित्तनिबन्धनाया आशङ्का या सर्वत्र भावात् प्रेरणाजनिता तु बुद्धिरत्नदो परहितात्प्रेरणाक्षणाच्यदादुपजायमाना लिङ्गो बुद्धियत् प्रमाणं सर्वत्र स्वतः तदुक्रम्- "खोदनाजनिता · जि. प्रमार्जितैः। कारये जेम्यमानत्यासो शाक्षबुद्धिवत् ॥ १ ॥ " इति । तस्मात्स्वतः प्रामाण्यम्, अप्रामाण्यं परत इति व्यवस्थितम् । अतः सर्वप्रमाणानां स्वतः सिद्धत्वाद्युक्त स्वतः सिद्धं शासनं नातः प्रकरणात्मामायेन प्रतिष्ठाप्यम् । इदं त्वयुक्तम्- जिनानामिति । जिनानामसत्त्वेन शासनस्य तत्कृतत्वानुपपत्तेः । उपपत्तावपि परतः प्रामाण्यस्य निषिइत्वादिति । अत्र प्रतिविधीयते यत्तावदुक्कस्, अर्थतथाभावक ज्ञातृव्यापारः प्रमाणम्। तदयुक्तम् पराभ्युपगतज्ञातृव्यापारस्य प्रमाणत्वेन निषेत्स्यमानत्वात् । यदप्यन्यदभ्यधापि तस्य यथार्थप्रकाशकत्वं प्रामायं तथो त्पत्तौ स्वतः | विज्ञानकारणचक्षुरादिव्यतिरिक्तगुणानपेक्षत्वात् । तत्र प्रामाण्यस्योत्पत्तिरविद्यमानस्याऽऽत्मलाभः । सा तुका देशकालस्वभावनियमो न स्यादित्यन्यत्र प्रतिपादितम् । कि च गुरारादिसद्भावे सति यथास्थि तार्थप्रतिपत्तिदेश तदभावेन तितका व्यवस्था प्यते अन्वयव्यतिरेकनिबन्धनत्वादन्यत्रापि हेतुफलभावस्य । अन्यथा दोषवष्य तुरा द्यन्वयव्यतिरेकानुविधायिनी मिथ्याप्रतिपत्तिरपि स्वतः स्यात् । तथाऽभ्युपगमे "वस्तुत्वाद् द्विविधस्यात्र, सम्भवो दुष्टकरणाद् । ” इति वचो व्याहतमनुषज्येत । पपि, त्यातिगुणसद्भावे प्रत्यक्षात्रवृतेः तत्पूर्वकानुमानस्यापि तग्राहकत्वेनाव्यापारात् चक्षुरादिगतगुणानामसत्वात्सदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वं प्रामाण्यस्योत्पत्तावयुक्तम्, ” इत्युक्तम् । तदप्यसंगतम् । श्रप्रामाण्योत्पत्तावप्यस्य दोषस्य समानत्वात् । तथा हि श्रतीन्द्रियलोचनाऽऽयाश्रिता दोषाः किं प्रत्यक्षेण प्रतीयन्ते तानुमानेन ? न तावत्प्रत्यक्षेण इन्द्रियाऽऽदीनामतीन्द्रियत्वेन सद्गतदोषाणामप्यद्रयत्वेन तेषु प्रत्यक्षस्याप्रवृत्तेः । नाप्यनुमानेन । अनुमानस्य गृहीतप्रतिबद्धलिङ्गप्रभवत्वाभ्युपगमात् । लितिबन्धग्राहकस्य च प्रत्यक्षस्यानुमानस्य चाऽत्र विषये ऽसम्भवात् प्रमाणान्तरस्य चात्रान्तर्भूतस्यासवेन प्रतिपादयिष्यमाणत्वाद्, इत्यादि सर्वमप्रामाश्योत्पत्तिकारणभूतेषु लोचनाऽषु दोषेयपि समानमिति तेषामप्यसत्त्वात्तदन्वयव्यतिरेकानुविधानस्यासिद्धत्वादप्रामाण्यमप्युत्पत्तौ स्वतः स्यात् । यदपि - " श्रथ काये यथाच पलध्यात्मकेन तेषामचिगमः" इत्यादि। "तो न लोकः प्रायशो विपर्ययज्ञानादुत्पादकं कारणमात्रमनुम नोति, किं तु सम्यग्ज्ञानादू, इत्यन्तमभ्यधायि । तदप्य* सिद्धं सिद्धत्थायं, ठाणमणोवमहं उनगयाणं । कुसमयविसासणं सासणं जिणाणं भवजिणाणं ॥ १ ॥ इतिगाथाया व्याख्येयम् । 4 66 Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमागण सङ्गतम् । यतो यदि लोकव्यवहारसमाश्रयणेन प्रामाण्यामामाण्ये व्यवस्थाप्येते तायामात्मामाण्यमपि पर तो व्यवस्थापनीयम्। तथाहि लोको यथा मिथ्याज्ञानं दोपयचक्षुरादिप्रभयमभिधाति तथा सम्यज्ञानमपि गुणवचचुरादिसमुत्यमिति तदभिप्रायादप्रामाण्यवत्प्रामाण्यमप्युत्पत्ती परतः कथं न स्यात्। तथाहि तिमिराऽ-दिदोषावष्टव्यचष्को विशिष्ठौषधोपयोगाबासाशिनैर्म्यल्पगुणः केनचित्सुहृदा कीदृक्षे भवतो लोचने वर्त्तते इति पृष्टः सन् प्राऽऽद्दप्राक सदोषे अभूतामिदानीं समासादितगुणे संजाते इति । न व नैर्मल्यं दोषाभावमेव लोको व्यपदिशतीति शक्यमभिधातुम्, तिमिराऽऽदेरपि गुणाभावरूपत्वव्यपदेशप्राप्तेः। तथा चाप्रामाण्यमपि प्रामाण्यवत्स्वतः स्यात् । यदप्यभ्यधावि, "न च तृतीयं कार्यमस्ति" इति। तदप्यसम्प तृतीयकार्याभावेापे पूर्वोकन्यायेन प्रामाएखस्योत्पत्ती परतः सिद्धत्वात् । पच्च" अपि याऽर्थतथाभावप्रकाशनलक्षणं प्रामाण्यम्" इत्यादि, “विश्वमेकं स्यादिति वचः परिप्लवेत" इति पर्यवसानमभिहितम् । तदपि श्रविदितपराभिप्रायेण । यतो न परस्योभयमभ्युपगमी विज्ञानस्य चक्षुरादिसामग्रीत उत्पत्तावप्यर्थतथाभावप्रकाश नलक्षणस्य प्रामाण्यम्य नैर्मस्वाऽऽदिसामभ्यन्तरात्यधादुत्पत्तिः, किन्तु गुणवचचुरादिसामप्रीत उपजायमानं विज्ञानमागृहीतप्रामाण्यस्वरूपमेवोपजायते इति ज्ञानवत्तदम्पतिरिक्रस्वभावं प्रामात्यमपि परत इति गुणयच्चचुरादिसामध्यपेत्यादुत्पत्ती प्रामा रूपस्यानपेक्षत्वलक्षण स्वभावहेतुरसिद्धो ऽनये त्वस्वरूप इति 33 तस्मायत एवं गुणविकलसामग्रीलक्षणाद् " इत्याधयुक्तमभिहितम्। "अर्थतथात्यपरिच्छेदरूपा च शक्ति प्रा. माण्यं शक्यश्च सर्वभावानां स्वत एव भवन्ति” इत्यादि यद विधानम् । तदप्यसमीचीनम् । एवमभिधाने यथावस्थिता परिरण्यमामापरूपाया असत्याः केनचित्कमशक्लेस्तदपि स्वतः स्यात् । यदपि एतच्च नैव सत्कार्यप्रदर्शनसमाश्रयणादभिधीयते इत्यादि तदपेक्षा न विद्यते " इति पर्यन्तमभिहितम् । तदपि प्रलापमात्रम् । यतोऽनेन न्यायेनाप्रामाण्यमपि प्रामाण्यवत् स्वत एव स्यात् । तदपि हि विपरीतार्थपरिच्छेदशति न तिमि रादिदोषसङ्गतिमत्सु खीचनादिषु अस्तीति पपि पक्षा नरूपतामात्मन्यसतीमाविर्भावयन्तीन्द्रियाऽऽदयो न पुनर्यधावस्थितार्यपरिच्छेदशक्रिमिति न किञ्चिनिमित्तमुत्पश्यामः । कुतश्चैतदैश्वर्य शक्तिभिः प्राप्तम्, यत इमाः स्वत एवोदयं प्रत्यासादितमाहात्म्या न पुनस्तदाधाराभिमता भावविशेषा इति । न च तास्तेभ्यः प्राप्तव्यतिरेकाः । यतः स्वाऽऽधाराभिमतभावकारणेभ्यो भावस्योत्पत्तावपि न तेभ्य योत्पत्तिमनुभवेयुः व्यतिरेके स्वाधयैस्ततोऽभवन्त्यो न संबन्धमाप्नुयुः । भिन्नानां कार्यकारणभावव्यतिरेकेणापरस्य संबन्धस्याभावादाश्रयाऽऽथयिसंबन्धस्या पिजन्यजनकभावभावेऽतिप्रसङ्गतो निषेत्स्यमानत्वात् । धर्मत्याच्क्राधय इत्यव्ययुक्तम् । असति पारतन्त्र्ये, परमार्थतस्तद्योगात् । पारतन्त्र्यमपि न सतः सर्वनिराशम् सत्यात् । अतोऽपि व्योमकुसुमस्येव न तवादेव । श्रनिमित्ताश्चेमा न देशकालद्रव्यनियमं प्रतिपद्येरन् । तद्धि किञ्चित् क्वचिदुपलीयेत, न वा । यद्यत्र कथञ्चिदायचमनायचं वा । सर्वत्र 66 66 (४५६) अभिधान राजेन्द्रः । 66 पमाण प्रतिबन्धविवेकिन्पञ्चेच्छक्रयो नेमाः कस्यचित्कदाचिद्विरमे युरिति प्रतिनियतक्रियोगिता भावानां प्रमाणप्रमिता न स्वात् व्यतिरेकाव्यतिरेकपक्षस्तु शक्तीनां विरोधानवस्वोभ यपक्षोक्तदोषाऽऽदिपरिहाराद् विनाऽनुद्धोष्यः । अनुभयपक्षस्तु न पुक्तः । परस्परपरिहारस्थितरूपाणामेकनिषेधस्यापरव धाननान्तरीयकत्वात् । न च विहितस्य पुनस्तस्यैव निषेधः । विधिप्रतिषेधयोरेकत्र विरोधात् । ये त्वाहुः - उत्तरकालभाविनः संवादप्रत्ययान जन्म प्रतिपद्यते शक्तिलक्षणं प्रामा एयमिति स्वत उच्यते, न पुनविज्ञानकारणानपजायत इति ते अपि न सम्पण प्रचक्षते । सिद्धसाध्यनादोषात् । श्रप्रामाण्यमपि चैवं स्वतः स्यात्, न हि तदप्युत्पन्ने शाने विसंवादप्रत्ययादुत्तरकालभाविनः तषोत्पद्यत इति क स्यचिदभ्युपगमः । यदा च गुणवत्कारणजन्यता प्रामाण्यस्य शक्तिरूपस्य प्राक्तनन्यायादपस्थिता तदा कथमत्सर्गिकत्वम् । तस्य दुष्टकारण प्रभवेषु मिथ्याप्रत्ययेष्वभावात् । पर स्परव्यवच्छेदरूपाणामेकत्रासम्भवात् । तस्माद् गुणेभ्यो दो पाणामभावस्तदभावादप्रामाण्यवासावेनोत्सर्वोऽनपोदित एवा इति वचः परिफल्गुमायम् । इतश्चैतद्वचोऽयुक्तम् विपर्ययेणाप्यस्योद्घोषयितुं शक्यत्वात् । तथाहि -दोबेभ्यो गुणानामभावस्तदभावात्प्रामाण्यद्वयासच्वेनाप्रामायमत्सर्गिकमास्त इति ब्रुवतो न वक्त्रं वक्रीभवति । कि च-गुणेभ्यो दोषाणामभाव इति न तुच्छुरूपी दोषाभावो गुणव्यापारनिष्पाद्यः तत्र व्यतिरिक्राव्यतिरिक्रविकल्पा रेल कारकव्यापारस्यासंभवात् भवद्भिरनभ्युपगमाथ। तुच्छाभावस्याभ्युपगमे वा - "भावान्तरविनिर्मुक्तो, भावो ऽत्रानुलम्भवत् । श्रभावः सम्मतस्तस्य, हेतोः किं न समुद्भवः ॥ १॥" इति वचो न शोभेत । तस्मात्पर्युदासवृत्त्या प्रतियोगिगुगामक एक दोषाभावोऽभिप्रेतस्तथ गुणेभ्यो दोषाभाव इति ब्रुवता गुणेभ्यो गुणा इत्युक्तं भवति । न च गुणेभ्यो गुणाः कारणानामात्मभूता उपजायन्त इति । स्वात्मनि क्रि याविरोधात् स्वकारणेभ्यो गुणोत्पत्तिसद्भावाच्च तदभावादप्रामाण्यद्वया सत्वमपि प्रामाण्यमभिधीयते । ततश्च गुणेभ्यः प्रामाण्यमुत्पद्यत इति श्रभ्युपगमात् परतः प्रामाण्यमुत्पद्यत इति प्राप्तम् तता स्वार्थावबोधरूपमामारया अमला चेत् कारणापेक्षा, काम्या स्वकार्ये प्रवृत्तिर्या स्वयमेव स्यात् । तेनायुक्तमुक्तम्-"] सन्धात्मनां खकार्येषु प्रवृत्तिः स्वयमेव तु । ” इति । घटस्य जलोद्वहनव्यापारात्पूर्व रूपान्तरेण स्वतोरुत्पत्तेर्युक्तं मृदादिकारणनिरपेक्षस्य स्वकार्ये प्रवृत्तिरित्यतो विसमुदाहरणम् । उत्पत्यनन्तरमेव च विज्ञानस्य नाशोपगमात्कुतो लग्धाऽऽत्मनः प्रवृत्तिः स्वयमेव तदुक्तम् 66 न हि तत्क्षणमप्यास्ते, जायते वाऽप्रमाऽऽत्मकम् । येनार्थग्रहणे पश्चाद्, व्याप्रियेतेन्द्रियाऽऽदिवत् ॥ १ ॥ तेन जन्मैव विषये, बुद्धेर्व्यापार उच्यते । तदेव च प्रमारूपं तदती करणं व धीः ॥ २ ॥ " इति । त साखन्मव्यतिरेकेण बुद्धेर्व्यापाराभावात्तत्र च ज्ञानानां सगुणेषु कारणेष्यपेणावचनात्कृतः खातन्त्र्येण प्रवृत्तिरिति किं तज्ज्ञानस्य कार्य ?, यत्र लब्धाऽऽत्मनः प्रवृत्तिः स्वयमेवेत्युच्यते । स्वार्थपरिच्छेदथे । यत्यात् तस्याऽऽत्मानमेव करोतीत्युक्तं स्यात् । तच्चायुक्तम् । प्रमाणमेतदित्यनन्तरं निश्चयक्षेत्र भ्रान्तिकारसापेन Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण कचिदनिश्चयाद्विपर्ययदर्शनाथ तस्माजन्मापेक्षया गुणवच चुरादिकारणमभयं प्रामारावं परतः सिद्धमिति " अथ चतु रादिज्ञानकारण " इत्याधकतया स्थितम् । अपौरुषेयवि धिवाक्यप्रभवायास्तु बुद्धेः स्वतः प्रामाण्योत्पत्यभ्युपगमो न युक्तः । अपौरुषेयत्वम्य प्रतिपादयिष्यमाणतग्राहकप्रमाणाविषयत्वेनासरवात्। सग्वेऽपि भवन्नीत्या तस्यैव गुणत्वा त्। तथाभूतप्रेरणाप्रभवाया बुद्धेः कथं न परतः प्रामाण्यम् ? किं प्रेरणायचसो, गुणवत्पुरुषग्रीनलीकायेषु तत्वेन निश्चितप्रामाण्यं गुवा35 अयपुरुषप्रणीतत्वव्यावृत्या तत्तत्र न स्यात् । तथा च " प्रेरणाजनिता बुद्धिः प्रमाणं दोषवज्जितः । काररौर्जन्यमानत्वा-लिङ्गाऽऽतोक्काक्ष बुद्धिवत् ॥ १॥ " इति । अयं श्लोक एवं पठितव्य: 3 " प्रेरणाजनिता बुद्धि--रप्रमा गुणवर्जितैः । कारण जन्यमानत्वा दलिङ्गाऽऽशोबुद्धिवत् ॥ १ ॥ " अथ प्रेरणांवाक्यस्यापीरुपेयत्वे पुरुषप्रणीत्या या यथा गुणा व्यावृत्तास्तथा तदाश्रिता दोषा श्रपि । ततश्च तद्वयावृत्ताचप्रामाख्यस्यापि प्रेरणाया व्यावृत्तत्वात्स्वतः सिद्धमु त्पत्ती प्रामाण्यम् ॥ नन्येषं खति गुणदोषावरुपी व्यावृत्तौ प्रेरणायां प्रामाण्याप्रामाण्ययोर्व्यावृत्तत्वात्प्रेरणाजनिता बुद्धिः प्रामाण्याप्रामाण्यरहिता प्राप्नोति । ततश्च " प्रेरणाजनिता बुद्धिर्न प्रमाणं न चाप्रमा । गुणदोषविनिमुक्त कारयेभ्यः समुङ्गात् १० इत्येवमपि प्राक्तनः श्लोकः पठितव्यः श्रत एव यथा 66 ( ४६० ) अभिधानराजेन्क | " दोषाः सन्ति न सन्तीति पौरुषेयेषु चिन्त्यते । 3 ये करावा, दोषाऽऽशब नास्ति नः ॥ १ ॥ " इत्यर्य लोक पर्व पठितः तथैवमपि पठनीयः 37 गुणाः सन्ति न सन्तीति, पौरुषेयेषु चिन्त्यते । वेदे कर्तुरभावात्त, गुणाऽऽशङ्कव नास्ति नः ॥ १ ॥ न च यत्रापि गुणाः प्रामाण्यहेतुत्वेनाऽशक्यन्ते तत्रापि गुणेभ्यो दोषाभाव इत्यादि वक्तव्यम् । विहितोत्तरत्वात् । अ. पिच अपौरुषेयत्वेपि प्रेरणाया न स्वतः स्वविषयप्रतीतिजनकव्यापारः । सदा सन्निहितत्वेन ततोऽनवरतप्रतीतिप्रसङ्गात् । किं तु पुरुषाभिव्यक्कार्थप्रतिपादक समयाऽऽविर्भूतविशिष्टसंस्कारसव्यपेक्षायाः। ते च पुरुषाः सर्वे रागादिदोषानिभूता एव भवताऽभ्युपगताः । तत्कृतश्च संस्कारो न यथार्थः । श्र न्यथा पौरुषेपमा बचो यथार्थ स्यात् । अतोऽपीरुषेयत्या भ्युपगमेऽपि समय कर्तृपुरुषदोषकृताऽप्रामाण्यसद्भावात् प्रेरणायामपौरुषेयत्वाभ्युपगमी गजस्नानमनुकरोति । तदुक्तः "असंस्कार्यतया पुंभिः सर्वेषां स्वाधिरर्धता। संस्कारी गगमे व्यक्तं गजस्नानमिदं भवेत् ॥ १ ॥ " यदप्यभाषि- 'तथा. अनुमानबुद्धिरपि गृहीताविनाभाचानन्यपिता" इत्यादि । तदप्यवार अविनाभाविनिश्वयस्यैव गुणत्वात् तदनिश्वयस्य विपरीतनिश्वयस्य च दोषत्वात् । तदेवमुत्पत्ती प्रामा एवं गुणत्वात् इति स्थितम्। यदम्-"नापि का मानं प्रमाणं निमितान्तरावेशय ।" इति। तप्यसङ्ग तम् । यतो यदि कार्योत्पादनसामग्रीव्यतिरिक्त निमित्तानपेक्षं प्रमाणमित्युच्यते तदसिद्ध अथ साम ? पमाण क्षणं प्रमाणं निमित्तान्तरानपेक्षम् । तदप्यचारु । एकस्य जनकत्वासंभवात "नजनक सामग्री व जनिका इति न्यायस्यान्यत्र व्यवस्थापितत्वात्। किं चनार्थपरिच्छेदमात्रं प्रमाण कार्यम् । अप्रमाणे ऽपि तस्य भावात् । किं तहिं । अर्थत धात्वपरिच्छेदः । स च ज्ञानस्वरूपकार्यों भ्रान्तज्ञानेऽपि स्वरूपस्य भावात्, तत्रापि सम्यगर्थपरिच्छेदः स्यात् । श्रथ स्वरूपविशेषकार्यो यथाऽवस्थितार्थपरिच्छेद इति नातिप्रसः । तर्हि स स्वरूपविशेषो वलव्यः किमपर्यार्थविज्ञानत्वम् उत निश्चितत्वम्, श्रहोस्विद् बाधारहितत्वम्, उतस्विद्दुष्टकारणाऽऽरब्धत्वम् किं वा संचादित्वमिति । त त्र यद्यपूर्वार्थविज्ञानत्वं विशेषः । स न युक्तः । तैमिरिकज्ञानेऽपि तस्य भावात् । श्रथ निश्चितत्वम् । सोऽप्ययुकः । परोक्षज्ञानवादिनो भवतोऽभिप्रायेणासम्भवात् । श्रथ बाधारहितत्वं विशेषः । सोऽपि न युक्तः । यतो बाधाविविरहस्तत्कालभावी विशेषः, उत्तरकालभावी वा ? । न ताव तत्कालभाषी मिथ्याज्ञानेऽपि तत्कालभाविनो वाधाविरहस्य भावात् । अथोत्तरकालभावी । तत्त्राऽपि वक्तव्यम्-किं ज्ञातः स विशेष राज्ञातः ? । तत्र नाशातः । श्रज्ञातस्य तस्वेनाप्यसिद्धत्वात् । श्रथ ज्ञातोऽसौ विशेषः । तत्रापि वक्तव्यम्उत्तरकालभावी बाधाविरहः किं पूर्वज्ञाने न ज्ञायते श्रा होस्त्रिदुत्तरकालभाविना । तत्र न तावत्पूर्वज्ञानेोत्तरकालभावी बापाविरोशानुं शक्यः । तद्धि स्वसमानकालं सनिहितं नीलाऽऽदिकमवभासवतु न पुनरुत्तरकालमध्य बाधकप्रत्ययो न प्रवर्त्तिष्यत इत्ययगमयितुं शक्नोति पूर्वमनुत्पन्नबाधकानामप्युत्तरकालबाध्यत्वदर्शनात् । श्रथोत्त रज्ञानेन ज्ञायते । शायताम, कि तूतरकालभावी याविर हः कथं पूर्वज्ञानस्य विनटस्य विशेषः। भिशकालस्य विनष्टं प्रति विशेषत्वायोगात् । किच- हायमानत्वेऽपि केशोराकाऽऽसत्यत्यदर्शनाद्, बाधाभावस्य शायमानत्वेऽपि कथं सत्यन्वम् ? । तज्ज्ञानस्य सत्यत्वादिति चेत्तस्य कुतः सत्यत्वम् ? । तत्प्रमेयसत्यत्वाद्, इतरेतराऽऽनयदोषप्रसङ्गात् । अपरबाधाभावज्ञानादिति चेत्, तत्राप्यपरबाधाभावज्ञानादित्यनवस्था अथ संवादादुत्तरकालभावी बाधाविरहः स यत्वेन ज्ञायते तर्हि संवादस्पाप्यपरसंवादानात्सत्यस्वसिद्धि वस्यापरसंवादशानादित्यनय था। कि च यदि संवादप्रत्ययादुत्तरकालभावी बाधाभावो शायमानो वि शेषः पूर्वज्ञानस्याभ्युपगम्यते, तर्हि ज्ञायमानस्वविशेषापेक्षं प्रमाणं स्वकायै यथाऽवस्थितार्थपरिच्छेदलक्षणे प्रय र्त्तत इति कथमनपेक्षत्वात्तत्र स्वतः प्रामाण्यम् ? । अपि चबाधाविरहस्य भवदभ्युपगमेन पर्युदासवृष्या संवादरूपत्वम् । वाधावर्जितं च ज्ञानं स्वकार्ये प्रन्यानपेक्षं प्रवर्त त इति यता संवादापेक्षं तत्र प्रवर्त्तत इत्युक्तं भवति । किं च कि विज्ञानस्य स्वरूपं वाध्यते, आत्म् ताऽर्थक्रियेति विकल्पवयम् । तत्र यदि विज्ञानस्य वरूपं बाध्यत इति पक्षः, स न युक्तः, विकल्पद्वयानतिवृत्तेः । तथाहि - विज्ञानं बाध्यमानं किं स्वसत्ताकाले बाध्यते, उत उत्तरकालम् ? । तत्र यदि स्वसत्ताकाले बाध्यत इति पक्षः । सन युक्तः । तदा विज्ञानस्य परिस्फुटरूपेण प्रतिभासनात्। न य विज्ञानस्य परिस्फुटप्रतिभासिनो ऽभावस्तदेवेति च शक्यम् । सत्याभिमतविज्ञानस्याप्यभावप्रसङ्गात् । अथोत्तर * , Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाया अभिधानराजेन्डः। पमाण कालं बाध्यत इति पक्षः। सोऽपि न युक्तः । उत्तरकालं तस्य नम् । तदपि परसमयानभिज्ञतां भवतः ख्यापयति । कारस्वत एव नाशाभ्युपगमान्न तत्र बाधकव्यापारः सफलः, णगुणग्रहणापेक्षं प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तत इति परदैवरक्ता हि किंशुकाः । अथ प्रमेयं बाध्यते इत्यभ्युपगमः । स्यानभ्युपगमात् । यश्चोक्तम्-" उपजायमानं प्रमाणसोऽप्ययुक्तः । यतः प्रमेयं बाध्यमानं किं प्रतिभासमानेन मर्थपरिच्छेदशक्तियुक्तम्,” इति । तत्राविसंवादित्वमेव रूपेण बाध्यते, उताऽप्रतिभासमानरूपसहचारिणा स्पर्शा- अर्थतथात्वपरिच्छेदशक्तिः, तच्च परतो ज्ञायते, तद दिलक्षणेनेति विकल्पनाद्वयम् ?। तत्र यदि प्रतिभासमानेन पेक्षेप्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तत इति तत्तत्र परतः स्थितस् । रूपेण बाध्यते इति मतम् । तदयुक्तम् । प्रतिभासमानस्य "नापि प्रामाण्यं स्वनिश्चयेऽम्यापेक्षम् ।" इत्युक्तं यत् । तदरूपस्यासवासंभवात् । अन्यथा सम्यग्ज्ञानावभासिनोऽप्य- प्यसत् । यतो निश्चयस्तत्र भवन् किं निर्निमित्तः, उत सनिसत्यप्रसङ्गः । श्रथाप्रतिभासमानेन रूपेण बाध्यते इति म- मित्त इति कल्पनाद्वयम् । तत्र न तावानिमित्तः । प्रतितम् । तदप्ययुक्तम् । अप्रतिभासमानस्य रूपस्य प्रतिभास- नियतदेशकाल स्वभावाभावप्रसङ्गात् । सनिमित्तत्वेऽपि किं मानरूपादन्यत्वात् । न चान्यस्याभावेऽन्यस्याभावः । अति- स्वनिमित्तः,उत स्वव्यतिरिक्लनिमित्तः। न तावत्स्वनिमित्तः। प्रसङ्गात्। अथार्थक्रिया बाध्यते । ननु साऽपि किमुत्पन्ना स्वसंविदितप्रमाणानभ्युपगमात् मीमांसकस्य । अथ स्वयाध्यते. उतानुत्पन्ना ?। यद्युत्पन्ना, न तर्हि बाध्यते तस्याः व्यतिरिक्लनिमित्तः । तत्रापि वक्तव्यस्-तनिमित्तं किं प्र. सत्वात् । अथानुत्पन्ना। साऽपि न बाध्या।श्रनुत्पन्नत्वादेव। किं त्यक्षम्, उतानुमानम् । अन्यस्य तनिश्चायकस्यासम्भवात्। च-अर्थक्रियाऽपि पदार्थादन्या। ततश्च तस्या अभावे कथम तत्र यदि प्रत्यक्षम् । तदयुक्तस् । प्रत्यक्षस्य तत्र व्यापारायो. न्यस्यासवम्?। अतिप्रसङ्गादेव । व्यवच्छेद्यासम्भवे च बाधा- गात् । तद्धीन्द्रियसंयुक्त विषये तव्यापारादुदयमासादयत्प्र. वर्जितमिति विशेषणस्याप्ययुक्तत्वात् । न बाधाविरहोऽपि त्यक्षव्यपदेशं लभते । न चेन्द्रियाणामापरोक्षतालक्षणेविज्ञानस्य विशेषः । अथादुष्टकारणाऽऽरब्धत्वं विशेषः। सो- न फलेन तत्सेवदनरूपेण वा संप्रयोगः, येन तयोर्यथाऽपि न युक्तः । यतस्तस्याप्यज्ञातस्य विशेषत्वमसिद्धम् । शा- र्थत्वस्वभावं प्रामाण्यमिन्द्रियव्यापारजनितेन प्रत्यक्षेण नितत्वे वा कुतोऽदुष्टकारणाऽऽरब्धत्वं ज्ञायते । अभ्यस्माददुष्टका- श्चीयते । नाऽपि मनोव्यापारजेन प्रत्यक्षेण । एवंविधस्याररणाऽऽरब्धाद्विज्ञानादिति चेत् अनवस्था।संवादादिति चेत् । भवस्याभावात् । नापि तयोरुत्पादकस्य ज्ञातृव्यापाराऽऽख्यननु संवादप्रत्ययस्याप्यदुष्टकारणारब्धत्वं विशेषोऽन्यस्माद- स्य यथार्थत्वनिश्चायकत्वं प्रामाण्यं बाह्येन्द्रियजन्येन मनो. दुष्टकारणारब्धात् संवादप्रत्ययाद्विशायत इति सैवानवस्था जन्येन वा प्रत्यक्षेण निश्चीयते । तेन सहेन्द्रियाणां संबभवतः संपद्यत इति । किं च-शानसव्यपेक्षमदुष्टकरणारब्ध न्धाभावात् । न चेन्द्रियासंबद्ध विषये ज्ञानमुपजायमानं स्वविशवमपेक्ष्य स्वकार्ये शानं प्रवर्त्तमानं कथं न तत्र परतः प्रवृ. प्रत्यक्षव्यपदेशमासादयतीत्युक्तम् । नाऽप्यनुमानतः प्रामातं भवति तथा कारणदोषाभावः पर्युदासवृत्या भवदभिप्रा. एयनिश्चयः । पूर्वोक्तस्य फलद्वयस्य यथावस्थितार्थत्वलक्ष. येण गुणः। ततश्चाऽदुष्टकारणाऽऽरब्धमिति वदता गुणवत्का- णप्रामाण्यानिश्चये लिहाभावात् । ज्ञातृव्यापारस्य तु पूर्वोरणारब्धमित्युक्तं भवति । कारणगुणाश्च प्रमाणेन स्वकार्ये क्लफलद्वयस्वभावस्वकार्यलिङ्गसम्भवेऽपि न यथार्थनिश्चायप्रवर्तमानेनापेक्ष्यमाणनिश्चायकप्रमाणापेक्षा अपेक्ष्यन्ते, तद- कत्वलकणप्रामाण्यनिश्चायकत्वस् । यतस्तल्लिङ्गं संवेदनाssपि प्रमाणं स्वकारणगुणनिश्चायकं स्वकारणगुणनिश्चयापेक्षं ख्यं, यथार्थत्वविशि, तनिश्चये व्याप्रियेत, निर्विशेषणं वा । स्वकार्ये प्रवर्त्तत इत्यनवस्थादूषणं “जातेऽपि यदि विज्ञाने, प्रथमपक्षे तस्य यथार्थत्वविशेषणग्रहणे प्रमाणं वक्तव्यम्, तावन्नार्थोऽवधार्यते।" इत्यादिना ग्रन्थेन परपक्षे आसम्ज्य- तच्च न संभवतीति प्रतिपादितस् । निर्विशेषणस्प फलस्य मानं स्ववधाय कृत्योत्थापनं भवतः प्रसक्तम् । अथादुटका- प्रामाण्यप्रतिपादकत्वे, मिथ्याशाने फलमपि प्रामाण्यनिश्चा. रणजनितत्वनिश्चयमन्तरेणाऽपि झानं स्वार्थनिश्चये स्वकार्ये यकं स्यादित्यतिप्रसङ्गः । तत्रैतत्स्यात् पूर्वोक्तं फलद्वयमप्रवर्तिप्यते । तदसत् । संशयाऽऽदिविषयीकृतस्य प्रमाणस्य र्थसंवेदनार्थप्रकटतालक्षणस्, अनुभवान्निश्चीयते यथा तस्वार्थनिश्वायकत्वासंभावात् । अन्यथाऽप्रमाणस्यापि स्वार्थनि स्य स्वतः पूर्वोक्लस्वरूपनिश्चयः, तथा यथार्थत्वस्याऽपि । श्वायकत्वं स्यात्। तन्नादुटकारणाऽऽरब्धत्वमपि विशेषो भव- यथा हि तत्संवेद्यमानं नील संवेदनतया संवेद्यते, तथा यनीत्या संभवति । अथ संवादित्वं विशेषः । सोऽभ्युपगम्यत थार्थत्वविशिष्टस्यैव तस्य संवित्तिः । न हि नीलसंवेदना. एव । किं तु संवादप्रत्ययोत्पत्तिनिश्चयमन्तरेण स न शातुं दन्या यथार्थत्वसंवित्तिः । यद्येवस् शुक्तिकायां रजतक्षानेऽपि शक्यत इति प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् , तदपेक्षं प्रमाणं अर्थसंवेदनस्वभावत्वाद्यथार्थत्वप्रसक्तिः । स्मृतिप्रमोषाऽऽदयस्वकार्ये प्रवर्तत इति तत्तत्र परतः स्यात् । अत एव निर- स्तु निवेत्स्यन्ते इति नानुमानादपि तत्प्रामारपनिश्चयः। किश्चपक्षत्वस्यासिद्धत्वात्पूर्वोकन्यायेन " ये प्रतीक्षितप्रत्ययान्त- प्रत्यक्षानुमानयोः प्रामाण्यनिश्चयनिमित्तत्वेऽभ्युपगम्यमाने, रोदयाः" इति प्रयोगेनासिद्धो हेतुः । एतेनैव यदुक्तम्- स्वतः प्रामाण्यनिश्चयव्याहतिप्रसङ्गः, तत्रान्यनिमित्तोडाप । "तत्रापूर्वार्थविज्ञानं,निश्चितं बाधवर्जितम् । अदुष्टकारणाss- प्रामाण्यनिश्वयः । यदुकम्-" नापि प्रामाण्यं स्वानेश्वये. रब्ध, प्रमाणं लोकसम्मतम् ॥ १॥” इति । तदपि निरस्तम् ऽन्यापक्ष, तद्धयपेक्षमाणं किं कारणगुणानपेक्षते" इत्यादि। यथोक्तम्-यदि संवादापेक्षं प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तते तदा- तदनभ्युपगमोपालम्भमात्रस् । न खस्मदभ्युपगमः, यदुत चक्रकप्रसङ्गः । तदसङ्गतम् । यथावस्थितपरिच्छेदस्वभाव- खकारणगुणज्ञानात् प्रामाण्यं विज्ञायते कारण गुणानां संचामेतत्प्रमाणमित्येवंनिश्चयलक्षणे स्वकार्ये यथा संवादापेक्षं दप्रत्ययमन्तरेण झातुमशक्यत्वात् संवादप्रत्ययात्तु कारणगुप्रमाण प्रवत्तेते, न च चक्रकदोषः, तथा प्रतिपादयिष्यमा- सपरिवानाभ्यपगमे. तत एव प्रामाण्यनिश्चयस्याऽपि सिद्धएत्वात् । यदपि "श्रथ गृहीताः कारणगुणाः" इत्याद्यभिषा- त्वात व्यर्थ गुणनिश्चयपरिकल्पनस् । प्रामाण्यानश्चयात्तरकाल Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमागा अभिधानराजेन्द्रः । पमाण गुणज्ञानस्य भावात्तन्निश्चयस्य प्रामाण्यनिश्वये ऽनुपयोगाच्च क्नःप्रत्ययोऽस्ति यस्यार्थसंसर्गः। न चावस्थाद्वयतुल्यताप्रति. नाप्येकदा संवादाद् गुणानिश्वित्य अन्यदा संवादमन्तरेणा- पादनं त्वया क्रियमाणं प्रकृतोपयोगि। तथाहि-सांव्यवहा. पि गुणनिश्वयादेव तत्प्रभवस्य ज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्वय इति रिकस्य प्रमाणस्य लक्षणमिदमभिधीयते-"प्रमाणमविसंवर्क शक्यम् । अत्यन्तपरोक्षेषु चक्षुरादिषु कालान्तरेऽपि नि- वादिज्ञानम्” इति । तञ्च सांव्यवहारिक जाग्रहशाज्ञानश्चितप्रामाण्यस्वकार्यदर्शनमन्तरेण गुणानुवृत्तेनिश्वेतुमश व । तत्रैव सर्वव्यवहाराणां लोके परमार्थतः सिद्धत्वात् । क्यत्वात्। न च क्षणक्षयिषु भावेषु गुणानुवृत्तिरकरूपैव संभति। स्वप्नप्रत्ययानां तु निर्विषयतया, लोके प्रसिद्धानां प्रअपरापरसहकारिभेदेन भिन्नरूपत्वात् । संवादप्रत्यशाच्चा- माणतया, व्यवहाराभावात् किं स्वतः प्रामाण्यमुत परत थेंक्रियाज्ञानलक्षणात् प्रामाण्यनिश्वयोऽभ्युपगम्यत एव । "प्र- इति चिन्ताया अनवसरत्वात् । तच्च जाग्रत्ज्ञाने द्वितीयदर्शमाणमविसंवादिज्ञानम्" इति प्रमाणलक्षणाभिधानात् । न च । नात्कि प्रमाणं, किं वाऽप्रमाणम् ; तथा कि स्वतः प्रमाणं, संवादित्वलक्षणं प्रामाण्यं स्वत एव ज्ञायते इति शक्यमाभि- किं वा परत इति चिन्तायाः । पूर्वोक्तलक्षणे जाग्रत्प्रत्यधातुम् । यतः संवादित्वं संवादप्रत्ययजननशक्तिः प्रमाण- यत्वे सतीति विशेषणाभिधाने स्वप्नप्रत्ययेन व्यभिचारचीस्य न च कार्यदर्शनमन्तरेण कारणशक्तिनिश्वेतुं शक्या । दनं प्रस्तावानभिशतां परस्य सूचयति । अपि च-अर्थक्रियायदाह-" न ह्यप्रत्यक्षे कार्य कारण भावगतिः" इति। तस्मा- ऽधिगतिलक्षणफलविशेषहेतुर्ज्ञानं प्रमाणमिति लक्षणे, तत्फदुत्तरसंवादप्रत्ययात्पूर्वस्य प्रामाण्यं व्यवस्थाप्यते नच संवा- लं नैवं प्रमाणलक्षणानुगतमिति कथं तस्यापि प्रामाण्यम. दप्रत्ययात्पूर्वस्य प्रामाण्यावगमे संवादप्रत्ययस्याप्यपरसंवा- वलीयत इति चोद्यानुपपत्तिः। यथाऽङ्करहेतु/जमिति बीजदात् प्रामाण्यावगम इत्यनवस्थाप्रसङ्गात् प्रामाण्यावगमाभाव लक्षणे नाङ्कुरस्यापि बीजरूपताप्रसक्तिः ततो न विदुषामेवं इति वक्तुं युक्तम् । संवादप्रत्ययस्य संवादरूपत्वनापरसंवादा- प्रश्नः, कथमकुरे बीजरूपता निश्चीयत इति । यथा चाकपेक्षाभावतोऽनव स्थाऽनवतारात् । न च प्रथमस्याऽपि संवादा- रदर्शनाद्वीजस्य बीजरूपता निश्चीयते, तत्राप्यर्थक्रियाफपेक्षा मा भूदिति वक्तव्यम् । यतस्तस्य संवादजनकत्वमेव प्रा- लदर्शनात्साधनज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चयः। न चाऽर्थक्रियाज्ञामारायं. तदभावे तस्य तदेव न स्यात् । अर्थाक्रेयाज्ञानं तु सा. नस्याप्यन्यतः प्रामाण्यनिश्चयादनवस्था । अर्थक्रियाज्ञानस्य क्षादविसंवादि । अर्थक्रियाऽऽलम्बनत्वात् तस्य स्वविषये सं- तद्रूपतया स्वत एव सिद्धत्वात् । तदुक्तम्-" स्वरूपस्य वेदनमेव प्रामाण्यम् । तच्च स्वतः सिद्धामति नान्यापेक्षा । तेन स्वतो गतिः" इति । न च स्वरूपज्ञानस्य भ्रान्तयः संभ"कस्यचित्तु यदीष्येत" इत्यादि परस्य प्रलापमात्रम | न चार्थ- वन्ति । स्वरूपाभावे स्वसंवित्तरप्यभेदेनाभावप्रसङ्गात् । व्यकियाशानस्याप्यवस्तुवृत्तिशङ्कायामन्यप्रमाणापेक्षयाऽनव- तिरिक्तविषयमेव हि प्रमाणमधिकृत्योक्नम् " प्रमाणमविसंस्थाऽवतार हात वक्तव्यम् । अर्थक्रियाज्ञानस्यार्थक्रियाऽनुभ- वादि-ज्ञानमर्थक्रियास्थितिः। अविसंवादनम्" इति । तथावस्वभावत्वेनार्थक्रियामात्रार्थिनां मित्रार्थकियात एतज्ज्ञान- "प्रामाण्यं व्यवहारेणा-र्थक्रियालक्षणेन च" इति च । तस्मामुत्पन्नम्, उत तय तिरेकेणेत्येवंभूतायाश्विन्ताया निष्पयो द्यत्प्रमाणस्याऽऽत्मभूतमर्थक्रियालक्षणपुरुषार्थाभिधानं फलं, जनत्वात् । तथाहि-यथाऽर्थक्रिया किमवयवव्यातरिक्तनावय- यदर्थोऽयं प्रेक्षावतां प्रयासः; तेन स्वतः सिद्धेन फलान्तरं प्रविनाऽर्थेन निष्पादिता, उताव्यतिरिक्लेन, आहोस्विदुभयरूपे- त्यनङ्गीकृतसाधनान्तराऽऽत्मतया "प्रमाणमविसंवादिज्ञानण, अथाऽनुभयरूपेण,किं वा त्रिगुणाऽऽत्मकेत. परमाणु समू- म्" इति प्रमाणलक्षणविरहिणा साधननिर्भासिशानस्याहात्मकेन वा, अथ ज्ञानरूपेण आहोस्वित्सवित्तिरूपेणेत्यादि- नुत्क्रान्तरूपफलप्रापणशक्तिखरूपस्य प्रामाण्याधिगमेऽनवचिन्ताऽर्थक्रियामात्रार्थिनां निष्प्रयोजना, निष्पन्नत्वाद्वाञ्छि- स्थाप्रेरणा क्रियमाणा परस्यासङ्गतैव लक्ष्यते । यदुक्तम्-अनितफलस्य, तथ्यमपि किं वस्तुसत्यामर्थक्रियायां तत्संवेदन- श्चितप्रामाण्यादपि साधनज्ञानात्प्रवृत्तावीक्रयाज्ञानोत्पत्ताशानमुपजायते, आहोस्विवस्तुलत्यामिति । तृदाहविच्छे ववाप्तफला अपि प्रेक्षावन्तो यथा साधनज्ञानप्रामाण्यविचारदाऽऽदिकं हि फलमभिवाञ्छितम्। तच्चाभिनिष्पन्नं तद्वियोग- णायां मनःप्रणिदधति अन्यथा तत्समानरूपापरसाधनज्ञानज्ञानस्य स्वसंविदितस्योदये इति तच्चिन्ताया निष्फलत्वम् , प्रामाण्यनिश्चयपूर्विकाऽन्यदा प्रवृत्तिर्न स्यात्, तथाऽर्थक्रिअवस्तुनि शानद्वयासंभवाच्च । यत्र हि साधनशानपूर्वकम- याज्ञानस्यापि प्रामाण्यविचारणायां प्रेक्षावत्तयैव ते श्रादिर्थक्रियाशानमुत्पद्यते तबाऽवस्तुशङ्का नैवास्ति । न ह्यनग्नाव: यन्ते, अन्यथाऽसिद्धप्रामाण्यादर्थक्रियाज्ञानात्पूर्वस्य प्रामाग्निशाने संजाते प्रवृत्तस्य दाहपाकाऽऽद्यर्थक्रियाज्ञानस्य संभव एयनिश्चय एव न स्यादित्यवाप्तफलत्वमनर्थकमिति । तदइत्यागोपालाङ्गनाप्रसिद्ध मेतत् । न च स्वप्नार्थक्रियाज्ञानमर्थक्रि- प्ययुक्तम् । अर्थक्रियाज्ञानस्य स्वत एव प्रामाण्यं, साधनयाऽभावेऽपि दृष्टमिति जाग्रदर्थक्रियाज्ञान प्रपि तथाऽऽशङ्का- स्य तु तजनकत्वेन प्रामाण्यमिति प्रतिपादितत्वात् । यदविषयः । तस्य तद्विपरीतत्वत् । तथाहि-स्वप्नार्थक्रियाशानम्, भ्यधायि-यदि संवादात्पूर्वस्य प्रामाण्यं निश्चीयते तदाअप्रवृत्तिपूर्व व्याकुलमस्थिरं च तद्विपरीतं तज्जाग्रद्दशाभावि, "धोत्रधीरप्रमाणं स्या-दितराभिरसंगतेः " इति । तद. कुतस्तेन व्यभिचारः ? यदि चार्थक्रियाज्ञानमयर्थमन्तरेण प्ययुक्तम् । गीताऽऽदिविषयायाः श्रोत्रबुद्धेरर्थक्रियाऽनुभवजाप्रद्दशायां भवेत्, कतरदन्यज्ञानमर्थाव्यभिचारि स्यात्, य- रूपत्वेन स्वत एव प्रामाण्यसिद्धेः । तथा चित्रगतद्वलेनार्थव्यवस्थाक्रियेत । परतः प्रामाण्यवादिनी बौद्धस्य प्र. बुद्धरपि स्वत एव प्रामाण्यसिद्धिः। अर्थक्रियाऽनुभवरूपतिकूलमाचरामीत्यभिप्रायवता तस्याऽनुकूलमेवाऽऽचरित- त्वात् । गन्धस्पर्शरसबुद्धीनां त्वर्थक्रियाऽनुभवरूपत्वं सुप्रम् । स हि निरालम्बनाः सर्वे प्रत्ययाःप्रत्ययत्वात् स्वमप्रत्यय- सिद्धमेव । यदप्युक्तम्-किमेकविषयं, भिन्नविषयं वा वदित्यभ्युपगच्छत्येव । भवता तु जाग्रद्दशास्वप्नदशयोरभेदं संवादज्ञानं पूर्वस्य प्रामाण्यनिश्चायकमित्यादि । तत्रैकसंघाप्रतिपादयवा तत्साहाय्यमेवाचरितम्। न हि तयतिरि- तवर्तिनो विषयद्वयस्य रूपस्पशीऽऽदिलक्षणस्यैकसामग्र्य Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण धीनतया परस्परमव्यभिचारात् स्पर्शाऽऽदिज्ञानं जाग्रदवस्थायामभिवाञ्छत स्पर्शाऽऽदिव्यतिरेकेण संभवद्भिन्नविषयमपि स्वविषयाभावेऽप्याशङ्कयमानरूपज्ञानस्य प्रामाण्यं निश्वापयतीति न तत्सङ्गतमेवम् । अत एव रूपाऽभ्यर्थाविना भावित्वाद् ध्वनीनां तद्विशेषायां स्वादिरूपः तिपत्तौ तद्विशेषशङ्काव्यावृत्तेस्तद्रूपदर्शनसंवादादपि प्रामारायनिश्वयः सिद्धो भवति । ययोक्रम् किं संवादशानं साधनज्ञानविषयं तस्य प्रामाण्यं व्यवस्थापयति, उत भिन्नविषयमित्यादि । तदष्यविदितपराभिप्रायस्याऽभिधानम् । न हि संवादशानं तद्ग्राहकत्वेन तस्य प्रामाण्यं व्यवस्थापयति किं तु तत्कार्यविशेषत्वेन यथा भूमीऽग्निमिति पराभ्युपगमः । पद्म संवादशानात्साधनज्ञानप्रामाण्यनिश्चये चक्रकदूषणमभ्यधायि । तदप्यसङ्गतम् । यदि हि प्र थममेव संवादशानात् साधनस्य प्रामाण्यं निश्चित्य प्र. वर्तेत तदा स्यात्तदूषणं यदा तु वह्निरूपदर्शने सत्येकदा शीतपीडितोऽन्यार्थे तदेशमुपसर्पस्तत्स्पर्श मनुभवति, कृपालुना वा केनचित्तदेशं वहेरानयने तदाऽली पहिरूप दर्शनस्पर्शनशानयोः संबन्धमवगच्छति एवंस्वरूप भाव एवंभूतप्रयोजननिर्वर्त्तक इति । सोऽवगत संबन्धोऽन्यदानभ्यासदशायामनुमानान्ममाऽयं रूपप्रतिभासोऽभिमतार्थक्रियासाधनः एवंरूपप्रतिभासत्वात् पूर्वोत्पत्रैरूपप्रतिमाखवत् इत्य सारसाधननिर्मासिज्ञानस्य प्रामाण्यं निश्चित्य प्र वर्तत इति, कुतोवाचवारः । अभ्यास दशायामपि साधनानानुमानात्प्रामा निधित्य प्रवर्तत इत्येके । न च तद्दशायामन्वयस्यतिरेकव्यापारस्या संवेदनामा नव्यापार इत्यभिधातुं शक्यम् । श्रनुपलक्ष्यमाणस्याऽपि तयापारस्याऽभ्युपगमनीयत्वात् अकस्माडूमदर्शनात्परोक्षाग्निप्रतिपत्ताविव । अन्यथा गृहीतविस्मृतप्रतिबन्धस्यापि तदर्शनादकस्मात् प्रतिपतिः स्यात् । न चाप्यचैव साधनस्य फलसाधनशक्तिरिति कथमव्यतेऽनुमानप्रवृत्तिरिति चोच म् | दृश्यमान प्रदेश परोक्षाऽसिङ्गरिव तज्जननश प्रत्य क्षत्वेन, अनुमानप्रवृत्तिमन्तरेण निधितुमशक्यत्वात् । तदुक्लम् - " तद्द्दष्टावेव दृष्टेषु संवित्सामर्थ्यभाविनः । स्मरणादभिलाषेण, व्यवहारः प्रवर्त्तते ॥ १ ॥ " इति । श्रपरे तु म न्यन्ते - अभ्यासावस्थायामनुमानमन्तरेणापि प्रवृत्तिः संभवति । अथानुमाने सति प्रवृत्तिर्दृष्टा तदभावे न दृष्टेत्यनुमान कार्या सा नम्येवं सत्यभ्यासदशायां विकल्पस्वरूपानुमान व्यतिरेकेणापि प्रत्यक्षा तत्प्रवृनिश्यते इति तदा तरकार्या सा कस्मान्न भवति । तथाहि प्रतिपादोद्धारं न विकल्परूपानुमानव्यापारः संवेद्यते, अथ च पुरः प्रतिभासमाने वस्तुनि प्रवृत्तिः संपद्यत इति । श्रथाऽऽदावनुमानात्प्रवृत्तिईप्रेति तदस्तरेण वा पश्चात्कथं भवति । नन्येयमादी पर्यालोचना व्यव हारो दृष्टः पश्चात्पर्यालोचनमन्तरेण कथं पुरः स्थितवस्तुदर्श नमात्राद्भवतीति वाच्यम्। यदि पुनरनुमानव्यतिरेकेण सर्वदा प्रवृत्तिर्न भवतीति प्रवर्तकमनुमानमेवेत्यभ्युपगमः। तथा सति प्रत्यक्षेण लिङ्गग्रहणाभावात्तत्राप्यनुमानमेव तनिश्च व्यवहारकारणं तदप्यपरलिङ्गनिश्वयव्यतिरेकेण नोदयमासादयतीत्यनवस्थाप्रसङ्गतोऽनुमान याने कचवृत्तिलक्षणो व्यवहार इत्यभ्यासावस्थायां प्रत्यक्षं स्वत एव व्यवहारकृत् श्रभ्युपेयम् । श्रनुमानं तु तादात्म्यतदुत्पत्तिप्रति " 3 ( ४६३ ) अभिधानराजेन्द्रः । " पमागण वन्धलिङ्गनिश्चयदलन साध्यादुपजायमानत्वादेव त्याप शक्तियुक्तं संवादप्रत्ययोदयात्प्रागेव प्रमाणाऽऽभासविवेकेन निश्चीयतेऽतः स्वत एव । तथाहि यद्यत उपजायते तत्तत्प्रापराशक्तियुक्तम् । तथथा प्रत्यक्षं स्वार्थस्य अनुमेयादुत्प वेदं प्रतिदर्शनद्वाराध्या सिनिमिति शक्तियुकं निधीयत इति मूढं प्रति विषयदर्शनेन विषयी व्यवहारोऽत्र साध्यते । सङ्केतविषयख्यापनेन समये प्रवर्त्त नात् । तथाहि - प्रत्यक्षेऽप्यर्थाव्यभिचारनिबन्धन एवानेन प्रा. माण्यव्यवहारः प्रतिपन्नः । श्रव्यभिचारश्च नान्यस्तदुत्पत्तेः । सैव च ज्ञानस्य प्रापणशक्तिरुच्यते । तदुक्तम्" श्रर्थस्यासंभवेऽभावात्प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणता । प्रतिबद्धस्वभावस्य तद्धेतुत्वे समं द्वयम् ॥ १ ॥ " इति । तस्मात् मूढं प्रति परतः प्रामाण्यव्यवहारः साध्यते । श्रनुमाने प्रामाण्यस्य प्रतिबद्धलिङ्गनिश्चयानन्तरं स्वसाध्यव्यभिवारलक्षणस्य तत उत्पत्वेन प्रत्यक्षसिद्धत्वात् न पर तः प्रामाण्यनिश्चये चक्रकचोद्यस्यावतारः । प्रत्यक्षे तु संवादात्यागधदुत्पत्तिरशक्वनिश्वेति संवादापेक्षवानभ्यासदशायां तस्य प्रामाएपाध्यवसितिर्युक्ता अत उत्पत्ती, स्वकार्ये, शीच सापेक्षत्वस्य प्रतिपादितत्वात् "ये यद्भावं प्रत्यनपेक्षाः " इति प्रयोग हेतोरसिद्धिः । यतश्च संदेहविपर्ययविषयप्रत्ययप्रामाण्यस्य परतो निश्चयो व्यवस्थितोऽतो "ये संदेहविपर्ययाध्यासिततनवः " इति प्रयोगे न व्याप्त्यसिद्धिः । यदप्युक्रम-सर्वप्राणभृतां प्रामाख्यं प्रति संदेहविपर्ययाभावादसिद्धो देतुरित्यादि । तयत्। यतः प्रेक्षापूर्वकारिणः प्रमाणाप्रमारचिन्तायामधिक्रियत नेतरे । ते च कासाचित् ज्ञानव्यीनां दिसंवाददर्शनाजाता शङ्का न ज्ञानमालादेवमे वायमर्थ इति निश्चिन्वन्ति, नापि तद्ज्ञानस्य प्रामाण्यमध्यव स्पन्ति । अन्यथैषां ज्ञायत इति संदेहविषये कथं न संदेहः । तथा कामलाऽऽदिदोषप्रभवे ज्ञाने विपर्ययरूपता:प्यस्तीति तलाद्विपर्ययकल्पना यज्ञाने अप संगवेति प्रकृते प्रयोगे नासिद्धो हेतुरिति भवत्यतो हेतोः परतः प्रामाएसिद्धिः । यदपि प्रमाणतदाभासयोस्तु रूपमित्याद्याशङ्क्याप्रमाणे अवश्यंभावी बाधकप्रत्ययः कारणदोषज्ञानं य इत्यादिना परिहृतम्। तदपि न चापती बाधककारणदीज्ञानं मिथ्याप्रत्ययेऽवश्यंभावि, सम्यक्प्रत्यये तदभावो विशेषः प्रदर्शितः। स तु किं बाधकाग्रहणे, तदभावनिश्चये वा ? | पूर्वस्मिन् पक्ष भ्रान्तरशस्तद्भाये अप तद्ग्रहणं कञ्चित्कालम्,एवमत्रापि तदग्रहणं स्यात् । तत्रैतत् स्याद् भ्रान्तदृशः किञ्चित्कालं तदग्रहेऽपि कालान्तरे बाधकग्रहणम् । सम्य ष्टी तु कालान्तरेऽपि तद्द्महः नन्वेतत्सदिविषयो नाव व्यवहारिणामस्मादृशाम् । बाधकाभावनिश्च योऽपि सम्यग्ज्ञाने किं प्रवृत्तेः प्राक् भवति, उत प्रवृस्युत्तरकालम् ? | यदि पूर्वः पक्षः । स न युक्तः । भ्रान्तः ज्ञानेऽपि तस्य सम्भवात् प्रमाणत्वप्रसक्तिः स्यात् । श्रथ प्रवृग्युत्तरकालं बाधकाभावनिश्चयः । सोऽपि न युक्तः । बाधकाभावनिश्चयमन्तरेव प्रवृतेरुत्पन्नत्वेन तनिश्चयस्याकिञ्चित्करत्यात्म व बाधकाभावनिश्वये प्रवृत्त्युत्तरका लभाविनि विनिमित्तमस्ति । अनुपलब्धिर्निमित्तमिति अ । तस्था असम्भवात्। तथाहि वाधकानुपलब्धिः किं म वृतेः प्राग्भाविनी बाधकाभावनिश्वयस्य प्रत्युत्तरकाल Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६४) अन्निधानराजेन्द्रः। पमागा पमाण भाविनो निमित्तम्, अथ प्रवृत्युत्तरकालभाविनीति विक पराधीनेऽपि चैतस्मि-मानवस्था प्रसज्यते। ल्पद्वयम् ? । तत्र यदि पूर्वः पक्षः स न युक्तः । पूर्वकाला- प्रमाणाधीनमेतद्धि, स्वतस्तश्च प्रतिष्ठितम् ॥२॥ या बाधकानुपलब्धेः प्रवृत्युत्तरकालभावनिश्चयनिमित्तत्वा. प्रमाणं हि प्रमाणेन, यथा नान्येन साध्यने । सम्भवात् । न ह्यन्यकालानुपलब्धिरन्यकालमभावनिश्चयं न सिध्यत्यप्रमाणन्व-मप्रमाणात्तथैव हि।३।" इति स्यान्मतम्। विदधाति । अतिप्रसङ्गात् । नापि प्रवृत्युत्तरकालभाविनी यदप्यन्यानपेक्षामितिभावो बाधकप्रत्ययः, तथाऽन्यबाधबाधकानुपलब्धिस्तनिश्चयनिमित्तम् । प्राक् प्रवृत्तेरुत्तरका- कतया प्रतीत एवान्यस्याप्रमाणतामाधातुं क्षमो नान्यथेति। लं बाधकोपलब्धिन भविष्यतीत्यर्वाग्दर्शिना निश्चेतुमशक्य सोऽयमदोषः । यतःत्वेन, तम्या प्रसिद्धत्वात् । नापि प्रवृत्त्युत्तरकालभावि- "बाधकप्रत्ययस्ताव-दर्थान्यत्वावधारणम् । न्यनुपलब्धिस्तदैव निश्चीयमाना तत्कालभाविबाधकाभाव- सोनपेक्षप्रमाणत्वात् , पूर्वज्ञानमपोहते॥१॥ निश्चयस्य निमित्तं भविष्यतीति वक्तुं शक्यम् । तत्कालभा- तबाऽपि त्वपवादस्य, स्यादपेक्षा क्वचित्पुनः। विनो निश्चयस्याऽकिञ्चिकरत्वप्रतिपादनात् । किं च-बाध- जाताऽऽशकस्य पूर्वेण, साऽप्यन्येन निवर्तते ॥२॥ कानुपलब्धिः सर्वसंबन्धिनी किं तनिश्चयहतुः, उताऽऽत्मसं- बाधकान्तरमुत्पन्न, यद्यस्यान्विच्छतोऽपरम्। बन्धिनीति पुनरपि पक्षद्वयम् ? । यदि सर्वसंबन्धिनीति प- ततो मध्यमबाधेन, पूर्वस्यैव प्रमाणता ॥ ३॥ क्षः । स न युक्तः । तस्या असिद्धत्वात् । न हि सर्वे प्रमातारो अथान्यदप्रयत्नेम, सम्यगन्वेषणे कृते । बाधकं नोपलभन्त इति अग्दिर्शिना निश्वेतुं शक्यम् । अ- सूलाभावान विज्ञानं, भवेद् बाधकबाधनम् ॥ ४॥ थाऽऽत्मसंबन्धिनात्ययमभ्युपगमः।सोऽप्ययुक्तः । आत्मसंब. ततो निरपवादत्वा-त्तेनैवाऽऽधं बलीयसा। न्धिन्या अनुपलब्धेः परचेतोवृत्तिविशेषरनैकान्तिकत्वात्तन्न बाध्यते तेन तस्यैव, प्रमाणत्वमपोद्यते ॥५॥ बाधाभावनिश्चयेऽनुपलब्धिनिमित्तं, नापि संवादो निमित्त एवं परीक्षकशान-त्रितयं नातिवर्तते । म् । भवदभ्युपगमेनानवस्थाप्रसङ्गस्य प्रतिपादित-बात । न ततश्चाजातबाधेन, नाऽऽशक्यं वाधकं पुनः ॥६॥” इति । च याधाभावो विशेषः सम्यक्प्रत्ययस्य सम्भवतीति प्रा- तथाहि-पतेन सर्वेणापि ग्रन्थेन स्वतः प्रामाण्यव्यागेव प्रतिपादितम् । कारणदोषाभावेऽप्ययमेव म्यायो वक्तव्य हतिः परिहता, परीक्षकज्ञानत्रितयाधिकशानानपेक्षयानवइति नासावपि तस्य विशेषः। किं च-कारणदोषबाधका- स्था च । एतद् द्वितयमपि परपक्ष प्रदर्शितं प्राक्तनन्यायेन । भावयोर्भवदभ्युपगमेन कारणगुणसंवादकप्रत्ययरूषत्वस्य यच्चान्यत् पूर्वपते परतः प्रामाण्ये दूषणमभिहितम् तप्रतिपादनात् तनिश्चये तस्य विशेषेऽभ्युपगम्यमाने परतः चाऽनभ्युपगमेन निरस्तमिति न प्रतिपदमुच्चार्य दृष्यते । प्रामाण्यनिश्चयोऽभ्युपगत एव स्यात् । न च सोऽपि युक्तः। प्रेरणाबुद्धस्तु प्रामाण्यं न साधननिर्भासि प्रत्यक्षस्येव सं. अनवस्थादोषस्य भवदभिप्रायेण प्राक् प्रतिपादितत्वात् । य- वादात्तस्य तस्यामभावात् । नाप्यव्यभिचारिलिहनिश्चयबदप्युक्तम्-"एवं त्रिचतुरज्ञान" इत्यादि । तत्रैकस्य शान- लात्स्वसाध्यादुपजायमानत्वादनुमानस्येव । किंच-प्रेरणाप्रस्य प्रामाण्य, पुनरप्रामाण्यं, पुनः प्रामाण्यम्, इत्यवस्थात्रय- भवस्य चेतसः प्रामाण्यसिद्धयर्थ स्वतः प्रामाण्यप्रसाधनदर्शनाद्वाधके, तद्बाधकाऽऽदो वाऽवस्थात्रयमाशङ्कमानस्य प्रयासोऽयं भवताम् । चोदनाप्रभवस्य च ज्ञानस्य न केवकथं परीक्षकस्य नापरापेक्षा, येनानवस्था न स्यात् ?। यद- लं प्रामाण्यं न सिद्धयति, किं त्वप्रामाण्यनिश्चयोऽपि तव प्युक्तम्-'अपेक्षातः' इत्यादि । तदप्यसङ्गतम् । यतो नाऽयं न्यायेन संपद्यते । तथाहि-यद् दुष्टकारणजनितं शानं. न तछलव्यवहारः प्रस्तुतो, येन कतिपयप्रत्ययमात्रं निरूप्यते ।न प्रमाणम् यथा तिमिराऽऽापद्रवोपहतचक्षुरादिप्रभवं ज्ञानम, हि प्रमाणमन्तरेण बाधकाऽऽशङ्कानिवृत्तिः। न चाऽऽशङ्का- दोषवत्प्रेरणावाक्यजनितं च-"अाग्नहोत्रं जुहुयाद्" इत्या. च्यावर्तकं प्रमाणं भवदभिप्रायेण संभवतीत्युक्तम् । तथा कार. दिवाक्यप्रभवं ज्ञानमिति कारणविरुद्धोपलब्धिः। न चाणदोषशानेऽपि पूर्वेण जाताऽऽशङ्कस्य कारणदोषज्ञानान्तरा- सिद्धो हेतुः। भवदभिप्रायेण प्रेरणायां गुणवतो वक्तुरभावे, पेक्षायां कथमनवस्थानिवृत्तिः ? । कारणदोषज्ञानस्य तत्का- तद्गुणैरनिराकृतैर्दोषैर्जन्यमानत्वस्य प्रेरणाप्रभवे ज्ञाने सिरगदोषग्राहकज्ञानाभावमात्रतः प्रमाणत्वान्नात्राऽनवस्था । द्धत्वात् । अथ स्यादयं दोषो यदि वक्तगुणैरेव प्रामाण्यापयदाह-"यदा स्वतः प्रमाणत्वं, तदाऽन्यन्नैव मृग्यते । नि- वादकदोषाणां निराकरणमभ्युपगम्यते । यावता वक्तुरभावर्तते हि मिथ्यात्वं, दोषाशानादयत्नतः ॥१॥” इति । वेनाऽपि निराश्रयाणां दोषाणामसद्भावोऽभ्युपगम्यत एव । पतच्चानुद्धोष्यम् । प्रागेव विहितोत्तरत्वात् । न च दो. तदुक्तम्पाशानाहोषाभावः । सत्स्वपि दोषेषु तदज्ञानस्य संभवा "शब्दे दोषोद्भवस्ताव, वक्त्रधीन इति स्थितम् । त् । सम्यग्ज्ञानोत्पादनशक्तिवपरीत्येन मिथ्याप्रत्ययोत्पा तदभावः कचित्तावद् , गुणवद्वक्तृकत्वतः॥१॥ दनयोग्यं हि रूपं तिमिराऽऽदिनिमित्तमिन्द्रियदोषः। स चा तद्गुणैरपकृष्टानां, शब्दे संक्रान्त्यसम्भवात् । तीन्द्रियत्वात्सन्नपि नोपलक्ष्यते । न च दोषा ज्ञानेन व्या यद्वा वक्तरभावेन. न स्युर्दोषा निराश्रयाः॥२॥” इति । साः, येन तलिवृश्या निवत्तरन् । दोपाभावशाने तु सं. वादाऽऽद्यपेक्षायां सैवाग्नवस्था प्राक् प्रतिपादिता । एतेनैत-| भवेदप्येवं, यद्यपौरुषेयत्वं कुतश्चित्प्रामाण्यात्सिद्धं स्यात् । तच्चन सिद्धम् । तत्प्रतिपादकप्रमाणस्य निषेत्स्यमानत्वात् । दपि निराकृतम् । यदुक्तं भट्टेन अत एव चेदमप्यनुद्धोध्यम्-" तत्रापवादनिर्मुक्ति-वक्त्र"तस्मात्स्वतः प्रमाणत्वं, सर्वत्रौत्सर्गिकं स्थितम् । भावालधीयसी । बेदे तेनाप्रमाणत्वं, नाऽऽशङ्कामपि गच्छति बाधकारण दुष्टत्व-शानाभ्यां तदपोयते ॥१॥ ॥१॥" तेन गुणवतो वक्लरनभ्युपगमाद्भवद्भिः, अपौरुषे. Jain Education Interational Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६५ ) अभिधानराजेन्द्रः | पमाण यत्वस्य वासम्भवात् अनिराकृतेर्जन्यमानत्वं हेतुः प्रेरणाप्रभवस्य चेतसः सिद्धः दोषजन्यत्वात्रा मारावयोरविनामावस्यापि मिथ्याज्ञानेऽन्यत्न निश्चितत्वात् तद्विरुद्धत्वानैकान्तिकत्वयोरप्यभाव इति भवत्यतो देती भ , 9 ज्ञाने प्रामाण्वाभावसिद्धिः किं च प्रामात्रे वि सति, कि, तत् प्रामाख्यं स्वतः परतो वेति चिन्ता युक्तिमती । भवदभ्युपगमेन तु तदेव न संभवति । तथाहि शातृव्यापारः प्रमाणं भवताऽभ्युपगम्यतेन वाऽसौ युक्तः । तमाहकप्रमाणाभावात्। तथादि- प्रत्यक्षं वा तड्राहकम्, अनुमानम् श्रन्यद्वा प्रमाशान्तरम् ? । तत्र यदि प्रत्यक्षं तद्राहकमभ्युपगम्येत, तदाऽत्रापि वक्तव्यम्-स - स्वसंवेदनं, नं, बाह्येन्द्रियजं, मनःप्रभयं वा ? । न तावत्स्वसंवेदनं तद्राहकम्। भवता तद्ग्राह्यत्वानभ्युपगमात्तस्य । नाऽपि वाद्येन्द्रियम् इन्द्रियाणां स्वजन कत्वाभ्युपगमात् । न च ज्ञातृव्यापारेण सह तेषां संबन्धः । प्रतिनियतरूपाऽऽदिविषयत्वात् नापि मनोजन्यं प्रत्यक्षं शातृव्यापारलक्षणप्रमाण प्रादकम्। तथाप्रतीत्यभावात् अन भ्युपगमाच्च । श्रथानुमानं तद्माहमभ्युपगम्यते । तदप्ययुक्तम् । यतोऽनुमानमपि ज्ञातसंबन्धस्यैकदेशदर्शनादसनि बुद्धिरित्येयं लक्षमभ्युपगम्यते। संचा न्यसंबन्धव्युदासेन नियमलक्षणोऽभ्युपगम्यते । यत उक्लब"संबन्धो हि न तादात्म्यलक्षण गम्यगमकभावनिबन्धनम्।" ययोर्हि तादात्म्यं न तयोः गम्यगमकभावः तस्य भेदनिबधनत्वात् । श्रभेदेवा, साधनप्रतिपत्तिकाल एव साध्यस्याऽपि प्रतिपन्नत्वात् कथं गम्यगमकभावः ? । श्रप्रतिपत्तौ वा, यस्मिन् प्रतीयमाने यन प्रतीयते तत्ततो भिनं, यथा घटे प्रतीयमानेऽप्रतीयमानः पटः । न प्रतीयते चेत्साधनप्रतीतिकाले साध्यं तदा तत्ततो भिन्नमिति कथं तयोस्तादा रम्यम् । किं च यदि तादात्म्यङ्गम्यगमकभावोऽभ्युपगम्यते, तदा तादायाविशेषायथा प्रयज्ञानन्तरीयकत्वमनित्यत्वस्य गमकम्, तथाऽनित्यत्वमपि प्रयत्नानन्तरीयकत्वस्य गम कं स्यात् । श्रथ प्रयत्नानन्तरीयकत्वमेव श्रनित्यत्वनियतत्वेन निश्चितं नाऽनित्यत्वं तनियतत्वेनः निश्चयापेक्षश्च गम्यगकभाव इति, तर्हि - " यस्मिन्निश्चीयमाने यन निश्चीयते । इत्यादि पूर्वोक्रमेव दूषणं पुनरापतति । अपि च प्रवनन्द रीयकत्वमेव, अनित्यत्वनियतत्वेन निश्चितमिति वदता स यवास्मद्भ्युपगतो नियमः संबन्धोऽभ्युपगतो भवति । नापि तदुत्पत्तिः संबन्धी गम्यगमकभावनिबन्धनम् । तथाऽभ्युपगमे वक्तृत्वाऽऽदेरप्य सर्वशत्वं प्रति गमकत्वं स्यात् । श्रथ सर्वशत्वे, वक्तृत्वाऽऽदेर्वाधकप्रमाणाभावात्सर्वशत्वादिभ्यो देव्यवृत्तिः संदिग्वेति संदिग्धविपक्षव्यावृ किराचार्य गमक तर्हि धूमस्याप्यननी वाचकप्रमाणाभा वात्ततो व्यावृत्तिः संदिग्धेति संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वाद प्रति गमकत्वं न स्यात् । श्रथ" कार्ये धूमो हुतभुजः, कार्यधर्मानुवृतिः स तदभावेऽपि भवन् कार्यमेव न स्यात् । " इत्यनग्नी धूमस्य सद्भाववाचकं प्रमाणं विद्यत इति नाऽसी संदिग्धविपक्ष व्यावृतिकः तचैतत् प्रकृतेऽपि व क्त्वाऽऽदी समानमिति तस्याऽप्य सर्वशत्वं प्रति गमकत्वं स्यात् । किं च कार्यत्वे सत्यपि वक्तृत्वाऽऽदेः, संदिग्धवि पक्ष व्यावृतिकत्वेना सर्वशत्वं प्रत्यनियतत्वात् वयगमक त िस एवाभ्युपगतो नियमलक्षणः संबन्धोऽभ्युपग ११७ पमाण तो भवति । श्रपि च तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षण संबन्धाभावेऽपि नियमलक्षण संवन्धप्रसादात्, कृत्तिकोंदयचन्द्रोद्गमनाद्यतनसहित एडपिपीलिकोत्सर्पगी कानफलोपलभ्य मानमधुररसस्वरूपाणां हेतूनां यथाक्रमं भाविशकटोदयस मानसमयसमुद्रवृद्धिश्वस्तनभानुदयभाविवृष्टितत्समानकाससिन्दूरारुणरूपस्वभावेषु साध्येषु गमकत्वं सुप्रसिद्धम् । संयोगाऽऽदिलक्षणस्तु संघग्यो भवतेव साध्यप्रतिपादनागत्वेन निरस्त इति तं प्रति न प्रयस्यते । " " एवं परोकसंवन्ध-प्रत्याख्याने कृते सति । नियमो नाम संबन्धः, स्वमतेनोच्यते ऽधुना ॥ १ ॥ कार्यकारणभावाऽऽदि संबन्धानां द्वयी गतिः । नियमनियमाभ्यां स्यादनियमादवद्वता ॥ २ ॥ सर्वेऽप्यनियम होते, नानुमत्पत्तिकारणम्। नियमात्केवलादेव न किश्चिन्नानुमीयते ॥ ३ ॥ " इत्यादि । स च संबन्धः किमन्वयनिश्वयद्वारेण प्रतीयते, उत व्य. तिरेकनिश्वयद्वारेणेति विकल्पइयम् । तत्र यदि प्रथमो विकल्पोऽभ्युपगम्यते तत्रापि पव्यम् किं प्रत्यान्यपनिश्वयः, उतानुमानेनेति । न तावत्प्रत्यक्षेणान्वयनिश्च यः । अन्वयस्य हि रूपं तद्भावे एव भावः । न च शातृव्यापारस्य प्रमाणत्वेनाभ्युपगतस्य प्रत्यक्षेण सद्भावः शक्यते ग्रहीतुम् । तज्राहकत्वेन प्रत्यक्षस्य पूर्वमेव निषेद्धत्वात् त्वयाऽनभ्युपगमाच्च । नाऽपि ज्ञातृव्यापारसद्भावे एवार्थप्रकाशनलक्षणस्य हेतोः सद्भावः प्रत्यक्षेण ज्ञातुं श। तस्यापीन्द्रियव्यापारजे प्रत्यक्षेण प्रतिपरा है।। तदशक्रिश्य, अक्षाणां तेन सह संबन्धाभावात् । नाऽपि स्वसंवेदनलक्षणेन प्रत्यदोग पूर्वोकस्य हेतोः सद्भायः शक्यो निश्चेतुम् | भवदभिप्रायेण तत्र तस्याव्यापारात् । तच प्रत्यक्षेण साध्यसद्भावे एव हेतुसद्भावलक्षणोऽन्वयो निश्वेतुं शक्यः । नाप्यनुमानेन तनिश्चयः । अनुमानस्य निश्चितान्वयहेतुप्रभवत्वाभ्युपगमात् । न च तस्याऽन्वयः प्रत्यक्षल मधिगम्यः । पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गात् । श्रनुमानात्तनिश्वये ऽनवस्थेतरेतराऽऽश्नयदोषावनुषज्येते इति प्रागेव प्रतिपादितम् । न च प्रत्यक्षानुमानम्यतिरिकं प्रमाणान्तरं सम्भवति । तन अन्वयनिश्धपद्वारे शाब्यापारे साध्ये पूर्वोकय देवोनिय मलक्षणः संबन्धो निश्चेतुं शक्यः । नाऽपि व्यतिरेकनिश्चयद्वारेण । यतो व्यतिरेकः साध्याभावे हेतोरभाव एवेत्येवंस्वरूपः । न च प्रकृतस्य साध्यस्याभावः प्रत्यक्षेण समधिगम्यः । तस्याऽभावविषयत्वविरोधादनभ्युपगमात् श्रभाषप्रमाण वैयर्थ्याप्रसङ्गाव्य नानुमानादिसद्भावग्राहकप्रमाणनिश्वेयः । अत एव दोषात् । अथादर्शननश्यति पक्षः सोऽपि न युक्तः यतो दर्शनं किमनुपलम्भरूपम् श्राहोस्विदभावप्रमाणस्वरूपमिति वक्तव्यम् ? । तत्र यद्याद्यः पक्षः। सन युक्तः यतोऽत्रापि वक्तव्यम् । श्रनुपलम्भः किं दृश्यानुपलम्भीऽभिप्रेतः, आहोस्विदश्यानुपलम्भ इति । तत्र पथदृश्यानुपलम्भः प्रकृतसाध्याभावनिश्चायकोऽभिप्रेतः। तदाब्राऽपि कल्पनाद्वयम् कि स्वसंवन्ध्यनुपलम्भस्तरियायकः, उत सर्वसंबन्धी ? | यद्यात्मसंबन्धी तनिश्चायकः । स न युक्तः । परचेतोवृत्तिविशेषैस्तस्याऽनैकान्तिकत्वात् । अथ सर्वसंधी अनुपलम्भस्तभिश्वापक इत्यभ्युपगमः। अ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमागा अनिधानराजेन्द्रः । पमाण यमप्ययुक्तः । सर्वसंवन्धिनोऽनुपलम्भस्याऽसिद्धत्वात् । अथ | न्यथा तत्र व्यापकवृत्त्यनिश्वये राश्यन्तरे क्षणिकाक्षणिदृश्यानुपलम्भस्तनिश्वायक इति पक्षः । सोऽप्यसङ्गतः। | करूपे तस्याऽऽशङ्कद्यमानत्वेन तद्व्याप्यस्याऽपि नैकान्तयतो दृश्यानुपलम्भश्चतुर्द्धा व्यवस्थितः-स्वभावानुपल- तः क्षणिकनियतत्वनिश्चयः। न च प्रकृतसाध्येऽयं न्यायः । म्भः, कारणानुपलम्भो, व्यापकानुपलम्भो, विरुद्धविधिश्चे- तस्यात्यन्तपरोक्षत्वेन हेतुब्यापकभावान्तराधिकरणन्यासिति । तत्र यदि स्वभावानुपलम्भस्तनिश्चायकत्वेनाभिमतः। द्धेः । तन्न व्यापकानुपलम्भनिमित्तोऽपि विपक्षे साधसन युक्ता स्वभावानुपलम्भस्यैवंविधे विषये व्यापारासम्भ- नामावनिश्वयः । नाऽपि विरुद्धोपलब्धिनिमित्तः । प्रकृतवात्। तथाहि-एकज्ञानसंसर्गिणस्तुल्ययोग्यतास्वरूपस्य भा- साध्यस्यात्यन्तपरोक्षत्वेन तदप्रतिपत्ती तदभावनियतविपान्तरस्याभावव्यवहारसाधकत्वेन पर्युदासवृत्त्या तदन्य- पक्षस्याप्यप्रतिपत्तितस्तेन सहार्थप्रकाशनलक्षस्य हेतोः सज्ञानस्वभावोऽसावभ्युपगम्यते । न च प्रकृतस्य साध्यस्य हानवस्थानलक्षणविरोधाऽसिद्धेः । परम्परपरिहारस्थितकेनचित्सहकज्ञानसंसर्गित्वं सम्भवतीति नाऽत्र स्वभावानुप- लक्षणस्तु विरोधोऽन्योन्यव्यवच्छेदरूपयोरर्थप्रकाशनाप्रलम्भस्य व्यापारः । नाऽपि कारणानुपलम्भः प्रकृतसा- काशनयोः सम्भवति, न पुनरर्थप्रकाशनशातृव्यापारयोः श्रध्याभावनिश्चायकः । यतः-सिद्ध कार्यकारणभावे कारणा- न्योऽन्यव्यवच्छेदरूपत्वाभावात् । नापि मातृव्यापारनियनुपलम्मः कार्याभावनिश्चायकत्वेन प्रवर्तते । न च प्रकृतस्य तत्वादर्थप्रकाशनस्य साध्यविपक्षेण विरोध इति शक्यमभिसाध्यस्य केनचित्सह कार्यत्वं निश्चितम् । तस्याऽदृश्यत्वेन धातुम् । अन्योन्याश्रयदोषप्रसक्ने। तथाहि-सिद्धे तन्नियतप्रागेव प्रतिपादनात् । प्रत्यक्षानुपलम्भनिबन्धनश्च कार्यका- त्वे तद्विपक्षविरोधसिद्धिः,तत्सिद्धेश्च तन्नियतत्वसिद्धिरिति रणभाव इति कारणानुपलम्भोऽपि न तन्निश्चायकः। व्या- स्पष्ट एवेतरेतराऽऽश्रयो दोषः। तन्न विरुद्धोपलब्धिनिमित्तोऽपि पकानुपलम्भस्तु सिद्धे व्याप्यव्यापकभावे व्याप्याभावसाध. विपक्षे साधनाभावनिश्चयः। अथादर्शनशब्देनाभावाऽऽख्य कोऽभ्युपगम्यते। न च प्रकृतसाध्यव्यापकत्वेन कश्चित्पदार्थो प्रमाणं व्यतिरेकनिश्चयनिमित्तमामिधीयते । तदप्यनुपपन्नम्। निश्चेतुं शक्यः । प्रकृतसाध्यस्यादृश्यत्वप्रतिपादनात् । तन्न तस्य तन्निमित्तत्वासंभवात् । तथाहि-निषेध्यविषयप्रमाणपव्यापकानुपलम्भोऽपि तन्निश्चायकः। विरुद्धोपलब्धिरप्यत्र ञ्चकस्वरूपतयाऽऽत्मनोऽपरिणामरूपं वा तदभ्युपगम्येत,तदविषये न प्रवर्तते । तथाहि-एको विरोधोऽविकलकारणस्य | यवस्तुविषयज्ञानरूपं वा। गत्यन्तराभावात् । तदुक्तम्-'प्रत्यभवतोऽन्यभावेऽभावात्सहानवस्थानलक्षणो निश्वीयते,शी- क्षाऽऽदेरनुत्पत्तिः,प्रमाणाभाव उच्यते।साऽऽत्मनोऽपरिणामो तोष्णयोरिव । विशिष्टात् प्रत्यक्षात् । न च प्रकृतं साध्यमवि- वा,विज्ञानं वाम्यवस्तुनि॥१॥"तत्र यदि निषेध्यविषयप्रमाणपकलकारणं कस्यचिद्भावे निवर्तमानमुपलभ्यते । तस्यादृश्य- श्वकरूपत्वेनात्मनोऽपरिणामलक्षणमभावाऽऽख्यप्रमाणं सात्वादेव । द्वितीयस्तु परस्परपरिहारस्थितिलक्षणः । सोऽपि धनाभावनियतसाध्याभावस्वरूपव्यतिरेकनिश्चयनिमित्तमिलक्षणस्य स्वरूपव्यवस्थापकधर्मरूपस्य दृश्यत्वाभ्युपगमनि त्यभ्युपगमः। स न युक्तः। तस्य समुद्रोदकपलपरिमाणेनानैकाष्ठो, दृश्यत्वाभ्युपगमनिमित्तप्रमाणनिबन्धनो न प्रकृतसाध्य- न्तिकत्वात् । श्रथान्यवस्तुविषयविज्ञानस्वरूपमभावाऽख्यं प्रविषये संभवति ! टन्न ततोऽपि प्रस्तुतसिद्धिः । तन्न साध्य- माणं व्यतिरेकनिश्चयानाम जमिति पक्षः । सोऽपि न युक्तः । स्याभावमिश्चयोऽनुपलम्भनिबन्धनः। साधनाभावनिश्चयोऽ- विकल्पैरनुपपत्तेः । तथाहि-किं तत्साध्यनियतसाधनखपि नादृश्यानुपलम्भनिमित्तः। उक्नदोषत्वात् । दृश्यानुपलम्भ- रूपादन्यद्वस्तु, यद्विषयं ज्ञानं तदन्यज्ञानमित्युच्यते ?। यदि निमित्तत्वेऽपि, न स्वभावानुपलम्भस्तन्निमित्तम् । उद्दिष्ट- यथोक्तसाधनस्वरूपव्यतिरिक्त पदार्थान्तरं, तदा वक्तव्यम्विषयाभावव्यवहारसाधकत्वेन तस्य व्यापाराभ्युपगमात् । तदेकज्ञानसंसर्गि, साधनेन सह, उतान्यथेति । यदि यथोक्तअनुहिएविषयत्वेऽपि, यत्र यत्र साध्याभावस्तत्र तत्र साध- साधनेनैकशानसंसर्गि तदा तद्विषयशानासिध्यति, यथोक्तनाभाव इति, एवं न ततः साधनाभावनिश्चयः । तनिश्च- साधनस्याभावनिश्चयः प्रतिनियतविषयः । किं तु यत्र यत्र यश्च नियमनिश्वयहेतुरिति न स्वभावानुपलम्भोऽपि त. साध्याभावस्तत्र तत्रावश्यंतया साधनस्याप्यभाव इत्येवनियमहेतुः । नापि कारणानुपलम्भः । यतः कारणं शात- म्भूतो व्यतिरेकनिश्चयो न ततः सिद्धयति । सर्वोपसंहारेण व्यापार एवार्थप्रकटतालक्षणस्य हेतोर्भवताऽभ्युपगम्यते । साधनाभावनियतसाध्याभावनिश्चयस्य हेतोः साध्यनियन चाम्सौ प्रत्यज्ञसमधिगम्य इति कुतस्तस्य सम्प्रति का. तत्वलक्षणनियमो निश्चायक इति नैकज्ञानसंसर्गिपदार्थान्तरणत्वावगम इति न कारणानुपलम्भोऽपि तदभावनिश्च- रोपलम्भादभावाऽऽख्यात्प्रमाणाद्यतिरेकनिश्चयः । अथ तदयहेतुः । व्यापकानुपलम्भेऽप्ययमेव न्यायः । यतो व्याप- संसर्गि पदार्थान्तरोपलम्भस्वरूपमभावाऽऽख्यं प्रमाण,साध्याकत्वमपि पूर्वोक्तहेतुं प्रति ज्ञातृव्यापारस्यैवाभ्युपगन्तव्य- भाव साधनाभावनिश्चयनिमित्तम् । तदप्यसंबद्धम् । अतिम् । अन्यथाऽम्यस्य व्यापकत्वे साध्यविपक्षाद् व्यापकनिवृ. प्रसङ्गात् । न हि पदार्थान्तरोपलम्भमात्रादन्यस्य तदतुल्यसिद्वारेण निवर्तमानमपि साधनं न साध्यनियतं स्यात् । श्र. योग्यतारूपस्य तेन सहैकज्ञानासंसर्गिणः पदार्थान्तरस्याथ यथा सवलक्षणो हेतुः क्षणिकत्वलक्षणसाध्यव्यतिरिक्त- भावनिश्चयः। अन्यथा सह्योपलम्भाद्विन्ध्याभावनिश्चयः स्यात्। क्रमयोगपद्यस्वरूपपदार्थान्तरव्यापकानवृत्तिद्वारेण, अक्षाण- श्रथ तथाभूतसाधनादन्यस्तभावः, तद्विषयं ज्ञानं तदन्यकलक्षणाद्विपक्षाद्यावर्त्तमानः स्वसाध्यनियतः, तथा प्रक ज्ञानं, तद्विपक्षे साधनाभावनिश्चयनिमित्तम् । ननु तदपि तोऽपि हेतुर्भविष्यति । असम्यगेतत् । यतस्तत्रापि यद्य- ज्ञानं किं यत्र यत्र साध्याभावस्तत्र तत्र साधनाभाव इत्येवं र्थक्रियालक्षण सत्वव्यापके क्रमयोगपद्ये कुतश्वित्प्रमाणा- प्रवर्तते, उत कचिदेव साध्याभावे साधनाभाव इत्येवम् । रक्षणिके सिद्धे भवतस्तदा तन्निवृत्तिद्वारेण विपक्षात् व्या- तत्र यद्याद्यः कल्पः । स न युक्तः । यथोक्नसाधनविविक्त्रसर्ववर्तमानोऽपि सवलक्षणो हेतुः स्वसाध्यनियतः स्यात् । अ.। प्रदेशकालप्रत्यक्षीकरणमन्तरेण एवम्भूतज्ञानोत्पत्यसंभवात्। Jain Education Interational Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६७) पमाण अन्निधानराजेन्दः । पमागा सर्वदेशप्रत्यक्षीकरणे च कालादिविप्रकृष्टानन्तप्रदेशप्रत्यक्षी ग्यभावस्य गृहीतत्वात्तत्राभावाऽऽख्य प्रमाणं प्रवर्तमानं व्यकरणवत्स्वभावाऽदिव्यवहितसर्वपदार्थसाक्षान्करणात्स एव र्थम् । श्रथ प्रतियोग्यसंसृष्टताऽवगमो वस्वन्तरस्याभावप्रसर्वदर्शी स्यादित्यनुमाऽऽनाश्रयणं सर्वज्ञाभावप्रसाधनं चा माणसंपाद्यः; तर्हि तदप्यभावाख्यं प्रमाणं प्रतियोग्यसंस प्रवस्त्वन्तरग्रहणे सति प्रवर्तते । तदसंसृष्टताऽवगमश्च पु. नुपपन्नम् । अथ द्वितीयपक्षाभ्युपगमः , तदा भवति ततः प्रतिनियते प्रदेश साध्याभावे साधनाभावनिश्चयः, घटवि नरप्यभावप्रमाण संपाद्य इत्यनवस्था । तथा प्रतियोगिनोडविक्तप्रत्यक्षप्रदेश इव घटाभावनिश्चयः, किं तु तथाभूता पि स्मरणं किं वस्वन्तरसंसृष्टस्य, अथाऽसंसृष्टस्य ?। यदि साध्याभावे साधनाभावनिश्चयान्न व्यतिरेको निश्चितो भव संसृष्टस्य, तदा नाभावप्रमाणप्रवृत्तिरिति पूर्ववद्वाच्यम् । ति । साधनाभावनियतसाध्याभावस्य सर्वोपसंहारण निश्च अथासंसृष्टस्य स्मरणम् । ननु प्रत्यक्षेण वस्त्वन्तरासंसृष्टस्य ये, व्यतिरेको निश्चितो भवति । अन्यथा यत्रैव साध्याभा प्रतियोगिनो ग्रहणे, तथाभूतस्य तस्य स्मरणं, नान्यथा । वे साधनाभावो न भवति तत्रैव साधनसद्भावेऽपि न सा प्रत्यक्षेण च पूर्वप्रवृत्तेन वस्त्वन्तरासंसृष्टप्रतियोगिग्रहणे ध्यमिति, न साधनं साध्यनियतं स्यादिति व्यतिरेकान पुनरप्यभावप्रमाणपरिकल्पनं व्यर्थम् "वस्त्वसङ्करसिद्धिश्च, चयनिमित्तो न हेतोः साध्यानयमनिश्चयः स्यात् । तन्न द्वि तत्प्रामाण्यसमाथया।" इत्यभिधानात्तदर्थ तस्य परिकल्पनतीयोऽपि पक्षः । अथ न प्रकृतसाधनाभावज्ञानं तद्विवि म् । तच्च प्रत्यक्षेणैव कृतमिति तस्य व्यर्थता। अथात्राक्नसमस्तप्रदेशोपलम्भनिमित्तं, येन पूर्वोक्लो दोषः, किंतु प्यभावप्रमाणसंपाद्यः प्रतियोगिनो वस्त्वन्तरासंसृष्टताग्रहः, तद्विषयप्रमाणपञ्चकनिवृत्तिनिमित्तम् । तदुक्तम्-"प्रमाण तर्हि तथाभूतप्रतियोगिग्रहणे तथाभूतस्य स्मरणं, तत्सपञ्चकं यत्र, वस्तुरूपे न जायते। वस्त्वसत्ताऽवबोधार्थ, त द्भावे चाभावप्रमाणप्रवृत्तिः, तत्प्रवृत्तौ च तस्यासंसृष्टतात्राऽभावप्रमाणता ॥१॥" नन्वत्राऽपि वक्तव्यम्-कि स ग्रहः, तद्हे च स्मरणमित्येवं चक्रकचोद्यं भवन्तमनुबध्नादेशकालावस्थितसमस्तप्रमातृसंबन्धिनी तन्निवृत्तिः तथा ति । नाऽपि वस्तुमात्रस्य प्रत्यक्षेण ग्रहणमित्यभिधातुं भूतसाधनाभाव ज्ञाननिमित्तम् । उत प्रतिनियतदेशकालाव शक्यम् । तथाऽभ्युपगमे, तस्य वस्त्वन्तरत्वासिद्धेः । प्रस्थितात्मसम्बन्धिनीति कल्पनाद्वयम्। तत्र यद्याद्या कल्प तियोगिनोऽपि प्रतियोगित्वस्येति न प्रतियोगिनो नियतमा। सा न युक्ता। तथाभूतायास्तनिवृत्तेरसिद्धत्वात् । न रूपस्य स्मरणमिति सुतरामभावप्रमाणोत्पच्यभावः । कि चासिद्धावपि तथाभूतज्ञाननिमित्तम् । अतिप्रसङ्गात् । स च-यदि, अभावाऽऽख्यं प्रमाणमभावग्राहकमभ्युपगम्यते; घस्यापि तथाभूतज्ञाननिमित्तं स्यात् । केनचित्सह प्रत्या तदा तमेव प्रतिपादयतुः प्रतियोगिनस्तु निवृत्तिः कथं तेन सत्तिविप्रकर्षाभावात् , अनभ्युपगमाच्च । न हि परेणाऽपि प्रतिपादिता स्यात् । अथाऽभावप्रतिपत्ती तन्निवृत्तिप्रतिपप्रमाणपञ्चकनिवृत्तेरसिद्धाया अभावज्ञाननिमित्तताऽभ्युप त्तिः । ननु साऽपि निवृत्तिः प्रतियोगिस्वरूपा संस्पर्शिनी, गता । कृतयत्नस्यैव प्रमाणपञ्चकनिवृत्तेरभावसाधनत्वप्र ततश्च तत्प्रतिपत्ती, पुनरपि कथं प्रतियोगिनिवृत्तिसिद्धिः?। तिपादनात् । “गत्वा गत्वा तु तान् देशान् , यद्यों नोप तन्निवृत्तिसिद्धेरपरतन्निवृत्तिसिद्धश्वभ्युपगमे, अपरा तन्निलभ्यते । तदायकारणाभावा-दसन्नित्यवगम्यते ॥१॥" इत्य वृत्तिस्तथाऽभ्युपगमनीयेत्यनवस्था । किं च-अभावप्रतिभिधानात् । न चेन्द्रियाऽऽदिवदज्ञाताऽपि प्रमाणपञ्चकनिवृ. पत्ती प्रतियोगिस्वरूपं किमनुवर्तते, व्यावर्त्तते वा ? । श्रनुत्तिरभावशानं जनयिष्यतीति शक्यमभिधातुम् । प्रमाणपञ्च वृत्ती, कथं प्रतियोगिनोऽभावः । व्यावृत्ती, कथं प्रतिषेधः कनिवृत्तेस्तुच्छरूपत्वात् । न च तुच्छरूपाया जनकत्वम् ।। प्रतिपादयितुं शस्यः?। तद्विविक्तप्रतिपत्तेस्तत्प्रतिषेध इति भावरूपताप्रसक्तः । एवंलक्षणस्य भावत्वात् । तन्न सवे चेन्न । तदप्रतिभासने तद्विविक्तताया एव प्रतिपत्तमशक्त। संबन्धिनी प्रमाणपञ्चकनिवृत्तिर्विपक्षे साधनाभावनिश्चय प्रतियोगिप्रतिभासात् नायं दोष इति चेत् । क्व तर्हि विनिबन्धनम् । नाऽप्यात्मसंबन्धिनी तन्निमित्तम् । यतः सा शाने तस्य प्रतिभासः । यदि प्रत्यक्षे । न युक्तः । तत्सऽपि किं तादात्विकी, अतीतानागतकालभवा वा । न पूर्वा । द्भावसिद्धया तन्निवृत्यसिद्धेः । स्मरणे तस्य प्रतिभास इतस्या गङ्गापुलिनरेणुपरिसंख्यानेनानैकान्तिकत्वात् ।नोत्तरा। ति चन्न । तत्राऽपि येन रूपेण प्रतिभाति, न तेनाभावः तादात्विकस्यात्मनस्तनिवृत्तेरसंभवात्,असिद्धत्वाञ्च । तन्न येन न प्रतिभाति न तेन निषेधः तदेवं यदि प्रतियोगिश्रात्मसंबन्धिन्यपि प्रमाणपञ्चकनिवृत्तिस्तज्ज्ञानोत्पत्तिनिमि स्वरूपादन्योऽभावः, तपाऽपि तत्प्रतिपत्तौ न तन्निवृत्तिसित्तम्। तन्न अन्यवस्तुविज्ञानलक्षणमप्यभावाऽऽख्यं प्रमाणं व्य द्धिः । अनन्यत्वेऽपि तत्प्रतिपत्ती प्रतियोगिनः प्रतिपन्नतिरेकनिश्चयनिमित्तम्। यच्च-"गृहीत्वा वस्तुसद्भावं,स्मृत्वा । त्वात् न निषेधः । अपि च-तदभावाऽऽख्य प्रमाणं निश्चिप्रतियोगिनम्। मानसं नास्तिताशान,जायतेऽक्षानपेक्षया॥१॥" तं सत्, प्रकृताभावनिश्चयनिमित्तत्वेनाभ्युपगम्यते. श्राइत्यभावप्रमाणात्पत्ती निमित्तप्रतिपादनम् । तत्र किं वस्त्व होस्वित् अनिश्चितमिति विकल्पद्वयम् ?। यद्यनिश्चितमिन्तरस्य प्रतियोगिसंसृष्टस्य ग्रहणम् , श्राहोस्वित् असं ति पक्षः । स न युक्तः । स्वयमव्यवस्थितस्य खरविषाणाss. सृष्टस्य ?। तह यद्याद्यः पक्षः । स न युक्तः। प्रतियोगिसंसृ देरिव अन्यनिश्चायकत्वायोगात् । इन्द्रियाऽऽदेस्त्वनिश्चितटवस्त्वन्तरस्य प्रत्यक्षेण ग्रहणे, प्रतियोगिनः प्रत्यक्षेण व स्यापि रूपाऽऽदिज्ञानं प्रति कारणत्वात् निश्चायकत्वं युक्तम् न स्त्वन्तरे ग्रहणात् , नाभावाऽऽख्यप्रमाणस्य तत्र तदभावना पुनरभावप्रमाणस्य । तस्यापरशानं प्रति कारणत्वासम्भहकत्वेन प्रवृत्तिः । प्रवृत्तौ वा प्रतियोगिसत्त्वेऽपि तदभाव वात् । तदसम्भवश्व, प्रमाणाभावात्मकत्वेनावस्तुत्वात् । व. ग्राहकत्वेन प्रवृत्तेर्विपर्ययः । तत्त्वान्न प्रामाण्यम् । अथ स्तुत्वेऽपि, तस्यैव प्रमेयाभावनिश्चयरूपत्वेनाभ्युपगमाहप्रतियोग्यसंसृष्टवस्त्वन्तरग्रहणम् , तदा प्रत्यक्षेणैव प्रतियो त्वात् । नाऽपि द्वितीयः पक्षः। यतस्तन्निश्चयोऽन्यस्मादभावाऽऽख्यात्प्रमाणादभ्युपगम्यताप्रमेयाभावाद्वा। तत्र यदिप्रथमः Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) अभिधानराजे पमाय पक्षः । स न युक्तः । अनवस्थाप्रसङ्गात् । तथाहि श्रभावप्रमास्पाभावप्रमाणानिधितस्याऽभावनिश्चायकत्वं तस्याव्यन्याभावप्रमाणादित्यनवस्था अथ प्रमेयाभावाश्चियः । सोऽपि न युक्तः । इतरेतराऽऽश्रयदोषप्रसङ्गात् । तथाहिप्रमेषाभावनिश्वयात् प्रमाणाभावनिश्चयः सोऽपि प्रमाणाभा वनिश्चयादिति इतरेतराश्रयत्वम् । नाऽपि स्वसंवेदनात्प्रमालाभावनिश्चयः । तस्य भवताऽनभ्युपगमात् तन्न श्रभावाऽऽख्यं प्रमाणं सम्भवति । सम्भवेऽपि न तत्प्रमाणचिन्ता ऽईमिति प्रतिपादितम्। प्रतिपादयिष्यते च प्रमाणचिन्ताऽवसरे अजेय तन्नाभावप्रमाणादपि विपक्षे साधनाभावनिश्वयः । श्रतो न श्र दर्शन निमित्तोऽपि प्रकृतव्यतिरेकनिश्चयः । तदभावात् न प्रकृतसाद्वये प्रकृतहेतोर्नियमलक्षण सम्बन्धनिश्चयः । न चान्वयव्यतिरेकनिश्वयपीतरकेणान्यतः कुतश्वित् तनिश्वयः । नियमलक्षणस्य संबन्धस्य यथेोक्तान्वयव्यतिरेकव्यतिरेकेखासम्भवात् । तथाहि-य एव साधनस्य साध्यसद्भावे एव भावः, अयमेव तस्य साध्ये नियमः । साध्याभावे साधनस्यावश्यंतयाऽभाव एव यः श्रयमेव वा तस्य तत्र नियमः । श्रतो देवान्वयव्यतिरेकयोर्यथेोक्तलक्षणयोर्निश्वायकं प्रमाणं. तदेव नियमस्वरूपसम्बन्धनिश्चायकम् । तन्निश्चायकं च प्रकृतसाध्यसाधने हेतोर्न सम्भवतीति प्रतिपादितम्। तभानुमानादपि शातृव्यापार लक्षण प्रमाणसिद्धि: । श्रथाऽपि स्वाद्. बाह्येषु कारकेषु व्यापारवत्सु फलं दृछन्, अन्यथा सिद्धिस्वभावानां कारकाणामेकं धात्वर्थ साध्यमनङ्गीकृत्य कः परस्परसम्बन्धः, श्रतस्तदन्तरालवर्त्तिनी सकलकारकनिष्याचाऽभिमतफल जनिका व्यापारस्वरूपा क्रियाऽभ्युपगमतव्या इति प्रकृतेऽपि व्यापारसिद्धिरिति । एतदसम्बद्धम् । विकल्पानुपपते। तथाहि व्यापारोऽभ्युपगम्यमानः किं कारकजन्यो ऽभ्युपगम्यते, आहोस्थित अजन्य इति विकल्पद्वयम् ? । तत्र यद्यजन्य इति पक्षः । सोऽयुक्तः । यतोऽजन्योऽपि किं भवरूपोऽभ्युपगम्यते आदोस्थि अभावरूपः । यद्यभावरूप इत्यभ्युपगमः । सोऽप्ययुक्तः । यतोऽभावरूपत्वे तस्यार्थप्रकाशलक्षण फलजनकत्वं न स्यात् । तस्य फलजनकत्वविरोधात् । अविरोधे या फलार्थिनः कारकान्वेषणं व्यर्थ स्यात् । तत एवाभिमतफलनिष्यत्तर्विश्वम च स्यात् । तथाभावरूप व्यापारोऽभ्युपगन्तव्यः अथ भावरूपोऽभ्युप गमविषयः । तदाऽत्राऽपि वक्तव्यम् । किमसौ नित्यः, श्राहोस्वित् अनित्य इति ? । तत्र यदि नित्य इति पक्ष । सोऽसकृतः । नित्यभावरूपव्यापाराभ्युपगमे ऽन्धादीनामप्यर्थद शनप्रसः सुताऽऽद्यभावः, सर्वसर्वज्ञताभावप्रसङ्गश्व का कावेवैयर्थ्यं तु व्यक्तम् । अथाऽनित्यइत्यभ्युपगमः । सोstoलौकिकः । श्रजन्यस्य भावस्याऽनित्यत्वेन केनचिदभ्युपगमात् । श्रथ वदेन्मयैवाभ्युपगतः । तत्रापि वक्तव्यम्-किं कालान्तरस्थायी, उत क्षणिकः ?। यदि कालान्तरस्थायी, तदा "क्षणिका हिसा न कालान्तरमवतिष्ठते" इति वचः परिप्लवेत कारकान्वेषणं यात्रा पो फलार्थिनामसम कियत्काल स्थाय्यजन्यभावरूपव्यापाराभ्युपगमे, तत्कालं यायसत्फलस्याऽपि निष्यतेः व्यापार विनाशमर्थप्रकाशलक्ष कार्य सद्भावादन्धत्वमूर्छाऽऽदीनामभावः स्यात् । श्रथ क्षणिक इति पक्षः । सोऽपि न युक्तः क्षणानन्तरं व्यापारासरखेनार्थप्रतिभासाभावात् । श्रपगतार्थप्रतिभासं सर्व जगत् स्यात् । L | पमायण कानायत्तस्य अथ स्वत एव द्वितीयाऽऽदिक्षणेषु व्यापारोपनयं दोषः । श्रजन्यत्वं तु तस्यापरकारकजन्यत्वाभावेन । नैतदस्ति । कारदेशकालस्वरूपप्रतिनियमाभावस्वभावतायाः प्रतिपादनात् । किं व-अनवरतविकाजन्यव्यापाराभ्युप गंम तज्जन्यार्यप्रतिभासस्यापि तथैव भाषात् सुझाऽथभावदोषस्तदवस्थः । तन्नाजन्यव्यापाराभ्युपगमः श्रेयान् । श्रथ जन्यो व्यापार इति पक्षः कक्षीक्रियते । तदाऽत्रापि विकल्पद्वयम् - किमसौ जन्यो व्यापारः क्रियाऽऽत्मकः, उत तदनात्मक इति ? । तत्र यदि प्रथमः पक्षः। स न युक्तः। अत्रापि विकपइयानतिः तथादि साऽपि क्रिया कि स्पन्दा35त्मिका, उत स्पन्दात्मिका । यदि स्पन्दाऽऽत्मिका । तदाऽऽत्मनो निवसत्यापन्येषां कारकाणां व्यापारसद्भावेऽपि व्यापारी न स्वात् पर्थोऽयं प्रयासद देवे भवतेयमभ्युपगच्छता । अथापरिस्पन्दात्मिका क्रिया व्यापारस्यभावान तथाभूतायाः परिस्पन्दाभावरूपतया फलजनकत्वायोगात अभावस्य जनकत्वविरोधात् न च क्रिया कार सफलापान्तरालवर्त्तिनी प रिस्पन्दस्वभावा, तद्विपरीतस्वभावा वा प्रमाणगाचरचारिणीतिन तस्याः सत्यवहारविषयत्वमभ्युपगन्तुं युक्तमिति न कि. यात्मको व्यापारः । नापि तदनारमको व्यापारोऽ तत्राऽपि विकल्पप्रवृः । तथाहि किमसावक्रियात्मको व्यापारी बोधरूपः, अबोधस्वभायो या । यदि बोधस्वरूपः प्रमातृवन्न प्रमाणान्तरगम्यताऽभ्युपगन्तुं युक्ता । अथाबोधस्वभावः नायमपि पक्षः। बोधाऽऽत्मकशातृव्यापारस्याबोधाssत्मकत्वासंभवात् न हि चिद्रूपस्याचिद्रूपो व्यापारी युक्तः। जानातीति च ज्ञातृव्यापारस्य बोधाऽऽत्मकस्यैवाभिधानात् । तन प्रबोधस्वभावोऽपि व्यापारः । किं च - असौ ज्ञातृव्यापारो धर्मस्वभावः, उत धर्मस्वभाव इति पुनरपि कल्पनाद्वयम् । धर्मिक प्रमाणान्तरगम्यत्यमित्यु क्रम्। धर्मस्वभावत्वेऽपि चमियो शातिरिको व्यापारः अव्यतिरिक्तः, उभयम्, अनुभयम् इति चत्वारो विकल्पाः । न तावदव्यतिरिक्तः । तत्त्वे, संबन्धाभावेन ज्ञातुर्व्यापार इति व्यपदेशायोगात् । अव्यतिरिक्रे शातयः तत्स्वरूपव नापरो व्यापारः । उभयपक्षस्तु विरोधमपरिहृत्य नाभ्युपगमनीयः । श्रनुभयपक्षस्तु, अन्योऽन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकविधानेनापरनिषेधादयुक्त इति प्रतिपादितम्। किं व व्यापारय कारकजन्यत्वाभ्युपगमे तखनने प्रचर्तमानानि कारकाणि किमपरव्यापारभाव प्रवर्तन्ते, उत तनिरपेक्षाणीनि विकल्पः यम् यथायी विकल्पः तदा व्यापारजननेऽपि तैरपरव्यापारभाभिः प्रवर्तितव्यम् जननेऽप्यपरव्यापारयुग्भः प्रच तिमित्यनवस्थितेने फल तननव्यापारीतिरिति तत्फ लस्याप्यनुत्पत्तिप्रसंङ्गात् न व्यापारपरिकल्पनं श्रेयः । श्रथ अपरव्यापारमन्तरेणाऽपि फलजनकव्यापारजन प्रयर्त्तन्ते दोषप्रकृयापारमारेणऽपि फलजन ब विध्यन्त इति किमनुज्यमाना कि च - असौ व्यापारः फलजनने प्रवर्त्तमानः किमपरव्यापारस व्यपेकः, अथ निरपेक्ष इत्यत्रापि कल्पनाद्वयम । तत्र यद्याद्या कल्पना । सा न युक्ता । अपरापरव्यापारजननकीणशक्तित्वेन व्यापारस्याऽपि फलजनकत्वायोगात् । अथ व्यापारान्तरानपंक एव फलजन प्रकारकाणामपि व्यापार जनननिरपेक्षाणां फलजनने प्रवृत्तौ न कश्चिन्नक्तिव्याघातः Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६६) पमाण अभिधानराजेन्डः। पमागा सम्जाग्यते । अथ व्यापारस्य व्यापारस्वरूपत्वान्नापरव्यापारा. तिपादनात् । प्रात्मसंबन्धिनस्तु, अनेकान्तिकत्वादिति नाऽन्य. पेक कारकाणांत्वव्यापाररूपत्वासदपेक्का । का पुनरिय व्या | थानुपपद्यमानत्वनिश्चयः । किं च-अर्थापत्युत्थापकस्यार्थानुपारस्य व्यापारस्वभावता?। यदि फल जनकत्वं तद्विहि- नुयमानतालक्षणस्यार्थधर्मस्य य एव स्वप्रकल्प्यार्थाभावेऽवश्यतप्रतिक्रियम् । अथ कारकाऽऽश्रितत्वम् । तदपि भिन्नस्य, तयाऽनुपपद्यमानत्यनिश्चयः, स एव स्वप्रकल्प्यार्थसद्भाव ए. समन्यत्वं विहाय, न संभवन्युिक्तम् । अथ कारकपरत. वोपपद्यमानत्वनिश्चय इत्यर्थापश्युत्थापकस्यार्थस्य, ससाबत्वम् । तदपिन । भनुत्पन्नस्याऽसत्वात नाऽप्युत्पन्नस्य। - ज्यानुमापकस्य च लिङ्गस्य, न कश्चिविशेष इत्यनुमाननिन्यानपेकत्वात् । तथापि तत्परतन्त्रत्वे, कारकाणामपि व्या-| रासेऽर्थापत्तरपि निरासः कृत एवेति नापतेरपि झात. पारपरतन्धता स्यात् । अथै पर्यनुयोगः सर्वभायप्रतिनिय- व्यापारलकण प्रमाणनिइचायकत्वम । येऽपि संविषयाख्यं फलं तस्वभावव्यावर्तक इत्ययुक्तः। तथाहि-एवमपि पर्यनुयोगः झातृव्यापारसद्भाये सामान्यतो एलिङ्गमाहुः । तन्मतमध्यस. सम्भवति; वाहकस्वभायत्वे आकाशस्याऽपि च स्यात; म्यक । यतः संघेदनाऽख्यस्य लिङ्गस्य किमर्थप्रतिभासस्वना. इतरथा बहेरपि स न स्यादिति । स्यादेतद्यदि प्रत्यक्तसि- वत्वम. उत तहिपरीतत्वमिति कल्पनाद्वयम् ? । तत्राप्रतिको व्यापारस्वभावो भवेत्। स च न तथेति प्रतिपादितम्।। भासस्वभावत्वेऽपि, किमपरेण ज्ञातृब्यापारेण कथितेन, इति तत एवोक्तम्-" स्वभावेऽध्यक्षतः सिके, यदि पर्यनुयुज्यते ।। वक्तव्यम् । तदुत्पत्तिस्तेन विना न सम्भवतीति चेन । . तत्रोत्तरमिदं युक्तं, न दृप्रेऽनुपपन्नता ॥१॥" तत्र तत्र व्या- छियाउदेस्तमुत्पादकस्य सद्भाचान्वये परिकल्पनम् । क्रि. पारो नाम कश्चिद् यथाऽभ्युपगतः परैः । अथानुमानग्राह्यत्वे यामन्तरेण कारककलापात्फलाऽनिष्पत्तेः तत्कापनेति चेत् । स्यादयं दोषः, अत पवार्थापत्तिसमधिगम्यता तस्याऽभ्यु- नन्धिभियाऽऽदिसामान्यस्य क व्यापार इति वक्तव्यम्। क्रियापगता । ननु रटः थुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यत इत्यादृष्टक- स्पत्ताविति चेत् । साऽपि क्रिया, क्रियान्तरमन्तरेख कथं कार. ल्पनाऽर्धापसिः तत्र कः पुनरसी नाबो व्यापारव्यतिरेकेण कालापादुपजायते इति पुनरपि तदेव चोघम । क्रियान्त. मोपपद्यते, यो व्यापारं कल्पयति ? अर्थ इति चेत् । का पुन- रकल्पनेऽनवस्था प्राक प्रतिपादितव । तन्नार्थप्रतिनासव नाव. रस्य तेन विनाऽनुपपद्यमानता ?। नोत्पत्तिः, स्वहेतुतस्त- स्वेऽन्यो व्यापारः कल्पनीयः । निष्प्रयोजनवाद । अथ द्विस्थाः जावाद । च-असावयः किमेककातृव्यापारमन्तरे- तीया कल्पनान्युपगम्यते । साऽपि न युक्ता । यतोऽर्थस्य णनुपपद्यमानस्तं कल्पयति, उत सज्ञातृव्यापारमन्तरेणे. संवेदनं तदभवनातृव्यापारमिमा समासादयति सा च तद. ति वक्तव्यम् । तत्र यदि सकशातृव्यापारमन्तरेणेति पक्कः। संवेदनस्वजावस्य कथं सङ्गता?शेष तु पूर्वमेव निणीतमितस्धानामपि रूपदर्शनं स्यात; तव्यापारमन्तरेणार्थाभावात् ति न पुनरुज्यते । किं न-अर्थप्रतिनासस्वभावं संवेदन सर्वताप्रसाश्च । अथकज्ञातृव्यापारमन्तरेणानुपपत्ति: तर्हि ज्ञान, जाता, तयापारइच बोधाऽऽत्मकः नेतस्त्रितयं कचिथावार्थसद्भा यस्तायत्तस्यायदर्शनामति सुप्ताऽद्यभावः। अथा- दपि प्रतिभाति । अथ घटमहं जानामीति प्रतिपत्तिरस्ति, न धंधो ऽर्थप्रकाशनालवणो व्यापारमन्तरेणानुपपद्यमानस्तं क- वैषा निहोतुं शक्या, नाऽप्यस्याः किश्चिद्धाधकमुपलभ्यते। स्पयति । ननु साऽप्यर्थप्रकाशताऽर्थधर्मों, यद्यर्थ एव तदाऽर्थ- तत्कथं न त्रितयसद्भावः । तथाहि-अहमिति ज्ञातुः प्रति. पक्कोक्तो दोषः । अथ तव्यतिरितः । तदा तस्य स्वरूपं वक्त- भासो, जानामीति संवेदनस्य, घटमिति प्रत्यक्षस्थार्थस्य, व्याव्यम तस्याऽनुभूयमानता साइति चेत् न । पर्यायमात्रमतत, पारस्य स्वपरस्य प्रमाणान्तरता प्रतिपत्तिरित्यभ्युपगमः । न तस्वरूपप्रतिपत्तिः, इति स एव प्रश्नः । किं च-प्रकाशोऽ- अयुक्तमेतत् । यतः कल्पनोदतूत शब्दमात्रमेतत, न पुनरेष नुभयश्च ज्ञानमेव । तदनबगमे तत्कर्मतायाः सुतरामनवगम वस्तुययप्रतिनासः। अत एवोक्तमाचार्येश-" एकमेवेदं संविइत्यर्धप्रकाशाताऽनुभूयमानते स्वरूपे गानबगते, कधं ज्ञातृव्या- पं हर्षविषादाऽऽयनेकाऽऽकारविवर्त समुत्पश्यामस्तत्र यथेष्ट पारपरिकल्पिके?। किच-अप्रकाशताबक्कगोऽर्थधम्मोऽन्य. संज्ञाःक्रियन्ताम्" किं च-व्यापारनिमित्त कारकसंबन्धे विकथाऽनुपपनत्वेनानिश्चितस्तं कल्पयति, अहोस्थिनिश्चित इति । ल्पवयम्-कि पूर्व व्यापारः, पश्चात् संबन्धः, नत पूर्व संब. तत्र यद्याचः कल्पः । स न युक्तः । अतिप्रसवात् । तथाहि- न्धः, परचा व्यापारः । पूर्वस्मिन् पक्के न व्यापारार्थः संबन्धः। यद्यनिश्चितोऽपि तथास्येन मतं परिकल्पयति, तथा यन चि- पूर्वमेव व्यापारसद्भायात् । उत्तरस्मिन् पुनर्विकल्पध्यम-सं. नाऽपि स उपपद्यते तमपि किं न कल्पयति । विशेषाभा- बन्धे सति किं परस्परसापेक्षाणां स्वव्यापारकर्तृत्वम, उत चात् । अथाऽनिश्चितोऽपि तेन विनानुपपद्यमानत्वेन निश्चित: निरपेक्वाणाम् ? सापकाचे स्पच्यापारकर्तृवानुपपत्तिः । अने. स तं परिबपति, तर्हि लिएशस्थाऽपि नियतस्वेनानि- कजन्यत्वात्तस्य । निरपेात्ये फिमीलनेन: ततश्च संसर्गा. चितस्याऽपि स्वसामानकत्वं स्यात् । तथा चार्थापत्तिरेव वस्थायामपि स्वव्यापार करणादनबरतफल सिकिः। न तत् परोकायनिश्वायिका, नाऽनुमानमिति परमाणवादाज्यपगमोहमिष्ट चा । तन्न युक्तं ब्यापारस्याप्रतीयमानस्य फल्पमस् । विशीयत । अथान्यधाऽनुपपद्यमानत्वेन निश्चितः स धर्मस्तं प- कोऽधन्यथा संभवलि फने प्रतीयमानकल्पनेनाऽऽमानमायारिकल्पयति, तदा वत्तव्यम्-क तस्याऽन्यथाऽनुपपनस्वनिश्च- सयति। अन्यथा संजयश्च इन्मियाऽऽदिषु सत्सु फन्नस्य प्रा. यः। यदि प्रान्तभिर्माण, सदा शिस्याऽपि तत्र नियतत्वनि- गेव दर्शिनः । इन्द्रियाऽऽदेसवाभ्युपगमनीयत्वात् । इतोऽपि अयोस्तीत्यनभानम्बार्धापत्तिः स्यात् । एवं चापत्तिरनमाने. सेवेदनाऽऽयं पत्रमपरोकं व्यापाराऽनुमापकमयुक्तमा स्वदर्शनउस्तभूति पुनरपि प्रमाण षट्कान्युपगमा विशीत । अथ सा- व्याघानप्रसक्तेः । तथादि-नवता शून्यवादपरतःप्रामाण्यप्रस. ध्यमि गि, तनिश्चय इत्यनुभानास्पृथगपत्तिः । तदाऽत्रापि क्तिनयात् स्मृतिप्रमोषोऽज्युपगतः विपरीतस्यासी,तयोरवश्य. घक्तव्यम्-कुतः प्रमाणात्तस्य तनिश्चयः । यदि बिपकेऽनुप | भावित्वात् । तथाहि-तस्यानन्यदेशकानोऽयस्वदेशकालयोर. लम्भात । तन्न कम्। सबसंवन्थिनोऽनुपक्षम्भस्यासिरूत्वप्र- सन् प्रतिभाति । न च तद्देशERAषस्थानन्तासष्यस्य चा Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण यादे सानिमा कसिद्विशेषः । यथाऽन्यदेशा ऽऽचवास्थितमा कारं कुतश्चि भ्रमनिमित ज्ञानं दर्शयति तथा दत्यन्तासन्तमपि किन दर्शयति ? । तथा च कथं शून्यवादान्मुक्तिः ? । तथा परतः प्रामाण्यमपि मिथ्यात्वाऽऽशङ्कायां कस्य चित् ज्ञानस्य बाधका नावान्वेषणाद्वक्तव्यम् । तदम्वेषणे च ना. का प्रमाणानामपहातो न कस्यचि ज्ञानस्य मिया कामाकारार्धप्रतिभाखो माऽपि बाधकाभावापेक्षा वान्तानिमतेषु तु तथा उपपदेश स्मृतिमात्। तथाहि एवं रजतमिति प्रतीताविरो रजतमिति पूर्ववरजतस्मरणं सा माताबभासते कृति स्मृतिप्रमोष उच्यते । यत्र स्मरामीति प्रत्ययस्तत्र स्मृतेरो स्मृतियेऽपि परामीति रूपवेद कारणात, स्मृतिप्रमोऽभिधीयते । अस्मिन्मते रजतमिति यत्फ लसंवेदनं; तत्किं प्रत्यकफलस्य लतः, किं वा स्मृतेः ? | यदि प्रत्यक्क फलस्य तदा ययेदमिति प्रत्यक्कफलं प्रतिनाति, तथा रजतमित्यपि ततश्च तुल्ये प्रतिभासे, एकं प्रत्यक्षम्, अपरं स्मरणमिति किं कुतो विशेषः ? अयोक्तं स्मरणस्याऽपि सतस्तनगमारोहमा सरिक रजतमित्य तिरेव तस्यां चान्युपगम्यमानायां कथं स्मृतिप्रमापः । अन्यथा मूच्छद्यवस्थायामपि स्यात् । श्रयेदमिति तत्र प्रत्ययाभा बासनमित्य कि स्थितिसम प्रतिभाति वत सन्निहितत्वेन ? | प्रतिज्ञासमानत्वेन तथाभ्युपगमे, न स्मृतिप्रमोषः । शुक्तिकाशकले हि स्वगतधर्मविशिष्ठे प्रतिभा माने, कुतो रजतस्मरणसंभावना ? । न हि घटग्रहणे परस्मरणसंजयः । श्रथ शुक्तिकारजतयोः सादृश्यात शुक्तिप्रतिभासे रजतस्मरणम् । न । तस्य विद्यमानत्वेऽप्यकिश्चित्करत्वात् । बाह्यजाधारणध्यासितं शुक्तिस्वरूपं प्रतिभाति तदा कथं सदृशवस्तुस्मरणम् ? । श्रन्यथा सर्वत्र स्यात् । सामान्यमात्रग्रहणे हि तत्कदाचिद्भवेदपि नासाधारणस्वरूपप्रतिराजेदमित्यत्र शुचिकाधकस्य प्रतिभासनास पाध्य पदेशः । सन्निहितत्वेनाप्रतिज्ञासमानस्याऽपि तद्विषयत्वायुपगमेन नामप्रति प्रासः स्यात् न चाप्रतिज्ञासमानामिन्द्रियाऽऽदीनामिव प्रीतिजनकानामपि पिता स शुक्रिकाशकविनाम (890) अभिधान राजेन्द्रः । 1 स्याः स्वरूपेणाऽनवगमात्प्रमोष इत्यन्युपगमो युकः । अथ स्मृत्ये प्रतिभाषस्युपगम्यते नन्येव सैव शून्यवादपरतः प्रामा एय भयादन ज्युपगम्यमाना विपरीतख्यातिरापतिता । न चात्राऽप्रतिपत्तिरेव । रजतमित्येवं स्मरणस्यानुभवस्य वा प्रतिभासनात् ॥ इदमत्रैम्पर्यम्-अर्थसं नमरोसामा लिङ्गं यदि पापामायकमभ्युपगम्यते ततसंवेद नम सामन मनुभूयमानतया न संवेद्यते । स्मृतिप्रमोषाभावप्रसङ्गात् । नाउप स्वर्थमाता प्रमोपमात् स्तु नाभ्युपगम्यते । तज्जतमित्यत्र संवेदनस्यापरोकत्वाभ्यु पगमेऽपि प्रतिज्ञासाभावप्रसका किि पूर्वोक्तदोषद्वय भयादभ्युपगतः तच तदभ्युपगमेऽपि समानम् । पमाण तथाहि सम्यग्रतयामासेऽपि शस्यते किमेव स्मृ तावपि स्मृतिप्रमोषः, उत सम्यगनुभव इति सापेक्षत्वा कान्वेषणे परतः प्रमाण्यम् ? । तत्र च भवन्मतेनानवस्था प्रद शिवतप्रमोषस्तोतरफानभावी यात्यां यत्र तु तदभावस्तत्र स्मृतिप्रमीषासंभव इति कथं न बाधकानावाक्कायां परतः प्रामाण्य दोषभयस्यावकाशः ? शून्यचाददोषमपि स्मृतियां पापगमेऽवश्यंभावि तथा हिस्कारोऽनुस्वचस्याकारश्याने यः प्रतिभाति सोऽवश्यं ज्ञानरचितोऽसत्प्रतिभाति । रजताऽऽदि• स्मृतेरप्यसन्निहितरजarssकारप्रतिज्ञास स्वभावत्वात्तत्सवं न दुत्पन्तावसन्निति तोति ि रूप. कर्म शून्यवादभमा भवतः स्मृतिप्रमोद तस्मृतिमा स्मृतिमा किंवा स्वायमात्र भदोरियत अम्पाऽऽकारयेदित्यमिति विकल्पः । तत्र नासौ स्मृतेरजावः । प्रतिभासाभावप्रसङ्गात् । अथान्याव भासोऽसौ । तदाऽत्रापि वकव्यम्- - किं तत्कालोऽन्यावभासो सौ, अथोत्तरकालजावी ?। यदि तत्कालभावी अन्यावभासः स्मृतेः प्रमोषः, तदा घटादिज्ञानं तत्कालज्ञावि तस्याः प्रमोषः स्यात् । श्रयोत्तरकाल भाभ्यस्त्रौ तस्याः प्रमोषः । तद्व्ययुक्तम् । अतिप्रसङ्गात् । यदि नामोत्तरकालमभ्यावभासः समुत्पन्नः पूर्वज्ञानस्य स्मृति अन्यथा सर्वस्य पूर्वज्ञानस्य स्मृतिनोपासन अथान्या SSकारवेदित्वं तस्या असो; तदा विपरीतख्यातिः स्यात् ?-न स्मृतिप्रमेोषः । कश्वाऽसौ विपरीत आकारस्तस्याः । यदि स्फुटार्थानामित्वं तदाऽसी प्रत्यकस्याऽकारः कथं स्मृतिसंबन्धी ? । तत्संबन्धत्वे वा तस्याः प्रत्यकरूपतेच स्यात् न स्मृतिरूपता । श्रत एव शुक्तिकायां रजनप्रतिभासस्य न स्मृतिरूपता तत्प्रतिज्ञा सेन व्यवस्थाप्यते । तस्य प्रत्यकरूपतया प्र तिभासनात् । नाऽपि बाधकप्रत्ययेन तस्याः स्मृतिरूपता व्यवस्वाप्यते । यतो बाधकप्रत्ययः तत्प्रतिभावस्यार्थस्यासद्रूपत्वमादवति न पुनस्तद्ज्ञानस्य स्मृतिरूपताम् । तपाई बाध कप्रत्यय एवं प्रवर्त्ततेनेदं रजतं न पुना रजतप्रतिभासः प्रकृतः स्मृतिरिति । तस्मृतिमोरूपता दशामभ्यु पगन्तुं युक्ता । श्रतो नायमपि सत्पक्षाः । तन्नार्थ संवेदनस्वरूप्रमप्यपरोकं सामान्यतो दृष्टुं लिङ्गं प्राभाकरैभ्युपगम्यमायामयानुमापकमिति मीमांसकम , " प्रमाणस्याऽधिपरिशकिस् भावस्य प्रामाण्यस्य स्वतः सिद्धिः १ । न हि धर्मिणोऽसिकौ सिद्धिप्रामापयसिद्धिरिति स्थितम् | सम्म० १ काएम । (साऽऽकारं ज्ञानं प्रमाणम् । निराकाराज्ञानवादी 'जाण' शब्दे चतुर्थभागे १६५६ पृष्ठे निरस्तः) ( मीमांसकानां शातृव्यापारः प्रमाणम् इति णाण ' शब्दे च तुना १९६३ पृष्ठे नकम् ) ( अनधिगताधिगन्तृत्वं प्रमा राम इति 'मा' २०६३ दर्शितम्) (वाविज्ञानं प्रमाणम् सौगतानामिति 'णाण' शब्दे चतुर्थजागे १६६४ पृष्ठे चकम् ) ( अव्यभिचारिविशिष्टार्थेौपलब्धिजनिका सामी प्रमाणम, इति णाण' शब्दे चतुर्थजागे १७६५ पृष्ठे उक्तम) ( ) इव्यादि चतुर्विधं प्रमाणम से किं तं पमाणे णं ! । पमाणे चउन्धिहे पत्ते । तं Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७१) अभिधानराजेन्सः । पमाण पमाण जहा-नामप्पमाणे,ठवणप्पमाणे,दब्बप्पमाणे,भावप्पमाणे । ( पमाणे चचविहे इत्यादि ) प्रमीयते परिच्छिद्यते बस्तु निश्चीयतेऽनेनेति प्रमाणम् । नाम-स्थापना-व्य-भावस्व. रूपं चतुर्विधम् । अनु० । (नामप्रमाणव्याख्या 'णामप्प. माण' शब्दे चतुर्थभागे २००१ पृष्ठे गता ) ( स्थापनाप्रमाणव्याख्या । ग्वणप्पमाण, शब्दे चतुर्थभागे १६७६ पृष्ठे समुक्ता) से किं तं दव्वप्पमाणे ?। दवप्पमाणे छबिहे परमत्ते । तं जहा-धम्मत्थिकाए० जाव अद्धासमए । से तं दबप्पमाणे । भयमत्र भावार्थ:-धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकाय इत्यादीनि षड् द्रव्यविषयाणि नामानि अव्यमेव प्रमाणं तेन निष्पन्ना. नि दव्यप्रमाणनामानि, धर्मास्तिकायाऽऽदिव्यं विहाय न क. दाचिदन्यत्र वर्तन्त इति ततुकान्युच्यन्त इति तात्पर्यम् । अनादिसिकान्तनामत्वेनैवैतानि प्रागुक्तानीति चेत्, उच्यतां, को दोषः ?, अनन्तधर्माऽऽत्मके वस्तुनि तत्तद्धीपक्कयाऽनेकव्यपदेशनाया अपुष्टत्वात्, पबमन्यत्रापि यथासम्भवं वा. च्यामिति । अनु। (धर्मास्तिकायव्याख्या तदेकार्थिकानि च 'धम्मस्थिकाय' शब्दे चतुर्थनागे २७१८ पृष्ठे व्याख्यातानि) (अधर्मास्तिकायब्याख्या 'अधम्मस्थिकाय 'शब्दे प्रथमभागे ५६७ पृष्ठे गता)।(अद्धासमयव्याख्या 'श्रद्धासमय' शब्दे प्रथमभाग ५६५ पृष्ठे गता) से किं तं पमाणे । पमाणे चउबिहे पालते। तं जहा-दब्बप्पमाणे,खेत्तप्पमाणे,कालप्पमाणे,भावप्पमाणे ॥२३शाअनु। तत्र प्रमितिः प्रमीयते वा परिच्छिद्यते येनार्थस्तत्प्रमाण, तत्र द्रव्यमेव प्रमाण दएमाऽदिव्येण वा धनुरादिना शरीराऽऽदेईव्यैर्वा दएमहस्ताङ्क लाऽदिनिद्रव्यस्य वा. जीवाऽऽदेव्याणां वा, जीवधर्माधर्मादीनां, अव्ये वा परमाएवादी पर्यायाणां 5. व्येषु वा तेष्वेव तेषामेव प्रमाणं अव्यप्रमाणम् । एवं यथायोग सर्वत्र विग्रहः कार्यः । तत्र अव्यप्रमाणं द्वेधा-प्रदेशनिष्पन्न, विभागनिष्पन्नं च । तत्राऽऽद्यं परमाणवाद्यनन्तप्रदेशिकान्तं वि. भागनिष्पन्नं पञ्चधा मानाऽऽदि। तत्र मानं धान्यमानं सेतिकाssदि। रनमान कर्षाऽदि १. उन्मानं तुनाकर्षाऽऽदि २, अवमानं हस्ताऽऽदि ३, गणितमेकाऽऽदि ४, प्रतिमानं गुञ्जाबलाऽऽदी. ति ५। केत्रमाकाशं तस्य प्रमाणं किंधा प्रदेशनिष्पन्नाऽऽदि । तत्र प्रदेशनिष्पन्नमेकप्रदेशावगाढाऽऽदि असंख्येयप्रदेशावगाढा. स्तम् । विजागनिष्पन्नमगुनाऽऽदि, काल: समयस्तन्मानं द्विधा-प्रदेशनिष्पन्नमेकसमयस्थित्यादि असंख्येयममयस्थित्यन्त. म्। विभागनिष्पन्न समयावत्रिकेत्यादि । केत्रकालयोङव्यत्वे सत्यपि भेदनिर्देशो जीवाऽऽनिद्रव्यविशेषकत्वेनानयास्तपर्या. यताऽपीति ब्याद्विशिष्टताख्यापनाय:। जाव एव भावानां वा प्रमाण भावप्रमाणं गुणनयसंख्याभेदभिन्नं, तत्र गुणा जीवस्य ज्ञानदर्शनचारित्राणि । तत्र ज्ञानं प्रत्यक्वानुमानोपमानाऽऽगमरूपं प्रमाणमिति नया नैगमाऽऽदयः, संख्या एकाऽऽदिकेति । स्था० ४०१ उ०। आव०।दश। निचसूत्रः । भा० म० । ध्य० । विशे० । उत्त । ('से किं तं पमाणे' इत्यादि) प्रमीय- ते-परिच्छियते धान्याच्याऽऽद्यनेनेति प्रमाणम्-असतिप्रसृत्या- दि, अथवा चेदं च स्वरूपमस्य भवतीत्येवं प्रतिनियतस्वरूपतया प्रत्येक प्रमीयते-परिच्छिद्यते यत्तत्प्रमाणं-यधोक्तमेव, यदि वा धान्याच्याऽऽदेरेव प्रमितिः-परिच्छेदः स्वरूपाबगमः प्रमाणम, अत्र पके ऽसतिप्रसृत्यादेस्तद्धेतुत्वात् प्रमाणता, तश्च प्रमाण द्रव्याऽऽदेिप्रमेयवशाच्चतुर्विधम् । तद्यथा-व्यविषयं प्रमाणं द्रव्यप्रमाणम् । अनु०। से किं तं दबप्पमाणे । दबप्पमाणे दुविहे पसत्ते । तं जहापएसनिष्फम्मे अ,विभागनिष्फमे असे किं तं पएसनिष्फमे?। पएसनिष्फले अणेगविहे पलत्ते । तं जहा-परमाणुपोग्गले दुपएसिएन्जाव दसपएसिए संखिजपएसिए असंखिजपएसिए अणंतपएसिए । से तं पएसनिप्फरमे । से किं तं विभागनिष्फले ? । विभागनिप्फरमे पंचविहे पामत्ते । तं जहामाणे, उम्माणे, अवमाणे, गणिमे, पडिमाणे ।। तत्र व्यप्रमाण विविधम्-प्रदेशनिष्पन्न विभागनिष्पन्नं च । तत्र प्रदेशा-एकछिपाधणवस्तनिष्पन्न प्रदेशनिष्पन्नं, तत्रैकप्रदेशनिष्पन्नः परमाणुः, द्विप्रदेशनिवृत्तो द्विप्रदेशिकः, प्रदेश. त्रयघटितस्त्रिप्रदेशिका, एवं यावदनन्तैः प्रदेशः सम्पन्नोऽनमतप्रदेशिकः । नन्विदं परमाएवादिकमनन्तप्रदेशिकस्कन्धपर्यन्तं द्रव्यमेव, ततस्तस्य प्रमेयत्वात् प्रमाणता न युक्तेति चेत्, नैवम्, प्रमेयस्यापि व्याऽऽदेः प्रमाणतया रूढत्वात् । तथाहि प्रस्थकाऽऽदिप्रमाणेन मिना पुञ्जीकृतं धान्याऽऽदि जयमालोक्य लोके वक्तारो भवन्ति-प्रस्थकाऽऽदिरयं पुञ्जीकृतस्तिष्ठतीति, त. तश्चैकद्विव्यादिप्रदेशनिष्पन्नत्वलकणेन स्वस्वरूपेणैव प्रमीयमा. णत्वात्परमाण्वादिषव्यस्यापि कर्मसाधनप्रमाणशब्दवाच्यता. ऽदुव, करणसाधनपने स्वेकद्विव्यादिप्रदेशनिष्पन्नत्वलकणं स्वरूपमेव मुख्यतया प्रमाणमुच्यते, व्यं तु तत्स्वरूपयोगादु. पवारता, भावसाधनतायां तु प्रमितेः प्रमाणप्रमेयाधीनत्वादुपचारादेव प्रमाणप्रमेययोः प्रमाणताऽवगन्तव्या, तदेवं क. मसाधनपके परमारबादि व्यं मुख्यतया प्रमाणमुच्यते, करणभावसाधनपक्कयोस्तूपचारत इत्यदोषः । इदं च यथोत्तरमा न्यान्यसंख्योपेतैः स्वगतैरेव प्रदेशनिष्पन्नत्वात् प्रदेशनिष्पन्न. मुक, हितीयं तु स्वगतप्रदेशान् विहायापरो विविधो विशिष्टो वा भागो जाडो विकल्प प्रकार इति यावत्तेन निष्पत्र विभागनिष्पन्नम्। तथाहि-न धान्यमानाऽऽदेः स्वगत प्रदेशाऽऽश्रयणन स्वरूप निरूपयिष्यते । अपि तु-"दो अाई यो पसई". त्यादिको यो विशिष्टः प्रकारस्तेनेति । तच्च पञ्चविध, तद्यथामानम् , उन्मानम् , अवमानं, गणि मं, प्रतिमानम् । अनु० । (परमाणुपद्रलव्याख्या ' परमाणुपोग्गल ' शब्दे वक्ष्यते) (मानस्वरूपम् 'माण' शब्दे वक्ष्यते) उन्मानव्याख्या' उ. म्माण 'शब्दे द्वितीयभागे ८४७ पृष्ठे गता) (अवमानव्याख्या 'ओमाण ' शब्दे तृतीयजागे ८० पृष्ठे गता) (गणिमव्याख्या 'गणिम' शब्दे तृतीयत्नागे ८२४ पृष्ठे प्रतिपादिता) (प्रतिमानव्याक्या 'परिमाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३३५ पृष्ठे गता) (क्षप्रमाणव्याख्या 'खेत्तपमाण' शब्द तृतीय नागे ७७० पृष्ठे गता) से किं तं कालप्पमाणे ?। कालप्पमाणे दुविहे पसत्ते । तं जहा-पएसणिप्फम्मे, विभागाणिप्फ अ॥१३॥ गतार्थमेव । १३५ ॥ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७२) भनिधानराजेन्धः। पमाण पमाण से किं तं पएसणिप्फरणे | पएसणिप्फ एगसम- प्पमाणे पंचविहे परमत्ते । तं जहा-तित्तरसगुणप्पमाणे०जायहिईए, दुसमयहिईए, तिसमयट्टिईए• जाव दससमयटि- व महुररसगुणप्पमाणे । से तं रसगुणप्पमाणे । से कित ईए, असंखिज्जसमयहिईए । से तं पएसनिष्फले ॥१३६।। फासगुणप्पमाणे १ । फासगुणप्पमाणे अट्ठविहे परमत्ते । तं नवरमिह प्रदेशाः कामस्य निर्विभागा भागाः, तैनिधनं - जहा-कक्खडफासगुणप्पमाणे जाव लुक्खफासगुणप्पमादेशनिष्पन्न, तत्रैकसमयस्थितिकः परमाणुः स्कन्धो बा एके- थे। से तं फासगुणप्पमाणे । से किं तं संठाणगुणप्पन कालप्रदेशेन निष्पनो, द्विसमयस्थितिकस्तु द्वाभ्यास, एवं माणे । संठाणगुणप्पमाणे पंचविहे पसत्ते । तं जहा-पयावदसायेयसमयस्थितिकोऽलवधेयः कालम निवृत्तः, प. रस्स्बे केन रूपेण पुद्रलानां स्थितिरेव नास्ति, प्रमाणता चे. रिमंडलसंठाणगुणप्पमाणे, बट्टसंठाणगुणप्पमाणे, तंस६ प्रदेशनिष्पन्नव्यप्रमाणबद्भाबनीया ॥ १३६ ॥ संठाणगुणप्पमाणे, चउरंससंठाणगुणप्पमाणे, आयसंठासे किं तं विभागनिष्फले । विभागणिप्फरमे-अणेगविहे णगुणप्पमाणे । से तं संठाणगुणप्पमाणे । से तं अजीवपरमत्ते । तं जहा गुणप्पमाणे। " समयावलिअमुहुत्ता, दिवसअहोरत्तपक्खमासा य । (परिमंडलेति) नवरं परिमएलसंस्णामं बनयाऽऽदिवत्, संवच्छरजुगपलिया, सागरोसप्पिपरिअट्टा" ॥१३७।। वृत्तमयोगोलकवत, ध्यानं त्रिकोणं हाटकफलबत्, चतु विभागनिष्यन्नं तु समयाऽऽसि । तथा चाऽऽह-समयाssa. रनं समचतुष्कोणम् , भायतं-दीमिति। लियगाहा ॥ १३ ॥ भनु । से किं तं जीवगुणप्पमाणे । जीवगुणप्पमाणे तिविहे परमनावप्रमाणम् ते । तं जहा-णाणगुणप्पमाणे, दंसणगुणप्पमाणे, चरिसे किं तं भावप्पमाणे भावप्पमाणे तिविहे परमत्ते । ती त्तगुणप्पमाणे॥ जहा-गुणप्पमाणे, नयप्पमाणे, संखप्पमाणे ॥ १४६ ॥ जीवस्य गुणा ज्ञानाऽऽदयस्त प्रमाणं जीवगुणप्रमाणं, त. भवन भावो वस्तुनः परिणामो ज्ञानाऽऽविर्याऽऽदिश्च, प्र च ज्ञानदर्शनचारित्रगुणभेदानिधा। मितिः प्रमीयते अनेन प्रमीयते स वा इति प्रमाणह, भाव से किं तं णाणगुणप्पमाणे । णाणगुणप्पमाणे चउबिहे पव प्रमाणं भावप्रमाणम् । भावसाधनपके प्रमितिः वस्तु- पएणत्ते । तं जहा-पच्चक्खे, अणुमाणे, श्रोवम्मे,भागमे ।। परिच्छेदस्त तुत्वाद्भावस्य प्रमाणताऽवसेया । तच नावप्र. तत्र ज्ञानरूपो यो गुणस्तद्रूपं प्रमाणं चतुर्विधम् । तद्यथा-प्र. माणं त्रिविधं प्राप्तम् । तद्यथा-'गुणप्रमाणभित्यादि।' गुणो त्यक्कम, अनुमानम, उपमानम, प्रागमः । तत्र 'शू' व्याप्ती कानाऽऽदिः, स एव प्रमाणं गणप्रमाणं, प्रमीयते च गुणैः। इत्यस्य धातोरश्नुते-कानाऽऽत्मना अान् व्यामोतीति मको व्यं, गुणाश्च गुणरूपतया प्रमीयन्तेऽत: प्रमाणता ॥ १४६ ॥ जीवः। अश' भोजने इत्यस्य वा मनाति-भुले पालयति मनु०। ( नयप्रमाणस्वरूपम् ' णय' शब्द चतुर्थभागे वा सर्वार्थानित्यक्षो-जीव एव । प्रतिगतम्-प्राश्रितमकं प्रत्य१८७६ पृष्ठे उक्तम् ) संस्थान संख्या, सब प्रमाणं संख्यामा कमिति, "प्रत्यादयः कान्ताऽद्यर्थे द्वितीयया।"(का०००४३०) णम् । अनु। इति समासः । जीवस्यार्थसाक्षात्कारित्वेन यदशानं वर्तते से किं तं गुणप्पमाणे । गुणप्पमाणे दुविहे पसत्ते । । तरप्रत्यक्तमित्यर्थः, अन्ये स्वतमकं प्रति वर्तत इत्यव्ययीभा. जहा-जीवगुणप्पमाणे, अजीवगुणप्पमाणे य ।। पसमासं विदधति, तच न युज्यते, अध्ययीभावस्य नपुं. तत्र गुणप्रमाणं विधा-जीवगुणप्रमाणं च , अजीवगुण- सकलिकत्वात् प्रत्यकशब्दस्य त्रिलिजता न स्यात् , रश्यप्रमाणं च। ते चेयं, प्रत्यक्का बुद्धिः, प्रत्यको बोधः, प्रत्यकं ज्ञानमिति दशনাবিষকন্যা মামএ নাম্বার नात् , ततो यथादर्शिनस्तत्पुरुष एवायम । अनु० । प्रत्य. से किं तं अजीवगुणप्पमाणे । अजीवगुणपमाणे पंचविहे क्षप्रमाणन 'पञ्चक्ख' शब्देऽस्मि शेव भागे विस्तरतो गतम) ( अनुमानगुणप्रमाणस्वरूपम् 'अणुमाण ' शब्दे प्रथमभागे परमत्ते । तं जहा-वएणगुणप्पमाणे,गंधगुणप्पमाणे, रसगु ४०३ पृष्ठे गतम्) अव (नप) मानप्रमाणस्वरूपनिरूपणम् णप्पमाणे, फासगुणप्पमाणे, संठाणगुणप्पमाणे । 'प्रोमाण 'शब्दे तृतीय नागे ९० पृष्ठे रीतम्)(आगमप्रमा ( से कितं अजीवगुणापमाणे 'इत्यादि) पतत्सर्वमपि णनिरूपणम् 'भागम' शब्दे द्वितीयभागे ५२ पृष्ठे कृतम् ) पाठसिद्धम्। (दर्शनगुणप्रमाणम् 'दसणगुणप्रमाण' शब्दे चतुर्थभागे २४से कितं वस्मगुणप्पमाणे वएणगणपयाणे पंचवि- २८ पृष्ठे दर्शितम् ) (चरित्रगुणप्रमाणम् 'चरित गुणप्यमाण' हे पामते । तं जहा-कालवर गुणपमाणेजाव सुकिल्लवम शब्दे तृतीयभागे ११४७ पृष्ठे दर्शितम् ) यथार्थहिंसाऽऽदिनिषे. कमेव शासनम् । भ०५श०४ उ.। गुणप्पमाणे । से तं वएणगुणपमाणे । से कि तं गंध (E) अनन्तरं यादा नक्लास्तेषां च मध्ये मुख्य वृष्या धर्मवाद गुणप्पयाये। गंवगुणप्पमाणे दुबिहे पण्णत्ते । तं जहा एव विधेय इति तद्विपय मुण्पर्शयन्नाइसुरभिगंधगुणप्पयाणे, दुरभिगंधगुणपमाणे य । से तं गं- विषयो धर्मवादस्य, तत्तत्तन्त्रव्यपेक्षया । धगुणप्पणाये। से किं तं रसगुणप्पमाणे । रसगुण-' प्रस्तुतार्थोपयोग्येव, धमेसाधनलक्षणः॥१॥ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७३) एमागा अभिधानराजेन्डः। पमाण विषयो गोचरो, धर्मसाधनलकण इति योगः। कस्य ?-धर्मबा नित्यानित्यत्वादिका व्यवस्था तत्तन्प्रनीतिः,तथैव न तु शास्त्राबस्योक्तलक्षणस्य, कथमित्याह-तस्य तस्येति बीप्सायां विर्व- न्तरनीत्या, एकशास्त्रोक्तप्रकाराणां हिंसाकीनामन्य शाखन्या. चनम् । तन्त्रश्य शास्त्रस्य पष्टितन्नाऽऽदेविशिष्टापेक्का निश्रा येनायुज्यमानताया। स्फुटमेव प्रतीयमानत्वादिति । किमित्याहतत्तसन्त्रव्यपेक्का, तया यघदर्शन प्रतिवादी समाश्रितस्तत्तदः हिशब्दस्य व कारार्थत्वात् अद एव, पतदेवानन्तपेतं वि. पेक्तयेत्यर्थः । किं यावांस्तदभ्युपगतदर्शनार्थोऽनिधीयते ताब. चार्य विचारणी, तस्वतः परमार्थेन, वस्त्वन्तरविचारणे धर्मः हपेको उसी धर्मवादविषयः ?, मैयमित्याह प्रस्तुतार्थो मुमुक्षूणां बादाभाचप्रसङ्गात् । कैर्विवामित्याह-धर्माधिनिर्धार्मिकः । मोक्ता एप,नोपयोगः प्रयोजनभायो यस्याऽस्तिप्रस्तुता- नक्तविपर्ययमाद-प्रमाणस्य प्रत्यक्षाऽऽदः, श्रादिशब्दात्प्रमेयस्य थोपयोगी, स एव नान्योऽपि धर्मवादविषयः। कश्चामावित्या- प्रात्माऽऽदेल वगं तदस्यव्यवच्छेदक स्वरूपम । यथा-'स्वपगह-धर्मस्य कर्मानुपादाननिर्जरण लकणस्य साधनानि हेतयो- घभासि ज्ञान प्रमागाम।' इत्यादि तुशब्दः पुनरर्थःन नैव, गुक्ति हिसाऽऽदीनि, तानि लकणं स्वभायो यस्य स तथेति ॥१॥ मत् उपपच्यपेतं. विचार्यमाणमिति शेषः। केन हेतनेत्याह-प्र. धर्मसाधनान्येवाऽऽ४ योजनं फलं तदादियस्योपायाऽऽदेः प्रयोजनाऽऽदिस्तस्यापञ्चैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्मचारिणाम् । ऽभावोऽसत्ता प्रयोजनाऽऽद्यभायस्तेन, प्रमाणलवणविचार. णस्य प्रयोजनाऽऽधनावेन हेतुनेत्यर्थः प्रयोगवावम-प्रमाणा. अहिंसा सत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुनवर्जनम् ॥२॥ दिलक्णविचारणं न युक्तिमत्-प्रयोजनाऽऽद्यभावात्,यद्याप्र. पञ्चेति संख्या, एतानि वक्ष्यमाणानि पवित्राणि पावनानि. स. योजनाऽऽदिरहितं तत्तनविचारणकमम, प्रयोजनादिरहित वसंमतत्वातेषाम् । सक समस्तानां जैनसास्यबीरूपैशेषि- च प्रमाणादिलकणविचारणमिति तन्न युक्तिमदिति । न चायमकादीनां धर्मचारिणां धार्मिकाणाम् । कानि तानीत्याह-अ. सिद्धो हेतुः, सिद्धसेनरिवचनप्रतिष्ठित्रत्वादश्य । एतदेवाहहिंसा-माणबधिरतिः । सत्यम्-मनम्। अस्तेयम्--प्रचौर्यम् । तथा चाऽऽह महामतिः-तथा च तेनैव प्रकारेण निष्प्रयोजनम्वेन, त्यागः--सर्वसंगत्यजनम् । भैयुनवर्जनम् ब्रह्मविरतिरिति । 'आह' व्रते, ह तत्कालापेक्को वर्तमाननिहेशः। कोऽसावित्याहसवसमतत्वं चैषा मेव. जैनस्तावईतानि महावतान्यनिधी. महामतिः-अतिशयवत्प्रज्ञःसिरू सेनाऽऽचार्य इत्यर्थः ॥ ३ ॥४॥ यस्ते, सांयासमतानुसारिभिश्च यमाः । यस्ते माहुः-“ पञ्च एतदेवाहयमाः,पच नियमा" तत्र यमा:."अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मव. प्रसिद्धानि प्रमाणानि, व्यवहारश्च तत्कृतः । यमन्यवहारधेति" नियमास्तु-"अक्रोधो गुरुशुश्रूषा, शौचमा प्रमाणलक्षणस्योक्ती, ज्ञायते न प्रयोजनम् ॥ ५॥ हारलाघवम् । अप्रमादधेति । "पाशुपतैस्तु धर्मशब्दनाक्तानि । प्रतिकानि सोके स्वत एव रूढानि तु प्रमागाल क्षणप्रमानयतस्ते दश धर्मानाहुः। तद्यथा बचनप्रसाधनीयानि,प्रमाणानि प्रत्यक्काऽऽदीनि । तथा-व्यवह"अहिंसा सत्यवचन-भस्तैन्यं चाप्यकल्पना । रणं व्यवहार: स्नानपानदानदहनपाचनादिका क्रिया। चश. ब्रह्मचर्य तथाऽक्रोधो, ह्या जैव शौचभेव च ॥ १ ॥ छड़ः प्रसिम्त्वसमुपयार्थः । तत्कृतः प्रमाणमसाध्या, प्रमाणसंतोषो गुरुशुश्रूषा, इत्येते दश कीर्तिताः।" सक्षणप्रवीणानामपि गोपाल बालाऽऽदीनां तथाव्यबहारदर्शभागवतैस्तु व्रतशयेनोच्यन्ते-यदाहुस्वे-"पञ्च व्रतानि पञ्चो. नात् । तताच सति प्रमाणलकणस्य विसंबानिशानं प्रमाणमिपवनानि ।" तत्र प्रतानि-यमाः । उपत्रतानि तु-नियमाः। बारः स्यादि नक्तौ प्रतिपादने. ज्ञायते नपलच्यते. (न) नेय, प्रयोजन पुनरेतानि कुशलधर्मा उक्ताः। यदाहुस्ते"-दश कुशलानि" था फलस, पलम्भाई सत् यन्नोपलभ्यते तम्नास्तीत्यभिप्रायः । AR"हिंसा स्तन्योऽन्यथाकाम, पैशुन्य पुरुपानृतं । हच नास्तीति मुख्यवृत्या वक्तव्ये सत्यपि यत् ज्ञायते नेत्यु. मंजिनालापं व्यापाद मभिध्यां दृम्बिपर्ययम् ॥१॥ क्लमाचार्येण तदति वचनपारुष्पपरिहारार्थमिति ॥ ५॥ पापं कति दशधा, कायवाख्यान सेस्त्यजेत् ।" एवं तावत् प्रमाणल कपप्रतिपादने प्रयोजनाभाव उक्तोऽथ अत्र व "अचान्यथाकाम" पारदार्यम. संजिन्नाऽऽलापोऽसंब तत्रैवोपायानावप्रतिपादनायाभाषण, व्यागदः परपीमाचिन्तनम्, अन्निध्या धनादिवस. प्रमाणेन विनिश्चित्य, तदुच्येत न वा ननु । म्तोषः, परिग्रह इति तात्पर्यम् । इम्बिपर्थयो मिथ्याभिनिवेशः, एतद्विपर्य याश्च दश कुशनधर्मा जयन्तीति । वैदिकैस्तु ब्रह्मश अलक्षितात् कथं युक्ता, न्यायतोऽस्य विनिश्चितिः॥६॥ म्देनैतान्यभिहितानीति ॥२॥ नन्विति प्रमाणलकणप्रग्गायकमनाशकायाम्, ततश्वाऽऽहययेनानि पवित्राणि ततः किमित्याह प्रमाण अक्षणम. प्रमाणतः प्रमाणेन प्रत्यवादिना विनिश्चित्य नि. क खल्वेतानि युज्यन्ते, मुख्यवृत्त्या क वा न हि । गीय,नत् प्रमाण वाकणमुच्येताभिधीयेत त्वया न वेति अभ्यथा वातत्र यद्याद्यः पकस्तदा यत्त प्रमाणप्रकरणनिश्चायकं प्रमा. तन्त्रे तत्तन्त्रनीत्यैव, विचार्य तत्वतो ह्यदः ॥३॥ ण तल्लवगतो निश्चितमनिश्चितं वा स्यात? यदि निश्चितंतधार्थिभिः प्रमाणाऽऽदे-लेक्षणं न तु युक्तिपत् । त्तदाकि तेनैवाधिकृतप्रमाणेन,प्रमाणान्तरेण या तत्र यदि तेनैव प्रयोजनाऽऽद्यभावेन, तथा चाऽऽह महामतिः॥४॥ तदेतरेतराऽऽश्रयः। तथाहि-प्रमाणासलकणनिश्चयः,तल्लक्षणककस्मितन्त्रे इति योगः । खलुचाक्याल कारे । पसान्यनन्त निश्चये चनामा एमिति यावत् रलकणं न नितिं न तावत् गोदितान्यहिसाऽऽदीनि, युज्यन्ते घटन्ते,मुख्य वृल्याउनुपन्चारण, प्रमाणस्य प्रमाणब,यावश्च न प्रमाणम्य प्रामाण्यं न ताल्लिक्षकवा कस्सिन्या तम्ने (नहि) नेब यूज्यन्ते इत्यनुवर्तते। तन्ने निश्चय इति । नावि प्रमाणान्तरेण तव कणनिश्चयः,अनवस्थाबौद्धादिमिहाते.कधंयज्यन्ते कथं वा न यज्यात त्याह-नस्व पत्तःनयाहि-यजन्मागाान्तरं तनिश्चितताणमा अन्यथा बोहाइस्तम्भस्य शाम्भस्य नीतिमादि पदार्यानां मन्यासक-या। अन्यथा वक्ष्यमाणदोषापरोनापि निश्चितक्षक्षण,यत. Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७४) अन्निधानगजेन्द्रः। पमाग पमागा स्तलकणनिश्चयः किं तेनैव, उतान्धेन? यदि तेनैव तदा पूर्ववदि. तरेतराश्रयः। अथ प्रमाणान्तरेण तदा तदपि नि इन तलकणम्, अन्यथा वेत्यनवस्था । ठग्न निश्चितलकणमिति पकः । नाप्यनिश्चितलक्षणमिति वाच्यम् । यत आह-अलक्षितादनितिलक्षगात्प्रमाणलक्षणनिश्चायकात्प्रमाणात् कथं केन प्रकारेण,न कथञ्चिदित्यर्थः । युक्ता साता, न्यायतो नीत्याऽस्य प्रमाणलक्षणस्य,विनिश्चितिर्निीतिः। अयमभिप्राय:-निश्चितलक्ष. गन प्रमाणेन विनिश्चित्य प्रमाणलक्षणं वक्तव्यं भवतीति न्यायः । न च विकीर्पितं प्रमाणव्युत्पादकशास्त्रं विना प्रमाणलक्षणविनिश्वायकप्रमाणस्य लक्षण निश्चयः, ततश्चानिश्चित लक्षणमेव तदित्यलक्षितात् प्रमाणान्न युक्ता तलक्षणविनिश्चितिरिति ॥६॥ अथानिश्चितलक्षणादपि प्रमाणाप्रमाणलक्षणनिश्चिति भविष्यतीत्यस्यामाशङ्कायामाहसत्यां चास्यां तदुक्त्या किं, तद्वद्विषयनिश्चिते । तत एवाविनिश्चित्य, तस्योतिान्ध्यमेव हि ॥ ७॥ सत्यां भवन्त्यां,चशम्दः पुनरर्थः । अस्यामनन्तरोकायाम् .अनिर्णीतलक्षणात्प्रमाणात्प्रमाणलक्षणनिश्चितौ तदुक्त्या प्रमा. णलक्षणप्रतिपादनेन किं? न किञ्चित्प्रयोजनमित्यर्थः। कुत इ. त्याह-तद्वत्प्रमाणलक्षणवद्विषयनिश्चिने प्रमेयपरिच्छेदात् । यथाहि-अनिर्णीतलक्षणेनापि प्रमाणे न प्रमाणलक्षणं निश्चीयते, एवं चिकीर्पितलक्षणेन प्रमाणेन प्रमेयस्याऽपि निश्चितिप्रसङ्गाद्यर्थ प्रमाणलक्षणप्रणयनमिति भावः । तदेवं प्रमाणन विनिश्चित्य तदुच्येतेति पजो निराकृतः। अथानिश्चित्येतिपक्षस्य दूषणायाऽऽह-तत एवेति, यत एवं प्रमाणेनविनिश्चित्य प्रमाण लक्षणप्रतिपादनमुकयुक्त्या मोहरूप वर्तते. नत एवाविनिश्चित्य प्रमाणेनाविनिय तदुक्तिः प्रमाणलक्षणप्र. तिपादनम् । किमित्याह-धिया बुद्धेरान्ध्यमन्धवं संमोहो ध्यान्ध्यं तदेव वर्तते. प्रमाणलक्षणप्रतिपादयितुर्मूढतैव, निइफलाऽऽयासनिबन्धनत्वात्तस्या इति भावना । हिशब्दो यस्मादर्थे । तस्याश्चोत्तरश्लोके तस्मादित्यनेन संबन्ध इति ॥७॥ एवं प्रमाणलक्षणविचारस्य निष्प्रयोजनतामनुपायतां चोपदोपसंहारतः प्रक्रान्तां धर्मवादस्यैव विधेयतां दर्शयन्नाहतस्माद्यथोदितं वस्तु, विचार्य रागवर्जितैः। धर्माथिभिः प्रयत्नेन, तत इष्टार्थसिद्धितः ॥ ८ ॥ यस्मात्प्रमाणाऽऽदिलक्षणविचारः प्रयोजनाऽऽदिधिरहितस्तसाद्ध तोर्यथोदितं पूर्वोक्तवस्तुनोऽनतिवृत्तं क खल्वेतानि युज्यन्त इत्यादिरूपं, वस्तु धर्मशाधनस्ररूपमर्थजातं, विचार्य विवे बनीयं किंविधैः कारेत्याह-रागवर्जितः स्वदर्शनपक्षपातरहितः उपलक्षण वाच्चास्य परदर्शनपवितरित्यपि दृश्यम्। धार्थिभिर्धर्भप्रयोजनिभिः,तदन्यैस्तु वस्त्वन्तरमपि विचारणीयं स्यादिति विशेषणफलम् । कथम् ? प्रयलेनाऽऽदरंग । किभित्यवभिन्या ती धर्मसाधनविषयविधारात्, इ. टार्थसिद्धितो धर्भलक्षणवाञ्छितार्थप्राप्तः कारणादिति ॥८॥ हा०१३ अमृ०। (१०) प्रमाणसंख्या । एवं प्रमाणस्य स्वरूपं प्रतिपाद्य संख्यांसमाख्यान्तितद् विभेदम्-प्रत्यक्ष परोक्षं, चेति ॥ १॥ रजा०२ पार० । (अस्य सूत्रस्य व्याख्या ' पच्चक्ख' शब्दे ऽस्मिन्नेव भागे गता) से किं तं पमाणे / पमाणे चरविहे परमत्ते । तं जहा-पच्चकसे, अणुमाणे, अोवमे, आगमे जहा अणुयोगदारे तहा ण यवं पमाणं० जाव तेण परं णो अत्ताऽऽगमे, णो अणंतरागमे, परंपरागमे । भ० ५ श. ४ उ०। ननु कथमेतद् द्वैतमुपपद्यते ?,यावता प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमिति चार्वाकोऽवोचत् अपरेतु प्रत्यक्षानुमानाऽऽगमापमानार्थापच्यभावसं नवैति ह्यपातिमस्वभावान् भूयसो भेदान् प्रमाण स्य प्रोवुः, तत्कथमेतत् ?, इति चेत्। उच्यते-समर्थयिष्यमाणप्रमाण भावनानुमानेन तावञ्चार्वाकस्तिरस्करणीयः । अपरे तु सम्भवत्प्रमाणभावानामत्रैवान्तर्भावेन बोधनीयाः । तत्राऽनुमानागौ परोक्षप्रकारावेव व्याख्यास्येते, उपमानं तु नैयायिकमते तावत् कश्चित्प्रेष्यः प्रभुणा प्रेषयांवके गवयमानयेति । स गवयशब्दवाच्यार्थमजानानः कश्चन वनेचरं पुरुषमप्राक्षीत् कीदृग् गवय इति ? । स प्राऽऽह-यादग् गौस्तादृग् गवय इति । तत. स्तस्य प्रेष्यपरपस्यारण्याती प्राप्तस्याऽऽप्तातिदेशवाक्यार्थस्मरणलदारे गोसदृश गवयपिण्डज्ञानम् 'अयं स गवयशब्दवाच्याऽर्थः' इति प्रतिपत्ति फलरूपामुत्पादयत्प्रमाणमिति । मीमांसकमते तु यत् प्रतिपत्ता गौरुपलब्धो न गवयो, न वाऽतिदेशवाक्पं गौरिव गवयः ' इति श्रुतं, तस्य विकटाटवीपर्यटनलम्पटस्य गवयदर्शन प्रथमे समुत्पन्ने स. ति यत् परोक्षे गावे सादृश्य ज्ञानमुन्मजति-'अनेन सदृशः स गौः' इति, 'तस्थ गोरनेन सादृश्यम्' इति वा तदुपमानम्-"तस्माद्यत् स्मर्यते तत्स्था-सादृश्येन विशेपितम्। प्रमेयमुपमानस्य, सादृश्यं वा तदन्वितम् ॥ १॥” इति वचनादिति । तदुच्यते-एतञ्च परोक्षभेदरूपायां प्रत्यभिज्ञायामेवान्तर्भावयिष्यते अर्धापत्तिरपि-“प्रमाण पदकविज्ञातो, यत्रार्थोऽनन्यथाभवन् । अर, कल्लयदन्यं, साऽर्थापत्तिरुदाहृता ॥ १ ॥” इत्येवलक्षणाऽनुमानान्तर्गतैव । तथाहि-अर्यापरयुत्थापकोऽर्थोऽन्यथाऽनुपपद्यमानत्वेनानवगतः, अवगतो वा दृष्टार्थपरिकल्पनानिमेितं स्यात् ? ! न तावइनवातः, अतिप्रसङ्गात् । श्रथाबगतः, तीन्यथाऽनुपपद्यमानत्वावगमोऽथोपत्तेरेव.प्रमाणातराद्वा? प्राच्यप्रकारे परस्पराश्रयः। तथाहि-अन्यथाऽनुपपद्यमानत्वेन प्रतिपन्नादर्थादर्थापत्तिप्रवृत्तिः, तत्प्रवृत्तश्वास्यान्यथानुपपद्यमानत्वप्रतिपत्तिरिति । प्रमाणान्तरं तु भूयोदर्शनं, विपक्ष उनुपलम्भो बा ?। भूयोदर्शनमपि साध्यमिाण, दृष्टान्तभिणि वा ? । यदि साध्यधर्मिणि, तदा भूयोदर्शनेनैव साध्यस्याऽपि प्रतिपन्नत्वादर्थापत्य र्थ्यम् । अथ दृष्टान्तधमिाण, तर्हि तत्र प्रवृतं भूयोदर्शनं साध्यधर्मिण्यन्यथाऽनुपपद्यमानत्वं निश्चाययनि , तत्रैव वा?। तत्रोत्तरः पक्षोऽसन् , न खलु दृष्टान्तधर्मिणि निश्चितान्यथाऽनुपपद्यमानत्वोऽर्थः साध्यभिणि तथात्वेनानिश्चितः स्वसाध्यं गमयति, अतिप्रसङ्गात् । प्रथम पक्ष तु लिङ्गार्थापच्युन्थापकार्थयावाभावः । विपक्षेऽनुपलम्भात् तदवगम इति चेत् । नन्वसावनुपलम्भमात्ररूपोऽनिश्चितो, निश्चिती वा तदवगमयेत् । प्रथमपते, तत्पुत्रत्वाऽऽइरपि गमकत्वाऽऽपत्तिः । निश्चितश्चेत् तहहनुमानमेवार्थापजिरापना, निश्चितान्यथाs Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमागा भनिधानगजेन्द्रः। पमाथा नुपपत्तेरनुमानरूपत्वात् । न च सपक्षसद्भावासद्भाव अथात्राऽऽशक्य व्यभिचारमपसारयन्ति-- कृतोऽनुमानार्थापल्या दः, पक्षधर्मतासहितादनुमानात्त उपादानबुद्धयादिना प्रमाणाद्भिन्नेन व्यवहितफलेन हेतोद्रहितस्य प्रमाणान्तरत्वानुषङ्गात् । न च पक्षधम्मत्वव. मध्यमनुमानमेव नास्तीति वाच्यम्-" पित्रीश्च ब्राह्मणत्वे व्यभिचार इति न विभावनीयम् ॥ ७॥ न, पुत्रव्राह्मणनाऽनुमा । सर्वलोकप्रसिद्धान, पक्षधर्ममपे- प्रमाणफलं च भविष्यति. प्रमाणात् सर्वथा भिन्नं च भक्षते ॥३॥" इति भट्टेन स्वयमेवाभिधानात् । रत्ना०२ परि०।। विष्यति, यथोपादानबुद्धयादिकमिति न परामर्शनीयं योगभगवतीपञ्चमशतके चत्वारि प्रमाणान्युक्तानि, रत्नावतारि रित्यर्थः ॥ ७॥ कायां तु द्वे कथम् ?. इति प्रश्ने उत्तरम्-रत्नावतारिकायां तु अत्र हेतुःपरोक्षप्रमाणे ऽनुमानोपमानाऽऽगमलक्षण प्रमाणत्रयस्यान्तर्भा- तस्यैकप्रमातृतादात्म्यन प्रमाणादभेदव्यवस्थितेः ॥८॥ वविवक्षया प्रमाण द्वयमुक्तमस्तीति बोध्यम्॥१२॥ही०२प्रका। एकप्रमातृतादात्म्यमपि कुतः सिद्धमित्याशयाऽऽहु:प्रत्यक्षानन्तरं परोक्ष लक्षयन्ति प्रमाणतया परिणतस्यैवाऽऽत्मनः फलतया परिणतिपअस्पष्टं परोक्षम् ॥१॥ तीतेः ॥४॥ प्राक्मावतस्पष्टत्वाभावभ्राजिष्णु यत् प्रमाणं तत्परोक्ष : यस्यैवाऽऽत्मनःप्रमाणाऽऽकारेण परिणतिस्तस्यैव फलरूलक्षयितव्यम्। पतया परिणाम इत्येकप्रमात्रपेक्षया प्रमाणफलयोरभेदः ॥६॥ अथैतत् प्रकारतः प्रकटयन्ति एतदेव भावयन्तिस्मरणप्रत्यभिज्ञानतकोनुमानागमभेदतस्तत्पश्चप्रकारम् ॥२॥ यः प्रमिमीते स एवोपादत्ते परित्यजत्युपेक्षते चेति सर्वस्पष्टम् ॥२॥ रत्ना० ३ परि० । सम्म० । सूत्र संव्यवहारिभिरस्खलितमनुभवात् ॥ १० ॥ (११) प्रमाणफलम्-एवं प्रमाणस्य लक्षणसंख्याविषयाना ख्याय फलं स्फुटयन्ति न खल्वन्यः प्रमाता प्रमाणपर्यायतया परिणमतेऽन्यश्चोयत्प्रमाणन साध्यते तदस्य फलम् ॥१॥ पादानहानापेक्षाबुद्धिपर्यायस्वभावतयेति कस्याऽपि सचेतयद् वक्ष्यमाणमशाननिवृत्यादिकं प्रत्यक्षाऽऽदिना प्रमाणेन सोऽनुभवः समस्तीत्यर्थः ॥१०॥ साधकतमेन साध्यते तदस्य प्रमाणस्य फलमवगन्तव्यम् ॥१॥ यथोक्तार्थानभ्युपगमे दूषणमाहुःअथैतत्प्रकारता दर्शयन्ति इतरथा स्वपरयोः प्रमाणफलव्यवस्थाविप्लवः प्रसज्ज्येत ।११। इतरथेत्येकस्यैव प्रमातुः प्रमाणफलतादात्म्यानङ्गीकारे इमे तद् द्विविधम् आनन्तर्येण, पारम्पर्येण च ॥२॥ प्रमाणफले स्वकीये, इमे च परकीये इति नैयत्यं न स्यादिति तत्राऽऽद्यभेदमादर्शयन्ति भावः । तदित्थमुपादानाऽऽदौ व्यवहिते फले प्रमाणादभेदस्यानत्राऽऽनन्तर्येण सर्वप्रमाणानामझाननिवृत्तिः फलम् ॥३॥ ऽपि प्रसिद्धेन तेन प्रकृतहेतोर्व्यभिचार इति सिद्धम् ॥ ११ ॥ अज्ञानस्य विपर्ययाऽऽदेर्निवृत्तिः प्रध्वंसः स्वपरव्यवसिति अथ व्यभिचारान्तरं पराकुर्वन्तिरूपा फलं बोद्धव्यम् ॥ ३॥ अज्ञाननिवृत्तिस्वरूपेण प्रमाणादभिन्न साक्षात्फलेन अथापरप्रकारं प्रकाशयन्ति साधनस्यानेकान्त इति नाऽऽशङ्कनीयम् ।। १२ ।। पारम्पर्येण केवलज्ञानस्य तावत्फलमौदासीन्यम् ॥ ४॥ प्रमाणफलं च स्यात्, प्रमाणात् सर्वथाऽप्यभिन्नं च स्याद्यऔदासीन्यं साक्षात्समस्तार्थानुभवेपे हानोपादाने थाऽज्ञाननिवृत्तिरित्यनयो कान्तिकत्वं प्रमाणफलत्वान्यथाच्छाविरहान्माध्यस्थ्यमुपेक्षेत्यर्थः । कुत इति चेत् । उच्यते- उनुपपत्ततोरिति न शङ्कनीयं शायः॥ १२ ॥ सिद्धप्रयोजनत्वात् केवलिनां सर्वत्रौदासीन्यमेव भवति, कुत इत्याह-- हेयस्य संसारतत्कारणस्य हानादुपांदयस्य मोक्षतत्कारण- कथश्चित्तस्यापि प्रमाणाद्भेदेन व्यवस्यानात् ॥ १३ ॥ स्योपादानात सिद्धप्रयोजनत्वं नासिद्धं भगवताम् ॥ ४॥ । कथञ्चिदिति वक्ष्यमाणेन प्रकारेण ॥ १३ ॥ अथ केवलव्यतिरिक्तप्रमाणानां परम्पराफलं प्रकटयन्ति तमेव प्रकार प्रकाशयन्तिशपप्रमाणानां पुनरुपादानहानोपेक्षाबुद्धयः ।। ५ ॥ साध्यसाधनभावन प्रमाणफलयोः प्रतीयमानत्वात् ।१४। पारम्पर्यण फलमिति संबन्धनीयम् । नत उपदिये कुमका ये हि साध्यसाधनभावेन प्रतीयते । ते परस्परं भिद्यते, मिनीकर्पूग दावथै ग्रहणवुद्धिः,हेये हिममकराङ्गाराऽऽदी प.. यथा कुठारच्छिदे, साध्यसाधनभावन प्रतीयते च प्रमाणाऽ. रित्यागधुद्धिः, उपेक्षणीयेऽर्थानाप्रसाधकन्वेनोपादानहाना- ज्ञाननिवृयाख्यफले ॥१४॥ नहें जरतृणादौ वस्तुन्युपेक्षाबुद्धिः पारम्पर्येण फलमिति ॥५॥ अस्यैव हेतोरसिद्धतां परिजिहीर्घवः प्रमाणस्य साधनतां प्रमाणात्फलस्य भेदाभेदकान्तवादिनी योगसौगतान्निराक- तावत्समर्थयन्तेतुं स्वमतं च व्यवस्थापयितुं प्रमाणयन्ति प्रमाणं हि करणाऽऽरव्यं साधनं, स्वपरव्यवसिती साधतत्प्रमाणतः स्याद् भिन्नमभिन्नं च प्रमाणफलत्वान्य- कतमत्वात् ॥ १५ ॥ थाऽनुपपत्तेः ।। ६॥ यत् खलु क्रियायां साधकतमं, तत्करणाऽऽख्यं साधनं, यथा तदिति प्रकृतं फलं परामृश्यते ॥६॥ परश्वधः, साधकतमं च स्वपरव्यवसिता प्रमाणमिति ॥१५॥ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण अनिधानराजेन्द्रः। पमाण श्रथ फलस्य साध्यत्वं समर्थयन्ते व्यापकत्वेन तन्नियामकतायामपर्याप्तत्वात् । तस्माद्भेदास्वपरव्यवसितिक्रियारूपाऽज्ञाननिवृत्त्याख्यं फलं तु सा- | भेदैकान्तपक्षयोः प्रतिनियतक्रियावद्भावभङ्गप्रसङ्गः सु व्यक्त इति कथञ्चिदविष्वग्भूतैव क्रिया क्रियावतः सकाशाध्यं प्रमाणनिष्पाद्यत्वात् ॥१६॥ दङ्गीकर्तुमुचिता ॥ २०॥ यत्प्रमाणनिष्पाद्यं,तत्माध्यम् ,यथोपादानबुद्ध्यादिकं,प्रमाण कश्चिदाह-कल्पनाशिल्पिनिर्मिता सर्वाऽपि प्रमाणफलव्यवनिष्पाचंच प्रकृतं फलमिति । तन्न प्रमाणादेकान्तेन फलस्या कृतिरिति विफल एवायं प्रमाणफलाऽऽलम्बनः स्याद्वादिनां भेदः साधीयान् । सर्वथा तादात्म्ये हि प्रमाणफलयोर्न व्यव- | भेदाभदप्रतिष्ठोपक्रम इति तन्मतमिदानीमपाकुर्वन्तिस्था, तद्भावविरोधात् । न हि सारूप्यमस्य प्रमाणम्, अधिगतिः फलमिति सर्वथा तादात्म्ये सिध्यति,अतिप्रसक्नेः । ननु संकृत्या प्रमाणफलव्यवहार इत्यप्रामाणिकप्रलापाः, परप्रमाणस्यासारूप्यन्यावृत्तिः सारूप्यम्, अनधिगतिव्यावृत्ति मार्थतः स्वाभिमतसिद्धिविरोधात् ।। २१ ।। रधिगतिरिति व्यावृत्तिभेदादेकस्याऽपि प्रमाणफलव्यवस्थे- अयमर्थः-सांवृतप्रमाणफलव्यवहारवादिनाऽपि सांवृतत्वं ति चेत् । नैवम् । स्वभावभेदमन्तरेणान्यव्यावृत्तिभेदस्याप्य- प्रमाणफलयोः परमार्थवृत्या तावदेष्टव्यम् । तच्चाऽसौ नुपपत्तेः। कथं च प्रमाणस्याप्रमाणाफलव्यावृश्या प्रमाण- प्रमाणादभिमन्यते,अप्रमाणावा?,न तावदप्रमाणात् , तस्याफलव्यवस्थावत्प्रमाणान्तरफलान्तरव्यावृत्या प्रमाणत्वस्या- किञ्चित्करत्वात् । अथ प्रमाणात् । तन्न । यतः सांवृतत्वग्राउफलत्वस्य च व्यवस्था न स्यात् । इति ॥१६॥ हकं प्रमाणं सांवृतम् , असांवृतं वा स्यात् । यदि सांवृतम् । अथ प्रसङ्गतः कर्तुंरपि सकाशात्प्रस्तुतफलस्य कथं तस्मादपारमार्थिकात्पारमार्थिकस्य सकलप्रमाणव्यवहाभेदं समर्थयन्ते रसांवृतत्वस्य सिद्धिः। तथा च पारमार्थिक एव समस्तोप्रमातुरपि स्वपरव्यवसितिक्रियायाः कश्चिद् भेदः ॥१७॥ ऽपि प्रमागफनव्यवहारः प्राप्तः । अथ प्रमाणफलसांव तत्वग्राहक प्रमाणं स्वयमसांवृतमिष्यते, तर्हि क्षीणा सकर्तुरात्मनः किं पुनः प्रमाणादित्यपिशब्दार्थः॥ १७॥ कलप्रमाणफलव्यवहारसांवृतत्वप्रतिज्ञा, अनेनैव व्यभिचाअत्र हेतुमाहुः रात् । तदेवं सांवृतसकलप्रमाणफलव्यवहारवादिनो व्यक्त कतक्रिययोः साध्यसाधकभावेनोपलम्भात् ॥ १८॥ । एव परमार्थतः स्वाभिमतसिद्धिविरोध इति ॥ २१॥ प्रस्तुतमेवार्थ निगमयन्तिये साध्यसाधकभावेनोपलभ्येते, ते भिम्ने, यथा देवदत्तदा ततः पारमार्थिक एव प्रमाणफलव्यवहारः सकलपुरुषारुच्छिदिक्रिये, साधसाधकभावेनोपलभ्यते च प्रमातृवपरव्यवसितिलक्षणक्रिये ॥ १८ ॥ र्थसिद्धिहेतुः स्वीकर्तव्यः ॥२२॥ रत्ना०६ परि० । स्या। । एतद्धत्वसिद्धतां प्रतिषेधन्ति (१२) इदानीं ये प्रमाणादेकान्तेनाभिनं प्रमाणफलमाहुः, ये च वाह्यार्थप्रतिक्षेपेण ज्ञानाद्वैतमेवास्तीति ब्रुचते, तन्मतस्य कर्ता हि साधकः, स्वतन्त्रत्वात क्रिया तु साध्या, कर्तृ विचार्यमाणत्वे विशरारुतामाहुःनिर्वय॑त्वात् ।। १६॥ न तुल्यकालः फलहेतुभावो, हेतौ विलीने न फलस्य भावः । स्वमात्मा तन्त्रं प्रधानमस्येति स्वतन्त्रस्तद्भावस्तत्वं तस्मा न संविदद्वैतपथेऽर्थसंवि-द्विलूनशीणं सुगतेन्द्रजालम् ।।१६।। त् । यः क्रियायां स्वतन्त्रः स साधको, यथा दारुच्छिदायां व्रश्चनः, स्वतन्त्रश्च स्वपरव्यवसितिक्रियायां प्रमातेति । स्व बौद्धाः किल प्रमाणात्तत्फलमेकान्तेनाऽभिन्नं मन्यन्ने । तथा सन्त्रत्वं कर्तुः कुतः सिद्धम् ? इति चेत् । क्रियासिद्धावपरा च तत्सिद्धान्त:-"उभयत्र तदेव ज्ञानं प्रमाणफलमधिगमरूयत्ततया प्राधान्येन विवक्षितत्वात् । स्वपरव्यवसितिलक्ष. पत्वात् ।” अस्य व्याख्या-( उभयत्रात) प्रत्यक्षेऽनुमाने च, णा क्रिया पुनः साध्या, कर्तृनिर्वय॑त्वात् , या कर्तृनिर्वा तदेव शानं प्रत्यक्षाऽनुमानलक्षणं फलं कार्यम् । कुतः१.अधिक्रिया, सा साध्येतिव्यवहारयोग्या, यथा सम्प्रतिपन्ना, गमरूपत्वादिति परिच्छेदरूपत्वात् । तथाहि-परिच्छेदरूतथा च स्वपरव्यवसितिक्रियेति । तदेवं कर्तक्रिययोः सा- पमेव शानमुत्पद्यते । न च परिच्छे दाहतेऽन्यत् शानकलम् . ध्यसाधकभावन प्रतीयमानत्वादुपपन्नः कथश्चिद्भेदः ॥१६॥ अभिन्नाऽधिकरणत्वात् । इति सर्वथा न प्रत्यक्षानुमानाभ्यां __ एनमेवार्थ द्रढयन्ति भिन्नं फलमस्तीति । एतच न समीवीनम् । यते। यद्यस्मादे. न च क्रिया क्रियावतः सकाशादभित्रैव, भित्रैव वा, कान्तेनाऽभिन्नं, तत्तेन सहैवोत्पद्यते, यथा घटेन घटत्वम्।। तैश्च प्रमाणकलयोः कार्यकारणभावोऽभ्युपगम्यते-प्रमाणं प्रतिनियतक्रियाक्रियावजावभङ्गप्रसङ्गात् ॥ २० ॥ कारणं, फलं कार्यमिति । स चैकान्ताऽभेद न घटते । न हि अभिनवेत्यनेन सौगतस्वीकृतमभेदैकान्तं, भिवेत्यनेन त युगपदुत्पद्यमानयोस्तयोः सव्येतरगविपाणयोरिव कार्यका. धैशेषिकाऽऽयभिमतं भेदैकान्तं प्रतिक्षिपन्ति-क्रियायाः कि- रणभावो युक्तः, नियतमाकालभावित्वात्कारणस्थ, नियतोत्त. यावत एकान्तेनाभेदे हि क्रियावन्मात्रमेव तात्विकं स्यात् ,न | रकालभावित्वात्कार्यस्य । एतदेवाह-"न तुल्यकालः फलतु द्वयम् , अभेदप्रतिशाविरोधात् । एकान्तभेदे तु क्रिया हेतुभावः" इति । फलं कार्य, हेतुः कारणम् , तयोर्भावः कियावतोर्विवक्षितपदार्थस्यैवेयं क्रियेति संयन्धावधारणं, स्वरूपं, कार्यकारणभावः स तुल्यकालः समानकालो न न स्यात् । भेडाविशेषादशेषवस्तूनामप्यसौ किं न भवेत् । | युज्यत इत्यर्थः । अथ क्षणान्तरितत्वानयोः क्रमभावित्वं न च समवायोऽत्र नियामकतया व युक्तः, तस्याऽपि भविष्यतीत्याशङ्कयाऽऽह-"हेती विलीने न फलस्य भावः" Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७७) पमागा अभिधानराजेन्द्रः । पमाणकाल इति । हेतौ कारणे प्रमाणलक्षणे दिलीने क्षणिकत्वादुत्व- अथवा पूर्वाईमिदमन्यथा व्याख्येयम्-सौगताः किलेत्थं स्यनन्तरमेव निरन्वयं विनष्टे फलस्य प्रमाणकार्यस्य न प्रमाणयन्ति-सर्व सत् क्षाण कं, यतः सर्व तावत् घटाऽऽदिकं भावः सत्ता, निर्मूलत्वात् । विद्यमाने हि फलहेतावस्येदं वस्तु मुद्राऽऽदिसानिधी नाशं गच्छद् दृश्यते । तत्र येन स्वफलमिति प्रतीयते, नान्यथा,अतिप्रसङ्गात् । किं च-हेतुफल- रूपेणाऽन्त्यावस्थायां घटाऽऽदिकं विनश्यति तश्चेत् स्वरूप. भावः संबन्धः, स च द्विष्ठ एव स्यात् । न चाऽनयो क्षणक्ष- मुत्पन्नमात्रस्य विद्यते तदानीमुत्पादानन्तरमेव तेन विनष्टयैकदीक्षितों भवान् संबन्धं क्षमते । ततः कथमयं हेतार- व्यमिति व्यक्तमस्य क्षणिकत्वम् । स्या० । सम्म। स्था० । दं फल मिति प्रतिनियता प्रतीतिः, एकस्य ग्रहणेऽप्यन्य- समस्तन यविषयी कृतानेकान्तवस्तुप्राहकत्वेन प्रकृष्टं मान स्याग्रहणे तदसम्भवात् ?, " द्विष्ठसंबन्धसंवित्ति-नैकरूपन प्रमाणम् । इतरांशलव्यपेक्षम्बांशप्राहिणि नये, सम्म. १ वेदनात् । द्वयोः स्वरूपग्रहणे, सति संबन्धधेदनम् ॥ १॥" काण्ड । भक्तपानाभ्यवहारोपध्यादेर्नियोजने, स०१२ अङ्ग। इति वचनात् । यद्यपि धर्मोत्तरेण -" अर्थसारूप्यमस्य प्र. मानमततिक्रम्यत्यर्थे, ध०३ अधि० । पं० प० । पश्चा० । माणं तद्वशादर्थप्रतीतिसिद्धेः" इति न्यायबिन्दुसूत्रं वि- " पमाणाइरिते चउलहूं।" पं. व. १ द्वार। पुरुवस्यावृण्वता भणितम्-" नीलनिर्भासं हि विज्ञानं, यतः तस्मा टोत्तरशताइन्गुलोच्छूये. "माणुम्माणपमाणपत्ते ।" विपा. नीलस्य प्रतीतिरवसीयते । येभ्यो हि चक्षुरादिभ्यो ज्ञान- १ श्रु० २ अ । नि०। जं०नं० । रा० । कल्प० । शा०। मुत्पद्यते, न तद्वशात् तत् शानं नीलस्य संवेदनं शक्यतेऽ. प्रव० । और भ० । युक्ती, सूत्र० २ श्रु० २ ० । प्रवस्थापयितुं, नीलसदृशं त्वनुभूयमानं नीलस्य संवेदनमव- कृष्ट मानं प्रमाणम् । सूचनमाने, भ०५ श. उ० । तीस्थाप्यते । न चाऽत्र जन्यजनकभावनिबन्धनः साध्यसाधन र्थकृत्सम्मतं सर्वेषां प्रमाणम् । व्य० ३ उ० । " परमरहभावो, येनैकस्मिन् वस्तुनि विरोधः स्यात् , अपि तु व्यव- स्समिसणं, सम्मत्तगणिपिडगभरियसाराणं । परिणामियं स्थाप्यव्यवस्थापकभावेन, तत एकस्य वस्तुनः किश्चिद्रू. पमाणं. णिच्छयमवलंबमाणाणं ॥१॥" भ० ६ श० ८ उ० । पं प्रमाणं किश्चित्प्रमाणफलं न विरुध्यते, व्यवस्थापनहे. प्रमत्तषष्ठगुणस्थानकवर्तिसाधूनां "मजं विसयकसाया" इति तुर्हि सारूप्यं तस्य ज्ञानस्य व्यवस्थाप्यं च नीलसंवेदनरू. गाथोक्तः पञ्चविधःप्रमादः कथं संभवतीति प्रश्ने,उत्तरम्-प्रपम्" इत्यादि । तदप्यसारम्, एकस्य निरंशस्य ज्ञानलक्ष मत्तषष्ठगुणस्थानकवर्तिसाधूनां " मजं बिसयकसाया" इरणस्य व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकत्वलक्षणस्वभावद्वयायोगात । त्यादिगाथोक्तः पञ्चविधः प्रमादो मद्यस्य सदैवाभक्ष्यत्वेनाकव्यवस्थाप्यव्यवस्थापकभावस्याऽपि च संबन्धत्वेन द्वि- व्यत्वाद् संभवतीति । १३३ । प्र० । सेन०४ उल्ला । प्ठत्वादेकस्मिन्न सम्भवात् । किं च-अर्थसारूप्यमर्थाss विषयसूचीकारता । तच्च निश्चयरूपमनिश्चयरूपं वा ? । निश्चयरूपं चे (1) अथ प्रमाणस्याऽऽदी लक्षणं व्याचक्षते । तदेव व्यवस्थापकमस्तु, किमुभयकल्पनया । अनिश्चितं चे (२) श्रथात्रैव ज्ञानमिति विशेषणं समर्थयन्ते । त्, स्वयमव्यवस्थितं कथं नीलाऽऽदिसंवेदनव्यवस्थापने स. मर्थम् । अपि च केयमर्थाऽऽकारता ?,किमर्थग्रहणपरिणामः, (३) सन्निकर्वोपरि विचारः । श्राहोखिदर्थाऽऽकारधारित्वम्? नाऽऽद्यः,सिद्धसाधनात् । द्वि (४)नायनरश्मिविचारः। तीयस्तु शानस्य प्रमेयाऽऽकारानुकरणात् जडत्वोपपयादिदो (५) निर्विकल्पकानप्रामाण्यवादिनः प्रतिपादनम् । अथ पाऽऽप्रातः । तन्न प्रमाणादेकान्तेन फलस्याभेदः साधीयान् । व्यवसायीति विशेषणसमर्थनम् । सर्वथा तादात्म्ये हि प्रमाणफलयोन व्यवस्था, तद्भाववि (६) ज्ञानस्य प्रामाण्यं स्वतः, परतश्चाप्रामाण्यम् । अर्थात्परोधात् । न हि सारूप्यमस्य प्रमाणमधिगतिः फलमिति ती स्यनिश्चये च ज्ञानानां स्वत एव प्रामाण्यम,अप्रा. सर्वथा तादात्म्ये सिद्धयति, अतिप्रसङ्गात् । ननु प्रमाण मारपं तु परत एव यजैमिनीया जगुः तन्निराकरणम् । स्यासारूप्यव्यावृत्तिः सारूप्यम्, अनधिगतिव्यावृत्तिरधिग (७) विशषता मीमांसकमतनिराकरणम् । तिरिति व्यावृत्तिभेदादेकस्याऽपि प्रमाणफलव्यवस्थेति चेत् ।। (८) द्रव्यादि चतुर्विधं प्रमाणम् । नैवम्। स्वभावभेदमन्तरेणाऽन्यव्यावृत्तिभदस्याप्यनुपपत्तेः। क (६) अनन्तरं वादा उक्तास्तेषां च मध्ये मुख्यवृत्या धर्भथं च प्रमाणस्य फलस्य चाऽप्रमाणाकलब्यावृष्याप्रमाण वाद पर विधेयः। फलव्यवस्थावत् प्रमाणान्तरफलान्तरव्यावृष्याऽप्यप्रमाण (१०) प्रमाणनंख्या । एवं प्रमाणस्य स्वरूपं प्रतिपाद्य संत्वस्या ऽफलत्यस्य च व्यवस्था न स्यात् , विजातीयादिव ख्यां समाथ्यान्ति । सजातीयादपि व्यावृत्तत्वादस्तुनः ?। तस्मात्प्रमाणात् (११)प्रमाणफलम् । फलं कथञ्चिीनमधष्टव्यं, साध्यसाधनभाषेन प्रतीयमान (१२)प्रमाणादिकान्तेनाभिन्नं प्रमाणफलमाहुस्तन्मतनिरा. स्वान् । ये हिसाध्यसाधनभावन प्रतीयते ते परस्परं भि करणम् । यत, यथा-कुठागच्छिदिक्रिये इति । एवं योगाभिनेतः पमाणंगुल-प्रमाणागल-न० । सहमगुणितादुत्सेधाङ्गल. प्रमाणारफलस्यकान्तभेदोऽपि निगकर्तव्यः, तस्यैकग्रमातृ प्रमाणाजानं प्रमाणाइगुलम् । अथवा-परमप्रकर्षरूपं प्रमाणं तादात्म्येन प्रमाणात् कश्चिद भेदव्यवस्थितः, प्रमाणतया प्राप्तम गुलं प्रमाणागुलम् । अङ्गलप्रमाणभेदे अनु०। ("अं. परिणतस्यैवाऽऽत्मनः फल नया परिणतिप्रतीतेः,यः प्रमिनीने गुल" शब्दे प्रथमभागे ४४ पृष्ट स्वरूपमुकम्) स एवापादत्ते, परित्यजत्युपेक्षते चेति सर्यव्यवहारिभिरस्खलितमनुभवात् . इसरथा स्वपरयोः प्रमाणफलव्यवस्था- पमाणकाल-प्रमाणकाल-पुं० । प्रमीयते पारच्छिद्यते येन विप्लवः प्रसज्यते इत्यलम् । वर्षशताऽऽदि तत्प्रमाणम् । स चासी कालश्चेति प्रमाण Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७८) पमाणकाल प्रनिधानराजेन्मः। पमाणदोस कालः । प्रमाणं वा परिच्छेदनं । वर्षाऽऽदिस्तत्प्रधानं । दिवसा य, राईओ य समा चेव भवंति ? । सुदंनदों या कालः प्रमाणकालः । कालभेदे, भ०। सणा ! चित्तासोयपुमिमासु णं दिवसा य राईश्रो तत्स्वरूपम् । य समा चेव भवंति, पम्मरसमुहुत्ते दिवसे पतारससे किं तं पमाणकाले ?। पमाणकाले दुविहे पप्मत्ते । तं मुहुत्ता राई भवइ, चउभागमुहुत्तभागृणा चउमुहुजहा-दिवसप्पमाणकाले य,रत्तिप्पमाणकाले य । चउपो- त्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ । से तं रिसीए दिवसे, चउपोरिसीए राई भवइ । उक्कोसिया अ- पमाणकाले । पंचममुहुत्ता दिवसस्स वा, राईए वा पोरिसी भवइ । अनन्तरं चतुःपौरुषीको दिवसश्चतुःपौरुषीका च रा. जहम्पिया तिमहत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ । विर्भवतीत्युक्तम् । अथ पौरुषीमेव प्ररूपयन्नाह-( उक्कोजया णं भंते ! उक्कोसिया अपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा सियेत्यादि ) ( अद्धपंचममुहुस त्ति ) अष्टादशमुहूर्त स्य दिवसस्य रात्रेर्वा, चतुर्थो भागो यस्मादीपञ्चमराईए वा पोरिसी भवइ, तया णं कइभागमुहुसभागेणं मुहूर्ता, नवघटिका इत्यर्थः । ततोऽर्द्धपश्चमा मुहर्ता यपरिहायमाणी परिहायमणी जहमिया तिमुहुत्ता दिवसस्स स्याः सा तथा । (तिमुहुत्त त्ति) द्वादशमुहूर्तस्य दिवसाssवा राईए वा पोरिसी भवइ । जया णं जहमिया तिमुहुत्ता देश्चतुर्थो भागस्त्रिमुहूर्तों भवति । अतस्त्रयो मुहर्ताः षट् घटिका यस्यां सा तथा । (कहभागमुहुत्तभागेणं ति) दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, तदा णं कइभाग कतिभागः कतिथभागस्तद्रूपो मुहूर्तभागः कतिभागमुहूमुहुत्तभागेणं परिवड्डमाणी परिवड्डमाणी उक्कोसिया अद्ध- तभागस्तेन कतिथेन मुहूर्ताशेनेत्यर्थः । (वावीससयभापंचममुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ । सुदंस- गमुहुत्तभागेणं ति ) इह अर्द्धपञ्चमानां बयाणां च मुहूर्तानां गा ! जदाण उक्कोसिया अपंचममुहुत्ता दिवसस्स था विशेषः सार्दो मुहूर्तः। स च त्र्यशीत्यधिकेन दिवसशराईए वा पोरसी भवइ, तदा णं वावीससयभागमुहुत्तभा तेन बर्खते हीयते च, स च साऽद्धों मुहर्तः त्र्यशीत्यधिक शतभागतया व्यवस्थाप्यते, तत्र च मुहूर्त द्वाविंशन्यधिकं मेणं परिहायमाणी परिहायमाणी जहमिया तिमुहत्ता दि भागशतं भवत्यतोऽभिधीयते-( वावीसं इत्यादि) द्वाविवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ । जया णं जहम्मिया शत्यधिकशततमभागरूपेण मुहूर्तभागेनेत्यर्थः । ( प्रासातिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, तदा णं ढपुम्मिमाए इत्यादि ) इहाऽऽषाढपौर्णमास्यामिति यदुक्तं वावीससयभागमुहुत्तभागेणं परिवड्डमाणी परिवड्डमाणी तत्पश्चसांवत्सरिकयुगस्यान्तिमवर्षापेक्षयाऽवसेयं, यतस्तत्रै वाऽऽषाढपौर्णमास्यामष्टादशमुहूतौ दिवसो भवत्यर्द्धपश्चउक्कोसिया अद्धपंचमगुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरि- ममुहूर्ता च तत्पौरुषी भवति, वर्षान्तरे तु यत्र दिवसे कर्कसी भवइ । कया णं भंते ! उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दि- संक्रान्तिर्जायते तत्रैवाऽसौ भवतीति समवसेयमिति । बसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, कदा णं जहालिया एवं पौषपौर्णमास्यामप्यौचित्येन वाच्यमिति । अनन्तरं रातिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ ?। सुदंस- | त्रिदिवसयोर्वेषम्यमभिहितमथ तयोरेव समतां दर्शयन्नाह ( अन्थि णमित्यादि ) रह च-( चेत्तासोयपुसिमासुणणा ! जया णं उक्कोसिए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ ज मित्यादि) यदुच्यते तद्यवहारनयापेक्षं, निश्चयतस्तु कर्कहस्मिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, तया णं उक्कोसिया मकरसंक्रान्तिदिनादारभ्य यद् द्विनवतितममहोरात्रं तस्याअद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा पोरिसी भवइ, जहमिया | ढे समा दिनराविप्रमाणतेति । तत्र च पश्चदशमुहूर्ते दिने तिमुहुत्ता राईए पेरिसी भवइ । जया वा उक्कोसिया अट्ठा रात्री वा, पौरुषीप्रमाणं त्रयो मुहर्तात्रयश्च मुहूर्तचतुर्भागा ग्समुहुत्ता राई भवइ, जहम्मए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, भवन्ति,दिनचतुर्भागरूपयात्तस्याः। एतदेवाह-(चउभागे त्यादि ) चतुर्भागरूपो यो मुहर्तभागस्तेनोना चतुर्भागमुहतया णं उक्कोसिया अपंचममुहुत्ता राईए पोरिसी भवइ, तभागोना चत्वारो मुहर्ता यस्यां पौरुष्यां सा तथेति । जहप्पिया तिमुहुत्ता दिवसस्स पोरिसी भवइ । कया ण भ०११ श० ११ उ० । श्रा० चू० । प्रा० म० । विशे० । भंते ! उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहम्मिया पमाणजुत्त-प्रमाणयुक्त-त्रि० । स्वप्रमाणोपेते, और। दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, कया वा उक्कोसिया अट्ठारस- पमाणणयतन-प्रमाणनयतत्त्व-न। प्रकर्षेण संशया द्यभावमुहुत्ता राई भवइ, जहामए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । स्वभावेन मीयते परिच्छिद्यते वस्तु येन तत्प्रमाणम् । नीमुंदसणा ! आसाढपुम्मिमाए णं उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते यते गम्यते श्रुतप्रमाणपरिच्छिन्नार्थकदशोऽनेननि नयः । दिवसे भवइ, जहमिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । पोसपु ततो योरपि द्वन्द्वे वचत्वाप प्रमाणस्याभ्यर्हितत्वन "लक्षणहत्वोः-" इत्यादिवदल्पाचतरादपि नयशदात्प्रागुपिमाए णं उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहएणए पादानम् । ततः प्रमाणनययोस्तच्चम् । प्रमाणनययोरसाधादवालसमुदत्ते दिवसे भवइ । अस्थि णं भंते ! दिवसा य । मत दिवसा य रणस्वरूप, रत्ना०१ परि० । गडयो यसमा चत्र भवंति ?। हंता अन्थि । कया णं भंते! पमाणटोस-प्रमाणदोष-पुं० । द्वात्रिंशकवलप्रमाणातिरिक्त Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमागणदोस (४७६) अभिधानराजेन्दः । पमाय माहारमाहारयतः प्रासैषणादोषे. प्राचार २ श्रु०१ चू०१ अथ क्रमेण दृष्टान्तमाचक्षते. अ० उ० । याषता यस्योदरं पूर्यते तावद् वा प्रमाणं,तदति. यथा सन्निकर्षाद्यस्वसंविदितपरानवभासकझानदर्शनावरिक्तभोजनदोषे, जीता। पर्ययसंशयानध्यवसायाः ॥२५॥ पमाणपक्ख-प्रमाणपक-पुं० । वर्षमासाऽऽदिप्रमाणकारिख शुक्ले कृष्णे वा पने, कल्प० । [पमाणपक्खंतरायलेहं अत्र सन्निकर्षाऽऽदिकमज्ञानात्मकस्य दृष्टान्तः, अस्वसंधिति।] प्रमाणपक्षी वर्षमासाऽऽदिमानकारिणौ यो पक्षौ शु दितज्ञानमनात्मप्रकाशकस्य, परानवभासकशानं बाह्यार्थाssक्लकृष्णपक्षौ, तयोः (अंत त्ति ) अन्तर्मध्ये पूर्णिमाया पलापिज्ञानस्य, दर्शनं निर्विकल्पकस्य, विपर्ययाऽऽदयस्तु मित्यर्थः । तत्र (राय ति ) राजन्त्यः शोभमानाः (लेहं ति) समारोपस्येति ॥२५॥ लेखाः कलाः यस्य स तथा । कल्प०१ अधि० ३ क्षण।। कथमेषां तत्स्वरूपाऽभासता? इत्यत्र हेतुमाहुःपमाणपत्त-प्रमाणप्राप्त-त्रि० । अन्यूनातिरिक्त, कल्प० १ तेच्या स्वपरव्यवसायस्यानुपपत्तेः ॥२६॥ अधि०६क्षण | द्वात्रिंशत्कवलमात्राऽऽहारिणि,भ०।"वत्तीसं यथा चैतेभ्यः स्वपरव्यवसायो नोपपद्यते, तथा प्रागुप. कुकडिअंडगप्पमाणमत्ते कवले आहारमाहारमाणे पमाणप- दर्शितमेव ॥२६॥ रत्ना०६ परिः। से।" भ०५श.७ उ०। पमाणीकय-प्रमाणीकृत-त्रि० । प्रमाणत्वेनाभ्युपगते, प्रति०। पमाणसंवच्छर-प्रमाणसंवत्सर-पुं० । प्रमाणं परिमाण दिव. साऽऽदीनां, तेनोपलक्षितो नक्षत्रसंवत्सराऽऽदिः प्रमाणसंव पमाय-प्रमाद-पुं० । प्रकर्षण माद्यन्त्यनेनेति प्रमावः । उन्सरः । संवत्सरभेदे, स्था। त्त० ४ अ० । सूत्र० । प्रमादतायाम् , स्या०। विषयक्री डाभिष्वङ्गे, आचा० १ श्रु०२ अ० ३ उ० । प्रमादोऽयल पमाणसंवच्छरे पंचविहे पलत्ते । तं जहा-णक्खत्ते १, इति, श्रारब्धेऽप्यनुत्थानशीलता । द्वा० १६ द्वा० । उत्त० । चंदे २, उऊ ३, आइच्चे ४, अभिवड्डिए ५॥ प्रचुरकर्मेन्धनप्रभवनिरन्तराविध्मातशारीरमानसानेकदुःप्रमाणसंवत्सरः पञ्चविधः । तत्र नक्षत्र इति नक्षत्रसंव- खहुतवहज्वालाकलापपरीतमशेषमेव संसारवासगृहं पश्यसरः, स च उक्कलक्षणः, केवलं तत्र नक्षत्रमण्डलस्य च. स्तन्मध्यवर्त्यपि सति च तन्निर्गमनोपाये वीतरागप्रणीतन्द्रभागमात्र विवक्षितमिह तु दिनभागाऽऽदिप्रमाणमिति । धर्मचिन्तामणी यतो विचित्रकर्मोदयसाचिव्यजनितात्प. तथा चन्द्राभिवर्द्धितावप्युक्तलक्षणावेव किं तु तत्र युगाव- रिणामविशेषादपश्यन्निव तदुभयमविगणय्य विशिष्टपरलोयवतामात्रमिह तु प्रमाणमिति विशेषः। ( उऊ इति ) कक्रियाविमुख एवाऽऽस्ते जीवः स खलु प्रमादः । तस्य च ऋतुसंवत्सरस्त्रिंशदहोरात्रप्रमाणैर्द्वादशभितुमासैः साव- प्रमादस्य ये हेतवा मद्याऽऽदयस्तेऽपि प्रमादाः । तत्कारणनमासकर्ममासपर्यायैर्निष्पन्नः पष्ट्यधिकाहोरात्रशतनयमा. त्यात् । उक्तं च-"मजं विषयकसाया, निदा विगहा य पंचमी न इति ३६० ।(आइञ्चति ) श्रादित्यसंवत्सरः, स च त्रि. भणिया । एए पंच पमाया, जीवं पाडेति संसारे ॥१॥" शहिनान्यर्द्ध चेत्येवंविधमासद्वादशकनिष्पन्नः पदयष्ट्यधि- एतस्य च पञ्चप्रकारस्यापि प्रमादस्य फलं दारुणो विपाकः। काहोरात्रशतत्रयमान इति ३६६॥ स्था०५ ठा०३ 70 । उक्तं चजं० । सू०प्र०।०प्र०।। "धेयो विषमुपभोक्त, क्षमं भवेत् क्रीडितुं हुताशेन । पमाणसोभंत -प्रमाणशोभमान-त्रि० । यथोक्तमपोभमा- संसारबन्धनगतै-- तु प्रमादः क्षमः कर्तुम् ॥१॥ ने . कल्प०१ अधि०२क्षण । अस्यामेव हि जाती, नरमुपहन्याद्विषं हुताशो चा । आसेवितः प्रमादो, हन्याज्जन्मान्तरशतानि ॥२॥ पमाणाभाव-प्रमाणाव-पुंप्रमाणानुत्पत्ती, "प्रत्यक्षा या प्रयान्ति पुरुषाः, स्वर्ग यश्च प्रयान्ति विनिपातम् । देरनुत्पत्तिः, प्रमाणाभाव उच्यते ।" सम्म० २ काण्ड । तत्र निमित्तमनार्यः, प्रमाद इति निश्चितमिदं मे ॥३॥ पमाणाभास-प्रमाणाऽऽभास-पुकाप्रमाणस्य स्वरूपाऽभा संसारबन्धनगतो, जातिजराव्याधिमरणदुःखार्त्तः । से, रत्ना । यत्रोद्विजते सत्वः, सोऽप्यपराधः प्रमादस्य ॥४॥ प्रमाणस्य स्वरूपाऽऽदिचतुष्टयादिपरीतं तदाभासम् ॥२३॥ आशाप्यते यदवश-स्तुल्योदरपाणिपादवदनेन । पूर्वपरिच्छेदप्रतिपादितात्प्रमाणसंबन्धिनः स्वरूपाऽदिचतु कर्म च करोति बहुविध-मेतदपि फलं प्रमादस्य ॥५॥ प्यात्स्वरूपसंख्याविषयफललक्षणाद्विपरीतमपरं स्वरूपाss इह हि प्रमत्तमनसः, सोन्मादद्वदनिभृतेन्द्रियाश्चपलाः । दिचतण्याभासं स्वरूपाभासं संख्याऽभासं विषयाभा यत्कृत्यं तदकृत्वा, सततमकार्येवभिपतन्ति ॥ ६॥ सं, फलाभासं चेत्यर्थः। तद्वदाभासत इति कृत्वा ॥२३॥ तेषामभिपतिनाना-मुभ्रान्तानां प्रमत्तहृदयानाम् । वर्द्धन्त एव दाणः, वनतरवश्वाम्युसेकन ॥ ७॥ । तत्र स्वरूपाऽऽभासं तावदाहुः दृक्षाऽप्यालोकं नैव विश्रंसितव्यं, अझानाऽऽत्मकानात्मप्रकाशकस्खमात्रावभासकानार्वकल्प तीरं नीता भ्राम्यते वायुना नौः। कसमारोपाः प्रमाणस्य स्वरूपाभासाः ॥ २४ ॥ लब्ध्वा वैराग्यं भ्रष्टयोगप्रमादाद्, अशानाऽऽत्मकं च, अनात्मप्रकाशकं च, स्वमात्रावभासकं भूयो भूयः संसृतौ वम्भ्रमन्ति ॥८॥" इति । च, तिर्विकल्पकं च, समारोपश्चेति प्रमाणसंबन्धिनः स्व- ।। नं. । आय० । प्राचा. । उत्त। सूत्रपा०।०। रूपाऽऽभासाः प्रमाणाऽऽभासाः प्रत्येयाः ॥ २४ ॥ पञ्चा० । जीवा० । १० । श्रातु० । पालस्ये, औ० । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाय श्लाघतायाम्, प्रश्न० १ संव० द्वार । प्रमदनं प्रमादः । प्रमत्ततायाम्, सदुपयोगाभावे, स्था० । 9 ,,, 4 छबि पाए पते तं जहा मज्जपमाए, शिरापमाए, बियपमाए, कसायपमाए, जूपपमाए, पटिलेहणापमाए । षड्विधः पद्मकारः प्रमदनं प्रमादः प्रमत्तता सदुपयोगा भाव इत्यर्थः । प्रशप्तः । तद्यथा--मद्यं सुराऽऽदिस्तदेव प्रमादकारणत्वात् प्रमादो मद्यप्रमादः । स्था० । ( तद्दोष: ' मज्ज शब्दे दर्शयिष्यते) निद्रा प्रतीता (तद्देोपाणिदापमाय शब्दे चतुर्थभागे २०७२ पृष्ठे दर्शितः) विषयाः शब्दाऽऽद यस्तेषां चैवं प्रमादता ( ताम् 'विसयपमाय शब्दे वक्ष्यामि ) कषायाः क्रोधाऽऽदयः तेषामप्येवं प्रमादता "विरामसंक्लिए-मान्तरं धनमुच्यते यस्य तन्मु पितं दो- स्तस्य शिष्टा विपत्तयः ॥ १ ॥ इति । द्यूतं प्रतीतं, तदपि प्रमाद एव । ( तद्दोषः जूयप्पमाय ' शब्दे १८४ पृष्ठे दर्शितः ) तथा प्रत्युपेक्षणं प्रत्यु पेक्षा सा च यत्रकालभावभेदाचतुर्द्धा तब न्य प्रत्युपेक्षणा- वस्त्रपात्राऽऽयुपकरणानामशनपानाऽऽद्याहाराणां चक्षुर्निरीक्षणरूपा । क्षेत्रप्रत्युपेक्षणा- कायोत्सर्गनिषदनशयनस्थानस्य स्थण्डिलानां मार्गस्य विहारक्षेत्रस्य च निरूपणा । कालप्रत्युपक्षरणा धर्मजागरिकाऽऽदिरूपा । यथा" किं कय किं वा सेसं, किं करणिज्जं तवं च न करेमि । पुव्वावत्तरकाले, जागरश्र भावपडिलेहा ॥ ४९२ ॥ " इति । ( अस्या गाथाया अर्थः ' पडिलेहणा शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३४१ पृष्ठे गतः ) तत्र प्रत्युपेक्षणायां प्रमादः शैथिपमाशाऽतिक्रमी या प्रत्युषेणाप्रमादः अनेन च प्रमार्जनाभिताचर्याऽऽदिषु इच्छाकारभिध्याकाराऽऽदिषु दशविध सामाचारीरूपव्यापारेषु यः प्रमादोऽसावुपलक्षितः, तस्याऽपि सामाचारीगतत्वेन पष्ठप्रमादलक्षणव्यभिचारित्वादिति । स्था० ६ ठा० । श्रप्रमादाः - सम्प्रति " अट्टहा पमाय त्ति " सप्तोत्तरद्विश ततमं द्वारमाहमाओ दिह भट्टियो । १२ मिच्छाना३ तहेव व ॥ १३२२|| रागो ४ दोसो ५ सहसो ६, धम्मम्मिय अणायरो ७ । जोगाएं दुप्पणीहार्य अपि १२२३ ।। प्रमाद्यति मातमाग प्रति शिथिलांची भवत्यनेन प्राद ति प्रमादः स च मुनिः प्रतिपादि सीप्रकार तथा संशयः किमेतदेवं स्याताम्यति संदेह मिथ्याज्ञानं विपर्यस्तनाप्रतिपति, रागोऽभिपी स्मृति दि रमशीलता पानादनुद्यमः योगानां मनोवाक्कायानां दुष्प्रणिधानं दुष्टताकरणम, श्रयं चापविधी sपि प्रमादः कर्मस्तुत्वा जैयितव्यः परिहर्तव्य इति । प्रब० २०७ द्वार । उत्त० ६० पञ्चा० मा उ पमाये ।" मागांना प्रतिवमा कुर्यथाः पापानि मादम् । पं० चूर २ कल्प । C ( ४८० ) अभिधानराजेन्द्रः । मनमनमाह निवसेवो अमाए चहियो दम्म | पमाय आगम नोचागमतो, नो आगमतो य सो तिविहो ।। ५०४ || जाणगसरीरभत्रिए, तव्वइतिरित्ते मित्तमाई | भावे अन्ना - वराई होइ गायव्वो ।। ५०५ ।। ( श्रमित्तमाईसुति) श्रमित्राः शत्रवः, आदिशब्दाद्यालाssदिपरिग्रहः । तेषु योऽप्रमादः सः तयतिरिक्को ऽप्रमाद उच्यते । इम्पत्यं वास्प तथाविधामा कार्याप्रसाधकत्वात् विपयत्वाहा ( भावे इति ) भावे विचायें अज्ञानं मिथ्याज्ञानमसंवरोऽनिरुद्धाऽऽश्रवता, आदिशब्दात्कषायाऽऽदिपरिग्रहः । एतेषु प्रक्रमादप्रमादः - एतज्जयं प्रति सदा सावधानतारूपो भवति ज्ञातव्यः । उत्त० २६ श्र० । निद्रापमायमाई-सु सई तु खलियरस सारणा होइ । न कहियं ते पमाया मा सीयसु तेसु जाणतो ॥ ४६६ ॥ तं तह दुल्लहलंभ, विज्जुलयाचंचलं मरणुस्सत्तं । लडू जो पमायइ, सो कापुरिसो न सप्पुरिसो || 44 बृ० १ ० २ प्रक० । तत् मानुष तथा पूर्वोक्रप्रकारेण दुर्लभला दुष्प्राप लाभलं ध्यायः प्रमाद्यति प्रमाई करात स कापुरुषो न सत्पुरुषः । श्र० म० १ श्र० । उत्त० । प्रमादस्य विशेषतोऽपादावाद विपि साहनी हो जो पालो तस्स न सिज्झइ एसा, करेइ गरुयं च अवगारं ॥ १११ ॥ जिनदीक्षां विद्यानिय श्रीदेवताऽधिष्ठितामित्र सा धयन् भवति यः ( पमाइलो त्ति ) प्रमादवान्, "आलिवलोलाल-वंत-मन्तेत्तेर-मणा मतोः ॥ ८ । २ । १६६ ॥ इतिव चनात् । तस्य प्रमादवतो न सिद्धयति न फलदानाय संपद्यते, एषा पारमेश्वरी दीक्षा विद्येव । चकारस्य भिन्नमत्वात् करोति च गुरुं महान्तमपकारमनर्थमिति भा वार्थः पुनरयम् - यथा श्रत्र प्रमादवतः साधकस्य विद्या फ लदा न भवति, ग्रहसंक्रमाऽऽदिकमनर्थे च संपादयति, तथा शीतलविहारिणो जिनदीक्षापि न केवलं सुगतिसंपत्तये न भवति, किं तु दुर्गतिदीर्घभवभ्रमणापायं च विदधाति, आर्यमङ्गोरिव । उक्तं च 3 "सीयलविहारचं खलु भगनासायानि पत्ती भवो सुदीहो, किलेसबहुलो जो भणियं ॥ १ ॥ निग्धपरपचपणसुर्य परियं गहरं महिद्वीपं । सायं संसार भरि ॥२॥ " इति। तस्मादप्रमादिना साधुना भवितव्यमिति । ध० २०३ श्र धि०४ लत० । ( श्रार्यमङ्गुकथा 'अज्जमंगु' शब्दे प्रथमभाग २११ पृष्ठे गता ) प्रसादच युक्त्यन्तरेण निषेधमाहपहिला पिडा कायविपाहसी पमनस्स या सुस्मिता, अपमाई सुविहियो हुआ ।। ११२ ।। प्रणनिना आदिश व्हामनादिपरिग्रहः। - प्रक्रिया व्यापार इत्येकार्थाः | पायविघातिनी प्रमत्तस्य साधार्भणितका थुते सिद्धान्ते । तद्यथा पडिलेहणं कुता. गिहिकहं कुरण जवयक वा । देइ व पश्चक्खाणं, याएइ सयं पडिच्छ वा ॥ ४३८ ॥ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाय अनिधानगजेन्द्रः । पमायट्ठागा पुढवीआउक्काए तेऊवाऊवणस्सइतसाणं । तेन विरहितः प्रत्युपेक्षणादिकुर्वन्न स्वाध्यायं करोति, स्वापडिलेहणापमत्तो, छरहं पि विराहश्रो होइ॥४३६ ॥ ध्यायं कुर्वन्न वस्त्रपात्राऽऽदिवरिकर्म गमनाऽऽदि वेति । श्रात घडगारपलुट्टणया, मट्टी अगणी य कुंथुवीयाई । एवोक्तमा- " इंदियन्थ विसज्जिता, समझायं चेव पंचहा। उदगगया य तसेयर-उम्मुयसंघट्टझावणया ॥४४॥" | तम्मुती तपुरकारे, उवउत्तेरियं रिए ॥१॥" तथा(ोघ०। आसां गाथानामोऽस्मिन्नेव भागे पडिलह- यथासूत्रमिति सूत्रस्यानतिक्रपेण यथासूत्रं तत् पुनःस्था' शब्दे ३४६ पृष्ठे गतः) "सुत्तं गणहररइयं, तहेव पत्तेयबुद्धरइयं च । सुयकंवलि" इय दब्वो वि छरह, विराहओ भावो इहरहा वि। णा रइयं, अभिन्नदसपुविणा रइयं ॥१॥" इन्येषां च निउवउत्तो पुण साह, संपत्तीए अवहश्रो उ ॥१॥” इत्यादि । श्चयतः सम्यगष्टित्वेन सतभूतार्थवादित्यादन्यग्रथितमपि तस्मात्सर्वव्यापारेष्वप्रमादी सुविहितः शोभनं विहितमनु- तदनुयायि प्रमाण मेव-न पुनः शेषभिति । पाचरति सर्वष्टानं यस्य स सुविहितो भवेजायतेति । क्रियाम् , अप्रमादी य इह चारित्रीति सुगममेवेति । इत्युक्तं अथ कीदृक् प्रमादी स्यादित्याह क्रियास्वप्रमाद इति । ध०र०३ अधि.५ लक्ष रमण्यारक्खइ वएसु खलियं, उवउत्तो होइ समिइगुत्तीसु।। दिप्राप्त्यर्थमेव सर्वाऽऽरम्मेषु प्रवर्तनरूपे असंप्राप्तकामभेदे, प्रय० १६६ द्वार । दश। वजेइ अवजहे, पमायचरियं सुथिरचित्तो॥ ११३ ।। पमायकय-प्रमादकृत-वि० । प्रमादजनिते. दश० ३ ०। रक्षस्यकरणबुद्धया परिहरति व्रतेषु विषयभूतेषु स्खलितमतिचारं, तत्र प्राणातिपातविरतौ प्रसस्थावरजन्तूनां सं पमायक्खलिय-प्रमाइस्खलित-त्रि० । प्रमादात्सकाशाद् दु. घट्टनपरितापनोपद्रावणानि न करोति मृपावादविरतौ सू. श्चेष्टिते, पं० व १ द्वार | क्ष्ममनाभोगादिना बादरं वचनाभिसंधिनाऽलीकंन भाषते, पमायट्ठाण-प्रमादस्थान-न । द्वात्रिशे उत्तराध्ययने, स०२ अदत्ताऽऽदानविरतौ सूक्ष्मं स्थानाऽऽद्यननुज्ञाप्य न करो अङ्ग। ति, बादरं तीर्थङ्करगुरुभिरननुज्ञातं नाऽऽदत्ते, नापि परि- नामनिष्पन्नविक्षयाभिधानायाऽऽह नियुक्तिकृत्भुक्ते चतुर्थवते, " वसहि १ कह २ निसिजि ३दिय ४ कुहूं- निक्खेवो उपमाए,चउबिहो दुविहो य होइ दव्वम्मि । तर ५ पुब्वकीलिय ६ पणीए ७। अपमायाऽऽहार ८ विभू-स आगम नोआगमतो,नोआगमतो य सो तिविहो ॥५१६।। णाई ( नव बंभगुत्तीओ ॥१॥” इति नवगुप्तिलनाथं ब्रह्मचर्य प्रतिपालयति । पञ्चमवते-सूक्ष्मं बालाऽऽदिममत्वं न क जाणगसरीरभविए, तव्वइरिते अमजमाईसु । रोति, बादरमनेषणीयाऽऽहाराऽदि न गृरहाति, "परिगहोऽ- निदाविकहकसाया, विसएसु भावो पमाओ ।।१२०!! ऐसणग्गहणे।"इत्याप्तवचनात् । उपकरणं वा न मूर्च्छया स- नामं ठवणा दविए, खित्तद्धा उड्ड उवरई वसही। मधिकं धारयति, "मुच्छा परिग्गहो वुत्तो।" इति वचनात् । संजमपग्गहजोहे, अयलगणणसंधणा भावे ॥१२१॥ रात्रिभक्तविरतौ-सूक्ष्म शुष्कसन्निधिमपि न रक्षति, बादरं तु-"दिवा गहियं दिवा भुत्तं १ । दिवा गहियं रात्री भुतं “णि खेवो" इत्यादिगाथास्तिस्रः सुगमा एव,नवरं (मज२। राम्रो गहियं दिवा भुत्तं ३ । राम्रो गहियं राजा भुतं ।। माईसु त्ति) मकारोऽलाक्षणिकः । मदयतीति मद्य-काष्ठपिष्ट इति चतुर्विधमपि रात्रिभुक्तं न करोति । एवं सर्ववतेषु स्ख. निष्पन्नम,श्रादिशब्दादासवाऽदिपरिग्रहः । एतानि,सुप्व्यत्यलितं रक्षनि । तथोपयुक्तो दत्तावधानो भवति समितिषु याच्च प्रथमाथै सप्तमी,भावप्रमादहेतुत्वाद् द्रव्यप्रमादः, 'निप्रतीचाररूपासु । उक्नं च द्राविकथाकषायाः' उक्तरूपाः (विलासु ति) प्राग्वद्वि षयाश्च 'भावतः 'भावमाश्रित्य प्रमादः । तथा स्थाननिक्षेपे "समिश्रो नियमा गुत्तो, गुत्तो समियत्तणभिम भइयव्यो। प्रस्तावात्स्थानशब्दो नामादिभिः प्रत्येक योज्यते,तत्र च द्रकुसलवइमुदीरंतो, जं वइगुत्तो वि समिश्रो वि ॥१॥” इति । व्यस्थान-नोआगमतो शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं यत्सचिगुप्तिष्वप्रतीचाररूपासु,उपयुक्तता चासु प्रवचनमात्राध्ययनो. ऋविधिना विज्ञेया । किं बहुना-वर्जयत्यवद्यतुं परिहरतिपा तादिद्रव्याणामाश्रयः। क्षेत्रस्थानं-भरतादिक्षेत्रमूर्खलापकारणं,प्रमादचरितं सुस्थिरचित्त इति स्पधार्थभवति ॥११३॥ का:दि वा ।यन वा क्षेत्र स्थान विचार्यते,श्रद्धा-कालः, सैव तिष्ठत्यस्मिन्निति स्थानमद्धास्थानम्, तच्च पृथिव्यादीनां भवतथा स्थित्यादि,समयावलिकाऽदिया। ऊर्द्धस्थानं-कायोत्सर्गाss. कालम्मि अणूणऽहियं, किरियंतरविरहिओ जहा सुत्तं । दि। उपरतिः-विरतिस्तत्स्थानं यवासी गृह्यते । वसतिः-उपाआयरइ सवकिरियं, अपमाई जो इह चरिती ॥११४॥ अयस्तत्यानं ग्रामाऽऽरामादि । संयमः-सामायिका दिस्तकालेऽवसरे यो यस्याः प्रत्युपेक्षणाऽऽदिक्रियायाः प्रस्तावस्त- स्य स्थान प्रकर्षापकर्षवदध्यवसायरूपं यत्र संयमस्यावस्थानं, स्मिन्नित्यर्थः । कालमन्तरेण कृप्यादयोऽपि नेप्रसिद्धये स्यु- तश्चासंख्येयभेदभिन्नम्। तथाहि सामायिकच्छेदोपस्थापनीयरित्यतः काले, सर्व करोतीति योगः । कथंभूतामन्यूनाधि- परिहारविशद्धिकानां प्रत्येक्रमसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशपरिकां-न प्रमादातिशयादूनां, नापि शून्यचित्ततया समधिकां, माणानि संयमस्थानानि सूक्ष्मसम्परायस्त्वान्तौहर्तिक इत्यकरोति । अवसन्नताप्रसङ्गात् । यदाहुः श्रीमद्स्वामिपादाः- न्तर्मुहर्तसमयपारमाणानि तत्स्थानानि, यथाख्यातसंयमस्तु "श्रावस्सयाइयाई, न करे अहवा विहीग महियाई। गुरुवय- प्रकोपकर्षरहित एकरूप एवेत्येकमेव तत्स्थानम् । एवं च णवलाइ तहा,भणि ओ एसो हु ओसनी॥१॥"तथा क्रियान्त- सामायिकाऽऽदीनामसंख्येयभेदत्वात्समुदायाऽऽत्मकस्य संयरविरहित इनिएकस्याः क्रियाया द्वितीया क्रिया क्रियान्तरं, । मस्थानस्यायसंख्येयभेदता, केवलमिह वृहत्तरमसंख्येयं गृ. Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायट्ठाण माभिधानगजेन्डः। पमायहाण ह्यते । असंख्यातानामसंख्यातभेदत्वात् । प्रग्रहस्थानं तु-प्र- ते संसारमणंत, हिंडंति पमायदोसेणं ।। ५२५ ।। कर्पण गृह्यतेऽस्य वचनमिति प्रग्रहः-उपादेयवाक्योऽधिपति 'येपां'प्राणिनां, ' तुः' पूरणे, प्रमादेनोपलक्षितानां 'गबेन स्थापितः,स च लौकिको,लोकोत्तरश्चातस्य स्थानम् । त च्छति' जति, कालः 'निरर्थकः ' निष्ययोजनः, क्व?च लौकिकं पञ्चवा-राजयुवराजमहत्तरामात्यकुमारभेदात् । • धौ' धर्मविषये, धर्मप्रयोजनरहित इत्यर्थः । प्रमादतो हि लोकोत्तरमपि पञ्चधैव-प्राचार्योपाध्यायप्रवृत्तिस्थावरगणा नश्यन्त्येव धर्मप्रयोजनानि । ते. किमित्याह-संसारम् 'अवच्छेदकभेदात् । 'योधस्थानम्' अालीढाऽऽदि ।' बलस्थानं नन्तम् ' अपर्यवासितं, ' हिण्डन्ते' भ्राम्यन्ति, प्रमाददो निश्चलस्थितिरूपं,तत्र सादिसपर्यवसिताऽऽदि परमारवादी घेण' हेतुनेति गाथार्थः। नाम् । गणनास्थानम्-एककाऽऽदि । सन्धानस्थानम-द्रव्यतः ___ यतश्चैवं ततः किं कर्त्तव्यमित्याहकमचुकाऽऽदिगतम्। भावस्थानम्-औदयिकाऽऽदिको भावस्तिष्ठन्त्यत्र जन्तव इति कृत्येति गाथात्रयार्थः । तम्हा खलु प्पमाय, चइनणं पंडिएण पुरिसेणं । दसणनाणचरित्ते, कायव्वो अप्पमायो उ ॥ ५२६ ॥ सम्प्रति येनात्र प्रकृतं तदुपदर्शयन्नुपदेशसर्वखमाह तस्मात् ' खलु' निश्चयेन, प्रमादं त्यक्त्वा , 'पाण्डतेन' भावप्पमायपगयं, संखाजुत्ते अ भावठाणम्मि। बुद्धिमता पुरुपेण, उपलक्षणत्वात् स्यादिना च । दर्शनं च चइऊण इय पमायं, जइयव्वं अप्पमायम्मि ।। ५२२ ॥ शानं च चारित्रं चेति समाहारस्तस्मिन् मुक्तिमार्गतया प्रा. भावप्रमादेन उक्तरूपण प्रकृतम्-अधिकारः,तथा(संख त्ति)स- गभिहिते, 'कर्तव्यः 'विधेयः, 'अप्रमादः ' उद्यमः, ' तुः' इन्ख्यास्थानं,ताक्लेन,चस्य भिन्नक्रमत्वाद्भावस्थानेन च । कोऽ. अवधारणार्थ इत्यप्रमाद एव, न तु कदाचित्प्रमादः, तस्यैथः ?,संख्यास्थानेन भावस्थानेन च,सर्वत्र सुख्ख्यत्ययेन सप्तमी। वं दोषदुएत्वादिति गाथार्थः । इत्यवासतो नामनिष्पन्नपात्र हि गुरुवृद्धसेवाऽऽद्यभिधानतः, प्रकामभोजनाऽऽदिनि. निक्षेपः। पंधतश्च भावप्रमादा निद्राऽऽदयोऽर्थात्परिहर्तव्यत्वेनोच्यन्ते, सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयम् तच्चेदम्ते चैकाऽऽदिसंख्यायोगिन औदयिकमावस्यरूपाश्चेति भावः। अचंतकालस्स समूलयस्स, त्यक्त्वा विहाय,इतीत्वयंप्रकारं प्रमाइन। किमित्याइ-"यति सव्यस्स दुक्खस्स उ जो पमोक्खो। तव्यं " यत्नो विधेयः, क ? ' अप्रमादे' प्रमादप्रतियोगिनि, धर्म प्रत्युद्यम इति गाथार्थः । तं भासओ मे पडिपुन्नचित्ता, अस्यैवार्थस्य दृढीकरणार्थमुत्तमनिदर्शनमाह सुणेह एगग्गहियं हियत्थं ॥ १ ॥ वाससहस्सं उग्गं, तवमाइगरस्स आयरंतस्स । अन्तमतिक्रान्तोऽत्यन्तो, वस्तुनश्च द्वावन्तौ-श्रारम्भक्षणः, समाप्तिक्षणश्च । तथा चान्यैरप्युच्यते-" उभयान्ता परिजो किर पमायकालो, अहोरतं तु संकलिग्रं ॥५२३।। च्छिन्ना बस्तुसत्ता नित्यतेति । " तोहाऽऽरम्भलक्षणाबारसवासे अहिए, तवं चरंतस्स बद्धमाणस्स । न्तः परिगृह्यते, तथा चात्यन्तः अनादिः कालो यस्य जो किर पमायकालो, अंतमुहुत्तं तु संकलियं ॥५२४॥ सोऽयमत्यन्तकालस्तस्य, सह मूलेन-कपायाऽऽदिविरतिवर्षसहस्रमिति कालात्यन्तसंयोगे द्वितीया । ततश्च वर्षस रूपेण वर्तत इति समूलकः प्राग्वत्तस्य । उक्नं हिहरप्रमाणं कालं यावत् 'उग्रम्' उत्कटं तपः 'अनशनाss "मूलं संसारस्स उ, हुंति कसाया अविरती य।" 'सर्वदि 'श्रादिकरस्य'ऋषभनाम्नो भगवत प्राचरती यः कि स्य ' निरवशेषस्य, दुःखयतीति दुःखं संसारस्तस्य, अलेति परोक्षाऽऽसवादसूचकः।' प्रमादकालः' यत्र प्रमादोऽ सातं चेह दुःखं गृह्यते, अत्र च पक्षे मूलं रागद्वेषा यः भूत् , यत्तदोरभिसंबन्धात् सोऽहोरायं तुः ' अवधारणे । प्रकर्षण मोक्षयति-मोचयतीति प्रमोक्षः-आत्मनो दुःखाप गमहेतुः. पूर्वत्र तुशब्दस्यावधारणार्थस्येह संबन्धात् प्रमोक्षततोऽहोरात्रमेव, किमयमेकावस्थाभाविनः प्रसादस्य काल उतान्ययेयाशयाऽऽह-सङ्कलितः।किनुकं भवति?-अप्रमा एव । तं ' भाषमाणस्य' प्रतिपादयतः, यदि वा-प्रमोक्षः दगुणस्थानस्यान्तर्मोहसिकन्वे नानेकशी पिप्रभावशाप्ती नदव अपगमस्तं भाषमाणस्येति । कोऽर्थः ?-यथाऽसौ भवति स्थितविषयभूतस्यान्तमहतस्यायदत्वा तेपामतिसूक्ष्म तथा प्रवाणस्य ( मे ) मम प्रतिपूर्ण विषयान्तरागम नेनाखण्डितं विसं चिन्ता वा येषां ते प्रातपूर्णाचत्ताः, तया सर्वसङ्कलनायामप्यहोगात्रसेवाभूत् । तथा द्वादशवर्षारयधिकानि तपश्चरती बर्द्धमानस्य यः किल प्रमाद प्रतिपूर्णचिन्ता चा।' शृणुत' अाकर्णयत, एकाग्रस्य एका ऽऽलम्बनस्यार्थाश्चतसी भाव एकात्र्यं ध्यानं, तच्च प्रक्रमाकालः प्राग्वत्सोऽन्तर्मुहूर्तमेव सङ्कलितः, इहाप्यन्तर्मुहूर्ता नामसंख्येयभेदत्वात् प्रमादस्थितिविषयान्तर्मुहर्तानां सू. द्वाऽऽदि,तस्मै हितमेकाग्रहितं पाठान्तरत एकान्तहितं धमत्वं, सङ्कलनान्तर्मुहर्तस्य च बृहत्तरत्वमिति भावनीयम् । वा, हितः तत्वतो मोक्ष एव, तदर्थमिति सूत्रार्थः । अन्ये त्वेतदनुपपत्तिमीत्या निद्राप्रमाद एवायं विवक्षित इति यथा प्रतिज्ञातमाहव्यावक्षत इति गाथाद्वयार्थः । णाणस्स सच्चस्स पगासणाए, इत्थमुत्तमनिदर्शनेनाप्रमादानुष्ठाने दायमापाद्य विपर्यये अन्नाणमोहस्स विवज्जणाए । दोषदर्शनद्वारेण पुनस्तदेवाऽऽपादयितुमिदमाह रागस्स दोसस्स य संखएणं, जेसिं तु पमाएणं, गच्छा कालो निरत्थो धम्मे । । एगंतसुक्खं समुवेइ मोक्खं ।। २॥ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८३) पमायहाग प्रनिधानराजेन्द्रः । पमायट्ठागा ज्ञानस्य आभिनिवोधिका देः,सर्वस्य निरवशेषस्य, पाठान्त णीयम् , अपेर्गम्यमानत्वादिच्छेदप्येवंविधमेव, श्रादानभोजने रतः 'सत्यस्य वा, अवितथस्य, 'प्रकाशनया' इति । प्रभास तु दूरोत्सारिते एव, अनेवंविधस्य एवंविधाहार एव ह्यनन्तनया,निर्मलीकरणेनेत्यर्थः । अनेन ज्ञानात्मको मोक्षहेतुरुक्तः। रोक्नं गुरुवृद्धसेवाऽऽदि ज्ञानाऽऽदिकारणमाराधयितुं क्षमः । तथा अज्ञानं-मत्यज्ञानाऽऽदि, मोहो-दर्शनमोहनीयम् । अनयोः तथा-'सहायं' सहचरमिच्छेन्द्च्छान्तर्वर्ती सन्निति गम्यते, समाहारे ऽज्ञानमोहं तस्य विवर्जना परिहारो, मिथ्याश्रुतश्रव निपुणा-कुशला, अर्थेषु-जीवाऽऽदिषु बुद्धिः मतिरस्येति निणकुदृष्टिसङ्गपरित्यागाऽऽदिना तया,अनेन स एव सम्यग्दर्श पुणार्थवुद्धिस्तम् । पठ्यते च-(णि उणेहबुद्धि ) तव निपुणानाऽऽत्मकोऽभिहितः। तथा 'रागस्य द्वेषस्य च' उक्तरूपस्य, सुनिरूपिता, ईहा-चेष्टा बुद्धिश्च यम्य स तथा अनीरशो हि 'संक्षयण ' विनाशेन, एतेन तस्यैव चारित्रात्मकस्याभि सहायः स्वाच्छन्द्योपदेशाऽऽदिना ज्ञानाऽदिकारणगुरुवृद्धसेधानम् ; रागद्वेषयोरेव कषायरूपत्वेन तदुपघातकत्वाभिधा वाऽऽदिभ्रंशमेव कुर्यादिति । तथा-'निकेतम् श्राश्रयमिच्छेद् नात् । ततश्चायमर्थः-सम्यग्दर्शनशानचारित्रैः 'एकान्तसौण्यं' विवेकः पृथग्भावः,ख्यादिसंसर्गाभाव इति यावत्। तसै योग्यदुःखलेशाकलङ्कितसुखं, समुपैति 'मोक्षम् ' अपवर्गम् । अ म् उचितं तदापाताऽऽद्यसम्भवेन विवेकयोग्यम् । अविविक्तायं च दुःखप्रमोक्षाविनाभावीत्यतः स एवापलक्षित इति ऽश्रिये हि रुयादिसंसर्गाञ्चित्तविप्लवोत्पत्ती कुतो गुरुवृद्धसेवासूत्रार्थः। ऽऽदिज्ञानादिकारणं सम्भवेत् । समाधि कामयते-अभिल षति समाधिकामः,अत्र च समाधिव्यभावभेदाद् द्विभेदः,तनन्वस्तु शानाऽऽदिभिर्दुःखप्रमोक्षः, अमीषां तु कः प्राप्तिहे त्र द्रव्यसमाधिः क्षीरशर्कराऽदिद्रव्याणं परस्परमविरोधना___ तुः ?, उच्यते वस्थानम् । भावसमाधिस्तु ज्ञानाऽऽदीनां परस्परमबाधयान्वतस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा, स्थानं तदनन्यत्वाच्च ज्ञानाऽऽदीनाम् अयमेवेह गृह्यते। तथा च विवजणा बालजणस्स दूरा । शानाऽऽद्यवाप्तुकाम इत्युक्तं भवति, श्रमणस्तपस्वीति प्रासज्झायएगंतनिवेसणा य, ग्वदिति सूत्रार्थः । सुत्तत्थसंचितणया धिई य ॥ ३ ॥ कालाऽऽदिदोषत एवंविधसहायाप्राप्तौ यत्कृत्यं तदाह न वा लभिजा निउणं सहायं, तस्येति योऽयमनन्तरमोक्षोपाय उक्तः एषः' अनन्तर. वषमाणः 'मार्गः' पन्थाः प्राप्तिहेतुः, यदुत गुरवो-यथाव. गुणाहियं वा गुणो समं वा । च्छाखाभिधायकाः, वृद्धाश्च श्रुतपर्यायाऽऽदिवृद्धाः, तेषां से. एक्को वि पावा विवजयंतो, वा पर्युपासना गुरुवृद्धसेवा, इयं च गुरुकुलवासोपलक्षणं, विहरेज कामेसु असन्जमाणो ॥ ५॥ तत्र च सुप्रापान्येव शानाऽऽदीनि । यदक्कम्-"णाणस्स होइ 'न' निषेधे, वाशब्दश्चेदर्थे, ततश्च न चेत् ‘लभेत् ' प्रा. भागी.थिरयरा दसणे चरित्ते य । धन्ना श्रावकहाए, गुरुकु- प्नुयात् 'निपुणम् ' इति निपुणबुद्धिं ' सहायं ' गुण: लवासं न मुंचंति ॥१॥” इति । सत्यपि च गुरुकुलवासे शानाऽऽदिभिरधिकम् अर्गलं गुणाधिकं वा 'गुणत ' इति कुसंसर्गतोन स्यादेव तत्प्राप्तिरित्याह--'विवर्जना' विशेषण शानाऽऽदिगुणानाश्रित्य 'समं वा' तुल्यमुभयवाऽऽत्मन इति परिहारः 'वालजनस्य' पावस्थाऽदेः 'दरात 'दरेण, त. गम्यते ।' वेति' विकल्प। ततः किमित्याह-' एकोऽपि' सङ्गस्याल्पीयसोऽपि महादोषनिबन्धनत्वेनाभिहितत्वात्। असहायोऽपि 'पापानि' पापहेतुभूतान्यनुष्ठानानि, 'वितत्परिहारेऽपि च न खाध्यायतत्परतां विना ज्ञानाऽऽद्यवा वर्जयन् ' विशेषेण परिहरन् । पठश्यते च-" अणायरंतो प्तिरित्याह-स्वाध्याये--उक्तरूपे, एकान्तेन--इतरव्यासङ्गपरिहा त्ति।" अनाचरन् । 'विहरेत् ' संयमाध्वनि यायात् , 'कारामकेन,निवेशना-स्थापना स्वाध्यायकान्तनिवेशना । सा मेषु' विषयेषु असज्जन् ' प्रतिबन्धमकुर्वन् , तथाविच मनोवाक्कायानामिति गम्यते। पठन्ति च-"सज्झायएगंत धगीतार्थयतिविषयं चैतत् , अन्यथैकाकिविहारस्याऽऽगमे मिसेवणा य' इति । स्वाध्यायस्यैकान्तनिषेवणा-निश्चयेनानु निषिद्धत्वात् । एतदभिधाने च-" मध्यग्रहणे आद्यन्तयोरटानं स्वाध्यायकान्तनिषेवणा, सा च तत्रापि 'वृथा श्रुत पि ग्रहणं भवति" इति न्यायादाहारवसतिविषयोऽप्यपमचिन्तितम्' इति कृत्वा अप्रेक्षैव प्रधानेत्यभिप्रायेणाऽऽहंसूत्रस्यार्थ:-अभिधेयः सूत्रार्थस्तस्य (संचिंतणय त्ति)सूत्रत्वा वाद उक्त एव भवतीति मन्तव्यम् । इत्थं सप्रसङ्गं ज्ञानात् संचिन्तना सूत्रार्थसंचिन्तना, अस्वामपि न चित्तस्वास्थ्य ऽऽदीनां दुःखप्रमोक्षोपायत्वमुक्तम्। विना ज्ञानाऽऽदिलाभ इत्याह--'धृतिश्च' चित्तस्वास्थ्यमनु इदानीं तेषामपि मोहाऽऽदिक्षयनिवन्धनत्वात्तत्क्षयस्यैव प्राद्विग्नत्वमित्यर्थ इति सूत्रार्थः। धान्येन दुःखप्रमोक्षहेतुत्वख्यापनार्थम् ,यथा तेषां संभवी यथा दुःखहेतुत्वं यथा च दुःखस्य प्रसङ्गतस्तेषां चाभावस्तथायतश्चैवंविधो शानाऽऽदिमार्गस्तत एतान्यभिलषता प्राक् ऽभिधातुमाहकिंविधेयमित्याह जहा य अंडप्पभवा बलागा, आहारमिच्छे मियमेसणिजं, अंडं बलागप्पभवं जहा य । सहायमिच्छे निउपत्थबुद्धिं । एमेव मोहाऽऽयतणं खु तएहं, निकेयमिच्छिा विवेगजोगं, मोहं च तण्हाऽऽयतणं वयंति ॥ ६॥ समाहिकामे समणे तवस्ती ॥४॥ यथा चेति येनैव प्रकारेण, अण्डं-प्रतीतं, ततः प्रभव उत्प'आहारम्' अशनाऽऽदिकम् 'इच्छेत् ' अभिलपेत,मितमेष- तिर्यस्याः साउण्डप्रभवा, 'बलाका' पक्षिविशेषः, अण्डं ब. Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायट्ठाण लाकातः प्रभवतीति बलाकाप्रभवम्, यथा च किमुक्तं भवति ?यथाऽनयोः परस्परमुत्पत्तिस्थानता ' एवमेव ' अनेनैव प्र कारण, मोहयति-- मूढतां नयत्यात्मानमिति मोहः- अज्ञानम् । तच्चेह मिथ्यात्वदोषदुष्टं ज्ञानमेव गृह्यते । उक्कं हि--" जह दुम्ययणमययणं" इत्यादि श्रापतनम् उत्पत्तिस्थानं यस्याः सा मोहाssयतना. तां. ' खुः ' श्रवधारणे। ततो मोहाऽऽयतनामेव ( तरहं ति ) तृष्णां वदन्तीति सम्बन्धः । यथोमोहाभावे वश्यम्भावी तृष्णाक्षय इति । मोहं च तृमणाऽऽपतने यस्यासी तृष्णायतनस्तं वदन्ति । तृष्णा हि सती मूर्छा सा चात्यन्तदुस्त्यजा रामप्रधाना, ततस्तया, राग उपलक्षिते सति च तत्र द्वेषोऽपि संभवतीति सोऽप्यनयेाऽऽक्षिप्यते । ततस्तृष्णाग्रसेन रामपायी एतयोधानान्तानुबन्धिरूपापरूपयोः सत्तायाअवश्यम्भावी मिथ्यात्वादयः, अत एवोपशान्तकपायचीतरागस्यापि मिथ्यात्वगमनम् । तत्र च सिद्ध एवाज्ञानरूपो मोहः एतेन च परस्परं हेतुहेतुमद्भावाभिधानेन यथा रागादीनां सम्भवस्तथोक्तम् ॥ ६ ॥ " सम्प्रति यथैतेषां दुखहेतुत्वं तथा वक्कुमाहरागो य दोसो वि य कम्मवीयं, कम्पं च मोहप्यभवं वर्यति । , कम्पं च जाईमरणस्स मूलं दुःखं च जामरणं वयंति ॥ ७ ॥ ( ४८४ ) अभिधानराजेन्द्रः | 'रागश्च' मायालोभाऽऽत्मकः 'द्वेषोऽपि च क्रोधमानाऽऽत्मकः कर्म ज्ञानावरणादि तस्य बीजं फारसं कर्मबीजम. फर्म, वस्य भिनत्वान्भवतीति मोहप्रभच-मोहफारणं वदन्ति । ' चः ' सर्वत्र समुच्चये । 'कर्म च ' इति क र्म पुनः जातयश्च मरणानि च जीतिमरणं. तस्य मूलं 'कारणम् 'दुःखं' संसारम् असातपक्षे तु दुःखयतीति दुःखं, कोअर्थ ? चस्य पुनरर्थस्य मिश्रक्रमत्वात् जातिम पुनर्वन्ति तीर्थकराऽऽदय इति गम्यते । जातिमरणस्यै धातिशय दुःखीत्पाकश्वात्। उक्के हि" मरमाणस्स जं दुः खं जायमाणस्स जंतुणो । तेण दुक्खेण संतत्तो, न सरति जातिमप्पणी ॥ १ ॥ " ॥ ७ ॥ यतश्चैवमतः किं स्थितमित्याह-दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हो जस्स न होइ वराहा। तराहा हया जस्त न होइ लाभो. लोभो हो जस्स न किंचाई ॥ ८ ॥ 'दुःखम् ' उक्तरूपं, हतमिव हतं, केनेत्याह- यस्य 'न भ वति न विद्यते कोसी-मोह तन्मूलकारणस्वात्। तती हि कर्म कर्मणश्व दुःखमित्यनन्तरमेवो, हलमिव हतमिति च व्याख्यातं, तत्क्षयेऽपि नारकाऽऽदिगतौ स्वतवभावनापरस्यापि कियतोऽपि दुःखस्य सम्भवात्, यदि दुःखहनने मोहाभावात् असावपि कुत इत्याह-मोहो तो यस्य न भवति तृष्णा । कोऽर्थः ?-तृष्णाया श्रभाबान्मोहाभावः, तदायतनत्वेन तस्या श्रभिधानात् । तृष्णाया अपि कुतो हननमित्याह तृष्णा हता यस्य न भवति पमायद्वागा लोभः । किमु भवति सीभाभावानृष्णाभावः तृष्णाग्रनोनी रागद्वेषयोरावासवोध लोभसवा भावात्, अत एव प्राधान्याल्लोभस्य रागान्तर्गतत्वेऽपि पृथगुपादानम् । दृश्यते हि प्रधानस्य सामान्योक्तावपि विशेपतोऽभिधानं यथा ब्राह्मणा श्रयाताः वसिष्ठोऽप्यायात इति । स ता केन हत इत्याह-लोभो हतो यस्य न किञ्श्चनानि द्रव्याणि सन्तीति गम्यते । सत्सु हि तेषु संभवत्यभिकाङ्क्षा. तद्रूप एव च लोभः । यत्तु तत्सद्भावेऽपि लोभइन भरताऽऽदीनां तरकादाचित्कमित्यविवक्षितमेव पपते च यस्य न किञ्चनास्ति न किञ्चिद्विद्यते, द्रव्याऽऽदिकमिति गम्यत इति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ सर्व खस्य मोहा 55दयो देतो. हननोपापास्तेषां कि मयमेव, उतान्योऽप्यस्ति ?, इत्याशङ्कय सविस्तरं तदुन्मूलनोपायं विवदिषुः प्रस्तावमारचयतिरागं च दोर्स च तहेव मोहं, उद्धत्तुकामेण समूलजालं । जे जे बाया पडिवजियच्या, ते किस्सामि हारपुत्रि ॥ ६ ॥ स्पष्टम् । नवरं यदिह रागस्य प्रथममुपादानं पूर्व तु मोहस्य, तत् मोहस्य रागद्वेषयोश्च परस्पराश्रयत्तत्वेन पूर्वापरभावस्थानियमात् । तथा कामेन इति उन्मूलयितुमि ता. सह मूलानामिय मूलानां ताम्रपादपादन मो प्रकृतीनां जालेन समूहेन वर्त्तत इति समूलजालस्तम् एतच्च रागाऽऽदीनां प्रत्येकं विशेषणम्, 'उपायाः' तदुद्धरणहेतयः प्रतिपत्तव्याः अङ्गीकर्त्तव्याः कर्तुमिति गम्यते । पठ्यते च " अपाया परिवजियव्वा " इति श्रपायाः ' त परिवर्जयितव्याः ' दुद्धरप्रवृत्तानां विष्वकारिणोऽथ परिहर्तव्या इति सुजावयचार्थः । 6 4 · यथाप्रतिज्ञातमेषाऽऽह रसा पगामं न हु सेवियन्त्रा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं । दित्तं च कामा समभिद्दवंति, दुर्म जहा साबुफलं च पकखी ॥ १० ॥ 9 6 रसाः क्षीराऽऽदिविकृतयः प्रकामम् श्रत्यर्थ 6 न निषेवितव्याः ' नोपभोक्तव्याः प्रकामग्रहणं तु वाताऽऽदितोभनिवारणाय रसा श्रपि निषेवितव्या एव निकारनिवेयस्य तु निषेध इति ख्यापनार्थम् उच "अच्चाहारी न सहर, अतिनिद्वेण विसया उदिज्जति । जायामायाहारो, तंपि पगामं ण भुंजामि ॥ १ ॥ " किमित्ये वमुपदिश्यते ? इत्याह- 'प्रायः' बाहुल्येन रसाः, निषेव्यमाणा इतिकस्तरकरणशीला किरा करा वा पाठान्तरतः। इह च भावे क्तप्रत्यय इति दर्प उच्च ते। एवं हि तां प्रतिदि या दीर्घदीपनं मोहानश्वलनमित्यर्थः सरकरणशीला पीतकराः केषाम् ? - नराणाम् । उपलक्षणत्वात् ख्यादीनां च, उदीयन्ति हि उपास्तेषां माहानलमिति । उक्तं हि विग " , 3 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायट्ठाण ' परिणम्मो मोटो जमुदिजर उदिए यस विवितजयपरो कहं श्रकजे ए वीडहिई ? ॥ १ ॥ " एवं च को दोष: ?, इत्याह-द यदि वा दीप्तं, नरमिति प्रक्रमः । ' चः पुनर, जातिविधता हुमेनं कामा विषयाः समभिद्रयन्ति अभिभवन्ति तथाविधस्य पायभिल पयत्वात्सुखाभिभवनीयत्वाचेति भावः कमि वक इवेत्याहपूर्ण यथेीपम्य स्वादुफलं मधुरफलान्वितं च इति भिन्नक्रमः । ततश्च (पक्खि त्ति ) पक्षिण इव । इह च दुमोपमः पुरुषाऽऽदिः, स्वादुफलतातुल्यं च दृप्तत्वं दीप्तत्वं वा पक्षिसदृशाश्च कामा इति । श्रनेन रसप्रकामभोजने दोष उक्तः । सम्प्रति सामान्येनैव प्रकामभोजने दोषमाहजहा दवगी परिव समारू नोवसमं उबे ॥ एदिग्गी विपगामभोइणो, न भयारिस्स हिवाय कस्सई ॥ ११ ॥ मारुतः यथा दवाग्निः' दावानलः, प्रचुरेन्धने ' बने ' अरण्ये, एतदुपादानं ती कश्चिद्विष्यापको अप स्पादिति । स सवायुः मीस न उपशमं विध्यापनम् 'उपैनि' प्राप्नोति एवम्' इति दवाग्निवत् नोपशमभागू भ यति (गति) इन्द्रियजनितो राग ए योः, तस्यानयने वियमानत्वात्। सोऽग्निरिव धर्मवनदाह करवा इन्द्रियासि सोडारी प्रकामभीजिनः अतिमात्राऽऽहारस्य प्रकाममोजनस्य पवनप्रायत्वेनातीव तदुदीरकत्वाद्, अतश्चायं न ब्रह्मचारिणः ' हिताय ' हितनिमितं ब्रह्मचचियातकरन कस्यचिद् अतिसुस्थितस्थापि, तदनेन प्रकामभोजनस्य काका परिहार्यत्यमुक्रम्। ★ (४८५) अभिधानराजेन्द्रः । ८ इत्थं रागमुद्धर्तुकामेन यत्परिहर्तव्यं तद-भिधाय यदतियनेन कर्त्तव्यं तदाहविवित्तसिञ्जाssसणजंतियाणं, श्रमासणाणं दमिइंदियाणं ॥ नरागसत्तु धरिसेइ चित्तं, पराइओ बाहिरिवोस देहिं ।। १२ ।। विविक्ता स्त्र्यादिविकला शय्या वसतिः, तस्यामासनम् अवस्थानम्, तेन यन्त्रिता नियन्त्रिता विविकशय्यासनयमित्रतास्तेषाम् अयमानानान्' म्यूनभोजनानाम | पठन्ति च - ( श्रमासणार त्ति ) अवमं न्यूनमशनम्-- (-- श्राहारो येषां तेऽमी श्रवमाशनास्तद्भावोऽवमाशनता - श्रवमौदर्यरूपा तथा दमितानि वशीकृतानि इन्द्रियाणि येस्ने तथा तेषां दमितेन्द्रियाणां पश्यते च " ओमासणाईदमिईदिवाणं ति । " श्रवममशनं यत्र तपसि तदवमाशनं त हादिभिस्तपेदिदमितानीन्द्रियाणि देने तथा तेषां न नैव रागः शत्रुरिवाभिभवहेतुत्यान्रागशत्रुः धर्षयति पराभवात, किं तत् ? -चित्तं किन्तु स एवेत्थं पराधृष्यत इति भावः । क इव :- पराजितः पराभूतः 'व्याधिविधेयादिभिर्देहमि अनेनापि विविक्रशय्याऽऽसनाऽऽदीनां काका विश्रयत्वमुक्तम् । , १९२ " पमायट्टाण इदानीं तु विविकशयनाssसने यत्नाssधानाय विपर्यये दो षमाह जहा बिरालाssवसहस्स मूले, न मुसमा बसही पसत्था । एमेव इत्थीनिलयस्य म न मयारिस्म समो निवासां ।। १३ ।। यथा विडाला माजीरास्ते प्रामावसथः श्राश्रयो विडालाssवसथस्तस्य 'मूले ' समीपे न मूषकाणां वसतिः 'प्रशस्ता' शोभना, श्रवश्यं तत्र तदपायसम्भवात् एवमेव स्त्रीणां युवतीनां पण्डकाऽऽयुपलक्षणमेतत् । निलयो- निवासः स्त्रीनिलयस्तस्य ' मध्ये ' अन्तर्न ब्रह्मचारिणः युक्तः, कोऽसौ ? - निवासः - वसतिः, तत्र ब्रह्मचर्ययाधास म्भवादिति भावः । क्षमः ' fotoशय्याऽवस्थितावपि कदाचित्स्त्रीसंपाते यत्कर्तव्यं तदाह न रूपलावणविलासहासं, न जंपियं इंगिय पेहिये था। इत्थी चित्तंसि निवेसइत्ता, दडुं वचस्से समणे दवस्सी ।। १४ । " 'न नैव रूपं सुसंस्थानता, लावग नयनमनसामाहाद को गुणों, विलासा विशिएनेपथ्यरचनाऽऽदयो, हास:-रूपविकाशादिषां समाहारे विलासहान ज पितं मन्मथाऽऽदि (इंगिय त्ति) ि म् अङ्गमङ्गाऽऽदि यीक्षितं' कटाक्षािऽऽदिवास मुयये । स्त्रीणां सम्बन्धि ( चिलंसिसि) वित्ते मनसि ' निवेश्य ' - अहो ! सुन्दरमिदं चेति विकल्पतः स्थापयित्वा 'द्रष्टुम् 'इन्द्रियविषयतां नेतुं व्यवस्थेत् 'अ व्यवस्थेत अमणस्तपस्थीति प्राग्वत् बिते निवेश्येश्यनेन व रामाऽऽभिसन्धिविनेतदर्शनमपि न दोषायेति ख्याप्यते । उहि न सकं रूपमत्यादि निवेश्येति समा नकालत्वेऽपि क्त्वाप्रत्ययः । श्रक्षिणी निर्माल्य हसतीस्यादिचत् । किमित्येवमुपदिश्यते इत्याह अस व अपत्य अचिंत चेव अत्तिणं च । इत्थी जणस्सारिया जु हियं सया बंभव रयाणं ।। १५ ।। 2 4 'अदर्शनम् इन्द्रियाविषयीकरणं यः समुच्चये. य अवधारणे अदर्शनमेव अप्रार्थनं व अनभिलप णम् ' श्रचिन्तनं चैव' रूपाऽऽय परिभावनम् श्रकीर्तनं त्र असंशब्दनं तथ नामतो गुण वा खीजनस्य ध्यानं धर्माऽऽदितस्य योग्यंचित माध्यानयोग्यं 'हितं' पथ्यं, 'सदा' सर्वकालं, ब्रह्मत्रते । पाठान्तरतो ब्रह्मचये र. तानाम्' श्रासक्लानाम् । ततः स्थितमेतत् स्त्रीणां रूपाऽऽदि मनसि निवेश्य व्यपेत्। ननु " विकारहेती सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त ए 6 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८६) पमायट्ठाण अभिधानराजेन्दः। पमायट्ठागा व धीराः।" तत्किभिति रागमुद्ध कामेन विविक्तशयनाऽऽ. योगत इति भावः । (अवि गंगासमानेति) गङ्गा किल मसनता विधेयेत्युच्यते ?. इत्याशङ्कयाऽऽह हानदी, तत्समानाऽपि-तत्सदृशाऽपि, श्रास्तामितरा-क्षुद्रकामं तु देवीहि वि भूसियाहि , नदीत्यपिशब्दार्थः। न चाइया खोभइडं तिगुत्ता । यदुक्तम्-"विवित्तसेज्जाऽऽसणतियाणं" इत्यत्र विविक्ता वसथमर्थतो व्याख्याय " ओमासणाणं दमिइंदियाणं" इतहा वि एगंतहियं ति नच्चा, स्यत्रावमाशनत्वमनन्तरमेव प्रकामभोजननिषेधेन समर्थितं, विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो ॥ १६ ॥ दमितेन्द्रियत्वं तूत्तरत्र वक्ष्यत इत्युभयमुपेक्ष्य " न रागस( कामं तु त्ति) अनुमतमेवैतद् यदुत (देवीहि वित्ति) तू धरिसेह चित्तं" इत्यत्र किमिति रागपराजयं प्रत्येवमुप'देवीभिरपि' अप्सरोभिरप्यास्तां मानुषीभिरस्यपिशब्दा- दिश्यते ?, इत्याशङ्कय रागस्य दुःखहेतुत्वं दर्शयितुमाहर्थः। 'भूषिताभिः' अलङ्कृताभिः (न) नैव (चाइय त्ति) कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, शक्ताः क्षोभयितुं' चालयितुं, संयमादिति गम्यते । 'ति सबस्स लोगस्स सदेवगस्स। सृभिः' मनोगुप्त्यादिगृप्तिभिगुप्ताः, अर्थान्मुनयः. 'तथाऽपि' यदप्येवंविधाश्चालयितुं न शक्यन्ते तदप्येकान्तहित जंकाइयं माणसियं च किंचि, मेतदिति ज्ञात्वा । किमुक्तं भवति ?-सम्भवन्ति हि केचिद- तस्संतयं गच्छइ वीयरागो ॥ १६ ॥ भ्यस्तयोगिनोऽपि ये तत्सङ्गतः क्षुभ्यन्ति, येऽपि न तुभ्यन्ति, ___ कामाः-विषयास्तेष्वनुगृद्धिः-सतताभिकाङ्का, अनुभावानुतेऽपि स्त्रीसंसक्लवसतिवासे “साहु तवोवणवासो" इत्याद्य- बन्ध इत्यादिष्वनोः सातत्येऽपि दर्शनात् । तस्याः प्रभवो वर्णाऽऽदिदोषभाजो भवेयुरिति परिभाव्य 'विविक्तवासो यस्य तत्कामानुगृद्धिप्रभवम् (खुत्ति) खुशब्दस्यावधारणाविविक्तशय्याऽऽसनात्मको मुनीनां प्रशस्त इत्यन्तर्भावित र्थत्वात्कामानुगृद्धिप्रभवमेव, किं नत् ?-'दुःखम् ' असातं, एयर्थतया 'प्रशंसितः' गणधराऽऽदिभिः श्लाधित इत्यर्थः सर्वस्य लोकस्य -प्राणिगणस्य, कदाचिद्देवानां विशिष्टानअतः स एवाऽऽश्रयणीय इतिभावः। भाववत्तयैवं न स्यादत आह-'सदेवकस्य ' देवैः समन्विएतत्समर्थनार्थमेव स्त्रीणां दुरतिक्रमरबमाह तस्य, कतरत्तद् दुःखमित्याह-यत् काायकं 'रोगाऽऽदि, . मुएक्खाभिकंखिस्स वि माणक्स्स, 'मानसिकंच' इष्टवियोगाऽदिजन्यं किञ्चित् ' स्वल्पमपि, संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे । कदाविदेतदभावेऽन्येतत्स्याद् अत श्राह-तस्य द्विविधस्यानेयारिसं दुत्तरमत्थि लोए, ऽपि दुःखम्यान्तमेव अन्तक-पर्यन्तं गच्छति वीतरागः' विगतकामानुगृद्धिरित्यर्थः । जहाहियो बालमणोहराओ ।। १७॥ ननु कामाः सुखरूपतयैवानुभूयन्ते तत्कथं कामानुगृद्धि'मोक्षाभिकानिणोऽपि" मुक्त्पभिलाषिणोऽपि मानवस्य प्रभवमेव दुःखम् ?, उच्यतेसंसारात्-चतुर्गतिरूपाद्भयनशीलो भीरुः संसारीरुः, अ. जहा य किंपागफला मणोरमा, पेरिहापि सम्बन्धनात्तस्थाऽपि-तथा स्थितस्थाऽपि 'धर्म' श्रुतधर्माऽऽदौ (न ) नैव ' एतादृशम् ' ईदृशम् , दुस्तरं-दुर- रसेण वरमेण य भुजमाणा। तिक्रमम् , ' अस्ति' घिद्यते, 'लोफे ' जगति यथा स्त्रि ते खुदए जीविएँ पञ्चमाणा, यः' युवतयः 'बालमनोहराः 'निर्विवैकचित्ताऽऽक्षेपिरयो एओवमा कामगुणा विवागे ॥ ३०॥ दुस्तराः । दुस्तरत्वे च बालमनोहरत्वं हेतुः, अतश्चातिद् । यथा च ' इति यथैव, किम्पाको-वृक्षविशेषस्तत्फसतरत्वादासां परिहार्यत्वेन विविक्तशय्या 55सनमेव श्रेय इति लानि, अपेर्गम्यमानत्वात् ' मनोरमारायपि ' हृदयङ्गमा. भावः। न्यपि, रसेन' आस्वादेन, 'वर्णेन च ' रुधिररकाऽऽदिना, नन्वेवं स्त्रीसङ्गातिकमार्थमयमुपाय उपदिष्टस्तथा शेषस- चशब्दाद् गन्धाऽऽदिना च, 'भुज्यमानानि' उपभुज्यमा. हातिमार्थमपि किं न कश्वनोपाय उपदिश्यते । इत्याह- नानि (ते) इति 'तानि' लोकप्रतीतानि, क्षोदयितुम् अध्य. यदि वा स्त्रीसङ्गातिकमे गुणमाह बसानाऽऽदिभिरूपक्रमकारणैर्विनाशयितुं शक्यत इति क्षुद्रं, एए य संगा समइकमित्ता, तदेवानुकम्प्यतया सुद्रकं. सोपक्रममित्यर्थः, तस्मिन् , जीसुहुत्तरा चेव हवंति सेसा। विते-आयुषि पच्यमानानि-विपाकाऽवस्थाप्राप्तानि । मरणा न्तदुःखदायीनीति शेषः । प्राग्वच्च लिङ्गव्यत्ययः। पठ्यते चजहा महासागरप्नुत्तरिता, 'ते जीवियं खुंदति पञ्चमाणे" ति । तानि किम्पाकफलानई भवे अवि गंगासमाणा ॥१८॥ नि, जीवितम् श्रायुः, 'खुन्दति ' आर्षत्वात् 'क्षादयन्ति' पतांश्च 'सङ्गान् 'सम्बन्धान , प्रक्रमात् स्त्रीविषयान् , 'स- विनाशयन्ति, विपच्यमानानि 'एतदुपसाः 'किम्पाकफलतमतिक्रम्य ' उल्लङ्घय 'सुखोत्तराश्चैव' अकृच्छोलबध्याश्चैव ल्पाः, कामगुणाः 'विपाके' फल प्रदानकाले । किमुक्तं भवभवन्ति 'शेपाः' द्रव्याऽऽदिसङ्गाः, सर्वसङ्गानां रागरूपत्वे ति?-यथा किम्पाकफलान्युपभुज्यमानानि मनोरमाणि, वि. समानेऽपि स्खीसगानामेवैतेषु प्रधानत्वादिति भावः। दृ. पाकावस्थायांतु सोपक्रमाऽऽयुषां मरणहेतुतयाऽतिदारुणानि, प्रान्तमाह-यथा 'महासागरं' स्वयम्भरमणमुत्तीर्य 'नदी' एवं कामगुणा अपि उपभुज्यमाना मनोरमाः, विपाकावस्थासरिन् ‘भवेत् ' स्यात्सुखोत्तरेवेति प्रक्रमः । बीर्यानिशय. यांतुनरका दिदुर्गतिदुःखदायितयाऽत्यन्तदारुणा एव, ततः Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८७) अभिधानराजेन्द्रः । पमायट्ठाण पमायट्ठाण सुखरूपतया प्रतिभासनं सुखहेतुत्बनकान्तिकमेव किम्पा- 'वीतराग' इति । तथाविधरागभावतो वीतरागस्तदवि. कफलानां मनोरमत्वेन सुखप्रतिभासेऽप्यन्यथाभावादिति ।। नाभावित्वाद् द्वेषस्य, तथैव वीतद्वेषश्च । इदमाकूतम्-यस्यैव इत्थं बहूत्तरगुणस्थानानुयायित्वेन रागस्य प्राधान्यात्केव-- रागद्वेषौ स्तस्तस्यैव तदुदीरकत्वेनानयोस्तजनकत्वमुच्यते, लस्यैवोद्धरणोपायमभिघाय सम्प्रति तस्यैव द्वेषसहितस्य न तु यः सम एव, तथा च न तावश्चक्षुस्तयोः प्रवर्तयेत् । नमीभधित्सुमितेन्द्रियत्वं च सिंहावलोकितन्यायाऽऽधय कथञ्चित् प्रवर्त्तने वा समतामेवाऽऽलम्बेतेत्युक्तं भवति । णेन व्याचिख्यासुरिदमाह ननु यद्येवं रूपमेव रागद्वेषजनकं ततस्तदुद्धरणार्थिनस्तद्ग तैव चिन्ताऽस्तु, रूपे चक्षुर्न प्रवर्तयदित्येवं तु न युक्तैव चक्षुजे इंदियाणं विसया मणुराणा, पश्चिन्ता, इत्याशझ्याऽऽहन तेसु भावं निसिरे कयाइ। रूवस्स चक्खू गहणं वयंति, न यामणुन्नेसु मणं पि कुज्जा, चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति ॥ समाहिकामे समणे तवस्सी ॥ २१ ॥ रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, ये ' इन्द्रियाणां ' चक्षुरादीनां 'विषयाः' रूपाऽऽदयः 'मनो दोसस्स हेउं श्रमणुनमाहु ॥ २३ ॥ शा'मनोरमाः न तेषु विषयेषु 'भावम् ' अभिसन्धिम् अर्ग- रूपस्य चक्षुः गृह्णातीति ग्रहणं, बहुलवचनात्कत्तार ल्युद, म्यमानत्वाद्भावमपि.प्रस्तावादिन्द्रियाणि प्रवर्त्तयित्तुं, किं पुन- तद्वदन्ति, तथा चक्षुषो रूपं गृह्यत इति प्राग्वल्ल्युटि ग्रहणं स्तत्प्रवर्तनमित्यपिशब्दार्थः, ' निसृजेत् ' कुर्यात् 'कदा- ग्राह्यं तद्वदन्ति, अनेन रूपचक्षुगेाह्य ग्राहकभाव उक्तः तथा चित् ' कमिश्चित्काले, 'नच 'नव 'अमनोशेषु' अमनो- चन ग्राहकं विना ग्राह्यत्वं नापि ग्राह्यं विना ग्राहकत्वरमेषु ' मनोऽपि' वित्तमाप, अत्राचीन्द्रियाणि प्रवर्तयितुम् मित्यनयोः परस्परमुपकार्योपकारकभाव उक्लो भवति। एतेन अपिशब्दार्थश्च प्राग्वत् ।' कुर्यात्' विध्यात् , अनेन वा त्वनयो रागद्वेषजनने सहकारिभावः ख्याप्यते । तथा च क्यद्वयेनापीन्द्रियदम उक्तः, समाधिः चित्तैकाग्यं, स च रा- यथा रूपं रागद्वेषकारणं तथा चक्षुरपि,अत एवाऽऽह-रागस्य गद्वेषाभाव एवेति, स एवाननोपलक्ष्यते, ततस्तत्कामो राग- हेतु-कारणं, प्रक्रमाच्चक्षुः सह मनोशेन ग्राह्येण रूपेण वर्तते द्वेषोद्धरणाभिलाषी, श्रमणस्तपस्वीति च प्राग्वत् । नम्वेवमुभ इति समनाझं, मनोज्ञरूपविषयमित्युकं भवति । ' पाहुः' योद्धरण हेतुत्वेनेन्द्रियदमस्य किमिति रागोद्धरणहेतुष्वभि- ब्रुवते. यत्र तु " हेउं तमण्णुराणं” इति पाठः । तत्र (तं ति) धानम् ?, उच्यते, हेतुप्रक्रमात्। न चोभयोद्धरणहेतुतयकोद्ध- तच्चक्षुर्मनीशं मनाशरूपविषयत्वेन ततो दोषो द्वेषः । उक्तं रण हेतुता विरुध्यते, यदि वा-तत्रापि रागस्य,द्वेषीपलक्षण हि--" ईर्ष्या रोपी द्वेषः " इत्यादि । तस्य हेतुममनोस्वादुभयोद्धरणोपायेनैव विवक्षिता,किंतु तत्र विविक्तशय्या- शम् अमनोज्ञरूपम् । पाठान्तरतश्च हेतुं तदमनोज्ञमाहुः, सामान्येनैकान्तशय्या गृह्यते, नदवस्थानस्य च प्रतीतैव त उभयप्रक्रमेऽपि चक्षुष एवं विशेष्यत्वेनोपदर्शनं रूपस्य पू. दुद्धरणोपायता, एवं प्रकामभोजिन एव दर्पतो द्वेषसम्भवा र्वसूत्रणव । एवं च रूपचक्षुषोः सहितयोरेव रागद्वेषजनकदवमाशनत्वस्याप्यसौ भावनीयेत्यलं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः । इ- त्वाद् युक्तमुक्तं तावुद्ध कामो रूपे चक्षुर्न प्रवर्तयेत् , यदा तु स्थं रागद्ववाद्धरणैषिणो विषयेभ्यो निवर्तनमिन्द्रियाणामु पाश्चात्यपादत्रयं पूर्ववत् पठ्यते तदा पूर्वसूत्रे चतगो रू. पदिष्टम् । पग्रहणं-ग्राह्यमिति व्याख्येयम् । ततश्चेहापि ग्राह्यग्राहक भाव उक्तः, तत्र चोक्न एवाभिप्रायः, तथा यदि चक्षू रा. अधुना स्वेतेषु तत्प्रवर्त्तने रागद्वेषानुद्धरणे च यो दोषस्तं गद्वेषकारणं न कश्चिद्वीतरागः स्यादत आह-समश्चेत्यादि, प्रत्ये कमिन्द्रियाणि तत्प्रसङ्गतोमनश्वाऽऽश्रित्य दर्शयितुमाह शेष सुगमम् । चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति, श्राह-असत्वयं रागद्वेषोद्धरणोपायः, एतदनुद्धरणे च को तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु । दोषः, ? येन तदुद्धरणार्थमित्यमुपदिश्यत इत्याह-- तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिवं, समो उ जो तेसु स वीयरागो ।। २२ ॥ अकालियं पावइ सो विणासं । चक्षुपः - चतुरिन्द्रियस्य , रूप्यत इति रूपं वर्णः, रागाऽऽउरे से जह वा पयंगे, संस्थानं वा, गृह्यतेऽनेनेति ग्रहणं, कोऽर्थः-श्राक्षेपकं, आलोअलोले समुवेइ मच्चु ॥ २४ ॥ विशिष्टेन हि रूपेण चक्षुराक्षिप्यते । तद् वदन्ति । रूपेषु यो ' गृद्धि' गायें, रागमित्यर्थः। उक्तं हि वाच. अभिदधति, तीर्थकदादय इति गम्यते । ततः किमित्याह- कैः-" इच्छा मूछी कामः, स्नेहो गायं ममत्वमभिनन्दः । 'न' इति रूपं, रागः-अभिष्वास्तहेतुः-तदुत्पादक 'तुः' अभिलाप' इत्यनेका-नि रागपर्यायवचनानि ॥१॥"' उपूरणे, मनानमाहुः। तथा-' तद्' इति रूपमेव दोपो द्वेष- पैति' गच्छति तीवाम् ' उत्कटां गृद्धर्विशेषणं, स किमत तुममनोशमाहुः । ततस्तयोश्चतुःप्रवर्त्तने रागद्वेषसम्भ- मित्याह--अकाले भवम् आकालिक-यथास्थित्या गुरूपक्रमावात्तदुद्धरणाशक्तिलक्षणो दोष इति भावः । श्राह-एवं दर्वागव प्राप्नोति सविनाशं' घातं, पाठान्तरतः 'क्लेशं - काश्च सति रूपे धीतरागः स्यादत आह- वा' मरणान्तयाधात्मकं,रागेणा तुरो-विह्वलो रागाऽऽतुरः परतदिएतया तुल्यः पुनर्थः 'तयोः' मनोतररूपयोः सः, सन् (से) इति स लोकप्रतीतः, 'यथा वा' इति वाश. उपमम्। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायट्ठाण ' ' यस्यैवकारार्थत्वात् "यथेय " येनैव प्रकारेण पतङ्गः शलभ, आलोक प्रतिस्निग्धदीपशिखाऽऽदिशेनं तस्मिन् लोलो लम्पट श्रलोकलोलः समुपेति मृत्युं प्राणत्यागं, तस्यापि गृद्धाऽऽलोकलोलत्वं राग एवेति भावः । जे यादि दो समुह नियं सिक्ख से उब दुक्खं । दुइनदोसेसर जंतू न किंचि रूवं अवरम्झई से ।। २५ ।। 6 समु 1 यश्व ' इति यस्तु, अपीति च तस्मिन्नित्यनेन योक्ष्यते । " दोषं ' द्वेषं ( समुबेर ति ) वचनव्यत्ययात् पैति समुपगच्छति रूपेष्विति प्रक्रमः निरयं सदा, न तु कदाचित् स किमित्याह - तस्मिन्नपि 'क्षणे ' प्रस्तावे य स्मिन् द्वेष उत्पन्न: ' से ' इति सः 'तुः ' पूरणे उपैति 'दुःखं ' शारीराऽऽदि, द्विष्टशे हि किमिदमनिटं मया दृष्टमिति मनसा व्याकुलीभवति, परितप्यते च देहेन, न तु यथारा. गमुपगच्छंस्तत्काले मनोशविषयावलोकनजनितं सुखमनि मम्यते, उत्तरकालमेव तु दुःखमिति । पठन्ति च समुपैति सव्वं ति । " स्पष्टम् । यदि वा रूपदर्शनाद् द्वेषमुपगच्छन् दुःसमुपैति ततस्तथापिपरूपदोषेणैवास्य दुःखावाभिरिति प्रा समित्याशङ्कयाह-दुष्टं दमनं दुर्दान्तं तच्च प्रक्रमाच्चतु पस्तदेव दोषी दुर्दान्तदीपस्तेन, 'खकेन' आत्मनि जन्तुः प्राणी न किञ्चित् स्वयमपि रूपं प्रक्रमानो अप राध्यति दुष्यति (से) तस्य यदि हि रूपचापराध्यक्ष क स्यचिद् द्वेषाभावः स्यात्, तथा च मुक्त्यभावाऽऽदयो दोषा इति भावः । 6 , इत्थं रागद्वेषयोर्द्वयोरप्यनर्थहेतुत्वमुक्तमिदानीं तु द्वेषस्या पि रामहेतुकस्वार एवं महानर्थमूलमिति दर्शयस्तस्य विशेषतः परिहर्त्तव्यतां व्यापयितुमाह एगंतरतो रूस रूबे, तालिसे से कुपनं । • (४८८) अभिधान राजेन्द्रः | 1 दुक्खस्स संपीलमुवे वाले, न लिप्यते तेन गुणी विरागे ।। २६ ।। 'कान्तर' यो न कथहिरागं वाति, 'रुविरे मनोरमे रूपे, किमित्याह - ( तालि ले त्ति) मागधदेशीभाषया अता'दशे' अन्यादशे । तथा च तल्लक्षणं-रशयोर्लसौ' मागधिकायां ( से इति ) स करोति 'प्रदोषं ' द्वेषं, सुन्दरीनन्द इव सुरसुन्दरीरागतः सुन्दा तथा च दुःखस्य संपीड संघातं या समिति पीडा दुःखकृता बाधा संपीडा, ताम्रपैति ' बालः ' अशः । उक्तमेवार्थे व्यतिरेकसुखेनाऽऽह-न लिप्यत लिप्यते यतइत्यर्थः तेन कृतदुःखेन मुनिः विरागः राधरहितः, तस्पेच तम्मूलत्वादिति भावः । सम्प्रति रागस्य पापकर्मापचयलक्षण महानयेदेतुतां पापवि हिंसाचापनिमित्ततां पुनरियद्वारेण दुःखजनक व सूत्रपाऽऽह रुवाणासागर य जीवे, चराचरे हिंसइगरूवे । 9 चित्तेहि ते परियावेइ बाले, पीले अन्तगुरु किलिने ॥ २७ ॥ . 6 रूपं स्वामनुगच्छति रूपानुगा सा वासावाशा वरूपानुगाया रूपविषयोऽभिलाष इति योऽर्थ तदनुग तश्च जीवः । पठन्ति - " रुवायुवाया गए य जीवे " इति । तत्र रूपाणां मनोशानामुपायः- उपायुक् उपायानुगतः, स च प्राणी जीवान् 'चराचरान् ' तसस्थावरान् हिनस्ति विनाशयति अनेकरूपान् जात्पादिदतोऽनेकविधान, कांधि 'वि' अनेकप्रकारः स्वकायप रकाशस्त्राऽऽदिभिरुपधिरिति गम्यते यन्यवाद् यथासं भवं चित्तेषु वा । तानिति-चराचरजीवान्, परीति सर्वतस्तापयति दुःखयति परितापयति, बाल इच बालः-विवेकवि फलतयाऽपरांथ पीडयति एकदेशदुःखोत्पादनेनाऽऽरमार्थ गुरु: स्वप्रयोजननिष्ठः 'क्लिष्टः ' रागवाधितः । श्रन्यच्च रुवाणुवारण परिग्गहेगा, उपाय रक्खणसंनियोगे । नए विओगे य क सुसे, पमायद्वाण संभोगकाले य अतित्तलाभ ? ॥ २८ ॥ रूपानुपात रूपविषयोऽनुपातः अनुगमनमनुराग इति यावत्। तसिति 'परिग्रहेण' मूत्मकेन हेतुना उत्पादनेउपाने, रक्षणं च अपायविनिवार रानियांगश्च खपरप्रयोजनेषु सम्यग् व्यापारणं, रक्षणसन्नियोगं. तस्मिन् ( वर ति) व्यये विनाशे 'वियांगे' विरहे सतोऽप्य नेककारणजनिते. सर्वत्र रूपस्येति प्रक्रमः । क्क सुखं १, न क्वचित् किं तु सर्वत्र दु खमेवेति भावः । ( से इति ) तस्य जन्तोः । इयमत्र भावना - रूपमूर्हिछतो हि रूपवत्करितुरङ्गमकलचादीनामुत्पादनरक्षणार्थे तेषु तेषु केशदेपायेषु ज तुः प्रवर्त्तते तथा नियोज्याऽपि तथाविधप्रयोजनोत्पत्ती overseerssदि तदपायशङ्कया पुनः पुनः परितप्यत एवेति सिद्धमेवास्पोत्पादनक्षयसंनियोगेषु दुःखम् एवं व्यययियोगयोरपि भावनीयम् अन्ये तु पति रूपाराण प रिग्ग' इति तत्र रूपा देतुना या परिग्रहस्तेन " " शेवं प्राग्वत् । स्थादेतत् मा भूदुत्पादनाऽऽदिषु रूपस्य सुखं, सम्भोगकाले तु भविष्यतीत्याशङ्कयाऽऽह-'सम्भोगकाले ' उपभोगप्रस्ताव (अतितलाने सि) तर्पणं नृपं तिरिति यावत् । तस्य लाभः प्राप्तिस्तृप्तलाभो न तथा तृप्तलाभः । किमुक्कं भवति बहुधाऽपि दर्शने मिसन प्रस्त रप्युक्तम्--" न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । ह विषा कृष्णवत्मव, भूय एवाभिवर्द्धते ॥ १॥" तथा 'यथाऽभ्यासं चिव, विषयाः कानि इन्द्रियाइति नि सति सुखमिति सम्यकः उत्तरेषा हि परितप्यत एव जन्तुरिति । पठन्ति च (प्रतित्तिला त्ति) तृतिप्राप्यभावे । एवं परिग्रहाद् दुःखमनुभवतस्तात निष् निर्दोषान्तरागारम्भ या किमस्य सम्भवतीत्य रूवेति परिग्गहम्म, सत्तोवसत्तो न उवे तुहिं ॥ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८ ) अभिधानराजेन्दः। पमायट्टा पमायट्ठाण अतुहिदोसेण दुही परस्स तदेयं मृपाद्वारेणादत्ताऽऽदानस्य दुःखहेतुत्वमुक्तम् । यदा च लोभाऽऽविले आययई अदत्तं ॥ २६ ॥ (मासस्स त्ति ) ' मोषस्य ' स्तेयस्येति व्याख्या, तदा साक्षादव तस्य दुःखहेतुत्वाभिधानम् | उपसंहारमाहरूपेऽतृप्तश्च, परिग्रहे च तद्विषयमूर्छाऽऽत्मके सक्तः-सामा ' एवम् ' अमुनोक्तप्रकारेणादत्तानि 'समाददानः' गृह्णन्, न्येनैवाऽऽसक्तिमान् , उपसक्नश्च-गाढमासक्तः ततः सक्नश्च पू. रूपेऽतृप्तः सन् दु:खितो भवति । कीदृशः सन् ?, इत्याहमुपसतश्च पश्चात् सक्कोपसक्तः, 'नोपैति 'नोपगच्छति, 'अनिश्रः ' दोषवतया सर्वजनोपेक्षणीय इति कस्यचित्सं. 'बुष्टि' परितोषं, सन्तोषमिति यावत् । तथा चातुष्टिरेव म्वन्धिनाऽवयम्भेन रहितः, मैथुनरूपाऽऽश्रयापलक्षणं चैतद दोषोऽतुष्टिदोषस्तेन दुःखी-यदि ममेदमिदं च रूपवद्वस्तु तिप्रसिद्धत्वाच्च रागिणां तस्य सानादनभिधानम्। यद्वा. स्यादित्याकाक्षातोऽतिशयदुःखवान्, स किं कुरुते?, इत्याह रूपसम्भोगोऽपि मिथुनकर्मकत्वाद् देवानामिव मैथुनमेव. 'परस्य ' अन्यस्य, सम्बन्धि रूपवस्त्विति गम्यते । 'लो तथा च रागिवचनम्-" बालोए श्चिय सा ते-ण पियमा. भाऽऽविलः' लोभकलुषः, यद्धा-परेषां स्वं परस्त्र, प्रक्रमाद् णह निम्भरमणेणं । आभासियव्य अवगू-हियव रमियब्ध यद्वपवद्वस्तु,तस्मिन् लोभो-गायें, तेनाऽऽविलः परस्वलोभा पीयब ॥ १ ॥" इति । स च प्रक्रान्तः, एवमुत्तरवाऽपि उऽचिलः, 'श्रादत्ते' गृहाति, 'श्रदत्तम्' अनिसृष्टं परकीय खीगतशब्दाऽऽदिसम्भोगानां मैथुनत्वं सम्भावनीयम् । मेव, रूपबद्वस्त्विति गम्यते । अनेन रागस्थातिदुष्टतां ख्याप उनमेवार्थ निगमयितुमाहयितुं परिग्रहाद्दोषदर्शनेऽपि विशेषतस्तत्राऽऽसक्तिदोषान्तगऽऽरम्भणं चाभिहितम् । रूवाणुरत्तम्स नरस्स एवं, तरिकमस्यैतावानेव दोप उतान्योऽपि ? इत्याश कत्तो सुहं हुन्ज कयाइ किंचि ?। इक्योक्तदोषानुवादेन दोषान्तरमन्याह तत्थोवभोगेऽवि किलेसदुक्खं, तहाऽभिभूयस्स अदत्तहारिणो, निबत्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥ ३२ ॥ रूवे अतित्तस्स परिगहे य ॥ रूपानुरक्तस्य नरस्य 'एवम् ' शनन्तरसूत्रकदम्बकोक्नप्र. कारण, कुरः गुग्वं भवेन् ? कदाचित्किञ्चित् , सर्वदा दुःमायामुसं वड्डइ लोभदोसा, खमेवति भावः । किमित्येवं ?, यतः 'तत्ररूपानुरागे 'उतत्थावि दुवखा न विमुच्चइ से ॥ ३० ॥ पभोगेऽपि' उपभोगावस्थायामपि 'क्लेशदुःखम्' अतृप्तला. · तृष्णाभिभूतस्य' लोभाभिभूतस्य, तत एवाऽदत्तं हरति भतालक्षणवाधाजनितमसातम् , उपभोगमेव विशिष्टि-- गृहातीत्येवंशीलोऽदत्तहारी तस्य, तथा रूपे-रूपविषयो यः निर्वतील' उत्पादयनि, यस्य इत्युपभोगस्य कृते यदर्थ, परिग्रहस्तस्मिन्निति योगः। चस्य भिन्नक्रमत्याद्, अतृप्तस्य च ‘णं' इति वाक्याल कारे, 'दुःखं' कृच्छमात्मन इति ग. तत्राऽसन्तुष्टस्य. मायाप्रधानं ( मोसं ति) मृषालीकभाषणं म्यते । उपभोगार्थ हि जन्तुः क्लिश्यति, तत्र सुख स्यादिमायामृषा, 'वर्द्धते' वृद्धिं याति कुतः पुनरिदमित्थमि- ति, यदा च तदपि दुःखं तदा कुतोऽन्यदा सुखसम्भव न्याह-लोभदोवात् ' लोभापराधात् , लुब्धो हि परस्वमा- इति भावः । दत्त, श्रादाय च तद्गोपनपरो मायामृषा वशि, तदनेन लोभ | इत्थं रागस्यानर्थहतुतामभिधाय द्वेषस्याऽपि तामतिदे. एच सर्वाऽऽध्रवाणामपि मुख्यो हेतुरित्युक्तं, तथा रागप्रक्रमे टुमाहऽपि सर्वत्र लोभाऽभिधानं रागेऽपि लोमांशस्यैवातिदुष्टता एमेव रूवम्मि गो पोस, अावेदनार्थम् । तत्राऽपि को दोषः ?, इत्याह-तत्रापि ' मृषाभापणेऽपि 'दुःखात् असातात् 'न विमुच्यते ' न विमु उबेइ दुक्खोहपरंपराओ। किमानाति सः, किंतु दुःखभाजनमेव भवतीति भावार्थः॥ पद्दचिलो अचिणाइ कर्म. दुःखाविमुक्तिमेव भावयति जं से पुणो होइ दुहं विवागे ।। ३३ ।। मोसस्स पच्छा य पुरत्थो य, ' एवमंत्र' यथाऽनुरक्तस्तथैव रूपे गतः प्रदोष-द्वेषम, • उपनि 'प्राप्नोनि. इहैवेति शेवः । 'दुःस्वाधपरम्पराः ' उ. पोगकाले य दुही दुरते ॥ तगत्तरदुःखसमूहरूपाः, तथा प्रदुष्ट प्रकरण विष्ट चित्रं एवं अदत्ताणि समायअंतो, यस्य स तथाविधः, चस्य भिग्नक्रमवान् 'चिनोति च' ब. रूवे अतिनो दुहिओ अणिस्से ।। ३१ ।। ध्नाति कर्म, तत् शुभमाप सम्भवत्यत पाह-यन् (म। (मोसस्त त्ति ) मृषा, कोऽर्थ.?-अनृतभाषणस्य पश्चाश्च नभ्य पुनर्भवात 'दास' दुःखहेतुः विपाक ' अनुभवकापुरस्ताच्च, 'प्रयोगकाले च तदापण स्नान, द ग्बी ल, इद परत्र चमि भावः । पुनर्ग्रहामहिकावापेक्षम् , अ. मन् . तत्र--पश्चादिमिदं च न मया समस्थापितसमनि शुभकमापत्रयश्च हिमाऽऽद्याश्रयाविनामाचीति तडतृत्वमनपश्चात्तापनः, पुरस्ताच्च कथमयं मया वचनीय इति चिन्ना नाऽऽक्षिप्यते। व्याकुलत्वेन. प्रयोगकाल च-नाला ममालीकभाषितां इन्धं रागंदापयाम्द्धरणाई तां ख्यापयितुं तव नुद्धरण लक्षाध्यतीति क्षाभतः, तथा दुष्टोऽस्ता:-पर्यवसामा दायमाभधाय नदुद्धरणे गुणमाहमन्यनकविडम्बनाना विनाशेन, अन्यजन्मनि च नाका रूले विरत्तो मणुप्रो विसोगो, दिप्राण्या यस्याऽमी दुरन्ती भवनि. अन्तरिति गम्यते । पण दुकलोहपरंपरेण । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६०) पमायहाण अनिधानराजेन्डः। पमायहाण न लिप्पई भवमज्भेऽपि संतो, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुहि। जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥ ३४ ॥ अतुहिदोसेण दुही परस्स, रूपे विरक्तः, उपलक्षणत्वादाविष्टश्च 'मनुजः' मनुष्यः 'विशो. लोभाऽऽविले पाययई अदत्तं ॥ ४२ ॥ का' शोकराहतः संस्तनिबन्धनयो रागद्वेषयोरभावात् । 'ए तण्हाऽभिभूयस्स अदत्तहारिणो, तेन' अनन्तरमुपदर्शितेन (दुक्खोहपरंपरेणं ति ) दुःखा सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे य । नाम्-असातानामोघाः सङ्घातास्तेषां परम्परा-सन्ततिः. खौधपरम्परा, तया, 'लिप्यते 'न स्पृश्यते, भवमध्येऽपि मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, 'सन्' भवन् , संसारान्तरवयंपीत्यर्थः। दृष्टान्तमाह जलेनेव, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ४३ ।। वाशब्दस्योपमार्थत्वात्, पुष्करिणीपलासं'पभिनीपत्रं, जलम मोसस्स पच्छा य पुरत्थरो य, ध्येऽपि सदिति शेषः ॥ ३४॥ इत्थं चक्षुराश्रित्य त्रयोदश सू. पभोगकाले य दुही दुरंते । आणि व्याख्यातानि । एतदनुसारेणैव शेषेन्द्रियाणां मनसश्च स्वविषयप्रवृत्ती रागद्वेषानुद्धरणदोषाभिधायकानि त्र एवं अदत्ताणि समाययंतो, योदश सूत्राणि व्याख्येयानि । सदे अतित्तो दुहिनो अणिस्सो॥४४॥ सोयस्स सदं गहणं वयंति, सहाणुरत्तस्स नरस्स एवं, तं रागहेउं तु मणुनमाहु । कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि। तं दोसहेउं श्रमणुनमाहु, तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, समो अजो तेसु स वीयरागो ॥ ३५ ॥ निबत्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥ ४५ ॥ सहस्स सोयं गहणं वयंति, एमेव सदम्मि गओ पोस, सोयस्स सदं गहणं वयंति ॥ उबेइ दुक्खोहपरंपराओ। रागस्स हेउं तु मणुममाहु, पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्म, दोसस्स हेडं अमणुममाहु ॥ ३६॥ जं से पुणो होइ दुहं विवागे ।। ४६ ॥ सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, सद्दे विरत्तो मणुओ विसोगो, अकालियं पावइ से विणासं । एएण दुक्खोहपरंपरेणं । रागाउरे हरिणमिउ ब मुद्धे, न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, सद्दे अतित्ते स वेइ मच्चु ।। ३७ ॥ जलेण वा पोक्वरिणीपलासं ॥४७॥ जे यावि दोसं समुवेइ तिव्यं, घाणस्स गंधं महणं वयंति, तसि वखणे से उ उवेइ दुक्खं । तं रागहेउं तु मणुनमाहु । दुइंतदोसेण सएण जंतू, तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, न किंचि सदं अवरज्झई से ॥ ३० ॥ समो य जो तेसु स वीयरागो॥४८॥ एगतरत्ते रुइरंसि सद्दे, गंधस्स घाणं गहणं वयंति, अतालिसे से कुणई परोस । घाणस्स गंधं गहणं वयंति । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, रागस्स हेउं तु मणुन्नमाहु, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ।। ३६ ।। दोसस्स हेर्ड अमगुन्नमाहु ।। ४६ ॥ सदाणुगाऽऽसाऽणुगए य जीवे, गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, चराचरे हिंसइऽणेगरूवे । अकालियं पावइ से विणासं। चित्तीहँ ते परितावेइ बाले, रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे, पीलेइ अत्तट्ट गुरू किलिट्टे ॥ ४० ॥ सप्पे बिलामो विव निक्खमंते ॥ ५० ॥ सहायुवाएण परिग्गहेण, जे यावि दोसं समुवेइ तिव्यं, उप्पायणे रक्खणसन्निोगे । तसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । वए विप्रोगे य क सुहं से, दुईतदोसेण सएण जंतू , संभोगकाले य अतित्तलाभे ॥४१॥ न किंचि गंधं अवरम्झई से ॥ ५१ ॥ सद्दे अत्तित्ते य परिग्गहे य, एगतरत्ते रुइरंसि गंधे, Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायहाण तालिसे से कुप | दुक्खस्स संपीलमुवे वाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ।। ५२ ।। गंगाssersyre य जीवे, चराचरं हिंसइगरूत्रे | चितेहि ते परतावे वाले, पीले त गुरु किलिट्टे ।। ५३ ।। गंधारण परिण, उप्पायणे रक्खणसन्निभोगे । वियोगे य कहं सुहं से, संभोगकाले यत्तिलाभे १ ।। ५४ ।। गंधेति य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुहिं । दोसे दही परस्स, Minister अदत्तं ।। ५५ ।। aress भिभूयस्स तहारिणो, गंधेति परिग्गहे य । माया बड्ड लोभदोसा, तथा दुक्खा न विमुच्चई से ।। ५६ ।। मोस्स पच्छाय पुरस्थओ य पोगकाले यदुही दुरंते । एवं दाणि समाययेतो, गंधे अतित दुहि शिस्सो ।। ५७ ।। गंधारतस्त नरस्त एव, को सुहं हो कमाइ किंचि ? | तत्थभोगे किलेस, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥ ५८ ॥ Raja पत्रसं, दुवोहपरंपराओ | चित्तोय चिणा कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विभागे ॥ ५६ ॥ गंधे वित्त मोिगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्प भवि संतो, जलेश वा पोक्खरिणीलासं ॥ ६० ।। जीहाएर हणं वर्षति, तं रागहेतु साहु | दोस माहु, समोय जो तेसु स वीरागो ।। ६१ ।। रसस्स जीहं गहरी वयंति, ( ४६१) अभिधानराजेन्द्रः | For Private पमायट्ठाण जहाए रसं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समन्नमाद्द्, दोसस हे महु ॥ ६२ ॥ रसेसु जो गिद्धेमुवे तिव्यं, अकालियं पावर से विणासं । , रागाउरे वसविभिन्नकाए, मच्छे जहा आमसभोगगिद्धे ॥ ६३ ॥ जे यावि दोसं समुवे तिव्वं तंसिक्ख से उ उबेइ दुक्खं । दुतदोसेण सएण जंतू, न किंचि रसं एतरते रुरंसि रसे भई से ।। ६४ ।। तालिसे से कुपसं । दुक्खस्स संपीलमुवे वाले, न लिई तेरा मुखी विरागो ।। ६५ ।। रसाणु गाssसाऽगए य जीवे, चराचरे हिंसइ गरूवे । चितेहि ते परतावे वाले, पीले अत्त गुरु किलिट्ठे ॥ ६६ ॥ रसावा परिग्गण, उपायणे रक्खणसन्नियोगे । विओगे य कहं मुहं से. संभोगकाले य अतितलाभे १ ।। ६७ ।। रसेत्य परिग्गय, सत्तोत्रसत्तो न उत्रे तुहिं । दोसे दुही परस्स, लोभाविले आयई दत्तं ॥ ६८ ॥ ताऽभिभूयस् प्रदत्त हारिणो, रसे अतित्तस्स परिग्गहे य । मयामु बढइ लोभोसा, तत्थाय दुक्खा न विचई से ।। ६६ ।। मोम्स पच्छा पुरत्थय, योगकाले यदुही दुरंते । एवं अत्ताणि समाययेतो, सेतो दुहिस्सो ॥ ७० ॥ रसागुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि ? | तत्थभोगे व किलेसदुक्खं, road जस्स का दुक्खं ॥ ७१ ॥ रसम्म एमेव गोपसं, Personal Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६२) प्रनिधानराजेन्छः। पमायट्ठाण पमायहाण उवेइ दुक्खोहपरंपराभो। पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ।। ७२ ॥ रसे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमझ वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ ७३ ॥ कायस्स फासं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुनमाहु। तं दोसहेउं अमणुनमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो।। ७४॥ फासस्स कार्य गहणं वयंति, कायस्स फासं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं श्रमणुनमाहु ।। ७५॥ फासेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे सीयजलायसन्ने, गाहम्गहीए महिसे करने ॥ ७६ ।। जे यावि दोसं समुवेइ तिब्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुइंतदासेण सएण जंतू, न किंचि फासं अवरझई से ॥ ७७ ॥ एगंतरत्ते रुइरंसि फासे, प्रतालिसे से कुणई पोस। दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो॥ ७८ ।। फासाणुगाऽऽसाऽणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइऽणेगरूवे। चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठ गुरू किलिहे ।। ७६ ॥ फासाणुवाएण परिग्गहेग, उप्पायणे रक्खणसन्निभोगे । वए विओगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तलाभे ? ॥५०॥ फासे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोसत्तो न उवेइ तुहि । अतुहिदोसेण दुही परस्स, लोभाऽऽविले आययई अदत्तं ॥ ८१॥ तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, फासे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से।। ८२॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थरो य, पभोगकाले य दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, फासे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥८३ ।। फासाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि । तत्योवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥ ८४ ॥ एमेव फासम्मि गओ पोस, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुरचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे || ८५॥ फासे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ।। ८६ ॥ मणस्स भावं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुनमाहु । तं दोसहेउं अमणुन्नमादु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ ८७ ॥ भावस्स मणं गहणं वयंति, मणस्स भावं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुममाहु, दोसस्स हेर्ड अमगुनमाहु ॥ ८॥ भावेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे कामगुणेसु गिद्धे, करेणुमग्गावहिए व्व नागे ॥८६ ।। जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुईतदोसेण सएण जंतू , न किंचि भाव अवरज्झई से ॥१०॥ एगतरत्ते रुइरंसि भावे, अतालिसे से कुणई पास । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥६१॥ भावाणुगाऽऽसाऽणुगए य जीवे, Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९३) पमायट्ठाण अभिधानराजेन्द्रः । पमायेहाण चराचरे हिंसइऽणेगरूवे। सोदुमशक्नुवन् बिलानिष्कामति ३। 'जिह्वायाः' जिह्वेन्द्रिचित्तेहि ते परितावेइ बाले, यस्य, रस्यते आखाद्यत इति रसस्तं ' मनोशं' मधुराऽऽदि, 'अमनोशं 'कटुकाऽऽदि, तथा बडिशं प्रान्तन्यस्ताऽऽमिषो पीलेइ अत्तट्ठ गुरू किलिडे ॥ ३॥ लोहकीलकस्तेन विभिन्नकायो-विदारितशरीरो बडिशविभावाणुवाएण परिग्गहेणं, भिन्नकायः, 'मत्स्यः ' मीनो यथाऽऽमिषस्य मांसाऽऽदेर्भोगः उप्पायणे रक्खणसनिओगे। अभ्यवहारस्तत्र गृद्ध आमिषभोगगृद्धः ४ । काय इह स्पर्शवए विओगे य कहं सुहं से, नेन्द्रियं,सर्वशरीरगतत्वख्यापनार्थ वाऽस्यैवमुक्तं, तस्य,स्पृसंभोगकाले य अतित्तलाभे॥३३॥ श्यत इति स्पर्शस्तं 'मनोशं' मृदुप्रभृति, 'श्रमनाशं' कर्क शाऽऽदि,शीतं शीतस्पर्शवजलं--पानीयं,तत्रावसनः अवमग्नः भावे अतित्ते य परिग्गहे य, शीतजलावसन्नो, अहिः-जल वरविशेषगृहीतः--कोडीकृतो सत्तोवसत्तो न उवेइ तुडिं। ग्राहगृहीतो महीष इवारण्ये, वसतौ हि कदाचित्केनचिदुअतुहिदोसेण दुही परस्स, न्मोच्येतापीत्यरण्यग्रहणम् ५। 'मनसः'चेतसो भावः श्रलोभाऽऽविले आययई अदत्तं ।। ६४ ॥ भिप्रायः, स चेह स्मृतिगोचरस्तं. 'ग्रहणं' ग्राह्यं वदन्तीन्द्रि याविषयत्वात्तस्य । 'मनाशं मनोज्ञरूपाऽऽदिविषयम् 'अमनोतएहाऽभिभूयस्स अदत्तहारिणो, शं' तद्विपरीतविषयम् । एवमुत्तरग्रन्थोऽपि भावविषयरूपाभावे अतित्तस्स परिम्गहे य । ऽऽद्यपेक्षया व्याख्येयः। यद्वा स्वप्नकामदशाऽऽदिषु भावोपस्थामायामुसं वड्डइ लोभदोसा, पितो रूपाऽऽदिरपि भाव उक्तः,स मनसो ग्राह्यः स्वमकामद शाऽऽदिषु हि मनस एव केवलस्य व्यापार इति।कामगुणेषु' तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ।। ६५ ।। मनोज्ञरूपाऽऽदिषु 'गृद्धः' श्रासक्तः (करेणुमग्गावहिए व मोसस्स पच्छा य पुरत्थो य, णागे इति) इवार्थस्य चस्य भिन्नक्रमत्वात् करेएवा करिपोगकाले य दुही दुरते। ण्या, मार्गेण-निजपथेनापहृतः- आकृष्टः करेणुमार्गापड़तः, एवं अदत्ताणि समाययंतो, 'नाग इव' हस्तीय । स हि मदान्धोऽप्यदूरवर्तिनी करेणुमभावे अतित्तो दुहिनो अणिस्सो ॥ ६ ॥ पदर्य तद्रूपाऽऽदिमोहितस्तन्मार्गानुगामितया च गृह्यते.सं ग्रामाऽऽदिषु च प्रवेश्यते,तथा च विनाशमामोतीति दृष्टान्तभावाणुरत्तस्स नरस्स एवं, त्वेनोक्तः । श्राह-एवं चतुरादीन्द्रियवशादेव गजस्य प्रवृत्तिकत्तो सुहं होज कयाइ किंचि। रिति कथमस्याऽत्र दृष्टान्तत्वेनाभिधानम् ? । उच्यते, पवमेतत्थोत्रभोगे वि किलेसदुक्खं, तत्, मनःप्रधान्यविवक्षया त्वेतन्नेयम्। यदि वा-तथाविधकानिव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥ ७॥ मदशायां चक्षुरादीन्द्रियव्यापाराभावेऽपि मनसः प्रवृत्तिरिति एमेव भावम्मि गओ पोस, न दोषः। इह चानानुपूर्व्यपि निर्देशाङ्गमितीन्द्रियाणामित्थमुप न्यास इत्यष्टसप्ततिसूत्रावयवार्थः। उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। उक्तमेवार्थ सहक्षेपत उपसंहारव्याजनाऽऽह-- पदुद्दचित्तो य चिणाइ कर्म, एविंदियत्था य मणस्स अत्था, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ६८॥ दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो। भावे विरत्तो मणुओ विसोगो, ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न वीयरागस्स करिति किंचि ॥ १० ॥ न लिप्पई भवमझे वि संतो, एवम् उक्तन्यायेन, 'इन्द्रियार्थाः 'चक्षुरादिविषया रूपाऽऽदजलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥६६॥ यः,चशब्दो भिन्नक्रमः। ततो मनसोऽर्थाश्च-उतरूपाः, उपलनवरं 'श्रोत्रस्पेति' श्रोनेन्द्रियस्य,शब्द्यत इति शब्दो-ध्वनि- क्षणत्वादिन्द्रियमनांसि च दुःखस्य (हेउं ति) हेतवो मनुजस्तं, 'मनाझं' काकलीगीताऽऽदि, अमनोशे' खरकर्कशाऽऽदि, स्य रागिणः, उपलक्षणत्वाद् द्वेषिणश्च । विपर्यये गुणमाहतथा (हरिणभिय व्व मुद्धे त्ति) मृगः सर्वोऽपि पशुरुच्यते, 'ते चैव' इन्द्रियमनोऽर्थाः 'स्तोकमाप' स्वल्पमपि. कयदुक्तम्-"मृगशीर्षे हस्तिजाती, मृगः पशुकुरङ्गयोः।" इति । दाचिद् दुःख (न) नैव वीतरागस्य, उपलक्षणत्वाद्वीतद्वेषहरिणस्तु कुरा पवेति तेन विशेष्यते, हरिणश्चासी मृगश्च स्य, कुर्वन्ति 'किञ्चिदिति' शारीरं मानसं चेति सूत्रार्थः। हरिणमृगः, 'मुग्धः' अनभिज्ञः सन्, 'शब्दे' गौरिगीताss- ननु न कश्चन कामभोगेषु सत्सु वीतरागः संभवति, त्मके तृप्तः-तदाकृष्टचित्ततया तत्रातृप्तिमान् । 'घ्राणस्य' सन्कथमस्य दुःखाभावः ?, उच्यतेइति । घ्राणेन्द्रियस्य, गन्ध्यते घ्रायत इति गन्धस्तं 'मनोशं' न कामभोगा समयं उविंति, सुरभिम् , 'अमनोज्ञम् 'असुरभिम् ,तथौषधयो-नागदमन्या न यावि भोगा विगई उविति । दिकास्तासां गन्धस्तत्र गृद्धो-गृद्धिमानौषधिगन्धगृद्धः सन् (सप्पे विलाप्रो विव त्ति) इवशदस्य भिन्नमत्वात्सर्प जे तप्परोसी य परिग्गही य, इव बिलानिकामन् , स ह्यस्यन्तप्रियतया तनन्धं सो तेसु मोहा विगई उवेइ ॥ १०१ ।। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 पमायहाय " ' G 3 (न) नैव ' कामभोगाः ' उक्तरूपाः, ' समतां 'रागद्वेषाभावरूपाम् उपयान्ति ' उपगच्छन्ति हेतु वेनेति गम्पते। हितेन कचिद्रागद्वेषवान् भवेत् नवाऽपि 'भोगाः ' भुज्यमानतया सामान्येन शब्दाऽऽदयः विकृति starssदिरूपाम्, इहापि हेतुत्वेनापयन्तीत्यन्यथा न कश्चन रागद्वेषरहितः स्यात् । कोऽनयोस्तर्हि हेतुः ?, इत्याह-यः त प्रद्वेषी च तेषु विषयेषु प्रद्वेषवान् 'परिग्रही च ' परि महबुद्धिमान् तेष्वेव रामीत्युक्तं भवति स तेषु विषये पु. मोहात् रागद्वेषात्मकात् मोहनीयात् विकृतिमुपेति रागद्वेषरहितस्तु समतामित्यर्थावुक्तम् । उक्तं हि पूर्व- सतो रेप रागद्वेषयोरुदीरकपेन शब्द देतयः' इति "समय जो तेस बीयरागो" इत्यनेनैव गतार्थमेतत् त्यं तस्यैव त्वयं प्रपञ्चः । उक्तं हित एव विधयः सुसंगृहीता भवन्ति येषां लक्षणं प्रपच्यते इति सूत्रार्थः । किस्वरूपा पुनरसौ विकृतियों रागद्वेषत्रशापैतीत्याहकोहं च माणं च तद्देव मायं, • लोभ दुर्ग भर से च हा भये सोगमित्थवेर्य, नपुंसवेयं विवि य भावे ।। १०२ ।। आई एवमग एवंविहे कामगुणेसु सत्तो । अयप्पभवे विसेसे, कारुदी हिरमे वस्सो ॥ १०३ ।। क्रोधं च मानं च तथैव मायां लोभं चतुष्टयमप्युक्तरूपं, 'जुगुसांविवित्सा, 'अरतिम्' अवास्थ्यं, 'रवि' विषया · " सक्रूिर्पा, ' हा च वयत्रिकाशलक्षणं भयं सा यस शोकपुंखमिति समाहारनिर्देशः। ततः शो-त्रिप्रियो मनोः खाऽऽत्मकं वेदं स्त्रीविषयाभिलापं, स्त्रीवेद-पुरुषाभिष्वङ्गं. ( नपुंसवेयं ति ) नपुंसक वेदम् उभयामिलावं, ' विविधांश्च' नानाविधान् 'भावान् ' हर्षविषादाssदीनभिप्रायान् श्रपद्यते ' प्राप्नोति एवम् श्रमुना रागद्वेषयतालक्षणे: प्रकारेण अनेकरूपान् ' बहुभेदाननसानुबन्ध्यादिभेदन तारतम्यमेदेन च विधान उक्त प्रकारान् विकारानिति गम्यते, कामगुणेषु शब्दाऽऽदिषु 'सक्त: ' श्रभिष्वङ्गवान्, उपलक्षणत्वाद् द्विष्टश्व अन्यांश्च 'एतत्प्रभवान्' क्रोधाऽऽदिजनितान् विशेषान् ' परितापदुर्गतिपातादीन् कीदृशः सन् ? इत्याह- कारुण्यास्पदी भूतो दीनः कानो मध्यपदलोपीसमा अत्यन्तदीन इत्यर्थः (हिरिने ति) 'हीवान्' बजवान कोपाध्थापन हि प्रीतिविनाशादिकमिवानुभव परच च तद्विपाकमतिकटुकं विभावयन् प्राप्नोति, दैन्यं लजां च भजते, तथा ( वहस्स ति ) श्रार्षत्वात् ' द्वेष्यः ' तत्तद्देोषदुष्टत्वात्सर्वस्याप्रीतिभाजनमिति सूपार्थः । L 9 6 ( ४६४ ) अभिधान राजेन्द्रः । • C यतश्चैवं रागद्वेषावेव दुःखमूल मतः प्रकारान्तरेणाऽपि तयोरुद्धरणोपायाभिधानार्थ तद्विपर्यये दोषदर्शनार्थ बेदमादकप्पं न इच्छित सहापलिच्छू, पमायट्ठाण पछतावे व तवभावं । एवं विकारे अमियप्ययारे, आवई इंदियचोरवस्से ॥ १०४ ॥ " 9 9 कल्पते- स्वाध्यायाऽऽदिक्रियासु समर्थो भवतीति कल्पोयोग्यस्तम् अपेर्गम्यमानत्वात्कल्पमपि किं पुनरकल्पम् शिष्यामीति गम्यतेने मामिलपे (सहायलि सि) विन्डोरलाक्षणिकत्वात् 'सहायं लिप्तुः ममासी शरीरसंबाधभा5दि साहाय्यं करिष्यतीत्यभिलाषुकः सन् तथा पश्चादिति - प्रस्तावाद् व्रतस्य तपसो वाऽङ्गीकारादुत्तरकालमनुतापः- किमेतावन्मया कष्टमङ्गीकृतमिति चित बाधाSSत्मको यस्य स तथाविधः चशब्दादन्यादृशश्च सम्भूतयतिवद् भवान्तरे भोगस्पृहयालुः तपःप्रभावं प्रक्रमाचे च्छेद्, यथा न शक्यमङ्गीकृतं त्यक्तुं परं यद्यस्य व्रतस्य तपसो वा फलमस्ति तद् एतस्मादिदेवामपीषयादिसन्धिर स्तु तदन्यादृशापेक्षया तु भवान्तरे शक्रचक्रिविभूत्यादि भूयादिति किमेवं निषिध्यते ? इत्याह-' एवम् ' अमुना प्रका रेस, ' विकारान् दोषान् अमितप्रकारान् अपरिमित मेदान 'आपच प्राप्नोति इन्द्रियाणि चोरा हच धर्मसस्वापहरणाद् इन्द्रियः तदायत्तः। उक्तविशेषणविशिष्टस्य हि कल्पतपःप्रभाववाञ्छारूपेण स्पर्शनाऽऽदीन्द्रिययश्यता अवश्यसंभाविनी ततोत्तरोत्तरविशेषानभि लपतः संयमं प्रति चित्तविष्णुव्यवधावना 55दिदोषा अपि सयस्येवेति । एवं च तोयमाशयः तदनुग्रहया कल्पं पुष्टाऽऽलम्बनेन च तपःप्रभाव व पातोडापे न दोषः अ वापरसहायल यदि कथनामी मम धर्मसहाया भवन्तीत्येवमभिलाषुकमपि, श्रास्तामन्यमिति भाव, जिनकल्पिकात् पतेन च रामस्य हेतुइय परिहरणमुद्धरणोपाय उक्तः उपलक्ष मन्येषा मपि रागहेतूनां च परिद्वारस्य ततः सिद्धं योद्धर णोपायानां तद्विपर्यये च दोषाणामभिसन्धानमिति सूत्रार्थः ॥ अनन्तरं रागद्वेषोद्धरणोपायचिपर्वये दो दोष उक्तस्तमेव दोषान्तरहेतुताऽभिधानद्वारेण समर्थयितुमाहओ से जाति पयोषणाई, निमजिउं मोहमहभवसि । सुहेसियो दुक्खविणोयट्ठा, तप्पच्चया उज्जमए अ रागी ।। १०५ ।। 6 ' ततः ' इति विकाराऽऽपतेरनन्तरं (से) तस्य 'जायन्ते ' उत्पद्यन्ते प्रयोजनानि विषयसेवनादीनि निमाज इत्यन्तभीषितरापर्यत्वान्निमयितुमन मज्जयितुं प्रक्रमात्तमेव जन्तुं मोहो महार्णव इवातिदुस्तरतया मोहमहावस्तस्मिन् किमुकं भवति ?-म हमहार्णवनिमय जन्तुः कियते स त्पनविकारतया मूढ एवाऽऽसीत्, विषयाऽऽ सेवनाऽऽदिभिश्च प्रयोजनैः सुतरां मुझतीति । कीदृशस्य पुनरस्य किमर्थ चैवंविधप्रयेोजननि जायन्ते इत्याह- सुखेषिणा 'सुखाभिलपणशीलस्य 'हु:विनोदार्थं दुःखपरिहारार्थ पाठान्तरतो दुःखविमोचनाये Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायहागा बा, सुषितायां हि दुःखपरिहाराय विषयसेवनादिप्रयोज नखम्भव इति भावः कदाचिदेवंविधप्रयोजनोत्पत्तावपि तत्रायमुदासीन एच स्पा. अच्यते तत्प्रस्पयम् ' उक्त रूपप्रयोजननिमितं. पाठान्तरतः तत्प्रत्ययाद्यच्छति, शब्द स्वैयकारार्थत्वाच्छत्येष कोऽर्थः १ तत्सत एव. रागी रागवान् उपलक्षणत्वात् द्वेषी च सन्, रागद्वेपयोरेव सकलानर्धपरम्पराकारण त्यादिति वार्थः ॥ किमिति रागद्वेषवत एव सकलाऽप्यनर्थ 3 " परम्परोच्यते ?, इत्याशक्याऽऽह-विरमाणस्स य इंदियस्था, सदाइया वायपगारा । न तस्स सव्वे विमनयं वा, निव्वतयंती मनय वा ॥ १०६ ॥ (४EK) अनिधानराजेन्ः | 4 विरज्यमानस्येति. उपलक्षणत्वाद् द्विषतश्च, 'चः र, ततो विरज्यमानस्य द्विषतथ पुनः इन्द्रियाथी शब्दाऽऽदिकाः। पाठान्तरतो पर्णाऽऽदिका था। तावन्त प्रति यावन्तो लोके प्रतीताः प्रकाराः खरमधुराऽऽदिभेदा येषां ते तावत्प्रकाराः बहुप्रभेदा इत्यर्थः । न ' तस्य ' इति म नुजस्य, सर्वे वे' समस्ता अपि मनोशतां वा निर्व र्नयन्ति ' जनयन्त्यमनोज्ञतां वा निर्वर्त्तयन्ति । किन्तु राम चहि रूपाय नमनाइ तां वा कर्तुमात्मनः कुमाः, किं तु रक्तेनरप्रतिपत्रध्यवसायवशात् । उच्यते वान्यैराये" परिवादकामुकशुना मे -मेकस्यां प्र. महातनी । कृष कामिनी यमिति तिखो विकल्पमा ॥ १ ॥ ततो बीतरागस्वभावाची मोहनामा चि कथं विषय नाप्रियजनोत्पतिः पूर्वम 35 एवं ससंकष्पविकप्पणासु, संजायई समयमुवद्विपस्स । अत्थे च संकम्पयच तथ से, पीय कामगुणेसु तरहा ।। १०७ ।। " समानामामुरूम, छह तु मनोज्ञत्वामनत्वे अपि तादृशस्य न भवत एवेत्यु मयत इति पूर्वमशेषतः। तदेवं यहा "जे जे उपाया पडिवजियव्वा" इति प्रतिज्ञा तदा गोमोहस्य च परस्पराऽऽयतनत्वेऽपि रागदेषयोरतिहस्यमय प्रतिपत्तव्यतिरूप्य यदा तु " जे जे श्रवाया परिवजिया " प्रतिपाठः तारखांनपेक्षणाऽऽई पापानुकम्यायोऽभिधा योपसंहरन्नाह पुन 'म्' उक्तप्रकारेण, स्वस्थ-आत्मनः, सङ्कल्पाः- प्रक्रमाड़ागद्वेषमेादरूपाध्यवसायाः तेषां विकल्पनाः-लकक्षदोषमूलखापावसाला स्पस्थितस्य तद्य तस्येति सम्बन्धः । ' किमित्याह-' संजायते 'समुत्पद्यते, (सअर्था न्, रूपाऽऽश्वस्य निक्रमत्वानू, मङ्कल्पयतश्च यथा नैवैतेऽपायहेतवः, किं तु रागाऽऽदय पचेत्युक्तनीत्या विन्तयतः, यदि पमायहाण " वा-समता- परस्परमध्यत्र सायतुल्यता, मा चाऽनिवृतिवादर सम्पराय गुणस्थान एव एतत्प्रतिपदि बहूनामध्येक एवाभ्यवनाय त्यनयै नडु लक्ष्यते । तथा-' अर्थात् ' जी. चयन शुरुभ्यानविषयवस्त ततः ' इति समतायाः (से) तस्य जन्तोः ( साधोः 'प्रहीयते प्रकर्तेन हानि यानि कण्डनकामगुणेषु रूपाऽऽदेषु 'तृष्णा' अभिलाषो लोभ इति यावत् । समताय हिमप्राप्तायामुतरो सगुणस्थानावा 3 एत्र लोन इति । अथवा पत्रम् उकप्रकारेण, 'समकम् ' एककालस्, 'उपस्थितस्य ' उद्यनस्य, रागाऽऽशुरूरणोपाये. विति प्रक्रमः । यदि बा--' समयम् एतदभिधायकम्, सि प्रति इति शेषः उपस्थितस्य तदुकानुष्ठानांत स्येत्यर्थः । मिया नाम आत्मसा विशेषणा 4 " सम यांच करने करणे तथा । औपम्ये चाधिवासे च कल्पशब्द विदुः ॥ १॥ निश संज्ञायते भवति । पात-" कवकपणालो "ति । तथा " अत्थे अ संकाय तो " ति । तत्र च स्वस्थ श्रात्मनः संकल्पः अध्यवसायस्तस्य विकल्पा- रागादयो भेदास्तेषां नाशः अभावः स्व सङ्कल्पविकल्पनाशः तथा च को गुगुः १ इत्याह--अर्थान्' रूपाssवीन् सङ्कल्पयतः रागाऽऽदिविषयतयाऽनध्यवस्यतः 'ततः" इति स्वयंपाका (से) तस्य प्रहीय कामगुणेषु तृतिर्थः । ततः स कीराः सन् किं विधते १, इत्याहसो बीयरागो वसन्चो, ads नाणाssवरणं खयं । तदेव जं दंसणमावरे, जं चंतरायं पकरेइ कम्मं ॥ १०८ ॥ 9 5 'सः' इति दीनतृष्णो ' बीतरागः ' वितरागद्वेषो भव ति दिपायगुणस्थानापामि रिति तथा कृतकृत्य व कृतकृत्य प्राप्तायादमेन मुक्तः । ' कृपयति ' कयं नयति ' कानावरणं वदयमाणस्परूपं कृणेन समयेन तथैव यद्दर्शनं कु शनाऽऽदि 'आवृणोति' स्थगयति दर्शनावरणमित्यर्थः, य ' अन्तरायं' दानाऽऽदिलब्धिविघ्नं प्रकरोति 'कर्म' अन्तरायनामकमित्युकं भवति स हि कपितमोहनीयस्तीर्णमहासागर व श्रमोपेतो विश्रम्यान्तर्मुहूर्त्त तद् द्विचरमसमये निषा प्रगत्यादिनापयति समये माssवरणादित्रयमिति सूत्रार्थः । ननु तत्कयाश्च के गुणमवाप्नोति ? इत्याहसतच जागा पासई य 9 अमोहो होह निरंतराए । भास झाणसमाहिजुनो, आउवखए मुकखगुवे मुद्दे ।। १०६ ।। 'सर्व' निरवशेषं, 'तनः' ज्ञानावरणाऽऽविक्रयात् 'जाना'ति' विशेषरूपतयाऽवगच्कृति, पश्यति च सामान्यरूपतया, चः समुचयार्थः तत् समुचयस्य 3 Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायट्ठागा पृथगुपयोगत्वमनयोः युगपयोगचा दिना- "मणपज्जवाणं नो, जाणरूल य दंसणहम य विसेसो । केवलणाणं पुण दंसणं ति नाणं ति य समाणं ॥ १॥ " इति । तन्निराकृतं नवति । तथा च प्रकृत्यामभिहितम् - " जं समयं जातिय समर्थ पाति तथा रयण पुढवि आगारे पमायेदि कडा रिवारे समजा नवमयं पासति । ता गोयमा ! केवली ग" इत्यादि । म छात्र केवलिशब्देन बन स्थ एव श्रुतवल्यादिर्विवति इति वाच्यं यत इहाऽऽथ सूत्र स्नातक एव प्रस्तुतः स च घासिकर्मक्कयादेव भवतीति न तस्य ब्रझस्थतासंभवः । द्वितीयसूत्रे तु परमाद र्शमेव प्रक्रान्तं, तस्य च केवलं बिना परमावतो वा कि. शिन्यूनस्यैव सम्भवः, तत्र च तदिताविति केवल मेवावशिष्यते । उक्तं च पूज्यै:-" ते दोऽवि विसेसेडं, नो मत्थ केवली को सो ? । जो पास परमाणुं, गहणमिदं जस्स होजादि ॥ १ ॥ न चैवमप्यस्मिन् विशेषवति सुत्रे परचकव्यपेयमित्युपगन्तुमुचितम् हि एवं बिसे सियम्म बि परमयमेगंतराव गोति । ण पुण उभोक भोगो, परवन्तन्वति का बुद्धी १ ॥ १ ॥ " इत्यादि कृतं प्रसङ्गेन । प्रकृतमुच्यते तथा चाऽमोहन :- मोहराहतो भवति, तथा निष्क्रान्तो ऽन्तरायात् निरन्तरायः, अनाथवः प्राग्वत्, ध्यानं शुक्रानं तेन समाधिः परमस्यास्वं तेन युक्तः सहितो ध्यानसमाचिका, आयुष उपलक्षणत्या कय आयुःयस्तस्मिन् सति मोक्षम् ' उपैति " प्राप्नोति, " 'शुद्ध' विगतकर्ममल इति सुत्रार्थः । (VER) अभिधान राजेन्द्रः | मोकगतश्च यादृशो भवति तदाह I सोक्को, जं वाहई सययं जंतुमेयं । दीहामय विप्मुको पत्थो, तो होइ अचंतसुही कयत्थो । ११० 'सः' इति मोक्कप्राप्तो जन्तुः 'तस्मात् ' इति जातिजराम. रणरूपत्वेन प्रतिपादनात् खात् दुिःख सर्वत्र सुव्यत्ययेन षष्ठी।' मुक्तः ' पृथग्भूतः । यत् कीदृगित्याह' यद्' दुःखं 'बाधते ' पीकयति, 'सततम् ' अनवरतं, "जन्तुं प्राणिनम् . , • 6 घीणि यानि, स्थितितः प्रक्रमात्कर्माणि तान्यामया व रोगा इव विविधबाधाविधायितया दीर्घामयाः, तेभ्यो विप्रमुक्तो दी घीऽऽमयविप्रमुक्तः, श्रत एव ' प्रशस्तः ' प्रशंसा ऽईः । ततः किमित्याइ - (तो) इति ततः ' दीर्घाऽऽमयविप्रमोक्काद् भवति जायतेत्यन्तम् प्रतितं सुखं शर्म तदव्यास्तीत्यस्य सुखी तसच तार्थः कृतकृत्य इति जार्थः सायमा निगमयितुमाहअशाइकालप्यभवस्स एसो - पमायायरिय तिपद्य संस्थाः प्राणिनः मेरोपति रूपेासुखिनो भवन्तीति सूत्रार्थः परिसमाप्ती प्रवीमीति पूर्ववत् अवसतोऽनुगमो नया प्राद उस० पाई ३२ अ० । धर्म पमायपचय-प्रमादप्रत्यय- पुं० । प्रमाद ललकारणे, म०८ प 4 सब्वस्स दुक्खस्स पमुक्खमन्गो । विग्राहियों में समुबेस सत्ता, " कमेण अर्थतही भवति ॥ १११ ॥ ति बेमि ॥ अनादिकालप्रभवस्य अनादिकालोपनस्य, 'एषः अनन्त शेख सर्वस्य दुःख प्रमोक्षमार्गः पापा न्तरतश्च-संसारचक्रस्य विमोकमार्गो, व्याख्यातः, यः कीह १, इत्यादयं खप्रमोक्षमार्गे 'समुपेत्य' सम्पक प्र " 6 श० एन० । पमायपडिले प्रमादमत्युपेक्षखा- श्री शैथिल्येनाऽऽज्ञातिकमलकणेन वा प्रमादेन प्रत्युपेक्षणायास्. स्था० ॥ बिहा पमायपडिलेहा पाता। तं जहा - ( स्था० )"आरभडा संमद्दा, वजेयव्वा य मोसली तइया । पप्फोरसा चत्थी, विक्खिता वेश्या हट्टी||४२७|| "ओप० । ( अस्या गाथाया विशेषतो व्याख्या' पडिलेहरा ' शब्देऽ विभागे ३४५ पृष्ठे गता पट्टी प्राप्रत्युकृणेति प्रक्रमः । ६६ गाधे "वितहकरणनि तुरियं, असं मां च गेएह श्रारभडा । तो होज कोणा, निसियण तत्थेव सम्मद्दा ॥ ४२८ ॥ मोलि पडव 1 विक्खेवं तुषखेवो, वेश्यपणगं च उदोसा ॥ ४२६ ॥ " इति । ( ओघर ) स्था० ६ ० । (आसां गाथानामर्थः ' पहिलेहगा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३४५ पृष्ठे गतः ) पमापपटिसेवया प्रमादप्रतिसेवया श्री० परिहासविकथा35 मिना स्या० १० डा० ( विषयः गुणपडदा शब्दे पहले पमायपर - प्रमादपर त्रि० । प्रमादनिष्ठे, प्रा० ४ ० । पमायपरिहार - प्रमादपरिहार - पुं० । प्रागुक्ताष्टविधप्रमादत्यागे, ध० ४ अधि० । " प्रमाद परिहाराय महासामर्थ्य सम्भवे । कृताथनां निरपेक्को, यतिधर्मोऽति सुन्दरः ॥ १ ॥ " ६० ४ अधि० । पमायप्पमाय- प्रमादाप्रमाद- - न० । प्रागुक्तप्रमादाप्रमाद स्वरूप विपाकप्रतिपादकेऽथयने तरकालिकम् । मं०पा०| पमायमइरागत्थ - प्रमादमदिराग्रस्त - त्रि० । प्रमादो निशाबिक थारूपः, स पत्र मदिरा वारुणी प्रमादमदिरा, तया ग्रस्तः । तथाविधतत्वज्ञानरहिते, ग० १ अधि० । पमायवसग-प्रमादवशग त्रि० । प्रमादपरवशे, ग० १ अधि० । पमायसंग - प्रमादसङ्ग-पुं० । मद्यविषयाऽऽदिके, सूत्र० १० , १४ अ० । पमायसुख-प्रमादसूत्र न० प्रमादप्रतिपादके ले श्रु० ६ ० २ उ० । पमायापरिय-प्रमादाऽचरित १० प्रमाद्यविषया निद्राविकथालङ्कणः तेन तस्य वाऽऽचरितमनुष्ठानं प्रमा दाऽऽचरितम । मद्यादिना कृत्याने मायावरिवसे (२३ गाथा) इन्द्रपारि (पा० ) अयं - अस्योदार्थद्वारेण स्वाह श्यम् । अथवा प्रमादाऽऽचरितमानस्योपहृत कृत्यम् । तथा स्थगि साजनधारणा सोपघात १ वि० । उपा० । ६० आ० । 35 Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायायरमा अभिधानराजेन्दः । पमेजरयणमंजसा पमायायरण-प्रमादाऽऽचरण-न०। प्रमादेन प्रमादस्य वाऽऽचरणे, ऽऽदीनामिन्द्रियार्धानां न फन एबान्तीयः, “प्रवृसिदोषजनि. घ०२ आध. (प्रमादश्च पञ्चविधः ‘पमाय'शब्देऽनुपदमेव गतः) त सुखजुःखाऽऽत्मकं मुख्यं फलं, तत्साधनं तु गौणम ।" इति. पमार-प्रमार-पु. । मृ.विशेषे मारणस्थाने, स्था०५ ठा० १ जयन्तवचनात् । प्रेत्यभाचा उपयगंधोः पुनरात्मन एष परिणाउमरणक्रियाप्रारम्भे, भ०१५ श०। मान्तराऽऽपत्तिरूपत्वान्न पार्यक्यमात्मनः सकाशा दुचिनम् वदेव द्वादश विधं प्रमेयमिति चाम्धिस्तरमात्रम। "द्रव्यपर्यायाssम पमारणा प्रमारणा-स्त्री० । कुमारणमारणायाम, ग्य० ३ ३० । के वस्तु प्रमेयम्" इति तु सभीचीनं लक्षणम्। संसाहक. पमिइ-प्रमिति-स्त्री. प्रमाणफले, स्था। स्वात् । एवं संशयाऽऽदीनामपि तत्वाऽऽनासत्वं प्रेक्कावाद्भग्नुपमिलाण-प्रम्लान-वि० वर्णादिना हीने,स्था०३ वा.१०॥ प्रेक्षणीयम् अत्र तु प्रतीतत्वाइन्धगौरवभयाश्च न प्रपश्चितम् । पमिलंत-प्रभीलत-त्रि० । “प्राऽऽढे मीझेः" ॥८॥४।२३२ ॥ (१० श्लोक) स्या० । सूत्र० । विशे। ति लद्विरथम् । प्रसङ्गमाने, प्रा०४ पाद। पमेजरयणकोस-प्रमेयरत्नकोश-पुं० । स्वनामख्याते प्रमाणप्रपमुइय-प्रमुदित-त्रि० । प्रमोद कारणवस्तूनां सद्भावात् (ज्ञा०१ | धु०१०) हर्ष गते, जं०१ बकाका प्रमोदति, सू०प्र०पमेज्जरयणमंजूसा-प्रमेयरत्नमजपा-स्त्री। विजयदेवमूरि१पादु० । ।०। । भ०। नि० । सुमिक्षाऽऽदिना हृष्ट,कल्प वाचकविरचित जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटोकायाम, ज०। १ अधि०४ कण | औ०। " जयति जिनः सिद्धार्थः, सिझार्थनरेन्जनन्दनो विजयी। पमुइयजणजाणवया-प्रमुदितजनजानपदा-स्त्री०। नगरीविशे. अनुण्डतज्ञानवचाः, सुरेन्द्रशनसेव्यमानो यः ॥ १ ॥ बे, प्रभुदिताः प्रमादयन्त:,तत्र प्रमोद हेतुवस्तुसनावात् । जना सर्वप्रयोगसिकान् , वृद्धान् प्रणि महे महिमऋहान् । नगरीवास्तव्या लोकाः, जानपदा जनपदोदनवास्तत्र प्रयोज प्रवचनकञ्चिननिकधान् , सुरीन् श्रीगन्धहस्तिमुखान् ॥२॥ नवशादायाताः सन्तो यत्र साप्रमुदितजनजानपदा।रा० श्री०। यज्जात वृत्तिमलयज -राजिजिनाऽऽगमरहस्यरसनिवहः । पमुइयपक्कीलिया-प्रमुदितप्रक्रीडिता-स्त्री० । प्रमुदितजनयोगा- संशयतापमपोहति, जयति स सत्यो मलयगिरिः ॥३॥ स्ममुदिता, प्रक्रीमितजनयोगारप्रक्रीडिता, ततः कर्मधारयः। प्रमुः श्रीमद्गुरोविजयदानसहजानोः, दितप्रक्रीमिता । भ० ११ २०११ उ०। प्रमुदिताश्च ते तोषवन्त. सिकान्तधामधरणात् समाप्तदीप्तिः । प्रक्रीडिताश्च प्रकृष्टकीडाः प्रमुदित प्रक्रीमितानि.१०८ २०॥ यो दुःषमार जानजातमपास्तपारं, प्राणाशयद्भरतनूमिगतं तमिस्रम् ॥ ४॥ पमुइयवरतुरगसीहवरवट्टियकडी-प्रमुदितवरतरगसिंहवरवार्त दीपः स रत्नमय एव परानपेक्ष, तकटी-स्त्री. । प्रमुदितो रोगशोकाऽऽधुपयाभावेन पुष्टो यौ प्रोद्दीपयन् विशदयन् स्वपई म्वन्नाभिः । वनं प्राप्त इति गम्यते । वरः प्रधानो यस्तुरगोऽश्वः, सिंहवरः गौरैगुणैरिह निदर्शितपूर्वसरिः, प्रधानसिंहः तद्वत् वर्तिता कटी नितम्बप्रदेशो यासां ताः । सू- श्रीसूरिहारविजयो विजयाय बोऽस्तु ॥५॥ दमकट्या स्त्रियाम् , जी० ३ प्रति० ४ अधि०। यतप्रभावादश्मनोऽपि, मम वाणी रसोऽभवत् । पचमाण-प्रमुञ्चत-त्रि० । विपति, "जालासहस्साई पमुंच- ने श्रीसकलचाऽऽख्याः, जीयासुर्वाचकोत्तमाः ॥ ६॥ मारणाई।" स्था०८गा। जम्बूदीपाऽऽदिप्रइते- दृष्टशास्त्रानुसारतः । पमुक्क-प्रमुक्त-त्रि० । प्रकर्षण मुक्तः । “समासे वा" ॥ प्रमेयरत्नमञ्जूषा--नाम्ना वृत्तिर्विधीयते ॥७॥" ६७ :॥ इति कस्य द्वित्वम् । प्रा० २ पाद । निःसते. निष्कि इह तावद्विकटवाटांपर्यटनसमापतितशारीराऽऽयनेकदु:चने, सूत्र०१ श्रु. १००। खादितो देवी अकामनिर्जरायोगतः संजातकमैनाघबस्तजि. पमुह-प्रमुख-पुं० । प्रगतं मुखं यस्य स तथा । प्राचा०१ श्रु०५ हासया सकल कर्मकायवकणं परमपदमाकास्कृति;तच परमपु रुषार्थत्वेन सम्यग्ज्ञानाऽऽदिरत्नत्रयगोचरपरमपुरुषकारोपार्ज०३ ०। स्था० । पञ्चाशत्तमे महाग्रहे, "दो पमुहा" नीयम,स चेष्टसाधनताजातीयझानजन्यः, तथाऽऽप्तोपदेशमूलस्था०२०३१० । कल्प। चं० प्र० । आपाते, “प्रावा. कम,प्राप्तश्च परमः केवाऽऽलोकाबलोकित लोकालोकनिष्कायो पमुहं रो"। पाइ० ना० १६२ गाथा । रणपरोपकारकप्रवृत्यनुभूयमानतीर्थकृन्नामकी पुरुष एव, त. पमहत्त-देशी वृके. दे. मा० ६ वर्ग २९ गाथा। दुपदेशश्च गणधरस्थविराऽादभिरङ्गोपाङ्गाऽऽदिशास्त्रेषु प्रपपपेज-प्रमेय त्रिका परिच्छेथे, बाह्येऽथे,स्या०। प्रमेयमपि तै-श्रा- ञ्चितः।। (कस्याङ्गस्य किमुपाङ्गमिति 'उबंग' शब्द किती स्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफबःखाऽपवर्ग- यभागे ८६५ पृष्ठे गतम्) अत्र चोपाङ्गक्रमे सामाचायोदौ कनेहा द्वादशविधमुक्तम् । तथन सम्यम्। यतः-शरीरेन्जिमबुद्धि बिद्भेदोऽप्यस्ति । अङ्गानां च मध्ये हे पाये अङ्गे श्री शीलानामनःप्रवृत्तिदोषफल दुःखानामात्मन्येवान्तर्भावो युक्तः, संसारि. ऽऽवार्यवृते स्तः, शेषाणि नवाङ्गानि श्रीअभयदेवसूरिण प्रात्मनः कथाश्चत्तदविष्वग्नतत्वात । आत्मा च प्रमेय पादविवृतानि सन्ति । दृष्टिवादस्तु श्रीवीरनिर्वाणात् वर्षसहएष न नवति, तस्य प्रमातृत्वात् । न्द्रियबुकिमानसा तु ने व्यवच्छिन्न इनि न तद्विवरणप्रयोजनम् । ज० (उपाङ्गानि केन करणत्वात्प्रमेयत्वानावः । दोषास्तु राग-द्वेष-मोहाः, ते च विवृतानीति 'उबंग' शब्दे द्वितीयभागे ८६६ पृष्ठे गतम् ) तत्र प्रवृतेन पृचम्नवितुमर्हन्ति वाङ्मनःकायव्यापारस्य शुभाशु: प्रस्तुतोपाङ्गस्य वृत्तिः श्रीमलयगिरिकताऽपि संप्रति कालदोप्रफनस्य विशतिबिधस्य तम्मते प्रवृत्ति शब्दवास्यत्वात रागा- बेण व्यवचित्रा, इंदं च गम्भीरार्थतयाऽतिगहनं, तेनाऽनयोगदिदोषाणां च मनोव्यापाराऽऽत्मकत्वात् । पु:खस्य, शब्दा. ' रहितं मुडितराजकीयकमनीयकोशगृक्षमिव न तदर्धाथिनांह १२५ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेजर या मंजूसा स्वानुयोगातिनिि पाणयुगप्रधान समान संप्रतिविजयमानगड नायक परमगुरु-श्रीहीर विचयसूरीश्वर निदेशेन कोशाध्यक्वा ऽऽक्रया प्रेष्येणेव उ योगः प्रारभ्यतेच धानुयोग उतराध्ययनादिक गणितानुयोगसू दिका योग पूर्वातिमादिश्य चरण करणानुया गश्arssar ssदिकः। प्रस्तुत शास्त्रस्य त्रप्ररूपणात्मकत्वागणिताध्यायादानुषोः चरण करणाsser काऽऽवाराऽऽदिशास्त्राणामिव नाऽस्य मु. क्त्यङ्गता । साक्षात् मोक्षमार्गभूत रत्नत्रयानुपदेशकत्वात् इति देशकाचा भावेऽपि तदुपकारशेषाणाम त्रियाणामनुगान याविरोधात बोक "चरणपरिवति हेऊ, धम्मका कार्लोदिया । दविदंसणसोही, दंसणसुद्धस्स चरणं तु ॥ १ ॥ यात्रवृत्तावनिदेशोकसंद व्याख्याने अपरिसमाप्तिरत्र व्याख्या इति संकेतो बोध्यः । चरणप्रतिपत्तिहेतुर्धर्मकथा ऽनुयोगः, काले गणितानुयोगे बीकान ( ४६८) • अनिधानराजे | - शस्तफलानि स्युकाइन् ज्योति जम्प इति इति- लाग निकापादिद्रव्याच्या त्या प्रतिपदवी तस्य चरणानुयोग नव इह यद्यपि श्री मलयगि रेपादानां क परकृता के पपरिद्वारप्रजपिष्णुवचनरचनावादास व तत्तनिबन्धबन्धुरतानैपुण्यं क्व कुश ग्रसमः प्रतिभात्रिभवश्च, पचमेतत्पूर्वपरवा तारादत्यन्धनकर्म एकमे च मुक्षामतस्वमिति मह , रामसिक प्रवृत्तिरिति निम्न कुर नजद्द उग्रह इत्युपहासपात्रतामात्र फलतया चन्द्राऽऽकर्षक. खानुयायिता शृगालस्येव ममानौचितीमञ्चति, तथाऽपि श्रोहिसारकणानां चुम्बका मह सा प्रयत्नेन प्रस्तावाभिगम मेव व्याख्यालवानामेकत्र मीलनमनुविचिन्त्य अन्वाख्यानरू मेवंविधीयत इति नामनि 93 वै सुस्थम । इति शास्त्रप्रस्तावना, तस्य चानुयोगस्य फला ऽऽदिद्वारप्ररूपणतः प्रवृत्तियति । यत उकम्"जोगमंगलादेव दाराई। तमेषनिरुसिक्कम पोयणाई व बच्चाई ॥ ११ इति । तत्र प्रज्ञावतां प्रवृत्तये तस्यानुयोगस्य फलमवश्यं वाच्यम् । श्रन्यथाऽस्य नि. फक्तत्वमा कञ्जय्य व्याख्याताः श्रोतारश्च कण्टकशाखा मर्दन प्रतिश्व एकम पद्वि-अनन्तरं परम्परं च । तत्र कतुरनन्तरं द्वीपसमुद्राथानेऽतिपतित कर संस्स्वनः नसमा सिमेन्दमे सोनीप परिज्ञानम् परम्परं तु द्वयोरपि मुक्त्यवासिया सोपदेशेन धनम्। मेज्जरयण मंजूसा करोति स प्राप्नोत्यराम्॥१॥" सम्पन्नापपरिज्ञानारका भवतो जना क्रियाssसका ह्यविध्नेन, गच्छन्ति परमां गतिम् ॥ १ ॥ " तथा योगः संबन्धो वाच्यः तेन दि इतेिन फलव्यभिचारमनाशङ्कमानाः प्रेक्कावन्तः प्रवर्तन्त इति । स द्विधा- उपायो पेयभावलकृणो, गुरुपर्वक्रमश्च तनुसार प्रति अनु योग उपयोगमादिबोधेयम् सानिधानादेवा निहितः। अय केवलानुसार प्रतिस गावा तथा दशाङ्गधामुपनिका, ततोऽपि मन्दमेघसामनुग्रदाय सातिशयश्रुतधारिभिः षष्ठादङ्गादाकृष्य पृथगध्ययनत्वेन व्यवस्थापिता । अमेय संबन्धमनुविधिमय सूत्रपातमाचापति अथवा शाखामा मायमिति संबन्धस्यैव प्रामाण्यग्रहार्थमपरसंबन्धनिरूपणम् । न हि विदितपरमतस्याः सानुमतो भगवन्तो जतुपेवानुपयोगि भाषन्ते, भगवत्ताभङ्गादिति । अथवा योगोऽवसरः, ततः प्रस्तुताङ्गस्य दाने कोऽवसरः १, इत्युच्यते, उपास्याङ्गार्थानुवादकतयाऽङ्गस्य सामीप्येन वर्त्तनाद्य एवैतदीयाङ्गस्याऽवसरः स एवास्यापीति तत्राऽवसरसूचिका इमा गाथा:"तिवरिपरियायस्स उ, आयारपकल्पनाममज्झयणं । चचवरिसस्स य सम्मं, सूश्रगमं नाम श्रगं ति ॥ १ ॥ दस कप्पञ्चवद्वारा, संबच्कूरपणगदिकिय स्लेव । वाणं समवाविय, अंगेते अहवालस्ल ॥ २ ॥ दसवासस्स विवाहो, एगारसवासगस्स य श्मे उ । खुइयविमाणमाई, अज्झषणा पंच नायव्या ॥ ३ ॥ बारसवासस्स तहा, अरुणोवाया पंच अभयणा । तेरसवासस्स तड़ा, उडाणसुयाइया चहरो ॥ ४ ॥ चउदसवासस्स तद्दा, आसाविसभावणं जिणा विति । पारसवासगस्ल य, दिडीविसभावणं पुणो तह य ॥ ५ ॥ सोलासा । चारणभावणमह सुत्रिणजावणा तेश्रगनिसम्गा ॥ ६ ॥ गुणवीसगस्स उ, दिडीवाओं दुबालसं अंगं । बीसवरिलो, पुवाई सम्बसुत्तस्स ॥ ७ ॥ " इति । साथ गत्यपदा मेऽवसरस्य प्रतिपादनात् धर्मास्य प्रदाने तदनन्तरमवसरः कारणविशेषे गु ततस्तपङ्गत्वादस्य तदनन्तरमवसर इति संभाव्यते, योविधानसामाचा मनानन्तरमेवोपायोगीद्वदनस्य विधिप्राप्तत्वादिति । तथेदमुपाक्रमपि प्रायः सकलजम्बुद्वीपवर्ति पदार्थोनुशासन तस्य सम्यग्ज्ञानद्वारा परपोता, अतो मा भूदि पोहाय मङ्गमुपदर्शनयम यतः " बहुविधाई सेवा ई से मंगलमा मिहिय जह मा महाविजा ॥ १ ॥ " इति । तच्च त्रिविधमादिमध्यावसानभेदामङ्गलम् "मो अरिहंताणं" इत्यशिख स्य परिसमाप्त्यर्थम् । मध्यमङ्गलम् - " जया णं एकमेके चक्क विजय भगवंतो विस्वगरा समुत्पति" इति तस्येच यस्य द्वितीयाधिकाराऽऽदिषस्य विनो भूराजनजन्मकल्याणक सूचकत्वेन परममङ्गत्यात्म Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६१) पमेज्जरयगामंजपा अभिधानराजेन्डः। पमेज्जरयामंजसा म्त्यमङ्गलं तु "समणे जगवं महावीरे मिहिजार णगरीए।" भूयादयं सुजगतानिधिरिष्ठसिध्यै ॥ ३॥ इत्यादिनिगमनसत्रे श्रीमहावीरनामग्रहणमिति । तस्यैव शिष्य. तस्य प्रभोः स्थविरवृन्दपरम्परायां प्रशिष्यादिपरम्परया अपवच्छेदार्थम्नन्विदं सम्यएकान. तनोल्लसत्कुलगणाऽवसिसम्नवायाम् । रूपत्वेन निर्जरार्थत्वात् , अथवा-"जो जं पसत्यमत्थं, पुन्छ जाता क्रमाष्टगणेन्तपस्विसूरेः, तस्स रपसंपत्ती।" इति निमित्ताने द्वीपसमुद्राभिधानग्रह- श्रीमांस्तपागण इति प्रथितः पृथिव्याम ॥४॥ णस्य परममलत्वेन निवेदनादस्य द्वीपप्ररूपणाऽऽत्मकत्वात् पश्नावतीवचनतोऽज्युदयं विभाव्य, स्वयमेव सर्वाऽऽत्मना मङ्गलं,कि मसान्तरोपन्यासन?,अनवस्था यत्सूरिसंस्तवनसप्तशती स्वकीयाम् । प्रसमात, मैवम । मङ्गलतया हि परिगृहोतं शास्त्रं मालमिति सूरिजिनप्रन नपप्रदे (2) प्रथायै, व्यवहियते,फलद च भवति साधुवत्, अन्यथोपहासनमस्कारा. सोऽयं सतां तपगणो न कथं प्रशस्यः ॥५॥ ऽऽदेरपि मङ्गलव स्यात्। न हि लोकेऽपि स्वरूपमतां दधि - तत्राउनेके पनुवुः सुविहितगुरवः श्रीजगबम्जमुख्या:, दीनां द्रव्यमङ्गलस्वं, किंतु मजलाभिप्रायेण प्रयुक्तानाम् ।अ. दोषायां वा दिवा वा सरसिरहसि वा स्वक्रियास्वेकभाषाः। न्यथा तद्विषयकदर्शनस्पर्शवाऽऽदीनां निर्मूलकताऽऽपातात् । भादिकोमैरिबोर्वी वृजिनभरगता :प्रमादावमन्ना, शहाऽस्य शाखस्य फलादि निरूपितं तदनुयोगस्य षष्टव्यम् , पैक वितः स्वपरहिवकृते सक्रियासस्कियाहीः ॥ ६॥ तयोः कश्चिद मेदादिति ॥ ३॥ अर्थदानी समुदायार्थश्चिन्त्यते- अदुष्यं वैदुष्यं चरणगुणवैदुष्यसहितं, तत्र समुदायः सामान्यतः शास्त्रसंग्रहणाय पिलस्तपोऽर्थों व- प्रमादाद्वैमुख्य प्रवचनविधेः सरकथकता। कन्या किमुक्तं भवति ?-अवयपविजागनिरपेक्कतया शास्त्रगत- गुणौ घो यस्येत्थं न खलु खलदुर्वाक्यविषयः, प्रमेयं प्रकरनीयं, तब वर्कमानाऽदिवसपार्थनामतो भवति, क्रमादासीदस्मिन् परमगुरुरानन्द विममः॥७॥ तत्रैव समुदायाधपरिसमाप्तेः, न तु पलाशाऽऽदिवदयथार्थना- अन्तर्वाह्यमिति द्विधाऽपि कुमतं श्रद्धावतां खागतं, मतः,मित्थाऽऽदिवदर्थशून्यनामतश्च प्रस्तुते व जम्बूदीपप्रज्ञप्ति निःश्रद्धेस्तु यथाशयप्रकटितं विध्वस्यतेऽस्य प्रभोः । रिति नानः कः शब्दार्थः १, इत्युच्यते-जम्वा सुदर्शनापरना. बाह्यध्वान्तविभेदिनो दिनमणेः साम्यं न रम्यं न वा, म्यानारतदेवावासभूतयोपत्रतितो द्वीपो जम्बूढीपा(जं.) ध्वान्तद्वैतभिदोऽपि मन्दिरमणेः संरक्ष्यतेऽधस्तमः ॥८॥ (अतोऽग्रे'जंबूदीवपत्ति ' शब्द चतुर्थभागे १३७६ पृष्ठे उ स्वगच्छे स्वस्मिश्च प्रथयतितरां स्म प्रथमतक्तम) अथवा जम्बूदीपं प्रान्ति परयन्ति स्वस्थित्येति ज. स्तथा साधोश्चर्या ध्रुवसमय एव प्रस्तुतरसे। महीपप्राः जगतीवर्षवर्षधराऽऽया,तेषां कृप्तिस्याः सकाशा यथा सैतत्पट्टाऽधिपतिपुरुष संयतगणे, न सा जम्बूद्वीपप्राप्तिरिति साम्बर्थशास्त्रानामप्रतिपादनेन ज. कमावुर्वी गुवी प्रजनितयशस्का तु ववृते (?)॥॥ म्बूद्वीपप्रफ्याः पिएमाओं दर्शिता, अत पवानिधेयशून्यता. तत्पह-भूषणमणिः सुगुरुप्तधर्ममाकलयातः शान्ता पत्र प्रवृत्ती मा मन्दायन्तामित्यतिधेयस. वीज-प्रवर्द्धन-पटुर्भरतक्षमायाः। चाऽपि कृवैव । नामनिपचिन्ता तु द्वितीपानुबोगयोजनायां सूरीश्वरो विजयदानगुरुर्बभूव, करिष्यत इति समुदायार्थः ॥ ४ ॥ ज०१ वक। इति सा. के वादिनो विजयदा न बभूवुरस्य ॥१०॥ तिशयधर्मदेशनारससमुहासविस्तपमानऐवंयुमीन नराधिपति-- नालीकनीर-निधि-निर्जर-सिन्धु-सेवां, चकवर्तितमान-श्रीप्रकापरसुरत्राणप्रद सपारमासिकसर्वत्रजा. चक्रुश्चतुर्भुज-चतुर्मुखचन्द्रचूडाः। ताजयप्रदानशत्रुजयाऽऽरिकरमोचनस्फुरन्मानप्रदानप्रभृति- यस्य प्रताप-परिताप-भृतो न भीता बहुमान युगप्रधानापमान-साम्प्रत-विजयमानश्रीमत्तपागच्छा. एते जडाऽऽश्रयिण इत्यपवादतोऽपि ॥ ११ ॥ धिराज-श्रीहरिविजयसूरीश्वर-पदपमोपासनाप्रवणमहोपा-- तत्पर गुरुवर्यहीरविजयो विभ्राजयामासिवान्, ध्याय श्रीसकलचन्द्रगणि-शिष्योपाध्यायधीशान्ति बह-ग. जामद्भाग्यनिधिः प्रियाऽऽगमविधिश्वारित्रिणांचाऽवधिः । जिविरचितायां जम्बूद्वीपमइतिवृत्तौ रत्नप्रधानाम्न्यां ज्यो यं संप्राप्य जगत्त्रयैकसुभगं मुको मिथी मत्सरः, तिकाधिकारवर्णनो नाम सप्तमो वकस्कारः समाप्तः, श्रीवाग्भ्यामिव दीर्घकालजनितो ज्ञानक्रियाभ्यामपि ॥१२॥ तत्समाप्तौ च समा श्रीजम्बूद्वीप-प्रज्ञप्युपाङ्गवृत्तिः। सौभाग्यं यस्य नाम्नो नृपसदसि गुणिवादितायां प्रसिद्धः, "श्रेयाश्रीप्रतिप्रसूततपसा यो मोहराजं रिपुं, सौभाग्यं देशनाया अकबरनृपतिः पादयोः पादुकाऽ। सौभाग्यं यस्य पाणेरुपपदविजयः सेनसूरीश्वरोऽसौ दबसे सहसाऽऽश्रितो गतमलझानं च यः केवलम। सौभाग्यं दर्शनस्य त्वहमहमिकया स्वान्यलोकोपपातः ॥१३॥ यो जुएश्व सदा त्रिविष्पसदोवृन्दैस्तथा तथ्यवाक, इदानीं तत्पट्टे गुरु-विजयसेनो विजयते, यस्तीर्थाऽधिपतिः श्रियं स ददगं श्रीवीरदेवः सताम् ॥१॥ कला काले मूर्तः सुविहितजनाऽवारनिचयः । महत्स्विवात्र निखिलेषु गणाधिपेषु, विरेजे राजन्वान् शशधरगणो येन विभुना, नान्यदेव व यो विदितो जगत्याम। गुण ग्रामो यस्माद् भवति विनयेनैव सुभगः ॥ १४ ॥ भाइयनाम दधदद्भुतलब्धिधाम, खलास्तेजाराशिं चरणगुण-राशि सुविहिताः, श्रीगौतमोऽस्तु मम पूरितसिलिकामः॥२॥ विनेयाश्चिद्राशि प्रतिवचन-राशि कुमतिनः। यं पचम प्रथमतोऽपि रतापये मे, कविः कीर्ते राशि वर-विनय-राशि च गुरुवो, श्रीवीर-पट्ट-पटु लक्ष्मि-सरोरुहा।। विदुः स्थाने जाने शुचिसुकृतराशि पुनरमुम् ॥ १५ ॥ रुद्राऽधितेषु गणभृत्सु सुधर्मनामा, गुरोरस्य श्रुत्वा श्रवणमधुरं चारुचरितं, Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५००) पमेजरयगमंजसा भन्निधानराजेन्दः । पमेज्जस्यणमंजूसा स्वगन्धर्वोदीतं शुचिगुणगणोपार्जनभवम् । स्तेऽत्राऽऽदिमा गुणगणेषु कृताऽवधानाः ॥ ३१ ॥ चमत्कारोत्कर्षात् ससलिलसहस्राऽनिमिषटक ये संविग्नधुरन्धराः समभवनाबालकालादपि, पटनेदक्लेशं सुबहु सहते गिर्यसहनः ॥ १६॥ प्रशावत्स्वपि ये च बन्धुरतराः प्रापुः प्रसिद्धि पराम् । तेषां गणे गुणवतां धुरि गण्यमानः, श्रीथारैगणधारिगौतम इव श्रीहीरसूरी गुरौ, थीवाचकः सकल वन्द्रगुरुर्वभूव । ये राजद्विनयास्तदाननसुधाभानो पपुर्वासुधाम् ॥ ३२॥ मेधाविषु प्रथमतः प्रथमानकीर्तिः, स्फूर्तियेदीयशुमकर्मणि सुप्रसिद्धा ॥१७॥ सत्सर्कलक्षणावेशालजिनाऽगमाऽऽदि, पुनः पुनः संस्मृतिमीयुषीणां, शास्त्रा वगाहनकलाकुशलाऽद्वितीयाः। प्रतिक्रियेयं यदुपक्रियाणाम् । श्रीसोमयुविजयवाचकनामधेयाः, पुनः पुनर्लोचनसाभावः, ते सद्गुणैरपि परैर्धवमप्रमेयाः ॥ ३३ ॥ पुनः पुनर्विःश्वसनस्वभावः॥१८॥ तेषां शिष्याऽणुनेयं गुरुजन-विहिताऽनुग्रहादेव जम्बू- ये वैरङ्गिकताऽऽदिकैर्वरगुणैः संप्राप्तसगौरवाः, द्वीपप्रज्ञप्तिवृत्तिः स्व-पर हितकृते शान्तिचन्द्रेण चके। सर्वाऽऽदेयागरः कलावपि युगे साम्नायजैनाऽऽगमाः। वर्षे श्रीविक्रमार्काद्विधु-शर-शर-भू-वकत्रधात्रा प्रमाणे, जः श्रीवरवानरर्षिविबुधास्तच्छिष्यमुख्याश्च ये, राज्ये प्राज्ये श्रिया श्रीअकबरनृपतेः पुण्यकारुण्यसिन्धोः१६ ते तन्मूतिरिवाऽपरेप्यभिमतास्तैस्तैर्गुणैधीमताम् ॥३४॥ अस्योपाङ्गस्य गाम्भीर्यान्मदीयमतिमान्धतः । प्रशागुणगुरुगेहं. परिभावितभूरिशास्त्रवरतत्वाः । संप्रदायव्यपायाच्च, पूर्ववृत्तिनिवृत्तितः ॥२०॥ श्रीअानन्दविजयवुध-पुङ्गवास्ते वै तृतीयास्तु ॥ ३५ ॥ विरुद्धमागमाऽऽदिभ्यो, यदत्र लिखितं मया। अपि चधीलोचनैस्तदालोच्य, शोध्यं साऽनुग्रहर्मयि ॥२१॥ यद्वैतस्मृतयः कुशाऽअधिषणाः सलक्षणाऽम्भोधयः, तुष्यन्तु साधवः सर्वे मा रुप्यन्तु खला मयि । छन्दोऽल कृतिकाव्यवाङ्मयमहाभ्यासे भृशं विश्रुताः । नमस्करोमि निःशेषान् प्रीत्या भीत्या क्रमादिमान ॥२२॥ सिद्धान्तोपनिषत्प्रकाशनपरा विज्ञावतंसायितागम्भीरमिदमुपाङ्गं यथामति विवृण्वताऽविशदमतिना। स्तत्तन्नूतनशास्त्रशुद्धिकरणे पारीणतां संश्रिताः ॥३६॥ यदवापि मया कुशलं, कुशाग्रमतयो भवन्तु जनाः ॥२३॥ श्रीकल्याणविजयवर-वाचकशिष्येषु मुख्यतां प्राप्ताः । अये यावलोकौकलिनभसि नक्षत्रकुसुम श्रीलाभविजयविबुधा-स्ते तुर्या इह बहूयुक्ताः ॥ ३७॥ वजं राक्षः श्यामाऽभिगमसमये पूरिततरम् । एतेषां प्रतिभाविशेषविलसत्तीथे प्रथामागते, मृजाकारः सूर्यः करबहुकरेणोपनयति, नानाशास्त्रविचारसारसलिलाऽऽपूर्म चतुएर्णामपि । ध्रुवं तावद्भूयादियमखिललोकैः परिचिता ॥ २४ ॥ तत्तद्वाचक-वाच्यदूषणमलाद् मुक्ता सुवरऽश्चिताः, अथ शोधनसमयगता, पुरोऽनुसन्धीयते प्रशस्तिरियम् । सत्यश्रीरजनिष्ट शिष्टजनताकाम्येव वृत्तिः कृता ॥ ३८ ॥ तपगण साम्राज्यरमां, श्रयति श्रीीवजयसेनगुरौ ॥ २५ ॥ श्रीमद्विक्रमभूपतोऽम्ब्बरगुणदमाखण्डदाक्षायणीयत्सौभाग्यमनुत्तरं गुणगणो येषां वचोगोचरा प्राणेशाङ्कितवत्सरेऽतिरुचिरे पुण्येन्दुभूवासरे। तीतः कोऽप्यभव पुराऽपि विनयाऽऽधारः सतां पूजितः। राधे शुद्धातथौ तथा रसमिते श्रीराजधन्ये पुरे, हित्वा येन पर्तिवरावदवरान् यानेव सच्चातुरी पार्वे श्रीविजयाऽऽदिसेनसुगुरोः शुद्धा समग्राऽभवत्।।३६॥ युक्ताऽऽचार्यपदव्युदाररचितान् सौवधियोऽशिश्रियन् ॥२६॥ श्रीशान्तिचन्द्राऽभिधवावकेन्द्रयद्रूपं मदनं सदा विमदने निर्माते रम्यश्रिया, शिष्येष्वनेकेषु मणीयमानाः। यत्कीर्तिश्च पदातिकं वितनुते कान्त्या निशानायकम् । ध्वस्ताऽन्तरध्वान्तजिनेन्द्रचन्द्रा, चित्रं सचिनुते च चेतति सतां यद्देशनावाक सुधा, राद्धान्तरम्यस्मृतिलब्धमानाः॥४०॥ देश्या शासन दप्तेश्च सतपो यद्ध्यानमत्यद्भुतम् ॥२७॥ अस्सामनेकशा लिख-नशुद्धिगणनाऽऽदिविधिषु साहाय्यम् । ते श्रीकब्बरमहाधरदत्तमान गुरुभक्ताः कृतवन्तः, श्रीमन्तस्तेजचन्द्रबुधाः॥४१॥ विख्यातिमद्विजयसेनगणप्रधानाः। देवादिन्द्रातिथितां, गतेविदंवृत्तिसूत्रधारेषु । नन्दन्ति पट्टयुवराजपदं दधानाः, तन्मन्त्रिनिजमनीषा-विशेषमिव वीक्षितुं व्यक्तम् ॥४२॥ श्रीसूरयो विजयदेवयतिप्रधानाः ॥२८॥ तेषां ध्रुवन्तिषदा-मखिलशिष्यसमुदायमुख्यतां दधताम् । श्रीविजयलेनसूरी-श्वरगणनायकनिदेशकरणचणाः । गरुकार्ये धुर्याणां, पण्डितवररत्नचन्द्राणाम् ॥४३॥ चत्वारोऽस्या वृतेः, शुद्धिकृते संगता निपुणाः ॥ २६ ॥ धीतपगणपूर्वगिरिसूरैः, श्रीविजयसेनसरिवरैः। तथाहि निजहस्तेन वितीर्णा, प्रवर्तनायै प्रसादपरैः॥४४॥ श्रीसूरेर्विजयाऽऽदिदानसुगुरोः श्रीवीरसूरेरपि, बहुभिः स्वसंमतेयं, कृता तदा विदितसमयतयाथैः । प्राप्ता वाङ्मयतयमद्भुततरं ये संप्रदायाऽगतम् । श्रीविजयदेवसूरि श्रीवाचकमुख्यगीतार्थः ॥ ४५ ॥ ये जैनाऽऽगम सिन्धुतारणविधौ सत्कर्णधारायिताः, रत्नावि प्रमेयानि, नानाशास्त्रखनीनि चेत् । ये ख्याताः क्षितिमण्डले च गणितग्रन्थबरेखाभूतः॥३०॥ भूयांसि लिप्सवो यूर्य, विझरत्नवणिग्वराः॥४६॥ लुम्पाक-मुख्य-कुमतकतम प्रपञ्चे -रुपाङ्गस्य सविस्तरा। रोचिष्णुवरडरुचयः प्रतिभासमानाः । प्रमेयरत्नमजूषा वृत्तिरेषा तदेक्ष्यताम् ॥४७॥ श्रीवाचका विमलहर्षवराऽभिधाना श्रीशान्तिचन्द्रवाचक-शिष्यवरो विबुधरत्नचन्द्रगणिः । Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमेज्जरयामंजसा अभिधानराजेन्धः। पम्हवियमणाभ अस्या बह्वादर्शानलिखद् हृदि भक्तियुक्तमनाः ॥४८॥ पम्ह-पक्ष्म-न० । “ पदम-श्म-हम-स्म-ह्यां म्हः" ॥८।२। वाच्यमानाः श्रूयमाणाः, गीताथैः श्रावकोत्तमैः। ७४ ॥ इति सूत्रेण मकाराऽऽक्रान्तो हकाराऽऽदेशः। प्रा०२ शोध्यमाना लख्यमाना, जीयासुम्ते चिराद् भुवि ॥ ४ ॥ तच्छिप्पो धनचन्द्रः, कुशाऽप्रधीलिपिकलाबहूयुक्तः । पाद । पा० । पद्मगर्भे, "कणगपुलगनिघसपम्हगोरे।" विपाल अकरोत् प्रथमाऽऽदर्श, सूत्रार्थविवेचने चतुरः " ॥५०॥ १श्रु.१ अ० । शा० । केसरे, भ०१श०१ उ०। जं.। ब्रह लो. इति श्रीशान्तिवन्द्रगणिवावकविरचितायाः श्रीजम्बूद्वीप कस्थविमानभेदे. स ह समजम्बूद्वीपे मन्दरस्य पश्चिमे प्राप्तिवृत्तेः प्रशस्तिः । ज० ७ वक्षः। शीतोदाया महानद्या दक्षिणे चक्रवर्तिविजये, स्था० ८ ठा० । पमेयल्ल-प्रमेदस्विन् त्रिः । प्रकर्षण मेदःसंपन्ने, दश०७ अ०। पद्म-न० । शतपत्रसहस्रपत्रप्रभृतिसरोजे, चं०प्र०२० पाहु । पमेह-प्रमेह-पुं० । रोगभेदे, नि० चू• १ उ० । प्रमेहाणां वि. दीर्घदशानां दशमाध्ययनोक्तप्रतिबद्धवक्तव्यताके पुरुष, तत्कशतिर्भेदाः, तत्राऽस्थाऽसाध्यत्वेनोपन्यासः, तत्र सर्व एव था सम्प्रदायाभावादिदानीमप्रकटा । स्था०६ ठा० । " झंप णीश्रो पम्हाई।" पाइ० ना० २५० गाथा । प्रभेदाः प्रायशः सर्वदोषोत्थास्तथाऽपि वाताऽऽशुत्कटभेदा द्विशतिदँदा भवन्ति, तत्र कफादश, षट् पित्तात्, वातजा पम्हंतर-पक्ष्मान्तर-न० । विशिष्टसौकुमार्याऽऽदिभिः पक्ष्मणो. श्वत्वार इति । सर्वेऽपि चैतेऽसाध्याऽवस्थायां मधुमेहत्वमु ऽन्तरे, स्था० ६ ठा। पयान्तति । उक्तश्च-"सर्व एव प्रमेहास्तु, कालेनाऽप्रतिका पम्हकूड-पक्ष्मकूट-पुं० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्षशीरिणः । मधुमेहत्वमायान्ति, तदाऽसाध्या भवन्ति ते ॥१॥" ताया महानद्या उत्तरकूले वक्षस्कारपर्वते, स्था० ८ ठा० । आवा०१० ६.१ उ० । जम्बूद्वीपे विद्युत्प्रभवक्षस्कारपर्वतस्य चतुर्थे कूटे, स्था० . पमेहकमिया-प्रमेधकर्णिका-स्त्री० । सरजस्काधिराजे, व्य० । ठा० । केषाश्चिद्दीर्घवैताठ्यपर्वतानां द्वितीयकूटेषु, स्था०६ पमेहकण्यिातो य, सरक्ख पाहु सूरो । ठा० । जं०। सो उ दोसकरो वुत्तो, तं च कजं न साहए ॥६५॥ पम्हगंध-पद्मगन्ध-पुं० । पद्मसमगन्धौ सुषमसुषमामनुष्ये, प्रमेधकर्णिकाः सरजस्कं, पदैकदेशे पदसमुदायोपचारा- भ.६ श०७ उ० । जं। त्सरजस्काऽधिराजं प्राऽऽहुः सूरयः, सच सरजस्काधिराज पम्हगाई-पक्ष्मावती-स्त्री० । विजयपुरनगरीप्रतिबद्धविजय. पापीयमानो दोषकर उक्तः, तच्च कार्य रोगविमुशिलक्षणं न साधयति, ततः सोऽपि न पीयते। क्षेत्रयुगले, “पम्हगाई विजए, विजयपुरा रायहाणी. असो. बहुगी होइ मत्ताओ, आइल्लेसु दिणेसु उ । श्रा महाणई। " पदमावती विजयो, विजयपुरी राजधानी. शीतस्रोता महानदी। जं०४ वक्षः। "दो पम्हगाई।" कमेण हीयमाणीओ, अंतिमे होइ वा न वा ।। ६६ ॥ स्था०२ ठा०३ उ०। श्रादिमेषु दिनेषु कायिकी मात्रातो बह्वी भवति, ततः - | पम्हगोर-पक्षमगौर-त्रि० । पभगवद्गौरवणे, भ०१श. ३ मेण हायमाना अन्तिम दिने भवति वा, न वा। उ०। विपा०। पडिणीय ऽणुकंपा वा, मोयं वडेति गुज्झगं केइ । पम्हट-अस्मृत-त्रि० । विस्मृते, वृ० ३ उ० । प्रश्न । शा० । बीयाऽऽदिजुयं तं वा, विवरीयं उज्झइ सव्वं ॥ ७॥ नि. चू०। पतिते, “पम्हटुं ति वा परिटुवियं ति वा एगटुं।" प्रत्यनीका अनुकम्प्यन्त इत्य नुकम्प्या वा केचित् गुह्यकं व्य०१उ०। मोकं कायिकी वर्द्धयन्ति, यद्वा, बीजाऽऽदिषु तं कुर्वन्तिसर्वमेतत् स्वाभाविकं न भवति, किन्तु विपरीतम् अतस्त्य पम्हय-पक्ष्मज-न० । हंसगर्भाऽऽदौ कार्पासाऽऽदी वा सूत्रे, जन्ति । व्य०६ उ०। " पम्हयहंसगम्भाई, अहवा कप्पासाइयं मुणेयव्वं।" पं०भा० पमातो-प्रमादतस-श्रव्य० । दकारस्थ लोपः प्राकृतत्वात् ।। १कल्प । प० चू°। प्रमादवशेनेत्यर्थे, व्य०१उ०। पम्हर-वैशी-अपमृत्यौ, दे० ना०६ वर्ग ३ गाथा । पभोक्ख-प्रमोक्ष-पुं० । प्रकर्षेखापुनीवेन कर्मबन्धनान्मुक्तिः पडल-पक्षम-त्रिका पदमवति, औ० । शा० । “पम्हलसुकुमा प्रमोक्षः। निर्वाणे, स्या० । सूत्र०। लाए।" पक्ष्मवत्या सुकुमालतया चेत्यर्थः । भ०६ श. ३३ पमोय प्रमोद-पुं० । हर्षे, नं० । प्रा०म० । नमनप्रसादाऽऽदि. उ०। किअल्के, दे० ना०६ वर्ग १३ गाथा। पं०व.। भिर्गुणाधिकवमिव्यज्यमानान्तर्भावनुरागे.ध०१ श्रीधः । पम्हलय-पक्षमल-न । रोमशे, पाइ० ना० २४६ गाथा। "अगस्ताऽशेषदोषाणां, वस्तुतत्वाऽवलोकिनाम् । गुणषु पक्षपातो यः स प्रमोदः प्रकीर्तितः ॥१॥" अष्ट. १६ पम्हवल-पक्षमवर्ण-न० । ब्रह्मलोकस्थे विमानभेदे स०समा अष्ट० । माल्यविधानदे कल्पवृक्ष, " आमोएसु य वजं, "एवं जे देवा पम्हं सुपम्हं पम्हावंतं पम्हप्पम पम्हकंतं मल्लविहारो पमोपसु ।" ति। पम्हवा पम्ह लेस्सं पम्हज्झयं पम्हसिंगं पम्हसिद्धं पम्हपभोयमास-प्रमोदमास-पुं० । प्रमोदहेतुर्मासः प्रमोदमासः। कडं पम्हुत्तरडिसगं।" इत्येते ब्रह्मलीकविमानविशेषवायस्मिन् मासे गृहीततलाऽऽदिकप्रायश्चित्तः शुद्धः सन् प्रमोद चकाः । स० सम०।। कत्था स्वजनः सह मुझे पारिहारिको वा समाप्तपरिहारः म्हवियडणाम पद्मविकटनाभ-त्रि०। पनवद्विस्तीर्णनाभी, माधुभिः सहेका भुके तस्मिन व्य०२ उ० । जी०३ प्रति. अधि० प्रश्न । Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पम्हुह पम्हुइ स्मृधा० । श्रध्याने, अधिगतविषय के संस्कारजशाने. "स्मरेर्भर भूर - भरम-भल- लढ विम्हर सुमर- पयर-पम्डुहाः " ॥ ८६ ॥ ४७४ ॥ इति सूत्रेण 'पम्हुह' आदेशः । पम्हहर | स्मरति । प्रा० ४ पाठ | पहा - पद्मा - स्त्री० । पद्मलेश्यायाम्, उत्त० ३४ श्र० । अपुराऽऽप पुरीषुगलविभूषिते विजय क्षे त्रयुगले, "दो पम्हाओ।" स्था० २ डा० ३ उ० । पहार देशी- अपत्यी दे० ना० ६ वर्ग ३ गाथा । पदार्थ पदमावती - श्री० शीवोदाया महानचा दक्षिणे तटे चक्रवर्त्तिविजयराजधान्याम्, स्था० ८ ठा० । “दो पम्हावई ।” स्था० २ ठा० ३ उ० | रम्य काऽऽख्यवि जयक्षेत्रवर्तिपुरी युगले, स्था० २ ठा० ३ उ० । 1 पम्हुट्ठ- प्रस्मृत त्रि० " नावाऽऽयः ॥८४॥२५८॥ इति निपातनम्। प्रा० ४ पाइ विस्तृते पम्हुसाभार ।" शा० १ ० १८ श्र० । (५०२) अभिधानराजेन्द्रः । प्रमृष्ट- त्रि० । स्वच्छे पाइ० ना० ११० गाथा । पम्हुस - विस्मृ-धा० । तथाविधसंस्कारानुदयादनुदुद्धपूर्वाधि गते, "विस्मुः पम्हुस विम्हर- वीसराः " ॥ ८६ । ४ । ७५ ॥ इति पूर्वकस्य स्मृधातोः पशाऽऽदेश पडुस विस्मरति । प्रा० ४ पाद । प्रमृश धा० प्रमर्शने, " प्रान्मृरानुषोः दुसः 1853 1 इति सूत्रेण पम्हुसाऽऽदेशः पम्हुसइ । प्रमृशति । प्रा०४पाद । प्रधा० प्रमेष मुहाति प्रा० ४ पाद पय-पद-न० । पद्यते गम्यतेऽर्थोऽनेनेति पदम् । विशे० । श्रभिधाने, श्राचा० १० ५० ६ उ० । परिच्छेदवाच के शब्दे नि० चू० १ उ० । रना० । बीनामन्योन्यापेक्षाणां निरपेक्षा संहतिः पदं, पादानां तु वाक्यमिति ।। १० ।। वर्णौ च वर्णाश्वेत्येकशेषाद ब्रह्म सम्बोधने क इत्यादी द्व योगरत्वादीनां च वर्णानामन्योन्यापेक्षा प बाप का परस्परं सहकारितया स्थितानाम् । निरपेक्षा पदान्तरवर्त्तिवनिवर्तितोपारमुखी संहतिः मेला, पदमप गम्यते स्वयोग्योऽथोऽनेनेति उत्पत्तेः । प्राधिकत्वाच वर्णaurssदेरेव पदत्वं लक्षितम् । यावतो विष्णुवाच कै काक्षरा:sressesमपि पदान्तरवत्तिवर्ण निर्वर्त्ति तेोपकारपराङ्मुखत्वरूपेण निरपेक्षत्वलक्षणेन पदत्वेन लक्षितं द्रष्टव्यम् । पदानां पुनः स्वोवितवत्यार्थप्रत्यायने विधेये ऽन्योन्यनिम्मि तोपकारमनुसरत वाक्यान्तरस्वपापेारहिता संतिवाक्यमभिधीयते, उच्यते स्वसमुचितोऽर्थोऽनेनेति व्युत्प तेः ॥ रत्ना० ४ परि० । 39 पदावयवमधिकृत्याऽऽहणामपर्यवणवयं दव्यपयं चैब होइ भावपर्यं एक्केक्कं पि य एत्तो ऽणेगविहं होइ नायव्वं ॥ १७२ ॥ नामपदं स्थापनापदं व्यपदं चैव भवति भावपदम् एकैकमपि चात एतेभ्योऽनेकविधं भवति ज्ञातव्यमिति गाथासमासार्थः । पय श्रवयवार्थ मु नामस्थापने क्षुण्णत्वादना दृत्य द्रव्यपदमभिधित्सुराह आकुट्टिम उकिन्नं, उम्मे पीलिमं च रंगं च । गंधिय बेडिमपूरिम वाइम संघाइ छे ।। १७३ ॥ " बाकुट्टिमं जहां रूपम्रो हेडा वि उचरिं पि मुहं काऊल आउट्टिजति ।" उत्कीर्ण शिलादिषु नामकादि। "तहाच उलाssदिपुप्फसंठाणाणि चिक्खल्लमयपडिबिगाणि काउं पतितो सुधारिता मय भवि पुण्फा हवंति ।" एतदुपनेयम् । पीडावच्च संवेष्टितवस्त्रभङ्गादलीरूपम्। "रत्तावत्ति रंग" चः समुदये। प्रथितं मालादि। पेटिमं पुष्पमयमुकुटरूपम्यं कुण्डिकारूपम् अगदिदं पुण्कधामं परिमम् बातव्यं कु विन्देश्धविनिर्मितमधाऽऽदि संचात्यं कञ्चुका 35 दि पत्रच्छेद्याऽऽदि । पदता चाऽस्य पद्यतेऽनेनेत्यर्थयोगात्, द्रव्यता च तद्रूपत्वादिति गाथाऽर्थः । उक्तं द्रव्यपदम् । अधुना भावपदमाह भावपर्यं पिय दुविहं. अवराहपयं च नो य वराह । वराहं दुविहं, माउग नोमाउगं चेव ।। १५४ ॥ भावपदमपि च द्विविधम् वैविध्यमेव दर्शयति-अपराधहेतुः भूतं पदम् अपराधपरमिन्द्रियादि वस्तु शब्दः स्वगताऽमेकमेदवार्थः । ( यो अवराहं ति ) शन्दस्य व्यवहि तोपन्यासानो अपराधपदम् च पूर्ववत् (नोअपराधमिति) अपराधपदं द्विविधम् (माउस णोमा वेव त्ति) मातृकपर्द नोमातृकापदं च स मातृकापई मातृका 55राणि, मातृकभूतं वा पदं मातृकापदं यथा दृष्टिवादे उपति के त्यादि । नोमातृकापदं त्वनन्तरगाथया वक्ष्यतीति गाथाऽर्थः । नोमागं पि दुविहं, गहियं च पन्नगं च बोधव्वं । गहियं चउप्पयारं, पन्नगं होइणेगविहं ।। १७५ ।। ( गो माउयंपत्ति ) नोमातृकापदमपि द्विविधम् । कथमित्याह- प्रथितं च प्रकीर्णकं च बोधव्यम् । प्रथितं रचितं. बद्धमित्यनर्थान्तरम् अतो यत् प्रकीर्णकं प्रकीर्णकथोपयोग ज्ञानपदमित्यर्थः प्रथितं चतु प्रकारं गद्या दिभेदात् प्रकीर्णकं भवत्यनेकविधम् उपादेयेति गाथार्थः दश०२० ( गद्यपदम् ' गज ' शब्दे तृतीयभागे ८१२ पृष्ठे व्याख्यातम्) (पद्यपदम् 'पज्ज' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २१० पृष्ठे गतम्) (गेयपदव्याख्या 'गेय' शब्दे तृतीयभागे ६४८ पृष्ठे गता) (चौ. पदव्याख्या' चुरण ' शब्दे तृतीयभागे १९६५ पृष्ठे गता ) उक्तं प्रथितपदम् । प्रकीर्णकपदं लोकादयसेयम् । उकं नोअपराधपदम् । दश० २ ० । ( अपराधपदम् ' श्रवराहपय ' शब्दे प्रथमभागे ७६८ पृष्ठे व्याख्यातम् ) नामनिवाउवसग्गं, अक्वाइय मिस्सयं च नायन्त्रं । पंचविहं होइ पर्यं, लक्खणकारेहि निद्दि || ३२६ ॥ पञ्चविधं पञ्चप्रकारं पदं विद्भिनिर्दि व्याख्यातम् । तद्यथा श्रश्व इति नामिकम् । खल्विति नैपातिकम्, परीत्यौपसर्गिकम्, पचतीत्याख्यातिकम् । संयत इति मिश्रम् । वृ० १ ० १ प्रक० । विशे० । श्रा० म० । आ०० पानामा तनिपातोपसर्ग व समास Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पय अन्निधानराजेन्द्रः। पयम न्धिपदहेतुयौगिकोणाऽऽदिक्रियाविधामधातुस्वरविभक्तिवर्णः पयंगसेणा-पतङ्गसना-स्त्री० शलभसमूहे, उत्त० १२ अ० । ३० द्वार । सूत्र० । पद विविध भवत्य- पयंजलि-पतञ्जलि-पुं० । खनामण्याते सर्वप्रधाने योगाथेस्य वाचकं, द्योतकं च । विशे० । ऽऽचार्ये, द्वा०२३ द्वारा पयमत्थवायगं जो-यगं च तं नामिया पंचविहं। पयंड-प्रचण्ड-त्रि०। रौद्रे, प्रश्न. ३ श्राश्र० द्वार । तीव्रकारगसमासतद्धिय निरुत्तवञ्चो वि य पयत्थो॥१००३॥ रोष, व्य०१ उ०। पदं द्विविधं भवति-अर्थस्य वाचक, द्योतकं च । तत्र वृक्षः प्रकाण्ड-त्रि०। उत्कटे, स०। “पयंडदंडप्पयारा।" प्रचण्ड: तिष्ठतीत्यादि वाचकम् । प्रादिकं, चादिकं च द्योतकम्। तथा पुनरपि पदं सामान्येन पञ्चविधम्-नामिकाऽऽदि । तत्र अश्वः प्रकाए डो वा दुःसाध्यसाधकत्वाद्दण्डप्रचारः सैन्यविचरणं, दण्डप्रकारो वा आशाविशेषो येषां ते तथा । प्रश्न०४ाश्र. इति नामिक, खल्विति नैपातिकं, परीत्यौपसर्गिकम्, धा. द्वार । “पयंडघोरवीहणगदारुणाए।"प्रचएडाः शीघ्र शरीवतीत्याख्यातिकं, संयत इति मिश्रम् । एवम्भूतानां पदानां रव्यापिकाः, प्रचण्डाऽपरिवर्तितत्वाद्वा प्रचण्डा घोराझगिविच्छेदो द्वितीयं व्याख्यानाङ्गस् । विशे । पञ्चा० । श्राचा ति जीवितक्षयकारिणी औदारिकवतां परिजीवितानपेक्षा वा पद्यते ज्ञायतेऽर्थोऽनेनेति पदम् । सूत्रे, उत्त०१८ श्र०। शास्त्रे, ये ते, तथा घोरास्तत्प्रवृत्तित्वात् । प्रश्न. १ आश्र० द्वार। सूत्र०१श्रु००ौ०। सूत्रावयचे, कर्मपदं तु अर्थपरिसमाप्तिः पदमित्यायुक्तिसद्भावेऽपि येन केनचित्पदेनाष्टादशप पयंडचंड-प्रकाएडचण्ड-त्रि० । प्रत्यर्थे रौद्रे, स० ११ अङ्ग । दसहस्राऽऽदिप्रमाणा श्राचाराऽऽदिग्रन्था गीयन्ते तदिह गृ. पयंत-पचत-त्रि०। विक्लियनुकूलव्यापारजनककृतिसति, "न ह्यते । तस्यैव द्वादशाङ्गथुतपरिमाणेऽधिकृतन्चात् श्रुतभेदा- पयइन पयावइ पयंतं नाणुजाणइ, पयंतो पयावतो, पतेसु नामेव चेह प्रस्तुतत्वात् तस्य च पदस्य तथाविधानाया. सव्वेतु पत्तेगं संघबझो।" महा०१ चू । स्था० । "अंबरंव भावात्प्रमाणं न ज्ञायते, तत्रैकं पदं पदमुच्यते ॥५॥ (७ कत्थाह पयंतं । " क्वचित्प्रदेशे अम्बरमाकाशं पचन्तमिवानंगाथा) कर्म० १ कर्म । गाथादेचतुर्थांश अनु० "सुप्तिङन्तं लिहत्वेन श्राकाशपचनसमर्थमिवेत्यर्थः । कल्प०१ अधिक पदम्"॥११४।१४॥ इति प्रतिपादिते सुवन्ते तिङन्ते, सूत्र० ३क्षण। १ शु०६० निमित्तकारणे आवा०१ १०५ अ०१उ०। पयकाय-पदकाय-पुं० । पदसमूह, पदसंघाते प्राव०५ अ०। पद्यते गम्यतेऽर्थोऽनेनेति पदम । संख्यास्थाने स्था। ४ ठा० २ उ० । स्थाने आचा०२ श्रु०४ चू० उत्त०। प्रति। सूत्र०। पयक्खेम-पदम-नाशिवे "कुव्वद सो पयक्खेममप्पणो।" पयस्-नाजले,पाईना०२७गाथा ।दुग्धे,पाई ना०१२३ गाथा (६ गाथा) दश० ६ ०४ उ० । पाद-पुं० । वाऽव्ययोत्खाताऽऽदावदातः" ॥ ८।१ । ६७॥ पयग-पतग-पुं० । व्यन्तरभेदे, तेषामिन्द्रे च । स्था०२ ठा० इति श्राकारस्याऽकारः। प्रा०१ पाद । शााचरणे शा०१ ३ उ०। ०१७ अ०। प्रव० । एकोनविंशाणानुशायाम. नं। पयगवइ-पतगपति-स्त्री० । पतगव्यन्तराणामिन्द्रे, स्था०२ पयन-प्रयत-त्रि०। प्रकर्षेण यतः प्रयतः । श्राव. ५ श्र. ठा०३ उ०। प्रयत्नवति, उत्त० ११ अ । श्रा. चू० । पयग्ग-पदाग्र-न० । पदपरिमाणे, नं०! पयइ-प्रकृति-स्त्री०। स्वभावे नं। विशे० । अनु०। अष्टसु पयच्चुल-पुं। मत्स्यबन्धनविशेषे, विशे० । कर्मप्रकृतिषु, श्राव. १ श्र पयच्छिऊण-प्रदाय-अव्य० । दवेत्यर्थ.स० ११ अङ्ग । सूत्र पयंग-पतङ्ग-पुं। शलभे, उत्त० ३ अ०। चतुरिन्द्रियजीव पयट्ट-प्रवृत्त-त्रि० । कृतप्रवृत्तिके, " भरहो सब्विहिए भगवंतं विशेषे. उत्त० ३२ श्र० । प्रज्ञा० । “मुच्छितो पयंगो।" श्रा. पदश्रो पयट्टो।" श्रा० म०१०। म.१० सूर्ये, " श्रको तरणी मित्तो, मत्तंडो दिणमणी पयंगो य । अहिमयरो पच्चूहो, दियसयरो अंसुमाली य पयट्टचक्क-प्रवृत्तचक्र-पुं० । प्रवृत्तराव्यनुष्ठानसमूहे,"एवंविधा ॥४॥" पाइ० ना०४ गाथा | शलभे, “पयंगो सलहो" मिह चित्तं, भवति प्रायः प्रवृत्तचक्रस्य ।" पो०१४ विव। पाइ० ना० १३२ गाथा। प्राचा० । व्यन्तरभेदे, प्रज्ञा०२ पद । पयट्टणी-देशी-प्रतिहारिण्याम् , आकृष्टी, महिष्यां च । दे० प्रव०। दाक्षिणात्यानां पतङ्गानामिन्द्रे, स्था०२ ठा०३ उ। ना०६ वर्ग ७२ गाथा । पयंगवीथिया-पतङ्गवीथिका-स्त्री० । पतङ्गः शलभस्तस्य वी-पयटमाण-प्रवर्तमान-त्रि० । व्याप्रियमाणे पश्चा० २ विव० । थिका उडुयनं पतङ्गवीथिका तत्सद्दशी गोचरभूमिका । पराय प्रवत्तक- त्रिचलिते, पाइ० ना०२३६ गाथा। ध० ३ अधिः। स्था० । दश । गोवरचर्यायै शलभवद् गमंने अर्द्धवितर्दे, पञ्चा०१८ विव० । “पयंगवीहिया अणि पयट्टियध-प्रवर्तितव्य-न। विधेयानां प्रवृत्ती, षो० १६ वि. यया पंगुट्ठाण सरिसा।" पं० व०२ द्वार । यस्यां तु त्रिचतुरा व०। प्रवर्तितव्ये, पश्चा०६ विव० । ऽऽदीनि गृहाणि विमुच्याग्रतः पर्यटन्ति सा पतङ्गवीथिका। पयड-प्रकट-त्रि० । प्रकाश, “ एसा य परा आणा. पयडा जं पतङ्गः शलभस्तस्येव या वीथिका पर्यटनमार्गः सा पतङ्ग- गुरुकुलं ण मोत्तब्वं ।" एषा वक्ष्यमाणा परा प्रकृष्टा प्रकृष्टा. वीथिका । पतङ्गो हि गच्छन्नुत्प्लुत्य नियतया गत्या गच्छ- र्थसाधकेनोपायोदर्शकत्वात् प्रकटा प्रकाशा यद् गुरुकुलं न ति, एवं गोचरभूमिरपि या पतङ्गोड्डयनाऽऽकारा सा पत. मोक्तव्यम । पञ्चा०११ विव० व्यक्तार्थे, पश्चा०२ विव०। अधीथिकति । ०१ उ०२ प्रक०1धाग०। । "विक्खाश्री विस्सुश्री पयडो।" पाइ०मा०१०८ गाथा। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयडत्य पडत्थ - प्रकटार्थ - त्रि० । स्फुटाभिधेये पश्चा० १८ विव पपडहरिभद्दस्रिवण मफटहरिभद्रसूरिवचन न० प्रकटार्थ हरिभद्राभिधानाचार्य जी० १३ प्रति० । पयदि-मकृति -श्री० मेरे विशे• पं० [सं० । यथा कर्मणः ज्ञानाssवरणीयाऽऽदयः, तेषां मतिज्ञानाऽऽवरणाऽऽदयश्च प्रज्ञा० २३ पद । श्रा० म० । कर्मणां ज्ञानाऽऽवरकत्वाऽऽदिलक्षणे स्वभावे. पं० सं० ५ द्वार । पयडिणिक्खेव - प्रकृतिनिक्षेप - पुं० । मूलप्रकृत्यादिरूपे कर्मणि, उत्त० ३३ अ० । पयडिभेय - प्रकृतिभेद - पुं० । ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदीनां भेदेषु कर्म०५ कर्म० । या प्रकर्षक - ० । प्रवर्त्तके. प्रश्न० १ श्राश्र० द्वार । पयण पचन- न० पाके, प्रश्न० १ श्राश्र० द्वार । श्राहाराऽऽदिपाके उत्त० १२ श्र० । श्राहारनिष्पादने, उत्त० १२ श्र० । भक्तस्यैव शरीरस्यं वचनरूपे दण्डे प्रश्न० १ श्रश्र० द्वार । अधिकरणे समुद्र कलिकाऽतिभाएं सूत्र० १० ५ अ० १ उ० । पयणसाला पचनशाला - स्त्री । पाकस्थाने, यत्र पाकस्थाने वर्षासु भाजनानि पच्यन्ते वृ० २ उ० । पं० पण - प्रतनु - वि० । श्र चू० २ कल्प । श्रतिमन्दभूिते, पय सुफी मास मायामोहा " प्रतनयः अतिमन्दीभूता को धमानमायालोमा येषां ते तथा जं० २ चक्षः । पयखुप मंससोणिए " भ० ३ श०४ उ० । पयत प्रयत-वि० । प्रकृष्टसंयमयुक्ते, स्था० ४ ठा० ३ उ० । प्रयत्नयति प्रमादरहिते, ज्ञा० १ ० १ ० भ० । पयत प्रयत्न पुं० प्रपतनं प्रयत्नः सर्वेष्यपि हितानुष्ठाने " - ( ५०४ ) अभिधानराजेन्द्र - 3 प्रमादे. विशे० । श्रादरे, जी० १ प्रति० । पाइ० ना० । समुद्यमे. पा० १६ वि० तास्वादिव्यापारविषये परने विशे सम्यत्तग्रहणं । तरकालं तद्नुस्मरणा55वी ८ वर्ग १ श्र० । ०१० प्राच प्रि० । प्रगृहीते पयचेवं पग्गहिरणं कलाये।" अन्त० १०८ वर्ग १ श्र० । प्रदत त्रि. गुरुभिरनुमा ३ वर्ग १ ० पयत्तकड - प्रयत्नकृत- त्रि०। प्रयत्नपूर्वके निष्पादिते, "सावञ्जकडे तिवापयत्तकडे त्ति वा भयं भद्दए सि वा ऊसढं ऊसढे सिवा रासय र सिए त्ति वा मां मरपुसे ति वा तहष्पगारं भासं असावं जाव भासेजा। "आचा०२०१ चू०४ अ०२ उ० । पयचरक प्रयत्नपत्रि० पत्रपूर्वकपणे "प य एक्कमालवे, पयसाधनं ति य छिन्नमालवे ।” (४२ गाथा ) दश०७ श्र० । पयत्य पदार्थ पुं० [६] त० पदवीध्ये विशे० । भावे ***.***. .... ************ " भावो वत्थु पयस्थो।" पाइ० ना० १५५ गाथा । पयत्यो । १००३ ॥ परबोहहि वत्थो, किरियाकारगविहाणओ बच्चो । पजावि तह भूयत्थाभिहाणं ॥ १००४ ॥ पच्चवखोडवा सोऽणुमायो लेसओ च सुतस्स । पयत्थ " 6 L बच्चो व जहासंभव - मागमओ हेउ चेव ।। १००५।। तृतीयं तु व्याख्यानाङ्गं पदार्थः । स च कारकवा न्याऽऽदिभेtarvaतुर्विधः । तत्र कारकेणाच्यत इति कारकवाच्यः, का रकविषय इत्यर्थः । यथा- पवतीति पावकः इत्यादि । समासेनोच्यते समासवाच्यः, राज्ञः पुरुषेो राजपुरुषः इत्यादि । तद्धितेनोच्यते तद्धितवाच्यः, वसुदेवस्थापत्यं वासुदेव इत्यादि । निरुक्तेनोच्यते निरुक्तवाच्यः - भ्रमति च रौति व भ्रमरः ' इत्यादि । तदेवं पदार्थस्य चातुर्विध्यमुक्तम् || १००३ ॥ अथ प्रकारान्तरेण त्रिविधोऽप्येष सभवतीति दर्शयति- ( परवान्यादि) या इत्यथवा प रेषां श्रोतॄणां बोधः परयोधः तब कर्त्तव्ये हितो योऽर्थः पदार्थः, स त्रिविधोऽपि वाच्यः । तद्यथा-क्रियाकारकविधान. तः पर्यायवचनतः भूतार्थाऽभिधानेन च । तत्र क्रियाकारकभेदेन यथा घट' चेष्टायाम्, घटतेऽसाविति घटः । पर्याययवनैर्यथा-घटः, कुटः कुम्भः, कलश इत्यादि । भूसः सद्भूतो यथावस्थितोऽर्थस्तदनिधानतस्तत्प्ररूपणेन च पदार्थों वाच्य । तद्यथा य ऊर्द्धकुण्डलोष्ट श्रायतवृतग्रीवः पृथुतुनोदरः स घट उच्यत इत्यादि । अथवा पदर्थः सूत्रस्यार्थस्त्रिविधो वाच्यः । तद्यथा-प्रत्यक्षतः, अनुमानतः, लेशतश्च । श्रत्र प्रत्यक्षेणैव यादृशं पुस्तकाऽऽदिलिखितमुपलभ्यते, गुरुमुखाद्वा यादृशं श्रूयते, तादृशमेव साक्षाद्यत्र प्ररूप्यते स प्रत्यक्षत पदार्थ उच्यते । यथा - " सम्यग्दर्शनज्ञानवारित्राण मोक्षमार्गः " इति गुरुमुदिप्रत्यक्षेणोपलभ्य सम्यनादीनां मो क्षनार्गवं प्ररूपवति । अनुमानं त्वार्थापत्ति स्यामप्यन्यथा उपपद्यादतीन्द्रियस्य साध्यार्थानुमीयमा नत्वात् । तत्र प्रत्यक्षोपलब्ध एवार्थोऽयमर्थापत्तिधमर्थ कथयति सो जुमानतः पदार्थ उच्यते, यथा कथन्ति मिष्यादर्शनादीन पुनर्मोक्षमार्गो न भवतीत्यर्थादेव गभ्यत इति । तथालेशतः पदार्थो भवतिः तत्र --' लिश' श्लेषणे, लेशः श्लेषः । लिष्टं समस्तमिति यावत् । तन्निर्देशात् पदार्थों गम्यते । यया सम्यगदर्शनानचारित्राणि इति त्रयाणामपि समस्तानिर्देशात्समुदितानामेव मोक्षमार्गत्वं नितिग म्यते । ततोऽसी लेशेन तो पदार्थोऽनि धीयते तदेवं प्रकारान्तरेणाऽप्युक्तस्त्रिविधः पदार्थः । श्रथवा यथासम्भवमागमतो, हेतुतश्च द्विविधः पदार्थों वा च्यः तत्र भय्याऽभव्पतिवादादिप्रतिपादक पदानामागमत आशामात्रेणैवार्थः प्रतिपाद्यते न हि भयाऽभव्याऽऽदिभावरूप आगमं विहाय प्रायः प्रमाणान्तरं प्रवर्तते। तो यमागतः पदार्थ उच्यते । यत्र च हेतुः सम्भवति, तत्र हेतुतः पदार्थोऽभिधीयते । यथा - कायप्रमाण श्रात्मा, न सर्वगतः, कर्तृत्वात्, कुलालादिवत्, इत्यादि । ननु मूर्त श्रारमाकाकुलालादिवत्येवं मूर्तिमन हेतुनातीति चेत् सत्यम् इष्यते च संसात्मनो मूर्तत्वमपीति न किञ्चिषः । इति हेतुतेाऽयं पदार्थोंभिधीयते । तदनेन " श्राणगिको प्रत्थो, श्राणा चैव सो यदि कविदिवेणारा " ॥ १ ॥ इत्ययमर्थः समर्थितो भवतीति संदेयमुको विस्तरतः पदार्थः ॥१००३ २००४ २००५ || विशे इन्यादि चतुर्था । • Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयत्य (५०५) अभिधानराजेन्सी पयस्थ अधुना पदार्थद्वारमाह न्धःसमवायो ब्यापकश्च । अत्रच पदार्थषटके द्रव्याणि गुणाहोइ पयत्यो चउहा, सामासिय तद्धिो उ धाउको ।। श्व केचिन्नित्या एव,कर्मनित्यमेव,सामान्यविशेषसमवायास्तु नेरुत्तियो चउत्थो, तिएह पयाण पुरिल्लाणं ॥३३०॥ नित्या पवेति पदार्थव्यवस्था। ततश्चैतच्छास्त्रं तथापि मिथ्यात्रयाणां पूर्वाणां पदानां नामनिपातौपसर्गिकाणां चतुर्वि त्वम् तत्प्रदर्शितपदार्थषट्कस्य प्रमाणबाधितत्वात् । यतश्चतुधः पदार्थो भवति । तद्यथा-सामासिकः, तद्धितो, धातुकतो, संख्यं पृथिव्यादि द्रव्यं परमाणुरूपं यन्नित्यमुपवर्णितम् तदसंनैरुक्तश्च चतुर्थः। गतम् । एकान्ताक्षाणकत्ये क्रमयोगपद्यभावार्थक्रियाविरोधातत्र सामासिकः सप्तधा-- त् । तलक्षणं सत्वं ततो व्यावर्त्तते, ततश्चासत्वमेव तस्य । दंदे य बहुव्वीही, कम्मधारय दिगू य एमेव ।। यदि च स्थूलकार्यद्रव्यकारणभूतानामधूनां तजनकैकखभातप्पुरिस अब्बईभा-व एगसेसे य सत्तमए ॥ ३३१॥ वता तदा तत्कार्याणां सकृदेव सर्वेषामुत्पत्तिप्रसक्तिः, अवितत्र द्वन्द्वो यथा-दन्ताश्च प्रोष्ठौ च दन्तोष्ठम् । बहुव्रीहिर्य कलकारणत्वात् । तथा च प्रयोगः-येऽविकलकारणास्ते स. था-"फुल्ला इमम्मि गिरिम्मि कुडयकयंबासो इमो गिरी फुल्ल कृदेवोत्पद्यन्ते, यथा समानोत्पादा बह्वोऽपुराः, अविकलकुडयकयंबो।" कर्मधारयः-श्वेतपटः। द्विगुः-प्रीणि मधुरा कारणाच परमाणुकार्यन्वेनाभिमता भावा इति स्वभावणि त्रिमधुरम। तत्पुरुषः वने हस्ती वनहस्ती।अव्ययीभावः हेतुः।अबिकलकारणस्याप्यनुत्पादे सर्वदा अनुत्पत्तिप्रसक्तिः, गङ्गायाः समीपम् उपगङ्गम् । एकशेषो यथा-पुरुषश्च पुरुषश्च विशेषाभावादिति पर्याय बाधकं प्रमाणं स्यात्। एतत् समवापुरुषश्च पुरुषाः । एवं-वृक्षा इत्यादि । उक्तः सामासिकः।। य्यसमवायिनिमित्तभेदात् त्रिविध कारणम् । यत्र हि कार्य ससंप्रति तद्धित उच्यते, सोऽष्टप्रकारः। उक्तं च-- मवैति तत् समवायिकारणं,यथा घणुकस्याणुव्यम् यच्च का. कम्मे सिप्पे सिलोगे, संजोगे समीवो य संजूहे। बँकार्थसमवेतं कार्य कारणकार्थसमवेतं वा कार्यमुत्पादयति तदसमवायिकारणं,यथा पटावयविद्रव्याऽरम्भे तन्तुसंयोगः, ईसारयाऽवच्चेण य, तद्धियअत्थो तु अट्ठविहो ॥३३२।। पटसमये तद्पाऽद्यारम्भे पटोत्पादकतन्तुरूपाऽऽदि च।शेतत्र कर्मतो यथा--तृणहारकः। शिल्पतो यथा-तन्तुवायः। षं तूत्पादकं निमित्तकारणं यथाऽदृष्टाऽऽकाशादि।तत्र संयोगाश्लोकतः श्लाघातो यथा-श्रमणः, संयत इत्यादि । संयोगतो ऽऽदेरपेक्षणीयम्यासभिधेरविकलकारणत्वमसिद्धम् । असदे यथा-राक्षः श्वशुरः । समीपे यथा-गिरिसमीपे नगरम् । तत् संयोगाऽऽदिनानाधेयातिशयत्वान्नित्यतया अणूनां तदसंव्यूहतो यथा -मलयवतीकार इत्यादि । ऐश्वर्यतो यथा पेक्षत्वायोगात्। न च तन्तुकारणाऽऽदीनां कार्याणां सकृत्प्रादुराजा युवराज इत्यादि । अपत्यतः-तीर्थकरमाता, चक्रवर्ति र्भाव उपलभ्यते तस्माद्विपर्ययः। तथा च प्रयोग-ये कर्मवत्कामाता इत्यादि । उक्तस्तद्धितः। सम्प्रति धातुकृत उच्यते-भू | र्यहेतवस्ते नित्याः यथा क्रमवदकरादीनि,वार्तकावोजावसत्तायां परस्मैभाषा इत्यादि । नैरुतो-मह्यां शेते महिष इ. यवस्तथा परमाणव इति खभावहेतुः। यद्यप्यविरुद्धकारणोक्त त्यादि, आद्यानां त्रयाणां पदानामेष पदार्थः। मरणूनां नित्यत्वसाधकं प्रमाणं परमाणू-पादकाभिमतकारणं सम्प्रत्याख्यातिकपदस्य, मिश्रपदस्य च पदार्थमाह-- सधर्मोपेतं न भवति,सवप्रतिपादकप्रमाणाविषयत्वात् ,शशकारगको चउत्थे, मिस्सपदे मिस्सो चउत्थो उ। शृङ्गवदिति,तत्र कुविन्दाऽदेरगुत्पादककारणस्य सत्यप्रति सामासिओं सत्तविहो, हवइ पयत्यो उ नायव्यो ।३३३।। पादकप्रमाणविषयत्वाद्दसिद्धो हेतुः । यथाच पटाऽऽदयः परचतुर्थे आख्यातिकपदे पदार्थः कारककृतःक्रियाकृतः। मिश्र माएवात्मकाः कुविन्दोत्पाद्यास्तथा प्रदर्शयिष्यामः। देशकालपदे मिश्रपदार्थः, तत्र यः सामासिकः स पदार्थः सप्तविधो खभावविप्रकृष्टानां च भावानां सदुपलम्भकप्रमाणातिवृत्तावज्ञातव्यः । स च प्रागेवोपदर्शितः । बृ० १ उ०१ प्रक० । अ. पि सत्त्वाविरोधात् अनैकान्तिकश्च हेतुः,ततो नारावनित्यत्वनु० । श्रा०म०। तथाहि नैयायिकदर्शनेन तावत्प्रमाणप्रमेय प्रसाधकाऽनुमानप्रतिज्ञाया अनुमानबाधा न च यत एव प्र. संशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवित- माणात्परमाणवः प्रसिद्धास्तत एव नित्यत्वधर्मोपेता अपि त एडाहेत्वाभासछलजातिनिग्रहस्थानानीत्येते षोडश पदार्था | इति तद्ग्राहकप्रमाणबाधितत्वात्तदनित्यत्वप्रसाधकानुमान अभिहिताः । सूत्र० १२ १२ १० प्रा० म. (कथं पु- स्थानुत्थानं प्रमाणतोऽप्रसिद्धौ चाणूनामाश्रयासिद्धतया तनश्चतुश्चत्वारिंशं शतं पृच्छानां भवति इति प्रश्ने,'तेरासिय' दिति वाच्यं, सर्वस्य प्रमाणविषयस्यानित्यत्वधोपेतस्यैव शब्दे चतुर्थभागे २३६५ पृष्ठे पदार्थनिरूपणपरा "भूजल." तद्विषयत्वात् . अन्यथाभूतस्य तजनकत्वेन तद्विषयत्वानु(२४६० ) इत्यादिगाथा उक्ताः) पपत्तेः नाकारणं विषय इति प्रसाधितत्वात् । नित्यस्य तथाहि-द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाऽऽख्याः षडेव चाकारणत्वान्न चतुःसंख्यं परमाएवात्मकं नित्यद्रव्यं स. पदार्थाः, न्यूनाधिकप्रतिपदार्थादेकप्रमाणाभावे परस्परवक्त- म्भवति.नापि तदारब्धमवयविद्रव्यं सम्भवति, गुणावयवव्यस्वरूपषट्पदार्थव्यवस्थापकप्रमाणविषयत्वात् । उभयाभि- व्यतिरिक्तस्य तस्यानुपलम्भात् । न हि शुक्ला दिगुणेभ्यस्तमतघटाऽदिषट्पदार्थवत् । (द्रव्यस्वरूपम् 'दब्ब' शब्दे चतु- मत्वाद्यवयवेभ्यश्चार्थान्तरभूतपटाऽदि द्रव्य चक्षुरादिक्षाने अर्थभागे २४६६ पृष्ठे उक्तम् गुणस्वरूपं 'गुण'शब्दे तृतीयभा- वभासते न चावयबिनो व्यणुकाऽऽदेरनुपलम्मे परमाणूनां विगे १०६ पृष्ठे विवृतम् ) न चैवं उत्तेपणाऽऽदीनि पश्चक- विक्तस्वरूपाणामुपलम्भाविषयत्वात् प्रतिभासाभावप्रसक्लेरामाणि,परापरभेदामेनं द्विविधं सामान्यम् अनुगतज्ञानकारणं, श्रयासिद्धतयाग्वयव्यादिनिषेधकं प्रसङ्गसाधनप्रयोगाऽनुपपनित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषा अत्यन्तब्यावृत्तबुद्धिहेतवः, त्तिरिति वक्तव्यम् ,परमारनामेव विशिष्टाऽऽकारतयोत्पन्नाना अयुतसिद्धानां कार्याऽऽधारभूतानामिहेतिप्रत्ययहेतुर्यः सब-। प्रतिभासविषयतयाऽऽश्रयासिद्धताऽऽधनुपपत्तेन प्रयोगानुपप Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयत्थ तिः। एवं च यदुपलब्धिलक्षणप्राप्तं सत् यत्र नोपलभ्यते तत्तनास्ति, यथा विदेश विशेष घटादिविषय गुणावयचार्थान्तरभूवनो लभ्यते च तत्रैष देश इति स्वभावानुपलब्धिः। न च हेतोर्विशे सिद्धं महदनेकद्रव्यवश्वापादि मच्ात् चोपलब्धिरिति वचनात् तथाश्य येनाभ्युपगमात् । ननु गुणव्यतिरिक्तो गुण्युपलभ्यत एव तद्रूपाऽऽदिगुणाग्रहणेऽपि तस्य ग्रहणात् । तथाहि मन्दमन्दप्रकाशे तहतशितादिरूपानुपलम्भेऽपस भ्यते खाकादिलगत इपि च तत्रिहितोपधा नावनायां गृह्यते स्फाटेको पलः। तथा प्रदीपनकबुका बच्छ पुंसां तद्गतश्यामाऽऽदिरूपा प्रतिभासेऽपि पुमानवि पदिकं च यनं, तबूपरूपमिस्रमकापि प्रकारात एव वत्रमिति प्रत्ययोत्पतेरज्यतएव गुपाशिनोदः सिद्ध तथाऽनुमा नतोऽपि तयोर्भेदः तथाहि यद्य व्यवच्छेदकत्वेन प्रतीयते त त् ततो भिन्नं यथा देवदताऽऽदेश्व गुणिव्यवच्छेदकत्वेन प्रतीयन्ते नीलोत्पलस्य रूपाऽऽदय इति । तथा पृथिव्यपूते जोवायवो द्रव्याणि रूपरसगन्धस्पर्शेभ्यो निशानि, एकपवनच नविषयत्वात् । यथाऽति तथा च पृथिवीत्येक नं. ऊपर स्पर्श बहुवचनयत होते अथावयवावयविनोरप्पनुमानतः सिद्धो भेदः । तथाहि तन्तुवाया करणेभ्यस्तन्तुभ्यो भिन्नः पटः, भिस्रकर्तृकत्वात् पढावित मित्ररात्रिकालमा त्यहा कुलयविश्व पहिति विश्वापि भावानां मेः स चात्राऽप्यस्तीति कथं न भेदः ?| यदि चावयवेभ्यो मित्रो न भवेत् स्थलप्रतिभासो न स्यात्, परमाणुजां सूक्ष्मत्वात् न चाग्याभूतः प्रतिभारती उन्या दमयन्ययस्थापक अतिस शातूनच स्थूलो भावः परमाणुरिति विदेशो वी स्कूल पिशित्वादयश्येयुधाः प्रतिविधीपते-बहु स्वगतगुणानुपलम् बलाकाल्फाडे उ पलभ्यन्त इति । तदसङ्गताम् । तज्ज्ञातस्या यथार्थत्वे उद्भ्रान्ततया निर्विषयत्वात्। तप्यादि बलाकाऽऽदयः शुक्लाः सन्तः श्यामाssदिरूपत योपलभ्यन्ते । न च तेषां तदूयं तात्विक्रमस्ति तद्रूपाग्रहणेऽपि तेषां ग्रहण मित्यभ्युपगमप्रस केः। न च तदा श्यामाआदिरूपा व्यतिरिकोडपर कांटे का 55 हिस्वभाव उपलभ्यते, श्यामादेरुपस्यैवापलम्मात् । न चातद्रूपा अधि बलाकाऽऽद यः श्यामाssदिरूपेणोपलभ्यन्ते यत आकारवशेन प्रतिनिय तार्थज्ञानस्य व्यवस्था अत्याकारस्यापि तस्यान्यार्थतायां रूपज्ञानयापि रसविषयताप्रसफ़ेरविशेषात् । न चान्याऽऽकारस्था म्यविषयव्यवस्थापकत्वेऽपि तस्य परस्येष्टसिद्धिः यतः शुक्काssदय एव श्यामादिरूपेण प्रतिभान्ति, तज्ज्ञानस्य भ्रान्तत्वान्न पुनस्त अतिरिक्रस्य गुणिनस्तत' सिद्धिर्भवेत् । यच्च कञ्चुका वच्छिन्ने पुंसि पुमानिति ज्ञानमध्यक्ष मवयविव्यवस्थापकमुक्रम्। तदध्यक्षमेव न भवति । शब्दानुविद्धत्वादस्पष्टाऽऽकारत्वाच्च । 1 तुरूपावादमा तल सापुरुष विषय मनुमानमेतदिति नातोः तथाहि रूपादयमपुरुषदे तुकः कम्बुकस निवेशः उपलभ्यमानस्य कारणमनुमापयति, धूम इवानि यच कुमादिरके बने तपाप्रतिपत्तावपि व समिति पापविनाशे सामन्तजा ( ५०६ ) अभिधानराजेन्द्रः | , पयत्य तरूपान्तरस्याभ्यक्षेण ग्रहणे सत्युत्तरकालपृष्ठभाषिसम वायमिति समुदायविषयं साहूतपरमार्थतो निर्विषय मेव प्रत्ययमज्ञानामेत्या समस्य प्रत्यक्षत्वं न चैतदनुमानं, पूर्वाध्यक्षगृहीतविषयत्वात् श्रलिङ्गिकत्वात् समुदायविषयं समार्थतो निर्विषयमेव न चाभिभूतमस्तुरूपस्य तस्थाषामभावे धोत शुक्लरूपानुपलब्धिः स्यादिति वक्रम्यम् । यतोऽयादिसाममोप्रास्वरूप लोहाऽऽदे पुनः श्यामाऽऽदि रुवान्तरोत्पत्तिवत् तत्रापि सामवन्तरात् शुक्लपोत्पत्वात् न च मनमेव रूपात |त्रानुपलब्धं, पश्चादभिभवाभावादुपलभ्यत इत्यस्य प्रतिषेधेन रूपावरमेव प्रारूपविनाशेनोपज्ञानमत्रीपलभ्यत इति म यतोऽपि किं प्रभाभितिव्यम् अनुमानस्य सङ्गावात् । तथाहि पदपरित्याभिभूतखभावं तस्य न परेणाभिभवः यथा पूर्वपश्वा तस्यैवापहतामेदा भवावस्थायां रूपमिति व्यापकविरुद्धीपलब्धिः परित्यज्ञानभिभूतस्वभावत्वाभ्युपगमे पि सिद्धस्यान्यत्वं स्वभावभेदस्य भावभेदलक्षणत्वात्, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । न च स्वतन्त्रेच्छामात्रभावितषष्ठीवचनमेदादेव बाह्यवस्तुगतभेदान्यभि बारि स्वं येन गुणनिः भेदखिद्धिः स्यात् तेन यत्पदय छिनामित्यादिप्रयोगानुपपतिर्यदि न वस्तुगतभेदमन्तरेण प प्रयादिवृत्तिर्न भवेत्, न स्वस्वभावः, षसां पदार्थानामस्तित्वं, दाराः शिकता इत्यादोस्यायादेरयतिरिम्य भावेातनिबन्ध तस्याभावात् । अथ सदुपलम्भविषयत्वं धर्मान्तरं स्तत्यभिभ्यत इवेन देतोभः समपद श्रथ पद्मार्थव्यतिरिक्तानामपि पक्षामभ्युपगमानायं दोषः, तेषां च पदार्थप्रवेश के ग्रन्थ एव धर्मैर्विना धर्मिणामुदेशः कृत इति असदेतत्वेतेषां संपते तदन्तरे व धर्मधर्मभावायोगात् अन्यथाःतिप्रसङ्गात्। न च संयोगल यसंबन्धः संयोगस्यगुणत्वेन द्रव्येध्येय नावात् नापि समचा यस्वरूपः, स ताब तस्य सर्वत्रैकत्वाभ्युपगमात् समवायेन च सह समागमः स्यात् । तथ चानवस्था । न च षद्भिः पदार्थैर्धर्माणामुत्पादनात् तेषां त इति व्यपदेशः तथाऽभ्युपगमे बदरादयोग कुरुडा दिसंबन्धिनस्तत्र ते संयेोगान्तरकल्पना वैयर्थ्यप्रसक्तिर्भवतु वा पामस्तित्वं धर्मान्तरं तथाऽपि व्यभि चार एव तदस्तिर अपरास्तिस्वाऽऽयभावेऽपि तस्तत्य म्यास्तित्वप्रमेयत्वानित्वा पचादिमवृत्ता पिपराभ्युपगमः तामसहि। न चेष्टत्वाददोष सर्वेषामप्युत्तरोत्तरचर्माचारवान् धर्मिय भिराः प्रोकाः इत्येतस्यानुपपत्तिः पदार्थयतिरेकानामन्येघामपि वा धर्मिणामस्तित्वाऽऽदीनां विशिधर्माऽधाराणां सं भावत् । न च धर्मरूपा एव ये ते एव षट्केनावधारिता इति व व्यं गुणादीनामपि निर्देश प्रसङ्गात् न हि गुणादीनां धर्मरूप किंतु इतरवाद्धर्मपत्वम् । यस्वाद सदुपलम्भप्रमाण गम्यत्वं षामक्तित्वमभिधीयते तच्च षट्पदार्थविष I ज्ञानं तम्सिति सदिति व्यवहारयते एवं ज्ञानजातंा मज्ञेयश्वमभिधानजनितमभिपेवरवमित्येवं व्यतिरेकनिबन्धना पट्टी सिद्धान बाऽनवस्थान व पदार्थव्यतिरिकपदार्था Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०७) अभिधानराजेन्षः। पयत्थ पयला म्तरप्रसकि.ज्ञानस्य गुणपदार्थेऽन्तर्भावात् । सोऽप्ययुक्तवादी। कार्मण काययोगो भवति अथ प्रतरमिति कोऽर्थः १.-प्रतर पवमप्यस्तित्वाऽऽदेःषद पदार्थाः व्यतिरेके व्यभिचारस्य तद- मिव प्रतरकम उपमानार्थ यथा-घननिचितनिरन्तरप्रचियस्थत्वाच्च व्यातेरके सप्तमपदार्थप्रसक्तेः न्यायप्राप्तत्वात्। तावयवसस्थितापरिवृत्तस्थालकफलक लाकैः प्रतरमित्युकिं च यदि षम पदार्थानामधीक्रयासमर्थपदार्थस्वरूपं स्वतः | च्यते । तथाऽऽकाशमापे परस्परप्रदेशलसनविच्छेदपारवृत्त. व न स्यात् तदा शशशृरूपता तेषां भवेत् अर्थक्रियालाम पर्यायनावस्थितं प्रतरमिाते प्रसिद्धम् । अथ तृतीयसमये र्थ्यात्। ततश्च कथं सदुपलम्भप्रमाणगम्यता तेषाम् । अथार्थ- प्रतरपूरकाणां को विधिारेति प्रश्ने १. प्रतिबमहे ततो द्विती. फ्रियासमर्थ रूपं तेषां विद्यते, तदा ते तद्रूपा एव, भेदान्तरण यसमये निर्गताऽऽत्मप्रदेशलकाशात् योऽसंख्येयभागो विशि. तिनेपमात्राजज्ञासायां तेषामस्तित्वमित्येवं यदि व्ययदेशव्या प्टोऽवतिष्ठत इत्युक्तम् अलावपि बुद्धया पुनरसंख्येयभागार तिरेकविभक्या समाप्तादयन्ति तदा न कश्चिद्विरोधः। न हि कृताः । ततः तृतीय समये प्रतरकाणामसंख्येयभागाद् नि:. तदव्यतिारेनमपि स्वरूपं बुद्ध्याऽपकृष्य ततो व्यतिरिक्तमिवा- कामन्ति असंख्येयभागोऽवतिष्ठते. तैरसंख्येयांगनिर्गतैरे. भिधीयमानं विरोधभाग् भवति, इच्छामात्रानुविधायित्वाद्वा तैः प्रतरं पूरयान्त । तत्र ये निष्फ्रान्ताऽऽत्मप्रदेशसकाशादच उत्पाद्यकथास्वायाति, सुन्दरपदार्थवचनवत् । सम्म० ३ संख्यगुणहीनाः ततश्चनुर्थलमये कार्मण काययोगस्थान ए. काएउ । आचा० । स्था०ाजीवादीनि नव तवानीति | स्या व आकाशप्रदेशानिष्कुटसंस्थानसंस्थितान् लोकव्यपदेशपयत्थदोस-पदार्थदोष-पुं० । सूत्रदोषभेदे, यत्र वस्तुपर्या- भाजः पूरेतान् पूरयन्तीति लोकपूरकाः । श्रा० चू० १ योऽपि सन् पदार्थान्तरत्वेन कल्प्यते. यथा सतो भावः सत्ता श्रा। विश. ('केवलि समुग्घाय' शब्द तृतीयभागे ६५६ इति कृत्वा वस्तुपर्याय एव सत्ता, सा च वैशेषिकैः षट्सु पृष्ठादारभ्य व्याख्यातम् ) ( खुड़गपयर 'शब्दे तृतीयभागे पदार्थेषु मध्ये पदार्थान्तरत्वेन कल्प्यते । एतश्चायुक्तम् । वस्तू. ७४६ पृष्ठे क्षुल्लकमतरः समर्थितः) वृत्तप्रतरे, स्वर्णाऽऽदिमये नामनन्तपर्यायत्वेन पदार्थानन्त्यप्रसङ्गादिति । विशे। पत्रिकाऽऽभिधाने आभरणविशेषे, औशा . .। "पयपयत्थरसिग-पदार्थसिक-पुं० । प्रागमोक्लदेवतत्वगुरुतत्वा रगमंडिया। " सुवर्णप्रतरकमण्डितानि । जी.३ प्रति. उगमतवजीवाऽऽदिभावप्रीतियक्ते, पश्चा०२ विव०। ४ अधि। पथदोस-पददोष-मुंग तथाविधे सूत्रदोष,यत्र स्याऽऽयन्ते ति | पयरण-प्रतरण-न। प्रथमदातव्यमिक्षायाम् . वृ०१ उ० ३ वाऽऽयन्तं तिवाऽऽद्यन्ते स्यायन्तं करोति ।बृ०१३०१ प्रक०। प्रक० । नि० चू० । पयबद्ध-पदवद्ध-न० । एकाक्षराऽऽदिपदबद्ध गेये, जं. १ पयरणवयण-प्रकरणवचन-न० । अर्वाचीनलाधुविरचितववक्ष। जी०रा०।। चने जीवा० २५ अधि०।। पयभूमि-पदभूमि-स्त्री० । निजचरणन्यासभूमौ, “एवं भूमि- पयरतव प्रतरतपस्-न०। श्रेणि रेव श्रेण्या गुणिता प्रतरः, त पमजणं च तिक्खु तो।" संघा० १ अधि०१ प्रस्ता०। दुग्लक्षितं तपः प्रतरतपः । तपादे. इह सुबोधार्थ चतुर्थपयमग्ग-पदमार्ग-पुं० । प्रचारे,शा० १ श्रु. १८ अ०। षष्ठाठमशमाख्यपद व तुष्टपाऽऽस्मिका श्रेणिर्विवक्षिता । सा पयय-प्रयत-त्रि० प्रयत्नपरे, नं०।व्य०।अनिशमित्यर्थे, दे च चतुर्निर्गुणिता षोडशदाऽऽत्मकं प्रतराऽऽयं तपो भव: ना०६ वर्ग ६ गाथा । प्रकृष्टयत्नवति, अणु०३ वर्ग १ श्रा। ति. तत् प्रतरतपः षोडश द मकमेव । उत्त० ३० अ०। अतिशयप्रयत्नवति, दश. २ चू० । पं. व. । व्यन्तरभेदे, पपरभेष प्रतरभेद-पुं० । अभ्रपटल भूर्जपत्राऽऽदिचत् द्रव्यस्था०२ ठा. ३उ०। भेदे, प्रज्ञा०११ पद । स्था। पययमण प्रयतमनस्-न० । प्रादरपूरचेतसि, स० ११ अङ्ग। पयरवह-प्रतरत न० । धनभिने वृत्तसंस्थाने, भ०२१०१३० पयर -स्मृ धा । चिन्तायाम् . " स्मरेः झर-झर-भर-भल- पयल-देशी-नीडे, देना.६ वर्ग ७ गाथा। लढ-विम्हर-सुमर-पयर-पम्हहाः"८४७४॥ इति सूत्र पयलमाण-प्रचलायमान-वि० हेपत्स्वपति, आव०५ श्रा ण स्मृधातोः पयराऽऽदेशः । 'एयरइ ।' स्मरति । प्रा-४पाद । ६। स्मरति । प्रा ४पाद। "पडेज वा से तत्थ पयलमाणे वा पयडमाणे वा हत्थं प्रकर-पुं० । शरे, प्रदरशब्दभवे, दे ना.६ वर्ग १४ गाथा । वा पायं धा।" श्रावा०११०१चू०२० ३ उ०। ससूहे, कल्प०१अधि०१क्षण | पाहना। पयला-प्रचला-खी। प्रचलति पूर्ण यति यस्यां स्वापावप्रतर-पुं० । अघने, 'पतरा' इतिलोके, स्था०१ ठा। लोका स्थायां सा प्रचला। प्रशा०२३ पद । उत्त । पं०सं०। कर्म०। Sऽकाशप्रतराः । कर्म० ५ कर्म । प्रवलायमानस्य वापावस्थाभेदे, प्रव० २१६वार । स्था। अधुना प्रतरं प्ररूपयितुमाह-प्रतरश्च । प्रतरः पुनः नि चू०। प्रज्ञा । सा च स्थितस्योर्षस्थानेन उपविष्टस्याक इत्याह-तद्वर्गः, तस्याः शूचिस्वरूपायाः श्रेणेवर्गः अलीनस्य भवति । कर्म. १ कर्मः । निद्राप्रचलयोस्त्वयं विशून्याः शूविगुणनलक्षणस्तद्वर्गः । कोऽर्थः ? -शूच्या शेषः ." सुपाडेबोहाणिहा, दुहपडिबोहा य पयलपा होइ।" शुवेर्गुणनं प्रतर उच्यते । तद्यथा-इहासंख्येययोजन- सुखप्रयोधा स्वापाव स्था निद्रा. ऊर्वस्थितस्यापि, या पुनकोटीकोटीदीर्घाऽपि श्रेणिरसत्कल्पनया त्रिप्रदेशप्रमाणा चतन्यमस्फुटीकुर्वती समुपजायते निद्रा सा प्रचला । द्रष्टव्या-। तस्याश्च तयैव गुणने प्रतरो नवप्रदेशाऽऽत्म- जी०३प्रति०१प्राव०१उ० । पञ्चा० । ०। ('दगतीर' को भवति । स्थापना- । इति । (६७ गाथा) कर्म. १ शम्दे चतुर्थभागे २४४२ पृष्ठे प्रवला निषिद्धा) तद्विपाकवेकर्म । अथ तृतीयसमये प्रतरं कुर्वन्ति । तस्सामयिकश्च | पायां कर्मप्रकृती. स०६ सम०। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०६ ) पपलाइया पयलाइया - प्रचलापिका स्त्री० । भुजपरिसर्पिणीभेदे, सूत्र० २ श्र० ३ अ० । निधान राजेन्द्रः । पयलापयला - प्रचलाप्रचला - स्त्री० । प्रचलातोऽतिशायिन्यां स्वापावस्थायाम्, स्था० ६ ठा० । “पयलापयला य चंकमश्रो जो पुरा गतिपरिणम शिद्दा से भवति सा च पय। लापयला भक्षति ।" नि० चू० १ उ० । चङ्क्रमतश्चक्रमणमपि कुर्वतो जन्तोरुपतिष्ठते, अतः स्थानस्थितस्य प्रचलामपेक्ष्यातिशायिनीत्वमस्याः । तद्विपाकवेद्यायां कर्मप्रकृतौ च । कर्म० १ कर्म० । उत्त० । पं० सं० । स० । पयलाय प्रचलाय - न० । धा० । प्रचलावत्वेन भवने, व्यर्थविवक्षायां निद्राऽऽदिभ्यो धर्मिणि क्यप् पयलाय 'प्र चलायते प्रचलायमानो भवति । जी० ३ प्रति० १ अधि० १३० । L पयलायंत - प्रचलायमान त्रि० । ईषत्स्वपति, आव०५ श्र० । पयलायण - पचलायन न० । निषणस्य सुप्तजागरावस्थायाम्. बृ० ३३० । पयलायभत्ता - देशी- मयूरे, दे० ना० ६ वर्ग ३६ गाथा । पयलिय प्रचलित- वि० स्थलते तु किकिरणाय मांगे, औ०।" पपलियवरकडगडियके ऊरमकुंडले प्रचलितानि पराणि कटकानि कलाविकाऽऽभरणानि बुटि तानि यारक्षकाः केयूराणि बाह्याभरणविशेषरूपाणि मुकु टो मौलिकुडले कर्णाभरणे यस्स प्रचलितवर कटकटिन केंद्रमुकुटकुण्डलः । रा० प्रचलिताऽऽस्कोटिता । कल्प० १ अधि० ३ क्षण । पयलियसणा-मचलितसंज्ञा श्री० । प्रचलिता प्रस्खलिता विषयकषायाऽऽदिसन्मार्गात्परिभ्रष्टा संज्ञा बुद्धिर्येषां ते प्रचलितसंज्ञाः । श्रातु० । ॥ ॥ पपल्ल-प्रमृत-पा०। प्रसरणे, “प्रसरेः पझोपेही " ८ ४ । ७७ ॥ इति सूत्रेण प्रपूर्वकस्य सरतेः पयलाऽऽदेशः । “पयज्ञइ । प्रा० ४ पाद । विस्तृते, पाइ० ना० १८६ गाथा । 99 39 अथ पदविग्रहमा पायं पयविच्छेद्य, समासविस तयत्यनियमत्थं । विगाहो ति भाइ, सो सुद्धपए न संभवइ ॥ १००६॥ प्रवेश वा समासविषयः पदयोः पदानां वा अनेकार्थ भवे सतीपदार्थ नियमाय विच्छेदः कियते स पविग्रहः । यथा- राज्ञः पुरुषो राजपुरुषः, श्वेतः पटोऽस्येति श्वेतपटः, मत्ता व मातङ्गा यस्मिन्वने तन्मतबहुमान वनमित्या पयाग दि । स च शुद्ध एकस्मिन्पदे न संभवति, श्रतः पदयोः, पदानां चेत्युच्यते । इह कश्चित्पदविच्छेदोऽपि समासविषयो न भवति कचित्समासनिषेधात्। यथा व्यासः पाराशर्यः रामो जामदग्न्य इत्यादि । श्रतः प्रायोग्रहणमिति ॥ १००६ ॥ विशे० | पयविभागसामायारी - पदविभागसामाचारी श्री. पदवीe। पदयोरुत्सर्गापवादयोर्विभागो यथास्थानं निवेशस्तेन युक्ता सामाचारी छेदस्वरूपा पदविभाग सामाचारीति । ध० ३ अधि० | कल्पव्यवहाररूपायां सामाचार्याम्, ध० । भेदः पदविभागस्तु स्यादुत्सर्गापवादयोः ॥ ३४ ॥ पदविभागसामाचार्याः प्रस्तावः । सा च कल्प व्यवहाररूपा बहुविस्तरा खरूपमात्रं तु प्रदर्श्यते" भेदः" इत्यादि सोको उत्सर्गापचादयोलतोय भेदः सपद विभागः स्यात्, पदयोरुत्सर्गापवादयोर्विभागो विभजनमिति व्युत्पत्तेः। तुर्विशेषणार्थः । तद्विवेकश्च कल्पव्यवहाराऽऽदौ प्रसिद्ध इति तत एव शेयः । इह च सम्यगुत्सर्गापवादभेदनियोगरूपा पदविभागसामाचारीत्यर्थः । तनिमिसमालो चना शुद्धयाऽऽदिकं योपस्थापनाधिकारानन्तरं प्रदर्शयिष्यत इति । ( ३४ गाथा ) ध० ३ श्रधि० । 35 । । | कृ-धा० शैथिल्यकरणे, लम्बनकरणे च "शैथिल्य म्बने पयज्ञः ॥ ८ । ४ । ७० ॥ इति शैथिल्यविषयस्य लवनविषयस्य च कृगः 'पयल' इत्यादेशः । 'पयल्लइ ।' करोति । शिथीलीकरोति, लम्बते वा । प्रा० ४ पाद । पपई देशी सनायाम् ३० ना० ६ वर्ग १६ माथा पयविग्गह-पदविग्रह-पुं० । अनेकपदानामेकत्वाऽऽपादन- पयाग-प्रयाग-पुं० गङ्गायमुनालयाने ०० विषयसमासे, यथा सामायिकसूत्रे भयस्यान्तो भयान्तः । अनु० । विशे० । । पया प्रजा स्त्री० प्रजायन्त इति प्रजाः । स्थावरजङ्गमेषु जन्तुषु . सूत्र० १ ० १४ श्र० । श्राचा० । प्राणिषु श्राचा० १ श्र० ५ श्र० ३ उ० । उत्तः । पं० वः । लोके जने, नं० । स्था• । प्रजायन्तऽस्यामिति प्रजा । अपत्यवत्यां स्त्रियाम्, श्राचा० १ ० ३ ० २ उ० । सूत्र० । चुल्ल्यां च । व्य० ६० । वदुत्पत्तिः "सामाचारी तिविहा, ओहे दसहा पयविभागे ॥ ६६५ ॥ पदविभागसामाचारी छेदसूत्राणीति । (श्राव०) पदविभागामाया देवमय निति आ • १ श्र० । कुत इयं निर्यूढा ?, पदविभागलामाचारी छेदग्रन्थगतसूत्ररूपा नयमपूर्वादेव निवृंदा विशे परावी - पदवी - बी० । “मग्गो पंबो सरणी अदा यतिणी पछे । पयवी ।" पाइ० ना० ५२ गाथा | 1 ० पयसमास - पदसमास-पुं० । इत्यादिपदसमुदाये. कर्म ०९ कर्म० । पयसमूह - पदसमूह - पुं० । पदसङ्घाते, श्राव० ५ श्र० । पपहीण-पदर्शन-ति० त्यक्तपदे ० ३ ० । पादेनैव । हीने, श्रव० ४ श्र० । - 66 त्वामादपापयामदायी पाधिपोऽजनि । तस्याधृतिरद नगरे मत्पिता भवत् ॥ ६४ ततो गतस्थानं यत् । तदा व्यात्तसुखश्वापः प्रैक्षि तैः पाटलीतरौ ॥ ६५ ॥ प्राविशय मुखे तस्य स्वयमेत्य कीटकम् | उच्यते पाटलीवृत्त-मभवन्मथुराद्वयम् ॥ ६६ ॥ दक्षिणा चोत्तरा चेति ततोऽगाणिगोत्तमः । दक्षिणायां मथुरायां महर्दिक ६७ ॥ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०६) पयाग अभिधानराजेन्द्रः। पयारित श्रेष्ठिनै केन तस्याभू-तत्र मैत्र्यमथान्यदा । तां ततोऽत्तमयच्चके, खेदं च परमं गुरुः ॥ ६२॥ भुञ्जानेन गृहे तस्य गृहीतव्य जनाः पुर ॥१८॥ शान्यूचे मा सा खियचं, केवलं घोऽध्यदूरगम् । आपादमस्तकं तेन, दृष्टा तस्य स्वसाऽन्विका । गङ्गामुतरतां भावि. तब्छत्वाऽऽशूस्थितः प्रभुः ॥१३॥ तद्रको मार्गयत्तां स तान्यूचुर्यदि तिष्ठाले ॥६६॥ गङ्गाया नावमारूढो, यत्र यत्रात स्थितिम् । अपत्पजन्म यावत्त- इयः स स्वीचकार तत् । ततस्ततो मजति नौ-मध्ये सर्वोअप माति ॥४॥ उदूहा सा स्थितस्तत्राऽऽपन्नसत्त्वाऽथ साऽभवत् ॥७॥ लोकैः सोऽथाऽम्भसि क्षिप्त-स्तस्य कोऽप्यमरस्तदा । अथान्यदा पितुले ख-स्तस्याऽऽयातोऽभिवाच्य तम् । तत्राऽऽसीत्प्राग्भवाऽरातिः, स त्रिशूल मथो दधौ ।। ६५ ॥ मुश्चमभूणि पृष्टः स, कान्तयाऽऽख्यन फिश्चन ॥ ७१॥ तद्विद्धो विभहन् पीडा, केवलं प्राप्य निर्वृतः। साऽथ स्वयं तदादाय, वाचयामास तद्यथा। देवश्च महिमा चक्रे, गाऽथ प्राप तीर्थताम ॥ ४६॥" तवाऽदर्शनतोऽस्माक-मान्ध्यं जो ऽभिर्टशः ॥७२॥ प्रा० क०४०। श्रावासंथापा००(अत्र विशेषः जीवन्तौ प्रेतसे चेलो तदेयाः लेखदर्शनात् । 'अरिणयाउत्त' शब्दे प्रथमभागे ४६५ पृष्ठे गतः) तद् ज्ञात्वातमथो च सा, मा स्म प्राणेश!खिद्यथाः ॥७३॥ तया खपित्रोराख्यातं, ताभ्यां स सप्रियोऽप्यथ । पयाण-प्रतान-पुं० । प्रतननं प्रतानः । विस्तारे, तद्रूपे याथाविसृष्टोऽर्द्धपथे याते, सूते स्म सुतमन्विका ॥ ७४॥ तथ्ये. तदस्मिन् वा स्वप्ने भ० १६ श ६ उ०। दास्यतः पितरी नामे त्युकोऽसावन्धिकासुतः। प्रदान-न । प्रवितरणे, प्रदानलक्षणभिद-"यः सम्प्राप्तो यातानां तत्र कालेना-ऽदातांउतनाम तावपि ॥७५ ॥ धनोत्तो, उतमाधममध्यभः । प्रतिदान तथा तस्य, गृहीशैशवातिक्रमे सोऽथ. त्यक्तभोगोऽग्रहीदतम् । तस्याऽनुमोदनन् ॥२॥" स्था०३ ठा०३७० श्राव० उपा। वार्द्धके विहरन् गला-तटेऽस्थान सपरिच्छदः ॥ ७६ ॥ भयाण-न० । गमने, झा० १ श्रु० ३ अ० । पुष्यभद्रपुरेऽथासी-त्युष्पकेतुश्च तत्र राट् । तस्य पुष्पवती भार्या-ऽपत्ययुग्मं च युग्मजम् ॥ ७७॥ पपाणकाल-प्रदानकाल-पुं० । साधुदानावसरे,पश्चा०१३विवः। पुष्पचूलः पुष्पचूला, चात्वन्योन्यानुरागभाक् । प्रयाणकाल-पुं० । अन्तसमये, वाच । दध्यो राजा वियोगो हि, मृत्युः स्यादनयोन्ततः ॥७८॥ मिथो विवाहयाम्थेता-विति पप्रच्छ नागरान् । पयाणुफपि (ण)-प्रजानुकम्पिन्-त्रि०। प्रजायन्ते इति प्रजाः यदलोत्पद्यते रत्नं, तद्वशे कस्य जायते ? ॥ ७६ ॥ जन्तवस्तदनुकम्पी । जन्तूनां संजारे पर्यटतामनुकम्पनीले, ऊखुस्ते त्वदशे देव!, पुष्पके तुस्ततो मिथः । सूत्र०२ श्रु० ६ अ०। राश्या निविध्य मावोऽपि, परिणाययति स्तो ॥८॥ पयाणुसारि [ण् ] पदानुसारिन्-पुं। पदेन सूत्रावयवेनैकेदेवी निर्वेदतस्तस्मा-त्प्रव्रज्य त्रिदिवं ययौ। नोपलब्धेन तदनुकूलानि पदशतान्यनुसरतीति पदानुसामृवे राशि तथोरेवा- भूद्राज्यं पुष्पचूलयोः ॥ ८१॥ री । ओ०। ये गुरुमुखादक सूत्रपदमनुसृत्य शेषमपि भूयस्तमातृदेवः सुतां ज्ञात्वा-ऽधिकस्लेहां प्रिये ऽवधेः । रपदनिकुरम्बमवगाहन्ते तेषु. वृ.१ उ०१ प्रक०। मा गाबरफमेधेति, स्वप्रान्तस्तानदर्शयत् ॥१२॥ भीता साऽकथपद्राज्ञ स्तेन पापागबनोऽखिलाः। जो सुत्तपएण बहुँ, सुयमणुधावइ पयामुसारी सो [१५१७] पृष्ठा प्रभाते नरक-स्वरूपं ते न्यवेदयन् ॥८३॥ योऽध्यापकादेकेनापे सूत्रपदेनाधीतेन बहुपि सूचं स्वप्रशतेषां सर्व विसंवाद्य-थान्विकपुत्रसूरयः । याभ्यूह्य तदवस्थमेव गृह्णाति, स पदानुसारी लब्धिमान् । तत्पृष्टान्नरकानाख्यन् . सोचे स्वप्नाद्य घोऽप्यभूत् ॥४॥ (१५१७ गाथा) प्रव० २७० द्वार । पा० । औ०।नं। ग०। जिनोपदेशभाहुस्ते-- उज्यदा सा स्वर्गमैतत। • (पदानुसारिणः 'लद्धि' शब्दे दर्शयिष्यन्ते)" पयाणुतमप्यन्ये:न्यथा चख्यु-यथावते तु सूरयः ॥५॥ सारि नभंसामि" इति गाथा 'अजपाइर' शब्दे प्रथामागे सोचे प्राप्याः कथममी, न गतिर्नरके कथम् । २१८ पृष्ठे गता) साधुधर्ममथाऽऽख्यस्ते. साऽथ बुद्धाऽवदन्नुपम् ॥८६॥ पयाणुसारिणी-पदानुसारिणी-स्त्री०। बुद्धिभेदे, या पुनरेकमवतं गृहामि सोऽवादी दत्रस्था मद्गद्देऽशनम् । चि सूत्रपदमवधार्य शेषमभ्रतमपि तदवस्थमेव भूतभयगाहते चेददात्त तदाऽऽदत्स्व, प्राधाजीत्त प्रपद्य सा ॥८॥ सा पदानुसारिणी। प्रज्ञा०२१ पद । नं०। जइबाषलपरिक्षीणा-स्तत्राऽऽस्थस्तेऽथ सूरयः। कृत्वाऽवार्य गणोऽन्यत्र, विहाँ प्रेषितोऽखिलः ॥८॥ पयाम-देशी श्रानुपये, दे० ना.६ वर्ग : गाथा । पाइल्ना०। सरुजां साउनय-तेषां, भिक्षामन्त पुराततः। पयायंत-प्रजायमान-न। प्रसवं कुर्वाण, तं०। अन्यदा सा शुमध्याना-त्केवलशानमासदत् ॥८६॥ पयायसाल प्रजातसाल-त्रि० । प्रजातशाखे उत्पन्नडाले,दश० पूर्व प्रवृत्तं विनयं, केवलीन भनति यत् । ७०। तरिष्टं भकमानिन्येऽ-वर्धत्यप्यन्यदायुदे ॥१०॥ तेऽभ्य चुः कथमानिन्ये, वर्षत्यायें त्वयाऽशनम् । पधार-प्रकार-पुं० । भेदे, ज्ञा०१ श्रु०१ अाअनु। सोचेऽचित्तं जलं यत्रा-पतत्तेनाध्यनाऽगमम्॥ ६१ ॥ प्रचार-पुं० । प्रकर्षगमने, दश १ श्रा। गुरुरूवे कथं चेत्सि?, वेनिशायिकसंविदा। पयारित-प्रतारित-त्रि० । छलिते, पाइ० ना० १८७ गाथा। १२८ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१.) अभिधानराजेन्डः। पयाल पर पयाल-पलाल-पुं० । धान्यतुषे, " किं ताए पढियाए, पयाल- पयाहिय-प्रजाहित-न । प्रजाऽर्थे, "तिन्नि वि पयाहियाए उवभूयाएँ पुवकोडीए । जस्थित्तियं ण णायं, परस्स पीडा न दिसइ।" प्रजाहिताय भगवानुपदिशति स्म । कल्प०१ - कायव्वा ॥१॥" सूत्र० १ श्रु० १ अ०। धि०७ क्षण। पयाव-प्रजापति-पुं० । प्रथमवासुदेवपितरि. श्राव०१.। पर-पर-त्रि० । प्रकृष्टे, शा० १ श्रु०२०। सूत्र० । प्रकर्षप्राप्ते, स च स्वदुहितरि त्रिपृष्टपं नाम वासुदेवमजीजनत् । अतो विशे० । सूत्र० । स० आचा। भ० । पो० । प्रकर्षगत्यापबैदेउप्युक्तम्-"प्रजापतिः स्वां दुहितरमकामयत् ।" अत एव ने, प्राचा०१ श्रु०३१०४ उ० । प्रधाने, श्राचा १ शु० ३ च प्रजाया दुहितुः पतित्वात्प्रजापतिरिति नामाऽस्य पप्र. अ०३ उ० । आव० । विशे० । सूत्र०1"नाऽऽहंतः परमो थे । श्रा० म०१ अ.। आव० । प्रा.चू०। स० । " पुत्तो देवा, न मुक्तेः परमं पदम् । न श्रीश बुजयात्तीर्थ. श्रीकल्पान क्यावइस्ता, मियाईकुच्छिसंभवी भयवं । नामेण तिविट्ठ परं श्रुतम् ॥१॥" कल्प०१ अधि०१क्षण । उत्त०। श्रात्मत्ति । " ति।"दो पयावई।" स्था० २ ठा०३ उ० । ब्रह्म व्यतिरिक्त, उत्त.१ अगसूत्र०ारखा। अस्वजने, नि. चू० नामके देवे रोहिणिनक्षत्राधिपे, अनु । ती० । जं० । जग २ उ० । शत्रौ, विशे० । उस०। सूत्र० । प्रा०म० । स्या। नियन्तरि,दश०१अ । पौराणिकसमतेषु दक्षाऽऽदिषु कुन दूरे, भारतः परतश्चेति लौकिकी युक्तिः-'उरे परे।' इति । सू. करकल्पेषु पुरुषेषु, सूत्र०१ श्रु. ११०३ उ० । राजनि च। व०१थु०८ अप्राचा० ।" तेण परं ति।" ततश्चतुर्थश्रा० क० १ अ०। ब्रह्मणि, पाइ० ना०२ गाथा। कल्पात्परतः । परशब्दोऽत्र धारवाची। नि० चू०१ उ०। पयावइत्तए-प्रतापयितुम्-अव्य० । पुनः पुनरातपे दातुमित्य परनिक्षेपःथे, कल्प० १ अधि०५क्षण । नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले तदनमन्ने य । पयावण-पाचन-न । श्रोदनाऽऽदेर्विक्तृत्यापादने, प्रश्न १ | आएसकमबहुपहा-णभावो परो होइ ।। ३८२॥ नामपरः,स्थापनापरो.द्रव्यपरः,क्षेत्रपरः,कालपरः। एतेच द्रआश्रद्वार। उत्त० । श्राचा० । व्यपराऽऽदयः प्रत्येक द्विविधाः। तद्यथा-(तदनमन्ने यत्ति) प्रतापन-न० । असकृदनीषदवतापने, दश० ४ अ० । श्रा तद्ब्यान्यश्च तद्रव्यपरोऽन्यद्रव्यपरश्चेत्यर्थः । एवं तत्क्षेचा। शरीराऽऽधवयवस्य वाताऽऽद्यपनयनार्थे प्रकृष्ट तापने, त्रपरोऽन्यत्रपरश्च । तत्कालपरोऽन्यकालपरश्च । तथा श्राश्राचा०११०१०४ उ०॥ देशपरः,क्रमपरो,बहुपरः,प्रधानपरः,भावपरश्चेति दशधा मूलपवावरुद्द-प्रतापरुद्र-पुं० । स्वनामख्याते काकतीये राजनि, भेदापेक्षया परनिक्षेपो भवतीति नियुक्तिगाथासमासार्थः । ती०४६ कल्प। अथास्या एव गाथाया भाष्यकारो व्याख्या कर्तुकामो नामपयावसंधि-प्रतापसन्धि-पुं० प्रकृष्टस्ताप ऊष्मा येषु एवंविधाः स्थापने क्षुम्मत्वादनादत्य शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यपरं तावदाहसन्धयो यस्य तत्प्रतापसन्धि । सोमसन्धिषु, प्रव० ४ द्वार । परमाणुपुग्गलो खलु, तद्दव्वपरो भवे अणुस्सेव । पयास-प्रयास-पुं० । प्रयत्ने, पञ्चा विव०। अन्नदव्यपरा खलु, दुपएसियमाइणो तस्स ।। ३८३ ॥ प्रकाश-पुं० । उद्द्योते, “चंदाऽऽइञ्चगहाणं, पहा पयासेइ | द्रव्यपरी द्विधा । तद्यथा-तद्रव्यपरोऽन्यद्रव्यपरश्च । तपरिमियं खत्तं । केवलियनाणलंभो, लोयालोयं पयासेइ ॥१॥" | त्राऽणोः परमाणुपुद्गलस्यापरः, परमाणुपुद्गलः परतया चिजै० गा० । पाइ० ना। म्त्यमानस्तद्रव्यपरः, तस्येव परमाणुपुद्गलस्य द्विप्रदेशिपयासक्खेत्त-प्रकाशक्षेत्र-न० । तापक्षेत्रे, मराड० । काऽऽदयः स्कन्धाः परतया चिन्त्यमाना अन्यद्रव्यपराः। पयासण-प्रकाशन-न० । प्रकाशकरणे,उद्योतकरणे, प्राचा एमेव य खंधाऽणु वि,तद्दव्यपरा उ तुल्लसंधाया। १०१ अ०४ उ०। जे तु अतुल्लपएसा, अणुया सबऽनदव्वपरा ॥३८४॥ पयासाला-प्रपाशाला-स्त्रीपानदानशालायाम्, “पयासालाइ एवमेव द्यणुकप्रभृतीनां स्कन्धानामपि ये तुल्यसंघाताः वा विडिमसालाइ वा।" प्राचा० १ १०१ चू०४ अ० २उ०। परम्परं समानप्रदेशसंख्याकाः स्कन्धास्ते तद्रव्यपराः,ये पुपयाहिण-प्रदक्षिण-पुं० परितो भ्राम्यतो दक्षिणे, भ०१ श० नरतुल्यप्रदेशादिसदृशप्रदेश संख्याकाःस्कन्धाः श्रणवश्च ए काणुकाः ते सर्वेऽप्येकद्रव्यपराभवन्ति । तद्यथा-वणुकस्क१ उ० । आ० म०। उत्त० । न्धो द्वयणुकस्कन्धस्य तद्व्यपरस्य.यणकाऽऽदयस्तु स्कपयाहिणा-प्रदक्षिणा-स्त्री०। प्रकर्षेण सर्वासु दिक्ष विदिक्षु च न्धाः परमाणवश्च त्रसाश्च तद्रव्यपराः। एवं व्यणुकाऽऽदयोऽपरिभ्रमतां दक्षिणमात्मनो दक्षिणाङ्गभागवर्तिसूलविम्बज्ञा प्यनन्ताणुकपर्यन्ताः स्कन्धाः परस्परं तुल्यप्रदेशसंख्याकास्तनाऽऽदिवयाऽऽनुकूल्यकृते यत्र प्रति रत्तिः तस्याम् , संघा. द्रव्यपराः,विसदृशप्रदेशसंख्याकास्तु अन्यद्रव्यपरा मन्त१अधि०१ अस्ता०। व्याः, यावत्सर्वोत्कृष्टाणुको महास्कन्धः । पयाहिसावट्ट-प्रदक्षिणाऽऽवत-पुं। यस्य हि प्रदक्षिणा श्रा अथ क्षेत्रकालपरौ प्रतिपादयति-- वर्ताः तस्मिन् , “पयाहिणावमुद्धसिरयं । " प्रदक्षिणाऽऽवश्चि प्रतीता मूर्धनि मस्तके शिरोजा वाला यस्य सः । एगपएसोगाढा, खेत्ते एमेव जा असंखेज्जा । औ०भ०। व्य एगसमयाइटिइणो, कालम्मि वि जा असंग्वेजा ॥३८शा Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर अन्निधानराजेन्धः। परंतंतकर क्षेत्रे क्षेत्रविषयेऽपि परद्वारे चिन्त्यमाने एवमेव तत्क्षेत्रपरा. इह पूर्वार्द्धपश्चार्द्धपदानां यथाक्रम योजना कार्या। तद्यथाम्यक्षेत्रपरभेदेन एकप्रदेशावगाढाऽऽदयोऽसंख्येयप्रदेशावगाद जीवाः सांसारिकमुक्तभेदभिन्नाः, ते सर्वस्तीकाः, जीवेभ्यः यावद् द्रष्टघ्यागतद्यथा-एकप्रदेशावगाढः परमाणुः स्कन्धोवा पुद्गला अनन्तगुणाः, पुद्गलेभ्यः समया अनन्तगुणाः, समयेएकप्रदेशावगाढः स्यात् तत्क्षेत्रपरः। द्वित्रिप्रदेशावगाढादयः भ्यो द्रव्याणि विशेषाधिकानि, द्रव्येभ्यः प्रदेशा अनन्तगुणाः पुनः स्थान्यक्षेत्रपराः। तथाहि-प्रवेशावगाढस्य स्कन्धस्य सत् प्रदेशेभ्यः पर्याया अनन्तगुणाः । उक्तं च व्याख्याप्राप्तीएपसि क्षेत्रपरस्तस्या एका व्यादिप्रवेशावगाढास्तु तस्यान्यक्षेत्रपरः।। णं भंते ! जीवाणं पोग्गलाणं श्रद्धासमयाणं सव्वदम्बाणं एवं विस्तरेण सर्वावगाहना द्रष्टव्या। कालेऽप्येकसमयाss सव्वपएसाणं सव्वपज्जवाण य कयरे कयरेहिती अप्पा वा दिस्थितयः पुद्गला यावदसंख्येयसमयस्थितयस्तावत् काल- बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? । गायमा! सब्वत्थोवा परान्यकालपरभेदावक्तव्याः तत्रकसमयस्थितिकानां पुद्गला- पोग्गला अणंतगुणा श्रद्धासमया अणंतगुणा सवदत्रा वि. नाम् एकसमयस्थितिकास्तकालपराः, द्वित्र्यादिसमयस्थि- सेसाहिया सव्वपएसा असंतगुणा सबपत्नया अणंतगुणा।" तिकाः पुनरल्यकालपराः। एवं यावदसंख्येयोत्सपिण्यवस- अत्रामोषामित्थमल्पबहुत्वे हेतुभावना भगवतीटीकायां वृद्धैपिणीगतानां संख्येयसमयस्थितिकानांपुद्गलानांतावत्संख्या- रुपदर्शितास्ते, अतस्तदर्थिना सैवाघलोकनीया । कसमयस्थितिका एब तत्कालपराः, शेषास्तु एकसमयस्थि अथ प्रधानपरमाहतिकाऽऽदयः सर्वेऽप्यन्यकालपरा अवसातव्याः। दब्बे सचित्तमादी, सचित्तदुपएसु होइ तित्ययरो । अथाऽऽदेशपरं व्याचष्टे सीहो चउप्पएसुं, अपयपहाणा बहुविहा उ॥ ३८६ ॥ भोप्रणपेसणमादी-सु एगखेत्तट्ठियं तु जं पच्छा। प्रधान एवं परः प्रधानपरः, स च द्रव्यतो भावतश्च । तत्र आदिसइ भुज कुणमु य, आएसपरो हबइ एसो ॥३८६॥ द्रव्ये द्रव्यतनिधा-सचित्ताऽऽदिः। श्रादिशब्दान्मिश्रो चित्तभोजनं प्रतीतं. प्रेषणं व्यापारपं, तदादिषु कारणेषु यं कश्च- श्च। तत्र सचित्तप्रधानस्त्रिधा-द्विपदचतुष्पदापदभेदात् । तत्र न पुरुषमेकस्मिम् क्षेत्र स्थितमपि पश्चात्पर्यन्ते आदिशति, द्विपदेषु तीर्थकरः प्रधानो भवति, चतुष्पदेषु सिंहः, अपदेषु यथा-त्वं भोजन विधेहि, कुरु वा कृष्यादि कर्म, एष श्रादेश- बहुविधाः सुदर्शनाभिधानजम्बूवृक्षप्रभृतयः, पनसाऽऽदयोपरो भवति, आदेश प्राशपनं, तदाथिस्य परः पाश्चात्य श्रादे. उप्रधानाः। प्रधानपरोऽनेकधा। तद्यथा-धातुपु सुवर्ण,बखेषु शपर इति व्युत्पत्तेः। चीनांशुकं, गन्धद्रव्येषु गोशीर्षचन्दनमित्यादि । मिश्रप्रधाअथ क्रमपरमाह नपराणि तु सुवर्णकटकाऽऽद्यलंकृतविग्रहाणि तीर्थकरादब्बाइकमो चउहा, दब्वे परमाणुमाइ जाऽणतं । दि द्रव्याएयेव द्रष्टव्यानि । एगुत्तरबुड्डीए, बड्डीयाणं परं होई ॥ ३८७ ॥ भावप्रधानपरमाहक्रमः परिपाटिरित्येकोऽर्थः । तमाश्रित्य परः क्रमपरः, स वारसगंधफासे-सु उत्तमा जे उ भूदगवणेसु । तु चतुर्थ्या द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् । तत्न द्रव्यतः परमा. मणिखीरोदगमादी, पुष्फफलादी य रुक्खेसु ॥ ३६॥ गुमादौ कृत्वा अनन्तप्रादेशिकस्कन्धं यावदकोत्तरप्रदेश ( वरपरसगंथफासेसु त्ति ) तृतीयाऽर्थे सप्तमी । वर्णेन या वर्द्धितानां पुद्गलद्रव्याणां यो यदपेक्षया परः तस्माद रसेन गन्धेन स्पर्शेन वा ये भूदकवनेषु पृथिवीकायाप्काव्यपरात् क्रमपरो भवति । तद्यथा-परमाणुपुद्गलात् द्विप्र यवनस्पतिकायेपूत्तमास्ते भावप्रधानपराः। तानव पश्चाद्धेदेशैकस्कन्धो, द्विप्रदेशिकस्कन्धात् विप्रदेशिकस्कन्धः, एवं नोदाहरति-( मणिखीरोदग इत्यादि ) पृथिवीकायेषु पद्मयावदसंख्येयप्रदेशिकस्कन्धो द्रव्यक्रमपरः, क्षेत्रक्रमपरोऽप्ये रागवजवैडूर्याऽऽदिमणयः प्रधानाः, अकायपु क्षीरोदका. वमेव, नवरमेकप्रदेशाऽवगाढात् द्विप्रदेशावगाढः द्विप्रदेशा ऽऽदिपानीयानि, वृक्षेषु पुष्पफलाऽऽदीनि । गतःप्रधानपरः । वगाढात्, विप्रदेशावगाढः । एवं यावत् संख्येयप्रदेशाव वृ०१३०३ प्रक०। प्राचा०। गाढादसंख्ययप्रदेशावगाढः क्षेत्रक्रमपरः । करलक्रमपरस्त्वे- भ्रम-धा० । भ्रमणे, "भ्रमेः टिरिटिल्ल-दुगदुल्ल-ढण्ढल्ल च. वम्-एकसमयस्थितिकात् द्विसमयस्थितिको, द्विसमयस्थि- कम्म-भम्मड-भमङ-भमाड-तलथएट-भराट-भम्प-भुम-- तिकात् त्रिसमयस्थितिकः, एवं यावत् संख्येयसमयस्थिति- | गुम-फुभ फुस-दुम-दुस--परी-पराः" ।।८।४।१६१ ॥ इति कादसंख्ययसमयस्थितिकः कालक्रमपरः । भावक्रमपरः पु. सूत्रेण भ्रमधातोः 'पर' आदेशः। 'परइ ।' भ्रमति। प्रा०४ पाद। नरेवम्-एकगुणकालाद् द्विगुणकालको. द्विगणकालकाद् परड-देशी-धा । भ्रमतीत्यर्थे, दे० ना. ६ वर्ग ४ गाथा। त्रिगुणकालका, एवं यावत्संख्येयगुणकालादनन्तगुणकाल | परात्थिय-परयुथिक-पुं० । शाक्यपरिवाजकाऽऽदौ, र १ को भावक्रमपरः। एवं काललोहितहारिद्रशुक्लरूपेषु शेषेष्वपि उ०२ प्रक० । चतुर्पु वर्णेषु.सुरभिदुरभिलक्षणे च गन्धद्वये तिककटुकषायाम्समधुराऽऽत्मकेरसपञ्चके, गुरुलघुमृदुकठिनस्निग्धरूक्षशी परोवेइ (ण)-परतोवेदिन-पुं। गणधराऽऽदिके स्वतोतोष्णलक्षणे च स्पर्शाटके यथाक्रम भावपरता भावनीया । वेदितार्थकदुपदेशेन शातरि, सूत्र०१ श्रु. १२ श्रा अथ बहुपरं भावयति परंतकर-परान्तकर-पुं०। परस्य भवान्तं करोति मार्गप्रवर्त. जीवा १ पोग्गल २ समया ३, नेन परान्तकरः । माचके, स्था० ४ ठा. २२० । दव्य ४ पएसा य ५ पञ्जवा चेव ६। परंतंतकर-परतन्त्रकर-पुं० । परतन्त्रः सन्कार्याणि करोतीति थोवाऽणंता १-२ गता ३, परतन्त्रकरः । भिक्षी, स हि श्राचार्याऽऽदितन्त्र पथ कार्याविसेसमाहिया ४ दुवेऽणंता ५-६ ॥३८॥ णि करोति । स्था०४ ठा०२उ० । Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१२) परंतम अभिधानराजेन्दः। परंपरय परंतम-परतम-पुं। परं शिष्याऽऽदिकं तमयतीति परतमः। पाहुडिपाहि कया, तेसिं सवसि नामाई पत्तर लिहिऊण घ डए छुढाणि । ततो वरिसे वरिसे जस्स मामं बालपण प्राकृतत्वादनुस्वारः । परस्मिन् तमोऽशानं क्रोधो वा यस्य सः । परग्लायके पुरुषजाते, स्था०४ ठा०२ उ०।। अयाणमाणेण कडिजमाणं निग्गच्छा तेण चित्तेयव्यो । ए वं कालो वश्च । अन्नया कयाइ कोसंबिओ चित्तकरदा. परंदन-परन्दम पुं० परं दमयति शभवन्तं करोति शिवपति रको घरातो पलाइउं तत्थाऽऽगतो सिक्खगो, सो भमंतो वा परन्दमः। शिष्यस्याऽभावा दमके, स्था०४ ठा. २ सागेयस्स चित्तगरस्स घरं अल्लीणो, सो वि एगपुत्तगो उपरानन्यान् दमयन्ति न्यत्कृत्याभिमतकृत्येषु प्रवर्तयन्ती- थेरीपुत्तगो, सो से मित्तो जातो। एवं तस्स तत्थ अत्थंति परन्दमाः। उत० पाइ०७०। परपीडाकारके, आत्मा तस्स कालो वञ्चइ।बह तम्मि वरिसे तस्स थेरीपुत्तस्स वारर्थपरजीशेपघातके, उत्त०७०। श्रो जातो, पर-छा सा थेरी बहुप्पगारं करुणं रुयइ तं रुयमापरंपर-परम्पर-त्रि०। परे च परे चेति वीप्सायाम्-"पृषोदरा- णि थेरि दटूण कोसंबको जातकरुणा भणइ-कि अम्मो! ऽऽदयः" ।।४।६३ ॥ (हेम०) इति परम्परशब्दनिष्पतिः। रुयसि । ताहे कहियं-जहा पुत्तस्स चारा जातो । सो परेषु परेषु, नं। भणइ-मा रुयह, अहं एयं जक्खं चित्तिस्सामि ताहे सा परंपरखेतोवगाह-परम्परक्षेत्रागाह-पुं० । प्रात्मक्षेत्रान्तरक्षे- भणइ-तुमं मे पुत्तो किं न होहिसि? तेण भणिय-सच्चं त्राद् यत्परं क्षेत्र तत्रावगाढे नैरथिकाऽऽदी वैमानिकपर्यन्ते, तव पुचोऽई, तहा वि अहं चित्तेमि, अत्थह तुम्भे असो. भ०६ श० १० उ.। गाओ । ततो तेण छ?भत्तं काऊण अहतं वत्थजुयलं प. रिहित्ता अट्टगुणाए पोत्तीए मुहं बंधिऊण चोक्रोण पयपरंपरखेदोववनग-परम्परखेदोपपन्नक-पुं० द्वित्रादिसमयता सेण सुधभूषण नवएहिं कलसेहिं राहावित्ता नवगेहिं कु. खेदेनोपपत्र उत्पादो थेवा ते परम्परखेदोपपन्नकाः । खेदप्रधा. चोहि नवगेहि मल्लसंपुडेहिं अलस्सहिं वन्नेहिं चित्तिऊनोत्पतिद्वितीयाऽऽदिसमयवर्तिषु नरथिकाऽऽरिपु, भ० १४ ण पायवडियो भाइ-खमह मए जमवरद्धं । ततो तुदो श०१उ०। जक्खो भण-घरैहि वरं । सो भणइ-एयं चेव मम परंपरगय-परम्परगत-पुं० । परम्परया ज्ञानदर्शनचारिश्ररू- वरं देहि मा लोग मारेह । जक्खो भण-एवं ताव पया मिथ्याष्टिमास्वादनसम्यमिथ्याश्यावरतसम्य- ठियमेव जं तुम न मारिश्रो, एवमन्ने घिन मारेमि। अनं ग्दृष्टिविरताविरतप्रमत्तनिवृत्तिषादरसूचोपशान्तक्षीणमोह- मण । सो भणइ-जस्स एगदेसमवि पासामि दुपयस्स सयोग्ययोगिगुणस्थानभेदभिन्नया गता मोक्ष प्राप्ताः । ल। वा, चउप्पर स्ल वा, अपयरस वा, तस्स तयणुरुवं रूपं पुण्यधीजसम्यक्त्वज्ञानचरणक्रमा.तिपरयुपाययुक्तत्वेन सि. निव्वत्तमि । एवं होउ त्ति दिलो परो । ततो सो लद्धवरो खेषु, रा . म०। मिथ्यादृस्यादिगुणस्थानकानां मतुः | रसा सकारिता समाणी गतो कोसंवि नगरि। तत्थ सया. पाऽदि सुगतीनां च पारभ्यर्पण भवाम्भोधिपारं प्राते, भ० गीतो नाम राया, सो अनया कथाइ सुहासणगतो दूर्य २२.१ उ०। पुर छह-किं मम नत्थि, जं अन्नराईणं अस्थि । तेण भणियं. परंपरपजत-परम्परापर्याप्त-पुं० । धादिसमयपर्यातके, स्था० चित्तसभा नत्थि, "मणसा देवाणं वायाए पत्थियाणं ति" त क्खणमेत्तमेव आणता चित्तगरा, तेहिं सभात्रावासा विभ. १० ठा। इत्ता पचित्तिया । तस्स वरदिनगस्स जो रन्नो अंत उरे किपरंपरप-परम्परक-न० । पारम्पर्ये, प्रा० मा १ अ परम्प अपदसो सो दिनो। तेण तत्थ तयाणुरुवेसु निम्मिरसु रको विधा-द्रव्यतो भावतश्च । द्रव्यपरम्परक इष्टकानां पु. कयाइ भिगावईए जालफडगंतरण पायं पुतो दिटो, उव. रुषपारम्पर्येणाऽऽनयनम् । (श्राव०) भावपरम्परका त्वियमे- माणेण नायं, जहा-एसा भियावई । तेग पायंगुटुगाणुसाव उपोवातनियुक्तिरेव । (श्राव०) ननु द्रव्यस्य इष्टकालक्ष- रेण देवीए रूवं निब्वात्तयं, तीसे चक्खुम्मि उम्मिल्लिजंत ए. णस्य युक्त पारम्पर्येण श्रागमनं, भावस्य तु श्रुतपर्यायत्वात् गो मासिविन्दु ऊरू अंबरे पडितो,तेण फुसिओ पुणो वि जातो, वस्त्वन्तरसंक्रमणाभावात् पारम्पर्येणाऽगमनाउनुपपत्तिरि एवं तिन्नि वारा पच्छा तेण नार्य-एपण एवं होयब्वमेव । ति।नव तबीजभूतस्य अर्दद्गणधरशयस्यागमनमस्ति.त. तत्ती चित्तसभा निम्मिया । ततो राया चित्तसरुवं पलोस्य श्रुत्यनन्तरभेवोपरमादिति । अत्रोव्यते-उपवाराददोषः यंतो तं पएसं पत्तो जत्थ सा देवी, तेण सो वि. यथा कार्यापणाद् घृतमागतं, घटाऽऽदिभ्यो वा रूपादिवि दू बिटुं। तं दठूण रुट्ठो. एएण मम पत्ती धरिसिकानभिति । (८७ गाथा) श्राव०१०। या इति काऊण । ततो बज्झो आणत्तो। चित्तगररीणी उ. तत्र द्रव्यपरम्परक इदमुदाहरणम् ट्रिया-सामि! एस वरलद्धो ति ततो से खुलाए मुहं "सायं नाम नगरं, तस्स उतरपुरच्छिने विसीभागे सुर- दाइयं, तेण तयाणुरूवं निव्वत्तियं, तहावि तेण संडासमो प्पिो नाभगो जमखो तस्साययण। सो य सुरप्पियो जक्खो छिदाधितो निय्विसश्रो प्राण तो । सो पुणो जक्वस्त सनिहियपाडिहरो, सो वरिसे वरिसे चित्ति नह, महो य से उपवासेण ठितो, भणितो य-वामेण विनिहिसि सयापरमो किनर, सो य वितितो समारणोतं चेव वित्तगरं णीयस्स पदोसं गतो। तेण चितिर्य-पजोतो पयस्ल अधीई मारेड, अह न वित्तिजद तो पभूयजणमारिं करेह ततो ठवेजा। ततोऽणेण मिगावतीए चित्तफलए स्वं चित्तेऊण चित्तगरा सव्वे पलाइउमारद्धा । पच्छा रगणा नायं-जह पजीयस्स उयट्ठियं, तेण दिह, पुच्छितो य तेण कहियं सविसब्वे पलाइस्संति तो एस जश्खो अचित्तिजंतो अम्ह सेस, ततो पजोपण सयाणीयस्त दूतो पेसियो, मिगावई घहार भविस्सह । ततो तेय वित्तकरा सव्ये संकलियबदा | दो सिग्घं पट्टवेह, जहन पटुवेसि ततो सब्यसामग्गीय Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१३) परंपरय अभिधानराजेन्द्रः । परंपरसिद्ध पहामि । गतो दूतो, तेण असकारितो निद्धमणेण निच्छू मं मारिया सा एक भवं तिरिएसु, पच्छा एकम्मि बंभणकुले दो। तेण कहियं पजोतस्स । पजोतो वि य दूयवयणेण श्रा चेडो आयातो। सो य पंचवरिसो जातो । सो य सुवामगारसुरुत्तो सव्वबलेण कोसंवि एइ । तं पागच्छंतं सोउं सया- जीवो तिरिक्खेसु उव्वहिऊण तम्मि कुले दारिया जाया। सो खीनो अप्पबलो चित्ते खुहितो अतिसारेण पंचत्तमुवग चेडो तीसे वालग्गहो। सा य निश्चमेव रोया। तेण उदरतो । ताहे मिगावतीए चिंतियं-मा इमो बालो मम पुत्तो पोप्पयं करेंतेण किह वि जोणिहारे हत्थेण पाहया तहा विपिस्सिहिति । एस खरेण न सक्कए, पच्छा दूतो पट्ठवि चेव ठिया रोइउं । तेण नायं-लद्धो मए उवाउ त्ति । एवं तो, भणितो य-एस कुमारो बालो अम्हेहिं गएहिं मा सो निच्चकालं करेइ । सो तेहिं मायापिईहिं नातो। ताहे सीमंतराइणा केणइ अनेण पिल्लिन्जिहिह । सो भणइ-को हणिऊण धाडियो। सा वि अपडप्पन्ना चेव कामा उरेण ममं धरमाणे पेल्लिहिह । सा भणइ प्रोसीसए सप्पो जो. विणट्ठा ।सो चेडो पलायमाणो चिरनगरविणट्ठदुस्तीलायारो यणसए विज्जो किं कीरहिह त्ति नगरि दढं करेह । सो जातो। गतो एग चोरपलि, जत्थ ताणि एगृणाणि पंच चोरभणइ-आम करेमि । साभणह-उज्जेणीए इट्ठागाओ वलिया सयाणि परिवसंति । सा वि विणटुसीला पइरिकं हिं. ओ ताहिं कीरतु । आम ति । तस्त य चउद्दस राइतो व डंती पगं गाम गया। सो गामो तहिं चोरेहिं पेल्लियो। सा सवत्तिणो। तेण ते सबला ठाविया । पुरिसपरंपरएण तेहिं अमहिं गहिया । सा तोहिं पंचहिं वि चोरसपाहि परिभुत्ता। इटुगा आणीया, नो कयं नगरं ददं । ताहे ताए भमइ-च्या तेसिं चिंता जाया-अहो! इमा वरागी पत्तियाण सुक्खदण गि धनस्त भरेहिं नगरिं । ततो तेण भरिया । जाहे न नगरी सहइ, जइ अन्ना से विइजिया लभेजा तो से विस्सामो रोहगमसज्झा जाया ताहे सा विसंवइया । चिंतियं च होजा। ततो तेहिं अन्नया कयाइ तीसे विइज्जिया आणीया, णाए-धना णं ते गामागरनगरपट्टणमडंबसन्निवेसा जत्थ जं चेव दिवसं पाणिया तद्दिवसं तीसे छिद्दाणि सा मग्गह, सामी विहर । पव्वजामि जइ सामी एज्ज । ततो भगवं केण उवाएण मारेज्जा । ते य अन्नया धाडि घेत्तुं पहाविया। समोसढो। तत्थ सव्ववेरा पसमंति। मिगावती निग्गया। ध. ताए सा भणिया-पेच्छ कूवे किंपि दीसह । सा दठुमारद्धा। म्मे कहिजमाणे एगो पुरिसो एस सव्वन्नु ति काउंप ताए तत्थेव छूढा ते आगया पुच्छति । ताए भलाइ-अप्पणो च्छन्नं मणसा पुच्छह । ततो सामिणा भणितो-वायाए पु महिलं कीस न सारवेह । तहिं नायं जहा एयाए मारिया, च्छ देवाणुप्पिया! बरं बहवे सच संबुज्झति त्ति एवमवि ततो तस्स बंभणचेडगस्स हियए ठियं-जहा एसा मम भणिए तेण भणियं-भयवं! जा सा सा सा?। तत्थ भगवया पावकम्मा भागणि त्ति । सुव्वइ य जहा भयवं महावीरी आमं ति भणितो । ततो गोतमसामिणा भणियं-भगवं! सम्वन्नू सव्वदारसी य । ततो पस समोसरणे पुच्छह । किं एपण जा सा सा स त्ति भरिणयं? । तत्थ तीसे उट्टा ततो सामी भणइ-सा चेव सा तव भगिणी । एवं कहिएरणपरियावणियं सव्यं भगवं परिकहेइ-तेणं कालेणं तेणं सो संवेगमावन्नो पब्वइओ। एवं सोऊण सव्वा सा परिसा समएणं चंपा नाम नगरी होत्था । तत्थ एगो सुवरसगारो पयणुरागा जाया । ततो मिगाई जेणव समणे भगवं महाइत्थीलोलो, सो पंच पंच सुवरणसयाणि दाऊण जा पहाणा वीरे तेणेव उवागच्छइ.उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं कन्ना तं परिणे । एवं तेण पंचसया पिंडिया। एकेकाए ति वंदइनमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी-जं नवरं पजोलगचोद्दसर्ग अलंकारं करेइ, जदिवसं जाए समं भोगे भुंजइ यं श्रापुच्छामि, तो तुझ सगासे पव्वयामि सि भणिऊण तद्दिवसं देह अलंकारं, सेसकालं न देइ । सोइस्सालुगो तं पज्जोयं श्रापुच्छह । ततो पजोतो तीसे महइमहालियाए स. घरंन कयाइ मुयइ, न वा अन्नस्स अलियावं देइ । सो अन्न. देवमणुयासुराए परिसाए लज्जाए ण तरह वारेउं ताहे वि. या मित्तस्त पगते मित्तण वाहिश्रो अणिच्छतो वि बला सजेह । ततो मिगाई पजोयस्स उदयणं कुमारं निक्खेवजेमेउं नीतो । सो तहिं गउ त्ति नाऊण ताहिं चिंतियं-किं । गनिक्खित्तं काऊणं पव्वइया । पज्जोयस्स वि अट्ट अंगारवईअम्हं एएणं सुवासपणं ति? | श्रज पइरिकं राहामो, स. पमुहाओ देवीश्रो पब्बाइयाओ। ताणि वि पंच चारसयाणि मालभामो, प्राविधामो। रहायाश्रो पइरिकमजियब्वयवि तेणं गंतूणं संबोहियाणि । एयं पसंगण भणियं । एत्थ इट्टगा. हीए तिलगचोइसगेण अलंकारेण अलंकरेऊण अद्दागं ग परंपरगणाहिगारो। एस दव्वपरंपरगी। (८७ गाथा श्राव.) हाय पेहमाणीश्रो चिटुंति । सो य ततो अागतो तं दळूण | श्रा० मा १० प्रा० चू०। मासुरुत्तो तेण एका महिला ताव पिट्टिया जाव मय त्ति । ततो अन्नाश्रो भणंति-एवं अम्हे वि एक्केका निहंतव्वा, परंपरसमाण-परम्परसमान-न०। दृष्टिवादस्य सूत्रभेदे, स. तम्हा एवं एत्थेव अहागपुंजं करेमो। तत्थ एगणेहि पंचहिं १२ अङ्ग। महिलासपहिं पंच एगूणाई अद्दागसयाई जमगसमगं प- परंपरसमुदाणकिरिया-परम्परसमुदानक्रिया-स्त्री० । क्रियाक्खित्ताई। तत्थ सो अदागपुंजो जातो । पच्छा पुणो वि भेदे, स्था० । (अर्थस्तु 'समुदाणकिरिया ' शब्दे वक्ष्यते) तासिं पच्छातायो जातो-का गई श्रम्हं पइमारिगाणं भविस्तह?, लोए य उद्धंसणाश्रो सहियब्वाश्रो । ताहे ताहिं परंपरासिद्ध-परम्परसिद्ध-पुं० । परम्परे च ते सिद्धाश्च परघणकवाडाई निरंतरं निच्छिद्दाइं दाराई ठवेऊण अग्गी म्परसिद्धाः सिद्धत्वसमयाद् द्वयाऽऽदिसमयवर्तिषु, प्रशा० । दिनो सब्वश्रो समंती तेण पच्छाणुतावेण साणुकोस । अथ का सा परम्पसिद्धाऽसंसारसमापनजीवप्रज्ञापना ?, याए य ताए अकामनिजराप मरणूसेसु उवचमा पंच वि. सूरिराऽऽहसया चोरा जाया, एगम्मि पब्बए परिवसंति । सो वि सुवमगारो कालमुवगतो तिरिक्खेसु उबबन्नो । तत्थ जा सा पढ- सेकिंतं परंपरसिद्धप्रसंसारसमावसजीवपमवणा ?: परं १२६ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परंपरसिद्ध (५१४) अनिधानगजेन्द्रः। परकिरिया परसिद्ध असंसारसमावस्मजीवपरमवणा अणेगविहा पप्पता। परकायप्पवेस-परकायसवेश-पुं० । तथाविधसंयमाजीवतो तं जहा - अपढमसमयसिद्धा, दुसमयसिद्धा, तिसमयसिद्धा, मृतस्य वा शरीरे प्रवेशे. द्वा०। चउसमयसिद्धा जाव संखेजसमयसिद्धा, असंखेजसमय- वन्धकारणशैथिल्यात, प्रचारस्य च वेदनात् । सिद्धा, अपंतसमयसिद्धा । सेत्तं परंपरसिद्ध प्रसंसारसमाव- चित्तस्य स्यात्परपुर-प्रवेशो योगसेविनः ॥ १२ ॥ माजीवपणवणा। (बन्धेति) व्यापकत्वादात्मचित्तयोर्नियतकर्मवशादेव शरीरापरम्परसिद्धासंप्लारप्लमापन्नजीवप्रशापना अनेकविधा प्रश- न्तर्गतयोोग्यभोकभावेन यत्संवेदनमुपजायते स शरीरबता, परम्परसिद्धानामनेकविधत्वात्। तदेवाऽऽनेकविधत्वमा ग्ध इत्युच्यते। ततो वन्धस्य शरीरबन्धस्य यत्कारणं धर्माह-(तं जहेत्यादि) तद्यथेत्यनेकविधत्वोपदर्शने, अप्रथमसम धर्माऽऽख्यं कर्म,तस्य शथिल्यात् तानवात्। प्रबारस्य च चियसिद्धा हात-न प्रथमसमयसिद्धा अप्रथमलमयासेद्धाः, त्तस्य हृदयप्रदेशादिन्द्रियद्वारेण विषयाऽऽभिमुख्येन प्रसरस्य च परम्परसिद्धविशेषणप्रथमसमयवर्तिनः सिद्धत्यसमयाद् द्वि चेदनात् शानात् "इयं चित्तवहा नाडी,अनया वित्तं वहति इयं तीयसमयवर्तिन इत्यर्थः । यादिषु तु समयेषु द्वितीयसमय रसप्राणाऽदिवहाभ्यो विलक्षणा।" इति स्वपरशरीरसंचारपसिद्धाऽऽदय उच्यन्ते । यद्वा-सामान्यतः प्रथमसमयसिद्धा इ. रिच्छेदादित्यर्थः। योगसेविनो योगाभराधकस्य चित्तस्य परन्युक्तम्, तत एतद्विशेषतो व्यावष्टे-द्विसमयलिद्धात्रिसमय पुरे मृते जीवति वा परकीयशरीरे प्रवेशःस्यात्।वित्तं च परसिद्धाश्चतुःसमयासिद्धा इत्यादि, यावच्छन्दकरणात् पञ्चस शरीरं प्रविशदिन्द्रियाएपनुवर्तन्ते.मधुकरराजमिव मक्षिकाः। मयसिद्धाऽऽदयः परिगृह्यन्ते । प्रशा० १ पद । ततः परशरीरं प्रविष्टो योगी ईश्वरवत्तेन व्यवहरति,यतो व्यापरंपरसिद्धणाणे दुविहे पण ते । तं जहा-एकपरंपरा लेद्ध पकयोश्चित्तपुरुषयोगिसंकोवकारणं कर्माभूत्, तञ्चत्तमा धिना क्षितं तदा स्वातन्त्र्यात् सर्वत्रैव भोगनिष्पत्तिरिते तनाणे चेव, अणेकपरंपरसिद्धणाणे चेव । स्था० २ ठा० दुलम्-" बन्धकारणशैथिल्यात् प्रचारसंवेदनाच्छ चित्तस्य १०। परशरीराऽऽवेश इति ।" (३-३८) ॥१२॥ द्वा० २६ द्वा० । परंपरा-परम्परा-स्त्री० । प्रवाहे, शा० १ शु०१०। निरन्तर- परकिरिया-परक्रिया-स्त्री० । परेषां सम्बन्धिन्यां क्रियायाम् , तायाम् , भ०६ श. १ उ०। परैः क्रियमाणायां सेवायाम्, आचा। परंपरागम-परम्पराऽऽगम-पुं० । गणधरशिष्याणामागमे प्रा तत्र परशब्दस्य पविधं निक्षेपं दर्शयितुं त्माऽगमो हि तीर्थकृताम्, अनन्तराऽऽगमो गणघराणाम् , नियुक्तिकारी गाथाऽर्द्धमाहपरम्पराऽऽगमस्तच्छिध्याणाम् । सूत्र०१ श्रु० १ ० १ उ०। छक्कं परइक्किकं, त-दन-माएसकमवहु पहाणे ॥(३३५)। परंपराघाय-परम्पराघात-पुं० । परम्परा निरन्तरता, तत्प्रधानो घातस्ताडनं परम्पराबातः । उपर्युपरि घाते, भ. ६ श० पटं 'पर' इति परशब्दविषये नामाऽऽदिः पविधो निक्षेपः, १उ०॥ तत्र नामस्थापने क्षुगणे,द्रव्याऽऽदिपरमेकैकं षड्विधं भवतीति परंपराहारग-परन्पराऽऽहारक-पुं० । ये पूर्वव्यवहितान् सतः दर्शयति । तद्यथा-तत्परम् १, अन्यपरम् २, आदेशपरं ३, क्रमपरं बहुपरं ५, प्रधानपरमिति । तत्र द्रव्यपरं तावपुद्गलान् स्वक्षेत्रमागतानाहारयन्ति तेषु नैरायकाऽऽदिवै त्तपतयैव वर्त्तमानं-परमन्यत्तत्वरं यथा परमाणोः परः परः मानिकपर्यन्तेषु स्था०१० ठा। माणुः १, अत्यपरं त्वन्यरूपतया परमन्यद् . यथा एकाऽणुकापरंपरोगाढ-परम्परावगाह-पुं० । द्वितीयाऽऽदिसमयावगाडे दू छाणुकन्यणुकाऽऽदि, एवं ह्यणुकादेकाऽणुकत्र्यणुकाऽऽदि नैरपिकाऽऽदी वैमानिकपर्यन्ते, स्था० १० ठा। २, श्रादेशपरम् 'पादिश्यते-श्राशाप्यत इत्यादेशः-यः कपरंपरोवणिहा-परम्परोपनिधा-स्त्री० । परम्परया उपनिधा स्थाञ्चिक्रियायां नियोज्यते कर्मकराऽऽदिः स चासौ परश्चामार्गणं परम्परोपनिधा । परम्परयाऽल्पबहुत्वाऽऽदिमागणे, ऽऽदेशपर इति ३। क्रमपरंतु द्रव्याऽऽदि चतुर्दा तत्र द्रव्यतः क० प्र० १ प्रक० । पं० सं। क्रमपरमेकप्रदेशि कद्रव्याद् द्विप्रदेशिकद्रव्यम्, एवं घणुफात् परंपरोववरणग-परम्परोपपन्नक-पुं० । परम्परया उपपत्रकाः घ्यणुकमित्यादि । क्षेत्रत एकप्रदेशावगाढाद् द्विप्रदेशावगाढपरम्परोपपक्षकाः । “णेरइया दुविहा पहा ता। तं जहा-श्रणं. मित्यादि । कालत एकसमयस्थितिकाद् द्विसमयस्थितिकतरोववमगाव, परंपरोपवलमा चेव० जाय वेमाणिया।" मित्यादि । भावतः सपरमेकगुणकृष्णाद् द्विगुणकृष्णमि त्यादि । बहुपरं बहुत्वेन परं बहुपरं यद्यस्माद्वहु तद्वहुपरम्। स्था० २ ठा०२ उ० । उत्पत्तिसमयापेक्षया द्वयादिसमथेषु वनेमानेषु, भ०१३ श.१ उ.। तद्यथा- जीवा पुग्गल समया दव्य परसाय पज्जवा चव। थोवाऽणताऽणंता विसेसअहिया दुवेऽणता ॥१॥" (अस्यापरंभरि-परम्भरि-पुं। परं बिभर्तीति परम्भरिः । परोदरपूर व्याख्या )-तत्र जीवाः स्तोकाः, तेभ्यः पुग्ला अनन्तशुणा के. स्था० ४ ठा० ३ उ०। इत्यादि ५। प्रधानपरं तु प्रधानत्वेन परः, द्विपदानां तीर्थकरः, परंमुह-पराङ्मुख-त्रि०। पृष्ठतो मुखे, दश. ६. ३ उ०। चतुष्पदानां सिंहाऽऽदिः,अपदानामर्जुनसुवर्ण पनसाऽदिः,६। परकड-परकृत-त्रि । परेण गृहिणाऽत्माऽर्थ परार्थ वा कृतं एवं क्षेत्रकालभावपराए यपि तत्पराऽऽदिषधित्वेन क्षेत्रानिर्धर्तित परकृतम् । उत्त. १ अ । परनिष्ठिते, सूत्र. १ दिग्राधान्यतया पूर्ववत्स्वधिया योज्यानीति, सामान्येन तु शु.१०४ उ०। गृहस्थैः पके, निचू०१ उ०। जम्बूद्वीपक्षेत्रात्पुष्कराऽऽदिकं क्षेलं परं, कालपरंतु प्रावृद्का Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परकिग्यिा अनिधानराजेन्द्रः। परकिरिया सार छरत्कालः. भावपरमादयिकादौपशमिकादिः।साम्प्रतं | उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलज वा, पधोवेज वा, णोतं सूत्रानुगमे सूत्रमुग्चारणीयम् । तश्चेदम् सातिए णो तं थियो । से सिया परो कायंसि वणं वा गंडं परकिरियं अब्भत्थियं संसेसियंणो तं सायए णो तंणिय वा अरईवा पुलणं वा भगंदलं वा अपयरेणं सत्थजातेणं अमे,से सिया परोपाए आमजेज वा,पमज्जेज वा,णोतं साय च्छिदेज्ज वा, विच्छिदेज वा णोतं सातिए णोतं णि पमे। एणोतं णियो। सेजिया परो पायाई संबाहेज वा,पलिमद्देज से सिया परो अम परेणं सत्य नातेणं अछिदिता वा विवा,णोतं सायए णो तं णियमे। सेतिया परोपायाई कुसि च्छिदित्ता पूर्व वा सोणियं वा णाहरेज्ज वा, रिसोहेज्ज ज वारइज वा नो तं सायए, नोणियमे। से सिया परो पा वा णो तं सातिए णो तं णियमे (६७४) से सिया परो दाई तेल्लेण वाघएण वा वसाए वा मक्खेज वा, भिलिंगेज कायंसि गंडवा अतिथवा पुलयं वा भगदलं वा आमजेज्ज वा,णोतं सातिएणोतं णियम से लिया परो पायाई लोहए। वा, पमजेज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे । से सिया वा कक्केण वा चुमेण वा वोण वा उल्लोलेज वा, उवलिंबेज परोकायसिवणं गडं वा अरतियं वा पुलयं वा भगंदलं वा वा,णोतं सातिए णोतं णियमे । से सिया परोपादाई सीत. संवाहेज्ज वा,पलिमद्दज्ज वा,णोतं सातिए णो तं णियमे। दगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा, प से लिया परो कार्यति गडं वा जाव भगंदलं वा तेल्लेग वा धोएज्ज वा,णोतं सातिए णो तंणियमे । से सिया परोपादाई घरण वा वसाए वा मंखेज्ज वा,भिलिंगेज वा,णोतं सातिए अम्म परेण पिलेवणजातेण आलिरेज वा, विलिपेज वा,णो को तं णि रमे । से सिया परो कार्यसि वणं गंडं वा०जाब तं सातिए णो तं णियमे से सिया परो पादाइं अम परेण भगंदलं वा तेलेग वा घएण वा वसाए वा मंखेज्ज वा, धूवणजाएण धूपेज वा,पाधूवेज वा णो तं सातिए णो तं मिलिंगेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे । से सिया परो णियमे से सिया परो पादाओ खाणुं वा कंटयं वाणाहरेज कासि वर्ष गंडं वा जाव भगंदलं वालोदेण वा कक्केण वा वा, विसोहेज वा,णो तं सातिए णो तं णियमे । से सिया चुरोण वा वग वा उल्लोलेज्ज वा, उधलेज्ज वा, णोतं परो पादाओ पूर्व वा सोणियं वाणीहरेज वा, पिसोहेज सातिए णो तं णियमे । से लिया परो का यंति वणं गंवा० वा,णोतं सातिए णोतं णियमे (६७२)से सिया परो कार्य जाव भांदल वा सीतोदाविपडेण वा उसिणोदगवियडेण वा आमजेज वा,पमजेज वा,णो तं सातिए णो तं खियमे । से उच्छोलेन्ज वा,पधोवेज वा, णोतं सातिए णोतं णियमे । सिया परो कायं लोहेण वा संबाहेज वा,पलिमदेज वा,णो से सिया परो कार्यसि वणं गड वाजाव भगदलं वा अप्लयतं सातिए णोतं णियमे । से सिया परो कार्य तेल्लेण वा घ. रेणं सत्यजाएणं अछिज्ज वा, विच्छिदेज वा, अ-- एण वा वसाए वा मंखेज वा,अभंगेज वाणोतं सातिए परेणं सत्य जाएणं अछिदिना वा विछिदिता वा पूर्व णोतं णियमे । से सिया परो कायं लोद्देण वा कक्केण वा चु. वा सोणियं वाणीहरेज्जा वा, विप्लोहेजा वा, णो तं साहोण वा वमेण वा उलोलेज वा.उव्वलेज वा.णोतं सा- तिए णोतं णियमे (६७५) से सिया परो कायाप्रो सेयं वा लिए णो तं णियमे। से सिया परो कायं सीओदगवियडेण जल्लं वाणीहरेज वा,विसोधेज वा,णो तं सातिए णोतं णिवा उसिणोदगवियडेण वा.उच्छोलेज वा पहोएज्ज वा,णो यमे (९७६) से लिया परो अच्छिालं वा कमपलं वा दंतमल तं सातिए णो तं णियमे । से सिया परो कायं अप्लयरेण वाणहमलं वा णीहरेज वा,विसोहेज वा, णो नं सातिए णो विलेवणजातेणं आलिंपेज वा,विलिंपेज वा, णो तं सातिए हणियमे (१७७ ) से सिया परो दोहाई बालाई दीहाई यो त णियमे।से सिया परो कायं अप्लयरेणं धूवणजातेण रोमाई दोहाई भनुहाई दीहाई काबरोमाई दोहाई वत्थिरोधूवेज वा,पधृवेज्ज वा.णो तं सातिए णो तं णियमे (१७३)| माई कपेज वा, संग्वेज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे से सिया परो कार्यसि वणं आमजेज वा. पमज्जेज वा को (६७% ) से सिया परो सीसाओ लिक्खं वा जूयं वा तं सातिए णो तं णियमे । से सिया परोकायंसि वणं संवा- पीहरेज वा, विसोहेज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे हेज वा, पलिमद्दज्ज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे । से| (६७६) से सिया परो अंकसि वा पलियंसि वा तुयावेज सिया परो कार्यसि वणं तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा मंः । वा, पादाई आमजेज वा, पमज्जेज वा, एवं हहिमो गमो खेज वा भिलिंगेज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे । से पायादि भाणिययो। से लिया परो अंकंसि वा पलियंकसि सिया परो कायसि वणं लोहेण वा कक्केण वा चुमेण वा वा तुयद्यावेत्ता हार वा अद्धाहारंवा उरत्यं वा गेवेयं वा मउडं वरमेण वा उल्लोलेज वा, उबलेज वा, णोतं सातिए णो तं वा पालं वा सुवमतं वा आविधेज वा पिणिधेज वा, णियमे । से सिया परो कायंसि वर्णसीतोदगवियडेण वा। णो तं सातिए णो तं णियमे (१८०) से सिया परो आ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परकिरिया अभिधानराजेन्द्रः। परकिरिया रामंसि वा उजाणंसि वा णिहरित्तावा विसोहित्ता वा पायाई वा वसारण वा णवणीएण वा मखेज वा, भिलिंगेज वा, आमज्जेज वा, पमजेज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे मंखतं वा भिलिंगंतं वा साइजइ ॥ १७ ॥ जे भिक्खू (९८१) एवं णेतना अप्सममकिरिया वि (९८२) से सिया अप्पणो पाए सीओदगावयडेण वा उसिणोदगवियपरो सुद्धेणं वा असुद्धेणं वा वतिवलेणं तेइच्छं आउट्टे से सिया डेण वा उच्छोलेज वा, पधोवेज वा, उच्छोलतं वा पधोपरो असुद्धेणं वइवलेणं तेइच्छं आउट्टे से सिया परो गिलाण- वंतं वा साइजइ ॥ १८ ॥ स्स सचित्ताई कंदाण वा मूलाणि वा तयाणि वा हरियाणि | सीतमुदगं सीतोदगं, वियड त्ति व्यपगतजीवं, उसिणमुदगं वा खणेत्तु वा कड्वेत्तु वा कड्डावेत्तु वा तेइच्छं उद्याविजा उसिणोदगं, तेण अप्पणो पादे एकसि उच्छोलग्गा, पुणो पुणो णा तं गाना णो तं णियमे (९८३) कडुवेयणा पाण पधोवणा. एवं सव्वे सुत्ता उच्चारयव्वा । अभंगो थोबेण,पहु. णा मक्खणं, अहवा-एकस्सि, बहुसो वा। भूतजीवसत्ता वयदति (६८४) एवं खलु तस्स सूत्रम्भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गिय जं सबढेहिं सहिते जे भिक्खु अप्पणो पाए लोहेण वा कक्केण वा पोउसमिते सदा जए सेयमिणं ममेजासि त्ति बेमि । (६८५)। मचुप्मेण वा उल्लालेज वा,उबटेज वा, उल्लोलतं वा उच्च( परकिरियमित्यादि ) पर-आत्मनो व्यतिरिक्तोऽभ्यस्त दृतं वा साइजइ ॥ १६ ॥ स्य क्रिया चेष्टा कायव्यापाररूपा तां परक्रियाम। 'श्राध्यामिकीम् ' आत्मनि क्रियमाणां, पुनरपि विशिनष्टि-'सांश्ले ककास प्रथमोद्देशके अंगादाणगमेण णेयं । पिकी' कर्मसंश्लेषजननी ( नो) नैव, श्रासादयेत्' अभिलषेत्, । सूत्रम्मनसा न तत्राऽभिलाषं कुर्यादित्यर्थः । तथा न तां परक्रियां | जे भिक्खू अप्पणो पाए फूमेज वा, रएज वा, मंखेज 'नियमयेत्' कारयेद्वाचा, नाऽपि कायेनेति । तां च परक्रियां वा, फूर्मतं वा स्यंतं वा मंखंतं वा साइजइ ॥ २० ॥ विशेषतो दर्शयति-(से) तस्य साधोनियतिकर्मशरीरस्य अलत्तयरंग पादेसु लाएउं पच्छा फूगति, तं जो रयणि वा सः परः' अन्यो धर्मश्रद्धया पादौ रजोऽवगुण्ठिती प्रामृज्या फूमति वा। कर्पटाऽऽदिना,वाशब्दस्तूत्तरपक्षापेक्षः,तन्नाऽऽस्वादयेन्नाऽपि एतेसिं पंचराहं सुत्ताणं संगहगाहानियमयेदिति। एवं स साधुस्तं परं पादौ संबाधयन्तं मर्दयन्तं संवाहणा पधोयण, कक्कादीणुव्वलण मंखे वा। वा स्पर्शयन्तं-रजयन्तम्,तथा-तैलाऽऽदिना म्रक्षयन्तमभ्यञ्जयन्तं वा,तथा-लोध्राऽऽदिना उद्वर्तनाऽऽदि कुर्वन्तं,तथा-शी फुसणं व राइणं वा, जो कुजा अप्पणो पादे ।। ५७ ।। तोदकाऽऽदिना उच्छोलनाऽऽदि कुर्वाण,तथाऽभ्यतरेण,सुग. संवाहण त्ति विस्तामणं तं सीतोदगाइणा पांवणं कक्कान्धिद्रव्येणालिम्पन्तं,तथा-विशिष्टधूपेन धूपयन्तं, तथा-पादा- इणा उव्वलणं, तेल्लाइणा मक्खणं, अलत्तगाइणा रंगणं करेकण्टकाऽऽदिकमुद्धरन्तम्,एवं शोणिताऽऽदिकं निस्सारयन्तं ति,तस्स आणाइया दोसा। 'नाऽऽस्वादयेत्'मनसा नाभिलषेन्नाऽपि नियमयेत्न्कारयेद्वा गाहाचा कायेनेति । शेषाणि कायव्रणगताऽऽदीनि अरामप्रवेशनि- एतसिं पढमपदा, सई तु वितिया तु वहुसो वा । क्रमणप्रमार्जनसूत्रं यावदुत्तानार्थानि । एवममुमेवार्थमुत्तर बहुणा संवाहणो तू, चतुधा फूमंत रागो सो ॥ ५८ ॥ सप्तकेऽपि तुल्यत्वात् संक्षपरुचिः सूत्रकारोऽतिदिशति एतेसिं सुत्ताणं पढमपदा संवाहणाऽऽदि सकृत्कारणे द्र( एवमिति) याः पूर्वोक्ताः क्रियाः-रजःप्रमार्जनाऽऽदिकाः टव्याः वितियपदा परिमहणादि बहुवारकरणे, बहुणा वा ताः 'अन्योऽन्य ' परस्परतः साधुना कृतप्रतिक्रियया न वि करणे दट्ठन्वा। संवाहणचउम्विहा उक्ला । अलक्लकरंगो फूमिधेया इत्येवं नेतव्योऽन्योन्यक्रियासप्तकक इति । किश्च जंतो लग्गति । (से) तस्य साधोः स परः शुद्धनाशुद्धेन वा, वाग्वलेन गाहामन्त्राऽऽदिसामर्थेन,चिकित्सा व्याध्युपशमम् (आउट्टे त्ति) सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त विराधणं तहा दुविध। कर्तुमभिलपेत् । तथा-स परः ग्लानस्य साधोश्चिकित्सार्थ सचित्तानि कन्दमूलाऽऽदीनि खनित्या समाकृष्य स्वतोऽन्ये पावति जम्हा तम्हा, एतेसु पदे विवजेजा ।। ५६ ।। न वा खानयित्वा चिकित्सा कर्तुमभिलषेत् । तच नाऽऽस्वा- सब्वेसु जहासंभवं विराहणा भाणियव्वा, गाढसंवाहणा दयेत् नाभिलषेन्मनसा, एतच्च भावयेत्-इह पूर्वकृतकर्म- पंचमं अवणेज्ज, अट्ठिभंगं च करेज्ज, एवं उब्वलणे वि, फलेश्वरा जीवाः कर्मविपाककृतकटुकचंदनाः कृत्वा परेषां पधोवणे एवं चेव उप्पिलादयो । साय अभंगे वि मच्छिगाशारीरमानसा वेदनाः स्वतः प्राणिभूत जीवसरवास्तत्कर्मवि- तिसंपातिमवहो। पाकजां वेदनामनुभवन्तीति। उक्तं च-'पुनरपि सहनीयो दुः गाहाखपाकस्तवाऽयं, न खलु भवति नाशः कर्मणां सञ्चिता- आतपरमोहुदीरण, पाउसदोसा य सुत्तपरिहाणी । नाम् । इति सह गणयित्वा यद्यदायाति सम्यक, सदसदि संपातिमादिधातो, विवज्जो लोगपरिवाओ ।। ६०॥ ति विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्ते ?॥१॥" शेषमुक्तार्थ याव रंगे पधोवणाऽऽदिसु य आयपरमोहोदीरणं करेति, पाउसइध्ययनपरिसमाप्तिरिति । श्राचा०२ श्रु०२ चू०६०।। दोसो य भवति, सुत्तत्थाणं च परिहाणी भवति । साधुक्रिजे भिक्खू अप्पणो पाए तिल्लेण वा घएण वा वएणण यायाः, साधुरूपस्य वा विपर्ययो विपरीतता भवति । साधु Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परकिरिया प्रन्निधानराजेन्द्रः । परकिरिया श्रावके, मिथ्यादृष्टिलोके वा परिवादो, पादाभ्यङ्गकरणेन प- अप्पणो कार्यसि वणं संवाहेज वा, पलिमदेज वा. संवाहत रिज्ञायते, न साधुरिति । वा पलिमहतं वा साइज्जइ ॥ २८ ॥ जे भिक्खू अप्पणो कारणतो करेज कार्यसि वणं तिल्लेण वा धरण वा बामेण वा वसाए वा वितियपदं गेलगणे, अद्धाणुवातवायवासासुं। णवणीएण वा मंखेज वा, भिलिंगेज वा, मंखंतं वा भिलिआदी पंचपदा ऊ, मोहतिगिच्छाएँ दोमितरे ॥ ६१॥ गंतं वा साइजइ ॥७३जे भिक्ख अप्पणो कार्यसि वणं गिलाणस्स अद्धाणे वाउवायस्त वा तेणेव माहयस्स लोहेण वा ककेण वा उल्लोलेज वा, उबटेज वा, सीतोदगवासासु वा । (आइत्ति) गिलाणपयं तम्मि संपाहादी पंच वि पया पउत्तवाओ। वेजोवदेसेण पायसलरोगिणो ममदंति वियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा, पधोयादिलेवेण अण रंगो काययो । सेसेसु श्रद्धाणादिसु- एज वा, उच्छोलंतं वा पधोयंतं वा साइज्जइ ।। ३० ।। जे जहासंभवं मोहतिगिच्छाए रयणं फूमण बादो वि कायब्वा। भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं फूमेज वा, रएज वा, मंखेज अहवा-संवाहादियाण पंचराह पदाणं यादिना चउरो पदा वा, फूमंतं वा रयंतं वा मंखतं वा साइजइ ॥ ३१ ॥ गिलाणाइसु संभवंति । दो फूमणरयणपदा मोहतिगिच्छाए एवं वणाभिलावेण ते च छ सुत्ता वत्तब्वा । संभवंति । चोदगाऽऽह-णणु फूमणरयणे मोहबुड्डी भवति । पायरियाऽऽह-सातिसोवदेसेण जस्स तहा कजंते य उव. गाहासमो भवति तस्स कज्जति । कितिगादिवासवणे वा श्र दुविधं कायम्मि वणो, तदुभवाऽऽगंतु पत्तुणा तयो । द्धाणसंवाहणाऽऽदी जहासंभवं । एवं वाते वि संवाहसेयश्र- तद्दोसाऽऽदि तदुब्भवो, सत्थादागंतुओ भणिो ॥६३।। भंगणाति । वासासु कद्दमालत्ताण धोवऐति अगुंलिमंतरा कायवणो दुविधी-तत्थेव काए उम्भवो जस्स सो य कुहिया कोद्दवपलालधूमेण रज्जंति । तदुभयो । आगंतुएण सत्यादिणा कत्रो जो सो आगंतुगो। इमो तदुद्भवो तद्दोसो कुटुं किडिभं दद् विवधिका पाजे भिक्ख अप्पणो कार्य आमज्जेज्ज वा, पमज्जेज्ज वा, मा गंडादिया य । आगंतुगो सत्येण खग्गातिण केटकेण आमज्जंतं वा पमजतं वा साइज्जइ ॥ २१ ॥ वा खाणूती 7 सिसवेधा वा दीहेण वा सुणहडको वा। एवं कायाभिलावेण छ सुत्ता भाणियब्वा । गाहासूत्रम् एतेसामम्मतरं, जो तु वणं मीसयं करे भिक्खू । जे भिक्खू अप्पणो कायं संवाहेज्ज वा, परिमद्देज्ज वा, मजणमादी तु पदे, सो पावति प्राणमादीणि ॥६४॥ संवाहंतं वा पलिमइंतं वा साइज्जइ ॥ २२॥ जे भिक्खू एतेसिं असतरेण जो पमजणादिपदे करेज, तस्स प्राणादी अप्पणो कार्य तिल्लेण वा घएण वा वामण वा वसाएण दोसा, मासलहुं च पच्छित्तं । वा णवणीएण वा मंखेज्ज वा, भिलिंगेज्ज वा मंखंत वा सीस पाह-वेयणद्देण किं कायब्बं ?। पायरिय पाहभिलिंगंतं वा साइजइ ।। २३ ।। जे भिक्खू अप्पणो कार्य णच्चुप्पइतं दुक्खं, अभिभूतो वेयणाएँ तिव्वाए। लोदेण वा कक्केण वा पोउमचुराणेण वा उल्लोलेज्ज वा, अदीणो अन्विभितो, तं दुक्खऽहियासए सम्मं ॥६॥ उबट्टेज्ज वा, उल्लोलत वा उच्चस॒तं वा साइज्जइ ॥ २४ ॥ (णच त्ति)शात्वा । किं ज्ञात्वा ?। दुःखमुत्पन्नं, वेद्यत इति जे भिक्खू अप्पणो कार्य सीओदगवियडेण वा उसिणोद- वेदना, तिब्वाए वेयणाए सब्बं सरीरं व्याप्तमित्यर्थः । ण दीणो गवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा, पधोएज वा, उच्छोलंत वा श्रदीणो, पसरणमणो, स्वभावस्थ इत्यर्थः। णवा ओहयमपधोवंतं वा साइज्जइ ॥ २५ ॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्य णसंकप्पे अहवा-हा माते! हा पिते! एवमादि ण भासते जो सो अदीणो । ण वेयणदो अप्पणो सिरोरुकुट्टणादि करति । फूमेज्ज वा, रएज्ज वा, मखेज वा, फूमंतं वा रयंतं वा मखतं अधवा णवेयणदो चिंतेति-अप्पाणं सारेमि त्ति । तं दुक्खं वा साइज्जइ ॥ २६ ॥ पत्तं सम्म अहिश्रासेयब्वं इत्यर्थः। एए छ सुत्ता पूर्ववत् । कारणे पुण अामजणाऽऽदि करेजइमो अइदेसगंधो अब्बोच्छित्तिणिमित्तं, जीयट्ठी वा समाहिहेतुं वा । पादेसुं जो तु गमो, णियमा कायम्मि होति सच्चेव । मज्जणमादी तु पदे, जयणाएँ समायरे भिक्खू ॥६६॥ णायचो तु मतिमता, पुवे अवरम्मि य पदम्मि ।।६२॥ सुत्तत्थाणं अव्वोच्छित्ति करिस्सामि त्ति, जीवितट्ठी या जो पायसुत्तेसु गमो कायसुत्तेसु वि छसु सो चेव दट्टब्बी। जीवंता संजमं करिस्सामो, चउत्थाइणा वा तवेण अप्पाणं केण नायब्बो ?, मतिमता मतिरस्यास्तीति मतिमान् । पुवं भावस्सामि, गाणदसणचरित्तसमाहिसाहणट्टा वा । अधवाउस्तगपदं, अवरं अववातपदं । समाहिमरगण या मरिस्मामि त्ति श्राम जणादिपदे जयणासूत्राणि ए समायरेज । जयणा जहा जीवोवघातो ण भवतीत्यर्थः । जे भिक्खू अप्पणो कायंसि वणं आमजेज वा, पमजेज सूत्राणिवा, आमजंतं वा पमजंतं वा साइजइ ।। २७॥ जे भिक्खू जे भिक्खू अप्पणो कार्य सि गंडं वा पलियं वा अरियं Jain Education Interational Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परकिरिया भनिधानराजेन्छः। परकिरिया वा अंसिपं वा भगंदलं वा अप्लयरेण वा तिक्खेण वा स- आबिंदित्ता वा विसोहित्ता वा अन्नयरेण वा पालेवणजाएणं त्यजाएण अच्छिदेज वा, विच्छिदेज वा, आच्छिदंतं वा | अभिगेज वा, मंखेज वा, अभिगंतं वा मंखतं वा साइविच्छिदंतं वा साइजह ॥ ३२ ॥ जे भिक्खू अप्पणो का जइ ॥ ३६॥ यंसि गंडं वा पलिय वा अरियं वा अंसियं वा भगंदलं वा चउरो वि सुत्तालापगे वोत्तुं इमे पंचमसुत्तारित्ता आलाव. गा। तेल्लेण वा गतार्थम् । अम्मयरेण वा तिक्खेण सत्यजाएण अच्छिदेज वा वि सूत्रम्छिदेज वा, पूर्व वा सोणियं वा नीहरेज वा, विसोहेज जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंडं वा पलिय वा अंसिर्य वा, नीहरंतं वा विसोहंतं वा साइजइ ॥ ३३ ॥ वा भगंदलं वा अनयरण वा तिक्खेण सत्थजाएणं गच्छतीति गंडतं गंडमाला, जंच अण्णं सुपादगं तं गंडं, छिदित्ता वा० जाव विसोहित्ता वा धृवणजाएण धूएज अरती तं जंण पञ्चति, अंसी रिसाऽऽदी य अहीणणासाए वणेसु वा भवति । पलिगा सियलिया, भगंदरं श्रप्परणप्पत्तो वा, पधृवेज वा, धृवंतं वा पधूवंतं वा साइजइ ॥३७॥ अधिट्ठाण क्षतं किमियजालसंपमं भवति । बहुसत्थसंभवे श्र- जे भिक्खू अप्पणो कायंसि गंडं वा जो अच्छिदित्ता पू. मसतरेण तिक्खं साहेणधारम्,जातमिति प्रकारप्रदर्शनार्थ।ए अंवा सोणियं वा णीहरित्ता विसोधित्ता सीतादगं० जाव कसि ईषद्वााच्छिदणं,बहुवारं सुटुवा छिंदणं विच्छिदणं। पहोवित्ता अम्मतरेण वा प्रालवणजाएण० जाव विलिपित्ता गाहा तेल्लेण जाव मंखित्ता असतरेणं० जाव धूवंतं वा सातिजति गंडं च अरइयसिं, विगलं व भगंदलं व कार्यसि । छ? सुत्तं । . एतेसि इमा संगहणिगाहासत्येण तरेणं, जो तं अच्छिदए भिक्खू ॥ ६७ ॥ णीणज्ज पूयरुधिरं, उच्छोले सीतवीयडउसिणणं । गतार्था । पुव्वसुत्तं सव्वं उचारेऊण इमे अइरित्ता आला. वगा। पुव्वं वा पकं सोणियं पुव्वं भणति । रुचिरं सभाव लेवेण व आलिंपति, मंखे धूवे व आणादी ॥ ६८।। त्थं सोणियं भमति । णीहरति णाम णिग्गलति, अवसेप्सा- भाणेज पूयातीतो उच्छोलेति, ततो प्रालिपति, ततो मं. पयवा फडणविसोहणं भमति । खेति, ततो धूवेति । एवं जो करेति सो प्राणादिदोसे पावसूत्रम् ति, प्रायविराहणासु थाती भवति, संजमे आउकायादिजे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंडं वा पलियं वा अरियं विराहणा । एवं ता जिणकप्पे, गच्छवासीण वि णिकारणे वा अंसियं वा भगंदलं वा अण्णयरेण वा तिक्खेण स एवं चेव। जतो भरणतित्थजाएणं अच्छिदित्ता वा पूर्व वा सोणियं वा णीहरित्ता णिक्कारणा ण कप्पति, गंडादीएसु छेय धुवणादी । वा विसोहित्ता वा सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडे आसञ्ज कारणं पुण, सो चेव गमो हवति तत्थ ॥६६॥ ण वा उच्छोलेज वा, पधोवेज वा, उच्छोलतं वा पधोवंतं पुव्वद्धं कंठं; कारणे पुण आसज्ज एसेव कमो सत्यादिण । वा साइजइ ॥ ३४ ॥ अछिदति, जहण पराणप्पर, तो पूयादिणीहारेति। एवं अप्पजे भिक्खू दो वि पुव्वसुत्तअलावगे भणिउं इमे तइयसुत्त- णप्पंते उत्तरोत्तरपयकरणं णच्चप्पइयं गाहा-अब्योगाहा। आलावगा। सीओदगवियडं गतार्थम् । सूत्राणिसूत्रम् जे भिक्खू अप्पणो पालुकिमियं वा कुच्छिकिमियं वा जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंडं वा पलियं वा अरियं वा अप्पणो अंगुलीए निवेसिय णिवेसिय णीहरइ, णीहरंतं अंसियं वा भगंदलं वा अहायरेण वा तिक्खेण सत्थजाए वा साइजइ ।। ३८॥ ण अच्छिदित्ता वा विच्छिदित्ता वा पूर्व वा सोणियं वा पालु अपानं. तम्मि किमिया समुच्छंति, कुक्खीए किणीहरेज वा, विसोहेज वा, अन्नयरेण वा आलेवणजाएण मिया कुक्खिकिमिया, ते पजमा भवंति, ते जति सरणं आलिंपेज्ज वा, विलिंपेज वा, आलिंपतं वा विलिंपतं वा वोसिरउ पाणभंतरे थेकेजंतो ते पालुकिमिए अंगुसाइजइ ॥ ३५॥ लिए णिवेसिय प्रवेश्य, अप्पणो णीहति,परित्यज्यतात्यर्थः। इमा णिज्जुत्तीजे भिक्खू तिरह वि सुत्ताणालावए बोतुं चउत्थसुत्ताइरित्ता इमे आलावगा । बहु पालेवसंभवे अराणतरं गहणं गंडादिएस किमिए, पालुकिमिए व कुच्छिकिमिए वा। प्रालिप्पतेऽनेनेत्यालेपः । जातग्रहणं प्रकारप्रदर्शनार्थे । सो जो भिक्खू णीहरती, सो पावति आणमादीणि ॥७॥ पालावो तिविधो-वेदनाप्रशमकारी, पाककारी, धणाऽऽदि- गंडादिएसु वणेसु पालो वा कुच्छिकिमिए वा जो भिणीहरणकारी। क्खू णीहरति सो प्रणाऽऽदिदोसे पावति। सूत्रम् णीहरणकप्पोवदरिसपत्थं भरणतिजे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंडं वा पलियं वा अरियं वा णिक्कारणे सकारणे ,अवधी विधि कट्ठमादिगा अविधी। असियं वा भगंदलं वा अनयरण वा तिक्खेण सत्यजाएणं अंगुलमादीउ विधी, कारणे अविधी तु सुत्तं तु ॥७॥ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१६ ) अभिधानराजेन्द्रः । परकिरिया fuarरणे श्रविधीए निक्कारणे विद्दीप, कारणे श्रविधीए कारणे विधी, कटुमादिएहिं जति गीहरति तो अविधी, गुलिमादिहिं विधी भवति । ततियभंगे सुतं, चरिमो सुद्धो, दोसु श्राइलेसु चउलहुँ । उस्सग्गेणं विधीए श्रविधीए वा ण णीहरियव्वा, तेसु विराहिजंतेसु संजमविराहणा, खेत्ते श्रायविराहरण, तत्थ गिलाणादिश्रारोवणा, तम्हा श्र धियासेयब्वं । गाहा चुप्पइतं दुक्खं, अभिभूतो वेयणाएँ तिब्वाए । अणो अव्विभितो, तं दुक्खडहियासए सम्मं ॥७२॥ अव्वोच्छित्तिणिमित्तं. जीवट्ठाए समाधिहेतुं वा । गंडादीसुं किमिए, जतणाए गीहरे भिक्खू || ७३ ॥ तेसि णीहरणे का जया ? पोमे पडमे वा अचम्मे वा । सेसं पूर्ववत् । सूत्रम् जे भिक्खू पण दीहाओ हसिहाओ कप्पेज्ज वा, संवेज्ज वा, कप्पतं वा संठवतं वा साइज्जइ ॥ ३६ ॥ जे भिक्खू पण दीहाओ हसिहाओ कप्पेज वा, संठवेज वा, कप्पंतं वा संठवतं वा साइज || ४० || जे भिक्खू अप्पशो दीहाई जंघारोमाई कप्पेज्ज वा, संठवेज्ज वा, कप्पंतं वा संठतं वा साइज्जइ ॥ ४१ ॥ जे भिक्खू अप्पणो दीहाई कक्खरोमाई कप्पेज्ज वा, संठवेज्ज वा, कप्पंतं वा संठवतं वा साइजइ ॥। ४२ ।। जे भिक्खू अप्पणो दीहाई समसूरोमाई कप्पेज्ज वा, संठवेज्ज वा, कप्पंतं वा संठवतं वा साइज्जइ ॥ ४३ ॥ जे भिक्खू अप्पणो दीहाई कमरोमाई कप्पेज वा, संठवेज वा, कप्पंतं वा संठवतं वा साइज्ज ।। ४४ ।। एवं नासिकारोमाई कप्पेज्ज वा, संठवेज वा०जाव साइज्जइ ॥ ४५ ॥ जे भिक्खू अपणो दीहाई चक्रोमाई कप्पेज वा, संठवेज्ज वा, कप्पंतं वा संठवतं वा साइज || ४६ || जे भिक्खू अप्पणो दीहाई मंसूरोमाई कप्पेज वा, संठवेज्ज वा, कप्पतं वा संठवतं वा साइज्जइ ॥ ४७॥ जे भिक्खू पणो दंते आघंसेज्ज वा, पघंसेज्ज वा, आघंसंतं वा पसंतं वा साइज्जइ || ४८ || जे भिक्खू अप्पणो दंते सीओदगवियडेण वा उसिणोदगदियडेण वा उच्छालेज वा, पधोवेज्ज वा, उच्छोलतं वा पधोवंतं वा साइजइ ॥ ४६ ॥ जे भिक्खू अप्पणो दंते फूमेज वा, रएज्ज वा, फूर्मतं वा रयंतं वा साइज्जइ || ५० || जे भिक्खू अप्पणो उट्ठे श्रमज्जेज वा, पमज्जेज्ज वा, आमअंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ || ५१ ।। जे भिक्खू अप्पणो उट्ठे संवाहेज्ज वा, पलिमद्देज्ज वा, संवाहंतं वा पलिमद्दतं वा साइज्जइ ॥ ५२ ॥ जे भिक्खू अप्पणो उट्ठे तिल्लेण वा घरण वा वषेण वा बसाए वा वणीए वा पंखेज्ज वा, भिलिंगेज्ज वा, मं पर किरिया तं वा मिलिंग वा साइज्जइ ॥ ५३ ॥ जे भिक्खू अप्पणो उट्ठे कक्केण वा लोद्देण वा उल्लोलेज वा, उच्चहेजवा, उल्लोलतं वा उब्वतं वा साइज्जइ ॥ ५४ ॥ जे भिक्खू अपणो उट्टे सीतोदगवियडेण वा उसि - गोदगविडे वा उच्छोलेज्ज वा, पधोएज वा, उच्छोतं वा पथोक्तं वा साइज || ५५ || जे भिक्खू - पणो उट्ठे फूमेज्ज वा, रएज्ज वा, मंखेज्ज वा, फूमंतं वा रयंतं वा मंखतं वा साइज्जइ ।। ५६ ।। जे भिक्खू अपणो दीहाई उत्तरउडाई कप्पेज वा, संठवेज्ज वा, कप्पतं वासंतं वा साइज || ५७ ॥ जे भिक्खू अप्पण दीहाई पत्ता कप्पेज्ज वा, संठवेज वा, कप्तं वा संठतं वा साइज्जइ ॥ ५८ ॥ जे भिक्खू अप्पणो अच्छिणी श्रमज्जेज्ज वा, पमज्जेज वा श्रमज्जंतं वा पतं वा साइज्जइ ॥ ५६ ॥ जे भिक्खु अप्पणो अच्छिणी संवादिज वा, पालमदेज वा, संवाहतं वा पलिमतं वा साइज्जइ ॥ ६० ॥ जे भिक्खू अप्पणो अ च्छिणी तेल्लेण वा घरण वा वम्मेण वा बसाए वा रावणीएवा मंखेज्जना, भिलिंगेज्ज वा, मंखतं वा मिलिंगंतं वा साइञ्जइ ।। ६१ ।। जे भिक्खू अप्पणो अच्छिणी कक्केण वा लोग वा उल्लोलेज्ज वा, उव्वटेज्ज वा, उल्लोलंतं वा उच्च वा साइज ।। ६२ ।। जे भिक्खू अप्पणो अच्छिणी सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलिज्ज वा, पधोएज्ज वा, उच्छोलंतं वा पधोयतं वा साइज्जइ ।। ६३ ।। जे भिक्खू अपणो अच्छिणी फूमेज्ज वा, रएज्ज वा, खेज्ज वा, फूमंतं वा रयंतं वा मंखतं वा साइज्जइ ॥ ६४ ॥ जे भिक्खु अप्पणो दीहाई भुमगरोमाई कप्पेज्ज वा, संठवेज्ज वा, कप्पतं वा संठवतं वा साइज्जइ ॥ ६५|| जे भिक्खू अप्पणो दीहाई वत्थिरोमाई कप्पेज्ज वा, संठनेज्ज वा, कप्पंतं वा संठवतं वा साइज्जइ ॥ ६६ ॥ जे भिक्खू पण मलं वा कम्ममलं वा दंतमलं वा गहरेज वा, विसोहेज वा, खीहरंतं वा विसोहतं वा साइज्जइ ॥ ६७ ॥ तेरस सुत्ता उच्चारेयब्वा, सुत्तत्थो णिज्जुत्ती य लाघवत्थं जुगवं वक्खाणिजंति । गाहा * जे भिक्खू हसिहाओ, कप्पेज्जा अधव संठवेज्जा वा । दीहं च रोमराई, मंमूकेसे तु उत्तरोट्ठे वा ।। ७४ ॥ गहाणं सिहा णहसिहा, नखा इत्यर्थः । कल्पयति छिंदति, संवेति तीक्ष्णे करोति, चन्द्रार्धे सुकतुंडे वा करेति, रोमराई पोट्टे भवति, ते दीहे कप्पेति संवेति-सुविहिते अधोमुहे लिहति, मंसू चिबुके जंघासु गुज्झदेले वा छिंद For Private Personal Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परकिरिया (५२०) अभिधानराजेन्धः। परकिरिया गाहा ति, संठवेति । केस त्ति सिरजादि विंदति, संठवेति वा, उ- | भुमया अच्छिणिमित्तं, केसा पुण पव्वयंतस्स ।। ८० ॥ तरोटुरोमा दाढियाश्रो, ता छिदति । संठवेति वा । दंतेसु दंतामयो दंतरोगो, तत्थ दंतवणादिणा श्राघंसगाहा ति, एवं णयणामए विणयणे घोवति, रयति,फूमति वा, भुमभमुहाउ दंतसोधण, अच्छीण पमज्जणाइगाई वा । गरोमा वा अतिदीहा अइमहहत्तणेण य अच्छीसु पडते छिमो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ।। ७५ ॥ | दति, संठवेति वा, पव्वयंतस्स अतिदीहा केसा लोयं काउं एवं णासिगाभमुगरोमे वि दंतेसु अङ्गलीए सकृदामजणं, ण सक्कति, सिररोगिणो वा केसे कपिज्जंति । पुणो पमजणं दंतधावणं । दंतं कट्टे अचित्ते सुत्तंतेण एक सूत्रम्दिणं आघसणं, दिणे दिणे पघंसणं, दंते मति रयति वा जे भिक्ख अप्पणो कायाओ सेयं वा जल्लं वा पंक वामपादसूत्रवत् । अच्छीणि वा आमजति णाम अक्खिपत्तरो- लं वा णीहरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा, णीहरंतं वा विसोहंतं मे संठवेति, पुणो पुणो करेंतस्स पमजणा । अहवा-वीय वा साइज्जइ ।। ६८॥ कणगादीण सकृत् श्रवणयणे आमजणा, पुणो पुणो पम सेयो प्रस्वेदः, स्वच्छमलच्छिग्गलं जल्लो भणति, स एव जणा । आदिसहातो जे अच्छीणि पधोवति उसिणाइणा प प्रस्वेदः पंको भरणति, अराणो वा जो कद्दमो लग्गो, मलो उंछति णाम अंजणणं अंजेति, अच्छीण फुमणरयणा पू पुण उत्तरमाणो अच्छी रेणू वा सकृत उव्वट्टणं, पुणो पुणो र्ववत् । विशेषो कणगादिसु फुवणं संभवति। एवं करेंतस्स पव्वट्टणं कक्काइणा वा। प्राणाविराहणादिया दोसा। जे भिक्खू अप्पणो अच्छिमलं वा कएणमलं वा दंतमलं आमजण सइ असई, पमजणं धोवणं तुऽणेगविधि । । वा णीहरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा, णीहरंतं वा विसोहंतं वा पादादीण पमजण, फूमणपसइंजणे रागो । ७६ ॥ साइज्जइ ।। ६६ ।। उक्नार्था । पसयमिति पसती चुलुगो भपति, दव्वसंभार अच्छिमलो दूसिकादि, करणमलो करणगूधादि, दंतकियो कयं तं चुलुगे छोडं तत्थ णिच्छदं अच्छि धरैति, ततो उच्छु दंतमलो, णहमलो गहविचरेणू णीहरति, अवणेति असेसढं फूमति, रागो लगति, अंजियं वा फूमति, रागो लग्गति । विसोहणं । अहवा-पसयमिति दोहिं तिहिं ठाणापूरोहिं अच्छि धोवति, गाहाततो अंजेति, ततो फूमति रागो लग्गति। इमे दोसा सेयं वा जल्लं वा, जे भिक्खू णीहरिज कायातो । आतपरमोहुदीरण, पाउसदोसा य मुत्तपरिहाणी। कम्मच्छिदंतणहमल, सो पावति आणमादीणि ।। ८१ ॥ संपातिमादिघाते, विवज्जते लोगपरिवाओ ।। ७७ ॥ पढमसुत्तत्थो पुब्बद्धन, वितियसुत्तत्थो पच्छद्धेण, प्राणापूर्ववत्। दिया दोसा । प्रायविराहणा । पंतदेवता छलेज. अप्परुत्तीगाहा ए वा पाउसदोसा भवन्ति, सुत्तेसु य पलिमंथी। वितियपदं सामामं, सव्वेसु पदेसु होज्जऽणाभोगो। गाहा जल्लो तु होति कमढं, मलो तु हत्यादिघट्टितो सडति । मोहतिगिच्छाए पुण, एतो तु विसेसियं वोच्छं ।।७८।। णहसियादि ततो सब्वे सुत्तपडिसिद्धे अत्थे अणाभोग पंको पुण सेउल्लो, विक्खेवो वा वि जो लग्गो ॥२॥ तो करेज, मोहे तिगिच्छाए वा करेज अतो परं तेरसप- खरंटो उ जो मलो तं कमदं भमति, सेसं कंठं । याण वइसेसियं वितियपदं भरणति । गाहागाहा वितियपदमणप्पज्झ, णयणवणे ओसधामए चेव । चक्कम्मणमावडणो, लेवो देहखत असुइ णक्खेसु । मोहतिगिच्छाए पुण, णीहरमाणे णतिक्कमति ।। ८३॥ वणगंडरती असिय, भगंदलादीसु रोमाई ॥ ७६ ॥ अणप्पज्झो खित्तचित्तादि, सब्वे उब्वट्टणातिपदे करेज, चंकमंतो पायण हा उपले खणुगादिसु अफिडंति पडिलो- णयणे चा दूसिओबद्धा अच्छि रोगेण वा किंचि अच्छीमो. मो वा भजति, हत्थणहा वा भायणलेवं विणासंति, देहं उद्धरियवं, सरीरे चा धूणो, तस्त असासे मलादि फोडि. शरीरं, तत्थ खयं करेज, ताहे लोगो भणेज-एस कामी, अ. जति, मा तेण वणो दझिहिति। अहवा स्यज्जू ददृकिडिभं विरयाए से णहपया दिराणति, पयदोसपरिहरणत्थं छिदंतो असो वा कोवि श्रीम, श्रास श्रोसहहिं उब्बट्टिजति, मोहतिगि. सुद्धो, संठवणं झमेतादिणा घसति । लोगो य भणति-दी च्छाए वा पुणो विसेसेण अराणहा मोहोणावसमतित्ति। एवं हणहतरे समा चिट्ठति. असुइणो एते। अवि य पायणहेसु ही- विशेषे इत्ति एवं करेंतो धम्मापरित्राणं वाणातिकमति । नि. हेसुं अंतरंतरे रेणु चिट्ठति । तीए चक्खू उवहम्मति व्रणगंडं चू०३ उ० (अन्ययूथिकैरात्मनःन पादप्रमार्जना कर्तव्यता'. अरइयंसि भगंदरातिसु रोमा उवधायं करेति, लवं वा अं. मउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे ४६६ पृष्ठे 'श्रम मरणकिरिया' शब्दे तरैति, अतो छिदंति, संठवेति वा। च तस्मिन्नेव भागे ४८० पृष्ठे उक्ना) ('कंटयाइउद्धरण' शब्दे गाहा तृतीयभाग १६६ पृष्ठे निर्ग्रन्धानां कराटकोद्धरणं व्याख्यातम्) दंताऽऽमय दंतेसु, णयणाणं आमया तु णयणेस सुविशुद्धलेश्ये, "मेहाची, परकिरियं, च बजए नाणी, मण Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परकिरिया अन्निधानराजेन्द्रः। परच्छेद सा वयसा कारण।" (२१ गाथा) मेधावी मर्यादावर्ती, तापच्याऽभिपूयेत्यथै, सूत्रः १ श्रु०१०१ उ० । श्रासेव्येपरस्मै स्यादिपदार्था क्रिया परक्रिया, तां च शानी विदित. त्यथै, दश० ८ ०। वेद्यो , वर्जयेत् परिहरेत् । एतदुक्तं भवति-विषयोपभोगो. परग-परग-न । तृणवनस्पतिभेदे, सूत्र २ श्रु० २ पाधिना नान्यस्य किमपि कुर्यान्नाऽप्यात्मनः खिया पाद- मानायेन तणविशेषेण पुष्पाग्राणि प्रथ्यन्ते । श्राचा० १ ० । धावनाऽऽदिकमपि कारयेत् । एतच्च परक्रियावर्जनं मनसा वचसा कायेन वर्जयेत्। तथाहि-औदारिककामभोगार्थ मन श्रु०१ चू०२ १०३ उ । सा न गच्छति,नान्यं गमयति, गच्छन्तमपरं नानुजानीते। ए. परगाणच्चिया-परगणीया-स्त्री०। परगणसत्कायां निर्ग्रन्थ्या. वं वाचा, कायेन च सर्वेऽप्यौदारिके नव नव भेदाः । एवं म्,स्था. ५ ठा० २ उ० । परगणे या साधी सा परसिस्सिणी दिव्येऽपि । सूत्र०१ श्रु०४ श्र०२ उ० परसत्कस्य ज्ञाना55. परगच्छे णातव्या परगणिच्चिया। निचू०८ उ०। वरणीयाऽऽदिकर्मणि, पिं०। परगरिहमाण-परगर्हाध्यान-नः । परस्य गही परसमक्ष दो. परकिरियासत्तिक्कय-परक्रियासप्तकक-पुं० । परक्रियाप्रतिपा- पोखट्टनं, तस्या ध्यानम् । संघसमक्ष दुर्वलिकापुष्पमित्रं गहदके आचाराङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे सप्तककानां पष्टे एका माणस्य गोष्ठामाहिलस्येव दुर्ध्याने, पातु । केऽध्ययने, स्था०७ ठा। परगरिहा-परगहा-स्त्री० । ६ त० । परसमक्षं दोपोट्टने, परक्क-पराक्य-त्रि०। परकीये, विशे० । "द्वे वाससी प्रवरयो आतु। षिदपायशुद्धा, शय्याऽऽसनं करिवरस्तुरगो रथो वा। काले | परगेह-परगेह-न० । गृहस्थगृहे, सूत्र.१ श्रु०६ श्रा भिषा नियमिताऽऽसनमानमात्रा, राज्ञः पराक्यमिव सर्वगः परधरप्पवेस-परग्रहप्रवेश-पुं०। गृहान्तरप्रवेश, धर० । वेहि शेषम् ॥ १॥" श्राचा०१ श्रु. ११०१ उ०। तत्र प्रवेशनिषेधमाहपरकंत-पराक्रान्त-न । तपोऽध्ययनयमनियमाऽऽदावनुष्ठिते, संप्रति द्वितीयं परगृहप्रवेशवर्जनरूपं भेदमभिधित्सुर्गाथोसूत्र०१ श्रु०८०। त्तरार्द्धमाह पगिहगमणं पि कलं-कपकमलं सुसीलाणं । (३६) परक्कम-पराक्रम-पुं० । परेषामाक्रमः पराक्रमः । परपराजये, परोच्छेदे, श्रा० म०१ अ । ते च परे कषायाऽऽदयः । श्रा० परगृहगमनमन्यमन्दिरगमनम्. अपिशब्द उपरि योदयते, चु०६०। श्राचा० । परेषां क्रोधाऽऽदिशत्रूणां क्रमणं विक्षे-। कलङ्कोऽभ्याख्यानम् । स एव शुद्धस्वरूपस्य पुरुषस्य मपणं पराक्रमः । विशे० । वीर्य, " धीरियं ति वा बल त्ति वा लिनत्वोत्पादकत्वात्पङ्क: कर्दमः, तस्य मूलं निबन्धनम्सामत्थं ति वा परक्कमो ति वा थामो त्ति वा एगट्ठा।" कलङ्कपडूमूलम्,अभ्याख्यानप्राप्तिमूलमित्यर्थः । सुशीलानामनि चू०१ उ० । योगः, पराक्रमः, स्थाम इत्येते एकार्थाः । पि सुदृढशीलानामपि, धनमित्रस्येव । इत्थं सामायारी-"सापं० सं०५ द्वार । विशे० । सूत्र। सामर्थ्य, उत्साहे, चेष्टा वगो जइ वि वियत्तं तेउरपरधरप्पवेसो वन्निज्जइ, तहावि याम् , “ उच्छाह परक्कमो तहा चेट्टा सत्ती सामत्थं ति य तेण पगागिणा असहारण परगिहे न पविसियवं, कजे जोगस्स हवंति पजाया।" प्रा० चू० १ ०। श्रा० म० । वि परिणयवो सहाश्रो चित्तब्वे ति।" ध०र०२ अधि. २ श्राचा० । साधितस्वाभिमतप्रयोजने पुरुषकारे, सू० प्र० २० लक्ष०। (अत्र धनमित्रोदाहरणम् 'धणमित्त' शब्दे चतुपाहु० । निष्पादितस्वविषये अभिमानविशेष बलवीर्ययोा . र्थभागे २६५५ पृष्ठे गतम्) पारणे, स्था०३ ठा० ३ उ० । परेषां वा शत्रूणामाक्रमणं, त- परचक्क-परचक्र-न०। अपरसैन्ये, प्राचा०२ श्रु० १ चू० ३ तस्योन्नतत्वमप्रतिहतत्वेन शोभनविषयत्वेन चेति उन्नत- अ०२ उ०। श्राव। विपर्ययः । सर्वत्र प्रणतत्वभावनीये, स्था० ४ ठा० १ उ०। मा० । विपा० । निचू० । बलं शारीरं सामर्थ्य, वीर्य जीव. परचक्करञ्ज-परचक्रराज्य-न० । अपरसैन्यनृपती, शा० १ शक्तिः,तदुभयमपि दर्शनस्य फलं पराक्रमः । बृ० ६ उ० । शत्रु शु.६अ। विनाशनशक्ती, ज. ३ वक्ष० । संयमानुष्ठाने उद्योगे, श्राचा परचित्तणाण-परचित्तान-न० । पराचत्तसाक्षात्करण, प्र१श्रु०३ १०१ उ० । सामर्थ्य विवक्षितदेशगमने, सूत्र०२ त्यये परचेतसः।" प्रत्यये परकीयचित्ते केनचिन्मुखरागा55श्रु० २ अ। दिना लिनेन गृहीते परवेतसो धीर्भवति,तथा संयमवान् स. परक्कमएणु-पराक्रमझ-त्रि० । विवक्षितदेशगमनशे, सामर्थ्यशे, । रागस्य चित्तं वीतरागचेति परचित्तगतान् सर्वानेव धर्मान् श्रात्मक्षे, सूत्र० २ १० १०। जानातीत्यर्थः । तदुक्तम्-" प्रत्ययस्य परचित्तज्ञानम्।" (३-१६) "न च सालम्बनं,तस्याविषयीभूतत्वादिति । (३२) परक्कममाण-पराक्रममाण-त्रि। परानिन्द्रियकर्मरिपून् आक्र लिङ्गाञ्चित्तमात्रमवगतं, न तु नीलविषयं पीतविषयं वा तममाणे, प्राचा० ११० ६ श्र. १ उ० । नि। दिति, अज्ञात श्रालम्बने संयमस्य कत्तेमशक्यत्वात्तदनबगपरक्कमियब-पराक्रान्तव्य-न। शक्तिक्षयेऽपि तत्पालने,विधेये। तिः । सालम्बनचित्तप्रणिधानोत्थसंयमे तु तदयगतिरपि उत्साहातिरेके, स्था. ८ ठा० । कर्तव्ये सिद्धिफले, पुरुष- भवत्येवेति भोजः। द्वा० २६ द्वा०। स्वाभिमाने, भ०६ श० ३३ उ०।। परच्छेद-परच्छन्द-त्रि० । पराभिप्राये, स्था०४ ठा०४ उ०। परक्कम्म-पराक्रम्य-श्रव्य० । समीपमागत्य शीलस्खनयोग्य- पराधीने, पाइ० ना० १८ गाथा । १३१ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२२) परच्छंदाणुवत्तिन अन्निधानराजेन्द्रः। परतत्त परच्छंदाणुवत्तित्र-परच्छन्दाऽनुवृत्तिक-न० । परच्छन्दस्य अत इत्यस्यार्थे वर्तते। यतः पर परिजवादास्यन्तिकः संसार: पराभिप्रायस्यानुवृत्तिरनुवर्तना यत्र तत्परच्छन्दानुवृत्तिक अतः (खिगिया) परनिन्दा । तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् पापि कैम् । पराभिप्रायजनके, स्था० ४ ठा. ४ उ० । च दोषवत्येव । अथवा स्वस्थानाधम स्थान पाति का । नत्रेह परन्छंदाणुवत्तित्त-परच्छन्दानुवर्तित्व-न । परस्याऽऽराध्य जन्मनि सुकरो दृष्टान्तः। परलोकेऽपि पुरोहितस्यापि श्वाऽऽदि. स्य छन्दोऽभिप्रायस्तमनुवर्त्तयतीत्येवं शीलः परानुवर्ती, तद् घूत्पत्तिः, (इतिरिति)इत्येवं संख्याय परनिन्दा दोपवती ज्ञात्या मुनिजोत्यादिभिर्यथाऽहं विशिष्टकुलोद्भवः श्रुतवान् तपस्वी भभावः परच्छन्दानुवर्तित्वम् । भ०२५ श० ७ उ० । पराभि वांस्तु मतो हीन इति न माद्यति ॥२॥ सुत्र०१ श्रु०२ १०२ उ०॥ प्रायानुवर्तित्वे, स्था० ७ ठा०। परणिवाय-परनिपात-पुं० । परस्मिन् देशे स्थापने, परनिपापरजोइ (स)-परज्योतिष-न० । आत्मरूपे तत्वे, द्वा०२४ द्वा०। तपूर्वनिपात शब्दो व्याकरणे प्राय नपलच्यते । आचा० १ परज्झदेशी-परवश, रागद्वेषग्रहग्रस्तमानसे. उत्त०४ अ०। श्रु०४ श्र० ३ उ० परवशीकृते, बृ०४ उ० । परतन्त्रतायाम्, स्था० १० ठा। ' परतंत-परतन्त्र-त्रि० । पराधीनवृत्तौ, विशे० । पराऽऽयत्ते परट्ट-परावर्त-पुं० । पुद्गलपरावर्ते, कर्म० १ कर्म। पराभिप्रायगते, व्य० १ १०। परद-परार्थ-०। परोपकारे,परेषामुपदेशदानेन सम्यक्त्वादि परतत्त-परतत्त्व-न० । परब्रह्मणि परमा ऽऽत्मनि, पोछ । गुणप्रापणे, ध०३ अधि० परनिमित्ते, दश०६ अाचा श्रन्त्र घोडशकम । किं पुनस्तत्र ध्याने ध्येयमित्याहपरहकरण-परार्थकरण-न० । परार्थः परोपकारः परेषामुप- सर्वजगद्वितमनुपम-मतिशयसन्दोहमृद्धिसंयुक्तम् । देशदानेन सम्यक्त्वाऽऽदिगुणप्रापणमित्यर्थः, तस्य करणं स- ध्येयं जिनेन्द्ररूपं, सदसि गदत्तत्परं चैव ॥१॥ म्पादनम् । परेषामुपदेशे, " सापेक्षयतिधर्मोऽयं, परार्थकर (सत्यादि) सर्वजगत्माणि लोकोऽभिधीयते, तस्मै हितं, णाऽऽदिना। तीर्थप्रवृत्तिहेतुत्वाद्, वर्णितः शिवसौख्यदः॥२॥" हितकारित्वात् । हितकारित्वं च सदुपदेशदानातू । न विद्यते ध० ३ अधि। उपमा शरीरसन्निवेशसौन्दर्यादिभिर्गुणैर्यस्य तदनुपमम,अति परद्वरसिय-परार्थरसिक-पुं० । परोपकारबद्धचित्ते, द्वा० १५ शयात् संमुग्धे प्रपूरयति यत्तदतिशयसंदोहम । यद्वा-अतिशद्वा । यो०वि०। यसमूहसंपन्नमिति यावत् । ऋद्धिसंयुक्तम, ऋष्यो नानाप्रपरवाणंतर-परस्थानान्तर-न०। परमाणोर्यत्परस्थाने ह्यणुका कारा आमर्पोषध्यादयो अन्धयस्ताभिः संयुक्तं समन्वितं, ध्येय ध्यातव्यं, जिनेन्डरूपं जिनेन्मस्वरूप,सदसि सभायां समवसर"दावन्तर्भूतस्यान्तरं चलनव्यवधानं तत्परस्थानान्तरम् । णे,गदव्याकुर्वाण सर्वसत्वस्वनापापरिणामिन्या भाषया,तत्प. अन्यस्थानाऽन्तर्भूतत्वेन क्रियायाम, भ० २५ श० ४ उ०। रं चैव तस्मामुक्तलकणाजिनेन्डरूपात्परं मुक्तिस्थं धर्मकायावपरट्ठाणसणिणगास-परस्थानसनिकर्ष-पुं० । विजातीययो स्थानन्तरभावि तत्वकायावस्थास्वभावं, चैवं ध्येयं भवति ॥१॥ गाऽऽश्रयणे, भ० २५ श. ६ उ०। ताऽऽद्य जिनेन्ड रूपमधिकृत्यं कीदृशं तद्ध्येयमित्याहपरटुञ्जय-परार्थोद्यत-त्रि० । परहितकरणोयमवति, हा० ३१ सिंहाऽऽसनोपविष्ट, छत्रत्रयकल्पपादपस्याधः। अष्ट०। सत्त्वार्थसंप्रवृत्तं, देशनया कान्तमत्यन्तम् ॥२॥ परडड-परडड-न० । दशगुणितमध्ये, कल्प०१ अधि० ७ क्षण। (सिंहासनेत्यादि) सिंहोपलक्वितमासनं सिंहाऽऽसनं देवपरडा-दशी-सर्पविशेषे, दे० ना०६ वर्ग ५ गाथा। निर्मितं. तत्रोपविणं, सिंहस्थ मृगाधिपतेरासनमवस्थानविशेष. परणिंदंझाण-परनिन्दाध्यान-न० । परस्य निन्दा परनिन्दा, रूपमूर्जितमनाकुन च, तेनोपविमिति वा । प्रात कादय तीति छत्रं, तेषां यमुपर्युपरिष्टात, कल्पपाइपः कल्पद्रुमः, तस्या ध्यानम् । कूरगमुकं प्रति कपकाणामिव दुश्याने, श्रातु। नत्रयं च कल्पपादश्च, तस्याऽधोऽस्तात्, सवाः प्राणिनपरणिंदऽप्पुक्करिसविप्पजुत्तत्त-परनिन्दाऽऽत्मोत्कर्षविप्रयतत्व- स्सेषामर्थ उपकारस्तस्मिन्, सम्यक् प्रवृत्तं स्वगतपरिश्रमपनपरगहाऽऽत्मप्रशंसारहित्य रूपे सत्यवचनातिशये, स. रिहारेण, देशनया धर्मकथया कान्तं कमनीय मनोशमत्यन्त. ३५ सम०। रा०। मतिशयेन ध्येयमिति संबन्धः ॥ २॥ परणिंदा-परनिन्दा-स्र० । परेषां गर्हणे, सूत्र० । पुनरपि कीहक् तद्रूपमित्याइसाम्प्रतं परनिन्दादोपमधिकृत्याऽऽह आधीनां परमौषध-मव्याहतमखिलसंपदां बीजम् । जे परिभवई परं जणं, संसारे परिवई मह । चक्राऽऽदिलक्षणयुतं, सर्वोत्तमपुण्यनिर्माणम् ॥ ३ ॥ अद इंखिणिया उपातिया, इति संखाय मुणीण मजई श (आधीनामित्यादि ) आधीनां शारीरमानसानां पीमावि. (जे परिभवा इत्यादि) यः कश्चिदविवेकी परिभवत्यवशयति, शेषाणां परमौषधं प्रधानौषधकल्प, तदपनेतृत्पनाच्याहतमनु. परं जनमन्यं लोकमात्मव्यतिरिक्तम्, स तत्कृतेन कर्मणा सं. पहतम, अखिल संपदा सर्वसंपत्तीना, बीजकारण, चकाऽऽदानि सारे चतुर्गतिलकणे भवोदधाचरघट्टघटीन्यायेन परिवर्तते | यानिलकणानि चक्रस्वस्तिककमलकुलिशाऽऽदीनि, तैयत समा भ्रमति,महदत्यर्थ, महान्तं वा कालम । क्वचित् चिरमिति पावः। वितं, सर्वोत्तमं च तत् पुण्यं च निर्मीयतेऽनेनेति निर्माणं स. • अदति ) अपशब्दो निपातः, निपातानामनेकार्थरपातू । बोत्तम पुण्य निर्माण यस्यति सर्वोत्तमपुण्यनिर्मितमित्यर्थः ॥३॥ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परतत्त तदेव विशिनष्टि निर्वासाधनं मुवि भव्यानामयमतुलमाहात्म्यम् । सुरसिद्धयोगिवन्यं वरेण्यशब्दाऽभिधेयं च ॥ ४ ॥ (द) निर्वाणसाधनं परमपदप्रापकं खाने या नियमा साधारणप्रभासुरा देवाः सा विद्यामन्त्रसि:35यो योगिनी पानीयं स्तुत्यं यशनाभिधेयं वाच्यं वरेण्यशब्दाभिधेयं च जिनेन्द्ररूपं ध्येयमि त्यभिसंबध्यते ॥ ४ ॥ एवमाद्यं लालम्बनध्यानमभिधाय तत्फलमभिधित्सुराद्दपरिणत एतस्मिन् सति सयाने चीकिल्बिषो जीवः । निर्वाणपदाऽऽसत्रः, शुक्राऽऽभोगो विगतमोहः ॥ ५ ॥ (परिणादिपरिसम्म पनि प्रिस्तुते, सद्ध्याने शोभनध्याने, कीणकिल्मिषः कीणपापो, जीब आत्मा, निर्वाणपदस्याऽऽसन्नः प्रत्यासत्तिमान्, शुक्लाऽऽभोगः क्लज्ञानोपयोग, विगतमोहोऽपगतमोहनीयः ॥ ५ ॥ चरमावञ्चकयोगा- त्प्रातिभसंजाततत्त्वसंदृष्टिः । " इदमपरं तच तद् यद्वशतस्त्यस्त्यतोऽप्यन्यत् ।। ६ ।। ( परमेत्यादि ) चरकपात् फलोत् प्रागुक्तात् प्रतिना मतिस्तत्र भवं प्रातिनं प्रतिभैव वा प्रातिनं, सेनजस्य स प्रातिभसंज्ञाततश्वसंदृष्टिः परिणत एतस्मिन् जयतीत्य व सेयम् । इदमिति प्र पीरूपम अपरा पर्ति परस्परमार्थ (५२३) अभिधान राजेन्द्रः । " यशापयत्सामपरामर्थ्यादित्यर्थमि बत्यतोऽप्यपरसम्वाद मुक्तिस्य भवति-स्यापि ध्यानपरस्य योगिनोऽपरतत्ववशात्परं तत्वमाविर्भघर्तीति ॥ ६ ॥ कस्मात्पुनः परं तत्वमेव संस्तूयत इत्याहतस्मिन् दृष्टे दृष्टं तद्भूतं तत्परं मतं ब्रह्म । तद्योगादस्यापि येषा त्रैलोक्यसुन्दरता ।। ७ ।। (द) हे समुपलब्धे सर्वमेव वस्तु भवति, जीवा55 यस्वालम्बोध सरूपं भूतं सत्यं सं सारिजीवस्वरूपस्य ज्ञानावरणादिकर्माऽनृतस्य सद्भूततश्ववियोगात् । कर्ममलमलिनस्य ह्यात्मनो न भूतं रूपमुपलपितु भूतमेव स्वरूपं तरतूदच परमात्म स्वरूपं परं प्रकृष्टं मतमभिप्रेतं ब्रह्म महत्, बृहत्तमं न ततोऽन्य दस्ति तद्योगात् परनस्वयोगात, श्रस्याऽपि हि परतत्त्वविष यध्यानविशेषानालम्वनयोगस्य एवा लोलोकोस ब प्रतिकन्दरता लोक सर्व जगति वि शेषवस्तुच्यः सुन्दरता शोभनता ॥ ७ ॥ कः पुनर्निरानयोगीश्याह सामर्थ्ययोगतो या तत्र दित्यसङ्गराच्या । सानालम्बनयोगः, प्रोकस्तद्दर्शनं यावत् ।। ८ । - ཟུ सामयोगतः शाखांत्वात् कृपकणार भाविनः सकाशात् । सामर्थ्ययोगस्वरूपं चेदम्-" शास्त्रसदर्शितोपायस्तदतिक्रान्तगोचरः शक्त्युकाधिशेषेण सा मोऽयो यमुत्तमः ॥१॥ " या तत्र परतये दि [टका पासा बाउसी शविध निभाउन परिपूर्ण परम दर्शनेच्छा, अनालस्वनयोगः प्रोक्तस्तद्वेदिभिस्तस्य परतस्वस्य दर्शन केल अनालम्बनयोगो न भवति, तस्य तदालम्बनत्वात् ॥ ८ ॥ कथं मानोऽयमित्याहतत्राऽप्रतिष्ठितोऽयं यतः महत्तम तत्त्वतस्तत्र । सर्वोचमानुजः खलु तेनानालम्बनो गीतः ॥ ६ ॥ तत्र परतस्वेऽप्रतिष्ठितोऽलब्धप्रतिष्ठः, श्रयमनालम्बनो, यतो य स्मात्प्रवृत्तश्च ध्यानरूपेण तवतो वस्तुतस्तत्र परतये, सर्वोत्त मानुजः तु सर्वोतमस्य योगस्यानुजः प्रागनन्तरवच, तेन कारणेनानाऽलम्बनो, गीतः कथितः ॥ ९ ॥ किं पुनरालम्बनासीत्पाद द्रागस्मात्तद्दर्शन- मिषुपातशतमात्रतो ज्ञेयम् । एतच्च केवलं तज् ज्ञानं यत्तत्परं ज्योतिः ॥ १० ॥ (द्वागित्यादि) सम्यना सदर्श नं परतत्वदर्शनमिषोः पातस्तद्विषयं ज्ञातमुदाहरणं तन्मात्रादिदर्शन तब परमदर्शनं के संपूयं केनमित्यर्थः I ज्ञानं परं प्रकृष्ट, ज्योतिः प्रकाशरूपम् । इषुपातोदाहरणं चयया फेनचिद धनुर्धरेतादिप्र कल्पिते यावत्तस्य वाणस्य न विमोचनं तावत्तत्प्रगुणतामात्रेण तदविसंवादित्वेन च समानोऽनालम्बनो योगो, यदा तु तस्य वाणस्य विमोचनं लक्ष्याविसंवादिपतनमात्रादेव लक्ष्यवेधकं तदाssस्नोत्तरकालभावी तत्पातकल्पः लालम्बनः केवलज्ञा नप्रकाश इत्यनयोः साधर्ममङ्गीकृत्य निदर्शनम् ॥ १० ॥ की पुस्तकेानमित्याहआत्मस्थं त्रैलोक्य - प्रकाशकं निष्क्रियं परानन्दम् । तीताऽऽदिपरिच्छेदकमलं धुवं चेति समयज्ञाः ॥ ११॥ ( जारमध्यमित्यादि ) आत्मनित्यात्मस्थं जीवस सत्यस्य विलोकयस्थितस्य यस्य जीवाजीवस्वरूपस्य, प्रकाशकमवबोधकमात्मनः परेषां च पदार्थानां स्वरूपापर्क वा निष्क्रियं गमनाऽऽदिक्रियारहितं पर श्रा नन्दोऽस्मिन्निति परानन्दम् । पाठान्तरं वा परैरानन्यमभिनन्दनीयं तत्प्रात्यर्थिभिः श्लाघनीयं रोचनीयमिति यावत । तताऽऽदिपा सिद्ध विनिश्चयाऽऽदिग्रन्थेषु दर्शनात् । इताऽऽदि परिच्छेदकं तंगतमतिक्रान्तम् श्रतीतवर्त्तमानानागतानां कालत्रय विषयाणां प दार्थानां परिच्छेदकं परिच्छेतु ज्ञातृस्व नात्रम्, अयं समर्थ, धुवं चे. ति शाश्वतं चेति, समयज्ञा आगमज्ञा इत्थमभिदधति । कथं पुनर• तीतादिपरिच्छेदकत्वं केवलज्ञानस्य याचताऽतीतानागत बोथिं चार्यमाणया स्तुत्यमेव न घटां प्राञ्चति, विनष्टानुत्पन्नत्वेनाल'वर्तमानत्वादसतश्च ज्ञानविषयत्व विरोधादिति । अत्रोच्यते न व काअधिकपर्याप्रतिकृण परतत Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परतत स्तुतीतानागतानाच काssकाररूपत्वात्, तत्र च वर्त्तमानपर्यायवत् स्वलक्षणन्नाविनामतीतानागतपर्यायाणामपि प्रमाणेनोपलब्धेर्वस्तु सच्चादन्यथा स्मृत्यादिज्ञानविषयतीतादिपर्यायाणां न जयेत् श् तस्मापि वस्तुनि वस्तु पाखरूपस्यासंभ पास्यायां सहपत्वाद्विषयं ज्ञानं परिच्छेत्वेन सम्भवतीति निरवद्यम् ॥ ११ ॥ एवं केवलज्ञानस्वरूपमनिधाय परतध्वयोजनायाऽऽहएतद्योगफलं तत्, परापरं दृश्यते परमनेन । तवं यद्रष्ट्रा निवर्तते दर्शनाकारता ।। १२ ॥ दत्यादि) योगफलं पराप परयोगस्यापरयोगस्य च फलभूतं, नान्यद् दृश्यते समुपलभ्यते साकारपरमनेन केवल परमार सरूपरूपमुपलभ्यते दादनवाछा, सर्वस्य वस्तुनो दृष्टत्वात् ॥ १२ ॥ श्रधुना परतत्वमेव स्वरूपेण कारिकाचतुष्टयेन निरूपयन्निद ( ५२४ ) अभिधान राजेन्द्रः । माद तनुकरणाऽऽदिविरहितं तथाचिन्त्यगुणसमुदयं सूक्ष्मम् । त्रैलोक्यमस्तकस्थं, निवृत्तजन्माऽऽदिसंशम् ।। १३ ।। (तनुकरणेत्यादि ) तनुः शरीरं करणं कर बहिष्करणं च । अन्तःकरणं मनो बहिष्करणं पञ्चेन्द्रियारायादिशब्दाद् योगाध्यवसायस्थानपरिग्रहस्तैर्विरहितं वियुक्तं तच्च परं तत्वमन्त्रिन्त्यो गुणसमुदयो झज्ञानाऽऽदिसमुदयो यस्य तदचिन्त्यगुणसमुदयं, सूक्ष्मं सूक्ष्मस्वभावमदृश्यत्वात्केवल विरहेण त्रैलोक्यस्य मस्तकं सर्वोपरिवर्ती सिद्धिक्षेत्रविभागः, तस्मिंस्ति ष्ठतीति त्रैलोक्यमस्तकस्थं, निवृत्ता जन्माऽऽदयः संक्लेशा यजिम्माऽऽदिशम् ॥ १३ ॥ ज्योतिः परं परस्ता तमसो यद गीयते महामुनिभिः । आदित्यवर्णममलं ब्रह्माऽऽयैरचरं ब्रह्म ।। १४ ।। म ( ज्योतिरित्यादि ) ज्योतिः प्रकाशस्वनावं प्रधानं परस्तात्तमसो द्रव्यभावरूपादन्धकारात् यजीयते यत्संशब्द्यते, हामुनिभिानपत्र आदित्यवर्णममलं निदर्शनमा कर णेन भाखररूपं, न पुनः परमार्थतस्तस्य पुरुत्राऽऽत्मकः परिणामो अतिरितिविशेष्यपदं महामुनिभिरित्यनेनाभिसंबन्धते । न करतीत्यकरं स्वभावात्कदाचिन्न प्रच्यवत इति कृत्वाऽकर परं तवं तथा ब्रह्म महत्"बृहत्याका ब्रह्मेति परिकीर्तितम् !” इत्यभिधानात् । अथवाऽकरं ब्रह्म तत् परं तत्वम् ॥१४॥ नित्यं प्रकृतिवियुकं लोकालोकावलोकनाऽऽभोगम् ॥ स्तिमिततरङ्गोदधिसम-मवर्णमस्पर्शमगुरुलघु ॥१५॥ (नित्यमित्यादि) नित्यं ध्रुवं प्रकृतिवियुक्तं स्वतन्त्र परिभाषया [सका मारणादिनोत्तरमेव प्रकृतिि रिजापया सश्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिरित्यनया वियुकं सांसारिक पत्रकार मोकालोक यांकन आग उपयोगोऽस्येति लोक भोगं स्तिमिततरतेन समं रिमो कल्पद्यते वर्णः पञ्चः सिताऽऽदिरस्येव न विस्पष्ठकारी दिनवि परतित्थिय गुरुलघु दगुरुलघु परं तत्त्वम् । सर्वाबाधारहितं परमाऽऽनन्दसुखसङ्गतमसङ्गम् । निःशेषफलातीतं सदाशिवाऽऽयादिपदवाच्यम् ।। १६ ।। (सर्वेत्यादि) सर्वाssवाधारहितं शारीरमानसाऽऽबाधावियुक्तं, परमानन्दो यस्मिन् सुखे तेन सङ्गतं युक्तमनेन परपरिकस्पितनिःसुख दुःखमोकयवच्छेदमाह । न विद्यते सङ्गो यस्मि न्नित्यसङ्गमस्त्रङ्गतायुक्तम् । तल्लक्षणं चेदम्-" भये च हर्षे च मतेरविक्रिया, सुखेऽपि दुःखेऽपि च निर्विकारता स्तुती नि दासु च तुल्यशीलता इति तस्यविशेताम्॥१॥" निःशेषा याः कलास्ताभ्योऽतीतं तथा भव्यत्वाऽऽद्यात्मस्वभाव. शातिक्रान्तंासि दरवयोगलपायिक वारि नावात् । सदा शिवमस्येति सदाशिवं न हि परतस्वमशिवं कदाचिद्भवति । आदौ भवमाद्यं प्रधानं सन्तत्या अनादिकालमारिया माना जिनक ग्रहः सदाशिवाऽऽपरं त्राऽनिसंबन्धनीयम् ॥ १६ ॥ षो० १५ विव० । परतत्त्वावर परतत्त्वव्यापृत शि० परकृत्यक्षिके प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार । परतत्ति-परतप्ति - स्त्री० । परकृत्ये, प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार । परतत्तिपवित्त-परतप्तिप्रवृत्त - त्रि । गृहस्थप्रयोजनेषु करणका रणानुमतिभिः प्रवृत्ते व्य०१ उ० । श्राव० । परतारग-परतारक- पुं परं तारयन्तीति परतारकाः। तपः कर्तु मसमर्थेषु श्राचार्याssदीनां वैयावृष्य कारकेषु, व्य० १२० । परतित्थिय - परतीर्थिक-पुं० । कपिलकणभक्षाक्षपाद सुगता SSदिमताधिकेषु नं० सूत्र धर्माधर्मसमाश्रयणेन, अनयोरन्तर्वर्ती जवतीति 'मिस्त्र' शब्दा 4 अण्णनदवगन्तव्यम् ) ( परतीर्थिकाणां सर्वा वक्तव्यता थिय शब्दे प्रथमभागेका ) मिथाऽगुरुलघुपरिणामोपेतममू " एते जिया भो न सरणं, बाला पंडियमाणिणो । हिचा णं पुण्यसंजोगं, सिया फिसमा ॥ १ ॥ (इति) पक्ष कामदा तपादिना शालानुसार राशिका जिला अ मिभूतादिनः सादिविषये तथा प्रमा मोहोत्थज्ञानेन च । जो इति विनेयाऽऽभन्त्रणम् । एवं त्वं गृहाण यथैते तीर्थिका असम्यगुपदेशप्रवृत्तत्वान्न कस्यचिच्चरणं नवितुमर्हन्ति, न कथञ्चित्त्रातुं समर्था इत्यर्थः । किमित्येवं ?यतस्ते बालाश्व बालाः । यथा शिशवः सदसद्विवेकबैंकव्याद्यत्किञ्चनकारिणो भाषिणश्च तथैतेऽपि स्वयमज्ञाः सन्तः परानपि मोहयन्ति । एवंभूता श्रपि च सन्तः परिमलमानिन इति । कचित्पाठः जत्थ बालोऽवसीयइति । " यत्राऽज्ञाने बालोऽझो लग्नः सन्नवसीदति तत्र ते व्यवस्थिताः यतस्ते न कस्यचित्त्राणायेति । यच विरूपमा चरितं तदुमरान दर्श यति हिरवा स्पाणमिति वारे पूर्वसंयोगो धनधान्यस्वजनाऽऽदिभिः संयोगस्तं त्यक्त्वा किल्ल वयं निःसङ्गाः Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परतित्थिय अभिधानराजेन्दः । परत्थका प्रव्रजिता इत्युत्थाय पुनः सिता बकाः परिग्रहेच्चाऽऽरम्भेष्यास- प्रदेशेन योगात्परत्वस्योत्पत्तिः। स्थविरं चाधि कृत्वा यस्या. क्ताः, ते गृहस्थास्तेषां कृत्यं करणीयं पचनपाचन कएलगपेषणा- Sढश्मश्रुनाऽदिनाऽनुमितमादित्योदयास्तमयानामरूपत्वम् । ऽदिको भूनोपमर्द कारी व्यापारः, तस्योपदेशः,नं गच्छन्तीति तन यूनि सनिकृष्टबुद्धिरुत्पद्यते,तमपेक्ष्य परेण कालप्रदेशेन यो. कृत्योपदेशगा,कृत्योपदेशका वा । यदि वा-(सिया इति) मा गादपरस्योत्पत्तिरिति । अत्र परस्यापरव साधनमनैकान्तिकं, र्षस्वादहुवचनेन व्याख्यायते-स्युभवेयुः, कृत्यं कर्तव्यं साब साभ्यविपकेऽपि हेतोवृतेः। तथाहि-यथा क्रमेणोत्पादानीमा. द्यानुष्ठानं, नरप्रधानाः कृत्या गृहस्थाः तेषामुपदेशः संरम्भसमार- ऽऽदिषु काझोपाधिक्रमेण च व्यवस्थानान्, दिगुपाधिश्व पर म्भाऽऽरम्भरूपः स विद्यते येषां ते कृत्योपदेशिकाः प्रवजिता नीलमपरं चेति प्रत्ययोत्पत्तिरसत्यपि परवापरत्व लकणे, गुणा. अषि सन्तः कर्तव्यगृहस्थेभ्यो न नियन्ते गृहस्था व तेऽपि नां निर्गुणत्वात् नादिष्वपि भविष्यतीति गर्थान्तरसर्वावस्थाः पञ्चसूनाव्यापारोपेता इत्यर्थः ॥ १॥ मिमित्तत्वमा परेण साधयितुमिष्टं,तदा कथं नानकान्तिकता एवं भूतेषु च तार्षिकेषु सत्सु भिक्षुणा हेतोः। अथ नित्यदिक्कासपदार्थहेतुगुणविशेषनिबन्धनावं प्रकृतयत्कर्तव्यं तद्दर्शयितुमाह प्रत्ययस्थ,तदारष्टान्तानावोऽनुमामबाधा च प्रतिझायाः। तथा तं च भिक्खू परिबाय, वियं तेसुण मुच्छए। हिन्यः परापरादिप्रत्ययः स परपरिकल्पित गुणरहितार्थमात्रकृतअणुक्कसे अप्पलीणे, मज्झण मुणि जावए ॥२॥ क्रमोत्पादनिबन्धना, परापरप्रत्ययत्वात् रूपादिषु परापरप्रत्यय वत्ता,परापरप्रत्ययश्वाय घटादिपिचति स्वभाष हेतु न च नीला. (तं च जिक्ख इत्यादि ) तं पास्त्रपिकलोकमसदुपदेशदाना दिकेष्वे कार्यसमवायादुपचरितोऽयं परस्वाऽऽदिप्रत्यय इत्यनका. भिरतं परिज्ञाय सम्यगवगम्य-यधैते मिथ्यात्वोपहतान्तराss- न्तिकता भवत्प्रयुक्तस्याऽपि हेतोः पारम्पर्येण । न च नीलाऽऽदि. स्मानः सहिबेकशून्या नाऽऽरम ने हितायानं नान्यस्मा इत्येवं वपि परत्वाऽऽदेनिमित्ताभावोपगमात् साध्यविकलता दृष्टान्तपर्या लोच्य, नापभिः संयतो विद्वान् विदितवेद्यस्तेषु न मू. स्येति वक्तव्यम्, अस्वलवृत्तित्वेनास्योपचरितत्वाजावात, छळयेत् न गाय विदध्यात्, न तैः सह संपर्कमपि कुर्यादि- स्वाश्रयेऽपि च तयोरुपमध्यभावात ननदलेन प्रत्ययो युक्त पति स्यर्थः। किं पुनः कर्तव्यमिति पश्चान दर्शयति-अनुत्कर्षः कुतो रूपाऽऽदिषु तनिवन्धनसो प्रविष्यति,सुखाऽऽदिषु वा पूर्वोबानित्यमदस्थानानामन्यतमेनाऽप्युत्सैकमकुर्वन् । तथा-मप्र- सरकालभाविषु तन्निबन्धनोऽयं भवेत् तत्रैकार्थसमवायाऽऽदिलीनोऽसंबस्तीथिकेषु गृहस्थेषु पावस्थाऽदिषु वा संश्ले. स्तनिवन्धनस्याभावात् । किं च-दिकालयोः पूर्वमेव प्रतिषिकबमकुर्वन् मन्येन रागद्वेषयोरन्तरालेन संचरन् मुनिर्जगत्त्रय त्वात तरतुकयोः परत्वापरत्व पोरनाव इति कुतस्तस्मिन्नित्तस्थाबेदी, यापयेदात्मानं वर्तयेत् । इदमुक्तं भवति-तीथिकाऽऽदि अशङ्का, यतो हेतोरन कान्तिकता स्यात् । न च परमार्थतो दि. निः सह सत्यपि कथश्चित्संबन्धे त्यक्ताहकारेण तथाभाव- कालयोः प्रदेशाः सन्ति,यतस्तत्सयोगाद काबुद्धिसहितासुरपतस्तेष्वप्रलीयमानेनारक्तष्टेिन तेषु निन्दामात्मनश्च प्रशंसा सिस्तयोर्मवेत्, दिकालयोरेकाऽऽत्मकत्वेन निरषयवत्वात न परिहरता मुनिनाऽऽस्मा यापार्यतव्य इति ॥ २॥ सूत्र.१०१। चाऽधक्रियानिबन्ध नपचरितोऽवयवभेदो युक्तः, यथोक्तार्थकिअ०४ उ. । (अन्यतीर्धिकाः सारम्भा, तस्मास्त्राणाय न यावस्तुस्वभावप्रतिबद्धत्वादुपचारस्य चापारमार्थिकस्वात, तत् स्युरिति 'प्रारम्भ' शब्छे द्वितीयभागे ३७० पृष्ठे गतम्) । कुतोऽकान्तिकता प्रकृतहेतो मम्म० ३ काफ। परत-परत्व-न० । श्वमस्मात्परमिति प्रत्ययहेतौ नैयायिकसं| परतीर-परतीर-न । पारे, पाइ० ना० २२६ गाथा । मतगुणभेदे, सम्म । इदं परम, इदमपरमिति यतोऽभिधान- | परत्थ-परत्र-भव्य । जन्मान्तरे इत्यथै, स्था०४ ठा011 प्रत्ययो भवतस्तद् यथाक्रमं परत्वमपरत्वं च सिम्म प्रयो गश्चात्र-योग्यं परमपरमिति च प्रत्ययःस घटाउदिव्यतिरिक्ता. | विशे० । उत्त०। सूत्र। स्तरनिवन्धना,तत्प्रत्ययविनवणत्वात्, सस्वा परार्थ-पुं० । परो मोवस्तदर्थः। मा. पू.१.। मो. । तथा हि-एकस्वां दिशि स्थितयोः पिरामयोः परमपरमिति कार्थे, विशे। च प्रत्ययोत्पतेने तावदय युक्तमोः परमपरमिति च प्रत्ययो देश- | परस्थकरण-पराकरण-न०। परस्यार्थ उपकारस्तस्करणम। निबन्धनो, नाप्ययं कालनिबन्धनः, तदविशेषऽपि प्रत्ययविशेषा परोपकारकरणे, षो। तीन चान्यदस्य निवन्धनमभिधातुं शक्यं, तस्माद्यग्निबन्धनो परार्धकरण माहऽयं प्रत्ययस्तत्परत्वमपरत्वं चाभ्युपगन्तव्यम् । एतब द्वितयापि विहितानुष्ठानपर-स्य तत्त्वतो योगशुद्धिसचिवस्य । दिग्कृतं, कामकृतं च । दिएकतस्य ताबदियमुत्पत्तिः-एकस्यां विश्यवस्थितयोः पिपस्योरेकस्य षष्टुः संनिष्टमवधि स्वैत भिक्षाऽटनाऽऽदि सर्व, परार्थकरणं, यते यम् ॥ ५॥ स्माद्विप्रकशेऽयमिति परस्याऽऽधारे बुद्धिरुपयते,ततस्तामपेक्ष्य (विहितेत्यादि ) विहितानुष्ठानपरस्य शास्त्रधिहिता सेवन परेण दिक्प्रेदेशन योगात्परत्वमुत्पद्यते, विप्रकृष्टं चावधि कृत्य- परस्य, तरवतः परमार्थेन,योगशुझिसचिवस्य मनोधासायविशुतस्मात्सभिकृोऽयमित्यपरवाऽऽधारे बुझिरुत्पद्यते, तामपे- चिसहितस्य, निक्काऽटनाऽऽदि भिक्काऽनयनपाषणाऽदि. च्यापरेण दिकप्रदेशेन योगादपरत्वस्योत्पत्तिः। कालकृतयो. सर्वमनुष्ठाने, पराधकरणं परोपकारकरण, यतेः साधोय डा. स्त्ययमुत्पत्तिक्रमः । तथाहि-वर्तमानकालयोरनियतदिग्देश- तब्यम भवत्याहारवखपात्राऽऽदि यतिमा गृधमाणस्य वाहणां युक्तयोर्युवस्थबिरयोर्मध्ये यस्य बलीपलितरुढइमथुनाऽऽदि. पुण्यबन्धनिमित्तत्वात्तस्य च साधुसुकत्वादिति ॥५॥पो. माऽनुमितमादित्योदयानां नुबसवं । तत्रैकस्य अर्यवा, समय १३ विषधि। धि कृत्वा स्थबिरे विधकृष्टबुद्धिापचते, तामपेक्ष्य परेण काल-परत्थका-परायत १३२ यत, तामपक्ष्य परेण कालपरत्थका-परार्थता-स्त्री.। परप्रत्यायकर, विशे। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२६) पत्यकाभोवभोगि (ण) अभिधानराजेन्द्रः। परदारामा परत्थकामोवभोगि ( ण् )-परत्रकामोपभोगिन्-वि.। घिर- सम् । स श्रमणोपासकः, प्रत्याश्याठीति पूर्ववत् । स्वकीया क्रमाऽभ्याथै कामभोगेषु प्रवृत्तिमति, ध०२०। दारा: स्यकल प्रमित्यर्थः । तेषु वा संतोषः स्वदारसंतोपतं या प्रतिपद्यते । श्यमत्र भावना-परदारगमन प्रत्याख्याता यासम्प्रति पापकामोपभोंगीति षोडश भेदमभिधिरसुराह स्वेव परबारशम्मः प्रवर्तते ताभ्य एवं निवर्सते, स्वदारसंसारविरत्तमणो, भोगुषभोगो न तित्तिहेउ ति । सन्तुष्टस्त्येकानेकस्षदारव्यतिरिकाभ्यः सर्वाभ्य एवेति । 'से' नाउँ पराणुरोहा, पवत्तए कामभोगेसु ॥ ७५ ॥ शब्दः पूर्ववत् , तब परदारगमनं द्विविधं प्राप्तं, तयथेति संसारोऽनेकदुःखाऽऽश्रयोऽधम् यतः पूर्ववत्, औदारिकपरदारगमनं ज्यादिगमनं, वैक्रियपर" दुःखं स्त्रीकुक्किमध्ये प्रथममिह भ गर्नबासे नराणां, दारगमनं देवानागमनम् । “ तत्थ चउत्थे अणुब्धए सामबालस्वे चापि पुःखं मानितननु स्त्रीपयःपाममिश्रम् । श्रेण अनियत्तस्स दोसा मातरमवि गच्छेजा। उदाहरणंतारुण्ये चापि दुःख भवति बिरहज वृद्धन्नावोऽप्यसारस, गिरिणगरे तिनि वयंसियाओ, तात्री उज्जेतं गयाओ, चोसंसारे रे मनुष्या: बढ़त यदि सुख स्वरूपमप्यस्ति किञ्चित ॥१॥ रोहिं गहिताओ, नेतुं पारसकूले विक्कियाओ, ताण पुत्ता शति । तस्माद्विरक्तमनाः। अभी नोगा:-"सभुज त्ति भोगो, डहरगा घरेसु उज्झियगा, ते वि मित्ता जाया, माउसि. सो पुण आहारपुप्फमाईओ। उवजोगो य पुणो पुण, उबनुन्जर णेहेण वाणिजेणं गया पारसकूलं, ताओ य गणियाश्रो सभवणविलवार ॥१॥" इत्येवमागम प्रतीतास्ते न तृप्तिहेतवो हदेसियाश्री त्ति भाडि देति, ते वि संपत्तीए सयाभवन्ति प्राणिनामिति ज्ञात्वाऽवधाये परानुरोधादम्य जनदा हिं गया, एगो सावगो ताहिं अप्पप्पणियाहिं मातमाकिरायाऽऽदिना प्रवर्तते कामेषु शब्द रूपेषु जोगेषु गन्धरसस्प. सियाहिं समं बुच्छा । सडो नेच्छति, महिला अणिच्छतं शेषु भाषश्रावकः, पृथिवीचन्द्रनरेन्जयत् । ध०र०५ अधि०६ नाउं तुरिहका अत्थइ । सहो भणइ-कभी तुम्भे प्राणीया। तार सिटुं। तेण भणियं-अम्हे चेव ते तुम्भ पुत्सा, इयलक । ( तत्कथा 'पुहवीचंद ' शब्दे वयते) रोसि सिटुं, मोइया पव्वइया । एते अणिवित्ताणं दोसा । परत्थकारि (ण )-परार्यकारिन्-त्रि। परोपकारकरणकशी- विइयं धूयाए वि समं वसेजा। जहा गुम्विणीए भज्जाए से, वो० १३ विव। संदिसावनं पेसिओ, जहा ते धूया जाया, सो जाव परत्यणियय-परार्थनियत-त्रि०। परोपकारनियतवृत्तौ, षो० | वबहरह ताव जोवणं पत्ता, अन्ननगरे दिन्ना, सो न याणह १४ विचः। जहा दिन त्ति, सो पडिपंतो तम्मि नगरे मा भंडं विणिस्सि हिति त्ति परिसारत्तं ठिो। तस्स तीए धूयाए समं घडियं, परदत्सभोई (ण )-परदत्तभोजिन-पुं०। परैगृहस्थैरात्मार्थ तह विन याणइ, वत्ते वासारत्ते गतो सनगरं, धूयागमणं निवर्सितमाहारजातं तैर्दत्तं भोक्तुं शील मस्य परदत्तभोजी । पळूण विलियाणि य । ताए अप्पा मारिओ । इयरो वि सूत्र.१ १०१७ अास्वतः पचनपाचनाऽऽदिक्रियारहितत्वा. पब्धाइयो । ततियं गोट्ठीए समं चेडो अत्थइ, तस्स माता त गृहस्थैः स्वार्थ निष्पाद्य दत्तस्याऽऽहारस्य भोजिनि, सूत्र० हिंडइ । सुरहा से नियगपरणा साहइ-पती, से न २ श्रु० १ ० । प्राचा। पत्तियइ । सा तस्स माता देवकुले ठिहिं धुत्तेहि गच्छंपरदब्ध-परद्रव्य-न० । परकीयऽव्ये, प्रश्न०१आश्र०हारसूत्र ती दिवा. तहिं परिभुत्ता, माया पुत्ताणं पोत्ताणि परियत्ति याणि । तीए भन्नइ महिलाए-कस्स एयं उवरिलं पोतं गहिपरदव्वहर-परद्रव्यहर-पुं० । परस्वामिकाव्यहारके चौरे, प्र यं । हा पाव! किं ते कयं ?। सो नट्ठो पन्वइयो । चउत्थं-जश्र०३ पाश्रद्वार। मलाणि गणियाए. उझियाणि, पत्तेयं मित्तेहिं गहियाणि परदार-परदार-पुं० । “परदारस्स य ।"(१५ गाथा ) परे प्रात्म- वहूति, तेसिं पुब्बसंथुइओ संजोगो को । अन्नया सो व्यतिरिक्ताः पुरुषास्तथा मनुष्यजात्यपेकया देवास्तियश्चश्च, | दारगो ताप गणियाए पुवमायाए सह लग्गो, सा गणितेषां दाराः परिणीतसंगृहीतभेदानि कलत्राणि देव्यः तिर. या धम्म सोउं पवइया, प्रोहिनाणं समुप्पन्नं, गणिया घरं गया, तेण गणियाए पुत्तो जाओ, अजा गहाय परिवंदर इच्यश्चेति परदाराः । परकलबेधु, यद्यपि अपरिगृहीतदेव्यस्ति. कहं पुत्तोऽसि मे भातजोऽसि मे दारगदेवरो सि मे भा. रश्स्यश्च काश्चित्सङ्ग्रहीतुः परिणेतुश्चाभाष दू वेश्याकल्पा नवन्ति, तथाऽपि प्रायः परजातीयत्नोग्यत्वात्परदारा एव ताः। यरो सि मे, जो तुरंभ पिया सो मज्झ पिया, पती य ससु रोय भाषा य मे, जा तुझ माया सा मे माया भाउजापश्चा०१ विवा। भातु। इया सा वत्तिणी सासू य । एवं नाऊण दोसे वज्जेयव्वं । परदारगमण-परदारगमन-न० । अात्मव्यतिरिक्तो योऽन्यः स एए इह लोगे दोसा । परलोगे पुण नपुंसगत्तविरूवत्तपियविपरः, तस्य दाराः कलत्रम् परदारास्तत्र गमनम् । परक त्राss. प्पभोगादिया दोसा हवंति, नियत्तस्स इहलोए परलोए य सेवायाम, श्राव गुणा, इहलोए कच्छे कुलपुत्तगाणि सढाणि, पानंदपुरे एगो परदारगमणं समणोवासो पञ्चक्खाइ, सदारसंतोसं वा य धिजाइश्री दरिहो, सो सूलेसरे उववासेण वरं मग्गह। को धरो।चाउब्वेज,भत्तस्स मोल्लं देहि,जा पुग्नं करेमि । तेण पडिवाइ। से अपरदारगमणे दुविहे पन्नत्ते । तं जहा-ओ बाणमंतरेण भाणितं-कच्छे सावगाणि कुलपुत्ताणि भजप्पहरालिअपरदारगमणे, वेउव्विअपरदारगमणे अ। याणि, पताणं भत्तं करेहि,ते से महप्फलं होहेइ, दोनि वारे आत्मव्यतिरिक्तो योऽन्यः स परः, तस्य दारा:-कलत्रं पर- भणिो ,गो कच्छ, दिनं दाणं लावयाणं भत्तं दक्खिणं च, दारा, तत्र गमनं परदारगमनं, गमनमा सेवनारूपतया नष्ट भणइ-साहह किं तुभं तवचरणं,जेण तुम्भे देवस्स पुजाणि। Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२७) परदारगमण अभिधानराजेन्द्रः। परदारगमण तेहि भणियं-अम्हे बालभाये एगंतरं मेहुणं पचक्खायं,अनया अनमो णत्थि नीसारं, मंदिरोवरि संठिया ।। अम्हाणं कह बि संजोगो जाओ, तं च विषरीयं समाषडियं, पहियर्स एगस्स बंभचेरपोसहो तदिवसं धीयस्स पारणगं, आसममंदिरं असं, लघित्ता गंतुमिच्छुगा । एवं अम्हे जरं गयाणि चेष कुमारगाणि चेष । धिजाइ मणसा पि तहेव जा-ता व पज्जलिया दुवे ॥ श्रो संबुद्धो। एए इहलोए गुणा, परलोए पहाणपुरिसत्तं, नियमभंगतियं सुहमं, तीए तत्थ ण निदियं । देवते पहाणाम्रो अच्छराओ, मणुयते पहाणाम्रो माणु- तनियमभंगदोसेणं, दुम्भेत्ता पढमियं गया ।। सीओ, घिउला य पंच लक्खणा भोगा य पियसंपश्रीगा य, भासरणसिद्धिगमणं चेति । " इदं चातिचाररहितमनुपा एवं नायं सुडुमं पि, नियम मा विराहिह । लनीयम् ॥३॥ जं छिज्जा अक्खयं सोक्खें, अणंतं च भणोवमं ।। तथा चाह तवसंजमे वएसुं च, नियमा दंडमागया । सदारसंतोसस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणि तमेव खंडमाणस्स, ण वए णोवसंजमे ॥ यव्वा, ण समायरियव्वा । तं जहा-इत्तरियपरिग्गहिया आजम्मेणं तु जं पावं, बंधिज्जा मिच्बंधगा । गमणे १, अपरिग्गहियागमणं २,अणंगकीडा ३, परवीवा वयभंग काउमाणस्स, तं चेवऽद्वगुणं मुणे ।। हकरणे ४, कामभोगतिव्वाभिलासे ५॥४॥ सयसहस्सं सलद्धीए, जोवसामित्तु निक्खमे । स्वदारसंतोषस्य श्रमणोपासकेनामी पश्चातिचारा ज्ञातव्याः, वयतियमखंडतो, जं सो तं पुन्नमज्जिणे ॥ न समाचरितव्याः। तद्यथा-इत्वरपरिगृहीतागमनं १,अपार पवित्ती य नियत्ती य, गारत्थीसंजमे तवे । गृहितागमनं २, अनङ्गक्रीडा ३, परविवाहकरणम् ४, काम जमणुट्ठिया तयं लाभ, जाव दिक्खा ण गिरिहया ।। भोगतीवाभिलाषः । आव०६ अ० । पञ्चा०४ विव० । श्रा० चू० । ध० । (अपरिगृहीतागमनम् 'अपरिग्गहियाग ताव साहुणिवग्गेणं, विनायव्वमिह गोयमा!। मण ' शब्दे प्रथमभागे ६०० पृष्ठे गतम ) इत्वरपरि- जेसिं मोत्तूण ऊसासं, नीसासं नाणुजाणियं ॥ गृहीतागमनम् । इत्तरपरिग्गहियागमण ' शब्दे द्विती- तमवि जयणाए ण सव्वहायभागे ५८४ पृष्ठे व्याख्यातम् ) ( अनङ्गक्रीडावर्जनम् अजयणाए ऊससंतस्स,को धम्मो को तवो॥ 'अणंगकिडा' शब्दे प्रथमभागे २५६ पृष्ठे दर्शितम् ) (परविवाहकरणस्वरूपं, तर्जनं च 'परविवाहकरण 'शब्दादव भयवं! जावइयं दिटुं, तावइयं कह णु पालिया। गन्तव्यम्) ("कामभोगतिब्वाभिलास" शब्दे तृतीयभागे जे भवे अविइयपरमत्थे, किच्चाकिञ्चमयाणगे। ४४३ पृष्ठे तत्पदव्याख्यानं गतम्) एगतेणं हियं वयणं, गोयम ! दिस्संति केवली । मैथुनदोषमुक्त्वाऽऽह यो बलवोंडीइ कारेंति, हत्थे घेत्तूण जंतुणो॥ तारिसो विणिवित्तंसो, परदारस्स जइ करे । तित्थयरभासिए वयणे, जे तह त्ति अणुवालिया। सावगधम्मं च पालेइ, गई पावेइ मज्झिमं ॥ सेंदा देवगणा तस्स, पाएहि य णमंति हरिसिया । भयवं! सदारसंतोसे, जइ भवे मज्झिमं गई । जे अविइयपरमत्थे, किच्चाकिच्चमजाणगे। ता सरीरे वि होमंतो, कीस सुद्धिं ण पावइ ? ॥ अंधो अंधीए तेसि समं, जलथलंगद्ददिकुरं (१)॥ सदारं परदारं वा, इत्थी पुरिसो व गोयमा!। गीयत्थो य विहारो, वीश्रो गीयत्यमीसश्रो । रमंतो बंधए पावं, णो णं भवइ अबंधगे । समणुनाओ सुसाहूणं, नत्थि तइयं ठियप्पणं ।। सावगधम्मं जहुत्तं जो, पाले परदारगं चए । गीयत्थे जे सुसंविग्गे, अणालसी दढब्बए । जावजीवं तिविहेणं, तमणुभावेण सा गई । अखलियचारित्ते सययं, रागदोसविवजिए । णवरं नियमविहूणस्स, परदारगमणस्स उ । निद्वविय अट्ठमयट्ठाणे, समयकसाए जिइंदिए । अणियत्तस्स भवे बंध, णिवित्तीए महाफलं ॥ विहरिजा तेसि सद्धिं तु, ते छउमत्थे वि केवली ।। घेत्ता णं पि निवित्तिं, जो मणसा वि विराहए। सुहुमस्स पुढविजीवस्स, जत्येगस्स किलामणा । सो मओ दुग्गई गच्छे, मेघमाला जहजिया ।। अप्पारंभं तयं बिंति, गोयमा ! सबकेवली ॥ मेघमालजिया नाहं, जाणिमो भुवणबंधव । सुहुमस्स पुढविजीवस्स, वावत्ती जत्थ संभवे । मणसा वि अणुनिवित्तिं जा, खंडितुं दुग्गई गया । महारंभं तयं विति, गोयमा ! सबकेवली ।। वासुपुजस्स तित्थम्मि, भोलाकालगच्छे वि । पुढविकाइयं एकं, दरमले तस्स गोयमा। मेघमालजिया आसी, गोयमा ! मणदुब्बला ॥ आसाय कम्मबंधे, दुहुविमोक्खे समुखिए । सा नियमा सपक्खं, दात तिक्खा य निग्गया। एवं च आउ तेऊ, वाऊ तह वणसई । Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परदारगमण तसकार्य मेहुने तह य, विकणं चिराह पावर्ग ॥ तम्हा मेहुणक, पुढवादी विराहस्रं । जावजीवं दुरंतफलं, तिविहं तिविहेण बजिए || ता जे अविदियपरमत्थे, गोयमा यो यं मुखे। सम्हा से विवज्जे, दोपंथदायने ।। महा० ६ || । ( गीतार्थवचनमेव कर्तव्यं नान्यत्किमपीति गीयत्थ ' शब्दे तृतीयभागे ६०२ पृष्ठे गतम् ) परदारवेरमण-परदारविरमण - न० । परदारगमनविरतौ, चतुasya, ध० २ अधि० । ० परस्थानपराधिनोऽप्यात्मकृतदो ( ५२८ ) निधानराजेन्द्रः । परदूसरा परदूषण न० पचटापने श्रातु० । परदूसरान्काय-परदूषण ध्यान-१० परस्थानपराधिनोऽया. तदोषवटापनं परदूषणम्। अऋर्षि प्रति ज्योतिशा श्रनेन हता इति स्वदोषं चटापयतो रुद्रकस्येव दुर्ध्याने, श्रातु । परदोसियत - परदेशिकत्व - न० । परेषां मार्गोपदेशकत्वे, बृ०। अथ परदेशकत्वद्वारमाहआयपरसमुत्तारो, आणा वच्छल्ल दीवणा भत्ती । होंति परदेसियने, अव्वोच्छित्ती य तित्थस्स ||३७१ ॥ पठितः सन् परेषां देशकत्वं मार्गदेशकत्वं करोति, तस्मिन् आत्मनः परस्य च समुत्तारो भवति । तथाहि -स साधुरनधीतसाधूमध्यापयशात्मनो बानाऽऽचरणीयं कर्मोपहन्ति ते च साधवो हतोपदेशेना निरादेवापारसंसारमहोदधेरुत्तरन्ति । एवं च कुर्वता तीर्थकृतामाशा, अथात्मनः साधूनां च चात्स यं तथा दीपना प्रभावना, महिथ परमेश्वरप्रवचनस्प पतानि तानि भवन्ति, तीर्थस्य याव्यतिरास्विता भवति एते गुणाः परदेशकृते भवन्तीति । गतं परदेशिक त्वद्वारम् । वृ० १ उ० २ प्रक० । ( परदेशिकत्वद्वारे वर्णिताःआत्मसमुत्तारः, परसमुत्तारः तीर्थकृतामात्रा, तस्पाऽऽहाया भेदाः' आणा' शब्द द्वितीयभागे ११५ पृडादारभ्य विस्तरतो दर्शिताः) । (तथा वात्सल्यस्वरूपं बच्छ शब्दे वक्ष्यते ) तथा - दीपना प्रभावना (सा च ' पभावणा ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ४३८ पृष्ठे गता) तथा (भक्तिः 'भत्ति' शब्दादवगन्तव्या ) ( तथा अव्यवच्छित्तिश्व 'अव्वोच्छित्ति ' शब्दे प्रथमभागे ८१८ पृष्ठे गता ) 3 , परदोस - परदोष - पुं० । परस्य दूषणे. प्रश्न० ३ संब० द्वार । परद्वेष- पुं० । परा प्रीती, प्रश्न० ३ संव० द्वार । परदोसपमासय- परदोषप्रकाशक- वि० अन्यदोषप्रकटका रतं । परदोसबतिय-परदोषप्रत्ययिक न० परहोपात्रा मखमुत्कर्षनिबन्धने मानप्रत्ययिका उपरनामके नवमे किया स्थाने, सूत्र० २ ० २ श्र० । परद्ध - त्रि० । पीडिते, पाइ० ना० १६० गाथा । पतिते, भीरौ च । दे० ना० ६ वर्ग ७० गाथा । परभण-परधन - १० । परमव्ये, प्र० ३ प्राथ० द्वार " परचणम्मि गेही " परचने वृद्धि सप्तमं गौणारा 5दानम् । प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार । " परपरिवायभाण परधणपरिवञ्जय- परधनपरिवर्जन १० । परे आत्मम्यतिरि जनास्तेषां धनं वित्तं परधनम्, तस्य परि समन्ताद् वर्जनं परिहरणं परधनपरिवर्तनम् । पराता ऽऽदानविरती दर्श २ तव । परपइद्विय-परप्रतिष्ठित भि००२०२४० ('कोड' शब्दे तृतीयभागे ६८३ पृष्ठे व्याक्या ) परपयोग - परप्रयोग - पुं० । स्वव्यतिरिक्तजनव्यापारे, प्रश्न० १ आश्र० द्वार । परपभोगोदीरणा परप्रयोगोदीरणा श्री० । स्वम्यतिरिक्रज नव्यापारदुःखोत्पादनायाम्, प्रश्न० १ श्रश्र० द्वार । परपंडिय - परपरिडत-पुं० परः प्रकृष्टः परितः परपण्डितः। बहुशास्त्रशे, परो वा मित्राऽऽदिः परिडतो यस्य स तथा परितमित्रे, स निपुण संसर्गानिपुणो भवति वैद्यकृष्णकवदिति नैपुणिकत्वं तस्य । स्था० ६ ठा० । परपक्ख- परपक्ष - पुं० । वैधर्मिकलोके, ध०२ श्रधिः । मिथ्याहटौ, नि० ० १ ३० । खरकपरिवाजकाऽऽदिषु वृ० १ ३०२ प्रक० । परपक्खिय-परपाचिक पुं० [वैधर्मिकपसमाधि दी। महो पाध्याय श्रीविमलायैगविकृतप्रश्नः परपाक्षिकसंपादितस्तो चादिकं मातुरुष्कसंपादितरसवतीनादेयमेव कविशेषपाति उत्तरम् परपाक्षिकसंपादितस्तीarssदीनां मातङ्गतुरुष्काऽऽदिसंपादितरसवत्युपमानं सतां मेवानुचितमिति किं प्रतिवचनेन ॥ १३॥ ही० १ प्रका० । परपचयकारण- परमत्ययकारण न० परेषां त्वत्पादने व्य० ४ उ० । 5. । परपज्जर- परपर्थ्याय पुं० । वर्तमानपर्यायस्यतिरिक्रभूतभविपरपज्जव-परपर्य्याय- । व्यपर्यायेषु सम्म ३ काण्ड | परपत्त-परपात्र - न० । परपतद्द्महे, सूत्र० १ ० ६ श्र० । परपक्षिय परप्रत्यय-त्रि० परहेतुके ० २० । । । परपरिगहिप परपरिगृहीत- त्रि० । अन्यबंशीवैरधिष्ठितेषु, वृ० १ ० १ प्रक० । परपरिभवकारण- परपरिभवकारण न० अपमाननाहेती, प्रश्न० २ संब० द्वार । परपरिवाइय-परपरिवादिक-त्रि० । परेषां परिवादोऽस्ति येयांते परपरिवादिकाः परदीपविकत्यकेषु श्र० परपरिवाय परपरिवाद पुं० काका परदोषाऽपादने, सूष०१ ॐ० १६ श्र० विकत्थने, " एगे परिपरिवार ।” स्था० १ठा० । प्रश्न० प्र० परदोषपरिकीर्त्तने, स्था० ४ ठा० ४ उ० वि. प्रकीर्ण परकीयगुणदोषप्रकटने, कल्प० १ श्रधि० ६ क्षण । दशा० । परेषामपवदने, भ० १२ श०५ उ० । परेषां सद्गुणनाशने, पं० चू० । परपरिपात पुं० परेषां गुणेभ्यः परिपालने, २०१२०५ उ० | मानकषायभेदे, स०५२ सम० । परपरिवायभाग- परपरिवादध्यान-१० परं प्रत्यवभूतदोपाविष्करणं परपरिवादः तस्य ध्यानं सुभद्रां प्रति त धूननादृणामिव परदोषाने तु । । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परपरिवायप्पिय परपरिवायप्पिय-परपरिवादप्रिय मि० इष्टान्यदूषणाभिधाने, प्रश्न० २ श्र० द्वार । परपासंड- परपाखण्ड - पुं० । सर्वशप्रणीतपाखण्डव्यतिरिक्ने, आव० ६ अ० | परपाखण्डानां - सर्वशप्रणीतपाखण्डव्यतिरिक्तानाम् ( आ. ०) विषयधिकानि भवन्ति । ( ५२६ ) अभिधानराजडः | यत उक्तम् 33 3 "असयं किरिया अकिरियवाई दोर चुतसीति । अण्णापि सतट्ठी, बेणइयाएं च बत्तीसं १ ॥ यमपि गाथा विनेयजनानुग्रहार्थ प्रन्धान्तरप्रतिषाऽपि लेशवो व्याख्यायते - ( असिइसयं किरियाणं ति ) अशीत्युत्तरं शतं क्रियावादिनां तत्र न कर्त्तारं विना क्रिया सम्भवति तामात्मसमवायिनी वदन्ति ये तच्छीला ते पावादिनः ते पुनरात्माऽऽचस्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणा अनेनोपायेनाशीत्यधिकशतसङ्ख्या विज्ञेयाः- जीवाजीवाऽऽश्रयबन्धसंवरनिर्जरापुण्यापुण्यमोक्षाऽऽख्यान् नय पदार्थान विरत्र्य परिपाटया जीवपदार्थस्याधः स्वपर भेदावुपम्य सनीयी तयोरो नित्यानित्यमेव तयोरप्यथः कालेश्वरामनियतिस्वभावभेदाः पञ्च भ्यसनीयाः । पुनरथं विकल्पाः कर्त्तव्याः- अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालत इत्येको वि. कल्पः । विकल्पार्थश्चायम् - विद्यते खल्वयमात्मा स्वेन रूपेण नित्यश्च कालतः कालवादिनः उक्तेनैवाभिलापेन द्वितीयो विकल्प ईश्वरयादिनः तृतीयो विकल्प आत्मवादिनः पुरुष एवेदं सर्वम्" इत्यादि, नियतिवादिनश्चतुर्थो वि कल्पः, पञ्चमविकल्पः स्वभाववादिनः, एवं स्वत इत्यत्यजता लब्धाः पञ्च विकल्पाः । परत इत्यनेनाऽपि पञ्चैव लभ्यन्ते । नित्यत्वाऽपरित्यागेन चैते दश विकल्पाः। एवमनित्यत्वेनाऽपि दशैव. एकत्र विंशतिर्जीयपदार्थेन लब्धाः, अजीवाऽऽदिष्वप्यष्टस्वयमेव प्रतिपदं विंशतिर्विकल्पानामतो विंशतिर्नचगुणा शतमशीत्युत्तरं कियायादिनामिति (अ किरिया च भवति सुतसीति ति) प्रक्रियावादिनां च भवति चतुरशीतिर्भेदा इति । न हि कस्यचिदवस्थितस्य पदार्थस्य किया समस्ति तद्भाव एवावस्थितेरभावादित्येषं वादिनोऽकियावादिनः। तथा चाऽऽ" सिकाः सर्व संस्कारा अस्थितानां कुतः किया है। भूतिर्वेषां किया सेय, कारकं सैव यच्यते ॥ " हत्यादि । ते चात्मा ऽऽदिनास्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणा श्रमुनोपायेन चतुरशीतिर्दृष्टएतेषां हि पुण्यापुण्यवर्जितपदार्थ कन्यासस्तथैव जीवस्याधः स्वपरविकल्पभेदद्वयोपन्यासः असवादात्ममो नित्यानित्यभेदी न स्तः कालादीनां पञ्चानां षष्ठी पहरा न्यस्यते धादिभिलाषः नास्ति श्री. वः स्वतः कालत इत्येको विकल्पः । एवमीश्वराऽऽदिभिरपि यहावसानः सर्वे च यह विकाथा नास्ति जीवः प रतः कालत इति षडेव विकल्पाः, एकत्र द्वादश। एवमजीवाSsदिष्वपि षट्सु प्रतिपदं द्वादश विकल्पाः, एकत्र सप्त द्वादशगुणाधतुरशीतिर्विकश्या नास्तिकानामिति (ि सट्टि सि ) अज्ञानिकानां सप्तपरिनँदा इति । तत्र कु· तिलतं ज्ञानमज्ञानं, तदेषामस्तीति अज्ञानिकाः । नन्वेवं लघुत्वात् प्रक्रमस्य प्राकू बहुमीहिणा भवितव्यं, ततश्वाशाना इ१३३ 66 परपासंडपसंसा " तिस्पात् मेष दोषः ज्ञानान्तरमेवाहानं मिथ्यादर्शनसहचारित्वात् तत जातित्वात् गौरवरवर स्पमित्यादि वदशानिकत्वमिति । श्रथवा श्रज्ञानेन चरन्ति तत्प्रयोजना वा प्रशानिकाः संचिन्त्य कृतवैफल्यादिप्रतिपत्तिलक्षणा - मुनोपायेन सप्तषष्टिर्ज्ञातव्याः । तत्र जीवाऽऽदिनवपदार्थान् पूवयत् व्यवस्थाप्य पर्यन्ते चोत्पतिमुपन्यस्याः सप्त सदादप उपन्यसनीयाः, सच्वमसत्वं सदसत्वम्, श्रवाध्यत्वं. सदवाच्यश्वम् असवाच्यत्वं सदसद्वाच्यत्वमिति वेकैकस्य जीassदेः सप्त सप्त विकल्पाः, एते नव सप्तकाः त्रिषष्टिः, उत्पतेस्तु चत्वार एवाऽऽद्या विकल्पाः । तद्यथा सध्वमसवं. सदसम् अवाच्यत्वं चेति त्रिपमध्ये शिताः सप्तषष्टिर्भवति को जानाति जीवः सन्नित्येको विकल्पः ज्ञातेन वा किम् टी एवमसदादयोsपि वाच्याः । उत्पत्तिरपि किं सतोऽसतः, सदसतोsवाच्यस्येति को जानातिति ?, पतन्न कश्चिदपीत्यभि प्रायः (पाणं च बत्तीस ति) वैनयिकानां च द्वात्रिशभेदाः चिनयेन चरन्ति विनयो वा प्रयोजनमेषामिति - नयिकाः, एते चानता विनयप्रतिपत्तिल या अनोपायेन गन्तव्याः सुरनुपतियतिहा तिस्थविराधम मातृपितॄणां प्रत्येकं कायेन वचसा मनसा दा नेन च देशकालोपपन्नेन विनयः कार्य इत्येते चत्वारो भेदाः सुराऽऽदिष्वष्टसु स्थानकेषु, एकत्र मिलिता द्वात्रिंशदिति, स " या पुनरेतेषां त्रीणि शतानि विवधिकानि न तत् वमनीषिकाव्यापानम् । यस्मादन्यैरप्युक्तम्"श्रास्तिक मतमात्माद्याः, नित्यानित्यात्मका नव पदार्थाः । कालनियतिस्वभावे-श्वराSSत्मकृतकाः स्वमरसंस्थाः ॥१॥ कालपरच्छनियतीश्वरखभावात्मनखतुरशीतिः। नास्तिकवादिगणमतं, न सन्ति भावाः स्वपरसंस्थाः ॥ २ ॥ ज्ञानिकवादिमतं नव जीवाऽऽदीन् सदादिसप्तविधान् । भयो सतावायांव को पत्ति १ ॥ ३ ॥ वैनयिकमतं विनयश्चेतोवाक्कायदानतः कार्यः । सुरपतियतिज्ञाति स्थविराधममातृपितृषु सदा ॥ ४ ॥ " इत्यलं प्रसङ्गेन । श्राव० ६ श्र० । परपासंडपडिमा परपाखण्डप्रतिमा - स्त्री० । परपाखण्डलिङ्गे, व्य० १ ३० । (परपाखण्डप्रतिमाकरणम् ' उवसंपया' शब्दे द्वितीयभागे १००५ पृष्ठे गतम् ) परपादपसंसा परपाखण्डमशंसा स्त्री० [परपाखण्डानां खप्रणीतपाखण्डयतिरिक्रानां प्रशंसा, प्रशंसनं प्रशंसा, स्तुतिरित्यर्थः । श्राव० ६ श्र० । परदर्शनिनां गुणोत्कीर्त्तने, - उत्त० २ श्र० । परपासंडपसंसा, सक्काइणमिह वन्नवाओ उ ॥ ( ८ ) परपाखानां सर्वक्षीतव्यतिरिक्रानां प्रशंखेति समा सः । प्रशंसनं प्रशंसा, स्तुतिरित्यर्थः । तथा चाऽऽहशाक्यादीनामिद वर्णवादस्तु शाक्या रक्रमितयः आदिशब्दात्परिवाजकाऽऽदिपरिग्रहः । वर्णवादः प्रशंसीच्यते-पुराभाजते सुन्धमेनि जन्म, दयालय एत इत्यादि । ( था० ) अत्र चोदाहरणम्- पाडलिपुत्ते चाएको, चंदगुत्तेणं भिक्खुगाणं विती ह रिता, ते तस्स धम्मं कहेंति, राया तूसति, चाणकं प लोपति ण य पसंसति, ण देति तेण चाणकमजा श्री. Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३०) अभिधानराजेन्डः। परभव परपासंडपसंसा लग्गिता. तीए सो करणं गाहितो, तेहिं कथिते भणितं परवंभ-परब्रह्मन्-न । शानामृतसमुद्ररूपे परमात्मनि, अष्ट तेण-सुभासियं ति । रमा तं श्रच दिणं, वितियदिवसे चा- २अष्ट। णको रायाणं भणति-कीस दिनं ?राया भणइ-तुझेहि प. परभव-परभव-पुं० । जन्मान्तरे, दशा० १० प्र० । सूत्रः । संसितं । सो भणइ-ण मे पसंसितं, अहो सब्बारंभपवित्ता प्रा. म.। (आत्मनः श्राता' शब्दे द्वितीयभागे १७६ पृष्ठे कर लोगं पत्तियाविति ति? । पच्छा ठितो, केसिया परि परलोकयायित्वमभिहितम्) सा, तम्हा ण कायव्वा ।" आव०६ अ०। बालविज्ञानस्य विज्ञानान्तरपूर्वकत्वसाधनेन परभवतहा य जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा पासडाणं पसंसं क सिद्धिःरेज्जा, जे यावि णं निराहगाणं पसंसं करेज्जा, जे णं णि- विमाणतरपुव्वं, बालप्माणमिह नाणभावायो । एहगाणं अणुकूलं भासेज्जा, जेणं णिएहगाणं आययणं जह बालनाणपुब्वं, जुवनाणं तं च देहहि ॥१६६१।। पविसिज्जा, जेणं निराहगाणं गंथसत्थपयक्खरं वा परूवे- अन्यविज्ञानपूर्वकमिदं बालविज्ञानम्, विज्ञानत्वात् , इह ज्जा, जेणं निराहगाणं संतिए कायकिलेसाइए तवेइ वा, यद् विज्ञानं तदन्यविज्ञानपूर्वकं दृष्टम् , यथा-बालविज्ञानसंजमेइ वा,जाणेइ वा,विभाणेइ वा, सुएइ वा, पडिच्चेइ वा, पूर्वकं युषविज्ञानम् , यद्विज्ञानपूर्वकं चेदं बालविज्ञानं त च्छरीरादन्यदेव, पूर्वशरीरत्यागेऽपीहत्यविज्ञानकारणत्वात्, भाभिमुहसुद्धपरिसामझ णिए सलाहेज्जा,से वि णं परमा- तस्य च विज्ञानस्य गुणत्वेन गुणिनमात्मानमन्तरेणासंभहम्मिएसु उववज्जेज्जा. जहा सुमती । महा० ४ अ०। वात् , तच्छरीरव्यतिरिक्तमात्मानं व्यवस्यामः, न तु शरीरपरपासंडसंथव-परपाखण्डसंस्तव-पुं० । परपाखण्डैः सह सं. मेघाऽऽत्मेति । विज्ञानत्वादिति प्रतिज्ञार्थकदेशत्वादसिद्धो वासजनिते परिचये, आष०६०। हेतुरिति चेत् । न । विशेषस्य पक्षीकृतत्वात् । भवति च विशेषे पक्षीकृते सामान्यं हेतुः, यथाऽनित्यो वर्णाऽ त्मकः परपासंडपसंसा, सक्काइणमिह वप्लवानो उ। शब्दः, शब्दत्वात् , मेघशब्दवत् । एवमिहापि बालविज्ञातेहि सह परिचयो जो, स संथो होइ नायब्वो।।।। नमभ्याविज्ञानपूर्वकमिति विशेषः पक्षीकृतः, न तु सामान्य(गाथापूर्वार्थम् 'परपासंडपसंसा' शब्दे ५२६ पृष्ठे व्या. विज्ञानमन्यविज्ञानपूर्वकमिति पक्षीकृतं, येन विज्ञानत्वादिक्यातम) तैः परपाखण्डैरनन्तरोदितैः सह परिचयो यः ति प्रतिक्षार्थकदेशः स्यात्, यथाऽनित्यः शब्दः, शब्दत्वास संस्तवो भवति ज्ञातव्यः, परपाखण्डसंस्तव इत्यर्थः । दित्यादि ॥ १६६१ ॥ संस्तव बह संवासजनितः परिचयः संवसनभोजनाला अथान्यदनुमानम्पाऽऽदिलक्षणः परिगृह्यते, न स्तवरूपः, तथा च लोके प्र- पढमो थणाहिलासो, अमाऽऽहाराहिलासपुब्बोऽयं । तीत एप संपूर्वः स्तौतिः परिचय इति । " असंस्तुतेषु प्रसभं जह संपयाहिलासो-अणुभूइयो सो य देहहिओ १६६॥ भयेषु ।" (किरा०३ सर्ग) इत्यादौ इति ॥८॥ (श्रा०)अयमपि च न समाचरणीयः । तथाहि-एकत्र संवासे तत् गौतम!प्रायःस्तनाभिलाषो बालस्यायमन्याभिलाषपूर्वकः, प्रक्रियाऽऽश्रयणात् तक्रियादर्शनाश्च तस्यासकृदभ्यस्तत्वा अनुभूतेः-अनुभवाऽऽत्मकत्वात् , साम्प्रताभिलाषवदिति । बवाप्तसहकारिकारणात् मिथ्यात्वोदयतो दृष्टिभेदः संजायते, अथ वा-'अभिलाषत्वात्' इत्ययमनुक्कोऽपि हेतुर्द्रष्टव्यः । इह अतोऽतिचारहेतुत्वान्न समाचरणीयोऽयमिति । पाष०६अ। योऽभिलाषः, सोऽम्याभिलाषपूर्वको दृष्टः,यथा साम्प्रताऽभिभत्र खोदाहरणम्-" सोरटुसहगो पुब्वभणितो । सो दु लापः, यदभिलाषपूर्वकश्चायमाद्यः स्तनाभिलाषः स शरीराभिक्खे भिक्खुपहि समं पट्ठो, भत्तं से देति अनया विसू वन्य एव, पूर्वशरीरपारत्यागेऽपीहत्याभिलाषकारणत्वात् । इयाए मनो, चीवरेण पच्छाइनो, अविसुद्धोहिणा पासणं शानगुणश्चाभिलाषो न गुणिनमन्तरेण संभवति । अतो भिक्खुगाणं, बाहार आहारदाणं, सावगाणं खिसा, जुगप यस्तस्याऽऽथयभूतो गुणी स शरीरातिरिक्त पात्मेति । हाणाण कहणं-विराहियगुण ति, आलोयणं नमोकारपढणं, पाह-मम्बनकान्तिकोऽयम्, सर्वस्याऽप्याभिलाषपूर्वकत्वापरियोहो, केत्तिया परिसं ति"।८८ गाथा । श्रा। नुपपसे। न हि मोक्षाभिलाषो मोक्षाभिलाषपूर्वको घटते। तदयुक्तम् । अभिप्रायापरिक्षानात्, यो हि स्तनाभिलाषः स परपासंदि (ण)-परपाखण्डिन्-पुं० । मिथ्यादृष्टी, परपाखण्डि सामान्यनवाभिलाषपूर्वक इत्येतदेवास्माभिरुच्यते, न पुनलक्षणम्- 'जो प्राणाणं मिच्छत्तं कुब्वंतो कुतिथिए वा एति विशेषेण घूमः- स्तनाभिलापोऽन्यस्तनाभिलापपूर्वकः " जिणबयणं व ण गच्छइ, सो परपासंडी। जो पुण गिही अ. इति । एवं च सामान्योक्लो मोक्षाभिलाषपक्षेऽपि घटत मतिस्थिमो या इमेरिसो।" नि०चू०१६ उ० । एव, मोक्षाभिलाषस्याऽपि सामान्येनाऽन्याभिलाषपूर्वकत्वापरपुट-परपुष्ट-पुं० । कोकिले स्था०१० ठा०जी०। जं.रान दिति ॥ १६६२ ॥ परपुर-परपुर-न० । शत्रुनगरे, प्राय०५ श्रः। अनुमानान्तरमाहपरप्पवाइ (ए)-परप्रवादिन्-पुं० । परतीर्थिक,सूत्र० १ १० बालसरीरं देह-तरपुव्वं इंदियाइमत्तानो। १०१ उ०। जुबदेहो बालादिव, स जस्स देहो स देहि ति।१६६३। परप्पवित्तिदोस-परप्रवृत्तिदोष-पुं। सूत्रदोषभेदे, यत्र सुबहु बालशरीरं शरीरान्तरपूर्वकम्, इन्द्रियाऽऽदिमयात् इह यमप्यर्थ वर्णयित्षा निदर्शनं करोति । वृ० १ उ०१ प्रक०। दिन्द्रिया दिमत्, तदन्यदेहपूर्वकं दृष्टम्, यथा युवशरीरं या Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३१ ) निधानराजेन्द्रः | परभव देहपूर्वकम् यत्पूर्व बालशरीरं तत् शरीराश्य तरम्, तदत्ययेऽपीत्यशरीरोपादानात्, यस्य च तच्छरीरं स भवान्तरयायी शरीरादर्थान्तरभूतो देहवानस्यात्मा न पुनः शरीरमेवाऽऽत्मेति सिद्धमिति ॥ १६६३ ॥ अनुमानान्तरमाह सुदुक्ख सुहाइ बालस्स संपसुई व । अणुभूइमयत्तणभो, अनुभूय जीवोति । १६६४ । अन्यसुखपूर्वकमिदमार्च बालसुखम् अनुभवात्मकत्वात् साम्प्रतसुखयत्, यत्सुखपूर्वकं बेदमार्थ सुखम्तीदम्यदेव, तदत्ययेऽपीत्य सुखकारणत्वात् । गुणश्चायम्, स गुणिनमन्तरेण न संभवति, अतो यस्तस्याऽऽश्रयभूतो गुणीस देहादर्थान्तरम् इति सुखानुभूतिमयो जीव इति सिद्धम् । एवं दुःख-राग-द्वेष-भय-शोकाऽऽड्‌यो ऽप्यायोज नीया इति ॥ १६६४ ॥ , अथ प्राण जीवकर्मसिद्धावुलान्यप्यनुमानान्यवाऽपि जीवसिद्धिप्रस्तावात् मन्दस्मृत्यनुग्रहार्थ पुनरप्याहसंताणोऽणाई उ, परोप्परं हेउ - हेउभावाथ्यो । देहस्स व कम्मस्स व, गोयम बीर्यकुरा व १६६५ । यदि नाम देह कर्मणोरनादिः सन्तानः, तर्हि जीवसिद्धौ किमायातम् इत्याह तो कम्म - सरीरा, कत्तारं करण - कज्जभावाओ । परिवज्ज तदम्भहिमं दंड पदार्थ कुलालं व । १६६६। अस्थि सरीरविहाया, पइनिवयागार घटस्सेव । अक्खाणं च करणओ, दंडाई कुलालो व्व । १६६७ अत्यिदियविसया, भायाणाऽऽदेयभावओोऽवस्तं । कम्मार इवादाया, लोए संडास - लोहाणं ।। १६६८ ॥ भोत्ता देहाई, भोज्जत्तणओ नरो व्व भत्तस्स । संघायाइत्तण, अत्थि य अत्थी घरस्सेव ॥१६६६ ॥ जो कतार स जीवो, सम्झविरुद्धो ति ते मई होज्जा । मुतापसंगायो, तं नो संसारियो दोसो । १६७० ।। आसां व्याख्या पूर्ववदेवेति ॥ १६६६ ॥ १६६७ ॥ १६६८ ॥ १६६६ ॥ १६७० ॥ अथ सुगतमतानुसारी कश्विदाह - ननु सर्वपदार्थानां क्षणनवरत्वाज्जीवस्यापि क्षणिकतया शरीरेण सदैव विनष्टत्या वस्तुतः शरीरात् तस्यानयांग्तरतेय इति किं तय तिरिक्तत्वसाधनप्रयासेन ?, इत्यत्राऽऽह जाइस्सरो न विगो, सरयाओ बालनाइसरखो न । जह वा सदेसवत्तं नरो सरंतो विदेसम्म ।। १६७१ ॥ यो जातिस्मरो जीवः स प्राम्भविकशरीरविगमे अप स्वति न विगत इति प्रतिक्षा (सराउ ति ) स्मरणादिति हेतुः । यथा - बालजाती बालजन्मनि वृत्तं स्मरतीति बालजातिस्मरणो वृद्ध इति दृष्टान्तः । यथा वा स्वदेशे मालयकमध्यदेशाची पुतं विरेऽपि गतो न स्मरन् न विगतः। भवति योऽन्यदेशकाला। धनुभूतमर्थ स्म रति सोऽविनको यथा बालकालानुभूतानामर्थानाम दृष्टः, परभव तुस्मर्त्ता वृद्धाऽऽयवस्थायां देवदत्तः । यस्तु पिनो मासी किञ्चिदनुस्मरति, यथा जन्मानन्तरमेवोपरतः । न च पूर्वपूर्वक्षणानुभूतमाहितसंस्कारा उत्तरोत्तरक्षणाः स्मरन्तीति चक्रम्यम् पूर्वपूर्वक्षणानां निरम्ययविनाशेन सर्वथा दिनत्यात् उत्तरोत्तरक्षणानां सर्वथा अपत्यात् न चान्याभूतमन्योऽनुस्मरति देवदत्तानुभूतस्य यज्ञदत्तातुस्मरणप्रसङ्गादिति ॥ १६७१ ॥ अथ पराभिप्रायमाशङ्कय प्रतिविधातुमाहयह ममसि खयियो वि हु, सुमरइ विभाणसंतगुखाओ। वह वि सरीरादयो, सिद्धो विधावतायो ।। १६७२ ।। अथैवं मन्यसे त्वम्-क्षणिकोऽपि क्षणभरगुरोऽपि जीवः पूर्ववृत्तान्तं स्मरत्येव । कुतः ?, इत्याह-विज्ञानानां विज्ञानक्षणानां सन्ततिः सन्तानस्तस्या गुणस्तत्सामर्थ्यरूपस्तस्मादिति, क्षणसन्तानस्यावस्थितत्वात् शरानश्वरोपे स्मरती स्पर्थः । अत्रोत्तरमाह- ननु तथाऽप्येवमपि सति ज्ञानल यसन्तानस्याप्रेतनशरीरान्तर्भवान्तरसद्भावः सिद्धयति, सर्वशरीरेभ्यश्च विज्ञान सन्तानस्येत्थमर्थान्तरता साधिता भवति, अविच्छिन्नविज्ञान सन्तानाऽऽत्मकश्चैवं शरीरादर्थान्तरभूत आत्मा सिद्धो भवतीति । तदेवं परभवमङ्गीकृत्याविनष्टस्मरणमावेदितम् ॥ १६७२ ।। विशे० । 4 अष्टपूर्वक परलोकसिद्धिः । तथाहि नास्तिकस्तानचा मिष्टवान्। स प्रष्यः किमाश्रयस्य परलोकिनोऽभावात् अप्र त्यक्षत्वात् विचाराभ्यमत्वात् साधकाभावाद्वभाष म वेत् ? । न तावत्प्रथमात्, परलोकिनः प्राक् प्रसाधितत्वात् । नाप्यप्रत्यक्षत्वात्, यतस्तवाऽप्रत्यक्षं तत् सर्वप्रमातृणां वा । प्र थमपक्षे त्वत्पितामहाऽऽदेरप्यभावो भवेविराऽतीतत्वेन तस्य तथाप्रत्यक्षत्वात् तदभावे भवतोऽप्यभाषो भवेदित्य नवीन वादयेदधी । द्वितीय कल्पोऽप्यल्पीयान् सर्वप्रमा तु प्रत्यक्षमदृष्टनिष्टङ्कनिष्णातं न भवतीति वादिना प्रत्ये तुमशक्तेः, प्रतिवादिना तु तदाऽऽकलनकुशलः केवली कक्षीकृत एच विचाराक्षसत्यमन्यतमं कर्करास्वर्यमाणस्य तस्य घटनात् । ननु कथं घटते । तथाहि तदनिमि सनिमित्तं वा भवेत् । न तावदनिमित्तं सदा सच्चास स्वयोः प्रसङ्गात् । "नित्यं सत्यमसत्वं या हेतोरन्यानपे क्षणात्।" यदि पुनः सनिमित्तं तदाऽपि तत्रिमितमष्टा न्तरमेव, रागद्वेषादि कषाय-लु हिंसादिक्रिया वा प्रथमे पते ऽनवस्थाव्यवस्था । द्वितीये तु न कदाऽपि कस्यापि कर्माभावो भवेत् । तद्धेतोः रागद्वेषाऽऽदिकषाय- कालुष्यस्य सर्वसंसारिणां भाषात्। तृतीयपक्षोऽप्यरूपपादः, पाप-पुण्य-हेतुत्व-संमतयोहिंसाऽईत्पूजाऽऽदि क्रिययोर्व्यभिचार-दर्शनात्कृपण- पशुपरम्पराप्राणप्रहाणकारिणां कपट- घटना - पटीय. सां पातु त्रिपुराऽविद्रोहिणामपि केचाचिचपलारुचामरापपत्र- पालपार्थिषधीदर्शनात्। जिमपति-पदपङ्कज- पूजा -परायणानां निखिलप्राणिपरम्पराऽपारकरुयाःकृपाराणामपि केषाञ्चिनेकोपयदारिद्र्य मुकान्तत्वाssलोकनादिति । अत्र श्रमः- पक्षत्रयमप्येतत्कक्षीक्रियत एव । प्राच्याऽदृष्टान्तरवशगो हि प्राणी राग-द्वेषाऽऽदिना प्राणव्यपरोपणानि कुर्याः कायम प्रथम म वस्था दौस्थ्याय मूलक्ष्यकरत्वाभावात्, वीजा कुराऽऽदिस Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३२) अभिधानराजेन्द्रः । परभव 99 मानवत् तत्सन्तानस्याऽनादित्वेनेष्टत्वात् । द्वितीयेऽपि यदि कस्यापि कम्ममाथी न भवेन्मा भूत्सिद्धं तावदष्टम् । मुक्तिवादे तदभाषोऽपि प्रसाधायेष्यते । तृतीये तु या हिंसातोऽपि समृद्धिः, अर्हत्पूजावतोऽपि दारिद्रयाऽतिः, सा क्रमेण प्रागुपात्तस्य पापानुबन्धिनः पुण्यस्य, पुण्याऽनुत्रधिमः पापस्य च फलम् । तत्क्रियोपातं तु कर्म जन्मातर फलिष्यतीति नाम नियतकाय्र्यकारणभावव्यभिचारः । erantभाषादपि नादृष्टाभावः प्राक् प्रसाधितप्रामाण्ययोरागमाऽनुमानयोस्तत्प्रसाधकयोर्भावात् । तथा च शुभः पुण्यस्याऽशुभः पापस्येत्यागमः । अनुमानं तु तुस्वसाधनामां का विशेषः सहेतुका कार्यात्कुम्भवत्। साध्वीसुतयोर्म्यमयोस्तुल्यजन्मनोः । विशेषो वीर्यविज्ञान. वैराग्याऽऽरोग्यसंपदाम् ॥ १ ॥ " न चाऽयं विशेष विशिष्ट मदृष्टकारणमन्तरेण जनगणनाममा:"जो तुझसाहरणार्थ, फले बिसेसो न सो विणा देउं । कजराणओ गोयम !, घड व्व हेऊ य से कम्मं ॥ १ ॥ अथ यथेकप्रदेश सम्भवानामपि चीकटकाना बाऽऽदिविशेषः, यथा बैकसरसीसम्भूतानामपि पङ्कजानां मील - धवल - पाटल - पीत - शतपत्र - सहस्रपत्राऽऽदिर्भेदः, तथा शरीरिणामपि खभावादेवाऽयं विशेषो भविष्यति । तदशस्यम् । कण्टकपङ्कजानाऽऽदीमपि प्राणित्वेन परेषां प्र. सिद्धेस्तदृष्टान्ताऽष्टम्भस्य दुष्टत्वात्, आहार- क्षतरोह दोहदाऽऽदीनां वनस्पतीनामपि प्राणित्वेन तैः प्रसाधनात् । अथ गगनपरिसरे मकर-करितुरकुरङ्गभृङ्गाराऽङ्गाराssचाकाराननेकप्रकारान् विभ्रत्या न च तान्यपि चेतमानि यः संमतानि चाजोऽपि राजाऽऽदय स मिति वेत्। तदसत्। तेषामपि जगादेवी परिसरे विचरतां विचिचाऽकारस्वीकारात् । कच्चायं स्प भावो यवशाज्जगद्वैचियमुच्यते । किं निर्हेतुक स्वा महेतुकत्वं वस्तु वस्तुविशेषो वा पते सदा स्वस्याsसत्त्वस्य वा प्रसङ्गः । द्वितीये श्रात्माऽऽश्रयत्वं दोधः, अविद्यमानो हि भावाऽऽत्माकथं हेतुः स्यात् ?, विद्यमानोऽपि विद्यमानत्वादेव कथं स्वोत्पाद्यः स्यात् ।। वस्तुधर्मोऽपि दृश्यः कञ्चिददृश्यो वा ? दृश्यस्तावदनुपलम्भवाधितः । अदृश्यस्तु कथं सरवेन वकुं शक्यः ? | अनुमानातु तचिये ऽनुमानमेव श्रेयः । वस्तुविशेषयेत् स्वभायो भूताऽतिरिक्को, भूतस्वरूपी या प्रथमे मूर्तीमूतवामू तौऽपि श्योऽश्यो वा । दृश्यस्तावत् दृश्याऽनुपलम्भवाधितः । अदृश्यस्त्वदृष्टमेव स्वभावभाषया बभाषे । श्रमूर्त्तः पुनः परः परलोकिनः को नामास्तु ? । न चादृष्टविघटित स्य तस्य परलोकस्वीकारः इत्यतो परं नियते । भूतस्वरूपस्तु स्वभावो नरेन्द्रदरिद्रता 5मखजातयोरुत्पादस्तु एवं विलोक्यते इति फोमस्कु तस्तयविशेषः स्यात् । तद्दर्शनात्तत्राऽष्टभूतावेशेषाऽनुमा मेन नामान्तरतिरोहितमदमे वाऽनुमितिसिद्धं तो उपि बालशरीरं शरीरान्तरपूर्व कमिन्द्रियादिमष्यात शरीरवत् । न च प्राचीनमवानुपूर्व तस्य सावसान एव पटु पवन प्रेरितातितीव्रचिता ज्वलनज्वालाकलापप्लुष्टतया भत्मसाद्भावादवान्तरालगतावभाor पूर्वानुपपत्तेः । न चाशरीरिणो नियत-गर्भ - परभव , देश- स्थान प्राप्तिपूर्वकः शरीरग्रहो युज्यते, नियामक कारणाभाषात् । स्वभावस्य तु नियामकत्वं प्रागेव व्यपास्तम् । ततो यच्छरीरपूर्वकं बालशरीरं तत्कर्ममयमिति पीलिकं वेदम रमेयम् आत्मनः पारतम्यमिति तस्थाभिगदादिवत् । starssदिना व्यभिचार इति चेन्न, तस्याऽऽत्मपरिणामरूप. स्य पारसन्ध्य स्वभावत्वात् तनिमित्तभूतस्य तु कर्मणः पौ लिकत्वात् । एवं सीधुस्वादनोद्भवचि तवैकल्यमपि पारतमे पीलिकमेवेति नैतेनाऽपि व्यभि चारः ततो रामविशेषलक्षणं कापि प्रकृति विकारस्वरूपं सोगतर्वासनास्वभावं ब्रह्मवादिभिरविद्यास्वरूपं चादहमचादि तद्पास्तम् । विशेषतः पुनरमीषां निषेधो विस्तराय स्यादिति न कृतः । रत्ना० ७ परि० । विस्तरतश्चैतत्सम्मतिप्रन्थे प्रतिपादितम् अथ बृहस्पतिमतानुसारिणः स्वभावसंधिनाऽधि र्मकलापाध्यासितस्य स्थाणोरभावप्रतिपादनं जैनेन कुर्वताऽस्माकं साहाय्यमनुष्ठितामेति मन्वानाः प्रादुः । युक्तमुक्तं यत् स्वभावसंसिद्धाना 35 दिसंपत् समन्वितस्यैश्वरस्थाना. यः । नारक - तिर्यग्नरामर रूपपरि तिस्वभावतया उत्पथस्ते प्राणिनः स्मिनित्यायुक्रमनिदितम् परलोकस प्रभावाभावात् । तथा हि-परलोकखद्भावाऽऽदेवर्क प्रमाणं प्रत्यक्षम् अनुमानम्, श्रागमो वा जैनेनाभ्युपगमनीयः । श्रन्यस्य प्रमाणत्वेन तेनामिष्टेः । न चात्रैतद्वक्तव्यम् । भवतोऽपि 4 प्रतिक्षेप प्रमाणम यतास्माभिस्तत्प्रतिक्षेपक माणात्तद्भावः प्रतिपाद्यते, किं तु परोपन्यस्तप्रमाणपर्यनुयो गमायमेव किए सर्व पर्यनुयोग - त्राणि बृहस्पतेः" इति चाफेरनिहितम् । स च परोपम्यस्त प्रमाणपयोगः तद्भ्युपगमस्य प्रश्नाऽऽदिद्वारे विचारगा, न पुनः स्वसिद्धप्रमाणेोपन्यासः । येनातीन्द्रियार्थप्रतिक्षेपकत्वेन प्रवर्त्तमानं प्रमाणमाश्रयासिद्धत्वाऽऽदिदोषदुष्टत्वेन कथं प्रवर्तत इत्यस्मान्प्रति भवताऽपि पर्यनुयोगः क्रियेत । अत एव परलोकप्रसाधकप्रमाणाऽभ्युपगमं परेण प्राहयित्वा तदभ्युपगमस्याऽनेन प्रकारेण विचारः क्रियते । तत्र न तात्परलं कप्रतिपादकत्वेनादिव्यापारसमासा दिताऽऽत्मलाभं सन्निहितप्रतिनियतरूपाऽऽदिविषयत्वात्प्रत्यक्षं प्रवर्त्तते । नाप्यतीन्द्रियं योगिप्रत्यक्षं तत्र प्रवर्तत इति यथुं शक्यम्। परलोकाऽऽदिवत्तस्याप्यसिद्धेः । नाप्यनुमानं प्रत्यक्ष पूर्व रात्र प्रवृतिमासादयति । प्रत्यक्षात कस्यानुमानस्यापि तत्राप्रवृतैः । अथ यद्यपि प्रत्यक्षाचगतप्रतिबन्धविमानेन तत्र तथाऽवि सामान्यतो दृष्टं तत्र प्रवर्तिष्यते। तदपि न युक्तम् । य तस्तदपि सामान्यतीला आ होस्विद् अवगतप्रति बन्धलिङ्गोद्भवमिति पक्षः । स न युक्तः । तथाभूतलिङ्गप्रभवस्य स्वविषयव्यभिचारिणश्व दर्शनानन्तराज्यायामिविकल्पस्येचाप्रमाणस्यात् । अथ प्रतिपद्मसंयन्त्र लिङ्गप्रभवं तत्तत्र प्रवर्त्तत इति पत्रः । सोऽपि न युक्तः । प्रतिबन्धावगमस्यैव तत्र लिङ्गस्यासंभवात् । तथाहि प्रत्यक्षस्य तत्र लिङ्गसंबन्धावगमनिमि तस्याभावेऽनुमानं लिङ्ग.. संवन्धग्राहकमभ्युपगन्तव्यम् । तत्र यदि तदेव परलोकस Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३३) परभय भभिधानराजेन्द्रः । परभव ग्रावाऽऽवेदकमनुमानं स्वविषयाऽभिमतेनार्थेनाऽऽत्मोत्पाद | सिद्ध इति कुतस्तेन दृष्टान्तेन जन्मान्तरस्वरूपपरलोकसाधकलिङ्गसंबन्धग्राहक, तदेतरेतराऽऽश्रयत्वदोषः । अथाऽनु नम् । तस्मात्केचित्तशामेधाऽऽदयस्तथाभूताभ्यासपूर्वकाः, के. मानान्तरादू गृहीतप्रतिबन्धालिङ्गादुपजायमानं तद्विषयं त. चिन्मातापितृशरीरपूर्वका इति।नच प्रशाऽऽदयःशरीरतोव्यदभ्युपगम्यते, तदाऽनवस्था तथा सर्वमप्यनुमानमस्मान्प्र तिरिच्यमानस्वभावाः संवेदन विषयतामुपयान्ति । शरीरश्च स्यसिद्धम् । तथाहि-वृहस्पतिसूत्रम्-" अनुमानमप्रमाणमि तदन्वयव्यातरकानुवृत्तिमदेव इष्टमिति कथमन्यथा व्यवति।" अनेन प्रतिज्ञाप्रतिपादनं कृतम् । अनिश्चिताऽर्थ स्थामर्हति । अथ पूर्वोपात्तादृष्टमन्तरेण कथं माता-पितृ-विलप्रतिपादकत्वाद् , असिद्धप्रमाणाभासवदिति हेतुडपान्ता क्षणं शरीरम् , न त्वेतेनैव व्यभिचारी रश्यते । न हि सर्वदा यभ्यूछी। विषयविचारेण वाऽनुमानप्रामाण्यमयुक्तम् । धर्म कारणाऽनुरूपमेव कार्यम् । तेन विलक्षणादपि मातापितृशधर्म्युभयस्वतन्त्रसाधने सिद्धसाध्यता यतः । अतो विशेष. रीरापदि प्रशामेधाऽऽदिभिर्विलक्षणं तदपत्यस्य शरीरमुपणविशेष्यभावः साभ्यः प्रमेय विशेष-विषयां प्रमां कुर्यत्प्र जायेत, कदाचित्तदाकारानुकारि तत्कथं वाऽत्र विरोधः । माणं प्रमाणतामश्नुते । इतरेतराऽवच्छिन्नश्व समुदायो यथा कश्चिच्छालूकादेव शालूकः, कश्चिद्रोमयात् तथा कश्चि. उज प्रमेयः तदपेक्षया च पक्षधर्मत्वाऽऽदीनामन्यतमस्याऽपि दुपदेशाद्विकल्पः, कश्चित्तदाकारपदार्थदर्शनात् । अथ दर्शनारूपस्याऽप्रसिद्धिः । न हि समुदायधर्माता हेतोः । नापि दपि विकल्पः पूर्वविकल्प-वासनामन्तरेण कथं भवेत्, तर्हि समुदायेनान्वयो व्यतिरेको वा, धम्मिमात्राऽपेक्षया पक्षधर्मत्वे साध्यधर्माऽपेक्षया च व्याप्ती गौणतेति । उक्तं च गोमयादपि शालूकः कथं शालूकमन्तरेणेति एतदपि प्रष्टव्यम्। तस्मात्कार्यकारणभावमात्रमेव तत् । तत्र च नियमाभावा"प्रमाणस्याऽगौणत्वादनुमानादर्थनिश्चयो दुर्लभः।" इति ध. मिधर्मताग्रहणेऽपि न गौणतापरिहारः । प्रतीयमानापे दविज्ञानादपि मातापितृशरीराद्विज्ञानमुपजायताम् । अथवा. यथा विकल्पाद्यवहितादपि विकल्प उपजायते, तथा व्यक्षया गौणमुख्यव्यवहारस्य चिन्स्यत्वात्। समुदायश्च प्र. बहितादपि मातापितृशरीरत एवेति न भेदं पश्यामः । य. तीयते । एकदेशाऽऽश्रयणेनापि त्रैरूप्यमयुक्तम् । व्याप्स्यसिद्धेः । न हि सत्तामात्रेणाऽविनाभावो गमकः अपि त्वष. था चैकमातापितृशरीरादनेकापत्योत्पत्तिस्तथैकस्मादेव ब्रह्म णः प्रजोत्पत्तिरिति न जात्यन्तरपरिग्रहः कस्यचिदिति न परगतः। अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । स च सकलसपक्षविपक्षाऽप्रत्यक्षीकरणे दुर्विज्ञानोऽसर्वविदा । न चात्र भूयोदर्शनं लोकसिद्धिान हि मातापितृसंबन्धमात्रमेव परलोक तथेष्टा शरणम् । सहस्रशोऽपि दृष्टसाहचर्यस्य व्यभिचारात् । प्रत. वभ्युपगमविरोधात् । अथानाद्यनन्त आत्माऽस्ति,तमाथित्य एव दर्शनादर्शनमपि । तदुक्तम्-" गोमानित्येव मत्यैन, भा परलोकः साध्यते । नोकानुभवितव्यतिरेकेणाऽनुसंधानं स. म्भवति।भिन्नानुभवितर्यनुसन्धानादृष्टेः। तदयुक्तम् । “परलो. व्यमश्ववताऽपि किम् ?।" इति । देशकालाऽवस्थाभेदेन च किनोऽभावात्, परलोकाभावः” इति वचनात् ।न धनाद्यनन्त भावानां नानात्वावगमादनाश्वासः । तदुक्तम्-" अब. स्थादेशकालानां, भेदा भिन्नासु शक्निषु । भावानामनुमा आत्मा प्रत्यक्षप्रमाणप्रसिद्धः अनुमानेन चेतरेतराऽश्रयदोषप्र. नेन, प्रतीतिरति दुर्लभा ॥१॥” इत्यादि । आह च-अवि. सङ्गः। सिद्धे आत्मन्येकरूपेणाऽनुसंधानविकल्पस्याऽविनाभूः नाभावसंबन्धस्य ग्रहीतुमशक्यत्वात् । यश्च सामान्य तत्वे आत्मसिद्धिः, तत्सिद्धेश्वाऽनुसंधानस्य तदविनाभूतत्व. स्य तद्विषयस्याऽभावात् स्वार्थपरार्थभेदासम्भवात् , वि. सिद्धिरितीतरेतराऽऽश्रयसझावाप्नकस्यापि सिद्धिःन चासि रुद्धानुमानविरोधयोः सर्वत्र संभवात्। क्वचिच्च विरुद्धा खमसिद्धेन साध्यते । किञ्च-दर्शनाऽनुसंधानयोः पूर्वाऽपर. व्यभिचारिण इत्यादि दूषणजालम् । तदनुद्घोषणीयमेव । य भाविनोः कार्यकारणभावःप्रत्यक्षसिद्धस्तत्कुतोऽनुसंधानस्मतोऽनिश्चितार्थ-प्रतिपादकत्वादनुमानमप्रमाणमित्यनुमानाs रणादात्मसिद्धिः। अपि च-शरीरान्तर्गतस्य शानस्याऽसूतत्वेप्रमाणता-प्रतिपादने कृते शेषदूषणजालस्य मृतमारणक न कथं जन्मान्तरशरीरसंचारः अथान्तराभवशरीरसन्तत्या ल्पत्वात् । ततोऽनुमानस्याप्रमाणत्वादतीन्द्रियपरलोकसद्भा संचरणमुच्यते, तदपि परलोकान्न विशिष्यते । सञ्चारश्च न वप्रतिपादने कुतस्तस्य प्रवृत्तिः? । अथेदमेव जन्म पूर्वज दृष्टी जीवत इह जन्मनि, मरणसमये भविष्यतीति दुरधिगम्मान्तरमन्तरेण न युक्तमिति जन्मान्तरलक्षणस्य परलो ममेतत्र परलोकसिद्धिः। अथवा सिद्धेऽपि परलोके प्रतिनियतकस्य सिद्धिरिष्यते, तत्किमियमर्थापत्तिः, अथाऽनुमानं था। कर्मफलसंबन्धाऽसिद्धर्व्यर्थमेवाऽनुमानेन परलोकास्तित्वसान तावदापत्तिः, तल्लक्षणाऽभावात् । “दृष्टःश्चतो वाऽर्थो धनम् । अथाऽऽगमात्प्रतिनियतकर्मफलसंबन्धसिद्धिः । त. ऽन्यथा नोपपद्यते।" इति हि तस्या लक्षणं विचक्षणरि था सति परलोकास्तित्वमप्यागमादेव सिद्धमिति किमनुध्यते, न तु जन्मान्तरमन्तरेण नोपपत्तिमदिनं जन्मेति सि मानप्रयासेन ? न चाऽऽगमादपि परलोकसिद्धिः। तस्य प्राधम् । मातापितृसामग्रीमात्रकेण तस्योपपत्तेः तन्मानहेतुक माण्यासिद्धेः । न चाऽप्रमाणसिद्धं परलोकादिकमभ्युपग. त्वे चाभ्यपरिकल्पनायामतिप्रसङ्गात् । अथ प्रज्ञामेधाऽऽदयो न्तुं यकम् । तदभावस्यापि तथाऽभ्युपगमप्रसङ्गात् । तन्न परजन्माऽऽदावभ्यासपूर्वका दृष्टाः कथमतत्पूर्वका भवेयुः, न व लोकसाधकप्रमाणप्रतिपादनमकृत्वा भवशब्दव्युत्पत्तिरर्थसं. हिपूर्वको धूमः, तत्पूर्वकतामन्तरेण कदाचिदपि भवन्नुप स्पर्शिन्यभिधातुं युक्ता डित्थाऽऽदि शब्दव्युत्पत्तितुल्यातु यदि लब्धः । तदप्यसत् । अविनाभावसंबन्धस्य देशकालव्याप्तिल क्रियेत तदा नाऽस्माभिरपि तत्प्रतिपादकप्रमाण पर्यनुयोगे म. क्षणा प्रत्यक्षेण प्रतिपतुमशक्लेः। सन्निहितमात्रप्रतिपत्ति नः प्रणिधीयत इति पूर्वपक्षः। अत्रोच्यते-यदुक्तं पर्यनुयोगमा. निमित्तं हि प्रत्यक्षमुपलभ्यतेन हि सकलदेशकालयोर्वि- प्रमस्माभिः क्रियत इति। तत्र वक्तव्यम्-पर्यनुयोगोऽपि क्रियमाना बहिमसंभव एष धूमस्येति प्रत्यक्षतः प्रतीतिर्युक्ता, अ. णः किं प्रमाणतः क्रियते,उताऽप्रमाणतः यदि प्रमाणतः तद. तो न धूमोऽपि वहिपूर्वकः सर्वत्र प्रत्यक्षाऽनुपलम्माभ्यां । यतम् । यतस्सत्कार्यपि प्रमाणं कि प्रत्यक्ष उतानुमानाऽऽदि।। ain Education International Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३४) अनिधानराजेन्द्रः। परभव परभव यदि प्रत्यक्षम्।तदयुक्तम्। प्रत्यक्षस्याऽषिचारकत्वेन पर्यनुयोग- स्तबाङ्गीक्रियते पूर्वोक्तन्यायेन तवा कथमनुमानं नाऽभ्युपगम्वरूपविचाररचनाऽचतुरत्वात्।न च प्रत्यक्षस्यापि प्रमाणत्वं म्यते प्रमाणतया? तथाहि-यत्किश्चिद्रएं, तस्य यत्रा. युक्तम् । भवदभ्युपगमेन तल्लक्षणाऽसंभवात् । तदसंभषश्च, विनाभावस्तद्विदस्तस्य तद्गमकं तत्रेत्येतावन्मात्रमेवाऽनुमा. स्वरूपव्यवस्थापकधमेस्य लक्षणत्वाता तत्र प्रत्यक्षस्य प्रामाः । नस्याऽप लक्षणम्। तच्च प्रत्यक्षप्रामाण्यलक्षणमभ्युपगच्छएयस्वरूपव्यवस्थापको धर्मोऽविसंवादित्वलक्षणोऽभ्युपगन्त. ताऽभ्युपगम्यते देवानां प्रियेण । तथा-प्रामाण्यमप्यनुमानव्यः । तथाऽविसंवादित्वं प्रत्यक्षप्रामाण्येनाऽविनाभूतमभ्यु: स्याभ्युपगतमेव, यतो यदेवाविसंवादित्वलक्षणं प्रत्यक्षस्य पगम्यम | अन्यथाभूतात्ततः प्रत्यक्षप्रामाण्याऽसिद्धेः। सि. प्रामाण्यं, अनुमानस्याऽपि तदेव । तदुक्तम्-"अर्थस्या:दौ वा यतः कुतश्चिद्यत्किञ्चिदनभिमतमपि सिद्धयेदित्यति- सम्भवेऽभावात्., प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणता । प्रतिबद्धस्वभावस्य, प्रसङ्गः । स चाऽविनाभावस्तस्य कुतश्चित्प्रमाणादवगन्तव्यः। तद्धेतुत्वे समं द्वयम् ॥१॥” इति । अर्थाऽसंभवेऽभावः अनवगतप्रतिबन्धादर्थान्तरप्रतिपत्ती नालिकरद्वीपवासिनो. प्रत्यक्षस्य संवादस्वभावः प्रामाण्यनिमित्तम् । स च साऽप्यनवगतप्रतिबन्धात् धूमात्.धूमध्वजप्रतिपत्तिः स्यात् । श्र. ध्याऽर्थाऽभावेऽभाविनो लिङ्गादुपजायमानस्यानुमानस्यापि विनाभावावगमश्चाखिलदेशकालव्याप्त्या प्रमाणतोऽभ्युपग- समान इति कथं न तस्यापि प्रामाण्याऽभ्युपगमः । किश्चमनीयः। अन्यथा यस्यामेव प्रत्यक्षव्यक्तौ संवादित्वप्रामा- अयं चार्वाकः प्रत्यक्षकप्रमाणवादी यदि परेभ्यः प्रत्यक्षराययोरसाववगतस्तस्पामेवाविसंवादित्वात्तत्सिद्धयेत् न व्य- लक्षणमनवबुध्यमानेभ्यस्तत्प्रतिपादयति, तदा तेषां ज्ञानपत्यन्तरे । तत्र तस्यानवगमात् । न चावगतलक्यलक्ष. संबन्धित्वं कुतः प्रमाणादवगच्छति। न तावत्प्रत्यक्षात्। पएसंबन्धा व्याक्तिर्देशकालान्तरमनुवर्तते । तस्याः प्रत्यक्षव्य रचेतोवृत्तीनां प्रत्यक्षतो ज्ञातुमशक्यत्वात् ; किं तर्हि स्वाssकेस्तदेव ध्वंसात्, व्यक्त्यन्तराननुगमात् । अनुगमे या स्मनि शानपूर्वको व्यापारव्याहारौ प्रमाणतो निश्चित्य परेव्यक्तिरूपताविरहाऽनुगतस्य सामान्यरूपत्वात् तस्य च प्वपि तथाभूतात्तदर्शनात्तत्संबन्धित्वलक्षणमवबुध्यते, तत. भवताऽनभ्युपगमात् । श्रभ्युपगमे वा न सामान्यलक्षणा- स्तेभ्यस्तत्प्रतिपादयति । तथाऽभ्युपगमे च व्यापारव्या. उनुमानविषयाऽभावप्रतिपादनेन तत्प्रतिक्षेपो युक्तः । स च हाराऽऽदर्लिङ्गस्य ज्ञानसंबन्धित्वलक्षणस्वसाध्याऽव्यभिचाप्रमाणत प्रत्यक्ष लक्ष्यलक्षणयोाप्त्याऽविनाभावावगमो य- रित्वं पक्षधर्मत्वं चाऽभ्युपगतं भवतीति कथमनुमानोत्था. दि प्रत्यक्षादभ्युपगम्यते । तदयुक्तम् । प्रत्यक्षस्य सन्निहित- पकस्याऽर्थस्य भैरूप्यमसिद्धं, येन नाऽस्माभिरनुमानप्रस्वविषयप्रतिभासमात्र एव भवता व्यापाराऽभ्युपगमात् । तिक्षेपः क्रियते, किंतु त्रिलक्षणं यदनुमानयादिभिर्लिङ्गमअथैका व्यक्ती प्रत्यक्षेण तयोरविसंवादित्वप्रामाण्ययोरवि- भ्युपगतं, तन्न लक्षणभाग्भवतीति प्रतिपाद्यत इति वचः नाभावाऽवगमादन्यत्नाऽप्येवंभूतं प्रत्यक्षं प्रमाणमिति प्रत्य- शोभामनुभवति । प्रत्यक्षलक्षणप्रतिपादनार्थ परचेतोवृत्तिक्षेणाऽपि लक्ष्यलक्षणयोाप्त्या प्रतिबन्धाऽवगमः, ती परिज्ञानाऽभ्युपगमे,त्रिलक्षणहेत्वभ्युपगमस्याऽवश्यंभावित्य. न्यताऽप्येवंभूतं ज्ञानलक्षणं कार्यमेवंभूतशानकार्यप्रभवमि. प्रतिपादनात् । अथ नाऽस्माभिः प्रत्यक्षमपि प्रमाणत्वेनाति तेनैव कथं न सर्वोपसंहारेण कार्यलक्षणहेतोः स्वसा- ऽभ्युपगम्यते; येन तल्लक्षणप्रणयनेऽवश्यंभाव्यनुमान-प्रामा. ध्याऽविनाभावाऽवगमः । येनाऽनुमानमप्रमाणमधिनाभाव- ण्याऽभ्युपगम इत्यस्मान्प्रति भवद्भिः प्रतिपाद्येत । यन्तु सम्बन्धस्य व्याप्त्या प्रहीतुमशक्यत्वादिति दूपणमनुमानवा- प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमिति वचनं तत्तान्त्रिकलक्षणालक्षितदिनं प्रति भवता सज्यमानं शोभते । किञ्च-अविसंवादि- लोकसंव्यवहारिप्रत्यक्षापेक्षया । अत एव लक्षणलक्षितप्रत्यत्वलक्षणो धर्मः प्रत्यक्षप्रामाण्य लक्ष्यव्यवस्थापकः प्रत्यक्षप्र- क्षपूर्वकाऽनुमानस्य, अनुमानमप्रमाणमित्यादिप्रन्थसंदर्भणातिबद्धत्वेन निश्चयः । अन्यथा तवैव ततः प्रामाण्यलक्षणल- ऽप्रामाण्यप्रतिपादनं विधीयते न पुनर्गोपालाऽऽद्यक्षलोकव्यच्यव्यवस्था न स्यात् । असंबद्धस्य केनचित्सह प्रत्यासत्ति- बहाररचनाचतुरस्य धूमदर्शनमात्राऽऽविर्भूताउनलप्रतिपसि. विप्रकर्षाऽभावात्, तदन्यत्राऽपि ततस्तद्यवस्थाप्रसङ्गः । रूपस्य। नैतचारु। तस्यापि महानसाऽऽदिदृष्टान्त-धर्मिप्रवृत्ततथाऽभ्युपगमे च यथा संवादित्वलक्षणो धर्मो लक्यानव प्रमाणाऽवगतस्वसाध्यप्रतिबन्धनिश्चितसाध्यमिधर्मधूमबगमेऽपि प्रत्यक्षर्मिसंबन्धित्वेनाऽवगम्यते, तथा धूमोअप लोद्भतत्वेन तान्त्रिकलक्षणलक्षितप्रत्यक्षपूर्वकत्वस्य वस्तुतः पर्वतैकदेशे अनलानवगतावपि प्रदेशसंबन्धितयाऽवगम्यत प्रदर्शितत्वात् । एतत्पक्षधर्मत्वमियं चाऽस्य धूमस्य व्याप्तिरइति कथं समुदायः साध्या, तदपेक्षया च पक्षधर्मत्वं हेतोरव ति साङ्केतिकव्यवहारस्य गोपालाऽऽदिमूर्खलोकाऽसम्भयि. गन्तव्यम् । न च पक्षधर्मत्वाऽप्रतिपसौ साध्यधर्मानलविशि नोऽकिञ्चित्करत्वात् । प्रत्यक्षस्य चाऽविसंवादित्वं प्रामाण्यपृतप्रदेशप्रतिपत्तिः । प्रतिपत्तौ वा पक्षधर्मत्वाऽऽद्यनुसरणं लक्षणं तद्यथा सम्भवति, तथा परतः प्रामाण्यं व्यवस्थाव्यर्थम् । तत्प्रतिपत्तेः प्रागेव तदुत्पत्तेः। समुदायस्य साध्यत्वे पयद्भिः" सिद्धं" इत्येतत्पदव्याख्यायां दर्शितं, न पुनरु. नोपचारात्तदेकदेशर्मिधर्मत्वावगमेऽपि पक्षधर्मत्वाऽवगमा च्यते । तत् स्थितमतन्न प्रत्यक्षस्य भवदभिप्रायेण प्रामाददोषे उपचरितं पक्षधर्मत्वं हेतोः स्यादित्यनुमानस्य गौण- एयव्यवस्थापकलक्षणसंभवः । तद्भावे चाऽनुमानस्यापि त्वाऽपत्तेःप्रमाणस्यागौणत्वादनुमानादर्थनिर्मयो दुर्लभ इति प्रामाण्यप्रसिद्धिरिति न प्रत्यक्ष पर्यनुयोगविधायि नाप्यनु. चोद्यावसरः । प्रत्यक्षप्रामाण्यलक्षणेऽपि क्रियमाणेऽस्य स मानादिकं पर्यनुयोगकारि । अनुमानाऽऽदेः प्रमाणत्वेना. र्वस्य समानत्वेन प्रतिपादितत्वात् । यदा चाविसंवादित्वल- नभ्युपगमात् अथाऽस्माभिर्यद्यप्यनुमानाऽऽदिकं न प्रमाणत. क्षणप्रत्यक्षप्रामाण्य लक्ष्ययोः सर्वोपसंहारेण व्याप्तिरभ्युपग- याऽभ्युपगम्यते, तथापि परेण तत्प्रमाणतयाऽभ्युपगतमिति म्पते; अविसंवादित्वलक्षणश्च प्रामाण्यव्यवस्थापको धर्मतत्मसिद्धेन तेन परस्य पर्यनुयोगो विधीयते । ननु परस्य Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३५) अभिधानराजेन्द्रः | परभव तरप्रमाणतः प्रामाण्याऽभ्युपगमविषयः अथाऽप्रमाणतः । य दि प्रमाणतः, तदा भवतोऽपि प्रमाणविषयस्तत्स्यात् । न हि प्रमाणतोऽभ्युपगमः कस्यचिद्भयति, कस्यविति युक्तम् अ थाऽप्रमाणतोऽनुमानाऽऽदिकं प्रमाण तयाऽभ्युपगम्यते परेण, तदाप्रमाणेन न तेन पर्यनुयोगो युक्तः श्रममाणस्य परलोक साधनपतत्साधकप्रमाणपर्यनुयोगे ऽप्यसामर्थ्यात् । अथ तेन प्रमाणलक्षणाऽपरिज्ञानात्प्रामाण्यमभ्युपगतमिति तत्सिद्धे नैव तेन परलोकादिसाधनाभिमतप्रमाणपर्यनुयोगः क्रियते। नन्वज्ञानात्तत्परस्य प्रमाणत्वेनाऽभिमतं न चाऽज्ञानादन्यथात्वेनाऽभिमन्यमानं वस्तु तत्साभ्यामर्थकियां निर्वर्त्तयति । अन्यथा विषत्वेनाऽशैर्मन्यमानं महौषधाऽऽदिकमपि तान्मारवितुकामेन दीयमानं स्वकार्यकरणक्षमं स्यात् । अथ नाऽखा निः परलोकप्रसाधकप्रमाणपर्यनुयोगोऽनुमानाऽऽदिना स्वत सिद्धप्रामाख्येन पराभ्युपगमावगतप्रामाण्येन वा क्रियते कि त यदि परलोका 55दिको द्रयर्थः परेणाभ्युपगम्य ते तदा तत्प्रतिपादकं प्रमाणं वक्तव्यम् । प्रमाणनिबन्धना हि प्रमेयव्यवस्थितिः । तस्य च प्रमाणस्य तल्लक्षणाऽऽद्यसम्भवेन तद्विषयाभिमतस्याप्यभाव इति एवं विचारणालक्षणः पर्यनुयोगः क्रियते इति न स्वतन्त्राऽनुमानोपन्याखपक्षधर्म्यसिद्धया दिलक्षणदोषाऽवकाशो बृहस्पतिमताऽनुसारिणाम् । नन्वेवमप्यनया भङ्ग्या भवता परलोकाऽऽद्यतीन्द्रियार्थप्रसाधकप्रमानुयोगे प्रसङ्गसाधनाऽयमनुमानं तद्विपर्ययस्वरू पंच स्वचाचैव प्रतिपादितं भवति । तथाहि प्रमाणनिबन्धना । प्रमेययवस्थितिरिति एवं पदता प्रमेयव्यवस्था प्रमानिमि लैव प्रतिपादिता भवति । एतच्च प्रसङ्गसाधनम् । तच्च व्याप्यव्यापकभावे सिद्धे यत्र व्याप्याऽभ्युपगमो व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयकः प्रदवंत इत्येवंलक्षणम्। तेन प्रमेयव्यवस्था प्रमाणप्रवृत्या व्याप्ता प्रमाणतो भवता प्रदर्शनीया । अन्यथा प्रमाणप्रवृत्तिमन्तरेणापि प्रमेयव्यवस्था स्यात् । ततश्च कथं परलोका - दिसाधकप्रमाणपर्यनुयोगेऽपि परलोकव्यवस्था न भवेत् ? । व्याप्यव्यापकभावनाहकप्रमाणाऽभ्युपगमे च कथं कार्यहेतोः स्वभावहेतोर्वा परलोका 55दिसाधकत्वेन प्र मानस्य प्रतिशेषः १ व्याप्तिप्रसाधकप्रमाणसङ्गावेऽनुमान प्रवृत्तेरनायाससिद्धत्वात् प्रमाणाभावे तनिबन्धनायाः प्र theoretथाया श्रयभाव इति प्रसङ्गविपर्ययः । स च व्यापhtsभावे व्याप्यस्याऽप्यभाव इति एवम्भूतव्यापकाऽनुपलधिसमुद्भूताऽनुमानस्वरूपम् । एतदपि प्रसङ्गविपर्ययरूपमनुमानं प्रमाणती व्याप्यव्यापसिडी प्रवर्तत इति व्याप्ति परभव मानमुपलभ्यते स एव न्यायः परलोकसाधने ऽप्यनुमान. स्प किमित्यो हो वा तथाहि यत्कार्य तत्कार्यात रोहूर्त यथा पठाऽऽदिलक्षणं कार्य, कार्य वेदं जन्म इति भवत्यतो देतोः परलोकसिद्धिः । तथाहि नित्यं सत्यमसस्था. हेतोरन्यानपेक्षणात्यपेतो हि भावानां कादाचित्कत्वसम्भवः ॥ १॥ " इति न तायत्कार्यत्वमिद जन्मनो न सिद्धम् अकार्यत्वे हेतुनिरपेक्षस्य नित्यं सग्याऽसस्वप्रसङ्गात् । श्रथ स्वभावत एव कादाचित्कत्वं पदार्थानां भविष्यति । न हि कार्यस्य कारणभावपूर्वकत्वं प्रत्यक्षत उपलब्धं येन तदभावान्निवर्तेत, प्रत्यक्षतः कार्यकारणभावस्यैवाऽसिये। यद्येवं वाहनाच्यर्थेन सह कार्यकारणभावस्पाऽलिये स्वसंवेदनमात्वे सत्पद्वैतं विचारतस्तस्याऽप्यभावे सर्वऽपत्यमिति सकलव्यवहारोच्छेदसहित स्माद्यथा प्रत्यक्षेण बाह्यार्थप्रतिबद्धत्वमात्मनः प्रतीयते, श्र न्यथे हले कस्याप्यप्रसिद्धेः, प्रत्यक्षतस्तज्जन्यस्वभावत्वानवगमे तस्य तदूग्राहकत्वाऽसंभवात् तथा चेहलोकसाधनामकर्तव्ये प्रत्यक्षं स्वार्थेनाऽऽत्मनः प्रतिबन्धसाधकम्, तथा परलोक साधनार्थमपि तदेव साधनमिति सिद्धः पर लोकोऽनुमानतः । यथा च याद्यार्थमतिवद्धत्वं प्रत्यक्षस्य कादाचित्कत्वेन साध्यते धूमस्यापि वह्निप्रतिषत्यम्। तथे इजन्मनोऽपि कादाचित्कत्वेन जन्मान्तरप्रतिबद्धत्वमपि । ततोऽनल बाह्यार्थवत्परेलोकेऽपि सिद्धमनुमानम् । अवेदज म्माऽविभूतमातापितृसामग्रीमा वाइप्युत्पत्तेः कादाचित्कत्वं युक्तमेवेहजन्मनः । नन्वेवं प्रदेश समनन्तरप्रत्ययमात्रसामग्रीविशेषादेय धूमप्रत्यक्ष संवेदनयोः कादाचित्कत्वमिति न सि यति वह्निवाह्यार्थप्रतीतिरिति सकलव्यवहाराऽभावः । अथाकारवशेपादेवानम्यथात्वसंभविनो नलवाह्यार्थसिद्धि तर्दिजन्मनोऽपि महामेधाऽऽद्याकारविशेपत एव मातापि तृव्यतिरिक्त निजजन्मान्तरसिद्धिः । तथा यथाऽऽकारविशेष एवाऽयं तैमिरिकाऽऽविज्ञानव्यावृत्तः प्रत्यक्षस्य बाह्यार्थमन्तरेण न भवतीति निश्चीयते, अन्यथा बाह्यार्थासिद्धाऽनि मतसंवेदनाऽद्वैतमेवेति पुनरपि व्यवहाराऽभावः। तथेह जम्मा ऽऽविभूतप्रज्ञाविशेषादिजन्मविशेषाऽऽकारी निजजन्मान्त रप्रतिबद्ध इति निश्चीयतामनुमानतः । श्रथ प्रत्यक्षमेव सविकल्पकं परमार्थतः प्रतिपतुः "ततः परं पुनर्वस्तुधर्मैः" इत्या दि मीमांसकादिप्रसिद्ध साधकं पहिबाह्यर्धपूर्वकत्वस्य धू मजाप्रत्पुरावृत्तिस्तम्भाऽऽदिप्रत्ययस्याः नाभ्युपगमे, परलोकवादिनः खपक्षमनायाससिद्धमेव मन्यन्ते । न हि दृष्टेऽनुपपन्नम्" इति न्यायात् । यचैव हि विरूपा मातृपितृजन्मप्रतियउत्वसिद्धिः, तथैवेह जन्मसंस्कारव्यावृत्ताऽऽदिजन्मप्रशाऽऽद्याकारविशेषानिजजन्मान्तरमतिवद्धत्यसिद्धिरपि प्रत्यक्षनिधि ता स्थादिति न परलोकइति न व निश्चयप्रत्ययो ऽनभ्यास दशायामनुमानतामातेकामति, पूर्वरूपसाधम्यांत तथा साचितां नानुमेयतामतिपतति" इतिन्यायात् अन्ययम्यति रेक पक्षधर्मताऽनुसरणस्याऽनभ्यासदशायामुपलब्धेः । श्रभ्या प्रसाधकस्य प्रमाणस्य तत्प्रसादलभ्यस्य चाग्नुमानस्य प्रा. मारये स्ववाचैव भवता दत्तः स्वहस्त इति नानुमानाऽऽदिप्रामाण्यप्रतिपादनेऽस्माभिः प्रयस्यते । श्रतो यदुक्तम्- " सयंत्र पर्यनुयोगपराये मणि हृदस्यते " इति तदभिषे यशून्यमिच लक्ष्यते । उक्तन्यायात् । यनृक्तम्- प्रत्यक्षं सन्निहि तविषयत्वेन चक्षुरादिप्रभवं परलोका 55दिग्राहकत्वेन न प्रयर्त्तते । तत्र सिद्धसाधनम् । यच्चोक्तम्-नाप्यतीन्द्रियं योगिप्रत्यक्षं परलेोकयनस्यासिद्धेरिति तस्मिरणशीलस्य भसदशायां च पराधम्र्मत्वाऽऽधनुसरणस्याऽन्यत्राप्यसंवेद “ । यतो वचनम् । श्रतीन्द्रियार्थप्रवृतिप्रवणस्य योगिप्रत्यक्षस्या नन्तरमेव प्रतिपादितत्वात् । यत् पुनरिदमुच्यते ना पि प्रत्यक्षपूर्वकमनुमानं तदभावे प्रवर्तत। तदसङ्गतम् । प्रत्यक्षेण हि संबन्धग्रहणपूर्व परीक्षे पावकाऽऽदौ यथाऽनुमानं प्रवर्त-' " " नात् सिद्धमनुमानप्रतीतत्वं परलोकस्य । अथेतरेतरा 55यदोषानुमानं नास्त्वेवंविधे विषय इत्युच्येत । नन्वये सति सर्वनेदाभावतो व्यवहारोच्छे र इति तदुच्छे इमनभ्युपगच्छता व्यवहारार्थनापश्यमनुमानमभ्युपगन्तव्यम् । एतेन प्रत्यक्ष Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परभव भनिधानराजेन्द्रः। परभव पूर्वकत्वाभावेऽप्यनुमानस्य प्रामाण्यं प्रतिपादितम् । म चानु- शकालविक्षिप्तानां व्यक्तीनामनवभासेऽनुपपत्तिः। मत एकत्र मानपूर्वकत्वेऽपीतरेतराऽऽश्रयदोषानुषङ्गः । तस्यैषेतरेतरा- क्षणे योगित्वं प्रतिवन्धमाहिणः, एतत्पूर्वस्मादविशिएं, तल्लो श्रयदोषस्य व्यवहारप्रवृत्तितो निराकरणात् । यदप्युक्तम्- के अर्थान्तरदर्शनात् । अर्थान्तरसुदृढप्रतीता तार्किकाणां मनुमानपूर्वकत्वेऽनवस्थाप्रसङ्गामानुमानप्रवृत्तिरिति । तद- निमित्तचिन्तायां पक्षधर्मत्वाऽऽद्यभिधानम् अतोनतान्त्रिक प्यसङ्गतम् । एवं हिसति प्रत्यक्षगृहीतेऽप्यर्थे विप्रतिपत्तिविष- लक्षणप्रतिक्षेपोआप। उत्पाप्रतीतीनामस्तु प्रामाण्यम् । उत्पाये नानुमानप्रवृत्तिमन्तरेण तमिरास इति बाहोऽर्थे प्रत्यक्षस्या- पप्रतीतीनां तुप्रतीन्द्रियारष्टपरलोकसर्वज्ञाऽऽयनुमानानांप्र. व्यापारात्पुनरप्यद्वैताऽऽपत्ते,शून्यताऽऽपत्तेर्वा व्यवहारोच्छेद तिक्षेप इति चेत् । तदसत् । यद्यनषगतसंबन्धान प्रतिपनीनइति व्यवहारवलासैवानषस्था परिद्रियत इत्यभ्युपगमवादेन धिकृत्यैतदुच्यते,तदाधूमाऽऽविष्वपि तुल्यम्।पथ गृहीताविबैतदुक्तम् । अन्यथा वाह्यार्थव्यवस्थापनाय प्रत्यक्ष प्रवर्तते,तथा नाभावानामप्यतीन्द्रियपरलोकाऽऽदिप्रतिभासानुत्पत्तेरेवमु. प्रदर्शितहेतोाप्तिप्रसाधनार्थ केषाञ्चिन्मतेन निर्विकल्पकम्, च्यते । तदसत्। ये हि कार्यविशेषस्य तविशेषेण गृहीताविअन्येषां तु सविकल्पकं चक्षुरादिकरणव्यापारजन्यम् , म. नाभावास्ते तस्मात्परलोकाऽऽद्यषगच्छन्त्येव । अतोनहायते परेषां मानसं केषाशिघ्यावृत्तिग्रहणोपयोगि ज्ञानम्, अन्येषां केन विशेषणातीन्द्रियार्थानुमानप्रतिक्षेपः। साहवर्याविशेषेऽ. प्रत्यक्षानुपलम्भवलोजूतालिङ्गजोहाऽऽख्यं परोक्षं प्रमाणं तत्र पि व्याप्यगता नियतता प्रयोजिका,न व्यापकगता। अतः सग्याप्रियत इति कथमनुमानेन प्रतिबन्धग्रहणेऽनषस्थेतरेत. मव्याप्तिकानामपि व्याप्यमुखेनैव प्रतिपत्तिः नियतताऽबगराअभयदोषप्रसक्तिः परलोकवादिनःप्रति भवता प्रेर्येत । य- मे चार्थान्तरप्रतिपत्ती न बाधान प्रतिबन्धः । एकस्य रूपदप्युक्तम्-सर्वमप्यनुमानमस्मान्प्रति प्रमाणत्वेनासिद्धमि- भेदानुपपत्तेः, ततो न विशेषविरुद्धसम्भवः, नाऽपि विरुद्धा. त्यादि । तदप्यसङ्गतम् । यतः किमनुमानमात्रस्याप्रामाण्यं व्यभिचारिण इति।यदुक्तम्-विरुद्धाऽनुमानविरोधयोःसर्वत्र भवता प्रतिपादयितुमभिप्रेतम् , अनुमानमप्रमाणमित्यादिन- सम्भवात्, कचिच्च विरुद्धाव्यभिचारिण इति । एतदप्यग्येनः अथ तान्त्रिकलक्षणक्षेपोऽतीन्द्रियार्थानुमानप्रतिक्षेपो पास्तम् । अविनाभावसंबन्धस्य प्रहीतुमशक्यत्वात् । अववा। न तावदनुमानमानप्रतिषेधो युक्त लोकव्यवहारोच्छे- स्थादेशकालाऽऽदिभेदादित्यादेश्व पूर्वनील्याऽनुमानप्रमाणत्वेदप्रसङ्गात् । यतः प्रतियन्ति कोविदाः कस्यचिदर्थस्य दर्शने उनुपपत्तिः। परोक्षस्यार्थस्य सामान्याऽऽकारेणाऽन्यतःप्रतिनियमतः किश्चिदर्थान्तरं, न तु सर्वस्मात्सर्वस्वावगमः । । पसौ लोकप्रतीतायां बौस्तु कार्यकारणभावादिलक्षण: उक्तं चान्येन-" स्वगृहानिर्गतो भूयो, न तदाऽऽगन्तुमर्हति।" | प्रतिबन्धस्तनिमित्तत्वेन कल्पितः। तदुक्तम्अतःकिञ्चिद्रष्टा कस्यचिदवगमे निमित्तं कल्पनीयम्। तच "कार्यकारणभावाद्वा, स्वभावाद्वा नियामकात्। नियतसाहचर्यमविनाभावशब्दवाच्यं नैयायिकाऽऽदिभिःप अविनाभावनियमो, दर्शनान्न न दर्शनात् ॥१॥” इत्यादि। रिकल्पितम्। तदवगमश्च प्रत्यक्षानुपलम्भसहायमानसप्रत्यक्षतःप्रतीयते।सामान्यद्वारेण प्रतिबन्धावगमाद्देशाऽऽदिव्यभि तथाचारोन बाधकः। नाऽपि व्यक्त थानन्त्यम् । उभयत्रापि सामा "अवश्यंभावनियमः, कः परस्यान्यया परैः। म्यस्यैकत्वात्। सामान्याऽऽकृष्टाशेषव्यक्रिप्रतिभानंचमानसे अर्थान्तरनिमित्तो वा,धर्मो वाससि रागवत् ॥१॥"इति च। प्रत्यक्ष यथा शतसंख्याऽबच्छेदेन शतमिति प्रत्यये विशे- तथाहि-कचित्पर्वताऽऽदिदेशे धूम उपलभ्यमानो यद्यग्निमपणाऽऽकृष्टानां पूर्वगृहीतानां शतसंख्याविषयपदार्थानाम् । न्तरेणैव स्यात्तदा पावकधर्मानुवृत्तितस्तस्य तत्कार्यन्वं यनितथाहि-एते शतमिति प्रत्ययो भवत्येष । सामान्यस्य श्चितं विशिष्टप्रत्यक्षाऽनुपलम्भाभ्यां तदेव न स्यादित्यहेतोच सवमनुगताऽबाधितप्रत्ययविषयत्वेन व्यवस्थापितं, स्तस्याऽसत्वात् कचिवप्युपलम्भो न स्यात्, सर्वदा सर्वत्र तदेवं नियतसाहचर्यमर्थमर्थान्तरं प्रतिपादयदुपलब्धं सत्य- सर्वाऽऽकारेण वोपलम्भः स्यात् । अहेतोः सर्वदा सत्वात् । तिपादयति । उपलम्भाश्चावश्यं कचित्स्थितस्य, सैव पक्ष- स्वभावश्च यदि भावव्यतिरेकेण स्यात् , ततो भावस्य नि:धर्मता । ततः सम्बन्धानुस्मृतौ ततः साध्यावगमः । यस्तु स्वभावत्वाऽऽपत्तेः स्वभावस्याप्यभावाऽऽपत्ति तत्प्रतिबन्ध प्रतिबन्धं नोपैति, तस्यापि कथं न सर्वस्मात्सर्वप्रतिपत्तिः। साधकं च प्रमाणं कार्यहेतोर्विशिष्टप्रत्यक्षानुपलम्भशब्दवाच्यं अभ्युपगमे चाऽप्रतिपन्नेऽपि संबन्धे प्रतिपत्तिप्रसङ्गः । प्रमा- प्रत्यक्षमेव,सर्वसाधकहेतुप्रतिबन्धनिश्चयप्रम्सावे प्रदर्शितम्। तृसंस्कारकारकाणां पूर्वदर्शनानामभावादित्यनुत्तरम् । संव- स्वभावहेतोस्तु कस्यचिद्विपर्यये वाधकं प्रमाणं व्यापकानुग्धाप्रतिपत्तौ प्रमातृसंस्कारानुपपत्तेः । दर्शनजः संस्का. पलब्धिस्वरूपं, कस्यचितु विशिष्टं प्रत्यक्षमभ्युपगतम् । सर्वरोऽप्यनभिव्यक्तः सत्तामात्रेण न प्रतिपायुपयोगी । न च था सामान्यद्वारेण व्यक्तीनामतपपरावृत्तव्यक्तिरूपेण वा स्मृतिमन्तरेण तत्सद्भावोऽपि । न चानुभवप्रध्वंसनिबन्ध- तासां प्रतिबन्धोऽभ्युपगन्तव्यः । अन्यथा प्रतिबद्धादन्यतोऽ. ना स्मृतिः।कचिद्विषये संस्कारमन्तरेण तदनुपपत्तेः । प्रध्वं- न्यप्रतिपत्तावतिप्रसङ्गात् । प्रतिबन्धप्रसाधकं च प्रमाणमवसम्य च निर्हेतुकतासंभवात् । यत्राप्यभ्यस्ते विषये वस्त्व- श्यमभ्युपगमनीयम् । अन्यथाऽगृहीतप्रतिबन्धत्वादन्यतोsम्तरदर्शनादव्यवधानेन वस्त्वन्तरप्रतिपत्तिा,तत्राऽपि प्राक्तन न्यप्रतिपत्तावपि प्रसङ्गस्तदवस्थ एव यत्र गृहीतप्रतिबन्धोऽकमायणेन वस्त्वन्तरावगमः । इयांस्तु विशेषः-एकत्रा- सावर्थ उपलभ्यमानः साध्यसिद्धि विदधाति, तद्धर्मता नभ्यस्तत्वादन्तराले स्मृतिसंवेदनम् अन्यत्राऽभ्यासाद्विद्यमा- तस्य पक्षधर्मत्वस्वरूपा; तद्ग्राहकं च प्रमाणे प्रत्यक्षमनुमाया अप्यसंवित्तिः। केचित्तु योगिप्रत्यक्षं संबन्धग्राहकमा- मानं वा । तदुक्तं धर्मकीर्तिना-“ पक्षधर्मतानिश्चयः प्रत्यक्षहुः । व्याप्तेः सकलाऽऽक्षेपेणावगमात्। तथा च यत्र यत्रेति दे। तोऽनुमानतो वा" अतो लोकप्रसिद्धतान्त्रिकलक्षणलक्षि Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परभव अनिधानराजेन्धः। परमव तानुमानयोर्भेदाभावादतीन्द्रियपरलोकाऽऽद्यर्थसाधकत्वमपि प्यते । यथाऽगुरुकर्पूरोर्णादिवाह्यदाहकपावकगतसुरभिगतस्यैवेति तत्प्रामाण्याऽनभ्युपगमे इहलोकस्यापि अभ्यु- न्धाऽऽद्यन्वयव्यतिरेकानुविधायी धूमस्तस्कार्यतया व्यवस्थिपगमाभावप्रसमान व किमत्र निर्विकल्पकं मानसं यो. तः । एकसन्तत्यनुपतितशाखसंस्काराऽऽदिसंस्कृतप्राक्तन. गिप्रत्यक्षमूहो वा प्रतिबन्धनिश्चायक, प्रतिबन्धोऽपि नियत विज्ञानधर्मान्धयव्यतिरेकाऽनुविधायि च प्रज्ञामेधाऽऽत्तरसाहचर्यलक्षण, कार्यकारणभावाऽऽदिवेति चिन्ताऽत्रोपयो विज्ञानमिति कथं न तत्कार्यमभ्युपगम्यते । तदनभ्युपगमे गिनी। धूमादग्निप्रतिपत्तिवत्प्रक्षामेधाऽऽदिविज्ञानकार्यविशेषा- धूमाऽऽदेरपि प्रसिद्धबहयादिकार्यस्य तत्कार्यत्वाप्रसिद्धिरिनिजजन्मान्तरविज्ञानस्वभावपरलोकप्रतिपत्तिसिद्धाश्रतो- ति पुनरपि सकलव्यवहारोच्छेदः । तस्माद्यस्यैव संस्कार, ऽनुमानाऽप्रामाण्यप्रतिपादनाय पूर्वपक्षवादिना यातिजाल नियमेनाऽनुवर्तते । तन्नान्तरीयकं चित्त-मतश्चित्तसमाधि. मुपन्यस्तं, तन्निरस्तं द्रष्टव्यम् । प्रतिपदमुच्चार्य न दृष्यते, तम्" ॥१॥ प्रतिपादितश्च प्रमाणतः प्रतिनियतः कार्यकारण ग्रन्थगीरवभयात् । यदप्युक्तम्-परलोके प्रत्यक्षस्याप्रवृत्तरी भावः सर्वक्षसाधने “कुसमयविसासणं” इति पदव्याख्या ऽऽपत्तिरेवेयमिहजन्मान्यथाऽनुपपया परलोकसद्भाव इति । कुर्वद्भिर्न पुनरिहोच्यते । योऽपि शालूकदृष्टान्तेन व्यभिः तदपि न सम्यक् । पूर्वानुसारेण सर्वस्य नियतप्रत्ययस्य प्र. चारः । यथा गोमयादपि शालूका, कश्चित्तमानजातीयाघृत्तेरनुमानत्वप्रतिपादनात् । अविनाभावसम्वन्धस्य प्रहीतु- दपि शालू कादेव तथा केचित्प्रशामेधाऽदयस्तदभ्यासात् । मशक्यत्वासात्रानुमानमिति चेत् । नम्वेवं तदेवाद्वैतं शून्य- कोचतु रसायनोपयोगात् । अपरे मातापितृशुक्रशोणितवित्वं वा कस्य केन दोषाऽभिधानम् । तस्मात्संव्यवहारकारि- शेषादेवेति । सोऽपि न सम्यक् । तत्राऽपि समानजातीयपूपा प्रत्यक्षेणोहेन वा प्रतिबन्धसिद्धिरिति कथं नानुमाना- lऽभ्याससम्भवात् अन्यथा समानेऽपि रसायनाऽऽशुपयोगे त्परलोकसिद्धिः? यदप्युक्तम्-मातापितृसामग्रीमात्रेणेहजन्म- यमलकयोः कस्यचित् क्वाऽपि प्रज्ञामेधाऽऽदिकमिति प्रतिनिसम्भवान सज्जन्मव्यतिरिक्तभूतपरलोकसाधनं युक्तमिति ।। यमो न स्यात्। रसायनाऽऽपयोगस्य साधारणत्वादिति।न तदपि प्रतिविहितमेव । समनन्तरप्रत्यक्षस्य भावात् । स्वमा- च प्रशाऽऽदीनां जन्माऽऽदौ,रसायनाभ्यासेच विशेषः। शालूऽऽविप्रत्ययवा प्रत्यक्षा बाह्यार्थसिद्धिरपीति बौवाभिमत- कगोमयजन्यस्य तु शालूकाऽऽदेस्तदन्यस्माद्विशेषो रश्यते,कपक्षसिद्धिप्रसङ्गः । अतस्तयात् । यदपि प्रतिपादितम्-सचि- चिजातिस्मरणं च दर्शनमिति न युक्ता दृष्टकारणादेव माताहितमानविषयत्वात् प्रत्यक्षस्य देशकालव्याप्त्या प्रतिबन्धः। पितृशरीरात्प्रज्ञामेधाऽऽदिकार्यविशेषोत्पत्तिः । न च गोमयप्रहणाऽसामर्थ्य मिति । तदपि न किञ्चित्। एवं सति प्रतिस- शालूकाऽऽदेर्व्यभिचारविषयत्वेन प्रतिपादितस्यात्यन्तपैलक्षनिहितविषयत्वेन प्रत्यक्षस्य स्वरूपमात्र एव प्रवृत्तिप्रसङ्गः। एयम्। रूपरसगन्धस्पर्शवत्पुद्गलपरिणामत्वेन द्वयोरपि अवैल. इति तदेव बौद्धाऽऽद्यभिमतं स्वसंवेदनमात्र सर्वव्यवहारोच्छे. क्षण्यात् । विज्ञानशरीरयोश्चान्तर्वहिर्मुखाऽऽकारविज्ञानग्राह्य. दकारि प्रसक्नमिति प्रतिपादितत्वात्। तस्मालोकव्यवहारप्रव. तया खपरसंवेद्यतया स्वसंवेदनबाह्यकरणाऽऽदिजन्यप्रत्यया. तनक्षमसविकल्पकप्रत्यक्षबलादृहाऽऽख्यप्रमाणाद्वा देशकाल- ऽनुभूयमानतया च परस्पराऽननुयाय्यनेकविरुद्धधर्माभ्यासव्याप्त्या यथोक्तलक्षणस्य हेतोःप्रतिबन्धग्रहणे प्रवृत्तिरनुमा तोऽत्यन्तवलक्षण्यस्य प्रतिपादितत्वात्, नोपादानोपादेयभानस्येति न व्याहतिःप्रकृतस्येति । एतदपि निरस्तम्। केबित्प्र- वो युक्तः शरीरवृद्ध्यादेश्चैतन्यवृद्धयादिलक्षण उपादानोपाशाऽऽदय इति इत्यादि।न च प्रज्ञामेधाऽऽदयः शरीरस्वभावा- देयभावधर्मोपलम्भः प्रतिपद्यते । असौ महाकायस्यापि मातमतगता इत्यादि चोयं युक्तम् तदन्तर्गतत्वेऽपि परिहारसम्भ- शाजगराऽऽदेश्चैतन्याल्पत्वेन व्याभिचारीतिन ताबसाधकः। वादन्वयव्यतिरेकाभ्यां तेषां मातापित्रोः पितृशरीरजन्यत्वस्य यस्तु शरीरविकाराचैतन्यविकारोपलम्भलक्षणस्तद्धर्मभावः पितृशरीरंतहि हेतुमेदान्नभेदोमातापितृशरीरादपत्यप्रशाss- प्रतिपाद्यतेऽसावपि साविकसत्वानामन्यगतचित्तानां वा छे. दीनाम् । अयमपरो वृहस्पतिमतानुसारिण एव दोषोऽस्तु, यः दाऽऽदिलक्षणशरीरविकारसद्भावेऽपि तचित्तविकारानुपलकार्यभेदेऽपि कारणभेदं नेच्छति।अस्माकंतुहर्षविषादाऽऽध. म्धेसिद्धः। दृश्यते च सहकारिविशेषादपि जलभूम्यानेकविरुद्धधर्माऽऽक्रान्तस्य विज्ञानस्यान्तर्मुखाऽऽकारतया वे. दिलक्षणाद्वीजोपादानस्यादुराऽऽदेर्विशेष इति सहकारिघस्य रूपरसगन्धस्पर्शाऽऽदियुगपजाविबालकुमारयौवनवृ- कारणत्वेऽपि शरीराऽऽदेर्विशिष्टाहाराऽऽधुपयोगाssखावस्थाऽचनेकक्रमभाविविरुद्धधर्माध्यासिततच्छरीरा35- दौ, यौवनावस्थायां वा शास्त्राऽऽादेसंस्कारोपात्तविशेषदेवाधेन्द्रियप्रभवविज्ञानसमधिगम्याद्भेद: सिद्ध एव । विरुद्ध. पूर्वज्ञानोपादानस्य विज्ञानस्य विवृद्धिलक्षणो विशेषो नाधर्माध्याला,कारण भेदश्च पदार्थानां भेदकः। स च जलाऽनल | संभवी । यदप्युक्तम्-अनादिमातापितृपरम्परायां तथायोरिवशरीरविज्ञानयोर्विद्यत एवेति कथं न तयोर्मेदः। तद्रे. भूतस्यापि बोधस्य व्यवहितमातापितृगतस्य सद्भादादप्यभेदे ब्रह्माद्वैतवादाऽऽपत्तेस्तदयस्थ एव पृथिव्यादितव- वात्ततो वासनाप्रबोधेन युक्त एव प्रशामेधाऽऽदिविशेषस्य चतुण्याभावाऽऽपल्या व्यवहारोच्छेदः । अथवा मातापितृपू- संभव इति। तदप्ययुक्तम् । अनन्तरस्यापि मातापितृपाण्डि जन्मैकसामग्रीजन्यमेतत्कार्यम् । एतत् न दोषो व्यतिरिक्त- त्यस्य प्रायःप्रबोधसंभवात्। ततश्चक्षुरादिकरण जनितस्य स्व. पक्षेप विज्ञानशरीरयोः । पूर्वमप्युक्तं विलक्षणादयन्व- रूपसंवेदनस्य चक्षुरादिज्ञानस्य वा युगपत्क्रमेण चोत्पत्ती यव्यतिरेकाभ्यां मातापितृशरीराद्विज्ञानमुपजायतां न हि मयैवोपलब्धमेतदिति प्रत्यभिज्ञानं सन्तानान्तरतदपत्यज्ञा. कारणाऽऽकारमेव सकलं कार्यमिति । तदप्यसत् । यतो न नानामपि स्यात् । न च मातापितृशानोपलब्धेः तदपत्या:हि कारणविलक्षणं कार्य न भवतीत्युच्यते, अपि तु तवन्ध- देः कस्यचित्प्रत्यभिज्ञानमुपलभ्यते । अनेनैकस्मात् ब्रह्मणःप्र. यव्यतिरेकाऽनुविधानात् तत्कार्यत्वम् । तथाहि-यव यत् वि. जोत्पतिः प्रत्यक्ता । एकप्रभवस्वे हि सर्वप्राणिनां परम्परं प्र. काराम्बयव्यतिरेका सुविधायि तत् तत् कार्यमिति व्यवस्था त्यभिज्ञाप्रसङ्गः । एकसन्तानोद्भूतदर्शनस्पर्शनप्रत्यययो १३५ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमब अभिधानराजेन्धः। परमठि (ण) रिख । सम्मकाएड। (अप्रे'परलोग' शब्दो वीक्ष्यः), टलेखकरणाविना परवचने,मायाप्रत्यायिन्याः क्रियायाभेदे, (यादृश एवेहलोके ताडश एव परलोके, अन्यथा तिह- "तं तं भावमायरह, जेण परो चिजा रहकरणाईभव' शब्दे द्वितीयभागे ६४७ पृष्ठे गतम्) हिं।" इति वृद्धव्याख्यानात् स्था० २ ठा० १ उ०। परभवविणिवाय-परभवविनिपात-पुं० । पराभिभवसंपर्के, परभोयण-परभोजन-न । पराऽऽहारे,सूब०१७०७०। प्रश्न. ३ माघ• द्वार। | परम परम-त्रि० उत्कटे,डा०१७ द्वा०। प्रकृष्टे,पश्चा०१८ विपरभवसंकमकारभ-परभवसंक्रमकारक-पुं० । प्राणातिपाते, बासूत्र। उत्त० । जीत० । प्रधाने, दश.१० माचा। प्राणधियोजितस्यैव परभवे संक्रान्तिसभावात् । प्रश्न०१ विशे० । प्रधानसूते मोजे, संयमे च । सूत्र० १ श्रु०६०। आश्रद्वार। परमत्थे परमउलं, परमाययणं ति परमकप्पो ति। परभावियाउय-परभाविकाऽऽयुष-म० । परभवो विद्यते यस्मि- परमुत्तमतित्थयरो, परमगई परमसिद्धि त्ति ।। १७ ।। स्तत्परमविकम् । तब तदायुश्चेति परभविकाऽऽयुः । स्था। परमार्थे मोक्षे परं प्रकृष्टमतुलं तुलनाऽतिक्रान्तं सांसारि णेरइया छम्मासावसेसाउया परभवियाउयं पगरेंति । कलक्षणं कारणं (परमायणं ति) परममायतनं स्थानं ज्ञाना. एवमसुरकुमारा वि० जाव पणियकुमारा । असंखेजवासा- दीनामेतदित्यर्थः । ( परमकप्पो त्ति) स्थविराऽऽदीनामेष प्रधानकल्पः पर्यन्तकृत्यविधिः संस्तारक इत्यर्थः।(परमुत्तमउया सत्रिपंचेंदियतिरिक्खजोणिया णियमं छम्मासावसे तित्थयरो परमगई परमसिद्धि त्ति) पूर्ववत् ॥१७॥ संथा। साउया परभवियाउयं पगरेंति । असंखञ्जवासाउया स-1 | परमंग-परमाङ्ग-न० । मानुष्यधर्मश्रद्धाधर्मश्रुतिसंवेगलक्षणेत्रिमणुस्साणियमं०जाव पगरेति । वाणमंतरजाइसिया वेमा पु मोक्षाङ्गेषु, ध०र०१ अधि० १८ गुण । ('चउरंग' शब्दे णिया जहा णेरइया । तृतीयभागे १०५ पृष्ठे व्याख्याऽपि) (नियमं ति) अवश्यभावादित्यर्थः। (छम्मासावसेसाउय त्ति) परमगुण-परमगुण-पुं। प्रधाने गुणे, पं० २०१द्वार । परमासा अवशेषा अवशिष्टा यस्य तत्तथा तदायुर्वेषां तेषएमासावशेषाऽऽयुष्काः। परभवो विद्यते यस्मिँस्तत्परमविकं, परमगुरु-परमगुरु-पुं० । तीर्थकृति, पं० २०४ द्वार। तश्च तदायुश्चेति परभविका युः, प्रकुर्वन्ति बघ्नन्ति । असं- परमग्गमूर-परमानशूर-पुं० । दानसंग्रामशूरापेक्षया प्रधानख्येयानि वर्षाण्यायुर्येषां ते तथा, ते च ते संशिनश्च समन | शूरे जितेन्द्रिये, दश० ६ ०३ उ.। स्काः पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चेत्यसंख्येयवर्षाऽयुष्कसंशिपचन्द्रियतिर्यग्योनिकाः । इह च संशिग्रहणमसंख्येयवर्षाऽऽयु. परमघोर-परमघोर-न० । क्लीवैषुरनुचरे, संथा। कासंशिन एव भवन्तीति नियमदर्शनार्थ,न त्वसंख्येयवर्षा परमचक्खु-परमचतुष्-न । परमं ज्ञानं चक्षुर्यस्याऽसौ परपायुमसंमिनाम् व्यवच्छेदार्थ तेषामसंभवादिति । इह च गाथे- मचतुः । मोक्षकदृष्टी, प्राचा०१ श्रु०५१०२ उ० । "निरह सुर असंखाऊ, तिरि मणुया सेसए उ छम्मासे। परमचरणपुरिस-परमचरणपुरुष पुं०। प्रधानचारित्रलक्षणइग विगला निरुवक्कम, तिरि मणुया पाउयतिभागे ॥१॥ नरे, पञ्चा० १६ विव०। अवसेसा सोवक्कम, तिभागनवभागसत्सवीस इमे। बंधंति परभवाश्रो, निययभवे सव्वजीवावो ॥२॥" इति । परमट्ट-परमार्थ-पुं० । सद्भतार्थे अकृत्रिमपदाणे, पा० । इदमेवान्यैरित्थमुक्तमिह-तिर्यग्मनुष्या आत्मीयाऽऽयुषस्तृती. " परमणिट्टिअत्था।" परमार्थेन न कल्पनामात्रेण निष्ठिता यत्रिभाग परभवायुऽऽषो बन्धयोग्या भवन्ति । देवनारकाःपु. अर्था येषां ते तथा । ध०२ अधि० । मोते, उत्त० २१ अ०। नः षण्मासे शेषे, तत्र तिर्यग्मनुष्यैर्यदि तृतीयत्रिभागे आयुन- सारे, आव०४०। ब्रह्मणि, श्रा० म.१०। यचं, ततः पुनः तृतीयत्रिभागस्य तृतीयत्रिभागे शेषे बध्न- परमट्ठपय परमार्थपद-न० । परमार्थस्य मोक्षम्य पदानि स्थान्ति । एवं तावत् संक्षिपन्स्यायुर्यावन्सर्वजघन्य आयुर्वन्ध- नानि परमार्थपदानि । शानदर्शनचारित्रेषु, उत्त०१८ अ०। कालः, उत्तरकालश्च शेषस्तिष्ठति । इह तिर्यग्मनुष्या आयु: परमदभेयग-परमार्थभेदक-त्रि० । मोक्षप्रातिघातके, प्रश्न. ३ बध्नन्ति अयं वा संक्षेपकाल उच्यते । तथा देवनैरयिकैरपि यदि षण्मासे शेषे आयुर्न बद्धं तत आत्मीयस्थाss. आश्र० द्वार। युषः षण्मासशेषं तावत्संक्षिपन्ति यावत्सर्वजघन्य आयुर्व परमहसंथव-परमार्थसंस्तव-पुं० । परमार्था जीवाऽऽदयस्तेषां न्धकाल उत्तरकालश्चावशेषोऽवतिष्ठते, इहपरभवाऽऽयुर्देव- संस्तवः परिचयः। ध०१ अधि० । जीवाऽऽदिभावानां स्वनैरयिका बध्नन्तीत्ययमसंक्षेपकालः । स्था० ६ ठा० । पूर्वभ. रूपशादुत्पन्नपरिचये, उत्त० २८ अ०। वबद्ध परभवप्रायोग्ये आयुषि, परभवप्रायोग्यं यद् वर्तमा परमवाणुगामिय-परमार्थानुगामुक-पुं० । परमः प्रधानभूतो नमवे निबद्धं तच्च परभवे गतो यदावेदयति तदा व्यपदि मोक्षः संयमो वा तमनुगच्छतीति तच्छीलश्च परमार्थानुश्यते । भ०५ श०३ उ०। गामुकः । सम्यग्दर्शनाऽऽदौ. सूत्र० १ श्रु० अ०॥ परभाष-देशी-सुरते, देना०६ वर्ग २७ गाथा। परमट्टि (ण)-परमार्थिन्-त्रिका कल्याणकटकनगरराजे. "पुपरभावकणया-परभाववङ्कनता-खी । परभावस्य वङ्कनता | व्वं किर कल्लाणकडए नयरे परमट्ठी नाम राया रजं करे । वश्वनता या कूटलेखकरणाऽदिभिः सा परभाषषङ्कनता।क-तेण जिणभत्तेण तत्थ पासाए चंदकंतमणिविबं सोऊण Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) परमहि (ण) भन्निधानराजेन्छः । परमहम्म चितियं-महमेयं बिम्ब नियघरे भाणिऊण देषयावसरे पूर- सबाउलो तपधेति । जिनाय तिलाकाऽऽयाभरणदानसारे स्सामि।" ती०२७ कल्प । चित्रतपसि । पश्चा० १६ विव० । प्रव० । परमणाणि (ए)-परमज्ञानिन्-पुं० । सर्वेभ्योऽधिकहाने, परमभूषणतपः प्राऽऽहयस्मात्परोहानी नास्ति । सूत्र.१६०६०। सो परमभूसणो हो- जम्मि भायंबिलाणि पचीस । परमणिरुद्ध-परमनिरुडू-वि•। परमनिकृष्टे, ज्यो०१ पाहु।। अंतरपारणयाई, भूसणदाणं च देवस्स ।। १५६०॥ परमम-परमान-न पायसे, जी० ३ प्रति०४ अधिः । प.। परमाणि शक्रचक्रवाशुचितानि प्रकृष्टानि हारकेयूरकुचा। प्रा०म० । क्षरेय्याम्, भ० १५ श० । एडलाऽऽदीनि भूषणान्याभरणानि यस्मादसौ परमभूषणः त. स्मिन् द्वात्रिंशवाचाम्लानि पारणकान्तरितानि शक्तिसनापरमतिलोगणाह-परमत्रिलोकनाय-पुं०। परमाश्च ते दुर्ग वे निरन्तराणि पा करोति तत्समाप्तौ च देवस्य मुकुटतिल. तिभयसंरक्षणन त्रिलोकनाथाश्च। अत्र त्रिलोकवासिनो दे. काऽऽचाभरणवितरणं यथाशक्ति यतिदानाऽऽदिकं च कर्तवाऽऽवयः परिगृह्यन्ते, तन्नाथाश्च उपदेशदानेन तीर्थकृत्सु, व्यमिति ॥ १५६० ॥प्रव०२७१द्वार। पं० सं०१द्वार। | परममंगल-परममङ्गल-न० । प्रधानमगले, दश०१०। परमत्थ-परमार्य-1०। तथ्ये, पाइ० ना० २६० गाथा। | परममुत्ति-परममुक्ति-स्त्री.। सकलकर्माशप्रहाणी, पञ्चा०२ परमत्यसंथव-परमार्यसंस्तव-पुं० । 'परमट्ठसंथव ' शब्दार्थे, | विव। ध० १ अधिक। परमरहस्स-परमरहस्य-न । प्रधानतके, “परमरहस्समिपरमदंसि (ए)-परमदर्शिन-पुं० । परमो मोक्षस्तत्कारणं वा | सीणं, संमत्त गणिपिडगतत्तसाराणं। परिणामियं पमाणं, संयमस्तं द्रष्टुं शीलमस्येति परमदर्शी । मोक्षकारणद्रष्टार, | णिच्छयमवलम्बमाणाणं ॥१॥" जी०१४ अधिः। आचा०१श्रु० ३ १०२ उ०। परमरिसि-परमर्षि-पु० । तीर्थकरे, गणधरे च । पा०। परमदुचरिय-परमश्वर-वि० । अत्यन्तदुष्करे, दश० ६ ०। परमरिसदेसिय-परमर्षिदेशित-पुं। परमर्षिभिस्तीर्थकरापरमपय-परमपद-न०। मोक्षे, पं० २० १द्वार । पाहना।। दिभिरेव देशितं भव्योपकाराय कथितम् । पा• । तीर्थकराप्राचा। ऽऽदिकथिते, "इमस्स धम्मस्स परमरिसिदेसियस्स।" ध० मोक्ष एषाम्यैः परमपदसंशयाऽभिहित इति तल्लक्षणमाह- ३ अधिक। या दुःखेन संभित्रं, न च भ्रष्टमनन्तरम् । परमरुद्द-परमरुद्र-त्रिका प्रत्यर्थदारुणे, प्रश्न०३ आश्रद्वार। अभिलाषापनीतं च, तज्ज्ञेयं परमं पदम् ॥ २॥ परमवच्छल्ल-परमवात्सल्य - न०। प्रधानगौरवे,पश्चा०८विव० । यत् पदं न नैव दुःखेनासुखेन संभिन्न व्यामिश्रं, न च नैव | परमसिद्धि-परमसिद्धि-स्त्री० । अणिमाऽऽदिसिद्धयपेक्षया प्रच भ्रष्ट क्षीणम् अनन्तरमुत्पत्तिलक्षणानन्तरम् । अथवा-अन- | धाना पुरुषार्थनिष्पत्तिः । निर्वाणे, पञ्चा०३ विव० । संथा। न्तरमव्यवच्छिन्नम् । तथा-अभिलाषेभ्यो विविधवाञ्छा परमसुइभ्य-परमशुचिभूत-त्रि० । अत्यन्तं शुचिभूते, विपा. भ्योऽपनीतमपेतमाभिलाषापनीतं यत् पदं तदिति तदेव थे १ श्रु०६०।ौ० । भ० । प्रत्यर्थ शुचीकृते, औ० । रा.। यं सातव्यं परमं सर्वोत्तम पदमास्पदं सर्वगुणानामिति ग परमसुक्किय-परमशौक्लिक-न । परमशुक्लप्रधानध्याने, म्यम् । हा० ३२ अष्ट। संथा। परमपयवीय-परमपदबीज-नग निर्वाणहेतौ,पश्चा०१४ विवण परमसुहसाग-परमसुखसाधक-त्रि०। पारम्पर्येण निर्वाणापरमपसाहग-परमप्रसाधक-त्रि० । मुक्लिनिर्वर्तके, पश्चा०४ ऽऽवहे. पं० सू०१ सूत्र०।। विव०। | परमसोमणस्सिय-परमसौमनस्थित-त्रि० । शोभनं मनो परमप्पय-परमाऽऽत्मन्-पुं० । केवलझानभाजिनि ध्यानभाव्ये | यस्य सुमनास्तस्य भावः सौमनस्यं परमं च सौमनस्य च वा आत्मनि, द्वा०२०द्वा०। परमसौमनस्यम् । तत्सम्जातमस्येति परमसौमनस्थितः। परमफल-परमफल-ज० । प्रकृष्टफले, पो०७ विष०। रा। कल्प। परमबंधु-परमबन्धु-पुं० । परमोपकारिणि, आव० २ अ० । परमसौमनस्थिक-त्रि०। परमसौमनस्यं तद्वाऽस्येति परम"जो बोहेर सुपंतं, सो तस्ल जणो परमबंधू ।" सूत्र० १॥ सौमनस्थिका लाभ दशा । सन्तुष्टचित्ततां गते,कल्प श्रु. १४ मा १ अधि०१ क्षण। परमवलभ-परमबलभ-पुं० । सवोथेसंप्राप्तिकारके, तं०। परमांस-परमहंस-पुं० । वानप्रस्थभेदे, ये नदीपुलिनपरमभाव-परमभाव-पुं० ।शानाऽऽदिपरमतवभाषे, द्रव्या०२] समागमप्रदेशेषु वसन्ति चीरकौपीनकुशांश्च त्यक्त्वा प्रा. णान् परित्यजन्ति । ०। अध्या। परमभूसातव-परमभूषणतपस्-न। परमाण्युत्तमानि भूष-परमहम्म परमधर्मन-त्रि०। परमं सुखं तशर्मा । सुखधर्मणि णान्याभरणानि यतोऽसौ परमभूषणः । पञ्चा० १६ विव० ।। सुखाभिलाषिणि, वश०४०। Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४० ) अभिधानराजेन्द्रः । परमाउ परमाउ - परमायुष्-न० । संपूर्णाऽऽयुषि, " अड्डाइज्जाई वासस याई परमाउयं पालइत्ता ।" विपा० १ ० १ ० । परमाणंद- परमाऽऽनन्द-पुं० । प्रकृष्टाऽऽहादे, - " परमाऽऽनम्हरूपं तद् गीयते ऽम्यैर्विचक्षणः ।" प्रकृष्टाऽऽहादस्वभावं तदिति मोक्षसुखं गीयतेऽभिधीयते श्रन्यैराईतैः परैर्विचक्षणैः पण्डितैः । हा० ३२ श्रष्ट० । द्वा० । 46 परमाऽऽनन्द इति यामाहुः” यां समरसापति परमाऽऽनन्द इत्यनेन शब्देन ब्रुवते वेदान्तवादिनः । प० १४ वि० 1 परमाणंदकंदभू-परमाऽऽनन्दकन्दभू-श्री० परमाऽऽनन्दकपस्य कन्दस्योत्पत्तिस्थाने, द्वा०८द्वा० । परमार्थदचच्चा- परमानन्दचर्चा श्री० । महोदयमीमांसायाम्, द्वा० ३२ द्वा० । परमाणंदसुहसंगय-परमाऽऽनन्दसुखसङ्गत- न० । परम श्र नन्दो यस्मिन् सुखे तेन सङ्गतं युक्तम् । निर्वाणे, पो०१५ विव०। परमाणंद सूरि- परमानन्दसूरि - पुं० । विक्रमसंवत्सराणां त्रयोदशशतके जाते सोमप्रभसूरिशिष्ये, ग०३ अधि० । परमा नन्दसूरिभयदं शिष्योगाचार्यकृतविका कृत् । जै० इ० । परमाणु - परमाणु- पुं० परमाखावात्यन्तिकोऽथ सूक्ष्मः परमाणुः । द्व्यणुकाऽऽदिस्कन्धानां कारणभूते श्रप्रदेशे पुनले " एगे परमाणू । " परमाणुः स्वरूपत एक एवाऽन्यथा परमारेवाली न स्यादिति । अथवा प्रत्येकानामपि त स्वरूपापेक्षयैकत्वम् स्था० १ डा० केषाञ्चिनादिके सं बन्धात्परमाणोरप्येकता असंगतैवा हवा । 1 १ केन युगपद्योगा- परमाणोः पशता " सम्म १ फाड । परमाणुर्द्विविधः सूक्ष्मो. व्यावहारिकश्चसे किं तं परमाणु, परमाणू दुविहे पत्ते तं जहा सु. हुमे अ, बवहारिए । तत्थ से जे से सुदुम से उप्पे, त स्थणं जे से बवहारिए से णं अताणताणं सुहुमपोग्ग लाणं समुदयसमिति समागमेयं बवहारिए परमाणुपोग्गले निष्फल से गं भंते! असिधारा सुरधार वा ओ11 गाजा ? | हंता श्रोगाहेज्जा । से गं तत्थ छित्रे वा, भिजेज वा । यो इगा समझे, नो खलु तत् सत्यं कमइ । से भंते ! अगणिकायस्त मज्भं मज्भेणं वीइवा ? हंता बीएल से ये भंते तत्थ रहेजा ? | गो इट्ठे समट्ठे, यो खलु तत्थ सत्थं कमइ । से गं भंते! पुक्खरसंवट्टगस्स महामेहस्स मकं ममे बीइवएज्जा ? । हंता बीइवए । से गं तत्थ उदउल्लेसिया ।। नो इट्ठे सम, यो खलु तत्थ सत्थं कमइ । से गं भंसे! गंगाए महापदीए पटिसोयं हन्यमागच्छेजा ? | हंता हव्यमा गच्छेजा । मे णं तत्थ विणिघायमा जेजा १ । नो इट्टे समझे, यो खलु तत्थ सत्यं कम से थे भंते उदगावत्तं वा उदगबिंदु वा श्रगाहेज्जा ? । हंता श्रोगाहेज्जा, । परमाणु से णं तत्थ कुच्छेज वा, परियावओअ वा १। यो इण्डे समड़े, नो खलु तत्थ सत्यं कमइ, सत्वेण सुतिस्खे वि छि भेनुं च जं फिर न सका तं परमाणुं सिद्धा पर्यति । परमाणुर्द्विविधः प्रज्ञप्तः - सूक्ष्मो, व्यावहारिकश्च । तत्र सूक्ष्मस्तत्स्वरूपाऽऽख्यानं प्रति स्थाप्यः, अनधिकृत इत्यर्थः । (से कि हारिए इत्यादि) ननु कियद्भिः पिकपरमाणुमिरेको व्यावहारिकः परमाप श्रोत्तरम् - ( श्रताणमित्यादि ) अनन्तानां सूक्ष्मपरमाणुपुलानां संबन्धिनो ये समुदायाः इत्यादिसमुदायाऽऽत्मकानि वृन्दानि तेषां पाः समितयो बहूनि मीलनानि तासां स मागमः संयोग एकीभवनं समुदयसमितिसमागमः तेन व्यावहारिकपरमाणुपुल एक निष्पद्यते इदमुक्रम्भपतिनिश्चयनयः कारणमेव तदस्यं सूक्ष्मो नित्य भवति प रमाणुः । एकरसवर्णंगन्धो, द्विस्पर्शः कार्य्यलिङ्गश्च ॥ १ ॥" इत्यादिलक्षणसिद्धं निर्विभागमेव परमाणुमिच्छति । यस्त्वेतैरनेकैजयते तं सांशन्यात् स्कन्धमेव व्यपदिशति व्ययहारस्तु तदनेकतानिष्यन्नोऽपि वा शस्त्रच्छेदाग्निदाहादिविपयो न भवति तमद्यापि तथाविधस्थलताप्रतिपत्तेः पर मात्वेन व्यवहरति, ततोऽसौ निश्चयतः स्कन्धोऽपि व्यवहारनयमतेन व्यवहारिकः परमाणुरुक्तः, न च वक्तव्यम् - श्रयं तर्हि विषय भवति तनिषेधार्थमेव प्रक्ष मुत्पादयति - ( से गं भंते ! इत्यादि ) स भदन्त ! व्यावहारि कः परमाणुः कदाचिदसि सह तारांपा. पुरो नापितो पकरणं तद्धारां वा श्रवगाहेत श्राक्रामेत् ? । अत्रे (त्तरम् - (हंतावगाहेतेति ) इन्तेति कोमलाऽऽमन्त्रणे । श्रभ्युपगमद्यातने वा । ( श्रवगाहेतेति ) शिष्यपृष्टार्थस्याभ्युपगमवचन. म् । पुनः पृच्छति स तत्रावगाढः संश्छिद्येत वा द्विधा कि. येत. भियेत वा अनेकथा विदायैत, सूच्यादिनादि द्वा सच्छिद्रः क्रियते ? उत्तरमाह-नायमर्थः समर्थः, नैतः देवमिति भावः । श्रत्रोपपत्तिमाह-न खलु तत्र शस्त्रं क्रामति । इदमुकं भवति-पद्यप्यनन्तेः परमाणुभिर्निष्यन्ना काठा555यः शस्त्रच्छेदाऽऽदिविषया दृष्टास्तथाऽप्यनन्तकस्यानन्तभेत्यतात्मानैव परमारायनन्तकेन निष्पकोऽसी व्याप दारिकः परमाशुयात्प्रमाणेन निष्पन्नोऽद्यापि सूक्ष्मत्या शस्त्राऽऽदिविषयतामासादयतीति भावः पुन रप्याह-स भदन्त ! अनिकायस्य वह्नेर्मध्यं मध्येनान्तरे व्यतिमजेच्छेत्तेत्यादुत्तरं पूर्ववत् नवरं शत्रमिहानि प्रायम् पुनः पृच्छति से गं भंते! पुरेत्यादि) इदमपि सूत्रं पूर्ववद्भावनीयं नवरं पुष्करसंवर्तस्व महामेघ स्वयं प्ररूपण चिरावामेकर्विशतिवर्षसहस्रमाने दुःखमदुःषमालक्षणे प्रथमारकेऽतिक्रान्ते द्वितीयस्याऽऽदौ सक जनस्याभ्युदयार्थ कमेणामी पश्च महामेघाः प्रादुर्भविष्यन्ति, यथा- पुष्कर संवर्तक उदकरसः प्रथमः द्वितीयः क्षीरोदः, तृतीय पृतोदः चतुर्थोऽमृतोदः पञ्चमी रसोइः । तत्र पुष्क रसंवर्तोऽस्य भरतक्षेत्रस्य पुष्करं प्रचुरमपि सर्वमशुमानुभा वं भूमिरूक्षतादाहाऽऽदिकं प्रशस्तोदकेन संवर्तयति नाशयति । एवं शेष नेपथ्यापारोऽपि प्रथमवगन्तव्य (उदर उ खियति) उइकेनाऽऽई स्यादित्यर्थः । शस्त्रता पात्रोदकस्याव सेवा ( से णं भंते गंगा इत्यादि) , Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४१) अभिधानराजेन्द्रः । परमाणु गङ्गाया महानद्याः प्रतिस्रोतः 'हव' शीघ्रमागच्छेत्, पूर्वाभिमुखे गङ्गाप्रवाहे वहति सति पश्चिमाऽऽयभिमुखः स आगच्छेत् साध्येनेति भावः । (पिणिहायमित्यादि) वि. निपातः तर प्रतिस्थापयेत जुयात्। शेष पूर्ववत् । ( से णं भंते ! उदगावत्तमित्यादि) उदकाssवर्तोदविन्दोर्मध्ये अवगाह्य तिष्ठेदित्यर्थः। स च तत्रोदकसंपर्कात् कुत्थ्येद्वा-पूतिभावं यायात् पर्यापद्येत वा जलरूपतया परिण मेदित्यर्थः। शेर्पा तथैव पूर्वोक्रमेवार्थ संक्षेपतः प्राह-सत्थे गाहा ।" गतार्थ, नवरं लक्षणमेवास्येदमभिधीयते, न पुनस्तं कोऽपि मेनुमारभते इत्येतरिकलशब्देन सूचयति (सिद्ध त्ति ) ज्ञानसिद्धाः केवलिनो न तु सिद्धाः सिद्धिगताः, तेषां वदनस्यासम्भवादिति । श्रतु० । जी० ॥ ज्यो० | प्रब० । स्था० । “ कारणमेव तदन्त्यं, सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाखुः । एकरसगन्धी द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गख १ ॥ " स्था० १ ठा० । जीः । भ० । उत्त । विशे० । ( परमाणूनां चलनम् 'चरमंत' शब्दे तृतीयभागे ११४० पृष्ठे गतम् ) गमनसामर्थ्यं परमार्थस्तवास्वनायश्वाद् मन्तव्यमिति । भ० १६ श०८ उ० । आचा० । परमारसूनां प्रत्यक्षविषयत्वम्न च चराविज्ञाने परमाणवी नावासन्तु ल्यातुल्यरूपत्वात्, तुल्यरूपस्य च चक्षुरादिविज्ञाने प्रतिभासनात् न च तुल्यं रूपं नास्त्येव तदभावे सस्येकपरमारपुत्र्यतिरेकेणान्येषामत्वाभावप्रसङ्गात् । न च तदन्यव्यावृत्तिमानं परिकल्पितमेव रूपाभावेऽन्यव्यावृतिमात्र सायां तरूप खपुष्यकल्पत्वप्रसङ्गात् तथा यशेषपदार्थव्यावृत्तमपि खपुष्पं स्वरूपाभावान्न सत्तां धारयति, न च तद्रूपमेव जातखाधारणं तदन्यध्यासितस्य तेभ्यः स्य भावभेदेन व्यावृतेः, स्वभावमेवानभ्युपगमे च सजातीयेतरमेवानुपपत्तेः सजातीयैकान्तव्यावृती व विजातीयव्या वृतायनत्यत्वाभावप्रसङ्गः भावे च तुल्यरूपसिद्धिरि नियमनिमिता देश 55 नियमेन च स्वमबुद्धया व्यभिचारः, तस्या श्रध्यनेकविधिनिमित्तवलेनैव भावात् । श्राह च भाष्यकारः - "अणुभूय दिट्ठ चिंतिय, पविवार देवाभ्या सुमित निर्मिताई पा 3 व नाभावो ॥१॥ " ॥ ६१२ ॥ श्र० १ श्र० । उत्त० । श्र० क० । मानुपलभ्ये परमायुदाती 'माणुसन्तशब्दे परमाणुषोग्गल - परमाणुपुङ्गल-पुं० परमाश्च ते यश्च परमाणवः निर्विभागद्रव्यरूपास्ते च ते पुद्गलाश्च परमाणुलाः । त्वमाचमनापचेषु केवलेषु परमाणु प्र०१ पत्र स्था० भ० । सूत्र० । करविहे थे भंते! परमाणुपले पत्ते ? गोवमा ! चवि परमाणुपले पण ते । तं जहा - दव्यपरमाणू खेतपरमाणु कालपरमाणू भावपरमाणू ४ । दव्वपरमागुणं भंते ! कविहे पणते ? । गोयमा ! चउत्रिपते । तं जहा - अच्छेजे, अभेजे, अज्झे, अगेज्के । खेतपरमाणू णं भंते! करविहे पण ? गोयमा चउ बिहे पण यचे । तं जहा अवड़े, अमर, अपसे, अविभागे । फालपरमाणू पुच्छा ? गोममा ! चाब्वहे १३६ परमाहुम्मिय पतं जदा अवले, अगंधे, अरसे, अकासे भावपरमायूयं भंते! कवि पसते ? गोयमा ! चधिपते तं जाते, गंधमंते, रसमंते, फासमंते । | ( क इत्यादि) तत्र व्यरूप परमासुर्दव्यपरमारेको5पूर्वर्णाऽऽदिभावानामविवक्षणाद् द्रव्यत्वस्यैव च विवक्षणादिति । एवं क्षेत्र परमाणुराकाशप्रदेशः कालपरमाणुः समयः, भावपरमाणुः परमाणुरेव वर्णादिभावानां प्राधान्पविवक्षसात्सर्वजधन्यकालत्वाऽऽदिर्वा (उबिदेसिएको इ व्यपरमाणुपिया चतु खभावः । ( अच्छे सि) शस्त्राऽऽदिमा लतादिवत् तनिषेधादयः (अमेि भेद्यः सूच्यादिना चर्म्मवत्तनिषेधादभेद्यः । (अडज् ति) श्रदाह्योऽग्निना सूक्ष्मत्वात् श्रत एवाग्राह्यो हस्ताऽऽदिना (अणद्धे त्ति ) समसख्याऽवयवाभावात् ( श्रमज्झे ति ) विषमसंरूपाऽवयवाभावात् (अपति) निरंशोऽवयवाभावात् । (अविभाति) अविभागेन निर्वृतो अविभागिमः एकरूप इत्यर्थः। विभाजयितुमशक्यो वेति भ० २० शु०५४० "चलना चलिए " इति 'कम्म' शब्दे चिन्तितम् 'अरण उत्थिय शब्दे प्रथमभागे ४५० पृष्ठ तद्विप्रतिपतिरुक्का) परमाणुवग्गणा - परमाणुवर्गणा श्री० असंख्यातानामनन्तानां च परमातूनां समुदाये, क० प्र०१ प्रक० | पं० सं० । परमाणुसंजोग परमाणु संयोग- पुं० परमानामितरेतरसं योगे, उत्त० १ ० । ( 'संजोग' शब्देऽस्य व्याख्या दर्शयिच्यते) " परमार परमार पुं० । क्षत्रियजातिविशेषे, “महारस्य नेतारः, परमारनरेश्वराः पुरीद्रावती तेषां राजधानी नि धिः श्रियाम् ॥ १ ॥ " ती० ७ कल्प । - परमाराम - परमाऽऽराम पुं० । श्रारामयतीत्यारामः, परमश्चासावारामश्च परमाऽऽरामः । शाततश्वस्य जनस्य दासविलासापाङ्गनिरीक्षणाऽऽदिभिर्वियोकै मह के स्त्रीजने, ब्रह्माऽऽनन्दे च । श्राचा० १ ० ४ ०५ उ० । परमाहम्मिय परमाधार्मिक-पुं० परमाथ ते प्रथामिकारव संक्लिष्टपरिणामत्वात् परमाधार्मिकाः। श्रसुरविशेषेषु ये ति सृषु पृथिवीषु नारकान् कदर्थयन्ति । स० १५ सम० भ० । तेर्सि वा जमकाइपाणं देवार्थ सकस्स जमस्स इमे देवा महावच्या अभिलाषा होत्या । तं जहा " अंबे १ बरसे चैव २, सामे ३ सबले त्ति यावरे ४ । रुदे परे ६ काले व ७, महाकाले नि बावरे ८ ॥१॥ असिपत्ते १० कुम्भे ११, बालुया १२ वेवरणी नि य १३ । खरस्सरे १४ महाघासे १५, एमे पारसाहिया || २ || अन्य इत्यादयः पञ्चादशाऽसुरनिकायान्वर्तिनः परमा धार्मिकनिकायाः, तत्र यो देवो नारकानम्बरतले नीत्वा वि. मुञ्चत्यसावम् इत्यभिधीयते । ( एमे पसरसाहिय त्ति ) एवमुक्कन्यायेन एते यमापत्यदेवाः पञ्चदश श्रा ख्याता इति । भ० ३ ० ७ ० | प्रब० । उत्त० । श्राव० । Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमाहम्मिय अभिधानराजेन्डः । परखोग ( अम्बाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थानेषु ) तथा परमाधार्मि तत्किमित्याहका भव्या एव, इति प्रघोषः सत्योऽसत्यो वेति ? । अत्र आभटो य जिणेणं, जाइ-जरा-मरणविप्पमुक्केणं । असत्य पवेति शेयम् । उभयथाऽपि तेषासविरोधात् । न च जन्मान्तरीयकृतदुष्कृतोक्तिपूर्वकं ते नारकान् कदर्थयन्तीति नामेण य गोत्तेण य, सव्वएणू सव्वदरिसी ण ।।१६५०॥ अभव्यानां तत्कथं संगच्छते इति वाच्यम् , यतस्तेअप स्व सव्याख्याना तथैव ।। १६५० ॥ र्गकामास्तपस्यां कुर्वाणा आगमे श्रूयन्ते इति । ही०३ प्रका। आभाष्य ततः किमुतोऽसौ ?, इत्याहभ०। सूब०। किं मन्ने परलोओ, अत्थि नत्थि त्ति संसो तुज्झ । परमाहोहिय-परमाधोऽवधिक-पुं० । परमाधोवधिकशानिनि, | वेयपयाण य अत्थं,न याणासी तेसिमो अत्थो ॥१९५१॥ परमे नियतक्षेत्रविषयावधिज्ञानयुक्त. भ०।। श्रायुध्मन् मेतार्य ! त्वमेवं मन्यसे-किं भवान्तरगमअयं च चरमशरीर एव भवतीत्यत पाह नलक्षणः परलोकोऽस्ति, नाऽस्ति वेति ? । अयं च संशयपरमाहोहिए णं भंते ! मणसे, जे भविए तेणं चेव भ स्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिनिबन्धनो वर्तते । तानि च "विशावग्गहणेणं सिज्झित्तएजाव अंतं करित्तए । से गूणं भंते ! नघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः” इत्यादीनि प्रथमगणधरोशानि द्रष्टव्यानि । तेषां चार्थ न जानासि इत्यादि तथैवेति ॥१६५१॥ से खीणभोगी, सेसं जहा छउमत्थस्स । भ०७ श०७ उ०। यथा च युक्त्या मेतार्यः परलोकनास्तित्वं मन्यते, तां परमिति (ण)-परमेष्ठिन्-पुं० । ब्रह्मणि, अर्हसिद्धाऽऽचा. भगवान् व्यक्तीकुर्वन्नाहयोपाध्यायसर्वसाधुषु पञ्चसु, पाइ० ना० २ गाथा । मसि जइ चेयम, मजंगमउ न भूयधम्मो त्ति। परमेसर-परमेश्वर-पुं०। जगदीश्वरे,सर्वस्यापि त्रिजगद् गतस्य तो नत्थि य परलोगो, तन्नासे जेण तन्नासो ॥१९५२ वस्तुनः परिभोगाच्च जीवे, विशे०। सौम्य ! त्वमेवं मन्यसे-यदि तावञ्चैतन्यं पृथिव्यादिभूत धर्मः-भूतेभ्योऽनन्तरमित्यर्थः, यथा गुडधातफ्यादिपरमोदारिय -परमौदारिक-न० । केवलिशरीरे,द्वा० ३० द्वा०।। मचाङ्गेभ्योऽनन्तरं मदधर्मः, तर्हि नास्त्यवान्तरपरमोहि-परमावधि-पुं० । परमश्चासावधिश्च परमावधिः ।। गमनलक्षणः परलोकः, येन तन्नाशे भूतनाशे तस्याऽपि चैउत्कृष्टावधौ, " एगपएसोगाढं.परमाही लहइ कम्मगसरीरं। तन्यस्य नाशो ध्वंसो जायते । यो हि यदनान्तरभूतो लहर य अगुरुल हुयं, तेयसरीरे भवपुहुत्तं ॥६७५॥" विशे० । 'धर्मः स तद्विनाशे नश्यत्येव, यथा पटाऽऽदिधर्मः शुकश्रा० चू०। त्वाऽऽदिततो भूतैरेव सह प्रागेव नष्टस्य चैतन्यस्य कुतो भवान्तरगमनभिति ॥ १६५२ ॥ परम्मुह-पराङ्मुख-त्रि ! निवृत्ते,अष्ट०७ अष्ट । प्रा०म०। अथ भूतेभ्योऽर्थान्तरं चैतन्यं,तथाऽपि न परलोक इत्याहमार्गपराङ्मुखाः संसाराभिष्वङ्गिणो जैनमार्गविद्वेषिणः । सू. अह वि तदत्यतरया. न य निच्चत्तणमो वि तदवत्थं । व०१९०३ अ०४ उ. । परयत्त-परायत्त-वि० । पराधीने, पाइ० ना०१०८ गाथा। अनलस्स वारणीओ,भिन्नस्स विणासधम्मस्स।।१६५३॥ अथाऽपि तदर्थान्तरता भूतेभ्योऽर्थान्तरता चैतन्यस्या:परलाभ-परलाभ-पुं० । परस्माद् द्रव्याऽऽगमे,प्रश्न०३ आश्र० भ्युपगम्यते, नन्वतोऽपि तदवस्थं भवान्तरगामित्वाभावद्वार। लक्षणं दूषणं, चशब्दो यस्मादर्थे, यतोऽर्थान्तरभूतस्या:परलिंग-परलिङ्ग-न० । असाधुलिङ्गे, तश्चेह द्विधा-गृहलिङ्गं पि चैतन्यस्य न नित्यत्वम् । कथम्भूतस्योत्पत्तिमत्वेन विपरतीर्थलिङ्गं च । व्य० ४ उ० । जीत । (परलिङ्गधारणं कृ नशधर्मकस्य । कस्य यथा अनित्यत्वम् ?, इत्याह-अनलस्वा कालक्षेपं कुर्यात् इत्यादि ' उवसंपया' शब्दे द्वितीयभा स्य । कथंभूतस्य ?-भिन्नस्य । कस्य ?-अरणीतोऽरणेः । गे १०५ पृष्ठादारभ्योक्लम्) इदमुक्तम्भवति-भूतेभ्योऽर्थान्तरत्वेऽप्यनित्यं चैतन्यम् उत्पपरलोग-परलोक-पुं० । जन्मान्तरे, दश० ६ ० । पञ्चा० । त्तिधर्मकत्वाद् , अरणिकाष्ठोत्पन्नतद्भिन्नानलवदिति, यभ० । प्रश्न । स्था० । उत्त० । आत्मव्यतिरिक्त लोके, ञ्चानित्यं तकिमपि कालं स्थित्वाऽनलवदत्रापि ध्वंसते, संथा० । इहास्मिन्प्रज्ञायकमनुष्यापेक्षया मानुषत्वपर्याय इति न तस्य भवान्तरयायित्वम् , अत इत्थमपि न परलोयो वर्तते लोकः प्राणिवर्गः स इहवर्गः स इहलोकः, त- कसिद्धिारति ॥१६५३॥ यतिरिक्रस्तु परलोकः । स्था० १० ठा। भवान्तरगती, प्रा. अथ प्रतिपिण्डं भिन्नानि भूतधर्मरूपाणि बहूनि चैतन्याम०१ अ० । प्रव०। (असाधनपूर्वकपरलोकसिद्धिःप्रति- नि नेष्यन्ते, किं त्वेक एव समस्तचैतन्याऽऽश्रयः सर्वत्रिभुवपादिता 'इहभव' शब्दे द्वितीयभागे ६४७ पृष्ठे) नगतो निष्क्रियश्चात्माऽभ्युपगम्यते । यत उक्तम्-"एक एव इह तत्रानुक्तोऽर्थः प्रदर्श्यते । अथ दशमगण घरवक्तव्यता- हि भूताज्मा , भूते भूते व्यवस्थितः। एकधा बहुधा चैव, माह दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥" ते पन्चाइए सोउं, मेअञ्जो आगच्छई जिणसयासं । ननु तथाऽपि न परलोकसिद्धिरिति दर्शयन्नाहबच्चामि ण वंदामी, वंदिता पज्जुवासाभि ।। १६४६ ।। अह एगो सव्वगयो,निक्किरिश्रो तह वि नत्थि परलोओ। मेतार्यनामा दशमो द्विजोपाध्यायः श्रीमजिनसकाशमाग संसरणाभावाओ, वोमस्स व सव्वपिंडेसु ॥ १९५४ ॥ ब्छति, शेषं गतार्थमिति ॥ १६४६॥ | अथकः सर्वगतो निष्क्रियश्चाऽऽत्माऽभ्युपगम्यते,ननु तथापि Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४३ ) अनिधानराजेन्द्रः । पर लोग न परलेाकगमनादि, तस्थाSSत्मनः सर्वेषु गोमनुष्याssदिपिण्डेसु सर्वगतत्वेन निष्क्रियत्वेन च संसरणभावात् व्योमवदिति ॥ १६५४ ॥ इतोऽपि च परलोकाऽऽशङ्का, कुतः ?, इत्याहइहलोगाओ व परो, सुराइलोगो न सो वि पच्चक्खो । एवं पि न परलोगो, सुव्वइ य सुईसु तो संका ।। १६५५ ॥ अथवा इहलोकांपेक्षा सुरनारकादिभवः परलोक उच्चते स च न प्रत्यक्षो दृश्यते श्रत एवमपि न परलोकः सिद्धयति श्रूयते चाऽसौ श्रुतिषु शास्त्रेषु ततस्तच्छङ्का- किमस्ति नास्ति वा? इति दर्शितः पूर्वपक्षः ॥ १६५५ ॥ अत्र प्रतिविधीयते यदुक्तम्- भूतधम्मंश्चेतन्यं तचाऽऽद्दभूइंदियाइरित्त-स्स चेयणा सो य दव्यत्रो निचो । जाइस्सरगाईहिं परिवल बाजभूव ।। १६५६ ।। इह भूतेन्द्रियातिरिक्तस्य पूर्वाभिहितानुमानाऽऽदिप्रमाणसिद्धस्याऽऽत्मन एव संबन्धिनी चेतना मन्तव्या न तु भूतधर्म्मः । स चाऽऽत्मा जातिस्मरणा 55 दिव्य नित्य इति वायुभूतिरिव प्रतिपद्यखः श्रतोनैकान्तानित्यत्वपक्षेोक्लो दोषः, पर्यायत एवास्याऽनित्यत्वादिति भावः ॥ १६५६ ॥ अथैकः सर्वगतो निष्क्रियश्चाऽऽत्मा कस्मान्नेष्यते ?, इत्याहन य एगो सब्बगओ, निकिरियो लक्खयाहभेचाओ। कुंभादर व बहवो, पडिवज तदिभूह का ।। १६५७ ।। न चास्माभिरेक आत्मा इष्यते, किं तु बहवोऽनन्ताः । कुतः लक्षणमेदात् उपयोगलक्षणो हि जीवः स बो पयोगो रागद्वेषरूपायविषयाऽध्यवसायाऽऽदिभिर्मिद्यमान उपाधिभेदादानत्यं प्रतिपद्यत इत्यनन्ता जीवाः, लक्षणदात् घटाऽऽदिवदिति । तथा न सर्वगत श्रात्मा, किं तु शरीरमात्रव्यापकः, तत्रैव तद्गुणेोपलब्धेरित्यादिशब्दोपात्तो हेतुः, स्पर्शनवदिति दृष्टान्तश्च । एवं न निष्क्रिय श्रात्मा, भो त्या देवदत्तचदिति । तदेतदिन्द्रभूतिप्रथमगधरचयतियद्यस्वेति ॥ १६५७ ॥ यदुक्तम्-" देवनारकाणां प्रत्यक्षाऽविषयत्वात्संदिग्धः परलोकः" इति । तदयुक्तम् मौर्या कम्पितवाद पोर्देवनार काणां साधितत्वात् इति दर्शयन्नाह इहोगा य परो, सोम्म सुरा नारगा य परलोओ । पडिवज्ज मोरियाकं-पिउ व्व विहियप्पमाणाओ । १६५८ । गतार्था । १६५८ ॥ अथ प्रेरकः प्राह जीवो विधाम तं चाणिच्च ति तो न परलोगो । अह विष्णादयो तो अणमियो जहाऽऽगासं ॥। १६५६ ।। इसोच्चिन सकता, भोगा अ अओ विनस्थि परलोगो । वन संसारी सो, अमुचिओ संव ॥ १६६०॥ जीव विज्ञानमपस्तावद्युष्माभिरिष्यते विज्ञानादभिन्न इत्य र्थः तच विज्ञानमनित्यं विनश्वरम् अतस्तदभिस्य जियस्याऽपि विनश्वरत्वान्न भवान्तरगमनलक्षणः परलोकः । अथ विज्ञानादन्यो जीवस्ततोऽनित्ये विज्ञाने जीवाद्धिने सति स्वयं परलोग नित्योऽसाविति न परलोकाभावः । यद्येवं, ती अनभिको जीयः, विज्ञानादन्यत्वाद् आकाशयत् काष्ठाऽऽदिवा अन एव च नित्यत्वादेवासी जीवो न कती. नापि भोला, नित्यस्य कर्तृत्वाऽऽभ्युपगमे हि सर्वदेव तद्द्भावप्रसङ्गः तस्य संदकरूपत्वात् | कर्तृत्वाभवि च न परलोकः, श्रकृतस्य तस्याऽभ्युपगमे सिद्धानामपि तत्प्रसङ्गात् भोक्तृत्वाभावेऽपि न परलोकः, अभोक्रुः परलोकहेतुभूतकम्मैभोगायोगात् । इतोऽपि च न परलोकः । कुतः ?, इत्याह- ( जं चेत्यादि ) यस्माच्च नाऽसौ संसारी, नाऽस्य ज्ञानाद्भिन्नस्य जीवस्य भवाद्भवान्तरगमनलक्षणं संसरणमस्तीत्यर्थः । कुतः १, इत्याह-स्वयम ज्ञानत्वात्काखण्डयत् । तथा-अमूर्त्तत्वात् आकाशवदिि ॥ १६५६ ॥ १६६० ॥ अत्रोत्तरमाद मनसि विणासि ओ, उप्पत्तिमदादिओ जहा कुंभो । न एवं चिय साहा मवियासिते वि से सोम्म ! | १६६१ । ननु " जीवो विषाणमश्र तं चाणिच्चं " इति ब्रुवाण नूनं त्वंमेयं मन्यसे विनाशि विनश्वरं चेतना चैतन्यं विज्ञानमिति यावत् । उत्पत्तिमत्वादिति हेतुः । यथा कुम्भइति दशन्तः । आदिशब्दात्पयत्वाद् इत्यादिको क्लव्यः । यो हि पर्यायः स सर्वोऽप्यनित्यः, यथा स्तम्भाऽऽदीनां नवपुराणाऽऽदिपर्यायः । ततश्चाऽनित्या चैतन्यादभिन्नत्वे जीवस्याप्यनित्यत्वात्परलोकाभाव इति तचाऽभिप्रायः । न चायं युक्तः यतो हन्त कान्तेन विज्ञानमनित्यं यतोऽविनाशित्वे (से) तस्य ज्ञानस्य एतदेव सौम्य ! त्वदुक्कं साधनं प्रमाणं वर्त्तते । ततंनैकान्तिकस्वदु हेतुरिति भावः । इदमुक्तम्भवति उत्पादव्ययीव्याम वस्तु तब्ध यथोत्पत्तिमन्वाद्विनाशित्वं सिद्धयति तथा श्रीव्या 35मकत्वाद्वस्तुनः कर्यामपि सिद्धयति तमपि शक्यते वक्तुम्- नित्यं विज्ञानम्, उत्पत्तिमत्त्वाद्, घटवत् । ततश्च कर्यात्यिाद विज्ञानादभिस्य जीवस्य निश्वरवा परलोकाभाव इति ॥ १६६१ ॥ अथवा विरुद्धान्यभिचापेप्ययमुत्पत्तिमत्वरूपी हेतुः, प्रत्यनुमानसद्भावात् । किं पुनस्तत्प्रत्यनुमानम् ? इत्याहअहरा बत्तरा, विणासि चेओ न होइ कुंभो व्व । उप्पत्तिमदादित्ते, कहमविणासी घडो बुद्धी ? ॥ ५६६२॥ एकान्तेन विनाशि विनश्वरं चेतो विज्ञानं न भवति, वस्तुत्वात् · कुम्भवत् । ततोऽस्य प्रत्यनुमानस्योपस्थानाद्विरुद्राण्यनिवार्ययुत्पत्तिमत हेतुः क्रम्न प चिय साहणमविणासित्ते वि " इत्यादि, तत्र परस्येयं बुद्धिः स्यात् । कथंभूता बुद्धिरित्याद-कथमुत्पत्तिमत्वात् प्रा तत्येनोपन्यस्तो घटोऽविनाशी सिद्धयति न कथञ्चित् घटस्य विनाशित्वेन सुप्रतीतत्वात् । ततश्च दृष्टान्ते अविनाशित्वस्यासिद्धेर्दार्शन्तिके विज्ञाने तन्न सिद्धयतीति परस्याऽभिप्राय इति ॥ १६६२ ॥ श्रत्रोत्तरमाहरूवरसगंधफासा, संखा संठाणदव्वसत्ती । कुंभो चिताओ, इविच्छित्तिधुवधम्मा | १६६३॥ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परलोग भाभिधानराजेन्डः। परलोगभय इह रूपरसगन्धस्पर्शलक्षणो गुणसमुदायः, एकलक्षणा सं. व्यमानमेव विवक्ष्यते । तदेवमुत्पादव्ययधीब्यस्वभावत्वे जी. ख्या,पृथुबुध्नोदराऽऽद्याकारलक्षण संस्थानं,मृद्यं, जलाss. वस्य न परलोकाभाव इति ॥ १९६६ ॥ १६६७॥ हरणाऽऽदिशक्तिश्चेत्येतानि समुदितानि यतः कुम्भ इत्युच्यते, आह-ननु कथं सर्वस्याऽपि वस्तुन इयं त्रिस्वभावता?, - ताश्च रूपरसगन्धस्पर्शसंख्यासंस्थानद्रव्यशक्तयः प्रसूतिवि. त्यत्र युक्तिमाहच्छित्तिध्रीव्यधर्मिण्य उत्पादव्ययध्रौव्यस्वरूपास्तत उत्पत्ति असो नत्थि परई, होज व जइ होउ खरविसाणस्स | मवादविनाश्यपि घटः सिद्धयतीति ॥ १६६३॥ न य सव्वहा विणासो, सव्युच्छेयप्पसंगाश्रो ॥१९६८।। एतदेव विस्तरतो भावयन्नाहइह पिंडो पिंडाऽऽगा-रसत्तिपज्जायविलयसमकालं । तोऽवत्थियस्स केण वि, विलो धम्मेण भवणमन्त्रेण । सव्वुच्छेो न मो, संववहारोवरोहाओ॥१९६६ ।। उप्पजइ कुम्भाऽऽगा-रसत्तिपञ्जायसवेण ॥ १६६४ ॥ रूवाई दव्वयाए, न जाइ न य वेइ तेण सो निच्चो। इहैकान्तेन सर्वथाऽसतो वस्तुनः प्रसूतिरुत्पत्तिर्नास्ति न घटते । श्रथ भवति, तर्हि खरविषाणस्यापि भवतु, असवाएवं उप्पायव्यय-धुवस्सहावं मयं सव्वं ॥ १६६५ ॥ विशेषात् । तस्मात्केनापि रूपेण सदेवोत्पद्यते । न च सतःसइह मृत्पिण्डः कर्ता । योऽयं वृत्तसंस्थानरूपः स्वकीयो र्वथा विनाशः, क्रमशः सर्वयाऽपि नारकतिर्यगादेरुच्छदममृत्पिण्डाऽऽकारः,शक्तिश्च या काचिदात्मीया, एतदुभयलक्ष सङ्गात् । ततस्तस्मात्तस्यावस्थितस्य जीवाऽऽदेशस्ति केनापि णो यः पर्यायः तस्य यो विलयो विनाशस्तरसमकालमेवा: मनुष्याऽऽदिधर्मेण विलयो विनाशः,अन्येन तु सुरादिरूपेण सावुत्पद्यते,मृत्पिण्डः । केन । इत्याह-पृथुबुध्नोदराऽदिको भवनमुत्पादः, सर्वोच्छेदस्तु न मतस्तीर्थकृतां. संव्यवहारोपयः कुम्भाऽऽकारः, सच्छक्तिश्च या जलाऽऽहरणाऽऽदिविषया, रोधाद्, अन्यथा व्यवहारोच्छेदप्रसङ्गादित्यर्थः। तथाहि-राज. पतदुभयलक्षणो यः पर्यायस्तेनोत्पद्यते । रूपरसगन्धस्पर्शरू पुयाः क्रीडाहेतुभूतं सौवर्णकलशकं भक्त्वा राजतनयस्थ पतया मृद्रव्यरूपतया चाऽसौ मृत्पिण्डो न जायते, नाऽपि क्रीडार्थमेव कन्दुको घटितः, ततो राजपुत्र्याः शोकः, कुमाव्येति विनश्यति । ततस्तद्रूपतया नित्योऽयमुच्यते, तेन रू रस्य तु हर्षः, सुवर्णस्वामिनश्च नृपतेरौदासीन्यं, सुवर्णस्योपेण तस्य सदैवावस्थितत्वात् । तदेवं मृत्पिण्डो मिजाऽका भयावस्थायामप्यविनष्ठत्वाद्, इत्यादिको योऽसौ लोकव्यवरस्वशक्तिरूपतया विनश्यति, घटाऽऽकारतच्छक्तिरूपतयोत्प हारस्तस्य सर्वस्याप्युत्पाद्व्ययध्रौव्याऽऽत्मकवस्त्वनभ्युपद्यते,रूपाऽऽदिभावेन मृद्रव्यरूपतया चावतिष्ठते, इत्युत्पा गमे समुच्छेदः स्यात् । तस्मात्कथञ्चिदवस्थितत्वे जीवस्य बव्ययधौव्यस्वभावोऽयमुच्यते । एवं घटोऽपि पूर्वपर्यायेण वि न परलोकाभाव इति ॥ १६६८ ॥ १६६६ ॥ नश्यति,घटाऽऽकारतया तूत्पद्यते,रूपाऽऽदित्वेन मृद्रव्यतया किंच-वर्गाऽऽदिपरलोकाभावेऽग्निहोत्रदानाऽऽदीनामानचावतिष्ठत इत्यसावप्युत्पादव्ययधौव्यस्वभावः । एवमन्य. दपि यदस्ति वस्तु तत्सर्वमप्युत्पादव्ययधौव्यस्वभावमेवा र्थक्यं स्यादिति दर्शयन्नाहभिमतं तीर्थकृताम् । ततश्च यथोत्पत्तिमत्त्वाद्विनाशित्वं असइ व परम्मि लोए, जमग्निहोत्ताइँ सग्गकामस्स । घटे सिध्यति तथा अविनाशित्वमपि । तथा च सति सा. तदसंबद्धं सव्वं, दाणाइफलं च लोयम्मि ॥ १६७० ॥ भ्यर्मिणि चैतन्येऽपि तत्सिद्धिरिति । तदेवं चैतन्यादव्यति- गतार्था ॥ १९७०॥ रिको जीवः कथञ्चिन्नित्य एव ॥ १६६४॥ १६६५ ॥ तदेवं छिन्नस्तस्यापि संशयः । ततः किं कृतवानसी?, - ततश्च न परलोकाभाव इति दर्शयन्नाह इत्याहघडचेयणया नासो, पडचेयणया समुब्भवो समयं । छिनम्मि संसथम्मी, जिणण जरमरणविष्पमुकेणं । संताणेणावत्था, तहेहपरलोयजीवाणं ॥ १६६६ ॥ सो समणो पचाइओ,तिहि ओसह खंडियसएहिं ।१९७१। मणुएहलोगनासो, सुराइपरलोगसंभवो समय । अर्थः स एव । विशे० । ध। सूत्र। प्रा०म०। ('उसभ' जीवतयाऽवत्थाणं, नेहभवो नेय परलोओ ॥ १६६७॥ शब्दे द्वितीयभागे ११३३ पृष्ठादारभ्य पूर्वभवव्याख्याऽवसरे घटविषय विज्ञानं घटचेतनोच्यते,पटविषयं तु विज्ञानं पटचे श्रेयांसन स्वभवपरम्परावर्णनावसरे स्वयंबुद्धसंवादेऽप्येषो. तना । यदा च घटविज्ञानानन्तरं पटविज्ञानमुपजायते जीव ऽर्थः साधितः) स्वर्गाऽऽदौ, प्राचा०२ श्रु०४ चू० १०॥ स्य, तदा घटचेतनया घटविज्ञानरूपेण तस्य नाश उच्यते, " संदिग्धे परलोकेऽपि. त्याज्यमेवाशुभं बुधैः । यदि नापटचेतनया तु पटविज्ञानरूपेण (समयं ) युगपदेव समुद्भव स्ति ततः किं स्या-दस्ति चेन्नास्तिको हतः "॥ १ ॥ उत्पादः, अनादिकालप्रवृत्तेन तु चेतनासन्तानेन निर्विशवणे श्राचा०१ ध्रु०२ १०३ उ०।। न जीवत्वमात्रेणावस्थानमिति । एवं च यथेहभवेऽपि तिष्ठतो परलोगणिप्पिवास-परलोकनिष्पिपास-वि० । जन्मान्तरनिजीवस्योत्पादव्ययध्रौव्यस्वभावत्रयं दर्शितं,तथा परलोकंगता | राकाइते, प्रश्न० २ आश्र द्वार । जीवाः परलोकजीवास्तेषामप्येतत्स्वभावत्रयं द्रष्टव्यम् । तदू परलोगपडिबद्ध-परलोकप्रतिबद्ध-त्रिका स्था० ३ ठा०२ उ०। पथा-यदा मनुष्यो मृत्वा सुरलोकादावुत्पद्यते तदा मनुष्यरूप इहलोको मनुष्येहलोकस्तस्य नाशस्तत्समकालमेव च | (अर्थस्तु · पव्वजा' शब्दे) सुराऽऽदिपरलोकस्य संभव उत्पादः, जीवतया त्ववस्थानम् । परलोगभय-परलोकभय-जा विजातीयादन्यस्मात्तिर्यग्देवाऽऽ. तस्यां च जीवत्वावस्थायां विवक्षितायां नेहभवो विवक्ष्यते, देः सकाशान्मनुष्याऽऽदीनां भये,स्था०७ ठा०। आव० । यथा नापि सुराऽऽदिपरलोको विवक्ष्यते, किंतु निष्पर्यायं जीवद्र- मनुजाऽऽदीनां सिंहाऽऽदिभ्यः। दर्श० १ तच्च । स० । स्था। Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४५) परलोगमग्ग अभिधानराजेन्षः। परवादिवयण परलोगमग्ग-परलोकमार्ग-पुं० । स्वर्गाऽऽदिवीथ्याम्, जीवा० | परवाइपमण-परवादिप्रमर्दन-त्रि० । वादिनां मतप्रमर्दनात् १ अधिः । ध्वंसने, औ०। परलोगविरुद्ध-परलोकविरुद्ध-न। खरकर्माऽदौतद्यथा. परवागरण-परव्याकरण-न० । परस्तीर्थकृत्तस्य तेन वा व्या"बहुधा खरकर्मित्वं, सीरपतित्वं च शुक्लपालत्वम् । विरति चिनाऽपि सुकृती, करोति नैवंप्रकारमकार्यम् ॥ १॥ " ध. करणं यथाऽवस्थतार्थप्रज्ञापनमागमः परव्याकरणम् । सर्वश प्रवचने, प्राचा०१ श्रु० ५ ० ६ उ०। र० १ अधि०४ गुण। परवादिवयण-परवादिवचन-न। मिथ्यादृष्टीनां परेषां वादि. परलोगवेरि (ए )-परलोकवैरिन्-पुं० । अन्यजन्मशत्री, पं० व०३ द्वार। नामुक्ता, तच्च सूत्रकृताङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धे तृतीयाऽध्ययने तृ. तीयोद्देशे द्वितीयार्थीऽधिकारत्वेनोक्तम् । सूत्र० १ श्रु० ३ परलोगसमावस्म-परलोकसमापन्न-वि०। समापन्ने, प्रश्न०३ अ०१उ०। आश्रद्वार। इदानीं परवादिववनं द्वितीयमर्थाधिकारमाधेकृत्याऽऽहंपरलोगहिय-परलोकहित-न । जन्मान्तराय प्रधानजन्मने तमेगे परिभासंति, भिक्खुयं साहुजीविणं । वा पथ्ये, पश्चा० १ विव० । जे एवं परिभासंति, अंतए ते समाहिए ॥८॥ परलोगासंसापाग-परलोकाऽऽशंसाप्रयोग-पुं० । देवोऽहं (तमेगे इत्यादि) तमिति साधुम्, एके ये परस्परोपकारस्यामित्यादिरूपे परलोकविषयकाऽऽशंसालक्षणे अपश्चिम रहितं दर्शनमापना श्रय शलाकाकल्पाः, ते च गोशालकमारणान्तिकसंलेखनाऽऽराधनाजोषणाऽतिचारे, उपा० १ मतानुसारिण आजीविका दिगम्बरा वा, त एवं वक्ष्यअ० श्रा० । श्राव०। माणं, परि-समन्ता द्गाषन्ते। तं भिक्षुकं साध्वाचार, साधुपरवंचण-परवचन-न०। परच्छलने, ध०। तद्वय॑ता चैवम्- शोभनं परोपकारपूर्वकं जीवितुं शीलमस्य स साधुजीविनकूटतुलामान-न्यूनाधिकवाणिज्य-रसमेला-वस्तुमेलानुचित- मिति, ये' तेऽपुष्टधर्माणः (एवं ) वक्ष्यमाणं परिभामूल्यवृद्ध यनुचितकलान्तरग्रहणलश्चाप्रदानग्रहणकूटकरकर्ष-| पन्ते' साध्वाचारनिन्दां विदधति, त एवम्भूता अन्तके प. णकूरदृष्टनाणकाऽऽद्यर्पणपरकीयक्रय विक्रयभञ्जनपरकीयग्रा | यन्ते दूरे समाधेः' मोक्षाऽऽख्याल्सम्यग् ध्यानात्सदनुष्ठाहकव्युग्राहणवर्णिकान्तरदर्शनसान्धकारस्थानवस्त्राऽऽदि-| नात् वा वर्तन्त इति ॥८॥ वाणिज्यमषीभेदाऽऽदिभिः सर्वथा परवञ्चनं वय॑म् । यतः यत्ते प्रभाषन्ते तदर्शयितुमाह“विधाय मायां विविधैरुपायैः, परस्य ये वञ्चनमाचरन्ति । ते संबद्धसमकप्पा उ, अन्नमन्नेसु मुच्छिया । वञ्चयन्ति त्रिदिवापवर्ग-सुखान्यहो मोहविजृम्भितानि ॥१॥" पिंडवायं गिलाणस्स, जं सारेह दलाह य ॥६॥ ध०२ अधि०। परवक-न । देशी-अल्पचेतसि, दे० ना० ६ वर्ग ८ गाथा । 'सम्' एकीभावेन परस्परोपकार्योपकारितया च 'बद्धाः' पुत्रकलबाऽऽदिस्नेहपाशैः संबद्धाः-गृहस्थास्तैः समः तुपरवक्व-परपक्ष-पुं० । अपरवर्ग भिक्षाचरे, प्राचा०२ श्रु० १ ल्यः कल्पो-व्यवहारोऽनुष्ठानं येषां ते संबद्धसमकल्पाः, चू० १ ० १ उ.। गृहस्थानुष्ठानतुल्यानुष्ठाना इत्यर्थः । तथाहि-यथा गृहस्थाः परवडिया-परप्रतिज्ञा-स्त्री० । पराऽनीतस्याशनाऽऽदेन- परस्परोपकारेण माता पुत्रे पुत्रोऽपि मात्रादावित्येवं मूप्रतिक्षायाम्, " णो चेवणं परवडियाए प्रोगिझिय श्रोगि ञ्छिता अध्युपपन्नाः, एवं भवन्तोऽध्यन्योन्यं परस्परतः शि. झिय उवणिमंतेजा।" श्राचा०२ १०१ चू० ७ १०१ उ० । प्याऽऽचार्याऽऽपकारक्रियाकल्पनया मूञ्छिताः । तथा हि-गृहस्थानामयं न्यायो यदुत-परस्मै दानाऽऽदिनोपकार परवत्थ-परवस्त्र-न । साध्वपक्षया गृहस्थस्य वस्त्रे, सूत्र०१ इति, न तु यतीनां, कथमन्योन्यं मूञ्छिता इति दर्शयतिश्रु.१०। प्रधानवस्त्रे, प्राचा० १ श्रु०६०१ उ०। । 'पिराडपातं' भैक्ष्यं, ग्लानस्य अपरस्य रोगिणः साधो, परवयण-परवचन-न । परश्वोदकस्तस्य वचनम् । प्रच्छकव. यत्-यस्मात् (सारह त्ति) अन्वेषयन्ते । तथा-( दलाहय चने, नि. चू०२ उ०। त्ति) ग्लानयोग्यमाहारमान्वष्य तदुपकारार्थ दध्वं चपरववएस-परव्यपदेश-पुं। परस्याऽऽत्मव्यतिरिक्तस्य व्यप शब्दादाचार्याऽऽदेः वैयावृव्यकरण। 55पकारेण वर्तध्वं, देशः-परकीयमिदमन्नाऽदिकमित्येवमादित्सावतः साधुसमक्ष ततो गृहस्थलमकल्पा इति ॥६॥ भगनं परव्यपदेशः । पञ्चा०१विव० । जानन्तु साधषो यस्य. साम्प्रतमुपसंहारब्याजेन दोषदर्शनायाऽऽहसद् भक्ताऽऽदिकं भवेत् तदा कथमस्मभ्यं न दद्यादिति सा- एवं तुब्भे सरागत्था, अन्नमन्त्रमणुब्बसा । धुसंप्रत्ययार्थ परकीयमेतत्तेन साधुभ्यो न दीयते इति सा. नसप्पहसब्भावा, संसारस्स अपारगा ॥१०॥ धुसमक्ष भणने, अस्माद्दानान्ममाऽनाऽऽदेः पुण्यमस्स्विति ( एवमित्यादि ) ( एवं ) परस्परोपकाराऽऽदिना यूयं गृहवा भणने, एष यथासम्बिभागस्य चतुर्थोऽतिचारः । उपा० स्था इव सरागस्था:-सह रागण वर्तत इति सरागः-स्व१०।ध०। श्राव०। भावस्तस्मिन् तिष्ठन्तीति ते तथा, 'अन्योऽन्यं' परस्परतो परवस-परवश-त्रि०। पराऽऽयत्ते, "परवशो न च तत्र गुणो वशमुपगता:-परस्पराऽऽयत्ताः, यतयो हि निःसद्धतया न स्ति ते।" उत्त०१०। श्रस्वतन्त्रे, प्रश्नाथद्वार।। कस्यचिदायत्ता भवन्ति, यतो गृहस्थानामय न्याय हातात १३७ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवादिया था नष्टः - श्रपगतः, सत्यथः- सद्भावः- सन्मार्गः परमार्थी ये भ्यस्ते तथा । एवंस्ताच यूयं संसारस्य चतुर्गतिभ्र मणलक्षणस्य अपारगाः ' अतीरगामिन इति ॥ १० ॥ अयं तावत् पूर्वपक्षः, श्रस्य च दूध सावाऽऽहग्रह ते परिभासेज, भिक्खू मोक्खविसारए । एवं तुभे पभाता, दुपचे सेव ।। ११ ।। (२४६) अभिधानराजडः | ( अह ते परिभासे जा इत्यादि ) ' अथ' अनन्तरं ' तान् ' एवं प्रतिकूलत्वेनोपस्थितान् भिक्षुः 'परिभाषेत ब्रूयात्, किंभूतः ?- मोज्ञविशारदः '- मोक्षमार्गस्य- सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूपस्य प्ररूपकः, 'एवम्' अनन्तरोक्तं यूयं प्रभाषमाणाः सन्तः दुधः पक्षी दुष्यते । समतिचपगमः तमेव च यूवन् । यदि वा गरम पक्ष व यूयम् । तथाहि - सदोषस्याप्यात्मीयपक्षस्य समर्थनाद्रागो, निष्कलइस्याव्यस्मादभ्युपगतस्य दूषणान् देवः असे वध्वं यूयम् । तद्यथा वच्यमाणवीत्या वीजोद कोद्दिष्टकृतभोजित्वा गृहाः पतिलिङ्गाभ्युपगनाकिल पाय भवामि । यदि यासा सदनुष्ठा नमपरं च सद्गुष्ठायिनां निन्दनमिति भावः ॥ ११ ॥ किन परतीर्थानां विभम्बराणां या सदाचारतिरूप गायाऽऽहतुजपासु, गिलाणो अन्य । तं च बीओ मोबा, तमु दिस्सादि में कई ॥ १२ ॥ (तुम्मे भुंजह इत्यादि) फिल वयमपरि ना एवमभ्युपगमं कृत्या सूर्य पात्रे कांस्यपा व्यादिषु गृहस्थानेषु तत्परिभोगाच तत्परिवोऽव श्यंभावी, तथा आहाराऽऽदिषु मूर्च्छां कुरुध्वमित्यतः कथं निष्परिग्रहाभ्युपगमो भवतामकलङ्क इति । श्रन्यच्च-ग्लानस्प भिक्षाटनं कर्तुमसमर्थस्य यदपरे हरभ्याहतं कार्य भवद्भिः पतेरानयनाधिकाराभावा गृहस्थानयने च यो द्भावः स भवतामवश्यंभावीति तमेव दर्शयति-यथ गृहस्वकायम रैना 33वादितमाहारं मुखा तं ग्ला नमुद्दिश्यो देशकाऽऽदि 'यत्कृतं' यन्निष्पादितं तदवश्यं युष्मत् परिभोगायावतिष्ठते । तदेवं गृहस्थगृहे तद्भाजनाऽऽदिषु भुखानास्तथा ग्लानस्य च गृहस्थैरेव वैयावृत्यं कारयन्तो यूयमवश्यं बीजोदकादिमोजिन उद्देशिका ऽऽदिकृतभो जिनश्चेति ॥ १२ ॥ फिचाम्पत् लिचा विब्बाभितावे, उकिया असमाहिया । नातिकंडूइयं सेयं, अस्वस्सावरज्यती ॥ १३ ॥ योग्यं षडजीवनिकायविराधनयोद्दिप्रभोजित्वेनाभिगृहीतमिथ्यादतिया च वापरापत्रकर्म बन्यरूपस्तोलाः संवेदितास्तवा (ति) स वेकशून्या भिक्षापात्रादित्यागात्पर गुह मोजिलोका55 दिभोजित्वात् । तथा-'असमाहिताः शुभाध्यवसायरहिताः सत्साधुद्वेषित्वात् । साम्प्रतं दृष्टान्तद्वारेण पुनरपि तद्दोषाभिधित्सयाssa - यथा ' श्ररुषः ' व्रणस्यातिकण्डूयतं नखैलेखन-न शोभयनि आपे स्वपराध्यति परयादिव्यव तत्कण्डूयनं ब्रणस्य दोषमावहति, एवं भवन्तोऽपि सद्विवेकरहिता वयं किल निष्किञ्चना इत्येवं निष्परिग्रहतया षड्जीवनिकायरक्ष एवं भिक्षापात्रादिकमपि संयमीप तदभावाभावश्यंभावी अशुद्धाहार परिभोग इत्येवं पक्ष काल नावानंपक्ष नाति श्रेयो भवतीति भावः ॥ १३ ॥ परि श्रपि च तत्ते असा ते अपडित्रेण जाणया । स एस थियए मणे, उपसमिखाबती किती ।। १४ ।। तत्त्वेन परमार्थेन मौनीन्द्राभिप्रायेण यथावस्थितार्थप्र रूपया ते गोशालकमतानुसारिण आजीविका या यो टिका या 'अनुशासिताः तदभ्युपगमदोपदर्शनद्वारेण शि क्षां ग्राहिताः केन ? ' श्रप्रतिज्ञेन ' नास्य मयेदमसदपि समर्थनीयमित्येवं प्रतिज्ञा विद्यते इत्यप्रतिशो रागद्वेषरहितः साधुस्तेन 'जानता' हेयोपादेयपदार्थपरिच्छेदकेनेस्वर्थः कथमनुशासिता इत्याह योऽयं भवद्भिरभ्युपगतो मार्गों यथा यतीनां निष्कियोपकरणाभावात् परस्प रत उपकार्योपकारकभाव इत्येष न नियतो न निश्चितो न युक्तिसङ्गतः श्रतो येयं वाग् यथा ये पिण्डपातं ग्लानस्याssनीय ददति ते गृहस्थकल्पा हत्येषा असमीक्ष्यामिहितापर्यायोक्ता तथा कृतिः करणमपि भवदीयमस मीक्षितमेव यथा चाडपर्यालोचितकरणता भवति भवदनुष्ठानस्व तथा नाति इत्यनेन प्रदेश प्रतिपादितं पुनरपि सदृशन्तं तदेव प्रतिपादयति ॥ १४ ॥ यथाप्रतिज्ञानमाहएरिसा जावई एसा गवेणुव्व फरिसिता । गिहिरो अभिर्द से, इंजिन तु भिक्खु ।। १५ ।। , मीक्षा बाकू यथा यतिना ग्लानस्वाऽऽनीय न देयमित्येषा अग्रे वेणुवत् वंशवत्कर्षिता तन्वी युक्त्यक्षमत्वात् दुर्बलेत्यर्थः । तामेव वाचं दर्शयति- गृहिणाम् ' गृहस्थानां यस्याह तच श्रेयः परं न तु भि संबन्धीति अतनुत्वं वास्या वाच एवं द्रष्टव्यम्-यथा गृहस्थाभ्याहतं जीवोपमदेन भवति यतीनां तुङ्गमादि परहितमिति ॥ १५ ॥ " किचधम्मपन्नत्रणा जा सा, सारंभा ण विसोहिया । एयाहि दिडीहिं पुष्यमासं पगवियं ।। १६ ।। 6 धर्मस्य प्रज्ञापना देशमा, यथा-यतीनां दानाऽऽदिनोपकर्तव्यमित्येवम्भूता या सा 'साम्यां स्थानां विशो चिका. यतवस्तु खानुष्ठानैनेय विशुध्यन्ति न तु ते दानाधिकारोऽस्तीति तु नैवैताभिर्य था स्थनेच पिडदानादिना बजेग्लीनाऽऽययस्थायामुक्कर्त्तव्यम्, न तु यतिभिरेव परस्परमित्येवंभूताभिर्युपादीयाभिः दृष्टिभिः पर्तप्रज्ञापनाऽऽदिनिः पूर्वमादी सर्वज्ञैः 'प्रकल्पितं ' प्ररूपितं प्रख्यापितमासीऽऽदिति, यतो न हि सर्वशा एवंभूतं परिपन्ति यथा असंय तैपायनुपयुगलांना दयावृष्यं विधेयं न तूपयुक्रेन संयतेनेति । अपि च भवद्भिरपि सानोपकारोऽभ्युपगत ए · Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवादिवया थ, गृहस्थप्रेरणादनुमानाच्च ततेो भवन्तस्तरकारिणस्त प्रद्वेषिणश्चेत्यापन्नमिति ॥ १६ ॥ श्रपि च (५४७) अभिधानराजेन्डः | सव्वाहिं अणुजुत्तीहिं, अचयंता जवित्तए । 3 ततो वार्य गिरा किया, ते जो वि पगम्भिया ॥ १७ ॥ ने गोशालानुसारिणो दिनमा सर्वाजिरथानुगता निकिमि सर्वरेव हेतु मानुचन्तः स्व पक्के आत्मानं यापयितुं संस्थापयितुं ' ततः तस्माद्युक्तिनिः प्रतिवासिमाबाद निराकृत्य सम्यहेतुह प्रतियो बाटो जल्पस्तं परित्यज्य ते नार्थिका भूयः पुनरपि वादपरित्यागे सत्यपि प्रगलिता धृष्टतां गता इदमूचुः, तथथा-" पुराणं मानवो धर्मः साङ्गो वेदश्चिकित्सितम् । श्राज्ञासिकानि चत्वारि, न हन्तव्यानि हेतुभिः ॥ १ ॥ " अन्यश्च -किमनवा दिया गुरुधामागादिकवाऽत्र धर्मपरी विधेये कर्त्तव्यमस्ति यतः प्रत्यक्ष एव बहुजनसंमतत्वेन राजाऽऽद्याश्रयणाच्चायमेवास्मादनिप्रेतो धर्मः श्रेयान्नापर इत्येयं त्रिदरम्-नानादिसाररहितं बहुना Sपि प्रयोजनमस्तीति । उक्तं च " एककहराती, जहां य गोसीसचंदनपलस्स । मोल्ले न ढोज सरिसो, कित्तियमेत्तो गणिज्जतो ॥ १ ॥ तह चि गणणातिरेगो, जह राम्री सो न चंदनसरिन्छ । सह निव्विाणमढा-जणो वि मोने विसंवयति ॥ २ ॥ एको चक्खुगो जह, ग्रंधत्रयाणं सहिँ बहुएहि । दो नहुने पाता ॥ ३ ॥ एवं बहुगा वि मूढा, ण पमाणं जे गइ ण याणंति । संसारगमणगुबिलं, णिउणस्स य बंधमोक्खस्स ॥ ४ ॥ " इत्यादि । अपि च रागदोसाभिभूयप्पा, मिच्छत्ते अभिदुता । उस्से सरणं जंति, टंकरणा इव पव्वयं ॥ १८ ॥ रामश्य प्रीतिको परीक्षण ताज्यानभित श्रात्मा येषां परतीर्थिकानां ते तथा, 'मिथ्यात्वेन, ' विपर्य स्ताव बोधेना तत्त्वाऽध्यवसायरूपेण अनिद्रुताः ' व्याप्ताः लघुकिन कर्ताकोशान् नरूपांस्तथा दण्ममुष्ट्यादिभिश्च हननव्यापारं 'यन्ति' आश्रय ते । अस्मिन्त्रार्थे प्रतिपाद्य दृष्टान्तमाह यथा 'टङ्कणाः' म्लेच्छविशेषदुवा] यदा परेण वा स्थानीकाऽऽदिनाऽमन्ते सदा से नवमः सन्तः प अलीराज किलपत् बहुगुणप्पगप्पाई, कुजा असमाहिए। पदपथास्थितनिवेदि वेदितं वशात्परमतं च निराकृत्य, विभि ज्ञानस्य अपटोरपरस्य नित्या 35 दिकं कुर्यात् कथं कुर्यादेतदेव विशिनष्टि स्वतो ऽप्यग्ज्ञानतया यथाशक्ति समा हितः समाधि प्राप्त इति । इदमुकं भवति यथा यथाऽऽत्मनः समाधिरुत्पद्यते न तत्करणेन अपाटवसंभवात् योगा विषीदन्तीति तथा यथा तस्य च नानस्य समाधिरुत्पद्यते तथा पिएकपाताऽऽदिकं विधेयमिति ॥ २० ॥ - किं कृत्वैतद्विधेयमिति दर्शयितुमादसंखाय पेसले पन्ने, दिद्विनं परिनिष्णुडे । उवसग्गे नियमिता, आमोक्खाए परिव्यय ॥ २१ ॥ ( संखाप इत्यादि) संख्यायकःस्या, कंध तारा रूपभेदनिनं पेशलम इति मुष्टिं प्राखिनामासादिप्रवृत्या प्रीति कारणं किंभूतमिति दर्श यदि सिद्दार्थगता सम्यग्दर्शनमित्यर्थः सा विद्यते यस्याऽसौ दाष्टमान् यथावस्थित पदार्थपरिच्छेदवानित्यर्थः तथापरिनिर्वृतो रागद्वेषविरहाच्छान्ती भूतस्त देव धर्म परिसंख्याय दृष्टिमान् परिनिर्वृत उपस गतिकूलाभिपसोड - तोऽसमञ्जसं विदध्यादित्येवम । श्रभोकाय ' अशेषकर्मकपरिसमन्तात् वयमनुष्ठानको भवेद परिव्रजेत् ॥ २१ ॥ सूत्र० १ ० ३ ० ३ ३० । हतदृष्टय आक्रोशाऽऽदिकं शरणमाश्रयन्ते, न च ते दमकल परवाय परवाद पुं० 1 मिथ्यादृष्टीनां मतबाद, आचा० १ य्य प्रत्याक्रोष्टाः, तद्यथा-" श्रक्को सहणणमारण-धम्मभंसाबालसुलभाणं खानं मन्त्र पीरो, जडुचराणं मनाय ॥ १ ॥ " ॥ १८ ॥ श्र० ४ ० २३० ॥ परविम्हावग - परविस्मापक-पुं० । परचितविभ्रमकारके, ० । यो विरुज्जा, तेण तं तं समायरे ॥ १६ ॥ " बहवो यो गुणाः कृमिपरमा स्वास् नवगुणानिति हेतु लोपनयनिगमनादी. " नि माध्यस्थ्य वचनप्रकाराणि वा अनुष्ठानानि साधुवादकाले श्रन्यदा वा कुर्यात् ' विदध्यात् स एवं विशिष्यते-आत्मनः समाधिश्चित्तस्वास्थ्यं यस्य स भवत्यात्मसमाधिकः । एतदुक्तं जयति येन येनोपन्यस्तेन हे तुहन्ताऽऽदिना आत्मसमाधिः स्वपक्षसिद्धिलक्षणो माध्यस्थ्य वचनाऽऽदिना वा परानुपघातलक्षणः समुत्पद्यते तत् तत् कुर्यादिति तथा येनाऽनुष्ठितेन वा जाषितेन वा अन्यतीर्थिको धर्मश्रवणाऽऽदौ वाऽन्यः प्रवृत्तो 'नविये विरोध से पराविरोध द्धमनुष्ठानं वचनं वा' समाचरेत् ' कुर्यादिति ॥ १६ ॥ तदेवं परमतं निराकृत्योपसंहारद्वारेण स्वमतस्थापनायाऽऽहइमं च धम्ममादाय, कासवे पवेयं । कुञ्ज भिक्खू गिलाणस्स, अमिलाए समाहिए ॥ २० ॥ ( इमं चेत्यादि ) इममिति वक्ष्यमाणं दुर्गतिधारणाम आदाय उपादाय आयामोपदेशेन गृहीया, काश्यपेन श्रीमन्महायानस्वामिनेश्वदिव्यज्ञानेन सदेवमनुजा परविम्हावा - 6 " " अथ पर विस्मापकमाह सुरजालमाइएहिं तु विम्हि कुरा तहिजणस्स । तेसु न बिम्हयइ सर्प, आकुडएहिं वा ॥ ५०३ ।। Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४८) परविम्हावग अन्निधानराजेन्द्रः। परहियट्ठकारि (ण) सुरजासमिन्जालम, आदिशब्दादपरकौतुकपरिग्रहः, परसु-पर-पुं० । कुगरे, शा० १ श्रु०५० । ० । अनु। स्तथा आहाः प्रहेनिकाः, कुडेटकाः वक्रोक्तिविशेषरूपाः, तेश्च | "परसं गहाय दंतमोत्तियगदसंतपमाणो ।" प्रा. म. तथाविधजनस्य तादृशस्य बालिशप्राय लोकस्य विस्मयं चि. सविभ्रमं करोति,स्वयं पुनस्तेषु न विस्मयते । एष परविस्मा-परसणियत्त-परशनिकत्त-त्रि० । परशुन्छिन्ने, न. । श• पकः । बृ०१०२ प्रक०। ३३ उ०। परवियालण-परविचालन-न० । परविषयोत्खनने, सम्म०१ | परसुराम-परशुराम-पुं० । यमदग्निसुते पशुधारके, स च काएका यमदग्नेः रेणुकाया जातः खचरापर्यविद्यां प्राप्य स्वगोहार. परराविवाहकरण-परविवाहकरण-न० । परेषां स्वापत्यव्यतिरिक्ता- कस्य कृतवीर्यस्य वधं कृत्वा ततः स्वपितृहन्तारं कार्तवीर्य नां जनानां विवाह करणं कन्याफललिप्सया स्नेहसम्बन्धाss. हत्या महाक्रोधपरीतः त्रिःसप्तकृत्यो निःकत्रियां पृथिवी व्यधा. दिना वा परिणयनविधानं परविवाहकरणम । पञ्चा०१ बि. त् । श्रा० क०४ अ० प्रा० म०। प्रा०चू। प० । परकीयापत्यानां स्नेहादिना परिणायने, ध०२ अधि। परसुहत-देशी-पुं० । वृक्के, ६ वर्ग २६ गाथा। पाव० । इदं च स्वदारसन्तोषस्याऽतिचारः । अयमभिप्राया-स्वदारसंतोषिणो हि न युक्तं परेषां विवाहाऽऽदिकरणेन परस्सर-पराशर-पुं० । गएके, 'गैंडा' इतिश्याते (प्रशा०११ पद । मैथुननियोगोऽनर्थको, विशिष्टबिरसियुक्तवादित्येवमनाकमयतः जी०।) श्रादव्य जीवविशेषे, प्रज्ञा १ पद । जी । भत्रिपरार्धकरणोद्यनतयाऽतिचारोऽयमिति । अपा०१ १०। पश्चा। याम-"परस्सरी।"प्रज्ञा०११ पद। परविसय-परविषय-पुं० । परदेशे, प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार।। परहत्य-परहस्त-पुं० । दातृहस्ते, प्राचा. २ श्रु० १ चू० १ परवेयावच्चकर-परवैयावृत्त्यकर-पुं० । स्वार्थनिरपेके परेषां अ.१ उ. वैयावृरयकरे, स्था०४ वा० ३ उ.। | परहत्थपारियावणिया-परहस्तपारितापनिका-स्त्री०। परहस्तेपरसंतिग-परसत्क-त्रि० । परकीये, “परसंतिगाभिज्जासोभमून न तथैष तत् कारयतः परदस्तपारतापनि की । तस्याम, स्था. २ ग०१ उ०। कालविलय संसियं।"परसाके धने योऽभिभ्यालोभो रौअश्यानाबिता मूळ,स मूनं निबन्धनं यस्याऽदत्ताऽऽदानस्य तत्तथा | परहिय-परहित-नपरोपकारे, ध० २ अधिक। पश्चा० । तश्चेति कर्मधारयः। प्रश्न. ३ आश्र० द्वार। "ते नवकृतिनः परार्थघटकाः स्वार्थस्य नाशेन ये, परसंसद्ध-परसंसृष्ट-न० । गृहस्थाऽऽदिपरिवेषणनिमित्ते हस्ते, सामान्यास्तु परार्थमुद्यतधियः स्वाधीविरोधेन ये। तेऽभी मानुषराकलाः परकृतिभ्यते स्वायतो, मात्रके वा। ब०१०३ प्रक०। ये निम्नन्ति निरर्थक परकृत ते के न जानीमहे ? ॥१॥" परसमय-परसमय-पुं०। कपिनाऽऽद्यभिप्रायानुवर्तिमन्थरूपे,उत्त. सङ्घा०१ अधि०१ प्रस्ता। १०। परतीर्थिकसिकान्ते, विश०। स्था० । अपरिशब्दनयवादे, "जावश्या वयण पहा, तावश्या चेव होति णयवा | परहियद्वकारि (ण)-परहितार्थकारिन्-पुं० । परेषामन्येषां या । जावड्या पायवाया. तावड्या चव परसमया ॥२॥"स.हतानथान् प्रयाजनानि का शालय हितानान् प्रयोजनानि कर्तुं शीलं यस्य स परहितार्थकारी । म०३ काका स्वत एव परप्रयोजन प्रसाधनप्रवणे, द. २सत्व । ध। परसमयएणु-परसमय-त्रि० । शास्त्रान्तरके,परसमयतायाः ध० र०प्रव० । गुणवच्छ वके, ध० र० । प्रयोजनम् प्रीममध्याह्नतीव्रतरतरणिकरनिकरायलीढगलत्-- ताफलम् । संप्रति विशतितमगुणः परहितार्थकारी; तत्स्वरूपं खेदविन्मुकः क्विनपुष्कस्साधुः केनचित् द्विजातिनाऽनिहि नामत एव सुगमम्, तस्य धर्मप्राप्ती फलमाहत:-किमिति भवतां सर्वजनाऽऽवीर्ण स्नान न सम्मतमिति ? परहियानरयो धन्नो, सम्मं विनायधम्मसम्भावो । स आह-प्रायः सर्वेषामेव यतीनां कामाङ्गत्वात् जलस्नानं प्र- ___ अन्ने वि ठवइ मग्गे, निरीहचित्तो महासत्तो ।। ३७ ॥ तिविकम् । “ स्नानं मददर्पहरं, कामाझं प्रथम स्मृतम् । त. यो हि प्रकृत्येव परेषां हितकरण नितरां रतो भवति स धन्यो स्मारकामं परित्यज्य, नैव स्मान्ति दमे रताः॥१॥" मा- धर्मधनात्यात सम्यग विज्ञानधर्मसद्भावो ययावद् वुद्धधर्मत. चा. १ श्रु०२ अ०५ उ०। चो, गीतार्थीभूत इति यावत् । अनेनागीतार्थस्थ परहितमंपि परसमुत्तार-परसमुत्तार-पुं० । परस्य मोक्कापकत्वे, वृ० १ चिकीर्षतस्तदसंबमाह । तथा चाऽगमः- "कित्तो कट्टयर, न०२ प्रक० । (व्याख्या 'परदेसियस' शब्दे ५२८ पृष्ठे गता) | जं सम्ममना यसमयसम्भावो। अन्नं कुदेलणाए, कध्यरागम्मि पामे ॥१॥” इति । अन्यानपि अविज्ञानधर्मान् सद्गुरुपापरसमुत्थ-परसमुत्थ-त्रि० । परस्माज्जाते, श्राव०४०। श्वेसमाकर्णिताऽगमव वनरचनाप्रपञ्चैः स्थापयति प्रवर्तपति परसरीर-परशरीर-न० । परकीयशरीरे, मृतकशरीरे च ।। ज्ञातधर्माश्च सीदतः स्थिरीकरोति मागें शुद्धधर्मे । भामस्था. ४ ठा. २०० कुमारबत् । अनेन यतिधासाधारणेन परहितगुणव्याख्यानपरसरीरअणदकंववत्तिया-परशरीरानवकाङ्काप्रत्यया-स्त्री० । पदेन साधोरिब श्रावकस्याऽपि स्वभूमिका अनुसारेण देशना. परशरीरकति कराणि कुर्वत्याम, स्था०२ ठा०१०। यां व्याप्रियमाणस्यानुज्ञामाह । तथा चोक्त धीपश्चमाङ्गद्वितीपरसामाम परसामान्य-न । महासामान्ये सत्तायाम, व्यत्वा- यशतकपश्चमोद्देशके-"तहारूवं णं भंते !सम या माहणं वा ऽऽद्यवान्तरसामान्यापेक्षया महाविषयत्यातू सत्ताया। स्या।। पज्जवासमाणम्स किं फसा पज्जवासणा ? | गोयमा!सवण Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४६) परहियद्वकारि (ण) अभिधानराजेन्डः। पराणंद फसा से ण ते ! सवणे किं फले । नागफले । से गं भंते । सात्मीकृतप्रवृत्तिश्च, तदुत्तीर्णाऽऽशयेति च ॥ २६ ॥ माणे किं फले। बिना एफले।सेणं भंते ! विमाण कि फो। (समाधाति) परा तु दृष्टिः समाधिनिष्ठा वक्ष्यमाण लक्षणम. पकवाणफले । से ण भते! पश्चक्खाणे किं फो। संजमफले। से गं भंते ! संजमे किं फले । अणाहयफल । एवं अणए हए त. माध्यासक्ता, उदासनेन समापासनेन विवर्जिता, सामीक. तप्रवृत्तिश्च सर्वाङ्गीणकत्व परिणतप्रवृत्तिश्च,चन्दनगन्धयायेन । घफले, नये वोदाणफल, वोदाम अकिरियाफले । से ण भते ! तदुसीऽऽशयेति च सर्वथा विशुद्ध्या प्रवृत्तिवासकचित्ताअकिरिया कि फलासिद्धिपज्जवसाफमा पत्ता गोयमा!! नावेन ॥ २६ ॥ द्वा० २४६० गाहा-सवणे नाणे पविनाणे, पश्चखाणे य संजमे । श्रण एहए नवे चेव, बोदाणे प्रकिरिया चेव ॥१॥" पराअ-पराग-पं० । रासि, "रेणू पंसू रमो पराम्रो य।" अस्य सूत्रस्य वृत्तिः- (तहारुचं इत्यादि) तथारूपमुचितस्वनावं, पाइ० ना० १३७ गाथा। कञ्चन पुरुवं श्रमणं वा तपोयुक्तम्, उपलपात्वादस्थोत्तरगुणब. पराइय-पराजित-त्रिः । पराभग्ने, संथा । प्रा०म० । सूत्र०। तमित्यर्थः। माहनं धा स्वयं हनननिवृत्तस्वात् परं प्रति मा हति निराकृते, स्था० १० ठा० । वादिनम् उपलकगास्वादेव मूलगुणयुक्तमितिनावः । वाशब्दा पराइयसत्तु-पराजितशत्रु-त्रि०ा पराभग्नशत्रौ,यद्विधविजयवसमश्ये । अथवा श्रमणः साधुः, माहनः श्रावकः, श्रवणफले. बात (स्था०६ ठा0) तद्विधराज्योपार्जने कृत सम्भावनानति सिद्धान्त श्रवणफला-(नाणफल ति) श्रुतहामफ,श्रवणा ङ्गान् शत्रूनकृत । ०। सूत्र० । रा०। द्धि शुतज्ञानमवाप्यते । (विराणाणफत सि) विशिष्टज्ञानसं, श्रुतकानाकि हेयोपादेयविवेककारि विज्ञानमुत्पद्यते एव । परागम-पराऽगम-पुं० । उत्कृष्धाऽऽगमे, जैनशास्त्रे, पराक्ये (पक्वाण ति) बिनिवृत्तिफन्ने, विशिष्टज्ञानो हि पापं प्रत्या कापिनाऽऽदिशास्त्रे च । अष्ट० १६ अष्ट। कथाति । (संजभफल त्ति) कृतमत्याख्यानस्य हि संयमो प्रब- परागार-परागार-न । परगृहे, दश०० अ०। स्येव । अणराइयफ लि) अनाश्रयफलसयमधान् किल न पराघाय-पराऽऽघात-पुं० । गर्तपाताऽऽदिसमुत्थे पुःखे, स्था. बकर्म नोपादत्त । (तवफल सि) अनाश्रयो हि लघुकर्मत्वा. ७० सपस्थतीति । (बोनागफल लि) व्यवदान कमानरग, तपसा हि पुगतनं कर्म निर्जरयति ।। अकिरियाफ सि । योगनिरो. पराघायणाम (ण)-पराघातनामन्-न । नामकर्मभेदे, यधफलं, कर्मनिजरातो दियोगनिरोधं कुरुते । सिद्धिपत्नय दुदयात परेषामुपघातको भवति जीवः। स० ४२ समः। सायफल त्ति) सिकिसक पर्यवसानफल, सकलफल पर्यन्त. प्रथा उत्त" परघा उदया पाणी, परेभि बलिण पि हो। बति फर्म यस्याः सा तथा । (गाह ति)संग्रहगाधा। पनहल करिसो।(४३)" परानाहन्ति परिभवति, परैर्वा न हवणम्-विषमातरपादं चेत्यादि छन्दःशास्त्रप्रसिमिति। श्रीध.. न्यते मानिभूपते इति पराघातं, तन्निबन्धनं नाम पराघातनामंदासगणिपूज्यैरुपदेशमालायामप्युक्तम्-"वंदर पमिपुच्छर प. म । ततः पराधासोदयात्पराघात नामकर्मविपाकामाण। जन्तुः जुवासप सानुणो य सयमेव । पढरसुणे गुणइ य, जणस्स परेषामन्येषां यलिनामपि बलवतामपि, अाम्तां बंनानामिधम्म परिकडे॥१॥" इति। त्यपिशब्दार्थः । भवति जायते दुर्धर्षोभिभवनीयमन्तिः । फिविशिष्टः सनित्पाह-निरीहचित्तो निःस्पृहमनाः, स. अयमर्थः-बदुरबापरेषां दु:मों महै।जस्वी दर्शनमात्रेण बास्पृहो हिशुस्मार्मोपदेशऽपि न प्रशस्यते । तथा चो. कुसष्टयेन मा महाभूपसभामपि गतः सयानामपि कोममा. पादयति, प्रतिपकप्रतिताप्रतिघात च करोति तत्पराघातनामराम-" परलोकातिगं धाम, तपः श्रुतमिति यम् । सनेवार्थित्वनिलुप्त-सारं तृणलवायते ॥ १ ॥" किमि. त्यर्थः । कर्म०१ कर्म । ५० सं० । श्रा० । स्येचविध इत्याह--महासवइति करवा, यतः सखाताममी - पराजय-पराजय-पुं० । अभिसवे, विजये, मावा०१ श्रु० २ णा: संजयन्ति । तथाहि-"परोपकारैकरतिनिरीहता, विनीतता __ अ०१० । निषिशे० । सत्यमतुच्छचित्तता । विद्याविनोदोऽनुदिनं न दीनता, गुणा पराजिणित्तए-पराजित्य-अन्य० । परानभिवितुमित्यर्थे, भ. इमे सचवतां भवन्ति ॥१॥"व०र०१ अधि०२० गुणा । (भी गुण । (मी- ७ श०ए उ०। मकुमारकथा 'नामकुमार' शब्द वदयते) परहियणिरय-परहितनिरत-त्रि० । परोपकाराभिरते, षो० ५ पराजिणित्ता-पराजित्य-प्रध्य० । भृशं जिस्वेत्यर्थे, परिमल वि. प्राप्त्यर्थं च । स्था० ३ ०२०। आ० म०। पराजेतृरिपरहियरय-परहितरत-त्रि० । परे श्रात्मव्यतिरिक्ता जीवास्तेषां | युबला जज्यमाने, स्था० ४ ० २ उ०। हितं सम्यक्त्वाऽऽदिगुणाऽऽधान, नथ रतश्चासक्तः । परो. पराजिय-पराजित-त्रि० । पराभिभूते, उत्त० १३ अ०। वशी. पदेश।उसके, जी०१ प्रति०१ अधि। कृते, प्राचा.१०२.४ ० । सब०। परनाथाय प्रथपर-परभृत-युं० । परेण स्वपितृव्यतिरिक्तन भृतः पोषितः। मभिकादायके, श्रा० म० अ०। अपराजित इति नाम सं. " उहत्वादो" ॥८।१।१३१ ॥ इति फारस्योकारः । प्रा० नाव्यते । सः। १ पाद । भस्य हः । कोकिले, कल्प.१ अधि०३क्षण। पराणंद-पराऽऽनन्द--नपर आनन्दाऽस्मिन्निति पराऽऽनन्द. पाना। ज्ञा०1०। म । परब्रह्मणि, षो. १५ विव०। परा-परा-स्त्री०। योगाष्टिभदे, द्वा। पराऽऽनन्ध-न०। परैरानन्धमनिनन्दनीयं तत्प्राथितिः श्लाघ. समाधिनिष्ठा तु परा, तदासङ्गविवर्जिता। नीय, रोचनीयमित्ति यावत् । परब्रह्मणि, पो०१५ विव० । Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परासीय अग्निधानराजेन्धः। परिअल पराणीय-परानीक-न० । शवसन्थे, तं० । हायोगतितिकत्रसाऽऽदिषोडशकवधिकहास्यरत्यरतिशोकयु. पराणुकंपय-परानुकम्पक-पुं०। निष्ठितातया परमात्रानुक लद्वयमातासानोशनीचाऽयुश्चतष्टयलणाः स्पष्टिः प्रकृतयो स्पक तीर्थकरे, प्रात्मानपके च । स्था० ४ ०४ २० । बन्धोदयायामापे परस्पर विरुका अतः परावर्तमाना इत्युपराणुपत्ति-परानुवृत्ति-स्त्री० । आत्मव्यतिरिक्तप्रधानाऽऽवृत्ती, ताः । कर्म०५ कर्म। दश६०१०। पराववाद-परापवाद-पुं० । परेषां दोषोद्भावने, नि चू०११ पराभय पराभव-पुं० । पराजये, अनादरे, विपा० १ ध्रु. २०) असतामेव दोषाणामुद्धोषणे परापबादः, न च वस्तुस्व. रूपाऽऽविर्भावने परापवादः,"कुझानकुथतिकुमार्गकुदृष्टिदोषान , पराभिसित्त-पराभिषिक्त-मुं। परेण पित्रादिना राज्ये ऽभिषि. सम्यग् विचारयति कोऽत्र परापवादः?।" सूत्र० २ १०५ श्रा के राजनि, यथा भरतेनानिषित प्रादित्ययशोः । व्य०५ उ०। परावेक्खा-परापेक्षा-स्त्री० । स्वातिरित हेत्वपक्का याम, द्वा०१७ परामरिस-परामर्श-पु.।"शषेतप्तबजे वा" ॥७॥२॥ १०॥ द्वा० । पराश्रयतायाम, पराधीनतायाभ, प्र. १७ अप० । इति सूत्रेण शपूर्वामकारः। विचामे, प्रा०५ पाद। परासर-परासर-० । शरभे, प्राटव्यपशुविशेषे, भ०३ श.५ परामुट्ठ-परामृष्ट-त्रि०।" उदृत्वादी" ॥ ।१।१३१ ॥ इति | उ० । झा० । प्राचा० । स्वनामख्याते ब्राह्मण परिव्राजके, औ०। प्रति। फारस्योकासाप्रा०१ पाद । गृहीते, प्रभ०३ आश्रद्वार । "अणेण पाणिपा परामुछो ।" प्रा. म०१०। विषयाभि परासु-परासु-पि० । मृते, प्रा. क. १ अ.क्षा। बाविषयतया स्पृष्ट, आचा०११०२.५००। पराहिगराण (न)-पराधिकरणिन-j• । परतः परेषामधिकपरामुसित्र-परामृष्ट-त्रि० । प्राश्लिष्टे, " अाखिनं ग्रालिद्ध, रणे प्रवर्तनेनाधिकरण। पराधिकरजी। परेषामधिकरणप्रवर्स के, भ०१६ श.१०। विहितं परामुसि नं।" पाइ. ना० ५ गाधा। पराहीण-पराधीन-त्रि० । गुर्वाधायत्ते, विशे०। परायग-परकीय-त्रि । परसम्बन्धिनि, “ सयं भंडं अणुगो पराहुत्त-पराङ्मुख-त्रि० । अन्यतो मुखे, पं०३० २६ार । सह। नो परायगं भं अणुगसय।" भ०८ श० ५००। प्राव। प्रा०म० । सूत्र.। परायण-परायण-त्रि.। धर्मध्यानतत्पर, उत्त० १४ अ. । पराहू-पराभूत-त्रि० । अनिभूते, " परिश्र अहिलिग्रं पराधमैकमिष्ठे, उत्त.१४ १० । उद्युके, श्राव०४०। हम।" पा३०ना. १६१ गाया। परायत्त-पराऽऽयत-त्रिका स्वाधीने, प्राचा० १७०३० परि-परि-अव्य० । सामस्त्ये, रा. सर्वतो भावे, आ० म० १ अ० । स्था० । समन्तादर्थ, सूत्र० १ श्रु.१ अ । आचा। परारि-परि-श्रव्य० । विगतवर्षे, प्राचा०१ श्रृ०२ अ० ३ उ०। पातु । सर्वप्रकारे, उत्त० १ ० । अभ्यावृत्ती, श्राव. ६ परावत्तमाणा-परावर्तमाना-स्त्री० । याः प्रकृतयोऽन्यस्थाः श्र.। सर्वत इत्यर्थे, वजने, व्याधौ, शेष, कथित् प्रकार प्राप्रकृतेर्बन्ध दयमुभयं या विनिवार्य स्वकीयं बन्धमदयमभयं प्ते, निरसने, पूजायाम् , धणे, उपरमे, शोके, सन्तोषभाया दर्शयन्ति । तासु कर्मप्रकृतिषु, कर्म०५ कर्म। घणे, अतिशये, त्यागे, नियमे च । चाच.। साम्प्रत परावर्तमानप्रकृतीराह परिपट्ट-प० । देशी-रजके, दे० ना.६ वर्ग १५ गाया। परिअट्टालिअ-देशी-परिच्छिन्ने,दे० ना०६ वर्ग ३६ माथा। वणुअट्ट वेय दुजुयल, कसाय उजोयगोयद्ग निदा।। तसवीसा उ परिता, खित्त विवागाणापुचीओ।। १४॥ परिअडी-देशी वृतिमूर्खयो, दे० ना० ६ वर्ग ७३ गाथा । | पारत-शिलप-धा० । श्लेषणे, “श्लिः सामग्गावयास( तन्वष्टकव्याख्या ' तणुअ' शब्दे चतुर्थभागे २१७८ पृष्ठे गता ) वेदाः स्त्रीनपुंसकरूपा स्त्रयः, द्वियुगलं हास्थरत्यर- परिप्रत्ताः" | G॥४॥ १६०॥ इति शिलः परिप्रताऽऽदेनिशोकरुपम, कषायाः पोमश, ( उज्जोयगायदुर्ग ति) द्विक-| शः । 'परि अन्नछ।' शिलष्यति। प्रा०४ पाद । शब्दस्य प्रत्येक संबन्धाऽद्योतढिकम " उजोयायवेति " वच परिप्रतणा-परिवर्तना-स्त्री०। सूत्रस्य घोषाऽऽदिविशुष्गुग्गेन नामुद्योताऽऽऽऽख्यम। (हिगोत्रव्याख्या 'दुगोय ' शरद प्रव०६ द्वार । पुनः सूत्राधाभ्यास, अनु० । विशे०। चतुर्यभागे २५५४ पृष्ठे गठा ) निकापश्चक, प्रविशति परिश्रद्धय-परिवर्द्धक-त्रवृहिकारिधि, "समणविदारिखसद शकस्थावरद शकरूपाः , यूंधि चत्वारि इत्येता ए. कनवातप्रकृतयः। ( परित्त त्ति प्रकृतत्वात्परिवृताः पराव-1 अका० । माना भवन्तीति शेषः। तत्र पोरश कपायाः, निजापञ्चकं च । परिकर्षक-त्रि० । ग्रे गामिनि, औ०। यद्यध्ये ता एकांवशक्षिप्रकृतयो ध्रुवबन्धित्वादु वन्धं प्रति प.परिश्रर-देशी-लीने, दे० ना० ६ वर्ग २४ गाथा । रोपरोध न कुर्वन्ति, तथा ऽपि स्वोदये स्वजातीयप्रक्युदय-परिध-परिकरबन्ध- चिशिपने ध्यरचनापाम्, अतु । निरोधात्परावर्स माना जवन्ति । स्थिरानास्थिरामप्रकृतय-1 बजाय परिग्रल (ल)-गम-धा। गतो, “गो ई-अच्छा श्वनम्रश्च यद्यप्युदयं प्रति न विरुवाम्तथापि बन्धं प्रतिपराबसमानाः, शेषाश्व गति ननुकजातिपञ्चकशरीरात्रिकाङ्गोपालत्रि जसोक्ताकुस-पशु-पच्छन्द-गिगम्मह णी-णीण-एक पदकसंस्थानबदकसंहनन पटका पूर्वीचतुष्का55 पोद्योतवि. अ-रमनपरिअल्ल-बाल-परित्रनपिरिणास-णिबहावले हाब. Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रल अभियानगजेन्द्रः । परिक्वेव हरा" ॥ १६२॥ इति सरेण गमधातोः परिजल-परिकम्मिञ्जमाण-परिकम्मेमाण-त्रि० । क्रियमाणशोधनार्थोपरिब'आदेशौ भवतः । 'परि मलइ । परिअलह ।' गच्छति। | पक्रमे, भ० ६श ३ उ० । प्रा०४ पाद। परिअली-त्रं देशी स्थाले, भोजनना एममिति यावत दे. परिकम्मिय परिकर्मित-त्रि० । सुष्ठुकृतपरिकणि, व्य०१ उ. शाााहितसंस्कारे विशे० परिकम्मियजच्चकमलको ना०६ वर्ग १२ गाथा। मलमाइयसोहंतलट्टउटुं ।" पारकर्मितं कृतपरिकर्म यज्जात्यपरिआइत्ता-पर्यादाय-अन्य । समन्ताद गृहीत्येत्य, स्था. कमलं तद्वत् कोमली माविको प्रमाणोपपन्नी शोभमानानां १०। मध्ये लष्टौ मनोशौ श्रोष्ठौ दशनच्छदौ यस्य स तथा तम् । भ० परिबाल-वेष्टि-घा. वेलेः परित्रातः" ॥ ४॥५१॥ ११ श० ११ उ। शति सूत्रेण परिजाल' प्रादेशः । वेधुने, प्रा०४ पाद । परिकम्मोवघाय-परिकर्मोपघात-पुं० । परिकर्म वस्त्रपात्राss. परि उत्था-स्त्री० । देशी-प्रोषिते, दे० ना.६ वर्ग १३ गाथा । । दिसमारचनं, तेनोपधातः । स्वाध्यायस्य श्रमाऽऽदिना शरीपरिएसिजमाण-परिवष्यमाण-त्रिका दीयमानाऽऽहारेण भो.] रस्य संयमस्य वापघातः परिकोपघातः । उपघातभेदे, ज्यमाने, प्राचा०२ श्रु० १ ० १ ०२२० । स्था० १० ठा। परिकंखिय-परिकाचित-त्रि० । प्रतीक्षित, सस०७०।। परिकर-परिकर-पुं० । सन्नाहे, शा०१ श्रु०८१०। परिगृहीते, गा० । इ, उत्त...। परिकल्ल-परिकल्य-न० । अलाञ्छितमुद्रिते, " परिकल्ला - परिकहलिय-परिकर्षित-वि० । एकत्र पिरामीकते, पिं०। । रेत्ता, किलिजकडहि पिहिताई।" (परिकलाई ति) यानि परिकड़िऊण-पाकृष्य--01 प्रारम्भ कृत्ये त्वथै, "परिक नापि लाग्छितानि नापि मुदितानि कि तु तदुभयप्रकारबाविऊण पडिकमणं ।" पं० व.२ द्वार। ह्यानि कृत्वा विवक्षितप्रदेशे स्थापयित्वा किलिम्जकटेरेव मेव स्थगितानि तानि पिहितान्युच्यन्ते । बृ०२ उ०। परिकड्रेमाण-परिकर्षत-त्रि.पार्श्वभागे समाकर्षिते, नं०। । परिकहणा-परिकथना-स्त्री० । प्रज्ञापनायाम् , नि० चू० १७०। परिकप्पिय-परिकल्पित-त्रि० । कल्पनामात्रनिर्मितशरीरे, समन्तात् कथनायाम् , श्रा० म०१०। नी. १६ विव० समन्तानिष्पादित, मूत्र०१ श्रु०७ १०। परिकिम्म-परिकीर्ण-त्रि० । परिवृत्ते, उत्त० ११ १० । व्याप्ते, परिकप्पियंगमंग-परिकल्पिताङ्गोपाङ्ग-वि० जावयवे, प्रश्न मा०म०१०। ३ अ श्रद्वार। परिकलेस-परिक्लेश-पुं०। बाधोत्पाइने, औ० । उपतापने, परिकम्म (ए)-परिकर्मन्-ज। द्रव्यस्य गुणविशेषपरिणा आचा. १०६ १०३ उ०। परितापने, प्रश्न १ सम्ब० मकरणे. प्रा. म. १०। व्य० । स्था०। अवस्थितस्यैव व द्वार । " परिकिलेसकिच्छ दुक्खसझं।" परिक्लेशेन महामास्तुनो गुणविशेषाऽऽधाने, आत। "पारेकम्मं किग्यिाए, नसाऽऽयासेन कृच्छ्रदुःखेन च माढशरीराऽऽयासेन ये साध्यवत्थूण गुणविसेसपारेणामो ॥” (१२३ ) परिकोच्यते. न्ते वशीक्रियन्ते तथा । भ० ६ श०३३ उ० । किम् ?, इत्याह-क्रियया क्रियाविशेषेण यो वस्तूनां गुणविशेषपरिणापो गुणविशेषाऽधानामेत्यर्थः । विशे । (प्रत्र वि- परिकुंठिय-परिकुण्ठित-त्रि० । जडीभूते. विशे०। शपः 'उपकर'शदे द्वितीयभागे ८७० पृष्ठादारभ्य दर्शितः) परिकविय-परिकुपित-त्रि० । समन्ताद्दर्शितकोपविकारे, भ. ("पाणिपाडाहेण य, सवेल-निश्चलो जहा भविया।" ७ श०६ उ० । सर्वथा क्रुद्ध, स्था० १० ठा। इति पाणिप्रतिग्रहविषयं परिकर्म 'जिणकप्प' शदे च. परिक्खण-परीक्षण-न० । द्रम्माऽऽदीनां परीक्षायाम् , प्रव. तुर्थभाग १५७१ पृष्ठे व्याख्यातम् ) योग्यताऽऽपादने तद्धेतौ शाखेचा पूर्वगतानुयोगसूत्रापारकर्मग्रहणयोग्यतासंपादन ३८ द्वार। समर्थाने परिकर्माणि । यथा-गणितशास्त्रे संकलनाऽऽद्यादी. परिक्खभासि (ण)-परीक्ष्य भाषिन्-त्रिका भालोचितवक्करि, नि । नं01('दिग्विाय' शदे चतुर्थभागे २५१५ पृष्ठे परि दश ७ अ.। कर्मप्ररूपकाणि सूत्रारापुकानि ) संकलिताऽऽयनेकविधे ग- परिक्खा-परीक्षा-स्त्री० । विचारणायाम् , पं० व० ४ द्वार । णितशप्रसिद्ध गाणते. तेन संख्येयस्य पारेगणने च । स्था० नि० चू। विशेायुक्तविचारणायाम्, पाया. १ श्रु० ४ १० ठा। तुलनायाम् , भावतायाम् , विशे। (शिष्यपारे- अ०१ उ. परमासाऽऽदिकालमानविनया-दिभिस्तदयोग्यकर्म 'एगलविहार ' शब्दे तृतीयभागे २३ पृष्ठे उक्लम्) तानिरूपणायाम् ,पञ्चा० १० विव०। श्रदाऽऽदीनां शिक्षापणे.नि००१ उ०। सीवने,बृ०३ उ परिक्खाविहिदविदद्ध-परीक्षाविधिदर्विदग्ध-त्रि० । अधिकृनिचू। तगुणविशेषपरीक्षण विधौ दुर्विदग्ध पण्डितंमन्ये, स्या। परिकामणा-परिस्मगा-स्त्री०। उपधेः प्रमाणन संयतप्रायो परिक्खित्त-परिक्षिप्त-त्रिका परि सामस्त्येन क्षितं यत् परिक्षिग्यकरण, नि: चू०५ उ०। तम् । श्रा०म०१० सर्वतो व्याप्ते,रा । ०। वेष्टित शा. परिकम्मसंखाण परिकसंख्यान-न०। परिकर्म सङ्कलिताऽऽ | १४०१६ अ०। विपा० ।औ० । कृतपारवेशे, "कयपरिवेसं बनेकविधं गणितप्रसिद्धं, तेन यत्संख्येयस्य संख्यानं परि परािक्खत्ते।" पाइ० ना०१६ गाथा । मशनम् । संस्थानभेदे, स्था० १० ठा० । परिक्खेन-परिक्षेप-पुं० । परिरये , जी. ३ प्रति० ४ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिक्खेव अभिधानराजेन्दः। परिगह अधिः । भिज्यादः परिधी, नगरपरिखा दौ च । अनु० । | इति परिभाव्य तदीयं नगरं यदन्ये राजानः परिहरन्ति संक्षेपे, प्राचा. १ श्रु०८१०२ उ० । तत्तदीयेन सत्वसाराऽऽदिना भावेन परिक्षिप्त प्रतिपत्तव्यम् । अथ परिक्षेपपदं निक्षिपन्नाह व्याख्यातं परिक्षेपपदम् । वृ०१ उ०२ प्रक० । नाम ठवणा दविए, खित्ते काले तहेव भावे य । परिगमण-परिगमन-न । परि समन्ताद् गमनम् । गृहभावगएसो उ परिक्खेवे, निक्खेवो छविहो होइ ॥ ३१६ ॥ मने, नि० चू, ३ उ०। नामपरिक्षेपः,स्थापनापरिक्षेपो, द्रव्यपरिक्षेपः, क्षेत्रपरिक्षेपः, | परिगय-परिगत-त्रिक । व्याप्ते, उत्त०२ मा परियेटिते,ौः। कालपरिक्षपो, भावपरिक्षेपः । एष परिक्षेपे निक्षेपः पविधो | परिगलंत-परिगलत- त्रिमरति, " परिगसंतसोया"। श्राभवति, तत्र नामस्थापने गतायें ।। . | चा०१ श्रु०५०५ उ० । द्रव्यपरिक्षेपं प्रतिपादयति परिगालण-परिगालन न० । शुक्लिशङ्खमत्स्याऽऽदिग्रहणार्थ सञ्चित्ताऽऽदी दब्बे, सञ्चित्तो दुपयमादिगो तिविहो। । जलनिःसारणे, प्रश्न १ आश्र द्वार। मीसो देसचिताऽऽदी, अञ्चित्तो होइमो तत्थ ॥ ३१७॥ परिगिझिय-परिगृह्य-अव्यः । अङ्गीकृत्वेत्यर्थे,उत्त०५०। द्रव्यपरिक्षेपविविधः सचित्ताऽऽदिः-सचित्तः, अचित्तो, मिश्रश्चेत्यर्थः । सचित्तस्त्रिविधो-द्विपदचतुष्पदापदभेदात् । परिगिलायमाण -परिग्लायत्-त्रि० । ग्लायति, प्राचा० १ तत्र ग्रामनगराऽऽदेर्यन्मनुष्यैः परिवेष्टितं स द्विपदपरिक्षेपः, | ध्रु०८ अ०३ उ०। यत्र तुरजमहस्त्यादिभिः स चतुष्पदपरिक्षेपः । यत्पुनर्वः परिगुवंत-परिगुप्यत-त्रि० । व्यावु.लीभवति सततं भ्रमति, सोऽपदपरिक्षेपः । मिश्रोऽप्येवमेव विविधः। परं (देसचिः परि-गु-यत् । 'गुरु' धातोः शब्दार्थत्वात्। संशब्दमाने, साऽऽदि त्ति) देशे एकदेशे उपचितः सचेतनः,आदिशब्दाहे- | स्था० १० ठा। शे अपचितो व्यपगतचैतन्यः । किमुक्तं भवति? यथके मनु-परिग्गह-परिग्रह-पुं०। परिगृह्यते आदीयतेऽस्मादिति परिप्याश्च हस्त्यादयो जीवन्ति, अपरे तु मृताः, परं प्रामाऽदि. ग्रहः । परिग्रहणं वा परिग्रहः । प्रव० ६३ द्वार । धनधान्याकंपरिक्षिप्य व्यवस्थिताः। स मिश्रपरिक्षेपस्त्वयं भवति । ऽऽदिस्वीकारे, श्री प्रश्न सूत्र द्विपदचतुष्पदधनधान्या तमेवाह ऽऽदिके, सूत्र०२ श्रु०६ अा अान्तरममरूपत्वे, सूत्र०१ शु०६ पासाणिट्टगमट्टिय-खोडगकडगकंटिगा भवे दवे । अाधन्यधान्याऽऽदिद्विपदचतुष्पदाऽऽदिसंग्रहे. सूत्र०१ खाइयसरनइअगडा, पचयदुग्गाणि खेत्तम्मि ॥३१८॥ शु०५ अगसाधुमर्यादाऽतिक्रमेण आहे. या चू०४०। सच पाषाणमयः प्राकारी यथा द्वारिकायाः, इधकामयः प्राकारो बाह्याऽऽभ्यन्तरभेदाद् द्विधा । तत्र बाह्यो धर्मसाधनव्यतिरे. यथा नन्दपुरे, मृत्तिकामयो यथा सुमनःसुखनगरे (?) (खोड कधनधान्यभेदादनेकधा आभ्यन्तरस्तु मिथ्याविरतिकषात्ति) काष्ठमयः प्राकारः कस्यापि नगरादेर्भवति, कटकोचं. यप्रमादाऽऽदिरनेकधा । परिग्रहणं वा परिग्रहो, मूछेत्यर्थः । शबलाऽऽदिमयः, कण्टिका बब्बुलाऽऽदिसंबन्धिम्यः, तन्मयो स्था० १ ठा। प्रश्न । उत्त । भाचा व्यि० । धर्मसाधवा परिक्षेपो प्रामाऽऽदेर्भवति एष सर्वोऽपि द्रव्यपरिक्षेपः, नव्यतिरेकेण धनधान्याऽऽदौ, स्था० २ ठा०१ उ०पं० व.। तथा खातिका वा सरो वा नदी वा गर्ता वा पर्वतो वा दु प्राचा। सूत्र.। परिगृह्यत इति परिग्रह तस्य, कीदृशम्य ? णि वा जलदुर्गाऽऽदीनि. पर्वता एव दुर्गाणि वा । एतानि कृत्स्नस्य, नवविधस्येत्यर्थः । स चायम-धनं १, धान्यं २, नगराऽऽदिकं परिक्षिप्य : बस्थितानि क्षेत्रपरिक्षेप उच्यते । क्षेत्र ३. वास्तु ४. रूप्यं ५, सुवर्ण ६, कुप्यं ७, द्विपदः कालपरिक्षेपमाह-- ८, चतुष्पदश्च इति अतिचाराधिकारे व्याख्यास्यमानः । श्रीभद्रबाहुस्वामिकृतदशवकालिकनियुक्तौ तु-गृहिणामर्थपवासारते अइपा-णियं ति गिम्हे अपाणियं नच्चा। रिग्रहो धान्य १-रत्न २-स्थावर ३-द्विपद ४-चतुष्पद ५कालेन परिक्खित्तं, तेण तमन्ने परिहरति ।। ६१६ ॥ कुप्य ६-भेदात् सामान्येन पड्डिधोऽपि तत् प्रभेदश्चतुःषवर्षरात्र अतिपानीयमिति कृत्वा, ग्रीष्मे उष्णकाले अपानी- ष्टिविधः प्रोक्नः। (ध०) (धान्यानि चतुर्विंशतिः · धरण' यमिति कृत्वा रोमुं न शक्यते इति ज्ञात्वा तेन कारणेनं तन्न- शब्दे चतुर्थभागे २६५६ पृष्ठे गतानि) गरादिकमन्ये परराष्ट्रराजानः परिहरन्ति तत्कालपरिक्षितम् । रत्नानि चतुर्विंशतिर्यथाभावपरिक्षेपमाह " रयणाई चउव्वीसं, नचा नरवइणो स-त्तसारबुद्धीपरक्कमविसेसे । सुवन्न १ तर २ तंब ३ रयय ४ लोहाई ५। सीसग ६ हिरण्ण ७ पासाभावेण परिक्खित्तं, तेण तमने परिहरंति ॥६२०॥ ण ८ वहर : मणि १० मोत्तित्र ११ पवालं १२॥१॥ सायं धैर्य सारो द्विधा-बायः, पाभ्यन्तरश्च । बाह्यो बलवा- संखो १३ तिणिसा १४ ऽगुरु १५ चंहनाऽऽदिः,आभ्यन्तरो रलसुर्वणाऽऽदिः। बुद्धिरौत्पत्तिक्या दणाणि १६ वत्था १७ ऽमिलाणि कट्ठाई १६ । दिभेदाचतुर्विधा, यथा अभयकुमारस्य । पराक्रम औरस. तह चम्म २०दंत २१ वाला २२, बलात्मकः । एतान् सत्त्वसारबुद्धिपराक्रमविशेषान् , वि. गंधा २३ दब्बोसहाई २४ च ॥२॥" पक्षितनरपतः संबन्धिनो शात्वा, यद्यनेन सार्द्ध विग्रहमार- प्रसिद्धान्यमूनि, नवरं रजतं रूप्यं. हिरण्यं रूपकाऽऽदि, स्यामह तत उत्खनिष्यन्ते सपुत्रगोत्राणामस्माकमनेन कन्दा ! पाषाणा विजातिरत्नानि, मणयो जात्यानि, तिनिसो वृक्षवि Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गड , " शेषः । अमिलान्पूर्ण वस्त्राणि काष्ठानि श्रीपर्णाऽऽदिफलकाssदीनमणि दीनां दन्ता गजादीनां बालमर्या दीनां नित्यादीनि (स्थावरम् 'थावर' शब्दे चतुर्थभागे २४०८ पृष्ठे गतम् ) ( द्विपदं बुपयशब्दे चतुर्थ भागे २५६० पृष्ठे द्रव्यम्) (चतुष्पदम् चउप्पद शब्दे तृतीयभागे १०५० पृष्ठे गतम् ) ( कुप्यस्वरूपम् ' कुप्प शब्दे तृतीयभागे ५८६ पृष्ठे गतम् ) नानाविधमपि कुप्यमेकमेव यथा-" मारणाविवगरणं येगवि कुप्प हो सो विद्द पर डिमे ॥ १॥" चतुःषष्टिभेदोऽप्येष नवविधपरिग्रहेऽन्तर्भवति । ध०२ श्रधि० । प्रव० नं० । श्रातु० । श्राचा० 1 बृ० । ( परिग्गदं श्रममायमाणे) परित इति परिम-संयमातिरिक्तमुपकरणा55दिः अस्वीकुर्वन्मनसा यनादान इति वा वत् । स एवंविधो भिक्षुः कालज्ञो बलशो. मात्रशः, क्षेत्रशः, खेदशः, क्षणशो, विनयशः. समयज्ञो, भावशः परिग्रहमममी कुर्वाणश्च । श्राचा० १ ० २ श्र० ५ उ० । बहुं पि लब्धुं ण णि ति । " ( ६० सूत्र ) ( बहुं पि ) बह्नपि लब्ध्वा (न निति) स्थापयेन सविधि कुर्यात् स्तोकं तापत्र सत्रिधीयत एव दिव्यादित्यपदार्थः न केवलमाहारसनिधिं न कुर्याद् अधरमपि वस्त्रपात्राSSदिकं संयमोकरणातिरिक्तं न विभृयादित्याह-परिगृह्यत इति परिग्रहो धम्मैौपकरणातिरिकमुपकरणं, तस्मादात्मानमपवदपसर्धयेद्, अथवा संयमोपकरणमपि मूर्च्छया परिग्रहो भवति, " मूर्छा परिग्रहः ।" ( तवा० अ० ८सूत्र ) इति वचनात् तत आत्मानं परिग्रहादपसर्पयन्नृपकरणे तुरगवद् सूर्छा न कुर्यात् । श्राचा० १० २ श्र० ४ ० । ( धर्मोपकरणं न परिगृहीतमिति धम्मोपगरणशब्दे तुर्थमा २०६३ पृष्ठे गतम्) C 1 4 कर्मशरीरभाण्डपरिग्रहो: ( ५५३ ) अभिधान राजेन्रू | 6 परिग्गह समत्यो बाद हिरवामाद गहणे धारणे कम्मर वा । " प्रवृत्तः चारित्रकुशीलो भवति । महा० ३ श्र० । जस्थ अज्ञान, पडिग्गमादिविविध उचगरणं परिमुंज साहूहिं, तं गोयम ! केरिलं गच्छे ? ॥१॥" मद्दा० ५ अ० । परिषद: । प्रत्येगे गोषमा ! पाणी, जे गो चपड़ परिगई । जावइयं गोषमा ! तस्स, सचिचाचिनमीसगं ॥ पभूपं वागुजीवस्स, भवेजा उ परिग्गई। तावणं तु सो पाणी, ससंगो मुक्ख साहणं ॥ गाणातिगं य आहे, तम्हा बजे परिगाहं । अत्गे गोयमा ! पाणी, जे य हित्ताएँ परिग्गदं ॥ आरंभ नो विवखा, जंतिय भवपरंपरं । महा० २ श्र० । एनो परिणो पंचयो नियमा वाणामशिकगर पथम हरिदपरिमल सपुत्तदारपरिजन दासीदासभयगप्पेसहयगय गोमदिस उट्टखर अयगवेलगसि विवासनडर हजारातु संद सास वाहण कुवियत्रण धम्मपाणभोपण्याच्छायणगंधमलभाषणभवगविधि चैव बहुविहियं भरनगनगरनिगमजावयपुरवरदो मुखेडबडववाहपट्ट सहस्समंडियं थिमियमेयणीयं एगच्छतं ससागरं भुंजिऊस कसु अपरिमियम त तर मग यमहिच्छासारनिरयमूलो लोभकलिकसा यमहासंधी चिंताऽऽयासनिचि यविपुलसालो गारवपविरेपिगविडवो नियडितया पतलब पुण्फफलं जस्स कामभोगा आयास विमूरखाकलहपर्क पियगहिरो नरवरसंपूजियो बहुजणस्स हिययदओ इमरस मोक्खवरमुनिमग्गस्स फलिहभूम चरिमं अहम्पदारे । कवि थे ते परिहे है। गोयमा तिविहे परिग पसते तं जहा कम्मपरिमा, सरीरपरिमारे, बाहिरमंडमतोरणपरिग्गहे । रइयाणं भंते! एवं जहा उबहिणा दो दंडगा भणिया तव परिग्गहेण वि दो दंडगा भारिणयव्वा । (परिमाति) पति परित्रदः । अचेतस्योपधेको भेदः । उच्यते-उपकारका, उपधिर्ममत्या परि गृह्यमाणस्तु परिग्रह इति । भ० १८ श० ७ उ० । तिविहे परिग्गहे पते । तं जहा कम्मपरिग्गहे, सरीरपरिमग, बाहिर भंडण मतपरिम्हे । एवमसुरकुमाराणं । एवं एगिंदिनेरइयव० जाव वेमाखियाणं । श्रहवा-तिविहे परि (अंब ! इत्यादि) जम्मूरिति शयन्त्रणम् (तसि चतुर्थद्वारा इनन्तरं परिब्रणं परित इति प रिमहः । इह च परिग्रह दोपादानेऽपि विशेषणा अन्यथाऽनुपपत्या परिग्रहतरुरिति द्रष्टव्यम् । पञ्चमस्तु पञ्चमः पुनराश्रवो भवतीति गम्यते । पञ्चमत्वं चास्य तत्र क्रमाssश्रयणात् नियमानिश्चयेन नान्यः पञ्चमत्वमात्रवाणां लभते मध्ये कथम्भूत नानामी यादि ) तत्र नानामपादिवि। भारतं वसुधां ययाऽपि या अपरिमिता नसुहा अनुगता च मच्छ से य स्य परिग्रहतरोः स तथेति सम्बन्धः । तत्र नानाविधा ये नाऽऽदीनि, महाईपरिमलाः महाईसुगन्धद्रव्याऽमौदा ये सपुमण्यः चन्द्रकान्ताऽद्याः, कनकं च सुवर्ण रत्नानि च कर्केतश्रदाराः सुतयुककलत्राणे, ते च परिजनञ्च परिवारा दासीदासाथ पेटीवटा भूतकाधराः, प्रेध्याथ प्रयोजनेषु प्रे पणीयाः इयगजनीमहिपोखरा जयवेल का प्रतीताः शिविकास कूटात पानांवराः शकटाने रथाश्च प्रतीताः, यानाति च गत्रीविशेषाः, युग्यानि च वाहनानि गोलदेशप्रसिद्धजम्पानविशेषा वा स्यन्दनाश्च र गहे पते । तं जहा - सचित्ते, अचित्ते, मीसए। एवं नेरइया निरंतरं० जाव वेमाणियाणं । परिस्वति इति परिवो सूर्याविषय इति इद वैषामयमिति व्यपदेशभागो ग्राह्यः स च नारके केन्द्रियाणां कर्मा 85 दिरेव संभवति, न भाण्डाऽऽदिरिति । स्था० ३ ठा० १ ४० | दश० । देिवतुर्विचपरिप्रहेषु जयस्यतोऽतिवारे सत्येकाशनम् मध्ये उत्कृपणम् जीत।वि भूसावतिपुण वा परिग्गदं सुहुझं वा वायरं वा । तत्थ सुदुमंथविशेधा शयनाऽऽसतानि च प्रतीवानि वादनानि यानपा१३६ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५४ ) अभिधानराजेन्रूः । परिग्गड श्रण (कृषि ति) कुप्यानि च परकाराः सहा तुला5 दयः, धनानि च गणिमाऽऽदीनि धान्यपानभोजनाऽsच्छादनगन्धमाल्यभाजनभ नानि च प्रतीतानि इति द्वन्द्वः । ततस्तेषां विधेः कार्थसाध्यमिति तत्पुरुषः । श्रतस्तं चैव बहुविधिकमनेकप्रकारं, तथा भरतं क्षेत्रविशेषो नगाः पर्वताः, नगर करवजितानि निगमा यणिजां स्थानानि जन दा देशाः पुरबराणि नगरेकदेशभूतानि मुखानि जल स्थानानि प्राकारोपेतानि कानि कु नगराणि, मडम्बानि दूरस्थितसीमान्तराणि, संवाहाः स्था पन्यः पतनानि जलस्थलपथचोरल्यतरयुक्तानि तेषां यानि सहस्राणि तैर्मण्डितं यत्तत्तथा स्तिमितमेदिनीकं निर्भयमेदिनीनिवासिजनम्, एकच्छत्रम् एकराजकमित्यर्थः । ससा गरं समुद्रान्तमित्यर्थः भुक्षा परिभुज्य तथा वसुधां थ्वीं भरतैकदेशभूतां च भुक्त्वा, एतद्भोगेऽपीत्यर्थः । (श्र परिमितमत तरह मणुगय महि च्छासारनिरयमूलो त्ति ) श्रपरिमितानन्ता अत्यन्तानन्ता तृष्णा प्राप्तार्थ संरक्षणरूपा चाचानुगता सनती महती मातार्थाभिलाषरूपा ने एय सागांत अक्षय्याणि निरया निर्वतशुभफलानि भू लानि जटा यत्य परिग्रहतरोः । श्रथवा अपरिमिता श्रनन्ततृष्णाया या अउगता महेच्छासारा निरया च नरकहेतुर्विशिष्टयेगा वा सेव मूलं यस्य स तथा । इह च म कारी प्राकृतप्रभावसमासधेति । सोमः प्र नीतः, कलिः संग्रामः कषाय को माननाया एत एव महान् स्कन्धो यस्य स तथा । इह च कषायग्रहणेऽपि यलोभग्रद्दणं तत्तस्य प्रधानत्वापेनम् । तथा चिन्ताश्च चिन्तनानि श्रापासाथ मनःप्रभृतीनां त एय पाठान्तरेण विन्ता शतान्येव विनिचिता निरन्तरा विपुला विस्मीतां शाला शाखा यस्य स तथा । तथा ( गारव त्ति ) गौरवाणि ऋद्धयादिनाssदरकरणानि तान्येव ( पविरेलिय त्ति ) विस्तारवत् श्रग्रविटपं शाखामध्यभागाग्रं विस्तारं ग्रीवा यस्य स तथा पाठान्तरे गौरविदेशिनाथ शिखरः। तथा (निय डियतया पत्तपलबधरो ) निकृततयाऽभ्युपचारकरणेन वचनानिमायाकादनार्थानि या मायान्तराणि ता एव त्व कूपत्र पल्लवास्तान् धारयति यः स तथा पल्लवं स्नेहकोमलं पत्रम् । तथा पुष्पं फलं यस्य ( कामभोग त्ति) प्रतीतमेव । तथा ( श्रायासवित्रेण कलहपकांपयग्गसिहरो ) श्रायासः शरीरखेदः विरसिखे, कलदीपचन नम् । एत एव प्रकम्पितं प्रकम्पमानमग्रशिखरं शिखरावं यस्य स तथा । नरपतिसं पूजितो, बहुजनस्य हृदयद यित इति प्रतीतम् । प्रस्य प्रत्यक्षस्य मोक्षवरस्य भावमोक्षमुचिभितेय मार्ग उपायो मोरा हास्य परिपोषी विद्यातक इति यावत् परममधर्म द्वारम् इति व्यक्तम् । श्रनेन च यादृश इति द्वारमुक्तम् । यन्नामेत्युच्यते तरस य नामाणि इमाथि गोणाशि हुंति तीसं । तं जहापरिगो १ संचयो २ चयो ३ उबचयो ४ निहाणं ५ संभारी ६ संकरो ७ एवं आयारो ८ पिंडो दव्वसारो १० तहा महिन्द्रा ११ प १२ सोप्या १३ म परिग्गड हिंदी १४ उनफरणं १५ संरपणा व १६ भारो १७ पापाको १८ कलिकरंडो १६ पवित्थरो २० - त्यो २१ व २२ अगुती २३ आयासो २४ - वियोगो २५ २६ तरहा २७ अणत्थको २० सत्ती २६ संतो से त्तिविय ३० । तस्स एयाणि एवमादीणि नामआणि हुंति तीसं ।। तस्य च नामानि गौणानि भवन्ति त्रिंशत् । तद्यथा-परिगृह्यत इति परिषदः शरीरोपध्यादिः परिग्रहणं वा परिग्रहः स्वीकारः १, संवीयत इति सञ्चयः २, एवं चयः ३. उपचयो ४, निधानं ५, संभ्रियते धार्यते सम्भरणं वा धारणं संभारः ६, सङ्कीर्यते सम्परयते संकरणं या सपिण्डनं या संकरः ७, एवमादरः ८, पिण्डः पिण्डनीयं पिण्डनं वा ६, द्रव्यलक्षणः सारः । तथा-महेच्छा अपरिमितवाञ्छा ११. प्रतिबन्धोऽभिङ्गः १२, लोभाऽऽत्मा लोभस्वभावः १३, मह ती इच्छा । क्वचित् " महिद्दी " इतिपाठस्तत्र-' श्रई ' ग तौ याचने चेति वचनादयिञ्च महती ज्ञानोपष्टम्भाऽऽदि. कारण विकलत्वादपरिमाण श्रमिहार्दिः १४, उपकरणम् उपधि १५यभिष्यङ्गल रीरादिरक्षणं १६. भारो गुरुताकारणं १७, संपातानामनर्थ मील कानामुत्पादकः सम्पत्तीत्यादकः १८ कलीनां कलहानां करण्ड इव भाजनविशेष इव कलिकर डम् १६, प्रविस्तरो धनधान्याऽऽदिदिस्ता १० ना२१. संस्तवः पचयः सानिध्यात् परे २२गोपनम् २३. श्रायासः खेदः, तद्धेतुत्वात्परिग्रहो ऽप्यायास उक्लः । श्राह च - " वहबंवणमाह नाहा । " २४, श्रवियोगो ध नाssरत्यजनम् २५, श्रमुक्तिः सलोभता २६. तृष्णा धनाऽऽ काङ्क्षा २७, अनर्थकः परमार्थाच्या निरर्थकः २८, श्राशकिनाऽऽदावासङ्गः २६, असन्तोषः ३०, इत्यपि च तस्य परिमस्य पतानि प्रत्यक्षाणि पवनादीनि उकारवन्ति नामानि भवति विशविति ये प्ररिग्रहं कुर्वन्ति, तानाह तं च पुण परिग्गदं ममायंति लोभयत्था भवणवरविमाणवासियो परियहरुई परिग्गदे विविकर देवनिकाया य असुर वगगरुलविज्जुजला गादीवर दहिदिसिव थशिश्रणपत्रियपणपत्रियइसिवाइयभूयवाइयकदियमहा मंदि यकु इंडप तंगदेवा पिसायभूयजक्खरक्खस किंनर किंपुरिसमहोरगंधव्या य तिरियवासी पंचविहा जोइलिया देवा बहस्पती चंदसूरतुकणिरा राहू य धूमकेऊ बुत्राय अंगारकाय तचतवजिकरागवा जे य गहा जोइसियम्मि चारं चरंति, केऊ य गतिरतिया अट्ठावीसतिविहाय नक्खत्तदेवगणा याणासंठाणसंडिया य तारणाओ ठिक्लेस्सा चारिणो य अवसादलगत अश्विरा उडलोगवरासी दुविधा मारिया य देवा सोहम्मीसाग सगं कुमारमाहिंदबंभलोगलंतकमहा सुक्कसहस्सारणयपाण्यआरणच्चुया कप्प Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५५) परिगह अभिधानराजेन्द्रः । परिगह वरविमाणवासिणो सुरगणा गेवेजा अणु तरा य दु लोगन्धि य नहातमाविमा महया मोहमोहियमती तमिसंविहा कप्पातीया विमाणवासी महिड्डीया उत्तमा सुर धकारे तसथावरमहुमवायरेषु पञ्जत्तमपञ्जत्तग० जाव परिवग एवं चेते चउनिहा सपरिसा वि देवा ममाय- यमुति दी हमढुं० जीवा लोभवससन्निविट्ठा एसो सो पति भवणवाहणजाणचिमाणसयणासणाणि य णाणावि- रिगहस्स फलविवागो इहलोइओ परलोइओ अप्पसुहो हवत्थभूसणाणि य पवसहरणाणि य णाणामणिपंच- बहुदुक्खो महब्भओ बहुरपप्पगाढो दारुणो कक्कसो अवस्मदिव्वं च भायणविहं नाणाविहकामरूबवेउब्वियन- साओ वाससहस्सोहें मुच्चती न य अदयित्ता अस्थि हु च्छरगणसंघाए दीवसमुद्दे दिसाओ चेइयाणि य व- मोक्खो त्ति एवमाहंसु नायकुलनंदणो महप्पा जिणो वरणसंडे पचते गामनगराणि य आरामुजाणकाणणाणिय | वीरनामधेजो कहेसी य परिगहम्स फलविवागं एसो सो कूवसरतला य वाविदीहा य देवकुलसभष्पवावसहिमाइयाई। परिग्गहो पंचमो नियमा णाणामणिकणगरयणमहरिह. बहुयाई कित्तणाणि य पगिरिहत्ता परिग्गहं विपुलदब-| जाव इमस्स मोक्खवरमुत्तिमग्गस फलिहभयो चरिमं असारं देवा वि सइंदगा न तात्तं न तुहि उपलब्भंति अञ्चं- हम्मदारं सम्मत्तं । तविपुललोभाभिभूयासना वासहरइक्खुगारवट्टपव्ययकुं "एएह पंचहि असं -वरेहि रयमाचिणुत्तु अणुसमयं । डलरुयगवरमाणुसुत्तरकालोदधिलवणसलिलदहपतिरतिक चाविहगतिपरंतं, अणुपरिपटृति संसारं ॥ १॥ रअंजणकसेलदहिगुहउवउप्पायकंचणकविचित्तजमकवर-- सवगतीपक्खंदे, काहिंति अगंतगे अकयपुरमा । सिहरिकूडवासी वखारअन्मभूमीसु मुविभत्तभागदेसासु जे य न सुगाले धन्म, सोकण य जे पनाति ॥२॥ कम्मभूमासु जे वि य नरा चाउरंतचक्कवट्टी वासुदेा ब अणुसिह पि बहुविहं,मिच्छदिडिया जे नरा अबुद्धीया । लदेवा मंडलिया इस्सरा तलबरा सेणावई इन्भा सेट्ठी बद्धनिकाइयकन्मा, सुणात धन्म न य करेंति ॥ ३ ॥ या पुरोहिया कुमारा दंडणायगा माडंबिया सत्थवाहा किसका काउं जे, जं नेच्छा प्रोसई मुहा पाउँ । कुडुबिया अमच्चा एए अले य एवमादी परिग्ग संचि जिणवपणं गुणमहुरं, विरेयणं सबदुक्याणं ॥ ४ ॥ णति अणंतमसरणं दुरंतं अधुवमणिचं असासयं पाव पंचव य उझिकणं, पंचे। य रविव ऊण भावेणं । कम्मनेम अवकिरियव्वं विणासमूलं वहबंधपरिकलेसब कन्मरयविषमुक्का, सिद्धिवरमणु र जंति ॥५॥" पदमात्रार्थप्रदर्शिनाते टीकापेक्ष। । " किं सका गा. हुलमणंतसंकिलेसकरणं ते तं धणकणगरयणनिचयपिंडि हा "-कि शयं कर्तु, न शस्मात्यर्थः । ज इति पादया चेव लोभघत्था संसारं अतिवयंति सम्बदुक्खसंनि- पूरणे । यत् य मानेच्छथ नेपलथ श्रौषधं मुधा प्रत्युपकालयणं परिग्गहस्सेव य अट्ठाए सिप्पसयं सिक्खाए बहुजणो रानपेक्षितया, दीपमानामात गम्यम् । पातुमा नुम् । किरूपकलाओ य बावत्तरिसु निपुणाश्रो लेहादियाओ सउणरु मित्याह-जिनवचनं गुण बुरं,विरेवनं त्यागकार सर्व दुःखायावसाणाम्रो गणियप्पहाणाओ चउसद्धिं च महिलागुणे नाम् ॥४॥ "पंवेव य गाह"-पञ्चैव प्राणातिपातायाधव द्वाराणि उझिवा त्यस्त्वा पश्चर प्राणाातेपातविरमण[55. रतिजणणे सिप्पसेवं असिमसिकिसिवाणिजं ववहारं अ- दिसंबरान रक्षित्वा पालयित्वा भावनान्तःकरण वृत्या कर्मत्थसत्थं इसुसत्थं च्छरुप्पगयं विविहाओ य जोगजुंजणाओ रजोविनमुक्ता हात प्रतीतम् । सिद्धानां मध्ये वरा सिद्धिवरा, यासु य एवमादिएसु बहुकारणसएसु जावजीवं न सकल कक्ष पलभ्या भावसिद्धिरित्यर्थः। ताम्.अत एव अ नुसरा सर्वोत्तमां यान्ति गच्छन्ति । प्रस०५ श्राश्रद्वार। डिजए संचिणंति मंदबुद्धी परिगहस्सेव य अट्ठाए करेति बहुपरिग्रहो गच्छः । अथ गाथात्रयेण हिरण्यवर्णाss. पाणाण वहकरणं अलियनियडिसातिसंपओगे परदध द्यधिकृत्य प्रस्तुतमेव द्रढयतिभिज्झा सरदारगमणमेवणाए आयासचिमूरणं कलहभंड- जत्य हिरमसुवा, धणधरमे कंसतंबफलिहाणं । णवेराणि य अवमाणधिमाणणाओ इच्छमाहिच्छपिवास- सयणाण आसणाण य, झुसिराणं चेव परिभोगो ||८|| सतततिसिया तरहगेहिलोभघत्या अत्ताणअनिग्गहिया जत्थ य वारडियाणं, तत्तडियागं च तह य परिनोको। करति कोहमाणमायालोभ अकित्तणिजे परिग्गहे चेव मुत्तं सुकिलवत्यं, का मेरा तत्य गच्छन्धि ? ॥८६॥ हुति नियम सल्ला दंडा य गारवा य कसाया साय का- अनरो ख्या-यत्र गणे (हिरराग उवमे ति) विभक्तिव्यमगुणअणहगा य इंदियलेसानो सयणरोगा सचित्ता- त्ययात् हिरण्य सुवर्णयोः,तत्र हिरवं रूप्यम्, अटितसुवर्ण चित्तमीसगाई दवाई अणंतकाई इच्छंति परिघेत्तुं सदेवमणु वा, सुवर्ण च सामान्येन स्वर्ण, घाटेतस्वर्ग वा । तथा विम तिव्यत्ययादेव धनधान्धयोत्तर धनं नाणकमाणिक्याऽऽदि । यासुरन्मि लोए लोभपरिगहो जिणवरेहि भाणो नत्थि धान्यं सवित्तं यवाऽऽदि चतुर्विशतिधा (गः) (धाएरितो पासो पडिबंधा अत्यि सधजीवाण सबलोए पर- न्यानि 'धरण' शब्द चतुर्थमागे २६५६ पृष्ठे गतानि) Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गह अनिघानराजेन्द्रः। परिग्गहणिविष्ट तथा कांस्यं च स्थालकचोलकाऽऽदिरूपं. तानं च कमण्डलु- न्तरेण तत्सम्प्राप्तिर्भवतीत्यतो येन केनचिदुपायभूतं परिप्र. कलशिकाविरूध, स्फटिकरत्नमयभाजनाऽऽदीति द्वन्धः,ते. हमेव प्रकर्षेण कुर्वाणः पापं कर्म समुचिनोतीति । सूत्रः षामुपलक्षणत्वात् का वकपर्दिकाइन्ताऽऽदिपात्राणां काष्ठपात्रे. १७०१००। ऽपि पितल माविबन्धनानां व ।(ग०) चैवशब्दात् तथावि- परिग्रहग्रह एव परमार्थतोऽनर्थमूलं भवति । तथा धानां तूलिकागुप्त दवरकशीपिधानीगल्ल मसूरिकाचक्कलक चोक्तम्गहिकाऽऽदीनां परिग्रहः। परिभोगो व्यापारणं, क्रियत इति "ममाहमिति चैष यावदभिमानदाहज्वरः, शेषः। तथा यत्र च गच्छ (वारडियाणं ति) रक्तवस्त्राणाम् कृतान्तमुखमेव तावदिति न प्रशान्त्युन्नयः। (तत्तडियाणं ति) नीलपीतादिरनितवस्त्राणां च परिभोगः यशःसुखपिपासितैरयमसावनोत्तरः, क्रियते, किं कृत्वेत्याह मुक्त्वा परित्यज्य, किम् ?, शुक्लवलं परैरपसदः कुतोऽपि कथमप्यपाकृष्यते" ॥१॥ यतियोग्यं वराभेन्यर्थः, तत्र ( का मेर ति) का मर्यादा न तथा चकाविदपीति ॥ ८ ॥ ८६॥ " द्वेषस्याऽऽयतनं धृतरपचयः, क्षान्तःप्रतीपो विधिवस्त्राऽऽदिभ्यः स्वर्णाऽऽदिकं बड्नर्थ ाक्षेपस्य सुहृन्मदस्य भवनं ध्यानस्य कष्टो रिपुः । कारीत्यतस्तद्विशेषयन्नाह दुःखस्य प्रभवः सुखस्य निधनं, पापस्य वासो निजा, प्राशस्याऽपि पग्ग्रिहो ग्रह इव क्लेशाय नाशाय च ॥२॥" जत्थ हिरम सुवस्म, हत्थेण पराणगं पि नो छिप्पे । सूत्र० ११०१ १.१ उ०। (परिग्रहदोषा अन्यत्राप्यन्ययू. कारणसभप्पिय पि हु, निभिसखणद्ध पि तं गच्छं 1801 थिकनिन्दाऽऽवसरे)। यत्र गच्छे हिरण्यसुवर्णे (पराणगं पित) अपेरेवकारा परिग्रहत्यागाष्टकम् र्थत्वात् परकीये एव न त्वात्मथि, यतेस्तयोरसम्भवात् । कथ- न परावर्तते राशे-र्वक्रता जातु नोज्झति । म्भूते (कारणसमप्पियं पि हुति) हुनिश्चितं, कारणे ग्ला. परिग्रहो ग्रहः कोऽयं, विडम्वितजगत्त्रयः ॥१॥ नत्वविषग्रस्तत्वाऽऽदिकेनापि नागारिणा समर्पिते अपि, किं पुनरसमर्पित इत्यपिशदार्थः । अस्ति च साधोराप कारणे परिग्रहग्रहाऽऽवेशाद, दुर्भाषितरजाकिराः । हिरण्यसुवर्णयोग्रहणसम्भवः यत उक्तं निशीथपीठे परि- श्रयन्ते विकृताः किन्न, प्रलापा लिङ्गिनामपि ॥२॥ ग्रहप्रतिसेवनाऽधिकारे-"यहा गिलाणभंगीकिश्च वेजट्टयाए यस्त्यक्त्वा तृणवबाह्य-मान्तरं च परिग्रहम् । हिरण्णं पि गेरहेज, उराल स्यापवाद:-"विसे कणगाते" उदास्ते तत्पदाम्भोज, पर्यदास्ते जगत्त्रयी ॥ ३॥ विषप्रस्तस्य कनकं सुवर्ण तं घेत्तुं घसिऊण विसणिग्घायणट्ठा तस्ल पाणं विजाति, अतो गिलाणट्ठा पोरालियग्गहणं भवेज चित्तेऽन्तर्ग्रन्थगहने, बहिानन्यता वृथा । सि,एवंविधे अपि ते साधुः,(निमिसखणद्धं पि सि) निमेषस्य त्यागात् कञ्चुकमात्रभ्य, भुजगो न हि निर्विषः ॥ ४ ॥ गोऽयसरी वेलेति यावत् । तस्याई निमेषक्षणाई, निमेष स्यक्त परिग्रहे साधोः, प्रयाति सकलं रजः। क्षणाई निमेषवेलार्द्धमिन्यर्थः । तदपि यावत्कार्यकरणानन्तरं कौतुकमोहादिना हस्तेन करेण न स्पृशेत् । (तं गच्छत्ति) पालित्यागे क्षणादेव, सरसः सलिलं यथा ॥ ५ ॥ हे गौतम! स गच्छः स्यादितिः । ग०२ अधिः। (परिग्रह स्यक्तपुत्रकलत्रस्य, मूर्खामुक्तस्य योगिनः । विषया दर्षिका कल्पिका च प्रतिसेवना 'मूल गुण पडिसव. चिन्मात्रपतिबन्धस्य, का पुद्गलनियन्त्रणा ॥६॥ णा' शब्दे वक्ष्यते ) अररिप्रहाभ्यासवतश्च जनुष उपस्थि- चिन्म.त्रदीपको गच्छेत, निर्वातस्थानसन्निभैः। ति:-"कोऽहमासं, कीदृशः, कि कार्यकारी" इति जिशाला निःपरिग्रहतास्थैर्य, धर्मोपकरणैरपि ।। ७ ॥ यां सर्वमेव सम्यग् जानातीत्यर्थः । न केवलं भोगसाधनपरिग्रह एव परिग्रहः, किंतु आत्मनः शरीरपरिग्रहोऽपि तथा, मूर्खाछिन्नधियां सर्व, जगदेव परिग्रहः । भोगसाधनत्वाच्छरीरस्य,तस्मिन् सति रागानुबन्धाद बहिर्मु मर्छया रहितानां तु, जगदेवाऽपरिग्रहः ॥ ८॥ खायामेव प्रवृत्ती नताविकज्ञानप्रादुर्भावः । यदा पुनः शरी अष्ट०२५ अष्ट। रादिपरिग्रहनरपेचपेण माध्यस्थ्यमवलम्बते तदा मध्यस्थस्य रागाऽऽदित्यागात् सम्यग्ज्ञानहेतुर्भवत्येव पूर्वापरजन्म (नैरयिकाः किं साऽऽरम्भाः सपरिप्रहा इति 'भारंभ' संबोध इति । तदाह-"अपरिग्रहस्थैर्य-जन्मकथन्तासंबोध शब्दे द्वितीयभागे ३६३ पृष्ठे उक्तम् ) इति । (२-३६) ॥६॥ द्वा०२द्वान वहिक सुखैषिणां दासीदा- परिग्गहकिरिया-परिग्रहक्रिया-न०। परियदिक्या क्रियायाम् सधनधान्याऽऽदिपरिग्रहवतां धर्मध्यानं भवतीति । तथा चो | श्रा० चू०४ अ.। कम्-५ ग्रामक्षेत्रगृहाऽऽदीनां गृह क्षेत्रजनस्य च । यस्मिन्परि- परिग्गहमाण-परिग्रहध्यान-न०। परिग्रहो धनधान्याऽऽदि. ग्रहो दृष्टो, ध्यानं सत्र कुतःशुभम् ? ॥१॥" सूत्र०१ श्रु०११ अब रूपस्तस्थ ध्यानम् । गतविभवस्य विभवार्थ चारुदत्तस्पेष इत्थासु सत्ते य पुठो य बाले,परिग्गई चेव पकुव्यमाणे (E) | मुनिपतिमुनिरन्धनकुञ्चिकस्येव दुाने, पातु। (चारुद. त्तकथा ' चारुदत्त' शब्दे तृतीयमागे ११७६ पृष्ठे गला) 'स्त्री' रमणीषु आसक्त अध्युपपन्नः पृथक् पृथक् तद्भापितहसितविब्योकशरीरावयवेष्विति । बालवद् 'बालः' अ. परिग्गहणिविट्ठ-परिग्रहनिवि-त्रिका परि समन्ताद् गृह्यते इति शाः सदसद्विवेकषिकलस्तदवसकतया च नान्यथा-द्रव्यम- परिहो द्विपदचतुष्पदधनधान्यहिरण्यसुवर्गादिषु म Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५७) श्रभिधानराजेन्द्रः । परिहणिविदु मीकारः, तत्र निविष्टः । परिग्रहेषु ममत्वाभिनिविष्टे, सूत्र० १ ० ६ ० । परिग्गहरु परिग्रहरुचि - त्रि० । परिग्रहो रोचते यस्य सः । परिग्रह विषय करुचिशालिनि, प्रश्न० १ सम्ब० द्वार | परिग्गहविरह - परिग्रहविरति स्त्री० । परिग्रहादू विरमणे, “परिग्गहfare पंचिदियनिग्गहं विद्दिणा उजमियन्वं । " म. हा० १ चू० । परिग्गहविरयाविरय परिग्रहविरताविरत - पुं० । श्रनन्तात्परिग्रहाद् चिरते यावत् आकारस्ततोऽविरते, श्रा००६ श्र० परिग्गहवेरमण - परिग्रहविरमण - न० । परिग्रहाद् विरती, परिग्रहस्य शपरिज्ञया ज्ञानेन प्रत्याख्यान परिक्षया त्यागे, तथाणुमहद्भेदेन द्विविधम् । तत्र श्रणु श्रावकाणाम् इच्छापरिमाणाSSख्यम् | पं० व० ४ द्वार । ( इच्छापरिमाण' शब्दे द्वितीयभागे ५७७ पृष्ठादारभ्य सातिचारं व्याख्यातम् ) " एगे परिग्गहवेरमणे ।" स्था० १ ठा० ॥ श्र०चू० । ध०र० । था० । श्राव० | तयाऽंतरं च णं इच्छापरिमाणं करे, हिरम्मसुवष्मविहिपरिमाणं करेs | सरथ चउहिं हिरसकोडीहिं खिहाणपचाहिं चउहिं बुद्धिं पत्ताहिं, चउहिं वित्वरमाणं पत्ताहिं, अवसेसं सव्वं हिरसुविहिं पञ्चक्खामि । तयाांतरं च ं चउप्पयत्रीहिपरिमाणं करेइ । मत्थ चउहिं वएहिं दसगोसास्सिएणं वयं श्रवसेसं सव्वं चउप्पयविहिं पच्चक्खामि । तयाऽंतरं च गं खेत्तवत्परिमाणं करेइ त्थ पंचहिं हलस एहिं शियत्तणसइएहिं हं श्रवसेसं सव्वं खेत्तवत्युं पच्चक्खामि । तयाऽयंतरं च णं सगडविहि परिमाणं करे | मत्थ पंचहिं सगडसएहिं दिसाजत्तिएहिं पंचहिं सगडीसएहिं संवहणिएहिं अवसेस सव्वं सगडविहिं पच्चक्खामि । तयाऽयतरं च गं वाहणविहिपरिमाणं करे | sत् चहिं वाहणेहिं दिसाजत्तिएहिं चउहिं वाहणेहिं संवाहणिrit अवसेस सव्वं वाहणविहिं पञ्चक्खामि । उपा० १ अ० । महन्महाव्रतिनां साधूनां सर्वस्मात् परिग्रहाद् विरमणम् । स्था० १० ठा० । “ परिग्रहस्य सर्वस्य सर्वथा परिवर्जनम् । श्राञ्चित्यवतं प्रोक्त-मर्हद्भिर्हितकाङ्क्षिभिः ॥ १ ॥ " धः २ श्रधि० । दश । पा० । श्रस्य प्रश्नव्याकरणोक्तदशानां पञ्चमेऽध्ययने इत्थं प्रतिपादनम्जंबू ! अपरिम्यहं संबुडे य समणे आरंभपरिग्गहाओ विरते, विरते कोहमाणमाया लोभा । जम्बूरित्यामन्त्रणे, अपरिग्रहो धर्मोपकरणवर्जपरिग्राह्यवस्तुधर्मेपकरण मूर्च्छ परिवर्जितं तथा संवृतश्चेन्द्रियकबायसम्वरणे यः स तथा स च श्रमणो भवति । चकाराद् ब्रह्मवर्याssदिगुणयुक्तश्चेति । एतदेव प्रपञ्चयन्नाहआरम्भः पृथिव्याद्युपमईः । परिग्रहो द्विधा बाह्यः श्रभ्यन्तर१५० For Private परिग्राहवेरमण " च श्च । तत्र बाह्यो - धर्मसाधनवज्र्ज्यो. धर्मोपकरणमूर्च्छा च । श्रान्तरस्तु - मिथ्यात्वाविरतिकषायप्रमाददुष्टयोगरूपः । श्राह 'पुढवाइस आरम्भो, परिग्गह। धम्मलाहणं मोतुं । मुच्छा य तत्थ बज्भो, इयरो मिच्छत्तमाईश्रो ॥ १ ॥ इति । श्रनयोश्ध समाहारद्वन्द्वः । श्रतः तस्माद्विरतो निवृत्तो यः सः, श्रमण इति वर्तते तथा विरतो निवृत्तः क्रोधमानमायालोभात् । इह समाहारद्वन्द्वत्वादेकवचनम् । י, अथ मिथ्यात्वलक्षणाऽऽन्तरपरिग्रहावेरतत्वं प्रपञ्चयन्नाह - एगे असंजमे, दो चैव रागदोसा, तिष्टिय दंडा, गारवा य, गुत्ती तिथि, तिरिय य विराहणाओ, चत्तारि कसाया, भासणा विगहा तहा य हुंति चउरो, पंच किरियाओ समितिइदियमहव्वयाई य ५, छञ्जीवनिकाया छच्च लेसाओ, सत्त भया. अट्ठ मया नव चैव य बंभचेरगुत्ती, दसपकारे य मम्मे, एक्कारस उवासमा गं, वारस भिक्खुपडिमा तेरस किरियाहागाए, चउदस भूयशामा १४, पारस परमामिया १५, सोलस गाहासोलसा य १६, असंजम १७ अरंभ १८ गाय १६ असमाहिट्ठाणा २० सवला य २१ परीसहा य २२ सूयगडज्झयणा २३ देव २४ भावणा २५ उद्देस २६ गुण २७ कप्प २८ पात्रस्य २६ मोहणिजे ३० सिद्धातिगुणा य ३१ जोगसंगह ३२ विधीसाssसायया ३३ सुरिंदा, आदि एकाइयं करेता एरिया बुड्डिएस वीसा जाव य भवे तिकाहिका वरतीय क्रिती य अधेसु य एवमादिएसु बसु ठाणे जिपसत्थेस अतिसु सासयभावेसु - arry संकं खं निराकरिता सद्दहति सासणं भगवंतो दा अगार अलद्धे श्रमूढे मणवयणकायगुत्ते । अपरिग्रह संवृतः श्रमण इत्युक्रम्। अधुनाऽपरिग्रहत्वमेव प्रक्रान्ताध्ययनाभिधेयं वर्णयन्नाह जो सो वीरवर तिपबित्थरबहुवि पगारो सम्पत्तविद्धमूलो धिविदो वियवेो निग्गयतेल्लोक विपुल जसनिचियभी पीवर सुजायखंध पंचमहव्वयविसालसाला भावणातयंतज्झाणसुभगजोगनाथपल्लववरंकुरधरो बहुगुणकुसुमसमिद्धो सीलसुगंध हवफलो पुणो य मोक्खवरवीयसारो मंदरगिरिसिहरचूलिया इव इमस्स मोक्खवरमुत्तिमम्णस्स सिहरभूय संवरवरपायवो चरिमं संवरदारं । ( जो सोत्ति ) योऽयं वक्ष्यमाण विशेषणः सम्वरवरपादपः, चरम संवरद्वारमिति योगः । किंभूतः सम्बरवरपादपः १, इ त्या वीरवरस्य श्रीमन्महावीरस्य यद्वचनमाज्ञा ततः स काशाद्या विरतिः परिग्रहान्निवृत्तिः सैव प्रविस्तारी यस्य सम्बरपादपस्य स तथा बहुविधोऽनेकप्रकारः स्वरूपविशेपो यस्य स तथा तत्र सम्बरपक्षे बहुविधप्रकारत्वं विधि Personal Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गहवेरमण अनिधानराजेन्द्रः। परिग्गहबेरमण विषयापक्षया,क्षयोपशमाखदपेक्षया च पादपपक्षे च मूलक- सुवर्णक्षेत्रवस्तु,परिकल्पते परिगृहीतुमिति प्रक्रमःनि दासीदाऽऽदिविशेषापेक्षयेति। ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः । सम्य- दासभृतकप्रष्यहयगजगवेलकं वारदास्यादयः प्रतीतान याकत्वमेव सम्यग्दर्शनमेव विशुद्धं निर्दोषं बद्धं मूलं कन्दस्या:- नयुग्यशयनाऽऽसनानि,यानं रथाऽदिकं,युग्यं वाहनमात्रं, गोधोवर्ति यस्य स तथा।धृतिः वित्तस्वास्थ्यं सैव कन्दः स्कन्दा- लकदेशप्रसिद्धो वा जम्पानविशेषः। न छत्रकमातपवारणं,न धोभागरूपो यस्य स तथा । विनय पव वेदिका पार्श्वतः कुण्डिका कमण्डलू, नोपानही प्रतीतौ. न पेहुणब्यञ्जनता. परिकररूपा यस्य स तथा । (निग्गयतेल्लोक ति) प्राकृत- लवृन्तकानि. पेहुणं मयूरपिच्छं. व्यजनं वंशाऽऽदिमयं तालस्वात्यैलोक्ये निर्गतं त्रैलोक्यनिनतं भुवनत्रयव्यापकमत एव वृन्तकं व्यजनविशेष एव न चापि च यो लोहं,अपुकं वङ्गं विपुलं विणिं यद्यशः ख्यातिस्तदेव निचितो निविडः तानं शुल्वं सीसकं नाग.कांस्यं त्रपुकताम्रसंयोगजं,रजतं रूपीनं स्थूलं पीचरो महान् सुजातः सुनिष्पन्नः स्कन्धो यस्य प्यं,जातरूपं सुवर्ण,मणयश्चन्द्रकान्ताऽऽद्याः, मुक्ताऽधारपुटकं स तथा। पञ्चमहावतान्येव विशालाः विस्तीर्णः शाला:शा- शुक्तिसंपुटं,शङ्खः कम्बूः दन्तमणिः प्रधानदन्तो हस्तिप्रभृखा यस्य स तथा। भावनैवानित्यत्वाऽऽदिविन्ता त्वक् वल्कलं तीनां. दन्तजो वा मणिः, शृङ्गं विणणं,शैलः पाषासः। पागयस्य वाचनान्तरे-भावनैव त्वगन्तो वल्कलावसानं यस्य स न्तरेण-" लेस त्ति" तत्र श्लेषः श्लेषद्रव्यं, काचवरःप्रधानतथा। ध्यानं च धर्मध्यानादि शुभयोगाश्च सद्यापारा ज्ञानं काचः, चेलं वस्त्रं, चौजिनमेतेषां द्वन्धः। तत एषां सक्कानि च बोधविशेषः तान्येव पल्लववराङ्कराः प्रबालप्रवरप्ररोहाः यानि पात्राणि भाजनानि तानि तथा महाोणि महा_नि, तानि धारयति यः स तथा। ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः । बहुमूल्यानीत्यर्थः परस्याऽन्यस्याध्युपपातं च ग्रहण काग्रचिबहवो ये गुणा उत्तर गुणाःशुभफलरूपाःत एव कुसुमानि तैः त्ततां लोभं च मून्छौं जनयन्ति यानि तानि अध्युपपातलो. समृद्धो जातिसमृद्धिर्यस्य स तथा। शीलमहिकफलानपे भजनानि (परियट्टिउंति) परिकर्षयितुं वा, परिपालयितुक्षप्रवृत्ति स्वसमाधानमेय वा सुगन्धः सद्गन्धो यत्र स मित्यर्थः। न कल्पन्त इति योगः (१)। तथा । ( श्रणराहवफलो त्ति ) अनाश्रयो नवकर्भानुपा- गुणवो न यावि पुप्फफलकंदमूलाऽऽदिकाई सणसत्तदानः स एव फलं यस्य स तथा । पुनश्च पुनरपि माक्ष रसाई सव्यधामाई तिहिं विजोगेहिं परिघेत्तुं ओसहभेसज्जएवरीमा मिसालक्षण: सारी यस्य स तथा। मन्दरगिरिशिषरे मरुधराधरशिखरे या चूलिका चुडा सा भोयणट्टयाए संजएणं (२)। तथा सा इव, अस्य प्रत्यक्षस्य, मोक्षपरे धरमोक्षे भावप्रोक्ष किं कारणं अपरिमिपणाणदंसणधरोहिं सीलगुणसकलकर्मक्षयलक्षणे गन्तव्ये, मुक्तिरेव निर्लोभतैव मार्गः प- विणयतवसंजमनायकहिं तित्यंकरहिं सबजगजीववन्था मोक्षवरमुक्तिमार्गस्तस्य शिखरभूतः शेखरकल्पः । को च्छलहिं तिलोयमाहिएहिं जिणवरिंदोह एस जोणी जंत्रउसायित्याह-सम्बर एवाऽऽश्रवनिरोध एव वरपादपः प्रधा. माणं दिट्ठा, न कप्पइ जोणी समुच्छेदो ति तेण वज्जति नद्रुमः सम्वरवरपादपः; पञ्चप्रकारस्यापि संवरस्य उक्तवरूपे सत्यपि प्रकृताध्ययनमनुसरन्नाह चरम पश्चम सम्बरद्वारम् । समणसीहा । जं पि य ओदणकुम्मासगंजतप्पणमं|जियश्राश्रवनिरोधमुखमिति पुनर्विशेषयन्नाह पललसूपसकुलिवेग्मिवरसंखचुप्सकोसगापिंडसिहरणीवगजत्थ न कप्पड़ गामाऽऽगरणगरखेडकवडमडंबदोणमुहए- मोयकखीरदहिसप्पिनवणीयतेल्लगुडखंडमच्छंडितमधुमजट्टणाऽऽसमगयं वा किंचि अप्पं वा कई वा अणं वा शूलं वात- मसखज्जावंजणविहिमाइकं पणितं उवस्सए परघरे वऽरले सथा रकायदबजायं मणसा वि परिघत्तूण हिरम सुवाणखे- न कप्पइ तं पि संनिहिं काऊण सुविहियाणं (३)। त्तपत्थू न दासीदासभयकपसहयगयगवलगं वाण जाणजुग- (गुणवउत्ति)गुणवतो मूलगुणदिसम्पन्नस्येत्यर्थः। न चा. सयणासणाई न छत्तकंन कोडिंका न उवाणहे, न पेहुणवीय- ऽपि पुष्पफल कन्दमूलाऽदिकानि सणः सप्तदशो येषां बीह्या दीनां तानि तथा सण-सप्तदशकानि, सर्वधान्यानि, त्रिभिरपि णतालियंटका ण यावि अयतउयतंबसीसकंसरययजायरूव योगःमनाप्रभृतिभिः परिग्रहीतुं कल्यन्ते इति प्रकृतमेव। किम मणिमुत्ताधारपुडकसंखदंतमणिसिंगसेलकाचवरवेलचम्मप- मित्याह-औषधभेषज्यभोजनार्थाय-तत्रौषधमेकाङ्गं, भैषज्यं ताईमहारिहाई परस्स अन्कोवबायलोभजणणाई परिय- द्रव्यसंयोगरूपं. भोजनं प्रतीतमेव। (संजपणं ति) विभक्तिट्टिउं (१)! परिणामात् संयतस्य साधोः (२)। किं कारणं को हेतुरकयल चरमसंवरद्वारे परिग्रहविरमणलक्षणे सति,न कल्पते न ल्पने? उच्यते-अपरिमितज्ञानदर्शनधरैः सर्वविद्भिःशीलं सयुज्यते, विहानुभिति सम्बन्धः । किं तदित्याह-ग्रामाSS. माधानं गुणाः मूलगुणाऽदयो. विनयोऽभ्युस्थानाऽदिकः,त. करनगर खेटकाकर्वटमडम्बद्रोणमुखपत्तनाश्रमगतं वा । ग्रा पः-संयमौ प्रतीती, तानयान्त वृद्धि प्रापयन्ति ये ते तथा. तै. माऽऽदिव्यास्थानं पूर्ववत् । वाशब्द उत्तरपदापेक्षया विकल्पा-1 स्तीर्धकरैः शासनप्रवर्तकः, सर्वजगजीववत्सलैः सर्वैस्त्रैथः। किाञ्चीदत्यानर्दिधस्वरूपं सामान्यं सर्वमेवेत्यर्थः । अल्पं वा लोक्यमाहितैर्जिनाश्छद्मस्थवीतरागाः तेषां वराः केवलिनस्वलातः बहु वा मूल्यतः। एवं (अणुं वा ) स्तोकं प्रमाणतः, स्तेषामिन्द्रास्तीर्थकरनामकर्मोदयवर्तित्वाद्ये ते तथा, तैः, स्थूल वा महत्प्रमाणतः। (तसथावरकायदग्वजायंति) त्रस. एषा पुष्फफलधान्यरूपा, योनिरुत्पत्तिस्थानं जगतां कायरूपं शताऽऽदिसचेतनमचेतनं वा एवं स्थावरकायरूपंर-| जङ्गमानां. असानामेत्यर्थः । दृष्टोपलब्धा केवलज्ञानेन, तक्षाऽदि द्रव्यजातं वस्तुसामान्यं मनसापि चेतसाऽपि प्रास्तां तश्च न कल्पते न सङ्गच्छते, योनिसमुच्छेदो योनिध्वंकायन,परिग्रहीतुं स्वीकर्तुम् । एतदेव विशेषेणाऽऽह-न हिरण्य- सः, कर्तुमिति गम्यते । पारग्रहे औषधाऽऽशुपयोगे च तेषां Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५६ ) अभिधानगजेन्द्रः परिवेरमक सोऽवश्यं भवतीति । इति शब्द उपदर्शने येनेयं तेन यति परिद्द रन्ति, पुष्पफलधान्यग्रहण भोजनाऽऽदिकम् । के ? श्रमसिंहामुनिः नितिन करते संनिधी सुविदितानामिति सम्बन्धः तल धोना फू कुल्पाषा माषाः, ईषत् स्विम मुद्राऽऽदय इत्यन्ये । (गंज त्ति) भोज्यविशेषः तर्पणाः शक्लवः (मंथु त्ति) वदराऽऽदिचूर्णः (भुंजियत्ति) धानाः (पलल ति) तिलापेष्टं, सूपो मुद्राऽऽदिविकारः शष्कुली तिलपटिका, पेटिमा च प्रतीता परशा चूर्ण कोशकानि च दिगभ्यानि पिएडा पिडा शिखरिणी गुडमियं दधि. वह सि) घनीभूतं तीवनं मोदका लडकाः। शीरं दाव व्यक्रम सर्पिः पूर्व नवनीतं तैलंगु. खण्डं च कंठ्यानि । मत्स्यरिडका खण्डविशेषः. मधुमद्यमांसानिप्रतीतानि बायकानि प्रतीतानि व्यञ्जनातिकाऽऽदीनि शालकानि या तैयां ये विषया प्रकारास्तेषामने कम्पजनपि धयस्तत एतेषामोदनाऽऽदीनां द्वन्द्वः । तत एते श्रदिर्यस्य तत्तथा । प्रणीतं प्रापितं उपाश्रये, वसतौ, परगृहे वा, अरण्ये. अटव्यां न कल्पते न छते तदपि सनिधीक स सुतानां परितपरिवर्जनेन नानुष्ठाना नां. सुसाधूनामित्यर्थः आह च विडमुझे (1) इमं लो तेशं सप्पि च फाणियं । ए ते संनिहिनिच्छंति, नायपुत्तवररश्र " ॥ १ ॥ इति । (३ ।। जं पिय उद्दिविरचितकपञ्जर जातपकिपाकरणपामि मीस कीयकडे पाहु वा दास पुपन सम वणी गट्टयाए वा कयं पच्छाकम्मं पुरेकम्मं निसिकमुदकमक्खियं अरितं मोहरं सर्प गाहमाहई मट्टिओवलितं अच्छि चैव असिद्धं जं तं तिहिसु जमेसु उस्सवेसु यतो वा बहिं वा होज्ज समणट्टयाए ठवियं हिंसासारजपउन कप्पर तं पि य परिपेत्तुं ( ४ ) । यदपि चोद्दिष्टाऽऽ दिरूपमोदनाऽऽदिन कल्पते तदपि च ग्र हीतुमिति सम्बन्धः । उद्दिष्टं यावदधिकान् पापनि धम णान् साधूनुद्दिश्य दुर्भिक्षोपगमाऽऽदौ यद्भिक्षावितरणं तदौ देशिक टिम् आह च-" उद्दिसिय साहुमाई, श्रमे चिय भिषणवियरणं " इति स्थापितं प्रयोजने वाचित एह स्थेन च तदर्थे स्थापितं यत्तत् स्थापितम् । श्राह च "सो हो ही सियखीरा इठावणं ठवण साहुए ऽट्ठाए। " रचितकं- मोद कचूर्णाऽऽदि साध्वाद्यर्थ प्रताप्य पुनर्मोद काऽऽदितया विरचितम् श्रदेशिमेोभ्यं कम्म निधान उपजातं पचो जाती पत्र तत्पर्यजातं राऽऽदिकमुद्वरितं द प्यादिना मिजितं करण्याऽ देकं पथोयान्तरमापादितम स्वर्थः अब मध्यौदेशिकमेकृताभिधान उच विच्छर्दितं परिसाठीत्यर्थः । श्रनेन नवच्छर्दिताभिधान एवणादोष उक्त 1. ( प्राउकरणं ति ) प्रादुः क्रियते अन्धकारादपवर missदेः साध्वर्थे बहिष्करणेन दीपमण्यादिधरणेन वा प्रकाश्यते यस प्रकरणमरानाऽऽदि आच I धारे, व गवक्खकरणा पाउड करणं तु । " (पामिच्वं ति) श्र पमित्यकम् उत्पमुत्रमित्यर्थः स चायं जं साहू - मट्ठा उच्छिदिउं विं पाविति ।" इति । एषां च समा हार: । (मीसक तसर्थ स्था परिग्गदवेरमण दित उपस्कृतम् । श्रह च-" पढमं चिय गिहिसंजय-मीसोarasis मीसं तु । ” (कीयगड त्ति ) श्रीतेन क्रमेण कृतं साबुदानाय श्रीतकृतम् । आह च" दवाइपाहि किणणं साहूणड्डाए कीयं तु पाहुडं वा । " प्राभृति केत्यर्थः । लक्षणं वेदम्-" सुमेर व सोपा डिया। ततः पदत्रयस्य समाहारद्वन्द्वः । चशब्दः पूर्ववा कमर्थः दानप्रय यस्य तद्दानार्थ पुरुषार्थ प्रकृतं साधितं पुण्यप्रकृतम् । पदद्वयस्य द्वन्द्वः । तथा श्रमणाः पञ्वविधाः - " निम्थमुत्ततापस गेरुय श्राजीव पंवहा स मणा । " बनीपकाश्च तर्कुकास्त एवार्थ प्रयोजनं यस्य त तथा तद्भावस्तत्ता तया । वा विकल्पार्थः । कृतं निष्पादितम् इह कधिदाता दानमेवा ऽऽलम्बते दातव्यं मयात अम्ब स्तु पुण्यं मम भूयादित्येवम् अन्यस्तु श्रमणान् अन्यस्तु वनीपकानति चत्वारोऽपि श्रदेशिकस्य भेदा एते उक्ता इति । (पाकम् ति) पचादानानन्तरं कर्म भाजनभावनाऽऽदि यत्रानादी तत्वात्कर्म (पुरेकम् ति पुरी दाना 5. 35 कर्म स्थापनादि यत् तत्पुरुकर्म ( वित्तियंति ) नैत्यकं सार्वदिकमवस्थितं मनुष्यपोपादिमान्डर कति उदकाऽऽदिना संसृष्टम् । बदाइ "मि यमुदगाणा उ जं जुनं " श्रयमेषणादोष उक्तः । ( श्रतिरिति तास फिर कपला आहारो कुचलपूर 66 ) मणिमो पुरिसस मदिलिमार, बट्टावी भवे कला ॥ १ ॥ ” एतप्रमाणातिक्रान्त मरिरिक्रम । श्रयं च मण्डली दोउक्तः । ( मोहरं ति) मौस पूर्व संस्तवः पश्चात् सं. चादिना बहुभाषित्वेन यज्ञभ्यते तमोवरम् अव त्पादनादोष उक्तः ( सयं गाति ) स्त्रयमात्मना दतं गृहाते यत् तत् स्वयंमाहम् भयमपरिणतानिदोष उक्तः, दायकस्य दाने अपरिणतत्वादिति । ( श्राहडं ति ) स्वमामाssदेः साध्वर्धमानीतमाहृतः । श्रह "सग्गामपरगाम मार्णीयं, आह ततं छोइ । ” ( महिउबलित्तं ति) उपलक्षवारकृतिका ग्रहणस्य मृतिका गोमयाऽऽदिना उपलितं सत् यद्भिद्य ददाति तं मृतिको गलत उद्भिरियर्थः । शाद-मारोपलितं दिजं समुन्धि" ति) आच्छेयं यदादित्यादिभ्यः स्वा मी ददाति । श्राह च " अच्छिनं श्रच्छिदिया जं सामी भिमाईणं । " अनिसृएं बहुलाधारणं सत् यदेक एव ददाति । श्राह च - अशिल सामनं, गोडियम साइ ददउ एगस्त ।" एतेषूदिष्टा ऽऽदिषु यत् माय उद्गमदोवा उक्ताः। तत्मायः निपततिथि मनोदश्यादिषु यजेषु नागारि ag कोरसादिषु अन्धदेहिर्या उपायात् भवेत् मणार्थे त्थापितं दानायोयस्थापितं हिंसालाएं यत् सावयं तत्सम्प्रयुद्धं न कल्पते तव पर)। यह केरिस पुणे तं पति है। जं तं एकारसपिंडवाय सुद्धं किrataणपय एकय कारियाएं मोगणनवकोडीहिं सुपरिशुद्धं दहिय दोसे है विप्यमुकं उपउपायऐसणार सुद्धं ययुपपचतच फा पवन मोगमा विगयधूमं श्राशनिमितं कायप रिखगड़ा दिये दिखे फामुकेश भिक्लेश महिय ( 1 ) | Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिगहयरमण अनिधानराजेन्मः। परिगहवेमण अथेति परप्रश्ने । कीदृशं किंविधं (पुणो इति) पुनः तत् खानुबन्धलक्षणो यस्य तत्तथा तत्र, महद्भयं यस्मात्तन्मकल्पते संगच्छते परिगृहीतमोदनाऽऽदीनि प्रकृतम्। उच्यते. हाभयं तत्र,जीवितान्तकरणे सर्वशरीरपरितापनकरणे, न क. यत्तदेकादशपिएडपातशुद्धम्-श्रावाराणस्य द्वितीयश्रुतस्क- ल्पते न युज्यते,तादृशेऽपि रोगाऽऽतङ्कायौ,यादृशो न सोहुँ न्धप्रथमाध्ययनस्यैकादशभिः पिण्डपाताभिधायिकैरुद्देशेर्विः | शक्यते (तह त्ति) तेन प्रकारेण पुटाऽऽलम्बनम् विनाशाssशुद्धं तदुक्तदोषविमुक्तं यत्तत्तथा । तथा ऋयणं मूल्येन ग्रहणं, लम्वनस्य पुनः कल्पत एव । यतः- काहिं अतित्ति, अदुवा हननं विनाशनं.पचनं चाग्निना पाक इति द्वन्द्वः। एषां यानि अहीहं, (१) तयोयहाणेसु य उज्जमिस्सं । गणं व नीईए उ कृतकारितानुमोदनानि स्वयंकरणकारणानुमतयः तानि सारविस्सं, सालंबसेधी समुवह मोक्खं ॥१॥" आत्मने तथा, ता एव नवकोट्यो विभागा इति समासः; ताभिः सु. परस्मै वा निमित्तम्, औषधं भेषजं,भक्तं पानं च,तदपि सन्निपरिशुद्धं निर्दोषम् । दशमिश्च दोषैर्विप्र मुक्तम् तेच शकिताऽऽ. धिकृतं सञ्चयीकृतम् , परिग्रहविरतत्वात् (६)। दय एषणादोषाः। उद्गम प्राधाकर्मादिषोडशविधः,उत्पादना जंपिय समणस्स सुविहियस्स तु पडिग्गहधारिस्स भवइ धाव्यादिषोडश विधैव,पतत् द्वयम्.एषणा गवेषणाभिधाना. भायणभंडोवहिउवकरणपडिग्गहो पायबंधणपायकेसरियाउद्मोत्पादनैषणा, तया शुद्धम् । (ववगयचुयचइयचत्तदेह पायहवणं च पडलाई तिमि च रयत्ताणं गोच्छो तित्रिय च ति) व्यपगतमोघतश्चेतनापर्यायादचेतनत्वं प्राप्त,च्युतं जीघनाअदिक्रियाभ्यो भ्रष्ट,च्यावितं तेभ्य एव श्रायुःक्षयेण भ्रंशि पच्छगा रओहरणचोलपट्टकमुखणंतकमादीयं (७)। तं,त्यक्तदेहं च त्यतजीवसंसर्गसमुत्थशक्लिजनिताऽऽहाराss एय पि य संजमस्स उवहिणड्डयाए वायाऽऽनवदंसमसगदिपरिणामप्रभवापचयं यतत्तथा, चः समुश्चये, प्रासुकं व सीयपरिरक्खण्याए उवगतणं रागदोसरहियं परिवहियवं निर्जीवमित्येतत्पूर्वोक्तस्यैव व्याख्यानम् । कल्पते प्रहीतुमिति संजएण णिचं (८)। प्रक्रमः । तथा व्यपगतसंयोगमनङ्गारं विगतधूमं चेति पूर्ववत् । षट् स्थानकानि निमित्तं यस्य भैल्यवर्तनस्य तत्तथा। यदपि च श्रमणस्य सुविहितस्य, तुशम्दो भाषामात्रे पततानि चामूनि- यण १ वेयावच्चे, २ हरियट्ठार व ३ संजमा ग्रहधारिणःसपात्रस्य सम्भवति,भाजनं च पात्रं,भाण्डं मृन्मटाए ४। तह पाणवत्तियाए ५. छठं पुण धम्मचिताए ॥१॥" यं तदेव,उपधिश्च औपधिकः,उपकरणं चौपग्रहिकम् । अथवाहाते । षटकायपरिरक्षणार्थमिति व्यक्तम्-(विणे दिणे ति) श्र. भाजनं च भाण्डं चोपधिश्चेत्येवंरूपमुपकरणं भाजनभाण्डोहनि २, प्रतिदिनं, सर्वदाऽपीत्यर्थः । प्रासुकेन भक्ष्येण भिक्षा पध्युपकरणम् तदेवाऽऽह-पतगृहं पात्रं, पात्रबन्धनं पात्रब. समूहेन, वर्तितव्यं वृत्तिः कार्या (५)। न्धःपात्रकेशरिका पात्रप्रमार्जनपत्तिका,पात्रस्थापनं यत्रक म्बलखराडे पात्रं निधीयते.पटलानि भिक्षाऽयसरे पात्रप्रच्छादजं पिय समणस्स सुविहियस्स उरोगाऽऽयंके बहुप्पगा कानि वस्त्रखण्डानि। तानि च यदि सस्तोकानि तदा त्रीणि रम्मि समुप्पो वायाहिकपित्तसिंभाइरित्तरियतहसंमि- भवन्ति अन्यथा पश्च सप्त वेति।रजस्त्राणंच पात्रवेएनंचीवरं, वायजाते तह उदयपत्ते उज्जलबलविउलकक्खापगाढदुक्खे गोच्छकः पात्रवस्त्रप्रमार्जनहेतुः कम्बलश कलरूपः, त्रय पव असुहकडुयफरुसचंडफलविवागे महन्मए जीवियंतकरणे प्रच्छ है। द्वौ सौत्रिकी,तृतीय श्रेणिका,रजेाहरणं प्रतीतं, चो. लट्टकः परिधानवस्त्रं मुखानन्तकं मुखवत्रिका। एषांद्वन्द्वः। सधसरीरपरितावणकरणे न कप्पइ तारिसे वि तह अप्पयो तत एतान्यादिर्यस्य तत्तथा (७)। एतदपि च संयमस्योपपरस्स व ओसहमेसजभत्तगाणं च तं पि समिहिकयं (६)। बृंहणार्थ सुपष्टम्भार्थ, न परिग्रहसंज्ञया। श्राह च "जंपिव. तथा-यदपि च औषधाऽऽदि, तदपि संनिधिकृतं न कल्पत स्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । तं पिसंजमल जट्ठा, धा. इत्यक्षरघटना। कस्य न कल्पते ?, इत्याह-श्रमणस्थ साधोः रेती परिहरंति य॥१॥" परिभुजत इत्यर्थः । “न य सो प. सुविहितस्य पार्श्वस्थाऽऽदे, तुर्वाक्यालङ्कारे । कस्मिन् सती- रिगहो बुत्तो. नायपुत्तण तारण। मुच्छा परिग्गहो बुतो, त्याह-रोगाऽऽतके रोगो ज्वरादिः, स चासाबातश्च कृच्छ- इइ वुत्तं महेसिण। ॥१॥" अस्मद्गुरुणेत्यर्थः। तथा वाताजीवितकारी रोगाऽऽतङ्कः, तत्र, बहुप्रकारे विविधे, संमुत्पन्ने ऽऽतपदंशमशकशीतगरिरक्षणार्थतया उपकरणं रजोहरणाजाते. तथा (वायाहिक त्ति) वाताऽऽधिक्यम् । पिलि- ऽऽदिकं रागद्वेषरहितं यथा भवतीत्येवं परिवोढव्यं परिभो. भाइरित्तकुविय ति) पित्तसिंभयोर्मायुश्लेष्मण रतिरिक्त. नव्यं संयतेन नित्यम् (८)। पितमतिरेककोपः पित्तलिभातिरिक्तकुषितम्। तथेति तथाप्र- पडिलेहणपप्फोडणपमज्जणाए अहो य राओ य अप्पमकार औषधाऽऽदिविग्यो यः सन्निपातो वातादिप्रयसंयो तेणं हुंति सययं निक्खिवियव्वं च गिरिहयवं च भायगः,जातः स तथा। ततः पदत्रयस्य द्वन्दकत्वमा ततस्तत्र वा सति । अनेन च रोगाऽऽतङ्कनिदानमुकम् । तथा उदयप्राते उ. यणभंडोवहिं उवकरणं । एवं से संजए विमुत्ते निस्संयो दिते सति । केत्याह-उज्ज्वलं सुखलेशमलवर्जितं बलं बलव निप्परिग्गहरुई निम्ममे निसिनेहबंधणे सधपावविरए वासीत् कष्टोपक्रमणीयं विपुलं विपुल कालवेयं, त्रितुलं वा श्रीन् चंदणसमाणकप्पो समतिणमणिभुत्तले टुकंचणसमे समे य . मनःप्रभृतीन् तु जयति तुलामारोपयति कटावस्थां करोती- माणावमाणणाए समियरए समियरागदोसे समिते समिति त्रितुलं कर्कश कर्कशद्रव्यमिवानिएं,प्रगाढं प्रकर्षवत् यत् दुःखमसुखं तत्तथा तत्र । किंभूते ?,इत्याह-अशुभः असुखो इसु सम्मद्दिट्टी समे य जे सव्वपाणभूएसु से हु समणे सुयवा कटुकः, कटुकद्रव्यमिवानिष्टः, परुपः परुषस्पर्शद्रव्यमि धारए उज्जुए संजए सुसाहू सरणं सधभूयाणं सव्यजगवानिष्टः, एवं चण्डो दारुणः फल धिपाकः कार्यनिष्ठो दुः- वच्छले सच्चभासके य संसारते विते य संसारसमुच्छिन्ने Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गहवरमण अभिधानराजेन्धः। परिगाहवेरमा सययं मरणाणं पारए पारके य सव्वेसि संसयाणं पवय- भासरासिछन्नेव जाततेए जलिययासणो विव तेयसा णमायाहि अट्टाहं अट्ठकम्मगंठीविमायके अहमयमहणे स- जलते गोसीसचंदणं पि व सीयले सुगंधी य हदए विव समयकुसले य भवइ (६)। समियभावे उग्धसियसुनिम्मलं आयसमंडलतल व पाएवमारिमहतास्य भवति । श्राह् च-"अज्झत्तविसोहीए. | गडभावेण सुस्सभावे सोंडीरो कुंजरो व वसभो व जायउवकरणं बाहिरं परिहरंतो। अपरिग्गहो ति भणितो. जिरंग। हि तेलोकदसीहि ॥१॥" तथा-प्रत्युपेक्षणं चक्षुषा निरीक्षणं, थामे सीहो व जहा मिगाहिवे इइ होइ दुप्पधरिसे (१०)। प्रस्फोटनम् श्रास्फोटनम् आभ्यां सह या प्रमार्जना रजोहरणा. सुखदुःखनिर्विशेषो, हर्षाऽऽदिरहित इत्यर्थः। (अम्भितरबा. दिक्रिया सातथा,तस्याम्। (अहोय राओ यत्ति) रात्रिन्दि- हिरे त्ति) आभ्यन्तरस्यैव शरीरस्य कार्मणलक्षणस्य तापकबम अप्रमत्तेनाप्रमादिना भवान्त.सततं निक्षप्तव्यं च मोक्तव्यं, त्वादभ्यन्तरं प्रायश्चित्ताऽऽविविधं, चाह्यस्याप्यौदारिकल प्रहीतव्यं चेति । किं तदित्याह- "भायणभंडोवहिउवकरणं।" क्षणस्य शरीरस्य तापकत्वाद्वाह्यमशनाऽऽदि पडावधम् अनएवमनेन न्यायेन संयतः संयमी, विमुक्लत्यक्तधनाऽऽदिनिःस योश्च द्वन्द्वः तत श्राभ्यन्तरबाह्ये सदा नित्यं तप एव उपकोऽभिष्वङ्गवर्जितः, निर्गता परिग्रहरुविर्यस्य स तथा. नि. धानश्च गुणोपष्टम्भकारि तप उपधानं तत्र च सुष्ठूयुक्तः श्र. मेमो ममेतिशब्दवर्जी, निःस्नेहबन्धनश्च यः स तथा, सर्व तिशयेनोद्यतः, क्षान्तः क्षमावान्, दान्तश्च इन्द्रियदमेन (हि पापविरतः, वास्थामपकारिकायां चन्दने चोपकारके समान- यनिरए त्ति) आत्मनः परेषां च हितकारीत्यर्थः। पाठान्तरेस्तुल्यः समाचारो विकल्पो वा यस्य स तथा, द्वेषरागविर धृतिनिरतः । “इरिए" इत्यादीनि दश पदानि पूर्वोक्तार्थप्र. हित इत्यर्थः। समा उपेक्षणीयत्वेन तुल्पास्तृणमणिमुक्ता यस्य पश्चरूपााण प्रतीतार्थान्येव । तथा त्यागी सर्वसङ्गत्यागात्. स तथा, लोडौ च काश्चने च सम उपेक्षकत्वेन तुल्यो यः स संविज्ञमनाशसाधुदानाद्वा । (लज्जु त्ति) रज्जुरिव रज्जु,सरतथा ततः कर्मधारयः समश्च हर्षदेन्याभावात्,मानेन पूजया लत्वात् धन्यो धनलाभयोग्यत्वात् तपस्वी प्रशस्ततपोयुक्तसहापमाननान्यत्कारो मानापमानना तस्यां शमितमुपशमितं स्वात् । क्षामन्या क्षमते न स्वसामर्थ्यादिति शान्ति क्षमः, रजः पापं रतं वा रतिर्विषयेषु रयो चौत्सुक्यं येन स शमित- जितेन्द्रिय इति व्यक्तम् । शोभितो गुणयोगात्, शोधिदी वा रजः,शमितरयो वा.शमितरागद्वेषः,समितः समितिषु पञ्चपु, शुद्धकारी,सुहद् वा सर्वप्राणिमित्रम् । अनिदानो निदानपरिसम्यग्दृष्टिः सम्यग्दर्शनी,समश्च यः सर्वप्राणिभूतेषु, तत्र प्रा. हारी.संयमात् अहिलेश्याऽन्तःकरणवृत्तिर्यस्य सोऽवहिलेणाद्वीन्द्रियाऽऽदिवसाः भूतानि स्थावराः (सहु समण त्ति)स श्यः, श्रममा ममकारवर्जितः,अकिञ्चनो निद्रव्यः,छिन्नग्रन्धिः एव श्रमण इति वाक्यनिष्ठा।किंभूतोऽसावित्याह-श्तधारकः, कुटितस्नेहः । पाठान्तरत:-"छिन्नसोय ति" छिन्नशोको ऋजुकोऽवक्र , उद्यतो वाऽनलसः. संयतः संयमी, सुसाधुः अथवा छिन्नश्रोताः, तत्र श्रोतो द्विविधम्-द्रव्यश्रोतो, भावसुष्टु निर्वाणसाधनपरः,शरणं त्राणं सर्वभूतानां पृथिव्यादीनां श्रोतश्च । तत्र द्रव्यश्रीतो नद्यादिप्रवाहः । भावधीतश्च रक्षणाऽऽदिना, सर्वजगद्वत्सलो वात्सल्यकर्ता. हित इत्यर्थः । संसारसमुद्रपात्यशुभो लोकव्यवहारः, स छिन्नी येन स सभ्यभाष कश्च. संसारान्ते स्थितश्च (संसारसमुच्छिन्ने त्ति) तथा। निरुपलेपोऽविद्यमान कर्मानुलेपः, एतच्च विशेषणं भा समुच्छिन्नसंसारः सततं सदा मरणानां पारगः सर्वदैव त. विनि भूतबदुपचारमाथित्योच्यते । सुविमलबरकांस्यभाजनस्य न बालाऽऽदिमरणानि भविष्यन्तीत्यर्थः । पारगश्च सर्वे मिव विमुक्ततोयः,श्रमणपक्षे तोयमिव तोयं सम्बन्धदेतः म्नेसंशयानां, छेदक इत्यर्थः। प्रवचनमातृभिरभिः समितिपञ्च. हः (संखे चिव त्ति) शङ्ख इव निरञ्जनः, साधुपक्षे रञ्जनं जीवस्व. कगुप्तित्रयरूपाभिः करणभूताभिरष्टकर्मरूपो या प्रन्थिस्त. रूपोपरञ्जनकारि रागाऽऽदिकं वस्तु अत एवाऽऽह-वीतरागस्या विमोचकोऽष्टमदमथनोऽष्टमदस्थाननाशकः, स्वसमय द्वेषमहिः,कूर्म इव इन्द्रियेषु गुप्तः। यथाहि कच्छपः प्रीवापञ्चकुशलश्च स्वसिद्धान्तनिपुणश्च भवति (१)। भैश्चतुर्भिः पादैः कदाचित् गुप्तो भवतीत्येचं साधुरपीन्द्रियेसुहदुहनिविसेसे अभितरवाहिरम्मि सदा तवोवाहण विन्द्रियाण्याध्रित्येत्यर्थः। जात्यकाश्चनमिव जातरूपः रागा म्मिय सुहज्जुए खैते दंते य हियनिरए इरियासमिए भा. उदितुद्रव्यपोहाल्लब्धस्वस्वरूप इत्यर्थः, पुष्करपत्रमिव पन दलमिव निरुपलेपोभोगगृद्धिलेपापेक्षया,चन्द्र इव सौम्यतया, सासमिए एसणासमिए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए पाठान्तरण-सौम्यभावतया सौम्यपरिणामेन अनुपतापकतउच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणियासमिए मणगु. या, सूर इव दीप्ततेजाः, तपस्तेजःप्रतीत्य, अवलो निश्चलः से वइगुत्ते कायगुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी बाई लज्जू परीवहाऽऽदिभिः, यथा मन्दरो गिरिवरी, मेरुरित्यर्थः । श्रधम्मो तवस्सी खंतिखमे जिइंदिए सोहिए अणियाणे क्षभिः क्षोभवर्जितः, सागर इव स्तिमितः भावकल्लोलरक्षितः। अहिलेस्से अममे अकिंचणे छिन्नगंथे निरुवलेवे मुवि तथा-पृथिवीव सर्वस्पर्शविषहः, शुभाशुभस्पर्शेषु समचित्त इत्यर्थः। (तवसा यत्ति) तपस.ऽपि च हेतुभूतेन भस्मराशिमलवस्कंसभायणं चेव मुक्कतोए संखे विव निरंजणे विग- छन्न इव जाततेजा बलिभावनेह यथा भस्मच्छन्नो वह्निरन्तयरागदोसमोहे कुम्मो इव इंदिएसु गुत्ते जच्चकणगं व जा ज्वलति बहिर्लानो भवतीत्येवं श्रमणः शरीरमाश्रित्य तप. बरूवे पुक्खरपत्तं व निरुवलेवे चंदो इव सोम्मभावयाए सा म्लानो भवति,अन्तस्तु शुभलेश्यया दीप्यत इति ज्वलिमुरो न दित्तत्तेए अचले जह मंदरे गिरिवरे अक्खोभे तहुताशन इव तेजसा ज्वलन्, साधुपक्षे-तेजी शानं, भावत मोविनाशकत्वात्. गोशीर्षचन्दनमिव शीतलो मनःसन्ता. सागरो व्यथिमिये पुढवी विय सव्वफासविसहे तबस्साड य । चोपशमनात, सुगन्धिश्च शीलसागन्ध्यात्. हदक इव नदव Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणहवेस्मण अभिवानराजेन्द्रः । परिगहवरमण सम् एव समिकः समभाचो यस्य स तथा । यथाहि वाताभा- हुके एो चरेज धम्मं । इमं च परिग्गहवरमणपरिरक्षणवे इनः समो भवति अनिम्नोतजलापरिभाग इत्यर्थः । दृयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभाविक तथा-साधुः सत्कारयत्कारयोः अनुन्नतानिम्नभावतया स. मा भवतीति । उद्धृष्टसुनिर्मलमिवाऽदर्शमण्डलतलं, प्रकट आगमेसि भदं सुद्धं नेयाउयं अकुडिल अणुत्तरं सम्बदुक्ख. भावेन निर्मायितया अनिगूहित्तभावेन सुस्वभावः शोभनस्व पावाणं विउसमणं (१२)। रूपः, शुद्धभायो वेति शौण्डीरश्चाऽऽरभटः कुञ्जर इव परीय- जितेन्द्रियो जितपरीषहो यत इति निर्भयो भयरहितः (विहसैन्यापेक्षया वृषभ इव जातस्थामा श्रङ्गीकृतमहाव्रतभारोत- उत्ति) विद्वान् गातार्थः । पाठान्तरेण-विशुद्धो निरतिचारः। हने जातसामर्थ्यः. सिंह इव यथा मृगाधिपः, इति स्वरूप- सचित्तावितमिश्रकेषु द्रव्येषु विरागतां गतः, संचयाद्विरतः, विशेषणं भवति, दुःप्रधृष्टः अपरिभवनीयो मृगाणामेवं सा मुक्त इव मुक्तः, लघुकः गौरव जयत्यागात ,निरवकाङ्क्षः श्रा. धुः परीषहाणामिति ॥१०॥ काङ्क्षार्जितः जीवितमरणयोराशया वाञ्छया विप्रमुफ्तो यः सारयसलिलं व सुद्धहियए भारंडे चेव अप्पमले खग्गिवि-1 स तथा, निःसन्धि चारित्रपरिणामव्यवच्छेदाभावेन निःस निधानं निर्वणं निरतिचारं चारित्रं संयम, धारो बुद्धिमान्, साणं व एगजाए खाणू विव उड्डकाए सुगणागारे व्य अ. श्रक्षोभो वा, कायेन कायक्रियया, न मनोरथमालेण स्पृशन्, प्पडिकम्मे सुमागाराऽऽवणस्संऽतो निवापसरणपदीवज्झा. सततमनवरतमध्यात्मना शुभमनसा ध्यानं यत्तेन युक्तो यः णमिव निप्पकंपे जहा खुरे चेव एगधारे जहा अही चेव स तथा. निधृत उपशान्तः, एको रागाऽऽदिसहायाभावात्, एगदिट्टी आगासं विवणिरालवे विहगे विव समयो वि-| चरेदनुपालयेद्धर्म चारित्रलक्षणमिति ॥१२॥ प्पमुक्के कयपरनिलए जहा चेव उरए अपडिबद्धो अनि भावनालो व्य जीवो व्व अपडिहयगई गामे गामे य एगरायं नगरे । तस्स इमा पंच भावणाओ चरिमस्स वयस्स हुति (अ)परिगरे पंचरायं दूइज्जते य (११) । ग्गहबेरमणरक्खणायाए । पहम सोइंदिएण सोच्चा सद्दामशारदसलिलमिव शुद्धहृदयो, यथा शारदजलं शुद्धं भवती गुम्ममगाई,किं ते. वरमुरयमुइंगपणवद्दुरकच्छभिवीणवित्येवमयं शुद्धहृदय इति भावना भारण्ड इव अप्रमत्तः, य- पंचिवल्लयिवदीसकसुघोसणंदीससरपरिवादिणिवंसतूणकपथा भारएडाभिधानः पक्षी अप्रमतश्चकितो भवतीत्येवमय वायतंतीतलतालतुडियनिग्योसगीयवाइयाई णडणगजल्लमपीति खङ्गिः श्राटव्यः चतुष्पदविशेषः,स ह्येक भवती न्युच्यते, खछिविषाणमिवैकजातो रागाऽऽदिसहायवकल्याद मल्लमुडिकवेलंवककहकपवकलासआइक्खकलंखमंखतूणइल्लकीभूत इत्यर्थः। स्थाणुरियो कायः कायोत्सर्गकाले शून्यागा। तुंबवीणियतालायरपकरणाणि य वहूणि महुरसरगीरमिवाप्रतिकर्मा इति व्यक्तम् । (सुन्नागाराऽऽयण संतो ति) यसुस्सराई कंचीमेहलाकलावगपतरकपतरेकपायजालकशून्यागारस्य शन्याऽऽपणस्य चान्तर्भध्ये वर्तमानः। किमिव घंटियरिंखखिणिस्यणोरुजालयछुट्टियनेउरचलणमालियक-- किम्विध इत्याह-निर्वातः शरणप्रदीपध्यानमिव वातवजिंतगृहदीपज्वलनमिव निःप्रकम्पो दिव्याssgपसर्गसंस णगनियलजालकभूसणसदाणि लीलाचंकम्ममाणाणुदीभऽपि शुभध्याननिश्चलः ( जहा खुरे चेव एगधारे त्ति) चे. रियाइ तरुणीजणहसियभणियकलरिमियमंजुलाई गुणवयवशब्दः समुश्चये । यथा सुर एकधार एवं साधुरुत्सर्गलक्ष- | हामि य बहणि मरजणभासियाई अमेसु य एवमाइएसु कधारः। (जहा अही चैव एगदिद्धि त्ति) यथा अहिरेकदृष्टि सदेसु मणुभदएमु न तेसु सममेण सजियव्यं न रजिबंद्धल न.,एवं साधुमाक्षसाधनकदृष्टिः। (प्रागासे चैव निरा यवं न गझियव्वं न मुच्छियव्यं न विनिघायं आवलंबे ति) आकाशभिव निरालम्बो, यथाऽऽकाशमनालम्बनं नया साधुःन किश्चिदालम्बते. एवं साधु मदेशकुलाऽऽद्या जियव्वं न लुलियव्वं न तुसियव्यं न हसियव्वं न सर्ति लम्बनरहित इत्यर्थः। बिहग इव सर्वतो विनमुक्तः,निम्परिग्र- । च मतिं च तत्थ कुजा। पुणरवि य साईदिएण सोचा स. ह इत्यर्थः । तथा परकृसो निलपो वसतिर्यस्य स परकृतनि- | हाई अमणुमपावकाई, किंते?, अकोसफरुसखिसण अवमालयो. यथोरगः सर्पः, तथाऽप्रतिबद्धः प्रतिबन्धरहितोऽनिल ण्णतञ्जणनिभत्थणदित्तवयणतासणउक्जियरुपरडियकइच वायुरियजीव इव अप्रतिहतगातः श्रप्रतिहतविहार इत्यर्थः। ग्रामे ग्राम चैकरात्रि यावत् नगरे नगरे च पञ्चरात्रिम् । दियनिग्युटरसियकलुणविलवियाई अहोसु य एवमाइएम (दूइजते इति) विहरंश्चेत्यर्थः एतच भिक्षप्रतिमाप्रतिपन्नसा- सद्देसु श्यामसुम पावएसु न तेसु समणेणं रुसियव्यं न ही-- ध्वपेक्षया सूत्रमवगन्तव्यम् (११)। लियव्यं न निंदियव्यं न खिंसियत्वं न छिदिय न पिं. कुत एवंविधोऽसावित्याह दियव्यं न वहेयचं न दुगुंडावत्तिया वि लम्भा उपाए। जिइंदिए जियपरिसहे जो निम्मए विऊ सचित्ताचित्त- एवं सोइंदियभावणाभाविप्रो भवइ अंतरप्पा मणमामणुमीसकेहि दव्वहिं विरागयं गए संचयतो विरर मुत्ते लहुके- । एणे सुभिदुब्भिरागदोसे पणिहियष्या साहू मणवयणकानिखकखे जीवियमरणाऽऽसविप्पमुक्के निस्संघ निव्वणं च- यगुत्ते संवुडे पहिदिए चरेज्ज धम्म १ (१३)। रितं धीरे कारण फासयंते सययं अज्झप्पज्झामजुत्ते नि. (इमा पंचत्यादि ) " रक्खणयाए " इत्येतदन्तं सुगमम् , Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गहवरमण अनिघानराजेन्दः । परिग्गहवरमण नवरम् अपरिग्रह रूपं विरमण यत्तत्तथा ( पढमंति ) पञ्चा- रे सण्ड ! इत्यादि खिसनं निन्दावचनम अशीलोऽसावित्या. नां मध्ये प्रथमं भावनावस्तु शब्दनिस्पृहत्वं नाम। तचैवम्- दिकम् अपमाननमपूजावचनं-यूयमित्यादि वाच्ये त्यमिश्रोत्रेन्द्रियेण श्रु वा शब्दान् मनोशाः सन्तो ये भद्रकास्ते त्यादि, तथा तर्जन झास्यसि रे ! इत्यादि वचनं. निर्भर्समनोशभदकास्तान् । (किं ते त्ति) तद्यथा-वरमुरजा महाम- नम् अपसर मे दृष्टिमार्गादित्याऽऽदिकं, दीप्तवचनं कुपित. ईला. मृव का मर्दला एव, पणवा लघुपरहाः, ( दद्दुर त्ति) वचनं, त्रासनं फेकाराऽऽदिकं भयकारि, उत्कृजितम् श्रव्यदर्दुरटः चर्मावनद्धमुखः कलशः, कच्छभी वाद्यविशेषः, वी. महाध्वनिकरणं, रुदितम् अश्रुविमोवनयुक्तं शब्दितं, रटिणा विपञ्ची बल्लकी च वीणाविशेषाः। वद्धाशकं वायविशेष तमारटीरूपं, ऋन्दितमाक्रन्दिः इष्टवियोगाऽऽदाविव. निघुएं एव, सुघोपा घराशविशेषः, नन्दी द्वादशतूर्यनिर्घोषः। तानि नि?षरूपं रसितं शूकराऽदिशब्दितमिव, करुणं,करुणोत्पा. चामूनि-"भंभा मउद्द मद्दल. हुतुक्क तिसिला य करड कंसा- दकं विलपितमार्तम्वरूपमिति । एषां द्वन्द्वः। ततस्तानि स्वा, ला। काहल वीणा बंसो, संखो पणयो य बारसमो ॥१॥" तेष्विति सम्बन्धात् तथाऽऽक्रोशाऽऽदिशब्देषु अन्येषु चैवमा तथा-सूसरपरिवादिनी वाणाविशेष एव, वंशो वेणुः. तूणको दिषु शब्देष्वमनोज्ञपापकेषु न तेष्विति योजितमेव, श्रमणन वाद्यविशेषः, पवाकोऽप्येवम्, तन्त्री वीणाविशेष एव, तला रोषितव्यं. न हीलितव्यं नाऽवज्ञा कार्या,न निन्दितव्यं निन्दा हस्ताः, ताला कंसिकाः, तलताला वा हस्तताला.. पतान्येव न कार्या,न खिसितव्यं लोकसमक्ष निन्दा न कार्या नछेत्तव्यम् तयोणि वाद्यानि, एषां यो निर्वोषो नादः, तथा गीतं गेयं, अमनोज्ञहेतुतो द्रब्यस्य छेदो न कार्यः, न भेत्तव्यं तस्यैव भेवादितं च वाद्यं सामान्यामेति द्वन्दः । ततः श्रुत्वेति योगाद् दोन विधेयः । (न वहेयव्वं ति ) न वधो विधेयः, न जुगु. द्वितीया । तथा नट तकजल्लमल्लौष्टि कविडम्बककथकप्लव- प्सा वृत्तिका वा जुगुप्सावर्तन, लभ्या उचितोत्पादयितुं ज. कलाशकाऽऽख्यायकलमहतूणलतुम्बबीणकतालावरैः पूर्व नयितुं. स्वस्य परस्य वा। प्रथमभावनानिगमनार्थमाह-एव. व्याख्यातः प्रक्रियन्ते विधीयन्ते यानि तानि नटाऽऽदिप्र- मुक्कनीत्या श्रोलेन्द्रियविषया भावना श्रोत्रन्द्रियं निरोद्धव्यमकरणानि तानि च । कानि तानीत्याह-बहूनि अनेकानि, म- न्यथाऽनर्थ इत्येवंरू परिभावना अालोचना, तया भावितो धुरस्वराणां कलध्वनीनां गायकानां यानि गीतानि सुख- वासितो, भवति जायते ऽन्तरात्मा, ततश्च मनोज्ञाऽमनोक्षस्वराणि तानि श्रुत्वा तेधु श्रमण न न सक्तव्यमिति सम्ब- त्याभ्यां ये ( सुभिदुभि त्ति ) शुभाऽशुभाः. शब्दा इतिग. न्धः। तथा काञ्ची कटयाभरणविशेषः, मेखलाऽपि तद्विशेष म्यते, तेषु क्रमेण यो रागद्वेवो तोविषये प्रणिहितः संवृत एव,कलापको ग्रीवाऽऽभरणं,प्रतरकाणि प्रतरेकश्चाऽऽभरण- आत्मा यस्य स तथा, साधुनिर्वाणसाधनपरः, मनोवचनका. विशेषः, पाद जालकं पादाऽऽभरणं, घण्टिका प्रतीता, किड. यगुप्तः,संवृतः संवरवान् , पिहितेन्द्रियो निरुद्धहृषीकः, प्रणि. किरायः सुदधरिटकास्तत्प्रधानम्, ( रयण त्ति ) रत्नसम्ब- हितेन्द्रियो वा तथाभूतः सन्, चरेदनुचरेदनुपालयेद्धर्म चा. न्धि ऊर्वोह जवथोर्जालफं यत्तत्तथा। (छुद्दिय सिद्रिका. रित्रम प्रश्न ५सं० द्वार। ऽऽभरणविशेषः, नूपुरं पादाभरणं, चलनमालिकाऽपित- __ अहावरं पंचमं भंते ! महव्वयं सव्वं परिग्गहं पञ्चक्खा - थैव, कनकनिगडानि जालकं चाभरणविशेषः। एता. मि. से अप्पं वा बहुं वा अणुं वा धलं वा चित्तमंतमन्येव भूषणानि तेषां ये शब्दास्ते तथा । किंभूतानीत्या. इ-लीलाचक्रम्यमाणानां हेलया कुरिलगमनं कुर्वाणा चित्तं वा णेव सयं परिग्गहं गिरहेजा, णेवऽस्मा परिग्गह मामुदीरितान् संजातान्, लीलासंचलनसंजनितानीत्यर्थः । गिराहावेजा, अम्मं पि परिग्गहं गेएहंतं ण समणुजाणेज्जा. तथा तरुणीजनस्य यानि हसितानि भणितानि च कला- जाव वोसिरामि, तस्सिमाओपंच भावणाओ भवंति,तत्थि. नि माधुर्यविशिष्टध्वनिविशेषरूपाणि रिमितानि स्वरछा- मा पढमा भावणा-सोयोणं जीवे मणुस्मामालाई सहाई लनान्यतिमम्जुलानि च मधुराणि तानि तथा, गुणवव. नानि च स्तुतिवादश्चि, बहूनि प्रचुराणि मधुरजनभाषि सुणेइ, मणुम्मामणुमहिं सद्देहिं णो सब्जेजा, णो रजेजा, तान्यमत्सरलोकभणितानि श्रुत्वा । किमित्याह-तेबित्यु णो गिज्झेजा,णो मुच्छेज्जा, णो अज्झोववजेजा, णो वि. सरस्यह संबन्धात् तेषु अन्येषु चैवमादिकेषेप्रकारेषु णिग्यायमावजेजा, केवली बूया-णिग्गंथे णं मणुलामणुलेशब्देषु मनोशभद्र केषु न तेध्विति योजिनमेव, धमणेन न हिं सद्देहिं सजमाणे रजमाणे जाव विणिग्यायमावज्जमासक्लव्यमिति सम्बन्धः । क्वाऽपि न रक्तव्यं न रागः कार्यः, न णे संति भेया संति विभंगा संति केवलिपलत्ताओ धम्माओ गर्द्धितव्यम् अप्राप्तेष्वाकाङ्का न कार्या. न मोहितव्यं तद्विषाकपर्यालो बनायां न मूोन भाव्यम्, न विनिवातं तदर्थ भंसेजा, "ण सका णं सोउं सद्दा, सोयबिसयमागया। रामात्मनः परेषा वा यिनिहननम् अपि तव्यं प्राप्तव्यं, न लो. गद्दोसा उजे तत्थ, ते भिक्खु पडि वञ्जए।।१।।" सोयो ब्धव्यं सामान्येन लोमो न विधेयः, न तोषव्यं प्राप्ती न जीवे मणुप्मामणुमाई सदाइं सुणेति पढमा भावणा ॥१॥ तोपो विधेयः, न हसितव्यं प्राप्ती विस्मयेन हासो न विधे- आचा० २ ० ३ चू० । यः, न स्मृतिं वा स्मरणं मतिं वा तद्विषयं ज्ञानं ( तत्थ विइयं चवखुइदिएण पासिय रूवाणि मणुप्मभद्दकाई त्ति ) तेषु शब्देषु कुर्यात् । पुनरपि चेति शद्धगतं प्रकाराम्तरं पुनरन्यदपि चोव्यत इत्यर्थः। धोत्रेन्द्रियेण श्रुत्वा श सचित्ताचित्तमीसकाई, कट्ठ पोत्ये य चित्तकम्मे लेप्पकम्मे ब्दान् अमनोशाः सन्तो ये पापकारते अमनोशपापकाः तान्।। सेले य दंतकम्मे पंचहिं वोहिं अणेगसंठाणसंठियाई गं. (किं ते ति)तद्यथा-आक्रोशो नियस्वेत्यादि वचनं, परुषं थिमवदिमपरिमसंघाइमाणि मलाई बहुविहाणि य अहियं . Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६४) अभियानराजेन्द्रः । परिहवेरमण नयणमणसुहकराई वणसंडे पन्वए य गामाऽऽगर नगराणि य खुड्डियपुक्खरखिवावीदीहियगुंजालिय सर सरपंतिसागरवि - लपतियखातियनदीस रतलागवप्पीणि फुल्लुप्पलपउमपरिमंडियाभिरामे अणेगसउखिगणमिहु विचरिते वरमंडनविविहभवखतोरणचेश्यदेवकुलसभापवाऽऽवस हसुकयसयणाSsसणसीयर ह सगडजाण जुग्गसदणननारी गये य सोम्म पडिरूवदरिसणिजे अलंकियविभूसिए पुव्वकयतवप्पभावसोहग्गसंपउत्ते नट्टनडगजल्ल मल्लमुट्ठियवेलंबकककपवगलासग आइक्खगलं खमखतू इल्लतुं व वीणियतालायन्पकर-खाणि य बहूणि सुकरणाणि अलेसु य एवमाइएसु रूबेसु मामदसु न तेसु समषेण सहियवं, न रजियव्वं, न गिज्झियव्वं, न मुज्झियन्वं न विनिग्घायमावज्जियां, न लुभियव्वं, न रुसियव्वं, न हसियां, न सतिं च मतिं च तत्थ कुजा । पुणरवि चक्खिदिएण पासिय स्वाणि श्रमणपात्रकाई; किं ते १, गंडिकोढिकुणिउदरिकच्छुल्ल इल्लकुज्जपंगुलवाम एअंधिल्ल गएगचक्खुविfurयसपिसल्ल गवाहि रोगपीलियं विगताणि य मतककलेवराणि सक्रिमिणकुहियं च दव्वरासिं असे य एत्रमासु अमगुण्णपावसु न तेसु समणेण रुस्यिव्वं ० जाव न दुछावत्तिया वि लब्भा उप्पाएउं, एवं च चक्खिदियभाबणाभावितो भवइ अंतरख्या मणामणुस सुभिदुब्भिरागदोपहिया साहुमणवयणकायगुत्ते सवुडे पणिहिंदिए चरेज धम्मं (१४) । ( बिइयं ति) द्वितीयं भावनावस्तु चतुरिन्द्रियसंवरो नाम । तचैवम् चचुरिन्द्रियेण दृष्ट्वा रूपाणि नरयुग्माssदीनि मनोशभद्रकाणि सचित्ताचित्तमिश्रकाणि । वेत्याह-काष्ठे फलकाssदौ, पुस्ते च वस्त्रे, चित्रकर्मणि प्रतीते, लेम्ये मृत्तिकाऽऽदिविशेषे, शैले व पाषाणे दन्तकर्मणि च गजविषाणविषयायां रूपनिर्मा क्रियायां पञ्चभिर्वर्णैर्युक्तानीति गम्यते । तथा अनेक संस्थानसंस्थितानि ग्रन्थिमं मन्थनेन निष्पन्नं मालावत्, वेष्टिमं वेष्टनेन निर्वृत्तं पुष्पगेन्दुकबत् पूरिमं पूरणेन तिवृत्तं पुष्पपूरितवंशप अरक रूपशेखरकवत्, संघातिमं सङ्घातेन निष्पन्नम् इतरेतरनिवेशित जालपुष्प मालावत्, एषां द्वन्द्वः । कानि चैतानीस्याह- माल्यानि मालासु साधूनि, पुष्पाणीत्यर्थः । बहुविधानि चाऽधिकमत्यर्थ नयनमनसां सुखकराणि यानि तानि तथा । तथा वनखण्डान् पर्वतांश्च ग्रामाऽऽकरनगराणि च प्रतीतानि । क्षुद्रिका जलाशयविशेषः, पुष्करिणी पुष्करवती वर्तुला वा, वापी चतुष्कोणा, दीर्घिका ऋजुसारणी, गुञ्जालिका वक्रसा रणी. सरःपतिका वैकस्मात् सरसोऽन्यस्मिन् अन्यस्मादन्यत्र सञ्चारपाट केनोदकं सञ्चरति सा सरसरपङ्किका, सागरः समुद्रो. बिलपक्तिका धातुखनिपद्धतिः । ( खाइयत्ति) खातवलयं, नदी निम्नगा, सरः स्वभावजो जलाऽऽश्रयविशेषः, तडागः कृतकः, (वप्पिस ति) केदाराः, एतेषां द्वन्द्वः । ततस्तान् दृङ्केति प्रकृतम् । किम्भूतान् ? - फुलैर्विक सितैरुत्पलैर्नी- । For Private परिग्गहवेरमा लोत्पलाऽऽदिभिः पौः सामान्यैर्पुण्डरीकाऽऽदिभिः परिमएिकता ये अभिरामाश्च रम्यास्त तथा तान् श्रनेकशकुनिगणानां मिथुनानि विचरितानि सञ्चरितानि येषु ते तथा तान् तथा वरमण्डपा प्रतीताः विविधानि भवनानि गृहाणि, तोरखानि प्रतीतानि, चैत्यानि प्रतिमाः, देवकुलानि प्रतीतानि सभा बहुजनोपवेशस्थानं प्रपा जलदानस्थानम् श्रावसथः परिव्राजक बसातेः सुकृतानि शयनानि शय्या प्राशनानि च सिंहासनाssदीनि शिविका जम्पानविशेष पार्श्वतो वेदिका उपरि च कूerssकृतिः, रथः प्रतीतः शकटं गन्त्री यानं मन्त्रविशेष एव. युग्यं बाहनं, गोल्लदेशप्रसिद्धं वा जम्पानं, स्यन्दनो रथविशेषः, नरनारीगणश्चेति द्वन्द्वस्तांश्चः किम्भूतान् ? सौम्या श्ररौद्राः प्रतिरूपा द्रष्टारं प्रति रूपं येषां ते, दर्शनीयाश्च मनोशा ये ते तथा तान्, अलस्कृतविशेषितान् क्रमेण मुकुटाऽऽदिभिर्वस्त्राऽऽदिभ्यश्च पूर्वकृतस्य तपसः प्रभावेन यत् सौभाग्यं जनाऽ देयत्वं तेन सम्प्रयुक्ता ये ते तथा तान्, तथा नटनर्त्तकयज्ञ मल्ल मौष्टिक विडम्वककथकसवकलास काSSख्यायकल महतूण विज्ञतुम्बवी णिकतालाचरैः पूर्वव्याख्यातैः प्रक्रियन्ते यानि तानि तथा। तानि च कानीत्याह - बहूनि सुकरणानि शोभनकर्माणि, दृष्टेति प्रकृतभू, तेष्विति सम्बन्धात्तेषु अन्येषु चैवमादिकेषु रूपेषु मनोशभद्रकेषु न श्रमणेन सतत्र्यं, न रक्तव्यं, यावत्करणान गर्द्धितव्यमित्यादीनि षट्पदानि दृश्यानि न स्मृति वा मति वा तत्र तेषु रूपेषु कुर्यात् । पुनरपि चक्षुरिन्द्रियेण दृष्ट्रा रूपाणि श्रमनोज्ञपापकानि (किंते त्ति ) तद्यथा - (गंडीत्यादि ) वातपित्तश्लेष्मसन्निपातजं चतुर्द्धा गण्डं तदस्या स्तीति गएडी गण्डमालायान् कुष्ठमष्टादशभेदमस्यास्तीति कुछी । तत्र सप्त महाकुष्ठानि । तद्यथा-अरुणा-१ दुम्बर २ रिश्वजिह्न ३ काकपाल ४ काकन ५ पौण्डरीक ६ द ७ कुष्ठानीति । महत्वं चैषां सर्वधात्वनुप्रवेशादसाध्यत्वाश्चेति । एकादश क्षुद्राणि । तद्यथा-स्थूलामारुक्क महाकुष्ठैककुष्ठा ३ चर्मलविसर्प पारे सर्प ६ विचर्चिका ७ सिध्मः ८ किटिभः पामा १० शतारुक ११ संज्ञानीति । सर्वाण्यप्यष्टादश सामान्यतः कुष्ठं सर्वसन्निपातजमपि वाताऽऽदिदोषोत्कटतया भेदभाग्भवतीति । ( कुणि त्ति ) गर्भाssधानदोषान् ह्रस्वैकपादो न्यूनैकपाणिर्वा कुणि कुण्ट इत्यर्थः । ( उदार त्ति ) जलोदरी तत्राष्टादराणि तेषां मध्ये जलोदरमसाध्यमिति तदिह निर्दिष्टम् । शेषाणि त्वविरोत्थानि साध्यानि तानि वाऽष्टावेव पृथक् पृथक् समस्तैरपि चाऽनिलाः४ लोहोदरं ५ वद्धगुदं तथैव श्रागन्तुकं सप्तममष्टमं जलोदरं चेति भवन्ति यानि (कच्छुल्ल त्ति) कण्डूतिमान् ( पल ति) पदं श्लीपदं, पादादौ काठिन्यम्, यदुक्तम्- प्रकुपिता वातपित्तश्लष्मणाऽधः प्रपन्ना वंक्षणोरुजङ्घास्ववतिष्ठमानाः कालान्तरेण पादमाथि. त्य शनैः शनैः शोकमुपजनयन्ति यत् तत् श्लीपद्माचक्षते 39 पुराणोदक भूयिष्ठाः सर्वर्तुषु च शीतलाः । ये देशास्तेषु जायन्ते श्लीपदानि विशेषतः ॥ १ ॥ पादयोर्हस्तयोश्चाऽपि जायते श्लोपदं नृणाम् । कर्णेrष्ठनासास्वपि च क्वचिदिच्छन्ति तद्विदः ॥२॥ कुजः पृष्ठादी कुब्जयोगात्, पङ्गुलः पङ्गः, चक्रमणासमर्थः. वामनः खर्वशरीरः । एते च मातापितृशोणित शुक्रदोषेख गर्भस्य दोषोद्भवात् कुञ्जवामनकाऽऽदयो भवन्ति । उक्तं च Personal Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६५ ) अभिधानराजेन्द्र | परिग्ग हवेरमण "गर्भे वातप्रकोपेण दोहदे या पमानिते । भवेरः कुणिः प झु-र्मूको मन्मन एव वा ॥१॥" (अंबेलगत्ति) अन्ध एवान् लको जात्यन्धः, (एगचक्खु त्ति) काणः। एतच्च दोषद्वयं गर्भगतस्योत्पद्यते, जातस्य च तत्र गर्भस्थस्य दृष्टिभागमप्रतिप तेजो जात्यन्धत्वं करोति तदेयाऽक्षित का विधने, तदेव रक्ताऽनुगतं राशि पिता पा परिग्राहवेरमण प्रतीतानि कुष्ठमुरखकुएं (तगर सि) सम्पद्रव्यविशेषः प तमालपत्राऽऽदि, (चोय त्ति) गन्धद्रव्यविशेषः, दमनकः पुपजातिविशेषः मरुकः प्रतीतः, एलारसः फलविशे परसः । ( पक्कमंसि सि ) पक्का संस्कृता मासीति गन्धद्रव्यविशेष गोषमधानं सरसं यच्चन्दनं तत्तथा कर्प घनसार, लवङ्गानि फलविशेषाः शेषःकु काश्मीर ककोलानि फलावशेषाः उशीरं वारणी चन्दनं श्रीखण्डं, श्वेदो वा स्यन्दश्चन्दनं मलयजं सुगन्धानां सङ्गन्धानां खाराङ्गानां प्रधानदलानां युक्रियोजनं येषु वरधूपवासेषु तत्तथा ते च ते वरधूपवासाचेति समासः । ततस्तानाघ्राय तेष्विति योगात्तेषु । ( उउयपिडिमनीहारिमगंधपति) ऋतुजा कालोचित इति भावः परिम बदल, निहरिमोहरनियांधी, यो गन्धः सविद्यते येषु ते तथा तेषु अन्येषु चैवमादिकेषु गन्धेषु मनोभद्रकेषु न भ्रमसेन सव्यमित्यादि । कि ते " इत्येतदन्तं पूर्ववत् । तथा - श्रहिमृताऽऽदीन्येकादश प्रतीतानि, नवरं वृक ईहामृगः, द्वीपी चित्रक व वाऽऽस्तिकादीनां इन्द्रः द्वितीया बहुवचनं दृश्यं तत श्राधायेति किया योजनीया । नतस्ते या योगानेषु किम्विधेष्वित्याह-मृतानि जीवविमुक्तानि कुथितानि कोथमुपगतानि विनष्टानि पूर्वाऽऽकारविनाशेन (किमिति) मियन्ति बहुदुरभिगन्धानि चात्यन्ताम मोक्षगन्धानि यानि तानि तथा ते अये चैवमादिषु गन्धेषु मनोशपापकेषु न श्रमणेन रोषितव्यमित्यादि पूर्वबन् प्रन०५ सं०] द्वार " । । गर्त शुक्लाक्षमिति । विशियन) विनिहतारेत्यर्थः । रात्र पथा तस्य चतुर्विनिहननेनान्धका कावा वदमेन दर्शितमिति । (सविति ) सह पिसकेन पिशाचकेन वर्त्तते यत्स तथा ग्रहग्रहीत इत्यर्थः । अथवा सर्पतीति सर्पि, स च गर्भदोषात्कर्मदोषाद्वा भवति स किल पाणिगृहीतकाष्ठः सर्पतीति । शल्यकः शल्यवान्, शूलाऽऽदिशल्यभि इत्यर्थः । व्याधिना विशिचितपीडया विरस्थायिगदेन वा, रोगेण रुजया, सद्योघातिगदेन वा पीडितो यः स तथा । ततो गरब्यादिपदानामेकरवइन्द्रः । तद्रष्टेति प्रकृतम् । वि कृतानि च मृतककडेवराणि ( सकिमिणकुहियं वत्ति ) सह कृमिभिर्यः कुथितश्च स तथा तं वा द्रव्यराशि पुरीषाऽऽदिद्रव्यसमूहं वेति प्रकृतम, तेष्विति सम्बन्धात् तेषु गराड्यादिपु रूपेषु श्रमनोठपापकेषु न श्रमणेन रोपित यावत्कर यानीसितव्यमित्यादीनि षट्पदानि दृश्यानि न जुगुखा वृत्तिका अपि लभ्या उचिता योग्येत्यर्थः, उत्पादयितुं निग मयवाद एवं चचुरिन्द्रियभावनाभावित भयति अन्तरा त्यादिव्यक्तमेव । प्रश्न० ५ संब० द्वार । चक्खूओ महावरा दोचा भावणा पक्य जीवो मणुधामलाई रुवाई पास, माणामहिं रूहिं सज्जमाये रखमाथे ० जाव विणिघायमावजमाणे सति भेया० जाव भंसेज्जायसका रुपमद, चवस्तृविसथमागवं । रागदोसा उ जे सत्य, ते भिक्खू परिवार ॥ १ ॥ " सूओ जीवामकुणामसुराणाई रुवाई पासति दोषा भावणा। आचा० २ श्र० ३ ० । 44 1 ari घागिदिए अवाइय गंधाई मरणभदगाई, किं से ! - जलपथ लबसरसपुष्फलपाणभोराको तगरपचचो. यदमणकमरुयएलारस पक्क मंसि गोसीससरसचंदगकप्पूरलवंगगरकुंकुम कोल उसीरसेयचंदासुगंधसारंगजुनिवरधूवबासे उउयपिडिमसीहारिमगंधेयु असु व एक्माइए गंधे मरन तेसु समवेश सजिय० जाव न सतिं च मतिं च तत्थ कुज्जा, पुणरवि घागिदिए अग्घाइगंधाशि अमगुखपावकाएं, किं ते?, अहिमयसमटहथिम डगमगसियालमखुप मजारसीहदीविमयकुहिमगिकिमिवदुरधिगंधे असेसु य एपमाइएस श्रमणपासुन तेमु समये रुसियध्वं न हीलियम्बं० जाव पणिहियपंचिदिए चरेज धम्मं । (लक्ष्यं ति) तीयं भावनावस्तु सुगन्धसंवृतत्वम् । तच्चेबम् प्राणेन्द्रियेणाऽऽप्राय गन्धान् मनोजकान् किं ते सि) तद्यथा - जलजस्थलज सरसपुष्पाणि फलपानभोजनानि १४२ महावरा तच्चा भावसा पासओ जीवे मणुश्यामाई गंधाई घार, मणुस्मामरणुमेहिं गंधेहिं णो सजेजा, गो रजेजा० जाव णो विशियायमावओजा केवली बूया - मणुमोहिं गंधेहिं सज्जमाणे० जाव विशिधायमावज्जमासंति भेदा संति विभंगा० जाव भंसेजा " णो सक्का गंधमग्पा, हासाविसयमागर्थ रागदोसाज ने तत्य, ते भिक्खू परिवज ॥ १ ॥ " पाणओ जीवो मप्रामणमाई गंधाई अघायइ ति तच्चा भावणा । आचा० २ श्रु० ३ चू० । " (चतुर्थन्द्रियसंचरविषयक प्रश्नव्याकरणमूले 'जि दिसंबर शब्दे भाग १५१० पृष्ठे मतम् ) तम्मूलव्याख्या त्विहोच्यते ( चउत्थं ति ) चतुर्थ भावनावस्तु जिन्द्रयसम्बरः । तचैवम्-जिद्वेन्द्रियेास्वाद्य रस मनोश भद्रकान् (किं भूते त्ति) तद्यथा श्रवगाहः स्नेहवोल. नं तेन पाती निरामयाहिमं पका खण्डवायाऽि विविधं पानं द्राक्षापानकाऽऽदि, भोजनं श्रोदनाऽऽदि, गुडतंगुसंस्कृतं खण्डकृतं संस्कृतं सदाऽऽदि घृतकृतपूपाऽऽदि आस्वायेति प्रकृतम्, वित्ि सेषु येषु शष्कुलिकाप्रभृतिषु बहुविधेषु विचित्रेषु वर ससंयुक्तेषु तथा मधुमांसे प्रतीते, मज्जिका, निष्ठा. बहुप्रकारा नकं प्रकृष्टमूल्यनिष्पादितम् । यदाह-" णिट्टाएं जा सयसहस्वं ।" बालिकाम्लमि रिकादि न्यासेानामामलकादि, दुग्धं दधि च प्रतीते, सरको गुड Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गहवरमण अभिधानगजेन्डः। परिग्गहबेरमा धातकीसिद्ध मद्यं, घरवारुणी मदिरा, सीधुकापिशायने | पंचमगं फासिंदिएणं फासिय फासाई मणुएणभद्दकाई, मद्यविशेषा, तथा शाकमष्टादशं यत्राऽऽहारे स शाकाष्टाss. किं ते ?-दगमंडवहारसेयचंदणसीयलविमलजलविविहकुसुदशः ततः एषां द्वन्द्वः,ततस्ते च ते बहुप्रकाराश्चेति कर्मधा मसत्थरउसीरमुत्तिगमुणालदोसणा पेहुणउक्खेवगतालियंरयः, ततस्तेषु । शाकाष्टादशता चैवमाहारस्य"सूपी १-दणो २ य जावण ३, टवीयणगजणियसुहसीयले य पवणे गिम्हकाले सुहफासाणि तिनि य मंसाई ६ गोरसो ७ जसो । य बहूणि सयणाणि य पाउरणगुणे य सिसिरकाले अंभक्खो गुललावणिया १०, गारपतावणा य आयवनिद्धमउयसीयउसिणलहुया य मूलफला ११ हरितयं १२ डागो १३॥१॥ जे उउमुहफासा अंगसुहनिन्विति करा से अण्णेसु य एहोइ रसालू य १४ तहा, पाणं १५ पागीय २ पाणगं ३ चेव । वमाइएसु फासेमु मणुएणभइएसु न तेसु समणेण अट्ठारसमो सागो, सजियव्वं न रज्जियव्वं न गिझियव्वं न मुच्छियवं निरुवहश्रो लोहरो पिंडो॥२॥" इति । न विनिग्यायमावज्जियव्वं न लुभियव्वं न तुसियव्यं न अनयोर्गाथयोाख्या हसियन्वं न सतिं च मतिं च तत्थ कुजा, पुणरवि फा(तिमि य मंसाइ त्ति) जलचराऽऽदिसत्कानि (जसो त्ति)। सिदिएण फासिय फासाइं अमणुल्मपावकाई,किं ते ?-अणेमुद्गतन्दुल जीरककहुभाण्डाऽऽदिरसः (भक्ख त्ति) खण्डखाद्यानि (गुललावणिय त्ति) गुलपर्पटिका लोकप्रसिद्धा गु गवंधवहतालणाकमअइभारारोहणअंगभंजणसूईनखप्पवेसडधाना वा। मूलफ.लान्येकमेव पदम्।(हरितगं ति)जीरकाऽऽ- गायपच्छारणलक्खारसखारतेल्लकलकलतउयसीसककालदिहरितं, (डागो त्ति)वस्तुलाऽऽदिभर्जिका ॥१॥ (रसालु त्ति) लोहसिंचणहडीबंधणरज्जूणिगलसंकलहत्थंदुयकुंभिपागदमजिका (पाणं ति) मद्यं (पाणीयं ति) जलम् (पाणगं ति)द्रा हणतीहपुंछणउव्बंधणमूलभेयगयचलणमलणकरचरणकक्षापानका ऽऽदि (सागो त्ति) तक्रसिद्धशाक इति ॥२॥ तथा भोजनेषु च विविधेपु शालनकेषु मनाशवर्णगन्धरसस्प बनासोहसीसच्छयणजिब्भच्छेयणविसणनयणहिययंतदंनि च तानि बहुद्रव्यैः संभृतानि चोपस्कृतानि तानि तथा तभंजणजोत्तलयकसप्पहारपादपणिहजाणुपत्थरनिवायपीतषु, अन्येषु चैवमादिकेषु रसेषु मनोशभद्रकेषु श्रमणेन न लणकविकच्छुअगणिविच्छुयडकवायाऽऽतवदंसमसकणि - रक्तव्यमित्यादि पूर्ववत् । तथा पुनरपि जिह्वेन्द्रियेणा55 वाए दुणिसजदुनिसीहिया कक्षडगुरुसीयउसिणस्वाद्य रसान् अमनोशपापकान् (किं ते त्ति ) तद्यथा अरसानि अविद्यमानाऽऽहार्यरसानि हिवादिभिरसंस्कृतानी लुक्खेसु बहुविहेसु अमेमु य एवमाइएसु फासेसु त्यर्थः। विरसानि पुराणजत्येज विगतरसानि शीतानि अनौ- अमणुण पावएसु न तेसु समणेण रुसियन ण हीलियचित्येन शीतलानि, रूक्षाणि निस्नेहानि, (निज्जंप ति ) नि. व्वं न प्रिंदियव्यं न खिसियव्यं ण छिदियव्वं ण भिंदिर्याप्यानि च निर्यानकारकाणि निर्बलानीत्यर्थः। यानि पान यव्वं न वहेयव्वं न दुगुंछावत्तियव्यं लब्भा उप्पाएउं, एवं भोजनानि तानि तथा (दोसीणं ति) दोषानं रात्रिपर्युषितं व्यापनं विनष्टवर्थ कुथितं कोथषत् पूतिकमपवित्रं कु. फासिंदियभावणाभावियो भवइ अंतरप्पा मगुस्मामणुमाथितपूतिकं वाऽत्यन्तकुथितम् , अत एवामोशमसुन्दर चिन- सुभिदुभिरागदोसपणिहियप्पा साहू मणवयणकायगुत्ते एमत्यन्तविकृताऽवस्थाप्राप्तं, ततःप्रसूतः बहुदुरभिगन्धो येन संवुडे पणिहिइंदिए चरेज धम्मं ॥ ५ ॥ तत्तथा. तत एतेषां द्वन्द्वोऽस्तीति । तथा तिक्तं च निम्बयत, कटुकं च शुरख्यादिवत्,कषायं च विभीतकवत्,आम्लरसं च (पंचमगं ति) पञ्चमकं भावनावस्तु स्पर्शनेन्द्रियसंवरः। तक्रवत् लिद्रं च सशैवलपुराण जलवत्. नीरसं च विगतरस तश्चैवम्-स्पर्शनेन्द्रियेण स्पृष्टा स्पर्शान मनोभद्रकान् (कि मिति द्वन्दः । अतस्तानि आस्वाद्य, तेविति योगात्तेष्वन्येषु ते ति) तद्यथा-( दगमंडव त्ति ) उदकमण्डपा उदकचैव मादिकेषु रसेप्वमनोशपापकेषु न श्रमणन रोषितव्यमि क्षरणयुक्ता हाराः प्रतीताः, श्वतचन्दनं श्रीखण्डं शीतलं वि. त्यादि पूर्ववत् प्रश्न०५ संव. द्वार । मलं च जलं पानीयं विविधाः कुसुमानां सस्तराः शयनानि उशीरं वीरणीमूलं, मौक्तिकानि मुक्ताफलानि, मृणालं ५अहावरा चउत्था भावणा-जिब्भाओ जीवो मणुलामणु नालं, (दोसिण त्ति) ज्योत्स्ना चेति द्वन्द्वोऽस्तान् । तथा पे. माई रसाइ अस्सादेति,मणुस्मामणुगणेहिं स्सेहिं णो सजे हुणानां मयूराङ्गानां य उक्षेपकः सन् तालवृन्तं वीजनकं जा. जाव णो विणिधायमावज्जेजा, केवली बूया-णिग्गंधे चैतानि वायूदीर काणि वस्तूनि, तैर्जनिताः सुखाः सुखहेतवः णं मणुए गामणुएणेहिं रसेहिं सज्जमागे जाव विणि- शीतलाश्च शीता येते तथा तांश्च पवनान् यायून्, क?, ग्रीघायमावज्जमाणे संति भेदा० जाव भंसेज्जा-" णो सक्का प्मकाल, तथा सुखस्पर्शानि च बहूनि शयनानि श्रासनानि रसमस्सातुं, जोहाविसयमागतं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते च प्रावरणगुणांश्च शीताऽपहारकत्वात् , शिशिरकाले शी तकाले चाङ्गारेषु प्रतापना शरीरस्याङ्गारप्रतापनाश्च, पातभिक्ख परिवजए॥१॥" जीहाओ जीवो मरणामणु- पः सूर्यतापः, स्निग्धमृदुकशीतोष्णलघुकाश्च ये ऋतुसुखा एणाई रसाई अस्साएइ त्ति चउत्या भावणा । आचा०२ हेमन्तादिकालविशेषेषु सुखकराः स्पर्शाः, अन्सुखं च निश्रु०३ चू०। वतिं च मनास्वाथ्धं कुर्वन्ति येते तथा । (से त्ति) तान् Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणहरमण अनिधानराजेन्द्रः। परिग्गहावंत स्पृष्ट्वा इति प्रकृतं, तेविति सम्बन्धात् तेषु अन्येषु चैवमा निगमनम्दिकेषु स्पर्शषु मनोनभद्रकेषु न श्रमणेन सक्तव्यमित्यादि पूर्ववत् । तथा पुनरपि स्पर्शनेन्द्रियेण स्पृष्ट्वा स्पर्शान् श्रमनो. एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होति सप्पिणिशपापकान् (किं तेत्ति ) तद्यथा-अनेको बहुविधो बन्धो र- हियं इमेहिं पंचहि वि कारणेहिं मण्वयणकायपरिरक्खिज्वादिभिः संयमनं, वधो विनाशः, ताडनं चपेटाऽऽदिना, एहिं णिचं आमरणं तं च एस जोगो नेयमो धितिमया अङ्कनं तप्ताऽयःशलाकयाऽङ्ककरणम्, अतिभाराऽऽरोहण. मतिमया अणासबो अकजुसो अच्छिदो अपरिस्साई अम्, अङ्गमञ्जनं शरीरावयवप्रमोटनं शुचीनां नखेषु प्रवेशो यः स तथा, गात्रस्य शरीरस्य प्रक्षणनं चीरणं गात्ररक्ष संकिलिडो सुद्धो सब्यजिणमएणुमायो। एवं पंचमं संवर. णनं. तथा लाक्षारसेन क्षारतैलेन तथा (कलकल त्ति) दार फा सयं पालियं सोहियं तिरियं कियिं अणुगालियं कलकलशब्दं करोति यत्तत्कलकलम्, अतितप्तमित्यर्थः । तेन श्राणाए आराहियं भवति । एवं नायमुणिणा भगवया पमत्रपुणा से सकेन काललोहेन च यत्सेचनमभिषेचनं तत्त- वियं परूवियं पसिद्धं सिद्धिवरसासणमिणं आपवियं था, हडीवन्धनं खोटकनेपः, रज्ज्वा निगडैः सङ्कलेन हस्ता. सुदसियं पसत्थं पंचमं संवरदारं सम्मत्तं ति वेमि ॥१०॥ दुकेन च यानि बन्धनानि तानि तच्छदैरेवोक्तानि, तथा कुम्भ्यां भाजनविशेषे पाकः पचनं, दहनमग्निना सिंहपुञ्छनं (एवमिणमित्यादि) पञ्चमं संवराध्ययननिगमन पूर्ववदिति । सेपस्त्रोटनम्, उद्वन्धनमुल्लम्बनं शूलभेदः, शूलिकाप्रपतनं, प्रश्न०५ संब• द्वार। गजचरण मलनं. करचरणकर्णनासौष्ठशीर्षच्छेदनं प्रतीतम्। परिग्गहसम्मा-परिग्रहसंज्ञा-स्त्री० । लोभोदयात्प्रधानभवकारजिह्वाछेदनं जिह्वाकर्षणं. वृषणनयनहृदयान्त्रदन्तानां यद्भञ्ज- णाभिध्वजापूर्विका सचित्तेतरद्रव्योपादानक्रियैव संज्ञायतेऽननमामर्दनं तत्तथा, योक्त्रं यूपे वृषभसंयमनं, लताकं च येति परिग्रहसंज्ञा । भ०७ श०८ उ० स्था०प्रज्ञा । तीवलो. कशा वर्धः, एषां ये प्रहारास्ते तथा । पदपाष्णि जानु अ- भोदयात्परिग्रहाभिलाषे,ध०३ अधिः । लोमविपाकोदयसमु. ठीवत् प्रस्तराः पाषाणा एषां यो निपातः पतनं स तथा. स्थापरिणामे,जी०१प्रति० । अावागा . चू०। चारिपीडनं यन्त्रपीडनं, कपिकच्छूस्तीबकराडूतिकारकः फलवि त्रमहोदयजनितपरिग्रहामिला,स्था० ४ ठा०४ उ० । शेषः, अग्निर्वह्निः (विच्छुयडक त्ति ) वृश्चिकदंशः. वाता-| चाहिं ठाणेहिं परिग्गहसन्ना समुप्पाइ । तं जहा-अविउतपदशंमशकनिपातश्चेति द्वन्द्वः । ततस्तान स्पृष्टा, दुष्टनिषद्या दुरासनानि दुनिषेधिका कष्टस्वाध्यायभूमीः स्पृष्टा. मुत्तयाए लोभवेयणिजस्स कम्मस्स उदएणं मईए तदहोतेष्विति सम्बन्धात् तेयु कर्कशगुरुशीतोष्णरूक्षेषु बहुविधेषु वोगेणं । अन्धेषु चैवमादिकेषु स्पर्शप्वमनोक्षकेषु न तेषु श्रमणन रो अविमुक्ततया सपरिग्रहतया मत्या सचेतनाऽऽदिपरिग्रहदषितव्यमित्यादि पञ्चमभावनानिगमनं पूर्ववत् । इह पञ्चम शनाऽऽदिजनितबुद्धधा, तदर्थोपयोगेन परिग्रहानुचिन्तनेनेसंवरे शब्दाऽऽदिषु रागद्वेषनिरोधनं यद्भावनात्वेनोक्तं तत्ते. ति । स्था० ४ ठा०४ उ० । श्राव । षु तदनिरोधो परिग्रहः स्यादिति मन्तव्यम्. तद्विरत एव चाऽपरिग्रही भवतीति।आह च-"जेसहरूपरसगंधमागए परिग्गहावंत-परिग्रहवत-त्रि० । परिग्रहयुक्ते, प्राचा।। फासए य संपप्प मणुएणपावए गेहीए श्रोसन्नं करेज पंडिए..अविरतवादी परिग्रहवानिति यदुवं तत्प्रतिपादयत्राहसे होति दंते विरए अकिंचणे ति।" प्रश्न०५ संव. द्वार। | आवंती केयावंती लोगास परिग्गहावंती, से अप्पं वा बहुं अहावरा पंचमा भावणा-फासो जीवो मणुप्मामणु-| वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा एतेसु पाइं फासाई पडिसंवेदेति, मणुलामणुप्लेहिं फासेहिं णो परिग्गहावंती, एतदेव एगेसि महभयं भवति, लोगवित्तं च सजेजा,णो रजेजा णो पिज्झेजा,णो मुच्छेजा,णो अज्झो- णं उबेहाए, एए संगे अविजाणो ॥ १४६॥ ववजेजा, णो विणिघायमावलेजा। केवली व्या-णिग्गंथे (श्रावतीत्यादि) यावन्तः केचन लोके परिग्रहवन्तः प. णं मणुमामणुमेहि फासेहिं सज्जमाणे० जाब विणियाय-1 रिग्रहयुक्ताः स्युस्तत्र, एवंभूतपरिग्रहसद्भावादित्याह-(से मावजमाणे संति भेदा संति विभंगा संति केवलिपप्मताओ अप्पं वा इत्यादि) तद् द्रव्यं यत्परिगृह्यते तदल्पं वा स्तोकं धम्माओ भंसेजा-" णो सक्का फासमवेएर, फासविसय | षा स्यात्कपर्दकाऽऽदि, बहु वा स्यात् धनधान्यहिरण्य ग्राम जनपदाऽऽदि, अणु वा स्यात् मूल्यतस्तृणकाष्ठाऽऽदि, प्रमामागयं । रागद्दोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवजए॥१॥"| णतो वज्राऽऽदि, स्थूलं वा स्यात् मूल्यतःप्रमाणतश्च हफासो जीवो मणुमामणुषणाई फासाई पडिसंवेदेति पं- स्त्यश्वाऽऽदि । एतच्च चित्तवद्वा स्यादचित्तवात । एतेन च चमा भावणा एतावया पचमे महनते सम्म अवहिते परिग्रहेण परिग्रहवन्तः सन्त एतेष्वेव यरिग्रहवत्सु गृहस्थे वन्तर्वर्तिनो प्रतितोऽपि स्युः, यदि वैतेग्वेव षट्स जीयआणाए आराधिते यावि भवति, पंचमं भंते ! महव्वयं । निकायेषु विषयभूतेप्यल्पाऽऽदिषु वा द्रव्येषु नछी कुर्वन्तः इच्चेएहि पंचमहबाहिं पणवीसाहि य भावणाहिं संपले परिग्रहवन्तो भवन्ति, तथा चाविरतो विरतिवादं बदन्नमणगारे अहासुयं अहाकप्पं अहामग्गं सम्म कारण फा-1 ल्पादपि परिग्रहात् परिग्रहवान् भवति, एवं शेषेष्वपि व्रते. सित्ता पालिता तीरित्ता किहिता आणाए आराहिता वायोज्यम् , एकदेशापराधादपि सर्वापराधितासम्भवः, श्र. यावि भवति । आचा० २ श्रु०३ चू०। . निवारिताऽऽश्रवत्वात्। यद्यवमरपेनापि परिग्रहेण परिग्रह Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) अभिधानराजेन्द्रः । परिग्गहावंत धमतः पाणिपुर भोजिनो दिगम्बराः सरजरकपोटिकाद भावात् तदास्त तदभावादित्यसियो हेतुः । तथाहि सरजस्कानामस्यादिपरिग्रहाद्रोटि कानामपि पिछsऽदिपरिग्रहादन्ततश्च शरीराऽऽहागss परिग्रहसद्भावात्, धर्मोपष्टम्भकत्वाददोष इति चेत् तदितरत्राऽपि समानं किं दिगम्बरा35 अह्मदेयेति । एतचा पा35दिपरिमण परिषदवश्यमपरिषदाभिमानिनां था55हारशरीराऽऽदिकं महते अनथायेति दर्शयनाद (एतदेवेत्या दि) देवत्वादिपरिषदेस परिमवश्यमे परिग्रहवतां नरकाऽऽदिगमनहेतुत्वात् सर्वस्याविश्वासकारणाद्वा महाभयं भवति, प्रकृतिरियं परिग्रहस्य, यदुत तद्वान् सर्वस्माश्च कति, यदि वैतदेव शरीराऽऽहाराऽऽदिकमपरस्या परिग्गहिय-परिगृहीत- त्रि० परिवेष्टिते, शा० १ ० १ ० । स्वीकृते, सूत्र० २ ० १ श्र० । आते, शा० १ ० १ ० । रा०| पृ० नि० = | ( परिगृहीतं प्रहणम् 'पलंब' शब्दे वदयते) परिग्गहिया परिग्रहिका श्री० परिग्रहो धर्मोपकरणवर्जवस्तुस्वीकारो धर्मोपकरणमूर्दा च स प्रयोजनं यस्याः सा पा रिग्रहिकी भ० १ श० २ उ० स्था० । क्रियाभेदे, सा च " जीवे परिगिएहर अजीवे परिगिरहइ ।” श्र० चू० १ श्र० । नि० चू० । | पस्यापि पात्रत्वा वाणाऽऽदेर्द्धमोंपकरणस्याभावात् गृहिगृ हे सम्यगुपायाभावादविधिनाऽशुद्ध माहारा33विकं भुजान रूप कर्मबन्धजनितमदाभयहेतुत्वात् महाभयं तचैतत् धर्म रीरं समस्ताssच्छादनाभावाद्वीभत्सं परेषां महाभयं तन्नि रवद्यविधिपालनाभावाच्च महाभयमिति । यतः परिग्रहो मदाभषमतोऽपदिश्यते- (लोग इत्यादि) लोकरूपासंयत लोकस्य वित्तं द्रव्यमपाऽदिविशेषणविशिष्टं चशब्दः पुनःश ब्दार्थे, एमिति, वाक्यालङ्कारे, लोकवित्तं लोकवृत्तं वा आहा रभयमैथुनपरिग्रहास्कटात्म के महते भयाय पुनरुत्प्रेक्ष्य ज्ञात्वा शपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् । तत्परिहर्तु वत्स्यात्तदाह पर संगत्यादि) रतान् अल्वाऽऽदि द्रव्यपरिग्रहसङ्गान् शरीराऽऽहाराऽऽदिसङ्गान् वा श्रावजानतोऽकुर्वाणस्य वा तत्परिग्रहजनितं महाभयं न स्यात् । किञ्च - से सुपविद्धं नीति यथा पुरिसा परमपवखु चिप रिकमा, एते चैव भरं ति बेमि, से सुयं च मे अश्झत्य यं च मे बंध मोक्खो अज्झत्थेव, एत्थ विरते अणगारे दीहरायं तितिक्खए, पत्ते बहिया पास, अपमत्तो परिव्वए, एतं मोणं सम्मं अणुवासिञ्जासि ति वेमि ।। १५० ।। (ख) तस्य परिपरि सुष्ठु प्रतिवद्धं सुप्रातवर्य, सुष्ठ पनीतं सुपनीतं ज्ञानाऽऽदि इत्येतत् ज्ञात्वा हे पुरुष ! हे मा- परिघेत्तन्त्र परिग्राह्य - त्रि० । परिग्रहीतव्ये. श्राचा० १ ० ४ नच ! परमं ज्ञानं चतुर्थस्वाऽसौ परमच तुमदी दृष्टिर्वा सन् विविधं तपोऽनुष्ठानविधिना संयमे कर्मणि वा पराक्रमस्वेति । अथ किमर्थं पराक्रमणोपदेश इत्यत श्राह - ( पतेसु चे व इत्यादि) य इमे परिग्रहविरताः परमय पश्चैते ध्येयप रमार्थतो ब्रह्मचर्ये नान्येषु. नवविधब्रह्मचर्य गुप्त्यभावात् य दिपा ब्रह्मचयोऽऽख्योऽयं श्रुतस्कन्धः, एतद्वान्यमपि ब्रह्मचर्य तदेतेष्वेवापरिग्रहवत्स, इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ववीम्यहम्, पर्क मा च सर्वशोपदेशादित्याह से सुधं च मे" इत्यादि. तत् कथितं यच कथयिष्यामि तच्छ्रुतं च मया तीर्थकर सकाशात्, तथा आत्मम्यधि अध्यात्मं ममे तच्चेतसि व्यवस्थितं किं तदध्यात्मनि स्थितमिति पूर्ण यति -बन्धात्सकाशात्प्रमोक्षः बन्धप्रमोक्षस्तथा अध्यात्म म्येव ' ब्रह्मचर्ये व्यवस्थितस्यैवेति । किं च' इत्थ' इत्या दि.'' अनि परिग्रहे जिक्षित विरता कोसी ?नास्यागारं गृहं विद्यत इत्यनगारः स एवम्भूतो 'दीर्घराचं' यावज्जीवं परिवद्दाभावात् यत् क्षुत्पिपासाऽऽदिकमा | अ० १ उ० । ' परिचिय 1 गच्छति तत् ' तितिक्षेत' सङ्केत पुनरप्युपदेशदानाचा 55इत्यादि प्रमशान-विषयाऽऽदिभिः प्रमादडि र्द्धर्मावस्थितान् पश्य गृहस्थतीर्थकाऽऽदीन् । दृष्ट्रा च किं कुर्यादिति दर्शयति-श्रप्रमत्तः सन् संयमानुष्ठाने परिब्रजे दिति । किं च' एय' मित्यादि, 'एतत् पूर्वोक्तं संयमाउष्ठानं मुनरिदं मीनं सर्वशोकं सम्य अनुवासये: प्र विपास इति अधिकारपरिसमाप्ती प्रधीमीति पूर्ववत् । आचा० १४०५ ० ३ उ० " " 6 परिगहि ( )- परिग्रहिन्- त्रि० । परिग्रहयुक्ते सूत्र० १० ६ अ० । परिपट्टण परिपनन० बहिरन्तो या निर्माण, नि०० १ उ० । परिपट्टिया परिपट्टिता श्री० संस्पृष्टायां (बीणायाम) जी०३ प्रति०४ अधि० । वरशाणयेव पाषाणप्रतिमावत् कृत परिपट्ट परिपृष्ट वि० परिवर्षे, रा० जी० । परिधाय परिघात पुं० निघतने प्र० १५ द्वार परिघासिय- परिघर्षित - वि० । कृतपरिघर्षे, आचा० २ ० १ चू० १ ० ३ उ० । परिघासे-परिवासयितुम् धन्य०। साधुभोजनार्थे, आचा १ श्र० ८ श्र० २३० । परिघोलन - परिघोलन - न० । विचारे, नं० । श्रा० म० । परिघोलेमारा परिघूर्णत् भि० परिभ्रमति नं० | - त्रि० । । J परिचत्त - परित्यक्त - त्रि० । परिहृते, पञ्चा० १० विव० । विमुक्ते, पञ्चा० ११ वि० ०" तेण व परिव श्रो। " नि० चू० ११ उ० । “ परिचतणिस्सील कुसीला । निःशीला गृहस्थाः कुशलारस्वम्यतीर्थिकाः पार्श्वस्थादयो वा ते परित्यक्ता येन साधुना स परित्यक्तनिःशीलकुशीलः । सूत्र० १ ० १ ० १ उ० । ० परिवितिय परिचिन्तित पुं० मनसेसिते, विशे - । । परिचिय परिचित त्रि० । अभ्यस्ते, प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार । साङ्गतिके, स्था० ४ ठा० ३ उ० । व्य० । श्रव० । अभ्यस्तै, व्य० १ उ० । पुनः पुनः कृते, औ० । “जो उ गंधवं च से अतिपारोचयं।" आव० ४ श्र० । “सगनामं व परिचियं, उक्क Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचिय अभिधानराजेन्धः। परिसिय म कमतो बहूहि विगमेहि।" यस्य भुतम् उत्क्रमतः क्रमेण वर्गे, स्था० ८ ठा० । “ मया परिजनस्याथै, कृतं कर्म च,तथा क्रमेण उत्क्रमेण वा 'एकैकपदाऽसावनेन' इत्यादि- सुदारुणम् । सूत्र०१७०४०१ उ० । शा। भिरपि बहुभिर्गमः स्वनामेव स्वाभिधानमिव परिवितं स पपरिजविय-परिजल्प्य-श्रव्य० । परेण सार्दू भृशमुलापं कृ. शिचतः । व्य. १० उ०। श्रा० म०।। स्वेत्यर्थे श्रावा० १०१ चू. ३० ३ उ.नि.चू । परिचियगुब्बसुत-परिचतपूर्वश्रुत पुं० । परिवेतं पूर्वस्मिन् पूर्वपर्याये श्रुतं यस्य स परिवितपूर्वश्चतः । यदि वा परिविच्य अव्य० । पृथक् कृत्वेत्यथै, "परिजविय परिजवि. प्रत्याख्यानगतस्थापि स्वाभिधानमिव परिचितं पूर्वप्रतं य हंता जाव उवक्खाइत्ता भवर।" सूत्र. २१०२०। पूर्वपठितं यस्य स तथा । ततः पूर्वपदेन विशेषणस परिजाणंत-परिजानत-त्रि० । अनुभवति.प्रश्न०१ श्राद्वार। मासः। अभ्यस्तपूर्वाधीते, व्य०३ उ० । परिजिय परिजित-न• परि समन्तात्सर्वप्रकारेजितं परिजि. परिचियमुत्त-परिचितमूत्र-त्रि० । उस्क्रमक्रमवाबनाऽऽदिभिः तम् । परावर्तनं कुर्वतो यत्क्रमेणोत्क्रमेण वा समागच्छति स्थिरसूत्रे, उत्त०१ अ. दशा। तादृशे आवश्यका दौ,अनु. । विशे० प्रा० म.पं.चू। परिचियसत्तया-परिचितसूबता-खी। उत्क्रमक्रमवाचना आ. चू०। दिभिः स्थिरसूबतायाम् , उत्त. १० । श्रुतसंपदभेदे, परिजुम्म परिजीर्ण पि० । असारे, व्य० । व्य०१० सम्प्रति परिजीणशब्दार्थमाहपरिचियसुय-परिचितश्रुत-पुं० । परिवितमत्यन्तमभ्यस्तं परिजुम्मो उ दरिदो, दव्ये धणरयणसारपरिहीणो। स्वीकृतं श्रुतं येन स परिचितश्रुतः । अभ्यस्त ते, भावे नाणाऽऽदाहिं, परिजुलो एस लोगो उ ॥ ३॥ व्य०१उ०1 परिजीमोऽपि चतुर्विधः। तद्यथा-नामपरिजीर्णः. स्थापना. परिचइऊण-परित्यज्य-भव्य० । परित्यागं रुत्वेत्यर्थे, "लो- | परिजीणों, द्रव्यपरिजीणों, भावपारेजीर्णश्च । तत्र नामस्थागसारीणि परिचइऊण पब्धया।" दश २ अ०। पने प्रतीते। द्रव्ये द्रव्यतः परिजीणोनोागमतोशशरीरभव्यपरिच्चा -परित्यज्य-श्रव्य० । परित्यागं कृस्वेत्यर्थे, "हासं प. शरीरव्यतिरिक्लो धनरनसार परिहीनो दरिद्रः। भावे भावतः रियज अलीणगुत्तो परिवए।"श्राचा०१ ९० ३ ० ३ उ.। परिजीर्णो ज्ञानादिभिः परिहीनः एष समस्तोऽपि लोकः । परिचयंत-परित्यजत-त्रि० । अनाददात, पाच १ श्रु०२/ व्य०४ उ० । स्फटितवस्त्रे " परिजुले मे वरथे।" प्राचा०१ १०४ उ.। श्रु०६ १०३ उः। उत्त०। दारिद्रये,स्था०१० ठा0। अपरिपलपरिचाय-परित्याग-पुं०। दाने, अनु० । विमोचने, पखा० वे निःसारे, "अट्टे लोए परिजुम्मे ।' श्राचा०१ श्रु०१ १०२ उ। ११ विव० । उत्त० । संयमे, आचा०२ ० १ परिन-त्रि० । असारे, व्य० । ( एतत्सूत्रगतपरिघुन० ११० शब्दार्थः 'पुढवीकाय' शब्दे वक्ष्यते) परिच्छम-परिच्छन्न-पुं०। परिवारोपेते, व्य० ४ ० । परि परिजुमा परिएना-स्त्री० । परिघूनाद् दारिग्यात्काष्टाऽऽहारच्छन्नः द्रव्यपरिच्छदोपेतः, परिवारसहित इत्यर्थः । भाव कस्येव या सा परिघूना । प्रव्रज्याभेदे, स्था० १० ठा।"प. परिच्छदेन पुनर्द्वयोरपि परिच्छ दोऽस्ति । शिष्याऽऽचार्ययो । रिजमोहि सा भणिता।" पं. भा. १ कल्प । पं. चूछ । (व्य. ४ उ० ) नैयत्येन व्यवस्थापिते, विशे० । श्राच्छा परिजुसार स दमश्री सावरण पब्बाविश्री धम्म सुइ सा. दिते, रा०। हण सगासे भइया ते दोलंति " पं० चू०१ कल्प। परिच्छद-परिच्छद-पुं० । शिप्याऽऽदिपरिवारे, व्य०३ उ०। परिजनअ-परिजीर्ण-त्रिः । परिपक्के, “परिजूरिश्रपेरंतच उपकरण, ना १ श्रु. ५भः । वस्खविशेष, और। लतविटं।" परिजीर्ण पर्यन्तं स्वपरिपाकत एव प्रचला बुन्तं पाच्छिदिय-परिच्छिद्य-प्रज्या ज्ञात्वेस्वर्थ, श्राचा०२ वृक्षात्पतद् भ्रश्यत् प्रसवबन्धनं यस्य तत् पत्रम् । अनु। १०३ उ.! परिज्झामिय परिध्यामित-त्रि०। कृष्णीकृते कृतप्रभाभ्रंश, पारीच्छिएण परिच्छिन्न-त्रि०। गृहीते. प्रा०म० १ ० ! | नि० चू० १ उ०। झाते, श्राव. ४ अ.। परिझुसियसंपन्न-पयुषितसंपन्न-पुं० ! पर्युषितं रात्रिपरिवसपरिच्छित्ति परिच्छित्ति-स्त्री० । यिनप्ता, बिशे। नं तेन संपन्नः पर्युषितसंपन्नः । इदुरिकाऽऽदी आहारभेदे ता परिच्छ-देशी-उरिक्षते, देना.६ वर्ग २५ गाथा। हि पर्युपितकलनीकृता श्राम्लरसाः भवन्ति, श्रारमनास्थिरपरिच्छेज-परिच्छेद्य-ज० । परिच्छेदव्यवहार्थे, ज्ञा०।यद् गुण- ताऽऽम्रफलाऽऽदि वेति । स्था०४ ठा० २ उ.। तः परिच्छधते परीक्ष्यते, यथा-वस्त्रमण्यादि । शा०१७०८परिझसिय-परिजषित-त्रि । सेविते, प्रीत च । " पारश्र०। श्रा० चू०। सियकामभोगसंपोगसंपउत्ते।" 'जुपो' प्रीतिसेवनयोरिपरिच्छेय-परिच्छेक-त्रि० । लघुनि, ौ । शा० । शानधर्मे, ति वचनात् सेवितःप्रीता या यः कामभोगः शब्दाऽऽदिभो. श्रा०म०१०। ग्रहणप्रकारे, श्रा० च०१ श्र०ा था गा मदनसेवा या वत्संप्रयोगसंधयुक्तः। भ०२५श. ७ उ । परिजण-परिजन पुं०। दासीदासादिद्वन्द्वे,विपा० १ १०३ निषेधिते, स्था०४ ठा० ३ उ०। श्रानि० चू० दासाऽऽदिमरिकरे, औ० प्रश्न। शिष्य पर्युषित-न । रात्रिपरिवसने, स्था० ४ ठा०२ उ० । १४३ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवणा निधानराजेन्द्रः। परिदृयगा परिवणा-परिष्ठापना-स्त्री० । परि सवैः प्रकारः स्थापन कथन ?- आत्मसमुत्थं परसमुत्थं च ।'आत्मसमुत्थं च परिष्ठापना । अपुनर्ग्रहणतया न्यासे, श्राव. ४ अ.। परित्या स्वयमेव गृहतः परसमुत्थं परस्माद् गृह्णतः। पुनरकै कमपि द्वि. विधं भवति, कथमित्याह- श्राभोर तह प्रणामोए।" श्रागे, आचा०२९०१चू०११०६ उ० । भोगनम् आभोगः उपयोगविशेष इत्यर्थः तस्मिन्नाभोणे सति, ("उच्चारं १८" इत्यादि (दश०८ अ.) गाथा 'पडिले तथाऽनाभोगे अनुपयोग इत्यर्थः, अयं गाथाऽक्षरार्थः॥४॥ हणा'शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३४८ पृष्ठे व्याख्याता) अयं पुनर्भावार्थो वर्तत(१) परिष्ठापनाविधिः " तत्थ ताव आयसमुत्थं कहं च श्राभोएण होज ? । साहू पारिहावणियविहि, वोच्छामी धीरपुरिसपत्मत्तं । अहिणा खइओ, विसं वा खइयं, विसप्फोडिया वा उट्ठिया, जंणाऊण सुविहिया, पवयणसारं उवलहंति ॥१॥ तत्थ जो अचित्तो पुढविकाो केण प्राणीश्रो सो मग्गि. परितः सर्वैः प्रकारेः स्थापन परिस्थापनम्, अपुनर्प्र- जइ, पत्थि श्रणिली ताहे अप्पणा वि पाणिजर तत्थ हणतया न्यास इत्यर्थः । तेन निर्वृत्ता पारिस्थापनिका, | वि ण होज अचित्तो ताहे मीसो अंतो हलखणणकुडमाईसु तस्या विधिः प्रकारः पारिस्थापनिकाविधिः, तं वक्ष्ये' प्राणिजद, ण होज ताहे अडवीओ पंथ वम्मिए वा दवदअभिधास्ये । कि स्वबुद्धयोत्प्रेक्ष्य ?, नेत्याह-'धीर पुरुषप्रः हुए वा ण होज पच्छा सचित्तो वि घेप्पर त्रासुकारी सप्तम्' अर्थसूत्राभ्यां तीर्थकरगणधरप्ररूपितमित्यर्थः । तत्रै- वा कजं होजा, जो लद्धा सो प्राणिजा, एवं लोणं पि जा. कान्ततो वीर्यान्तरायापगमाद्धीरपुरुषः-तीर्थकरो गणधर- णतो अणाभोइएण तेण लोणं मग्गिय अचित्तं ति काऊण स्तु धीः बुद्धिस्तया राजत इति धीरः । श्राह-यद्ययं पारि- मीसं सचित्तं वा घेतूण अागा, पच्छा णायं, तत्थेव छह स्थापानकाविधि(रपुरुषाभ्यां प्ररूपित एव, किमर्थ प्रति- यवं. खंडे वा मग्गिर एयं खंडं ति लाएं दिन्नं तं पिताह पाचत इति ?। उच्यते-धीरपुरुषाभ्यां प्रपश्चेन प्रशप्तः, स एव चेव विगिचियब्वं, ण देज ताहे तं अधणा विगिवियब्वं, संक्षपरुचिसच्चानुग्रहायह संक्षपणाच्यत इत्यदोषः। किंवि- एवं पायसमुत्थं दुविहं पि । परसमुत्थं आभोगेण ताव सशि विधिमत आह-यं ' ज्ञात्वा' विज्ञाय ' सुविहिताः' | वित्तदेसमष्टिया लोणं वा कजनिमित्तेण दिएणं, मग्गिएण शोभनं विहितम् अनुष्ठानं येषां ते सुविहिताः, साधव इ. श्रणाभोगेणं खडं मग्गियं लोणं देज, तस्लेव दायब्वं, ने. त्यर्थः । कि ? प्रवचनस्य सारः प्रवचनसन्दोहस्तम्. ' उप | च्छेज्ज, ताहे पुच्छिजइ-कओ तुम्भेहिं प्राणीयं ?। जत्थ सालभन्ति' जानन्तीत्यर्थः । हइ तत्थ विनिचिजइ, न साहे न जाणामो ति वा भसा पुनः पारिस्थापनियोधत एकेन्द्रियनोएकेन्द्रियपरि- रोजा ताहे उवल स्खयव्वं वमणंधरसफासहि, तत्थ श्रागरे स्थाप्यव-तुभेदेन द्विधा भवति श्राह परिटुविजाइ, नथि आगरा, पंथ वा वटुंति, विगालो वा जाएगिदिय नोएगि दियपरिठावणियसमासो दुविहा । श्री. ताहे सुक्कगं महुरगं कप्परं मग्गिजा, ण होज कप्पर, ताहे बडपत्ते पिम्पल पत्ते वा काऊण परिविज्जद ॥१॥ श्राएएसं तु पयाण, पत्तेय परूवणं वोच्छं ॥२॥ उक्काए दुविहं गहणं-आयाए णायं अणायं च । एवं परेण वि एकन्द्रिवाः पृथिव्यादयः, नोएकेन्द्रियाः-प्रसाऽऽदयः, तेषां णायं, अणायं च। पापाए जाणंतस्स विसकुम्भो हणिवव्यो, पारिरथापनिकी एकेन्द्रियनोएकेन्द्रियपारिस्थापनिकी. स- विसफोडिया वा सिंचयवा विसं वा खइयं मुरछार वा मासतः संक्षपण 'द्विधा' द्विप्रकाराप्रज्ञप्तोता अनेनैव प्रकारे- पडिओ, गिलाणो वा, एवमाइसु कजोन्सु पुवमवित्तं पन्छा ण, "एपसिं तु फ्याणं, पत्तेय परूवणं वोच्छं।" अनयोः पद- | मीसं, अहुणा धोयं तंदुलादया आउरे करने सचितं पि, योरेकेन्द्रियनोएकन्द्रियलक्षणयोः 'प्रत्येक' पृथक् पृथक् 'प्ररू- कए कज्जे सेसं तन्थेव परिटुविज्जइ न देज्ज ताहे पुच्छि. पणां' स्वरूपकथनां वक्ष्ये- प्राभेधास्य, इति गाथार्थः॥२॥ ज्जइ को आणीयं? । जइ साहेइ, तत्य परिठवेयब्वं श्रा तत्रैकेन्द्रियपारिस्थापनिकीप्रतिपिपादयिषया तस्वरूपमे- गरे, न साहेज्जा. न वा जाज्जा , पच्छा वरगाईहिं उबलवाऽऽदौ प्रतिपादयन्नाह क्खेउ तत्थ परिटुवेइ । अणामोगा कोकणेसु पाणियं अंबिलं पुढवी आउक्काए, तेऊ वाऊ बणस्सई चेव । च एगत्थ वेश्याए अस्था, अविररया मग्गिया भगह एसो गिराहाहे, तेण अंबिलं ति पाणयं गहियं, णार एगेंदिय पंचविहा. तज्जाय य तहा अतज्जाया ॥३॥ तत्थेव बुभेजा, अह ण देह ताहे श्रागरे, पवं अणाभोगा पृथिव्यप्कायस्तेजो वायुर्वनस्पतिश्चैव, एवमेकेन्द्रियाः पञ्च प्रायसमुत्थं, परसमुत्थं जाणं ती अणुकंपाए देइ, ण पते विधाः, एकं त्यागन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रियाः पञ्चवि भगवंतो पाणिवस्स रसं जाणंति हदोदगं दिज्जा, पडिधाः पञ्चप्रकाराः, एतेषां चैकेन्द्रियाणां पारिस्थापनिकी णीययाए वा देज्जा, एयाणि से बयाणे भज्जंतु त्ति णार द्विविधा भवति। कथमित्याह- "तजाय तहा अत जाया" त तथेव साहरियव्वं न देज जो आणि तं ठाणं पुस्छिजातपारिस्थापनिकी, अतज्जातपारिस्थापनिकी च। अनयो ज्जइ, तत्थ नेउं परिविजइ, न जाणेज्जा. वसाईहिं लर्भावार्थमुपरिष्टावक्ष्यतीति गाथार्थः ॥३॥ क्खिज्जद, ताहे णपाणिवं गईए विगिचेजा, एवं तलागपाह-सति ग्रहण सम्भवेऽतिरिक्तस्य परिस्थापनं भवति,तत्र पाणियं तलाए, अगत्याक्सिमाइनु सट्टशिक्षुषागेबिन, पृथिव्यादीनां कथं ग्रहणमित्यत आह जइ सुकं तडागपाणि वडपतं पिप्पलपतं वा अढेऊण दविहं च होइ गहणं पायसमुत्थं च परसमुत्थं च । सणि विगिंचाइ, जह उज्जरा न जायंति, पत्ताणं असईए एकेक पि य दुविहं, आभोगे तह अणाभोगे ॥४॥ भायणस्त कसा जाव हेटा सणियं उदयं अशियाधिज्जा 'द्विविधं तु' द्विप्रकारं च भवति 'ग्रहणं' पृथिव्यादीनां, ताहे विनिविज्जद, अह कूत्रोदयं ताहे जइ कूवतडा उल्ला Jain Education-International Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... परिवा अभिधानराजेन्द्रः । परिवणी तत्थ सणियं निसिरइ, अणुनासो सुक्कतडा होजा उल्लग सो चेव पोरिसिविभागो. दुकुट्टियो चिरं पि होज्जा, परो च ठाणं नात्थ. तहि भाणं लिकरण जडिज्जा, मूले दोरो अल्लगेण मिसियगं चवलगमीसियाणि वा पील्लूणि कूरो. बम, उसकविउ पाणियं इसिमसंपत्तं मूल दोरो उक्खि डियार वा अंतो छोदणं करमद्दपहिं वा समं कंजिश्री प्पड, ताहे पलोइ, नस्थि कूवो, दूरे वा, तेणसावयभयं अन्नयरो बीयकाओ पडिपो होजा, तिलाण वा एवं गह होज्जा. तहि सीयलए महुररुवस्स्स वा हेटा सपडिग्गई णं होना, निबं तिलमाइसु होजा, जइ श्राभोगगहियं घोसिरइ, न होज्ज पायं, ता उल्लियं पुहविकायं मग्गित्ता भाभोगेण वा दिनं विवेगो. अणाभोगगहिए अणाभोग. तेण परिढुवेइ. असइ सुकं पि उरहोदरण उल्लेता पन्छा दिने वा जह तरह विगिचिउं पढम परपाए. सपाए. संपरिटुविज्जा निवाधार विक्खल्ले खडू खाणऊण पत्तपणा थारए लडीए वा पणो हवेजा, ताहे उरई सीपं व णालण विगिंचइ, सोहिं च करेंति, एसा विही, जं पडिानय ऊण विगिचणा एसो वि वणस्तइकाओ परछा अंतो. ताए श्राउकारण मीसे दिरणं तं विगिवेद, जं संजयस्स काए एसिं विगिरणाविही, अलग अलगखेत्ते. सेसाणि पुव्वगहिए पाणिए भाउमाश्रो अणाभोगेण दिएणो जब श्रागरे, असइ आगरस्स निव्याघाए महुराए भूमीए,अंतो परिणी भुंजइ, न वि परिणमइ जेण कालेण थंडिलं पावर वा कप्परे वा पत्ते वा एस विहि ति।" चिगिचियव्वं जत्थ हरतणुया पडेज्जा तं कालं पडिच्छिता विगिचिजहशते उक्वाश्रो तहेव पायसमुत्थो आहोएण सं अत्र तजातातखातपारिस्थापनिकी प्रत्येकं पृथिव्यादीनां जयस्स अगणिकाएण कजं जायं-अहिडको वा डंभिजा, प्रदर्शितैव,भाष्यकार: सामान्येन तल्लक्षण प्रतिपादनायाहफोडिया वा वायगंठी वा अन्त्रवृद्धिा . वसहीए दीहजा- तजायपरिवणा, आगरमाईसु होइ बोद्धया। (श्रो पविट्ठो, पादृसूलं वा तावयव्वं. एवमाईहिं आणिए अतजायपरिवणा,कप्परमाईसु बोद्धव्वा ॥२०॥ कज्जे कए तत्थेव पडिछुम्भइ, ण देति तो तेहिं कट्रेहि तजाते तुल्य जातीये पारिस्थापनिका २. सा आकराऽऽदिषु जो अगणी तज्जाइश्रो तत्थेव विगिचिज्जइ. न हाज, सोवि परिस्थापनं कुर्वतो भवति ज्ञातव्या, श्राकरा:-पृथिव्याद्यान देज्ज वा. ताहे तज्जाएण छारेण उच्छाइज्जइः पच्छा कराः प्रदर्शिता एव, अतजातीबे-भिन्नजातीये परिस्थापअण्णजाइण्ण विः दीवएसु तेलं गालिजह बत्ती य निप्पो निका २.सा पुनः कपरादिषु यथायोगं परिस्थापनं कुर्वतो लिजाइ, मल्लगसंपुडर कीरइ. पच्छा अहाउगं पालेइ भतप बोद्धव्येति गाथाऽर्थः । गतैकेन्द्रियपरिस्थापनिका। चक्खायगाइसु मल्लसंपुडर काऊण अत्यत्ति, सारखिज्जइ. कप कज्जे तहेव विवेमो. श्रणाभेगण खेल मल्लगालो अधुना नोएकेन्द्रियपारिस्थापनिका प्रतिपादयन्नाहयरछारा दिसुनहे व परो आभोरण छारेण दिज्ज वसडीए णोएगिदिएहि जा सा, सा दुविहा होइ आणुपुबीए । अगणि जोइक्खं वा करेज्ज, तहेव विवेगो प्रणाभोरण वि, तसपाणेहि सुविहिया !, नायव्वा नोतसेहिं च ॥ ५॥ एए चेव पूलियं वा सइंगालं देज्जा, तहेव विवेगो॥३॥ वाउकार श्रायसमुत्थं श्राभोरण, कहं ?. वत्थिणा दिइएण एकेन्द्रिया न भवन्तीति नोएकेन्द्रियाःत्रसाऽऽदयस्तैः करवा कजं, सो कयाइ सचित्तो अचित्तो वा मीसो वा णभूतैरिति तृतीया । अथवा-तेषु सत्सु.तद्विषया वेति सप्त. भवद । कालो दुविह।-निद्धो, लुक्खो य । णि द्वा तिविहो मी । एवमन्यत्रापि योज्यम । याऽसौ पारिस्थापनिका सा द्विउकोशागइ। लुक्खो वितिविहो-उकोलाइ उक्कोप्सए सीर विधा' द्विप्रकारा 'भवति 'श्रानुपूर्व्या ' परिपाट्या । द्वैविध्यजाहे धंतो मघद ताहे जाव पढमपोरिसी ताव अवित्तो मेव दर्शयति (तसपणाह सुपिहिया णायव्या णोतसोहिं च) बितियाए मीसो, ततियाए सत्चित्तो, मज्झिर सीर बि-| नसन्तीति त्रसाः. प्रसाश्च ते प्राणिनश्चति समासस्तैः कतियाए प्रारद्धो, च उत्थीए सचित्तो भवद मंदसीए तह रणभूतैःसुविहितेति सुशिध्याऽऽमन्त्रणम् , अनेन कुशिष्याय याए भारद्धो पंचमार पोरिसीए सचित्तो उराहकाले मं न देयमिति दर्शयति, सातव्या विज्ञेया (नोतसेहिं च) दउराहे मन्झ उक्कोसे दिवसा नवरि दो तिहि पंच य; एवं त्रसा न भवन्तीति नोत्रसा आहारादयस्तैः करणभूतैरिति वत्थिस्त दयस्त पुबद्धतस्स पसेव कालविभागो, जो गाथाऽऽर्थः॥५॥ पुण ताहे चेव धमिता पाणियं उत्तारिजइ, तस्य पढ- तसपाणेहिं जा सा, सा दुधिहा होइ आणुपुनीए । मे हत्थसए अचित्तो बितिए मीलो, तइए सबित्तो, काल- विगलिंदियतसेहि. जाणे पंचिंदिहिं च ॥ ६ ॥ विभागो नरिथ, जेण पाणियं पगतीए सीधलं, पुवं अ त्रसप्राणिभिर्याऽसौ सा द्विविधा भवति श्रानुपूा, 'विचित्तो मग्गिज इ, पच्छा मीसो, पछा सचित्तो त्ति । अणा कलेन्द्रियाः ' द्वन्द्रियाऽऽदयश्चतुरिन्द्रियपर्यन्तास्तैस्त्रसैश्व, भोपण एस श्राचत्तोत्ति मीलगसचित्ता गहिया, परो वि (जाणे त्ति) जानीहि पञ्चेन्द्रियश्चेति गाथाऽर्थः ॥ ६॥ एवं चेव जाणंतो वा देजा. अजाणतो वा. णार तस्लेव अणिच्छंते उबरगं सकवाडं पविसिता सणियं मुंचइ, प विगलिदिएहि जा सा, सा तिविहा होइ आणुपुचीए । च्छा सालार वि, पच्छा वणणिगुंजे महुरे, पच्छा संघा बियतियचउरो यावि य, तज्जाया तह अताया ॥७॥ डियाश्रो वि जयणाए, एवं दइयस्स वि, सवित्तो वा अ. विकलेन्द्रियैर्याऽसौ सा त्रिविधा भवति श्रानुपूा, (वि. चिता वा मीसो वा होउ सव्यस्स वि एस विही, मा | यतियचउरो यावि य) द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियांश्चाअमं विराहेहि त्ति ॥४॥वण स्सइकाइयस्त वि पायसमुत्थं धिकृत्य, सा च प्रत्येकं द्विभेदा, तथा चाऽऽह-(तजाया त. श्राभाएण गिलाणाइकजे मूलाईण गहणं होजा, अणामो- हा अतज्जाया) तज्जाते तुल्यजातीये या क्रियते सा तजा. पण गहियं भत्ते वा लोट्टो पडिश्रो, पिगं वा कुलाबा, ता.तथा प्रतज्जाता-श्रत जाते या क्रियत इति गाथाऽर्थः ॥७॥ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवा 66 भावार्थस्वयम् - सुद्धा 'बेइंद्रियाणं श्रायसमुत्थं जलोगा गंडाइसु कज्जेसु गहिया तदेव विर्गिरि सनुया वा आलेचणनिमित्तं ऊर सियासता गहिया विसोहिला आयरे बिगिचेति. सर आागरस्त सनद समं निव्यापार संसदेचे पा कत्थर होज्ज अणाभोगगहणं तं देतं चैव न गंतव्यं, अ. सिवाईईि गमेज्जा जत्थ सुतया तथ्य कूरं मग्गह न लहर तद्देवसिय सतर मग्गर, असईए बितिए जाव ततिए, असर पडिले हिय २ गिरहइ, वेला वा अरक्कमर, श्रद्धाणं वा, किया या मधे घेति उज्जा देउले पडिलयल या बारिता पत्थरिऊणं उपरि एवं परामसिणं पडलं सत्य पति तिथिमा गरि ज सादे पुणे पाओ तिरिस मुट्ठियो गढाव परिमुज्जति गम्मि दिद्वे पुणो वि मूलाच परिसेदिति ले जत्थ पाणा ते मलए सत्तुरहिं समं ठावज्जति, आगरारसु विfies, नटिथ बीयरहिपसु विगिवर, एवं जन्थ पा यं चि बीयपाए पडिलेहित्ता उन्गाहिए हुम्भर, संस जायं रस ताहे सपडिग्गदं बोसिरउ नत्य पापं ताहे अंबिल पाडिदारियं सम्प को लहेज्ज सुरू अलि उऊ असर अण्णम्मि बि अंधिलिबिया छोरा वि निचर, मथि चीराह र चिनियर, पच्छा परिसर पा डिहारिए वा अपाडिहारियं वा तिकालं पाडलेहेइ दिले दिणे, जया परिणयं तदा विर्गिवर, भायं च पडिश्रप्पिज्जर, नत्थि भायणं ताहे अडवीय अणगमणपहे छाहीए जो विवाह तस्य निनिधित्ता पस खाले जयराम कुम्भर, एक्कलि पाणपणं भमाडेर, तं पि तत्थेव कुम्भ एवं तिनि वारे, पच्छा कप्पे सरहकट्ठेहि य मालं करेति चिक्खिलेगं लिपर कंटयछ याए म उच्छा एइ, तेरा य भाणपणं सीयलपाणयं ण लयइ. श्रवसावणेण कूगाय भाषा पोति या दिवसे, संत च पाय असं न परे विसंखिज्जर, सं गहाय न हिंडिजर, विराहणा होज, संसत्तं गहाय न समुद्दिजिज परिस्संता जे दिडंति ते लिि य पाणा दिट्ठा ते मया होज्जा, एगेण पडिलहियं बीएण सपिणं सुद्धं परिभुजंति एवं बेव महिय व गालिय दहियस्स नपणीयस् य का विही है। महीर एगा उट्ठी छुम्भ, तत्थ तत्थ दीसंति, असा महियस्त का बिही है। गोरसघोषणेपणा उपोदयं सिपलाविज, प च्छा महुरे चाउलोदर. तेसु सुद्धं परिभुज्जर, असुद्ध तद्देव विवेगो दहियरस, पच्छयौ उयन्ता णियत्ते पडिले हिज्जइ. तीरार सुते विपस बिडी परोचि आभोगानोयार ता णि दिखा दियाण गहवं संवपासा पुण्यमणि विही तिलकीडया वि तद्देव दहिए वा रल्ला तहेव छगकिमिश्री व तदेव संधारगो वा गहिओ घुणाणा गाए तहेव तारिस कडे काजिर उद्देद्दियाहि गर्दिए पत्ति यत्थि तस्स विविणा तांडे सिवि सोडा त्यति लोप छन्पहयाउ विसामिज्जति सत्तदिवसे, कारणगमणं साहे सीयलट तिच्यावाए। चाणं तदेव आगरे निच्या arr विवेगो कीडियाहि संसत्ते पाणए जर जीवंति विप्पं गलिज, बड़े पांडया लवाडे हत्थे उद्धरेवाले (KOR) अभिधान राजेन्द्रः | परिवा वडयं चैव पाणयं होष एवं मक्खिया वि, संघाडपण पुरा एगो भत्तं गेराहर, मा चैव छुम्भइ बीचा पाणयं, हत्था - लेवाडो चेव, जर वि कीडियाउ महयाउ तह वि गलिअं - ति इहरहा मेहं उवहसंति, मच्छिगर्दि यमी हवर जर तंदुलोमा पूरओ ताई पगाते भय दुहिता पोसेन ददरओ कीर, ताहे कोसरणं खोरपण या उ 2 पण पाणण समं विचित्र आउका गमिता का गहाय उदयस्स ढोइजर, ताहे अप्पणा चैव तत्थ पडर, एवमाह दिया पुलिया कीडिया संससिया होखा, सुखो वा कुरो, तांदे खरे विसरत ताओ पविसंति, मुत्तयं च रक्खि जर जाव विप्पसरियाओ। । चउरिदियाणं असमक्खिया अक्विाम्म अक्खरा उकरिअर सिघेप्पर परइन्थे भने पापा हमा तं श्रसणिजं. संजयहत्थे उद्धरिज्जर, नेह पांडा छारेण गुंडिज. कोत्थलगारिया वा बच्छत्थे पाए वा घरं करेजा विषे असा अमिय घर संकामि अंति, संधारण मंकु गरि समाये पायजति बेला पडिलेहिज्जेत दिवसे २ संसज्जर, ताहे तारिसपाहि वेब कट्ठेहिं संकामियंति, दंडर एवं चेय, भमरस्स वि तद्देव विवेगो, सनंपुर सदस्य विवेगो, तरवस पुण्यभडियो विगो बसमा जहा विभासा काव्या।" गता विकलेन्द्रियपरिस्थापनिका । श्राव० एडीहस्याहारस्य परिहाप्यत्वं गोवर चरिया' शब्दे तृतीयभागे ६६६ पृष्ठे उक्क्रम् ) (२) उदकंससक्तस्याहारस्य परिष्ठापनिका । तत्र सूत्रम्निर्णयस्स व गादावरफुलं पिंडवापडिया अणुप्पविइस तो पडिग्गहंसि दगे वा दगरए वा दगफुसिए वा परियावज्जा से य उसिये भोषणजाते भोतव्ये सिया, से य सीए भोयणजाते, तं नो अपणा मुंजेज्जा, नो असिं अणुपदे एते बहुफ हुए थंडिले पडिलेरिया, पमज्जित्ता परिवेयव्ये सिया ॥ १२ ॥ अस्य संबन्धमाहआहारविहरी वृत्त, श्रयमो पारागस्स आरंभो । कायच काssहारे, कायचउकं च पाणन्मि ।। २१७ ॥ आदारविधि पूर्वसूत्रे उक्तः अयं पुनरन्यः पान विि प्रतिपादनाय सूत्रारम्भः क्रियते । तथा श्राहारोऽनन्तरसूत्रे प्रामहणन असा बीज वनस्पतिका रहन पृथिव्यग्निकायाविति काय चतुष्कसुक्तम् । इहापि पानककायचतुष्कमुच्यते तज्ञ शीतोदकमप्काय उष्णोदकमझिकायो मा लिकेरपानकादि वनस्पतिकायो. दुग्धं सकायः एवं चत्वा रोsपि काया श्राप संभवन्तीति । श्रनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्य व्याख्या निरूप पति पिण्डपातप्रतिज्ञा प्रविष्टस्यान्तः प्रतिम्रपानमध्ये या भूतका पंदकर वाद विन्दुकस्य शर्त वा उदराः प पतेः तचोष्णं भोजन जातं ततो भोज्यम् । अथ शीतं तत् भोजन जातं ततस्तन्नाऽऽत्मना भुञ्जीत. नान्येषां प्रदद्यात् । एकाबहुप्रा प्रदेशे परिहापवितव्यं खादिति । Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवा अथ भाष्यम् परिमाणे णाणतं, दगविंदु दगरयं वियाणाहि । सीभरमो दगसितं, सेसं तु दगं दव खरं वा ॥२१८॥ दकरजप्रभृतीनां परिमाणकृतं नानात्वम्। तथाहि यस्तावदकविदुर एकरजी विजानीहि ये तु सीराः पानीये - म्यत्र क्षिप्यमाणे उदकशीकरा श्रागत्य प्रपतन्ति ते दकस्पर्शितम् । शेषं तु यत्प्रभृतमुदकं तद्दकमिति भएयते । तच्च द्रवं या, खरं वा भवतीति विषमपदव्याख्यानं भाष्यकृता कृतम् । सम्प्रतिनियुक्तिविस्तरः ( ५७३ ) अभिधानराजेन्द्रः । एमेव वितियमुत्ते, पलोगण गिरहणे य गहिते य । अखभोगा अनुकंपा, पंतचा वा दगे देजा ।। २१६ ।। अधस्तनाद्वारसूत्रादिव द्वितीयमुच्यते तत्र द्वितीय सूत्रेऽप्येवमेव विधिः प्रीतेच. पानके लोकना प्रत्युपेक्षणा पिण्डस्येव मन्तव्या । तच्चोदकं त्रिभिः कारणैदयात् तद्यथा ( अणभोगा इत्यादि) नागेन काचिद गारी एकत्रैव काञ्जिकं पानीयं नास्तीति कृत्वा काञ्जिकं दास्यामीति बुद्धयाऽपि स्मृतिवशात् शीतलं जलं दद्यात् । अनुकम्पया या ग्रीष्मसमये दमाकान्तं साधुं शीतलं जलं पिवेदिति बुद्धया काचिदुदकं दद्यात् । प्रान्ततया प्रत्यनीकतया वा काचित् मिथुका33पासिका पतेषामुदकं न कल्पते, तो व्रतभङ्गं करोमीति बुद्ध्या साधूनामुदकं दद्यात् । अथालेय विधिमाह सुद्धम्मिय गहियम्मी, पच्छा गाते विचिए विहिणा | मीसे परूविते उ-एहसीतसंजोगे पढभंगो ।। २२० ।। यदि तदुदकं शुद्धे रिक्शे प्रतिग्रहे गृहीतं पश्चाद् ज्ञात्वा ग्रहणामन्तरं ज्ञानं यथोदकमिदं ततो विधिमा विविया परिष्ठापयेत् । (मीसे त्ति ) यत्र प्रतिग्रहे पूर्वमन्यद्रव्यं गृहीतं पश्चात् तु पानीयं पतितम् एतन्मिश्रमुच्यते । तत्र मिश्रे उष्णशीतसंयोगे चतुर्भङ्गयाः प्ररूपणा कर्त्तव्या । तरि प्रतिगृहे यद् गृहीतं वा परिष्ठापनविधि:तत्थेव भायणम्मी, लग्भमाणे व आगरसमीवे । सपडिमा विचि, अपरिस्सएँ उल्लभाणे वा ।। २२१ ।। यतो भाजनाविरतिकया इस तवैवेदमुदकं प्रक्षिपति अथ सा तत्र प्रक्षेप्तुं न ददाति तत एवमलभ्यमाने सा पृच्छते - कुतस्त्वयेदमानीतम् ?, ततो यस्मात् कूपसरः प्रभृते करसमीपात् नीतं तस्य समीप गत्या परिष्ठापनिकामियुक्ति भणितेन विधिना परिष्ठापयेत् । अथवा सप्रतिग्रहमपि सीमस्य छायायामेकान्तं स्थापयति । अथ प्रतिमोन्यो न विद्यते ततो यदपरिश्रावि घट्यादिकमाईजलभावितं तत्र प्रक्षिपति । 3 श्रथ पूर्वसन्यद्रव्ये गृहीते पतितं तत इयं चतुर्भङ्गीदव्यं तु उहसीतं सीतुरहं चैव दो वि उरहाई । दोहि वि सीताई चा - उलोद तह चंदघते य ॥ २२२ ॥ इह द्रव्यं चतुर्द्धा । तद्यथा- किञ्चिदुष्णं शीतपरिणाम् १, श्रपरं शीतमुष्णपरिणामम् २, श्रन्यदुष्णमुष्णपरिणामम् ३, अपरं श्रीशीत परिणामम् ४ अथाऽऽसत्यात्प्रथमं चतुर्थ વ परिचया व्याख्याति - (चाउलोदक इत्यादि ) तन्दुलोदकं चन्दन घृताssदीनि द्रव्याणि शीतानि शीतपरिणामानि । तृतीयमङ्गमाद चावजिय, जति उसियासि तो विवागे बी । दिदी, उसिया वि त गता सीता । २२३ । श्राचामाऽऽम्ल काञ्जिकादीनि द्रव्याणि यद्युष्णानि ततो विपाके परिणामेऽपि तान्युष्णान्येव भवतीति कृत्वा तृतीयो भङ्गः । यानि पुनरुष्णोदकपेयाऽऽदीनि द्रव्याणि तान्युष्णान्यपि तनुं शरीरं गतानि शीतानि भवन्तीत्यनेन प्रथमो भो व्याख्यातः । अथ द्वितीय व्यावसुताऽऽह अब कंजिय, पणोदसी ते लोखगुलमादी | सीता वि होंति उसिया, दुहतो उराहा व ते होंति ॥ २२४ ॥ सुतं मदिराखाली देशविशेषप्रसिद्ध वा कश्चित् द्रव्यविशेषः, तदादीनि यानि द्रव्याणि यच्चाऽऽम्लं काञ्चिकं म स्ता व घनविकृतिरतं वदश्वित्तकं यच्च तैलं व गु डो वा. एवमादीनि द्रव्याणि शीतान्यपि परिणामत उष्णानि भवन्तीति द्वितीयभद्रे अवतरति अथ तान्युष्णानि तत उष्णान्युष्णपरिणामानीत ती भने प्रतिव्यानीति । आह कतिविधः पुनः परिणाम इति उच्यते?, परिणामो खलु दुविहो, कायगतो बाहिरो य ददद्वणं । सीसित पिय आगंतु तदुब्भवं तेसिं ॥ २२५ ॥ इव्याणां परिणामो द्विविधः-कायगतो बाह्यगतश्च । तत्र का येन शरीरेणाऽऽहारितानां इव्याणां यः शीताऽऽदिकः परिणामः स काय गतः । पुनरनाहारितानां स बाह्यः परिणामः शी तो वा स्यादुष्टो वा तदपि च शीतोष्णत्व च तेषां प्रयाणां द्विआगन्तुकं स - उजयमपि व्याचष्टे सामारिया परिणामिया च सीताऽऽदय तु दव्वाणं । सरसमागमेण उणियमा परिणाम तेसिं ॥ २२६ ॥ स्वाभाविका वा परिणामिका वा शीधाऽऽद यः पर्याषाः द्रश्याणां जवन्ति । तत्र स्वाभाविका यथा हिमं स्वनावशीतत्रमतापोद के स्वभावादेवोष्णम् । पारिणामिकास्तु पर्यायायात ssदि बाह्यकारणजनिताः । तथा चाऽऽह - (श्रसरिस इत्यादि) असदृशेन वस्तुना सह यः समागमो मीलकस्तेन नियम्मा तेषां ब्रयाणां परिणामः पर्यायान्तरगमनं नवति । यथोदाsse शीतलस्याप्यग्नितापेनाऽऽदित्यरश्मितापेन वा उष्णतागमनम्। नदेव सुव्यक्तमाह सीया वि होंति उसिया, उसिया वि य सीयगं पुत्रस्येंति । दव्वंतरसंजोगं, कालसभा व आज ।। २२७ ।। द्रव्यान्तरेणाग्निजला ऽऽदिना संयोगं संबन्धं कालस्य च ग्रीमहेमन्ताऽऽदेः स्वभावमासाद्य, शीतान्यपि द्रयाण्युषणानि ज. वन्ति, उष्णान्यपि च सीततां पुनरुपयन्ति । श्रयमागन्तुकप रिणामो मन्तव्यः । श्रयं पुनस्तदुःताचोदनं तु उसिणं, सीया मीसे व सेगा आरो एमेव से सगाई, रूबी दवाइँ सव्वाई ।। २२८ ॥ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७४) अभिधानराजेन्द्रः। परिदुवा परिवणा सापोलकं स्यजाबादेवोष्णं, शेषा आपो ऽकामाख्याणि शीता- मज्झिल्लभंगएK, चिरं पिचिट्टे बहुं छूढं ॥ २३३ ।। नि, मिश्राणि वा शीतोष्णाभ स्वभाबानि मन्तव्यानि । एवमेव यत्पुनर्विधायुष्णं, उष्णे उष्णं पतितमित्यर्थः। तत्परिणाशेषापयकायविरहितानि यानि यानि सी एयपि रूपितव्या. मतः परस्परं समं तुल्यं नवेत । अतिरिक्तं वा द्वयोरेकतरमणि तानि कानिचिदुष्णानि यथाऽग्निः, कानिचित् शौतानि, य. धिकतरं, तत्राऽपि तत्कणादेव, सच्चित्तभावो नापगच्छतीति था हिम, कानिचितु शीतोष्णानि, यथा पृथिवी । याक्यशेषः। यौ तु मध्यमौ भावुष्णे शीतं पतितं, शीते वा एएण सुत्त न गतं, जो कायगताण होइ परिणामो। उष्णं पतितमिति अक्षणौ, तयोः स्तोक बहु प्रक्रिप्त चिरमपि सीतोदगमिस्सियम्मि उ,दबम्मि उ मग्गणा होति ।२०४।। सचित्तं तिष्ठेत, ततस्तदपि तिनं चिरेण वा विवेचनीयमः। य एष कायगतानामोहारितानां द्रव्याणां परिणाम उक्तो, मै. अथोदकस्यैव परिणमनलकणमाहतेन सत्रं गतं, किं तु शीतोदकमिश्रितेन सचिचोदकमिश्रेण वएणरसगंधफासा,महदव्वे जम्मि उक्कडा होति । द्रव्येणे हाधिकारः। तह तह चिरं न चिट्ठइ,असुभेसु सुभेसु कालेणं ।।२३४॥ तन घेयं मार्गणा भवति यस्मिन् अव्ये यथा वर्णगन्धरसस्पर्शी उत्कटतरा भवन्ति, दुहतो थोवं एक्के-क्कएण अंतम्मि दोहि वी बहुगं । तथा तथा तेन व्येण सह मिश्रितमदकं चिरं न तिष्ठति, विप्रं भावुगमभावुगं पि य,फासाऽऽदिविसेसितं जाण ॥२३०।। विपतरं परिणमतीति भावः । किमविशेषणेत्याह-ये अशुना इह पूर्वगृहीते द्रव्ये यथा शीतोदकं पतति तदेयं चतुर्भङ्गो वर्णाऽऽदय उत्कटास्तेष्वेव कि परिणमति,ये तु शुभा वांss. (दुहतो थोति ) स्तोक पतितमिति प्रथमो भङ्गः । (एकिक दयस्तेकटेषु कालेन परिणमति, चिरादित्यर्थः । एणं ति)स्तोके बहुकं पतितमिति द्वितीयः । बहुके स्तोकं प. अत्रे निदर्शनमतितमिति तृतीयः । ( अंसम्मि दोहि वी बहुगं ति) बहु के ब. जो चंदणे कडुरसो, संसट्ठजले य दूसणा जा तु । हु पनितमिति चतुर्थः । यद् व्यं पतति यत्र वा पतति उद्भा- सा खलु दगस्स सत्थं, फासो उ उवग्गहं कुणति २३॥ वुकमभावुकं वा स्पर्शाऽऽविविशेषितं जानीयात् । किमुक्तं इह तन्दुलोदकं चन्दनन क्वाऽपि मिश्रित, नत्र चन्दनस्य यः भवति ?-स्पर्शरसगन्धैरु कटमयानि यदपराणि द्रव्याणि स स्या कटुको रसः स तन्दुलोदकस्य शस्त्रं परं यस्तदीयः स्पर्शः ऽऽदिभिः भावयति परिणामयति तद्भावुकम् , तद्विपरीतमभा शीतलः स जलस्योपग्रहं करोतीति कृत्वा चिरेण परिणमति, खुकम् । ये च स्तोकादपदाभ्यां चत्वारो नाः कृतास्तेषु प्रत्ये. एवं संसटजलस्याऽपि या दूषणा अम्ल रसता,सा उदकस्य शस्त्र, कममी चत्वारो भङ्गा भवन्ति-नुगमुष्णं पतितम् १, उणे शीतं स्पर्श शीतलस्वादुपग्रह कारी, अतश्चिरेण परिणमान । पतितं १, शीते उष्णं पतितं ३, शीते शीतं पतितम् ।। एतेषु विधिमाह घयकिट्टविस्सगंधो, दगसत्यं मधुरसीतलं ण घतं । चरिमे विगिंचियव्वं,दोसु तु मझिल्ल पडिएँ भयणा उ । कालंतरमप्पुमा, अंबिलया चाउलोदगस्स ।। ३३६ ॥ खिप्पं विगिंचियवं, मायविमुक्केण समणेणं ॥ २३१ ।। घृतस्य संबन्धी या किट्टस्तेन यश्च विश्रोगन्धस्तारकस्य चरम नाम यस शीते शीतं पतितं नत्पनः स्वो चाहतोक। शखं, यत्तु रसेन मधुरं स्पर्शेन च शीत घृतं, तदुपराई क. पतित,बहुलं पतितं नषेत्; उभयमपि क्रिम विक्तव्यं परिष्ठा रोतीति शस्त्रं न भवति । अतश्चिरात्परिणमलि, तथा कुकुसैपमितव्यम् । इयोस्तु मध्यमयोभङ्गयांरुष्णे शीतं पतितं,शीते उ. रभिगुलिस्तन्मुलोदकस्योष्णता यत्कालान्तरणोत्पन्ना साऽपयु. मां पतितमिति लवणयोवृदयमाणा भजना भवति । यः पुनरुष्णे दकस्य शस्त्रं भवति । उषणं पतितमिति प्रथमोजकः तत्र तत्कणादेव सचिसभा अन्तुक्कते जति चा-उलोदए छुज्झते जलं असं । घो नापगब्बततिकृत्या तिप्रमेव मायाविमुक्तेन श्रमणेन दोष्टि वि चिरपरिणामा,भवति एमेव सेसा वि ॥२३७।। 'तन विवेचनीयम् । मायाविनुलग्रहणेनेदं शापयान-श नं परि- अव्युत्कारते अपरिणते तम्मुखोदके यम्यापर सचिसं ज. छापयितुकामोऽपि यावत स्थगिमलं गच्छति तावनत अत्रि- संप्रतिप्यते, ततो भयुवके निरपरिणामे प्रयत: शेधासाततं, ततः परितुते, न परिष्ठापयति । मथ मातृस्था मेन म. पयपि यामि संस्एपान के (?) पानकाssीमि तेष्वपि सधि मगति, चिन्तयति च तिष्ठतु सायरपश्चात्परिणत सोषकं यदि प्रक्षिप्यते, तत परमेष ताम्यपि बिरापारपरिरहये, एवं मायां कुर्वतः स्थपिडलार्वाक परिणत- मन्तीति। मपिन कुहते। मथ द्वितीय पदमाहअध मध्यमभावयनजनामाह थंडिल्लस्स अलंभे, अद्धाणोमभासिबे गिलाणे य । थोवं बहुम्मि पडियं, उसिणे सीतोदकं ण उज्झती। । सुद्धा अविचिंता श्रा-उट्टिया गेएहमाणा वा ॥२३॥ हंदि जाब विगंवति,भावेजति तावती तेण ॥२३२॥ स्थएिकलस्याला भपरिणतपानकमपरिष्ठापयतोऽपि गुखाः। यदुके पूर्वगृहीते स्तोक पतितमित्यत्र यदुष्णे बहके शीतोदगं अप्रामाशियग्नामादिकारणेषु पानकस्य धर्मभतायामविगिस्ता पतितं तदा नो ऊति कुत इत्याह-हन्दीत्युपदर्शने, याव. चयताऽपरिष्ठापयन्त प्राकुट्टिकया वा जानम्तोऽपि गृहन्तः त विचिनक्ति तावसत् स्तोक शीतोदकं तेन बहुके नोषणेन शुकाः । ०५ उ.। भाउपते परिणामित क्रियते, ततः परिभोक्तव्यं तदिति भावः। अधुना पञ्चेन्डियत्रसपारिस्थापनिकां पितराव नाहजं पुण दुहतो उासणे, समातिरेगं च तक्खणा वेव । । पंचिदिएहि जा सा, सा दुधिहा होइ आणुपुब्धीए । Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवगा (५७५) प्रन्निधानराजेन्द्रः। परिद्ववया पणुएहिं च सुविहिया!, नायव्या नो य मणुएहिं ॥८॥ बेज्जो व लयं तस्सव, सप्पिस्सा वा गिलाणस्स ॥१॥ पञ्च-पशाहीनीनिवाणि येषां ते पञ्चेन्डिया: मनुष्याऽऽइय. गुरुणो व अपणो वा, णाणाई गिएडमाणि सपिहिम्। स्तैः करणततस्तेषु वा सत्सु तद्विषयाऽसौ पारिस्थापनिका सा चरणदेमाणिते, तप्पे भोमासिहि वा ॥२॥ विविधा भवत्यानुपृष्या -मनुष्यस्तु सुविहिताः! सातव्या, 'नोम एपी हूँ कारणेडिं, आगाढेहिं तु जो न पन्चाये। नुध्यैश्च ' तिय ग्भिः, चशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः। इति गाथा पंझाई सोनसय, कप उ कज्जे विगिचणया ॥३॥" करार्थः ॥ ८॥ भावार्थ तूपरिणाद्वक्ष्यामः। जो सो असिवाकारणेहिं पन्चाविज नपुंसगो सो दुधि हो-जाणश्रा य, अजाणो य, जाणभो जाणजह साणं मणुएहिं खलु जा सा, सा दुविहा होइ आणुपुवीए। न वट्ट नपुंसओ पवावे, अयाणी न जाण, तत्थ जा. संजयमणुएहिं तह, नायव्वाऽसंजएहिं च ।।६।। तो पम्म विजाइ-जह ण व तुज्झ पध्वजा. णाणाइममामनुष्यैः स्खलु याऽसौ सा विविधा भवति प्रानुपूर्या-संयत- विराहणा ते भविस्त, ता घरत्यो चेव साहूर्ण बसु, तो ते मनुष्यः,तथा ज्ञातव्याऽसयतैश्चति गाथाऽथैः ॥६॥जावार्थ त. विला निज्जरा भविस्स, जइ इच्छह लटुं, मह न इच्छा, परिष्टावक्ष्यामः। तो तम्स, आयाण यस्स य कारणे पवाविज्जमाणाणं श्मा संजयमणुएहि जा सा, सा दुविहा होइ आणुपुच्चीए । । जयणा कीरइसञ्चित्तेहि सुविहिया !, अच्चित्तेहिं च नायव्वा ॥१०॥ कडिपट्टए य छिहली, कत्तरिया भंड लोय पाढे य । 'संयतमनुष्यैः' साधुनिः करणभूतैर्याऽसौ पारिस्थापनिका धम्मकहमनिराउल, ववहारविकिंचणं कुजा ॥ १३॥ सा द्विविधा भवत्यानुपूर्ध्या-सह वित्तेन वर्तन्त इति सचि कटिपट्टकं चास्य कुर्यात, शिखां चामिच्छतः कर्तरिकथा सास्तैः, विद्भिरित्यर्थः । सुविहितति पूर्ववत ।" अचित्तेहिं च केशा पनवनं (कुत्ति) मुरामनं वा. स्रोचं वा, पाढं च विष. सायच ति।" अविद्यमानचित्तैश्व,मृतरित्यर्थः । ज्ञातव्या विझे रीतां धर्मकयां संझिनः कथयेत् , राजकुले व्यवहारम,इत्ध वि. येति गाथाऽकरार्थः॥१०॥ गिश्चनं कुर्यादिति गाथा करायः॥१३॥ भावार्थस्स्वयम-"पव. इत्थं ताबदुद्देशः कृतः । अधुना जावार्थः प्रतिपाद्यने,तत्र यथा यंतस्स कमिपट्टओ से कीरक, भण्इ य-अम्हाण पब्धयंता. सभित्तसंयतानां ग्रहण परिस्थापनिका लम्भवस्तथा प्रतिपादयः ण एवं चेष कयं, सिहबी नाम सिहा. सा न मुंमिजा, सो ओ ण कीर, कत्तरीए से केसा कपिज्जति, बुरेण बा मुं. नाह डिज, नेकमाणे लोश्रो वि कीर, जो नजर जणेण जअणभोग कारणेण व नपुंसमाईसु होइ सञ्चित्ता ।। हा एस नपुंसगो, अनजंते वि पवंचव कीरजणपायवासिरणं तु नपुंसे, सेसे कालं पडिक्खिजा ॥११॥ निमित्तं, वर जणो जातो जहा एस गिहत्थो चेव । पाढछाभोगनमाभागः उपयोगविशेषः, न ग्राभाग अनाभागस्तेन, | गहणण सुविह। सिक्खा-गहणसिक्खा, भासेयणसिक्खा 'कारणेन वा' अशिवाऽऽदिवकणेन, 'नपुंसकाऽऽदिषु' दीक्तेिषु य, तरथ गहणसिक्खाए भिक्समाईणं मया सिक्वविजं. सासु, भवति 'सचित्ता' इति व्यवहारतः सचित्तपनुष्यसंय ति, अगिछमाण जाणि ससमए परतिस्थियमयाई ताणि यत परिस्था पनि केति भावना । अादिशब्दाजड्डाऽऽदिपरिग्रहः। तत्र पाढि जंति, तं पि अणिते ससमयवत्त वयाप थि अन्नाति. चार्य विधिः योऽनाभोगेन दकितःस आभागित्वे सति व्युत हाणेहि अत्यविसंवादणाणि पाढि जति, अहवा कमेणं उद्धसृज्य ते, तया चाऽऽह-" बोसिरणं तु नपुस ति।" व्युत्सृजनं स्थपद्वत्था से मालावया दिज्जति, एसा गहण सिक्खा, परित्यागरूपं नपुंसके, कर्तव्यमिति वाक्यशेषः । तुशब्दोऽना. श्रावणसिखाए चरणकरण । गाहिज्जर, किंतुभोगहीक्कित इति विशेषयति, " सेसे कालं पमिक्खि जति" "वायार गोयरे येर-संजुओ रत्ति दूरे तरुणाणं । शेष:कारणी कितो, जहाऽऽदिर्धा, तन"काम ति" यावता गा। मम पितभो, थेरा गाहिंति जसेणं ॥१॥ कासन कारणममाप्तिर्भवत्येतायतं कालं जहाऽऽकी बक्यमाणं वेगकहा चिसया-यर्णिदा निलियणे गुत्ता। व प्रतीत्येत, न ताघट ब्युत्सृजेत् । इति गाथाऽकरार्थः ॥११॥ चुनखलिए य बहुसो, सरोसमिव तजाए तरुए। ॥२॥" मध कि तरकारणं येनासौदीयत इति ?, तमानकों सरोसं तजिउजर पर बिप्परिणमंती-" धम्मकहा पाहिति कारण मुफ्तशय माह प, कयकजा पा से धम्ममावति । माहय पर पि लोयं, अपुष्षया रिकामणो तुकं ॥१॥"समितिकार। एवं पत्र. भसिवे भोमोयरिए, रायढे भए व भागाः । विभी जाहे मेडछा, माहे-"सभिखारकम्मिया था, भेसिति गेल. उत्तिमडे, नाणे तवदंसणचरित्ते ॥ १२ ॥ कमो रेस संमिग्गो । नियसषा विक्निो , एपी प्रशिय' व्यानरकृतं व्यसनम् , 'अवमौदर्य 'निक, रा. मनाएँ पहिसेहो ॥१॥" सम्धी-सावभो बरकंमिमी भर जछि' राजा हिट इति, 'भयं ' प्रत्यनीभ्यः , 'पागाई' भृ- नहो या पुठवगमिओ तं भेसे को पस तु मक्के शम, अयं वागादशम्दः प्रत्येकमनिसंबध्यते प्रशिधादिषु ।। नपुंसी ? सिग्घं नासत, मा णं वधरोवेहामो त्ति, साहुणो वि मानावं 'नानभाया, 'उत्तमाः 'कालधर्म, ज्ञानं अता- तं नपुंसगं वयंति-हरे! एस प्रणारियो मा प्रबरोविजिाहसि, दि, तथा 'इशंनं ' तत्प्रभावकशास्त्र लक्कणं, 'चारित्र' प्रतीतम् । सिग्धं नस्ससु, जर महो मई, श्रह कयार सो राय उलं पतेशिवाऽदिपकुरुते यो नपुंसकाऽऽदिरसौ दीक्यत इति। बढावेजा-एए ममं दिक्खिऊण धामति एवं, सो य वव. मुक्तंच हारं करेजा अनाप' इति जर रायउलेणं ग णायो . " रायडुजएसुं, ताण शिवस्स बाऽभिगमण द्वा । एहि चेव दिक्खिओ अन्ने वा जातया मस्थि ताहे भ. Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवा -न एस समणो, पेच्छह से नेवत्थं चोलपट्टकाsss. किं ब्रम्ह परिसंवत्थं ति ? | ग्रह तेण पुत्रं क्षेत्र ताणि नेच्छि याणि ताडे भरागाइ एस सर्व गिदीतलिंगी । ताहे सो भरण भावो मि एए-हि चेव पडिसेहो किं च ही तंतो । छलियकहाई कड्डूइ, कत्थ जई कत्थ छलियाई १ ।। १४ । पुव्वावरसंजुत्तं बेरग्गकरं सततमविरुद्धं । पोराणमद्धमागह- मासानिययं हवइ सुतं ।। १५ ।। जे सुतगुणा बुत्ता, तब्धिवरीयाणि गाहए पुब्बि । निच्छिमकारणाणं, सा चैव विचिणे जयणा ।। १६ ।। गाथात्रयं सिद्धं घर कमाई सो बहुसो रायमलो घान सक्कर विगिचिडे, तत्थ इमा जयणाकावालिए सरक्खे, तव्त्रयिव सहलिंगरूवेणं । बेग, काय विही वोसिरणं ॥ १७ ॥ (काय िसिं) वृथाभार्थापा न सह भवति, ( सरक्खो ति) सरजस्क झिङ्गरूपेण, भौतरुपेत्यर्थः) रक्तपरूपेण इथं ( बेडुंब गपच्चश्ए ) नरेन्द्राऽऽदिविशिष्टकुलोङ्गतो बेरुम्बगो भण्यते, तस्मिन् प्रवजिवे सति कर्त्तव्यं विधिना ' उक्तपाये ॥ १७ ॥ भावार्थस्य (५७६) अभिधान राजेन्द्रः । 4 निवल्लभवहुपक्वम्मवाचि तरुणवसहामि ति । भिना भट्ठा - घडइ इह वच्च परतित्थी ||८|| तुमए समर्ग आमंति निम्गओ भिक्खमाइलक्खेयं । नास भिक्खुकमासु छोरा तो वि विपलाइ ||१६|| गाथायं शिरसि एस नपुंसगविचिणामणिया । ( जड़भेदा: ' जड' शब्दे चतुर्थजागे १३०३ पृष्ठे गताः ) (३)ई: - एसोविन दिक्खिजइ, उस्सग्गेणमह दिक्खिओ होजा । कारणगए फेर, तस्थ विहिं उपरि बोच्छामि ||२८|| गाथा निगदसिया | तत्थ जो सो मम्मणो, सो पत्राविज्जर । तत्थ विडी भण्णइ मोनुं गिलाफ, दुम्मेहं पटियर जाव छम्मासा । एकेके छम्मासा, जस्स व दहं विचिया ॥ २६ ॥ एक कुले गणे संघे बम्माला पडिवरिज्जर, जस्स व टूबुं विचिणया जहुत्तस्स नवइ, तस्सेव सेो । श्रहवा जस्सेव द लडो जव तस्स सो होइन होइ तम्रो विचिणया । स. रीजडो जावज्जीवं पिपरियरिज्जन । जो 'पुरा करणे जट्टो, उफोर्स तस्स होति धम्मासा | कुलगणसंघनिवेयण, एवं तु विहिं तहिं कुआ ||३०|| श्य प्रकटार्थैव, एसा सचित्तमय संजय चित्रिणया । याणि चित्तसंजयाणं परिघावणविदी भाइ, ते पुण एवं इज्जा आकार गिलाणे, पच्चक्खाए व आणुपुत्रीए । अतिसंजया, पोच्छामि विहीद पोसिरयं ।। ३१ ।। परिडवणा करणं कारः, अचित्तीकरणं गृह्यते, आशु शीघ्रं कार आशुकारः, तकेतुत्वाददिविषविशुचिकाऽऽदयो गृह्यन्ते, तैर्यः खल्वनि संभूतः । (गिलाणे ति) ग्लानः मन्दश्च सन् य इति । प्रत्याक्या याऽनुपूर्च्छा कारणशरीरपरिकमैकरणानुक्रमेणा अफे वा प्रत्याख्याते सति योऽचित्तीत इति ज्ञावार्थः। एतेषामचि 'संयतानां, 'वक्ष्ये' अभिधास्ये, 'विधिना ' जिनोक्तेन प्र कारण, 'व्युत्सृजन' परित्यागमिति गाथार्थः॥ ३१ ॥ एव य कालगयम्मी मुलगा सुत्तत्यगहियसारेणं । न हु कायन्त्र विसाओ, कायव्व विहीऍ वोसिरणं ||३२|| पचपन प्रकारे सति मुनि अम्येन साधुना फिम्तेन गृहीतसारेण गीता " येनेत्यर्थः। ' नहु कर्तव्यविवाः सम्मोह इत्यर्थः । कर्तव्यं किन्तु 'विधिना' प्रवचनो केन प्रकारेण 'व्युत्सृजन' परित्यागरूपमिति गाथाऽर्थः ॥ ३२ ॥ श्राव०४श्र० । (४) कालगतसाधुपरिष्ठापनिकाभिक्खू व ओवा विवाले वा आहथ भिज, तंच सरीरगं केइ वेयावच्चकरे भिक्खू इच्छित्रा एगंते बहुफासुए थंडिले परिद्ववित्तए, अस्थि याई केइ सागारियसंतिए उवगरणजाए चित्ते परिहरणारिहे, कप्पर से सागारिकर्ड गहाय तं सरीरगं एते बहुकासुए पएसे परिद्वविचा तत्थेव उपनिविय सिया ।। २४ ।। 6 " अस्य संबन्धमाह - तिहि कारणेहि अर्थ, आयरिवं उदिसि तहिँ दुधि । तुं तइए पगर्य, वीसुंभयचजोगोऽयं ॥ ५६७ ॥ त्रिभिः कारणैरवसन्नताऽऽदिमिरन्यमाचार्यमुद्दिशेदित्युक्तं, त ss द्वे अवसन्नावधावितलको मुक्त्वा तृतीयेन कालगतरू पेण कारणेन प्रकृतं तद्विषया विधिरनेनाभिधीयते इति भावः । एष विष्वभवन सूत्रस्य योगः संबन्धः । अहवा संजमजीविय-भवगहणे जीविया उ विगए वा । गुरेसो बुत्तो इमं तु सुतं भवचाए ।। ५६८ ॥ अथवा संयमजीवित भवग्रहणे, जीविताद्वा विगते, अन्यस्याssचार्यस्योद्देशः पूर्वसूत्रे उक्तः, इदं तु सूत्रं नवस्य जीवितस्य प रित्यागविषयमारभ्यते । अनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्य ( २४ सूत्रस्य) व्याख्याभिकुशादाबा विभूत जीव शरीराव पृथगृत मनु त्ति शरीर कि बहुप्राशुके कीटका परिष्ठापयितुमति चाचित्सागरकम कमि जी पहिराई परिभोगकरणजालं पानका मित्यर्थः । कल्पते (से) तस्य भिको: सत्काष्ठं लागारिककु सागारिकस्यैव समिति शरीरमेादेतच > से गुदीकाठ पतिः। प्रतिनिििवस्तरः दव्याऽऽलोण नियमा गच्छे उपक्रमनिमित्तं । Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवणा प्रनिधानराजेन्दः। परिहवणा भत्तं परिमागेलण, पुन्चगहो थंडलिस्सेव ॥ ५६६ ॥ (५) अध दिग्द्वारमाहयत्र साधवो मासकल्प वर्षावासं वा क कामास्तत्र पूर्वमेव दिसि अवरदक्खिणाद-विखणा य अवराय दक्खिणा पुन्या। तिष्ठतो व्यस्य वहनकाष्ठाऽऽदेवलोकनं नियमाच्चवासिनः अबरुत्तरा य पुव्वा, उत्तर पुवुत्तरा चेव ॥ ६०५॥ कुर्वन्ति । किमित्याह-उपक्रमो मरणं,तरकस्याऽपि संयतस्य ज. प्रथममपरदकिणा नैऋत्या दिग निरीकणीया,तदभावे दक्षिणा, बेदित्येवमर्थः । तच मरणं कदाचित् भक्तपरिज्ञानतो भ- तम्या अनावे अपरा दिक्तदप्राप्त। दक्विण पूया भाग्नेयी,नदला. बेत्, कदाचित्तु ज्ञानस्य । उपलकणमिदम-तेनाऽऽशुकारेण वा भे अपरोत्तरा वा । एवं तस्या अभावे पूर्वा, तदभावे उत्तरा, मरणं भवेत । ततः पूर्वमेव महास्थविमलस्य, बहनकाष्ठाऽऽदे. तदभावे उत्तरपूर्वा । चावग्रहः प्रत्युपेक्षण विधेयम् । सम्प्रति प्रथमायां दिशि सन्यां शेषदिक परिष्ठापने दोषानाहअधुनाऽधिकृतविधिप्रतिपादनाय नियुक्तिकारो द्वारगा समाही न भत्तपाणे, उवकरणे तुमंतुमा य कलहो य । थात्रयमाहपडिलेहणा दिसा ण-तए य काले दिया य रातो य । भेदो गेलनो वा, चरिमा पुण कढए अन्नं ॥ ६०६ ।। जग्गण वंधण छेदण, एतं तु विधिं तहिं कुजा॥६००॥ प्रथमायां दिशि शवस्य परिष्ठापने चतुरानपानवस्त्रपात्रला. भतः समाधिर्भवति; तस्यां सत्यां यदि दक्किणस्थां परिकुसपडिमाए णियत्तण-मत्तग मीसे तणाइँ उवकरणे । ष्ठापयन्ति तदा वक्तपानं न लभन्ते; अपरस्यामुपकरणं न प्रा. काउस्सग्गपदाहिण, अब्भुट्ठाणे य वाहरणा ॥ ६०१ ॥ नुवान्त, दक्विणपूर्वस्यां 'तुमंतुमा' परस्परं साधूनां भवति । काउस्सग्गे य सज्झा-इए य खमणस्स मग्गणा होति ।। अपरोत्तरस्यां कसद: संयतगृह स्थान्यतीदिकः समं भवति; बोसिरणे ओलायण-सुभासुभं ठावती निमित्तट्ठा ॥६०२॥ पूर्वस्यां गणमेदश्चारित्रनेदो वा भवेत; उत्तरस्यां मानवसाच(दिसत्तिदिग्नागो निरूपणयः। (तपयत्ति) औपग्रहिकान रमा पूर्वोत्तरा, सा कलमृतकपरिष्ठापना अन्य साधुमाकर्षति, मारयतीत्यर्थः। स्तक मृतच्छेद नार्थ गले सदैव धारणीयम् । जातिप्रधानाचार्य निर्देशः, ततो जघन्यतोऽपि त्राणि वस्त्राणि धारणीयानि (काले आसनमज्झदूरे, वाघातहा, तु थडिले तिरिण । दिया य राम्रो अत्ति) दिवा रात्री बा कालगते विषादो न विधे- खेत्तुदगहारेयपाणा-णिविट्ठमादी ववाघाए । ६०७ ।। या रात्री च स्थाप्यमाने मृतके जागरणं बन्धनं छेदनं च कर्त- प्रथमायापिदिशि त्रीणि स्थएिडलानि प्रत्यत्रे दाणीयानि,ग्रा. व्यम् । एवं विधि तत्र कुर्यात् । तथा-नक्षत्रं विलोक्य कुशन- माऽऽदेरासने मध्ये दुरे वा। किमर्थ पुनस्त्रीणि प्रत्यवतन्ते !,. तिमाया एकस्या द्वयोवा करणमकरणं वा (नियत्तण ति) स्याह-व्याघातार्य,व्याघातं कदाचिनवेदित्यर्थः। स चायम्-क्षेत्र येन प्रथमतो गता न तेनैव पथा निवर्तनीयम् । मात्रके पानकं तत्र प्रदेशे कृष्टम, नरकेन बा भावितं. हरितकावाद वा जाता गृहीत्वा पुरत एकेन साधुना गन्तव्यं, यस्यां दिशि प्रामस्त. प्रमाणिनिर्बा संसक्नं समजनि,ग्रामो वा निविष्टः,श्रादिग्रहणेन तः शीर्ष कर्तव्यं, तृणानि समानि प्रस्तरणीयानि, उपकरण सायों वा भावासितः, पबमादिको व्याघातो यद्यास सरिमले रजोहरणाऽऽदिकं तस्य पावें धारणीयम, प्रविधिपरिष्ठापना. भवति तदा माये परिष्ठापयन्ति, तत्रापि व्याघाते दूरे परिष्टाप याः कायोत्सर्गः स्थमिले स्थितनं कर्तव्यः । निवर्तमानः प्रा- पन्ति, अथ प्रथमायां दिशि विद्यमानायां द्वितीयायां तदक्विरयं न विधेयम् । शवस्य चाभ्युत्थानेन वसत्यादिकं प.| तीयायां वा प्रत्यवेकन्ते ततश्चतुर्गुरुकाः। रित्यजनीयम् । यस्य च संयतस्य व्याहरणं नामग्रहणं स क एते च दोषाःरोति तस्य सोचः कर्तव्यः, गुरुसकाशमागतैः कायोत्सों __ एसण पेल्लण जोगा-ण व हाणी भिम मासकप्पो वा । विधेयः, स्वाध्यायिकस्य च मार्गणा कर्तव्या । बाराऽऽदिमा भत्तोबधी अभावे, इति दोसा तेण पढमम्मि ।। ६०८।। प्रकाणां व्युत्सर्जन कर्तव्यम , अपरे अह्नि तस्यावलोकन, - भाशुजगतिज्ञानार्थ निमिसग्रहणाथै च विधेयमिति द्वारगा भकपानलोभाउपधेरलाभाद् वा प्रेरणं कुर्यः। प्रथैषणां न प्रेथात्रयसमालार्थः। षयेषुस्ततो योगानामावश्यकव्यापाराणां हानि:, अपरं वा क्षेत्र अथैनामेव विवरीषुराह गच्छता मासकल्पो निनो बानवेत् । एवमादयो दोषा जक्तोजं दवं घणमसिणं, वावारजुयमवहमाणए बलियं ।। पध्यादेरजावे नवन्ति, ततः प्रथमे दिगभागे महास्थरिकसं वेणुमय दारुगं वा, तं वहणट्ठा पलायंति ॥ ६०३ ॥ प्रत्यवेक्षणीयम् । यद्न्यं वेणुमयं दारुकं वा घनमसृणं व्यापारयुक्तमवहमानक एमेव सेसियासु वि, तुभंतुमा कलह भेदमरणं वा । पलायोरतरं सागारिकस्य गृहे तिष्ठति तत्काल गतस्य बढ़ जं पाति सुविहिया, गणाहियो पाचे तिविहं ।।६०६।। भाथै प्रथममेव प्रलोकयन्ति, महास्थपिडलाच प्रत्युपेकणीयम् । यथा द्वितीयायां तृतीयायां च दोषा उक्ताः, ५वं शेषेष्वपि मथन प्रत्युपकन्ते ततइमे दोषा: चतुषादिषु, यत्तुतुमा कलह गणभेदं मरणं वा सुविहिता: अत्थंडिलम्मि काया, पवयणघाओ य होइ आसमे । प्राप्नुवन्ति, ताणाधिपः सर्वमपि प्राप्स्यति अथ प्रथमायां व्याबद्दवणे गहणाई, परुग्गहे तेण पेहिजा ।। ६०४ ।। मातस्ततो द्वितीयायामपि प्रत्यवेक्षणीय,तस्यां च स एव जक्तप्रस्थापकले परिष्ठापयन षटकायान् विराधयति,प्रवचनघातश्च पानलकणो गुणो भवति यः प्रथमायामुक्तः । अथ द्वितीय. प्रामादेरासने परिष्ठापयतोभवति, परावग्रहे च परिष्ठापयत- स्यां विद्यमानायां तृतीयायां प्रत्यवेकन्ते। ततः स एव प्रागुइछापनं भवेत्।नपनं नाम ते छमादपि साधुपादिन्यत्र द्रुतं को दोषः । एवमष्टमी दिशं यावनेतव्यम् । द्वितीयस्यां व्याघात. शवं परित्यजेयुः, ततो ग्रहणाऽऽकर्षणाऽऽदयो भवेयुः । ततो। स्ततः तृतीयस्यां प्रत्यवेकणीय, तस्यां च स एव गुणो भ. महास्थाएमलमवश्यं प्रागेव प्रत्युपेकेतागतं प्रत्युपेकणाचारमा वति । एवमुत्तरोत्तरदिवपि नाचनीयम्। गत दिग्द्वारम् । १४५ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवणा अभिधानराजेन्मः। परिवगा (६) अथ तकद्वारमाह अणिमिमग्रो केण श्राणी भो पब्रिणा पमिगीर गा बायजयवित्थाराऽऽयामेणं, जं वत्थं लभती समतिरेगं । रो उगे। घरकोइलो एवमाई, खहचरो हसवायसमयूरा, चोक्खं सुचिगं च सेतं, उवक्कमट्ठा धरेयव्वं ।। ६१० ॥ जन्य सहोस तत्थ विगो अत्यनागारिप बोझकरणंबा.निहोसे विस्तारेण, श्राया मेन च यहस्त्रप्रमाणम् अईतृतीय हवाऽऽदि जाहे रुच ताहे विगित्रः। तसपागपारिहा बगिया गया। क तृतीयोदशके भणितं, ततो यत्रं समतिरकं लभ्यते, कय याणि जोतसागपारिहायगिया भाग:म्मृतम् ?, (चोखं) धवलित,शुचिक नाम सुगन्धि, श्वेत पारा णोतसपाणेहिं जा, सा दुविहा होइ आणुपुव्वीए । रम । पर्वविधं जीवितोपक्रमार्थ गच्छे धारयितव्यम् । आहारम्मि सुविहिया :,नायव्वा नो अाहारे ।।७१।। गणनाप्रमाणेन तु तानि नीणि भवन्ति । तद्यथा (णोतस ) निगद सिद्धा, नवरं नो आहारो उबगरणा, नत्थअत्यरणहा एगं, विइयं छोई उवरि घणं बंधे। आहारम्मि उना सा, सा दुविहा होइ आणुपुवीए । उकिट्ट परं उवरिं, बंधाऽऽदिच्छादणट्टाए ॥ ६११ ।। जाया चेव सुविहिया !, नायचा तह अजाया य ॥७२। पक तस्य मृतस्याध प्रास्तरणार्थ,द्वितीयं पुनः प्रक्रिप्योपरि धनं 'पाहारे' आहारविषये याऽमी पारिस्थापनिका मा 'द्वि. बनीयात किमुक्तं भवनि ?-द्वितीयेन तं मृवक प्रवृत्योपरि दव विधा' द्विप्रकारा नवति ' आनुपर्या' परिपाट्या. विध रकण घनं बध्यते। तृतीयमुत्कृवतरमतीवोज्ज्वलं बाधाऽऽदिछा- दर्शयति, “जाया चेव सुविहिया ! णायचा तह अज वा य ।' नार्थ तपरि स्थापनीयम् । एवं जघन्यतस्त्रीणि वस्त्राणि ग्रही तत्र दोषात् परित्यागाहीहारविषया या सा जाता, ततश्च तम्यानि, उत्कर्षतस्तु गच्छ झारखा बहून्यपि गृह्यन्ते। जाना चैव सुविहिता! त्यामन्त्रणं प्राग्वत्, ज्ञातव्या, तथाएतेसिं अवगहणे, चउगुरु दिवसम्मि वमिया दोसा । जाताच, तत्रातिरितनिरबद्याहारपरित्यागविषयाऽजातो. च्यत इति गाथाऽयः ॥ १२॥ रतिय पहिच्छंते, गुरुगा उट्ठाण मादीया ॥ ६१२ ॥ तत्र जातां स्वयमेव प्रतिपादयन्नाहएतेषामेवंविधानां त्रयाणां वस्त्राणामवग्रहणे चतुर्गुरु प्राय श्राहाकम्भे य तहा, लोहविसे आभियोगिए गहिए । चितं, मलिनवस्त्रप्रावृते च तस्मिन् वसती नीयमाने दोघा अपर्णवादाऽऽदयो वर्जिताः । अथैतद्दोषभयाजात्रौ परिष्ठा. एएण होइ जाया, वोच्छं से विहीऍ वोसिरणं ॥७३।। पयिष्यामीति बुद्ध्या मृतकं प्रतीक्षापयति ततश्चतुर्गुरुकाः, उ आधाकर्म प्रतीतं. तस्मिन्नाधाकर्मणि च तथा (लाहविले स्थानोऽऽदयश्च दोषाः। श्राभिोगिर गहिए लि) लाभाद् गृहीते ( विसे त्ति) विवकृते गृहीते (आभियोगिए नि) वशीकरणाय मन्त्राकथं पुनर वर्णवादाऽऽदयो दोषाः ?, इत्याह - भिसंस्कृले गृहीते सति कथचिन्मक्षिकाव्यापत्तिवेतोऽन्यथाउज्झाइए शपएणो, दुविह णियत्तीय मइलवसणाणं । त्वाऽऽदिलितश्च ज्ञाते सति । एतेन 'आधाकर्माऽऽदिनातम्हा तु अहतकमिणं,घरेति पक्खस्स पडिलेहा।६१३। दोषण भवनि जाता' पारिस्थापनिका दोषात्परित्यागा( उज्मा) मनिनकुचेले तस्मिन्नीयमाने अब! जबति- | होऽऽहारविषयेत्यर्थः। (वोच्छं से विही चोसिरणं ति) अहो अमी बराका मृता अपि शोभा न भन्ते । मशिनवस्त्राणां च | वपेऽस्या विधिना जिनोलेन ब्युत्सर्जनं परित्यागमित्यर्थः । दर्शने द्विविधा निवृत्तिनवति । सम्यक्त्वं प्रव्रज्यां च गृही. एगंतमणावाए, अचित्ते थंडिले गुरुवइटे। तुकामाः प्रतिनिवर्तन्ते । शुनि श्वेत वस्त्रदर्शने तु लोकः प्रशं. छारेण अक्कमित्ता, तिट्ठाणं सावणं कुज्जा ।। ७४ ।। सति-अहो शोजनो धर्म इति; यत एवं तस्माद इतमप. रिभुत, कृत्स्नं प्रमाया तः प्रतिपूर्ण वस्त्रधिकं धारणाबम् । प. एकान्ते 'अनापाते ' रूयाद्यापातरहिते 'अचेतने ' चेतकस्यान्ते तस्य प्रत्यवेकणा कर्नव्या । दिवसे दिवसे प्रत्यवेकमाणं नाविकले ' स्थाण्डिल्ये' भूभागे 'गुरूपदिऐ ' गुरुणा व्याहि मलिनीभवेत् । गतं गन्तकद्वारम् । वृ०४०। ख्याते, अनेनाविधिशेन परिस्थापनं न कार्यमिति दर्शयति ( छारेण अक्कमित्ता ) भस्मना सम्मिथ्य (तिट्ठाणं सा(७) श्याणि णोमणुपपरिठावणिया ना वणं कुज त्ति) सामान्येन तिम्रो वाराः श्रावणं कुर्यात्णोमणुएहिं जा सा,तिरिएहिं सा य होइ दुविहा उ । अमुकदाप दुष्पमिदं व्युत्सृजामि एवं, विशेषतस्तु विषकृतासच्चित्तेहि सुविहिया!, अच्चित्तेहिं च नायव्वा ।। ६६ ।। भियोगिकाऽऽदेरेवापकारकस्यैष विधिः न त्वाधाकाऽऽदेः, निगदसिद्धा। ततं प्रसङ्गेने हैव भणियाम इति गाथाऽर्थः ॥७॥ ___ दुविह पि एगगाहा भगण अजातपारिस्थापनिकी प्रतिपादयनाह-- चाउलोय गमाईहिं, जलचरमाईण होइ सञ्चित्ता।। आयरिए य गिलाणे, पाहुणए दुल्लहे सहसलाहे । जलथलखहकालगए, अचित्त विगिंचगं कुजा ।। ७० ।। एसा खलु अजाया, वोच्छं से विहीऍ वोसिरणं ॥७॥ भीए घरखाणं- योमरला दुविहा-सचिना अचित्ता य । स. प्राचार्य सत्यधिकं गृहीतं किश्चिद् , एवं ग्लाने प्राघूर्ण के चित्ता चाउलोदयमासु,चाउलोदय गहणं जहा श्रीघनि जुत्ती. दुर्लभे वा विशिष्टद्रव्ये सति सहसलाभे-विशिष्टस्य कथप तत्थ निवुडयो श्रासि मो मंडुक्कलिया वातं घेत्तरण श्चिल्लाभे सति अतिरिक्तग्रहणसम्भवः, तस्य च या पारि थोषेण पाणिएण सह निजक, पाणियमंडुको पाणियं दहळूण स्थापनिका एषा खलु 'अजाता' अदुष्टाधिकाऽऽहारपरित्याआहे, माको बला बुभ, प्रागहणेण संसट्ठपाणएण गविषयेत्यर्थः । (वोच्छं से विहीएँ बोसिरणं) प्राग्वदिति चा गोरस कुंडर वा तवभाषणे वा एवं सश्चित्ता । अश्चित्ता- गाथाऽर्थः ॥ ७ ॥ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवणा अनिधानराजेन्द्रः। पग्ट्रिवणा एगंतमणावाए, अचित्ते थंडिले गुरुवइटे। निनादो महाजनजातः,शब्दः तत्र ग्रामे नगरे वा, स्थापना या आलोएँ तिमि पुंजे, तिहाणं सावणं कुजा ॥ ७६ ॥ तत्र प्रामाऽऽदावीदृशी व्यवस्था. यथा रात्री मृतकंन निष्काश नीय निजका वा स्वज्ञातिकास्तत्र सन्ति.ते भणन्ति-अस्माकपूर्वार्द्ध प्राग्वत् । ( बालोए त्ति ) प्रकाशे त्रीन् पुजान् मनापृच्छया न निष्काशनीयः; श्राचार्यो वा स तत्र नगरे कुर्यात् . अत एव मूलगुण दुष्टे त्वेकमुत्तरगुण दुष्टे तु द्वावि अतीवलोकविख्यातः, महातपस्वी वा प्रभूतकालपालिताति प्रसङ्गः। तथा (तिट्ठाणं सावणं कुज त्ति) पूर्ववदयं गाथाऽर्थः ॥ ७६ ॥ गता आहारपरिस्थापनिका । श्राव०४ अका नशनो, रागाऽऽदिक्षपको वा, एतैः कारणैः रजन्यां प्रतीक्ष्यते, दिवा पुनरेतैः कारणैः प्रतीक्षापयेत् ।। (८) अथ दिवा रात्री कालगत इति द्वारमाह णंतग असती राया, व नीति संतेउरो पुरवती तु । पासुक्कार गिलाणे, पच्चक्खाए व आणुपुबीए । णीति व जणणिवहेणं, दारणिरुद्धाणि णिसि तेणं ॥६२०॥ दिवसस्स व रत्तीइ उ, एगतरे होजऽवक्कमणं ॥ ६१४ ॥ णन्तकानां शुचिश्वेतवस्त्राणामभावे. दिवा न निष्काश्यते, आशु शीघ्रं जीवस्य निर्जीवकरणत्वादहिविषविशूचिकाss. राजा वा सान्तः पुरः पुरपतिर्वा नगरमतियाति प्रविशति जयोऽप्याशुकारा उच्यन्ते, तैरपक्रमणं मरणं कस्याऽपि भ. ननिवहेन वा महता नरतोलिकाऽऽदिवृन्देन नगरानिर्गच्छति, चेत् , ग्ल नत्वेन वा मान्छेन कोऽपि नियते, श्रानुपूर्त्या वा तदारातो निरुद्धानि तेन निशि न निष्काश्यते । एवं दिवाऽपि शरीरपरिकर्मणा क्रमेण भक्त प्रत्याख्याते सति कश्चित्काल प्रतीक्षापणं भवेत्। धर्म गच्छेत्. एवं दिवसरजन्योरेकतरस्मिन् काले जीवितापक्रमणं भवेत्। अत्र चाऽयं विधिःएवं कालगयम्मी. मुणिणा सुत्तत्थगहितसारेणं ।। वातेण अणकते, अभिणवमुक्कस्स हत्थपादे उ । नहु मंतव्यों विसामो, कायव्यो विहीऍ वोसिरणं।६१५॥ कुव्वंति ते पणिहिते, मुहणयणाणं च संपुडणं ॥६२१॥ एवमेतेन प्रकारेण कालगते सति साधौ सूत्रार्थगृही वातेन यावदद्यापि शरीरकमाकान्तं स्तब्धं न भवति ताव. तसारेण मुनिना न विषादो मन्तव्यः, किं तु कर्त्तव्यं तस्य | दभिनवजीवितमुक्तस्य हस्तपादान् यथाप्रणिहितान् प्रगुणकालगतस्य विधिभाव्युत्सर्जनम् । तयाऽलम्बमानान् कुर्वन्ति, मुखनयनानां च संपुटनं सं मीलनं कुर्वन्ति। कथमित्याह जागराऽऽदिविधिमाहआयरिओ गीतो वा, जो व कडाई तहिं भवे साहू । जितणिडुवायकुसला, ओरस्सबली य सत्तजुत्ता य । काययो अखिलविही, न तु सोगभया वसीदेजा ॥६१६॥ यत्सूत्राचार्योऽपरो वा गीतार्थो यो वा श्रगीतार्थोऽपि कृ. कतकरण अप्पमादी, अभीरुगा जागरंति तहिं ॥६२२॥ ताऽदिरीदशे कार्ये कतकरणः, श्रादिशब्दाद्वैर्याऽऽदिगुणोपेतः जितनिद्राः, उपायकुशलाः, औरसबलिनो महापराक्रमाः, साधुर्भवति, तेनाखिलोऽपि विधिः कर्तव्या, न पुनः शोका- सत्त्वयुक्ताः धैर्यसंपन्नाः, कृतकरणा अप्रमादिनः अभीरुकाश्च द् भयाद्वातत्र सीदेत् यथोक्तविधिविधाने प्रमादं न कुर्यात् । ये साधवस्ते तत्र तदा जाग्रति । किमालम्ब्य शोकभयौ न कर्त्तव्यौ?, इत्याह जागरणट्ठाएँ तहिं, अमेसि वा वि तत्थ धम्मकहा। सम्बे वि मरणधम्मा, संसारी तेण कासि मा सोगं। सुत्तं धम्मकहं वा, मधुरगिरो उच्चसदेणं ॥ ६२३ ॥ जं चऽप्पणो वि होहिति, किं तत्थ भयं परगयम्मि।६१७ जागरणार्थ तत्र तैरन्योऽन्यमन्येषां वा श्राद्धाऽऽदीनां ध. सर्वेऽपि संसारिणो जीवा मरणधर्माण इत्यालम्ब्य शोक मकथा कर्त्तव्या । स्वयं वा सूत्र धर्मकथां वा धर्मप्रतिबमा कर्मः, यच्च मरणमात्मनोऽपि कालक्रमेण भविष्यति, तत्र द्धामाख्यायिकां मधुगिर उच्चशब्देन गुणयन्ति । परस्य गते परस्य संजाते किं नाम भयं विधीयते, न किञ्चि बन्धनच्छेदनपदे व्याख्यातिदित्यर्थः। गतं दिवा रात्री चेति द्वारम् । करपायंडगुट्टे दो-रकेण बंधिउ पुत्तीमुहं छाए । (E) अथ जागरणवन्धनच्छेदनद्वारमाह अक्खयदेहे खणणं, अंगुलिविच्चे ण बाहिरभो ॥६२४॥ जं वेलें कालगतो, निकारण कारणा भवे निरोधो य । करपादागुष्ठान कराङ्गुष्ठद्वयान पादाङ्गुष्ठद्वयं च दवर जग्गण बंधण छे-दण एतं तु विहिं तहिं कुजा ॥६१०।। केण बद्ध्वा मुखपोत्तिकया मुखं छादयेदेतद्वन्धनमुच्यते। दिवा रजन्यां वा यस्यां वेलायां कालगतस्तस्थामेव वेलायां तथा अक्षतदेहे तस्मिन् । (अंगुल विच्चे) अङ्गुलिमध्ये निष्काशनीयः। पवं निष्कारण उक्तम् । कारणे तु निरोधी नाम चीरके खननम् ईषत्फलनं क्रियते, न बाह्यतः, एतच्छेदनं कियन्तमपि कालं प्रतीक्ष्यते । तत्र च जागरणं, बन्धन, छे. मन्तव्यम्। दनम, एतमेवमादिकं विधि वक्ष्यमाणनीत्या कुर्यात् । अमाइट्ठसरीरे, पंता वा देव तत्थ उद्विज्जा । कैः पुनः कारणैः स प्रतीक्ष्यते ?, इत्याह परिणापि डव्यहत्थे-ण बुज्झ गुज्झ व मा मुझ॥६२५॥ हिमतेणसावयभया, पिहितद्दारो महाणिणादोवा । पवमपि क्रियमाणे यद्यन्याऽऽविएशरीराः सामान्येन ब्यन्तउवणा णियगा व तहिं, आयरिय महातबस्सी वा ।६१६। राधिष्ठितदेहः, प्रान्ता वा प्रत्यनीका काचिद्देवताऽत्रावसरे रात्री दुरधिल हिमं पतति, स्तेनभयात् स्वापदभयाद्वा | तत्कलवरमनुप्रविश्योनिष्ठेत् , ततः परिणामिनी कायिकीम् न निर्गन्तुं शक्यते, नगरद्वाराणि वा तदानीं पिहितानि, महा । (डव्वहरथण त्ति) चामहस्तेन, गृहीत्वा तत्कडेवरं सेवनीय, Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवा इदं व वक्तव्यम्- बुध्यस्व बुध्यस्व गुह्यक ! मा मुह्य मा प्रमादीः संस्तारकान्मोत्तिष्ठेति भावः । ( ५८०) अभिधान राजेन्द्रः | वित्तासेज रसेज व, भीमं वा अट्टहास मुंजा | अभि सुविहिणं, कायच्च विहीऍ वोसिरणं ।। ६२६ ।। अन्याधिष्ठितं तत्कडेवरं विवासयेत् विकराल रूपं दर्श वित्वा भापयेत् रसेद्वा आरटि मुझे भीमं वा रोमहर्षजनकमट्ठद्दासं सुञ्श्चेत्, तथाऽपि तत्राऽभीतेन सुविहितेन विधिना पूर्वोक्न, वक्ष्यमाणेन च व्युत्सर्जनं कर्तव्यम् । गतं जागरणाऽऽदिद्वारम् । परिवगा सूत्रार्थतदुभयवेदी मात्र के अपानकं कुशध दर्भात समच्छेदान् परस्परमसंवदान् हतवतुरङ्गलप्रमाणान् गुर्दा त्वा पृष्ठतोऽनवेक्षमाणः पुरतोऽग्रतः स्थण्डिलाभिमुखो गच्छतिदर्भणामभावे चूर्णानि केशराणि या गृह्यन्त यदि सागारि कं ततः शर्व परिष्ठाष्याचमनं हस्तपादशी या दिकं कर्मव्यम् आचमनमहापयति-यथा यथा प्रवचनोजाही न भवति तथा तथा अपरमपि विधेयम् । (१३) अथ शीर्षद्वार माह- जत्तो दिसाऍ गामो, तत्तो सीसं तु होइ कायव्वं । उद्वैतरक्खणट्ठा, अमंगलं लोगगरिहा य ।। ६३१ ॥ यस्यां दिशि ग्रामस्ततः शीर्ष शवस्य प्रतिश्रया नीयमानस्य परिष्ठाप्यमानस्य व कर्त्तव्यम् । किमर्थमित्याह-क्षणार्थ, यदि नाम कथञ्चिदुत्तिष्ठते तथापि प्रतिश्रयाभिमुखं नागच्छतीति भावः । अपि च यस्यां दिशि ग्रामस्तदभिमु खं पादयोः क्रियमाणयोरमङ्गलं भवति, लोकश्च गर्दा कुर्या तू - अहो अमी भ्रमणका एतदपि न जानन्ति यद् प्रामाभिमुर्ख न कियते । (१४) अथ तृणाऽऽदिद्वारमाहकुसमुट्ठिय एके, अवोच्छिनाए तत्थ धाराए । संचार संयरेजा, सम्वत्थ समय काय ।। ६३२ ॥ यदा स्थण्डिलं प्रमार्जितं भवति तदा कुशमुष्टिनैकेनाव्युप्रिया धारया संस्तारकं संस्तरे स । : च 3 सर्वत्र समः कर्त्तव्यः । (१०) अथ कुशप्रतिमाद्वामाह दोधि नदि सङ्घखेते, दम्भमया पुनगा तु कायच्चा । समखेतम्मि व एको, अपट्ट अतिई रा फाय।। ६२७|| कालगते सति संयते नक्षत्रं विलोकयति ततस्तु, ततो नक्षत्रे विलोकिते यदि साक्षेत्रं तदानी नक्षत्र, सा नाम-पञ्चचत्वारिंशम्भोग्यं साबै, दिनभोग्य मिति यावत् । तदा दर्भमयौ द्वौ पुत्तल कौ कर्त्तव्यौ, यदिन करो. ति तदाऽभ्वपरं साधुद्रयमाकर्षति तानि च साईक्षेत्रा णि नक्षत्राणि षट् भवन्ति । तद्यथा-उत्तराफाल्गुन्यः, उत्तरा षाढा, उत्तराभद्रपदा, पुनर्वसू, रोहिणी, विशाखा चेति । श्रथ समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्त्तभोग्यं यदा नक्षत्रं तत एक, पुत्तलकः कर्तव्यः चते द्वितीय इति वक्रव्यम् अकर अपरमेकमा कर्पति। समवाणि चामूनि पश्च-अम्विनी कृतिका सु गशिरा, पुष्प, मचा, पूर्वाफाल्तुम्यो, हस्त, चित्रा, अनु राधा, मूल, पूर्वपाडा, वो धनिष्ठाः पूर्वभाद्रपदा, रेव नीति थापावं पञ्चदशभत्र भीचिर्वा तत एकोऽपि पुत्तल को न कर्त्तव्यः । अपार्द्धक्षेत्रा णि चामूमि पद शतभिषक, भरणी, आस्वा तिः ज्येष्ठा वेति । (११) अथ निवर्त्तनद्वारमाह 1 9 डिलवाघाणं, श्रहवा वि अनिच्छिए अणाभोगा । भमिऊण उवागच्छे, तेणेव महेश न नियते ।। ६२८ || यत्र ते नीयमाने स्थण्डिलाच्या डहरिताि तो भवेत् श्रनाभोगेन वा स्थण्डिलमतिक्रान्तं भवेत् ततो त्या प्रकिर्याणा उपागच्छे से पचा न नि बर्सेरन् “ जइ तेणेव मग्गेणं, निवत्तंति ततो अलमायारी कया उद्वेजा, सोय जओ चेव उट्ठेइ, तो चेव उट्ठइ, तो चैव पहावर, तत्थ जो गामो तो धाविज्जा । तत एवं कर्त्तव्यम्- 39 बाघायम्मि उवेडं, पुव्वं च अपेहियम्मि थंडिले । तहसीति जह से कमा ण होति गामस्स पडिदुत्ता । ६२६ ॥ स्थरिडलस्य व्यापाते पूर्व वा स्थपितं न प्रत्यवेक्षितं ततस्त मृतकमेकान्ते स्वापयित्वा स्थगिडलं व प्रत्युपेदप तथा च भ्रमयित्वा नयति यथा मृतस्य क्रमौ पादौ ग्रामाभिसुखै न भवतः । (१२) अथ मात्रकद्वारमाह- सुचत्थतदुभयविक, पुरतो घेत्तृय पान कुसे य । गच्छति जइ सागारिय, परिद्ववेऊण आयमणं ॥ ६३० || विषमे एते दोषाः विसमा जदि होज तणा, उवरिं मज्झे तहेव हेट्टे य । मरणं गेलएवं वा, ति पिउ सिदिसे तत्थ ||६३३ || विषमाणि तृणानि यदि तस्मिन् संस्तारके, उपरि च म ध्ये वा श्रधस्ताद्वा भवेयुः, तदा वयाणामपि मरणं ग्लानत्वं निर्दिशेत् । केषां त्रयाणामित्याह उवरिं श्रायरियाणं, मज्के वसभाण हेट्ठे " भिक्खूणं । तिरहं पि खखगट्ठा, सव्वत्थ समा व कायया । ६३४ ।। उपरि विषमेषु तृणेषु श्रावार्याणां मध्ये वृषभासामवस्ता द्भिक्षूणां मरणं ग्लानत्वं वा भवेत्। श्रतस्त्रयाणामपि रक्षणार्थ सर्वत्र समानि तृणानि कर्त्तव्यानि । जत्थ य नत्थि तिणाई, चुरखेहिं तत्थ केसरेहिं वा । कायव्वोत्थ ककारो, हेट्ठ नकारं च वंधिजा ।। ६३५ || यत्र तृणानि न सन्ति तत्र चूर्णर्वा नागकेशरैः वा अयुच्छिन्नया धारया ककारः कर्त्तव्यः, तस्य चाधस्तान्नकारं च व. ध्नीयात् न इत्यर्थः, चूर्णानां केशराणानां चाभावे प्रलेपकाऽऽदिरपि क्रियते । (१४) अधोपकरणद्वारमाहचिंधट्टा उनगर, दोसा तु भवे अधिकरणम्मि । मिच्छतं सो व राया, कुसंति गामारा बहकरणं ।। ६३६ ।। परिष्ठाप्यमाने चिह्नार्थे यथाजातमुपकरणं पायें स्थाप नीयम् । तद्यथा-रजोहरणं, मुखपोत्तिका, चोलपट्टकाः, यथेतन स्थापयन्ति ततनुर्ण आशादयश्च दोषा विहस्याक रणे भवन्ति । स च कालगतो मिध्यात्वं गच्छेत्. राजा वा Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिडवणा (५८१) पन्निधानराजेन्मः। पस्ट्रिवगा जनपरम्परया तं ज्ञात्वा कश्चिन्मनुष्योऽमीभिरपद्रावित इ- उत्थिते खण्डं देशखण्डं मण्डलाद् वृहत्तरं परित्यक्तव्यम् । ति बुद्धया कुपितः प्रत्यासन्नवर्तिनां द्वित्र्यादीनां ग्रामाणां ब-| उद्यानस्य नैषेधिक्यां चान्तराले उत्तिष्ठति देशः परिहर्नधं कुर्यात्। व्यः, नैषधिक्यामुत्थिते राज्यं परिहरणीयम् । एवं तावन्नीयअथैतदेव भावयति मानस्योत्थाने विधिरुक्तः । परिष्ठापिते च तस्मिन् गीतार्था उवगरणमहाजाते, अकरणे उज्जेणिभिक्खुदिटुंतो। एकस्मिन् पायें मुहूर्त प्रतीक्षन्ते, कदाचित्परिष्ठापितोऽप्युलिंग अपेच्छमाणे, काले वइरं तु पाडेति ।। ६३७ । । त्तिष्ठेत् । यथाजातमुपकरणं यदि तस्य पार्श्वे न कुर्वन्ति ततोऽसौ तत्र चाऽयं विधिःदेवलोकगतः प्रत्युक्तावधेरहमनेन गृहिलिङ्गेन, परलिङ्गेन वा वचंतो जो उ कमो, कलेवरठावणम्मि वोच्चत्थो । देवो जात इति मिथ्यात्वं गच्छत् । उज्जयिनीभिक्षुदृष्टान्त- नवरं पुण णाणत्तं, गामदारे निबोद्धव्वं ।। ६४३ ॥ श्वान भवति,स चाऽऽवश्रकटीकातोश्वगन्तव्यः (५३ गाथा.. व्रजतां निर्गच्छतां कडेवरोस्थाने यः क्रमो भणितः, श्राव०४ अ०) यस्य वा ग्रामस्य पार्श्व परिष्ठापितस्तत्र त-1 स एव विपर्यम्तः कडेवरस्य परिष्ठापितस्य भूयः प्रविशत्पाबें लिङ्गमपश्यन् लोको राजानं विज्ञापयेत् , स च केना-1 ने विशेयो, नवरं पुनरत्र नानात्वं ग्रामद्वारे बोद्धव्यं, तत्र वैऽप्यपद्रावितोयमिति मत्वा काले नयति वैरं पातयति, वैरं परीत्यं न भवति. किं तु तुल्यतैवेति भावः । तथा चात्र वृ. निर्यातीति भावः। द्धसंप्रदायः-" निसीहियाए परिट्ठविनु जइ उद्देत्ता तत्थेव . (१६) कायोत्सर्गद्वारमाह पडिजा ताहे उवस्सो मोत्तव्यो, निसीहियाए उजाणस्स उहाणाऽऽई दोसा, हवंति तत्थेव काउसग्गम्मि । य अंतरा पडइ निवेसणं मोत्तव्वं, उजाणे पडइ साही मोत्तब्वा, उज्जाणस्स य अंतरा पडद गामद्धं मोत्तव्वं, गामआगम्मुवस्सयं गुरु-समीव अविहीऍ उस्सग्गे ॥६३८।। हारे पडद गामो मोत्तव्यो, गाममज्झे पडद मंडलं मोत्ततत्रैव परिष्ठापनभूमिकायां कार्योत्सर्गे क्रियमाणे उत्था व्वं, साहीए पडइ देसखंडं मोत्सव्वं, निवेसणे पडइ देसो नाऽऽदयो दोषा भवन्ति, अत उपाश्रयमागम्य गुरुसमीपे | मोत्तव्यो, उवस्सए पडइ रज्जं मोत्तव्वं ।" अत्र निर्गमने प्र. अविधिपरिष्ठापनिकाकायोत्सर्गः कर्त्तव्यः । वेशने च ग्रामद्वारस्थाने ग्रामत्याग एवोक्त इति ग्रामद्वारे (१७) प्रादक्षिण्यद्वारमाहं तुल्यतैव भवति, न वैपरीत्यम् । जो जहियं सो तत्तो. णियत्तइ पयाहिणं न कायव्वं । अथ परिष्ठापितो यादिवारान् वसतिं प्रविशति उहाणाऽऽदी दोसा, विराहणा बालवुड्डाणं ॥ ६३६ ॥ ततोऽयं विधिःशबं परिष्ठाप्य यो यत्र भवति ततो निवर्तते, प्रादक्षिण्यं | विइयं वसहिमिति ते, तगं च अमं च पुचतो रजं । न कर्तव्यं, यदि कुर्वन्ति तत उत्थानाऽऽदयो दोषाः, बालवृ। तिप्पभितिमिति सैव उ, मुयति रजाइँ पविसंते ॥६४४॥ द्धानां च विराधना भवति । निर्ग्रन्थो यदि द्वितीयं वारं वसतिं प्रविशति तदा त(१८) अथाऽभ्युत्थानद्वारमाह चान्यच्च राज्यं मुच्यते, राज्यद्वयमित्यर्थः । अथ त्रीन् चतुजइ पुण अणीणिो वाणीणिजंतो विवित्तिओ वा वि।| रो बहशो वारान् वसति प्रविशति तदा त्रीण्येव राज्याउहेज समाइट्ठो, तत्य इमा मग्गणा होति ॥ ६४०॥ | नि मुश्चति। यदि पुनः स कालगतोऽनिष्काशितो या निष्काश्यमानो असिवाई बहिया का-रणेहि तत्थेव वसंति जो उ तवो। वा विविको वा परिष्ठापितो व्यन्तरसमाविष्टः तिष्ठेत् , | अभिगहियाणभिगहितो,सा तस्स उ जोगपरिवुड्डी ।६४५ ततस्तत्रेयं मार्गणा भवति यदि बहिरशिवाऽऽदिभिः कारणैर्न निर्गच्छन्ति, ततस्तलेव वसहि निवेसण साहीएँ, गाममज्झे य गामदारे य । वसन्ति,यस्य यत्तपो अभिग्रहीतमनभिगृहीतं वा,तेन तस्य वृअंतर उजाणंतर-णिसीहिया उद्वितो वोच्छं ॥६४१॥ द्धिः कर्तव्या, सा च योगपरिवृद्धिरभिधीयते । किमुक्तं भववसती वा स उत्तिष्ठेत् , निवेशने वा पाटके, साहिकायां । ति?-ये नमस्कारप्रत्याख्यायिनस्ते पौरुषी कुर्वन्ति,पौरुषीप्रवा गृहपाक्तिरूपायां, ग्राममध्ये वा.ग्रामद्वारे वा, ग्रामोद्या- त्याख्यायिनः पूर्वार्द्ध कृत्वा शक्तौ सत्यामाचाम्ल पारयन्ति, नयोरन्तरे वा, उद्याननषेधिक्योरन्तरा वा, नैषेधियां शव- शक्लेरभावे निर्विकृतिकमेकाशनकं यावदशनकमपि । यदाह परिष्ठापनभूम्यामेतेषूत्थिते यो विधिस्तं च वक्ष्यामि । चूर्णिकृत्-"सइ सामत्थे श्रायं-बिलं च पारेति,असइ निव्वीप्रतिज्ञातमेव करोति यं । एकासणयं असणयमसमत्था सवीइयं. पि त्ति ॥१॥" एवं पूर्वार्द्धप्रत्याख्यायिनश्चतुर्थ, चतुर्थप्रत्याख्यातारः षष्ठं, षष्ठप्र. उवसय निविसण साही, तामद्धे दारे गाम मोत्तबो। त्याख्यायिनोऽष्टमम् । एवं विस्तरेण विभाषा कर्तव्या। मंडल खंडं देसे, णिसीहियाए य रजं तु ।। ६४२ ॥ एवं योगपरिवृद्धिं कुर्वतामपि यदि कदाचिदुत्थाय आग. तत्कडेवरं नीयमानं यदि वसतात्तिष्ठति तत उपाश्रयो च्छेत् , तदाऽयं विधिःमोक्तव्यः । अथ निवेशने उत्तिष्ठति ततो निवेशनं मोक्तव्यं, साहिकायामुत्थिते साहिका, ग्राममध्ये उत्थिते प्रामार्द्ध, अल्पाइसरीरे, पंता वा देव तत्थ उठेजा। प्रामद्वारे उत्थिते ग्रामो मोक्तव्यः । ग्रामस्य चोद्यानस्य चा काइयं डव्वहत्थेण, भणेजमा गुज्झया गुज्झा ॥६४६।। न्तरा यत्तिष्ठति तदा विषयमण्डलं मोक्तव्यम् । उद्याने गतार्था। Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहवणा अभिधानराजेन्दः। परिदृवणा (१६) श्रथ व्याहरणद्वारमाह स्तं विकरणं कुर्वन्ति पण्डशः कृत्वा परिष्ठापयन्तीत्यर्थः । गिएहइ णाम एग-स्स दोगह अहवा वि होज सम्बेमि। कुत इत्याह-अधिकरणं गृहस्थेन गृहीते प्रान्तदेवतया वा खिणं तु लोयकरणं, परिम गणभेद वारसमं ॥४७॥ पुनरप्यानीते भवेत् , तन्माभूदिति कृत्या विकरणी क्रियते यश्च तदीय उपधिरपरो वा तेन स्ववपुषा गुप्तस्तं सर्वमपि एकस्य, हयाः सर्वेषामती नाम गृहति भवेकदाचिदप्येवं, परिष्ठापयन्ति । तदा तेषां क्षिप्रं लोचः कर्तब्धः। (परिम ति) प्रत्याख्यानं तपस्तव द्वादशमुपवासपञ्चकरूपं ते कारापणीयाः। अथ द्वादशं असिवम्मि पत्थि खमणं,जोगविवड्री य व उस्सग्गो। कर्तु कश्चिदसहिष्णुर्न शक्नोति, ततो दशनमष्टमं पष्ठं चतु- उवओगटुं तोले णेव, अहाजाय करणं तु ॥ ६५३ ॥ थं वा काराप्यते, गणभेदश्च क्रियते, गच्छाजिर्गम्यते, पृथ- अशिवे मृतस्य क्षपणं न कर्त्तव्यं, योगवृद्धिस्तु क्रियते, नैव ग्भवन्तीति भावः। साधुभिः परिष्ठापनायाः कायोत्सर्गः क्रियते ( उपभोगटुं (२०) अथ कायोत्सर्गद्वारमाह ति) मुहूर्तमान तोलयित्वा यथाजातं तस्य नैव कर्त्तव्यम्। चेइयवस्मए वा, हायनीअो थुईउ ते विति । किमुक्तम्भवति?-अशिवे मृतस्य समीपे यथाजातं न स्थाप्यसारवणं वसहीए, करेति सव्यं रसहिपालो ||६४८|| ते अतो देवलोकं गतो यावदुपयुक्नो भवति तावत्तदीयं वपुः प्रतिथय एव प्रतीक्षाप्यते, येन प्रतिश्रयस्थितं स्ववपुःश्वा संअविधिएरिहवणाए, काउत्समो य गुरुसमोवमि । यतोऽहमिति जानीते। भगलासंतिनिमित्तं, थयो तो अजियसंतीणं ॥६४६।। (२३) अथाऽवलोकनद्वारमाहचैत्यगृहे उपाश्रय वा परिहीयमानाः स्तुतीस्ते ब्रुवते भणन्ति, अवरुजगस्स तत्तो, सुत्तत्थविसाररहि थेरोहिं । यावञ्च ते अद्यापि नाऽऽगञ्छन्ति तावसतिपालो वसतेः सारवणं प्रमार्जनं.तदादिकं सर्वमपि कृत्यं करोति । प्रविधि अपलोयण कायव्वं, सुभासुभगतोनिमित्तट्ठा ।। ६५४ ।। परिष्टापनानिमित्तं च गुरुसमीपे कायोत्सर्गः कर्तव्यः , ततो। तस्य कालगतस्य अपरेशुद्धितीये दिवसे सूत्रार्थविशामङ्गलार्थ शान्तिानामतं चाऽजितशास्तिरतवो भणनीयः । रदैः स्थविरैः शुभाशुभगतिनिमित्तज्ञानार्थमवलोकनं कअत्र चूर्णि:--" ते लाहुणो बेइयवरे या उवरूपए वा लिया। तव्यम् । हाजा जा चेयघरे ता परिहायंतीहि थुहिं चइयाई - कथमित्याहदित्ता प्रायग्यि सगाले इरियावहिर पडिकनिरं विहिपरि- जं दिसि विगिट्टितो खलु, देहेणं अवएण संचिढे । ट्रावणियाए कारग्गं करोतिनाह मंगल निनिमित्तं अजि. तं दिसि सिवं वदंती, सुत्तत्थविसारया धीरा ॥६५शा यसंतिथी श्रासठिदे चेवपहायने कढते.उवस्तर विएवं यस्यां दिशि शिवाऽऽदिभिराकर्षितोऽक्षतेन देहेन संतिव चेयचंदणव।" विशेषचूर्णिः पुनरियम्-"सश्री श्रा टेत् , तस्यां दिशि सूत्रार्थविशारदा धीराः शिवं सुभिक्षं सुगम्म चापबरं गच्छा ते वेश्या वंदित्ता साननिमित्तं अजि खविहारं च वदन्ति । यति धुरी परिवटिजद, तिशि थुईश्री परिहायंताओ कहिआंनि,ताप्रागंतु अविद्धिपरिद्वाणि गार काउस्लग्गो कीरइ।" जति दिवसे संचिट्ठति, तति वरिसे धातगं च खेमं च। (२५) अथ नवरणस्वाध्यायनानणाद्वारमाह विवरीए विवरीतं, अकड्डिए सबहिं उदितं ।। ६५६ ॥ खमये का सन्कार,रातिषिय मदाणिणाय णियए वा।। यति यावतो दिवसान यस्यां दिशि अक्षतदेहस्तिष्ठति सेसेस नत्थि खमणं, व असज्झाइप होई ॥ ६५० ॥ तति तावन्ति वर्षाणि तस्यां दिशि भ्रातं च क्षेमं च भयदि रानिक प्राचार्याऽऽदिरपरो वा महानिनादो लोकवि धति । अथ क्षतदेहः संजातः ततो विपरीते क्षतदेहे विपरीश्रतः कालगती भवति, निजका वा स्वशातिकास्तत्र सन्ति, तं मन्तव्यं,यस्यां दिशि क्षतदेहो नातस्तस्यां दुर्भिक्षाऽऽदिकं में महती न धृति कुर्वन्ति, तत पहेतु क्षपणकं स्वाध्यायिक भवतीति भावः । अथ नान्याकृष्टः किं तु तत्रैवाक्षतस्तिच कर्तव्यं शेषवु साधुषु कालगतेपुक्षपण नास्ति, स्वाध्या प्ठति ततः सर्वत्रोदितं सुभिक्षं, सुखविहारं च द्रष्टव्यम् । यिकं न च भवति। एतनिमित्तं कस्य गृह्यते ?, इत्याह(२२) व्युत्सर्जनद्वारमाह खमगस्साऽऽयरियस्सा, दीहपरिगणस्स वा निमित्तं तू। उच्चारपासवणमत्त-गा य अस्थरणकुसपलालाऽऽदी। सेसे तथऽस्मथा वा, ववहारवसा इमा य गती ॥६५७।। संथारया बहुविहा, उज्झति अणापगेलएगे ॥ ६५१ ॥ क्षपकस्याऽऽचार्यस्य वा दीर्घपरिशानिनो वा प्रभूतकालपायानि तस्याचारग्रस्रवण जेलमात्रकाणि, ये चाऽऽस्तरणार्थ लिलानशनस्येदं निमित्तं ग्रहीतव्यम्। शेष एतयतिरिक्तः तफुशपलालाऽदिया बदुविधा संस्तारकास्तान सर्वानप्यु- था वा अन्यथा वा भवेत् । न कोऽपि नियमः व्यवहारवशाज्झन्ति (अणगेलन ति) यद्यन्यस्य ग्लानत्वं नास्ति च्चेयं गतिःप्रतिपत्तव्या। अथाऽपरोऽपि ग्लानः कधिदस्ति,ततस्तदर्थ तानि मात्रका- थलकरणा वेमाणिया, जोतिसिभोवाणमंतर समम्मि । 5ऽदीनि ध्रियन्ते इति भावः। गड्डाएँ भवणवासी, एस गती से समासेणं ।। ६५८ ।। अहिगरणं मा होही, करइ संथारगे विकरणं आसु । यदि तस्य शरीरकं स्थले कृतं शिवाऽऽदिभिरारोपितं तदा उवहिं विगिंचती जो, छेवइ नस्सा विछेवइयो।।६५२।। । वैमानिकः संजात इति मन्तव्यम्। समभूभागे नीतस्य ज्योतिअशिवगृहीतः स यदि मृतस्तदा येन संस्तारकेन स नीत-। केश ध्यन्तरेषु वा उपपातो शेयः । गर्तायां नीते भवनवासि Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणा षु गत इत्यवगन्तव्यम् । एषा गतिः समासेन तस्याभिहिता । व्याख्यातास्तिस्रोऽपि द्वारगाथाः । (x-3) अनिधानराजन् | अथाय प्रायश्चितमाह एकिकम्प ठाणे, विश्वासकार गुरुगा । आणाइयो य दोसा, विराहया संगमाऽऽवार ।। ६५६ ।। एषां प्रत्युपेक्षणाऽऽदीनामेकस्मिन् स्थाने विपर्यासं कुर्वतां चत्वारो गुरुकाः, आशाऽऽयश्च दोषाः, संयमात्मविराधना च द्रष्टव्या । । एतेन सुत्त न गतं सुत्तनिवातो उ दव्वसारे उ । उसम्म विलगा, बट्टा लहुना अभिगमे । ६६०३ यदेतडू द्वारकदम्बकमनन्तरं व्याख्यातम्, एतेन सूत्रं न गतं, किंतु सामाचारीपनार्थ सर्वमेतदुक्तम् कि पुनस्तद सूत्रे प्रकृतमित्याह सूपनिपातः पुनः सागारिकसरके वहन काउलक्षणे द्रव्ये भवति राती कालगते यदि बनाठाउज्ञापनाय सागारिकमुत्थापयति तदा चतुर्लघु, अरहट्टयो जनादयश्च दोषात्तस्मात्थापनीयः किं तु येकीक सिवैयावृत्करः समर्थ ततस्तत्कान, अ था समर्थन तो यावन्तः शक्नुवन्ति तावन्तस्तेन काष्ठेन वदन्ति, अथ वहनकाष्ठं तत्रैव परिष्ठाप्यागच्छन्ति तदाऽपि चसर्लघु, अपरेण च गृहीते अधिकरणं, सागारिको वा तदपश्यस् पना का नया परिमितिमा प्रतिष्ठानमा यदि पुनरानीते शुद्धीतेनेव अनियम प्रवेशं दुर्वन्ति तदाऽपि य तुर्लघु । एते च दोषा:मिच्छदिदा समलाएको जुगुच्छितं चैव । दिव रातो अभियाण, वोच्छेओ होति वसहीए ॥ ६६१ ॥ सागारिकस्तकाएं प्रवेश्यमानं दृट्टा मिध्यात् भवन्ति अस्माकमदत्तस्थादानं न कल्पते चेतवली तथाऽन्यदभ्यलीकमेव । श्रथवा ब्रूयात् समला अमी अस्थिसरजस्कानामप्युपरिवर्त्तिनः, एवमवर्णो भूयात्, जुगुप्सितं वा जुप्सामपि कुर्यात्त इतका भय गृहमानयन्ति तता यदि दिवारात्र या साधूनाम् (अभिया) निष्काशन कुर्यात् परं व्यवच्छेदनातः परं ददानीत्येकस्यानेकेषां वा कुर्यात् । , यत ते दोषा अतोऽयं विधिःअगम एगेणं अाए पनि इयंति तत्थेव । गातोस तस्स वयणश्वितियउडाणमासवे वा ६६२ एकेन साधुना तत्स्थानमतिगमनं यदि सागारिका नाद्यायुतिष्ठते ततः स एतेनाशाते काष्टमानीय यतो गृहीतं तत्रैव प्र तिष्ठापयति । श्रथ सागारिक उत्थितस्तस्याप्रे निवेद्यतेपूर्व प्रतिकृया नाऽस्माभिरुत्थापिता रात्री सा साधुः कालगतः युष्मदीयकाष्ठेन निष्काशितः साम्प्रतं तदानीयता मुपनीय परिवाप्यतामेवमुक्ते यदसी भनि ततः प्रमाणम्। अथ स्थापिते सागारिकेन कथमपि शातं, ततः कुपितस्यानुतोषणं विधेयम् । अथवा ज्ञाते कुपितस्यापि तस्य वक्ष्यमाणं वचनं भवति तदा गुरुभिः स खाधुर्निष्काशनीय इति परिवा शेषः । द्वितीयपदे उत्थितोऽसौ नामः शिवगृहीतो पा सौ ततस्तत्रैव परिष्ठापयेत् । न स.गारिक स्य प्रतार्पयेत् । अथ सागारिकवचनं दर्शयति जइ नीयमा पुच्छा, आणि किं पुणो परं मम ? | दुगुणा एसवराधो, ग एस पाखाऽऽलओ भगवं । । ६६३ | यद्यस्माकमनाच्च नीतं ततः किमर्थमिदानीं पुनरा सदीगृहमानीयते, एष वृद्धिगुणोऽपराधः, न चैष भगवन् ! मदीय प्रवासः पाणानां मातङ्गानामालयो, यदेवं मृतकोपकरणमत्राऽऽनीतम् । " एत्रमुक्तैर्गुरुभिर्वक्लव्यम्किमिसम्म गुरू, पुरतो तरसेव भितिनं तु । अनिता कसं म्ह असे ति ॥ ६६४|| किमिदं दन्तजातमभून्, उतः शेषसाधुभिः शय्यातरेण वा गुरूणां शिष्टम् - सुकेन साधुना अनापृच्छया काष्ठं नीतम्, तत गुरवस्तस्यैव शय्यानरस्य पुरतस्तं साधु किमनापृच्छया नयीति निर्भर न पति अन्येअस्माकमप्यविज्ञानता मेवमुना कृतम्। अन्यथा जानन्तो न कर्तुं दद्म इति । वाते अशुभ, इहरा अशाएँ गति सहीए । मम गीतो निच्छु भई. कइतव कल दे वा वितिओ ॥ ६६ ॥ यदि सामारिक वारयति मा निष्काश रिष्यति ततोऽनिष्काशनं, निष्काश्वते इतरथा अवारयति सागारिकेऽन्यस्यां वसती तिष्ठति द्वितीय साधुः कैतवेन मातृस्थानिन भणति मम निजको यदि निष्काश्यते ततोऽ मपि गच्छामि सामारिकेस वा समं कोऽपि कलयति तलः सोऽपि निष्काश्यते स च तस्य द्वितीयो भवति । वृ० ४३०। (२३) संजत परिस्थापना | साम्प्रतं तस्मिन्नेव द्वारगाधाद्वितये यो विधिरुक्तः, स सर्वः क्व कर्तव्यः, क वा न कर्तव्यः ?, इति प्रतिपादयन्नाह 1 १ एसा उ विही सव्वा, कायव्वा सिवभिम जो जहिं सइ । असि खमण विपड़ी, काउस्सगं च यजेजा ।। ६४ ।। (एसति ) "तरवक्खायाविही मेरा सीमा आायरणा इति एगड्डा (कायच्या) करयच्या तुशब्दोऽवधारणे वच हियसम्बन्धश्रो कायव्वों एवं, कम्मि ? (सिवमिति ) प्रा. न्तदेवताकृतोपसर्गवर्जिते, काले, 'जो' साहू. ' जहि ' खेत्ते वस, असिषे कई ? असि मरांव किं पुण है. जोगविकीर, काउच बजे काउसम्मो य न कीरइ । ● , साम्प्रतसुतार्थोपसंहारार्थ गाथामार एसो दिसाविभागो नायब्यो दुविदव्वहरणं च । बोसरणं अपलोषण, सुहासुहगईविसेसो य ।। ६५ ।। ( एसो इति) अतरदारगाहस्थो, कि १. दिला विभागी साचादिविविभागी नाम अविनसंजयपरि हाय विहिं पर दिसिप्पदरिसणं संखेवेण दिसिपडिवज्जा यणं ति भणियं होइ । श्रहवा - दिसिविभागां मूलदारगहणं, सदाय चेयं यं अधिसंजयपरिद्वायगियं पर एसो दारविवेधी गायव्यत्ति भवियं हो बिद दव्वहरणं चेति ) दिव्यंाम पुकालगदिवं कुसा Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८४) परिदृवणा अभिधानराजेन्दः। परिद्ववणा । णायब्वमिति अणुवट्टए, (वोसिरणं ति) संजयसरीर- खावेत्ता अप्पसागारिए विर्गिविज्जइ, जइ नत्थि कोइ पस्स परिटुवर्ण, 'अवलोयणं' बिइयदिणे निरिक्खणं ति।(सुहा- डियरइ, अह कोइ पडियर तस्सेव उरि छुभाइ, एवं विसुहगतीविसेसो यत्ति) सुहासुहगतिविसेसो वंतराइसु प्पजहणा, विगिचणा णाम-जं तत्थ तस्स भंडोवगरणं त. उपवायभेया यत्ति भणियं होइ । एसा अचित्तसंजयपारिट्ठा | स्स विवेगो, जइ रुहिरं ताहे न छडेज्जइ, एक्कहा वा विहा पणिया भणिया । वा मग्गो नजिहि ति, ताहे वोलकरणविभासा । अचित्तासंइयाणि असंजयमणुस्साणं भम्मद । तत्थ गाहा जयमणुयपारिट्ठावणिया गया । आव०४०। अस्संजयमणुएहि, जा सा दुविहा य आणुपुव्वीए। (२४) भोजनजातं परिगृह्य सुरभि भुते, दुरभि परिष्ठापयति, सच्चित्तेहि सुविहिया !, अञ्चित्तेहिं च नायव्वा ॥६६॥ तस्य प्रायश्चित्तम्इयं निगदसिद्धव । तत्थ सचित्तेहिं भाइ । जे भिक्खू अमयरं भोयणजायं पडिग्गहित्ता सुभि कहं पुण तीए संभवोत्ति ?। पाह भुंजइ, दुभि परिहवेइ, परिवंतं वा साइजइ ।। ४३ ।। कप्पटगरूयस्स उ, वोसिरणं संजयाण वसहीए । सुभं सुब्भी, असुभं दुम्भी, शेषं पूर्ववत् ।। उदयपह बहुसमा-गम विपजहाऽऽलोयणं कुज्जा॥६७॥ वम्मेण य गंधेण य, रसेण फासेण जंतु उववेतं । कार अविरहया संजयाण वसहीए कप्पटुगरूवं साहरेजा, तं भोयणं तु सुम्भि, तबिवरीतं भवे दुभि ॥ ३२२ ।। सा तिहिं कारणेहि छुम्भज्जा, किं ?-पपसिं उड़ाहो भवउ जं भोयणं वरणगंधरसफासेहिं उववेतं तं सुमि भरणति छुहेज्जा पडिणीययाए, काइ साहम्मिणी लिंगत्थी एपहिं ति, इतरं दुभि । मम लिंगं हरियं ति एएण पडिणिवेसेण कप्पटुंगरूवं पडिय महवास्सयसमीवे साहरेज्जा । अहवा-चरिया तव्वरिणगिणी रसालमवि दुग्गंधि, भोयणं तु न पूजियं । घोडिगिणी पाहुडिया वा मा अम्हाणं अजसो भविस्सइ,। सुगंधिमरसालं पि, पूइयं तेण सुब्भि तु ॥ ३२३॥ तो संजोवस्सगसमीवे ठवेजा, एएसि उड्डाहो होउ त्ति, म्सेण उववेयं पि भोयणं दुभिगंधे ण पूजितं, दुब्भिमिअणुकंपाए कार दुक्काले दारयरूवं छडिउंकामा चिंतेह-एए त्यर्थः । अरसालं पि भोयणं सुभगंधजुतं पूजितमित्यर्थः । भगवंतो सत्तहियट्ठाए उवाट्ठिया, एतेसिं बसहीए साहरामि. पए सिं भत्तं पाणं वा दाहिति । अहवा-कहिं वि सेज्जायरेसु घेत्तूण भोयणदुर्ग, पत्तेयं अहव एकतो चेव । षा इयरघरेसु वा छुभिस्संति,अश्रो साहुवस्सए परिट्टवेज्जा, जे सुभि भुंजित्ता, दुभि तु विगंचणं कुजा ।। ३२४ ।। भएण काह य रंडा पउत्थवइया साहरेज्जा, एए अणुकंपि सुभि दुभि च भोयणं एक्कतो पत्तेयं वा घेत्तुं जो साहू इहिति; तत्थ का विही ?, दिवसे २ वसही वसहेहिं चत्तारि सुभि भोच्या दुभि परिवेति, तस्स मासल हु। बारा परियांचियब्बा, पच्चूसे पोसे अवररहे अडरते, मा | इमे य दोसामा एए दोसा होहिंति, जर विगिंचंती दिट्ठा ताहे बोलो सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं तथा दुविधं । कीरह-एसा इत्थिया दारयरूवं छड़ेऊण पलाइया,ताहे लोगो पावति जम्हा तेणं, दुभिं पुवेतरं पच्छा ।। ३२५ ।। पह, पेच्छड य तं, ताहे सो लोगो जं जाणउ तं करेउ, अह न दिट्ठा ताहे विगिचिज्जइ, उदयपहे जणो वा जत्थ परसे पर इमे य दोसानिग्गी अत्थर, तत्थ ठवेत्ता पडिचरह, अण्णश्रोमुद्दो जहा रसगेहि अधिकखाए, अविधिखइंगालुपक्कमे माया । लोगो न जाणा, जहा किंचि पडिक्खंतो अत्थइ, जहा तं लोभे एसणवाघातो, दिटुंतो अजमंगृहि ॥ ३२६ ॥ सुणपण कारण वा मज्जारेण वा न मारिज्जइ, जाहे केणा विट्ठ ताहे सो ओसरह । सचित्तासंजयमणुयपरिट्ठावणिया रसेसु गेही भवति, अण्णसाहूहिंतो अहिगं खायति-भोय. गया। गपमाणातो अहिगं खायति,एगो गहियस्स उव्वरित्तु सुभं इयाणि अचित्तासंजयमणुयपरिट्ठावणिया भसह खायति, इतरं छद्देति,कागसियालगखायं । कारगगाहा। एवं अविही भवति. इंगालदोसो य भवति, रसगिद्धो गच्छे अ. पडिणीयसरीरछुहणे, वणीवगाईसु होइ अच्चित्ता। धिति अलभंतो गच्छा उपक्कमति, अपक्रमतीत्यर्थः । मायी तोऽवेक्ख कालकरणं, विप्पजविागचणं कुज्जा ॥६॥ मंडलीए रसालं अलभंतो भिक्खागो रसालं भोत्तुमागच्छपडिणीनो कोइ वणीमवसरीरं छुहेज जहा एपसि उड्डा- ति, भदकं भदगं भोचा विवरणं विरसमाहारेत्यादि रसभोहो भवउ सि, वणीवगो वा तत्थागंतूण मत्रो, केणइ वा | यणे लुद्धो। एसणं पि पेल्लेति । एत्थ दिटुंतो-"अजमंगू"। जहा मारेऊण एस्थ निदोसं ति छडिओ, अविरइयाए मगुस्सेण | अजमंगू पायरिया बहुस्सुया बहुपरिवारा मधुरं (पुर) घा उकलंबियं होज्जा, तत्थ तहेव बोल करेंति, लोगस्स क- आगता, तत्थ सड्ढहिं धरिजंति, ता कालंतरेण प्रोसरणा हिज्जइ-एसो गट्ठो त्ति, उक्कलंबिए निविणेण बारेताणं र- जाता, कालं काऊण भवणवासीसु उववरणो, सो बहुपडिइंताणं मारिओ अप्पा होज्जा ताहे दिट्टे ण कालक्खेवो का- बोहणट्ठा आगो सरीरमहिमाए अद्भुकंताए जीहं णिलायव्वो, पडिलेहिऊण जइ कोइ नत्थि ताहे तत्थ कस्सह नि- लेति। पुच्छिो -को भवं? भणाति-अजमंगृहं साधू सहाय बेसणं न होइ तत्थ विगिचिज्जइ उपेक्खेज्ज वा, पोसो अणुसासिउ गतो। एते दोसा पडिपक्खे अज्जसमुद्दा, तेर. पहा संचरह लोगो ताहे निस्संचरे विवेगो जहा एत्थ प्रा. सगेहीभीता एक्कतो सब्वं मेले जति. तं च परसं विरसं एसे ण उवेक्खयब्वो ताहे चेव विगिचिजद,अइपहाए संचि । वावि सब्वं भुंजे ण छहए । सूत्राभिहितं च कृतं भवाते । कंठा। Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवगा (५८५) अभिधानराजेन्द्रः । परिहवणा " रसगेहि ति" अस्य व्याख्या परिमाणतो जावतियं उवउजति तप्पमाणं घेत्तव्वं, अति. सुब्भीदडगजीहो, णेच्छति छातो वि भुजितुं इतरं । रेगं गिराहन्तो लोभदोसो, परिट्ठावणियदोसो य, प्राणा:आवस्सयपरिहाणी, गोयरदीहो उ उज्झिामिया ॥३२७॥ | णो य दोसा, संजमे पिपीलियादी मरंती, आयाए अतिबहुए इतरं दुभि ति लभंतो वि सुब्भि भत्तीणमित्तं दीहं भि भुत्ते विसूचियादी, तम्हा अतिप्पमाणं ण घेत्तव्वं । स्वाऽऽयरियं अडति, सुत्तत्थमादिपसु श्रावस्सएसु चोदगाऽऽहपरिहाणी भवति, दुभियस्त उज्झिमिया परिट्ठावणिया । तम्हा पमाणगहणे, परियावमं णिरत्ययं होति । 'अधिक्खाए ति" अस्य व्याख्या अथवा परियावाम, पमाणगहणं ततो अजुतं ॥३३४ ॥ मणुस्मं भोयणजायं, मुंजताण तु एकतो । तस्मादिति जतिपमाणजुत्तं घेत्तव्वं तो परियावरणगहणं णो अधिकं खादए जो तु, अधिक्खाए स बुचति ॥ ३२८॥ भवति सुतं णिरत्थयं, अह परियावरणगहणं तो पमाणगहमनसो रुचितं मनोझं भोप्रणं जातमिति प्रकारवाचका, णमजुत्तं, अत्थो णिरत्थश्रो । साधुभिः सार्द्ध भुजतां जो अधिकतरं खाए सो अधिक्खा श्रह दोगह वि गहणंभो भएणइ। एवं उभयविगेधे, दो वि पया तू णिरत्थया होति । जम्हा एते दोसा जह हुंति ते सयथा, तह सुण वोच्छं समासेणं ।।३३५॥ तम्हा विधीऍ मुंजे, दिएणम्मि गुरूण सेस रातिणिए। । अहवा दो वि पदा णिरत्थया । प्राचार्याह पच्छदं । झुंजति कम्विकणं, एवं समता तु सम्बेसि ॥ ३२६॥ आयरिए य गिलाणे, पाहुणए दुल्लभे सह अदाणे। का पुण विही?, जाए पायरियगिलाणबालवुड्डादेसमादि- पुव्वगहिते व पच्छा, अभत्तछंदो भवेजाहि ।। ३३६॥ याणं उछिट्ठियं पत्तेयगहियं वा दिएणं, सेसं मंडलिरातिणिश्री जत्थ सहाइठवणाकुला णत्थि तत्थ पत्तेयं सव्वसंघाडिया सुभिदुभिदव्वाविराहेण करं वेत्तु मंडलीए भुंजति,एवं स- पायरियस्स गेरहंति, तत्थ य ायरिओ एगसंघाडगाणीम्वेसि समता भवति । एवं पुवुत्ता दोसा परिहरिया भवंति । तं गेएहति, सेसं परिट्ठावणियं भवति । एवं गिलाणस्स वि कारण परिवेजा सब्वे संदिट्ठा सव्वेहिं गहियं, एवं पाहुणे वि । अहवा कोर वितियपदे दोमि वि बह, मीसे च विगिंचणारिहं होजा। संघाडी दुल्लभदव्वखीराऽऽदिणा णिमंतिश्री सहसा दाताअविगिंचणारहे वा, जवणिज गिलाणमायरिए ॥३३०॥ रेण महंतं भायणं भरियं, एवं अतिारतं । श्रहवा भत्ते गहिए पच्छा अभत्तछंदो जातो वा, एवं वा अतिरेगं होज । पूर्ववत् कंठं। जं होज अभोजं जं, वणेसियत्तं विगिंचणरिहं च । एतेहि कारणेहिं. अतिरेगं होज पज्जयावामं । विसकयमंतकयं वा, दवविरुद्धं कयं वा वि ॥ ३३१ ॥ तमणालोएत्ता णं, परिहवे तम्मि आणाऽऽदी ।। ३३७।। पूर्ववत्। जं तुम्भे चोइयं पज्जत्तावरणं तमेतहिं कारणेहिं हवेज्जत(२५) मनोझं भोजनं परिगृह्य तद् बलपि । मेवं पजत्तावरणं प्रणालोपत्ता अणिमंतेत्ता परिटुवेति, तस्स साधर्मिकेभ्योऽदत्वा परिष्ठापयति प्राणादी, मासलहुं च पच्छित्तं । जे भिक्खू मणुखभोयणजायं पडिग्गाहित्ता बहु परियाव इमे य परिश्चत्ता बाला बुडा सेहा, खमग गिलाणा महोदराऽऽएसा। मं अदूरे तत्थ साहम्मिया संभोइया से समणुमा अपरिहारिया संता परिवसइ, जे अणापुच्छित्ता अमणिमंतियं प सव्वे वि परिच्चत्ता, परिवंतेण ऽणापुच्छ ।। ३३८॥ बाला वुहा य तिक्खछुहा पुणो वि जेमेजा, सेहा बा अभा. रिहवेइ, परिवंतं वा साइजइ ॥४४॥ विता पुणो वि जेमेज्जा, खमगो वा पारणगे पुणो जेमेज्जा, जं चेव सुब्भिसुत्ते सुब्भि भोयणं वुत्तं तं चेव मणुएणं । श्र- गेलाणस्स वा तं पाउगं, महोदरा वा मंडलीपण उवट्ठा हवा-भुक्खत्तस्स पंतं पि मणु संभवति । अट्ठमछचउत्था- जेमेज्जा, आदेसा वा तेसिं पागता होज्जा, अद्धाणखिन्ना, यंबिलेगासणिबाण उमच्छगपरिहाणीए हिंडताणं असहूण वा ण जिमिता, पुणो जेमज्जा तत्थ अणापुच्छा परिट्ठावे. जहा विधीए स्वग्रामे वा संभुजंते जे, ते संभोइया, समणुमा तो एते सव्वे परिच्चयति। उज्जयविहारी।चोदगाऽऽह संभोड्यगहणातो चेव अपरिहारि इमं पच्छितंगहणं सिद्धं. किं पुण अपरिहारिगहणं । प्राचार्याऽह-चउ. आयरिए य गिलाणे, गुरुगा लहुगा य खपगपाहुणए । भंगे द्वितीयभंगे सातिचरिपारहरणार्थ, संत इति विद्यमानः । जं चेव सुभिसुत्ते, वृत्तं तं भोयणं मणुमं तु । गुरुगो य बालवुड्डे, सेहे य महोयरे लहुओ ॥ ३३६ ।। अहवा वि परिज्झुसिए, समणुमं होति पंतं पि ॥३३२।। जति तेण भत्तेण विणा आयरियगिलाणाण विराहणा भवति तो प्राणितस्स अणापुच्छा परिवेंतस्त चउगरु. परिभूसितो बुभुक्षितः, शेषं गतार्थम्। गा, खमए पाहुणए य चउलहुगा, बाले बुहे गुरुगो, सहे प्राचार्यो विधिमाह महादरे लहुनो। जावतिय उवउजति, जत्तियमेत्ते तु भोयणे गहणं । चोदगाऽऽहअतिरेगमणवाए, गहणे पाणाऽऽदिणो दोसा ।। ३३३॥। जदि तेण विणा आबा-धा होजा तो भवे वेत्ता। Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरिवणा अनिधानराजेन्द्रः । परिट्टवणा गने वपरिभागो, भइनो तम्हा प्रणेलो |३४०॥ मम सीसी स्वजन इदमपि प्रमाणं ण भवति । समणुसता सं. अति नसिं पायरियादीणं तेण भत्तण विणा परितावणा भोगो, सो पत्र प्रमाणं, कारण पुण श्रास मातुं दूरे गति,सं. भौतिए वा मोर्नु श्रमसंभोश्याण विणेति, तं पुण गिलाणादी ला हरज.ततो वेत्ता हवेज्ज, जति गीर परिभीगः | ऽऽदिकारणं बहुविधं ।। स्यात् दो पार्यान्तमपि स्यात् तस्मादनेकान्तत्वात्तपामानी अववापण आणेतो सुद्धोयमानेनाऽवश्यं दाष इत्यर्थः । वितियपद होज्जमप्पं, दरद्धाणे सपञ्चवाए य । श्राचार्याऽऽह कालो वा अत्थमती, सुम्भी जंभे व तं दुब्भी।।३४७।। भुजंतु मा व समणा, प्रातवियुद्धीए णिञ्जरा विउला । अप्पं स्तोकं अगणतो विसुद्धो, दूरं वा अदाणं, दूरे पास वा तम्हा उभयेणं, गय अतिसेसिए भरणा ।। ३४१ ।। सपच्चवाप ण णेति, जाव णेति ताव श्रादिच्चो अत्थमेति, घभुक्रेऽगि माधुभिः आत्मविशुद्धया नयतः विपुलो तोहि वा सुब्भिं लद्धं, तं च पारिट्ठावणियं दुम्भि, पवमादिनिर्जरालाभो भवत्यव, छद्मनि स्थितः छद्मस्थः, अनतिशयी कारणेहि अाणेतो वि सुद्धो अपच्छित्ती । नि० चू२ उ०॥ तेनावश्यं नेयं । सातिसई पुण जाणित्ता जति भुंजइ ता (२६) अधुना नोआहारपारिस्थापनिका प्रतिपादयतिति, श्रमहा ण णति । णोआहारम्मी जा सा, सा दुविहा होइ आणुपुबीए । चोदगाऽऽह-आयविसुद्धीए अपरिभुजते कहं निर्जरा? उवगरणम्मि मुविहिया, नायव्वा नो य उवगरणे ।७७) श्राचार्यो दृष्टान्तमाह निगदसिद्धा, नवरं नोउपकरणं श्लेष्माऽऽदि गृह्यते। श्रातविसुद्धीएँ जती, अबाहिंसापरिणए जदि बधेति । उवगरणम्मि उ जा सा, सा दुविहा होइ आणुपुबीए । सुज्झति जतणाजुत्तो, अवधेतो वि हुलग्गति पमत्तो।३४२। जाया चेव सुविहिया, नायव्वा तह अजाया य ७८) यथा श्रात्नविशुद्धया यतिः प्रवजितः न हिंसा अहिंसा निगदसिद्धैव, नवरमुपकरणं वस्त्राऽऽदि । तद्भावपरिणतः यद्यपि प्राणिनां बाधयति तथाऽपि प्राणा जाया य वत्पपाए, वंका पाए य चीवर कुज्जा । तिपातफलेन न युज्यने, यतनायुक्तत्वात् । पमत्तो पुरण भावस्सऽविशुद्ध वात् अवहेता वि पाणातिपातफले लग्गतित्ति । अज्जाय वत्थपाए, वोच्चत्थे तुच्छपाए य॥१॥ (प्र०) दिटुंतीवसंहारमाह जाता च वस्त्रे पात्रे च वक्तव्या, चोदनाऽभिप्रायस्तावद्वस्त्रे मूल गुणाऽऽदिदुष्टे वङ्कानि पात्रे च चीवरं कुर्यात्, अजाता च एमेव अगहितम्मि वि. णिज्जरलाभो तु होति समणस्स।। वक्तव्या-बखे पाजेच ( बोच्चत्थे तुच्छपाप य ) चोअलसस्स सोण जायति,तम्हाणेजा सति बलमि।३४३। दनाऽभिप्रायो वस्त्रं विपर्यस्तं-ऋजु स्थाप्यते पात्रं च ऋजु अगहिते वि भतपाणे प्रायसुद्धीओ तस्स णिज्जरा स्थाप्यत इति, सिद्धान्तं तु वक्ष्यामः, एप तावद् गाथाऽर्थः । विउला भवति । जो पुण अलसदोसजुत्तो अविशुद्धमणो, इयं चान्यकर्टकी गाथातस्स सो णिज्जरालाभो ण भवति । तस्मानिर्जरालाभा- दुविहा जायमजाया, अभियोगविस य सुद्धसुद्धा य । र्थिना सति बले गयं । एगं च दोगिण तिमि य, मूलुत्तरसुद्धजाणट्ठा ॥ ७६ ।। तस्थिमो कमो भपति द्विविधा जाता अजाता पारिस्थापनिका-श्राभियोगिकी तम्हा आलोएजा, सक्खत्ते सालए इतरे पच्छा । । विषे च अशुद्धा शुद्धा च, तत्र शुद्धा अजाता भविष्यखेत्तंते प्रमगामे, खेत्तबहि वा अवोचत्थं ॥ ३४४ ।।। ति, असं च प्रानिर्दिष्टः सिद्धान्तः-"एगं च दोरिण ति रिण य, मूलुतरसुद्धि जाणाहि ।” मूल गुणाऽशुद्ध एको प्र. बालोपति कहयति स्वक्षेत्रे स्वग्रामे साल र स्वप्रतिश्र- | थिः, पानेच रेखा, उत्तरगुणाशुद्ध द्वा शुद्ध त्रय इति थे जेट्रिया संमोतिया ते भणाति-इमं भत्तं जह अटो भे| गाथाऽर्थः अवयवार्थस्तु गाथादयस्याप्ययम्-सामाचार्यभितो घपउ, गर ते गच्छति तांद अझ भणाति, इतरे पच्छा क्षीत रति-उयगरणे णोउबगरणे य । उधगरण जाया प्र. म्वगाम या श्रासमतिथये, जति ते पिणे च्छति ताहे सखते जाया य, जाया बत्थे पार य, अजाया वि पत्ये पसय, जाया प्रभागामे, जति ते विगछति ताहे खत्तयहि अगाम णाम-यस्थपायं मूलगुणप्रसुवं उत्तरगुणमसुखं वा भभिमाकारणता गिजनि, एवं अयोग्रथं गति, कारणे असत. गेण या बिसेण घा, जाविलेण भाभियोगियं या पत्थं पा. भौतिए स चेय कमो उत्क्रमकरणप्रतिषेधार्थम् । यं या खंडाखंडिकाऊण विीिययम्ब, सायणाय तहेव.जा. भासएणुवणए मोत्तुं, दूरवाणं तु जो णए । णि हरिताणि पत्थपायाणि कालगए या पडिभग्गे या तस्स सञ्चेव बालादी-परचायविराधणा ॥ ३४५ ॥ साहारणगहिए या जाएज एस्थ का विगिंबणविही?। ची. श्रासरण मोतुं जो दूरत्थाणं पक्षवापण णेति, तस्त सा | यत्रो भण-आभिप्रोगाविसाणं तहेव खंडाखंड फाऊण बिगिचणं मूलगुण प्रसुखवस्थस्ल एक बंक कीर, उसरवेष घालातिविराहणा पुश्वुत्ता। स्वजनममीकारप्रतिषेधार्थम् गुणसुद्धस्त दोमि वंकाणि, सुद्ध उजुयं विगिचिजा पाए मूलगुणसुद्धे पगं चीरं दिजा उत्सरगुण प्रमुढे दोषि ण पमाणं गणो एत्थ, सीसो व ण वा सो । चीरखंडाणि पाए छुभंति, सुद्धं तुच्छं कीरह-रितयं ति भाणसमणुएणता पमाणं तु, कारणे वा विवजओ ॥३४६॥ यं होइ । पायरिया भणंति-एवं सुद्धं पि असुद्धं भवर, क. मूलभेदो गणो, गन्छो वा गणो, सो अत्र प्रमाणं ण भवति, हं?-उज्जुयं ठवियं , एगेण बंकेण मूलगुण असुद्धं जायं, दोहिं Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) अभिधानगजेन्जः। परिवया परिवणा उत्तरगणसुखं. एकर्षकं दुकं वा होजा, दुर्वक एकक वा 'गुरुमल' गर्यन्तिकेऽपि 'बसन्तः' निवसमाना अनु होजा, एवं मूलगुणे उत्तरगुणी होजा,उत्तगुणे, वा मूलगु- कलागेन भवन्त्येवरूणाम्, रतेष पदानाम्' उक्तलणो होजा. एवं चैव गाए वि होज्जा, पग चीवर निगाय क्षणानां, तुशब्दादन्येषां च, दूरं दूरेण ते भवन्ति. अविनीमूलगुणासद्धं जायं, दोहिं विणिग्गपहिं सुद्धं जाय, जे य तत्वात्तपां श्रुतापरिणतेरिति गाथाऽर्थः । श्राव०४ अ.। तहि वत्थपापहि परिभुंजिरहि दोला तेसिं श्रावत्ती भवर, (२७ ) गृहवीऽऽदिषु उच्चारप्रश्रवणे परिष्ठापयतिनम्हा जं भणियं ते तं न जुत्तं, तश्री कह दाउं विगिंचि. जे भिक्खू गिहसि वा गिहमुहंसि वा गिहदुवा रंसि वा यध्वं ?। श्रायरिया भणंति-मूलगुण असुद्धे वत्थे एगो गंठी करिइ, उत्तरगुणसुद्धे दोरिण सुद्धे तिरिण, एवं बत्ये, पाए गिह पडिदुवारंसि वा गिहलोयंसि वा गिहंऽगणंसि वा गिभूलगुणसुद्ध अंतो अटुप एगसरिहया रेहा कीरइ. उत्त हवच्चंसि वा उच्चारं वा पासवणं वा परिवेइ, परिवंतं र गुणप्रसुद्धे दोरिण, सुद्ध तिरिण रेहाओ, एवं णायं होइ, वा साइजइ ।। ७२ ॥ जाणपण कायवाणि,कहिं परिट्टवेयव्याणि ?-एगंतमणावाए थंडिल्लं उवघाती, गिह तस अगणीए पुढविसंबद्धं । सह पत्ताधरयत्ताणेण, असइ पडिलेहणियाए दोरेगा मुहे बझइ, उद्धमुहाणि उविजंति, असइ ठाणस्स पासल्लियं आज्वणस्सतीए, विभासितव्वं जहा सुत्ते ।। ६३ ।। उविजइ, जया वा आगमो तो पुण्फयं कीरइ एयाए बि थंडिलं तिविहोनघातियं आयपवयणे संजमगिहे श्राहीए विगिचिजइ, जइ कोइ श्रागारो पावर तहा वि बोसट्टा | उवधाओ, तसअगणि गुढविभाउवणस्सतिसंबद्धं संजमो. उहिगरणा सुद्धा साहुणो, जेहिं अमेहि साहूहि गाहेयाणि वघातिय, विभाषा विस्तारण कर्त्तव्या, जहा सुत्ते अायारजइ कारणे गहियाणि ताणि य सुद्धा जावजीवाए परिभु वितिगसुतक्खंधे थंडिलसत्तिक्कए । जंति, मूलगुणउत्तरगुणेसु उप्पराणे ते विगिचह । गतोपक इम्गे सुत्तत्थोरणपारिस्थापनिका। अंतोगिहं खलु गिह, कोट्टग सुविधी व गिहमुहं होति । अधुना नोउपकरणपारिस्थापनिका प्रतिपाद्यते श्राह च- अंगण मंडवथाणं, अग्गद्दारं दुवारं तु ॥ १४ ॥ नोउवगरणे जा सा, चउनिहा होइ आणुपुब्बीए । गिहवच्चं पेरंता, पुरोहडं वा वि जत्थ वा वच्चं । उच्चारे पासवणे, खेले सिंघाणए चेव ।।८०॥ घरस्स शंतो गिह भपति, गिहगहणेण वा सब्वं चेव घरं व्याख्या निगदसिद्धव । घेप्पति। कोट्टयो अग्गिमालिदो सुविही छदारुश्रालिंदो,एते विधि भणति दो वि गिहमुहं गिहस्त अग्गतो अभावगासं, मंडवथाणं,अं. उच्चारं कुव्वतो, छायं तसपाणरक्खणढाए । गणं भमति,अग्गदारंपासितं तं गिहदुवारं भाति,गिहस्स, समंततो बच्चं भन्मति, पुरोहडं वा वच्चं पच्छंतं ति वुत्तं कायदुयदिसाभि-ग्गहे य दो चेव अभिगिराहे ॥१॥ भवति, जं वा वच्वं करेति तं वच्चं समोभूमी भवति । पुढवि तसपाणसमु-ट्ठिएहि एत्थं तु होइ चउभंगो। जे भिक्खू मडगगिहंसि वा मडगच्छारियंसि वा मडगपढमपयं पसत्थं सेसाणि उ अप्पसत्थाणि ॥ ८२॥ शूभियंसि वा मडगमयंसि वा मडगलेणंसि वा मडगथंडिइमीणं वक्खाणं-जस्स गहणी संसज्जइ तेण छायाए वो. सिरियव्वं, केरिसियाए छायाए ?-जो ताव लोगस्स उव. लंसि वा मडगवचंसि वा उच्चारं वा पासवणं परिवेइ, पभोगरुक्खो तत्थ न बोसिरिज्जइ, निरुवभोगे वोसिरिज्जइ, रिटुवंतं वा साइजइ ।। ७३ ।। तत्थ वि जा सयाओ पमाणाश्रो निग्गया तत्थेव बोसिरि इमो सुत्तत्थोज्जा, असा पुण निग्गयाए तत्थेव वोसिरिज्जइ, असति मडगगिह मेच्छाणं, थूभा पुण विश्चगा होति ॥५॥ रुक्खाणं कारणं छाया कीरह, तेसु परिणएसु वश्चद, काया| छारो तु अपुंजकडो, छारचिताविरहितं तु थंडिल्लं । दोरिण-तसकाओ, थावरकाओ य । जर पडिलेहा बि पमजाऽषि तो पगिदिया बि रक्खिया तसा वि, मह पडिलेहो वचं पुण पेरंता, सीताणं वावि सव्वं तु ।। ६६ ।। म पमजा तो थावरा रक्खिया सा परिच्चत्ता, प्रह मडगगिहं णाम मेच्छाणं घरभंतरे मतयं छोदु विज्गति, म पडिलेहो पमज्जा थायरा परिवत्ता तला रफियया, माझति, तं मंडगगिहं, अभिणय अपुंजकय छारी इयरस्थ दोषि परिचत्ता, सुप्पडिलहियसुप्पमजिपसु घि भष्मति, गाऽदिठिया विचा थूभी भरणति,मडाएं प्रायो पढमं पयं पसत्थं, बिश्यताप. एकेकेण चउत्थं दोहि विप्र मडाऽऽश्रयः, स्थानमित्यर्थः । मसाणाऽऽसझे प्रणतुं माय प्पसत्थं, पढम पायरियब्धं, सेसा परिहरियब्धा । दिसाभि जस्थ सुट्यति तं मडासयं, मयस्स उरि जं देयकुलं तं लेणं ग्गहे-"उभे मूत्रपुरीपेच. विधा कुर्यावुदमुखः । रात्री द भापति, छारचितायज्जितं केवलं मडयं दशहाणं डिलं भ. क्षिणतश्चैव तस्य चाऽयुन हीयते ॥ १॥" दो चेष एयाउ पति, मध्यं पेरतं वयं भरणति, सव्यं था सीवाणं सी. अभिगएहति, उगलगहणे तहेव चउभंगी, सूरिए गाम एव ताणस्स या परतं यचं भएणति । नि० चू० ३ उ०। माह विभासा कायब्वा जहासंभवं । (२८)रात्री विकाले वा उच्चारं कृत्वा पाने स्थापयित्या प्रातः अधुना शिष्यानुशास्तिपरां परिसमाप्तिगाथामाह- परिष्ठापयन्तिगुरुमूले वि वसंता, अनुकूला जे न होति उ गुरूणं । । जे भिक्ख सगपायंसि वा परपायंसि वा दिया वा राओ एएसिं तु पयाणं, दूरं रेण ते होति ॥८३ ॥ । वा वियाले वा उपाहिज्जमाणे सपायं गहाय परपाय Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिढवणा अनिधानराजेन्छः । परिवणा जायइ, जाइत्ता उच्चारं पासवणं वा परिवेइ, परिहवित्ता अभिग्गहिय त्ति कए, कहणं पुण होति मोहपडिमाए। अणुग्गए मूरिए पाडेइ, पाडतं वा साइजइ ।। ८१॥ । अप्पो त्ति अप्प मोहं, मोदमभी भवति अप्पा ॥१०६ ।। राउत्ति निसा, वियालो त्ति संझावगमो, उत्प्राबल्येन बा- | पुव्वद्धं कंठं, अप्पमिति मोहं अप्पं पुणो भवति, काइयभू. धा उब्बाहा, अप्पणिो सरणामत्तो सगपायं भरणति, मी वा अप्पा, तेण मत्तए वोसिरति। अप्पणियस्स अभाव परपाते वा जाइत्ता चोसिरह, परं एतेहिं कारणेहिं, वोसिरणं दिवसतो व रत्ती वा। अजाइनो बोसिरंतस्स मासलहुँ, अणुग्गए सूरिए छड़ेति पगतं तुण होति दिवा, अधिकारो, रत्तिवोस? ।।११।। मासलहुं, मत्तगे णिक्कारणे वोसिरति मासलहुं । णिज्जुत्ती इह सूत्रे दिवसतो णाधिकारो, रातो वोसिरितेणाहिकारो। णो कप्पति भिक्खुस्सा, णियमत्ते तह परायए वा वि ।। सगपातम्मि य रातो, अधवा परपायगंसि जो भिक्खू । वोसिरिऊ णुच्चारं, वोसिरमाणे इमे दोसा ।। १०४॥ उच्चारमायरित्ता, सूरम्मि अणुग्गए राओ ।। १११ ॥ णियमत्तर, परायत्तए वा णो कप्पति भिक्खुस्स वोसि उचारो सरणा, पासवणं काइया, जो राश्रो बोसिरिर्ड रिउ । जो वोसिरति तस्स इमे दोसा।। अणुग्गए सूरिए परिटुवेति, तस्सेयमुत्तम् । सेहाऽऽदीण दुगुंछा, णिसिरेज्ज तं व दिस्स ऽगारीणं । सो आणा अणवत्यं, मिच्छत्तविराहणं तहा दुविधं । उड्डाहभाणभेयण-तिसुपावणमादिपलिमंथो ॥१०५॥ पावति जम्हा तेणं, सूरम्मि उग्गए राम्रो ॥११२।। सेहा गंधेणं वा दट्ठण वा विपरिण मेज्ज, दुगुंछ करेज्ज, कंग। रातो परिटुवेतस्य इमे दोसा- . इमेहिं हड़सरक्खा वि जिता अगारिणो वाणिसिरिजंतं दर्द उडाई करेज्ज-"अहो इमे असुइणो सबलोगं विट्टालेति ।" तेणाऽऽरक्खिय सावय-पडणीयणपुंसइथितरिच्छा । भाणभेयं करेज्ज, उभेदिते आइये जाव परिटुवेति तिसु- ओहाणपेहि पेहा-णसे य वाले य मुच्छा य ॥११३ ।। आवेति ति जाव उव्ववेति जाव सुत्तत्य पलिमंथो भव राश्रो णिग्गो तेणाऽऽरक्खिएहिं थेप्पेज्ज, सीहमाइणो वा ति, आदिसहातो परेण दिट्टे संकामोतिगाऽऽदिपसंगो। सावया, तेहिं स खज्जेज्जा पडिणीश्रो वा पडियरिउं राश्रो चोदगाऽऽह असागारिते पतावेज्ज, पडिणीअोवा भणेज्ज एस चोरोपारएयं सुत्तं अफलं, अत्था वा दो वि वा विरोघेणं । दारिश्रो, जेण राश्रो णिग्गच्छति, णपुंसगो वा रातो बला चोदग दो वि असत्या, जह होति तहा णिसामेहि ।१०६।। बेरहेज्ज, इत्थी वा गेरहेज्जा । अहवा-बहभावेणं साधू सुत्ते वोसिरणं न पडिसिद्ध तुमं पुण अत्येण पडिसेह इत्थी य जुगवं णिग्गता, तत्थ संकाइया दोसा, एवं महासि, एवं एगतरेण अफलेण भवितव्वं, दो वि वा परोप्परं सहियादितिरिक्खीए वि संकेज्ज, अधवा णपुंसकइत्थीतिविरोधेन ठिता। पायरियाऽऽह-चोदग पच्छद्धं कंठं। रिच्छीए वा कोवि अणायारं सेविज्ज, ओहाणपेही वा सुत्तं कारणीयं, के ते कारणा ? । इमे दिवसतो छिदं अलभमाणो रातो समाहिपरिट्ठवणलक्खेण गेलसमुत्तमद्वे, रोहग अद्धाण सावए तेणे । श्रोहावज्जा, एवं वेहाणसं पि करेज्जा, सप्पाऽऽदिणा वा बालण खइतो ण तरति अक्खाउं, मुच्छा वा से होज्ज । जमेहे दुविधरुयाए, कहगदुग अभिग्गहाऽऽसरणे ॥१०७॥ म्हा एते दोसा तम्हा ण परिट्टवेयब्यो। गिलाणो काइयसरणाभूमी गंतुं ण तरति, अणासगमु- समाहिमत्तश्रो अणुग्गए वि परिटुवेतित्तिमटुं, तं पडिवरणो ण तरति गंतुं, रोधगे काइयसम्मा बितियपदे सागारो, संसत्तप्पेच्छणाण हेतुं वा । भूमी णत्थि, सागारियपडिबद्धा वा, श्रद्धाणे सचित्तादी पुढवी, रात्री वा, वसहीअो णिग्गच्छंतस्स सावयभयं पि य,मेहे एतेहि कारणेहिं, सूरम्मि अणुग्गए राम्रो॥११४॥ मुत्तसुक्कराए य एयाए दुविधरुजाए पुणो पुणों वोसिरति, उग्गए सूरिए परिट्टवेज्जमाणे सागारियं भवति, अंतो वा अणिोगकहणे धम्मकहणे य, अभिग्गहे मोहपडिम पडि कायभूमी, अप्पा संसत्तो वा, ताहे दिवसतो वि मत्तए वोघराणो, भावाऽऽसण्णो वा काइयसरणाभूमी गंतुं ण तरति । सिरिउं राश्रो अप्पसागारिए, परि?विज्जति, उग्गते सूरिए अप्पे संसत्तम्मि य, सागरऽवियत्तभावपडिबद्ध। जाव परिटुवेति वि सुवावेति वा सुत्तपरिमंथो महतो भवति त्ति अणुग्गए सूरिए परिवेति, परिवेतो सुद्धो पाणिदयाएँ मणो वा, वोसिरणं मत्तए भणियं ॥१०८।। भवतीत्यर्थः। नि० चू० ३ उ०। अप्पा काइयभूमी, संसत्ता वा काइयभूमी, साधुस्स वा (२६)अङ्गारदाहाऽऽदिषु स्थएिमलेषु उच्चारप्रश्रवणे करोतिबाहिरे सरणायगादि सागारियं, सेज्जायरस्स वा अंतो वो. जे भिक्खू इंगालदाहंसिग खारदाहंसि वा भुसदाहसि वा सिरिज्जमाणे अवियत्तं इत्याहिं वा समं भाषपडिबद्धा काइ- उच्चारं वा पासवणं वापरिटवेइ, पग्विंतं वा साइज्जइ।।७४॥ यभूमी, पाणिदयट्ठा वा वासमिहियासु पडतीसु विज्जाए इमो सुत्तत्थोउवयारो काइयाए प्रायमियब्वं काउं; एतेहिं कारणहिं मत्तए घोसिरिउ बाहिं जयणाए उदिते सूरिए पट्टवेति । इंगालखारदाहे, खदिरादी वत्थुलादिया होति । अभिग्गह अप्पदाराणं इमा दोरह वि व्याख्या गोमाऽऽदिरोगसमणो, दहति गच्चे तहिं जासि ॥७॥ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवा बहरावी इंगाला. वन्धुलमादी सारी, जरा अदिरोगमरनागोया रोगपसमणत्थं जत्थ गाओ उन्मंति तं पायदा पति कुंभकार जत्थ बाहिरओ तुसे इति तं सा प्रतिवर्ष लगद्वारो ओर मुझे इति तं सदा । जे भिक्खू वासु गोलेरविपाशुपाशविया पा महियाखाली वा परिभुंनमाखियासु या अपरिअपरिभुं जमाखियासु वा उच्चारं वा पासवणं वा परिद्ववेई, परितं या सह ।। ७६ ।। ( ५८६ ) अभिधानराजेन्द्रः । इमो सुत्तन्धो 1 ऊसच्छा गात्रो, लिहंति भुंजीत अभिवा सा तु । मिले, एमेन य परिवाखाणी ॥६॥ जत्ध गावो ऊसच्छणा लिहंति, सा भुज्जमाणी शिरुद्धानया भरत, सत्य दोसा सचित्तमीसो पुढविकायो, श्रचियत्तं गोसामियरस वा वा तत्थ गाचो लेहचैति अंतरावदोस श्ररणत्थ वा लेवेति पुढविवहो, मट्टियाखाणीए वि सचित्त र्मासा पुढवी जणवयस्स श्रचियत्तं श्रगं वा खाणि पतति । जे भिक्खु से आसिया पंसि पापासिया, उच्चारं वा पासवां वा परिद्ववेइ, परिहवंतं वा साइज्जइ ||१५|| इमो सुतो- पंको पुण चिखल्लो, पणगो पुरा जत्थ मुच्छते ठाणे । सो कदमहुलो, श्रावयणं तस्स शिक्का तू ।। ६६ ॥ सचित्ताचित्तविसेस से पुणसद्दो, श्रायतनमिति स्थानं. पण उलीसेो जत्थट्टाणे संमुच्छति, तं पणगट्टाएं, कद्दमबहुलं पाणी सोश्रो भरस्ति, तस्स श्राययगं शिक्का । जे भिक्खू उंबरवचंसि वा, नग्गोहवच्चंसि वा, यासत्यवचंसि या पिलावा, पिप्पलीवयंसि वा डागवचंसि वा उपचार पासव वा परिवेश, परिहतं वा साइज ७७ उंबरस्स फला जत्थ किरिवडे उच्चविज्जति तं उंबरचच्चं भरणति एवं मीही बडी आसत्थे पि नंदो सो पुरा इन्थियाभिदाणा पिप्परी भरणति डागो पत्रसागो; एतेसां सुकंति फला जहिं चेव । एतेसाममतरे, थंडिल्ले जो तु वोसिरे भिक्खु । पासवचारं वा, सो पावति प्राणमादीणि ॥ १०० ॥ कंठा । 3 सूत्रम जेसिया, सालिसिया, कुभवणंसिया कप्पासप वा उच्चार पासवणं था, परिवे परिट्ठतं वा साइज्जइ ॥ ७८ ॥ जें भिक्खू मडंगवचंसि वा, सागवच्चंसि वा, मूलयवचंसि वा, कोत्थंभरिवर्णसिया, खारवयंसि वा जीविवच्सवादमलय वा मरुमवचंसि वा उच्चारं पास या प रिटुवेद परिर्वतं या साइनइ ॥ ७३ ॥ जे भिक्खू असोगवशंसिवा, संविवस वा गा चूयवरांसि वा अरण्यरेसु तहप्पगारे पत्तोसु पुण्फोवसु फलोपसावर उच्चारे वा पासणं या परिवे, परितं वा साइज्जइ ॥ ८० ॥ १४८ परिहवा देसाऽऽडिकेन जनपदप्रसिद्धा ज्ञेया । एते पुण सव्वे वि थंडिला तिविधे उवधाए पंडीतया संजम पत्रयण, तिविधं उवघाइयं तु गायव्वं । हिमादिंगालादी, मुसाखमादी जहा फमसो । १०१ । गिद्दे उवाघातो. तं सिंहं अपरिग्गहमितरं वा अपरिग्गहे मासल हुं, सपरिमहे चउलहुः गेण्डकादयो दौसा, एवं माऽऽदिवस वि सुसाणमादिएस पवयणोवघातो- श्रसुतिकापालिका असा प्रायस संजोधासियो उवउज्ज अपणा जो जत्थ उवघातो स तत्थ वतव्वो । इमे दोसाaढावण पंतावण, तत्थेव य पाडणाssदयो दिने । afts करणे, काया कायाण या उपरि ।। १०२ ।। गिहारिणं पोरिंता विज्जति पंताविरजति या तत्वापदांसा आदि पुरा अर रंगावादीहरुद्व करेति कार्यावराणा भवति तं बा सरणं कायाण उबारे बट्टेति । वितियपदमप्पो, भोगाई रोहराद्वासे । दुव्वलगहणि गिलाणे, जयगाए वोसिरेजाहि ॥ १०३ ॥ श्रण सित्ताऽऽदीए श्रोससमिति थिराय अपरिभीगाणं इरणं श्रयरियं सब्बो जो जन्थ वोसिरति रोगे वा असं थंडिलं णत्थि, श्रद्धाणपडिवो वा वोसिरति, दुलही या मंडला पदोसतरं तत्थ वोसिरति । एस जयगा । अथवा अरो अवलोपति, श्ररणो वोसिरति, पउरवेणं कुरुकुर्यं करोति । नि० चू० ३० । (३०) श्रागन्तारेषु परिष्ठापयति जे भिक्खु आगंतारेसु वा गाहाबदकुलेसु वा परियान वा उच्चारं पासव वा परिवेश, परिद्वर्वतं वा साइजइ ॥७०॥ इबादत्ता उच्चारेच्या जय महाले या महाग या उच्चारं पाव पनि सुन्या जहा अनुम देसगे, इह वरं उच्चारपासवण त्ति वत्तवं । एतेसु डाणे उच्चार निरंतर गाहायागंतारादि डागा, जेनियमेत्ता : आहिया मुने । सुवारादीगिं, आायरमाम्म आमाऽऽदी || २६२ || कंडा । पतंग आयाअसो परसदा विष्परिणामो तब य दुर्गुच्छा । आगंतरादीसुं, उच्चाराऽऽदीणि आयरतो ।। २६३ ।। सुखमापारी लोगा अधारबाहिरा अल उगाविसलगा लोगोचाणि अजिमाना विहनि, एचमादि यसो लोगाववादेश य यसोवहरसु ण कोइ पञ्चजति ति पवयणहाणी दंडिगादि घा णिवारेज, तारिसगं वा समा यारं द अविधम्मः सहसाऽऽदिविपरित संदे या परिणमिवाधिरीकरे महा णमज्झे दुर्गुछेज्ज, दुर्गुछार वा तं का परिडुविजा, तम्हा कम्पनि आयरिडं । Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६०) परिडवणा अभिधानराजेन्द्रः। परिवणा इमो अघवातो (३१) अनन्तरहितायां पृथिव्यामुचारप्रश्रयणं परिष्ठापयतिवितियपदमणप्पज्झे, प्रोसमाईण रोहगट्टाणे । जे भिक्खू अणंतरहियाए पुढवीए उच्चारं पासवणं वा परिदब्बल गहणि गिलाणे,वोसरिणं होति जयपाए ॥२६४।। हुवेइ, परिवंर वा साइजइ ।। ४३ ।। जे भिक्खू ससरएतीए गाहाए इमा वक्खाणसिद्धट्ठाणेसु अणप्पज्झो श्रा-| क्खाए पुढवीए उच्चारं पासवणं वा परिहवेइ, परिवंतं वा यरेजा। उस्समाऽपरिभोगा, आइस्मो जत्थ अमममेहिं । साइजइ ।। ४४ ॥ जे भिक्खू ससणिद्धाए पुढवीए उच्चारं अद्धाणे वडिवअति, महाणिवेसे व सत्थाम्म ॥२६॥ । पासवणं वा परिहवेइ,परिवंतं वा साइअइ ॥४५॥ जे भिलोग अपरिभोगं ओसरणं भरण. जहिं अरणमरणो जणो क्खू चित्तमंताए सिलाए चित्तमंताए लेलुए कोलावासंपहुं वोसिरहतं श्राइमं तं वा ठाणं रोधगे अणुराणातं श्रद्धा सि वा दारुए० जाव पइटिए सअंडे सपाणे सवीए सहरिए णपवरणा वा बोसिरंति. छड्डेति वा । अहवा-महल्लसत्येण सउस्से सउत्तिंगपणगदगमट्टिमक्कडासंताणए चारं पासवश्रद्धाणं पवमा,तं सत्थणिवेस जाव वोलेउं जति पंति य,ताव महंतो कालो गच्छति, अतो तत्थेव वोसिरंति। णं वा परिहवेइ, परिवंतं वा साइज्जइ ।।४६). जे भिक्खू दुव्वलगहणिगिलाणे, अतिसारमादी व थंडिल्लं । थूणसि वा गिहएलुयंसि वा उसकालंसि वा कामजलंसि गंतु नवतिदं पुण, सिदिजति अत्थं समतिरेगं ॥२६६।। वा उच्चारं पासवणं वा परिवेइ परिवंत,वा साइजइ ॥४७।। दुब्बलगहणी ण सक्कोत्ति थंडिलं गंतुं.गिलाणो वा बोसिरेजा, जे भिक्खू कुलियसि वा सित्तिसि वा लेसुंसि वा अंतरिअतिसारेण वा गहिश्रो कित्तिए वारे गमिस्सति, एवमादि-| क्खजायंसि वा उच्चार पासवणं वा परिहवेइ,परिहवंतं वा साकारणहिथंडिलं गंतुमसमन्थो वोसिरह,जयणाए एगो सागारिश्रो णिरिक्वति,एगो बोसिरह । अथवा-सागारियं हवेजा | इज्जइ । ४८ । जे भिक्खू खंधंसि वा थंभंसि वा दुबद्धे दुतो से अत्थं बहु दवं दिजति, अचित्तपुढवीकुरुकुयं करेति ।। निक्खित्ते चलावचलं उच्चारं पासवणं वा परिद्ववेइ,परिवंतं जे भिक्खू उजाणसि वा उजाणगिहसि वा उजाणसालंसि | वा साइजइ ।।४६॥ जे भिक्खू खंधसि वा थंभंसि वा मंवा निजाणसि वा निजाणसालंसि वा उच्चारं वा पासवणं चंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मियतलंसि वा प्रामवा परिहवेइ, परिदृवंतं वा साइजइ ॥ ७१ ॥ जे भिक्खू यरंसि चा अंतरिक्वजायसि या उच्चारं पासवणं वा परिट्ठअटुंसि वा अद्यालयसि वा वरियसि वा दारगंसि वा गोपूज- बेइ, परिवंतं वा साइजइ ।। ५०॥ रंगसि वा उच्चारं पासवणं वा परिवेइ,परिट्ठवंतं वा साइज्ज- ते सेवमाणे आवज चाउम्मासियं परिहाराहाणं उग्धाइयं ६। इ ।।७२।। जे भिक्खू दगंसि वा दगमग्गंसि वा दगपहसि वा णिसीहे अज्झयणे सोलसमो उद्देसो संमत्तो ॥१६॥ एवं ससणिद्धादि उच्चारेयवा गाहादगतीरंसि वा दगठाणंसि वा उच्चारं पासवणं वा परिद्ववेइ,पस्विंतं वा साइजइ।।७३।।जे भिक्खू सुलगिहसि वा सुम्मसा पुढवीमादी कुलमा-दिएमु थूणाऽऽदि खंघमादीसु ! लसि वा भिमगिहंसि वा भिमसालंसि वा कूडागारगिहसि तेसूक्करादीणिं, परिवंतम्मि आणादी ।। ७८०॥ आदिसहाती ससणिद्धससरक्खाऽऽदी जे सुत्तपदा भाणवा कूडागारसालंसि वा कोट्ठागारंसि वा कोडागारगिहंसि वा ता तेसु उच्चारं पासवणं परिहवेतस्स आयसंजमविराहकोडागारसालसिवा उच्चार पासवणं वा परिवेइ,परिवंतं वा णा भवति. प्राणाऽऽदिया य दोसा। चउलहुं पच्छित्तं । एते साइजइ ॥७४॥ जे भिक्खू तणगिहसि वा तणसालंसि वा तु- पुढवादी पदा जहा तेरसमे उहे सगे वक्खाया तहा भासगिहंसि वा तुससालसि वा भुसगिर्हसि वा भुससालंसि वा णियव्याः णवरं तत्थ ठाणाऽऽदी भणिया इह उच्चारपाउच्चारंपासवणं वा परिड्डवेइ, परिवंतं वा साइजइ ॥७॥ जे सवणं भाणियब्वं। इमो अवधातोभिक्खू जाणगिहसि वा जाणसालसि वा जुग्गगिहंसि वा जु बितियपदमणप्पज्झे. ओसामाईणि रोहगहाणे । भासालंसि वायुस गिहसि वा दुससालसि वा उच्चारं पासवणं दुबलगहणगिलाणे, वोसिरणं होति जयणाए ॥७८१॥ वापरिटुवेइ, परिवंतं वा साइजइ ।।७६।। जे भिक्खू पणिय- श्रणवाझो खित्तचित्ताऽऽदी, श्रोसम्म ति विरायणं गिरसि वा पणियसालसि वा कुवियगिहसि वा कुवियसालं- अपरिभागं श्राइम, जणोवि तत्थ वोसिरति रोहगे वा सि वा उच्चारं पासवणं वा परिहवेइ,परिवंतं वा साइअइ७७/ तं अणुप्लायं, दुब्बलो वा साधू, गहणिदुब्बलो वा थंडिलं जे भिक्खू गोणरिहसि वा गोणसालंसि वा महाकुलंसिवा गंतुं न समत्थो, गिलाणो वा असमत्थो, पते घोसिरंति, जयणाए चोसिरंति, जहा श्रायसंजमविराहणा ण भउच्चारं पासवणं वा परिवेइ, परिवंतं वा साइजइ ||७८| वतीत्यर्थः । “ देहडो सीहथो राया, ततो जेट्ठा सगाहा होयरा । कणिट्टा देउलोऽणराणो, सत्तमो य जतिज्जउजाणाणादिसु, उदगपहसुम्मघरमादिएK च । गो"॥१॥ एतेसि मज्झिमो जो प्रोमं देवी तेण चितिया। जाणासालाऽऽदीसुं, महाकुलेसुं च एस गमो ॥२६७॥ नि००१६ उ० । दश। स्था० । (उदकतीरे उचारप्रधवएसा गाहा कंठा । नि• चू० १५ उ० । णे न परिष्ठापयेदिति 'दगतीर' शब्दे चतुर्थभागे २४४२ पृ. Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६१) अभिधानराजेन्द्रः | परिवा 66 ठे उक्तम् ) ( श्राचार्य उपाध्यायो वाऽन्तरुपाश्रये उच्चारप्रश्रषणे परिष्ठापयजातिकामतीत ' अइसेस' शब्दे म मभागे १२ पृष्ठे १७ पृष्ठे च उक्तम् ) सहसा पडिबु eg पडिग्गासियत तक्खणपरिग्गालियंत तक्खणाणं प रिवेति freera थंडिले खवणं ।" मद्दा०१ चू० । (सचित्तवृक्षमले स्थित्वा परिस्थापना सचिव शब्दे वश्यते) जे भिक्खु वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पाय पुंछणं वा अलं थिरं धुवं धारणिज्जं पलिच्छिदिय पलिच्छि - दिय परिवे, परितं साइज ।। ६८ ।। व्यामियकण्यासादि दत्थं, उयिकप्यासादि कंबलं रचहरणं पायपुंछणं उवग्गहियं वा पलिच्छिदिय शस्त्राऽार्दना । जे भिक्खु दंडगं वा जान येसु वा पलिभंजिय पाल - भेजिय परिवेश, परिद्वर्वतं वा साइज्जइ ।। ६६ ।। हरपाई प्रमोद पलिज । गाहा पायम्मिय जो उगमो शियमा वत्थम्मि होति सो चैव । दंडगमादीस जहा पुण्ये अवरम्मि य पदम्मि ।। २६५ ।। नि० चू० ५ उ० । अप्रत्युपेक्षिते स्थण्डिले दिया थंडिलेहिं एगओसन्न वोसिरिज्जा समाहीए वा एगासणं गिलाणस्स अन्नेसिं तु खमेव जई दिया सं घंटि लंपचुप्पेयिं खो सं समाही संजमिया अपरचुहिए - डिले पहिया चेन समाहएि स्पणीए मर्च वा काइयं बायोसिरिज्जा एगासणं गिलाणस्स (महा० १ चू० ) अपच्चुप्पेहिय थंडिले उच्चारं वा पासवणं वा सिंघाणं परिट्ठवेज्जा निव्विगइयं । महा० १ चू० । (३२) अविधिपरिष्ठापने दोषा: जे भिक्खू खुड्डगंसि थंडिलीस उच्चारं पासवणं वा परिडवेइ, परिर्वतं वा साइज ।। १४० ।। रसिपमाणतो जं भारतो तं खुई. तत्थ जो बोसिरति, तस्स मासल हुं, श्रारणा ऽऽ दिया दोसा । विरथाराऽऽयामेणं, थंडिलं जं भवे स्वणिमेचं । चतुरंगुलमागावं, जहायं तं तु विश्विं ।। २६४ ॥ वित्थारो मोहच्वं श्रायामो दिग्घत्तणं रयणी हत्थो तम्मासेठितं यणिमेतं जस्स थंडिलस्य चत्तारि अंगुला अहे सनित्ता, तं रंगुलोष गाढं पयप्यमाणं जहलयं विथिए । एतो हीयतरागं. खुड्डागं तं तु होति सातव्वं । तिरंगतरं पत्तो, विथिएणं तं तु गायव्वं ॥ २६५ ॥ सव्युकोसं वित्थवं बारसजोयणं तं च जत्थ चक्कवट्टिखंधावारो ठिश्रो । पाचवा खुट्टा डिलीम्म जो भिक्खु । जति बासिरती पावति, आशा अवमादीनि । २६६। छक्कायाण विराधण, उभरणं भावणा तसाणं च । जीवितचविणासो उपसिरोहेण खुट्टाए ।॥ २६७ ॥ श्रास से छकाया, ने उभरण काइयसमाए भावंति तसाणं च कावणाखुकाऊंगा पीसिरति जीबियचविणासो भवति। परिवा वितियांसितिमद्वाग, रोधर सभमे भयास | दुम्पलगहणि गिलासे, पोसिरणं होति जताए ॥ २६० ॥ असति पमाणजुत्तस्स थंडिलस्स, बोरसावयभया पमाणजुतं ण गच्छति आसणे ति अधिवास प्रमाणतुं सति यलगहणी वा च तरति गंतुं इमा जयणा, पत्थं सरणं वोसिरति, काइयं श्रन्थ, अह काइयं पि. ताहे काइये मत पच्ति । 3 जे भिक्खु उच्चारं वा पासवर्ग वा अविहीर परिद्ववेद परिट्ठतं वा साइज ।। १४१ ॥ थंडिल सामायारी करेति एस प्रविधी वोसिरति, तस्स मासलाई आखाऽऽदिया व दोसा । पासवगुच्चारे वा, जे भिक्खु बोसिरेज्ज अविधी । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ॥ २६६ ॥ इमा विधीपडिलेहणा दिसाणं, पाए य पमज्जण कायदुवे | भयणा छाया दिसभि· ग्गहे य जतणा इमा तत्थ । ३०० | दिसि पण गाम सूरिय, छाया य पमज्जितूण तिक्खत्तों । जस्सोग्गहो चि कुज्जा, राउ दिए पमन्नणा जतणा । ३०१। सागारियसंरक्खण्डा उमा तिरियं च दिसायलोगो arraat. श्रह ण करेति तो दव्वकष्पकलुसादिपईि उड्डाहो भवति, पढमं पदं जत्थ वोसिरिउ कामो तट्ठाणस्स पासे संडासगं पादे य पमज्जति, अह ण पमज्जति तो रयाssदिविणासणा भवति, असमायरी यः चसदाता थंडिलं च चितिवपदं (कायदुवे भवण ति) भयणसही उभयपदीपक, इय कायभंग भयणा कज्जति जति पडिलेहेति ण पमज्जति । एत्थ थावरं रक्खति, ण तसे, अध ण पाडेले हेति, पमज्जति, पत्थपत्थ वा रभसे रक्खति, पडिलेहेति, ण पमज्जति पत्थवि दोवि काए रक्खति, ए पडिले हेति ण पमज्जति, पत्थ दोवि ए रक्खति, श्रहवां इमा चउग्विहा भयणा - थंडिलं तसपाणविरहियं पंडितपणसहितं. अथंडिलं तसपाणविर हिषं, अथंडिलं तसपाणसहियं एवं ततियपयं भवता छाय ति) असंसन्तमणी उरहे वोसिरति संसतगहणी यार वोसिरति, तो चउल हुं. एयं चउत्थपदं दिसाभिग्गहो- दिवसे उत्तराहुत्तो राम्रो दक्खिणाहुत्तो । श्रह असतो सुहो बसह ततो मासल, दिवसपवरागामसूरियादी य सव्वं श्रषि - ययं कायच्वं विवरी मासलाई । वितियपदे + संकाssगारं श्र, गरहमसंसत्त असति दोसे य । पंच व पदे एते अवरपदा होंति यातव्या ॥ ३०२ ॥ दिसालोकरेज, तस्थ गामे तेजन दिल करेतो संकिज्जति, एस तेणो वारिश्रो वा पादे विण पमजा सागारयति कार्ड, अमिति आई पंडितं पति अधवा तं थंडिलं गरहणिजं तेरा ण पमजति, श्रसंसन्त गहणी, तेण णाया बोसिरति असति दोसाणं दिसाभिग्गहणं ण करेजा, वट्टियसको डगलगं पि ण गेरहेजा, गामसूरियादीण वि पिट्ठि देजा, जत्थ लोगो दोसं ण गेरह Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहवणा ति । पंचसु वि परसु एते अवरपदा भणिता । नि० चू० ४ उ० । ग० । विषयसूची (१) परिष्ठापनाविधिः । (२) संसक्तस्पाऽऽहारस्य परिष्ठापनिका । (३) जड़ो दीक्षानईः । (४) फालगतखाधुपरिष्ठापनिका । (५) दिग्द्वारम् । (६) संतकद्वारम् । (७) सोमणुपपरिड्रायशिया । (८) दिवा रात्री कालगत इति द्वारम् । (६) जागरण बन्धनच्छेदनद्वारम् । (१०) कुशप्रतिमाद्वारम् । ( ११ ) निवर्तनद्वारम् । ( ५६२ ) अभिधानराजेन्द्रः । (१२) मात्रकद्वारम् । (१३) शीर्षवारम् । (१४) विद्वारम् । (१५) उपकरण द्वारम् । (१६) कायोत्सर्गद्वारम् । (१७) प्रदक्षिणपद्वारम् । (१८) अभ्युत्थानद्वारम् । (१६) व्याहरणद्वारम् । (२०) कायोत्सर्गद्वारम् । तत्र स्तुतित्रयम् । (२१) क्षपाध्याय मार्गणाद्वारम् । (२२) व्युजेनद्वारम् । (२३) अवलोकनद्वारम् । असंजलपरिपणा च । सुरभि भुदुरभि परिष्ठापय (२४) भोजनजातं परि ति तत्र प्रायश्चित्तम् । (२५) मनोशं भोजनं परिगृहात पपि साधर्मिकेभ्योदवा परिष्ठापयति । (२६) नोखाहारपरिस्थापनिका । (२७) हर्षादिषु उबारने परिष्ठापयति । (२८) रात्री विकाले वा उच्चारं कृत्वा पात्रे स्थापयित्वा प्रातः परिष्ठापयन्ति । (२६) अङ्गारदाहादिषु रिडले उचार-प्रवसे । (३०) आगन्तारेषु परिष्ठापना । (३१) अनन्तरहितायां पृथिव्यामुचारयपरिष्ठापना (३२) अविधिवरिष्ठापने दोषाः । परिवणिय समिइ - पारिष्ठापनासमिति - स्त्री० । समितिभेदे, सम्प्रति परिष्ठापन समितिमाहउच्चारं पासवर्ण, खेलं सिंघाणजल्लियं । आहार जबहिं देहं असं वाऽवि तहाविदं ॥ १५॥ उधारं पुरीषं प्रश्रवणं मूत्रं, खेलं मुखविनिर्गतं श्लेष्माराम (विधाति) नासिकानिष्कान्तं तमेय (जति) स्वार्थत्वात् जज्ञो मलस्तम्, आहारमनाऽऽदिमुपधि वर्षाक पदम् अन्य कारण तो गोम अपिः पूरणे, तथाविधं परिष्ठापनाऽहं प्रक्रमात् स्थण्डिले व्युत्सृजेदित्युत्तरेण संबन्धः । उत्त० २४ श्र० । नि० चू० । परिद्ववणिया - पारिष्ठापनिकी स्त्री० परिष्ठापनं प्रदानभाजन परिणाम गतद्रव्यान्तरोज्झनखाखम् तेन निर्वृत्ता पारिष्ठापनिकी 1 श्राव० ४ श्र० । त्यागे, स्था० ४ ठा० ४ उ० । अपुनर्प्रहणतया न्यासेन निर्वृत्तक्रियायाम्, श्रावः ४ श्र० । परिट्ठवि - परिष्ठापित त्रि० । त्यक्तपूर्वे, श्राचा० २ ० १ चू० २ ० १ उ० । परिट्ठविजमाण- परिष्ठाप्यमान- त्रि० । त्यज्यमाने, क्षिप्यमाणे, आचा० २ ० १ चू० १०५ उ० । परिट्ठा प्रतिष्ठा स्त्री० " नियती भोपरी माल्यस्थो।" - । ॥ १३० इति सूत्रेण प्रतेः परिः। सद्गुणस्थापने, प्रा० १पाद परिद्वावियव्य-- परिष्ठापितव्य त्रि० । साधुना सम्यग्विशाय परिहर्त्तव्ये, श्राचा० २ ० १ चू० २ श्र० ३ उ० । परिट्ठिय - प्रतिष्ठित त्रि० । “निष्प्रती श्रोत्री माल्य-स्थोर्वा " ॥ ८ । १ । ३८ ॥ इति सूत्रेण प्रतेः पर्यादेशः उपरि स्थिते प्रा० १ पाद । " उश्र णिच्चल शिष्पंदा, भिसिणीपत्तम्मि रेहर बलाया | सिम्मतमरगभाषण-परिट्टिया समुति व्व " ॥ १ ॥ प्रा० २ पाद । परिणइ - परिणति स्त्री० । परिणमने, परिणामे, विशे० । परिणमंजुल - परिणतिमन्तुलन परिती मलम् । परिणामसुन्दरे, दर्श० ३ तव । परिणद्ध - परिणद्ध - त्रि० । परिगते, शा० १४० ६ श्र० । बेष्टिते, नपुंसके क्लः । परिणहने, शा० १ श्रु० ८ श्र० । परिणममाण- परिणमत् त्रि० पूर्वमाणे, परिपूर्णप्राये "अ. मभत्ते परिणममाणे । " शा ० १ ० १ ० । परिणामा न्तराणि गच्छति । भ० ७ ० १० उ० । परिणय-परिणत त्रि० अवस्थान्तरमापसे, शा० १४० १२ । श्र० परिणतिं गते, भ० १ ० १ उ० । स्वकायपरकाय शखादिना परिणामान्तरमापादिते श्रचित्तीभूते स्था० २ ठा० १० | श्राचा | परिणतमुदकदायकावस्थां प्राप्तम्, स्था० ३ ठा० ३ उ० | " परिणयजलदलविसुद्धिरुवा । रितं प्रासु त पानीयं वयं च दूऽऽदि तपार्या वि दिनयता दोषरहितस्याऽऽदिलक्षणा से रूपं स्वभावो यस्याः सा परिणतजलदलविशुद्धिरूपा । पञ्चा० ७ विव० । परिपक्के, पाइ० ना० १४३ गाथा । परिणयण-परिणयन-न० । विवाहे. भगवता ऋषभेण युग प. धर्मव्यवच्छेदाय भरतेन सह जाता ब्राह्मी बाहुइलिने दत्ता, बाहुबविना सह जाता सुन्दरी भरताय दत्ता, तत श्रारभ्य प्रायो लोकेऽपि कन्या पित्रादिना दत्ता सती परिणीयते इति प्रवृत्तम् । श्र० म० १ श्र० । परिणयवय- परिणतंवयस् पुं० । स्त्री० । संपन्नावस्थाविशेषे, तरुणे, प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार । श्रतिक्रान्तयौवने, मध्यमवयः प्राप्ते, वृ० १ उ० ३ प्रक० । स्थविरस्त्रियाम् वृ० १० २ प्रक० | त्रि० । विगतयौवने, शा० १ ० ६ श्र० । परिणाम परिणाम पुं०। परि समन्तान्नमनं परिणामः । खुदीर्घकाल पूर्वापरपर्यालोचनजन्ये श्रात्मनो धर्मविशेषे नं । स्था० । परीति सर्वप्रकारं नमनं जीवानामजीवानां च जीवत्वrssदिस्वरूपानुभवनं प्रति प्रह्वीभवमे, उत्त० १ ० प रिशमनं परिणामः कथञ्चिदवस्थितस्य वस्तुनः पूर्वाभ्यस्थाप , - Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६३) अभिधानराजेन्द्रः | परिणाम रित्यागेनोत्तरावस्थागमने, "परिणामो ह्यर्थान्तर- गमनं न व सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः, परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥ १ ॥ " पं० सं० २ द्वार । स० । पतञ्जलिटीकाकारोऽप्याह-" अवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्वधर्मनिवृत्तौ ध मांस्तरोत्पत्तिः परिणामः" स्था० । कथञ्चित् पूर्वरूपस्यागेनोत्तररूपाऽऽपत्तौ श्र० म० १ श्र० । ध० | अनं० | स्या० । स्था० । षो० पर्यायान्तराऽऽपत्तौ दश०८ श्र० । तत्तद्भावग मने, स्था० १० ठा० । द्रव्यस्य तेन तेन रूपेण वर्त्तने, धनु० । विपरिवर्त्तने, विशे० । श्रचा० । तत्थ सव्वदव्वपरिणामोणामं, दव्वं दुविहं भवति तं जीवदव्वं, अजीवदव्वं च तस्स हिस्स विदव्यस्स जो उप्पापद्वितिभंगेहिं पापभावी सो परिणामो भएराति तत्थ खेत्तग्गहणेण श्रागास त्थिकायस्स गहणं कयं. तस्स खेत्तस्स परिणामो परपच्चइश्री पोग्गलत्थकायादिणो दव्वे पहुच्च भवति ति । तत्थ कालपरिणामो णाम समयावलियमुत्ताऽऽदी अभेद वह भागपरिणामो नाम-यगगुरुकालगादी अभेदो बटुल्यो ति । एतेसि चउर वियतकालभाषाएं जो परि णामो तस्स सव्वपरिणामस्स विश्वत्तिकारणं श्रांत केवलगाणं भवति त्ति । श्राचू० १ अ० । श्रा० म० । (१) जीवाजीवपरिणामाः कवि भंते! परिणामे पहणजे १ गोवमा ! दुवि¡ हे परिणामे परसते तं जहा जीवपरिणामे व अजीवपरिणामे य ।। १०१ ।। य, (कवि णं भंते! परिणामे परणत्ते इत्यादि) कतिविधः क faप्रकारो समिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! परिणामः प्रशप्तः. परिणमनं परिणामः, "अमेरि०।३।३।१६ (पाणि०) इति भावे घप्रत्ययः, परिणमनं च नयभेदेन विचित्रं, नयाश्च नैगमाssदयोsने तेषां च समस्तानामपि संग्राहकौ प्रवचने द्वौ नयौ । तद्यथा द्रव्याऽस्तिकनयः, पर्यायाऽऽस्तिकनयश्च । तथा चाहुः श्रीमलपादिनः "विवरण संग- विपत्थरला गरणी । दव्वद्विश्रो य पज्जव -नश्रो य सेसा विगप्पा सिं ॥ १ ॥” तत्र द्रव्यास्तिकनयमतेन परिणमनं नाम यत् कथंचित्सदे सोत्तर पर्यायरूपं धर्मान्तरमधिगच्छति न च पूर्वपर्ययस्या पि सर्वधावस्थानं नाऽप्येकान्तेन विनाश तथा चम् " परिणामो हार्थान्तर- गमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न य सर्वधा विनाराः परिणामस्वद्विदामिष्टः ॥ १ ॥ " पर्याचा 55स्तिकनयमतेन पुनः परिणाम पूर्वसत्वापेक्षा विनाश उत्तरेण चासता पर्यायेण प्रादुर्भावः तथा चामुभव नयमधिकृत्यान्यत्रोक्तम्--"सत्पर्यायेण विनाशः, प्रादुर्भावोऽसतो थ पर्यपतः । इव्याणां परिणामः प्रोक्रा खलु पर्ययनयस्य ॥ १ ॥ " भगवानाह गौतम ! द्विविधः परिणामः प्रज्ञप्तः । तद्यथा जीवपरिणामथाजीचपरिणाम, तत्र जीवस्य परि सामो जीवपरिणामः स प्रायोगिकः, अजीवस्य परिणामः अजीवपरिणामः स वैधनिकः शब्दस्ताने मे कौ, तांश्च भेदान् अग्रे सूत्रकृदेव वक्ष्यति ॥ १८१ ॥ ( जीवपरिणामस्य दशवत्सूत्रम्- (१०२) 'जीवपरिणाम' शब्दे चतुर्थभागे १५५७ पृष्ठे गतम् ) याच्या वेत्थम् (जी* तीर्थंकरवचनसामान्यविशेषप्ररूपणामूलव्याकर्तारौ द्रव्यार्थिकः पर्याया विकश्व, शेषा भेदा अनयोः ॥ १ ॥ " ree परिणाम वपरिणामे णं भंते इत्यादि) दशविधा जीवपरिणामः । त यथा-गतिपरिणाम इत्यादि तत्र गम्यते नैरधिकाऽऽदियतिक्रर्मोदयवशादवाप्यत इति गतिः-नैरयिकत्वाऽऽदिपर्यायपरिणतिः गतिरेव परिणामो गतिपरिणामः १, तथा इन्दनादिन्द्रः- धारमा ज्ञानल पर वगान प्रेम-यमिति निपातनादिन्द्रशन्दादियप्रत्ययः इन्द्रियाय परिणाम इन्द्रियपरिणामः २ तथा कति हिंसन्ति परस्परं प्राणिनोमितिः- संसारस्य अन्तर्थस्यात् गमयन्ति प्रापयन्ति ये ते कषायाः “कर्मणोऽ” || ५|१|७२ || (सि. द्ध०) इत्यण्प्रत्ययः कषाया एव परिणामः कषायपरिणामः ३, लेश्याऽऽदिशब्दार्थो वन्यमाणः लेश्या एव परिणामः लेश्याप रिणामः ४, योग एव परिणामी योगपरिणामः ५, उपयोग एव परिणाम उपयोगपरिणामः ६. ज्ञानपरिणाम ७दर्शनपरि सामचारित्रपरिणाम वेदपरिणामेष्यभावनीयम् १० । (२) मतिपरिणाम: 1 I गतिपरिणामें भंते ! कतिविहे पम्पत्ते ? । गोयमा ! चउपपत्ते । तं जहा -नेरइयगतिपरिणामे, तिरियगतिपरिणामे, मणुयगतिपरिणामे देवगतिपरिणामे १) इंदियपरिणामें भंते ! कतिविहे पते । गोयमा ! पंचविहे पते से जहा सोईदियपरिणामे चक्खिदिपपरियामे, घारिदियपरिणामे, जिब्भिदियपरिणामे, फासिंदियपरिणामे २ | कसावपरिणामे से भंते ! कवि प गोयमा ! चउबिहे पछते । तं जहा कोहकसाय परिणामे, माकलापपरिया, मायाकलापपरिथामे, लोभकसायपरिणामे ३ | लेस्सापरिणामे गं भंते ! कतिविहे पसते ? | गोमा ! बिहे पाने से जहा कण्हलेसापरिणामे, नीलले सापरिणामे, काउलेसा परिणामे, तेउलेसापरिणामे, पहलेसापरिणामे, सुकलेसापरिणामे ४ जोगपरिणामे भंते! कतिविहे पण्णत्ते ?। गोयमा ! तिविहे पम्मत्ते । तं जहामण जोगपरिणामे, वइजोगपरिणामे, कायजोगपरिणामे ५ । उपयोगपरिणामे गं भंते! कइविहे पत्ते ? । गोयमा ! दुविहे पाते । तं जहा- सागारोवओोग परिणामे व अखागारोवओगपरिणामे य ६ । नागपरिणाने गं भंते! कतिविहे पत्ते । गोयमा पंचविहे पाते। तं जहा आभिणिचोहियनागपरिणामे. सुयनाणपरिणामे. ओहिना परिणामे मणपजबनाणपरिणामे, केवलनाणपरिणामे | अन्नाणपरिणामे णं भंते! कवि पसे । गोयमा तिविहे पते । तं जहा-मतिअपरिणामे, सुवाणपरिणामे, विभंगनाण परिणामे ७ | I परिणामे भंते! कतिविहे पाते !। गोयमा ! तिविहे पम्पत्ते । तं जहा सम्मदंसणपरिणामे, मिच्छादंसणपरिणामे, सम्मामि द्वादंसणपरिणामे ८ चारितपरिणामे ते क इविहे पणते ? । गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा - सामाइचारितपरिणामे, वेदोवद्वावणियचारित्तपरिणामे, परिहार - Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम विमुद्धियचारितपरिणामे, सुहुमसंपरायचारितपरिणामे, अ इक्खायचारितपरिणामे ६ | वेदपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते । गोयमा ! तिविहे पण्यते । तं जहा - इत्थिवेदपरिणामे, पुरिसवेदपरिणामे, नपुंसगवेदपरिणामे १० । ( ५६४ ) निधानराजेन्द्रः । नेरइया गतिपरिणामे निरयगतिया, इंदियपरिणामेणं पंचिंदिया, कसायपरिणामेणं कोह कसाई वि० जाव लोभकसाई वि लेस्सापरिणामे करहलेस्सा वि नीललेस्सा विकाउ - लेस्सावि, जोगपरिणामेणं मणजोगी वि वइजोगी विकायजोगी वि । उवओोग परिणामेणं सागारोवउत्ता विशागारोबउता वि.नाणपरिणामेणं आभिणित्रोहियनाणी वि सुयनाणी व ओहिनाणी वि, अन्नाणपरिणामेण मतिअन्नाणी वि सुय आणी विविभंगनाणी वि दंसणपरिणामेणं सम्मादिट्ठी विमिच्छादिट्ठी व सम्मामिच्छादिट्ठी वि, चरित परिणामेणं नो चरित्ती नो चरित्ताचरिती अचरित्ती, वेदपरिणामेण नोइत्थवेदगा नो पुरिसवेदगा नपुंसगवेदगा । असुरकुमारा वि एवं चैत्र, नवरं देवगतिया कण्हलेस्सा वि० जाव तेउलेस्सा वि । वेदपरिणामेणं इत्थीवेदगा वि पुरिसवेदगा वि नोनपुंसवेदगा, सेसं तं चैव, एवं० जाव थणियकुमारा । पुढवीकाइया गतिपरिणामेण तिरियगतिया इंदियपरिणामणं एगिंदिया, सेसं जहा नेरइयाणं, नवरं लेस्सापरिणामेणं तेउलेस्सावि, जोगपरिणामेणं कायजोगी, नाणपरिणामेनत्थि, अभाणपरिणामेणं महअन्नाणी सुयन्नाणी, दंसणपरिणामेणं मिच्छ्रादिट्ठी सेसं तं चैव । एवं आउवणष्फइकाइया वि, तेऊ बाऊ वि एवं चेव, नवरं लेस्सापरियामे जहा नेरइया, बेइंदिया गतिपरिणामेणं तिरियगतिया, इंदियपरिणामेणं बेइंदिया, सेसं जहा नेरइयाणं, नवरं जोगपरिणामेणं वयजोगी कायजोगी, नाणपरिणामेणं श्रभिणिबोहियणाणी चि सुयणाणी वि, अन्नाणपरिणामेणं मतिमा. वि, सुयअन्नाणी वि यो विभंगवाणी, दंसण परिणामेणं सम्माद्दिट्ठी विमिच्छादिट्ठी विनो सम्मामिच्छादिट्ठी वि, सेस तं चैत्र, एवं० जाव चउरिंदिया, नवरं इंदियपरिवुड्डी कायव्वा । पंचिंदियतिरिक्खजोगिया गइपरिणामेणं तिरियगतिया, सेसं जहा नेरइयाणं, नवरं लेस्सापरिणामेणं० जाव सुक्कलेस्सा वि, चरितपरिणामेणं नो चरिती अचरिती विचरित्ताचरिती वि, वेदपरिणामेणं इत्थवेदगा वि पुरिसवेदगा वि नपुंसगवेदगा वि । मरणुस्सा गतिपरिणामेणं मणुयगतिया, इंदियपरिणामेणं पंचिंदिया अखिदिया वि, कसायपरिणामेणं कोहकसाई वि० जान कसाई वि, लेस्सापरिणामेणं कण्हलेस्सा वि • जान अलेरसावि, जोगपरिणामे मणजोगी कि० जाव अजोगी वि, ० परिणाम गपरिणाम जहा नेरइया, नाणपरिणामेणं - बोयनाणी वि० जाव केवलनाणी वि | अन्नाणपरिणामेणं तिपि वि अनाणा, दंसणपरिणामेण तिभि वि दंसणा चरित परिणामेणं चरित्ती वि अचरिती वि चरिताचरित्ती वि। वेदपरिणामेणं इत्थीवेदगा वि पुरिसवेदगा वि नपुंसगवेदगा वि अवेदगा वि, वाणमंतरागतिपरिणामेणं देवगतिया, जहा असुरकुमारा, एवं जोइसिया वि, नवरं तेउलेस्सा । वेमाणिया त्रि एवं चेव, नवरं लेस्सापरिणामेणं तेउलेस्सा वि पम्हलेस्सा वि सुक्कलेस्सा वि । सेत्तं जीवपरिणामे ।। १८३ ॥ "गइपरिणामे णं भंते! करविदे" इत्यादि पाठसिद्धम । सं. प्रति नैरयिकाऽऽदयो यैः परिणामविशेषैर्विशिष्टास्ताँस्तथाप्रतिपादयति- "नेरइया इत्यादि" सुगमं, नवरं नैरयिकाणां कृ नील कापोतरूपाः तिस्र एव लेश्या न शेषाः, ता श्रपि तिस्रः पृथिवीक्रमेणैवम्-श्राद्ययोर्द्वयोः पृथिव्योः कापोतलेश्या, तृतीयस्यां कापोत लेश्या नीललेश्या च चतुर्थ्यां नीललेश्या, पञ्चभ्यां नीललेश्या कृष्णलेश्या च षष्ठीसप्तम्योः कृष्णलेश्यैव । तत उक्तम् -" करहलेस्सा वि नीललेस्ला विकाउलेसा वि ।” तथा तिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्यव्यतिरेकेणान्यत्र चारित्रपरिणामः सर्वथा न भवति, भवस्वाभाव्यात्, ततः कृ तश्चारित्रपरिणमनिषेधः, वेदपरिणामचिन्तायां च नैरयिका नपुंसका एव न स्त्रियो, नापि पुरुषाः । " नारकसम्मूछिनो नपुंसकानि।” (तवा० अ०२ सूत्रम् ५०) इति वचनात् एवमसुरकुमाराणामपि, नवरं गतिमधिकृत्य देवगतिकास्तेषां च महर्द्धिकानां तेजोलेश्याऽपि भवति, तत उक्तम्" तेउलेस्सावि " इति । वेदपरिणामचिन्तायां स्त्रियः पुरुषा वा न नपुंसकाः, देवानां नपुंसकत्वस्यासंभवात् । तथा पृथिवीकायिक सूत्रे, नवरं (लेस्सापरिणामे णं इत्यादि) इह पृथिव्यम्बुवनस्पतीनां तेजोलेश्याऽपि सम्भवति, येन सौधर्मेशानपर्यन्तानां देवानामेतेषूत्पादसंभवात् । तत उक्लम" तेउलेस्साविति । एतेषां च पृथिव्यादीनां पञ्चानामपि सासादन सम्यक्त्वमपि न भवति श्रागमे निषेधात् ततो ज्ञा ननिषेधः सम्यक्त्वनिषेधश्च कृतः, सम्यग् मिथ्यात्व परिणामस्तु सपिचेन्द्रियाणामेव भवति, न शेषाणामतस्तन्निषेधः, द्वीद्वियाऽऽदीनां पुनः केषाञ्चित् करणापर्याप्तावस्थानां सासादन सम्यक्त्वमवाप्यते, ततस्ते ज्ञानपरिणता श्रपि सम्यक् योऽप्युक्ताः तिर्यग्यञ्चेन्द्रियाणां च षडपि लेश्याः सम्भवन्ति । ततः सूत्रे उक्तम्- "० जाव सुक्कलेस्सा वि इति।" तथादेशतश्चारित्रपरिणामोऽपि तेषामुल्लसति । तत उक्तम्-" च रिसाचरिती व इति ।" तथा ज्योतिष्काणां तेजोलेश्यैव केवला, न शेषा लेश्याः । ततोऽभिहितम् -" लेस्सापरिणामे यां तेउलेस्सति । " (३) श्रजीवपरिणाम:sattaरणामे णं भंते! कतिविहे पप्पने १ । गोयमा ! दसविहे पम्पते । तं जहा - बंधणपरिणामे १ गइपरिणामे २, संठाणपरिणामे : भेदपरिणामे ४, वनपरिणामे ५, , Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम (KAK) अभिधान राजेन्द्रः | अगु गंधपरिणामे ६, रसपरिणामे ७, फासपरिणामे रुहुवपरिणामे ६, सहपरिणामे १० | १८४ ॥ घणपरिणामे भंते! कतिविहे पते है, गोयमा ! बुदि हे पम्पते । तं जहा- शिद्धबंधणपरिणामे य, लुक्खबंधपरिणामे य । "समसिद्धयाएँ बंधो, न होइ समलुखयाएँ त्रिण हो । बेमाणिपद्धलुक्स राखेण बंधो उ खंधावं ॥ १ ॥ - " सिद्धस्स सिद्धेख दुयाहिए लुक्खस्स लुक्सेय दुगाहिए । सिद्धस्स लुक्स उबेद बंधो, जो विसमो समोवा ।। २ ।। " गतिपरिणामे णां भंते ! कतिविहे पत्ते । गोयमा ! दुविहे पते । तं जहा-फुसमागतिपरिणामे य, अफुसमाणगतिपरिणामे य १ अहवा - दीहगइपरिणामे य, इस्सगइपरिणामे य २ ठाणपरिणामे भंते! कतिविहे प १। गोयमा ! पंचविहे पम्पते । तं जहा- परिमंडलसंठापरिणामे जाव आयतापरिखामे ३। भेदपरिणामे से भंते ! कतिविहे पष्पत्ते १। गोयमा ! पंचविहे पष्मत्ते । तं जहाखंडभेदपरिणामे० जाव उकरिपाभेदपरिणामे 8 वनप रिणामे भंते! कतिविहे पम्म ते । गोयमा ! पंचविहे पते तं जहा कालवपरिणामे० जाव सुकिलवपरिणामे ५। ! ! गंधपरिणामेते तिविदे पाते। गोषमा दुविहे पासते । तं जहा सुभिधपरिणामे य, दुब्भिगंधपरिणामे व ६। रसपरिणामे से भंते! कतिविहे पाते हैं। गोयमा ! पंचविहे पम्पले जहा तिनरसपरिणामे० जाव महुररसपरिणामे ७ | फासपरिणामे भंते! कतिविहे पम्पते । गोयमा ! अविहे पचेतं जहा फक्खडफासपरियामेय० जाव लुक्खफासपरिणामे य ८ । अगुरुल हुयपरिणामे भंते ! कतिविहे पत्ते । गोयमा ! एगागारे पन्सचे | सहपरिणामे से भंते! कतिविहे पाते हैं। गोयमा ! विदे पाते तं जहा सुम्मसद्दपरिणामे य, दुम्भिसदपरिणामे य १० । सेतं अजीवपरिणामे ।। १८५ ॥ 1 ( बंधणपरिणामे णं भंते ! इत्यादि) स्निग्धबन्धन परि खामो रूपधनपरिणाम तव स्त्रिग्धस्य सतो बन्धन परिणामः स्निग्धबन्धनपरिणामः। तथा रूक्षस्य सतो बन्धनपरिणामः रूक्षबन्धनपरिणामः । चशब्दौ स्वगतानेकभेदसू की । अथ कथं स्तिग्धस्य सतो बन्धनपरिणामो भवति, कथं वा रूक्षस्य सत इति बन्धनपरिणामस्य लक्षणमाह(समनिया इत्यादि) परस्परं समस्निग्धता सम स्निग्धतायाम्, तथा परस्परं समकक्षता समरुताय बन्धो न भवति, किं तु यदि परस्परं स्निग्धत्वस्य रूक्षत्वस्य च विषममात्रा भवति तदा बन्धः स्कन्धानामुपजायते । इयमंत्र परिणाम भावना-समगुवस्निग्धस्य परमात्वादेः समगुणस्निग्धेन फ रमाण्वादिना सह सम्बन्धो न भवति, तथा समगुणरूक्षस्यापि परमाण्वादेः समगुरु परमाण्वादिना सह संबन्धो न भवति किं तु यदि स्निग्धः स्निग्धेन रुक्षः कक्षेण सह विषमगुणो भवति तदा विषममात्रत्वाद्भवति तेषां परस्परं सम्यग्धः । विषममात्रया बन्धो भवतीत्युक्रम् ततो विषममाश्रानिरूपणार्थमाह - ( शिद्धस्स गिद्धेण दुयाहिणेत्यादि ) यदि स्निग्धस्य परमाण्वादे स्निग्धगुरोनैव सह परमारवा दिना बन्धो भवितुमर्हति तदा नियमाद्व्यादिकाधिकगुनैव परमावादिनेति भावः रूक्षगुणस्यापि परमाण्वादेः रूपगुणेन परमाण्वादिना सह यदि बन्धो भवति तदा त स्यापि तेन द्वयाद्यधिकादिगुणेनैव नान्यथा, यदा पुनः स्त्रि ग्धरूक्षयोः बन्धस्तदा कथमिति चेदत श्राह - ( निद्धस्स लुखेत्यादि ) स्निग्धस्य रूक्षेण सह बन्ध उपैति उपपद्यते जघन्यवर्जो विषमः समो वा । किमुक्तं भवति १ - एकस्निग्धमेकगुणरूप का शेषस्य द्विगुणस्निग्धादि द्विगुणरूक्षादिना सर्वेण बन्धो भवतीति । उ बन्धनप रिणामः। श्रधुना गतिपरिणाममाह - ( गइपरिणामे णं भंते ! इत्यादि ) द्विविधो गतिपरिणामः । तद्यथा-स्पृशद्गतिपरिणा मोsस्पृशतिपरिणामश्च । तत्र वस्त्वन्तरं स्पृशता यो गतिपरिणामः स स्पृशतिपरिणामो यथा-ठिक्करिकाया जलस्योपरि बलेन निर्यण प्रहितायाः सा हि तथा प्रक्षिता सती पान्तरालेजले स्पृशन्ती २ गच्छति बालसिद्धमेतत् तथा अस्पृशतो गतिपरिणामोऽस्पृशतिपरिणाम द्वस्तु न केनापि सहापान्तराले संस्पर्शनमनुभवति तस्वास्पृशतिपरिणाम इति भावः अन्ये तु व्याचक्षते स्पू. राहूतिपरिणामो नाम येन प्रयत्नविशेषात् क्षेत्र प्रदेशाद स्पृशन्त अतिपरिणाम येन प्रदेशान स्पृशमेव गच्छति त बुद्ध्महे, नभसः सर्वव्यापितया तर देशसंस्पर्शव्यतिरेकेण गतेरसम्भवात् । बहुश्रुतेभ्यो वा परिभावनीयम् । श्रलैव प्रकारान्तरमाह - ( अहवा दीहगतिपरिणाम स्वगतपरिणाम इति) अथवेति प्रकारान्तरे । श्रन्यथा वा गतिपरिणामों द्विविधः । तद्यथा दीर्घगतिपरिणामी, हस्वगतिपरिणामस्य । तत्र विप्रकृष्टदेशान्तरप्राप्तिपरिणामो दीर्घगतिपरिणामस्तद्विपरीतो हयगतिपरिणामः २. परिसंखानविशेषाः खराडा प्रागेव व्याख्याता इति न भूयो व्याख्यायन्ते ३, अगुरुलघुपरियामी भाषा दिलानां "कम्मासारं वारं गुरु लहुयाई ।” इति वचनात् । तथा श्रमूर्तद्रव्याणां चाऽऽकाशा दीनाम्, अगुरुलघुपरिणामग्रहणमुपलक्षणं तेन गुरुलघुपरि णामपि द्रष्टव्यः, स चौदारिकाऽऽदिद्रव्याणां तैजसद्रव्यपर्यन्तानामवसेयः, " ओरालिय वेउब्विय- आहारग तेय गुरुलहू दग्वा " इति वचनात् । ( सुम्मिसदे इति ) शुभरात्र ( दुब्भिसद्द इति ) अशुभशब्दः । प्रशा० १३ पद । स्था० । आ० म० । सूत्र० । श्र० चू० । 3 य (४) स्कन्धाः पुङ्गलाश्च परिणामवन्तः एस से भंते! पोग्गले तीतमनं सासयं समयं लुक्खीसमयं अलुक्खीसमयं लुक्खी वा अनुक्खी वा पुचि Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६६ ) अभिधानराजन् परिणाम करणे अगवणं अयोगरूवं परिणामं परिणम अहे से परिणामे जो भवइ तम्रो पच्छा एग एगरु सिपा हंता गोयमा ! एस गं पोग्गले तीतं तं चेत्र० जाव एगरूवे सिया एस यां भेते! पप्पएवं सासयं समयं एवं क्षेत्र एवं अणायमतं पि एस गं भंते ! खंधे तीतमतं एवं चैव संव जहा पोग्गले एस भंते! जीवे सीतमतं सामर्थ समयं दुक्खीसमयं यदुक्खीसमयं दु क्खी वा अदुक्खी वा पुव्विच से करते अयोगभावं य 1 गभूतं परिणामं परिणमइ । अहे से विय जिसे भवइ, तो पच्छा एगभावे एगभूते सिया है। हंता गोवमा ! एस से जीवे० जाव एगभूए लिया । एवं पप्प सासयं समयं एवं ऋणागंयमणंतं सासयं समयं । परमाणुपोग्गले से भंते सासर असास गोयमा सिव ! सासए, सिय सासए । से केराट्ठेयं भंते ! एवं वुच्चइ सिय सासए, सिय असासए है। गोयमा ! दव्बइयाए सासए, जवेहिं० जाव फासपजहिं असासए से तेरा • जाब सिय असावए ॥ ० 66 " 'पोग्गल १ खंधे २ जीवे ३, परमाणू सासर य ४ चरमे य५ । दुविहे खलु परिणामे, अजीवाणं च जीवाणं ॥ ६॥ अत्याचार्थ उद्देशकार्याविगमागम्य एवेति । पुस पुद्गलः परमाणुः स्कन्धरूपश्च । (तीतमतं सासयं समयं ति) विमतिपरिणामाददीते अन अपरिणामात् शा अक्षयत्वात् समये काले । ( समयं लुक्खी ति ) समयमेकं यावत् रूक्ष स्पर्शसद्भावाद् रूक्षी । तथा-( समयं श्रलुक्खी ति) समयमेकं यावदरूपवादी जिग्यस्पर्शान बभूव । इदं च पदद्वयं परमाणौ स्कन्धे च सम्भवति । तथा ( समयं लुक्खी वा श्रलुक्खी व त्ति ) समयमेव रूक्षश्चारुइस कक्षस्निग्धलक्षणस्पर्शद्वयोपेतो बभूव स्वस्था पेक्षं, तो काऽऽदिस्कन्धे देशो रूक्षो, देशश्चारुतो भवतीति । एवं युगपवृक्ष स्निग्धस्पर्शसम्भचो, वाशब्दौ चेह समुच्चयार्थी पर्वरूपश्च समवरिपरिणामं परिणमति । पुनश्च कर्णादिपरिणामः स्यादिति पृच्छन्नाह - (वि च णं करणं अगवमं श्रगरूवं परिणामं परिणम इस्यादि) पूर्व च एकवर्णाऽऽदिपरिसमास्यागंव करीन प्रयो गरगोन खिलाकर या कप काल मील 35 विर्णभेदेन अनेकरूपं गन्धरसस्पर्श संस्थानमेदेन परिणामं पर्या बम् (परिणम ति ) अतीतकालविषयत्वादस्य परिण धानिति द्रष्टव्यम्। पुद्गल इति प्रकृतम् . स च यदि परमायुस्तदा समयभेदेनानकपण55दित्वं परिणतवान् यदि च कम्य स्तदा यौगपद्येनापीति ( अह से त्ति ) अथ अनन्तरं स एप परमाणोः स्कन्धस्य चानेकवर्णाऽऽदिपरिणामो निर्जीर्णः क्षीणो भवति, परिणामान्तराऽधायककारणोपनिपात पशात. तापचारिणानन्तरम् एकवणोपेतयतरस्यादेकरूप चिक्षितगन्धाऽऽपियायापेक्षयाऽपरपर्यायात् । (सि यत्ति ) बभूव, अतीतकालविषयत्वादस्येति प्रश्नः । इहां. सरमेतदेवेति-अनेन च परिणामिता हलव्यस्य प्रतिपादि परिणाम तेति (एस समित्यादि ) वर्तमानकालसूर्य, त ति) विमतिपरिणामात्पपर्तमाने शादेव स्य भावात्समये कालमा यति करवात्पूर्ण मिदं श्यम् (समर्थ तुसी समर्थ अनुखी समर्थ त्यादि) दानन्तमिति नापमान यस्यानन्तत्वासम्भवात् श्रतीतानागतसूत्रयोस्तु श्रनन्ताम त्वचीतं तयोरनन्तत्वासम्भवात्। अनन्तरं स्वरूपं निरू पिनं पुल स्कन्धी भवतीति पुलमेवभूतस्य स्कम्पस्य स्वरूपं निरूपयन्नाह - ( एस णं भंते ! संधे हत्यादि ) स्कन्धश्च स्वप्रदेशांपेक्षया जीवोऽपि स्यादितीत्थमेव जीवस्वरूपं निरूपयन्नाह - ( एस गं भंते ! जीव इत्यादि ) एप प्रत्यक्षी जीवोऽतीतेऽनन्ते शाश्वते समये समयमेकं दुःखी दुःखंयोगात्समयं दुखी यागादभूव। समयमेव च दुःखी वा अदुःखी वा वाशब्दयोः समुचयार्थत्वात् दुःखी च सुखी च तद्धेतुयोगान्न पुनरेकदा दुःखसुखदनमस्त्ये कोपयमत्वाज्जीयस्येति । एवंरूपश्च ससी स्प तः किमनेकभावपरिणामं परिणमति पुनश्चैकभावपरिणा मः स्यादिति पृच्छन्नाह - ( पुच्चि च णं करणं श्रगभावं अगभूवं परिवामं परिणमत्यादि) पूर्व च एकभावप रिणामान्यगेव करणेन फालस्वभावादिकार संचलितपा शुभाशुभकर्मबन्धहेतुभूतया क्रियया अनेको भावः पर्यायां दुःखित्वाऽऽदिरूपो यस्मिन् स तथा तमनेकभावं परिणाममिति योगः । ( अगति ) अनेकभाषायादेषानेकरूपं परिणामं स्वभावम् । (परिणम प्ति) श्रतीतकालविपयत्वा दस्य परिणतवान् प्राप्तवान् इति । ( श्रहे सत्ति ) श्रथ तदुखायाभूत पति) दी कर्म, उपलक्षणत्वाच्चास्य ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदि निजी क्षीणं भवति, ततः पश्चात् । ( एकभावे त्ति) एको भावः सांसारिक सुखविपर्ययात्वाभाविक सुखरूप यस्पासामायी sa एव च एकभूत एकत्वं प्राप्तः । ( सिय त्ति ) वभूव क कृतधर्मान्तरविरहादिति प्रश्नः । इहोत्तरमेतदेव, एवं प्र त्युत्पन्नाssगतसूत्रे श्रपीति । पूर्व स्कन्ध उक्तः सच स्कन्धरूपत्यागाद्विनाशी भवति, एवं परमाणुरपि स्यान्न वेत्याशङ्कायामाह (परमाणु इत्यादि ) ( परमाणुपति पुलः स्कन्धोऽपि स्यादतः परमाणुग्रहणम् ( सासपति ) शाश्वतो नित्यः, अशाभ्यनस्यनित्यः (सि. य सासपति ) कथञ्चिच्छाश्वतः । ( दव्वट्टयाए त्ति ) - पक्षित वस्तु तदेवार्थी यार्थता तथा व्यर्थतया शाश्वतः स्कन्धान्तर्भावपि परमावस्यावि नष्टत्यात्प्रदेश लक्षणव्यपदेशान्तरव्यपदेश्यश्यात् । पत्र हिं ति) परि सामस्त्येनावन्ति गच्छन्ति ये ते पर्यया विशे. धर्मा इत्यनर्थान्तरम् । ते च वर्णाऽऽदिभेदादनेकधेत्यतो वि शिष्यते वर्णस्य पर्यवा वर्णपर्यया श्रतस्तैः (श्रसास त्ति ) विनाशी पर्यापर्यत्नेव विनश्वरत्यादिनि म० १४० ४ उ० । ( देवी बाह्यपुद्गलानादाय परिणामयितुं शक्र इति विउच्चरणा' शब्दे वक्ष्यते ) ( लेश्यानां परस्परपरिणामः ' लेस्सा' शब्दे वच्यते ) " (५) पुलपरिणामः कइविहे से भंते! पोरगलपरिणाने पचे गोमा पं Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम विहे पोमालपारेला से जापरिणामे गंध| तं परिणामे, रसपरिणामे, फासपरिणामे, संडासपरिणामेवपरिणामे भंते! कइबिहे पणते ?। गोयमा ! पंचविहे पत्ते । तं जहा - कालवम्मपरिणामे० जाव सुकिल्लवपरिणामे । एवं एएवं अभिलावेगं गंधपरिणामे दुबिहे, रसपरिणामे पंचविहे फासपरिणामे अडविहे परि खामे गं भंते ! कइविहे परणसे १ । गोयमा ! पंचविहे पते । तं जहा - परिमंडलसंठाणपरिणामे ० जाव था - संठापरिणामे || ( ५६७ ) अभिधान राजेन्द्रः । (परिमंडलापरिणामे सि) हद परिमण्डलसंस्थान teerssकारं । यावत्करणाच " वट्टसंठाणपरिणामे, तंससंडासपरिणामे चउरंससंठाणपरिणामे, त्ति दृश्यम् । 35 " भ० श० १० उ० । (६) वर्णगन्धरसस्पर्श संस्थान परिणताः पुद्गलाः 1 - से कि ते जीवपणा इत्यादि 'जीव' शब्दे प्रथमभा २०६ पृष्ठे "संठापरिणया इत्यन्तं गतम्) जे वरपरिखया ते पंचविहा पण्णत्ता । तं जहाकालपरिया नीलवम्मपरिणया लोहियवम्पपरिणया हादिपरिया सुपरिणया जे गंधपरिणा से दुविधा पाता । तं जरा सुम्भपपरिया प, दुपरिणयाय । जे रसपरिणया ते पंचविहा पष्मता । तं जहा - तित्तर सपरिया कडुयरसपरिणया कसायरस परिखया रिसपरिया महुररसपरिणया। जे फासपरिणया ते अवि पथना से जहा फक्डफासपरिणया म उपफास परिणया रुपफासपरिणया लहुबकासपरिणया सीयासपरिणया उसिफासपरिया सिद्धफासपरिण या लखकासपरिणया । जे संतालपरियया ते पंचविदा प ता से नहा- परिमंडलापरिया पट्टसंडास परियया तंसठाणपरिणया चरंससेदाखपरिणया आयत सेटापरिया || 33 परिया इत्यादि) ये परिवार पविचाः तथापरिणादिनील परीपादवन् सहितपरितालिका परिणता हरिद्राहिय णताः शङ्खाऽऽदिवत् । ये गन्धपरिणतास्ते द्विविधाः प्रशताः । तद्यथा - सुरभिगन्धपरिणताश्च, दुरभिगन्धपरिताश्च । बशब्दी परिणामभवनं प्रति विशेषाभावख्यापनार्थी तथा हि-यथा कथञ्चिदवस्थिताः सामग्रीवः सुरभिग रामं भजन्ते तथा कर्यावस्थता एवं सामी दुरभिगम्यपरिणाममपीति सुरभिगन्धपरिणाथ यथा श्री यः दुरभिगन्धपरिता लगुना । ये रस परिणतास्ते पञ्चविधाः प्रशप्ताः । तद्यथा-तिक्कर सपरिणताः कोशातवादिचत् कटुकरसपरिणताः शुवादित क पायरसपरिता अपककपित्थादेयत्र " ६५० परिणाम अम्लवेतसाऽऽदिवत् . मधुररसपरिणताः शर्कराऽऽदिवत् । ये स्पर्शपरिणतास्तेऽष्टविधाः शप्ताः। तद्यथा कर्कश स्पर्शपरि एताः पाषाणादिवत् मृदुपपरिणता दि गुरुकस्पर्शपरिणता बज्रादिवत् लघुकस्पर्शपरिता अर्क दलादिवत् शीतस्पर्शपरिणताला परिणता यादव विपरित वित् रूक्षस्पर्शपरिणता भस्मायत । ये संस्थापरिणाप ञ्चविधाः प्रशप्ताः। तद्यथा- परिमण्डलसंस्थानपरिणता वलयमत्. वृत्तसंस्थानपरिणताः कुलालचकादिय स्थानपरिणताः शृङ्गाटकाऽऽदिवत्, चतुरस्रसंस्थान परिणताः कुम्भिकाssदिवत् श्रयत संस्थानपरिणता दण्डाऽऽदिवत् । एतानि च परिमण्डलादीनि संस्थानानि घनप्रतरभेदेन ि विधानि भवन्ति, पुनः परिमण्डलमपहाय शेर्पा प्रदे राजनितानि युग्मप्रदेशजनिता मीति द्विधा । तत्रोत्कृष्टं परिमण्डलादिखमाणुनिष्पक्ष मष्पेषप्रदेशावगा - प्रिती जय तु प्रतिनियत परमात्मकम् 3. " निर्दितुं शक्यते इति विनेनानुप्रहावतदुपदर्श्यते तत्रौजःप्रदेशप्रतरवृत्तं पञ्चपरमाणुनिष्पन्नं पञ्चाssकाशप्रदेशावगाढं च । तद्यथा-एकः परमाणुर्मध्ये स्थाप्यते चत्वारः क्रमेण पूर्वाऽऽदिषु चतसृषु दिक्षु । स्थापनायुग्मप्रदेशप्रतरवृत्तं द्वादशपमायात्म द्वादशप्रदेशाय 10/01 1010/0/0 10101010 " गाढं च तत्र निरन्तरं चत्वारः परमाण्वगुकाराम देशेषु रुचकाऽऽकारेण व्यवस्थाप्यन्ते ततस्तत्परिक्षेपेण शेषा अष्टौ ३ प्रदेश पूर्ण सप्तप्रदेशं सप्तप्रदेशावगाढं च तचैवम् तसेच पञ्चप्रदेश प्रतर मध्यस्थितस्य परमाणेारुपरिष्टादधस्ताच्च एकैकोऽणुरवस्थाप्यते तत एवं सप्तप्रदेशं भवति ३. प्रदेश धनवृद्वात्रिंशदेशात्प्रदेशाचमा च सच्चेयम्-पूर्वोद्वादशप्रदेश! 3 अमकस्य प्रतरवृत्तस्योपरि द्वादश, तव उपरिष्टादश्चान्ये चत्वारश्चत्वारः परमाणव इति ० १। श्रजःप्रदेशं प्रतत्र्यत्रं त्रिप्रदेशं त्रिप्रदेशावगाढं च । चैवम् पूर्व तिर्यगव्यस्यते, तत श्राद्यस्याय एको उणुः । स्थापना०1० युग्मप्रदेश प्रतरत्र्यनं पदपरमाणु निष्पनं पद्मदेशावगाढं च । तत्र तिर्यग्निरन्तरं त्रयः परमाण्वः स्थाप्यन्ते, तत श्राद्यस्याध उपर्यधाभावेनायं द्वितीयस्याध एकोऽणुः । स्थापप्रदेश नव्य पञ्चमनिय प्रदेशाचा व तथैव ति | तराः पञ्च परमाणवः स्थाप्यन्ते तेषां वाधोधः क्रमेण तिर्यगेव चत्वारस्त्रयो द्वावेकश्चेति पञ्चदशात्मकः प्रतरो जातः। स्थाननननन । श्रस्यैव च प्रतरस्योपरि सर्वपक्तिय ////न्त्यान्यपरित्यागेन दश १०, तथैव तदुपर्यु01०1०] परि पलय एकश्चेति क्रमेणास्वः स्थाप्यन्ते । स्थापनानननननन 01010 101 01 एते मीलिताः पञ्चत्रिंशद्भवन्ति युग्मप्रदेशं घनत्र्यनं Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम (५६८) परिणाम प्रन्निधानराजेन्द्रः । चतुष्परमाएवात्मकं चतुष्पदेशावगाढं च प्रतरत्र्यनस्यैव त्रि- नव चेव तहा चउरो, सत्तावीसा य अट्ट चउरसे। प्रदेशात्मकस्य सम्बन्धिन एकस्याणोरुपर्येकोऽणुः स्थाप्यते, तिगदुगपन्नरसेव य, छच्चेव य आयए होति ॥ ४० ॥ सतो मीलिताश्चत्वारो भवन्ति ३. ओजःप्रदेशं प्रतरचतुरनं पणयालीसा वारस, छब्भेया पाययम्मि संठाणे । नवपरमाएवात्मकं नवप्रदेशावगाढं च, तत्र तिर्यनिरन्तरं धीसा चत्तालीसा, परिमंडलए य संठाणे ॥४॥" इत्यादि । त्रिप्रदेशास्तिस्रः पतयः स्थाप्यन्ते । स्थापना--01 (७) संप्रत्येतेषामेव वर्णाऽऽदीनां परस्परं संवेधमाह+ युग्मप्रदेशं प्रतरचतुरस्रं चतुष्परमाएवात्मकंच जे वामो कालवस्मपरिणया ते गंधश्रो सुब्भिगंधपरितुष्पदेशावगाढश्च.तत्र तिर्यद्विप्रदेशे वे पछतीस्था 010 णया वि, दुनिगंधपरिणया वि । रसओ तित्तरसपारणता प्येते । स्थापना- ३, ओजःप्रदेशं धनचतुरस्रं सप्तविं. वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणया वि अंबिलशतिपरमारावा-गात्मकं सप्तविंशतिप्रदेशावगादं च । तत्र नवप्रदेशाऽऽत्मकस्यैव पूर्वोक्लस्य प्रतरस्याध उपरिच नव रसपरिणया वि महुररसपरिणया वि । फासो-कक्खडनव प्रदेशाः स्थाप्यन्ते-ततः सप्तविंशतिप्रदेशाऽऽत्मकमोजः फासपरिणया वि मउयफासपरिणता वि गुरुयफासपरिणप्रदेशं घनचतुरस्त्रं भवति ,अस्यैव युग्मप्रदेशं घनचतुरनमष्ट- ता वि लहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिपरमाएवात्मकमष्टप्रदेशावगाढं चातचैवम् चतुष्पदेशाऽऽत्म णफासपरिणता वि णिद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिकस्य पूर्वोक्तस्य प्रतरस्योपरिचत्वारोऽन्ये परमाणवः स्थाप्यन्ते ३,३। ओजःप्रदेशं श्रेण्यायतं त्रिपरमाणु त्रिप्रदेशाऽवगाद णता वि। संठाणो परिमंडलसंठाणपरिणता वि वट्टच, तत्र तिर्यग्निरन्तरं त्रयः स्थाप्यन्ते-नगर, युग्मप्र- संठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठादेशं श्रेण्यायतं द्विपरमाणु द्विप्रदेशाऽवगाढं च, तथैवाणुद्वयं णपरिणता वि आयतसंठाणपरिणता वि २० । जे वसस्थाप्यते-101, ओजःप्रदेशं प्रनराऽऽयतं पञ्चदशपर- श्रो नीलवरमपरिणता ते गंधो सुम्मिगंधपरिणता वि माएवात्मकं पञ्चदशप्रदेशावगाढंच, तश पञ्चप्रदेशाऽऽत्मिका दुब्भिगंधपरिणता वि । रसो तित्तरसपरिणया वि कडुस्तिस्रः पतयः तिर्यक् स्थाप्यन्ते-नगम,युग्मप्रदेशं प्रतराऽऽयतं षट्परमाएवा त्म कंष- यरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणदप्रदेशावगाढं च, तत्र त्रिप्रदेशं पशक्ति- ता वि महुररसपरिणता वि, फासो कक्खडफासपरिद्वयं स्थाप्यते। स्थापना-मनन, ओजःप्रदेश बनाऽऽ णता वि मउयफासपरिणता वि गुरुयफासपरिणता कि यतं पञ्चचत्वारिंशत्परमा- एवात्मकं तावत्पदे- लहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफाशावगाढंच, तत्र पूर्वोक्तस्यैव प्रतराऽऽयतस्य पञ्चदशप्रदेशा. सपरिणता वि गिद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिऽऽत्मकस्याध उपरि तथैव पञ्चदश परमाणवः स्थाप्यन्ते-दै. युग्मप्रदेशं घनाऽऽयतं द्वादशपरमाएवात्मकं द्वादशप्रदेशाऽ. णता वि, संठाणो परिमंडलसंठाणपरिणता वि वसंघगाढं च, तत्र प्रागुक्तस्य षट्प्रदेशस्य प्रतराऽऽयतस्योपरि ठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाणतथैव तावन्तः परमाणवः स्थाप्यन्ते १,४। प्रतरपरिमण्ड. परिणता वि आयतसंठाणपरिणता वि २०। जे वसओ लं विंशतिपरमाएवात्मकं विंशतिप्रदेशावगाढं च, तच्चैवम्. लोहियवस्मपरिणता ते गंधो सुब्भिगंधपरिणता वि दुप्राच्यादिषु चतसृषु दिक्षु प्रत्येकं चत्वारश्चत्वारोऽणवः स्थाप्यन्ते, विदितु च प्रत्येकमेकैकोऽणुः स्थाप्यते।प्र. म्भिगंधपरिणता वि, रसओ तित्तरसपरिणता वि कडुयरमा० १ पद । परिमण्डलमुक्तन्यायतो विभेदमेव, तत्र प्रतर. सपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंविलरसपरिणता कि परिमण्डलं विंशतिप्रदेशं विंशतिप्रदेशावगाढंच, तत्र च महुररसपरिणता वि, फासो कक्खडफासपरिणता वि प्राच्यादिषु चतसृषु दिक्षु चत्वारश्चत्वारो. विदितु चैकैकः मउयफासपरिणया वि गुरुयफासपरिणता वि लहुयफास्थाप्यः, मीलिताश्चैते विशतिर्भवन्ति । स्थापना-१, बाग उत्त. १ अ० । धनपरिमण्डलं चत्वारिं सपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता शत्प्रदेशावगाढं चत्वारिंशत्परमारवा वि सिद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि,संठाणी कात्मकं च.रात्रतस्या एव विंशतरुपरि तथै परिमंडलसंठाणपरिणता वि वसंठाणपरिणता वि ससं वान्या विशतिरेवस्थाप्यते ३.५॥प्रज्ञा ठाणपरिणता वि चउरंससंठाणपरिणता विनायतसंठाणप°विंशतिश्च द्विगुणा चत्वारिंशद्भवन्ति 10101010 उत्त०१०। रिणता वि २०। जे वमो हालिहवामपरिणथा ते गंधइत्थं वैषां प्ररूपणमितोऽपि न्यूनप्रदेशतायां यथोक्तसंस्था- ओ सुब्भिगंधपरिणता वि दुम्भिगधपरिणता वि, रसो नाभावात् , एतत्समाहिकाश्चेमा उत्तराध्ययन (प्रथमाऽध्य- त्तित्तरसपरिणता वि कडुयस्सपरिणता वि कसायरसपरियन) नियुक्तिगाथा: णया वि अंविलस्सपरिणया वि महुररसपरिणता वि, "परिमंडले य वहे. तंसे चउरसें आयए चेव । फासो कक्खडफासपरिणया वि मउयफासपरिणया वि घणपयर पढमवज, ओजपएसे य जुम्मे य ॥ ३८ ॥ पंचग वारसगं स्त्रलु. सत्तम वत्तीसगं च वट्टम्मि । गुरुयफासपरिणया वि लहुयफासपरिणया वि सीयफासतिय छक्कग पणतीसा, बत्तारि य हॉति तंसम्मि ॥ ३६॥ | परिणया वि उसिणफासपरिणया वि णिद्धफासपरिणया वि 10101 ... Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम प्रनिधानराजेन्धः । परिणाम लुक्खफासपरिणता वि, संठाणो परिमंडलसंठाणप- फासपरिणता वि, संठाणो परिमंडलसंठाएपरिणता वि रिणया वि वसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरिणया वि वट्टसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाचउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणता वि २०, परिणता वि आयतसंठाणपरिणता वि २०, जे रसओ कडुजे वमो सुक्किल्लवप्मपरिणता ते गंधो सुम्भिगंधपरिण- यरसपरिणता ते वमो कालवस्मपरिणता वि नीलवरूपता वि दुम्भिगंधपरिणता वि, रसओ तित्तरसपरिणया वि क- रिणता विलोहितवएणपरिणता विहालिद्रवरणपरिणता वि डुयरसपरिणया वि कसायरसपरिणया वि अंबिलरसपरिण- | सुकिल्लवएणपरिणता वि. गंधो सुभिगंधपरिणता विदुया वि महुररसपरिणता वि, फासो कक्खडफासपरि- भिगंधपरिणता वि, फासो कक्खडफासपरिणया वि मउणता वि मउयफासपरिणया वि गुरुयफासपरिणया वि ल- यफासपरिणया वि गुरुयफासपरिणया विलहुयफासपरिणहुयफासपरिणता वि सीयफासपरिणता वि उसिणफासप- या विसीयफासपरिणया वि उसिणफासपरिणया वि णिद्धरिणता वि गिद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि, फासपरिणया वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणो परि-- संठाणो परिमंडलसंठगणपरिणता वि वसंठाणपरिणता मंडलसंठाणपरिणया वि वसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपवि तंससंठाणपारणता वि चउरंससंठाणपरिणता वि रिणया वि चउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिआयतसठाणपरिणता वि २०,१००। जे गंधो सुब्भि- णता वि २०, जे रसओ कसायरसपरिणता ते वमश्रो गंधपरिसता ते वएणो कालवएणपरिणता विनी- कालवण्णपारणया वि नीलवएणपरिणया वि लोहितवलवण्णपरिणता वि लोहितवएणपरिणता वि हालिदव- एणपरिणया वि हालिहवएणपरिणया वि सुकिल्लवएणपएणपरिणया वि मुक्किल्लवएणपरिणता वि, रसओ तित्तर- रिणता वि, गंधयो सुब्भिगंधपरिणता वि दुन्भिगंधपरिणसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि ता वि. फासो कक्खडफासपरिणया वि मउयफासपरिअंबिलरसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, फासो क- णया विगुरुयफासपरिणया वि लहुयफासपरिणया विसीक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गुरुयफास- यफासपरिगाया वि उसिणफासपरिणया वि णिद्धफासपपरिणता वि लहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि रिणया वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणो परिमंडल - उसिणफासपरिणता वि णिद्धफासपरिणता वि लुक्खफास- संठाणपरिणया वि वट्टसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरिपरिणता वि, संठाणो परिमंडलसंठाणपरिणता वि वट्टसं- णया वि चउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणया ठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाणपरि- वि २०, जे रसओ अंबिलरसपरिणया ते वमो कालणता वि आयतसंठाणपरिणता वि २३,जे गंधयो दुन्भिगं- | वएणपरिणया वि नीलयएणपरिणया विलोहियवएणपरिधपरिणता ते वएणो कालवएणपरिणता वि नीलवणप- या वि हालिदवण्णपरिणया वि मुक्किल्लवएणपरिणया वि, रिणता विलोहितवएणपरिणता वि हालिहवामपरिणता वि गंधओ सुभिगंधपरिणया वि दुब्भिगंधपरिणया वि, फासमुकिल्लवप्मपरिणता वि, रसओ तित्तरसपरिणता वि कहुयर- ओ कक्खडफासपरिणया वि मउयफासपरिणया वि गुरुयसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि फासपरिणया वि लहुयफासपरिणया वि सीतफासपरिणमहुररसपरिणया वि, फासो कक्खडफासपरिणता वि मउ. या विउसिणफासपरिणया वि णिद्धफासपरिणया वि लुयफासपरिणता वि गुरुयफासपरिणता विलहुयफासपरिण-| क्खफासपरिणया वि, संठाणो परिमंडलसंठाणपरिणया ता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणया वि णिद्ध-1 वि वसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरिणया विचउरंससंफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणो परि- ठाणपरिणया वि आययसंठाणपरिणया वि २०,जे रसो मंडलसंठाणपरिणता वि वट्टसंठाणपरिणता वि, तंससंठाण- महररसपरिणता ते वएणो कालवमपरिणया वि नीलवामपरिणता विचउरंससंठाणपरिणता वि आयतसंठाणपरिण- परिणया वि लोहियवस्मपरिणया वि हालिहवामपरिणया वि ता वि २६, ४६ । जे रसओ तित्तरसपरिणता ते वन श्रो सुकिल्लवसपरिणता वि,गंधओ सुब्भिगंधपरिणता वि दुम्भिकालवस्मपरिणता वि नीलवस्मपरिणता विलोहियवम्पपरि-| गंधपरिणता वि, फासो कक्खडफासपरिणता वि मउयणता वि हालिहवामपरिणता वि सुकिल्लवस्मपरिणता वि, गं- फासपरिणया विगुरुयफासपरिणया विलहुयफासपरिणता धो सुभिगंधपरिणता वि दुम्भिगंधपरिणता वि, फासो| विसीतफासपरिणया वि उसिणफासपरिणया वि णिद्धफा. कक्खडफासपरिणता विमउयफासपरिणता वि गुरुयफास- सपरिणया वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणश्रो परिमंडलपरिणता पिलहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि संठाणपरिणया वि वसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरिणउसिणफासपरिणता वि णिद्धफासपरिणता वि लुक्ख-. या विचउरससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणया वि Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम प्रभिधानराजेन्सः । परिणाम २०,१००। जे फासो कक्खडफासपरिणया ते वएणो कालवएणपरिणया विनीलवण्णपरिणया वि लोहियवएण परिणया वि हालिहवामपरिणया वि सुकिल्लवप्मपरिणता वि, गंधो सुब्भिगंधपरिणया वि दुम्भिगंधपरिणता वि, रसओ तित्तरसपरिणया वि कडुयरसपरिणया वि कसायरसपरिणया वि अंबिलरसपरिणया वि महुररसपरिणया वि, फासश्रो गुरुयफासपरिणया वि लहुयफासपरिणया वि सीतफासपरिणया वि उसिणफासपरिणया वि णिद्धफासपरिणया वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणो परिमंडलसंठाणपरिणया वि वसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरिणया वि चउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणता वि २३, जे फासओ मउयफासपरिणया ते वमो कालवामपरिणया वि नीलवस्मपरिणया वि लोहितवामपरिणया वि हालिद्दव परिणता वि सुकिल्लवएणपरिणया वि, गंधयो सु । ब्भिगंधपरिणया वि दुब्भिगंधपरिणता वि, रसी तित्तरसपरिणया वि कडुयरसपरिणया वि कसायरसपरिणया वि अंबिलरसपरिणया वि महररसपरिणतावि, फासओ गुरुयफासपरिणया वि लहुयफासपरिखया वि सीतकासपरिणया वि उसिणफासपरिणया वि णिद्धफासपरिणया वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणयो परिमंडलसंठाणपरिणया वि वसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरिणया विचउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणता वि २३, जे फासो गुरुयफासपरिणता ते वामओ कालवणपरिणया वि नीलवप्मपरिणया विलोहितवमपरिणया वि हालिहवामपरिणया वि सुकिल्लवमपरिणता वि, गंधयो सुब्भिगंधपरिणया वि दुब्भिगंधपरिणता वि रसो तित्तरसपरिणया वि कडुयरसपरिणया वि कसायरसपरिणया वि अंपिलरसपरिणया वि महुररसपरिणता वि, फासो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि सीयफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि णि फासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणो परिमंडलसंठाणपरिणया वि वसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरि - गया विचउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणता वि २३, जे फासो लहुयफासपारणता ते वामओ कालवामपरिणया वि नीलवमपरिणया वि लोहितवपपरिणया वि हालिद्दवएणपरिणया वि सुकिल्लवप्मपरिणता बि । गंधमो सुब्भिगंधपरिणया वि दुभिगंधपरिणता वि, र. सओ तित्तरसपरिणया वि कडुयरसपरिणया वि क नायरसपरिणया वि अविलरसपरिणया वि महुररसपरिणता वि, फासो कक्खडफासपरिणया वि मउयफासपरिणया वि सीतफासपरिणया वि उसिणफासपरिणया वि सिद्धफास- परिणया वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणो परिमंडलसंठाणपरिणयावि वट्टसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरिणया वि चउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणतावि २३, जे फासो सीतफासपरिणता ते वालो कालवणपरिणया वि नीलवामपरिणया वि लोहितवप्मपरिणया वि हालिदबएणपरिणया वि सुकिल्लवम्मपरिणता वि । गंधयो सुब्भिगंधपरिणया वि दुन्भिगंधपरिणता वि, रसओ तित्तरसपरिणया वि कडुयरसपरिणया वि कसायरसपरिणया वि अपिलरसपरिणया वि महुररसपरिणता वि । फासो कक्खडफासपरिणया वि मउयफासपरिणया वि गुरुयफासपरिणया वि लहुयफासपरिणया वि णिद्धफासपरिणया वि लुक्खफासपरिणता वि । संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणया वि वसंठाणपरिणया वि तंससंठाणप - रिणया वि चउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणता वि २३, जे फासो उसिणफासपरिणता ते वएणो कालवण्णपरिणया वि नीलवण्णपरिणया वि लोहितवएणपरिणया वि हालिवएणपरिणया वि सुकिल्लवएणपरिणतावि, गंधो सुब्भिगंधपरिणयाधि दुभिगंधपरिणता वि । रसो तित्तरसपरिणया वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंधिलरसपरिणया वि महुररसपरिणता वि, फासो कक्खडफासपरिणया वि मउयफासपरिणया वि गु. रुयफासपरिणया वि लहुयफासपरिणया वि णिद्धफासपरिणया वि लुक्खफासपरिणता वि, संगणो परिमंडलसंठाणपरिणयावि चट्टसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरिणया वि चउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणता वि २३,जे फासो णिद्धफासपरिणया ते वाम्मो कालवामपरिणता वि नीलवम्पपरिणया विलोहितवमपरिणयावि हालिवप्पपरिणया वि सुकिल्लवम्पपरिणता वि, गंधो सुब्भिगंधपरिणया वि दुन्भिगंधपरिणता वि, रसओ तित्तरसपरिणया वि कडुयरसपरिणया विकसायरसपरिणया वि अंपिलरसपरिणया वि महुररसपरिणता वि, फासो कक्खडफासपरिणया वि मउयफासपरिणया विगुरुयफासपरिणया विलहुयफासपरिणया वि सीयफासपरिणया वि उसिणफालपरिणता वि संठाणो परिमंडलसंठागपरिणया वि बट्टसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरिणया वि चउरंससंठाणपरिणया विश्रायतसंठाणपरिणया वि २३, जे फासयो लुक्खफासपरिणता ते वएणो कालवएणपरिणया वि नीलवएणपरिणया वि लोहितवएणपरिणया वि हालिदवण्णपरिणया वि सुकिल्लवएपरिणता वि, गंधो सुब्भिगंधपरिणया वि दब्भिगंधपरिणया वि, रसओ तित्तरसपरिणया विकदुयरसपरिणया वि कसायरसपरिणया वि अंबिलरसपरि Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०१) परिणाम अभिधानराजेन्डः। परिणाम णया वि महुररसपरिणता वि,फासो कक्खडफासपरिण-| फासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गुरुयफासपरिणया वि मउयफासपरिणयावि गुरुयफासपीरणया वि लहु-| तावि लहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणयफासपरिणया वि सीतफासपरिणया वि उसिणफासप- फासपरिणता वि णिद्धफासपरिणया वि लुक्खफासपरिणया रिणता वि, संठाणो परिमंडलसंठाणपरिणया वि वसं- वि २० जे संठाणो आयतसंठाणपरिणता ते वएणो ठाणपरिणया वि तंससंगणपरिणया वि चउरंससंठाणपरि- | कालवामपरिणया वि नीलवामपरिणया विलोहियवस्मपरिगया वि आयतसंठाणपरिणया वि २३, १८४ । जे संठा- णया वि हालिहवामपरिणया वि सुकिल्लवम्मपरिणता वि,गंणो परिमंडलसंठाणपरिणता ते वएणओ कालवएणप- धो सुब्भिगंधपरिणया वि दुभिगंधपरिणता वि,रसो रिणया वि नीलवरणपरिणया वि लोहितवरणपरिणया वि | तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणया वि कसायरसपरिणहालिहवामपरिणया वि सुकिल्लबएणपरिणता वि, गंधो | या वि अंबिलरसपरिणया वि महुररसपारणया वि,फासओ मुभिगंधपरिणता वि दुनिभगंधपरिणया वि, रसओ तित्त- कक्खडफासपरिणया वि मउयफासपरिणया वि गुरुयफासरसपरिणया वि कडुयरसपरिणया वि कसायरसपरिणया वि | परिणया वि लहुयफासपरिणया वि सीतफासपरिणया वि श्रीबलरसपरिणया वि महुररसपरिणता वि, फासयो क- उसिणफासपरिणया विणिद्धफासपरिणया वि लुक्खफासक्खडफासपारणया वि मउयफासपरिणया वि गुरुयफासप-परिणया वि २०,१००। रिणया विलहुयफासपरिणया वि सीतफासपरिणया वि उ-1 सिणफासपरिणयावि गिद्धफासपरिणया विलक्खफासप-(जे वन्नतो इत्यादि) ये स्कन्धाऽऽदयो वर्णतो वर्णमाधिरिणता वि २० जे संठाणो वट्ठाणपरिणया ते वमो त्य कालवर्णपरिणता अपि भवन्ति, ते गम्धतो गन्धमा श्रित्य सुरभिगन्धपरिणता अपि भवन्ति, दुरभिगन्धपरिकालवमपरिणया वि नीलवामपरिणता वि लोहियवस्मपरि णता अपि । किमुक्तं भवति?-गन्धमधिकृत्य ते भाज्या:, णता वि हालिदवएणपरिणता वि सुकिल्लवएणपरिणता वि, केचित्सुरभिगन्धपरिणता भवन्ति, केविद् दुरभिगन्धपरिणगंधो सुब्भिगंधपरिणता वि दुभिगंधपरिणता वि, ताः, न तु प्रतिनियतैकगन्धपरिणामपरिणता एवेति । एवं रसयो तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता विक च रसतः स्पर्शतः संस्थानतश्च वाच्याः, तत्र ही गन्धी. सायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महुररसप पश्च रसाः, अशी स्पर्शाः. पञ्च संस्थानानि । एते च मीलि ता विंशतिरिति कृष्णवर्णपरिणता एतावतो भनान् लभरिणता वि, फासो कक्खडफासपरिणता वि मउय-| न्ते २०, एवं नीलवर्णपरिणता अपि २०, लोहितवर्णपरिणफासपरिणता वि गुरुयफासपरिणता वि लहुयफास- ता अपि २०, हारिद्रवर्ण परिणता अपि २०, शुक्लवर्णपपरिणया वि सीयफासपरिणया वि उसिणफासपरिण रिणता अपि २०, एवं पञ्चभिर्वर्णैर्लन्चं शतम् १०० । गया वि णिदफासपरिणता वि लुक्सफासपरिणता वि २०॥ न्धमधिकृत्या ऽऽह-(जे गंधो इत्यादि) ये गन्धतो गन्धम धिकृत्य सुरभिगन्धपरिणामपरिणतास्ते वर्णतः कालवर्णपजे संठाणो ससंठाणपरिणता ते वएणो का रिणता अपि नीलवर्णपरिणता अपि लोहितवर्णपरिणता लवण्णपरिणया वि नीलवमपरिणया वि लोहितवरणप- अपि हारिद्रवर्णपरिणता अपि शुक्लवर्ण परिणता अपि ५, रिणता वि हालिद्दवमपरिणता वि सुकिल्लवएणपरिणता वि, एवं रसतः ५, स्पर्शतः ८, संस्थानतः ५। एते च मीलिगंधमओ मुब्भिगंधपरिणता वि दुभिगंधपरिणता वि, रस तात्रयोविंशतिः २३, इति सुरभिगन्धपरिणतात्रयोविंशति भजन लमन्ते, एवं दुरभिगन्धपरिणता श्रपि २३, ततो गओ तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरस ग्धपदेन लब्धा भङ्गानां षट्चत्वारिंशत् ४६ । रसमधिकृपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, त्याऽऽह-ये रसतो रसमधिकृत्य तिक्तरसपरिणतासे वर्णतः फासो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि ५, गन्धतः २, स्पर्शतः८, संस्थानतः ५। एते सर्वेऽपि ए. गुरुयफासपरिणया वि लहुवफासपरिणया वि सीतफासप कत्र मीलिता विशतिरिति तिकरसपरिणता विशातभङ्गा लँलभन्ते २०, एवं कटुकरसपरिणताः २०, कषायरसपरिरिणया वि उसिणफासपरिणया वि गिद्धकासपरिणया णताः २०, अम्लरसपरिणताः २०, मधुररसपरिणताश्च वि लक्खफासपरिणया वि २० । जे संठाणो २०॥ एवं रसपश्चकसंबोगे लचं भाकानां शतम्-१०० । चउरससंठाणपरिणता ते वएणयो कालवएणपरिणता (इत्यादि) स्पर्श मधिकृत्याउह-(जे फालतो कक्खडफासपविनीलवएणपरिणता विलोहियवस्म परिणता वि हालिद रिणया इत्यादि) ये स्पर्शतः ककेशस्पर्शपरिणतास्ते घर्णतः ५, गन्धतः २, रसतः५, स्पर्शतः ६. प्रतिस्पर्श पोगाभावमारिणता वि सुकिल्लवसपरिणता वि, गंधयो मुब्भि वात् संस्थानतः५। एते सर्वेऽप्येकत्र मीलि नारत्रयोविंश गंधपरिणता वि दुब्भिगंधपरिणता वि, रसो तित्तरसप-1 तिः २३, एतावतो भवान् कर्कशस्पर्शपरिणता लभन्ते रिणता वि कडुघरसपरिणता वि कसायरसपारगया वि अं- २३.एतावत एव सदस्पर्शपरिणताः२३.गुतस्पर्श परिणताः२३, बिलरसपरिणता वि महुररसपरियता वि, फासो कक्ख-' लघुस्पर्शपरिणताः २३, शीतस्पर्शपरिणतः २३, उष्णस्प Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०२ ) अभिधानराजेन्द्रः । परिणाम र्शपरिणताः २३, स्निग्धस्पर्शपरिणताः २३ रूक्ष स्पर्शपरिण ताः २३ । एतेषामेकन मीलने जातं भङ्गकानां चतुरशीत्यधिकं शतम् - १८४ । (इत्यादि ) संस्थानमधिकृत्याऽऽह - (जे संठाणओ परिमंडल संठाणपरिणया इत्यादि) ये संस्थानतः परिमण्डल संस्थान परिणतास्ते वर्णतः ५ गन्धतः २ रसतः ५ स्पर्शतः एते सर्वेऽप्येकत्र मीलिता विंशतिः २०, पतातो भङ्गान् परिमण्डल संस्थानपरिणता लभन्ते । एवं वृत्तसंस्थानपरिणताः २० व्यस्त्रसंस्थानपरिणताः २० चतुरसंस्थानपरिणताः २० श्रायत संस्थानपरिणताः २० अ मीषां चैकत्र मीलने लब्धं भङ्गकानां शतम् । एतेषां च वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानानां सकलभङ्गसङ्कलने जातानि प श्वशतानि त्रिंशदधिकानि ५३० । इह यद्यपि बादरेषु स्कन्धेषु पञ्चापि वर्णा द्वावपि गन्धौ पञ्चापि रसाः प्राप्यन्ते ततोsafe कृतवर्णाssदिव्यतिरेकेण शेषवर्णाऽऽदिभिरपि भङ्गाः सम्भवन्ति, तथाऽपि तेष्वेव बादरेषु स्कन्धेषु ये व्यवहारतः केवल कृष्ण वर्णाऽऽयुपेता अपान्तरालस्कन्धा यथा देहस्कन्ध एव लोचनस्कन्धः कृष्णस्तदन्तर्गत एव कश्चिलोहितो. न्यस्तदन्तर्गत एव शुक्ल इत्यादि ते इह विवक्ष्यन्ते तेषां चा यद्वर्णान्तराऽऽदि न सम्भवति, स्पर्शचिन्तायां त्ववधिकृतस्पर्शे प्रति प्रतिपक्षव्यतिरेकेणाऽन्ये स्पर्शा लोकेऽप्यविरोघिनो दृश्यन्ते ततो यथोक्तैव भङ्गसंख्या, साऽपि च परिस्थूर न्यायमङ्गीकृत्याभिहिता, अन्यथा प्रत्येकमप्येषां तारतम्येनानन्तत्वात् श्रनन्ता भङ्गाः सम्भवन्ति, एतेषां च वर्णाssदिपरिणामानां जघन्यतोऽवस्थानमेकं समयमुत्कर्षतो - असंख्येयं कालम् । प्रशा० १ पद । (८) द्वीपसमुद्राणां पुद्गल परिणामत्वात्तेषां च पुद्गलानां विशिष्टपरिणामपरिणतानामिन्द्रियग्राह्यत्वादतीन्द्रियवि पयपुद्गल परिणाममाह तित्रिणं भंते! इंदियविसए पोग्गल परिणामे पत्ते ।। गोमा ! पंचविहे इंदियविसए पोग्गलपरिणामे पन्नते । तं जहा- सोइंदियविसए० जान फासिंदियषिसए । सोई दियविस भंते ! पोग्गल परिणामे कतिविहे पत्ते । गोमा ! दुविते । तं जहा - सुब्भिसद्दपरिणामे य, सिद्दपरिणामे । एवं चक्खिदियविसएहिं वि सुरूवपरिणामे य, दुरूवपरिणामे य । एवं सुब्भिगंधपरिणामे य, दुभिगंधपरिणामे य । एवं सुरिसपरिणामे य, दुरिसपरिणामे य । एवं सुफासपरिणामे य, दुफासपरिणामे य । से भंते ! उच्चारसु सदपरिणामेसु उच्चावरसु रूवपरिणामेसु, एवं गंधपरिणामेसु रसपरिणामेसु य, फासपरिणामेसु परिणममाणा पोग्गला परिणमतीति वत्तव् सिया ।। हंता गोयमा ! उच्चावएसु सदपरिणामेसु परिणममाणा पोग्गला परिणमंतीति वत्तन्त्रं सिया । से खूणं भंते ! सुभिसा पोग्गला दुग्भिसद्दत्ताए परिणमंति, दुभिसदा वा पोग्गला सुन्भिसदत्ताए परिणमंति ९ । हंता गो! सा दुसद्दत्ताए परिणमंति, दुब्भिसदा । . For Private परिणाम सुभिसत्ता परिणमति । से नूणं भंते! सुरूवा पोग्गला दुरूत्ता परिणमंति, दुरूवा पोग्गला सुरुवताए परिसमंति । इंता गोयमा ! | एवं सुब्भिगंधा पोग्गला दुब्भिगंधसाए परिणमंति, दुब्भिगंधा पोग्गला सुब्भिगंधत्ताए परिणमति । हंता गोयमा !! एवं सुरसा दुरसताए, दुरसा सुरसाए । हंता गोयमा !। एवं सुफासा दुफासत्ताए, दुफासा फासत्ताए । हंता गोयमा !। ते चेव णं भंते ! सुब्भिसद्दा पोग्गला दुब्धिसत्ता परिणमंति, दुम्भिसद्दा पोग्गला सुन्भिसत्ता परिणमति १ । हंता गोयमा । एवं सुरूवा दुरूवत्ताए, एवं गंधा रसा वि फासा वि, तं चेत्र सुकासा दुफासत्ता परिणमति । हंता गोयमा !० जाव परिणमति । ( करवि णं भंते ! इति) कतिविधो भदन्त ! इन्द्रयविष यः पुद्गल परिणामः प्रशप्तः । भगवानाह - गौतम ! पञ्चविधः इन्द्रियविषयः पुद्गलपरिणामः प्रशप्तः । तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रिय विषय इत्यादि सुगमम् । ( सुब्भिसद्दपरिणामे इति ) शुभः शब्दपरिणामः (दुष्भसहपरिणाम इति ) अशुभः शब्दपरिणामः (से खूणं भंते । इत्यादि) अथ नूनं निश्चितमेतत् भदत!] उच्चावचैरुत्तमाधमैः शब्दपरिणामैर्यावत् स्पर्श परिणामः परिणमन्तः पुद्गलाः परिणमन्तीति वक्तव्यं स्यात् परिणमन्तीति ते वक्तव्या भवेयुरित्यर्थः । भगवानाह - ( हंता गोमा ! इत्यादि) इन्तेति प्रत्यवधारणे, स्यादेव वक्तव्यमिति भावः, परिणामस्य यथावस्थितस्य भावात्, तथा द्रव्यक्षेत्रसामग्रीवशतस्तद्रूपाऽऽस्कन्दनं हि परिणामः, स च तatsस्तीति न कश्चित्तथाऽभिधाने दोषः । ( से पूर्ण भंते ! इत्यादि ) अथ नूनं निश्चितमेतद्भदन्त ! शुभशब्दरूपाः पुगला अशुभशब्दतया परिणमन्ति, अशुभशब्दरूपा वा पुत्रलाः शुभशब्दतया । भगवानाह (हंता गोतमेत्यादि) सुप्रतीतमेतेन सान्वयपरिणाममाहान्यथा तद्योगात् श्रसतः सताऽनुपपत्तेरतिप्रसङ्गात् । एवं रूपरसगन्धस्पर्शेष्वपि श्रात्मीयात्मीयाभिलापेन द्वौ द्वावालापको वक्तव्यौ । जी० ४ प्रति० १ उ० । विस्र सोभयजन्येषूत्पादाऽऽदिषु, नं० । (६) प्रयोग - मिश्र - विश्रसा परिणताः पुद्गलाःरायगिहे ० जाव एवं बयासी-कइविहा गं भंते ! पोग्गला पत्ता ? । गोयमा ! तिविहा पोग्गला पष्मत्ता । तं जहापयोगपरिणया. मीसपरिणया, वीससापरिणया य । (पगपरिणयत्ति ) जीवव्यापारेण शरीराऽऽदितया परिराताः ( मी सपरिणय ति ) मिश्रकपरिणताः - प्रयोगविन साभ्यां परिणताः, प्रयोगपरिणाममत्यजन्तो विस्रलया स्वभावान्तरमापादिता मुक्तक लेवराऽऽदिरूपाः । श्रथ वौदारिकाssदिवर्गणा रूपा विनसया निष्पादिताः सन्तो ये जीवप्रयो. केन्द्रियादिशरीरप्रभृतिपरिणामान्तरमापादितास्ते मिपरिणताः । ननु प्रयोग परिणामोऽप्येवंविध एव ततः क ए षां विशेषः । सत्यम्, किन्तु प्रयोगपरिणतेषु विस्नसा सत्यपि न विवक्षितेति (वीससापरिणयत्ति ) स्वभावपरिणताः । Personal Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम भाभिधानराजेन्डः। परिणाम अथ-"पयोगपरिणताणं" इत्यादिना प्रन्येन नवभिदण्डकैः विहा पमत्ता। तं जहा-उरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणिप्रयोगपरिणतपुरलाभिरूपयति यचिदियपभोगपरिणया य, भुपपरिसप्पथलयरतिरिपभोगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कइविहा परमत्ता ?। क्खजोणियपंचिंदियपयोगपरिणया य । उरपरिसप्पथलगोयमा! पंचविहा पसत्ता । तं जहा-एगिदियपभोगपरिण यरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपभोगपरिणया दुविहा परमत्ता। या, वेइंदियपभोगपरिणया. जाव पंचिंदियपभोगपरिण तं जहा-सम्मुच्छिमउरपरिसप्पयलयरतिरिक्खजोणियपया य । एगिदियपोगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कइ चिंदियपयोगपरिणया, गम्भवकंतियउरपरिसप्पथलयरतिविहा परमत्ता १। गोयमा पंचविहा परमता । तं जहा रिक्खजोणियपंचिंदियपोगपरिणया य । एवं भुयपरिपुढविकाइयएगिदियपोगपरिणया० जाव वणस्सइकाइय सप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपोगपरिणया वि । एगिदियपोगपरिणया । पुढविकाइयएगिदियपभोगपरि एवं खहयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपोगपरिणया वि।म. खया णं भंते ! पोग्गला कइविहा परमत्ता । गोयमा! दु-1 गुस्सपंचिंदियपभोगपरिणयाणं पुच्छा। गोयमा दुविहा विहा पमत्ता । तं जहा-सुहुमपुढविकाइयएगिदियपोग-1 पसत्ता । तं जहा-समुच्छिममणुस्सपंचिंदियपोगपरिणया, परिणया य, बादरपुढविकाइयएगिदियपभोगपरिणया य ।। गम्भवकंतियमणुस्सपंचिंदियपोगपरिणया। देवपंचिंदियभाउकाइयएगिदियपभोगपरिणया वि एवं चेव । एवं | पभोगपरिणयाणं पुच्छा | गोयमा! चउब्धिहा पसत्ता । तं दुयो भेओ० जाव वणस्सइकाइयएगिदियपोगपरिण-1 जहा-भवणवासीदेवपंचिंदियपोगपरिणया, एवं०जाव वेया । बेइंदियपभोगपरिणयाणं पुच्छा। गोयमा ! अणेग-| माणियदेवपंचिंदियपयोगपरिणया । भवणवासीदेवपंचिविहा परमत्ता । एवं तेई दियपभोगपरिणया, चउरिदियप दियपयोगपरिणयाणं पुच्छा। गोयमा! दसविहा पसत्ता। प्रोगपरिणया वि । पंचिंदियपभोगपरिणया ण भंते ! पु- तं जहा-असुरकुमारदेवपंचिंदियपोगपरिणया० जाव थच्छा। गोयमा ! चउठिवहा पमता । तं जहा-नेरइयपंचि- णियकुमारदेवपंचिंदियपोगपरिणया । एवं एएणं अभिदियपोगपरिणया, तिरिक्खपंचिंदियपोगपरिणया, एवं | लावणं अहविहा वाणमंतरदेवपंचिंदियपयोगपरिणया, मणुस्सदेवपंचिंदियपोगपरिणया य । नेरइयपचिंदियप- पिसायदेवपंचिंदियपोगपरिणया० जाव गंधव्वदेवपंचिंओगपरिणयाणं पुच्छा । गोयमा सत्तविहा पमत्ता । तं दियपोगपरिणया य । जोइसियदेवपंचिदियपोगपरिजहा रयणपभापुढविनेरइयपंचिंदियपोगपरिणया य. णया पंचविहा पम्मत्ता । तं जहा चंदविमाणजोइसियदेवजाव अहे सत्तमपुहविनेरइयपंचिंदियपोगपरिणया य । ति पंचिंदियपयोगपरिणया. जाव ताराविमाणजोइसियदेवरिक्खजोणियपंचिंदियपोगपरिणयाणं पुच्छा। गोयमा! पंचिंदियपोगपरिणया । वेमाणियदेवपंचिदियपोगपतिविहा पसत्ता । तं जहा-जलचरतिरिक्खजोणियपंचिंदि-| रिणया दुविहा पत्ता । तं जहा-कप्पोववमवेमाणिययपोगपरिणया, थलचरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपओ-| देवपंचिंदियपोगपरिणया, कप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदिगपरिणया, खहयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपोगपरिणया यपोगपरिणया,कप्पोववरणगवेमाणियदेवपंचिंदियपओय । जलचरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपोगपरिणयाणं गपरिणया दुवालसविहा पएणत्ता । तं जहा-सोहम्मकपुच्छा। गोयमा! दुविहा परमत्ता । तं जहा-सम्मुच्छिमज- प्पोववरणगवेमाणियदेवपंचिंदियपोगपरिणया, एवं०जाव लचरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपोगपरिणया य, गम्भवक- अच्चुयकप्पोववएणगवेमाणियदेवपंचिंदियपोगपरिणया। तियजलयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपोगपरिणया य । थ- कप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियपोगपरिणया दुविहा पलचरतिरिक्खपंचिंदियपोगपरिणयाणं पुच्छा। गोयमा!। एणत्ता । तं जहा-गेवेञ्जगकप्पातीयदेवपंचिंदियपोगपदुविहा पामत्ता । तं जहा- चउप्पयथलचरपंचिंदियतिरिक्ख- रिणया, अणुत्तरोववाइयवेमाणियदेवपंचिंदियपोगपरिणजोणियपोगपरिणया य, परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरि- या । गेवेजगकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियपोगपरिक्खजोणियपोगपरिणया य । चउप्पयथलयरपाँचदिय- णया णवविहा पण्णत्ता । तं जहा-हिडिमगेवेजगकप्पातीतिरिक्खजोणियपोगपरिणयाणं पुच्छा। गोयमा! दुविहा यवेमाणियदेवपंचिंदियपोगपरिणया० जाव उवरिमगेपरमत्ता । तं जहा सम्मुच्छिमचउप्पययलयरतिरिक्खजोणि- वेजगकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियपोगपरिणया । अयपंचिंदियपओगपरिणया, गम्भवक्कंतिययलयरतिरिक्ख- णुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिदियपोगपरिणबोणियपचिंदियपत्रोगपरिणया य। एवं एएणं अभिलावणं | याणं भंते ! पोग्गला काविहा पएणत्ता । गोयमा ! परिसप्पथलयरतिरिक्खजोषियपंचिंदियपोगपरिणया दु. पंचनिहा पण्णत्ता। तं जहा-विजयश्रणुत्तरोववाइयकप्पा Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०४ ) अभिधानराजेन्द्रः । परिणाम परिणाम तीयवेमाणियदेव पंचिदियपोगपरिणया० जाव सव्वहसि । यपओगपरिणयाणं पुच्छा । गोयमा ! दुविहा पत्ता । तं अणुत्तरोत्रवाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिदियपयोगप- जहा- पज्जत्तगसम्मुच्छिममणुस्सपंचिंदियपयोग परिणया अ पज्जत्तगसम्मुच्छिममणुस्सर्पचिदियपयोगपरिणया य । गव्भवकंतियमणुस्सपंचिंदियपत्रोगपरिणयाणं पुच्छा ।। गोयमा ! दुविहा पत्ता । तं जहा पञ्जत्तगगन्भवतियमणुस्पंचिंदियपगपरिणया, अपअत्तगगन्भवकंतियमणुस्सपंचिदियोगपरिणयाय । असुरकुमारभवणवासीदेवपंचिदियोगपरिणयाणं पुच्छा ? । गोयमा ! दुविहा पत्ता । तं जहा - पत्तगसुरकुमारदेवपंचिंदियपओगपरिणया, अ पञ्जत्तगअसुरकुमारदेवपचिदियपभोगपरिणया य । एवं० जात्र पतथणियकुमारदेवपंचिंदिय पश्चगपरिणया. अपजत्तगथणियकुमारदेवपचिदियपयोगपरिणया य । एवं एए भिलावे दुपणं भेएवं विसाया य० जाव गंधव्वदेवपंचिदियोगपरिणया य । एवं पञ्जत्तापज नगचंदजोइसियदेवपचिदियपयोगपरिणया० जाव पञ्जत्तापजत्तगताराविमानदेवपदियपओगपरिणया य । पजत्तगसोहम्मकप्पोववस गदेव पंचिदियपयोगपरिणया, अपजत्तगसोहम्मकप्पोवव गदेव पंचिदियपयोगपरिगया एवं जान पज्जत्तापअतगअच्चुक पोववगदेव पंचिदियपयोगपरिणया वि । पञ्जत्तमापत्तगट्ठिमहेट्ठिमगेवेजगकप्पातीयदेवयंचिंदियायोगपरिणया० जाव पत्तापजत्तगउवरिमजवरिमगेवेजप्पातीयदेव पंचिदियपओगपरिणया वि । एवं चैव पञ्जनापज्जत्तगविजयअणुत्तरोवत्राइयकप्पाती यवेमाणियदेवपंचिंदिय पयोगपरिणया० जाव पञ्जत्तापञ्जत्तगसव्बट्टसिद्वागुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणि यदेव पंचिदियपयोगपरिणयाय २ ॥ जे अपतगसुहुमपुढवि काइयए गिंदियपत्रगपरिणया ते ओरालियतेयाकम्मासरीरप्पयोगपरिणया, जे पज्जत्तासु हुमपुढविकाइयएगिंदियप्पओगपरिणया ते ओरालियते याकम्मासरीरोगपरिगया, एवं० जाव पञ्जतगचउरिदियप्पयोगपरिगया। नवरं, जे पज्जत्तगबादरखाउकाइयएगिंदि यप्पयोगपरिणया ते ओरालियवे उन्नियतेयाकम्मासरीरोगपरिगया, सेसं तं चेव, जे अपजतगरयणप्पभापुढविनेरइयपंचिदियपओगपरिणया ते वेन्नियतेया कम्मा सरीरपयोग परिणया, एवं पञ्जतगरयणप्पभापुढविनेरइयपंचिदियप्पगपरिणया वि, एवं०जाव आहे जे पत्तापसत्तमापुविनेर इयपंचिंदियपयोगपरिणया ते रिणयाय १ ॥ तत्र चैकेन्द्रियाऽऽदिसर्वार्थसिद्धदेवान्तजीवभेदविशेषितप्रयोगपरिणनानां पुद्गलानां प्रथमो दण्डकः । तत्र च - ( आउकाइय एर्गेदिय एवं चैव त्ति) पृथिवी कायिकै केन्द्रियप्रयोगपरि ता व कायिकेन्द्रियप्रयोगपरिणता वाच्या इत्यर्थः । ( एवं दुयश्रोत्ति) पृथिव्यप्कायप्रयोगपरिणतेष्विव द्विको द्विपरिमाणो द्विपदो वा भेदः सूक्ष्मबादरविशेषणकृतस्तेज -' स्कायिकै केन्द्रियप्रयोगपरिणताऽऽदिषु वाच्य इत्यर्थः । (श्रणेगविहति) पुलाककृमिकाऽऽदिभेदत्वाद् द्वीन्द्रियाणां त्रीन्द्रि प्रयोगपरिणता श्रप्यनेकविधाः कुन्थुपिपीलिकाऽऽदिभेदत्वा तेषां चतुरिन्द्रियप्रयोगपरिणता श्रप्यनेकविधा एव मक्षिकामशकाssदिभेदत्वात्तेषामेतदेव सूचयन्नाह - ( एवं तेदीत्यादि) अपर्याप्तपर्याप्तसूक्ष्मवादरविशेषणेनसुहुमपुढविकाइयएगिंदियपयोगपरिणया गं भंते! पोग्ग ला विहा पत्ता १ । गोयमा ! दुविहा पपत्ता । तं जहाकेइ अपजत्तगं पढमं भांति पच्छा पञ्जत्तगं । पज्जत्तसुहुमपुढविकाइयएगिंदियपयोगपरिणया, पञ्जत्तसुडुमपुढविकाइयएगिंदियपञ्चगपरिणया । वादरपुढविकाइयएगिंदियपयोगपरिणया वि एवं चेव । एवं० जाव वणस्सइकाइयएगिंदियपोगपरिणया एकेका दुविहा - सुदुमा य, बादरा य, पञ्जत्तगा य, अपजत्तगा य भाणियन्त्रा । बेइंदियप परिणयाणं पुच्छा ? । गायेमा ! दुविहा पपत्ता । तं जहापञ्जत्तगबेइंदियपयोगपरिणया, अपजत्तगबेइंदियपयोगपरिणयाय । एवं तेइंदियपत्रगपरिणया वि एवं चउइंरियपश्लोगपरिणया वि । रयणप्पभापुढविणेरइयपंचिंदियपोगपरियाणं पुच्छा ? । गोयमा ! दुविहा पणत्ता । तं जहा-पजत्तगरयणप्पभापुढविणेरइयपंचिंदियपओगपरिणया, अपअत्तगरयणप्पभापुढविणेरइयपंचिंदियपयोगपरिणपा । एवं ० जाव आहे सत्तमपुढविणेरइयपंचिदियपयोगपरिणया । संमुच्छिमजलयर तिरिक्खजोगियपंचिंदियपद्योगपरिणयाणं पु || गोयमा ! दुविहा पमत्ता । तं जहा पञ्जत्तगसम्मुच्छिमजलयरतिरिक्खजोणिय पंचिदिय पद्योगपरिणया, अपजगसम्मुच्छिमजलयर तिरिक्खजोणियपंचिदियपयोगपरिया य । एवं गब्भवकंतियजलयर तिरिक्ख जोगियपंचिंदियपयोगपरिणया वि । सम्मुच्छिमचउप्पयथलयरतिरि क्खजोगियपंचिदियपोगपरिणया वि एवं चैव । एवं गव्भवकंतियचउप्पयथलय र तिरिक्ख जोखियपंचिंदियपयोगपरिणया वि । एवं० जाव संमुच्छिमखहयरतिरिक्खजोणि चिदियोगपरिणया वि, गव्भवक्वतियखहयरति रिक्खजोगियपंचिदिपपयोगपरिणया वि । एक्केके पजत्तगा य । अपजता य भागिव्या । सम्मुच्छिममणुस्सर्पाचिंदि | वियते या कम्मसरीरप्पयोगपरिणया । जे अपज्जत्तगसंमुच्छिम जल यर पंचिदियग्पयोगपरिणया ते ओरालियतेया कम्मसरीरप्पगपरिणया, एवं जे पज्जत्तगसंमुच्छि मजलयर पंचिंदियप्पओगपरिणया ते ओरालि यते याकम्म For Private Personal Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०५ ) श्रनिधान राजेन्द्रः । परिणाम सरीरोगपरिणया । एवं चेव अपज्जत्तगगन्भत्रकंतियजलयरपंचिंदियप्पओग़परिख्या वि, पञ्जत्तगगन्भवकंतिया वि एवं चैत्र नवरं सरीरगाणि चत्तारि जहा बादरबाउकाइयाणं पञ्जत्तगाणं । एवं जहा जलचरेसु चत्तारि - लागा भाणिया तहा चउप्पय उरपरिसप्पभुयपरिसप्पखहयरेसु विचचारि लावगा भाणियन्त्रा । जे संपुच्छि - ममणस्तपंचिंदियपयोगपरिणया ते ओरालियतेयाकम्मसरीरप्पगपरिणया, एवं गव्भवकंतिया वि । अपजत्तगपजत्तगा वि एवं चेव, नवरं सरीरगाणि पंच भाणि यव्त्राणि, जे अपजत्ता असुरकुमारभवणवासिदेव पंचिंदियपयोग परिगया जहा रइयपंचिंदियपोगपरिणयावि तहेव, एवं पज्जत्तगा वि, एवं दुपए भए० जाव थणियकुमारभवण वासिदेवपचिंदियपयोगपरिणया । एवं विसायदेवपचिदियपोगपरिगया० जाव गंधव्वदेव पंचिदियपश्रोगपरिणथा। चंदविमाणजोइसियदेवपंचिंदियपयोगपरिणया० जाव ताराविमाणजोइसियदेवपंचिदियपओगपरिणया, एवं सोहम्म कष्पोत्रवमवेमाणियदेवपंचिंदियपयोगपरिणया० जाव अच्चुत्रकप्पोववम्पत्रेमाणियदेवपंचिंदियपयोगपरिणया । एवं हड्डिमवेजगकष्णातीयवेमाणियदेव पंचिदियपओगपरिया० जाव उवरिमगेवेज्जगकप्पातीयवेमाणियदेव पंचिदियोगपरिणया । एवं विजयअणुत्तरोववाइयकप्पातीयमाणियदेव पंचिदियपोगपरिणया० जाव सन्नट्टसिद्धगुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेव पंचिंदियपद्योगपरिणया एकेके दुयभेया भाणियन्त्रा० जाव जे य पत्ता सव्त्रसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पाती यवेमाणियदे वपंचिदियपत्रगपरिणया ते उव्वियतेयाकम्मासरीरपयोग परिणया दं ३ ॥ जे अत्तगा सुहुमपुढवीकाइयएगिंदियपयोगपरिणया ते फासिंदियपत्रगपरिणया; जे पत्रता हुमपुविकाइयएगिंदियपयोगपरिणया एवं चैव । जे अपत्ता बादरपुढविकाइयगिदियपयोगपरिणया एवं चैत्र, एवं पञ्जत्तगा वि, एवं चउक्कमेएं० जाव वस्सइकाइगिदियोगपरिणया । जे अपज्जत्ता वेइंदियपोगपरिया ते जिभिदियफासिंदियपयोगपरिणया, जे पजता वेदियोगपरिणया एवं चैत्र, एवं० जाव चउरिदियपगपरिणया, नवरं एक्केकं इंदियं वड्डेयन्वं । जे अभजत्ता रयणप्पभापुढविनेर इय पंचिदियपयोगपरिगया सोदिया गिदिय जिम्भिदियफार्मिदियपत्र परिणया । एवं पञ्जतगा वि, एवं सव्वे भाणियन्ना । तिरिक्खजोगियपंचिदियपोगपरिणया मगुस्सपंचिंदियप परिया देवचिदिवापरण्या० जाव सव्वट्ट - १५२ For Private परिणाम सिद्धऋणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणि यदेवपांच दियपयोग - परिणया ४ || जे अपत्ता हुमपुढविकाइयए दियओरालियतेयाक म्मासरपओगपरिणया ते फासिंदियपत्रोगपरिया जे पत्ता हुमपुढविकाइय एगिंदियओरालियतया - कम्मासरीरपओगपरिणया एवं चैव, अपजत्ता बादरपुढविकाइए गिंदियओरालियतेया कम्मासरीरपयोग परिणया एवं चेव, एवं पज्जत ॥ वि एवं एएवं अभिलावेणं जस्स ज‍ इंदियाणि सरीराणि य ताणि भाणियव्याणि० जाव जे अपञ्जत्ता सव्वट्टसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिदियवेडन्वियते याकम्मासरीरपयोगपरिणया ते सोइंदि यवघाणिदियचक्खिदियजिम्भिदि यफासिंदियपओगपरिणया ५ ॥ जे अप्पत्ता सुदुमपुढचिकाइयएगिंदियपयोगपरिया ते area कालवपरिणया सीलमपरिया लोहियवम्मपरिणया हालिदवम्मपरिणया सुकिल्लापरिया, गंध सुभगंधपरिणया दुब्भिगंधपरिणया वि, रसओ तित्तरसपरिणया वि कडुयरसपरिणया वि कसायरसपरिया व विलरसपरिख्या वि महुररसपरिणयावि, फासो कक्खडफासपरिणया वि० जाव लुक्खफासपरिणया वि, ठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणया वि चट्टतंसचउरंसग्रायतसंठाणपरिणया वि । जे पज्जत्ता सुहुमधुविकइयएगिंदियपद्योगपरिणया वि एवं चैव जहाणुपुत्रीए य० जाव जे पञ्जत्ता सव्बट्ठसिद्धअणत्तरोववाइयकप्पातीयवमाणियदेव पचदियपयोग परिणया ते म काल परिणया वि० जाव आयतसंठाणपरिया वि६ ॥ जे अपजत्ता सुदुमपुढविकाइयएगिंदियचोरालियतेया कम्पासरी रपयोगपरिणया ते ओ कालवपरिणया वि० जाव आयतसंठाणपरिणया वि, जे पत्ता हुम पुढविकाइयएगिंदि यओरालियतेया कम्मासरीपपरिया एवं चेव । एवं जहागुपुत्रीए जस्स जइ सरीराणि० जाव जे पत्ता सव्वट्टसिद्ध गुत्तरोववाइयकप्पातीयमाशियदेवपचिदियवे उच्चियतेचा कम्पासरीरपओपरिया ते व कालवचपरिया वि०जाव आयतसं - परिया ७ ॥ जे अपत्ता हुमपुढविकाइयएगिदियफासिंदियपोगपरिणया ते बम्म कालवारिया० जाव आयागपरिगया वि। जे पञ्जता सुहुमपुढविकाइयएगिदियासिंदियपयोगपरिणया एवं चेव. एवं जहान्वी जस्स जइ इंदियाणि तस्स तत्तिप्राणि भशियन्नाणि जाव जे पजता सव्व सिद्धअत्तरोववाइय - कप्पातीयवमाणियदेवपचिदि यसोइंदिय० जाव फासिंदियपयोगपरिया ते वाओ कालवण परिणया वि० जाव आ Personal Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०१ ) धनिधानराजेन्द्रः । परिणाम यतसंठाणपरिणया वि८ । जे अपजत्ता सुहुमपुढंत्रिकाइयएगिदियो। लियतेय कम्पासरी र फासिंदियपयोगपरिणया ते व कालवपरिणया० जाव आयतसंठाणपरिणया, जे पज्जत्ता सुहुमपुढविकाइयएगिंदियओरालियतेयाक - म्मासरीरफासिंदियपयोगपरिणया एवं चैव, एवं जहाणुपुबीए जस्स जइ सरीराणि इंदियाणि य तस्स तत्तियाणि भाणियव्वाणि ० जाव जे पज्जत्ता सम्यट्ठसिद्ध अणुत्तरोववा - इय कप्पातीयवेमाणि यदेवपंचिंदिय वेड व्त्रियकम्मा सरीरसोइंदिय० जाव फासिंदियपयोगपरिणया ते वमओ कालपरिणया० जाव श्रायतसंठाणपरिणया वि, एए नवदंडगा ६ ॥ (सुमपुढविकाइयेत्यादि ) सर्वार्थसिद्धदेवान्तः पर्याप्तकापर्याप्तविशेषणो द्वितीयो दण्डकस्तत्र ( एकेकेत्यादि ) एकैकस्मिन्निकाये सूक्ष्मबादरभेदाद् द्विविधाः पुद्गला वाच्याः, ते च प्रत्येकं पर्याप्तकापर्याप्तकभेदात्पुनर्द्विविधा वा च्या इत्यर्थः । ( जे अपजता सुदुमपुढवीत्यादि ) श्रदारिकाss देशरीरविशेषणस्तृतीयो दण्डकस्तत्र च ( श्रोरालि यतेयाकम्मसरीरपश्रोगपरिणयति ) श्रदारिकतैजसका कर्मणशरीराणां यः प्रयोगस्तेन परिणता ये ते तथा । पृथि व्यादीनां हि एतदेव शरीरत्रयं भवतीति कृत्वा तस्त्रयोगपरिता एव ते भवन्ति, वादरपर्याप्तकवायूनां स्वाहारकवर्ज शरीरचतुष्टयं भवतीति कृत्वाऽऽह - ( नवरं जे पज्ज तेत्यादि ) ( एवं गग्भवतिया वि श्रपजत्तगिति ) वैक्रियाऽऽहारकशरीराभावाद्गर्भव्युत्कान्तिका अप्यपर्यातका मनुष्यास्त्रिशरीरा एवेत्यर्थः (जे अपजत्ता सुदुमपुडवीत्यादि ) इन्द्रि यविशेषणश्वतुर्थो दण्डकः (जे अज्जत्ता सुदुमपुढवीत्यादि) श्रदारिकाऽऽदिशरीर स्पर्शाऽऽदीन्द्रियविशेवणः पञ्चमः । (जे अपज्जत्ता सुहुमपुढवीत्यादि ) वर्णगन्धरसस्पर्श संस्था नावशेषणः षष्ठः । एवमैौदारिका ऽऽदिशरीरवर्णादिभाववि शेषणः सप्तमः। इन्द्रियवर्णा ऽऽदिविशेषणोऽष्टमः । शरीरेन्द्रियवर्णादिविशेषणो नवम इति । अत एवाह एते नव दण्डकाः। अथ मिश्रपरिणतपुद्गलांश्चिन्तयति मीसापरिया सी भंते ! पोग्गला कइविहा पत्ता ? । गोया ! पंचविहा पाता । तं जहा- एगिंदियमीसापरिणया० जान पंचिदियमीसापरिणया । एगिंदियमीसापरिणया गं भंते ! पोग्गला करविहा पण्णत्ता ? । एवं जहा पद्योगपरिएहिं नव दण्डगा भशिया, एवं मीसापरिणएहिं नव दंडगा भाशियव्वा, तहेव सव्वं निरवसेसं, नवरं अभिलावो मीसापरिणया भाणियव्वो, सेसं तं चेव० जाव जे पत्ता सट्टसिद्ध गुत्तरोववाइय० जाब आयतसंठाणपरिणया | मिश्र परिणतेष्वप्येत एव नव दण्डका इति । अथ विस्रसापरिणतपुद्गलाँश्चिन्तयतिवीससापरिणयाणं भंते ! पोग्गला कइविहा पण्णत्ता ? | गोपमा ! पंचविदा पराशता । तं जहा वष्मपरिणया गंध - For Private परिणाम परिणया रसपरिणया फासपरिणया संठाणपरिणया । जे परिणया ते पंचविहा पण्णत्ता । तं जहा- कालवणपरिणया० जाव सुकिल्लवणपरिणया । जे गंधपरिणया ते दुबिहा पष्मत्ता । तं जहा सुगंध परिणया, दुग्गंध परिणया fa | एवं जहा पावणापए तहेव निरवसेसं० जाव संठाणश्र आय तसं ठाणपरिणया ते वस्मय कालवष्णपरिणया वि० जाव लुक्खफासपरिणया वि । (विस्सापरिणयाणामित्यादि । ) ( एवं जहा पनवणाए ति ) तत्रैवमिदं सूत्रम्" जे रसपरिणया ते पंचविहा पनता । तं जहा तित्तरसपरिणया. एवं कडयकसायश्रं विलमडुररसपरिणया जे फासपरिणया ते अट्ठावेहा पन्नता । तं जहाकक्खडफासपरिणया एवं मउयगरुयलहुयसीय सिखनिद्धलुक्खफासपरिणया य । " इत्यादि । अथैकं पुद्गलद्रव्यमाश्रित्य परिणामाश्चिन्तयन्नाहएगे भंते ! दव्वे किं पयोगपरिणए, मीसापरिणए, वीसापरिगए ? | गोयमा ! पत्रगपरिगए वा, मीसापरिगए वा, वीससापरिगए वा । जइ पत्रोगपरिणए किं मणपयोगपरिए, वइपोगपरिगए, कायपयोग परिणए । गोयमा ! मणप्पगपरिणवा, वयप्पओगपरिगए वा, कायपत्री - गरिए वा । जइ मरणपयोगपरिणए किं सच्चमणप्पओ - गरिए, मोसमणप्पगपरिगए, सच्चमोसमणपयोगपरिए, सच्चा मोसम प्पगपरिगए ? । गोयमा ! सच्चम परि वा, मीसमणध्पयोगपरिणए वा, सच्चामोसमप्पगपरिगए वा, असच्चामोसमणप्पओगपरिणए वा । जइ सचमणप्पगपरिगए किं आरंभ सच्च मणप्पओगपरिगए. अणारंभसच्च मणप्पयोगपरिणए, सारंभसच्चमप्पगपरिणए, असारंभसच्च मणप्पयोगपरिणए, समारंभसच्च मणप्पगपरिणाए. असमारंभसञ्च मणप्पयोगपरिगए हैं। गोमा ! आरंभसचमणप्पगपरिगए वा० जाव असमारंभसच्चमणप्पओगपरिणए वा । जइ मोसमणप्पओगपरि - किं आरंभ मोसम ओगपरिणए वा, एवं जहा सच्चेया तहा मोसेण वि एवं सच्चामोसमणप्पओगेण वि । जt astrओगरिए किं सच्चवइप्पयोगपरिगए, मोस परिए ? | एवं जहा माध्यओगपरिणए तहा पयोगपरिगए जाव असमारंभवइप्पयोग परिगए वा । ज काय परिणए किं ओरालियसरीरकायप्पत्रोगरिए ओरालियमीसासरीरकाययोगपरिणए, वेतयसरी कायप्पगपरिणए वेडव्त्रियमी सासरीरकायप्पपरिए, आहारगसरीर कायप्पगपरिणए, आहारगमीसासरीरकायप्पगपरिगए, कम्मासरीरकायप्पओगपरिणए ? । गोयमा ! ओरालि यसरीरका यप्यश्रमपरिणए वा, Personal Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम अभिधानराजेन्डः। परिणाम जाव कम्मासरीरकायप्पभोगपरिणए वा। जड़ पोरालि बादरवाउकाइयगम्भवकतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियगम्भयसरीरकायप्पभोगपरिणए किं एगिदियभोरालियसरीर-1 वतियमणुस्साख य, एएसिं पज्जत्तापजत्तगाणं सेसाणं कायप्पभोगपरिणए, एवं जाव पंचिंदियभोरालिय जाव | अपजत्तगाणं । जइ बेउन्चियसरीरकायप्पोगपरिणए किं परिणए । गोयमा एगिदियोरालियसरीरकायप्पभोगप- एगिदियवेउब्वियसरीर० जाव परिणए, पचिंदियवेउन्धिरिणए वा, बेइंदिय० जाव परिणए वा, पंचिंदिय० जाब यसरीर० जाव परिणए । गोयमा! एगिदिय० जाव परिपरिणए वा। जइ एगिदियोरालियसरीरकायप्पभोगप गए वा, पचिंदिय० जाव परिणए वा । जइ एगिदिय रिणए किं पुढविकाइयएगिदिय जाव परिणए वा जाव व- जाव परिणए किं वाउकाइयएगिदिय० जाव परिणए, यस्सइकाइयएगिदियोरालियसरीरकायप्पभोगपरिणए। महवा गाउकाइयएगिदिय जाव परिणए । गोयमा वागोयमा ! पुढविकाइयरागिदिय० जाव पभोगपरिणए वा उकाइयएरागंदिय० जाच परिणए, नोवाउकाइय० जाव जाव वणस्सइकाइयएगिदिय०जाव परिणए वा । जइ परिणए । एवं एएणं अभिलाणं जहा भोगाहणासंठाणपुढविकाइयएग्गिदियोरालियसरीर० जाव परिणए किं वेउनियसरीरं भणियं तहा इह माणियन जाव पलसुहुमादविकाइय० जाव परिणए, बादरपुढविकाइयएगि- त्तासव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पातीयवमाणियदेवपंचिं-- दिय०जाव परिणए गोयमा मुहमपुढविकाइयागीदिय०। दियबेउब्वियसरीरकायप्पोगपरिणए वा, अपजत्तास- - जाव परिणए वा, बादरपुरविकाइय० जाव परिणए वा ।। ब्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय० जाव परिणए । जइ वेउब्बियजइ सुहुमपुढविकाइयजाव परिणए किं पजत्तसुहुमपुढवि- मीसासरीरकायप्पभोगपरिणए कि एगिदियमीसासरीरकाइय. जाव परिणए. अपजत्तसुहुमपुढीवकाइय० जाव जाव परिणए, जाव पंचिंदियमीसासरीर० जाव परिपरिणए । गोयमा ! पञ्जत्तासुकुमपुढविकाइय० जाव प- णए । एवं जहा वेउब्वियं तहा वेउब्धियमीसगं पि, णवरं रिणए वा, अपजत्तासुहुमपुढविकाइयजाव परिणए वा । देवनेरइयाणं अपज्जत्तगाणं सेसाणं पज्जत्तगाणं तहेव. एवं बादरा वि, एवं० जाव वणस्सइकाइयार्ण चउक्तभेदो, जाव नोपज्जत्तासम्वट्ठसिद्धअणुत्तरोवपाइय० जाव परिबेइंदियतेइंदियचउरिदिया दुयभो भेदो-पजत्तगा, अप गए, अपज्जत्तासम्बट्ठसिद्धअणुसरोववाइयदेवपंचिंदियअत्तगा य । जब पंचिंदियोरालियकायप्पयोगपरिणए। वेउब्बियमीसासरीरकायप्पोगपरिणए । जइ आहारगसकिं तिरिक्खजोणियपंचिंदियोरालियसरीरकायपोग- रीरकायप्पयोगपरिणए कि मणुस्साहारगसरीरकायप्पमोपरिणए. मणुस्सपंचिंदिय जाव परिणए । गोयमा ! ति: | गपरिणए, अमणुस्साहारग. जाव परिणए । एवं जहा रिक्खजोणिय० जाव परिणए वा, मणुस्सपचिंदिय जाव | ओगाहणसंठाणे०जाव इड्डिपत्तपमत्तसंजयसम्मट्टिीपज्जपरिणए वा । जइ तिरिक्खजोणिय० जाव परिणए किं तासंखेज्जवासाउय. जाव परिणए, नोप्रणड्डिपत्त. जलचरतिरिक्खजोणिय जाच परिणए, थलचरखहचर० जाव परिणए । जइ पाहारगमीसासरीरकायप्पभोगपरिजाव परिणए १ । एवं चउक्तभेदो० जाव खहयराणं । गए कि मणुस्साहारगमीसासरीर० जाव परिणए। एवं जइ मणुस्सपंचिंदिय० जाव परिणए किं सम्मुच्छिममणु- जहा आहारगं तहेव मीसगं पि निरवसेसं भाणियन्वं । स्सपंचिंदिय० जाव परिणए, गम्भवतियमणुस्स० जाव जइ कम्मासरीरकायप्पोमपरिणए किं एगिदियकम्मापरिणए । गोयमा ! दोसु वि । जइ गम्भववंतियमणुस्स | सरीरकायप्पयोगपरिणए जाव पंचिंदियकम्मासरीर०जाव •जाव परिसए कि पजतगगम्भवतिय जाव परिणए, | परिणए । गोयमा ! एगिदियकम्मासरीर जाव परिणए । अपञ्जतगगम्भवकृतिय० जाव परिणए । गोयमा ! पजस- एवं जहा प्रोगाहणसंठाणे कम्मगस्स मेदो तहेच इह वि गगम्भवक्कंतिय० जाव परिखए वा, अपजसमगम्भवकं. • जाव पज्जत्तासचडसिद्धमणुत्तरोववाइय. जाव देतिय . जाव परिणए वा । जइ पोरालियमीसासरीर- वपंचिंदियकम्मासरीरकायप्पभोगपरिणए वा, अपजत्तासकायप्पयोगपरिखए किं एगिदियोरालियमीसासरीरका- घट्टसिद्धप्रणुत्तरोववाइय० जाव परिणए वा। जइ मीसायप्पयोगपरिणए, बेइंदियनाव परिणए. जाव पाचंदि- परिणएकिं मणमीसापरिणए, वयमीसापरिणए, कायमीयमोरालिय० जाव परिणए । गोयमा! एगिदियोरा-1 सापरिणए । गोयमा ! मणमीसापरिणए वा, वयमीसापलिय० जाव परिणए । एवं जहा पोरालियसरीरकायप्पो -| रिणए वा,कायमीसापरिणए वा । जइ मणमीसापरिणए वा गपरिणएणं पालावगो मणिश्रो तहानोरालिबमीसासरी-| सिचमणमीसापरिणए बा, मोसमखमीसापरिषए का, रकायप्पभोगपरिणए वि मालावगो भासियो, नवर| जहा परोगपरिसर तहा मीसापरिस wiww.jainelibrary.org Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम अभिधानराजेन्दः । परिणाम निरवसेसं० जाव पजतासबद्दसिद्धअणुत्तरोववाइय० जाव करोति तयौदारिककाययोग एव वर्तमानः प्रदेशान्विक्षिप्य देवपंचिदियकम्मासरीरमीसापरिणए वा. अपजत्तासबह वैक्रियशरीरयोग्यान पुनलानुपादाय यावद्ध क्रियशरीरपर्या पत्या न पर्याप्ति गच्छति ताववैक्रियेणौदारिकशरीरस्य मिसिद्धअणुत्तरोववाइय० जाव कम्मासरीरमीसापरिणए वा। थताप्रारम्भकत्वेन तस्य प्रधानत्वादेवमाहारकेणाप्यौदाजइ वीससापरिणए कि वप्पपरिणए, गंधपरिणए, रसपरि- रिकशरीरस्य मिश्रता वेदितव्येति । (वेउब्वियसरीरका. गए, फासपरिणए, संठाणपरिणए । गोयमा वामपरिणए यप्पश्रोगपरिणए त्ति)। इह वैक्रियशरीरकायप्रयोगो वैफ्रिवा० जाव संठाणपरिणए चा । जइ वामपरिणए किं यपर्याप्तकस्येति ( वेउब्वियमीसासरीरकायपोगपरिणा त्ति)। इह वैक्रियमिश्रकशरीरकायप्रयोगो देवनारकेयूपकालवामपरिणए, नीलवाम. जाव सुकिल्लवम्मपरिणए । द्यमानस्यापर्याप्तकस्य, मिश्रता चह वैक्रियशरीरस्य कामगायमा ! कालवमपरिणए वा० जाव सुकिल्लवप्मपरिणए ऐनव, लब्धिवैक्रियपरित्यागे त्वौदारिकप्रवेशाद्धायामादारिषा । जइ गंधपरिणए कि सुभिगंधपरिणए, दुब्भिगंध- कोपादानाय प्रवृत्ते वैक्रियप्राधान्यादौदारिकेणापि वैक्रियस्य परिणए ?। गोयमा! सुब्भिगंधपरिणए वा,दुभिगंधपरिणए मिथतेति । ( श्राहारगसरीरकायप्पयोगपरिणए त्ति) वा। जइ रसपरिणए किं तित्तरसपरिणए पुच्छा। गोयमा ! इहाऽऽहारकशरीरकायप्रयोग आहारकशरीरनिवृत्ती सत्यां तदानीं तस्यैव प्रधानत्वात् । (श्राहारगमीसाशरीरकायप्पश्री. तिनरसपरिणए० जाव महुररसपरिणए वा । जइ फासप गपरिणए त्ति) इहाऽऽहारकमिश्रकशरीरकायप्रयोग आहारिणए किं कुक्खडफासपरिणए. जाव लुक्खफासपरिण- रकस्यौदारिकेण मिश्रतायां, सा च आहारकत्यागेनौदारिए?। गोयमा ! कक्खडफासपरिणए वा० जाव लुक्खफास- कग्रहणाभिमुखस्य । एतदुक्तं भवति-यदाहारकशरीरीभूत्वा परिणए वा । जइ संटाणपरिगए पुच्छा। गोयमा! परिमं कृतकार्यः पुनरप्यौदारिकं गृह्णाति तदाहारकस्य प्रधानत्वा. दौदारिकप्रवेशं प्रति व्यापारभावान् परित्यजति यावत्सर्वडलसंठाणपरिणए जाव आययसंठाणपरिणए वा।। थैवाऽऽहारकं तावदादारिकेण सह मिश्रतेति । ननु न तत्तेन ( एगेन्यादि ) ( मणपोगपरिणए नि ) मनस्तया प. सर्वथा मुकं पूर्वनिर्वर्तितं तिष्ठत्येव तत्कथं गृहाति? सत्य रिणतमित्यर्थः। (वयप्पभोगपरिणपत्ति ) भाषाद्रव्यं काय निति.तर तथाप्यौवारिक शरीरीपादानार्थ प्रवृत्त इति गृहायागेन गृहीत्वा वाग्योगेन निसृज्यमानं चापप्रयोगपरिणत त्यवन्युच्यत इति । (कम्मासरीरकापप्पोगपरिण ति) मित्युच्यते । (कायपोगपरिणपत्ति) । औदारिकाऽऽदिका. इह कार्मणशरीरकायप्रयोगो विग्रहे समुद्धातगतस्य च केवययागन गृहीतमौदारिकाऽऽदिवर्गणाद्रव्यमौदारिकाऽऽदि- लिनस्तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेपु भवति । उक्तं च-कार्मणशकायतया परिणतं कायप्रयोगपरिणतमित्युच्यते । (सच्चमणे- रीरयोगी,चतुर्थ पञ्चने तृतीय च" इति । एवं प्रज्ञापनाटीका. त्यादि ) सद्भूतार्थचिन्तननियन्धनस्य मनसः प्रयोगः सत्य अनुसारेणीदारिकशरीरकायप्रयोगाऽऽदीनां व्याख्याशतकमनःप्रयोग उच्यते । एवमन्येऽपि, नवरं मृषा असतोऽर्थः टीकाऽनुसारतः पुनर्मिश्रकायप्रयोगणामेवम् औदारिकमिश्र सत्यवृषामिश्रो. यथा पञ्चसु दारकेषु जातेषु दश दारका श्रीदारिक एवापरिपूरणों मिश्र उच्यते,यथा गुडमिधं दधि न आता इति असत्यमृपासत्यमृषास्वरूपमतिकान्तो यथा गुडतया नापि दधितया व्यपदिश्यते, तद् द्वाभ्यामपरिपूर्गदेहीत्यादि । (प्रारंभसच्चेत्यादि) प्रारम्भी जीवोपघातस्त त्वादेवमौदारिक मिश्रं कार्मणेन नौदारिकतया नापि कार्मद्विपयं सत्यमारम्भसत्वं तद्विषयो यो मनःप्रयोगस्तन परि णतया व्यपदेष्टुं शक्यमपरिपूर्णत्वादिति तस्यौदारिकमिधणतं यत्तत्तथा,एवमुत्तरतापि,नवरमनारम्भो जीवानुपघातः। व्यपदेशः। एवं वैक्रियाऽऽहारकमिश्रावपीति, नवरम् (वायर(सारंभ त्ति) संरम्भो वधसङ्कल्पः, समारम्भस्तु परिताप वाउकाइय इत्यादि ) यीदारिक शरीरकायप्रयोगपरिणत इति । (ोरालिरत्यादि ।। औदारिकशरीरमेव पुद्गलस्क. सूक्ष्मपृथिवीकायिकाऽऽदिप्रतीत्यालापकोऽधीतस्तथीदारन्धरूपत्वेनोपचीयमानत्वात् काय औदारिकशरीरकायस्तस्य कमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणतेऽपि वाच्यो नवरमयं विशः यः प्रयोग औदारिकशरीरस्य वा. यः कायप्रयोगः स तथा. तत्र सर्वेऽपि सूक्ष्मपृथिवीकायिकाऽऽदयः पर्याप्तापर्याप्तविशे. अयं च पर्याप्तकस्यैव वेदितव्यस्तेन यत्परिणतं तत्तथा । पणा अधीता इह तु बादरवायुकायिका गर्भजपञ्चेन्द्रिनिर्य(घोरालियमिस्सामरीरकायप्पोगपरिणए ति)। औदा ग्मनुष्याश्च पर्याप्त का पर्याप्तकविशेषणा अध्यतव्याः शंपास्व. रिकमुत्पत्तिकाले श्रसंपूर्ण सन् मिश्रं कार्मणनेति श्रादा पर्याप्त कविशाणा पव यतो बादरबाबुकायिकाऽऽदीनां पर्याप्त रिकमि, तदेचौदारकमिश्रक, तल्लक्षणं शरीरमौदारिक कावस्थायामपि वैकिया:रम्भणन औदारिकमिथा शरीरकावियकशरीरं, नदेव कायस्तस्य यः प्रयोग श्रीदारिकमिश्र यप्रयोगो लभ्यते, शपाणां पुनर पर्याप्तताऽयस्थाचामति । शरीरस्य या य कायप्रयोगः स औदारिकमिश्रकशरीर ( जहा योगाहणमंटाणे त्ति) प्रज्ञापनाया एकविंशतिनम कायप्रयोगम्तेन परिणतं यत्त तथा, अयं पुनरोदारिकामश पदे तत्र चैमिदं स्वप्-"जद चाउकाइवनिश्यिय उचि. कशरीरकायप्रयोगो पर्याप्तकस्यैव वेदितव्यो, यत अाह-"जीएण कम्मरणं, आहारई अणंतरं जीयो । हेग परं मीलेग, यसरकाय योगणिय किन म राउमाध्यागिदिय० जाव सरीरस्म निष्फत्ती ॥१॥" एवं तावत् कार्म-गनी जागा पहनार वापरयाउकालियापारणा। गीदारिकशरीरस्य मिथतीत्पत्तिमाश्रित्य तस्य प्रधानत्यान, यमा : नंगडम जाप परिमार. यामराव पारगार " । यदा पुनरौदारिकशरीरो बैंक्रिपलब्धि पम्पनो मनुष्यः प. इत्यादीनि । ( एवं जहा श्रीगाहामंठा नि) नाममदं वाद्रियतिर्यग्योनिकः, पर्यात सादरवायुकाधिको वा; वैक्तिय। मूत्रम् | मूत्रम्-" गायमा: नाबमासमा गसगरकाप्पा Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम (६०६) अन्निधानराजेन्डः। परिणाम गपरिणए मणुस्साहारगसरीरकायप्पश्रोगपरिणए इत्या- भंते ! दव्या किं पोगपरिणया, मीसापरिणया, वीससादि) ( एवं जहा योगाहण संठाणे कम्मगस्स भेो त्ति) परिणया। गोयमा ! पोगपरिणया, मीसापरिणया, वीसचायं भेद:--" वेदेयकम्मासरीरकायप्पोगपरिणए वा, ससापरिणया । अहदा-एगे पोगपरिणए, दो मीसापएवं तेइंदिपचउरिदिय० " इत्यादिरिति । अथ द्रव्यद्वयं चिन्तयन्नाह रिणया १। अहवा-एगे पयोगपरिणए, दो बीससापरिणया दा भंते ! दबा कि पोगपरिणया, मीसापरिणया. वी- २। अहवा-दो पोगपरिणया, एगे मीसापरिणए ३ । ससापरिणया। गोयमा ! पोगपरिणया वा, मासापरिण- अहवा-दो पयोगपरिणया, एगे वीससापरिणए ४ । अया वा, वीससापरिणया वा । अहवा-एगे पोगपरिणए,| हवा-एगे मीसापरिणए, दो वीससापरिणया ५। अहवाएगे मीसापरिणए। अहवा-एगे पोगपरिणए, एगे वीस- दो मीसापरिणया, एगे वीससापरिणए ६ । अहवा-एगे मापरिणए । अहवा एगे मीसापरिणए, एगे वीससापरि- पोगपरिणए, एगे मीसापरिणए, एगे वीससापणए । जइ पोगपरिणया कि मणप्पोगपरिणया, वय- रिणए । जइ पोगपरिणया किं मणप्पयोगपरिणया, प्पोगपरिणया, कायप्पयोगपरिणया। गोयमा! मणप्प- वयप्पोगपरिणया, कायप्पयोगपरिणया ? । गोयमा! श्रोगपरिणया वा, वयप्पोगपरिणया वा, कायप्पभोगपरि- मणप्पयोगपरिणया वि, एवं एक्कासंजोगो, दुय संजोगो, णया वा । अहवा-एगे मणप्पोगपरिणए, एगे वयप्प- तियसंजोगो य भाणियन्यो । जइ मणप्पयोगपरिणया किं श्रोगपरिणए । अहदा एगे मणप्पोगपरिणए, एगे| सच्चमणप्पोगपरिणया? गोयमा सचमणप्पयोगपरिणकायप्पयोगपरिणए वा। अहवा-एगे वयप्पोगपरि या जाव असच्चामोसमणप्पोगपरिणया वा । अहवाणए, एग कायप्पओगपरिणए । जइ मणप्पोगप- एगे सच्चमणप्पोगपरिणर, दो मोसमणप्पप्रोगपरिणया। रिणया किं सच्चमणप्पओगपरिणया. किं असञ्चमण- एवं दुयसंजोगो तियसंजोगो य भाणियब्यो एत्थ वितहेव० प्पोगपरिगणया, कि सच्चमोसमणप्पयोगपरिणया, किं जाव अहवा-एगे तंससंठाणपरिणए, एगे चउरंससंठाणपअसच्चामोसमणप्पभोगपरिणया ११ गोयमा ! सच्चमण- रिणए. एगे आययसंठाणपरिणए वा। चनारि भंते ! पोगपरिणया वा जाव असच्चामोसमणप्पयोगपरि दवा विपयोगपरिणया । गोयमा! पोगपरिणया वा, गया था । अहवा-एगे सच्चमणप्पोगपरिणए, एगे मोस- मीसापरिणया वा, वीससापरिणया वा । अहवा-एंगे मणप्पोगपरिणए । अहवा-एगे सच्चमणप्पोगपरिणए, पयोगपरिणए, तिमि बि मीसापरिणया । अहवा-एगेपएगे सच्चामोसमणप्पओगपरिणए । अहवा-एगे सचम- प्रोगपरिणए, तिमि वि वीससापरिणया । अहवा-दो णप्पओगपरिणए, एगे असच्चामोसमणप्पोगपरिणए । अ-| पयोगपरिमाया, दो मीसापरिणया । अहवा-दो पश्योगपहवा-एगे मोसमणप्पोमपरिणए, एगे सच्चापोसमणप-1 रिणया, दो वीसमापरिणया । अहवा-तिमि पोगपओगपरिणए । अहवा-एगे मोसमणप्पोगपरिणए, एगे अ. रिणया, एगे मीसापरिणए । अहवा-तिमि पोगपरिणया, सचापोसमणप्पोगपरिणए । अहवा एगे सच्चमोसमण- एगे वीससापरिणए । अहवा-एगे मीसापरिणए, तिमि वीपयोगपरिणए, एगे असञ्चामोसमणप्पोगपरिणए १० । ससापरिणया । अहवा-दो मीसापरिशया, दो वाससापजइ सच्चमणप्पयोगपरिणया कि आरंभसच्चमणप्पोग- रिणया । अहवा-तिथि मीसापरिणया, एगे वीससाप - परिणया० जाब असमारंभसञ्चमणप्पप्रोगपरिणया। रिणए । अहवा-पोपयोगपरिगए, एगे मीसापरिणए. दो गोयमा ! प्रारंभसच्चमणप्पोगपरिणया वा० जाब वीससापरिणया । अध्या-एगे पयोगपरिणए, दो मीसाअसमारंभसच्चमणप्पोगपरिणया वा । अहवा-एगे परिणया, एगे दीससापरिणए । अहवा-दो पोगपरिण. आरंभसच्चमणप्पओगपरिणए, एगे अणारंभसच्चमणप्पो या, एगे भीसापरिसाए, एगे वीससापरिणए। गपरिणए वा, एवं एएणं गमएणं दुयसंजोगो इह प्रयोगपरिणताःऽदिपदत्रये एकत्वं त्रयो विकल्पाः। द्वि कांगेऽपि त्रय एवेत्येवं षट् । एवं मनःप्रयोगाऽऽदित्रयेऽपि। नेयम्बो, सबै संजोगा जत्थ जत्तिया उद्दति ते भा सत्यमनःप्रयोगपरिणतादीनि तु चत्वारि पदानि, तेब्वेकत्वे णियबा. जाव सबट्ठसिद्धग त्ति । जइ मीसा प-| चत्वारः, द्विकोने नु पर, एवं सर्वेऽपि दश । प्रारम्भसरिणया कि मणमासापरिणया । एवं मीसापरिणया स्थमनःप्रयोगपरिणताऽऽदीनि च पद पदानि, सेवेकत्वे पद, वि। जइ वीससापरिणया किंवामपरिणया, मंधपरिस दिकयोगे तु पञ्चदश. सर्वेऽन्य कविंशतिः! सूबे च-(अद बगे प्रारंमलबमणपयोगवारेखर इत्यादि) नेह द्विकयोंगे या । एवं वीससापरिणया वि० जाव अहबा एगे चउरं प्रथम एव भङ्गको दर्शिशेगस्तदन्यपरसम्भवांचातिससंठाणपरिणए, एगे आययसंठाणपरिणए वा । तिमि । देशेन पुसदेर्शयतोकम्-(वं एएवं गमरणमित्यादि) एक Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम अभिधानराजेन्द्रः। परिणाम मेतेन गमेनाऽऽरम्भसत्यमनःप्रयोगाऽऽदिपदप्रदर्शितेन द्विक त्वे च शेषत्रयस्य चानेकत्वे एकत्वे च षट्, तथा तृतीयस्यैसंयोगेन नेतव्यं समस्तं द्रव्यत्रयसूत्रम्, द्विकसंयोगस्य चैक- कत्वेऽनेकत्वे च वयोश्चानेकत्वे एकत्वे च चत्वारः। तथा च.. स्वविकल्पाभिधानपूर्वकत्वादेकत्वैर्विकल्पैश्चेति दृश्यम् तनच तुर्थस्यैकत्वेऽनेकत्वे च पञ्चमस्य चानेकत्वे एकस्वे च द्वाषि यत्रारम्भसत्यमनःप्रयोगाऽऽदिपदसमूहे यावन्तो द्विकसंयो- त्येवं सर्वेऽपि विंशतित्रिकयोगे तु दश । तत्र च-"अहवा गा उत्तिष्ठन्ते सर्वे ते तत्र भणितव्याः। तत्रचाऽऽरम्भसत्यमन:- एगे तंससंठाणे" इत्यादिना त्रिकयोगानां दशमो दर्शित इति। प्रयोगादिषु प्रदर्शिता एव, आरम्भाऽऽदिपदषट्कविशेषितेषु अथ द्रव्यचतुष्कमाश्रित्याऽऽह -(चत्तारि भंते! इत्यदि) इह पुनरिस्थमेव त्रिषु मृषामनःप्रयोगाऽऽदिषु चतुर्यु च सत्यवा- च प्रयोगपरिणताऽऽदित्रये एकत्वे बयो.द्विकयोगे तु नव।ककप्रयोगाऽऽदिषु प्रत्येकमेकत्वे षट् षड् विकल्पाः.द्विकसंयोग थमांथस्यैकत्वे द्वयोश्च क्रमेण त्रित्वे द्वौ, तथाऽऽधस्य द्वित्वे तु पञ्चदशेत्येवं प्रत्येकमेव सर्वेष्वप्येकविंशतिरौदारिकशरी- द्वयोरपि क्रमेणैव द्वित्वेऽन्यौ द्वौ, तथाऽऽद्यस्य त्रित्वे द्वयोश्च रकायप्रयोगाऽऽदिषु तु सप्तसु पदेष्वेकत्वे सप्तद्विकयोगे त्वेक- क्रमेणैकत्वेऽन्यौ द्वौ. तथा द्वितीयस्यैकत्वेऽन्यस्य त्रिवे,तथा विंशतिरित्येवमष्टाविंशतिरित्येवमेकेन्द्रियाऽऽदिपृथिव्यादिप-| द्वयोरपि द्वित्वे तथा द्वितीयस्य त्रित्वेऽन्यस्य चैकत्वे प्रयोsदप्रभृतिभिः पूर्वोतक्रमेणौदारिकाऽदिकायप्रयोगपरिणतद्र- न्ये इत्येवं सर्वेऽपि नव । त्रययोगे तु प्रय एव भवन्तीत्येवं व्यद्वयं प्रपश्चनीयम्। कियद्दूरं यावदित्याह-(जाव सव्वट्ठसि- सर्वेऽपि पञ्चदशेति।"जद पोगपरिणया कि मणपोग" द्धग ति) एतश्चैवम्-"जइ सब्वट्टसिद्धअणुत्तरोववाइयक- । इत्यादिना चोक्तशेषं द्रव्यचतुष्कप्रकरणमुपलक्षितम्। तच पू. प्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियकम्मासरीरकायप्पश्रोगपरिण- ोक्तानुसारेण संस्थानसूत्रान्तमुचितभङ्गकोपेतं समस्तमया कि पज्जत्ता सव्वट्ठसिद्ध. जाव परिणया, अपजत्ता ध्येयमिति। सम्वट्ठसिद्ध जाव परिणया चा?। गोयमा! पज ना सव्व- (१०) अथ पञ्चाऽऽदिद्रव्यप्रकरणान्यतिदेशतो दर्शयन्नाहट्ठसिद्ध० जाव परिणया वा, अपजत्ता सबट्ठसिद्ध० जाव एवं एएणं कमेणं पंच छ सत्त० जाव दस संखज्ज अ. परिणया वा । अहवेगे पजत्ता सव्वट्ठसिद्ध० जाव परिणए. एगे अपज्जत्ता सव्वट्टसिद्ध० जाव परिणए त्ति।" ( एवं संखेज अणता दव्या भाणियव्वा । दुया संजोएण तिया बीससापरिणया वित्ति) एवमिति प्रयोगपरिणतद्रव्यद्व- संजोएणं. जाव दससंजोएणं वारससंजोएणं उवउंजिऊयवत्प्रत्येकविकल्पैळिकसंयोगैश्च विस्रसापरिणते अपि द्रव्ये णं जत्थ जइया संजोगा ते सव्वे भाणियव्वा । एए पुण वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानेषु पश्चाऽऽदिभेदेषु घाच्ये । कियद् जहा नवमसए पवेसणए भणिहामि तहा उवउंजिऊण दूरं यावदित्याह-(जाव अहवेगे इत्यादि ) अयं च पञ्च भाणियव्या. जाव असंखेज्जा अणंता एवं चेव, नवरं भेदसंस्थानस्य दशानां विकसंयोगानां दशम इति । श्रथ द्रव्यत्वयं चिन्तयन्नाह-(तिमीत्यादि) इह प्रयोगपरिणता- एक पदं अब्भहियं० जाव अहवा अणता परिमंडलसंठाऽऽदिपदत्रये एकत्वे त्रयो विकल्पाः , द्विकसंयोगे तु षट् । क- ण परिणया० जाव अणता आययसंठाणपरिणया। थमाद्यस्यैकत्वे शेषयोः क्रमेण द्वित्वे द्वौ, तथाऽऽद्यस्य द्वित्वे ( एवं एएणमित्यादि) एवं चाऽभिलापः--"पंच भंते ! दवा शेषयोः क्रमेणैकत्वेऽन्नौ द्वा. तथा द्वितीयस्यैकत्वे तृतीयस्य किं पोगपरिणया? गोयमा, पोगपरिणया वा ३ । अह. चद्वित्वेऽम्या,तथा द्वितीयस्य द्वित्वे तृतीयस्य चकत्वेऽन्यः, वा--पगे पश्रोगपरिणए,चत्तारि मीसापरिणया" इत्यादि । इह इत्येवं षट्, त्रिकयोगे त्वेक एवेत्येवं सर्वे दश । एवं म च द्विकसंयोगे विकल्पा द्वादश। कथम् ?-एकं चत्वारि च १। नःप्रयोगाऽऽदिपदत्रयेऽपि । अत एवाऽऽह-(एवमेकासंजोगो द्वे त्रीणि च रात्रीणि द्वे च ३॥ चत्वार्येकं चेत्येवं चत्वारो विइत्यादि ) सत्यमनःप्रयोगाऽऽदीनि तु चत्वारि पदानि कल्पा द्रव्यपञ्चकमाधिन्यैकत्र द्विकसंयोगे पदत्रयस्य त्रयो इत्यत एकत्ये चत्वारो, द्विकसंयोगे तु द्वादश, कथमाद्यस्थ- द्विकसंयोगाः। ते च चतुर्भिर्गुणिता द्वादशेति त्रिकयोगे तु कस्बेन शेवाणां त्रयाणां क्रमेणानेकत्वेन बयो लब्धाः, पु. षट् । कथम्-त्रीण्येकमेकं च १, एकं त्रीरयेकं च २, एकमेकं नरम्ये त्रय श्राद्यस्यानेकन्वेन शेषाणां क्रमेणवकत्वेन, तथा त्रीणि च ३. एकंच ४,द्वे एक द्वे च ५,एक द्वे चेत्येवं षट् । द्वितीयस्यैकत्वेन शेषयोः क्रमेणानकत्वेन द्वा.पुनातीयस्या- (जाव दस संजोएणं ति) इह यावत्करणाच्चतुष्काऽऽदिसं. नेकत्वेन शेषयोः शक्यैकत्येन द्वाव, तृतीयचतुर्थयोरेक- योगाः सूचिताः, तत्र च द्रव्यपञ्चकापेक्षया सत्यमनःप्रयोस्वानेकत्वाभ्यामेकः, पुनर्विपर्ययणक इत्येवं द्वादश । त्रिकयोगे गाऽऽदिषु चतुर्यु पदेषु दिकत्रिकचतुष्कसंयोगा भवन्ति । तु चत्वारः, इत्येवं सर्वेऽपि विंशतिरिति । सूत्रे तु कश्चिदुपद- तत्र च द्विकसंयोगाश्चतुर्विशतिः। कथम् ? चतुर्णा पदानां पट, श्य शेपानतिदेशत श्राह--(पवं यासंयोगी इत्यादि) (इस्थ- द्विक संयोगाः, तत्र चैकैकलिन् पूर्वोक्लकमेण चत्वारो विकवि तहेव त्ति) अत्रापि द्रव्यत्रयाधिकारे तथेत्र वाच्यं सूत्रं, ल्पाः, षमां च चतुर्भिर्गुणने चतुर्विंशतिरिति । त्रिकसयोगा राथा द्रव्यद्वयाधिकारे उनम् । तत्रच मनोवाकायमदती यः अपि चतुर्विशतिः कथम्? चतुर्मा पदानां त्रिकसंयोगाश्चत्याप्रयोगपरिणामो मिश्रतापरिणामो वाऽऽदिभेदतश्च विनसा र एकैकस्मिश्च पूर्वोक्नक्रमेण पडविकल्पाश्च। चतुर्णां च पड़परिणाम उक्तः स इहार्विवाच्य इति भावः। किमन्तं तत्सूत्रं भिर्गुणने चतुर्विशतिरिति ।चतुष्कसंयोगे तुचत्वारः कथम्?वाच्यमित्याह--(जावेत्यादि) इह च परिमण्डलाऽऽदीनि पश्च श्रादौ द्वे त्रिषु चैकैकं १, तथा द्वितीयस्थाने द्वे शेषेषु चै केपदानि,तेषु चैकत्वे पश्च विकल्याः द्विकसंयोगे तु विशतिः,क- कं २, तथा तृतीयस्थाने द्वे शेपेषु चैकैकं ३, तथा चतुर्थ थमाद्यस्यैकत्वे शेगणां च ऋमणानेकत्वे.तथा श्राद्यस्यानेक- द्वे शेषेषु चैकैकमित्येवं चत्वार इति । एकेन्द्रियाऽऽदिषु तु पत्वे,शेवगणां तु क्रमेणफत्वेऽौ। एवं द्वितीयस्यैकत्वे अनेक- अस पदेस द्विकनिकचतुष्कपश्वकसंयोगा भवन्ति तत्र च Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम अन्निधानराजेन्द्रः। परिणाम द्विकसंयोगाश्चत्वारिंशत् । कथम् ?-पञ्चानां पदानां दशद्विक- ब्बे ते णपत्थ आताए परिणमंति। हंता गोयमा! पासंयोगाः, एकैकस्मिश्च द्विकसंयोगे पूर्वोतक्रमेण चत्वारो वि हाइवाए० जाव सब्बे ते णपत्थ आताए परिणमंति । कल्पाः, दशानां च चतुर्भिर्गुणने चत्वारिंशदिति । त्रिकसंयो जीवे णं भंते ! गब्भ वक्कममाणे कश्यपणे, कहांधे। एवं गे तु षष्टिः । कथम् ?-पश्चानां पदानां दश त्रिकसंयोगाः, एकैकम्मिश्च विकसंयोगे पूर्वोतक्रमेण पडिकल्पाः, दशानां च जहा वारसमए पंचमुद्देसए० जाव कम्मश्रोणं जए णो अ-. षडभिर्गुणने पष्टिरिति । चतुष्कसंयोगास्तु विंशतिः। कथम्?. कम्मतो विभत्तिभावं परिणए । सवं भंते ! भंते ! त्ति । पञ्चानां पदानां तु चतुष्कसंयोगे पञ्च विकल्पाः, एकैकस्मिंश्च (अहेत्यादि ) (ण राणत्थ श्रायाए परिणमंति त्ति) नापूर्वोक्नक्रमेण चत्वारो भङ्गाः। पञ्चानां च चतुर्भिर्गुणने विंशति- न्यत्रात्मनः परिणमन्त्यात्मानं वर्जयित्वा नान्यत्रैते वर्तन्ते, रिति । पञ्चकसंयोगे त्वेक पवेति । एवं षट्राऽऽदिसंयोगा अ. आत्मपर्यायत्वादेषां पर्यायाणां च पर्यायिणा सह कथपि वाच्याः, नवरं षटूसंयोग प्रारम्भसत्यमनःप्रयोगाऽऽदि- श्चिदेकत्वादास्मरूपाः सर्व एवैते नाऽऽत्मनो भिन्नत्वेन परिणपदान्याश्रित्य सप्तक संयोगस्त्वौदारिकाऽऽदिकायप्रयोगमा मन्तीति भावः । अनम्नरं प्राणातिपाताऽऽदयो जीवधर्माश्रित्य । अएकसंयोगस्तु व्यन्तरभेदान्, नवकसंयोगस्तु ग्रैवे. श्चिन्तिताः। अथ कथञ्चित्तद्धा एव वर्णाऽऽदयश्चिन्त्यन्तेयकदेवभेदान् , दशकसंयोगस्तु भवनपतिभेदानाश्रित्य वैकि. ( जीवे णमित्यादि)। जीवो हि गर्ने उत्पद्यमानस्तैजसकायशरीरकायप्रयोगापेक्षया समवसेयः। एकादशसंयोगस्तु सू- र्मणशरीरसहित औदारिकशरीरग्रहणं करोति,शरीराणि च त्रे नोक्तः, पूर्वोक्तपदेषु तस्यासम्भवात् । द्वादशसंयोगस्तु वर्णादियुक्तानि । तदव्यतिरिक्रश्च कश्चिजीयोऽत उच्यतेकल्पोपपन्नदेवभेदानाश्रित्य वैक्रियशरीरकायप्रयोगापेक्षयैवे (कतिवरणमित्यादि) “एवं जहा" इत्यादिना चेदं सूचितम्ति । ( पवेसणय लि) नवमशतसत्कतृतीयोद्देशके गाङ्गेया- "कतिरसं कतिफासं परिणामं परिणमंति ? । गोयमा ! पंचभिधानानगारकृतनरका दिगतिप्रवेशनविचारे कियन्ति त- घराणं पंचरसं दुगंधं अटफासं च परिणाम परिणमंति।" दनुसारेण द्रव्याणि चाच्यानीत्याह-(जाव असंखज त्ति) | इत्यादि । व्याख्या चाऽऽस्य पूर्ववंदवेति । भ. २ श०३ उ०। असङ्ख्यातान्तनारकाऽऽदिवक्तव्यताऽऽश्रयं हि तत् सूत्रम् । “ उप्पज्जंति चयंति य, परिणमंति य गुणा न दव्याई ।" इह तु यो विशेषस्तमाह । अणं ता इत्यादि) एतदेवाभिला श्रा०चू.१०। परिणमनं परिणामः । णिजन्ताद् घनपतो दर्शयन्नाह-(जाव अणंतत्यादि) प्रत्ययः । परिणामाऽऽपादने, क०प्र०१ प्रक० । कर्म० । 'कअर्थतेपामेवाऽल्पबहुत्वं चिन्तयन्नाह वोयपरिणामे ।' कपोतस्येव परिणाम श्राहारपाको यस्य एएसिणं भंते ! पागलाणं पोगपरिणयाणं मीसा. स तथा । कपोतस्य हि पाषाणलवानपि जठराग्निर्जरयति केवल श्रुतिः । औ० । "दोहे ठाणे हिं पाया परिणामेहपरिणयाणं वीससापरिणयाणय कयरे कयरोहतो. जाव देसेण वि सम्वेण वि।" परिणमयति परिणाम नयति खविसेसाहिया वा । गोयमा! सवत्थोवा पोग्गला पोग- लरसविभागेन भक्ताऽश्रयदेशस्य प्लीहाऽऽदिना रुद्धत्वात् परिणता मीसापरिणता अणंतगुणा वीससापरिणता अ- देशतः, अन्यथा सर्वतः । स्था०२ ठा०२ उ। तगुणा । सेवं भंते ! भंते ! त्ति । (११) जीवोऽकर्मतो विभक्तिभावं परिणमति(एएसि णमित्यादि) ( सवयोवा पोग्गला पोगपरि कम्मयोणं भंते! जीवोणो अकम्मयो विभत्तिभावं परिणय ति) कायाऽऽदिरूपतया जीवपुद्गल सम्बन्धकालस्य णमइ, कम्मोण जए णो अकम्पओ विभत्तिभावं परिणस्तोकत्वात् । (मीसपरिणया अणंतगुण त्ति) कायाऽऽदिन- मइ। हंता गोयमा! कम्मो णं तं चेव०जाव परिणमइ, योगपरिणतेभ्यः सकाशान्मिश्रकपरिणता अनन्तगुणाः। यतः णो अकम्मयो विभत्तिभावं परिणमइ,सेवं भंते ! भंते !त्ति । प्रयोगकृतमाकारमपरित्यजन्तो विम्रसयाये परिणामान्तरमु कर्मतः सकाशात् , नो अकर्मतः न कर्माणि विना जीवो पागता मुक्तकलेवराद्यवयवरूपास्तेऽनन्ताः । विनसाप विभक्तिभावं विभागरूपं नारकतिर्यग्मनुष्यामरभवेषु नाना. रिणतास्तु तेभ्योऽप्यनन्तगुणाः, परमारवादीनां जीवग्रहण रूपं परिणाममित्यर्थः। परिणमति गच्छाते । तथा-(कम्मप्रायोग्याणामध्यनन्तानन्तत्वादिति । भ०८ श० १ उ.।। श्री णं जर न्ति) गच्छति ताँस्तानारकाऽऽदिभावानिति जअह भंते ! पाणाइवाए. मुसाबाए० जाव भिच्छादसण - गत् जीवसमूहो जीवद्रव्यस्यैव वा विशेषो जङ्गमाभिधानः, सल्ले पाणाइवायवेरमणे. जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे "जगन्ति जङ्गमान्याहुः।" इति वचनादिति। भ०१२श०५ उ० उप्पत्तिया० जाव पारिणामिया उग्गहे. जाव धारणा (द्रव्याणांशीतोष्णपरिणामः 'परिट्रवणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५७३ पृष्ठे उदकसंसृष्टाहारपरिष्ठापनाप्रस्ताचे प्रतिपादिउहाणे कम्मे बले बारिए पुरिसकारपरकमे णेरइयत्ते असु. तः) (निर्ग्रन्थानां परिणामद्वारम् ‘णिगांथ ' शब्दे चतुरकुमारते. जाव वेमाणिपत्ते पाणावरणिज्जे जाव अंत- र्थभागे २०४० पृष्ठे गतम् ) ( संयतानां च परिणामद्वातराइए करहलेस्सा० जाव सुक्कलेम्सा सम्मादट्ठीए ३ । रम् ‘संजय' शय्दे वक्ष्यते) (मूलप्रकृतेर्महदादिक्रमेण परिचक्खुदंसणे ४। आभिणियोहियणाणे. जाव विभंग णामः 'संख'शब्दे परीक्षिष्यते) स्वभावे , परिणामः पर्या यः स्वभावो धर्म इति यावत् । स्था०६ ठा० । अध्यवसाने, णाणे आहारसम्पाए ४ । ओरालियसरीरे ५। मणजोगे ३। स.११ अङ्ग । क० प्र० । पश्चा० । अध्यवसायविशेष, विशे०। सागारोवोगे अग्णागारोवयोगे, जे यावा तहप्पगारा स- । भावे, व्य०६उ । चित्तभावे द्वा०७द्वा०। Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम अभिधानराजेन्धः। परिणाम (१२) परिणामानुसारेण कर्मबन्धः यइ त्ति) कर्मक्षपणाद्यतः। (असढं ति) सम्यगवानसंपन्नः अज्झत्थविसोहीए. जीवनिकाएहि संथडे लोए । (अहिंसत्थमुट्टिो त्ति ) अहिंसायामुत्थितः अभ्युद्यतः. कि देसियमहिंसयत्तं, जिणेहि तेलुक्कदंसीहिं ।। ७० ॥ तु सहसा प्रयत्नं कुर्वतोऽपि प्राणिबधः संजातः: स चवं विधोऽवधकः, शुद्धभावत्वात्।। नान्वदमुक्तमेव यदुताध्यात्मविशुद्धया सत्यप्युपकरणे निप्रेन्थाः साधवः। किं च-यद्यध्यात्मविशुद्धिनिष्पद्यते ततः तस्स असंचेअययो, संचेअयो य जाइँ राना। (जीवनिकापहि संथडे लोए त्ति) जीवनिकायैः जीवसं- __ जोगं पप्प विणस्सं-ति नत्थि हिंसाफलं तस्स ।। ७४ ।। घातैरयं लोकः संसृतो वर्तते ! ततश्च जीवनिकायैः संसृते | तस्यैवप्रकारस्य शानिनः कर्मक्षयार्थमभ्युद्यतस्य असंचेत व्याप्ते लोके कयं नग्नकश्चक्रमन् वधको न भवति यद्य- यतोऽजातानस्य, कि?, सच्चानि, कथमाप ?, प्रयत्नवतापि ध्यात्मशुद्धिनिष्ठयते तस्मादध्यात्मविशुद्धया देशितमहिंस- न हटा,प्राणी व्यापादितश्च तथा संचयतो जानानस्य कथम्?, कत्वं जिनैखैलोक्पदर्शिभिरिति । अस्त्यत्र प्राणी ज्ञातो दृष्टश्च, न च प्रयत्नं कुर्वताप रक्षितुं पा. _____कप्रदर्शितं तदित्यत आह रितः, ततश्च तस्यैवंविधस्य यानि सवानि योगं कायऽदिउच्चालियम्मि पाए, इरियासमियस्स संकगाए। प्राप्य विनश्यन्ति तस्य साधोः हिंसाफलसापरायिकसंसार जननं, दुःखजननमित्यर्थः । यदि परमीर्याप्रत्ययं कर्म भवति वावेजेज कुलिंगी, मरिजत जोगमासज्ज ।। ७१ ॥ तच एकस्मिन् समये बद्धमन्यस्मिन् समये क्षपयति । उच्चालिते उत्पाटिते पादे सति ईर्यासमितस्य साधाःसंक्रमार्थम् उत्पाटिते पादे इत्यत्र संबन्धः। व्यापद्येत संघटनाऽऽदिना जो य पमत्तो पुरिसो, ता य जोगं पडुच्च जे सत्ता । परिताप्येत । कः?,कुलिङ्गी कुत्सितानि लिङ्गानि इन्द्रियाणि य- वावजंते नियमा, तसिं सो हिंसओ होइ ।। ७५ ।। स्याऽसौ कुलिङ्गी द्वीन्द्रियादिस परिताप्येत । उत्साटितपादे यश्च प्रमत्तः पुरुषः तस्यैवंविधस्य संबन्धिनं योग कायाऽऽ. सति नियेत वासी कुलिङ्गी तापादनयोगमासाथ प्राप्य । दिकं प्रतीत्य प्राप्य ये सत्वा व्यापाद्यास्तेषां सम्यामां नियन य तस्स तन्निमितो, वंधो सुहुमो वि देसियो समए । मादवश्यं स पुरुषः हिंसको भवति, तस्मात्धभत्तभाजिता. अणवजो उपयोगे ण सबभावेण सो जयउ ।। ७२ ।। नि कर्मबन्धकारणानि । न तस्य तन्निमित्तो बन्धः सूदोऽपि देशितः समये लि. जे वि न वावज्जती, नियमा तेसिं पि हिंसनो सो उ। द्वान्त ?, कि कारणं, यतः अनवद्योऽसौ साधुस्तेन व्यापा- सावजो उवयोग-ण सब्वभावेण सो जन्हा ।। ७६ ॥ दनव्यापारण, कथम्?, सर्वभावेन सर्वात्मना मनोवाकाय- येऽपि सम्वा न व्यापाद्यन्ते तेपामप्यता नियमात् हिंसको कर्मभिरनवद्योऽला यस्मात् न सूपोऽपि तस्य बन्ध इति । भवति। कथं? (सायजी उचांगन) सह अययेन वर्नते इति किंच सावद्यः, सपाप इत्यर्थः। ततश्च सायद्यो यतः प्रयोग कार्यापाणी कम्मरस खय-मुहिनो नो ठिमओ उ हिंसाए । दिना सर्यभावेन सर्वेः कायवाङ्मनोभिरतः अब्यापादयन्नपि जयइ असहं अहिंस-त्यमुहिरो अबहओ सो उ॥७३॥ व्यापादकः स एवाऽसौ पुरुषः, सपापयोगत्वादिति । यतश्चैवमतःशानमस्यास्तीति ज्ञानी, सम्यम्झानेन युक्त इत्यर्थः। कर्मणः आया चेव अहिंसा, आया हिंसति निच्छो एसो । क्षयार्थ चोस्थित उद्यत इत्यर्थः तथा हिंसाय न स्थितः । प्रागिव्यपरोपणे न व्यवस्थित इत्यर्थः । तथा जयति कर्मक्षव जो होइ अप्पमत्तो, अहिंसओ हिंसओ इयरी ।। ७७ ।। ण प्रयत्नं करोतीत्यर्थः । ( असलं ति) शउभावरहितो यवं श्रात्मवाहिंसा, श्रात्तव हियति इत्ययं निश्चयः, परमार्थ इत्यकरोति, न मिथ्याभावन, सम्यग्ज्ञानयुक्त इत्यर्थः। तथा-(अ- र्थः। कथं चाऽसौ अहिंसकः, कथं वा हिंसकः?. इत्यत श्राहदिसत्थमुट्ठिय ति) अहिंसार्थमुत्थितः उद्युक्तः, किं तु सह (जो होह अप्पमत्तो त्ति) यो भवति अप्रमत्तः, प्रयत्नवानिसा कथमपि, प्रयतं कुर्वतोऽपि प्राणिवधः सातः। स त्यर्थः। स खल्यविधः अहिंसको भवति (हिंसी इयग पवंविधः अवधक एव साधुरिति । तत्राजवा गाथया भ त्ति) इतरः प्रमत्तो यः स हिंसको भवनीत्ययं परमार्थ इकाटी सूविताःतियथा "नाणी कम्मरस खबटुं उहियो, ति । अथवा-नयाभिप्रायणेयं गाथा व्याख्यायने नती नेहिसाए य ण विठियोनाणी कम्मरस बटुं उहिनाहिसार गमस्य जीवेषु अजीवेषु च हिंसा, तथा च वतारी लोक ४य ठिी २ । नाणी कम्पस खयटुं नो ठिो. हिसार एा यतो जीवोऽनेन हिसिनो विनाशितः ततश्च हिंसा शपुण पगत्तो वि न ठिो, देवगण कहवि तप्पएसे पा- ब्दानुगगाजीवेष्यविषु च हिंसा नैगमस्य, अहिंसाऽप्येवमिणो नासी।एजना असहाय ३ यत्र नाणी कम्यम्स | मेवति। मंत्रव्यवहारयोः पत्रु जीवनिकायेषु हिंसा: संग्रसाप ना टिका, हिसार यदि "तथा-" अनागी" हश्चाम देशमाही द्रष्टव्यः,सामान्यरूपश्च नगमान्तर्भावी । व्य. मिथ्याशान युरू इत्यर्थः । "कम्मरस खयमुद्धिी, हिसाए वहार स्थलबिशेषनाही. लोकव्यवहागालचा यम नथा न ठिा५ । अवाणी कम्नस्तखय, उहिया, हिसार य टि- चलेका बाहुल्येन पटवय जीवनिकायमापिच्छति। ।। प्राणी कम्पक्वा नो डिग्री. हिंसार य न टिश्रो ऋजमनश्च प्रत्यकंरजीवदिनाव्यनितिन शाम ७। अनाणी कामकवयटुं नी डिग्री, हिंसाए य ठिी ८।। मभिरुढ पयंभृगनयाश्चाऽमव श्रमिन, एतदभिप्रायएस अट्ठमो।" नत्र गाथाश्यनाईन शुद्धः प्रथमो भाकः रणवाड-"आया बय चाहिना इत्याशिामा अहिला हु. कथितः, पश्चाद्धेन च प्रिटीयो भङ्गका कथितः। कर्थ?-(ज- त्या निश्चयनवामित्रायः । कुना?-या भान असमता जीव Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम अभिधानराजेन्धः । परिणाम स खल्वहिंसका, इतरश्च प्रमत्तः, ततश्च स एव हिंसको भव- भवति-एकस्मिन्समय बद्धं कर्म अस्मिन्समय क्षपयति ति, तस्मात् प्रात्मैव अहिंसा, प्रात्मैव हिंसा, अयं निश्चयः इति । किंविधस्य ?, अध्यात्मविशोधियुक्तस्य. विशुद्धभावस्य परमार्थ इति । इत्यर्थः। इदानी प्रकारान्तरेण तथाविधविशेषात् हिंसाधिशेष प्रति किं चपादयन्नाह परमरहस्समिसीणं, समग्गगणिपिडगझरियसाराणं । जो य पोगं जुजा, हिंसत्थं जो प्रभावो। परिणामियं पमाण, निच्छयमवर्लरमाणाणं ।। ८३ ॥ अमणो य जो पंजइ, एत्थ विसेसो महं बुचो ।।७।। परमं प्रधानमिदं रहस्यं तवं,केपाम्,ऋषीणां सुविदिनानां. यश्च जीवः प्रयोग मनोवाकायकर्मभिः हिंसार्थ युनक्ति प्रयु. समग्रं च तत् गणिपिटकं च समनगग्गिपिटकं तसा क्षारतः जीत,यश्चान्यभावेन । रतदुक्तं भवति-लायविधनार्थ कार पतितः सारः प्राधान्यं पैस्ते समग्रमणिगिरकक्षरितसाराक्षिप्तं, यावता अन्यस्य मृगाऽश्वेर्लग्नं, ततश्चान्यभावेन यः स्सेषामिदं रहस्यं यदुत परिणामिकं प्रमाणं-परिणाम भवं प्रयोगं प्रयुक्ने, तस्मादनन्तरोक्लात् पुरुषविशेषात् महान्वि परिणामिक, शुद्धोऽशुद्धश्च परिणान इत्यर्थः । विविशिषा मां सतां परिणामिकं प्रमाण?.निश्वयनयमवलम्बमानाना, शेषः। तथा श्रमनस्कः मनरहितः.सर मूर्च्छत् इत्यर्थः। स यतः शब्दाऽऽदिनिश्चयनयानाविभव दर्शनं यदुत जराचायम्-प्रायोग्यं कायाऽऽदिकं प्रयुक्तम्, अत्र विशेषो महा मिकमिच्छन्ति। नुक्तः । एतदुक्तं भवति-यो जीवः मनोवाकायकर्मभिः हिं आह-यद्ययं निश्चयस्तोऽयमंयालम्न .. किमान १ सार्थ प्रयोगं प्रयुक्त तस्य महान्कर्मबन्धो भवति, य उच्यतेश्वान्यभावन प्रयुक्त तस्याल्पतरः कर्मबन्धः, यश्चामन निच्छयमवलंबंता, निच्छयो निच्छग अयानंता । स्कः प्रयोगं प्रयुके तस्याल्पतरतमः कर्मबन्धः, ततश्चाप्र विशेशे महान् वप इति। नासति चरणकरणं, बाहिरकरणालसा कोई ॥ एतदेव व्याख्यानयन्नाह निश्चयमवलम्बमानाः पुरुषाः निश्चयनः परमार्थ नि: हिंसत्यं जुजतो, सुमहं दोसो अणंतरं इयरो । यमजानानाः सन्तः नाशयन्ति चरणकरणं । कर ? हा करणालसा वाह्यं वैयावृत्याऽऽदिकरणं नत्र अलसाः : परम अमणो य अप्पदोसो, जोगनिमित्तं च विबेओ ॥७॥ रहिताः सन्तः चरणकरणं नाशयन्ति कंचन इदं चाङ्गीकर. हिंसार्थ प्रयोग पुञ्जतः सुमहान् दोषो भवति, इतरम स्ति-यदुत परिशुद्धः परिणाम एव प्रधानो.न तु बाह्यांऋयारयोऽन्यभावेन प्रयुक्त तस्य मन्दतरो दोषो भवति, अल्पत. | हितः पतधानाङ्गीकर्तव्यम्. परिणाम एव बाह्यक्रियारहितः र इत्यर्थः । तथा अमनस्कश्च सन्मूर्छनः प्रयोगं युञ्जन् अ-1 शुखो भवति, ततश्च निश्चयव्यवहारमतम् उभयस्वरूपरुपतरतमो दोषो भवति,प्रती योगनिमित्तं जोगकरणिका क मेघाङ्गीकर्तव्यमिति । उक्तमुपधिद्वारम् । र्मबन्धी विधेय इति। इदानीमायतनद्वारब्याचिख्यासया संबन्धं प्रतिपादयन्नाहरत्तो वा दुट्ठो वा, मूढो वा जं पउंजइ पभोग ।। एवमिण उवगरणं, धारमाणो विहीसु परिसुदो। हिंसा वि तत्थ जायइ, तम्हा सो हिंसो चेव ॥८॥ हवइ गुणाणाययणं, अविहियसुद्धे अणाययणं ॥५॥ रक्त आहाराऽऽद्यर्थ सिंहाऽऽदि द्विष्टः सोऽदि मूढो वेदि. एवमुक्नन्यायन उपकरणं धारयन् विधिना परिशुद्धः दोष. कादिय एवंविधा रतो वा द्विष्टो वा मूढो वा यः प्रयोग का | वर्जितं, किं भवति ?-गुणानामायतनं भवति । अथ पूर्वोक्तर्यादिकं प्रयुक्ते तत्र हिंसाऽपि जायते, अपिशब्दादनृता. विपरीतं क्रियते-यदुत अविधिना धारयति, अविशुद्धं तदुपदिवा जायते। अथवा हिंसाऽप्येवं रक्काऽऽदिभावेन उपजा- करणं, ततः प्रविधिना अशुद्धं ध्रियमाणं तदेवोपकरणमा यतेन तु हिंसामात्रेणेति वएटति तस्मात्स हिंसको भवति। नायतनमस्थानं भवतीति । ओघाल। द्वाः । श्रा०। ५०। यो रक्ताऽऽदिभावयुक्तः। इह न च हिंसयैव हिंसको भवति। दर्श० श्रा० म० । प्रतिः । पञ्चा० । परिणामश्चाऽऽकारबोधतथा चाऽऽह क्रियाभेदात्रिधा । ( अत्र पुरुषजातसूत्राणि, 'पुरिसजाय ' न य हिंसामित्तेणं, सावज्जेणा वि हिंसमो होइ । शब्दे) (अभिनिर्वगडायां वसती शुभोऽशुभी या भाव उसुद्धस्स उ संपत्ती, अफला भणिया जिणवरहिं ।।८।। पजायते इति 'वसहि 'शब्दे वक्ष्यते) थंभा कोहा अणा. न च हिंसामात्रेण सावधेनापि हिंसको भवति, कुतः?-शु. भोगा, अणापुच्छा असंतई ! परिणामाउ असुद्धो, भावी तम्हा विउ पमाणं ॥ ३५ ॥ (पच्चक्खाण' शब्देऽस्मिबस्य पुरुषस्थ कर्मसंप्राप्तिरफला भणिता जिनवरैरिति । भेव भागे १०२ पृष्ठे व्याख्याता) ऐहिकाऽऽमुष्मिकाऽऽशंकिं च सायाम् , सूत्र.१श्रु०८०। जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स । विषयसूचीसा होई निज्जरफला, अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स ।। ८२॥ (१) जीवाऽजीवपरिणामाः। या विराधना यतमानस्य भवेत्, किंविशिष्टस्य सतः? सूत्र- (२) गतिपरिणामः। विधिना समग्रम्य युक्तम्म, गीतार्थस्य इत्यर्थः। तस्यैवंविध. (३) अजीवपरिणामः । स्य या भवति विराधना सा निर्जराफला भवति । एतदुक्तं । (४) स्कन्धाः पुद्गलाच परिणामवन्तः । Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम ( ५ ) पुद्गलपरिणामः । (६) वर्णगन्धरसस्पर्श संस्थानपरिणताः पुत्राः । (७) वर्णादीनां परस्पर संबंध (८) अतीन्द्रियविषयः पुलपरिणामः । ( १ ) प्रयोग - मिश्र - विश्वसा - परिणताः पुद्गलाः । (१०) पञ्चादिद्रव्यप्रकरणानि । (११) जीवोऽकर्म विभक्तिभावं परिणमति । (१२) परिणामानुसारेण कर्मबन्धः । परिणामकड - परिणामकृत- न० । दध्यादिकृतपरिणामे, श्र घ० १ श्र० । परिणामग- परिणामक - पुं० । यथास्थानमपवादपदपरिणमनशीले. वृ० । परिणामस्वरूपम् । अथ भावतः परिणामकातिपरिणामst व्याख्याविति चेतसि व्यवस्थाप्य सूरिरिमां निर्युक्ति ( ६१४ ) अभिधान राजेन्द्रः गाथामाह परिणामे परिणाम परूवणा पडिसेह चरिमदुगे । ऊंचाई दितो, कसा प हमेहि ठाणेहिं । ८०१ || परिणामकातिपरिणामकानां प्ररूपणा कर्त्तव्या प्रतिषेधश्वरमाईकस्यापरिणामकस्य युगलस्य कर्त्तव्यः । श्रनयोश्छेदश्रुतं न दातव्यमिति भावः । एषां च त्रयाणामपि परिक्षार्थ मात्रादिदृष्टान्तो वक्रयः । दिशापरिग्रहः । तया च परीक्षा तेषामभिप्राये गृहीते सति कथना प्रतिव पनमेभिर्वत्रयमाणैः स्थानिः प्रकारैराचार्येण कर्तव्येति । अथैनामेव गाथायां पति जो दव्वखित्तकयका - लभाव जं जहा जिक्खायं । वं तह सद्दहमाणं, जाण परिणाम साधुं ।। ८०२ ।। अत्र लाडमध्यप्रणम्यायेन कृतराष्ट्र मध्येऽभिहितोSपि सर्वत्रापि संबध्यते । यः कश्चित् द्रव्यकृतं क्षेत्रकृतं कालकृतं भावकृतं द्रव्याऽऽदिभिः भेदैः सूत्रे विहितमित्यर्थः । यद्वस्तुवधा वेनोत्सर्गापवादरूपेण प्रकारेण जिनैराख्यातं तत्तथा श्रद्दधाति तमेवं अदधानं रोचयन्तं जानीहि परिणाम सा धुम् । इयमत्र भावना - द्रव्यतः सचित्ताचित्तमिश्राणि द्रव्याखिवाह कार्य करना तो नियाजनपदे वा यद्यथाऽध्वकल्पादिकमाचरणीयं, कालतो दुर्भिक्ष सुभिक्षा: ऽदौ यो यादृशः कल्पः, भावतो ग्लानाऽऽदिष्वागाढानागा२ऽऽदिको या विधिस्तदेवं सर्वमपि श्रद्धानो यथाऽवसरे शुञ्जानश्च परिणामको ज्ञातव्यः । वृ० १ ० १ प्रक० । पं० व । व्य० । नि० चू० । ( श्रस्य सदृष्टान्तप्ररूपणा ' अपरिसामग ' शब्दे प्रथमभागे ४ पृष्ठे गता ) परिणामओं में मणिर्य, जिखेहि अह कारणं न जाणामि । दिते परिणामेण परिवाडी उक्कमकमाणं ॥ ७० ॥ अथ यदुकं जिनैः परिणामतः संसारिणामिन्द्रियविभागस्तन कारणं न जानामि । एवं तेनीक्रेन दान्तेन परिणामम धिकृत्य कचित्कमपरिपाटी कचित्क्रमपरिपाटी वक्रप्या । एतदेव सविस्तरं भावयति चरिएण कप्पिए व दितेय व तहात अत्यं । 1 परिणामग वह जहा णु परो, पत्तियइ अजोग्गरूवमवि ॥ ७१ ॥ चरितेन कल्पितेन वा दृष्टान्तेन तथा तं विवक्षितमर्थमुपनयति । यथा परः अयोग्यरूपमपि प्रत्येति । दिता परिणामे, कहिज्जते उकमेण वि कयाइ । जह ऊ एगिंदणं. वणस्सई कत्थई पुब्वं ।। ७२ ।। दृष्टान्तात्परिणामयतीति परिणामस्तस्मिन् रान्तपरिया मके इत्यर्थः कदाचि बोधोत्पादानुगुयेन उत्क्रमेणापि कथ्यते, यथा शस्त्र परिशायामेकेन्द्रियाणां जीवत्वप्रसाधन विधी पूर्व प्रथमोदेशके वनस्पतिः कथ्यते, अन्तिमे चोराके वायुकायिका । तत्र प्रथम उत्क्रमेण वनस्पतीनां जीयत्वस्यापनार्थमाहपत्तंति पुप्फंति फलं वदंती, कालं विवाति तहिंदियत्थे । जातीय बुद्धी य जरा य जेसिं, कहं न जीवा उ भवेति ते ऊ १ ।। ७३ ।। ये पत्रयन्ति पत्राणि मुञ्चन्ति पुष्पभाजो भवन्ति पुर्ण व बदति, कालं च तत्र पत्रपुष्पफलनिमित्तं जानन्ति इन्द्रियार्थीगीतादीन ये विजानन्ति बकुलादीनां तथा दर्शनात् । तथा तेषां जातिर्बुद्धिर्जरा च ते कथं न जीवा भवन्ति भ यस्यैवेति भावः पुरुषाऽऽदिधर्माणां सर्वेषामपि तत्रोपल भ्यमानत्वात् । प्रयोग वनस्पतयो जीया जातिजरात्या मनुष्ययत् । जाहे ते सदहिया, ताहें कहिअंति पुदविकाईया | जह वा पेलगलोणा, उबलगिरीणं च परिबुट्टी ॥७४॥ यदा ते वनस्पतयो जीवत्वेन श्रद्धिता भवन्ति, तदा पृथि वीकाविका जीवाः कथ्यन्ते (?) प्रचोलाऽऽदिषु परिवृद्धिदर्शनात् । कललंडरसाऽऽदीया, जह जीव तहेव आउजीवा वि । जोइंगल जह जीवो, हवई तह तेजीवा वि ।। ७५ । यथा कल गर्भप्रथमावस्थारूपमण्डरस इत्येवमादयो जीवास्तथैवाष्कायजीवा अपि प्रतिपत्तव्याः । प्रयोगः श्रकायिका जीवाः अनुपहतत्वे सति त्वात् फललाएडरसाऽऽदिय त् तथा । यथा ज्योतिरिङ्गणो जीवस्तथा तेजस्कायिकाः अपि । प्रयोगस्त्वेवम्-तेजस्कायिका जीवाः स्वभावात् श्रा काशे गमनात् ज्योति ज्योतिरिङ्गणः वयोतकः । यथा वा ज्वारते ऊष्मेति सजीवस्तथा तेजोजीवा श्रपि । प्रयोगभावनात्वेवम्- तेजस्कायिका जीवाः श्रसूर्यकिरणत्वे सत्यूष्मधर्मोपेतत्वात् । जह सहिते तेऊ, वाऊ जीवा तहा य सीसंति । सत्यपरिमाण विय, उकमकरणं तु एगट्ठा ॥ ७६ ॥ , यदा तेजस्कायिकान् जीवत्वेन श्रद्दधाति तदा तस्य वायवो जीवाः शिष्यन्ते, तथा वायवो जीवा परमेरितत्वे सति तिर्यग्गतिगमनात् गवादिवत् शखपरिक्षायामयुत्क्रमकरणं पूर्ववनस्पत्युद्देशस्यान्ते वायुकाथिकोद्देशस्थ करणमित्यर्थः । व्य० १० उ० । , Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणामहाण अभिधानराजेन्द्रः। परिणामिय परिणामवाण-परिणामस्थान-न । अध्यवसाने, "संजमट्टाणं उक्कावाया दिसादाहा गजियं विज्ज़ णिग्घाया जूवया ति वा भवसाणंतिया परिणामट्ठाणं ति था एगहूं." नि.] जक्खादित्ता धृमिया महिआ रयुग्घाया चंदोवरागा सूरोचू• २० उ०। वसमा चंदपरिवेसा सूरपरिवेसा पडिचंदा पलिमूरा इंदपरिणामणया-खी। परिणामन-न०। परिणत्युत्पादने, प्रशा० धणू उदगमच्छा कविहसिआ अमोहा वासा वासधरा ३४ पद । गामा णगरा घरा पव्वता पाताला भवणा निरया रयपरिणामित्तए-परिणामयितुम्-अव्य० । परिणाम कारयितु णप्पहा सक्करप्पहा बालुअप्पहा पंकप्पहा धूमप्पहा तममित्यर्थे, भ० ३ श. ४ उ० । प्पहा तमतमप्पहा सोहम्मे० जाव अच्चुते गवेज्जे अणु. परिणामविहिएण-परिणामविधिज्ञ-पुं० । पुद्गलानां परिणा त्तरे इसिप्पभारा परमाणुपोग्गले दुपएसिए० जाव अणंमविधिं जानाप्तीति परिणामविधिमः । बृ. ३ उ० । तपएसिए। से तं साइपारिणामिए । से किं तं प्रणाइपारिपरिणामालंबणगहणसाहण-परिणामाऽऽलम्बनग्रहणसाधनन। परिणमनं परिणामः, अन्तर्भूतणिजर्थात् व्यञ्जनात् घञ् णामिए । अणाइपारिणामिए अणेगविहे परमत्ते । तं जहा५-३-१३२ति घम् प्रत्ययः । परिणामाऽऽपादनमित्यर्थः । धम्मस्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्यिकाए, जीवत्थिपालम्ब्यत इत्यालम्बनम्, भावेऽनट्प्रत्ययः । गृहीतिर्ग्रहण- काए, पुग्गलत्थिकाए, अद्धासमए, लोके, अलोके, भवसिम्, तेषां साधनम्-साध्यतेऽनेनेति साधनम्। योगसंधिवीर्यम् द्धिा, अभवसिद्धिा । से तं प्रणादिपारिणामिए । से "करणाऽऽधारे" (५। ३।१२९) इत्यनदप्रत्ययः । बीये, कर्म | तं पारिणामिए । ५ कर्म० ('जोग' शब्दे चतुर्थभागे १६१४ पृष्ठे व्याख्यातम् ) (से किं तं इत्यादि) सर्वथा अपरित्यक्तपूर्वावस्थस्य यढू. परिणामि (ण)-परिणामिन् त्रि० । अन्यथा चान्यथा च पान्तरेण भवनं परिणमनं स परिणामः। तदुक्तम्-" परिणाभवतोऽप्यन्वयित्वं परिणामः, स विद्यते यस्य स परिणामी। मो ह्यान्तर-गमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न च स. षो०१६ विव० । परिणमनं प्रतिसमग्रमपरापरपर्यायेषु गम र्वथा विनाशः, परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥१॥” इति। स नं परिणामः । स नित्यमस्यास्तीति परिणामी। परिणामख एव तेन वा निर्वृत्तः पारिणामिकः । सोऽपि द्विविधा-साभाव, यथा-जनसम्मत यात्मारित्ना०७ पार। पारणन्तु प्र दिरनाादश्च । तत्र सादिपरिणामिको (जुम्मसुरेत्यादि) जी. घर्तितुं शीलं यस्य तत् । आविर्भावतिरोभावमात्रपरिणाम-1 र्णसुराऽऽदीनां जीर्णत्वपरिणामस्य सादित्वात् सादिपारिणाशालिनि,यथा सुवर्ण कटकाऽऽदिरूपेण । स्था० १० ठा०। मिकता । इह चोभयावस्थयोरप्यनुगतस्य सुराद्रव्यस्य नपरिणामिय-परिणामित-त्रि०। परिणामान्तरमापादिते, भ०| व्यतानिवृत्तौ जीर्णतारूपेण भवनं परिणाम इत्येवं सुख. १२ श०४ उ० । अचित्तीकृते, कल्प ३ अधि० ६ क्षण । प्रतिपत्त्यर्थ जीर्णानां सुसऽऽदीनां ग्रहणम्. अन्यथा सुरेष्वपि - शत्रपरिणामितानि-शोण स्वकायपरकायाऽऽविना मिर्जी तेषु सादिपारिणामिकताअस्त्येव, कारण द्रव्यस्यैव नूतनसु. वीकृतं वर्णगन्धरसाऽदिभिश्च परिणमितं हिंसाप्राप्तम् । राऽऽदिरूपेण परिणते, अन्यथा कार्यानुत्पत्तिप्रसङ्गा, अत्र सूत्र०२ शु०१०। पातु । बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते, स्थानान्तरवक्तव्यत्वादस्यार्थस्येति। परिणामिक-पुं० । परिणमनं द्रव्यस्य तेन तेन रूपेण व- अभ्राणि सामान्येन प्रतीतान्येव. श्रभ्रवृक्षास्तुतान्येव वृक्षा उकारपरिणतानि, सन्ध्या-कालनीलाऽऽद्यभ्रपरिणतिरूपा प्रतनं भवनं परिणामः, स एव पारिणामिकः, तत्र भवस्तेन तीतव, गन्धर्वनगराण्यपि सुरपद्मप्रासादोपशोभितनगरा55वा निवृत्त इति वा पारिणामिकः। अनु० । अपारत्यक्तपूर्वावस्थस्यैव तत्भावगमनलक्षणे तन्निवृत्तलक्षणे वा भाव कारतया तथाविधनभापरिणतपुद्गलराशि रूपाणि प्रतीतान्ये व । उल्कापाता अपि व्योमसंमूच्छितज्वलनपतनरूपाः प्रसिभेदे, स च साधनाऽऽदिभेदेन द्विविधः, तत्र सादिर्जीर्ण द्धा एव, दिग्दाहास्त्वन्यतरस्यां दिशि छिनमूलज्वलनज्वाला. तादिना तवभावस्य सादित्वात् । अनादिपारिणामिकस्तु करालिताम्बरप्रतिभासरूपाः प्रतिपत्तव्याः, गर्जितविद्युन्निधर्मस्तिकायाऽऽदीनाम् , तद्भावस्य तेषामनादित्वात् । र्घाताः प्रतीताः। यूपकास्तु-" संझाछयावरणो, य जूयो स्थावर ठा. भ०। अनु०स च द्विविधः-सादिरनादिव । तत्र-धर्मास्तिकायाऽऽद्यरूपिद्रव्याणामनादिः परिणा सुक दिण तिन्नि।" इति गाथादलप्रतिपादितस्वरूपा श्रावश्यमः, अनादिकालात्तद्र्व्यत्वेन तेषां परिणतत्वाद् , रूपिद्र कादवलेया, यक्षादीप्तकानि नभोदृश्यमानाग्निपिशाचाः, धूध्याणां तु सादिः परिणामः । श्रनु । मिका रूक्षा प्रविरला धूमामा प्रतिपत्तव्या, महिका तु स्निग्धा घना, स्निग्धत्वादेव भूमौ पतिता सार्द्रतणाऽऽदिदसे किं तं पारिणामिए । पारिणामिए दुविहे पामते । तं र्शनद्वारेण लक्ष्यते, रजउद्धाता रजस्वला दिशः. चन्द्रसूजहा-सादिपारिणामिए अ, अणादिपारिणामिए अ । से ोपरागा राहुग्रहणानि, बहुववनं चाऽत्रार्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रकिं तं सादिपारिणामिए । साइपारिणामिए अणेगविहे प- वर्तिचन्द्रार्काणां युगपदुपरागभावात् मन्तव्यमिति चूर्णिका. मत्ते । तं जहाँ रः। चन्द्रसूर्यपरिवेषाश्चन्द्राऽऽदित्ययोः परितो वलयाऽऽका रपुद्गलपरिणतिरूपाः सुप्रतीता एव, प्रतिचन्द्र उत्पाताऽऽदि. " जुम्मसुरा जुम्मगुलो, जुम्मघयं जुम्मतंदुला चेव ।। सूचको द्वितीयश्चन्द्र एवं प्रतिसूर्योऽपि । इन्द्रधनुःप्रसिद्धमेव, अब्भा य अन्भरुक्खा, संझा गंधजणगरा य ॥१॥" | उदकमत्स्यास्त्विन्द्रधनुःखण्डान्येव,कपिहसितान्यकरमानभ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणामिय अग्निधानराजेन्दः। mamtaशासविस्वासकहानि. (अभए त्ति) अमरकुमार स्य यच्चरा प्रयोगमा दुपलभ्यमानशकटोर्द्धिसंस्थितश्यामाऽदिरेखाः, वपाणि म. गणं, तु चग इभ्रयाबध्वा ननध्यमा नातयारताऽऽदीनि, वर्षधरास्तु हिमवदादयः, पातालाः पातालकल नित्यादि सा पारिएमकी बुद्धि खानु निष्ठ शाः,रोषास्तु ग्रामाऽऽदयः प्रसिद्धा एव । अत्राऽऽह-ननु वर्ग रम्य यन स्वभार्या दृश्चरितमधलाग्य प र धराऽऽदयः शाश्वतत्वात्न कदाचित्तद्भायं मुश्चन्ति तत्कथं पत्तिकर, यञ्च पुष गज्यमनुसामा चातुमासकान सादिपारिणामिकभाववर्तित्वं तेषाम् ?, नेतदेवम्, तदाकार न्तरं विहारक्रमं कुर्वतः पुत्रसमदं धिग्जानीरामधार मात्रतयैव तेऽवतिष्ठपाना शाश्वता उच्यन्ते, पुद्गलास्त्वसं ताया द्यक्षरिकाया पन्नसतापास्वटीयोगः न ख्येयकालादू न तेष्वेवावतिष्ठन्ते, किं स्वपरापरे तनावे- ग्रामान्तरं प्रति चलितः ततः कथमहं भविष्यामानि वदन परिणमन्ति, तावत्कालादूद्ध पुद्गलानामेकपरिणामेनाऽव न्याः, प्रवचनायवशानिवारणार याद भनीयानी शे. स्थितेः प्रागेव निषिद्धत्वादिति सादिपारिणामिकता न विर देर्विनिर्गच्छतु, नोचे दुदरंभिखानिगम प EEध्यते, अनादिपरिणामिके तु धमोस्तिकायाऽऽदयः तेषांतदू नं सा पारिगामिकी बुद्धिः । (कुमार ति) यस्य कुपतय अनादिकालात्परिणतेः, वाचनान्तराण्यपि सर्वारयु मारस्य प्रथम चलि वर्तमान्य कदादिद्गगान्यां (?) गतस्य क्नानुसार नावनीयानि । (सेनं इत्यादि) निगमनद्वयम्। प्रपहाऽऽदिभिः सह यथेच्छं मोदकान् भाक्षनवती जार्म अनु० । श्राभ्यन्तरनित्ते, "परिणामयं पमाणं, णिच्छ- गप्रादुभांवादतिगुतगन्धि वानकायमुस जना या उद्भूता रमवलंबमाणाणं (८१)".०२४ अधि। चिन्ता यथा श्रहीतादृशायदा कणिकाऽऽदानि पगामिया-पारिवामिकी-नो । पारी समन्तानमनं परि. द्रव्याणि शरीरसंपर्क यशान पानगन्यानि संजातानि.दरमा गामः । सुदीर्घकालपूर्वापरपर्यालोचन जन्य श्रात्मनो धर्म त् धिग् इदम् अनुचि शरीरं, चियामाला बदल स्थापि शविशे:म प्रयोजनमम्याः पारिगामिकी।नं० परिणामजन्ये रीरस्य कृते जन्तुः पापन्यारभते. इत्यादि का सा पारिगणाशद्धिमंद प्रा० म० ११० मिकी नुद्धीः तत ऊई तस्य शुभशभतराध्यकता नावनोऽ न्त हसन केवलज्ञानोत्पत्तिः। (देवी त्ति) देव्याः पुप्पधागामा संप्रति पारिणापिझ्या लक्षणमाह धानायाः प्रत्रयां परिपाल्य देवत्वनान्यन्नायाः यत्पुष्पचूलाअणमाराहे उद्दिष्टं-तसाहिया वयविवागपरिणामा । ऽभिधानायाः स्यपुध्याः स्वने नरकवलं कनकटनेन प्रबोध. हियनिस्सेसफलवई, बुद्धी परिणामिया नाम ।। ११ करणं सा पारिणामिकी बुद्धिः। (उदिअंदए त्ति उदितोदयस्य "अलमाण" इत्यादि । लिङ्गात् लिङ्गिनि धानमनुमानं, तच्च रामः श्रीकान्तपतेः पुरिमतालपुरे राज्यमनुशासनः श्रीकास्वार्थानुमानमिह एव्यम्, अन्यथा हेतुग्रहणस्य नैरर्थक्या | तानिमित्तं धाराणसीवास्तव्येन धर्मरुचिना राज्ञा सर्वबऽऽपसे अनुमानप्रतिपादकं वदो हेतुः,परार्थानुमानमित्यर्थः। लन समागत्य निरुद्धस्य प्रभूतजनपरिक्षयभंगन यत् वैश्रवणअथवा-सापकमनुमान कारकं हेतुः, रशन्तः प्रतीतः। प्राह मुण्यासं कृत्वा समाहूय सनगरस्याऽऽन्मनोऽन्या संक्रामणं अनुमानग्रहणेन राम्तस्व गतस्वादसमस्याप्रन्यासः न अनु- सा परिणामिकी बुद्धिः। ( साहू य नंदिसेण त्ति ) साधार मानस्प क्वचिद् स्टान्तमन्तरेलाऽन्यथानुफ्पचिमारा। श्रेणिकपुत्रस्य नन्दिषेणस्य स्वशिष्यस्य व्रतमुक्किनुकामस्य माणबलनप्रवृत्तेः । यथा सात्मकजीवच्छगरं प्राणाऽशद-स्थिरीकरणाय भगवद्वईमानस्वामिवन्दननिमितचलितमु. मरवान्यथानुपपत्तः, न च राम्तोऽनुमानस्याङ्गम । यतकाऽऽभरणश्वेताम्बरपरिधानरूपरमणीयकविनिर्जितामर-- उक्तम्-" अन्यथाऽनुपपन्नत्वं यत्र तत् नयेण किं ततः सुन्दरीकस्वान्तःपुरदर्शनं कृतं सा परिणामिकी बुद्धिः, सहि पृथग्दृष्टान्तस्योपादानम् । " तत्र साध्यस्योपमाभूतो नन्विषेरणस्य सादृशमन्तःपुरं नन्दिषेणपरित्यक्तं दृष्टा दृढतरं हटान्तः । तथा चोकम्-" यः साध्यस्योपमाभूतः स दृप्रा. संयमे स्थिरो बभूव । (धण इत्ते त्ति) धनदत्तस्य सुंसुमाया न्त इति कथ्यते ।" अनुमानहेतुदृष्टान्नैः सायमर्थ सा. निजपुच्याश्चिलातीपुत्रेण मारिनायाः कालमपक्ष्य यन्मांसभधयतीति अनुमानहेतुदृष्टान्तसाधिका । तथा कालकतो दे. क्षणं सा पारिणामिकी बुद्धिः (मावगो त्ति) कोऽपि थावहावस्थाविशेषो वयः, तद्विपाके परिणामः पुष्टता यस्याः का प्रत्यारुतपरस्त्रीसंभोगः कदाचिनिजजायासखीमवलीसा वयोविपाकपरिणामा। तथा हितमभ्युदयो निःश्रेयसं मा- |क्य तत्रातीबाध्युपपन्नः, तं च दादृशं दृष्टा तद्भार्याऽचिन्तक्षः. ताभ्यां फलवती, ते द्वे अपि तस्याः फले इत्यर्थः । बुद्धिः | यत्, ननमेवं यदि कथमप्येतस्मिन्नध्यवसाने वर्तमाना ध्रियपारिणामिकी नाम । नं ।। (श्राव. १०६४८ गाथा)। नतई नरकगनितिर्यग्गति वा याति, तस्मात्करोमि किश्चिअस्या अपि शिष्यगुणहितायोदाहरणैः स्वरूप प्रकटयति दुपायमिति । तत पवं चिन्तयितत्वा स्वपतिम्भाणीत् मा "अभये" इत्यादि गाथा अयम् न्चमानुसारहमेतांविकालवेलायां संपादयिष्यामि,तेन प्रनिअभए सेहि कुमारे, देवी उदिओदए हवइ राया। एन्नं, तली विकालवलायामीपदाकार जगति प्रसरति स्व सख्या बनारायाभरणानि च परिधाय सा स्वसखीरूपेण रहसाहू य नंदिसेणे, धणदत्ते सावय अमचे ॥ १२॥ सि नमुपासपत्। स च सेयं मद्भा-पखीत्यवगम्य तां पारेखमए अमञ्चपुत्ते, चाणके चेव भूलिभद्दे य । भुक्तवान, परिभोगे च कृते:पगतकामाध्यवसायोऽस्मरच्चनासिक्कसुंदरीनं-दे वइरे परिणामिया बुद्धी ॥ १३॥ । प्राग् गृहीतं व्रतं, ततो व्रतभङ्गो मे समुदपादीनि खेदं कर्तुं प्र. चलणाहए थामडे, मणी य सप्पे य खाग्ग भिंदे । वृत्तः, ततस्तद्भार्या तस्मै यथावस्थितं निवेदयामास ततो म. नाक स्वस्थीवभूय गुरुपादमूलं च गस्वा दुटमनःसंकल्पनिमिपरिणामियबुद्धीए, परमाई उदाहरणा ॥ १४ ।। नं०।। त्तवतभाशुद्धयर्थ प्रायश्चित्तं प्रतिपन्नवान् श्राविकायाःपारि Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एरिणामिया अभिधानराजेन्द्रः। परिगामिया हाभिकी उद। (अभवति) वरवधुपितुरमात्यस्य ब्रह्मदत्त नं० विशपत प्रासामर्थः कथानकेभ्य एवाबसेयः नानि वादकुमारविनिर्गमनार यत्सुरजाखाननं सापारिणामिकी बुद्धिः । नि-"अभयम्स कहं परिणामिया बुद्धो जया गजोयो ता. (वनर ति)क्षकस्य कोपवशन मृत्वा सर्पत्वेनात्पन्नस्य यगिहारोहात ण पर, पच्छा तेण पुष्वं निक्खिता वयाचाततोपि मृ-या जातराजपुत्रस्य प्रवज्याप्रतिपतो चतुरक्षर रनिवेसजाणगं कहिएणटो, रसा। अहवा-जाहे गणिणार क. पर्युपासीनस्य योजनवलामा तैः क्षपकः पात्र लिष्टधू। छलण त्रिो बचा जाव तोपि चार घर सनिक्षपति क्षमाकरणमात्मानेन्दनं क्षपकगुणप्रशंसा । चणण मायावाम अप्पगं, वरा माग्गो -अ.", अनि . परिणामकी बुद्धिः। ( अमञ्चपुत्ते ति )अमात्यपुनस्य घर ति, मका भाइ प्रहं छलेण प्राणी, अहं दिवसधनुनाम्नी ब्रह्मदत्तकुभारावेपये दीर्घपृष्टस्वरूपज्ञापनाऽऽदिषु श्रो पमोनो हीरइ त्ति कंदतं नेमि. गो र रामिहं. दासो तेषु तेषु प्रयोजनेषु पारेणामिको बुद्धिः। (चाणके त्ति) चाण- उम्मत्ती, वाणियदारियानो, नहिी, रईत हिओ, एय यस्पचन्द्रगुप्ते राज्यमनुशासति भाराडगारे निष्ठिते सति माइयाओ बहुयानो अभयस्स परिणामियाना बुद्धश्रो १॥ यदेकादेवसाऽश्वाऽऽदिवान्वनं सा पारिवामिकी बुद्धिः। (थू- " सेठि" त्ति कट्टो णाम सेट्टी एगत्थ पयरे वसा, लभहे ति) स्थूलभद्रस्वामिनः पितारे मारिते नन्दनामा तस्स बजा नाम भजा, तस्स नेच्चरला देवसम्मो णाम स्यपदपरिपालनाय प्रार्थ्यमानस्यापि यत्प्रव्रज्याप्रातेपात्तकर. बंभणो. सेट्ठी दिसाजतार गश्री, भजा से तेण सम संपयं सा पारिणामिकी बुद्धिः । ( नासिकसुंदरीनंदे ति) ना- लगा, तस्स य घरे तिन्नेि पक्वी-सुप्रो य, मपरासलागा, सिक्यपुरे सुन्दरीभर्तः नन्दस्य भ्राता साधुना यन्मे शिर कुकुडगो य त्ति । सो ताणि उवणिक्खक्त्तिा गो. सि नयनं, यश्च देवमिथुनकदर्शनं सा पारिणामिकी बुद्धिः। सोऽवि धिजाइओ रत्ती अईइ, मयणसलागाभण को (चार त्ति) वनस्वामिनो बालभाया वर्तमानस्य मात-| तायस्स न वोहेइ ?, सुयो वारह-जो अंबियार देइओ रमवगणय्य संघवदुमानकरणं सा परिणामिकी बुद्धिः। (च. अम्हं भि ताथी होइ, सा मयणा अइियासिया धिनालणाऽऽहर ति) कोऽपि राजा तरुणैय॑माह्यते. यथा-देव! इयं पारेब साइ, मारिया तीर, सुयोग मारिओ। अमया तरणा एव पाय धियन्नां, किं स्थविरथलोपलितविशोभित- साह मिक्खस्स तं गिहं अश्यया, कुक्कुइयं पेच्छिकण प. शरीर? ततो राजा तान् परीक्षानिभित्तं ब्रूतेन्योमा शिरसि गो साहू दिसालोथं काऊण मम-जो एयस्स सीसं खाइ पादन ताडयति तस्य को यर ड इति माहुः-तिल तिल मात्रा सो गया हा ति, तं कहि वि तेणं धिजाइपण अंतरिएगं णि खरा डानि सविकृत्य मार्यते इति। ततःस्थविरान पाउछ। सभं तं भाइ-मारहि खाभि, साभहाइप्रनं आणि जड, ऽबोवन्-देव! परिभाव्य कथयामः । ततस्तैरे कान्ते गत्वा वि मा पुत्तभं संयट्टियं, निबंध कर मारियो जाव र हार्ड सितम्-को नाम हृदयवल्ल नां देवींव्यतिरिव्यान्यो देवं शिर- गओ, तार तीसे पुन्टो लहसालाना अागा, नं च सिद्धं लि ताडयितुम् ईष हृदयवल्लभा देवी विशेषतः संमानी त मंस को गंवर मी दिसं, सो अागो भाण एन्ट, या, ततस्ते समाग य राजानं विज्ञपयामागुः स विशेषतः स- सोनमगड राइ-वडस्स दिसं.सो . ण्यसप कने स्कारणीय इति। ततो राजा परिपपागतःसन प्रशंसित. मापागावा जापरं रथस्स सीसवाए जा तो गया घान्कोनाम वृद्धबिहायान्य एवंविधवुद्धिभाम्भवति। तर होम. कायं निबंधे वसिया, दाताए सुयं, तः चव सदैव स्थविगन् पार्वे धारयामास, न तरुणानिति राज्ञः दारयं महाग पलाया असं रायरं गथाणि, तत्थानां स्थविराणां च पारिणाभिकी बुद्धिः। (श्राम ति) कृत्रिम राया म.प्रसज प्रतिक्खिी नो रापा जाए।।दाय मामलकमतिकठिनत्वादकालत्वाञ्च फेनापि यथास्थित की पागलो. गिग या साडयपडियं पासइ, सा पत्रिका शानं तस्य पारिणामिकी बुद्धिः । ( मणि ति) कोऽपिसो रण कहे इ. सुमरणं पंजरमुकेष कहिय वंश पाइसंबंध: सोन. वृक्षमारुह्य सदैव पक्षिणामण्डानि भक्षपति, अन्यदा च वृ- हव, थालं संसारवधारणं. श्रद्धरती से कपण किलसमणुक्षस्थिती निपातितः, मणि थ तस्य तत्रैव कधिप्रदेशे स्थितः, हवाभि एसा वि एवंविड त्ति पञ्चइयोइयराणि तं चेव णतस्य च वृक्षस्याधस्तात्कृयोऽस्ति, उपरिस्थितनगिप्रभावि- यरं गयाणि जत्थ सो दारो राया जाओ.साह विविधता छुरित सकलमपि कूपोदकरतीभूतभुपलक्ष्यते. कृपादाकृष्ट- तत्थेव गयो,तीय पव्यभित्रायो, निक्खाए ममं सुबल दिन मुदकं स्वाभाविक दृश्यते एतच वालकेम केनापि निजपितः कृत्रियं गहिश्रो, राधार मूलं गीयो, धावीए णापो. ताणि स्थविरस्य निवेदितं, सोऽपि तत्र समागन्य सम्यक् परिभा- निक्सियाणि आण ताषि, पिया भोगो निभंतित्रा, ने ब्छा, व्य मणिं गृहीतवान्, तस्य पारिणामिकी बुद्धिः। (सम्पति) | राया सड्डो को. वविसारते पुढे वतस्स अकिरियासर्पस्य चरा उौशिकस्य भगवन्तं प्रति या बिन्ता-ई- णिमिन घिजाइपहिं दुवरियाए उबटुवित्रा, परिभटि हगयं महात्मेत्यादिका पारिणामिकी बुद्धिः । (खग्ग ति) यारूयं कथं, सा गुटिवणीया अणुचवा, तीच गहिरो, कोऽपि श्रावकः प्रथमयौवनमदमोहितमना धर्मभकृत्या पश्च. मा पबयणस्स उड्डाहो होउ ति भण-"जमर तो जागीय त्वमुपगतः खड्गः समुत्पन्नः यस्य गच्छताईयोरपि पार्श्वयोः रणीउ"अहण मरता पाटुंभिंदिता णोउ, एवं भणिप नि चर्माण लम्पन्ति स जीव विशेषः.सचाटव्यां व तुःपथे जन मा. पोटुं मया. वनोय जाओ, सद्धिस्स पारिपामिश्य, जीए यित्वा खादयति अग्यदा च तेन पथा गन्छन् साधून दृष्वा- वा पब्बानो ति.२॥"कुमारो"-खुकुमारी, सो जहा न्, स चाऽभितुं न शक्नोति.ततस्तस्य जातिस्मरणं भवत्र- जागसंगहहि, तस्स वि परिणामी, ३॥ " देवी"-पुष्कस्थाण्यानं देवलोकगमनं तस्य पारिणामिकी बुद्धिः।(भति) भद्दे पयरे पुस्फसेणो राया. पुष्फई देवी. तीसे दो पुत्तभं. विशालायां पुरि कूलबालफेन विशालाभाय यम्मुनिसुबत- डाणि-पुष्फलो, पुष्फचूला य । ताणि अणुर ताणि भाग स्वाभिपादुकास्तूपोत्खाननं सा तस्य पारिणामि की बुद्धिः। भंति, देवीपवया, देवलोगे देवो उपवयो, सो चितेर Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११८) परिणामिया अभिधानराजेन्डः। परिणामिया जह एयाणि एवं मरंति तो नरयतिरिएसु उववजिहिति भणियं-कलं ते संपाडेसतं, मंती आदिवा-सिग्धं संपाडेह, सुविणर सो तम्सेि नेरइए दरिसेइ, सा भीया पुच्छर पासं तेहिं चिंतियं-विनढ़ कजं, को पत्थ उवाश्रोत्ति विसराणा, डिणी, ते न याति. अनियपुत्ता तत्थ पायरिया, ते स एगेण भणियं-धीरा होह अहं भलिस्सामि, तेण तं संपादाविया, ताहे सुत्तं कइंति। सा भणइ-किं तुम्हे हि वि डिऊण राया भणिो -देव! एस कहं जाहि त्ति?। रराणा सुविणश्रो दिट्ठी? सो भणइ-सुत्ते श्रम्ह परिसं दिट्ठ पुणे भणियं-अने कहं जंतगा?, तेण भणियं-अम्हे जं पट्टवेता वि देवलोए दरिसेइ. तेऽवि से अनियापुत्तहिं कहिया, तं जलणप्पवेसेणं, न अण्णहा सग्गं गमिस्सा, रक्षा भपव्वइया, देवस्स पारिणामिया बुद्धी, ४॥ “उदिनोदए" णियं तहेव पेसेह. तहा पाढत्ता, सो विसमो, अमो य धुपुरिमयाले पयरे श्रोदिनोदो राया सिरिता देवी, सा तो वायालो रमो समक्खं बहुं उवहसइ. जहा-देवि भवगाणि दोरिण वि, परिवाइया पराजिया दासीहि मुहम णिज्जसि-सिणेहवंतो ते राया, पुणा विजं कजं तं संदिवडियाहि बेलविया निळूढा पश्रोसमावराणा, वाणारसीए सज्जासि, अण्णं च इमं च बहुविहं भण जाति, तेण धम्मई राया, तत्थ गया. फलयपट्टियाए सिरिकताए भणियं-देव! णाहमेत्तिगं अविगलं भणिउं जाणामि, एसो रूवं लिहिऊण दाएइ धम्मरुइस्स रएणो, सो अझोववन्नो, चेव लट्ठो पेसिजउ, ररणा पडिसुयं, सो तहेब णिजिउमादूयं विसजेड, पडिहयो अवमाणिश्रो निच्छूढी, ताहे स. ढत्तो, यरो मुको, अवरस्त मागुताणि, से विसरणाणि प. व्वबलेणागश्री. णयरं रोहेइ, उदिश्रोदओ चिंतेइ-कि एबड़े लवंति-हा ! देव ! अम्हेहिं किं करेजामो ?, ते भणियं ण जणखएण करण?, उववासं करेइ, वेसमणेण देवण नियतुंड रक्खेजह, पञ्छा मंतीहिं खरंडियमुक्को, मडगं दहूं, सणयरं साहरिश्रो । उदिओदयस्त पारिणामिया बुद्धी, ५॥ मंतिस्स पारिणामिया, ६॥"खमए" ति, खमश्रो चेल्लारण "साह य नंदिसेणो" त्ति । सेणियपुत्तो नंदिसेणो, सीसो समं भिक्खं हिंडइ, तेरण मंडुक्कलिया मारिया, आलोयणवे. तस्त श्रोहाणुप्पेही, तस्स चिंता (जाया )-भगवं जइ राय- लाए णालोएइ, खुडएणं भणियं-बालोराहे त्ति, रुट्ठो गिह जाएजा तो देवीओ अन्ने य पिच्छि ऊण साइसए जइ पाहणामित्ति थंभे अब्भडिओ. मो, एगत्य विराहियताथिरो होज त्ति, भट्टारो य गो, सेणीओ उण णीति मरणाणं कुले दिट्टीविसो सप्पो जानो, जाणंति परोप्परं, रसंते पुरो. अने य कुमारा सतेउरा, णंदिसेणस्स अंतेउरं तिं चरति मा जीवे मारेहामि ति, फासुगं श्राहारमि त्ति । सेतंवरवसणं पउमिणिमझे हंसीश्रो वा मुक्काभरणाश्रो एणया रराणो पुत्तो अहिणा खइओ मनो य, राया पश्रोसव्वासिं छायं हरति, सो ताओ दहळूण चिंतेह-जर भट्टा- समावो, जो सप्पं मारेइ तस्स दीणारं देइ, अएश्रया श्रारएण मम पायरिएण एरिसियाश्रो मुक्काप्रो किमंग पुण हिंडिएणं ताणं रेक्काओ दिट्ठाओ, तं बिलं ओलहीहि धमति, मझ मंदपुनस्स असंताण परिचइयं ?, तबियाणइ, णिब्बे. सीसाणि णिताणि छिदइ, सो अभिमुहो न णीइ. मा मारेयमावमा पालोइयपडितो थिरो जाओ। दोरह वि परिणा. हामि किंचि ति जाइस्सरण त्तणेण, तं निग्गय छिर, तेण मिगी बुद्धी, ६॥ धणदत्तो सुसुमाए पिया परिणामेइ-बइ एयं पच्छा रायाए उवणायाणि, सो राया णागदेवयार बोहिज्जा, न खामो तो अंतरा मरामोत्ति,तस्स पारिणामिगीबुद्धी, ७॥ बरो दिम-कुमारो होहित्ति, सो समगसप्पो मोसमाणो सावी मुच्छिी अझोववरणो सावियाए वयंसियाए,ती- तत्थ राणियाए णागदत्तो पुत्तो जानो, उम्मुखबालभावोसासे पारणामो-मा मरिहि त्ति अवसट्टोनरपसु तिरिसुवा । हुंद जाई संभरित्ता पब्बइओ । सो य छुहालुगो अभिग्गह (मा) उबवजिहि त्ति तसे श्राभरणेहिं विणीओ.संवेगो क- गेरहद-मए ण रूलियब्वं ति,दोसीण स्स हिंडइ, तस्स य श्राहणं च, नीए पारिणामिया बुद्धी, ८॥ श्रामचो-घरघणुपिया यरियस्स गच्छे चत्तारि खमग्गा, मासिनो दोमासिश्रो तिजउघरे कए चिंतेइ-मा मारिओ होइ एस कुमारो, कहि मासिश्रो चउमासिनो, रतिं देवया आगया, ते सव्वे खमर पि रक्खिजइ, सुरंगाए नीणिो , पलाओ, एयस्स वि परि- अकमित्ता खुडयं वंदर, खमपण निग्गच्छंती हत्] गहिया, णामिया बुद्धी, ६॥ अने भणति-एगो राया देवी से अह- भणिया य-कडगपूयणे! एयं तिकालभोइयं वंदसि, इमे मपिया कालगया, सो य मुद्धो, सो तीर वियोगदक्खिी हातवस्ती न चंदलि त्ति, सा भण-भावखमगं वंदामिन न स सरीरठिई करेइ, मंतीहिं भणिो -देव ! एरिसी सं. दव्यखमए त्ति, गया, पभाए दोसीणगस्स गो. निमंते त्ति, मारद्विइ त्ति किं कीरइ ?। सो भणइ-नाहं देवीप सरीर- एगण गहाय पाए खेलो छूढो, भणइ-'मिच्छा मि दुकडं' दिई अरतीर करेमि. मंतीहि परिचितयं-न यो उपा- खेलमल्लो तुम्भं णोवणीयो, एवं सेसेहि वि. जे भेउमारद्धी, श्री ति। पच्छा भणि-देव! देवी सरगं गया तं तत्थ ट्रिइ- तेहि बारिश्रो. निव्वेगमावराणो, पंचवि सिद्धा, विभासा, यार चव से सव्वं पेसिजाउ, लद्धकयदेवीदिईपडत्तीर प. सम्धेसि पारिणामियाबुद्धी, १०॥ अमच्चपुत्तो वरधरण, तच्छा करेज' ति, रमा पडिभुषं, माहाणेण एगो पैसिओ, स्स तेसु तेसु पोयणेसु पारिणामिश्रा, जहा माया मोरगणा आगंतूण साहइ-कया सरीराट्टिई देवीर, पच्छा रा. यबिया, सो पलाइओ, एवमाइ सव्वं विभासियव्यं । अम्मे या करे, एवं पइदिगं करताण कालो वथ, देवीपसण- भणति-पगो मंतिपुत्तो कप्पडियरायकुमारण समं हिंडइ, चरलेण बहुं कडिसुत्तगाइ खजाहराया, पगेण वितियं. अण्णया निमित्तिो घडिश्री, रत्ति देवकुंडिसंठियाणं सि. अहं पि खर्ति करेमि, पच्छा राया दिट्टा, तेण भणिश्रो वा रडडू, कुमारेण नेमित्तिो पुच्छिो कि एसा भणइत्ति, कुतो तुम? भणइ देव! सग्गाश्रो. रराणा भणियं देवी तेण भणियं-इमं भण-इमंसि नदिनित्थम्मि पुराणियं कलेदिर ति, सो भणइ-तीर चेव पेसिश्री कडिसत्तगाइनि- वरं चिट्ठइ, एयरस कडीए सतं पायंकाणं. कुमार! तुम गिमिति , दयाविर्य से जहिच्छियं कि पि ण संपडा, र- राहाहि तुझ पायंका मम य कडे वर ति, मुहियं पुण में एगा भागाचे कया गमिस्ससि ?, तेण भणियं-कलं, रमाI सकणोमि त्ति, कुमारस्स कोई जायं, ले यघिय एगागी गा. Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१६) परिणामिया अन्निधानराजेन्द्रः। परिणामिया तहेव जार्य, पायंके घेतूण पश्चागश्रो. पुणो रडइ, पुणो पुच्छि- परिव्वायगो, जामु जा ते रायाण करेमि; पलाओ, लोगो आ. सोमणइ. चप्फलिगाइयं कहेइ,एसाभणइ कुमार! तुज्झ मिलियो, पाडलिपुत्तं रोहियं। णं देण भग्गो परिवायगो, वि पायंकसय जायं मझ वि कलेवरं ति, कुमारो तुसिणीश्री श्रासहिपिट्ठीग्रो लग्गो, चंदगुत्तो पउमसरे निम्बुडो.इमो जाओ, अमापुत्तेण चिंतियं-वेच्छामि से सत्तं किं किवणत. उपस्पृशति, सम्मार भणइ बोलीणो त्ति । अनेभणंति--चंदगण गहियं पाउ सोंडीरयाए ? जह किवणतणेण कयं न गुत्तं पमिणीसरे छुभित्ता रयो जाओ, पच्छा एगण एयस्स रजति नियत्तामि । पच्चूसे भणइ-वच्चह तुब्भे, मम जच्चवल्हीककिसोरगएण पासवारेण पुच्छिो भणइपुण सूलं कजइ न सक्णामि गंतुं. कुमारेण भणियं-न एस पउमसरे निविट्ठो, तो श्रासवारेण दिट्ठो, तोऽणेश जुत्तं तुमं मोत्तूण गंतुं, किं तु मा कोइ पत्थ मे जाणहि ति घोडगो चाणकस्ल अल्लितो, खग्गं मुकं, जाव निगुडिउं तेण वञ्चामो, पच्छा कुलपुत्तगघरं णीश्रो समप्पियो, तं च | जलोयरणट्टयाए कंचुगं मिल्लइ, तावऽणेण खग्गं घेतूण दुसब्धं पंजामौलं दिनं, मंतिपुत्तस्स उधगयं जहा-सोडीरयाए हाको, पब्छा चंदगुतो हकारिय चडाविप्रो. पुणो पत्ति, भणियं चणेण-अस्थि मे विसेसो अश्रो गच्छामि, लाया, पुच्छिोऽणेण चंदगुत्तो-जं वेलं तंसि सिट्ठो तं वेलं पच्छा गो, कुमारेण रजं पत्तं, भोगा वि से दिराणा, एय- कि तुमे चिंतियं?। तेण भाणयं धुवं एवमेव सोहणं भवद, स्स पारिणामिगी बुद्धी ११ ॥ चाणको, गोलविसए चणय- अज्जो चेव जाणइ ति, तोऽणेण चिंतियं-जोगो एस न ग्गामो, तत्थ य चाणग्गो माहणो, सो य सावनो, तस्स विपरिणमइ त्ति । पच्छा चंदगुत्तो छुहाइप्रो. चाणको तं घरे साहू पिया, पुत्तो से जाश्री सह दाढाहिं, साहूण पापसु ठवेता भत्सस्स अइगो, बीहेइ य-मा एत्थ नज्जेज्जा मो. पाडिश्रो, कहियं च-राया भविस्सइ त्ति, मा दुग्गइंजाइ डोडस्स बाहिं निग्गयस्स पोट्टं फालियं, दहिकूरं गहाय स्तइत्ति दंता घट्टा, पुणोऽवि पारियाणं कहियं, भणइ, गो, जिभित्रो दारो। अमया अपत्थ गाम रत्तिं समुकिं कजउ ?, एत्ताहे विबंतरिश्रो भविस्सइ, उम्मुक्बाल. याणेइ, थेरीए पुत्तगभंडाणं विलेवी वट्टिया, एक्केण मज्झे भावेण चोद्दसविजाठाणाणि अागभियाणि, सो य सावो हत्थो छूढी, दहो रोषह, ताए भाइ-वाण मंगलयं, पुसंतुट्ठो, एगाश्रो भद्दमाहणकुलाश्रो भजा से श्राणिया। श्र- च्छियं, भणइ-पासाणि पढमं घेप्पंति, गत्रा हिमवंतकूड, राणया कम्हि वि कोउते भाइघरं भज्जा से गया, केह पघाइयो राया, तेण समं मित्तया जाया, भणइ- समं स. भणंति-भाइविवाहे गया, तीसे य भगिणीओ अरणेसिं खद्धा मेण विभजामो रज्जं, उपवेताणं एगत्थ एयरं न पडइ, दाणियाणं दिराणे लियाअो, ताओ अलंकियधिभूसियाश्री श्रा पविट्ठो तिदंडी, वत्थूणि जोएइ, इंदकुमारियाश्रो दिट्ठाओ, गयाओ, सव्वोऽवि परियणो ताहि समं संलवर त्ति, सा तासि तणएण ण पडइ, मायाए रणीणावियाओ. पडियं एगते अत्थइ, अधुई जाया, घरं आगया, ससोगा, नि. नयरं. पाडालपुतं रोहियं. नंदो धम्मवारं मग्गइ, एगण बंध लिटुं, तेण चिंतियं-नंदो पाइलिपुत्ते देइ तत्थ व रहेण जंतरसि तं नीणाहि. दो भज्जाश्रो एगा कमा दव्वं कचामि, तो कत्तियपुरिणमाए पुग्यरणत्थे श्रासणे पढमे चणीणे इ, कक्षा चंदगुत्तं पलोएइ, भणिया जाहि त्ति, णिसम्मो, तं च तस्स सल्लीपतियस्स सया ठविजय, सिद्ध. ताहे विलग्गंतीर चंदगुत्तरहे णव अरगा भग्गा, तिदंडी पुत्तो य गंदेण समं तत्थ आगो भणइ एस बंभणो णंद- भणइ-मा चारेहि, नवपुरिसजुगाणि तुज्झ बंसो होहि त्ति, वंसस्स छायं अक्कमिऊण ठिो, भणिो दासीए-भगवं! श्रयश्रो, दोभागीकय रज्जं । एगा कागा विसमाविया, बितीए पासणे णिवेसाहि, अत्थु, बितिए श्रासणे कुंडियं तत्थ पब्वयगस्स इच्छा जाया, सा तस्ल दिमा.अग्गिपरियंठवेद, एवं ततिए दंडयं, चउत्थे गणित्तियं, पंचमे जरणा | चणे बिसपरिगो मारेउमारद्धो भगइ--वयंस! मरिजा, वइयं, धिट्ठो त्ति निच्छूढो, पाश्री उक्खित्तो, अरणया य चंदगुत्तो रंभामि ति वसिओ, चाण केण भिउडी कया, भरगह-" कोशेन भृत्यैश्च निवद्धमूलं, पुत्रश्च मित्रैश्च विवृ. णि पत्तो. दोविरजण तस्स जायाणि । नंदमणुस्सा चोरियाद्धशाखम् । उत्पाट्य नन्दं परिवर्तयामि, महाद्रुमं वायुरिवी- ए जीवंति, चोरगाह मग्गइ, तिरंडी बाहिारयार नलदाम प्रवेगः ॥ १॥" निग्गी मग्गइ पुरिसं, सुयं च ऽणेण वि. मुइंगमारणे दर्दछ आगो, रमा सद्दाविरो, श्रारखं दिएणं, बंतरियो राश्रो होहामि त्ति. नंदस्स मोरपोसगा, तेसि चालत्था कया, भत्तदाणेण सकुडंबा मारिया। श्राणार-वं. गामं गो परिवायगलिंगेणं, तेसिं च महत्तरघूयाए चं- सीहि श्रवगा परिक्सित्ता, विवरीए कहो, पलीविप्रो सब्यो दपियणे दोहलो, सो समुदाणितो गश्रो, पुच्छंति, सो गामो, तेहिं गामिल्लएहि कप्पडियत्त भत्तं न दिएणं ति काउं। भणइ जइ इमं मे दारगं देह तो णं पाएमि चंद, पडिसुणे- कोसनिमित्तं पारिणामिया बुद्धी-जूयं रमा कूडपासपाहिं, ति, पड़नंडवे कर तद्दिव पुरिण पा, माझे छिडं कयं, सोवरण थालं दीणाराणं भरियं, जो जिणइ तस्ल एयं, अहं मझगए चंदे सव्वरलालूहि दवहिं संजोरत्ता दुद्धस्त जीण भिगो दाणारो दायत्रो । अचिरं ति अ उवायं थालं भरियं, सद्दाविया पेच्छइ पिबइ य, उवीर पुरिसी, चितेद, गागराण भतं देश मजापाणं च, मसु पण विश्रा, अछाडेइ, श्रवणीर जाश्री पुत्तो चंदगुत्तो से नाम कयं, भणइ-"दोमझ धाउरत्ता, कंबणभियातिदंडंच रायाधि सोऽवि ताव संवडइ. चाणको य धाउविलाणि मग्गइ।। य बलवत्ती, एत्य बिता मे होलंदारहिं । अरमे असहमासो य दारगेहि सम रमइ रायणाईप, विभासा, चाणकोणो भणति गयोययस्ल मत्तस्त उत्पश्यस्त जाअगसहपडिपद, पेच्छा. तेण विमग्गियो -अम्ह वि दिज्जउ, भणइ | स्तं पर पर सयसहस्संपत्य विता में हॉलं बाएहिं । अना गावीश्रो लएहि, मा मारेज्जा कोई, भण्इ-" वीरभोजा भगइ-निल पाढयस्स चुतस्त निम्फरस्त बहुसदयस्स पुहवी." णातं जहा विमाणं पिसे अधि, पुच्छियो क. तिले तिले सयसहस्सं ता में होलं वारहि । अरणो भण. स्स त्ति?, दाराहि कहियं परिव्वावगपुत्तो एसो, अहं सो नवपाउसमिन पुराणाए गिरिजईयाए सिग्धवगाए एगाहमा Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणामिया अभिधानराजेन्द्रः । परिणिष्ट्रिय हियमेत्तण नवीएण पालि बंधामि एत्थ वि ता मे होल एरिसो महप्पा इचाइविभासा, एयस्स पारिणामिगी १६. पारहि । प्रश्नो भणह जवाण नवकिसोराण तहिबसेर जा. "खग्गीति"सावयपुत्तो जोव्वणबलुम्मत्ती धम्मं न गियमेसाण केसेहिं नहं छापामे एत्थ वि ता मे होलंदा- हराइ, मरिऊण खन्गिसु उब्ववो, पिट्ठिस्स दोगिड वि एहि । अत्रो भण-दो गझ अस्थि रयणा साल पसई य पासेहिं जहा पक्खरा तहा चम्माणि संबंति अडवीए च. गद्दभिया य छिन्ना छिमायि रहति पत्थ वि ता मे होलं उप्पहे जणं मारेह, साहुणो य तेणेव पहेण श्राइकमंति, पाए है । श्रनो भणइ-सयसुकिलनिश्चसुयंधो भन्ज 'अणुब्व- वेगेण आगो , तेपण ण तरह अलाउं, चिंतेइ,-जाई संय नत्थि पवासो निरिण। य दुधसभी एत्थ वि ता भे भरिया, पश्चक्खाणं, देवलोगगमणं । एयस्स पारिवामिहोलं पाहि । एवं णाऊण रयणाणि मग्गिऊण कोट्ठारा- गी २०॥ थूभे-वेसालाए गयरीए णाभीए मुणिसुब्वयस्स णि सालीण भरियाणि गहाभयाए पुच्छिमा छिनाण २ थूभो, तस्स गुणेण कृणियस्स स पडइ. देवया आगासे पुणे। पुणा जायंति, पासा पगावसजाया मग्गिया एग | कृणिवं भणइ-"समणो जइ कूलबालए मागाहेयं गणिय दिवलियं णवर्णीयं, एस पारिण भिया चाणकस्स बुद्ध १२॥ लभिस्सति । लाया य अलोगचंदए. वेसालि नगरि गेहेस्सयूल मदस्त पारिणामिया पिइम्मि मारिए गंदेण भणियो. ॥१॥" सो मग्गिज्जद। तस्स का उप्पत्ती?-एगस्त श्राअनच्चो होहित्ति असेगवाणयाए चितेइ-केरिसा भोगा यरियस्स चेल्लो अविणीश्रो, तं पायारो अंबाडेइ, सो घाउलाएं ति पयानो । र शया भणिया-पच्छह मा कवडेण | वेरं घहर। अजया पायरिया सिडसिल तेण समं बंदगा मणिमाघर जारजा, तितस्स मुणगम डेण वावरणेण णासं विलग्गा. उत्तरंताण वधार सिला मुक्का. दिट्ठा श्रायरिएण मेरा दर, पुरिसेहि पो कहियं, घिरत्तमोगो ति सिरि- ण, पाया प्रोसारिया इहरा मारिनो होतो, सायो विमो. श्री उविश्रा, थूलभहसानिस्स परिणामिया रएगो य दुरात्मन् ! इत्थीयो विणस्सिहिसि त्ति, मिच्छाबाई एसो १॥ णासिकं गवरं, गंदो वाणियगो, सुन्दरी से भजा, भउ ति काई तावसाऽऽसमे अस्था, नईए कूले प्रायासंदरिनरी से नाम कर्य, तस्स माया पब्वइयो, सो सु.] वेद, पंथभासे जो सत्थो पर तो आहारो होइ, एईए इ-जहा सोही भोवधाओ, पादुणो धागो, पडि- फूले पायावेमाणस्स सा गई अमश्रो पबूढा, तेण कूलवाभिओ, भाणं तेणं गहियं. इह पत्थायउ सि उजाणं नी. रो नाम जायं, तत्थ अत्यंतो प्रागमिश्रो, गणियाश्रो स- लोग मागणहत्या दिया तो णं उवहसंति- हाथियाश्री, एगा भरण-अहं प्राणेमि कवडसाविया जा. ये। मुंदरिन्दा, तनोलो तहवि गग्रो उजाणं, सा- या, सत्थेण गया, वंदा उहाणे होइयम्मि चेइयाई चंदा दे भरणामया, उसडरमा ति न तीरमणे ला- मि तुम्भे य सुया, श्रागयामि, पारणगे मोदगा संजोया 4-विध लमि च भावं साह, तमोऽणण चिंतियं। दिना, अइसारो जाओ, पोगेण ठविमो. उव्वत्तणाईहिं न उवायो ति अडिग उचलेभिलि, पन्छा संभिन्नं वित्तं, आणत्रो, भाणा-रमो वयणं करेहि. कह?, मेरू पायो, न इच्छ, विप्रोगिया, मदुतण आणे- जहा वेसाली घेपद, थूभो नीण विश्रा, गहिया । गणिया पिपट्टो, म भने विधियं । अनो भणंति- फूलबालगाणं दाराह वि पारिवामिगी २१ ॥ इंदपाउयानो स नदटुं, सादुगा नगवा-सुंदरीर वानरीयो य चाणकेण पुब्बभणियाश्री. पसा पारिणामिया २२ ॥ श्राव वरी? । सोभन:-मा!पडतो मरिस व मेरू- । १०। परिणामझायाम् , "परिणामिय परिणाम, जा जाणा बात रिनाहरानेहुण दिटु. तत्थ पुच्छिनो भणइ | पुग्गलाणं तु ।"पुद्गलानां विचित्रं परिणामं जानाति सा पाना चव, पता देवति हुणं दिलं, तस्य वि पुन्छिनोभ- |रिणामिकी । व्य०५ उ.। मोल-भगवं एडर प्रमायो वानरी संदरि ति, साहुणा परिणाह परिणाह-पुरा परिधी, स्था०२ ठा० ३ उ०। शरीभणिय थावण धम्मोग रसा पाविज्जद ति, तो से उवग | रावस्तरे, स्था०८ ठा० । नातिस्थौल्ये. नातिदुर्घलतायाम्, बृ. यं. का पो ! साहुस्स परिणाभिया बुद्धी १४ । वइ- १.२प्रक। विस्तार, पाइ० ना०१६८ गाथा। र समितपरिणभिया-माया लागवत्तिया, मा संघो अबमानाजाहति ति, पुणो देवेहि उज्जेगाए वेउब्वियलद्धी दिना. परिणिजमाण परिणीयमान-त्रि० । दुःखं प्राप्यभाणे, "एगे पाटलिपुते मा पनिमचिडि ति अग्वियं कयं, परियार रूवे सुगिद्धे परिणीयमाणे।" प्राचा० १ १०५ १०१ उ० । गधयण नोहार मा होहिति ति सव्वं कहेयचं १५ ॥ चल परिणिट्रा-परिनिष्ठा-स्त्री०। संपूर्ती, सिद्धौ, "परिणिटुसत्तपदर सा गादिर, जहा थेरा कुमारम | मए " सप्तमे श्रवणे परिनिष्ठा भवति। एतदुक्तं भवति-गुरुवश! अणि तु, संतेसि परिक्साणिमितं भाइ-जो रा दनुभाषत एव सप्तमे श्रवणे । विशे । श्रा०म० । सीस पाएमा प्रावणः तस्त को दंडा? । तरुणा भणाने, तिलं तिलं छिदियचओ, थेरा पुच्छिया-वितेमो ति श्रो | परिणिट्ठाण-परिनिष्ठान-न० । अवसाने, विशे०। सरिया ।चिंतेति नूणं देवीए को अपणो पाहणर त्तिधगया परिणिट्रिय-परिनिष्ठित-त्रि०ा संपूर्ण सिद्धे, उत्त०२ श्राभनि सकारेयव्या। रराणो तेसि च पारिणामिया १६ ॥ व०। परि समन्तानिष्ठां गतः परिनिष्ठितः । ज्ञाननिष्ठां गते, (श्राम ति) अामलगं, कित्तिमं एोण सायं प्राकढिणं श्राम।" पपुव पिटुं गतो परिणिहिता।" श्रा०चू.१ श्रकाले बिया होइ त्ति । तस्स वि पारिणामिया १७ ।। श्रा "परिणिहितो,पारेना।" परिनिष्ठितो नाम-यथायोगं (मणि त्ति) गतम् १८ ॥ सप्पो चंडकीसिओ वितेद विधेयतया सम्यक् परिज्ञातः । व्य० १० अ० । निष्पन्न• नन्दिसूखटीकायाम् । कृत्ये, असाधनीय सिद्धे, विशे। Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणिट्टिया परिणिडिया परिनिष्ठिता स्त्री० द्विषिर्या तृणाऽऽदिशोधनेन कृषिमे पुनः पुनरतिचाराऽऽयनेन प्रवज्यानेदे स्था० ४ ठा० ४ उ० । ( ६२१ ) अभिधानराजेन्ड परियप्पा या परिनिर्वाण्यवाचनता-श्री० परीति सर्वप्रकारं निर्वापयतो निरो निर्दग्धाऽऽदिषु भृशार्थस्यापि दर्शनात् भृशं गमयतः पूर्वदसा 55लापक155दि सर्वाऽऽरमना स्वाऽऽत्मनि परिणामतः शिष्यस्य सूत्रगताशेष ग्रहणकाल प्रतीव शक्त्यनुरूपप्रदानेन प्रयोजकत्वमनुभूय परिनिर्धाप्य वाचनता पूर्वदवाऽखापकानधिगमय्य शिष्याय पुनः सूत्रदाने, स्था० ८ ठा० । वाचनासंपद्भेदे, उत्त० १ श्र० । परिनिविय वायसा जेलिय मेचं तु तरह उम्घे । जोगतिणं, परिचिते ताव तमुद्दिसति ।। , परिनिर्धाप्य वाचयति किमुक्तं भवति ? जोहकदृष्टान्तेन या चन्मात्रमनुं शक्रोति तावन्मात्रम प्रेतनपरिविते तामुद्दि शति । एषा परिनिर्वाण्य वाचना । व्य० १० उ० । परिणिव्वयंत- परिनिर्व्रजत् - त्रि० । परि समन्ताद् व्रजत् । संयमानुष्ठानो, सू० १३०३४० परिशिव्या परिनिर्वाण १० परि समन्ताचियतीति नि- घणम् । सकलकर्मकृतविकारनिराकरणतः स्वस्थीभवनं प रिनिर्वाणम् | स्था० १ ठा० । अनिवृत्तिरूपे, श्राचा० १ ० ४ ० २ उ० । सर्वकर्मक्षयरूपे ( संथा० ) सुखे, आचा० १ ०१ ६ उ० | सर्वदुःखानामन्ते, पं०सू० ४ सूत्र | कल्प० । मोक्षगमने, श्राव० ४ श्र० । स्वस्थीभवने निः १ श्रु० ५ वर्ग १ । "गे परिजिब्बाले । "-परिनिर्वाणम् एकमेकदा तस्य संभवे पुनरभावादिति । स्था० १ ठा० । कर्मकृतसन्तापाभाबेन शीतीभवने, और उपरतौ, मरणे, शा० १ ० १ ० । परिणिव्वाणचरिथणिबद्ध-परिनिर्वाण चरितनिषद्धन० ती प्रवर्तनचरमपरिनिर्वाणनिवदेनात्यविधी ० । परिथिब्बाणपुर-परिनिर्वाणपुर न० सिद्धिपतने घाय । आव० ४ श्र० । परिथिव्यामग्ग-परिनिर्वाणमार्ग पुं० कर्माभावप्रभवसुखोपाये, उत्त० २ ० निर्वृत्तिनगरीपथे, स्था० ६ ठा० । परिशिवावत्तिय परिनिर्वाणप्रत्यधिक परिनियं मरणं, तत्र यच्छरीरस्य परिष्ठापनं तदपि परिनिर्वाणमेव, तदेव प्रत्ययो हेतुर्यस्य सः सुतपरिठापननिमित्तके का योत्सर्गे, "तए णं ते थेरा भगवंतो खंदयं श्ररागारं कालमयं जाणित्ता परिणियाणवत्तियं काउस्सगं करे " भ० २ श० १ उ० । परिशि-परिनिर्वृति- स्त्री० । परिनिर्वाणे, श्रानन्दसुखावाप्तौ सूत्र० २ श्रु० २ श्र० । परिशिय-परिनिर्वृत- त्रि० । परि समन्तान्निर्वृतः। श्रशेषक क्षति, सू० २०१० कर्मकृतविकारविरहात् खस्थीभूते, स्था० १ ठा० । निर्वाणं गते पञ्चा० १६ वित्र० । स्था० जे० । कर्मक्षयसिद्धे, सर्वतः शारीरमानसा१५६ परिमा । स्वास्थ्यविरहिते, "एगे परिणि " परिनिर्वृत एक, द्रव्यार्थतया परिनिर्वृतशब्दाभिधेयत्वसाम्यात् वा । अन्यथा त्यनन्ताः । स्था० १ ठा० । कषायोपशमाच्छीतीभूते, परिनिर्वृत (सिद्ध) कल्पे, सूत्र० १ श्रु० ३ श्र० ४ उ० । श्राचा० । रागद्वेषविरहाच्छान्तीभूते, सूत्र० १ श्रु० ३ उ० । स्वास्थ्यातिरेकात् ( शा० १ ० ५ ० ) सर्वसन्तापवर्जिते, कल्प १०६ परि समन्तात्सर्वप्रकारैर्निर्वृतः । सफलसमीहितार्थलाभमक प्रसत्वात् शांतीभूते अनु० । परिणीय परिणीता श्री विवाहितकुमारिकायाम्, पाइ० ना० २२२ गाथा । - परिष्ा परि त्रि० । परि समन्ताद विशेषतो जानातीति प रिशः । ज्ञानयुक्ते, "ण इत्थी पुरिसे ण श्रमदा परिक्षे । आचा० १ श्रु०५ श्र० ६ उ० । परिष्मचारि ( ग ) - परिज्ञाचारिन् - त्रि० । परिज्ञानं परिक्षा सदसद् विवेकः, तथा चरितुं शीलमस्येति परिशाचारी । ज्ञानपूर्वक्रियाकारिणि, "तहा विमुकस्स परिचारिणों, चितीमतो दुक्खखमस्स भिक्खुणो। " श्राचा०२ श्रु०४ चू० १ ० । परिया परिक्षा-बी० परिक्षानं परिक्षा पो०५ विव । ज्ञाने, स्थाठा । सदसद्विवेके, श्राचा० २ श्र० ४ चू० १ अ० । सूत्र० । ध० र० । श्राव० । केवलेन मनसा पर्यालोचने, सूत्र० १ ० १ ० १ उ० । ज्ञानपूर्वके प्रत्याख्याने, स्था० ६ ठा० । परिक्षानपा सामं ठेवणपरिना, दव्वे भावे य होइ नायव्वा । दव्यपरिक्षा तिविहा, भावपरिभा भवे दुनिहा ॥ १० ॥ ( णाममित्यादि ) तत्र नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात्परिज्ञा चतुर्धा । तत्रापि नामस्थापने क्षुपत्वादनादृत्य द्रव्यपरिशां प्रतिपादयन् गाथापरार्द्धमाह व्यपरिजेति द्रव्यस्य येण वा परिक्षा द्रव्यपरिक्षा, सा च परिच्छेद्यद्रव्यप्राधान्यात्तस्य य् सवित्ताचितमिवेदन त्रैविध्यविधाते भावपरिशाऽपि शपरिज्ञाप्रत्याख्यानपरिक्षाभेदेन द्विविधेति शेषस्त्वा गम--नोश्यागम-शरीर अध्यशरीरव्यतिरित्रिक वि चारः शस्त्रपरिशावद् द्रष्टव्यः । सूत्र० २ श्र० ३ श्र० । परिक्षा चतुर्थेत्याह द जाया पचक्खाणे दविए सरीर उबगरणे । भावपरिष्मा जाणण. पचक्खाणं च भावे ॥ ३७ ॥ ( दव्वे सच्चित्ताssदी, भावे अणुभवण जाणा सपा य । मति होई जाणा पुण, अणभवणा कम्मसंजुत्ता ॥ ३८ ॥ आहारभयपरिगह मेहरासुदुक्खमोहवितिगच्छा । कोहमारामायलोभे, सोगे लोगे य धम्मोहे || ३६ ॥ * ) तत्र द्रव्यपरिक्षा द्विधा ज्ञपरिक्षा, प्रत्याख्यानपरिक्षा च । श परिक्षा श्रागमनोचागमदा शिवा आ कः, नोश्रागमतस्त्रिधा तत्र व्यतिरिक्ता द्रव्यपरिज्ञा यो यत् द्रव्यं जानीते सविताऽऽदिसा परियद्रयप्राधान्यात् इव्यपरिशेति प्रत्याख्यान परिज्ञाः प्येवमेव, तत्र व्यतिरिक्तद्र* एकस्मिन् मुद्रितपुस्तके श्मे गाये न स्तः । Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमा अनिधानराजेन्द्रः । परिमोयचिय व्यप्रत्याख्यानपरिक्षा देहोपकरणपरिक्षानम् . उपकरण च परिक्षामाहरजोहरणाऽऽदि, साधकतमत्वात्, भावपरिशाऽवि द्विधैव-- पंचविहा परिना पएणत्ता । तं जहा-उवहिपरिन्ना, उवझपारेशा, प्रत्याख्यानपरिज्ञा च । तत्रागमतो शातोपयुक्त. स्सयपरिबा, कसायपरिन्ना, जोगपरिन्ना, भत्तपाणपरित्रा। श्व, नोप्रागमतस्त्विदमेवाऽध्ययनं ज्ञानक्रियारूपम , नोश. (पंचविहेत्यादि) सुगमम् । नवरं, परिज्ञानं परिशा वस्तुब्दस्य मिश्रवाचित्वात् , प्रत्याख्यानभावपरिज्ञाऽपि तथैव, स्वरूपस्य ज्ञानं. तत्पूर्वकं प्रत्याख्यानम्, इयं च द्रव्यतो भावतआगमतः पूर्ववत्, नोबागमतस्तु प्राणातिपातनिवृत्तिरू श्च, तत्र द्रव्यतोऽनुपयुक्तस्य. भावतस्तूपयुक्तस्येति, श्राह चपा मनोवाकायकृतकारितानुमतिभेदाऽऽत्मिका शेयेति । श्रा " भावपरित्रा जाणण. पश्चखाणं च भावेणं ।" इति तत्रोचा०१७०१ अ. १ उ०।सूत्र०।उत्त० । स० प्रा० चू०।। पधीरजाहरणाऽदिस्तस्यातिरिक्तस्याशुद्धस्य सर्वस्य वा परितत्थ खलु भगवया परिमा पवेइया ॥१०॥ शा उपधिपरिक्षा. एवं शेषपदान्यपि, नवरम् उपाधीयते से. तत्र कर्मणि व्यापारेकार्षमहङ्करोमि करिष्यामीत्यात्मप-| व्यते संयमा । व्यते संयमाऽऽत्मपालनायेत्युपाश्रयः । स्था०५ ठा०२ उ० । रिणतिस्वभावतया मनोवाकायव्यापाररूपे भगवता वी- परिमाण-परिज्ञान-न०। परि समन्ताद् शानम् । घटपटशरवर्द्धमानस्वामिना परिज्ञानं परिज्ञा, सा प्रकर्षण प्रशस्ता दाऽऽदिविषये जाने, प्राचा०१ श्रु०२ १०१ उ० । अयमेवं. ऽऽदौ वा वेदिता प्रवेदिता। एतच्च सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिः विध इतिज्ञाने, शा.१श्रु०१०। नाम्ने कथयति । सा च द्विधा-अपरिज्ञा प्रत्याख्यानपरिक्षा परिमाय-परिझात-त्रि०। परीति सर्वप्रकारं झातः परिशातः। च। तत्र ज्ञपरिक्षया सावधव्यापारण बन्धो भवतीत्येवं ज्ञपरिक्षयेह परत्र च महानर्थतया विदिते प्रत्याख्यानपरिक्षा भगवता परिक्षा प्रवेदिता. प्रत्याख्यानपरिक्षया च सावद्ययोगा बन्धहेतवः प्रत्याख्येया इत्येवंरूपा चेति। या च प्रत्याख्याने, उत्त०१३ अाआचा। अमुमेवार्थ नियुक्तिकवाह परिज्ञाय-अव्य० । सम्यगवबुध्येत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०१५ श्रा तत्य अकारि करिस्सं--ति बंधचिंता कया पुणो होइ। । परिच्छिद्यत्यर्थे, प्राचा०१ श्रु०२१०३ उ०। सूत्र। हेयोसहसम्मइया जाणइ, कोइ पुण हेतुजुत्तीए ॥ ६७॥ पादेयतया बुद्धेत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु० ३ १०४ उ० । परिमायकम्म-परिज्ञातकर्मन्-त्रि० । परि समन्ताज्ज्ञातं कर्म तत्र कर्मणि क्रियाविशेषे, किम्भूत इत्याह-(अकारि करिस्संति ) अकारीति कृतवान् (करिम्सति) करिष्या स्वरूपतो विपाकतस्तदुपादानतश्च येन स परिक्षातकर्मा । मीत्यनेमातीतानागतोपादानेन तन्मध्यवर्तिनी वर्तमानस्य सूत्र०२ शु. १ अ० । सावधकरणकारणानुमतिनिवृत्ते, कारितानुमत्योश्चीपसंग्रहानवापि भेदा यात्मपरिणामत्वेन स्था०४ ठा०३ उ० परिज्ञातानि परिक्षया स्वरूपतोऽवग. योगरूपा उपात्ता द्रष्टव्याः। तत्रानेनाऽऽत्मपरिणामरूपेण क्रि तानि प्रत्याख्यानपरिक्षया च परिहतानि कर्माणि कृयादीयाविशेषेण 'बन्धचिन्ता कृता भवति' बन्धस्योपादानमुपा नि येन स परिक्षातकर्मा । परिक्षातकृध्यादिसावद्यब्यापारे, तं भवति, 'कर्मयोगनिमित्तं' बध्यते इति वचनात् एतश्च क स्था० ४ ठा० ३ उ०। विजानाति आत्मना सह या सन्मतिः स्वमतिर्वाऽवधि परिमायकिरिय-परिज्ञातक्रिय-पुं०। परिशातकर्मणि, प्राचा० मनः पर्यायफेवल जातिस्मरण रूपा तया जानाति, कश्चिश्व | १ श्रु०१०१३०। पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणया हेतुयुक्त्येति । श्राचा०११. परिमायगिहावास-परिज्ञातगृहाऽऽयास-पुं। परिक्षातो निः १५.१ उ०। सारतया गृहवासो येन स तथा । सूत्र०२ श्रु० १ असा प्रव. श्रुताध्ययने परिक्षारूपो गुणो भवति जिते, स्था०४ ठा० ३ उ०। सज्झायं जाणंतो, पंचिंदियसंवुडो तिगुत्तो य।। परिमायसंग-परिज्ञातसङ्ग-पुं०। परिज्ञातः सङ्गः सम्बन्धः स. होति य एगग्गमणो, विणएण समाहितो साह ।। बाह्याभ्यन्तरो येन सः । गृहसान्निर्गत प्रवजिते, सूत्र. २ अत्र च "सज्झायं जाणतो" इत्यनेन ज्ञपरिक्षया, 'पंचिं-| श्रु. १०। दियसंवुडो" इत्यादिना तु प्रत्याख्यानपरिक्षाऽभिहितेति परिमायसम्म-परिज्ञातसंज्ञ-त्रि०। परिज्ञाताः संशा आहारसं. द्रष्टव्यम् । वृ०१ उ.२प्रक०। परि समन्तात् ज्ञानं पापप-1 झाऽद्या येन सः परिक्षातसंज्ञः। त्यक्तसंझे, स्था०४ ठा०३ उ रित्यागेन परिक्षा । सामायिके, विशे० । (तत्र कथान परिमाविवेग-परिज्ञाविवेक-पुं०। परिक्षाविशिष्टतायाम् अकमिलापुत्रस्थ, तच्च ' इलापुत्त' शब्दे द्वितीयभागे ६३२ पृष्ठे गतम्) ध्यवसायविशेषे, प्राचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०।। गाथोच्यते परिमासमय-परिज्ञासमय-पुं० । सम्यग्ज्ञानविषये, “से हुप्पपरिजाणिकण जीवे, अज्जीवे जाणणापरित्राए। रिमासमयम्मि वट्टइ, णिराससे उवरयमेहुणे चरे।भुजंगमे जुसावञ्जजोगकरणं, पडिजाणइ सो इलापुत्तो ॥ मतयं जहा जहे, विमुज्झती से दुहसेज माहणे ॥६॥" परिज्ञाय जीवान् अजीवाँश्च (जाणणापरिरणाए इति)- आचा०२ १०४ चू० । परिक्षया, सावद्ययोगकरणं सावद्ययोगक्रियाम.(परिजागड परिस्मोवचिय-परिझोपचित-न। केवलमनोव्यापारण केवलत्ति) प्रत्याख्यानपरिक्षया परिजानाति, स इलापुत्रः । ग-1 कायक्रियोच्छेदेन वोपचिते हिंसाकर्मणि, सूत्र १ श्रु०१ त परिशाद्वारम् । श्रा० म०१०। श्रा००। भक्तमत्या- अ.२उ. (परिज्ञोपचित कमे न बध्यते भिक्षुलमये इति ख्याने, ६०१ उ० ३ प्रक०। अनशने, नि०चू०१०। 'कम्म' शब्दे तृतीयमागे ३३९ पृष्ठे चिन्तितम् ) Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंठा। (६२३) परितंत अभिधानराजेन्द्रः। परित्तकायसंजत्त परितंत-परितान्त-त्रिः । सर्वतः खिन्ने, शा० १९०८ अ०। वे, विशे० । स्था० । बृ० । नि.चू०। (द्रव्यतः परीतलक्षणम् विपा० । निर्विसे, शा० १ श्रु०८ अ०। विशे० । शा० । नि । 'अणंतजीव' शब्द प्रथमभागे २६५ पृष्ठे उक्तम् )। विश्रान्त, अणु० ३ वर्ग १ अ०। परित्तकायसंजुत्त-परीतकायसंयुक्त-त्रि०। परीतकायन वनपरितप्पमाण-परितप्यमान-त्रि । परि समन्तात् तप्यमानः। स्पतिना युक्ने, नि० चू०।। श्राचा० १ श्रु०२ अ. १ उ०। अतिदुखन पीज्यमाने, सूत्र. सुत्तं१७०५ श्र०२ उ० । “मम्मण" वणिग्वदार्तध्यायिनि, सूत्र० जे भिक्खू परित्तकायसजुत्तं आहारेइ, आहारतं वा साइ११०१० अ०। ('मम्मण' शब्दे कथां वक्ष्यामि) जइ ।४। परितलिय-परितलित-न। सुकुमालिकाऽऽदिके तैलादि परित्तयणस्सइकाइएणं संजुत्तं जो असणार अंजइ, तस्स तलिते, और। चउलहुं, श्राणाइणो य दोसा भवंति । परिताव-परिताप-पुं.1 परि समन्तात्तापः परितापः । उत्त० गाहापाई. २अ । गाढोमणि, उत्त०२ अ.। परितस्तापोत्पादने, जे भिक्खू असणाऽऽदी. भुजज परित्तकायसंजुत्तं । ध०३ अधिः । सूत्राचा । अन्तर्दाहे, सूत्र०२ श्रु०२ सो प्राणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे ।। १६ ॥ अ०। शोचे, पश्चात्तापे, सूत्र. १ श्रु० ३ १०४ उ० । श्राचा। तिहिं ठाणेहिं देवे परितप्पेजा । तं जहा-अहोणं मए इमा संजमविराहणासंते बले संते बीरिए संते पुरिसक्कारपरक्कमे खेमंसि सुभि तं काय परिच्चयती, तेण य चत्तेण संजमं चयते । क्खसि आयरियउवज्झाएहिं विजमाणेहिं कल्लसरीरेणं णो अतिखाइ अणुचितेण य, विसूइगादीणि आताए ॥१७॥ बहुए सुए अहीए ॥ १॥ अहो णं मए इहलोगपडिबद्धेणं तं ति परितं कार्य परिचयइ. न रक्षति, व्ययतीत्यर्थः । परलोगपरंमुहेणं विसयतिसिएणं णो दीहे सामनपारयाए तेण य परिचत्तेण संजमो चो, विराहिओ ति वुत्तं भ. अणुपालिए॥शाहोण मए इड्रिससायगुरुएणं भोगासं- वति । एसा संजमविराहणा, तेण य तिगदुयसंजुतेण प्रहप्पसगिद्धेणं णो विसुद्धे चरित्ता फासिए॥३॥ स्था०३ठा०३०॥ माणेण भुसेण, अणुचिएण य अजिन्नं, विसूरयाए पायटीकासुगमा। विराहणा। तत्थ इमे उदाहरणापरितावकर-परितापकर-त्रि । परमार्थेन दुःखानुभवकरे, भूतणगादीणि असणे. पागे सहकारपाडलादीणि । पो०१६ यिव । प्राणिनामुपतापहेती, ग) १ अधिः । श्री। खाइमें फलसुत्तादी, साइमें तंबोलें पंचजुयं ॥१८॥ परितावण-परितापन-त्रि। परिताप्यतेऽत्र । प्रश्न. १ प्रा. भूतृणं अजगो भन्नइ,तेण संजुत्तं असणं भंजद.आइसद्दानी श्र० द्वार । सर्वतः पीडने, ग०२ अधिक। करमाद्दयाऽऽदिफला, मूलगपत्तं,प्रासुरिपत्तं च,अजेय बहुपरितावणकर-परितापनकर-पुं०। प्राणिनामुपतापनहेती, श्र पत्तपुष्फफला देसंतरपसिद्धा, पाणगं सहगारपाडला, नीलुप्पप्रशस्तमनोविनये, औ०। लाईहि संजुत्तं पिवइ, खाइमे सुत्ते अंबफला पसिद्धाई परितावणकरी-परितापनकरी-स्त्री० । प्राणिनां दुःखद्भा- तेहिं स खायह, कविटुचिंचाइ वा लोणसहियं साइमे जा इफलं ककोलयं कप्पूरं लवंगं पूगफलं । एते पंच दव्या तंबीपायाम् , प्राचा० १ श्रु०२ ० ५ उ०। लपत्तसहिया खायह एत्थ तिनि अच्छिना । अहवा-पूगफलं परितावणस्सव -परितापनाऽऽश्रव-पुं० । परितापनपूर्वके श्रा खदिरवत् तं न गणिजइ, बीयपूरगतया पंचमा छुब्भद । सा श्रवे हिंसायाम् , प्रश्न. १ श्राश्र० द्वार। दुविहा-चित्ताचित्ता संभवइ । अहवा-संखचुमो, पूगफलं परिताचिय-परितापित-त्रि०ा सर्वतः पीडित,ध २अधिकामा खरी, कप्पूर जाइपत्तिया । पते पंच प्रचित्ता। पतेहिं स. हियं तंबोलपत्तं साइमे । परितात-परितापयत-त्रि०। समन्ताजातसन्तापे, भ०८ श० कारणे परत्त सहियं भुंजेजा७ उ० । बितियपदं गेलामे, अद्धाणे चेव तह य ओमम्मि । परितावेयब्ब-परितापयितव्य-त्रि० ! शारीरमानसपीडोत्पाद एएहि कारणेहिं, जयण इमा तत्थ कायब्बा ।।१६।। नतोऽपदावयितव्ये, आचा० १ श्रु०४.१ उ० सूत्र० । गलने वेजावएसा. अद्धाणे अनम्मि अलभते. श्रमि प्र. परितोस-परितोष-पुं०। आनन्द, पञ्चा० ७ विव०। प्रीतिवि संथरंता, एवमाइकारणहि इमा जयणा कायव्वा । शंप, पो०६ विव०। गाहापरित्त-परीत-पुं० । परि समन्तादितो गतः । प्रभ्रष्टे. सूब०२ अोमे तिभागमद्धे, तिभागमायंबिले चउत्थाई । १०६ ० । एकप्रदेशिकत्वन विष्कम्भाभावन परिमिते, णिम्मिस्से मिस्से वा, परित्तकायम्मि जा जयणा ॥२०॥ भ०१२ श.२ उ० 1 नं। नियतप्रमाणे, भ०५श०६ उन " पासेणं अरहया पुरिसादागिरणं सासए परित्ते।"भ०। णिम्मिस्सं सुद्धं, मिस्सं परित्तकायसंजुनं, सेसं जहा पेटे ५श०६ उ. प्रत्येकशरीशिणि परीतीकृतसंसारे च जी.' तहा बत्तव्वं नि० चू०१२ उ०। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परित्तजीव परिभाए परित्तजीव- परीतजीव - पुं० । प्रत्येकजीवे, “ जस्स जीवस्स परिप्पवंत परितवत् त्रि० । परिप्लवने, पाइ० ना० २६७ गाथा । भग्गस्स, समो भंगो य दिस्सए । परित्तजीओ से मूले, जेयावने तहाविद्दे ॥ १ ॥ " वृ० १ उ० २ प्रक० । परिप्पुय - परिप्लुत- त्रि । श्राप्लुते, स्था० ४ ठा० ४ उ० । परिया परिप्लुता स्त्री० पृताऽऽदिभिः परिप्लुतभोजनः परिप्लुत एव तं कृत्वा परिप्लुतयित्वा सुहस्तिनो रङ्कवत् या सा तथोच्यते । प्रव्रज्यामेवे, स्था० ४ ठा० ४ उ० । परिष्कंद-पसियन्द पुं० [देशदेशान्तरप्रालि क्रिया दे, सूत्र० १ ० १ ० १७० । - । परिकन्परिक चिनिष्फले, डू० ३ ३० - म० । परिफासिय परिस्ट वि० ध्याते दश० ५ ० १४० परिम्भट्ठ- परिभ्रष्ट वि० संसारगांयां पतिते उ०७ परितोणि- परीतयोनि - पुं० परीता योनिर्यस्य स परी तयोनिः । प्रत्येकजीवे, नि० चू० १ उ० । परिचतिग- परीतत्रिक ८० प्रत्येक शुभा प्रत्येकत्रि ( ६२४ ) अभिधान राजेन्द्रः / के. कर्म० २ कर्म० । परित्तमीसिया - परीतमिश्रिका - स्त्री० । प्रत्येक वनस्पतिवनस्पतिवातमनन्तकार्थिकेन सह राशीकृतमवलोक्य प्रत्येकवनस्पतित्वं सर्वोऽपि चति भाषायाम् ११ पद परित्तसंसारिय परीवसंसारिक पुं० परीतः परिमितः स या मी संसारः परीतसेवा, सोउपारनीति परीतारिफ " अतोऽनेकखरावू " || ७ |२| ६ || ( हैम० ) इतीक राप्रत्ययः । सान्तसंसारे, परिमितसंसारे, प्रति० । दुबिहा रहा पणता । तं जहांपरित्तसंसारिया चेव, अपरित्तसंसारिया कोय" । स्था० २ ठा० २० । 67 परिम्भत देशी-निपिदे भी च० ना० ६ वर्ग ७२ गाथा । वेप्पं ।" प्रा० ४ पाद परिम्भविव परिभ्रान्त त्रिपटिने असमओ।" सङ्घा० १ अवि० १ प्रस्ता० । परिभव- परिभव- पुं० । जुगुप्सायाम्, गर्दीयाम्, सूत्र० २ परिदेवता परिदेवनता स्त्री० पुनः पुनः क्रिष्टभाषणे परिम्भमंत परिभ्रमत् त्रिपर्यटति "पत्थरमंती स्था० ४ ठा० १ उ० । श्रर्तध्यानलक्षणे, द० । परिदेवि परिदेवित- श्रि० चिलविते पाह० ना० १६६ गाथा । परिपासा - परिपार्श्वक पुं० । रात्रिक्षेत्ररक्षके, " परिपासउ त्ति छेते, जो पुरिसो सुनहराईए ।" पाइ० ना० २१६ गाथा । परिपिंडिय परिपिडितजि ऐक्यमापादितेषु बहुषु वः स्तुपु, आव० ३ श्र० । वन्दनदोषभेदे, न० "परिपिंडियं वयकरणवादि" परिचितिं प्रभूतानां युगपद्वन्दनम् य कुरुपरि दस्ती व्यवस्थाप्य परिपिडितकरचरणस्या व्यक्तसूत्रोच्चारणपुरस्सरं वन्दनम् । ध० २ अधि० । श्राः चू०| परिपिहिता - परिविधाय -अव्यः कुपित्वेत्यर्थे प्रायाः २ ध्रु० १ ० २ श्र० ३ उ० । परिपीलिय - परिपीडित - त्रि० । दुःखिते, निर्गलिते, प्रश्न० ३ - आश्र० द्वार । परिपीलिय- परिपीडय - अव्य० । यूपरुधिरादिकं निर्माल्ये त्यर्थे सू० १ ० ३ ० ४ उ० । परिपुष्ा परिपूर्ण त्रि० अनुपहते, उत० १ ० परिपुगिदिया परिपूर्णेन्द्रियता स्त्री अनुपहतचतुरादिकरणतारूये शरीरसंपदे, स्था० ८ ठा०| 1 परियूग-परिपूणक पुं० तीरगालने, सुगृहाभिधानवकाकुलाल नं० आ०म० विशे० सुगृद्दाटिकाविर विते नीडविशेषे, विशे० ॥ श्र० क० । परिपूय परिपूत- त्रि० गालिते, "दूसपट्टपरिपूर्य " वस्त्रपट्टगा लितमित्यर्थः । तं० | ज्यो० । श्र० । कल्प० । र निःसारे घरा आया 0 अ० । २ उ० । परिभवविशिवाय परिभवनिनिपात पुं० । पराभिभवसंप औ। परिशुसियसंपन्न - पर्युषितसंपन्न - पुं० पर्युषितं रात्रिपरिवसनं तेन संपन्नः पर्युषित संपन्नः । इदुरिकादी आहारभेदे, ता हि पचितकनीकृता आम्लरसा भयन्ति, आरमनास्थिताssम्रफलाssदि चेति । स्था० ४ ठा० २ उ० । परिभाईत - परिभाजयत् त्रि० । विभज्य ददत्ति, " परिभुजंताणि वा परिभाईाणि विच्छ्रमाणाणि वा । " श्राचा० २ श्र० २ चू० ११ श्र० । नि० चूर । ज्ञा । परिभाइज्मनाथ - परिभाज्यमानत्रिपामनाग्मनाम् दीयमाने, रा० आचार । जी० । परिभाइत्ता - परिभाज्य-श्रव्य० । विभागैर्दध्वेत्यर्थे, कल्प १ श्रधि० ५ क्षण । " परिपेलव-परिपेलय परिभाव्य - अय० । श्रालीच्येत्यर्थे, कल्प० १ अधि०५ क्षय । परिवाइव परिभाजित वि० पूर्वमेव पयःपरिक श्राचा० २ ० १ ० २ श्र० ३३० । १ ० १ ० २ उ० । परिपोसिज्र्ज्जत - परिपोष्यमाण- त्रि० । उपचीयमाने, पं० सू० परिभाएडं परिभाजयितुम् अव्य० । दायाऽऽदिषु विभज्य दा१ सूत्र । तुमित्यर्थे "पका दाई परिभाए।" परिभातयितुं दाया श्रु० २ श्र० । परिभवत् परिभवन ज० श्राभावपार्थपरहारेण पि यायाम् श्र० । परिमवशिग्ज परिभवनीय त्रि० । अनभ्युत्थानाऽऽदिभिः । ( शा० २ श्र० ३ ० ) अवज्ञायमाने, सूत्र ०१ श्रु० २ श्र० 1 Su - Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२५) अनिधानराजेन्छः | परिभाए दीनां प्रकामं दानादिषु यावत् नापि देवमलं तावदस्तीति हृदयम् । भ० ६ श० ३३ उ० । परिभाषा परिभाज्य-श्रव्यः । विभागीकृत्येत्पर्थे श्राचा० २ ० १ ० ६ ० २३० । 1 परिभाषमाण-परिभाजयत् पि परस्परं यच्छति, कल्प अधि०५ क्षण । ददति भ० १२० १ उ० । श्राचा० । परिभाषमाणी - परिभाजयन्ती - स्त्री० । ददत्याम् विवा० १ अ० २ श्र० । श्राचा० । परिभायंतिया - परिभाजयन्तिका -स्त्री० । पर्वदिनेषु स्वजनटहेषु खरायादेः परिमाजानकारिकायाम् ०१०७० परिभाषण - परिभाजन न० दाने अनुदाने व ०२ उ० । नि० चू० । परिवेषणे. नि० चू० १ उ० । परिभावइत्ता - परिभावयितृ त्रि० । प्रभावके, स्था०४ठा०४७० | परिभावीय परिभावनीय वि० पर्यालोचनीये पञ्चा ४ विव० । - परि समन्तात् भारयन्। प्रति परिभासा - परिभापयन पादने, सुत्र० १ ० ३ ० ३ उ० । वचने. सूत्र० १ ० ३ अ० ३ उ० । साध्वाचारनिन्दाया विधाने, सूत्र० १ ० ३ अ० ३ उ० । परिभासा - परिभाषा स्त्री० परिभाषणं परिभाषा । अपरा धिनं प्रति कोपाssविष्कारेण मा यासीरित्यभिधाने, स्था० ७ डा० परिभाष्यपनयेति परिभाषा चूर्णी नि०-२००० परिभासि ( ) - परिभाषिन् भि० परिभवकारिणि, स० २० समः । परिभुंजंत - परिभुञ्जान त्रि० । अभ्यवहरति नि० चू० १४० । “असणं पां खाइमं साइमं परिभुंजताणिवा परिभाईाणि वा।” श्रावा०२ श्रु०२ चू०४ श्र० नि० ०। श्रभ्यवहारं कुर्वति, नि० चू० १ उ० । परिभुंजे माण- परिभुञ्जान त्रि० । परिभोगं कुर्वीणे, भ० ३ श० १ उ० । परिमु प्रमाण - परिभुज्यमान- त्रि० । परिभोगायोपयुज्यमाने, जं० १ वक्ष० । 64 अगपिंडं परिभुजमाएं ।" श्रचा० २०१ चू० १०५ उ० । परिभुत - परिभुक्त-त्रि । कृतपरिभोगे. आसेविते, " परिभुतं वा अपरिभुतं वा । " आवा २ श्रु० १ चू०१ ०१ उग स्थान परितपरिक्रपूर्व-वि पूर्वपराया० २ ० १ चू० २ श्र० ३ उ० । परिभोगेसवा ङ्गनाऽऽदिके, आतु० । ( 'एक द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां परिभोगः 'पिंड ' शब्दे वक्ष्यते) ते कालेयं ते समए रायगिहे ० जाव भगवं गोयमे एवं वयसी अह भंते! पायाइवाए मुसावाए जान मिच्छादंससल्ले पाणाइवाए वेरमणे ० जाव मिच्छादंसयसने वेरमणे पुढविकाइए० जाव पणस्सइकाइए धम्मforate मत्थिकाए आगासत्थिकाए जीवे असरीस्पषिद्धे परमाणुपोग्गले सेलेसि परिवार अणगारे सब्बे यादवोंदिधरा कडेवरा एएणं दुविहा जीवदव्त्रा य, जीवदना जीवदनायं परिभोगता हव्यमागच्छे ति है। गोमा ! पाणाइराए० जान एएवं दुबिहा जीवदव्या व अजय व अत्थेगया जीवाणं परिभोगता हव्यमागच्छति, अत्थेगइया जीवाणं० जाव णो हव्वमागच्छति से केरा पायाइवाए० जाव यो हन्यमागच्छन्ति ? । गोयमा ! पाणाइवाए जाव मिच्छादंसणसीकाइए० जाव वणस्भड़काइए सच्चे व बादरबोंदिधरा कडेवरा एएवं दुविहा जीवदष्वा य, अजीवदव्या य, जीवाणं परिभोगत्ताए हन्यमागच्छेति । पाणाइवायवेरम[० जाव भिच्छादंसणस ल्लविवेगे धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए० जाव परमाणुपले सेलेसि पडिवनए अणगारे एए दुमिहा जीवदव्या, अभीवदव्या य जीवाणं परिभोगचाए हव्यमागच्छति । से तेरा द्वेणं ० जाव णो हव्वमागच्छति । (द) (जीचे सरीरपांडवडे लि ० रो जीवः । (बादरवादिधरा कलेवर ति) स्थूलाऽऽकारधराणि न सूक्ष्माणि कडेवराणि निश्चेतना देहाः, अथवा, बादरयदि बादराकारधारिणः कंडेवराव्यतिरेकात्कडेवरात् द्वीन्द्रियाऽऽदय जीवाः (परणमित्यादि) पतानि प्राणातिपाताऽऽदीनि सामान्यतो द्विविधानि न प्रत्येकं तत्र पृथिवीकायाssवये । जीवद्रव्याणि प्राणातिपाताऽऽदयस्तु न जीवद्र व्याणि अपितु मी इति न जीवद्रव्याश्वजीयाणि क 1 स्तिकादयस्तु जीवरूपाणि पाणीतिकृत्वा जी या जीवानां परिभोग्यत्वाचाऽऽगच्छन्ति प रिभुज्यन्त इत्यर्थः तत्र प्राणातिपाताऽऽई पदाकरोति तदा तान् खेचते, प्रवृत्तिरूपत्वापानित्येयं तत्परिभोगः । अथवा चारित्रमोहनीय कर्मलिकभोग हेतुत्यायेषां चारित्र मोहासुभोगः प्राणातिपाताऽऽदिपरिभोग उच्यते विध्यादीनां तु परिभोगो गमनशोचनाऽऽदिभिः प्रतीत एव, प्राणा लारमामां तु न परिभोगोऽपिचादिि तिरूपत्वेन जीवल्यरूपत्वारोपां धर्मास्तिकायादीनां ममूर्तयेन परमायेोः प्रत्वेन शैलेशीप्रतिपचा लगा रस्य च प्रेषणाद्यविषयः येनानुपयोगित्दा परिभोग इति । भ० १८ श० ३ उ० । परिभूय - परिभूत- त्रि० । तिरस्कृते, स्था० ८ ठा० प्रश्न० । परिभोग - परिभोग - पुं० । परिभुज्यते इति परिभोगः पुनः पुनर्व. स्त्वादेभोंगे, परिस्याभ्यावृती वर्तमानत्वात् वसना ङ्कारादेर्व हिमोंगे च । परिशदस्य बहिर्वाचकत्वात् । आव ०६ अध स्था०| "पुणे पुणे परिभोगी वत्थाऽभरणाऽऽदी पुष्फलं बोलाई।" श्र० चू० ६ अ० उपा० आसेवने, प्रश्न० ३ श्रथ द्वार | पश्चा० स्वषैलायां वस्त्राऽऽदेः परिभोगे, बृ२३ परिभोगेसया - परिभोगेषणा - स्त्री० । प्रासैषणायाम्, उत्त० उ० । परिभुज्यत इति परिभोगः । पुनः पुनर्मोज्ये गृहा २४ अ० । १५७ O Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिभोत्तुं अनिधानराजेन्द्रः। परिमोक्ख परिभोत्तं परिभोक्तुम्-अव्या पानाऽदिपरिभोगं कर्तुमित्यर्थे, तं जहा-कालिअमुअपरिमाणसंखा, दिहिवायसुअपरिमा"सिया य गोयरग्गगो. इच्छे-जा परिभातु य । पकोटुगं भि- णसंखा य । से किं तं कालिप्रसुअपरिमाणसंखा ?। कालिशिगूल वा, पडिले हिताण कासुझं ॥२॥" दश०५१०१ उ.।। असुअपरिमाणसंखा अणेगविहा पस्पता। तं जहा--पजवपरिमंडण परिमण्डन-न । भूषायाम् , प्रश्न०१ श्राश्र० द्वार । संखा अक्खरसंखा संघायसंखा पयसंखा पायसंखा गाहापरिमंडल-परिमण्डल-न० । बहिस्ता वृत्ताऽऽकारे मध्ये सु. संखा सिलोगसंखा वेढसंखा निज्जुत्तिसंखा अणुओगदाघिरे बलयस्येव संस्थानभेदे, भ.१४ श०७ उ० प्रज्ञा स्था० रसंखा उद्देसगसंखा अज्झयणसंखा सुअखंधसंखा "एगे परिमंडले।" परिमण्डलं संस्थानं वलयाकारं प्रतरघ अंगसंखा । से तं कालिअसुअपरिमाणसंखा । से किं तं नभेदाद द्विविधमिति तदैक्यं परिमण्डलल्वसाम्यात् । स्था० १ ठा०। वृत्तभावे, श्रीगोलाऽऽकारे, "पेढाल-निअक्कल-बट् दिद्विवायसुअपरिमाणसंखा ? | दिहिवायसुअपरिमाणसंखा टुलाई परिमंडलथम्मि।" पाइ० ना. ८४ गाथा। अगविहा पम्मत्ता । तं जहा- पजवसंखा० जाव अणुओगपरिमंडलसंगण-परिमण्डलसंस्थान-न० । वलयाऽऽकारे, दारसंखा पाहुडसंखा पाहुडिआसंखा पाहुडपाहुडियासंखा भ०८ श. १० उ० अनु। वत्थुसंखा । से तं दिहिवायसुअपरिमाणसंखा। से तं प. परिमंडिय-परिमण्डित त्रि० परि सामस्त्येन मण्डितम् । भू- रिमाणसंखा। विते. औः। रा०। संख्यायते अनयेति संख्या, परिमाणं पर्यवाऽऽदि तद्रूपासंपरिमण-परिमर्दन-ना पृष्ठाऽऽदेर्मल नमात्रे परिशब्दस्य धा ख्या परिमाणसंख्या, सा च कालिकधुतदृष्टिवादविषयत्वेन द्विविधा, तत्र कालिकसूत्रपरिमाणसंख्यायां पर्यवसंख्या इत्या त्वर्थमात्रवृत्तित्वात् । स्था० ४ ठा० ३ उ० । श्री। दि पर्यवाऽऽदिरूपेण-परिमाणविशेषेण कालि कश्रुतं संख्या परिमल-परिमल-पुं० । सुगन्धे, पाइ. ना० १४७ गाथा। यत इति भावः। तत्र-पर्या पर्याया धम्मा इति यावत् । तद्रूपा परिमाइय-परिमात्रिक-त्रिसर्वतो मात्रावति, भ०३ श० संख्या पर्यवसंख्या । साच कालिकश्रुते अनन्तपर्यायाऽमिका ६ उ०। द्रष्टव्या. एकैकस्याप्यकाराऽऽद्यक्षरस्य तदभिधयस च जीदा दिवस्तुनः प्रत्येकमनन्तपर्यायत्वात् एवमन्यत्रापि भावना परिमाण-परिमाण-न० । संख्याने, स्था० १० ठा। इयत्ता कार्या नवरं संख्येयान्यकाराऽऽद्यक्षराणि,याद्यक्षरसंयोगरूपाः • थाम् , सूत्र. १७०१ १०४ उ० । तच्च महदणु दीर्घ हस्वमि संख्येया संघाताः, सुप्तिडन्तानि समयप्रसिद्धानि वा संख्येया. ति चतुर्विधं व्यवहारकरणम् । सम्म०३ कारड । (निर्ग्रन्था नि पदानि. गाथाऽदिचतुर्थाश रूपाः संख्येयाः पादाः, संख्येया नां परिमाणद्वारम निग्गंथ' शब्दे चतुर्थभागे २०४४ पृष्ठे गाथाः संख्येयाश्च श्लोकाःप्रतीताः, एवं छन्दोविशेषरूपाः संगतम् ) (संयतानां च 'संजय ' शब्दे वक्ष्यते) रुपेयावेएकाः. निक्षेपनियुक्त्युपोद्घातनियुक्किसूत्रस्पर्शकनिपरिमाणकड-परिमाणकृत-न० । परिमाणं संख्यानं दत्तिकब युक्तिलक्षणात्रिविधा नियुक्तिः व्याख्योपायभूतानि सत्पदप्ररूलगृहभिक्षाऽऽदीनां कृतं यस्मिस्तत् परिमाण कृतम्, इत्यादि. पण ताऽऽदीन्युपक्रमादीनि वा संस्पेयान्यनुयोगद्वाराणि. संभिः कृतपरिमाणे, भ०८ श०२ उ० । स्था०। ल० प्र०. ध०। ख्या उद्देशाः,संख्येयान्पध्ययनानि, संख्येयाःश्रुतस्कन्धाः सं. कृतपरिमाणे, "रति परिमाण कडे।" मैथुनसेवनं प्रति कृत. ख्यान्यङ्गानि । एषा कालिक तपरिमाणसंख्या एवं दृष्टिवायोषिद्भोगपरिमाणे, पश्चा० १० विवः । श्राव० । देऽपिभावना कार्या, नवरंप्राभृताऽऽदयः पूर्यान्तर्गताः श्रुतादत्तीहि व कालेहि व, घरेहि भिक्खाहिँ अहव दव्वेहिं ।। धिकारविशेषाः। (सेत्तमित्यादि ) निगमनद्वयम् । अनु० । जो भतपरिचायं, करेइ परिमाणकडमेयं ॥ १५७६ ॥ | परिमास-परिमर्श-पुं० । जलधिजलस्पर्श, नाविकमसिद्धे च नौगतकाष्ठविशेषे, शा० १ ध्रु० अ०। दतिभिर्वाकवलैर्वा गृहैमिक्षाभिः। अथवा-द्रव्यैरोदनाऽऽदिभिराहाराऽऽयामितमानर्यो भनपरित्यागं करोति (परिमाण- | परिमय-परिमित-त्रि० । परिमाणतो मिते. श्रा०म० १०॥ कडमेयं ति) कृतपरिमाणमेतदिति गाथासमासार्थः ॥१५७६॥ | परिमियपिंडवाइय-परिमितपिएडपातिक पुंछ । परिमिती "अवयवत्थो पुण-दत्तीहिं अज मप एगा दत्ती दो वा ३-४५ द्रव्याऽऽदिः परिमाणतः पिर डपातो भक्ताऽऽदिलाभो दत्ती, किं चादत्तीय परिमाणं?. वच्चगं (सित्थगं पि) एकसि | यस्याऽस्ति स परिमितपिण्डपातिकः । स्था०५ ठा०१ छुम्भा एगा दत्ती, डोवलियं पि जत्तियात्री वाराओ पप्फो. उ० । अर्द्धयोगाऽऽदिलाभं प्रति कृतपारमाणे, सूत्र०२ श्रु० डेद तावदयारोताओ दत्तीप्रोपर्व कबले एके ग. जाव व.। २० । तीसंदोहि जाण या कवलेहिं, घरोहिं एक्कादिपाहि २.३४। मि-परिमियभत्तदाण-परिमितमतदान न० परिमितानां भक्तका खामोपकाइशानी २३-४ादब्ध अदुर्ग श्रोदणे खज्जनविरपितव्यमिति निश्चये, व्य०६उ०। ही वा पायंधिलं वा श्रमगं वा कुसणं एवमाइ विभासा" | गतं कृतपरिणामद्वारम् । श्राव: ६ अ०। पारभोक्ख-परिमोक्ष-पुं० । परित्यागे, सूत्र.१ श्रु० १२ १०। समन्तान्मोते " अणुवरया अविनाए परिमोक्खमाहु।" परिमाण खा-परिमाण संख्या-स्त्री. । संख्याभेदे, अनु। आचा०१श्रु०५१०१ उ०। प्रतिमोक्षे । ऋण नोक्षे, से किं तं परिमाणसंखा?! परिमाणसंखा दुविहा पसत्ता।' स्था०३ ठा०३ उ० Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परियंत अभिधानराजेन्द्रः । परियट्रियं परियंत-पर्यन्त-पुं० । सकलान्तिमे, प्रश्न० ३ श्राश्च द्वार। संप्रति लौकिकस्योदाहरणं गाथात्रयेणाऽऽहपरियच्छिय-परिकक्षित-त्रि० । परिगृहीते , श्रा० म०१ श्रा अवरोप्परसज्झिलगा, संजुत्ता दो वि अनमन्त्रणं । परियट्ट-परावर्त-पुं० । पुद्गलपरावर्ते, विशेः । श्रा० मपं. पोग्गलिय संजयट्ठा, परियट्टण संखडे बोहा ।। ३२४ .. चू। पं० भा० । (तस्य चन्द्राऽऽदिभेदभिन्नस्य प्ररूपणा अणुकंप भगिणिगेहे, दरिद परियट्टणा य कूरस्म । 'पोग्गल परिय' शब्दे वयते) पुनः पुनः स्थापनेन परिव पुच्चा कोदवकूरे, मच्छर माइक्ख पंतावे ॥ ३२५ ॥ तने. ज्ञा. १ श्रु०३ अ०। इयरो वि य पंतावे, निसि ओसवियाण तेसि दिक्खा य । परियग-परिवर्तक-पुं० । वनपरावर्तग्राहके, नि० ० तम्हा उ न घेत्तव्यं, कइ वा जे ओसहिति ? ॥३२६॥ २० उ०। परियण-परिवर्तन-न०। परिपालने, व्य. ६० । द्विगुण वसन्तपुरे नगरे निलयो नाम श्रेष्ठी, तस्य सुदर्शना नाम भार्या, तस्या द्वौ पुत्रौ । तद्यथा क्षमङ्करो, देवदत्तश्च लक्ष्मीत्रिगुणाऽऽदिभेदे, वर्तने, प्राचा० १ श्रु० २.१ उ० । वाम नाम च दुहिता,तत्रैव वसन्तपुरे तिलको नाम श्रेष्ठी, सुन्दरी पार्श्वेन वर्तने, स्वार्थे ऽनट् । आव० ४ अ०। नाम तस्य महेला, तस्या धनदत्तः पुत्रो, बन्धुमती दुहिता, परियणा परिवर्तना-स्त्री।पुनः पुनर्भवने. प्रश्न०१माश्रे० तत्र क्षमङ्करः समितिसूरीणामुपकण्ठे दीक्षां गृहीतवान् , द्वार । सूत्रपाटस्य मुहुर्मुहुर्गुणने, उत्त० २६१०। सूत्रस्य देवदत्तेन च बन्धुमती धनदत्तेन च लक्ष्मीः परिणीता अन्य. गुणने, स्था०५ ठा०३ उ० : पूर्बाधीतस्यैव सूत्राऽऽदेरबिस्मर दाच कर्मवशतो धनदत्तस्य दारिद्र-यमुपतस्थे, ततः स णनिर्जरार्थे अभ्यासे स्था० ५ ठा०३ उ.1 धाव.।" परि- प्रायः कोद्रयरं भुलो, देवदत्तश्च वरः, ततः स सर्वदेव शा. यदृणा नाम परियणं ति अज्झवसाणं ति गणणं ति वा। ल्योदनं भुक्ने, अन्यदा च सक्षमङ्करः साधुर्यथा विहारक्रम एगट्ठा।" दश० १ श्र। प्रा०चू० । श्रा०म० । एष स्वा. तत्राऽऽजगाम । स च चिन्तयामास-यदि देवदत्तस्य भ्रातुर्मू. ध्यायभेदः। स्था०५ ठग ३ उ०। उत्त० । हे गमिष्यामि ततोमे भगिनी दारिइयेणाहमाभभूता ततो न परिवर्तनाविधिरेषः मम गृहे साधुरपि भ्रातासमुत्तीर्ण इति परिभवं मंस्यते इति। " इरियं सुपडिक्वंतो, कडसामइओ व सुटु पिहियमुहो। ततोऽनुकम्पया तस्या एव गृहे प्रविवेश. भिक्षावेलायां व सुतं दोसविमुत्तं, सपयच्छेवं गुणइ सड्ढा ॥१॥” इति । तया लक्ष्म्या चिन्तितम्-यथा एकं तावदयं भ्राता द्वितीयं घ०र०२अधि० ३ लक्ष। साधुः तृतीयं प्राधूण का, मम च गृहे कोद्वरकूरः, ततः परियट्टणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ । परियट्टणयाए कथमसावस्मै दीयते शाल्योदनश्च मम गृहे न वियत. ततो णं बंजणाई जणयइ वंजणलद्धिं च उप्पाएइ ॥ २१ ॥ भ्रातृजायायावन्धुमन्याः सकाशात् कोद्रबौदनपरावर्तनेन हे पूज्य हे स्वामिन् ! परिवर्तनया शास्त्रस्य गुणनेन जी. शाल्पादनमादाय ददामीति तथैवं कृतम्। श्रधान्तरे व देववः किं जनयति । गुरुराह-हे शिष्य! परिवर्तनया जीवो व्य दत्तो भोजनार्थ स्वगृहमागतः, बन्धमत्या च पप्रच्छे-यथाऽद्य अनानि अक्षराणि जनयति, विस्मृतान्यक्षराण्यानयति, त फोद्यौदनो जेमितव्यः, तेन चाविज्ञातपरिवर्तनवृत्तान्तेन थाविधकर्मक्षयोपशमात्. व्यञ्जनलधि व्यञ्जनसमुदायरू. चिन्तितम् यथाऽनया कृपणतया कोद्वौदनो राद्धो न शापां पदलब्धि पदानुसारिणी लब्धि जनयति ॥ २१ ॥ उ ल्योदनः, ततस्तां ताडयितुमारेभे, सा च ताड्यमाना प्राहत०२६ श्र। किं मां ताडयसि. तवैव भगिनी कोद्रधौदनं मुक्या शाल्योपरिवतिग-परिवर्तत्रिक-न० । प्रत्रज्यापर्यायपरिवर्तत्रिके, दनं नीतवती. धनदत्तयाऽपि च भोजनार्थमुपविष्टस्य यः शाल्योदनः क्षमङ्करस्य दीयमान उद्धरितःस गौरवेण लदम्या तञ्च-छे दत्रिक, मूलत्रिकमनवस्थाप्यविकं च । व्य० १ उ०। परिवेषितः, ततस्तेन सा पृष्ठा-कुतोऽयं शाल्पादनः । ततः परियट्टिय-परावर्तित-न । साधुनिमित्ते कृतपरावर्ते, पि.।। कथितः सर्वोऽपि तया वृत्तान्तः, श्रुत्वा च तं वृत्तान्तं चुकोप श्राचा । यदि प्रतिवेशिकगृहे परिवर्त्य ददाति । श्राचा० २ धनदत्तो यथा हा पापे! किमिति तथा मानमेकं शाले पत्या श्रु.१चू१०० उ० । ग01 ध०। पं० सू०। पं० भा०। साधये शाल्पोदनो न दत्तो यत्परगृहादानयनेन मालिन्यअव संभवति दशमे उद्गमदोषे, पिं०।। मापादितं, ततस्तेनापि सा ताडिता, साधुना चायं वृत्ताअधुना परिवर्तितद्वारमभिधित्सुराह तो गृहदयवर्ती सर्वोऽपि जनपरम्परातः शुश्रुषे, ततो निशि सर्वारयपि तानि प्रतिबोधितानि, यथेस्थमस्माकंन कल्पते, परियट्टियं पि दुविई, लोइय लोगुत्तरं समासेण । परमजानता मया गृहीतम् , अत एव च कलहाऽऽदिदोषसं. एकेकं पिय दुविहं, तदधे अन्नदव्वे य ॥३२३ ॥ भवात् भगवता प्रतिषिद्धं ततो जिनप्रणीतं धर्म सविस्तरं परिवर्तितमप्युक्तशब्दार्थ समासनसंक्षण द्विविधम् । तद्य. कथितवान् जातः सर्वेषामपि संवेगो, दत्ता च दीक्षा ते. था-लौकिक, लोकोत्तरं च । एकैकमपि द्विविधम् । तद्यथा | षां सर्वेषामिति । सू सुगमम् , नवरम्-अवरोप्परतद्धये तद्व्यविषयं, अन्यद्रव्येऽन्यद्रव्यविषयं च । तत्र सज्झिलगा इति) लक्ष्मीदेवदत्ता बन्धुमतीधनद तो परस्पर तद्रव्यविषयं यथा कुथितं घृतं दस्खा सावुनिमित्त सुगन्धि सभिलगौ भ्रातरी, ते च द्वे अपि लक्ष्मीबन्धुमत्यौ। (अन्नघृतं गृह्णाति इत्यादि । अन्यद्रव्यावषयं यथा कोद्रवरं स-1 मन्नणं ति) अन्योन्यमपिसंबद्ध, देवदत्तस्य भगिनी लक्ष्मीर्धमर्पयित्वा साधुनिमित्तं शालोदन गृह्णातीत्यादि । इदं च नदत्तेन, धनदत्तस्यापि भगिनी बन्धुमती देवदत्तेन परिणीता लौकेकर : एवं लोकोत्तरमवि भावनीयम्। इत्यर्थः । (पोग्गलिय त्ति) पौरालिकस्य शाल्योदनस्य, संया Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२८ ) अभिधानराजेन्द्रः । परिपट्टिय तार्थ क्षेमङ्करसाधुनिमि परिवर्तनं कृतं ततः संखयं कल हः, ततो 'बोधिः' प्रव्रज्या ॥ २२४ ॥ अभ्या एव गाथाया विवर भूतमुत्तरं गाथाद्वयम्, तदपि च सुगमं, नवरम् (मच्छर ति) विभक्लिपात् मत्सरेण (नि) परिवर्तने अकथिते ( पंतावे ) श्रताडयत् । ( श्रसवियाण त्ति ) उपशमितानां, मनु परिवर्तनमपीदं प्रवज्यायाः कारणं वभूव ततो विशेषतः साधुभिरिदमाचरणीयमत श्राह - ( कह व ति ) कति वा कियन्तो या नरसाखा भविष्यन्ति ये इत्थं परिवर्ण क्षेमङ्कर साधुसदृशा । समुरर्थ कसमपनीय प्रज्यां प्राहविष्यन्ति तस्मादमाचरणीयम् । उक्रं लौकिकं परिवर्तनम् अथलोको तप तत्र यत्साधुः खाधुना सह बखादिपरिवर्तनं करोति शोको परिवर्तनम् । तत्र दोषानुपदर्शयति हिय दुब्बलं था, खर गुरु च्छिम महलं असीयसहं । दुब्व वा नाउं विपरिणमे अभ िवा ।। ३२७ ॥ परिवर्तने कृते सति इदं न्यूनं यतु मदीयं च बभूव तत् मानयुक्तं प्रमाणोपपन्नम् । यद्वा इदमधिकं मदीयं पुनर्मा नयुक्तम् । एवं सर्वत्र भावना। नवरं दुर्बलं जीर्णप्रायं, खरं कर्कशस्पर्श, गुरु स्थूलनिष्पतया भारनिपुष्पकं, मलिनं मलाऽऽबिलम्. अशीतसहं शीतरक्षणाक्षमं, दुर्बर्ण विरूपच्छायम् इत्थंभूतं स्वयमेव ज्ञात्वा विपरिणमेत् । पृष्टोऽहमिति विचिन्तयेत् या अन्येन साधुना सम्पूदन भणित उपासितो विपरिणमेत् । 1 अत्रैवापवादमाह एगस्स माणजुतं, न उ बिइए एवमाइ कजेसु । गुरुवाले उपणं, सो दलबद्द अमहा कलहो । ३२८ ॥ एकस्य साधार्यस्य सत्कं तं न भवति तस्य मानयुक्तं प्रमालोपपन्नं बाऽऽदि, न द्वितीये द्वितीयस्य साधोर्यस्य सत्कं तस्य मानयुकं किं तु ? --न्यूनमधिकं वा तत एवमादिषु कार्येषु समुत्पन्नेषु परिवर्तनस्य संभवो भवति, तत्र परिव नस्य संभव सरकं तत् यखाऽऽदितेन गुरुपादमूले तरूपाऽऽदेापनं कर्तव्यं गुरुपादमूले माध्यमित्य र्थः । ततो वृत्तान्तः कथनीयो. वृत्तान्ते च काथते सति स गु रुर्ददाति. अन्यथा गुरुपाद मूलस्थापनाऽऽद्य भावे कलहः पर स्परं राठि संभवतीति । उक्तं परिवर्तितद्वारम् ||३२|| पिं० सुतंजे भिक्खु परिगाई परिवहे, परिवहावे, परियहियमाहड दिजमार्ग पडिग, पडिग्गईतं वा साइनइ ॥ २ ॥ अयदेति परसंतियं गरइति नि परिस्थि उल हुँ । नि ० चू० १४ उ० । परिषड पर्यटनन० गमने विशे० । परियण- परिजन - पुं० । स्वजनवर्गे, उस० ६ अ० । परियंता - पर्यन्तयुग न० । सकलयुगान्तिमयुगे प्रश्न ३ श्राश्र० द्वार । परिया परिवर्तनम० इतरस्यां दिशि स्थापने, पृ० ३ उ० नि० चू० । परियाय परियचणा परिवर्तनाखी घोपादिशुद्धगुणने, घ०३ अधि० परियत्तमाणा - परावर्तमाना स्त्री । तदा तदा प्रतिबन्धोदयसंभवे यथायोगं स्वपद हेतुभिधान बन्यमुदयं या - । चित् परावर्तते न भूयो भवतीति परावर्तमानाः पं० सं० ३ द्वार अपरावर्तित कर्मप्रतिपु पं० सं० ३ द्वार ( एतालां स्वरूपम् परावचमाणा शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५५० पृठे उपदर्शितम् ) परिवत्तिय परिवर्तित भि० परावृत्ते " पालियं परि श्रं ।" दे० ना० २६५ गाथा । परियचे पराव अन्य परावर्त हत्तं परियर - परिकर - पुं० । परिवारै स्था० ४ ठा० ४ उ० । रा० । परियाइसकेकलाव-पर्यातकाकलाप वि० विचित्रकाडायोगात् संपूर्ण काण्डकलापे, रा० । जी० । परिपाचा पर्यादाय श्रन्यदीय स्था० ७ डा० । परिवाइवल पर्यायानन० समन्ता पाने स 1 पर्यादानन० शरीरनिष्पत्तेरारभ्य यथायोगमङ्गल माहारादीनां समन्ततः पुद्गलदाने, प्रज्ञा० ३४ पद । भ० । परिभाईय - पर्यायातीत त्रि० । विवक्षित पर्याय मतीते, स्था० २ ठा० ३ उ० । पर्याप्त - त्रि० । सामस्त्यगृहीते, स्था० २ठा०३ उ० । परिवागत पर्यायागतत्र सर्वांगा १ श्र० ७ श्र० । परिराय परिधानन० परिपाल्बु "अधिपरी" १४८३॥ इति पा०) कर्मप्रववीध उप निषेधान्न णत्वम् । देशान्तरगमने. स्था० १० ठा० । तिर्यग्लोकावतरणाऽऽदौ, स्था० ३ ठा० ३ उ० । परियायते गम्यते येनेति परिधान परियार स्वा० डा० । परित्राण न० परिजायत इति परिमाणम्। ० १ श्रु० १ ० २३० ॥ । परिपाणियविमाण परियानिकविमानन० परिवायते गम्ब ते यैस्तानि परियानानि तान्येव परियानिकानि । परियानं वा गमनं प्रयोजनं येषां तनिं परियानिकानि तानि च विमानानि । धानकारकाभियोगिकपालका देवतेषु पालका ssदिषु स्था० । एएसणं अस कप्पे अट्ठ इंदा पस्मता । तं जहा - सके ० जाव सदस्सारे । एएसं अट्ठएवं इंदाणं श्रट्ट परिवाणिया विमाथा पता जहा - पालए, पुष्कर, सोपस, सिवि दिवाले, काम कमे, पीमणे, बिमले स्था०८ डा०] परिवाद पर्याय- पायस्यास्या , Ssvaौ, श्रा० म० १ श्र० । (वस्तुमः स्वपर्यायाः परपर्यायाश्च ' अकबर शब्द प्रथमभागे १४२ पृष्ठे गताः ) " परियाश्र दुबिहो- जम्मणश्रो, पध्वजाए य ।" नि० यू० १ ३० | पर्या यो द्विचा जन्मनः प्रवव्यथा च जन्मना जन्मपर्यायः, प्र व्रज्या प्रवज्यापर्याय इति । तत्र जन्मपर्यायः जन्मलक Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२८ ) अभिधानराजेन्द्रः | परियाय णः जग्मकालः । स्था० ६ ० । प्रव्रज्याप्रतिपत्तिलक्षणः । श्रा० म० अ० | स्था० । श्राचा० । संयमानुष्ठानल कणो वा । आचा० १ ० ५ ० ५५० • अधुना पर्यायद्वारमाह गिहि सामने व तहा, परियायो दुविह होइ नायव्यो । इगुतीसा वीसा य, जन उक्कोस कोणा ॥ पर्यायो भवति द्विधा ज्ञातव्यः । तद्यथा-गृहे गृहविषयः । जन्मन श्रारभ्येत्यर्थः तथा श्रामध्ये श्रामण्यविषयः। भ्रमणभा प्रतिपत्तेरारभ्य इति भावः । श्यमत्र भावना द्विविधः प यया याइगुतीसा पीला य अदपण सि ) यथासंख्येन योजना- जन्मपर्यीयो जघन्यतो जन्मत एकोनत्रिंशणि विशेषः । दीक्षा पर्यायों विंशतिः मदेशना पूर्वकोट रियाओ विडो-अम्मपरियातो य, दिक्ापरिया तो य। जम्म परिजगुणता देणा कोम।। दिक्खा परियातो जहए बीस बाला, कोलें देना पुत्र कोडी " । गतं पर्यायद्वारम् ! ३५० १ च० । श्रा० म० । ब्रह्मचर्ये, श्राव० ४ अ० श्रभिप्राये, युक्तिवि शेष सूत्र० १० १ ० ३ उ० । व्यस्य क्रमभाविनि घ में, रत्ना०५ परि०। ( ' पंजब' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २११ पृष्ठादारभ्य सर्वा वक्तव्य तोक्ता ) परिवार्यतकड भूमि पर्यायान्तरभूमि खं० तांधकरस्य केवल कामः पितरम • अधि०६ कृण झा० । ( कस्य तीर्थ कृतो ऽन्तकृद्भूमयः कियत्य इति 'तित्थय र शब्दे चतुर्थभागे २२७१ पृष्ठे उत्तम ) परियायजिड - पर्यायज्येष्ठ - पुं० । चिरप्रवजिते, दश० १० अ० । परियायथेर-पर्यायस्थविर पुं० [स्थवृद्धे परियायसंगइय- पर्याय साङ्गतिक- पुं० । तापसपर्याय वर्निमि मित्रे, भ० ७ श० ६ ० । परियाया पर्यायापात पाप्रा स्थान्तरं प्राप्ते, न० १४ श० ७ उ० । परिवार - परिचारक स्था० ३ ०२ उ० । परिि रिचारकाः स्था०२ बा० ४ ० मैथुनाभिष्वङ्गरि प्रश्न०५ आश्र० द्वार रोगिपरिचारकार के वैद्ये, स्था० ४ वroy न० । परिवारया परिचारणता श्री बायोग शब्दविष प्रभोगे, प्रज्ञा० ३४ पड़ परियारणा - परिचारणा-स्त्री० 1 देव मैथुनम्वेवाग्राम, स्था० तिविहा परियारणा पम्पत्ता । तं जहा- एगे देवे ने देवे सिं देवा देवीओ य अभिजुंजिय अभिजुंजिय परियारे । अप्पणिजित्ताओ देवीओ अभिजुंजिय अभिजुंजिय परिवारे अप्पाणमेव अप्पाखं विउन्निद्य विउब्धि प रियारे । एगे देवे णो ने देवे गो अन्नेसिं देवा देअभिजुंजय अभिजांजय परियारेह । श्रप्पणिजि: १५८ परियार था अ ताओ देवीओ अभिजय पाणमेव अप्पाणं विवि एगे देवे गो अंत्र देवे यो अप्पणिजियाओ अध्यायमेन अध्यायं विविउ अभिदि परियार विडब्बिय परिवार । अमेस देवा देवीओ रियारे ॥ पारचारणा देवमैयुनसेवेति । एकः कचिदेवो न सर्वोयेव मिलि कम देवे त्ति) अन्यान्दवानल्पककान् तथाऽन्येषां देवानां साका देवी मिथाऽनियुज्य शीकृत्य वा परिवारयति परिजु वैदबाधोपशमायेति । न च न सम्भवति देवस्य देवख पुंस्नेत्याशक कनीयम मनुष्येष्वपि तथाऽऽश्रयणात् । न वाशेर्थे नरामरयोः प्रायेो विशेषोऽस्तीत्येक एवायं प्रकारो देवदेवीनामन्यत्व सामान्यात् । अत पत्र द्वयोरपि पयोः क्रियानिसबन्ध इति । एव मामीया देवी: परिबारयतीति द्वितीयः तथा मनमेव परिबारपीट, कथाम् ? अत्मना विकृत्य विरुत्य, परिवारणायोग्य विधायेति तृतीयः एवं प्रकारयरूपाऽयेयं परिवारणा, प्र टिकाप " कारपरिहारेणायन परिवारयतीति विष्णूस कामपरिचारक देवविशेषात् । तथाऽत्यो देव आयकारागारे परियारयतीति तृतीयानुक कामविशेषस्वामित्वादिति ०० ३० संप्रतिपरिवार देवा णं भंते ! किं सदेवीया सपरियारा, सदेवीया अपरियारा, देवीया सपरियारा, अदेवी या अपरियारा ।। गोयमा ! अबेगतिया देवा सदेवीया सपरिवारा, अत्येतिया देवा देवीया सपरिवारा, अत्येतिया देवा श्रदेवीया अपरिवारा नो चेन देन सीया अपरिवारा से के. भंते ! एवं बुच्चइ अत्येतिया देवा सदेवीया सपरियारा तं चैव० जाव नो चेत्र णं देवा सदेवीया अपरियारा है। गोषमा ! भगणवश्वासमंतर मोइससो दम्मीसागेसु कप्पे देवा सदेवीया सपरिवारा । सकुमारमाहिंदभलोगलंतग महासुक्क सहस्सार आण्य पाणय आरणच्चुएसकप्पे अदेवीया सपरिवारा. गेविजागुत्तरोववाहया देवा अदेवीया अपरिचारा भी चैव से देवा सदेवीया अर रियारा से तेलट्टे गोयमा ! एवं वुबइ अत्यगतिया देवा सदेवीया सपरियारा तं चैव नो चेव गं देवा सदेवीया अपरियारा | सुमं वरं भवनिष्यन्त पोलिसी प वाः सदेवीकाः, देबीनां तत्रोत्पादान् । श्रत एव सपरिचाराः परिवारणासदिताः, देवीनां तत्परियडे यथायोगं भावतः कायप्रवीचारभावात् । सनत्कुमार माहेन्द्रयो कलान्तक महासयोरामदेव कल् काः तत्र देवीनामुत्पादशनावात् । अथ व परिवारणासहिताः सौधर्मेशनगरदेवीभिः सद् यथाक्रमं स्पर्शरूपशब्द मनःप्रवी Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३०) अभिधान राजेन्द्रः । परियारणा चारभावात् । ग्रैवेयकानुत्तरोपपातिनो देवा देवी का, देवीनांतश्रोत्पादाभावात् । अपरिवारा अप्रवीचाराः, अत्यन्त मन्द पुरुष येदोदयतया मनसाऽपि प्रवीचारासंजकत् न पुनस्ते देवाः सदेवीका अपरिचाराः, तथाभवस्वामान्यात् । ( से नेणमित्यादि) निगमनवाक्यम् । प्र३० ३४ पद । वेदप्रतीकारे, स्था० Jio २ उ० । देवाः सदेबीकाः सपरिवारा इत्युक्तं तत्र परिचारणामेव जिज्ञासुः पृच्कृति कतिविहा गं भंते! परियारणा पम्मत्ता ? । गोयमा ! पंचविहा पत्ता । तं जहा - कायपरियारणा, फासपरियारणा, रूवपरियारणा, सद्दपरियारणता, मणपरियारणता । से केलट्ठेयं भंते ! एवं बुच्चइ-पंचविहार परियारणता पत्ता । तं जहा कायपरियारण्या० जाव मणपरियारणता ?। गोयमा ! भवणवः वाणमंतरजोइससोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवा कापरियारगा, संकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु देवा फास परियारगा, बंभलोयलंतगेसु कप्पसु देवा रूवपरियारगा, महासुक्कसहस्सारस देवा सदपरियारगा, आणयपाणयचारणाच्चु - ए कप्पे देवा मणपरियारगा, गेविजाणुत्तरोववाइया देवा परियारगा, सेराट्ठेणं गोयमा ! तं चैव जाव मणपरियारगा । (वाणमित्यादि) सुगमम् । भगवानाह - (गोयमेत्यादि) गताश्रम नवरम (काय परिचारगा इति ) कायेन शरीरेण मनुष्ध स्त्री । पुं. सानामिव परिचारी मैथुनोपसेवनं येषां ते काय परिचारकाः । किमुक्तं भवति ? - भवन पत्यादय ईशान देवलोक पर्यन्ताः संकिष्टो पुरुष वेदकर्मज्ञातो मनुष्यवत् मैथुनसुखप्रतीयमानाः सवीणं कायक्लेशजं संस्पर्शसुखमवाप्य प्रीतिमासादयन्ति नान्यथेति । सनत्कुमार माहेन्द्रयोः कल्पयो वा स्पर्शपरिचारकाः स्पर्शन स्तनभुजो रुजघनाऽऽदिगान संस्पर्शेन परिचारः प्रबीचायो येषां ते तथा । ते हि यदा प्रवीचारमभिलषन्ति तदा प्रवीचा राभिलाषुकतभ्या प्रत्यासन्नी भूतानां देवीनां रतनाद्यवयवान् संस्पृशन्ति तावत्राले च तेषां कायप्रवीचारादनन्त गुणसुखं बेटोपशान्तिश्चोपजायते । ब्रह्मलोकान्तकयोः कल्पयोर्देवा रू. पपरिचारका रूपेण रूपमा श्रदर्शनेन परिचारी मैथुनोपसेवनं येषां ते तथा । ते हि सुरसुन्दरीणां मनोभव राजस्थानीयं दि यमुन्मादजनकं रूपमुपलभ्य कायमची चारादनन्नगुणं सुरतसुसमासादयन्ति तावन्मात्रेणैवोपशान्तवेदा नृपजायन्ते । महा शुक्रढ खानेषु कल्पेषु देवाः शब्दपरिचारकाः शब्देन शब्द मात्रश्रय जैन परिवारो येषां ते तथा । ते हि विषयीकृतदे वीरगति सविकारभाषित नूपुराऽऽविध्वनिश्रवणमात्रत एव कायमचा रादनन्तगुणं सुखमुपज्जले, तावन्मात्रेणैव च तेषां वेद उपशान्तिमेति । आगतप्राणवारणाच्युतेषु कल्पेजु देवाः मनःपरिचारकाः मनसा मनोजवविकारोपष्टमित परस्परोश्चावच मनः संकल्पेन परिवारो मैथुनोपसेवनं येषां से तथा । ते हि परस्परोश्चावचमनः संकल्पमात्रेणैव कायप्रश्री बावन्तगुणं सुखमाप्नुत्रम्ति, तृप्ताश्च तावन्मात्रेणैवोपजायते । बेथकानुत्तरोपपातदेवा अपरिवारका न विद्यते परि परियारणा चारो मिथुनोपसेवनं मनसाऽपि येषां ते तथा तेषां प्रतनुमहोदयतया प्रशमसुखान्त लीनत्वात् यमेवं कथं न ते ब्रह्म. चारिणः ?, उच्यते चारित्रपरिणमाभावात् । " से तेणट्टेणं" इत्यादि निगमनवाक्यम् | तत्र ये काय परिचारका देवास्तेषां कायपरिवारं विनावयिषुरिदमाह तत्थ गं जे ते कायपरियारगा देवा, तेसि णं इच्छामणे समुपज्जर, इच्छामो अच्छराहिं सद्धिं कायपरियारं करे तर तेहिं देवेहिं एवं मासी कए समाणे खिप्पामेव ताओ अराओ उरालाई सिंगाराई मणुनाई मोहराई मोरपाई उत्तरविडम्बियाई रुवाई विउम्बिति विउव्वंतितातेसिं देवा अंतियं पाउब्भवंति । तए सं ते देवा ताहि अच्छराहिं सद्धिं कायपरियारणं करंति, करंतित्ता से जहानामए सीता पोग्गला सीतं पप्प सीतं चैव अश्वत्ता सं चिट्ठेति, उसिया वा पोग्गला उसिणं चैव अवइत्ता गं चिति । एवमेत्र तेहिं देवहिं ताहिं अच्छराहिं सद्धिं कायपरिवार कए समाणे इच्छामणे खिप्यामेवावेति । अस्थि भंते ! तेसिं देवाणं सुकपुग्गला : हंता अत्थि । ते भंते! तासं राणं कीसत्ताए भुजो भुजो परिणमति ।। गोयमा ! सोइंदियत्ताए चक्खिदियत्ताए घाणिदियत्ताए रसिंदियत्ताए फासिंदियत्ताए इट्ठत्ताए कंतताए मगुत्ताए मणामत्ताए सुभगत्ताए सोभग्गरूव जोन्वण गुण लावसचाए ते तासिं भुज भुजो परिणमति । तत्थ णं जे ते फासपरियारगा देवा तेसि णं इच्छा मणे समुप्पञ्जइ; एवं जव परियारगा तहेव निरवसेसं भाणियन्त्रं । तत्थ गं जे ते परियारगा देवा तेसि णं इच्छा मणे समुप्पञ्जइइच्छामो अच्छराहिं सद्धिं रूवपरियारणं करेताए; तए गं देवहिं एवं मणसी कए समाणे तहेब ० जाव उत्तरवेउforeit mari aaiति, विउव्वंतित्ता जेणामेव ते देवा तेणामेव उवागच्छंति, उनामच्छित्ता तेसिं देवाणं अदूरसामंते ठिच्चा ताई उरालाई ० जाव मणोरमाई उत्तरवेउच्त्रियाई रूबाई उवदंसेमाणी उवदंसेमाणी उवचिद्वेति । तए गं ते देवा ताहि अच्छराहि सद्धिं रूपपरियारणं करंति, सेसं तं चेत्र० जाव भुजो जो परिणमति । तत्थ गं जे ते सहपरियारगा देवा तेसिं इच्छा मणे समुप्पअइ-इच्छामो गं अच्छराहिं स सदपरियार कस्तए; तर गं तेहिं देवेहिं मणसी कए समाणे तत्र जाव उत्तरवेउत्रियाई रुवाई विउति विउत्ता जेणामेव ते देवा तेणामेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तेसिं देवाणं अदूरसामंते ठिच्चा उच्चावयाई सहाई समुदीरेमाणीओ समुदीरेमाणीओ चिट्ठेति । तर यं ते देवा नाहिं अच्छराहिं सद्धिं सदपरियारं करं For Private Personal Use Only Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परियारणा भन्निधानराजेन्ड: । -परियार ति, सेस तं चेव० जाव भुजो भुजो परिणमंति । तत्थ ण योपकल्यन्ते । उष्णपुद्गला वा उपयोनिकस्य प्राणिनः सं स्पर्श उष्णत्वमिति प्रभूतमासादयन्ते सुखाय घटन्ते । तथा दे. जे ते मणपरियारगा देवा, तेसिं इच्छामणे समुप्पजइ धीशरीरपदला देवशरीरला अपि देव शरीरमवाप्य प. इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धिं मणपरियारणं करेत्तए, तए र स्परं तद्गुणतां भजमानाः परस्परं सुखि बायोपकल्पन्ते । त. णं तेहिं देवेहिं एवं मणसी कए समाणे खिप्पामेव ताओ तः सुखमुपजायते, श्राहोश्विदन्यथेति संशयानो देवानां शुक्रअच्छरायो तत्थ गयाओ चेव समाणीओ अणुनराई उ पुजशास्तित्वं पृच्छति-(अस्थि णमित्यादि ) अस्तीति नि. पातोऽत्र बह्वर्य, णमिति पूर्ववत, भदन्त ! तेषां देवानां शुमा चावयाई मयाई पहारेमाणीओ पहारेमाणीओ चिटुंति, पुदना यत् सम्पकतो देवानां सुखमुपजायते । भगवानाह-(हं. तए णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं मणपरियारणं ता! अस्थि गौतम!) सन्ति केवल चैक्रियशरीरान्तर्गता इ. करंति, सेसं निरवसेसं० जाव भुजओ भुजो परिणमंति।। ति, न गर्नाऽधानहेतवः। ( ते ण भंते ! इत्यादि ) शुक्रपद्ला (तत्य णमित्यादि) तत्र तेषु कायपरिवारकाऽऽदिषु देवेषु म णमिति पूर्ववत् । भदन्त ! तासामसरसा कीदक स्वरूपतया नुयो नूयो यदा करन्ति तदा तदा इत्यर्थः । परिणमध्ये येते पूर्यमुक्ताः कायपरिचारका भवन पतिव्यातरज्योति स्तिजगवानाह ( गायमेत्यादि) श्रोत्रेन्ज्यिं यावत् स्पर्शनकसौधर्मशानदेवास्तेषाम् णमिति वाक्यालबारे, इच्छामनः न्द्रियतया तेऽपि कदाचिदनिष्टतया परिणमन्तःसम्जायन्ते । कायपरिचारेच्छाप्रधान मनः समुत्पद्यते । केनोवखेनसमुत्प तत श्राह-तः सौजाग्याय सौभाग्य हेतवे रूपयौवनलाव. चते ?। इच्छामोभिलपामो, एमिति पूर्ववत् अप्सरोनिः एयरूपा गुणा यस्य तत्सौभाग्यरूपयौवनलावण्यगुणं, तशा. सार्क कायचार कर्तुमिति । ( तर णमित्यादि ) ततस्तै वस्तता, तपा, तत्र रूपसौन्दर्यवती आकृतियौवनं परमस्त. थैरेव मुक्केन प्रकारेण कायपरिचारे भगाल कृते सति रुणिमा लावण्यमतिशयमनोभवविकार हेतुः परिणतिविशेषा, विनमय शीघ्रमेव ता अप्सरसः स्वस्पोपभोगयोग्यदेवा. यतः सौभाग्य हेतुरूपाऽऽदिगुणनिबन्धनतया परिणमन्ति ततः भिप्रायमुपेत्य परिचारान्जिलाषुकतया उत्तरवैक्रियाणि रूपा. सुभगतया परिणमन्तीत्युच्यते । एवं ते शुक्रपुद्गलास्तासामप्सणि, विकुर्वन्तीति संबन्धः। कथभूतानीत्यत पाह-उदाराणि, रमां भूयः भूयः परिणमन्तिा नदेव कायपरिचार उक्तः । रफाराणि, न तु हीनावयवानि, तानि अपि शुकाराणि शृङ्गारो सम्प्रति-"भंते ! तासि अन्राणं कीसत्ताए भुजोर परिणम विभूषणादिभिमण्डनं स विद्यते येषां तानि शाराणि । मित गोयमा ! सोशंदियत्ताए इटुसाए कंतत्साए नुनो नुजा "अभ्राऽऽविषयः"॥७।२।४६॥ इति अप्रत्ययः । विभूष परिणमंति।" अस्यापि पातनिकाव्याच्या प्राग्वत् । नवरमणादिकृतोदाराताराणीत्यर्थः । तानि च कदाचित्कस्य. स्मिन् स्पर्शशुकभुगल क्रमो दिव्यप्रभावादबसेयः। एवं रूपपरिविमनोज्ञा न भवेयुः। अत आह-मनोज्ञानि स्वस्थोपभो- चाराऽऽदापि भायनीयम् । तदेवमुक्ताः स्पर्शपरिचारकाः।स. ग्यदेवमनोविषयभावपेशानि, तानि लेशतो सलामन्ते, नत् म्प्रति रूपपरिचारणांविभावयिषुराह-(तत्थ रणमित्यारि) सुग. मनोहराणि स्वस्वोपजोग्यस्थ देवस्य मनो हरन्ति प्रात्मवश मम । यावत्तावद्धिकुर्षित्वा । (जेणामेव त्ति) यौवदेषलोक वि. नयन्तीति मनोहराणि | लिहाऽऽदिस्वाद । ततः स्वमनोहः माने प्रदेशे च ते देवाः सन्ति तत्रै स्थाने ता असरस उ. रस्व प्रथमसमयापातमात्रनाम्यपि जवति तत आह-मनोर- पागच्छन्ति, उपागम्य च तेषां देवानाम ( अदूरसामते इति) माणि मनः स्वस्योपभोग्यदेवसम्बन्धि रमयन्ति क्रीमयम्ति प्रदूरसमीपे स्थित्वा तानि पूर्व विकुर्चितानि उदाराणि यायप्रतिवणमुत्तरोत्तरानुरागसंपृक्तं जनयन्तीति मनोरमाणि, ता. तरक्रियाणि रूपाणि उपदर्शयत्यस्तिष्ठन्ति । ततस्ते देवास्तानि स्थंभूतानि उत्तरक्रियाणि रूपाणि विकुर्वित्या तेषां दे. जिरप्सरोभिः सा रूपपरिचारणां परस्परसपिलासरष्टिविक्के बामामन्तिक समीपं प्रापुर्नवन्ति । ( तए णमित्यादि ) ततो, पां प्रत्यङ्गनिरीक्षणनिजनिजानुरागप्रदर्शनप्रदिपचापकटनासमिति पूर्ववत् । ते देवताभिरप्सराप्तिः सा कायपरि. ऽऽदिरूपां कुर्वन्ति । ( सेस तं चेत्र त्ति) शेषम (से जहाना. चारणं मनुष्य इ मनुष्यस्त्रीभिः सर्वाङ्गीणकायक्लेशपूर्वक मए इत्यादि ) तदेव यावत् (जो भुजो परिणमताति) मथुनोपसेवनं कुर्यन्ति । एवमेव तेषां वेदोपशान्तिभावात ।त. वाक्यम् । तदेवं भाविता रूपपरिचारण।। संप्रति शब्दपरिथा चामुमेवार्थ स्थान्तेन दृढयति-(से जहा नामपत्यादि) चारणां भावयितुकाम पाह-( तत्थ णमित्यादि)कण्ठयम। ( से इति ) अथ शब्दार्थः, सपात्र वाक्योपन्यासे, यथा नवरमदूरसमीपे स्थित्वा अनुत्तगन समनःप्रहातजनका नाम ते विवक्किताः शीताः पुद्रलाः शीतं शीतयोनिक प्राणिः | तया अनन्यसरशान् उच्चावचान् प्रबलप्रवलसरमन्मथोपनं आपच शीसभेव शीतत्वमेवातिवज्यातिशयेन गत्या तिष्ठन्ति । कसभ्यासत्यरूपान् शब्दान्, नपुंसकानिर्देशः प्राकृतत्वात्। समु. किमुक्तं भवति?-विशेषतःशीतीभूतस्य शीतयोमिकस्य प्राणि- दीरयन्स्यस्तिष्ठनि । शेषं तथैव । ( एवं तत्थ रणमित्यादि) नं सुखित्वायोपकल्पते, उष्णा वा पुरला मुष्णयोनिक प्रा. मनःपरिचारकसूत्रमपि तथैव यावन्मनःपरिचारे मनमि कृ. पिन प्राय उष्णमेव उष्णत्वमेवातिवम्यातिशयेन गत्या ति. से मति विप्रमेव ना अप्सरसस्तत्र स्थिता पत्र सौधर्महन्ति । विशेषतः स्वरूपानसं पश्या तस्य सुस्विस्वायोपतिष्ठ- शानदेवलोकान्तर्गतश्यस्वविमानस्थिता एवं सत्योऽनुत्तरान्ति इति भावः । एवम्-अनेन प्रकारेण ते देवास्ताभिरसरो- जि परमसन्तोषजनकतया अनन्यसहशानि बचावचानि का. निः साई यथोक्तरूपैः कायपरिबारणे कृते सति इच्छामनः- मानुषक्तसन्यासभ्यरूपाणि मनांसि प्रवीचारयस्यस्तिष्ठम्ति । कामविषये प्रधानं मनः किम्मेवानितृप्तिभावात शीतीभव. स (तत्थ गया चेव समाणीपी) इति वदता देव्यः सहस्रारं ति। इयमत्र नायना यथा शीतपुद्रमाः शीत योनिकस्य प्राणि- यावकृति, न परत इत्यावेदितं काव्यम् । तथा चाह संप्र. नः संस्पर्शे शीतस्वं विशेषत आसावयास्तस्य सखित्वा- णिमुमटीकाकारो हरिजद्रसूति:-समरकुमारादिदेवानां . Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परियारणा (६३२) अभिधानराजेन्द्रः । परियावला तानिलाषे सति देव्यः स्वल्पपरिगृहीता सहस्रारं यावदन्छ- गुणाः,ते हि महाशुक्रसहस्रारकल्पवासिनः, ते च धनीकृतस्या म्तीति । तथा स पत्र प्रदेशान्तरे आई-" इह सोहम्मे कप्पे लोकस्य एकप्रादेशिक्पा: श्रेगेरसंख्येयतमे भागे यावन्त प्रा. जासि देवीणं पलि प्रोवमाओ गंताश्रो तहेवाणं चैव हवं- काशप्रदेशास्ताचप्रमाणा,ते-पि रूपपरिचारका देवा अ. ति, जाति पुण पनि ओवमासमयाहिया निई दुसमयति. संख्येयगुणाः,ते हि ब्रह्मलोकतन्तकल्पानवासिनः, नेच पूर्वसमयमखेजा असंखेनसमवाहिया. जाव दसपलिया सो. देवानधिकृत्यासंख्यगुणश्रेण्यासंख्येय नागगतननःप्रदेशगशिप्रहम्मगदेवीश्रो ताओ सणकुमाराण गहूति, एवं दसपक्षियो माणाः,तेज्योऽपि स्पर्शपरिचारका देवा असंख्य यगुणाः, तेषां धरि जासिं समाहिया ठि जाव वीस पलिया ताओ बंभ. सन कुमारमाहेन्द्रकल्पवर्तित्वात, तद्वर्तिनां च ब्रह्मलोकनान्तलोगगयाणं गच्छति, एवं वीसपग्रिोवरि जासिं समयाहि. कदेवानपेक्ष्यासंख्येयगणश्रेण्या संख्येयभागवांकाशप्रदेश. या ठि जाव तीस पलिया ताओ महासुकदेवाणं गच्छं. परिमाण तयाऽधीतत्वात्. तेभ्यः कायपरिचारका देवा श्रमति, एवं तीस पनिवरि जासिं समयाहिया ठिई0 जाव स्थेयगणा जवनपत्यादीनामीशानारवानां सर्वे कायपरिचारचतालीस पलिया ताश्रो प्राण्यदेवाणं तत्य ठिया नेव | कत्वात, तेषां सर्वसंख्यया प्रतगसंख्ययभागवत्तिननःप्रदेश. झाणालंबण हुति, एवं चत्तालीसं पलिनोवरि जासिं राशिप्रमाणत्वादित्ति । प्रज्ञा० ३८ पद । स्त्रिया बनाकारणोसमयादिया ठि० जाब पंचासपलिया तामी भारादेवाणं, । । पभागे, व्य. १३) । “दोहि वाणेहि पाया श्रोभासे दे. तत्थ हिया चेव झाणालवणं हुति, तथा ईसाणे जासिं देवीणं | सेण थि, सम्वेग चि।" (परिचारय त्ति) युन सेवते देशेन पलिअोवममहियमाउ ताभो तहेवाणं चेव वंति, जासि मनोयोगाऽऽदीनामन्यतमेन,सर्वेण योगत्र येणापि । स्थावा. पुण अहियपक्षिप्रोवमा समयाहिया हि दुसमयतिसमय २० सिवनायाम्, प्राचा०२ श्रु०१चू. २०१०। संखिजा संखेजसमयाहिया० जाव पत्ररसपलिया ताभो मा. परियारणासह-परिचारणाशब्द-न । पुरुषेण नुज्यमाना स्त्री हिंदेदेवाणं गच्छसि, एवं पारस पलि प्रोवरि समयाहिया ठि जाव पणवीसपलिया ताओ संगदेवाणं, जासिं पुण । य शब्दं करोति तस्मिन् , "परियारणसई वा "। पुरिसे. |णित्थी परिजुज्जमाणा ज सई करेति एस परियारणासहो पणवीसपलिश्रोवरि समयाहिया चि.जाव पंचतीसंपलिया ताओ सहस्सारदेवाणं, जासिं पुण पंचतीसपसिनोबरि । भष्मति । नि० चू०१००। समयाहिया निजाच पणयालीस ताओ पाणयदेवा, वस्था परियारणित्रि-परिचारणद्धिं-स्त्री. । अन्यान् देवानन्यसत्का ठियाओ चेव झाणा लंबणे इंति, आसिं पुण पणयालीसं पति | देवीरभियुज्याऽऽमान व विकृत्य परिचारयन्तीत्येवं लवणायां मोवरि समयाहिथा कि जाच पणपन्नापलिया ताश्रो अच्चु देवानां कामसेवौं, स्था० ३ ०४ उ०। यदेवाणं तत्य चियाको चेव काणा लबणे हंति इति।" (तर ९.१९ परियारसद-परिचारशब्द-पुं० । पुरुषेण परिभुज्यमानायाः -- णमित्यादि ) ततो मिति पूर्ववत, ते देवाः ताभिरप्सरोभिः सामनःपरिचारणसुरतानुबन्धि परस्परसभ्यासभ्यमनःसं. शब्दे, बृ० १ उ० ३ प्रकः । नि० चू०। कलपकरणरूपं कुर्वन्ति । (ससमित्यादि) शेषम् (से जहानामए परियारेमाण-परिचारयत-त्रिका परकीयदेवीनां भोगं कर्तुकासीया पोग्गला प्रत्यादि)। निरवशेष तावद्वक्तव्यं यावत "जो मे भ०३ श०२ उ०। कामक्रीडां कुर्यति, भ०१२ श०६उन भुज्जो परिणमंतीति" सर्वान्तिम वाक्यम् । व्याच्या चास्य प्रा. परियाल-परिवार-पुं० । वृत्ती, खड्गाऽऽदिकोशे, प्रश्न०१ ग्बत् । तत ऊद्ध तु प्रैवेयकदेवा मनसाऽपि योषितो न प्रार्थय | आश्र द्वार । शिष्याऽऽदिवर्गे, स्था० ६ ठा। ते, प्रतनुबेदोदयत्वात् । यथोत्तरं वा तेऽनन्तगुणसुखभ जः । नथाहि कायप्रवीचारेज्योऽनन्तगुणसुखाः स्पर्शपरिचारकाः परियालिय-परिचालित-त्रि०। बेष्टिते, " वेढिअयं परियातेज्योऽनन्तगुणसुखा रूपपरिचारकाः, तेभ्योऽप्य नन्तगुणसुखा लियं ।" पाइ० ना० १६६ गाथा । मनापरिचारकाः,तेभ्योऽपि अपरिचारकाः। । परियालोयण-पर्यालोचन-न० 1 अनुचिन्तने, आव० ४ अ० । साम्प्रतमेतेषामेव परस्परमल्पबाहुत्वमभिधिरसुराहएएसिणभंते देवाणं कायपरियारगाणं. जाव मणपरि परियावजणा-स्त्री० । पर्यापादन-न । पर्यापत्ती, श्रासेवायारगाणं अपरियारगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ४१। | याम् , "तिविहा परियावज्जणा पत्ता । तं जहा-जाण अ. जाणू, वितिगिच्छा।" तब जानतो जाणू, अजानतोऽजाए, गोयमा! सव्वत्थोवा देवा अपरियारगा, मणपरियारगा संशयवतो विचिकित्सा । स्था० ३ ठा०४ उ० । संखिजगुणा.सद्दपरियारगा असखिजगुणा, रूवपरियारगा परियावण-परितापन-न । ताडनाऽऽदिदुःखविशेषे, स्था० असंखिजगुणा, फरिसपरियारगा असंखिजगुणा, कायप . २ ठा० १ उ० । पीडोत्पादने, प्राचा०२ श्रु. ३ उ०।। रियारगा असंखजगुणा । सर्वस्तोका देवा अपरिचारकाः, हि ग्रैधेयकानुत्तरोपपा | परियावणा-स्त्री० । परियापन-न० । वृत्ती, स्थिती, "एगतिनः, ते च सर्वस ख्यया केवपल्योपमासस्येय नागर्तिनः प्रदे. विदा प्रविसेसमणाणता सव्वलोए परियावणा।" भ० ३४ शराशिप्रमाणा ति, तेभ्योऽपि मनःपरिचारका देवाः संख्येय.. | श०२ उ०। गुणाः,तेवामानताऽऽदिकल्प चतुष्टय वर्तित्यान, तद्वतिनां च पृ. परियावस्म-पर्यायापन-स्त्री० । विस्मृते, दृ० ३ उ० । कुपर्यादेवापेकया संख्येय गुण केवपल्यापमासख्य यन्नागगताssका यमाप्ते, "जहा रुहिरं चेव यूयपरिणामेण ठितं ।" नि० चू० शप्रदे शरापिरिमाणवान, तेत्या शब्दपरिचारका असंख्येप। १६ उ० । श्राव० । मा. चू० । Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परियावत्ति अन्निधानराजेन्धः। परिवाडी परियावत्ति-पर्यापत्ति-स्त्री०। सम्मूर्छने, समभिभूताया मू- परिवच्छिय-परिपक्षित-त्रि० । परिगृहीते, परिवृते. शा.१ छाया श्रापत्ती, प्राचा० १ श्रु०१ १०५.० । पर्यापादने, | श्रु० १६ अ०। स्था० ३ ठा०४ उ.। परिवजंत-परिवर्जयत-त्रि०। परिहरति. पा०। परियावसह-पर्यावसथ-पुं०। ये गृहपर्यायं एक प्रव्रज्यार. परिवञ्जण-परिवर्जन-न० । परि समन्ताद् वर्जनं परिवर्जर्यायेण स्थितास्तेपामावसथः पर्यावसथः । नि० ५० ३ उ०। | नम् । दर्श०१ तत्त । परित्यागे, श्राव० ६ अ । श्राचा० । भिक्षुकाऽऽदिमठे, प्राचा० २ १० १ चू० १ १०८ उ०। सूत्रः। परियाविजमाण-परिताप्यमान-त्रि० । अग्न्यादो समन्ततः | | परिवजयंत-परिवर्जयत-त्रि०। परकृतान् दोषान् परिहरति, पीज्यमाने, सूत्र.२१०१०। सूत्र. १ श्रृ० १३ श्र। परियाविय-परितापित-त्रि०। समन्ततः पीडिते. श्राव०४०) परिवञ्जिय-परिवर्ण्य-श्रव्य. अपमानमविगणय्येत्यर्थे, श्रापरियास-पर्यास-पुं० । परिक्षेपे, अरघट्टघटीन्यायेन परिभ्रम- | चा०१ श्रु० अ०१०। णे सूत्र० १ १२ १२ १०। परिवट्टण-परिवर्तन-न० । पुनः पुनर्देहोद्वर्त्तने, नि० चू० परिरंभण-परिरम्भण-न० । आलिङ्गने, “परिरंभणमवरुंड- १०। णं।" पाइ० ना० १६८ गाथा । परिवाहिश-देशी-प्रवर्तिते. दे० ना०६ वर्ग २६ गाथा। परिरक्षण-परिरक्षण-न । पालने, प्रश्न० ३ संघ द्वार। परिवयि-परिवर्तित-न। साधुनिमित्ते कृतपरावर्ते उद्गमपरिरय- पारेरय-पुं०। पर्याये,प्रा० चू० १ ० । पर्याहारे, परि दोषभेदे, प्रव०६७ द्वार। धौ व्य०१ उ०। "पज्जाहारी त्ति वा परिरउ ति वा एग;।" | परिवडिय-प्रतिपतित-त्रि । भ्रष्टे, “ सुहं अणुटाणं परिवपरिरयो भवति गिरिनद्यादीनां विषये । इयमत्र भावना-यद् डियं ।” प्रतिपतितं तथाविधकर्मदोपाद् भ्रष्टम् । पश्चा० गिरिनदीनामाऽऽदिशब्दात् समुद्रवीचिपरिग्रहः। 4.१ उ०।। ४ विव०। परिरयपरिहरणा-परिरयपरिहरणा-स्त्री० । गिरि परित्परिहार- परिवर-परिवर्त-पुं० । मत्स्याऽऽदीनां परिवर्तने,अनेकधा सणायाम् . श्राव० ३० । व्यः। | चरण, स० ११ अङ्ग । १० । भ्रमणे, सूत्र. १ श्रु०२० परिलिअ-देशी-लीने, दे० ना० ६ वर्ग २४ गाथा। २उ०। परिवत्तयंत परिवर्तयत-त्रि०। उत्तानमवाङ्मुखान् वा कुर्वपरिलित-परिलीयमान-त्रि० । लयं याति,शा० १ श्रु.१ अ०। ति, सूत्र.१ १०५ १०१ उ०। प्रश्न। परिवद्धमाणय-परिवर्धमानक-त्रिः। समन्ताद् वर्धमाने, नं। परिली-परिली-स्त्री० । पातोद्यभेदे, प्रा. चू० १ ०। परिवयंत-परिवदत-त्रि.। निन्दति, प्रश्न०४ श्राध० द्वार। परिलीण-परिलीन-त्रि । निलीने, “ परिलीणं च निलीणं।" | श्राचा । समन्ताद् वदति, श्राचा० १ श्रु०२ १०१ उ० । पाइ. ना. १६६ गाथा। परिवसण-परिवसन-न०। श्रावासे, जं० २ वक्षः। परिलीयमाण-परिलीयमान-त्रि० । अन्यत मागत्याऽऽगत्या. परिवसणा-परिवसना-स्त्री० । परि समन्तात् बसन्त्यत्र पश्रयति लयं याति, "परिलीयमानमत्तछप्पयकुसुमाऽसब रिवसनाः । पर्युषणायाम् . वर्गवासे, नि० चू० । "जम्हा लालमहुरगुपगुमायमाण गुंजतदेसभाया।" परिलीयमाना - उदुबजिया दब्बखेसकालभावपजाया एत्थ परि समंताश्री म्यत पागत्याऽऽधयन्तो मत्ताः षट्पदा कुसुमाऽसवलोला: सविजंति परित्यतीत्यर्थः अराणे य दब्वादिया पुरिसकाकिंजल्कपानलम्पटामधुरगुम गुमायमाना गुञ्जन्तश्च शब्दवि. लपाश्रीग्गा घेत्तुं पायरज्जंति, तम्हा एगखत्ते चत्तारि माशपं च विदधाना देशभागेषु तस्मिन् तस्मिन् देशभागे येषां सा परिवसंतीति तम्हा परिवसणा भएणति ।" नि० चू० ते परिलीयमानमत्तषट्पदकुसुमाऽऽसवलोलमधुरगुमगुमा १. उ०। यमानशुअदेशाभागाः । गमकत्वादेवमपि समासः । जी०३ परिवहण-परिवहन-न० पृष्टयाऽऽरोपणपुरस्सरं नयने,स्था० प्रति०४ अधिशा श्री० । रा०।। ३ ठा० १ उ० । नि चू०। परिल-पर-नि।"स्वार्थे उल्लः ।" "चरमे परिणवाणं परि परिवाग-परिपाक-पुं० । निष्पत्ती, सूत्र० २ १०३ अ.। लाणं।" श्राव०४०। परिवाड-घट-धा। चेष्टायाम् , “घटे परिवाडः" || ५॥ परिजवास देशी-अज्ञातगतो, दे० ना.६ वर्ग ३ गाथा। इति सूत्रेण घटधातोः परिवाडाऽऽदेशः। 'परिवाडइ।' घटने, परिवइत्ता-परिव्रजत्-त्रि० । परिवजितुं शक्ने, स्था० ४ ठा. प्रा०४ पाद। परिवाडी-परिपाटी-स्त्री०। पद्धती, वृ. १ उ०३ प्रक० । श्रा. परिवंदण-परिवन्दन-ज० । परिसंस्तवे, प्राचा० ११०३० म। प्रक्षा। श्रा० क० । विशे० श्रेण्याम् . संथा० । क्र. ३ उ०। प्रशंसायाम् . आचा. १ श्रु०११०१ उ०। मः परिपाटी वर्गणा बों राशिरिति पर्यायाः। श्रा० म०१ परिवच्छि-देशी-निर्णये, 'परिवच्छित्ति' देशीशब्दोऽयं निर्णये श्र० । आनुपूर्ध्याम् विश० । गृहपङ्की . उत्त०१० ।"श्र. वर्तते । वृ०१ उ०३ प्रक। पुब्धि परंपरा उ परिवाडी।" पाइ० ना०१६६ गाथा। Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवादिणी अनिधानराजेन्द्रः। परिवायग परिवादिणी-परिवादिनी-स्त्री० । वीणाविशेषे, प्रश्न ५ सं- परिखुसिय-पर्युषित-त्रिः । संयमे. उखुक्तविहारिणि, "जे व. द्वार। रा०। अचले परिवुसिए संचिक्खति ।" श्राचा०१०६ अ. २ परिवाय-परिवाद-पुं० । परिवदनं परिवादः । अयशोगुण- उ० । व्यवस्थिते, " तिहिं वत्थोहि परिसिए।" श्राचा०१ कीर्तने, नि. चू: १० उः। विकत्थने. स्था० १ ठा० । दोष. | ध्रु०८०७ उ०। परिकीर्तने, स्था२४ ठा०४ उ. । श्रलद्भूतदोषाविष्का | परिवढ-परिवृद्ध-त्रि० । युद्धादौ समर्थे, उत्स०२४ प प्रभौ, रणे.आतु। दस्युरपं पिशुनो वेत्येवं मौद्धट्टने, प्राचा०१ | उपचितमांसशोणिततया तत्तत्क्रियासमथै उत्त० ७ अ०। श्रु.३०२ उ०। प्राचा। परिवार-परिवार- पुंदासीकमकराऽदिके. सूत्र०२ श्रु०२ परिवहण-परिवण-न। उपचये, सूत्र०२१०२०। अ रा०। श्रा०म० । " परिवारपूबहेउं पासत्याणं च श्रागुवत्तीए।" परिवार आत्मव्यतिरिक्तः, ततः परिवारेण पूजा परिवेढिय-परिवेष्टित-त्रिकासकवेष्टिते,स्था०१०ठा०। प्रशाला परिवारस्य वा पूजा । हस्वत्वं प्राकृतप्रभवं, तस्या हेतु भ० । पुरतः पृष्ठतः पार्श्वतश्च वेष्टिते, निचू० १ उ० । जं' । निमित्तम् । दर्श. ३ तव । खरगनिवासवर्ममयगृहे, "कलई परिवेषध-अव्यः । पुरतः पार्श्वतः पृष्ठतश्च वेष्टिते। "असणं परिवार।" पाइ० ना.२३४ गाथा। पाणं खाइमं साइमं अणुवित्तिय परिवेढिय परिवोढिय जा. परिवारण -परिवारण-न । निराकरणे, प्रश्न०१ श्राश्रद्वार।। यह।" नि. चू० १ उ.। परिवारि-देशी-घटिते, दे. ना०६ वर्ग ३० गाथा। परिवेवमाण-परिवेपमान-त्रि० । असकृत्कम्पमाने, “भिक्खं सीयफासपरिवेवमाणं गायं तं उवसंकमित्तु गाहावती परिवारिय-परिवारित-त्रि. । परिवारः परिकरः संजातोऽ- | यया।"श्राचा०१ श्रु००३ उ० । स्येति परिवारितः। उत्त०११ अ० । समन्ततो वेष्टिते, प्र-परिवेस-परिवेष-पुं० । चन्द्राऽऽदित्ययोः परितो बलयाऽऽका मा०२ पद । परिकरिते, स. ।" सम्बो परिवारिओ।" रायां पुद्गलपरिणती, अनु० । सर्वतः परिवृत इत्यर्थः । उत्त. ११ श्रा। परिवेसण-परिवेषण-त्रि० । परिधिप्यते तत् भोजनं दीयते परिवार्य-अन्या । वेष्टथित्येत्यर्थे. सूत्र० १श्रु०३ १०२ उ० यस्मै स परिवेषणः । भुञ्जाने, पिं० । परिवालिय-परिसाल्य-अध्य०। सूमोक्षेन विधिना परिपाल परिपाल- | परिवेसयंतिया-परिवेषयन्तिका-स्त्री०। भोजनपरिवेषणकानं कृत्वेत्यर्थे, पं० व०५ द्वार। रिकायाम् , शा० १ ० ७ उ० । परिवाविया -परिबापिता-स्त्री। द्विखिों उत्पाद्य स्थानान्तः परिजयंत-परिव्रजत- त्रिपरि समन्ता जत् गच्छत् पराऽऽरोपणतः परिवपनवती शालिधिवत् कृषिमेदे, महा. रिव्रजत् । गुरूपदेशाऽऽदिना संयमयोगेषु वर्तमाने. यश. २ घ्रतारोपणेन निरति वारस्य सातिवारस्य वा मूलपाय अ। संयमानुष्ठायिनि, सूत्रः ११०१४ श्रा। प्राचा० । उश्चित्तदानतः प्रव्रज्याभेदे, स्था. ४ ठा०४ उ०। द्या.छति, श्रावा०१६०५ श्र. ५ उ०। सूत्र० । समन्तात् परिवास-देशी -क्षेत्रशायिनि दे. ना०६ वर्ग २६ गाथा। मूलोतरगुणेषु उद्यम कुर्वेति, सूत्र०१शु. १०। प्राचा परिवासिय-परिवाहक-पुं० । पृष्ट धारोपके, स्था० ३ ठा०१3०1 | परिवाइया-परित्राजिका-स्त्री० । बतिनीविशेषे, शा० १७. परिवाह-देशी दुर्विनये, दे. ना०६ वर्ग २३ गाथा। अ० श्रा०म०। प्राचा० । परिविच्छय-परिविक्षत-त्रि० । परि समन्तात् अनेकप्रकारं परिवायग-परिव्राजक-पुं० । परि समन्तात् पापवर्जनेन न. हते. छिमे च । सूत्र० १ १०३ अ०१ उ. । “मायापुतं न | जति गच्छतीति परिव्राजकः दश०२ श्रापापर्जिते श्रम णे, दश०१० श्राद्वा०। श्राव०। प्राचा०। श्रा०म०। याणाजेपण परिधिन्छा।" सूब०१श्रु०२. ३ उ०। लौकिकपरिव्राजकानामावार:परिविद्ध-परिवेपित-त्रि०। भोजिते, "ते मुग्गडा हराविश्रा, जे परिविष्ठाताहं । अवरोप्पर जोहंता-हं सामिउगंजिउ जाहं।" से जे इमेजाव सनिषेसेसु परिव्वायगा भवंति । तं जहाप्रा०४ पाद । ये तेषां परिवपितास्ते मुधा हारिताः मुधा जा- संखा जोई कविला भिउच्चा हंसा परमहंसा बहुउदया ताः येषां परस्परं युध्यतां स्थामी गञ्जितः, पीडित इत्यर्थः । कुडिव्यया कराहपरिवायगा । तत्थ खलु इमे अट्ट माहढुं. ४ पाद। णपरिवायगा भवंति । तं जहा-"कण्हे अ करकंडे य, परिक्तिसन-परिविप्रसन-ज० । उठेगपूर्वकमये, प्राचा. १ अंबडे य परासरे । कराहे दीवायणे चेव, देवगुत्ते य अ०६ अ०५ उ०। णारए ॥१॥" तस्य खलु इमे अट्ट खत्ति अपरियायया परिवीलिय-परिपीडय-अध्य० । पुनः पुनः पाडयित्वेत्यर्थे । आचा०२ श्रु० १ चू० १ अ.८ उ० । भवंति। जहा-"सीलई ससिहारे य, णगई भग्गई ति। विदेहे राया-राया, राया-रामे बले ति श्र॥१॥"त परिखुड-परिवृत-वि० । संयुक्त, उत्त० २२ अ । रा०। परिकरिते. शा.११.११०० मा भ०। अण्यन्तरैः परि।। परिवायगा रिउव्वेदजजुबेदसामवेदअहवणवेदइतिहासकरिते. भ. १ श.६ उ. । परिवारिते, औ०। पंचमाणं णिवंदुलहाणं संगोबंगाणं सरहस्साणं चऊ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३५ ) अभिधानराजेन्द्रः । परिव्वायग एवं वेदाणं सारगा पारगा धारका वारका सडंगवी सहितंविसारदा संखाणे सिक्खाकप्पे वागरणे छंदे शिरुत्ते जोतिसामयणे असेतु य वंभम्पएस अ सत्थेसु सुपरिणिहितायावि हुत्था । तेणं परिव्वायगा दाणधम्मं च सोअधम्मं च ति त्थाभिसेच आघवे मारणा पष्ममाणा परूत्रे माया विहरंति । जं णं अम्हे किंचि असुई भवति तं गं उदएण य मट्टियाए 1 पक्खालि सुई भवति, एवं खलु अम्हे चोक्खा चोक्खायारा सुई सुइसमायारा भवेत्ता अभिसे जलपूपाणो fararai गमितामो, तेसि णं परिव्वायगाणं यो कप्पर अगडं वा तलायं वा गई वा वा िवा पुक्खरि वा दीहियं वा गुंजालिश्रं वा सरं वा सागरं वा श्रगाहितर, रामत्थ श्रद्धाखामणे, गो कप्पइ सगई वा० जात्र संमाणि वा दुरूहित्ता गं गच्छित्तए, तेसि णं परिव्त्रायगाणं णो कम्पs आसं वा हथि वा उट्टं वा गोणिं वा महिसं वा खरं वा दुरूहित्ता गं गमित्तए, तेसि णं परिव्यगाणं णो कप्पड़ नडपेच्छाइ वा० जाव मागहथेच्छाइ वा पिच्छित्तए, तेसिं परिव्वायमाणं यो कम्पइ हरियाणं लेसणया वा घट्टणयात्रा थंभणया वा लूसण्या वा उपाया वा करित, सिं परिव्वापगाणं खो कप्पर इत्थिकहाइ वा भत्ता वा देसकाइ वा रायकहार वा चोर कहाइ वा जणवयक हाइ वा अणत्थदंडं करितए, तेलिणं परिव्वगाणं णो कप्पर अयपायाइ वा तपायाणि वा पायाणि वा जसदपायाणि वा सीसगपायाणि वा रुपायाणि वा सुपायाणि वा अप्सराणि वा बहुमुल्लाणि वा धारितए, गम्मत्थ लाउपाए वा दारुपाए वा महिपावा, तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पर - यबंधणाणि वा त अवंधणाणि वा तंबंबंध शाणि० जाव बहुमुल्ला धारितए, तेसि णं परिव्वायगाणं यो कप्पइ शाखाविवपरागरताई वत्थाई धारितए रामत्थ एकाए धारत्ताए, तेस गं परिवायगाणं यो कमइ हारं वा अद्धहारं वा एकावलिं वा मुक्तावलिं वा कणगावलिं वा रयणावलिं वा मुरभिं वा कंठमुरविं वा पालंबं वा तिसरयं वा कडिसुतं वा दसमुद्दिश्रातिकं वा कडपाणि वा तुणियाणि वा अंगाणि वा केऊराणि वा कुंडलागि वा मउडं वा चूलामा वा सिद्धिए, सत्य एकेय तंत्रि पवित्तरणं, तेसि गं परिarani ar arus गंथि - मिरिमसंयाति चतुव्धिहे मल्ले धारितर, गएणस्थ ए गेण कम्पयूरेणं, तेसि णं परिव्वायगाणं णो कपइ अगलुरण वा चंदणेण वा कुकुभेण वा गापं अगलपितर, पत्थ एकाए गंगामहियाए, तेसि यं परि परिव्वायग aaraगाणं कप्पर मागहए पत्थए जलस्स पडिगाहित्तए, सेऽवि य वहमासे णो चेव णं अवहमाणे सेऽवि य थिमिओदए णो चेत्र णं कमोद, सेवि बहुपसले यो चेव गं अबहुपसले, सेवि परिपूते गो चैत्र अपरिपूते. सेवि दियो चैत्र दिले, सेवि अ पिवेत्तए यो चेव णं हत्थपायचरुचमसपक्खालणट्टाए सिलाइत्तए वा, तेसिगं परिव्वायगाणं कप्पर मागहए श्रद्धाढए जलस्स पडिग्गाहित्तए, सेऽवि य वहमाणे णो चेत्र णं अत्रहमाणे० जाव णो चैव दिले, सेवि य इत्थपायचरुचमसपक्खालखट्टयाए यो चैत्र णं पिवत्तए सिणाइत्तए वा, ते यं परित्रायगा यात्रे विहारेण विहरमाणा बहूई वासाइं परियायं पाउरांति, बहूई वासाई परियायं पाणिता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं बंभलोए कप्पे देवत्ता उबवत्तारो भवति, तहिं तेसिं गई तर्हि तेसिं ठिई दससागरोवमाई ठिई पाता, सेसं तं चैव ॥ १२ ॥ ( परिव्वायगति) मस्करिणः। (संख त्ति) सांख्याः- बुद्धयहङ्कारा ४ दिकार्थ ग्रामवादिनः प्रकृतीश्वरयोः जगत्कारणत्वम भ्युपगताः । ( जोइ ति ) योगिनः - श्रध्यात्मशास्त्रानुष्ठायिनः (कविलति ) कपिलो देवता येषां ते कापिलाः, सांख्या एव निरीश्वरा इत्यर्थः । ( भिउच्च त्ति ) भृगुः लोकप्रसिद्ध ऋषिविशेषः, तस्यैते शिष्या इति भार्गवाः ।" हंसा परमहंसा बहुउदगा कुडिश्वया" इत्येते चत्वारोऽपि परित्राजकमते यतिविशेषाः । तत्र हंसा - ये पर्वतकुहरपथाऽऽ श्रमदेवकु. लाऽऽरामवासिनो भिक्षार्थ च ग्रामं प्रविशन्ति परमहंसास्तुये नदी पुलिनसमागमप्रदेशेषु वसन्ति चीरकौपीन कुशाँच त्यक्त्वा प्राणान् परित्यजन्ति । बहूदकास्तु-ग्रामे एकरात्रिका नगरे पञ्चराधिकाः प्राप्तभोगांश्च ये भुञ्जन्त इति । कुटीव्रताः- कुटीवराः । ते च गृहे वर्त्तमाना व्यपगतको धलोभमोहा श्रहङ्कारं वर्जयन्तीति । ( कराह परिव्वायगति) कृष्णपरिव्राजकाः परिव्राजकविशेषा एव, नारायणभक्तिका इति केचित् । कण्वादयः पोडश परिवाजका लोकतोऽवसेया (रिउच्वेद जजुब्वेद सामवेदश्रवणवेद त्ति ) इह बहु वचनलेोपदर्शनात् ऋग्वेदयजुर्वेद सामवेदाथर्ववेदानामिति दृश्यम् । ( इतिहासपंचमाणं ति ) इतिहासः पुराणमुच्यते । ( निघंटुछट्टा ति ) निघण्टुः नाम कोश: । ( संगोवंगाणं ति । अङ्गानि शिक्षाऽऽदीनि उपाङ्गानि तदुकमपश्ञ्चनपराः प्रबन्धाः ( सरहस्ताणं ति) पेदम्पर्ययुक्तानामित्यर्थः । "चउएवं वेयां ति " व्यकम् । ( सारयति ) अध्यापनद्वारेण प्रवर्त्तकाः स्मारका वा अन्येषां विस्तृतस्य स्मारणात्। (पारय त्ति ) पर्यन्तगामिनः ( धारयत्ति ) धारयितुं क्षमाः ( सईगीति) पविः शिज्ञाऽऽदिविचारकाः । (सहितवि सारयत्ति ) कापेलीयतन्त्रपरिडताः । ( संत्रा ति ) सं. ख्यात गणितस्कन्धेषु परिनिष्ठिता इति योगः । अथ पड ङ्गानि दर्शयन्नाह - ( सिक्खाकप्पे त्ति) शिक्षा च अक्षरस्वरूपाने रूपकं शास्त्रं कल्पश्च तथाविधलमाचारनिरूपकं शास्त्रमेवेति शिक्षाकल्पस्तत्र । ( वागरणे ति ) शब्दलक्ष For Private Personal Use Only Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिव्वायग णशास्त्र छंदेत्ति ] पद्यवचनलक्षणशास्त्रे ( निरुत्ते त्ति ) शब्दनिरुक्तिप्रतिपादके ( जोइसामयणे ति ) ज्योतिषामयने ज्योतिःशास्त्रे व बहुषु (बंभर यति ) ब्राह्मणकेषु च वेदव्यान्यानरूपेषु ब्राह्मणसम्बन्धिशास्त्रेष्वागमेषु वा, वाचनाऽन्तरे." परिव्वायएस य नपसु चि" परिवाजकसम्वन्धिषु च नयायेषु परिनिि यायावर नि ) सुपरिनिष्णाताखाप्यभूवाति (आ. घवेमाणे ति ) श्रख्यायन्तः - कथयन्तः । (पसवेमारा ति) बोधयन्तः (परुवेमारा ति) उपपत्तिभिः स्थापयन्तः । (चोक्या खोयार ति ) चोक्षा-विमलदेहनेपथ्याः चोक्षा 55सारा निरबधव्यवहाराः किमु भवतीत्याह--(सुई सुस मायर ति) (अमिय जलपूयमाणो त्ति) अभिषेकतो जलेन [पूयति] पवित्रित श्रात्मा यैस्ते तथा (विग्धेयं त्ति विनाभावेन विवचि रख जलाऽऽराव विशेषः (ति) पुष्करिणी वर्तुलः स एव, पुष्करयुक्तो वा । (दीहियं वत्ति ) दीर्घिका सारणी (गुंजालियं वत्ति ) गुज्जालिका- वक्रसारणी "सर सिंवत्ति" क्वचिद् दृश्यते । तत्र महत्सरः सरसीत्युच्यते, ( नत्थ श्रद्धागमणेगं ति ) न इति यो निषेधः सोऽन्यसाध्वगमनादित्यर्थः । समई वा " इत्यत्र यावत्करणादिदे " व ( ६३६ ) अभिधान राजेन्द्रः | 64 "राजापानिया या सत्यं वेति।" पतानि च प्रानिय व्याधेयानीति (हरिया लेसणया व प्ति) संश्लेषणता (घट्टणया वत्ति ) सङ्घट्टनम् ( थंभणया वत्ति ) स्तम्भनम् ऊर्ध्वकरणं (लूसण्या वत्ति) हस्तादिना पनकाऽऽदे सम्मार्जनम् ( उप्पाडण्या वत्ति ) उन्मूलनम् " अयपायाणि वा इत्यादिसूत्रे यावत्करणात् त्रयुकसीसकरजतजातरूपकाः (ति) कंसखोहारपुटकरीतिकामा शङ्खदन्तचर्मचेलशैलशब्दविशेषितानि पात्राणि दृश्यानि । असराणि वा तहष्पगाराणि महद्धण मोल्लाई " च दृश्यम् । तत्रायो लोहं, रजतं रूप्यं जातरूपं सुव . काचः पापाविकारः (ईति यति) गिम्यम्, वृत्तलोहं त्रिकुटीति यदुच्यते, कांस्यलोहं कांस्यमेव, हा पुटकं मुकाशुक्तिपुर्द, रीतिका पीतला, अन्यतराणि वा येषां मध्ये एकतराणि एतव्यतिरिक्रानि वा तथाप्रकाराणि भोजनादिकार्यकारण समर्थानि महत् प्रभूतं धनं इयं मूल्यं प्रतीतं येषां तानि तथा । ( अलावुपापरां ति ) श्रलापात्रान् तुम्बकभाजनादित्यर्थः तथा-" इत्यत्र यावर करणात् प्रयुकयन्धनादीनि शलबन्धनान्तानि पात्रात वसई तपगाराई महणजाई" इत्येतय दश्यमिति पुस्तकान्तरे समग्रमिदं सूत्र चेति । ( मत्थ एगार धाउरत्ताए ति ) इह युगलिकयेति दृश्यः हारादीनि शेषन प्राग्वत्वरम् (समुदियात ति ) रूढशब्दत्वादस्य हन्ताङ्गुलीमुद्रिकादशकभित्यर्थः । (पवित्तरति ) पवित्र गुलीयकम् चिममपूरि माइलि ) प्रथमं ग्रन्थनेन निर्वृत्तं मालारूपं, वेष्टिमं मालावेननिर्वृत्तं पुष्यलम्बूसकाऽऽदि, पूरिमं पूरनिर्वृत्तं सङ्घानिमं- सङ्घातेन (मले)ि मारगांन शलाका जाल कपूरण मयमिति, निम् इतरेतरस्य नाशनेन 1 " परिसप्पिणी मालायां साधूनि तस्यै हितानि बेति पुष्पाणीत्यर्थः । (क पूरणं ति) कर्णपूरका पुष्पमयः क भार विशेषः । ( मागए पत्थए त्ति ) " दो असईओ पसई, दोहिं पसईई सेइया होई । चउसेश्रो उ कुलश्रो. चउकुलश्रो पत्थश्रो दोइ ॥ १ ॥ उपत्थमाढ्यं तह चत्तारि य श्रादया भवे दोणो ||" इत्यादिमानलक्षणलक्षितो मागधप्रस्थः । ( सेऽवि य चमार चि) तदवि जसे पदमार्ग नथापितवर्ति व्याप्रियमाणं वा । (थिमिश्रोदर ति ) स्तिमितोदकं यस्वाघः कर्दमो नास्ति (बहुपति) बहुप्रसन्नम् अति स्वच्छम् (परिपूभि पर गालितम् ( पविच एति ) पातुम् (चरुचमस त्ति ) चरुः स्थालीविशेषश्वमसो दर्विकेति ॥ १२ ॥ ३८ ॥ श्र० ज्ञा० परिव्राजामिदम् परिवा जकम् । परिवाजकसम्बम्बिनि " बहुतु परिवार नरसु" श्र० । परिवाजक लम्बन्धिषु नयेषु श्राचारशास्त्रेषु. कल्प० १ अधि० १ क्षण । परिसंकमाण - परिशङ्कमान त्रि० । सर्वतोभय ऽऽकुले, सूत्र ० १ श्रु० १० अ० । परिसंकियजय - परिशङ्कितजन - पुं० । भीतजने, प्रश०३ श्र० द्वार । परिसंखाय परिसदाय अव्य००२ ॐ० १ ० । श्राचा० । सर्वैः प्रकारैर्शात्वेत्यर्थे, दश० ७ उ० । परिसंठाविय - परिसंस्थापित त्रि० । परि समन्तात्सर्वत्र सम्प स्थापितम् । रक्षितं ! परिसंत परिभ्रान्त भिन्ते १ ० १ श्र० । परिसंघय परिसंस्तव पुं० परिबन्दमा १०३० - ३ उ० । इति परिसंदेयण - परिसंवेदन - न० । अनुभवे श्रचा० १० २ श्र० ३ उ० । परिसकिर-परिष्वप्किन परिष्यन्तुिं शीलमस्येति । परिसर्पणशीले, "विपुल गगण चवलपरिसक्किरेसु । " शा० १ ० १ ० ॥ परिसडण परिशटन निःशर स्था० १ डा० ॥ परिसडिय परिशटित - भि० । कुष्ठाऽऽयुपद्दताङ्ग इव विध्वस्ते, प्रश्न० ४ संव० द्वार । · - परिसडियकंदमूलत पचपुष्पफलाहार-परिशटितकन्दमूल -- स्वपत्र पुण्यफलाऽऽहार पुं० परिशतिकन्दाऽऽदिन के वानप्रस्थभेदे, नि० चू० १ उ० । परिसप्य परिसर्प पुं परिसर्पतीत्येवंशी परिवप रिसर्पणशीलेषु भुजोरः परिसर्पेषु जीवभेदेषु, अनु० जी० । प्रज्ञा० । 91 । परिसी परिसीबी परिसर्पीलायाम् तिर्य स्त्रियाम, " से किं तं परिसप्पिणीओ ? | परिसपिणीश्री दुबिहा परणताओ । तं जहा - उरपरिसपिणीश्रो, भुय परिसपीओ य । " जी०२ प्रति० । Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसर (६३७) प्रभिधानराजन्छः । परिसह परिसर-परिसर-पुं० । प्रान्ते, औ० । “ नगरपरिसरेर वा।" | क्षणात् । तत्राऽऽद्यमाह-कर्मणि विचार्ये, चः पूरणे, द्रव्यपश्रा० म०१०। ...... परिसरो मृत्यौ, देवोपान्तप्रदेश- रीषहः अनुदयः उदयाभावः, प्रक्रमात् परीषहवेदनीयकयो।" है० । “परिसरो पासा।" पाइ) ना० २३६ गाथा। मणामेव, 'भणितः' उक्त इति गाथाऽऽर्थः ॥६६॥ परिसह-परिषह-पुंछ । परीति समन्तात् स्वहेतुभिरुदीरिता द्वितीयभेदमावमार्गाच्यवननिर्जरार्थ साध्वादिभिः सह्यन्ते इति परीषहाः । णोकम्मम्मि यतिविहो, सञ्चित्ताचित्तमीसओ चेव । उत्त० २ ० । साधुभिः सहनीयेषु तुदादिषु, भ०१ श०६ भावे कम्मस्सुदओ, तस्स उ दाराणिमे हुंति ॥ ६७ ॥ उ०। औ०। विशे। सूत्र ।। प्रा० चू० । श्राव०। नोकर्मणि पुनर्विचार्य; चस्य पुनरर्थत्वाद् द्रव्यपरीषहः त्रिननु केडमी परीषहाः ?, किंरूपाः ?, किञ्चालम्बनमुर विधः त्रिभेदः, (सचित्ताचित्तमीसो त्ति) लुप्तनिर्दिष्टत्वाद्विरीकृत्यैतेषु सत्स्वपि न विनयविलङ्घनमित्याशङ्काऽऽपो भक्तः सचित्तोऽचित्तो मिश्रक इति,समाहारो वा सचित्ताचिहाय परिषहास्तत्स्वरूपाऽऽदि चाभिधेयमित्यनेन सम्बन्धे. त्तमिश्रकमिति, प्राकृतत्वाच्च पुल्लिङ्गता चः स्वगतानेकभेनाऽऽयातस्यास्य महार्थस्य महापुरम्येव चतुरनुयोगद्वार दसमुच्चये, एवोऽयधारणे. इयन्त एवामी भेदाः, तत्र नोकस्वरूपमुपवर्णनीयं, तत्र च नाम निष्पन्न निक्षेपस्य परी मणि सचित्तद्रव्यपरीषहो गिरिनिरजलाऽऽदिः, अचित्तपह इति नाम, अतस्तन्निक्षेपदर्शनायाऽऽह भगवान्नयुक्ति व्यपरीपहश्चित्रकचूर्णाऽऽदिर्मिश्रद्रव्यपरीषहो गुडाऽऽर्द्रकार: काऽऽदि. त्रयस्यापि कर्माभावरूपत्वात् तुत्परीषहजनकत्वाणासो परीसहाणं, चविहो दुविहो उ दव्वम्मि। च, इत्थं पिपासाऽऽदिजनकं लवणजलाऽऽद्यप्यनेकधा नोकआगम नोआगमतो, नोआगमत्रो य सो तिविहो ॥६५।। मद्रव्यपरीपह इति स्वधिया भावनीयम् । भावपरीषद आगनियतं निश्चितं वाऽऽसनं नामाऽऽदिरचनाऽऽत्मक क्षेपणं मतो ज्ञाता तब चोपयुक्तो. नोागमतस्तु नोशब्दस्यैकदेशन्यासो.निक्षेप इत्यर्थः। श्रयं च केषामित्याह-परीति समन्तात् वाचित्ये आगमकदेशभूतीमदमेवाध्ययनं, निषेधवावित्वे तु स्वहेतुभिरुदीरिता मार्गाच्यवननिर्जरार्थ साध्वादिभिः स तदभावरूपः परीषहवेदनीयस्य कर्मण उदयः। तथा चाऽऽह (भावे कम्मरस उदो ति) कर्मण इति परीषहवेदनीवन्त इति परीषहास्तेषां, चत्वारो विधाः प्रकारा अस्ये. ति चतुर्विधो, नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात् । तत्र नामस्था यकर्मणां बहुत्वेऽपि जात्यपेक्षयैकवचननिर्देशः। तस्य च' पने क्षरणे, इत्यनादृत्य द्रव्यपरीषहमाह- द्विविधा' द्विभे भावपरीषहस्य ' द्वाराणि' व्याख्यानमुखानि । इमानि " दः, तुः पूरणे, भवति 'व्ये' इति द्रव्यविषयः, प्रक्रमात्प अनन्तरवक्ष्यमाणानि, भवन्तीति गाथाऽर्थः ॥ ६७॥ रीषहः । स च (श्रागम णोश्रागमतो ति) श्रागमती नोश्रा तान्तवाऽऽहगमतश्च तत्र भागमतो ज्ञाता, तत्र चानुपयुक्त इत्यागम- कत्तो कस्स वदव्वं,समोआर अहिासए नय वत्तणा कालो। स्वरूपमतिपरिचितमिति परिहत्य नोआगमत प्राह नो खित्तुद्देसे पुच्छा, निइसे सुत्तफासे य ।। ६८ ॥ आगमतस्तु नोभागमं पुनराश्रित्य 'स' इति परीपहः 'त्रिविधः ' त्रिप्रकार इति गाथाऽर्थः॥ ६५ ॥ 'कुतः' इति कुतोऽङ्गाऽऽदेरिदसुद्धृतं १, (कस्स इति) कस्य त्रैविध्यमेवाऽऽह संयताऽऽदेरमी परीषहाः २, 'द्रव्यम्' इति किममीषामुत्पाद कं द्रव्यं ३. ' समवतार' इति क्व कर्मप्रकृती पुरुषविशेष जाणगसरीर भविए, तव्वहारते य से भवे दुविहे । वाऽमीपां सम्भवः ? ४. 'अध्यास' इति कथममीपामध्याकम्मे नोकम्मे या, कम्मम्मि य अणुदओ भणिो ॥६६॥ सना सहनाऽऽमिका ? ५, 'नय इति को नयः कं परीषह( जाणगसरीर त्ति ) झायको शो वा तस्य शरीरं शा- मिच्छति ? ६ चः समुच्चये, 'वर्तना' ते कति क्षदादयः यकशरीरं, शरीरं वा जीवरहितं सिद्धशिलातलगतं एकदै कस्मिन् स्वामिनि वर्तन्ते ७ 'काल' इति कियन्तं निपीधिकागतं वा, अहो ! अमुना शर्गग्समुच्छयणोपात्तन कालं यावत् परीपहास्तित्वम् ८, (खेत्ते त्ति) कतरस्मिन्किपरीषह इति पदं शिक्षितम् , अयं घृतघटाऽभूदितिव.सं. यति वा क्षेत्रह, 'उद्देशो' गुरोः सामान्याभिधायि वचनं भाव्यमानं, तथा (भविय त्ति) शरीरशब्दस्य काकाक्षि १०. 'पृच्छा' नजिज्ञासोः शिष्यस्य प्रश्नः ११, 'निर्देशः ' गोलकन्यायेनोमयत्र सम्बन्धात् भव्यशरीरं, तत्र भविष्यति गुरुणा पृष्टार्थविशपभाषणम १२, 'सूत्रस्पर्शः' सूत्रसूचितातेन तेनावस्थाऽऽत्मना सत्ता प्राप्स्यति यः स भव्यो जी- र्थवचनम् १३. 'चः 'समुच्चये । इति गाथासमासार्थः ॥६॥ वस्तस्य शरीरं यदद्यापि परीवह इनि पदं न शिक्षत, ए. तत्र कुत इति प्रश्नप्रतिववनमाहप्यति तु शिक्षिष्यंत, नदयं धृतघटी भविष्यतीनिवत्संभा. कम्म पवायव्ये, मानरसे पाहडम्मि जे मुतं । व्यमानम् । नापागमता द्रव्यपरीवहः (तव्वइरिले यत्ति ) ताभ्यां शरीरभव्यशरीराभ्यां व्यतिरिक्तः पृथग्भूतः तद्य सणयं सोदाहरणं, तं चेव इहं पि णायव्वं ॥ ६६ ॥ तिरिक्तः, सच प्रकृतत्याद् द्रव्यपरीपहो भवेत् , 'द्विविधः' कर्मणः प्रवादः प्रकर्षण प्रतिपादनमस्मिन्निति कर्मप्रवाई. द्विभेदः । कथमित्याह-कियते मिथ्यात्वाविरतिकवाययोगा- तश तत् पूर्व च तस्मिन् , तत्र बहूनि प्राभृतानीति कतिथ नुगतनाऽऽत्मना निवर्थत इति कर्म, तत्र ज्ञाना: बरणा55 प्राभृते इत्याह-सप्तदशे प्राभृते-प्रतिनियतार्थाधिकाराभिधादिरूप, 'नोकर्मणि च' तद्विपरीतरूपे, चः समुच्चये, दीर्घ- यिनि, यत् 'सूत्र' गणधरप्रणीतश्रुतरूपं 'सनयं' नैगमा55त्वं च " हस्वदीघौ मिथो वृत्तौ" ८.१४॥ इति प्राकृतल... दिनयान्वितं, 'सोदाहरणं' सदृष्टान्त, (त चवात्त Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसह परिसह अभिधानराजेन्डः। पूरणे. एवोऽवधारणे, ततस्तदेव 'इहापि' परीपहाध्ययने, । अत्थे विनिच्छो जो, विनिच्छियत्थु त्ति सोगेभो ॥२॥ 'सातव्यम्' अवगन्तव्यं, न त्वधिकम् । किमुक्तं भवति ?- | बहुयरउ ति व तं चिय, गमेह संतेऽधि सेसए मुयह। निरयशेषं तत एवेदमुवृतं न पुनरन्यत इति गाथाऽर्थः ॥६६॥ संववहारपरतया, ववहारो लोगमिच्छतो ॥२॥" इति । कस्येति यदुक्तं तदुत्तरमाह ततोऽयमाशयःतिएहं पिणेगमणो, परीसहो जाव उज्जुसुत्ताओ। "कालो सभाव नियई, पुवकयं पुरिसकारणेगंता। तिएहं सद्दणयाणं, परीसहो संजए होइ ॥ ७० ॥ मिच्छतं ते चैव उ, समासश्रो होति सम्मत्तं ॥१॥" इत्यागमवचनतः सर्वस्थानेककारणत्वेऽपि कर्मकृतं लो'त्रयाणामपि' अविरतविरताविरतविरतानां, न तु विरत कवैचित्र्यमिति प्रायः प्रसिद्धर्यत् कर्म कारयिष्यति तत्कस्यैव नैगमनयः, 'परीषहः' तुदादिरिति, मन्यत इति रिष्याम इत्युक्तेश्च कमैव कारणमित्याह-तच्चाचेतनत्वेनाशेषः । त्रयाणामपि परीषहवेदनीयासाताऽऽदिकर्मोदयजनि जीव एवेति । (जीवदव्वं) तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् जीवद्रतस्य सुधादेस्तत्सहनस्य च यथायोगं सकामाकामनिर्ज व्यमेव, शेषाणाम्-ऋजुसूत्रशब्दसमाभिरूढैवम्भूतानां पर्या राहेतोः सम्भवाद् अनेकगमत्वेन चास्य सर्वप्रकारसझ्या यनयान मतेन, हेतुरिति गम्यते । अयमर्थ:-जीवद्रव्येण हित्वात्, (जाव उज्जुसुत्ताउ त्ति) सोपस्कारत्वादस्यैवं परीवह उदीर्यत इत्येष पवैषां भलोऽभिमतः, ते हि पर्यायायावसूत्रः। कोऽर्थः?-संग्रहव्यवहारऋजुसूत्रा अपि प्र. स्तिकत्वेन परीवह्यमाणमेव परीषहमिच्छन्ति, परीषहणं चो. याणामपि परीपहं मन्यन्ते एकैकनयस्य शतभेदत्वनैत पयोगाऽऽत्मकम् उपयोगस्य च जीत्रस्वाभाव्यात् जीवद्रव्यमे. देवानामपि केषाञ्चित् परीषहं प्रति नैगमेन तुल्यमतत्वात्, व सन्निहितमव्यभिचारिच कारणं तद्विपरीतं तु अजीवद्रव्यं 'त्रयाणां' त्रिसङ्ख्यानां, केषाम् ?-शब्दप्रधाना नयाः शब्द दण्डाऽऽदीयकारणं,जीवद्रव्यामेति तु द्रव्यग्रहणं पर्यायनय. नया,शाकपार्थिवाऽऽदिवत् समासः, तेवां शब्दसमभिरूद्वैव. स्याऽपि गुणसंहातरूपस्य दव्यस्ऋत्वात् । तदुकम्-"पर्याय. म्भूतानां, मतेनेति शेषः । परीवहः 'संयते' घिरते भवति । नयोपिदव्यमिच्छति गुणसन्तानरूपम्।" इति गाथाऽर्थः ७१। "माव्यिवननिर्जराथै परियोढव्याः परीपहाः।" ( तत्वा० सम्प्रति समवतारद्वारमाह८० ) इति लक्षणोपेतनिरूपचरितपरीपहशब्दव तेस्तत्रैव सम्भवात्, इति गाथाऽर्थः ॥ ७० ॥ समो यारो खलु दुविहो, पयडीपुरिसेसु चेव नायब्बो । द्रव्यद्वारमधिकृत्य नयमतमाह एएसि नाणत्तं, वुच्छामि अहाणुपुबीए ॥ ७२ ॥ पढमम्मि अट्ठ भंगा, संगहे जीवो व अहव नोजीवो। 'समवलारः खलु द्विविधः' इति खलुशब्दस्येवकारार्थ त्वात् द्विविध एव, दैविध्यं च विषयभेदत इति । तमाहववहारे नोजीवो, जीवदयं तु सेसाणं ॥ ७१॥ प्रकृतयश्च पुरुषाश्च प्रकृतिपुरुषास्तेषु, कोऽर्थः ?-प्रकृतिषु 'प्रथमे' प्रक्रमानैगमनये अष्टौ भङ्गाः, स हि-" णेहि ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिरूपासु, पुरुषेषु,चशब्दात् स्त्रीपण्डके च, माणेहि. मिण इत्ती णेगमस्स नेरुत्ती।" इति लक्षणादनेकधा तत्तद्गुणस्थानविशपवीतयु, एवेतिपूरण, ' ज्ञातव्यः ' करणमिच्छन् यदेकेन पुरुषाऽदिना चपेटाऽदिना परीषह उ. अवबोद्धव्यः, 'पतेषां 'प्रकृत्यादीनां 'नानात्वं' भेदं वदये, दीर्यते तदा परीषहवेदनीयकर्मोदयनिमित्तत्वेऽपि तस्य तद 'अथ' अनन्तरम् ‘ानुपूर्व्या' क्रमेणेति गाथाऽर्थः ॥७२॥ विवक्षया जीवेनासौ परीयह उदीरित इति वक्ति १. यदा उत्त०२०। बहुभिस्तदा जीवैः २, यदा अचेतनेनैकेन दृपदादिना जीव- एए णं भंते ! वावीसं परीसहा कइसु कम्मपगडीसु समोयरंप्रयोगरहितेन तदाऽजीवेन ३. यदा तैरेव बहुभिस्तदा अ. ति। गोयमा ! चउसु कम्मपगडीसु समायरंति । तं जहाजीवैः ४,यदेकेन लुब्धकाऽऽदिना वाणाऽदिनेकेन तदा जीवन चाऽजीवेन च ५, यदा तेनैकेनैव बहुभिः बाणादिभिस्तदा णाणावरणिजे,वेयणिज्जे,मोहणिजे, अंतराइए । णाणावरजीवेनाजीवैश्च ६,यदा बहुभिः पुरुषादिभिरकंशिलाऽऽदिक- णिजे णं भंते ! कम्मे कइ परीसहा समोयंरति ?। गोयमा दो मुरिक्षप्य क्षिपद्भिस्तदा जीवरजीवेन च ७, यदा तु तैरेच मुद्ग- परीसहा समोयरंति । तं जहा-पणापरीसहे,णाणपरीसहे । गऽऽदीन् बहन मुश्चद्भिसादा जीधैश्चाजीवश्चेति ॥ संग्रह' संग्रहनाम्नि नये विचार्यमाणे जीवो 'वा' अथवा-नीजीवी वेयणिजे णं भंते ! कइ परीसहा समोयरंति । गोयमा ! हेतुरिति प्रक्रमः किमुक्तं भवति ?-जीवद्रव्येणाजीवद्रव्येण एकारस परीसहा समोयरंति-" पंचेव आणुपुब्बी, चरिवा परीषह उदीयते । स हि " संगहियापाडयत्थं, संगह- या सेजा वहे य रोगे य । तणफास जल्लमेव य, एकारस वयणं समासतो ति।" इति वचनात् सामान्यनाहिस्वन- वेपणिजम्मि ॥१॥" दंसशमोहणिजे णं भंते ! कम्मे कत्वमेवेच्छति, न पुनर्दिन्वबहुत्वे । अस्यापि च शतभक्त्वा कह परीसहा समोयरति ?। गोयमा ! एगे दंसणपरीसहे सयदा चिद्रूपतया सर्व गृह्णाति तदा जीवद्रव्येण, यदा स्वविदूपतया तदा अजीवद्रव्येण ॥' व्यवहारे ' व्यवहारनये (नो मोयरइ । चरित्तमोहणिजे यं भंते ! कइ परीसहा समोयरजीव इति) अजीबो हेतुः । कोऽर्थः ? श्रजीवद्रव्येण परी- ति ? गोयमा ! सत्त परीसहा सभोयरंति । तं जहा-"अरई पह उदीर्यत इस्पकमेव भङ्गमयमिक छति । तथाहि-" बच्चा अचेलइत्थी, निसीहिया जायणा य अकोसे । सकार पुरविणिच्छि पत्थं ववहारो सव्वदश्वर्नु।" इति तलक्षणम् । तत्र च' विनिश्चित ' इत्यनेकरूपत्वेऽपि वस्तुनः सांब्यवहारि कारे, चरितमोहम्मि सतेते ॥१॥" अंतराइए णं भंते ! कजनप्रतीतमेव रूपमुच्यने, तबाहकोऽयम् । उक्तं च कम्मे कई परीसहा समोधरंति? गोयमा ! एो अलाभपरी. " भमराइपंचवरणा-णाच्छर जम्मि वा गणवयस्स। । सहे समायरइ ।। Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३६) परिसह भाभिधानराजेन्द्रः । परिसह (कइसु कम्मपगडीसु समोयरंति त्ति) कतिषु कर्मप्रकृ- 'भरतिः' इति अरतिपरीषहः, एवमुत्तरेष्वपि परीषहशतिषु विषये परीपहाः समवतारं वजन्तीत्यर्थः । (पन्ना परी. ब्दः सम्बन्धनीयः। ( अचेल ति) प्राकृतत्वाद्विन्दुलोसहेत्यादि) प्रशापरीपही शानाऽऽवरणे मतिज्ञानाऽऽवरणरूपे पः, अचलं, ' स्त्री नेषेधिकी याचना चाऽऽक्रोशः सत्कारसमवतरति प्रज्ञाया अभावमाश्रित्य तदभावस्य सानाऽऽचर. पुरस्कारः' सप्तते वक्ष्यमाणरूपाः परीपहाः । चरित्रभो. णोदयसम्भवत्वात् । यत् तदभावे दैन्यवर्जनं तत्सद्भावे च हे' चरित्रमोहनाम्नि मोहनीयभेदे भवन्तीति गम्यते । तदुदमानवर्जनं तच्चारित्रमोहनीयक्षयोपशमाऽऽदेरिति । एवं यभावित्वादेषाम् ॥ चारित्रमोहनीयस्यापि बहुभेदत्वाधस्य शानपरीपहोऽपि. नवरं मत्यादिज्ञानाऽऽवरणेऽवतरति "पंचे- तभेदस्योदयेन यत्परीषहसद्भावस्तमाह-'अरतेः' अरतिस्यादि गाथा। (पंचव प्राणुपुत्वी ति) क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंश- नाम्नश्चारित्रमोहनीयभेदस्य, अचेलस्य जुगुप्सायाः, ( पुंखे. मशकपरीषहा इत्यर्थः। एतेषु च पीडेव वेदनीयोत्था. तदधि- यत्ति) सुपो लोपात् पुंवेदस्य, भयस्य चैवं मानस्य कोसहनं तु चारित्रमोहनीयक्षयोपशमाऽऽदिसम्भवमधिसहनस्य धस्य लोभस्य च उदयेन परीषहाः सप्त। इह चाऽरत्युदये चारित्ररूपत्वादिति । (एगे दंसणपरीसद्दे समोयरह त्ति) नारतिपरीषहः जुगुप्तोदयेनाचलपपिह इत्यादि यथाक्रम यतो दर्शनं तस्वश्रद्धानरूपं दर्शनमोहनीयस्य क्षयोपशमाऽऽ- योजना कार्येति। तथा दर्शनमोहे 'दर्शनपरीषदः' वन्यदौ भवत्युदये तु न भवतीत्यतस्तत्र दर्शनपरीषहः समवत- माणरूपो. (णियमसो ति) आर्षत्वेन नियमात् भवेत् , रतीति।"श्ररई"इत्यादिगाथा। तत्र चारतिपरीषहो रतिमोह 'एकः 'अद्वितीयः 'शेषाः 'एतदुद्धरिताः, परीषहाः पुनः नीये, तज्जन्यत्वादचेलपरीषहो जुगुप्सामोहनीये लज्जापेक्षया, एकादश 'वेदनीये' वेदनीयनाम्नि कर्मणि संभवन्तीति गा. स्त्रीपरीषहः पुरुषवेदमोहो, रुयपेक्षया तु पुरुषपरीषहः थात्रयार्थः ॥ ७५-७६-७७ ॥ स्त्रीवेदमाहे, तत्वतः रुयाद्यभिलापरूपत्वात्तस्य, नेषेधकीप के पुनस्ते एकादशेत्याहरोषहो भयमोहे उपसर्गभयापेक्षया, याश्चापरीषहो माननोहे पंचेव आणुपुब्बी, चरिया सिजा वहे य रोगे य । तद् दुष्करत्वापेक्षया, आक्रोशपरीषहः क्रोधमोहे क्रोधोत्प तणफास जल्लमेव य, इकारस वेयणिजम्मि ।। ७८ ।। प्यपेक्षया, सत्कारपुरस्कारपरीषद्दो मानमोह मदोत्पत्यपेक्ष पञ्चैव पञ्चसंख्या एव ते च प्रकारान्तरेणापि स्युरित्याहया समवतरति । सामान्यतस्तु सर्वेऽप्येत चारित्रमाहनीये 'पातुपूर्व्या' परिपाट्या. क्षुत्पिपासाशीतोमदंशकमशकाssसमवतरन्तीति । (पगे अलाभपरीसहे समोयरइ त्ति) अलाभपरीषह पचान्तराये समवतरत्यन्तरायं चह लाभा ख्या इति भावः । चर्या शय्या वधश्च रोगश्च तृणस्पर्शो जल म्तरायं तदुदय एवं लाभाभावात् , तदधिसहनं च चारि एव च इत्यमी एकादश वेदनीयकर्मण्युदयवति परीषदा बमोहनीयक्षयोपशम इति । भ०८ श०८ उ. । भवन्तीति शेषः,इति गाथाऽर्थः ॥ ७ ॥ तत्र प्रकृतिनानात्वमाह सम्प्रति पुरुषसमवतारमाह बावीसं वायरसं-पराएँ चउदस य सुहुमरागम्मि । णाणावरणे वेए, मोहम्मि य अंतराइए चेव ।। छउमत्थवीयराए, चउदस इक्कारस जिणम्मि ।। ७६ ॥ एएसुं बाबीसं, परीसहा हुंति णायव्वा ॥ ७३ ।। 'द्वाविंशतिः' द्वाविंशतिसंख्याः प्रक्रमात्परीषहाः 'बादशानाऽऽवरणे चेये मोहे चानन्तरायिके चैव,पतेषु चतुर्प क रसंपराये' बादरसम्परायनाम्नि गुणस्थाने । किमुक्तं भवमसु वचषमाणस्वरूपेषु द्वाविंशतिः परीपहा भवन्ति ॥७३॥ | ति ?-बादरसम्परायं यावत्सर्वेऽपि परीषहाः सम्भवन्ति, अनेन प्रकृतिभेद उक्तः । सम्प्रति यस्य यत्रावतारस्तमाह- चतुईश चतुर्दशसंख्याः , चः, पूरणे, सूक्ष्म संपराये, सूक्ष्मपन्नानाणपरिसहा, णाणावरणम्मि हुति दुन्नेए । सम्परायनाम्नि गुणस्थाने, 'सप्तानां चारित्रमोहनीयप्रतिबइक्को य अंतराए, अलाहपरीसहा होइ ॥ ७४॥ द्धानां, दर्शनमोहनीयप्रतिबद्धस्य चैकस्य तत्राऽसम्भवादिति भावः । 'छद्मस्थवीतरागे' छमस्थवीतरागनाम्नि गुणस्थाने, प्रशा चाशानं च प्रज्ञाशाने, ते एवोसेकवैक्लव्याकरणतः। 'चतुईश' उक्तरूपा एव , 'एकादश' एकादशसंख्याः जिने परीपह्यमाणे परीपही, 'ज्ञानाऽऽवरणे' कर्मणि भवतो द्वौ' केवलिनि, वेदनीयप्रतिबद्धानां चुदादीनामेव तत्र भावाद् , एता, तदुदयक्षयोपशमाभ्यामनयोः सद्भावात् . एकश्च 'अ-| इति गाथाऽर्थः॥ ७६ ॥ न्तराये' अन्तरायकर्मण्यलाभपरीपही भवति, तदुदयनिब अधुना अध्यासनामाहन्धनवादलाभस्य इति गाथाऽर्थः ॥ ७४॥ एसणमणेसणिजं, तिएहं अग्गहणऽभोयण नयाणं । मोहनीयं द्विधति यत्र तद्भेदे वेदनीये च यत्परिषहाव अहिआसण बोद्धव्वा, फासुय सदुज्जुसुत्ताणं ।। ८०॥ तारस्तमाह एण्यत इत्येषणम्-एपणाशुद्धम् अनेषणीयं तद्विपरीतं, सो. अरई अचेल इत्थी, निसीहिया जायणा य अक्कोसे। पस्कारस्वाद्यदनाऽऽदि तस्य, यद्वा-'सुपा सुपो भवन्ति' सक्कारपुरकारे, चरित्तमोहम्मि सतेए ।। ७५ ॥ इति न्यायादिषणीयस्य अनेषणीयस्य च, (अग्गहण :अरहर दंगुठाए, पुंवेय भयस्स चेव माणस्स । भोयण ति) अब्रहणम्-अनुपादानं, कथश्चि प्रहणे वा. कोहस्स य लोहस्स य, उदएण परीसहा सत्त ॥ ७६ ।। अभोजनम्-अपरिभोगाऽऽत्मकं त्रयाणाम् ' अधिगमस ग्रव्यवहाराणां नयानां मन्तेनाध्यासना बोद्धव्येति सम्बदसणमोहे दंसण-परीसहो नियमसो भवे इक्को । न्धः। श्रमी हि स्थूलदर्शिनः बुभुक्षाऽऽदिसहनमन्नादिपरिसेसा परीसहा खलु, इक्वारस वेयणिजम्मि ॥ ७७॥ । हारात्मकमेवेच्छन्ति । (फासुग सदुज्जुसुत्ताणं ति) शब्दन Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४० ) अभिधानराजेन्द्रः । परिसह यानां त्रयाणामृजुसूत्रस्य च मतेन प्रासुकमन्नाऽऽदि, उपलक्षणत्वात् कल्प्यं च गृहतो भुञ्जानस्याप्यध्यासनेति प्रक्रमः । ते हि भावप्रधानतया भावाध्यासनामेव मन्यन्ते सा च ना भुञ्जानस्यैव, किंतु शास्त्रानुसारिप्रकृत्या समताऽवस्थितस्य प्रासुमेषणीयं च धर्वदनार्थं भुञ्जानस्यापीति गाथाऽर्थः ॥ ८० ॥ सम्प्रति नयद्वारमाह जं पप्प नेगमन, परीसहो वेयणा य दुराहं तु । वेयण पडुच्च जीवे, उज्जुसुओं सदस्स पुरा आया ॥ ८१ ॥ ' यद् ' वस्तु गिरिनिर्भरजलाऽऽदि ' प्राप्य ' श्रासाद्य तुदादिपरिषा उत्पन्गगमनयो पदे नित्याभिस म्वन्धात् तत्परीप इति चक्रीति शेषः सम्यते यदि | दात्पादकं वस्तु न भवेत्सदा दाद पत्र न स्युः, तदभावाच्च किं केन सह्यत इति परीषहाभाव एव स्यात्, ततस्तद्भावभावित्वात् परीषहस्य तत् प्रधानमिति तदेव परीपहः, प्रस्थोत्पादककाष्ठप्रस्थकवत् । श्राह नैकगमत्वा चैनमस्य कथमेकरूपतेच परीषद्राणामिटोका उच्यते--शशाखत्वादस्य न सर्वभेदाभिधानं शक्यमिति कश्चिदेव क्व चिदुच्यते । एवं शेषनयेध्वपि यथोक्ताऽऽशङ्कायां वाच्यमिति । वेदना' तुदादिजनिता असातंवेदना, चशब्दात्तदुत्पादकं च परीषद्वयोस्तु पारिशेध्यान् सहार पुनमेतनति गम्यते अर्थ वानीरभिप्रायः यदि तारि निर्भरजला- दिक्षदादिवेदनाजनकत्वेन परीपः कथमिय दादिवेदना न परीषहो, निरुपचारतं परीपात इति परीग्रहलक्षणं वेदनाया एवं सम्भवति, उपचरितं तु गिरिवरज लाऽऽदी, ताविकचस्तुनिबन्धनश्चोपचार इति तदभावे त स्याप्यभाव एव स्यात् । 'वेदनां' तुदाद्यनुभवाऽऽत्मिकां 'प्रतीत्य' श्राश्रित्य जीवे परीग्रह इति ऋजुसूत्रः मन्यत इतीहापि गम्यते । श्रयमस्याऽऽशयः-सति हि निरुपचरितलक्षणान्वितेऽपि परीप स एव परीपहोऽस्तु किमुपचरितकल्पनया ? ततो निरुपणगावनैव परीषदः, सा च जीवधर्मत्वाजीवाजीव इतिदजीये परीषद उच्यते, न तु पूर्वेषामिवाजीवेऽपीति ' शब्दस्य इति शब्दाssव्यनयस्य साम्प्रतसमभिरूदैवम्भूतभेदतस्त्रिरूपस्य मनेनाऽऽत्मा जीवः, परीषद इति प्रक्रमः । पुनशब्दो विशेष पनि विशेष परीषदोषयुकत्वम् अनुपयो प्रधानः उपयोगश्चाऽऽत्मन एवेति परषहोपयुक्त श्रात्मैव परीप इति मन्यते इति गाथाऽर्थः ॥ ८१ ॥ 3 इदानीं वर्तनाहारमाह वीसं उकोसपर, वर्हति जहन्नयो हवइ एगो । सीणि चरिनिस दिया नवति 3 विशतिः उत्कृष्टपदे चिन्त्यमान परीपहाः वर्तन्ते युगपदेकत्र प्राणितीति गम्यते । जघन्यतः जगन्य पदमाश्रित्य भदेः परीषदेद्वाविंशतिरपि किं नेकप र्त्तन्त इत्याह ( सीउमिगु नि ) शीतोष्णे चर्यानैरेधिकपी च युगपद् 'एककालं न वर्तेते' न भवतः, परस्परं प रिहारस्थितिलक्षणत्वादमीपाम्, तथाहि न शीतमुष्णं न चोनचर्यायां नैवेधी नाचती थी. * परिसह गपद्येनामीषामेकासम्भवाटतोऽपि द्वाविंशतिरिति । आह-नैधिकीयत्कथं शय्याऽपि न चर्षया विरुध्यते, उच्चते निरोधादिनस्त्यहनिकादेरपि तत्र सम्भवा धिक स्वाध्यायादीनां भूमिः, ते च प्रायः स्थिरतायातु वानुज्ञाता इति तस्या एव चर्यया विरोधः, इति गाथार्थः ॥८२॥ कालद्वारमाह वासम्मसो अतिए, मुदुत्तमं च हो उज्जुए। सदस्स एगसमयं परीसहो होइ नायव्य ॥ ८३ ॥ (दासासी यति यः कोऽर्थः वर्षल क्षणं कालपरिमाणमाश्रित्य, परीषहो भवतेि इति गम्यते । चः पूरणे श्वानां नैगमहानवानां मतेन तेन न्यायतस्तदुत्पादकं यस्यपि परीपति त्कालस्थितिकमपि सम्भवत्येवेति. ( मुहुत्तमं तं च इति ) प्रा. कृतत्वादन्तर्मुह पुनर्भवति प्रक्रमात्परीषदः स्या विचार्यमाणे सह प्रागुक्रनीतित वेदनापदि इति वि सा चोपयोगाऽऽरिमका उपयोग तुमुत्ता परं जोगा न संसीति" इति वचनात् श्रान्तमुहतिक एव 'शब्दस्य साम्प्रतादिविभेदस्य मनेनैकसमयं परीप भवति शातय अयोग्यः स नीतितो बेदनीपयुक्त मात्मानमेव परीषद्धं मनुते स चैतस्य पर्यायाऽऽत्मकतया प्रतिसमय मन्यान्य एव भवतीति समयमेवैतन्मतेन परीपही युक्तः । इति गाथाऽर्थः ॥ ८३ ॥ " S 'वर्षाप्रतः त्रयाणां परीपह ' इति यदुक्कं तदेव दृष्टानविनुमादकंडू अभत्तछंदो, अच्छीणं वेयणा तहा कुच्छी । कासं सासं च जरं, अहिआसे सत्त वाससए । ८४ ॥ ( कराड ) कराइति भारुचिरूपम् 'अ क्ष्णोः ' लोचनयोः वेदनां दुःखानुभवः सर्वत्र द्वितीयार्थे प्रथमा; तथेति समुच्चये; (कुच्छित्ति) सुव्यत्ययात् कुक्ष्योदादिरूपां का श्वासं च ज्वरं यम - तमेव । श्रध्यास्त' इति अधिसहते; सप्त वर्षशतानि यावत् । अनेन तु सनत्कुमारचक्रवयुदाहरणं सूचितं स हि महात्मा सनत्कुमारचक्रवर्ती शक्रप्रशंसा सहनसमायातामरनिवेदित कृतिराग्यवासनः परस्तावला खिलमपि राज्यमपहायाभ्युपगती प्रतिक्षणमभि नवाभिनवप्रवर्द्धमानसंयेगो मधुकरवृत्यैव यथोपलब्धान पानीपरचितप्रावृचिरनन्तरीक सादर कराडादिवेदनाशिरोऽपि संयमान मनागपि मचाल, पुनस्तरप परीक्षणाऽऽयातभिषग्वेषामरोपदर्शितद्वादशांशुमालिस-माङगुल्यवयवश्च तत्पुरतः "पुवि कडा कम्मां वेयइता" इत्यादि संवगोत्पादक मागमवचः प्ररूपयन् स्वयमागन्य शक्रेणाभिवन्दित उपबृंहितश्व । इति गाथार्थः ॥ ८४ ॥ सम्प्रतिक परीषद इति क्षेत्रविषयप्रश्रप्रतिवत्रनमाहलोए संथारम्मि य, परीसहा नात्र उज्जुसुत्ताओं । निए सरनया, परमहा होह बनाये ॥ ८५ ॥ लोके संस्तारके च परीषहाः ( जाव उज्जुसुत्ताओं त्ति ) सूत्रत्वात् ऋजुसूत्रं यावद् अस्य व पूर्वार्द्धस्य सूचकस्वादविशुद्धयमस्य मतेन लोक पपा तत्सहिष्णु Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसह अभिधानराजेन्डः। परिसह यतिनिवासभूत क्षेत्रस्यापि चतुर्दशरज्वात्मकलोकानर्थान्तर- सकलजन्तुभाषाऽभिव्याप्त्या कथितम् । उक्त च-"देवा देवी स्यात् , इत्थमपि च व्यवहारदर्शनाद् , एवमुत्तरोत्तरादिषि- नरा नारी, शबराश्चापि शायरीम् । तिर्यश्वोऽपि हि तैरशुद्धविशुद्ध तरतरे दापेक्षया तिर्यग्लोकजम्बूद्वीपभरतवाक्ष- | श्ची, भेनिरे भगवद्गिरम् ॥ १॥" फिमत आह-दहति णार्द्धपाटलीपुत्रोपाधयाऽऽदिषु भावनीयं यावदत्यन्तविशुद्ध लोके प्रवचने वा 'खलुः' वाक्यालङ्कार, अवधारण वा, तमनैगमस्य यत्रोपाश्रयैकदेशे अमीष सोढा यतिस्तत्रामी तत इहैव जिनप्रवचन एव द्वाविंशतिः परीषहाः, सन्तीइति, एवं व्यवहारस्यापि, लोकव्यवहारपरत्वादस्य, लोक ति गम्यते । अत्रच श्रुतमित्यनेनावधारणाभिधायिना स्वयच नेह वसति प्रोषित इति व्यवहारदर्शनात् , सङ्महम्य सं- मवधारितमेव अन्य प्रतिपादनीयमित्याह, अन्यथाऽभिस्तारके परीपहाः, स हि संगृह्णातीति संग्रह इति निरुक्ति- धाने प्रत्युतापायसम्भावात् । उक्तं च-" कि एत्तो पावयरं, घशात् सन्ग्रहोपलक्षितमेवाधारं मन्यते.संस्तारक एव च सम्म अणहिगयधम्मसम्भावो । अन्नं कुदसणाप, कतरायतिशरीरप्रदेशः संगृह्यते न पुनरूपाश्रयैकदेशाऽऽदिरिति सं. यस्मि पाडेइ ॥१॥” इति । मयेत्यनेनार्थतोऽनन्तराऽऽगस्तारक एवास्य परीवहाः, ऋजुसूत्रस्य तु पेष्वाकाशप्रदेशे- मत्वभाह-भगवतेत्यनेन च वक्तः केवलज्ञानाऽऽदिगुणवत्वसू. प्वात्माऽवगाढस्तेष्वेव परीषहाः, संस्तारकाऽऽदिप्रदेशानां चकेन प्रकृतवचसः प्रामाण्यं ख्यापयितुं वक्तः प्रामाण्यमातदणुभिरेव व्याप्तत्वात् तत्रावस्थानाभावात् , त्रयाणां शब्द ह-वक्तृप्रामाण्यमेव हि वचनप्रामाण्ये निमित्तम् । यदुकम्नयानां परीषहा भवति श्रात्मनि, स्वात्मनि व्यवस्थित्वात्स "पुरुषप्रामाण्यमेव शब्दे दर्पण सक्रान्तं मुखमिवापचारार्वस्य । तथाहि-सर्व वस्तु स्वाऽऽत्मनि व्यवतिष्ठते सयाद् दभिधीयते ।" तेनेति च गुणवत्यप्रसिदभिधानेन प्र. यथा चैतन्यं जीवे । श्राह-किमेवं नयाख्या ?, निषिद्धा स्तुताध्ययनस्य प्रामाण्यनिश्चयमाहः संदिग्धे हि वर्गुणय. ह्यसौ। यदुक्तम्-" णत्थि पुहुत्ते समोयारो" इति । उच्यते- त्वे वचसोऽपि प्रामाण्ये संदिह्येतति, समुदायेन तु श्रादृष्टिवादो तत्वादस्य न दोषः । तथा च प्रागुकम्-"कम्म- मौद्धत्यपरिहारेण गुरुगणप्रभावनापरैरेव विनयेभ्यो देशना प्पवायपुये" इत्यादि। दृष्टिवादे हि नयाख्येत्यत्रापि तथैवा | विधेया, एतद् भक्तिपरिणामे च विद्याऽऽदेरपि फलसिद्धिः। निधानम्। इति गाथार्थः ॥ ५॥ यदुक्तम्-"आयरियभत्तिराए-ण विजा मंता य सिझंति ।" इदानीमुद्देशाऽऽदिद्वारत्रयमल्पवक्तव्य अथवा-"पाउसंतेणं ति" भगवहिशेषणम, श्रायुष्मता भमित्येकगाथया गदितुमाह गवता: चिरजीविनेत्यर्थः मङ्गलवचनमेतत् । यद्वा-आयुउद्देसो गुरुवयणं, पुच्छा सीसस्स उ मुणेयव्वा । प्मतेत पगर्थप्रवृत्यादिना प्रशस्तमायुर्धारयता, न तु मुक्ति मवाप्याऽपि तीर्थनिकारादिदर्शनात्पुनरिहाऽऽयातेन । यथानिद्देसो पुणिमे खलु, वावीसं सुत्तफासे य ।। ८६ ॥ च्यते कैश्चित्-“शानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्तारः परमं पदम् । उदिश्यत इति उद्देशः, क इत्याह-गुरुवचनम् गुरोः विव- गत्वाऽच्छन्ति भूयोऽपि, भवं तीर्थनिकारतः ॥ १॥" क्षितार्थसामान्याऽभिधायकं वचो. यथा प्रस्तुतमेव ( इह एवं हि अनुन्मूलितनिःशेषरागादिदोयत्वात्तद्वचसाप्रामाखलु वावीस परीसह त्ति) 'पृच्छा शिप्यस्य तु ' गुरूद्दिष्टा- एपमेव स्यात् , निःशेषोन्मूलने हि रागाऽऽदीनां कुतः पुनर्थविशेषजिज्ञासोनियस्य, तुः पुनः, प्रक्रमाद्वचनम् ' मुणि- रिडाऽऽगमनसम्भव इति । यदि वा-(श्रावसंतेणं ति)मयेतव्या 'शातव्या । यथा-( कयरे खलु ते बावीसं परीसहा ? त्यस्य विशेषणं, तत श्राङिति-गुरुदर्शितमर्यादया वसता, इति ) निर्देशश्चेति निर्देशः-पुनः इमे खलु द्वाविंशतिः, परी- अनेन तत्त्वतो गुरुमर्यादावर्तित्वरूपत्वाद् गुरुकुलवासस्य त. पहा इति गम्यते, अनेन च शिष्यप्रश्नानन्तरं गुरोनिर्वचने द्विधानमर्थत उक्तं, ज्ञानाऽऽदिहेतुत्वात्तस्य । उक्तं च-'णाण. निर्देश इत्यर्थादुक्तं भवति, अत्र चैवमदाहरणद्वारेणा- स्स होइ भागी, थिरयरतो सणे चरित्ते य । धन्ना श्रावकभिधानं पूर्वयोरप्युक्तोदाहरण द्वयसूचनार्थ चैचित्र्यख्यापनार्थ हार, गुरुकुलवासं न मुंवंति ॥१॥" अथवा-(श्रामुसंतेचेति किश्चिन्यूनगाथाऽर्थः ॥८६॥ णं) श्रामृशता भगवत्पादारविन्दं भक्लितः करतल युगाऽऽदिइत्थं 'कुतः' इत्यादि द्वादशद्वारवर्ण नादवसितो नामनि. ना स्पृशता। अनेनैतदाह-अधिगतसमस्तशास्त्रेणापि गुरुवि. प्पन्न निक्षेपः, सम्प्रति 'सूत्रस्पर्शः' इति चरमद्वारस्य सूत्रा- धामणाऽऽदिविनयकृत्यं न मोक्तव्यम् । उक्तं हि-"जहाऽऽहिऽऽलापकनिष्पवनिक्षेपस्य चावसरः, तश्चोभयं सूत्रे सति भ. अम्गी जलणं नमसे, णाणाहुमंतपयाहिसितं । एवाऽऽयरिघतीति सूत्रानुगमे सूत्रमुञ्चारणीयम् । तच्चेदम् - यं उपविट्ठप, जा, अगंतण णोवगतोऽपि संतो ॥१॥" इति । सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु | यद्वा-(श्राउसंतेणं ति) प्राकृतत्वेन तिव्यत्ययादाजुष. माणन श्रवण विधिमयदया गुरून् सेवमानेन, अनेनाप्येतवावीसं परीसहा समणेण भगवया महावीरेणं कासवेणं दाह-विधिनवोचितदेशस्थेन गुरु सकाशात् श्रोतव्यं, न तु पवेइया, जे भिक्खू सुच्चा नचा जिच्चा अभिभूय भिक्खा- यथाकथञ्चित् , गुरुविनयभीत्या गुरुपर्वदुत्थितेभ्यो वा स. यरियाए परिव्ययंतो पुट्ठो नो विनिहनेजा। काशात् । यथोव्यते-" परिसुटियाण पासे, सुणइ सो विणश्रुतम् अाकर्णितमवधारितमिति यावत्। (मे) मया 'प्रा. यपरिभंसी।" इति । यदुक्तं भगवता पाख्यातं द्वाविंशतिःपयुष्मन् !' इति शिष्याऽमन्त्रणं कः कमेवमाह ?-सुधर्मस्वामी रीपहाः सन्तीति, तत्र कि भगवता अन्यतः पुरुषविशेषाजम्बूस्वामिनं , किं तत् श्रुतभित्याह-तेनेति त्रिजगत्प्र दपौरुषेयागमात् स्वता वा अमी अवगताः इत्याह श्रमणेन तीतेन ' भगवता ' अष्टमहाप्रातिहार्यरूपसमग्रैश्वर्या भगवता महावीरेण काश्यपन (पवेश्य त्ति ) सूत्रत्वात् वियुक्तेन, एभित्यमुना दक्ष्वमाणन्यायेन । शालया । प्रविदिताः, तत्र श्राम्यतीति श्रमणः-तपस्वी, तेन, न तु १६१ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसह अभिधानराजेन्डः। परिसह "ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्य वैष धर्म निर्देशमाहभ, सहसिखं चतुष्टयम् ॥१॥" इति कणादाऽऽदिपरिक इमे खलु ते बाबीसं परीसहा समणणं भगवया महावीरेणं रिपतसदाशिवबदनाऽऽविसंसिद्धेन, तस्य देहाऽविधिरहात् कासयेणं पवेइया. जे भिक्खू सुच्चा नया जिचा अभिभूय सथाविधप्रयत्नाभायेनाल्यानायोगात् । उक्तं च-" वयणं म कायजोगा-भाषेण य सोमणादिसुशस्स । गहणम्मि भिकरवायरियाए परिव्ययंतो पुट्ठो नो विनिहनेजा। पनो हेतू, सस्थं अत्ताऽऽगमो कहए। १॥" भगवतेति इमे 'अनन्तरं घश्यमाणत्वाद् इवि धिपरिवर्तमानतया बसमग्रहानेश्वर्याऽऽविसूचकेन सर्यशतागुणयोगिषमाह। प्रत्यक्षा हमे ते रति 'ये स्वया पृष्टाः, शेष पूर्वयम् ॥ तथा च यत् कैचिबुच्यते-" हेयोपादेयतयस्य, साध्यो तं जहा-दिगिंछापरीसहे !, पिवासापरीसहे २, सी. पायस्य घेदकः । यः प्रमाणमसाविष्टो,तु सर्वस्य घेद यपरीसहे ३, उसिणपरीसहे ४. दंसमसगपरीसहे ५, अ. कः॥१॥" ति, तद् व्युदरतं भवति, प्रसयशो हिनय. धावस्सोपायहेयोपादयतस्याषिपति, प्रतिप्राणि भिमा हि चेलपरीसह ६, भरइपरीसहे ७, इत्थीपरीसहे ७, चभावानामुपयोगशक्तयः, तत्र कोऽपि कस्यापि कथमपि क्या रियापरीसहे६, निसीहियापरीसहे १०, सिजापरीसहे ११, प्युपयोगीति कथं सोपायहेयोपादेयतषधेवनं सर्वशता वि. भकोसपरीसहे १२, वहपरीसहे १३, जायणापरीसहे १४, मा सम्भवतीति, महाधीरेणति शफकतनाम्ना घरमतीर्थ अलाभपरीसहे १५, रोगपरीसहे १६, तणफासपरीसहे '७, करेण, · काश्यपेन' काश्यपगोत्रेण मनेन च नियतरशकालकुलाभिधायिना सकलदेशकालकलाव्यापिपुरुषा । जलपरीसहे १८, सकारपुरकारपरीसहे १६. पापापरीसहे तमिराकरणं कृतं भवति । तर हि सर्वस्यैकत्वादयमाल्या. २०, प्रमाणपरीसहे २१, सम्मत्तपरीमहे २२ । ताऽस्मै व्यायमित्यादिविभागाभावत प्राण्यानस्थैयास- तपय युवाहरणापन्यासार्थः, दिगि छाप पहः १, पिपाम्भव इति, प्रविदिताः प्रकर्षण स्वयं साक्षात्कारियल ाणे. सापरीपहः २, शीतपरीपहः ३. उष्णपरीपहः ४, शमशम ज्ञाता, मनेन बुद्धिव्यवहितार्थपरिच्छेदवादः परिक्षितो कपरीपहः५, अचेल पर्रापहः ६. अगंतपरीपहः ७, शशीप. भवति, स्वयमसाक्षात्कारी हि प्रदीपहस्तान्धपुरुषवद् रीषहः८, चर्यापरीपहः १, नंघधिकीपरीपहः १०, शय्या. व्यतिरिकवुद्धियोगोऽपि कथं कश्चनार्थ परिच्छे नुं क्षमः परीपहः ११. आक्रोशपरीपहः १२, वधपरीपहः १३, याचस्यात् । एवं चैतदुक्तं भवति- नान्यतः पुरुषधिशेषादेते. नापरीपहः १४, अलाभपरीपहः १५, गंगपरीपहः १६, तृणषगता, स्वयं सम्बुद्धत्वाद्भगवतः, नाप्यपौरुषेया:गमात्, स्पर्शपरीपहः १७, जलपरीपहः १८, सन्कारपुरस्कारपरीषतस्यैषासम्भधावू , अपौरुषेयत्वं ह्यागमस्य स्वरूपापेक्षमा हः १६, प्रशापरीपहः २०, अज्ञानपरीषहः २१, दर्शनपरीपहः प्रत्यायनापेक्षं बा, तत्र यदि स्वरूपापेक्षं तदा ताल्वादि- २२ । रह च-"दिगिछत्ति" देशीबचनेन बुभुक्षाच्यते, सेवाकरणव्यापार विनेयास्य सदोपलम्भप्रसङ्गःन चाऽऽवृतत्वात् त्यम्तव्याकुलत्वहेतुरप्यसंयमभीरुतया श्राहारपरिपाका35मोपलम्भ इति वाच्यं, तस्य सर्वथा नित्यत्वे श्रावरणस्या- दिवाञ्छाविनिवर्तनेन परीति-सर्यप्रकारं सहात इति परीपह: किश्वकरत्वात्. किश्चित्करत्वे वा कश्चिदनित्यत्वप्रसङ्ग दिगिध्छापरीषाहः १, एवं पातुमिच्छा पिपासा, सैव परीपहर भधार्थप्रत्यायनापेक्षम्, एवं कृतसङ्केता यालाऽऽदयोऽपि त- पिपासापरीपहः २, 'श्यक' गताविन्यस्य गत्यर्धत्वाकर्तरि तोऽथै प्रतिपचरनिति नापौरुषेयाऽऽगमसम्भव इति । ते च क्तः ततो "द्रवमूर्तिस्पर्शयोः श्यः” (पा०६-१-२४) इति कीरशा इस्याह यानिति परीषहान् 'भिः' उक्ननिरुक्तः, संप्रसारणे स्पर्शवाचित्याच 'स्योऽस्पर्श" (पा०८२-७) ' श्रुत्वा' भाकरर्य, गुर्धन्तिक रति गम्यते । ' झात्या' यथा- इति नत्वाभावे शीतं शिशिरः स्पर्शः तदेव परीपहः शीपदवबुद्ध्य, · जित्या' पुनः पुनरभ्यासेन परिचितान् कृत्वा तपरीषहः ३. 'उप' दाहे इत्यस्योराऽऽदिकनकप्रत्यया. 'अभिभूय' सर्वथा तत्सामर्थ्यमुपहत्य, भिक्षोश्चर्या वि- न्तस्य उष्णं निदाघाऽऽदितापाऽऽत्मकं तदेव परीपहः उ. हितक्रियासेवनं भिक्षुचर्या, तया 'परिव्रजन् ' समन्ताति- प्णपरीपहः ४. बशन्तीति दंशाः पचाऽऽदित्यादनः मारहरन् स्पृए पाश्लिपः, प्रक्रमात्परीपहरेव. 'नो ' नैव. वि. यितुं शक्नुवन्ति मशकाः, दंशाश्च मशकाच दंशमशका; निहम्पेत' विविधैः प्रकारैः संयमशरीरांपघातेन विनाशं यूकाऽऽपलक्षण चैतत् । त एव परीपही दंशमशकपमाप्नुयात् । पठन्ति च-'भिक्खायरियाए परिव्ययंतो ति।' रीषदः ५: अचेलं वेलाभावो जिनकल्पिकाऽऽदीनाम्, अन्ये. भिक्षाचर्यायां-मिक्षाऽटने परिषजन् , उदीयन्ते हि भिक्षा- पांतु भिन्नमल्पमूल्यं च चेलमध्यचेलमेव, अवस्त्राशीलाउठने प्रायः परीवहाः । उक्तं हि-“भिक्खायरियाए बाबीसं दिवत् , तदेव परीपहोऽवेलपरीपहः ६, रमणं रतिः संपरीसहा उदीरिजंति।" इति, शेष प्राग्यत् ॥ इत्युक्त उद्देशः।। यमविपया धृतिः, तद्विपरीता त्वरतिः, सब परीपहः परति पृच्छामाह परीपहः ७,स्त्यायतेः स्तुगी निया टि टित्याच छीपि रखी, कयरे ते खलु बाबीसं परीसहा समणेणं भगवया महा. सैव तद्गतगगहतगतिविभ्रमङ्गिनाऽऽकाविलाकने ऽपिवीरेणं कासवेणं पवेइया, जे भिक्खू सुच्चा नच्चा जिच्चा "त्वगरुधिरमासमेद-स्नाय्यस्थिशिगवणः सुदुर्गन्धम्। कुचनयनजघनवदनो-रुमूच्छितो मन्यते रूपम् ॥१॥" अभिभूय भिक्खायरियाए परिव्ययंतो पुट्ठो नो विनिहन्नेजा। तथा(कयरे ) किं नामानः 'ते' अनन्तरसूत्रोहियाः 'खलः' "निष्ठीवितं जुगुप्स-त्यधरस्थं पिबति माहितः प्रसभम्। पाक्यालङ्कारे, शेपं प्राग्वदिति । कुचजघनपरिश्रावं, नेच्छति तन्माहिती भजते ॥२॥" Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसह इत्यादिभावातोऽभिधास्यमाननीतितब्ध परिषद्यमात्या परीषद श्रीपरीषद पर चर्या प्रामानुमा विहरणामा परी चर्यापरी निषेध निषेधः पापकमेण गमनादिक्रियायाथ समयोजनमस्याधिका मारिका लाध्यायादिभूमिः निषद्येति या प नैषेधिकपरीचः १०, तथा-शेरतेऽस्यामिति शय्या उपाश्रयः । सैव परीषद्दः शय्यापरीषहः ११, आक्रोशनमाक्रोशः असत्यभाPerson, सपथ परीषहः आक्रोशपरीयहः १२, हननं बधःताडनं स एव परीही बधपरीषद्दः १३, याचनं याचा, प्रार्थनेपरीचड़ो यापरी १४. लभने लाभो नलामो लाभ: अभिलषितविषयाप्राप्तिः स एव परीषहः अलाभपरीबहः १५, रोगः कुष्ठादिरूपः स परीषही रोगपरीषहः १६ तरतीति दयानि श्रादिको म स्वयं तेषां स्पर्शः स्पर्शः, स एव परीषहस्तु स्पर्श परीचह्नः १७, जल इति मलः, स एव परीषो जलपरी १८ सरकारी बखादिभिः पू जनं पुरस्कारः अभ्युत्थानाऽऽसनादिसम्पादनम् । यद्वा-सकलैयाभ्युत्थानाभिवादनदानादिरूपा प्रतिपतिरिव सत्का रस्तेन पुरस्करणं सत्कारपुरस्कारः, ततस्तावेव स एव या परीपद सरकार पुरस्कारपरीषः १४ महाप ज्ञानपरीषहच प्रागभाषितार्थी नवरं प्रज्ञायतेऽमया व स्तुतस्वमिति प्रज्ञा, स्वयं विमर्शपूर्वको वस्तुपरिच्छेदः तथा शायते वस्तुतयमनेनेति ज्ञानं सामान्येन मत्यादि, तदमायोहानम् २०-२१ दर्शनं सम्यग्दर्शनं तदेव क्रियाः दिवादिना विचित्रमतययेऽपि सम्यक परिषद्यमाणं निश्वा धार्यमाणं परीषो वर्तन पक्षा दर्शन दर्शनव्यामोहतुरेहिका 55 मुष्मिक फलानुपलम्भादिहिते ततः स एव परीषहो दर्शन परीषदः २२ । इत्थं नामतः परीचहानभिधाय तानेव स्वरूपतोऽनिधित्तुः सम्बन्धार्थमाहपरीसहाणं पविभत्ती, कासवेय पवेश्या । तं मे उदाहरिस्सामि भापुवि सुरोह मे ॥ १ ॥ (६४३) निधान राजेन्द्रः । ' ' परीषाणाम् अनन्तरोकनाम्नां प्रविभक्तिः ' प्रक व स्वरूपसम्मोदाभावसन विभागः पृथक्ताकाश्य पेन' काश्यपगोत्रेण, महावीरेणेति यावत् । प्रवेदिता ' प्ररूपिता 'तामिति' काश्यपप्ररूपितां परीषदप्रविभक्ति ( भे इति भवताम् उदाहरिष्यामि प्रतिपादयिष्यामि आनुपूर्णाक्रमेण मे ) मम प्रमादुदाहरता, शिष्याऽऽदरम्यापनाचे व काश्यपेन प्रवेदिनेति वचनम् इति सूत्रा र्थः ॥ १ ॥ उत्त० २ श्र० । 1 संप्रत्यध्ययनार्थोपसंहारमाह एए परीसहा सच्चे, कासवेयं पवेश्या । जे भिक्खु न विमेला, पुट्टो केइ कराइ ॥ ४६ ॥ 'पते' श्रनन्तरमुपदर्शितस्वरूपाः, 'परीषदाः' क्षुदादयः 'सर्वे' द्वाविंशति संख्या अपि न तु कियन्त एव 'काश्यपेन ' श्रीममहावीरेण प्रवेदिताः प्ररूपिताः (जे इति) पानुक्रम्यावेत ज्ञात्वेति शेषः, भिक्षुर्यतिर्न चैव 'विहन्येत' पराजीयेत कोड संयमात्पात 'स्पृष्टो' वाधितः केनापि प्रमा तेरेकतरेण दुर्ज्जयॆनापि परीषण ( करदु इति ) कुत्रचित् देशे काले वा इति सुनार्थः । उत्त० २ अ० । परिसह सुहं पिवास दुस्ति, सीउराहं अरई भयं । अहियासे व्यओि देहे दुक्खं महाफलं ।। २७ ।। सुधं बुभुक्षां, पिपासां तुषं दुःशय्यां विषभूय्यादिरूपां शीतो प्रतीतम् अति मोहनीयोद्भवां भयं व्याघ्राऽऽदिसमुस्थमति सहेत् एतत्सर्वमेव अव्यथितो दीनमनाः सन् देहे पु महाफलं संविवेति वाक्यशेषः तथा च शरीरे सत्येतत् दुःखं शरीरं वाऽसारं सम्यगतिसह्यमानं व मोक्षफलमेवेदम्, इति सूत्रार्थः । दश० ८ ० | य० । स्था० । T अथ बन्धस्थानाम्याधित्य परीषद्दान् विचारयन्नाहसतविधगस्स से भंते! कई परीसहा पाता है। गोयमा ! वावी परीसहा पष्पता । वीसं पुण वेएइ । जं समयं सीयपरीस वेइ नो तं समयं उसियपरीसहं वेएर, जं समर्थ उसियपरीसई पेपर नो तं समयं सीप परीस वे. जं समयं चरियापरीसह वे नो तं समयं निसीहियापरीस वेएर, जं समयं निसीहियापरीसह वेएइ नो तं समयं चरियापरीस एह । अट्ठविहबंधगस्स सेक परीसहा पाता है। गोयमा ! बाबीसं परीसहा पचता । तं जहा छुहापरीस पिवासापरीसदे सीप परीस हे जान भलाभपरीसहे । एवं अहिधगस्स वि छव्हिवंचगस्स यं ते सरागमत्यस्य का परीसहा पहाता है। गोयमा ! चोइस परीहा पपत्ता | वारस पुरा वेएइ । जं समयं सीयपरीसहं वेएइ नो तं समयं उसिणपरीसहं वेएइ, जं समयं उणिपरीस पेट नो तं समयं सीयपरीसहं बेह । जं समर्थ चरियापरीस वेट नो से समर्थ से खापरी सई des, जं समयं सेआपरीसहं चैव वेएइ नो तं समयं चरियापरीस वेषः। एकविहबंधगस्स यं भंते बीयरागमत्थस्स का परीसदा पाता है। गोवमा ! एवं जहेब - बंधस्स | एगविहबंधगस्स गं भंते । सजोगिभवत्थकेबलिस का परीसहा पखता है। गोयमा ! एकारस परीसहा पत्ता | नव पुण वेएइ । सेसं जहा छव्विहबंधगस्स । श्रबंधगस्त णं भंते! अजोगिभवत्थकेवलिस्स का परीसहा पखा है। गोवमा ! एकारस परीसदा पाता। नंब पुण ये पड़ । जं समर्प सीयपरीसहं पेट नो तं समर्थ उपरीस वे, जे समयं उसणपरीस वेएह नो तं समर्थ सीयपरीस वेएइ, जं समयं चरियापरीसहं वेएइ नो तं समयं सेज परीसह वेएइ, जं समयं से आपरीसहं वेएह नो तं समयं चरियापरीसहं वेएइ । सप्तविधयन्धक आयु (ससीपरीसहमित्यादि ) यत्र समये शीतपरीषदं वेदयते न तपपई शीतोष्णयोः परस्परमत्यन्तविराधनेक का सम्भवात् । श्रथ यद्यपि शीतोष्णयोरेकद्वैकत्रासम्भवस्तथाप्यात्यन्तिके शीते तथाविधानितनिधी युगपदेकस्य पुं Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसह भनिधानराजेन्द्रः। परिसह स एकस्यां दिशि शीतमन्यस्यां चोष्णमित्येवं न्योरपि शी. मग्गिल्लम्मि पुरिल्ले, लग्गइ तो दसणस्लावि ॥२॥ तोष्णपरीषहयारस्ति सम्भवः । नैतदैवम् काल हतशीतोष्णा. लभा पपसकम्म, पदुश्च सुबमोवो तो अट्ठ । श्रयत्वादचिकृतसूत्रस्यैवंविधव्यतिकरस्य वा प्रायेण न. तस्स भणियान सुहुमे,न तस्त सुहुमोदओ वि जो ॥३॥" पस्विनामभावादिति । तथा-(जं समयं चरियापरीसहमि- इति। यश्च सूचमसम्परायसूदप्रलोभकिट्टिकानामुदयो नासो त्यादि) तत्र चर्या प्रामाऽऽदिषु सश्चरणं, नैवेधिकी च ग्रामा- | परीवहतुलाभहेतुकस्य परीषहस्यानभिधानात् । यविच कोऽऽदिषु प्रतिपनमासकल्पादेः स्वाध्यायाऽऽदिनिमित्तं श- ऽपि कश्चिदसौ स्यात्तदा तस्यैहात्यन्ताल्पन्धेनाविवक्षेति । प्यातो थिविकोपाश्रये गत्वा निवदनम्। एवं चानयोर्विहारा- (एगविबंधगस्स त्ति ) घेदनीयबन्धकस्पेत्यर्थः । कस्य तस्येषस्थानरूपत्वेन परस्परविरोधान कदा संभवः । अथ नैषेधि- त्यत पाह-(वीपरागछ उमत्थस्स सि)। उपशान्तमोहकीवच्छय्याऽपि चर्यया सह विरुद्धेति न तयोरेकदा सम्भ स्य, क्षीणमोहस्य चेत्यर्थः । (एवं चैवेत्यादि) । चतुर्दश घः, ततश्चैकोनविंशतेरेव परीपहाणामुत्कर्षेणैकदा वेदनं प्रा- प्रज्ञप्ता द्वादश पुनर्चेदयतीत्यर्थः ॥ शीतोष्णयोश्चर्याशय्ययोश्च समिति । नैवम् । यतो ग्रामाऽदिगमनमवृतो यदा कश्चिदौ- पर्यायेण वेदनादिति । भ०८ श०८ उ०। प्रव० । पं० सं० । त्सुक्यादनिवृत्ततत्परिणाम एव विश्रामभोजनाऽऽद्यर्थमित्वरं (जिनस्पैकादश ११ परीषहा वेद्या इति केवल्याहारचिशम्यायां वर्तते तदोभयमप्यविरुद्धमेव, तत्वतश्चर्याया श्रतः न्तायामुक्ताः) द्रव्यभावपरीषहेषु उदाहरणम् । एते च परीमासत्वादाश्रयस्य चाश्रयणादिति । यद्येवं हि कथं पड़ि- | पहा द्विविधाः । तद्यथा-द्रव्यपरीषद्दा भावपरीषहाश्च । तत्र धबन्धकमाश्रित्य वक्ष्यति । (जं समयं चरियापरीसहं वेए- द्रव्यपरीषहा नाम य इहलोकनिमित्तं बन्धनाऽऽदिषु या नो तं समय सेजापरीसहं वेएईत्यादि)। श्रोच्यते-प. परवशनाधिसह्यन्ते । तत्रोदाहरणं यथा-सामायिक वक्रहविधबन्धको मोहनीयस्याविद्यमानकल्पत्वात्सर्वत्रौत्सुक्या- पान्ते इन्द्रपुरे इन्द्रदतपुत्रस्या भावपरीपहा ये संसारव्यभावेन शय्याकाले शय्यायामेव वर्तते, न तु बादररागवदी- वच्छे दमनसानाऽऽकुले ना स नाधिसह्यन्ते तैरेव वासाधित्सुक्येन विहारपरिणामाविच्छेदाचर्यायामप्यतस्तदपेक्षया त कारः । प्रा०म०१०। श्रा० चू। योः परस्परविरोधायुगपदसम्भवस्ततश्चासाध्येवं (जं स. पञ्चभि प्रकारः छमस्थपरीसहाःमयं चरिएत्यादि) (छावहवंधत्यादि) पड्डियबन्धकस्याss. पंचहि ठाणेहिं छउमत्येणं उदिखे परीसहोवसग्गे सम्म युर्मोहवर्जानां बन्धकस्य सूक्ष्मसम्परायस्येत्यर्थः, पतदेयाss. सहेजा, खमेजा,तिनिक्खेजा,अहियासेजा। तं जहा-उदिह-(सरागछ उमत्थस्सेत्यादि) सूक्ष्मलोभाणूनां वेदनात्स नकम्मे खलु अथं पुस्सेि उन्मत्तगभूए तेण मे एस पुरिसे रागोऽनुत्पन्न केवलत्वाच्छमस्थस्ततः कर्मधारयोऽतस्तस्य । (चोइसपरीसह ति) अष्टानां मोहनीसम्भवानां तस्य मो. अक्कोसइ वा, अवहसइ वा, णिच्छोडइ वा, णिभत्थेइ वा, हाभावेनाभावाद् द्वाविंशतेः शेषाश्चतुर्दश परीषहा इति । ननु बंधइ वा,रुंधइ वा,छविच्छेयं करेइ वा,पमारं वा, णेइ उद्दवेह सूक्ष्मसम्परायस्य चतुर्दशानाभवाभिधानात् मोहनीयल- वा,वत्थपडिग्गहं कंबलं पायपुंछणमाछिदइ वा, विच्छिदइ म्भवानामष्टानामसम्भव इत्पुक्त, ततश्च सामर्थ्यादनिवृत्ति - वा, भिदइ वा, अवहरइ वा ॥१॥ जक्खाइटे खलु अयं बादरसम्परायस्य मोहनीयसम्भवानामष्टानामपि सम्भवः पुरिसे तेण मे एस पुरिसे अक्कोसइ वा,तहेव०जाव अवहरइ प्राप्तः,कथं चैतयुज्यते,यतो दर्शनसप्तकोपशमे बादर कषायस्य वर्शनीयोदयाभावन दर्शनपरीवहाभावात्सतानाभैध सम्भवो, वा ॥२॥ ममं च णं तब्भववेयणिजे कम्मे उदिने भवह नाष्टानाम् । अथ दर्शनमोहनीयसत्ताऽपेक्षयाऽसावपीयत तेण मे एस पुरिसे अक्कोसइ वा० जाव अबहरइ वा ॥३॥ इत्यष्टावव, तर्युपशमकत्वे सूक्ष्म सम्परायस्यापि मोहनीय- ममं च णं सम्मं असहमाणस्स अक्खममाणस्स अतितिसत्तासद्भावात् कथं तदुत्थाः सर्वेऽपि परीवहा न भवन्ती क्खमाणस्स अणहियासेमाणस्स किम्मन्ने कजइ एगंतति, न्यायस्थ समानत्वादिति । अत्रोच्यते-यस्माद्दर्शनसप्तकोपशमस्योपर्येव नपुंसकवेदाऽद्युपशप्रकाले अनिवृत्तिवादरस सो मे पावकम्मे कजइ ।। ४ ।। ममं च णं सम्म सहमाम्परायो भवति,स चाऽऽवश्य काऽऽदिव्यतिरिक्तप्रन्थान्तरमतेन णस्सजाव अहियासेमाणस्स किम्मन्ने कजइ ?,एगंतसोमे दर्शनत्रयस्य वृद्धति भागे उपशान्ले शेषे चानुपशान्ते ए- निजरा कजइ ।। ५ ।। इच्चेएहिं पंचहि ठाणेहिं छउमत्थे घ स्यात् । नपुंसकवेदं चाऽसौ तेन सहोपशमयितुमुक्रमते, उद्दिन्ने परीसहोवसग्गे सम्मं सहेजा० जाव अहियासेजा।। ततश्च नपुंसकवेदोपशमावसरे अनिवृत्तिबादरसम्परायस्य (पंचहीत्यादि) स्फुटं, किं तु छाद्यते येन तत् छम ज्ञानाss. सतो दर्शनमोहस्य प्रदेशत उदयोऽस्ति, न तु सत्तव. ततस्त. वरणाऽऽदिघातिकर्मवतुय्यं, तत्र तिष्ठतीति छमस्थः, सकस्प्रत्ययो दर्शनपरीषहस्तस्यास्तीति । ततश्चाष्टावपि भवन्ती. पाय इत्यर्थः । उदीर्णानुदितान् परीपहोपसर्गानभिहितस्वरूति;सूचनसम्परायस्य तु मोहसत्तायामपि न परीपहहेतुभूतः पान सम्यक्तत्कयायोदयनिरोधादिना सहेत भयाभावेना. सूचमोऽपि मोहनीयोदयोऽस्तीति न मोहजन्यपरीषदसंभवः। विचलनाद्भट भटवत् क्षमेत, क्षान्त्या तितिक्षेत अदीनतया, प्राह च अध्यासीनपरीषहाऽऽदावेवाऽऽधिक्येनासीनं न चलेदिति. "मोहनिमित्ता अट्ट वि, बायररागे परीसहा किहणु। उदीमुदितप्रबलं वा कर्म मिथ्यात्वमोहनीयाऽऽदि यस्य स किहि वा सुहुमसरागे, न हुंति उवसामर सम्॥१॥" उदीर्ण कर्मा, खलुक्यालङ्कारे, श्रयं प्रत्यक्षः पुरुष उन्मत्तआचार्य श्राह को मदिराऽऽदिना विप्लुतवित्तः स इव उन्मत्तकभूतो भूत"सतगपरउबिय जे-ण बायरो जंच सावलम्मि। शब्दस्योपमानार्थत्वात् उन्मत्तक एव वा उन्मत्तकभूतो भूत Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४५ ) अभिधानराजेन्द्रः | परिसह शब्दस्य प्रकृत्यर्थत्वात् (तेरा सि) उदी कमी यतोऽयमुन्मत्तकभूतः पुरुषस्तेन कारणेन ( मे इति) माम् एषीजयमाक्रोशति, शपति, अपहसति, उपहासं करोति, अपघर्षतिथा अप करोति निष्यति सम्बन्धान्तरसंव हस्ता गृहीयात् चिपति, निर्भयति नाति ज्यादिना उपजि कारागारप्रवेशनाऽऽदिना वे शरीरावयवस्य हस्ताऽऽये रखेवं करोति, मारणप्रारम्भः प्रमारो मूर्च्छाविशेषो मारणस्थानं वा तं नयति प्रापयतीति अपशादयति मारयति अवया प्रमारं मरणमेव ( उद सि) उपद्रवयति उपकरोतीति स पार्थ कम्य लं प्रतीतं पारमोनं रजोहरणम् आनि बलाद्दालयति । विच्छिनत्ति विच्छिन्नं करोति दूरे व्यवस्थापयतीत्यर्थः । अथवा वस्त्रमीषाच्छिनत्ति छिनत्ति । विशेपेण नानास, मिनास पात्रं स्फोटयति अपहरति चोरयति वाशब्दाः सर्वे विकल्पाची इत्येकं परीषादि सहनालम्बनस्थानम्, इदञ्चाऽऽक्रोशाऽऽदिकमिह प्राय श्र कोशापाभिधानपरीषद्वयं रूपं मन्तव्यम् उपसर्गचिव कार्या तु मानुष्यकप्राधिकाऽयुपसर्ग रूपमिति । तथा यक्षाऽविष्टो देवाधिष्ठितोभ्यं तेनाकाशतीत्यादि द्वितीयम्। तथा अर्थ हि परीयोपसर्गकारी मिध्यात्वादिकम्य (ति) मम पुनस्तेनैव मानुष्यकेण भवेन जन्मना वेद्यतेऽनुभूयते यत्तद्भवेदनीय कम्मे उभयस्यस्ति तेनैष मामाको शतीत्यादि तृतीयम् । यथा एष बालिशः पापाभीतत्वात् क तु नामाक्रोशनादि मम पुनरसहमानस्य ( किं मन्ने त्ति ) मन्ये इति निपातो वितर्कार्थः (कजइत्ति ) संपद्यते, इह विनिश्चयमाह - ( एगंतसो ति) एकान्तेन सर्वथा पापकमाताऽऽदि क्रियते संपद्यत इति चतुर्थः । तथा श्रयं तावत्पापं बध्नाति मम चेदं महती निर्जरा क्रियत इति पश्चमम् | ( इथेहीत्यादि ) निगमनमिति । शेषं सुगमम् । स्थविपर्ययः केचलीति तत्सूत्रम् पंचहि ठाणेहिं केवली उदिने परसहोवसग्गे सम्म सहेजा जाय अहियासेजा। जहा खितचिते तं खलु अयं पुरिसे तेरा मे एस पुरिसे अकोसह वा तव जाव अवहर वा ॥ १ ॥ दित्तचित्ते खलु अयं पुरसे ते मे एस पुरिसे० जाव अवहरइ वा ॥ २ ॥ जखाट्ठे खलु अयं पुरिसे तेण मे एस पुरिसे० जाव अबहर वा ।। ३ । ममं च गं सम्भवेयसि कम्मे उदि भवइ ते मे एस पुरिसे ० जाव अवहर वा ॥ ४ ॥ ममं च गं सम्मं सहमाणं खममाणं तितिक्खमाणं अहियासमा पासिता बहवे असे उमस्या समया निधा उदिने परीस होवस एवं सम्मं सहिस्संति० जाव अहियासिस्संति || ५ || इथे पंचदि ठाणा केवली उदिने परीसहोवसग्गे सम्मं सहेजा ० जाव अहियासेज्जा । तत्र च वित्तः पुत्रशोका 5 दिना, नष्टत्तिः पुत्रजन्माssदिना. दवश्चित्त उन्मत्त एवेति । मां च सहमानं दृष्ट्वा अ १६२ परिसह पेसियतमानुसारिख्यात् माय इतरेषाम् । पदाद" जो उत्तमेहि ँ मग्गो, पहश्रो सो दुरी न सेसाएं । श्रा रियम्मि जयंते तयणुवरा केण सीएज ? " ॥ १ ॥ इति । ( हीत्यादि) अत्राऽपि निगमनम् । शेषं सुगममिति । स्था० ५ ठा० १ उ० । परीषा सोडण्या इत्युपदेशः कम्मर, जं दुक्खं पुढं प्रवोहिए। तं संजमधई मरणं हेच वयंति पंडिया ॥ १ ॥ संताने निखानि कर्मामानि सम्यगुपयोगरू पाणि वा मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादक वाय योगरूपाणि वा यस्य भिक्षेोः साधोः स तथा तस्य यत् दुःखम् अस तदुपादान वा अष्टप्रकारं कर्म स्पृष्टमिति स्पृष्ट निकाचितमित्यर्थः, तन्त्र अत्र " अबोधिना " अशानेनोपपवितं सत् संपतो मनीद्रात् सप्तदशरूपानुडागार पचीयते प्रतिक्षणं क्षमुपयाति । एतदुकं भवति यथा तटाकोदरसंस्थितमुदकं निरुद्धापरप्रवेशद्वारं सदाऽऽदित्वकरसंपर्कात् प्रत्यहमपचीयते, एवं संवृताऽऽश्रवद्वारस्य भितोरिन्द्रिययोगकषायं प्रति संलीनतया संवृताऽऽत्मनः सतः संयमानुष्ठानेन चानेकमवाज्ञानोपचितं कर्म दीयते ये च संताऽऽत्मानः सनुष्ठानिय ते हित्वा म रणं मरणस्वभावम् उपलक्षणत्वात् जातिजरामरणशोकाssदिकं त्यक्त्वा मोक्षं व्रजन्ति पण्डिताः सदसद्विवेकिनः, यदि वा पण्डिताः सर्वज्ञ एवं वदन्ति यत् प्रागुक्रमिति ॥ १ ॥ " १ येऽपि च तेनैव भवेतन मोतमाप्नुवन्ति तानचिरादजे विनवणाहिज्जोसिया, संतिनेहि समं वियाहिया । तम्हा उड्डति पासहा, दक्खु कामाइ रोगवं ॥ २ ॥ ये महासवाः कामार्थिभिर्विज्ञाप्यन्ते यास्तदर्थिन्यो वा का निगं विज्ञापयन्ति ता विज्ञापनाः खियस्ताभिः अजुष्टा असे. विताः क्षयं वा श्रवसाय लक्षणमतीतास्ते सन्तीर्मुक्तैः समं व्याख्याताः श्रती श्रपि सन्तो यलस्ते निष्किञ्चनतया शदादिविषयप्रति संसारोदन्तस्त टोपर तवर्तिनो भवन्ति तस्मादूर्ध्वमिति मोक्षं योषित् परित्यागादूर्ध्वं यद्भवति नत्पश्यत यूयम् । ये च कामान् रोगवाधिकल्पान् श्रद्राक्षुः वन्तस्ते संतीतमा व्याख्याताः । तथा चोकम् पुण्फफलागं च रसं सुराह मंसस्स महिला च । जाणता जे विरया, ते दुक्करकारए वंदे ॥ १ ॥ तृतीय. पादस्य पाठान्तरं वा उहुं तिरियं श्रहे तहा " ऊर्ध्वमिति धर्मा (तिरियमिति) सिजो के अधइति-भवन त्यादी. ये कामास्तान् रोगवदद्रातुर्ये ते ती कल्पा व्याख्याता इति ॥ २ ॥ पुनरप्युपदेशान्तरमधिकृत्याऽऽहआहियं धारंती राईशिया इहं । अणि एवं परमा महव्वा अक्लाया व सराइभोयणा ||३|| 'श्रमं वर्षे प्रधानं रत्नवस्त्राऽऽभरणाऽऽदिकम् । तद्यथादाहितं कितं राजानस्तत्कल्पा ईश्वरा 35दयः यलोके पारपति पिवति एवमेता Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसह प्रानिधानराजेन्द्रः । परिसह भ्यपि महावतानि रत्नकल्पानि 'आचार्यः' पाख्यातानि प्रति- किमिति कामपरित्यागी विधेय इत्याशझ्याऽऽहपादितानि नियोजितानि सरात्रिभोजनानि रात्रिभोजन मा पच्छ असाधुता भवे, अच्चेही अणुसाम अप्पगं । विरमणपष्ठानि साधवो बिभ्रति तुशब्दः पूर्वरत्नेभ्यो महाय. अहियं च असाहु सोयती, से थणती परिदेवती वहुं ।।७।। सरत्नानां विशाऽऽपादक इतिदमुक्तं भवति यथा प्रधा. नगन्नानां राजान एष भाजनम् एवं महायतरस्नानामपि मा पश्चान्मरणकाले भवान्तरे या कामानुपङ्गानसाधुता महासावा एष साधयो भाजनं, नाम्ये इति ॥ ३ ॥ कुगतिगमनादिकरूपा भवेत् प्राप्नुयादिति, अनी यिपयाऽऽसनावात्मानम् अत्यहि त्याजय, तथाऽस्मानं च अनुशाधि मान्मनोऽनुशास्ति कुरु. यथा हे जीय! यो हासाधुः असाधुकजे इह सायाणुगा नरा, अज्झोपवना कामेहि मुक्छिया। मकारी हिंसाऽनृतस्तयाऽऽदी प्रवृत्तःसन दुर्गनी पतितोऽधिकिवणेण समं पगम्भिया,न बिजाणंति समाहिमाहित॥४॥ कम् अस्यर्थमेवं शोचति स च परमाधार्मिक कार्यमानस्तिये ना लघुप्रकृतयः, इहाऽस्मिन् मनुष्यलोके, सातं सुख यजुषा जुदादिवेदनाग्रस्तोऽत्यर्थ स्तनति सशन निःश्वसिमनुगरकुन्तीति सातानुगाः-सुखशीला ऐहिकाऽऽमुष्मिका. ति, तथा परिदेवते विलपत्याक्रन्दति सुब विति" हा मा. उपायभीरवः समृद्धिरससातागौरबेप्यध्युपपनाः गृयाः । तः नियत इति, पाता नेवाऽस्ति सांप्रतं कश्चित् । किं शर. तथा-कामेषु' इच्छामदनरूपेषु 'मूर्छिताः ' कामोत्क णं मे स्याविह. दुष्कृतचरितस्य पापस्य ? ॥१॥" इत्येषमा. टतृष्णाः । कृपणो दीनो बराकक इन्द्रियः पराजितस्तेन दीनि दुखान्यसाधुकारिणः प्राप्नुवन्तीत्यती विषयानुपङ्गो न समास्तवत्कामाऽऽसेवने 'प्रगल्भिताः' धृएतां गताः। यदि विधेय इत्येवमात्मनोऽनुशासनं कुर्मिति संबन्धनीयम् ॥ ७ ॥ या-किमनेन स्तोकेन दोषेणाऽसम्यक्प्रत्युपेक्षणाऽऽदिरूपेणाऽस्मत्संयमस्य विराधनं भविष्यत्येधं प्रमाववन्तः कर्तव्येष्व- इह जीवियमेव पासहा, तरुणेव वाससयस्स तुट्टती । घसीदन्तः समस्तमपि संयमं पटवन्मणिकुहिमया मलि इत्तरवासे य बुज्झह, गिद्धनरा कामेसु मुच्छिया ॥८॥ नीकुर्वन्ति, एवंभूताश्च ते समाधि धर्मध्यानाऽऽदिकम् प्रा इहा स्मिन् संसारे,प्रास्तां तावदन्यजीवितमेव सकलसुखाख्यातं ' कथितमपि न जानन्तीति । स्पदमानिन्यताऽऽघातम् आवीचिमरणेन प्रतिक्षणं विशरापुनरप्युपदेशान्तरमधिकृत्याऽऽह रुस्वभावं. तथा-सर्वाऽऽयुःक्षय एव वा तरुण एव युवैव वर्षबाहेण जहा व विच्छए, अबले होइ गवं पचोइए। शतायुरप्युपक्रमतोऽध्यवसाननिमित्ताऽदिरूपादायुषस्से अंतसो अप्पयामए, नाइवहइ अबले विसीयति ॥५॥ ट्पति प्रच्यवते. यदि वा सांप्रतं सुबड्डप्यायुर्वर्षशतं तच त. स्य तदन्ते श्रुटथति, सागरोपमापेक्षया कतिपयानमेषप्रायव्याधेन लुब्धकेन (जहा वत्ति) यथा (गवं ति) मृ. त्वात् इत्वरवासकल्पं वर्तते स्तोकनिवासकल्पमित्येवं बुध्य. गाऽऽविपशुर्विविधमनेकप्रकारेण कूटपाशाऽऽदिना क्षतः ध्वं यूयं, तथवभूतेऽप्यायुषि नराः पुरुषा लघुप्रकृतयः कामेषु परवशीकृतः श्रम वा प्राहितः प्रणोदितोऽप्यबलो भवति, शब्दाऽऽदिषु विषयेषु गृद्धा अध्युपपन्ना मूर्छिताः तत्रैवास जातधमत्वात् गन्तुमसमर्थः, यदि घा-बाहयतीति वाहः तचेतसो नरकाऽऽदियातनास्थानमाप्नुवन्तीति शेषः ॥८॥ शाकटिकस्तेन यथावद् बहन् गौर्विविधं प्रतोदाऽदिना अपि चक्षतः प्रचोदितोऽप्यबलो विषमपथाऽऽदौ गन्तुमसमर्थों जे ह आरंभनिस्सिया, आतदंडा एगंतलूसगा। भवति, स चाऽन्तशो मरणान्तमपि यावदल्पसामर्यो ना. ऽतीवावोढुं शक्नोति एवंभूतश्चाऽबलो भारं घोढुमसमर्थ गंता ते पावलोगर्य, चिररायं आसुरियं दिसं ।। ह॥ स्तत्रैव पकाऽऽदौ विषीदतीति ।। ये केचन महामोहाऽऽकुलितचेतसः 'ह' अस्मिन्मनुष्यलो. दार्धान्तिकमाह के प्रारम्भे हिंसाऽऽदिके सावद्यानुष्ठानरूपे निश्चयेन थिताः एवं कामेसणं विऊ, अज सुए पयहेज संथवं । संबद्धा अध्युपपन्नास्ते प्रात्मानं दण्डयन्तीत्यात्मदण्डकाः, कामी कामे ण कामए, लद्धे वा वि अलद्ध कण्हुई ॥६॥ तथकान्तेनैव जन्तूनां लूषका-हिसकाः सदनुष्ठानस्य वा ध्वंसकाः, ते एवंभूता गन्तारो यास्यन्ति 'पापं लोकं' पापकएबमनन्तरोतया नीत्या कामानां शब्दाऽऽदीनां विषयाणां मंकारिणां यो लोको नरकाऽऽदिः "चिररात्रमिति" प्रभूतया गवेषणा प्रार्थना तस्यां कर्तव्यायां विद्वान् निपु कालं तन्निवासिनो भवन्ति । तथा बालतपश्चरणादिना य. णः कामप्रार्थनासक्तः शब्दा:दिपके मनः स चैवंभूतो. द्यपि तथाविधदेवत्वाऽऽपत्तिस्तथाऽप्यसुराणामियमासुरी ऽद्य श्वो या संस्तवं परिचयं कामसंबन्धं मजह्यान् किलति. तां दिशं यान्ति, अपरप्रेप्याः किल्पिपिका देवाऽधमा भवएवमध्यवसाय्येव सर्वदाऽवतिष्ठते, न च तान् कामान् श्र 'तीत्यर्थः॥६॥ यला बलीवर्दवत् विषमं मार्ग त्यक्तमलं, किश्चन चैहि किश्चकाऽमुष्मिकापायदर्शितया कामी भूत्वोपनतानपि कामान् __ण य संखयमाहु जीवितं, तह वि य बालजणो पगभई। शध्दाऽदिविषयान् वैरस्वामि-जम्वूनामाऽऽदिवद्वा कामयेत् अभिलपेदिति । तथा क्षुल्लककुमारवत् कुतश्विनिमित्ता पच्चुप्पन्नण कारियं, को दई परलोकमागते ॥ १० ॥ त् "सुठु गाइयं" इत्यादिना प्रतिवुद्धो लब्धानपि प्राप्ता- (ण य संखयत्यादि ) न च नैव त्रुटितं जीवितमायुः सं. नपि कामान् अलब्धसमान् मन्यमानो महासस्वतया तन्नि- स्कर्तुं संधातुं शक्यते पवमाहुः सर्वज्ञाः । तथाहि--" दंडकस्पृहो भवेदिति ॥ ६॥ लियं करिता, पञ्बंति दु राइनी य दिवसा य । आउं सं. Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसह बेता, गया य न पुणो नियतंति ॥ १ ॥ " तथाऽप्येष for स्थिते जीवानामायुषि बालजनः अशो लोको निर्वि धकतया अलगुडाने प्रवृति कुर्वन् प्रभते पृतां याति अनुष्ठानेनापि न वजन इत्यर्थः । ख चाहो जन पापानि कर्माणि कुर्वन् परेण चेति पृष्ठतया अलीकपारिष्टस्वाभिमानेनेदमुत्तरमाह - प्रत्युत्पनेन वर्त्तमानकालभाविना परमार्थसता अनीतानागतयोर्थिनानुपाऽविद्यमान स्वात् कार्य प्रयोजनं पूर्वकारिभिस्तदेव प्रयोजना स्वावादीयते एवं व सतीहलोक एव विद्यते न परलोक इति दर्शयति का परलोकं रहाऽऽपातः तथा पो "vिe याद व साधु शोभने !, यदतीतं बरगात्रि ! तर ते । महि भीतं निवर्तते समुदयमात्रमिदं कले परम् ॥१॥" ( ६४७ ) अभिधानराजेन्द्रः । 3 तथा एतावानेव पुरुषो यावानिन्द्रियगोचरः । भद्रे ! वृकपदं पश्य, यज्ञदस्य बहुश्रुताः ॥ १ ॥ " इति ॥ १० ॥ सूत्र० १० २ ० ३ उ० । विषयाननाय कथं भावसमाधिमाप्नुयादित्याह घर र च अभिभूष भिक्खु, तथा फार्म तह सीयफासं । उप च दंसं चहियासएआ सुभि व दुमिव तितिक्ा ॥ १४ ॥ स भाभिः परमार्थ शरीरादी निस्पृ मोक्षगमने प्रवराय या संयमेतिरसंयमे चरतिय तामभिभूय पत दधिसहेत । तद्यथा निष्किञ्चनतया सुखाऽऽदिकान् स्पर्शनादिमहाभिग्नो भूप्रदेशस्पर्शाच सम्यगसित या शीतोष्णमत्पिपासादिकान् परीपानोभ्य तथा निर्जरार्थम् अभ्यासयेत् अधिसदेत तथा गन्धं सुरभि मितरं च सम्यक् तितिक्षयेत्सह्यात्, चशब्दादाकोशवधा दिकाँश्च परिषाम्मुमुस्तितिक्षयेदिति ॥ १४ ॥ सूत्र० १ ४० १० अ० । विता अहमेव लुप्पर, लुप्पंती लोभंसि पाणियो । एवं सहिएहि पास, आणि से पुढे अहियासए | १३ || परीषदोपसर्गा एतद्भावनापरेण सदस्या, नाहमेवेकरता यदिह शीतोष्णा विदुःखविशेवैः 'ये' पीय पि प्राणिनः तथाविधास्तिर्यमनुष्याः स्मो के 'लु प्यन्तेः परिताप्यन्ते तेषां च सम्पि काभावान्न निर्जराऽऽस्यफल मस्ति । यतः " क्षान्तं न क्षमया गृदोचितसुखं त्यक्तं न सन्तोषतः । सोढा दुःसहतापति पवनक्लेशा न तप्तं तपः । या विसमनि नियमितं इन् तस्वं परं तसकर्म कृतं सुखार्थभिरही तैसे फलैवेशिताः ॥ १।" देयं सेशासन सकिनां संयमाभ्युपगमे सति गुणादेव ति । तथाहि काश्यं कमशनं शीतोष्णयोः पात्रता, पारुष्यं च शिरोरुहेषु शयनं मह्यानले पते । एतान्येव हे यद्दत्यवति तावुर्ति संव दोषाचापि गुणा भवन्ति हि नृणां योग्ये पदे योजिताः ॥ १ ॥ एवं सहितो ज्ञानाऽऽदिभिः स्वहितो वा श्रात्महितः सन् ' पश्येत ' कुशाग्री यथा बुद्धधा पर्यालो. 's. परिसद् अपेदनन्तरोदितं तथा निहन्यत इति निहः न निहोउनि हः क्रोधाऽऽदिभिरपीडितः सन् स महालयः परीपः स्पृछोsपि तान् अधिसङ्केत ' मनःपीडां न विध्यादिति । य रिया- अनि इति तपःसंयने परीपदा तिलवीर्यः शेषं पूर्ववदिति । १३ ।। 3 अपि य व घृणिया कृति अहिंसामे वयं किस देहमणामणा इह । अम्मी मुखिया पवेदितो ॥ १४ ॥ ( धुणिया इत्यादि) धूत्वा विधूय ( फुलि ) कहणत सम् अपमार्थ यथा गामादिपेन स जाया पापा भवति एवम् अनशनादिनिर्देति विद ध्यात् तदपचयाच कर्मणोऽपचयो भवतीति भावः । त था विविधा हिंसा चिहिंसा न बिसि अहिंसा तामैच प्रकर्षेण मजेत्यर्थः अनुग मोक्षं प्रत्य धर्मोऽनुधर्मः अमावहिंसाला परी महोपसर्गसनपथ धर्मो मुनिना सर्व प्रवेदि कथित इति ॥ १४ ॥ सूत्र० १० २ श्र० ३ उ० । संतता फेसलीए, पंभचेरपराइया । तस्य मंदा विसीति मच्छा विट्टा व परो ।। १३ ।। तः 4 " 4 समन्तात् तप्ताः सन्तप्ताः केशानां 'लोचः ' उत्पाटनं तेन, तथाहि सरुधिरकेशोत्पाटने हि महती पीडीपपद्यत तया areपसरवाः विस्रोतसिकां भजन्ते तथा ब्रह्मचर्य व स्तिनिरोधस्तेन च पराजिताः पराभग्नाः सन्तः तस्मिन् केोत्पादनेऽतिदुर्जय कामोठेके या सति मन्दाः जहा घुमतो विषीदन्ति संचमानुष्ठानं प्रति शीतलीभवन्ति, सर्वथा संयमावू वा भ्रश्यन्ति यथा मत्स्याः तने ' मत्स्यबन्धने प्रविष्टा निर्गतिकाः सन्तो जीविताद् भ्रश्यन्ति एवं तेऽपि वराकाः सर्व कषकामपराजिताः संयमजीवितात् अस्पति १३ ॥ " चिचआयदं समायारे, मिच्छासंठियभावणा । हरिसप्पोसमायमा, केई संतिनारिया ॥ १४ ॥ आत्मा दण्डयते - खराज्यते हितात् भ्रश्यते येन स श्रात्म दरड समाचारः अनुष्ठानं येषामनार्यायां ते तथा दण्डः तथा मिथ्या- विपरीता संस्थिता स्वाऽऽग्रहाऽरूढा भावनाअन्तःकरणपूर्वेषां ते मिध्यास्थित भानामध्य पद्दतष्ट्रय इत्यर्थः। हर्षश्च प्रदेयश्च हर्षप्रशेषं तदापन्ना रागद्वेषसमाकुला इति यावत् । त एवम्भूता अनार्याः सदाचारं साक्रीडा मषेण या कर्मकारिन्यान्यन्ति कथयन्ति दण्डादिनियमिति ॥ १४ ॥ एतदेव दर्शयितुमाह अप्पे पलियंते सिं, चारो चोरो ति सुव्त्रयं । बंर्धति भिक्खुर्य वाला, कसायवयहि य ।। १५ ।। अपिः संभावने, एके, श्रनार्या श्रात्मदण्डसमाचारा मि यादती रागद्वेषपरिगताः साधुं पलितेनि ति ) अनार्थदेशपर्यन्ते वर्तमानं चारो नि ) बरोऽयं 'चौर: ' अयं स्तेन इत्येवं मत्वा सुव्रतं कदर्थयन्ति तथा " " तत्र ' Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसह हिनादिना संयमयन्ति निक्षुकं मिश शीलं ' वाला' अशाः सदसद्विवेक विकलाः, तथा कपा पवनेोपचानक बीति ॥ १५ ॥ अपि च " 6 तत्थ दंडे संधी मुडिया अफले पा नाती सरती वाले, इत्थी वा गाभिणी ॥ १६ ।। 'लादेशले वर्तमानः साद एडेन' यष्टिना मुष्टिना वा 'संवीतः ' प्रहतोऽथ वा फलेन या मालिनादिना खड़गाऽऽदिना वास सावंतेः कन्दमानः कपिरितः पालः शातीनां अशो' स्वजनानां स्मरति । तद्यथा यद्यत्र मम कश्चित् सम्बन्धी स्यात् नाहमेवम्भूतां कदर्थनामवान्नुयामिति । दृष्टान्तमाहयथा स्त्री क्रुद्धा सती स्वगृहात् गमनशीला निराश्रया मांसपेशी सर्वस्पृहणीया तस्कराऽऽदिभिरभिद्रुता सती जात पश्चात्तापा ज्ञातीनां स्मरति एवमसावपीति ॥ १६ ॥ उपसंहारार्थमाहएते भो ! कसिया फासा, फरूसा दुरहियासया । हत्थी वा सरसंवित्ता, कीवाध्वस गया गिहं ॥ १७ ॥ मी इति शिष्यामवर्ण अदितः प्रभूति वंशम काकल्येन परीषा पवसमिति कृत्स्ना सम्पूर्ण बाहुल्येन स्पृश्यन्ते द्रा भूयन्त इति स्पर्शाः । कथम्भूताः ? - परुषाः ' परुषैरनायैः कृतत्वात् पीडाफार वापस दुःखेनाधि सौधावमाना लघुप्रकृतयः केचनालापानी हस्ति न इव रशिरसि शरजालसंवीताः ' शरशताऽऽकुला भङ्गमुपयान्ति एवं ' क्लीबाः ' असमर्थाः ' श्रवशाः ' परवशाः कमssयत्ता गुरुकर्माणः पुनरपि गृहमेव गताः । पाठान्तरं वा" तिव्वसङ्के त्ति " तीरुपसगैरभिदुताः ' शडाः शठानुष्ठानाः संयमं परित्यज्य गृहं गताः । सूत्र० १ श्रु० ३ ० १ उ० । परिसहचम् - परिषहचमू स्त्री० परीपम्ये भ० श० २३ 3 I उ० । कल्प० । परिसहजय- परिषहजय पुं० परिषहजय इति मार्गाच्य निर्जरा परिषह्यते इति परीवः पिसा मशकाऽऽद्या द्वाविंशतिः तेषां जयः श्रभिभवः परीपहाणां सहनेन स चैवं योगशास्त्रवृत्युक्तः " क्षुधाऽऽर्तः श क्रिमा साधुषणां नातिलत् । अन द्वान्, यात्रामात्रोद्यतश्चरेत् ॥ १ ॥ श्रयं क्षुपरीपहजयः । ० ३ ० प पपासाऽऽदिपि वासा' आदिशब्देषु दृश्याः ) परिसहरनिय परिषदप्रत्यय-त्रि शीतोष्णम का 55दीनां पहा संपाचे परीवहाः शीतोष्णमशका प्रत्य यो यत्र तत्तथेति व्युत्पत्तेः । स्था० ३ ठा० ३ उ० । परिसा पर्पत्खास्थायाम्, “अन्धाणी तह सहा परि सा।" पाइ० ना० १६७ गाथा । सभायाम् श्राचा० १ ० १ [अ०] १४० तिखः पर्व: परिभ रिपच्च । वृ० । 'अथ सिंहाऽऽदीनां पर्षदां व्याख्यानमाहकडजोगि सहिपरिसा, गीयत्थ चरा य वसरिता उ । • - , ( ६४८ ) अभिधानराजेन्द्रः । . परिसा सुत्तक डगडगीयत्था, मिगपरिसा होइ नायव्वा || ७५७|| तयोगिनः संयमगीताथी परं तथा समस् अपरं स्थिरावलवस्तस्ते पद ये तु कृतसूत्राः सूत्रे अधीतिनः परमगीतार्थास्त मृगपरिपादति ज्ञातव्या भवति । वृ० १०३ प्रक्र० । शा. अशा दुर्विदग्धा ३ पर्यत् सा समास तिचा पत्ता से जहा जाणिया अजाणिया दुि जाणिया जहा खीरमिव जहा हंसा, जे बुद्धंति इह गुरुगुणसभिद्धा । दोसे यवती, तं जासु जाणियं परिसं ॥ १ ॥ अतालिया जहा जा होइ पगमहुरा निवासभूषा । trena संविया, अजाणिया सा भवे परिसा ॥ २॥ दुनिया जा नया नियम, न य पुच्छ परिभवस्स दोसेणं । वय व्व वायपुनो, पुढइ गामिल्लय दुवियड्डो || ३ ॥ (सा समासती निविदेत्यादि) सा पर्पत् समासतः संक्षेपेण त्रिविधा त्रिप्रकारा प्रज्ञप्ता, तीर्थङ्करमण धैररिति गम्यते । वर्षदिति कथं लभ्यत इति प्रारम्भणीयः प्रवचनानुयोग इति अनुयोगश्च शिष्यमधिकृत्य प्रवर्तते निरालम्बनस्य तस्याभावात् ततः सामर्थ्यात्संयुक्वदिति लभ्यते तदर्थ ययोधने जानातीतिः ॥३१॥ १३५|| इति (पाणि०) कप्रत्ययः । इटि च "श्रतो लोपः " ॥६४॥ ४८॥ इति (पाणि०) कारलोपः ततः- "श्रजाऽऽयतः टाप” |४|१|४ ॥ इति (पाणि०) स्त्रियामाप् । शैव शिका स्वार्थिकः कप्रत्ययः । ततः “भत्रैबाजाशाद्वास्वा नञपूर्वाणामपि ॥ ७ । ३ । ४७ ॥ इत्यापः स्थाने इकाराऽऽदेशः कत्वाच परतत्रियामाः ततः सिद्धं ज्ञिकेति । ज्ञका नाम परिज्ञानवती । किमुक्तं भवति ? - कुपथप्रवृत्तपाखण्डमतेनादिग्धातःकरणा गुणविशेषपरिज्ञानशाखापि दोषा परिवाहिका केवलं गुणमहणय जवतीति । उक्तं च"गुवा कुसुम । एसा आणगपरिसा, गुणत तिल्ला अगुणवज्जा ॥ १ ॥ श्रम (गुणतिले ति ) गुणेषु यत्नवती. गुणग्रहणपरायणा इत्यर्थः । (अगुण जे ति ) श्रगुणान् दोषान् वर्जया सतोऽपि नातीत्वगुणज तथा यशिका शिक रिक्षा सम्यकपरिक्षानरहिता । किमुक्रं भवति ? या साडीच कुकृत्य स्वभावा संस्थापितास्परस्नमिवान्तर्गुणविशि उस मा पनीया पर्यत् सा अज्ञिका । उक्तं च- पगई सुद्धयाणियं, गया। अहि समाप्पा गुणमिद्धर ॥ १ ॥ इह (भगसावगतीह कुकुडगभूय ति) या दो संवत "मिसीह कु "" 19 Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसा शभिधानराजेन्दः । परिसा असावभूता" इत्यर्थः. ( असंठविय ति) असंस्थापिता श्र- दुबियड्डगा उ एसा, भणिया परिसा भवेतिविहा ।।३७३॥ संस्कृता इत्यर्थः । सुखसंज्ञाप्या सुखेन प्रज्ञापनीयाः । तथा किश्चिमात्रमाणिः पल्लवग्राहिणः त्वरित प्राहिणः एवमेषा (दुब्धियड्ड त्ति) दुर्विदग्धा मिथ्याऽहङ्कारविडम्बिताः । किमुत दुर्विदग्धा पर्पत् विविधा त्रिप्रकारा भणिता। भवति ?-या तत्तद्गुणज्ञपाोपगमनेन कतिपयपदान्मुपजी. व्य पाण्डित्याभिमानिनी किञ्चिन्मात्रमर्थपदं सारपल्लवमा तत्र किञ्चिन्मात्रग्राहिणीमाहपा श्रुत्वा तत ऊर्द्व निजपाण्डत्यख्यापनायाभिमानतोऽयक्ष- नाऊण किंचि अन-स्स जाणियव्वेन देति श्रोगासं । या पत्रपति। श्रर्द्ध कथ्यमानं चाऽऽत्मनो बहुमतासूबनायाने नय निजितो वि लजइ,इच्छह य जयं गलरवेण ॥३७३।। त्वरितं पठति,सा पर्षद् दुर्विदग्धेत्युच्यते। उक्तं च -"किंचिम्म शान्या किञ्चिरत्यस्य ज्ञातव्येनावकाशं ददाति, न च निसग्गाही,पल्लवगाही य तुरियगाही य। दुश्यिड्विथा उ एसा,भणिया तिबिहा भवे परिसा ॥१॥" अमूषां च तिसृणां पर्षदां म. जितोऽपि लजते, केवलं गलरवेग महागलप्रमाणेनाऽऽरटनध्ये प्राधे द्वे पर्षदावनुयोगयोग्ये तृतीया त्वयोग्या। यदाह चू. जयभिच्छति । सिंकृत्-"एत्थ जाणिया अजाणिया य श्ररिहा. दुब्धियड्डा अण पल्लवग्राहिणीमाहरहिया।" इति । तत आद्य एव द्वे अधिकृत्यानुयोगः प्रारम्भ न य कत्या निम्मातो, ण य पुच्छह परिभवस्स दोसेणं । णीयो न तु दुर्विदग्धाम् मा भूदाचार्यस्य निष्फलः परिश्रमः, वयीव वायपुमो, फुटइ गामिल्लगवियड्ढो ।। ३७४ ।। तस्याश्च दुरन्तसंसारोपनिपातः । सा हि तथास्वाभाव्यात् यत्किमप्यर्थ पदं शृणोति तदप्यवक्षया श्रुत्वा च सारपद ग्राभेयकेषु विग्यो ग्राभयकविदग्धो न च कुत्रचित् निर्मातः, मन्यत्र सर्वजनातिशायिनिजपाण्डित्याभिमानतो महतो सर्वत्र पल्लवमात्रग्राहित्वात् ,न च परं पृच्छति,परिभवो मे भ. महीयसोऽवमन्यते, तदवशया च दुरन्तसंसाराभिष्वङ्ग इति विष्यतीति परिभवस्य दोषेण केवलं वास्तारव वातपूसः प. स्थितम् । नं० अनु० । वृ०। श्रा०चू. श्राव०। (पर्षदां शल रिडतोऽथ मिाते लोकप्रवादगर्वितः स्कुरति स्फुटानव घनाऽऽयुदाहरणानि 'सीस' शब्दे वक्ष्यन्ते ) द्विविधा पर्ष तिष्ठति । त् लौकिकी, लोकोतरा च । । ____ त्वरितग्राहिणीमाहसंप्रति ये अस्याध्ययनस्य योग्यास्तानाह-- दुरहियविजो पचं-तनिवासो वावदूक इइ काको । खीरमिव रायहंसा, जो घुटुंति उ गुणे गुणसमिद्धा। । खलिकरण भोइपुरतो, लोगुतर पेढियागीते ॥ ३७५ ।। दोसे वि य छहुंता, ते वसभा धीरपुरसे त्ति ।। ३७० ।। पकः पुरुषो व्याकरणसूत्राोग किञ्चि-परितानि कृत्वा प्र. ये गुणसमृद्धो अवितथाऽदिगुणसमन्विताः क्षीरमिव राज- त्यन्तग्राम गत्वा ब्रूते-अई चैयाकरणः, तास ग्रामेय कैराहंसा गुणान् घोटयन्ति श्रास्वादयन्ति, येऽपि केचनानुपपोगे| भौरैः परिगृहीतो, वृतिः पुष्टा कृता. ततः सुखन तत्र निप्रभया दोपासानपि ते छर्दयन्ति परित्यजन्ति । ते वृषभा वसति । अन्यदा तत्र वाचकः छलैः परिवृतः पुस्तकमानिशीथन गीता धीरपुरुषा अधिकृतस्थाध्ययनस्य योग्याः। रेण समानतः, ततस्तैः प्रत्यन्तग्रामवासिभिस्तस्य शिष्याः अजानतां पर्षदमाह.. पृटाः-क एक समागतः तैरवादि-बैयाकरणः ततस्ते प्रत्यन्त. जे होति पगइमुद्धा, मिगलावगसीहकुकुरगभूया। ग्रामवासिनोचते-अस्माकमयस्ति वैयाकरणः तेन सह शरयणमिव असंठपिया, सुहसम्मप्पा गुणसभिद्धा ॥३७१।। ब्दगोष्ठी भवतु, तेप्रतिश्रुतम्, जात एकन्न मेलापकः, ततो ये प्रकृया स्वभावेन मुग्धा मृगसिंहकुकुरशावभूताः, गा दुरधीतविद्यनोक्तम्-काग इति कथं भरपते । वैयाकरण नोथायां शायशब्दस्यान्यत्रापनिपातः प्रारुतत्वाद् भूतशब्द का-काक इनिारयमुकेस मेनमध्यतिष्ठत् । दुरधीतचिंधनो. पम् । ततोऽयमर्थः-यथा मृगाऽऽदिशावा अरण्यावानी तम्-अन्योपि लोकः काकमेव भगति को विशेषो व्याकरणय यदि रोवते तर्हि भद्रकाः क्रियन्ते. अथवा-ऋराः, एवं ये स्थ?, अदभणामि काकः। तवा ग्रामय कैद सितमुकृष्टिश्व प्रकृत्या मुग्धाः परतीर्यिकैश्च अभावितास्ते यथा भरायन्ते कृतः, अस्माकं पारोडते नैष पराजित इति। पश्चात् स चैयातथा कुर्वन्ति तथा रत्नमिव प्रसंस्थापिता यथा रन्नमसं. काण: प्रधनापन्न नारंगवा यस्थ माजिकस्य स ग्राम स्थापितं यादृशाऽभिप्रायस्तादृशं घटित्या क्रियते, एवमेत स्तन कर्षयित्वावस्य पुरतः खलीफल्प ग्राभात्रि काशितः एप ऽपि यथा रोचते तथा क्रियन्ते । तथा चाऽऽह-सुखशाप दृष्टान्तः। एवं लोकोतरेऽपि कस्याप्यावार्यः शिष्यः किश्चित नीयाः गुगस वृद्धा विनयाऽऽदिगुणनिधयः।। पीठेकाम: शिजयिन्या एकाकी प्रत्यन्तनगरं गत्वा तद्गजे खलु अभाविया कु-स्सुतीहि न य ससमए गहियसारा । तानम्मानजीनार्यान् द्रावयति, अफरणीयान्यपि च करी. ति. अपायश्चितऽपि च प्रायश्चितं ददामि सायं, पूजामत्काअकिलेसकरा सा खजु, भावयरं कोडिपरिसुद्धं ॥३७२।। रगौरवाणि भक्षयने, न च पृछी पश्चादन्ये गीतार्थास्तत्राये खल कुश्रुतिभिः कुसिद्धान्तरमाधिता न च स्वसमय गृ नास्तीविनः प्रायाधितं च तत्य दतं दीक्षा तस्यापहता ॥ हीतसागः सा खल्वक्ले राफरा अजानती पर्वत पटक टिशूळ गाथाऽज्ञायोजना स्त्रियभ-दुरधीतविद्यः कोऽपि प्रत्यन्तनिच झमिय, गुणनिधानपट् कोटिशुई नाम-यत् स्वभावतः चासत को बाबद को महाधिकार वैयाकरण समागतः.तषडीप दिक्षु शइन् । स्य तेन विवादे काकारुतः, उपहासर्वक कृष्टिः कृता, संप्रति दुर्विदग्धां पर्षदमाह ततः स वैयाकरणो बायको नगरं गत्या भोजिकपुरतकिंचिन्मत्तग्गाही, पल्लवगाही य तुरियगाही य। स्तस्य खलीकरणमकात्।ि एवं ले कोत्तरेऽधि पाठिमागी. Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसा (६५०) अन्निधानराजन्तः। परिता ने पीठिकामात्रेण गीतार्यकर्त्तव्यं या करोति संपा दुर्विद. मिति विचित्य प्रतिनिवृत्तः तत्र देव्या गलगण्डमभवत् .स ग्धा पर्यत् । श्राकारितः पृष्टवान् क्व चीर्णा?,तोषार्थिना तोपनिमित्तं कथ. श्रायरियत्तण तुरितो, पच्चं सीसत्तणं अकाऊणं । यन्ति-पुरोहडे, ततः सा पोताऽऽवेएनेन मारिता. स विवादे वैद्यन निपिद्धः, ततः शारीरो दण्डस्तस्य राक्षा कृतः । एष हिंडइ चोक्खाऽऽयरिओ,निरंकमो मत्तहस्थि च ॥३७५।। दृष्टान्तः । कोऽपि शिव्यो दशवकालिकमानं पठित्या प्राचार्यः स्वरितः प्रत्यन्तं ग्राम नगरं वा गत्वा पीठिकायां निविष्ट उपनयमाहश्रात्मानमाचार्यमभिमन्यते, स एव शिष्यत्वमकृत्वा निरङ्क- कारणनिसेवि लहुसग, अगीयपच्चय विसोहि दट्टण । शो मत्तहस्तीव चोप्यो चोक्षो मूर्खः सन् श्राचार्यों हिरडते सव्वत्थ एव पञ्च-तगमण गीया गते दंडे ॥३८०॥ परिभ्रमति। कीदृशस्य मूर्खत्वमत पाह श्राचार्येणाम्यस्य कस्यापि साधोः कारणनिषेविणोऽगी तप्रत्ययनिमित्तं किश्चित् यथा लघु प्रायश्चित्तं दत्तं, विशो. छन्नालयम्मि काऊ-ण कुंडियं अभिमुहं जलीसुढितो। धिःप्रायश्चित्तमित्यनर्थान्तरम्। तत् दृष्ट्वा चिन्तयति-सर्वत्रैवं गेरू पुच्छति पसिणं, किंतु हु सा वागरे किंचि ॥३७७॥ प्रायश्चित्तं दातव्यं, ततः प्रत्यन्ते प्रामे नगरे वा (से) तस्य गेरूकः परिवाजका पड्नाले विदरडे कुण्डिकां कृत्वा कृता- गमनं. तत्र गते स ब्रूते अहमपि जानामि प्रायश्चित्तं, तत्र अलिरभिमुखं येबादृतः पादपतित पृच्छति प्रश्नयति किन्तु | निष्कारणं प्रतिसेविते भणति-भण मया कारणे प्रतिसा कुरिडका तथा पृच्छयमाना किश्चित्परिव्राजकस्य व्या- सेवितं, तत एवमुक्त स ब्रूते-त्वं शुद्धः, तथापि किञ्चिद् गी. शृणोति नैव किञ्चन यादृशं तस्याः कुण्डिकाया प्राचार्य- तार्थप्रत्ययं प्रायश्चित्तं ददामे, एवं कुर्वन् पश्चादन्येषां गीस्वं तादृशमेतस्यापि। तार्थानामागमनं, तैरन्यैीतार्थैरपद्रावितो, दीक्षा तस्याऽपसीसा वि य तूरंती, आयरिया वि हु लहं पसीवंति।। हता। ईदशा ये पुरुषाः सा दुर्विदग्धा पर्षद् एतस्या यो दतेण दरि सिक्खियाणं, भरितो लोगो पिलायाणं ॥३७६॥ दाति सूत्रमर्थ वा तस्य प्रायश्चितं चतुर्गुरु, जानन्याश्च शिया श्रन्याचार्यपदपरिपालनाय स्वरन्ति श्राचार्या अपि | सूत्रार्थप्रदाने चतुर्लघु । अथवा द्विविधा पर्वत्-लौकिकी, लोकोत्तरा च । तत्र लौकिकी पञ्चविधा। लघु शीघ्र प्रसीदन्ति, न पुनः परिभावयन्ति, यथा नाद्यापि परिपूर्वप्रधानामेति,तत ईपत् शिक्षितानाम् ,अत एव पि- | तामेवाऽऽहशाचानां प्रहिलानां लोकोऽत्र भृतः। | पूरंती छत्तंतिय, बुद्धी मंती रहस्सिया चेव । तेगिच्छेमो पच्छा. अत्तहि बालकदेवि कहि चिन्ना। पंचविहा खलु परिसा, लोइय लोउत्तरा चेव ॥३८१|| तासत्थण कहति य, विजनिमिद्धे ततो दंडो॥३७१।। | पूरयन्ती, छत्रवती, वुद्धिर्मन्त्री, राहस्थिकी च । एवं लौकि"पगो विजो राउले अोलग्गइ. सो मतो, रन्ना पुच्छियं-| की लाकोत्तरा च खलु पश्चविधा पर्षत् । अस्थि से पुत्तो, कहियं-अस्थि, नवरं विजयमसिक्खितो. ___तत्र लौकिकीं पञ्चप्रकारामपि दर्शयतिरमा भरिणय-वच पढाहितदवत्था चेय ते भोगा. ततो अन्न. पूरयंतिया महाजणो, छत्तविदिन्ना उ ईसरा वितिया। त्थ गंतुं पढि तुमारब्धं, तव्य अइयार पुरोहडे चरंतार ग. समयकुसला उ मंती-लोइय तह रोहिणिजाया॥३७२।। लर बाल कं लग्गं, चिर्भटमित्यर्थः । सा विजसमीवमाणिया, विजण पुच्छिवं-कहिं चिा महाजनः पूरयन्तिका पर्षत् , वितीछत्रा वरा द्विनी पसा । कहियं-पुरोहडे, तेण नायं चिमडंलग्गं ति । पोत्तं गलर बांधेउं तहा व. या छत्रान्तिका. स्वसमयकुशला तृतीया वुद्विपद, चतुर्थी लियं जहा तं सातमम्गं निग्गयं गलिया तो नेण विजपु मन्त्री, पञ्चमी राहस्थिका रोहिणियानामवनिका अम्न:तण चिनियं-एस उवाता विजिपाय किरियाए, पडिनि पुरमहत्तरिका, एषा लौकिकी पश्वप्रकारा पर्षत् । यलो। रनो अजीगो, पुच्छितो रक्षा-सिक्खियं विज्जयं ति। तत्र पूरयन्तिकामाहतेण भगियं-लिक्वियं । ततो रमा सिकिय अहो मेहावी नीहन्मियम्मि पूरयति, रलो परिसा न जा परमतीति । नि सकारो कनो । अनया रमा अमहादेवीर गलगंडं उ- जे पुण छत्तपितिन्ना, अयंति ते वाहिरं सालं ||३८३॥ दिसं सं वाहिता भणइ, कई चिलिया । तहि भणियं यदा राजा निर्गच्छति तस्मिन् निर्गते यः कोऽपि महान् पुच्छामो. इयरंगा भणियं-भण पुरोइडे, तह चितिय-नृणं जनः स सर्वेऽपि राज्ञा ढोकते यावत् गृहं नामाीिसा प. पंजरहसलमयं । नती भगि-पुरोहडे विमा पच्छा तेण ग- पत् पूरयन्तिका। ये पुनस्तत्र वितीर्ण छत्राः प्रदानछत्रा राजालर साइंगण आयोदित्ता मारिया. पच्छा रक्षा प्रणे विजा नो भटमोजिकाच ते वायशालायां यावदाञ्छन्ति, शेषा पुच्छिया-कि सन्थनिमेण कया किरिया, उयाहु श्रास- बार्यन्ते, एषा छत्रान्तिका छत्रवती। स्थग, नन्थ विवाद विज निलाइनो, पच्छा सारीरण तृतीवां पर्षदमाहदंडस दाडेती।" अज्ञरगमनिका-चिकित्सके वैधे मृते राज्ञः जे लोगवेयसमए-हि कोत्रिया तेहि पत्थिवो सहिओ। पृच्छा-अस्ति तस्य पुनः कथितम् -अस्ति. परमशिक्षितो पैचकस्य । राज्ञा भणितम् - छान्यत्र गत्वा पठ,स गतः तत्र वाल। समयमतीय परिच्छइ, परप्पधायाऽऽगमे चेव ।। ३८५ ॥ मजागल बनाऽऽवेष्टनन भियमानं मालम्धं वैद्यरहस्य। ये लोके, वेदे, समये चेत्यर्थः, कोविदा कुशलास्तैः सहितः Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसा अभिधानराजेन्द्रः। परिसा पार्थिवः समयमवसरमतीतः प्राप्तः सन् परप्रवादीनामाग मन्त्रिपर्षदमाहमाः परप्रवादागमास्तान परीक्षते । एषा बुद्धिपर्पत् । पुव्वं पच्छा जेहिं, सिंगणादितविही समणुभूतो। मन्त्रिपर्षदमाह लोए वेदे समए, कयागमा मंतिपरिसा उ॥ ३६१॥ जे रायसत्यकुसला, अत्तकुलीया हिता परिणया य।। यैः पूर्व गृहवासः पश्चात् श्रमणभावे शृङ्गनादितविधिः, स. माइकुली या वसिया, मंतेति निवो रहे तेहि ॥३८६॥ र्वेषु कार्येषु मध्ये भूतं यत् कायं तत् शृङ्गनादितमुच्यते, ये राजशास्त्रेषु कौटिल्यप्रभृतिषु कुशला राजशास्त्रकुशलाः, तद्विधिः समनुभूतः, स लोके वेदे समये च कृताऽऽगमा मन्त्रिपर्षद् । प्रात्मकुलीया राजकुले भवाः पैकेण संबन्धेन संबद्धा ह. त्यर्थः । हिताहितान्वेषिणः, परिणताः वयसा, मातृकुलीया एतदेव व्याचिख्यासुराहमातृकेण संबधेण संबद्धा वसिका श्रायत्ताः, तैः सह रहसि गिहवासे अत्थसत्थे-हि कोविया केइ समणभावम्मि। नृपो मन्त्रयति । एषा मन्त्रिपर्षत् । कञ्जमु सिंगभूयं, तु सिंगनादि भवे कजं ॥ ३१२॥ रोहिणीयां पर्षदमाह पूर्वगृहवास अर्थशास्त्रषु, पश्चात् श्रमणभावे स्वसमयपरस मयेषु ये केचित् कोविदाः सा मन्त्रिपर्षद्, कार्येषु शृङ्गभूतं य. कुविया तोसेयव्वा, रयस्सला वार अपमासत्ता। कार्य तत् शृङ्गनादितं भवति । छम्मपगासे य रहे, मंतयते रोहणिजेहिं ॥ ३८७॥ किं तदित्याह-- या देवी राशः कुपिता तां रोहिणीया निवेदयन्ति, ततो दू. तं पुण चेइयनासे, तद्दन्यविणासणे दुविहभेदे । तत्वेन प्रसादननिमित्तं प्रेष्यन्ते, यथा युष्माभिः सा देवी तो- भत्तोवहिवोच्छेदे, अभिवायणबंधपिट्टादी ॥३६३।। षयितव्या, तथा या रजस्वला ऋतुस्नाता, ततो रोहिणीया तत्पुनः शुजनादितं कार्य चैत्यविनाशो लोकोतमभवनप्रतिकथयन्ति, यस्थाश्च यस्मिन् दिवसे वारकस्तं राशस्तस्याः माविनाशः, तद्रव्यविनाशनं चैत्यद्रव्यविद्रावणं, तथा द्विकथयन्ति, याऽपि कन्या यौवनप्राप्ता तामपि परिणयनीय विधो भेदो मरणमुत्प्रव्राजनं वा. यो वा भक्तं भिक्षां वारयति, राज्ञे निवेदन्ति (अन्नमासत्त ति) अन्याऽऽसक्ला, व्यभिचारी उपधि वा, यथा मा कोऽप्यमीषां भक्कमुपधि वा दद्यादिति णीत्यर्थः तामपि गक्षः कथयन्ति-यथैषा देव! दुश्चारिणीति । भक्तव्यबच्छेद उपधिम्यवच्छेदो वा, तथा कोऽपि धिरजा. शयानाप यानि छन्नानि प्रकाशानि च रहांसि रतिकार्याणि तीयो ब्रूते-ब्राह्मणानाभवादयत, वन्दध्वमिति यो बन्धातानि रोहिणीयैः सह राजा मन्त्रयते । एषा पञ्चमी राहत्यि पयति पिढयति, आदिग्रहणाद्या निर्विषयानाशापयति श्राको. का पर्षद् । तदेवमुक्का पञ्चप्रकाराऽपि लौकिकी पर्षत्।। शयति वा, प्रद्विष्टो राजाऽऽदि तत् अभिवादनं बन्धघाताऽऽदि संप्रति लोकोत्तरे पञ्चविधां पर्षदमाह च शृङ्गनादितं कार्य तद्विधियः समनुभूतः सा मन्त्रिपर्षद् । श्रावस्लगमादीया, सुत्तकडा पूरयंतिया भवे परिसा। वितहं ववहरमाणं, सत्येण बियाणतो निहोडेइ । दसामादि उवरिमसुया,हवति उ छत्तंतिया परिसा ।३८८ अम्हं सपक्खदंडो, न चेरिसो दिक्खिए दंडो ॥३६४॥ लोइयवेइयसामा-एसु सत्थेसु जे समोगाढा। राजाऽऽदि वितथं व्यवहरन्तं मन्त्रिपर्षदन्तर्गतो विशायकः ससमयपरसमयविसा-रया य कुसलाय बुद्धिमती।३८६!! स्वसमयपरसमयत्वात् शास्त्रकुशलः शास्त्रेण निहोडयति सु. श्रावश्यकमादिं कृत्वा यावत् सूत्रकृतमङ्गं तावदधीतभुता खं वारयति, यथा अस्माकं स्वपक्षे दराडो भवति, संघों दण्ड पूरयन्ती पर्षद्, न खल्वत्र कश्चनापि साधुः पठन् निरुध्यते, करोतीत्यर्थः । न च राजा प्रभवति, नाऽपि प्रपन्नदीक्षाकस्यैदशाश्रुतस्कन्धमादिं कृत्वा येषामुप रतनानि श्रुतानि सा तादृशो दण्डः । एषा मन्त्रिपर्षत् । छत्रान्तिका पर्षद् । तत्र हि ये परिणामका अतिपरिणामकाश्च ___ संप्रति राहस्थिकी पर्षदमाहनिवार्यन्ते, ये च लौकिकेषु वैदिकेषु सामायिकेषु च शास्त्रेषु सल्लुद्धरणे समण-स्स चाउकामा रहस्सिया परिसा । समवगाढाः स्वसमयपरसमयविशारदाः कुशलाः सा बुद्धिमती पर्षत् । अजाणं चउकामा, छक्कन्ना अटकना वा ॥३६५॥ श्राह-कि प्रयोजन बुद्धिपर्षदा, तत श्राह द्विविधं शल्यम्-द्रव्यशल्यं,भावशल्यं च । द्रव्यशल्यं कराटआसन्नपतीमत्तं, खेयपरिस्सा जो तहा सत्ये। काऽऽदि, भावशल्यं मायानिदानमिथ्यात्वानि । श्रथवा भावशल्यं मूलोत्तरगुणातिचारः, ततः श्रमणस्य भावशल्यो. कहात्तरं च दाहिसि, अगुगो किर आगतो वादी ।३६०। द्धरणे, प्राचार्यसमीपे श्रालोचयत इत्यर्थः । राहस्यिकी पर्षद् बुद्धिपर्पदा सह श्रम कुर्वन आसन्न प्रतिभत्वमुपजायते, त- भवति । कथंभूतेत्यत आह-चतुष्कर्मा द्वावार्यस्य द्वौ साथा यः शारले निरन्तरव्याख्याकरणतः खेदः परिश्रमस्त. धारिति चत्वारः कर्मा यत्र सा तथा, प्राचार्याणां चतुःम्य जयो भवति, कदाचित्परिश्रमे जाते व्याख्याकरणतस्तं कामी, षट्कर्मा वा, तत्र यदा निर्ग्रन्थी निम्ध्याः पुरतः परिश्रममपनयनि, तथा सा वुद्धिपर्षदेवं शिक्षयते-अमुकः श्रालोचयति तदा चतुःकर्मा, यथा निर्ग्रन्थस्य निर्ग्रन्थपाकिल श्रागतो वादी ततः कथं त्वमुत्तरं दास्यसि?, पवं बुद्धि- घे अालोचयतः, यदा त्यद्वितीयस्थविरगुरुसमीपे पालो. पर्षदा सह कृताऽऽभ्यासः सुखं परप्रवादिनं निगृह्णाति । चयति सद्वितीया भिक्षुकी तदा पटकमी, सद्वितीयतरुणउक्ला पुद्धिपर्पत् । गुरुसमापे सद्वितीयायाभिचक्या पालोचयम्स्या अष्टकर्या । Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५२) अभिधानराजेन्द्रः। परिसा परिसा तब प्रथमतः संयतस्य चतुकर्म भावयति अष्टकर्मामाहआनोयणं पउंजइ, गारवपरिवञ्जितो गुरुतगासे । आलोयणं पउंजइ, एगते बहुजणस्स लोए । एगंतमणावाए. एगो एगस्स निस्साए ॥ ३६६ ।। सधितियतरुणगुरुणो, सविइया भिकाणी निहुया।४०१। एकाले अनापति एकोऽद्वितीय एकस्याद्वितीयस्यावा. एकान्ते बहुजनस्य संलोके सद्वितीयस्य तरुण गुरोः स. र्यस्य निश्रया, तत्पुरत इत्यर्थः । गौरवपरिवर्जित ऋद्धिसः | मीपे सद्वितीया तादृशी प्रागुता । सातगौरवपरित्यक्तो. गौरवाद्धि सम्यगालोचयितव्यं भवती- संप्रति याहशस्य प्राचार्यस्य द्वितीयस्तादृशमाहति तन्प्रतिषेधः गुरुसमीपे बालोचनादाचार्यसमीपे प्रा. लोचनां प्रयुङ्क्ते। नाणेण दंसणेण य, चरित्ततवविणयालयगुणेहिं । कथमित्याह - वयपरिणामेण य अमि-गमेण इयरो हवइ जुत्तो॥४०२॥ विरहम्मि दिसाभिग्गह, उक्कुडुतो पंजली निसेजा वा। शानेन दर्शनेन चारित्रेण तपला विनयेन प्रालयगुणैर्य हि चष्टाभिः प्रातेलेखनाऽऽदिभिरुपशमगुणेन च यथा वयापारएस सपक्खे परप-कब मोत्तु छM निसिजा वा ॥३६७।। णामेन अभिगमन सम्यक्त्वशास्त्रार्थकौशलेन युक्तो भवएकान्ते यत्र कोऽपि न तिष्ठति तत्र विरहे छन्ने प्रदेशे पूर्व त्याचार्यस्येतरो द्वितीयः। उक्नाः पञ्चप्रकारा अपि पर्षदः । पृ. गुरोर्नियद्यां कृत्वा पूर्वमुत्तरांचरन्तिकां वा दिशमभिगृह्य १३.१ प्रक०। श्राव० । राजाऽऽदिलोके, "सामी समोसढे चन्दनकं दत्वा उत्कुटुकः प्रवद्धाञ्जलिः; अथाली व्याधिमान् परिसा णिग्गया धम्मो कहिश्रो परिसा पडिगया।" नि०१ प्रभूतं वाऽऽलोचनीयं ततो निषद्यामनुज्ञाप्यालोचयति, ष शु०१ वर्ग १ अ० । मिथिलाया नगर्या वास्तव्यो लोकः स्वपक्षे बालोवनाविधिः। परपक्षे नाम संयती तत्र छन्नं मुक्त्वा समस्तोऽपि भगवन्तमागतं श्रुत्वा भगवद्वन्दनार्थ स्वस्मादामालोचना दातव्या, नियद्या च न कार्यते । इयमत्र भावना श्रयाद् विनिर्गत इत्यर्थः । सू० प्र०१ पाहु० । भ. । पयदा संयती संयनस्य परत आलोचयति तदा छन्नं वर्जयति, रिवारे. जी०। किंतु यत्र लोकस्य संलोकस्तत्राऽऽलोवयति निषयां बाss. चार्यस्य न करोति, आत्मनाऽप्युस्थिता पालोबपति । चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररनो कति परिसाओ प. श्रमणीमधिकृत्याऽऽलोचनाविधेश्चतुष्कर्मत्वमाह- बत्ताओ?। गोयमा! तो परिसायो पन्नताओ। तं जहा स. आलोयणं पउंजइ, गारबपरिवजिया उ गणिणाए । पिता चंडा जाया, अभितारया समिया, मज्झे चंडा एतम गावाए, एमाए निस्सिया समणी ।। ३६८॥ वाहिं जाया । चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुररनो या श्रमण गौरवपरियर्जिता गणिन्याः पुरत श्रालोवनां प्र. अभंतरपरिसाए कति देवसाहसीओ पनत्ताओ, मक्किमयुके। केल्याह-एकात्ते अनापाते एका अद्वितीया एकस्पा परिसाए कति देवसाहस्सीओ पनताओ, बाहिरपरिसाए अद्वितीयाया गणिन्या निश्रया ततो गुहसमीपे श्रम गस्येय श्रतण्या अपि गणि न्याः पुरतः पालो वयत्याश्चतुःका पर्वद् कति देवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ ? । गोयमा ! चमरस्स णं भवति। असुरिंदस्स अभितरपरिसाए चउर्वी देवसाहस्तीप्रोप षट्कर्ममाह-- बत्ताओ, मज्झिमियाए परिसाए अट्ठावीसं देवसाहसीओ आलोयणं परंजइ, एशंते बहुजएस्स संलोए । पन्नत्ताओ, बाहिरयाए परिसाए बत्तीसं देवसाहस्सीयो पअधितियथेस्गुरुपो,सबिईया भिक्षुणी निहुया ।३६६। न्नत्तायो । चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुररएको अद्वितीयस्यघिरगुरुसमीपे सद्वितीया मिलुकी निभृता नि. भितरियाए परिसाए कइ देवीस या पन्नत्ता, मझियोपारा न दिशो नापि विदिशः पालोकयाते, नापि यत्कि मियाए परिसाए कइ देवीसया पन्नत्ता, वाहिग्यिाए पश्चिदुलापयति इयर्थः । गभूता सती एकान्ते बहुजनस्य रिसाए कइ देवीसया पामता । गोयमा! चमरसणं असुसंलोके आलोचनां प्रयुके। अथ कीदृशीतस्या द्वितीया भवतीत्यत पाह रिंदस्स असुररमो अभितरियाए परिसाए अबुट्टा देवीसया नागईलगाना, पोहा वयसपरिणया। पन्नत्ता,मझिमियाए परिसाए तिन्नि देवीसपा पलता, इंगियायारसंपना, भणिया तीसे विजिया ।। ४०० ।। बाहिरियाए परिसाए अड्डाइजा देवीसया पन्नता ॥ ज्ञानदर्शनसंपना प्रौढा सार्या या संयतस्य तस्या वा (चमरस्त णमित्यादि ) चारस्य भदन्त ! असुरेन्द्रस्याभावं विज्ञाय तं मन्त्रण क ददाति, किंतु वदति-पया- उसुरराजस्य कति कियर संख्याकाः पदः प्रज्ञताः ?। भगलीवितं ना वजनाना चदालचनयापि न प्रयोजन मिति, वानाह-गौतम! तिस्रः पर्षदः प्राताः । त यथा-समिता च. तथा वरना पारंगता परिणतयाः, तथा दहिताकारलं. एडा जाता । तत्राऽऽभ्यन्तारका पर्षद समितानिधाना । एवं पमानाकार ग च यस्य यादश भावस्तस्य तं जा- मध्यमिका चराडा, बाह्या जाता । (चमरस गनित्यादि) नातीत्यर्थः । एवंभूता सा तथा द्वितीया गणिन्या सा | चमरस्य भदन्त! यन्द्रधाऽसुरराजस्य अयन्तारका पुनः कियद दरे नियति । उच्यते-पके सूरयों वदन्ति- यां पर्पदि कति देवालहस्राणि प्रशतानि?. मध्यामकायां पप. यत्रोभयोराफारा दृश्यन्ते तावन्मात्रे, परे चुवते-यत्र श्रवण दि कति देवलहस्राणि प्रज्ञप्तानि?, बाधायां पर्षदि कति दे. शब्दस्थति। वसहस्राणि प्रक्षतानि ? भगवानाच-गौतम ! चमरस्य अप्ल. Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (६५३) परिसा अभिधानराजेन्द्रः । परिसा रेन्द्रस्य असुरराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि चतुर्विंशतिदेव- गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो अभितरपसहस्राणि प्रशप्तानि,मध्यमिकायामष्टाविंशतिदेवसहस्राणि | रिसा देवाणं वाहित्ता हव्यमागच्छंति गोयमा! णो अन्याबाह्यायां द्वात्रिंशत् देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ( चमरस्स णं भंते ! इत्यादि) चमरस्य मदन्त ! असुरेन्द्रस्य असुरेन्द्र हित्ता; मज्झिमपरिसाए देवा वाहित्ता हवमागच्छंति, राजस्याऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि कति देवीशतानि प्रज्ञप्तानि ?, अवाहिया वि; बाहिरपरिसा देवा अव्याहित्ता हन्धमागमध्यमिकायां पर्षदि कति देवीशतानि प्रज्ञप्तानि ?, बाह्यायां च्छति । अदुत्तरं च ण गोयमा ! चरमे असुरिंदे असुरपर्षदि कति देवीशतानि प्राप्तानि? भगवानाह-गौतम ! अ. राया अन्नयरेसु उच्चावएमु कजकोडुबेसु समुप्पनेसु अभ्यन्तरिकायां पर्षदि अर्द्धतृतीयानि देवीशतानि प्रज्ञप्तानि, मध्यमिकायां पर्षदि त्रीणि देवीशतानि प्रज्ञप्तानि, बाह्यायां भितरियाए सद्धिं संमइसंपुच्छणाबहुले विहरइ, मन्झिपर्षदि अर्द्धचतुर्थानि देवीशतानि प्रज्ञप्तानि जी० ३ प्रति०४ मियाए परिसाए सद्धि पियं पवंचेमाणे २ विहरति, बाहिअधि० । “एवं तायतीसगाण वि लोगपालाणं तुंबा तुडिया रयाए परिसाए सद्धिं पयं पचंडेमाणे २ विहरइ, से तेपञ्चा, एवं अग्गमहिसीण वि।" स्था०३ ठा। २उ०। णटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-चमरस्स णं असुरिंदस्स अपर्षदि देवीस्थिति: सुररनो तो परिसायो पत्ताओ-समिया चंडा जाया, चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुररन्नो अभितरियाए अभितरिया समिया,मझिमिया चंडा, बाहिरिया जाया । परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नता ?, मज्झिमिया ( से केणद्वेणीमत्यादि) अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ?,बाहिरियाए चमरस्य अनुरेन्द्रस्य असुरराजस्य तिम्रः पर्वदः प्रज्ञप्ताः ? परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ?,अभितरियाए। तद्यथा-समिता चरडा जाया, अभ्यन्तरा समिता मध्यमिपरिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता,मज्झिमियाए का चएडा बाह्या जाया। भगवानाह-गौतम! चमरस्थ असु रेन्द्रस्य असुरराजस्य अभ्यन्तरपर्षका देवा (वाहित्ता) श्रापरिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ?, बाहिरियाए हूता(हब्बं) शीघ्रमागछन्ति । (नोअवाहित्ता) अनाहूता अनेन परिसाए देवीगं केवइयं कालं ठिई पनसा। गोयमा !चम- गौरवमाह, मध्यमपर्षदगा देवा पाहता अपि शीघ्रमागछरस्स णं असुरिंदस्स अभितरियाए परिसाए देवाणं न्ति , अनाहूता अपि मध्यमप्रतिपत्तिविषयत्वात् बाह्यपर्वअड्डाइजाई पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता, मझिमियाए प दूगा देवा अनाहूताः शीघ्रमागच्छन्ति । तेषामाकारेण लक्ष णगौरवानहत्वात् । (अदुसरं च णमित्यादि) अथोत्तरमथारिसाए देवाणं पलिओचमाई ठिई पन्नत्ता,वाहिरियाए परि न्यत् अभ्यन्तरत्वादिविषये कारणं गौतम ! चमरोऽसुरसाए देवाणं दिवड्डपलिअोवमं ठिई पन्नता, अभितरि- न्द्रोऽसुरराजोऽन्य तरेषु उच्चायवेषु शोभनेषु “कज कोडवेसु" याए परिसाए देवीणं दिवड्वपलिप्रोवमं ठिई पनत्ता, इति) कौटुम्बेषु कार्येतु, कुटुम्बे भवानि कौटुम्बानि, स्वराष्ट्र मज्झिमियाए परिसाए देवीणं पलिअोवमं ठिई पन्नता, विषयाणीत्यर्थः । तेषु कार्येषु समुत्पन्नेषु अभ्यन्तरिक्या परिबाहिरियाए परिसाए देवीणं अद्धपलिअोवमं ठिई पनत्ता। पदा सार्द्ध संमतिसंप्रश्नबहुलश्चापि विहरति, सम्मत्या उत्त(चमरस्त णं भंते इत्यादि) चमरस्य भदन्त ! असुरन्द्रस्य मया मत्या यः संप्रश्नः पर्यालोचनं तद्वहुलश्चापि विहः रत्यास्ते, स्वल्पमपि प्रयोजनं प्रथमतस्तया सह पर्यालीच्य असुरराजस्य अभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानां कियन्तं कालं विदधातीति भावः । मध्यामिकया पर्षदा साई यदभ्यन्त स्थितिः प्रशप्ता?, मध्यमिकायां पर्षदि देवानां कियन्तं कालं रिकया पर्षदा सह पालोव्य कर्तव्यतया निश्चितं पदं तत् स्थितिः प्रज्ञप्ता?, एवं बाह्य पर्षद्विषयमपि प्रश्नसूत्रं वक्तव्यम् प्रपञ्चयन २ विहरति ! एवमिदमस्माभिः पर्यालोचितमिदं या तथा अभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीनां, कियन्तं कालं स्थितिः प्रशता? । एवं मध्यामिकाबाह्यपर्षद्विषये श्रपि प्रश्नसूने वक्तव्य। कर्तव्यमिदं वा न कर्त्तव्यमन्यथा दोष इति विस्तारयन् २ भगवान्नाह-गौतम! चमरस्थासुरेन्द्रस्थासुरराजस्थ अभ्य श्रास्त; बाह्यया पर्षदा सह यदभ्यन्तरिकया पर्षदा सह प. लोचितं मध्यमिकया सह गुणदोषप्रपश्च कथनतो वितरिकायां पर्यदि देवानामतृतीयानि पल्पोपमानि स्थितिः स्तारितं पदं तत् प्रवरडयन २ विहरति । अाज्ञाप्रधानः सन्न. प्रशप्ता। मध्यमिकायां पर्षदि देवानां द्वे पल्पोपमे स्थितिः प्रज्ञ वश्यं कर्तव्यतया निरूपयत् तिष्ठति, यथा इदं युग्माभिः सा। बाधायां पर्षदि देवानां द्वधर्ध पल्यापमं स्थितिः प्रज्ञप्ता । कर्तव्यमिदं न कर्तध्यमिति तदेवं या एकान्तेन गौरवमेव तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीनां द्वयर्ध पल्पोपमं स्थि. केवलमहति, यया च सहोत्तमतित्वात् स्वल्पमपि कार्य तिः प्रज्ञप्ता । मध्यमिकायां पर्षदि देवीनां पल्पोपमा स्थितिः प्रथमतः पर्यालोवयति सा गौरवविश्य पालोबनायां प्रशप्ता । बाह्यायां पांद देवीनामर्घपल्यापमं स्थितिः प्रज्ञप्ता । चात्यन्तमभ्यन्तरा वर्तते इति. अभ्यन्तरिकायां तु गौरवार्ता इह भूयान् वावनाभेद इति यथावस्थितसूत्रे पाठनिर्णयार्थ । सुगममपि सूत्रमक्षरसंस्कारमात्रेण विधियते । पालचितं चाभ्यन्तरिकया पर्षदा सहावश्यं कर्तव्यतया संप्रत्यभ्यन्तरिकादिव्यपदेश कारण पिच्छिषुरिदमाह निश्चितं, लतु प्रथमतः, सा फिल गौरवपालोचनायां च से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-चमरस्स असुरिंदस्स मध्यमे भाचे वर्तते इति मध्य भिका, या तु गौग्वं न जातु चिदय हति, न च यथा सह कार्य पर्यालोवयति, केवलम् तो परिसायो पत्तायो। तं जहा-सभिवा चंडा जाया, | आदेश एवं यस्य दीयते सा गौरवात् पालोचनायाश्च अभितरिया समिया,मज्झिमिया चंडा,बाहिरिया जाया?|| वहिव वर्तते इति वाह्या तदेवाऽऽभ्यन्तरिकाऽऽदिव्यपदे। Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमा अन्निधानराजन्तः। परिसा शनिबन्धनमुक्तम् । संप्रत्येतदेवोपसंहरमाह-( से तेणट्रेण- | "महिडीए जाव पभासेमाणे से णं तत्थ वायालीसाए मित्यादि) पाठसिद्धम् । यानि तु 'समिया चराडा जाता' इति भवणावासलयसहस्लाणं छरहं सामाणियसाहस्सीणं वानामानि तानि कारणान्तरनिवन्धनानि कारणान्तरं च न. वत्तीलाए तावत्तीसगाणं चउराहं लोगपालाणं छरहं अग्गस्थादवसातव्यम्। माहे सीणं सपरिवाराणं तिरह परिसाणं सत्तरह लिया. अत्र संग्रणिगाथा हिवईणं चउवीसाए श्रायरक्वदेवसाहस्सीणं अमास च "चउवीसट्टाऽवीसा वत्तीससहस्त देव चमरस्स। बडूगं दाहिलाणं नागकुमाराणं देवाणं देवणिय आहेवश्चं. अधुट्टा तिन्नि तहा, प्राडाइजा य देविसया ॥१॥ जाव विहरतीति "पाठसिद्धम् । अड्डाइजा दोनि दि-बड्डपतियं कमेण देवतिई।। स्थितिःपलिग्रंदिवड्डमगं. आद्धा देवीण परिसासु ॥२॥" धरणस्म णं रनो अभिंतरियाए परिसाए देवाणं केवईबल्यादीनाम् कालं ठिई पामत्ता । मज्झिमियाए परिसाए देवाणं केवइयं बलिस्स णं भंते ! बहरोयणरमो कइ परिसाओ पन्नत्ताओ?। गोयमा ! तिमि परिसाओ परमत्ताओ । तं जहा-समि कालं ठिई पामत्ता ?, बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं या, चंडा, जाया । अभितरिया समिया, मज्झिामया चंडा, कालं ठिई पन्नता?, अभिंतरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नता ?,मज्झिमियाए परिसाए देवीग केवइयं बाहिरिया जाया । बलिस्प्त णं वइरोयमिंदस्स वइरोयणरन्नो कालं ठिई पन्नता ?, बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं अभितरियाए परिसाए कइ देवसहस्सा ?,मज्झिमियाए प कालं ठिई पत्ता। गोयमा! धरणस्त रनो अभिंतरिरिसाए कइ देवसहस्सा. जाव बाहिरियाए परिसाए कइ याए परिसाए देवाणं साइरेगं अद्धपलिअोवमं ठिई पन्नत्ता, देविसया पामता गोयमा बलिस्स णं वइरोयणिदस्स मज्झिमियाए परिसाए देवाणं अद्धपलिओवमं ठिई पन्नत्ता अभितरियाए परिसाए वीसं देवसहस्सा पन्नत्ता, म- | बाहिरियाए परिसाए देवागं देसूर्ण अद्धपलिओवमं ठिई पझिमियाए परिसाए चउवीसं देवसहस्सा पनत्ता, बाहि बना,अभिंतरियाए परिसाए देवीण देमूणं अपलिओरियाए परिसाए अट्ठावीसं देवसहस्सा पन्नता, अमित-- वमं ठिई पनत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं साइरेगं रियाए परिसाए अपंचमा देविसया पत्रता, मज्झिमि- चउब्भागपलिअोवमं ठिई पन्नता, बाहिरियाए परिसाए देयाए परिसाए चत्तारि देविसया पन्नत्ता, वाहिरियाए परि-| वीणं चउभागपलिओवर्म ठिई पन्नत्ता,अहो जहा चमरस्स। साए अहदेविसया पनत्ता । भूतानन्दस्यबस्यादीनां स्थितिः भूपाणंदस्स णं भंते ! नागकुमारस्स रनो अभिंतरियाबलिस्स द्विए पुच्छा ? जाब बाहिरियाए परिसाए दे ये परिसाए कइ देवसाहस्सियाओ पन्नताओ?, मज्झिमाए वाणं केवइयं कालं ठिई पमता । गोयना ! बलिस्स बइरो परिसाए कइ देवसाहस्सीओपन्नताओ ,बाहिरियाए परियणिंदस्स भितरियाए परिसाए देवाणं अट्ठपलिओव साए कई देवसाहस्सीओ पाणत्ताओ?,अभिंतरियाए परिमाई ठिई पन्नत्ता. मज्झिमाए परिसाए तिनि पलिओवमा साए कइ देवीसया पन्नत्ता?,मज्झिमाए परिसाए कइ देविइंठिई पनत्ता,बाहिरियाए परिसाए अड्डाइजाई पलिशोब- सया पन्नता,बाहिरियाए परिसाए कइ देवीसया पन्नत्ता। माई ठिई पन्नत्ता,अभितारयाए परिसाए देवाणं अड्डाइजाई गोयमा ! भूयाणंदस्सणं नागकुमारन्नो अन्भिंतरियाए परिपलिओवमाई ठिई पन्नता. मज्झिमियाए परिसाए देवीणं साए पत्रासं देवसहस्पीओ पन्नताओ.. मज्झिमियाए परिदोपलिओवमाई ठिई पन्नता, बाहिरियाए परिसाए दे । साए सहिदेवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ,बाहिरियाए परिसाए सवीणं दिवढे पलिअोवमं दिई पन्नता, सेस जहा चमरस्स तरि देवसाहस्सीओ पन्नताओ,अम्भिंतरिथाए परिसाए दोपअतुरिंदस्स असुरकुमाररनो । रणवीसा देविसया पामता,मज्झिमियाए परिसाए दो देविधरणाऽऽदीनाम्धरणस्स णं भंते : नागकुमारिंदस्स नागकुमारनो कद सया पन्नता,बाहिरियाए परिसाए परमत्तरदेविसयं पनत्तं । स्थितिःपरिसाओ पल ताओ ? । गोयमा ! तिनि परिसायो ताओ भूयागंदस्स णं भंते ! नागकुमारिंदस्स नागकुमाररत्रो चेव जहा चमरस | धरणस्स णं नागकुमारिंदस्स नागकु-| अतिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता, माररमो अभितरियाए परिसाए सहि देवसहस्सा पमत्ता, मझिपाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पनता ?, मज्झिमियाए सत्तरि देवसहस्सा पएणत्ता, बाहिरियाए अ- बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ?, सीति देवसहस्सा पएणत्ता, अभितरपरिसाए पत्रत्तरं दे- | अभिंतरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता?, विसयं पन्नतं, मज्झिमियाए परिसाए पन्नासं देविसयं प | मज्झिमियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नता, अत्तं, बाहिरियाए परिसाए पणवीसं देविसयं पन॥ । बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पम्मत्ता Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसा अभिधानराजेन्द्रः । परिसा गोयमा ! भूयाणंदस्स णं अभिंतरियाए परिसाए देवाणं परमत्ता, अट्ठो० जाव चमरस्स एवं उत्तरिल्लस्स वि, एवं निदेमूणं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए दे- रंतरं० जाव गीयजसस्स । जी० ३ प्रति० ४ अधिः । वाणं सातिरेगं अद्धपलिअोवमं ठिई परमता, वाहिरियाए संप्रति ज्योतिष्काणाम् । तत्र सूर्यस्यपरिसाए देवाणं अद्धपालिओवमं ठिई पन्नत्ता, अभिंतरि - सरस्स णं भंते ! जोतिसिंदस्स जोतिसरमो कति पयाए परिसाए देवीणं अद्धपलिअोवमं ठिई पनत्ता,मज्झि-1 रिसायो परमत्ताओ। गोयमा! तिमि परिसाओ परमत्ताओ। मियाए परिसाए देवीणं देसूर्ण अद्धपालोवमं ठिई परम- तं जहा तुंवा तुडिया पव्वा । अभितरिया तुंवा, मझिता, बाहिरियाए परिसाए देवीणं सातिरेगं चउम्भागपलि- मिया तुडिया, बाहिरिया पब्बा । सेसं जहा कालस्स परिमाओवमं ठिई पन्नता,अट्ठो जहा चमरस्स अवसेसा वि देवा।। णं, ठिती वि, अट्ठो जहा चमरस्स चंदस्स ति एवं चेव । दीण महाघोसपञ्जवसाणाणं ठाणपयवत्तब्बया हिरवसेस जी० ३ प्रति० ४ अधिक। भाणियब्वा, परिसाओ जहा धरणिंदभूयाणदाणं दाहिणि-1 शक्रस्य पर्षदः स्थितिश्चल्लाणं जहा पूयाणंदस्स परिमाणं पि, ठिई वि। सकस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरलो कति परिसाश्रो कालस्य परमत्तानोगोयमा! तो परिसाओ पल ताओ । तं जहाकालस्स णं भंते ! पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररमो समिता चंडाजाता । अभितरिया समिता,मज्झिमिया चंडा, कति परिसाओ पामत्ताओ?। गोयमा तिमि परिसाआ पाम बाहिरिया जाता । सक्कस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरन्नो ताओ। गोयमा ! ईसा तुडिया दढरहा, अभिंतरिया ईसा, अभितरियाए परिसाए कति देवसाहस्सीओ पमत्ताओ?, मज्झिमिया तुडिया, बाहिरिया दढरहा । कालस्स णं भंते ! मज्झिमियाए बाहिरियाए तहेव पुच्छा ?। गोयमा ! सक्कपिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररमो अभिंतरियाए परि स्स देविंदस्स देवरन्नो अभितरियाए परिसाए वारस साए कति देवसाहस्सीओ परमत्ताओ० जाव बाहिरियाए देवसाहस्सीओ परमत्ताओ, मज्झिमियाए परिसाए चोपरिसाए कति देविसया पसत्ता ? । गोयमा ! कालस्स ण हसदेवसाहस्सीओ पन्मत्ताओ, बाहिरियाए परिसाए सोलस देवसाहस्सीओ पमत्तानो । एवं देवाणं पुच्छा। गोयमा! पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररायस्स अभितरपरि सक्कस्स देविंदस्स देवरनो अभितरियाए परिसाए सत्त साए अट्ट देवसाहस्सीओ पएणत्ताओ, मज्झिमाए परिसाए देविसया पमत्ता. मज्झिामियाए परिसाए छच्च देविसया दस देवसाहस्सीओ पामत्ताओ, बाहिरियाए परिसाए बारस. पमत्ता, बाहिरियाए परिसाए पंच देविसयाणि परमत्ताई ॥ देवसाहस्सीओ पामत्ताओ, अभितारयाए परिसाए एकं दे शक्रस्य भदन्त ! देवेन्द्रस्य देवराजस्य कति पर्षद प्रशताः? विसयं परमत्तं, मज्झिमियाए परिसाए एकं देविसयं पामत्तं, भगवानाह-गौतम तिम्रः पर्षदःप्रशताः,तद्यथा-शमिका च. बाहिरियाए परिसाए एकं देविसयं परमत्तं । एडा जाता, अभ्यन्तरिका शमिका मध्यमिका चराडा बास्थितिः ह्या जाता-( सक्कस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरलो अभित. कालस्स णं भंते ! पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररनो रियाप ) इत्यादि प्रश्नषट्कं सुप्रतीतम् । भगवानाह-गौतम! अम्भितरपरिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पामत्ता,म शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अभ्यन्तरिकायां पर्षदि द्वा दश देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, मध्यमिकायां चतुर्दश देवसहज्झिमियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पप्णता ?, स्राणि, बाह्यायां षोडश देवसहस्राणि । तथा अभ्यन्तरिबाहिरियाए परिसाए देवीणं केवतियं कालं ठिती परमत्ता, कायां पर्पदि सप्तशतानि देवीनां प्रलप्तानि, मध्यमिकायां अभितरियाएपरिसाए देवीणं केवतियं कालं ठिती पामत्ता. देवीनां षट्शतानि, बाह्यायां देवीनां पञ्चशतानि । मज्झिमियाएपरिसाए देवीणं केवतियं कालं ठिती पामत्ता?, सक्कस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरन्नो अभितरियाए पबाहिरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती परम रिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिती परमत्ता?, एवं मज्झिता। गोयमा! कालस्सणं पिसायकुमारिंदस्स पिसायकु भियाए बाहिरियाए वि?। गोयमा ! सक्कस्स णं देविंदस्स माररमो अम्भितरपरिसाए देवाणं अद्धपलियोवमं ठिती देवरन्नो देवाणं अभितरियाए परिसाए पंच पलिअोवमाई पपत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं देणं अद्धपलि ठिती पामत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं चत्तारि पलि. ओवमं ठिती पम्पत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं सा-1 'अोवमाई ठिती पामत्ता, वाहिरियाए परिसाए देवाणं तिरेगं चउभागपलिओवमं ठिती परमत्ता, अभितरियाए तिमि पलिओवमाई ठिती पामत्ता, अभितरियाए पपरिसाए देवीणं सातिरेगं चउभागपलिओवमं ठिती परमत्ता, रिसाए देवीणं तिनि पलिग्रोवमाई ठिती परमत्ता, मन्झि. मज्झिमपरिसाए देवीणं चउम्भागपलिओवमं ठिती पामत्ता, मियाए परिसाए दोस्मि पलिओवमाई ठिती पप्रमत्ता, वा हिरियाए परिसाए एगं पलिमोवमं ठिती पामचा, अट्ठो बाहिरपरिसाए देवीणं देसणं चउम्भागपलिअोवमं ठिती! सो चेत्र जहा भवणवासीयं । Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसा अन्निधानराजेन्दः । परिसा " सक्कस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरराणो अभितरियाए अभ्यन्तरिकायां वर्षदि अशे देवसहस्राणि मध्यमिकायां परिसाए देवाणं केवइयं कालं" इत्यादि प्रश्नषटकं सुप्र. दश, बाह्यायां द्वादश, देवीपर्यदो न वक्तव्याः। तथा अभ्यन्ततीतम् । भगवानाह-गौतम! शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्व रिकायां पर्षदि देवानामर्द्धपञ्चमानि सागरोपमाणि पश्चपल्यो. अभ्यन्तरिकायां पर्षदि पञ्चपल्योपमा स्थितिःप्रज्ञप्ता। मध्य- ‘पमानि स्थितिमध्यमिकायां अर्द्ध पञ्चमानि सागरोपमाणि मिकायां चत्वारि पल्योपमानि. बाह्यायां त्रीणि पल्योपमानि, चत्वारि पल्योपमानि, बाह्यायामर्द्ध पञ्चमानि सागरोपमाणि तथा अभ्यन्तारकायां पर्षदि देवीनां त्रीणि पल्योपमानि बीणि पल्पोपमानि शेवं सर्व शक्रवत् जी०४ प्रति० २ उ० । स्थितिः प्रशप्ता, मध्यमिकायां द्वे पल्योपमे, बाह्यायामेकं पल्योपमम् । “से कण्टेणं भंते ! एवं बुचइ-सकस्स णं देविं. एवं माहिंदस्स वि तहेव० जाव तत्थ अभिंतरियाए परिदस्स देवरन्नो तो परिसायो" इत्यादि सकलमपि सूत्रं | साए छ देवसाहस्सीओ पएणत्ताओ,मज्झिमियाए परिसाए चमरवक्तव्यतायामिव भावनीयम् । जी०४ प्रति०२ उ०। । अट्ट देवसाहस्सीओ पाणलाओ.बाहिरियाए परिसाए दसईशानस्य देवसाहस्सीओ पएणत्ताओ ठिती, देवाणं अभितरियाए ईसाणस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरमो कति परिसाओ परिसाए अद्भपंचमाइं सागरोवमाई सत्त पलिअोवमाई ठिती, पत्तायो । गोयमा! तो परिसायो पामत्ताओ। तं जहा मज्झिभियाए परिसाए अद्धपंचमाई सागरोवमाइं छच्च समिता चंडा जाता, तहेव सव्वं, णवार अभितरियाए पलिओवमाई बाहिरियाए परिसाए अद्भपंचमाई सागरोवमाई परिसाए दस देवसाहस्सीओ पहाताओ, मज्झिमियाए परि पंचालिग्रोवमाई ठिती पामता । जी०४ प्रति० २ उ० । साए वारस देवसाहस्सीओ, बाहिरियाए परिसाए चोदस | अभ्यन्तरिकायां पर्पदि षट् देवसहस्राणि, मध्यमिकायाम् देवसाहस्सीयो पामत्ताओ। देवीणं पुच्छा। गोयमा ! अ श्री देवसहस्राणि, बाह्यायां दश देवसहस्राणि,तथा अभ्यभितरियाए परिसाए णव देवीसया पणत्ता, म- न्तरिकायां पर्पदि देवनामर्द्धपश्चमनि सागरोपमाणि पञ्च पझिमियाए परिसाए अहतया पास्ता, बाहिरियाए परि ल्पोपमानि । शेषं सर्व यथा सनत्कुमारस्य । जी. ४ प्रति माए सत्त देवीसया पणत्ता। देवाणं तिमीपुच्छा। रोयमा! २ उ०। वंभस्स वि तो परिसाओ पामत्तायो । अभिमाए अभितरियाए परिसाए देवाणं सत्त पलिप्रोवमाई ठिती पामत्ता, मज्झिमियाए छपलिग्रोवमाई, बाहिरियाए पंचप चत्तारि देवसाहस्सीयो, मज्झिमियाए परिसाए छदेवसालिउवमाई ठिती पामत्ता । देवीण पुच्छा ?। गोयमा ! अभि हस्सीयो, बाहिरियाए अह देवसाहस्सीओ । देवाणं ठिती अभिंतरियाए परिसाए अद्धवमाइं सागरोवयाई पचतरियाए परिसाए पंच पलिग्रोवमाई,मझिमियाए परिसाए पलिोबमाई, मज्झिमियाए परिसाए अद्धणवमाई सागचत्तारि पलिओवमई ठिती पत्मता, बाहिरियाए परिसाए | निमि पलिप्रोवमाई ठिती पाम ता, अट्ठो तहेव भाणियन्यो । रोवमाई. बाहिरियाए अद्धनबमाई सागरोवमाई सिणिण प. अभ्यन्तरिकायां पर्षदि दश देवसहस्राणि मध्यमिकायां द्वा. लिओमाई, अट्ठो सो चेव । दश,वाद्यायां चतुर्दश, तथा अभ्यन्तरिकायां पर्पदि नव देवी अभ्यन्तरिकायां पर्षदि चत्वारि देवसहस्राणि, मध्यमिकाशतानि, मध्यमिकायामपौ देवीशतानि, बाह्यायां सप्त देवी यां परदेवसहस्राणि,वाह्यायाम। देवसहस्त्राग, तथा अभ्यशतानि, तथा अभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानां सप्त पल्योपमा न्तरिकायां पर्षदि देवानामर्द्ध नवमानि सागरोपनाणि पञ्चनि,मध्यमिकायां बाह्यायां षट्,पञ्च तथा अभ्यन्तरिकायां पर्ष. पल्योपमानि स्थितिः, मध्यामकायां पर्षदि अर्द्धनवमान दि देवीनां पञ्च पल्योपमानि, मध्यमिकायां चत्वारि, बाह्यायां सागरोपमाणि चत्वारि पल्पोपमाणि, बाह्यायामईनयमात्रीणि, शेषं शक्रवत् । जी०४ प्रति०२२० । नि सागरोपमाणि वीणि पल्पोपमानि, शे यथा सनसनत्कुमाराऽऽदीनाम् त्कुमारस्य । जी० ४ प्रति०२ उ० । सणंकुमाराणं पुच्छा तहेव ठाण पदगमेण जाव सणं- लतगस्स वि०जाव तो परिसायोजाव अभिंतरियाए कुमारस्स तो परिसायो समिताऽऽदी तहेव, नार अ-| दो देवसाहस्सीओ, मज्झिभियाए चत्तारि देवसाहस्सीयो भितरियाए परिसाए अट्ट देवसाहस्सीओ पम्मत्तायो, म-| पमत्तायो.बाहिरियाए छदेवसाहसीओ पएणताओ, ठिती झिमियाए परिसाए दस देवसाहस्सीयो पाताओ, | भाणियव्या, अभिंतरियाए परिसाए देवाणं बारस सागचाहिरियाए परिसाए वारस देवसाहस्सीओ परमत्तानो, रोवमाई सत्त पलिग्रोवमाई ठिती, मन्झिमियाए परिसाए अभितरियाए परिसाए देवाणं ठिती अपंचमाई साग-| बारस सागरोवमाइं छच्च पलिओवमाई ठिती, वाहिरियाए रोवमाई पंच पलिग्रोवमाई रिती परमत्ता, मझिमियाए परिसाए बारस सागरोवमाई पंच पलियोवमाई ठिती - परिसाए अद्धपंचमाई सागरोवमाई चत्तारि पलिग्रोवमाई मत्ता, अट्ठो सो चेव । ठिती परमत्ता, बाहिरियाए परिसाए अद्धपंचमाइं सागरो । __ अभ्यन्तरिकायां पर्पदि देवसहस्र, मध्यमिकायां चत्वाघमाई तिमि पलिओवमाई ठिती पहात्ता, अटो सो चेव ।। टि.वाद्यायां पट, तथा अभ्यन्तरिकाया पर्वाद दवाना द्वादश Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५७ ) अभिधानराजेन्द्रः । परिसा सागरोपमाणि सप्त च पल्योपमाणि स्थितिर्मध्यमिकायां द्वादश सागरोपमाणि पट् पल्योपमाणि, बाह्यायां द्वादश सागरोपमाणि पञ्च पल्योपमाणि । जी० ४ प्रति० २३० । महामुकपुच्छा है। गोयमा ! ० जाव अम्भितरियाए एगदेव साहसीओ, मझिमियाए परिसाए दो देवसाहस्सीओ पणत्ताओ, बाहिरिया परिसाए चचारि देवसाहसीओ, हिती भितरियाए परिसाए असोलससागरोपमाई पं च पलिमाई, मज्झमियाए श्रद्धसोलससागरोवमाई चारि पलिओदमाई, बाहिरियाए अद्धसोलससागरीवमाई तिमि पलिओमाई, अट्ठो सो चेव । अभ्यस्तरिकायां पदि एक देवख मध्यमिकायां देवसहस्रे, बाह्यायां चत्वारि देवसहस्राणि । तथा श्रभ्यन्तरिकायां पदिपोश सागरोपमा मानि स्थितिः मध्यमिकायामपीड सागरोपमाथि चरवारि प स्थोपमान स्थितिः सागरोपमाणि श्रीणि पल्योपमानि । शेषं पूर्ववत् । जी० ४ प्रति० २ उ० । सहस्सारे पुच्छा ? ० जाव अभितरियार परिसाए पंच दे2 बसया मामिया परिसाए एगा देवसाहस्सीओ वा परिसाइ (स) परिलाविन्-जि० दुष्पकत्वाऽऽदिना रके, हरियाए दो देवसाहसीओ पमत्ताओ, ठिती भितरया द्वारससागरोवमाई सत्त पलिओ माई ठिती पमता । एवं मज्भिमियाए श्रद्धद्वारस सागरोवमाईं छपलियोमाई, बाहिरियाए अद्धद्वारस सागरोपमाई पंच पलियो माई, अट्टो सो चेव । अभ्यन्तरिकायां पदि पञ्च देवशतानि मध्यमिकायामेकं देवसहस्रं बाह्यायां द्वे देवसहस्रे, तथा श्रभ्यन्तरिकायां पयदि देवानामदादश सागरापमाणि सप्त च पपीपमानि मध्यमिका पर्षया सागरोपमाथि पटपमा नि. वाद्याचामाद सागरोपमाण पक्ष पत्यापमानि । शेषं पूर्ववत् । जी० ४ प्रति०२ उ० । आणपाणयस्यपि पुच्छा० जाव तम्रो परिसाओ, गवार अभितरिया अड्डाइजा देवसया मस्किमिया पंच देवसया रागा देवसाहसीओ दिती अभितरियाए नागरोपमा पंचलियोमाई, मझिमिया परिसा एएससागरोपमाई चत्तारि पलिओदमाई बाहि रियाए परिसाए एवं ससागरोवमाई तिमि पलिवमाई ठिती, असो चेव । अन्तरकार्यापर्वदितानि देवशतानि मध्यमकायां पञ्च देवशतानि बाह्यायामेकं देवसहस्रं तथा अभ्यन्त रिकापदि देवानाम कोनविंशतिः सागरोपमा प पल्योपमान स्थितिः, मध्यमिकायाम कोनविंशतिः सागमादित्यादिपपमानि पाणायाम कति सागरोपमाणि त्रीणि च पल्योपमाने, शेवं पूर्ववत् जी० ४ प्रति० २३० । १६५ परिसाव हारि (ग) श्रारणाऽच्युताऽऽदीनाम् कहि मं देवा है, तब अचुपरिवारे० जाव विहरति । अच्चुयस्स गं देविंदस्स तो परिसाओ पाओ-भितरपरिसाए देवाणं पणुवीससयं, मझिमिया अट्टाहसया, बाहिरपरिसाए पंचसया, अ forare एकवी सागरोपमा सत्त पलिओदमा, मज्झि मित्राए एकवीस सागरोवमा छपलिवमा, वाहिराए एकवी सागरोपमा पंच लियोना डिती पा अभ्यन्तरकार्यापदि पञ्चविंशं देवशर्त, मध्यमिकायाम् अनि देव देवतानि तथा अभ्यन्तरकार्या पर्षदि देवानामेकविंशतिः सागरोपमाणि सप्त च पस्योपमानि मध्यमिका पर्षद एकविंशतिः साग रोमाणि पद्मानियाशतिः सागरोप माणि पञ्च पल्योपमाणिः शेयं पूर्ववत् । जी०४ प्रति०२ उ० । श्री देवस्य सामानिकपरिपत्रकवानां स्थितिः ' ठि' शब्दे चतुर्थभागे १७२६ पृष्ठे गता ) ( प्रावधि तदानयोग्य परसा "इति द्वार शब्देऽस्मि भाग १३६ पृष्ठे गतम् ) 1 स्था० ४ ० ४ उ० । परिसाइय-परिश्राव्य - अभ्य० । निर्माल्येत्यर्थे, प्राचा० २० १ चू० १ ० ८ उ० । परिसागय पर्षत वि० साधुसंहनिमध्यगते पा० । परिसाड परिशाट पुं००४० शट' रुजा चरणगत्यवसादीच्या पुलानां परिशाटनमसादनं परिशाटः । पुद्गलानामवसादने, विशे० । परिसार करण- परिशाद करन० करपचाऽऽदिना श स्यैव निष्पादने, सू० १ ० १ ० १ ३० । विशे० । श्रा० म० श्र० चू० । ( एतच्च 'करण' शब्दे तृतीयभागे ३६१ पृष्ठे दर्शितम्) | S. परिसारखा परिचाटना- बी० जीवदेशेभ्यः पृथकरणे, । सूत्र ० १ ० १ ० १ उ० । परिवारखिया परिशानिकाखी० अनिकायाम् ० १ उ० १ प्रक० । परिसादिय परिशादित बिपृथकते१० २ क्षण । परिशाय्य त्यक्त्वेत्यर्थे कल्प० १ अधि० २ क्षण । परिवाडि (ग) परिशारि०स्तारका परिभुञ्जानस्व यस्य न किञ्चित्परिशडति स परिशाटी । वं. शकल्याssदौ संस्तार के नि० २० । परितामिय-परिश्यामि भ० कृष्ण و 1 १ अ । मध्य परिहार (ण) पदव्यवहारिक १० हारयो ssपि पक्षो न व्रते यदि द्वाऽपि पक्षी मध्यस्थी भवत इति स्वरूप व्यवहारीणि व्य० ३३० । Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिद्ध परिसिद्ध - परिशिष्ट- त्रि० । उद्वारते श्राचा०१०२०३७० ।। परिसित परिषिक्त - न० । नपुंसके क्लः । परिषेके, प्रश्न० १ - श्राश्र० द्वार । परिचित्तपाणग परिषिक्रपानकन० यत उष्णोदकेन दधि मृत्तिका नित्यं गाल्यते तस्मिन् नि० चू० ४ उ० । परिसिल पर्षद त्रिप , परिक्षीस प्रतिशीर्षक नः स्वशिरःप्रतिरूपके पिदिमयशिरसि "परिसीसयं च दलाहि ।" प्रतिशर्षकाणि च दत्त स्पशिरःप्रतिरूपाणि पिष्टादिमयशिरांसि शरीरा यच्छत चvिsat sऽदिभ्य इत्यर्थः । प्रश्न०२ श्राश्र० द्वार । परिमुक परिशुष्क - वि० सतोषमुपागने विपा० १४० । २ श्र० । - ( ६५८ ) अभिधानराजेन्थः । परिमुह-परिशुष्कमुख वि० परिशुष्कं निर्गतनिष्ठीवन - त्रि० । तयाऽनाद्वैतामुपगतं मुखमस्येति परिशुष्कमुखः । उत्त० २ श्र० । गतनिष्ठीवनत्वेन शुल्कतालुजिह्नोष्ठे, उत्त० २ श्र० । परिसुद्ध - परिशुद्ध त्रि० । निर्दोष, पञ्चा० ४ विव० । सर्वप्रकारशुद्धे, पो० १ वि० । विशुद्धिप्राप्त तथा निश्चिते, पञ्चा० २ विव० । - परिसुद्धग- परिशुद्धक- त्रि० । अपगतदोवे, पञ्चा० १६ विव० । परिसुलग्ग परिशुद्ध न लग्रह-न० । वस्त्रपूतलसरहितजलग्रहणे, धा० । परितुद्धि-परिशुद्धि-श्री दोरवड पञ्चा० १६० परिमेय परिषेक- पुं० वाऽऽदेरिथतस्योपरि पेने पिं० । श्रघ० । परिसोत्र - पर्वदुपपन्नक - पुं० । परिहारोपपन्नके, स्था० ३ ठा० १ उ० । परिसोसिय-परिशोषित-त्रि। परि समन्ताच्छोषितमपचितीकृतम् । उत्त० १ श्र० । तपसा दुर्बलीकृते, उत्त० १ ० । परिस्सम परिश्रम पुं० समता " खुहं पिवासं परिस्समं व न विदइ । " श्र०म० १ ० । परिस्सव परिश्रव - पुं० । कर्मनिर्जराऽऽस्पदेषु अनुष्ठानेषु प रिसमन्ताच्छ्रति गलति यैरनुष्ठानविशेषस्ते परिश्रवा इति व्युत्पतेः । श्राचा० १ ० ४ ० २० । ( " जे आसवा ते परिस्लवा । " इति ' आसव ' शब्दे द्वितीयभागे ४७५ पृठे व्यायाम् परिस्सर्व परिश्रचिगलति सर्वतो चल तितं परिस्सा - ( ) - परिखाविन्पुंग आलोचकदोषानुपश्रुत्योगिरति, स्था० १ ठा० । परिह-परिव-पुं० अर्गलायाम्, अनु० । परिरह-मृद चा० सोदे, "दो मलम परि० ॥ ४ १२६ ॥ इत्यादित्रेण खातोः परदादेशः परिह । प्रा० ४ पाद । परिहट्टिय परिवहित-त्रि० । मर्दिते, "पन्नाश्रियं परिहहिझं । " पाइ० ना० १७८ गाथा । परिहरणा परिहट्ठी- देशी - प्रति हारिण्याऽऽकृष्टौ दे० ना० ६ वर्ग ७२ गाथा | आकृष्ौ, दे० ना० ६ वर्ग २१ गाथा | परिहण - देशी बसने, दे० ना० ६ वर्ग २१ गाथा । परिणय-परिधानकन० परिधानीचे "जान सिचयं कडि डिल्लं. नियंसणं साहुली य परिहण्यं । " पाइ ना०६६ गाथा । परिहत्थ - देशी- दक्ष, आव० ४ श्र० । श्राचा० । परित्थो दच्छा. पाइ० ना० २४४ गाथा । 4 6. 35 66 " परिहरंत परिहरन् त्रि०" धातवो ऽर्थान्तरेऽपि ॥४॥ २५६ ॥ इति परिहरतेस्त्यागे वृत्तेः । त्यजति प्रा० ४ पाद । परिहरण परिहरण न० । आसेव्यस्य वस्तुनो नासेपने वस्तुनोऽनासेवने, स्था० १० ठा० । परिहरणदोस-परिहरणदोष-पुं दोपमेदे, स्था । परिहर। । णमासेवा, स्वदर्शन स्थित्या लोकरूढ्या वा अनासेव्यस्य तदेव दोष परिहरणदोष अथवा परिहरणमना सेचनं समायाव्यस्य पुनस्तदेव तस्माद्वा दोषः परिहर दोपः अथ वादिनोपन्यस्तस्य दूषणन्यासम्यकपरिहारो जा स्युतरं परिहरण दोष इति । यथा बीजेनन् - अनित्य सन्द कृतकत्वात् घटयदिति । अत्र मीमांसकः परिहारमाह ननु घटतं कृतकत्वं शब्दस्यानित्यत्वसाधनायोपन्यस्यते शब्दगतं वा ? यदि घटगतं तदा तच्छब्दे नास्तीत्य सिद्धता हेतोः। अथ शब्दगतं तचानित्यत्वेन व्याप्तमुपतमित्य साधारण नैकान्तिको हेतुरित्ययं सम्यक् न परिहारः । एवं हि सर्वानु मानोच्छेदप्रसङ्गः अनुमानं हि साधनधर्ममात्रात्साध्यधर्ममा नियामकम् अन्यथा धूमादनलानुमानमपि न सिध्येत् । तथा हि श्रग्निरत्र धूमाद्यथा महानसे । अत्र विकल्पति किमप्रेति शब्दनिर्विषपर्वत कम देशादिगतधूमोऽझिसाधनापात्तः, उत महान लगतः । यदि पर्वतादिगतः सोऽग्निना न व्याप्तः सिद्ध इत्यसाधारणानैकान्तिको हेतुः । श्रथ महानसगतस्तदा नाऽसौ पर्वतैकदेशे वर्तत इत्यसिद्धों हेतुरिति । श्रयं परिहरणदोष इति । स्था० १० ठा० । परिहरणा - परिहरणा - स्त्री० । 'हृञ् ' हरणे, अस्याः परिपूर्वस्यैव तस्यैव परिहरणं परिहरणा सर्वप्रकारिर्वजेनायाम्, प्रतिक्रमणशब्दार्थे, श्राव० । निक्षेपः नाम उबला दविए, परिश्व परिहार बजाए य । अगह भावे तहा, विहा होइ परिहरणा ॥१२३६ ॥ नामस्थापने गतार्थे परिहरणायं विषयमधिकृत्य अनुपयुक्तस्य, सम्यग्डप्रेर्लब्ध्यादिनिमित्तं वा उपयुक्तस्य वा नियस्यादिपरिहरणा पेति परिश्यपरिहरणा गि रिसरित्परिश्यपरिहरणा परिहारपरिहरणा लीफिकलोफोतरमेनिया, लौकिकी माजादिपरिहरण: लोको पा स्थापरिणा। वर्जनापरिहरणा अपि लौकिक लोकोत्तरदैव. लौकिका इत्वरा यावत्कथिका च इत्वरा प्रसूतसूतका55दिपरिहरणा वापर कविका डोम्यादिपरिहरणा लां कोतरा पुनरियरा शय्यातरचिण्डा दिपरिहरणा पावरक थिका तु पिण्डाऽऽदिपरिहरणा अनुग्रहपरिहरणा Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६) परिहरणा अभिधानराजेन्डः। परिहार खोडभनपरिहरणा।भावपरिहरणा-प्रशस्ता,अप्रशस्ता च। परिहरियन-परिहर्त्तव्य-त्रि० । सर्वैः प्रकारैर्वर्जनीये, श्रा। अप्रशस्ता ज्ञानाऽऽदिपरिहरणा,प्रशस्ता क्रोधाऽऽदिपरिहरणा।। निचल। अथवा ओघत एवोपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टः तयेहाधिकारः,प्रति-परिहरिस-परिहर्ष-पुं० । आनन्दे, "आमोश्रो परिहरिसो कमण पर्यायता चास्याः प्रतिक्रमणमप्यशुभयोगपरिहारेणैवे. | तोसो।" पाइ ना० १६८ गाथा। ति । श्राव. ४ अ० श्रा० चू० । विशे। अथ परिहरणायां दुग्धकायेन दृष्टान्तः-दुग्धकायो दुग्ध परिहलावित्र-देशी-जलनिर्गमे, दे० ना.६ वर्ग २६ गाथा। काययष्टिः परिहवंत-परिभवत-पुं० । पार्श्वस्थाऽऽदौ यतमाने, "परिह" एकः कोऽध्यभवद् प्रामे, कुत्रापि कुलपुत्रकः । वंतो नाम पासत्थो" व्य०१ उ०। अन्यान्यनामयोस्तस्यो-दूढमस्ति स्वसृदयम् ॥१॥ परिहा-परिखा-स्त्री० । अध उपरि च समखाते. भ० ५ १० तस्याभूद् दुहिता जाम्योः, पुत्रौ तेषां च यौवने । ७उ.नि.चू० । क्षाअनु०। "खायं तह खाइमा परिहा।" स्वस्त्रसूनुकते जाम्यौ, पुश्यर्थ सममागते ॥२॥ पाइ ना० १५८ गाथा। रोषे, देना.६ वर्ग ७ गाथा । सोऽवदत्कस्य यच्छामि, पुज्यका तयुवां सुती। अत्र प्रेषयतं दास्ये, ततः कृत्यविदः सुताम् ॥३॥ परिहाअ-देशी-क्षीणे, दे० ना०६ वर्ग २४ गाथा। गते ते प्रेषितौ पुत्रौ, मातुलेन तदैव तौ। परिहाएमाण-परिहीयमान-त्रि० । परिहाणिमुपनीयमाने, अर्पयित्वा घटावुक्ती, दुग्धमानयतं व्रजात्॥४॥ "मायाए परिहाएमाणा।" स्था०४ ठा. २००। काययष्टि गृहीत्वा तौ, गतौ भृत्वा पयो घटान् । परिहाण-परिधान-न० । वने, सूत्र.१ श्रु०४ अ०१ उ० । निवृत्तौ तानथाऽऽदाय, तत्र चास्ति पथद्वयम् ॥५॥ परिहाणि-परिहानि-स्त्री-अपचये, आव०१०। सूत्रार्थनेदीयान् विषमः पन्थाः, दवीयाँश्च समः पुनः । विषम परिहत्यैक सत्राचालीसमाध्वना ॥६॥ विस्मरणे,अोघलासर्वथा त्यागे,ध०२ अधिपं०भा०1०चा विषमेणापि नैकट्या-चलति स्म द्वितीयकः। परिहाय-त्रि० । दुर्बले, “परिहार्य दुब्बलं होणं । " पाह स्खलत्पदस्य तस्यैको, भग्नः कुम्भोऽपरोऽपि च ॥७॥ ना. १८१ गाथा। अभाजि पतता तेन, रिक्त एवाऽथ सोऽभ्यगात् । परिहार-परिहार-न । परिहियते परित्यजते गुरुमूलं गत्वा समाध्वना शनैरन्यो, गृहीत्वा दुग्धमाययौ ॥८॥ यत् तत् परिहारम् । “अकर्तरि च करके.-" ॥ २३१६॥ तुष्टस्तस्मै ददौ पुत्री, द्वितीयं प्रेषयत्पुनः । इति (पाणि) कर्मणि घम् । विषये, व्य०१ उ० । मयोक्तं दुग्धमानेयं, शीघ्रात् शीघ्रगतिर्न तु॥६॥ द्रव्ये परिहरणेयं, भावे वोपनयः पुनः। (१) संप्रति परिहारशब्दनिक्षेपप्ररूपणार्थमाहतीर्थकृत्कुल पुत्रोऽभू-श्चारित्रं पयसः पदे ॥१०॥ नाम ठवणा दविए, परिरय परिहरण वजऽणुग्गहता। तद्रक्षद्भिः प्रयत्नेन, प्राप्या कन्येव निर्वृतिः। भावाऽऽबने सुद्धे, नव परिहारस्स नामाई ॥ २७ ॥ गोकुलं मानुषं जन्म, पन्थास्तत्र परं तपः॥११॥ परिहारशब्दो विभक्तिपरिणामेन सर्वत्र संबध्यते । तद्यथास्थविराणामनिकटो, निकटो जिनकल्पिनाम् । नामपरिहारः, स्थापनापरिहारः, (दविए त्ति) द्रव्यविषयः रक्षेन्न चारित्रपयोऽ-गीतार्थो जिनकल्पिकः ॥१२॥ परिहारो द्रव्यपरिहारः, परिरयपरिहारः, परिहरणपरि. दुष्पापा निर्वृत्तिस्तस्य, स्खलितस्य कथञ्चन । हारः, 'वृजा' वर्जने, वृज्यते इति वर्जनं, कर्मण्यनट, वय॑मि. प्राप्याऽन्यैस्तु शनैः सिद्धि-श्चारित्रक्षीररक्षकैः ॥१३॥ श्रा० त्यर्थः । वर्जनपरिहारः । अनुगृह्यते इति अनुग्रहः, कर्मण्यच क. ४ अ० । आसेवायाम् , स्था० ५ ठा०२ उ० । वृ०। तस्य भावोऽनुग्रहताऽनुग्रहणमित्यर्थः । अनुग्रहतया परिपरिभोगे व्यापारणे, वृ०१उ०३ प्रक० । पं० चू। स्था०। हारोऽनुग्रहतापरिहारः। (भाव ति) भावचिन्तायामापन्ने श्रा०म०। आपन्नस्य परिहारः आपन्नपरिहारः, शुद्ध शुद्धस्य परिहारः। परिहरणिज-परिहरणीय-त्रि० । अकार्ये, प्रा० चू०१०। एवं परिहारस्य नामाऽऽदिविशेषणतो नव नामानि भवन्ति । परिहरणोवधाय-परिहरणोपघात-पुं । अलाक्षणिकस्याक एष गाथाऽक्षरार्थः। अधुना भावार्थ उच्यते-तत्र नामप्यस्य वोपकरणस्य सेवा, तया यः स परिहरणोपघातः । स्थापने प्रतीते, द्रव्यपरिहार उच्यते-द्रव्यपरिहारो विधा बागमतो, नोआगमतश्च । तत्राऽऽगमतः परिहारशब्दाउपघातभेदे, स्था० १० ठा० । परिहरणा प्रासेवा, तयोप. ध्यादरकल्यता, तत्रोपधेर्यथा एकाकिना हिण्डकसाधुना र्थज्ञाता, तत्र चानुपयुक्तः । नोभागमतनिधा-शशरीरं यदासेवितमुपकरणं तदुपहतं भवतीति समयव्यवस्था। भव्यशरीरं तद्यतिरिक्तः । तत्र शरीरभव्यशरीरे प्राग्वत्। स्था० ५ ठार २ उ०। (श्रन विशेषः ' उवधाय' शब्दे द्विती तद्यतिरिक्तपरिहारपरिरयपरिहाराऽदिप्रतिपादनार्थमाहयभागे ८८० पृष्ठे गतः) कंटगमादी दव्वे, गिरिनइमाईण परिरो होइ। परिहरमाण-परिहरत्-त्रि० । परिभोगयति, व्य०६ उ० । परिहरणधरणभोगे, लोउत्तर वज्ज इत्तरिए ॥ २८॥ परिरित्तए-परिहर्तुम्-अव्य० । आसेवितुमित्यर्थे, स्था० ५| द्रव्ये इति द्वारपरामर्शः। नोबागमतो शशरीरभव्यशरीरव्य तिरिक्को,द्रव्यपरिहारोनाम-यत् कण्टकादि,कराटकम् श्राठा० ३ उ० । आचा। दिशब्दात् । स्थाणुविषसऽऽदिकंच परिहरति,द्रव्यस्य परिहापरिहरिय-परिहृत्य-अव्यः । निक्षिप्येत्यर्थे, उत्त० १२ अ.।' रोद्रव्यपरिहार इति व्युत्पत्तेः। परिरयोनाम पर्याहारः,परिधि Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६०) परिहार भन्निधानराजेन्द्रः । परिहार रिति यावत् । उनं च-"पजाहारोत्ति वा परिरोत्ति वा अपरिहार इति व्युत्पत्तेः । तथा चाऽऽह-(मासाऽऽदी श्रावएग;।" परिरयेण परिहारः, सच परिरयो भवति सं- न्ने इति) मासाऽऽदिकं यत्प्रायश्चित्तस्थानमापन्नं तत प्रापभवति गिरिनद्यादीनां विषये । इयमत्र भावना-यत् गिरि ने परिहार इति भावः । अथवा-परिहरणं परिहार इ. नदीस्,श्रादिशब्दात् समुद्रमटवी वा परिरयेण परिहरति, एष ति भावे घज्ञ , आपनेन प्रायश्चित्तस्थानेन परिहारो वर्जनं. परिरयपरिहारः । तथा परिव्हियते इति परिहरणं, भावे साधोरिति गम्यते । आपनपरिहारः । तथाहि-प्रायश्चित्ती अनन् । तच द्विधा-लौकिक, लोकोत्तरं च । तत्र लौकिक अविशुद्धत्वात् विशुद्धचरणः साधुभिर्यावत्प्रायश्चित्तप्रयथा-माता पुत्रं परिहरति, भ्रातरं परिहरति, न परिभु तिच्या न शुद्धो भवति तावत् प्रतिहियते, इह तेन बरने इत्येवमादि । लोकोत्तरं साक्षादाह-परिहरणधरणभोगे आपन्नपरिहारेण प्रकृतमधिकारोन शेषैः परिहारः तदेवं लोकोत्तरं परिहरणं द्विधा-धरणभोगे धरणपरिहरणं, परिहारशब्दनिक्षेपप्ररूपणा कृता । व्य०१ उ) । नि० चू। परिभोगपरिहरणं चेत्यर्थः । तत्र धरणपरिहरणं नाम (मासिकाऽऽदिपरिहारस्थानं प्रतिसव्याऽऽलोचयेत् इति यत्किमप्युपकरणं संगोपयति,प्रतिलेखयति च.न परिभुते। 'पच्छित्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १४२ पृष्ठे गतम्) परिहरण परिभोगपरिहरण-यत्सूत्रिककल्पाऽऽदि परिभुङ्क्ते, प्रावृणो. परिहारः। पुं० । तपोविशेष, स्था०५ ठा०२ उ० । प्रव० । तीत्यर्थः । उक्तं च-“लोगे जह माता ऊ एत्तं परिहरइ एव विशे। अनेषणीयाऽऽदेस्त्यागे च । अनु० । मादीओं। लोगुत्तरपरिहारो.दुावेहो परिभोग धरणे य ॥१॥" मासिकाऽऽदिपरिहारस्थानं प्रतिसेव्याऽऽलोचयेत् । तत्र अत्रैवं व्युत्पत्तिः-परिहरणमेव पारहारः (लोगुसर वज इत्त परिहारतपोदानम्रिए) वर्ज वर्य तत् द्विधा-(लोग तिलौकिकम् (उत्तर त्ति) जे भिक्ख चाउम्मासियं वा सातिरेगचाउम्मासियं वा लोकोसरम् । लोकिकं द्विधा-इत्वरं, यावत्कथितं च । तत्वरं पंचमासियं वा सातिरेगपंचमासियं वा एएसिं परिहारट्ठायत् सूतकमृतकाऽऽदि दशदिवसान यावत् वय॑ते इति । या. णाणं अन्नयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपचकथिकम्-"वरुडविंडकचम्मकारोबाऽऽदि, एतेहि" याव लिचियमाणे ॥४॥ जीवं शिः सांभोगाऽऽदिना वय॑न्ते । लोकोत्तरमपि वयं द्विधा-इत्वरं,यावत्कधिकं च । तत्रत्वरं दाणे अभिगमसडे" इत्यस्य सूत्रावयस्य व्याख्या प्राग्वत् । ('पच्छित्त' इत्यादि । यावत्कथिकम् "अट्ठारस पुरिसेसुं, वीसं इत्थीसु द शब्देऽस्मिन्नेव भागे १४५ पृष्ठे कृतः परिहारतपोवक्तसनपुंससु।" इत्यादि। 'वज इत्तरिए' इत्यत्र ग्रहणमुपलक्षणं, व्यतासंग्रहः) अधस्तनसूत्रे परिहारतपो नोक्नमिह परिहा. सेन यावत्कथिकमित्यपि द्रष्टव्यम् , तस्य परिहारः परित्यागो रतपो विभाव्यते इति तत्र येन वक्तव्यक्रमेण परिहारतपो पर्जनपरिहारः। वक्तव्यं भवति तद्वक्लव्यक्रमसंसूधिकां द्वारगाथामाहखोडाऽऽदिभंगऽणुग्गह, भावे आवरण-सुद्धपरिहारो । को भंते ! परियाओ, सुत्तत्थाभिग्गहो तवोकम्मं । मासाऽऽदी आवले, तेण उ पगयं न अन्नेहिं ॥ २६ ॥ कक्खडमकक्खडे वा, मुद्धतवे मंडवा दोनि ॥३५०॥ " स्रोडभंग इति वा उक्कोडभंग इति वा अक्षोटभङ्ग इति प्रथमतः परिहारतपोयोग्यतापरिज्ञानाय को भदन्त ! त्वमवा" एकार्थम् । उक्तं च निशीथी सीति पृच्छा कर्तव्या, तदनन्तरं परिहारतपोयोग्यस्य -खोटभंगो ति वा पर्यायो वाच्यः, ततः सूत्रार्थी, तदनन्तरमभिग्रहः, तथा तउकोडभंगो त्ति वा अक्खोडभंगो त्ति एगटुं।" खोदं नाम पःकर्म, तत्र यदि तपसा कर्कशो भवति । किमुक्तं भवति?यत् राजकुले हिरए पाऽदि द्रव्यं दातव्यम्। श्रादिशब्दात् वेटिकरणं चारभटाऽऽदीनां भोजनाऽदिप्रदानमित्यादिपरिग्रहः। कर्कश तपसि सदा कृताभ्यासतया न कर्कशेन तपसा खोटाऽदेर्भङ्गः खोटाऽऽदिभङ्गो नुग्रहः, पदैकदेशे पदसमुदा परिभूते ततः परिहारतपस्त मै दीयते, इतरसिँस्त्वयोपचारादनुग्रहः परिहारः । एतदुक्तं भवति-राजकृतानुग्र कर्कशं शुद्धं तपः। अत्रार्थे द्वौ मण्डपावेरएडशिलानिष्पन्नौ दवशेन एकद्विव्यादिवर्षमर्याद्या यथोक्तरूपं खोटाऽऽदिभञ्ज दृष्टान्तौ । एष द्वारगाथासंक्षे गर्थः । न एकं द्वे त्रीणि वर्षाणि यावत् वसति तावन्तं वा का. व्यासार्थ तु प्रतिद्वारं विवतुःप्रथमतः पृच्छाद्वारं विवृणोतिलं यावत् राशाऽनुग्रहः कृतः तावन्तं कालं वसति, न च सगणम्मि नत्थि पुच्छा,अनगणा आगतं तु यं जाणे । हिररावाऽऽदि प्रददाति,नापि वेष्टि करोति,न चापि चारभ अप्लायं पुण पुच्छे, परिहारतबस्स जोगहा ।। ३५१ ।। टाऽऽदीनां भोजनादिप्रदानं विधत्ते । एष खोटादिमङ्गोऽ- स्वगणे स्वगणसम्बन्धिनि पृच्छा उक्लस्वरूपा, वक्ष्यमारगा नुग्रहपरिहारः। (भवि इति ) भावविषयः परिहारी द्वि वा नास्ति, स्वगणवास्तव्य तया परिचितत्वात् । अभ्यगणा. धा । तद्यथा-आपत्रपरिहारः, शुद्धपरिहारश्च । तत्र यत् दपि, तुशब्दोऽपिशब्दार्थः। स च भिन्नकमत्वादन संबध्यते; विशुद्धः सन् पञ्चयाममनुत्तरं धर्म परिहरति, परिहार श्रागतं यं जानाति गीतादिरूपमाकारङ्गिताऽऽदिभिः, तशब्दस्य पारभोगेऽपि वर्तमानत्वात् स शुद्धपरिहार:, शु स्मिन्नपि नास्ति पृच्छा, अज्ञातं पुनः परगणादागतं परिहारबस्य सतः परिहारः पञ्चयामानुत्तरधर्मकरणं शुद्धपरिहार तपसो योग्यार्थ योग्योऽयं न वेति परिक्षानार्थ पृच्छेत् । इति व्युत्पत्तेः । यदि वा-यो विशुद्धकल्पव्यवहारः क्रियते स __ कथमित्याहशुद्धपरिहारः, शुद्वश्वासी परिहारश्च शुद्धपरिहार इति व्यु. गीतमगीतो गीतो,अहं ति किं वत्थु कास वऽसि जोग्गो। स्पतेः। तथा यम्मासिकं यावत्यारमालकं वा प्रायश्चित्तमाप- अविगीए ति व भणिए,थिरमथिर तवे य कयजोग्गो३५२ पनस्तत् अपने अरिभोगेऽपि वर्तते, परिव्हियते इति । स प्रायश्चित्तस्थानप्राप्त झालेचयितुमुपस्थितः पृछ यते. परिहारः । कर्मणि घम् । श्रापन्नमेव परिहार प्राप-! किं त्वं गीतो गीतार्थः ?: मकारोऽलाक्षणिकः। अगीतोऽगी. Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६१ ) अभिधानराजेन्द्रः | परिहार 1 वार्थः तत्र यदि ने गीत-गीतार्थः । ततः पुनरपि पृच्छयते त्वं किं वस्त्विति श्राचार्य उपाध्यायो वृषभाऽऽदिर्घा । तत्राऽन्यतरस्मिन्कथिते भूयः पृच्छ्यते - ( कास व सि जोग्गो ति) कस्य वा तपसस्त्वमसि योग्यः । किमुक्तं भवति ? - किं तपः कर्तुमुत्सहसे, कस्य वा तपसः समर्थ इति पृच्दनीय इति अथ स - अहमयिगतो, न विशिष्ट नीतः, अनीतार्थ इत्यर्थः। ततोऽविगीत इति भणिते पुनः पृथ् (थिरमथिर ति ) किं त्वं स्थिरो वा अस्थिरो वा । तत्र स्थिरो नाम-प्रतिसंहननाभ्यां बलवान् तद्विपरीतो स्थिरः। तत्र यदि ब्रूयादहमस्थिरः, ततः पुनः परिपृच्छा कार्या- (तवे य कयजोगो त्ति ) तपसि कृतयोगो नाम-कर्कशतपोभिरने कधा भाविताऽऽत्मा, इतरस्तु नेति । तत्र यदि तपसि कृतयोगस्ततस्तस्मै परिहारतपो दीयते, इतरस्मै शुद्धतपः । गतं पृच्छाद्वारम् । (२) अधुना पर्यायद्वारमाह गिहि सामने य वहा, परियाओं दुविह होइ नायन्यो । इगुतीसा वीसा प जहरू उकोस देगा ।। ३५२ ।। पर्यायी भवति द्विधातव्यः तथा गृहिणिय जन्मन श्रारभ्येत्यर्थः । तथा श्रामण्ये श्रामण्यविषयः, श्रमभावप्रतिपत्तेरारभ्य इति भावः । इयमत्र भावना द्विविधः पर्यायः तथा जन्मपर्यायी दीक्षापर्यायवा वीसाय जहन्न त्ति ) यथासंख्येन योजना - जन्मपर्यायो जयभ्यतो जन्मत एकविंशतिवर्षाणि उत्कर्ष उभयचापि देशांना फोर्ट उच" परियाओ दुविहो- जम्मपरियातो य, दिकखापरियातो य जम्मपरियातो - जहणं इगुणतीसं ठाणं. उक्कोसेणं देणा पुव्दकोडी दिसापरिया वासा उ देसूणा पुचकोडी ति । " ( श्रत्र बहु वक्तव्यता 'परियाय शब्देऽविभागे ६२६ गता गतं पर्यद्वारम् । (३) संप्रति सूत्रार्थमाह 1 | " नवमस्स तय जस उक्कोस ऊगा दसओ । सुतत्वाणि अभिग्गह दव्वाऽऽदि तयोरव समादी ॥ ३५४ ॥ जघन्यतः सूत्रमर्थश्च यावत् नवमय पूर्वस्य तृतीयमाचानामकं वस्तु, उत्कर्ष तो यावदूनानि किञ्चिन्न्यूनानि दशपूयाणि परिपूर्ण पूर्वपराऽऽदीनां परिहार पोरानायोगात् । तेषां हि वाचनाऽऽदिपञ्चविधस्वाध्यायविधानमेव सर्वोत्तमं कम्मे निर्जरास्थानम् मतं पार्थद्वारम् । (४) इदानीमभिग्रह द्वारमाह श्रभिग्रहा द्रव्यादिकाः । तद्यथाद्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतो, भावतश्च तत्र द्रव्याभिग्रहाः - श्रद्य मया कुल्माषा ग्राह्याः । यदि वा तक्राऽऽदिकमेकं द्रव्यमिति । क्षेत्रतोऽभिग्रहाःदेहली माकपेत्यादिकाः । कालो मित्रहातनीयस्यां परस्याम् भावतोऽभिग्रहाः यदि दन्ती वा भिक्षां ददातीत्येवमादिकाः गतमभिप्रहारम् । (५) अधुना तपहारमाह- तारयणमादी ) तर्प र लादिकम् पदेकदेशे पदसमुदायोपारा रस्नाऽऽय sseयादिकम् । श्रविशब्दात्कनका ऽऽवलिमुक्काऽऽवलिसि हविक्रीडिताऽऽदितपः परिग्रहः । एवं गीतार्थत्वं यथोक पाककेश तपः कम्मल जगुणसमूह पुस् १६६ परिहार परिहारतपो दीयते एतद्गुणविहीनस्य पुनः शुद्धं तपो देयम् । अत्र शिष्यः पृच्छतिएयगुणसंजयस्स उ, किं कारण दिजए उ परिहारो । कम्हा पुस परिहारों, न दिजए हिस्स १।। ३५५ ।। भगवन् ! किं कारणमेतैरनन्त रोदितै गतार्थत्वादिभिर्गुणैर्युक्रस्प परिहारः परिहारतपो दीयते । कस्मातस्तद्विडीनस्य गीतार्थत्वाऽशुगविकलस्य परिहारो न दीयते ? | अत्राssचार्यो द्वौ मण्डपौ दृष्टान्तीकरोति - शैलमण्डपमेरण्डमण्डपञ्च । तथा चाऽऽह जं मायति तं भति, सेलमए मंडवे न एरंडे | उभयलियम एवं परिहारो दुब्बले सुद्धो || ३५६॥ शैलमये पाषाणमये मण्डपे यत्किमपि माति तत्सर्वभ्यते इति क्षिप्यते । तस्य तावत्यपि प्रतिमासंभवात् । पर परम पुनर्मण्डपे न यन्माति तत्सर्व क्षिप्यते भ संभवात् किं तु यावत् क्षमते तावत्प्रक्षिप्यते । एवं उभय धृत्या शरीरसंहनेन च पलिके बलिष्ठे गीतार्थत्वाऽऽदिगुणयु के परिद्वारा परिहारतो दीपते। दुर्बले या संवेग वा उभयेन या बाविने दीपने परिवार शुद्धतपसी तुल्यायामप्यापत्तौ पुरुषविशेषाऽऽश्रयणेन दीयेते । तथा चाऽऽद्द विसिट्ठा यावी, सुद्धतवे तह य चेत्र परिहारे । त्थं पुरा सजा, दिजइ इयरो व इयरो वा || ३५७|| शुद्धसि दातुमिष्टे परिहारे च प्रविशिष्टश तुल्या आप तिस्तथाऽपि वस्तु धृतिसंहनन संप पुरुषवस्तु आसाय अदर इतरत् परिद्वारतपो दीयते प्रतिसहननविहीने स्तुवाय इतर शुभति ? - यद्यपि द्वावपि जनौ तुल्यमापत्तिस्थानमापन्नौ तथाउपि यो तिनसंपत्रस्त से परिहारतो देवम् इतर तुल्यायामव्यापत्तौ शुद्धतपः । अत्र दृष्टान्तमाह वमण विरेयमाई, कक्खड किरिया जहाऽऽउरे बलिए । कीर न दुग्धलम्भी, अह दिनो भवे दुबिहे || ३५८|| यद्यपि प्रामि पुरुषी सह रोगाभिभूती तथापि तवीमध्ये यः श्रातुरः शरीरेण बलवान् तस्मिन् वालिके यथा वम नविरेचनाssदिका कर्कशा क्रिया क्रियते, न तु दुर्बल तस्मिन् यथा संहते तथा कर्कशा क्रिया क्रियते । ( श्रह त्ति) एप दृष्टान्तः तपसि द्विविधे परिहारशुद्धत पोलक्षगे। इदमुक्कं भवति श्रयमत्रोपसंहार-त्या तिसंह ननसंपत्रे परिहारली दीयते बलहीने स्वकर्कशकियेष निशुद्ध इति । (६) संप्रति येभ्यो नियमतः शुद्धतपः परिहारतपो वा शुद्ध. उपपरिहारोग्याऽऽपत्तिस्थानापतीपदे तिपादनार्थमाह- सुद्धा अनियत्यले अपय Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार (६६२) अनिधानराजेन्द्रः। परिहार धितिबलिए य समन्ना-गए य सम्बेसि परिहारो॥३५६।। , (७) संप्रति कायोत्सर्गकरणाय कारणान्तरमाहपरिहारतपोयोग्ये ऽप्यापत्तिस्थाने समापतिते आर्याणा- निरुवस्सग्गनिमित्तं,भयजणणहाएँ सेसगाणं च । मार्यिकाणां शुद्धतपो देयम्, आर्यिकाणां धृतिसंहनन तस्सऽप्पणो य गुरुणो,य साहए होइ पडिवत्ती॥३६११ दुर्बलतया पूर्वानधिगमाश्च परिहारायोग्यत्वात् तथा योऽ कायोत्सर्गकरणमादौ निरुपसर्गनिमित्तम्-निरुपसर्ग परिगीतार्थो, यश्च धृत्या दुर्बलो रोगाऽऽदिना अनुपचितदेहो दु. हारतपः समाप्ति यायादित्येवमर्थम् । तथा शेषाणां साधूनां बलो. यश्चासंहनन आदिमानां त्रयाणां संहननानामन्यतमेना भयजननार्थम् -यथाऽमुकमापत्तिस्थानमेव प्राप्त इत्यस्मै महाऽपि संहननेन विकलः एतेभ्यो नियमतः शुद्धं तपो दातव्यम्. घोरं परिहारतपणे दास्यते, तस्मानतदापत्तिस्थान सेवनीयं, अगीतार्थत्वाऽऽदिना परिहारायोग्यत्वात्। यः पुनभृत्या बलि कि तु यत्नतो रक्षणीयमिति । ततः कायोत्सर्गस्थ करणाको बलवान् वज्रकुड्यसमानो, यश्च समन्वागतः, आदिमानां नन्तरं तस्य परिहारतपः प्रतिपत्तगुरोश्च साधके अनुकूले प्रयाणां संहननानामन्यतमेन संहननेन गीतार्थत्वाऽऽदिगुण शुभे तिथिकरणमुहर्ताऽऽदिके शुभे ताराबले शुभे चन्द्रबले श्व युक्तः,पतेभ्यः सर्वेभ्यो नियमतः परिहारतपायोग्याऽऽप परिहारतपसः प्रतिपत्तिर्भवति । त्तिस्थानप्राप्ती परिहारतपो देयम्। तस्याऽयं विधिः-"ठवणि अन्यश्च कायोत्सर्गकरणानन्तरम् आदावेव तं परिहाज ठवइत्ता।" यत्तेन सह नाऽऽचरणीयं तत् स्थानीयमुच्य. रिकमिदं गुरुबूंतेते, तत् सकलगच्छ समदं स्थापयित्वा।। कप्पट्टितो अहं ते, अणुपरिहारी य एस ते गीतो । कथं स्थापयित्वेत्यत श्राहविउसम्गो जाणणट्ठा, ठवणा तीए य दोसु उविएसु । पुव्वं कयपरिहारो, तस्सऽसतीयरोऽवि दढदेहो ॥३६२।। यावत्तव कल्पपरिहारसमाप्तिस्तावदहं तव कल्पस्थितः अगडे नदी य राया, दिलुतो गीय आसत्यो। ३६० ॥ वन्दनवाचनाऽऽदिषु कल्पभावे स्थितो,न तु परिहार्यः। शेषाः परिहारतपोदानात् प्राक् श्रादावेव कायोत्सर्गः क्रियते। कथ पुनः साधवः परिहार्याः । अन्यश्च-एष साधुर्गीतो गीतार्थः। मिति चेत् ?। उच्यते-गुरुः पूर्वदिगभिमुखः, उत्तरदिगभिमु. पूर्व कृतपरिहारत्वेन सकलसामाचारीज्ञाता तवायमनुपरिखो वा, चरन्तीदिगभिमुखावा, चैत्यानां चाभिमुखः, एवं प. हारी-यत्र यत्र भिक्षाऽऽदिनिमित्तं परिहारी गच्छति तत्र रिहारतपस्यपि, नवरं गुरोर्वामपार्श्वे ईषत्पृष्ठतस्तौ द्वाव अनु पश्चात् पृष्ठतो लनः सन् गच्छतीत्यनुपरिहारी। अथपि भणत:-" परिहारतवपज्जावणट्ठा करेमि काउस्तग्गं वा-अणुपरिहारीत्यपिशब्दसंस्कारः। तत्राऽयमन्वर्थः-परिनिरुवसग्गवत्तियाए सद्धाए मेहार धिइए धारणाए० जाव हारिणोऽणु स्तोकं प्रतिलेखनाऽऽदिषु साहाय्यं करोतीत्यणुवोसिरामि,पणुवीसुस्सासकालं सुभझवसायी चउ सत्यवं परिहारी, तत्र यदि पूर्व कृतपरिहारोऽनुपहारी न लभ्यते, वा वितेजा, नमोकारेण पारेत्ता अक्वलियं चउवीसत्वयं ततस्तस्य असति अभावे, इतरोऽपि प्रकृतपरिहारतपा उच्चरंति।" अत्र शिष्यः प्राऽऽह-किमर्थमेष कायोत्सर्गः कि अपि दृढदेहो दृढसंहननो गीतार्थोऽनुपरिहारी स्थाप्यते । यते?,उव्यते-(जाणणट्ठा)साधूनां परिक्षानार्थम् । अथवा-नि एवं कल्पस्थितमनुपरिहारिणं च स्थापयित्वा स्थापना रुपसर्गनिमित्तम्। एतच्चानन्तरगाथायां वक्ष्यति। (ठवण त्ति) स्थापनीया। कल्पस्थितस्य अनुपारिहारिकस्य च स्थापना कर्तव्या । तां च स्थापनां स्थापयन्नाचार्यः शेषसाधूनिदं वक्तिततो (दोउ उविरसु)कल्पस्थिते अनुपारिहारिके च स्थापिते सति स पारिहारिकः । कदाचिद्भीतो भवेत्-कथमहमा एस तंवं पडिवाइ, न किंचि लवति मा य आलवह। लापनादिपरिवर्जितः सन्नुग्रं तपः करिष्यामीति । तत ए. अत्तचिंतगस्सा, वाघातो भे न कायव्यो। ३६३ ॥ वं स भीतः सन् श्राश्वासयितव्यः । तवाऽचटः, कृपो, नदी, आचार्यः समस्तमपि सबालवृद्धं गच्छमामन्त्र्य ब्रूते एषः सरित् राजा च दृष्टान्तः । तथाहि-यथा कोऽप्यवटे पतितः 'साधुः' परिहारतपःप्रतिपद्यते,ततः कल्पस्थितिरेषा, न किसन् भयमगमत्-कथमुत्तरिष्यामि । ततः स तटस्थैरा- श्चित्साधुमितरं चा पालापयति । “वर्तमानसामीप्ये वर्तमानश्वास्यते-मा भैस्त्वं, वयं त्वामुत्तारयिष्यामः, तथा च वद्वा"॥३३६१३१॥ इति (पाणि०) वचनतो भविष्यति वर्तमारज्जुरियमानीता वर्तते इति । एधमाश्वासितो निर्भयः स- ना। ततोऽयमर्थः-न कश्चिदालापयिष्यति, मा च यूयमपि न् स्ताघां बध्नाति, यदि पुनस्तं प्रत्येवमुच्यते-मृत एप एनमालापयथ श्रालापयिष्यथ । तथा आत्मन एव केवलचराको न कोऽप्युत्तारयिष्यति, ततः स निराशः सन्नङ्गं स्यार्थ भक्ताऽऽदिलक्षणं चिन्तयति, न बालाऽऽदीनाम् , तथा निस्सह मुक्त्वा नियते, ततः स यथा नियमत आश्वा- कल्पसमाचारादित्यात्मार्थचिन्तका यदि वा-आत्मार्थो नामसनीयस्तथा पारिवारिकोऽप्याश्वासनीयः । यथा वा कोऽपि अतीचारमलिनस्याऽमनो यथोक्तेन प्रायश्चित्तविधिना निरनद्या अनुधोतसो ह्यमानो भयमायासीत् । ततः स तट- | तिचारकरणं विशोधनमिन्यर्थः। चिन्तयतीत्यान्मार्थ चिस्थैराश्वास्यते, आश्वासितश्च सन् स्ताधां प्राप्नोति, अ. न्तकस्तस्य (भे) भवद्भिरेतैः पदैर्व्याघातो न कर्तव्यः । नाश्वासितो निराशा भयेनैव घ्रियते । यथा वा कस्यचित् तान्येव पदान्याहराजा रुएः, ततः स भीतो नूनमहं मारयिष्ये इति ततः सोऽन्यैराश्वास्यते-मा भैर्वयं राजानं विज्ञपयिष्यामो, न च आलावण पडिपुच्छण-परियट्ठट्ठाण बंदणग मत्ते। राजा पन्यायं करोति । एवं पारिहारिक आश्वासनीयः । पडिलेहण संघाडग-भत्तदाण संभुंजणा चेव ॥ ३६४ ॥ प्राश्वासनदानेन च तस्मिन् भीते पा समन्तात् स्वस्थे एष न कञ्चिदप्यालापयिष्यति युष्माभिरप्येष नालपयिजाते अधिकृततपसः प्रतिपत्तिः क्रियते । । तथ्यः । तथा सूत्रमर्थमन्यद्वा किंचिदेष न युष्मान् प्रक्ष्यति Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६३) परिहार अभिधानराजेन्द्रः। परिहार युष्माभिरप्येष सूत्रार्थाऽऽदौ न प्रष्टव्यः, तथा युष्माभिः सह | एवं स्थापनायां स्थापितायां भीतस्य च पूर्वोक्तप्रकारेणाssनैष सूत्रमर्थे वा परिवर्तयिष्यति नाऽपि युष्माभिरनेन सह श्वासनायां च कृतायां स पारिहारिकः तपो वोढुं प्रवर्तते, सूत्रादि परिवर्तनीयम्। तथैष कालवेलाऽऽदिपुयुष्मानोत्था. तपो वहश्च क्लमं गतो वीर्याऽऽचारमनिगृहयन् यद्यन्यवरां पयिष्यति युष्माभिरप्येष नोत्थापयितव्यः । तथा न बन्दनं क्रियां कर्तुमसमर्थो भवति तदा तु पारिवारिकः करोति । युष्माकमेष करिष्यति, नापि युष्माभिरेतस्य कर्तव्यम् । तथा तथा चाऽऽहउच्चारप्रश्रवणखेलमात्रकाण्येष युष्मभ्यं न दास्यति नापि | उहिज्ज निसीएज्जा, भिक्खं हिंडिज भंडयं पेहे। युष्माभिरेतस्मै दातव्यम् । तथा-न किश्चिदुपकरणमेष यु. ___ कुवियपियबंधवस्स व,करेइ इयरो वितुसिणीओ॥३६८॥ ष्माकं प्रतिलेखयिष्यति नापि युष्माभिरुपकरणमेतस्य प्र. यद्युत्थातुं न शक्नोति ततो ब्रूते-उतिष्ठामि तदनन्तरमनुतिलेखनीयम् । तथा नैष युष्माकं मंघाटकभावं यास्यति न च युष्माभिरेतस्य संघाटकैर्भवितव्यम् । तथा न युष्म पारिहारिकः समागत्योत्थापयेत् । तथा यदि निषीदनं भ्यमेष भक्तं पानं वा पानीय दास्यति न च युष्माभिरे कर्तुमसमर्थस्तदा निषीदामीति वचनानन्तरं सत्वरमागत्य तस्याऽऽनीय दातव्यम् । तथा नायं युष्माभिः सह भोच्यते निषीदयेत् । यच्च भिक्षां गतः सन् कर्तुं न शक्नोति तदपि मापि युष्माभिरेतेन सह भोक्तव्यम , तथा कल्पसमाचा. भिक्षाग्रहणाऽऽदिकं करोति । अथ ब्रूते-भिक्षामेव हिण्डितुम समर्थः तदा भिक्षामनुपारिहारिका केवलो हिराडेत । एवं रात् । तस्मात् आलापने प्रतिप्रच्छन्ने परिवर्तने उत्थापने चन्दनदापने मावे उच्चारप्रथवणखेलमात्रकानयने प्रतिलेख भएडकप्रत्युपेक्षणेऽपि साहाय्यं करोति, समस्तं वा भण्डकं ने संघाटके संघाटककरणे भक्तदाने संभोजने च सहभो प्रत्युपेक्षते । कथमेतत् सर्व करोतीत्यत आह-(कुवियेत्याजनविषये व्याघातो न कर्तव्य इति संबन्धः,पालापनाऽऽदि दि) यथा कोऽपि कुपितप्रियवान्धवस्य यत्करणीयं तन्सर्वे भिर्व्याघातो न कार्य इत्यर्थः । एवमेतैर्दशभिः पदैर्गच्छेन स तूष्णीकः करोति । एवमितरोऽप्यनुपारिहारिकस्तस्य पारिपरिहृतः सोऽपि गच्छमेतैः पदैः परिहरति । हारिकस्य तूष्णीकः सन् सर्व करोति । अत्र पर माह(७) यदि पुनर्गच्छवासी एतानि पदान्यतिचरति तत इदं प्रायाश्चित्तम् । अवसो व रायदंडो, न एव एवं तु होइ पच्छित्तं । संघाडगो उ जाव य, लहुओ मासो दसएह उ पयाणं। सक्करसरिसवसगडे-मंडववत्थेण दिटुंतो ॥३६॥ 'अवसो' इत्यत्र प्रथमा तृतीयाऽर्थे, पार्षत्वात् । ततोऽयलहुगा य भत्तपाणे, मुंजाणे होतऽणुग्धाया ॥ ३६५॥ मर्थः-यथा राजदण्डोऽवश्यमवशेनापि वोढव्यः, किमेवमा दशानां पदानां मध्ये आलापनपदादारभ्य यावदष्टमं पदं ध्यवसानं कृत्वा प्रायश्चितं वोढव्यम्,उतान्यदालम्बनं कृत्वा? संघाटकरूपं तावदेकैकस्मिन् पदेऽतिचर्यमाणे लघुको मा- सूरिराह-नवरं राजदण्डन्यायेन वोढव्यं, किं तु चरणविसः प्रायश्चित्तम् । यदि पुनर्भक्तं पानं च गच्छवासिनः प्रय- शुद्धिनिमित्तमेतत् प्रायश्चित्तमित्येवमध्यवसायेन भवति प्रा. च्छन्ति ततो भक्तदाने भक्तपानदानविषये लघुकाश्चत्वारो। यश्चित्तं वोढव्यम्। अथवा यथा राजदण्डोऽवश्यमवशेनाप्युलघुमासाः प्रायश्चित्तम् । संभोजने सहभोजने भवन्त्यनुद्धा- ह्यते यदि पुनर्नेति नोह्यते ततः शरीरविनाशो भवति । एवताः, चत्वारो गुरुमासा इत्यर्थः । शब्द पवंशब्दात्परतो द्रष्टव्यः । एवमेव राजदण्डन्यायेनैव साम्प्रतमेतेष्वेव पदेषु परिहारिणः प्रायश्चित्तमाह- प्रायश्चित्तमप्यवश्यं भवति वोढव्यम् , तद्वहनाभावे चारित्रसंघाडगो उ जाव य, गुरुगो मासो दसएह उ पयाणं । शरीरविनाशाऽऽपत्तेः। पुनरप्याह-प्रभूतं प्रायश्चित्तस्थानमाप समुह्यतां किं स्तोकमापनमुह्यते, न खलु किमपि तावता भत्तप्पयाणे संभु-जणे य परिहारिगे गुरुगा ॥३६६॥ प्रायश्चित्तस्थानेनाऽऽपचेन भवति । अत्राऽऽचार्यःप्राऽह-"संदशानां पदानामालापनपदादारभ्य यावरसंघाटकः संघा- करेत्यादि पश्चार्द्धम्।"सर्करस्तृणाऽद्यवस्करः, तेन,तथा सटकपदं तावदेतेषु पदेष्वतिचर्यमाणेषु प्रत्येकं पारिहा- र्षपाःप्रतीताः,सर्षपग्रहणं पाषाणोपलक्षणम् । ततोऽयमर्थ:रिके गुरुको मासः, यदि पुनर्गच्छवासिभ्यो भक्तपदानं क- शकटे पाषाणेन, मण्डपे सर्षपेण, वखेण चात्र दृष्टान्तःतरोति, तैः सह भुने वा तदा प्रत्येक भक्तदाने संभोजने च थाहि-यथा सारण्या क्षेत्रे पाप्यमाने सारणीस्रोतसि तृणप्रायश्चित्तं गुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः। शूकमेकं तिर्यग्लग्नं, तैर्नाऽपनीतं, तनिश्रया अन्यान्यपि तृणयः पुनः कल्पस्थितः स इदं करोति शूकानि लनानि, तन्निाश्रया प्रभूतः पङ्को लग्नः । तत एवं कितिकम्मं च पडिच्छइ, परिस पडिपुच्छयं पि से देइ । तस्मिन् स्रोतसि रुद्ध क्षेत्र समस्तमपि शुल्कम् । एवं स्तोकेसो वि य गुरुमुवइटइ, उदंतमवि पुच्छितो कहए ।।३६७।। नाऽऽपन्नेन पङ्केनाशाध्यमानेन चरणकुल्यानिरोधचरणक्षेत्र विनाशो भवति, तत एवं ज्ञात्वा स्तोकमपि प्रायश्चित्तस्थानकृतिकर्म वन्दनकं तत् यदि पारिहारिको ददाति तदा मापनं वोढव्यमिति।शकटदृष्टान्तो यथा-एकापाषाणःशकटे गुरुः प्रतीच्छति । उपलक्षणमेतत्-आलोचनमपि प्रती. प्रक्षिप्तः स नापनीतः अन्यः प्रक्षिप्तः, सोऽपि नापनीतः, च्छति । (परिम ति)प्रत्युषसि अपराएहे च परिक्षां प्रत्या- एवं प्रक्षिप्यमाणेषु भविष्यति स कोऽपि गरीयान् पाषाणो क्यानं तस्मै ददाति । तथा सूत्रे अर्थे वा यदि पृच्छति ततः यस्मिन् प्रक्षिप्ते तच्छकटं भक्ष्यति। एवं स्तोकेन स्तोकेन प्रतिपृच्छां च ददाति । सोऽपि च परिहारिको गुरुमाचार्य- समापनेन प्रायश्चित्तस्थानेन शोध्यमाने चरणक्रमेण चारित्रमागच्छन्तमभ्युत्थानाऽऽदिना विनयेनोपतिष्ठते । उदन्तःशरी- शकटं भज्यते। अथवाऽन्यथा शकटष्टान्तभावना-शकटे ए. रस्य वात्तैमानिकी वार्ता,तामपि गुरुणा पृष्टः सन् कथयति। केदारु भन तन्त्र संस्थापितमेवमन्बदस्यत् भग्नं न स्थापित Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार अन्निधानराजेन्डः। परिहार मिति सर्व भग्नम् । एवं चारित्रशकटेऽप्युपसंहारो भावनीयः। | गृहियबलो न सुज्झइ, धम्म सहावोत्ति एगई ॥ ३७१ ।। तथा परएडमण्डपे एकः सर्षपः प्रक्षिप्तः,सनापनीतः,अन्यःप्र यः साधुर्यत् शुद्धतपः परिहारतपो वा कर्तुं समर्थः स साक्षिप्तः, सोऽपि नापनीतः। एवं प्रक्षिप्यमाणेषु सर्पपेषु भविष्य. धुरशठभावः स्वकीयं प्रति मायामकुर्वाणः स्वधर्मव्यवस्थिति सर्वपो येन प्रक्षिप्तेन सोऽल्पीयानेरएडमण्डपो भज्यंत । तत्वात्तेन तपसा शुद्धयति । यः पुनर्ग्रहितबलः स्ववीर्य निएवं स्तोकेन स्तोकेनाऽऽपन्नेनाशोध्यमानेन कालक्रमेण चा गृहात सन शुद्धयति । स्वधर्मगृहनात् धर्मः स्वभाव इति रित्रमण्डपो भज्यते । वस्त्रदृष्टान्तभावना यथा-शुद्धे वस्त्रे क द्वयमप्येकार्थम् । एतेन "धम्मया सुद्धो" इति धर्मशब्दस्य दमाबिन्दुः पतितः स न प्रक्षालितः, अन्यः पतितः, सोऽपि न पर्यायेण ब्याख्या कृता पादत्रयेण त्वादिमेन तत्वत इति । प्रक्षालितः । एवं पतत्सु कर्दमविन्दुषु अप्रक्षाल्यमानेषु कालक्रमेण सर्व तद्वत्रं कर्दमवः संजातम्, एवं शुद्धचरित्रं (८) अथ शुद्धतपःपरिहारतपसोः कतरत् कर्कशं तपः। सूरिराहस्तोकायां स्तोकायामापतितायामापत्ती प्रायश्चित्तेनाशोध्यमानायां कालक्रमेणाचारित्रं सर्वथा भवति । बालवणाऽऽदी उ पया, सुद्धतवे अस्थि कक्खडोन भवे । एवं दृष्टान्तः प्रायश्चित्तस्य दाने करणे च प्रसाधिते पर इयरम्मि उ ते नऽत्थी, कक्खडओ तेण सो होइ ।।३७२।। आह यस्मात् शुद्धतपसि दशाप्यालपनाऽऽदीनि सन्ति, तेन काअनुकंपिया य चत्ता, अहवा सोही न विजए तेसिं। रणेन तत्तपः कर्कशं न भवति, इतरस्मिस्तु परिहारतपकप्पट्ठगभंडीए, दिढतो धम्मया सुद्धो ।। ३७० ॥ सि यस्मासान्यालापनाऽऽदीनि पदानि न सन्ति, तेषां पूर्व मेव सकलगच्छसमक्षं स्थापितत्वात् । तेन तद्भवति कर्कशतुल्यायामप्यापत्तौ यस्थ शुद्धतपः प्रयच्छत स युष्माभिर | मिति । यः पुनस्तपःकालो, यश्च तपःकरणं तत् द्वयोनुकम्पितः,तद्विषये च भवतामवश्यं रागोऽन्यथेत्थमनुकम्पा रपि तुल्यम्। करणानुपपत्तेः । यस्य पुनः परिहारं प्रयच्छत स परित्यक्तः तम्हा ऊ कप्पट्ठिय अणु-परिहारिं च तो ठवेऊण । कर्कशतपोदानेन तथा वसति तस्मिन् व्यक्तं प्रद्वेषः। अथवापरलोकमपेक्ष्य परिहारतपश्चानुकम्पितः, परिहारतपोदाने कजं वेयावच्चं, किचं तं विजवचं तु ।। ३७३ ।। न तश्चरणशुद्धिकरणात् शुद्धतपस्वी च परित्यक्ता, शुद्धतप- यस्मादेवं परिहारतपःस्थितिःतस्मात्कल्पस्थितम् अनुपरिसा तश्चारित्रस्य शुद्धयभावात् । एवं विवक्षातो द्वावप्यनुका हारिकं च स्थापयेत्, स्थापयित्वा च तो ततस्तदनन्तरं स्व. म्पिती यदि त्यक्ताविति। (अह्वा सोहीत्यादि) अथवा तयोः मापमं परिहारतपो वोढव्यं, तञ्चाऽऽअन्नं परिहारतपः प्र. शोधिःसर्वथा न विद्यते तथाहि-यदि परिहारतपसा शुद्धि. पन्नस्य ताभ्यां कल्पस्थितानुपरिहारिकाभ्यां स्थापिताभ्यास्ततः शुद्धतपस्विनो न शुद्धिः तस्य परिहारतपोऽभावात् । म्-"करणिजं वेयावचं" इति सूत्रपदम्, एतदेवानुवदति. अथ शुद्धतपसा शुद्धिस्तर्हि पारिहारिकस्य यत् परिहारतप. कार्ये वैयावृत्यम् । एतदेव व्याचष्टे-कृत्यं करणीयं तत् सः कर्कशस्य करणं तत् सर्व निरर्थक, शुद्धतपसाशुद्धधभ्यु- खेचितं ताभ्यां वैयावृत्यम् ।। पगती तेन शुद्धयभावात् । अत्राऽऽचार्य श्राह-(कप्पट्टगेत्यादि) किं तद् वैयावृत्यं यत्ताभ्यां कर्त्तव्यभित्यत आहकल्पस्थका बाला, तेषां भराडी गन्त्री तया दृष्टान्तः। कल्प वेयावच्चे तिविहे, अप्पाणम्मि य परे तदुभए य । स्थकग्रहणं महदुपलक्षणं, तेन महद्गन्ध्या दृष्टान्त इत्यपि द्रएव्यम् । इयमत्र भावना-अत्र बालकगन्ध्या बृहत्पुरुषगन्या अणुसट्टि उवालंभे, उवग्गहे चेव तिविहम्मि ॥ ३७४ ।। च दृष्टान्तः। तथाहि-डिम्भा आत्मीयया गन्त्र्या क्रीडन्ति वैयावृत्यं त्रिविधम् । तद्यथा अनुशिष्टिरुपालम्भोऽनुग्रहश्च । स्वकार्यनिष्पतिं च साधयान्त । न पुनः शक्नुवन्ति बृहत्यु त्रिविधेऽपि तस्मिन् वैयावृत्ये प्रत्येकं त्रयो भेदाः तद्यथारुषगळ्या कार्य कर्तुम् तथा वृहत्पुरुषा अपि प्रात्मीयया - अनुशिपिरात्मनि अात्मविषया, परस्मिन्परविषया. तदुभयहुदगम्च्या काये कुर्वन्ति न डिम्भकगया। अथ डिम्भकगा। स्मिन् तदुभयविषया, यात्मपरतदुभयविषया इत्यर्थः । एव. न्या कुर्वन्ति ततो भूयान् पलिमन्थदोषो, न चाऽभिलषि- मुपालम्भोपग्रहावपि प्रत्येकमात्मपरतदुभयविपया भावयितस्य कार्यस्य परिपूस सिद्धिः। अथ बृहद्न्या भारस्तस्याः। तव्यो । तत्र उपदेशमदानमनुशिष्टि स्तुतिकरणं वा अनुशिमारोप्यते ताह सा भज्यते, मूलत पव काये न सिद्ध्यति ।। ष्टिः, तत्र यत् प्रात्मानमात्मना अनुशास्ति सा आत्मानुशिएवं शुद्धतपास्वनां शुद्धतपसा शुद्धिर्भवति, परिहारतस्वि. ष्टिः। यत्पुनः परस्य परेण वाऽनुशासनं सा परानुशिष्टिः । नां परिहारतपसा, यदि पुनः शुद्धतपस्विनां परिहारतप आ- तत्रोदाहरणम् चम्पायर्या नगर्या सुभद्रा,सा हि सर्वैरपि नागरोप्यते ततस्तत्र तेषां शक्त्यभावात् मूलत एव भ्रंशः । अर्थ रिकजनैरनुशिधा,यथा धन्याऽसि त्यं कृतपुण्यासि त्वमिति । च परिहारतपस्विनां शुद्धतपस आरोपस्तर्हि चरण शुद्धयमा यत्पुनरात्मानं परं वाऽनुशास्ति सा उभयानुशिष्टिः । तघर,तावता तेषां चरणशुद्ध्ययोगात् । अथ कथं शुद्धतपस्वी, था-अनाबारे कृते सति यत्सा तु नयोपदेश दान मेव उपा. परिहारतपस्वी च स्वस्वतपता शुद्धयति, नान्येन, तत लम्भः । सोऽपि त्रिविधः, तद्यथा-श्रात्मनि परे, तदुभये च । थाह-(धम्मया सुद्धो) इह शुद्धतपस्वी परिहारतपस्वी वा| तत्र यदात्मानमात्मनेवोपालम्भते, यच्च त्ववेदं कृतं, तस्मा. शुद्धो भवति 'धम्मया' स्त्रीत्व प्राकृतत्वात् धर्मेण स्वश- सम्यक सहस्वेति स आत्मोपालम्भः । परेणाचार्या किलक्षणेन स्वभावेन, तत एवमेव शुद्धिर्नान्यथा। ऽऽदिना यदुपालम्भनं स परोपालम्भः । तत्रोदादहरणम्एतदेय स्पष्टतरं भावयति मृगावती देवी, सा हि आर्यचन्दनया अकाल बारिणीति जो जं काउ समत्थो, सो तेण विसुज्झए असहभावो। । कृत्वा उपालब्धा । उभयोपालम्भनो नाम-यत् प्रथमत श्रा Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परहार त्मानमात्मनोपालभते, पश्चादाचार्याऽऽदिना परेगोपालभ्यते । यदि वा गुरुणा उपालभ्यमानस्तत् गुरुवचनं सम्यक् प्रतिपद्यमानः प्रत्युच्चरति एष उभयोपालम्भः । तथा उपअद्वणमुपग्रहः, उपष्टम्भकरणमित्यर्थः । सोऽपि fafeधः । तद्यथा - श्रात्मोपग्रहः, परोपग्रहः, उभयोपग्रहश्च । तत्र य दात्मन उपष्टम्भकरणं स आत्मोपग्रहः, यत्पुनः परमुपगृहाति स परोपग्रह श्रात्मनः परस्य चोपष्टम्भकरणमुभयोपग्रहः । उपग्रहश्च स्वरूपतो द्विधा- द्रव्यतो, भावतश्च । श्र त्र चतुर्भङ्गिका-द्रव्यतो नामक उपग्रहो, न भावतः १ । भावत एको, न द्रव्यतः २। एको द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि ३। एको नाऽपि द्रव्यतो नापि भावतः। अत्र चतुर्थो भङ्गः शून्यः । तृतीयभ उदाहरणमाचार्थः । 13 (६१५) अभिधानराजेन्द्रः | + तथा च उक्लानेच दान्तानुपदर्शयति 9 अणुट्टीएँ सुभद्दा, उवालंभम्मि य मिगावती देवी । आयरिश्र दोसुव-ग्गहे य सव्वत्थ वाऽऽयरिओ | ३७४ | अनुशिष्ट परानुशिष्टानुदाहरणं सुभद्रा, उपालम्भे परोपा लम्भे उदाहरणे मृगावती देवी । एते च द्वे अप्युदाहरणे प्रागेव भाविते परस्य द्रव्यभावयोर्विषये उपग्रहे उदाहर रामाचार्यः । स हि द्रव्यमन्नपानाऽऽदिकं दापयति, भावतः प्रतिपृच्छाऽऽदिकं करोति । (अथवा दोसु उवग्गहे यत्ति ) द्वयोः पारिहारिकानुपारिहारिकयोरुपदे श्राचाप वर्तते । तस्मात्परोपग्रहे श्राचार्य उदाहरणम् । अथवा सर्वव अनुशिष्टौ उपालम्भे उपग्रहे च उदाहरणमाचार्यः । यतः सपरिहारिकस्यानुपारिहारिकस्य समस्तस्याऽपि वा शिष्ट्यादीनि करोतीति व्य १ उ० ( सर्वोऽप्यनुशिष्टिविषय: ' असड्डी' शब्दे प्रथमभागे ४२० पृष्ठे गतः ) संप्रत्यात्मोपालम्भोल्लेखं दर्शयति 1 तुमए चैव कमियं न सुद्धगारिस्स दिजए दंडो इह को विन मुच्चर, परत्थ ग्रह होउपालंभो || ३७७|| त्वयैव स्वयं कृतमिदं प्रायश्चित्तस्थानं, तस्मान्न कस्याप्युपर्यन्यथाभावः कल्पनीयः न खलु शुकारिणी लो 3पि दण्डो दीयते । किं च यदि इह भवे कथमप्याचार्येणैवमेव मुच्यते । तथा इह भवे मुक्तोऽपि परत्र परलोके न मुच्यते । तस्मात्प्रमादाऽऽपन्नं प्रायश्चित्तमवश्यं गुणवृद्धया कर्तव्यमिति । अथ एष भवत्युपलम्भः । एष आत्मोपलम्भः, एतदनुसारेण परोपालम्भः, उभयोपालम्भोऽपि भावनीयः । संप्रति परोपग्रहे यदुक्तम्- " आयरिश्रो दोसुवग्गहे य" इति । तत् व्याख्यानयति दव्येण व भावेण य, उचग्गहो दब्बे अपालाई । भावे परिपुच्छाई, करेति जं या मिलावस्स ।। २७८ ।। उपमहाद्विविधः इध्ये भावेन च तब "दच्चे " इति दतीयायें सप्तमी, इज्येोपग्रह कल्पस्थितोऽनुपारिहा रिको या असमर्थस्य सोपानथानेनं ददाति । भावे भावेनोपग्रहो यत् सूत्रे ऽर्थे वा प्रतिपृच्छाऽऽदि करोति । अथवा यत् ग्लानस्य क्रियते समाधानोत्पादनमेव भावोपग्रहः । अधुना " दोसुवग्गहे य" इत्यस्य व्याख्यानान्तरमाहपरिहाराणुपरिहारी, दुविरेस उपमहेश आवरियो । १६७ परिहार उवगेरह सन् वा सवालबुड्डाऽऽउलं गच्छे ।। २७६ ॥ परिहारिकमनुपरिहारिकं च एतौ द्वावपि द्विविधेन द्रव्यरूपेण भावरूपेण वोपग्रहेणाऽऽचार्य उपगृह्णाति, ततः श्रात्मोपग्रहे आचार्य उदाहरणम् । "सव्वत्थ वायरिश्रो" इत्यस्य व्याख्यानमाह - ( सव्वं वा इत्यादि) वाशब्दः पूर्वार्धोक पक्षापेया पासूने सबै पारिहारिकमनुपारिहारिकं सबालवृद्धाऽऽकुलं च गच्छमाचायों इय्यतो मातीपा ति, ततः सर्वत्र समस्तेऽपि गच्छे आचार्य उपग्रहे वर्तते, तस्मात्परोपग्रहे स उदाहरणम् । अत्रैव व्याख्यानान्तरमाह अहवाऽणुसङ्कुवालं - भुवग्गहे कुणति तिन्निवि गुरू से । सच्चस्स वि गच्छस्स, अगुसद्वारा सो कुणति ॥ ३८० ॥ अथवेति प्रकारान्तरे, अनुशिष्ट्युपालम्भोपग्रहान् त्रीनपि गुरुराचार्य: (से) तस्य पारिहारिकस्य यथायोगं करोति न केवल पारिहारिकरूप यथायोगं करोति किं तु सर्वस्याऽपि गच्छस्य अनुशिष्ट्यादीनि त्रीण्यपि स श्राचार्यः करोति । व्य० १ उ० । नि० चू० । ( बहवः पारिहारिका इच्छन्ति अभिनिषद्यां गन्तुमिति तद्वक्तव्यता 'श्र भिणिसज्जा ' शब्दे प्रथमभागे ७१५ पृष्ठे दर्शिता ) (८) परिहारकपस्थितस्य भिक्षोरन्यत्राचार्याणां वैयावृत्याय गमनम् - परिहारकपट्टिते भिक्खू वहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेजा, थेरा य से सरेजा, कप्पड़ से एगराइयाए पडिमाए, जं जंग दिसि आये साहम्मिया विहरंति तं तं देखे उबला से कप्पर, तस्थ विहारतिय बथए, कप्पड़ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तरिंस च णं कारणंसि निट्ठियंसि परो वा बसाहि अजो! एगरावं वा दुरायं वा एवं से कप्पड़ एगरा वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पड़ एगरायं वा दुरायं वा परं वत्थए, जं तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ, से संतराए छेदे वा परिहारे वा ॥ २३ ॥ परिहारकष्पट्ठिए भिक्खू पहिया थेराण देपावडियार ग च्छेजा, थेरा य से यो सरेआ, कप्पर से णिविसमाणस्स एगराइयाए पडिमाए जं गं जं गं दिसं० जाव तत्थ एगराओ वा दुरावा परं वसति, से संतरा छेदे वा परिहारे वा ।। २४ ।। परिहारकप्पट्ठिते भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडिया गच्छेजा, थेरा य से सरेजा वा, यो सरेज्जा वा, कप्पर से विसमाणस्स एगराइयाए० जाव छेदे वा प रिहारे वा ।। २५ । परिहारस्य कल्पः समाचारी परिहारकल्पस्तत्र स्थितः परिहारकल्पस्थित प्राधिकारे व्यवस्थित इत्यर्थः निती परियत्र नगरादी स्थापराणामाचार्यादीनां देवावृत्या वैयावृपकरणाय गच्छेत् स्थविराध येणं समीपे स्मरेयुर्यदेव परिहारकर्त स्मरद्भिस्थ स यथ्यो- यावयत्यागच्छति तावि --- Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वधार्थ पिपरिहारावान पडिसेहो। परिहार अनिधानराजेन्धः। परिहार क्षिप परिहारतपः। तत्र यदि सामर्थ्यमस्ति,ततः परिहारतपः लक्षणमेतत्-उपाध्यायस्य च प्रतिषेधो भिक्षुग्रहणेन, आ. प्रपखो गच्छति अथ नास्ति, ततो निक्षिपति.निक्षिप्य च (से) चायोपाध्यायप्रतिषेधार्थ भिजुग्रहणामात भावः। नस्य कल्पते एकरात्रिक्या प्रतिमया, अत्र प्रतिमाशब्दोऽभि पुनरप्यत्राऽऽक्षेपपारेहारावाहप्रहबाची, एकराषिकेणाभिग्रहेण । किमुक्तं भवति ?-यत्रापा- वेयावच्चुञ्जमणे, गणिआयरियाण किन्नु पडिसेहो । भतराले वसामि तत्र गोकुलाऽऽदी प्रवुरगोरसाऽऽदिलामे भिक्खुपरिहारिओ विहु, करेइ किमु आयरियमादी॥६॥ ऽपि प्रतिबन्धमकुर्वता कारणमन्तरेण मौकरात्रमेव वस्तव्यं. नाधिकामत्येवरूपेणाभिग्रहेण (जंणं जं णं दिसमित्या वैयावृत्योद्यमने वैयावृत्त्यविषयोद्यतकरणे,किं नु खलु गण्या. दि) अत्र द्वितीया सप्तम्यर्थे, यस्यां यस्यां दिशि, शंशब्दो चार्ययोर्गच्छाधिपत्यनुयोगाऽऽचार्योपाध्यायानां प्रतिषेधः,नैबाक्यालङ्कारे । अन्ये साधम्मिका:-(लिङ्गसाधर्मिकाः) प्रव. वाऽसौ युक्त इति भावः । यतो भिरपि, अपिशब्दो भिन्नचनसाधम्मिका वा संविनसांभोगकाऽऽदयो वक्ष्यमाणा क्रमत्वादनोपात्तोऽप्यन्यत्र संबध्यते । पारिहारिकः करोति । स्तिष्ठन्ति । (तं णं तं णं दिसमिति) तांतां दिशं, णंशब्दो प्रा संघवयावृष्यं किमुताऽऽचार्याऽऽदि न करोति, सुतरां तेन कग्वत् । उपलातुं ग्रहीतुम्, आभवितुमित्यर्थः। 'ला श्रादाने' तव्यम्, गुणोत्तमतया विशेषतस्तस्य तत्करणाधिकारत्वात्। इति बचनात्। (ने। से कप्पर इत्यादि) (नो) नैव (से) तस्य अत्र सूरिराहपरिहारकल्पस्थितस्य, निक्षिप्तपरिहारतपसो वा कल्पते, जम्हा आयरियाऽऽदी, निक्खिविणं करेइ परिहारं। तवेति गच्छन् यत्र वसति भिक्षांवा करोति, तत्र सुन्दर प्रा. तम्हा आयरियाऽऽदी,वि भिक्खुणो होति नियमेण ॥६६॥ हार, सुन्दर उपधिः, सुन्दरा शय्येति समीचीनो बिहार इति यस्मादा- बाऽऽदिकः परिहारंपारहारतपः करोति प्राचाविहारप्रत्ययं वस्तुम् (कप्पद से इत्यादि) कल्पते (से) तस्या दिपदं निक्षिप्य मुक्त्वा, तस्मादाचार्यादयोऽपि भवन्ति नन्तरोदितस्य यत्न भिक्षां कृतवान् उषितवान् वा, तन्न कार नियमेन भिक्षा इति । भिनुमहणेन तेऽपि तदवस्थोपगता गृहीता इति। णप्रत्ययं वक्ष्यमाणसूत्रार्थप्रतिपृच्छादानाऽऽदिकरणनिमित्त वस्तुम् (तस्सि च णमित्यादि)। येन कारणेनोषितस्तस्मिन् (६) श्रय स्थविराणां वैयावृत्त्याय गच्छतीत्युक्तं, तत्र कि कारणे निष्ठिते परिसमाते यदि ब्रूयात्-अहो आर्य ! यस ए. वैयावृत्यं, येन हेतुभूतेन स गच्छति ? । तत श्राहकरा द्विशत्रं वा तत एवं तदुपरोधतः (से) तस्य कल्पते ए परिहारिनो उ गच्छे. सुत्तत्थविसारो सलद्धीओ। करावं.द्विरानं वा वस्तुं, न पुनः (से) तस्य कल्पते एक रात्रात् अनेसिं गच्छाणं, इमाई कजाई जायाई ॥७॥ द्विरात्राद् नापरं वस्तुं, यत्पुनस्तत्रैकरात्रात् द्विरात्राद्वा परं यस्मात्त पारिहारिकः सूत्रार्थविशारदः सम्यक् सूत्रार्थतवसात निष्कारणवसनरूपात् वा (से) तस्य प्रायश्चित्तं दुभयकुशलः । तथा सलब्धिको नेकलब्धिसंपन्नः। ततः सू. छेदो चा परिहारो वा परिहारतपो वेति । एष सूत्रसंक्षे. त्रार्थप्रतिपृच्छाप्रदाननिमितम्, तथाऽन्येषां अच्छाऽऽदीनां प. पार्थः ॥ २३ ॥ (परिहारकम्पट्टिए) पतदपि सूत्रत्रयं तथैव ष्ठी सप्तम्यर्थ प्राकृतत्वात् अन्येषु गच्छेषु, इमानि वक्ष्यमाणानवरमेतावान् विशेषः-(थेरा य से सरिजा वा नो सरि नि, कार्याणि जातानि, ततः साधनार्थ च गच्छेत् । जा वा नो कप्पह से निविसमाणस्स ति) अस्याऽयम इदं तु महत्प्रवचनस्य वैयावृत्यं यत् सूत्रार्थप्रदानादि करोति। र्थ:-स्थविराः (से) तस्य परिहारकल्पं स्मरेयुः। यदि वा अथ कान्यन्येषुजातानि कार्याणि.यदर्थ स व्रजेत्?.अत पाहव्यापान स्मरेयुः, वाशदादुभावपि न स्मरयाताम्, तथा अकिरिय जीए पिट्टण-संजम बंधे य भतमलभंते । ऽपि यदि निविशमानको गच्छति ततः (से) तस्य नि-1 भत्तपरिम गिलाणे, संजमऽतीए य वादी य ॥ ७१ ॥ विशमान कस्प एकरात्रिक्या प्रतिमया एकरात्रिकेण वा प्रक्रियावादी नास्तिको वादी स राजसम वादं याचते। साभिग्रहेण कदाचिदपि प्रतिबन्धमन्तरेण गच्छत इत्यादि। (जीए ति) जीविते वा साधूनां प्राणेषु वा राजा केनापि तथाचाऽऽह-इह त्रीणि सूत्राणि, तद्यथा-प्रथमं स्मरणसूत्रं, कारणेन प्रद्विष्टः (पिट्टण त्ति) पिट्टयति वा लकुटाऽऽदिद्वितीयमस्मरणसूत्रम्, तृतीयं मिश्रकसूत्रम् स्मरणास्मर- भिः साधून (संयम त्ति ) संयमाद्वा च्यावयति, उत्प्रवाजयणसूत्रमित्यर्थः ॥ २४ ॥ २५ ॥ तीति भावः । ( बंध त्ति ) बनाति वा साधून, बन्धे च कृते साम्प्रतमेतदेव सूतं विवरीषुः प्रथमतो भि साधवी राक्षः सकाशाद्भक्तपानं लभन्ते वा, न वा। किम. शब्दविषये चालनाप्रत्यवस्थाने श्राह क्तं भवति?-बन्धयित्वा स्वयं ददाति वा, धारयति वा यदेते. परिहारियगहणणं, भिक्खुग्गहणं तु होइ किं पगयं । भ्यो हिण्डमानेभ्यः कोऽपि मा भिक्षां दद्यादिति । (भत्ते किंच गिहीण विभामित्ति,गणिआयरियाण पडिसेहो।६७। त्ति) दुर्भिक्ष वा समापतिते भक्तमतीव दुर्लभं जातमिति अथवा-पारिहारिकग्रहणेन परिहारकल्पस्थितग्रहणेन भि. गत्वा स संपादयति । (भत्तपरिणत्ति) भक्तमत्याख्यानं वा क्षुग्रहणं किं न भवतीति भावः, परिहारिकस्य भिक्षुत्वा- केनाऽपि साधुना कृतं, सच परिहारिका शोभनो निर्यामव्यभिचारात् न खलु पारिहारिकत्वं गृहस्थस्याऽपि भव- का (गिलाण सि) ग्लानो वा कोऽप्याचार्याऽऽदिकः प्रवचति । एतदेव काका अाह -(किं च गिहीणं वित्ति) किं वा गृ नाऽऽधारभूतो जातः. स च पारिहारिका सम्यक वैद्यक्रियाहिणामपि गृहस्थानामपि भवति पारिहारिकत्वं, येन तव्य कुशलः । (संजमतीते त्ति) संजीतीताः उत्तवजिताः बच्छेदकरणतोभिक्षुग्रहणं सफलतामश्नुवीत?, नैव भवतीति तेराशा कृताः, कृत्वा च धृता वर्तन्ते इति तन्मानार्थ गभावः ततो निरर्थकं भिक्षुग्रहणम्। अत्राह-भण्यते उत्तरं छति (वादिति) नास्तिकवादिव्यतिरिक्तो दर्शनान्तरस्थः दीयते-गरपाचार्ययोर्गणी गच्छाधिपतिराचार्यस्तयोः, उप- कोऽपि वादं याचते । एतेषां कारणानामन्यतमसिन्नपि Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार कारसे जाते अन्यगवर्तिभिः संघटक प्रेषितः तेन च संघाटन आचार्यस्य निवेदितम् । तत श्राचार्यस्तस्य परिहारिकस्य माहात्म्यमवगच्छनिद माह , न वि व समत्यो अयो, अयं गच्छामि निक्खिविय भूमिं । सरमाणेहि विभणियं, आयरिया जाणिया तुज्भं ॥ ७२ ॥ पारिहारिकं मुक्त्वा नैव श्रपिशब्दोऽवधारणार्थः । अन्यः कोऽपि तं वादिनं निवारयितुम् अन्या प्रयोजनं साथवितुं समर्थः । यदि वास एवं पारिहारिको भूते-प्रचण्डः स वादी, न मां मुक्त्वा श्रन्यः कोऽपि निवारयितुं समर्थः, न या राजानं पादिकारवन्तम् ततो यदि गुरवोऽनुजा जति ततोऽहं गच्छामि । एवं स्वयं तन्माहात्म्ये ज्ञातेऽन्येन वा कथिते तैराचारेच परिहारतो वहतीति स्मरद्भितं प्रति भणितं कर्तव्यम् एतत् ब्रूयात् तं प्रतीत्यर्थः । यथा श्रार्य ! निपि मुञ्च भूमिमात्मीयां भूमिकां यावत् प्रत्यागमनमि द्द भवति तावत् मुच्यतां परिहारतप इति । एवमुक्ते यदि निक्षिपति ततो नि कार्यते अथ ते पारिहारिको भगवन ! शक्नोमि प्रायश्चित्तं बोडं तदपि च प्रये जनं कर्तुम् । तत श्राचार्यैर्वक्तव्यम् - ( श्रायरिया जाएगा तु ज्झमिति ) तव श्राचार्या शकाः । किमुक्तं भवति ? - यत्र त्वं गच्छसि तत्र ये धाचार्याले पत् ते तत् कुर्या इति । (६६७) अभिधानराजेन्द्रः । , त्रयम्-"नपि य समत्यो असो अगष्यामिति" तद्विभावयिषुरिदमाह जायंता माह, कति सो वा सयं परिकडे । तत्थ स वादी हु मए, वादेसु पराजितो बहुसो ॥ ७३ ॥ तस्य पारिहारिकस्य माहात्म्यमद्भुतां शक्तिं स्वयं जानाना इदं तस्मै कथयन्ति — यथा नान्यः कोऽपि समर्थकां मुक्त्वा । अथवा स एव पारिहारिकः स्वयं गुरुभ्यः परिकथयति । यथा--तत्र तस्मिन् गन्तव्ये स्थाने यो वादी वर्तते समया (हु) निश्चितं बहुशो अनेकवारं वादेष्वक्रियावादा :दिषु पराजितः प्रचण्ड स न मां मुकाऽन्येन निवारयितुं शक्यतेनापि राजा पिह्ननाऽऽदि कारयन् । ततो यदि शुरू नामनुशा भवति ततोऽहं गच्छामीति । शेषं पूर्वगाथागतसुतानमिति न व्याख्यातम् । " अत्र खोदक आहचोर कहं तुझे, परिहारतकं तगं पवं तु । निक्खिविडं पेसेहा ?, चोयग ! सुण कारणमिणं तु ॥ ७४ ॥ चोदयति प्रश्नयति परो, यथा-कथं यूयं तकं परिहारतपःप्रतिपन्नं परिहारतपो वहन्तं ( निक्खिविउमिति ) परिहारतपो निक्षिय निक्षेप परिहारतपसः कारवित्वा प्रे पयेत् ? स हि महातपत्नी दुष्करकारी, ततो न युक्तमेतस्य तपो मोचयित्वा प्रेवणमिति । अत्राऽऽचार्य श्राह-चोदक ! ण कारणमिदं येन कारणेन स तपो निक्षिप्य प्रेष्यते । तदेव कारणमाहतिक्खेमु तिक्ख कर्ज, सहमासु व कमेण कायां । न य नाम न कायव्वं, कायन्त्रं वा उवादाय ॥७५॥ परिहार तीक्ष्णं नाम यद् गुरुकमतिपाति च तेषु तीक्ष्णेषु कार्येषु समुत्पत्ती कार्यम् अत्र तरलोपो द्रष्टव्यः । तीरयतरं कार्य तत्प्रथमं कर्तव्यं पश्चादितरत् । उक्रं च "युगपत्समुपे तानां कार्याणां यदतिपाति तत्कार्यम् । श्रतिपातिष्वपि फलदं, फलदेष्वपि धर्मसंयुतम् ॥१॥ (इमा यति) सहमानं गु रुकमनतिपाति च तेषु सहमानेषु पुनः कार्येषु तद्यथा देशकाखाद्योत्येन युज्यते तत्तथा मे कर्त व्यम् । ( न य नाम न कायव्वं ति) न च नाम तीक्ष्णतरं कार्ये कृत्या पश्चात्समानर्तकतु कर्तव्यमेव (कायव्यं वा उपादायेति ) यदि वा द्वयोरतिपातिनोः कार्ययोः स मुत्पन्नयोर्गुलायचचिन्तामुपादाय यत् यत् कंप कारि सकलसंघसाधारणं च तत्तत् कर्तव्यम्, इतरदतिपात्युपेक्षते । तत्र यदुक्तं तीक्ष्णतरं प्रथमतः कृत्वा पश्चात्लहमानकं कर्तव्यम्, न च तन्न कर्तव्यमिति तत्र दृष्टान्ते । व्रणक्रिया । तामेवाsss वयकिरिवाए जा होइ बावडा जरपसुग्गहाऽऽदीवा । काउमुत्रवकिरियं, समिति तो तं वणं विजा ॥ ७६ ॥ वगक्रियायां प्रारब्धायामपान्तराले या भवति व्यापत् उपद्रवः । काप्यापदित्याह-ज्वरधनुर्ब्रहादिका. ज्वरो वा समु धनु या वातविशेषः प्रादिशब्दा तदन्येषां गुरुक उपाधिविशेषाणां जीवितान्तकारियां परिग्रहः । तस्य व्याप लक्षणस्य उपद्रवस्य क्रियां कृत्वा ततः पश्चात्तं व्रणं वैद्याः शमयन्ति उपशमयन्ति एष दृष्टान्तः । अयमर्थेऽपनयः जह आरोग्गे पग, एमेव इमम्मि कम्मखवयेण । इहरा उ अवच्छलं, ओहावण तित्थहाणी य ।। ७७ ॥ यथा चैवक्रियायामाचे प्रकृतं येनाऽऽरोग्यं भवति तत् प्रथमं क्रियते, शेवं पश्ादित्यर्थः । एवमेव अनेनैव प्रकारेण मानेकमेन महतं येनानुष्ठानेन कर्मक्षणमबिराद्भवति तत्प्रथमतः कर्तव्यमिति भावः । इयमत्र भावना मोक्षाचे कियमाणायां क्रियायामयान्तरा यदन्तरायमुपजायते येनाकिमान प्राधितज्ञायते तत्यथमतः कर्तव्यमिता तथापि परिद्वारप 1 माने अन्तरा संघाऽऽदिकार्यमुपस्थितं ततः परिहारतपो निक्षिप्य तद् अन्यथा प्रायखिताऽपतितः कर्मप णासंभवः । तथा चाऽऽह इतरथा अधिकृत संघाऽऽदिप्रयोज नाकर ये सेवावापत्ययम् अपभ्राजनाप्रत्ययं तीर्थानि तीर्थदानिप्रत्ययं च प्रावधि समापयते इति । परिहारी गच्छति, तस्स असतीऍ जो उ परिहारी । उभयम् अविरुद्वे, आदरहेतुं तु वग्गहसं ॥ ७० ॥ सामाचारी पद्यपारिहारिकः स्त्रार्थसंपन सल व्धिकश्च तत्कार्य साधयितुं समर्थः ततः स गच्छति । तस्य तथाभूतस्यापारिवारिक स्यासत्यविद्यमानत्वे यः परिद्वारी पारिहारिका सवागत एवमपरमपि पा रिहारिके अपारिहारिके च गमने अतिह तत्रैव पारिहारिकस्य प्रहसं कृतं तदादरतोः सूबे द्वितीया पदव्यापनार्थमित्यर्थः । किमुकं भवति Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६८) अभिधानराजेन्डः। परिहार परिहार यदि पारिहारिकोऽपि गच्छति ततः सुतरामपारिहारिकेण सति पश्चात्कृतो व्रतपर्यायैस्तैः पश्चात्कृताःमुक्तयतपर्यायाः, गन्तव्यमिति स्थापनार्थ पारिहारिकग्रहणम्। न चोभयग्रहण- पुराणा इत्यर्थः । एतस्यापि भङ्गस्थाऽभावे पश्चात्कृतसानिग्रहसुपपत्तिमत्. पारिहारिकग्रहणेनैवोक्तयुक्ति उमयग्रहणस्य श्रावकेषु नितां कृत्वा असंविग्ना सालोगिकेषु वसति । एतद. सिद्धत्वात् ।यदि पुनरपारिहारिकग्रहणमेव केवलं स्यात्ततः नावे पश्चात्कृतसानिग्रहश्रावकेषु नितां कृत्वा पश्चात्कृतसामिपारिहारिको न यातीति प्रतिपत्तिः स्यात् । न चैव तत्समी. ग्रहश्राकेषु वसति । इदानी पश्चास्कृतसानिग्रहनिरनिग्रहश्रा. चीनम्. अतो यथान्यासः श्रेयानिति । बकचतुर्जकी नाव्यते-पश्चात्कृतसाभिग्रहश्राबकेषु भिक्कां कृत्वा संप्रति तस्य संस्थितस्य सहायचिन्तां करोति पश्चात्कृतसाभिग्रहश्रावकेषु वसति १ । एष पूर्वचतुर्भस्याश्च तुथो भगः। पतस्याभावे पश्चात्कृतसाभिग्रहश्रावकेषु भिकां - संविग्गमणुमजुओ, असती अमगुप्म मास पंथेणं । स्वा पश्चात्कृतनिरनिग्रहश्रावकेषु बसति । एतस्यानावे पश्चा. समणुगणेसुं भिक्खं, काउं वसएऽमणुप्मेसु ॥ ७ ॥ स्कृतनिरभिग्रहश्रावकेषु भिक्षां कृत्वा पश्चात्कृतसाभिप्रहश्रावके. स पारिहारिकः संविग्नमनोशयुक्तोऽसति मनाने संविना- षु बसति ३। एतदभावे पश्चात्कृतनिरनिग्रहश्रावकेषु भिक्कांक. मनोक्षसहायो गच्छेत् । इयमत्र भावना-तस्य पारिहारिक स्वा पश्चात कृतनिरभिग्रहश्रावकेषु बसति ४। संप्रति पश्चास्कृनस्य गन्तुं प्रस्थितस्य संविग्नो मनोक्षश्च सहायो दातव्यः । निरभिग्रहसंविमपातिकश्रावकेषु चतुर्नङ्गीभावना - पश्चात्कृमनोशः सांभोगिकः, तदभावे संविग्नोऽसांभोगिकः । एवंभू- तनिरभिग्रहश्रावकेषु भिक्का कृस्वा पश्चात्कृतनिरभिग्रहश्राव. तसहायस्य च यदि सामर्थ्यमस्ति तत उत्सर्गतः कल्पते केषु वसति १। एष प्राकृत चतुर्भमन्याश्चतुर्थी भक्तः पतनिर्विशमानकस्य सतो गन्तुम्, निर्विशमानको नाम-परिहा- स्याभावे पश्चात्कृतीनरभिग्रहभावकेषु भिकां कृत्वा सविनपा. रकल्पस्थितः । अथ नास्ति सामर्थ्य, ततः परिहारतपो विकश्रावकेषु वसति। एतस्याप्य संन्नवे संविनपाक्षिकथाघनिक्षिप्य गोकुलादिषु प्रतिबन्धमकुर्वन् गच्छति । तत्र यदु- केषु निकां कृत्वा संविग्नपातिकश्रावकेषु वसति १। एप पूर्वकम्-"जसं जसं दिसं साहम्मिया तसं तमं दिसं उवलित्तए" श्चतुरचाश्चतुर्थों नङ्गः । पतस्याभावे संविग्नपातिकश्रावकेषु इति । तद्व्याख्यानमाह-(मीसपंथेण) मिश्रेण साधर्मिकयु- भिकां कृत्वाऽलंबिम्नपातिकश्रावकेषु वसति २। एतस्याभावे केन पथा गन्तव्यम् । तस्यैव व्याख्यानमाह-( समणुम्मसु असविग्नपाक्तिकश्रावकेषु भिक्तां कृत्वा सबिनपातिकश्रावइत्यादि) स पारिहारिकः समनोज्ञेषु वसति १, एष प्रथमो केषु वसति ३। अस्याऽप्यसंभवे असंविग्नपातिकश्रावकेषु भङ्गः साक्षादुपात्तः। एतस्यासंभवे सांभोगिकेषु भिक्षां कृत्वा भिकां कृत्वा असंविग्नपातिकश्रावकेषु वसति ।। असांभोगिकेषु वसति २। एतस्याप्यभावे तृतीयः-असांभो. संप्रति यमुक्तम-"नो से कप्पर बिहारवत्तियं बथए" इति । गिकेषु भिक्षां कृत्वा सांभोगिकेषु वसति ३। एतस्याप्यसंभवे तत्र विहारं व्याख्यानन्यन्नाहचतुर्थ:-असांभोगिकेषु भिक्षां कृत्वा असांभोगिकेषु वसति ।। एवमेते संविग्नसांभोगिकेषु चत्वारो भङ्गा उक्ताः । एवं सं. आहारोवहिकातो, सुंदर सेजा वि होइ हु विहारो। विनासांभोगिकाऽऽविष्वपि द्रष्टव्याः। कारणतो उ वसेजा, इमे उ ते कारणा हुँति ॥ ८१॥ तथा चाऽऽह श्राहारः खल्वत्र शोभनो लज्यते, यदि वा-उपधिः, स्वाध्या. एमेव य संविग्गे, असंविग्गे चेव एत्थ संजोगा। यो वा तत्र सुखेन निर्वहति । अथवा-सुन्दर। शोजना शय्या एमेव य पच्छाकड-सावगसंविग्गपक्खा य॥८॥ वसतिरिति । एष आहाराऽऽदिविहारहेतुत्वाद्भवति विहारः, तत्प्रत्ययं न कल्पते वस्तुम, कारणतः पुनः चशब्दस्य पुनःयथा संविग्नसांभोगिकासांभोगिकेषु चतुर्भया भिक्षा व. शब्दार्थत्वात् । एतेन "कारण पत्तियं वत्थर" इति व्यास्था. सतय उक्ताः, एवमेव अनेनैव प्रकारेण संविग्ने असंविग्ने वा सांभोगिक भितावसतिविचारे संयोगा वक्तव्याः । एवमेव नयति । तानि पुनःकारणानि इमानि वक्ष्यमाणानि नवन्ति । तान्येवाऽऽहअसंविग्नाः सांभोगिकाः पश्चात्कृतसाभिग्रहनिरभिग्रहश्राव. केषु, तदभावे पश्चात्कृतनिरभिग्रहश्रावकसंविग्नपाक्षिकश्रा उभतो गेलने वा, वास नदी सुत्तपत्थपुच्छा वा। वकेषु, तेषामप्यसंभवे संविग्नपाक्षिकासंविग्नपाक्षिकधा- विजा निमित्तगहणं, करेइ आगाढपने व ॥२॥ बकेषु प्रत्येकं चत्वारः संयोगाः । सर्वत्र च पूर्वपूर्वचतुर्भङ्गी उजवतो द्वाभ्यां प्रकाराच्यां ग्लान्यं ग्नानत्वं नवेत् । किमुउत्तरोत्तरचतुर्भनयां प्रथमो भङ्गः । तद्यथा-संविग्नासंभो- तं नवति स एव परिहारिको गच्छन् अपान्तराले मानो गिकेषु भिक्षां कृत्वा संविग्नासांभोगिकेषु वसति । एत- जान, ततो बसेत् । यदि वाऽन्यः कोऽपि साधुरानक्तं - स्य भङ्गस्याभावे संविग्नासांभोगिकेषु भिक्षां कृत्वा असंवि- प्रा भूत्वा वा तत्परिचरणार्थ तिष्ठेत् । यदि वा-वर्ष पतति, नग्नासांभोगिकेषु वसति २। असंविग्नालांभोगिकेषु भिक्षां द। बा पूरेण समागता ।( सुत्तअत्यपुच्छा वा इति) केचि. कृत्वा संविग्नासांभोगिकेषु वसति ३१ अस्यासंभवे असंवि-दाचार्याः सूत्रमर्थ प्रतिपृच्छेयुः, ततः सूत्रार्थप्रतिपृच्छादा. ग्नासांभोगिकेषु भिक्षां कृत्वा असंविग्नासांभोगिकेषु वस-1 ननिमित्तं वसेत् । (बिज्जेति) परवादिनो मुखबन्धकारण। ति ४ । तदेवं संविग्नासंविग्नासांभोगिकचतुर्भङ्गी भाविता। कस्यापि पावें विद्या समस्ति, यदि वा-मायूरीनाकुनी इत्या. सांप्रतमसंविनासांभोगिकपश्चात्कृतसाभिग्रहचतुर्भङ्गी भाव्यते। दिकाः कस्यापि विद्याः सन्ति, निमित्तं वा अतिशापि कस्य. असविनासांभोगिकेषुभितां कृत्वा असंविमासांभोगिकेषुषस- चिनकाशेऽस्ति, ततो यावद् विद्याग्रहणं वा करोति ताब. ति। एष पूर्वचतुर्भङ्ग्याश्चतुर्थो भङ्गः। एतस्यासनचे असंधि- दास्ते तथा (आगाढ नि) आगाढयापप्रविष्टाः केचन साधा प्रासांभोगिकेषु भिकां करवा पश्चात्कृतसाभिग्रहश्रावकेषु व- वः, तेषामाचार्या । यदि चा-यस्तं निर्वाहयति वाचनाप्रहा. Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६६) परिहार अभिधानराजेन्डः। परिहार नाविना, सपा कागतः, ततो यावतान् वासयति तापश्य- यः पुनरतिशयज्ञानी अवधिज्ञानाऽऽदिकलिता, स च बहुतरं तिले(पथ रि) किमपि शाखमपान्तराले तेन ल- तस्य सुशीलस्वमवगम्य सर्वमुनिःशक्तिं भणति-यथैन पमिमधीते गाढावान्भवति, ततः प्रामोऽहं भूयामि- भिन्नवा इति । ततः कोऽनेन समस्माकं बादो य एष ए. तिसे। मपि न युज्यते इति । भय केन समं यज्यते बाद उध्योसमादरम्य कथं ब्रजलीति', अत आह प्रार्थवाऽऽविगुणोपेवेन । मथा चोक्तम्-“ओण भव्येण वि. बहमास प्रवाहमायो, संघाडगेण वा असति एगो। याणपण, धम्मप्पयझेना प्रलीयभीरुणा। सालापार. समन्निएणं, वायं च तेणं सममायरेजा ॥१॥" मार्य प्रार्यकर्मअसती मूलसहाए, भने वि सहायए देंति ।। ८३ ॥ कारी,प्रजुगुप्सितकारीत्यर्थः। तेन,भध्योऽनेकगुणसंभावनीया, परिहारतमा बहन्, यदि षा भवदन् निकित पारहारतपाः विको बाबाभिक, धम्मप्रतिको धर्माकरणान्युपगमपर, (संपाम्गेणेति) संघाटकेन संघाटसाधुनकेन सह बजेत । भनीकनीक सत्यवादी, तथा शीलाचारसमन्वितः, शील. ज्या प्राचार्येण ग्लामाऽऽविप्रयोजनम्यापूतवया तस्प संघर दोषरहितः, कुलाचारसममिता कुलदोषरहितः । तेन सम वावं साधुः सहायो न दत्ता, सतोऽसति संघाटकसाधायेकाकी समाचरेत् । तत ईरशेन समं वादस्तीर्थकरैरनुकाती, नान्याप्रजेत् । एकाकिनाच गतः सतोरसति मनसहाये म. दृशेनति । अथ स शून्यवाद। भवेत् नदर्शनी, तः स्वशक्तिव. विद्यमाने मूलादारज्य संघ टकसाधाबम्ये ऽपि चषामाचार्याणां लेन यया इन्सुमुरुचरति स स प्रत्युचार्यासिखस्वविहरूस्वामायेन गच्छति, तेऽपि तस्य सहायान इति । নানিবাস, মানস্কিনাথ মুখামু। मुत्तूण भिक्खवेलें, जाणि य काइँ पुब्बभणियाई ।। भय कदाचिसेनास्मदीय एक सिकान्तो जगृहे-यथा द्वी अप्पडिबद्धो वाइ, काल थामं च आसज ॥४॥ जीवाजी बलकणी राशी जगतीति मम प्रतिकति । अत्र पूर्व. मुक्त्वा निकापेक्षां पानि च कार्याणि पूर्वभरिणतानि “ उभ-| गाथाख यमस्याऽधकाशा-(पराजितो निम्धिसयपरूयणा स. जोगे लसेवा" इत्यादिरूपाणि, तानि च मुक्त्या अप्रतिबको मए इति) तेन पारिहारिकेण श्रीन राशीन प्रस्थापयित्या गोकुमाऽऽविशु प्रचुरगोरससबिरादिमानेऽनि प्रतिबन्धमकुर्व- वाही पराजेतव्यः, एतच निदर्शनमात्रम् । अन्यथापि सिकाकासं बिहारोचित स्थामं चाणमात्मीयं गमनविषयमासाद्य, | म्तीत्तीगणं मुशाषित्वा पराजेतव्यः, पराजितश्च स यदि भ. बिहारक्रमकालोचियेन स्वत्यौन्स्येिन चेत्यर्थः, प्रजेत् । वेत् राज्ञा च निर्विषय प्रादिष्टः, ततः पश्चात्सकलपर्षसमकं गंतूण य सो तत्थ य, पुचि संगिएहए ततो परिसं । समये स्वसमयविषया प्ररूपणा कर्तव्या। संगिणिहत्ता परिसं, करेइ वादं समं तेणं ।। ८५॥ कथमित्याह परिभूय मतिं एय स्स एतदुत्तं न एस णे समभो। यस्मिन् स्थानेषु प्रयोजन तत्र सोऽधिक: परिहारकल्पस्थितो निकितपरिहारनपो वा गत्वा पूर्व मेव संगृहाति प्रा. समएण विणिग्गहिए, गज्जइ वसभोव्व परिसाए । स्मीकरोति परिषद, संगृह्य च परिषदं पटहे नाऽऽघोषयति यदुक्तं मया त्रयो राशयो--जीवोऽजीवो नोजीब थायस्य वावं क शक्तिरस्ति मतदनिकाल सत्वरं समागच्च. दि, न एषोऽस्माकं समय:, किं स्वेतस्य वादिनी मति प. तु, पत्रं च घोषणायां कारितायां तेन समं बादं करोति । रिभवितुमेत दुतम् यदि पुनः स्वसमयेन परो विनिगृहीतः कमित्याह स्यात्ततस्तस्मिन्धि निगृहीते वृषस व प्रतिवृषभं निर्जित्य प. अवंभचारि एसो. किं नाहिति कोट्ट एस उवगरणं । पंदि पर्वमध्ये गर्जति गर्जविशेषतः स्वसमय प्रकपणां कुरुते । तदेवमक्रियावादरीति गतम् । बेसित्याऍ पराजितो. निधिसबपरूवणा समए ॥७६॥ (10) संप्रति "जीए ति" धारव्याश्यानार्थमाह - धादात् पूर्वमेव निमित्तमुपयुज्य तस्य स्वरूपमवगच्छति, अणुमाणेउं राय, समातीयग गेम्हमाण विज्जाऽऽदि। सतस्तस्मिननागते बेटे-पप ताबदब्रह्मणोऽपि दोषास जा पच्छाकडे चरित्ते, जहा तहा नेव सुद्धो उ ॥८६॥ नाति, भन पत्रोऽब्रह्मचारी भब्रह्मप्रतिसवी पशुवद ब्राह्मणोऽपि बोपानजानन् कथमन्यत हास्थति ? । प्यमुले सन्याः प्रेकका यदि राजा द्यूते-मया सह बादो दीयतामिति तदा रा. बाम-कथमसितमेोऽब्रह्मवारीति। स प्राड-गन्छन जानमनुमानयेतू अनुकूलवचसा प्रतियोधयेत । यथा राजा प्रेमध्वं यूयं यत्रासावधस्थितः तास्मन् कोष्ठके प्राश्रयविशेषे उ. पृथिवीपतिः, तच्याश्रिताः प्रजाः सर्वे च दर्शनिना, ततः पकरणं यादि अमुकपदेशे संगोपितमस्तीति । तथा अमुक कथं राज्ञा सह विवादः । था वेरुपया समभामुकदिबले पूतन रममाणः पराजितस्तत अत्रार्थे चेवमुकं चेत् किं तदिस्याहपतस्य सत्व वसं प्रहणकगृहीतम, एवमादिभिडिचहरबगाछत अत्यवतिणा निवतिणा, पखवता बलवता पर्यडेण । प्रयोऽब्रह्मबारीति ते गन्धा सर्व संवेदितं कथितं राकः । “नि गुरुणा नीएण तव-स्सिणा य सह वज्जए वादं ॥१०॥ विसपरूषणा" इत्यादि पश्चात् ज्याच्याश्यते । तदेवं मि. मित्ताऽऽभोगवसवतो यत् कर्तव्यं तदुक्तम् । अर्थपतिना धनपतिना नृपतिना राहा, पता नृपवर्गीयपकसांप्रतमति शमविशेषमधिकृत्पाद समधिसेन, सपा बलवना विद्यामप्रथमोपेसेन, प्रचण्डेन बीबरोबण, तथा गुरुणा विच दायिना, धर्मभदायिना जो पुण अतिसपनाणी, सो भणती एस भित्रवत्तो सि । पा.तथा नानीबजातीयेन, तथा तपस्विना विकृरसपाकाकोऽग्रेण सम वादो, दई पिन जुज्जए एस ॥८७॥ । रिणा च सह बर्जभेत् बाद मिति । Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार भाभिधानराजेन्द्रः। परिहार पवमनुमानितोऽपि यदान तिष्ठति तदा ये राका सातिका,स्व. तास्तथा प्रवचनप्रद्विष्टं राजानं समूलमुत्पाटपति । ये व जना इत्यर्थः । तैरनुमान येत्। तैरपि प्रतियोग्यमानो यदि नाशिष्ठ | तस्य साहाय्यं कुर्वते, ये च तटस्थिता अनुमोदन्त, ते सर्वे सितदाविद्याऽबिमा वश्य कुर्वात् । बादशब्दात मन्त्रेण योग शुखा. प्रवचनोपधातरक्षणे प्रवृत्तत्वात् । नवसंशद्धिमाबाबा वश्यं कुर्वादिति परिग्रहः। विवादिनाऽध्यगृह्यमाणे चा. |, किं त्वचिरान्मोक्षगमनम् । तथा चात्र रसता प्रवचमोरिविषये पश्चात्कृतो भूयात् स्वलिङ्ग परित्यज्य गृहिलिव पघातरक्षको विष्णुकुमार इति। गृहीत्वा तथा कत्तव्यं यथा नैव स राजा भवति । एतद. समतीतम्मि उकज्जे, परे वयंतम्मि एग दुषिई वा। पिस कुर्वाणः शुख पत्र, प्रयवमरक्षार्थ तस्य प्रवृतेः। संवासो न निसिद्धो, तेव परं छेय परिहारो ॥११॥ यथा च स राजा मुत्पादनीयः तथा तद्विषयं मरकोटकोच्छेदि चाणक्यप्रयुकं मन्दसत्कचौरसमूलधाति नलदामकुविन्दर | समतीते पुनः कार्ये यदि परो वदति- एकरा हिरा हास्तमुपदर्शयति वा संवासः क्रियतामिति । एवं परसिम् ववति एकरा दि. रात्रं विरात्रं वा बासो न निषिद्धः, तथा संवालेऽपिन नन्दे भोइय खद्या, आरक्खियघडण गेरु नलदामे । किमपि प्रायश्चित्तमिति भावः । ततो द्विरात्रा लिरात्राबा मूइंगगेहडहणा, ठवणा भत्तेसु कत्तसिरा ॥ ११ ॥ परं यदि वसति ततस्तस्य प्रायश्चित्तं छेदः, परिहारी था। - यदि पुनः सूत्रार्थप्रतिपृच्छादानादिलक्षणं कारखं भवेत् नन्दे चाणक्येनोपाटिते चन्द्रगुप्ते च राज्य संस्थापिते न. सहि ततः परमाप वसेत् यावत्प्रयोजनपरिसमाप्तिः । तथा बसका ये भोजिकास्ते चाणक्य न, " स्वराणा" इति। - चाऽऽहशीपदमेतत् सर्वात्मना वृषिताः, ततस्ते अजीबन्नइचगु सुत्सत्यपाडिपुच्छं, करेंति साहू उ तस्समीवम्मि । मारककैः सह संघट्टनं कृतवन्तः, कृत्वा चकेवा खननाऽऽदिमानगरमपन्ति , येऽयम्य प्रारकिकाः स्थाप्यन्ते तानपि संघ. आगाढम्म उ जोगे, तेसि गुरू होज कालगतो॥१२॥ लयित्वा तथैव नगरोपद्रवं कुर्वते । ततचाणक्येन विन्त सूत्रार्थप्रतिपृच्छां कुर्वन्ति तस्य समीपे साधवः । यदि वायित्वा गेरुकवेषेण 'मुइंगो" ति देशी पदं माकोटकवाचकम् । आगाढ योगे व्यवस्थितानां तेषां साधूनां गुरुः, उपलक्षणमेमस्कोटगेहदहने प्रवृतं नवदामनामानं दृष्टा तस्मिन्नारक. तत्, यो वाचनाप्रदानेन नेषां निस्तारकः सोऽपि कालगतः, कपदस्य स्थापना कृता। तेन च नन्द सत्कभोजिकानां समस्ता- ततः स तान् सूत्रार्थप्रदानाऽऽदिना निर्वाहयति, तथा याव. नामपि सपुत्राणां भक्त जक्तदानवेलायां शिरसि अनानि 1 सूत्रार्थप्रतिपृच्छा यावश्च तेषामबगाढयोगानां परिसमाप्ति. पक्ष गाथासंकेमार्थः । भावार्थः कथानकादवसेयः । तश्चेद- स्तावदवतिष्ठते ततः परं तु नेति । अथ सूत्रे-"से संतरा म्-" नंदे निच्चूढरजे परिछाविते चंदगुते नंदस्त जे जोइया छेदे वा परिहारे वा।" इत्युक्तम्, तत्र परिहारात् छेदो गरीते चाणक्केण बूसिया, ताहे ते अजीयमाणा चंदगुप्तारक्खि. यान् । प्रथमं च लघु वक्तव्यं, पश्चात् गुरु, ततः से संतरा पहिं सम संवलिया स्वत्तवणणादीहि नगरं नववंति, जे वि परिहारे वा छेदे वा" इति वक्तव्ये किमर्थ प्रथमः ।। अग्ने प्रारक्खि या विजंनि तेवि संवत्रंति,ताहे चाणकेण चिति उच्यतेयं-को लन्निज्जा धौरम्माहो जो न संबलिज्जा,जो य समुले चोरे उ. बंधाणुलोमयाए, उक्कमकरणं तु होति सुत्तस्स । ध्यामेर, ताहे चाणको परिचायगवेस काऊ ग नयरबाहिरियाए हिंममहिममाण दिडो नलडामविंदो तंतुवायसालाठितो,त. भागाढम्मि य कजे, दप्पेण ठिते भवे छेदो ॥१३॥ मिचेलार नसदाभकोलि यस्स पुसो रममाणो मकोमपण खा एवंरूपो हि पाठो ललितपदविन्यासतस्ततो बन्धानुतो,रोयतोऽपि उस्तम्गसमीणो काहियं मक्कोमपण महं खहतो, लोमतया, तथा भागाढे प्रयोजने समुपस्थिते यदि कथमममदामेण नया सेहि जत्योगासे मतितोऽसि ।सितोसो भो. पि दर्पण स्थित्ते छेद एव प्रायबिते, तस्य भवति पयासो, ततो तेण नलदामेण जे बिलातो निगया विद्या मनोम- रिहारतप इति, एतदर्थ च सूत्रस्याप्युत्क्रमकरणमिति । या ने विस्खनित्ता, जे बिलस्संतो अंमया दिट्टा तेसु जणाणि तन यदि प्रदिई राजानं समूलमुत्पाटयितुमीशा तर्हस पविखवित्ता पनीवित्ता अंडयाणि वाणि। चाणकेण सो पुस्ति सलब्धिकः समस्तं संघ निस्तारयेत् , अथ न समस्तं तो किं कारण खाता तो विनम्स पनाविय ? नलडामोभणा संघं निस्तारयितुमीथे, तत इमान् पञ्च निस्तारयेत् । पर अंकया निष्फन्ना खाइस्सनि । ततो चाणकेण चिनियं तानेवाऽऽहएस चोरग्गाहो कतो संतो समत्थो मुइंगपरिदाह व्य चोरा आयरिए अमिसेए, भिक्खू खुढे तहेब घेरे य । उच्छेदाउं । ततो सो चोरग्गाहो ठवितो ताहे के नंदप गहणं तेसिं इणमो, संजोगगमं च वोच्छामि ॥ १४ ॥ खिया चोरा नलदाम मंतवेंति, सुबहुं चोरभागं दाहामो, प्राचार्यों गच्छाधिपतिः, अभिवेकः सूवार्थतवुभयोपेत मा रक्खेह । नलदामेण भणियं-एवं होउ त्ति, इमं च भणिय. अग्ने वि एवमुबलभेह, तो सब्वे पत्तेजावेत्ता मसकस प्राचार्यपदस्थापनाईः, भिक्षुः प्रतीता, खुल्लको बालः. स्थ विरो वृद्धः। एतेषां पञ्चानामपि ग्रहणमिदं वक्ष्यमाणं सं. माणेहि तेहिं तह सि कयं सव्वे सम्माणिया नलदामेण । योगगर्म संयोगतो गमः प्रकारो यस्य तत्तथा वक्ष्यामि । अन्नया तेण नलदामेण तेसिं चोराणां विपुलं भत्तं सजि. यं, जाहे सव्वे सपुसा आगया, ताहे सब्वेसि सपुत्ताणं प्रतिक्षातमेव निर्वाहयतिसिराणि छिन्त्राणि ।" तदेवं यथा चाणक्येन नन्द उत्पाटि तरुणे निप्फन्ने परि-बार लद्धीजुते तहेव अम्भासे। तो, यथा च नलदाम्ना मत्कोटकाचौराश्च समूला उच्छदि । अभिसे यम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा १५॥ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७१ ) अभिधान राजेन्क परिहार यदि शक्तिरस्ति ततः पञ्चापि आचार्याssवीन युगपनिस्तारयेत् । अथ न शक्तिस्ततः स्थविरवजन् चतुरः, तनाप्राली गुज़रुस्थविरवजांन्, तत्राप्यसामध्ये श्राचार्यमेकं arscreः स्थविरो यदि वर्तते अपरन्तरुणस्तर्हि तयोर्मध्ये तरुण निस्तारणीयः प्रयोरतरुण पोर्चा मध्ये निष्पक्षः सम्प अर्धकुशलः योरनिष्पक्षयोर्वा सपरिवारः द्वयोः रूप रिवारयोष लम्धियुयोर्वाभ्यासे समीप स्थित अत्र संप्र दाय:-योरभ्यासे स्थितमःस निस्तारणीयः । एतेषां पञ्च गमा आचार्ये भवन्ति । श्रभिषेकस्तु नियमाशि er एव भवति, अन्यथा तवत श्राचार्य पदस्थापनायोग्यत्वानुपपतेः । ततस्तस्मिन्त्रभिषेके निष्पन्नानिष्पन्नगमाना वात् शेवास्तु चत्वारो गमाः । तद्यथा स्थविरतरणयोर्म ध्ये तरुणः द्वयोस्तरुणयोर्वा सपरिवारः, द्वयोः सपरिवारोवलायुक्त द्वयोर्लब्धियुक्तयोरलब्धियुक्यो 5भ्यासे स्थितः । इति शेषाणां मिलकस्थविराणां पश्चिम गमा भवन्ति । ते यथा-अनन्तरमाचार्यो भावितस्तथा भा वनीयाः । तथा चैतदेव व्याचिख्यासुगीचाइयमाहतरुणे बहुपरिवारे, सलद्धिजुत्ते तव भासे । एते वसहस्स गमा, निष्फलो जेय सो नियमा ||३६|| तरु निष्फले वा बहुपरिवारे सलद्धि अम्भासे । भिक्खुडावेरा व होति एए गमा पंच ॥ ६७ ॥ गाथा इयमपीदं व्याख्यातार्थ नवरं वृषभोऽभिषेकः, स परिवारम्ध, वृषभाऽऽदी नामाचार्य प्रदत्तः प्रवजितस्वजन वर्गो या द्रष्टव्यः । तदेवं साधूनां निस्तारण विधिरुक्तः । इदानीं साध्वीनां तमाहपवितिणि भिसेयपत्ता, भिक्खुड्डा तहेव थेरी य । गहणं तार्सि इमो, संजोगगमं तु वोच्छामि ॥ ६८ ॥ प्रवर्ति समस्त साध्यीनां नाविकाऽऽचार्य स्थानीया. म भिषेकप्राप्ता प्रवर्तिनीपदयोग्या, भिकुलिका, स्थविरा व प्र तीता । एतासां पञ्चानामपि प्रयमिदं वयमाणं संयोगगमं संयोग तो नेमका पक्ष्यामि। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति तरुणि निष्फल परिवार सलद्धिया जा य होति अन्भासे । अभिसेवा चरो, सेंसायं पंच चेव गमा ॥ ६६ ॥ यदि शक्तिरस्ति ततः पश्चापि प्रवर्त्तिन्यावयो युगपक्षिस्तारणीयाः चतख तथाप्यराति तदभावे सम्यका तथापि प का प्रवर्तिनी स्थविरा भवति अपरा च तरुणी तरुणीस्थ रिपोर्मध्ये सी निस्तारणीयाद्वयोःस्थरियोयो मध्ये निष्पाद्वयोनिष्पक्षपोष मध्ये सपरिवारा इयः सपरिवारपोरपरिवारयोर्चा मध्ये सम्धियुक्तायो युक्तयेोरलब्धिकयोर्धा या भवत्यभ्यासे सा निस्तारणीया । पते पच गया। प्रबर्तिम्याम् अभिषेकायां बागमत या नव्या निष्पन्नानिष्यन्नमाचात् भि की कास्यविराचां पञ्चगमा भवन्ति तेऽपि पश्चापि 1 परिहार गमाः प्रवर्त्तिम्या एव भावनीयाः । तदेवं साधूनां साध्वीन च प्रत्येकं निस्तारण विधिवक्तः । सांप्रतमुभयेषां संयोगत - strator गणिणि वसभे, कमाण गहरी तहेव श्रभिसेया । सेसाण पुत्रमित्थी, मीसगकरणे कमो एस ॥ १०० ॥ यद्यस्ति शक्तिस्ततो द्वावपि वर्गों युगपनिस्तारयेत् । अ थासमर्थस्तत एवं यतना श्राचार्यप्रवर्त्तिन्योर्मध्ये प्रथमत आचार्य निस्तारयेत् ततः प्रवर्तिनीम् प्रवर्तिनीवृषभयोध्ये पूर्व प्रवर्त्तिनीं पश्चात् वृषभम्, वृषभाभिषेकयोर्मध्ये पूर्व वृषभं पश्चादभिषेकम् । ( सेलाण पुव्वमित्थी ति ) शेषेषु षष्ठी सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात् पूर्व स्त्री निस्तारणीया, अनुकयत्पुरुषाः। तद्यथा मिमिक्पोमध्ये पूर्व म की पचाद्भिः शकाल कषोर्मध्ये प्रथमतः सुशि का, पश्चात् क्षुल्लकः, स्थविरास्थविरयोः पूर्व स्थविरा, पश्चात् स्थferः । अत्रापि सुनिपुखेन भूस्या अपत्यविस्ता कर्त्तव्या । कृत्वा च यद् बहुगुणं तत्समाचरणीयम् । उक्तं च-'बहुवित्थरमुस्सग्गं, बहुतरमुववायवित्थरं नाउं । जह जह संजमवुडी, तह जयसू निजरा जह य ॥१॥ एष मिश्रकरणे युगपत्साधुसाध्वीवर्गनिस्तारणकरणे एपोऽनन्तरीदितः क्रमः। गतं " जीय त्ति " द्वारम् । (११) अधुना पिट्टनद्वारमाहभिक्खू खुड्ग थेरे, अभिसेगे चैव तह य श्रायरिए । गहवं ते इमो, संजोगगर्भ तु वृच्छामि ॥ १०१ ॥ भिक्षुः तुलकः स्थविरोऽभिषेक आचार्य:, तेषामेवं क्रमेण व्यवस्थितानां पञ्चानामपि ग्रहणमिदं वच्यमाणं संयोगगर्म संयोगनो नेकप्रकारं पयामि। 66 प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति तरु निष्फले परिवार सलदिए ने भ होति भन्भासे । अभिसेयम्मिय चउरो, सेसागं पंच चेत्र गमा ॥ १०२ ॥ यदि शक्तिस्ततः पञ्चापि युगपनिस्तारयेत् तदशक्लावे. फैकहान्या यावदेके भिणुं सोऽपि यदेकः तरुणोपरा स्थबिरः तदा तरी निस्तारणांपाइयोस्पोर या निष्पक्ष, योनिष्पक्षयोर्या सपरिवार जो स परिवारपोष सन्धिकः इयोः समधिकोषी प वत्यभ्यासे समीपे स निस्तारणीयः । एते पञ्च गमा भिक्षौ भवन्ति, अभिषेकत्वारो निपातस्य नि. व्यथानिष्पन्नमाभाषात् शेषाणां तु कस्यचिराचा र्यायां च मरिच च गमाः। । तत्र भिक्षुकाऽऽविक्रमकरणे कारणमाहअसते पचास, रणम्मि मा हो सम्बपत्थारो । खुट्टो भीरु शुकंपो; सहो घायस्स धेरा य ॥ १०३ ॥ गविभावरिया सह देदविभोर व साहसविवजी । एमेव सम्म वि, वेदोसि नावचं ॥ १०४ ॥ भिक्षवो हि यदा राम्रा पियितुमारभ्यन्ते तदा ते कि. चित्रगीतार्थत्वेनासहमानाः प्रत्यास्तरवेषुः प्रत्यास्तरणं नाम· संमुखीभूय युद्धकरणम्। ततोऽलहमाने जातावेकवचन 3 Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७२) परिहार अभिधानराजेन्द्रः। परिहार म्, पाय सप्तमी । असहमानानां प्रत्यास्तरणे प्रति- 'संप्रति पलम्-" उदिनवेदो सि नाणत्तमिति" तथाषिफुलमभिमुलीभूय स्तरत्वकरणे मा सर्वप्रस्तारः समस्तसं- पासुराहपोपद्रवो भूयात् । किमुकं भवति १-मागाढतरं प्रदिर सन् अपरिणतो सो जम्हा, मन भावं वएज तो पुग्छ । पजा सर्वमपि सचमुपद्रवेत् । अनेन कारन पिनहारे अपरीणामो प्रहवा, न निजई किं वि काहीइ ॥१०६॥ मिः प्रथममुपात,तदनन्तरं दुमका, सहिपालवाङ्गीकर. स भिक्षुर्यस्मादपरिणतोऽपरिणामत्वाद् चाऽन्यं भावमुजुकम्प्यमाततास वितीय स्थाने स्थापिता,तदनन्तरं स्थवि स्मनाजनाभिप्रायलक्षणं, ब्रजेत् , ततः स सस्वरमेवोरममा रो, यतः स्थविरत्वेनाङ्गप्रत्यङ्गानां श्लथीभूततया सस्य ज्यते । अन्यथ-अथवा न ज्ञायते सोऽपरिणामः सन् (किपिनस्यासह।(गणि पायरिया उ सहइत्यादि) गणी ग बीति ) किमपि सम्मुखीभूय युवं करिष्यति, येन सकल. छाधिपतिराचार्य प्राचार्यपदाई,पता द्वापि सही समयौं, स्यापि संघस्योपद्रवो भवेत् , तत एव तदोषमयात् पूर्व मातस्येति संवभ्यते, अपि च देहषियोगेपि देहभंशे भपि, मिनिस्तारणीय इति पूर्व तस्योपादानं, शेषाणां तुकतुशब्दोऽपिशम्मायें। साध्वसविवर्जनी, प्रविमृश्य प्रवृत्तिः मोपन्यासे प्रयोजनं पिनद्वारषदवलेयमिति । साध्वस, तद्विवर्जनौ, संमुखीभूय पुखप्रदानलक्षण साध्वस- अत्रैव साध्वीरधिकृत्य निस्तारणविधिमाहरहिताविति भावः । ततः स्थविरानन्तरं तौ हावप्युपा- भिक्खुणि खुट्टी थेरी,अभिसेग पवत्तिणि संजमे पहुप्पामा । सौ, तत्राप्यभिषेकादतिशयेन सहो गच्छाधिपतिरित्यभि करणं वा सिं इणमो, संजोगगमं तु बुच्छामि ॥११॥ कानन्तरं गणिन उपादानम् । (पमेवेत्यादि) अंशन सं. यमव्यवनबारेऽप्येवमेव अनेनैव प्रकारेण भिक्षुकाऽऽविक्रमक तरुणी निष्फल परिवारा,सलद्धिया जा य होइ प्रभासे । रलाकरणमभिधानीयम् , नवरं भिक्षुहदीसंवेदोऽपि संभव अभिसेयाए चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा ।। १११ ।। तीति नानात्वम् । किमुक्तं भवति?-यदि मिक्षास्तरुणतया प्र- इदं गाथाद्वयमपि प्राग्वत् । चुरमोहनीयोदयतया या उत्प्रधाजनमनुकूलं भवेत्, ततःस __संप्रति संबन्धे लभन्ते इति द्वारव्याख्यानार्थमाहशिप्रमुत्प्रव्रजेत् इति,प्रथमं भिक्षुग्रहणम् ,सदनन्तरं खुलकाss- | खड़े थेरे भिक्खू, अभिसेयाऽऽयरिऍ भत्तपाणं तु। दिकमकरणे प्रयोजनं प्रागुक्तमवसातव्यम्।तासां पश्चानामपि करणं निस्तारणकरणमिदं वश्वमाणं संयोगगर्म बच्यामि । करणं तेसिं इणमो, संजोगगमं तु वुच्छामि ॥११२ ॥ प्रतिक्षातमेव निर्वाहयति पुलकः, स्थविरो, भिक्षुरभिषेक आचार्यः, तेषां पश्चानातरुणी निष्फला ऊ, परिवार सलद्धिया य अन्भासे । मप्येवं क्रमव्यवस्थितानां राक्षा निरुद्धं भक्तपानमधिकृत्य करणं निस्तारणकरणं संयोगगर्म संयोगतोऽनेकप्रकार अभिसेयाए चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा॥१०५॥ वक्ष्यामि । अस्याः साधुगतगाथाया इव व्याख्या। यथाप्रतिक्षातमेव करोतिसंप्रति योरपि साधुसाध्वीवर्गयोः संयोगेन निस्तारण- तरुणे निष्फलपरिवारे, सलद्धिए जे य होइ प्रभासे । विधिमाह अभिसेयम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा॥११३॥ पंतावण मीसाणं, दोण्हं वग्गाण होइ करणं तु। शक्ती सत्यां पश्चापि युगपनिस्तारयेत्, शक्त्यभावे एकैपुवं तु संजईणं, पच्छा पुण संजयाण भवे ।। १०६ ॥ कहान्या यावत्पूर्व बुल्लकं निस्तारयेत् सोऽपि यदेकस्त"पंतावणं" नाम पिट्टनं, तत्र मिश्रयाईयोरपि वर्गयोः रुणोऽपरोऽतरुणः। तरुणो नाम-प्रथमकुमारत्वे वर्तमान साधुसाध्वीरूपयोः करणं निस्तारणकरणं भवति । पूर्व संय इति । निष्पन्नता वजस्वामिन इव भावनीया । योनिष्पन्न तीनां पश्चात्पुनर्भवति । संयतानाम् तद्यथा-भिक्षुभिक्षुक्योः यो सपरिवारः, द्वयोः सपरिवारयोरपरिवारयोर्षा सलपूर्व भितुकी.पश्चाद्भिःएवं तुलिकाबुलकयोः पूर्व जुझका शु- ब्धिकयोरलम्कियो, यो भवत्यभ्यासेस निस्तार्यः । पते कास्थविरयोः स्थविरा. अभिषेकाभिषेकयोरभिषेकापाया पश्चगमाः पुलकस्य, अभिषेके चत्वारः, निष्पन्नतया अस्य र्यप्रवर्तिन्योः पूर्व प्रवर्तिनी, पश्चादाचार्यः । गतं पिट्टनद्वारम् । निष्पनानिष्पन्नगमाभावात् । शेषाणां स्थविरभिवाचा. अधुना संयमच्यावनद्वारमाह र्याणां पञ्च गमाः। भिक्खू खुड़े थेरे, अभिसेयाऽऽयरिऍ संजमे पडुप्पस्मे । संप्रति साध्वीरधिकृत्य निस्तारणमाहकरणं तेर्सि इणमो, संजोगमं तु वुच्छामि ॥ १०७॥ खुडिय थेरी भिक्खुणि, अभिसेय पवित्ति भत्तपाणं तु । भिक्षुः, बुद्धकः, स्थविरोऽभिषेक प्राचार्यः, कथंभूत एकैक करणं तासि इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि ॥११४॥ इत्याह-संयमे प्रत्युत्पन्नो वर्तमानः, तेषां भिनुप्रभृतीनां तरुणी निष्फन्त्रपरिवारा, सलद्धिया जा य होइ अब्भासे । पश्चानां निस्तारणकरणमिदं वक्ष्यमाणं संयोगगमं संयोग अभिसेयाए चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा ।। ११५ ॥ तोऽनेकप्रकारं वक्ष्यामि । _ यथाप्रतिक्षातमेव करोति. इदं गाथावयं साधुगतगाथाद्वयमिव व्याख्यातव्यम्। तरुणे निष्फल परि-वारे सलद्धिए जे य होइ भन्मासे । अधुना शुल्लकादिक्रमकरणे प्रयोजन गहअभिसेयम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा ॥१०॥ अणुकंपा जणगरिहा, तिक्खखहो होइ खायो पढौ । मस्या व्याख्या प्राग्वत् । ___ इइ भत्तपाणरोहे, दुल्लभभत्ते वि एमेव ॥११६ ॥ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७३) परिहार अभिधानराजेन्दः । परिहार कस्य यदा प्रथमतो भक्तपानविषये निस्तारणं क्रियते तत्र कारणमाहतदा तस्यानुकम्पा कृता भवति,यदि पुनस्तस्य प्रथमं निस्ता. वसहे जोहे य तहा, निजामगविरहिए जहा पोए । रोन क्रियते किं वाचार्याऽऽदीनां तवा जनगरे । यथाधिगतान् मुण्डान् यत् बालं बुभुक्षालान्तं मुक्त्वा आत्मानं पावति विणासमेवं, भत्तपरिमाएँ संमूढो ॥ १२३ ।। चिन्तितवन्त इति । अपि च-बालत्वादेव स तीक्ष्णदुस्वा यथा वृषभो बलीवर्दः सुसारथिरहितः, यथा वा योधाः च, स्तोककालेनापि भक्तपाननिरोधेन कममुपयाति । सुखामिविरहिताः, यथा च निर्यामकविरहितः पोतः प्रामोति तेन कारणेन तुझकः प्रथमं निस्तार्यते, तदनन्तरं स्थ विनाशम्, एवं भक्तपरिक्षायां सम्यग्निर्यामकाभावतः संमूढः विरः, सोऽपि हि बालवत् स्तोककालेनाऽपि भक्तपान सन् समाधिलाभलक्षणं प्राणविनाशमानोति । निरोधेन काम्यति. केवलं कुल्लकापेक्षया मनाक् सहत इति तब प्रथमं वृषभष्टान्तं भावयतितदनन्तरं तस्योपादानम् । स्थविरादपि भिक्षुश्चिरकालसह नामणं गोएण य, विपलायंतो वि सावितो संतो। इति तदनन्तरं तस्योपादानम् । ततोऽप्यभिषेकः समर्थस्त- अवि भीरू विनियत्तइ,वसहो अफालियो पहुणा।१२४। स्मादाचार्य इति तदनन्तरं तौ क्रमेणोपात्ताविति । इति यथा वृषभः प्रथम सारथिरहितः सन् प्रतिवृषभेण युद्धे प्रथमं भक्तपाननिरोधकुश काऽऽदिक्रमकरणे प्रयोजनगतं पराजितो विपलायते, न युद्धाऽभिमुखो भवति, विपलायविधि लभत इतिद्वारम् । अधुना रुखकमलद्वारमाह (दुल्ल. मानव कथमपि प्रभुणा सारथिना दृष्टः सन् नाम्ना गोत्रेण भभत्ते वि एमेव ) एवमेव अनेनैव प्रकारेण दुर्भिक्षत्वेन च शापितः शब्दितः, आकारित इत्यर्थः । तथा प्रसादपुरदुर्लभे भक्के निस्तारणविधिर्वक्तव्यः। स्सरमास्फालितश्च स्कन्धाऽदिप्रदेशेषु हस्तेन, तत एवं तद्यथा प्रोत्साहितसवः सन्. अपिः संभावने, भीरुरपि विपलाय. खुड़े थेरे भिक्खू, अभिसेयाऽयरिऍ दुल्लभं भत्तं । मानोऽपि पुनरपि प्रतिवृषभेण सह युद्धदानाय प्रतिनिवर्तकरणं तेसिं इणमो, संजोगगमं तु वुच्छामि ॥ ११७ ॥ ते । एवं कृतप्रत्याख्यानोऽपि सम्यग्निर्यामकभावतो जातम न्दपरिणामोऽपि निर्यामकेन प्रोत्साहितः सन् प्रतिवर्तते स तरुणे निष्फअपरिवारे, सलद्धिए जे य होइ अब्भासे । परीषहचमूमभिभवितुमिति वृषभदृष्टान्तः। अभिसेयम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा ॥११॥ संप्रति योधदृष्टान्तभावनामाहखुड्डिय थेरी भिक्खुणि, अभिसेय पवित्ति दुल्लभं भत्तं । अप्फालिया जह रणे, जोहा भंति परबलाणीयं । करणं तासिं इणमो, संजोगगमं तु वुच्छामि ॥ ११६ ॥ गीयजुतो उ परिमी, तह जिणइ परीसहाणीयं ॥१२॥ तरुणी निष्फन्न परिवारा, सलद्धिया जा य होइ अब्भासे।। प्रभुणा नाम्ना गोत्रेण गुणप्रशंसनेन च प्रास्फालिताः-श्रा. अभिसेयाए चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा ॥ १२० ॥ समन्तात् स्फारं प्रापिता यथा योधाः सुभटा रणे संग्रामे खुल्लकाऽऽदिक्रमकरणप्रयोजनमपि तथैव वक्तव्यम् । गतं परबलानीकं परेषां वैरिणां बलं परवलं, तच्च तत् अनीकं दुर्लभभक्तद्वारम्। च परबलानीकं भजन्ति । तथा परिशी भक्तपरिक्षावान् गी. मधुना भक्तपरिक्षाद्वारं ग्लानद्वारं च युगपदाह- तयुतः सम्यग्निर्यामकोपेतो जयति अभिभवति परीषहापरिमाय गिलाणस्स य,दोएह वि कयरस्स होति कायव्वं । नीकमिति । उक्ता योधदृष्टान्तभावना। असतीएगिलाणस्स य, दोएह वि संते परिमाए ॥१२१॥ संप्रति पोतहष्टान्तभावनामाहपरिझातेति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् भक्तपरिक्षात सुणिउणनिजागमविर-हियस्स पोयस्स जह भवे नासो। शबः प्रत्याख्यानवाची कान्तस्य च परनिपातः, प्राकृतत्वा गीयत्यविरहियस्स उ, तहेव नासो परिस्मस्स ।।१२६॥ स्सुखाऽऽविदर्शनाद्वा। प्रत्याख्यानभक्तस्य, ग्लानस्य च संभवे सुनिपुणः सम्यग्जलमार्गकुशलः तेन निर्यामकेन विरद्वयोर्मध्ये कतरस्य भवति कर्तव्यम् ? । उच्यते शक्ती सत्यां हितस्य पोतस्य यथा भवति विनाशः, तथैव गीतार्थविर. द्वयोरपि कर्तव्यम्, अथ न शक्नो द्वयोरपि कर्तु. ततो ग्ला- हितस्य परिक्षणः कृतभक्तपरिज्ञानस्य भवति विनाशः, प्र. नस्य कर्तव्यं तस्य जीवितसापेक्षत्वात्। शक्ती सत्यां द्वयोरपि त्याख्यानफलस्य सुगतिलाभस्याभावात् । वैयावृत्त्ये क्रियमाणे सति परिझाते प्रत्याख्यातभनस्येत्य निउणमतीनिजामग, पोतो जह इच्छियं वए भूमि । थैः, विशेषतरं कर्तव्यमिति वाक्यशेषः। अथ शकावसत्यां ग्लानस्य कर्तव्यमित्युक्तमकारणमत पाह गीयत्येणुववेतो, तह य परिणी लहइ सिद्धिं ॥ १२७॥ साक्खो उगिलाणो, निरवेक्खो जीवियम्मि उ परिमी । यथा पोतः प्रवहणं, निपुणमतिः निर्यामका कर्मधारो य. इइ दोएह विकायचे, उक्कमकरणं करे असहू ॥१२२।। स्य स तथा. ईप्सितां भूमि व्रजति, एवं गीतार्थेनोपैतो युग्लानो जीविते जीवने सापेक्षः, परिक्षी भक्तपरिज्ञानवान् तः सन्परिक्षी लभते सिद्धि मोक्षमिति । उक्का पोतह. टान्तभावना। जीविते मिरपेक्षा,ततोऽवश्यं ग्लानो जीवयितव्य इति । इ. योरपि कर्तव्ये 'असर' अशक्तः, उत्कमेण भक्तपरिक्षाव अथ किं तस्य विशेषतरं करणीयमित्यत आहन्तं मुक्त्वा ग्लानस्य करणं धैयावृत्यं कुर्यात् । ययुक्तं शक्ती | उच्चत्तणा य पाणग, धीर वणा चेव धम्मकहणा य । सत्यां योरपि कर्तव्यं, प्रत्याख्यातभक्तस्य विशेषतः क. भंतोबहिनीहरणं, तम्मि य काले नमोकारो ॥ १२८॥ र्तव्यमिति । तस्य कृतभक्तप्रत्याख्यानस्य स्वयमुहर्तनं कर्तुमशक्नुवत Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७४) अभिधानराजेन् परिहार बर्तमा महया तस्य च क्रियमाणार्या महानाश्वासो भवति, समाधिं च परमं लभते ततः साधयति परमसुसमार्थम् । तथा तृषापीडितस्य सतः पानकं पानं समर्पणीयम् ( धीरबणा वेष ति ) दुःखेन परिताप्य मानस्य धीरापना कर्त्तव्या यथा- धीरो भव भई तत् पुखं विभ्रामणादिना अपनेष्यामि अपि च पुण्यभा गिन् ! सहस्यैतद् दुःखं सम्यग्यत एव तरलहनानन्तरमचि - रास्सर्वदुःखप्रणो भविष्यसीति इत्यादि । तथा धर्मकथना पूर्वपरमदुष्करकारिमुनिचरितरूपा कथयितम्या मध्ये प प्रेमसहमानस्य बहिनि बहिर्नयनं पहिर्याता 55 विकम सहमानस्य अन्ते निर्हरणम् । तथां तस्मिन् काले मरणसमबे नमस्कारी दातव्यः । गतं परिशाद्वारं, ग्लानद्वारं वा । संमति संगमातीतद्वारं वादिद्वारम् तथा चाजो चिय सिअंते, गमभो सो चेव मंसियापि । हेडा अकिरियवादी भवितो इथमो किरियवादी ॥ २६ ॥ य एव चारित्राद् भ्रंश्यमाने संयमप्रत्युत्पन्नद्वारे गमक उकः स एव भ्रंशितानामुत्मनाजितानामपि श्रियमाणानां बेदितम्या, न पुनः किञ्चिदपि नानात्यम् । यतं सेवमातीतद्वारम् अधुना चादिद्वारमाह-अकिरियवादी इत्यादि) य एव प्राक्पश्वादिनि गम उक्तः स एवात्रापि द्रष्टव्यः, केवलं सोऽक्रियावादी भणितोऽयं तु क्रियावादीति विशेषः । यत्र स्थाने वादी दातव्यः तत्र गतस्य यत्कर्त्तव्यम्, तथा चाऽऽद्द बादे जे समाही, विजागरणं च वादिपटिवक्खे। न सरइ विक्खेवेणं, निव्विसमाणो तहिं गच्छे ॥ १३० ॥ वादे वादविषये येन तस्य समाधिरुपजायते तत्सर्वे क्रियते । तद्यथा-वादी भणति वाक्पाटवकारि ब्राह्मयाद्यौषधं दीयताम् इति तदीयते । शरीरजाड्यापहारि तदुपदिष्टं वैचोपदिष्टं वास्तु यदि वा दुग्धाऽऽदिविकृतिप्री तनक्रम् अथवा देशानं सर्वजानं वाऽऽदिविभूषा या । विद्याग्रहणं च (पादपवित) विद्याग्रहणं वा वा दिप्रतिपक्षे वादिभिर्विद्याप्रतिपक्षभूतं कार्यते । किमुक्तं भवति ?, याः प्रतिवादिज्ञाताः, तासां प्रतिपन्थिन्यो या अन्या विद्याः । यथा - " मोरी नउलि विराली " इत्यादि । तासां ग्रहकार्यते। तत्सर्वे क्रियते इति चेत् उच्यते-गुरा र्शनात् । तथाहि ब्राहम्याऽऽद्यौषधोपयोगतो वाकूपाटवं, शरीरजायापहार्यौषधाभ्यवहारतः शरीरलघुता, दुग्धप्रणीताssद्वाराभ्यवहारती मेधाविशिष्टं व धारा सर्पिःसम्बिधभोजने मुझे तु ऊर्जा, "घृतेन पाटयम्" इति वचनात् । देश सर्वतो वा खानेन वस्त्रादिभूषायां च तेजस्विता, प्रतिपक्षविद्याग्रहणतो महान्मानसिको ऽवष्टम्भः । एतत्सर्वं वादवे सायामुपयोगि । 1 तथा चाऽऽह वाया पुग्गललहुया, मेहा उजा य धारण बलं च । तेजस्सिया व सतं, नायामहयाम्म संगामे ।। १३१ ।। बाग्व्यक्लाक्षरा, पुद्गललघुता शरीरपुद्गलानां जाड्यापगमः, मैथा अपूर्णापूर्वऊहा 55रमको ज्ञानविशेषा, ऊर्जा बलं प्र भूततर भाषणेऽपि प्रवर्द्धमानस्वयसः प्रान्तर उत्सादविशेष परिहार इत्यर्थः । धारणा प्रतिवादिनः शम्यतदर्थावधारण तेजस्विता प्रतिवारिशोभाभरिका शरीर स्फूर्तिमती दे दीप्यमानता, सायं प्राणम्यपरोपण समर्थविद्याप्रयोगेश्याविच-' तितमानोपमाहेतुरषहम्नः । एतत्सर्व वाङ्मये संत्रा मे उपयुज्यते । सूत्रम् - परिहारकप्पहिते भिक्खु बहिया थेराणं वेयावडियार गच्छेजा, पेरा य से मो सरेजा, कप्पर से निष्षिसमाणस्स एगराइयाए पडिमा ॥ २४ ॥ इत्यादि) अल" मी सरेजा " इति विशेषः । शेषं समस्तम`पि पूर्ववत्। "मो सरेखा " इत्यस्यायमर्थः-पप परिहा तपोवनसिहतीति स्थापित प्राचार्या न स्मरेयुः क स्मान स्मरेयुरिति चेत्, उच्यते-व्याशेषात् । तथा चाऽऽह"नसरह " इत्यादि पूर्वगाथापश्चार्द्धम् । विद्यानां निमिचान प्रत्युतराणां च कथनतो. बहुविधसंदेशकथनतो या माचायों म स्मरति ततस्तसिस्मरये सति स निर्विशमानक एव गच्छेत्, गत्वा च यत्र गन्तव्यम्, तत्र यत्करोति तदाह तत्थ गतो विय संतो- पुरिसं थामं च नाउ तो उवयं । साहीणमसाही, गुरुम्मि ठवखा असहयाओ ॥ १३२ ॥ तंत्र गतोऽपि च सत्पुरुषं प्रतिवादिलक्षणं प्रचण्डं वा स्थाम च प्राणमात्मनो ज्ञात्वा तदनन्तरं यदि समर्थमास्मानं संभावयति तदा न निक्षिपति अथाशक्तिः संभाव्यते ततः स्थापना निक्षेपणं परिहारतपसः कर्तव्यम् किमु भवति ? - दुर्जयः खलु प्रतिवादी न यथा कथञ्चन जेतुं श पते, अहं च क्षामतथा बहुविधमुत्तरं दातुमशको मतिमो हो वा तदानीं मम क्षामतया भवेत् इति यदि संभावयति तर्हि निक्षिपति । अथ कथं स निक्षिपतीत्यत श्राह - ( साहीत्यादि ) स्वाधीने सन्निहिते अस्वाधीने असनि हिते गुरौ च सहस्य स्थापना परिहारतपसो निक्षेपणं भ यति । इयमत्र भावना-यद्याचार्यः सन्निहितो भवति ततः एतं निक्षेपयति अथ नास्ति सन्निहितः ततोऽशा क्षामत्वेन परवादिनं जेतुमित्यालम्बनतः स्वयमेव निक्षिपति । श्रत्र पर श्रह - ननु यदि स्वयं निक्षिपति ततः स आत्मच्छन्दसा निक्षिपन् यदि उद्धातितं वहति ततोऽनुशतितं प्राप्नोति अथानुद्घातितं ततः परतरं स्थानमा - प्नोति इति । सूरिराहकामं अच्छंदो, निक्खिनमाणो उ दोसवं होइ । तं पुरा जुन अस वीरियको पुरा बाजा || १२३ ॥ कामशब्द मकरध्वजे अती दावते काममयधृतमेतत् । श्रात्मच्छन्दसा निक्षिपन् दोषवान् भवति, परं निष्कार यदि पुनरशठः सन् एवं चिन्तयति न शक्रः क्षामतया परवादिनं जेतुमिदानीं पीरितकार्यः समाप्तकार्यः पुनर्भूयो वद्देयमिति ततस्तद् नियुज्यते च दुष्टमे पुलम्बनत्वात् सूत्रम् (परिहारकपडिए भिक्खु क हिचा घेरा पावडियार गच्छेखा, बेरा व से सरिखा या नो सरिजा वा नो कप्पर से निव्विसमाणस्स ॥ २५ ॥ इत्यादि ) एतदपि सूत्रं तथैव, नवरमेतावान्विशेषः - ( थेरा य से सरिजा वा नो सरिक्षा वा नो कप्पर से निव्विसमा Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७५) अनिधानराजेन्कः । परिहार परति ) अस्यायमर्थ:- स्थविरा: ( से ) तस्य परिहारकश्यं स्मरेयुर्यदि वा व्याक्षेपाच स्मरेयुः वाशब्दानुभावपि म स्मरेयातां तथापि यदि निर्विशमानको गच्छति ततः (से) तस्य एकरात्रिक्या प्रतिमया एकराविकेण वा साभिप्रदेश कचिदपि प्रतिबन्धमन्तरेव गच्छत इत्यादि । तथाबाऽऽडू सरमाणे जो उ गमो, अस्सरमाणे वि होइ एमेब । एमेष मीसगम्मि बि, देसं सव्वं च आसा ॥ १३४ ॥ इह त्रीणि सूत्राणि तद्यथा- प्रथमं स्मरणसूत्रं. द्वितीयमस्मरणम् इतीयं मिक्षकसूत्रं स्मरणास्मरण सूत्रमित्यर्थ ।। तत्र य एव गमः स्मरणे स्मरणसूत्रे उक्तः, एवमेव अनेनैव प्रकारेण प्रथमसूत्रप्रकारेणेत्यर्थः । अस्मरणे अस्मरणसूत्रे भवति गमः एवमेव अनेनैव प्रकारेच मिथकनेऽपि । सत्र येऽपि बहनं निशेषणं वा देणं सर्व बा आसाच प्रतीत्य द्रष्टव्यः । " 1 तत्र द्वयोरपि विस्मरणं सूचितं तत्र कारणमाहबिखानिमित्तउत्तर फहसे अप्पाहसा व कहियाओ । अतिसंभम तुरियविणिग्गयाय दोहं पि विस्सरियं । १३५ । विद्यानां प्रतिवादिप्रतिपक्षभूतानां निमित्तानामनेकमकाराणाम्. उत्तराणां प्रतिवादिविषयाणां यथा यदि स बादी एवं यात् ततो भवानित्यं वदेदित्येवमादिरूपाणां कथने त था "अप्पाहणा य" संदेशकाः कथितास्तत श्राचार्यस्यातिसंभ्रमेण इतरस्यापि वाऽतिसंभ्रमादेव त्वरितविनिर्गतस्व द्वयोरपि विस्मृतम्, यथा- परिहारतपो निक्षेपणीयमिति । तत्त्र यदि आचार्याः स्मरेयुः स या स्मारयति तदा निक्षिप्य ग छति, अथ द्वयोरपि विस्मृतं तदा निर्विशमानक एव याति । यदा तु पूर्व स स्मृतवान् विस्मृतवान् पश्चात्तदा का वार्त्तेत्यत आहपुब्वं सो सरिकणं, संपत्थिऍ विजमादिकञ्जेहिं । जस्स पुणो विस्सरियं, निव्विसमायो तहिं वि वए । १३६ । पूर्व स परिहारिकः स्मृत्वा परिहारतपणे निक्षिप्य गया ग मतव्यमिति विचिन्त्य संप्रस्थिते संप्रस्थानकाले विद्याऽऽदिकार्यैर्विद्याग्रहणादिकाव्याकुखीभूततया यस्य पुनर्वि सं. यो वा विस्मरणं गतवान् तत्रापि पूर्व स्मरणे निर्विशमानो ब्रजेत् । संप्रति यदुक्तम्- देशं सर्वे वा आसाद्येति तद् व्याख्यानयतिदेसं वा विवहेजा, देस व ठवेज्ज अहव झोसिजा । सावरला, सयं उपेज सम्म झोसिजा ॥१३७॥ त्रिष्वपि सूत्रेषु देशं वा वाहयेदपि, देशं वा स्थापयेदपि. अ. थवा देशं भोषयेदपि । वाशब्दाः सर्वे चैत्याद्यपेक्षया विकस्वार्थाः । अपिशब्दात् पहनाऽऽदिषु परस्परसमुचयार्थः । त या विष्वपि सूत्रेषु सर्व या स्थापयेदपि, सर्व या कोष येदपि । अत्र वाशब्दो देशं वेत्याद्यपेक्षया विकल्पार्थः । श्रपिशब्दाः पूर्ववत् । अथ कथं देशस्य वहनाऽऽदि ? । उच्यते परिहारतपः प्रायः पूर्व व्यूढं सोफे तिष्ठति अत्रान्तरे च गमनकार्यम परिहार धिकृतं समुत्पन्नम्, तत श्राचार्यम् निक्खिव न निक्खिवामी, पंथि चिय देसमेव बोज्झामि । अपुरा निक्खिपण, कोसंति मए तबसेसं ॥ १३० ॥ निक्षिप मुख अधिकृतं परिहारतपः यत एवं गमनकार्य मिदानीं समुत्पन्नम् । तत्र समर्थः सम्मान निक्षिपामिन मु धामि यत एव देशं पथ्येव मार्ग एव योश्यामि नच प चि क्लमं गमिष्यामि, शक्तत्वात् । असद्दोऽसमर्थः पुनर्नूनमई गमिष्यामीति विन्ति तं देशं निक्षिपति । अथवा( से ) तस्प पदयशेषं लोकमन्दमवतिष्ठते तत्तस्य सं मस्थितस्य वाऽऽचार्याः प्रसारयुद्धथा समस्तं कोपयन्ति - श्चन्ति । यथा महति प्रयोजने त्वं संप्रस्थितो वर्त्तले इति शुक्रं प्रसादतस्तयेतत् तपः शेषमिति । तदेवं देशस्य वहननिकेपीषा भाषिताः । संप्रति सर्वस्य तान भाषयति एमेव च सम्यं पिब दूरद्वायम्मि तं तवे नियमा । एमेच सम्बदेसे, वाइयभोसा पडिनियते ।। १३६ । rate अनेनैव प्रकारेण सर्वमपि बाह्यं निक्षेपणीयं व भावनीयम् | नवरं सति बादिकं नियमाद्राध्य नि । तथाहि - कस्यापि परिहारतपो दतं षोढुं च स प्रवृत्तः, अत्रान्तरे च गमनप्रयोजनमुपजातं, तत प्राचार्या मतेभद्र ! समुत्पन्नमिदं गमनप्रयोजनं तस्मानिक्षिप परिहारतप इति । स समर्थः सन् प्राऽऽह-भगवन् ! गच्छन्नपि समर्थोऽहं बोदुमध्वनो दूरत्वाच्च मार्गे एव समस्तं वोइयामि । तथाहि सर्वजधन्यं परिद्वारतपो मालिकं तदापनोऽसौ. गन्त यं यावदपुरात् मथुरायां ततस्तरूप मार्ग एव समाप्तिमुपपातीति असमर्थ पुननिक्षिपति पदि वा महत्वोजनमुपस्थितं, गरीयांचाध्वा एतस्य च प्रयोजनस्यायमेव मुद्गरीयस्स्यात् कर्त्ता, ततः सम्यक्प्रयवनयकोऽयं परमदुष्करकारीति विचिन्त्य सूरयः सर्वमपि तस्य प्रसादती सु शनि एवं सर्वस्य मनो याद) मेव अनेनैव प्रकारेण, प्रतिनिवृत्ते प्रत्यागतस्य देशस्य सर्वस्य बाइनाकाषी वेदितव्यौ तद्यथा यदि गच्छता देशी वि चितस्ततः स देशः प्रत्यागते बोते, अथ समस्तं ततः सर्वमिति । यदि वा मही दुष्करमिदं कार्यमनेन कृतमिति परितुष्टाः सूयो निक्षितं देशं सर्व या मुञ्चन्ति । एवं प्रत्यागतस्य देश सर्वपादनकोपी अथ कथं देशस्य सर्वम्य वा प्रसादतो झोषकरणं ?, न खलु प्रसादतः पापमुपयातीति । तत आह arrassराणं, होति गुरवातिए वि उग्घायं । सेसाथ अगुग्धाया, अप्पच्छंदोववेताणं ॥ १४० ॥ यथा अनुष्पातिते परिद्वारतपसि प्राप्ते वैनृत्यकराणां संपादावृष्यप्रवृतानामुद्धाति परिहारतपो भवति दानयोग्यं देवावृध्यास वनेन तेषामयत्यात्। एवं क दाचित् देशकालाद्यपेक्षया देवस्य सर्वस्य या झोषोऽपि क्रियते, तथा तीर्थकरानुज्ञाप्रवृत्तेः । तथा चोक्तम्- "तिन्थ गरे मधियं पापचकराणां भोसो भवति ग्या विवं कबर ।" इति । शेषाणां वैयावृत्त्याऽऽलम्बनरहितानामु Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार प्रनिधानराजेन्छः। परिहार पातिते प्राप्ते उद्घातितमेव दीयते, तथाऽऽदौ वैयावृत्या. एपस्थितोऽनुपारिहारिकच, भवतीति वाक्यशेषः । ततस्ते लम्बमरहिता भात्मछन्दसा निक्षिपम्तो यदि उद्घातितं न विशिष्ट परिहारतपसि कृते इतरो द्वितीयो निर्विशति बहात पासीरन् तदा अनुयातितं निक्षिप्तवन्तस्तत उप-1 कृतपरिहारतपःकर्मा तु तस्य कल्पस्थितोऽनुणरिहारिरितनं तेषां प्रायश्चित्तमिात । व्य०१ उ०। कचोपजायते । यदि पुनरेकतरोऽगीतोऽगीतार्थो भव. (१२) योरेका विहरतोरन्यतरस्य परिहारतपोदानम्- | ति ततः शोधिः, शुद्धतपः प्रायश्चित्तदानम् । अथ इयोदो साहम्मिया एगमो विहरंति, एगे तत्थ अम्मतरं रपि अगीतार्थयोः सतोः प्रायश्चित्तस्थापनाऽपत्तौ खग णे इतरस्मिन् परगणे वा गीतार्थानां मिलित्वा गताभ्यां अकिचहाणं पडिसेवित्ता आलोएमा ठवणिजं ठवइत्ता शोधि शुद्धं तपः प्रतिपद्यते, अगीतार्थत्वेन परिहारतपोकरणिज्ज वेयावडियं ॥१॥ योग्यताया अभावात्। दोसाधम्मको संविग्नसांभोगिकादिरूपावेकत एकस्मिन् (१३) सूत्रम्स्थाने समुदितौ विहरतः। तत्रैकोऽन्यतरत् अकृत्यं स्थानं बहवे साइम्मिया एगो विहरंति, एगे तत्थ अमयर प्रतिसेव्य पालोचयेत् । तत्र यद्यगीतार्थः प्रतिसेवितवान् त. अकिञ्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएजा, तत्थ ठवणिजं च तस्तसै गुखतपो दातव्यम् । अथ गीतार्थस्तहि यदि परिहा ठवइत्ता करणि वेयावडियं ॥३॥ रतपोयोग्यमापनस्ततः परिहारतपो दद्यात्, तदनन्तरं स्थाप्यते विविक्तं कृत्वा प्ररूप्यते इति स्थापनीयं परिहा (बहवे साहम्मिया एगतो विहरंति इत्यादि ) बहवः सारतपोयोग्यमनुष्ठानं तत् स्थापयित्वा प्ररूप्य य आपन्नः स धर्मिका एकतः एकत्र स्थाने विहरन्ति । तत्र तेषां मध्ये परिहारतपःप्रतिपद्यते, इतरः कल्पस्थितो भवति । स एव एको गीतार्थोऽन्यतरदकत्यस्थानं प्रतिसेव्य पालोचयेत्, व तस्यानुपारिहारिकः, ततस्तेन तस्य करणीयं बैयाबृ आलोचनानन्तरं परिहारतपो दाने स्थापनीयं, प्रागुखरूपं स्थमित्येष सूत्रसंक्षेपार्थः। स्थापयित्वा अनुपारिहारिकेण तस्य करणीयं वैयावृश्यमि त्येष सूत्रार्थः ॥ ३॥ अधुना नियुक्तिविस्तरः एनमेव भाष्यकृत्सविशेषमाहदो साहम्भिय छ बा-रसेव लिंगम्मि होइ चउभंगो । पत्तारि विहारम्मि उ, दुविहो भावम्मि भेदा तु ॥१४॥ एमेव तइयत्ते, जइ एगो बहुग मज्जै भावजे । आलोयणगीयत्थे, सुद्धे परिहार जइ पुचि ॥ ५८॥ रिशयस्य साधम्मिकशब्दस्य च यथाक्रमं षट् द्वादश नामा. एवमेव अनेनैव प्रागुक्तेन प्रकारेण यधेको बहुषु मध्ये यो निक्षेपार, द्विशब्दस्य षटूः साधर्मिमकशब्दस्य द्वाद अवतिष्ठमानः प्रायश्चित्तस्थानमापद्यते, ततस्तेन तत्क्षणं शको निक्षेप इत्यर्थः। लिङ्गे लिङ्गविषये चतुर्भङ्गी, भवति । गीतार्थस्य पुरत आलोचना दातव्या । तत्र यदि सोऽगीसूच पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् । तथा विहारे चत्वारो तार्थो भवति तदा शुद्धं तपस्तस्मै दातव्यम् । अथ गीतानामा यो निक्षेपाः । तत्र भावे द्विविधो भेदः । एष द्वार र्थस्ततः परिहारतपः, तञ्च यथा स्थापनीयस्थापनापुरस्सरं गाथासंक्षेपार्थः । व्य.२ उ०। (द्वयोबिहारसंभवो' विहार' पूर्वमुक्तं, तथाऽत्रापि वक्तव्यम् । इयमत्र भावना-ते बहवः शब्ने वक्ष्यते) सार्मिका गीतार्था अगीतार्थाः वा भवेयुः, गीतार्थमिश्रा दो साहम्मिया एगतो विहरंति, दो वि ते अमयरं वा । तत्र गीतार्थमिश्रेषु जघन्येनैको गीतार्थो भवेत्, उत्कर्ष भकिचट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएजा, एक तत्थ कप्पागं तो द्वित्राऽऽदिकाः,तत्र यदि सर्वे गीतार्थाः । यदिवा-द्वित्राठगवत्ता एगे णिव्विसेजा,अह पच्छा से वि णिविसेजा ॥२॥ ऽऽदिका गीतार्थाः प्राप्यन्ते, तदा एकः कल्पस्थितः क्रियते, एकोऽनुपारिहारिकः । अथ सर्वे प्राचार्यव्यतिरेकेणागी(दोसाहम्मित्रा एगो विहरंति इत्यादि ) द्वौ साध तार्थाः, ततः शुद्धतपो देयम् । अथाऽचार्य एवं प्रायश्चित्तम्मिकायेकत्र एकत्र स्थाने विहरतः, तौ द्वावप्यन्यतर स्थानमापनस्ततः सोऽन्यत्र गच्छे गत्वा परिहारतपः प्र. पात्य स्थान प्रतिसव्य पालोचयेयाताम् । तत्र यदि द्वा तिपद्यते । अथ समस्ता अप्याचार्यप्रभृतयो गीतार्थास्ततोपपि गीताथी.ततस्तत्र तयोर्वयोर्मध्ये पकं कल्पस्थितं स्थाप उम्यत्र गच्छान्तरे ते सर्वे गत्वा यःप्रायश्चिसमापन्नः स शुद्ध थिस्वा एको निर्षिशत्, परिहारतपः प्रतिपद्यत । यश्च कल्प तपः प्रतिपद्यते। स्थितः स एव चानुपारेहारको भवति,अन्यस्याभावात् । ततः सूत्रम्स तस्य यावृष्यं करोति । अथ परिहारतपःसमाप्त्यनन्तरं सकरुपस्थितः पश्चानिर्विशेत्परिहारतपः प्रतिपद्येत, इत बहवे साहम्मिया एगो विहरंति, सव्वे ते अस्मयरं भएस्तु तपरिहारतपःकर्मा कल्पस्थितोऽनुपरिहारकश्च किञ्चद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएा, एगं तत्थ कप्पगं ठवइत्ता भवति, एष सूवार्थः। अवसेसा णिव्विसिजा, श्रह पच्छा सेवि निविसेजा ॥४॥ एनमेष सूजार्थे भाष्यकृत्सविशेषमाह बहवः साधर्मिकाः एकतो विहरन्ति, ते च तथा विहरबितिए निधिसएगो, निबिडे तेण निविसे इयरो । म्तः, सर्वेऽप्यन्यतरत् अकृत्यस्थानं प्रतिसेव्याऽऽलोचयेयुः, एगतरम्मि भगीते दोसु य सगणेयरे सोही ॥५७।। पालोच्य एकं तत्र कल्पस्थितं कृत्वा अवशेषाः सर्वेऽपि निद्वितीय सूश्योरपि गीताययोरन्यतरत् अकृत्यस्थानमा- विशन्ति, परिहारतपः प्रतिपद्यन्ते इत्यर्थः । ततः तेषां परिपभयोरेको निर्षिशति परिहारतपः प्रतिपद्यते। द्वितीयः कः । हारतपःसमाप्त्यनन्तरं पश्चास्स कल्पस्थितोऽपि निर्विशेत। Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार भनिधानराजेन्द्रः। परिहार स परिहारतपः प्रतिपतेति भावः तस्यैकोऽनुपारिहारको समर्थों भवेत् , ततः स्थापनीयं स्थापयित्वा अनुपारि. दीयते । एष सूत्रसंक्षेपार्थः॥४॥ हारिकस्तस्य स्थापयितव्यः, तेन तस्य करणीयं याद म्यासार्थ तु भाष्यकृदाह स्यामितीवमेकं सूत्रम् ॥५॥ द्वितीयं सूत्रमाह-( से य जो सम्बेवा गीयस्था, मीसा व जहन एगो गीयत्थो । संथरेजा इत्यादि ) सोऽधिकृतः पारिहारिको ग्लायकस्य प्रतिसेवनेनाऽपि न संस्तरेत् , न परिहारतपोयोग्यमनुष्ठानं परिहारिऍ मालवणा, इय भत्तं देंति गेएहंती ॥५॥ विधातुमलम्, ततस्तस्यानुपारिहारिकेण वैयावृस्पं करणीयं, लहु गुरु लहुगा गुरुगा, सुदतवाणं व होइ पासवणा । तब यथा करणीयं तथा भाष्पकदर्शयिष्यति । यदि पुनःसमह होति भगीयत्या, अनगणे सोहणं कुजा ॥६०॥ त्यपि बलेऽनुपारिहारिकेण क्रियमाणं वैयावृत्यम्, (सारजेज त्ति) स्वादयेत् अनुमन्पेत, तदापि प्रायश्चितं कृत्स्नम् तत्रैव ते बहवः सार्मिकाः कदाचित्सर्वेऽपि गीतार्था भवेयुः, उह्यमाने परिहारतपसि अनुमहरुत्स्नेनारोपयितव्यं स्या. कदाचिद् गीतार्थमिश्राः । तत्र यदि जघन्येनको गी दिति सूत्रद्वयसंक्षेपार्थः॥६॥ सार्थः, शेषाः सर्वेऽगीतार्था इति य एको गीतार्थः प्राय व्यासार्थ तु भाष्यकृत्प्रतिपादयतिचित्तस्थानमापनस्तस्य एवाऽऽचार्यः कल्पस्थितः, स एव चानुपारिहारिकः । यदि पुनर्बहवो गीतार्थाः मा परिहारियाहिगारे, अणुवत्तंते अयं विसेसो उ । प्यन्ते, यदि वा-सर्वे गीतार्थाः, तत एकंकल्पस्थितं क भावामदाणसंथर-मंसथरे चेव नाणतं ॥ ६१॥ न्या बहवः परिहारिका भवन्ति, तेषां च पारिहारि- परिहारिके प्रकृतेऽनुवर्तमाने अयं वयमाणलक्षणो विशेकी कर्तव्या, पारिहारिकैश्च परिहारतपसि ब्यूढे अनुपा-| प: पारिहारिकविधिगत श्राभ्यां सूखाभ्यामभिधीयते । को रिहारिकाः परिहारतपः प्रतिपद्यन्ते । कृतपरिहारतपः- विशेषः १, इत्यत पाह-(प्रावक्षदाणसंथरे ति) परिहारतकर्माणस्तु तेषामनुपारिहारिका भवन्ति । कल्पस्थितो- पःप्रायश्चिसमापनस्य परिहारतपोदाने कृते सति तत्वऽपि परिहारतपो वहति, तस्याप्यनुपारिहारिक एको हतो ग्लानिमुपगतस्य अन्यतरवकृत्यस्थानं प्रतिसन्यते,न दातव्यः । यदि पुनराचार्यः परिहारतपोयोग्यं प्रायाश्च. संस्तरतः । प्रथमसूत्रेण विधिरभिधीयते, द्वितीयसूत्रेण तस्थानमापनो भवति, शेषास्तु सर्वेऽप्यगीतार्थाः, ततः सो- पुनस्तेनाप्यसंस्तरत इति सूत्रद्वयस्य परस्परं पूर्वानऽस्यगणं गत्वा परिहारतपः प्रतिपद्यते, पारिहारिकस्य य- न्तरसूत्राव नानात्वं विशेषः। दि शेषाः साधष भालापनाऽऽदिकं कुर्वन्ति । आदिशब्दा पर पाहसूत्रवाचनादिपरिप्रहः । ततस्तेषां प्रायश्चितं चत्वारो ल- उभयवले परियाय, सुत्तत्थाभिग्गहे य वस्ता । घषः। अथ भक्तं वदति, तदा चत्वारो गुरवः। तथा पारिहारिकाङ्गतं गृह्णन्ति, तदा चत्वारो लबवः । पारिहारि न हु जुज्जा वुत्तुं जे, जं तदवत्थो वि आवजे ॥६॥ पवाऽऽलापनादिकं करोति भक्तं वा ददाति. गृहाति या ननु तस्य पारिहारेकस्य पूर्वमुभयं धृतिसंहननबलरूपं व. सदा सर्वत्र प्रत्येकं चत्वारो गुरवः। ये पुनरगीतार्थास्ते भिंतं, पर्यायश्च गृहयतिपर्यायरूप उभयतो यर्मितः, सूत्रा विपि तस्य यावत्प्रमाणौ भवतस्तावत्प्रमाणौ वर्मिती.अभि. भ्यः शुद्धतपो दातव्यम् । अगीतार्थतया तेषां परिहारतपोयोग्यत्वाभावात् । अथ कीरशाः परिहारतपोर्हाः, कीडशाः प्रहा अपि च तस्य क्षेत्रादिविषयाः पूर्वमधस्तात् व्यावर्णि शुखतपोयोग्या इति शिष्यप्रश्नावकाशात् परिहारतपोयो तास्तत उभयबलमुभयं पर्यायं सूत्राविभिग्रहांश्च वर्णयित्वा ग्यानां च प्रज्ञापना प्ररूपणा कर्तव्या । अत्रापि तत्परूप. (मा) नैव युष्माकं युज्यते यतुम् । 'जे' इति पादपूरणे । णायाः स्थानत्वात् । सा च प्रागेव कृतेति न भूयः क्रिय यत्तदवस्थेऽपि परिहारतपः प्रतिपन्नोऽप्यापयते, प्रायश्चित्तहै। अथ सर्वेऽप्यतिार्था भवेयुस्ततस्ते अन्यस्मिन् गणे स्थानाऽऽपत्तिसंभवात् । गत्वा शोधनं कुर्युरालोचनां दत्त्वा शुद्धतपः प्रतिपचेर अत्र सरिराहचिति भावः। दोहि वि गिलायमाणे,पडिसेवंते मिगेण दिलुतो । (१४) परिहारकल्पस्थितं ग्लायन्तम् । भालोयणा अफरिसे, जोहे वसहे य दिईते ।। ६३॥ परिहारकप्पट्टिते भिक्खू गिलायमाणे भस्मयरं भकि द्वाभ्यामाभ्यां परीषहाभ्यां खुत्पिपासालक्षणाभ्यां ग्लायन् चहाणं पडिसेवित्ता पालोएजा, से य संथरेजा ठव ग्लानिमुपगच्छन् गुरुलाधषचिन्तया अनेषणाऽदिकमपि प्र. तिसेवेत, तस्मिश्च तथा प्रतिसेवमान हटान्तो मृगेण घे. णिजं ठवइत्ता करणिज्जं वेयावडियं ॥ ५॥ से य यो दितव्यः। स च तथा प्रतिसव्या लोचयेत् । मालोचनायां संबरेआ मणुपारिहारिएणं कराणिज्जं वेयावडियंसे य संते च तेन दीयमानायामपरुषं भाषणीयम् । यदि पुनः परुषं बले अणुपरिहारिएणं कीरमाणं वेयावडियं साइज्जेजा से भाषन्ते प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुका मासा, पाहाऽनवस्थाय कसिणे तत्थेव भारुहेयब्बे सिया ॥६॥ मिथ्यात्वविराधनाश्च दोषाः । अनाऽर्थे योधान् रथान्ती कुर्यात्, यदि वा-वृषभेण रशन्तः कर्तव्य इति । तत्र मृगह" परिहारकप्पडिए मियासू गिलायमाणे " इत्यादि घटान्तोऽयम्-" एगो मिगो गिम्हकाले संपत्ते तरहार सूत्रद्वयम्-परिहारकल्पस्थितो भिक्षुग्लायन् ग्लानिमु- अभिभूतो पाणियहाणं गतो पासह-कोदंडकंधरियहत्थं पपनः अन्यतरनरुत्यस्थानं प्रतिसेय्य आलोधयेत् । स पाई। ततो भिगो इमं चिंतेह-जह न पियामि तो सिप्पं व तेनास्यप्रतिसेवनेन संस्तरेत् परिधारतपोपहने। मारहामि । पीते सुहंण मरिजामि। अपि य--पीए कयाह Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार अभिधानराजेन्धः। परिहार बलिवसणगुसेण पलाइजा वि। एवं बितिऊस सो प्रमेण पाकुसरैस्तोदिता अतिशयेन पीरिताः परप्रत्यूहासक्लाः पर भोगालणं सिप्पं पाणिय पाउं लग्गो । जाब सो पाई तं बलप्रतिक्षेपं कर्तुमसमर्थाः तस्यैवा:त्मीयस्थ राफी ज्याभोगासं पावर ताव का वि घोडे करेत्ता पलातो एवं सो। घाता य भवन्ति । वि पारिरिमोचिते-जान परिसवामि तो मरामि ।। "भएणो राया परबलेणाभिभूतो तोष जोहे पेसेक परपलअढेस पायच्छिते अन्नमवि कम्मनिखारणं न काहामि । पहारेहिं भग्गो परिमागतो प्रोत्साहयति ।"कथमित्याहपरिसषिए पुण पच्छितंच, अबूलं च बहिस्लामि नामेण य गोएण य, पसंसिया व पुष्पकम्मेहि। अब कम्मनिरण विरं जीवंतो करेस्सामि भवसत्तमः भग्गवणिया वि जोहा, जिति सघु उदिच्छ पि ॥६॥ देवविलुतेणं कयाइ सिम्हामि विवेयं । जतो भणियं ते योधाः प्रत्यागताः सन्तः तेन राजा नाम्ना अभिभा. "अप्पेणं बहुमसेजा, एवं पंडियलक्षणं । नेन गोत्रणाम्वयेन तथा पूर्वकम्मैमिः पूर्वकतैरनेकैः संवि. सम्बासु पडिसेवासु, एयं महावयं विदू ॥१॥" मनोत्तराप्तिरगमनिका-सा प्रतिसेवासु प्रतिसेवना धानकै प्रशंसिताः सम्यकसुताः, ततस्सया प्रशंसवा उत्कसुएतदनन्तरोदितमल्पेन च षट्के परमासार्थप सार्थकम 4 प्राहिताः सम्तो प्रणिताः सन्तो भना याबाबताः, रा. जवन्ताऽऽविदर्शनामशणस्य पूर्वनिपातः । तथागृता अपि पवादपदं विदुर्जानन्ति पूर्वमहर्षयः। उदीमपि प्रबलमपि शपुंजयन्ति । डडो बोधराता। एनमेव मृगदहावं भावयति संप्रति दार्शन्तिकबोसमामागिम्हे स मोक्सिएसुं, दई वाहं गतो जलोयारे । इस माउरपडिसेवं-त चोदितो ग्राहक त निकाए तो। चिंतेइ जइ न पाहं, तोयं तो मे धुर्व मरणं ।। ६४॥ लिंगाऽऽरोवण चागं, करेज घायंब कलई वा ॥६६॥ पाउं मरणं कि सुहं, कयाइ चेट्टिो पलाएजा । एतेन योगतम प्रकारेणाऽऽतुरः प्रथम, द्वितीयः परीपहा. इति चिंतेउं पाउं, नोल्ले तो गतो वाई॥६५॥ भिभूतनाकुलीभूतो नेवणादि प्रतिसेवमामःसन् चोदितो उथवासप्रतिसेवितं निकाचयन् मालोचयन बोदितो.यथाप्रीमे ग्रीष्मकाले समृगोऽवतारे गतो व्याधं मोक्षतेषु मो. शितो मेमिष्ट इषुर्वाणी येन स तथा तं, हवा चिन्तयति हे निर्धर्मिन् ! किमीशं त्वया कृतमित्यादि। स च तथा परुष. यदि न पास्यामि तोयं जलं ततो मे ध्रुवं मरणम् । अपि च भाषणेन रोवं प्राहितः सन् तां प्रतिचोदनामसहमानो लि. पानीयं पीत्वा मरणमपि मे सुखं, तथा कदाचित्पानीयपानेन ङ्गस्य वारजाहरणमुखबसिकारूपस्य भारोपणं वा, प्रा. यश्चित्तस्य त्याग वा कुर्यात् । यदि वा-घातं चोदकस्य कुर्यात्, वेष्टितः सचेष्टाका सन् पलायमपि,इति चिन्तयित्वा पानीयमन्यस्मिनवकाशे पीत्वा वेगवलेन व्याधं मुदित्वा प्रेयं गतो घातग्रहणमुपलक्षणम्-पिट्टनं वा लकुटाऽऽदिमिर्जीविताथमृगः स्वस्थानम् । उक्नो मृगहरान्तः। परोपणं या कुर्यात्, कलहं वा राटिरूपं विदध्यात्कोपाऽऽये संप्रति दान्तिकयोजनामाह शतः सर्वस्थाप्यकृत्यसंभवात् । संप्रति वृषभावान्त उ. च्यते-" केदारेसुं साली वाविता , ते य केयारा मिग्गसमालो साहू, दगपाणसमा अकप्पपडिसेवा । वितीए परिक्खित्ता कया. तेसिं एकं वारं कर्य, अनया वाहोषमो य बंधो, सेविप पीतं पणोल्लेइ ॥६६॥ तेण बारेण वसभो पविट्ठो केयारेसु 'चरर, केयारसामी मृगसमानो मृगसदृशः साधुः, उदकपानसमा उदकाभ्य. आगतो तं वसभं पविटुं पासिऊण तं वारं ढविय, ततो पहारसमा प्रकल्पप्रतिसेवा, व्याधोपमो व्याधस्थानीयो. सरमादीहिं तं वसभं परिताति-ताहे तेणं परिता. बन्धः । कर्मबन्धमकल्पं प्रतिसेव्य मृग इव पानीयं पीत्वा विएणं इमं कयं।" व्याधं प्रदति प्रेरयति । संप्रति अालोचनाया अपरुषभा जंपि न चिमं तं ते-ण चमढियं पल्लियं सराईहिं । षणे योधरधान्त उपन्यस्तः । स भाव्यते-" एगो राया, सो परबलेखं अभिभूतो, तेष जोहा दिट्ठा जुज्झता परबलेन केयारेक्कदुवारे, पेयालेणं निरुदेणं ॥ ७० ॥ पहारहि परिताविया भग्गा , ततो गया अप्पणि जगस्त केदारसत्के एकस्मिन् द्वारे सति तेन द्वारस्थगनतो निरचो पायमूलं. तेण वापसरेहि तजिया-तुज्मे मम रुद्धेन पेयालेन सारडवृषमेण यदपरेषु केदारेषु न ची विति खाता किं पहाराणं भीया पडिमागता । ताहेते तदीप शराऽऽविभिः परिताप्यमानेन इतस्ततः परिश्रमता जोहा परबल मभिभषि उमसमत्था इमं वितंति-ज्झताणं (चमढियं ति) विनाशितं (पेलियं बेति) पातितं च शीप्रम। पाउहपहारेण भग्गाणं पडिप्रागथाणं वायासरपहारा एष रष्टान्तः। बंधणमरणादीणि विसेसंति कीस अप्पा न प अयमर्थोपनयारिवतो सि चिंतेऊण तेहिं जोधेहिं राया बंधिडं परबलर. तणुयम्मि वि अवराहे, कयम्मि अगुवायचोइएणं वा । यो विमो।" सेस चरणं पि मलियं, असमत्थ पसत्थ विइयं तु॥७१॥ एनमेवार्थमाह एवं वृषभदृष्टान्तप्रकारेण स्तोकेऽप्यपराधे कृते अनुपरवलपहारचइया, वायासरतोइया य ते पहुया । पायेन उपायाभोवन यदितस्तेनानुपायबोदितेनाधिक परपरबूहासत्ता, तससेव हवंति घायाय ॥ ६७॥ तप्रतिसेवनातः शेषं यश्चारित्रमवतिष्ठते तदपि लियायोधाः परबलतैः प्रहारस्त्याजिताः संग्रामाध्यवसायमी गाऽऽदिना मलिनं क्रियते। इदमप्रशस्तमुदाहरणम् द्वितीयं चिता, ततः प्रत्यागताः सन्तस्ते प्रभुषा स्वकीपेनराशा तदाहरणं प्रशस्तम्।तवेदम्-"मनो केयारसामी वसभ केया Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार (६७१) अभिधानराजेन्द्रः। परिहार रेसुंसालिं बरंतं पासिऊण दुधारस्त एगपासे मिच्छासरंका। यते । एवं च पारिहारिकोऽपि यत् यत्कतुं न शक्नोति तत्त. र, ततो सो बसभी नीतो तेण तुषारेण निष्फडति. निष्फः। त् (से) तस्य द्वितीयोऽनुपारिहारिकः करोति, यत्पुनः क. संतो य लेढुमादीहि पाहतो, एवं तस्त खेतमलणा-तुमलं तत्स्वयमेवानिहितबलबीर्यः करोति । एवं नाम है. दिया पुग्घुत्ता दोसा न जाया। एवं पायरिएण वि सो उ.1 नवीर्याचारोऽनुचीयों भवति । बारण बोरयम्बो जहा मरूसति, ततो पुखुचो एगो वि] संप्रति यदुतम्-"अणुपरिहारिएणं कीरमाणं यावर्ष दोसो न संभवति ।" व्यापातं प्रथमसूत्रम् । अंसारजति।" तत्र साइजणामाहअधुना द्वितीयं ब्याविण्यासुः प्रथमतः सूमेण सह जं से अणुपरिहारी, करेइ तं जइ बलम्मि संतम्मि । संबन्धमाह न निसेहेई साइ-अणा उ तहियं तु संठाणं ॥ ७५ ।। तेणेच सेविएणं, असंथरंतो वि संथरो जातो । पत् (से) तस्य परिहारिणोऽनुपारहारी करोति, तथ पितियो पुण सेवंतो, अकप्पिय नेव संथरति ॥७२॥ दि तेन क्रियमाणं सत्यपि बले. अपिशब्दोऽत्रानुक्तोऽपि साअनन्तरसूत्राभिहितोऽस्तरमपि तेनैव प्रागुकेनाकरिपके. मागम्यते । म निषेधते न निषारयति । सा नाम " सारमसेवितेन संस्तरो विवक्षितानुष्ठानवहनसमयों जातः। वि. जणा" स्वादना. तत्र च तस्यां च स्वाइनायां क्रियमा तीयः पुनरधिकृतसूजोतोऽकल्पिकमपि प्रतिसेवमानो नैव णायां प्रायश्चित्तं स्थानम् । किमुक्तं भवति ?-प्रथमोद्देशके येषु संस्तरति नैवाधिकतानुष्ठानवहनसमर्थ उपजायते । स्थानेबालपनादिलघव उकास्तेषु स्थानेष्वम्य गुरुका दा. ततोऽसंस्तरतो व्याविण्यासनार्थमधिकृतसूत्राऽऽरम्भा- तव्याः, अनुमननाध्यवसायस्यातिप्रमावहेतुत्वादिति । एमेव वायसुत्ते, नाणत्तं नवरमसंथरतम्मि । सूत्रम्करणं भणुपरिहारी, चोयगगोणीऍ दिढतो।। ७३ ।। परिहारकप्पद्वियं भिक्खु गिलायमाणं णो कप्पइ तस्स यथा प्रागुक्तसूत्रेऽभिहितम् "उभयबले परियाय" (६२)T गणावच्छेइयस्स णिज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणि त्यादि,एवमेव अनेनैव प्रकारेणासिन्नप्यधिकृते द्वितीये सूत्रेष. वेयावडिय० जाव ततो रोगायंकाओ विषमुक्को ततो पच्छा कव्यं, नवरमन नानास्वमिदमसंस्तरति अकल्पिकप्रतिसेवने. तस्स प्रहालहुस्सयं नामं ववहारे पडवेयवे सिया ॥७॥ नापि संस्तरणमप्राप्नुवति करणमनुपरिहारिणः यन्त्र शक्कोति अथास्य सूत्रस्य पूर्वसूत्रेण सह कः संबन्धः। उच्यतेपरिहारिकः कर्तुतदाणतः स न करोत्यनुपरिहारिक इति तवसोसियस्त वाऊ, खुभेज पित्तं व दोवि समगं वा । भाषः ।"चोयगगोणीप विट्ठतो" इति पश्चात् व्याण्पेयम् । सम्पग्गि पारणम्मी, गेलसमयं तु संबंधो ।। ७६ ।। संप्रति यदनुपरिहारिणा कर्तव्यं तदाह तपाशोषितस्य यो हि परिहारतपसा शोषमुपगतस्य धातः पेहा भिक्खग्गहणे, उटुंतनिवेसणे य धुवणे य । खुभ्येत,यदि वा पित्तम् । अथवा द्वयमपि वातपित्तं समकं तु. जं जं न तरइ काउं, तं तं से करेइ वितियो उ ।।७४|| भ्येयाताम् । ततो वातेन पित्तेन या सन्ने विध्याते अग्नी पारण प्रेक्षा या भिक्षाग्रहणे उत्तिष्ठति उत्थानं कर्तुमारभमाणो कृते सति ग्लानत्वमुपजायते । ततो ग्लानस्य सतो विधि: निवेशते बानुपरिहारिणः, करणं भवतीति शेषः। इयमन पापनार्थमेतत्सूत्रमुपगतमित्येष सूत्रस्थ संबन्धः। श्रमेन सं. भावना-यदि परिहारिको भाण्डं प्रत्युपेक्षितुं न शक्नोति बन्धेनाऽऽयातस्यास्य सूत्रस्य(७)व्याख्या-परिहारकरसस्थित ततोऽनुपरिहारिकं ब्रूते-प्रत्यवेक्षखेदं भाएडकमिति । ततो मिनुं ग्लायन्तं यस्य सकाशमागतस्तस्य गणावच्छेदिनो न अनुपरिहारिकस्तस्य भाण्डं प्रत्यवेक्षते । तथा यदि भिक्षा कल्पते निर्वृहितुमपाकर्तुं वैवावृत्य करणादिना,किं त्वग्लानिमित्त हिण्डितुं न शक्नोति ततोऽभिधत्ते, भिक्षामटि भ्या तस्थ करणीयं वैयावृष्यं तावद्यावत्स रोगाऽऽतङ्काद्विप्रा स्था ददाति । एवमुस्थानं यदि कर्तुं न शकस्तत उचा मुक्तो भवति, ततः पश्चात्तस्य परिहारिणो (लहुस्तगति) पयति, उपवेष्टुमशक्तमुपवेशयति, लेपकृदादिना खरण्टि स्तोको नाम व्यवहारः प्रायश्चितं प्रस्थापयितव्यो दाततं पात्रबधाऽऽदि यदि प्रक्षालयितुमशक्तस्तदा तदपि प्रक्षा व्यः स्यादिति सूत्रसंक्षेपार्थः। लयति । अत्र "चोयगगाणाएँ दिटुंतो" इत्यस्यावकाशः।चो. व्यासार्थ तु भाष्यकृतिवछुर्यैः कारणः स ग्लायति तान्य दक आह-यदि नाम तस्यानुपरिहारिणा कर्तव्यं, ततः भिधिस्सुराहकिमुक्तमेव करोति, सर्व करमान्न कुरुते? । तथाहि-यथा पढमविइएहि न तरह, गेलप्मेणं तबोकिलंतो वा । भिक्षाहिएडनार्थमुत्थातुमशक्नुवता परिहारिकेणोक्त मामु निज्जूहणा प्रकरणे, ठाणं व न देइ वसहीए ।। ७७ ॥ स्थापयेति तमनुपरिहारिक उत्थापयति । तथा भिक्षामटि- प्रथमद्वितीयाभ्यां जुत्पिपासालक्षणाभ्यामभिभूतः सन् प. त्वा कस्मात् भक्तमानेतुं ददाति । यथा वा भणितः सन् भि रिहारी ग्लायति । यदि वा-ग्लानत्वेन,अथवा-तपसालान्तः सामटित्या भक्कमानेतुं तस्मै प्रयच्छति। तथा भारडप्रत्यु- सन् । एतावता "गिलायमाणं" इति पदं व्याख्यातम् । अधु. पेक्षाणाऽऽविकमयभणित एव कस्मान करोति । सूरिराह- मा "निज्जूहित्तप" इति व्याविण्यासुराह-नि!हना नाम गोरखा रटान्तः-यथा कस्यापि गौर्वातादिना लग्नशरीरा, यावृश्यस्याकरणे, यदि वा-बसता दोषाऽभावे यत्स्थानं न तामुपविष्टामस्थातुमशक्नुवतीं पुच्छे गृहीत्वा गोनायक दवाति एषा नियूहना । वैयावृष्याकरणाऽऽदिना यत्तस्य उत्थायति, सा बोस्थिता स्वयमेव चारि चरितुं याति, नयोऽकरणं सा नियूहनेति भावः। यदि पुनरसमर्था चारिचरणाय गन्तुं तदा वारि पानी। बदुशम्-'अगिलाए तस्स करणिजं" इति। तत्र गिलाप्रतिमाऊनीय पदाति, एवं व तावत् कारिता यापलिडोपा- धेन अगिला ज्ञायते, इति गिलाव्यापमानार्थमाह * Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) अभिधानराजेन्द्र परिहार नियमेव कुर्यवो जो इराई परिसा गिला हो । पडिलेडुडुवयाई, बेयावडियं तु पुब्बुतं ॥ ७८ ॥ यो नाम नृपवेटिं राजवेष्टिमिव कुर्वन् वैयावृष्यं करोति एताशी भवति गिला ग्लानिः, तस्याः प्रतिषेधोगिला, तथा करणीयं वैयावृत्यम् किं तारेत्यत आह-प्रतिस्थापना 55दिकं भावस्य प्रत्युषेशणमुपविष्टस्योत्थाप नम् आदिशब्दात् मिज्ञानयनाऽऽदिपरिग्रहः। एतत्पूर्वो वैयावृष्यम् । अत्र निर्युक्तिविस्तरः परिहारि कारणम्पी, आगमे निज्जूहणम्मि पड गुरुगा। चणाइयाय दोसा, जं सेवइ तं च पाविहिति ॥ ७६ ॥ परिहारिणः कारणे यदपमाला आगते सति यदि निर्यूहना क्रियते तदा तस्य गणावच्छेदिनो निर्वृदितुः प्रा यश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः मासाः, तथा आशाऽऽदया आशानवस्थामिथ्यात्वविराधनारूपाश्च तस्य दोषाः । तथा य द्वैयावृष्याकरणतः स्थानखामेन या प्रतिसेवते परिद्वारी, त च तनिमित्तमपि च प्रायश्वितं स प्राप्नोतीति । संप्रति : कारः परिहारिस भागमनं भवति तान्य भिधित्सुराह कालगतो से सहाओ, असिवे राया व बोहियभए वा । एहि कारखेहिं एगानी होज परिहारी ॥ ८० ॥ ( से) तस्य परिहारिणः सहाय एको अनेको वा कालगसः। यदि वा साधूनामशिवमुपस्थितम्। अथवा राजा प्र शिए बोय) म्लेच्छाः तद्भयं वा समुपजाते, ततः साधूनां वृन्दस्फोट उपजायते एतैः कारणैः स परिहारी ए. काकी भवेत्, एकाकिनश्च सतः परिहारतपो न निर्वहति विशेषतो ग्लानस्तस्य श्रागमनमिति । तुम्हा काय से, कम्पद्वियमनुपरिहारियं उबेजय । वितियपदे असिवादी, गहियागहियम्मि आदेसो । ८१ । यस्मादेव कारणे समागतस्तस्मात् (से तस्य परिहारिणः प्रायधिपरिज्ञाननिमित्तं सफलगच्छसमचं कल्पस्थित मनुपरिहारिणं च स्थापयित्वा कर्त्तव्यं यत्करणीयं द्वितीय पदेश दिलाये ऽपवादेन निर्वृदितोऽपि परिहारि सगणाशिवाऽऽदिभिगृहीवादीतविषये श्रा देशः प्रकारातुर्भवन्यात्मकः । तमेव प्रकारमाह गहियागदिए भंगा, चउरो न व वसति पदमनितिए । इच्छाएँ सहयभंगे, सुद्धो उपस्थच्यो मंगो ॥ ८२ ॥ तवा गृहीतविषये भङ्गाम्यत्वारः । तद्यथा अ शिवेन गच्छ गृहीतेो न परिहारीति प्रथमो भङ्गः । परिहारी तो न गच्छति द्वितीयः परिहा पीति तृतीयः न गच्छे न परिहारीति चतुर्थ मेद्वितीयेपा मन प्रविशति प्रथम परिहारियो डिसीयो वास्तव्यानामनये संभवात् दतीय पुनरिच्या प्रवेशः । यदि सदृशेनाशिवेन गृहीतः परिहारी, गच्छुश्च ततः प्रवेश्यते, प्रथ विसडशेन एकः सौम्यमुखीभिरपरः कालमुखी परिहार भी मुलीभिर्वा तदा न प्रवेश्यते । अन्यतरस्यानर्थसंभवात् । यस्तु चतुर्थो भङ्गः स शुद्ध एव । संप्रति प्रथमाऽऽदिषु महेषु प्रतिषिद्धमपि प्रवेशनं कुर्वतः प्रायधितविधिमाह अगमणे चउगुरुगा, साहू सागारि गामबहि ठेति । कप्पट्ट सिद्ध सभी, साहु गिइत्थं व पेसेति ॥ ८३ ॥ प्रथमाऽऽविषु प्रतिषेधमतिक्रम्य गमनं प्रवेशनमतिगमनं, तस्मिन्प्रायश्चितं चतुगेका मासा, आवाऽनवस्थामियात्य विराधनाथ दोषाः। तथा यदि प्रथमादिषु प्रतिषि ये प्रवेश ते साधुरेकोऽपि कालं करोति तदा चर पाराश्चितं नाम प्रायश्चितम् । अथ शय्यातरस्य कालकर ततश्चत्वारो गुरुकाः, यत एवं प्रायश्चित्तमतः परिहारिकेव प्रामस्य बहिः स्थित्वा यदि कल्पस्थकं पश्यति । यदि बा(सिद्ध चि) सिद्धपुत्रम् अथवा संशिनं धर्क साधुवादि चाराऽऽदिविनिर्गत एहस्थं वाच्यम् ततः संदेयं कथयित्वा प्रेरयति । यथा गत्वा साधूनामाचदत्र बहिः प्रव्रजितो युष्मान्द्रकामस्तिष्ठति स तथा प्रेषितः साधूनामाख्याति । ततः किमित्याह गंतू पुऊि तस्स य वयणं करेंति न करेंति । एगाssभोयण सव्वे, बहिठाणं वारणं इयरे ॥ ८४ ॥ मामाभ्यन्तरवर्तिनः साधयः परिहारिणः समीपं गत्वा पृथ् विपार्थ भवतो वर्त्तते । तत्र यदि ते गृहीतोऽम शिवेनेति, तदा ( तस्स य वयणं करेति, न करेति न्ति) तस्य परिहारिकस्य पवनं प्रवेश कुर्वन्ति किमुकं भवतिप्रथमे द्वितीयेाभन कुर्वन्ति तृतीये महेतु कुर्वन्ति । तृतीये यतनामाह - (एगाभोयणेत्यादि । तृतीये भने य दि समशिवं तत एकस्मिन्नुपाश्रये तं कुर्वन्ति । अय free तर्हि नैकस्मिन्नुपाश्रये स्थापनीयोऽभ्यतरस्यानर्थसंभवात् किं तु मिथे, तस्मिवप्यसंबजे अय व्यव किमपिभ्यं ततः बजेऽपि पृथद्वारे स्वापनीयः । ( एगाभोयण सब्वे हि ) एकस्य साधोराभोगनं प्रतिजागरणम् । किमुकं भवति १-एकः साधुस्तं म्लायन्तं प्रतिहारिणं प्रति जागर्ति, शेषाः सर्वेऽपि साधवः तस्यायोग्यमौषधादिकं वायन्ते (बहिासमिति) यदि पु· नः परिहारिणो बसताचानयने शय्यातरोति करोति तदा ग्रामस्य बहिर्वसतेः दूरे वा योऽन्यो वाटका ऽऽ विस्तत्र परिहारिणः स्थानं कर्त्तव्यम् (वारणं इवरे इति) सागारिको यस्तं प्रतिवरति यश्च तत्र गत्वा शरीरबासी पृच्छति तस्मिन् पारणं प्रतिषेधं करोति । यथा-सूक्ष्मः शिवगृहीतस्य समीपं गच्छत, आगच्छा, एवं च तेन सह संपर्क कुर्बाणा अस्माकमध्यशिवं संचारिष्यतस्तस्मान्मा कोsपि युग्मनमध्ये तत्र यासीत् तदा यतना कर्त्तव्या । सा चाग्रे स्वयमेव वचयते । सांप्रतम् - "एगा मोयण सव्वे " इति व्याख्यानयन्नाहवृद्धिपरस्सास, पिद्वारे व संबद्धे । एगो तं परिजग्गा जो सच्चे वि कोसेति ॥ ८५ ॥ व्यवनिगृहस्थासंबद्धस्योपाधयस्य असति अभावे संबग्रे ऽप्युपाश्रये वसन्ति । कथंभूते ?, इत्याह- पृथग्द्वारे बिभिन्न Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार प्रन्निधानराजेन्द्रः। परिहार हारे ततः (एगो समिति) तं परिहारिणं प्रतिजागति प्रति- (१५) प्रथ के व्यवहारं केन तपसा प्रयतीति परति, शेषाः सर्वेऽपि साधषो योग्यमौषधाऽऽदिकं झोषय प्रतिपादमार्थमाहन्ति मार्गयम्तिा भाभोगनं मार्गणं झोषणमिति कार्यः। उक्तं गुरुगं च अट्ठमं खलु, गुरुगतरागं च होई दसमं तु । ब-"मामोगणं ति वा मग्गणं ति वा झोषणं तिचा महगुरुग दुवालसम, गुरुगपक्सम्मि पडिवची ॥१६॥ एगडमिति ॥" गुरुकं व्यवहार मालपरिमाणं माधर्म कुर्वन् पूरपति, संप्रति "बहिट्ठाणं" रति व्याख्यानयति गुरुकं व्यवहारं मासपरिमाणमष्टमेन बहति, तथा गुरुसागारियप्रचियत्ते, बाहिं पडियरण तह वि नेच्छंते । तरकं चतुर्मासप्रमाणं व्यवहारं दशमं कुर्वन् पूरपति, दशअदिहे कुणह एगो, न य भूयो वेति दिवम्मि ॥ ८७ ॥ मेन बहतीत्यर्थः । यथागुरुकं कुर्वन् शादशमेनेत्यर्थः । सागारिकः शय्यातरः, तस्य "प्रचियत्ते" अप्रीती प्राम एषा गुरुकपक्षे गुरुकव्यवहारपूरणविषये ततः प्रतिपत्तिः। स्य बहिर्षसतेरेवा योऽभ्य उपाश्रयस्तं याचित्वा तत्र तं प- छटुं च चउत्यं वा, प्रायंबिल एगगणपुरिमहूं। रिहारिणमुन्मुच्य एकः साधुः प्रतिवरति । “वारणं इयरे" निश्चीयं दायव्वं, महालहुस्सम्मि सुद्धो वा ॥ ६७ ।। इस्यस्य व्याख्यानमाह-( तह वि नेच्छते इत्यादि) तथा लघुकं व्यवहारं निशदिनपरिमाणं षष्ठं कुर्वन् पूरयति, पि एवमपि यदि शय्यारो नेच्छति । यथा-किमिति यूयं लघुतरकं पञ्चविंशदिवसपरिमास व्यवहारं चतुर्थ कुर्वन्, गमनागमनकारणेनाऽस्माकमप्यशिवं संचारयथ, तरमा त्मा कोऽपि तत्र गच्छेदिति. तदा एकः साधुर्यथा श यथालघुकव्यवहारं विंशतिदिनमाचाम्लं कुर्वन् , एषा ल. ब्यातरो न पश्यति न जानाति वा तथा प्रतिवरति । यदि घुकत्रिविधव्यवहारपूरणे तपःप्रतिपत्तिः । तथा लघुकपुनः कथमपि शय्यातरेण स्वयं रटो भवेत् सातो वा, ततेो स्वभावग्यवहारं पश्चदशदिवसपरिमाणमेकस्थानकं कुर्वन् वदेत्-यदा यूयं पारिता अपि न तिष्ठथ, तदा तद्रष्टे, उप पूरयति, लघुकतरस्वकव्यवहारं दशदिवसपरिमाणं पूर्वार्थक लक्षणमेतत्-माते चारित्रे चैवं वक्तव्यम्-न भूयो गमिष्या कुर्वन् , यथालघुस्वकव्यवहारं पञ्चदिनपरिमाणं निर्षिकमाशामख त्वमिति । अथ सागारिकस्य गाढमप्रीतिकरणं तिकं कुर्वन्पूरयति । तत एतेषु गुरुकगुरुतरकाऽऽदिषु व्यव. ततः सर्वेऽप्यन्यवसतिं याचयित्वा च तिष्ठन्ति । हारेष्वनेनैव क्रमेण तपो दातव्यम्। यदि वा यथालधुस्वके व्यवहारे प्रस्थापयितव्ये स प्रतिपन्नव्यवहारतपःप्रायश्चित्ता, बहुपाउग्गउवस्सय, असती वसहा दुवेऽहवा तिमि । एवमेवाऽऽलोचनाप्रदानमात्रतः शुद्धः क्रियते,करणे यतनया कइतवकलहेणऽमहि, उप्पायण वाहि संकोभो ॥८॥ प्रतिसेवनात् । व्य०२ उ०। बहुप्रायोग्योपाश्रयस्यासति अभाव, किमुक्तं भवति ? बहवे परिहारिया इच्छेज्जा-एगतो एगमासं वा दुमाया सर्वे साधवो मान्ति स उपाश्रयोऽन्यो न लभ्यते ततो द्वौ वृषभावथवा त्रयः कैतवेन कलहं कृत्वा अन्यत्र संवा तिमासं वा चाउम्मासै वा पंचमासं वा छमासं बसत्यन्तरे गच्छन्ति, तत्र स्थिताः परिहारिणः परिचेष्टां कु.] वा वत्थए,ते मनमर्म संमुजति, अनमनं नो संजइ माबंन्ति, अन्यतरकैरपि औषधाऽऽदीनामुत्पादनं कृत्वा औष- संते. तो पच्छा सम्वे वि एगो संभुजति ॥२५॥ भाऽऽदीनि याचयित्वा बहिःसंक्षोभः क्रियते. बहिः परिहा- | "बहवे परिहारिया" इत्यादि । अथास्य सूत्रस्य का संरिणः समीपे प्राप्यते, येऽपि च कैतवकलहं कृत्वा न बन्धः?, इति संबन्धप्रतिपादनार्थमाहविनिर्गतास्तेऽप्यन्यतरकैः सह विविक्ते प्रदेशे मिलित्वा असरिसपक्खे ठाविऍ, परिहारो एस सुत्तसंबंधो । पारिहारिकयोग्यं गृहन्ति । संप्रति तगतप्रतिचरणविधिमाह काऊण व तेगिच्छं, साइज्ज समागते सुतं ।। ३५५ ॥ ते तस्स सोहियस्स य, उव्यत्तण संयरं व धोवेजा। असरशपाक्षिको नाम-द्वितीयभगवर्ती. चतुर्थभजपी. वा तस्मिन् स्थापिते किल चतुर्गुरु नाम प्रायश्चितं परिहारःप्र. अच्छिक्कोवहि पेंहे, अच्चियलिंगेण जा पउणो॥८६॥ स्तावादधिकृतपरिहारसूत्रास्थायं निक्षेपः । एष पूर्वसूत्रेण ते अभ्यस्तरकाः कलहव्याजेन विनिर्गताः, तस्य शोधि. सहाधिकृतसूत्रस्य सम्बन्धः । अझैव प्रकारान्तरमाह-(कातस्य प्रतिपत्रपरिहारतपःप्रायश्चित्तस्य, उवर्शनम्, उपलक्ष. ऊण वेत्यादि) रोगचिकित्सां कुर्वता मनोज्ञमौषधं मनोई समेतत्-परावर्तनमौषधादिप्रदानं च वस्त्रान्तरितेन हस्ते या भोजनमनुरागेणाऽऽस्वादितं, तत्रच प्रायश्चित्तं परिहार न कुर्वन्ति, वस्त्राणि च तस्य सत्कानि सान्तरमेकोऽनन्त तपः,ततो रोगचिकित्सां कृत्वा मनोहं च भोजनाविकमारितानि गृहाति, सोऽन्यस्म समर्पयति, सोऽन्यस्मायित्य स्वाच समागतस्य प्रायश्चित्तं परिहारतपो भवतीतिबापन्तरितं धापयन्ति प्रक्षालयन्ति , उपधिमपि तस्य प्रत्यु- नार्थमधिकृतं परिहारविषयसूत्रम् । एष द्वितीयः संबन्धपेक्षन्ते (अच्छिका) अस्पृष्टाः सन्तः, बहुवचनप्रक्रमेऽप्येकष. प्रकारः। चनं गाथायां प्राकृतत्वात् , बचनव्यत्ययोऽपि हि प्राकृते यथालयं भवतीति, एवं तावत्पतिजागरति यावरस प्रगु. अधुना तृतीयमाहखो भवति । राजप्रद्वेषे तु यत् यवार्चितं लिकं तेन यावत्प्र अहवा गणस्स अप्प-त्तियं तु ठावत होइ परिहारो। गुणो भवति तावत्प्रतिजागरति । व्य० १ उ० । (यथाल एसोति न एसोति व, बजेऊ भंडणं सगणे ॥३५६।। पुस्वको व्यवहारः 'महालदुस्सय ' शम्ने प्रथमभागे यो मणधरः स्वाभिप्रेतं गणासम्मतं गुणरहितमपि खापयि७० पूछे गतः) मुकामोऽभिमानवशेनैष योग्यो, न पुनरेष गणसम्मती योग्य Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार परिहार प्रन्निधानराजेन्डः। इत्येवं खगये भण्डनं कृत्वा स्थापयति तस्मिन् गणस्य ग- मासं यावदेकन भोजनवर्जनम् , एतेन मासादिके परिपूर्णे छस्य अनीतिकं यथा भवति एवं स्वाभिप्रेतमाचार्य स्था. पश्चरात्रिन्दिवाऽऽदिभोजनवर्जनसुपलक्षितम्, तथानन्तरगा. पयति प्रायश्चित्तं भवति परिहारः परिहारतपः, तत एत- थायां स्वयमेव वक्ष्यति । तत्र यावद् भोजनं प्रतिषिचं तत्र दर्थप्रतिपादनार्थ दिग्बन्धसूत्रानन्तरं परिहारसूत्रम् । एष | तावत्परिपूर्णभोजनं कुर्वतः प्रायश्चित्तं मासिकं लघु। वतीयः सम्बन्धप्रकारः। संप्रति "पुसम्मि मासषजणं" इत्येतद्वयाचिख्यासुराहसम्प्रति चतुर्थ पञ्चमं च सम्बन्धप्रकारमाह पण मासे मासे, बजेजइ मास छरह मासाणां । परिहारो वा भणितो, न तु परिहारम्मि बलिया मेरा। ववहारे वा पगते, अह ववहारो भणे तेसिं ॥ ३५७ ।। न य भइपंतदोसा, पुबुत्तगुणा य तो वासे ।। ३६० ।। पाशमः प्रकारान्तरद्योतनार्थः, अधस्तात्परिहार उक्नो, न | मासे मासे पञ्चकं परिषर्धमान तावत्पर्यन्ते यावत्यमा तु तस्मिन्परिहारो बोढव्यो व्यावर्णितो मर्यादा वि- मासानामुपरि मासो वय॑ते । इयमत्र भावना-यो मासिकं धिरित्यर्थः। व्यवहारार्थ किल व्यवहाराध्ययनं प्रकृतं, परिहारतप आपन्नस्तस्य मासं बहतः पूर्वोक्तो विधिरालाततस्तस्मिन् नदीस्रोतोवदनुवर्तमाने कृते व्यवहारे पनवर्द्धमानऽऽदिको वेदितव्यः। मासे तु व्यूढे उपरि पञ्जारा'अह 'एष तेषां परिहारिकाणां च व्यवहारो भएय- त्रिन्दिवानि यावदालापनाऽऽदीनि सर्वाणि क्रियन्ते.नवरमेकं ते । अनेन सम्बन्धपश्चकेनाऽऽयातस्यास्य सूत्रस्य (२५)। भोजनमेकत्र बयते, एवं यो द्वी वा मासावापनस्तस्य व्याख्या-बहवः प्रभूताः पारिहारिकाः, बहवोऽपरिहा- दशरात्रिदिवानि श्रीन्मासान् तस्य विशतिः, यः पञ्चमासान् रिकाः कारणवशतः तीर्थकरोपदेशेच्छ्या , न स्वच्छ- तस्य मिनमासं यावत्, यस्तु षण्मासानापन्नस्तस्य परमाम्देच्छया इच्छे युरेकत एकत्र स्थाने एकमासं या सेषु व्यूढेषु उपरि मासं यावदेकत्र भोजनमेकं वय॑ते, शंभ द्विमासं वा त्रिमासं वा चतुर्मासं वा पञ्चमासं वा षण्मा- त्वालापनाऽऽदिकं सर्व सर्वत्र दशरात्रिन्दिवाऽऽदी क्रियते। सं बस्तुं तेऽन्योन्यं परस्परमपि, परिहारिका इति शेषः। अथ कस्माहतुबद्धेषु मासेषु प्रपन्नस्यापि रात्रेः तपो दीयसंभुज्जत सर्वप्रकारैः भुजम्ति परिहारिका यावत्तपो ते तत पाह-(म य भइपंतदोसा इत्यादि ) ऋतुबद्ध काले वहन्ति तावते परस्परमपरिहारिकैः वा समं न संभुअति । यदि परिहारतपो दीयते ततस्तस्मिन् दते सति यदि यैः परमासाः सेविताः तेषां यः षण्मासोपरिवर्ती मासस्तं या- मासकल्पे परिपूर्णे सति विहरन्ति तर्हि पारिहारिकाणां पत्ते परिहारिकाः परस्परं परिहारिकैः, समभुपलक्षणमेतत्- परितापनाऽऽदिदोषप्रादुर्भावः । अथ न बिहरन्ति ततो भअपरिहारिकैर्वा सममेकत्र न संभुजन्ते,बालपनाऽऽदीनि कु- द्रकप्रान्तकृतदोषसम्भवः। भद्रकृता उगमाऽऽदिकरणं.प्रान्तमित , तत उपरितनमासपरिपूर्णीभवनानन्तरं पश्चा. कृतदोषा अतिचिरावस्थानेन चमढनादिका घर्षाकाले स्वेते सर्वेऽपि पारिहारिका अपारिहारिकाश्च एकत एकत्र स्थाने दोषाः प्रयोजनतः संभवन्ति, सर्वदर्शिनां वर्षाकालस्य तपोसर्वप्रकारैर्भुजते । एष सूत्रसंक्षेपार्थः। ऽनुष्ठानाश्रयतया सम्मतत्वेन कस्यचिदपि विशेषतः प्रतिअन पर आह-ननु बहवः पारिहारिकाः, अपारिहारिकाश्च द्वेषस्य वा संभवात् । तथा पूर्वेनगुणाश्च कल्पाध्ययनप्रतिकथमका संभवन्ति,येनाधिकृतं सूत्रमुपपद्येत?. तत श्राह पादिताः गुणाश्च वर्षाकाले अवाप्यन्ते, ततो वर्षासु परि हारतपो दीयते। कारणिगा ते भोगा, बहुगा परिहारिका भजाहि । अथ के ते पूर्वोक्ता गुणा इति विस्मरणशीलान् प्रति अप्परिहारिऍ भोगो, परिहार न मुंजए बहो।।३५८|| तान् भूय उपदर्शयतिबहवः पारिहारिका एकत्र मिलिता भवेयुः, कारणिकाः कारणवशेनेति भावः। ततो नाधिकृतसूत्रानुपपत्तिः। तत्रापा वासासु बहू पाणा, बलियो कालो चिरं च ठायछ । रिहारिकाणामेका परस्परं भोगो भवति । एतावता " ते सज्झायसंजमतवे, धणियं अप्पा निश्रोत्तवो ॥३६॥ भएणमझ संभुंजंति" इति व्याख्यातम् । यस्तु परिहारी प- वर्षाकाले सर्वतः प्रायो बहवः प्राणाः, ततो दीर्घभिवर्यान रिहारतपो बहन् परिहारिभिर्वा समं न भुक्त, एतेन "प्र. भवन्ति । तथा स्निग्धतया स कालो बलिको बलीयान, समन्नं तो संभंजति" इति व्याख्यातं, पारिहारिका नाम-ये तपः कुर्वतां चलावष्टम्भं करोति इति भावार्थः । तथा चिरं परिहाररूपं प्रायश्चितं प्रपन्नाः ते अपरिहारिकास्तत्र व प्रभूतं कालं का स्थातव्यम् । अत एव स्वाध्यायसंयमे परिहारतपःप्रतिपादनविधिः, परिहरणविधिश्च निशी- तपसि च धणियमस्यर्थमात्मा नियोक्नग्यो भवति । तत थाभ्ययने करपेच व्यावर्णितः। एवं प्रभूतगुणोपदर्शनता वर्षाकाले परिहारतपम्प्रतिपत्तिः पस्तु तन नोक्लस्तमिदानी प्रतिपिपादयिषुराह- कार्यते । एतेन "गिम्हाणं पावनो, चउसु वि बालासुदै गिम्हाणं भावभो, चउसु वि वासासु देंति मायरिया। ति मायरिया।" इत्यत्र यदुक्तं तत्र कारणं स्वयमेष प. पुस्मम्मि मासवज्जण, अप्पुले मासियं लड़यं ॥३५॥ यतीति तत्समर्थितम् । हप्रीमग्रहणेन ऋतुबद्धकालग्रहणं, तेषामृतुबजाना मा संप्रति षण्मासपहनानम्तरमुपरि यन्माषोऽसौ भोसानां मध्ये एकमासं यावत्परामासं तावत्परिहारतपः स. जनमधिकृत्य वय॑ते तन कारणमाक्षेपपुरस्सरमभिमापनस्ववर्षाराने चतुर्वपि मासेषु दीयते । अत्रार्थे व चित्सुराहकारणं स्वयमेष पश्यति । यस्तु परमासं पारिहा मासस्स गोणनाम, परिहरणा पूतिनिम्बलणमासो । रतपः प्रपन्नस्तस्म पूणे पगमासे उपरि मासवर्जन नत्तो पमोयमासो, भुंजणवजो न सेसेहिं ।। ३६२ ।। Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार अपक्षांमासानामुपरि मासस्य परिहरणं मोजनमधिकृत्य क्रियते । उच्यते-निर्बलनार्थ प्रमोक्षर्थ वेति वाक्यशेषः। तथाहि-कुथितमद्याssदिगन्धं मृत्तिकाभाजनं यावदद्यापि निर्बलि तं न भवति, तावत्तत्र क्षाराऽऽदिप्रक्षेपः एवमेषोऽपि दुश्चरितदुरभिगन्धभावितो नियमावता कालेन निर्बलतो भवति नान्यथा, तथा जिनप्रचचनप्रवृत्ते तथा कश्चित् केनाप्यगम्यगामित्वेनालीकेनातिशयितुं राजकुले च निवेदितः। स तप्तमाrssदिकं गृहीत्वा शुद्धः स तप्तकालाऽऽदिकं गृहीत्वा शुद्धः सन् मिथः भाषणादिभिः प्रमोदं कृत्वा परस्परं स्वजनेः सह भुक्रे, एसमेोऽपि परिहारिक आत्मानमपराधमलिनं प्रावधितेन विशोध्य मासं यावत् मियः संभाषणादिभिः प्रमोदमादाय तैस तदेवमुक्रे कारणवशाद्यतोऽन्यैः सममखा मो मासं यावदवतिष्ठते तस्मादेतस्य मासस्य गौणं गुणनिष्प नाम द्विधा तथथा पूतिनिर्वलितः मास इति प्रमोदमास इति पूतिर्दुरभिगन्धः, तस्य निर्वलितमास्केटनं तरप्रधानो मासः पूति निर्वलितमासः । तथा प्रमादहेतुर्मासः स च मासो भोजनेन वर्ज्यः परिहर्त्तव्यो न पुनः शेशरालापाऽऽदिभिः । थथाऽऽभ्यां कारणाभ्यां माखपरिवर्तनमेवं पञ्चरात्रिदिवा 55दि परिवर्तनमपि भावनीयम् । किञ्च अन्यदपि कारणमस्ति परामिन्दियादिपरिवर्तने। ततस्तदभिधित्सुराह दिअ सुहं व पीसुं तवसोसिययस्स जं बलकरं तु । पुखरवि होल जोग्गो, अचिरा दुविहस्स वि तबस्स । ३६३। इह व मुक् ततः सदैव स्वघाटनै भुले हत्य नादरबुद्धया यत्तपःशोषितस्य बलवर्द्धनकरं तस्य दानं न भवति तेष्वपृथक्प्रतिभोजने पुनस्तपः शोषितगात्रोऽयमचापि न मण्डल्यां भुङ्क्ते, इत्यादरबुद्धिभावतः तपसा शोषि तस्य सबलवर्द्धनकरमनाऽऽदि तत्सुखेनैव सर्वैरपि साधुमितस्यापि दाने को गुण इत्याह-बलवर्द्धनकरा उशनादिदाने पुनरप्यचिरात्स्लोफेन कालेन द्विविधा पि तपसः परिहारतपसः शुद्धतपसश्चेत्यर्थः, योग्यो भवति । सूत्रम् परिहारकप्पट्ठियस्स भिक्खुस्स यो कप्पर असणं वा पायं वा खाइमं वा साइमं वा दाजं वा अणुप्पदाजं वा, रायणं वा देज्जा इमं तं अज्जो ! तुमं एतेसिं देहि वा अणुप्पदेहि वा, एवं से कंप्पर दाउं वा अणुप्पदाउं वा, कप्पर से लेवं श्रणुजाण वित्तिए अणुजाणह भंते । लेवाए, एवं से कप्पा लेवं समासेवित्तए ।। २६ ।। अभिधान राजेन्द्रः । ( परिहारकप्पष्ट्रियस्स भिक्खुस्स इत्यादि ) अथास्य सूत्रस्य कः संबन्धः १ उच्यते एसा कुठे मेरा होह अबूढे अपुग विसेसो । सुचेणेव निसिद्धे, होइ अनुष्धा व सुत्नेय ।। ३६४ ॥ पूषा अनन्तरसूत्रप्रतिपादिता मर्यादा स्थितिर्भवति व्यूढे परिहारतपसि अव्यूढे पुनः परिहारतपसि अयमधिकृतसूत्रे प्रतिपाद्यमानो मर्यादाया बिहारकष्पद्वियरस' विशेषः । पूर्वसूत्रेण सहाधिकृतत्वस्य संबन्धः । अनेन सं परिहार नाऽऽयातस्यास्य सूत्रस्य (२६) व्याख्या- परिहारकल्पस्थितस्य निलो कल्पते अशनं पानं वाहिमं स्वादिमं वा म्यस्मै साक्षात्स्वहस्तेन दातुमनुप्रदातुं वा परम्परकेण प्र दातुमनुशब्दस्य परम्परद्योतकत्वात् । अत्रैवानुशामाह - ( थे. रायण मित्यादि ) यदि पुनः स्थविरा:, रामिति वाक्यालती । वदेयुरिमं परिहारकल्पस्थितं भिकुम् । महो आर्य ! त्यमेतेभ्यो देहि परिभाजय, अनुप्रदेा वा एवं स्थविरैरनुज्ञाते सति (से) तस्य कल्पते दातुमनुप्रदातुं वा, दानेऽनुप्रदाने च तस्य इस्तो विकृतिप्रश्रेणिखररिटतो भवति, ततः (से) तस्य कल्पते लेपं विकृतिहस्तगतमनुशापवितुम् । यथा-भदन्त धूपमनुजानीय तह स्तम् (सेवा इति समासेवितुमैयमापने कृते सति (से) तस्करले विकृति हस्तगतां समासेवितुम् उपलक्षयतदन्यदपि यदुरितं तद्व्यनुज्ञातं सत् कल्पते समासेविवितुमिति इति सुसंक्षेपार्थः व्यासार्थे तु भाष्यकृद्विबक्षुः प्रथमतः सामान्यत आह चेत्यादि स्तेयैव प्रदानेऽनुमदाने च प्रथमतो निषिद्धे तदनन्तरं तेनैव सूत्रेण दानेऽनुप्र दाने च भवत्यनुशा । एवं संक्षेपतः सूत्रार्थे कथिते 1 1 किह तस्स दाउ कप्पर, चोयग सुतं तु होइ कारखियं । सो दुब्बलो गिलाय, तस्स उवाएय देते य || ३६५ | ( किह ) कथं केन प्रकारेण तस्य परिहारकल्पस्थितस्य मि क्षोर्दातुं क्रियतेऽशनाऽऽदिकं, तद्दानकरणस्य तत्कल्पविदद्धत्वात् । अत्र सूरिराह हे चोदक ! सूत्रमिदं भवति कारणकं कारणेन निवृत्तं कारणिकं कारणमधिकृत्य प्रवृत्तमित्यर्थः तदेव कारणमाद तो दुलो हत्यादि) स परिहारकल्पस्थितो मिथुः पुर्वतस्तपोषितशरीरत्यादत एव पदे ग्लायति ततस्तस्यानुकम्पनार्थमेवमनेनोपायेन दानानुमदा नका रोपणेन विकृति स्थविरा इति प्रयच्छन्ति । तत एषाऽपि परिहारकल्पसमाचारी, न कविदोषः । संप्रति यथा तस्य दानमनुप्रदानं वा करणीयं भवति, येन च कारणेन स्थविरा अनुजानते, तदभिधित्सुराद्दपरिमय असई से सो वि य परिभायणम्मि कुसलो उ । उच्चूरपठरलंभे, अगीयमामोहयानिमित्तं ॥ ३६६॥ तवसोसियमज्झोवा- अश्रो य तब्भाविओो भवे श्रहवा । धेरा नाऊशेवं वदंति माएहि तं भजतो ! ।। ३६७ ।। इह यद्दानमनुमानं वा परिभाजन उच्यते तच यथा संभव ति तथोपपाद्यते - साधुभिः सर्वैस्तपोविशेषप्रतिपद्मवर्जितैरेकमरडल्या भोव्यम् । किं कारणमिति चेत् उच्यते विविधाः साधयलिहितात ये विध रहितास्ते बहिर्गतास्तथाविधं प्रायोग्यं न ल पविष्टानां लब्धिमत्साधुसंघाटकाऽऽनीतपरिभाजनेन तेषामयेषामपि च बालरोग्लानाऽऽदीनां मायोग्यं भवतीति तेषामनुग्रहाय मण्डलीबन्धकर मराइली कृते - स्यचिदजीर्णे भवति, जीसेंडावे च काश्चित् विकृतीभुंकले, न सर्वः सर्वाः ततः प्रचुरविकृतिलाभे सर्वजनानुग्रहाय परिभाजर्म क्रियते तत्र स परिहारकपस्थितो निस्तपोषि शरीर इति तस्य विकृतिविषयेऽप्युपपात भर जाता - Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार भाभिधानराजेन्द्रः। परिहार अथवा-पूर्व सदैव तस्या विकृती भाषित इति तद्भावनया एतावद्भिस्तन्दुलाऽऽदिकरतापगतं कुर्षिति समादेशे लब्ध तस्यामभ्युपपातो जातस्तत एतत् स्वषिरामात्वा तदनुग्रहा- निष्पादिते भक्त दते चोक्तप्रमाणेभ्यः पुरुषेभ्यो मोजने य. य परितो विरुतिलामे सति प्रसत् अविद्यमानोभ्यः परिभा- च्छेषं तस्याऽऽभवति,इत्येवममुना प्रकारेणाऽऽचार्योपदेशतः जनकुशलो यः सर्वेषामौचित्येनापूरयति तस्यापि पारहा- पर्याप्त भाजिते शेषमुरितमस्य पारिहारिकस्य परिषेषरकल्पस्थितः परिभाजनकुशल इति सर्वसाधूनां बचनेन प्र- स्याऽऽचार्यो ददाति। काश्यवं वदति-बहो पार्याः ! गापायामोकारान्तता प्राकृत संप्रति येन प्रमाणेनाऽऽचार्यमुपदिशति लक्षणवशात्। त्वमेतेभ्यः साधुभ्यः परिभाजय,यदि पुनः (उ तत्प्रमाणमभिधिसुराहचूर)नानाविध प्रबुरमतिप्रभूतं घृताऽऽदि लब्धं भवति त. दव्वप्पमाणं तु विदित्तु पुव्वं, दा उच्चूरमचुरलासे प्रगीतव्यामोहननिमित्तम् अगीतार्था थेरा से दाए ततियं पमाणं । मा विपरिणमस्विति । यद्वा तद्वा कारणं वचसा प्रकाश्प तव्यामोहननिमित्तमेवं अषते-मार्य ! स्वं साधुभ्यः जुते वि सेसं भवते जहा उ, परिभाजय। उच्चूरलंभे तु पकामदाणं ।। ३७१ ।। परिभाइऐं संसहे, जो हत्यो संलेहावए परेण । रहाऽऽचार्यैः पूर्व द्रव्यं प्रमाणयितव्यम्-यथेदं किंयुकप्रमाण माहोश्वित्सपरिस्थापनमेवं पूर्व द्रव्यप्रमाणं विदित्वा साफुसइ व कुडे लहुओ,अणणुमाए भवे लहुभो ॥३६८॥ | त्वा स्थविरा आचार्याः (से) तस्य परिहारिकस्य तकन्प्रप्राचार्योपदेशेन परिभाजिते सति तस्य हस्तः संसृष्टो माणं दर्शयन्ति यथा युक्नेऽपि युक्तप्रमाणेऽपि शेवं भवति वृतादिना लिप्तो भवति,तस्मिन्संसष्टे यदि तथैव संसटेन (उच्चूरलामे) प्रचुरनानाविधघृताऽऽदिलामे प्रकामवानं याइस्तेनावतिष्ठते तर्हि प्रायश्चित्तं मासलहुको वा । हस्तं पत् यसै रोचते तावत्तस्मै दीयतामित्येवंरूपमनुज्ञाप्यते। परेण संलेहापयति तस्यापि प्रायश्चित्तं मासलधु । अ सूत्रम्थवा-कुड्ये हस्तं स्पृशति तदाऽपि मासलघु । अथवा काछेन निघृष्य छर्दयति तत्रापि मासलघु। अथवा-अननुशातः परिहारकप्पट्टिए भिक्खू सएणं पडिग्गहेणं बहिया अप्पणो सन् स्वयं लेढि हस्तं तदापि तस्य प्रायश्चितं लघुको मासः। बडियावेयाए गच्छिा ,थेरा ते वएज्जा-परिग्गहेहि भजो! कप्पति य वियलम्मी, चोयगवयणं स सेस मूवस्स। अहं पिभोक्खामि वा पाहामि वा,एवं णं से कपइ पडिग्गहिएवं कप्पइ अप्पा-यणं तु कप्पहिती चेसा॥३६६ ।। तए,तत्थ णो कप्पइ अपरिहारिएणं परिहारिस्स पडिग्गहीम्म वितीः अनुझाते सति कल्पस्थे स्वयं हस्तं परिले दुम् । असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा भोत्तए वा, पातए इयमत्र भावना-यचाचार्याः समादिशन्ति तं खहस्तं घृता- वा, कप्पइ से सकसि वा पडिग्गहगंसि वा सकसि वा ऽऽदिविकृतिखररिटतं स्वयमेव लेदि, चशश्चादन्यदपि यत्प पलासगसि वा सकसि वा कमढगंसि वा सकसि वा खुवर्गसि रिभाजितशेषं तदप्याचार्येणानुज्ञातं भुक्ते (चोयगवयणं ति) अत्र चोदकवचनम्-यथारूपं परिहारिकस्य विकृतेर वा उद्घङ भोत्तए वा पायए वा, एस कप्पे अपरिहारियस्स नुशापनं युक्तमिति । सूरिराह-( सेस सूवस्स) सूपस्य पारिहारियो ॥ २७॥ सूपकारस्य यथा शेषाऽभाव्यं भवति तथा तस्यापीति (परिहारकप्पट्टियं भिक्खू सपणं पडिग्गहेणमित्यादि ) भावः । एतदुक्तं भवति-यथा सूपकारः केनापि स्वामिना सं- भस्य सूत्रस्य पूर्वसूत्रेण सह संबन्धप्रतिपादनार्थमाहदिए पतावत्प्रमाणैस्तन्तुलमुगादिभिर्भक्षं निष्पायैतावत् भायाणाऽऽदिवसाणे, संपुडित्तो एस होइ उद्देसो । पुरुषान् भोजयेत्यादेशे लब्धे साधिते भक्त भोजितेषु पुरुपेषु यच्छेषमुहरति तस्सवे सूपकारस्याऽऽभाव्यम्। एवमाचा एगाहिगारियाणं, वारेइ अतिप्पसंगं वा ॥ ३७२।। योपदेशतः परिहारिकेण परिभाजिते यच्छेग्मुरति तत्त आदानमादिः,अवसानं पर्यन्तः,तयोः साधर्मिकाधिकारप्रतिस्प पारिहारिकस्थाभाव्यम् । सूपकारदृष्टान्त उपलक्षणं तेना पादनादेष उद्देशःसंपुटितः, संपुटं सजातमस्येति संपुटितः। पूपिकडधान्तोऽपि वेदितव्यः । स चैवम्-केनाप्यापिक तारकाऽऽदिदर्शनादितःप्रत्ययः । इयमत्र भावना-अस्योद्देशपादिष्ट एतावता कणिकाऽऽदिना द्रव्येण एतावत्प्रमाणं म. कस्याऽऽदावन्ते च प्रत्येक द्वे के सूत्रे साधर्मिकाऽऽद्यधिकारएडकाऽदि कर्तव्यमेवमादेशे लब्धे तथैव मण्डकाऽऽविके. प्रतिपादके तत एष उद्देशकः,सार्मिकाधिकारेण संपुटितः, निष्पादिते शेवं यदुद्धरति मण्डकाऽऽदि तदापूपिकस्य भव संपुटितत्वाच संपुटनकरणमेवास्य सूत्रस्य संबन्ध अथवात्येवं पारिहारिकस्थापि, तत एवं तपःशाषितशरीरस्याss. एकाधिकारिकानि यान्यनन्तरमुद्दिधानि पारिहारिकसूत्राणि सायननिमित्तमाचार्यस्य कराते अनुज्ञापनमित्यदोषः । तेषामकाधिकारिकाणां यो भनदानैकत्रभोजनप्रतिषेधेकल्पस्थितिरेषा यत् ग्लायत भाप्यायननिमित्तमेवमनुज्ञापनं तिप्रसङ्गस्तं वारयत्यधिकृते सूत्रद्वयेनेत्येष पूर्वसूत्रेण सहास्य कर्तव्यं, पेन शेष प्रायश्चित्ततपः सुनेन बहतीति । संबन्धः अनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्थ (२७)सूत्रस्य व्याख्या. सूपकाररष्टान्तमेव सविस्तरं भावयति परिहारकल्पस्थितो भिक्षुः स्वकीयेन पतप्रहेण प्रतिग्रहणेन एवइयाणं भत्तं, करेहि दिमम्मि सेस तस्स । वा वसतेबहिरात्मनः स्वशरीरस्य वैयावृत्याय,भिक्षाऽऽनयना. येत्यर्थः । गच्छेत् स्थविराश्च तथा गच्छन्तं वा पदेयुरइस माइय पजते, सेसुधरियं च देंतस्स ।। ३७०॥ । स्मयोग्यमपि वपानके गृहीया अहमपि भोषये पास्या Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८५) अभिधानराजेन्क | परिहार मि वा एवमुक्ते ( से ) तस्य कल्पते स्थावरयोग्यं प्रतिगृही तुम्। तत्र तस्मिन्परिगृहीते सति नो कल्पते अपरिहारिके - ण सता पारिहारिकस्य पतग्रहे अशनं पानं खादिमं स्वादियां भी वा पातुं वा किं तु कल्पते (से) तस्यापारि दारिकस्य स्वकीये पद्म तुम्बाऽऽदिमये स्वकीये या पलाशपात्र के स्थाले स्वकीये वा ( खुवए त्ति ) पलाशाऽऽदिपश्रमये दोनिके (उजु उट्ठ इति) अवकृष्यावकृष्य भोक्तुं थापा वा उपलक्षणमेतत् दुर्लभ पानीयभावे कापणे या तत्पात्रे एप पारिहारिकेस समं कल्पते भी या पा वा उपसंहारमाह-एप कल्पोऽपारिहारिकस्य पारिहारिकतपः पारिवारिकमधिकृत्य । एष प्रथमसूत्रसंक्षेपार्थः । परिहारकप्पट्ठिए भिक्खु थेराणं पडिग्गहएणं बहिया थेराबेयावडिया गच्छेजा, थेरा खं बदेला पडिग्गहेहि अatter तुम पि एत्य भोयसि वा पाहास वा, एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए, तत्थ यो कप्पड़ पारिहारिएणं अपारिहारियस डिग्गहंस असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा भोयर या पायए वा कप्पड़ से सर्वसि पडिमाहंसि सर्वसि या पलाससि वा सयंसि वा कमदसि ससि वा खुसि वा पाणिसि कुडकुड्डु भोयर वा पाए वा एस कप्पे पारिहारियस अपारिहारियो चि बेमि ॥ २८ ॥ द्वितीयेपास्वयम् परिहारकस्यस्थितो भिक्षुः स्थविराणां पद्मद्वेष वसतेहि स्थविराणां वैषानृत्या भिक्षा ssनयनायेत्यर्थः । गच्छेत्, स्थविराश्च तं तथा गच्छतं दा नूनं सर्वदेषु भिक्षाकालः समपर्ण ततोserद्योग्य मानीय पश्चादेष आत्मनो योग्याऽऽनयनाय प्रविहो न किमपि लप्स्यते इति कारणपदेयुःप्रति गृह्णीयाः ?. त्वमप्यत्र भोक्ष्यसे, पास्यसि वा, एवमुक्ते (से) तस्य कल्पते प्रतिगृहीतुं तत्र तस्मिन् आत्मयोग्यग्रहणे स विन कल्पते पारिहारिके यापारिहारिकस्य पतद्द्मदे अ शनं पानं खादिमं स्वादिमं वा भोक्तुं वा पातुं वा किं तु कल्पते तस्य स्वकीये वा पलाश के स्वकीये वा कमठे स्वकये वा खुबके भोक्तुं वा पातुं वा, उपलक्षणव्याख्यानमणाऽपि द्रव्यम् एप कल्प पारिहारिकरूप पारिहारिकतपोऽपारिहारिकमधिकृत्य इति प्रवीमि तीर्थकरोपदेशयो म स्वीपिकपेति । संप्रति नियुक्तिभाष्यविस्तरः ist परपड - हे य बहि पुव्व पच्छ तत्थेव । आयरियसेऽभिगह सम संडासे महाकप्पो ॥ ३७३ ॥ पूर्व बसडिर्मिणाऽभयनाय निष्कम्य स्वपत स्वश्रीग्यमानीय पश्चात्परपतद्दे श्राचार्य योग्यमानयति । अथवा पूर्व परत आचायोग्यमानीय पधारस्वपत ग्रहे स्वयोग्य मानयति । अथवा - कारणवशतः तत्रैव एकस्मिन्पतद्ग्रहे उभययोग्य मानयति । आनीते व स्थ विरेण पूर्व भुक्रे पश्चात् पारिहारिकेस भोकल्पम् । अथ कालो न प्राप्यते तत आचार्यः स्थविरः १७२ परिहार शैक्षाभिग्रहः पारिहारिकः, एतौ द्वावपि सममेककालमेकस्मिन् पतद्ग्रहे भुञ्जाते । तत्र च संडासेोपलक्षितः शुनकमांसदष्टान्तो वक्तव्यः । एष यथाकल्पोऽयं यथावस्थिता सामाचारी । 1 साम्प्रतमेनामेव गाथां विवरीषुः प्रथमतः "सपडिग्गद्दे पर पडिग्गहे व हि पुच्वं " इति व्याख्यानपतिकारणिय दोन थेरो, व सो गुरू अह च केई असह् पुव्वं सयं व गेह, पच्छा घेत्तुं च थेराणं ॥ ३७४॥ अथवापि कारणवश तो ही भावार्थपरिहारिक कारणको जाती भवति शिवादिकारणवशतः शेषसाधून देशान्तरे प्रेप्य तावेव केवलावेकत्र स्थाने स्थितौ तत्र यो - सौ गुरुःस स्थविर इति कृत्वा । अथवा केनापि रोगेण ग्रस्तइति सोऽसमर्थ या पुनस्तस्य सहायः स प रिहारतः प्रतिपणो वर्तते ततस्तत्रेयं सामाचारी पारिहारिकः पूर्वमात्मीयेन पतारमनी योग्यमानीय मुक्त्वा थास्मीयता स्थापयित्वा पश्चात्स्वरसत्कं गृही स्वास्थविराणां योग्यं ग्रहीतुमरति । अथवा पूर्व परिस एकं कृत्वा स्थविरयोग्यमानीय स्वराणां समप्ये पश्चादात्मीयेन पतग्रहेन दिण्डित्वा श्रात्मना भुङ्क्ते । श्रत्र परस्यावकाशमाह - जइ एस समाचारी, किमट्ट सुत्तं इमं तु आरद्धं । सपडिग्गहेतरेण व, परिहारी वेजवच्चकरो ।। ३७५ ॥ यदि नाम एषा सामाचारी, पचा पारिहारी पारिहारिकः स्वपत इतर पाश्चातयदेव यथाक्रमं स्वस्या 35चार्थस्य च वैयावृष्यकर इति तत इदं कि मर्थमारब्धं, सूत्रोक्तस्याऽसंभवात् । श्राचार्यः प्राऽऽह-न सूत्रो कार्थासंभवः, कारणतः सूत्रद्वयस्य पतितत्वात् । श्रथ कानि कारणानि यानि सूत्रद्वयं पतितम्। श्राह पर्थ तवस्त्रेयवियं समं च सति काले । चोयग ! कुब्वंति तर्प, जं युतमिदेव सुसम्मि || ३७६ ।। हेयं पानीयं प्रतीत्य यदि पापा दितं परिहारिकम्, अथवा समकमेककालं सर्वगृहेषु सति भिक्षाका आयार्यपरिहारिको न कुर्वतः। युक्रमिदेव सूत्रे तथाहि स परिहारिकस्तपसा खेदितः सन् आत्मनः स्थविरस्वार्थाय द्वौ वारौ मिक्षामटितुमसमर्थः, ततस्तं पारिहारिकं वीन पद्णाऽनर्थाय हिण्डित्वा पधारथं विराणामर्थाय स्थविरपतग्रहेण हिण्डिष्ये इति बुद्धया संप्रस्थितं स्थविराः समर्थ ज्ञात्वा ब्रुवते श्रस्माकमपि योग्यमात्मीयेन तद्देन गुडीयाः, तत उपरि एकमा पा स्थविरयायं गृह्णाति गृहीते च तथा तखिन् स्थावरस्ततः समाकृष्य समाकृष्य भुङक्ले. एवा स्थविरस्य सामाचारी । परिहारिकस्य पुनरियम् तं परिहारिकं स्थविराणां पतग्रहं गृहीत्वा स्थविरस्पाधय हिडिया पश्चादात्मनोऽर्थाय हि डिप्ये. एवं संस्थितं दृष्ट्रा वृदाऽऽदिकं परिमितं - त्वा स्थविरा भाषन्ते । श्रात्मनोऽप्यर्थायास्मदीये एव पात्रे प्रतिगृद्धीथा एवं संदिष्टः सन् स तथैव च गृहीत्वा समागतः, 'बुद्धधा Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार (६८६) अन्निधानराजेन्द्रः । परिहार ततः स्थविरः पतद्ग्रहादात्मीये पतद्ग्रहे पलाशभाजने क | एण तदिवसं एगगिहंसि पिंडवायं दवावित्तए, तेण परं मठके वा समाकृष्य समाकृष्य भुक्ते, परिहारिकस्य सामा नो से कप्पइ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा चारी; एतावता "तवखेयावयं" इति भावितम्। सम्प्रति "स. मंच सह काले" इति भाव्यते । यत्र ग्राम नगरे वा ती स्थ दाउं वा अणुप्पयाउं वा, कप्पइ से अन्नयरं बेयावडियं विरपारिहारिकाऽववस्थितौ तत्र सर्वगृहेषु समकालं भिक्षा कारत्तए । तं जहा-उट्ठावणं वा वि निसीयावणं वा कालोऽजनिष्ट , तं स्थविरा शात्वा मा द्वितीयवारं तुयथावणं वा उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणविगिचणं वा प्रविष्ठः सोष न लभेतेति संप्रस्थितं भाषन्ते-एकत्रै- विसोहणं वा करित्तए, अह पुण एवं जाणिज्जाघाऽऽत्मनो मम च योग्यं गृह्णीया इति । तत्र चोभयोरपि मृग्यमाणं स्तोकं पानीयं लभ्यते, ततः पारिहारिकः पत छिन्नावाएसु पंथेसु आउरे झिझिए पिवासिए तबस्सी ग्रहस्य च प्रक्षालनाय पानीयं पूर्यते, तत एतत् ज्ञात्वा दुब्बले किलंते मुच्छिज वा, पवडिज्ज वा, एवं से कप्पइ स्थविरास्तं पारिहारिकं संदिशन्ति-एकस्मिन्नेव पतगृहे असगं वा पाणं वा खाइर्म वा साइमं वा दाउं वा अणुद्वयोरपि योग्यं गृह्णीथाः, एवं संदिष्टे पारिहारिकस्येयं सामा प्पदाउं वा ।। २६ ॥ चारी-तस्मिन्पतवद्महे स्थविरयोग्यं भक्तं तद्विवक गृह्णाति, अस्य संबन्धमाहद्वितीये पावं आत्मीययोग्यम, अथवाऽऽत्मयोग्यमधस्ताद् पच्छित्तमेव पगतं, सहस्स परिहार एव न उ सुद्धे । गृह्णाति, स्थविरयोग्यमुपरिष्ठात् , एवं गृहीत्वा बसतावागच्छति, तत्राचार्यभोजनविधिः-तस्य चैकस्य पतद्ग्रहस्य तं वहतो का मेरा, परिहारियमुत्तसंबंधो ॥ ६८६॥ एकस्मिापाचे उपरिष्टात् यदाचार्ययोग्यं गृहीतं तस्मिन्नाचा प्रायश्चित्तमेवाऽनन्तरसूत्रे प्रकृतं, तच सहिष्णोः समर्थस्य यो भुलक्के, पश्चात्पारिहारिको यदन्यस्मिन्पावे ऽधस्तदात्मयो प्रथमसंहननाऽऽदिगुणयुक्तस्य परिहारतपो रूपमेव दातव्यं, ग्यं गृहीतं तद्भुते, अथवा-यावत् स्थविरेण भुज्यते तावत् न पुनः शुद्धतपोरूपम्, अतस्तत्परिहारतपो वहतः का सूरोऽस्तमुपयाति, ततो द्वावपि समकं भुजाते । एतावता मर्यादा का सामाचारीत्यस्यां जिज्ञासायामिदं परिहारिक"सम सि" भावितम् । सूत्रमारभ्यते, एष संबन्धः। एतदेव व्याचिख्यासुराह वीसुंवणसुत्ते वा, गीतो बलवं च नं परिदृप्पा । पासे उवरि व गहणं, कालस्स दवस्स वावि असतीए। | चोयण कलहम्मि कते,तस्स उ नियमेण परिहारो॥६६॥ अथवा विश्वग्वनसूत्रे मरणसूत्रे गीतार्थो बलवांश्व प्रथमपुलं भोत्तुं थेरा, दलंति समगं च भुंजंति ॥ ३७७॥ संहननयुक्तः, तन्मृतकं परिष्ठाप्य काष्ठमानयन् गृहस्थेन द्रवस्य पानीयस्यासति अभावे एकस्मिन्पार्चे उपरि वा नोदितो यदि कलई करोतीति तदा तस्य नियमेन पारेयद् ग्रहीतमाचार्ययोग्यं, ततः पूर्व स्थविरा भुक्त्वा पश्चाच्छषं हारो दातव्यः। तस्य च विधिरनेनाभिधीयते-अनेन संबन्धेपरिहारिकाय ददति, कालस्य द्वयोः क्रमेण भोजनकाल- नाऽऽयातस्यास्य सूत्रस्य (२६) व्याख्या-परिहारकल्पस्थिस्यासति समकं वा एककालं तौ भुनाते । संप्रति संडासो- तस्य भिक्षोः कल्पते प्राचार्योगध्यायेन तहिवसमिन्द्रमहापलक्षितः शुनकमांसदृष्टान्तभावना क्रियते-यथा कोऽप्यल ऽऽयुत्सवदिने एकस्मिन् गृहे पिण्डपातं विपुलमवगाहर्केण शुना खादितः, स यदि तस्यैव शुनकस्य मांसं खादति नाऽऽदिभालाभं दापयितुम्, ततः परं (से) तस्य न क. ततः प्रगुणी भवति। अनेन कारणेन शुनकमांसं खाद्यते,सच रुपते अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा दातुमनुप्र. तं खादितुकामः कथमहं सर्वास्पृश्यं शुनकमासं स्पृशामीति दातुम् । दातुम् एकराः,अनुप्रदातुं पुनः पुनः,किं तु कल्पते.(से) संदंशकेन मुखे प्रक्षिपति, एवं पारिहारिकोऽपि कारणत तस्य परिहारिकस्यान्यतरद् द्वैयावृत्यं कर्तुम् । तद्यथा-उत्थाएकस्मिन्पावें उपरि वा गृहीतं स्थविरसत्कं जुगुप्समान पनं वा निषीदनं वा । त्वग्वापनं वा,उञ्चारप्रस्रवणखेलसिंघाइव तत् परिहरन् आत्मीयं समुद्दिशति । व्य० २ उ० । नादीनां च विवेवनं परिष्ठापनं विशोधनं वा उच्चाराऽदिखअन्यस्मै वसतिदामाऽऽदि, अन्यस्मै अशनाऽऽदिदानम् रएिटतोपकरमा देःप्रक्षालनं कर्तुम् अथ पुनरेवं जानीयात् छिन्नाऽऽपातेषु व्यवच्छिन्नसमागमेषु पथिषु आतुरो ग्लानः जे भिक्खू अपरिहारियं वएज्जा-एहि अजो! तुमं च अहं च ( झिझितो ) बुभुक्षाऽऽतः पिपासितस्तृषितो न शक्नोति एगो असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गहे- विवक्षितं ग्राम प्राप्तुम् । अथवा-ग्रामाऽऽदावपि तिष्ठतां स ता,तो पच्छा पत्तेयं पत्तेयं भोक्खामो वा पेहामो वा प तपस्वी षष्ठाटमाऽऽदिपरिहारतपःकर्म कुर्वन् दुर्बलो भव त् . ततो भिक्षाचर्यया क्लान्तः सन् मूछेद्वा, प्रपतेद्वा, ए. जत्तं एवं वदेइ, वदंतं वा साइज्जइ ॥ ५४६ ॥ वं (से) तस्थ कल्पत अशनाऽऽदिकं दातुम प्रदातुं वा। पायच्छित्तमणावलो अपरिहारिश्रो आवमो मासाति० जाव एप सूत्रार्थः। छम्मासियं सो परिहारिश्री बृया ब्रवीति-अज्ज! इति श्रा अथ नियुक्तिविस्तरःमंत्रणे एगतो संघाडपण भत्तं भोक्खामो, पाणगं पाहामो, कंटकमादिसु जहा, आदिकडिल्ले तहा जयंनस्स । उग्याए त्ति मासलहुँ । सीसो भणति-भगवं! सो कहि श्रा. अवसंछगणाऽऽलोयण-ठवणाजुत्तोव पोस्सग्गो ।६६ उत्तो आवमो?, पायरियो आह । नि० चू ५ उ०। ननु भगवान् प्रमादो न कर्तव्य इत्युपदिशति संयमावपरिहारकप्पट्टियस्सण भिक्खुस्स कप्पर आयारोवज्झा- I निगमछन, कथं परिहारिकत्वं प्राप्त इति ?। उच्यते-तथा क Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार (६८७) अभिधानराजेन्डः। परिहार एटकाऽऽकीर्मे मार्गे उपयुक्तस्याऽपि कण्टको लगति, आदि इमे च दोषाःशब्दाद्विपमे वा पथ्युपयुक्तोऽप्यागच्छन् प्रपतति, कृतप्रयत्नो कुव्वंताणेयाणि उ, आणाऽऽदि विराहणा दुवण्हं पि । वा यथा नदीवेगेन व्हियते, सुशिक्षितोऽपि यथा खगन लुच्यते, एवं कराटकाऽऽदिस्थानीयमादिकडिल्ल कम्, श्रादि. देवएँ पमत्तछलणा, अधिगरणाऽऽदी उदेतम्मि ॥६६६।। ग्रहणावू यदुद्गमोत्पादनैषणारूपं ज्ञानाऽऽदिरूपं वा, तत्न यत- एतान्यालपनाऽऽदीनि कुर्वतामाज्ञाऽऽदयो दोषाः, विराधना मानस्याप्यवश्यं कस्याऽपि छलना भवति, कृलितेन वाऽव- द्वयोरपि पारिहारिकगच्छसाधुवर्गयोर्भवति, प्रमत्तस्य च श्यमालोचना दातव्या, ततो यः संहननाऽऽगमाऽऽदिभिर्गु- दवतया छलनमन्येन वा साधुना भणितः-किमित्या. युक्तः सहितस्तस्य स्थापना परिहारतपःप्रायश्चित्तदानं लपनाऽऽदीनि करोषि, एषमुदिते भणिते सत्याधिकरणाकर्तव्यम्। तत्र चायं विधिः-प्रशस्तेषु द्रव्यक्षेत्रकालभावेषु त- ऽऽदयो दोषा भवन्ति । स्य साधोर्निविग्नतपःकर्मसमाप्त्यै शेषसाधूनां च भयज अथ "कप्पर एगगिहम्मि" इत्यादि सूत्र व्याख्यानयतिननार्थ सकलेनाऽपि गच्छेन व्युत्सर्गः कर्तव्यः । तत्राऽऽचा- विउलं च भत्तपाणं, दहणं साहुवजणं चेव । र्यो भणति-" तस्स साधुस्स निरुवसग्गनिमित्तं ठामि नाऊण तस्स भावं, संघाडं देंति आयरिया ।। ६६७ ।। काउस्सग्गं• जाव वोसिरामि । " ततश्चतुर्विंशतिसूत्रमनु संघबाधमुत्सवे वा विपुलं भक्तपानं साधुभिरानीतं दृष्ट्वा प्रेक्ष्य-" नमो अरिहंताणं" भणित्वा चतुर्विंशतिसूत्र सु. तद्विषय ईषदभिलाषी भवेत्, साधुवर्जनां च साधुभिः सुखेनोचार्य भणति दुश्चरितैः परित्यक्तोऽहमित्येवं मनसि चिन्तयेत् एवं शाएस तवं पडिवअति,ण किंचि आलवति मा णमालवहा।। त्वा तदीयभावमाचार्याः संघाटं वदति । अत्तचिंतगस्स, वाघातो ते ण कायन्वो ॥ ६६२ ॥ अथेदमेव भावपदं व्याचष्टेएष आम्मविशुद्धिकारकपरिहारतपः प्रतिपद्यते, अतोन| भावो देहावत्था, तप्पडियद्धो व ईसिभावो से । किञ्चिन् युष्मानालपति । अत्र “सत्सामीप्ये सहद्वा" ॥५॥४॥ १॥ (हैम०) इति सूत्रेण भविष्यदर्थे वर्तमाना। ततो नालप्स्य अप्पाइय हयतण्हो, बहति सुहं सेस पच्छित्तं ।। ६६८॥ तीत्यर्थः । तथा न एष युष्मान् सूत्रार्थोभयं, शरीरोदन्तं वा न भावो नाम देहावस्था देहस्य दुर्बलता, तत्प्रतिबद्धा या वि. पृच्छति, यूयमप्येनं मा पृच्छत । एवमन्येष्वपि परिवर्तनाss. पुलभक्तपानविषय ईषत् भावाऽभिलाषस्तस्य सातः, तत. दिपदेषु भावनीयम् । इत्थमात्मार्थचिन्तकस्यास्य ध्यानस्य | श्व यथाऽभिलषिताऽऽहारेणाऽऽप्यायितो हततृष्णश्च सन् परिहारतपसश्च व्याघातो 'ते' भवद्भिर्न कर्तव्यः। सुखेनैव शेष प्रायश्चित्तं वहतीति मत्वा संघाटको दीयते । अथ यानि पदानि तेन साधुभिश्च परस्परं परिहर्तव्यानि | अमुमेवार्थमन्याऽऽचार्यपरिपाट्या किञ्चिद्विशेषयुक्तमाहतानि दर्शयति देहस्स उ दोब्बल्लं, भावो ईसिं च तप्पडीबंधो । आलावण पडिपुच्छण, परियडुट्ठाण वंदणग मत्ते । अगिलाएँ सोधिकरणे-ण वा वि पार्व पहाणं से ।।६६६।। पडिलेहण संघाडग, भत्तदाण संभुंजणा चेव ॥६६३॥ देहस्य दौर्बल्यम् , ईषद्वा मनोज्ञाऽऽहारविषयप्रतिबन्ध एष बालापनं संभाषणमनेन युष्माकंन कर्तव्यं, युष्माभिरप्यस्य भाव उच्यते । यद्वा-अग्लान्या शोधिकरणेन पापं तस्य प्रक्षी. न विधेयम् । एवं सूत्रार्थयाः, शरीरवार्ताया वा प्रतिप्रच्छ- णप्रायम्. एवंविधभावमाचार्या जानीयुः । नं. पूर्वाधीतस्य परिवर्तनं कालग्रहणनिमित्तम् (उढाणं ति) कथं पुनरेतत् जानन्ति ?, इत्युच्यतेउत्थापनं, रात्रौ सुप्तोत्थितैर्वन्दनकरणं, खेलकायिकसंज्ञामात्रकाणां समर्पणम्, उपकरणस्य प्रत्युपंक्षणं भिक्षावि आगंतु-एयरो वा, भावं अतिससिओ उ जाणिजा। चाराऽऽदी गच्छतः संघाटकेन भवन, भक्षस्य पानकस्य हेऊअहि वेसभाव, जाणित्ता अणतिसेसी वि ।।७००। वा दानं एकमण्डल्यां वा समेकीभूय भोजनं न कर्तव्यम् । आगन्तुक इतरो वास्तव्योऽतिशयी नवपूर्वधराऽऽदिरवअथ कुर्वन्ति तत इदं प्रायश्चित्तम् धिज्ञानाऽऽदियुक्तो वा स एवंविधं भावं (से) तस्य जानीसंघाडगा उ जाव उ, लहुओ मासो दसएह उ पयाणं । यात् । अथवाऽनतिशयज्ञान्यपि बाढरादिभिर्हेतृभिस्तस्य लहुगा य भत्तपाणा, संभुंजण होतऽणुग्याता ॥६६४॥ भावं चेतो जानीयात् ।। एतेषामालपनाऽऽदीनां दशानां पदानां मध्यादालापनादार सक्कमहादी दिवसो, पणीयभत्ता व संखडी विपुला । भ्य यावत् संघाटकपदं तावदष्टानां पदानां कारणे गच्छसाधू धुवलंभिग एगघरं, तं सागकुलं असागं वा ।। ७०१ ॥ नां प्रत्येकं मासलघु, अथ भक्तदानं कुर्वन्ति ततश्चतुर्लघु, शक्रमहाऽऽदेर्दिवलो यदा संजातस्तदातं क्वापि श्राद्धगृहे नएकमण्डल्यां संभुञ्जते ततस्तेषामेव चत्वारोऽनुदाता मासाः। यन्ति, प्रणीतभक्ता वा काचिद्विपुला संखडिस्तत्र वा विसपरिहारकस्य इदं प्रायश्चित्तम् जयन्ति । तच्च ध्रुवलम्भिकमवश्यसंभावनीयलाममेकमेव गृहं विद्यते, इह च श्रावकगृहमश्रावकगृहं वा भवेत् उभअट्ठएहं तु पदाणं, गुरुप्रो परिहारियस्स मासा उ। यवाऽपि गुरवः स्वयं प्रथमतो गच्छन्ति, तं च परिहारिक भत्तपदाणे संभुं जणे य चउरो अणुग्याया ॥६६॥ ब्रुवते-आर्य ! समागन्तव्यममुकगृहे पात्रकमुद्ग्राह्य त्वयेपरिहारकस्याष्टानां पदानां संघाटकान्तानां करणे मासगुरु, । ति, ततस्तत्र प्राप्तस्य विपुलमवगाहिमाऽऽदिकं भक्तं दापभक्तदानं संभोजनं वा कुर्वन्तश्चत्वारो मासा अनुद्धाताः।। यन्ति । अथाऽसौ तत्र गन्तुं न शक्नोति ततो भाजनानि Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) परिहार अभिधानराजेन्डः। परिहार गृहीत्वा स्वयमानीय गुरवो ददति । एतावता “कप्पइ श्रा- क्लान्तो ग्रामं प्राप्तुं न शक्नोति, ततोऽनुपरिहारिको भक्तपान परिश्री उवज्झाएणं तद्दिवसं एगगिहंसि पिंडवायं दवा-। गृहीत्वा तस्यान्तरनामे ददाति । अथवा-स भगवान् अभिगूवित्तए।" इति सूत्रं व्याख्यातं मन्तव्यम् । हितबलवीर्यो यथा कामं भिक्षांपर्यटति,तत्र हिण्डित्वा तपःअथ “तेण परं से नो कप्पई" इत्यादि सूत्रं व्याख्याति- क्लान्तो यदान शकोत्यागन्तुम् तत आगन्तुमसमर्थे तस्मिन् भत्तं वा पाणं वा, ण दिति परिहारियस्स ण करेंति । । क्षेत्रस्य स्थापना कर्तव्या। मूलग्राम एव स हिरडते. न बहिकारणे उट्ठवणाऽऽदी, चोयग गोणी' दिलुतो ॥७०२।। भिक्षाचर्या गच्छतीत्यर्थः। (पालणा दोराहं ति) द्वयोरपि पारि हारिकानुपारिहारिकयोः पालना कर्तव्या। कथमित्याह (अभनं वा पानं वा ततः परं परिहारिकस्य निष्कारणे न सहुस्स भत्तदाणं कारणे त्ति) यदि स पारिहारिकः स्वग्राप्रयच्छन्ति, न वा किमप्यालपनाऽऽदिकं कुर्वन्ति. कारणे मेऽपि हिरिडतुं न शक्नोति ततोऽनुपारिहारिको हिण्डित्वा तु यदा स्थानाऽऽदिकं कर्तुं क्षीणदेहतया न शक्नोति तत तस्य प्रयच्छति, अनुपारिहारिकस्तु मण्डलीतः समुद्दिशति । उत्थापनाऽऽदिकं कारयन्ति । अत्र चोदकः प्राह-किं प्राय तथाऽनुपारिहारिकोऽपि ग्लानत्वेनासहिष्णुर्भिक्षां गन्तुं न श्चित्तं राजदण्ड इवावशेन वोढव्यं, येनेहशीमवस्था प्राप्त शक्नोति, तत एवंविधकारणे द्वयोरपि गच्छसत्काः सास्यापि भक्तपानमानीय न दीयते । सूरिराह-गौईष्टान्तोऽन धवः प्रयच्छन्ति । एवं द्वावपि पालितावनुकम्पिती भवतः । क्रियते । यथा-नवप्रावृषि या गौरुत्थातुं न शक्नोति, तां एवं स्थानस्थितानां यतना भणिता। गोप उत्थापयति, अटवीं च चारिचरणार्थ नयति, या तु गन्तुं संप्रति पर्ने मासे वर्षावासे वा ग्रामानुयामा विदरतां पन शक्नोति, तस्या गृहे बानीय प्रयच्छति । एवं पारिहारि थि प्रामे प्राप्तानां वा यतनाऽभिधीयतेकोऽपि यत्कर्तुं शक्नोति तत्कार्यते, यत्पुनरुत्थानाऽऽदिकं कर्तुं न शक्नोति तदनुपरिहारिकः करोति । ठवयंति डहरगाम, पत्ता परिहारिए अपावं ते । कथं पुनरसौ करोतीत्याह तस्सऽद्धा तं गाम, ठवेंति अन्नसु हिंडंते ।। ७०७॥ पथि वजन्तो डहरं लघुतरं ग्रामं प्राप्ताः परिहारिकउद्वेज निसीएज्जा, भिक्खं गेएहेज भंडगं पेहे । स्यार्थाय स्थापयित्वा द्वितीयमर्द्ध स्वयमटन्ति । एवं ताकुवियपियवंधवस्त व, करेइ इयगे वितुसिणीयो।७०३।। वत्पथि वर्तमाने परिहारिके भाणितं यत्र तु साधवः प. स परिहारिकस्तपसा क्लान्तो ब्रवीति-उत्तिष्ठेय, निषीदेयं, रिहारिकश्च समकमेव प्राप्तास्तत्राप्यर्द्ध ग्रामे साधवो हिभिक्षां हिरडेयं, भाण्डकं प्रत्युपेक्षेयम्, एवमुक्ते अनुपारिहा एडन्त, अर्धे पारिहारिकः । अथ साधूनाम पर्यटतां न रिक उत्थापनाऽऽदिकं सर्वमपि करोति । कथमित्याह-यथा पूर्यते ततस्तैः सर्वस्मिन् ग्रामे पर्यटिते पारिहारिकः प. प्रियबाधवस्य कुपितः कश्चिद्वन्धुर्यत्करणीयं तत्तूष्णीकः क र्थात्पर्यटति। रोति । एवमितरोऽप्यनुपरिहारिकः सर्वमपि तूपणीकमा अथ पारिहारिको यथा कारणे गच्छसाधूनां चैयावृत्त्यं कधेन करोति। रोति तथाऽभिधीयतेअथ भिक्षाहिण्डनाऽऽदौ विधिमाह विश्यपयकारणम्मि, गच्छे वाऽऽगाढे सो तु जतणाए । णीणेति पवेसेति य, भिक्खगए उग्गह ते उग्गहियं । अणुपरिहारिउ कप्प-द्वितो व आगाढ संविग्गो ॥७०८।। रक्खति य रीयमाणं, उक्खिवइ करे यहाए ॥७०४॥ द्वितीयपदे कारणे कुलाऽऽदिकार्ये पारिहारिकोऽपि साधूनां भिक्षां गतस्य पारिहारिकस्यावग्रहं प्रतिग्रहं तेन पारिहा- वैयावृत्यं करोति । यथा पाराश्चिकः "अत्थउ पदाणुभंगो, रिकेण गृहीतमनुपारिहारिकः पात्रं बन्धते निष्काशयति री- महासु पुण सयागरो संघो।" इत्यादि भाणत्या वैयावृत्यं यमाणं च पर्यटन्तं तं गवाद्युपद्रवात् प्रपतनाऽऽदेवो रक्षया कृतवान् । तथा गच्छे वा आगाढं कारणं समजनि ततः सोति, भाए डप्रत्युपेक्षणायामशक्तस्य करौ हस्तावनुपरिहारिक | ऽपि यतनया वक्ष्यमाणया भलपानीयाहरणाऽऽदिवैया. उत्क्षिपति येन स्वयमेव प्रत्युपेक्षते।। श्यं करोति। (अणुपरिहारिए) इत्यादि पश्चार्द्धम् । अथ गआह-यदि नामाश कस्तर्हि कस्मादसौ भिक्षाहिण्डनाऽऽदि. च्छसाधवः प्रज्ञप्तिमहाश्रुताऽऽदीनामन्यतरमागाढयोग प्रतिकं विधीयते?, इत्याह पन्ना, उपाध्यायश्च ग्लानः कालगतो वा, ततोऽनुपारिहारि एवं तु असदभावो, इरियायरियाविअणुचिसो । कः कल्पस्थितो वा वाचनां गच्चस्य ददाति । अथ ताय. भयजणणं सेसाण य, तवो य सप्पुरिसचरियं वा ।७०५। प्यशक्ती ततः परिहारिकोऽपि वाचनां ददाति, स च तां दएवं यथाशक्ति कुर्वतस्तस्याशठभावो भवति, वीर्याss दानोऽपि संविग्न एव मन्तव्यः। इह मा भूकस्यापि मतिः-पू. चारधानुचीसे भवति, शेषाणामपि साधूनां भयजननं कृतं सूत्रेण प्रतिषिद्धं, पूर्वसूत्रार्थदानाऽऽदिकमनेनानुज्ञातम् । भवति, तपः सम्यगनुपालितं भवति, सत्पुरुषचरितं च एवं पूर्वापरविरुद्धमाचरन्नसंविनोऽसाविति तन्मतिव्यपोकृतं भवति । हाथै संविग्नग्रहणं व्याचष्टे"अथ छिनावापसु पंथेसु" इत्यादिसूत्रं व्याचष्टे- मयणच्छवगविसो मे, देति गणो वा तिरो व अतिरो वा । छिन्नापाते किलते, ठवणा खेत्तस्स पालणा दोएहं । तज्झाणेसु सएसु व, तस्स वि जोग्गं जगणो देति ॥७०६।। असहस्त भतदाणं, कारण पंथे व भते वा ॥७०६॥ मदनः कोद्वः,तस्य करेण भक्तेन गच्छः सवोपिग्लानो जातः। छिन्नाऽम्पाले अध्वनि गच्छन् परिहारिको यदि बक्षया तुषा। शवकमशिवं तेन वा गृहीतः, प्रत्यनीकेन वा विषो दत्तः, अ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) अभिधानराजेन्डः। परिहार परिहार घमौदर्यो वा न संस्तरति, ततः परमागाढेन कारणेन, कादवधारणीयम् । एवं नावारूढस्य साधार्बोलनाऽऽदिक पारिहारिको भक्तपानमौषधानि वा तद्भाजने गच्छ- सम्भवतीति । सत्केषु पात्रकेषु, तेषामभावे स्वभाजनेषु, वा गृहीत्वा अथ वाहनाऽऽदिपदानि व्याचष्टेतिरोहितमतिरोहितं वा गच्छस्य प्रयच्छति । तिरोहितं सीसगता वि ण दुक्खं, करेह मझ ति एवमवि वोत्तुं । नाम-पानीयानुपारिहारिकस्य ददाति, सोऽपि गच्छस्यार्पयति, अथानुपारिहारिकोऽपि ग्लानः, तदा कल्पस्थितस्य जो छुम्भंतु समुद्दे-सुं वति णावं विलग्गेसु ॥ ७१४ ॥ ददाति, सोऽपि तथैव गच्छस्यार्पयति, कल्पस्थितस्यापि सिद्धार्थका इव शिरसि गता अपि मम दुःखं न कुरुष्व ग्लानत्वे अतिरोहितं तिरोहितं वा स्वयमेव गच्छस्य ददा पवमप्युक्त्वा कश्चित्प्रत्यनीको यदा साधवो नावं विलग्नास्तति । यच्च तेषां योग्यं जनो ददाति तत्तेषामर्थाय गृह्णाति, दा नावं नदीमुखेषु मुञ्चति । येन समुद्रे प्रक्षिप्यन्ते, तत्र यत्तु तस्य योग्यं तदात्मनो गृह्णाति । पतिताः क्लिश्यन्तां म्रियन्तां चेति कत्वा । गतं वाहनम् । एवं ता पंथम्मी, तत्थ वि य ठिया तहिं पि एमेव । अथ सेचनं बोलनं चाऽऽहबाहिं अडती डहरे, इयरे अद्धद्ध अडते वा ॥ ७१०॥ सिंचति ते उवहिं वा, ते चेव जले छुभेज उवधि वा । एवं तावत्पथि गच्छतामभिहितं, तत्रापि च प्रामाऽदौ मरणोवधिनिष्फन्न, अणेसग तणानि तरपमं ॥७१५।। स्थिताः, तत्राप्येवमेव मन्तव्यम् । मार्गे च यत्न गच्छो न प्रा नाविकोऽन्यो वा प्रत्यनीकस्तान साधूनुपधि वा सिञ्चतः,तत्र बहिः डहरेणान्तःपुरे धर्मकथनार्थ ....... (?)कृतेत्य ति, तानव साधूनुपधि वा जले प्रक्षिपेत् , बोलयेदित्यर्थः । तरार्थः। भावार्थस्त्वयम्-" पाडलिपुत्ते मुरुंडो नाम राया गं तत्र चाऽऽत्मविराधनायां मरणनिष्पन्नम् , उपधिनाशे उपगाए नावारूढो उदगे राहायंतो अभिरमइ । साहुणो परकूले धिनिष्पन्नम् यच्चाऽनेषणीयमुपधि ग्रहीष्यन्ति, तृणानि पासित्ता सयमेव नावं नेउं साहुणो वि लागविता भणइ वा सेविष्यन्ते, तनिष्पन्नं सर्वमपि प्राप्नोति । तरपरयं वा कह कहेह, जाव नई उत्तरामो । अक्वेवसाइकहालद्धिजुत्तो स मार्गयेत् , अदीयमाने चिरं निरन्ध्यात् , दीयमाने अधि. साहू कहिउमारद्धो । तेण कहिंतेण अक्वित्तो नावियं सन्ने करणम् । गताः प्रत्यनीकदोषाः । इ-सणियं कद्देहि, जेण एस साहू चिरं कहेइ । साहूण अथ बहवः प्रत्यपाया इति व्याचष्टेकारणे सणियं गच्छंताणं जत्तिया अयेलखेवा तत्तिया संघट्टणा य सिंचण, उवकरणे पडण संजमे दोसा । चउलहुगा । उत्तिलोण रम्मा अंतउरे कहिया कहा, सुंदराश्री सावयतेणे तिराहे-गतर विराहणा संजमाऽऽताए।।७१६॥ कहाश्रो तरङ्गवत्याद्याः कथयन्ति साधवः । अंतउरि प्रसाऽऽदीनां संघट्टना जलेन वा सेचनमुपकरण ऽऽस्यात्मनो याणं कोउगं जायं . रायाणं विनवेति-जह ते साहुणा इह चा पतनं वा पते संयमे दोषाः । श्वापदकृता स्तेनकृता वा माणिजिजा ता अम्हे वि सुणेजामो । रन्ना गवसित्ता प आत्मविराधना (तिरहेगयर त्ति) अनुकम्पाप्रत्यनीकताबेसिता साहुणो अंतेउरे।" तदुभयाऽऽदिरूपाणां त्रयाणामेकतरस्मिन् संयमविराधना____तत्र च प्रविष्टानामेते दोषाः ऽऽत्मधिराधना च भवति । एष संग्रहगाथासमासार्थः । सुत्तत्थे पलिमंथो-ऽणेगा दोसा य णिवघरपवेसे । अथैनामेव विवृणोतिसइकरण कोउएण च,भुत्ताऽभुत्ताण गमणाऽऽदी।७११॥ तसउदगवणे घट्टण, सिंचण लोगे अणावि सिंचणता । सूत्रार्थयोः पलिमन्थः, स्मृतिकरणेन कौतुकेन च भुक्ताभुक्नानां प्रतिगमनाऽऽदयोऽनेके दोषा नृपगृहप्रवेशे भवन्ति । बुझण उवधी तुभये,मगराऽऽदि समुद्र तेणे य॥७१७।। एते अनुकम्पायां दोषा उक्लाः। जलोद्भवानां त्रसानामुदकस्य वा सेवालाऽऽदिरूपस्य बनअथ प्रत्यनीकतायां दोषानाह स्पतेर्वा संघट्टनं भवेत् , लोकेन नाविकेन वा साधोरुपकरबुझण सिंचण बोलण, कंबलसबला य घाडिते मित्ते। गस्य वा सेचनं क्रियते, अतिसंबाधे वा उपधेरात्मनस्तदु भयस्य वा स्ताघे अस्ताघे वा जले (बुज्झणं) बोलनं अनुसट्ठी कालगता, णागकुमारेसु उववरले ॥ ७१२ ।। भवति । मकराऽऽदयः श्वापदाः समुद्रे स्तेनाश्च तत्र भवेयुः। वाहनं सेचनं बोलनं वा प्रत्यनीकेन साधुना क्रियेत । तत्र इदमेव व्याच - सामान्येन दृष्टान्तोऽयम्-मथुरायां भण्डीरयक्षयाायां कम्बलशबली वृषभी घाटिकेन मित्रेण जिनदासस्यानापृच्छया ओहार मगराऽऽदी वा, घोरा तस्य उसावया। वाहिती तनिमित्तं सातवैराग्यौ श्रावकेणानुशिष्टौ भक्तं सरीरोवहिमदीया, णावा तेणा य कत्थई ।। ७१८ ।। प्रत्याख्याय कालगतौ नागकुमारेपूपपन्नौ । आहारमकराऽऽदयस्तत्र तथा घोराःश्वापदा भवन्ति । श्रोततस्ताभ्यां किं कृतमिनि?, ग्राह हारो मत्स्यविशेषः, स किल नाचमधस्तले जलस्य नयति । वीरवरस्स भगवतो, नावारूढस्स कासि उवसग्गं । शरीरहरा उपधिहरा वा नौस्तेनाः कुत्रापि भवेयुः । एतैमिच्छदिटिपरद्धो,कंबलसबलहिँ तारिओ भगवं ॥७१३।। रात्मन उपधेर्वा विनाशे तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। वीरवरस्य भगवतो नावारूढस्य सुदीढी नागकुमार उ. अथ “लिरहेगयर त्ति" पदं व्याख्यातिपसर्गमकार्षीत् . तेन मिथ्यादृष्टिना प्रारब्धो जले बोलयि सावय तेणा उभयं, अणुकंपादी चिराहणा तिमि । तुं कम्बलशबलाभ्यां मोचितो भगवान् । कथानकमावश्य- । संजम आतुभयं वा, उत्तरणावुत्तरंते य ।। ७१६ ।। १७३ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार प्रान्निधानराजेन्डः। परिहार श्वापदाः १, स्तेनाः २, श्वापदा अपि स्तेना अपि ३, एत- धादिना कार्यमुत्पन्न, ततस्तत्र गच्छे आगमनम्। अन्यगच्छात्रयम् । अथवा-अनुकम्पया १, प्रत्यनीकतया २. अनुक-। त् संघाटक आगतस्तेन च वादी प्रेष्यतामित्युक्त गुरोम्पाप्रत्यनीकोभयार्थतया वा ३ । अथवा-तिस्रो विराधनाः, रादेशात् परिहारतपो वहमानस्यैव तस्य तत्र गमनम् । तत्र तद्यथा-स ग्रामे पारिहारिकः प्राप्तो बहिर्गामे पर्यटति उ.। गतेन तेन परवादी राजसभासमक्ष नि:पिएप्रश्नव्याकरण: तरति। अथ वेलाऽतिक्रमो दूरे वा स ग्रामस्ततस्तत्रैव मू. कृतस्ततः प्रवचनस्य महती प्रभावना समजनि, तेन च वादलग्रामे अर्द्ध परिहारिकः पर्यटति अर्द्ध गच्छसाधवः, तेन स्य करणे अमूनि प्रतिसेवितानि भवेयुःअटिते वा गच्छः पर्यटति । किंबहुना?-पक्षद्वयस्याप्ययं पर पाया व दंता व सिया उ धोया, मार्थः। वा बुद्धहेतुं च पणीयभत्तं । उच्यतेकप्पट्टिएँ परिहारी, अणुपरिहारी व भत्तपाणाणं । तं वातिगं वा मइसत्तहेओ, पंये खित्ते व दुवे, सो वि य गच्छस्स एमेव ।।७२०॥ | सभाजयहा सुवयं च सुक्कं ॥ ३५४ ॥ पथि वा क्षेत्रे वा तयोरपि वर्तमानो ग्लानत्वाऽऽदी कारणे पादौ वा दन्ता वा प्रवचनजुगुप्सापरिहारार्थ धौताः स्यु. कल्पस्थितः परिहारी अनुपरिहारिको वा पारिहारिकस्य भ. र्भवेयुः, प्रणीतभक्तं वा घृतदुग्धाऽऽदिकं वारहेतोर्बुद्धिहेतोश्च क्रपानौपग्रहं करोति, सोऽपि च पारिहारिको गच्छस्यैव भक्तं भवति. “घृतेन बीते मेधा" इति वचनात् । वातिकं मेवोपग्रहं करोति । वृ०४ उ०। नाम-विककळं, तद्वा मतिहेतोः सखहेतोर्वा सेवितं भवेत् । परिहारकप्पढिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए मनिर्नाम परवाद्युपन्यस्तस्य साधनस्याऽपूर्वापूर्वदृषपोहाss स्मको शानविशेषः। सत्त्वं-प्रभूतप्रभूततरभाषणे प्रवर्धमान गच्छा , से य ाहच्च अइक्कमिजा, तं च थेरा जाणिज्जा आन्तर उत्साहविशेषः सभाजयार्थ वा शुक्लं 'सुवयं ' वस्त्रं अप्पणो आगमण असि वा अंतिए सुच्चा, तो पच्छा | प्रावृतं भवेत् "जिता वस्त्रवता सभा।" इति वचनात् । तस्स प्रहालहुस्सए नाम ववहारे पट्टवेयवे सिया ॥५३॥ थेरा पुण जाणंती, आगमओ अहव अमो सुच्चा। अस्य संबन्धमाह परिसाए मज्झमिए, ठवणा वा होइ पच्छित्ते ।। ३५५ ।। निकारणपडिसेवी, अजयणकारी व कारणे साहू । एवमादिकं तेन प्रतिसेवितं स्थविराः सूरयः पुनरागमतो अहवा चिअतकिच्चे, परिहारं पाउणे जोगो॥३५२॥ | जानीयुः । अथवा-अम्यतः श्रुत्वा, ततस्तस्य भूयः समाग. निष्कारणे मानम्रक्षणाऽऽदिकं प्रतिसवितुं शीलमस्येति नि तस्य पर्षन्मध्ये प्रायश्चित्तस्य स्थापना कर्तव्या भवति । कारणप्रतिसेवी स तथा, कारणे वा योऽयतनाकारी पू. इदमेव व्याचष्टेबोक्कयतनां विना गात्रम्रक्षणविधायी साधुः । अथवा-यस्त्य- नवदसचउदसोही, मणणाणी केवली य आगमओ । कस्यो नीरुग्भूतोऽपि तदेव म्रक्षणाऽऽदिकमुपजीवति,स प. सो चेवऽप्यो उ भवे,तदणुचरो वा वि ओगो वा ॥३५६।। रिहारतपः प्राप्नुयादिति योगः संबन्धः । अनेन संबन्धेना नवपूर्विणो,दशपूर्विणश्चतुर्दशपूर्विणः, अवधिशानिनो. मनःऽऽयातस्यास्य सूत्रस्य (५३) व्याख्या-परिहारकल्पस्थितो पर्यवशानिनः, केवलज्ञानिनो वा, ते आगमातिशयेन शात्वा भिक्षुर्वहिरन्यत्र नगराऽऽदौ स्थविराणामाचार्याणामादेशेन प्रायश्चित्तं दाः । अन्यो नाम स एव परिहारिकः सन्मुधैयावृत्यर्थ गच्छेत् । किमुक्तं भवति ?-अन्यस्मिन् गच्छे के खादालोचनाद्वारेण श्रुत्वा । यद्वा-ये तभ्य परिहारिकस्यापाश्चिदाचार्याणां वादी नास्तिकाऽऽदिक उपसंस्थितः,तेषांच नुचराः सहायाः प्रेषितास्तैः कथितम् । उवको नाम-अन्यः मास्तिवादलब्धिसंपन्नस्ततस्ते येषामाचार्याणां स परिहारि- कोऽपि तिर्यगापतितो मिलितः तेषां गच्छसत्को न भवकस्तेषामन्तिके संघाटकं प्रेषयन्ति । स च संबाटको बूते-वा- तीत्यर्थः । तेन वा कथितम् यथैतेनामुकं पादधावनाऽऽदिकं दिनं कमपि मुत्कलयत । एवमुक्त ते प्राचार्याः परिहारकं पर- प्रतिसेवितम् । पादिनिग्रहक्ष मत्वा प्रेषयन्ति, ततस्तदा देशादसौ परिहा. ततः-- रतपो वहमान एव गच्छेत् । इदं च महत्प्रवचनस्य वैया त्यं यदग्लान्या परवादिनिग्रहणं, ततस्तदर्थ गतः स परि- तेसिं पच्चयहेलं, जे पेसविया सुर्य व तं जेहिं । हारिकः ( प्राहच्च) कदाचिदतिक्रमेत् पादधावनाऽऽदिक भयहेउं सेसगणे, इमाउ आरोवणारयणा ॥३५७॥ प्रतिसवितुम्, तत् स्थविरा मौलाऽऽचार्या आत्मन आगमेना- ये तेन सार्द्ध प्रेषिताः, यैर्वा प्रेषितैरपि तत्प्रतिसेवनं श्रुतं, वध्याचतिशयशानेन अन्येषां वा अन्तिके श्रुत्वा जानीयुः ।। तेषामुभयेषामयपरिणामकानां प्रत्ययहेतोः, शेषाणां च श्रततः पश्चात् तत्परिज्ञानानन्तरं तस्य पारिहारिकस्य यथा तिपरिणामिकानां भयोत्पादनहेतोरियमारोपणा रचना व्यवलघुस्वको नाम स्तोकप्रायश्चित्तरूपो व्यवहारः प्रस्थापयि हारप्रस्थापना सूरिभिः कर्तव्या। (वृ०) (यथालघुखको तव्यः स्यादिति सूत्रार्थः। व्यवहारः 'प्रहालहुस्सय' शब्दे प्रथमभागे ८७० पृष्ठे विस्तअथ भाष्यम् रतो गतः) (कं व्यवहारं केन तपसा प्रयतीति अस्मिन्नेपरिहारिओ य गच्छे, आसमे गच्छ वाइणा कजं । व शब्दे ६८१ पृष्ठे गतम्) भागमणं तहिँ गमणं, कारणपडिसेवणा वाए ॥३५३॥ एवं प्रस्तारं पूरयिात्वा सूरयो भणन्तिपरिहारिकः क्वापि गच्छे विद्यते, क्वचिस्वासो ऽस्यगन्छ। जं इत्थं तुह रोयइ,इमे व गिएहाहि अंतिमे पंच । Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार मभिधानराजेन्द्रः । परिहारविसद्धिय हत्यं च भमाडे, जं अक्कमते तगं वहइ ॥ ३६३ ॥ पा विशुद्धियस्मिन् चारित्रे तत्परिहारविशुद्धिकम्। संयमवि. यदत्रामीषां प्रायश्चित्तानां मध्ये तव रोचते तद् गृहाण, शेषे, पृ. ६ उ० । पञ्चमहावतानां परिहारे, प्रा. चू० प्रमूनि वा अन्तिमानि पञ्च रात्रिन्दिवानि गृहाण । एवमुक्ते १ . । तृतीये चारित्रभेदे, एतदपि द्विभेदम्-निस यथालघस्वकं प्रायश्चित्तं गृह्णाति अथवा-हस्तं भ्राम विशमानकं, निर्विष्टकायिकं च। तत्रास्यैव चारित्रस्यासेवकाः यित्वा यत्प्रायश्चित्तं गुरव आक्रमन्ति तकं गृह्णाति । साधवो निर्विशमानका उच्यन्ते, तदव्यतिरेकादिदमपि सूरयश्चेदं तं प्रति भणन्ति चारित्रं निर्विशमानकं भरायते आसेवितैतच्चारित्रकायाउन्भावियं पवयणं, थोवं ते तेण मा पुणो कासि । स्तु मुनयो निर्विष्टकायाः, त एव स्वार्थिकप्रत्ययोपादाग्नि विष्टकायिकाः, तदभेदादिदमपि चारित्रं निर्विष्टकायिकम् , अइपरिणए मुत्तं, वेइ वहंतो वयं एअं ॥ ३६४ ॥ एतत्स्वरूपं च विस्तरतो भाष्येऽभिधास्यत इति ॥१२६०॥ स्वथा परवादिनं निगृह्णता प्रवचनमुद्भावितं तेन स्तोकं, ते विशे० । (पत्र " से किं तं परिहारविसुद्धियचरित्ताप्रायश्चित्तं. मा पुनः भूयोऽप्येवं कार्षीः। अथातिपरिणता रिया।" इत्यादि सूत्रम् 'चरित्तारिय ' शब्दे तृतीयभागे श्चिन्तयेयुः-एष तावन्मात्रेण मुक्त इति । ततो यदि तस्या ११५२ पृष्ठे गतम् ) म्यदपरं प्रदानं तपोऽपूर्ण तदा तदेव वहमानोऽतिपरिणा- अथ निर्विशमान-निर्विष्टकायिककल्पस्थितिद्वयं विवरीमिकाऽऽदीनां पुरतो गुरून् भणति-एतत्प्रायश्चित्तं युष्माभि- पुराहदत्तं वहामीति । वृ० ५ उ० । वर्जने च । प्रव० १० द्वार । परिहारकप्पं पवक्खामि, परिहरंति जहा विऊ।। नि० चूछ। आदिमझऽवसाणेसु, आणुपुब्बि जहक्कम ।। ३६६॥ विषयसूची परिहारकल्पं प्रवक्ष्यामि। कथमित्याह-यथा विद्वांसो विवि(१) परिहारशब्दनिक्षेपप्ररूपणम् । तपूर्वगतश्रुतरहस्याः, तं कल्पं परिहरन्ति, धातूनामनेकार्थ(२) पर्यायद्वारम् । त्वादासेवन्ते, कथं पुनर्वक्ष्यसीस्यत आह आदिमध्यावसानेषु (३) सूत्रार्थद्वारम् । यथाक्रममानुपूयेति । (४) अभिग्रहद्वारम् । पंचहिं अग्गहो भत्ते, तत्यगाए अभिग्गहो । (५) तपोद्वारम् । उवहिणो अग्गहो देसे, इयरो एकतरीयओ ॥३७० ॥ (६) येभ्यो नियमतः शुद्धतपः परिहारतपो वा देयं त भक्ते, उपलक्षणत्वात्-पानके च संसृष्टासंसृष्टाऽऽख्यमाद्यमे त्प्रतिपादनम् । षणाद्वयं वर्जयित्वा पञ्चभिरुपरितनाभिरेषणाभिराग्रहः,स्वी. (७) यदि गच्छवासी एतानि पदान्यतिचरति तत इदं । कारस्तत्राप्येकस्यामेकतरस्यामभिग्रहः, एकया कयाचिद्रप्रायश्चित्तम्। (८) शुद्धतपःपरिहारतपसोः कतरत् कर्कशं तपः। प क्लमपरया पानकमन्वेषयन्तीत्यर्थः । । श्राह च वृहद्भाष्यकृत्रिहारकल्पस्थितस्य भिक्षोरन्यत्राचार्याणां वैयावृ. "संसट्टमारणं, सब्वराई एसणाण उ। त्याय गमनम्। श्रारल्लाहिउ दोहिं तु, अम्गहो गह पंचहिं। (६) स्थविराणां वैयावृत्याय गच्छतीत्युक्तं, तत्र किं वै तत्थ वि अन्नतरीए, एगाएँ अभिग्गहं तु काऊणं ॥” इति । यावृत्त्यं, येन हेतुभूतेन स गच्छति । उपधिर्वस्त्रादिरूपस्तस्योदिष्टाःप्रेक्षा अंतरा उज्झितधर्म: (१०) "जीए त्ति" द्वारव्याख्यानम् । (११) पिट्टनद्वारम्। काख्याः पीठिकायां व्याख्याता, याश्चतस्र एषणास्तत्र तयोरुप(१२) द्वयरिकत्र विहरतोरन्यतरस्य परिहारतपोदानम् । रितनयोराग्रहः स्वीकारः, इतरोऽभिग्रहः, स एकतरस्यामुप(१३) तृतीयं सूत्रम् । रिनन्यां भवति, यदा चतुथ्यो न तदा तृतीयायां, यदा तु. (१४) परिहारकल्पस्थितं ग्लायन्तम् । तीयायां न तदा चतुर्थ्यां गृह्णातीति भावः । (१५) के व्यवहारं केन तपसा पूरयतीति । ___ कदा पुनस्तेऽमुं कल्पं प्रतिपद्यन्ते इत्याहपरिहारकप्पट्टिय-परिहारकल्पस्थित-पुं० । परिहारस्य कल्पः अइरुग्गयम्मि सूरे, कप्पं देसंति ते इमं । सामाचारी परिहारकल्पस्तत्र स्थितः। प्रायश्चित्ततपःप्रका आलोइय पडिकंता, ठावयंति तो गणे ॥३७१॥ रैर्व्यवस्थिते, व्य० १ उ० । अचिरोगते सूर्ये ते भगवन्तः कल्पमिमं देशयन्ति,स्वयं प्रतिपरिहारद्वाण-परिहारस्थान-न० । परिहारो विषयः, तिष्ठन्ति पन्ना अन्येषां दर्शयन्ति, तत अालोचितप्रतिक्रान्ता आलोचजन्तवः कर्मकलुषिता अस्मिन्निति स्थानम् । परिहारश्च तत् नाप्रदानपूर्व प्रदत्तमिथ्यादुष्कृतास्त्रीन् गणान् स्थापयन्ति । स्थानं परिहारस्थानम् । प्रायश्चित्तार्हकार्यविषये, व्य०१ उ०। तेषु च त्रिषु गणेषु कियन्तः पुरुषा भवन्तीत्याहनि० चू। सत्तावीसं जहमेण, उक्कोसेण सहस्ससो। परिहारग-प्रतिहारक-पुं० । पारिहारिके. उत्त० २८०। निग्गंथसूरा भगवंतो, सब्बग्गणं वियाहिया॥३७२ ।। परिहारविसुद्धिय-परिहारविशुद्धिक-पुं० । परिहरणं परिहार सप्तविंशतिः पुरुषा जघन्येन भवन्ति, एककैस्मिन् गणे, स्तपोविशेषस्तेन विशुद्ध, परिहारो वा विशेषेण शुद्धं य- उत्कर्षतः सहस्रशः सहस्रसंख्याः पुरुषा भवन्ति । शस्मिँस्तत् परिहारविशुद्धं तदेव परिहारविशुद्धिकम् । स्था०५ ताग्रशो गणानामुत्कर्षतो वक्ष्यमाणत्वात् । एवं ते भगठा०२०। परिहरणं परिहारस्तपोविशेषस्तेन कर्मनिर्जरारू- घन्तो निर्ग्रन्थसूराः सर्वाग्रेण सर्वसंख्यया व्याख्याताः। Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहारविसद्धिय अभिधानराजेन्द्रः। परिहारविसकिय गणमनीकृत्य प्रमाणमाह एवं शिष्येण पृष्टे सति सूरिराहसयग्गसो य उक्कोसा, जहमेणं तो गणा। पुन्चसयसहस्साई, पुरिमस्स अणुसज्जति । गणो यणवो वृत्तो, एमेता पडिवत्तिभो ॥ ३७३॥ वीसग्गसो य वासाई, पच्छिमस्साणुसज्जति ॥ ३८० ॥ शताप्रशः शतसंख्या गणा उत्कर्षतोऽमीषां भवन्ति, पूर्वशतसहस्राणि पूर्वस्य ऋषभस्वामिनस्तीर्थे परिहारकजधन्वन त्रयो गणाः, गणश्व नवको नवपुरुषमान ल्पोऽनुसजति. तत्र ऋषभस्वामिनः तीथे यानि पूर्वशतसहउक्तः, एवमेताः प्रतिपत्तयः प्रमाणाऽऽदिविषयप्रकारा नाण्युक्तानि तानि देशोने द्वे पूर्वकोटी मन्तव्ये । कथमिति मन्तव्याः । चेत् ?,उच्यते-इह पूर्वकोट्यायुषो मनुष्या जन्मत प्रारभ्य स. एग कप्पट्टियं कुजा, चत्तारि परिहारिए। जाताष्टवर्षाः प्रवजितास्तेषां च नवमे वर्षे उपस्थापना सं. अणुपरिहारिगा चेव, चउरो तेसिं तु ठावए ॥३७४।" जाता, एकोनविंशतिवर्षपर्यायाणां च दृष्टिवाद उद्दिष्टः, तस्व नवानां जनानां मध्यादेक कल्पस्थितं गुरुकल्पं कुर्यात् , वर्षेण योगः समाप्ति नीतः, एवं नवविंशतिश्च मिलिता चतुरः परिहारिकान् कुर्यात् , तेषां शेषांश्चतुरोऽनुपरिहा. एकोनत्रिंशद्वर्षाणि, एतावत्सु वर्षेषु गतेषु ऋषभस्वामि रिकान् स्थापयेत् । नः पावें परिहारकल्पं प्रतिपन्नाः, तत एकोनविंशद्वर्षन्यूनां स्थ तेसिं जायती विग्छ, जा मासा दस अट्ट य । पूर्वकोटी परिहारकल्पे तैरनुपालिते सति ये वाऽन्ये तेषां मूले परिहारकल्पं प्रतिपद्यन्ते, तेऽप्येवमेवैकोनत्रिंशद्वर्षन्यूवेयणा ण वाऽऽतंका, देव असे उबद्दवा ॥३७॥ नां पूर्वकोटीमनुपालयन्ति । एवं देशोने द्वे पूर्वकोटी भवतः, अट्ठारससु पुप्मेसु, होज एते उबद्दवा । पश्चिमस्य तु यानि विंशत्यप्रशो वर्षारयुक्तानि तानि देशोऊणिए ऊणिए यावि, गणमेरा इमा भवे ॥ ३७६॥ ने द्वे वर्षशते भवतः। तेषामेवं कल्पं प्रतिपन्नानां न जायते विनोऽन्यत्र सं. तथा चाऽऽहहरणाऽऽदि यावन्मासा दशाष्टौ च, अष्टादशेत्यर्थः। न वेद- पन्बजा अट्ठवासस्स, दिहिवादो उ वीसहिं । मा न वाऽऽतको नैवान्यैः केचनोपद्रवाः प्राणव्यपरोपणका. इति एकूणतीसाए, सयमूणं तु पच्छिमे ॥ ३८१ ॥ रिण उपसर्गाः, अष्टादशषु मासेषु पूर्णेषु भवेयुरप्येते उ. पालइत्ता सयं कणं, वासाणं ते अपच्छिमे । पद्रवार, उपद्रवैश्च यदि तेषामेके डम्बा म्रियन्ते । अथवा-तेषां कोऽपि स्थविरकल्पात् जिनकल्पे च गतो भवति, काले देसिति अमेसि, इति ऊणातु वे सता॥३८२॥ शेषास्तु तमेव कल्पम्-"अनुपालकम्मे तउ पवजति तेऊ श्रीवर्द्धमानस्वामिकाले वर्षशताऽऽयुषो मनुष्याः, तत्राष्टव णिते गणा जाते" इयं गणमर्यादा गणसामाचारी भवति । र्षस्य जन्मनः प्रभृति संजातवर्षाष्टकस्य कस्याऽपि प्रव्रज्या हो निते ऊनिते इति द्विरुश्चारणं भूयोऽप्यष्टादशसु मासे. संजाता, पूर्वोक्तरीत्या च विंशत्या वर्षे दृष्टिवादो योगतः पु पूर्णेषु एष एव विधिरिति शापनार्थः। समर्थितः, ते श्रीमन्महावीरसकाश परिहारकल्पं नव ज नाः प्रतिपद्य देशोनवर्षशतमनुपालयन्ति इत्येवमेकोनत्रिएवं तु विए कप्पे, उवसंपजति जो तहि । शतं पश्चिमे पश्चिमतीर्थङ्करकाले भवति । ततस्ते वर्षाखां एगो दुवे अणेगे वा, अविरुद्धा भवंति ते ॥ ३७७॥ शतसूनं तं कल्पं पालयित्वा पश्चिमे काले निजाऽऽयुषा एवमन्तरोक्लनीत्या कल्पे स्थापिते सति यद्येकादयो निषे. पर्यन्वे अन्येषां तं कल्पं दिशन्ति, प्ररूपयन्ति, प्रवर्तयन्तीचन् । अन्यत्र वा गच्छेयुः ततो यस्तत्रोपसंपद्यते स एको ति भावः । तेऽप्येवमेकैकोनन्यूनं शतं पालयन्ति । इत्येवं हे वा द्वौ वाऽनेके वा भवेयुः। तथा प्रतिपद्यमानानां मध्ये प्र.| शते ऊने वर्षाणां भवत इति। तिपनानामवसाने प्रस्तुतकल्पसमाप्तौ या आनुपूर्वी सामा- किमर्थ तृतीया पूर्वकोटी तृतीयं वा वर्षशतं न भषचार्याः परिपाटिस्तां, यथाक्रमं वयामीति संटकः। तीत्याहतत्र कतरस्मिन् तीर्थे एवं कल्पो भवतीति जिहा. पडिवनजिणिदस्स, पादमुलम्मि जे विऊ । . सायामिदमाह ठावयंति अ तेअमे, ण उ ठावितठावगा ॥३८३ ।। भरहेरवएसु वासेसु, जदा तित्थगरा भवे ।। जिनेन्द्रस्य पादमूले ये विद्वांसः प्रस्तुतं, कल्पं प्रतिपन्नास्त 'पुरिमा पच्छिमा चेव, कप्पा दसति ते इमं ॥ ३७८ ॥ | पवान्यान् तत्र कल्पे स्थापयन्ति, न तु स्थापितस्थापका, भरतैरवतेषु वर्षेषु दशवपि यदा तृतीयचतुर्थाऽऽरकयोः जिनेन स्थापिताः स्थापका येषां ते स्थापितस्थापकास्ते असं पधिमे भागे पूर्वाः पश्चिमाश्च तीर्थकरा भवेयुः, तदा ते कल्पमन्येषां न स्थापयन्ति । इदमत्र हृदयम्-इयमेवास्य कल्पभगवन्त इमं प्रस्तुतं कल्पं दिशन्ति प्ररूपयन्ति । अर्था- स्य स्थितियत्तीर्थकरसमीपे वा अमुं प्रतिपद्यन्ते तीर्थकरसमीदापर्व-मध्यमतीर्थकृतां महाविदेहेषु नास्ति परिहारकल्प- पप्रतिपन्नसाधुसकाशे वा नान्येषामतस्तृतीये वर्षे पूर्वकोटिस्थितिरिति। आह-यघेवं ततः वर्षशते न भवत इति । केवइयं काल संजोग, गच्छो तु अणुसज्जती । अथ कीदृग्गुणोपेता अमी भवन्ति इत्याह सचे चरित्तमंता य, दंसणे परिनिद्विया । तित्ययरेसु पुरिमेसु, तहा पच्छिमएसु य ॥ ३७६ ॥ कियन्तं कालं संयोग परिहारकल्पिकानां गच्छः पूर्वेषु सावपुब्बिया जहमेणं, उक्कोसं दसपुब्बिया ।। ३८४ ॥ पनिमेषु च तीर्थरेषु अनुसजति परम्परयाऽनुपर्तते।। पंचविहे बवहारे, कप्पे ते दुविहम्मि य । Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहारबिसुद्धिय दविदे व च्छित्ते सन्वे वि परिनिट्ठिया ।। ३८५ ॥ सर्वेऽपि भगवन्तः चारित्रवन्तो दर्शने च सम्यक्त्वे परिनिष्ठिताः परमकोटिमुपगता: ज्ञानमङ्गीकृत्य तु नवपूर्वि धन्येनोत्कर्षतो दशपूर्विणः, किञ्चिन्न्यूनदशपूर्वधरा मन्तव्याः, तथा पञ्चविधे व्यवहारे श्रागमश्रुताज्ञाऽऽधारणाजीत लक्षणे, द्विविधे च कल्पे अकल्पस्थापनाकल्परूपे जिनकल्पस्थविरकल्परूपे वा दशविधे प्रायश्चित्ते आलोचना ऽऽदौ पाराचिकान्ते सर्वेऽपि परिनिष्ठिताः परिज्ञायां परां निष्ठां प्राप्ताः । अप्पणो आउ से, जाणिचा ते महामुखी । 5. ( ६६३ ) अभिधानरान् | परकर्म च बलविरियं पच्चवाए तहेब य ॥ २८६ ॥ आत्मन आयुः शेषं सातिशयश्रुतोपयोगेन ज्ञात्वा ते महासुनो व शारीरं सामर्थ्य वीर्य जीवराशिः, तदुभयमपि दर्शितस्वफलं पराक्रमम् एतान्यात्मनो पिशाचाऽमुं च कर प्रतिपद्यन्ते । प्रत्यपाया जीवितोपद्रवकारिणो रोगाऽऽदयस्तानपि तथैव प्रथममेव भोगयति किं प्रतिपन्नानां भविष्यन्ति न वेति, यदि न भवन्ति ततः प्रतिपद्यन्ते, अन्यथा तु नेति । आपुच्छिऊण अरहंते, मग्गं देसंति ते इमं । पमाणाणि य सव्वाई, अभिग्गहे य बहुविहे || ३८७ ॥ अर्हतस्तीर्थकृत आय तेषामनुश्या प्रति पद्यन्ते । ते च तीर्थकृतस्तेषां प्रस्तुतकल्पस्य इमम् अनन्तरमेव वक्ष्यमाणं मार्ग सामाचारी देशयन्ति । तद्यथा-प्रमायानि च सर्वाणि अभिप्रां विधान् । पतान्येव व्याचष्टेगणोत्रहिपमाणाई, पुरिसागं च जाणितुं । 1 दव्यं खेत्तं च कालं च, भावमसे य पज्जवे ॥ ३८८ ॥ गणप्रमाणानि उपधिप्रमाणानि पुरुषाणां च प्रमाणानि यानि प्रस्तुते काले जयन्याऽऽदिमेदादनेकधा भवन्ति। यच्च तेषां द्रव्यमशनाऽऽदिकं कल्पनीयं यच्च क्षेत्रं मासकल्पमायोग्यं च वर्षावासमायोग्यं वा यतश्च तयोरेव मासकल्पवर्षावा सयोः प्रतिनियतः कालो, यश्च भावः क्रोधनिग्रहाऽऽदिरूपो. ये चान्येऽपि निष्यतिकर्मतायो लेश्याध्यानादयो वा पर्यायास्तेषां संभवन्ति तान् सर्वानपि भगवन्तस्तेषामुपदिशन्ति स एको वा द्वौ वा अनेके वा भवेयुः । तत्र यावद्भिः परि हारिकगण ऊनस्तावता उपसंपदर्थमागतानां मध्यात् गृहीस्वागः पूर्वते ये वास्ते पारिहारिकत पर तुल कुर्वन्तः विति पारिहारिकैः सार्द्धन्तोऽविरुद्धा भवन्ति, पारिहारिकाणामकलनीया भवन्तीत्युक्तं भवति ते च तावत् तिति यावदन्ये उपसंपदर्थमुपतिष्ठन्ति तैः पूरयित्वा पृथग् गणः क्रियते । इदमेव व्याख्यातिततो य ऊण कप्पे, उपसंपजति जो तहिं । जत्तिएण गणो कणो, तत्तिए तत्थ पक्खिवे ॥ ३८६ ॥ ततस्य पूर्वोक्रकारणादूनके एकयादिभिः साधुमि स्पे पस्तलोपपद्यते तत्रायं विधिका 35 दिसं व्याकैः स गयः ऊनस्तावत्संव्याकान् तत्र गये प्रति पेत् प्रवेशयेत् । १७४ परिहारविसुद्धिय ततो अगर कप्पे, उपसंपति जे तहिं । उवसंपज्जमाणं तु तप्पमाणं गणं करे || ३६० ॥ अथ कोऽप्युपद्रवेने कालगतस्तत एवमन्यूनके कल्पे ये तत्रोपसंपद्यन्ते ते यदि नव जनाः पूर्यास्ततः पृथग गं भवति अथापूर्णस्ततः प्रतिक्षित्यन्ते यावदन् उपसंपदर्थमागच्छति, ततस्तमुपसंपद्यमानं साधुजनं मीलयित्वा तत्प्रमाणं नवपुरुषमानं गणं कुर्यात् खापयेत् । पमा कप्पट्ठितो तत्थ, ववहारं ववहरित्तए । अनुपरिहारिया पि, पमार्थ होति से बिक || ३६१ ।। तेषां परिद्वारिकाणां तत्र कल्पे क्वचित् स्खलिताऽऽदौ श्रापने व्यवहारप्रायश्चित्तं व्यवहर्नु दातुं कल्पस्थितः प्रमाणं, यदसौ प्रायश्चित्तं ददाति तत्तैर्वोढव्यमिति भावः । एवमनुपरिद्वारिकाणामप्यपराधपदमापन्नानां स एव विद्वान् गी तार्थः प्रायश्चित्तदाने प्रमाणम् । आलोयण कप्पठिते, तवमुजाणोवमं परिवहंते । अपरिहारिएँ गोवास गनाउचो ।। १६२ || ते परिहारिकानुपरिहारिकाः, आलोचनमुपलक्षणत्वात् वन्दमकं प्रत्याख्यानं च कल्पस्थितस्य पुरतः कुर्वन्ति । (तवमुज्जाणोषमं परिषहते सि) यथा किल कश्चिदुद्यानिकां गत एकान्तरतिप्रसवन्दसुखं विहरमा घस्ते एवं तेऽपि पारिहारिका एकान्तसमाधिसिन्धुनिमग्नमनसस्ततप उद्यानोपमम् उद्यानिकासदरां परिवहन्ति, कुर्वन्तीस्वर्थः । अनुरिहारिका बस्यारोऽपि परिहारिकाणां मिक्षाऽऽदी पर्वतां पृछतः स्थिता नित्यमुद्यतकाः प्रक लवन्त आयुक्ताश्च उपयुक्ता हिण्डन्ते, यथा गोपालको गवां पृष्ठतः स्थित उयुक्त आयुक्तश्च द्दिण्डते । पढिपुच्छं वार्य, मोनू सत्य संकहा। लावोणिसो, परिहारस्स कारणे || ३६३ ॥ तेषां च पारिहारिकादीनां नवानामपि जनानां स्वार्थयोः प्रतिपृच्छा त्या नात्यम्योन्यं परस्परं संकथा. प दारिकस्य च कारणे उत्थाननिषीदनाऽऽद्यशक्तिरूपे आलाप आत्मनिर्देशरूपो भवति यथा उन्थास्पामि उपवेदयामि नै क्ष्यं हिfesमात्रकं प्रेचये इत्यादि । वारस दस दस अ ब य कोर्स ममिजस्रमा ऊ वाससिसिरगिम्हे उ ॥ ३६४ ॥ पारिहारिकाणां वर्षाशिशिर ग्रीष्मरूपे त्रिविधे काले उत्कृटमध्यमजन्यानि तपांसि भवन्ति । तत्र व तपो द्वादशं, शिशिरे दशमम् उत्कृष्टं ग्रीष्मे अष्टमं वर्षारात्रे मध्यमं दशमं. शिशिरे अष्टमं ग्रीष्मे षष्ठं वर्षारात्रे जघन्यमष्टमं शिशिरेष्ठं. ग्रीष्मे चत्वारि भक्कानि, चतुर्थमित्यर्थः । आयंबिलवारसगं, पत्तेयं परिहारगा परिहरति । अभिगहितसाए, पंचवि एगो संभोगो ।। २६५।। परिहारिकाः उत्कर्षतो द्वादशतपः कृत्वा श्राचाम्लेन पारयन्ति ते च परिद्वारिकाश्चत्वारोऽपि प्रत्येकं पृथक परिहरन्ति न परस्परं समुद्देश नाऽऽदिसंभोगं कुर्वन्तीत्यर्थः । Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहारविसुछिय (१९४) अन्निधानराजेन्डः। परिहारविसकिय ते च पारिहारिका अभिगृहीतया पश्चानामुपरितनानाम- (गळं ति) गच्छनियन्ति भागच्छन्तीत्यर्थः । एषा सेवा प्येषणया भक्तपानं गृह्णन्ति ,ये तु चत्वारोऽनुपारिहारिका यथास्थितिय धाकल्पः। एकत्र कल्पे स्थितास्तेषां पश्चानामप्येक एव संभोगः । ते च अथ पाधा कल्पस्थितौ का कुत्रावतरतीस्याहप्रतिदिवसमाचाम्लं कुर्वन्ति । यस्तु कल्पस्थितः स स्वयं न तइयचतुत्या कप्पा, समोयरंति तु ठियम्मि कप्पम्मि । हिण्डते, तस्य योग्यं भक्तपानमनुपारिहारिका प्रानयन्ति । पंचमछट्टटितीसुं, हेठिल्लाणं समोयारो ॥४०३॥ परिहारिओ छम्पासे, अणुपरिहारिओ वि छम्मासा । तृतीयचतुर्थी निर्विशमानकनिदिएकायिकाऽऽक्यौ द्वितीये - कप्पहितो वि छम्मासे, एते अट्ठारस उ मासे ॥३६६॥ दोपस्थापनायनास्तिककल्पे समयतरतः। तथा सामायिकच्छेदोपरिहारिकाः प्रथमतः परमासान् प्रस्तुतं तपो वहन्ति, ततो. पम्धापनीयनिर्विशमानकनिर्विकायिकासपा आयाश्चतस्रः अनुपरिहारिका अपि षण्मासान् वहन्ति, इतरे तु तेषामनु स्थितयोरधस्तम्ब उत्पद्यन्ते । तासां परमाषष्ठस्थित्योर्जिनपरिहारिकत्वं प्रतिपद्यन्ते, तैरपि व्यूढे सति कस्पस्थितः प. कल्पस्थविरकल्पस्थितिरूपयोः समवतारो भवति । गतं नि. समासान् बद्दति, ततः शेषाणामेकः कल्पस्थितो जवत्ति, एकः विशमानकनिरिएकायिककरूपस्थितिद्वयम्। पृ. ६ न. स्था। पुनरनुपरिहारिकत्वं प्रतिपद्यते,एवमेत अष्टादश मासा नवन्ति । अनु०। नस०। कर्म. । प्रका। अयेते परिहारविशद्धिकाः कस्मिन् क्षेत्रेकाले वा भवन्ति । उच्यते-३ह केत्राऽऽदिनिरूपअसुपरिहारिगा चेव, जया ते परिहारिगा। स्था विशतिद्वाराणि तद्यथा-केत्रहारम १, कालघारम २,था. अप्पमसु ठाणेसु, अविरुद्धा भवंति ते ॥ ३६७॥ रित्रद्वारम् ३, तीर्थद्वारम ४, पर्यायद्वारम् ।.भागमहारम् ६.. अनुपरिहारिकाधैव ये च ते पारहारिकास्ते भन्योऽन्येषु स्था. हारम् ७,कल्पद्वारम् ,लिङ्गद्वारम हमेश्याद्वारम् १०, भ्या. मेषु कालनेदेन परस्परमेकैकस्य वैयावृत्य कुर्वन्तोऽविरुद्धा नद्वारम ११, गणद्वारम् १२, अनिग्रहहारम् १३, प्रवज्याद्वारम् एव भवन्ति । १४,मुगमापना द्वारम १५,प्रायश्चित्तविधिद्वारम १६, कारणबारम १७,निःप्रतिकर्मताद्वारम् १७, भिक्काद्वारम १९, बन्धद्वारम २०। गएहि छहि मासेहिं, निधिट्ठा य भवंति ते । सत्र के विधा मार्गणा-जन्मतः, सद्भावतश्व, यत्र के जा. ततो पच्छा य ववहारं,पट्ठवंति अणुपरिहारिया ॥३६८।। तस्तत्र जन्मतो मार्गणा । यत्र च कल्प स्थितो वर्तते तत्र स. गहिँ छहि मासेहिं, निविट्ठा य भवंति ते। द्भावतः । उक्तं ब-"खेत्ते हे। मग्गण, अम्मणो वेव सीत भाषेय । जम्मण मो जहि जातो, सतीभाषो जहि कप्पो ॥२॥" वहद कप्पट्टिो पच्छा, परिहारं तहाविहं ॥ ३६४ ।। तत्र जन्मतः सद्भावतश्च पञ्चसु मरतेषु पञ्चखराबनेषु, न तु ते परिवारिकाः पद्भिर्मासैगतस्तपसि व्यूढे सति निविष्टा नि. महाविदेहेषु, म चैतेषां संहरणमस्ति, येन जिनकल्पिका श्व विश्कायिका भवन्ति , ततः पश्चादनुपरिहारिका व्यवहार सहरणतः सर्वासु कर्मचूमिघकर्मभूमिषु षा प्राप्येरन् । उक्त परिहारतपसः समाचार प्रस्थापयन्ति कत प्रारभन्ते । ते च-" खित्ते जरहेरखए,सहोति संहरणवजिया नियमा।" ऽपि वाभिमासँगत निविष्ठा भवन्ति, पश्चात्कल्पस्थितोऽपि त. कालद्वारे-अवसानिधयां तृतीये चतुर्थे वारके जन्मसभाथाविधं परिहारं तावदेवं माम बदति । धः, पश्चमेऽपि वत्सपियां द्वितीय तृतीये चतुर्थे वा जन्मएवं व. सद्भावः, पुनस्तृतीये चतुर्थे वा। उकं ब-" भोसप्पिणाएँ दोसुं, अट्ठारसहिँ मासेहिं, कप्पो होति समाणितो । जम्मण ओ तीसु संतिभावेणं । उस्सप्पिरिणविवरात्रो, जम्मणमूलढवणाए समं, छम्मासा उ अणूणगा ॥ ४०॥ श्रो संतिनावे व ॥१॥" उत्सपिएयवसर्पिणीरूपे तु चतु. अष्टादशभिर्मासैरय कल्पः समापितो भवति । कमित्या. ऽऽीरकप्रति जागका न सम्भवति, महाविदेहकेत्र तेषामस. -(मूल ध्वणा इत्यादि ) मूल स्थापना नाम-यत्परिहारि. म्नयात् । चारित्रद्वारे संयमस्थानद्वारेण मागणा, तत्र सामा• यिकस्य छेदोपस्थापनस्य च चारित्रस्य यानि जधन्यान काः प्रथमत इदं तपः प्रतिपद्यन्ते, तस्यां पएमासा अन्यमास्तपो भवति, एवमम पारिहारिकारणां कल्पस्थितस्य च संयमस्थानानि, तानि परस्परतुस्यानि, समानपरिणामत्वात, मनस्थापनया समं तुल्यं तपः प्रत्येक शेयं, पपमासान् याव ततोऽसव्येयझोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणानि संयमस्थानान्यतिवित्यर्थः। एवं विनिः पद्भिरष्टादश मासा जवन्ति । ते च द्विधा कम्योद्धे यानि संयमस्थानानि तानि परिहारविशुक्रिकयोग्याजिनकल्पिकाः, स्थविरकाल्पकाश्च । नि तान्यपिच केवनिप्रझवा परिभाव्यमानानि मसण्येयलो काऽऽकाशप्रदेशप्रमाणानि,तानि प्रथमद्वितीयचारित्राविरोधीसजयेषामपिण्याख्यानमाह नि, तेम्वपि संभवात्, तत ऊदे यानि संख्यातीतानि संयमस्थाएवं समाणिए कप्पे, जे तेसिं जिणकप्पिया। नानि तानि सूत्मसम्पराययधास्थातचारित्रयोम्यानि। उक्तंच. तमेव कप्पं ऊणावि, पालए जावजीवियं ॥ ४०१॥ "तुमा जहाणे, संयमगणेण पढमविश्याणं । परमनन्तरोक्तविधिना अष्टादश भिर्मासैः कल्पे समापिते तत्तो प्रसंखोए, गतुं परिहारियाणा ॥१॥ सति ये तेषां मध्यात् जिनकल्पिकास्ते तमेव कल्पमना भपि से वि असंखा लोगा, अबिरुका चेव पढमविश्याणं । उरि वि ततोऽसंखा, संयमठाणा उ दोरडं पि"॥२॥ भष्टाऽऽदिसंख्याका अपि यावज्जीव पालयन्ति । तत्र परिहारविशुकिककल्पप्रतिपत्तिः स्वकीयेम्वेद संयमअट्ठारसेहि पुस्मेहि, मासेहिं थेरकप्पिया। स्थानेषु वर्तमानस्य भवति, न शेवेषु, यदास्वतीतनयमधिकृत्य पुणो गच्छ नियच्छति, एसा तेसिँ महाठिती ॥४०२।। पूर्वप्रतिपन्नो विवक्ष्यते तदा शेपेयपि संयमस्थानेषु जवति, 4ये स्थविरकल्पिकास्ते प्रदशभिर्मासैः पूः पुनः नूयोऽपि. रिहारविशुद्धिकन्धसमाप्स्यनन्तरमन्येपपिचारित्रषु संभवात्, Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (MAX) अभिधानराजेन्द्रः । परिहारविसुडिय विवर्त्तमानस्यानयमपूर्वप्र उक्तं च " सट्टाणे किवी, अन्नेसु वि होज पुत्रपडिवो । सुवितो सो-सीतनयं पप्य दुश्चति उ” ॥ ३ ॥ तीर्थद्वारे. परिवारको सति भवति न तच्छेदो नानुपस्या वा तदजावे जातिस्मरणाऽऽदिना । उक् - "तिरथसि नियमतो किब, होइ स तिरथस्मिन रूण त भावे । विगने वा, आईसरणापदि तु " ॥ १ ॥ पर्यायद्वारे पर्यायो द्विधा - गृहस्थपर्यायो बतिपर्यायश्च । एकैको पि द्विधा जघन्यतः, उत्कर्षतश्च । तत्र गृहस्थपर्यायो जघन्यतः ए दे पूर्वकोटीप्रमाणौ । खलंच - "पगस्स एस नेश्रो, गिढिपरियाश्रो जन गुणतीला । जपरिवाओ बीसा, दोसु बि उक्कोस देणो" ॥ १ ॥ आगमद्वारे अपूर्वमागमं स नाधीते यस्मात्कपम महत्वप्रति कृतकृत्यतां भजते, पूचतुविसका प्रवनिमित्तं विश्वमेवैकामना स स्यक प्रायोऽनुस्मरति । आह च "युन अज्जिर, आगममेसो पहुच कप्पं तु । जोगाराम व कथकियो ॥ १३ धातुपायं अनुसरह नियमं । एगगमणो सम्मं, विस्लोयसिगाएँ जयहेरू ॥ २ ॥ " वेदद्वारे नित्यं प्रवृत्तिकाले बेटे पुरुषवेदो भवेत्, नपुंसक वेदो बानी, पाः परिहारविशुद्धिपतिपय संभवाद मधिकृत्य पुनः पूर्वमन्यमानः सवेद वा वेदोवा, तत्र सवेदं श्रेणिप्रतिपश्यभावे, उपशमश्रेणिप्रतिपत्त स्ववेद इति वेदों पथितिकामे, इत्थी दोष एयरो | पुरुषपमिवनगो पुण, होउज सवेदो अवेदो वा ॥१॥ " कल्पद्वारे स्थित "मिनिमः" इति लयाऽऽदिषु थाने मे स्थिताःसाधवस्तत्कल्पः स्थित कल्प उच्यते । ये पुनश्चतुषु शय्यातरपिरमेष्वेवावस्थितेषु कल्पेषु स्थिताः शेषेषु चाचेले क्यादिषु पथिकं चट्टियो य कप्पो, भाचेसुकाइपसु ठाणेसु सव्वेसु विद्या पढमो, चड ठिपट्टया "लक्यादीनि श स्थानान्यमूनि । " नावेलुक्कुदसिय, सिज्जायर राय कि 1 कम्मं । वबजे पक्किम, मासं पज्जो लवणको ॥ १ ॥ " चत्वारश्चावस्थिताः कल्पा इमे " सेज्जायरपिंडम्मी, बाउब्रजामे व पुरिसजेट्टे य। किकम्मस्त य करणे, चारि अवधिया कप्पा ॥ २ ॥ " त्रिङ्गद्वारे नियमतो द्विविधेऽपि लाल माना पिवतियोचित समायोगात् प्रेश्याद्वारे कास्ति तिखषु विशुद्धाश्यासु परिहारविशुि कहां प्रतिपाने पूर्वप्रतिपन्नः पुनः सर्वास्वपि कथञ्चिद्भवति, नवविवाहितेचा मृतासु वर्तमान प्रमक तु स्तोकं यसा स्वर्यवशात् झटित्येव ताभ्यो व्यावर्त्तते । अथ प्रथमत एव कस्मात्प्रवर्त्तते, उच्यते-- कर्मवशात् । उक्तं च" परिजन खा पुवपत्रिओ पुरा होउजा सम्वा विका ॥ १ ॥ संधिव काळं च वहति न हयरासु । परिहारवि सुवि विचितकम्माण गरे, तहा वि बीरियफ देह ॥ २ ॥ " ध्यानद्वारे यानेन वर्द्धमाने परिहारविशुद्धि प्रतिप पूर्वप्रतिपन्नः पुनरारीद्वयोरपि भवति केवखं प्रायेण निरनुबन्धः । ग्रह य "झामि विनियमेणं, परिवज्जर सो पचकुमाखेण । रेबिका पुण्यमय परिसिको १ ॥ एवं च झाणजोगे, उद्दामे तिब्वकम्मपरिणामा । रोहतु विभावो, इमस्स पायं निरपुबंधो ॥ २ ॥ " गणनाद्वारे जघन्यतस्त्रयो गणाः प्रतिपद्यन्ते, उत्कर्षतः शतस या पूर्वप्रतिपचा यात नया जघन्यतः प्रतिपद्यमानाः सप्तविंशतिः, उत्कर्षतः सहस्रं, पूर्वप्रतिपन्नाः पुनर्जघन्यतः शतशः, उत्कर्षतः सहस्रशः । आह क "गणत्र तिश्रेव गणा, अदनपडित सयस्स उक्कोसा । सो चिया ॥ १० सत्तावीस जना, सहल मुक्रोलओ य परिवधी । सबसो सहसो वा परिषन जहन उक्कोसा ॥ २ ॥ " पदा पूर्वप्रतिको निष्यति अन् प्रविशति सोनप्रक्षेपप्रतिपतौ कदाचिदेकोऽपि जवति पृथकत्वं या पूर्वप्रतिभा का प्राप्यते पृथक या । उक्तं च- "परिवजमाणनवणा-ए होउज एक्को विकणपक् थे । पुत्र पनि नया वियं मश्या एक्को पुहुतं वा ॥१॥" अभिप्रद द्वारे मभिग्रहाश्वतुर्विधाः। तद्यथा-व्याभिग्रहाः, केत्राऽभिग्र मातेति नभूयश्वते । तत्र परिहारभित यस्मादेतस्य कल्प एव यथोदिन रूपोऽभिग्रदो वर्धते । उकं ब"दाई अभिवह, विचितया न दौति पुर्ण केश | पयस्स जीयकप्पो, कप्पो चियऽनिग्गहो जेण ॥ १ ॥ यस्मि गोयराई, नियया नियमेण निरववादा य तपासणे वि य परं एयरस बिसुकिवाणं तु ॥ २ ॥ ज्याद्वारे मासादन्यं प्राजयति पस्थिति आइ व " पब्वावेन एसो भन्नं कप्प सिकाएं।" इति । उपदेशं पुनर्यथाशक्ति प्रयच्छति । मुषमापनद्वारेऽपि नालान्यं मुरूयति । अथ प्रवज्याऽनन्तरं नियमतो मुएमनमिति यवतमा तम् । प्रवज्याद्वारे नियमतो मुमनस्यासम्जवात् प्रयोग्यस्य दिसायामपि प्राय पुनरम्य योगात पृथग द्वारा प्रविधिद्वारे पि सूक्ष्ममप्यतिचारमापनस्य नियमतश्च प्रायश्चि समस्य यत एष कल्प एकाग्रनाप्रधानः, ततस्तद्भ गुरुतरदोष इति । कारण (रे तथा कारणं नाम श्रावस्वनं यत्पुनः सुपरिशुनादिकं, तश्चास्य नविद्यते येन तदाश्रिन्यापा दपरसेविता स्यात् । एष हि सर्वत्र निरपेक्क्लिष्टकर्मक्क्रयनिमितं प्रारब्धमेव स्वकल्पे यथोक्तविधिना समापयन् महात्मा बर्त्तते । सक्तं च " कारण मालवणं मोतुं पुण नाणाई व सुपरिसुखं । एयरस तं न विज, उचित्रतपसाणोपायं ॥ १ ॥ सन्वत्थ निरवयक्सो, आदत चिय बढसमाणतो । हर एस महया, किलिकम्मय निमिषं ॥ २ ॥ " Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६६) परिहारविसर्षिय अभिधानराजेन्डः। परूवा निःप्रतिकर्मताद्वारे-ष महात्मा निष्प्रतिकर्मशरीरोऽक्किम- “परिहासणा उ पढमा।" प्रथमा स्वल्पापराधविषया परिभाषा लाऽऽदिकमपि कदाचिनापनयति, न च प्राणान्तिकेपि समाप- णा प्रागुक्तस्वरूपा भगवता आदिनायेन प्रवर्तिताऽऽसीदू दरामतिते व्यसने द्वितीय पदं सेवते । नीतिः। प्रा० म०१ अ०। परिहि-परिधि-पुं० । परिणाहे, सा०२ ० ०३ मा परिवेघे, है । "निप्पडिकम्मसरीरो, अच्छिमलाई वि नावाणे सया। परिहिस-परिहित-त्रि० । “सोल परिहि पिण च।" पातिए चि य महा, वसणम्मि न बहए बीए ॥१॥ अप्पबहुत्ताऽऽसोयण, बिसयादीनो उ होश एस सि । पा३० ना० १७४ गाथा। अहवा सुहभावानो, ब गपयं चिय मस्स ॥२॥" परिहित्ता-परिधाय-अध्य० । परिधानं कृत्वेत्यर्थे, सूत्र० १७० निकासारे-पतदेव चारित्र तथा बिहारक्रमश्च तृतीय स्यां | ४ अ०१ उ०। पौरुष्यां भवति, शेषासु च पौरुषीषु कायोत्सगों निद्राऽपि | परिहिय-परिहित-त्रि० । विवसिते,शा०१ श्रु०१६ अ० । औ० । चास्याल्पा राष्टव्या । यदि पुनः कथमपि जवाबलमस्थ परि- | प्रज्ञा० । स्था०। प्रतिः। उत्त। निवसनीकृते दशा०१० भ०। वीणं भवति, तथा ऽप्येषो बिहरनपि महाभागो म द्वितीयप-परिहीण-परिहीन-न०। भाबे क्तः । परिहापा, रा० । क्षीणे. दमापद्यते । किं तु तत्रैव यथाकल्पमात्मा योगं विदधातीति । "जहा य परिहाणकम्मा सिद्धा।" सू०प्र० १ पादु० । "तइयाएँ पोरिसीए, भिक्खाकादो विहारकालो। परिहीणधण-परिहीनधन-त्रि० । दरिके, नि०० २००। सेसासु उ उस्सग्गो, पायं अप्पा य निह त्ति ॥१॥ | परिअ-परिभूत-त्रि० । अनाहते, " परिहनं अदिलि अं पराहू. अंघायनम्मि खीणे, विहरमाणो वि नवरमावजे। अं।" पाइ० ना० १६१ गाथा । तत्व अहाकप्पं, कुणइन जोग महाभागो ॥२॥" परिहेरग-परिहेरक-न । प्राभरणविशेषे,ौ। पते च परिहारबिगुरुका द्विविधाः । तद्यथा-वरा, यावः | | परी-क्षिप-धा। केपणे, "किपेगनत्था सुक्ख-सोद्ध-पेनकथिकाइच। तत्र ये कल्पसमाप्त्यनन्तरं तमेव कल्पं गच्च. वृह-हुल-पर-घत्ताः ॥८।४।१४३॥ इति सूत्रेण विपधातोः बासमपयास्यन्ति ते त्वराः, ये पुनः कल्पसमाप्त्यानन्तरमन्य- परीत्यादेशः । 'परी'विपति । प्रा० ४ पाद । बधानेन जिन कल्पं प्रतिपत्स्यन्ते ते यावत्कयिकाः । उक्तं च- भ्रम-धा। भ्रमेष्टिरिटिल्ल-मुगदुल्लु दंढव-चकम्म- नमड न. "इत्तरिय धेरकप्पे, जिणकप्पे पावकहिय ति।" अत्र स्थवि माहु-तलपट-जएट झम्प-तुम-गुम- -फुभ-फुस-दुम-- रकल्पग्रहण उपलझणभू-स्वकल्पे चेति कष्टव्यम् । तत्रेत्यराणां दुस-परी-पराः ॥ ८।४।१६१ ॥ इति मुत्रेण परीत्यादेशः। कल्पप्रभावाद्देवमनुष्यतैयम्योनिकता उपसर्गाः सद्योघातिनः 'परीत। 'भ्राम्यति । प्रा०४ पाद । माता अतीवाविषह्याश्च बेदना न प्रादुध्यान्त, यावत्कथि. कानां सम्भवेयुरपि ते हि जिनकल्प प्रतिपत्स्यमाना जिन परीत-परीत-त्रि०। परिमिते, रा० । प्रत्येकशरीरिणि, पुं०। कल्पनावमनुविधति,जिनकल्पिकानां चोपसर्गाऽऽदयः सम्भ भा०म०१०। बन्तीति । उक्तं च-" इत्तरियाणु व सग्गा, अातंका वेयणा य परीयसंसारिय-परीतसांसारिक-पुं० । परीतः परिमिता, स न हवंति । प्रावकदिया ण भश्या।" इति । प्रका१पद।। चाऽसौ संसारश्च परीतसंसारः । "अतोऽनेकस्वरात् ॥७२६॥ पञ्चा। पं० सं.पा.म.पं0 भा० । भौ०। । इतीकप्रत्ययः। सान्तसंसारे, रा। परिहारविसुद्धिलद्धि-परिहारविशुद्धिलब्धि-स्त्री०। परिहारस्त. परु-परुत-अव्य०। पूर्वस्मिन् वर्षे उत् परश्चान्तादेशः । गतवपोविशेषः, तेन विद्युद्धिर्यस्मिस्तापरिहारविधिकम् , तस्य स पे, वाच। प्राचा० ११०३०२ उ०। ब्धिः । परिहारविशुस्यास्यचारित्रन धौ, भ०८ श०२ उ० । परूढ-प्ररूढ-त्रि० । वृकिमुपगते, औ०। शनिचरमसूतमाहण्याम, दे. ना. ६ वर्ग ३१ परवडत्ता-प्ररूप्य-अन्यावतः (स्था०३ ग०१०) प. गाथा। पत्तिकथततो बा निरूप्येत्यथै, भ०६०३. उ०। परिहारिय-परिहारिक-पुं० परिहारं परित्यागमई नीति व्युत्प- | परूवण-प्ररूपण-न० । प्रकण रूप प्ररूषणम्। स्वरूपकथने, स्या पारिहारिकाः । भिक्काग्रहणे परिहर्तव्येषु, पृ. २ उ० । नि००१ उ०। प्रजेदादिकथननः (स्था०३ ० २ उ० । वि. नि० चू०। परिहारतपोऽनुपालकेषु, पं०व०४द्वार । उत्त०। शे०) नामादिभेट स्वरूपकथने,नं० । प्रज्ञापने, अनु०। व्यक्तअनु०। स्थान पर्यायवचनतः प्ररूपणे,झा०१ भ०१ अ०। अनु० । असंख्यात. परिहाल-देगी-जलनिर्गमे, . ना० ६ वर्ग २६ गाथा । प्रदेशाऽऽत्मकादिस्वरूपो धर्मास्तिकाय इत्यादि रूपे, अनु०। परिहाविय-परिहापित-त्रि० । परिहाणि नीते, व्य०४ उ०। दर्पण व श्रोतृहृदये संक्रामणे, कला० ३ विकण। गत्यादिषु द्वारेषु विचारणे, प्रा० म०१ अ.। परिहास-परिहास-पुं० । सर्वत उपहासे,सूत्र० १ श्रु० १४०। परूवणा-अरूपणा-स्त्री० । प्रकृया प्रधाना प्रगता बा रूपणा हास्ये,"केलं। नम्मं च परिहासो।" पा३० ना०१६६ गाथा । प्ररूपणा । वर्णनायाम, विशे। प्रा. म० । पञ्चविधा प्ररूप. परिहासडि-स्त्री० । रीती, "ढोला पह परिहासमी, अहिह जन णा-" प्रारोवणा य भयणा, पुछा तह चायणा य णि जवणा। करणेदि देसि।" प्रा०४ पाद। . एसा वा पंचबिहा, परूवणा तत्थ नायब्बा ॥९॥"(णमोकार' परिहासणा-परिभाषणा-स्त्री० परिभाषणं परिजापणा । कोपा- | शब्द तृतीये भागे १०३३ पृष्ठे व्याख्याता) विशे० । श्रा०म०॥ ऽऽधिपकरणेन मा यासीरित्यपराधिनोऽभिधाने, आव ००नि० च०। प्रकथने,श्राव०४ भ । परूषण तिचा Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परूवणा अभिधानराजेन्धः। पलंघगा कहण त्ति वा वक्वाण मग्मे त्ति वा एगट्ठा।" आ००१०।। जहा-आभिणियोहियनाणपरोक्खं च,सुयनाणपरोक्खं च । "पन्न त्ति वा पन्नवण सिवा विनवणति परुवण सिवा एगी" निच०१ उ०परूवण त्ति वा कप्पण तिवाएगा।" नि००। (से कि तमित्यादि) अथ किं तत् परोक्षज्ञानम् । परोक्षज्ञानं १०। पदार्थकथनायां च । प्राच० ४ अ०विशेबृ०। द्विविधं प्रशप्तम् । तद्यथा-श्राभिनिवाधिक ज्ञानपरोक्षं च धुत ज्ञानपरोक्षच । चशध्दी खगतानेकभेदसूचकौ परस्परं सहभा. परूविय-प्ररूपित-त्रि० । नामाऽऽदिस्वरूपकथनतः (स०१ अङ्ग) वमेव तयादर्शयतः । नं० । वृ० । स्था०। (एतत् सर्व श्रत्तीसूत्रार्थकथनतः (ग० २ अधिः । स्था० । अनु० ) स्वनामकथ. करण' शब्दे प्रथमभागे ५०४ पृष्ट न्यणादर्शि) नेन (उत्त०२९ श्र०) भेदानुभेदकथनेन कथिते, प्रश्न० १ परोक्खवयण-परोक्षवचन-न । स देवदत्त इत्यादिरूप परोसम्ब. द्वार | प्रतिमूत्रमर्थकथनतः प्रोक्ते. अन०। क्षार्थप्रतिपादके वचनभेदे,आचा०२ १०१ चू.४ १०१ उ०। परूवेत-प्ररूपयत-त्रि० । उपपत्तिभिः स्थापयति, श्री०। परोप्पर-परस्पर-त्रि० । पर-वीप्सायाम् द्वित्त्वम् सुट् च ।"नपरेअ-देशी-पिशाचे, दे० ना०६ वर्ग १२ गाथा । मस्कारपरस्परे द्वितीयस्य" ॥८।१।६२॥ इति द्वितीयपरेय-प्रेत-नि० । पिशाचे, “ढयरा पुयाणो पिप्पया परेया पि. स्यात श्रोत्वम् । 'परोप्परं ।' प्रा०१पाद । "पस्पयोः फः " दुसया भूया।" पा३० ना० ३० गाया। ॥८।२।५३ ॥ इति सूत्रस्य बाहुलकत्वात्तस्य भागस्य एफः। परेवय-देशी-पाद पतने, दे० ना० ६ वर्ग १८ गाया। प्रा०२पाद । अन्योन्यस्मिन् , प्रश्न. १ श्राश्र० द्वार । "तामि परोकाव-परोक्ष-न० परेच्याऽक्कापेकया पुद्गलमयत्वेन व्यन्छि- परोप्परं पीई'। श्रा०म०१०। प्रश्न। सबका यमनोज्योऽतस्य जीवस्य यत्तपक्षम, निरुक्तिवशात् । अथ. | परोवक्कम-परोपक्रम-पुं० । परकुतमरण, भ० २० श. १० चा-परेरकसम्बन्धन जन्यजनकभावल कणमस्येति परोकम् ।। उ०। स्था। इडियमनोव्य व धानेनात्मनोऽर्थप्रत्ययकर्मसाक्षात्कासिण, परोवर-परोपकाति-स्वी । परोपकारे. एका नि स्था०२०१०। पुमान् सर्वस्य नेत्राञ्जनम् । ध० १ अधिः। परोक्खणाण-परोक्षज्ञान-न० । क० स० । अप्रत्यक्षाऽऽत्मके परोवगार-परोपकार-पु. । परस्मै अशनाऽऽदिप्रदान, संघाः। झाने, विशे०। तलाऽपि विशेषतः परोपकारकरणे प्रवर्तितव्यं, तस्यैवान्य अथ परोक्कज्ञानम्वरूपमाह.. यध्यतिरेकाभ्यामपि पुण्यवन्धनिबन्धनन्चात् । उक्तं च-- अक्खस्स पोग्गलकया, जं दबिदियमणा परा तेणं ।। " संक्षेपात्कथ्यते धर्मों जनाः ! किं बिस्तरेण वः ? । पगंगतेहिं तो जं नाणं, परोक्खामिह तमणुमाणं व ॥ १० ॥ कारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ॥१॥" स चापकारो यद्यस्माद् द्रव्येडियाणि, अव्य मनश्च.अक्कस्य जीवस्य पराणि द्वेधा-द्रव्यतो,भावतश्च । तत्र द्रव्यत उपकारी भोजनशयनाभिन्नानि वर्तन्ते । कथंभूतानि पुनईव्येन्द्रियव्यमनासीत्या ह. उच्छादनप्रदानाऽऽदिलक्षणः। स चाल्पतया नात्यन्तिक श्चतिपुरुल कृतानि पुर् लस्कन्धनि चयनिष्पन्नानि, हेतुद्वारेण चंद वि कार्थस्याऽपि साधनकान्तेन साधी यानिनि । भावोपकारशवयं द्रव्यम, पुद्गलकृतत्वाद, येन ऽव्येन्द्रियमनांसि जीवस्य सवध्यापनश्रावणाऽऽदिस्वरूपो गरीयानित्यात्यन्तिक उभयपरभूतानि, तेन तेच्यो यन्मतिश्रुखलकणं ज्ञानमुत्पद्यते, तसस्य लोकसुखावहश्चत्यतो भावोपकार एव यतितव्यम् । स च पसावादनुत्पत्तेः परोक्षम अनुभानवदिति । इदमुकं भवति अपौर- रमार्थतः पारमेश्वरप्रवचनोपदेश एव, तस्यैव भवशतापलिकाबाद मूतों जीव:,पौसालकत्वात्त मुनानि द्रव्यनियमनां- चितदुःखक्षयक्षमत्वात् । प्राह च-" नोपकारी जगत्यस्मिसि, अमूर्ताच मूर्न पृथग्भूतं, ततस्तेभ्यः पालि केन्झियममो. स्तादशी विद्यते क्वचित् । यादृशी दुःखविण्छेदा देहिनां ज्यो यामतिश्रुतल कण ज्ञानमुपजायते,तद्धमाऽऽदरम्यादिज्ञान- धर्मदेशना ॥१॥" संघा०१ अधि०१प्रस्ता। चत्पनिमित्तत्वात् परोकमिह जिनमते परिभाष्यते । इति गा| परोवताव-परोपताप पुं० परेपां प्रतिपत्तिविने,पं० सू०३मूत्र। थार्थः ॥०॥ विशे०1०। परोहड-नः । अज्ञाते भूमिगृहे, " घरवाडयं परोहडं।" पाइ परोक्ष लक्षयन्ति ना० २६४ गाथा। अस्पष्टं परोक्षम् ॥ १॥ पल-पर-त्रिः । “रसोर्ल-शौ" ॥८।४।२८८ ॥ इति रस्य लः। इति प्राकसूत्रितस्य स्पष्टत्वाभावभ्राजिष्णु यत्प्रमाणं तत्प "ए दुभवं शमण भयवं महावीले। भयवंकदंते,ये अप्पणोपकावं रोक्षं लक्षयितव्यम् ॥१॥ उभिय पलस्त पक्खं पमाणीकले शि।" प्रा०४ पाद । अथैतत्प्रकारतः प्रकटयन्ति पल-न । मांस,अतुल । ०। कर्पचतुष्टये, ज्यो०२ पाहु । स्मरणप्रत्यभिज्ञानतकोनुमानाऽऽगमभेदतस्तत्पश्चप्रकारम् ।। अनु० । गुआवयेण पल स्यात् गद्याणस्ते च । 'पलं च दशस्पष्टम् । रत्ना० ३ परि०ात्रा० चू । " परोक्खणाणे दुबिहे गद्याणै-स्तेषां सार्द्धशतैर्मणम् ।” तं । दशमदेवलोक स्थे विपान । तं जहा श्राभिण्विोहियणाणे चेव, सुश्रनाणे चेव!" मानभेद, स० २० सम० । खेदे, दे. ना० ६ वर्ग १ गाथा। स्था०३ ठा.१ उ० । श्रा-मानं०। विशसम्म ब्याख्या स्वस्थ स्थाने) (नैयायिकसम्मतानां प्रत्यक्षज्ञानानां परोक्षत्वम् | पल-प्रलय-न । नाशे, "पली निहणं नासो।"पाह 'पञ्चकन' शब्देऽस्मिन्नेव भागे दर्शितम् ) ना० १६७ गाथा। परोक्षज्ञानभेदाः पलंघण-प्रलयन-नापोनाएन्येन कर्दमादीनामतिक्रमण, से किं तं परोक्खनाणं । परोक्खणाणं दुविहं परमत्तं । तं | ग. अधिक । स्था । अतिविकट पादविक्षेपे. प्रज्ञा० ३६ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांघण भन्निधानराजेन्छः। पलंब पद । विस्तीर्णभूखाते, (प्रकृष्टे ) पुन:पुनर्लङ्घने, भ. २ श० तदेव मूलप्रलम्बमाह५ उ० । उत्त। झिझिरिसुरभिपलंबे, तालपलंबे अ सल्लइपलंवे । पलंघतिए प्रलययितुम् अव्य० । पुनः पुनर्लययित्वेत्य एवं मूलपलब, नेयव्यं आणुपुनीए ॥४४॥ र्थ, भ०। झिझिरी वल्ली पलाशकः,सुरभिः किंशकस्तयोः प्रलम्बं मूलपलंडु-पलाएडु-पुं० । (काँदा-प्याज) इतिख्याते कन्दविशेषे, म्। एवं तालप्रलम्बंच,सल्लकीप्रलम्ब,चशब्दादन्यदपि मूलं य. सूत्र० १ श्रु०७०। उत्त। लोकस्योपभोगमायाति तदेतत् मूलप्रलम्ब शातव्यमानुपूर्व्या। पलंव-प्रलम्ब-त्रि०। प्रलम्बते इति प्रलम्बः । प्रलम्बमाने, अथाऽप्रप्रलम्बं षिवृणोतिराः । " पलम्बकोरंटमल्लदामविसोहियं ।” प्रलम्बते इति तलनालिएरलउए, कविट्ट अंबाड अंबए चेव । प्रलम्ब, तेन प्रलम्बमानेन कोरण्टमाल्यदाना कोर- एअं अग्गपलंब, नेयव्वं प्राणपुवीए ॥४५॥ एटपुष्पमालया उपशोभितं प्रलम्बकोरण्टमाल्यदामोपशो- तालफलं, नारिकेरफलं,लकुचफलं, कपित्थफलम् , अाम्रफभितम् । रा० । ईषल्लम्बमाने, प्रश्न० ४ प्राश्र० द्वार।। लम्, चशब्दस्यानुक्तसमुघयार्थत्वादन्यदपि कदलीवीजपूरा. ध० । जी० । प्रा. म० । चले. अोघ० । झा० । दीर्घ, | ऽऽदिकम्, एतदद्मप्रलम्ब ज्ञातव्यमानुपूा । झा०१ श्रु. १०रा० अतिदीर्घ. औ.) । प्रलम्बत इति अथ परः प्राऽऽहप्रलम्बः । आभरणविशेष, प्रा० म०१० । मुम्बनके, जइ मूलग्गपलंबा, पडिसिद्धा न हु इयाणि कंदाई । जं०२ वक्षः । ०। कल्प। नि० चू०। उपा० । प्रयापष्टि कप्पति न वा जीवा, को व विसेसो तदरगाहणे ? ॥४६॥ तमे महाग्रहे, “दो पलंबा।" स्था०२ ठा० ३ उ०। कल्प० । चं०प्र०। सू० प्र०। एकादशदेवलोकस्थविमानभेदे, स०१७ यदि मूलप्रम्बाप्रप्रलम्बे प्रतिषिद्धे, न पुनरिदानीमस्मिन् समा ओघ०। अहोरात्नस्याष्टमे मुहूर्ते,स०३० सम। शक- सूत्रे कन्दाऽऽदयः-कन्दस्कन्धत्वकशाखाप्रबालपत्रपुष्पबीजानि टाऽऽदिकृते धान्याऽऽगारविशेषे,वृ०२ उ०('मूलगुणपडिसे प्रतिषिद्धानि, यतश्चैतेषां प्रतिषेधं न करोति सूत्रं ततो मदी. वणा' शब्दे बनस्पतिप्रतिसेवनाप्रस्तावे शुद्धप्रलम्बभक्षणं व. यायां मसौ प्रतिभासते-अवश्यमेते कन्दाऽऽदयः कल्पन्ते क्ष्यते)"अकर्तरि च कारके संज्ञायाम् " ॥३॥३॥१६॥ प्रतिगृहीतं जीवा अपि सन्तः । अथवा-तवतो नामी जीवा इति घम्प्रत्ययः । प्रलम्बते प्रकर्षण वृद्धि याति वृक्षोऽस्मा भवन्ति, यदि हि जीवा भवेयुस्ततः प्रतिषेधोऽप्यमीषामदिति । मूले, व्य. १ उ.। फले, स्था० ४ ठा० १ उ० । स्मिन् सूत्रे कृतः स्यात् , अथेत्थं भणियन्ति भवन्त:(१) प्रलम्बग्रहणनिषेधः जीवा एवामी न कल्पन्ते ततः सूत्रं दुर्बद्धम् । अथ ववीध्वं जीवा अमी न च कल्पन्ते सूत्रं च सुबद्धं, ततः को वा नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंबे | विशे रहेतुः, तेषां कन्दाऽऽदीनामग्रहणे तेन गृहीता इति । अभिन्ने पडिगाहित्तए॥१॥ बृ०१ उ०३ प्रक० । नि०चू० । अत्र सूरिः प्रतिवचनमाह(निर्ग्रन्थाऽऽमशब्दानां सनिक्षेपा व्याख्या स्वस्वस्थाने) चोयग ! कन्नसुहेहि, सद्देहि अमुच्छितो विसहें फासे । (२) अथ प्रलम्बपदं विवृणोति मज्झम्मि अट्ट विसया, गहिया एवऽट्ठ कंदाई ॥४७॥ नाम ठवणपलंब, दब्बे भावे अ होइ बोधव्वं । हे नोदक ! यथा दशवैकालिके-"कन्नसोक्खेहि सद्देहिं पेमं अट्टविहकम्मगंठी, जीवो उ पलंबए जेणं ॥२॥ नाभिनिवेसए। दारुणं ककसं फासं, कारणं अहियासए ॥१॥" इत्यस्मिन् श्लोके कर्मसुखैः सुश्रवैःशब्दरमूर्छितो भवेदिति श. नामप्रलम्ब.स्थापनाप्रलम्ब द्रव्यप्रलम्बं भावप्रलम्बं च भवति ब्दविषयो रागः प्रतिषिद्धः, विषहेत स्पर्श दारुणमित्यनेन तु बोद्धव्यम् नामस्थापने सुगमे । द्रव्यप्रलम्बम एकभविकबद्धा स्पर्शविषयो द्वेष इति शब्दरूपरसगन्धस्पर्शानामिष्टानिष्टरूपऽऽयुष्काभिमुखनामगोत्रभेदभिन्नं मूलोत्तरगुणभेदभिन्नं च द्र. तया दशविधानांमध्यादिष्टशब्दानिएस्पर्शयोराद्यन्तयोरेतत्सू. व्यतालबद् भावप्रलम्बं च वक्तव्यम् । यद्धा-अष्टविधः कर्मग्र बलाघवार्थ ग्रहणं कृतम् । अन्यथा ह्येवमभिधातव्यं स्यात्थिर्भावप्रलम्ब उच्यते इत्याव-येन कर्मणा जीवः,तुशब्दः सं "कन्नसोक्खेहि सद्देहिं, पेमं नाभिनिवेसए । सारीति विशेषणार्थः । तालवत् प्रलम्बते नैरयिकाऽऽदिकां दारुणं ककसं सई, सोपण अहियासए ॥१॥ गति प्रति लम्बत इति तद्भावतः प्रलम्बम् । चसोक्खहि रूपाह, पेमं नाभिनिवेसए । अत्र परः प्राऽऽह दारुणं कक्कसं रूवं, चक्खुणा अहियासए ॥२॥" तालं तलो पलंब, तालं तु फलं तलो हवइ रुक्खो। इत्यादि परमाद्यन्तग्रहण मध्यस्यापि ग्रहणमिति न्यायाद प्टावपि मध्यवर्तिनोनिशब्दाऽऽद्या इष्टस्य शान्ता विषया. पलंबं तु होइ मूलं, झिझिरिमाई मुणेयव्वं ॥४३॥ गृहीता भवन्ति । एवमत्रापि सूत्रं बृहत्तरं मा भूदितिहेतोकिमिदं तालं,को वा तलः,किं वा प्रलम्बम् ?। अत्र सूरिराह- राद्यन्तयोरग्रमूलप्रलम्बयोर्ग्रहणे मध्यवर्तिनः कन्दाऽऽदयोतालं च तावत्फलं, तलं वृक्षसंबन्धि, तच्चाग्रफलं प्रलम्बमु- ऽष्टावपि गृहीता द्रव्याः । च्यते. तलः पुनस्तदाधारभूतो वृक्षः । प्रलम्ब पुनर्मूलं भवति, एतेषां च मूलकन्दाऽऽदीनां दशानामपि भेदानां सुखप्रतिपप्रलम्बशब्दन इह मूलप्रलम्ब गृहीतमिति भावः। तच्च क्रिया- | स्यर्थमियं गाथा लिख्यतेऽऽदिकं झिझिरिप्रभृति वृक्षसंवन्धि (मुणेयचं ) ज्ञातव्यम्। "मूले कंदे बंधे, तया य साले पबाल पत्ते या Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब (६६) अभिधानराजेन्डः। पलंब पुष्फे फले य बीए, फलंबसुत्तम्मि दस भेया । प्रथमे भङ्गे ये चत्वारो लघुकास्ते द्वाभ्यामपि लघुका-तपसा प्रकारान्तरेण प्रतिवचनमाह कालेन च लघुकं तत्र मासलघु द्रष्टव्यमित्यर्थः । भहवा एगग्गहणे, गहणं तज्जातियाण सव्वेसि । उग्याइया परित्ते, होति यष्णुग्धाइया अणंतम्मि । तेणग्गपलंबेणं, तु सूइया सेसगपलंबा ॥ ४८॥ भाणाऽणवत्थमिच्छा, विराहणा कस्सऽगीयत्थे ॥५४॥ अथवा "एकग्रहणे तज्जातीयानां सर्वेषां ग्रहणं भवति" इति एतानि प्रायश्चित्तायुद्धातिकानि लघुकानि परीत प्रत्येकालम्यायो यतः समस्ति, तेनाप्रप्रलम्बग्रहणेन, तुशब्दान्मूलप्रल म्बे भणितानि, अनन्ते अनन्तकाये पुनरेतान्येवानुवातिकानि म्बग्रहणेन च शेषाणि कन्दाऽऽदीनि प्रलम्बनानि सूचितानि । गुरुकाणि सातव्यानि, प्रथमद्वितीययोश्चत्वारो गुरुका तीअथ पुनरपि परः प्राह यचतुर्थयोस्तु भन्योर्मासगुरु प्रायश्चित्तं, तपःकालविशेषितं तलगहणा उ तलस्सा, न कप्पे सेसाण कप्पई नामं । पूर्ववद्वक्तव्यमिति भावः। तथा प्रलम्ब गृह्यता तीर्थकृताऽऽशा. भाः कृतो भवति, अनवस्था मिथ्यात्वं विराधना व संयमाएगग्गहणा गहणं, दिटुंतो होइ सालणं ॥ ४६ ।। ऽऽत्मविषया कृताभवति। शिष्यः पृच्छति-कस्यैतत्प्रायश्चित्ततलप्रहणादिति,उपलक्षणत्वात्तालप्रलम्बग्रहणात् तालस्यैव माझाऽऽदयश्च दोषाः । गुरुराह-अगीतार्थस्य भिक्षोरित्येसंबन्धीनि मूलकन्दाऽऽदीनि प्रलम्बानि न कल्पन्ते, शेषाणां तच्च सप्रपञ्चमुपरिष्यानावयिष्यते । पुनराम्राऽऽदीनां प्रलम्बानि कल्पम्त इत्यर्थादापन्नं, नामेति अथ प्रलम्बग्रहणे विस्तरेण प्रायश्चित्तं वर्णयितुकाम इमां संभावनायां, संभाव्यते अयमर्थ इति भावः । पूरिराह- द्वारगाथामाह" एकग्रहणात् तज्जातीयानां सर्वेषां ग्रहणं भवति 'रष्टा- अन्नत्य तत्य गहणे, पडिते अश्चित्तमेव सचित्ते । म्तः शालिसंबन्धी अत्र भवति-यथा निष्पन्नः शालिरित्युक्ते मैक एव शालिकणो निष्पन्नः प्रतीयते किं तु शालिजातिः, छुभणाऽऽरुहणा पडणे, उवही तत्तो य उडाहो ॥५॥ तथाऽत्रापि तालप्रलम्बग्रहणे न केवलस्यैव तालस्य, किं प्रलम्बग्रहणं विधा अन्यत्र ग्रहणं, तत्र प्रहणं च । वृक्षादतु सर्वेषां वृक्षजातीयानां प्रलम्बान्युपात्तानि प्रतिपत्तव्यानि । ग्यवान्यस्मिन् प्रदेश प्रहणम् अन्यत्रग्रहणम् । तत्रव वृक्षप्रअथ पुनरपि प्रश्नयति देशे ग्रहणं तत्रग्रहणम् । तथा पतितं वृक्षस्याधस्तात् यद् गृकाको नियमो उ तलेणं, गहणं अन्नेसि जेण न कयं तु ।। ति त विधा-अचित्तं, सचित्तं च। तस्य पतितस्य प्राप्तौ वृ. क्षोपरिस्थितप्रलम्बपातनाय (कुभण ति) काष्ठाऽऽदे प्रक्षेपउभयमवि एइ भोगं, परित्त साऊ च तो गहणं ॥५०॥ णम् । तथा प्राप्तौ- प्रारहण ति)तस्मिन् वृक्ष प्रारोहणं कको नाम नियमस्तलेन तस्यैव ग्रहणं कृतं नान्येषां वृक्षाणाम्। रोति, आरूढस्य च कदाचित्यतनं भवेत्, प्रलम्ब गृहन्तं राष्ट्रा सूरिराह-तालस्य संबन्धि मूलाग्रप्रलम्बरूपमुभयमपि. भो. प्रान्तेन केनचिदुपाधिरपहियते, ततश्चोहाहः संजायत गमुपयोगमेति, तथा परीत्तं प्रत्येकशरीरं स्वादु च मधुरं| इति गाथाऽर्थः। तत् भवति, अतस्तत्प्रतिषेधे सुतरामनन्तकायिकाऽऽदीनां विस्तरार्थ प्रतिद्वारं विभणिषुः प्रथमतोऽन्यत्र ग्रहणं वि. प्रतिषेधः कृतो भवति, ततस्तालस्य ग्रहणं कृतम् । इति गतं वृणोतिप्रलम्बपदम् । वृ०१ उ० २ प्रक०। (अथ भिन्नपदव्याख्या | अमगहणं तु दुविहं, वसमाणे अडवि वसति अंतो बहिं । 'भिन्न ' शब्दे करिष्यते) अंताऽऽवण तव्वज्जे, रत्थागिह अंतो पासे वा ॥५६।। अत्र चतुभङ्गीमाह अन्यत्र ग्रहणं द्विविधम् तद्यथा-वसती,अटव्यांच। तत्र य. भावेण य दव्वेण य, भिन्नाभिन्ने चउक्कभयणाओ। द्वसतिप्रदेशे तद् द्विधा-प्रामादीनामन्तः, बहिश्च । यद् प्रापढमं दोहि अभिन्नं, बिइयं पुण दव्बतो भिन्न ॥५१॥। माऽऽदीनामन्तस्तत् पुनर्द्विविधम्-श्रापणे, तद्वर्ये च । आप. णे हट्टे, तत्र स्थितस्य प्रलम्बस्य यद ग्रहणं तदापणविषयम् । तइयं भावतो भिन्नं, दोहि वि भिन्नं चउत्थग होइ।। यत् पुनरापणवर्जे गृहे वा रथ्यायां वा गृह्णाति तत्तद्वर्जविषय, एएार्स पच्छित्तं, वोच्छामि अहाणपुवीए ॥ ५२॥ तत्र यदापणविषयं, तत्र यदापणस्यान्तर्वा भवेत् पार्श्वतो भाषेन च द्रव्येन च भिन्नाभिन्नयोश्चतुष्कभजना चतुर्भगी- वा, यत्तद्वर्जविषयं तदपि रथ्याया गृहस्य वा अन्तर्वा भवेरचना कर्तव्या । तत्र च प्रथमं प्रथमभङ्गवर्ति प्रलम्ब द्वाभ्या- त्, पार्श्वतो वेति । एतच्च सर्वमपि द्विधा अपरिग्रह, सप. मपि भावेन द्रव्येण च अभिन्नं. द्वितीयं पुनद्रव्यतो भिन्नं | रिग्रहं च । तत्राऽऽपणे तर्जे वा अपरिग्रहे गृह्वानस्य द्रव्यभावतस्त्वभिन्न, तृतीयं भावतो भिन्नं द्रव्यतः पुनरभिन्नं, क्षेत्रकालभावभेदाच्चतुर्विधं प्रायश्चित्तम् । चतुर्थ द्वाभ्यामपि भावतो द्रव्यतश्च भिन्नं भवति । एतेषां तत्र द्रव्यतस्तावदाह-- चतुर्मामपि प्रायश्चित्तं यथानुपा यथोकपरिपाम्या ब- कप्पट्ट दिढे लहुओ, अट्ठप्पत्ती य लहुग ते चेव । च्यामि भमिष्यामि। परिवडमाणे दोसे, दिट्ठाई अन्नगहणम्मि ।। ५७ ॥ प्रतिझातमेव निर्वाहयति-- कल्पस्थः समयपरिभाषया बालक उच्यते, तेन प्रलम्बमलामा य दोमु दान य. लहुओ परमम्मि दोदि वी गुरुगा। तिनं गृहाना याद मतदा मासलघु । अथ संयतं प्रलम्ब जयगुरूमकालगुरुपा, दाहि विलहानन्या कन्योरनिरहमपि गृह्वामीत्यवलक्षणा प्रशद्वितीयाद्वयामङ्गयोश्चत्वारो लघुकाः, भावतोऽभि-| भवति ततश्चतुर्लघवः। अथ न कल्पस्थन, कि तु महता पुरुजतवा सचेतनत्वात् द्वयोस्तु तृतीयचतुर्थयोर्मासलघु, तथा घेण प्रलम् गृहानो दृवस्तदा (ते वेव ति) त एव चत्वारो Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब अनिधानराजेन्द्रः। पलंब लघवः। अथ तस्याप्यर्थोत्पतेरहमपि गृह्णामीति ततोऽपि च- स्थानेषु गृह्वानस्य लघुकाऽऽदिकां यावश्चरिमं शराश्चिकम् । त्वारो लघवः । अत्र च ये दृष्टाऽऽदयः परिवर्द्धमाना दोषा अ-| किमुक्तं भवति ?-निवेशने महापरिवारभूतग्रहसमुदायरूपे गृन्यत्र ग्रहणे भवन्ति, ताननन्तरगाथया वक्ष्यमाणान् शृणुत ।। द्वाति चत्वारो लघवः, पाटके गृह्णते चत्वारो गुरवः, संहि तानेवाऽऽह कायां गृहपतिरूपायां गृह्णाति, षट् लघवः एवं प्राममध्ये दिढे संका भोइऍ, घाडिनियाऽऽरक्खिसेद्विराईणं ।। षट् गुरवः, प्रामद्वारे छेदः, ग्रामस्य बहिर्मूलम् , उद्याने अचत्तारि छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥५६॥ नवस्थाप्यं, ग्रामसीमायां पाराश्चिकं केषाश्चिदाचार्याणां म तेन विपरीतमुक्तविपर्यस्तं प्रायश्चित्तम् । तद्यथा-सीमायामयुवादिना महता पुरुषेण प्रलम्बानि गृहन् दृष्टः चतुर्ल घु,त. न्यग्रामे वा गृह्णाति चतुर्लधु, उद्याने चतुर्गुरु, ग्रामबहिर्षद तस्तस्य शङ्का जायते-किं सुवर्माऽऽदिकं गृहीतं उत प्रलम्वं, लघु, ग्रामद्वारे षड्गुरू, ग्राममध्ये छेदः, साहिकायां मूलं. तदापि चतुर्लधु,निःशङ्किते चत्वारो गुरवः। श्रथ असौ (भोइय त्ति ) भोजति भारमिति भोजिका भार्या,तस्याः कथय पाटके अनवस्थाप्यं, निवेशने पाराश्चिकमिति । तथा काले ति-प्रिये!मयासंयतः फलानि गृह्वानो दृष्टः, इत्युक्त यदि तया कालविषयं प्रायश्चित्तम् अष्टमे दिने स्वपदं पाराश्चिकम्। इयप्रतिहता-भैवं वादीने संभवत्येवदृशं महात्मनि साधाविति । मन भावना-प्रलम्बानि गृह्णतः प्रथमे दिवसे चत्वारो ल घवः, द्वितीये चत्वारो गुरवः, तृतीये षड् लघवः चतुर्थे ततश्चतुर्गुरुकमेव । अथ तया न प्रतिहतस्ततःषद् लघवः, अस्तीतरःसंबन्ध इति कृत्वा प्रथम भोजिकाया अग्रे कथ षद् गुरवः, पश्चमे छेदः, षष्ठे मूलं, सप्तमे अनवस्थाप्यम्, अष्टमे पाराश्चिकम्।। यतीति एवं मित्रादिष्वपि मन्तव्यम् । ततो (घाडित्ति)घाट: अथ प्रकारान्तरेण क्षेत्रत एव प्रायश्चित्तमाहसंघाटः सोहटभित्यकोऽर्थः। स विद्यते ऽस्येति घाटी. सहजा निवे सणवाडगसाही, गाममझे अगामदारे य । तकाऽऽदियस्य इत्यर्थः। तस्याग्रे तथव कथयतितेनापि यदि निहतस्तदा पर सवय एव। अथ न प्रतिहतस्ततः पह उजाणे सीमाए, अन्नग्गामे य खेत्तम्मि ॥ ६१॥ गुरवः, नतानिजमातापित्रादयस्तेषां स्थथति,तः प्रतिहतः क्षेत्रे प्रकारान्तरेण प्रायश्चितमिदम्-नियेशने चतुर्लघु,पाटपड़ गुरव ए.व.अप्रतिहते पुनःछेदः तत श्रारक्षिकनारक्षिक के चतुगुरु, साहिकायां षड् लघु, ग्राममध्ये पड़ गरु, ग्रामपुरुपर्वा तस्य सकाशादन्यतो वा प्रलम्वग्रहणवृतान्ते श्रुते । द्वारे छेदः, उद्याने मूलं, सीमाया अनवस्थाप्यम् , अन्य. नतः प्रतिहत छद एव अप्रतिहते पुनर्मूलं,तत थेष्टिनः श्रीदे. ग्रामे पाराश्चिकम्। व्याध्यासितसीवर्गपविभूषितोतमाङ्गस्थ तस्य वृत्तान्त अथ भावतः प्रायश्चित्तमाहश्रवणे तेन च प्रतिहते मूलभेव,अप्रतिहतेऽनवस्थाप्यम्, ततो भावाहवारसपदं,लहुगाई मीस दसहि चरिमं तु । गज्ञापल नणबारमास्येन च ज्ञाते ततः प्रतिहतेऽनवस्थाप्य,प्र. एमेव य बहिया वी, सत्थे जत्ताइठाणेसु ॥ ६२ ।। तिहते पाश्चिक, पश्चाई यथाक्रमममीपामेव प्रायश्चित्तान्य भावे अष्टभिर्वा पदैः स्वपदं पाराश्चिकम् । किमुक्तं भवति?भिहितान्येव, नवरं (दुगं ति) अनवस्थाप्यपाराश्चिकद्वयम् । एकं वारं प्रलम्बानि गृह्णाति चत्वारो लघवः, द्वितीयं वारं एवं ता अदुगुंछिन, दुगुछिए लसुणमाइ एमेव । चत्वारो गुरवः, तृतीयं वारं षड् लघवः, चतुर्थ वार नवीर पुण चउलहुगा, परिगहे गिराहणादीया ॥ ५६ ।। षड् गुरवः, पञ्चमं वारं छेदः, षष्ठं वारं मूलं, एवं तापद जुगुप्सिते अाम्रादौ प्रलम्बे गृह्यमाणे प्रायश्चि सप्तमं वारम् अनवस्थाप्यम् , अटमं वारं गृह्णतः पाराश्चितं इपयं, जुगुप्सिते पुनरिदं नानात्वम् । जुगुप्सितं द्विधा- कम् । एतच सर्वमपि सचित्तप्रलम्बविषयं भणितं. मिश्रपल. जातिजुगुप्सितं, स्थानजुगुप्सितं च । तत्र जातिजुगुप्सितं म्बे तु गृह्यमाणे लघुमासादिकं दशभिः स्थानः चरम लशुनाऽऽदि, आदिग्रहणे पलाए सुप्रभृतिपरिग्रहः । स्थानजुगु- पाराञ्चिकम् । तद्यथा-मिश्रप्रलम्बं गृह्णाति, कल्पस्थकेन प्सितं पुनरशुचिस्थाने कर्दमाऽऽदौ पतितम् द्विविधेऽपि जु- दृष्टे मासलघु, महता पुरुपेण दृष्टे शङ्कायां मासलघु, निःशके मुग्मिने एवमेव जुगुप्सितवत् प्रायश्चित्तं वक्तव्यं, नवरं मासगुरु, भोजिकायाः कथने चतुर्लघु, घाटिनो निवेदने च. कवलं पुनः कल्पस्थकदृष्टं जुगुप्सितं, गृह्णानस्य चतुर्लघ तुर्गुरु,शातीनां ज्ञापने पड्लघु,प्रारक्षिकाणां निवेदने पहारू, वोन ज्ञातव्याः, अअगसिते पुनः 'कप्पटे दिटुं लहुग ति" सार्थवाहशाते छेदः, श्रेष्टिकथने मूलम् , अमात्यस्य निवेद्यते ल घुमाल एवात इति विशेषः । एतच सर्वमध्यपरिग्रहम अनवस्थाप्यं, राज्ञो ज्ञापिते पाराश्चिकम् । एतद् द्रव्यतः प्रायः धिकृत्योक्तम् । ( परिगहे गिराहणादीय त्ति ) यत्पुनः प्रलम्ब श्चित्तम्। क्षेत्रतःपुनरिदम् निवेशने मासलघु,पाटके मासगुरु, कस्याऽपि परिग्रहे वर्तते, तस्मिन् जुगुपिसते वा अजुगुप्सि साहिकायर्या चतुर्लघु. ग्राममध्ये चतुर्गुरु ग्रामद्वारे षडलघु ग्रा. तबा प्रायश्चित्तं तथैव वक्तव्यं, परं यस्थ शिष्याऽऽदेः परि मबहिः षड्गुरु, उद्याने छेदः, उद्यानसीम्नोरन्तरे मूलं, सीग्रहे तानि प्रलभ्वानि वर्तन्ते. तत्कृतो ग्रहणाऽऽकर्षणव्यवहा मायामनवस्थाप्य, सीमायाः परतोऽन्ययामाऽऽदी पाराञ्चि सध्दयो दोषा अत्राधिका भवन्तीति । गतं द्रव्यतः प्राय कम् । कालतः पुनः प्रथमे दिवसे मासलय. द्वितीये मासगुरू, विसम्। एवं यावद्दशभिर्दिवसैः पाराश्चिकम् । भावतः प्रथमं वारं गृ. अथ क्षेत्रतः कालतश्च प्ररूपयति हुतो मासलघु, द्वितीयं मासगुरु । एवं यावद्दशभिर्वारः खेते निवेसणाई, जा सीमा लहगमाइ जा चरिमं । पाराश्चिकम् । गतसारणतर्जभेदात् द्विविधमपि ग्रामान्त विपयं ग्रहणम् । केसिंची विवरीयं, काले दिण अहहिं सपदं ॥ ६॥ | अथ ग्रामबहिर्भावि ग्रहणमाह-"एमेव य" इत्यादि पनेत्रती निवेशनमादी कृत्वा यावत् ग्रामस्य सीमा, पतेषु वार्द्धम् । एवमेव बहिरपि प्रामस्य प्रहणं भणितव्यं, तत्पुन Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब (७०१) अभिधानराजेन्दः । पलंब बहिर्ग्रहणम । ( सत्थे त्ति)सा वासस्थाने वा भवेत्, या- पाः षोडशैवाक्षाः स्थापयितव्याः। एवमन्यत्रापि भङ्गकप्रस्तारे माऽऽदिस्थाने वा।यात्रास्थानं तत्र लोक उद्यानिकादियात्र- यत्र यावन्ती भडकास्तत्र तावदायामः । चरमपनावेकान्तया गच्छति। आदिशब्दादन्यस्याप्यवंविधस्थानस्य परिग्रहः। रितानामक्किनपक्तिषु पुर्विगुणद्विगुणानां लघुगुरूणाम___अथ बलिग्रहणे प्रायश्चित्तमिति दर्शयन्नाह क्षाणां निक्षेपः कर्त्तव्यः। उक्तं च-"भंगपमाणाऽऽयामो, लहुश्री अंतोश्रावणमाई, गहणे जा वलिया सवित्यारा । गुरुश्री य अक्खनिक्खेवो । प्रारउ दुगुणा दुगुणा,पस्थारे हो। निक्खेयो॥१॥"एतेष्वेव शुद्धाशुद्धस्वरूपं दर्शयति-(सुद्धा एगबहिया उ अमगहणे, पडियम्मी होइ सच्चेव ॥६३।। । तरिया इत्यादि ) प्रथमे भङ्गकाष्टके प्रथमभङ्गरहिताः शेषाप्रामाऽऽदीनामतमध्ये आपणाऽऽदी पापणे आपणवर्जे वा खयो भङ्गका एकान्तरिताः शुद्धाः। इदमुक्तं भवति-प्रथमो जुगुप्सिते अजुगुप्सिते वा सपरिग्रहे अपरिग्रहे वा सवि- भकश्चतुर्ध्वपि पदेषु निरवद्यत्वादेकान्तेन शुद्ध इति न का. स्लारा "दितु संका भोइऐं" इत्यादि लक्षणप्रपञ्चसहिता वर्णि चित् तदीया विचारणा। तं मुक्त्वा ये प्रथमाष्टके शेषा भाकाता. शोधिरित्युपस्कारः । सैव प्रामाऽऽदीनां बहिः पतितमः म्तेषाम् एकान्तरितस्तृतीयपञ्चमसप्तमरूपाखयः कचिदुत्पलम्बविषयेऽन्यत्र ग्रहणे निरवशेषा द्रष्टव्या। उक्तं बहिर्ग्रहणं थाऽऽदी पदे अशुद्धा अपि सालम्बनत्वात् शुद्धाःप्रतिपसव्याः। तद्भणने च समर्थितं च सत्प्रदेशविषयं ग्रहणम् । अर्थादापनं द्वितीयचतुर्थषष्ठाष्टमभका दिवाऽऽदौ पदे शुद्धा. अथाटाविषयमाह अपि निरालम्बनत्वादशुद्धाः। एवं द्वितीयाष्टकेऽपि प्रथमो भङ्गः शुद्धः शेषात्रय एकान्तरिता अशुद्धाःसालम्यनत्वात् । कोगमाई रमे, एमेव जणो उ जत्थ पुजेइ। अत पवाऽऽहतहियं पुण वच्चंते, चउपयभयणा उ छद्दसिया ॥६४।। पढमे एत्थ उ सुद्धो, चरिमो पुण सबहा असुद्धो उ । जनो लोकः प्रचुरफलायामटव्यां गत्वा फलानि यावत् | अवसेसा वि य चउदस, भंगा भायव्वगा होति ॥६७॥ पर्याप्तं गृहीत्वा यत्र गत्वा शोषयति पश्चात् गन्त्रीपोट्टलका प्रथमो भङ्गोऽत्रैषां पोडशानां भङ्गानां मध्ये शुद्धः सर्वथा ऽऽदिभिरानीय नगराऽऽदी विक्रीणाति तत्कोट्टकमुच्यते, त निर्दोषश्चरम अशुद्धः, अवशेषाश्चतुईश भङ्गा भक्तव्या विक. तश्चाररये कोट्टकाऽऽदौ प्रदेशे यत्र जनः फलानि शोषणार्थ ल्पयितव्या भवन्ति, केचित्पुनरशुद्धा इति भावः । पुञ्जयति पुनजीकरोति, तत्र प्रलम्बग्रहणे. एवमेध यथा-"च. कथमिति चेत् ?, उच्यतेसिमे दिढे संका भोइए" इत्यादिकमुक्तं. तथैव प्रायश्चित्त. भागाढम्मि उ कजे, सेस असुद्धा वि सुज्झए भंगो । मवसातव्यम् । विशेषः पुनरयम्-तत्र पुनः कोट्टकाऽऽदी ब. अतः चतुर्मिः पदैर्भजना भङ्गकरचना षट्दशिका षोडशभ न विसुब्भे अणगाडे, सेसपदेहिं जइ वि सुद्धे ।। ६८ ॥ अप्रमाणा कर्तव्या। श्रागाढे कार्ये पुरे श्रालम्बने गच्छतः शेषैराध्युत्पथानुपयुकथमिति चेत् ?, उच्यते क्ललक्षणैः पंदैरशु द्वोऽपि भङ्गः शुद्धति, अनागाढे आलम्बवचतस्स य दोसा, दिया य राओ य पंथ उप्पंथो । नाभावे शेवैर्दिवापथोपयुक्तलक्षणैः पंदर्यद्यपि शुद्धस्तथापि न विशुद्धयति । उवउत्त अणुवउत्ते, सालंब तहा निरालंबे ॥६५॥ अथ किं तत्र प्रायश्चित्तं भवतीति ?, उच्यतेतत्र व्रजतो बहवो दोषा भवन्ति, ते चोपरिष्टादश भणि लहगा य निरालंबे, दिवसतो रत्तिं हवेति चउगुरुगा। भ्यन्ते। दिवा च,रात्रिश्च, पन्था उत्पथश्च, उपयुक्तः, अनुपयु. क्ला,सालम्बस्तथा निरालम्बश्चेति अक्षरयोजना । अथ भाया लहुगो य उप्पहेणं, रायादी चेवऽणुवउत्तो ॥ ६ ॥ र्थ उच्यते-दिवा गच्छति पथा उपयुक्तः सालम्बः१, दिवा ग. यत्र यत्र निरालम्बस्तत्र तत्र दिवसे गच्छतः चत्वारो च्छति पथा उपयुक्तो निरालम्बः २, दिवा गच्छति पथा श्र लघुकाः, राचत्वारो गुरुकाः, यत्र यत्र दिवसत उत्पयन नुपयुक्तः सालम्बः ३, दिवा गच्छति पथा अनुपयुक्तो नि गच्छति तत्र तत्र मासलघु, यत्र यत्र दिवसन ई-प्रभृतिरालम्बः ४। एवमुत्पथपदेनापि चत्वारो भङ्गाः प्राप्यन्ते । समितिष्वनुपयुको गच्छति तत्र तत्र मासल बु. रात्रावुन्पथजाता अष्टौ भङ्गाः । एते दिवा पदममुञ्चता लभ्यन्ते । गमने अनुपयुक्तगमने च मासगुरु । एवं रात्रिपदममुश्चताऽप्यष्टौ भगा लभ्यन्ते । सर्वसंख्यया अथ प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तमाहषोडश भङ्गाः । दियो लहुगा गुरुगा, आणा चउगुरुग लहुगा य । अमर्माणं रचनोपायमाह संजमायविराहण, संजमें आरोवणा इणमो ॥ ७० ॥ अट्ठग चउक्त दुग ए-क्कगं च लहुगा य होति गुरुगा य । अशुद्धेषु भङ्गेमु सर्वेप्यपि दिवसतो गच्छतश्चत्वारो लयु. सुद्धा एगंतरिया, पढमरहिय सेसगा तिमि ॥६६॥ का, रात्री पुनश्चत्वारो गुरुकाः, तीर्थकराणामाशाम चतु. इहाक्षाणां चतस्रः पतयः स्थाप्यन्ते-तत्र प्रथमपटौ प्रथमम गुरुकाः, अनवस्थायां चत्वारो लघुकाः, मिथ्यात्वेऽपि च. पौ लघुकाः.ततोऽप्यष्टौ गुरुका इत्येवं षोडशाक्षा निक्षपणीयाः। त्वारो लघुकाः अत्र चानवस्थामिथ्यात्वे प्रक्रमा द्रव्ये । द्वितीयपतौ-चत्वारःप्रथमं लघुकाः,ततश्चत्वारो गुरुकाः,पु- विराधना द्विविधा-संयमे. श्रात्मनि च । तत्र संयमविराध. नश्चत्वारो लघुकाः,तदनु चत्वारो गुरुकाः। तृतीयपक्रावपि नायामियं वक्ष्यमाणा अारोपणा प्रायश्चित्तम् । षोडशाक्षाद्वा लघुकौ,द्वौ गुरुकावित्यनेन क्रमेण निक्षेप्याः च. तामेवाऽऽहतुर्थपडतायेको लधुक एको गुरुक एवमेकान्तरितलघुगुमा छक्काऍ चउसु लहुगा, परित्ते लहुगा य गुरुग साहार । १७६ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसंब (७०२) अन्निधानराजेन्द्रः। पसंब संघट्टण परितावणे, लहु गुरुगऽतिवायणे मूलं ॥ ७१॥ | गुरु, अथ महादुःखमुत्पद्यते ततः पहलघु, मूर्छासूखें पद्गुरु, षट्रायाः पृथिव्यप्तेजोवायुबनस्पतित्वसरूपाः, तेषां मध्ये कृच्छ्रमाणे छेदः, कृच्छ्रे मूलं, मारणान्तिकसमुदाते अनव स्थाप्यं, कालगते पाराञ्चिकम् । चतुर्प पृथिव्यप्तेजोवायुपु संघटनाऽऽदो लघुकपर्यन्तं प्रायश्चिनम्। 'परीत्ते' प्रत्येकवनस्पतिकायेऽपि लघुकान्तं, साधारणे अथाऽऽत्मविराधनायामेव सामान्यतः प्रायश्चिसमाहअनन्तवनस्पती गुरुकान्तम्। तथा द्वीन्द्रियाऽऽदीनां संघट्टने कंटऽढिमाइएहि,दिवसतो सव्वत्थ चउगुरू होति। परितापने च यथायोगं लघुका गुरुकाश्च प्रायश्चित्तम् । अति. रतिं पुण कालगुरू, जत्थ व अनत्थ आयवहो ॥७॥ पातने विनाशने मूलम् । इयमत्र भावना-पृथिवीकार्य संघट्ट- कएटकास्थिकाऽऽदिभिः परितापनायां सर्वत्र दिवसततुपति मासलघु, परितापयति मासगुरु, अपद्रावयति | गुरवो भवन्ति । रात्री पुनस्त एव चतुर्गुरवः कालगुरुका चतुर्लघु, एवमकाये तेजःकाये वायुकाये प्रत्येकवनस्पति. ज्ञातव्याः, अन्यत्राऽपि यत्राऽऽत्मवध आत्मविराधना भवति काये च द्रष्टव्यम्। अनन्तवनस्पति यदि संघट्टयति तदा| तत्र सर्वत्राऽपि चतुर्गुरवः प्रायश्चित्तम् । मासगुरु, परितापयति चतुर्लघु, अपद्रावयति चतुर्गुरु; द्वी तथान्द्रियं संघट्टयति चतुर्लघु, परितापयति चतुर्गुरु, जीविताद् पोरिसि नासणपरिता-वठावणं तेण देहउवहिगतं । व्यपरोपयति पहलघु, त्रीन्द्रियं संघट्टयतश्चतुर्गुरु, परितापयतः पडलघु,जीविताद व्यपरोपयतः षड्गुरु, चतुरिन्द्रियं सं. पंतादेवयछलणं, मणुस्सपडिणीयवहणं च ॥ ७६ ॥ घट्टयतः षटलघु परितापयतः पद्गुरु, जीविताव्यपरोपयतः कण्टकाऽऽदिना पीडितः सन् सूत्रपौरुषी न करोति मासछेदः पञ्चेन्द्रियं संघयतः षड्गुरु, परितापयतो लघुमा-| लघु, अर्थपौरुषी न करोति मासगुरू,सूत्रं नाशयति चतुर्लघु, सिकः छेदः, अपद्रावयतो मूलम् । अर्थ नाशयति चतुर्गुरु । (परिताव त्ति) अनागाढपरितापे चतुर्लघु. आगाढपरिताप चतुर्गुरु, (ठावण त्ति) अनाहारं अथैतदेव प्रायश्चित्तं रात्रौ विशेषयन्नाह परिस्थापयति चतुर्लघु आहारं परिस्थापयति चतुर्गुरु परीत जहिँ लहुगा तहि गुरुगा,हिँ गुरुगा कालगुरुग तहिँ ठाणे। स्थापयति चतुर्लधु, अनन्तं स्थापयति चतुर्गुरू, स्नेह छेदो य ल हुय गुरुओ, काए साऽऽरोवणा रनिं ॥ ७२॥ स्थापयति चतुर्लधु. सस्नेहं स्थापयति चतुर्गुरु । तथा ( तेण यत्र दिवलतो लघुकानि मासलघुचतुर्लघुषलघुरूपाणि, ति) उपधिस्नेनास्तैरुपधेराहियमाणे उपधिगतं अन्यभध्यतष रावावेतान्येव गुरुकाणि मासगुरुचतुपुरुषड्गुरु मेत्कृिष्टापधिनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। देहस्तेनाः शरीरापहारिणरूपाणि कर्तव्यानि। यत्र पुनरग्रेऽपि गुरुकाणि मासाऽऽदीनि स्तैरेकः साधुः हियते मूलं,डयोहियमाणयोरनवस्थाप्यं, त्रिषु तत्र स्थाने तान्यव कालगुरुकाणि दातव्यानि । यत्र च छ. हियमाणेषु पाराञ्चिकम् प्रान्तया देवतया यदि छलनं क्रियते दं। लघुकस्तत्र स पव गुरुकः कर्तव्यः। काये कायविपया ततश्चतुर्गुरू, प्रत्यतीकमनुष्येण पुरुषेण खिया नपुंसकेन वा एपा प्रारोपणा रात्री ज्ञातव्या। हन्येत चत्वारो गुरवः। अथ प्रकृतमर्थमुपसंहरन्नर्थान्तरमुपन्यम्यन्नाहअथाऽऽत्मविराधनामाह एवं ता असहाए, सहायसहिए इमे भवे भेदा । कंटऽट्टिखाणुविजल-विसमदरीनिम्नमुच्छमूलविसे । जय अजय इत्थि पंडे, अस्संजयसंजईहिं वा ॥ ७७ ॥ वालऽच्छभल्लकोले, सीहविगवराहमेच्छित्थी ॥७३॥ एवं तावदसहायस्य एकाकिनो व्रजतो दोषा उक्ताः, सहातेणे देवे मणुस्से, पडिणीए एवमाइआएमुं । यसहिते व्रजति विचार्यमाणे एते सहायस्य भेदा भवन्ति । मास चउ छच्च लहु गुरु, बेदो मृलं तह दुगं च ॥७४॥ तद्यथा-यताः संयताः अयताः असंयताः (इथि त्ति)पाखस साधुः कोट्टकाऽऽदी वजन् कण्टकेन वा अस्थ्ना वा स्था रिडस्त्रियः, पण्डका नपुंसकाः, असंयत्यो गृहस्थस्त्रियः, सं. यत्यः साध्व्यः, एतैः सार्द्ध गच्छति । गुना वा पादयोः परिताप्येत; (विजलं) पङ्किलं विषमं नि इदमेव.व्याचष्टेम्नोन्नतं, दरी कुसाराऽऽदिका निम्नं गम्भीरा गर्ताः एतेषु पतितस्य सूर्छा भवेत् , शूलं वा अनुधावेत, (विसं ति ) वि. संविग्गाऽसंविग्गा, गीया ते चेव होति अग्गीया । पकण्टकेन वा विध्येत , विषफलं वा भक्षयेत्, तथा ब्या लहुगा दोहि विसिट्ठा, तेहि समं रत्ति गुरुगाओ ॥७॥ लेन सोऽदिना अच्छभलन वा ऋक्षेण कोलेन वा स संविग्ना गीतार्थाः,असविग्ना अगीतार्थाः एतैः समं गच्छतो करण सिंहेन वा तृकेण वा बराहेण वापरत येत, म्लेच्छ - द्वाभ्यां तपःकालाभ्यां विशिष्टा लघुकाः प्रायश्चित्तं । तद्यथामषः अप्रीतितया प्रहाराऽऽदिकं दद्यात् स्त्री वा तं साधुमुपस सविनीताथैः समं व्रजति चत्वारी लघवस्तपसा कालेन येत् । अथवा-ग्लच्छस्त्री पुलिन्दीप्रभूतिका तमुपसर्गयेत्,त. च गुरुलघुकाः । असविनीतार्थः समं गच्छति चतुल यवः, निमित्तं ग्लच्छः कुपितो वधबन्धाःऽदि कुर्यात् । स्तेनी द्वि- तपसा लघुकाः कालेन गुरुकाः, संमिरगीतार्थः सार्द्ध या. विधः-शरीरस्तेनः,उपधिस्तेनश्च। तेनोपद्रवः क्रियते देवता | ति चतुर्ल घु. कालेन लघु तपसा गुरु. असंविनिरगीतार्थः स. वा प्रान्ता तं साधुं प्रमत्तं दृष्टा छलयेत् । अगरी वा | मं वजति चतुर्ल घु, तपसा कलिन च गुरु। एतदिवसती झाकोऽपि प्रत्यनीकी मनुष्यो विजनमरण्यं मत्या मारणा तव्यं, रात्रौ तैः समं वजन एवमेव तपःकालयिशेषिताश्चतुअदि कुर्यात् । एवमादिका आत्मनि विराधना भवति ।। गुरुकाः । तत्रदं प्रायश्चित्तम्-"मास चउ" इत्यादि पश्चार्द्धम्। कण्टका अस्संजयलिंगीथिउ, पुरिसागिइपंडहिँ य दिवा उ । ऽऽदिभिरगाढं परितारते चतुर्ल बु, श्रागाटे परिताप्यत चलु अस्सोय सोय छल्लहु,ते चेव उ रत्ति गुरुगाओ ॥७६।। Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पखंब अभिधानराजेन्द्रः । पसंब मसंयता द्विविधाः गृहिणोनिङ्गिनश्च। लिङ्गमेषां वियत इति अथ सपरिग्रहस्यैव स्वरूपं निरूपयितुमाहलिगिनः, अन्ये पाखण्डिन इत्यर्थः । तथा पुरुषाऽऽकृतयः पुरुपनेपथ्यधारिणः पराडकाः, एते त्रयोऽपि प्रत्येक द्विविधाः तिविह परिग्गह दिव्वे, चउलहु चउगुरुग छलहुकोसो। शौचवादिनः,अशौचवादिनश्च। तत्र शौचवादिभिः समं व्रज अहवा छल्लहुग चिय, अंतगुरू तिविहदव्वम्मि ॥८॥ ति पहलघु, उभयलघुकं, शौचवादिभिः समं व्रजति पदलघु, सपरिग्रहं त्रिविधम् । तद्यथा-देवपरिगृहीतं,मनुष्यपरिगृहीकालगुरुकम् अग्यलिङ्गिभिरशाचवादिभिः साई बजति पद तं.तिर्यकपरिगृहीतम् । तत्र दिव्यं देवपरिगृहीतं तत्त्रिविधम् लधु,काललघुकं शौचवादिभिः समं व्रजति षडलघु,तपोगुरु जघन्यं, मध्यमम्, उत्कृष्टं च । व्यन्तरपरिगृहीतं जघन्यं, तत्र कं पुरुषाऽऽकृतिभिः पराडकैरशौचवादिभिः समं व्रजति षड् चतुर्लघु, भवनपतिज्योतिप्कपरिगृहीतं मध्यमम् तत्र चतु. लघु,तपागुरुकं,शौचवादिभिः समं ब्रजति पदलघु,तपसा का. गुरु. पैमानिकपरिगृहीतम् उत्कृष्टम्। तत्र पडलघवः। अथषासेन च गुरुकम्पतदिवसतः प्रायश्चित्तमुक्तम रात्रौ तु त एव त्रिवपि जघन्यमध्यमारकृष्षु ष लघव एव प्रायश्चित्तं, के. पएमासा गुरुकाः,पद्गुरवस्तपःकालविशेषिता एवमेव दात बलं तपःकालविशेषितं, जघन्ये तपोलघु कालगुरुकं, मम्या इति भावः। ध्यमे काल लघु तपोगुरुकम्, अन्ये चोत्कृष्ट द्वाभ्यामपि पासंडिणित्थि पंडे, इत्यीवेसेसु दिवसतो छेदो। गुरुकं कर्त्तव्यमिति त्रिविधं दिव्यविषयं प्रायश्चित्तम्। तेहिं चिय निसि मूलं, दियरत्ति दुगं तु समणीहिं॥८॥ अथ मनुष्यपरिगृहीतमाहसापसीपरिव्राजकाऽऽदिभिः पाण्डिनीभिः (इत्थि ति) सम्मेतर सम्म दुहा, सम्मे लिंगि लहु गुरु उ गिहिएK । गृहस्थस्त्रीभिः, स्त्रीवेषधारिभिश्च परडकैरशौचवादिभिः स. मिच्छा लिंगि गिही वा,पागयलिंगीसु चउलहुगा ॥४॥ दिवसतो गच्छतो लघुकः छेदः, शौचवादिभिः सह गु मनुष्यपरिगृहीतं द्विधा-सम्यग्दृष्टिपारगृहीतम्, (यर रुकश्च्छेदः, तैरेव सह निशि रानी गच्छतो मूलं, श्रमणी त्ति) मिथ्यादृष्टिपरिगृहीतं च तत्र यत्सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतं भिः समं दिवा गच्छतोऽनवस्थाप्य, राखौ श्रमणाभिः सह तद् द्विधा-पार्श्वस्थाऽदिलिङ्गस्थपरिगृहीतं च. गृहस्थपरिगृ. गच्छति पाराञ्चिकम् । प्रकारान्तरेणाऽत्रैव प्रायश्चित्त- हीतं च । लिङ्गस्थपरिगृहीते मासलघु. गृहिभिः सम्यग्रमाह-संयतास्तैः साई दिवा गच्छति चतुर्लघु.रात्रौ गच्छति टिभिः परिगृहीते मासगुरु, यत्पुनर्मिथ्याष्टिपरिगृहीतं त. चतुर्गुरु,असंयतः सार्द्ध दिवा गच्छति षड्लनु,रात्री गच्छाते द् द्विविधम् -( लिंग त्ति ) अन्यपाखण्डिपरिगृहीतं, गृपहगुरू, असंयतीभिः समं दिवा व्रजति छेदः, रात्रौ गच्छति। हस्थपरिगृहीतं च । तत्र गृहस्थपरिगृहीतं विधा-प्राकृतपमूलं, संयतीभिः सह दिवसतो गच्छति अगवस्थाप्य, रातो रिगृहीतं, कौटुम्बिकपरिगृहीतं, दण्डिकपरिगृहीतं च। तत्र गच्छति पाराश्चिकम् । तदेवमुक्तमटवीविषयं ब्रहणं, तदुक्ती | प्राकृतपरिगृहीते च चतुर्लघु। चावसितमन्यत्र ग्रहणम् प्रलम्बग्रहणम् । गुरुगा पुण कोडुंबे, छल्लहुगा होति दंडियाऽप्रामे । अथ तत्र ग्रहणं विभावयिपुरुषार्थसदृशं विधिमतिदि. तिरिया य दुदृऽदुट्टे, गुरुगा इयरे य चउ लहुगा ॥५॥ शमाह कौटुम्बिकपरिगृहीते पुनश्चत्वारो गुरुकाः, दण्डिकाऽऽरामे जह चेव अन्नगहणे-ऽरले गमणाऽऽइ वलियं एयं ।। दण्डिकपरिगृहीते उद्याने षट् लघुकाः।गतं मनुष्यपारगृहीत. तत्थ गहण वि एवं, पडियं जं होइ अच्चित्तं ॥१॥ म् । अथ तिर्यकपरिगृहीतं भाव्यते-तिर्यञ्चः द्विविधाः-दुष्टाः, यथैवान्यन ग्रहणे अरण्यविषयं षोडशभरचनया गमनम् , अदुष्टाश्च । दुष्टा हस्तिशुनकाऽऽदयः, अदुष्टा शृगालहरिमादिशब्दात्संयमाऽऽत्मविराधनासमुत्थं दोषजालं प्रायश्चित्तं णाऽऽदयः । दुष्टतिर्यकपरिगृहीते चतुर्गुरुकाः, इतरैरदुष्टः चैतदनन्तरमेव वर्मितं, तत्र ग्रहणेऽपि विवक्षितप्रलम्बा55. परिगृहीते चतुर्लघुकाः । गतं तिर्यकपरिगृहीतम् । धारभूतं वृक्षस्याधः पतितं यदचित्तं प्रलम्बं तद्गृहानस्या अथ यदुक्तम्-" परिगहिए अणुग्गहं प्येवमेव निरवशेष वर्मनीयं यावत् श्रमणाभिः सह गम कोह" इति । तदेतद्भावयतिनमिति। भद्देतर सुरमणुया, भद्दे धिप्पंति दटुणं भणइ । यस्तु विशेषस्तमुपदिदर्शयिषुराह अन्ने वि साहु ! गिएहसुं, पंतो छण्हेगयर कुजा ॥८६॥ तत्थ गहणं दुविहं, परिग्गहमपरिग्गहं दुविहमेयं । यस्य सुरस्य मनुजस्य वा परिग्रहे स पारामो वर्तते स दिद्वादपरिगहीए, परिगहिएँ अणुगह कोइ ।। ८२॥ भद्रको भवेदिनरो वा प्रान्तः । तत्र भद्रः प्रलम्बं गृह्यमाणं तत्र ग्रहण द्विविधम्। तद्यथा-सपरिग्रहम् अपरिग्रहं च। यद्दे दृष्टा तं साधु भणति-साधु त्वया कृतं, तारिता वयं संसा. बताऽऽदिभिः परिगृहीतं वृताऽऽदि तद्विषयं सपरिग्रहम तद्धि रसागरात् अन्यान्यपि हे साधो! पर्याप्तानि गृहाण इत्यादि। परीतमपरिग्रहम् तदुभयमपि द्विविधभेदं द्विविधन सचित्ता प्रान्तः पुनः पराणां प्रकाराणामेकतरं कुर्यात् । चित्तभेदपार्थक्यं यस्य तत् द्विविधभेदं सचित्तचित्तभेदभि अथ क एते षट् प्रकाराः?, उच्यतेसमिति भावः । तत्र यदि परिगृहीतमचित्तं तद् गृहानस्य पडिसेहणा खरंटण, उबलभ पंतावणा य उवहिम्मि । (दिया इति)"दिट्टे संका भोइर" इत्यादिका अारोपणा सर्वा- गिराहणकडणववहा-रपच्छकडाहनिविसए ।।०७॥ ऽपि प्रागवद् द्रश्या । यत्पुनः परिगृहीतमवित्तं तद् गृहतः प्रतिषेधनं प्रतिषेधना निवारणेत्यर्थः१.खरण्टनाखरपरुषककश्चित् भद्रकः परिगृहीता अनुग्रहं मन्येत, पतग्रतो भाव- चनर्निभर्त्सना २, उपालम्भः सपिपासवचनैः शिक्षा ३,प्रान्ताव्यते। पना परिमुष्ट्यादिभिस्ताडना, ( उबहिम्मि त्ति) उपधिह Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७-४) अभिधान राजेन्द्रः | पतं रम् ५ इति पञ्च मेदाः। महत्वाकर्षणव्यवहारपश्चातोडा निर्विषय इत्येक एव षष्ठो भेदः। इति संग्रहगाथासमासार्थः । अथैनामेव विवरीषुराह जं गहियं तं गहियं बिइयं मा गिरह हरइ वा गहियं । जायसु ममं व कजे, मा गिरह सयं तु पडिसेहो ||८|| यद् गृहीतं प्रलम्बं तद्गृहीतं नाम द्वितीयं पुनवीरं मा प्रहीरिति वचनं यहि यद्वा-गृहीतं सत्यलम्यं तस्य प्रमजि तस्य इस्तात् हरति उद्दालयति भणति वा कार्ये समापतिते मामेव याचस्व, स्वयं पुनर्मा गृहाणेत्येष सर्वोऽपि प्र. तिषेध उच्यते । 3 अथ खरण्टनामाह पीडितो दुरप्पा घिरत्यु ते एरिसस्स धम्मस्स | अस्य वा विलज्जिसि, मुकोऽसि खरंटया एसा ॥८६॥ धिग मुण्डितो दुरात्मा धिगस्तु ते तब संबन्धिन ईदशस्य धर्मस्य, यत्र चौर्य क्रियत इति भावः । यद्वा-मया मुलोऽसि परमन्यत्रापि त्वमीश्रेष्टितैर्विडम्वनां लभ्यते, एषा निष्पिपासनिर्भर्त्सना खरएटना भएयते । उपालम्भमाह आमफलाखि न कप्पं-ति तुम्ह मा सेसए वि दूसेहि । मा यसको सुसु एमाई होउवालंभो ॥ ६० ॥ मानफलानि युष्माकं महीपते अतः शेषानपि साधून मा दूषय निजदुकारितेन सकलङ्घितान् कुरु मा य स्वकार्ये निरवद्यप्रवृत्यात्मके चारित्रे वमादिकः स पिपासशिक्षारूप उपालम्भो भवति । प्रान्तापनोपधिरणे भावयतिकरपायदंडमाइस, पंतावथि गाडमा जा चरिमं । अप्पो अ अहाजाओ, सब्बो दुविदो वि जं च विया ॥ ६१ ॥ करपाददण्डाऽऽदिभिः आदिशब्दात् लताऽऽदिभिश्च ताडनं प्रतापना, तस्यां चानागाढपरितापादिषु परमं पाराक्षि पायरप्रायश्चित्तम् अल्पं वा बहुं वास उपधि हरेत् । अ पो नाम यथाजातः, निषद्याइयोपेतं रजोहरणं मुखबखिका बोलपत्यर्थः बहु पुनः सर्वधनुर्दशविध उपधिः । अथवा द्विविध श्रधिकौ परिग्रहिकरूपः । यच्च तृणग्रहursseकम् उपधि विना भवेत्त निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । संप्रत्यनुग्रहाऽऽदिपदेषु प्रायश्वित्तमाहलहुगा अग्गहम्मी, अप्पत्तिएँ गुरुग तीसु ठाणेसुं । पंतावणे चगुरुगा अप्पम्मी हिए मूलं ।। ६२ । यस्य संबन्धी स रामः स यदि चिन्तयति श्रनुग्रहो मे यन्मदीयानि प्रलम्बानि साधवो गृहन्ति, इत्यनुग्रहे म म्यमाने चतुययः अथ प्रीतिर्क करोति तुष्णीकस्तिष्ठति ततब्ध तुर्गुरुकाः । अथाप्रीतिवशात्प्रतिषेधं वरण्डनामुपा सम् वा कुर्यात्रिष्वपि स्थानेषु प्रत्येकं चतुर्गुरुका कल्पे वा बहौ वा उपधौ हुते मूलम् । यद्वा-उपधिनिष्पन्नम् । तद्यथा उत्कृष्टे उपधौ चतुर्लघवः, मध्यमे मासलपु. जय रा त्रिदिवपञ्चकम् आह-कथमेकत्रेय मूलमुपधिनिया उच्यते-प्रमादतः प्रलम्वानि गृह्णत उपधिहरणे उपधिनिष्पन्नं, वस्तु प्रलम्बानि युद्धानस्योपकरणापहारे मूलम् । पलंब श्रथ " पंतावणिगाढमार चरमं पि " पदं व्याचष्टेपरितावणा य पोरिसि, ठवणा महऍ मुच्छकिच्छकालगए । मास च ब ल गुरु, ओ मूलं तह दुर्ग च ॥६२॥ प्रास्तापितस्य सतो नागाढा परितापना भवति चतुलघु. आागाडा भवति चतुर्गुद परितापनाभिभूतः सन् सू surer न करोति मासलघुः अर्थपौरुषीं न करोति मा. सगुरु, सूत्रं नाशयति चतुर्लघु, अर्थ नाशयति चतुर्गुरु, प्राशुकं स्थापयति चतुर्ल, अमाशुकं स्थापयति चतुर्गु, प्रत्येकस्थापने चतुर्लघु अनन्तस्थापने चतु, त्या इयम् । (महयति महादुः पलघु सूयां गुरु माये देव होडासे मूर्त समयहते अनवस्था, कालगते पाराञ्चिकम् । अथ च तृणग्रहणाऽऽदिकमुपधिना विना भवेदिति पदं विवृणोति गहणे सुसिरेतर, अग्गी सङ्घारा अभिनवे च । सण पेल्लण गहणे, काया सुय मरोहाणे || ६४ ॥ वर्षाकपाऽऽदापकरणे हते शीताभिभूतास्वचानि गृड म्ति सेवन्ते तत्र परणसेवने च शुषिर सेयने मासलघु, अभि सेवन्ते तत्र स्वस्थानप्रायश्वितं चतुर्लघु इ. स्वर्थः । अथानिय जनयन्ति तं यथासमारम्भ अम्पेषां जीवानां विराधनं तक्षिष्यमपि प्रायखितम् अधोपकरणाभावे उनमाऽऽविशेषाऽऽदि माण प्रेरयन्ति ततस्तसिप्प (गति) शीताऽऽदिभिः परिताव्यमाना गृहस्थैरदत्तमपि बखादिस्तद्मिन्यचम्। निशीथचूर्णिकृता तु " गम ति " पाठो गृहीतस्तत्र चोपधि बिना शीतादि परीषमाणो जद्यम्यर्थियेः मांग गण्डीत सूर्यवयोर्गच्छतोरवस्थाच्यं त्रिषु पारा चिकम् | ( काय ति श्रनिं सेवमाना एषणां प्रेरयन्तो यावत्पृथिव्यादिकायान् विराधयन्ति तनिष्पन्नम् । ( सुयति) 1 तं सूत्रं तस्य पीपन कुर्वन्ति उपलक्षणत्वादपीन कुर्वन्ति सूर्य नाशयन्ति अर्थ नाशयन्ति तनिष्पन्नम्। ( मरण त्ति ) उपकरणं विना यधेकोऽपि म्रियते तथाsपिपाराञ्चिकम् | ( हाण त्ति ) यद्येकः साधुरवधावति सूलं, द्वयोरनवस्थाप्यं त्रिषु पाराश्चिकम् । अथ ग्रहणाऽऽकर्षणाऽऽदिरूपं षष्ठं प्रकारं भावयतिver गुरुगा छम्मा - स कड्डणे छेदों होइ बवहारे । पच्छाकडम्मि मूलं, उहा विरंग नवमं ।। ६५ ।। उद्दवणे निम्सिए, एगमरोगे पदेस पारंची। अप्पा दोस, दोसु च पारंचिओ होइ ॥ ६६ ॥ मलवानि गृद्धानो यदि सम्स्यामिता दास्त तो ग्रहणे चतुर्गुरुकाः, श्रथ तेनोपकरणे हस्ते वा गृहीत्वा राजकुलाभिमुखमाकृस्तत आकर्षं परमाखा गुरवः अथ कारणिकानां समीपे व्यवहारे कारयितुमारब्धः ततः छेदः, व्यवहारे विधीयमाने यदि पश्चात्कृतः पराजितः ततो स्लम्, अथ चतुष्कचत्वराऽऽदिष्वेष प्रलम्बचौर इति घोषसारस्वरमुदग्धः हस्तपादाऽदी या अवयये व्यक्तित एवमुद्दहने (विसंगत्ति) व्यङ्गने वा नवममनवस्थाप्यम् । अथान्यदी यो नले राजादिना अपाविनिर्मि Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७०५ ) अभिधानराजेन्द्रः | पसंच यो वा आशप्तः, ततोऽपद्रावणे निर्विषये वा कृते पाराविकम् । अथ वा- एकस्यानेकेषां वा साधनामुपरि म यदि व्रजति तदा पाराञ्चिकम् । अत्र च द्वयोरुद्दहनव्यङ्गनयोरनवस्थाप्यो भवति, द्वयोश्चापद्रावणनिर्विषययोः पाराचिक इति । अथ परिग्रहविशेषेण प्रायश्चित्तविशेषमादआरामे मोकीए, परतित्थिय भोइएमा गाम वणी । घडकोडुंवियराउल - परिग्गहे चैव भद्दितरा ।। ६७ ॥ sarssरामः कश्चिदादित एवाऽऽत्मीयो वा भवेत् मूल्येन क्रीतो वा, यो मूल्येन क्रीतः स केन क्रीतो भवेत् ? । उच्यते-परतीर्थिकेन वा १, भोगिकेन वा २, ग्रामेण वा ३, वणिजा वा ४, घटया वा, गोट्या इत्यर्थः ५, कौटुम्बिकेन वा ६, आरक्षिकेण वा ७ राज्ञा वा । एतद् द्वयमपि राजकुलशब्देन गृहीतम् । एतेषां परिग्रहे वर्त्तमानादारामात्प्रलम्बानि गृह्णतो यथाक्रमं प्रायश्चित्तं चतुर्लघु १, चतुर्गुरु २. षड्लघु ३, पगुरु ४, छेद ५ मूलम् ६, अनवस्थाप्यं ७, पाराञ्चिकम् । श्र त्रापित एवं भद्रेतरा भद्रकप्रान्तकृता अनुग्रहप्रतिषेधाऽऽदियो दोषा वक्तव्याः । एतत्सर्वमयाचिते प्रलम्बे द्रष्टव्यं याजितेकादिदोषान बिना शेत्रमिति । पता वता वृक्षस्याधः प्रपतितमचित्तं व्याख्यातम् । अथ सचित्ताऽऽदिद्वारचतुष्टयमभिधित्सुराहएमेव य सच्चित्ते, कुणा अरोहणा य पडणा य । जं इत्थं नातं, तमहं वोच्छं समासेणं ॥ २८ ॥ यथा आवतं "विट्ठे संका" (५६) ग० । इत श्राराभ्य श्रारामे मोल ०" (६७) ग० । इति पर्यन्तं भणितम् । एवमेव सचित्तेऽपि द्रष्टव्यम्। प्रक्षेपणमारोह पतनमित्येतान्यपि द्वाराणि तथैव वयानि पापुनरत्र नानात्वं विशेषस्तदहं व समान तब सविते तावद्विशेषमाह तं च सचित्तं दुविहं, पडियापडियं पुणो परित्तियरं । पडितसत अपार्वते भई कट्ठाइए उपरिं ।। ६६ ॥ तत्पुनः सचित्तं द्विविधम्- पतितमपतितं च । पुनरेकैकं च द्विधा- परीतं प्रत्येकम्. इतरत् अनन्तं च । श्रत्र पतितस्यासत्यभावे प्रतिष्ठिनेये हस्ताऽऽदिना श्राप्यमाणे ततः लम्पना कारित तत्र यद् वृक्षोपरि स्थितं भूमिस्थितो हस्तेन गृह्णाति तत्र प्रायधिसमाह सजियपट्ठिऍ लहुगो, सजिए लहुगा य जत्तिया गाहा । गुरुगा होति अशंते, हत्थष्पत्तं तु गेरहंते || १०० || सजीववृक्षप्रतिष्ठितमचित्तफलं गृह्णाति मासलघु, श्रत्र च यावतो ग्राहान् करोति तावन्ति मासलघुकानि । अथ स जीवितठितं वृद्धाति चतु सवितप्रतिष्ठि तप्रत्ययं च मासलघु, तत्रापि यावतो ग्राहान् करोति ता. चन्ति चतुवृनि मासलपनि नताकेभतम् । अनन्ते पुनरेतान्येव प्रायश्चितानि गुरुकाणि, मासगुरु चतुर्गुरुरूपाणि भवन्तिः एवं भूमिस्थितस्य वृक्षस्थितं ह स्ततः प्रायश्चितमुक्रम्। १७७ पलंब अथ यदुक्रम्" कट्टा उचारे ति तदेतद्वि वरीपुराह-छुभमाण भाग पंचकरिए, पुवीमाई तसेसु तिसु चरिमं । काय परिचय, आवड अप्प चैव ॥ १०१ ॥ प्रलम्वपातनायें काले शुकगोमयाऽऽदिकं गयेपयति यतुर्लघु, काष्ठाऽऽदिकं लब्ध्वा वृक्षाभिमुखं क्षिपति, चतुर्लवव एव । स च क्षिपन्नेव पञ्चक्रियः पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टः । तद्यथा - कायिक्या १, अधिकरिणिक्या २, प्राद्वेषिक्या ३, पारितापनिक्या ४, प्राणातिपातिक्रियया चेति ५ । पृथिव्यादिषु च जीवेषु संघट्टनापरितापना ऽपत्राचधुमा साssदिकं प्रायश्चित्तं यथास्थानं ज्ञातव्यम् । ( तसेसु तिसु चरिमं ति) चिन्द्रियरूपेषु प्रसेषु व्यपरोपितेषु च रमं पाराधिकम्। तथा काष्ठाऽऽदिकं शिपन से कार्य वनस्प तिलत्तणं नियमादेव परित्यजति स च लगुडादिरू क्षिप्तः शाखाऽऽदी प्रतिरखान्निवृत्तस्तस्यैव शरीराभिस खमायाति तस्यापतना । श्रात्मानं परित्यज्यतीति । कथं पुनः पृथिव्यादिकायानां विराधको भवतीति? उच्यतेपावंते पतम्मि उ पुणो पते व भूमिपते य रवासविज्जुमाई, वायफले मच्छिगाइ तसे || १०२ || तत् काष्ठाऽऽदिकं दस्ताच्युतं सत्यानास्फालति, तावत्प्राप्नुवत् भण्यते, तस्मिन् प्राप्नुवति तथा वृक्षं प्राप्ते पुनः पतति च भूमिप्राप्ते च पानाच्या कथमिति चैरित्याह (र इत्यादि आदिशब्द प्रत्येकं संबध्यते। ततब्ध रजःप्रभूतिकं पृथिवीकार्य पदकादिकमकार्य, वि | दादिकं तेजः कार्य, वातं च सबै वान्तं फलानि तस्यैव वृक्षस्य सत्कानि, उपलक्षणत्वात्पत्राऽऽदीन्यपि, मक्षिकाssदीव सान् विराधयति । " इदमेव स्पष्टयन्नाहखोलयाई रखो, महिवासीस्साऽऽद अग्गिदबदडे | तत्येऽनिल वणस्स तसा उ किमिकीटसउगाई । १०३। 14 . खोलं ति ” देशीशब्दत्वात् कोटरं त्वक् प्रतीता, तदादिषु स्थानेषु वृक्षे रजःप्रभृतिकं पृथिवीकायविराधना, महिकायां निपतस्यां वर्षे अवश्याये वा निपतति, आदिग्रहणेन हरत तुका दिसंभवे अष्काविराधना व दयादिनादि वृते. उपलक्षात् विकृति वाग्निकाि नियमादी वायुः संभवतीति वायुकायविराधना वनस्प तिः स एव प्रलम्बलक्षणः पत्रपुष्पाऽऽदि च त्रसास्तु कृमिकी शकुनादिका विराध्यन्ते, कृमयो विष्ठाऽऽदिसमुद्भवाः, कीटिका घुगादयः शकुनाः काकपोताऽऽदय आदिन सरडाऽऽदिपरिग्रह एवं वृक्षमा काष्ठाऽदीपकाि राधना, एवमेव प्राप्ते पुनः पतिते भूमिं प्राप्तेऽपि ज्ञातव्यम् । यत श्राह अपने जो उगमो, सो चेव गमो पुणो पडंतम्मि । सो क्षेत्र व पडियम्मी निकं क्षेत्र भोमाई ॥ १०४ ॥ य एवाप्राप्त गमः प्रकारः स एव गमः पुनः पततिः उपलक्षसत्वाऽपि भूयो नमः एवशब्दोच्चारणं पदकावविराधनां प्रतीत्याऽऽत्यन्तिकल्पतास्थापनार्थम स एव च भूमी Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पखंब (७०६) अभिधानराजेन्डः। पलंब पतितेऽपि काष्ठाऽऽदौ प्रकारः प्रतिपत्तव्यः.केवलम् (निकंपे | कैर्विध्यते,यश्च वृश्चिकेन अहिनावा,श्रादिशब्दान्नकुला दिना चेव भोमाई ति)तत्काष्ठाऽऽदिकं महता भारगौरवेण “निकं. | वा दश्यते,यच्च पक्षिभिःश्यनादिभिस्तर वादिभिश्चाटव्यजीपं निस्सह" पृथिव्यां यन्त्रिपतति तेन भूम्यादीनां पृथिव्या. वैर्वधो भवति, यया वा देवतया अधिष्ठितोऽसौ वृक्षस्तया दीनां महती विराधनेति चूर्मिकृदभिप्रायः। निशीथचूर्गिण- यदसौसाधुःक्षिप्तचित्तः क्रियते।आदिग्रहणेनापरया कयाचिकाराऽभिप्रायेण तु 'निकंपे चेव भूमीए" इति पाठः । अस्य विडम्बनया विडम्ब्यते। यद्वा-सा देवता स्वाधिष्ठितवृक्षाऽऽ. व्याख्यान्यस्यां भूमौ स्थितः काष्ठाऽऽदिक्षेपणाय विशिष्टं रोहणकुपिता तत्रैव निष्ठापनम् आयुषः समापनं तस्य यत् स्थानबन्धमध्यास्ते तत्राऽपि पादयोर्निकम्पत्वेन मां का- कुर्यात् । अथवा-तं साधुमारोहन्तमेव यत्पातयेत् एषा यानां विराधको भवति। सर्वाऽप्यात्मविराधना, पातितस्य च तस्याङ्गानि समवहएवं दबतो छम्म, विराधनो भावो उ इहरा वि। भ्यन्ते,भज्यन्त इत्यर्थः। तैरङ्गैर्हस्तपादाऽदिभिः समवहतैर्यत्र चिजइ हु घणं कम्मं, किरियग्गहणं भयनिमित्तं ॥१०॥ भूमावसौ पतति तत्र पटकाया विराध्यन्ते, तेषां च संघएवमेतेन प्रकारेण चतुर्वप्यप्राप्ताऽऽदिपदेषु द्रव्यतः षमा हनादिभिरारोपणा सैव द्रष्टव्या । या "छक्कायचउसु ल दुगा" इत्यादिगाथायामुक्ता श्रात्मविराधना,या च ग्लानविषकायानां विराधकः प्रतिपत्तव्यः, भावतस्तु इतरथाऽपि या परितापनाऽऽदिनिष्पन्नाया आरोपणा, साऽपि प्राग्वदव. द्रव्यतो बिराधनां बिनाऽप्यसौ षट्कायविराधको लभ्यते, संयम प्रति निरपेक्षतया तस्य भावतः प्राणातिपातसद्भावा सातव्या । गतमारोहणद्वारम् । (४) अथ पतनद्वारमाहत्।भाषप्राणातिपाते च यथा घनं निविडं कर्म चीयतेन तथा द्रव्यप्राणातिपातेन । आह-यदुक्तम्-पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्ट मरणगिलाणाऽऽईया, जे दोसा होति गेण्हमाणस्स । स्तत्कथं संवादमश्नुते,यावता यदि निवारयति तदा कायिकी ते व य साऽऽरुवणा, पवडते होति दोसा उ॥१०॥ अधिकरिणिकीच क्रिये संभवतः, अथ विराधयति तदेताश्व- कदाचिदसौ तं वृतमारोहन पतेत् , ततश्च मरणग्लानतम्रो भवेयुः, प्राद्वेषिकी पुनः कथं भवेत् । सूरिराह-क्रियाग्र. त्वाऽऽदिका ये दोषा आरोहतो भवन्ति, प्रपततोऽपि त एव हणं भयनिमित्तं भयजननार्थ क्रियते येन साधवः क्रियापञ्च- दोषाः साऽऽरोपणाः संप्रायश्चित्तनिरवशेषा वक्तव्याः। "पव. काऽऽपत्तिदोषभीता मूलत पत्र प्रलम्बग्रहणे न प्रवर्त्तन्ते । य- डंते होंति सविसेसा" इति निशीथचूर्णिलिखितपाठः । तत्राद्वा-दृष्टिवादनयाभिप्रायनैपुण्यात् यत्रैका क्रिया तत्र पश्चापि यमर्थः आरोहतो दोषाणां संभव एव भणितः, एतत् पुनक्रियाः संभवन्तीति न दोषः । यदाह निशीथचूर्गिणकृत्- रवश्यंभाविनो गात्रभङ्गाऽऽदयो दोषा इति सातिशेषग्रहणम । "अहवा जत्थाएगा किरिया तत्थ दिट्टिायनयसुहुमत्त- गतं पतनद्वारम्। णो पंच किरियाश्रो भवंति, अतो पंचकिरियागहणे न दो (५) अथोपधिद्वारं विवृणोतिसा।" एवं तावत्संयमविराधना भाविता। तम्मूल उवहिगहणं, पंतो साहूण कोइ सव्वेसि । (३) अथाऽऽत्मविराधनां भावयति तणअग्गिगहण परिता-वणाय गेलनपडिगमणं ॥११०॥ कुवणउ पत्थर लेड, पुव्वं छुढे फले व पवडते । । यस्य परिग्रहे तानि प्रलम्बानि तन्मूलं व ग्रहणनिमित्तं, पच्चफालणे आया, अच्चायामेण हत्थाऽऽई ॥१०६ ।। तस्यैव साधोरुपधिग्रहणं कुर्यात् । यद्वा-कश्चित् प्रान्तः सभन्येन केनचित्प्रलम्बार्थिना पूर्व (कवणउत्तिलगा खितः । वेषां साधूमामुपधि गृहीयात् । तत्र यथा जति रजोहरणास तत्रैव वृक्षशाखायां विलग्नः सन् वायुप्रयोगेण, विवः | ऽऽदिके उपधौ हतं मूलं, शेषे पुनरुत्कृष्ट चतुर्लघु, मध्यमे क्षितसाधुक्षिप्तकाष्ठाऽऽदिप्रयोगेण वा सञ्चालितस्तस्यैव सा| मासलघु, जघन्ये पञ्चकम् , उपधि विना तृणानि गृह्णीया. धोरुपरि निपतन् विराधनां कुर्यात् , एवं प्रस्तरः पाषाणो, त् ,.अग्निग्रहणं वा कुर्यात् , अग्निं सेवतेति भावः । अथाग्निं लेष्टुरिष्ठकाशकलं. मृत्तिकापिण्डो वा पूर्व क्षिप्तः पतेत, फ न सेवते ततः शीतेन परितापः तस्य भवेत् , शीतेन वा । तच्यतं वृक्षाप्रपतेत. तरीव कामा प्रतिनिवन- भुक्त अजीर्यमाणे ग्लानत्वं भवेत् शीताभिभूता वा साध. स्वस्वसंमुखं प्रत्यास्फालने आत्मविराधना भवेत्, अत्याया वः पार्श्वस्थाऽ-दिषु प्रविगमनं कुर्युः । मेन बानीव हस्तमुन्छयाणेन लगुडाऽदौ क्षिप्यमाणे हस्ता संप्रत्यत्रैव प्रायश्चित्तमाहऽऽदेः परितापना भवेदिति । गतं क्षेपणद्वारम् । तणमहण अग्गिसेवण, लहुगा गेलप्म होइ त चेव । अथाऽऽरोहणा मूलं अणवटुप्पो, दुग तिग पारंचिो होइ ॥११॥ खिवणेऽवि अपावतो, दुरुहइ तहि कंटबिच्छुअहिमाई ।। अशुषिरतृणानि गृहीयात चतुर्ल घु, परकृतमग्नि सेवते च. पक्खितरच्छाइवहो. देवत खित्ताऽऽइकरणं च ॥१०७॥ तुर्लघ. अभिनवमग्निं जनयति मूलए, अग्निशकटिकायां वा तत्थेव य णिवणं, अंगेहि समोहएहि छक्काया।। ताययन यावतो चारान् हस्तं वा संचालयति तावन्ति च तुर्लघूनि, यस्तु धर्मश्रद्धालुराग्निं न सेवते स शीतेन ग्लानः आरोवण सच्चेव य,गिलाणपरितावणाऽऽईया ॥१०८।। सजायते, ग्लानत्वे चाऽनागाढारितापनाऽऽदी तदेव प्राकाष्ठाऽऽदेः क्षेपणे कृतेऽपि यदा प्रलम्बानि न पतन्ति त. यश्चित्तम् । अथ शीतपरीपहमसहिष्णुः पार्श्वस्थाऽदिष व्र. दाऽधःस्थितस्तान्यप्राप्नुवन्नलभमानस्तं वृक्ष (दुरुहर त्ति)। जति चतुर्गुरु,यथा छन्देषु व्रजति चतुर्गुरु । यद्येकोऽवधावति प्रारोहति, स च यावद्भिर्वाहुक्षेपकैरारोहति तावन्ति चतले- अभ्यतीर्थिकेषु वा याति ततो मूलं, द्वयोरनवस्थाप्यं, त्रिषु घुकानि,अमन्ते पुनश्चतुर्गुरुकाणितत्र वृक्ष आरोहतो यत्कएट | पाराश्चिकम् । गतमुषधिद्वारम् । . Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब (७०७) अन्निधानराजेन्मः। पलंब (६) अथोड्डाहद्वारं विवृणोति (८) अथ मिथ्यात्वद्वारं विवृणोतिअपरिग्गहिएँ पलंबे, अलभंतों समणजोगमुक्कधुरो । । मिच्छत्ते संकाऽऽई, जहेय मोसि तहेव सेस पि । रसगेहीपडिबद्धो, इतरे गिराहतो गहिओ य ॥१२॥ मिच्छत्ते थिरीकरणं, अम्भुवगमेवारणमसारं ।।१२४। अपरिगृहीतानि प्रलम्बान्यलभमानः श्रमणयोगमुक्तधुरः मिथ्यात्वे विचार्यमाणे शङ्काऽऽदयो दोषा वक्तव्याः। शङ्का परित्यक्तश्रमणव्यापारभार इति भावः । रसगृद्धिप्रतिबद्धः, नाम-किं मन्ये अमी यथा वादिनस्तथा कारिणो न भवन्ति, इतराणि परिगृहीतप्रलम्बानि गृह्णन् प्रलम्बखामिना दृष्ट्वा येन प्रलम्बानि गृह्णन्ति,धादिशब्दाकाक्षादयो दोषाः । तथा गृहीतः । यथैतदनृतं, तथैव शेषमन्यदप्येतेषां मिथ्यारूपमेवेति चित्त ततश्च विप्लुतिः स्यात्, मिथ्यात्वाद्वा चलितभावस्य सम्यक्त्वाभि महजणजाणणया पुण, सिंघाडगतिगचउक्कगामेसुं । मुखस्य प्रलम्बग्रहणदर्शनात् पुनरपि मिथ्यात्वे स्थिरीकरणं उड्डहिऊण विसज्जिते, महजणणाए ततो मूलं ॥११३।। भवति. अभ्युपगमं वा प्रवज्यायाः, अणुव्रतानां वा. सम्यग् तेन प्रलम्बस्वामिना गृहीत्वा शृङ्गाटकनिकचतुष्कस्था- दशेनस्य वा कतुकामस्यापरः कश्चिद् वारणं कुर्यात्-नेते. नेषु प्रामेषु वा बहुषु नीत्वा महाजनस्य पौरजनपद रूप- षां समीपे प्रतिपद्यस्व असारं निस्सारममीषां प्रवचनं म. स्य शापना कृता। यथा-एतेन मदीयानि प्रलम्बानि चोरि. येदं च दृष्टमिति । गतं मिथ्यात्वद्वारम् । तानीत्यादि महाजनस्य पुरत उडाहात् विसर्जितो मुक्त- (६) अथ विराधना । सा च द्विविधा-संयमे, श्रात्मनि च द्वे स्तत एवं महाजने ज्ञाते सति मूलं नाम प्रायश्चित्तम् ।। अपि प्रागेव सप्रपञ्च भाविते,तथापि विशेषमुपदर्शयितुमाहकथमुद्दग्ध इत्याह तं काय परिचयई, नाणं तह दंसणं चरितं च । एस उ पलंबहारी, सहोढ गहिओ पलंबठाणेसु । वीयाऽऽईपडिसेवग, लोगो जह तेहि सो पुट्ठो ॥१२॥ सेसाण वि बाघाओ, सविहोढविडंबिए होइ ॥ ११४ ॥ प्रलम्ब गृह्णन्तं तं कायं वनस्पतिलक्षणं परित्यजतिः त. यनाऽऽरामाधिपतिना संप्रलम्बानि गृह्णानो गृहीतः,स रास था-ज्ञानं दर्शनं चारित्रं चेति बीजाऽऽदिप्रतिसेवको लोको भा:ऽरोपितं शृङ्गाटकत्रिकचतुष्काऽऽदिषु सर्वतः परिभ्राम यथा असंयमेन स्पृष्टः, तथा सोऽपि साधुस्तैः प्रलम्बैरासेवि. यन्नेवमुद्धोषयति-भो भोः पौराः श्रूयतामस्य प्रव्रजितकस्य दुः। तैरसंयमेम स्पृष्ट इति नियुक्तिगाथाऽक्षरार्थ । श्चरितम्-एष प्रलम्बहारी मदीयाऽऽरामसत्कप्रलम्बचौरः अथैनामेव विवरीपुराहसहोढः सोपलब्धो गृहीतो. मया दुरात्मा प्रलम्बस्थानेष्वा. रामप्रदेशेष्वित्यादिघोषणापुरस्सरमितश्च नीयमानो महाज कायं परिच्चयंतो, सेसे काए वए य सो चयई । नेन सखेदमवलोक्यमानः स कृतेन कर्मणा विडम्व्यते । तत- णाणे णाणुवदेसे, अवट्टमाणो उ अन्नाणी ।। १२६ ।। श्च सविहाढं सजुप्सनीयं यथा भवतीत्येवं विडम्ब्यते, त प्रलम्बानि गृह्णानो वनस्पतिकायं परित्यजति, तं च पस्मिन् शे गणामपि साधूनां व्याघातः सर्वेऽप्यमी एवंविधा रित्यजन् शेषानपि कायानसौ भावतः परित्यजति, तत्पपवेति प्रभापरिभ्रंश भवतीति व्याख्यातमुड्डाहद्वारम् त. रित्यागे च प्रथमवतपरित्यागः, प्रथमवतपरित्यागे च शेयाख्याने च सर्मार्थता "अन्नत्थ तत्थ गहणे " इत्यादि षव्रतपरित्यागोऽप्युपजायत इति व्रतान्यप्यसौ परित्यजद्वारगाथा । अथ यदुक्तमधस्तात्-"प्राणाऽणवत्थमिच्छा, तीत्युक्तम् । तथा ज्ञाने ज्ञानविषये परित्यागे चिन्त्यमा. विराहणा कस्स गीयत्थो । " तदिदानीं प्राप्तावसरं व्या ने ज्ञानोपदेशे क्रियाद्वारेणावर्तमानोऽसौ शान्यपि अज्ञानी ख्यायते-तत्राशेति द्वारं भगवता प्रतिषिद्ध यत्पलम्बन मन्तव्यः। कल्प्यते तदग्रहण कुवेता भगवतामाज्ञाभङ्गः कृतो भवति, तस्मिंश्चाऽऽज्ञाभङ्गे चतर्गरुकाः। बृ०१ उ०२ प्रक. । (श्रा. दंसणचरणा मूढस्स, नत्थि समया व नत्यि संमं तु । शाद्वारम् ' आणा ' शब्दे द्वितीयभागे १२१ पृष्ठे गतम्) विरइलक्खण चरणं, तदभावे नत्यि वा तं तु ॥ १२७ ।। (७) अथानवस्थाद्वारमाह ज्ञानाभावादसौ मूढो भवति, मूढस्य दर्शनचारित्रे न स्तः । यद्वा-प्रलम्बग्रहणादस्थ जीवेषु समता न विद्यते, समताया एगेण कयमकजं, करेइ तप्पच्चया पुणो अन्नो। अभावाञ्च सम्यक्तमपि नास्ति, तस्यापि सामायिकभेदतया सायाबहुल परंपर, वोच्छेदो संजमतवाणं ॥ १२३ ॥ समतारूपत्वात् विरतिलक्षणं चरणं भणितं, तश्च लक्षएकेन केनचिदाचार्याऽऽदिना किमप्यकार्य प्रमादस्थानं कृतं णं प्रलम्बानि गृह्णतो न विद्यते, तदभावे लक्षणाभावे तत्तु प्रतिसेवितं, ततोऽन्योऽपि तत्प्रत्ययादेव प्राचार्याऽऽदिः श्रुत- तत्पुनश्चारित्रं नास्ति, वाशब्दः प्रकारान्तरद्योतकः । अथ धरोऽप्येवं करोति, नूनं नास्त्यत्र दोष इति तदेवाकार्य करो- "बीयाई" इत्यादि व्याख्यायते-फलाद्वीजं भवतीति कृत्या ति, ततोऽपरोऽपि तथैव करोति, तदन्योऽपि तथैवेत्येवं सा- बीजग्रहणम् । आदिशब्दात्फलपुष्पपतप्रवालशाखात्वकस्कतबहुलानां सातगौरवप्रतिबद्धानां प्राणिनां परम्परया प्रमाद. न्धकन्दमूलानि गृह्यन्ते । शिष्यः प्राऽऽह-सर्वेऽपि वनस्पतयः स्थानमासेवमानानां संयमतपसो व्यवच्दः प्राप्नोति, यद्धि मूलादेव एव भवन्ति, अतो' मलाई पडिसेवग ' इति संयमस्थानं वा पूर्वाऽऽचार्येण सातगौरवगृध्नुतया घर्जितं कर्तुमुचितं किमिति “बीयाई पडिसेवग" इति कृतम् ।। तत्पाश्चात्यैरहए मिति कृत्वा व्यवच्छिनमेवेति । गतमनव सरिराहस्थाद्वारम् । पाएण बीयभाई, चोयग! पच्छाऽणुपुब्धि वा एवं । Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०८ ) अभिधान राजेन्द्रः | पलंब जोणिग्घाते व हतं, तदादि वा होइ वणकाओ ॥ १२८ ॥ लोकः प्रायेण बीजभोजी, तेन कारणेन बीजमादौ कृतम् । य छा- नोदक! समये त्रिविधापूर्वी प्रा. नुपूर्वी पञ्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वीच त्रिविधाऽपि च यथाबसरं व्याख्याङ्गमित्यच पचानुपूर्वी गृहीता अथवा वीजं व नस्पतिनो योनिरुत्पत्तिस्थानम् प्रतस्तस्य धाते विनाश सर्वमपि मूलाऽऽदिकं निरपेक्षतया इतं भवति । यदि वा-तदादिर्वनस्पतिकायो भवति तद्वीजमादिर्यस्य स तदादिः स वैषामपि वनस्पतीनां तव एवं प्रसूते तो बीजाऽऽदि प्रहणं कृतम् । ततश्च विरसभाव चरणं, बीयासेवी हसघाती वि अस्संजमेण लोगो, पुट्ठो जह सो वि हु तहेव ॥ १२६ ॥ यो बीजाऽऽसेवी स नियमात् शेषाणां मूलाऽऽदीनामपि घाती विशेयो, यश्व मूलाऽऽदीनि घातयति तस्य विरतिस्वभावं यचरणं चारित्रं तन्न भवति । यथा च बीजाऽऽदिप्रतिसेवको लोकोऽयमेन स्वासावपि तैः प्रलम्बेवितैरसंयमेन स्पृष्ट इति । गता संयमविराधना । (१०) आत्मविराधनामाह तं चैव अभिहजा, आवडियं अहव जीहलोलुपता । गाई जिता, विश्चिकाईहि आयवहो || १३० ॥ तैलगुडादिकं तं पुनरापतितं सत् तमेव साधुममिह म्यात् इदं मागुतमपि स्थानाशून्यार्थमलोपात्तमिति न पुनः रुक्तदोषः । श्रथवा जिह्वालोलुपतया बहुकानि प्रलम्बानि भुकृत्वा विसूचिकाऽऽदिभी रोगैरुत्पन्नैरात्मवधो भवति । उक्ताऽऽत्मविराधना । तदुक्तौ च व्याख्याता श्राशाऽऽदद्यश्चत्वारोऽपि दोषाः । बृ० १ उ० २ प्रक० ( गीतार्थेन गच्छसारणा न कर्त्तुं शक्यते इति ' गच्छसारणा ' शब्दे तृतीयभागे ८०६ पृष्ठे उक्तम् ) ( प्रलम्बाधिकारे द्रव्यतः परीतमनन्तं वा येन लक्षणेन जानाति तदभिहितम्, 'श्रांतजीव' शब्दे प्रथमभागे २६३ पृष्ठे ) (११) अथ ग्रहणद्वारम् चडगि गये पवखे-पए म एगम्मि मासिवं लक्ष्यं । गहणे पक्खेवम्मी, होति अयेगा अयेगे ।। १७६ ।। चतुर्भङ्गी ग्रहणे प्रक्षेपके च द्रष्टव्या । तद्यथा एकं ग्रहणम् एकः प्रक्षेपकः १. एकं ग्रहणमनेके प्रक्षेपकाः २, अनेकानि ग्रहणानि एकः प्रक्षेपकः ३, अनेकानि ग्रहणानि श्रनेके प्रक्षेपकाः ४ । अत्र हस्तेन यत् प्रलम्बमादानं तद् प्रणम्यत्पुनप्रवेशनं स प्रक्षेपकः । तत्र प्रथमभङ्गे एकस्मिन् ग्रहणे प्रक्षेपके च प्रत्येकं मासलघु । द्वितीयभङ्गे एकस्मिन् ग्रहणे मासलघु, प्रक्षेपस्थाने यावतः प्रदोषकान् करोति तायन्ति मासलपूर्ति तृतीय तु यान्ति ब्रहणानि सायन्ति मासलपुकानि प्रक्षेपकवि पयस्येको मासलघु चतुर्थमन्त्रे अनेकेषु ग्रहणेषु प्रोपषु ashtra मासलघुकानि, एतच्च सामाचारी निष्पन्नं मन्तयम् । यत्पुनद्यातनिष्ययं चतुर्लकादिकं तत् स्थि तमेव । एतश्च ग्रहण प्रक्षेपकनिष्पनं प्रायश्चित्तं यथा केवली जानाति तथा गीतार्थोऽपीति । गतं ग्रहणद्वारम् । 5. पलंब (१२) अथ तुल्ये रागद्वेषाभाव इति द्वारम् । तत्र शिष्यः प्राऽऽह । पटिसिद्धा खनु लीला, विइए चरिमेयतुल्लद नियता बिहु एवं बहुपाए एगे पद्धितं । १७७ ।। यो भगवन्त रागाध्यासितमनसः तथाहि-द्रव्येषु, समानेऽपि प्रलम्वद्रव्याणां जीवत्वे इत्यर्थः द्वितीयभने एकफलस्य, चरमभङ्गे बहूनां फलानां बहून् वारान् प्रक्षेपं करोतीति बहन मासिकानि तृतीय तु वहनि प नफलानि गृहीत्वा वा एकः प्रक्षेपक इति कृत्वैकं मासिकं चंद तन्मम मनसि प्रतिभासते नूनं युष्माभिः प्रतिषिद्धा न पुनर्जीवोपघातः । एवं च भगवतां द्वितीये भने प्रलयजीयानामुपरि रागी बहुमासिकात् दती यमते तु द्वेषः एकस्यैव मासिकस्य दानात् यद्वा द्वितीये भने गृहतां शिष्याण परि द्वेषः तृतीये तु रागः, कारखं प्राग्वदेव । किं च युष्माकमेवं बहुधाते युगपद्वहूनां मुखे प्रशिष्य भक्षणे एकमेव मासिकं वदतां निर्दयता भवति । - अथ रागद्वेषाभावं समर्थयन सूरिः परिहारमाहचोग नियतं चिय, सोच्छता विसर्ग पि नेच्छामो । निवमेच्छछगलसुरकुड - मतामते लिपभक्खणता ।। १७८ ॥ दे योदक ! निर्दयतामेव नेच्छन्तो वयं विदशनम नामः, विविधं दशनं भक्षणं विदर्शनं लीला इत्यर्थः । म्लेच्छं द्वयदृष्टान्तं वर्णयति - "जहा एगस्स रनो दो मेच्छा श्रोलग्गगा, तेण रन्ना तेसि मेच्छाणं तुट्ठे दो सुरकुडा दोष छगला दिण्णा. ते तेहि य तुट्टा, तत्थ एगेणं छगली गलप्पारेणं मारिन्तू खाइ दोहिं तिहिं । वितिश्री एकेक अंग छेतुं खायति, तं पि सो छेदे धामं लोगेणं श्रासुरीहिं वा छगणेण वा लिंप एवं तस्स छगलस्स जीवंतस्सेव गाताणि घेत्तुं खइयाणि, मतो य पढमस्स एगप्पहारेण एको बधी, वितियस्स जति देहिं मरति ततिया था, लोगे य पावो गणिज्जति । एवं जेण पलंबस्स एको पक्खेवो की तस्स एक मासियं, जो विडसंतो खायति तस्स ततिया पता प्रणचिणाय पारितानिया किरियाए वहति विसा नाम-सादेन सायति। " श्रत एवाss - निवमेच्छ" इत्यादि । कस्यचिद् नृपस्य द्वौ गीतेन तुष्टेन तयोः दगलको सुकुटी य दत्तौ तत्रैन गलकस्य मृतस्य द्वितीयेन पुनरमृतस्यैव कैकमङ्गं छित्त्वा लक्षणाऽऽदिभिरालिम्प्य भक्षणं कृतमिति । किं च 4 चित्ते विविदसणा, पडिसिद्धा किमु सचेयणे दव्त्रे १ । कारणे पक्वम् तु पढमो तइओ अ जयखाए ॥ १७६ ॥ अवि इथे विदशना प्रतिषिद्धा, किं पुनः द्रव्ये ?, सचित्तं प्रलम्बं सुतरां विदशनया न भक्षणीयमिति भावः । यत्र पुनः कारणे सचित्तं मुखे प्रक्षिपति, तत्राप्रथमभङ्गः एक प्रक्षेपरूपः तृतीयो म हकप्रक्षेपरूपो यतनया सेवितव्यः । प्रधानन्त कायस्य वर्जनेति द्वारम् । यतः प्रथमतो द्वार. गाथामाह पाय पुछा, उच्करणमहिट्टिदारुपपली प । Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब अभिधानराजेन्द्रः। पलंब दिद्रुतो चउत्थपदं, विकडुभ पलिमंथणाचिन्नं ॥१८॥ स चाऽयम्प्रथमं प्रायश्चित्ते पृच्छा कर्त्तव्या, तत इक्षुकरणनेक्षुबोटन, को दोस दोहि भिन्ने, पसंगदोसेण अणरुई भत्ते । महर्दिकेन राशा (दारु त्ति) दारुभारेण स्थल्या च देवद्रो भिन्नाभिन्नग्गहणे, न तरइ सजिए वि परिहरि १८४॥ एया दृष्टान्तः कर्तव्यः। चतुर्थ द्रव्यतो भावतोप भिन्नमि- कश्चिन्निर्द्धर्मा प्रलम्बानि गृहीतुकामः को दोषः स्यात् द्वाति यत्पदं तत्र त्रीणि द्वाराणि-विकडुभं, परिमन्थः, अना- भ्यां द्रव्यभावाभ्यां भिन्ने प्रलम्बे गृह्यमाणे इति परिभाव्य चीर्णमिति समासार्थः। द्रव्यभावभिन्नानि प्रलम्बान्यानीतवान् । यदि च-तस्य प्राअथ विस्तरार्थमाह यश्चित्तं न दीयते तदा स निर्विशङ्कं भूयो भूयस्तानि गृ. चोएइ अजीवत्ते, तुल्ले कीस गुरुगो अणंतम्मि । हाति. ततश्च लब्धप्रलम्बरसाऽऽस्वादस्य प्रसङ्गदोषेण तैः प्र. कीस य अचेयणम्मी, पच्छित्तं दिजए दव्वे ? ॥११॥ लम्बैरलभ्यमानस्तस्य भक्ने अरुचिररोचको भवति, ततो शिष्यो नोदयति-भावतो भिन्नं द्रव्यतोऽभिन्नं,भावतो भिन्नं यानि भावतो भिन्नानि द्रव्यतोऽभिन्नानि तेषां ग्रहगे प्रद्रव्यतोअप भिन्नमिति तृतीयचतुर्थयोर्भङ्गयोः परीत्ते अन वर्तते, यदा तान्यपि न लभते तदाऽसौ प्रलम्बरसगृद्ध न्से वे अजीवत्वे तुल्येऽपि कस्मात् अनन्ते गुरुमासः, परीत्ते सजीवान्यपि प्रलम्बानि न शक्नोति परिह मिति । विशेलघुमासो दीयते?,कस्माञ्चाचेतने द्रव्ये परीत्ते अनन्ते वाजी षयोजना त्वेवम्-कुटुम्बिस्थानीयं साधुः, इचुकरणस्थानीयं बोपघातं विनाशप प्रायश्चित्तं दीयते । अपरं च रागद्वेषवन्तो चारित्रं, परिखास्थानीया अचित्तप्रलम्बाऽऽदिनिवृत्तिः वृतियदचेतने परीचे मासलघु, अनन्ते अचेतनेऽपि मासगुरु स्थानीया गुर्वाशा, गोपथिकाऽऽदिस्थानीया रसगौरवाऽऽदप्रायच्छन् । यः, तैरुपयमाणं प्रलम्बग्राहिणश्चारित्रमचिरादेव विनश्यतत्र यत्तावन्नोदितं कस्मात्परीत्ते मासलघु, अनन्ते मास ति,येनाऽसौ कर्षक एकभावकं मरणं प्राप्तस्तथाध्यमप्यनेकागुरु, तद्विषयं समाधानमाह नि जन्ममरणानि प्राप्नोतीत्येष अप्रशस्त उपनयः । प्रशस्तः पुनरयम्-यथा तेन द्वितीयकर्षकण कृतं सर्वमपि परिखाssसाऊ जिणपडिकुट्ठो, अणंतजीवाण गायनिष्फनो। दिकम् , उवासिता गवादयः, रक्षितं स्वक्षेत्र, संजातोऽसागेहीपसंगदोसा, अणंतकाए अतो गुरुगो ॥ १८२।। वैहिकानां कामभोगानामाभागी, एवमत्रापि केनाऽपि सापरीत्तादनन्तकायः स्वादुः स्वादुतरः, तथा जिनस्तीर्थकरैः। धुना द्रव्यभावभिनं प्रलम्बमानतिमाचार्याणामालोचितं प्रतिक्रुष्टः । कारणेअप परीतं ग्रहीतव्यं नानन्तमिति जिनोप-| तैराचार्यैः स साधुरत्यर्थ खरण्टितः। देशात् । अनन्तानां च जीवानां च गात्रेण स निष्पन्नः सुस्वादुस्खाश्चाधिकतरा तत्र गृद्धिर्भवति,तस्याश्च प्रसङ्गेननिषणी- ___ छड्डाविय कयदंडे, ण कमेति मती पुणो वि तं घेत्तुं । यमपि गृह्णीयादित्यादयो बहवो दोषा अतोऽनन्तकाये श्रचि न य से बड़ा गेही, एमेव अणंतकाए वि ॥१८॥ सेऽपि गुरुको मासः प्रायश्चित्तम् । एवं च द्रव्यानुरूपं प्राय स साधुराचार्यः प्रलम्बानि छापितः त्याजितः, प्रायश्चिचित्तं ददतामस्माकं रागद्वेषावपि दुरापास्तप्रसराविति । य त्तदण्डश्च तस्य कृतः, ततश्च छापितकृतदण्डस्य पुनरचोक्तं कस्मादचित्ते प्रायाश्चित्तं प्रयच्छतेति, तत्रापि समा पि तत्प्रलम्बजातं गृहीतुं मतिर्न क्रमते नोत्सहते । न च नैभीयते-अनवस्थाप्रसङ्गनिवारणार्थ, सजीवग्रहणपरिहारार्थ व ( से ) तस्य प्रलम्ब गृद्धिर्वर्द्धते, ततश्चाऽसौ विरति. ..वाऽचिसेऽपि प्रायश्चित्तप्रदानमुपपन्नमेव । रूपया परिखया गुझारूपया वृत्त्या परिक्षिप्तमिक्षुकरणतथा चात्राऽऽचार्या इतुकरणदृष्टान्तमुपदशर्यति कल्पं चारित्रं रसगौरवाऽऽदिगोपथिकैरुपयमाणं सम्यक न वि खाइयं नावि वति, न गोणपहियाइए निवारेइ । परिपालयितुमीष्टे, जायते चैहिकाऽऽमुष्मिककल्याणपरम्पइतिकरणभईहिलो, विवरीऍ पसत्थुवणो य ॥१८॥ राया भाजनमेवं तावत्प्रत्येके भणितम् ,अनन्तकायेऽप्येवमेव “एगेण कुटुंबिणा उच्छुकरणं रोवियं, तस्तपरपेरंतो न विस्खाइया न विवईए फलिहियं,न वि गोणाई निवारेइ,नावि अथ महर्द्धिकदारुभरदृष्टान्तद्वयमाहपहिए खायंते वारेइ, ताहे तेहिं गोणाईहि अवारिजमाणाहि कन्नतेपुर ओलो-यणेण अनिवारियं विणटुं तु । तं सव्वं उच्छाइयं, एवं करेंतो सो कम्मकरण भईए छिन्नो, दारुभरो य पिलुत्तो, नगरदारे अवारिंतो ॥१८६ ।। जं च पराइयं खित्तं दावि तेण वुत्तं-एत्तियं ते दाहं ति तं पि वितिएणोलोयंती, सव्वा पिडित तालिता पुरतो । दायव्वं । एवं सो उच्छुकरणे विणटे मूले छिमें जं जस्स देयं भयजणणं सेसाण वि, एमेव य दारुहारी वि ॥१८७।। तं अदितो बद्धोविणटो य । एस अपसत्थो। श्रमण वि उच्छक- महिडिओ, राया भम्माह-तस्स कनंतपुरं वायायणेहि ओलोरणं कयं,सो विवरीतो भाणियब्बो,खाइयादि सब्बं कयं,जे य एइ. तं न कोऽवि वारे, ताहे तेणं पसंगणं निग्गंतुमाढत्तागोणाई पडंति ते तहा अन्ने विन ढुक्कंति। एस पसत्थो"प्रथा- श्रो तह वि ण को वि निवारेइ, पच्छा विडपुत्तेहिं समं पालावं क्षरार्थ:-कश्चित् कुटुम्बी इतुकरणं रोपयित्वा नापि खातिका काउमाढत्ताओ। एवं अवारिजंतिप्रोविणट्ठात्री। दारुभरदिटुं. नापि वृति कृतवान् न वा गोपथिकाऽऽदीन खादतो निवार- तो-एगस्स सेट्रिस्स दारुभरिया भंडी पविसति, नगरदारे वति इत्येवं कुर्वन् इक्षुकरणस्य संबन्धिनी या भृतिः कर्मकरा- एकंदारु सयं पडिय.तं गएहतं पासित्तान वारियं ति काउं ऽऽदिदेयं द्रव्यं,तया छिन्नस्शुटितः सन् विनष्टः। एतद्विपरीत- अमेण चेडरूवेण भंडीओ चेव गहियं, तं अवारिजमाणं श्व प्रशस्तदृष्टान्तो वक्तव्यः। उपनयश्च द्वयोरपि दृष्टान्तयो. पासित्ता सब्वो दारुभरो विलु तो लोगेणं । एते अपसत्था। भवति । इमे पसत्था-वितिएणं अंतपुरपालगेण एगा श्रोलोयंती ततश्च द्रष्टव्यमिति। Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) अनिधानगजेन् पलंच far. साओ पिडित्ता तारित सा तालिता, ता सियाओ वितीयाओं ण पलीयति । एवं अंतरंरक्ि परी विपिड़िता दानवी" शरणमानेका कन्पा उन्तःपुर मवलोकनेन वातायनेनाजननिवारितं सत् क्रमेण विदपुत्रैः सार्द्धमालाप करणानिम् । एवं दारुभरोऽपि नगरद्वारे दारूणि गुहाति, वेदरूपाण्यवारयति शाकटिके सर्वोऽपि रितः । द्वितीयेन पुनरन्तःपुरपाल केनैका कन्यका अवलो कमाना दृष्टा तदः सर्वा अपि कन्यकाः पिण्डीकृत्य तासां पुरतस्तारता था शेषाणामपि जननं भवति । एवमेव न दहापि प्रथम कुहितो यथा शेपा विभ्यतीति । लहान्तमाह मु. गोणि सर्व भक्खरोग लदपगरा धर्ति तु पुणो । वा चिनिएरिङ ग्य॥१८८॥ थली नाम देवदोणी ततां गावीणं गोयरं गया एका ज रगवी मया सा पुलिदेहि सयं मय त्ति खइया, वाहियं मोवाल व ते भतिजापा नाम ता खइया । पच्छा ते पसंगें वारिजंता अप्पणा चैव मारेउमारा. पच्छा तेहिं लद्वपसरेहिं थली चैव घातिता । एस श्रपत्थो। हम सत्थ तहिं च गावी गोयरं गयाणं एका मया. सा पुलिंदेहिं खइया, गोवालहिं सिद्धं परिवारगा तूर्ण दिवसे कोई भ्रम पा हित्ति ति काउं तत्थ चंदिग्गहो की । " अक्षरार्थः-स्थ संबन्धिनीनां गवां गोचरगतानामेका जरद्गवी स्वयं सुता. तस्या भक्षणेन लब्धप्रसङ्गाः पुलिन्दाः स्वयमेवाऽऽगम्प स्थली पाक्तिवन्तः द्वितीयैः परिवार फोट के पुलिन्दपल्ली त भन्नं मा भूत्प्रसङ्ग इति कृत्वा तेषां पुलिन्दानां वन्दिग्रहणे निवृत्तिः कृता । उपनययोजना-" कोदोसो दोहि भिन्ने, पसंगदोंसेण श्रणरई भत्ते " इत्यादि प्रागुकानुसारेण सर्वत्रापि । F श्रथ" विकडुभ-पलिमंथद्वारे " व्याख्यानयतिविकभयमरगणे दी - इगोयरं एसणं व पेल्लिञ्जा । निष्पिसिय सोंडनायं मुग्गछिवाडीऍ पलिमंथो ॥ १८६॥ इह प्रलम्बरसभिन्नदाढतया प्रलम्बैर्विना केवलः कुरो यदान प्रतिभासते, ततोऽन्यस्मिन् भक्तपाने लब्धेऽपि वि कर्म शासन तन्मार्गयमानी दगति एपी या अलभमानी नेपणीयं विक येत् । अत्र च निष्पिशितः पिशितवर्जी शौरडो मद्यपी शा तम् उदाहरणम्" जहा एगो अमंसभक्खी पुरिसो. तरस य मासिद संजी वे को दोसो, ते हि य सो सवहं गाहितो, तो लक्षमाणो एते परेण आणीय पिवइ पच्छा लद्धपसरो बहुजणमज्भे वीरवि चतलजो पाउमाढतो, तेर्सि पुरा मंसं बिलंको उपदेस इत्यर्थः । इयरस्स पुरा चिभिडवाण यपप्पड गाईगि भणिय सवालं न भति केरिस मज्जा विणा बिलंकेणं ?, परमारिए य मंसे को दोसो खाइसु । इमं तत्थ विसेसे वहं गाहितो पर मारिए दोसोति खायति पच्छा लद्धरसो कढिचित्तीभूः पलंब तो निधसपरिणामी अपणा वि मारेउं खार्यात निस तथा जाओ. जहा सो सडओ लिंकेण विषा न सकेइ पच्छिउं एवं तस्स वि पलवहिं विणा हरो न परिहाइ तस्स परिसी गेही तेसु जायइ जीए एगदिमवि तेहि बिगा पहि गाडी कोमला मुगफली, उपलत्तणादि किमपि रूपं तस्मिन् मा परिमन्धः सूत्रार्थयाति संजायते । श्रपि च कदाचिदात्मविराधनाऽपि भवेत् । तथा चात्र दृष्टान्तः- एका श्रविरइया मुगते कोमलाओ मुग्गकांवा सायंती रा न वदा विसा तव तस्त कोउयं जायं केनियात्रा पुरा ख दिया होज त्ति पेट्टे से फाडियं जाव नवरं दि फणरसो, एवं विराणा होजा। गते विकडुभ-परिमन्थद्वारे । प्रधानाचार्थद्वार माह वि सव्वपलंगा, जिणगणहरमाइएहिँ गाइन्ना । हु लोउत्तरिया धम्मा, गुगुरुणो तेरा ते एवं ॥ १६०॥ " तथा अपिचेति दूपणाभ्युच्चये, पूर्वोक्त दोपास्तावत् स्थिता एव दूषणान्तरमस्तीति भावः । हु निश्चितं सर्वाणि सचि त्ताचित्ताऽऽदिभेदभिन्नानि मूलकन्दाऽऽदिभेदादशविधादिवास्यानि जितीर्थकर गौतमाऽऽदिभि रादिग्रहणेन जम्बूप्रभवशय्यंभवाऽऽदिभिः स्थविरैरप्यनाचीन्यनासेवितानि, लोकोत्तरिकाश्च ये केचन धर्माः समाचारास्ते सर्वेऽप्यनुगुरी पद्यशः पूर्वगुरुमिवरितं तत्तधव पाचारण्यावरणीयमिति गुरुवारम्यवस्था व्यवहरणीया इति भावः । येनैवं तेन तानि प्रलम्बानि वर्ज्या नि परिहर्त्तव्यानीति । वृ० १ उ०२ प्रक० । ( श्रत्र विधिः प्रणाम' शब्दे प्रथमभागे ३०५ पृष्ठे गतः ) श्रयं सर्वोऽपि विधिनिषेधानाधित्योः । (१३) अथ निर्धधीरधिकृत्यामुमेवातिदिशन्नाह एसेच गमो नियमा, निम्गंधी पि होइ नाच्यो । सविसेसतरा दोगा, तासि पुरा गिरहमाणी ॥। १६५।। एष एव सर्वोऽपि गमः प्रकारो निर्ग्रन्थीनामपि भवति ज्ञातव्यः, तासां पुनर्गृहतीनां प्रलम्बन हस्तकर्मकरणाऽऽदिना सविशेषतरा दोषा वक्तव्या इति । सूत्रम् sure निग्गंथीण वा आमे तालपलंबे भिन्ने पडिगा - हिए ॥ २ ॥ अस्य व्याग प्राग्वत् । नवरं भिन्नं भावतो व्यपगतजीवं द्रभातीयचतमश्वत्यनु यथा श्रामं भिन्नं कल्पते, अर्थतः प्रतिषेधयनि-न कल्पते । श्रह-यदि न कल्पते ततः किं सूत्रे निबद्धं कल्पत इति ? उच्यते पुनः जइ विनिबंध सुने, तह विगईयां न कप्पई आये । जड़ गिest लग्गति सो, पुरिमपदनिवारिए दोसे । १६६। यद्यपि सूत्रे निवन्धः कल्पते भिन्नमितिलक्षणस्तथापि यतीनां न कल्पते श्रमं भिन्नमपि यदि गृह्णाति ततः स पूर्वपदे पूर्वसूत्र निवारिता ये दोषास्तान् लगति प्राप्नोति । Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंव अभिधानराजेन्धः। फलंब अथ दृष्टान्तमेव समर्थयन्नाहआह-यदि सूत्र अनुज्ञातमपि न कल्पते, तर्हि सूत्रं निर. र्थकम् ? सूरिराह जइ कुसलकपिथाओ, उवभाउ न होज जीवलोगम्मि । सुत्तं तू कारणियं, गेलनद्धाणोमभाईसु । छिन्नभं पि व गगणे,मधिज लोगो निस्थमाओ २०६। कुशलैः पण्डितैः कल्पितास्तेपुतेषु अन्थेष विधिता उपमा जह ना चउत्थपदे, इयरे गहणं कहं होजा ? ॥१६७।। दृशान्ता अस्मिन् जीवलाके यदि न भवेगुरतहि विनाभ्रमिव सूत्रं कारणकतानि च कारणान्यमूनि-ग्लानत्वमध्वा, अव छिन्नं व्यवच्छिन्नमेकीभूतं यदभ्रं तद्यथा प्रचण्डपवनेन भगने मौदर्यम् एवमादिषु कारणेषु कल्पत, तत्र प्रथमतश्चतर्थभने, इतस्ततो भ्राम्यत, एवमयमपि लोको निरामिकस्तरर्थप्रसा तदलाभ तृतीय द्वितीयप्रथमभङ्गेष्वपि पाह-यथा नाम चतु धकदृष्टान्त विकलो दोलामानमानसः संघाऽदिभिरितस्तर्थपदे चतुर्थभने ग्रहणं तथेतरस्मिन् भङ्गत्रये कथं ग्रहणं भवे. तो भ्राम्येत,न कस्याप्यर्थस्य निर्मयं कुर्यादिति भावः। उक्तं चत् ? उच्यते-तथापि कारणतो ग्रहणं भवत्येव, यथा च " तावदेव चलत्यों, मन्तुर्वियपागतः । यावनोत्तम्भवेभवति तथोत्तरत्राभिधास्यते । बृ०१ उ. २ प्रक० । (दृष्टा नेव, (१) दृष्टान्तो नायलम्ब्यते ॥२॥" परं च बहुभिः प्रका न्तफलम् 'दिटुंत' शब्दे चतुर्थभागे २५०६ पृष्ठे गतम्) व्यवस्थापितं दधान्तं प्रमापयन् शिष्यः पाह-भगवन् ! कथमिति चेत् ?, उच्यते यद्येवं ततः क्रियतां अपान्तः। उच्यते :-कुर्म भावार्यतां दत्तएसेव य दिर्सेतो, विहि अविहीए जहा विसम दोस। कर्मेन भवताहोइ सदोसं च तहा, कन्जितर जयाजयफलाइ!।२०३।। मरुएहि य दिटुंतो, कायन्ना सहि श्राणु पुचीए । एष एवं त्वदुको दृष्टान्तोऽस्माभिः प्रस्तुतसूत्रार्थे ऽवतार्यते, एवमिहं अघाणे, गेलने तहेव अोमाम ।। २०७।। तथा विधिना विषमुपभुज्यमानमदोषमविधिना भुज्यमानं मरुकैः ब्राह्मणैः चतुर्भिदृष्टान्तः कर्त्तव्य भानुपा. एवं तदेव सदोषं, तथा कार्ये यतनया फलाऽऽदीनि सेव्यमा. मरुकष्टान्तानुसारेणेहाध्वनि ग्लानत्वे तथैवावमे द्वितीय मानि न दोपायोपतिष्ठन्ते ( इअरे त्ति ) इतरस्मिन् का- पदं द्रष्टव्ययिति नियुक्तिगाथासमासार्थः । ये यतनया वा श्रयतनया वा सेव्यमानानि निर्दोषायोप अथ पूर्वार्द्ध तावद् व्यापालि.. कल्पन्ते । चउमरुग विदेसं सा-हपारए सुणग सत्थवाहे य । अपि च ततियदिणपूतिमुदगं, पारगों सुरणयं हणिय खामो !२०८। आयुहे दुनिसिम्मि, परेण बलसा हिए। परिणामत्थउ एगो, दो अपरिणया तु गतिमोऽतीव । बेताल इव हुञ्जत्तो, होइ पञ्चगिराकरो ।।२०४॥ परिणामो सद्दहती, कम्मपरिणो मतो वितियो॥२०६।। ततिओ एतमकिच्चं, दुक्खं मीरंउ तितं समारो। यथा केनापि शरीरबलदोद्धतेन परवधायाऽऽयुधं नि किं एचिरस्स सिर्ट, अइपरिणामा हियं कुणति ।।२१०॥ सृष्टं मुफ्तं, तञ्च दुर्निसृष्टं कृतं, येन तदेव परेण हृतं गृहीतम्। यद्वा-अनिसृष्टमेवाऽऽयुधं परेण (बलस त्ति) छान्दसत्वाद् पच्छित्तं खु वहिज्जह,पढ़मो अहालहुस धाडितो ततिओ । बलात्कारेण हृतं, ततस्तस्मिन् श्रायुधे दुर्निसृष्टे परेण चउत्थो अतिपसंगा, जाओ सोवागचंडालो।।२११।। जहा चत्तारि मरुश्रा अज्झाइस्सामो त्ति काउं विबलात्कारेण श्राहृते सति तस्यैव तेन प्रतिघातः क्रियते ।। देसं' पत्थिता, तेहि य एगो साहापारगो दिट्ठो, पुच्छिश्रोएवं न्वयाऽप्यस्मादभिप्रेतदृष्टान्तप्रतिघाताय विषदृष्टान्त उप कत्थ वञ्चसि ? । सो भणइ-जत्थेव तुझे, ताहे ते एगम्यस्तः, अस्माभिस्तु तेनैव दृष्टान्तेन न सर्वत्र दृष्टान्तः | म्मि पर्चते श्रद्धाणसीसए सत्थं पडिच्छंति, सो य सत्था क्रमत इति भवत्प्रतिक्षायाः प्रतिघातः कृतः, स्वाभिप्रेत मिलइ, साहापारगों सुणगं सारवेइ । तेहिं भणियं-- धार्थः प्रसाधित इति । यथा केनचिन्मन्त्रवादिना होमजापा किं तुम्भं एएणं । सो भणइ-अहमेयं जाणामि कारणं, तश्री ऽऽदिभिर्वेताल पाहत आगतश्च, स च वेतालः किश्चित्तदी-| ते सत्थेणं समं अवि पचिट्ठा, तेसिं प्ररमो पवन्नाणं सो यस्खलितं दृष्ट्वा दुर्युक्तो दुःसाधितो न केवलं तस्य साध सस्थो मो अन्नो दिसो दिसि पलाइतो, इतरे वि मरुया पंकस्याभीष्टमर्थ न साधयति, किं तु कुपितः सन् प्रत्यनि चजणा सुणगछट्ठा पंकतो पडिता आईव तिसियभुक्खि. राकरः,प्रत्युत तस्यैव साधकस्योन्मत्तत्वाऽऽदिलक्षणापका या तइयदिणे पिच्छंति पूइमुदगं मयगकलेबराउलं, तत्थ ते रकारी भवति एवं भवताऽपि स्वपक्षसाधनार्थ विषदृष्ट्वान्त साहरपारगेण भणिता एवं-सुणगं मारेउ खामो, एयं च उपात्तः स च दुष्प्रयुक्तत्वात्प्रत्युत भवत एव प्रतिशोपघात सरुहिरं पाणियं व पिवामो, अमहा मरिज्जामो, एयं च वे. लक्षणमपकारमादधाति स्मेति । . दरहस्सं श्रावतीप भणियं चेव न दोसों, एवं तेण ते किं च भणिता । तेसि मरुया एक्को परिणामगो, दो अपरिणामगा निरुजस्तविकहभागा, अपत्या अकारण य आवहाए । चउत्थो तु अतिपरिणामो । तत्थ जो सो परिणामगो तेण इय दप्पेण पलंबा, अहिया कज्जे य अविहीए ॥२०शा तं सादापारगवयणं सद्दहियं, अब्भुवगयं च, जे ते दो अपयथा नीरुजस्य विशेषेण कटुकं विकटुकमौषधमित्यर्थः। तस्य | रिणामगा तेसिं एकण साहापारावयणं सोउं कमा । किया यो भोग उपयोगस्तथा कारणे च रोगाऽऽदौ यस्तस्यैव चा- तइयो अहो अकजं कमा वि मे ण सुगंति, सो अपरिणाम विधिना भोगः स उभयोऽप्यपथ्योऽहितो विनाशकरणं जा- गो तिसियमुक्खितो मतो । जो सो बितिो अपरिणामगो यते इत्येवं दर्पण कारणाभावेनाऽऽसेव्यमानानि प्रलम्बान्य-- सो भणति-पयं पयमवस्थाए वि अकिच्चं किं पुण हितानि संसारवर्द्धितानि भवन्ति, कारणे चावमौदाऽऽदा. दुक्खं मरिज्जति ति काउं खइयं गण । जो सो अतिपरिवविधिना प्रयतनया गृहीतानीह परत्र चाहितानि जायन्ते।। णामगो सो भणति-किह चिरस्स सिटुं उपियामी श्रवीते Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब प्रनिधानराजेन्द्रः। पलंब काल जण खतियं । एवं तेहिं फात्तिा खाश्री। तत्थ जेहि तदापि शुद्धपदे चत्वारो लघुकाः प्रायश्चित्तम्,कस्माद्दर्पणाखातियं ते साहापारगेण भणिता-इतो णित्थिना समाणा ध्वानं प्रतिपद्यते इति । यद्वा-अात्मविराधनाऽऽदिकं यत्रापच्छित्तं वहेजह, तत्थे जो सो परिणामगो तेण अप्पसा ऽऽपद्यते तत्र तनिष्पर्श प्रायश्चित्तम् अर्थादापन्नं शषभङ्गद्वये गरियं एगस्स अज्मावगस्स बालोइयं तेण सुद्धा त्ति भ- दुर्भिक्षत्वादध्वगमनं प्रतिपत्तव्यमिति प्रथमतृतीययोरपि णियं पंचगम्भ या दिन्नं । तत्थ जो सो अपरिणामो सो | भङ्गयोः कारणतो भवेदध्वगमनम्। णिस्थिन्नो समाणो सुणगक त्ति सिरे काउं माहणमिलिता आह-किं तत्कारणम् ?, उच्यते-- चाउब्वेजस्ल पादेहि पडित्ता साहति,सो चाउब्वेजेण धिद्धिकतो णिच्छूढो । जो सो अइपरिणामगो णथि किंचि अभः | असिवे ओमोयरिए, रायडुट्टे भए वऽनागाढे । पखं पेयं वा अतिपरिणामपसंगण सो मायंगचंडालो गेलम उत्तिमढे, नाणे तह दंसणचरिते ॥ २१४ ॥ जातो।" अथाक्षरार्थ:-चत्वारो मरुका विदेशं प्रस्थितास्त- विवक्षितदेशे आगाढमशिवमौदर्य राजद्विर्ष भयं वा प्र. सः शाखापारमा वेदाध्ययनपारगतो मरुकस्तेषां मिलित. त्यनीकाऽऽदिसमत्थमागाढशब्ठः प्रत्येकमभिसंबध्यते. तथा स्तेन च शुनकः सार्द्ध गृहीतः, अरण्ये च गतानां सार्थ तत्र वसतां ग्लानत्वं भूयो भूय उत्पद्यते । यद्वा-देशान्तरे स्य वधी, मोषणं, ततस्तैमरुकैरेका दिशं गृहीत्वा पलायि- ग्लानत्वं कस्यापि समुत्पन्नं. तस्य प्रतिजागरणं कर्त्तव्यम्। तैः तृतीयदिने पूतिकुथितं मृतकडेवराऽऽकीर्णमुदकं दृष्टं, उत्तमार्थ वा कोऽपि प्रतिपन्नस्तस्य निर्यापनं कार्यम् । तथा शाखापारगो वक्ति-एनं शुनकं हत्वा भक्षयामः । अत्र चैकः विवक्षिते देशे शानं वा दर्शनं चारित्रं वा नोत्सर्पति । परिणामको, द्वौ अपरिणती अपरिणामको, अन्तिमश्चतुर्थोऽतीव परिणामकः प्रथमःशाखापारगवचनं श्रद्दधते.द्वितीयः | एएहि कारणेहिं, आगाढेहिं तु गम्ममाणेहिं । पुनरपरिणातः कौँ स्थगितवान् ,न शृणु म एनां वार्तामपीति उवगरण पुव्वपडिले-हिएण सत्थेण गंतव्वं ॥ २१५॥ कृत्या मृतः। तृतीयोऽप्यपरिणतश्चिन्तयति-पतदेतस्यामप्य- एतैरनन्तरोतः कारणैरागाद्वैः समुत्पन्नः सद्भिर्गम्यते, ग. घस्थायामकृत्यं परं किं क्रियते दुःसहं मर्तुमिति शुन च्छद्भिश्चाध्वप्रायोग्यमुपकरणं गुलिकाऽऽदिकं गृहीत्वा साकभक्षणं कर्तुं समारब्धः । चतुर्थस्त्यतिपरिणामका-किमिः | र्थः पूर्वमेव प्रत्युपेक्षणीयस्तेन पूर्वप्रत्युपेक्षितेन सार्थेन सापतः कालात् शिष्टं कथितमित्युक्त्वा अधिकं करोति, गो | ई गन्तव्यम्। गर्दभाऽदिमांसान्यपि भक्षयतीति। शाखापारगेण च ते भणि अत्र विधिमाहता:-अटव्या उत्तीर्णाः प्रायश्चित्तं वध्वं, तत्र यः प्रथमः परिणामकः स यथालघुकप्रायश्चित्तेन शुद्धो, द्वितीयस्तु प्रद्धाणं पविसंतो, जाणगनीसाए गाइए गच्छं। मृत पत्र, तृतीयो निर्धारितश्चातुर्विद्यः पर्बहिष्कृत इत्यर्थः । अह तत्थ न गाहेजा, चाउम्पासा भवे गुरुगा ॥१६॥ चतुर्थश्चातिप्रसङ्गात् नास्ति किश्चिदभयमपेयं चेति श्व अध्वानं प्रविशनाचार्यो शायको गीतार्थत्तनिश्रया गच्छं पाकरूपश्चण्डाला जात इति। सकलमप्यध्वकल्पस्थिति प्रायति । अथ तनावप्रवेशेऽध्यअयोपयोजनमाह कल्पस्थितिमाचार्या न पाहयेयुस्ततश्चतुमाला गुरवः प्रायजह पारगो तह गणी, जह मरुगा एव गच्छवासी उ । | श्चित्तं भवेयुः। सुणगसरिसा पलंबा, मडतोयसमं दगमफासं ॥२१२॥ स्यान्मतिः कथं वा गच्छमध्वकल्पं प्राहयतीति? उच्यतेयथा शाखापारगस्तथा गणी आचार्यो, यथा चत्वारो म. गीयत्येण सयं वा, गाहइ छडितो य पच्चयनिमित्तं । रुका एवममुना प्रकारेण गच्छवासिनः साधवः, शुनकसहशान्यत्र प्रलम्बानि,विप्रकृष्टाध्याऽऽदिकारणं विना साधूना सारिंति तं सुयत्था, पसंग अप्पच्चो इहरा ।। २१७।। मभक्षणीयत्वात् । मृततोयसमं मृतकडेवराकुऽऽलोदकतुल्य यद्याचार्य आत्मना केनाऽपि कार्येण व्यापृतस्ततोऽन्ये. मप्रासुकोदकं ज्ञातव्यम् , अपेयत्वात्। मोपाध्यायाऽऽदिना गीतार्थेन,अथ न व्यापृतस्ततः स्वयमानथ यदुतम्-" एवमिहं श्रद्धायो, गेलो तहेव भोम स्मनवान्यगीतार्थान् पुरतः अर्द्धकल्पसामाचारी गच्छं ग्राम्मि।" तत्राध्यद्वारं विवृणोति हयति. स च कथको प्रायन्नन्तरान्तरा अर्थपदशातं छई. यन् परित्यजन् कथयति. ततो ये ते श्रुतार्था गीतार्थास्ते उहदरे य सुभिक्खे, श्रद्धाण पवजणं तु दप्पेणं । तदर्थे यदथे पद जातं त्यक्त्रं तत स्मारयन्ति, यथा विस्मलहुगा पुणऽद्धपदे, जं वा श्रावजती तत्थ ॥२१३ ॥ तं भवतामेव तञ्चतश्चार्थपदमिति । किंनिमित्तमेवं क्रियते ?, ऊ दरः पूर्यते यत्र काले तदृर्द्धदरं, प्राकृतरील्या उद्ददरं, इत्याह-अगीर्थानां प्रत्ययनिमिसं-यथा सर्वेऽप्येते यदेनां ते दरा द्विविधाः-धान्यदरा उदरदराश्च । धान्यानामाधारभू सामाचारीमित्थमेव जानन्ति, तत् नूनं साऽन्यैवेयमिति इनता इरा धान्यदराः, कटपल्ल्यादय उदराण्येव दरा उदर- रथा यद्येवं न क्रियते, ततस्तेषामगीतार्थानां मध्ये ये श्रतराः। ते उभयेऽपि यत्र पूर्यन्ते तदुर्द्धदरम्। तथा-सुभिक्षं भि- तिपरिणतास्ते अध्वन उाि अपि तत्रैव प्रसनं कुर्युः । क्षाचरैः सुलभाभक्षम् । अत्र चतुर्भङ्गी-ऊर्द्धदरं सुभिक्षं च १. ये त्वपरिणामकास्तेपामप्रत्ययो भवेत् , यथैते दानाभव स्वऊर्द्धदरं न सुभिक्षर,सुभिक्ष नोर्द्धदरम्३, नोदरं नो सुभिक्षम् युद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितामेवंविधां स्थिति कुर्वन्तीति शिष्यः ४। तत्र प्रथमभङ्गे तृतीयभङ्गे वा यदाध्वानं दर्पण प्रतिपद्यते । माह-या काचिदध्वनि प्रलम्बग्रहणे सामाचारी तामिदाबदा यद्यपि न मूलासरगुणविराधनाऽऽदिकं किमध्यापद्यने,। नीमेव भगत । Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंच गुरुराद्द श्रद्धा जयणाए, परूवणं वक्खती उवरि सुते । ओमेवर बोच्छ, रोगायकेसिमा जयथा ।। २१८ ॥ अध्वनि या मन्वमये पतना सामाचारी त रूपाः प्ररूपणमुपरि अधः सूत्रे देवोदेशके वक्ष्यति, अयमेsपि यः कोऽपि विधिः स सर्वोऽप्युपरि इहैव प्रलम्ब प्रकृते वक्ष्यते । अत्र पुनर्यत् ग्लानत्वद्वारं तदभिधीयते । तच्च लानत्वं द्विधा-रोग, भात तयोः रोगाऽङ्कपोईयो रपीयं वच्यमाणलक्षणा यतना । अत्र तिष्ठतु तावद्यतना, रोगाऽऽतयोरेव कः परस्परं विशेषः ?, उच्यतेगंडीकोटखयाssदी, रोगो कासाइयो य आर्यको । दीहरुमा बी रोगो, आतंको अनुपाती ॥ २६ ॥ गडी गमालादिकः कुठं पारारोग, मल यो राजश्मा आदिमात् श्लीपद्श्वयथुगुल्मादिकः सर्वोऽपि रोग इति व्यपदिश्यते कासादिकस्तु आतङ्क आदिग्रहणेन वासशुलहिकाज्यरातिसाराऽऽदिपरिग्रहः । अथवा दीर्घकालमायिनी सर्वाऽपि म रोग उच्यत । यस्तु आयुधतीविसूचिकादिकः सत बा अथ सामान्येन ग्लानत्वे विधिमाहगेल पि यदुविहं श्रगाढं चेव नो श्र श्रगाढं । गाढे कमकरणा, गुरुगा लहुगा अगागाढे ।। २२० ॥ लानत्वमपि द्विविधम्- श्रगाढं चैव, नो आगाढम् श्रनागांढमित्यर्थः । श्रगाढे यदि क्रमेण पञ्चकपरिहाराया करोति तत खत्यारी गुरव, अनागाडे तु यदि आगाढकरणीयं करोति सदा चत्वारो लघवः । (७१३) अभिधानराजेन्ड: एतदेव स्पष्टयन्नाह गाढमणागाढं, yogत्तं खिप्परगहण मागाठे | फासुगमफासुगं वा च परियहंतणगाडे ।। २२१ ।। आगाढम् अनागाई व पूर्वोक्रम्-"अडकविविइत्या दिना पूर्वमेव्यात विसूचिका ला नये समुत्प प्राशुकस अायुकं वा एपीपी या चिप्रमेव गृहीतव्यम्, आगाढे विःपरिवर्तन रूपया, पञ्चकपरि हाणिरूपया वा यतनया क्रमेण गृह्णन्ति ततश्चत्वारो गुरवः, अनागाडे पुनखिकृत्वः परिवर्तने कृतेऽपि यदि शुद्धं न प्राप्य परिवर्ते पञ्चकादिवतनया नेपीय वृहाति । श्रथ " श्रनागाढे ति" परिवर्तनं पञ्चकपरिहाणि या न करोति ततब्धपवः । अथ ग्लानत्वाविषयां यतनामाहविजे पुच्छा जयगा. पुरिसे लिंगे य दव्यगहये व । पिट्टमपि आलो पणा य पद्मवश जयणा प ॥ २२२ ॥ प्रथमती वैद्यस्वरूपं ततस्तत्पार्श्वे यथा प्रय तना क्रियते तथा वाच्यं, पुरुष आचार्यऽऽदिको ऽभिधातव्यः, लिङ्गेन वा यथा प्रलम्बग्रहणं भवति यथा वक्तव्यं, द्रव्यअसं या लेपाऽऽदियोपादानमभिधानीयम् पिस्य व प्रलम्बग्रहणे विधिर्वक्रव्यः, तत आलोचना प्रशापना यतना व्यानिनिगाथासमासार्थः । S. १७६ पलंब अथ तस्या एव भाष्यकृत् व्याख्यानमाह बिग एगबुगाss - दिपुच्छ जाचको । इह पुरा दव्वपलंबा, तिनिय पुरिसाऽऽयरियमाई । २२३| वैद्याष्टकमष्टौ वैद्या:-" संविग्गमसंविग्गा २, लिंगी ३ तह लावर ४ श्राभद्दे ५ । अभिग्गद्द मिच्छे ६ तर ७, अट्टमए नत्थी ८ ॥ १ ॥ " इति गाथोक्ताः प्रष्टव्याः । एते व मासकल्पप्रकृते ग्लानद्वारे व्याख्यास्यन्ते । एतेषां त्र प्रच्छने इयं यतना - वैद्यस्य समीपे एकः प्रच्छको न गच्छति मा यमदण्ड भागत इति निमित्तं प्रहीत् । द्वायपि न वजतः यमदूतायेताविति मननात् । आदिशब्दात् च त्वारोऽपि न व्रजन्ति नीहरणकारिण पते इति कृत्वा यत एवं ततस्त्रयः पञ्च वा गन्तव्या इति, इत्यादिको विधिस्तावद् शेयो यावत् किमस्मिन् रोगे प्रतिकर्तव्यमिति पृष्टः सन् स वैद्यश्चतुष्कोपदेशं दद्यात् । तद्यथा - द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतो, भावतश्च । एते ग्लानद्वार एव व्याख्यास्यन्ते । 1 पुज्यतः प्रलम्बानि पुरुषाश्य जय आयार्याध्य चार्योपाध्यायमितरूपा इष्टव्या इति । तष वैद्यः पृष्टः क दाचिदेवमभिदध्यात् - इ-यादृशं रोगं यूयं कथयत ईदृशस्योपशमनार्थमिदं वनस्पतिजातं ग्लानस्य दातव्यम् । स च वनस्पतियों यस्य रोगस्योपशमनाय प्रभवति तद्विषयं तमभिधित्सुराइ पडले माउलिंगे, एरंडे चैव नियपणे य पिद संनिवार, बायकोचे व सिंव ।। २२४ ।। पित्ताइये पद्मोत्पलमौषधं निपाते मातुलि बीजपूरकं यातोत्राणि (स) सेप्योदये निम्बपचाणि । अथ यदुक्तम्--" निश्शि य पुरिसाऽऽयरियमाइ ति " तदेत द्भावयति गणि वसभ गीय परिणाममा य जायंति तं जहा दब्बं । इपरे बाउला, नायंसि य मेडिपोउपमा ।। २२५ ।। योऽसौ ग्लानः स गणी आचार्यो, वृषभ उपाध्यायो भि सुधेति यः पुरुषाः अत्र या गीताय गीताश्व परिक्षाम को परिणामको वा लगभगीतार्थमिचू astri genre प्राशुकेपणीयेन इत्येवाऽऽलेपाऽऽदिना कर्त्तव्यं यदा प्राशुकमेवणीयं वा न प्राप्यते तदा तदितरे यापि कर्त्तव्यम् । एतेषां च यद् यथा गृहीतं तत्तथैव निवेद्यते, निवेद्यन्ते च ते तथैवाऽऽगमप्रामाण्येन सवित्तमचित्तं वा शु मशुद्धं वा द्रव्यं यद्यन्मिन्नवसरे कल्पते तद्यथावतू जान न्ति । यस्तु गतार्थः परं परिणामकः सोऽपि यद्यथा क्रियत तत परिणामकारकथनं सजानीने इतरे अपरिखामकाः सन्तो ये अगीतार्थास्तेषां न कथ्यते । यथाप्राशुकमनेषणीयं वा गृहीतं किं तु तेषां व्याकुलना क्रियते यथा अमुक दात्मार्थ कृतनानीनामदम् अ कथमपि तैर्शातं यथा- एतदप्राशुकमनेषणीयं वा ततो ज्ञांत सति भण्डी गन्त्री पोतः प्रवहणं, तदुपमा कर्तव्या । यथाजा एगदेसे श्रदढा उ भंडी, सीलप्पए साउ करेति कजं । जा दुबला सीलविया वि संती, न नं तु सिित विसिन्नदारुं " ॥ १ ॥ शीलाप्यते. समारच्यते इत्यर्थः । 46 Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब (७१४) अभिधानराजेन्द्रः । पलंब तथा एतच नियुक्तिमङ्गीकृत्योक्तम् । भाष्यमाश्रित्य तु-'अमुगागहे "जो एगदेसे अढो उ पोतो, सीलप्पए सो उ करेइ कजं । पञ्चश्रोऽगीए " इति पर्यन्तं द्रव्यं. नवरं तासामाम प्रलम्बे जे दुब्बलो सीलावो वि संतो न तंतुलितिविसिन्नदारु।२" भिन्नाभिन्नपदाभ्यां विधिभिन्नाविधिभिन्नपदसहिताभ्यां षड्एवं त्वमपि जानी अहं प्रगुणीभविण्यामि, प्रगुणीभूत भङ्गाः कर्तव्याः, ते चानन्तरसूवे स्वस्थान एव भावायष्यन्त । श्य प्रायश्चित्तं बोडास्मि । अपरं च स्वाध्यायवैयावृत्यतपःप्र. (१४) सूत्राणि-- भृतिभिरधिक लाभमुपाजयिष्यामीति तत इदं प्रतिसेवखा- कप्पा निग्गंधीणं पक्कं तालपलंबे भिन्ने वा पडिगाहित्तए कल्पनीयम् । अथेत पामसमर्थस्ततो मा प्रतिसेवस्वेति गतं ॥३।। नो कप्पइ निग्गंथीणं पक्के तालपलंबे अभिन्ने पडिवैद्यप्रच्छ नयतनापुरुषलक्षणं द्वारत्रयम् । गाहित्तए ॥४॥ कप्पइ निग्गंथीणं पक्के ताललंबे भिन्ने पअथ लिङ्गाऽऽदीनि सर्वाण्यपि द्वाराणि गाथाद्वयेन भावयति ढिगाहितए,से वि य विहिभिन्ने,नो चेवणं अविहिभिन्ने।।शा सो पुण आलेवो वा, हवेज अाहारिमं व मिस्सियर । पतानि श्रीणि सूत्राणि समकमेव व्याख्यायन्ते-कल्पते पुच्वं तु पिट्ठगहणं, विंगरणजं पुवछिन्नं वा ।। २२६ ।। । निर्ग्रन्थीनां पक्कं तालप्रलम्बं द्रव्यतो भिन्नं वा प्रतिगृहीतुम्; भावियकुलेसु गहणं, तेसऽसति सलिंगगेण्हणाऽवन्नो। | नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां पक्कं तालप्रलम्बमभिन्नं प्रतिगृहीतुम् ; विकरणकरणाऽऽलोयण,अमुगगिहे पञ्चमोऽगीते ।२२७/ कल्पते निर्ग्रन्थीनां पक्कं तालप्रलम्बं च द्रव्यो भिन्नं प्रयो वनस्पतिभेदो व्रणादौ पित्तोदयादौ वा उपयुज्यते,स तिग्रहीतुं, तदपि च विधिभिन्नं विधिना वक्ष्यमाणलक्षपुनरालेपो वा स्याद् बहिः पिएडीप्रदानाऽऽदिक इत्यर्थः। आ णेन भिन्न विदारितं, नैव, णं वाक्यालङ्कारे। अविधिभिन्नहारिमं वा बीजपूराऽऽदिकं, तच्चोभयमपि प्रथमतोऽचित्तं, त. मिति सूत्रार्थः। बृ० १ उ० २ प्रफ. । ( 'पक' शब्देऽस्मिदलाभे मिश्रम् ,अस्याप्यभावे इतरत् सचित्तम्। अथ वा मिथं नेव भागे तन्निक्षेपः कृतः) नाम-यदालेप आहारयितव्यं च भवति. इतरत्राम-यन्नाले अथ भिन्नाभिन्नपदे व्याचष्टेपो नाहारयितव्यं, तच्च स्पर्शन स्पर्शनीयं वा स्यात् पो. पक्के भिमे समणा-ण वि दोसे किं तु समणीणं । त्पल वत्.नालिकया अाघ्रातव्यं भवेत्पुष्पाऽऽदिवत् । एतावता समणे लहयो मासो, विकडुभमाई य ते चेव ॥२३६।। द्रव्यग्रहणद्वारं व्याख्यातम् । अथ पिष्टापिष्टद्वारम्-तत्राss. पक्कं यन्निर्जीवं तद् द्रव्यतो भिन्नं वा स्यादभिन्नं वा । तत्रोलेपाऽऽदिकं सर्वमपि यत्पूर्व पिष्टं लभ्यते तस्य ग्रहणं कर्त भयेऽपि श्रमणानामपि दोषा भवन्ति, किं तु किं पुनः श्रमन्यम् पूर्वपिष्टस्यालाभे तृतीयेनाऽपि भङ्गेन तस्याप्यलाभे द्वि णीनां, श्रमणा यदि गृहन्ति ततो मासलघु. द्वाभ्यामपि तपःतीयेन,तस्याप्यसति प्रथमभङ्गेन यत् पूर्वच्छिन्नं तद्विकरणं कृ. कालाभ्यां लधुकं विकडुभपलिमन्थाऽऽदयश्च त एव दोषाः । त्वा ग्राह्य , विविधमनेकप्रकारं करणं खरा इनं यस्य तद्वि इदमेव स्फुटतरमाहकरणं,तत्तादृशं चानीय पेषणीयम्। पतेन च यदधस्तादुक्तम् आणाऽऽदिरसपसंगा, दोसा ते चेव जे पढमसुत्ते । " इयरे गहणं काहं होजा?," इति, तदेवं भवेदिति प्रति. पत्तव्यम् । अथ पूर्वच्छिन्नं न लभ्यते तत आत्मनाऽपि छिन्द इह पुण सुत्तनिवाओ, ततियचउत्सु भगेसु ।। २३७ ।। न्ति,तच पूर्वच्छिन्नं भावितकुलेषु ग्रहीतव्यम् तत्र यानि श्रा अाज्ञाऽदया रसप्रसङ्गाऽदयश्च दोषास्त एव पकप्रलम्बग्रहद्वकुलानि मातापितृसमानानि साधूनामपवादपदे प्राशुका णेऽपि भवन्ति ये प्रथमसूत्रेऽभिहिताः । यद्येवं ततः सूत्रम5ऽदिकं गृह्णतामनुड्डाहकारीणि तानि भावितकुलान्युच्यन्ते, पार्थकमित्याह-इह पुनः सूत्रनिपातस्तृतीयचतुर्थयोर्भङ्गयोतेपामसति यद्यभावितकुलेषु स्वलिन गृह्णाति ततो महा. र्भवति, भावती भिन्नमिति कृत्वा तृतीयचतुर्थरूपं भङ्गद्वयनवर्मो भवति, अतस्तेष्वन्यलिङ्गेन ग्रहीतव्यम् । इति लिङ्ग मधिकृत्य मूतं प्रवृत्तमिति भावः। द्वारमपि व्याख्यातम् । अथवा भावितकुलानामभावे यानि एमेव संजईण वि, विकडुभपलिमयमाइया दोसा। सुप्रज्ञापनीयानि कुलानि तानि प्रज्ञाप्य मार्गयति गृह्णाति च कम्माईया य तहा, अविभिन्ने अविधिभिन्ने च ।।२३८।। एपा प्रज्ञापना मन्तव्या। एतानि पुनः प्रथमद्वितीयभङ्गव एवमेव संयतीनामपि विकटुभपलिमन्थाऽऽदयो दोपाः । तीनि प्रलम्बानि यत्र गृहीतानि तत्रैव विकरणानि कृत्वा तथा अविभिन्ने प्रविधिभिन्ने च प्रलम्बे हस्तकर्माऽऽदयः सश्रानीय गुरुसमीपे श्रालाचयति श्रगीतार्थप्रत्ययानमित्तं, शिवपा दोषा मन्तव्याः, श्रतस्तासां विधिभिन्नमव कल्पते यथा-मुकस्य गृहे साधे कृतानि मया लब्धनीति : पपा श्रा नाविधिभिन्नम्। लोचना । यतना तु सर्वथा पूर्वच्छिनानामलामे स्वयमपि अत्र च पड़भङ्गीमाहछत्तव्यानि च प्रथमं परीत्तानि, ततोऽनन्तान्यपि पूर्व स्वलिङ्गन,तत इतरेणापि, एतच निर्ग्रन्यानाश्रित्य भगितम्। विहिअविहीभिन्नम्मि य, समणीणं होंतिमे तु छब्भंगा। अथ निर्घन्धीनां विधिमनिदिशन्नाह पहमं देहि अभिन्नं,अविहिविही दयविइ तइए ॥२३६।। एसेव गमो नियमा, निग्गी पि नवरि छम्भंगा। । एमेव भावतो विय, भिन्न तत्धेक दानाऽभिनं । आमे भिन्नाभित्रे, जाव पउमुप्पलाईणि ॥२२७।। पंचमें छट्टे दोहि वि, नवरं पुण पंचमे यविही ॥२४॥ पप एवंग मो नियमात् निर्ग्रन्धीनामपि ज्ञातव्यो.यावत्यो । " से विय विहिभिने नोचव गं अविहिमिन" इत्यत्र पला दान " पडमुरल माउलिगे " इत्यादिगाथा यावत । थमानां सूत्र इमे पइभा भवन्ति । " पहम इ. Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लंब पलंब निभानगजेन्द्रः। त्यादि । प्रथमं द्वाभ्यामपि भावद्व्याभ्यां वा भावतोऽभियांद नमेनासां तीर्थकता नैप दोषो दृष्टः, असर्व एवामूषां मुव्यनोप्यभिन्नम्। द्वितीय भावतो भिन्नं द्रव्यतोवाधारीत. त्याधिविराधना या भवेत् । तत्र च देव्या दृष्टान्तो वतीयं भावतोऽभिन्नं व्यती विधिभिन्नम् । एवमेव भावती तभ्यः । यदि च तत्या अपि देव्याः प्रतिसेचनाकौतुकं सभिनऽपि भगवयं न चतुथ भावतो भिन्नं द्रब्यनोऽभिग्नं, गानि कि पुनः श्रमणीनामिति वक्तव्यम् । ताश्च श्रमाया पञ्चमपठो भङ्गो द्वा यामपि भिन्ना, नवरं केवलं पञ्चमे अ. द्विविधाः-शुक्रभागिन्यो मुक्त मागिन्यति समासार्थः । अथ विधिभिन्नं, भावता भिन्नं द्रव्यताविधिभिन्नमिति भावः ।। विस्तरार्थोऽभिधीयते-तत्र प्रथमभिन्न महाव्रतपृच्छाद्वारं अर्थादापनं पष्ठे भावतो भिन्न, द्रव्यतो गिधिभिन्नभिति । शिष्यः पृच्छति-निम्रन्थानां भिन्नभिचं वा एवं कल्पते, अथ षट्स्वपि भङ्गेषु यथाक्रमं प्रायश्चित्तमाह निर्ग्रन्धीनां पुनभित्रमेव फल्पते, नाभिन्नं, तदपि विधिभिन्न मित्यत्र यथा भेदस्तथा किमेवं महावतेष्वपि तासां भेदः, लघुगा तीसु परित्ते, लघुओ मासो उ तीसु धंगेसु । यथा किल तत्र नग्निकानां मते भिक्खूणामतृतीयानि शि. मुरुगा होति अणंते, पछित्ता संजईणं तु ॥ २४१॥ क्षापदशतानि भिक्षुणीनां पञ्च शिक्षापदशतानि एवं किं निआधेषु त्रिषु भङ्गेषु परीत्तवनस्पती चत्वारो लघुकाः प्रा. ग्रन्थीनामपि पद महाव्रतानि. दश वा, येनैवमभिधीयते ।। ग्यत्तपःकालविशेषिताः भावतोऽभिन्नत्वात् । उत्तरेषु त्रिषु उच्यतेभङ्गेषु परीत्तवनस्पतावेच लघुको मासस्तपःकालविशेषि न वि छ महव्वया ने-व दुगुणिया जह उ भिक्खुणावग्गे। तः प्राग्वत् , भावतो भिन्नत्वात् । अनन्तवनस्पती तु त ए बंभवयरक्खणट्ठा, न कप्पती तं तु समणीणं ॥२४६।। व गुरुकाः कर्तव्याः, चत्वारो गुरवो गुरुमासश्चेति भावः । नाऽपि निर्ग्रन्थीनां पद महाव्रतानि, नैव साधूनां संबइत्थं पदस्वपि भङ्गेषु संयतीनां प्रायश्चित्तानि द्रष्टव्यानि । धिभ्यः पञ्चमहावतेभ्यो द्विगुणितानि, दशेत्यर्थः । यथा अथ हस्तकर्मिसंभवासंभवौ चेतसि व्यवस्थाप्य प्रकारा सौगताना मते भिक्षुणीवर्गे द्विगुणानि शिक्षापदानि भवन्ति न्तरेणात्रव प्रायश्चितमाह न तथाऽत्र, किं तु पञ्चैवेति भावः । यद्येवं तर्हि किमर्थमत्र अहवा गुरुगा गुरुगा, लहुगा गुरुगा य पंचमे गुरुगा । निर्ग्रन्थीनामभिन्नं न कल्पत ?। उच्यते-ब्रह्मवतरक्षणार्थ तज अभिनं श्रमणीनां न कल्पते,मा करकर्माऽऽदिकमनेन कार्यु। छट्टसि हवति लहुओ, लहुगत्थाण गुरूऽणते ।।२४२।। रिति कृत्वा । अथवा प्रथमे भङ्गे गुरुका अभिन्नत्वात् , द्वितीयेऽपि गुरु- न केवलमवैव प्रलम्बे श्रमणीनां विशेषः, किं वन्यत्रापीति का अविधिभिन्नत्वात् , तृतीये लघुका विधिभिन्नत्वात् , दर्शयतिचतुर्थ गुरुकाः अभिन्नत्वात् , पञ्चमेऽपि गुरुकाः प्रविधि- अन्नत्थ वि जत्थ भवे, एगयरे मेहणुब्भवो तं तु । भिन्नत्वात् , पप्ठे लघुको मासी विधिभिन्नत्वात् अचित्तत्वा. तस्सेव उ पडिकुटुं, विइयस्सऽन्नेण दोसेणं ॥२४७॥ च्च । एतश्च परीत्ते भणितम् , अनन्ते तु लघुकस्थाने गुरुकं, अन्यत्रापि यत्र भुक्ने स्पृष् वा (एगयरे इति) षष्ठीयत्र चतुल ववस्तत्र चतुर्गुरवो यत्र लघुमासस्तत्र गुरुमास सप्तम्योरथ प्रत्यभेदादेकतरस्य साधुपक्षस्य साध्वीपक्षस्य तु इत्यर्थः । सदैवान्येनासंयमलक्षणेन दोपेण प्रतिषिध्यते । आयरिउ पवत्तिणीए, पवत्तिणी भिक्खुणीऍ न कहेइ । निदर्शनमाहगुरुगा लहुगा लहुओ, तत्य वि आणाइणो दोसा ।।२४३।। निल्लोमसलोमऽजिणे, दारुगदंडे सवेंटपाए य । गेण्हतीणं गुरुगा, पवित्तिणीए पवित्तिणी जइ वा । बंभवयरक्खणट्ठा, वीसुं वीसुं कया सुत्ता ।। २४८॥ न मुणेती गुरुलहुगा, मासलहू भिक्खूणी जाव ।।२४४॥ यथा निर्ग्रन्थानां निर्लोमाजिनं स्मृतिकरणकौतुकाऽऽदिदो पपरिहारार्थ प्रतिषिद्ध, निर्ग्रन्थीनां पुनः प्राणिदयानिमित्तमएतत्प्रलम्बसूबमाचार्यः प्रवर्तिन्या न कथयति चवारी गुरवः, प्रवर्तिनी भिक्षुणीनां न कथयति चत्वारो लघवः, तिरिक्तोपधिभारपरिहारार्थ च तदेव प्रतिषिध्यते । एवं सयदि भिक्षुण्यो न शृण्वन्ति ततो लघुमासः । तत्राप्यक लोमाजिनं निर्ग्रन्थीनां स्मृतिकरणाऽऽदिदोपनिवारणार्थ निथने अश्रयणे वा आक्षादयो दोपाः। यदि भिक्षुणीनां प्रल धन्धानां पुनस्तदेव प्राणिदयानिमित्तं प्रतिषिद्धम् । दारुदण्ड कंपादप्राञ्छनं संवृतपावं च निर्ग्रन्थीनां ब्रह्मव्रतानुपालनार्थ, म्वं गृहनीनां प्रतिनी सारणाऽऽदिकं न करोति तदा प्र. निर्ग्रन्धानां निर्ग्रन्थानां पुनरतिरिक्तोपधिदोपपरिहरणार्थ वर्तिन्याश्चत्वारो गुरवः प्रवर्तिनी यद्याचार्याणां कथयतां न शणोति तदा चत्वारो गुरवः, प्रवर्त्तिन्याः पार्थे गणा. नानुभातम् । एवं ब्रह्मवतरक्षणार्थ निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च बच्छदिनी न शृणोति चत्वारो लघवः, अभिपेका नश. विष्वक् पृथक् पृथक सूत्राणि कृतानि ।। श्राह-कोदवादेव प्राणिनां मैथुनोयो भवति ततः किपोति मामगुरु, भिजणी न शृणाति मासल यु। मेवं सलामाऽऽदिपरिहारः क्रियते ? । उच्यतअथ निर्ग्रन्थीरधिकृत्य द्वारगाथामाह नलि अनिदाणो हो-इ उम्भवो तेण परिहर निदाणं । अभिन्ने महब्बयपुच्छा, मिच्छत्तविराहणा य देवीए। ते पुण तुल्लाऽतुल्ला, मोहनिदाणा दुपकाव वि ।।२४६।। कि पुण ता दविहायो, भुत्तभोगा अभीगा य ॥२४५॥ निदानं कारणमित्य कोऽर्थः। तचेहेष्टशब्द परसगन्धस्पर्शाssअभिन्न महावतपृच्छा कर्तव्या, तथा अङ्गादानसहश- त्मक,यत्प्रतीत्य पुरुपवेदाऽऽदिमोहनीयमुदयमासादयति। तदुमभिन्न प्रलम्वं गृह्णन्ती निर्ग्रन्थी दृष्टा कश्चित् मिथ्यात्वं कम्-'कालं भावं च भवं दवं खेत्तं तहा समासज । तस्स समा. व्रजेत्-यदेग अादानाऽऽकारमर्वविधफलं गृहाति, तन- मुष्टिी, उदयो कम्मरस पंचविहो। ततश्च नास्ति न Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लेब अभिधानराजेन्डः। पलंब विद्यते एतत् यदनिदानको निदानमन्तरेण मोहनीयोद्भवो अप्येवंविधं कौतुकमजनिष्ट, किं पुनः श्रमणीनां निलनि भवति, तेन कारणेन परिहर निदानमिएशब्दाऽऽदिरूपं, ते रोधानां भुक्तानामितरासां वा अभुक्तानाम् । पुनः शब्दाऽऽदयो मोहनिदानभूता द्वयोः पक्षयोः समाहारो इदमेव स्पष्टयन्नाहद्विपक्षं स्त्रीपुरुषवर्गवयं, तस्मिन् द्विपक्षेऽपि मोहोडवं प्रति कसिणाविहिभिन्नम्मि य, गुरुगा भुत्ताण होइ सइकरण । केचित् तुल्याः केचिरवतुल्याः। इयरासिं कोउगाई, धिप्पंते जंच उडाहो ।। २५२ ।। तानेषाऽऽह कृत्स्नमभिन्नं, तत्र, अविधिभिन्ने च श्रमणीनां चत्वारोगरसगंधा तहि तुला, सद्दाई सेस भय दुपक्खे वि।। रुकाः, भुक्तभोगिनां स्मृतिकरणम्, इतरासां तु कौतुकाssसरिसे वि होइ दोसो,किं पुण ता विसमवत्थुम्मि १।।२५०॥ दयो दोषा भवन्ति तस्मिश्वालादानाऽऽकारे गृह्यमाणे यच्चीश्रीणां पुरुषाणां च तन मोहोद्भवे रसगन्धास्तुल्याः। कि हाहो भवति यथा नूनमेतेनैषा पादकर्म करिष्यति, तन्नि मुक्तं भवति?-यथा स्निग्धमधुराऽऽदिरसैनिकचन्दनादि पन्नमपि प्रायश्चित्तम्। गन्धैश्च पुरुषाणामिन्द्रियागि मोहोद्रेकभाजि भवन्ति, तथा तेन च प्रलम्बेन पादकर्म कृत्वा चिन्तयतिस्त्रीणामपीति मोहोद्भवं प्रति रसगन्धास्तुल्याः। शेषान् श. जइ ताव पलंबाणं, सहत्थणुमाण एरिसो फासो । म्वरूपस्पर्शान् भज विकल्पय द्विपक्षेऽपि उभयपक्षयोरपि, किं पुण गाढालिंगण,इयरम्मि य निदो छो॥२५३॥ यतः पुरुषस्य पुरुषसंबन्धिनि शब्छे श्रुते रूपे दृष्टे स्पर्श यदि तावत्प्रलम्बानां वहस्तेन नुन्नानां, गुदप्रेरणे। प्रेरिताना बिम्पृऐ मोहोदयो भवेद्वा न वा यदि भवेन्न तारशस्ती. मित्यर्थः । ईदृशः स्पर्शः, किं पुनर्गाढाऽऽलिङ्गनेन इतरस्मिप्रः । पुरुषसंबन्धिषु प्रायो भवेत्येव, तीवश्च भवति, तदेवं म्नङ्गादाने पुरुषेण (निदो छुद्धे त्ति) निर्दयं यथा भवत्येसहशेऽपि स्पर्शाऽऽदी वस्तुनि दोषो भवति, किं पुनस्ताव वमुत्प्राबल्यन क्षिते सति स्पर्शी भविष्यतीति । द्विपमे विसदृशे वस्तुनीति । यतश्चैवमतः सलोमनिर्लोमा ततश्वत्थं विचिन्त्योदाम प्रबलमोहनीयकर्मा सा इदं कुर्यात्ऽऽदर्दान्य तुल्यानि वा तानि विशेषतः परिन्हियन्ते, अत एव पडिगमणमन्मतित्यिग, सेवे संजयं लिंग हत्थे य। चानाभित्रमविधिभिन्नं च न कल्पते । गतमभिने महावतपच्छेति द्वारम्, सुबोधत्वात् भाष्यकृतान भाषितम् । अथ वेहायसो उहाणे, एमेव अभुत्तभोगी वि ॥ २५४ ॥ विराधनाद्वारम् । अभिनं गृह्णतीनां निर्ग्रन्थीनामात्मनो प्र. काचित् पार्श्वस्थाऽऽदिभ्यः समागता भवेत्, साऽपि तव हमवतम्य घा विराधना भवेत् । अत्र च देव्या दृष्टान्तः। प्रतिगच्छेत्, अन्यतीर्थ केन वा सिद्धपुत्रेण वा प्रात्मानं प्र. तमेवाऽऽह तिसेवयेत्, संयतं वा उपसर्गथत् एतानि वलि स्थिता चीयत्ति कक्कडी को उ-कंटकं विसप्प समिय सत्ये य। । कुर्यात्, हस्तकर्म वा भूयो भूयः कुर्यात् । यद्वा-मया व्रतानि भग्नानीति, कथङ्कारं वा द्राधीयसं कालं परिपालितं शीलरपुणरवि निवेस फोडण, किमु समणि निरोह भुत्तितरा।२५१।। नमहं भन्दयामीति निर्वेददूनमानसा वैहायसं मरणं विद" एगस्स रो महादेवी, तीसे ककडियाओ पियाश्रो, ता- ध्यात् । अथवा-प्रलम्बमोहवशा अवधावनं विदध्यात्। पता. श्री श्र एगो णिउत्तपुरिसो दिणे दिणे आणेति, अन्नया तेण नि पदानि भुक्तभोगिनी कुर्यात् । श्रभुक्तभोगिन्यप्येवं कुर्यात् । पुरिसेण अहापवित्तीए अंगादाणसंठिया ककडिया मा- शिष्यः प्रश्नयतिं न जानीमहे वयं कीदृशमविधिभिनं णीता तीसे देवीए तं कक्कडियं पासित्ता कोतुयं जायं-पे. कीदृशं विधिभिन्नमिति?। सूरिराहच्छामि ताव केरिसो फासो त्ति एयाए पडिसेवियाए । ताहे भिन्नस्स परूवणया, उज्जत तह चक्कली विसमकोडे । नाए सा ककडिया पादे बंधिसागारियट्ठाणं पडिसेविउ- ते चेव अविहिभिन्ने, अभिने जे वत्रिया दोसा ।।२५५॥ माढता। तीसे ककडियाए कंटओ पासी. से तम्मि सागा. असंयमदोषनिवर्तनाथमविधिना विधिना च विभिन्नस्य रिए लग्गो. विसप्पियं तं, ताहे बेजस्स सिट्रं, ताहे वे प्ररूपणा क्रियते-तत्र यत् चिर्भटाऽऽविकं विदार्य ऊर्द्धफाजणं समिश्रा महिया तत्थ निवेसाविया उट्ठवेसा सुसियप्पदेसभ्मि पदेसे तीए अपेच्छमाणीप सत्थउप्परासुद्द लिरूपाः पेश्यं कृतं. तजुकभिन्नं यत्पुनस्तिर्यक्हत्यः क. भारं खोहियं, पुणो तेणेव श्रागारेण णिवेसाविया, फोडि त्तलिकाकृतं तत् वक्कलिकाभिन्नम् । एते द्वे अप्यविधिभिन्न यं पूपण समं निग्गनो कंटश्री. पउणा जाया । जति ताव मन्तव्ये । यत्तु पेश्यः कृत्वा पुनः श्लदणलक्षणतराऽऽदिभिः ख. तीस देवीए दंडिएण पडिसविज्जमाणीए कोउयं जायं, कि एडैरनेकशः कृत्वा तथा भूयस्तदाकारं कर्तुं न पार्यते तदेवं. मंग पुण समणीणं णिश्यनिरुद्धाण भुसभोगीणं अभुत्तमो विध विषमकुट्टभिन्नमुच्यते विषमः पुनस्तथा कर्तुमशक्यैः गीण य" श्रथ गाथाऽक्षरार्थः- राज्ञः कस्यचिद्देव्याः कर्कटि कुट्टैः श्लकणखर डैर्मिन्नमिति व्युत्पत्तेः । एतश्च विधिभिन्नम्, का (चियत्ता इति) प्रीतिकरा रुच्या इत्यर्थः। अङ्गादानाका' अत्र चाऽविधिभिन्ने त एव दोषा द्रव्याः , ये अभिन्न देवीगच कर्कटिकां रष्ट्वा कौतुकमुम्पन्नं, ततः प्रतिसेव्यमाना दृष्टान्तेन वर्णिताः । यास्तस्याः कण्टकः सागारिके लग्नः, विसर्पितं च तत् कथमिति चेत् ?, इच्युतेसागारिकं, ततो वैद्यन समिता कणिका, तस्यां मर्दिता. कटेण व सुत्तेण व, संदाणिते अविहिभिन्ने ते चेव । यां निवेशित्वा ततः शुष्कप्रदेशे शस्त्रक प्रक्षिप्तम्, ततः पुन सविसेसतरा य भवे, वेउब्धिय भुत्तइत्यीणं ॥२५६।। रपि तथैव निवेश्यते, तेन शस्त्रकेण सागारिकस्य पाटने काष्ठेन वा शलाकाऽऽदिना,सूत्रेण वा श्वरकाऽऽदिना सन्दाकने पूयेन समं कपटक निर्गते प्रगुणीकृता । यदि तस्या निते संघातिने, पूर्वाऽऽकारं स्थापिते इत्यर्थः । प्रविधिभिन्ने Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (rie) पलंब त एव दोषा ज्ञातव्या ये अभिन्ने भणिताः सविशेषतरा भवेसुः कथमित्याह विकुर्वन्ति तं बेटका चाराल पादानं तेन था। खियो भुतपूर्यास्तासां जानत काष्ठादिसन्दानितप्रलम्बे विकुषिताङ्गादानक ऐस अधिकतरा दोषा उपक अथाऽर्थतः कारणिकं खूपदर्शयाहविभिन्न पिन कप्पलहुआ मासां दोस आगाई । तं कप्पती न कप्पर, निरत्थगं कारणं किं तं ? || २५७ || यदपि सूत्रे विधिभिन्नमनुज्ञातं तदपि न कल्पते, यदि गृहन्ति ततो मासलघु, आशा ऽऽदयश्च दोषाः । श्राह - ननु सूत्रे भ णितं तद्विधिभिन्नं कल्पते । गुरुराह-यद्यपि सूत्रे अनुज्ञातं त थाऽपि न कल्पते । यद्येवं तर्हि निरर्थकं सूत्रम् । नैवम् । कारशिकं सूत्रम् आह किं पुनस्त कारणं यद्यापि नाभिधीयते। उच्यते ब्रूमः श्रभिधानराजेन्द्रः । गेलन दाणोमे, तिविहं पुरा कारणं समासेण । गेलने पुष्युतं बद्धावर इमं ओमे ॥ २५८ ॥ लानत्वमध्वा श्रवमैौदर्यमेतत् समासेन संक्षेपेण त्रिविधं कारणम् । तत्र ग्लानत्वे इहैव प्रलम्बप्रकृते " विज्जे पुच्छरा इत्यादिपूर्वोक्तं द्रष्टव्यम् । श्रध्वनि तु उपरि अध्वसूत्रे चोदेशके भष्यते नन्तरमेवाम द्रष्टव्यम् । जयणा निगंधी भिन्नं, निग्गंथागं च भिन्न भिन्नं तु । जर कप्पर दोहं पी तमहं वोच्छे समासेणं || २५६ || निर्ग्रन्थीनां नियमाद्विधिना षष्ठे भङ्गे भिनं, निर्ग्रन्थानां चतुर्थनीयाङ्गः भिभि वा यथा द्वयोरपवर्गयोः कल्पते तदहं वक्ष्ये समासेन । 1 यथाप्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिओमम्य तोसलीए, दोयह वि बग्गाण दोगु खेनेसु । जयद्विपाण गहणं, भिन्नाभिन्नं च जयणाए ।। २६० ।। श्रवमकाले साधवः साध्व्यश्च तोसलिविषयं गत्वा स्थिताः तत्र द्वापि वर्गों द्वयोः देशयोःस्थिती संयताः द्वितीयनि संघस्य इत्यर्थः । तथा यदुत्सर्गत एकत्र क्षेत्र मिलितौ नावतिष्ठेते एवैव यतना, तया स्थितायतनास्थितौ । यद्वा- साधुसाध्वी प्रायोग्यं विधि ग्राहयित्वा यो स्थितौ तौ यतनास्थितौ तयोरेवं स्थितयो र्यतनया वक्ष्यमाण भिन्नस्याभिन्नस्य वा ग्रहणं कल्पते । आह-कोऽयं नियमो येन तोसलेरेव ग्रहणं कृतम् ? । उच्यते जंगलदेने वाले पिसा वि तोसलिग्गहणं । पार्यच तत्व वासति परपलंबो अ अभो वि ।। ३६१।। देशो द्विधा -अनूपो, जङ्गलश्च । नद्यादिपानीयवहुलो अनूपः, तद्विपरीतो जङगलः, निर्जल इत्यर्थः । यथा श्रनूपोऽजङ्गल इति पर्यायी नत्रा सलिंदेश या नृपो यथास्मिन् देशे वर्षणं विनापि सारणीपानीयैः सम्यनिष्पत्तिः । अपरं च तत्र तोलिदेशे प्रायोनि विनऐ सस्पेषु प्रलम्बी भवति पालिः १८० पलं प्रचुरप्रलम्बः । तत एतैः कारणैस्तोसलिग्रहणं कृतम् । श्र न्योऽपि य ईदृशः प्रचुरप्रलस्वस्तत्राप्येष एव विधिः । पुच्छ सहुभीयपरिसे, चथड भंगे परम अगुवाच । सेसतिए नाना, गुरुवा परियो जं च ।। २६२ ॥ पृच्छति यदुकं भवद्भिर्द्वयोः वर्गयोः क्षेत्रद्वयस्थितयोरित्या दि.तव संयतीनां पृथक् क्षेत्रे स्थितानां व्यापारी वोढुं दुःशको भवति, दोषदर्शिनश्च यूयं पृथक् क्षेत्र स्थापयत यतश्च दोषाः समुत्पद्यन्तेयतां नोपादानुमुचितम् प्रभवन व तंत्र तत्र प्रदेशे संयत्यः प्रव्राजनीया उक्ता एव, अतः पर्यनुयुज्यते किं परिवर्तयितव्याः संयत्यः उत नेति । गुरुराह-नस्त्यत्र कोsपि नियमो यदवश्यमेव परिवर्त्तयितव्या न वेति । यदि पुनः प्रव्राज्य न्यायतः परिवर्त्तयति ततो महत कर्मनिर्जरामासादयति । अथान्यायतः परिवर्त्तयति ततो महामोहमपचित्य दीर्घसंसारपातयति किशन प रिवर्त्तयितव्याः । उच्यते ( सहुभीयपरि से त्ति) सहिष्णु भी - तपदि पदद्वयेन चतुर्भङ्गी । सा त्रयम्-सहिष्णुरपि भीत परिषदपि १, सहिष्णुर्न भीतपरिषत् २, असहिष्णुः परं भीतपरिषत् ३ असहिष्णुरीपरिषतिसम र्थः संयतीप्रायोग्य क्षेत्र वस्त्र पात्राऽऽदीनामुत्पादनायां प्रभविपुः सहिष्णुरुच्यते यस्य तु सर्वोऽपि साधुसाध्वीवर्गो भयान्न कामप्यक्रियां करोति स परिवत् तत्र प्रथमपु वर्त्तमानो नानुज्ञाता, यदि परिवर्त्तयति तदा चत्वारो गुरुकाः। ( जं च त्ति ) द्वितीय आत्मना सहिष्णुः परमभीतपरिपत्तया स्वच्छन्दप्रचाराः सत्यो यत् किमपि ताः करेष्यन्ति तत्सर्वमयमेव प्राप्नोति । तृतीयभङ्गे तु स्वयमसहिष्णुतया ताखामङ्गादीनि दारावरतिक्षिम् चतुर्थे भने द्वितीयतृतीयभङ्गदोषानेव प्राप्नोति । निमुद्दिश्याऽद जह पुराव्यांवेभी, जावजीवाएँ ताओं पाले । अन्नासति कथ्ये विदु, गुरुगा नजरा पिउला ।। २६२ ।। जं दरभ्युपगमे तथार्थताः प्रथमतोऽपि यतस्ततः प्रत्राजयितुं न कल्पते, यदि पुनः प्रमाजयति ततो यथोक्तविधिना यावज्जीवं ताः पालयति, योगक्षेमविधानेन सम्यक् निर्वाहयतीत्यर्थः । स प्रथमभङ्गवतीं यदि जिनकल्पं प्रतिपरपाका परिचय नमः किं करोतु इ ति चिन्तायां यद्यस्ति तदीये गच्छे कोऽव्यार्थिकारणां विधिना परिचर्त्तापफस्ततस्तस्य समय जिन प्रतिपद्यताम्। अथ नास्त्यन्यां वर्त्तापकस्तर्हि मा जिनकल्पप्रतिपत्तिं करोतु किं त्वार्थिका एव परिवर्त्तयतु । कुत इत्याह- अन्यस्य वर्त्तापकस्यासत्यभावे जिनकी प्रतिमाने दुनिया गुरुकाः । ग्रह-सफलकर्मकार जनकल्प प्रति पद्यमान किमेवं प्रायश्चित्तमाह-यद्यस्मात्कारणाजिनकल्पं प्रतिपन्नस्य या निर्जरा तस्याः सकाशाद्विपुला निर्जरा यथावत् संवतीं परिपालयता भविष्यतीति युक्तियुक्तमेव प्रायश्चित्तम् । श्रथ 'जयडियारा गहणं" इति यदुकं तत्र यया यतनया स्थितास्तामाह उभयगणी पेहेऊ, जड़ सुद्धं तत्य संगती खेति । Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलब असती व जहिं भिचा, अभिनं अविहीइमा जयथा ॥ २६४॥ (भवति) उनयः साधुसाध्वीवर्गहरू गणो ऽस्यास्तीभावाय बमकाले तोलिप्रकृति प्रचुर यदेशे गरवा गीतार्थेनाऽऽत्मना या क्षेत्र प्रत्यययोः शुद्धं भक्तं लभ्यते, न प्रलम्बमिश्रितमित्यर्थः । तयोः क्षेत्रयोः पृथक द्वापि वर्ती स्थापयति । यदि न स्ततो यत्र शुद्धं भक्तं प्राप्यते तत्र संयतीर्नयति स्थापयति, यत्र पुनः प्रलम्वमिश्रितं तत्राऽऽवार्या श्रात्मनातिष्ठन्ति अथ नास्ति सर्वधा निर्मित पत्र सम्बि श्रितं भकं लभ्यते तत्र साध्वीः स्थापयति, स्वयं तु निर्मिअप्रलम्बक्षेत्रे तिष्ठन्ति अथ सर्वेपि क्षेत्रेषु निर्मित स्वानि प्राप्यन्ते ततः (असर ति प्रलम्बमिश्रस्याभावे यत्र विधिनिधान प्राप्यन्ते तव संयत्यः स्थापनीयाः स्वयं पुनः रमिनाविचिमिक्षेत्रे तिष्ठन्ति अथ सर्वेक्षेत्र नान्यविधिभिन्नानि वा प्राप्यन्ते तत इयं यतना कर्त्तव्या । तामेवाऽऽद्द नाणि देह भित्तू वा वि सति पुरतो सिँ भिदंति । विति न समग्री, ता चैव जयंति तेऽती ।। २६५।। यत्र क्षेत्र संस्थापवितुकामस्तत् क्षेत्रे साधवः पूर्वमे येथं भावयन्ति यदा गृहस्थः प्रलम्बाम्यानीतानि भय नि तदा साधवो हन्ति पानि मिठानि तान्यमभ्यं द सः अथ न सन्ति भिन्नानि सन्ति वा परं स्तोकानि, तै. ध संस्तरणं न भवतीति परिभाव्य साधवो भन्ति-अ. स्मभ्यमेतानि भित्वा प्रयच्छत, न कल्पन्ते श्रस्माकमीदृशा नीति । श्रथ ते गृहस्थाः- यदि रोचते तत ईशान्येव गृह्णीतइत्युक्वा अभिप्राय प्रयच्छन्ति ततोऽसत्यभावे सति तेषां गृहस्थानां पुरतस्तानि प्रलम्बानि भिन्दन्ति, भिवा वगृति एवं विधीयमाने गृहस्थानां तास गाढतर निश्चय उत्पद्यते यथा नूनं न कल्पते श्रमीषामभिन्नानीनि. ततस्ते भिन्नान्येव प्रयच्छन्तीत्येवं तदा तत् क्षेत्रं भावितं भवति, तदा तत्र श्रमणीः स्थापयन्ति । तेषां संयतानासत्यभावे व्यावृतेषु वा तेषु कापि प्रयोजनान्तरे ता एव संयत्यो या तत्र स्थविरास्ता एवमेव यतन्ते । ( ७१८) अभिधानराजेन्द्रः | 1 मिश्रासति बेलाsति कमे च गेरर्हति थेरियाऽभिने । दारे भिजु एंति व ठाणाऽसति भिंदती गणिणी । २६६ । विधिना मिश्रानामसति पावढा गृहस्थैर्भेदयन्ति श्रात्मना वा यावत्तत्र भिन्दन्ति तावद्वेलाऽतिक्रमो भवति, ततो याः स्थविरास्ता श्रभिन्नानि प्रविधिभिन्नानि वा, यास्तु तरुणास्ताविततः प्रतिनिवृत्ताः स्थवि भिन्नाविधिभिन्नान्युपाश्रयद्वारे भित्वा विधिभिन्नानि कृत्वा वसतिं यान्ति, प्रविशन्ति इत्यर्थः । अथ बहिः स्थानं नास्ति ततः स्थानस्यासत्यभावे गणिनी प्रवर्तिनी तस्यास्वाति सा गणिनी तानि मिति विधिभिन्नानि करोतीत्यर्थः । कृत्वा च तरुणीनां समुदेपुं ददाति । बाह किं कारणं तरी प्रति समुदे या अभि नानि श्रविधिभिन्नानि न दीयन्ते ? । उच्यतेकक्काऽऽइमाईसु यूमर तरुणी । पतंय तमिति पनि य दिए समलं ॥ ३६७॥ कक्षायाः अन्तरं कक्षान्तरम् “उक्खो त्ति" परिधानवस्नैकदेशः आइ व निशीत्-ि"परिचायपत्थस्स श्र मितरचूलाए उदार को नामिदेा उचो मदर" वैकलि की संयतीनामुपकरण विशेषः । एतेष्वादिशब्दादन्यत्राऽपि वस्त्रान्तरे तीसा (पति) घरेम-म-सम्म ढक्कोम्बाल - पम्बालाः " ॥ ८ । ४ । २१ ॥ इति प्राकृतलक्षणात् समाच्छादयेत् ततो भिक्षाग्रहणकाले तस्याः प्रतिग्रहेषु भिन्नं प्रविष्यते, न च सकलमभिन्नमविधिभिनं वा तस्या भोजनकाले दीयते । एवं एसा जयणा, अपरिग्गहेसु होति खेत्तेसु । तिविtि परिग्गहिए, इमा उ जयखा तहिं होइ ॥ २६८ ॥ एवमेषा अनन्तरोक्ता यनना अपरिगृहीतेषु क्षेत्रेषु कर्त्तया भवति त्रिविधः संवतसंवतीतदुभयेः परिगृहीते हमा वक्ष्यमाणा यतना तत्र क्षेत्रे भवति । इदमेव स्फुटतरमाह पुच्ने गहिए खिने, तिविस गणेस जड़ गयो तिविहो । एज्जा इमयं खतं, ओमे जयणा तर्हि काशू १ ॥ २६६ ॥ विविधेन संयतसंगतीतदुभयरूपेण गणेन विविधस्य पा अन्यतरेण पूर्वमेव गृहीते क्षेत्र यदि विविध एव गलो अमकाले अस्तरन् हमके क्षेत्रामयात् आगच्छतस्तेषा मागतानां स्थातपे वास्तव्यानां या अवग्रहे दातव्ये का रिति वित पतना है। : अत आह आयरिय वसभ अभिसे-गभिक्खुणो पेल्ललंभे न य देति । गुरुगा दोहि विसिडा, चउगुरुगा दिन जा लहुगो ॥ २७० ॥ यत् संयतपरिगृहीतं क्षेत्रं तदेषामन्यतरेण परिगृहीतं चेत् । तद्यथा - आचार्येण या कृपण या अभिषेकेण या भिखा या ये आगन्तुकास्ते ऽप्येवं चत्वारो द्रष्टव्याः । संयत्योऽपि वास्तव्या आगन्तुकाचैवमेव चतुर्विधाः, नपरमाचार्य स्थान प्रवर्तिनी वृषभस्थाने गणावच्छेदिनी वक्तव्या । अत्र चाssचार्यः प्रसिद्धः, उपाध्यायो वृषभानु इति कृत्वा वृषभ उच्यते, यः पुनरित्वराभिषेकेणाऽऽचार्यपदे ऽभिषिक्तः स इद्दाभिषेकः । अथवा गणावच्छेदक इहाभिषेकः । शेषाः सामान्य साधवो भि· क्षयः। एतेषां येयं चारणिका प्राचार्यपरिगृहीते यदन्य आचार्य आगतो, यदि च स वास्तव्य आचार्यः क्षेत्रे पूर्यमाणे भक्तपाने चालभ्यमाने श्रागन्तुकस्य स्थातुं न ददाति, तदा चत्वारो गुरवः । अथ न पूर्यते क्षेत्रं स चागन्तुको बलास्प्रेर्यते तस्यापि चतुर्गुरुकाः। एतश्च प्रायश्चित्तं तपसा कालेन च द्वाभ्यामपि गुरू । स एव वास्तव्य श्राचार्यो वृषभस्या स्नाति पृथमो या बलासिष्ठति, उपप चत्वारो गुरुकाः, तपसा गुरवः कालेन लववः, स एव वास्त o आचार्य आगन्तुकभितोरेव स्थातुं न प्रयच्छति, स वाभिदुर्वास्तव्यमाचार्य बलाय तिष्ठति द्वयोरपि बाबा गुरवः, तपसा कालेन च लघवः । एवमाचार्ये पूर्वस्थिते भ गितम्। एवं वृषभाभिषेके भिक्षुभिरपि पूर्वस्थित प्रत्येकं चत्वारो गमाः कर्त्तव्याः प्रायश्चित्तमप्येवमेव च तपःकालविशेषितम्। एवमेते सर्व संख्यया षोडश गमाः । श्रथ चैतेष्वे Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब माभिधानराजेन्द्रः । पलंब व षोडशसु गमेषु प्रायश्चित्तम्। प्ररूपणायामयमादेशः-(चउ. गुरुगा दिज जा लहुगोत्ति ) अस्य भावना-भाचार्यस्थाss. गतस्य स्थातुं न ददाति, भागन्तुको वा प्रेरयति, योरपि चत्वारो गुरवः,उभयगुरुकाः,प्राचार्यो वृषभस्य न प्रयच्छति, वृषभो वा बलात्तिष्ठति चतुर्लघवः, तपसा गुरुकाः, भाचार्य एवाभिषेकस्य न ददाति, अभिषेको बलात्प्रेरयति मासगुरु, कालेन गुरुः, प्राचार्यः सामान्यभिक्षोरायातस्य स्थातुं मानुजानीते श्रागन्तुको वा भिक्षुर्बलादेवावतिष्ठते मासलघु, उमयतो लघुकम् । एवं शेपेष्वपि द्वादशसु गमेषु चतुगुरुकाऽऽदिक लघमासान्तं तपःकाखविशेषितमेवमेव प्रायश्चित्तम् । तदेवं संयतानां संयतः सह चारणिकया षोडश विकल्पा उक्ताः । अथ शेषविकल्पप्रदर्शनायाऽऽहएमेव य भयणा वी, सोलसिया एकमेकपक्खम्मि । उभयम्मि वि नायब्बा, पेल्लमदेंते च जं पावे ॥ २७१ ॥ पधमेव एकैकस्मिन् पक्ष षोडशिका भजना भङ्गरचना क. संवा । यस्तदुनयरूपो गयो न भवति किं तु केवल एव सं. यतपकः, सवतीपको वा, स पकैकपकोऽभिधीयते । तत्र संयसानां संयतैः सह प्रथमा षोडश नही। साच समपञ्च जाबिता । अथ संयतीभिः परिगृहीते क्षेत्रे अपरा: संयस्यः समागान्ति, तत्रापि प्रवर्तिनीगणाबच्छेदिन्यभिषेकाभिक्षुणीभिः पूर्वस्थिताभिः सह प्रत्येकमागन्तुकप्रतिनीगणावच्छेदिन्थ. भिषेकाभिकणीरूपाणां चतुर्या पदानां चारणिकां कुर्वणिरेव. मेव द्वितीया पोमशनङ्गी संयतीभिश्चतुर्विधानिरागाव. सीनिवमेव तृतीया षोमशभङ्गी, संयतीनां चतुर्विधानां पूर्व. स्थितानां संयतेश्चतुर्विधरेवाऽऽगच्छद्भिवमेव तुरीया षोडशभ. हाससंख्यथा जाता भङ्गानां चतुःषष्टिः। एतेन केवल संयतः संयतीपक्कचारणिकया लब्धः । अथोभयपकमधिकृत्याऽऽह-(उ नयम्मि वि नायव ति) उभयशब्देनोभयगणाधिपतिः परिगृ. छते,तत्राऽप्येवमेव जहरचना ज्ञातव्या। तथाहि-चतुर्विधोनय. गणाधिपतिभिः परिगृहीते के चतुर्विधैरेवाऽगन्तुकसंयतैरागच्चद्भिः पूर्वोक्तनीधैय घोमश नगा। तथा--तैरेव परिगृहीते प्र. बर्सिम्यादिभेदाचतुर्विधाः संयत्यो यदागच्छेयुस्तदापि षोमश भक्ताः,चतुर्विधेषु तदुभयगणाधिपतिषु पूर्वस्थितेषु चतुर्विधा. मामघोनयगणाधिपतीनामागमनेऽप्येवमपि षोमश भनाः।च. मुर्विधसंबतेषु पूर्वस्थितेषु चतुर्विधा उत्जयगणाधिपतय भागपेयः। अत्रापिषोमश भताः। एवं चतुर्विधसंयतीषु चतुर्विधानाभयोभयगणाधिपतीनामागमने षोमश भाः। एवमेताः पञ्च पोमशभायः संजाता,पञ्चन्निश्च षोमशभङ्गीभिलब्धा भानामशीतिः पूर्वोक्ता, पकैकपक्वविषयया भङ्गकचतुःषष्टया मीयते जातं.चतुश्चत्वारिंशं शतं भक्तानाम् प्रायश्चित्तं च सर्वत्र प्राग्यद अव्यम् । (पेलनमर्दिते य जे पावे ति) एतस्पदं सर्वभारनुपाति प्रतिपत्तव्यम् । श्रापूर्यमाणे केले आगन्तुको यदि बास्प्रेय निष्ठति तनो वास्तव्या निर्गचन्तोऽयमौदर्यसमुत्थमात्मसंयमविराधनां यत्प्राप्नुवन्ति निष्पनं प्रायश्चित्तमागन्तुकामाम अथ वास्तव्याः पूर्यमाणे के प्रागन्तुकानां स्थातुं न बदनि, ततो यदागन्तुका बहिः पर्यटन्तो भक्ताऽऽदिकमलभमाना बिराधनां प्राप्नुवन्ति तनिष्पन्नं वास्तव्यानामापद्यते । घाई यद्येवं कुर्वतामेतत्प्रायश्चित्तकदम्बमुपढोकते तहि सांप्रत स्यपकस्य दूर दूरगौव स्थातुं युक्तम् । अत्रोच्यते चउवग्गो वि हु अत्यउ, असंथरागंतुगा य वच्चंतु । वत्थव्वा व असंथर, मोत्तु गिलाणस्स संघार्ड ॥२७२॥ चतुर्वर्गों नाम वास्तव्याः संयताः,संयस्यश्च भागन्तुकाः संयता, संयत्यश्च । एते चत्वारोऽपि धर्मा एकस्मिन् क्षेत्रे यदि संस्तरम्सि तहिं तिष्ठन्तु,न केनापि परस्पर मत्सरः कर्तव्यः,यदि संस्तरण न भवति तत पागन्तुका प्रजन्तु प्रधागन्तुकजरूकं तत केत्र. मागन्तुका वा मादेशिका आखेदकामवन्तः,ततो वास्तव्या प्रारम. मस्तेषां वा प्रसंस्तरणे निर्गच्छन्ति । एवमागन्तुका वास्तव्या या ये निर्गरकन्ति तेषां यदि कश्चित् नानो भवेत् ततो सामा संघाटकस्तिष्ठति, तं मुक्त्वा शेषाः सर्वेऽपि गवन्ति । एमेव संजईणं, बुद्दीतरुणीव जुंगितकमाई। पायादिविगल तरुणी, य अथए बुडिभो पेसे ॥२७३॥ एवमेव संयतवत् संयतीनां निर्गमनविधिरभिधातव्यः, परमत्र द्विकभेदः कर्तव्यः । कथमित्याह-वृद्धानां तरुणीमां च मध्ये यदि प्रत्यपायं ततस्तरुपयो गच्छन्ति, वृक्षा भासते। तथा जुनितानामजुङ्गितामां च जुड़ितास्तिष्ठन्ति, प्रजुङ्गिका बजन्ति । जुङ्गिता द्विविधा:-जातिजुनिताः, शरोरङ्गिताश्च । तत्र जातिभिता गचम्ति,शरीरभिताः पादा. अदिविकलास्तत्रैवाऽसते, तरुण्योऽपि यदि समस्यपाथं मार्गाऽऽदी ततस्तवैवाऽऽसते, वृक्षास्तु प्रेषयत् । एवं तेसि ठियाणं, पत्तेगं वावि अहव मिस्साणं । भोमम्मि असंथरणे,इमा उ जयणा उ जहिँ पगयं ।२७४। प्यमनन्तरोक्तप्रकारेण तेषामाचार्याऽऽदीनां तत्र के प्रत्येक चा एकतरवगरूपेण,मिश्राणां वा द्विवर्गचतुर्वर्गरूपतया खिता. माम अषमकाले मसंस्तरणे श्यं यतना यस्यामिदं प्रसम्बत्र प्रकृतम्। तामेबाहओयणमीसे निम्मी-सुवक्खडे पक्क आमपत्तेगे। साधारण सग्गामे, परगामे भावतो विभए ॥ २७५ ॥ ओदनम् १ मिश्रोपस्कृतम् निर्मिश्रोपस्कृतम् ३ पकम ४ मा. मम५ प्रत्येकम् साधारणम् ७ पतानि सप्तापि यथाक्रमं प्रथम स्वग्राम सतः परनामे प्रहीतव्यानि,भावतोऽपि यान्यपि भिन्नामि ताम्यपि यतनापरिपाटिप्राप्तानि भजेत सेवेत, गृह्णीयादिस्यः । इति द्वारगाथासमासार्थः। अथ प्रतिद्वारं विस्तरार्धमभिभित्सुरोदनद्वारमाहबत्तीसाई जा ए-को घास खवणं वन विय से हाणी । भावासएसु अत्थउ, जा छम्मासे न य पलंबे ॥२७६।। मोदनस्य दानिशकवला: पुरुषस्य प्रमाण माहारः, यदि ते एकेन कवलेन न्यूमा द्वात्रिंशत्करला लभ्यन्त तस्तिष्ठत, यदि सस्थाऽवश्यकयांगा न परिहीयन्ते, एवमे कैकं कसं परिहा. पयता तावद्वक्तव्या यावत् यद्यको प्रासः कवलः प्राप्यते, ततस्तनधास्तां यदि तस्याऽऽवश्यकयोगान परिसीयन्ते,माचप्र. सम्बानि गृहातु। अथकोऽपि कवलोम प्राप्यते सतपक दिवस कपणमुपवासं कृत्वा, पास्तां द्वितीये दिवसे द्वात्रिंशाक मे पारयतु । यदि तावन्तो न लभ्यते,एकैककषलपरिहाया ताब. कम्यं यावत् योकोऽपि कवलोम शब्धस्ततः पष्टुं कस्वा स Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदंब (७२०) अनिधानराजेन्द्रः। पखंब माधिमध्यास्ता, षष्ठस्य च पारण के प्रमाणप्राप्तमाहारमुपादत्त। प्राचीर्म यथा त्रिफलाऽऽदि, आदिशब्दामूलकन्दाऽऽदिवपि अध न सत्यते, ततः पूर्वोक्तयुक्त्या यावदेकोऽपि कवनो न ल | वथा योगमाचीमनाचीव्यवस्थाऽनुसतव्या । ज्यते ततोऽष्टमं कृत्वा तिष्ठतु, मा च प्रलम्बान्याददीत । एवम तत्रौषधीषु यदाची तद् व्याचष्टेनयव दिशा दशमादिकमुत्तरोत्तरकपणं बर्षयता तावन्नतव्यं सगलासगलाऽऽइने, मीसोवक्खडिय नत्थि हाणी उ । पाषषएमासकपणम् । अथ परमासकपणे धर्माऽऽवश्यकयोगाः परिदीयन्ते, तत एकदिनन्यून षएमासकपणं करोतु, जइउं अमिस्सगहणं, चरिमदुए जं अणाइनं ॥२०१।। सदपि न शक्नोति निवा, तत एकैकं कपणं परिहापयता ताव. चणकमाषाऽऽदिषु पूर्वाऽऽचाराचीर्णेषु सकषु असकले. द्वक्तव्य यावदेकमपि क्षपणं कर्तुं न शक्नोति । घु चा मिश्रेषु निर्मिश्रषु चा अपस्कृतेषु नास्ति पश्चकपरि. ततः किं करोतोत्याह हाणिः । यच्च पूर्वाऽऽचारनाचीर्ण तत्र पञ्चकारहाण्या य. जावइयं वा लब्भइ, सग्गामे सुद्धसेस परगामे । तित्वा लघुमास प्राप्तश्वरमवयोः चतुर्थतृतीयभङ्गयोः प्रमिथस्य मीसं च उवक्खडियं, सुद्धज्झवपूरगं गिराहे ॥२७७॥ निर्मिश्रोपस्कृतस्य ग्रहणं कार्य नार्वामिति । चाशब्दः पातनायां, सा च कृतैवेति, यावत् शुद्धौदन स्वग्रामे पाह-यन्निर्जीवं तत्कथमनाची मम ? । उच्यतेलम्बते यदि तावता न संस्तरति ततो यावता न्यनं तावत्परप्रा. जइ ताव पिहुगमाई, सत्थोवहया वि होतऽणाइन्ना । मात् शेषं शुद्धौवनमानयति। गतमोदनद्वारम् । अथ मिश्रोपस्क. किं पुण असत्थुवहया, पेसी य फला य सरडू य । २८२।। तद्वारमाह-( मीसं च इत्यादि ) यदा स्वग्रामपरग्रामयोः इद ये बीहयः परिपक्वाः सन्तो भ्राष्ट्राऽऽदौ भृज्यन्ते, ततः पर्याप्त शुद्धौदनं न प्राप्यते, तदा यदादन प्रसम्बमिश्रमुपस्कृतं तत् शुद्धोदनस्याध्यवपूरकं गृह्णाति । म्फुटिता अपनीतत्वचः पृयुका इत्युच्यन्ते, मादिगृहणेमाम्यद पिबदेव निष्पद्यते तत्परिग्रहः । यदि तावत्पयुकाऽऽदयो अ. इदमेव विशेषयन्नाह निशस्त्रोपहता अत्यनाचीमा भवन्ति किं पुनरशस्त्रोपहताः तत्थ वि पढमं जमी-सुवक्खडं दबभावतो भिन्न । पेश्यः प्रलम्बानामूोयनाः, फलाफलानि तथा प्रस्तानानि दवाभित्र विभिन्नं, तस्सऽसति उवक्खडं ताहे ॥२७८।। म्लामवृन्तादीऽऽनि यानि सनि अबकास्थिकफलानि तान्यतत्रापि मिश्रोपस्कृते गृह्यमाणे प्रथमं यद् द्रव्यतो भावतश्च भि. शास्त्रोपहतानि कषमाचीसनि भविष्यन्तीत्यर्थः । एतत् सर्व मपि परीत्तविषयमुक्तम् । गतं परीत्तद्वारम् । मैः प्रलम्वैर्मिधमुपस्कृतं तत् स्वग्रामपरग्रामयोगॅलाति, तस्या प्यसत्यलाने यदोदन व्यतोऽभिन्नावतो निन्नः प्रनम्बर्षि अथ साधारणहारमाहमिथमुपस्कृतं तत्सदा शुखादनस्याध्यवपूरकं प्रथम स्वनामे तद साधारणे वि एवं, मीसामीसे वि होंति भंगा उ । गृह्णाति । गतं मिश्रोपस्कृतम् ।। पणगाऽऽदी गुरुपत्तो, सव्वविसोही य जय ताहे ।।२०।। अथ निर्मिश्रोपस्कृतमाह साधारणमनन्तं, तत्राप्येचं प्रत्येकवत, मिश्रोपस्कृते चतुर्थपणगाइ मासपत्तो, ताहे निम्मिस्सुवक्खडं भिन्न । तृतीयभक्ती भवतः, नवरं यदा तृतीयभने प्रत्येकप्रलम्ब नि. निम्मीसउबक्खडियं, गिएहति ताहे ततियभंगे ॥२७६।। मिश्रोपस्कृतं न लभ्यते तदा मासलघुकादुपरि यत्रोद्मा 5ऽदौ येषु सूदमप्रावृतिकाऽऽदिदोषेषु पञ्चकप्रायश्चित्तं तेष्वादिश. सघुपञ्चरात्रिन्दिवान्यभ्यधिकान्यापद्यन्ते, ततः स्वग्रामे वा प. दाह शरात्रिन्दिवाऽऽदिस्थानेषु च यत्तित्वा यदा निन्नमासमा रनामे बा गृह्णाति, एवं यदा पञ्चकाऽऽादेहान्या गुरुमासं प्रातिक्रान्तो लघुमासं च प्राप्तो भवति, तदा यत् ण्यतो भा. तो जवति तदा साधारणं निर्मिश्रोपस्कृतं प्रथम चतुर्भके स्क चतश्च भित्रं निर्मिश्रं प्रलम्बजातमुपस्कृतं तत शुदिनस्य प्रामपरप्रामयोगवाति । यदा तृतीय भङ्गेनापि न प्राप्यते तदा मियोपस्कृतस्य वाऽभ्य व पूरकं स्वग्रामपरप्रामयोगुजाति, यदा सर्वेषु विशोधिकोटिदोषेषु यतस्व प्रयत्नं कुरु, तत्र प्राचाकमा बारमभक्ते न लज्यते तदा निर्मिश्रोपस्कृतमेव तृतीय भने 5. कर्मोद्देशकत्रिकाहारपूतिकर्ममिश्रजातान्यतिकवादप्रातिका ग्यतोऽनिन्नं गृह्णाति । गतं निर्मिश्रोपस्कृतम् । अध्यवपूरक चरमतिकरूपानऽधिशोधिकोटिदोषान् मुक्त्वा शे. अथ पक्कमास च व्याख्यानवति पाः सर्वेऽप्यौद्देशिकाऽऽदय उद्गमदोषा विशोधिकोदयः, नेवएमेव पउलियापउ-लिते य चरिमततिया भवे भंगा। पि गुरुलाघवाऽऽयोचनतो यचदाल्पदोषतरतत्पूर्व पृषप्रतिसश्रोसहिफलमाईसु. जं चाइमं तगंणेयं ॥ २८०॥ वमानास्तावद्यतते यावश्चतुर्लघुस्थानानि, तेष्वपि यदा न लभ्यएवमेव पक्वापक्वयोश्चरमतृतीयौ नको जवतः, पक्वं नाम ते तद। चतुबघुकाकुपरि पञ्चपरिहारया यत्तिस्वा यदा - तुर्गुरु प्राप्नोति जवति तदा किमाधाकर्म गृहातु, नत प्रथमयदग्निना स कृतं यथङ्गदीबीजविस्वाऽऽदि, अपक्वं यदग्निना द्वितीय मजाविति। अन्येन बन्धनधूमाऽऽदिना प्रकारेण न पक्वं पर निर्जीवावस्थं, यथा परिपक्व कदलीफल पुष्पाऽऽदि,तत्र निर्मिश्रोपकृतस्याला अनोच्यतेभे प्रथम पक्वं चतुर्थभने, ततस्तृतीय भङ्गे अपक्वमपि चतु कम्मे पादेसद्गं, मूलुत्तरे ताहि वि कलि पत्तेगे । थतृतीयभङ्गयोरेवमेवान्यवपूरक गृह्णाति । अत्र चौघधिकला- दावरकली अणंते, ताहे जयणाएँ जुत्तस्स ।। २८४ ॥ उदिषु यश्च पूर्वसाधुनिरवमादिकारणं विनाऽप्याची त- प्रबाऽधाकर्मणि प्राप्ते भादेशद्विकम् । तद्यथा-आधाकाण अयं नमनीयं, ग्रहीतव्यमित्यर्थः । यद् वा-तत् केयं ज्ञातव्यं, त. चत्वारो गुरवः, प्रत्य के प्रथमहितीययोगियोश्चत्वारो लघवा, औषधया धान्यानि, तेवाची यथा चणका मापावा, फलेषु एवं च प्रायश्चित्तानुलोम्येनाऽऽधाकर्मगुरुकं,व्रतानुनोम्येन Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२१) पखंब अभिधानराजेन्द्रः । पललिय प्रथमद्वितीयभङ्गो गुरुकों, तयोः प्रतिव्यमाणयोः प्राणाति अफासुयं अणेसणिजं. जाव लाभे संते णो पडिगाहेजा पातव्रतस्य लोपसद्भावादिति । अथवा-प्राधाकर्म उत्तरगुणोपघातित्वात् लघुतरं प्रथमद्वितीयभङ्गौ मूत्रगुणोपघाति. । (४५)। आचा०२ श्रु० १ चू० १ अ०८ उ०। स्वागुरुतरी; एवमादेशद्वये कृतेऽप्याधाकमैव प्रथमतो प्रहीत. विषयसूचीव्यम् । न च प्रथम द्वितीयभङ्गा, कुतः, इति चेत्, उच्यते-आ. धाकर्मणि जीवाः परेण व्यपरोपिता इति तत्र गृह्यमाणे न ताह. (१) प्रलम्बग्रहणनिषेधः । (२) प्रलम्बपदविवरणम् । शो निःशूकतोपजायते, यादृशी प्रथमद्वितीययोभङ्गयोरध्यक्ववी. (३) प्रात्मविराधनभावना। क्यमाणानां जीवानामात्मनैव मुखे प्रतिप्य भक्ष्यमाणानां व्यप (४) पतनद्वारम् । रोषणा भवति । अत प्राधाकमैव प्रथमतो ग्राह्य, न प्रथमदि. तोयनाविति स्थितम् । (ताहे दि कलि पत्तेगे त्ति) यदा (५) उपधिकारविवरणम । प्राधाकमाऽपि न लभ्यते तदा प्रत्येकद्वितीयन) ग्रहीतव्यम, (६) उहाहद्वारविवरणम । (७) अनवस्थाद्वारम् । तदभावे कलिः प्रथमो भङ्गः तत्रापि ग्राह्यम् (दावरकली (८) मिथ्यात्वद्वारम् । अणते त्ति) यदा प्रत्येकस्याऽपि प्रथमो जङ्गो न प्राप्यते तदा (९) विराधनायां विशेषः । द्वापर इति समयपरिभाषया द्वितीयः, कलिरिति तु प्रथम उ (१०) अथात्मविराधना । च्यते । ततश्च प्रथममनन्तकायिके द्वितीयेन भङ्गेन तदभावे प्रप्रधमेनाऽपि ग्रहीतव्यं, यदा अनन्तस्याऽपि प्रथमो भङ्गो न (११) ग्रहणद्वारम् । प्राप्यते तदा यतनया युक्तम्य यत्र यत्राल्पतरः कर्मबन्धो (१२) तुल्ये रागद्वेषाभाव शनि द्वारम् । भवति तत्तत् गृह्णानस्याश उपरिणामस्य संयम एव जवती. (१३) निग्रन्थीरधिकृत्य प्रलम्बग्रहगाम । ति वाक्यशेषः । एवं तावत् संयतानधिकृत्य यतनोक्ता । (१४) निग्रन्धी रधिकृत्य प्रक्षम्बग्रहविषयाणि सूत्राणि । (१५) प्रनम्बं न गृह्णीयात् । अथ संयतीरुद्दिश्या 55हएमेव संजईण वि, विहि अविही नवरि तेसि नाणत्।। पलंबकड-प्रलम्बकूट-पुं० । जम्बूद्वीपे रुचकवरपर्वतस्य षष्ठे कूटे, स्था०८1०। सव्वत्थ वि सग्गामे, परगामे भावो विभए ॥२८॥ पलंबजाय-अलम्बजात-न० । प्रलम्बत्वावच्छिन्ने, प्राचा) २ यथा संयतानां स्वग्रामपरग्रामऽऽदिविनापापुरस्सरं भिन्ना. श्रु०१ चू. १ अ०००। जिन्नयोर्थतना नणिता, एवमेव संयतीनामपि बक्तव्या, नवरं तासां नानात्वं विशेषा, विधिभिन्नाम्यविधिभिन्नानि च संभ. पलबपाग-प्रलम्बपाक-पुं० । फलानां पचने, नि० चू० १००। वन्ति । विधिभिन्नानि मुख्यपदे सर्वत्रापि गृह्यन्ते, स्वग्रामपर- पलंबमाण-प्रलम्बमान-त्रि०। प्रकर्षण लम्बमानम | इतस्ततो ग्रामयोश्च प्रथम षष्ठो भङ्गस्तदभावे पञ्चमस्तस्याप्य लाभेच. मनाक चलनेन लम्बमाने, रा०।ज्ञा० । औ० । प्रा0 मः। तुर्थस्तस्याप्यप्राप्ती नावतोऽप्यन्निन्नानि तृतीयद्वितीयप्रथमभङ्ग- " पासंबपलंबमाणकडिसुत्तसु कयासोह।" कल्प.१ अधिक वर्तीनि यथाक्रम भजेत् प्रतिसेवेत, न कश्चिद्दोषः । इति क- ३ कण। रूपटीकायां प्रलम्बप्रकृतं समाप्तम् ।। पलंबवणमालाधर-प्रलम्बवनमालाधर-त्रि० । प्रशाम्बेत ति " दुर्गस्थान बहुत्वीरुकत्या मन्दाऽपि दातुं पदा प्रलम्बा या वनमाला तां धरतीति प्रलम्बवनमालाधरः । न्येसच्चूर्णिनिशीथचूर्णियुगलीयष्ट्रिष्यीदर्शनात् । जी. ३ प्रति०४ अधि । आपावलम्बिया वनमालया युप्रय प्रेर्य पदे पदे निजगी विपप्रचारं मया, ते, कम० १ कर्मः । स्था० । उपा० । जी । कल्पे यत्प्रकृतं प्रलम्बविषय नद्चरे चारिता ॥१॥" ०१ ०२ प्रक० । नि० च्०। पलग-पलक-पुं० । विनाशे, दर्श०५ तत्व । (१५) प्रलम्बं न गृह्णीयात् पलज्जण-प्रलज्जन-त्रि०। प्ररज्यते इति प्ररजनः । अनुराग वति, विपा० १ श्रु० २ अ० । सूत्र० । ज्ञा० । कंदं मूलं पलं वा, आमं छिन्नं व सन्निरं । तुंचागं सिंगवेरं च, श्रामगं परिवजए ।। ७० ।। पलत्त-प्रलप्त-०। शब्दे,ौ। भाषणे, रा। कन्दं सूरणाऽऽदिलक्षणं, मूल विदारिकारूप.प्रलम्ब वा ताल- पलय-प्रलय-Y पलय-प्रलय-०। ब्रह्मणः स्वापावस्थायाम , सूत्र० १७० फबादि श्राम किन्न वा (सचिरमिति) पत्रशाक, तुम्बाक १०४ उ० । जगतः स्वकारणे बये, मुत्र १ श्रु० १ ० स्वाग्मान्तर्वति, पार्डी तुलसीमित्यन्ये, शृङ्गवरं चाकम, आम परिवजयदिति सूत्राधेः ॥ ७॥ दश.५ अ० १उ०। पलयघा-प्रलयघन-न। प्रत्रयकालिकमेध, प्रा०२ पाद । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण पलंबगजातं जा-पलल पललन । पत्र-कनन् । मांसे, पङ्के, तिलचूर्ण च । णज्जा । तं जहा-अंबपलंवं वा अंबाडगपलंवं वा तालप- पनाति ला-कः । राकसे, पु० । प्रश्न: ५ सम्ब० द्वार । लंबं वा झिझिरिपलं वा सुरभिपलं वा सल्लरपलंबं वा विशे। प्रणयरं वा तहप्पगारंपलबजानं ग्रामगं असत्यपरिणतं | पलालिय-ग्रलपित-त्रि । प्रकी मत, शा० १ श्रु०. ०। ४०। Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलवण अन्निधानराजेन्द्रः। पसिउंचणा पलवण-पलपन -न० । सक्ती, प्रव०४ द्वार। पलासी-देशी-भरके, दे० ना० ६ वर्ग १४ गाथा । ब्रुमे, वाच । पलवण-पुं० । विशेचे, तस्य स्यगनन्त जीवा, न खन्ये ऽवय पलिअंक-पर्यङ्क- । शयनविशेषे, सूत्र १ श्रु० ६ ० । वाः। प्रव०४द्वार। प्राचा० । आसनविशेषे, प्रति गज। पलविय-अलपित-न० । अनर्घकभाषणे, प्रइन०२ श्राश्रद्वार। पलिय-पलित-न० । कर्मणि, जुगुप्सते, अनुष्ठाने, आचा० १ पलस-देशी-कांसफले, स्वेदे च ।देना०६ वर्ग ७० गाथा। श्रु० प्र०२ उ०। पलस-देशी-मेयायाम, दे० ना० ६ वर्ग ३ गाथा । पलिउंचग-प्रतिकुश्चक-पु. । निह्नवं कुबोणे, सूत्र० १ ६० पलहि(ही)-कर्यास-पु०। कपास शब्दस्य पल हीत्यादेशः(कपास) १३१०। पलिउंचण-प्रतिकुञ्चन-न । सरल तथा प्रवृत्तस्य वचनस्याइतिरपात सूत्रयोनिफन के वृकभेदे, प्रा०२पाद । दे. ना०६। वर्ग ४ गाथा । " पलही वणं तूलो रुवो।" पा३० ना. खण्डने, भ० १२ श०५ उ० । २५५ गाया। परिकुश्चन-न० । परि समन्तात कुच्यते वक्रतामापद्यते किपलाम-देशी-चौरे, दे० ना० ६ वर्ग ८ गाया। या येति । मायानुष्ठाने, 'पलि चंचणं च भयण च, : मिशुपलाइ (ण)-पलायिन-त्रि० । पलायनक संप, ये भट्टाऽऽदयो स्सयपाणि य।" सूत्र०१ श्रु० अ० । स० । मायायाम, सूत्र. राकः पृच्छां बिना सकुटुम्बाः प्रणश्य गणान्तरं गच्चन्ति । बु० १ ध्रु०६अ। १७०३ प्रक०। (गच्छात् पनायिनां साधूनां प्रतिक्रिया 'प्रो. पलिउचणा-परिकुञ्चना-स्त्री० । परिकुश्चनमपराधम्य केत्रकादापण 'शर तृतीयमागे १३० पृष्ठे दर्शिता) लजावानां गोपायनमन्यधा सतामन्यथा नणनं परिकञ्चना परिपलाइय-पलायित-10 कुतश्चिद् नाशने, दश०४ अ० । क- घचना वा । स्था०४०१०। गुरुदोषस्य मायया बघु तौर कः । देशान्तरं गते, नि०० १३०नटे, आघ० । दोपकथने, यथा सचिसं प्रतिषेव्य मयाऽचित्तं प्रतिवेविता पलापमाण-पलायमान-त्रिका नथति, प्रश्न०१ आश्र० द्वार । मित्याहति । व्य०१ उ०। पलाल-पलाल-नामकृष्ठा लाला यत्रतत्पलालमा लालाप्र. प्रतिकुश्चना-स्त्री०। प्रायश्चित्तविशेषे, १०। फर्ष शालिनि," माझं पक्षालं ।" अनु। यह प्रष्टा साझा इदानी प्रतिकुश्चनाप्रायश्चित्तमाह-- यत्र तत्पमाल वस्तु प्राकृते पलालमुच्यते, यत्र तु पलाला. दव्वे खेत्ते काले, भावे पलिउंचणा चउविगप्पा । भावस्लत्कर्ष तृणविशेषरूपं पला लमुच्यत इति प्राकृतशैली. चोयग कप्पारोवण, इह ई भणिया पुरिसजाया ||१५०॥ भलीकृत्पात्राऽयधार्थना मन्तब्य, संस्कृते तु तृणविशेषरूपं पलालं निम्त्यतिफमेयोच्यते इति न यथार्थाऽयथार्थचिन्ता प्रतिकुडच्यते अन्यथा प्रतिसेवितमन्यथा कथ्यते, यया सा प्र. संभवति । अनु० प्रा०क०। सूत्राप्रा.म.। आचाल. निकुञ्चना । सा चतुर्विधा । तद्यथा--द्रव्ये व्यविषया, एवं केने प्पीरं च पला ।" पा० न०१४२ गाथा ।। काले भायं च । अत्र परस्य प्रश्नमनिधित्सुराह (चोपग ति) अत्र चोदको प्रतेनन कल्पेऽपि प्रायश्चित्तमभिहित, व्यवहार पलालपीढय-पलालपीठक-न । पलाल मचे प्रासने, नि. ऽपि तदेव प्रायश्चित्तमभिधीयते, इति योरप्यध्ययनयोर्विशच० १२ उ०। पाभावः । अत्रायें सूरिवचनम् -(कप्पारायणेत्यादि) कल्पे कपलालपूंज-पलाल पुज-न। मञ्चोपरि व्यवस्थिते पलानधा हपाध्यपने कल्पितामा मलोत्तरगुणापराधप्रायश्चितानामारोपते, प्राच १५० अ०२ उ०।। णं दानामह व्यवहाराश्य यने जरिएनम् । इति पादपूरणे । पलाव-प्रलाप-० । अनघेक घचसि, हा० १० १० । इति वचनात, सानुस्वारता प्राकृतत्वात् , प्राकृते हि पनाम्ते नश-पा० । प्रदर्शने, " नशेषि उम मासब-दारव-विपगा- सानुस्खारता भवतीति । कि मुक्तं भवति? कपाश्य यने मानवत् । ल-पलाघाः" ॥ ८।४।३१॥ इति नशेः पलाबादेशः । प्रायश्चित्तमुक्तंन तुदानमाह तु दान भागत मिति विशेष तथा 'पलावर ।' नश्यति । प्रा० ४ पाद । कल्पाभ्ययने प्रायश्चित्ताही पुरुषजाना न भणिताहत भणिपलावि (ए )-अलापिन्-त्रि० । अनयकवादिनि, प्रइन० २ ता इति महान् विशेषः । एष गाथासंकेपार्थः। सात मेनामेव गायां व्याचिख्यानुः प्रथमतो न्याऽऽदिनेश्रश्रवार। दभिन्न प्रतिकुश्चनां व्याख्यान यतिपलास-पलाश-पुं०। पनमश्नानानि पनाशः। मांसभक्के. "नो। पन अन सि पलापो।" TI मां जमश्नन्नपि पलाश इति गौ. सच्चित्ते अच्चित्तं, जणवयणपडिसेवियं तु अद्धाणे । नामरीत्या पलाशः। पत्रे, कप०३ का अनु। प्राचा। सुभिक्खम्मि दुभिक्खे, हटेण तहा गिलाणणं ॥१५॥ FI प्रा०वाना। दो ज्ञा०१०३ अ०किंशु के.प्रका०१ अख्यविपया प्रतिकुञ्चना नाम सचित्ते, उपलकणमेतत-मिश्रे ५६ । अनु० । नि००।१०।(यणप्फरशब्दे पन दुपाता. वा प्रतिसेवितं श्रचितं मया प्रतिसेवितमित्यालोबयति ।कें. नियतव्यना) स्वनामख्यात नीलबद्यपंधरस्य कुटे, स्था०८ | प्रतिकुञ्चना जनपदे प्रतिसेव्य यदध्वनि प्रप्ति सेवितमित्यालोच. ग०१४ पास छयं पत्तं।" पाइना.११७ गाथा। यति । कालप्रतिकुश्वना यस्सुभिक्षे काले सविस्था दुर्भिके मया पलाससमुग्गय-पलाशसमुद्क-पुं० । सुगन्धनृतसमुद्रके, जी०। प्रतिसबिसमित्यावेदयति । नाव प्राति कुश्वमा यत हटेन सता ३प्रांत अधिक। प्रतिसेय मानेन सता मया प्रतिसवितमित्यालोचयति । उहा Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२३) पलि उचणा अनिधानराजेन्द्रः। पसिनोवम प्रतिकुश्चना । व्य०१ उ०। (मासिकाऽऽदिपरिहारस्थानाsप. एहिं ववहारिएहिं श्रद्धापलिश्रोवमसागरोवमेहिं नत्थि किंचि अस्य प्रतिकुश्चकस्य दृष्टान्तः 'परिछत्त' शब्देऽस्मिनंव जागे पोयणं, केवलं पलवणा पत्मविजइ । से तं ववहारिए १४५ पृष्ठे व्याख्यातः) श्रद्धापलिअोवमे। से किं तं सुहुमे श्रद्धापलिभोवमे। पलिउंचमाण-प्रतिकुञ्चमान-त्रि० । गोपयति, प्राचा०२७० सुहुमे श्रद्धापलिओवमे से जहाणामए पल्ले सिमा १च.५ अ० २ ०। जोअणं आयामविक्खंभणं जोअणं उडे उबेहेणं तं तिपलिउंचिय-प्रतिकुञ्च्य-श्रव्य० । 'कुश्च कुञ्च' कौटिल्याल्पो गुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, से णं पल्ले एगाहिअबेत्राहिनाबयोः । परि सर्वतो भावे परि समन्तात् कुञ्चित्वा कौटि. तेत्राहिम जाव भरिए बालग्गकोडीणं, तत्थ णं एगमेमे सामाचर्य परिकुच्य । सूत्रे "डश्चक्रपिण्डाऽऽदीनाम्"इति वि. कम्पवचनतो रेफस्य लकारभावः । कौटिल्यमापाद्येत्यथे, व्य. बालग्गे असंखेजाई खंडाई कजइ, ते गं बालग्गा दिट्टी १ उ० । गोपयिरवेत्यर्थे, प्राचा० २ भु०१ चू० १ अ० ११००। भोगाहणाओ असंखेजइभागमेत्ता सुहुमस्स पणगसुहुमनि० चू। सरीरोगाहणाओ असंखेजगुणा, ते णं बालग्गा णो अपलिउंजिय-परियौगिक-पुं० । परि समन्ताद यौगिकाः । प.] ग्गी०जाव नो पलिविद्धसिजा नो पूइत्ताए हव्यमागच्छिज्जा, विज्ञानिनि, न.२ श० ५ ०। ततो णं वाससए वाससए एगमेगं बालग्गं अवहाय जावपलियोवम-पल्योपम-न० । पल्य नोपमा येषु तानि पस्योप इएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे णिट्ठिए भवइ, मानि । असंख्यातवर्षफोटीकोटिप्रमाणेषु कामविशेषेषु,स्था०२ से तं सुहुमे श्रद्धापलिप्रोवमे । " एएसिं पल्लाणं, कोडा ०४३०। कोडी भवेज दसगुणिया । तं सुहुमस्स अद्धासा-गरोवमसे किंतं पलिमोवमेपलियोवमे तिविहे पामते । तं जहा स्स एगस्स भवे परिमाणं ॥१॥" एएहिं सुहुमेहिं श्रद्धाउद्धारपलिओवमे, अद्धापलिश्रोवमे, खेत्तपलिअोवमे अ। पलिओवासागरोवमेहिं कि पोषणं १ । एएहिं मुहुमहिं तत्न पल्पोपमं विधा । तद्यथा-( उद्धारपलिश्रोवमे इत्यादि) श्रद्धापलिअोवमसागरोवमेहि नेरइअतिरिक्खजोणिमातत्र वधमाण खरूपवालाग्राणां तत्खण्डानां था, सद्वारेण स्सदेवाणं आउअं मविञ्जति (१३६)। द्वीपसमुद्राणां वा प्रतिसमयसमुद्धारण मपोद्धरणमुद्धारः, त. द्विषयं तत्प्रधानं वा पल्पोपममुद्धारपल्योपमम् । तथा-श्रद्धे (से किं तं श्रद्धापलिप्रोवमे इत्यादि) इदमप्युद्धारपल्योति कालः, स चेह प्रस्तावाद्वक्ष्यमाणबालाग्राणां, तत्ख पमवत्सर्व भावनीयं, नवरमुद्धारकालस्येद्द वर्षशतमानत्वाद् एडानां वा प्रत्येक वर्षशतलक्षण उद्धारकालो गृह्यते । अ व्यावहारिकपल्योपमे संख्येया वर्षकोटयोऽवसेयाः, सूक्ष्मपथवा-यो नारकाऽऽद्यायुःकालः प्रकृतपल्योपममेयत्वेन वक्ष्यते ल्योपमे त्वसंख्येया इति । अनु० । (नैरथिकादीनां स्थितिस एवोपादीयते, ततस्तत्प्रधानं पल्योपममझापल्यापमं, परिमाणम् ठिह' शब्दे चतुर्थभागे १७१७ पृष्ठे उक्तम् ) तथा क्षेत्रम् आकाशं तदुद्धारप्रधानं पल्योपमं क्षेत्रपल्योपमा से तं सहमे अद्धापलिनोवमे । से तं श्रद्धापलिनोवमे । (१४२)। म् । अनु।(उद्धारपल्योपमव्याख्या 'उद्धारपलिश्रोवम' शब्दे | उक्त सप्रयोजनमद्धापल्योपमम् । अनु०।। द्वितीयभागे ८२ पृष्ठादारभ्य गता) से कि तं खेत्तपलिप्रोवमे ?। खेत्तपलिओवमे दुविहे पअथाऽद्धापल्योपमं निरूपयितुमाह पत्ते । तं जहा-सुहुमे अ,वावहारिए अ। तत्थ णं जे सुहुमे से किं तं श्रद्धापलिभोवमे । श्रद्धापलिभोवमे विहे प- से उप्पे, तत्थ ण जे से ववहारिए से जहानामए पल्ले सिमा सत्ते । तं जहा-सुहुमे अ, वावहारिए । तत्थ वंजे से जोअणं पायामविक्खंभेणं जोधणं उब्बेहेणं तं तिगुणं समुहुमे से ठप्पे, तस्थ सं जे से वावहारिए से जहानामए विसेसं परिक्खेवणं, से णं पल्ले एगाहिभबेमाहितेमाहिपन्ले सिमा जोभणं मायामविक्खंभेणं जोमणं उब्वेहेणं भजाव०भरिए बालग्गकोडीणं,ते ण बालग्गा णो अग्गी नं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं से खं पल्ले एगाहियवेत्रा- डहेजा जाव णो पूहत्ताए हबमागच्छेजा, जे णं तस्स हिअतेआहिसजाव भरिए बालग्गकोडीणं, ते णं बालग्गा पल्लस्स आगासपएसा तेहिं बालग्गेहिं अप्फुन्ना तमो गं यो अग्गी डहेजा जाव नो पलिविद्धंसिक्षा नो पूइत्ताए ह- समए समए एगमेगं ागासपएसं अवहाय जावइएसमागच्छेजा, ततो णं वाससए वाससएरंगमगं बालग्गं ण कालेणं से पल्ले खीणे जाव निट्ठिए भवइ से तं प्रवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नारए निल्लेवे नि- | ववहारिए खेत्तपलिअोवमे । “एएसिं पल्लाणं, कोडाकोडी हिए भवइ,से तं वावहारिए अद्धापलिमोवमे । “एएसिं पल्ला- | भवेज दसगुणिमा । तं ववहारिअस्स खेत्तसागण कोडाकोडी भविज दसगुणिता । तं ववहारिअस्स अद्ध- रोवमस्स एगस्स भवे परिमाणं ॥१॥" एएहिं ववहासागरोवमस्स एगस्स भये परिमाणं ॥१॥" एएहिं वव- रिएहिं खेत्तपस्लिोवमसागरोवमेहिं किं पयोभणं । एएहिं हारिएहिं श्रद्धासागरोपमपलिमोवमेहि किं पोमणए- वहारिएहि नस्थि किंचि पभोप्रणं, केवलं पसवण्णा प Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालोवम अभिधानराजेन्डः। पलिच्छिदिय पपविजइ । से तं ववहारिए । से किं तं सुहमे खेत्तप- (तत्थ णं चोयए परमवगमित्यादि ) तत्र नभःप्रदेशानां स्पृ. लिओवमे । खत्तपलिओवमे से जहाणामए पल्ले सिपा टास्पृष्टत्वप्ररूपणे सति जातसन्देहःप्रेरकः प्रज्ञापकमाचार्य मेवमादीद्भदन्त ! किमस्त्येतद्यदुत तस्य पल्यस्यान्तर्गतास्ते जोअणं आयाम जाव परिक्खेवेणं से णं पल्ले एगाहि केचिदप्याकाशप्रदेशा विद्यन्ते ये तैर्बालारस्पृष्टाः। पूर्वोक्तप्र. अवाहियतेाहिय० जाव भरिए बालग्गकाणं त कारण वालाग्राणां तत्र निविडतयाऽवस्थापनाच्छिद्रस्य क. स्थ णं एगमेगे बालग्गे असंखिजाई खंडाई कन्जइ, ते चिदप्यसंभवाद् दुरुपपादमिदं यत्तत्रास्पृष्टा नभ-प्रदेशाः सणं बालग्गा दिट्ठीओगाहणाश्रो असंखेज्जइभागमेत्ता सु न्तीति प्रच्छकाभिप्रायः, तत्रोत्तरम्-हन्तास्त्येतन्नात्र संदेहः कर्तव्यः, इदं च दृष्टान्तमन्तरेण बाङ्मावतः प्रतिपत्तुमशक्तः हुमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाहणारे असंखेजगुणा, पुनर्विनयः पृच्छति । यथा-कोऽत्र दृष्टान्तः । प्रज्ञापक आहते ण वालग्गा णो अग्गी डहेज्जा जाव णो पूइत्ताए हब्ब ( से जहानामए इत्यादि) अयमत्र भावार्थ:-कृष्माण्डानां मागच्छिजा, जे णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा तेहिं पुस्फलानां भृते कोष्ठके स्थूलहपीनां तावद् भृतोऽयमिति बालग्गेहिं अप्फुन्ना वा अणाफुन्ना वा तो णं समए प्रतीतिर्भवति । अथ कृष्माण्डानां बादरत्वात्परस्परं तानि समए एगमेग आगासपएसं अवहाय जातइएणं का छिद्राणि सम्भाव्यन्ते येष्वद्यापि मातुलिङ्गानि वीजपूरकाणि मान्ति,तत्प्रक्षेपे च पुन तोऽयमिति प्रतीतावपि मातुलिङ्गलेणं से पल्ले खीणे जाव निट्ठिए भवइ । से तं सुहमे छिद्रेषु विल्वानि प्रक्षिप्तानि तान्यपि मान्तीत्येवं तावखत्तपलिअोवमे ॥ द्यावत्सर्पपच्छिद्रेपु गङ्गावालुका प्रक्षिप्ता साप माता । एवक्षेत्रपल्योपममयुक्तानुसारत एव भावनयिम्, नवरं व्यावहा मागहएयो यद्यपि यथोकपल्ये शुपिराभावतोऽस्पृष्टरिकपल्योपमे(जे णं तस्ल पल्लस्सेत्यादि)तस्य पल्यस्यान्तर्गता नभःप्रदेशान्न सम्भावयन्ति तथाप बालाग्राणां बादरत्वादानभःप्रदेशास्तैालायें (अप्फुण ति) प्रास्पृणा व्याप्ता प्राक्रा काशप्रदेशानां तु सूक्ष्मत्वात् सन्त्येवाऽसंख्याता अस्पृशानन्ता इति यावत् तेषां सूक्ष्मत्वात् प्रतिसमयमेकैकापहारे असं. भःप्रदेशाः, दृश्यते च निविडतया संम्भाव्यमानेऽपि स्तम्भाख्येया उन्सपिण्यवसर्पियोऽनिकामन्त्यतोऽसंख्येयोत्सपि ऽऽदी प्रास्फालितायाकीलकानां बहूनां तदन्तःप्रवेशो,न चा. एयवसपिणीमानं प्रस्तुतपल्यापमं ज्ञातव्यं, सूक्ष्मक्षेत्रपल्पोप सी शुपिरमन्तरेण संभवति, एवमिहापि भावनीयम् ॥१४३॥ मे तु सूर्यमालाग्रैः स्पृणा अस्पृष्टाश्च नभःप्रदेशा गृह्यन्ते, अ (द्रव्यशरीरवक्तव्यता स्वस्वस्थाने) तस्तव्यावहारिकादसंख्ययगुणकालमानं द्रष्टव्यम् । आह से तं सुहमखेत्तपलिअोवमे । से तं खेत्तपलियोवमे । यदि स्पृष्टा अस्पृष्टाश्च नभःप्रदेशा गृह्यन्ते, तर्हि बालाः अनु० । प्रा०म० । प्रव० । भ० । कर्म । जं।। प्रश्न। किं प्रयोजनं?,यथोक्रपल्यान्तर्गतनभःप्रदेशापहारमात्रतः सा- विशे० । स्था० । पल्यवत्पल्यस्तेनोपमा यस्मिस्तत्पल्यो. मान्येनैव वकमुचितं स्यात् , सत्यं, किं तु प्रस्तुतपल्योपमेन पमम् । स्था० २ ठा० ४ उ० । श्रा०म० । “पलिअोवमं दृष्टिवादे द्रव्याणि मीयन्ते, तानि कानिचिद्यथोकवालाग्र- वाससयसहस्समभहियं।” मकारस्य प्राकृतप्रभवत्वाद् वर्ष। स्पृष्टैरेव नभ प्रदेशीयन्ते कानिविदस्पृष्टैरित्यतो हाट- शतसहस्राभ्यधिकमित्यर्थः । अथवा-पल्योपमं वर्षशतसहर बादोनद्रव्यमानोपयोगित्वाद्वालाग्रप्ररूपणाऽत्र प्रयोज- समभ्यधिकं पल्योपमादित्येवं गमनिका । श्री। नवतीति ॥ पलिंत-प्रलीयमान-त्रि० । प्रकण लीयते प्रलीयते यः स तत्थ णं चोपए पासवगं एवं वयासी-अस्थि णं तस्स प- प्रलीयमानः । शोभनभावयुक्त, सूत्र० १ शु०२ अ०२ उ० । लस्स आगासपएसा जे ण तेहिं बालग्गेहिं अणाफुम्मा ? - समन्ताद् गच्छति, सूत्र० ११० १ अ०४ उ० । ता अत्यि । जहा को दिटुंगो ?। से जहाणामए कोढए सिया पलिगोव-परिगोप-पुं० । परि गोपनं परिगोपः । द्रव्यतः कोहंडाणं भरिए तत्थ णं माउलिंगा पक्खित्ता ते वि माया, पाकाऽऽदौ भावतोऽभिवते. सूत्र. १२० २ १०२ उ०। तत्थ णं बिल्ला पक्खित्ता ते वि माया, तत्थ णं आमलगा महयं पलिगोव जाणिया, जा वि य वंदणपूयणा इहं । पक्खित्ता ते वि माया,तत्थ णं वयरा पक्खित्ता ते वि माया, महान्तं संसारिणं दुस्त्यजत्वान्महता वा संरमेण परिगोपन परिगोपो द्रव्यतः पाकाऽऽदिर्भावतोऽभिष्वङ्गस्तं ज्ञात्वा स्वरूप तत्य ण चणगा पक्खित्ता ते वि माया, तत्थ णं मुग्गा प तस्तद्विपाकती वा परिच्छिद्य यापच प्रवजितस्य सतो रा. क्खित्ता ते वि माया,तत्थ णं सरिसवा पक्खित्ता ते वि माया, जाऽऽदिभिः कायाऽऽदिभिर्वन्दना वखपाचादिभिश्च पूजना तत्थ ण गंगावालुवा पक्खित्ता सा वि माया। एवमेव एएणं तांच इहाऽस्मिन लोके मौनीन्द्र वा शासने व्यवस्थितेन कदिढतेणं अत्थि णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा जे णं तेहिं मोपशमजं फलमित्यवं परिज्ञायात्सेको न विधेयः ॥ ११ ॥ सूत्र० १ श्रु० २ १०२ उ०। बालग्गेहि अणाफुमा । “एएसि पल्लाणं,कोडाकोडी भवेज | पलिच्छाम-परिच्छन्न-त्रि० । परिच्छदापते, व्य० ३ उ० । प्र. दसगुणिया। तं सुहुमस्स खेत्तसा-गरोवमस्स एगस्स भवे | तिनिरुद्ध, आचा० श्रु०४ अ०४३० । परिमाणं ॥१॥" एएसिं सुहुमेहिं खेत्तपलिओवमसागरो पलिच्छिदिय-परिच्छिद्य-अव्यः । शस्त्राऽऽदिना (नि० चू०५ वमेहि किं पोअणं ?। एएहि मुहमपलिप्रोवमसागरावमे उ०) छिस्वेत्यर्थे, प्राचा० श्रु० ३ अ०२ उ० । अपनीयेत्यहिं दिद्विवाए दवा मविजंति । (१४३ )। थे. आचा० अ०४ अ०४ उ० । Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२५) पलित अनिधानराजेन्द्रः । पलिस्सयम पलित-प्रदीप्त-त्रि० । "प्रदीपिदोहदे लः" ॥ ८ । १ । २२१ ॥ पलियस्सो -परिपाश्चतस-अन्य समां, पति"स्या इत्यनेन दस्य लः । प्रा० १ पाद । प्रज्वलिते, प्रश्न० १ अाश्र० पुरण अस्थि।" भ० ६ श०५ उ० ! द्वार। पलित्तणेह-पर्याप्तस्नेह-त्रि । पर्याप्तः परिपूर्णः स्नेहस्तलाss पलियाम-पलिताडम-२० । परिपक्वतां प्राप्या:मे यतारिदिरूपो यस्य तत्पर्याप्तस्नेहम् । पूर्णस्नेहे,जी०३प्रति०४यधि०। पक्वं पर्यायं ग प्राप्तम् , तथाऽप्यामर । नि' चू०१५. उ० । पलिवाहिर-परिवाह्य-न । समन्ताद् बाह्ये, प्राचा० १ श्रु) ५ पालल पलिल पलित-चि० " पलिने धा"।८।१।२१२॥ इति अ०४ उ०। सूत्रण तकारस्य वैकल्पिकः लकारः । जराग्रस्ते, प्रा.१पाद । पलिभाग-परिभाग-पुं० । सादृश्ये, कर्म०५ कर्मः। पलिबग-प्रदीपक-त्रि० । प्रदीरनतारे प्रश्न०१ श्राश्रद्वार। पलिभिदिय-परिभिद्य-अव्य० । परिज्ञाप्येत्यर्थे, परिभिद्येत्यर्थे पलिविय-प्रदीपित-त्रि।"णनीयादिवित्" ।।११॥ च । “ पलिभिदियाणं तो पच्छा पादुद्धटुमुद्धिपहाणं | इति दीर्धकारस्य हस्पेकारः । ज्वलिते, प्रा. १ पाद । ति।" ॥२॥ सूत्र०१ १०४ अ०२ उ।। पलिह-परिघ-पुं० । अर्गलादण्डे, औ०। पलिभेय-प्रतिभेद-पुं। खण्डाखण्डीकरणे, नि० चू०५ उ०। पलिस्सइउ--परिष्वक्तुम्-श्रव्य । परिष्वङ्गं कर्तुमित्यर्थे, वृ० पलिमंथ-परिमन्थ-पुं० । परिमनन्ति इति परिमन्थाः । व्या ४ उ०। घातकेषु, स्था०६ ठा० । “विलोडनाय व्याघाताय स्थिते, स्थत, पलिस्रायण-परिप्वजन-न० । श्राश्लपैनिग्रन्थनिन्धीपरिसूत्र.२ श्रु०७ १०॥ विघ्ने, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-" पलि प्वङ्गः । वृ। मंथमहं वियाणिया,जाविय वंदण पूयणा इहं।" सूत्र० १ श्रु० सूत्रम्२ अ०२ उ०। पलिमंथग-परिमन्थक-पुं० । वृत्तचणके, काल बणके च । भ. निग्गथिं च णं गिलायमाणिं पिया वा भाया वा पुनावा ६ श० ७ उ० । बिलम्बे, स्था० ७ उ०। पलिस्सएजा, तं च निगंथे साइजेजा मेहणपडिसेवणपना पलिमथु-परिमन्यु-पुंज परिमथ्नन्तीति परिमन्थवः। उणाs. आवजइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्याइयं ।।६।। दित्वाद् उप्रत्ययः । स्था. ६ ठा० । सर्वतो विलोडवितरि, णिग्गंथं च णं गिलायमाणं माया या भगिणी वा धृता वा छ कप्पस्स पलिमंधू पत्ता । तं जहा-कुकुइए संजम- पलिस्सएजा, तं च निग्गंधी साइजेजा, नेहुणपाडलेवणपत्ते स्स पलिमंथू , मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमेथू, चक्खु- आवजइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्याइयं ॥१०॥ लोले इरियावहियाए पलिमय, तितिणिए एसणागोयरस्स अथास्य सूत्रद्वयस्य कः सम्बन्ध इति ?, अाहपलिमथ् , इच्छालोले मुत्तिमग्गस्स पलिमथू, भुञ्जो भुजो उवहयभावं दव्ब, सच्चित्तं इय णिवारियं सुत्ते । णियाणकरणे सिद्धिमग्गस्स पलिमंथू, सव्वत्थ भगवया भावासुभसंवरणं, गिलाणसुत्ते वि जोगोऽयं ॥३५२।। अनियाणया पसत्था ॥१३॥ बृ० ६ उ० । दुएताऽऽदिभिदोपैरुपहती दृषितो भावः पारणामी य(कप' शदे तृतीयभागे २२६ पृष्ठे सूत्रं व्याख्यातम) स्य तदुपहतभावं पञ्चविधं सचिसद्रव्यं प्रवाजनाऽऽदी पलिमद-परिमर्द-पुं० परिमर्दयन्ति ये ते परिमर्दकाः। परिम- ( इय ) एवमनन्तरसूत्रे निवारितम् । इहापि ग्लादोपजीवके, नि. चूल ( उ०। नसूत्रेऽशुभभावस्य परिपूजनानुमोदनलक्षणस्य संचगं पलिमहवंत-पलिमर्दयत्-त्रि० । शरीरमर्दनं कारयति, नि० निवारणं विधीयतेऽयं योगः संवन्धः । अनेनाऽऽयातस्या. स्य सूत्रस्य (6-१०) व्याख्या-निर्ग्रन्थीं प्रागुलशब्दाथी, च. चू० १७ उ०। शब्दी वाक्यान्तरोपन्यासे, णमिति वाक्यालङ्कारे । (गिलायपलिय-पलित न० । कर्मणि, प्राचा० १५० ४ श्र. ३ उ०। माणि ति) ग्लायन्ती, ग्लै' हर्षनये, शरीरक्षवेण हर्पक्षयपल-भावे नः । केशाऽऽदी जरया जातायां श्वेतता मनुभवन्ती पिता वा भ्राता वा पुत्रो वा निर्ग्रन्थः सन् प. याम् , मांसाऽऽदेवलिपरीतभावे च । कर्तरि क्तः । वृद्धे, । रियजेत् । प्रधनन्ती धारयन निवेदयन् स्थापयन् वा शरीर स्त्रियां पलिता । योपिति तु पलिकीत्युक्तम् । वाब०। प्रा० स्पृशेत् । तत्र पुरुपस्पर्श सा निर्ग्रन्थी मैथुनप्रतिवनमाना म०। श्राचा। स्वादयेत् अनुमोदयेत् , तत प्रापद्यते चातुर्मासिकं परिहारपलियंक-पर्यङ्क-पुं० । शय्याविशये. व्य. १० उ० । दश० । स्थानमनुद्घातिकम। एवं निर्ग्रन्थसत्रमपि व्याख्ययम् नवरं तं जीत । भ.। शा० । नि० चू। कल्पः । जी० । माता वा भगिनी वा दुहिता वा परिप्यजेत् । इति सूत्रार्थः । पलियंकबंध पर्यवन्ध-पुं० । प्रासनविशेष. पो० १४ विव श्रथ नियुक्तिविस्तरः। तत्र परः प्राह-तत्र पुरुपातमा धर्म पलियंत-पर्यन्त-त्रि० । परि समन्तादन्तो यस्येति पर्यन्तः। इति कृत्वा प्रथमं निर्ग्रन्थस्य सूत्रमभिधातव्यं ततो नि. मान्ने, सूत्र.१०२१ उ०। न्थ्याः , अतः किमर्थं व्यन्यास इति । आहपल्यान्त-न । त्रिपल्यापमान्ते, सूत्र० ११.२०१ उ० ।। कामं पुरिसाऽऽदीया, धम्मा मुत्ते विवञ्जतो तह वि । पलियत्तयकामहत्थ-पलिनत्वकर्णहस्त-त्रि०। जराग्रस्तत्वकर्ण- दुबलवलस्सभावा, जेणिन्थी तो कता पढमं ॥३५३।। हस्त, "न हिदिजाहराग पालय तथफ पदस्थस्स।"विश। काममा मतमिदं यत्पुरुषादयः पुरुषमुख्या धर्मा भवन्ति, Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहिस्सयगा अभिधानराजेन्डः। पलिस्सया तथाऽपि सूत्रे विपर्ययः कृतः । कुतः, इत्याह -दुर्बला धृति- संजात असंखडाऽऽदी,भुत्ताभुत्ते य गमणाऽऽदी॥३५६।। बलविकलस्वभावा स्त्री थेन कारणेन भवति ततः प्रथ-। गृहिषु परिष्वज्यमानेषु पश्चात्कर्म भवति, संयतेन ममसौ कृता इत्यदोषः। स्पृष्टोऽऽयमिति कृत्वा गृहस्थः स्नानं कुर्यादिति भावः । अ. वइणि त्ति णवरि णम्मं,अप्पा विण कप्पती सुविहियाणं ।। विरतिकाः । परिष्वने भावसंबन्धोऽपि जायत । ततश्च यतअवि पसुजातीप्रालिं गिरं पि किमुता पलिस्सइउं ।३५४। भङ्गो ब्रह्मचर्यविराधना भवेत्, रोगसंक्रमणाऽऽदयश्च त इह सूत्रे यत् व्रतिनी निर्ग्रन्थी भणिता तन्नवरं नर्म चि- एव दोषाः, संयतं तु परिध्वजतः तेन सहासंखडदयो दोषाः। हमुपलक्षणं द्रष्टव्यं, तेनान्याऽपि स्त्री सुविहीतानां न क. भुक्तभोगिनश्च स्मृतिकरणेनाभुक्तभोगिनः कौतुकेन प्रतिल्पते परिष्वक्तुम् । इदमेव व्याचष्टे-पशुजातिरपि पिकी. गमनाऽऽदयो दोषाः। एवं तावनिष्कारणे अग्लानयोश्चोकम् । प्रभृतिपशुजातीयस्त्रीरप्यालिङ्गितुं न कल्पते किमुत यत् प एमेव गिलाणाए, सुत्तऽफलं कारणे तु जयणाए । रिवक्तुम् । यत् सूत्रे पारेप्वजनमभिहितं तत्कारणिकम् ।। कारणे गएऽगिलाणा,गिहकुल पंथे व पत्ता वा ॥३६०॥ अत एवाऽऽहनिग्गंथो निग्गंथि, इत्थिं गिहित्थं व संजयं चैव । एवमेव ग्लानाया अपि संयत्याः परिष्यजने क्रियमाणे दो षजालं मन्तव्यम् परः प्राह-नम्वेदं सूत्रमफलं प्राप्नोति. तत्र पलिसयमाणे गुरुगा, दो लहुगा आणमादीणि ।।३५५॥ हि परिप्वजनमनुशातं, वादनं पुनः प्रतिषिद्धम् । मूरिराहनिर्ग्रन्थो निर्गन्धर्थी परिष्वजति चतुर्गुरुकाः, तपसा कालेन | कारणे यतनया झियमाणे परिष्वजने सूत्रमवतरति । कथं च गुरवः, नियमविरतिका परियजति त एव तपसा गु- पुनस्तस्य संभव इत्याह-कारणे काचिदार्षिका (पग त्ति) रवः, गृहस्थं परिप्वजति चतुर्लघुकाः, कालेन गुरवः, सं- एकाकिनी संवृता सा च पश्चादग्लानीभूता, (गिहिकुल त्ति) यतं परिष्वजति त एव, द्वाभ्यामपि लघयस्तपसा कालेन गृहस्थकुला निश्रया सा स्थिता । अथवा-(गिहि कुल त्ति)माच, सर्वत्र चाशाऽऽदीनि दूपणानि भवन्ति । ताऽस्यैककुल समुद्भूता भगिन्यादिसंबन्धेन जिनका गृहस्थ. इदमेव व्याचष्ट तां परित्यज्य तदन्तिके प्रवजिता, सा चानीयमाना पथि निग्गथी गुरुगा गिहि-पासंडिसमणा य चउलहुगा । वा वर्तमाना विवक्षितग्रामं वा प्राप्ता ग्लाना जाता। दाहिं गुरुगा य लहुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा ।३५६। तत्रेयं यतनानिर्घन्धस्य निर्ग्रन्थी परिष्वजतश्चतुर्गरवो द्वाभ्यामपि गु माता भगिणी धृता, तधेव समातिगा य सड्डीए । काः, स्त्रियं परिष्वजत एव तपोगुरवः, गृहस्थं परिष्वजत. गारथि कुलिंगी वा, असोय सोए य जयणाए ॥३६१।। श्चतुर्लघवः कालगुरवः, पाखण्डिपुरुषं श्रमणं वा साधुं परि-| तस्याः संयत्या या माता भगिनी दुहिता वा नया तस्या प्वजतश्चतुर्लघवः । एवं द्वाभ्यामपि तपःकालाभ्यां लबवः। उत्थापनाऽऽदिकं कार्यते । एतासामभावे या सज्ञातिका भामिच्चत्तं उड्डाहो, विराहणा फास भावसंबंधो। गिनेयीपौत्रीप्रभृतिका, तया कार्यते । तस्या अमावे श्रा. आतंको दोगह भवे, गिहिकरण पच्छकम्म वा ॥३५७।। शिकया, तदभावे गृहस्थया तथा भद्रिकया, कुलिङ्गिन्या वा कार्यते, तास्वपि प्रथममशौचवादिनीभिस्ततः शौचवानिम्थं निर्ग्रन्ध्या परिष्वजन्तं रष्टा यथा भद्रकाऽऽदयो मि दिनीभिरपि यतनया कारयितव्यम् । ध्यात्वं गच्छ युः । एते यथा-वादिनस्तथा कारिणो न भवस्ति । उहाहो वा भवेत्-पते संयतीभिरपि सममब्रह्मचा एयासिं असतीए, अगार सप्लाय णालबद्धो य । रिणः । एवं शङ्कायां चतुर्गुरु, निःशङ्किते मूलम् । एवं च प्र. समणो प्रणालबद्धो, तस्सऽसति गिही अवयतुल्लो ।३६२॥ बचनस्य बिराधना भवेत् । तेन वा स्पर्शन द्वयोरपि माहोदये एतासां स्त्रीणामभावे योऽगारः सज्ञातकस्तस्याः स्वजनः, संजाते भावसंबन्धोऽपि स्यात् , ततश्च प्रतिगमनाऽऽश्यो | सच मातुलपुत्राऽऽविरपि स्यात् , अतस्तत्प्रतिषेधार्थमाह. दोपाः । पानी पाद्वयोरग्यतरस्य भवेत् स परिष्वजनं संक्र- नालबद्धो पल्लीवद्धः, पितृभ्रातपुत्रप्रभृतिकात्यर्थः । स उ. मैत् । गृहस्थस्य च परिष्वजनकरणात्पश्चात्कर्मदोषी भवेत् ।। स्थापनाऽऽदिकं तस्याः कार्यते, तदभावे श्रमणोऽपि यस्तइनमेव पश्चार्द्ध व्याच - स्या नालबद्धो असमानतया. तस्यासति मनालबद्धोऽपि गू. कोदुखए कच्छुजरे, अ परोवरसंकमते चउभंगो। ही ययसा अतुल्यः स कार्यते। इत्थीणातिसुहीण य, अवियत्ती गेएहणाऽऽदी य॥३५८।। दोनि वीणालबद्धासु, जुजंती एत्व कारणे। कुरक्षतकच्छज्वरप्रभृतिके रोगे परस्परं संक्रामति चतुर्भ- किती कामा वि मज्झा वा, एमेव पुरिसेसु वि ॥३६३॥ ही भवति-संयतस्य संबन्धी कुष्टाऽऽदिः संयत्याः संक्रा- नालयद्धाभावे द्वावपि खीपुरुषावनालबद्धावपि कारणे मान. संवत्याः संबन्धी वा संयतस्य संक्रामते, द्वयोरप्य- आगाढे उत्थापनाऽऽदिकं कारयितुं युज्यते । तत्रापि प्रथम भ्योऽयं संक्रामति, अत्राऽऽद्यभङ्गत्रये रोगसंक्रमणकृताः प. (किडि ति) स्थविरा स्त्री कार्यते, तदभावे कन्यका, तद. रितापनाऽऽदयो दोषाः । (इत्थी इत्यादि ) तस्याः स्त्रियः प्राप्ता मध्यमा । एवं पुरुषेष्वपि वक्तव्यम।। संबन्धिनो ये शातयो ये च सुहृदस्तेपामप्रीतिकं भवति, त. अमुमवार्थ पुरातनगाथया व्याख्यानयतितश्च ग्रहणादऽध्यो दोपाः । असई य माउबग्गे, पिता व भाता व सो करेजाहि । गिरिसु पच्छकम्म, भंगो ते चेव रोगमादीया । दोगह वि सिं करणं, जति पंथे नेण जतणाए ॥३६४॥ सीरुपा गुज्यते । कम्पका Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२७) अभिधान राजेन्द्रः । पलिया मातृवर्गो नाम स्त्रीजनस्तस्याभावे य श्रस्याः संबन्धी पिता भ्राता वा स उत्थापनाऽऽदिकं करोति । ( दोराह विहत्या. दि) द्वयोरपि तयोः करणम् । किमुक्तं भवति ?-पथि वर्तमानायाः प्राप्ताया वा । श्रथवा निजकाया वा निजकाया वा अनन्तरोक्तविधिना तस्या उत्थापनाऽऽदिकं कर्तव्यम् । यदा व पथि ग्लाना संवृत्ता तदा स्वयमेव यतनया गोपालककतिरोधने विधूय तस्याः परिकर्म करोति । अथवा (दोहि विति ) विभक्तिव्यत्ययाद् द्वाभ्यामपि द्रष्टव्यम् । तत्राऽयमर्थः श्रीपुरिसालणाले, सपक्वपरपक्ख सोयऽसोए य । आगादम्मि उ कजे करेंति सम्बे वि जतवाए || ३६५|| मागाडे कार्ये खिया पुरुषेण वा नालबद्धेन वा अनालवदन बा स्वपरपक्षेण या शोचयादिना श्रयवादिना या सर्वे पि यतनया कुर्वर्ति । पंथम्म अथमिव, अस्स, सती सती व कुणमायो । अंतरिमकंचुकादी, सधिय जयगा उ पुस्युत्ता ॥ ३६६ ।। पथि अपथि वा वर्तमानाया अन्यस्याभावे यद्वा अस्ति अम्यः परं स भणितोऽपि न करोति, ततः स्वयमेव कुर्वन् गोपालकका दिभिरन्तरितं करोति । अत्र च सैव पूर्वोक्का यतना मन्तव्या या तृतीयोदेश के प्रथमसूत्रे ग्लानसंयत्याः प्रतिचरणे प्रतिपादिता । एवं तावदेकाकिनः साधविधिरुक्तः । अथ गच्छे तमेवाऽऽह गच्छम्म पिता पुचो, भाता वा अनगो व यत्तू वा । एतेसिं असतीए, तिविहा वि करेंति जयणाए ।। ३६६ ।। गवसतां यदि तस्या पिता पुत्र भ्राता या आर्यको पा पितामहादिता वा पोनोऽस्ति ततः संपतीनामपरस्य वा स्त्रीजनस्याभावे तैः कर्त्तव्यम् । एतेषां पितृप्रभृतीनामभाषे त्रिविधा श्रपि स्थविरमध्यमतरुणाः साधवो यतनया कम्बुकतिरोहितं कुर्वन्ति रं गच्छे प्राप्ताया अभिहितम् । अथ पथि वर्तमानाचा उच्यते 1 दधि विवर्यति पंथं एकतरा दोधि वा न वती । गच्छ विसए व जतणा, जा वृत्ता खायगादीया ॥ ३६७॥ ये अपि निजकानिजकसंयत्यौ पन्थानं प्रजतः - एकतरा बा बजति द्वे अपि न व्रजतः, एवमेते जयः प्रकाराः । अत्र तृतीयः प्रकारः शून्यस्थानस्थितानां वा गच्छ मप्राप्तानां भवति, १ त्रिष्वपि चामीषु या पूर्व हा साऽऽदिक्रमेण मा एवं पि कीरमाये, साइअसे चउगुरु ततो पुच्छा । तम अवस्थाएँ भवे, तहिगं च भवे उदाहरणं ।। ३६८ || मपि यतनया क्रियमाणे परिकर्मणि यदि पुरुषस्पर्श स्वादयति तदा चतुर्गुरुताभ्यामपि तपःकालाभ्यां गुरवः । ततः शिष्यः पृच्छति यस्यां ग्लानावस्थायामुत्वामपि न शक्यते तस्यामपि मेघनाभिलाषी भवतीति कथं अयम् । रिराह- तत्रेति तादृगवस्थायामपि मोहोदये इदमुदाहरणं भवेत् । कुलसम्म पहिया, ससमभसएहिं होइ भाहरणं । पक्षिस्सय सुकुमालियपव्य, सपधवाता य फासे ।। ३६६ ॥ शशक- मसकाभ्यामाहरणं भवति । कथमित्याह- कुले वं शे सर्वस्मिन्नशिवेन प्रक्षीणे सति सुकुमारिकायाः प्रव्रज्या ताभ्यां दत्ता सा वातीव सुकुमारा रूपवती च ततस्तेन स्पर्श दोषेणालक्षणतया रूपदोषेण च समत्यपाया ज्ञाता । एतामेव नियुक्तिगाथा व्याख्याति जिपस नरवीरंद-स्स गया ससभसे व सुकुमाली । धम्मे जिणपते, कुमारगा व पव्वता ॥ ३७० ॥ वरुणाईचे नियं, उवस्सए सेसिगाण खखट्टा | गुरुभातुकहणं, वीसुवस्सऍ हिंडए एक्को ॥ ३७१ ॥ इक्खागे दसभार्ग, सव्ये वि व वहियो सम्भागं अहं पुरा भायरिया, अर्द्ध भद्वेण विभयंति ॥ ३७२ ॥ हतमहितविप्पर वहिकुमारेहि तुकमिणीनगरे । किं काहिति हिंडतो, पच्छा ससग भसगयो चैव ।। ३७३ ।। मायणुकंपपरिया, समोहवं एगो मंडगं वितियो । भासत्यपथियगहणं, भातुकसारिखीदक्खा य ॥ ३७४॥ "इहेव अजभरहे वणवासीय नगरीए जिदुभाउलो जरमारस्त भए जियसत्तू राया तस्स दुबे पुसा, सेसनो अ धूया य सुकुमालिया नामे । अन्नया ते भाउणो दो वि पव्वइया गीयत्था जाया । सा भायगदंसणत्थं श्रगया, नवरं सम्बे पि कुलसपदीणा सुकुमालियं पर्क मोतुं । सा पिण्याविया तुरुनगर गया. महरिया पडिया साप्रतीय कचच जो जो भिक्वावियाराऽऽदिसु वच्चाह तम्रो तम्रो तरुणाला पितो पति सद्दी विद्वा वि तथा उपस्वयं पचिखित्ता चिति, जो न तरति पडिलेडणाई किंचि फाउं ताई ताए महपरिवार गुरुं कहिचं सुकुमालिपतपणं समं अनामो वि विनिश्वित गुरुणा ससगभसगा भणिता-सारक्बद्द एवं भगिि ते सांधे धीं उपस्सएड़िया, तेलि एगो गो तं पयतेण रख दो वि भायरो साहस्समझा, जे तरुणा महिषति ते इतमहिते कार्ड धाति ते प विराडिया भिनदिति तच स एगो हिंडतो तिर पलहर पहा देखकाले फिडिट हिंडितो न संचर, ता सा भ यह तुग्भे दुखिया माहोह अहं भतं पचखामि, पक्खाए मारतिय समुग्धापणं समोहया ते मार्च कालगति ता बगरणं पहिये. भीषण वाला या ताईसि सि पुरिसफासो देओ, साइि सं परिचिता गया गुरुसवासं, हमरी रसीद सीलवार समासत्या संपदा जावा, गोखे पगेणं सत्यवापुते दिट्ठा, तापसी जर ते मर कर्ज तो खारवेहि सा रविया महिला से जाया । ते भायरो अन्नया भिक्खं हिते ददहुं पारसु पडियार दना सा तेहि सारिखेण पश्चभिनाया वाषिया एवं जइ ताब तीर समुग्धायगयाप साहजि ये किमंग पुरा इवरी गिला साइजिज "अथाऽर्थः जितशत्रुनरवरेन्द्रस्याङ्गजौ पुत्रौ शशकभसकौ सुकुमारिका च दुहिता ततो जिनप्रणीते धर्मे कुमारकावेय तौ प्रब्रजिती, क्रमेण च ताभ्यां भगिन्यपि मनजिता । ततस्तस्या रूपदोषेण ! Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसिस्सयण अभिधानराजेन्द्रः। पल्लग तरुणैराकाणे नित्यमुपाश्रये शेषसादीनां रक्षणार्थ गणिन्या पुरुषद्वेषिण्या गणिकया ग्रहणं, ततस्तस्याः पतिः संजातः, गुरवे निवेदिता गुरुभिश्च श्रात्रोः कशितं,तत. पृथगुपाश्रो कियत्यपि काल गत समागताभ्यां भगिनीभ्यां प्रत्यभितां गृहीत्वा स्थितौ,तयोर्मध्यादेको भिक्षार्थ हिरडते,पकम्तां शाय भूयः प्रत्राजित इति । ०४ ग्र०।। रक्षति । किमर्थ पुनस्तस्या रक्षरामेवं तौ कृतवन्तावित्याह- पलिहा-देशी-मूर्ख, दे० ना० ६ वर्ग २० गाथा । ( इक्लागा इत्यादि ) इन्ताकव इक्ष्वाकुवंशनृपतयः प्रजाः पलिहस्स-देशी-ऊर्ध्वदारी, दे० ना० ६ वर्ग १६ गाथा। सम्यर, पालयन्तोऽपालयन्तश्च यथाक्रम तदीयपुरयपापयोदशभागं लभन्ते, सर्वेऽपि च वृष्णयो हरिवंशनृपतय एव- पलिहा-देशी-ऊर्ध्वदारी, दे० ना० ६ वर्ग १६ गाथा । मेव पद्भागं लभन्ते, अस्माकं पुनः प्रवचने प्राचार्याः सा पलीण-प्रलीन-त्रि० । कर्षण लीने, भ० २५ श) ७ उ० । धुसाध्वीजनं संयमाऽऽत्मप्रवचनविषयप्रत्यपायेभ्यः सम्यक् पालयन्तो वा यथाक्रम पुण्यपापं चाईमर्द्धन विभजन्ति,श्रत सूत्र० । सम्बद्धे, सूत्र०१ श्रु० १ १०४ उ०। (अस्य विस्तपव तो तांरक्षितवन्ताविति भावः । ततश्च (वरिहकुमारेहि रतो व्याख्या 'धारणाववहार'शब्दे २७४६ प्रष्टे ६५३ व्य वहारगाथायां गता) त्ति ) वृष्णयो यादवास्तेषां कुमारौ वृष्णिकुमारी, वृष्णिकुमारौ शशकभसकावित्यर्थः । ताभ्यां तुरुमिणीनगर्यामु पलीवणया-प्रदीपनता-स्त्री० । संधुक्खिमुद्दीविय-मुजा. पसर्गकारी तरुणजनो स्यान हथमथितविप्ररब्धः कृतस्तत्र लि पलीविरं जाण । संदुमिअंऊसिक्कि उत्तिश्रयं च हतश्चपटाऽऽदिना मथितो नाम भ्रान्ति प्रापितो प्रिरब्धो तेविअं॥१६॥ पाइ. ना.१६ गाथा। स्वार्थे तल । नाशने. विविधखरपरुषवचनैः प्रकर्षण निवारितः । एवं प्रभूत नि० चू०१६ उ.। लोकबिराधित सति किं करिष्यति पश्चाद्भिक्ष हिराडमानः पल्लुनरा-पक्ष्योत्तरा-स्त्री० । एकैकपलवृद्धिसूचिकायां रेखाशशको भसको वा; भक्तपानलाभाभावान्न किमपीति भावः । याम् , ज्यो०२ पाहु। ततः सुकुमारिकया भ्रात्रोरनुकम्पया परिज्ञा भक्तप्रत्याख्यानं, पलेमान-प्रलीयमान-त्रि० । प्रकर्षण लीयते प्रलीयमानः । ततं मरणसमुद्धातन समरहतां कालगनेयमिति ज्ञात्वा एको भाएडमुपकरणं द्वितीयस्तस्या गृहीतवान्, ततः शीत. सूत्र० १७० १३ अ० । पौनःपुन्येन कृतजन्माऽऽदिसन्धाने, लवातेन आश्वस्तायास्तस्था वणिजा ग्रहणं. कालान्तरेण च आचा० १ श्रु०४ अ०१ उ०।। भ्रातृभ्यां साक्ष्येण प्रत्यभिज्ञाय दीक्षा प्रदत्तेति व्याख्यातं | पलोएमाण -प्रलोकयत्-त्रिक दोघां हाट दिक्षु प्रांक्षपति, निम्रन्थीसूत्रम्। भ० १५ श । उपादेयतया प्रेक्षमाणे, औ०। श्रथ निर्ग्रन्थमूत्रं व्याच - पलोट्टण-प्रत्यागमन-न० । उत्थाने, व्य०१ उ० । एसेव गमो नियमा, निग्गंधीणं पि होइ णायव्यो । पलोहफेणाउल-प्रत्यागतफेनाऽऽकुल-त्रि० । प्रवृत्युत्पनेन फेतासिं कुलपव्वजा, भत्तपारेला य भातुम्मि ॥३७६।। नेन व्याप्ते, ज्ञा० १ थु० १ अ।। एष एव गमो नियन्धस्य परिष्वजनं कुर्वन्तीनां निर्ग्रन्थीनां पलोट-प्रति-श्रा-गम-धा० । यतो गतस्तवैवाऽऽगमने, "प्र. सातव्यो भवति, नवरं तासां निर्ग्रन्थीनां संबन्धी (कुल त्ति) त्याङा पलोहः।" ॥८।४। १६६॥ इति प्रत्यापूर्वस्य एक कुलोद्भवा भ्राता रूपवान् प्रवीजतस्तस्यापि क्रमेण भक्त गमधातो' पलीट्टाऽऽदेशः । 'पलोट्टइ । पञ्चागच्छह ।' प्रत्यागएरिज्ञा संजाता। च्छति। प्रा०४ पाद। __इदमेद व्याचले पलोडजीह-देशी-रहस्यभेदिनि, देख्ना०६ वर्ग ३५ गाथा । विउलकुले पव्वइते, कप्पटक किढिय कालकरणं च । जोवण तरुणीपेल्ल ण, भगिणी सारक्खणे वीसुं ॥३७७।। पलोभिय-प्रलोभित-त्रि० । प्रकृष्टं लोभं कारिते, " णियसो चेव य पडियरणे, गमतो जुवतिजणवारणपरिसा । दसणेण पलोभिया कयणियाणा।" प्रा० म०१ अ)। कालगतो त्ति समोहतो, उज्झण गणिया पुरिसदेसी ३७८ पलोय-प्रलोक-पुं० । प्रलोक्यत इति प्रलोकः । लोके, प्रा० मा २० । क्वापि विपुलकुले समुद्भूतं भगिनीद्वयं प्रव्रजितं. ततः कुलं वंशस्तथैव सर्वोऽपि प्रक्षीणो, नवरमेकः कल्पस्थको पलोयण-प्रलोकन-न। पर्यालोचने, प्राचा०२१०४ चू। जीवति, ततः ज्ञानदर्शनाय गतेन तेनार्यिकाद्वयन किटिका । १०१ अधि० काय काटका। स्थविरा, मातेत्यर्थः । तत्प्रभृति कुटुम्बस्य कालकरणं श्रुतं. पलोयणा-प्रलोकना-स्त्री०। प्रलोकनं प्रलोकना। प्रर्पणास च कल्पस्थकः प्रवज्य गुरूणां दत्तः, यौवनं च प्रा- लोके, ओव० । “जे भिक्खू संखडिपलायणाए असणं पा. प्तोऽसावतीव रूपवान् समजनि, ततस्तरुणीति प्रेर्यते, ततो | णं खाइमं साइमं पडिग्गाहेइ। ” नि चू० ३ उ।। गरूणामाज्ञया ते भगिन्यौ विष्वगुपाश्रये नीत्या संरक्षि पल्ल-पल्य-नाशकटकाऽऽदिकृते धान्याऽऽधारविशषे.स्था. तवत्यौ । कथमित्याह-स एव प्रतिचरण रक्षणे गमो भवः ३ ठा० १ उ० । अनु० । रा०। ति, यः सुकुमारिकाया उक्तः । एवं युवतिजनवारण क्रियमाणे तस्य भगिनीदुःखं तथाविधं दृष्ट्रा भक्तपरिक्षा, तः | पल्लंक-पल्यङ्क-पुं० । शाकभेदे, प्रव०४ द्वार। तः समवहतः कालगत इति विज्ञायोज्झनं परिठापन, पल्लग-पल्यक-पुं० । (पाल-खंच) लाटदेशप्रसिद्धे. धान्यातस्य च स्त्रीस्पर्शण समाश्वासितस्य पुनश्चतन्ये संजाते धारविशंष, प्रज्ञा० ३३ पद । श्रा० म०। विश० ।नं। Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलट अभिधानराजेन्द्रः। पवंचगा पल्लट्ट-पर्यस्-धा) । पतने, घाते, विक्षेपे च । वाच) । पर्य- पल्लिय-पल्लित-त्रि० । आकान्ते, नि० चू. २ उ० । “अति सः पलोट्ट-पल्लट्ट-पल्हत्थाः ॥ ८।४।२०० ॥ इति सूत्रेण णिहापल्लिो ।" अतिनिद्राग्रस्तः । नि० चू. १ उ० । पाल्यपर्यस्यतेः पल्लट्टाऽऽदेशः 'पल्लट्टइ' पर्यस्यति । प्रा० ४ पाद । | तेऽनया दुष्कृतविधायिनो जना इति पल्ली नैरुको विधिः। पल्लहिउं-परिवर्दी-अव्य० । स्वकीयकोद्रवादनाऽऽदिसमर्पणे- | उत्त० ३० अ०। न परकीयशाल्योदनाऽऽदि गृहीत्वेत्यर्थ, पञ्चा०१३ विव० | पल्ली-पल्ली-स्त्री.। वृक्षवंशाऽऽदिगहनाऽऽश्रित प्रान्तजनपल्लत्थ-पर्यस्त-त्रि “पर्यस्त-पर्याण-सौकुमार्य लः" ॥८। स्थाने, उत्त. ३. श्र० । नि० चू०। २.६८ ॥ इति र्यस्य ल्लः । प्रा०२ पाद । “पर्यस्ते थटौ" | पल्लीण-प्रलीन-त्रि०। प्रकर्षण लीनः प्रलीनः । कल्प०१ ॥८।२।४७ ॥ इति स्तभागस्य थकारटकारी । प्रा०२ अधि०४क्षण । बहुतरं लीने, जीतः। पाद । प्रक्षिते, विक्षिप्ते, पर्वतशैलाद् गएडशल इव खाश्रया- | च्चलिते, प्रश्न०४ सम्ब० द्वार । "करयलपल्लत्थमुहे।" का। व खाश्रया- | पल्लीवइ-पल्लीपति-पुं०। पल्लाराजे चौरपत्यादौ, स्था० ४ रतले पर्यस्तं मुखं यस्य स तथा । सूब०२ श्रु०२ अ० । ठा०४ उ.। पर्यस्ते, पर्यस्तशब्दभवे । दे० ना० ६ वर्ग १४ गाथा। पल्लोट-पर्यस्त-त्रि० । “लेनाप्फुसाऽऽदयः" ॥८।४।२५८ ॥ पल्लत्थयंत-पर्यस्तयत्-नि। पर्यस्तं कुर्वति, "अमया वग्गणा इति निपातः । विक्षिप्ते, प्रा० ४ पाद । णि पल्लत्थयंतीए रयणाणि जायाणि।" नि० चू०१ उ०। पल्हत्य-पर्यस्त-त्रि । "क्नेनाप्फुसाऽऽदयः" ॥८॥४॥ २५८ ॥ पल्लय-पल्ल्यक-पुं। अनुत्तरोपपातिकदशानां दशमाऽध्य-|| इति निपातः । पतिते, विक्षिप्ते, प्रा. ४ पाद । यनोक्रवक्तव्यताके साधौ, स्था० १० ठा०।। पर्यस-धा। विक्षेपे, “पर्यसः पलोट्ट-पल्लह-पल्हत्थाः " पल्लल-पल्बल-नगा लघुतडागे, " पल्ललं अखायतलं । " पार ॥८।४ । २००॥ इति सूत्रेण परिपूर्वकस्यासूधातोः पर्य१३० गाथा । पुं० । प्रल्हादनशील जलस्थानविशेषे, भ०५ | सादेशः । 'पत्थइ ।' पर्यस्यति । प्रा० ४ पाद । श०७उ०। प्रज्ञाशा । प्रश्न। पल्हथिय-पर्यस्तित-त्रि० । पर्यस्तीकृते, सर्वतः क्षिते, शा. पल्लव-पल्लव-पुं० । संजातपरिपूर्णप्रथमपत्रभावरूपे वरा-| १ श्रु०१६ अः।। कुकरे, जी. ३ प्रति०४ प्राधिकारी विरचित-त्रि० । विरचिते, " पल्हस्थियमुझंडियं । " पाइ. सलयाई पल्लवा पवाला य ।" पाइ. ना० १३८ गाथा।। ना०२०१ गाथा। रा। जं० । किशलये, शा० १श्रु०१ अ०। पल्हथिया-पर्यस्तिका-स्त्री० । जवोपरि ववष्टना-मके, पर्यव-पुं० । प्राकृतत्वात्तथाऽऽदेशः । वस्तुधर्मे, स०४ अङ्ग । | उत्त. १ अाजकोपरि पादमोचने, उत्त० १ ०। पल्लवित्र पल्लवित-त्रि० । लानारसरले, " लक्खारुणिनं प- पल्हुत्थियावट-पर्यस्तिकापट्ट-पुं० । योगपट्टे, वृ० ३ उ० । ल्लविनं।" पाइ० ना. २६८ गाथा। पल्हाइय-प्रहादित-त्रि। आपनसुखे, प्राचा० १ श्रु। ३ पत्नविय-पल्लवित-त्रि० । संजातपल्लवे, जी० ३ प्रति०४ अ०१उ०। धि० । लाक्षारते, न० । दे० ना०६ वर्ग ११ गाथा । पल्हाय-प्रल्हाद-पुं० । “हो ल्हः " ॥८।२।७६॥ सूत्रेणास्य पल्लवंकुर-पल्लवाकर-पुं०। सजातपरिपूर्णप्रथमपत्रभाष हकाराकान्तल कारस्य लकाराकान्ती हकारः । प्रा०२ रूपेऽरे, जी०३ प्रति०४ अधिक। पाद । "अहो अभिरूपा एता" इत्यादि विकल्पजे आनन्द, पल्लवग्ग-पर्यवान-न० । पर्यवप्रमाण अभिधेयादितसर्मसं. उत्त० १६ अः। ख्याने, यथा" पारत्ता तसा।" इत्यादि । स०४ अङ्ग। पलहायजणण-प्रह्लादजनन-न० । प्रह्लादोत्पादे शीतीभवने, पल्लवगाहिणी-पल्लवग्राहिणी-स्त्री० । “न य कत्था निम्मा व्य१० उ०। अन्तःकरणस्य हर्षोल्पादके उत्त०१६ अ०। तो.ण य पुच्छर परिभवस्स दोसेणं । बन्थीव वायपुमा, फुट्टइ पल्हायणिज-प्रह्लादनीय-त्रि । श्राहादके, ज्ञा०१ श्रु० असा गामिल्लगविपक्खेसु ॥ ३७५॥" इत्युक्तलक्षणे दुर्विदग्धपर्प- पवन-प्लवग-पुं० । वानरे. “साहामिग्री वलिमुहा, पयंगमो भेदे, वृ. १ उ. २ प्रका। वानरी कई पवओ।" पाइ० ना० ४३ गाथा। पल्लवाय-देशी-क्षेत्र, दे० ना ६ वर्ग २६ गाथा । पवंग-सबङ्ग-पुं० । वानरे, पाइ० ना० ४३ गाथा। पल्लविल्ल-पल्लव-पुं० ।' स्वार्थ कश्च वा " ॥८॥२॥ पवंगम प्लवङ्गम-पुं० । वानरे, " साहामिग्री बलि मुहो, पयंग१६४ ॥ इति सूत्रण स्वार्थ इल्लप्रत्ययः । किशलये, प्रा०२ मो वाणगं कई पवनी।" पाइ ना ४३ गाथा । पाद। पल्लाउत्त पल्ल्यागुप्त-पुं० । वंशकटाऽऽदिकृते धान्याss- पवंच-प्रपञ्च-पुं। प्रपञ्च्यते वहुधा नटवद्यस्मिन् म प्रपधारविशेषे. स्था० ३ ठा० उ०।। वः। संसारे, जातिजरामरणरोगीकाऽऽदिके, मूत्र०१ २०७ पल्लाण-पर्याण-न० । 'पर्यस्त-पर्याण-सौकमायें लः॥। अक। विस्तार, प्रअ०१ श्राध.द्वार । श्री। पर्याप्तापा२०६८॥ इति यम्य लः । उष्ट्राऽदिपृष्ठोपरिस्थं विशियसं. सुभगाऽऽदिद्वन्द्वविकल्प प्राचा०१७०३ अ०३ उ०। नृण स्थाने अामनावशेष प्रा०२द । | पचण प्रवचन--न। विप्रनारणे, प्रश्न०१ श्राध द्वार। Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वचा पचा - प्रपञ्चास्त्री । प्रपञ्चयति विस्तारयति खेलकासा - ssदीनि प्रपञ्चा । सप्तभ्यां पुरुषस्य दशायाम्, तं० । सत्तमीज पर्वचाओ, जं नरो दसमस्सियो । निच्छुभइ चिक्कणं खेलं, खासई य खणे खणे ॥७॥ सप्तमी प्रपञ्चादशा. यां दशामाश्रितः (निच्छुभइ त्ति ) वहिर्निः क्षिपति यत्र कुत्रापि पहिर्निस्सारयति विपि च्छिलं, चेपकतुल्यमित्यर्थः । खेलं श्लेष्माणं च पुनः क्षणे क्षणे वारं वारं ( खासइत्ति ) कासितं करोतीत्यर्थः । तं० | दश० । पचिण्णु - प्रपञ्चितज्ञ - पुं० । विस्तरगदितशे विनये, नं० । पग - सबक - पुं । उत्प्लुत्य गर्ताऽऽदिलङ्घनकारिषु, ये उत्प्लवन्ति गर्ताssदिकं क्रियाभिर्लङ्घयन्ति नद्यादिकं वा तरन्ति तेषु तु । जं० । कल्प० । जी० । औ० । प्रश्न० । रा० । शा० नि० चू० । प्रत्रको वा प्रथमं वंशे विलग्नः सन् प्लवते, ततः पश्चादभ्यस्यन्नाकाशेऽपि तानि तानि करणानि करोति । बृ० १ उ० । ॥ ५ ॥ पत्रञ्जा प्रत्रज्या - स्त्री० प्रव्रजनं पापेभ्यः प्रकर्षेण चरणयोगेनमने ०३० महाबतीत त पञ्चा० १६० पचव पया, पापाओ सुद्धचरणजोगे । इत्र मुखं पर वयणं, कारणकओवयारा प्रजनं प्रत्रज्या प्रकर्षेण व्रजनं प्रव्रज्या, कुतः केत्यत श्राह - पापाच्चरणयोगेषु इद्द पापशब्देन पापहेतवो गृहस्थानुनवाकारणे कार्योपचारान् यथा-दधिषपुपी प्रत्यक्षो ज्वर इति । शुद्व चरणयोगास्तु संयतव्यापाराः मुखव कामित्युपेक्षाऽऽदय उच्यन्ते । (इ) एवं मोक्षं प्रति जनं प्रमा कथमित्याह-कारले कार्योपचारात्" कारणे शु. अचरसयोगल उणे मोशाय कार्योपचारात् । यथा-" आयु तम्" हत्यायुषः कामेाऽऽकारणस्वात् शुद्रवरणयोग एव मोक्ष इति । ततश्च मोक्षं प्रति प्रव्रजनं प्रवज्या इति गाथार्थः । एष तावत्प्रत्रज्यातत्वार्थः । ( ७३० ) अभिधानराजेन्द्रः | (१) अनादनांव्ययासुरानामाइ उभे, एसा दव्वम्मि चरगमाईणं । भावेश जिसमवम्मि उ आरंभपरिग्गहसाओ ।। ६ ।। नामा दिनेश दाइ प्रानामादिम यति । तद्यथा-नामप्रवज्या स्थापनाद्रव्यभावप्रवज्या चेति । तत्र नामस्थापने सुसत्वादनादृत्य नोश्रागमत एव शशरीरभव्यशरीरम्यतिरिक ज्यामाह-ये बरकाऽऽदनां द्रव्य इति द्वारपरामर्शः । द्रव्यप्रव्रज्या चरकाऽऽदीनां चरकपरिवाजकवितादीनां इज्यानको ब र्तमान भूतभविष्यद्भावयोग्यतावाचक इति नोश्रागमन एव भावप्रव्रज्या माह-भावेनेति भावतः परमार्थतः जिनमत एव रागादिजेतृत्वाजिनः तम्मत एव वीतरागशासन एवेत्यथेः । श्रारम्भपरिग्रहत्यागः वदयमाणाऽऽरम्भपरिग्रहवर्जनं जि. नशासन पत्र, अन्य शासनेष्वारम्भपरिग्रहस्वरूपानवगमात्लम्यकत्वाभाव इति गाथा ऽर्थः । धारम्भपरिग्रहस्वरूपप्रतिपादनायाऽऽडपुढचा आरंभो, परिगाहो प्रसादतुं । पवज्जा .. युद्धाय तत्थ बझा, इयरो मिच्छत्तमाईयो ||७| पृथिव्यादिषु कार्येषु विषयभूतेषु आरम्भ इत्यारम्भणमारम्भ संघट्टनादिरूप परम परमः सद्विविधःबाह्यः, श्रभ्यन्तरश्च । तत्र धर्म साधनं मुखवस्त्रिकाऽऽदि मुक्त्वा बाह्य इति संबन्ध । अन्यपरिग्रहणमिति गम्यते । मूर्च्छा च तंत्र धर्तीकरणे बाह्या एव परिग्रह इति । इतरस्स्यान्तरपरि प्रदो मिथ्यात्वाऽऽदिरेव आदिशब्दादविरतिदुष्टयोगा गृह्यन्ते परिगृह्यन्ते तेन कारणभूतेन कर्मणा जीव इति गाथार्थः । पं० ० १ द्वार । नि० चू‍ । (२) प्रव्रज्यापर्यायाः अधुनैतत्पर्यायानाहपन्य निकम, समया नाओ तहेव बेरम्गं । धम्मचरणं अहिंसा, दिक्ला एगट्टियाई तु ॥ ६ ॥ प्रव्रज्या निरूपितशब्दार्था, निष्क्रमणं द्रव्यभावसङ्गात्, समता सम्वेष्विष्टानिष्टेषु त्यागो बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहस्य तथैव वैराग्यं विषयेषु धर्मचरणं ज्ञान्त्याद्यासेवनम् अहिंसा प्राणिपार्जनम्, दीक्षा सर्वसत्वाभयप्रदानेन भावसत्रम्। एकाचिकानि तु पतानि प्रवज्यायाः तुः विशेषणार्थः शब्दनयाभिप्रायेण, समभिरूढनयाभिप्रायेण तु नानार्थान्येव, भिन्नप्रवृतिनिमित्तत्वात्सर्वशब्दानाम् इति गाथार्थः पं००१ द्वार (३) विविधा प्रवज्या " तिविहा पत्रञ्जा पत्ता । तं जहा - इहलोगपडिबद्धा, पर लोगपडिबद्धा, दुहओ पडिबद्धा ॥ सूत्रचतुष्टयं सुगमं, केवलं प्रत्रजनं गमनं पापाञ्चरणव्यापारेष्विति न्या. एमनं मोक्षगमनमेव कारणे कार्योप चारात् तदुम्पति पर्जन्य इत्यादिपदिति । उपञ्चवस्तु व्यवर्ण या पावाच सुरणने व मोक्खं पर गमणं, कारणक जीवयाराओ " ॥ ५ ॥ इति ॥ ( अस्याः व्याख्याऽनुपदमेव गता ) इहलोकप्रतिबद्धा ऐइलीभोजनादिकार्यार्थिनां परलोकप्रतिवद्धा जन्मातर कामाऽऽयर्थिनां द्विधा प्रतिबद्धा इहलोकपरलोकप्रतिवद्धा, सा चोभयार्थिनामिति । स्था० ३ ठा० २ उ० । चतु उब्दि पचा पाता । तं जहा इहलोगपरिवा पर लोगपविद्धा, दुहओ लोगपविद्धा अप्पविद्धा ॥ लोकमत निर्वाहाऽऽरिमालार्थिनाम् परलोकप्रति बदा जन्मान्तरकामाऽऽद्यार्थिनाम् द्विवालोकप्रतिपदा. उभ यार्थिनाम् । अप्रतिवद्धा विशिसामायिकता स्था डा० ४ उ० । तिविहा पचपापना ने जहा पुरओ परिवा, मग्गयो पबिद्धा,दुओ पडिबद्धा । , " पुरतोऽयतः प्रतिबद्धाः प्रवज्यापर्यायभाषिषु शिष्याऽऽदिपाशंसनतः प्रतिबन्धात्तः पृष्ठतः स्वजनाऽऽदिषु स्नेहाच्छेदात् तृतीया द्विधाऽपीति । स्था० ३ ठा० २ उ० । चहा पञ्जा पाता । तं जहा - पुरओ पडिबद्धा, मगम परिसदा दुहओ परिबद्धा अपविद्धा ।। - " Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) अभिधानराजेन्द्रः । पवज्जा पुरतोऽतः प्रवज्यापर्यायभाषिषु शिष्याऽहाराऽऽदिषु या प्रतिबद्धा सा तथा उच्यते, एवं मार्गतः पृष्ठतः स्वजनाऽऽदिषु, द्विधाऽपि काचित् श्रप्रतिबद्धा पूर्ववत् । स्था० ४ ठा०४ उ० । तिविहा पचा पाता। तं जहा तुयावत्ता, पुयावचा, बुपाता ॥ ( तुयावद्दत्त त्ति ) 'तुद' व्यथने इति वचनात् । तोदयित्वा तोदं कृत्वा व्यथामुत्पाद्य या प्रवज्या दीयते मुनिचन्द्रपुत्र. स्य सागरचन्द्रेणेव सा तथोच्यते । ( पुयावत ति ) 'प्लुक' गताविति वचनात् । प्लावयित्वाऽन्यत्र नीत्वाऽऽर्यरक्षितवत् या दयिते सा तथेति ( बुवाबसा ) संभाप्य गौतमेन कर्षकवदिति । स्था० ३ ठा० २३० । विहा पन्जा छत्ता से जहा तुयावहता, पुयाव इत्ता, मोयावइत्ता परिपुयावहता ॥ ( तुयावइत्त त्ति ) तोदं कृत्वा तोदयित्वा व्यथामुत्पाद्य या प्रव्रज्या दीयते मुनिचन्द्रपुत्रस्य सागरचन्द्रेणेव सा तथोच्यते । ( श्रयावद्दत्त त्ति ) क्वचित्पाठस्तत्व श्रोजो वलं शारीरं विद्याssदिसत्कं वा तत् कृत्वा प्रदर्श्य दीयते सा श्रयित्वेत्यभिधीयते । ( पुयावइन्त ति ) प्लुङ गताविति - वचनात्प्लावयत्या. अन्यत्र नीत्वाऽऽरक्षितवन्तं चा दूपणव्यपोहेन कृत्या या सा पूजयिस्थेति ( बुयावहत त्ति ) संभाष्य गौतमेन कर्षकवत् वचनं वा पूर्वपक्षरूपं कारयित्वा निगृह्य च प्रतिज्ञावचनं वा कारयित्वा या सा तथोक्ता क्वचित् " मोयावदत्त ति पाठस्तत मोचयित्या सामा लात्वादासप्रप्राप्तभगिनीवदिति (परिपु यायइसलि) घृताऽऽदिभिः परिप्लुतभोजनः परिप्लुत एव तं कृत्वा परिप्लुतयित्वा सुहस्तिनो रङ्कवत् या सा तथोच्य ते । स्था० ४ ठा० ४ उ० । तिविहा पव्वज्जा पत्ता । तं जहा उवायपव्वज्जा, श्रक्खायपव्वज्जा, संगारपव्वज्जा ॥ अवपातः सेवा सद्गुरूणां ततो या सा श्रवपातप्रत्रज्या तथा श्राख्यातस्य वा प्रव्रज्येत्यभिहितस्य गुरुभिर्या साSSख्यातप्रव्रज्या फल्गुरक्षितस्येवेति । ( संगार ति ) संकेतस्तस्माया सा संगारस्य मेतार्यादीनामिवेति । अथवा यदि त्वं प्रव्रजसि तदा मया प्रवजितव्यमित्येवं या सा। स्था० ३ ठा० २ उ० । उहि पन्ना पत्ता तं जहा वायपण्यजा, भ क्खायपव्यजा, संगारपव्या, विहगगइपप । ( उवाय ति ) श्रवपातः सद्गुरूणां सेवा, ततो या प्रत्रज्या साऽवपातप्रव्रज्या, आख्यातस्य प्रव्रज्येत्यायुक्तस्य या स्यात् साऽऽख्यातप्रव्रज्या श्रर्यरक्षितभ्रातुः फल्गुरक्षितस्येवेति । ( संगार त्ति ) संकेतस्तस्मात् या सा तथा मेतार्यादीनामिव। यदि यादि तदाऽहमपि इत्येवं संकेततो या सा तथेति । ( विहगगइ त्ति ) विहगगत्या पडियायेन परिवाराऽऽदिवियोगनैकाकिनी देशान्तरगमनेन यया सा विगगतिमज्या कचिद्विगमज्येति पाठः तत्र विहतगस्येवेति दृश्यम् विह्नतस्य वा दारिद्र्यादिभिररिभिर्वेति । स्था० ४ ठा• ४ ३० । पवजा चउन्विहा पव्वज्जा पत्ता । तं जहा गडक्खइसा, भडबखरता, सीहक्सइना, सियालक्खइता | नटस्येव संवेगविकलधर्मकथाकरणोपार्जित भोजनाऽऽदीनाम्. ( खइयति ) खादितं भक्षणं यस्यां सा नटखादिता, नटस्पेनवा) संगराम्यधर्मकथनलाः भावो यस्यां सा तथा एवं भटाऽऽदिष्वपि, नवरं भटस्तथाविधवलोपदर्शनलब्धभीजनाऽऽदेः खादिना बाको या सिंहः पुनः शौर्यातिरेकाश्यपानस्य यथारन्धभक्षणेन वा खादिता तथाविधप्रकृतिर्वा, शृगालस्तु न्यग्वृत्योपात्तस्यान्याम्यस्थानभक्षणेन वा खादिता तत्स्वभावो वेति । ४ । कृषिदृष्टान्तःason किसी पत्ता । तं जहा- वाविया, परिवाविया, निंदिया, परिगिदिया। एवामेव चउब्विा पव्वज्जा पत्ता । तं जहा - वाविया, परिवाविया, सिंदिया, परिगिंदिया | कृषिधन्यार्थ क्षेत्रकर्षणम् ( वाविय ति ) । सकृद्धान्यव - पनवती । (परिवाविय त्ति ) द्वित्रिर्वा उत्पाद्य स्थानान्त रात परिपाषिषत् (विदिय ति) एकदा विजातीयतृणाऽऽद्यपनयनेन शोधिता निन्दिता । (प. रिनिंदिय सि) द्विखयाऽऽदिशोधनेनेति तु ( वाविया) सामायिकाऽऽरोपणेन । (परिवाविया ) महानिरतिचारस्य सातिचारस्य वा मूलप्रायचित्तदानतः ( निंदिया) सकृदतिचाराऽऽ लोचनेन (परिि दिया । पुनः पुनरिति । धान्यपुत्रञ्जसमानापापव्वज्जा पाता। तं जहा-जियममाया, चिरपिसमाया, घाविखित्तसमाणा, पण्यसंकड्डियसमाणा । (पुंजियसमा ति ) ले विजीकृत धान्यमाना सकलातिचारकचवरविरहेण लब्धस्वस्वभा वत्वात् एकाऽन्या तु खलक एव यद्विलितं विसारितं वायुना पूतपुञ्जीकृतं धान्यं तत्समाना या हि लघुमाऽपि यज्ञेन स्वस्वभाव लक्ष्यत इति । अन्या तु यद्विकीर्णे गो. खुरचुरणतया विक्षिप्तं धान्यं तत्समाना, या हि सहसमुत्पन्नातिचारकच वरयुक्तत्वात्सामथ्र्यन्तरापेक्षितया कालपलभ्यस्वस्वभावा सा धान्यविकीर्यसमानोच्यते । अन्या तु यत्कर्षितं क्षेत्रादाकर्षितं खलमानीतं धान्यं तत्समाना, या हि बहुतरातिवापेत्तरकालप्राप्तव्यरूपस्वभावा सा धान्यसङ्कर्षितसमानेति । इह च पुञ्जिताऽऽदेर्धान्यविशेपणस्य परनिपातः प्राकृतत्वादिति । इयं च प्रवज्या एवं वि चित्रसंज्ञावशाद्भवतीति । स्था० ४ ठा ४ उ० । दशविधा प्रवज्या दसविहा पव्त्रा पत्ता । तं जहा- " छंदा रोसा परिजुया सुविधा परिस्सुमा नेत्र सारणिवा रोगणिया, अ सादिया देवसती ।। १ ।। " बद्धानुधिया । - " छंदागाहा "- ( बंद त्ति ) छन्दात् स्वकीयादभिप्रायविशेमाझेोविन्दवावकश्व सुन्न वा परकीयात्र Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३२) श्रन्निधानराजेन्द्रः। पचन्जा पवज्जा भ्रातृवशवदत्तस्येव या सा ( रोस त्ति ) रोषात् शि- कालरूपे, स च समयप्रसिद्धोऽनन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूवभूतेरिव या सा रोषा ( परिजुम्म त्ति) परिङ्ताद्दारिद्रया- पः । यदाहकाष्ठाऽऽहारकस्येव या सा परियूना । (सुविण त्ति) स्व. "श्रीरालविउब्धियते-यकम्मभासाणुपाणमणएहिं । प्नात् पुष्पचूलाया इव या स्वप्ने वा या प्रतिपद्यते सा जीवस्स पयलपोग्गल-गहणद्धा थूलपरियट्टो ॥१॥ स्वप्ना । (पडिस्सुया चेव त्ति) प्रतिश्रुतात् प्रतिज्ञाताद्या सा भागलियाएँ एक्के-कभेया सबपोग्गलग्गहणं। प्रतिथुता, शालिभद्रभागनीपतिधन्यकस्येव। (सारणिय त्ति) कालेण जेण सो पुण, भमति इह सुहमपरियट्टे" ॥२॥ सारणाद्या सा सारणिका, मल्लिनाथस्मारितजन्मान्तराणां इत्यादि शुद्धस्वभावस्य यथाप्रवृत्तिकरणनापचितदीर्घकप्रतिवुद्धयाऽऽदिराजानामिव । (रोगणिय ति) रोग पालम्ब- मंस्थितिकत्वेन निर्मलस्वरूपस्य , तथेति विशेपरणान्तरस नतया विद्यते यस्यां सा रोगिणी, सैव रोगिणिका, सनः मुच्चयार्थः । अथवा-तथा तेन प्रकारेण तत्कालोचितशुकुमारस्येव । (अणाढिय त्ति) अनादृतादनादराद्या सा अ- येति भावः, विशुद्धमानस्योसरीत्तरां विशुद्धिमनुभवतो नाता, नन्दिपेरणस्येब, अनाहतस्य वा शिथिलस्य या सा न पुनः संक्लिश्यमानस्य जीवस्य प्राणिनः । यदाह--"वटुंत तथा। (देवसनत्ति त्ति) देवसंज्ञप्तर्देवप्रतिवोधनाद्या सा तथा, परिणाम, पडिवजह सो चउराहममयरं । एमेव वढियम्मि मतार्याऽऽदरिवेति । (बत्थाणुवंधिय त्ति) गाथाऽतिरिक्तम्- वि. हायंति न किंचि पडिवजे ॥१॥" इति गाथाऽर्थः । प. वसः पुत्रस्तदनुबन्धो यस्यामस्ति सा वत्तानुवन्धिका, वैर- श्चा. २ विव० । व्य० । स्वामिमातुरिवेति । स्था० १० ठा०। (इत्येतासां मिलि तानां पो- अवयवार्थ प्रतिद्वारमभिधित्सुः प्रथमतः प्रवज्याद्वारमाहडशानामच्छन्दाऽऽदीनां प्रवज्यानां छन्दाऽऽदिशब्देषु व्या- सोचाभिसमेचा वा, पयजा अभिसमागमो तत्थ । ख्या) पं० भा० । पं० चू०। जाइस्सरणाईओ, सनिमित्तमनिमित्तो वावि ॥ ३३१ ।। (४) धर्मश्रवणतोऽभिसनागमतश्च दीक्षामेव तत्वत आह- श्रुत्वा तीर्थकरगणधराऽऽदीनां धर्मदेशनां निशम्य. अभिसमेतत्र दीक्षामेव तावत्स्वरूपतो निरूपयन्नाह त्य वा सह सन्यस्याऽऽदिना स्वयमेवावबुध्य, प्रव्रज्या भवदिक्खा मुंडणमत्थं, तं पुण चित्तस्स होइ विमेयं । त्, तत्राल्पवक्तव्यत्वात् प्रथममभिसमागम उच्यते. सोऽपि समागमी जातिस्मरणाऽऽदिकः सनिमित्तकोऽनिमित्तको वा ण हि अप्पसन्नचित्तो, धम्मऽहिगारी जो होइ ॥ २॥ द्रष्टव्यः । तत्र यद्बाह्यं निमित्तमुद्दिश्य जातिस्मरणमुपजायदीक्षणं दीक्षा, सा च मुण्डनं द्रव्यतः केशापनयनं, भावत- ते तत्सनिमित्तकं, यथा वल्कलचीरप्रभृतीनां, यत् पुनरव न. स्तु क्रोधाऽऽद्यपनयनम् । यदाइ-"पंचमुंडा पसत्ता । तं जहा- दाचारकर्मणां क्षयोपशमेनोत्पद्यते तदनिमित्तक, यथा स्वयं बु. कोहमुंडे सिरमुंडे ।" पठ्यते च धातुपाठे-दीक्षा' मौराध्य द्धकपिलाऽऽदीनाम्। एतेन जातिस्मरणेन.आदिग्रहणात् थाव. इति । तदिह किं द्रव्यमुण्डनमीप दीक्षा, नेत्याह-( पत्थं कस्य गुणप्रत्ययप्रभवणावधिज्ञानेन अन्यतीर्थिकस्य वा विभनि ) अत्र जिनदीक्षाऽधिकारे तदिति मुण्डनं, पुनःशब्दः ज्ञानेन प्रव्रज्याप्रतिपत्तिः संभवति । गतमभिसमेत्य द्वारम् । पूर्वोक्तार्थस्य विशेषणार्थः । चित्तस्य भावस्य मिथ्यात्वको अथ चत्वेति द्वारं विवरीषुराहधकण्डू इत्यादिरूपस्य, भवति वर्तते, विशेयं ज्ञातव्यं, सर्व विरतिदीक्षा तु शिरोमुगडनमपीति भावः । कुत पतदेव सोच्चा उ होइ धम्म, स केरिसो केण वा कहयन्दो ?। मित्याह-न हि नैव,हिशब्द एवकारार्थो, दीक्षाया मुण्डनवि- के तस्स गुणा वुत्ता दासा अणुवायकहणाए ।। ३३२ ।। शेषस्वरूपताभावनाओं वा, अप्रशान्तचित्त उन्कटकोधाss | धर्ममाचार्याऽऽदीनामन्तिके श्रुत्वा प्रत्रज्या भवति। अत्र शिष्यः रिपितभावो, धर्म सम्पगदर्शनाऽऽदिरूपे कृशल कर्मयपधि- पृच्छति-स धर्मः कीदृशः केन वा कथयितव्यः, के या तस्या. का नियोगवान् धर्माधिकारी, यनो यस्मात्कारणात्, भव. पायकथने गुणाः प्रोक्ताः, के वा अनुपायकथंन दोषा इति ! नि जायते । यदाह-" तन्नास्य विषयतृष्णा. प्रभवत्युश्चर्न हु- तत्र कीरशः केन या कथयितव्यः इति प्रश्ने निर्यचनमाहहिसंमोहः । अरुचिर्न धर्मपथ्ये, न ध पापा ऋोधकरहनिः ॥१॥" "अप्पमत्तचित्तो त्ति" वा पाठः। तत्र आपत्स्व संसारदुक्खमहणो, विवोहो भवियपुंडरीयाणं । ऽवक्तव्यकरमध्यवमानकरं च मवमुक्तं, ततश्चाल्पं तुच्छ धम्मो जिणपन्नत्तो, पगप्पजइणा कहेयन्यो । ३३ ।। सावं यत्र नदल्पमवं, नञ्चित्तं यस्य सोऽल्पसवचित इति, संसार एव जन्मजरामरणाऽऽदिदुःखनिबन्धनत्वाद् दुःखं, शपं तथैव । इति गाथाऽर्थः ॥२॥ संसारस्य वा दुःखानि शारीरमानसिकलक्षणानि, तस्थ इयं च भावमुगडनरुपा दीक्षा यदा यस्य च भवत्यिंत. तेषां वा मथनो विनाशकः, तथा भव्या एवं विनयाऽदिविमदर्भािधत्सुगह लगुणपरिमलयागात् शाना दिलक्ष्मीनिवासयोग्यतया च पु. चरिमम्मि चेव भणिया, एसा खलु पोग्गलाण परिय:। एडरीकाणि श्वतसरोरुहाणि तेषां विशेषेण मिथ्यान्वाऽऽदि. विद्रावण लक्षणन बोधकः सम्यगदर्शनादिविकाशकारी ईसुमहावस्स तहा, विमुज्झमाणस्म जीवस्स ॥३॥ दृशा जिनप्रज्ञप्तो धर्मः प्रकल्पयतिना निशीथाध्ययनसूत्राबरम एयानादित्वाद्भवजीययोरनन्तानां पुद्गल परावर्तानां र्थधारिणा साधुना कथयितव्यः, स हि संविग्नगीतार्थतमन्तिम एव नान्यत्रापि भणिता अभिहिता जिनरेपा योत्सर्गापवादपदानि स्वस्थाने स्वस्थाने विनियुबानी न भावमुगइनरूपा दीक्षा, खलुक्यालङ्कारे , पुद्गलानां पर। विपरीतप्ररूपणायाऽऽत्मानं वा दीर्घभवभ्रमणभाजनमातनो. मारवादीनां परिवर्त पकायापेक्षया खिलपहल प्रदपमित तीति । परः प्राह-किंमळवधाऽपि भगवतो धर्ममुपदिश्य Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा मानः केपादि पोधनं जनयति येनैयमभिधीयते रीकाणां विबोध इति । अत्रोच्यते जह सूरस्स पभावं, दई वरकमलपोंडरीयाई । भंति उदयकाले, तत्य उ कुमुदा न बुज्झति ॥ ३३४ ॥ एवं भवसिद्धीया, जिगवरसूरस्त थुपभावणं । सुकंति भविषकमला, अभवियकुमुदानयुग्यंति ॥ २३५॥ यथा सूर्यस्य प्रभावं प्रभापटलरूपं दृष्ट्वा सरसि स्थिता - नि वरकमलपुण्डरीकाणि उदयकाले प्रभाते बुद्धयन्ते, त त्रैव च सरसि कुमान्यपि सन्ति परं तानि न बुद्धधन् एवमेतेनेवाले जिनवरसूर्यरूप या स्तुतिरागमः प्रभापटलकल्पः, तत्प्रभावेन भव्यकमलानि बुद्धयन्ते सम्यक्त्वाऽऽदिविकाशमासादयन्ति । तानि च “भव्या वि ते अणंता, जे मुन्तिसुहं न पार्वति ।" इति वचनादसंभावनीयसिद्धिगमनान्यपि भवेयुरित्यतस्तद्व्यवच्छेदार्थमाह-भवा भाविनीति सिद्धियां तानि भवसिद्धिकानि यरिमै जीवलोक सरसि भगवतः प्रभावेन मध्यकमलानि बोधमश्नुते राति अभयकुमुदाम्यपि कालसीकरिकप्रभृतीनि सन्ति परं तानि न प्रतिबुद्ध्यन्ते तथास्वाभाव्यात् । यदवादि वादिमुख्येन "सजायकोशलस्य, यशोकचान्य तथापि चिसाम्यभूषन्ताकुलेवि तामसेषु सूर्यशवो मधुकरीचरणावदाताः ॥ १ ॥ " ( ६ स्या० ) अत्र परः प्राह पुवं तु होइ कहओ, पच्छा धम्मो उ उकमो किंतु १ ते विपु धम्मो सुतो उ तम्हा कमो एसो ||३३६ ॥ पूर्व तावत्कथको धर्मोपदेश भवति पश्चादुपदेशं वा धर्म उत्पद्यते, ततः किमेवं कीदृश इति प्रथमं धर्मस्वरूपमुद्दिश्य केन वा कथयितव्य इति कपकस्यरूपं पश्यादिश ( ७३३) अनिधानराजडः रुक्रमः क्रियते ? | गुरुराह तेनापि कथकेन पूर्व गुरुणां समीपे धर्मः श्रुत एव तस्मात्क्रम एष नोत्क्रम इति । अयं च धर्म उपायेनेव कथयितव्यों नानुपायेन । आद के दोषा अनुपायकथने ?। उच्यते धम्मं अकता, अनु दुविधं सम्म मंसविरई वा । अणु वा सए कर्हिते, चउजमला कालगा चउरो ||३३७ || यो खलु मिध्यादृष्टिरनुपासकस्तत् प्रथमतया धर्मधयसार्यपतिते तस्य पतिधर्मः कथयितव्यपदि यतिधर्मम कथयित्वा श्रावकसंबन्धिनमणुधर्मे कथयति तदा चत्वारो गुरवः, तपसा कालेन च द्वाभ्यामपि गुरुकाः, यदा यतिधर्म प्रतिपत्ते तदा मूलगुदात् द्विविधा धर्मः कचनीयः, सम्पत्वमूलानि द्वारा प्रतानीत्यर्थः । यदि श्राद्धधर्ममकथयित्वा सम्यग्दर्शनमात्रं कथयति तदा च त्वारो गुरवः, तपसा गुरवः कालेन लववः । यदा श्राद्धधर्म ग्रहीतुं न शक्नोति तदा यदि सम्यग्दर्शनमनुपदिश्य मद्यमांसविरतिं कथयति तदा चत्वारो गुरवः। तपसा लघवः, कालेन गुरवः, यदा सम्यगदर्शनमप्यङ्गीकर्तुं न शक्नोति तदा यदि सरतिमहिमाम या रिति फलं कथयति तदाऽपि चत्वारो गुरवः तपसा कालेन लघवः। अनुयते । F ६८४ पवज्जा ( चउजमला कालगा चउरो प्ति) चत्वारि यमलानि तपःकालयुगललक्षणानि येषु ते चतुर्यमलाः, चत्वारः कालकाश्चस्मारब्धतुर्गुरुका इत्यर्थः । श्रशाभङ्गाऽऽदया दोषाः । अपि च जीवा अम्बुडिता, अपहीका वि रनिया संता । अभिसंडा होंति उ, संसारमहन्नवं तेण ।। ३३८ ॥ ते जीवाश्याषामभ्युत्तिष्ठन्तोऽपि तदीयया प्रविधिक नया रञ्जिताः सन्तचिन्तयन्ति यदि धावकधर्मेणापि कामभोगान् भुञ्जानः सुगतिरवाप्यते ततः किमनया सि कताकबलनिखादया समस्या । एवं यदि सम्यगदर्शनमा श्रेणापि सुगतिरासाद्यते तर्हि को नामाऽऽत्मानं विरतिशृष्ठलायां प्रक्षेपतीत्यादि एवं विपरिणामतः प्रवज्यामगृ न्तः षट् कायान् विराधयेयुः श्रतस्तेन कथकेन संसारमहादेवमभि श्रभिमुख्येन प्रतिता भवन्ति चिरेण मुक्तिपद्माः। एसेव य नूरा कमो, वेरग्गमओ न रोयए तं च । दुहतोय निश्शुकंपा, सुणिपायसतरच्छमयमा ॥ ३३६ ॥ ते जीवा इत्थं चिन्तयेयुः- नूनमेष एव त्र क्रमः परिपाटिः यत्पूर्वं श्रावकधम्मै स्पृष्ट्रा पश्चाद्यतिधर्मे प्रतिपद्यते । अथवापूर्व सम्यग्दर्शनमात्रकृत्य ततो देशविरतिरूपा दीयते। पायांत स्पा पश्चात् सम्पत्वं गृह्यते इति । नाम्या दवाखस्योपरि वैराग्यमुपगतः प्रत्रज्यां प्रति धर्म नः तं चासौ वैराग्याधिरूढमानसत्वात् न रोचयति ततो वि परिणम्य तचनिकादिषु (?) गच्छत, ते चैवमविधिना धर्म कथा द्विधारिनुकम्पा पकायानां तस्य चापीर अनुकम्पारहिता (सादान्ती यथासा वीरशुनिका पूर्वमा रमाना परिवेदिता परमपि ने मित्रापि पूर्व धाकथित पचात् यत्नतोऽभि धीयमानमपि श्रमण धर्ममसौ न प्रतिपद्यते । तथा (पायस ति) यथा करापि प्राकस्य पूर्व यानि इसे ततः तात्पथात् मधुपायसमीप दीयमानं तस्य न रोचते । (तरच्छ प्रवम त्ति) यथा तरक्षा व्याघ्रविशेपः स पूर्वमाऽऽतः पश्चादामिपमपि न रोचयति एवमस्यापि श्रावक धर्मघातस्य यतिधर्मो न प्रतिभासते यत एते विवि कथनीयम् । के पुनर्विधिकथने गुणाः । उच्यतेतित्यागुसाए, आयहियाए परं समुद्धरति । मगभावक, धम्मका अओ पटये ॥ ३४० ॥ यतिधर्मकथा प्रथमतः क्रियमाणा तीर्थस्यानुसज्जना भयतिनजनानिपतेः तीर्थातच हता महिनावजायते परं नि संसारसागरा सीसमुतिः धन मानस्य सम्पदादे यैसा प्रभवति यत एते गुणा तो यतिधर्मकथा प्रथमं स्व रूपती गुणतश्च कर्त्तव्या । नत्र स्वरूपतो यथा-" खंतीय म "इत्यादि गुगानां यथा नाकर्मन युनियनमस मधननयानाकाशम्बरस Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा अभिधानराजेन्द्रः। पवज्जा प्रेस्य मोक्षाऽऽद्यवाप्तिः,श्रामण्येऽमी गुणाः स्युस्तदिह सुमत- वा विशेषणेत्यर्थः । भणितो रागाऽऽदिरहितः प्रतिपादियः!किन यत्नं कुरुध्वम् ? ॥१॥" इत्यादि । यदा यतिधर्मम | तो, वीतरागैरिनि गाथार्यः। कीकर्तुं न शक्रोति तदा सम्यक्त्वमूलः श्राद्धधर्मः कथयित | एमआरिसेण गुरुणा, सम्म परिसाइकज्जरहिएणं । व्यः, यदा तमपि न प्रतिपद्यते तदा सम्यग्दर्शनं, तस्याप्यप्रतिपत्ती मद्यमांसविरतिः । एवं चानुपासकपुरतो धर्मकथायां | पवजा दायब्बा, सययुग्गनिजराहेभो ॥१४॥ विधिः । उपासकस्य तु यथा स्वरुचि,धर्मकथां करोतु न क ईरशेन गुरुणा एवंविधनाचार्येक्ष, सम्पगविपरीतेन विधिना पदादिकार्यरहितेन पामकाउहिककार्यलिर. निदोषः । गतं प्रवज्याद्वारम् । वृ०१ उ०२ प्रक०। पेक्षेल प्रबज्या दातव्या दीक्षा विधेया. किंतर्षकीकत्येत्य(५) अधुना केनेत्येत व्याख्यायते । तत्र योग्येन गुरुणा सचेत्थंभूत इत्याह भाऽऽह-तवनुप्रहनिर्जराहेतोरिति, विनेगानुप्रहार्थ कर्मता याथै चेति गाथाऽर्थः। पबज्जाजुग्गगुणे-हि संगमो विहिपवामपनओ। ईशिगुरो गुणमारसेवियगुरुकुलवासो, सययं भक्खलियसीले म ॥१०॥ प्रव्रज्यायोग्यस्य प्राणिनो गुणाः प्रवज्यायोग्यगुणाः कार्यदे भत्तिबहुमाखसद्धा, यिरया चरबम्मि होइ सेहार्य। . शोत्पाऽऽदयो वक्ष्यमाणाःतथाऽन्यत्राप्युक्तम्-अथ प्रमज्या एभारिसम्मि नियमा,गुरुम्मि गुणरपणजलहिम्मि।।१।। ईमार्यदेशोत्पत्रः विशिष्टजातिकुलान्वितः क्षीणप्रायकर्मम- भलिवामानाविति-भक्ति विनयरूपा, गुमानो भाष. लातत एव विमलबुद्धिदुभं मानुष्यं जन्ममरणनिमित्तं दुःख प्रतिवन्धः, एतौ भवतः, शिक्षकाणामभिनयमनजितानासंपदश्चलाः विषयाः दुःखहेतवः संयोगे वियोगः प्रतिक्षणं म. मिति योगः।केस्याह-रश्येवभूते गुरी प्राचार्य नियमा. रणं वारुणो विपाक इत्यवगतसंसारनिर्गुण्यः, तत एव तत्- चियमेन । पुनरपि स एव विरोप्यते-गुणरलजलधी गुणविरिकः प्रतनुकपायोऽवाहास्याऽऽदिः कृतको विनीतः प्राग-1 रत्नसमुद्र इति । ततः श्रद्धा स्थिरताचचरणे भवतीति। पि राजामास्यपौरजनबहुमतोऽद्रोहकारी कल्याणाङ्गः श्राद्धः तथाहि-गुरुभक्तिबहुतान भावत एव चारिते अशा स्थैर्य स्थिरः समुपसंपनवेति । एभिः संगतो युक्तः समेतः सन् पभवति, नान्यथेति गाथाऽर्थः । किमित्याह-विधिप्रपत्रप्रव्रज्या-विधिना यक्ष्यमाणलक्षणेन गुणान्तरमाहप्रपनाऽङ्गीकृता प्रवज्या येन स तथाविधः तथा सेषितगुरु- अणुवत्तगोभ एसो, हवह दर्द जाणइ जो सत्ते। कुलवासः समुपासितगुरुकुलवास इत्यर्थः। सततं सर्वकालं चित्ते चित्तसहावे, अणणुब्बसे तह उवायं च ॥ १६ ॥ प्रवज्याप्रतिपत्तेरारभ्याऽस्खलितशीलो वाऽखण्डितशीलच, चशब्दात् परद्रोहविरतिभावश्चेति गाथाऽर्थः। अनुवर्तकच एषोऽनन्तरोदितो गुरुभवति रमत्यर्थम् ।कु. सम्म अहीप्रसुत्तो, तत्तो विमलयरबोहजोगाओ। त इत्याह-जानाति यतः सत्वान् प्राणिमित्रान् नानारू पांधिनस्वभावान्नानास्वभावान्, अनुवानिति.अनुवर्तनीतत्तएणू उपसंतो, पवयणवच्छल्लजुत्तो ॥११॥ यान, तथोपायं चानुवर्तनोपायं च जानातीति गाथाऽर्थः । सम्यग् यथोक्लयोगविधानेन अधीतसूत्रो गृहीतसूत्रः ततो अनुवर्तनागुणमाहविमलतरबोधयोगादिति-ततः सूत्राध्ययनाथःशुद्धतरो बो- प्रणवत्तणाएँ सेहा, पायं पार्वति जोगयं परमं । धस्तत्संबन्धादित्यर्थः । किमित्याह-तत्त्वज्ञः वस्तुतत्ववेदी। रयणं पि गुणुक्करिसं, उवेइ सोहम्मणगुणेण ॥ १७ ॥ उपशान्तः क्रोधविपाकावगमेन, प्रवचनवात्सल्ययुक्तश्च प्रवचनमिह सत्यः, सूत्रं घा, तद्वत्सलभावयुक्त इतिगाथाऽर्थः । अनुवर्तनया करणभूतया शिक्षकाः प्रायो बाहुल्येन, कसत्तहिअरओ अतहाऽऽदेओ, अगुवत्तगो अगंभीरो। टुककल्पं दुःखं विहाय प्राप्नुवन्ति योग्यतामपवर्म प्रति प रमां प्रधानाम् । स्यादेत योग्या एवं प्रवज्याहाँ इति किं अविसाई परलोए, उवसमलद्धाइकलिमो अ॥१२॥ गुरुणेत्येतहाशस्क्याऽऽह-रत्नमपि पारागाऽऽदि गुणोत्कर्ष सत्यहितरतश्च सामान्येनैव जीवहिते सक्लव, तथा न के कात्यादिगुणप्रकर्षमुपैति (सोहम्मणगुणण) रत्नशोधकचलमित्थंविधः, किं त्वादेयोऽनुवर्तकश्च गम्भीरः । तत्राऽऽदे. प्रभावेण, वैकटिकप्रभावेणेत्यर्थः । एवं मुशिष्या अपि गुरुयो नाम ग्राह्यवाक्यः, अनुवर्तकश्च भावानुकल्येन सम्यक | प्रभावेणेति गाथाऽर्थः । पालकः गम्भीरो विपुलचित्तः, अविषादी परलोकेन परी किंवपहाऽऽभिदुतः कायसंरक्षणाऽऽदौ दैन्यमुपयाति। उपशम- एत्थ पमायक्खलिमा, पुवब्भासेण कस्स वन हुँति । लब्ध्यादिकलितश्च उपशमलब्ध्युपकरणलब्धिस्थिहस्तल जो ताइऽवणेइ संमं, गुरुत्तणं तस्स सफलं ति ॥ १८॥ ब्धियुक्तश्चेति गाथाऽर्थः। अत्र च प्रवज्याविधाने, प्रमादस्खलितानीति-प्रमादात्सतह पवयणत्यवत्ता, सुगुरुअणुमायगुरुपो चेव। काशावू दुधेष्टितानि पूर्वाभ्यासेन कस्य थान भवन्ति। मनाएमआरिसो गुरू खलु, भणियो रागाइरहिएहिं ॥१३॥ विभषाभ्यस्तो हि प्रमादः न झटिस्येव स्थक्त पार्यते, यस्तातथा प्रवचनार्थवक्ता, सूत्रार्थवनेत्यर्थः । स्वगुबनुमातगुरु नि स्खलितान्यपनयति सम्यक् प्रवचनोक्लेन विधिना गुरुत्वं पदव असति तस्मिन् दिने सम्यगाचर्याऽऽदिना स्थापि तस्य सफलम् । गुण गुरुत्वेनेति गाथाऽर्थः। तगुरुपद इत्यर्थः, रिशो गुरुः । खलुशब्दोऽवधारणार्थः, ईट एतदेव लौकिकोदाहरणेन स्पश्यतिश एव, कालदोषादन्यतरगुणरहितोऽपि बहुतरगुणयुक्त इति को णाम सारहीणं, स होज जो भइवाजिणो दमए । Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३५) अभिधानराजेन्द्रः । पवज्जा दुट्ठे वि जो बाssसे, दमेइ तं सारहिं विंति ॥ १६ ॥ को नाम सारथीनां स भवेत् यो भद्रवाजिनः शोभना - श्वान् दमयेत्, न कश्चिदसौ, असारथिरेवेत्यर्थः । दुष्टानपि तु योऽश्वान् दमयति शोभनान् करोति तं सारथिं ब्रुवते. लौकिकाः । पाठान्तरं वा-तमाश्विकं बुवत इति गाथाऽर्थः । शिष्यानुपालनेन गुरोर्दोषमाह - जो आयरे पढमं पव्त्रावेण नागुपालेइ । सेहे सुत्तविहीए, सो पवयणपच्चणीउ ति ।। २० । यो गुरुरादरेण बहुमानेन प्रथमं प्रवाज्य प्रवज्यां ग्राहयित्वा पश्चान्नानुपालयति शिष्यकान् सूत्रविधिना, सकिमित्याहस प्रवचन प्रत्यनीकः शासनप्रत्यनीक इति गाथाऽर्थः । एतदेवाऽऽह अविकवि परमत्था, विरुद्धमिह परभवे अ सेविता । जं पार्वति श्रत्थं, सो खलु तप्पच सव्व ॥ २१ ॥ अविकोपित परमार्थाः अविज्ञापितसमय सद्भावाः, विरुद्धं, सेवमाना इति योगः । इह परभवे च यं प्राप्नुवन्त्यनर्थ, स खलु तत्प्रत्ययः सर्वः, अननुवर्त्तकगुरुनिमित्त इति गाथाऽर्थः । जिणसासणस्सऽवमो, मिकधवलस्स जो अ ते दर्छु । पावं समायरंतो, जायइ तप्पच्चओ सो वि ॥ २२ ॥ जिनशासनस्यावर्णोऽश्लाघा मृगाङ्कधवलस्य चन्द्रधवलस्य, यश्च तान् दृष्ट्रा पापं समाचरतः सेवमानान् जायते जनितो भवति । तत्प्रत्ययोऽसावपि अननुवर्त्तक शुरु निमि. तोऽसावपीति गाथाऽर्थः । अनुवर्त्तकस्य तु गुणमाहजो पुणवत्ते, हिए य निष्फायर अ विहिणा उ । सोते अन् अप्पा - यं च पावेइ परमपयं ।। २३ ॥ यः पुनरनुवर्त्तते स्वभावानुकूल्येन हिते योजयति, क्रियां निष्पादयति च शानक्रियाभ्यां विधिना आगमोक्रेन स गुरुस्तान् शिष्यान्यान् प्राणिनः श्रात्मानं च प्रापयति परमपदं नयति मोक्षमिति गाथाऽर्थः । एतदेव दर्शयति णाणाइलाभओ खलु, दोसा हीयंति बढई चरणं । भासाइसया, सीसा होइ परमपयं ।। २४ ॥ ज्ञानाऽऽदिलाभतः खलु अनुवर्त्तमाना हि शिष्याः स्थिरा भवन्ति, ततो ज्ञानदर्शने लभन्ते, ततो लाभात् खलुश दोऽवधारणे, तत एव दोषा रागाऽऽदयो हीयन्ते त्यज्यन्ते, क्षीयन्ते वा ततो वर्द्धते चरणं चारित्रम् ( इय ) एवं श्रभ्यासातिशयादभ्यासातिशयेन तत्रान्यत्र वा जन्मनि कर्म्मक्षयभावाच्छष्याणां भवति परमपदं मोक्षाऽऽख्यभिति गाथाऽर्थः । रिसाइ खलु, असं सासम्म अणुराओ । वी सवयपवित्ती, संताये तेसु वि जह्रुतं ।। २५ ।। तान् ज्ञानाऽऽवियुतान् दृष्ट्रा ईदृशा ज्ञानाऽऽदियुक्ता इह खलु इहैव जिनशासने इत्यन्येषां गुणपक्षपातिनां शासने अनुरागो भवति, भावत एव शोभनमिदं शासनं, बीजमित्येतदेव सम्यक्त्वापवर्गबीजं केषाञ्चित् केषाञ्चित् त्वनुरागातिशयाच्छ्रव प्रवृत्ति हो शोभनमेतदिति शृण्वन्त्येव श्रपरे श्रङ्गीकुर्वन्ति For Private पवज्जा च, सन्तान इत्येवं कुशलसन्तानप्रवृत्तिः तेषामप्यन्येषां सतानिनां यथोक्तमिति ज्ञानाऽऽदिगुणलाभतः परमपदमेवेति गाथाऽर्थः । कुसलपक्खहेऊ, सपरुचयारम्मि निच्चमुज्जुतो । सफलीकयगुरुसो, साहेइ जहिच्छित्रं कज्जं ॥ २६ ॥ ( इय) एवं कुशलपक्षहेतुः पुण्यपक्षकारणं स्वपरे नित्योको नित्योद्यतः सफलीकृतगुरुशब्दों गुणत्वेन साधयति यथेप्सितं कार्य परमपदमिति गाथा ऽर्थः । विपर्ययमाहविहिणवत्ता पुरा, कहिं वि सेविंति जइ व पडिसिद्धं । आणाकारि त्ति गुरू, न दोसर्व होइ सो तह वि ||२७| विधिनाऽनुवर्तमानाः पुनः कथञ्चित्कर्मपरिणामतः सेवन्ते यद्यपि प्रतिषिद्धं सूत्रे श्राशाकारीति गुरुर्न दोषवान् भवत्यसैौ तथापि भगवदाशाऽनुवर्तनासंपादनादिति गाथाऽर्थः । श्राहऽपसेवणाए, गुरुस्स पात्रं ति नायवज्झमिणं । श्राभंगा तयं, न य सोमम्मि कह वयं ? ||२८|| श्राह परः - श्रन्यसेवनया अनुवर्तितशिष्यपराव से बनया गुरोः पापमिति न्यायबाह्यमिदं ततश्च स खलु तत्प्रत्ययः सर्व इत्याद्ययुक्तमित्यस्योत्तरमाह श्राज्ञाभङ्गात्तद् भगवदाज्ञाभङ्गेन पापं न चासावन्यस्मिन् किं तु गुरवे, कथम् ?, बाह्यं नैव न्यायवामिति गाथाऽर्थः । तम्हाऽवत्तियव्वा, सेहा गुरुणा उ सो गुणजुत्तो । अणुवत्तणासमत्थो, जं तो एरिसेणेव || २६ ॥ यस्मादेवं तस्मादनुवर्तितव्याः शिष्यका गुरुरौव, स च गुणयुक्तश्च सन् श्रनुवर्त्तनासमर्थो यद्यस्मात्तत्तस्मादीदृशेनैव गुरुणा प्रव्रज्या दातव्येति गाथाऽर्थः । अपवादमाह - कालपरिहाणिदोसा, इत्तो एगाइगुणविहीणं । see a vora, दायव्वा सीलवतं । ३० ।। कालपरिहाणिदोषादतोऽनन्तरोक्त उदितगुणोपेताद् गुरोरेarssदिगुणविद्दीने नान्येनापि प्रव्रज्या दातव्या शीलयता शीलयुक्तेनेति गाथा ऽर्थः । के ति दारं गयं । विशेषतः कालोचितं गुरुमाह गीतत्थ कडजोगी, चारिती तह य गाहणाकुसलो । गोविसाई, वीओ पव्वावणाऽऽयरिओ || ३ || गीतार्थो गृहीतसूत्रार्थः, कृतयोगी कृतसाधुत्र्यापारः, चारित्री शीलवान् तथा च ग्रहरणा कुशलः क्रियाक लाकुशलः शिक्षणानिपुणः, अनुवर्तकः स्वभावानुकूल्येन प्रतिजागरकः, श्रविषादी भावापत्सु द्वितीयः श्रपवादिकः प्रवाजनाssवार्यः प्रवज्याप्रयच्छ को गुरुरिति गाथाऽर्थः । केनेति व्याख्यातम् । (६) अधुना केभ्य इति व्याख्यायते - केभ्यः प्रवज्या दातव्या । के पुनस्तद इत्येतदाह पचाए अरिहा, आरियदेसम्म जे समुप्पन्ना | जाइकुलेहि विसुद्धा, तह खीणप्पायकम्ममला ||३२|| प्रव्रज्याया श्रह योग्याः । क इत्याह-आर्यदेशे ये समुत्पन्ना Personal Use Only Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रउजा (७३६) अभिधानराजन्यः | शतिजनपदेष्वित्यर्थः । जातिकुलाभ्यां विशिष्टाः मासमुत्था जातिः, पितृसमुत्थं कुलं तथा क्षीणप्रायकर्ममलाः, अल्पकर्मण इति गाथाऽर्थः । तत्तो विमलबुद्धी, दुल्लहमत्तणं भवसमुद्दे । जम्मो मरणनिमित्तं, चवलाओ संपयाओ अ ॥ ३३ ॥ ततश्च कर्मवाद्विमसबुद्धयः, विमलबुद्धित्वादेव च दु मे मनुजस्वं भवसमु संसारसमुद्रे तथा जन्म मरण निमित्तं चपलाः संपदश्चेति गाथाऽर्थः । 3 " पिसाय दुखऊ संजोगे नियम विद्योगां ति । पइसमयमेव मरणं एत्थ विवागो अ अरुहो ।। ३४ ।। विषयाश्च दुःखः तथा संयोग सति नियमतो वियो ग इति तथा प्रतिसमयमेव मरणमवीचिमाश्रित्य, अत्र विपाकस्यातिरौद्रः परभव इति माथाऽर्थः । ', एवं पवई चित्र, अवगयसंसार निरगुणसहावा । तत्तो अविरता पवसायापहासा व ।। ३५ ।। एवं प्रकृत्यैव स्वभावेनैव अवगत संसारनिर्गुणस्वभावाः ततश्च नैर्गुण्यावगमान्तद्विरक्काः संसारविरक्ताः प्रतनुकपाया अ उपहास्याच हास्यग्रहणं रत्यादुपलक्षयमिति गाथाऽर्थः । मुकच्या विडीया रायाणमविरुद्धकारी प कल्लागंगा सड़ा, घिरा तहासपणा ।। ३६ ।। सुकृतज्ञाः, विनीताः, राजऽऽदीनामविरुद्धकारिणश्व, श्र दिशब्दादमात्याऽऽदिपरिग्रहः, कल्याणाङ्गाः, श्राद्वाः, स्थिराः, तथा समुपपा इति गाथाऽर्थः । उत्सर्गत एवंभूता एवं अपवादतस्त्वाहकालपरिहालिदसा, एनो एकादिगुणविदीमा वि जे बहुगुणसंपन्ना ते, जुग्गा हुंति नायव्वा ॥ ३७ ॥ कालपरिहाणिदोषा इतोऽनन्तरोदितगुणगणान्वितेभ्यः ए कादिगुणविहीना अपि वे बहुगुणसंपन्नास्ते योग्या भव न्ति ज्ञातव्याः प्रव्रज्याया इति गाथाऽर्थः । न ममादि धम्मेहिं जुत एनिएव । पायें संपना, गुणपरिसमागा जेण || ३८ ॥ ननु मानिमैः युक्ता इस्वतायतय योग्या इति आदिशब्दादार्यदेशोत्पन्नग्रहः । किमेतदित्थमित्यत्राऽह प्रायो बाल्नाः सन्तः प्रकर्षान पेच प्रवजितेन साधनीय इति गाथा ऽर्थः । निगमयन्नाह - एवंविहास देखा, पव्वज्जा भवरितचित्ता | अचंतदुकरा जं, थिरं च वमिमसि ।। ३६ ॥ पपिपलेभ्यो देवा दातव्या या दीक्षा भवविरक्तचित्तेभ्यः संसारविरक्तचित्तेभ्यः । किमित्यवाऽऽह अत्यन्त दुष्करा यत् यरमात् स्थिरं चाऽऽलम्बनममीषां भवविरचित्तानामतीस सदा वैराग्यभावेन कुर्वन्तीति गाथाऽर्थः । दुष्करन्यनिवन्धनमाह अरु मोहनरू, असा भवभावणाविययम्लो | दुक्खं उम्मूलिञ्ज, अनंतं अप्पमतेहिं ॥। ४० ।। अतिगुरुरतिरौद्रो मोहत रुमह स्तरुरिवाशुभपुष्पफलदानमावेन मोहतरुरनादिभवभावनाभावितमूलः श्रनादिमत्यो याः संसारभावना विषयस्पृहाऽऽवास्ताभिः यतश्चम तो दुख अपनीयते अत्यन्तमः सद्भिरिति गाथाऽर्थः । पवज्जा संसारविरनाथ य होइ तो न उस नयभिनंदीयं । जिवणं पि न पायें, तेसिं गुणसाहगं होइ ॥ ४१॥ संसारविरक्तानां च भवति तक इत्यसावप्रमादो न पुनस्तदभिनन्दिनां संसाराभिन्दिन जिवनावि ति तदाह जिनयनमपि ताद प्रायस्तेषां संसाराभिनन्दिनां गुणसाधकं भवति शुभनिभवतीति गाथाऽर्थः । किमित्यत आह गुरुकम्मा जम्दा किलिहचित्तास तरस भावत्थो । नो परिणाम सि सम्मे, कुंकुमरागो व मलिगम्मि || ४२ ॥ गुरुकर्मणां प्रचुरकर्मणां यस्मात् चिनां मलिनचित नां तस्य जिनवचनस्य भावार्थोऽविपरीतार्थो न परिणमति न प्रतिभासते सम्यग् श्रविपरीतः । दृष्टान्तमाह- कुङ्कुमराग इच मलिने, वाससीति गम्यते । न चापरिणमतोऽसावप्रमादप्रसाधक इति गाथाऽर्थः । किं च विद्वाऍ अरोज उसे वि न तीरए परियो । संसार, अविरत्तमणो जम्मि || ४३ ॥ विष्ठायां पुरीपलक्षणार्या सूरः पशुविशेष यथा उपदेशे नापि निवारणलक्षणेन अपिशब्दात् प्रायः पापिन शक्यते कि तु चतात् प्रयर्त्तत एवं संसारकरः प्रा. णी. इति एवमविरक्कमनाः, संसार एवेति गम्यते । अकार्य इत्यायनीयेन शक्यते चर्तुमिति गाथा ऽर्थः । " " , ता धन्ना गीओ, उवाहिसुद्धा देव पव्वर्ज। आयपरपरिचाओ, विजय मा हविज नि ॥४४॥ यस्मादेवं तस्वात् धन्येभ्यः पुण्यभाग्येभ्यः गीत इति गीतार्थः उपाधिशुद्धेभ्यः श्रार्यदेशसमुत्पन्नाऽऽदिविशेषणशुद्वेभ्यो. ददातियां प्रति दीक्षा आमविपर्यये मा भूदिति तथा धन्येभ्योऽनुपाथिशुदेभ्यः प्रवज्यादा श्रात्मपरपरित्यागी नियमात् एव इति गाथाऽर्थः । एतदेव भावयति विपीओ न य सिक्खड़, सिक्ख पडिसिद्धसेवणं कुणइ । सिसा तस्स हु, सइ अप्पा होइ परिचतो ४५॥ विनीत इति स धन्यः प्रवजितः प्रकृत्यैवाविनीतो भवति, न च शिक्षति शिक्षां ग्रहणाऽऽ सेवनारूपां प्रतिषिद्धसेवनं करोति श्रविहितानुष्ठाने प्रवर्तते, शिक्षणेन तस्पेत्यंभूतस्य सदा सर्वकालवारमा भयनि परित्यक्तः, प्र विषयप्रवृत्तेरिति गाथाऽर्थः । तस्स वि य पट्टा, सदाभावम् भवलोगेहि । जीविमलं किरिया गाएणं तस्स चाओ ति ।। ४६ ।। तस्यापि वाग्धन्यस्य शिक्षायां प्रवर्त्तमानस्याऽऽर्त्तध्यानं भ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३७) अभिधानराजेन्द्रः । पवज्जा वति । किमित्यत श्राह श्रद्धाभावे सति श्राद्धस्य हि तथा प्रवर्त्तमानस्य सुखं नेतरस्य । ततश्वोभवलोकयरिलोके परलोके च जीवितमफलं तस्य, इहलोके तावद्भिक्षाऽटना35दियोगात्परली कम्यधात् क्रियाज्ञातेनेति वैद्य क्रियोदाहरणेन तस्य त्याग इत्यनेन प्रकारेण परित्याग इति गाथा थी। 1 क्रियाज्ञातमादजह लोअम्मि विविजा, असम्झनाहीय कुणइ जो किरिया । सोप्पा तह वा - हिए पाडेड़ केसिम्मि ||४७ ॥ यथा लोकेऽपि वैद्यः श्रसाध्यव्याधीनामातुराणां करोति यः क्रियांस आत्मानं तथा व्याधिताँश्च पातयति क्लेशे, व्यापगमाभावादिति वाचाऽर्थः । तह व धम्मविजो, एस्थ अवभाग जो उपच भावकिरि पज, तस्स वि उपमा इमा चैव ॥ ४८ ॥ तथैव धर्मवैव आवाका असाध्यानां कर्म व्याधिमाश्रित्य यस्तु प्रव्रज्यां भावक्रियां प्रयुक्ते कर्मरोगनाशनाय, तस्यापि धर्म्मवैद्यस्य उपमा इयमेव, आत्मानं ताँश्च केशे पातयतीति गाथाऽर्थः । चोदक आह- जिनक्रियाया श्रसाध्या नाम न सन्ति । सत्यम् । इत्याहजिकिरवाऐं असम्झा, ग इत्थलोगम्मि के विनंति । जेतप्पयोगजग्गा, तेसमा एस परमत्थो ॥ ४६ ॥ जिनानां संधिनी किया त्वेन जिनकिया, तस्या श्रसाध्या अचिकित्स्या नाल लोके प्राणिलोके केचन प्राशिनो किंतु ये प्रयोगायोग्य निकाय नुचितास्ते श्रसाध्याः कर्मव्याधिमाधित्य च परमार्थ इदमव हृदयमिति गाथार्थः । एएसि वयपमाणं, अट्ठसमाउ ति वीरागेहिं । भणियं जहन्नयं खलु उक्कोसं अणवगल्लो ति ॥ ५० ॥ पतेषां वायोग्यानां वयःप्रमाणे शरीरावस्थाप्रमाणम समात्यवर्षाणि वीतरागैनेिर्भणितं प्रतिपद जयम्यकं तु सर्वस्तोकमेतदेव द्रव्यलिङ्गप्रतिपत्तिरिति । उत्कृष्टुं वयःप्रमाणम् (अनवगल्ल इति ) अनत्यन्तवृद्ध इति गाथाऽर्थः । श्रतः को दोपः ?, इति चेदुच्यतेतदहो परिभवखित्तं, ण चरणभावो वि पायमेएसिं । आच भावकहर्ग सुतं पुरा होइ नाइ ।। ५१ ।। तदधः परिभवक्षेत्रमित्यष्टभ्यो वर्षेभ्य श्रारादौ परिभ भाजनं भवति न चरणनाऽपि न चारित्रपरिणामां पि प्राय वागामीषां तदवर्तिनां बालानामिति। - ह - एवं सति सूत्रविरोधः " छम्मासियं छसु जीयं " इत्यादिश्रवणान्नैव चरणपरिणाममन्तरेण भावतः षट्सु यतो भ नीति (?) | I अत्रोत्तरमाहकेई भांति बाला, किल एऍ वयंजुआ वि जे भणिया । गावाचियन हुति चरस्य तु ति ॥५२॥ १८५ पवज्जा फेसन भन्त तन्त्रान्तरीयादियो बालाः फिल एते । क इत्याह-वयोयुक्का अपि ये भणिता व अपि ये उक्लाः पततः कायादेव बालत्वादेव, किमित्या ह-न संभवन्ति चरणस्य योग्या इति, न चारित्रोचिता इति गाथाऽर्थः । अने उ त्तभोगा - णमेव पन्त्रजमधमिच्छति । संभावजिदोसा, पम्म खुट्टगा होति ।। ५३ ।। श्रन्ये तु त्रैविद्यवृद्धा भुक्तभोगानामेवातीतयौवनानां प्रव ज्यामघामपापामिच्छन्ति प्रतिपद्यन्ते । किमित्यवाऽऽह-सं भावनीय दोषाः संभाव्यमानविषया संरचनापराधाः पयसि यौवनेयमारका भवन्ति संभवी व दोषः परिहर्त यतिभिरिति गाथा ऽर्थः । किंव विसायविसयसंगा, सुहं च किल ते तोऽणुपालिति । कोड अनियतभावा पयजमसंकणिजाय ॥ ५४ ॥ विज्ञातविपयसा अनुभूताः सन्तः सुच किल से अतीतक्यसः ततो विज्ञानविषयस्कारणादनुपालयन्ति, प्रव्रज्यामिति योगः । कस्माद्धेतोरित्य rsse कौतुकनिवृत्त भावा इति कृत्वा । " निमित्तकारणतुषु सर्वासां प्रायो दर्शनम् " इति वचनात् । विषया लकी विभावत्वादित्यर्थः गुणाम्रवाह अरा ऊनीयाखेति प्रतिक्रान्तः सर्वधर्वाजनेच्येाशङ्कनीवाल भवन्तीति गाथा ऽर्थः । किं चधम्मत्थकाममोक्खा, पुरिसत्या जं चार लोगम्पि । refore, नियनिकालम्मि सव्वे वि ।। ५५ ।। धर्मार्थकाममोक्षाः पुरुषार्थाः यस्माच्चत्वारो लोके, तत्र हिंला ssदिलक्ष धर्मः हिरण्माऽऽदिरर्थः, इच्छामदनल तणः का मः अनावाश्रो मोक्षः, एते चत्वारः पुरुषार्थाः सेवितव्याः ि जनिजकाले आत्मास्मीकाले सर्वेऽपि अन्यथा अक्षीण कामनिबन्धनकर्मणस्तत्परित्यागदोषोपपत्तेरिति गाथाऽर्थः । गुणान्तरमाह तहनभोगदोसा को उगकामगहपथगाईथा। एए वि होंति विजहा, जोग्गाहिगया तो दिक्खा ॥ ५६ ॥ तथा अनुगोपा इतना भोगा - भोगास्तदोषाः कौतुक का सग्रहप्रार्थनाऽऽदयः, तत्र कौतुक सुरतविषयक कामग्रहस्तदनासेवनोद्रेकाद्विभ्रमशः र्थना योषिदभ्यर्थना, आदिशब्दाद्वाग्रहणादिपरिग्रहः । एतेऽपि भवन्ति विजाः परित्यक्ता अतिकान्तवोभिः प्र ज्यां प्रतिवद्यमानेरिति योग्याधिकृतानामतिक्रान्तवना मेव प्रज्या, इतरे त्वग्यवतरिते गाथार्थः । एव पूर्वपक्षः । अत्रोत्तरमाह भागभावो, कम्म समभवप चरणे किं विरुज्झर, जेणमजोग ति सम्गाहो ।। ५७ ।। भरवतेऽव प्रतिवचनं की पालना Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३८) अभिधानराजन्तः । पवज्जा पवज्जा पशमभावप्रभवेन कर्म योपशमभावात्प्रभव उत्पादो यस्य कर्मणां राजभूतमशुभतया प्रधानमित्यर्थः । श्रोघत एव तथेत्थंभूतेन चरणेन " सहाथै तृतीया" इति सह, किं मिथ्यात्वाऽऽदेरारभ्य वेदान्तं यावन्मोहनीयं तु. तिष्ठविरुध्यते ?, येन अयोग्याः क्षल्लका इत्यसग्रहः? न विरुध्यत तीति योगः। तुर्विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि स्वप्रक्रियामाश्रिइति गाथाऽर्थः । त्य ?, एवं तत्रोत्तरं त्वाश्रित्य भवाभिनन्दिनी अविद्या परिएतदेव स्पष्टयन्नाह गृह्यते । संभावनीयदोषास्तावचरमदेहा अपि पश्चिमशरीरा तकम्मखोवसमो, चित्तनिबंधणसमुब्भवो भाणो। अपि तिष्ठन्तु तदन्य इति गाथार्थः । न उ वयनिबंधणो चिय,तम्हा एमाणमविरोहो ।।५।। यतश्चैवम्तत्कर्मयोपशमः चारित्रमोहनीयकर्मक्षयोपशम चि. तम्हा न दिक्खिअन्वा, केई अणिपट्टिबायरादारा । बनिबन्धनसमुद्भवो नानाप्रकारकारणादुत्पादो य य स त. ते न य दिक्वाविअला, पायं जं विसममेअंति ॥६४।। थाविधो. भणितः उक्लोऽहंदादिभिर्न तु वयोनिबन्धन पव- यस्मादेवं तस्मान्न दीक्षितव्या इति स्वप्रक्रियानुसारेण स्वमविशिष्टशरीरावस्थाकारण एव, यस्मादेवं तस्मादेतयोर्व- समयपरिभाषया बादरशक्त्यानुरोधेनावाप्ताण माऽऽदिभावेयश्चरणपरिणामयोरविरोधोऽबाधेति गाथाऽर्थः । भ्य पारादिति (?)। ते चानिवृत्तिबादराः अवाप्ताणिमाऽऽदिइत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमिति दर्शयति भावा वा न दीक्षाविकलाः न प्रव्रज्याशून्याः प्रायस्तत्रान्यत्र गयजोवणा वि पुरिसा, बालु व्य समायरंति कम्माणि । वा जन्मनि द्रव्यदीक्षामप्याश्रित्य मरुदेवीकल्पाश्चर्यभावव्यव च्छेदार्थ प्रायोग्रहणम् । एतच्चतन्त्रान्तरेऽपि स्वपरिभाषया गी. दोग्गहनिबंधणाई, जोवणवंता वि ण य केइ ।। ५६ ।। यत एव,अत्यन्तमनवाप्तकल्याणोअप कल्याणं प्राप्त इति वचगतयौवना अप्यतिक्रान्तवयसोऽपि पुरुषा बाला इव यौ. नात्। यद्यस्मादेवं विषममेतन ततस्तस्माद्विषम संकटमेतत्। वनोन्मत्ता इव समाचरन्ति बालेवन्ते कर्माणि क्रिया- किमुक्तं भवति?-दीक्षाव्यतिरेण विशिष्ट गुणान भवन्ति तद्यरूपाणि । किंविशिष्टानीत्याह-दुर्गतिनिबन्धनानि कुगति- तिरेकेण च न दीक्षेतीतरेतराश्रयविरोध इतिगाथाऽर्थः । कारणानि, यौवनवन्तोऽपि यौवनसमन्विता अपि केऽपि न अन्यदुच्चार्य समतां दर्शयन्नाहसमाचरन्ति तथाविधानि कर्माणि, ततो व्यभिचारि यो विमायविसयसंगा, जमुत्तमिच्चाइ तं पि ण हि तुल्लं । वनमिति गाथाऽर्थः। अमायविसयसंगा, वि तग्गुणा केइ जं हुंति ॥ ६५॥ ततश्चजावणमविवेगो चित्र, विमो भावो उ तयभावो । विज्ञातविषयसङ्गा यदुक्तमित्यादि पूर्वपक्षवादिनस्तदपि न तुल्यं, प्रत्यतेऽपि कथमित्याह-अज्ञातविषयसमा अपि तद् जोवणविगमो सो उण, जिणेहि न कयावि पडिसिद्धो।६०॥ गुणाः विज्ञातविषयसङ्गगुणाः केचन प्राणिनो यद्यस्माद्भवयौवनमविवेक एव विशेयः भावतस्तु परमार्थत एव तः | न्तीति गाथाऽर्थः । दभावः अविवेकाभावो, यौवनविगमः स पुनरविवेकाभावो __ स्वपक्षे योजयन्नाह जिनैर्न कदाचित्प्रतिषिद्धः, सदैव संभवादिति गाथाऽर्थः । अब्भासजणियपसरा, पाय कामा य तब्भवब्मासो । अत्राऽऽह असूहपवित्तिाणमित्तो, तेसिं नो सुंदरतरा ते ॥६६॥ जद एवं तो कम्हा,वयम्मि निअमा कोउ नणु भणिय । अभ्यालजनितप्रसरा आसेवनोद्भूतवेगाः प्रायः कामश्व तदहो परिहवखित्ता इ कारणं बहुविहं पुवं ।। ६१॥ । बाहुल्येन कामा एवंविधा वर्तन्ते, तद्भवाभ्यास अशुभप्रवृ. यद्येवं यौवनं व्यभिवारि ततः करमायसि नियमः कृत त्तिनिमित्तस्तेषां न विद्यते । अन्यभवाभ्यासस्तु मनागपि प्र. एव अधौ समा इत्येवंभूतः ?। अत्रोत्तरमाह-जनु भणित कृष्ट इति सुन्दरतराः शोभनतरास्ते प्रशासविषयसङ्गा इति मत्र तदधापरिभवक्षेत्राऽऽदि कारणं बहुविधमनेकप्रकार गाथाऽर्थः। पूर्वमिति गाथाऽर्थः। परोपन्यस्तमुपपश्यन्तरमुच्चार्य परिहरनाहपूर्वपक्षमुल्लिख्य व्यभिचारयन्नाह धम्मऽत्यकाममोक्खा, जमुत्तमिच्चाइ तुच्छमेअं तु । संसारकारणं जं, पयईए अत्थकामा उ ।। ६७ ॥ संभातणिजदोसा, वयम्मि खुड्डू त्ति जंपितं भणिअं । धर्मार्थकाममोक्षा यदुक्तमित्यादि पूर्वपक्षयादिना. तुच्छमेततं पि न अणहं जम्हा, सुभुत्तभोगाण वि समं तं ॥६२।। दप्यसारमित्यर्थ । कुतः?, इत्याह-संसार कारणं यत् यस्माकर्माणां संभावनीयदोषाः वयसि तुल्लका इति य- प्रकृत्या स्वभावनार्थकामी, ताभ्यां बन्धादिति गाथाऽर्थः । दपि गणतं पूर्व तदपि तद्भगणितं नानघं न शोभनम् । कुत तत् किमिति चेत् ?, उच्यते. इत्याह-यस्मासुभुलभोगानामप्यतीतवयसामृष्यशृङ्गपित अमुहो अ महापावो, संसारो तप्परिक्खयणिमित्तं । प्रभृतीनां समं तुल्यं तत्संभावनीयदोषत्वमिति गाथाऽर्थः । बुद्धिमया पुरिसेणं, सुद्धो धम्मो भ काययो।। ६८॥ किञ्च अशुभश्च महापापः संसारस्तत्परिक्षयनिमिसं पुद्धिमता पु. कम्माण रायभूअं, तंजाव य मोहणिजं तु । रुपेण शुद्धो धर्मस्तु कर्त्तव्यः, शुद्ध एव चारित्रधर्मः स्वप्रसंभावणिजदोसा, चिट्ठइ ता चरमदेहा वि ॥ ६३ ॥ क्रियया अप्रवृत्तिरूपशुततन्त्रान्तरानुसारेणेति गाथाऽर्थः। Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३६) अनिधानराजेन्डः। पवजा पवज्जा अन्नं च जीविअं जं, विज्जुलयाऽऽडोअचंचलमसारं । दुपजीवन्ति तेभ्यो धान्यलाभेन तान् हलाऽदीस्तेऽपि गृहपिअजणसंबंधो वि अ, सया तो धम्ममाराहे ।। ६६ ।। स्था अपीति गाथाऽर्थः। सिय णो ते उवगारं, करेम एतसि धम्मनिरयाणं । अन्यच्च जीवितं यद्यस्मात् विद्युल्लताऽऽटोपचञ्चलं स्थितितः असारं, स्वरूपतः प्रियजनसंबन्धोऽपि च एवंभूत एव, य एवं मम्मति तो, कह पाहवं हवइ तेसि ?।। ७६ ।। तश्चैवं सदा ततो धर्ममाराधयेद्धर्म कुर्यादिति गाथाऽर्थः। स्यादित्याशङ्कायामथैवं मन्यसे-नो ते हलाऽऽदयः एवं मन्यकिंच न्त इति योगः । मन्यन्ते जानन्ति । कथं न मन्यन्त इत्याह मोक्खो वि तप्फलं चिय, नेत्रो परमत्थो तयत्यं पि । उपकारं कुर्मो धन्यप्रदानेन एतेषां धर्मनिरतानां गृहस्थाधम्मो चित्र कायव्यो, जिणभणिओ अप्पमत्तेण ॥७॥ नामिति । यतश्चैवं ततः कथं प्राधान्यं भवति तेषां इलाssमोक्षोऽपि तत्फलमेव धर्मफलमेव शेयः परमार्थतः,यतश्चैव दीनां, नैव प्राधान्यं, तथा मननाभावादिति गाथाऽर्थः । अत्रोत्तरमाहमतस्तदर्थमपि मोक्षार्थमपि धर्म एव कर्तव्यो जिनभणितः चारित्रधर्मः अप्रमत्तेनेति गाथाऽर्थः।। ते चेव तेहि अहिया, किरियाए मंतिएण किं तत्थ । अन्यदप्युच्चार्य तिरस्कुर्वन्नाह णाणाइविरहिया अह, इइ एतसि होइ पाहामं ॥७७।। तहऽमुत्तभोगदोसा, इच्चा जमुत्तरत्तिपित्तमिदं । त एव हलादयस्तेभ्यो गृहस्थेस्योऽधिकाः क्रियया,प्राधानाः इअरेसिं दुट्ठयरा, सइमाईया जो दोसा ॥ ७१॥ करणेनैव,यतस्तेभ्यो धान्याऽदिलाभतस्तु उपजीव्यते गृहस्थ रतो मन्त्रितेन ज्ञातेन किं तत्र । क्रिययाएव प्राधान्ये सति, शा. तथा अभुक्तभोगदोषा इत्यादि यदुक्तं पूर्वपक्षवादिना, उक्ति नाऽऽदिविरहिता अथ ते हलाऽऽदय इति मन्यसे एतदाशमात्रमिदं वचनमात्रमिदमित्यर्थः। किमित्यत आह-इतरेषांतु याह-(इति)एवमेतेषां शानाऽऽदीनां भवति प्राधान्यं, भुक्तभोगानां दुष्टतराः स्मृत्यादयो यतो दोषा इति गाथाऽर्थः । नोपजीव्यस्येति गाथाऽर्थः । स्वपत्तोपचयमाहइअरेसिँ बालभाव-प्पभिई जिणवयणभाविप्रमईणं। ततः किमिति चेदुच्यते - अणभिमाणं पाय, विसएसु न हुँति ते दोसा ।। ७२ ।। ताणि य जईण तम्हा, हुंति विसुद्धाणि तोस तु । इतरेषामभुक्तभोगानां बालभावप्रभृति बालादारभ्य जिन तं जुत्तं आरंभो, अ होइ जं पावहेउ त्ति ॥७॥ वचनभावितमतीनां सतां वैराग्यसंभवादनभिज्ञानां च वि तानि च ज्ञानादीनि यतीनां प्रवजितानां यस्माद्भवन्ति वि. पयेषु प्रायो न भवन्ति, ते दोषाः कौतुकाऽऽदय इति शुद्धानि निर्मलानि, तेन हेतुना तेषामेव यतीनां तत्प्राधान्य. गाथार्थः। युक्तम् , प्रारम्भश्च भवति यद्यस्मात्पापहेतुरित्यतोआप तन्निउपसंहरन्नाह वृत्त्यैकत्वात्तेषामेव प्राधान्यं युक्तमिति गाथाऽर्थः । तम्हा उ सिद्धमअं, जहलो भणियवयजुआ जोग्गा । अमे सयणविरहिआ, इमाएँ जोग ति एत्थ मम्मति । उक्कोस अणवगल्लो, भयणा संथारसाममे ।। ७३ ॥ सो पालणीयगो किल,तचाए होइ पावं तु ॥ ७९ ॥ यस्मादेवं तस्मात् सिद्धमेतजघन्यतो भणितधयोयुक्ताः अ. अम्ये वादिनः स्वजनविरहिता भ्रात्रादिवन्धुर्जिताअस्याः वर्षा योग्याः प्रवज्याया उत्कृष्टतोऽनवकल्पो योग्यः। अवक- प्रव्रज्याया योग्याः इत्येवमन लोके मन्यन्त्ये । कया युक्त्येति ल्पमधिकृत्याऽऽह-भजना संस्तारकश्रामण्ये, कदाचिद्भावि- तां युक्तिमुपन्यस्यति–स पालनीयो रक्षणीयः किल, ततमतिरवकल्पोऽपि संस्तारकश्रमणः क्रियत इति गाथार्थः। स्यागे स्वजनत्यागे भवति पापमेवेति गाथाऽर्थः । अन्ने गिहासमं चिय, वुच्चंति पहाण मंदबुद्धीओ।। सोगं अकंदणविल-वणं च जं दुक्खिओ तो कुणइ । जं उवजीवंती तं, नियमा सच्चे वि आसमिणो ॥७४।। सेवइ जं च अकजं, तेण विणा तस्स सो दोसो।।८०॥ अन्ये वादिनो गृहाऽऽश्रममेव गृहस्थमेव युवते प्रधानमि- __ शोकमाक्रन्देन विलपनं, चशब्दादन्यञ्च ताडनाय दुःखिति अभिदधति श्लाध्यतरमिति मन्दवुद्धयः अल्पमतय इ- तस्तक इत्यसौ स्वजनः करोति, सेवते यश्चाकार्य शीलखण्डति। उपपत्ति चाभिदधति-यद्यस्मादुपजीवन्ति तं, कं ?,गृह नाऽऽदि तेन विमा तेनेति पालकेन प्रवज्याभिमुखन,तस्यासो स्थम् अन्नलाभाऊऽदिना नियमानियमेन सर्वेऽप्याश्रमिणो लि- दोष इति यः स्वजनं विहाय प्रव्रज्यां प्रतिपद्यत इति गाथाजिन इति गाथाऽर्थः। ऽर्थः । एष पूर्वपक्षः। अत्रोत्तरमाह अत्रोत्सरमाहउवजीवणाकयं जइ, पाहम तो तो पहाणयरा । इन पाणवहाईआ, ण पावहउ ति अह मयं ते चि । इलकरिसगपुढवाई, जं उवजीवंति तो ते वि ।। ७५ । । णणु तस्स पालणे तह,ण होति ते चिंतणीयमिणं ।।१।। उपजीवनाकृतं यदि प्राधान्यमुपजीव्यं प्रधानमुपजीवक- इति एवं स्वजनत्यागादोषे सति प्राणिवधाऽऽद्या न पापहेतव स्त्वप्रधानमित्याश्रीयते (तो इति) ततस्तस्मात्तत इति गृ. इति । प्रादिशब्दाद् मृषावादादिपरिग्रहः; स्व जनत्यागादेव हाश्रमात्प्रधानतराः श्लाध्यतराः हलकर्षकपृथिव्यादयः पदा. पापभावादित्यभिप्रायः। अथ मतं तेऽपि प्राणिवधाऽऽदयः पाप• इति । श्रादिशब्दाजलपरिग्रहः किमित्यत्राऽऽह-यद्यस्मा- हेतव एव । एतदाशङ्कयाऽऽह-ननु तस्य स्व जनस्य पालने त Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४० ) अभिधानराजेन्द्रः । पवज्जा थेत्यारम्भयोगे न भवन्ति ते प्राणवधाऽऽदयः चिन्तनीयमिदमेतत्येवेति गाथा र्थः । एतदेव प्रकटयाहआरंभमंतरेणं, ण पालणं तस्स संभव जेगं । तम्मि पाणवाई, नियमेण हवंति पयडमिसं ॥ ८२ ॥ आरम्भमन्तरेण न पालनं तस्य स्वजनस्य संभवति येन तस्मिवाssरम्भे प्राणवधाऽऽद्या नियमेन भवन्ति, प्रकटमिदं । लोकेऽपीति गाथाऽर्थः । अयं च तस्स चाओ, पाणचहाई व गुरुतरा होजा । जइ ताव तस्स चाओ, को एत्थ विसेसहेउ त्ति ? ॥८३॥ अन्यच्च तस्य स्वजनस्य त्यागः प्राणवधाऽऽदयो वा पापचिन्तया गुरुतरा भवेयुरिति विकल्पौ । किं च त इत्याहयदि तावन्तस्य स्वजनस्य त्यागो गुरुतर इत्यत्राऽऽह - कोउस विशेषहेतुरिति यतो ऽयमेवेति गाथाऽर्थः । अह तस्सेव उ पीडा, किं यो अलेसि पालणे तस्स ? | अह ते पराइ सो वि हु, सतत्तचिंता इमे चैवव ॥ ८४ ॥ अचेत्यथैवं मन्यसे तस्यैव तु स्वजनस्य पीडा विशेषहेतु रित्यत्रोत्तरमाद- किं नो अभ्येषां सत्वानां पालने तस्य पीडा ?, पीडैवेति भावः अथ से पराय इनि अपरे दिशादेकेन्द्रियाय असावपि स्वजनः स्वतत्त्वचिन्तायां परमार्थचिन्तायामेवमेव पराऽऽदेरेव, अनित्यत्वात् तत्संयोगस्येति गाथा ऽर्थः । पक्षान्तरमाह ग सि तेरा कयं कम्मं, एसो नो पालगो ति किं ता नूणमम्म पालग, जोग्गं विश्र तं कयं तेरा ॥ स्यादित्यथैवं मन्यसे-तेन स्वजनेन कृतं कर्माद, किं फलमित्वादविवािपालक इत्येवं फलम् अश्रोत्तरम् - किं न भवति ?, कर्मणः स्वफलदानात् न च भवति, तन्नूनमवश्यमन्यः पालक इत्येतदुचितमेव तत्कर्म कृतं तेन स्वजनेनेति गाथाऽर्थः । भवे ? | ८५ ॥ किं चबहुपीडा अक, योसुहं पंडिश्राणमि ति ? | जलकट्ठा गया, बहूण घाओ तदच्चाए || ८६ ॥ बहुपीडायां च अनेकजलाऽऽयुपमर्द्दने च कथं स्तोकसुखं तोकानां स्वजनानां स्तोकं वा स्वल्पकालभावेन सुखं स्तोकसुखं परिडतानामिमिति ! बहुपीडामाह-जलकाष्ठाऽऽदिग तानां च प्राणिनामिति गम्यते । बहूनां घातस्तदत्यागे स्वजनात्यागे. आरम्भमन्तरेण तत्परिपालनाभावादिति गाथाऽर्थः । " एहि उह ते, सिह वि न तत्थ होइ दोसो उ । इस सिट्टिवायपरखे तच्चाए कई दोसो ? || ८७॥ एवंविधा एव तथा मरणधर्माणः अथ ते जलकाष्ठाssदिगता प्राणिनः स्पृष्टा इति न तत्र स्वजनमरणार्थ त ज्जिघांसने भवति दोषस्तु । श्रत्रोत्तरमाह - इति एवं सृष्टि पाइपक्षेऽङ्गीयमाणे तत्यागेन यजनत्यागेन कथं दोषो ?, नैव दोष इति यतोऽसौ स्वजनस्तथाविध एव सृष्टः, येन त्य ज्यत इति गाथाऽर्थः । यतस्तदित्थं न घटते तापावहाईया, गुरुतरगा पावउसो नेचा। पवजा सयणस्स पालणम्मिश्र, निश्रमाए इति भणियमिगं | ८८ यस्मादेवं तस्मात्प्राणिवधाऽऽद्या गुरुतराः पापहेतवो शेयाः स्वजन त्यागात्सकाशात् । ततः किमिति चेत् ? उच्यते - स्वजनस्य पालने च नियमादिति प्राणिवचाऽऽद्या इति भणितमिदं पूर्वमिति गाथाऽर्थः । एवं पिपावदेऊ, अप्पयरो खवर तस्स बाउ ति । सो कह य होइ तस्सा, पम्मत्थं उज्जयमइस्स ॥ ८६ ॥ पवमपि पापहेतुरेष अल्पतरो नवरं तस्य स्वजनस्य त्याग इति स पापद्देतुः कथं न भवति तस्य प्रविवजिषेोधर्मार्थमुद्यतमतेः भवत्येवेति गाथाऽर्थः । अत्रोत्तरमाह अव्युवगमेण भणि, उ विहिचाओ वि तस्स छेउ ति । सोगाइम्म वि तेर्सि, मरखेव विसुविचस्स ॥ ६० ॥ अभ्युपगमेन भणितम्-अन्यच तस्य त्याग इरवादी न तु विधित्यागोऽपि जनस्येति गम्यते । तस्य हेतुरिति तस्येति पापस्य हेतुचित्यागकथनादिना अन्य निर्गमस्य शोका ssदावपि तेषां स्वजनानां मरण इव विशुद्धचित्तस्य रागाssदिरहितस्य, मरण इवेति च सिद्धः परस्य दृष्टान्तोऽन्यथा तत्रापि स्वजनशोका ऽऽदिभ्यः पापप्रसङ्ग इति गाथाऽर्थः । भांति ष्मा, सयगाइजुश्रा उ होंति जोग ति । संतस्स परिबागा, जम्हा ते चाइयो हुंति ॥ ६१ ॥ श्रन्ये वादिनो भणन्ति श्रभिदधति-धन्याः पुण्यभाजः स्वजनाssदियुक्ता एव स्वजनहिरण्याऽऽदिसमन्विता एव भ वन्ति । योग्याः, प्रवज्याया इति गम्यते । उपपत्तिमाह-अन्ये चादितो विमानस्य परित्यागात्खजनादे रणा नात्यागिनो भयन्ति त्यागिनां च प्रयत इति गाथाऽर्थः । जे 'पुण तप्परिहीणा, जाया देवाओ चैव भिक्खागा । तह भाव थिय कहे सा ते होति गंभीरा ||३२|| रंग , पेन पुनस्तत्परिहीया जाता देवादेव कर्मपरिणामे भिक्षाकाः भिक्षाभोजिनः, ततश्च तथा तेन प्रकारेण तुच्छभावत्वादेवासारतत्वादेव, कथं नु ते भवन्ति गम्भीराः, नैव ते भारचित्ता अनुदारचिताथायोग्य इति गाथा ऽर्थः । अ किं चमति ते पायं, अहिययरं पाविकरण पजायं । लोगम्मी उपपाओ, भोगाभावास चाई य ।। ६३ ।। मज्जन्ति च मन्दं गच्छन्ति ते अगम्भीराः प्रायो बाहुल्येनाधिकतर महलोक एव शोभनतरं प्राप्य पर्याय मासायाव स्थाविशेषम् अधिक लोकेऽपि तथाविधगृहस्थ पर्याया व्रज्यापर्याय स्वादानेन तथा मोगाभावानां त्यागिनश्च ते, अगम्भीराः त्यागिनश्च प्रत्र. ज्योक्त्या (?). ' से हु बाई ति बुधति ।" इत्यादिवचनादिति गाथाऽर्थः । एष पूर्वपक्षः । Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा . अभिधानराजेन्जः। पवज्जा अत्रोत्तरमाह प्रकृत्या स्वभावेन सावा सपापं सदवयं यद्यस्मात्सर्वथा एयं पि न जुत्तिखमं, विमेनं मुद्धविम्हयकरं तु । सर्वैः प्रकारैर्विरुद्धमेव दुष्टमेव ध्वनिभेदेऽपि शब्दभेदेऽपि अविवेगपरिचागा, चाई जं निच्छयनयस्स ॥१४॥ सति, किं तदित्याह-मधुरकशीतलिकाऽऽदिवल्लोक इति । न हि विषं मधुरकमित्युक्तं न व्यापादयति,स्फोटिका वा शीतएतदपि न युक्तिक्षम विज्ञेयं न युक्तिसमर्थ ज्ञातव्यं, यदु. लिकेत्युपता न तद दुनोतीति गाथाऽर्थः । तं पूर्वपक्षवादिना,मुग्धविस्मयकरं तु मन्दमतिचेनोहारि त्वे. अनाऽऽहतत्। कथमित्याह-अविवेकपरित्यागाद्भावतोऽशानपरित्यागे ता कीस अणुमोसो,उवएसाइम्मि कूवणाएणं । न, त्यागी यद्यस्मान्निश्चयनयस्याभिप्रेत इति गाथाऽर्थः । किमित्येतदेवमत पाह गिहिजोगो उ जइस्स उ, साविक्खस्सा परवाए ॥१०१॥ यद्येवं तत्किमित्यनुमतोऽसावारम्भः । क्वेत्याह-उपदेशाऽऽदासंसारहेउभूओ. पवत्तगो एस पावपक्खम्मि । विति-उपदेशे श्रावकाणामादिशब्दात्वचिदात्मनापि लूताएअम्मि अपरिचत्ते, किं कीरइ बज्झचागेण ॥६॥ ऽऽद्यपनयनमाप्यत इति । अत्रोत्तरमाह-कूपज्ञातेन प्रवचनप्रसंसारहेतुभूतः संसारकारणभूतः प्रवर्तकः एषोऽविवेकः सिद्धकूपोदाहरणेन गृहयोग्यस्तु श्रावकयोग्य एवेति,मध्यस्थपापपक्षे कुशलव्यापार, यतश्चैवमतः-एतस्मिन्नविवेके अ. स्य शास्त्रार्थकथने नानुमतिः, यतेः प्रवजितस्य सापेक्षस्य गपरित्यक्ते किं क्रियते बाह्यत्यागेन स्वजनाऽऽदित्यागेनेति च्छवासिनः परार्थ सवाईगुणमाश्रित्य निरीहस्य यतनया गाथाऽर्थः। विहितानुष्ठानत्वान्नानुमतिरिति गाथाऽर्थः। तथा चाऽऽहपालेइ साहुकिरिअं, सो सम्मं तम्मि चेव चत्तम्मिः। अमाभावे जयणा-ऍ मम्गणासो हविज मा तेण। तब्भावम्मि अविहलो, इअरस्स को विचाउ ति ॥१६॥ पुन्चकया जइणाइसु. ईसिं गुणसंभवे इहरा ॥१०२ ।। पालयति साधुक्रियां यतिसामाचारी स प्रव्रजितः सम्य- अन्याभावे श्रावकाऽऽद्यभावे,यतनया अागमोक्तया क्रियया, गविपरीतेन मार्गेण तस्मिन्नेवाविवेके त्य के इति तद्भावे चा. मार्गनाशस्तीर्थनाशो मा भूदित्यर्थः । तेन कारणेन पूर्व विवेकसत्तायां च सत्यां विफलः परलोकमकीकृत्य,इत्तरस्य कृतायतनाऽऽदिषु महति सन्निवेशे सञ्चारतलोकाऽऽकुले - स्वजनाऽऽदेः कृतोऽपि त्यागो विवेक इति गाथाऽर्थः। र्द्धपतितायतनाऽऽदिषु ईषद् गुणसंभवे च कस्यचित्प्रतिपण्याएतदेव दर्शयति दिस्तोकगुणसंभषे च सति एतदुक्तम्, इतरथाऽन्यथा । दीसंति अकेइ इह, सइ तम्मी बज्झचायजुत्ता वि। चेइअकुलगणसंघे, आयरियाणं च पवयणसुए य । तुच्छपवित्ती अफलं, दुहा वि जीवं करेमाणा।। ६७॥ । सव्वेसु वि तेण कयं, तवसंजममुज्जमंतणं । १०३ ।। दृश्यन्ते केचिदिहलोके सति तस्मिन्नविवेके बाद्यत्यान- चैत्यकुलगणसंघेषु-चैत्यान्यर्हत्प्रतिमाः,कुलं चन्द्राभदः परयु का अपि स्वजनाऽऽदित्यागसमन्विता अपि तुच्छप्रवृत्त्या स्परसापेक्षोऽनेककुलसमुदायो गणः, वालुकापर्यन्तः सः,त. अधिकात्तथाविधरसाऽऽद्यसारप्रवृत्त्या अफलं द्विधाऽपि था प्राचार्याणां प्रसिद्धतत्वानां, प्रवचनश्रुतयोश्च-प्रवचनइहलोकपरलोकापेक्षया जीवितं कुर्वन्तःसन्त इति गाथाऽर्थः।। मर्थः, श्रुतं तु सूत्रमेव, एतेषु सर्वेष्वपि, तेन साधुना कृतं यतथाच कर्तव्यं, केनेत्याह-तपःसंयमयोरुधुक्तेन तपसि संयमे चो. .. चइकण घरावासं, आरंभपरिग्गहेसु वति। . धर्म कुर्वता, इति गाथाऽर्थः।। जं समाभएणं,एअं अविवेगसामत्यं । ६८।। एत्थ अविवेगचागा, पवत्तई जेण तम्ह सो पवरो। त्यस्त्वाऽपि गृहवासं प्रव्रज्याङ्गीकरणेनाऽऽरम्भपरिग्रहयो तस्सेव फलं एसो. जो सम्म बज्झचाउ त्ति ।। १०४॥ रुक्तलक्षणयोर्वर्तन्ते यद्यस्मात्संशाभेदेन एवं स्यक्त्वा देवा55. अत्र च तपादौ, अविवेकत्यागात्प्रवर्तते, येन कारणेन, द्योऽयमित्येवंशब्दभेदेन एतदित्थंभूतमविवेकसामर्थ्यमझा. तस्मादसावविवेकत्यागः प्रवरः, तस्यैवाविवेकत्यागस्य फनशक्तिरिति गाथाऽर्थः। लमेषः, कः?, यः सम्यग्बाह्यत्याग इति गाथाऽर्थः। एतदेव दृष्टान्तद्वारेणाऽऽह यतश्चैवम्मंसनिवित्ति काउं, सेवइ दंभिक्कयं ति धणिभेया। ता कसिणमिश्र कजं, सयणाइजुओ न वेति सइ तम्मि । इअ चइऊणाऽऽरंभ, पर ववरसा कुणइ बालो || | एत्तो चेव य दोसा, ण हुंति सेसा धुवं तस्स ॥१०॥ मांसनिवृत्ति कृत्वा कश्चिदविवेकात्सेवते दाम्भकमिति ध्वः । ततः कृत्स्नो लोको भुवनमिदं कार्य स्वजनाऽदियुक्तो न वेति निभेदाच्छन्दोदेन (इय) एवं त्यक्त्वाऽऽरम्भम् "एकग्रहणे । सति तस्मिन्नविवेकत्यागेअत एव चाविवेकत्यागात् दोषा न तज्जातीयग्रहणम्" इति न्यायास्परिग्रहं च, परव्यपदेशात् प. भवन्ति,शेषा 5वं तस्य अगम्भीरमदाऽऽदय इति गाथार्थः । रवादिव्यपदेशन करोति बालोऽक्ष इति गाथाऽर्थः । यतस्तत्र उक्तम्-" जय कंते पिए" इत्यादी "से हुचाइत्ति किमित्येतदेवामेत्यत आह घुश्चति ।" तत्कथं नीयत इति चेतसि निधायाऽऽहपयईए सावजं, संत ज सव्वहा विरुद्धं तु । सुतं पुण ववहारे, साहीणत्ता तबाइभावणं ।। धणिभेअम्मि वि महुरग-सीअलिगाइब तोगम्मि १००। वह अवि सहत्थम्मी, अन्नो वि तो हवइ चाई। १०६॥ १८६ Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४२) अन्निधानराजेन्द्रः। पवज्जा पवजा सूत्रं पुनः " से हु चाई" इत्यादिध्यवहारनयविषयं व्यव. वळनक्षत्राण्याहहारतत्तावदेवं स्वाधीनत्वात्तपत्रादिभावन तपसा अनिदा. | संझागयं रविगय, विड्डेरं सग्गहं विलविं च । नेन. आदिशब्दात् कोटित्रयोद्यमपरित्यागेन बहुः सूत्रोक्तः, राहुहयं गहभिन्नं, च वजए सत्त नक्खत्ते ॥ ११३ ।। अपि शब्दार्थे वा सोऽप्यन्योऽपि ततो भवति, त्यागीति संध्यागतं रविगतं विदेरं सग्रहं विलम्बि च राहुहतं ग्रहगाथाऽर्थः । किं च भिन्नं च वर्जयेत्सप्त नक्षत्राणि । को वा कस्स न सयणो, केवा केणं न पाविमा भोगा। "अत्थमणे संज्झागय, रविगय जहियं ठिो उपाइयो । विडेरमबहीरिय, सग्गह कृरग्गहठियं जं तु ॥१॥ संतेसु वि पडिबंधो, दुट्ठो त्ति तो चएअब्बो ॥१०७॥ प्राइच्चपिट्ठो जं, विलंवि तं राहुहयं तु जहि गहणं । को वा कस्य न स्वजनः के वा केन न प्राप्ता भोगा अ मज्झणं जस्स गहो, गच्छह तं होह महभिन्नं ॥२॥ नादौ संसारे इति । तथा सत्स्वपि स्वजनाऽऽदिपु प्र. संझागयम्मि कलहो, आइञ्चगते य पवयणे हाणी । तिबन्धो दुध इत्यसौ त्यक्तव्यः, असत्स्वपि तत्संभवादिति विहेरे परविजो, सगहम्मि य विग्गहो होह ॥३॥ गाधाऽर्थः । दोसो अभंगयतं, होइ कुभत्तं विलंविनक्खत्ते। उभययुक्तानां तु गुणमाह राहुहयम्मि य मरणं, गहभिन्ने सोण उग्गालो॥४॥" इति वमा य उभयजुत्ता, धम्मपवितीइ इंति अनोसि । गाथाऽर्थः। जं करणमिहं पायं, केसि चि कयं पसंगेयं ।। १०८॥ उपसंहरबाहकेसित्ति दारं गयं। वन्याश्चोभययुक्ना बाह्यत्यागविवेकत्याग एसा जिणाणमाणा, खित्ताईश्रा य कम्मणो हुँति । द्वयसंपन्नाः, किमिन्यत पाह-धर्मप्रवृत्तेर्भवन्ति, अन्येषां उदयाइकारणम्मि, तम्हाए एस जइअव्वं ।। ११४ ॥ प्राणिनां, यद्यस्मात्कारणदिह प्रायण केषाश्चिदन्येषामिति कम्मि त्ति दारं गयं । एषा जिनानामाशा यदुक्कोक्तलक्षणेष्वेव कृतं प्रसगनेति गाथाऽर्थः । केभ्य इति व्याख्यातम् । क्षेत्रादिषु दातव्येति क्षेत्राऽदयश्च कर्मणो भवन्ति उदया. इदानी कस्मिन्निति व्याख्यायते । ऽऽदिकारणे यद्यस्मात् । यत उक्तम्-" उदयक्खश्रो य खउ(७) कस्मिन् क्षेत्राऽऽदौ प्रव्रज्या दातब्येत्येतदाह वर-समोवसम्मा जं च कम्मुणो भणिया । दव्वं खित्तं कालं, भोसरणे जिणभवणे, उच्छुवणे खीररुक्खवणसंडे । तथं च भावं च संपप्पा ।१।” यस्मादेवं तस्मादेतेषु क्षेत्रागंभीरसागुणाएं, एमाइपसत्यखित्तम्मि ॥ १०६ ॥ ऽदिषु यतितव्यं शुद्धेषु यत्नः कार्यः। इति गाथाऽर्थः । पं० समवसरणे भगवदध्यासित क्षेत्र, वृत्ततद्भावे वा, जिन- व०१द्वार। भवने अईदायतने, जुपने प्रतीते, क्षीरवृत्तवनखण्डे अ- ()चरमपुद्गलपरावर्ते विशुध्यमानस्य च दीक्षा भवतीत्ये. श्वत्थाऽऽदिवृक्षसमूहे. गम्भीरसानुनादे महाभोगप्रतिशब्दे । क्मस्याः सामान्यतोऽधिकारी निरूपितोऽथ तमेव विशेषतो वा. एवमादौ प्रशस्तक्षेले, आदिशब्दात्प्रदक्षिणाऽऽवतंजलप- निरूपयन्नाहरिग्रह इति गाथाऽर्थः । दिक्खाएँ चेव रागो, लोगविरुद्धाण चेव चाउ त्ति । दिजण उ भग्गझामित्र-सुसाणसुष्मामणुमगेहेसुं। । सुंदरगुरुजोगो विय, जस्स तो एत्थ उचिो त्ति ॥४॥ छारंगारवयारा-मेज्झाईदव्वदुढे वा ॥ ११० ।। दीक्षायामेव प्रागुक्तस्वरूपदीक्षणक एव, चैवशब्दोऽवधारएवंभूते क्षेत्रे दद्यान्न तु भग्नध्यामितश्मशानशून्यामनोक्षः | णार्थः । तेन न पुनर्दीक्षाप्रतिपक्षेप, रागोऽनुरागो वक्ष्यगृहेषु दद्यात्.ध्यामितं दग्धं, तथा क्षारागारावकारामेध्या- माणलक्षणः । तथा लोकविरुद्धानां बहुजनविरोधहेतुभूताऽऽदिद्रव्यदुष्टे वा क्षेत्रे न दद्यात् । श्रादिशब्दोऽमेध्यत्वस्यह- नुष्ठानविशेषाणां वक्ष्यमाणरूपाणाम्, चशब्दः समुच्चयार्थः, ख्यापक इति गाथाऽर्थः। एवशब्दस्त्ववधारणार्थः । तस्य चैवं प्रयोगः-त्यागः एव प(८) व्यतिरेकप्राधान्यतः कालमधिकृत्याऽऽह- रिहार एव । अथवा-चवेत्यवधारणे । तेन लोकविरुद्धानाचाउद्दसि पस्मरसिं, च वजए अट्टर्मि च नवमि च। । मेव, न तु तदविरोधवतां त्यागः, इतिशब्द उपप्रदर्शनार्थः । छट्टिं च चउत्थिं वा-रासि सेसासु दिजाहि ॥१११।।। ततश्च इत्येवंरूपो वक्ष्यमाणविषयभेद इत्यर्थः । अथवा-इति शब्दः परिसमाप्तौ । ततश्च इति एतावदेव दीक्षणीयजीवस्य चतुर्दशी पञ्चदशी च वर्जयदएमी च नवमीं च षष्ठीं च स्वगत दीक्षारागलोकविरुद्धत्यागरूपं दीक्षाऽधिकारित्वस्य चतुर्थी द्वादशी च । शेषासु तिथिषु दद्यादन्यदोषराहता लक्षणम् । अतोऽन्यत्सायोगिकमिति दर्शितं भवति । तथा स्विति गाथाऽर्थः। सुन्दरगुरुयोगः सम्यग्ज्ञानसदनुष्ठानसंपन्नदीक्षादायकाचार्य___ नक्षत्राण्यधिकृत्याह सम्बन्ध । अपिशब्दोवधारणे । चशब्दः समुच्चये । तेन सुतिसु उत्तरासु तहा रो-हिणीसु कुञ्जा उ सेहनिक्खमणं ।। न्दरगुरुयोग एव च न पुनरसुन्दरगुरुयोगोऽपि । अथवा-अ. गणिवायए अणुप्मा, महब्बयाणं च पारुहणा ॥११२।। । पिचेत्येतत्समुच्चय एव । यस्यानिर्दिष्टावशेषस्य दीक्षणीतिसृषूत्तरासु अाषाढाऽऽदिलक्षणासु. तथा रोहिणीषु कु- यजीवस्य, अस्तीति गम्यम् । तकोऽसावत्र जिनदीक्षायामर्यात् शिष्यकनिष्क्रमणं. दद्यात् प्रवज्यामित्यर्थः । तथा ग- चितो योग्यः । इतिशब्दो दीक्षाऽधिकारिजीवलक्षणसमाप्तिगियाचकयोरनुज्ञा एतेष्वेव क्रियते, महाव्रतानां चाऽऽरोप- द्योतकः । एतावदेवतस्य लक्षणमिति हृदयमिति द्वारगाऐति गाथाऽर्थः। थाऽर्थः ॥४॥ Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४३) अभिधानराजेन्द्रः । पवज्जा परज्जा दीक्षारागं लक्षयितुं गाथात्रयमाह एमाइयाणि एत्थं, लोगविरुद्धाणि णेयाणि ॥१०॥ पयतीए सोऊण व, दट्टण व केइ दिक्खिए जीवे । सर्वस्यैव समस्तस्यैव लोकस्य , चैषशब्दोऽवधारणे । नेन मग्गं समायरंते, धम्मियजणबहुमए निच्चं ॥ ५॥ न पुनः कस्यचिदेव । निन्दा जुगुप्सा, लोकविरुद्धमिति एईएँ चेव सद्धा, जायइ पावेज कहमहं एयं । सर्वत्र योज्यम् । निन्द्यमानो हि लोको निन्दकं प्रति विरुभवजलहिमहाणावं, गिरनेक्खा साणुबंधा य ॥६॥ द्धो भवत्यतो लोकविरुद्धम् । एवं सर्वत्र भावना कार्या । तथा विशेषतो विशेषेण नितरामित्यर्थः । तथा चेति पुनरविग्घाणं चाभावो, भावे वि य चित्तथेजमञ्चत्यं ।। र्थः। गुणसमृद्धानां शानादिगुणद्धिमतामाचार्याऽऽदीनाम् । एयं दिक्खारागो, णिहिट्ट समयके ऊहिं ।। ७॥ निन्देति प्रकृतमेव । गुणवतां हि बहुलोकः पक्षपाती भवत्यतप्रकृत्या निसर्गेण, स्वतः सम्भूततथाविधकर्मक्षयोपशमेने- स्तनिन्दा विशेषतो लोकविरुद्धमिति भावः । ऋजूनामव्युत्यर्थः । एतस्यां श्रद्धा जायत इति सम्बन्धः । तथा श्रुत्वाऽs. स्पनबुद्धीनां धर्मकरणे स्वबुड्यनुसारेण कुशलानुष्ठानाऽऽसेकर्य दीक्षागुणा दिप्रतिपादनपरं श्रुतधर्ममिति गम्यते । प्र वने हसनमुपहासो धूतैर्षिडम्बिताः खल्वेत इत्यादिरूप - थवा-दीक्षितान् जीवानिति सम्बध्यते । वाशब्दो विकल्पा- जुधर्मकरणहसनम् । बहवो ह्यब्युत्पन्ना एव लोकाः, ते च र्थः। दृश वा चक्षुषोपलभ्य,कानित्याह-(केह त्ति) कांश्चित् न । तद्धर्माऽऽचारहसने सति विरुद्धा एव भवन्ति । तथा रीढा सर्वान् सर्वेषां दीक्षितत्वासम्भवात् । अथवा- कांश्चित्सामा- हीला, जनपूजनीयानां राजामात्यथेष्ठितद्गुरुप्रभृतीनाम् । न्यान् स्वजातिभिः स्वदेशाऽदिभिरविशेषितान् । अनेनावि- भावनाभिप्रायः प्रतीत एव ॥८॥ तथा बहुजनैः प्रभूतलोशेषेण गुणिषु प्रमोदमावदयति । दीक्षितान् प्रतिपत्रजिनदी- कैः सह ये विरुखास्तदपकारकत्वेन विरोधवन्तस्तैः सार्ध शान् । ततः किंभूतांस्तान्?-मार्ग सम्यग्दर्शनाऽऽदिरूपं निर्वा यः साः सम्पर्कः स तथा । देशाऽऽद्याचारलश्यनमेव च जणनगरगमनपथम् ,समाचरतो विदधतः । तथा धार्मिकजना नपदग्रामकुलप्रभृतिसमाचारातिक्रम एव च । पुनस्तदनुबहुमतान् धर्मचारिलोकसंमतान् , नित्यं सर्वदेति । इह च लङ्घनमपि । चशब्द: समुच्चये। एवकारश्वावधारणे । अनप्रकृत्येत्यनेन निसर्गतः सम्यग्दर्शनप्रतिपत्तिरुक्का, शुत्वा वा योश्च प्रयोगो दर्शित एव । तथोल्ल्वणः खिड्गजनाऽऽचरिदृष्ट्वा वेत्यनेन चाधिगमत इति प्रकारद्वयमेव चास्य प्रतिप- तो भोगो पत्रपुष्पाऽऽदिभिर्देहसत्कार उल्ल्यणभोगः । तथा तौ स्यात् । यदाह "तनिसर्गादधिगमावति।" (तत्वार्थः) तेन प्रकारेण देशकालविभववयोवस्थाऽऽद्यनौचित्यलक्षणेन। ॥५॥ एतस्यामेव प्रस्तुतदीक्षायां, न दीक्षान्तरे,श्रद्धा रुचिः, तथा दानाऽऽद्यपि वित्तवितरणतपःप्रभृतिकमपि.न केवलमजायते प्रादुर्भवति । श्रद्धामेवोखतो दर्शयति-प्राप्नुयां ल्ल्वणभोग इवेत्यपिशब्दार्थः। किम्भूतं दानाऽऽदीत्याह-प्रकलभेयम् ,कथं केन प्रकारेण ?. अहमेतां दीक्षाम् । किम्भूतां?- टमगम्भीरतया लोकप्रकाशम् । अन्ये स्वपरे पुनराचार्याः,लोभवजलधिमहानावं संसारसमुद्रतरणमहाद्रोणीम् । किंभूता कविरुद्धमाहुरिति गम्यम् । तथाविधदानाऽऽदिविधायकस्य श्रद्धत्याह निरपेक्षा निःस्पृहा,सांसारिकफलानि प्रति लौकि हि लोक उपहासकारी स्यादिति लोकविरुद्धतेति ॥६॥ तथाकधर्मदेवगुरुत्वाप्रतीत्याविद्यमानापेक्षेत्यर्थः । यत पतस्याग साधुव्यसने दुष्टराजाऽ दिजनितायां शिष्टजनानामापदि.तोषः एष दीक्षा । यदाह-"समणोवासो पुब्बामेव मिच्छनाओ प्रमोदः । अत्र हि साधवस्तपाक्षिकाच विरुद्धा भवन्ति । पडिक्कमति सम्मत्तं उबसंपज्जति, नो से कप्पति प्रज्जप्पभिई तथा सति विद्यमाने, सामर्थे साधुव्यसनपरिवाणवले. अन्नउत्थिर वा अन्नउत्थियदयाणि वा । " इत्यादि । अप्रतिकारो व्यसनापरित्राणम् । चशब्दः समुचये । लोकसानुबन्धाऽव्यवच्छिन्नतद्भावसन्ताना,चशयः समुश्चय इति विरुद्धमिति योगः । शेषलोकविरुद्धोपलक्षणार्थमाह-एव. ॥६॥ तथा-विघ्नानां दीक्षाप्रतिपत्तिप्रत्यूहानाम् । चशब्दः मेतानि सर्वजननिन्दाऽऽदीनि,आदिःप्रकारो येषां तान्येवमासमुच्चये । श्रभावोऽविद्यमानता, भ्रद्धालक्षणशुभभावव्यपो दिकानि । आदिशब्दास्पैशुन्याऽदिग्रहः । (पत्थं ति) अत्र हित्वात्तेपाम् । भावेऽपि च निरुपक्रमक्लिष्टकर्मदोषाविनानां जिनदीक्षाऽधिकारे, लोके वा, लोकविरुद्धानि लोकषिरोध. सद्भावेऽपि च; अपि चेति समुच्चयार्थः । चित्तस्थैर्य दी. वन्त्यनुष्ठानानि, यानि ज्ञातव्यानि अपरिज्ञया, प्रत्याख्याक्षां प्रति मनोदाय॑म् , अत्यन्तम् , वदिति शेषः । एतदन. नपरिक्षया तु परिहर्सब्यानीति गाथावयार्थः ॥ १० ॥ स्तरोक्नं श्रद्धाविघ्नाभाववित्तदायरूपं त्रयम् । किमित्याह अथ सुन्दरगुरुयोगं दर्शयन्नाहदीक्षारागो दीक्षाऽनुरागः, निर्दिष्टं कथितम् । कैरियाह-समयकेतुभिः प्रकाशकत्वेन सिद्धान्तचिह्नभूतैः समयशरिति णाणाइजुप्रो उ गुरू, सुविणे उदगादितारणं तत्तो । यावत् । इति गाथात्रयार्थः॥७॥ अचलाइरोहणं वा, तहेव बालाइरक्खा वा ॥ ११ ॥ उको दीक्षारागो'थ लोकविरुद्धत्यागाभिधिरप्सया लोक- शानाऽदियुतश्च गुरुः। इह चशम्दस्तुशध्दो वा पुनरर्थः । तविरुद्धानुष्ठानोपदर्शनायाऽऽह स्थ चैवं प्रयोगः-लोकविरुद्धानि, तावत्सर्वजननिन्दाऽऽदीनि, सव्वस्स चेव जिंदा, विसेसमो तह य गुणसमिडाणं । गुरुच दीक्षाऽऽचार्यः पुनानादियुतः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारिउजुधम्मकरणहसणं, रीढा जणपूयणिज्जाणं ॥८॥ प्रयुक्तः सुन्दरो भवतीति हृदयम् । अथवा-सानाऽदियुत एव गुरुर्भवतीत्येवमवधारणं व्याख्येयम् । मथ तद्योगः क इत्याहबहुजणविरुद्धसंगो, देसादाचारलंघणं चेव । स्थमे निद्रासंबलितमनोविज्ञामविशेषरूपे, उदकाऽऽदिभ्यो उलणभोमो य तहा, दाणाइ वि पगडमम्मे तु ॥४॥ जलानलगीऽऽदिभ्यस्तारणम्। ततो गुरोः सकाशात् वीक्षा. साडुवसणम्मि नोसो, सइ सामत्यम्मि अपडियारो य । कामस्य । एतच सुन्दरगुरुयोगपरिज्ञान हेनुत्यारसुन्दरयो Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४४) भाभिधानराजेन्द्रः। पवज्जा पवज्जा गोऽभिधीयते। एवमचलाऽऽदिषु पर्वतप्रसादवृक्षशिखरप्रभृ. नमत्थ रायाभिोगेणं गणाभियोगेणं बलाभिभोगेणं देव तिषु, रोहणमारोपणमचलाऽऽदिरोहणम् । वाशब्दः पूर्वोक्त- याभोगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तीकंतारेणं दव्यो खेत्तो पक्षापेक्षया विकल्पार्थः। तथैव तेनैव प्रकारेण स्वप्ने ततः कालो भावओ, दन्वनो णं दसणदब्वाई अंगीकाऊणं, सकाशादित्येवलक्षणेन, व्यालाः श्वापदा भुजगा वा तदादि- खेत्तो णं सव्वलोए, कालो णं जावजीवाए, भावभ्यः। आदिशब्दागजाऽऽदिभिश्च रक्षा व्यापाद्यमानस्य त्राणं श्रो णं जाव गहेणं न गहिजामि, जाव छलेणं न छलिव्यालाऽऽदिरक्षा। वाशब्दो विकल्पार्थ एवेति गाथार्थः॥११॥ ज्जामि, जाव संनिवारणं न भुंजामि (नाभिभविज्जामि ) उक्ता दीक्षा । पञ्चा०२ विव०। जाव केण वि परिणामवसण परिणामो मे न परिवडति ताव (१०) समवसरणान्तःपुष्पपाते योग्यतानिर्णयाहीच्यतेऽ मे एसा सणपडिम ति।" ततश्च वासप्रक्षेपपूर्वकं स. __सौ, बहिस्तत्पाते तु को विधिरित्याह विरतिसामायिकाऽऽरोपणे इव" नित्थारगपारगो होहि गुरुगुणेहिं बड्डाहि त्ति" आशिषं प्रयुञ्जते । अयमेवार्थीबाहिं तु पुष्फपाए, वियडणचउसरणगमणमाइणि । ऽन्यत्नाऽऽचार्येणैवमुक्त:-"इय मिच्छाश्री विरमिय,सम्म उकाराविज्जइ एसो, वारतिगमुवरि पडिसेहो ॥ २७ ॥ वगम्म भणति गुरुपुरो । अरहंतो निस्संगो, महदेवी दबहिर्बहिस्तात्समवसरणात् , तुशब्दः पुनःशब्दार्थः, स च क्षिणा साहू ॥१॥" इति । नतश्च (ठितिसाहण ति) दी. पूर्वोक्तार्थापेक्षयोत्तरार्थस्य विलक्षणतासूचनार्थः । पुष्पपाते कु क्षितमर्यादाकथनं कार्यम् । यथा-"अजप्पभिई तुम्भं प्रसुमपतने सति,विकटनं च शङ्काऽद्यतिचारालोचना स्वा. रहं देवो, साहबो गुरू, जीवाइपयच्छ सद्दहाणं सम्मत्तं, नो भिप्रायनिवेदनमात्र वा, चतुःशरणगमनं 'चत्तार सरणं पव. ते कप्पति लोश्यतित्थे रहाणणपिंडपयाणाइ, कप्पर पु. जामि' इत्यादिरूपमादिर्येवा तानि बिकटनचतुःशरणगमना- ण तिकालं देववंदणाइयं अणुटाणं ।" अथवा-स्थितिसाऽऽदीनि । मकारश्चेहाऽऽगमिकः. प्रादिशब्दात् पश्चनमस्कारा धनं दीक्षासमाचारप्रकाशनं कार्यम् । यथा-" भो भद्र ! दिपरिग्रहः(काराविज्जति त्ति)कार्यते विधाप्यते गुरुणा एष दीक्षाप्रतिपत्तिक्रमोऽयमस्थिस्थगनपुष्पप्रक्षेपाऽऽदिरिति न दीक्षाधिकृतजीवः । कियतीरा इत्याह-(धारतिगं) वीन् त्वयाऽन्यथा संभावनीयः। तथा-( उवबूहण त्ति) इह प्रा. धारान् यावत्, उपरि तस्योर्ध्व प्रतिषेधो निषेधो दीक्षायाः। कृतत्वेन निरनुस्वारः पाठः । ततश्चोपवृंहणं तस्यानुमोदनं इदमुक्तं भवति-बहिः पुष्पपाते सत्यालोचनाऽऽदि कारयित्वा कार्यम्। यथा-"धन्यस्त्वं धर्माधिकारी क्षीणप्रायक्लेशः यः तथैव पुष्पपातः कार्यते,पुनर्वहिः पाते पुनरपि स एव विधि- तो भगवतो भुवनबान्धवस्याऽऽसन्नकुसुमनिपातेन निश्चितो. रावय॑ते । ततो पारवये अप यदि बहिरेव पुष्पपातो भवति, ऽसि समासन्नकल्याण इति।" अथवा-" धन्यस्त्वं येन तदा त्रिनिश्चितत्वात्तीक्षाऽनईत्वस्य प्रतिषिध्यत एवासौ सकलकल्याणवारीकन्दकल्पा भागवती दीक्षाऽवाप्ता, तददीक्षाग्रहणं प्रति भद्र ! प्रस्तावान्तरे तव दीक्षा दास्यते, ना. वाप्ता चावाप्तानि सकल कल्याणानि ।” अपि च-"धलाधुनेत्यादिभिः कोमलवयन रिति गाथाऽर्थः ॥ २७ ॥ ण निवेसिजति, धमा गच्छंति पारमेयस्स । गंतुं इमस्स उतविपर्ययमाह-- पारं, पारं दुक्खाण वञ्चति ॥२॥" इति । तथा-हर्षाऽऽदी नां तगतप्रमोदप्रभृतीनाम् । श्रादिशब्दादेन्योदासीनताऽऽदि. परिसुद्धस्स उ तह पु-फपायजोगेण दंसणं पच्छा। प्रहः । प्रलोकनमवलोकनं हर्षाऽऽदिप्रलोकनं तदाचार्येण मु. ठितिसाहणमुववृहण, हरिसाइपलोयणं चेव ।। २८॥ खप्रसन्नताऽऽदिभिर्लक्षणैस्तस्य कार्यम्,किमयमेतत्समाचारपरिशुद्धस्य दीक्षोचितविशुद्धिप्राप्ततया निश्चितस्य सतो दर्शने दृष्टोऽन्यथा वेत्यवगन्तव्यमित्यर्थः । चैवेति समुच्चय दीक्षणीयस्य, तुशब्दः पुनःशब्दार्थः । कथमित्याह तथेति इति गाथाऽर्थः ॥ २८॥ पञ्चा०२ विव०। तथाविधः पूर्वोक्तन्यायतःसमवसरणमध्यभावी यः पुष्पपात (११) कथं चेति प्रकारेण दातव्येत्येतदाहयोगः कुसुमपतनव्यापारः स तथा तेन पुष्पपातयोगेन । पुच्छ कहणा परिच्छा, सामाइअमाइसुत्तदाणे च । किमित्याह-दर्शनं नयनाऽऽवरणवसनापनयनेन जिनप्रतिमा चिइवंदणाइआए, विहीएँ सम्म पयच्छिज्जा ॥११॥ प्रति तस्य दर्शनक्रियायां प्रयोजन गुरुणा कार्यम् । पश्चादिति प्रश्नः प्रव्रज्याऽभिमुखविषयः, कथनं कथा साधुक्रिययोः.प. पुष्पपातेन तद्विशुद्धिनिश्चयानन्तरम् । अथवा-दर्शनमिति स. रीक्षा सावद्यपरिहारेण,सामायिकाऽऽदिसूत्रदाने च विशुद्धा. म्यग्दर्शनं तस्याऽऽरोपणीयमेतदारोपणमेव च दीक्षाच्यते । 35लापकेन.ततश्चैत्यवन्दनाऽऽदिविधिना वक्ष्यमाणलक्षणेन, उक्का वासक्षेपाऽऽदिलक्षणा सामाचारी। सम्यगसंभ्रान्तः, प्रयच्छत्प्रवज्यां दद्यादिति गाथासमुदातत्र चावश्यकचूर्यनुसारी सम्प्रदायोऽयम्-चैत्यवन्दना. यार्थः दिना तदुचितेन सर्वविरतिसामायिकाऽऽरोपणक्रमेगा गुरु अवयवार्थ तु ग्रन्थकार एवाऽऽहणेदमुथारयितव्यं दीक्षणीयेन चैतदेव प्रत्युचारयताऽभ्युपगम्तव्यम् । तद्यथा-" अहं भंते ! तुम्हाणं समीवे मिच्छत्ताओ धम्मकहाअक्खित्तं, पन्चज्जाअभिमुहं तु पुच्छिजा। पडिकमामि,सम्मत्तं उपसंपजामि, नो मे कप्पर प्रजापभिई कत्य तुम सुंदर! प-व्वयसी वा किं निमित्तं ति ॥११६।। भनउस्थिए वा, अन्नउत्थियदेवयाणि वा अन्नउत्थियपरिग्ग. धर्मकथाऽऽद्याक्षिप्तमिति धर्मकथया अनुष्ठानेन या भावहियाई अरहंतचेयाणि या वंदित्तर वा नमंसित्तए वा पुब्बि जिंतं प्रवज्याऽभिमुखं तु सन्तं पृच्छेत्। कथमित्याह-कः कुत्र अनालतेणं बालवित्तए वा संलवित्तए वा, तेसिं असणं | त्वं सुन्दर ! कस्त्वं कुत्र वा त्वमायुष्मन् !, प्रव्रजसि वा कि पा पाणं वा खाइमं या साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा । निमित्तमिति गाथाऽर्थः । Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा निधानराजेन्द्रः। पवज्जा स खल्वाह शोभनदिने विशिटनक्षत्राऽऽदियक्त विधिना चैत्यवन्दननम कुलपुत्तो तगराए, असुहभवक्खयनिमित्तमेवेह । स्कारपाठनपुरस्सराऽऽदिना दद्यादालापकेन,न तु प्रथमेव पपव्वामि अहं भंते !, इइ गझो भयण सेसेसु ॥११७॥ ट्टिकालिखनेन सुविशुद्धं रपएं सामायिकाऽऽदिसूत्र, प्रतिक मर्यापथिकाऽऽदीत्यर्थः । पात्रं ज्ञात्वा यद्योग्यं तद्दद्यान्न व्यकुलपुत्रोऽहं तगरायां नगर्यामित्येतद्राह्मणमथुराऽऽग्रुपलणं नेदितव्यमिति । अशुभभवक्षयनिमित्तमेवेह, भवन्त्यस्मिन्क त्ययेनेति गाथाऽर्थः। उक्तं सूत्रदानम् । मेवशवर्तिनः प्राणिन इति भवः संसारस्तस्परिक्षयनिमिरा (१५) शेषविधिमाहमित्यर्थः। प्रव्रजामि अहं भवन्त इति एवं ठुयन् प्रायःजना तत्तो जहाविहवं, पूअं स करिज वीयरागाणं । शेषेषु कुलपुत्रान्यनिमित्ताऽऽदिए। इयं च विशिष्टस्त्रानुसा- साहू य उवउत्तो, एअं च विहिं गुरू कुणइ ॥१२४॥ रतो द्रव्या । उक्तं च-" जे जहि जुगुच्छिया खतु, पच्चा- ततश्च तदुत्तरकालं यथाविभवं यो यस्य विभवः, विभवा. पणवसहिभत्तपाणेसुं । जिसवयणे पडिकुजावधेयव्या पय- नुरूपमित्यर्थः, पूजां स प्रवव्रजिषुः कुर्याद्वीतरागाणां जिनानां सणं ॥१॥” इत्यादीति गाथाऽर्थः । प्रश्न इति व्याख्यातम् । भाल्याऽऽदिना, साधूनां वस्त्राऽऽदिना, उपयुक्तः सन्निति । एनं (१२) कथामधिकृत्याऽऽह च वक्ष्यमाण लक्षणं विधि गुरुराचार्यः करोति । सूत्रस्य साहिज्जा दुरणुचरं, कापुरिसाणं सुसाइकिरिति । शिकागोचरत्वप्रदर्शनार्थ वर्तमाननिर्देश इति गाथाऽर्थः। आरंभनियत्ताण य, इह परभविए सुहविवागे ॥११॥ चिइबंदणरइहरणं, अट्ठा सामाइयस्स उस्सग्गो।। साधयेत् रूधयेत् दुरनुचरा कापुरुषाणां क्षुदलवानां सु- सामाइयतियकडण, पयाहिणं चेव तिक्खुसो॥१२॥ साधुक्रियामिति, तथा प्रारम्भनिवृत्चानां च परमविके शु- बैत्यवन्दनं करोति रजोहरणमर्पयति, अष्टां गृह्णाति, भविपाकार प्रशस्तभवदेवलोकगमनाऽऽदीनि इति गाथार्थः । सामायिकस्योत्सर्ग इति कायोत्सर्ग च करोति, सामायि जह चेवउ मोक्खफला,याणा श्राराहिमा जिणिदाणं । कत्रयाऽऽकर्षणमिति स्रिो बाराः सामायिकं पठति,प्रदक्षिसंसारदुखफलया, तह चेव विराहिला होइ ॥११॥ कां चैव त्रिः तिखो वाराः शिष्यं कारयतीति गाथासयथैव तु गोरफला, भवतीति योगः। श्राला शाराधिता सुशायाऽर्थः। अखरिडता सही जिनेन्द्राण संबन्धिनीति, संसारदुःखफ. अथावयवार्थ त्वाहजदा तथैव च दिराधिता खरिडता पतीति गाथाऽर्थः।। सेहमिह वामपासे, ठवित्तु तो चेइए पर्वदंति । साहहि सम गुरवो, थुइवुड्डी अप्पणो चेव ।। १२६॥ जह वाहियो उ किरियं, पत्ति सेवई अपत्थं तु। शिण्यकमिह प्रव्रज्याऽभिमुखं वामपार्श्वे स्थापयित्वा ततअपवामगाउ अहियं, सिन्धं पस पावर रिणासं।२२०॥ त्यान्याहतप्रतिमालक्षणानि प्रवन्दन्ते साधुभिः समं गुयथा व्याधितस्तु कुष्ठाऽऽदिग्रस्तः क्रियां प्रतिपत्तुं चिकित्सा रषः, स्तुतिहाररात्मनैवेति प्राचार्या एवं छन्दःपाठाभ्यां प्र. माश्रित्य सेवते अपर्थ्य तु । स किमित्याह-अप्रपधारसकाशा दर्तमानाः स्तुतीर्दवतीति गाथाऽर्थः । दधिक शीघ्रं च स मानोति, विनाशमपथ्यसेवन प्रकरित. (१६) वन्दनविधिमाहव्याधिवृद्धेरिति गाथाऽर्थः पुरमो वजंति गुरवो, सेसा वि जहक्कम तु सट्ठाणे । एमेव भावकिरिश्र, पवत्ति कम्पबाहिखयहे । अक्खलिआइकमेणं, विवजए होइ अविही उ ॥१२७।। पच्छा अपत्थसेवी, अहियं कम्मं समजिणह ।।१२।। पुरत एव तिष्ठन्ति गुरव प्राचार्याः, शेषा अपि सामान्य एवमेव भावक्रियां प्रवज्यां प्रतिपहुं, किमर्थमित्याह-क साधषः यथाक्रममेव ज्येष्ठार्थतामङ्गीकृत्य स्वस्थाने तिष्ठमव्याधिक्षयहेतोः पश्चादपथ्यसेवी ममज्यादिरशकारी - ति, सत्रास्खलिताऽऽदिन स्खलितं न मिलितमित्यादिक्रमे. धिकं कर्म समाजयति. भगवदादाविलोपनेन पूराऽऽएय-1 ण एरिपाटया, सूत्रमुच्चारयन्तीति गम्यते विपर्यये स्थानमुवादिति गाथाऽर्थः । कति व्याख्याता। कारणं बापति भवति । अविधिरवन्दन इति गाधाऽर्थः । (१३) परीक्षामाह एतदेवाऽऽहअब्भुवगयं पि संतं, पुण परिखिज्जइ पवयणविहीए। खलियमिलियवाइर्द्ध, हीणं अञ्चक्खराइदोसजुनं । छम्मासं जाऽप्सज्ज व, पत्तं अद्धाए अप्पबहुं ।। १२२ ।। बंदताणं नेआ-ऽसामायारित्ति सुत्ताणं ॥ १२८ ।। अभ्युपगतमपि अङ्गीकृतमपि सन्तं पुनः परीक्षेत प्रवचन- स्खलितमुपताऽऽकुलायां भूमौ लाङ्गलबत् मिलितं विसविधिना स्ववर्याप्रदर्शनाऽऽदिना.कियन्तं कालं यावदित्याह- डशधान्याऽऽमलकवत्, व्याविझं विपर्यस्तरनमालावत्, परमासं यावदासाध वा पात्रमद्धायाः अल्पबहुत्वमद्धा हीनं न्यूनम् , प्रत्यक्षराऽऽदिदोषयुक्रमिति, प्रत्यक्षरमाध. कालः, सपरिणामके पालक विशेष अल्पतर इतरस्मिन् वा. काक्षरम्, आदिशब्दादप्रतिपूर्वाऽऽदिग्रहः । इत्थं वन्दमानानां हुतरोऽपीति गाथाऽर्थः । परीक्षेति व्याख्यातम् । शेया असामाचारी अस्थितिसूदाऽऽशा भागमार्थ एवंभूत (१४) साम्प्रतं सामायिकाऽऽदिसूत्रदानमाह इति गाथाऽर्थः । व्याख्यातं चैत्यवन्दनद्वारम् । सोभणदिणम्मि विहि-गा, दिजा बालाचगेण सुविसुद्धं । प्रव्रज्यां व्याचिख्यासुराहमामाइअाइसुत्तं, पत्तं नाऊण जं जोग्गं ।। १२३ ॥ वंदिय पुणडिपाणं, गुरूण ता वदणं समं दाउं। Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवाजा अभिधानराजेन्द्रः। पवज्जा सेहो भणाइ इच्छा-कारेणं पव्ययावेह ।। १२६ ॥ गमन भोम्यं सिकथाऽऽदि, एतीवरहस्तु भवत्येवेत्युपधातः । पन्दित्वा द्वितीयप्रणिपातदण्डकावसानपन्दनेन पुनरुत्थि- | तथा रजोदरिखगनसंसर्जनाऽऽदिना भवत्युपधात इति । संज. तेभ्यः प्रणिपाताभिषमोत्थानेन गुरुभ्यः प्राचार्येभ्यस्तते मति च प्रमार्जने सति रजसा परिवगन, तत्संसर्जन बसलो. स्तदनन्तरं धन्दनं समं देवाऽऽद्यभिमुखमेव दया शिक्षको पघात ति गाथाऽर्थः । एप पूर्वपकः। भणति । किमिति तदाह-इच्छाकारेण प्रवाजयत, भस्मानि . अत्रोत्सरमाहति गम्यते । एष गाथाऽर्थः । पडिलेहिउँ पमअण-मुपायाभो कह णु तत्थ होजा उ। इच्छामो त्ति भाणत्ता, उढे कड्डिऊण मंगलयं ।। अपमज्जउं च दोसा, वजाऽऽदागाढवोसिरणे ॥१३६।। प्रत्युपेत्य चक्षुषा पिपीलिकाऽऽयनुपलब्धौ सत्यामुपलब्धाबपि अप्पेड़ रोहरणं, नियापन गुरू लिंगं ॥ १३०॥ प्रयोजमविशेष बतनमा प्रमार्जनस्त्रे उलंबितवमत उपचातः इछाम इति भणित्वा विश्वमा उत्थातुमूर्खस्थानेन मा. कथं तु तत्र नवेतर नैव भवतीत्यर्थः। सचानुपलम्ची किमर्यप्र. कृष्ण मालकं पठित्वा पञ्चनमस्कारमपंथति रजोहर जि माजनामिति चेत्,उच्यते-सूत्रोक्तशापिसावसंरक्षणार्थमुपनप्राप्तं गुरुः लिमिति गाथाऽर्थः। सम्धावपि प्रयोजनं तभप्रमार्जने तु दोषः । तथा चाऽऽह(१७) लिङ्गदान एव विधिमाह अप्रमृज्य च दोषाः वा भादावागाढव्युत्तर्ग, आविशनानि पुव्वाभिमुहो उत्तर-मुहो व देज्जाऽहवा पहिच्छिा । श्यकालिकाऽऽविपरिग्रह इति गाथाऽर्थः। जाए जिणाऽऽदभो वा,दिसाए जिणचेइआई वा ।१३१॥ (१८) अप्रमार्जनदोषमाहपूर्वानिमुख उत्तराभिमुखो वा दद्याद गुरुः। अपधा-प्रती- आयपरपरिच्चाओ, दुहा वि सत्थस्सऽकोसलं नूणं । चियः,यस्यां जिमाऽऽदयो वा विशि.जिनाः मनःपर्यायशानिनः संसजणाइदोसा, देहे व्व विहीऍ यो हुंति ॥१३७॥ अवधिसंपन्नाश्चतुर्दशपूर्वधराश्व, जिनचैत्यानि वा यस्यां दिशि यो हि कथञ्चिपुरीपोत्सर्गमङ्गीकृत्व असहिष्णुः, संसक्तं च प्रासनानि तदनिमुखो दद्यात अथवा-प्रतीच्छेदिति गाथाऽर्थः । स्थापकसं तेन दयानुना स तत्र २ कार्यः, कार्यों वेति द्वयी रजोहरण लिङ्गमुक्तम् । गतिः। किं चात उभयवादीच दोषः। तथा चाऽऽह-धात्मपरसाम्प्रतं तच्छदार्थमाह परित्यागोऽकरणे प्रारमपरित्यागः, करण परपरित्याग इति । हरइ रयं जीवाणं, बझ अभंतरं च जं तेणं । किंचात इस्याह-द्विधाऽपि शासितुः स्वदभिमततीर्थकरस्यारयहरणं ति पवुच्चइ, कारणकज्जोवयाराओ ॥१३२॥ कौशसं नूनमवश्यं, कुशलस्य चाकुशलताऽऽदने अाशातनहरत्यपनयति रजो जीवानां बाह्यं पृथिवारजःप्रभृति, अत्य- ति। पकान्तरपरिजिहोर्ष याऽऽह-संसज्जनाऽऽविदोषाः पूर्वपकन्तरं च वध्यमानकर्मरूपं यद्यस्मात्तेन कारमेन रजोहरणभि. बाजिहिता भविधिना रिजोगेन (?) भवन्ति देव व शरीर ति प्रोच्यत, रजो डरतीति रजोहरणम् । अत्यन्तररजोहरण- श्व,प्रविधिना स्वसमंजसाहारस्य देहेऽपि भवस्येवेति गामाशक्याऽऽह-कारण कार्वोपचारात्संयमयोगा रजोहरास्ता। थाऽर्थः । रजोदरणमिति व्याश्यातम् । त्कारणं चेदमिति गाथाऽर्थः। अशा इति म्याचिल्यासुराहएतदेव प्रकटबति मह बंदिरं पुणो सो, भणइ गुरुं परमभात्तिसंजुसो । संजमजोगा एत्थं, रयहरणा तेसि कारणं जेणं । इच्छाकारेणऽम्हे, मुंडावेहि ति सपणामं ॥ १३८ ॥ रयहरणं उवयारो, भमइ तेणं रओकम्मं ॥१३३।। अपानम्तरं पग्इित्या पुनरपि स शिष्यको भणति गुरुमासंयमयोगाः प्रत्युपतिप्रमृएभूभागस्थानाऽदिव्यापारा,अ-चार्य परमभक्तिमयुक्तः सन् । किमित्याह-इब्याकारणास्मन् त्राधिकारे,रजोदरणा बध्यमानकमहरा इत्यथः । तेषां संयमयो- मरमयति सप्रणाम भगतीति गाथाऽर्थः। गानां कारणं बेन कारणेन रजोहरणमित्युपधारस्तेन हेतुनेति। इच्छामो त्ति भणित्ता, मंगलगं कङ्गिऊण तिक्खुत्तो। रजःस्वरूपमाह भएयते रजःकर्म बध्यमानकमिति गाथाऽर्थः । गिएहइ गुरु उपउत्तो,अट्ठा से तिनि अच्छिन्ना ॥१३६।। केई भणंति मूढा, संजमजोगाण कारणं नेवं । काम ति प्रणिस्वा गुरुमंडल कमाकृष्य पवित्वा निःरयहरणं ति पमज्जण-माइहुवघायभावाभो ॥१३४॥ स्वातिम्रो धारा प्रत्यर्थः । गृह्णाति गुरुः, उपयुक्तः तस्य भष्टाः केचन मन्ति मृदा दिगम्बरविशेषाः संयमयोगानां युक्त. स्तोकके शप्रहणरूपास्तिस्रः मच्छिमा मस्खलिता इति गाथालकणानां कारणं नैवं वक्ष्यमाणेन प्रकारंण जोहरणमिति । ऽर्थः । मश इति व्याख्यातम ! यथा न कारणं तदाह-प्रमार्जनाऽऽदिभिःप्रमार्जनेन संमानेन मधुना सामायिककायोत्सर्ग ति स्वास्थामयमाहच उपधातनावात्प्राणिमामिति गाथा उधः। एतदेवाऽऽह वंदित्त पुणो सेहो, मझाऽऽरोवेह नवरमायरियं । मृइंगलिपाईणं, विणाससंताणभोगविरहाई । इइ भणई संविग्गो, सामाइयमिच्छकारेणं ॥१४॥ रयदरिथगणसंस-जणाऽऽइणा होइ उवधाओ॥१३॥ इलाकारेण सामायिक ममत्यारोपयतेति भणति संचिन्नः प्रमाऊन सात शान्ति का 5ऽदीनां पिपीलिकामकोटकप्रभृ. सन्नचरमाचार्यमिति गाथाऽर्थः। तीनां विनाशसन्तानभाग्यविरहाऽऽदयो,भवन्तीति वाक्यशेषः। इच्छामो त्ति भणित्ता, सो वि अ सामईअरोवणनिमित्तं । रजाहरणसंस्पर्शनादलपकायानां विनाश एक, सन्तानः प्रबन्धः सेहेण समं सुत्, कत्तिा कुणइ उस्सग्गं ।। १४१ ॥ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४७) अनिधानराजेन्द्रः । पवज्जा पवजा काम इति भमित्या सोऽपि गुरुः सामाधिकारोपण धोक्तम-"बालवृकं समागम्य, विगति यथाऽपरजाः। मिमितं शियण साई सत्रं सामायिकाऽऽरोपणनिर्मिसम- नियतं विप्रयोगान्त-स्तथा नृतसमागमः ॥१॥" इत्यादि । "करोमि काउस्सग्गं भामस्थ सरिपणं " इत्यादि परित्या पतदेव स्पष्टय नाह-उद्दामो मृत्युः अनिवारितप्रसरः, प्रत्यास. करोति कायोत्सर्गमिति माथाऽर्थः । नवाल्पायुऐन । तथा संभ मनुजत्व, भवाब्याविति शेषः। पुनश्व बत पवार-समुपतितरत्मनाभतुल्यम,अतिपुरापमित्यर्थः। लोगस्सुओयगरं, चिंते उस्सारए असंभंतो। कुता त्याह-प्रतिप्रभूता मन्ये जयाः पृथिवीकाया दिसंबन्धि. मा कायस्थित्वा । यथोक्तम्-" प्रस्मस्खोसप्पिणिस-प्पिणीउ नवकारणं तप्पु-वगं च वारे तो तिलि ।। १४२ ॥ एनियाण उचउराहं । ता चेव क अणता,बणस्सतीए -बोसबलोकस्बोदपोतकर वितरित्या उत्सात्यति संयमयोग, थवा ॥१॥" एते च दुःखबहुला सत्कटासातवेदनीया मोहातदनन्तरं माविक्रिया सेवनेन असंमारतः सन्नमस्कारेख “नमो न्धकाराः तपृश्यतीवतया, मकुशमानुबन्धिनः प्रकृत्याऽसके. भरता" इत्यनेन..."() 'कायोत्सगे' इति ब्यास्यासम्। हेतुम्वेन, वत एवमतः-अयोग्याः शुद्धधर्मस्य चारित्रमाण. पं०.१द्वार। स्य, योग्यं चैतम्मनुजत्वम् । किविशिष्टम् ?, स्याह-पोततूतं (११) साधुधमें परिभाविते याकर्तव्यं तदनिधातुमाह-- भवसमुझे तदुशारकत्वेन । यत एवमतो युक्तं स्वकार्ये नि. योक्तुं धर्मलक्षणेकथम् ?,स्याह-संबरस्थगितच्छिदं.निजाणि परिभाविर साहुधम्मे जहादिगुणे जइज्जा सम्ममेयं प्राणातिपाताऽविरमणाऽऽदीनि । तथा ज्ञानकर्णधारमभीषणं त. पडिवज्जिराए अपरोवतावं परोवताओ हि तप्पीडवत्तिवि- दुपयोगतः। तपःपवनजवनम् ,अनशनाऽऽद्यासेवनतया । एवं ग्धं, अणुपाश्री सु एसो न खलु अकुसलारभो हिअं । युक्तं स्वकार्य नियोक्तुम् । किम, इत्यत आह-कण एष दु. अप्पडिबुद्धे कहिंचि पडियोहिआ अम्मापिअरे । उभयलो- | लभः। क्षणः प्रस्तावः सर्वकार्योपमातीत एषः। कथम,इत्याह सिद्धिसाधकधर्मसाधकत्वेन हेतुना, उपादेया चपा जोवानां गसफलं जीविध समुदायकडा कम्मा समुदायफल ति।। सिद्धिरेच । यन्नास्यां सिखो जन्म प्रामुर्भावसवणम्.न जरा व. एवं सुदीहो अवियोगो अपहा एगरुक्खनिवासिसउण- योहानिरक्षणा, नमरणं प्राणत्यागलकणम, नेवियोगः, त. तुल्लमधे । उद्दामो मच्चू पच्चासगणो अ। दुल्लह मणु । बनावात् । नानिष्ठसंप्रयोगोऽत एव हेतोर्न कुद, बुभुक्कारूपा। न पिपासा, छदके वारूपा । न चान्यः कश्चिद्दोषः शीतोष्णाअत्तं समुपडिअरयणलामतुल्लं । अइप्पभूधा भले भषा दिः । सर्वथापरतानं जीवावस्थानम, अस्यां सिकाविति दुवखबहुला मोहंधयारा अकुसलाणुवंथियो भजुग्गा प्रक्रमः, अशुभरागाऽऽदिरहितमेतवबस्थानम् । एतदेव विशेसुद्धधम्मरस । जुग्गं च एभं पोथभूभं भवसमरे जुत्तं स- प्यते-पान्तं शिवमन्यावामिति । शान्तं शक्तितोऽपि क्रोधा. कज्जे निरंजिउं संवरहइच्छिदं नाणकामधारं तवपवण- भावेन, शिवं सकलाऽशिवाऽभावतः, अन्यायाधं निजवणं । खणे दुल्लहे सव्वकोवमाईए सिद्धिसाहगधम्म क्रियत्वेनेति । साहगत्तेण । उवादेवा य एसा जीवाणं; न इमीए ज विवरीओ भ संसारो इमीए प्रणवडिअसहायो । इत्थ खलु म्मो, न जरा,न मरणं, न इट्टवियोगो. नाणिद्वसंपभोगो, न सही वि असुही, संतमसंतं,सुविणु च सन्चमालमालं ति । खुहा, न पिवासा, न अमो कोइ दोसो, सव्वहा अपरतत ता अलमित्थ पडिबंधेणं । करेह मे अणुग्गई । उज्जमह जीवावस्थाणं असुभरागाइरहिनं संतं सिवं अन्याहं ति।। एभं वुच्छिंदित्तए । अहं पि तुम्हाणुमईए साहेमि एअं । नि बिलो जम्ममरणेहिं । समिज्झइ भ मे समीहिनं गुरुपभावेपरिनायिते साधुधर्म अनस्तरसूत्रादिन विधिना यथोदित. गुन्ः संसारथिरक्तः संविग्ना भममः अपरोपमापी विद्याखः णं । एवं सेसे वि बोहिजा । तओ सममेएरि सेविज्ज धम्म । विष्यमामनायः सन्, यत सम्बग्विधिमाधम प्रतिपा. करिओचिभकरणिजं निरासंसो उ सव्वदा एभं परममुमाकथं !, इत्याह-अपरोपतापमिति क्रियाविशेषणम् । किमे. णिसासणं॥ तापीयते । श्याह-परोक्ता हितस्प्रतिपसिविना परोप. विपरीतच संसारोऽस्याः सिजन्माऽदिरूपत्वात् सोंपकवातापो वरमामप्रतिपश्यन्तरायः । एतदेवा-अनुपाय पंप लको,नयाss-"जरामरणदौर्गत्य-बाधयस्तावदासताम । धर्मप्रतिपसी परोपतापः कथम इत्याह-मश्चकुशबार. माये जम्मापि वारस्य,यो वनपाकरम॥१॥"मत एमाहम्भतो दितम् । मकुशलाऽऽरम्भ धर्मप्रतिपत्ताबपि परोपता. भनपखितखभावः संसारामत्र मलु सुव्ययसुखी पर्यावतः, पान चाम्ास्तव,प्रायोऽयं संमतीति।सभविपरिहारार्थमार- समयसम्पायत एव । स्वान व सर्वमानमानमाा भावनेति । अप्रतिबुको कथञ्चिकर्मवैचियता, प्रतियोधयेन्मातापितरोन बत पवं तदलमत्र प्रतिवन्धेन संसारे, कुरुत ममानुग्रहम् ।कतु प्रायो महावस्यैतावप्रति दुखौ प्रयत इति । कञ्चित् ,. पम् ,त्याह-उचच्छतेनं व्यवच्छे संसारं ययम् । अहमपि त्याह-उभयलोकसफलं जीवितं,प्रशस्वत इति शेषः। तथा स. युष्माकमनुमत्या साधवाम्बतब्यवच्छेदनम् । किमिति ,प्रत मुहायकृतानि कर्माणि, प्रक्रमाच्जुनानि समुदायफलानीति । आह-निर्विलो जन्ममरणाभ्यां संसारागामिभ्याम् । समृद्ध्यति अनेन भूयोऽपि योगाऽऽकेपः। तथा चाद-एवं सुदीघों पियो चमम समीहितं संसारख्यवच्छेदनं,गुरुप्रभावन । एष शेषाएयगः, भवपरम्परवा सर्वेषामस्माकमिति प्रक्रमः । अन्यथै चमक- पि भार्यादीनि बोधयेदौचित्यो पम्यासेन । ततः समभिमातारण एकपक्षनिवासिशकुनतुख्यमेततू, चेष्टितमिति शेषः । य. पित्रादिभिः सेवेत धर्म चारित्रकणम् । कथम ,त्याह-निरा. Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा ( ७४८) अभिधानराजेन्द्रः । पीकपरकायाम्। पतत्परममुनि सनं. वीतरागवचनमित्यर्थः । । अनुकमासु कम्मपरियईए विहिजा जहासचिवदुदकरणं पायसुद्धं समईए कपमा खु एसा । करुणा व धम्मप्पहाणजगणी जम्मि । तयो अगुमाए विधिमं । अहा अणुवहे चेव उवहिते सिथा । धम्माराहणं खु हियं सव्वसत्ताणं । तहा तहे संपाडिञ्जा । सव्वा अपविजमाणे चइज्जा ते अट्ठाखगिलाणोसहस्थचागनाएं || अनुध्यमानेषु मातापिचादि कर्मपरिणत्या हेतु दयात् यथाशक्ति शयनुसारेण तदुपकरणमजानीप किम् ? “कारणे कार्योपचारात् । " किस्नूतम् ?, इत्याह-- आयो पायशुद्धं स्वमस्या । ततोऽन्यसम्भूतिरायः कलान्तराऽऽदिरुपा थः । किमेतदेवं कुर्यात् ?, इत्याद- कृतज्ञतैवैषा वर्तत । करुणा च विशिष्टयम् इत्याह-धर्मानजननीजने शातिनि मिर्थित छातः सन् दिरिति प्रक्रमः प्रतिपचामि अन्यर्थयम प श्रनुपध एव, जावतः । उपधियुक्तः स्याद्, व्याजवान् स्यादित्यथेः । उतं च " निर्माय एव भावेन, मायावांस्तु भवत्कचित्। पश्येत्रो सामुदितम् ॥१॥" रानमेवदितं सर्वानामिति तथा तथैव दि कथनेन संपादयेऽऽराधनं सर्वथाऽप्रतिपद्यमानान् । श्रमु नाऽपि प्रकारेण त्यजेत्तान् मातापित्रादीन् । अस्थान जानीष धार्थत्यागज्ञातेन ज्ञानमुदाहरणम् । - एतदेवाऽऽड से जहा नामए केइ पुरिसे कहंचि कंतारगए अम्मापसमेए तपदिकदे वचिजा । तेसि तत्थ नियमधाई पुरिसमित्तास संभव सहे महायंके सिया । तत्थ से पुरिसे तप्पविधाओ एवमालोचिय न भवति एए निअमो सहमंतरेण श्रसहभावे अ संसओ कालसहराणि अाणि । तहा संठवित्र संठवित्र तदोसहनिमि. तं सत्तिनिमित्तं च चयमाणे साहु । एस चाए अचाए, श्रचाए चे चाए । फलमित्थ पहाणं बुहाणं धीरा एसिणो || तद्यथा नाम कश्चित्पुरुष विश्वतिः कथञ्चित्कान्तारगतः सत् मातापितृसमेत मंग तयोर्मातापित्रोस्तत्र कान्तारे नियमघाती पुरुषमात्रा साध्यः स भवदौषधः महातङ्कः स्यात् । श्रातङ्कः सथोधाती रोगः । तत्रा सौ पुरुषः तत्प्रतिबन्धान्मातापितृप्रतिबन्धेन एवमालोच्य न भवत पतौ मातापितरौ नियमत औषधमन्पौषधं बिना । च तापिरौ । तथा तेन वृत्याच्छादनाऽऽदिना प्रकारण संस्थाय संस्थाप्य तदधानामत्तं तयागीतापित्रोरोपधार्थ, स्ववृतिनिमित्तं च आत्मवृस्वर्थे च त्यजन् साधुः शेाजनः । क थम् ?, इत्याह- पत्र त्यागोऽयागः संयोगफलत्वात् । श्रत्याग पत्र त्यागो त्रियोगफलत्वात् । यदि नामैचं ततः क्रिम १, ६ पवज्जा त्याह-फलमत्र प्रधानं बुधानां परिरुतानाम् । धीरा एतद्द शिंग, मिणका ल स ते ओसहसंपाययेण जीवादिजा संभवाओ पुरिसोचित्रमेयं । एवं सुकपक्खिए महापुरिसे संसारकंतारपदिए अम्मापिसंग धम्मपरिषद्धे विहरिता । तेसि तत्य निमविणासगे अपत्तबीजाइ पुरिसमित्तास संभवंतसम्पणाइओसहे मरणाइवियागे कम्मार्थके सिया । तस्य से सुकपवित्र पुरिसे धम्मपटिबंधाओ एवं समालोचि विवस्तंति एए अवस्सं सम्मलाइ ओसहविरहेण । तस्स संपाडणे विभासा । कालसहाणि अ एआणि ववहारओ । तहा संठविच्य संठवित्र इहलोगविताए तेर्सि सम्मलाइ सहनिमित्तं विसिद्वगुरुमारभावेण सवित्तिनिमित्तं च किचकरण चयमाणे संजमपडिवत्तीए ते साहु सिद्धीए एस पाए अचाए ततभावगाओ। अचार बेचाए मि भाषणाच्च । तचफलमित्य पहाणं बुहारी परमत्थो पीरा एमसिनो आसया || पुरुषः तौ मातापितरौ औषधसंपादनेन जीवयेत् । संजयस्या एष्टान्तोऽयमर्थोपनय इत्याह एवं शुषाक्तिको महापु रुषः, परीससंसार इत्यर्थः । यथोकम्" जस्त अबको पोगा w. - ल परियो सेसी अ संसारो । सो सुक्कपक्खियां खलु श्र हिगे पुण करादपक्खीओ ॥ १ ॥ " किमयम् । इत्याद-संसारकान्तारपति उपभ दोन संसारका तारे नियमविनाशकः, अप्राप्तषो जा ऽऽदिपुरुषमाना साध्या, संभ चत्वादिि किसी पाजिक पुरुष तोः एवं समालोच्य विनश्यत एतौ मातापितरौ श्रवश्यं य करवाssवैषधविरहेण सम्यक्त्वाऽऽयौषधाभावेन । तत्सम्पा सम्पाद तुं शक्यते, कदाचिन्न इत्येवंरूपा । कालसही तौ यथहारतः । तथा जीवनसंजवानिश्वयतस्तु न । यथोक्तम्- " श्रा बहुपसर्गे याताय निश्वसिति यः, सुखो वा यदिबुध्यते तश्चित्रम् ॥ १ ॥ " तथा तेन सौढित्याऽऽपादनप्रकारेण संस्थाप्य संस्थाप्य इहलोकांच तयोर्मातापित्रोः सम्यक्त्वाऽऽ औषधनिमित्तं विशिष्टगुव दिभावेन धर्मकथाऽऽदिजावात् । स्ववृति गमितं न कृत्य करण न दंतुना त्यजन्संयमप्रतिपस्या तो मातापितरौ साधुधर्म शालः सिद्धी सिद्धिविषये । किमित्येतदेव ?, इत्याद-पत्र स्था वो ऽत्यागस्तश्वनावनातस्तद्धितप्रवृत्तेः । श्रत्याग एव स्या मिथ्याभावनातस्तदतिप्रवृतेः तस्वफतं सानुबन्धमंत्र प्र धानं बुधानां परमार्थतः परमार्थेन। धीरा एतद्दर्शिन आसन भव्या नाऽन्ये । सते सम्मत्ताइसहसंपाडगेण जीवाविज्जा अच्चतिअं अमरणावंऋषी अजोगेणं संभवाओं सुपुरिमोचित्रमे दुष्पटिआगारी अ अम्मापति एस धम्मो स Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा प्रनिधानराजेन्द्रः। पवज्जा भगवं इत्थ नायं परिहरमाणे अकुसलाणुवंधि अम्मापिइ-| इत्याह-नाविपर्यस्तोऽनुपाये प्रवर्तते । इयमेबाविपर्यस्तस्थासोगं ति । एवमपरोवतावं सव्वहा सुगुरुसमीवे पूइत्ता भ- | विपर्यस्तता । यदुतोपाये प्रवृत्तिरन्यथा तस्मिन्नेव विपर्य। यः । एवमपि किम् ? , इत्याह-पायचोपेयसाधको निय. गवते वीरागे साहू अ तोसिऊण विहवोचियं किवणाई मेन कारण कार्याव्यभिचारीत्यर्थः । भतजननस्वभावस्य सुप्पउत्तावस्सए सुविसुद्धनिमित्ने समहिवासिए विसुज्झ- तत्कारणत्यायोगादतिप्रसङ्गात् । एतदेवाऽऽह-तरस्वतवत्याग माणो महया पमोएणं सम्म पन्बइज्जा लोअधम्मेहितो एवोपावस्वतत्त्वत्याग पवान्यथा स्वमुपेयमसाधयतः। कुतः, लोगुत्तरधम्मगमणेण । एसा जिणाणमाणा महाकल्लाण इस्याह-अतिप्रसङ्गात् । तदसापकत्वाविशेषणानुपायस्थायु: त्ति न विराहिअव्वा बुहेणं महाणत्थभयाो सिद्धिकं पायत्वप्रसङ्गात् । न चैवं व्यवहारोपवेद माशङ्कनीय .. त्याह-निश्चयमतमेतदिति सूदमबुकिंगम्यम्। खिणा। से समलिटुकंचणे समसत्तमित्ते निअत्तग्गहदुक्खे पस शुक्लपातिकः पुरुषः ती मातापितरौ सम्यक्त्वाऽऽयौषधसः | समसुहसमेए सम्म सिक्खमाइअइ । गुरुकुलवासी गुम्पादन जीवयेदात्यन्तिकम्। कथम्?,इत्याह-ममरणाबन्यधी. रुपडिबद्धे विणीए भूअत्थदरिसी न इओ हिनं सजयोगेन,चरममरणाबन्ध्यकारण सम्यक्वादियोगेनेत्यर्थः।स तं ति मनइ सुस्सूसाइगुणजुत्ते तत्ताभिनिवेसाविहिप्रवत्येतदत एवाऽऽह-सनवात्पुरुषोचितमेतदयपुतैवं तश्याग इति । किमिति !,अन आह-दुप्रतिकारौ मातापितरौ, ति - परे । परममंतो ति अहिज्जइ सुसं बद्धलक्खे श्रासंस्वा एष धर्मः सतां सत्पुरुषाणां भगवानल ज्ञातं महाबीर व साविप्पमुक्के आययट्ठी । स तमवेइ सव्वहा । तो परिहरन् नाभिग्रहप्रतिपस्याऽकुशलानुबन्धिनम् । तथा क सम्मं निउंजइ । एअं धीराण सासणं । अएणहा प्रमंपरिणत्या मातापितृशोक प्रव्रज्याग्रहणोद्भवामिति । उक्तं च णिोगो । अविहिगहिअमंतनाएण अणाराहणाए न " मह सत्तमम्मि मासे, गन्जतो चेयऽभिन्गह मेघहे । माई समणो होहं , भम्मापियरे जियतम्मि ॥१॥" प्रस्तुतनिगमना किंचि तदणारंभालो धुवं । इत्थ मग्गदेसणाए दुक्खं याऽऽह-एवनपरोपतापं सर्वथा तम्बक प्रवदिति योगः। वि. अवधारणा अप्पडिवत्ती । नेवमहीमहीयं अवगमविरधिशेषमाह-सुगुरुसमीपे , नान्यत्र , पूजयित्वा भगवतो बीत- हेण न एसा मग्गगामिणो विराहणा अणत्थमुहा । अत्थरागान् जिनान् , तथा साधून यतीन् तोषयित्वा , बिनवोचितं हेऊ तस्सारऽऽम्भाश्रो धुवं । इत्थ मग्गदेसणाए अणभिकृपणादीन् दु:खितसत्यानित्यर्थः। सुप्रयुक्ताऽवश्यकः समू. नितेन नेपथ्याऽऽदिना सुविशुनिमित्तः प्रतियोगं समनिवालि. निवेसो । पडिवत्तिमित्तं किरिमारंभो । एवं पि अही तो गुरुणा गुरुमन्त्रेण विशुरुषमानो महता प्रमोदेन लोको सरेण अहीअं अवगमलेसजोगो । अयं सवीओ नियमेण । सम्यम्भाववन्दनाऽऽदिशुरुचा प्रव्रजेत् । किमुक्कं भवति?,लोकध. मग्गगामिणो क्खु एसा । अवायबहुलस्स निरवाए जहोमेंभ्यः सवलेभ्यः सोकोत्तरधर्मगमनेन, प्रकर्षण बजे दित्यर्थः। एपा जिनानामाशा यदुतैवं प्रवजितव्यम् । इयं च महाकल्याण दिए सुत्तुत्तकारी हवइ पवयणमाइसंगए पंचसमिए तिति कृत्या न विराधितव्या बुधेन, नान्यथा कर्तव्येत्यर्थः । क गुत्ते अणत्थपरे । एमच्चाए अविअत्तस्स सिसुजणणिचास्मात् , इत्याह-महानयंभयात् । नाझाविगधनतोऽन्योऽनः। यनाएण । विअत्ते इत्थ केवली एअफलभूए सम्पमेनं अर्थवत्तदाराधना इति । अत एवाऽऽह-सिद्धिकाक्षिणा मुक्त्य- विआणइ दुविहाए परिमाए । पिनेति । न स्वस्वाचाराधनातोऽन्यः सिद्धिपथ इति नावनीयम्। स एव समभिप्रबजितः समलोटकाचनः सन् सधा स. पं० सू०३ सूत्र । मशमित्रः । एवं निवृत्ताऽऽप्रहदुःमः, मतःस प्रशमसुखमा (२०) पालनासूत्रम मेतः । अधिकारिता सम्यक् शिक्कामाइते,प्रहाऽऽसेवनारूविधिना प्रव्रज्या ग्राहोत्येतत् अस्य चर्मामभिधातुमाह पाम । कथम् , इत्याह-गुरुकुलवासी, सदनिर्गमनेन । गुमा तिबद्धः, सदमानात् । विनीतो पाह्यधिनयन । भतार्थवशी स एवमभिपन्चइए समाणे सुविहिभावो किरिया- तत्वादशी, म इतो गुरुकुलवासात् हितं तत्त्वमिति मन्य. फलेण जुज्जइ । विसुद्धचरणे महासत्ते न विवजयमेइ । ते, बचनानुमारित्वात् । वचनं च-'णाणस्स होइ जाग), एअअभावेऽभिप्पेअसिद्धी उवायपवित्तीओ नाविवज धिरवरमो दसको चरिते करा धमा भापकहाए, गुरुकुअचास्थोगुवाए पयइ । उववाओ भ साहगो निभमेण । त संण मुंबंति ॥१॥"स सत्र भूपादिगुणयुक्तः शुभ षा १श्रवण २प्रहण ३ धारणा ४ विकाने ५ र ७ स्स तत्तच्चाओ, अण्णहा अइप्पसंगाभो निच्छयमयमेअं। तस्वाभिनिवेशा:प्रशागु गा इत्येतद्युक्त तत्वानिनिषेशाविधि. स प्रस्तुतो मुमुक्तः , एवमुक्तेन विधिनाऽनिप्रवजितः सन् परसन्, किम्,स्वाह-परममन्त्रो रागाविषप्रनयेतिक. सुविधिभावना कारणात् कियाफलेन युज्यते, सम्यक मधीते सत्रं पाश्रयणायामा किविशिष्टः सन् १.कायार क्रियावादधिकृतक्रियायाः । स एव विशेष्यते-विशुरुच- बालकोऽनुष्यं प्रति। आशंसारिप्रमुका हलोकाऽऽयपेकया रणे महासपः, यत एवम्भूतः, अतो न विपर्ययमेति. मि. नायतार्थी मोकार्थी, अत एव स एवम्भूतः तत्स्त्रमयति। ध्याकामरूपम् । एतदभावे विपर्ययाभायेऽनिसिकिसान सर्वधा याथातथ्येन । ततः किम्, त्याह-तताऽयगमात्सम्य. मान्येव । कुतः, इत्याह-उपायप्रवृतेः । यमेष कतानिय तत्सत्रम. एनसीराणां शासन, यदुनयमधीत सम्य १८८ Jain Education Interational Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रउजा नियुक्तमिति । अन्यथाऽविध्यध्ययने ऽनियोगः, नियोगाश्म्योनियोगः पिवनियोग अधि माते तथापि महा 55दिमाग राधनायामेकान्तेन प्रवृत्तस्य न किञ्चिदिष्टमनिष्टं वा फलम महोफमे 16 (७५०) प्रनिधानराजेन्द्रः । भ्रामण्यस्य फलं मोक्तः, प्रधानमितरत् पुनः । ततोऽफ दालवत् ॥ १ ॥ " भङ्गस्वाथ्युन्मादायेष | यथोक्तम् -" उम्मादं च स भेजा, रोगातं व पाउणो दीहं । के तथा विपणन्ताओ, धम्माओ बात्रि सेज्जा ॥ १ ॥ " न पुनरसम्यक्त्वमेव कथमत्रानाराधनायां न किञ्चित् ?, इत्याद तदनारम्भतो ध्रुवं तस्वतस्तस्यानारम्भात् । न चाम्बस्मि वोद्भवत्यतिप्रसङ्गात् । इहैव लिङगमाह-अत्रानाराधनायां मार्गदेशनायां ताविका दुःखं भवति । तं च"शुकदेशमा हि सा अवधीरणा मनाघुतरकर्मणो न दुःखम् । तथा श्रप्रतिपत्तितोऽपकर्मणां नाचरणा ततः किम मनाराधन्याऽधीतमधीतं सूत्रं तत्वतः । कुतः १, इत्याहअवगमविरहेण सम्यगवबोधाभावेन । नैषा मार्गगामिन एका न्तमनाराधना भवति । सम्यक्त्वाऽऽदि भावे सर्वथा सत्क्रियायो गात् । अत एवाऽऽद विराधना प्रक्रमादध्ययनस्य अनर्थमुखा उन्मादादिमा रोपार स्पर्येण मोक्कागमेवेत्यर्थः । कुतः, इत्याद-तस्याऽऽरम्भाद् धुवं मोहगमनस्यैवारमा उक्तं च " मुनेर्माप्रवृत्तिर्या, सा सदोषाऽपि सैव हि । कटकरवर संमोहयुक्तश्च ॥ १ ॥ अ] विराधना मार्गदेशमा पारमार्थिकाममिनि बेशः भवतिदेयोपादेयतामधिकृत्य यथाह समेषु स्व. अन्नन्धवधिरयन्यच कपाऽऽदिषु तथा मोति तथा प्रतिपतिमा मनाविराधकस्य नामनिविवेश तथा क्रिया ssai seपतरविराधकस्य न प्रतिपत्तिमात्रम् । एवं किम १, इत्याह-एवमपि विराधनयाऽधीतमधीतं सूत्रं भावतः । कुतः ?, इत्यादयोगतः सम्यगयोधनस बीजो नियमेन । विराधकः सम्यग्दर्शनाऽऽदियुक्त इत्यर्थः । कुलः-गामिन एषा विराधना प्राप्तीजस् ति भाषा । न सामान्येनैव किं तवायवस्था निराध कमक्लिष्टकर्मवतः निरवायो यथोदितः मार्गगामति क मः । एतदेवाऽऽड सूत्रोक्तकारी भवति सबीजो निरपायः प्र. वचनमातृसङ्गतः सामान्येन तद्युक्तः । विशेषेणैतदेवाऽऽड-प अमितः त्रिगुणांसमित्याद्याः समितयः पञ्च मनो गुल्याद्याच तिम्रो गुप्तमेमियाद अनर्थपरश्चारित्रमाणकरणेन । एतस्यागः प्रवचनमातृत्या गः । सम्यगेतद्विजानातीति योगः कस्यानर्थपर एतत्त्यागः १, इत्याह--अव्यक्तस्य भाववानस्य । केनोदाहरणेन ?, इत्याह-शिशुनागडा शिशोकस्य जनस्यायोदाहरणे न स हि तत्यागाद्विनश्यति । व्यक्तोऽत्र कः ?, इत्याह-व्यक्लोत्र भावचिन्तायां केवली सर्व एतत्फलजूतः प्रवचनमातृफलभूतः सम्यग्नाव परिणत्या । पनद्विजानात्यनन्तरो दिनम् । एतदेवाऽऽह द्विविधया परिया-इपरिया, प्रत्याख्यानपरश्या च । शपरिज्ञाऽवबोधमात्ररूपा, नपरिक्षा क्रियारूपः । " प्रत्याख्या 3 पचउजा सहा सासपयासदीवं संदीणाऽविराइभेयं (?) असंदीसथिरस्यमुअम । जहासचिमसंभंते अणू सुगे असंसत्तजोगाराहए भवह उत्तरुतरजोगसिद्धीए मुबइ पायकम्पुय ति । विशुकमाये आभवं भावकिरिज्यमाराहे । पसमसुहमणुहवइ अपीडिए संजमतवकिरियाए अव्वहिए पसहोवोहं बाहि सुकिरियानाए । - तथा अभ्यासप्रकाराद्वीपं वीर्य वा सम्यग्विजानातीति वर्त्तते। किंविशिष्ट त्याह-स्पन्दगस्थिरा 35 विभेदम् (१) इ भवान्धवाश्वासद्वीपो, मोहान्धकारे दुःखगहने प्रकाशदीपश्च । तत्राऽऽद्यः स्पन्दनवानस्पन्दनवाँश्च सावनवान सावनबेत्यर्थः । इतरोऽपि स्थिरोऽस्थिर अप्रतिपाती, प्र तिपाती वेत्यर्थः । अयं च यथार्थव्यं मानुष्ये क्षायोपशमि कक्षाधिकचारित्ररूपः क्षायोपशमिकलाविकज्ञानरूपथ । उभत्राऽऽद्यो ऽनाशे पे गेष्टसिद्धये सप्रत्यपायत्यात् । चरमस्तु सिद्धये, निष्प्रत्यपायत्वात् । सम्यगेतद्विजानाति, न केवलं विजानाति । अस्पन्दनवत् स्थिरार्थमुद्यमं करोति सूत्रनीत्या । कथम् ?, इत्याह-यथाशक्ति शक्त्यनुरूपम्, असंभ्रान्तो भ्रान्तिरहितः अनुत्सुक औसुक्यरहित फलं प्रति । असंसक्तयोगा SSराधको भवति । निःसपत्नश्रामण्यव्यापारकर्त्ता, सूत्रानुसारित्वात् । सूत्रं च " जोगो जोगो जिससासम्मि दुक्खक्खया पउंजतो । श्रमोसमवाहतो, श्रसवतो हो कायव्व ॥ १ ॥ " एवमुत्तरोत्तरयोगसिद्धया, धर्मव्यापारसिद्ध थेत्यर्थः । किम् ?, इत्याह--मुच्यते पापकर्मणा तत्तद्गु प्रतिबन्धकेन इति। एवं विशुद्धयमानः सन् श्रभवं आ जन्मावा या भावकियां निर्वाण साधिकामाराधयति निष्पादयत्ववित्वाऽऽरम्भनिवेदनरूपाम्। तथा प्रशमसुखमनुभवति । तात्विकं कथम् ? इत्याह- अपीडितः संयमतप क्रियया श्राश्रवनिरोधानशनाऽऽदिरूपया तथा अव्यथितः सन् परीयोपदिव्यादिभिः कथमेतदेवम् ? इति निदर्शनमाह-व्याधितस्य सुक्रियाज्ञातेन रोगितस्य शोमनकिवोदाहरणेन । एतदेवाऽऽह से जहा नाम के महावाहिगहिए अहमतवेधणे विमाया सरूवेण निव्त्रिसे तत्तत्र । सुविज्जवयणेण सम्मं तमवगच्छत्र जहाविहाणओ पवसे सुकिरिं । निरुद्धजहिच्छाचारे तुच्छपत्थभोई मुच्चमाणे वाहिणा नित्तमायवेचणे समुपलम्भारो परमाणतम्भाचे लाभनिए तप्पटिjara सिराखाराइजोवि वाहिसमारुग्गविष्याणे इट्ठनिष्पत्ती अणाकुलभावयाए किरिओवओगेण अडिए अन्नहिए मुहलेस्साए । विच बहुम यथा-कवि महाम्यादित कु 1 स्वर्थः । अनुभूतवेदनः अनुभूतव्याधिवेदना विज्ञानास्प रूपेण वेदनायाः, न कण्डूगृहीतक डूयनकारिवद्विपर्यस्तः । निर्विण्णस्तत्वतः, तद्वेदनयेति प्रक्रमः । ततः किम् ?, इत्याहसुचनेन हेतुभूतेन सम्ययेत्येन तं व्याधिमच गम्य पथाविधानत यथाविधानसपूजा Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५१) अभिधानराजेन्छः। पवज्जा पवज्जा मपन्न सुक्रियां परिपाचनाऽऽदिरूपां,निरुद्धयहच्छाचारः सन् धात् कारणात् सदा स्तिनितः भावद्वन्द्वविरहात् प्रशान्तः । प्रत्यपायभयात्तथा तुच्छपथ्यभोजी व्याध्यानुगुण्यतः। अने किम , इत्याह- तेजोलेश्यया शुभप्रभावरूपया वर्खने वृद्धि न प्रकारेण मुच्यमानो व्याधिना खसराऽऽयपगमेन, निवर्त- मनुभवति,गुरुंच बहु मन्यते भाववैद्यकल्पम् । कथम्?,इत्याह. मानवेदनः कण्डाद्यभावात् , समुपलभ्याऽऽरोग्यं सदुपल- यथोचितमौचित्येन, असङ्गप्रतिपच्या स्नेहरहिततद्भावप्रतिम्भेन । प्रवर्द्धमानतद्भावः प्रवर्द्धमानाऽऽरोग्यभावः, तल्लाभ- पाया । किमस्या उपन्यासः?,इत्याह निसर्गप्रवृत्तिभावेन मांनिर्वृत्त्या आरोग्यलाभनिर्वृत्त्या, तत्प्रतिबन्धात् आरोग्यप्रति. सिद्धिकप्रवृत्तिवेन हेतुना,एषाऽसङ्गप्रतिपत्तिगुर्वी व्याख्याता बन्धाखेतोः शिराक्षाराऽदियोगेऽपि शिरावेधक्षारपातभावे. भगवद्भिः । किमिति ?,अत आह-भावसारा तथौदयिकभा. ऽपीत्यर्थः। व्याधिशमाऽऽरोग्यविक्षानेन व्याधिशमाद्यदारोग्यं वविरहेण विशेषतः असनप्रतिपत्तेः । इहैव युक्त्यन्तरमाइतदवयोधनेत्यर्थः । किम् ?.इत्याह-इष्टनिष्पत्तेरारोग्यनिष्पत्ते भगवद्बहुमानेन अचिन्त्यचिन्तामणिकल्पतीर्थकरप्रतिबन्धेन। हेतोरनाकुलभावतया निबन्धनाभावात् । तथा फ्रियोपयो कथमयम् ?, इत्याह-यो मां प्रतिमन्यते भावतः स गुरुमिगेन इतिकर्तव्यतायां बोधेन हेतुना अपीडितः अव्यथितो त्येवं तदाशा भगवदाशा इत्थं तत्त्वं व्यवस्थितम् । अन्यथा निवातस्थानाऽऽसनौषधपानाऽऽदिना। किम् ?.इत्याह-शुभ- गुरुबहुमानव्यतिरेकेण क्रियाऽप्यक्रिया प्रत्युपेक्षणाऽऽदिरूलेश्यया प्रशस्तभावरूपया वर्द्धते वृद्धिमाप्नोति । तथा वैद्य पा, प्रक्रिया सक्रियातोऽन्या। किंविशिष्टा ? इत्याह-कुलटाच बहु मन्यते महापायनिवृत्तिहेतुरयं ममेति सम्यग्ज्ञानात् । नारीक्रियासमा दुःशीलवनितोपवासक्रियातुल्या । ततः किएष दृष्टान्तः । अयमर्थोपनयः म् .इत्याह-गर्हिता तत्ववेदिनां विदुषाम् । कस्मात् ?,इत्याहएवं कम्पवादिगहिए अणुभूअजम्माइवेअणे विमाया अफलयोगतः।इष्टफलादन्यदफलं,मोक्षात्सांसारिकमित्यर्थः। तद्योगात् । एतदेव स्पष्टयन्नाह-विषानतृप्तिफलमत्र मातम दुक्खलवेमं निधिले तत्तयो । तओ सुगुरुवयणेण अणु विपाकदारुणं, विराधनाऽऽसेवनात् । एतदेवाऽऽह-आवर्त हाणाइणा तपवगच्छिा पुच्चुत्तविहाणओ पवने सुकिरिअं एव तत्फलम् आवर्तन्ते प्राणिनोऽस्मिन्नित्यावर्तः संसारः,स पवजं निरुद्धपमायायारे असारसुद्धभोई मुच्चमाणे कम्म- एव तत्वतः तत्फलं विराधनाविषजन्यम् । किंविशिष्ट प्राववाहिणा निअत्तमाणिविभोगाइवेश्रणे समुवलब्भचरणा- तः, इत्याह-अशुभानुबन्धः । तथा तथा विराधनोत्कर्षेण । रुग्गं पवमाणसुहभावे तल्लाभनिन्युइए तप्पडिबंधवि एवं सफलं गुर्घबहुमानमभिधाय तद्बहुमानमाहसेसो परीसहोवसग्गभावे वि तत्तसंवेअणामो कुसलास आयो गुरुवहुमाणो अझकारणत्तेण । अश्रो परमयबुद्धी थिरासयत्तेण धम्मोवयोगाओ सया थिमिए तेउ-- गुरुसंजोगो । तो सिद्धी असंसयं । एसेह सुहोदए पलेस्साए पवइ । गुरुं च बहु मन्नइ । जहोचिअं असंगप - गिट्टतयणुबंधे भववाहितेगिच्छी । न इओ सुंदरं परं । उडिवत्तीए निसग्गपवित्तिभावेण । एसा गुरुई विआहिया भा वमा इत्य न विज्जइ । स एवं परणे एवं भावे एवं परिवसारा विसेसो भगवंत बहुमाणेणं । जो मं पडिमना से | णामे अप्पडिवडिए वड्डमाणे तेउलेस्साए दुवालसमासिगुरुं ति तदाणा | अन्नहा किरिआ अकिरिआ कुलडानारी-| एणं परिआएणं अइक्कमइ सव्वदेवतेउलेस्सं एवमाह महाकिरिआसमा गरहिया तत्तवेईणं अफलजोगो विसम्मत मुणी । तो सुक्क सुक्काभिजाई भवइ । पायं छिपकत्ती फलमित्थ नायं आवट्टे खु तप्फलं असुहाणुबंधे । म्माणुबंधे खवइ लोगसम्मं । पडिसोश्रगामी असोपएवं कर्मव्याधिगृहीतः प्राणी। किंविशिष्टः ?, इत्याह-अनुभू निवित्ते सया सुहजोगे एस जोगी विश्राहिए । एस प्रा. तजन्माऽदिवेदनः। प्रादिशब्दाजरामरणादिग्रहः । विशाता राहगे सामयस्स, जहा गहिअपइसे सन्चोवहासुद्धे संघह दुःखरूपेण जन्माऽदिवेदनाया।नतु तत्रैवाऽऽसक्त्या विपर्य- मुद्धगं भवं सम्मं अभवसाहगं भोगकिरिश्रा सुरुवाइकप्पं । स्त इति। ततः किम् ?,इत्याह-निर्विरणस्तत्त्वतः। ततो जन्मा. तो ता संपुष्पा पाउणइ अविगलहेउभाओ असंकिलिट्ठऽऽदिवेदनायाः। किम् ?,इत्याह-सुगुरुवचनेन हेतुनाऽनुष्ठानाऽऽदिना तमवगम्य सुगुरुं कर्मव्याधि च.पूर्वोक्तविधानतस्तृ. सुहरूवानो अपरोवताविणो सुंदरा अणुवंधेणं न य अतीयसूत्रोक्न विधानेन प्रपन्नःसन्,सुक्रियां प्रव्रज्यां निरुद्धप्र! या सपुला ॥ मादाऽऽचारो यदृच्छया,असारशुद्धभोजी संयमाऽऽनुगुण्येन, आयतो गुरुवहुमानः साद्यपर्यवसितत्वेन, दीर्घत्वादायतो अनेन विधिना मुच्यमानः कर्मव्याधिना निवर्तमानेवियोगा- मोक्षः स गुरुबहुमानः, गुरुभावप्रतिबन्ध एवं मोक्ष इत्यऽऽदिवेदनस्तथा मोहनिवृष्या किम् ?,इत्याह-समुपलभ्य च. थैः । कथम् , इत्याह-अवन्ध्यकारणत्वेन मोक्ष प्रत्यप्रतिबरणाऽऽरोग्य सदुपलम्भेन प्रवर्द्धमानशुभभावः प्रवर्धमानचर द्धसामर्थ्यहेतुत्वेन । एतदेवाऽऽह-अतः परमगुरुसंयोगः,प्रती गाऽऽरोग्यभावः। बहुतरकर्मव्याधिविकारनिवृत्या तल्लाभनि गुरुवामानातीर्थकरसंयोगः । ततः संयोगादुचिततत्सम्बदृश्या तत्प्रतिबन्धविशेषात् । चरणाऽऽरोग्यप्रतिबन्धविशेषण- न्धत्वात् सिद्धिरसंशयं मुक्तिरेकान्तेन. यतश्चैवमत एषोऽ. त् स्वाभाविकात्कारणात् परीषहोपसर्गभावाप शुद्दिव्या | त्र शुभोदयो गुरुबहुमानः, कारणे कार्योपचारात् दिव्यसनभावापे तत्वसंवेदनात्सम्यग्ज्ञानाद्धेतो तथा कुश. यथाऽऽयुघृतमिति । अयमेव विशेष्यते-प्रकृष्टतदनुषन्धः लाऽऽशयवृदया क्षायोपशमिकभाववृद्ध्या, स्थिराऽऽशयत्वेन प्रधानशुभोदयानुबन्धः तथा तथाऽऽराधनोस्कर्पण । तथा भ. चित्तस्थैर्यण हेतुना। तथा धोपयोगात् इतिकर्तव्यताबो- वव्याधिचिकित्सकः गुरुबहुमान एव हेतुफलभावात् । न Jain Education Interational Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५२) प्रभिधानराजेन्दः । पवजा पवज्जा इतः सुन्दरं परं, गुरुबहुमानात् । उपमाऽत्र न विद्यते; गु. ह्मसाधकः ॥१॥" एष एवम्भूत अाराधकः श्रामण्यस्य रुबहुमाने सुन्दरत्वेन भगबहुमानादित्यभिप्रायः । स एवं. निष्पादकः श्रमणभावस्य । यथा गृहीतप्रतिशः, आदितप्रज्ञः स तावदधिकृतप्रवजित एवं प्रशो विमलविवेकात् आरभ्य सम्यक्प्रवृत्तेः। एवं सर्वोपधाशुद्धो, निरतिचारत्वेन। एवं भावः विवेकाभावेऽपि प्रकृत्या । एवं परिणामः सा किम् ?, इत्याह-संधत्ते घटयति, शुद्धं भवं जन्मविशेषल. मान्येन गुर्वभावेऽपि क्षयोपशमान्माषतुषवत् । यथोक्तम् क्षणं भवैरेव । श्रयमेव विशेष्यते-सम्यगभवसाधकं. सरिकविवेकशुभभावपरिणामा वचनगुरुतदभावेषु यमिनामिति । याकरणेन, मोक्षसाधकमित्यर्थः । निदर्शनमाह-भोगक्रियाः पवमप्रतिपतितः सन् वर्द्धमानस्तेजोलेश्यया नियोगतः, शु. सुरूपाऽऽदिकल्पं न रूपाऽऽदिविकलस्यैताः सम्यग् भवन्ति । भप्रभावरूपया । किम् ?, इत्याह-द्वादशमासिकेन पर्या यथोक्लम् रूपवयोवैचक्षण्यलौभाग्यमाधुर्यैश्वर्याणि भोगसाध. बेण एतावत्कालमानया प्रव्रज्ययेत्यर्थः । अनिक्रामति स. नमिति । ततस्ताः संपूर्णाः प्राप्नोति सुरूपाऽऽदिकल्पाद्भवादेव तेजोलेश्यां सामान्येन शुभप्रभावरूपाम । क एवमाह-१, भोगक्रिया इत्यर्थः । कुतः१,इत्याह-अविकलहेतुभावतः कामहामुनिर्भगवान् महावीरः । तथा चाऽऽगमः-"जे इमे श्र रणादिति । किंविशिष्टाः?, इत्याह-असंक्लिएसुखरूपाः,शून्य. जताए समणा णिग्गंथा एतेणं कस्त तेउलेस्सं वीतीव ताऽभावेन संक्लेवाभावात् । तथा अपरोपतापिन्यो वैचक्ष. यति ?। गोयमा ! मासपरियाए समणे णिग्गंथे वाणमं ण्याऽऽदिभावेन तथा सुन्दरा अनुबन्धेनाऽत एव हेतोः । न तराणं देवाणं तेउलेस्सं वीइवयह । एवं दुमासपरियाए सम चान्याः संपूर्णाः, उक्तलक्षणाभ्यो भोगक्रियाभ्यः । णे णिग्गंत्थे असुरिंदवाजियाणं भवणवासीणं देवाणं तेउले कुतः?, इत्याहस्सं वीतीवयति । तिमासपरियाए समणे णिग्गंथे असुर- तत्तत्तखंडणेणं एनं नावंति युवइ । एअम्मि सुहजोकुमारिंदाणं देवाणं तेउलेस्सं वीतीवयति । चउमासपार- गसिद्धी उचिअपडिवत्तिपहाणा। इत्य भावो पवत्तगो । पाय याए समणे णिग्गंथे गहगणणखत्ततारारुवाणं जोतिसि. विग्यो न विजइ निरणुबंधासुहकन्मभात्रेण । अक्खियाणं तेउलस्सं वीतीवयति । पंचमासपरियाए समण शि. ग्गंथे चंदिमसूरियाणं जोतिसिंदाण तेउलेस्सं बीतीवयति । त्तामो इमे जोगा भायाराहणाओ। तहा तो सम्म छम्मासपरियाए समण णिग्गंथे सोहम्मीसाणाणं देवाणं ते पवत्तइ निष्फायइ अमाउले । एवं किरिया सुकिरिया उलेस्सं बीतीवयति। सत्तमासपरियाए समणे निग्गये सण- एगंतनिक्कलंका निकलकत्थसाहिबा । तहा सुहाणुबंधा कुमारसाहिंदाणं देवाणं तेउलेस्सं वीतीवयति । अट्ठमास- उत्तरुत्तरजोगसिद्धीए । तयो से साहइ परं परत्थं सम्मं । परियाए समणे णिग्गंथे बंभलोगलंतगाणं देवाणं तेउलेस्सं तक्कुसले सया तेहिं तेहिं पगारेहिं साणुबंधं महोदए बीवीतीवयति । णयमासपरियाए समणे णिगांथे महासुकसहस्साराणं देवाणं तेउलेस्सं वीतीवयति । दसमासपरि जबीजाऽऽदिट्ठावणेमं । कत्तिविरिआइजुत्ते अवझसुहचिट्ठे यार समणे णिमाथे प्राणयपाणयारणाच्चुयाणं देवाणं समंतभद्दे सुप्पणिहाणाइहेऊ मोहतिभिरदीवे रागामयवितेउलेस्सं बीतीवयति । एकारसमासपरियाए समर शि- जे दोसानलजलनिही संवेगसिद्धिकरे हवइ अचिंतचिंगंथे गेविजाणं देवाणं तेउलेस्सं बीतीवयति । बारसमास तामणिकप्पे । स एवं परंपरत्थसाहए तहा करुणाइभापरियाए अणुत्तरोववातियाणं तेउलेस्सं बीतीवयति । तेण वो अणेगेहिं भवेहिं विमुच्चमाणे पावकम्मुणा पवड्डमाणे परं सुक्के सुकाभिजाती भवित्ता सिज्झति० जाव अंतं करेति।" अत्र तेजोलेश्या चित्तसुखलाभलक्षणा। अत एवाऽऽह अ सुहभावेहि अणेगभविश्राए आराहणाए पाउणइ सन्युततः शुक्लशुक्लाभिजान्यो भवति । तत्र शुक्लो नामा भिन्न- त्तमं भवं चरमं चरमभवहे अविगलपरंपरत्यानिमित्तं । तोऽमत्सरी कृतज्ञः सदारम्भी हितानुबन्ध इति।शुक्लाभिजा- | तत्थ काऊण निरवसेसं किच्च विहूअरयमले सिज्झइ, त्यश्चत प्रधानः । प्रायश्छिन्नकर्मानुबन्धः। न तद्वेदयंस्तथावि बुज्झइ, गुच्चइ, परिनिब्बाइ, सबदवाणमंतं करे।। धमन्यद रानाति । शायोग्रहणमचिन्त्यत्वात्कर्मशक्तेः कदाचितः पयति लोकसंशां भगवद्वचनप्र तसवखण्डन साइलालशादिभ्यः उभगलोकापक्षपा, मोनिकला.प्र-मूतसमागभिनन्दिसत्वाक्रियाप्रीतिरूपामिति। अत ! गक्रियावावर उदान भावः। एतद् शामिन्युच्यते यदेएवाऽऽह-प्रतिस्रोतोगामी लोकाऽऽचारप्रवाहनदीप्रति । - गमिष्टवस्नुनयनिरूपकम् । एतस्मिन शुभयोगसिद्धिः । एतनुस्रोतो निर्वृत्तः । एनामेवाधिकृत्यैतदभ्यासत एच न्याय्यं स्मिन् शाने सति शुभव्यापारनिष्पत्तिः लोकद्वयेऽपीटप्रवृत्तौ । चैतत् । यथोक्तम् किं विशिष्टा ?,इत्याह-उचितप्रतिपत्तिप्रधाना संज्ञानाऽऽलो चनेन , तत्तदनुवन्धेक्षणात् । न शस्तदारभते, यद्विनाशयति, "अणुसोयपट्टिए बहु-जणम्मि पडिसोओ लद्धलक्षण । अत एवाऽऽह-अत्र भावः प्रवर्तकः प्रस्तुतप्रवृत्तौ सदन्तःकरपडिसोयमेव अप्पा, दायव्वो होउकामेणं ॥१॥ णलक्षणोन मोह इति। अत एवाह-प्रायो विना न विद्यते। अणुसोयसुही लोगो, पडिसोओ पासवो सुविहियाणं। अत्राधिकृतप्रवृत्ती, सदुपाययोगादित्यर्थः । एतद्वीजमेव(55. अणुसोत्रो संसारो, पडिसोश्रो तस्स णिप्फेण ॥२॥" ह-निरनुबन्धाशुभकर्मभावेन न घनीदश इत्थं प्रवर्तते, इति एवं सदा शुभयोगः श्रामण्यव्यापारसङ्गतः, एप हृदयम् । सानुबन्धाशुभकर्मणः सम्यक् प्रव्रज्यायोगात् । योगी व्याख्यातः । एवंभूतो भगवद्भिोगी प्रतिपा- आक्षिप्ताः स्वीकृता एवैते योगाः सुप्रवज्याव्यापाराः। कु. दितः । यथोक्तम्-" सम्यक्त्वज्ञानवारित्र-योगः स- तः १,इत्याह-भावाऽऽराधनातः। तथा जन्मान्तरे तद्वहुमानायोग उच्यते । एतव्योगाद्धि योगी स्यात्, परमव. दिप्रकारेण । ततः किम् ?,इत्याह-तत आक्षेपात्सम्यक् प्रव Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचज्जा ( ७५३) अभिधानराजेन्द्रः । र्तते, नियमनिष्पादकत्वेन । ततः किम् ?, इत्याह-निष्पाद यत्यनाकुलः सन् इष्टम् । एवमुक्तेन प्रकारेण क्रिया सुक्रिया भवतिः सम्यग्ज्ञानादौचित्यारब्धेत्यर्थः । इयमेव विशेष्यते - एकान्तनिष्कलङ्का, निरतिचारतया । निष्कलङ्कार्थसाधिका, मोक्षसाधिकेत्यर्थः । यतस्तथा शुभानुबन्धा, अव्य. बच्छेदेनोत्तरोत्तरयोगसिद्धया ततः शुभानुबन्धायाः सुक्रियायाः सकाशात् स प्रस्तुतः प्रव्रजितः साधयति निष्पा दयति, परं प्रधानं, परार्थ सत्यार्थ, सम्यगविपरीतम् । त. त्कुशलः परार्थसाधनकुशलः, सदा सर्वकालम् । कथम् ?, इस्याह-तैस्तैः प्रकारैर्बीजबीजन्यासाऽऽदिभिः सानुबन्धं परार्थ महोदयोऽसौ परपरार्थसाधनात्। एतदेवाऽऽह - बीजबीजाssदिस्थापनेन बीजं सम्यक्त्वं बीजबीजं तदापेक्षकशासनप्रशं साऽऽदि, पतन्न्यासेन । किंविशिष्टोऽयम् ?, इत्याह- कर्तृबीर्याssदियुक्तः परं परार्थं प्रति । श्रबन्ध्यशुभचेष्टः, एतमेव प्रति । समन्तभद्रः, सर्वा ऽऽकारसंपन्नतया । सुप्रणिधानाऽऽदिहेतुः कचिदप्यन्यूनतया । मोहतिमिरदीपस्तदपनयनस्वभावतया । रागाऽऽमय वैद्यस्तीश्चिकित्लासमर्थ योगेन । द्वेषानलजलनिधिस्तद्विध्यापनशक्तिभावात् । संवेगसिद्धिकरो भवति, तद्धेतुयो. गेम । श्रचिन्त्यचिन्तामणिकल्पः, सवसुखहेतुतया । सोऽधिकृतः प्रव्रजितः । एवमुक्तनीत्या परपरार्थसाधकः, धर्मदानेन । कुतो हेतोः ?,इत्याह- तथा करुणाऽऽदिभावतः, प्रधानभव्यता । किम् ?, इत्याह- श्रनेकैर्भवैर्जन्माऽऽदिभिर्विमुच्यमानः पापकर्मणा, ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदिलक्षणेन । प्रवर्द्धमानश्च शु भावैः संवेगादिभिः । श्रनेकभविकयाऽऽराधनया पारमाकिया प्राप्नोति सर्वोत्तमं भवं तीर्थकराऽऽदिजन्म | किंचि शिष्टम् इत्याह- चरमं पश्चिममचरमभवहेतुं. मोक्षहेतुमि त्यर्थः । श्रविकल परपरार्थनिमित्तम् श्रनुत्तरपुण्यसंभारभावेन तत्र कृत्वा निरवशेषं कृत्यं यदुचितं महासत्वानां वि धूतरजोमलः बध्यमानप्राग्बद्ध कर्मरहितो व्यवहारतः सि यति, बुध्यते, मुच्यते, परिनिर्वाति, सर्वदुःखानामन्तं क शेतीति । अत्र सिद्धयति सामान्येनाणिमाऽऽद्यैश्वर्य प्राप्नो ति । बुध्यते केवली भवति । मुच्यते भवोपग्राहि कर्मणा । परिनिवति सर्वतः कर्मविगमेन किमुक्लं भवति ?, सर्वदुःखानामन्तं करोति, सदा पुनर्भवाऽभावात् । यद्वा-सिध्यति सर्व. कार्यपरिसमाप्त्या । बुध्यते तत्राऽपि केवलाप्रतिघातेन । मुच्यते । निरवशेष कर्मणा । परिनिर्वाति समग्र सुखाऽऽया। एवं सर्वदुःखानामन्तं करोतीति निगमनम्। नयान्तरमतव्यबच्छेदार्थमेतदेवम् । इति प्रव्रज्यापरिपालनासूत्रं समाप्तम् । पं० सू० ४ सूत्र | (२१) प्रव्रज्याविधिः जंबू ! परंपराए पत्रावविहीए दिक्खिया से गुरू परंपरागमेति वच्च । का सा भंते ! पव्वावणविही । एवं खलु जंबू ! पुत्रं पत्तपरिक्खा पुसगादिदोसरहिया । सुमुहुत्ततिहिनक्खत्तकरण जोगेणं सूरिणा बिहिणा दहदिसाण बंधणं काऊण वासा अभिमंतियव्त्रा । पंमुद्दापण सत्तमुद्दापयोगेण वा यतस्स सिरम्मि खिति । तो पच्छा सीसस्स खमासमणदुगं दावेऊणं देवे वंदावे० जाव " जय वीराय त्ति " पाठो । १८६ For Private पवज्जा I तयिमं ते वासे अभिमंतिय दत्तखमासमणं सीसं भावे । ममं पवावेह, ममं वेसं समप्पेह । तत्र सूरी उट्ठाय णमुक्कारपुव्वं सुग्गहियं करेहि त्ति भतो सीसदविवाहो सम्मुहं रहरणदसियाओ करिं - तो पुव्वाभिमुो उत्तराभिमुहो वा सीसस्स वेसं समपेइ । सीसो इत्थं ति भणइ । ईसारादिसिभागे गंतुं श्राभरणा अलंकारं मुयइ, वेसं परिग्गहेइ । पुणो सूरीसमीवमागम्म वंदित्ता भगइ - इच्छाकारण भंते ! ममं star. सरसामाइयं ममारोवेह । तत्र सीसो बारसावतं वंद देव । तत्र दो वि सव्वविरइसामाइयरोवणत्थं सत्तावीसूसासकाउस्सगं करिंति; पारित्ता उ चवीसत्यं भणति । तत्र पत्ताए लग्गवेलाए अभितरपचिसमाणं सीसं णमुक्कारतिगमुच्चरित सूरी उद्धद्विश्रो तस्स तिन्नि श्रट्टाओ अक्खलियाओ गिरह, गिरिहत्ता समुक्कारं तिन्निवारं सामाइयं भगइ। सेहो वि उद्ध ओ चैव भावियप्पा अप्पा कयत्थं मनमाणो अणुकड्ड । तो जइ पुवि संखेवेणं वासा अभिमंतिया तो इत्थ वित्रेणं वासाभिमंतणं । संघवासदाणं । तत्र खमासमणपुव्वं इच्छकारि तुम्हे सव्वीवर सामाइय रोवेह । इच्चाइयं च खमासमखाणि दाउँ पुत्रि च समवसरणं गुरू भइ | संघो तस्सोवरि सिरे वासे खिवइ । एवं जाव तिन्निवारा । तत्र खमासमणं दाउँ भइ - तुम्हाणं पवेइयं साहूण य पवेइयं संदिसह काउस्सम्गं करेमि । पुणे विवंदिता भइ - मव्व विरइसामाइयथिरीकरणत्थं करेमि काउस्सग्गं सत्तावीसुस्सासचिंतं चडवीसत्थयं भगइ | तो खमासमणपुव्धं सीसो भणइ - इच्छकारि भंते ! मम णामवणं करेह । तत्र सूरी नियनामवरगाइदोसर - हियं गंधे खिवंतो गामं ठवेइ । तत्र सीसो जहारायणियाए साहू बंद | सावयसावियासाहुखीओ य तं वेदेति । तो सूरी माणस्सखित्तजाइ त्ति वा अहवा चत्तारि परमंगाणि त्ति इच्चाई देसणं देइ | आयंबिलाई जहासत्तीए तवो कायच्च । एवं सामाइयं चरितु उक्कोसं ० जाव छम्मासं पच्छा उडावणिया किज्जति । सा इमा विही । तत्थ पढियाइ | १ “वास २ चिह्न ३ वय तिवेला ४ खमासमणं च सत्तहा ५ दिसाबंधो। दुविहि तिविहा तहानयं - देसेणं मंडली सत्त || १ || पढियकहियत्रहिगयपरि-हरावणाय कप्पो त्ति । कं तहिं विसुद्धं परिहर नवर ari || २ || अप्पत्तं अकहित्ता, आणाहिगयपरिच्छणे य गाई । दोसा जिहिँ भणिया, तम्हा पत्तादुवद्वावे || ३ ||” एवं सुपरिक्खियगुणसीसो तिहिनक्खत्तमुहुत्तरविजोगाइय terest अप्पा वोसिरामि जिणभवणाइपहाणखि Personal Use Only Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५४) पज्जा भन्निधानराजेन्द्रः । पवज्जा से गुरु वंदित्ता भणइ-इच्छकारि तुन्हे अम्ह पंच महव्वयाई नेवऽहिं परिग्गरं परिगिणहाविजा, परिग्गई परिगिएहते राइभामणवेरमणछट्ठाई भारोवावणिया, मंदिकरावणि- वि अनेन समणुजाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं यं वासाणिक्खेवं करेह । तमो पुव्वं वासक्खेवं करिय दे- मणेणं जाव वोसिरामि । पंचमे भंते ! महव्वए अन्भुडिओबे बंदिय बंदणं दाउं महन्वयाइभारोवणत्थं सत्तावीसु- मिसव्वाश्रो परिग्गहारो वेरमणं ॥५॥ अहावरे छट्टे भंते ! स्सास काउस्सगं दोवि करिति । तमो मूरीहि तिहा पए राइभोयणाश्रो वेरमणं, सव्वं भंते ! राइभोभणं पञ्च. तुभएहि पिटोवरि कुप्परिचिष्टिएहिं करेहिं रयहरणं ठा क्खामि असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा नेव सर्य वित्ता वामकराऽनामियाए मुहपुत्तिं लंबंतिं धरित्तु सम्म राई अँजिजा, जाव बोसिरामि । छठे भंते ! वए भम्भुउपभोगपरो सीसं प्रद्धोवणयकयं इकिकं वयं नमु द्विश्रोमि सव्वानो राइभोयणामो वेरमण ॥६॥ कारपुष्वं तिमिवारं उच्चारावेइ । तत्थ खलु पढम भं- (एतेषां सूत्राणां व्याख्या 'परिकमण' शब्देऽस्मिभेष भागे ते । महबए पाणाइवायाओ बेरमणं, सव्वं भंते ! २८४ पृष्ठादारभ्य गता) पाणाइवाय पच्चक्खामि, से सुहम वा बायरं वा तसं वा तमो पत्ताए लग्गवेलाए इझ्याई पंचमहव्वयाई राईभोय. थावर वा नेव सय पाणे अइवाइजा, नेवऽनहिं पाणे अ. सवेरमणछट्ठाई अत्तहिभट्ठाए उपसंपअित्ताणं विहरामि । एयं इवायाविजा, पाणे भइवाइयंते वि भले समणुजाणामि । तिमिवारेण भणावेइ । तमो वंदित्ता सीसो भणइ-इच्छजावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं करेमि, कारि भगवं! तुम्हे अम्ह पंच महव्वयाईराइभोयणवरमणण कारवेमि, करतं पि अभं न समणुजाणामि । तस्स | छहाई अत्तहिअढाए उवसंपजित्ता णं विहरामि । इच्चाइ भंते ! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसि- | खमासमणपुव्वं पयाहिणा समवसरणे कायव्वा, तो सीरामि । पढमे भंते ! महब्बए अब्भुडिओमि सबाओ पाणा- सस्स आयरियउवज्झायो दुविहो दिसीबंधो कीरइ । इवायामो वेरमणं ॥१॥ अहावरे दोच्चे भंते ! महब्बए अमुगगणो अमुगसाहा अमुगकुलं अमुगो गुरू अमुगा मुसावायाभो वेरमणं, परिग्गहं परिगिएहते वि सव्वं भंते ! आयरिया अमुगा व उवज्झाया अगाओ पवत्तिणीओ मुसावायं पञ्चक्खामि । से कोहा वा लोहा वा भया वा महत्तराओ साहुणीयो सिरिसोहम्मसाहम्पियाओ अमुगहासा वा नेव सयं मुसं वएजा, नेवऽग्नेहिं मुसं वायावेजा, / अमुगा आयरिया परंपराएणं जहा दसासुअक्खंधे अट्ठममुसं वयंते वि अनेन समाजाणामि जावजीवाए जाव ज्झयणे येरावलीओ बूइया । वोसिरामि । दुच्चे भंते! अब्भुट्टिओ मि सवाओ मुसावाया (सा च स्थविरावलिः 'थविरावलि' शब्दे चतुर्थभागे २३६४ पृष्ठादारभ्य द्रष्टव्या) ओ रमणं ।। २ ।। अहावरे तच्चे भंते ! महब्बए अदि तहा तस्स सीसस्स गणो ठावेइयव्यो। जहाजब! ममं परंभादाणामो वेरमणं,सव्वं भंते ! अदिनादाणं पच्चक्खामि, पराए कोडिगणे वइज्झरी साहा चंदकुलं ठवियस्संति । एवं से गामे वा णगरे वाऽरने वा अप्पं वा बहुं वा अणुं वा पञ्चावणविहीए दिक्खिऊण पंचमहब्बयरक्खणहा देसणं थूल वा चित्तमंतं वा अचित्तमतं वा नेव सयं अदि दिति, गुरुणो उझिया-भोगीया-रवि खया-रोहिणीपंचमंगिएहेजा, नेवऽग्नेहिं अदिन गिराहावेजा, अदिन्नं गि सालिअक्खएणं जहा नायाधम्मकहाए । एसा पब्बावएहते वि अनेन समणुजाणामि जावजीवाए तिविहं णविही जंबू! ममं पुरो समणेणं भगवया महावीरेणं वि. तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न० जाव बोसिरामि । श्राहिया। एआए विहीए इंदभूइपामोक्खाणं चउपससमणतथे भंते !महव्यए अब्भुटिओमि सव्वाश्रो अदिनादाणा साहस्सीयाए पधाविया, छत्तीसअजियासाहस्सीओ पमो वेरमणं ॥३॥ अहावरे चउत्थे भंते ! महबए मेहुणा व्वाविया, जहा तुम पि मए पब्बावि तहा मम पिअत्था मो वेरमणं, सव्वं भंते ! मेहुणं पच्चक्खामि, से दिव्यं वा अमेवि आयरियउवज्झाया सीसाणं सीसिणीणं पब्याविमाणसं वा तिरिक्खजोणियं वा नेव सय मेहुणं से स्संति जाव दुप्पसहसूरी वि एवं पव्यावइस्सइ । एसा परंविजा, नेवऽअहिं मेहुणं सेवावेजा, मेहुणं सेवंतं वि अन्न परा सुद्धा । एसा पवावणविही पब्बइअकालाइदेसेणं बन समणुजाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणे लमेहाबुद्धीण हाणीए पमायं सेवमाणा वि सुद्धा जिणमयं पंजाव अप्पाणं वोसिरामि | चउत्थे भंते ! महन्दए अ- पयासयंता साहणो णेयव्या । अङ्ग । ग्वद्विोमि सव्वाश्रो मेहुणाओ वेरमणं ॥ ४ ॥ अहावरे (२२) गुरवे प्रात्मनिवेदनम्पंचमे भंते ! महव्वए परिग्गहाश्रो चरमणं, सव्वं भंते! प- उक्तो गुरुव्यापारः । अथ शिष्यव्यापारं दर्शयन्नाहरिग्गरं पच्चक्खामि, से अप्पं वा बहुं वा थलं वा चित्त अह तिपयाहिणपुव्वं, सम्म सुद्धेण चित्तरयणेण । मंतं वा भचित्तमंतं वा नेत्र सयं परिग्गरं परिगिएिहजा, गुरुणो णिवेयणं स-बहेब दढमप्पणो एत्थ ॥ २६ ॥ Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा ( ७५५ ) अभिधानराजेन्ऊः | अथेोकविधानादनन्तरं तिसृणां प्रदक्षिणानां समाहारखिदक्षिणम्, तत्पूर्व प्रथमं यत्र तत्तथा क्रियाविशेषणमिदम् । गुरु विमतिपत्त्यर्थः । सम्यक युजेन ततो निमैलेन, न कल्पनयेत्यर्थः । वित्तं मनस्तदेव रत्नं माणिक्यं प्रकाशस्वभावसाधर्म्याश्चित्तरस्नं, तेन । गुरोर्धर्माऽऽचार्यस्य निवेदनीयम् भवदीयो कि पूर्व मे भयोरथिनिमग्रस्य नाथाः " इत्येवं समर्पणम् सर्वचैव समस्तैरा प्रकारैर्द्विप दचतुष्पदधनाऽऽधर्चनप्रभृतिभिर्वा न तु निवेदनम् । हृदमत्यर्थमन्यभिचरितया । कस्य निवेदनम् ।। इत्याह- आत्मनः स्वस्य । अत्र दीक्षायां दत्तायां सत्यामिति गाथाऽर्थः ॥ २६ ॥ अथ तदात्मनिवेदनं गुरुः प्रतिपद्यते, न था ? यदि न प्रतिपद्यते तदा न युक्तं, निष्फलत्वात्तस्येत्याशङ्कां परिहरन्नाहएसा खलु गुरुमती, उकोसो एस दायधम्मो छ । भावावसुद्धी दर्द इहरा वि य बीवमेयस्स ॥ ३० ॥ गुरूणां सर्वथा रामनिवेदनमनन्तरोक्तमेायं खलु पारेऽथवाऽवधारणे तेनैवेचन पदा " का भक्तिस्तस्य येनास्मा सर्वथान नियुज्यते। श्रम का मेवानियोजनम् ॥१॥ " गुरुभकिधर्माचार्यक हुमानः । गुरुभक्तिश्च सदा विधेया दुष्प्रतिकारत्वाद् गुरोः, तस्वास महार्थसाधकत्वात् उ चानन्तरोक्तार्थद्रयसंवादि 'तिर दुष्पडियारं समणाउसो ! वं जहा अम्मापिपरस्त, गुरुस्स, भत्तिस्स ।" तथा "गुरुभक्तेः श्रुतज्ञानं भवेत् कल्पतरूपमम । लोकद्वितयभाविन्य स्ततः स्युः सर्वसम्पदः ॥ १ ॥ " तथा उत्कृष्यत इत्युत्कर्ष उत्कृष्टः । ( एस त्ति ) इहोत्तरस्यैवकारार्थस्य तुशब्दस्य सम्बन्धादेष एवायमेव गुरोरात्मनिवेदनरूपो नान्यः । वस्त्वन्तरदाने हि तदेकं दतं स्यात् मदाने तु सर्वमपीत्यात्मदानधर्मस्यैवोत्कृष्टता दानधर्मो वितरणरूपं कुशलानुष्ठानम् । विधेयश्चासौ महार्थसाधकत्वात्यदादानात्कीर्ति सुधाशुभ्रा, वानात्सौभाग्यमुत्तमः म्। दानाकामार्थमोजाः स्यु-दानधर्मो परस्ततः ॥ १ ॥ " कि यथाकथचिदपि आत्मनिवेदनमुत्कृष्टदानधर्मो भवति है, ने स्वाभावविशुद्धया परिणामनिष्फलता. हदमत्यन्तम् प रिणामकलाई चकीत्ययपेति । तर्हि भावशुद्ध भावे किं स्यादित्याह-- (इहरा वि यत्ति ) इतरथाऽन्यथाभावविशुद्धिव्यतिरेकेत्यर्थः । अपि येति पुनः शन्दार्थ बीजमिव बीजे हेतुर्भवतीति इयतोअप सदनुष्ठानस्य प्रायो भाषानुष्ठानकारणत्वादेतस्योत्कृष्टदानधर्मस्याऽऽत्मनिवेदनमिति प्रकृतम् । इति गाथाऽर्थः ॥ ३० ॥ कथमिदं भावविशुद्धयभावपूर्वकमात्मनिवेदमुत्कृष्टदानधर्मवीजं भवतीत्याह जं उनमपरियमि सोठं पि अयुत्तमा ग पारेति । ता एयसगासाओ, उक्कोसो होइ एयस्स ।। ३१ । यद्यस्मात्कारणात् उत्तमचरितं सत्पुरुषचेष्टितम् इदमन न्तरदर्शितमात्मनिवेदनम्, श्रोतुमप्याकर्णयितुमपि श्रास्तामनुष्ठातुम् अनुत्तमा असत्पुरुषाः। न पारयन्ति न शक्नुवन्ति तथाविधवीजरहितत्वात्तेषाम् तत्तस्मात्कारणादेतत्स काशातस्माद्वापविशुद्धिविद्वानईतोत्तमपुरुषपरितक पवज्जा पाssस्मनिवेदनावधेः । तुशब्द एवकारार्थः तत्प्रयोगं च दर्शयिष्यामः । प्रकर्ष उत्कर्षो भवत्येव जायत एव । एतस्यानम्तरगा थोक्शदानधर्मस्य इदमुकं भवति यद्यप्यात्मनिवेदनरूप दानधर्मो विशुद्ध भाषाऽभावे विधीयमानोऽनुत्कृष्टो भ वति तथाऽप्युक्तमचरित रूपत्वात्तस्योत्कृष्टतानिमित्तभूताया भावविशु जनकत्वादुत्कृष्टदानधर्मजं भवतीति सा धूम्रा विधीयमेव नि।" अतो गुरुणामतिपिन निष्फलता अमनिवेदनस्येति गाथार्थः ॥ ३१ ॥ अथ यदि तदात्मनिवेदनं गुरुः प्रतिपद्यते तदाऽधिकर दोषी गुरोः स्यादित्यगुरुणो वियाहिगरणं, ममत्तरहियस्स एत्थ वत्थुम्मि । भावसुद्धिवं भायाएर पयमाणस्स ||३२|| गुरोरपि न केवलं दीक्षितस्यात्मनिवेदननिष्फलत्यलायो दोषोऽमिति भवति धर्माचार्यस्याऽपि न अि क्रियते दुर्गतावनेनाऽऽत्मेत्यधिकरणम् । दीक्षितेनाऽऽत्मनि निवेदिते परिग्रहाऽऽरम्भानुमतिरूपो दोषो भवतीति गम्यते । किम्भूतस्येत्याह- ममत्यरहितस्य निःसङ्गस्य । केत्याहअद्वैतस्मिन्ननन्तरोक्ने, वस्तुनि पदार्थे दीक्षितसरवतदीयाऽऽपtयवित्ताssदिरूपे । पुनः किम्भूतस्येत्याह- प्रवर्तमानस्य व्याप्रियमाणस्य कया है. आश्या आप्तोपदेशेन किमर्थम् तद्भा वशुद्धिहेतुं दीक्षितसत्त्वपरिणामविशोधनहेतोः । एवं हि प्र. वृत्तौ तस्य भावशुद्धिरुपजायत इति । एवं चेहानुमानप्रयोगो यदुत दीक्षिताऽऽत्मनिवेदनं गुरोरधिकरणं न भवति, ममत्वरहितत्वात् शरीराऽऽदिवदिति दृष्टान्तोऽभ्यूयः । मच ममत्वरहितत्वमसिद्धं, तदुपकारायाऽऽशया प्रवृत्तत्वाच्चारिजोपकाराय भोजनादानियेति गाथा ऽर्थः ॥ ३२ ॥ एवं दीक्षाविधि परिसमाप्य दीक्षितोपदेशं प्रत्याचार्यस्योपदेशमाह खाऊ य सम्भावं जह होई हमस्स भावबुद्धि ति । दाणादुवदेसाओ, अणेण तह एत्थ जइयव्वं ॥ ३३ ॥ हात्वा च विज्ञाय पुनः सद्भावं दीक्षितपरिणाममाकाराऽऽदिभिः । यदाह-आकार रिङ्गितैर्गत्या वेष्टया भाषणेन च | नेववक्त्रविकारैश्च गृह्यते ऽन्तर्गतं मनः ॥ १ ॥ " यथा येन प्रकारेण भवति जायते । (इमस्स ति ) अस्य दीक्षि तस्य, धर्मवृद्धिदक्षार्थ समृद्धिः । इतिशब्दः समाप्तौ । तस्य च " जयव्वं " इत्यत्र गाथान्ते प्रयोगः । दानाऽऽदीनां वितरणप्रभृतीनाम् । आदिगुरुसेवाततीनां यो पदेशः। प्रवर्त्तनमादिर्यस्य कुसंसर्गनिषेधाऽऽदेः स तथा तत्र दानादेशादी, अनेन दीक्षा 35चाण तथा तेन प्र कारण अत्र दीक्षायां दत्तायां सत्याम् पतितव्यं यत्नोवि धेयः । तत्र दानोपदेशो गुरुयोपदेशध यथा 3 - " न्यायान्तं स्वल्पमपि हि भृत्यानुपरोधतो महादानम् । दीनतपव्यादौ गुर्वनुशया दानमन्यन्त ॥ १ ॥ एवं गुरुसेवाऽऽदि ख. काले सद्योगविप्रवर्तनया । इत्यादिकृत्यकरणं, लोकोत्तरतत्वसंप्राप्त्यै ॥ २ ॥ " इति गाथाऽर्थः ॥ ३३ ॥ Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा अभिधानराजेन्डः। पवज्जा दंग मिथ्यात्वप्रतिक्रमणाऽऽद्यात्मनिवेदमा दिवा दीक्षावि- तवित्तानुरूपमित्यर्थः । दातव्यमिति शेषः । किम्भूतं तदिपानंयारी शिष्याऽचायौं कुरुतस्तारशावथ दर्शयितुमाह- स्याह-श्रद्धा खकीयोऽभिलाषः, पराननुवृत्तिरित्यर्थः। संघशाणाइगुणजुओ खलु,णिरभिस्संगो पदत्थरसिगो जो । गो मोक्षाभिलाषः, क्रमो देयद्रव्यपरिपाटिलोकरूढा यथा ज्येष्ठता था, एभियुतं संयुक्तं यत्तथा । नियमाववश्यंभावेन । इय जयइन उण श्रमो, गुरू वि एयारिसो चेव ॥३४॥ । तथा विभवानुसारतो विभवापेक्षया । तथाशब्दो विध्यन्तरपानाऽऽविगुणयुतः खलु सम्यग्लानश्रद्धानगुरुभक्तिसवप्रभृ. प्रतिपादनपरवाक्योपक्षेपार्थ उत्तरार्धस्याऽऽदौ द्रष्टव्यः । अतिगुणसंपन एवेति, यत्तत इति सम्बन्धः। खलुरवधारणे । थवा-तथेति तेन प्रकारेण लोकरूढेन,जनोपचारः स्थजना35मिरमिवली मिथ्याराष्टिव्यवहारेषु बाखद्रव्ये च निःस्पृहः । दिलोकपूजा । चशब्दः समुच्चये । उचितः स्वपरयोग्यताऽनुपदार्थरसिकमागमोक्तदेवतवगुरुतत्वाऽऽगमतत्वजीवादि. रूपा, विधेय इति गम्यम् । इतिशब्दः समाप्तौ। तेनैतावदेव भावप्रतिबुतः । बशम्दः समुचये । यो दीक्षितजीवः,स इति | दीक्षाऽनन्तरकृत्यमित्यर्थः स्यादिति गाथाऽर्थः ॥ ३६॥ गम्यते। इस्यनेन प्रकारेणाऽनन्तरोनमिथ्यात्वप्रतिक्रमणस. एतावत्प्रयत्नकृतापि दीक्षा सम्यगन्यथा च स्यात्तत्रेयं सम्यम्यक्त्वमतिपस्यात्मनिवेदनाऽऽदिलक्षणेन । यतते यत्नं करो. ग्दीक्षेति कथमवसेयम् । उच्यते-लिङ्गतोऽतस्तान्येवाहतिन पुनरम्यो हानाऽऽदिगुणयुतादपरः, एवंविधयत्नस्य । अहिगयगुणसाहम्मिय पाईबोहगुरुभत्तिवुड्डी य। बानाप्रविगुणयोगसाध्यत्वात्। तथा गुरुरपि न केवलं शिप्य पर्वविध एव एवं यतते धर्माऽऽचार्योऽप्येतादृश एव शानश्र. लिंग अव्वभिचारी, पइदियह सम्मीदक्खाए ॥ ३७॥ सामचारिबशिक्षाऽनुग्रहबुद्धिसत्वाप्रमादाऽऽदिगुणयुतो नि: अधिकृता दीक्षाप्रतिपल्याऽङ्गीकृताःप्रस्तुता वा अधिगतावा साः पदार्थरसिकश्चेत्यर्थः न पुनरन्यो शानाऽऽदिशून्यस्य प्रा. प्राप्तास्ते च ते गुणाश्च सम्यक्त्वतस्सहभषप्रशमसंवगनिदागुक्तविघावशक्लत्वात्,ससङ्गस्य दीक्षितेनाऽऽत्मनिवेदने कृते ऽस्तिक्यानुकम्पाशुश्रूषाधर्मरागदेवाऽदिवयावृश्यकरणाभिप्यासंभवेन तनावशुद्ध्यर्थमाझया प्रवर्त्तनासम्भवात्,पदा. दयोऽधिकृतगुणाः, ते च साधर्मिकप्रीतिश्च समानाभिकाधेरसिकताशून्यस्य च देवतत्त्वाऽऽदिप्रतिपादकत्वाभावादिति। नुरागः,बोधश्च तत्वावगमो.गुरुभक्तिश्च धर्माऽऽचार्याऽनुराग विशयोऽवधारणार्थः । दर्शितं चावधारणम् । इति गाथा इति इन्द्रः। अतस्तासां वृद्धिःक्षाऽवसरादारभ्य वर्धनमिति ऽर्थः ॥ ३४ ॥ यथाविधी दीक्षकदीक्षितौ यथावद्दीक्षासाध. समासः । चशब्दः पुनरर्थः । तद्भावना चैवम् सम्यग्दीकौस्यातां तथाषिधावुनौ, (प्रथमं प्रव्रजतः उपधिग्रहणम् क्षायां दानाऽऽदिकं तावदनन्तरकृत्यमधिकृतगुणसाधर्मिक प्रीतिबोधगुरुभक्तिवृद्धिः पुनर्लिङ्गं गमक चिह्नमव्यभिचार्यका. 'उपादि' शचे १०६८ पृष्ठे "णिग्गंथस्स" १५ इत्यादिना सूत्रेण प्रतिपादितम्) न्तिकम् , प्रतिदिक्समहर्निशम् । एतश्चाधिकृतगुणाऽऽदि. द्धेर्विशेषणम् । कस्या लिङ्गमियमित्याह-सम्यग्दीक्षाया अ. अथ यथाषदीक्षितानां प्रशंसामाह मिथ्यादाक्षणस्य, एतद्विपर्ययस्तु सामर्थ्यादसम्यग्दीक्षायाः। पमाणमेयजोगो, घमा चेट्ठति एयणाईए । इति द्वारगाथाऽर्थः ॥ ३७ ।। पमा बहु ममते, धमा जे ण प्पसंति ॥ ३५ ॥ अथ सम्यग्दीक्षाया यथाधिकृतगुणवृद्धिलिङ्गं भवति, तथा भन्यामां भावधनलम्घृणां तत्साधूनां वा, सरवानामिति | दर्शयन्नाहगम्यते । एतयोगो जिनदीक्षया सह सम्बन्धः । तथा तद्यो परिसुद्धभावो तह, कम्मखओवसमजोगो होइ । गेऽपि धन्याः पुण्यवन्तः, चेष्टन्ते प्रवर्तन्ते, एतन्त्रीया दी अहिगयगुणवुड्डी खलु, कारणो कजभावेण ॥ ३८॥ सायसराभ्युपगतम्यायेन त्रिकालं जिनयन्दनपूजनाऽविना। परिशुद्धभावतोऽतिशुद्धाध्यवसायात तथेति तथाप्रकारातथा धन्याः पुण्या बहु मन्यन्ते बहुमानविषयीकुर्वन्ति, दीक्षाप्रतिपत्तिरूपादित्यर्थः। वक्ष्यमाणकारणापेक्षया वा समु. दीक्षितान् दीक्षां वा स्वयं तां कर्मदोषादप्रतिपन्ना अपीति । यार्थस्तथाशब्दः । कर्मणोऽधिकृतगुणाऽऽवरणस्य क्षयोपतथा धन्याः पुण्या ये जीवाः, न प्रदुःध्यन्ति न प्रविष्टा भव शमो दीक्षाप्रतिपत्तिरूपपरिशुद्धभावजन्यो विगमविशेषस्ते. ति, वीमायामिति गम्यते । खुद्रसत्त्वा हि न केवलं तां न न यो योगः सम्बन्धः स तथा ततः कर्मक्षयोपशमयोगतः । प्रतिपचन्त, मोहान्धतया तस्यामेव वेषिणो भवन्तीति । किमित्याह-भवति जायते । काऽसौ? अधिकृतगुणवृद्धिःसपश्यति -"विहिमपनोसो जेसिं, भासन्ना ते वि सुद्धप. म्यक्त्वाऽऽदिगुणवर्धनम्। खलुक्यालङ्कारेऽवधारणे वा।प्र. सति। गुरमिगाणं पुण सु-सुदेसणा सिंहनायसमा ॥१॥" | वधारणार्थत्वे चास्य भवत्येवेत्येवं प्रयोगो दृश्यः । केन इति गाथाऽर्थः ॥ ३५॥ कारणेनितदेवमित्याह-कारणतो हेतोः सकाशात् कार्यभावेअथ दीक्षितानन्तरं दीक्षितेन यद्विधेयं तदुपविशन्नाह- न फलसद्भावात् । तत्र दीक्षारूपविशुद्धभावः कारणकारणं, दाणमह जहासत्ती, सद्धासंवेगकमजुयं णियमा । कर्मक्षयोपशमस्तु कारणम् । तथा शब्दद्धितीयव्याख्यानविहवाणुसारभो तह, जणावयारो य उचिो पक्षे तुपरिशुद्धभावः, कर्मक्षयोपशमधेति कारणद्वयम् , अत्ति ॥३६॥ धिकृतगुणवृद्धिश्च कार्यम् । अतः परिशुद्धभावरूपसम्यग्दीदानं प्रासुकैपणीयवनपात्रापानादीनां समादिभ्यो वि- पायामधिकृतगुणवृद्धिः कार्यत्वाद् लिङ्गं भवति । इति गाथातरणम्।यतःसर्वविरतिदीक्षामधिकृत्योक्तम्-"ऽणतयघयगुल. ऽर्थः॥ ३८॥ गोरस-फासुगपरिलाहणं समणसंधे। भसागणिचायगाणं, अथ साधर्मिकप्रीतिवृद्धिर्यथा सम्यग्दीक्षाया लिज भवति तबसासम्बस्स गरुचारूस ॥१॥" (अमन्तकं वां) - तथा दर्शयन्नाहपेति दीक्षाग्रहणामस्तरम् । यथाशक्ति शक्लेरनतिक्रमेण, चि. धम्मम्मि य बहमाणा, पहाणभावेण तदणुरागाओ। Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवजा प्रन्निधानराजेन्सः। पवज्जा साहम्मियपितिए ऊ, हंदि वुड्डी धुवा होइ ।। ३६॥ णार्थः। जायते भवति गुरुभाक्तवृद्धिरपि धर्माचार्यबहुमाभमें दीवारूपे दीक्षितजनानुष्ठेयश्चतचारितरूपेच, चशब्दः नवर्धनमपि, न केवलं स्वहेतोर्बोधवृद्धिरिति गाथाऽर्थः ॥४१॥ समुपयार्थो भिषक्रमम । बहुमानात्पक्षपातात् , प्रधानमा- अथानन्तरोलदीक्षागुणानामनन्तरफलं दर्शयवाहबेन प्राधान्याच धर्मप्रधानत्वात् साधर्मिकाणामिति द. इय कबाणी एसो, कमेण दिक्खागुणे महासत्तो । गम् । तदनुरागात् साधर्मिकस्नेहात् । इह यद्याप साधर्मिकशपः परपदे समस्तच वर्तते. तथापि तच्छब्देन स एव सं. सम्मं समायरंतो, पावइ तह परमदिक्खं पि ॥४२॥ स्पर्शनीयः, वात्रा तथैव विवक्षितत्वात्. वनाधीनत्वाच्छ इति पनन्यायेन सम्यग्दीक्षाकृतगुणस्खादित्तलिाप्राप्तिपप्रपचे, रयते चैवंविधःप्रयोगस्तत्र तति । किं स्वादि- लक्षणेन । कल्याणी कल्याणवान् लोकदयभाविकल्याणत्याह-साधर्मिकमीतेः समानधर्मजनविषयप्रेमजन्यवात्सस्य हेतुभूतदीक्षाऽवाप्तः। भवतीति गम्यते । एषोऽनन्तरोतरूपी स्था कार्य कारणोपचारात् । तुशवः पुनरर्थः । तद्भावना दीक्षितजीवः । तथा क्रमेण परिपाटया शुद्धखतरशुद्धतमवैवम्-परिशुद्धभावतोऽधिकृतगुणानां वृद्धिर्भवति, साध- येत्यर्थः । दीक्षागुणान् जिनदीक्षाधर्मान् जिनसाध्यागमभमिकप्रीतिः पुनर्धर्मबहुमानतःसार्मिकानुरागादिति। प्रथा क्लिप्रभावाऽऽदीन् । समाचरनिति योगः । महासत्त्वो म. वा-धर्म बहुमानात्पीतिमात्रात् प्रधानभावेन धर्मस्योतमत्व- हानुभावः । सम्यग्भावसारं, समाचरखा सेवमानः, बुद्धया तदनुरागाच्च धर्मभक्तधेत्यर्थः । धर्मविश्वयोः श्री. प्राप्नोति खभते । तथेति फलान्तरसमुच्चयार्थः । तिभक्त्योचायं विशेषो यथा परमदीक्षामपि सर्वविरतिदीक्षामपि; न केवलं कल्या*यनादरोऽस्ति परमः, प्रीति हितोदया भवति कर्तः।। स्येव भवति इत्यपिशब्दार्थः । अथवा-कल्याणी सशेषत्यागेन करो-ति पच्च तस्त्रीस्वनुष्ठानम् ॥१॥ श्रेष प्राप्नोति तथा परमदीक्षामपि ययेतरदीक्षां प्राप्त - गौरवविशेषयोमा-बुद्धिमतो यद्विशुद्धतरयोगम् । ति दयम् । शेषं तथैव । इति गाथाऽर्थः ॥ ४२ ॥ क्रिययेतरतुल्यमपि, डेयं तद्भक्त्यनुष्ठानम् ॥२॥ अथ जिनदीक्षाया एष परम्परफलोपदर्शनायाऽऽहअत्यन्तवमा बलु, पत्नी तद्धिता च जननीति । गरहियमिच्छायारो, भावेणं जीवमुत्तिमणुहविउं । तुल्यमीप कृत्यमनयो-तिं स्यात्प्रीतिभक्तिगतम् ॥३॥” इति। साधर्मिकप्रीतेस्तु साधर्मिकानुरागस्य । हन्दीरयुपप्रदर्शने,वृः। णीसेसकम्ममुक्को, उवेइ तह परममुत्तिं पि ॥ ४३॥ दिवर्धनम् भ्रषा निमिता,भवति जायते। इति गाथार्थ॥३६॥ गहिंता निन्दिता मिथ्या चारा मोक्षमार्गविपरीतसमाचाअथ बोधवृद्धलितादर्शनायाऽऽह रा मिथ्यात्वाविरतिकषायदुष्टयोगलक्षणा अतीतकालाss सेविता येन स तथा परमदीक्षाऽवाप्पया । उपलक्षणत्वाचाविहियाणुद्वाणामो, पारणं सबकम्पखउवसमो। स्व वर्तमानानां मिथ्याऽऽचाराणां संवरणम् .अनागतानां च खाणावरणावगमा, णियमेणं बोहबुड्डि चि ॥४०॥ प्रत्याख्यानमिह द्रष्टव्यम् । अन्ये तु मिथ्याऽऽचारलक्षणंब. विहितानुष्ठानात् दीक्षादीक्षितसमाचाररूपसकृत्वात् , माये. दन्ति-" बाधेन्द्रियाणि संबम्य, य प्रास्ते मनसा स्मरन् । सबाहुल्येन. कस्यापि जीवस्य भावविशेषादेव योपशमो इन्द्रियार्थान् विमूढामा मिथ्याऽञ्चारः स उच्यते ॥१॥" भवतीति प्रायेणेत्युक्तम् । सर्वकर्मक्षयोपशमो निखिलझाना- इति । कथं गर्हितमिथ्याऽऽचार इत्याह-भावेन परमार्थतो 5ऽवरणाविघातिकर्मणां विममविशेषो, भवतीति गम्यम् । न द्रव्यत एव, उपैति परममुक्तिमपीति योगः । अथवापातिकर्मणामिति व्याख्यानम्-" मोहस्सेबोबसमो, खाओ- भाषत इत्येतत्पदमनुभूयेत्यनेन सम्बन्धनीयम् । जीवतः वसमो चउराह घाईणं । उदयक्सयपरिणामा, भट्ठण्ह वि| प्राणान् धारयतो मुक्तिमोक्षो निःसनताप्रकर्षेण जीवन्मुहोति कम्माणं ॥१॥" इति वचनात् । ततश्रमांनाऽऽबरणा- किस्ताम् . अनुभूय संवेद्य अनुभवन्ति च जीवन्त एवं पगमात् घातिकर्मान्तर्गतस्य ज्ञानाऽऽवरणीयकर्मणः यो- परमदीक्षावन्तो मुक्तिम् । यदाह-" निर्जितमदमदनानां , पशमाऽऽदेः सकाशाश्रियमेन नियोगेन, बोधवृद्धिानवर्धनं वाळायमनोविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशाना-मिहब भवति । इतिशब्दो बोधवृद्धिवक्तव्यतासमाप्तिसंसूचनार्थः ।। मोक्षः सुविहितानाम् ॥१॥" निःशेषकर्ममुक्तः क्षीणसइति गाथाऽर्थः॥४०॥ कलकर्मा, उपैत्युपगच्छति, तथा तेन प्रकारेण जिनदीअथ गुरुभक्तिवृद्धलिङ्गतादर्शनायाऽऽह शाजनितगुणप्रकर्षपर्यन्तवृत्तिलक्षणेन, परममुक्किमपि सकब्राणसंपयाए, इमिए हेऊ जो गुरू परमो । कलकौशप्रहणमपि, न केवलं परमदीनामपि प्राप्नो. इय बोहभावमो चिय, जायइ गुरुभत्तिवुड्डी वि ॥४१॥ तीत्यपिशब्दार्थः। इति गाथाऽर्थः॥४३॥ कल्याणानामैहिकाऽऽमुष्मिकश्रेयसां संपत्सपत्तिः कल्या. अथ प्रकरणोपसंहारायालसंपत् तदबन्ध्यहेतुत्वादीक्षादीक्षितसमाचारब कल्याण दिक्खाविहाणमेयं, माविअंतं तु तंतणीतीए । संपवुच्यतेऽतस्तस्याः। (इमिए ति)अस्या अनन्तरोकायाः, | सइमपुणबंधगाणं, कुम्गहविर लहुं कुणा ॥ ४४ ॥ हेतुःकारणम् यतो यस्मात्, गुरुर्धर्माऽऽचार्यः, परमः प्रधाः | दीक्षाविधानं जिनदीक्षाविधिः, एतदनन्तरोक्तम् , ( भा. नो वर्तते । ततः कारणान्महाभक्तिविषयोऽयमिति शेषः । वितं तु ति) भाव्यमानमपि पर्यालोच्यमानमपि, माइत्यनेन प्रकारेख कल्याणहेतुत्वेन भाक्तिविषयो गकरित्येवं स्तामासेव्यमानम्, सहन्धकापुनबन्धकाभ्यामिति गम्यलक्षणेन यो बोधोमानं तस्य यो भावः सत्ता स तथा म् । अथ भाव्यमानमेव नाभाव्यमानमपि तुशब्दोऽपिश. वस्मादिति बोधभावादेव नान्यथा । 'चिय' शब्दोऽवधार-। दार्थः, एवकारार्थो वा। तन्वनीत्याऽऽगमन्यायेन । कयो 10 Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रउजा (७५८) अभिधानराजेन्ः | रित्याह-सकदेकदा न पुनरपि बन्धो मोहनीय कर्मोत्कृष्टस्थितिबन्धनं ययोस्ती सहदपुनर्वन्धको तयोः सम्यक स्थापुनर्वन्धकस्य चेत्यर्थः । तत्र यो यथाप्रवृत्तकरणेन प्र न्थिप्रदेशमागतोऽभिषग्रन्थिः सहदेवोत्कृष्ट सागरोपमको टीकोटीसप्ततिलक्षणां स्थिति भन्त्स्यत्यसौ सहइन्धक उ रूयते । यस्तु तां तथैव क्षपयन् ग्रन्थिप्रदेशमागतः पुनर्न af [भन्नस्पति मेत्पति च प्रन्थि सोऽन्धक उप ते । एतयोश्चाभिन्नप्रन्थित्वेन कुप्रहः सम्भवति, न पुनर विरतसम्यग्टद्यादीनां मार्गाभिमुख मार्गपतितयोस्तु कुन संभवेऽपि तस्याग एव तद्भावनामात्र साध्य इत्यत उलं सदग्धकापुनर्वन्धकपोरिति । तयोध भावसम्यक्त्या भावा दीक्षायां द्रव्यसम्यक्त्वमेवमारोप्यत इति । कुग्रहविरहमसभिनिवेशविशेषवियोगं लघु शीमं करोति विघ से इह विरहशन हरिभद्राचार्यकृत प्रकरणस्यावा. ssवेदितं विरहाङ्कत्वात्सस्यत्येवं सर्वत्र । इति गाथाऽर्थः ॥ ४४ ॥ पञ्चा० २ विष० । (२३) इह तु परं तत्फलमभिधातुमाह स एवमभिसिद्धे परमचंभे मंगलालए जम्मजरामरणराईए पहीणामुद्दे अगबंधसपिलिए संपत्तनिमसरु अकिरिए सहावसंठिए अयंतनाणे अगतदंसणे || सप्रक्रान्तः प्रमायाकारी एवमुक्रेन सुखपरम्पराप्रकारेणा भिसिद्धः सन् । किम्भूत इत्याह-परमब्रह्म, सदाशिवत्वेन । म ङ्गलाssलय, गुणेोत्कर्ष योगेन । जन्मजरामरणरहितो निमित्ताभावेन । यथोक्तम् - " दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति ना. कुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्कुरः ॥ १ ॥ " इति । प्रणाशुभ एकान्तेन अनुबन्धशक्तिवर्जितः अशुभमङ्गीकृत्या अत एव संप्राप्तनिजस्वरूपः केवलो जीवः, श्रक्रियो गमनाssदिशून्यः, स्वभावसंस्थितः सांसिद्धिकधर्मवान् । अत एवाऽऽह - अनन्तशानोऽनन्तदर्शनः, शेयानन्तत्वात् । स्वभावश्चास्यायमेव । यथोक्तम् -" स्थितः शीतांशुवज्जीवः प्रकृत्या भावशुद्धया चन्द्रिकायच विज्ञानं तदाचरणमभ्रवत् ॥ १ ॥ " अथ कीसी पर्णरूपाभ्याम् इत्याशङ्काऽपोहायाऽऽहसे न सदे, न रूवे, न गंधे, न रसे, न फासे, अरूवी सत्ता अणित्थंथसंठाणा अतविरिया कयकिच्चा सच्चासाहविरजिया सम्यहा निरविवखा चिमिया पसंता असं जोगिए एसाणंदे ओ चैव परे मए | अविक्खा अणाशंदे, संजोगो वियोगकारणं, अफलं फलमेत्राओ विणिवायपरं खुतं बहुम मोहाम्रो अनुहार्थ, नमितो विज ओ. तो अगस्था अपनवसिया, एस भावरिक परे । कुत्ते उ भगवया । नागासेण जोगो एअस्स । से सरूवसंडिए । नागासमात्थ न सचा सदंतरमुवे । अचितमेवं केवलिगम्मं त नियमयमेयं विजोगवं च जोगो ति न एस जोगो भिष्यं लक्खणमेअस्स । न इस्याविक्खा सहावी ख एसो अर्णतमुहसहायकप्पो उनमा इत्थ न विज्जइ । तब्भावेऽणुभवो परं तस्सेव आणा ए पचजा " • , सा जिणाणं सव्धरणं भवितहा एगंत । न वितह निमितं । न चानिमितं कां ति निदंसणमिचं तु नवरं । स सिद्धः न शब्दो, न रूपं न गन्धो न रसो, न स्पर्शः, पुलधर्मत्वादमीषाम् । प्रभावस्तत्येतदपि नेत्याह-पन्नमित्थम् इत्थं स्थितमित्थंस्थं, न इत्थंस्थम् अनित्थंस्थम्, पिणी सत्ता ज्ञानवत् । श्रनित्थंस्थसंस्थापना, वंप्रकारमा संस्थानं यस्य । अरूपिण्याः सत्तायाः सा यथोक्ता । अन वीर्या इयं सत्ता प्रकृत्यैव । तथा कृतकृत्या तनिष्पाद नेन निवृत्तच्छक्तिः, सर्वाऽऽबाधाविवर्जिता द्रव्यती भा यता । सर्वथा निरपेक्षा, तथ्यपगमेन अत एव स्तिमिता प्रशाम्ता सुखप्रकर्षादनुकूला निस्तरङ्गमहोदधिकल्पा । एतस्या एव परमसुखत्यमभिधातुमाह-सांयोगि क एष श्रानन्दः, सुखविशेषः । अत एव निरपेक्षत्वात् परो मतः प्रधान इष्टः । इहैव व्यतिरेकमाह- अपेक्षामानन्दयात् अपश्यमाण 55या तनिवृती दोषमाह-संयोगो वियोगकारणं, तदवसानतया स्वभावस्वात् फले फलमेतस्मात् संयोगात् किमिति आह-विनिपातपरमेव तत्सांयोगिकफलम् । कथमिदं बहुम तम् ? इत्याह – बहुमतं मोहादबुधानां पृथग्जनानाम् । तत्रापि निवन्धनमाह-यदतो विपर्ययः, मोहाइत एवाफले फलबुद्धिः । ततो विपर्ययादर्धा अस प्रवृत्या पर्यवसिताः सानुबन्धतया । एवमेष भावरिपुः परो मोह:, अत एवोक्को भगवता तीर्थकरेण । यथोक्तम्"पाणिव विज एसोऽसकिरिया तीए अणत्था विस्सतो सुद्दा ॥ १ ॥ " यदि संयोगो दुष्ट कथं सिद्धस्याऽऽकाशन न स दुष्टः इत्याशङ्कया ? ssa-नाssकाशेन सह योग एतस्य सिद्धस्य । किमिति ।, श्रतश्राह स स्वरूपसंस्थितः सिद्धः। कथमाधारमन्तरेण स्थितिः ?, इत्याशङ्कयाऽऽह - नाकाशमन्यत्राऽऽधारे । अत्रैव युकिर्न सत्ता सदन्तरमुपैति न वाऽन्यथाऽन्यदन्यत्र । अचिन्त्य - मेतत्प्रस्तुतं केवलिगम्यं तत्वम् । तथा निश्चयमतमेतच्यव दारमतं त्वन्यथा सत्यपि तस्मिनि तस्संयोगशतिपात् सूपपक्षमेच अभ्युचयमाह-वियोग योग इति कृत्या नैव योगः सिद्धाऽऽकाशयोरिति भिन्नं लक्षणमेतस्याधिकृतयोगरूप न चात्रापेक्षासिद्धस्य कथं लोकान्ताका रामनम् ?,इत्याह-स्वभाव एवैष तस्य । अनन्तसुखस्वभावकल्पः कर्मयः कीदरामस्यानन्तं सुखम् १ स्याह-उप माअ न विद्यते सिद्ध तु यथोक्तम्- “स्वयं वेयं हि तद्ब्रह्म कुमारी स्त्रीसुखं यथा । अयोगी न विजानाति, सम्यक् जात्यन्धवद्धटम् ॥ १ ॥ " अत एवाऽऽह तद्भावे सि सुखभावे अनुभवः परं तस्यैव एतदपि कथं जायते, इत्याह- आशा एषा जिनानां वचनमित्यर्थः । किंविशिष्टानाम ? इत्याह-सर्वज्ञानाम् । अत एव अवितथा, एकान्ततः सत्येत्यर्थः । कुतः ?, इत्याह-न वितथतत्वे निमित्तं रागाऽऽद्यभावात्। उक्तं च रागाद्वा पाद्रा, मोहाद्वा वाक्यमुच्यते हा सुतम् । यस्य तु नेते दोषास्तस्यानुतकारणं नास्ति ॥ १॥" न चानिमित्तं कार्यमित्यपि । तथा जिनाऽऽशा । एवं स्वसंवेद्यं सिद्धसुखमित्यप्तवादः निदर्शनमात्रे तु नरं सिद्धमुखस्पेनं यदपमालक्षणम् ॥ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (URL) अभिधान राजेन्द्रः | पवजा सब्वसक्ख सब्ववाहिविगमे सन्विच्छासंजोगेणं सविच्छासंपत्तीए जारिसमेअं, इतोऽयंतगुणं तं तु भावसत्सुक्त्वयादितो । रागादयो भावस, कम्मोदयावाहियो, परमलडीओ उ अट्ठा, अणिच्छेच्छा इच्छा एवं सुममेयं न तत्त इयरेण गम्मइ । जइ सुहं व अजइणा । श्ररुग्गसोहं व रोगिण त्तिविभासा । अर्चितमे सख्वेणं । साइअपअवसि एगसिद्धाविकखाए प वा अणाई । ते वि भगवंतो एवं । तहा भव्यइभाव । विचित्तमेनं तहाफलभेएय । नाविचिते सहकारिभेो तदविक्खो तो नि भयेगंतवाच्यो तत्तवाच्यो । स खलु एवं इइरहेगंतो मिच्छतमेसो न इतो व बस्था । भगारिहमे । संसारियो व सिद्धनं नावस्स मुत्ती सत्यरहिया । अग्राहम बंधी पाहणं श्रईफालतुल्लो | श्रद्धबंधणे वा मुत्ती पुणो बंधपसंगओ अविसेसो अबुद्धकाणं | मणारजोगे वि वियोगो कंचोयलनाएं । न दिदिक्खा अकरणस्स । न यादिट्ठम्मि एसा । न सहजाए निविसी । न निविसीए श्रायद्वाणं । - - सर्वशत्रुक्षये सति तथा सर्वव्याधिविगमे, एवं सर्वार्थसं योगेन सता तथा सर्वेच्छासंप्राप्त्या यादृशमेतत्सुखं भवति, श्रतोऽनन्तगुणमेव सिद्धसुखम् । कुतः ?, इत्याह-भावशत्रुपाऽऽदितः । आदिशब्दाद्भावव्याधिविगमाऽऽदयो - न्ते । तथा चाऽऽद्द - रागाऽऽदयो भावशत्रवः रागद्वेषमोदाः, जीवापकारित्वात् । कर्मोदया व्याधयः, तथा जीवपीडनात् । परमलम्धयस्वर्था परार्थहेतुत्वेन । अनिच्छा इच्छा सर्वथा तनिवृत्त्या एवं सूक्ष्ममेतत्सुखं न नवतः परमार्थेन इवरेण गम्यते । असिवेन निदर्शनमाह-यतिसुखमिवाऽयतिना विशिष्क्षायोपशमिकभाववेद्यत्वादस्य, एवमारोग्यसुखमिव रोगिणेति । उक्तं च-" रागाईणमभावे, जं होइ सुद्धं तयं जिणो सुराइ । ण हि सशिवायगहिओ, जाण तदभावजं सोक्खं ॥ १ ॥ " इति विभाषा कर्त्तव्या । सर्वथाचिन्त्यमेतत्स्वरूपेण सिद्धसुखं न तवतो मतेरविषयत्वात् । साद्यपर्यवसितं प्रमाणत एक सिद्धापेक्षया न तु तत्प्रवाहमधिकृत्य प्रसादतस्वनादितोपमाथि त्य । तथा चाऽऽह - तेऽपि भगवन्तः सिद्धा एवं एकसिद्धापेक्षा खाद्यपर्यवसिताः प्रवादापेक्षया अनाद्यपर्यवसिता इति । समाने मध्यस्थानी कथमेतदेवम् इत्याह-तथाभण्यस्वाऽऽदिभावात् तथाफलपरिपाकीह तथाभन्पत्वम् । श्रत एवाऽऽह - विचित्रमेतत्तथा भव्यत्वाऽऽदि कुतः ?, इत्याह तथा फलभेदेन कालाऽऽदि भेदभाविफलभेदेनेत्यर्थः । समाने भव्य सहकारिभेवाफलभेद इत्याशङ्काऽपोडायाऽऽड् नाविचित्रे तथा भव्यत्वाऽऽश्री सहकारिभेदः किमिति है, इ त्याह- तदपेक्षस्तक इति तदतत्स्वभावत्वे तदुपनिपाताभादिति । अनेकान्तवादस्तत्ववादः सर्वकारणसामर्थ्याऽऽपादनात् स खल्वनेकान्तवाद एवम्। तथाभव्यत्वाऽऽदिभावे इतरचैकान्तः सर्वथा भव्यत्वाऽऽदेस्तुश्वतायाम् ततः किम है, पवज्जा इत्याह- मिथ्यात्वमेष एकान्तः । कुतः ?, इत्याह-नातो व्यवस्था एकान्तात् भव्यत्वाभेदे सहकारिभेदेस्यायोगात् तत्कर्मताभावात् । कर्मणोऽपि कारकत्वात् अतत्स्वभावस्य च कारकत्वासम्भवादिति भावनीयम् । अत एवाऽऽह-अमाईतमेतदेकान्ला 3ऽश्रयणम् । प्रस्तुतप्रसाधकमेव न्याया न्तरमाह संसारिण एष सिद्धत्वं, मान्यस्य । कोऽयं निय म: इत्याह- नाबद्धस्य मुक्तिः तारिवकी, इत्याह-शब्दा र्थरहितावन्धाभावेन । अयं यागादिमान् बन्धः प्रयाण संतत्या । कथं युक्तिसङ्गतोऽभूतिभावेन इत्याह- अतीतका - तुख्यः स हि प्रमाणामादिमाननुभूतवर्त्तमानभाया यः थोक्तम्- " भवति स नामातीतः, प्राप्तो यो नाम वर्त्तमानत्वम् । एष्यंश्च नाम स भवति यः प्राप्स्यति वर्त्तमानत्यम ॥१॥ किं वा बज्रबन्धने प्रथमं भावः कुतः इत्याह- पुनर्बन्धप्रसङ्गात् भबद्धत्येन हेतुना । तथा चाऽऽहअविशेषो बज्रमुक्तयोरिति । अनादिमति बन्धे मोक्षाभावः । तत्स्वाभाविकत्वेनेत्याशङ्कानिराशायाऽऽद्द - अनादियोगेऽपि सति वियोगोऽविरुद्ध पय काञ्चनोपलातेन लोके तथादर्शनात्, योगो बन्ध इत्यनर्थान्तरम्। श्रादाचयस्य हिरा बद्धमुक्तस्य तु न सेति दोषाभावादादिमानेव बन्धोऽस्त्वित्याशङ्काव्यपोछायाऽऽह-न दिदृक्षाऽकरणस्येन्द्रियरहितस्याsaद्धस्य चैतानि । तथा न चादृष्टे एषा दिक्षा, द्रष्टुमि 33 दतिया सहविपेत्यारेकानिराकरणायाद-न सहजावा निवृनिर्दिदायाश्चेतन्यवत्। अस्तु वेयमित्यभ्यु पेत्य दोषमाह-न निवृत्ती दाया श्रात्मनः स्थानं तदस्य तिरेकात् । तथा चाऽऽह न या तस्सेसा, न भव्वत्ततुल्ला, नाएणं, न केवdattarai, न भाविजोगाविक्खाए तुल्लतं, तया केपलते सया बिसेसच्यो, तहा सहायकप्पणमप्यमाणमेव । एसे दोसो परिकाम्प आए, परिणामभेया बंधाइभेउ ति साहू सम्मनयविमुदिए निश्वचरिष्योभयभावे । न अप्पभू कम्मं । न परिकपिमेयं न एवं भवादिभेओ। न भवाभावो व सिद्धी ॥ नान्यथा तस्यैषा श्रात्मनो दिदृक्षा योगात् । तदव्यतिरेकेऽपि भव्यत्यस्य निवृत्ती दोषाभाव इत्याशङ्का पोहायान भव्यवतुल्या न्यायेन दिदृक्षा । कुतः ?, इत्याह-न केवलजीवरूपमेतद्भव्यत्वम् । दिदृक्षा तु केवलजीव रूपेत्यर्थः । न भावियोगांपेक्षा महदादिभावे तथा केवलत्वेन तुल्यत्वं दिशाया भव्यत्वेन । अत्र युक्तिमाह- तदा केवलत्वेन भावियोगाभावे सदा अविशेषातथा सांसिद्धिकत्वेन तमपि दिक्षाऽऽप तिरिति हृदयम् एवं स्वभावैवेयं दिरक्षा या महदादिभाषाद्विकारदर्शने केवलावस्थायां निवर्तते इत्येतदाशङ्कयाहतथा स्वभावकल्पनं कैपस्थाविशेषे प्रथम दिखाया भावाभावस्वभावकल्पनमप्रमाणमेव । श्रात्मनस्तदाऽऽपत्तेः प्रकृ ते पुरुषाधिकत्वेन तद्भाचापत्येति गर्भः अतएवाह-ए एव दोषः प्रमाणाभावलक्षणः परिकल्पितायां दिदृक्षायामभ्युपगम्यमानायां तथाहि परिकल्पिता न किञ्चित् कथं तत्र प्रमाणपतिरिति । तदेवं व्यवस्थिते सति परिणामदादा Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रउजा रमन इति प्रक्रमः । बन्धाऽऽदिभेदो बन्धमोक्षभेद इत्येतत्साधु प्रमाणोपपन्नम् । न खल्वन्ययोगवियोगौ विज्ञाय मुख्यः परिग्रामभेदः भावाच्च मुहिरनादिमध भव इति नीत्या अत पचाऽऽइ - सर्वनवविशुद्धया । अनन्तरोदितसाधुफलोप नाया 53 निरुपचरितोभयभावेन प्रक्रमात मुख्यन्धम भावेन, एवं द्रव्यास्तिकमतमधिकृत्य कृता निरूपणा पर्यायास्तिकमतमधिकृत्या 55 नास्मभूर्त कर्मन खमेवेत्यर्थः तथा न परिकल्पितमसदेवैतत्कर्मवासनाऽऽदिव पम् कृतः इत्याह-नैवं भवाऽऽदिभेदः आत्मभूते परिक हिपते वा कर्मणि बोधमानाविशेषेण क्षणभेदेऽपि मुक्रक्षण भेदवन भवापवर्गविशेषः । तथा न भवाभाव एव सिद्धिः, सन्तानोच्छेदरूपा प्रध्यातप्रदीपोपमा । श्रत्र युक्तिमाह (७६०) अभिधान राजेन्द्रः । । । न तदुच्छदेणुप्पाच । न एवं समंजसत्तं । नाऽणाइमं - तभवो । न हेडफलभावो तस्स तहा सहावकण्पणम निराहारयकओ निगेणं । तस्सेव तदाभावे जुत्तमे सुहूममद्वपयमेयं । विचितिअवं महापचार चि । 1 न तदुच्छेदेऽनुत्पाद, न सन्तानोच्छेदे ऽनुत्पादस्तस्यैव कि तोत्पाद एवं यथाऽसी समुचिते वसन्नप्पु त्पद्यतामिति को विरोधः १ । यद्येवं ततः किम् ?, बाहनैवं समसत्यं न्यायोपपक्षत्यम् कथम् इत्याद एवं दि मानादिमान् भयः संसारः कदाचिदेव सन्तानोत्पत या न हेतुफलभावः । चरमाऽऽद्यक्षणयोरकारणकार्यत्वात् । पक्षान्तरनिरासायाऽऽह तस्य तथास्वभावकल्पनमयुक्तम् । कुतः ?, इत्याह- निराधारोऽन्वयः कृतो नियोगेन श्रयमत्र भावाऽर्थः । स्वो भाव इत्यात्मीया सत्ता स्वभावः । एवं च स निवृत्तिस्वभाव इति स्वभाविकी भारतीया सति मिरा भारत्वम् । यद्वा-प्रन्ययाभावस्तनिवृत्तेस्तस्यादिति नियो गणमवश्यमिदमित्यमन्यथा शब्दाचा योगादिति व्यापना धम्, एचमाद्यशसेऽपि भावनीयम्। अत एवाइ-तस्यैव तथाभाचे पुक्रमेतत्तथास्वभावकल्पनमिति सूक्ष्ममर्थपदमे तद्भावगम्यत्वात् विचिन्तितव्यं महाप्रशया, अन्यथा डा. तुमशक्यत्वादिति अनुपक्रिकमभिधाय प्रकृतमाद 1 I अपज्जवसियमेव सिद्धसुक्खं । इत्तो चेत्तमं इमं । सब्बहा अणुस्सुगतेंतभावाओ | लोगंतसिद्विवासियो एए । त् य एगो तत्थ नियमा अर्थता। अकम्पुणो गई पुव्यपगेण अलाउभिइनायो । नियमो श्री चैव अफुसमानगईए गमणं उक्करिसविसेसओ इअं । श्रब्बुच्छेश्रो roarr sinभावेण । एअमतांतयं समया इत्य नायं । भव्वत्तं जोगयामित्तमेव केसिं चि पडिमाजुग्गदारुनिदंसणेणं । वचहारमयमेयं । एसोऽवि ततं पविति विसोहणेण अणेगंतसिद्धीओ निच्छयंगभावेण । परिसुat उ केवल एसा श्राणा इह भगवच्च समंतभद्दा तिकोडिपरिसुद्धी अपुणबंधगाइगम्मा | 1 पतिमेन विधिना सिद्धसौख्यम् । अत एव कारचा युतममिदम् । एतदेव स्पष्टमभिधातुमाह-सर्वा पत्रज्जा नुत्सुकत्वे सति धनन्तभावात्कारणात्। क निवास एषाम् ?, इत्याद- लोकान्तसिद्धिवासित एते चतुरात्मक लोकान्ते या सिद्धिः स्त्ररूपा तासिन ते सिद्धाः । कथं व्यवस्थिताः इत्याह-पत्रकः सिद्धस्तत्र क्षेत्रे नियमा नियोगेनानन्ताः सिद्धाः । उक्तं च-" जत्थ य एगो सिद्धो. तत्य असंता भववयविमुखा भएपोएणमाबाई, बिति सुदी सुद्धं पत्ता ॥ १ ॥ " कथमिद कर्मचये लोकान्तगम नम् ? इत्याह-अकर्मणः सिद्धस्य गतिरितो लोकान्तं पूर्व प्रयोगेण हेतुना तत्स्वाभाव्यात् । कथमेतदेवं प्रतिपत्तव्यम् !, इत्यादावुप्रभूतिज्ञातः अष्टमृज्ञेपला निमग्मतदपगमोर्द्धगमनस्वभावाऽलाबुवत् प्रभृतिग्रहणादेरएफलादि कमनं तमेव वासरुङ्गमनागमनं कि न? इत्येतदाशक्याऽऽह नियमोत पवातानुप्रभृतिषाततः एकसमयाऽऽदिः उत्पलपत्रशतव्यतिभेदान्तेन एकसमयेन तङ्गतक्रेत्याशङ्का पोहायाद्द-अस्पृशङ्गत्या गमनं तङ्गतिर्युक्तेत्याशङ्काऽषोद्दायाऽऽद्द-अस्पृशङ्गत्या सिद्धस्य सिद्धिक्षेत्रं प्रति स्पृशङ्गतिमदपेक्षया चोत्पलपत्त्रशतव्यतिभेददृष्टान्तः । कथमियं सम्भवति ?, इत्याह- उत्कर्षवि शेषत इयं गत्युत्कर्षविशेषदर्शनादेवमस्पृशद्गतिः सम्भवतीति भावनीयम् । सिद्धस्यापुनरागमनात्कालस्य चानादिस्वात् समासान्तः प्रायो ऽनेकसि भैम्यइति वि भ्रमनिरासार्थमाह--अव्यवच्छेदो भव्यानामनन्त भावेन तथा सिद्धिगमनाऽऽदावपि वनस्पत्यादिषु कायस्थितिक्षयदर्शनादनन्तस्या अपेराशेः श्योपपत्तेः पुनः संशय इति तद्व्ययच्छित्यर्थमाह-एतदनन्तानन्तकम् एतद्भव्यानन्तकमनन्तान. न्तकं न युक्तानन्तका 35 दिसमया श्रत्र ज्ञातं, तेषां प्रतिक्षणम तिक्रमे स्वात् कथं तत् उच्यते तुर्व्यतीतः परिवर्त्तते पुनः क्षयं प्रयातः पुनरेति चन्द्रमाः । गतं गतं नैव तु संनिवर्त्तते, जलं नदीनां च नृणां च जीवितम् ॥ १ ॥ " इति । उच्यत एतद् व्यवहारतस्तूच्यते, अन्यथा तस्यैव परावृत्तौ बाल्याऽऽद्यनिवृतिः । तस्य तद्वाल्याssचापादनस्वभावत्वादिति परिभावनीयम् । अतो न क्षयो भय्यानामिति स्थितम्। एवं च सति भव्यत्वं योग्यतामात्रमेय सिद्धिं प्रति केषानिये न कदाचिदपि सेत्स्यन्ति त था चाऽऽगमः - " भव्वा वि न सिज्झिस्संति केइ " इत्यादि । भव्यत्वं सिद्धगमनयोग्यत्वम् । फलगम्या च योग्यता । को वा एवमभव्येभ्यो विशेषो भव्यानाम् ?, इत्याशङ्काव्यपोहायाऽऽड. प्रतिमायोग्य निदर्शनेन तथाहि तुल्यायां प्रतिनि तथाप्येकं दारु प्रतिमायोग्यं सन्ध्यादितया न तदन्ययुक्त तयेत्यादिविद्वदङ्गनाऽऽदिसिद्धमेतत् । न चात्राऽपि तत्र स्व भावन्वाऽऽदिविकल्पचिन्ता कार्या । कुतः १, इत्याह-व्यवहा रमतमेतत् श्रयं चैवं व्यवस्थितः इति भावितमेव । न चायं संवृतिरूप इत्याह-एषोऽपि तवाङ्गमेषोऽपि व्यवहारनयः परमार्थाङ्गम् इद प्रक्रमे, तथा योग्यतादेरपि सन्धित्वात्। तत्स्वभाषाविशेषे तू दार्वन्तरवदयोग्यदारुण्यपि, तथा हु सिजेरित्यादि निलोडितमन्यत्र इत्यनुष्ठानमेवाधि त्याsse - एषोऽपि तत्त्वाङ्गम् । यथोक्तम्-" अइ जिखमयं पवजह. ता मा वबहारनिच्छए मुयह ववहारणउच्छेष, ति त्थुच्छेश्रो जतोऽवस्सं ॥१॥ " अत एषोऽपि व्यवहारनयस्त. चाङ्गम् प्रवृत्ती मोक्षङ्गमित्यर्थः कुतः इत्याह-म Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रज्जा शिविशोधनेन तम्मलेन मयाऽऽदिप्रदानात्परलोकप्रवृत्तिविशेोधनेन इत्थमनेकान्तविदितः सचीत्या तथा निध याङ्गभावेन एवं प्रवृत्या पूर्वकरणाऽऽदिप्राप्तेः परिशुद्धस्तु केवलमाशापेक्षी पुष्टाऽऽलम्बनः । एषाऽऽशेह भगवत उभयनयवर्मा । अथवा सर्वेय पोका किंविशिष्टा है, इत्या ह-समन्तभद्रा. सर्वतो निर्दोषा । कथम् ? इत्याह- त्रिकोटिपरिशुद्धया कपच्छेदतापपरिशुद्धया । इयं च भागवती स दाझा सर्वैव पुनर्बन्धकाऽऽदिगम्या । अपुनर्बन्ध कादयो ये सवा उत्कृष्ट कर्मस्थिति, तया अपुनर्बन्धकत्वेन ये दक्षप यन्ति ते पुनर्वन्धकाः आदिशम्याग्माभिमुखमार्गप तितादयः परिगृह्यन्ते दृढप्रतिशाली ए तपेयं न संसाराभिनन्दिगम्य तेषां विषयप्रतिभासमात्रं ज्ञानमुदेति न तद्द्वेषत्वाऽऽदिवेदकमिति । उक्तं च- "न यथाऽवस्थितं शास्त्रं, खल्वङ्को वेत्ति जातुचित् ध्यामलादपि विम्बात्तु, निर्मलः स्यात्स्वहेतुतः ॥ १ ॥ " अपुनर्बन्धकस्पाऽऽदिलिमाद 1 ( ७६१) अभिधान राजेन्द्रः | 3 एपितं खलु इत्थ लिंगं श्रचित्तपवित्तिविनेयं संवेगसाहगं नित्रमा । न एसा अनसिं देखा । लिंगविवज्जयायो तप्परा । तमाहट्टयाए आमकुंभोदगनासनाए एसा करुण ति बुच्चड, एगंतपरिसुद्धा अविराहणाफला तिलो गनाहवडुमाखेणं निस्से अससाहिग चि पव्दजाफलसुतं । पतत्प्रियत्वं खल्वत्र लिङ्गम् । श्राशाप्रियत्वमपुनर्बन्धकाऽऽदिलिङ्गम् । प्रियत्वमुपलक्षणं, श्रवणाभ्यासाऽऽदेः । एतदप्यौचित्यप्रवृत्तिविशेयं तदाराधनेन तद्बहुमानात् । श्रौचित्यबाध या तु प्रवृत्ती न त्वं मोह पचाखाविति । एतत् यत्यमेव विशेष्यते संवेगसाधकं नियमात् । यस्य भागव ती सदाझा प्रिया तस्य नियमतः संवेग इति । यत एवमतो नेपा अन्येभ्यो देवा । नेपा भागवती सदाक्षा अन्येभ्यो ऽपुनर्वन्धकाऽऽ दिव्यतिरिक्तेभ्यः संसाराभिनन्दिभ्यो देया । कथं ते ज्ञायन्ते इत्याह-लिविपर्ययात्परिशा । प्रक्रमादपुनर्बन्धकाऽऽदिलिङ्गविपर्ययात् संज्ञा, न द्वेषाऽऽद्रिलक्षणात्परिक्षा संसाराऽभिनन्दिपरिक्षा । उक्तं च"द्रो लोभरतिनो मत्सरी भगवान् शठः । श्रहो भवाभिः नन्दी स्वात् निष्फलाम् ॥ १॥ किमिति न ते भ्यो देवा इत्याह तदनुग्रहार्थं संसाराभिनन्दिनुहा र्थम् । उक्तं च-" अप्रशान्तमती शास्त्र - सद्भावप्रतिपादनम् । दोषायाभिनवोद, रामनीयमिव ॥ १ ॥ " देवगि दर्शनमाद-ग्रामकुम्भोदकन्यासातेन उच" आने पड़े निहतं जहा जलं तं पदं विखासे इय सिद्धंतरहर अप्याहारं विवासे ॥ १ ॥ एषा करुणेोच्यते, अयोग्ये भ्यः सदाज्ञाऽप्रदानरूपा । किं विशिष्टा ?, इत्याह एकान्तपरिशुद्धा, तदपायपरिहारेण । अत एवेयमविराधनाफला, सम्यगालोचनेन न पुनर्लानापथ्यप्रदानेन निवन्धनकरुणा 33 39 3 सदाभावेति । यं देवंभूता त्रिलोकनाथपमान हेतु ना निःश्रेयसाधिकेति किमुक्कं भवति नानागमिकस्ये यं भवति, किं तु परिणताऽऽगमिकस्य । अस्य च भगवत्येयं बहुमानः । एवं वेयं मोक्षसाचिकैव सानुबन्धसुप्र तिभावेन । पं० सूः ५ सूत्र । १६९ पवज्जा (२४) प्रवजितस्यार्यिकाभिर्वन्दनम्वंदति जियाओ, विहिणा सड्ढा य सावियाओ य । आयरिसमवम्मी, अनुपविसद् तो असंतो ॥ १५४॥ ततस्तं प्रमजितं चन्दन्ते आर्थिकाः पुरुषोत्तमो धर्म इति कृत्वा कथमित्याह विधिना प्रवचनोक्रेन, कि त एच ने त्याह श्रावकाः श्राविकाश्च वन्दन्ते श्राचार्यसमीपे चोपवि शति । ततस्तदुत्तरकालं किंविशिष्ट सनित्याद-असंभ्रा तः अनन्यचित्त इति गाथाऽर्थः । प्रव्रजितं प्रति तथोपदेशो यथाऽन्यः प्रव्रजेत् । ततश्चभवजलहिषोभूयं, आपरिओ वह कोर से धम्मं । जह संसारविरतो, अन्नो वि पवज्जए दिक्खं ॥ १५५॥ भवजलधिपोतभूर्त संसारसमुद्र बोहित्थकल्पमाचार्यस्तथा कथयति, तस्य प्रव्रजितस्य धर्मे यथा संवेगातिशयात्संसारविरक्तः सन्नम्योऽपि तत्पदन्तर्वर्त्ती सवः प्रपद्यते दीक्षां ज्यामिति गाथाऽर्थः । भूतेसु जंगम, तेसु विदितमुकोर्स । सेमुवि माणुस, माणुस्से आरिओ देसो ॥। १५६ ।। भूतेषु प्राणिषु जङ्गमत्वं द्वीन्द्रियाऽऽदित्वं तेष्वपि जङ्गमेषु पञ्चेन्द्रियत्वमुत्कृष्टं प्रधानं तेष्वपि पञ्चेन्द्रियेषु मानुषत्वमुत्कृष्टमिति वर्तते । मनुजत्वे आर्यो देश उत्कृष्ट इति गाथा ऽर्थः । देसे कुलं पहाणं, कुले पहाणे अजाइमुकोसा। तीए रूवसमिद्धी, रूवे अ बलं पहाण्यरं ॥ १५७॥ देशे श्रायें कुलं प्रधानमुप्राऽऽदि कुले प्रधाने च जातिरुत्कृष्टा मातृसमुरा, तामपि जाती पर सकलाङ्ग निष्पत्तिरित्यर्थः । रूपे च सति व प्रधानतरं सामर्थ्यमि तिगाथाऽर्थः । होइ वले विजी, जीए वि पहाण्यं तु विष्ठाणं । विषाणे सम्मत्तं, सम्मते सीलसंपत्ती ॥ १५८ ॥ भवति बलेऽपि च जीवितं प्रधानमिति योगः, जीवितेऽपि प्रधानतरं विज्ञानं, विज्ञाने सम्यक्त्वं क्रिया पूर्ववत् । सम्य क्त्वे शीलसंप्राप्तिः प्रधानतरेति गाथाऽर्थः । सीले खाइयभावो वाइयभावे वि केवलं नाणं । केवल्ले पडिपुत्रे, पत्ते परमक्खरे मोक्खे || १५६ || शीले क्षायिकभाव प्रधानज्ञाविवाचे च केवलं शा सर्व कातिके प्रति परमा रेमीच इति गाथा ऽर्थः । परसंगो एसो, समास मोक्खसाहणोवाच । एत्थ बहुपतं ते थोवं संपावियति ।। १६० ।। पञ्चदशाः पञ्चदशभेद एष अनन्तरोदितः समासतः संक्षेपेण मोक्षसाधनोपायः सिद्धिसाधनमार्गः अत्र मीक्षसाधनोपाये बहुप्राप्तं त्वया शीलं यावदित्यर्थः स्तोकं प्राधिकभाषः केवलज्ञानद्वयमिति गाथाऽर्थः । ता वह कायव्वं ते, जह से पाबेसि बोकालें । सीलस्य नत्यिसकं जयम्य तं पाविधं तुमए ।। १६१।। Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६२) अभिधानराजेन्द्रः। पवज्जा पवजा तत्तथा कर्तव्यं त्वया यथा तच्छेषं प्राप्नोषि स्तोककालेन । किमित्यत आह शीलस्य नास्त्यसाध्यं जगति तत्प्राप्त त्वया, प्रवज्या प्रतिपन्नेति गाथाऽर्थः । लबूण सीलमेअं, चिंतामणिकप्पपायमभहिअं। इह परलोए अतहा, सुहावहं परममुणिचरिअं॥१६२॥ लब्ध्या शीलमेतत्किविशिष्टमित्याह -चिन्तामणिकल्पपादपाभ्यधिक निर्वाणहेतुत्वेन । एतदेवाऽऽह इहलोके परलोके च तथा सुखावहं परममुनिभिश्चरितमासेवितमिति गाथाऽर्थः। एअम्मि अप्पमात्रओकायव्यो सइ जिर्णिदपन्नते। भावेअव्वं च तहा, विरसं संसारणेगुम ।। १६३ ॥ एतस्मिन् शीले अप्रमादो यतातिशयः कर्त्तव्यः सदा सर्वकालं जिनेन्द्रप्रशते तीर्थकरप्रणीते अप्रमादोपायमेवाऽऽहभावयितव्यं च तथा शुभान्तःकरणेन विरसं संसारनैर्गुण्यं वैराग्यसाधनमिति गाथाऽर्थः । आह विरइपरिणामो, पव्वज्जा भावो जिणाएसो।। जं ता तह जइअव्वं,जह सो होइ त्ति किमणेणं ॥१६॥ आह परः, किमाह-विरतिपरिणामः सकलसावद्ययोगवि. निवृत्तिरूपः प्रव्रज्ज्या भावतः परमार्थतो जिनाऽऽदेशः अर्हद्व वनमित्थं व्यवस्थितमिाते यद् यस्मादेवं तत्तस्मात्तथा यतितव्यम् तथा प्रयत्नः कार्यों यथाऽसौ विरतिपरिणामो भवतीति किमनेन चैत्यवन्दनाऽऽदिक्रियाकलापेनेति गाथाऽर्थः। परश्च स्वपक्षं समर्थयन्नाहसुबइ अ एअवइअर-विरहेणं भरहमाईणं । तयभावम्मि अभाओ, भणियो केवलस्स सुए।१६।। श्रूयते च एतद्यतिकरविरहेणाऽपि चैत्यवन्दनाऽऽदिसंबन्धमन्तरेणापिस विरतिरूपपरिणाम इह जिनशासने भरताss. दीनां महासत्पुरुषाणामिति । कथमिति चेदुच्यते-तदभावे विरतिपरिणामाभावे भावतः अभावोऽसंभवः यद्यस्माद्भणित उक्तः केवलस्य श्रुते प्रवचन इति गाथाऽर्थः। संपादिए वि अ तहा, इमम्मि सो होइ नत्थि एअं पि । अंगारमहगाई, जेण पवजंत अभव्या वि ॥ १६६ ॥ संपादितेऽपि च तथा तस्मिश्चैत्यवन्दनाऽऽदौ व्यतिकरे सति स विरतिपरिणामो भवति । नास्त्येतदप्यत्राप्यनियम एवेति । एतदेवाऽऽह-अङ्गारमईकाऽऽदयो येन कारणेन प्र. तिपाद्यन्ते अधिकृत्य व्यतिकरमभव्या अपि. श्रासतां तावदन्य इति गाथाऽर्थः । किंच-तञ्चैत्यवन्दनाऽऽदि विधिना सामायिका रोपणे सति वा विरतिपरिणामे क्रियेत नेति वा, उभयथाऽपि दोषमाहसइ तम्मि इमं विहलं, असइ मुसावायगो गुरुस्सावि । तम्हा न जुत्तमेअं, पब जाए विहाणं तु ।। १६७ ।। सति तस्मिन्धिरतिपरिणामे,इदं चैत्यवन्दनाऽऽदि विधिना सामायिकाऽरोपणं, विकलं भावत एव तस्य विद्यमानत्वादम्यथा ताविव असत्यविद्यमाने विरतिपरिणामे सामायिकाऽऽरोपणं कुर्वतः मृषावाद एव गुरोरपि असदभ्यारोपणाइपिशब्दाच्छिण्यस्यापि । श्रथ ताविव प्रतिपत्तेर्यस्मादेवं त स्मान्न युक्तमतचैत्यवन्दना दिविधिना सामायिकाऽऽरोपणरूपं प्रवज्याया विधानमेवमुभयथाऽपि दोषदर्शनादिति गाथाऽर्थः । एष पूर्वपक्षः। अनोत्तरमाहसञ्च खु जिणाएसो, विरईपरिणामो उ पव्वजा । एसो तस्स उवाओ, पायं ता कीरइ इमं तु ॥१६८।। सत्यमेव जिनाऽऽदेशो जिनवचनमित्यंभूतमेव, यदुत विरतिपरिणाम एव प्रवज्या नाऽन्यथाभावः। तथाऽप्यधिकृतविधानमबध्यमेवेत्येतदाह-एष पुनश्चैत्यवन्दनाऽऽदिविधिना सामायिकाऽऽरोपणब्यतिकरस्तस्य विरतिपरिणामस्यापायो हेतुः प्रायो बाहुल्येन यद्यस्मात् तस्माक्रियत एवेद चैत्यवन्दनाऽऽदिप्रव्रज्याविधानमिति गाथाऽर्थः । उपायतामाहजिणपसत्तं लिंग, एसो उ विही इमस्स गहणम्मि । पत्तो मए त्ति सम्मं, चिंतेतस्सा तो होइ ॥ १६६ ॥ जिनप्रशप्तं लिङ्ग तीर्थकरप्रणीतमेव तत् साधुचि रजोहरणमिति । एष च चैत्यवन्दनाऽऽदिलक्षणो विधिरस्य लि. ङ्गस्य ग्रहणे अङ्गीकरणे प्राप्तो मयाऽत्यन्तदुराप इत्येवं चि. न्तयतः सतः शुभभावत्वादसौ विरतिपरिणामो भवतीति गाथाऽर्थः। कथं गम्यत इति चेदुच्यतेलक्खिज्जइ कजेणं, जम्हा तं पाविऊण सप्पुरिसा। नो सेवंति अकजं, दीसइ थोवं पि पाएणं ॥ १७० ॥ लक्ष्यते गम्यते कार्येणाऽसौ विरतिपरिणामः, कथमित्या. ह-यस्मात्तं चैत्यवन्दनपुरस्सरं सामायिकाऽऽरोपणविधि संप्राप्य सत्पुरुषाः महासत्वाः प्रव्रजिताः, वयमिति, न सेवन्ते अकार्य परलोकविरुद्ध किश्चित् दृश्येतत्प्रक्षेपेणैवोपलभ्यत एतत् स्तोकमप्यकार्य प्रायशो बाहुल्येन न सेवन्ते, अतो विपरिणामसामर्थ्यमेतदिति गाथाऽर्थः। साम्प्रतं यदुक्तं श्रूयते चैतद्यतिकरविरहेणापि स इह भ रताऽऽदीनामित्येतत्परिजिहीषुराह.. आहच्च भावकहणं, नय पात्रो जुञ्जए इहं काउं। ववहारनिच्छया जं, दोनिवि सुत्ते समा भणिया ।१७१। कदाचित्कभावकथनं भरताऽऽदिलक्षणं न च प्रायो युज्यते इह विचारे कर्तुम् किमित्यत आह व्यवहारनिश्चयो यतो न. यौ द्वावपि सूत्रे समौ भणिती प्रतिपादिता भगवद्भिरिति गाथाऽर्थः। एतदेवाऽऽहजइ जिणमयं परजह, तो मा ववहारणिच्छए मुयह । ववहारणउच्छेए, तित्थुच्छेओ जोऽवस्सं ॥१७२।। यदि जिनमतं प्रपद्यध्वं यूयं ततो मा व्यवहारनिश्चयौ मुश्चत महाशिष्टाः। किमित्याह-व्यवहारनयोच्छेदे तीर्थोच्छेदो यतोऽवश्यमतो व्यवहारतोऽपि प्रवजित एव गाथाऽर्थः । एतदेव समर्थयति-- ववहारपवत्तीय वि, सुहपरिणामो तो अकम्मस्स । निअमेणमुवसमाई, णिच्छयणयसम्मयं तत्तो ॥१७३।। Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा ( ७६३) अभिधानराजेन्द्रः । व्यवहारववृष्यापि चैत्यचन्दनादिविधिना जितमि त्यादिलक्षणेो यः शुभपरिणामो भवति, ततश्च शुभपरिणामास्कर्मणः ज्ञानाssवरणीयाऽदेर्नियमेनोपशमादयो भवन्ति । आदिशब्दात् पक्षपोपशमादिपरिग्रह निश्चयनयसम्मर्त तत इति तत उपशमाऽऽदेर्विरतिपरिणामो भवतीति गा थाऽर्थः : । चोक्तं सति तस्मिन्निदं च फलमित्यादि, तन्निराकरणार्थमाद , होति वि तसि विहल न खलु इमं होइ एत्थशुद्वाणं । साद्वापि आणा आराहणार उ ।। १७४ ॥ भवत्यपि तस्मिन्दिरतिपरिणामे विफलं न यति त्यचन्दनं वेत्यचन्दनादि भवत्यत्र प्रक्रमेऽनुष्ठानं किं तु सफलमेव शेषानुष्ठानमिवेोपाधिप्रत्युपेक्षणाऽऽदिवत् । कुत इत्याह-- श्राज्ञाऽऽराधनात एव तीर्थकरोपदेशानुपालनादेव, भगवदुपदेशया प्रशानमिति गाथा ऽर्थः । द्वितीयं पक्षमधिकृत्याऽऽह अस मुसावाओ विम, इसि पि न जायते तहा गुरुणो । विकारगस्स आणा - आराहणभाव चेव ।। १७५ ।। असति विरतिपरिणामे मृषावादोऽपि ईषदाप मनागपि न शायते गुरोरुलक्षणस्य । किंविशिष्टस्येत्यत्राऽऽह विधिकारकस्य सूत्राऽऽज्ञासंपादकस्येति । कुत इत्याह- आशाऽऽराधनभावत एव भगवदाशा संपादनादेवेति गाथाऽर्थः । विधिप्रभाजने गुणानाहहोति गुणा नियमे आसंसाईहिं विष्यमुकस्स । परिणामविसुद्धी, अजुत्नकारिम्मि वितयम्मि ।। १७६ ।। भवन्ति गुणा नियमेन कम्र्मक्षयाऽऽदयो विधिप्रवाजने सति आसंसाऽऽदिभिर्विप्रमुकस्य गुरोरादिशब्दात्संपूर्ण पर्षदादिप रिग्रहः। कुतो भवन्ति परम सांसारिक मुच्यते ऽयमित्यध्यवसायादयुक्तकारिण्याप कुतश्चित्कर्मोदयात् तस्मिन् शिष्ये इति गाथाऽर्थः । तम्हा न जुत्तमेयं पव्वजाए विहाणकरणं तु । गुणभाव अकरणे, तित्थुच्छे आइचा दोसा || १७७ | यस्मादेवं तस्मान्न युक्तमेतदनन्तरोदितं प्रव्रज्यायाः विधानकारणं तु चत्यवन्दनाऽऽदि । कुत इत्याह-गुणभावत उक्कन्यायात्कर्म्मज्ञयाः दिगुणभावादकारणे प्रस्तुतविधानस्य तीर्थो दोषाः तच्छेदन कल्पते इति गाथाऽर्थः । एतदेव भावयति - छ त्यो परिणामं, संम्पं नो मुणइ ताण देइ तओ । इस वितीए, विणा कहं धम्मचरणं तु । १७= । छद्मस्थसवः परिणामं विनेयसंबन्धिनं सम्यक् न मनुते न जानाति ततो न ददात्यसौ दीक्षां गरदर्शनेन ततोऽतिशी दास्यतीति चेदवाऽऽह-न चातिशयोऽप्यवध्यादिः, तया भावतो दीक्षा विनैव कथं धर्ममरणमिति सामान्येनेच ध चरणाभावः । इति गाथाः । "याओं" भरतादाहरणमुक्तीकृत्याऽऽहचाकणं, तंपि हु तप्पुव्त्रयं जिया बिंति । पत्रज्जा तयभावे यजुतं, तयं पि एसो विही तेणं ॥ १७६ ॥ कादाचित्कभावकथनं भरताऽऽदीनामतिशयाऽऽदिरूपं यत्तदपि तत्पूर्वकं जन्मान्तराभ्यस्त प्रजज्याविधानपूर्वकं जिना वते । तदभावे च जन्मान्तराभ्यस्तप्रव्रज्याविधानाभावे च.न युक्तं, तदपि कादाचित्कभावकथनं यत एवमेष विधिरनन्तरोदितः प्रव्रज्यायाः ततोऽन्याय्या । इति गाथाऽर्थः । अगारवा, पावाओ परिचयंति इह बिंति । सीच्योदगाभोगं, अदिना नि न करिति ॥१८०॥ अन्ये वादिन इति प्रत इति संबन्धः किमित्याह-गारवासं गृहवासं पापात्परित्यजन्ति पापोदयेन तत्परि त्यागबुद्धिरुत्पद्यते । " (?) इति गाथाऽर्थः । एतदेव समर्थयति बहुदुक्खसंविदत्तो, नासह अत्थी जहा अभव्यागं । इस पुनहिं विपत्तो, अगारवासो वि पाचाणं ॥ १८१ ॥ (पिन) सत्यर्थी प था अभव्यानामपुण्ययताम् (य) एवं पुरुपैरपि प्राप्तः अगारवासोऽपि पापानां नश्यति शुद्रपुण्योपात्तत्वादिति गाथाऽर्थः । चत्तम्मि घरावासे, मासविवजिओ पिवासत्तो । खुडिओ अपरिअडतो, कहं न पापस्स विस सि । १८२ ॥ त्यक्ते गृहाssवासे, प्रव्रजितः सन्नित्यर्थः । श्रवकाशविवर्जि तः आश्रयरहितः पिपासाऽऽ से दपरीत धार्त पर्यटन कथं न पापस्य विषय इति पापे येन सर्वमेतद्भवतीति गाथाऽर्थः । ******... तथा चाऽऽह सुहागाओ धम्मो सन्दविहीणस्स तं को तस्य है। अपि जस्स नियं, नरिथ उपभदेउ ति ॥ १८३ || शुभध्यानात् धर्मध्यानाऽऽदेर्धर्म इति सर्पतम्यप्रसिद्धः.स. विहीनस्य सर्वोपकरणरहितस्य तच्छुभध्यानं कुतस्तस्य प्रवजितस्य, अन्नमपि भोजनमपि श्रास्तां शीतत्राणाऽऽदि, यस्य नित्यं सदोचितकालं, नास्त्युपष्टम्भहेतुः शुभध्यानाऽऽश्रयस्य कायस्येति गाथाऽर्थः । तम्हा गिहासमरओ, संतुमयो गाउलो धीमं । परहित्र्यकरणेकरई, धम्मं साहे मञ्कत्थो । १८४ ॥ यस्मादेवं तस्माद् गृहाश्रमरतः सन् संतुष्टमना न तु लोभाभिभूतः, अनाकुली न तु सदा गृहकर्तव्यतामूढः, बुद्धिमान् तस्वशः, परहितकरणैकरतिर्न त्वात्संभरिधर्म साधयति मध्यस्थो न तु कचिद्रको द्विदेति गाथाऽर्थः । एप पूर्वपक्षः। अत्रोशरमाह किं पावस्त सरूवं, किं वा पुन्नस्स संकिलिट्ठे जं । बेइज य च यतं पार्थ पुणमिति ॥ १८५ ॥ पापात्परित्यजन्ति पुरापात गृहाश्रनमिति परमतम् आ पार्यवाह किं पापस्य स्वरूपं किंवा पुण्यस्येति पुण्यपापय यथा सम्यग्लक्षणं तथा कुशलानुबन्धिनः पुण्यात्परित्यजन्ति पुरुषोपायमिति परमकुशलानुबन्ध पापा परि स्वजन्ति गृहवासमित्यंत पदपति परमस्तु तयोः स्वरू पनाह मिलने परस्परूपं तद् वभूष Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा अभिधानराजेन्द्रः। पत्रज्जा नैव संक्लेशेन तत्पापम् । पुण्यमितरदिति यदसंक्लेशेनैव च एतदेवाऽऽहवेद्यते । इति गाथाऽर्थः। दीणो जणपरिभूयो, असमत्थो उदरभरणमित्ते वि । एवमनयोः स्वरूपे उक्त सत्याह- . वित्तेण पावकारी, तह विहु पावस्स फलं एअं ॥१६२॥ जइ एवं किं गिहिणो, अत्थोवायाणपालणाईसु । दीनः कृपणः, जनपरिभूतो लोकर्हितः, असमर्थ उदरभवित्रणाण संकिलिहा, किंवा तीए सरूवं ति?॥१८६॥ रणमात्रेऽपि-आत्मभरिरपि न भवति । वित्ते न पापकायथेषं पुण्यपापयोः स्वरूपं यथाऽभ्यधायिभवता,नन्वेवं किं री तथापि तु एवंभूतोऽपि सन्नसदिच्छया पापचित्त इ. गृहिणः अर्थोपादानपालनाऽऽदिषु सन्सु प्रार्तध्यानाऽदि. त्यर्थः । पापफलमेतदिति जन्मान्तरकृतस्य कार्यभाविनश्च वादिशब्दानाशाऽऽदिपरिग्रहः । वेदना न संक्लिष्टा, संक्लि- कारणमिति गाथाऽर्थः। टैवेत्यभिप्रायः। किं वा तस्याः संक्लिष्टाया वेदनायाः स्वरूपं, यद्येवं किं विशिष्टं तर्हि पुण्यमित्यत्राऽऽहयद्येषाऽपि संक्लिष्टा न भवतीति गाथाऽर्थः । संतेसु विभोगेसुं, नाभिस्संगो दढं अणुट्ठाणं । पराभिप्रायमाशङ्कय परिहरनाह अत्थिय परलोगम्मि वि, पुन्नं कुसलाणुबंधिमिणं ॥१६॥ गेहामुणमभावे, जातं रूवं इमइ अह इदं । इहयदुदयात् सत्स्वपिभोगेषु शब्दादिषु नाभिष्वङ्गो रढमजुज्जइ अ तयभिसंगे, तदभावे सबहाऽजुत्तं ॥१८७॥ त्यर्थमनुष्ठानमस्ति च परलोकेऽपि दानध्यानाऽऽदि पुण्यं कुश. गेहादीनां गृहधनाऽऽदीनामभावे या वेदना.तद्रूपमस्याः सं. लानुवन्धादि जन्मान्तरेऽपि कुशलकारणत्वादिति गाथार्थः । क्रिष्टाया वेदनायाः। प्रथेष्टमभ्युपगतं भवता । एतदाशङ्कया. परिसुद्धं पुण एयं, भवाविडविनिबंधणेसु विसएसु। उह-युज्यते एतदपंतस्याः तदभिष्वङ्गे गेहाऽऽदिष्वाभलाषे जायइ विरागहे, धम्मज्माणस्स य निमित्तं ॥१६४॥ सति, तदभावेऽभिष्वङ्गाभावे सर्वथा एकान्तेनायुक्तं तद्रूप. परिशुद्धं पुनरेतदभ्यासवशेन कुशलानुबन्धि पुण्यं भवविमस्य निराभिष्वङ्गस्य संक्लेशयोगादिति गाथाऽर्थः।। टपिनिबन्धनेषु विषयेषु संसारवृक्षबीजभूतेष्वित्यर्थः । जाएतदेव समर्थयति यते विरागहेतुर्वैराग्यकारणं धर्मध्यानस्य च निमित्तं मजो एत्य अभिस्संगो, संतासंतेसु पावहेउ त्ति । हापुण्यवतां महापुरुषाणां तथोपलब्धेरिति गाथाऽर्थः । अज्झाणविअप्पो, स इमीए संगो रुवं ।। १८८॥ एतच्च विषये विरागाऽऽदि महत्सुखमित्याहयोऽत्र लोके अभिष्वङ्गो मूर्खालक्षणः सदसत्सु गेहाऽऽदिषु जं विसयविरत्ताणं,सुक्खं सज्झायभाविअमइणं । पापहेतुरिति पापकारणमार्तध्यानविकल्पः अशुभध्यानभेदो | तं मुणइ मुणिवरो चित्र, अणुहावो पुण अग्नो वि ॥१६॥ ऽभिष्वङ्गः स खल्वस्यां संक्लिष्टाया वेदनायाः संगतो रूपमिति गाथाऽर्थः। यद्विषयविरतानामसदिच्छारहितानां सौख्यं सद्ध्यानभा. ततः किमित्याह वितमतीनां च धर्मध्यानाऽऽदिभावितचित्तानां तन्मसुते एसो अजायइ दढं, संतेसु वि अकुसलाणुबंधाओ। जानाति मुनिवर एव साधुरेवानुभावतोऽनुभवनेन पुनरन्यो ऽप्यसाधुः तथानुभवभावादिति गाथाऽर्थः । पुस्माओता तं पि हु, नेअं परमत्थोपावं ॥१८६ ॥ एतदेव समर्थयति-- एषो वाऽभिष्वङ्गो जायते दृढमत्यर्थ, सत्स्वपि गेहादिष्विा | कंखिज्जइ जो अत्थो, संपत्तीए न तं सुहं तस्स । ति गम्यते । कुत इत्याह-अकुशलानुबन्धिनः मिथ्यानुष्ठानो- इच्छाविणिवित्तीए, जं खलु बुडप्पवाओऽयं ॥१६६।। पात्तात्पुण्याद्यस्मादेवं तत्तस्मात्सदप्यकुशलानुबन्धि पुण्यं काक्ष्यतेऽभिलष्यते योऽर्थः संप्राप्त्या न तत्सुखं तस्या. शेयं परमार्थतः पापं संक्लेशहेतुत्वादिति गाथाऽर्थः। र्थस्य इच्छाविनिवृत्या यत्खलु सुखं वृद्धप्रवादोऽयमाप्तप्रवातथा च दोऽयमिति गाथाऽर्थः। कइया सिझइ दुग्गं,को वामो मज्झ वट्टए कहं वा। मुत्तीए वभिचारो, तं णो जं सा जिणेहि पन्नत्ता । जायं इमं ति चिंता, पावा पावस्स य निदाणं ॥१०॥ इच्छाविणिवित्तीए, चेव फलं पगरिसं पत्तं ॥ १७ ॥ कदा सिध्यति दुर्ग बलदेवपुराऽऽदि,को वामः प्रतिकूलो मे मरपतिर्वर्तते, कथं वा जातमिदमस्य वामत्वमिति । एवं. मुक्त्या व्यभिचारस्तत्काङ्कणे तत्प्राप्त्यैव सुखभावादेतदाश भूता चिन्ता पापा सैक्लिष्टाऽऽर्तध्यानत्वात् । पापस्य च याह-तन्न यद्यस्मादसौ मुक्तिर्जिनैःप्राप्ता तीर्थकरैरुलाइ निदानं कारणमार्तध्यानत्वादेवेति गाथाऽर्थः । च्छाविनिवृत्तेरेव फलं न पुनरिच्छापूर्वकमिति प्रकर्ष प्राप्तं सा. इइ चिंताविसधारिअ देहो विसए वि सेवइ न जीवो। मायिकं संयतादेरारभ्योत्कर्षेण निष्ठाप्राप्तमिति गाथाऽर्थः। चिट्ठउ अताव धम्मो-ऽसतेसु वि भावणा एवं ।। १६१॥ इति एवं चिन्ताविषधारितदेहो चिन्ताविषव्याप्तशरीरः सन् जस्सिच्छाए जायइ, संपत्ती तं पड्डुचिम भणियं । विषयानपि सेवते, न जीवः । तथा आकुलत्वात् तिष्ठतु च मुत्ती पुण तदभावे.जमाणिच्छा केवली भणिया ॥१६॥ तावद्धों विशिष्टाप्रमादसाध्यः असत्स्वपि, गेहाऽऽदिष्वि- यस्यार्थस्येच्छया प्रवृसिनिमित्तभूतया जायते संप्राप्तिस्तमति गम्यते । अभिष्वङ्गे सति भावना एवमिति अशुभचिन्ता विलयाऽऽदिकं प्रतीत्येदं भाणितं,कायत इति । मुक्तिः पु. धर्मविरोधिनी यायादेवेति गाथाऽर्थः। नस्तदभावे इच्छाभावे जायते । कुतः?, इत्याह-ययस्मादनि. Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा अभिधानराजेन्द्रः। पवज्जा च्छाः केवलिनो भणिताः " श्रमनस्काः केवलिनः" इति वच- पालनं तस्थागारवासस्य; न च तस्मिन् सतीयं भवतीति नात् । इति गाथाऽर्थः। विरोधादिति गाथाऽर्थः। एवं तर्हि प्रथममपि प्रव्रज्याऽऽदौ तदिच्छाऽशोभना प्राप्नो एतदेवाऽऽहतीत्येतदाशङ्कयाऽऽह आरंभपरिग्गहो, दोसा न य धम्मसाहणे ते उ। पढमं वि जा इहेच्छा, सा वि पसत्थ त्ति नो पडिक्कुट्ठा।। तुच्छत्ताऽपडिबंधा, देहाहाराइतुल्लत्ता ॥२०॥ सा चेव तहा हेऊ, जायइ जमणिच्छभावस्स ॥२६॥ प्रारम्भपरिग्रहती दोषाः संक्लेशाऽऽदयः,अगारवासे चावप्रथममपि प्रव्रज्याऽऽदिकाल या इच्छा मुक्तिविषया साऽपि श्यंभावी प्रारम्भपरिग्रह इति। अत्रान्तरे लब्धावसरः परःक्ष. तस्यामवस्थायां प्रशस्तति कृत्वा नो प्रतिकुष्टा न प्रतिषिद्धा। पणकः कदाचिदेवं ब्रूयात्-उपकरणग्रहणेपि तुल्यमेतदित्याकिमित्यत पाह-सा चेच्छा तथा तेन प्रकारेण सामायिक- शड्याऽऽह-न च धर्मसाधने वनपात्रादौतएव दोषाः। संयताऽऽद्यनुष्ठानरूपेणाभ्यस्यमाना हेतुर्जायते यद्यस्मादनि कुतः?,तुच्छत्वादसारत्वात्तस्य। तथा अप्रतिबन्धात्प्रतिबन्धा च्छभावस्य केवलित्वस्येति गाथाऽर्थः।। भावात् देहाऽऽहाराऽऽदितुल्यत्वात्स्वल्पा भवन्तोऽपि दोषाः इतश्च प्रव्रजितस्यैव सुखमित्यावेदयन्नाह संमूर्छनजाऽऽदयो देहाऽऽहाराऽऽदितुल्यत्वात् बहुगुणा पवेति गाथाऽर्थः। भणि च परमसुणिहिं, मासाइदुवालसप्परीपाए । वंतरअणुत्तराणं, वाईवइ तेअलेस्सं ति ॥२०॥ तम्हा अगारवासं, पुनाउ परिचयंति धीमंता । सीओदगाइभोगं, विवागकडुअंतिन करिति ॥२०६॥ भणितं परममुनिभिः,किमित्यत्राऽऽह-महाश्रमणो महातपस्वी मासाऽऽविद्वादशपर्याय इति ।मासाऽऽदिकं कृत्वा द्वाद यस्मादेवं तस्मादगारवासं निगडबन्धबन्धधरपुण्यात्परित्यशमासपर्याय इत्यर्थः। व्यन्तराऽऽद्यनुत्तराणामिति ब्यन्तरा. जन्ति धृतिमन्तः । परित्वले तस्मिन् सुखभावाच्छीतोदका. दीनामनुसरोपपातिकपर्यन्तानां व्यतिक्रामति तेजोलेश्यां सु. 3ऽदिभोग विषान्नभोगवद्विपाककटुकमिति कृत्वा न कुर्वन्ति खप्रभावलक्षणामनुक्रमेणेति गौतमपृष्टेन यथोक्तं भगवता तपस्विन इति गाथाऽर्थः। . एतदेव समर्थयति"जे मे अनचाए समणा णिग्गंथा विहरंति जाव अंतं करे। है।" ( इति पाठोऽस्मिन्नेव शब्दे ७५२ पृष्ठे गतः) के अविजागहिआ, हिंसाईहिं सुहं पसाहिति । "जाव अंतं करेइ ।” एतदेवाऽऽह नो अन्ने ण य एए, पडुच्च जुत्ता अपुल त्ति ॥२०७॥ तेण परं सुक्केमु-कभिजाई तहा य होऊण । केचित्प्राणिनोविद्यागृहीता अक्षानेनाभिभूता हिंसाऽविभिः करणभूतः, श्रादिशब्दादनृतसंभाषणाऽदिपरिग्रहः। विपच्छा सिज्झइ भयवं, पावइ सव्वुत्तमं ठाणं ।।२०१॥ षयोपभोगलक्षणं प्रसाधयन्त्यात्मन उपभोगतया माम्य इति।न तेन इति द्वादशभ्यो मासेभ्य ऊर्द्धमप्रतिपतितचरणप. पुनरन्ये प्रसाधयन्त्यपि तु तेन विनैव तिष्ठन्ति । न च त एवंरिणामः सन्नसौ शुक्लः कर्मणा शुक्लाभिजात्य प्राशयेन भूता विवेकिनः सुखभोगरहितांअपि तान् हिंसाऽदिभिः सु. तथा च भूत्वा समग्रप्रशमसुखसमन्वितः पश्चासिद्धयति खप्रसाधकान् प्रतीत्याऽश्रित्य युक्ता अपुण्या इति । तेषां हि भगवान् एकान्तनिष्ठितार्थो भवति प्राप्नोति सर्वोत्तम विपाकदारुणे प्रवृत्तत्वात्परस्यापि सिद्धमेतदिति गाथाऽर्थः । स्थानं. परमपद मिति गाथाऽर्थः। एतन बहुदुःखेत्याद्यपि परिगृह्यतां गृहवासस्य वस्तुतोऽनप्रकृतयोजनां कुर्वन्नाह र्थत्वादिदानीं त्यक्ते गृहवास इत्यादि परिहरनाहलेसा य सुप्पसत्था, जायइ सुहियस्स चेव सिद्धमिणं । चइऊणऽगारवासं, चरित्तिणो तस्स पालणाहे। इअ सुहनिबंधणं चित्र पावं कह पंडिओ भणइ ११।२०२॥ जं जं कुणंति चिटुं, मुत्ता सा सा जिणाणुमया ।२०८। लेश्या च सुप्रशस्ता जायते सुखितस्यैव नेतरस्येति सि त्यक्त्वा अगारवासं द्रव्यतो भावतश्व चारित्रिणः संयतस्य दमिदं विपश्चिताम् , इति एवं सुखनिबन्धनमेवागारवा- तस्य चारित्रस्य पालनहेतोः पालननिमित्तं यां यां कुर्वन्ति चे. सपरिवागं पापं कथं परिडतो विपश्चिद्भणति । अतोऽय प्रां देवकुलवासाऽऽदिलक्षणां सूत्रादागमानुसारेण सा सा क्लमुक्तम्-"अगारवासं पावाश्री परिचयंति।" इति गाथाऽर्थः। जिनानुमता, गुर्वनुमतपालने च सुखायवेति गाथाऽर्थः। तम्हा निरभिस्संगा, धम्मज्माणम्मि मुणितत्ताणं । किश्चतह कम्मक्खयहेऊ, विप्रणा पुन्ना उ निद्दिट्ठा ॥२०३॥ अवगासो आय चिय,जो वा सो व त्ति मुणिमतत्ताणं । तस्माभिरभिष्यताः सर्वप्रशंसाविप्रमुक्ता धर्मध्याने तथा निअकारिओ उ मझ. इमो त्ति दुक्खस्सुवायाणं ।।२०६॥ द्वादके सति शाततत्वानां मोहरहितानां तथा तेन प्रकारेणा- अवकाशोऽपि तवत श्रात्मैव 'जो वा सो व ति'शातन्यानुपादानलक्षणेन कर्मक्षयहेतुः वेदना तथाविधाऽऽ-मप- तत्त्वानां देवकुलाऽऽदिःनिजकारितस्तु ममायमिति जीवखा. रिगामरूपाऽऽपादिनी पुण्या निर्दिया तत्त्वतः पुरायफलमेवं भाव्याद दूःखस्योपादानमिति गाथाऽर्थः ।। विधामति गाथाऽर्थः । तवसा अपियासाई, संतो विण दुक्खरूवगा था। तह एसा संजायइ, अगावासम्मि अपरिचत्तम्मि। जं ते खयस्स हेऊ, निदिट्ठा कम्मवाहिस्स ॥२१०॥ नाभिस्संगण विणा, जम्हा परिपालणं तस्स ॥२०४॥ तपसश्च पिपासाऽऽदयः सन्तोऽपि भिक्षाटनादौन दुःखरूपा तथैषा वेदनोतलक्षणा संजायते अगारधासे गृहवासे उप- क्षेयाः । किमित्यत्राऽऽह-यद्यस्मात्ते पिपासाऽऽदयः क्षयस्य रित्यक्त भावतः । किमिनि ?, नालिबाग विना यस्मात्प्रति हेतवा निर्दिा भगवद्भिः कम्मेव्याधरिति गाथाऽर्थः। Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६६) अन्निधानराजेन्द्रः। पवज्जा पवज्जा तथा स्य या भिक्षाऽटनाऽऽदिचेष्टा सा प्रतिषिद्धा जिनवरः, प्र. वाहिस्स य खयहेऊ, सेविजंता कुणंति धिइमेव । त्युत बन्धनिबन्धनमसाविति गाथाऽर्थः । कडुगाई वि जणस्सा, ईसिं दंसिंतगाऽऽरोग्गं ॥२१॥ तथा च भिक्खं अति प्रारं-भसंगया अपरिसुद्धपरिणामा। व्याधेरपि कुष्ठाऽऽदेः क्षयहेतवः सेव्यमानाः कुर्वन्ति धृति. मेष, कटुकाऽऽदयोऽपि जनस्य ईषदर्शयन्त प्रारोग्यमनुभव. दीणा संसारफलं, पावाओ जुत्तमेनं तु ॥ २१८॥ सिद्धमेतदिति गाथाऽर्थः । एष दृष्टान्तः । भिक्षामटन्त्युदरभरणार्थमारम्भसङ्गतास्तथा षड्जीवनिकाअयमर्थोपनयः योपमईनप्रवृत्या अपरिशुद्धपरिणामाः उकानुष्ठानगम्यमहाइन एए वि अ मुणिणो, कुणंति धिइमेव सुद्धभावस्स । मोहाऽऽदिरञ्जिताः, दीना अल्पसत्वाः संसारफलां भिक्षा, न तु सुयतिवद् दातृगृहीत्रोरपवर्गफलां, पापाद्युक्तमेव तदिगुरुवाणासंपाडण-चरणाइ सयं ति दंसित्ता ॥ २१२ ॥ ति । एतदित्थंभूतमकुशलानुबन्धिना पापेन भवतीति न्या. . (इय ) एवमेतेऽपि च तुदादयो मुनेः कुर्वन्ति धृतिमेव, न य्यमेतदिति गाथाऽर्थः। तु दुःखं, शुद्धभावस्य रागाऽऽदिविरहितस्य । किं दर्शयन्तः कस्य पुनः कर्मणः फलमिदमित्याहसन्त ?,..............."(?) इति गाथाऽर्थः।। ईसं काऊण सुह, निवाडिया जेहि दुक्खगहणम्मि । ण य ते वि होति पायं, अविअप्पं धम्मसाहणमइस्स । मायाएं केइ पाणी, तेसिं एआरिसं होइ ॥ २१६ ।। न य एगतेण वि अ, ते कायव्वा जो भणियं ।२१३१ ईषत्कृत्वा सुखं गलप्रव्रजिताऽविधिपरिपालनाऽऽदिना निन च तेऽपि भवन्ति प्रायः क्षुदादयः अविकल्पं मातृस्थान- पातिता यैर्दुःखगहने दुःखसङ्कटे मायया केचित्प्राणिन ऋ. विरहेण धम्मंसाधनमतेःप्रवजितस्य धर्मप्रभावादेव । न जवस्तेषां सवानामीदृशं भवति ईरषफलदायि पापं भवचैकान्तेनैव ते दादयः कर्तव्या मोहोपशमाऽऽदिव्यतिरेके- तीति गाथाऽर्थः। ण बतो भाणितमिति गाथाऽर्थः। तथा चकिं तदित्याह चइऊण घरावासं, तस्स फलं चेव मोहपरतंता । सो हु तवो कायव्वो, जेण मणोऽमंगलं न चिंतेइ ।। ण गिही ण य पन्चइआ, संसारविवङ्गा भणिया ॥२२०॥ जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा ण हीयते ॥२१४॥ त्यक्त्वा गृहवासं दीक्षाऽभ्युपगमेन, तस्य फलं चैव गृहवा. तद्धि तपः कर्तव्यमनशनाऽऽदि येन मनोऽमङ्गलमसुन्दरं न | सत्यागस्य फलं प्रवज्या, तां च त्यक्त्वा विरुद्धासवनेन, मो. चिन्तयति, शुभाध्यवसायनिमित्तात्कर्मक्षयस्य । तथा येनने- हपरतन्त्राः सन्तो न गृहिणः, प्रकटवृष्या तस्य त्यागान च न्द्रियहानिः,तद्भाव प्रत्युपेक्षणाऽऽद्यभावात्। येन च योगाच- प्रवजिताः, विहितानुष्ठानाकरणात् । त एवम्भूताः (संसाक्रवालसामाचार्यन्तर्गता व्यापारा न हीयन्ते। इति गाथाऽर्थः। रपवड्डग त्ति) संसाराऽऽकर्षकाः, दीर्घसंसारिण इत्यर्थः । देहे वि अपडिबद्धो, जो सोगहणं करेइ अन्नस्स । भणितास्तीर्थकरगणधरैरिति गाथाऽर्थः। विहियाणुद्वाणमिणं, ति कह तो पावविसउत्ति।१५। उपसंहरनाहदेहेऽप्यप्रतिबद्धो यः विवेकात्स ग्रहणं करोत्यन्नस्यौदना एएणं चित्र सेसं, जं भणियं तं पि सचमक्खित्तं । ऽऽदेर्विहितानुष्ठानमिति, न तु लोभाद्यतश्चैवमतः कथमसौ सुहझाणाइअभावा, अगारवासम्मि विमेधे ॥२२॥ पापविषय इति, नैव पापविषयः। एतेन कथं न पापविषय । एतेनैवानन्तरोदितेन शेषमपि शुभध्यानाधर्म इत्यादि यइत्येतत्प्रत्युक्तमिति गाथाऽर्थः। गणितं तदपि सर्वमाक्षिप्तमागृहीतं, विशेयमिति योगः । किच कुतः?, इत्याह-शुभध्यानाऽऽद्यभावात् प्रागारघास इति ।न तत्थ वि अधम्मझाणं, न य प्रासंसा तो असहमेव । बगारवासे उक्तवत्कदा सिद्धयति दुर्गमित्यादिना शुभध्यासव्वं इय अणुठाणं, सुहावहं होइ विनेअं॥२:६॥ नाऽऽदिसम्भव इति गाथाऽथे। तत्राऽपि चान्नग्रहणाऽऽदौ धर्मध्यानं, सूत्राऽऽशासंपाद यञ्चोक्तं परहितकरणैकरतिरित्यत्राऽऽहनात्। न चाऽऽशंसा, सर्वत्रैवाभिष्वङ्गनिवृत्तेः। यतश्चैवं ततश्च मुत्तूण अभयकरणं, परोवयारो वि नत्थि अमो त्ति । सुखमेष तत्रापि सर्व वस्त्रपात्राऽऽदि ( इय ) एषमुक्तेन न्या- दंडिगतेणगणायं, न य गिहिवासे भविगलं तं ॥२२२॥ येन सूत्राऽऽशासंपादनाऽऽदिना अनुष्ठानं साधुसंबन्धि सु. मुक्त्वाऽभयकरणमिहलोकपरलोकयोः परोपकारोऽपि ना. खाऽऽवहं भवति विज्ञेयमिति गाथाऽर्थः । स्त्यन्य इति अत्र दृष्टान्तमाह-दण्डिकस्तेनकक्षातमत्र द्रष्टएवंभावयतः सूत्रोक्ता चैष्टा सुखदैव, तदन्यस्य तु दु: व्यम् । न च गृहवासे अविकलं तदभयकरणमिति गाथाऽर्थः । खदेति सिद्धसाध्यता । तथा चाऽऽह यच्चोक्तं परहितकरणैकरतिरित्यत्र दण्डिकीस्तेनोदाहचारित्तविहीणस्सा, अभिसंगपरस्स कलुसभावस्स । रणमाहअम्माणिणो अजा पुण,सा पडिसिद्धा जिणवरेहि।।२१७।। तेणस्म वज्झनयणं, विदाणग रायपत्तिपासणया । चारित्रविहीनस्य द्रव्यप्रवजितस्याभिष्वङ्गपरस्य भिक्षाऽऽ. निवविलवणं कुणिमो, उवयारं किं पि एअस्स ।।२२३॥ दावेव कलुपभावस्य यो द्वेपाऽऽत्मा तस्याऽशानिनच मूर्ख । रायागुमा एहवणग, विलेवणं भूसणं सुहाऽऽहारं । Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६७) अभिधान राजेन्द्रः | पवज्जा अभयं च कयं ताहिं किं लद्धं पुच्छिए अभयं ॥ २२४॥ अनयोरर्थः कथानकेनैवोच्यते " वसंतउरे नयरे जियसत्तू राया पियपत्तीहिं सद्धि निज्जूहगराश्री चिट्ठर । इश्री य तेगो वज्भो निज्जइ । सो य मच्चुभरण विद्वाणगो रायपत्ती दिट्ठो । कारुणिगाहिं वित्तो राया-मद्दाराय ! कुणिमो एयस्स पयावत्थगस्स य किं पि उबगारं ति । राइणाऽणुमाया ते । ताओ एगाए मिल्लावेऊण पयं पि ताव पावश्री तिब्वं पागीतल्लाइणाऽभंगावेऊण राहविश्रो परिहाविश्रो विलित्तो य । दससाहस्सीए परिवर श्राए भूसिऊणाहाराऽऽदिया भुंजाविश्रो अट्ठारस वि खंडपगारे वीससाहस्लीप परिवरसं । श्रसाए भणियं महाराय! णत्थि मे विहवे जेण पयस्स उबगरेमि | राहणा भणियं-मपं हवति किं तुज्झ नत्थि, देह जं रोयतीति । तीए भणियं जइ एवं ता श्रभयं पयस्स । इयहिं भणियं-मोग्गडा एसा । तीए भणियं-जं मए दिन्नं तं न तुझेहिं । पत्थ एसो पमाणं । पुच्छि ते गो-भण किमेत्थ लद्धं ति ? | तेण भणियं सेलं ण याणामि, अभयदां मे वेयणापसमुत्ति । " श्रतोऽभयकरणमेव परोपकार इति गा थाद्वयाऽर्थः । गृहिणस्ते तदविकलं न भवतीत्याहगिहिणो पुरा संपञ्जर, भोश्रणमित्तं पि नि मिश्रो चैव । attaकायद्या-ता तो कह लद्धो त्ति ! ||२२|| गृहिणः पुनः संपद्यते भोजनमात्रमप्यास्तां तावदन्यद्रागादि नियमत एव । केनेत्याह-पट्जीवकायघातेन यतश्चैवं ततस्तस्मादसौ गृहाऽऽश्रमः कथं नु लब्धो, नैव शोभनः । इति गाथा ऽर्थः । श्रनेन वादस्थानान्तरमपि परिहृतं द्रष्टव्यमित्येतदाहगुरुणोवि कह न दोसो, तवाइदुक्खं तहा करितस्स । सीसाणमेवमावि, पडिसिद्धं चेव एएण ।। २२६ ।। गुरोरपि प्रवाजकस्य कथं न दोषः तपश्रादिना दुःखं तथा तेन प्रकारेणानशना ऽऽदिना कुर्वतः केषामित्याह-शिष्याणा मेवमाद्यपि कुतोऽयमादिशब्दात् स्वजनवियोगाऽऽदिपरिग्र हः । प्रतिषिद्धमेव एतेनानन्तरोदितेन प्रन्धेनेति गाथाऽर्थः । कथमित्याह परमत्थओ न दुक्खं, भावम्मि वि तं सुहस्स होउ ति । जह कुसलविजकिरिया, एवं एवं पि नायव्वं ॥ २२७॥ ' कह वत्ति दारं गयं । ' परमार्थतो न दुःखं तप इत्युक्तं भावेऽपि दुःखस्य तत् तथा दुःखं सुखस्य हेतुरिति । निर्वृतिसाधकत्वेनात्र दृष्टान्तमाह-यथा कुशलवैद्यक्रिया दुःखदा:प्यातुरस्य न वैद्यदोषायैवमेतदपि सांसारिक दुःखमोचकं त पोऽनुष्ठानं शातव्यमिति गाथाऽर्थः । पं० व० १ द्वार । (दीक्षाषोडशकम् 'दिक्खा' शब्दे चतुर्थभागे २५०६ पृष्ठे उक्तम्) (२५) परीक्ष्य प्रव्राजयति से भय ! कहं परिक्खा ?। गोयमा ! णं जे केइ पुरिसे इ वा, इत्थिया वा सामन्नं पडिवजिउकामे कंखेज्ज वा, निसीएज वा, छडि वा पकरेज वा, सगेण वा परगेण वा आसंते वा सन्निएवा, ते बहुतं गच्छेज वा अनालोइज वा, पलो For Private पत्रज्जा इज वा, वेसग्गहणे ठाइज्जमाणे कोइ उप्पाएइ वा असुहे दुन्निमिते इ वा भवेज्जा; से णं गीयत्थे गणी अ tris वा मयहरादी महया नेणं निरूविज्जा, जस्स याई परकज्जा, से णं णो पव्बावेजा, से गं गुरुपडिणीए भवेज, से णं निद्धम्मसवले भवेज्जा, से गं सव्वा सव्वपयारेसु णं केवलं एगंतेयं श्रइज्जकरणुज्जए भवेजा, सेणं जेणं वा तणं वा सुरण वा विनाय वागावे भवेज्जा, सेणं संजइवग्गस्स चउत्थवयखंडसीले भवेज्जा, से बहुरूवे भवेज से भयवं ! कयरेणं से बहुत्रे बुच्च ? | जे प्रसन्नविहारीणं श्रोसने उज्जुय विहारी णं निद्धम्मसवलाणं निद्धम्मसवले बहुरूबी रंगगए वारणे इव, खडे खणेणं रामो खणेय लक्खणे खणे दसग्गीवरावणे खणेणं दप्परयत्तुदंतुरजराजुत्तगत्तपंडुकेसबहुपचरिए विदूसगे खणेयं तिरियंचजाती वाणरहणुमंत केसरी, जहा एस गोयमा ! तहा गं से बहुरूवे | एवं गोयमा ! जें असई कयाइ चुकखलिएणं पव्वावेज्जा से गं दूरट्ठाणवत्र हिए करेज्जा, से गं सन्निहिए यो धरेजा, से गं आयारेणं नो श्रालवेज, से गं भंडमत्तोवगरणं नो पडिलाहावेज्जा, से गं तस्स गच्छसत्थं नो उद्दिसेज, से णं गंथसत्थं नो अणुजाज, से तस्स सद्धिं गुज्झरहस्सं वा यो मंतिजा । एवं गोयमा ! जे hs दोसविप्प से गं पव्वावेजा । तहा गं गोयमा ! मिच्छप्पनं श्रणारियं यो पवावेज्जा, एवं वेस्लासुयं नो पव्वावेज्जा, एवं गाणगं नो पव्वावेज्जा, एवं चक्खुवि - गलं, एवं विगपियकरचरणं, एवं छिन्नकन्ननासो, एवं कुवाही गलमा सडतं, एवं पंगुं अयंगमं मूयं बहिरं, एवं अच्चुकडकसायं, एवं बहुपासंडसंसहं, एवं घरारागदोसमोहमिच्छत्तमलखवालयं, एवं अजियउत्तयं, एवं पोराणनिक्खुर्ड एवं जिणालयाइबहुदेववलीकरणभोइयं चक्कायरं, एवं णडणट्टच्छत्तवारणं, एवं झयजड्डुं चरणकरणजङ्कं जडकायं यो पव्वावेज्जा, एवं तु जाव णं नामही थामही कुलहीणं जाइहीणं बुद्धिहीणं पन्नाहीयं गामउमयहरं वा गामउडं मयहरसुर्य वा अन्नरयरं वा निंदियाण महणजाइयं वा अविनायकुलसहावं गोयमा ! सव्वा णो दिक्खे, णो पव्वावेज्जा । महा० ५ अ० | (२६) एकादश प्रतिमाप्रतिपन्नस्य श्रावकस्य प्रवज्या अथ तदनन्तरं यत्तस्य विधेयं स्यात्तदभिधित्सुराहभावे ऊत्ताणं, उवेइ पव्वज्जमेव सो पच्छा । हवा गित्थभावं, उचियत्तं अप्पणो नाउं ॥ ३६ ॥ भावयित्वा वासयित्वा प्रतिमानुष्ठानेनात्मानं स्वमुपैत्युप• गच्छति, प्रव्रज्यामेवानगारत्वमेव, तदुचितमात्मानं शात्वेत्यु Personal Use Only Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्जा अनिधानगजेन्डः। पवज्जा स्सर्गः । स इति श्रावकः । पश्चात्प्रतिमाऽनुष्ठानानन्तरम् । सुद्धासयस्स एसा, आहेण वि वलिया समए ॥४३॥ अधति प्रकारान्तरद्योतनार्थः । गृहस्थभाषं गृहित्वमेवी- भवनिदात्संसारविरागाधतो यस्मात्कारणात्तथा मोक्ष पैतीति वर्तते । कि कृत्वेत्याह-उचितत्वं योग्यतां पाहिभाषा निर्धाणे रागादभिलाषात् । किं भूतात् ?, शानपूर्वात् सम्यकस्यै वामनः स्वस्य ज्ञात्वाऽवगम्येति गाथाऽर्थः। झानपुरस्सरात् न तु मिथ्याज्ञानपूर्वकात् शुद्धाशयस्य नि. अध कस्मान्प्रतिमाभिर्भावयित्वैवाऽऽत्मानमुपैति प्रवज्या. मलाध्यवसायस्य जीवस्य एपा प्रव्रज्या ओघेनाऽपि सामान्य मित्याशङ्कयाह नोपि सामायिकमात्रप्रतिपश्यपक्षयाऽप्यास्तां विशेषतोऽप्र. गहण पव्वग्जाए, जो अजोग्गाण णियमतोऽपत्यो। मनाउदिसामायिकप्रतिपत्तितो वर्णिता भणिता समये सितो तुलिऊर्णपाणं, धीरा एयं पवति ॥४०॥ द्वान्ते, अतः कथमस्थामयथोक्तार्था चेष्टा । इति गाथाऽर्थः । येन धबन समये ला तथा वर्णिता तहर्शयन्नाहग्रहणं स्वीकरणं प्रवज्यायाः श्रामण्यस्य यस्मादयोग्थामा। तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ ण होइ पावमणो । मनुचितानां नियमतो:वश्यमेवानर्थोऽपायस्तस्मासुलयित्वा भावनया परीक्षण, पौग्यता निश्चित्येत्यर्थः । श्रात्मानं खं धीरा सयणे य जणे य समो, समो य माणावमाणेसु ॥४४॥ भीमन्तः पता प्रतिपद्यतनीकुर्वन्तीति गाथाऽर्थः । यह प्राकृतशैल्यपेक्षया भ्रमणशब्दं व्युत्पादयति-(तो इति) ततस्तस्माद्धेतोः “सह मणेण चित्तेण वट्टा ति" समणो,न तुलयित्वाऽऽत्माममित्युक्तमथ तुलनैव कथमित्यत आह-- वह मनीमानास्तित्वं विवक्षितशब्दस्य सामायिकविशवप्रतुलणा इमेण विहिणा, एतीए हंदि नियमतो गया। तिपादनार्थस्य व्युत्पत्तिनिमित्ततया विवक्षितं सकलसंक्षिसाणो देसविरकंडय-पतीए विणा जमेस सि ॥ ४१ ।। धारणत्वात् तस्येस्यतस्तविशेषणार्थमाह यदीत्यभ्युपगमे, तुलना प्रात्मनो योग्यता परीक्षाऽनेनानन्तरोक्नेन विधिना शोभनं धर्मध्यानाऽऽदिप्रवृत्ततया मनश्चित्तं यस्य स सुमनाः। विधामेन प्रतिमाऽनुष्यानेलक्षणेन एतस्याः प्रवज्यायाः, हन्दी अनेन सद्गुणान्वितमनस्कत्वं विधक्षितशब्दव्युत्पत्तिनिमिस्युपप्रदर्शने,नियमतो नियोगेन विज्ञेया अवसया। अथ कस्म। नत्वेनीलम्। श्रय दोषरहितमनस्कतामाह-भावेनाऽऽत्मपदेवमित्याह-(नो) नैव देशविरतिरणुव्रताऽऽदिप्रतिपत्तिपनि शिमेल तश्वनी वा निम्पचरितत्वेन, चशब्दः समुचये, यणामस्तस्य कराडकान्यध्वचलायस्थानानि, तेषां या प्रातिलो दीरयम्य पाने में भवति नैव स्यात् पापं प्राणातिपाताभः सा तथा तया देशविरतिकराडकप्राप्त्या, विना तदनावे, 3ऽदिमन्सनिदानं वा मनो यस्य स पापमनाः, तथा स्वजनेच पद्यस्मात्कारणादेषा प्रत्रज्या भवति । इतिशब्दो वाक्यार्थस. पुषादिक जने चाम्यस्मिन् समस्तुल्यः प्रेमाप्रेमवर्जनेन । भाप्तौ । प्रायिकं चैतत्-यतोऽसंख्यातनमो भागः सिद्धानाम- नया सम सुरुष एवं मानापमानयोः पूजेतरयोरिति उत्तप्राप्तदेशविरतिकोऽपि सिम्यमुपगतोऽभिर्धायो । यदाह राहाक्षया देवध्युत्पत्तिः-समः सन् सम्यग् वा श्रणति "भानेहि असंखेजहि फामिया देसविराई ति" तथा तु. वर्तते योनी निमाविधिना 'समण इति' स्यादित्येवं शु. लनाऽनेन विधिनेत्यपि प्राधिकम् । एतच्च स्वयमेवा दर्श डाशयस्यैषा पणिनेति गाथाऽर्थः । यिष्यतीति गाथाऽर्थः। अथ कस्याऽपि प्रतिमाऽनुष्ठानं विनाऽपि प्रव्रज्या यथोदि. एवं तुलानापूर्वकं प्रवज्यायां सत्यां यद्भवति तदर्शयितुमाह तैय स्यादिति दर्शयन्नाहसीए य अविगलाए, बझा चेटा जहोदिया पाय । सा कम्मरपोवसमा, जो एयपगारमंतरेणावि । होति णवरं विसेसा, कत्थति लक्खिजए ण तहा। ४२।। जायति जहाइयगुणो, तस्स वि एसा तहा णेया ॥४॥ तस्यामुक्ततुलनापुरस्सरप्रवज्यायो नमः पुनरर्थः। श्रवि. (ता इति ) यस्माद्भवनिर्वेदादेः सकाशाद्विशुद्धाऽऽशय कलायां परिपूर्णायां तद्योग्यतानिश्चयपूर्वक धन प्रतिपन्नत्या. स्यैषा वर्णिता तस्मात्कारणान् क्षयोपशमात् शानाऽऽवरस, बाह्या बहिर्वतिनी, चेष्टा प्रत्युपक्षण(55दिसामाचार्यनुपा णाऽऽदिकर्मविगमविशेषात् कारणाद्या प्राण्यतत्प्रकारमन्त. लनारूपा, यथोदितागमोक्ता, प्रायो बाहुल्यन, प्रायोमहणं रेगाऽपि बालत्याउऽदिकारणात्प्रतिमाऽऽनुष्ठानव्यतिरेकेणाचोक्तविपरीतकारिभिर्गुरुकर्मप्राणिभिव्यभिचारोऽभिहितार्थ ऽपि एतत्प्रकारेण ताबजायत एयेत्यपिशब्दार्थः, जायते संस्य मा भूदिति कृतमिति भवति स्यात् नेनु कदाचिन ग्लान पद्यते यधोदितगुणः प्रवज्योचितगुणस्तस्याऽपि प्राणिनी, न स्वाऽऽदो तथा प्रवज्यायामप्यसो न दृश्यते इन्याशयाह केवलं प्रतिमाकारिण एष, एषा प्रवज्या, तथा तद्वन् प्रतिमानवर केवल भवत्यपि सामान्यन सा विशेषतो विशेषण कारिग इव शेयाऽवशेया, कर्मक्षयोपशमांदयेति गाथाऽर्थः । कचिद्देशे काल पुरुषे वा पुटाऽऽलम्बनानाविनापवाने ल प्रतिमाप्रतिपतिव्यतिरेकेणाऽपि प्रनया जायते इत्येतक्ष्यते निश्चीयते स्थूलदृष्टिभिन नैव तथा तथा स्वस्था स्यैव समर्थनार्थमाहवस्थायां बाह्यवेष्टेनि प्रकृतमिति गभिल्लराजगृहीत- एशोखिय पुष्टाऽऽदिन, हंदि विसुद्धस्स सति पयत्तेणं। सावीविमाचनार्थमुज्जयिन्यामानीतपस्वतिमामन्नकटक--- दायच्चा गीतेणं, भणियामणं सम्बदसीहि ॥४६॥ कालिकाऽऽचार्यश्चेहोदाहरणमिति गाथा:र्धः । (कालि (एनाश्चिय ति। यत एतत्प्रकारमन्तरेणाऽपि उचिनगुणस्य काचार्यवृत्तम् 'कालगन्ज ' शब्दे तृतीयभागे ५६० पृष्ट प्रवज्याप्रतिमाकरिव यधाला भवति, अत एव कारणान्। विस्तरतो गतम्) पृच्छाऽऽदिए पृच्छाकथनापरीक्षाम् । तत्र पृच्छा-"कोऽमि __ अथ कस्मादिह यथोक्नैव घेष्टा स्यादित्याह । तुमं, कत्ती वा, पबसि वा किंनिमित्तं ति।" एवमादिरूपा। भवगिब्बयार जतो. मोक्खे रागाउ गाणपुवायो। कथना पुनः प्रविजिपी प्रव्रज्याम्पस पकथनम् । यथा-"अह Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवजा प्रनिधानराजेन्द्रः। पवज्जा चेव मोक्खफलया, प्राणा श्राराहिया जिणिदाणं । संसा- ननु यदि प्रतिमाकरण मन्तरणाऽपि प्रज्या सम्यग् भवति रदुक्खफलया.तह चेव विराहिया होइ॥१॥" इति । परीक्षा तदा कि सेनेत्यत पाहतु परमासाऽऽदिकालमाना विनयाऽऽदिभिस्तद्योग्यतानिरू- जुत्तो पुण एस कमा, मोहेणं संपयं विसेसेण । पणा । एतेषु पदेषु, हुन्दीत्युपप्रदर्शने, विशुद्धस्य निर्दोषतां जम्हा असुहो कालो , दुरणुचरो संजमो एत्थ ॥४६॥ गतस्य सकृत्सदा प्रयत्नेनाऽऽदरेण दातव्या देया, प्रवज्येति यद्यपि प्रक्रमान्तरेणाऽपि प्रत्रज्या स्यात्तथाऽपि युक्तः प्रकृतम् । गीतेन "पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात्" गीतार्थे सङ्गतः । पुनरिति विशषणार्थः । एषोऽनन्तरोकः प्रतिमानुन सूत्रार्थविदा, नान्येनेति, भणितमुक्तमिदमेतत्सर्वदर्शिभिः ठानाऽऽदिः,क्रमः प्रव्रज्याप्रतिपत्तो परिपाटिः । कथमित्याहकेवलिभिरिति गाथाऽर्थः। श्रोधेन सामान्येन न तु सर्वथैवतं विनाऽपि बहूनां प्रव्रज्याचपुनरपि सामान्यतोऽपि प्रव्रज्याग्रहणमस्तीति समर्थयन्नाह बणात् । कालापेक्षया विशेषमाह-सांप्रतं वर्तमानकाले विशेतह तम्मि तम्मि जोए, सुत्तुवोगपरिसुद्धभावणं ।। षेण विशेषतो युक्त एष कमः। कुत एसदेवमित्याह-यस्मादरदिलाए वि जो. पडिसेहो वलियो एत्थ ॥४७।। कारणाद् अशुभोऽशुभानुभावः कालो दुःपमालक्षणों वर्तते। तता दुरनुबरी दुःखाऽऽलव्या.संयमः संयतत्वम् अत्राऽशुतथेति बापकान्तरसमुच्चयार्थः। तस्मिस्तस्मिन् तत्र तत्र प्र. मकाले: अतः प्रवजितुकामन प्रतिमाऽभ्यासी विधेय इति बाजनसुण्डनादौ योगे प्रवज्यादानब्यापारे विषयभूते,प्रति भावः । इति गाथाऽर्थः। पेधो वर्णित इति योगः। सूत्रोपयोगेनाऽऽगमोपयुक्ततया परि- तन्त्रान्तरमसिया प्रतिमापूर्वकरचं प्रवज्याया योग्यत्वं सशुद्धो विशुद्धो भावोऽध्यवसायो यस्य स तथा तेन, गुरुणा, मर्थयन्नाह-- किमित्याह-दरदत्तायामपीषद्वितीर्णायामपि, दीयमानाया तंतंतरेसु वि इमो , आसमभेनो पसिद्धभो चेव । मित्यर्थः । श्रास्तामदत्तायां प्रव्रज्यायामिति प्रकृतम् । ता इय इह जइयवं, भवाविरह इच्छमाणोहि ॥ ५० ॥ यती यस्मात्कारणात् . प्रतिषेधो निषेधोऽयोग्यानाम् , व. र्णित उक्तः, अति वक्ष्यमाणे प्रव्रज्याभिधामसूत्रे प्रवज्या तन्त्रान्तरेष्वपि वर्शनान्तरेष्वपि, मास्तां जिनप्रवचने । अयमयां चेति । अतो ज्ञायते प्रतिमानुष्ठानमन्तरेणाप प्रवज्ण नन्तरोत,माश्रमभेदो भूमिकाविशेषः, "ब्रह्मचारी गृहस्थश्च, भिधानमस्तीति गाथाऽर्थः । वानप्रस्थो यतिस्तथा।" इत्याविनाङ्गस्वरूपः। दो"इति पा ठान्तरम्। तत्र इतोगशुभकाल दुरतुचरसंयमलक्षणातुद्वयात्, अथ कथं सूत्रे प्रवाजनायां प्रतियोगनिषेध उक्त इत्यवसि अथवा इतो जनप्रवचनात्तन्वान्तरेष्यिति । प्रसिद्ध कश्चैव सि. तमित्याह द्ध एव न तु साध्यः। यस्मादेवं तत्तस्मादू,इत्युक्तभ्यायेन,इहप्र. पवावियो सिय ति य, मुंडावेउमाइ जे भणियं ।। तिमापूर्वकप्रव्रज्यायां यतितव्यं यत्ना विधेयः, भवविरहं सं. सव्वं च इमं सम्म, तप्परिणामे हवति पायं ।। ४८॥ सारवियोगम् , इच्छद्भिर्वाञ्छङ्गिनिखिलशालमप्रवरपारग ताऽगमावलम्विभिरिति गाथाऽर्थः । पचास १. विव० । प्रवाजितः स्यादिति च मुएडापयितुमित्येतद्वाक्यमादिर्यस्य । ('सेहभूमि'शहे जडस्यापरिणामस्य दीक्षा) सूत्रस्य तत्तथा तत् यद्यस्माद्भणितमुक्तं कल्पभाष्ये, तस्मा (२७) पर उक-बातिक-क्लीयप्रवज्यामिषेधःप्रतियोगं प्रवज्यायां निषेधो वर्पित इत्यवसीयते । तञ्चेदं तो नो कप्पंति पव्वावित्तए । तं जहा-पंढए, वाइए, सूत्रम्-" पब्वाविश्रो सिय त्ति य, मुंडावेउं अणायरणजो. कीवे ॥४॥ ग्गी । ते श्चिय मुंडावेते, पुरिमपयनिवारिया दोसा ॥१॥" त अस्य संबन्धमाहथा-"मुंडाविओ सिय त्ति य, सिक्खावेउं श्रणायरणजोगी। न ठविजई वएमुं, सजं एएण होइ अणवतो । ते चिय सिक्खावेते, पुरिमपयनिवारिया दोसा ॥१॥""एवं उहावे, एवं भुंजावे उं,एवं संवासेउं एवं, संवाहेउं ।" अयम दुविहम्मि विन ठविजइ,लिंग अयमन जोगो उ ॥२५८।। र्थः-प्रवाजितःप्रवाजयिष्यामस्वामित्येवमभ्युपगतोरजोहर. येन तद्दोषपरतोऽपि सद्यः तत्क्षणादेवानाचरिततपागादिसाधुवेपदानत इत्यन्ये । ततश्च प्रवाजित इति च एत. विशिष्टो भावलिङ्गरूपषु महाव्रतेषु न स्थाप्यते, एतेन कादध्ययोग्यप्रवाजनलक्षणमसंभाव्यं वस्तु स्याद्भवेत् । छमस्थ रणेनानवस्थाप्य इत्युच्यते । स चाऽनन्तरसूत्र भणिनः। श्रतयाऽनाभोगवशात् ततः किमुचितमित्याह-मुण्डापयितुम यं पुनरन्यः पराडकाऽऽदिद्धिविधऽपि द्रव्यभावलियोन स्था. पाग्रहणतोलुश्चयितुम् अनाचरण योग्यः अनासेवनाहः,तथा प्यते प्रतिपद्यते, एप योगः संबन्धः । अनेन संबन्धनायाअपि मुण्डापयत्याचार्य त एवाशामङ्गाऽऽदयः पूर्वपदस्य प्र तस्यास्य सूत्रस्य (४) व्याख्या-त्रयो नो कल्पन्ने प्रवाज बाजनस्य संबम्धिनो दोषा अनिवारिता भवन्तीति। एवमन्य यितुम् । तद्यथा-पराडको नपुंसको वातिको नाम-यदा स्वनिगाथाऽपि बोद्धव्या इति । अथ प्रस्तुतार्थ निगमयति-सर्वच मित्ततोऽन्यथा वा मेहनं कपायितं भवति तदा न शक्नोति समस्तं पुनरिदं पृच्छादिविशुद्धस्य प्रवज्यादानादिकमाग चेदं धारथितप । क्लीयोऽसमर्थः, स चाक्लीवाssमिकं वस्तु,सम्यग् समीचीनं भवति । अथवा-सम्यक्वपरि दिलक्षण एष सूत्रार्थः।। णामे यथावत्प्रवज्यापरिणती सत्यां भवति स्यात्, प्रायो अथ भाष्यविस्तर:बाहुल्येन प्रायोग्रहणं चाङ्गारमर्दकादिव्याभिचारपरिहारा वीसं तु अपव्वजा, निज्जुत्तीए उ बनिया पुग्छि । र्थमिति । ततःप्रतिमाकरण मन्तरेणाऽपि प्रतिमाकर्तुरिव प्र. इह पुण तिहि अधिकारो, पंडे कीवे य वाई य ॥२५६।। प्रज्या स्यादिति हृदयमिति गाथाऽर्थः । विशतिर्वालवृद्धाऽदिभेदादिशति संख्या अप्रवान्याः पूर्व र अधिकारी को कोवे बाई ॥२४॥ Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा प्रभिधानराजेन्डः। पवजा नामनिष्पने निक्षेपे नियुको पञ्चकल्प सप्रपञ्च वर्णिताः। इह ___ यथा स्त्रीपुरुषा ध्यानोपचासनियमैरुपयुक्तं चोदयं धारपुनत्रिभिरेबाधिकार:-पराडकेन क्लीवेन वातिकेन चेति यन्ति. एवं नपुंसकोऽपि यदि धारयेत्, ततः प्रवाजिते को गुरुतरा दोषदुष्टा अमी इति कृत्वा। दोषः स्यात् । अथ प्रजाजनाविधिमेव तावदाह अहवा ततिए दोसो, जायइ इयरेसु किं न सोभवति । एवं खु नत्यि दिक्खा,सवेययाणं न वा तित्थी ॥२८॥ गीपत्थे पवावण, गीयत्वेऽपुच्छिऊण चउगुरुगा । अथवा युष्माकमभिप्रायो भवेत्-तृतीये नपुंसके वेदोदये सम्हा गीयत्वस्स उ, कप्पइ पव्यावणा पुच्छा ॥२६०॥ चारित्रभङ्गलक्षणो दोषो भवेत्, ततः स उच्यते, इतरयोः गीतार्थेनैव प्रजाजना कर्तव्या नागीतार्थेन, यद्यगीतार्थः स्त्रीपुरुषयोरपि वेदोदये स दोषः किं न भवति । अपि प्रबाजयति तदा चतुर्गुरुकम् । गीतार्थोऽपि यदि अपृथा पृ. च-क्षीणमोहाऽऽदीन मुक्त्वा शेषाः सर्वेऽपि संसारस्था च्छामन्तरेण प्रवाजयति तदा तस्यापि चतुर्गुरुकाः । तस्मात् । जीवाः सवेदकास्तेषां च दोषदर्शनादेव भवदुक्लनीत्या नास्ति गीतार्थस्य पृच्छा शुद्धं कृत्वा प्रवाजना कर्तुं कल्पते । पृच्छा- दीक्षा, तदभावाच्च न तीथिनस्तीर्थस्य संततिर्न वेति । विधिमायम् कोऽसि त्वं को वा ते निर्वेदो येन प्रवजसि। सूरिराहएवं पृष्टे सति थीपुरिसा पत्तेयं, वसंति दोसरहिएसु ठाणेसु । सयमेव कोइ साहति, मित्तेहि व पुच्छिो उवाएणं । संवाने फासदिट्ठी, इयरे वच्छंबदिद्वतो ॥ २८१ ।। मावा वि लक्खणे हिं, इमेहि नाउं परिहरेजा ॥२६१॥ श्री प्रवाजितास्त्रीणांमध्ये निवसति, पुरुषः प्रवाजितः पुरु. स्वयमेव कोपि पण्डकः कथयति-यथा सदृशे मनुष्यत्वे षमध्ये वसति । एवं तौ प्रत्येकं दोषरहितेषु स्थानेषु वसतः । ममेरशस्वैराशिके वेदः समुदीर्म इति । यद्वा-मिस्तस्य नि। इतरस्तु पण्डको यदि स्त्रीणां मध्ये वसति तदा संवासे स्प. बेदकारणमभिधीयते । प्रब्राजकेन वा स एवोपायपूर्व पृष्टः र्शतो रष्टितश्च दोषा भवन्ति । एवं पुरुषेष्वपि संवसतस्तस्य कथयेत् । अथवा-लक्षणे महिलास्वभावाऽऽदिभिरेभिर्वक्ष्य. दोषा भवन्ति । वत्साऽऽम्रदृष्टान्तश्चात्र भवति-यथा बत्तो मामाणैारवा परिहरेत् । तर वा स्तन्यमभिलषति, माताऽपि पुत्रं रष्ट्रा प्रस्नोति । तत्र पृच्छां तावद्भावयति प्रानं वा खाद्यमानं दृष्ट्वा यथा मुखं क्लिन्ति, पवं तस्य संवानर्जतमणज्जते, निव्धेयमसढे पहमया पुच्छे । सादिना वेदोदयेनाभिलाष उत्पद्यते, भुक्ताभुक्तभोगिनः साधवस्तमभिलषेयुः। यत एवमतः पराडको न दीक्षणीयः । अमातो पुण भमा, पंढाइ न कप्पई अम्हं ।। २६२॥ द्वितीयपदे एतैः कारणः प्रवाजयेदपि-- यः प्रनजितुमुपस्थितः स झायमानो वा स्यावशायमानो असिवे प्रोमोयरिए, रायडुट्टे भए व आगाढे । वा हायमानो नाम अमुकोऽमुकपुत्रोऽयं तद्विपरीतोऽक्षापमानः स यदि श्राद्धः श्रावको न भवति, ततः प्रथमतस्तं गेलने उत्तमढे, नाणे तवदंसणचरित्ते ॥ २८२ ॥ निबेदं पूच्छेत् । यः पुनरहातः स समासेन भरयते-न कल्प स प्रवाजितः सन् अशियमुपशमयिष्यति, अशिवगृहीतानां ते प्रस्माकं पराडकाऽऽदिः प्रवाजयितुम् । षा प्रतितर्पणं करिष्यति । एवमयमौदर्ये राजशिष्ट घोधिकासब यदि पराकस्तत एवं चिन्तयति दिभये या भागाढे ग्लानरवे उत्तमार्थे वा ज्ञाने दर्शने चारित्रे नामो मितिपणासह,निम्बेयं पुच्छिया व मे मित्ता। घा सहायं करिष्यति । एतैः कारणैः पराडकं प्रधाजयेत् । अथैनामेव गायां व्याख्यातिसाईति एस पंडो, सयं व पंडो त्ति निब्बेयं ॥२६३।। रायडुट्ठभयेसुं, ताण निवस्स चेव गमणट्ठा । हातोऽस्म्यहममीभिरिति मत्वा प्रण स्यति । अथवा यानि तस्य भित्राणि तानि पृरुछ यन्ते एष तरुण ईश्वरो नीरोगश्च विज्जोव सयं तस्स उ,तप्पिस्सति वा गिलाणस्स ॥२८॥ वियते, ततः केन निदेन प्रव्रजति ? । एवं पृष्टानि तानि - गुरुखो व अप्पणो वा, नाणादी गिएहमाणे तप्पिहिति । बते-एष पराडक इति । स्वयं पा स पराडकोऽस्म्यहमिति चरणा देसावक्कमि, तप्पे ओमासिवेहि वा ।। २०४॥ नि कथयति । पू.४ उ• । दश०। राजशिष्टे बोधिकाऽऽविभये च त्राणार्थ, नृपस्य वा अभिग(२८) अथैतेषां प्रव्राजने प्रायश्चित्तमाह मनार्थम् । किमुकं भवति?-राजशिष्टे समापतिते देशान्तरंग. इसस वि मूलायरिए.वयमाणस्स वि ईवति चउगुरुगा। पछुतां तनिस्तारणक्षम भक्तपानाऽऽग्रुपरम्भ करिष्यति राज बल्लभो वा स पराडकस्ततो राजानमनुकूलयिष्यति, बोधि. सेसाणं छाई वी, पायरिए वदंति चउगुरुगा ॥२७८।। काऽऽविभये षा स बलवान् गच्छस्य परित्राणं विधापपडकाऽऽवीन मासिक्तांस्तान् दशापि नपुंसकान् यःप्रवाज स्यति । ग्लानवद्वारे स पराडकः स्वयमेष वैयो भवति, त. पति तस्यावार्यस्य दशस्वपि प्रत्येकं मूलम् । तेष्वेव वश तो ग्लानस्य चिकित्सां करिष्यति । यदा-स तस्य ग्लानस्य सुयो ववति प्रवाजयति तस्याऽपि चतुर्गुरुका भवन्ति शेिषा. षा घेतनमेषजाऽऽदिना प्रतिसर्पिष्यति उपकरिष्यति. याशणमर्थितादीनां पक्षामपि च प्रतिसकानां प्रमाजने भाचा दादुत्तमार्य प्रतिपात्रस्य वा मम साहाय्यं करिष्यति, स्व. पंप चतुर्गुरुकं. यो वा प्रमाजयति तस्याऽपि चतुर्गुरुकम् । यमेव पासाघुत्तमार्थ प्रतिपत्स्यति । तथा गुरोरात्मनो वा मथ शिष्यः प्रश्नयति-- मानम् प्रादिशब्दाइर्शनप्रभावकानि शास्त्राणि गृहतोऽसौ पीपुरिसा जह उदयं, धरति झाणोक्नासणियमेहिं । भक्तपानाऽऽविभिखाऽऽदिभिश्चोपकरिष्यति । बरणात्माएवमपुमं पिउदयं, परिज जति को तहि दोसो ॥३७६।।। रिपालयितुं न शक्यते तसी देशावपक्रमणं कुर्वतां मार्गा. Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रज्जा (७७२) अभिधानराजे | ऽऽदिषु स्थजनाऽऽदिवसात पानाऽऽदिभिस्तस्रादि भिरक्षणतोपकरिष्यति। समाशिवयोर्चा प्रतितर्षिष्यति । अत्र च नानुपूर्व्या. अपि तु वस्तुव्यख्यापनार्थमचमाशि बार पर्यन्ते व्याख्यानम् । एहि कारणेहि, श्रागादेहिं तु जो उ पव्वावे । पंडाईसोलसर्ग, कर उकले विचिणया ||२८५|| एतैरागाढैः समुपस्थितैः कारणैः यः पण्डकाऽऽदिषोडशकस्यान्यतरं नपुंसकं प्रवाजयति, तेनाऽऽचार्येण कृते समापिते कार्ये तस्य नपुंसकस्य विवेचनं परिपनं कर्तव्यम् । तत्र प्रमाजना तापविधिमाह दुविहो जाणमजाणी, अजागं पद्मवैति उ इमेहिं । जणपच्चयट्टयाए, नअंतमणज्जमा वि || २८६ ॥ द्विविधो वपुंसक होतो जानाति सा नां त्रैराशिकः प्राजयितुं न कल्पते स ज्ञायकः तद्विपरीतज्ञातमुपस्थितं प्रापयन्ति भवान् दीक्षाया अ. योग्यः ततोऽवेषधारी आपकधर्म प्रतिपद्यस्य, अन्यथा ज्ञानाssवीनां विराधना ते भविष्यति । श्रशायकमप्येवमेव प्रज्ञापयन्ति । अथैनां नेच्छति, प्रवज्यामेवाभिलषतिं, श्रात्मन किञ्चिदशिवाऽऽनिकं कारणमुपस्थितं ततस्तमाय जनप्रत्ययार्थममभिः कडीपटुकाऽऽद्दिभिः प्रशापयन्ति । स चाशायकस्तत्र जनेन ज्ञायमानोऽशायमानो वा स्यादुभयत्राप्ययं विधिः कर्तव्यः aisपट्टए य छिली, कत्तरिया मुंड लोय पाढे य । धम्मक सचि राउल बहार मिचिणा बिहिया || २८७|| कटीप स परिधायः शिखातस्य शिरसि धार शीयाः अथ नेच्छति ततः कर्त्तर्या कुरेण वा मुण्डनं विधेयं, लोबो या विधातव्यः (पादि ति ) परतीर्थिकमतीनि स पाठनीयः । कृते कार्ये धर्मकथा कर्त्तव्या येन लिङ्गं परित्यज्य गच्छति । अथैवं लिङ्गं न मुञ्चति ततः संशिभिः श्रावकैः प्रशापनीयः । मथ राजकुलं गत्वा कथयति ततो व्यवहारोऽपि कर्त्तव्यः। एवं तस्य विक्षिना परिस्थापना विधिना बच्यमाणनीत्या विधेया । एष द्वारगाथासमासार्थः । साम्यतमेनामेव विवृणोति कटपट्टओ अभिनये, कीरह छिल्ली प अम्ह चैवाऽऽसी । कतरिया मुंडवा, भषिच्छे एकेकपरिहाणी ||२८८|| कटीपट्टको ऽभिनव प्रत्रजितस्य तस्य क्रियते, न पुनरप्रावपूरकः शिरसि वहिली शिखा क्रियते । यदि यात् किं नमा अप्रा पूरकं, सर्वमुण्डनं वा न कुरुत । ततो वृषभा भणन्ति अस्माकमपि प्रथममेयं कृतमासीत् ततब्ध जुडने कर्तव्य कर्तव्य म् अथ नेति ततो रेण रमप्यनित सोचः कर्त्तव्यः एवमेकैकपरिहाणिर्मतच्या रोषातु सर्वत्रापि धारणीया । हिलं तु मच्छिते, भिक्खुगमादी मतं पिच्छते। परतित्थियवतयं उक्तमदायं ससमए वि || २८६ ॥ अथ शिवामपि नेच्छति ततः सर्वनमपि विधीयते । सा च विविधा शिक्षा ग्रहणे प्रासेवने च प्रवचनाशि छायां क्रियाकलापमसीन ग्राह्यते महायमक्षुकाः सौगतास्तेषामादिशब्दात्कापिलाऽऽदीनां च परतीर्थिकानां 1 पवज्जा मतमध्याप्यते । अथ तदपि नेच्छति ततः शृङ्गारकायं पा व्यते, तदप्यनिच्छन्तं द्वादशाने यानि परतीर्थिक वक्तव्यतानि बद्धानि सूत्राणि तानि पाठयन्ति । तान्यप्यनिच्छतः स्खलमयस्याssलापका उत्क्रमेण विलुता दीयन्ते । श्रासेवनाशिक्षायां विधिमाह - वीयारगोयरे थेर-संजु रत्ति दूरे तरुणार्थं । गाहेण ममं पि ततो, थेरा गार्हेति जत्तेगं ।। २६० ॥ विचारभूमिं गच्छन् गोचरं वा पर्यटन स्थविरसाधुसंयु को दिण्डाप्यते रात्री तरुणानां दूरे क्रियते, ते व साधवो न पाठयन्ति । ततो यदि ब्रूते मामपि पाठं प्राहस्तु ततः स्थ विराः साधवो यलेन ग्राहयन्ति । किं तदित्याह बेगका विसया व शिंदा उनिसीयो गुता । चुकखलिए य बहुसो, सरोसमिव नोदए तरुणा || २६१ ॥ यानि सूत्राणि वैराग्यकथायां विषयनिन्दायां च निवजानि तानि प्रायन्ते । अथवा वैराग्यकथा विषयनिन्दा च तस्य पुरतः कथनीया, उत्तिष्ठन्तो निपीयन्त साधवो गुला सं वृता भवन्ति यथादानं न पश्यति तस्य यदि सामाचार्यो चुकस्वलितानि भवन्ति । धुवं नाम विस्तृतं किं चित्कार्य, स्खलितं तदेय विनई, ततो ये तरुणास्ते तं सरोषमिष पर वचोभिर्बहुशो नोदयन्ति येन तरुणेषु नानुबन्धं गच्छति । अथ धर्मकथापदं यचधम्मका पाठिअति कपको वा से धम्ममक्खति । माह परं पिलो, अव्यता दिक्ख नो तुज्यं । २६२/ धर्मकथां वा स पाठ्यते कृतकार्यों वा स पठ्यते, ततः का र्येण दीक्षितस्तत् समाप्यते, तस्य धर्ममाख्यान्ति, यथा मर्दितो न रजोहरणाऽऽदिलिङ्गं धारयेत् । तदभावे बोधनमपघातकरणाय त्वं वर्णसे, ततो मा परमपि लोकं इन विनाशय मुञ्च रजोहरणाऽऽदिलिङ्गम् । तवाणुव्रतीनि धारयितुं युज्यन्ते, न दीक्षा एवं प्रज्ञापितो यदि मुखति तदा लम् अथ न मुञ्चति ततः सनि खरकम्मिश्र वा, भेसेति कतो इस कंचिक्को । सट्टे वा दिक्खितों, एतेहि खाते पडिसेहो | २६३ | यः खरकर्मिका संस पूर्व प्राप्यते अस्माभिः कार राशिक: ममाजितः सदानी लिने परित्यत यूयं प्रज्ञापयत । एवमुक्तो असावागत्य गुरून् वदित्वा स र्षान् साधून निरीक्षते । ततः तं पण्डकं पूर्वकथितविरुपलक्ष्य भूमितलस्फालनशिर कम्पनखरष्टिनिरीक्षणप वचनेषयति । कुत एव इह युष्माकं मध्ये कञ्चित्को नपुंस क इति । तं च प्रवीति अपसर लाम्प्रतमितः, अन्यथा व्यपरोपयिष्यामि भवन्तम्यदिति खरकर्मिकस्य वा आपकस्याभावे यदि नृपस्य कथयति शितः पुनः परित्यजन्ति तते व्यवहारण जेतम्य कथमित्याह-यथसी जनेनाशाली दीक्षितस्ततः प्रतिषेधः क्रियते नास्माभिर्दीक्षित इति अपलाप्यत इत्यर्थः । अथाऽली ब्रूयात् भावि मि एते हि चेव पडिसेधो किं वधीयते । छलियादिका कति फत्थ जती कत्थ खलियाई ? ।।२६४॥ , - Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७२) प्रन्निधानराजेन्द्रः। पवज्जा पवज्जा अहमेतरेवाध्यापितस्ततोऽत्रापि प्रतिषेधः कार्यों, न किमप्यस्माभिरध्यासित इत्यर्थः। अथवा वक्तव्यम्-किं त्वया अधीतम् ? । नतोऽसौ छलितकाव्याऽऽदिकथामाकर्षेत् । तत्र वक्तव्यम्-कुन यतयः, कुत्र च छलिताऽऽदि काव्यकथा ?। साधवो वैराग्यमार्गस्थिताः शृङ्गारकथां न पाठयन्ति । पठामो वयमीदृशं सर्वशभाषितं सूत्रम्पुवावरसंजुत्तं, वेरग्गकरं सततमविरुद्धं । पोराणमद्धमागध-भासानियतं हवति सुत्तं ॥२६॥ यत्र पूर्वसूत्रनिबन्धः पाश्चात्यसूत्रेण नव्याहन्यते तत्पूर्वापरसंयुक्त, वैराग्यकरं विषयसुखवैमुख्यजनकं, स्वतन्त्रेण स्वसिद्धान्तेन सहाविरुद्धं, सर्वथा सर्वकालं सर्वत्र नास्त्यस्मा इत्यादिस्वसिद्धान्तविरोधरहितमित्यर्थः। पौराणं नाम पुरा. गस्तीर्थकरगणधरलतणैः पूर्वपुरुषैः गीत अई मागधभापानियतमिति प्रकटार्थम् । एवंविधमस्मदीयं सूत्रं भवति। जे सुत्तगुणा भणिया, तबिवरीयाइँ गाहए पूर्दिछ । नित्यिसकारणेणं, सा चेव विचिंचणे जयणा ॥२६६।। ये सूत्रस्य गुणाः पीठिकायां भणितास्तहिपरीतानि वर्णविकलानि सूत्राणि तं ग्राहयेत् । ततो निस्तीर्ण कारणेन मया पूर्व विवाक्षितप्रयोजनाभावतः सेविकथापरिष्ठापने यतना भवति । एवं व्यवहारेण परिधापनविधिरुतः । येषु व्यवहारेण न शक्यते परित्यक्तं तस्याऽयं विधिःकावालिए सरक्खे, तबस्मियवेसलिंगरूवेणं । कोडुवग पवइए, कायव्वॉ विहीऍ वोसिरणं ॥२७॥ गीतार्था हि विकर्षणाद् वृषभा उच्यन्ते, ते कापालिकसर• जस्कास्तद्वणिकवेषग्रहणेन तं परिष्ठापयन्ति । यो वा कौटुम्बिको बहुस्वजनः प्रवाजितस्तस्य संबन्धिनो विधिना व्युत्सर्जनं कर्तव्यम्। एतदेव भावयतिनिववल्लहें बहुपक्ख-म्मि यावि तरुणवसभा इमं विति । भिमकहाअोभट्ठा, न घडइ इह वच परतित्थं ॥२६॥ यो नृपस्य बल्लभो बहुपाक्षिको घा प्रभूतस्वजनमित्रपर्यस्तयोरयं परिष्ठापने विधिः। यदा नपुंसको रहसि तरुण भिजुमयभाषते, भिन्नकथां वा करोति, तदा ते तरुणवृषभा वं घुषते-ह यतीनां मध्ये इरशं न घटते, यदि स्वमीदृशं कर्तुकामोऽसि ततः निष्क्रमणं कुरु, परतीयिकेषु वा बज। ततो यदि बूयात्तुमए समग आमं, ति निष्णो भिक्खमाइलक्खेणं ।। नासति भिक्खुगमादिसु,छोडण तत्तो विहि पलाइ ॥२६॥ त्वया सममहं परतीर्थकेषु गमिष्यामि-एवमुक्तः स तरुण वृषभ आममिति भरिणत्या निर्गच्छति, निर्गतश्च भितुकादिवे. षेण गत्वा तेषु भिक्षुकाऽऽदिपु प्रक्षिप्य नश्यति, यः पुनस्तत्र नाभिति, सं साधुं न मुश्चति, तं रात्री सुप्त मत्वा पलायते, भिक्षाऽऽदिलक्ष्येण वा निर्गतो नश्यति । सूत्रम्-एवं-मुंडावित्तए सिक्खावितए उपहावितए संभुंजित्तए संवसित्तए ॥ ५ ॥ यथा पते पराडकाऽऽदयः प्रव्राजयितुं न कल्पन्ते । एवमेत एव कथञ्चिच्छलितेन प्रवाजिता अपि सन्तो मुण्डापयितुं शिरोलोचने लुञ्चितुं न कल्पते । एवं शिक्षापयितुं प्रत्युपंक्ष. णाऽऽदिसामाचारी ग्राहयितुम्, उपस्थापयितुं महावतेषु व्यवस्थापयितुं, संभोकमेकमण्डलीसमुद्देशाऽदिनाऽभ्यवहारयितुं, संवासयितुमेकत्र समीपे आसयितुमिति सूत्रार्थः । श्रथ भाष्यम्पव्वाविप्रो सिय त्ति उ, सेसं पणगं अणायरणजोगा। अहवा समायरंते, पुरिमपदणिवारिता दोसा ॥ ३०॥ स पण्डकश्चेत्कदाचिदनाभोगाऽऽदिना प्रवाजितो भवेत् । इतिशब्दः स्वरूपपरामर्शार्थः । एवं प्रवाजितोऽपि यदि पश्चात् ज्ञातस्तदा (सेसं पणगं ति) विभक्तिव्यत्ययात् शेष. पञ्चकस्य मुण्डापनाऽऽदिलक्षणस्याऽऽचरणयोग्ये न तदाचरणीयमिति भावः । श्रथ लोभाऽऽद्यभिभूततया तदपि समाचरति ततः पूर्वपददोषाः पूर्वस्मिन् प्रवचनाऽऽस्यपदे ये प्रवचनापयशःप्रवादादयो दोषा उक्तास्त अनिवारितास्त. दवस्था एव मन्तव्या इति भावः। मुंडाविओ सिय ती, सेसचउक्कं अणायरणजोग्गो । अहवा समायरंते, पुरिमपदनिवारिया दोसा ॥३०१॥ अनाभोगाऽऽदिना मुण्डापितोऽपि स्यात्ततः शषचतुर्धाऽस्य शिक्षापनाऽऽदिलक्षणस्याऽऽचरणे ऽयोग्यः। अथ समाचरति ततः पूर्वपददोषा अनिवारिताः। एवं तिम्रो गाथा वक्तव्याः । यथा-- सिक्खाविओ सिय ती, सेसतिगस्सा अणायरणजोग्गो। अहवा समायरंते, पुरिमपदनिवारिया दोसा ॥ ३०२ ।। उवठाविओ सिय ती, सेसद्गस्सा अणायरणजोग्गो । अहवा समायरंते, पुरिमपदनिवारिया दोसा ॥३०३ ॥ संभुंजियो सिय ती, संवासेउं अणाबरणजोग्गो। महवा संवासित्ते, पुरिमपदनिवारिया दोसा ।। ३०४ ॥ एवं पडिधसचित्तद्गव्यकल्पसूत्राणि क्रमेण भवन्ति । तथा चात्रामी रशान्ताः . मृलातो कंदादी, उच्छविकारा य जह रसावी य । मिप्पिंडगोरसाण य, होति विकारा जहकमेणं ॥३०॥ जह वा णिसेगमादी, गब्भे जातस्स णाममादीया । होति कमा लोगम्मी, तह छबिहकप्पमुत्तानो ॥३०६।। यथा सूलात् कन्दस्कन्धशाखाऽऽदयो भेदाः क्रमेण भवन्ति । इशुविकाराश्च रसककाऽऽदयो यथाक्रमेण जायन्ते । मृरिपएडस्य वा यथा स्थासकोश कुशूलाऽऽदयो, गोरसस्य च दधिनवनीताऽऽदयो विकारा यथाक्रमण भवन्ति । यथा वा गर्ने प्रवि. प्रस्य जीवस्य निषेक ओजःशुकमुन्द्रलाऽऽहरणलक्षणस्तदा. दयः,आदिशब्दास्कललादपेशीप्रभृतयः पर्याया भवन्ति जा. तस्य था तस्यैव नामाऽऽदयो नामकरणचूडाकरणप्रभृतयः क्रमाचथा लोके भवन्ति सथा पड़विधकल्पसूत्राणि यथा क्रमभाषिप्रवाजिताऽऽदिपदविषयाणि क्रमेण भवन्ति । वृ० ४ उ०। स्था। ग० । पं०भा०पं० चू० । नि० चू० । श्राव०। पं०व०। (परिष्ठापना पराउकाऽऽदीनां परियाणा ' शब्दे. ऽस्मिन्नेव भागे ५७५ पृष्ट विस्तरत उला) Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७३) अभिधानराजेन्डः। पवज्जा पवज्जा (पवर्षस्य अतिमुक्तककुमारस्य प्रव्रज्या 'श्रइमुत्तय ' गाहापच्छद्धं " दुपदनपुंस त्ति।” अस्य व्याख्याशब्दे प्रथमभागे ६ पृष्ठादवगन्तव्या) षड्वर्षजातस्य तस्य कारणमकारणे वा, जयणेतरा पुणो दुविहा । प्रनजितत्वम् । प्राह च-" छव्यरिसो पब्वहो, निग्गंथं रो. एस परूवण दुविहा, गयं तु दप्पेणिम सुत्तं ॥२२६।। चिऊण पावयणं ।” एतदेव चाऽऽश्चर्यमिहान्यथा वर्षाएकादाराज प्रव्रज्या स्यादिति । भ०५श०४ उ० । कारणे णिकारण वा पवावेति; कारणे जयणाए, अज. पवर्षप्रवज्या काराणिकी-यो देशोनपूर्वकोट्यायुश्चारित्रं प्र. यणाए वा जो दप्पेण पवावेति तस्त चउगुरुगं, प्राणा. तिपयते, तदोक्षामिति। ऊनता व पूर्वकोट्या अवाभिवषैरए- | दिया य दोसा । नि० चू० ११ उ० । (बालभेदान् 'बाल' वर्षस्यैव प्रव्रज्याईत्वात् । यच्च षड्वर्षस्थिवर्षो पा प्रव्रजितो. शब्दे वक्ष्यामि ) इयाणि नपुंसया दस,ते पुरिसेसु चेव वुत्ता ऽतिमुक्तको धैरस्वामी वा, तत्कादाचित्कमिति न सूत्रावता नपुंसगदारे जे जति पुरिसेसु वुत्ता ते चेव इहं पि। किं क. रीति । भ० १२श०१ उ०। तो भेदो?, भन्नति-तेहिं पुरिसाकिती इहं गहणं. सेसया ण (२६) नायकमनायकं वा प्रवाजयति, अनलं वा प्रवाजयति भवे । इयाणि वीसं इत्थीनो, तस्त बालादी अट्ठारस इ त्थीओ जहा पुरिसा। जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अणुवा इयाणि गुब्विणी बालवच्छा यसगं पवावेइ, पब्बावतं वा साइजइ ॥१६०॥ जे भि-| जे केइ अणलदोसा, पुव्वं भरिणता मए समासणं । बखू अणलं पव्वावेइ, पञ्चावंतं वा साइजइ ॥१६॥ ते घेव अपरिसेसा, गुम्विणि तह बालवच्छाए ।४४४॥ णायगो वजनः, अथवा नातगो प्रशायमानः, अनायगो श्र जे एते हेटा अनलाणं बालादी दोसा वन्निया ते गुव्विप्रज्ञायमानः, उपासकः श्रावकः, अनुपासकः मिथ्यादृष्टिःन रणी बालच्छाए भाणियब्वा । कहं ?, उच्यते-गुब्धिणीए वाअलं पर्याप्तः श्रनलं अपर्याप्तः, अयोग्य इत्यर्थः । पन्चा लदोसा भविस्सा, बालवन्छाए पुण वट्टमाणो चेव बालबेतस्स चउगुरु. प्राणादिया य दोसा। दोसो, नपुंसगा वि ते होजा, सेसा वि भइयव्वा । इमा निज्जुत्ती न सुत्तकमेण अणाणुपुचीए बक्खाणेति इमो मोत्तुंसाहू वा समणो वा, उवासो वती व अवती वा । मोत्तण णवरि वुई, सरीरजहुं च चोरमवगारिं । सो पुण णायग इतरो,एवष्णुवासे वि दो भंगा।।२२०॥ दोसमणत्तं च तहा, उव्यदाती य जे पंच ॥४४॥ कामं खलु अलसदो , तिविहो पञ्जत्तमत्तहिं पगतं । । उबदाई पंच इमे-उबद्दगी, सेहनिप्फेडिया, गविणी, बाअनलो अपञ्चलो त्ति य,होति अजोग्गो व एगटुं ॥२२१॥ लवच्छा थ । एतेसु सम्बेसु बालेसु न भवन्ति । उवासगो दुविहो-वती. अवती वा । अवती सो परदसण अवसेसा पुण अणला,भइअव्वा तह य गुविणाएँ भवे । संपन्नो । एक्केको पुणो दुविहो-णायगो, अणायगो वा । अणु कायभवत्यो विवं, विकितं पसवम्मि व मरजा ।।४४६॥ वासगे वि-नायगमनायगो य एते चेव दो वि । तथा अनल अविसेसा सिय अस्थि सिय नस्थि इमे गुपिणीए चे. मित्यपर्याप्तः । चोदकाऽऽह-ननु अलंशब्दः त्रियर्थेषु दृष्टः । व दोसा स्त्रीकाये न भवन्ति, अथवा कायभवस्थी उक्कोतद्यथा-पर्याप्त,भूषणे, वारणे । प्राचार्याह-यद्यपि त्रिवर्थेषु सेण द्वादशवर्षाणि गर्भत्वेन तिष्ठतीत्यर्थः । हस्तपादकर्मदृष्टः तथापि अर्थवशादत्र पर्याप्ते द्रष्टव्यः, न अलो अनलः, नासाक्षिविवर्जितं विवं मृगावतिपुत्रवत् . विकृतं सोडs. अपच्चल अयोग्य एकार्थाः । दिवद्भवेत् । प्रसवकाले वेदणाए वा मरेज। ते य पयजाए अजोग्गा इमे एतेसामान्यतरं, अणलं जो णाइगाइ पवावे । अट्ठारस पुरिसेसुं, वीसं इत्थीसु दस नपुंसेसु । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे ।। ४४७ ।। पन्नावणा अपरिहा,इति अण्णलो इत्तिया भणिया||२२२॥ सब्बे अडयालीसं। श्रणलं पब्बावेतस्स इमं पन्छिजे ते अट्ठारस पुरिसेसु ते इमे तेणे की राया-वगारि दहे य जुगितादी य। बाले बुड़े णपुंसे य,जडे कीवे य वाइए । सेहे गुव्विणि मूलं, सेसे चउरो सवित्यारा ॥४४८।। तेणे रायावकारी य, उम्मत्ते य अदंसणे ॥२३॥ कंठा,नवरं सेहित्ति सेहणिप्केडियाइएसु जहुद्दिद्वेसु मूलं, सेसेस सव्वेलु चउगुरुगा सवित्थारा।। दोसे दुढे य मूढे य, अणभे जुंगिए इय । हवा अन्नपरिवाडीए इमं भनइउबद्धए तरुयए, सेहणिप्फडिया इन ॥२४॥ की 8 तेणे, विगुठियाण रायावगारि सेहे य । जो पुरिसणपुंसगो सो पडिसेवति पडिसेवायेति जातं वीसं। इसु ता इमा-बाला बुडी० जाव सहणिफडिया, एते मूलं तू पारंची.मूलं वा होति चउगुरुगा।।४४६।। अट्ठारस। कीवे मलं, दुट्ठादिरसु च उसु पारंचियं, अहवा दुट्टादिएसु इमानो य दो गाहा गुरुगा सब्धित्थारा। गुग्विणी बालवच्छा य, पन्चावेउं न कप्पती। अहया अन्नपरिवाडीए इमं भन्नएएसि तु परूवणा, कायया दुपयसंजुत्ता ।।२२५॥ बाले वुड्ढे कीवे, जहुंमते य जुंगियसरीरे । णपुंसदारे विससो-इत्थी णपुंसिया इत्थिवेदो वि से, नपुं. गच्छे पचाइयाणं, संवासी एगतो भणितो ॥ ४५० ।। सगवेदमपि वेदेति एतेसि । बालबूढा कारणे पयाचिया, कीयो अभिभूती शरीरज Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७४) अभिधानराजेन्डः। पवज्जा पवज्जा डो उम्मत्तो शरीरजुंगितो अयंसणो । एते सब्वे पव्वावि- षामित्याचार्यस्योपाध्यायस्य वा प्रवर्तिन्या अर्थाय ते एतया संता परिसा जाता । एतेसि संवासो एक्कतो चेत्र, न स्था उपसंग्रहं करिष्यन्तीत्यभिप्रायेण । शेर्ष सुगमम् । पुढो जदि ते अन्नवसहीर विजंति, तो ते विषादं गच्छ. अत्र भाष्यम्न्ति । तम्हा गच्छगता चेव विधीए परिझुविजंति । गुठिय अपमप्पणो वा, पव्यावणे चउगुरू च आणादी। णी कई वि अमाता पब्वाविता, जहा करकंडमाता पउ मिच्छत्त तेणसंक-8 मेहुणे गाहणे जं च ॥१७॥ मावती। पडिणीएण वा, जहा पेढाले जिट्टा, सा विहीए भावितसङ्ककुलसु संगुप्पति, सज्जणिससव्व वट्टमार्ण च व शिष्यस्य मे च सर्वकार्येषु सहायिनी भविष्यतीत्ये. हंति, अंतरंतरे सेहोवायं। वमन्यार्थमेवमात्मनो वाऽर्थाय यदि प्रवाजयति निर्ग्रन्थीं तदा तस्य प्रायश्चित्तं चतुर्गुरु, आशाऽऽदयश्च दोषाः, तथा मिजिणवयणपडिक्कुटे, जो पव्वावेति लोभदोसेणं । ध्यात्वं तीर्थकरवचनातिक्रमात् । तथा स्तैन्यार्थ शङ्कायां चरियट्ठी य तबस्सी,सो लोपति तमेव तु चरित्तं ।।४५१॥ किं मन्ये प्रवाज्याऽऽहरिष्यति. उत धर्मश्रद्धया प्रवाजयती. त्येवंरूपायां यत्प्रायश्चित्तं चतुर्लघुकम् । उपलक्षण मेतत्-निः. अडयालीसं पडिकुट्ठा सिस्सलोभण अप्पणो चरित्तबुड्डि शङ्कितमेष प्रव्राज्याऽऽहरिष्यतीति निश्चयेऽपि यत्प्रायश्चित्तं निमित्तं परो पब्वाविज्जति, ते पुण पब्वाविता अप्पणो चत्वारो गुरुकाः । तथा-मैथुने शङ्किते यथा कि मैथुनार्थ मेष वि चरितघायं करेंति। प्रधाजयति, उत धर्मभ्रष्येति य प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकम्। नूनमेव इमं वितियपद मैथुनार्थ प्रवाजयतीत्येवं निःशङ्किते यामूल प्रायश्चित्तम् । यस पव्वाविप्रो सिय त्ति य, सेसं पणगं अणायरणजोगं । ग्रहणे कञ्चुकाऽऽदिसंघादप्रावरणोपदेशदाने कशान्तराऽऽदि अहवा समायरंते, पुरिमपदनिवारिता दोसा ॥४५२।। हटाऽऽमपराजयसमुत्थदोषैबृह्मचर्यविराधना तनिमित्तमपि जति प्रणलो पब्बावितो सित्ति अजाणया जाणया कार प्रायश्चित्तमापद्यते । गणं सेसं पणगं णायराविजति, तं च इम-मुंडावणसिक्षा __ एतदेवोत्तरार्ध व्याचिख्यासुराहपण उट्ठावणसं जणसंवासे सि, सो एयस्त पणगस्स णायर. तेण? मेहुणे वा, हरइ अयं संकऽसंकिए सोही। गजोग्गो,अथ पायरावेति, तो पव्वावणपदे पुववभिए दोसे कक्खादभिक्खदंसण-मथक्कमाऽऽतोभए दोसा ॥६॥ पावति । नि० चू० ११ उ० । (अङ्गारदाहकाऽऽदीन् न प्रवा- अयं प्रव्राजनाव्याजेन हरतीत्येवं शङ्कायामशङ्कित बा स्तन्य. जयेत् । इति 'पायरिय' शब्दे द्वितीयभागे ३२२ पृष्ठे गतम्) | स्यायें,तथा भैथुनशङ्कायामशङ्कितेचा मैथुन,या शोधिः प्रायश्चित (अवग्रहे यदि कश्चित् गृहस्थः प्रववजिषुरागच्छेत् तत्प्रति- तं तदापद्यते । तथा ककाऽऽदीनामथक्रम प्रस्तावमन्नोदणदर्शने बोधः 'अबग्गह' शब्दे प्रथमभागे ७०४ पृष्ठे उक्तः) आत्मोजयदोषाः। उपनक्षणमेतत्-परदोषाश्चायतनेपि प्रानोति । (३०) निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थैरात्मार्थ न प्रवाजनीया पतदेव सविशेषमाहणो कप्पति णिग्गंयाणं णिग्गंथिं अप्पणो अट्ठाए पव्वा. हरति ती संकाए, लहुगा गुरुगा य होति नीसके । वित्तए वा मुंडावित्तए वा सिक्खावित्तए वा सेहावि मेहुणसंके गुरुगा, निस्संकि, होइ मूलं तु ।। ६६ ॥ तए वा उवट्ठावित्तए वा संभुंजित्तए वा संवसित्तए वा अथ प्रवज्या बातम्या येन हरतीत्येवं शङ्कार्था प्रायश्चित्तं च स्वारो मघुकाः, निःशङ्ककरणे नूनमेष निश्चितं हरिष्यतीत्येवं तीसे इत्तिरियं दिसं वा अणुदिसं वा उदिसित्तए वा धा- निश्चये भवन्ति चत्वारो गुरुकाः। तथा मैघुना 55शङ्कायां चत्वा. रित्तए वा॥४॥ कप्पति निग्गंथाणं निग्गथि अमेसि -! रो गुरुकाः, निःशङ्किले मैथुमे वा नबति मूलम् । हाए पनावित्तए वा मुंगवित्तए वा सिक्खावित्तए वा से- अमुमेबाथै मुमतासालापकेन संवादयतिहावित्तए वा उबटावित्तए वा संभंजित्तए वा संवरित 'अविध्यराहि' वासो,पडिसिद्धो तह य वासें सतिहिका। वा तीसे इन्तिरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा वीसत्थादी दोसा, वि जहट्ठा एव पुवुत्ता ॥१०॥ धारित्तए वा ॥ ५ ॥णो कप्पति निम्गंधीणं निगंथं पूर्व सूत्रकृताले १३ गाथा । ४ म०१०। एवोक्ता अभि. हिताः पूर्वोक्ताः। अप्पणो भट्ठाए पवाबित्तए वा मुंडावित्तए वा. जाव पवावणा सपक्खे, परिपुच्किएँ दोसवञ्जिए दिक्खा । धारित्तए वा ।। ६॥ कप्पति निग्गंधीणं णिग्गंध प्रसस्स एवं सुतं अफलं, सुत्तनिवातो उ कारणिभो ॥१०१॥ अडाए पनावित्तए वा० जाव धारित्तए वा ॥७॥ यस्मादेते दोषा स्वस्मात् सपके प्रजाजना कर्तव्या । तद्यथा-पुरुन कल्पते निर्मस्थानां निर्ग्रन्थीमात्मनोऽर्थाय प्रधाजयितं पा संयतःप्रवासनीया,खिया संगतीभिः संयतिर मुहाताभिासा सामायिकाऽऽरोपणतो,मुण्डापयितुं लोचकारापणत,शिष्याचदाका परिपृच्च कि प्रव्रजसि इति पृटा ययभ्युपगनित. पायतुमासेषनाशिक्षाग्रहणमानतः उपस्थापयितमुत्थापना-बाबातम्या, पर दोष जिते "भट्ठारस पुरिमसु"स्येवमादिकरणतः, संभोर्ल षमा सांभोगिकानामन्यतमेन. यथायोगं दोषरहिते । अत्र पर माह-योतसवं तदि सूत्रमफर्म, सूत्रे संभोगेन पस्तुंचा, तथा तस्यास्वरविशमाचार्यललणामन परपकेऽपि दीकाया भभ्मनुशामासस्यानासंभवात् । मा. दिशं या उपाध्यायाऽऽविरूपामधंया धारययितं या॥कल्प- वार्यः प्राह-सनिपातः कारणिका कारणमपेक्ष्येदं सत्र ते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनामन्यार्थमित्यादि प्राग्वन्नवरमन्ये प्रवृत्तमिति भावः। Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा अभिधानराजेन्डः। पवज्जा किं तत्कारण मन माह पा चतुधियाऽऽत्मानं तोजयित्वा बद्यात्मनः समर्थता मम्यते कारणमेगमडंके, खतियमादीसु मेलणा होइ । तदा प्रव्राजयति, यावत्कथासमथों वा प्रवाजयति । पव्वजमन्भुवगए, अप्पाण चउन्चिहा तुलणा ॥१०२॥ अत्रेय मार्गणा-यो यावत्कथं परिपातयितुं समर्थः स निय. कारणमशिवाऽऽदिलकणमधिकृत्य कोऽपि साधुरेका की जातः, मात्प्रवाजयति, इतरस्मिस्तु भजना । तपाहि-बो बारक कथमप्ये कमसम्बे गतः । एकमडम्ब नाम यस्य निवेशस्य स परिपालयितुं समर्थस्तस्व यद्याचार्यः सबधिकः परिसु विकच नास्ति कोऽप्यन्यो ग्रामो नगरं वा तस्मिकम पालमे समयोंऽन्यो वा स्वगग्युसत्ता परिपालयितुं समस्त. उम्बे गतस्तत्र च संयत्यो न विद्यन्ते । अथ च तम्मिकम तः प्रवज्य तस्य समर्पयति । अथाऽवायोऽन्यो वा स्वगणसम्बे तस्य साधोर्माता भगिनी अन्या वा कामन नालसंव सक्तस्ता परिपालयितुं न समर्थस्तदा न प्रमाजयति । या स्वजनाऽस्ति, कोऽप्यन्यो तासां मात्रादीनां मेला इयमितरस्मिन् भजनापकः साधावति । स च मात्रादिकः स्त्रीजनो धमें भन्भुजयमेगयरं, पडिवजिउकामों जो उ पचावे । कथिते प्रकयिते वा प्रव्रज्यां प्रतिपत्तुमभ्युपगतः । यथा वयं गुरुगा अविज्जमाणे, अने गणधारणसमत्थे ।।१०६॥ प्रवज्यां प्रतिपद्यामहे-एवं प्रव्रज्यामन्युपगते मात्रादावशत योऽभ्युद्यतमेकतरं नाम सब्धिक माथिकाणां परिपामने व मीये स्त्रीवर्ग यतना कतम्या ।सा चेयम्-लेन साधुना चतुल नया समर्थस्तस्य मात्रादिका वनग्रहणार्थमुपस्थिताः स यायत. तोलायतम्यः। तद्यथा-व्यताकेत्रतः, कालतो, जाबनना तत्र बिहार मरणं वा प्रतिपकामस्तईि यदि तस्याऽऽचार्योऽन्यो कव्यतो यदि समर्थ भाहारमुपधि भेषजाऽऽदिकं चोत्पादयितुं या स्थगणसक्तः परिपालने समर्थस्तदा ताः परिम्राज्य तस्य समर्थः। तथा कस्याप्येवं स्वभावो भवति यथा व शक्रोति सा. समर्पयति, समर्य चाऽनयुद्यतविहारं मरणं वा प्रतिपद्यते । प्रथमालिकां विना,चतुर्थसिकाऽऽदिकंवा पानकं न शको अथ नास्त्याचार्यः स्वगणतको बा तासां परिपालकस्त. ति पातुं, ततस्तयोग्य पानकं प्रथमालिका वा नेतुं समर्थः। दा अन्यस्मिन् गणधारणसमर्थे अविद्यमाने योऽज्युचतमे कततथा कस्याप्येवं स्वभावो भवति क्षेत्रतो यदि शक्रोति पधि रं बिहारं मरण वा प्रतिपसुकामः प्रधाजयति तस्य प्रायपादाभ्यां गन्तुमध्वनि वा यदि शकति आहाराऽऽदिमुत्पादयितुं. विसं चत्वारो गुरुकाः। कालतो ग्रीष्मकाले पानक,शीतकाले तत्कालप्रयोग्यमाहाराssदिक तमुत्पादयितुं समर्थः, रानी मध्याहे यदि गन्तुं प्रतुभावतो जो वि य अलद्धिजुत्तो, पव्वावे तस्य होंति गुरुगा उ । यदि कोधाऽऽदीनां बहनं कर्तुं कमो, ज्ञानदर्शनचारित्राणि सा-- तम्हा जो उ समत्यो, सो पचावेइ तामो वा ॥१०७|| माचारी च प्राहथितुमास्ते, ततो यावदाचार्याणां प्रधानन्या पा योऽप्यलब्धियुक्तो न तत्प्रायोग्यमाहारयितुमीशस्तस्याऽपि मून प्रामोति ताबदनया चतुबंधया तुलनयाऽऽस्मानं तुल. प्रवाजयतो भवम्ति चत्वारो गुरुकाः प्रायश्चित, यत एवमसमयिस्या यदि समर्थो जातस्ततः प्रव्राजयति । र्थतायां प्रायश्चित्तं तस्माद्यः समर्थः स ता मात्रादिकाः स्त्री पतदेवा प्रवाजयति । असिवाऽऽदिकारणगतो, वोच्छिषमडव संजतीरहिते। एवं तुलेउणऽप्पं, सा वि तुलिअइ उ दबमाईहिं । कहियाकहिऍ उवहि,असंक इत्थीसिमा जयणा ।१०३। कायाण दंसणं दि-क्ख सिक्ख इतरदिसा नयणं ।१०८। अशियाऽऽविभिः कारणैरेकाकी, व्यबस्छिन्ना प्रामनगराइयो एवमुक्तेन प्रकारेणाऽऽस्मानं च्याऽऽदिरूपया चतुर्विधया तु. विक विविकच पस्मासस्मिन्यच्चिने संयतीरहिते मम्म्ये लमया तोलयित्वा याऽसौ प्रजाजनीया साऽपि व्याऽदिभि. गतस्तच धर्भ कथिते भकधिते षा मात्रादयो अनग्रहणामु- स्तोमयितम्या । सा न तुलनाऽने भणियते । यदि तुलनायामु. पस्थितास्तासु अशङ्कासु अशनीयास्वियं पश्यमाणा यतना। क्तायां साबूते-सर्वमहं कर्तुं समर्धा इति । तदा सादीकतामेबाऽऽह खीया। साथ तुलना तस्याः कसंख्या यस्याः स्वभावान भाहारादुप्पायण, दब्बे समुइंच जाणते तीसे । कायते। यस्पाः पुनः स्वभाबो हातो वर्सते तत्राऽऽरमतु लभव प्रागुक्ता कर्तव्या । भथ यदि तम्य माता भगिनी जइ तरह गंतु खेत्ते, माहारादीणि श्रद्धाणे ॥१०४॥ पा ततः कथं तस्याः स्वभावो न शायते । उच्यते-सलकम्ये कम्यतो पचाहाराऽऽदीनाम्।भाविशम्यादुपायादिपरिप्र एक एव नहः प्रन जतो या ततः स्वभाधापरिकानम । (कायाहा सत्पादने समर्थः। 'समु' नाम स्वभाव,तं तस्य जानाति ण सणमिति ) कायानां पृथिवीकायाऽऽदीनां दर्शनं करीयथा प्रथमालिकां विना न शक्रोति चतुर्धराशिकाऽऽदिकं सपा. व्यम् । यथा-एष पृथिवीकाय उच्यतेऽयमकायो तेजस्काय मायं पातुं न शक्रोति, ततस्तद्योग्यं पानं प्रथमालिका बोरपा एष पायुकायोऽयं बनस्पतिकाय एष चमनधर्माद्वीम्रूिया. दयितुं नमः । तथा केतो यदि पथि पादाभ्यां गन्तुं तरति, भ. विखसकायः। तत्र पृथिव्याम् पालिखनाऽऽदिम कर्तव्यम् । प्र. ध्वनि थाहाराऽऽपिकमुपादयितुम । कायम स्वमात्रलेखनादि,तेजस्कायन प्रतापनाऽऽवि. बनस्पतिगिम्हाइकाले पाणग, निसिगमणोमेसु वा वि जा सत्तो। कायम दस्तावनाऽऽविसकायस्य परितापनादि । यदि पुनः भावे कोहाइजमो, गहणे गाणे य चरणे य ॥१०॥ कार्यः कार्यमुपजायते तदा उत्कारणे प्रासुकेन परिमितेन कर्तकामे प्राध्मादी यदि पानकमुत्पादयितुं शक्तः। उपलकण- व्यम् । एवमभ्युपगते तस्याका बातम्या,तरनम्तरं ग्रहणशिमेतत-शीतकामे व प्रायोग्य तत्संपादयितुं शक्तः । नाये यदि का,भासेवनाशिका व शिकणीया। तत्र प्रहणशिका-सा वशक्रोधादि जयः कर्तुं शक्यते.ज्ञाने चरणे च तस्या ग्रहणे लम. बैकालिकादिसनं पाचनीया। मालेबनाशिका-यत् परिधापस्तदा यावदाचार्यम्ल प्रतिनीमच न मानोति तायदेता । नादिशिका तत्सम परिधापनविधिमुपदर्शयि जुकामेन पूर्व ल. Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पथउजा बालकः संवतीने पथ्येन परिधाप्यते, तत उच्यते- पत्रमायें ! म विपरिधानं कुर्याः तथापयति तत स्वरविकरणम् - यावदाचार्य सकाशं न प्रजामि तावदह मैत्र ते आचार्योऽहमेव च प्रवर्तिनी प्राचार्यसमीपं गतानां स्वा चार्या ज्ञानारः । ततो वक्ष्यमाणविधिना गुरुसमीपे नयनम ! निर्युकिगाथा माखाथैः। (७७६) अभिधानराजेन्द्रः । मेवास्तस्यादिभिस्तुलानामाद जादि पायरासा, सयणासणवत्थपाउरण दब्बे । दोसी दुब्लागि य, सययादि असच्या सिंह १०६ गृहस्थावस्थायां प्रातराशा प्रथमालिका पेयाऽऽविरूपा पेयाप्रतीता, श्रादिशब्दान्मण्ड कमोद काऽऽदिपरिग्रहः तथा वायनाऽऽमनवस्त्राणि शोभनानि प्राचरणानि कालोचितान्यालीरन्, इछा तु प्रथमालिका (बोलिि प्रविष्यति, दुर्बलानि च शयनाऽऽदीनि शयनाऽऽखनवस्त्राणि प्रावरणानि च एतेषां कर्तुमशक्यता, श्यं द्रव्ये इव्यविषया प्रतिपृच्छा ।. पुनरपि ज्यविषयमेव तामाहपडिकाराय बहुविहाबिया आसि मेगा पूरा इहि । वत्थाणि राहाणा- विलेणा ओसहाई च ॥ ११० ॥ सथा (मे) भगवतीनां गृहस्थावस्थायां व्याधेः प्रतीकारा बहु विद्या आमीर विविधानि तथाहि-यावस्था मनोनि पत्राणि शरीरानं प्राणमनोनिवृतिकरा धूपाः, शरीरसुभगानि विलेपनानि, एतेन विधान मानाकार प्रतीकारावा परं । क्षेत्रतः प्रतिपृच्छामाद श्रद्धा दुक्ख सेवा करेण तमसा य वसहियो खेना । परपाएहि गया, उसियाण य उउहबरेसुं ॥ १११ ॥ युष्माकं सदैव परपादैर्गतानां सदैव च ऋतुस्त्रेषु गृहेष तानां प्रवज्याप्रतिपत्यनन्तरमध्वनि स्वपादाभ्यां गमने महद् दुःखं प्रविष्यति, शय्या वसतिः करेणुका तथा दीपो रात्री म प्रज्वाल्यंत बसतयो बसनानि तमसा कष्टानि भविष्यन्ति, एपा के प्रतिपृच्छा । कालन श्राह आहारावओोगो, जोग्गो जो जम्प होइ कालम्मि । यो सो महान य निसिं, कालेजोगो य हीणो य । ११२ । योग्य समपद्यनपश्यद्वारा पगोडा भवति तथा नराम्रावाद्वाराऽऽयुपयोगो न चकाचिक हानियां परिपूर्वक इति गतः कालः । प्रतिमाह सम्स पुच्छनिय पडितेन सहरमुदिताऽसि । खुट्टा विपुला पोषण फरसा गिरा भावे ।। ११२ ।। पवज्जा गृहस्थावस्थायां त्वं सर्वस्य प्ररुनीया वर्त्तसे, तत्रापि न प्रतिफूलेन तथा स्था यामसि नवति । व्रतप्रतिपस्यनन्तरं तु कुलिकाऽपि त्वया प्रनीया, तथा चोदना शिक्षणं परुषया गिरा भविष्यति । एतच परमदुस्सहमित्येषा भावे भावविषया प्रतिपृच्छा । जा जे वरण जहा व लालिता तं तदन्नहा भणति । सोयादिकसावा व जोगाय य निग्गहो समिती ॥। ११४ ।। या यस्मिन्वयसि गाथायां तृतीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात् यथा येन प्रकार लाति पा प्रकारान्तरोपदशेने तां तदन्यथा इदं व्यक्ति, श्रोत्रादीनामिन्द्रि पायाभू स्वमितया समित्यादयः पञ्च परिपालनीयाः । तदेवं त व्याऽऽदिभिस्तुलनोका । संप्रति कायानां च दर्शनमादअलिसिंचनावणीदंतसादिकसु । काया भोगो, फासूयभोगी परिमितो य । १५ । पृथिव्यादिना सेन जानुभोगः | यदि पुनः कन्यैः प्रयोजनमुपजायते तदा प्राकेन परिभोगः कर्त्तव्यः सोऽपि परिमित इति । संप्रतिनिदार्थमाह " य गयाएँ लोओ, कप्पट्टगलिंगकरणदंसणया | भिक्खम्म कहती, तावदहं ते दिसं तिथि ।। १.१६ ।। कंसति तदा तस्याभ्युप ताया अभ्युपगमवत्या लोचः कर्तव्यो यदा तु निवसनविधिमुपादेष्टुमुपक्रान्तो भवति तदा कल्पस्थकस्य बालकस्य संयतीनेपथ्यपरिधापनेन निवसनस्य दर्शनं कर्तव्यम तथा भिकग्रहणं भिकाउटनसामाचारी कययति वदति यावदात्रामन व्रजामि तावदहं ते तब तिम्रो दिशः । श्रहमेव सचाऽऽबायोमे प्रतीति भावार्य पादमूगतानां स्वाचार्याः प्रमाणम् । नयनविधिमाह माऊण कियाए संबंपीरियरिससत्ये य । एमेत विलिंगकर ये मोसु वितियपदं ॥११७॥ एकस्थामा उपलक्षणमंत्, भगिन्या वान्नयन मात्र पुरुष मसान गाथायां सप्तमी तृतीयांचे प्राकृतत्वात् सूत्रम् "नो कम्पनिगंधणं निमग्रंथ अप० ॥ ६॥ पतिनिग्गंधीणं श्र६५० ॥७॥ " इत्यादिसूत्रद्वयम् । अस्याकरगमानका प्राग्वत् । अत्र जाप्यकार: ग्राहमेव स्थागियाचा मंत्र कारण संयतीनामपि संयतं प्राजयन्तीनां निरवशेष वध्यम् । नवरं शिकरणे द्वितीय Ssसेवनीयमिति भावः । एनदेव दर्शयतिउत निवेते, सइ करणादी य लजनासे य । तन्हा उ सकनिप गानि तवं दुविहसिक्ख ॥ ११८ ॥ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७७) अनिधानराजेन्छः। पवजा पवम अग्रपूरकमात्रकरणे उत्तिष्ठति,निधिसति,सत्करणादौ च य. (२७) पराडक-वातिक-क्लीयप्रवज्यानिषेधः । स्मात्मज्ञानाशो भवति तस्मानक संयत विविधमपि शिकां (२८) पण्डकादीनां प्रव्राजने प्रायश्चित्तम् । ग्राहयति,सकटीपट्टकं सन्त कटीपट्टकपरिधानोपेतं सन्तभ । (२६ ) नायकम्, अनायकं वा अनलं वा प्रवाजयति । तत्र आयरिऍ उवज्झाओ, तइया य पवत्तिणी उ समणीणं । प्रायश्चित्तम् । अमेसि अट्ठाए, त्ति होइ एएसि तिएहपि ।११। । ( ३०) निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्धरात्मार्थ न प्रधाजनीया । श्रमणीनामाचार्य उपाध्यायस्तृतीया च प्रवर्तिनी नति, पवज्जियन-प्रतिपत्तव्य-त्रि० । स्वीकर्तव्ये, “एया पउिजधमणानां त्वाचार्योपाध्यायो। ततोऽन्येषामा यति यदुक्तं सत्र. | यम्वा, पयासि जोगयं उवगर ।" पश्चा० १६ विव० । दयेऽपि व्याख्यातम् । व्य०७० । "कपाया यस्य नोकिन्नाः पवट्ट-प्रवृत्त-त्रि० । "वृत्त प्रवृत्त-मृत्तिका पत्तन-कदर्थिते टः" यस्य नामवरां मनः । इन्द्रियाणि न गुप्तानि, प्रवज्या तस्य ॥८।२।२६ ॥ इति तस्य टः। उपक्रान्ते, प्रा०२ पान । जीवनम् ॥१॥" सूत्र० १ श्रु० अ० । येन प्रवज्यायाः पूर्व लघु. पट्टण-प्रवर्तन-न० । प्ररूपणे, विशेः । पुनःपुनर्देहमान ने, धान्यानि प्रत्याख्यातानि जवन्ति,तस्य तद्ग्रहणे तानि कपन्त, नि. ० ३ उ० । न वेति ? प्रश, उत्तरम्-भत्र पूर्व येन लघुधान्यानि प्रत्या पवय-प्रवर्तक-पुं० । प्रवर्तयतीति प्रवर्तकः । वर्तमानस्य स्थातानि तस्य प्रवज्याग्रहणे सति अन्यानाप्राप्ती तानि कल्पम्ते प्रति॥ ११ ॥ ही०३ प्रका०। ('मूलगुणपमिसेवणा' शब्दे क. प्रेरक प्रथ०२ द्वार। पिकापरिप्रतिषेवणाप्रस्ताव कुष्ठप्रधाजनाविचारः) (पर्यु। पद-प्रकोष्ठ-पुं० । “ोतोऽद्वाऽन्योऽन्य-प्रकोष्ठाऽतीयषणायां दीक्षादानम् 'पज्जुसवणाकप्प' शब्देऽस्मिन्नेव भागे | शिरोषेदना-मनोहर-सरोरुहे तोच वः" । १५६ ॥ २५० पृष्ठे गतम)। इति सूपेण को इति भागस्य वः। गृहद्वारपिरहे.प्रा०१पाद । विषयसूची पवडत -प्रपतत-त्रि० । प्रकर्षणाधः पतिते, "पवते व से (१) भेदतः प्रव्रज्याव्याख्यानम् । तत्थ, पक्खलते व संजए।" दश० ५ ० १ उ.। (२) प्रवज्यापर्यायाः। पवडण-प्रपतन-न । भूमौ पाते, स्था० ५ ठा० २ उ०॥ (३) त्रिविधा प्रव्रज्या। "पवरण भूमीए गत्तेहिं ।” भूमौ प्राप्तं सर्वगात्रैश्च यत् (४) धर्मश्रवणतोऽभिसमागमतश्च दीक्षाया एवं स्वरू- पतनम् । ०६० पतो निरूपणम्। पवडणया-भपतनता-स्त्री० । प्रपतनशब्दप्रवृत्तिनिमित, प्र. (५) योग्यन गुरुणा। शा०१६ पद । श्रा० म०। (६) केभ्यः प्रव्रज्या दातव्या, के पुनस्तदर्हा इति निरूपण-प्रपतना-स्त्री०। भूमौ पाते, स्था० ५ ठा०२ उ० । पणम् । (७) कस्मिन् क्षेत्राऽऽदी प्रव्रज्या दातव्या । | पपडमाण-प्रपतत-त्रि० । प्रकर्षेण भूमौ सर्वैरपि गात्रः पत(2) व्यतिरेकप्राधान्यतः कालनिरूपणम् । ति, वृ. ६ उ०। () चरमपुद्गलपरावर्ते विशुद्धश्चमानस्थ च दीक्षा भ- पवडण-प्रवर्धन-म० । प्रकर्षेण वर्धनं प्रवर्धनम् । सूत्र० १ वतीत्येवमस्याः सामान्यतो विशेषतश्चाधिकारि थु०२ अ.१ उ० । विवर्धन, सूत्र० १ श्रु० ६ अ०। निरूपणम् । पवण-पवन-पुं। पवते पुनातीति वा पवनः । पिं० । वा(१०) समवसरणान्तःपुष्पपाते योग्यतानिर्णयाहीयतेऽ. यो, श्राव.४० प्रश्न० । स्वातीनक्षत्रदेवतायाम् , स्था० सौ, बहिस्तत्वाते तु यो विधिस्तन्निरूपणम् । २ ठा०३ उ. । श्रा०म० ।" अमिलो गंधवहीं मा-कश्री (११) कथं केन प्रकारेण दातव्या। समीरो पहजणो पवणो।" पाइ० ना. २५ गाथा। (१२) कथामधिकृत्य । सवन-न। तरणे शा०१ श्रु०१४ अ०। जलापरि गमने.सूत्र. (१३) परीक्षा। (१७) सामायिका ऽऽदिसूत्रदानम् । १२०१४ प० । उत्प्लवने, उत्त०२. " लंधणजवणपम(१५) शेषविधिः । द्दण समत्थे।" जी० ३ प्रति०१ अधि०२ उ०। (१६) वन्दनविधिः । पवणकिच्च-प्लवनकृत्य-न । सबने तर कृत्यं कार्य यस्यति । (१७) लिङ्गदान एव विधिः। तरकाण्डे, शा०१ श्रु०१४ श्रा। (१८) अप्रमार्जनदोषाः । पवणकुमार-पवनयार-पुं । वायुकुमारे भवनपतिविंशपे. । १६) साधुधमें परिभाविते यत्कर्तव्यं तन्निरूपणम् । स्था०१०टा०1 (२०) पालनासूत्रम्। (२१) प्रव्रज्याविधिः। पत्रणवलसमाहय-पवनवलसमाहन-त्रि० । वानवसामान(२२) गुरवे आत्मनिवेदनम्। रिते. ज्ञा०१श्रु.८ अ०।। (२३) प्रवज्याफलम् । पवणाहय-पवनाऽऽहत-त्रि० । वायुप्रेरिते, और। (२४ प्रवजितस्याऽऽर्यिकाभिर्वन्दनम् । पवण-प्रपन्न-त्रि० । अभ्युपगते, प्रश्न०३ श्राध० द्वार । उ(२५) परीक्ष्य प्रवाजनम् । त।"अबेलगो य जो धम्मो. जो इमी संतरुसरो । एकक(२६) एकादशप्रतिमाप्रतिपन्नस्य धावकस्य प्रवज्या। जपवनाणं, विससे किनुकारण ।। Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (206) पत्रम ( चस्पा गाथाया व्याख्या 'गोयमकेसिन' शब्दे तृतीयभागे पवत्तिणी प्रवर्तिनी - खी० गणमद्दतरिकायाम् ६६० पृष्ठे गता ) अभिधानराजेन्ः | पचत्तग-प्रवर्त्तक-पुं० [प्रशस्तयोगेषु साधून प्रवर्त्तयतीति प्रवर्त्तकः गये प्रवृत्तिनिवृत्तिविधायक प० । श्रथ प्रवर्त्तकगुणाना - तपः संयमयोगेषु योग्यं यो हिमवत् । निवर्तदयोग्यं च गणचिन्ती प्रवर्तकः ॥ ४३ ॥ गणचिन्तीति गणचिन्ताकारकः । शेषं सुगमम् । प्रशस्तयोगेषु साधून प्रवर्तयतीति प्रवर्तकः प्रवर्तकपदयोग्य इत्यर्थः ॥ १४३ ॥ घ० ३ अधि० । श्राव० । प्रयोजके, सूत्र० १ श्रु० १५ प्र० । रा० । ज्ञानाऽऽदिषु प्रवर्त्तयितरि, कल्प० ३ अधि० ६ क्षण | प्रवर्त्तयतीत्येवं शीलः प्रवर्त्तकः । धर्मे वि पदतां प्रोत्साहके, व्य० १ उ० । पवत्तचक- प्रवृत्तचक्र - त्रि० । योगिभेदे, द्वा० । महचकास्तु पुनर्यमद्रयसमाश्रयाः । शेषाविनोऽत्यन्तं शुश्रूषाऽऽदिगुणान्विताः ||२३|| ( प्रवृत्तचकास्त्विति ) प्रवृत्तचक्रास्तु पुनर्यमद्वयस्य इच्छायमप्रवृत्तिपमलक्षणस्य समाश्रया आधारीभूताः । शेषा थिनः स्थिरयमसिद्धिगमवार्थित प्रत्यन्तं सदुपय या सुधूपाऽऽद्य गुणाः सुश्रूषाश्रवणधारा नादापोइल जास्तैरन्वितायुः ॥२२॥ ० १ ० पचत्तण- प्रवर्तन - न० | "र्तस्याऽधूर्त्ताऽऽदौ” ॥ ८२ ॥ इति सूत्रेणाऽधूर्त्ताऽऽदाविति पर्युदासात् तस्य दो न । प्रा० २ पाद । उद्यमे, उत्तर ३१ ० । पवत्तय-प्रवर्त्तक 5-न० । प्रथमसमारम्भादूर्ध्वमाक्षेपपूर्वकं प्र वर्त्तमाने, जं० १ वक्ष० । पवत्ति ( ग् )- प्रवर्त्तिन्–पुं० । प्रवर्त्तयति साधूनाचार्योपदिeg वैयावृत्याssदिषु प्रवर्त्ती । प्रवर्त्तके, स्था० ४ ठा० ३ उ० । प्रवर्तिस्वरूपमाद- तत्र नियमविणय गुण निहि-पवत्तया नाणदंसणचरिते । संग हुवग्गहसला, पवत्ति एयारिसा हंति ।। ३३६ ।। तपो द्वादशप्रभेद, नियमा त्रिचित्रा द्रव्याऽऽद्यनिग्रहाः, विनयो झाऽऽदिनियमविनयान गुमा तपोनियमविनयगुणनिधयस्तेषां प्रवर्तकाः । तथा ज्ञानदर्श रिपयोग ताशेषः तथा सग्रहः शिष्याणां संग्रहणम् उपग्रहस्तेषामेत्र ज्ञानाऽऽदिषु सामकरण तयोः संग्रहोपयोः कुशला ५० ताशा एवंरूपाः प्रवर्त्तितो जयन्ति । यथोचितप्रशस्तयोगेषु साधून प्रयत तथा चाऽऽह - तवसंजमनियमेसुं, जो जुम्यो तत्थ तं पवत्तेइ | असह्य नियती, गणतनिलो पवती || ३४० ॥ तपःसंयमयोगेषु मध्ये यो यत्र योग्यस्तं तत्र प्रवर्त्तयन्ति पनियां एवं प्रच चिनः । उक्तं प्रवर्त्तिस्वरूपम् । ५० १ ३० । पत्रत्तिणी स्था नीयायां सकलसाध्वीनां नायिकायाम, बृ० ३ उ० । ०५० । पं० ब० । नि० चू० । अथ प्रसंगी गुणानाह गीतार्था कुलजाभ्यस्त सत्क्रिया पारिणामिकी। गम्भीरोभतो वृद्धा, स्मृताऽऽऽपि प्रवर्धिनी ।। १२६ ।। गीतार्था विभागमा तथा विशिष्कुल जाना, तथा अभ्यस्ता सन्क्रिया यया सा तथा, तथा पारिणामिकी उत्सर्गपवादविषयज्ञा । तथा गम्भीरा अलब्धमध्या । तथा उभयतो दीक्कावयाभ्यां वृषा स्थविरा, चिरदीकिता परिणतेत्यर्थः । ईदशी श्रर्मोऽपि संयत्यपि प्रवर्तिती स्मृता प्रोक्तंति संबन्धः। ६० ३ अधि० । गरू समा सीसपढिच्छीणं, चोअशा अखालसा | गणिनी गुणसंपन्ना, पसत्यपुरसानुगा ।। १२७ । स्वशिष्याणां प्रातीच्छिकानां च समा तुल्या, तथा चोदनासु अनसा कृतोद्यमा, प्रशस्तपुरुषाऽनुगा प्रशस्तपुरुषानुसारिणी, एवंविधा गणिनी महत्तरिका गुणसंपन्ना ज्ञानादिगुएसहितेति । अनुप्छन्दः ॥ १२७ ॥ संविग्गा भीयपरिसा य, उग्गदंडा य कारणे । सम्झायाणाय संग अ विसारया ॥ १२८ ॥ संविग्ना संवेगवती, तथा भीतपर्षद्, यतः कारणे उग्रदएमा, तथा स्वाध्यायध्यानयुक्का तत्र स्वाध्यायः पञ्चधा, ध्यानं न धति बहार समुचयार्थ तथा प्रदे शिष्याऽऽदिसंग्रहणे, चकारादुपग्रहे च विशारदा कुशलेसि । चिप्रमाकरोतिगाथा कृन्दः ॥ १२० ॥ ग० ३ अधि० । (प्रव हिंदी रहितनिधि मिशि द्वितीयभागे ०८ पृष्ठे गतम् ) ( निर्ग्रन्या नवमहा नोद्देष्टव्यम इति ' आयारपण शब्दे द्वितीय भागे ३५३ पृष्ठे उक्तम् ) (निर्ग्रन्थ्याः क्षनाऽऽचारायाः प्रवर्तन इति ' खयायार' शब्दे तृतीयभागे ७१८ पृष्ठे उक्तम् ) अयोग्य अहुगा पक्षिणी तासिं, अजोगा तुइमा भवे। वासम्गामविहारे, बीवाराऽऽदेक दीहिया ॥ अजुनहि अाउचा, अपजंदा व काहिया । पडी बद्धगुहसीला, गिरिवेयावकारिया || संसत्तठवियभत्ता, पाउसी अप्पया । श्रायत गवेसी य, छहंगाणं पलोइया || जापमा एवमादीया अजा अमेश कड्डिया । चाहारे उबहिम्मिय, गतीऍ सयणाऽऽससे सरीरे य । भासाएँ पाउसाणं जा जहि आरोवणा भणिता । (दारं) वासा वा वसती तु एशिया तह य गामगा । दूइजती वियारं, विहारभिक्खादि एक्का य ।। दीहं करेति गोषरमुकस्सं दोचगाणि मन्गेति । चितलगाइसिस, अजुनही भवति एसा ।। Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयत्तिणी (७७६) अभिधानराजेन्द्रः। पवत्तिणी इरियाभासेसणादा-णणिक्खेवसामईअनाउत्ता । अणपुच्छाए गच्छति, जत्थिच्छाए य सच्छंदा।। गेहेसु गिहत्याणं, गंतूण कहा कहेति काहीया।। तरुणादि अहिपडते, अणुजाणति जा उ सा पडिणी।। थद्धा जच्चादिमया-दिपहि सुहसील दट्टसील ति। सिन्धणबंधणमादिसु, वेयावच्चं गिहीण करे। उक्कस्सवत्थपत्ता-दिएहि संसत भावसंसत्ता। अहवा वि गिहत्थेमुं. पाउरणादीसु अविभत्ती ।। भत्तं वा पाणं वा, णिक्खिवती पाउसी उ जा धुवति। अभिक्खं तु हत्थपादे, कक्खंतरगुज्झमादीणि ॥ सरिहहि सणिब्बए चे-व कुणति जा अप्पणो अणट्ठाए। अमं वा वि अणहा, संचययं जा करेती तू ॥ जंतादिसाल तह व-दृकोट्ठए मेंठसालठाणाणि । जा गच्छति एतेसिं, अणायतणगवेसिता सा तु ।। गुज्झगाणि पलोए. अप्पणो अहवा वि जा तु पुरिसाणं । उक्कोसगमाहारं, एसति उवहिं च उक्कोसं ॥ गच्छति सविलासगती, सयणिज सतूलियं सविन्योयं । उबद्देति सरीरं, सिणाणमादी व जा कुणति ।। भमुहुक्खेवादीहिं, सविकारं भासती सबीलासं । एमादि अणरिहा तू, पच्छित्तं वावि सहाणं ।। तच्च पुण तवो इणमो, पच्छित्तं भगाए समासेणं । देंतगधरेतगाणं, अगीतमादीण दोएहं पि ॥ अबहुस्सुते ऽगीतत्थे, णिसिरिजगाणं तु अवधारेजा । तं देवसियं तस्स तु, मासा चत्तारि भारीया ॥ सत्तरत्तं तवो होति, ततो छेदो पहावती । छेदेण लिम्पपरियाए, ततो मूलं तो दुगं ।। एक्ककं सत्तदिणे,दातुं तवे तिगिच्छिए ततो छेदो । जत्तो तवो आरद्धो, पणगादिकडो व जहि केइ । तुल्ला चेव य ठाणा. तवदाणं हवंति दोएई पि । पणगादि पणगवड्डी, दोण्ह विं छम्मास णिवणा ।। किं कारणं न कप्पति, गणहारिऽबहुस्सुते अगीतत्थे । भस्मति सो पच्छित्तं, जयगं च ण जाणए काउं ।। दिटुंतो णट्टेणं, अजाणमाणेण जाणएणं च।। कायब्बो इत्थ इणमो, परूवणा तस्सिमा होति ॥ गीयम्मि अभिणयम्मि य, सरगाममुच्छणासु सव्वासु ।। कुणति विवञ्चासं खलु, जह णट्टमसिक्खितो णडो॥ तह कुणति विवञ्चासं, अग्गीतो सव्यकरणजोगेसुं। मुत्तत्थमजाणतो, णाणे तह दंसणे चरिते ।। जह नहगीतवाइय, विजाणतो जुजए समं तालं । सुत्तं तु विजाणतो, तह कुणती सम्मकरणं तु ।। किं पुण सो ण विजाणति, कुणती सव्वहिं विवञ्चासं। भापति सुणसू इणमो, जे कुणती सो विवच्चासं ।। ठाणणिसीयतुयट्टण-पेहणपप्फोडणे तहा सपणे । भासासुद्धग्गहणे, जेऽन्ने य परूविया धम्मा ।। उवदिसिउं न वियाणति, सामायारिं तु ठाणमादीयं । अज्जा वि जा अगीता, ण जाणए सा वि तह चेव ।। अप्पच्छंदिओ लुद्धो, परिभूतो इत्थ पत्थणिज्जो उ । बहुलोहमोहछम्मा, अज्जावग्गो दरणकडो॥ पाएण अप्पछंदा, महग्यदाणे तु लोभित अकिच्चं । कुव्वंति छगलिया विव, परिभूताओ व सबप्स ।। मंसादिपेसिया विव, संजतिवग्गो हु पत्थणिजओ तु । धिजाइयदिट्ठीसुं, बहुं च बहुमोहसम्माओ । मज्जायविप्पहूणा, मजादासंपउत्तम्मि (१)। पडिसेहे अणुणाया, मग्गधरविलोमता चउरो॥ जम्हा तु दुपरियट्टो,अजावग्गो तु तेण पडिसेहो । परियट्टण अजाणं, मज्जायाविप्पहूणस्स। मजायसंपउत्तो, अजापरियो अणुप्तातो । परिअहए अजोग्गे, उवट्ठिए चउगुरू सोही ।। मग्गधरो आयरिश्रो,सो पुण सिढिलेइ जो तु मज्जादं । तस्वदेसो कीरति,मज्जादाए दढो होहि ।। उपदेससारपडिसा-रणे य ते णवरि तिमि मासलहुँ। छंदे अ वड्डमाण, अपच्छंदं विवजिए .... || दिढता य इमसिं, पढमा मासलहुगादि दिअंति । छगणोल्लपट्टरुंबण-अवराहेसु तिसु कमेणं ।। आयरणे उबदेसो, अकप्पपडिसेवणे य उवदेसो । विकथादिपमाएसु य, मा बट्टह एस उबदेसो।। णिहाइपमादाइसु, सई तु खलियस्स सारणा होति । णणु कहित ते पमादा, मा सीयसु तेसु जाणतो। तदिवसं बीए वा, सीदंतो बुच्चए पुणो तइयं । अम वेलं ण सज्झ, भिक्खुपहादीहि संसत्तं ॥ फुडरुक्खे. अवियत्तं, गोणे तुदितु व्य मा हु पेलेजा । सज्झ तेणे भापति, पसंतचित्तं ततो सारे॥ भमति दिस्सुवदेसो, तुझं पि नियं च साहि तुम्हेहिं । एगवारं तु होती सढो, वितियं पुण ते ण विसहामो । ताहे पुणोऽवराहे, कयम्मि पच्छित्न देंति मासलहुँ । भासइ य सुणेहेत्थं, दिद्वंतं तेणएणं तु ॥ गोणादिहरणगहिओ, मुक्को य पुणो सहोढसंगहितो । उल्लालछगणहारी, ण मुञ्चती जायमाणो वि ।। पुणरवि कयावराहे,मासलहं चेव देंति से सोहि । भन्मनि पहिजंनि य, मुकं सुदं नह तुमं पि ।। Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८०) पवत्तिगी प्रन्निधानराजेन्डः। पत्तिणी पणरवि अवरद्धम्मी. मासो चिय तेसि दिजते दंडो । ययणगसिसि।" प्रणाययणं तु वट्टमाझाए सुविइ, तहा य जंतगुणसालादि वा, जा तु गुज्जदेमाई पलोपः । एवमा पाणो सो संवुत्तो, अतिरुविय कुंकुमं ततियं ॥ अणरिदा पवत्तिणित्तणस्त । गाहा-" आहारे उवहि त्ति ।" तेण परं णिच्छुभेणं, कुलगणरादि तस्स कुव्बंति । श्राहारोबहि एपसु जाव सत्त दुयायो माहारसे जाबहीअपमत्तो वी णियमा. भमति तू जस्सिमे दोसा ।। सु अणणुएणाय साणपच्छितं. भासापाउलियाण चगु. अप्पच्छंदियं लुद्धं, गिलाणं दुप्पडिजग्गगं । रुप्राइविभासा । गाढा-"अबहुम्सुए सि" अब हुस्सुया. वामं सगन्वितं णचा, संवासो विण कप्पति ।। तस्स गणे पारोवणा तहिवसमेव तसच उगुरुपं अहिकि. चिरतस्स चनगुरुयं । गाहा-"सत्तरत्तं नयो सि"ससदिच. उम्मग्गदेसणाए, संतस्स य छायणाए मग्गस्स। साई दिणे २ चउगुरुयं, अटुमे दिवसे तवा गुरूवो चउगुमग्गधर उवालंभे,मासा चत्तारि भारीया ।। रुभो,केनो जान सत्तदिणा. पहारसमे दिणे म अणबद्रपायरियाणं छंदे -ण वडती अप्पछंदिओ सो तु । पारंच।। एवं दोएई विदेतधरताण कम्हा अगीयस्थो दाय. श्राहारादुक्कोसं, लद्धं अत्त? लुद्धो उ ।। बस्स धरेयव्यस्स वा अकपिरो ?। उच्यते-नर्तकीरष्टान्ते. न गाहा-"जह नहत्ति।" जहा नट्टिया भयाणनिया विश्वनासं जोत गिलाणों अपत्थं, मग्गति सोहोति दपडिजग्गो त । केरे गिजमाणे नहे य गरहिया य भव । एवमगीयस्थो ठायसु भाणतो वञ्चति, वञ्चति य ठाति वामो उ॥ अगीयस्थ) य न सके समायरिङ पडिलेहणार नवदिलि. जच्चादिमादिएहिं, करेति गव्वं तु परिभवति अमं । उ वा परेसुं । इयाणि गोयत्या जहा नट्टो तं चेव नटुं गेयं वा णाणादीया मग्गे, परूवणा अण्हहा तेसिं ॥ अधिवाचासं करेति, जसो कित्ति च पावा, एवं चेव जाणतो करेह सुहं, उदिसा य किं पुण न पाणइ मासो वा संज. णाणादिसु सीदंतो, ण सुद्धमग्गं तु जो परूवेइ। श्री। गाहा-"arण ति" ठाणनिसीयणाईणि संजमाइन यारण एसो मग्गच्छादो, वड्डयती दीहसंसारं ॥ न उवदिसिउं पायच्छितं वा गायत्यो पुण जाण । गाढाएतेसिं तु विवेगो, मग्गधरा खलु कुलादिया थेरा। "गणित्ति।"ताणि चेव वाणाणि संजमतबोवहाणाईमबदिसा एहि उवालद्धाणं; उवहिताणं गुरू चउरो॥ करेइ य गायत्थो । किं च एपसु तवनियमासु संजुत्तो गीय त्यो आराहो भवद । गाढा-"अप्पच्छद ति।" अज्जावग्गो पुण बालाणं वुड्डाणं, भिक्खूमादीण चेव सब्बेसि । इमेदि कारणेहिं परियट्टिभो पाएमा प्रयच्छंदिनो मुद्धो संखेवेण महत्थो, उवदेसो कीरए इणमो॥ य जेरण केणइ सोभाचियाओ अकिस्चमवि आयरंति । ग. कप्पे मुत्तत्थविसा-रएण थामावहारविजटेण । नियवम्गो विव परिभूयारो पाणिज्जाओ य अंब पेसियादिभत्तादिलंभऽलंभे, सक्कारजढेण होयध्वं ।। सेण वा बहुमोह मोहमन्नाइसु धिज्जा इयाम एएण कारणेग दुपरिहियात्री । गाहा-"मज्जाय ति।" एवं मर्यादासप्रयुक्तस्य कप्पेति थेरकप्पो, सुत्तत्थविसारएण साहूण । भणुपालाणाकप्यो अणुमायो, श्यरस्स पझिसे दो, उहियम्म सव्वत्थामबलेणं, ण गहियवं समत्थणं ।। चजगुरु । एता परियट्टी भणिया परियायब पि संजईओ आहारमादिएहिं, दटुं धीयारमादि पुज्जंते (?) । संजया बा चेति मज्जादासंपत्ता परियट्टिजति । इयरसिं साहू अपुज्जमाणे, ण एव मणसा वि चिंतेज्जा । पहिसेहो, उहियाणं चउगुरुय,जे पुण मनायं सिदिलं करेंति पूइज्जती अ जया, वयं तु सबहुग्गमोदिया । तम्सुवढे सो, एक्कस्सि सारणा, ठिो पिपुब्बनिहोमिओ सि, सध्या पडिसारणा उदे अबहुमाणस्म विगिरणा । गाहा-गणश्रा कहणु ण पुजामो, ण करे मण दुक्कडं एवं ।। हारिवा थेरा साति,अहवा मस्स अमम्स विवेत्रो, अपचंसकारपुरकारे, परीसहो तु अहिासिओ एवं । दियस्स लुब्स्स य जहा वा सो गिनाणो हवा, तया उपरियजूरंतेगडहियासिओं, तम्हा सुमणेण होयच ।। ट्टिी होइवत्धदब्वाणि मगह घामो गधियो यविगिच। पं० भा०४ कल्प ॥ गाहा-"म्मम्मति।" उम्मग्ग जो देसे तम्स विधिगिनणा । केरिसा पुण अजाण कप्प परियट्टियं । गाहा-"बासम्गाम गाहा-"मगधरत्ति" मगधरा नाम कुत्रथेरा पारिया वा सि।" एकिया वसइ गामे, पक्किया गामाणु गाम दुइज्जइ,वि. एए उवलंभिकण गुरुयं पायच्छिनंदति।वं बेरकप्पो सुहारं वा विचार.वा पकिया, पगागीवादीहभिवायरियं क. ताविसारपण वनमगृहमाणेण भत्ते चा चिरश्वमाणे उहिरह दोश्चगाणिवा मग । "अजुतावहि त्ति ।" चित्तलगाईणि मिया मम न लब्मति मम सकारोन कीर सि अप्पम्सए कंचुगाई धरे। प्रणा नुत्ता इरियासु, अयच्छदिया य घो घरे न होयच, कि कारण ?, जो माणणामाह को माणहि ति वा कति कहिया । गाहा-"पमिणीय ति।" पहिणी या प्रत्यनीका, कित्तिया जीवा । पं. ०४ कल्प। अन्यदनाक प्रत्यनीकत्वं या करोति, थद्धा दुटुसी ला गिहिवे. अयोध्यप्रवर्तिन। स्थापनमयावरचकारिया,गिहियेयावरचाई करे। सिध्यणादि । संसत्ता! "जो पुण गुणहीणाए, महत्तरत्तं पवत्तणित्तं वा । पाउरणादि, वियभसा य । पाउसिया चविहा। गई स देइ पडिच्छइ तं वा, सो पावइ आणमाईणि ॥ " विज्ञासगई, सयणपाउसिया चिप्पोयणानु, भासाए स. विद्यारनामा, हाय धीवर, तिलियाईणि क. विहिगंधाइक्खेवो, सव्यो उज्झायमेव णायव्वो। एसा सम्बईणं, वंदणि जाति से मिक्वा ।। Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८१) अभिधान राजेन्द्रः । पवत्तिणी सव्वन्नुदेसियमणं, पयं पहाणफलजणयं । बंभसुंदरिचंद - भिईहि णिसेविय समंता ।। समणीओ तुम्भ, सरणागया भवभयाओ । सारणवारणचोयण - माईहिं रक्सिंयन्त्राओ || साहुणी एसा सिक्खियन्वाओ, साहुणी एसा सिक्खा गुरवो दिति " कुलबहुदिट्ठते, कजे भित्थियाहिँ विकहं वि । एयाए पयमूलं, आमरणंत णमुत्तं ।। १ ।। म य पडिकूलेयव्वं, वयणं गुरुणीऍ गीयमाईए । एवं गिहिवासचाओ, जं सफलो होइ तुम्हाणं ||२||” पवत्तिणीए भगवईए महत्तपयट्टवा | लहुबद्धमाणविज्जामंतप्पयद्वाणं एसा पयद्रवणविही सम्मत्ता । अङ्ग० । यो कप्पर पवत्तिणीए अप्पवितियाए हेमंतगिम्हासु चारए || १ || कप्पइ पवत्तिणीए अप्पततियाए हेमंतगिम्हासुचारए || २ || खो कप्पर गणावच्छेणीए अप्पततियाए हेमंतगिम्हासु चारए || ३ || कप्पइ गणावच्छेड़fre अप्प उत्था हेमंत गम्हासु चारए ॥ ४ ॥ णो कप्पड़ पत्रत्तिणीए अप्पततियाए वासावासं च वत्थए ||५|| कप्पर पवत्तिणीए अप्पचउत्थीए वासावासं वत्थए || ६ || गो कप्पर गणावच्छेणीए अप्पचउत्थाए वासावासं वत्थए || ७ || कप्पइ गणावच्छेणीए अप्पपंचमाए वा - सावासं वत्थ ॥ ८ ॥ से गामंसि वा० जाव संनिवेसंसि वा बहूणं पवत्तिणीयं अप्पततियाणं बहूणं गणावच्छेइणीणं अप्पचउत्थीसं कप्पति हेमंतगिम्हासु चारए अन्नमन्नणिस्साए || ६ || से गामंसि वा० जाव संनिसंसि वा बहूणं पवत्तिणीयं अप्पचउत्थीणं बहूणं ग यावच्छेदिणी अप्पपंचमाणं कप्पर वासावासं वत्थए मस्साए || १० || गामागुग्गामं दूइज्माणी गं अज्जिया जं पुरश्र कड्ड विहरिज्जा से य आहच्च वीसंभेजा जिया ! इत्थ काइ अणाउवसंवज्जगारिहा कप्पड़ सा उवसंपज्जियन्त्रा सिया इत्थ काइ अणाउव संपज - रिहा अपणो कप्पाए असमत्ता एवं से कप्पर एगरातियाए पडिमाए जं गं जं गं दिसं असओ साहमिणीओ विहरंति, तं णं तं गं दिसं उवलित्तए गो से कप्पइ तत्य विहारवत्तियं तत्थ य कप्पर से तत्थ कारण वत्तियं वत्थ तंसि च णं कारणंांसि गिट्टियंसि परो वएज्जा-वसाहि अजे ! एंगरायं वा दुरायं वा एवं कप्पड़ एगरायं वा दुरायं वा त्थए; यो से कप्पर एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वत्थए, जं तत्थ एगरायाओ वा दुराया वा परं वसति छेए वा परिहारे वा ॥। ११ ॥ चासात्रासं पजोसवे णिग्गंथी य पुरा कट्टु विहरति सा य १६६ For Private पवत्तिणी हच वीसंभेजा अज्जिया इत्थ काइ अण्णाउवसंपजखारिहा सा उवसंपजियव्वा० जाव छेए वा परिहारे वा ।। १२ || पवत्तिय य गिलायमाणी अन्नतरं वदिजा अजे ! मग कालगयाए इयं संमुक्कसियव्वा साय समुकसणारिहा संमुक्कसियन्वा सिया. सा य णो समुक्कसणारिहा यो समुक्कसिया सिया, अजिया इत्य काइ अणासमु - कसिणारहा सा समुकसणारिहा सा चैव समुक्कसियव्वा तेसिं च णं समुक्कट्ठसि परो वएजा-दुसमुकट्ठाए अजे ! निक्खिवाहि ती से क्खिवमाणीए वा रात्थि काइ बेए वा परिहारे वा जा तो साहमाणीओ अहाकप्पणाणा उबट्ठायंति तासि सव्वासि ए वा परिहारे वा ॥ १३ ॥ पवतिणी य हायमाणी एगतरं वएजा-ममंसि णं अजे ! ओहाइयंसि एसा समुक्कसियब्वा सिया सा समुकसिगारिहा मुकसियन्त्रा सिया, सा य णो समुक्कसि - खारिहा सा चैव समुकसियन्ना सिया, तंसि च गं समुकटुंसि परो वएजा-दुसमुकट्ठे ते असे! शिक्खिवाहि, तीसे - raaमाण वा तत्थ काइ छेए वा परिहारे वा तं जो साहम्मिश्र हाकप्पेणं णो उट्ठायंति तासिं सव्वासिं त पत्तियं ए वा परिहारे वा ॥ १४ ॥ "नो कप्पति पवत्तिणीए" इत्यादि तावत् यावदभिधानसूत्रम् । अर्थसम्बन्धप्रतिपादनार्थमाहउद्देसम्म उत्थे, जा मेरा वलिया उ साहूणं । सा चैव पंचमं सं-जतीण गणणाए गाणतं ॥ १ ॥ चतुर्थे उद्देशके या मर्यादा वर्णिता साधूनां सैव पञ्चमे उद्देश संयतीनां वरयते, केवलं गणनायां नानात्वं, तदपि च सूत्रे साक्षादुक्तमिति प्रतीतमतः प्रथभत एव संयतीसूत्रकदम्बकोपनिपातः । प्रकारान्तरेण संबन्धमाहउत्तमहवा बहुत्तं, पिंडगसत्ते चउत्थचरमम्मि | पत्ते पडसे, कामरणुष्पा बहूणं तु ॥ २ ॥ अथवा चतुर्थस्योद्देशकस्य चरमे पिण्डसूत्रे बहुत्वमुक्तं, ततो बहुत्वप्रस्तावात् पञ्चमे उद्देशके संयतीनामबहुत्वे प्र तिषेधं कृत्वा बहूनामनुज्ञा कृता । ननु बहूनामपि त्रिप्रभृतीनां विहारो न कल्पते श्रसमाप्त कल्पत्वात् । तथाहि जघन्यतोऽपि ऋतुबद्धे काले संयतीनां सप्तकः समाप्तकल्पो वर्षाकाले नवकस्ततः कथं नाधिकृतसूत्रकदम्बकविरोधः ? | उच्यते-नैष दोषः, कारणवशतः सूत्रकदम्बकस्य प्रवृत्तिः । तान्येव कारणान्युपदर्शयति संघ वाउला, द्वे गम्मि गमणमसिवादी । सागरजाते जयगा, उउवद्धाऽऽलोयणा भणिया ||३|| प्रवर्तिन्या गणावच्छेदिन्या वा उत्तमेन संहननेन, उपलक्षणमेतत् - उत्तमया च धृत्या, सूत्रमर्थश्च भूयान् गृहीतो. गच्छे व व्याघातः, स च व्याकुलवशात् तत उकं द्वितीयं Personal Use Only Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवत्तिणी (७८२) अभिधानराजन्द्रः । पवय कारणं व्याकुलना । सा च "धम्मकहि महिड्डीए।" इत्यादिना पुरुषा ये भाविताः संबन्धिनोऽपि ये अविकारिणः पुरुषास्तैः प्रकारेण यथा प्राक् तृतीयोद्देशकेऽभिहिता तथैवात्रापि भा. कामम् अथ सप्रत्यपायाः पन्थानस्तर्हि यत् यत्र देशे पूजितं चनीया, पुनरुक्तदोषभयान्नाऽभिधीयते । ततः सूत्रार्थस्मरण लिङ्गं तेन गृहीतेन व्रजन्ति । एतच्च सुगमत्वान्न व्याख्यातम्। निमित्तमात्मतृतीयायाः प्रवर्तिन्या आत्मचतुर्थायाश्च गणा. अत्र शिष्यः प्राह-यद्यप्याचार्येण प्रवर्तिनी स्थापयितव्या, वच्छेदिन्या गमनम्। तथा षष्ठे अङ्गे शाताधर्मकथाऽऽख्ये ब- तर्हि ये एते द्वे सूत्रे " पवात्तणी गिलायमाणी वएज्जा महवः सदृशाऽऽगमाः । तथा च तत्रानेकाः कथानककोटयः एणं कालगयाए समुकासयब्वा ।" इत्यादि । तथा "पसदृशमाठाः, विसदृशपाठास्त्वर्धचतुर्थककोटयः, तदभि- वत्तिणी आहायमाणी वएजा मए णं ओहाबियाए इयं समुनवगृहीतं वर्तते, पुनः पुनरस्मृतं च विस्मृतमुपयाति, कसियव्वा।" इत्यादि. ते कथं नीयेते?। ततस्तत्स्मरणार्थमुक्तपरिवाराया अपि गमनम् । तथा श्र तत पाहशिवाऽऽदिभिरशिवावमौदर्याऽऽदिभिरुक्कसंख्याकपरिवाराया असिवाइएसु फिडिया, कालगए वा वि तंसि पायरिए । गमनम् । तथा षष्ठप्रभृतीन्यङ्गानि संयतीनां (सागर त्ति) स्वयंभूरमणसागरतुल्यानि, तान्यभिनवगृहीतानि परावर्त तिगथेराण य असती, गिलाणोहाणिसुत्ताभो ॥६॥ नीयानि सन्ति, अपरावर्तितानि नश्यन्ति, ततस्तेषां परा- | अशिवाऽऽदिभिः कारणैः गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे प्राकृतधर्तनाय यथोक्तसंख्याकपरिवाराया अपि गमनम् । स्वात्। यस्याऽऽचार्यस्य समीपे बालीरन् तस्मात् स्फिटिताः। तदेवमाधिकृतसूत्र कदम्बकप्रवृत्ती कारणान्यभिहितानि । प्र- ततः सा ग्लानीभूता अवधावनप्रेक्षिका अन्यास्याऽऽचार्यस्य धुना शेषवक्तव्यतामाह-(जाते ति ) जाताऽऽदिरूपः कल्पा परिशानकरणार्थ सूवाभिहितं वदति(तिगर्थराण य असती यक्तव्यः। स च भूतुबद्ध सप्तकः समाप्तकल्पः, तदनोऽसमा- इति) त्रिकं कुलगणसंघस्तस्य स्थविरात्रिकस्थविरास्तेषामतकल्पो वर्षाकाले नवकः समाप्तकल्पस्तवूनोऽसमाप्तक सति । किमुक्तं भवति ?-कुलस्थविराणां गणस्थाधराणां संघ. ल्मश्च । एकैको विधा-जातोऽजातश्च गीतार्थोऽगीतार्थश्च. स्थविराणां वा प्रत्यासमानामभाव शेषस्थघिरपरिशानकरणाति। तत्र च भगवतुपये प्रथमवर्जेषु शेषेषु त्रिषु भङ्गषु य यरसूबेऽभिहितं तद्वदति। ततो रवानावधानसूये उपपन्ने । प्राग्वत् यतना कर्तव्या । तथा ऋतुबद्ध काले निरन्तरं साहीणम्मि वि थेरे, पबत्तिणी चेव तं परिकहेइ । साध्वीप्रेषणतोऽघलोचना कर्तव्या भणिता। तदेषमभिहि एसा पवत्तिणी भे!, जोग्गा गच्छे बहुमता य ॥७॥ तानि कारणान्यतः कारणरायातस्यास्य सूत्रकदम्बकस्य व्याख्या। सा च तथैव । अथवा स्वाधीनेऽपि स्थविरे प्राचार्य सा प्रतिनी ग्लाय. तथा चाऽऽह न्ती अवधावनप्रेक्षिका था तो परिकथयति । यथा (भे) जह भणियं च चउत्थे, पंचमम्मि तह चेविमं तु नाणतं ।। भगवन् ! एषा प्रवर्तनी योन्या प्रवर्तनीत्वस्याऽहीं,सूत्रार्थतदु. गमणित्थिमीससंबं-धिवजए पूजिते लिंगे॥ ४ ॥ भयनिष्पन्नत्वात् गच्छ बहुमता च । एवमपि ते सूत्रे उपपन्ने। यथा चतुर्थे उद्देशके निर्ग्रन्थसूत्राणां व्याख्यानं भणितं, तथा पञ्चमे ऽग्युद्देशे निर्ग्रन्थीसूत्राणामपि वक्तव्यं, नवरमिदं अब्भुज्जयपरिहारं, परिवज्जिउकामे दुस्समुकढु । नानात्वम् । तदेवाऽऽह-(गमणिस्थीत्यादि) विष्वगभूतायां प्र. जह होती समणाणं, भत्तपरिमा तहा तासि ।।८। वर्तिन्यां गमनं सर्वाभिरार्यिकाभिराचार्यसमीपे कर्तव्यं, त. यथा प्राक् श्रमणानामभ्युद्यतविहारं प्रतिपत्तुकामे दुःसमु. च स्त्रीभिः सह. तदभावे मित्रैः स्त्रीपुरुषैः, तेषामध्यभावे स्कृष्टो भवति, दुःसमुरकृष्टं प्रतिपादितं, तथा तासां श्रमणीनां संबन्धिपुरुषैः, तेषामप्यभावे सम्बन्धवर्जितैरधिकारिभिः भक्तपरिशां प्रतिपसकामानां दुःसमुत्कृष्टं भावनीयम् । व्य. पुरुषः । अथ सप्रत्यपायाः पन्थानस्तर्हि यत् यत्न पूजितं । ५ उ० । लिङ्गं तस्मिन् लिङ्गे गृहीते गमनम् । पवत्तिय-प्रवर्तित-त्रि० । जनिते, उत्त. २०१०। एतदेव सुव्यक्तमाह पवत्थय-प्रत्यवस्तृत-वि० । आच्छादिते, "केसरपवत्थया:वीसुभियाएँ सब्बा-सि गमण अद्धद्ध जाव दोण्हेक्का।। भिरामे।" रा० । संबंधिइत्थिसत्थे, भावितमविकारितेहिं वा ॥ ५ ॥ पवदमाण-प्रवदमान-त्रि० । प्रवादं कुर्वति, प्राचा०१० विष्यग्भूतायां शरीयत्पृथग भतायां, मृतायामित्यर्थः । प्रब ५०१ उ०। तिन्यामाचार्यसमीपे सर्वाभिर्गन्तव्यम् । तत्र च गताना- परद्ध देशी-घने लोहकुट्टनोपकरणे, दे. ना० ६ वर्ग माचार्यण प्रवर्तिनी स्थापयितव्या, यदि तरुणीनां सर्वासां ११ गाथा । पथि प्रत्यपायस्तर्हि अर्दा याः परिणतवयसस्ता व्रजन्ति । पवमाण-प्लवन-त्रि । जलोपरि तरति, आवा०२ ०१ अथ सर्वास्तरुण प्रायाः कतिपयाः स्थविरास्ततो या मन्द चू. ३ अ० २ उ०। रुपास्तरुरायो याश्च स्थविरास्ताः समुदायस्य चतुर्भागमात्रा व्रजन्ति । एवं तावद्वाच्यं यावत् हे जने गच्छत पवमान-बि)। उपलुनि कुर्वति,भः २५. श०७ उ.। संभवे एका व्रजति । ताः पुनः केन सार्थेन सह व्रजन्तिपवय-प्लवक-त्रि० । प्लवनीति प्लवकः । उत्सवनकारिणि, नत आह--( संबंधीत्यादि) संवन्धिना स्त्रीमान सह भ.२५ शः ७ उ० । प्लवकः कोऽपि तथा शिक्षामधिगतः गन्तव्यं तदलाभे असंवन्धिनापि खीसाथन, तस्याऽग्यलामे (श्रा०म०२ अ०) आकाशस्थितानि करणानि करोति । नं० । Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) अभिधानराजेन्ः | पवय ग पचयण प्रवचन न० प्रोप्यतेऽनेनास्मादस्मिन् या जीवाssदयः पदार्थ इति प्रवचनम्। श्रथवा प्रशब्दस्याव्ययत्वेनानेकार्थयोतकत्वात तं जीवादिपदार्थध्यापक प्रशस्तमा दी या वचनं वचनम्। द्वादशाने गणिपिटके दिवास्व विवक्षिततीर्थकरापेक्षया द्रष्टव्यम् ।" नमस्तीर्थाय " इति व चनात् तीर्थकरेणाऽपि तन्नमस्कर णादिति । श्रथवा जीवादिवं प्रीति व्युत्पत्ते गडिपिकानन्यत्वाद्वा चतुर्विधभ्रमण सङ्के च । विशे० पा० उत्त० । पञ्चा० । ० म० | स्था० | शा० | अनु० । व्य० ॥ श्र० स० । नि०चु० । प्रकर्षे , परसमयापधावस्थित भूरिभेदप्रमेवैरुच्यन्ते जीवाजीवा ssar पदार्था अनेनास्मिन्निति वा प्रवचनम् । जीत० । प्रशस्तं गतमवगाई वा वचनं धनं या च षाऽऽगमापेक्षया प्रवचनं सूत्रतोऽतथ०१६ विष० | पं० ष० । विशे० । शासने, औ० । विशे० । उत्त० । तं नागकुसुमबुद्धि, घेतुं बीयाबुद्धश्र सव्वं । गति पचपणा माला इव चितकुसुमायं ॥ ११११।। पगतं वय पत्रयण - मिह सुयनाणं कहं तयं होजा ? । पवयणमहासंघ, गंधेति तयन्हद्वार ।। १११२ ।। तां तीर्थ करमुक्त ज्ञानकुसुमवृष्टि गृहीत्वा बीजाऽऽदिबुद्धयो गएराः पायनेकानि पदानि प्रालि अबीजयुत्कोदिपरिग्रहः कोटकप्रशि धान्यमिय यस्य सुत्रार्थी सुचिरमपि तिष्ठतः स को 1 सर्वे तीर्थकर भाषितं चित्रकुसुममालामिय प्रवचनार्थ प्रनन्ति । प्रचचनशब्दार्थमेव कथयति प्रगतं प्रधानं प्रश स्तमादौ वा वचनम्, अत्र श्रुतज्ञानं द्वादशाङ्गम् तत् कथं नु नाम भवेद् निष्पद्यते ? ' इत्येवं संप्रधारयन्तस्त. दर्थे प्रति अथवा प्रवक्रीति प्रवचनं संघः तदनुप्रहार्थ प्रध्नन्ति । विशे० । आगमे, भ० । प - प्रवचनम् - पवयणं भंते! पवयणं, पावयणी पवयणं । गोयमा ' - रहा ताव यिमं पात्रयणी । पवयणं पुण दुबालसंगे गणिपिडगे । तं जहा - यारो० जाव दिडिवाओ | प्रकर्षेणच्यते अभिधेयमनेनेति प्रवचनमागमस्तत् भए मत ! प्रचचनं प्रचचनशब्दवाच्यं काका अध्येतव्यम् उत प्रथ चनी प्रवचनप्रणेता जिनः प्रवचनं १, दीर्घता व प्राकृतत्वात् भ० २० श०८ उ० सू० प्र० । विशे० । दर्श० । प्रवचननिक्षेपाऽभिधानायाऽऽह निर्युक्लिकृत्निक्खेषो पत्रयणम्मी. चन्त्रिहो दुविहो य होइ दव्त्रम्मि | आगम नोचागमतो, नोश्रागमतो य सो तिविहो ||४५५ || जाणगसरीर भनिए तथ्य रिले कुतिस्वमायुं । भावे दुयालसंगे, गणिपिगं होइ नायव्यं ।। ४५६ ।। निक्षेपः प्रवचने चतुर्विधो नामाऽऽदिः। तत्र नामस्थापने तुले एवेत्यनादृत्य द्रव्यनिक्षेपमाह-द्विविधो भवति द्रव्ये विचार्यै, निक्षेप इति गम्यते वैविध्य मेवाऽऽ६ - आगमतो. नोश्रागमतश्च । तत्राऽऽगमतो ज्ञाता, तत्र चानुपयोगवान् नोआगमतस्तुः स त्रिविधः । कथमित्याह - ( जाएगसरीरभविए तव्व पवयण हरिशरीरभरी माचनेरिकम् (नित्यमासु) कुतीर्थ्यादिषु प्रवचनम् आदिशब्दा त् सुतीर्थेषु च ऋषभा 35 दिसंबन्धि पुस्तका 3 दिग्यस्तं भा ष्यमाणं वा । भावे द्वादशाङ्गम् आचाराऽऽदि दृष्टिबादपर्यन्तम गणित आचार्याय पिकमिव पिकं साचारी गणिपिटकं भवति ज्ञातव्यं प्रवचनम् । नन्वेवं दृष्टिवादान्तर्ग तत्वात्सकलकुदीनामपि भावप्रययन प्राप्त उच्यते-स्त्येतत् किं त्वेकपक्षावधारणपरतयाऽसदृष्टित्वात् द्रव्यम वचनतैवाऽऽसामिति नोक्तदोषाऽऽपत्तिः । उत्त० २४ अ० । प्रवचनैकार्थिकानि " गट्टियाणि तिपि उ, पवयण सुत्तं तत्र एकेकस्स य एतो नामा एगडिया पंच। कोऽथ येषां तान्याधिकानि श्रथ कानि पुनस्तानि है, प्रवचनमुक्तार्थं वश्यमाणार्थ व सामान्येन शानम् सूच नात्सूत्रं तद्विशेष एव । श्रर्यत इत्यर्थः श्रयमपि तद्विशेष एव । एषां च प्रचचनसुषार्थानां मध्ये एकैकस्य प्रत्येकमेकार्थका नि पञ्च पञ्च नामानि भवन्तीति निर्बुकिगाथा ऽर्थः ॥१३६६।। भाग्यम्जमिह पग पसर्थ, पहाणवणं च पत्रयणं तं च । साम सुचना, बिसेस सुमत्थोय ।। १३६७ ।। गतार्था । विशे०। सूत्रार्थयोः प्रमथनेन सहैकार्थता युक्ता तयोस्तयित्वा त्। स्वार्थी तु परस्परं विभिन्न तथाहि सूत्रं पापेयम् अर्थस्तु तद्वयाख्यानमिति । अथवा-त्रयाणामप्येषां भिन्नार्थतैव युक्त्युपपन्ना प्रत्येकमेकाfर्थक विभागसद्भावात्, घटपटशकटवत्। अन्यथा एकार्थतायां सत्यां भेदेनैकार्थिका ऽभिधानमयुक्रम्. घटकुम्भयोरिति । अत्रोच्यते इह यथा मुकुल विकसितयोः पद्मविशेषयोः संकोच विकाशरूपपर्यायभेदेऽपि कमल सामान्यरूपत्वेनाभेदः तथा सूत्रार्थयोरपि प्रयच नाsपेक्षया परस्परतश्चाभेदः । तथाहि श्रविवृतं मुकुलतुल्यं सूत्रं तदेव विवृतं प्रयेोधितं विमर्थः प्रच यमपि यथा च तेषां संकोचविकाशाना मे कार्थिकवि भाग उपलभ्यते, कमलम् अरविन्दं पङ्कजम् इत्यादि पकाचिकामि यथा मुकुलं नृपं संकुचितमित्यानि मुकुल कार्थिकानि तथा विकथं कुठं विषुवमित्यादीनि विकसि कार्थिकानि तथा प्रवचनसूत्रार्थानामपि पद्ममुकुलविक सितकल्पानामेकार्थकविभागो न विरुद्ध इति । अथवा श्र न्यथा व्याख्यायते - एकार्थिकानि त्रीण्येवाऽश्रित्य वक्तव्यानि तद्यथा प्रचचनमे फार्थिकगोचरः, तथा सूत्र, शे पूर्ववत् यद्येवं शारगाथायां प्रवचनैकार्यिकानि इति तद्व्याहन्यते स्वार्थयोरप्ये कार्यिका भिधानात्। नेप दोषः प्रचचनस्य सामान्यविशेषरूपतया सूत्रार्थवापि प्रय चनविशेषरूपत्वेन प्रकोपपत्तेः आह-ययेवं तहिं विभागश्चेति पृथग्द्वाराऽभिधानमनर्थकम् । तदसम्यक् । वि. भागधेति किमु भवति सामान्यविशेषरू पस्य प्रवचनस्य पञ्चदशैकार्थिकानीति किं तर्हि विभागश्च कल्यः विशेषवराऽभिधानपर्याषाणां सामान्यगोचरा:भिधानपर्यायत्वानुपपतेः न हि चूतसहकारादयो वृक्षा दिपा भवन्ति लोक तथाव्यवहारानावादिति । त्यो य । १२६६ ।। Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८४) पवयगा अभिधानराजेन्द्रः । पवयणकुसल तत्र प्रवचनैकार्थिकान्याह कयाइ पमायदोसो असइ कोहेणं वा माणेणं वा मासुयधम्म तित्थ मग्गो, पावयणं पवयणं च एगट्ठा । याए वा लोभेणं वा रागेण वा दोसेण वा भएण वा श्रुतस्य धर्मः स्वभावः श्रुतधर्मः, श्रुतस्य बोधस्वभावत्वात् हासेण वा मोहेण वा अन्नाणदोसेण वा पवयणस्स णं श्रुतस्य धर्मो बोधो बोद्धव्यः । अथवा-श्रुतं च तत् ध. अन्नयरहाणे वइमेत्तेणं पि अणगारं असमायारी परूव. मैश्च सुगतिधारण त् श्रुतधर्मः । यदि वा-जीवपर्यायत्वात् माणे वा अणुमन्नेमाणे वा पवयणसासाएज्जा, से णं बोश्रुतस्य, श्रुतं च धर्मश्च श्रुतधर्मः । उक्तं च--" बोहो सुय हिं पिणो पावे, किमंग! आयरियपलंभं । से भयवः किं अस्स धम्मो, सुयं च धम्मो सजीवपजातो । सुगईएँ संजम भव्ये मिच्छादिट्ठी आयरिए भवेजा । गोयमा ! भवेज्जा । म्मि य, धरणातो वा सुयं धम्मो ॥१॥" तथा तीर्यते संसा. रसमुद्रोऽनेनेति तीर्थ, तच्च संघ इत्युउक्तम् । इह तु एत्थं च णं इंगालमदगाई नाए से भयव किं मिच्छादिट्ठी नितदुपयोगानन्यत्वात् प्रवचनं तीर्थमुच्यते प्राह च-तित्थं ति खमेज्जा? गोयमा ! निक्खमेज्जा। से भयवं! कयरेणं लिंगेपुथ्व भणियं. संघो जो नाणचरणसंघातो । इह पवयण- णं से णं वियाणेज्जा जहा णं धुवमेयं मिच्छद्दिट्ठा। गोयमा! मपि तित्थं, तत्तो णत्थंतरं जेण ॥१॥ " तथा मृज्यते शो जे णं कयसामाईए सव्वसंत्रिमुत्ते भवित्ताणं अफासुपायं पध्यतेऽनेनात्मा इति मार्गः , मार्गणं वा मार्गः, शिवस्यान्वेषणमिति भावः । उक्तं च- "मग्गिजइ सोहिजइ, जणs रिभुंजेज्जाजेणं अणगारधम्म पडिवजित्ताणं समई सोयरियं ता पचयणं ततो मग्गो। अहवा सिवस्त मग्गो. मग्गणमन्ने. वा परोयरियं वा तेउकायं सेवेज वा, सेवाविज्ज वा सेविज्ज सणं पंथो ॥१॥” इति । तथा प्रगतमभिविधिना जीवाऽs. माणं अनेसि समणुजाणेज्ज वा, तहा नवएहं बंभचेरगुत्तीणं दिपु पदार्थेषु वचनं प्रवचनमुक्तशब्दार्थम् (?) । उक्तानि पञ्चप्रवचनैकार्थिकानि । श्रा० म०१ अ०। आ० चूला नि० चू० । जे केइ साहू वा साहुणी वा एकमवि खंडिज्ज वा विराहेज केचित्प्रवचनमतिक्रान्ति वा,खंडिज्जमाणं वा विराहिजमाणं वा बंभचेरगुत्तिं परेसिं ससे भयवं! अत्थि केइ जेणमिणमा परमगुरूणं पि अलं मणुजाणेज्ज वा, मणेणं वा वायाए वा कारण वा से णं मिघणिज परमसरस्म फुड पयर्ड पयडपयर्ड परमकल्लाणं च्छट्टिी, न केवलं मिच्छदिट्ठी अभिगहियमिच्छादिट्ठी वि कसिणकम्मट्ठदुक्खनिट्ठवणं पवयणं अइक्कमेज वा. पइक्कमे जाणेज्जा।से भयवंजेणं केइ आयरिएइ वा मयहरएइवा जवा, खंडेज्ज वा विराहिज वा, आसाइज वा, से म असई कहिं वि कयाइ तहाविहाणंगमासज्ज इणमा निग्गंथं णसा वा वयसा वा कायसा वा जाव णं वयसि । गोय पवयणमन्नहा पन्नवेज्जा, सेणं किं पावेजा ? | गोयमा! जं सावज्जायरिएणं पाक्यिं । महा० ५ अ०। मा! णं तेणं कालेणं पखित्तमाणेणं । सयं दस अच्छेरगे ( प्रवचनान्यथाप्ररूपणायां सावद्याऽऽचार्यः । तद्वत्तम भविंसु, तत्य णं असंखेजे अभव्वे असंखेजे मिच्छादिहे 'सावजायरिय' शब्दे वक्ष्यामि) असंखजे सासायणदव्वलिंगमासीयसढताए उभेणं स-पवयणउब्भावणया-प्रवचनोदभावनता-स्त्री० । प्रवचनस्य कारिजंते एत्थ धम्मेगत्ति काउणं बहवे अदिट्ठकल्ला- द्वादशाङ्गस्योद्भावनं प्रभावनं प्रावचानकत्वधर्मकथावाद :णे जइ णं पवयणमब्भुवगमंति , तदब्भुवगमियं रसलो- दिलब्धिभिर्वर्णवाद जननं प्रवचनाद्भावनम् , तदेव प्रवचना. लुत्ताए विसयलोलुत्ताए दुद्दतियदोसेणं अणुदियहिं ज भावना। शासनप्रभावनायाम् , स्था० १० ठा। हट्ठियं मग्गं निद्ववंति , उम्मग्गं च ऊसप्पियंति, सब्वे तेणं पवयणकुसल प्रवचनकुशल-पुं० । सूत्रार्थोत्सर्गापवादभाव व्यवहारकुशले, ध। कालेणं इमं परमगुरूणं पि अलंघणिज्ज पथयणं जाव अथ प्रवचनकुशल इति षष्ठं भावभावकलक्षणं चेत्थम्णं पासायंति। से भयवं! कयरेणं तेणं कालेणं दस अच्छे- सुत्ते अत्थरअ तहा,उस्सग्ग३ऽववाऍ४भावे ५ ववहार ६॥ रगे भविसु ?। गोयमा ! शं इमे तेणं कालेणं दस अच्छेरगे जो कुसलतं पत्तो, पवयणकुसलो तो छद्धा ।।५।। मवंति । तं जहा-तित्थयराणं उवसग्गे , गब्भसंकामणे, । सूत्रे सूत्रविषये यः कुशलत्वं प्राप्त इति प्रत्येक योजनीयम् । वामा तिच्यरे, तित्थयरस्स ण देसणाए अभवसमुदा ध०र०२ अधि०६लक्षः। श्रावकपर्यायोचितसूत्राध्येतेत्यर्थः तथाऽर्थे सूत्राभिधेये संविग्नगीतार्थसमीपे सूत्रार्थश्रवणन एणं परिसावंधि सविमाणाणं चंदाइच्चाणं तित्थयरमम-- कुशलन्वं प्राप्त इत्यर्थः २ । उत्लग सामान्योक्तौ ३। अपवाद वसरणे आगमणं वासुदेवाणं संखज्जणीए अजयरे-- धिरोपभणिते कुशलः । अयं भावः-केवलं नोत्सर्गमेवावण वा रायकड हेणं परोप्परमेलावो, इहई तु भारहे लम्बने, नापि केवलमपवादं. कि तूमयमपि यथायोगमाखत्त हारवसकुलूप्पत्ताए चमरुप्पाए एगसमयां ग्रटमय- लम्व इत्यर्थः ४ । भाव विधिसार धमानुप्राने करणस्व. सिद्भिगमणं असंजयाणं पूयाकारगे ति । से भय ! जे णं । रूपे कुशलः । इदमुक्तं भवति-विधिकारिणमन्यं बहु मन्यते, स्वयमपि सामग्रीसद्भावे यथाशक्ति विधिपूर्वकं धर्मानुष्ठाने केइ कहिं कयाइ पमायदोमओ पवयणमासाएज्ज से ण प्रवर्तते । सामग्र्या अभावे पुनर्विध्याराधनमनोरथान मु. कि आयरिचपलंभ लभज्जा। गोयमा जेण केइ कहिं वि अत्येवेति । व्यवहारे गीतार्थाःचरितरूपे कुशलः देशका Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८५) पवया कुसल अनिधानराजेन्धः। पवयगामाउमा लाऽऽद्यपेक्षयोत्सर्गापवादवेदिगुरुलाघवपरिज्ञाननिपुणगीता- धारियमविग्यणटुं, गुणियं परियत्तियं बहुसो ॥१४१॥ र्थाऽऽचरितं व्यवहारं न दूषयतीति भावः६।“ एसो पवयण पुव्वावरबंधेणं, समीहियं वाइयं तु निजवियं । कुसली, छब्भेश्रो मुणिवरेहि निद्दिट्रो । किरियागयाइँ छबिह-लिंगाई भावसदस्स ॥१॥" एतानि भावभावका बहुविहवायणकुसलो, पवयणअहिए य निग्गिएही।१४२। क्रियोपलक्षणानि पडेव लिङ्गानि । ध. २ अधिः । दर्श० । गाथाद्वयमपि गतार्थ, नवरं वाचितमाक्षेपपरिहारपूर्वकतसंप्रत्यस्यैव षष्ठलक्षणस्य भावार्थ विवरी या सम्यक् गुरुपादान्तिके निर्णीतार्थीकृतं, निर्यापितं विपुषुराद्यभेदं गाथाप्रथमपादेनाऽऽह लवाचनासमृद्ध इत्यस्या व्याख्यानं, बहुविधया वाचनया उचियमहिजइ सुत्तं, ...............! कुशलो दक्षो बहुविधवाचनाकुशलः । उक्तः प्रवचनकुशलः। .............................. व्य०३उ०। ॥५३॥ उचितं योग्यं श्रावकभूमिकायामधीते पठति सूत्रं प्रवचन पवयणखिसा-प्रवचनखिसा-स्त्री० । जिनशासनापभ्राजनाया मात्रादिषड्जीवनिकान्तम् । उक्तं य-"पवयणमाईछज्जी-वणि म्, पञ्चा०१२ विव पूजाविधानाऽप्रतिपादनपरं जिनशासनयंता उभयत्रो वि इयरस्स।" (ग्रहणशिक्षेति तत्र प्रकृतम् ) मन्यथा कथमाहताः शीवाऽऽदिव्यतिरेकेणाऽपि जिनं पूजयउभयतः सूत्रतोऽर्थतश्च इतरस्य श्रावकस्येति सूत्रग्रहण न्ति इत्यादिरूपायां जिनशासनाश्लाघायाम्, पश्चा०१२ विव०। मुपलक्षणं. तेनान्यदपि पञ्चसंग्रहकर्मप्रकृतिक शास्त्रसंदोहं | पवयणगहियत्थ-प्रवचनगृहीतार्थ-पुं०। प्रवचनस्य गृहीतो. गुरुप्रसादीकृतं निजप्रशाऽनुसारेण जिनदासवत्पठतीति । ऽर्थः सर्वसारो येन स तथा । गीतार्थे, व्य०१. उ० । ध० र०२ अधि०६ लक्ष । पवयणगुरु-प्रवचनगुरु-पुं० प्रधानाऽऽचार्य, पञ्चा०६ विद्या प्रवचनकुशलमाहसुत्तत्यहेउकारण-वागरणसमिद्धचित्तसुयधारी। पवयणणिण्हव-प्रवचननिद्रव-पुं० 1 प्रवचनमागमं निहवते. पोराणदुद्धरधरो, सुयरयणनिहाणमवि पुस्लो ॥१३॥ पलपन्त्यन्यथा प्ररूपयन्तीति प्रवचननिवाः । बहुरता दिषू. धारियगुणियसमीहिय, निजवणा विउलवायणसमिद्धो । त्सूत्रप्ररूपकेषु, स्था० ७ ठा। (ते च 'णिएहव' शब्दे च तुर्थभागे २०६४ पृष्ठे व्याख्याताः) पवयणकुसलगुणनिही, पवयणहियनिग्गहसमत्थो।१४०। पवयणदेवया-प्रवचनदेवता-स्त्री० । शासनदेव्याम् , स्था० सूत्रात्मकत्वात्सूत्रार्थो, यदि वा-सूत्रयुक्तोऽर्थोऽस्मिन्निति सूत्रार्थः, न त्वक्षरानारूढार्थमिति भावः । हेतुरन्वयव्यतिरे १० ठा। काऽऽत्मकः, कारणमुपपत्तिमात्रम् , हेतुकारण व्याक्रियते पवयणपचणीय-प्रवचनप्रत्यनीक-त्रि० । शासनप्रत्यनीके, प्रतिपाद्यतेऽनेनेति हेतुकारणव्याकरणं समृद्धम, अनेकाति पं०व० १ द्वार। शयात्मकत्वात् , चित्रमाश्चर्यभूतम्, अनन्तागमपर्याया35. स्मकत्वात्। एवंरूपं श्रुतं धारयतीत्येवंशीलः सूत्रार्थहेतुकार पवयणवत्ता-प्रवचनवक्र-त्रि० । सूत्रार्थवक्नरि, पंच०१द्वार । णव्याकरणसमृद्धचित्रश्रुतधारी । तथा पौराणमिव पौराणं पवयणमाउा-प्रवचनमातृ-स्त्री० । प्रवचनस्य द्वादशाङ्गस्य यादृशमतीतद्वयोर्मासात् तादृशमिदानीमप्यतिबहुलत्वेनेति मातर इव तत्प्रसूतिहेतुत्वान्मातरो जनन्यः प्रवचनमातरः। भावः । दुर्द्धरनयभङ्गाऽऽकुलतया प्राकृतजनैर्धारयितुमशक्यं पा० । प्रवचनस्य द्वादशाङ्गस्य तदाधारस्य वा संघस्य धरते-र्थात् प्रवचनमिति पौराणदुर्द्धरधरः। तथा श्रुतरत्नस्य मातर इव प्रवचनमातरः । स०८ सम० । श्राव० । श्रा० निधानमिव पूर्मः प्रतिपूर्योऽर्थनिर्मयप्रदानाऽऽदिना। तथा म० । प्रवचनाऽऽधारेषु समितिगुप्तिषु, धारितं सम्यग्धारणाविषयीकृतं, न विनष्टमिति भावः । अट्ट पवयणमायाओ पामत्तानो । तं जहा-इरियासीमई, गुणितं च बहुशः परावर्तितम् । तथा सम्यक् ईहितं पूर्वापर भासासमिई, एसणासमिई, आयाणभंडमसनिक्खेवणाससंबन्धेन पूर्वापराव्याहतत्वेनेत्यर्थः । मीमांसितं समीहितम्। पतानि वचनविशेषणानि इत्थंभूतेन प्रवचने तस्य निर्यापणा मिई, उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपारिद्वावणियासमिई, मामांसिततया निर्दोषत्वेन निश्चयतया विपुला विशोधनार्थ मणगुत्ती, वयगुत्ती, कायगुत्ती। बहूनामाचार्याणां सकाशे ग्रहणात् . वाचना विपुलावाचना, स० ८ सम) । प्रा. चू० । ध०। एतदर्थप्रतिपादके चतुर्वितया च समृद्धो धारितगुणितसमीहितनिर्यापणाविपुलवा- शे उत्तराध्ययने, उत्त। चनासमृद्धः। तथा प्रवचनपरिज्ञानानुगतानां गुणानां निधि संप्रति नामाथमाहरिव गुणनिधिः । किमुक्तं भवति ?-प्रवचनमाधात्यात्मनो हितं वहत्यन्येषां च हितमुपदिशतीति तया प्रवचनस्याहिता अट्ठसु वि समिईसुं, दुवालसंगं समोयरइ जम्हा । अवर्णभाषिणस्तन्निग्रहे समर्थः प्रवचनाहितनिग्रहसमर्थः । तम्हा पवयणमाया, अज्झयणं होइ नायव्वं ॥४५६।। पाठान्तरम्-" पवयणहियनिग्गमसमत्था ।” प्रवचनाय अष्टास्वप्यपृसंख्यास्वपि समितिषु द्वादशाङ्गं प्रवचनं सहितः स्वशक्त्या निगूहनेन प्रभावक इत्यर्थः । निर्गमे श्रात्म- मवतरति संभवति यस्मात् , ताश्चेहाभिधीयन्त इति गम्यते। नः परस्य च संसारान्निस्तारणे समर्थः । तस्मात् प्रवचनमाता प्रवचनमातरो वोपचारत इति । इदअत्रैव कतिपयपदव्याख्यानार्थमाह मध्ययनं भवति ज्ञातव्यमिति गाथाऽर्थः । गतो नामनिष्पनयभंगाऽऽउलयाए, दुद्धर इव सदो त्ति प्रोवम्मे । नो निक्षेपः । Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रयणमाला पत्रह - स्था० ८ ठा० । संप्रति सूत्राऽऽलापकनिक्षेपावसरः स च सूते सति भवती पवरकुंदुरुक्क प्रवरकुन्दुरुक न० विशिष्टवीडाभिधाने गन्ध पवरकुंदुरुक्क-प्रवरकुन्दुरुक्क । ति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयम् । तच्चेदम्द्रव्यविशेषे, कल्प० १ अधि० २ क्षण | जं० । औ० । स० ।. पण माया, समिती गुत्ती तहेव य । पवरगंध - प्रवरगन्ध-पुं० । प्रवरे गन्ध, प्रवरगन्धोपेते, त्रि० । पंचेन व समिओ, तच्च गुचीओ आहिया ॥ १ ॥ इरियाभासणादाणे, उच्चारे समिई इय मणगुत्ती वयगुत्ती, कायगुत्तीय अट्टमा || २ || एयापचयणमाया, समासेण वियाहिया । वारसंग जिक्खा, मार्च जन्य उपचय || ३ || प्रकटार्थमेव । उत्त० २४ श्र० । पवरगवल प्रवरगवल - न० । वरमहिषशृङ्गे, जं० ३ वक्ष० । पवरोराजुवास-प्रवरगोयुवन् पु० श्रेष्ठतरुणी "मीलुप्पल कयामेल एहि पवरगोणजुवाण पहि ति ।” भ० ६ श० ३३ उ० । पवरजुवति - प्रवरयुवति - स्त्री० | तरुण्याम्, प्रश्न०४ श्राश्र०द्वार पवरदित्ततेय - प्रवरदीप्ततेजस् - त्रि० । प्रवरभावतया वरदप्ति - तया च युक्ते, स० । एया पवयणमाया, जे सम्मं आयरे मुखी । सो खियं सव्यसंसारा, विष्पमुच पंडिए ॥२७॥ स्पष्टमेव नवरं सम्यमविपरातेन न तु दम्भाऽऽदिना इति सूत्रार्थः । उत्त० २४ अ० । पत्रयणरहस्स - प्रवचनरहस्य- न० छेदसूत्रे, पं० भा० ४ कल्प। पं० चू० । पल मवचनवात्सल्ययुक्त- वि० संघस्य सुवार्थयोर्वा परसलभाव पं० ० १ द्वार पवयवच्छल्लया- प्रवचनवत्सलता - स्त्री० । प्रकृष्टं प्रशस्तं प्रगत वा वचनमागमः प्रवचनं द्वादशाङ्कं तदाधारी वा सधस्तस्य वत्सलता प्रवचनवत्सलता । प्रत्यनीकत्वाऽऽदि. निरासेन शासनहितकारितायाम्, स्था० १० डा० । पवयसार - प्रवचनसार - पुं० प्रवचन संदोहे, श्राव० ४ श्र० "म्हारे (१) सू० १ ० ० ल० प्र० 'पवयण सारुद्धारं " (२) । प्रव०१ द्वार। "पवयणसारुद्धारी" (१६१३) । श्रीनेमिचन्द्रसूरिविरचिते ग्रन्थे, प्रब० २७६ द्वार। पपयसाय प्रवचनहित त्रिवचनमिति द्वादशाङ्गम् अ थवा भ्रमणसं तस्य हितः सुखम् प्रयखनोपकारके, पं० चू० १ कल्प। पं० भा० । पवयवाहियहसमत्थ-प्रवचनाहितनिग्रहसमर्थ- त्रिप्र पचनावर्णवादिनां निग्रहसमर्थे ६५०३४० । पत्रयगुड्डाह-प्रवचनोड्डाह - पुं० । प्रवचनमालिन्ये, ग०२ अधि०। पवयाहकर वचनोड्डाहकर प्रि० आवश्यकोका 1 ', - ( ७८६) अभिधानराजेन्द्रः । - साधुवत् प्रवचनमालिन्यकरे, ग० ३ अधि० । पचयोपाइ प्रवचनोपपातिन् त्र प्रवचनोपयातकार के यथा पिण्डग्रहणं कुर्वता निर्धमनाऽऽयशुचिस्थानम् । ध० २ अधि० । पत्रयणोवधाय - प्रवचनोपघात - पुं० । प्रद्विष्टराजाऽऽदिना जिनशासनापभ्रंशे व्य० १ ३० । (प्रवचनोपघातरक्षको विष्णुकुमारवद् विशुद्ध एवेति 'राय' शब्दे वक्ष्यते ) पवर-प्रवरर त्रि० । प्रकर्षेण वरः श्रेष्ठः । उत्त० ११ श्र० । श्र तिप्रधाने, शा० १ ० १ ० । सूत्र० । स्था० । विशे० रा० जी० । ० म० प्रज्ञा० ॥ श्र० स० विंशतितमायां गौणानुज्ञायाम्, पवरंग - देशी-शिरसि, दे० ना० ६ वर्ग २६ गाथा । पवरकच्छ मवरकच्छपुं० नं । ० ३ यज्ञ । पवरवण-मवरधूपन - न० गन्धयुक्युपदेशाविरचिते धूपविशेषे, शा० १ ० १७ श्र० । पवरपरिहित - प्रवरपरिरित भ० प्रवरं यथा भवतीत्येवं परिहिते, भ० २ श०५ उ० । मंगलाई बत्थाई पवरमंमलाई पपरपरिहिए ।" (पवर सि) द्वितीयाबहुवचनलो पात् प्रवराणि प्रधानानि परिहितो नियति । अथवा- प्रवरश्वासौ परिहितश्चेति समासः । श्र० । जी० । पवरभवण - प्रवरभवन - न० । प्रवरगेहे, प्रश्न० ४ श्रश्र०द्वार पपरप-पचरज-पुं० [प्रलभ्यापही श्री० । पवरभूमण- प्रवरभूषण न० भूते, ब० । तलभङ्गकवाडुरक्षिकाप्रभृति पवररायसीह- प्रवरराजसिंह पुं० । पूर्वकृततपःप्रभावात् प्रकृष्टराजवीरे, प्रश्न० ४ श्राश्र० द्वार । पवरयस्थमादि- प्रवश्वखाऽऽदित्रि प्रधानचनप्रभृती प श्ञ्चा० ६ विव० । पवरवीर-प्रवरवीर पुं० प्रधानम भ० ७ ० ० सुभटे, विपा० १ ० ३ श्र० । पवरा-प्रवरा स्त्री० । श्रीवासुदेवस्य शासनदेव्याम्, प्रव २७ द्वार । - त्रि० । देशान्तरं गच्छति, प्रा० ४ पाद । पवसंत-प्रवसत्पव सण - प्रवसन - न० | जिनकल्पाऽऽदिप्रतिपत्ती देशान्तरगमने, पं० चू० २ कल्प | पपसमाण पत्र वि० देशान्तरं गच्छति सू० २० २ श्र० । 1 - " 35 " पिंडपवसिउकाम - प्रवसितुकाम त्रि । परिधातुकामे, वायपडियार पवसिउकामे सव्वं चीवरमायाए । श्रचा० २ श्रु० १ चू० ५ ० २३० । पवासिय प्रोषित - त्रि० । देशान्तरं गन्तुं प्रवृत्ते ज्ञा० १ श्रु० २ श्र० । स्वस्थानविनिर्गते. ज्ञा० १ ० ७ ० । पद प्रवाह पुं० [प्रयदपम् वृद्धि 33 ॥ ८ | १ | ६८ ॥ इति सूत्रेण वैकल्पिक बुद्धिः । पवहो । प Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवह (७८७) अनिधानराजेन्द्रः। पवायदह वाहो । प्रा० १ पाद । प्रभावे, स्था१. ठा० "विमला, रन्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति । तथाहि-प्रकृतेरचेतनत्वात् कुत णं दिसा रुयगादीया रुयगप्पवहा । " भ० १३ श०४ उ० । आत्मोपकाराय क्रियाप्रवृत्तिः स्यात् ?, कुतो वा दृष्टेत्यात्मा. पवहण-प्रवहण-न० । वेसराऽऽदिषु वाहनेषु, श्री० । पोते, पकाराय प्रवृत्तिर्न स्याद् ?,अचेतनायास्तद्विकल्पाऽसंभवात्, "समुद्दे पवहणं पासइ ।" प्रा० म०१ अ०। नित्यायाश्च प्रवृत्तिनिवृत्तभावात् पुरुषस्याप्यकर्तृत्वे संसा रोटेगमोक्षीत्सुक्यभोक्तृत्वाऽऽद्यभाव : स्यादिति । उक्तश्चपवहाइअ-देशी-प्रवृत्ते, दे० ना० ६ वर्ग ३४ गाथा। . "न विरक्ती न निर्विराणो, न भीतो भवबन्धनात् । पवा-प्रपा-स्त्री० । जलदानस्थाने, शा० १ श्रु०८ अ० । न मोक्षसुखकाक्षी वा, पुरुषो निक्रियाऽऽत्मकः ॥१॥ प्रश्नः । दशा० । भ० । औ० । पानीयशालायाम्, कल्प कः प्रव्रजति सांख्यानां, निष्क्रिय क्षेत्रभोक्तरि । १ अधिः ४ क्षण । रा० । व्यः । जलदानमण्डपे, प्रश्न निष्क्रियत्वात्कथं वाऽस्य, क्षेत्रभाक्तत्वमिष्यते ॥२॥"इति । १ श्राश्र० द्वार । श्राचा० । तथा-शौद्धोदनिशिष्यका यत् सत्तत्सर्व क्षणिकमित्येवं पवाइय-प्रवादित-त्रि० । श्रास्फालिते, श्री० । श्रा० म० ।। व्यवस्थिताः। तत्रोत्तरम् । यदि निरन्वयो विनाशः स्यात् प्रज्ञा०रा० ततः प्रतिनियतः कार्यकारणभाव एव न स्यात् , एकसपवाडेमाण-प्रपातयत-त्रि० । अधःपातयति, भ. १७ श० तानान्तर्गतत्वात्स्यादिति चेद् , अशिक्षितस्योल्लापः, तथा हि-न सन्तानिव्यतिरेकेण कश्चित् सन्तानोऽस्ति, तथा चे सति पूर्वकालक्षणावस्थायित्वमेव कारणत्वमेवश्च सर्व स. पवाय-प्रवाद-पुं०। प्रकर्षणाद्यते प्रतिपाद्यते स्वाभ्युपगतो. बस्य कारणं स्यात् सर्वस्य पूर्वकालक्षणावस्थायित्वाद्यत्किर्यो यरिति प्रवादाः । दर्शनेषु, “अन्योन्यपक्षप्रतिपक्षभावा श्चिदेतदिति । किं चत्, यथा पर मत्सरिणः प्रवादाः।" स्या०। प्रकृष्टो वादः “यजातमात्रमेव, प्रध्वस्तं तस्य का क्रिया कुम्भे?। प्रवादः । श्राचार्यपारम्पर्योपदेशे, " जे महं श्रबहिमणे, प. नोत्पन्नमात्रभने, क्षिप्तं संतिष्ठते वारि ॥१॥ वाएण पवायं जाणेजा।" ( १६७) (जे महं इत्यादि ) यः कर्तरि जातविनष्टे, धर्माधर्मक्रिया न सम्भवति । पुरस्कृतमोक्षो महान्महापुरुषो लघुकर्मा ममाऽभिप्रायान्न विद्यते बहिर्मनो यस्यासाववहिर्मनाः सर्वज्ञोपदेशवी तदभावे बन्धः को, बन्धाभावे च को मोक्षः? ॥२॥" इत्यादि बार्हस्पत्यानां तु भूतवादेनाऽऽत्मपुण्यपापपरलोकाति यावत् , कुतः पुनस्तदुपदेशनिश्चय इति चेदाह-(प. वाए इत्यादि)प्रकृष्टो वाद: प्रवादः-आचार्यपारम्पर्योपदेशः ऽभाववादिनां निर्मर्यादतया जनताऽतिगानां न्यक्कारपदव्या. प्रवादः, तेन प्रवादन सर्वशोपदेशं जानीयात्परिच्छिन्द्यादि- धानमनुत्तरमेवोत्तरमिति । ति । यदि वा-अणिमाद्यऽऽष्टविधैश्वर्यदर्शनादपि न तीर्थक अपि चद्वचनाद्वहिर्मनो विधत्ते, तीथिकानिन्द्रजालिककल्पानिति " अब्रह्मचर्यरक्त-मूढैः परदारघर्षणाभिरतैः । मत्वा तदनुष्ठानं तद्वादांश्च पर्यालोचयति । कथमित्याह माहेन्द्रजालविषयत् , प्रवर्तितमसत्किमप्येतत् ॥१॥" (पवारण इत्यादि) प्रकृष्टो वादः प्रवादः सर्वज्ञवाक्यं, तेन तथामौनीन्द्रेण प्रवादेन तीर्थिकप्रवादं जानीयात्परीक्षयेत् । "मिथ्या च दृष्टिर्भवदुःखधात्री, तद्यथा-वैशेषिकास्तनुभुवनकरणाऽऽदिकमीश्वरकर्तृकमिति मिथ्यामतिश्चापि विवेकशून्या। प्रतिपन्नाः। तदुक्तम्-“अन्यो जन्तुरनीशः स्या-दात्मनः सु. धाय येषां पुरुषाधमानां, खदुःखयो। ईश्वरप्रेरितोगच्छेत्, स्वर्ग वा स्वभ्रमेव च ॥१॥" तेषामधर्मो भुवि कीदृशोऽन्यः ?॥२॥" इत्यादिकं प्रवादमात्मीयप्रवादेन पर्यालोचयेत्। तद्यथा-अभ्रे-. इत्यनया दिशा सर्वेऽपि तीथिकवादाः सर्वशवादमनुसृत्य न्द्रधनुरादीनां विश्रसापरिणामलब्धाऽऽत्मलाभानां तदतिार- निराकार्या इति स्थितम्, तन्निराकरणं च सर्वज्ञप्रवाद निरा केश्वराऽदिकारणपरिकल्पनायामतिप्रसङ्गः स्यात् । तथा घट- कार्य च तीर्थिकप्रवादमेभिस्त्रिभिः प्रकारर्जानीयात् । श्राचा०१ पटाऽऽदीनां दण्डचऋचीवरसलिलकुलालतुरीवेमशलाकाकु- श्रु०५ अ. ६ उ० । उत्त० । सूत्र० । श्रा०म० । विन्दाऽऽदिव्यापारानन्तरावाप्ताऽऽत्मलाभानांतदनुपलब्धव्या प्रपात-पुं० । गते, शा. १ श्रु. १४ अ०। विपा । भृगुपु, यत्र पारेश्वरस्य कारणपरिकल्पनायांरासभाऽऽदेरपिकिन स्यात्?। मुमूर्षवो जनाः भूम्यां पतन्ति । रात्रिधाट्यां च। जं०१ वक्षा तनुकरणादीनामप्यबन्ध्यस्वकृतकाऽऽपादितं वैचित्र्यं, शा० । पर्वतात्प्रपतन्जलसमूहे, स०७५ सम० । कर्मणोऽनुपलब्धेः। कुत एतदिति चेत्, समानः पर्यनुयोगः । अपि च-तुल्ये मातापित्रादिके कारणे अपत्यवैचित्र्यदर्श पवायंत-प्रवात-त्रिका प्रवहति, " जंसिप्पेगे पवेदंति सिसिरे नात्तदधिकेन निमित्तेन भाव्यम्, तश्चेश्वराभ्युपगमेऽप्यह मारुए पवार्यते।" प्राचा० १ श्रु० ६ ०२ उ०। टमेवेष्टव्यं, नान्यथा सुखदुःखसुभगदुर्भगाऽऽदिजगद्वैचिः पवायग-प्रवाचक-पुं०। प्रकर्षण प्रधानः, आदी वा वाचका ध्यं स्यादिति । तथा-साख्या एवमाहु:-यथा-"सत्त्वरज. प्रवाचकः । गणधरे, श्रा० म०१ अ०। प्रा० चू० । विशे० । स्तमसांसाम्यावस्था प्रकृतिः, प्रकृतेर्महांन्ततोऽहकारस्त. पवायदह-प्रपातहद-पुं० । प्रपतनं प्रपातस्तदुपलक्षितो हदः स्मादेकादशेन्द्रियाणि पश्चतन्मात्राणि, तन्मात्रेभ्यः पञ्च भू. प्रपातहदः । प्रपातकुण्डे, यत्र हिमवदादर्नगात् गङ्गाऽऽदिका तानि, बुद्धयध्यवसितमर्थ पुरुषश्चेतयते: स चाकर्ता निर्गुण महानदी प्रणालेनाधो निपतति । स्था० । श्चेति।" तथा प्रकृतिः करोति पुरुष उपभुइने, ततः कैवल्या. वस्थायां द्रष्टाऽस्मीति निवर्तते, इत्यादिकं युक्लिविकलत्वानि जंबू! मंदरदाहिणणं भरहे वासे दो पवायदहा पणत्ता । तं Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) निधानराजेन्द्रः। पवायदह पविद्ध जहा-बहुसमतुल्ला० जाव गंगप्पवायदहे चेव सिंधुप्पवायदहे | पविचरिय-अविचरित-न । इतस्ततो गमनेन सर्वतो व्याप्ते,रा। चेव । एवं हेमवए वासे दो पवायदहा परमत्ता बहुसम | पविज्जल-प्रदीप्तजल-त्रि० । प्रतप्त जले, “ सयाजला नाम नतुल्ला । तं जहा-रोहियप्पवायहहे चेव रोहियंसप्पवायदहे दीभिदुग्गा. पविजला लोहविलीणगत्ता । " (२१) रुधिराssचेव । जंबू ! मंदरदाहिणणं हरिवासे दो पवायदहा परमत्ता विलत्वात् पिच्छिला विस्तीर्ण गम्भीरजला वा । अथवा-प्रदीबहुसमतुल्ला । तं जहा-हरिप्पवायदहे चेव,हरिकंतप्पवायदहे सजला वा। सूत्र० १ श्रु२५०२ उ० । चेवा जंबू! मंदरउत्तरदाहिणेणं महाविदेहे वासे दो पवायदहा पविट्ठ-प्रविष्-त्रि० । अन्तर्गते , अनु० । सूत्र। उत्त । परमत्ता ।तं जहा-बहुसमतुल्ला० जाव सीयप्पवायबहे चेव, पवित्त पवित्र-न०।" पञ्चैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्मचासीओदयप्पवायदहे चेव । जंबू ! मंदरउत्तरणं रम्मए वासे दो रिणाम् । अहिंसा सत्यमस्तेय-ब्रह्मचर्याऽपरिग्रहाः ॥१॥" उत्त० १२ अादर्भ, पवित्रशब्दभवः । दे० ना. ६ वर्ग १४ पवायदहा पामत्ता बहुसमतुल्ला० जाव सरप्पवायदहे चेव | गाथा। परकंतापवायदहे चेव । एवं हेरन्नवए वासे दो पवायदहा पवित्तय-पवित्रक-न० । अङ्गुलीयके, भ० २ श० ५ उ० । परमता । तं जहा-बहुसमतुल्ला जाव सुवमफूलप्पवायदहे | औः । चेव रूपकूलप्पवायदहे चेव । जंब ! मंदरउत्तरेणं पवित्ति-प्रवृत्ति-स्त्री० । प्रवर्त्तने , प्राचा० १ श्रु०१ अ०१ एरवए वासे दो पवायदहा पम्पत्ता बहुसमतुल्ला. उ.। आत्मेच्छायाम् , सूत्र०१७० १२० प्रथमाभ्यासे,द्वा० जाव रत्तप्पवायद्दहे चेव रत्तवइप्पवायद्दहे चेव । स्था० १८द्वा० चेष्टायाम्, पश्चा०६ विव०। प्रवर्तनं प्रवृत्तिः अनुष्ठा नरूपायां परिशुद्धप्रतिपच्यनन्तरभाविन्यां तत्वविषयायां वि२ ठा० ३ उ०। शिष्टक्रियायाम् , षो०१६ विव: । (प्रवृत्तिलक्षणम् 'धम्म' (गङ्गाप्रपातहृदाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने) शब्दे चतुर्थभागे २६७० पृष्ठे उक्तम् ) न्यायसंमते शुभाऽशुभ. पवाया-प्रवाता-स्त्री० । प्रगतवातायां शय्यायाम् , या हि ग्री फले विंशतिविधे वाङ्मनःकायव्यापारे, स्या० । पवित्तिजम-प्रवृत्तियम-पुं० । संविग्नपाक्षिकस्य प्रवृत्तचक्रत्वाधमकालेऽपरायदे उपलेपनाऽऽदिकरणेन धर्म नाशयति । वृ० | नुरोधे सति यमे, द्वा० १६ द्वा०। १२ प्रक० । प्राचा०। पवाल-प्रवाल-पुं० । किशलये, “किसलयाई पल्लवा पवाला पवित्तिया-पवित्रिका-स्त्री० । ताम्रमये अङ्गलीयके, शा० १ य।” पाइ० मा० १३८ गाथा । “विद्दुमं पवालं ।” पाइ० श्रु०५०। ना०२२८ गाथा। पवित्थर-प्रविस्तर-पुं० । धनधान्याऽऽदिप्रविस्तारे, प्रश्न. ५ पवास-प्रवास-पुं० । देशान्तरगमने, आव०१० । “अतः आश्र द्वार । धनधान्यद्विपदचतुष्पदाऽऽदिविभूतिविस्तारे, उत्त. १०। प्रश्न । गृहोपस्करे. दशा०६ अ०। समृद्धयादी वा" ॥ ८ ॥१॥४४॥ इति वैकल्पिको दीर्घः । पवित्थरिलय-प्रविस्तर-न। विस्तारवति, प्रश्न ५ आश्र. प्रा० १ पाद। पवाह-प्रवाह-पुं० । सन्तत्याम् , पं० व० ४ द्वार । आम्म । पविद्ध-प्रविद्ध-त्रि० । यद् वन्दनं दददेव नश्यति तादृशे वन्दनश्राव० । वंशे , विशे० । आव० । दोष, “पविद्धं बंदणगं देतो चेव उठूत्ता णासति ।" पवाहण-प्रवाहण-न० । प्रवाह्यते अनेनेति प्रवाहणम् । जले, आ. चू। तस्य मलप्रक्षालनत्वात् । प्रा० म०२ अ०। पविद्धमणुवयार, जं अपितो णितिश्रो होइ।। पवित्रा-प्लविका-स्त्री० । “सिरिद्दहो पवित्रा।" पाह० ना० | जत्थ व तत्थ व उज्झइ,कियकिच्चोऽवक्खरं चेव।।१५६॥ २१८ गाथा । पक्षिपानपात्रे, दे० ना० ६ वर्ग ४ गाथा। " पविद्धमणुवयारं ति।" प्रविद्धं नाम यदुपचाररहितम्। पविण-प्रविकीर्म-त्रि । विक्षिप्ते, औ० । व्याप्ते, " नरवाप एतदेव ब्याचष्टे-यद्वन्दनकं गुरुभ्योऽर्पयन् ददत् नियन्त्रितो विइममहीवइपहा ।” नरपतिना राज्ञा प्रविकीर्णा गमनाss भवति, अनवस्थित इत्यर्थः । अमवस्थितत्वेन च यत्र या तत्र गमनाभ्यां व्याप्तो महीपतिपथो राजमार्गो यस्यां सा तथा ।। वा स्थाने प्रथमप्रवेशाऽऽदिलक्षणेऽसमाप्तमपि वन्दनकमुस्भिशा० १७० १ अ०। त्वा नश्यति । क इव यथा किमुज्झतीत्याह-( कियकिश्चावपविकत्थण-प्रविकत्थन-न । आत्मश्लाघायाम् , स. ३० | क्खरं चेव त्ति) एतदुक्तं भवति-केनचित् भाटकिना कुत श्चिनगरानगरान्तरेऽवस्करं भाण्डमुपनीतम्, अवस्करसम०। स्वामिना च स भाटकी भणितः प्रतीक्षस्व किश्चित्काल पविकसिय-अविकसित-वि० । प्रकर्षण विकसितमुद्बोधं गत यावदस्यावस्करस्यावतारणाय स्थानं किश्चिदम्वेषयामि कुवाम् । प्रोबुद्धे, क० प्र० १० प्रक०।। ऽपीति। स प्राह-मयाऽस्मिन्नेव नगरे समानतव्यमिदमित्यपविकिरमाण-प्रविकिरत-त्रि० । मुञ्चति , “ जालासहस्साई वोक्लमतः कृतकृत्यत्वान्नातः प्रतीक्षेऽहमित्युक्त्वाऽस्थाने एव पविकिरमाणाई झियाई।" स्था०८ ठा। तद्भाण्डमुज्झित्वा गच्छति एवं साधुरप्यस्थान एव वन्दनकंप. द्वार। Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1952) अभिधान राजेन् पविद्ध रित्यज्य नश्यतीत्येतावतांऽशेन दृष्टान्त इति । प्रव२ २ द्वार । वृ० । श्राव० । पविद्धत्वमविध्वस्त- त्रि० भस्मसाते, जी. ३ प्रति १ अधि० १ उ॰ । विध्वस्ताभिमुखीभूते, स्था० ३ ठा" १ उ० । पविभत्ति - प्रविभक्ति - स्त्री० । प्रविभजनं प्रविभक्तिः । नं० । प्र कर्पेण स्वरूपसम्मोहाभावलच विभागः पृथक्त्वम् । उ त० २ श्र० । पृथक् पृथक् विभागे, उत्त० २ ० । पविक्खा-प्रविचक्षण त्रिप्रकर्षेण अभ्यासातिशयेन विचक्षणः । क्रियासहितज्ञानयुक्ते, उत्स० १ ० | अभ्यासातिशयतः । क्रियां प्रति प्रावीण्यवति, उत्त० ६ श्र० । पवियार - प्रविचार पुं० [सेवायाम् ०१ द्वार (दे वपरिचारणा' देवपरियारणा ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ६२६ पृ. छादारभ्योला) - 1 परिय-देशी-त्वरिते दे० ना० ६ वर्ग २७ गाया। पविरंजिय- देशी-स्निग्धे कृतनिषेधे च दे० ना० ६ वर्ग ७४ गाथा ! 35 ० पविरञ्ज-भञ्ज-धा० । श्रामईने, “ भञ्जेर्वेमय - मुसुमूर - मूरसूर-सूड विर-पविरद्ध करज-नीरजाः ॥ ८ । ४ । १०६ ॥ इति भजेः पविरञ्जादेशः । पविरञ्जइ । भनक्ति । प्रा०४पाद । पविश्य प्रविरतन० प्रस्फुटिते जी० ३ प्रति अधि०२४०॥ पविरल - प्रविरल वि० प्रकर्षयविरले, "पविरल परिसडि यदी "प्रविरला दन्तविरलत्वेन परिशटिता दन्तानां केषाञ्चित् पतितत्वेन भग्नत्वेन या दस्तथिषां ते तथा । जी० ३ प्रति० ४ श्रधि० । पविरलफुसिय- प्रविरलस्पृष्ट- त्रि० । प्रविरलानि घनभावे क संभवात् कर्वेण वाचता देशका स्थगिता भवन्ति ता वन्मात्रेणोत्कर्षेण स्पृष्टानि यत्र वर्षे तत्प्रविरलस्पृष्टम् । प्रविरलवर्षे भूमिस्परेमात्र सेवके वर्षे, "पविरलकुलियं दिव्यं सुरभिरयास गंधोदयासं वासंति। " जी० ३ प्रति० ४ अधि० । पदिसंत-प्रविशत् त्रि० । अन्तर्विशति सू० प्र० १ पाहु० । प्रा० आचा० । पविसमाण- प्रविशत् - त्रि० । 'पविसंत' शब्दार्थे, सू० प्र० १ पाहु | प्रा० । प्रक्षिपति भ० १५ श० । पविसिज प्रविश्य - अव्य० । प्रवेशं कृत्वेत्यर्थे, दश०८ श्र० । पवितुकाम-प्रवेष्टुकाम त्रि०प्रवेशाचा०२ श्रु० १ ० १ ० १ उ० । पवीयमपीजित त्रि० । वाय्वर्धमान्दोलिते. "पपीचा मरवालवीयणियं । " प्रवीजिता श्वेतचामरवालानां सत्का व्यजनिका यम् । अथवा प्रवीजिते श्वतचामरे बालव्यजनिका व यं स तथा । भ• ६० ३३ उ० । श्र० । पवीलण - प्रपीडन - न० । श्रसकृदनीषद् वा पीडने, दश० ४ श्र० । विकृष्टतपसा पीडने, श्राचा० १ ० ४ ० ४ उ० । पोसण्य पवुट्ट प्रवृष्ट त्रि० । प्रकर्षेण वृष्टि कृतवति, “पट्टदेवेति वा निवुदेवेति वा नो वएज्जा ।" श्राचा० २ ० १ ० ४ श्र० १उ० । पवृढ- प्रव्यूढ - त्रि० । निर्गते, जं० ४ वक्ष० । पवेइय- प्रवेदित- त्रि०। प्रकर्षेणाऽऽदौ वा सर्वस्वभाषानुगामिन्या वा वेदितम् । श्राचा० १ ० २ श्र० ३ उ० । केवलशान चक्षुषाऽवलोक्य प्रतिपादिते, आचा० १ ० २ ० ५ उ० । प्ररूपिते, उत्त० २ श्र० । श्राचा० | सूत्र०। प्रकपेण यथावस्थितार्थद्वारेण वेदिते, सूत्र० १ ० ३ ० ३ उ० । श्राचा० । विद ज्ञाने । प्रकर्षेण वेदितम् प्रवेदितम् । विशांते, दश० ४ श्र० । उत्त० । श्राचा० । स्वयं साक्षात्का रित्वेन शांते. उत्त० १ श्र० । पवेयण- प्रवेदन- न० कथने, सूत्र० १ श्रु० १३ श्र० । प्र काशे, सूत्र० १ ० ८ प्र० । श्रनुभावने, आचा० १० १ श्र० २ उ० । ज्ञाने, परिच्छेदे, सूत्र० २ ० १ श्र० प्रकर्षेण हेतुदृष्टान्तैश्चित्तसन्ततावारोपणे, सूत्र० २ ० १ श्र० । प्ररूपणे. वृ० ३ उ० । पूत्करणे, वृ० १ ० ३ प्रक० । पवेस प्रवेश-पुं० । प्रवेशने, पञ्चा०८ विव० | अन्तर्भावे, विशे० । प्रश्न० । “ पवेसणिग्गमवारण जोगा " प्रवेशनिर्गमवारणान्येय या योगा व्यापाराः प्रवेश निर्गमवारणयोगाः । पञ्चा०५ विव० । 1 पवेसणय-प्रवेश नक- न० । गत्यन्तरादुद्धृतस्य विजातीयगतौ जीवस्योत्पादे भ० । प्रवेशनचक्रव्यता | काइविडे णं भंते ! पवेसगए पते । गंगेपा ! च उबिहे पवेस पते तं जहा- खेरइयपवेसगए, ति. रिक्समोसिए, मगुस्सपवेसण, देवपवेसर | णेरइयपवेसणए णं भंते ! कइविहे पष्मत्ते ? । गंगेया ! विदे पाये । तं जहा रयणप्पभापुविरहयपवेसणए० जाप आहेसचमापुदीरयपवेसथए। एगे से भेते रह रहयपवेसगए पवेसमासे किं रयणप्पभाए होजा, सकरप्पभाए होआ, एवं० जाव आहे सत्तमाए होज्जा ?। गंगेया रयणप्पभाए वा होज्जा ० जाव अहे सत्तमाए वा होजा । ० 'गे भंते! तेरह 'इत्यादी सप्त विकल्पा:दो भंते! रइया रश्यपस पवेसमाया कि रपप्पभाए होजा० जाव आहे सत्तमाए होजा ?। गंगेया ! रयसप्पमाए वा होजा जाब आहे सचमाए वा होना । अवाएंगे रणपभाए पगे सकरप्पभाए होज्जा ग्रहवा - एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा जाव एगे स्वगप्पभाए एगे अहे सनमाए होना । ६ । अहवा - एगे सकरपभाए एगे बालुयष्यभाए जाव अ हवा - एगे सक्करपभाए एगे हे सत्तमाए होजा |५| हवा - एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होजा, ए ० Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) पवेसणय अन्निधानराजेन्छः। पवेसणय वं० जाव अहका-एगे वालुयप्पभाए एगे अहे सत्तमाए भाए एगे अहे सत्तमाए होजा । ४ । अहवा-पगे सक्करहोजा । ४ । एवं एकेका पुढवी छहयव्वा० जाव अहवा- प्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा० जाव अएगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा ।। हवा-एगे सकरपभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहे सत्तमाए " दो भंते ! नेरइए " इत्यादावष्टाविंशतिर्विकल्पाः । तत्रर- होजा । ३ । अहवा-एगे सक्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए त्नप्रभाऽऽद्याः सप्ताऽपि पृथिवीः क्रमेण पट्टाऽऽदी व्यवस्थाप्या- एगे तमाए होज्जा । अहवा-पगे सकरप्पभाए एगे धूमउक्षसञ्चारणया पृथिवीनामेकत्वद्विकयोगाभ्यां तेचसेयाः। प्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा । २ । अहवा--एमे सकतत्रैकैकपृथिव्यां नारकद्वयोत्पत्तिलक्षणकत्वे सप्त विकल्पाः। पृथिवीद्वय नारकद्धयोत्पत्तिलक्षणद्विकयोगे त्वेकविंशति रप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा । १० । अहवारित्येवमष्टाविंशतिः । ( एवं एकेका पुढवी छड्डेयव्य त्ति) एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा । अक्षसञ्चारणाऽपेक्षयेदमुक्तमिति।। अहवा-एगेवालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए होजा। तिमि भंते ! णेरइया णेरइयप्पवेसणएणं पवेसमाणा किं अहवा-एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहे रयणप्पभाए होजा जाव अहे सत्तमाए हाजा । गंगेया ! सत्तमाए होजा । ३ । अहवा-एगे वालुयप्पभाए एगे रयणप्पभाए वा होजा जाव अहवा-अहे सत्तमाए हेाज्जा धूमप्पभाए एगे तमाए होजा । अहवा-एगे वालुय।७। अहवा-एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए होजा जाव प्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा । २। अहवा-एगे रयणप्पभाए दो अहे सत्तमाए होजा।६। अहवा अहवा-एगे वालुयाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होजा जाव अहवा-दो होजा । १। एवं । ६ । अहवा-एगे पंकाए एगे धमाए रयणप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा । १२ । अहवा-एगे एगे तमाए होजा। अहवा-एगे पंकाए एगे धमाए एगे अहे सकरप्पभाए दो वालुयप्पभाए होजा जाव अहवा-एगे सत्तमाए होजा। २ । अहवा-एगे पंकप्पभाग एगे तमाए एगे सकरप्पभाए दो अहे सत्तमाए होजा । ५ । अहवा-दो अहे सत्तमाए होज्जा ।१। एवं ।३। अहवा-एगे धूमप्पभाए सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा जाव अहवा-दो एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा ॥१॥३।०४॥ "तिमि भंते ! नेरइए" इत्यादौ चतुरशीतिर्विकल्पाः। तसक्करप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा।१०। एवं जहा स थाहि-पृथिवीनामेकत्वे सप्त विकल्पाः। द्विकसंयोगे तु तासाकरप्पभाए वत्तव्बया भणिया, तहा सव्यपुढवीणं भाणि मेको द्वावित्यनेन नारकोत्पादविकल्पेन रत्नप्रभया सह शेयया जाव अहवा-दो तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा पाभिः क्रमेण चारिताभिलब्धाः षट् द्वावक इत्यनेनाऽपि । ४२। अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे नारकोत्पादविकल्पेन षडेव, तदेते द्वादश । एवं शर्कराप्रभ या पञ्च पश्चेति दश । एवं वालुकाप्रभयाऽष्टी, पङ्कप्रभया वालुयप्पभाए होजा । अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्क षट्, धूमप्रभया चत्वारः, तमःप्रभया द्वाविति । द्विकयोगे द्विरप्पभाए एगे पंकप्पभाए होजा ।१२।० जाव अह्वा-एगे चत्वारिंशत्रिकयोगे तु तासां पञ्चविंशद्विकल्पाः, ते चाक्षरयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा सञ्चारणगम्याः, तदेवमेते सर्वेऽपि चतुरशीतिरिति । ।। अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंक- चत्तारि भंते ! णेरइया णेरइयपवेसणएणं पवेसमाणा पभाए होज्जा। अहवा-एगे रयणप्पभार एगे वालुयप्पभा- किं रयणप्पभाए होज्जा पुच्छा ? । गंगेया ! रयणए एगे धूमप्पभाए होज्जा, एवं०जाब अहवा-एगे रयण- प्पभाए वा होज्जा०जाव अहे सत्तमाए होज्जा । प्पभाए एगे वालुयाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा। ४ । अहवा-एगे रयणप्पभाए तिमि सक्करप्पभाए होअहवा-एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए ज्जा । अहवा-एगे रयणप्पभाए तिमि चालुयप्पभाए होजाजाव अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा । एवंजाब एगे रयणप्पभाए तिलि अहे सत्तएगे हे सतमाए होजा । ३। अहवा-एगे रयण- माए होज्जा । ६ । अहवा-दो रयणप्पभाए दो सक्करप्पप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा । अहवा- भाए होज्जा। एवंजाव दो रयणप्पभाए दो अहे सत्तमाए एगे रयणप्पभाए एगे धूमप्पमाए पगे अहे सत्त- होज्जा। ६। अहवा-तिमि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभामाए होजा । २ । अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे तमाए ए होज्जा। एवं जाव०अहवा-तिमि रयणप्पभाए एगे अहे एगे अहे सत्तमाए होजा । १ । एवं । १५ । अहवा- सत्तमाए होला।६।१। अहवा-एगे सकरप्पभाए तिमि वाएगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए हो- लुयप्पभाए होज्जा । एवं जहेव रयणप्पभाए उवरिमाहिं समं जा। अहवा-एगे सक्करप्पभार एगे वालुयाए एगे धूमप्प- संचारियं तहा सक्करप्पभाए वि उवरिमाहिं समं चारेयवं, भाए होज्जा । २। जाव एगे सक्करप्पभार एगे वालुयप्पः । एवं एकेकाए समं चारेयवं० जाव अहवा तिमि तमाए Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६१) पवेसणय अभिधानराजेन्फः। पवेसणय एगे अहे सत्तमाए होजा।६३। अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा । २ । सकरप्पभाए दो वालुयप्पभाए होजा, अहवा-एगे रथण- अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे पंकाए एगे तमाए एगे प्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो पंकप्पभाए होजा। एवं० जाव अहे सत्तमाए होज्जा । १ । १६ । अहवा-एगे अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो अहे सत्त- रयणप्पभाए एगे धुमाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए माए होजा । ५ । अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्कर- होज्जा । एवं । २० । अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालुप्पभाए एगे वालयप्पभाए होज्जा। एवंजाव अहवा-एगे यप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा । १। रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा ।।। एवं जहा रयणप्पभाए उवरिमाओ पुढवीश्रो संचारियाओ अहवा-दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुय. तहा सक्करप्पभाए वि उवरिमाओ उच्चारेयवाओ जाव प्पभाए होज्जा ।१ । एवंजाव अहवा-दो रयणप्पभाए अहवा-एगे सक्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे एगेसकरप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा।।१५। अहवा- अहे सत्तमाए होजा ।१०। अहवा-एगे वालुयप्पभाए एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए दो पंकप्पभाए होजा। एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा । अ जाव अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए दो अहे हवा-एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए सत्तमाए होज्जा।४। एवं एएणं गमएणं जहा तिराहं तियसं एगे अहे सत्तमाए होजा । २। अहवा-एगे वालुयप्पभाए. जोगो तहा भाणियव्योन्जाव अहवा-दो धूमप्पभाए एगे एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा । तमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा । १०५ । अहवा अहवा-एगे वालुयप्पभाए एगे धूमाए एगे तमाए एगे एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए अहे सत्तमाए होज्जा । अहवा-एगे पंकप्पभाए एगे एगे पंकप्पभाए होजा । अहवा-एगे रयणप्पभाए धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा । एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए ३५ । २१०। होजा । एवं०जाव अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक "चत्तारि भंते ! नेरइया" इत्यादौ दशोत्सरे द्वे शते विकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा स्पानाम्। तथाहि-पृथिवीनामेकत्वे सप्त विकल्पाः, द्विकसंयोगे । ४ । अहवा-एगे रयाप्पभाए एगे सकरप्पभाए एमे तु तासामेकत्रय इत्यनेन नारकोत्पादविकल्पेन रनमभया पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होला । अहवा-एगे रयणप्प- सह शेषाभिः क्रमेण चारिताभिर्लन्धाः षद्द्वौ बावित्यनेनाभाए एगे सकरप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए होजा। पि षट् अब एक इत्यनेनापि षडेव । तदेवमेतेऽष्टादश । शर्कः अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए राप्रभया तु तथैव त्रिषु पूर्वोकनारकोत्पादविकल्पेषु पञ्च पश्चेति पञ्चदश । एवं बालुकाप्रभया चत्वारश्चत्वार इति द्वाएगे अहे सत्तमाए होज्जा।३। अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे दश. पङ्कमभया त्रयस्त्रय इति नव, धूमप्रभया बो द्वाविति सक्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होला । अहवा- षट्. तमःप्रभयैकैव इति त्रयः, तदेवमेते द्विकयोगे त्रिषष्टिएगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे धूमपभाए एगे स्तथा पृथिवीनां त्रिकयोंगे एक एका द्वौ चेत्येवं नारकोअहे सत्तमाए होजा । २। अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे त्पादविकल्पे रत्नप्रभाशर्कराप्रभाभ्यां सहान्याभिः क्रमेण चारिताभिर्लब्धाः पञ्च, एको द्वावेकश्चेत्येवं नारकोत्पादसक्करप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होला ।१ । विकल्पान्तरे पञ्च दावेक एकश्चेत्येवमपि नारकोत्पादएवं । १०। अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए विकल्पान्तरेऽपि पश्च द्वावेक एकश्चत्येवमपि नारकोत्यादएगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा। अहवा-एगे रय विकल्पान्तरे पञ्चैवेति पञ्चदश एवं रत्नप्रभावालुकाप्रभाभ्यां सहोत्तराभिः क्रमेण चारिताभिलब्धा द्वादश, एवं रत्नप्रणप्पभाए एगे बालुयप्पभाए एगे पंकाए एगे तमाए हो भापडू भाभ्यां नव, रत्नप्रभाधूमप्रभाभ्यां षट्, रत्नप्रभातमः. जा । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयाए एगे पंकाए प्रभाभ्यां त्रयः, शर्कराप्रभावालुकाप्रभाभ्यां द्वादश. शर्कराएगे अहे सत्तमाए होज्जा । ३ । अहवा-एगे रयणप्पभाए प्रभापङ्कप्रभाभ्यां नव, शर्कराप्रभाधूमप्रभाभ्यां षट्, शर्करा एगे वालुयाए एगे धूमाए एगे तमाए होजा । अहवा प्रभातमःप्रभाभ्यां त्रयः, वालुकाप्रभापङ्कप्रभाभ्यां नव, वालु एगे रयणप्पभाए एगे वालुयाए एगे धूमाए एगे अहे | प्रभाधूमप्रभाभ्यां षट्, वालुकाप्रभातमःप्रभाभ्यां त्रयः, पङ्क प्रभाधूमप्रभाभ्यां षट् , पङ्कप्रभातमःप्रभाभ्यां त्रयः, धूमप्रभासत्तमाए होज्जा ।। अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे अदिभिस्तु वय इति । तदेवं त्रिकयोगे पश्चोत्तरं शतं, चतु. बालुयप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सतमाए होजा ।१।१६। कसंयोगे तु पञ्चत्रिशदित्येवं सप्तानां त्रिषष्ठेः पश्चोत्तरशतस्य अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धमाए पञ्चत्रिशतश्च मीलने द्वे शते दशोत्तरे भवतः। एगे तमाए होज्जा, अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे। पंच भंते ! णेरइयाणेरड्यपवेसणएणं पवेसमाणा किं रय Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवेसणय (७६२) प्रन्निधानराजेन्द्रः। पवेसणाय गप्पभाए पुच्छ गंगेया अहवा-रयणप्पभाए वा होजा. वालुयप्पभाए दो अहे सत्तमाए होज्जा । अहवा-एगे रयजाव अहे सत्तमाए होज्जा । अहवा-एगे रयणप्पभाए वा णप्पभाए पगे सकराए दो वालुयाए एगे पंकाए होज्जा । होजा चत्तारि सकरप्पभाए होजा. जाव अहवा-एगे रयण- एवं०जाव अहवा-एगे रयणाए एगे सकराए दो वालुप्पभाए चत्तारि अहे सत्तमाए होज्जा।६। अहवा-दो रयण- याए एगे अहे सत्तमाए होज्जा । ४ । अहवा-एगे रयणाए प्पभाए तिमि सक्करप्पभाए होजा । एवं जाव अहवा-दो दो सक्कराए एगे वालुयाए एगे पंकार होज्जा । एवंजाब रयणप्पभाए तिमि अहे सत्तमाए होज्जा । अहवा-तिमि अहवा-एगे रयणाए दो सकराए एगे वालुयाए एगे रयणप्पभाए दोमि सक्करप्पभाए होज्जा। एवं० जाव अ- अहे सत्तमाए होज्जा । ४ । अहवा-दो रयणप्पभाए एगे हवा-तिमि रयणप्पभाए दोस्मि अहे सत्तमाए होज्जा ।६। सकराए रंगे वायुयाए एगे पंकार होज्जा । एवं० जाव अहवा-चत्तारि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होजा । एवं० अहवा-दो रयणाए एगे सक्कराए एगे वालुयाए एगे अहे जाव अहवा-चत्तारि रयणप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा सत्तमाए होज्जा । ४ । अहवा-एगे रयणाए एगे सकराए ।६।२४। अहवा-एगे सक्करप्पभाए चत्तारि वालुयप्पभाए एगे पंकाए दो धूमाए होज्जा । एवं जहा चउपहं चउक्तहोजा। एवं जहा रयणप्पभाए समं उवरिमपुढवीश्रो संचा- संजोगो भणिओ, तहा पंचएह वि चउक्कसंजोगो भाणियरियायो तहा सकरप्पभाए वि समं उच्चारेयवानो० जाव यो, णवरं अब्भहियं एगो संचारियव्यो० जाव अहवा-दो अहवा-चनारि सकरप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए । २० । एवं एक्वेक्काए समं उच्चारेयव्वाओ०जाव अहवा- होज्जा । १४० । अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्प चत्तारि तमप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा । ८४। अ भाए एगे बालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए हवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए तिमि वालुयप्प होज्जा । अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे भाए होजा । एवं०जाव एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए होज्जा। अहवातिमि अहे सत्तमाए होज्जा। अहवा-एगे रयणप्पभाए दो एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए सक्करप्पभाए दो वालुयप्पभाए होजा । एवं जाव अहवा पगे पंकप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा । अहवाएगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए दो अहे सत्तमार होजा।। एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे अहवा-दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो वालुयप्प- धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा । अहवा-एगे रयणभाए होज्जा । एवं०जाव अहवा-दो रयणप्पभाए एगे सक्क- प्पभाए एगे सक्कर पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धृ. रप्पभाए दो अहे सत्तमाए होज्जा ।। अहवा-एगे रयण-| माए एगे अहे सत्तमाए होजा । अहवा-एगे रयप्पभाए तिमि सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा । एवं० णप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे जाव अहवा-एगे रयणप्पभाए तिमि सक्करप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा। अहवा-एगे रयणप्पभाए अहे सत्तमाए होजा । २० । अहवा-दो रयणप्पभाए दो पगे सकरप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तसकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा । एवं जाव दो र- माए होजा । अह्वा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे यणप्पभाए दो सक्करप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा । पंकप्पभाए एगेधूपप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा । अहवा२५ । अहवा-तिमि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमावालुयप्पभाए होज्जा । एवंजाव अहवा-तिमि रयणप्प- एएगे अहे सत्तमाए होज्जा । अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे भाए एगे सकरप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा । ३० । वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए तिमि पंक- हाज्जा । अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे प्पभाए होज्जा । एवं एएणं कमेणं जहा चउण्हं तियसं- पंकप्पभाए एगे धृमप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा । जोगो भणिो तहा पंचण्हं वि तियसंजोगो भाणियव्यो । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पणवरं तत्य एगो संचारिजइ,इमाइं दोम्मि,सेस तं चेव जाव भाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा। अहवा ए. अहवा-तिमि धूमप्पभाए एगे तमप्पभाए एगे अहे सत्त- गे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे माए होजा । २१ । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्कर- तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा । अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए दो पंकष्पभाए होजा, एवं० प्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमाए एगे तमाए एगे अहे सजाव अहवा-एगे रयणपभाए एगे सक्करप्पभाए एगे तमाए होजा । १५ । अहवा-एगे सकरप्पभाए एगे वा. Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) पवेसणय अभिधानगजेन्छः। पवेसगाय लुपप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए रि अहे सत्तमाए होज्जा । अहवा-एगे रयणप्पभाए होजा । अहवा -एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे दो सक्करप्पभाए तिमि वालुयप्पभाए होज्जा । एवं एएणं पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा । अ- कमेण जहा पंचण्हं तियसंजोगो भणिो , तहा छराहं वि हवा-एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए भाणियो, णवर एको अब्भहियो उच्चारेयव्वो, सेसं तं एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा। अहवा एगे सकरप्पा चेव । ५० । चउक्कसंजोगो वि तहेव । ३५० । पंचसंजोभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अ. गो वि तहेव, णवरं एको अब्भहियो संचारेयव्यो जाव पहे सत्तमाए होज्जा । अहवा-एगे सकरप्पभाए एगे पंक च्छिमो भंगो । अहवा-दो वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए पभाए एगे धूमप्पभाए पो अहे सत्तमाहे होजा । अ एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा।१०५। हवा-एगे वालु यप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयएगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा ।। प्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होला । " पंच भंते ! नेरइया " इत्यादि पूर्वोतक्रमेण भाव अहवा-एगे रयणप्पभाए. जाव एगे धूमप्यभाए एगे अहे नीयम् नवरं संक्षपेण विकल्पसङ्ख्या दर्श्यते-एकत्वे सप्त विकल्पाः, द्विकसंयोग चतुरशीतिः । कथम् ?, द्विकसंयोगे स सत्तमाए होजा । अहवा-एगे रयणप्पभाए जाव एगे सानां पदानामेकविंशतिर्भङ्गाः, पञ्चानां नारकाणां च द्वि पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा । धाकरण ऽक्षसंचारणाऽवगम्याश्चत्वारो विकल्पा भवन्ति । त. अहवा-एगे रयणप्पभाए जाब एगे वालुयप्पभाए द्यथा-एकश्चत्वारश्च द्वौ त्रयश्च त्रयो द्वा च चत्वार एक एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए श्चेति । तदेवमेकविंशतिश्चतुभिर्गुणिताश्चतुरशीतिर्भवन्तीति । होज्जा । अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए त्रिकोगे तु सप्तानां पदानां पञ्चविंशविकल्पाः, पञ्चानां च त्रिवेन स्थापने पट विकल्पाः । तद्यथा-एक एकखय-! एगे पंकप्पभाए० जाव एगे अहे सत्तमाए होज्जा । अहश्व एको द्वौ द्वौ च द्वावको द्वौ च एकत्रय एक- | वा-एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए. जाव एगे अहे श्च द्वा द्वावकश्च त्रय एक एकश्चेति । तदेवं पञ्चत्रिंशतः सत्तमाए होज्जा । अहवा-एगे सक्करप्पभाए एगे वालुय. पडभिर्गुणने दशोत्तरं भङ्गशतद्वयं भवति । चतुष्कसंयोगे तु सप्तानां पञ्चशिद्विकल्पाः, पञ्चानां च वतूराशितया प्पभार० जाव एगे अहे सत्तमाए होज्जा। 8२४ । स्थापने चत्वारो बिकल्पाः , तद्यथा-१११२, ११२१, १२११, (छ भंते ! नेरइया इत्यादि) इह एकत्वे सप्त द्विकांगे २१११ । तदेवं पञ्चत्रिशतश्चतुर्भिर्गुणने चत्वारिंशदधिकं श- तु परमां द्वित्वे पञ्च विकल्पाः । तद्यथा-१५,२४,३३,४२, तं भवतीति, पञ्चकयोग त्वेकविंशतिारेति । सर्वालने च ५१ । तैश्च सप्तपदद्विकसंयोगैकविंशतेगुणनात्पञ्चोत्तरं भ. चत्वारि शतानि द्विषष्टयधिकानि भवन्तीति।। कशतं भवति, त्रिकयोगे तु षामां त्रित्व दश विकल्पाः । त. छ भंते ! इया णेरइयपवेसणएणं पवेसमाणा किं रय द्यथा-११४.१२३, २१३, १३२. २२२, ३१२, १४१, २३१, ३२१, ४११ । एतैश्च पञ्चविंशतः सप्तपदविकसंयोगानां गुणना. गप्पभाए पुच्छा ?। गंगया ! रयणप्पभाए वा होजा जाव स्त्रीणि शतानि पञ्चाशदधिकानि भवन्ति, चतुष्कसंयोगे तु अहे सत्तमाए वा होज्जा । अहवा-एगे रयणप्पभाए पंच पमां चतूराशितया स्थापने दश विकल्पाः । तद्यथा-१११३, सकरप्पभाए वा होजा | अहवा-एगे रयणप्पभाए पंच ११२२, १२१२. २११२, ११३१, १२२१, २१२१, १३११. २२११. वालुयप्पभाए वा होज्जा । एवं जाव अहवा- एगे रय ३१११॥ पञ्चत्रिशतश्च सप्तपदचतुष्कसंयोगानां दशभिर्गुणनात् गप्पभाए पंच अहे सत्तमाए होज्जा ।६ । अहवा दो रय वीणि शतानि पञ्चाशदधिकानि भवन्ति । पश्चकसंयोग त पम्मा पञ्चधा करणे पश्चविकल्पा । तद्यथा-११११२, ११२१, णप्पभाए चत्तारि सकरप्पभाए होज्जा । एवंजाव अ. ११२११, १२१११, २१११२ । सप्तानां च पदानां पञ्चकसंयोग हवा-दो रयणप्पभाए चत्तारि अहे सत्तमाए होज्जा ।६। एकविंशतिर्विकल्पाः। तेषां च पञ्चभिर्गुणने पश्चात्तरं शत. अहवा-तिमि रयणप्पभाए तिमि सक्करप्पभाए होज्जा । मिति । पटसंयोगे तु सप्तय ते; सर्वमीलने च नव शतानि एवं एएणं कमेणं जहा पंचएहं दुयसंजोगो तहा छण्ह चतुर्विशत्युत्तराणि भवन्तीति । वि भाणियब्यो , णवर एको अब्भहिओ संचारेयो. सत्तभंत! णरइया णग्यपवेसणएणं पवेसमाणा पुच्छा?। जाव अहवा पंच तमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा गंगेया! रयणप्पभाए वा होजा०जाव अहे सत्तमाए वा । १०५ । अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए होजा । ७। अहवा- एगे रयणप्पभाए छ सक्करप्पभाए हो चत्तारि वालयप्पभाए होजा । अहवा-एगे रयणप्पभाए उजा । एवं वएणं कमेणं जहा छएह दयसंजोगो तहा सत्तरह . एगे सकरप्पभाए चत्तारि पंकप्पभाए हाज्जा । एवं० । विभाणियब्धं । णवरं एगो अभहियो संचारिजइ , सेसं तं जान अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाएं चत्ता- चव १२६। नियसंजोगी ५२५ चउक्संजोगो ।७००। पंच. Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६४) अभिधानराजेन्धः। पवेसणय पवेसाय संजोगो ३१५ । छक्कसंजोगो य छएहं जहा तहा सत्तएहं वि सप्तपदत्रिकसंयोगपञ्चविंशतो गुणने सप्तशतानि पञ्चत्रिभाणियव्यं । णवरं एकेको अब्भाहियो संचारेयव्योजाव छ शदधिकानि भवन्ति । चतुष्कसंयोगे त्वष्टानां चतुर्धात्वे ए. क एक एकः पञ्चेत्यादयः पञ्चत्रिंशद्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदकसंजोगो । अहवा-दो सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए. चतुष्कसंयोगानां पञ्चत्रिंशतो गुणने द्वादशशतानि पञ्चजाव एगे अहे सत्तमाए होजा । ४२ । अहवा एगे रयण- विशत्युत्तराणि भङ्गकानां भवन्तीति । पञ्चकसंयोगे त्वष्टानां प्पभाए एगे सक्करप्पभाए० जाव एगे अहे सतमाए पञ्चत्वे एक एक एक एकश्चत्वारश्चेत्यादयः पञ्चविंशतिहोज्जा । १७१६। कल्पाः, तैश्च सप्तपदपञ्चकसंयोगकविंशतेर्गुणने सप्तशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि भवन्तीति । षट्कसंयोगे त्वष्टानां घोढा. (सत्त भंते ! इत्यादि) हैकत्वे सप्त, द्विकयोगे तु सप्तामा । त्वे पञ्चककास्त्रयश्चेत्यादयः १११११३ । एकविंशतिर्विकल्पाः, द्वित्वे षड्विकल्पाः। तद्यथा-१६२५,३४,४३, ५२, ६३ षभिश्च तैश्च सप्तपदषटूसंयोगानां सप्तपदस्य गुणने सप्तचत्वारिंशसप्तपदद्धिकसंयोगैकविंशतेर्गुणनात्पष्ट्विंशत्युत्तरं भकशतं दधिकभाकं शतं भवतीति । सप्तसंयोगे पुनरप्टानां साधाभवति त्रिकयोगे तु सप्तानां त्रित्वे पश्चइश विकल्पाः। तद्यथा स्वे विकल्पाः प्रतीता एव, तैश्चैकस्य सप्तकसंयोगस्य गुणने ११५, १२४. २१५, १३३, २२३, ३१३, १४२, २३२, ३२२,४१२, सप्तैव विकल्पाः, एषां च मीलने त्रीणि सहस्राणि ऽयुत्तराणि १५१, १४१, ३३१, ४२१, ५११ । एतैश्च पश्चपिंशतः सप्तपदः । भवन्तीति । चिकसंयोगानां गुणानात्पञ्च शतानि पश्चविंशत्यधिकानि भ. बन्तीति । चतुष्कयोगे तु सप्तानां चतूराशितया स्थापने णव भंते ! णेरइया णेरइयपवेसणएणं पवेसमाणा किं रएक एक एकश्चत्वारयेत्यादयो विंशतिर्षिकल्पाः। तेच वक्षय- यणप्पभाए होजा पुच्छा। गंगेया ! णवरं रयणप्पभाए माणावपूर्वोक्तभकानुसारेणापासम्बारणाकुशलेन स्वयमे- वा होआ जाव आहे सत्तमाए वा होजा ।७। अहवाघावगन्तव्याः। विंशत्या च पश्चत्रिंशतः सप्तपदयतुष्कसंयोगा एगे रयणप्पभाए अट्ट सक्करप्पभाए वा होज्जा । एवं दुनां गुणनात्सप्तशतानि विकल्पानां भवन्ति। पञ्चकसंयोगे तु यसंजोगोजाव सत्तसंजोगो य जहा अट्ठएहं भणियं, तहाणसप्तानां पञ्चतया स्थापने एकएक एक एकत्रयश्चेत्यादयःप. अवश विकल्पाः। एतैश्च सप्तपदपश्चकसंयोगकविंशतर्गुणनात् । वराह पि भाणियव्यं, णवर एकेको अम्भहिमो संचारेयचो, श्रीणि शतानि पश्चदशोत्तराणि भवन्ति, षट्कसंयोगे तु सप्ता. सेसंतं चेव पच्छिमो पालावगो। भहवा-तिलि रयणप्पभाए मां बोढाकरणे पश्चैकका दो चेत्यादयः १११११२, पद्धिका एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए०जाव पगे अहे सत्तमाए या। सतानां च पदानां षटूसंयोगे मप्तविकल्पाः, तेषां च षभिर्गुणने द्विचत्वारिंशद्विकल्पा भवन्ति । सप्तकसंयोगे होजा ।५००५॥ त्येक एवेति. सर्वमीलने च सप्तदशशतानि षोडशोत्तराणि (नव भंते ! इत्यादि) इहाऽप्येकत्वे सप्तव, द्विकसंयोगे तु भवन्तीति। नवानां द्वित्वेऽष्टी विकल्पाः प्रतीता एव , तैश्चैकविंशतेः अह भंते ! णेरइया णेरड्यपवेसणएणं पवेसमाणा किं सप्तपदद्विकसंयोगानां गुपने अष्टषष्ट्यधिकं भकशतं भवतीति । त्रिकसंयोगेतु नवानां द्वावेकको तृतीयश्च सप्तकः रयणप्पभाए होजा। गंगेया! रयणप्पभाए वा होजा ११७. इत्येवमादयोऽविंशतिर्विकल्पाः, तैश्च सप्तपत्रिकसं. जाव अहे सत्तमाए वा होजा । ७। अहवा-एगे रयण- योगे पञ्चत्रिंशतो गुणने नवशतान्यशीत्युत्तराणि भङ्गकानां प्पभार सत्त सक्करप्पभाए होजा । एवं दुयसंजोगो । ४७१ भवन्तीति । चतुष्कसंयोगे तु नवानां चतुर्द्धात्वे प्रय एकतियसंजोगो ७३॥ चउक्कसंजोगो ।१२२५॥ पंचसंजोगो काः । षटूश्चेत्यादयः १११६ षट् पञ्चाशविकल्पाः , तैश्च सप्तपदचतुष्कसंयोगे पश्चत्रिंशतो गुणने सहस्रं नवशता. १७३५००जाव छक्कसंजोगो य जहा सत्तएहं भणियं, तहा नि षष्टिश्च भड़कानां भवन्तीति , पञ्चकसंयोगे तु नवाना अट्ठएहं वि भाणियव्यं । णवर एकेको अब्भहिनो सेसं तं पञ्चधात्वं चत्वार एककाः पञ्चकश्चेत्यादयः ११११५ सप्तचेव० जाव छकसंजोगस्स । अहवा-तिमि सक्करप्पभाए एगे | तिर्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदपञ्चकसंयोगविशंतेर्गणने सहस्रं वालुयप्पभाए. जाव एगे अहे सत्तमाए होजा ।१४७ । चत्वारि शतानि सप्ततिश्च भङ्गकानां भवन्तीति । पटसंयोग तु नवानां पोढात्वे पञ्चकका श्चतुष्कश्चेत्यादयः १११११४ अहवा-एगे रयणप्पभाए० जाव दो तमाए एगे अहे स- षट्पञ्चाशविकल्या भवन्ति , तैश्च सप्तपदपटूसंयोगसप्तकस्य तभाए होजा । एवं संचारयवं. जाव अहवा-दो र- गुणने शतत्रयं विनवस्यधिकं भड़कानां भवतीति । सप्तकसं. यणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए. जाव एगे अहे सत्तमाए योगे पुनर्नवानां सप्तत्वे एककाः पद त्रिकश्चेत्यादयः ११११. ११३, अष्टाविंशतिर्विकल्पा भवन्ति, तैश्च एकस्य सप्तकसंहोजा ७ । ३००३। योगस्य गुणनेऽपविशतिरेव भङ्गकाः , एषां च सर्वेषां मां( अट्ट भंते इत्यादि ) इहैकत्वे सप्त विकल्पाः, द्विकयो- लने पञ्च सहस्राणि पश्चोत्तराणि विकल्पा भवन्तीति । गे त्वष्टानां द्वित्वे एकः सप्तेत्यादयः सप्त विकल्पाः प्रती- दस भंते ! णेरइया णेरइयपवेसणएणं पवेसमाणा किं ता एव । तैश्च सप्तपदद्विकसंयोगकविंशतेर्गुणनाच्छुतं सप्तचत्वारिंशदधिकं भड़कानां भवतीति । त्रिकसंयोगे त्वष्टानां रयणप्पभाए होजा पुच्छा। गंगेया ! रयणप्पभाए वा त्रित्वे एक एकः षट् इत्यादय एकविंशतिर्विकल्पाः, तैश्च होजा. जाव अहे समत्ताए वा होजा ७ अहवा-एगेर. Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६५) पवेसणाय अभिधानराजेन्द्रः। पवेसाय यणप्पभाए नव सकरप्पभाए वा होज्जा । एवं दुयसंजोगो यव्वा, एवं एकेका पुढवी उपरिमपुढवीहि समं संचारेय. जाव सत्तसंजोगो जहा णवणह,णवरं एकेको अब्भहिओ ब्बा ० जाव अहवा-संखेज्जा तमाए संखेजा अहे सत्तमाए संचारेयव्यो, सेसं तं चेव पच्छिमो आलावगो । अहवा- होजा । २३ । अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पचत्तारि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए. जाव एगे अहे स- भाए संखेजा वालुयप्पभाए होजा । अहवा-एगे रयणत्तमाए होज्जा । ८४ । ७००८। प्पभाए एगे सकरप्पभाए संखेज्जा पंकप्पभाए जाव अ(इस भंते ! इत्यादि) इहाप्येकत्वे सप्तव, द्विकसंयोगे तु हवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए संखेजा अहे स. दशानां द्विधात्वे एको नव चेत्येवमादयो नव विकल्पाः,ते. त्तमाए होजा । अहवा-एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पश्कविंशतेः सप्तपदद्विकसंयोगानां गुणने एकोननवत्यधिक भाए संखेजा वालुयप्पभाए होजा० जाव अहवा-एगे भकशतं भवतीति । त्रिकयोगे तु दशानां विधात्वे एक एकोऽष्टी चेत्येवमादयः षट्त्रिंशद्विकल्पाः। तैश्च सप्तपदत्रिक रयणपभाए दो सकरप्पभाए संखेजा अहे सत्तमाए हो. संयोगे पञ्चत्रिंशतो गुणने द्वादशशतानि षष्टयधिकानि भ. जा । अहवा- एगे रयणप्पभाए तिमि सक्करप्पभाए संखे. अकानां भवन्तीति । चतुष्कसंयोग तु वशानां चतुत्येि एक- जा बालुयप्पभाए होज्जा । एवं एएणं कमेण एकको सं. कत्रयं सप्तकश्यत्येवमादयश्चतुरशीतिर्विकल्पाः तैश्च सप्तपद चारेयव्यो सकरप्पभाए. जाव अहवा-एगे रयणप्पभाए चतुष्कसंयोगे पश्चत्रिंशतो गुणने एकोनत्रिशच्छतानि अत्या. रिंशदधिकानि भाकानां भवन्तीति । पञ्चकसंयोगे तु दशा संखेजा सकरप्पभाए संखेजा वालुयप्पभाए होज्जा जाव मां पञ्चधात्वे चत्वार एककाः षट्कश्वेत्यादयः षट्विशत्यु अहवा-एगे रयणप्पभाए संखेजा सकरप्पभाए संखेजा आहे तरशतसंङ्ख्या बिकल्पा भवन्ति, तैश्च सप्तपदपश्चकसं. सत्तमाए होज्जा। अहवा-दोरयणप्पभाए संखेजा सकरप्पयोगेकविंशतेर्गुणने षद्विशतिशतानि षट्चत्वारिंशदधिका. भाए संखेजा वालुयप्पभाए होजाजाव अहवा-दो रयणनि भकानां भवन्तीति । पदकसंयोगे तु वशानां चोदात्त्रे पश्चैककाः पञ्चकश्चत्यावयः षष्टिशत्युत्तरशतसल्या विक प्पभाए संखजा सक्करप्पभाए संखेजा अहे सत्तमाए होख्या भवन्ति. तेश्च सप्तपदषदकसंयोगसप्तकस्य गुणनेटी जा । अहवा-तिमि रयणप्पभाए संखेला सक्करप्पभाए शतानि ध्यशीत्यधिकानि भगकानां भवन्ति, सप्तकसंयोगे तु संखेजा वालुयप्पभाए होज्जा । एवं एएणं कमेणं एकेको दशानां सप्तधात्वे षडेककाश्चतुष्कश्चेत्येवमाश्यश्चतुरशीतिः | रयणप्पभाए संचारेयव्यो० जाव अहवा-संखेज्जा रयणप्पबिकल्पाः, तैश्चैकस्य सप्तकसंयोगस्य गुणने चतुरशीतिरेव भड़कानां भवति, सर्वेषां चैषां मीलने अष्टसहस्राण्यष्टोत्त. भाए संखेज्जा सक्करप्पभाए संखेना वालुयप्पभाए होज्जा० राणि विकल्पानां भवन्तीति। . जाव अहवा-संखेज्जा रयणप्पभाए संखेजा सक्करप्पभाए संख्येयाः संखेज्जा अहे सत्तमाए होजा। अहवा- एगे रयणप्पभाए एगे संखेज्जा भंते ! णेरइया णेरइयपवेसणएणं पवेसमाणा सक्करप्पभाए संखेजा पंकप्पभाए होज्जा जाव एगे रयणप्प भाए एगे वालुयप्पभाए संखेज्जा, अहे सत्तमाए होज्जा । पुच्छा, गंगेया! रयणप्पभाए वा होज्जा. जाव अहवाअहे सत्तमाए होज्जा । अहवा-एगे रयणप्पभाए संखेज्जा अहवा-एगे रयणप्पभाए दो वालुयप्पभाए संखेज्जा पं कप्पभाए होज्जा । एवं एएणं कमेणं तियसंजोगो चउक्कसक्करप्पभाए होज्जा । एवं० जाव अहवा-एगे रयणप्पभा संजोगोजाव सत्तसंजोगो जहा दसएह तहेव भाणियब्यो ए संखेज्जा अहे सत्तमाए होज्जा ।६। अहवा-दो रयण पच्छिमगो आलावगो सत्तसंजोगस्त । अहवा-संखेजारप्पभाए संखेज्जा सकरप्पभाए होज्जा । एवंजाव अहवा यणप्पभाए संखेज्जा सकरप्पभाए जाव संखेज्जा अहेदो रयणप्पभाए संखेज्जा अहे सत्तमाए होज्जा ।३। अह सत्तमाए होज्जा । ६१ । ३३ । ३७ । वा-तिमि रयणप्पभाए संखेज्जा सकरप्पभाए होज्जा। एवं एएणं कमेणं एकेको संचारेयव्यो० जाव अहवा-दसरयः | (संखेजा भंते ! इत्यादि ) तत्र सइख्याता एकादशाऽदयः शीर्षप्रहेलिकान्ताः । इहाप्येकत्वे सप्तैव, द्विकसंयोगे तु साणप्पभाए संखेज्जा, सक्करप्पभाए होज्जा । एवंजाब अह ख्यातानां द्विधात्व एकः संख्यानाश्चत्यादयो दश सङ्ख्यातावा-दसरयणप्पभाए संखेज्जा अहे सत्तमाए होज्जा ।६। श्च संख्याताः संख्याताश्चत्येतदन्ता एकादश विकल्पाः । अहवा-संखेज्जा रयणप्पभाए संखेज्जा सकरप्पभाए हो- पते चौपरितनपृथिव्यामेकाऽऽदीनामेकादशानां पदानामुच्चाज्जा० जाव अहवा-संखेज्जा रयणप्पभाए संखेज्जा अहे | रणेऽधस्तनपृथिव्यां तु संख्यातपदस्यैवीचारण सत्यबसेयाः। सत्तमाए होज्जा । ६ । अहवा-एगे रयणप्पभाए संखेज्जा ये त्वन्ये उपरितनपृथिव्यां संख्यानपदस्याऽधस्तनपृथिव्यां स्वकाऽऽदीनामेकादशानां पदानामुच्चारणे लभ्यन्ते न इह न वालुयप्पभाए होज्जा । एवं जहा रयणप्पभा उवरिमपुढवी- | विवक्षिताः पूर्वमूत्रक्रमाश्रयणात्. पूर्वसूत्रेषु हि दशाऽऽदि. हिं समं चरिया. एवं सकरप्पभावि उपरियपुढवीहिं संचारे राशीनां वैविध्यकल्पनायामुपये काऽऽदयो लघवः संख्याभेदाः Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवेसणय अाभधानराजेन्छः । पवेससाय पूर्व न्यस्ताः, अधस्तु नवाऽऽदयो महान्त एवमिहाप्येकाऽऽदय गो। अहवा-असंखेज्जा रयणप्पभाए असंखजा सकरप्पभाउपरि संख्यातराशिश्चाधस्तत्र च संख्यातराशेरधनस्तनस्यै ए जाव असंखज्जा अहे सत्तमाए होज्जा ६। ७ । काऽऽद्याकर्षणेऽपि संख्यातत्वमवस्थितमेव, प्रचुरत्वान्न पु ३६ ५८ । नः पूर्वसूत्रेषु नवाऽदीनामिवैकाऽऽदितया तस्यावस्थानमित्यतो नेहाध एकादिभावोऽपि तु संख्यातसम्भव एवेति " असंखेजा भंते !” इत्यादि । संख्यातप्रवेशनकवदेवैतनाधिकविकल्पविवक्षेति, तत्र रत्नप्रभा एकादिभिः संख्या. दसंख्यातप्रवेशनकं वाच्यं, नवरमिहासंख्यातपदं द्वादशमः तान्तरेकादशभिः पदैः क्रमेण विशेषिताः संख्यातपदविशे धीयते तत्र चैकत्वे सप्तव, द्विकयोगाऽऽदौ तु विकल्पप्रमापिताभिः शपाभिः सह क्रमेण चारिताः षट्पष्टिभङ्गकान् णवृद्धिर्भवति। सा चैवम्-द्विकसंयोगे द्वे शते द्विपञ्चाशद. धिके २५२. त्रिकसंयोगऽप्टौ शतानि पञ्चोत्तराणि ८०५, लभन्ते । एवमेव शर्कराप्रभा पञ्चपञ्चाशतं. वालुकाप्रभा च चतुष्कसंयोगे त्वेकादशशतानि नवत्यधिकानि ११६०, पञ्चतुश्चत्वारिंशतं, पङ्कप्रभा त्रयस्त्रिंशतं,धूमप्रभा द्वाविंशति. त कसंयोगे पुनर्नवशतानि पञ्चबत्वारिंशदधिकानि ६४५, षमा-प्रभा त्वेकादशेति । एवं च द्विकसंयोगविकल्पानां शतद्वयमेकत्रिंशदधिकं भवति, त्रिकयोगं तु विकल्पपरिमाणमात्रमे टूसंयोगे तु त्रीणि शतानि द्विनवत्यधिकानि ३६२. सप्त संयोगे पुनः सप्तषष्टिः ६७ । एतेषां मीलने पशिच्छताघ दर्श्यते । रत्नप्रभाशर्कराप्रभावालुकाप्रभाश्चेति प्रथमस्त्रिकयोगः,तत्र च एक एकः सङ्ख्याताश्चेति प्रथमविकल्पः ततःप्रथ नि अष्टपञ्चाशदधिकानि भवन्ति ३६५८ ॥ मायामकस्मिन्नेव तृतीयायांतु सङ्ख्यात पद एव स्थितं, द्विती अथ प्रकारान्तरेण नारकप्रवेशनकमेवाऽऽहयायां क्रमणाक्षविन्यासे द्याद्यक्षभावेन दशमचारे सहयातपदं उक्कोसेणं भंते ! णेरड्या गरइयपवसणएणं पवेसमाणा भवति । एवमेते पूर्वेण सह एकादश, ततो द्वितीयायां तृ- पुच्छा। गंगेया! सव्वे वि ताव रयणप्पभाए होजा। अह - तीयायां संख्यातपद एव स्थिते प्रथमायां तथैव च्याद्यक्ष वा-रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य होजा । अहवा- रयणप्पभाभावेन दशमचारे सङ्ख्यातपदं भवति । एवं चैतं दश समाप्य. ते, चेतोतविम्यासोऽन्त्यपदस्य प्राप्तत्वात् । एवं चैते सर्वेऽप्ये ए य वालुयप्पभाए य होज्जा जाव अहवा-रयणप्पभाग य कत्र त्रिकसंयोग एकविंशतिः। अनया च पञ्चत्रिंशतः सप्त- अहे सत्तमाए य होज्जा ।६। अहवा-यणप्पभाए य पदत्रिकसंयोगानां गुणने सप्तशतानि पञ्चत्रिशदधिकानि सक्करप्पभाए य वालुयप्पभाए य होजा । एवं० जाव अहवाभवन्ति । चतुष्कसंयोगे तु पुनराद्याभिश्चतसृभिः प्रथमः च. रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य अहे सत्तमाए य होज्जा तुषकसंयोगः, तत्र चाद्यासु तिसृप्वेकैकश्चतुझं तु सख्याता इत्येको विकल्पः । ततः पूर्वोतक्रमेण तृतीयायां दशमचारे । ५ । अहवा-श्यणप्पभाए य वालुयप्पभाए य पंकप्पसंख्यातपदमेवं द्वितीयायां प्रथमायां च तत एते सर्वेप्येक भाए य होज्जा।१। जाव अहवा-रयणप्पभाए य वात्र चतुष्कयोगे एकत्रिंशत् । अनया च सप्तपदचतुष्कसंयो-| लुयप्पभाए य अहे सत्तमाए होज्जा । अहवा--रयणप्पगानां पञ्चत्रिंशतो गुणने सहस्रं पञ्चाशीत्यधिकं भवति । प भाए य पंकप्पभाए य धूमाए य होज्जा ।१। एवं रयचकसंयोगे त्वाद्याभिः पञ्चभिः प्रथमः पञ्चकयोगः। तत्र चा. णप्पभं अमुयंतेसु जहा तिएह तियसंजोगो भणियो तहा द्यासु सतसप्वकैकः पञ्चम्यां तु सख्याता इत्येको विकल्पः। ततः पूर्वोत्तक्रमेण चतुर्थी दशमचारे संख्यातपदमेवं शे भाणियबंजाव अहवा-रयणप्पभाए य तमाए य अहे सत्तपास्वपि । तत एते सर्वेऽप्येकत्र पञ्चकयोगे एकचत्वारिंशन्। माए य होज्जा।१॥ अहवा-रयणप्पभाए य सकरप्पभाए य अस्याश्च प्रत्येक सप्तपदपञ्चकसंयोगानामेकाशितौ ला- वालुयप्पभाए य पंकप्पभाए य होजा अहवा-रयणप्पभाए य भादएशतान्येक षष्टयधिकानि भवन्ति । षटूसंयोगेषु तु पूर्वो. सक्करप्पभाए य वायुयप्पभाए य धूमप्पभाए य होज्जा०जाव लक्रमेणैकत्र षटुयोगे एकपश्चाशद्विकल्पा भवन्ति । अस्याश्व प्रत्येक सप्तपदपटूसंयोगसप्तके लाभात्रीणि शतानि स अहवा-रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य वालुयप्पभाए य अहे सपञ्चाशदधिकानि भवन्ति । सप्तकसंयोगेषु पूर्वोक्नभावन सत्तमाए य होज्जा । ४ । अहवा- रयणप्पभाए य सकरप्पयैकपतिर्विकल्पा भवन्ति । सर्वेषां चैषां मीलन प्रयस्त्रिंश- भार य पंकप्पभाए य धूमप्पभाए य होज्जा । एवं रयणच्छतानि सप्तत्रिशदधिकानि भवन्ति । प्पमं मुयंतेसु जहा चउएहं चउक्कसंजोगो तहा भाणियअसंख्ययाः ब्बं० जाव अहवा-रयणप्पभाए य धूमप्पभाए य तमाए असंखेचा भंते ! णरइया गरइयपवेसणएणं पवेसमाणा य अहे सत्तमाए य होज्जा । २० । अहवा-रयणप्पभाए पुच्छा? । गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा. जाव अहे स- य सकरप्पभाए य वालु यप्पभाए य पंकप्पभाए य धूमतमाए वा होजा |७| अहवा-एगे रयणप्पभाए असंखे- प्पभाए य होज्जा । अहवा-रयणप्पभाए य० जाव पंकजा सकरप्पभाए होज्जा एवं दुयसंजोगोजाव सत्तगसं- प्पभाए य तमाए य होज्जा । अहवा -रयणप्पभाए य. जोगो य । जहा संखजाणं भणियो तहा असंखजाण वि जाव पंकप्पभाए य अहे सत्तमाए य होज्जा।३। अहवाभाणियन्चो, णवरं असंखेज्जाओ अब्भहिओ भाणियचो, रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य वालुयप्पभाए य धूमप्पसेसं तं चेव०जाव सत्तगसंजोगस्स पच्छिमग्रो पालाव- भाए य तमाए य होज्जा । एवं रयणप्पमं अमुयंतेमु ज Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६७) पवेसगाय अभिधानराजेन्सः । पवेसाय हा पंचएई पंचसंजोगो तहा भाणियव्वं० जाव अहवा रय. अहवा-एगे एगिदिएसु एगे वेदिएसु होज्जा। एवं जहा णेणप्पभाए य पंकप्पभाए य धूमप्पभाए य तमाए य हे स-1 रइयपवेसणए तहा तिरिक्खजोणियपवेसणए विभाणियचे त्तमाए य होज्जा ।१५ अहवा-रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए | जाव असंखेज्जा । उक्कोसा भंते ! तिरिक्खजोणिए पुच्छा। य वाल पप्पभाए य पंकप्पभाए य ध्रमप्पभाए य तमाए गंगेया ! सब्वे वि ताव एगिदिएसु होला । अहवा-ए. य होज्जा । अहवा-रयणप्पभाए य० जाव धूमप्पभाए य गिदिएसु य वेईदिएसु य होज्जा । एवं जहा णेरड्या संअहे सत्तमाए य होजा। अहवा-रयणप्पभाए य सकरप्पभाए| चारिया तहा तिरिक्खजोणिया वि संचारेयवा। एगिदिया य वालुयप्पभाए य पंकप्पभाए य तमाए य अहे सत्तमाए य अमुयंतेसु दुयसंजोगो तियसंजोगो चउकसंजोगो पंचकसंहोज्जा । अहवारयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य वायुय- जोगो य भाणियव्यो जाव अहवा-एगिदिएसु य वेइंदि. प्पभाए य धूमप्पभाए य तमाए य आहे सत्तमाए य हो पसु य०जाव पंचिंदिएसु य होजा। एयरस णं भंते! एगिदि. ज्जा । अहवा-रयणप्पभाए य सकरपभाए य पंक- यतिरिक्खजोणियपवेसणगस्स जावपंचिंदियतिरिक्खजो. प्पभाए य धृभप्पभाए य तमाए य अहे सत्तमाए णियपवेसणगस्स य कयरे कयरे जाव विसेसाहियावा । य होजा। ५ । अहवा-रयणप्पभाए य वालुयप्पभाए गंगेया सव्वत्थोवे पंचिंदियतिरिक्खजोणियपवेसणए चउय० जाव अहे सत्तमाए य होज्जा ॥ ६॥ अहवा-र- रिंदियतिरिक्ख जोणियपवेसणए विसेसाहिए तेइंदियतिरियणप्पभाए य सक्करप्पभाए० य जाव अहे सत्तमाए। क्खजोणियप्पवेसणए विसेसाहिए वेइदियतिरिक्खजोणिहोज्जा ॥ १६४॥ यपवेसणए विसेसाहिए एगिदियतिरिक्खजोणियप्पवेस(रक्कोसणं इत्यादि) उत्कर्षा उत्कृष्टपदिनो ये उत्कर्षत पर विसेसाहिए। उत्पद्यन्ते ( सव्वे वित्ति) ये उत्कृष्टपदिनस्ते सर्वेऽपि रत्न प्रभायां भवेयुस्तद्गामिनां तत्स्थानानां च बहुत्वात् । इह प्र (तिरिक्खेत्यादि) इहैकस्तिर्यग्योनिक एकेन्द्रियेषु या भवेक्रमे द्विकयोगे षड्भङ्गकास्त्रिकयोगे पञ्चदश चतुष्कयोगे दित्युकं तत्र च यद्यप्ये केन्द्रियेवेकः कदाचिदप्युत्पद्यमानो न विंशतिः, पञ्चकयोगे पश्चदश, षट्कयोगे षट् , सप्तकयोगे लभ्यते, अनन्तानामेव तत्र प्रतिसमयमुत्पत्तेस्तथाऽपि देवा. त्वेक इति। दिभ्य उत्य यस्तत्रोत्पद्यते तदपेक्षयैकोऽपि लभ्यते, एत देव च प्रवेशनकमुच्यते यद्विजातीयेभ्य भागस्य विजातीयेषु अथ रत्नप्रभाऽऽदिष्वेव नारकप्रवेशनकस्याल्पत्वाऽऽदि. प्रविशति, सजातीयस्तु सजातीयेषु प्रविष्ट एवेति किं तत्र निरूपणायाऽऽह प्रवेशनकमिति नत्र चैकस्य क्रमेण एतानेव सूचयता एयस्स णं भंते ! रयणप्पभापुढविणेरइयपवेसणगस्स | "अहवा एगे एगिदिएसु" इत्याधुक्रम् । अथ संक्षेपार्थ सक्करप्पभापुढविपवेसणगस्स० जाब अहे सत्तमापुढविणेरइ-1 च्यादीनामसख्यातपर्यन्तानां तिर्यग्योनिकानां प्रवेशनकमयपवेसणगस्स कयरे कयरे जाव विसेसाहिए वा?। गंगे तिदेशेन दर्शयन्नाह-नारकप्रवेशनकसमानमिदं सर्व, परं या ! सम्बत्थोवे अहे सत्तमपुढविणेरइयपवेसणए तमापुढ-| तत्र सप्तसु पृथिवीवेकाऽऽदयो नारका उत्पादिताः, तिर्य श्वस्तु तथैव पञ्चस्थानेषु उत्पादनीयाः, ततो विकल्पनानाविणेग्इयपवेसणए असंखेजगुणे पडिलोमग० जाव रयण- त्वं भवति, तथाभियुक्त पूर्वोतन्यायेन स्वयमवगन्तव्यमिति। प्पभापुढविणेरइयपवेसणए असंखेज्जगुणे। इह चानन्तानामे केन्द्रियाणामुत्पादेऽपि अनन्तपदं नास्ति, ( एयस्स एमित्यादि ) तत्र सर्वस्तोकं सप्तमपृथिवीना प्रवेशनकस्योक्तलक्षणस्यासण्यातानामेव भावादिति । रकप्रवेशनकं, तद्गामिनां शेषापेक्षया स्तोकत्वात्, ततः (सब्वे वि ताव पगिदिपसु होज्ज त्ति) एकेन्द्रियाणाम. षष्ठ्यामसंख्यातगुणं, तगामिनामसंख्यातगुणत्वादवमुत्तर-1 तिबहूनामनुसमयमुत्पादात् । (दुयसंजोगो इत्यादि) इह त्राऽपि । प्रक्रमे द्विकसंयोगश्चतुर्दा, त्रिकसंयोगः षोढा, चतुष्कसंयोअथ तिर्यग्योनिकप्रवेशनकप्ररूपणायाऽऽह गश्चतुर्दा पञ्चकलंयोगस्त्वेक एवेति । (सव्वत्थोवे पंचिंदि. यतिरिक्खजोणियपवेसणए त्ति ) पञ्चेन्द्रियजीवानां स्तोतिरिक्खजोणियपवेसणए णं भंते ! कइविहे पामत्ते ?। गं कत्वादिति, ततश्चतुरिन्द्रियाऽऽदिप्रवेशनकानि परस्परेण गेया ! पंचविहे पामते । तं जहा-एगिदियतिरिक्खजो-| विशेषाधिकानीति। णियपवेसणए० जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियपवेसणए । मनुष्यप्रवेशनकं देवप्रवेशनकं च सुगमं, तथाऽपि किश्चि. एगे भंते ! तिरिक्खजोणिए तिरिक्खजोणियपवेसणएणं ल्लिख्यतेग्वेसमाणे किं एगिदियेसु होजा० जाव पंचिंदिएसु हो - मणुस्सपवेसणए णं भंते ! कइविहे पामते । गंगेया! दुजा। गंगेया! एगिदिएसु वा होज्जा. जाव पंचिदिएम | विहे पाम ते । तं जहा-समुच्छिममणुस्सपवेसणए य, ग. वा होजा शिदो भंते तिरिक्खजोणियपुच्छा ? गंगेया! भवकंतियमणुस्सपवेसणए य । एगे भंते ! मणुस्सपवेएगिदिएसु वा होजा जाव पंचिंदिपसु वा होला ।५।सणएणं पयेसमाणे किं संमुच्छिममणुस्सेसु होजा, २०० Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८ ) अभिधान राजेन्द्रः । पवेसणय गब्भवतियमस्से होआ ?। गंगेया ! संमुच्छिममगुस्सेसु वा होआ, गब्भवकंतियमगुस्सेसु वा होजा २। दो भंते! म गुस्सा पुच्छा है। गंगेया ! संमुच्छिममगुस्सेसु वा होआ, गम्भवतियमणुस्सु वा होजा । श्रहवा - एगे संमुच्छिममणुस्से होआ, एगे गन्भवकंतियमगुस्सेसु होजा । एवं एएवं कमेणं जहा रइयपवेसण र तहा मणस्सपवेसण ए विभाणियन्त्रे | एवं जाव दस। संखज्जाई भंते! मणुस्सपुच्छा। गंगेया ! संमुच्छममगुस्सेसु वा होजा, गब्भवकंतियमस्सेसु वा होजा । श्रहवा - एगे संमुच्छिममणुस्सेसुसंखेज्जा गन्भवतियमणुस्सेसु होज्जा । श्रहवा दो संमुच्छिममणुस्सेसु होजा संखेज्जा गन्भवकंतियमगुस्सेसु होज्जा । एवं एकेक उसारिरसु० जाव अहवा-संखेज्जा सं मुच्छिममस्से गन्भवकंतियमणुस्सेसु होजा ११ | अ संखआई भंते! मरणस्सा पुच्छा ।। गंगेया ! सच्चे वि ताव संमुच्छिममस्से होजा । श्रहवा - असंखेजा संमुच्छिममस्से एगे गन्भवतियमणुस्सेसु होज्जा । श्रहवा असंखेज्जा समुच्छिममसेसु दो गन्भवकंतियमगुस्सेसु एवं • जाव असंखेज्जा समुच्छिममणस्सेसु संखज्जा गब्भवर्कतियमणुस्सेसु य होज्जा ११ । उक्कोसा भंते ! मगुस्सा पुच्छा ?। गंगेया ! सत्रे पिताव संमुच्छिममणुस्सेसु होजा । अहवा-संमुच्छिममरणस्सेसु य गन्भवकंतियमगुस्सेसु य होज्जा १ । एयस्स गं भंते ! संमुच्छिममणस्सपवेसणगस्स गब्भवकंतियमणुस्सपवेसणगस्स य कयरे कयरे जाव विसेसाहियावा ? | गंगेया ! सव्वत्थोवे गब्भवनंतियमगुस्स पवेसणए समुच्छिममणुस्सपवेसणए असंखेजगुणे | देवपवेस भंते! कविहे पम्मत्ते ?। गंगेया ! चव्विहे पसते । तं जहा भवणवासिदेवपवेसणए जाव वेमाणियदेवपवेसणए । एगे भंते ! देवे देवपवेसणए पत्रिसमाणे किं भवणवासी होजा, वाणमंतरेसु होजा, जोइसिएस होजा, वेमाणिएसु होजा १। गंगेया ! भवणवासीसुवा होजा, वाणमंतरेसु वा होजा, जोइसिएस वा होजा, वेमागिएसु वा होज ४ । दो भंते ! देवा देवपवेसण णं पुच्छा ? गंगेया ! भवणवासीसु वा होजा, वाणमंतरेस वा होजा, जोइसिएस वा होजा, वेमाणिरसुवा होजा | अहवा - एगे भवरवासीसु, एगे वाणमंतरेसु होजा । एवं जहा तिरिक्खजोणियपवेसणए तहेव देवपवेसणए वि भाणिय०० जाव असंखेज्जाई। उक्कोसा भंते! पुच्छा ? गंगेया ! सव्वे वि तात्र जोइसिएस होजा । ग्रहवा - जोइसि सुय भवणवासीय होजा । बहवा - जोइसियवाणमंतरेसु य होजा । श्रहवा जोइसियत्रेमागिएसु य होज्जा । पच्च अहवा - जोइसिसु य भवणवासीय वाणमंतरेसु य eter | हवा - जोइसिएसु य भवणवासित्सु य वेमाणिपसु य होजा । हवा - जोइसिएसु य वाणमंतरेसु य वेमाणियसु य होज्जा । अहवा - जोइसिएसु य भव णवासीय वाणमंतरेसु य वेमाणिपसु य होज्जा । एयसणं भंते ! भवणवासिदेवपवेसणगस्स वाणमंतरदेवपवेसणगस्स जोइसियदेवपवेस रागस्स वेमाणियदेवपवेसणगस्स य कयरे कयरे ०जाव विसेसाहिया वा १। गंगेया ! सव्वत्थोवे वेमाणियदेवपत्रे सणम् भवणवासिदेव पवेस ए असंखेजमुखे वाणमंतर देवपवेसणए असंखेज्जगुणे जोइ - सियदेव पवेसणए संखेअगुणे । मनुष्याः स्थानद्वये संमूच्छिमगर्भजलक्षणे प्रविशन्ति, इयमाश्रित्य एकाssदिसंख्यातान्तेषु पूर्ववद्विकल्पाः कार्याः । तत्र चातिदेश्यानामन्तिमं संख्यातपदमिति तद्विकल्पान् साक्षाद्दर्शयन्नाह - ( संखेजा इत्यादि) इह द्विकयोगे पूर्ववत् एकादश विकल्पा श्रसंख्यातपदेषु पूर्व द्वादश विकल्पा उक्ताः । इह पुनरेकादशैव यतो यदि संमूच्छिमेषु गर्भजेषु चासंख्यातत्वं स्यात्तदा द्वादशोऽपि विकल्पो भवेश चैवमिह गर्भजमनुष्याणां स्वरूपतोऽप्यसंख्यातानामभावेन तत्र प्रवेशनके श्रसंख्यातासंभवादतो संख्यातपदे विकल्पैका इशदर्शनायाऽऽह - (श्रसंखेजा इत्यादि ) (उक्कोसा भंते ! इत्यादि ) ( सच्वे ऽवि ताव संमुच्छिममखुरलेस होज त्ति ) संमूच्छिमानामसख्यातानां भावेन प्रविशतामप्यसंख्यातानां सम्भवः, त. तश्च मनुष्यप्रवेशनकं प्रत्युत्कृष्टपदिनः तेषु सर्वेऽपि भवन्तीति । अत एव संमूच्छिममनुष्यप्रवेशनकमितरापेक्षयाSसंख्यातगुणमवगन्तव्यमिति ॥ देवप्रवेशन (सव्वे वि ताव जोइसिएस होज ति) ज्योतिष्कगामिनो बहव इति तेषूत्कृष्ट पदिनो देवप्रवेशनकवन्तः सर्वेऽपि भवन्तीति । (सव्वत्थोवे वैमाणियदेवप्पवेसराप इति ) तद्गामिनां तत्स्थानानां चाल्पत्वादिति । श्रथ नारकाऽऽदिप्रवेशतस्यैवाल्पत्वाऽऽदि निरूपयन्नाह - ( पयस्स णमित्यादि) तत्र सर्वस्तोकं मनुष्यप्रवेशनकं, मनुष्यक्षेत्र एव तस्य भावात्तस्य च स्तोकत्वान्नैरयिकप्रवेशनकं त्वसंख्यातगुणं, तद्गामिनामसंख्यातगुणत्वादेवमुत्तरत्रापीति । अल्पबहुत्वम्— एयरसणं णं भंते! रइयपवेसणगस्स तिरिक्खजांणियपवेसणगस्स मणुस्स पवेसणगस्स देवपवेसणगस्स कयरे करे० जाव विसेसाहिया वा ? गंगेया ! सव्वत्थोवे मगुस्स पवेसण रइयपवेसण खेज्जगुणे देवपवेसणए असंखज्जगुणे तिरिक्खजोणियपवेसण ए प्रसंखेज्जगुणे | भ० ६ श० ३२ उ० । पत्र-पर्व्व न० । पूरणाद् धर्मोपचयहेतुत्वात्पर्व श्रप्रम्यादि तिथौ, श्राव०६ श्र० । श्रमावास्यायाम्, पौर्णमास्याम्, तदुपलक्षिते पक्षे च । स्था० ६ ठा० | सू० प्र० । चं० प्र० । Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६१) अभिधानराजेन्षः। पव्व पव्व तत्र पर्वाणि चैवमूचुः तावइयं तं अयणं, नरिथ निरंसं हि रूवजुयं ॥२॥ अट्ठमि चउद्दसी पु-मिमा य तहमावसा हवद पव्वं । कसिणम्मि होइ रुवं, पक्षो दो य होति भिन्नम्मि । मासम्मि पव्वछक , तिन्नि अ पब्वाइँ पक्खम्मि ॥१॥ जावइया तावइया, एते ससिमंडला होति ॥ ३॥ "चाउद्दसऽट्ठमुट्ठिपुरममासीसु त्ति" सूत्रप्रामाण्यात् । महा ओयम्मि तु गुणकारे, अम्भितरमंडले हवह आई। निशीथे तु शानपञ्चम्यपि पर्वत्वेन विथता-"अट्टमिचउद्द जुम्मम्मि य गुणकारे, बाहिरगे मंडले आई ॥४॥" सीसुं,नाणपंचमीसु उबवासं । न करेई पच्छित्तं, ........॥" प्रासां क्रमेण व्याख्या-यस्मिन् पर्वणि अयनमण्डलाऽऽदिवि. इत्यादिवचनात् । तथाऽन्यत्र च षया झातुमिच्छा,तैर्धवराशिर्गुण्यते अथ कोऽसौ धुवराशिः?, "वा पंचमि अटुमि , एगारसि चउद्दसी पणतिहीश्रो उच्यते-इह भ्रवराशिप्रतिपादिकेयं पूर्वाऽऽचार्योपर्शिता गा. एनायो सुतिहीनो , गोश्रम! गणहारिणा भणिश्रा ॥१॥ था-"एगं च मंडलं मण्डलस्स सत्तट्रि भाग चत्तारि । नव वीश्रा दुविहे धम्मे , पंचमि नाणेसु अट्ठमी कम्मे चेव चुमियाश्रो, इगतीसकरण वेएण ॥१॥" अस्या अ. एगारसि अंगाणं, चउद्दसी चउदपुब्वाणं ॥२॥" क्षरयोजना-एक मण्डलमेकस्य च मण्डलस्य सप्तषष्टिभा. एवं पञ्चपर्वी पूर्णिमाऽमावास्याभ्यां सह षट्पर्वी च प्रति- गाश्चत्वारः, एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य एकत्रिंशत्कृतेन छेपक्षमुत्कृष्टतःस्यात्। एषु च पर्वसु कृत्यानि यथा पौषधकरणं, - देन ये चूमिका भागास्तेन च एतावत्प्रमाणो ध्रुवराशिः। प्रतिपर्व तत्करणाऽऽशक्तौ तु अष्टम्यादिषु नियमेन । यदा- अयं च पर्वगतक्षेत्रादयनगतक्षेत्रापगमे शेषीभूत एकस्य गमः-" सब्वेसु कालपब्वे-सु पसत्थो जिएमए हवइ जोगो। चोत्पत्तिमात्र भावयिष्यामः॥१॥ तत एवंभूतं ध्रुवराशिअटुमिचउद्दसीसु अ, निअमेण हविज्ज पोसहिओ"॥२॥ मीप्सितपर्वभिर्गुणयित्वा तदनन्तरमयनं रूपाधिकं कर्त्तव्यं, इति । यथाशक्निग्रहणादष्टम्यादिप्यपि पौषधकरणाऽऽशक्ती तथा गुणितस्य मण्डलराशेयदि चन्द्रमसोऽयनक्षे परिपू. द्विष्प्रतिक्रमणबहुबहुतरसामायिककरणबहुसंक्षपदेशावका- संमधिकं वा संभाव्यते, तत एतस्मादीसितपर्वसंख्यागुशिकवतस्वीकरणादि कार्यम् । ध०२ अधि०। कौमुदीप्र- णितात् मण्डलराशरुडुपतेश्चद्रमसोऽयनक्षेत्रं भवति, शोभृतिषु लौकिकोत्सवतिथिषु,शा० १ श्रु० २ ०। धयन्ति च, यावत्सङ्ख्यानि चायनानि शुदयन्ति ततिप्रतिवर्षपर्वसंख्यामाह भिर्युक्नानि पर्वाणि अयनानि क्रियन्ते, कृत्वा च भूयो रूता पढमस्स णं चंदस्स संवच्छरस्स चउन्धीस पन्ना परम पसंयुक्तानि विधेयानि । यदि पुनः परिपूर्णानि मण्डलानि शुद्धयन्ति राशिश्च पश्चानिलेपो जायते तदा तदयनसंख्या..ता। दोच्चस्स णं चंदसंवच्छरस्स चउन्चीसं पच्चा पमत्ता।। तैर्निरंशं सदूपयुक्तं नास्ति न तत्रायनराशौ रूपं प्रक्षिप्यंत इति सच्चस्स णं अभिवहितसंवच्छरस्स छन्चीसं पव्वा पमत्ता।। भावः। तथा कृत्स्ने परिपूरणे राशौ भवत्येकं रूपं मण्डलचउत्यस्सां चंदसंवच्छरस्स चउव्वीसं पचा परमत्ता । पं- राशौ प्रक्षेपणीयं भिन्न खराडे अंश सहिते राशावित्यर्थः । द्वे चमस्स णं अमिवद्रियसंवच्छरस्स छब्बीसं पव्वा परमत्ता ।। रूपे मण्डलराशौ प्रक्षेपणीये, प्रक्षेपे च कृते सति यावान्म एडलराशिर्भवति तावन्ति मण्डलानि तावत्तिथ ईप्सिते एवामेव.सपुव्वावरेणं पंचसंवच्छरिए जुगे एगे चउनीसे | पर्वणि भवन्ति । तथा यदि ईप्सितेन पर्वणा जोरूपण पव्वसते भवतीति मक्खायं ।। विषमलक्षणेन गुणकारो भवति, तत आदिरभ्यन्तरे मण्डले ( ता पढमस्स णं इत्यादि) 'ता' इति । तत्र युगे प्रथमस्य, द्रव्यः , युग्मे तु समे तु गुणकारे आदिर्वाह्ये मण्डले - णमिति वाक्यालंकृतौ । चान्द्रस्य संवत्सरस्य चतुर्विंशतिः | वसेयः । एष करणगाथासमूहाक्षरार्थः । पाणि प्रशतानि । द्वादशमासात्मको हि चान्द्रसंवत्सरः, भावना स्वियम्-कोऽपि पृच्छति-युगाऽऽदी प्रथम पर्व एकैकमिश्च मासे द्वे वे पर्वणी, ततः सर्पसंख्यया चान्दे कस्मिन्नयने कस्मिन्वा मण्डले समाप्तिमुपयाति.तत्र प्रथम संवत्सरे चतुर्विशतिपर्वाणि भवन्ति । द्वितीयस्याऽपि चान्द्र- पर्व पृएमिति वामपावें पर्वसूचक एककः स्थाप्यते, तत. संवत्सरे चतुविशतिपर्वाणि भवन्ति । अभिवतिसंवत्सर- स्तस्यां तु श्रेणिदक्षिणपावें एकमयनं, तस्य चानुणि एक स्थ पडिशतिः पर्वाणि,तस्य त्रयोदशमासाऽऽत्मकत्वात् । च. मण्डलं तस्य च मण्डलस्याऽधस्ताश्चत्वारः सप्तपष्टिभागातुर्थस्य चान्द्रसंवत्सरस्य चतुर्विंशतिः पर्वाणि । पञ्चमस्य स्तेषामप्यधस्तानब एकत्रिशद्भागाः । एष सर्वोऽपि राशिअभिवतिसंवत्सरस्य बर्दिशतिः पर्वाणि । कारणमनन्तर- धूवराशिः, स ईप्सितेन एकेन पर्वणा गरायते, एकेन च मेवोक्तं , तत एवमेव उक्नेन च प्रकारेणैव ( सपुवावरणं गुणितं तदेव भवतीति जातस्तावानेव राशिः । “ततो. ति) पूर्वापरगणितमीलनेन पश्चसांवत्सरिके युगे चतुर्विं ऽयनं रूपाधिकं च कर्त्तव्यम्।" इति वचनादेकं रूपमयने शत्याधिकं पर्वशतं भवतीत्याख्यातं सर्वैरपि तीर्थकृद्भि- प्रक्षिप्यते, मण्डलराशी चायनं न शुध्यति, ततो " दो य मया च। होति भिन्नम्मि" इति वचनात् मण्डलराशी द्वे रूपे वह कस्मिन्नयने कस्मिन्वा मण्डले किं पर्व समाप्तिमुपयाती. प्रक्षिप्येते, तत आगतमिदं प्रथम पर्व द्वितीये अयने तृती. ति चिन्तायां पूर्वाऽऽचापकरणगाथा अभिहिताः। तत- यस्य मण्डलस्य "ओयम्मि य गुणकारे, अम्भितर मण्डले स्ता विनेयजनानुग्रहार्थमुपदर्श्यन्ते हवा आई " इति वचनात् । अभ्यन्तरवर्तिनश्चतुर्यु सप्त. "इच्छा पवेहि गुणं, अयणं रूवाहि तु कायव्यं । पष्टिभागेषु एक य च सप्तपष्टिभागस्य नवस्वैकत्रिंशगा सोझ च हवा तत्तो, अयणक्खित्तं उदुवइस्स ॥१॥ । गेषु गतेषु समाप्तिमुपयातीति, अयनं चेह चन्द्रायणमवसे. जइ अयणा सुज्झती, तइ पंचजुया उ रूवसंजुत्ता। यम् । चन्द्रायणं च युगस्याऽदौ प्रथममुत्तरायणं, द्वितीयं Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८००" भनिधानराजेन्द्रः । पव्व पव्व दक्षिणायनमिति । द्वितीये अभ्यन्तरवर्तिनस्तृतीयस्य मण्डः | लस्य, तत्र पश्चदश सप्तषष्टिभागाः सप्तषष्टिभागराशिमध्ये लस्येत्युक्तम्। तथा कोऽपि पृच्छति-द्वितीयं पर्व कस्मिन्नयने प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वेशते एकाशीत्यधिके २८१। तयोः सप्तकस्मिन् वा मण्डल समाप्तिमधिगच्छतीति। तत्र द्वितीयं षया भागो हियते, लब्धानि चत्वारि मण्डलानि, शेषा पर्व पृष्टमिति स एष प्रागको ध्रुवराशिः समस्तोऽपि द्वा. अवतिष्ठन्ते प्रयोदश सप्तषष्टिभागा मण्डलानि च मएडलराभ्यां गुण्यते, ततो जाते अयने द्वे मण्डले अष्टौ सप्तषष्टि- शौ प्रक्षिप्यन्ते जातानि प्रयोदश मण्डलानि प्रयोदशमिर्म: भागा अष्टादश एकत्रिंशद्भागाः,"ततोऽयनं रूपाधिकं कर्त- एडलैखयोदशाभिश्च सप्तषष्टिभागैः परिपूर्णमेकमयनं लब्धव्यम्।" इति वचनात् अपने रूपं प्रक्षिप्यते, मण्डलराशी मिति तदयनराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि सप्तषष्टिरयनानि । चाध्यनं न शुद्ध्यति, ततो " दो य होति भिन्नम्मि" इति "नस्थि निरंसम्मि रूवजुयं।" इति वचनाद् अयनराशौ रूपं वचनात् मण्डलराशौ वे प्रक्षिप्येते, तत आगतं द्वितीयं न प्रक्षिप्यते, केवलं " किसणम्मि होर रूवं पक्खेवो" पर्व तृतीये अयने चतुर्थस्य मण्डलस्य "जुगमम्मि व गुण- इति वचनात् मण्डलस्थाने एकं रूपं न्यस्यते, द्वाषष्टया कारे,बाहिरगे मण्डले हवह आई।" इति वचनाद् बाह्यमण्ड- चात्र गुणकारः कृतो द्वाषष्टिरूपश्च राशिर्युग्मो, यानि - लादर्वाग्वर्तिनोऽष्टसु सप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टि- पि च चत्वार्ययनानि प्रविष्टानि तान्यपि युग्मरूपाणि, रू. भागस्याष्टादशस्वेकत्रिंशद्भागेषु अतिक्रान्तेषु परिसमाप्तिमु- पं चात्राधिकमेकं न प्रक्षिप्तमिति पश्चममयनं तत्स्थाने द्र. पैति । तथा कोऽपि प्रश्नयति-चतुर्दशं पर्व कतिसरण्येव- एव्यमिति बाह्यमण्डलमादिष्टव्यं, तत भागतं द्वापष्टितम यनेषु मण्डलषु वा समाप्तिं गच्छतीति ?, स एव प्रागुतो पर्व सर्वसप्तषष्टावयनेषु परिपूर्णेषु जातेषु बाह्यमण्डले प्रथमध्रुवराशिः समस्तोऽपि चतुर्दशभिर्गुण्यते, जातान्ययनानि रूपे परिसमाप्तिं गतमिति । एवं सर्वारयपि पर्वाणि भावनीचतुर्दश मण्डलान्यपि चतुर्दश चत्वारः सप्तषष्टिभागाश्च- यानि । केवलं विनेयजनानुग्रहाय पर्वायनप्रस्तारोलेशतो क्षतुर्दशभिर्गुणिता जाताः षट्पञ्चाशत् ५६ नव एकत्रिंशद्भागाः रताडित उपदर्श्यते-तत्र प्रथमं पर्व द्वितीये अयन तृतीये चतुर्दशभिर्गुपिता जातं घड़िशत्यधिकं शतम् १२६ । तत्र मण्डले तृतीयस्प मण्डलस्य चतुर्ष सप्तपष्टिभागेषु एकस्य पर्दिशत्यधिकस्य शतस्य एकविंशता भागो हियते. लब्धाः च सप्तषष्टिभागस्य नवखेकत्रिंशद्भागेषु गतेषु समाप्तचत्वारः सप्तपष्टिभागा द्वौ चूर्गिणकाभागी तिष्ठतः, चत्वा. मिति ध्रुवराशि कृत्वा पर्वाऽऽयनमण्डलेषु प्रत्येकमेकैकं रूपं रश्च सप्तषष्टिभागा उपरितने सप्तषष्टिभागराशौ प्रति- प्रक्षेप्तव्यं, भागेषु च तावत्संख्यका भागा मण्डले चायनक्षेप्यन्ते, जाताः षष्टिः सप्तषष्टिभागाः छ । चतुर्दशभ्यश्च ने परिपूर्मानि त्रयोदश मण्डलानि, एकस्य च मण्डलस्य मए डलेभ्यस्त्रयोदशभिर्मर डलैत्रयोदशभिश्च सप्तषष्टिभाग- प्रयोदश सप्तषष्टिभागा इत्येतावत्प्रमाणमयनक्षे शोधयिरयन शुद्धं, तेन सर्वाएपयनानि चतुर्दश साख्यायुतानि त्वाऽयनं प्रक्षेप्तव्यम् । अनेन क्रमेण वक्ष्यमाणःप्रस्तारः सम्यक्रियन्ते , ततोऽयनं रूपाधिकं कर्त्तव्यमिति वचनात् परिभावनीयः । स च प्रस्तारोऽयम्-प्रथमं पर्व द्वितीयेs. भूयोऽपि तत्रैक रूपं प्रक्षिप्यते, जातानि षोडश अयनानि यने तृतीये मण्डले तृतीयस्य मण्डलस्य चतुर्यु सप्तसप्तसष्टिभागाश्च चतुःपञ्चाशत्संख्यामण्डलराशाबुद्धरिता षष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य नवखेत्रिशद्भास्तिष्ठन्ति, ते सप्तपष्टिमागराशौ षष्टिरूपे प्रक्षिप्यन्ते. जातं गेषु गतेषु समाप्तं द्वितीय पर्व, तृतीयेऽयने चतुर्थे चतुर्दशोत्तरं शतम् ११४ । तस्य सप्तषष्टया भागो हियते, मण्डले चतुर्थमण्डलस्याष्टासु सप्तपष्टिभागेषु एकस्य च लब्धमेकं मण्डलं पश्चादवतिष्ठते सप्तचत्वारिंशत्सप्तपष्टि सप्तषष्टिभागस्याष्टादशस्वेकत्रिंशद्भागेषु तृतीयं पर्व, चतु. भागाः, ततो "दोय होति भिन्नम्मि" इति वचनात् म. थेऽयने पञ्चमे मण्डले पञ्चमस्य मण्डलस्य द्वादशसु स. रडलराशी दे रूपे प्रक्षिप्पेते, जातानि त्रीणि मण्डलानि तषष्टिभागेषु एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य सप्तविंशती चतुर्दशभिश्चात्र गुणितं कृतं,चतुर्दशराशिश्च यद्यपि युग्मरू- एकत्रिंशद्भागेषु चतुर्थ पर्व, पञ्चमे अयने षष्ठे मण्डले षष्ठपस्तथाऽप्यत्र मण्डलराशेरेकमयनमधिकं प्रविष्टमिति त्री- स्थ मण्डलस्य सप्तदशसु सप्तषष्ठिभागेषु एकस्य सप्तषष्टिभाणि मण्डलानि अभ्यन्तरमण्डलादारभ्य द्रष्टव्यानि. नत प्रा. गस्य पञ्चस्वेकत्रिशद्भागेषु पञ्चमं पर्व, षष्ठेऽयने सप्तमे मेंगत चतुर्दशं पर्व, षोडशे अयने अभ्यन्तरमण्डलादारभ्य एडले सप्तमस्य मण्डलस्य एकविंशतौ सप्तपष्टिभागेषु एकतृतीये मण्डले सप्तचत्वारिंशतिसप्तषष्टिभागेषु गतेष्वेकस्य स्य च सप्तषष्टिभागस्थ चतुर्दशस्वेकः त्रिंशद्भागेषु षष्ठे पर्व, च सप्तषष्टिभागस्य द्वयोरेकत्रिंशद्भागयोर्गतयोः परिसमा. सप्तमेऽयने अष्टमे मण्डले अष्टमस्य मण्डलस्य पञ्चविंशती मोतीति । तथा द्वाषष्टितमपर्वजिज्ञासायां स पूर्वोक्को भ्रवरा- सप्तषष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य त्रयोविंशतौ एकशिषिष्टया गुण्यते, जातानि द्वाषष्टिरयमानि द्वाषष्टिमण्ड. त्रिंशद्भागेषु सप्तमं पर्व, अष्टमे अयने नवमे मण्डले नवमस्य लानि वे शते अभावत्वारिंशदधिके सप्तपष्टिभागानां ३५८ मण्डलस्य त्रिंशति सप्तपष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तपष्टिभागस्य पञ्चशतानि अष्टापश्चाशदधिकानि एकत्रिंशद्ागानाम् एकस्मिन्नेकत्रिंशदागे अष्टमं पर्व,नवमे अयने दशमे मण्डले तेषामेकत्रिशता भागे हते लब्धाः परिपूर्णा अष्टादश सप्त- दशमस्य मण्डलस्य चतुर्विंशतिसप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सषष्टिभागास्ते उपरितने सप्तषष्टिभागराशौ प्रक्षिप्यन्ते,जाते तषष्टिभागस्य एकस्मिन्नेकत्रिंशद्भागेषु नवमं पर्व, दशमे अ. द्वे शते षट्षपश्यधिके २६६ उपरि च द्वापष्टिमण्डलानि, यने एकादशे मण्डले एकादशस्य मण्डलस्याष्टाशितिसतेभ्यो द्विपश्चाशता मण्डलैर्द्विपञ्चाशता च एकस्य मण्ड- तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य एकोनविंशतावेकस्य सप्तषष्टिभागैश्चत्वारि अयनानि लब्धानि,तानि अयन- विशद्भागेषु दशमं पर्व, एकादशेऽयने द्वादशे मण्डल द्वादशराशी प्रक्षिप्यन्ते, जातानि षट्षष्टिरयनानि ६६ । पश्चादव- स्य च मण्डलस्य द्वाचत्वारिंशतिसप्तषष्टिभागेषु एकस्य च तिष्ठन्ते नव मण्डलानि, पञ्चदश च सप्तषष्टिभागा मण्ड- सप्तषष्टिभागस्याष्टाविंशतौ एकत्रिंशद्भागेषु एकादशं पर्व, THILITHTHHTHHHHI Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पव्व भन्निधानराजेन्डः। पव्य द्वादशे अयने त्रयोदशे मण्डले त्रयोदशस्य मण्डस्य सप्तच. शतानि ध्यत्तराणि शुद्धानि स्थितानि, शेषाणि षष्टिसहत्वारिंशात सप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य षट्सु स्राणि त्र्युत्तराणि ६०००३ । तत्र छेदराशिषिष्टिरूपः सप्तएकत्रिंशद्भागेषु द्वादशं पर्व, चतुईशे अयने प्रथमे मण्डल प्र षष्ट्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुःपञ्चाशद. थमस्य च मण्डलस्याष्टाविंशत्लप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तष धिकानि ४१५४ तैर्भागो हियते लब्धाश्चतुईश १४ । तेन श्रवप्टिभागस्य पञ्चदशस्वेकशिद्भागेषु प्रयोदशं पर्व, पञ्चदशे णादीनि पुष्यपर्यन्तानि चतुर्दश नक्षत्राणि शुद्धानि,शेषाणि अयने द्वितीये मण्डले द्वितीयस्य मण्डलस्य द्वाचत्वारिंश तिष्ठन्ति अष्टादश शतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि १८४७ । ति सप्तपटिभागेष्वेकस्य च सप्तपष्टिभागस्य चतुर्विशती एक एतानि मुहूर्ताऽनयनार्थ त्रिंशतागुण्यन्ते,जातानि पञ्चपश्चात्रिंशद्भागेषु चतुर्दशं पर्व, षोडशे अयने तृतीये मण्डले तृ शत्सहस्राणि चत्वारि शतानि दशोत्तराणि ५५४१०.तेषां भागे तीयस्य मण्डलस्य सप्त वत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेष्वेकस्य च हते लब्धास्त्रयोदश मुहूर्ताः,शेषाणि तिष्ठन्ति चतुर्दश शता. सप्तपष्टिभागस्य द्वयोरेकत्रिंशद्भागयोः पञ्चदशं पर्व, सप्तदशे नि अष्टोत्तराणि १४०८। एतानि द्वाषष्टिभागाऽऽनयनार्थ द्वाषअयने चतुर्थे मण्डले चतुर्थस्य मण्डलस्य एकपञ्चाशति स ट्या गुणयितव्यानीति गुणकारच्छेदराश्योाषष्ट्या ऽपवर्त्तनपष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तपष्टिभागस्य एकादशस्वेकत्रिंश ना क्रियते, तत्र गुणकारराशिर्जात एककश्छेदराशिः सप्तषभागेषु । एवं शेमेष्वपि पर्वस्वयनमण्डलप्रस्तारो भावनीयः । प्टिः,एकेन च गुणित उपरितनो राशिर्जाप्तस्तावानेव ततस्त. ग्रन्थगौरवभयात्तु न लिख्यते । स्य सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धा एकविंशतिः २१ । पश्चादवअथ किं पर्व कस्मिन् चन्द्रनक्षत्रयोगे परिसमाप्तिमुपया तिष्ठते एकः सप्तपष्टिभागः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य तीति चिन्तायां पूर्वाऽऽचार्यैः करणमुपर्शितम्। संप्रति तद आगतं प्रथमं पर्व, अश्लेषयोस्त्रयोदश मुहूर्तान् एकस्य च प्युपदर्श्यते-- मुहूर्तस्य एकविंशतिविष्टिभागान् एकस्य च द्वाष" चउवीससयं काऊ-ण पमाणं सत्तसट्टिमेव फलं । ष्टिभागस्यैकसप्तपष्टिभाग भुक्त्वा समाप्तमिति तथा यदि इच्छापब्वेहि गुणं, काऊणं पजया लद्धा ॥१॥ चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन सप्तपष्टिः पर्याया लभ्यन्ते अट्ठारसहि सरहिं, तीसहिं सेसगम्मि गुणियम्मि । ततो द्वाभ्यां पर्वाभ्यां किं लभामहे ? । राशित्रयस्थापनातेरस विउत्तरेहि. सपहि अभिइम्मि सुद्धम्मि ॥२॥ १२४।६७१२ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशि एपते. जातं सत्ताह्रविसट्ठीणं, सवग्गेणं तो उजं सेसं। चतुस्त्रिशदधिकं शतम् १३४ । तस्याऽधन राशिना चतुर्वितं रिक्खं नायव्वं, जत्थ समत्तं हवह पव्वं ॥३॥" शत्यधिकशतरूपेण भागो हियते, लब्धा एको नक्षत्रपर्यायः त्रैराशिकविधौ चतुर्विशत्यधिकं शतं प्रमाणं प्रमाणराशि स्थितः, शेषा दश, तत एतान् नक्षत्रानयनायाऽष्टादशभिः कृत्वा सप्तषष्टि रूपं फलं फलराशि कुर्यात् कृत्वा च ईप्सितैः शतैः त्रिंशदधिकैः सप्तषष्टिभागैर्गुणयिष्याम इति गुणकारपर्वभिर्गुणकारं विदध्यात् विधायचाऽऽद्येन राशिना चतुर्विश च्छे दराश्योरर्द्धनापवर्तना, जातो गुणकारराशिनवशतानि पत्यधिकशतेन भाग हृते यल्लभ्यते पर्याया ज्ञातव्याः, यत्पुनः श्चदशोत्तराणि १५ छेदराशि षष्टिः ६२ । तत्र दश नवभिः शेषमवतिष्ठते तदष्टादशभिः शतैः त्रिंशदधिकः संगुण्यते,सं- शतैः पञ्चदशोत्तरैर्गुण्यन्ते.जातान्येकनवतिशतानि पञ्चाशदगुणिते च तस्मिन् ततस्त्रयोदशभिः शतैर्युत्तरैरभिजित् शो धिकानि १५० । तेभ्यस्त्रयोदश शतानि उत्तरारयभिाजतः धनीयः, अभिजिभोग्यानामेकविंशतेः सप्तषष्टिभागानां द्वा शुद्धानि स्थितानि पश्चादष्टसप्ततिशतानि अष्टाचत्वारिंशः षष्ठथा गुणने एतावत्शोधनकस्य लभ्यमानत्वात् ततस्त दधिकानि ७८४८ । तत्र द्वाषष्टिरूपश्छेदराशिः सप्तषष्ट्या स्मिन् शोधने सप्तपष्टिसंख्याया द्वाषचस्तासां सर्वाग्रेण य गुण्यते, जाता येकचत्वारिंशच्छतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि द्भवति । किमुक्तं भवति ?--सप्तषष्या द्वाषौ गुणितायां ४१५४ । तैर्भागो हियते, लब्धमेकं श्रवणरूपं नक्षत्र, यद्भवति तेन भागे हृते यल्लब्धं जावन्ति नक्षत्राणि शुद्धानि, शेषाणि तिष्ठन्ति षत्रिंशच्छतानि चतुर्नवत्यधिकानि यम्पुनस्ततोऽपि भागहारणादपि शेषमवतिष्ठते तादृशं ३६६४ । एतानि मुहर्ताऽऽनयनार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, नक्षत्रं ज्ञातव्यं यत्र विवक्षितं पर्व समाप्तमिति । एष करणगा. जातमेकं लक्ष दश सहस्राणि अष्टौ शतानि विंशत्युत्तरा. थात्रयाक्षरार्थः। णि ११०८२० । तेषां छेदराशिना भागे हृते लब्धाः घड़िभावना त्वियम्-यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन सप्तष- शतिर्मुहूर्ताः २६. शेषाणि तिष्ठन्ति षोडशोत्तराणि श्रष्टाप्टिपर्याया लभ्यन्ते, तत एकेन पर्वणा किं लभामहे ? राशि- विंशतिशतानि २८१६। एतानि द्वापष्टिभागाऽऽनयनार्थ द्वात्रयस्थापना-१२४ । ६७।१ । अत्र चतुर्विशत्यधिकशतरूपो षष्ट या गुणयितव्यानि, तत्र गुणकारच्छेदराश्योाषष्ट्याराशिः प्रमाणभूतः, सप्तषष्टिरूपं फलं, तत्रान्स्येन राशिना उपवर्तना। तत्र गुणकारराशिरेककरूपो जातश्छेदराशिः स. मध्यराशिर्गुण्यने,जातस्तावानेव । तस्याऽऽद्येन राशिना चतु- तषष्टिः, तत्रैकेन उपरितनो राशिगुणिता जातस्तावाविंशत्यधिकेन शतेन भागहरणम् , स च स्तोकत्वाद्भागं न नेव, तस्य सप्तपष्टया भागे हृते लब्धा द्वाचत्वारिंशत् प्रयच्छति. ततो नक्षत्राऽऽनयनार्थमष्टादशभिः शतैत्रिशद- द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वौ सप्तषविकैः सप्तपष्टिभागरूपैर्गुणयिष्यामः । इति गुणकारच्छेदरा ष्टिभागौ , श्रागतं द्वितीयं पर्व, धनिष्ठानक्षत्रस्य पशिश्योरनापवर्तना, जातो गुण कारराशिनवशतानि पञ्चद तिमुहर्रान् , एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाचत्वारिंशतं द्वापशोत्तराणि ६१५, छे दराशिापष्टिः ६२ । तत्र सप्तपष्टिन प्टिभागानेकस्य च द्वापप्टिभागस्य द्वौ सप्तपष्टिभागी वशतैः पञ्चदशोत्तरैर्गुण्यते, जातान्येकषष्टिसहस्राणि त्रीणि मुक्त्वा समाप्तिमुपगच्छति । एवं शेषप्यपि पर्वसु सप्तापि शतानि पञ्चो सराण ६१३०५ । एतस्मादभिजितनयोदश नक्षत्राणि भावनीयानि । Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पव्व पव्व अभिधानराजेन्द्रः। तत्संग्राहिकाश्चमाः पूर्वाऽऽचार्यप्रदर्शिताः पञ्च गाथाः पूर्वाषाढाः ४८, एकोनपञ्चाशत्तमस्य रवि रविनामकदेवो पलक्षितं पुनर्वसुनक्षत्रम् ४६, पञ्चाशत्तमस्य श्रवणः ५०. "सप्प धणिट्ठा अजम, अभिवुड्डी चित्त त्रास दग्गी। एकोनपञ्चाशत्तमस्य पिता पितृदेवा मघाः ५१, द्विपञ्चारोहिणि जिट्ठा मिगसिर, विस्लादिति सवण पिउदेवा ॥१॥ शतमस्य वरुणदेवोपलक्षितं शतभिषक्नक्षत्रम् ५२, त्रि. अज अज्जम अभिबुढी, चित्ता श्रासी तहा बिसाहा उ । पञ्चाशत्तमस्य भगो भगदेवाः पूर्वफाल्गुन्यः ५३, चतुःपश्चारोहिणि मूलो अदा, बीसं पुस्सो धणिट्ठा य ॥२॥ शतमस्याभिवृद्धिदेवा उत्सरभद्रपदा ५४, पञ्चपञ्चाशत्तमस्य भग अज अज्जम पृसो, साई अम्गी य मित्तदेवा य। चित्रा ५५ , पद्पश्चाशत्तमस्याश्वो ऽश्वदेवा अश्विनी ५६ , हिणि पुब्वासाढा, पुणब्वसू वीसदेवा य ॥३॥ सप्तपञ्चाशत्तमस्य विशाखा ५७, अष्टपश्चाशत्तमस्थानिदेअहि बसु भगाभिवुड्डी, हत्थऽस्स विसाह कत्तिया जिट्ठा। वोपलक्षिता कृत्तिकाः ५८, एकोनषष्टित्तमस्य मूलम् ५६, सामाउरची सवणो, पिउ बरुण भगोऽभिवडी य ॥४॥ पष्टितमस्य पाद्री ६०, एकषष्ठितमस्य विष्वक विष्वग्देचित्ताऽसविसाहऽग्गी, मूलो अदा य विस्स पुस्सो । वा उत्तराषाढाः ६१ , द्वाषष्टितमस्य पुष्यः १२ । एतदुपसं. पर जुगपुब्बद्धे. विसट्ठिपवेसु नक्षत्ता ॥५॥ हारमाह-एतानि नक्षत्राणि युगस्य पूर्वार्द्ध यानि द्वापएतासां व्याख्या-प्रथमस्य पर्वणः समाप्तौ सर्पाः स ष्टिसंख्यानि पर्वाणि तेषु क्रमेण वेदितव्यानि । एवं प्रागुतपदेवतापलक्षितं नक्षत्रम् अश्लेपानक्षत्रम् १.द्वितीयस्य धनि करणवशादुत्तराद्धेऽपि द्वाषष्टिसंख्येषु पर्वस्ववगन्तव्यानि । ष्टा २, तृतीयस्थार्यमा अर्थमदेवतोपलक्षिता उत्तरफा- संप्रति कस्मिन् सूर्यमण्डले किं पर्व समाप्तिं यातीति चि. लगुन्यः ३, चतुर्थस्थाभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभद्र न्तायां यत्पूर्वाऽऽचार्यरुपदर्शितं करणं तदभिधीयतेपदा ४, पश्चमस्य चित्रा ५, षष्ठस्याऽश्वः अश्वदेवतोपल " सूरस्त वि नायब्बो, सगेण अयणेण मंडलविभागो।। क्षिता अश्विनी ६, सप्तमस्य इन्द्राग्निरिन्द्राग्निदेवतो- श्रयणम्मि य जे दिवसा, रूवहिए मंडले हवा ॥१॥" . . पलक्षिता विशाखा ७, अष्टमस्य रोहिणी , नवमस्य अस्या व्याख्या-सूर्यस्याऽपि पर्वविषयो मण्डलविभागी ज्येष्ठा , दशमस्य मृगशिरम् १०, एकादशस्य विश्वगदेवतो झातव्यः द्रष्टव्यः स्वकीयेनायनेन। किमुक्तं भवति?-सूर्यस्य स्वपलक्षिता उत्तराषाढा ११, द्वादशस्यादितिः अदितिदेवनो- कीयमयनमपेक्ष्य मिस्तस्मिन्मएडले तस्य पर्वणः परिसमा. पलक्षितं पुनर्वसु १२, त्रयोदशस्य श्रवणः १३, चतुर्दशस्य प्तिरवधारणीयेति । तत्राऽयने शोधिते सति ये दिवसा उपितृदेवता मघा १४ , पञ्चदशस्याजः अजादेवोपलक्षिता पूर्व द्वारेता वर्तन्ते तत्संख्ये रूपाधिके मण्डले तदीप्सितं प. भद्रपदा १५, पोडशास्यार्यमा अर्थमदेवतोपलचिता उत्तरफा- रिसमाप्तं भवतीति वेदितव्यम् । एषा करण गाथा क्षलान्यः १६, सप्तदशस्याभिवृद्धिरभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्त. रघटना । रभद्रपदा १७, अष्टादशस्य चित्रा १८, एकोनविंशतितम भावार्थस्वयम्-इह यपर्व कस्सिम्मएडले समाप्त मिति स्याश्वाऽम्वदेवतापलक्षिता अश्विनी १६, विशतितमस्य वि. ज्ञातुमिष्यते तत्संख्या धियते, धृत्वा च पञ्चदशमियुर पते, शाखा २०, एकविंशतितमस्य रोहिणी २१, द्वाविंशतितम- गुणयित्वा च रूपाधिका क्रियते, ततः संभवतोऽवमराश्यः स्य मूलम् २२, प्रयोविंशतितमस्य पार्दा २३, चतुर्विंश- पात्यन्ते, ततो यदि व्यशात्यधिकेन शतेन भागः पतति ताई तितमस्य विष्वम् विष्वग्देवतोपलक्षिना उत्तराषाढाः भागे हृते यल्लब्धं तान्ययनानि शातव्यानि, कवलं या पश्चा२५. पञ्चविंशतितमस्य पुष्यः २५, पविशतितमस्य ध. दिवससंख्याऽवतिष्ठते, तइन्तिमे मण्डले विवक्षितं पर्व समानिष्ठा २६, सतविंशतितमस्य भगो भगदेवतोपलक्षिताः प्तमित्यवीयम् । उत्तरायणे वर्तमाने बाह्यमण्डमादिः कर्तपूर्वफाल्गुन्यः २७, अष्टाविंशतितमस्याऽजो अजदेयतोप- व्यं,दक्षिणायन च सर्वाभ्यन्तरमिाते संप्रति भावना क्रियतलक्षिताः पूर्वभद्रपदाः २८, एकोनविंशत्तमस्यार्यमा अर्यमा- तत्र कोऽपि पृच्छति-कस्मिन् मण्डले स्थितः सूर्यो युगे प्रथम देवता उत्तरकाल्गुन्यः २६, त्रिशत्तमस्य पुष्यः, पुष्पदेवता- पर्व समापयतीति ?। इह प्रथमपर्व पृष्टमित्येकको ध्रियते, स का रेवती ३०, एकत्रिंशत्तमस्य स्वातिः ३१, द्वाविंशत्तम- पञ्चदशभिर्गुण्यते, जाताः पञ्चदश अत्रैकोऽप्यवमरात्रो न स्थाग्निरग्निदेवतोपलक्षिता कृत्तिकाः ३२, त्रयस्त्रिंशत्तम- संभवतीति तत् किमपि पास्यते, ते च पञ्चदश रूपाधिकाः म्य मित्रदेवा मित्रनामा देवो यस्याः सा तथा अनुराधा क्रियन्ते, जाताः षोडश युगाऽऽदौ च प्रथमं पर्व दक्षिणायने इत्यर्थः ३३, चतुस्प्रिंशसमस्य रोहिणी ३४, पञ्चविंशत्तम- तत् आगतं सर्वाभ्यन्तरमगडलमादं कृत्वा षोडशमण्डले प्र. स्य पूर्वाषाढा ३५, पत्रिंशत्तमस्य पुनर्वसुः ३६. सप्त- था पर्व परिसमाप्तामति । तथाऽपरः पृच्छति-चतुर्थ पर्व विशत्तमस्य विष्वग्देवा उत्सरापाढा ३७, अष्टात्रिंशत्तमस्या- कस्मिन् मण्डले परिसमामोतीति तत्र चतुष्को ध्रियते, हिरहिदेवतोपलक्षिता अश्लेषा ३८, एकोनचत्वारिंश- धृत्वा च पञ्चदशभिर्गुग यते, जाता षष्टिः, अत्रैकोऽयमसमस्य वसुर्वसुदेवापलक्षिना धनिष्ठा ३६ , चस्वारिं- रात्रः संभवतीत्येकः पात्यते, जाता एकोनपटिः ५६ । शतमस्य भगा भगदेवाः पूर्वफाल्गुन्यः ४०, एकच- सा भूयोऽप्येकरूपयुता क्रियते, जाता पष्टिः, श्रागनं सर्वावारिंशत्तमस्याभिवृद्धिराभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभद्रप- भ्यन्तरमरा उलमादिं कृत्वा पटितसे मण्डले चतुर्थ पर्व समा दा ४१, द्वाचत्वारिंशत्तमस्य हस्तः ४२, त्रिचत्वारिंशत्तम- प्तमिति । तथा पञ्चविंशतिनमपर्वजिशासायां पचविशतिः स्थाश्वेोऽश्वदेवा अम्बिनी ४३ , चतुश्चत्वारिंशत्तमस्य वि- स्थाप्यते, सा पञ्चदशभिर्गगयते, जातानि श्रीणि शनानि शाखा ४४, पञ्चचत्वारिंशत्तमस्य कृत्तिका ४५ , पदचत्वा. पञ्चसप्तत्यधिकानि ३७५। अब षडवमरात्रा जाता इति पद शित्तमस्य ज्येष्ठाः ४६ . सप्तचत्वारिंशत्तमः सामदवालक्षि | शोध्यन्ते.जातानि त्रीणि शतानि एकोनसनत्यधिकानि ३६६, तं मृगशिरोनक्षत्रम् ४७, अष्टाचत्वारिंशत्तमस्यायुरायुर्देवा । तब व्यशीत्यधिकेन शतेन भागो व्हियते, लब्धी पश्चात्ति Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०३) अभिधानराजेन्द्रः। पव्व पव्य प्ठन्ति त्रीणि, तानि रूपयुतानि क्रियन्ते, जातानि चत्वारि, शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चादष्टादशशतानि सप्तचत्वारिंशदयौ च द्वौ लब्धौ, ताभ्यां वे अयने दक्षिणायनोत्तरायण- धिकानि १८४७/ताउछेदगशिर्वाषष्टिरूपः सप्तपथा गुण्यरूपे शुद्धे. तत आगतं तृतीये अयने दक्षिणायनरूपे सर्वा- ते. जातानि एकचत्वारिंशच्छतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि भ्यान्तरमण्डलमादि कृत्वा चतुर्थे मण्डले पञ्चविंशति- ४०५४, तैर्भागी हियते, तत्र राशेः स्तोकत्वाद्रागो न लभ्यते, तमं पर्व परिसमाप्तमिति चतुर्विशत्यधिकशततमपर्वजिज्ञा- ततो दिवसा आनेतव्याः, तत्र छेदराशियष्टिरूपः परिपूसायां चतुर्विशत्यधिकं शतं स्थाप्यते, तत्पश्चदशभिर्गुण्यते । नक्षत्राऽऽनयनार्थ हिदापएिसप्तपश्या गुणितः,परिपूर्व च जातान्यष्टादश शतानि षष्ट्यधिकानि १८६०. चतुर्विशत्यधि- । नक्षवमिदानीं नाऽऽयाति, ततो मूल एच द्वापष्टिरूपच्छेदराके पर्वशते च त्रिंशदवमरात्रा भूता इति त्रिंशत्पात्यते, शिः केवलं पञ्चभिः सप्तपष्टिभागैरहोरात्रो भवति, ततो दि. जातानि पश्चादष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि १८३०. तानि | बसाऽऽनयनाय द्वाषष्टिः पञ्चभिर्गुण्यते, जातानि त्रीणि शरूपयुतानि क्रियन्ते,जातान्यपादश शतान्येकत्रिंशदधिकानि तानि दशोत्तराणि ३१०, तैर्भागो हियते, लब्धाः पञ्च दि. १८३१ । तेषां व्यशास्यधिकन शतेन भागे हृते लब्धानि वसाः, शेषास्तिष्ठन्ति द्वे शते सप्तनवत्यधिके २६७, ते मु. दशायनानि, पश्चादवतिष्ठते एकः दशमं च अयनं युगपर्यः | हर्ताऽनयनार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, तत्र गुणकारच्छेदराश्योः ते उत्तरायणं, तत आगतमुत्तरायणपर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरे शम्येनाऽपवर्त्तना, जातो गुणकारराशिस्निकरुपश्छदरामण्डले चतुर्विशत्यधिकशततमं पर्व समाप्तमिति । शिरेकत्रिंशत् तत्त्रिकेनोपरितनो राशिगुण्यते, जातान्यपी संप्रति किं पर्व कस्मिन् सूर्यनक्षत्रे समाप्तिमधिगच्छति शतान्येकनवत्यधिकामि ८१, तेषामेकत्रिंशता भागी हिएतन्निरूपणार्थ यत्पूर्वाऽऽचार्यैः करणमुक्तं तदुपदर्श्यते यते, लब्धा अष्टाविंशतिमुहर्ताः २८, एकस्य च मुहूर्तस्थ त्रयोविंशतिरेकात्रंशद्धगाः ३३ श्रागतं प्रथमं पर्व अश्लेषा"चउवीससयं काऊ-ण पमाणं पजए य पंच फलं। नक्षत्रस्य पश्चदिवसाय च दिवसस्याटाविंशतिमुहइच्छापब्धेहि गुणं काऊणं पजया लद्धा ॥१॥ नेिकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतिमेकत्रिंशद्भागान भुक्त्वा अट्ठारस य सरहिं, तीसहि सेसगम्मि गुणियम्मि । समाप्तम । अथ वा-पुष्ये शुद्धे यानि स्थितानि पश्चादटासत्तावीससएसु. अट्ठावीससु पुस्तम्मि ॥२॥ दशशतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि १८४७, तानि सूर्यमुहसत्तट्ट विसट्ठीणं, सब्बग्गेण तश्री उजं सेसं । ऽऽनयनाय विशता गुण्यन्ते जातानि पञ्चपञ्चाशत्सहतं रिक्खं सूरत उ, जत्थ समत्तं हवइ पव्वं ॥ ३॥" स्राणि चत्वारि शतानि दशोत्तराणि ५५४१०, तेषां प्रागक्लेन एतासां तिसृणां गाथानां क्रमेण व्याख्या-त्रैराशिकविधौ | छेदराशिना ४१५४,भागो हियते लब्धास्त्रयोदश मुहूर्ताः १३, चतुर्विशत्यधिकशतं प्रमाणं प्रमाणराशि कृत्वा पञ्च पर्याः | शेषाणि तिष्ठन्ति चतुर्दशशतान्यष्टोत्तराणि १४०८, ततोऽमू. यान् फलं कुर्यात्कृत्वा च ईप्सितैः पर्वभिर्गुणं गुण कारं नि द्वापष्टिभागाऽऽनयनार्थ द्वापट या गुणयितव्यानि, गुणकाविदध्यात्, विधाय चाऽधेन राशिना चतुर्विशत्यधिकश-| .रच्छेदराश्योः द्वाषष्टया उपवर्सना,तत गुणकारराशिरककरूतरूपण भागो हर्नव्यो, भागे हृते यल्लब्धं ते पर्यायाः शुद्धाः पः छेदराशिसप्तषष्टिरूपः,तत्र एकेन गुणितो राशिस्तावानेन ज्ञातव्याः. यापुतः शरमवतिनुते तवष्टादशभिः शतैः विशद जातः १४०८. तस्य सप्तकृया भागी हियते, लब्धा एकनिधिकैर्गर बने. गुणिते च तस्मिन् सप्तविंशतिशतेषु अष्टावि- शतिः २१ द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य, एकस्य च द्वापष्टिभागस्थ शत्यधिकेषु शुद्धेषु पुष्यः शुद्धयति, तस्मिन् शुद्ध सप्तपपिसं. एकसप्तपष्टिभागः, तत आगतं युगस्याऽऽदी प्रथम पर्व. अ. ख्यायाद्वापएयः, तासांसाग्रेण यद्भवति । किमुक्तं भवति? मावास्यालक्षणमपानक्षत्रस्य त्रयोदशमुहर्तस्थ एकविसप्तपट्या द्वाषौ गुणितायां यद्भवति तेन भागे इते शतिहापष्टिभागानेकस्य च द्वापष्टिभागस्य एक सप्तपष्टियल्लब्धं तावन्ति नक्षत्राणि शुद्धानि द्रष्टव्यानि, यत्पुनस्त- भागं भुक्त्वा सूर्यः समायाति । तथा च वक्ष्यति-"ता ए. तोऽपि भागहरणादपि शेपमवतिष्ठते तदनं सूर्यस्य संब. एसि ण पंचएहं संवच्छगणं पढमं अमावासं चंदे केणं नधि एज्यं यत्र विवक्षितं पर्व समाप्तमिति। एष करणगा-| क्खत्तणं जोएइ?। ता अलिले साणं एके मुहुत्ते चत्तालीसं वात्रथात्रयाक्षरार्थः । द्विभागा मुहुत्तस्स वावट्ठिभागं च सत्तट्ठिहा छित्ता छायट्टि चुभावना त्वियम्-यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च मिश्रा सेसा।तं समयं च णं मूर केणं नक्वत्तेणं जाए। ता सूर्यनक्षत्र पर्याया लभ्यन्ते, तत एकेन पर्वणा किं लभामहे । असिलेसाहिं चेव असिलेसाणं एक्को मुहुत्तो चत्तालीसं वा. राशित्रयस्थापना-१२४ ॥ ५॥१। अत्रान्वेन राशिना मध्यरा- चट्ठिभागा मुहुत्तस्स वावट्ठिभागं च सत्तष्टुिहा छत्ता छाया शिण्यते, जातस्तावानव पञ्चकरूपः, तस्याऽऽधेन राशिना | चुणिया सेसा।" इति । तथा यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्यशचतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागहरणं. स च स्तोकवाद्भागं न तेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां पर्वभ्यां कि प्रय छति, तनी नक्षत्राऽऽनयनार्थम् अष्टादशभिः रात्रि- लभामहे ? । राशित्रयस्थापना ।१३४.५.२२ अपान्त्यन राशिमा शदधिकैः सप्तपविभागैर्गुणयिध्याम इति गुणकारच्छे- द्विकलक्षणन मध्यराशिः पञ्चकरूपो गरायते, जाता दश १०, दरारपोरद्धेनाऽपवर्तना, जातो गुणकारराशिनवशता. नेपामाद्यन राशिना भागहरणं ने च तोकत्वाद्भागं न प्रयनि पञ्चदशोत्तराणि ६१५छदराशिषिष्टिः १२ । तत्र कछन्ति, तनो नक्षत्राऽऽनयनार्थमष्टादशभिः शतैत्रिशदपञ्च नवभिः शनैः पञ्चदशोत्तरेगुगपन्ते, जातानि पञ्चच- विकैर्गुणयितव्या इति गुणकारच्दराश्याग्द्धनापवर्तना त्वारिंशच्छतानि पश्चसप्तत्याधिकानि ४५७५ । पुण्यस्य च जातो गुगकारराशिनवशनानि पश्चदशा नराणि ११५ । चतुश्चत्वारिंशद्भागा द्वापट्या गुण्यन्त. जातानि सप्तविंश छेदराशि पणिः ६२, तत्र नवभिः शनैः पञ्चदशासरर्दश निशतानि अष्टाविंशत्यधिकानि २७२८ । एतानि पूर्वराशेः ' गुणवन्त, जातानि एकनवतिशतानि पञ्चाशत्तराणि ६१५०, Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८०४ ) अभिधानराजेन् पच्च 1 तेभ्यः सप्तविंशतिशतान्यष्टाविंशत्यधिकानि पुष्यसत्कानि शोध्यन्ते स्थितानि पानाधिका नि ६४२२, छेदराशिष्टिरूपः समष्ट्या गुण्यते. जातायेक स्थानानि चनुःपञ्चाशदविकानि ४२२५र्भागो हियते, लब्धमेकं नक्षत्रं तच्चाश्लेषारूपमश्लेषानक्षयं चार्द्धक्षेत्रमत एतद्वताः पञ्चदश सूर्यमुद्धर्ता अधिका बेतिया गवानितिज्ञाविंशतिश कानि २२१० तती महतो नयनार्थमेतानिन् जानाम्यष्टसिबियारिंशदधिकशते राशिना ४१५४ भागो हियते लग्या पोरा सूर्यम १३.पानिपतत्यधि कानि १५७६, तानि द्वाषष्टिभागाऽऽनयनार्थ द्वापष्ट्या गुणयितव्यानीति गुणकारच्छेदराश्योपिष्ट्वाऽपवर्तना, जातो गुणकारशशिरेकरूपः शिपिि नो राशिरेकेन गुणितस्तावानेव जातः, तस्य सप्त भांग हुने प्यापोनिक व द्वापरमागस्य पञ्चत्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः ३५, तत्र ये लग्याः पोडश मुहर्त्ता ये वोइरिताः पश्चात्याः पञ्चदश मुङ्कर्तास्ते एकत्र मील्यन्ते जाता एकत्रिंशत् ३१, तत्र त्रिंश मथाशुद्ध पधारयेः सूत जागी पर्व श्रावणमास भाविप पूर्वफाल्कं स्वस्य प्रयोवियति शपरिभागानेकस्य द्वापरिभागरूप पञ्चपिभावाना पति तथा तराई बच्छरा पढमं पुरणमासी चंदे केणं नक्ख तें जोइ ? | नाहिं तिन्नि मुहुत्ता एगुणवीसंत्र वासि भागा मुद्दन्तस्स वासडिभागं समडिहा तापसी खुसिया भागा सेना । तं समयं च सूरेकेणं नवणं जोए ?। ता वादी मुता भावी व पानावाना वसन डिहा देता बतीलं दुणिया भागा सेसा ।" इति । तथा यदि शनि पर्वतेन पञ्च सूर्यन पाल भ्यन्ते ततस्त्रिभिः किं लभामहे ।। राशिय थापना - १२४३ अत्रान्त्येन राशिना त्रिकलक्षणेन मध्यो राशिः पञ्चकरूपो गुरपते जानाः पञ्चदश १५. तेयामायेन राशिना भागह तराशेः स्तोकत्वाद्भागी न लभ्यते ततो नक्षत्राऽऽनयता मराः समाविध्यान इनि गुणकार वार्ता जाती गुणकार यशानितराणि २१५. रा६ि२ नत्र निःशर पारा तपस्ते जातानि जयादश सहस्राणि सप्तशतानि पञ्चविंशत्यधिकानि १३७२५, तेभ्यः सतविशतिशतान्यधिकारने पुण्यसत्कानि शोध्यन्ते स्थितानि पश्चादशसहस्राणि नवशतानि सप्तनयत्यधिकानि १०६६७, छंदराशिद्वरूपः पट्या जातान्यनि aria ४९५४ नैर्भागो हिवते. लक्ष्ये हे नक्षत्रे २ । नेपा सूर्यगुती उदारता तव्याः । शेषाणि निपुन्ति विशत्यधिकति 1 सुह पव्व २६२ ssनयनार्थ शिता गुण्यन्ते. जातान्यशीतिसहस्राणि पश तानि सस्यधिकानि तेषां राशिना ४१५४ भागोन्दियते लब्धा एकोनविंशतिमुहूर्त्ताः १६ | शेपाराय पतिष्ठन्ते सप्तदशतानि चतुः चत्वारिंशदधिकानि ९७४४ पतानि द्वापट्टिभागानयनार्थ पष्ट्रा नीति कारवार्ता जाती - रेकरूपः, छेदराशिः सप्तपष्टिः ६७, तत्रीपरितनो राशिरेकेन गुणितस्तावानेव जातः १७४४ । तस्य सतपष्टया भा गोव्हियते लब्धाः पट्टिशतिषष्टिभागा एकस्य च द्वाप ष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागी देई । तब ये लब्धा एकोनविंशतिर्मुहूर्ताः ये चोङरिताः पाश्चात्या पञ्चदश मुहर्ता: ते एकत्र जाता शासनफाल्गुनी शुद्धा, शेवास्तिष्ठन्ति चत्वारो मुलीस्तत श्रागतं तृतीयं पर्व भाद्रपदगतममावास्यारूपम् उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रस्य चत्वारो मुहर्त्तानिकस्य व मुहूर्त्तस्य पडिशतं परिभा गानेर चापभागस्य ही समष्टिभागी मु परिसमापयति । तथा च वदति-" ता एस से पंचरहे संवछराणं दोघं श्रमावासं वंदे केणं नक्ते ओपता उत्तरा फम्द उत्तरकरगुणीं बता मुहत्ता पणतीसं बावट्टिभागा मुहुत्तस्स चाभागं च सट्टा देता परासी भागा सेला तं स मयं च णं सूरे एवं केलं नक्वते जोएइ ? ता उत्तरादिचैव फग्गुणीहि उत्तरा फग्गुणी मु ता पणती व पावहिनागा मुडुत्तस्य पाया च महिंदा ऐसा पट्टी भागा सेना" इति ए यं समापकाम्यपि सूर्यनारायानेनि । अथ चेदं पर्वसु सूर्यनक्षत्र परिज्ञानार्थं पूर्वाऽऽवापदर्शितं करणम् तिली मुस्ि दुसरा भागा परि ॥ १ ॥ इच्छापणार्थ, वरासीओ व सह कृण साई फमसी जमिनी२॥ उगवीसंच मुहुत्ता, तेयालीसं विसट्टिभागा य । तेतीसचुरिणयाओं, पूलस्स य सोहणं एयं ॥ ३ ॥ उपास उत्तर-परंतु दो विसासु चत्तारि तवोनर उतरा साढाग सांझाणि ॥ ४ ॥ सरप चावडी छागा, बत्तीसं दुरिया भागा । ५ ॥ उगुणतरं पंचसया, उत्तरभवय सन उगुवीसा । रोहिगि अनयोर मानि ॥ १ ॥ असा उबीसासट्टिभागा योति चडवी । छावडी सत्तड्डी, भागा पुस्तस्त सोही ॥ ७ । " एतासां क्रमेण व्याख्या-वयस्त्रिंशही एकस्य व मुहर्त्त स्पी द्वाष्टभावकस्वाभाि चूर्णिका भागाः ३३०२२३४ एवं सर्वे केन पणा वादन. यराशिः पर्वषुपए पतिति यदि नविन पशन सूर्यनक्षत्र पर्याया लभ्यतन एक पर्वा किं लभामह । ग. शिव्यस्थापना- १२४|४|१| अन्त्येन राशिना म Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०५) पव्व अनिधानराजेन्द्रः। पव्व ध्यराशिर्गुण्यते,जातः स तावानेव,"एकेन गुणितं तदेव भव- शुख्यन्तीति भावार्थः। तथा (उगुणत्तरेत्यादि) एकोनसप्तानि ति" इति षचनात् ततः चतुर्विशत्यधिकेन पर्षशतेन भागो एकोनसप्तत्यधिकानि पञ्च मुहूर्तशतानि उत्सरभद्रपदानामु. व्हियते, तत्रोपरितनराशेः स्तोकत्वाद् भागोन लभ्यते, लब्धा तरभद्रपदान्तानां शोभ्यानि ५६६,तथा सप्तशतान्येकोनविंशएकस्य व सूर्यनक्षत्रपर्यायस्य पञ्चचतुर्विशत्यधिकशतभागाः, त्यधिकानि ७१६, रोहिणीपर्यन्तानां शोध्यानि पुनर्वसुपर्यन्ते तत्र नक्षत्राणि कुर्म इत्यष्टादशभिः शतैः त्रिंशदधिकैः सप्तष अप्टौ शतानि नवोत्तराणि ८०६ शोध्यानि । (भट्टसपत्याष्टिभागैः पञ्च गुणयिष्याम इति गुणकारच्छेदराश्योरःनाप दि) अष्टौ शतान्येकोनविंशानि एकोनविंशत्यधिकानि मुवर्तना,जाती गुणकारराशिनवशतानि पञ्चदशोत्तराणि ६१५, इन्नामेकस्य च मुहर्तस्य चतुर्विंशतिद्वाषष्टिभागा ए. छेदराशि षष्टिः ६२, तत्र नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरः पञ्च कस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्पष्टिसप्तषष्टिभागा इति गुण्यन्ते, जातानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि पुष्यस्य शोधनकमेतावता परिपूरर्णमेको नक्षत्रपर्यायः ४५७५, एतानि मुहाऽऽनयनार्थ त्रिशता गण्यन्ते, जातमेकं शुद्धयतीति तात्पर्यार्थः । एष करणगाथाऽक्षरार्थः। लक्षं सप्तत्रिंशत्सहस्राणि वे शते पञ्चाशदधिके १३७२५०, संप्रति करणभावना क्रियते-तत्र कोऽपि पृच्छते-प्रथम छेदराशिश्च द्वाषष्टिरूपः सप्तषष्ट्या गुण्यते, जातान्येकच. पर्व कस्मिन् सूर्यनक्षत्रे परिसमाप्तिमुपैति ?, तत्र ध्रुवराशित्वारिंशच्छतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि ४१५४, तैर्भागो त्रयस्त्रिंशन्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागानेक हियते. लब्धास्त्रयस्त्रिंशन्मुहूर्ताः ३३, शेषं तिष्ठत्यषष्ट्य स्य च द्वापष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागा इत्येवंरूधिकं शतम् , १६८, एतत् द्वापष्टिभागाऽऽनयनार्थ द्वाषष्ट्या पो ध्रियते ३३॥ २॥ ३४ । धृत्वा चैकेन गुण्यते-" एकेन गुणयितव्यमिति गुणकारच्छेदराश्योाषष्ट्याऽपवर्तना, जा गुणितं तदेव भवति ।" ततः पुष्यशोधनकमेकोनविंशतिता गुणकारराशिरेकरूपः छेदराशिः सप्तषष्टिरूपः "एकेन मुहर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशद्वापष्टिभागा च गुणितं तदेव भवति " ततोऽएषष्ट्यधिकमेव शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागा इत्येवंजातं,तस्य सप्तवष्ट्या भागो हियते, लब्धौ द्वा द्वापष्टिभागौ, प्रमाणं शोध्यते, ततःस्थितात्रयोदश मुहूर्ता एकस्य च मुहू. एकस्य च द्वावष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशत्सप्तपष्टिभागा इति। तस्य एकविंशतिौषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य (इच्छापब्वे इत्यादि) इच्छाविषयं यत् पर्व पर्वसंख्यानं त एकः सप्तपप्टिभागः १३१२११॥ तत आगतमेतावदश्लेषानदिच्छापर्व, तद्गुणो गुणकारो यस्य ध्रुवराशेस्तस्मात् । कि. क्षत्रस्य सूर्यो भुक्त्वा प्रथमं पर्व श्रावणमासभाव्यमावास्यामुक्तं भवति?-इप्सितं यत् पर्व तम्सख्यया गुणितात् ध्रुवराशेः लक्षणं परिसमापयतीति द्वितीयपर्व चिन्तायाम् स एव ध्रुवपुष्याऽऽदीनां नक्षत्राणां क्रमशः क्रमेण शोधनं कुर्याद्यथादिष्ट य राशिः। ३३।२।३४ । द्वाभ्यां गुण्यते जाताः षट्पष्टिमुथाकथितमनन्तशानिभिः। कथं कथितमित्याह-"उगवीसंच" हूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चापष्टिभागाः, एकस्य च इत्यादि गाथा एकोनविंशतिमुहूर्ताएकस्य च मुहर्तस्य त्रिच. द्वापष्टिभागस्य एकसप्तषष्टिभागाः ६६।५।१। एतस्माद्य. स्वारिंशत्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशन्चू थोदितप्रमाणं १६०४३।३३। पुष्यशोधनं शोध्यते, स्थिताः पणिकाभागाः६४३॥३३॥ एतदेतावत्प्रमाणं पुष्यशोधनकम्। क श्वारषट्चत्वारिंशन्मुहूर्ताः त्रयोविंशतिद्वाषप्टिभागाः मुहूर्तथमेतावतः पुष्यशोधनकस्योत्पत्तिरिति चेत् ? उच्यते इह पा स्प, एकस्य च हापष्टिभागस्य पञ्चाशत्सप्तपाष्टिभागाः श्वात्ययुगपरिसमाप्ती पुष्यस्य त्रयोविंशतिसप्तपष्टिभागा ग ४६ । २३ । ३५ । ततः पञ्चदशभिर्मुहूरलषा शुताः,चतुश्चत्वारिंशदवतिष्ठन्ते,ततस्ते मुह नयनाथ त्रिंशता द्धा त्रिंशता मघाः, स्थितः पश्चादेको मुहूर्तः, तत प्रागतं गुण्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि विंशत्यधिकानि १३२०, द्वितीयं पर्व पूर्वफाल्गु नक्षत्रस्यैकं मुहूर्तमेकस्य च मुहतेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धा एकोनविंशतिर्मुहर्ताः तस्य त्रयोविंशतिषिष्टिभागानेकस्य च द्वापष्टिभागस्य प. १६, शेषास्तिष्ठन्ति सप्तचत्वारिंशत् ४७, सा द्वापष्टिभागा चत्रिशतं सप्तपष्टिभागान् भुक्त्वा सूर्यः परिसमाप्ति नयनयनार्थ द्वाषष्ट्या गुण्यते,जातान्येकोनत्रिंशत्शतानि च. ति, तृतीयपर्वचिन्तायां स एव ध्रुवराशिः ३३ । २।३४ । त्रि. तुर्दशोत्तराणि २६१४, तत एतेषां सप्तपट्या भागो हियते, भिर्गुण्यते जाता नवनवतिमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य स. लब्धास्त्रिचत्वारिंशत् द्वापष्टिभागाः,एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सद्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पश्चत्रिंशत्सप्तषप्रयस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागा इति । (उगुयालसयमित्यादि) ए. प्टिभागाः ६६७।३५ । एतस्मात्पुण्यशोधनं १६।४३।३। कोनचत्वारिंशमेकोनचत्वारिंशदधिकं मुहर्तशतमुत्तरफा शोध्यते, स्थिताः पश्चादेकोनसप्ततिमुहर्ताः, एकस्य च मुह. लानीपर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यं १३६, द्वे शते एकोनषष्ट्य. तस्य पदिशतिहापष्टिभागाः, एकस्य च धापष्टिभागस्य धिके विशाखापर्यन्तेषु शोध्ये २५६, चत्वारि मुहूर्तशतानि न द्वौ सप्तपष्टिभागौ ६६२६ । २। ततः पञ्चदशभिर्मुहूर्तरलेवोत्तराणि उत्तरापाढानामुत्तराषाढापर्यन्तानां नक्षत्राणां शो षा त्रिंशता मघा त्रिंशता पूर्वफाल्गुनी स्थिताः, पश्चाथध्यानि ४०६,(सब्बत्थेत्यादि) एतेषु सर्वेष्वपिशोधनेषु यत्पुण्य स्वारी मुहर्ता आगतं तृतीयं पर्व भाद्रपदामावास्यारूपस्य मुहत्तभ्यः शेष त्रिचत्वारिंशत्मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागाः, ए. मुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रस्य चतुरो मुहूर्तानेकस्य च मुहर्तस्य कस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत्सप्तपष्टिभागा इति तत्प्र पडिशतिहाष्टिभागान् , एकस्य च कापष्टिभागस्य द्वौ सत्येकं शोधनीयम्,तथा अभिजितश्चत्वारि मुहूर्तशतानि एको सपष्टिभागी भुक्त्वा सूर्यः परिसमापयति । एवं शेषपर्वस्वनविंशान्येकोनविंशत्यधिकानि षवापष्टिभागा मुहर्तस्यैक. पि सूर्यनक्षत्राणि वेदितव्यानि । स्य च द्वापष्टिभागस्य द्वात्रिंशञ्चूमिका भागाः सप्तपष्टिभागा तत्र युगपूर्वार्द्धभाविधाष्टिपर्वगतसूर्यनक्षत्रसूचिका इमाः इति शोध्यम् । एतावता पुष्यादीन्यभिजिदन्तानि नक्षत्राणि | पूर्वाऽऽचार्योपदर्शिता। गाथाः__ " सप्प भग अजमदुगं, हत्थो चित्ता विसाह मित्तो य । Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८०६ ) अभिधानराजेन्द्रः | पव्त्र जेट्टाइगं च छकं, अजाऽभिवृड्डी दु पूसाऽऽसा ॥ १ ॥ कलियाई पि मग अजमदुर्ग व चित्ता व । घाउ विसादारा- जे आई च वीसु दुगं ॥ २ ॥ सवण घट्ठिा अजंदे-य अभिबुद्धिदु अस्स जमबहुला । रोहिणि सोमऽदिदुगं, पुस्लो पिइभगजमा हत्थो ॥ ३ ॥ चित्ता व जिदुवा, अभिई अंताविध रिक्वाणि । एए जुगपुब्बजे, विसेट्ठि पव्वे सरिक्खाणि ॥ ४ ॥ एतासां व्याया प्रथमस्य पर्वणः समाप्ती सूर्यनक्षत्रं स पैः सर्पदेवतोपलक्षिताः अश्लेषा १, द्वितीयस्य भगो भ गदेवतीपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः २ ततः अर्यमद्विकमिति तृतीयस्य पर्वणो ऽर्यमदेवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः ३. चतुर्थस्याऽप्युत्तरफाल्गुन्यः ४, पञ्चमस्य हस्तः २, पशुप चित्रा ६, सप्तमस्य विशाखा ७ श्रष्टमस्य मित्रो मित्रदेवतोपलक्षिता अनुराधा ततो ज्येष्ठादिकं पद क्रमेण यक्तव्यम् । तद्यथा-नवमस्य ज्येष्ठाः ६, दशमस्य मूलम् १०, एकादशस्य पूर्वाषाढा ११ द्वादशस्योत्तराषाढा १२ त्रयोदशस्य अवणः १३, चतुर्दशस्य घनिष्ठा १४, पञ्चदशस्याजोऽजादेवसोपलक्षिता पूर्वभाद्रपदा १४. पोडशस्यामिदिरभिवृद्धि देवतोपलक्षिता उत्तरभाद्रपदा १६ सप्तदशस्योत्तरभाद्रपदा १७. अष्टादशस्य पुण्यः पुष्यदेवतोपलक्षिता रेवती १८ ए कोनविंशतितमस्याश्वोऽश्वदेवतोपलक्षिता अम्बिनी १६ पहूं व कृतिका 55 द्दिकमिति विंशतितमस्य कृत्तिकाः २०, एकविंशतितमस्य रोहिणी २१ शविंशतितमस्व मृगशिरः २२, त्रयोविंशतितमस्या २२, चतुर्विंशतितमस्य पुनर्वसु २४, पञ्चविंशतितमस्य पुष्यः २५, षडिशतितमस्य पितरः पितृदेवतोपलक्षिता मघाः २६, सप्तविंशतितमस्य भगो भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः २७. अटाविंशतितमस्यार्थमा अर्थमदेवा उत्तरफाल्गुन्यः २२ एकोनविंशत्तमस्याप्यु त्तरफाल्गुन्यः २६, त्रिंशत्तमस्य चित्त्रा ३०, एकत्रिंशत्तमस्य वायुर्वायुदेवतोपलक्षिता स्वाति ३१ समस्य विनाखाः ३२,जयशिवमस्यानुराधा ३३, चतुस्त्रिंशत्तमस्य ज्येष्ठा २४. पतिमस्य पुनरायुरायुर्देवतोपलक्षिता पूर्वाषाढा ३५, पशित्तमस्य विष्वग्देवा उत्तराषाढा ३६, सप्तत्रिसमस्याप्युत्तराषाढा: ३७, अष्टात्रिंशत्तमस्य श्रवणः ३८, एकोनचत्वारिंशत्तमस्य धनिष्ठा ३६ चत्वारिंशत्तमस्यादेवतोपलक्षिता पूर्वभङ्गपदा ४०, एकचत्वारिंशसम स्याभिवृद्धिरभिवृद्धिदेवा उत्तरभाद्रपदा ४१, द्वाचत्वारिंशसमस्याप्युत्तरभाद्रपदा ४२, त्रिचत्वारिंशत्तमस्याश्वो ऽश्वदेवा अविमी ४३, चतुश्चत्वारिंश समस्य यमो यमदेवा भरणी ४४, पचत्वारिंशत्तमस्य पहला कृतिका ४४. पंद चत्वारिंशत्तमस्य रोहिणी ४६, सप्तचत्वारिंशत्तमस्य सोमः सोमदेवोपलक्षितं मृगशिरः ४७ अदितिद्विकमिति भए यत्वारिंशसमस्यादितिरदितिदेवोपलक्षितं पुनर्वसु नक्षत्रम् ४८. एकोनपालमस्यापि पुनर्वसु नक्षत्रम् ४६ पञ्चाश तमस्य पुष्णः ५०, एकपञ्चाशत्तमस्याऽपि पितृदेवा मघा ५१, द्वापञ्चाशत्तमस्य भगो भगदेवतोपलक्षिता पूर्वफाल्गुन्यः २२ स्पार्यमा अर्थमदेवतोपलक्षिता उत्तरफालगुन्यः ५३, चतुःपञ्चाशत्तमस्य हस्त ५४ श्रत ऊर्द्ध चित्रा. दीनि अभिजित्पर्यन्तानि वेष्ठा नक्षवाणि कमे वक्तव्यानि । तद्यथा - पञ्चपञ्चाशत्तमस्य चित्रा ५५, षट्पञ्चा शत्तमस्य स्वातिः ५६, सप्तपञ्चाशत्तमस्य विशाखा ५७, अष्टपञ्चाशत्तमस्य अनुराधा ५८, एकोनषष्टितमस्य मूलः ५६ षष्टितमस्य पूर्वाषाढा ६०, एकषष्टितमस्योत्तराषाढाः ६१, द्वाषष्टितमस्याभिजिदिति ६२ । एतानि नक्षत्राणि युगस्य पूर्वा द्वाषष्टिसंकपेषु पर्वसु यथाक्रममुक्ानि । पतं करणवशेन युगयोत्तरार्द्धऽपि द्वापटिसंख्येषु पर्वसु ज्ञातव्यानि कि पर्व वरमदिवसे किवत्सु ग्रहषु गतेषु समाप्तिमियतीत्येतद्विषयं यत्करणमभिहितं पूर्वाऽऽचार्यैस्तदभिधीयते " चउहिँ अहियम्मि पथ्ये, एके सेसम्मि होर कलिगो येसु यदावरजुम्मो, तिसु तेषा उ कम्मो ॥ १ ॥ कलिगे पक्योदावरम्मि बापट्टी। तेऊर एकतीसा डम्मै नरिथ ॥ २ ॥ सेसद्धे तीसगुणे, बावट्ठी भाइयम्मि अं लद्धं । जाणे तहसु मुहते-सु श्रहोरत्तस्स तं पव्वं ॥ ३ ॥ " तासां मेव्याच्या पर्वाणि पर्वराशी चतुर्भिर्भ खति यद्येकः शेषो भवति तदा स राशिः कल्पोजो भएयते । इ. योः शेषयोर्द्वापरयुग्मः । त्रिषु शेषेषु त्रेतोजश्चतुर्षु शेषेषु कृतयुग्मः । ( कलिओ गेत्यादि ) तव कल्योजे रूपराशौ त्रिनवतिः प्रक्षेपः प्रक्षपणीयो राशि, द्वापरयुग्मे द्वापष्टि तौजसि एकत्रिंशत् कृतयुग्मे नास्ति प्रक्षेपः । एवं प्रक्षिप्तप्रक्षेपाणां पर्वराशीनां सतां चतुर्विंशत्यधिकेन पर्यशतेन भागो हिते हते व भागे यच्छेमपतिष्ठते तस्यायं विधिः- (सेस इत्यादि) पचतुि शत्यधिकेन शतेन भागे हुने अवशिष्टस्वा क्रियते कृत्वा चविंशता गुरुयते गुखयित्वा च शपष्टथा भव्यते, भक् सति चन्यं तान् जानीहि लम्धान भा गान्, तत एवं स्वशिष्येभ्यः प्ररूपयन् तत् विवक्षितं पर्व चरमे अहोरात्रे सूर्योदयासावत्सु मुहूर्त्तेषु तावत्सु च मुहूर्तभागेषु श्रतिक्रान्तेषु परिसमाप्तमिति । एष करणगाथाऽक्षराथे भावना त्वियम् प्रथमं पर्व करमे महोरात्रे कति मुलीनतिक्रम्य समाप्तमिति जिज्ञासावामेको भियते । अयं किल कल्पोजोराशिरित्यत्र त्रिनवतिः प्रक्षिप्यते जाता चतुर्नय तिः, अस्य चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागों हर्त्तव्यः । स व भागो न लभ्यते, राशेः स्तोकत्वात् ततो यथासंभयं कर णं लक्षणं कर्त्तव्यं, तत्र चतुर्नवतेरर्द्ध क्रियते, जाताः सप्तचत्वारिंशत् ४७ वा विशता गुरुयते, जातानि चतुरा शतानि दशोत्तराणि १४१०, तेषां द्वाषष्ट्या भागोव्हियते लब्धा द्वाविंशतिः २२ शेपालिन्ति पारिंशत् ४६ ततश्राश्वोरनापवर्तनासपात्रयोविंशति ३१ आगतं प्रथमं पर्व परमे अहोरा विंशतिर्मान् एकस्य व मुहूर्तस्य त्रयोविंशतिमेत्रिशद्भागानतिक्रम्य समाति गतमिति द्वितीयपर्वजिज्ञासायां सिलि द्वापरयुग्मराशिरिति द्वाष्टिः प्रक्षिप्यते, जाता चतुःषष्टिः । सा च चतुर्विंशत्यधिकस्य शतस्य भागं न प्रयच्छति, ततस्तस्या कियते जाता सा त्रिंशता गुण्यते, जातानि नवशतानि षष्ट्यधिकानि १६०, तेषां द्वाषष्ट्या भागोन्दियते लब्धाः पञ्चदश मुहूर्त्ताः १५, पश्चा " पव्त्र " 9 Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०७) पव्व प्रन्निधानराजेन्द्रः। पव्वति (ण) दवतिष्ठते त्रिंशत् ३०, ततश्छेद्यछेदकराश्यारद्धेनापवर्तना, सूत्रापारम्भपरिग्रहात् (दश० २ ० ) पापानिष्कालन्धाः पञ्चदश एकोनत्रिंशद्भागाः १५३१, आगतं द्विती- न्ते, द्वा०२७ द्वारा दीक्षिते, पञ्चा०२ विव० । प्रतिपन्ने, यं पर्व, चरमे अहोरात्रे पञ्चदश मुहूतोंनेकस्य च मुह कल्प०१अधि०१क्षण । प्रगते प्राप्त, स्था०४ ठा०१ उ०। सस्य पञ्चदश एकत्रिशद्भागानतिक्रम्य द्वितीयं पर्व स. प्रवजनं प्रवजितम् । प्रवज्यायाम, व्य०१ उ० सन्धिवर्धने, माप्तमिति। तृतीयपर्वजिज्ञासां त्रिको ध्रियते, स किल त्रेती- स्था०२ ठा०३ उ०।। जोराशिरिति तत्रैकत्रिंशत् प्रक्षिप्यन्ते, जाताः चतु-पव्वइसेल्ल-देशी-बालमयकण्टके, दे० ना० ६ वर्ग ३१ गाथा । स्त्रिंशत् ३४, सा चतुर्विंशत्यधिकस्य शतस्य भागं | पवई-पार्वती-खी। शिवभार्थ्यायाम, "दक्खायणी भवाणी, न प्रयच्छति, ततस्तस्याई क्रियते, जाता सप्तदश, ते त्रि सेलसुश्रा पवई उमा गोरी ।" पाइ० ना०३ गाथा । शता गुण्यन्ते, जातानि पञ्जशतानि दशोत्तराणि ५१०, तेषां द्वाषष्ट या भागो हियते लब्धा अष्टौ ८,शेषास्तिष्ठ पव्वग-पर्वक-पुं० । पर्वोपेतेषु इक्ष्वादिषु, प्रा० चू० १०। न्ति चतुर्दश १४ , ततच्छेद्यच्छेदकराश्योरर्द्धनापवर्तना, ल- से किं तं पव्वगा। पव्वगाणेगविहा पामत्ता। तं जहाब्धाः सप्त एकत्रिंशद्भागाः, आगतं तृतीय पर्व, चरमे " इक्खूया इक्खुवडए, वीरुणा तह इक्कडे य मासे य । अहोराशे अष्टौ मुहूनिकस्य च मुहूर्तस्य सप्त एकात्र सुंठे सरे य वेत्ते, तिमिरे सतपोरगणले य ॥१॥ शद्भागानतिक्रम्य समाप्तिं गतमिति । चतुर्थपर्वजिशासायां चतुष्को ध्रियते, स किल कृतयुग्मराशिरिति न किमपि वंसे वेलू कणए, कंकावंसे य वववंसे य । तत्र प्रक्षिप्यते, चत्वारश्चतुर्विशत्यधिकस्य शतस्य भार्ग न उदए कुडए विमए, कंडावेल य कल्लाणे ॥२॥ प्रयच्छन्ति, ततस्ते अर्द्ध क्रियते, जाती द्वौ तौ त्रिशता जे यावर तहप्पगारा, सेतं पव्वगा। प्रशा० १ पद । गुण्यते, जाता षष्टिः ६०, तस्या द्वाषष्टया भागो हियते, " कालीपब्वगसंकासे ।” काली जवा तस्याः भागश्च न लभ्यते इति छेद्यछेदकराश्योरद्धेनापवर्तना, जा पर्वाणि स्थूराणि मध्यानि च तनूनि भवन्ति । ततः तास्त्रिंशदेकत्रिंशद्भागाः, आगतं चतुर्थ पर्ष, चरमे अहोराने मुहर्तस्य त्रिंशतमेकत्रिंशद्भागानतिक्रम्य समाप्तिं ग कालीपर्वाणि जानुकूपराऽऽदीनि येषु तानि । संधिमध्ये, उत्त०२० । जी० । प्रश्न । भ० । प्राचा० । दर्भाऽऽ. च्छतीति । एवं शेषेष्वपि पर्वसु भावनीयम्। चतुर्विशत्यधिकशततमपर्वजिशासायां चतुर्विशत्यधिकं शतं धियते, त कृतितृणे, नि० चू०१ उ०।। स्य किल चतुभिर्भागे हृते न किमपि शेषमवतिष्ठन्ते - पव्वजएगपक्खिय-प्रव्रज्यकपाक्षिक-पुं०। गुरुसहाध्यायाss. ति कृतयुग्मोऽयं राशिः, ततोऽत्र न किमपि प्रक्षिप्यते, त दिषु, वृ०। तः चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, जातो राशि ___ कुत्र पुनरिति चेत् ?, उच्यतेनिलेपः, आगतं परिपूर्ण चरममहोरात्रं भुक्त्वा चतुर्विंश पन्बजएगपक्खिय, उवसंपययंविहा सए ठाणे । शतिशततम पर्व समाप्ति गतमिति । तदेवं यथा पूर्वाऽऽचा छत्तीसातिकते, उबसपययं तुवादाय ॥ ५३४ ॥ बैंरिदमेव पर्वसूत्रमवलम्ध्य पर्वविषयं व्याख्यानं कृतं, तथा यःप्रव्रज्ययैकपाक्षिकस्तस्य पार्श्वे उपसंपदं तान् कुलस्थमया विनेयजनानुग्रहाय स्वमत्यनुसारेणोपदर्शितम् । सू०प्र० विरा ग्राहयेयुः,साच उपसंपत् एवंविधा वक्ष्यमाणनीत्या भ१. पाहु० २० पाहु०पाहु । चं० प्र० । जं०। ज्यो० । वति, तस्यां चोपसंपदि षट्त्रिंशद्वर्षातिक्रमे प्राप्तायां (सए अथ पर्व किमुच्यते ?-अत आह-मासाई मासयोर्मध्य ठाणि ति ) विभक्तिव्यत्ययात् स्वकमात्मीयं स्थानमुपापुनः पर्व भवति । तदेवाऽऽह दाय गृहीत्वा तैरुपसंपत्तव्यम् । पक्खस्स अट्ठमी खलु, मासस्स य पक्खियं मुणेयव्वं । इदमेव भावयतिअणं पि होइ पच्वं, उवरागो चंदमूराणं ॥१५३।। गुरुसज्झिलओ सज्झं, तिउ पिउ गुरुगुरुस्स वा भत्तु । व्य०६ उ० (अस्याः व्याख्या 'अइसेस'शब्दे प्रथमभागे अहवा कुलिव्बतो उ, पबजाएगपक्खी ऊ॥ ५३५ ॥ २६ पृष्ठे गता) द्वितीयाऽऽदिपञ्चपर्ची श्राद्धविध्यादिस्वीयग्र- गुरुसज्झिलको गुरूणां सहाध्यायी पितृव्यस्थानीयः, स. न्थातिरिकग्रन्थे कास्ति ॥ १५॥"मासम्मि पव्वछकं, तिन्नि ज्झति क आत्मनः सब्रह्मचारी भ्रातृस्थानीयो. गुरुगुरू पिअपव्वाई पक्खम्मि" इति गाथोक्ता चतुष्पर्वी सर्वश्राद्धानां, तामहस्थानीयो, गुरोः संबन्धी न प्राप्तशिष्य आत्मनो भ्रातृ. किंवा लेपश्राद्धाधिकारवर्णितेति ? ॥१६॥ इतिप्रश्ने,उत्तरम्- व्यस्थानीयः । एते प्रव्रज्ययैकपक्षिका उच्यन्ते । वृ०४ उ० । द्वितीयाऽऽदिपञ्चपा उपादेयत्वं संविग्नगीतार्थाऽऽचीर्ण- | पब्बज्जा-प्रव्रज्या-स्त्री० । प्रव्रजनं प्रव्रज्या । महावतप्रतिपतया संभाव्यते,अक्षराणि तु श्राद्धविधेरन्यत्र दृष्टानि न स्म- ता, पञ्चा०१६ विव०। (सर्वा वक्तव्यताऽनुपदम् 'पवज्जा' यन्ते ॥ १५॥ तथा-'मासम्मि पव्वछ, तिन्नि य पब्वाइप- शब्दे गता) क्खम्मि।" इति गाथक्तिव चतुःपर्वी सर्वश्राद्धानां संभा- जो-देशी-नखे, शरे, वाले, मृगे च । दे० ना०६ वगे व्यते, नतु लेपथाद्धाधिकारोक्नेति ॥ १६ ॥ ही०१ प्रक० । | ६६ गाथा। पव्वइंद-पर्वतेन्द्र-पुं० । पर्वतानामिन्द्रः पर्वतेन्द्रः । मेरौ, सू० प्र०५ पाहु। | पव्वणी-पर्वणी-स्त्री०। कार्तिक्यादिषु, भ० ६ श०३३ उ० । पबइय-प्रवजित-त्रि० । पापात् प्रमजितः । भागवती दीक्षां पव्वति (ण )-पर्वतिन्-पुं० । खनाम्ना गोत्रप्रवर्तके काश्यप्रतिपन्ने, विश० । त्यक्तराज्याऽऽदिगृहपाशबन्धने, अनु० । ' पमूलगोत्रीये पुरुष, तदपत्येषु च । स्था० ७ ठा० । Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतिह पव्वतिहि - पर्वतिथि-पुं० । पर्वदिने, अष्टमीचतुर्दश्यादी, ध० २ अधि० । पव्वती - पार्वती-स्त्री० । शिवभार्यायां हिमालयपुत्र्याम्, पाइ० ( ८०८ पसंत अपचरणे, "कम नूम-सम्बुम पव्वाल छदा ढक्कौम्वाल - पञ्चालाः " ' ॥ ८ । ४ । २१ ॥ इति छदधातोः पव्वालाऽऽदेशः । 'पव्वालइ ।' छुदयति । प्रा० ४ पाद । ना० ३ गाथा । मावि प्लु-शिष् पा० तारखे, "सावे रोम्बाल-पाली" ॥ ८६ । ४ । ४१ ॥ इति सवतेरर्यन्तस्य पव्वालाऽऽदेशः । पव्वाल | प्लावयति । प्रा० ४ पाद । - पव्वतेय - पार्वतेय - पुं० । वैताख्यपर्वते, पर्वतापत्ये, विद्याधरकाये, आ० चू० १ अ० । पवनीय - पर्वत्री-पुं० पर्व बीजं येषां ते पर्वबीजाः । इदचा पव्वालिय- सावित न० । “पञ्चालि आउंचालिस । दिषु, आव०४ अ० । औौ० । श्रा० म० । लिलुंच जाए।" पा० ना० ७८ गाथा । पव्वय-पर्वत- पुं० । क्षुद्रगिरौ, जं० १ वक्ष० । गिरौ, स्था० ५ पव्वावणंतेवासि ( ग ) - प्रवाजनान्तेवासिन् पुं० | प्रब्राजनडा० १४० क्रीडापयेते. उज्जयन्तवैभारादी ०७० या दीक्षयाऽन्तेवासी प्रवाजनान्तेवासी । दीक्षिते, स्था० ४ ६ ४० अनभिभवनीयस्थिराऽऽअवसाधर्म्यात् (मनुष्येषु) कुलपर्वताssदयः शब्दाः प्रोच्यन्ते । प्रशा० १ पद । पव्वयकय पर्वतकटक १० खाने प्रश्न० २ - ठा० ३ उ० । ० - द्वार । स्था० । पव्वावणा-प्रत्राजना-स्त्री० । दीक्षादापने, ध० २ अधि० । (' पव्वज्जा' शब्दे ऽनुपदमेव सर्वा वक्तव्यतोक्ला ) परवावणारिय-प्रवाजनाचार्य पुं० । प्रवाजनयाऽऽचार्यां गते, स्था०४ ठा०३ उ० । प्रव्रज्याप्रयच्छ के गुरौ, पं० ब०१ द्वार । पचाविशए-मत्राजयितुम् अव्य० दशापयितुमित्यर्थे, स्था० पव्वयग-पर्वतक- पुं० । प्रथमवासुदेवस्य पूर्वाऽऽचायें, ति० । निर्ऋतिपितरि मथुराराजे, पञ्चा० १४ चिव० ० म० । । नन्दपराजयाचे वाचन मत्रीकृते हिमकूटराजे आ म० अ० [सं०] अग्निकसहजाते इन्द्रपुरनगरराजदत्तचेटे, - । 1 श्राव० ४ श्र० । श्रा० म० । चू० १ कल्प० । पं० भा० । पन्चयगिह- पर्वतगृह न० पर्वतोपरि रहे श्राचा० २ ० १ पय्यावेऊस - ममाज्य-अन्य प्रब्रज्यां प्रापित्वेत्यर्थे "जो चू० ३ ० ३ उ० । श्रयरेण पढमं पव्वावेऊण नाणुपालेइ । " पं० व० २ द्वार । गुरु पर्वत गुरुक० पर्वतवद् गुणसूत्र २० पन्विदा देशी-प्रेरिते ० ना० ६ वर्ग ११ गाथा २ श्र० । 35 १ श्र० । पव्वयपाद - पर्वतपाद - पुं० । पर्वतैकदेशे, श्रा० म० । । पव्वोणि- देशी - " तरहाइयस्स जोग्गाहारं च नेइ पव्वोरिंग ' संमुखे, व्य० ६ उ० । पव्ययराय-पर्वतराज पुं० पर्वतानां राजा पर्वतराज रौ, सू० प्र० ५ पाहु० । चं० प्र० । मे । पथादो-पथात् प्रव्य० दिकालकृतपरावे, " भीमसेनस्य प वादो हिंडीअदि । हिडिंबाए घडक्कयशो केण उवशमादि। " पश्चात् ङसः श्रन्त्यतलुक् । " उसे तो दो० " ॥ ६ | ३ |८ ॥ इति ङसिस्थाने दो। प्रा० ० ३ पाद । पव्यय पसइ - प्रसृति - स्त्री० । असति द्वयेन निष्पन्ने नावाकारताव्य स्थापितकरतसे अनु०" दो असईओ पदो पसईओ य सेइया होई । " शा० १ ० ७ श्र० । औ० नं० । पर्वतदुर्ग पुं० नानारूपपर्यंते, स्व० । निधानराजेन्द्रः । ० श्राचा० । पव्वराहु-पर्वराहु-पुं॰ । राहुभेदे, यः पर्व्वणि पौर्णमास्याममावास्यायां च यथाक्रमं चन्द्रस्य सूर्यस्य वा उपरागं करोति । सू० प्र० १६ पाहु० । पच्चविदुमा पर्ववदुर्ग मे, सूत्र० १ ० ६ श्र० । पव्वहिय - प्रव्यथित - त्रि । पराजिते वशीकृते श्राचा० १ - ०२०४० प्रण व्यथिते, सर्वस्याऽऽरम्भस्य श्रयत्वादिति प्रकर्षार्थः । श्राचा० १४० १ ० १ उ० । गृहस्थाऽऽदिभिः परस्परतः कर्मविपाकतो वा व्यथिते, आचा० १ ० २ श्र० ६ उ० । २ ठा० १० । पम्बावे कप्रत्ययः । प्रव्राजने, शा० १ ० १ ० भ० । पव्त्राय-म्लै- धा० । हर्षक्षये, " म्लेर्वापव्वायौ " ॥ ८|४|१८ ॥ इति म्लायतेः पव्वायाऽऽदेशः । पव्वायइ । म्लायति । प्रा० ४ पादप व आय. सुखियं वायम्मि गिला पाइ० ना० ८३ गाथा । 55 प्रमाजवितुम् अव्य० पापाद् वजितुमित्यर्थे पं० मेलाऽऽदिभिदे पर्वतेषां विपसओ देशी मृगे विशेष दे०६ वर्ग ४ गाथा पसंग - प्रसङ्ग-पुं० । प्रसञ्जनं प्रसङ्गः । श्रभिष्वङ्गे, प्रश्न० ४ पव्वाइय-पत्राजित - त्रि० । वेषदानेन गृहान्निः काशिते, भावे पसंजण - प्रसञ्जन - न० । प्रसङ्गे, नि० चू० १० । पसंडि - देशी - कनके, दे० ना० ६ वर्ग १० गाथा | श्राश्र० द्वार। आ० म० सातत्ये, प्रश्नः ३ श्राश्र० द्वार । अभीक्ष्णयोगे । श्रा० चू० १ श्र० । श्रभ्यासे, अ० म०१ श्र० । नं० । उत्तरोत्तरदुःखसंभवे, नि० चू० ४ उ० । श्रवशस्थानिष्टान० १० सेवायाम् विस्तारे व पञ्चा० १८ विव० । अनुष्ठाने, श्राचा० १ ० १ ० ६३० । " पसंत - प्रशान्त त्रिः । प्रकर्षेण सर्वाऽऽत्मना शान्तः प्रशान्तः । श्रा० म० १ ० । शमं गते, स० ३४ सम० । रागाऽऽदि रहिते, दश० १० श्र० । कषायनोकपायोद्रेकरहिते, श्रष्ट० ३० श्रष्ट० । प्रश्न० । क्रोधरहिते, श्राम० १ ० । बहिर्बु Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसंत पसंसा - । च्या । शर्मग कप १ अधि०१ क्षण औ० विफलीकृत पसा- प्रशंसा श्री० प्रशंसनं प्रशंसा स्तुती भाव० ६ षायोदये, शा० १० ५ श्र० । श्र० । श्रा० । नि० चू० श्लाघायाम्, प्रव० १४ द्वार । उस० । श्राव० । ध० | साधुकारे, श्रा० म० १ ० | आव० । पार्श्वस्थrssदीनां वंदनप्रशंसा (tol) अभिधानराजेन्द्रः । पसंतगंभीरासय - प्रशान्तगम्भीराऽऽशय-पुं० । प्रशान्ताः क्षावियोगात् गम्भीरोगाचतया आशयथितपरिणाम येषां ते प्रशान्त गम्भीराऽऽशयाः । क्षमाप्रधानगम्भीरमतिकेषु, पं० सू० १ सूत्र । पसंतचितमाणस - प्रशान्तचित्रमानस त्रि०। प्रशान्तानि शर्म गतानि चित्राणि रामश्चाऽऽद्यनेकविध विकारयुक्ताविविधानि मानसान्यन्तःकरणानि यस्य स तथा । स० ३४ सम० । पसंतडिंबडमर - प्रशान्तडिम्बडमर - त्रि० । अनुदितडिम्बडमरे, यत्र राष्ट्रे विघ्ना डमराणि राजकुमाराऽऽदिकृतानि दू रा वा प्रशान्ताः । रा० । पसंतमय मशान्तमनस् वि० घरविष्टान्त करणे, नं० । पसंतरस - प्रशान्तरस- पुं० काव्यरसभेदे अनु० | । अथ हेतुलक्षणद्वारेणैव प्रशान्तरसमुदाहरतिनिदोसमयसमाहा संभवो जो पसंतभावेयं । अविकार लक्खणो सो, रसो पसंतो त्तिणायव्वो ॥ १८ ॥ पर्मतो रसो जहा सम्भावनिव्विगारं, उवसंत पसंत सोम्मदिट्ठी । ही जह मुखियो सोहर, मुहकमलं पीचरसिरीयं ॥ १६ ॥ निर्दोषं हिंसाsssददोषरहितं यन्मनस्तस्य यत्समाधानं - वि. ययाऽऽत्सुक्यनिवृत्तिलक्षणं स्वास्थ्यं तस्मात्संभवो यस्य स तथा प्रशान्तभावेन-कोचादिपरित्यागेन यो भवतीति गम्यते, स प्रशान्तो रसो ज्ञातव्य इति घटना, स चाविकारलक्षण निर्विकारताविह इत्यर्थः ॥ १० ॥ "स भाव" इत्यायुदाहरणगाथा - प्रशान्तवदनं कचित्खामव लोक्य रिलीस्थितं कञ्चिदाश्रित्य प्राह-दीति प्रशा न्तभावातिशयद्योतकः, पश्य भोः ! यथा मुनेर्मुखकमलं शोभते, कथं भूतं ?, सद्भावतो न मातृस्थानतो निर्विकारं विभूषाअक्षेपाऽऽदिविकाररहितम् उपशान्ता रूपा:लोकनाs 1 सुक्यत्यागतः प्रशान्ता क्रोधाऽऽदिदोषपरिहारतोऽत एव सौम्यदृष्टिर्यत तत्तथा अस्मादेव च पीवरश्रीकम् - उपचि तोपलक्ष्मीकमिति ॥ १६॥ अनु पसंतवाहिया प्रशान्तवाहिता स्त्री० प्रशान्तं बोर्ड शीलं य स्य तत्प्रशान्तवादि तद्भावस्तत्ता । षो० । प्रशमैकवृत्तिसस्ताने, द्वा० प्रशस्तवाहिता सारण्यां सयो बजानां शिवचा शेवानां याच्या महावतिकानां म्. अखाडाने जैनानाम् ३० २४ द्वार। पसंघण प्रसन्धन - न० । सातत्येन प्रवर्तने, पिं० । पसंस- प्रशस्य पुं० । प्रशस्यते सर्वैरिन्द्रियैरिति प्रशस्यः । नि० चू० १ उ० । पसंसंत - प्रशंसत् - त्रि० । वर्णयति, समर्थयति सूत्र० १ ४० १ ० २० । स्तुवति सूत्र० २ ० ६ श्र० । श्लाघमाने, सूत्र० १ ० ११ अ० । श्रब० । पसंसण - प्रशंसन- न २०३ श्लाघायाम्, जी० २३ अधि० । जे भिक्खू पासरथं बंदर, दतं वा साइना । एवं कुशलमवल संसकं नित्यकाधिकं पश्यतिकं मनाकं संप्रसारकं वा वन्दते प्रशंसति वा । नि० चू० १३ उ० ।" पसंत्ति वा समाजणण ति वा सलाघणं ति वा गाणि । श्रा० चू० १३० । पासाथाऽऽदिवाण सम्देसि इमं सामयं भवतिसामपतरं, जे भिक्खू पसंसए व बंदे | सो आया अवस्था, मिच्छत्तविराहसं पावे ।। १०३ ॥ पच्छित्तं जणेति, संजमविराहणं च पावति । इमाणि पसंसणकारणाणि भवंति - महाविणीयवित्ती, दाणरुई चेतिताण अतिसत्तो । लोगपगतो पत्रको पियवाईऽपुब्वभासी य ॥ १०४ ॥ अजमंतस्स एते सच्चे अगुणा दन्या तम्हा मेहादिहिं पसंसवय रोहिं ण पसंसियब्वा, असेसु वि सत्तेसु पाखथाऽऽदिवाण बंद पडिसिद्धं । जतो भवतिठिपकरणे पढिसेहो सुहसीलज्जा चेन कितिकमं । णवगस्स या पसंसा, पडिसिद्ध पकप्पमज्झषणे ॥ १०५ ॥ इमो ठियकप्पो - " श्राचेलकुद्देसिय- सेजातरराय पिंडकितिकम्मे पयपत्रिकम मासं पचरूप्ये ॥ १ ॥ " एत्थ पडिसिद्धं वंदणयं, पसंसा य सुहसीलाणं पासत्थादीअज्जाण य कितिकम्मं पडिसिद्धं कितिकम्मं वंदणयं (णवगस्स त्ति ) पासत्थादी पंच. काहिकादि चउरो, एते सव्वे राव पगप्पा, इमं चेव गिसीद्दज्झयणं, एत्थ एवगस्स पसंसा पडिखदा । इदाणिं सामघेणं सीयंतेसु बंदणपडिसेहो कज्जतिमूलगुण उत्तरगुणे, संधरमाणा चि जे पमाणंति । से होति बंदणिजा, सद्वाणावया चउरो ॥ १०६ ।। जो संथरंतो मूलुत्तरगुणेसु सीदति, सो श्रदणिजो, जंच पासल्यादि सेवति, तेहि वा सह संसर्ग करेति चतो लद्वाणायण भारोवणा से चल महा अहा संदेश पुण गुरुं । गाहा वितिय पदमणप्पज्झे, पसंसते अविकोविते च अप्पम् । जाते वा चि पुणो, भयसातव्यादिगच्छा ॥ १०७॥ खाऽऽदियितां पराधीन अव कविता सो या दो अजाती पसे सत्यचित्तां वि । श्रधवा-जाणतो वि दोसे भया पसंसे, राया सातव्वा दिति, कोइ परवादी इमेरिसं पक्खे करेज - पास थादयो ण पसंसणिजा इति प्रतिशा अस्य प्रतिघातत्वं पसंसियव्वं, दोस्रो ए, गच्छस्स वा उचग्गहकारी सो पासत्यादिपुरि तापसंसति । 1 Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१०) भाभिधानराजेन्दः । पसंसा पसद इमो वंदणस्स अववातो वितियगाहा अतो विविसिट्टतरउग्गनरसभावस्स वा दो वि एते क. वितियपदमणप्पज्झे, वंदे अविकोविते व अप्पज्झे । रेति, ततियं च सिरप्पणामं करेति, ततो विसिट्टतरे तिजाणते वा वि पुणो, भयसातव्वादिगच्छहा ॥१८॥ विवि काउं पुरट्टितो भत्ति पिव दरिसंतो सरीरे वट्टमाणी पुच्छति, ततो विसिट्टतरस्स पुच्छित्ता खणमेतं पज्जुवापूर्ववत् । संतो अत्थति । अथवा-पुरिसविसेषं जाणिऊण उच्छोभवंअहवा-उस्सग्गो भमति, अववादेण जदा पासत्थादियाण | दणं देति-" इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावणिज्जाए शरीरणिरावाहगवेसणं करेति, तदा बंदणविरहियं करेति । निसीहियाए तिविहेण पयं उच्छोभवंदणयं ।" अहवा-पु. जतो भमति रिसविसेसं गाउं पुरणं वारसावत्तं वंदणं देति । गच्छपरिरक्खणट्ठा, अणागयं आउवायकुसलेणं । । ते य वंदणविसेषकारणा इमेएवं गणाधिपतिणा, सुहसीलगवेसणा कुजा ॥१६॥ परियायपरिसपुरिसं, खत्तं कालं व आगम णचा। श्रोमरायदुवादिसु गच्छस्स वा उवग्गहं करेस्सति ति ग. च्छं वा अणागयं ति तम्मि रोमादिगे कारणे अणुप्पएणवि ____ कारणजाते जाते, जहारिहं जस्स जं जोगं ॥ ११३ ।। आउत्ति, जस्स पासातो असणवत्थादिसंजमवुड्डी वा गच्छ- बंभचेरमभग्गं विरोसितो दीहो परियानो सेसुत्तरगुणेनिरावाहो वा प्रायो, उवायकुसलत्तं पुण गणाधिपति- हिं सीदेति, परिसा परिवारो. सो संजमविणीतो मूलणो तहा सुहसीलाणं गवेसणं करेति. जहा ण वंदति, तेत्तरगुणेसु उज्जुत्तो, पुरिसो रायादि दिक्खित्तो बहुसंमतो गवेसति य, ण य तेसिं अप्पत्तियं भवति । वा पवयणुब्भावगो खेत्तं पासत्थादिभावियं, तदणुगपहि ___ सा य तेसिं गवेसणा इमेहि ठाणेहिं कायब्वा तस्स वसियव्वं, ओमकाले जो पासत्थो स गच्छवडावबाहिं आगमणपहे, उज्जाणे देउले समोसरणे । णं करेति, तस्स जहारिहो सकारो कायब्बो, आगम से सुतं अत्थि, मत्थं वा. से पराणवेति, चारित्रगुणं प्रशापयतीत्यर्थः। रत्यउवस्सगपत्ता, अंतो जयणा इमा होति ॥११० ॥ कारणा कुलादिया पढमजातशदो प्रकारवाची, वितिश्रो जत्थ ते गामणगरादिसु अत्थंति, तेसिं बाहिं ठितो जदा जातसद्दो उप्परणवाची, जस्ल पुरिस्स जं वंदगं अरिहं ते पस्सति सेज्जातरादि वा, तदा णिए बाहादि गवेसति । तं कायव्वं । चोदगाह-जोग्गगहणं णिरत्थयं, पुणरुतं वा । जया वा ते आगच्छति भिक्खायरियादियम्मि वा पहि- भाचार्य पाह-णिरत्ययं । कहं, भमति-अमं पि जं दिवाणं गवेसणं करेति, एवं उज्जाणाविट्ठाणं चेतियवंदण- करणिज्जं अभुट्ठाणासणविस्सामणभसवत्थादिपदाणं तंपि निमित्तमागतो वा देवउले गवेसति, समोसरणे वा विट्ठा, सव्वं कायव्वं, पयं जोग्गग्गहणं गहितं । रत्थाए वा भिक्खादि अडता अभिमुहा संभिज्ज गवसति, कदाचित्ते पासत्थाऽऽदयो बाहिं दिट्ठा भणेजा,अम्हं पडिस्स एयाई अकुव्वंतो, जहारिहं बारहदोसिए मग्गे । यं ण कदाइ पहा ताहे तदाणुवत्ती, एसेसिं उबस्सयं पि गम्मंति, तत्थ उवस्सयस्स बहिया ठितो सव्वं णिए बाहादि न भवह परयणभत्ती, अभत्तिमंतादिया दोसा ॥११४॥ गवेसति, इमा जयणा गवेसियब्वे भवति, अवा-जयणा पयाई ति वायाए णमोकारमादियाई ति परियायमादिइमा होति पुरिसविसेसवंदणे । याणं पुरिसाणं अरिहदेसिए मग्गे ठियाणं जहारिहं वंदणासो य पुरिसविसेसो इमो ऽऽदिउवचारं अकरताणं णो पवयणे भत्ती कया भवति, वं. मुक्कधुरा संपागड-किच्चे चरणकरणपरिहाणे। दणाऽऽदिउवयारं अकरेतस्स प्राणाऽऽदिया दोसा, चउलहुं | च से पच्छितं ॥ नि• चू० १३ उ०। लिंगावसेसमेत्ते, जं कीरति तारिसं वोच्छं ॥१११॥ संजमधुरा मुक्का जेण सो मुक्कधुरो,समत्थजणस्स पागडाणि पसंसावयण-प्रशंसावचन-न० । श्लाघावचने, यथा रूपवती अकिच्चाणि करेति जो सो संपागडकिच्ची । अहवा-संजम स्त्री। प्राचा०२ श्रु०१ चू०४ अ०१ उ०। किचाणि संपागडादि करेति जो सो संपागडकिचो. संपाग- पसंसिय-प्रशंसित-त्रि० । श्लाघिते, उत्त० १४ अ० । संडसेवी वा मूलगुण उत्तरगुणे सेवतीत्यर्थः । सो अकिच्चे प. स्तुते. श्लाघिते, स्था० ५ ग०३ उ० । तीर्थकराऽऽदिडिसेवणतो चेव चरणकरणपब्भट्ठोचरणकरणपरिहीणत्तणो भिः श्लाघिते, उत्त० १४ अ०। प्राचा०। चेव दव्वलिंगावसेसो दवलिंगं से अपरिवत्तं लिंग सेसं सवं परिवतं, मात्राशब्दो लक्षणवाची, पव्व ज्जालक्षणं द्रव्य पसजण-प्रसञ्जन-न० । प्रसङ्गे नि००१ उ०। लिङ्गमात्रमित्यर्थः । ता तारिसे दवलिंगमत्त जारिसं बंदणं पसजणा-प्रसञ्जना-स्त्री०। भोजिकाघाटिकाऽऽदिप्रसङ्गपरकीरति तारिसं सुणसु। म्परायाम् , वृ०१उ०३ प्रक० । प्रायश्चित्तवृद्धौ. वृ० १ उ० गाहा २ प्रक०। वायाएँ णमोकारो, हत्येण य होइ सीसनमणं च । पसज्झ-प्रसह्य-अव्य० । प्र-सह-ल्यप् । हठादित्यर्थे, "सई संपुच्छणऽत्थणं छो-भवंदणं बंदणं वावि ।। ११२ ॥ वयमाणस्स पसभ दारुणं ।" प्रसह्य प्रकटमेव वाचं अव तः सतोऽर्थों मोक्षस्तत्कारणभूतो वा संयमः स बहु परिबाहिं प्रागमणपहादिपसु ठाणेसु दिट्ठस्स पासत्थादियस्स बायाए वंदणं कायव्वं, वंदामो त्ति भणति । वि हीयते ध्वंसमुपयाति । सूत्र० १७०२ अ०२ उ०। सिटुतरे उग्गसभाये वायाए हत्येण च अंजलि करेति पसह-प्रशठ-त्रि०। प्रकर्षण शठे, दश.५ १०१3०। सूत। ' Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२१ ) अभिधान राजेन्द्रः | पसढ 1 प्रसह्य- त्रि० । " विक्कीयमाणं पसढं रएण परिफासियं । " हठादित्यर्थे, दश० ५ ० १० । पसडिल प्रशिथिल त्रिलये शिथिलवन्धने, औ० अहढे ओघ० । ध० । “पसिढिलमघणं श्रणिरायं च । श्रघ० । पस प्रसन्न- वि० स्वच्छ, श्री० कालुष्यरहिते, अष्ट विकाररहिते, उत्त० १८ श्र० । " पसन्नं ते तहा मणो । उत्त० १८ अ० | सूत्र० । द्राक्षाऽऽदिद्रव्यजन्यायां मनःप्रसतिहेतौ सुरायाम्. विपा० १०२ श्र० नि० । “मजं च सीधुंच पसन्नं च आसाएमाणी विहरइ ।” (स्त्री०) उत्त०५ श्र० जी०। पसन्द - प्रसन्नचन्द्र पुं० जम्बूद्वीपे परविदेदे प्रसिद्ध नगरराजे यच्छासितनगरी धन सार्थवाहः सार्धेन घ घोपतीन् नीत्वा मार्गे दृष्टिपाते निरवयाऽद्वाराऽलाभतः विद्यतः पूतं प्रतिलभ्य तीर्थकृत्यं समुपार्जयत् ० ० १ अ । यस्य प्रसन्नन्द्रस्य सुतः जपजीवेयपुत्रसुविधिजन्म सहजातो महीधरो नाम जातः । श्रा० क० १ ० । वीरान्तिके प्रव्रजिते राजर्षिभेदे, आ० क० । तश्चरित्रमेवम्" क्षितिप्रतिष्ठितपुरं जगवित्तप्रतिष्ठितम् । प्रसचन्द्रस्तवासी- पृथिवीपाकशासनः ॥ १ ॥ श्रीवीरः समवासार्षीत्, तत्र नन्तुमगान्नृपः । श्रुत्वा धर्म प्रबुद्धः सन् सुतं राज्ये न्यवेशयत् ॥ २ ॥ प्रव्रज्याssवाय शिक्षे द्वे, स गीतार्थो ऽभवन्मुनिः । अन्यदा जिन स. प्रतिपत्युर्महामुनिः ॥ ३ ॥ सप्तभिर्भावनाभिः स्वं भावयन् धर्मतत्त्ववित् । राजगृहे श्मशाने स, कायोत्सर्गेण तस्थिवान् ॥ ४ ॥ तदा तमोरिपुर्वीर - स्तत्रापि समवासरत् । यहानियो लोकः, कोकवरप्रीतमानसः ॥ ५ ॥ तितिप्रतिष्ठिताना याती हो व बणिम्बरी । प्रसन्नचन्द्रराजर्षि, दृष्ट्वा मार्गसमीपगम् ॥ ६ ॥ एकोऽभाषिष्ट दृष्टः सन् धन्याऽऽत्मा प्रभुरेष नः । राज्यलक्ष्मीं परित्यज्य स्वीचकार तपः श्रियम् ॥ ७ ॥ द्वितीयः स्माऽऽद्द धन्यत्वं कुतोऽमुष्य महामुने । यो संजातलं पुत्रं कृत्वा राज्येऽग्रही व्रतम् ॥ ८ ॥ वराकः सोऽधुना डिम्भो, दायादैः परिभूयते । उपदुतं पुरं लोको, दुःखे बहुरपात्यत ॥ ६ ॥ तद्रष्टव्य एवायमित्याकर्ण्य ऽकुपन्मुनिः । दध्यौ पुत्रं मयि खति, दुद्धरपकरोति कः ॥ १० ॥ तदैव तत्र मनसा, स ययौ विस्मृतव्रतः । हस्त्यश्वरथपादाति--सैन्यानि समनाहयत् ॥ ११ ॥ महासंग्राममारेभे रौद्रभ्यानवशंवदः । संज वैरिणोऽनेकान्, शल्यभल्लाऽऽदितिभिः ॥ १२ ॥ अत्रान्तरे प्रभुं नतु श्रेणिका दमाभूदीयिवान् । खरा तमन्दिर कायोत्सर्गधरं मुनिम् ॥ १३ ॥ तं पदपि दृष्ट्याऽपि स पुनः समभावयत् । श्रेणिकोऽचिन्तयन्नूनं, शुध्याने स्थितोऽसौ ॥ १४ ॥ ततः श्रीश्रेणिको वीरं, नत्वाऽप्राक्षीजगत्प्रभो ! | प्रसन्नचन्द्रराजर्षि-र्याद्दग्ध्यानो मया नतः ॥ १५ ॥ तत्र कालं स चेत्कुर्यात्तस्य जायेत का गतिः ? | बभाषे भगवान् वीरः, सप्तम्यामवनौ गतिः ॥ १६ ॥ पसत्यायोव उत्तया तच्छ्रुत्वा श्रेणिको दुवी दा किमेतन्मया श्रुतम् । अत्रान्तरेऽस्य राजर्षेः, संग्रामाऽऽरूढचेतसः ॥ १७ ॥ प्रधानरिपुणैकेन, युध्यमानस्य निर्भयम् । निष्ठां गतानि शस्त्राणि, शिरस्त्राणे करं न्यधात् ॥ १८ ॥ दवेनेनं हनिष्यामि हताः सर्वे परे ऽरयः । यावत्पस्पर्श मीलि स, तावदप्रेऽस्ति लुम्बितम् ॥ १६ ॥ ततः संवेगमापन, राजर्षिईध्यिवानिदम् । आः किं चक्रे मया धिग् धिग्, विराद्धं प्रथमव्रतम् ॥२०॥ शुभ्यानपरिणामः स्वं निन्दयतिचारिणम्। ततो बद्धानि कर्माणि मनसैव क्षिपंस्तदा ॥ २१ ॥ श्रेणिकः पुनरप्राक्षीन्स राजर्षिः प्रभोऽधुना। यादग्ध्यानोऽस्ति तत्रैव, कां गतिं ननु यास्यति १ ॥ २२ ॥ स्वाम्युचे संप्रति सुतोऽनुत्तरेषु सुरो भवेत् । अधोगिक स्वामिन् पूर्वमन्यम्यरूपि किम्॥२३॥ किमन्यथा मयाsशायि, स्वाम्याह न मयाऽन्यथा । ऊचे त्वयाऽन्यन्नाश्रावि, श्रेणिकः स्माऽऽह तत्कथम् ? ॥२४॥ स्वाम्यथोवाच ततं सर्व श्रेणिकभूभुजे प्रसचन्द्रराजः पार्श्वेऽभूद्दमेवंनिः ॥ २५ ॥ देवैः कलकलब्ध, राजीचे किमिदं प्रभो ! १ । स्वाम्याह तस्य राजर्षेः, शुभध्यानाऽऽत्मनोऽधुना ॥ २६ ॥ कुर्वन्ति केवलत्पत्ती, महिमानं सुरासुराः। दन्ती भूतको यमुत्सर्गे पभावयोः ॥ २७ ॥" आ० क० १ अ० | आ० म० । श्र० चू० । नवाङ्गीटीका. तोऽभयदेवरे शिष्ये उमास्वातिवाचककृत सिद्धिप्रयोगग्रन्थस्य टीकाकृति श्राचार्ये च । जै० इ० । 9 पसत्त - प्रसक्त- त्रि० । श्रसक्के, दश० २ श्र० । तत्परे, ग० २ अधि० पति-प्रसति स्त्री० प्रसादादिगुमान शुभ १०। आचा० रा० । रूपतायाम्, विशे० । नि० चू० । - पसत्य - प्रशस्त त्रिः । " स्तस्य थोऽसमस्तस्तम्बे ॥ ८ । २ । ४५ ॥ इति स्तस्य त्थः । प्रा० २ पाद । प्रशंसाऽऽस्पदीभूते, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । स्तुते, दश० १ ० । व्य० । श्रेष्ठे नं० । शोभने, आ० म०१ श्र० । प्रवण तं । मङ्गल्ये, स० औ० |रा० । अतिप्रशस्ये, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । श्री० । लक्षणोपेते. कल्प० १ अधि०२ क्षण । राग प्रशंस्ये, संथा० । प्रश्न० श्लाघिते, 'शंसु' स्तुतावितिवचनात् । स्था० ५ ठा० १ उ० । शा० । प्रश्न० । पवित्रे, विशे० । प्रशंसिते, स्था०५ ठा० ३ उ० । सामायिके, तस्य मोक्षसाधकत्वेन प्रशस्तत्वात् । श्रा० म०१० । पसत्यकामा प्रशस्तकायविनय पुं० विनयभेदे स्था० ७ ठा० । ( वक्तव्यतां 'विजय' शब्दे वक्ष्यामि ) पसत्थकारण प्रशस्तकारण १० तीर्थकरावापेक्षा कारणे, नि० चू० १ उ० । पसत्यभाणोवउत्तया प्रशस्तध्यानोपपुत्रता स्त्री० प्रशस्त ध्यानेन धर्मशुक्राऽऽदिलज्ञसभाध्यवसानीपयुक्त संप ता प्रशस्तयाने चोपयुक्तता दत्तावधानता प्रशस्तच्यानोपयु कता । धर्मशुक्लध्यानध्यायितायाम्, "एसा महव्वयउच्चारणा पत्थभागीय उत्तया " महामोच्चारणं कुर्वता यतो वा नियमादन्यतरशुभशुभतरध्यानसंभवात् । पा० Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसत्यतिवलि पसत्थतिवलि - प्रशस्तत्रिवलि - न० । प्रशस्तास्तिस्रो बल्यों लेखा यत्रैतत् प्रशस्तत्रियलि त्रिरेखायां कटी, कप० १ अधि० २ क्षण । पसत्थदोहला- प्रशस्तदौर्हृदा-श्री० । अनिन्द्यमनोरथायामन्तर्वम्याम्, कल्प १ अधि० ४ क्षण | भ० | पसत्यमयवियय- प्रशस्तमनोविनय पुं० प्रशस्त शुभ म नसो विनयनं विनयः प्रवर्त्तनमित्यर्थः प्रशस्तमवोचिनयः । विनयभेदे, "पसत्थमणविणए सनविहे पराने तं जहाI अपावर, असावजे, अकिरिए, निरुवसे, अगरहकरे, अच्छविकरे, अभूयाभिसंकमणे । ” स्था० ७ ठा० । पसरथरूव-मशस्तरूप - चि० | मनोरमे, कल्प०१ अधि०२ । त्रि० । पत्थलस्य मशस्तलक्षण त्रि० । प्रशस्तानि शोभनानि लानि यस्य सः। शुभविचरे, रा० । (०१२) अभिधानराजेन् - पसत्यवइविण्य - प्रशस्तवाग्विनय- पुं० । विनयभेदे, स्था० ७ ठा० । ( वक्तव्यता 'विषय' शब्दादवगन्तव्या ) पसत्यविहगगइयाम प्रशस्तविहायोगविनापन् १० विद्या योगविनामकर्ममे पहुदयाजन्तोः प्रशस्ता विहायोगति र्भवति, यथा हंसाऽऽदीनाम् । कर्म० ६ कर्म० । उत्त० । पसत्थार प्रशास्तृ लि० अनुशासके, मर्यादाकारिणसभा मायके, सभ्ये च । सूत्र० २ श्रु० २ श्र० । स्था० । सभ्यो वा तस्मात् द्विष्टादुपेक्षकाता दोषः प्रतिपादिन जयदानलक्षणो विस्तृतप्रमेयप्रतिपादिनः प्रमेयस्मरणाऽऽदिया। प्र शास्तदोषभेदे, धर्मशास्त्रपाठके, श्री० [भाव० लेखाचा assai, स्था० ३ ठा० १ उ० । श्राव० । पसत्थालंपण प्रशस्तालम्बन-१० प्रशस्तज्ञानाऽऽयुपकार- । कमालम्ब्यते इत्यालम्बनम् । प्रवृत्तिनिमित्तं शुभाध्यवसाने, आव० ४ अ० पसना - प्रसन्ना - स्त्री० । मदिरायाम्, “कायंबरी पसन्ना, हाला तह वारुणी महरा । " पाइ० ना० ६४ गाथा । पसप्पग - प्रसर्पक - त्रि० । प्रकर्षेण सर्पति गच्छतीति प्रसर्पकः । गमके, स्था० ४ ठा० ४ उ० । पसम- प्रशम- पुं० । कषायाभावे, अष्ट० २७ श्र० । प्रश्रम-पुं० । प्रकर्षेण श्रमः प्रथमः । श्वपरखमयतप्याथिग मरूपे खेदे. श्राव० ४ श्र० । पसमर:- प्रशमरति पुं० उमास्वातिवाचकप्रि न्थविशेषे, ग० १ अधि० । संघा० । पसर-शर-पुं० हिखुरा:टल्यचतुष्पद पशुविशेषे प्रश्न० १ श्रथ द्वार । - प्रसर- पुं० । प्रसरणे, शा० १ ० १ ० । पसरि प्रसृत- त्रि० । विस्तारमुपगते, श्री० । “ उब्वेल्लं पसरिपर्श च " पाइ० ना० १८६ गाथा जातप्रसरे, शा० १ ० १ ० ।" लद्धपसराभयं देइ ।” स्था० ४ ठा० २ उ० । । । पसरेहा देशी किञ्जल्के, दे० ना० ६ वर्ग १३ गाथा । पसिंडि पसव - प्रसू - धा० । पुत्राऽऽदिजनने, “उबर्णस्यावः " ॥ ८॥ ४ ॥ २३३ ॥ इति सूत्रेणोकारस्याचादेशः । पसव | प्रसूते प्रा० ४ पाद । प्रसव-पुं । पुत्राऽऽदिजन्मनि ० १० २ ० सूक्ष्म मनसि दश० १० प्रश्न० पुष्पे, “कुसुमं पसचं पसू । । च।” पाइ० ना० १३६ गाथा । पसवडक - देशी - विलोकने, दे० ना० ६ वर्ग ३० गाथा | पसाय - प्रसाद - पुं० । तद्विषयभक्तिबहुमानवशे उच्छलितविशिष्टकर्मक्षयोपशमभावे, पं० [सं० ५ द्वार। मनःप्रखसी, जी० ३ प्रति०४ अधि० । प्रसन्नतायाम्, सूत्र० २ ० २ श्र० । ग पसायंपहि ( ) - प्रस्तदमेक्षिन् शि० । प्रसादोऽयं यदन्य। सद्भावेऽपि मामादिशन्ति गुरव इति प्रेक्षितुमालोचयितुं शीलमस्येति प्रसादज्ञी | गुरूणां स्नेहमेक्षणशीले उत० १० तुसादार्थ या गुरुपरितोषाभिलाषिणि । उत्त पाई० १ ० । । - । पसार-प्रसार पुं० उत्तरोत्पत्ती घ० २ अधि० । पसारण - प्रसारण - न० । अङ्गानां विक्षेपे, श्राव० ४ श्र० । प्र० । ० म० । संयोगविभागोत्पत्तौ श्रवयवानामृजुसंपादने कर्ममे सम्म० ३ काण्ड प्रा० भू० । पसारय- प्रसारक - त्रि० । विस्तारके, सूत्र० १ ० २ श्र० २ उ० । पसारिय प्रसारित २० गात्रविततकरणे, दश० ४ ० । रा० । प्रलम्बीकृते, उस० १२ श्र० । विशे० । । पसारेमाण- प्रसारयत् त्रि० हस्ताऽऽदनवयवान् विनिव वर्तमाने, श्राचा० १०५ श्र० ४ उ० | पसाहण - प्रसाधन - न० मण्डने शा० १ ० ३ ० ॥ भ० ॥ पसाहणघरग-प्रसाधनगृहक- न० । मण्डनाऽऽलये, यत्राऽऽगत्य स्वं परं च मण्डयन्ति । जी० ३ प्रति ४ श्रधि० । रा० ॥ जं० । 3 पसाहा - प्रशाखा- स्त्री । शाखांशे दश० ६ ० २० ॥ जं० ॥ सम्म० । श्र० । पसाहिश्र प्रसाधित त्रि० डिविडिकिन्न-विपिलिय थिं। " चर - पसाहित्राएँ मंडिश्रई । पाइ० ना० ८५ गाथा । पसाहिया प्रसाधिका श्री० मण्डनकारियां दास्याम् 39 भ० ११ श० ११ उ० । पसाहेमाण-प्रसाधयत्- त्रि० । पालयति, नि० १ ० ४ वर्ग १ अ० | औ० | स्था० । सूत्र० । पसि - देशी - पूगफले, दे० ना० ६ वर्ग ६ गाथा । पसिअंत प्रसीदत् त्रि०। पानीयाऽऽदिवित् ॥ १।१०१॥ इतीकारस्य -हस्वः । मनसा हृष्यति प्रा० १ पाद । । पर्सिटिन० सुवर्णे, " हेमं करावं यामी घरं पचि तवणिजं ।” पाइ० ना० ५० गाथा । = Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१३) पसिटिल अभिधानराजेन्धः। पमेदि पमिडिल-प्रशिथिल-त्रि०। प्रश्लथे, पं० व०२ द्वार । "प- तो निन्नी पसिद्धी।" श्राक्षेपानन्तरं निर्णयः प्रसिद्धिः । सिढिलभूमणा।" प्रशिथिलानि भूपणानि दुर्वलत्वाद् यस्याः वृ. १ उ.१ प्रक०।। सा तथा । भ० ६ श० ३३ उ०।। पसिस्स-प्रशिष्य-पुं० । शिष्यस्याऽपि शिप्ये,प्रा०म०१०। पसिण-प्रश्न-पुं०। परस्परलाभालाभाऽऽदिप्रच्छने,ध०३ अ. पसु-पशु-पुं० । पश्यति प्रसूयते वा पशुः । अजैडकहस्त्यश्व शिलापानी संशयाऽऽपन्नस्य निःसंशयाथै गुरुप्रच्छन, गोमहिप्याटिके. उत्त०६० । सत्र० । स०। पं० व० । विशे० । तिर्यग्योनिजे जन्ती,ध० ३ अधिः। श्राचा० । स्था० । उत्त। अथ प्रश्नमाह-- सूत्रः । श्रा०म० । श्राव । छगल के. अजमात्रे, अनु । प्रपणहो उ होइ पसिणं, जं पासइ वा सयं तु तं पसिणं । ब० । पशुसादृश्यात् कर्तव्याकर्तव्यविवेकरहिततया हिताहिअंगुट्ठच्छिट्ठपदे, दप्पणअसितोयकुडाई ॥५१३।। तप्राप्तिपरिहारशून्यत्वात् तथाविधे मूर्ख, सूत्र०१ श्रु०४ अ. प्रश्नस्तु देवताऽदिपृच्छारूपः " पसिणं "भएयते । यद्वा २ उ०। यत् स्वयमात्मना तशब्दादन्येऽपि तत्रस्थाः पश्यन्ति.तत "प. पसुजाइय-पशुजातीय--त्रि० । दृप्तगवादी, स्था०५ ग० २ सिणं " प्राकृतशैल्याऽभिधीयते । किं तदित्याह-(अंगु? उ. उ० । सूत्रः। च्छिट्ठ ति) कंसाराऽऽदिभक्षणेनोच्छिष्टपदे प्रतीते; दर्पणे पसुत्त-प्रसुल-त्रि० । 'अतः समृद्ध यादौ वा" ॥ ८॥१॥४४॥ आदर्श, असौ खरे, तोये उदके, कुड्ये भित्ती, प्रादिशब्दा- इति सूत्रेणाऽऽदेर्दी? वा । प्रा०१ पाद । निद्रां गते,प्रातु । द्वाहादौ वा यद्देवताऽऽदिकमवाणं पृच्छति पश्यति वा स पसुत्तविगम-पशुत्वविगम-पुं० । पशुत्वमझत्वं तस्य विगमोऽ. प्रश्नः । यदि वा--"कुद्धाई" इति पाठः । तत्र च ऋद्धः प्रशान्तो पगमः सर्वथा निवृत्तिः । प्रशानध्वंसे, षो० १६ विव०। वा यत्तथाविधकल्पविशेषात्पश्यति स प्रश्न इति । बृ० १ उ० २ प्रक०। नि० चू०। आचा1 (मार्गे यादृशान् प्रश्नान कुर्यात् पसुत्ति-प्रसुति-स्त्री०।नखाऽऽदिविदारणेऽपि चेतनाया असं. यादृशान् वा प्रश्नान् पृष्टोन व्याकुर्यात्तथा 'विहार'शटे वितिद्रुतीपाये, पिं०। पसिणविजा-प्रश्नविद्या-स्त्री०। यकाभिःक्षामकाऽऽदिप - पसुधम्म-पशुधमे-पुं० मात्रादिगमनलक्षणे पश्वाचारे, दश० बताऽऽधिकारः क्रियते तासु विद्यासु, स्था० १० ठा। १०।। पसिणहलिया-प्रश्नहलिका-स्त्री०। शब्दार्थचित्र पद्यभेदे, त- पसुपाल-पशुपाल-पुं० । प्रजाऽऽदिपशुरक्षके,ध०र०१ अधि. १ गुण । उत्त०। (पशुपालदृष्टान्तः 'धम्मरयण' शब्ने चतु. द्रचनं चतुषाष्टितमा कला । कल्प. १ अधि०७ क्षण। र्थभागे २७२६ पृष्ठे गतः) पसिणापसिण-प्रश्नाप्रश्न-पुं० स्वप्नविद्यया कथितस्यान्य पसुबह-पशुवध-पुं०। पशुहिंसायाम् , सूत्रः ११०५ १०१ स्मै कथने, ध०३ अधिः । बृ।। उ०। प्रश्नाप्रश्नमाह-- पसुभत्त-पशुभक्त-न । रानादिना पशुभ्यो वितीर्यमाणे श्रापसिणापसिणं सुमिणे, विज्जासिट्ठा कहेइ अन्नस्स । हार, निच० उ०। अहवा आइंखिणिया, घंटियसिहँ परिकहइ ॥५१४॥ पसभय-पशभत-पुं० । पशुकल्पे, यथा हि पशुराहारभयमैथुयत् स्वप्ने अवतीर्णया विद्यया विद्याधिष्ठाच्या दे- नपरिग्रहाभिज्ञ एवं केवलमसावपि सदनुष्ठानरहितत्वात्पशुवतया शिएं कथितं सदन्यस्मै कथयति । अथवा- कल्पः । सूत्रः ११०५०२ उ०। "श्राइखिणिया" डोम्बी, तस्याः कुलदैवतं घण्टिकयक्षो नापसमेह-पशुमेध-पुं। अश्वमेधे, प्रा. म०१०। म पृष्टः सन् कर्ण कथयति । सा च तेन शिष्टं कथितं पसुसंघाय-पशुसंघात-पुं० । गवादिपशुवर्गे,वृ० १उ० ३प्रक०। सदन्यस्मै प्रच्छकाय शुभाशुभाऽऽदि यत्परिकथयति एप प्रनाप्रश्नः । वृ०१ उ०२ प्रक० । व्य० । पं०व० । श्राव। पसुसंसत्त-पशसंसक्न-त्रि०। गवादिभिः संसक्ने, स्था०६ठा० । नि० चू०। पमअ-प्रमत-न । कुसुमे, “कुसुमं पसवं पसूअं च।" पाइ० पमिणाय यण-प्रश्नाऽऽयतन-नका आदर्शप्रश्नाऽऽदेराविष्कर ना० १३६ गाथा। णे, यथावस्थितप्रश्ननिर्णयने,लौकिकाना परस्परव्यवहारे.मि. पमृइ-प्रसूति-स्त्री०। उत्पत्ती, नि० चू०२० उ० । श्रा० म० । थ्याशास्वगतसंशय वा प्रश्ने सति यथावस्थितार्थकथनद्वारेण निर्णयने, सूत्र० ध्रु०६अ। प्रतिः। विशे०। पमिद्ध-प्रसिद्ध-त्रि० प्रकर्षण सिद्ध प्रसिद्धम । साधनीया पडत्ता-प्रसूय-श्रव्य० । उत्पाद्येत्यर्थ, सूत्र०२१०२०। पसून-देशी-न) । कुसुमे, दे० ना० ६ वर्ग ६ गाथा । स्थामापतिते, सूब०११०१०१०। प्रख्याते. प्रशन संबा द्वार। पसूय-प्रसूत-त्रि । जाते, सूत्र. ११० १० अ० । प्राचा। पामिद्धि-प्रसिद्धि-स्त्री० । प्र-सिध-निन् “अतः समृद्धयादौ | रा। श्रा०म०। वा" || 121४४॥ इति वाऽऽदेीर्यः । प्रा०पाद । ग्रामप-पसदि-प्रश्रेणि-स्त्री०। तथाविधविन्दुजाताऽऽदेः पइनेविनिपरिहार, प्रा०म० अ० अनु० । उत्तर पन. विशः।"न- तायां पटाका. ग्रा० म० अ० । जी । ग०। Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१४ ) अभिधानराजेन्डः | पहल परंजण मभजन पुं० पवने, “अलि गंध मारुश्री समीरो पहंजणो पवणो” पाइ०ना० २५ गाथा | स०| कल्प० । पहकर - प्रहकर - पुं० । समूहे भ० श०३३ उ० । श्रन्त० । निकरे, शा० १ ० १ ० । संघाते, रा० विपा० । जं० । श्र० । जी० । पाइय पसेणइव प्रसेनजित पुं०] अवसर्पिणीजातानां पञ्चादशानां ञ्चमे कुलकरे, स्था० ७ ठा० । जं० प्रश्न० । कल्प० । श्रा० म० । प्रति० द्वारवत्यां गमन्यवृष्णे धीरयां जाते स्वनामख्याते पुत्रे, सचारिष्टनेमेरन्तिके प्रव्रज्य शत्रुञ्जये ऽनशन मृतस्विद्ध इत्यन्तदशानां प्रथमं वर्गेऽमेध्ययनम् अ त० १ ० १ वर्ग १ श्र० । स्था० । राजनगरमहाराजे श्रेणिकमहाराजपितार नं०] "सीपुर राजद महाराज प्रसे नजित् णिकस्तस्य पुत्रोऽभूद, राजललक्षितः॥२॥ आ० ० १ अ० आ० येन राजगृहनगरं निवासितम्। जाव० ४ अ० । ० क० ० ० । " पसेय- प्रसेक - पुं० । अधिकनिष्ठीवनप्रवृत्ती, "प्रसेकः सदनं पहण - देशी-कुले, दे० ना० ६ वर्ग ५ गाथा | भ्रम" इत्येतानि श्रजीर्णकार्याणि । ध० १ अधि० । पसेयग- प्रसेचक - पुं० । कोस्थलके, हतौ स च ऊर्द्धमपाटितेनापनीतमस्तकेन निकर्षितचन्तर्वर्तिसर्वास्थ्यादिकचवरेणापरचर्ममय स्थिग्गल कस्थगिता पानच्छिद्रेण संकीर्णमुखीकृतवान्तर्विवरेणा जापश्वोरन्यतरस्य शरीरेण सेवक कोथलका प्रायो यवनेजलभारड तया व्यवहार्यते । पिं० । पसेव - देशी - ब्रह्मणि दे० ना० ६ वर्ग २२ गाथा | पाइ०ना० । स० । कल्पः । पस्ट - पट्ट - पुं० | "दृष्ठयोः स्टः " || ८ | ४ | २६० ॥ इति द्विरुक्तस्य दृस्य सकाराऽऽक्रान्तः स्टः । वस्त्रे, प्रा० ४ पाद । य- त्रि० । दर्शनयोग्ये, स्था० । पस्स-दृश्य 66 थे, काइया (नो पति areeमेगसरीरं नोपसं भवइ । तं जहा - पुढवीकाइयाउकाइया वणस्सफाइया ॥ नो दश्यमिति सूक्ष्म वसु स्सं तीति पाठः । तत्र न सुखदृश्यं न चक्षुपा प्रत्यक्ष दृश्यमनुमानाभिस्तु दयमपीत्यर्थः बारा तथा सूक्ष्माण पञ्चानामपि यदेकमनेकं वाऽदृश्यमिति चतुर्णामपन स्पतय इति साधारणा एव ग्राह्याः, प्रत्येकशरीरस्यैकस्यापि दृश्यत्वादिति । स्था०४ ठा०३ उ० । जंबूदीवम्मि दोसु पासेसु ।" मण्ड० । प्रहार - पुं० । घम् वृद्धिर्वा || १६८॥ इति दीर्घाऽऽकारस्य ह्रस्वः । प्रहरणैर्धाते, प्रा० १ पाद । पहरण - प्रहरण-न‍ । प्रहारप्रवृत्ते, प्रश्न० ३ श्रध० द्वार । सिकुन्ताऽऽदिके श्रायुधे, श्राचा० १ ०१ श्र०५ उ० ॥ श्र० म० | नि० चू० । औ० | जी० स्था० आ० क० प्रश्न० रा० । उत्त० । शा० "जामो पहरो ।” पाइ० ना० २६८ गाथा । "पहरणाभरणभरिषद" प्रहरणानामायुरुवचन भृतं ययुद्धसजं च संग्रामगुणं च यत्तत्तथा। श्री० । भावे. ल्युट् । प्रहारदाने, ज्ञा० १ ० २ श्र० । “ आउदं श्रत्थं च पहरणं होइ ।" पाइ० ना० १२१ गाथा । पहरणकोस-प्रहरणकोश-पुं० प्रहरणाने रा०स्था स०॥ " पसंत पश्यत् क्रि० पर्यालोचयति सूत्र० १० २०४४० पस्यवत्तण- प्रश्रवत्व- न० | विनयनन्नतायाम्, सूत्र० २५० १ अ० । पद । सप्तमवासुदेवमतिराधी निः । 6 पह पथ-पुं मार्गे विशे० अनु० स्था० प्रश्न० रा० पहराइया - महरादिका ०१ । । । । । ॥ पथिमितिशपर्यायस्य पथशब्दस्यादन्तस्य दर्शनात् । स्या० । प्रज्ञा० । श्रा० म० । मग्गो पंथो सरणी, श्रद्धाणं वतिणी पहां पयवी ।" पाइ० ना० ५२ गाथा । पचिन् पु० मार्गपचिविप्रतिकिरिङ्गादिभीतकेण्वत् " ॥ ॥ इति इकारस्याकारः । प्रा०१ पाद । सामान्य मार्ग, कल्प १ अधि० ५ क्षण । पहएल्ल - देशी - पणके, दे० ना० ६ वर्ग १८ गाथा । पकरा-भरा खीस्वनामयातायां सूर्यामहिष्याम् शा० २ श्रु० = वर्ग ४ श्र० । J पदट्ट पहष्ट विप्रमुदितं महविद महर्षे, बृ० १ ० २ प्रक० दे० ना० । पट्टभमरगण - प्रहृष्टभ्रमरगण - पुं० । प्रमुदितमधुकरनिकरे, प्रश्न ४ श्रश्र द्वार। जी० भ० । " पहणी - देशी - संमुखाऽऽगतनिरोधे, दे० ना० ६ वर्ग ५ गाथा । पहद - देशी - सदा दृष्टे, दे० ना ०६ वर्ग १० गाथा । पहम्म-प्रहम्म धा० । 'हम्म' गतौ । प्रघाते, 'पहम्मद'। महम्म ते । प्रा० ४ पाद | सुरखाते, दे ना० ६ वर्ग ११ गाथा । पहय प्रहत - त्रि० । श्राच्छोटिते, जं० २ वक्ष० । क्षूणे, " श्राय रिएहिं पश्रो मग्गो ।" बृ० १ उ० १ प्रक० | पहयर - देशी-निकरे, दे० ना ६ वर्ग १५ गाथा ओली उपपरी गण पयरो | १० | दो निवहां संघी, संघाश्र संहरो निश्ररो। संदोहो निउरंबो, भरो निहाम्रो समूहइ-नामाई ॥ १६ ॥ पाइ० ना०१८-१६ गाथा । पढमपहराइकाला, पहर - प्रहर - पुं० । श्रहोरात्राष्टमे भागे, | " उप्पक्को पदराव प्रभाराज - श्राव० । ती० | प्रब० । परिस-प्रहर्ष - पुं० महर्षणं यह स्वनमेलापका दी घमेलापकाऽऽदौ वा महती पूजा भविष्यतीति प्रमोदे, अनु० । "आमोश्री पहरिसी तोसो ।" पाइ० ना० १६८ गाथा । पहलि - देशी - विषमे दे० ना० ६ वर्ग १५ गाथा । पहल्ल - घूर्ण - प्रा० । भ्रमणे, "घूर्णो घुल-घोल - घुम्म- पहल्लाः निधाना। पहला देशः प ते । प्रा० ४ पाद | יך Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहसिय पहसिय प्रहसित न० । हास्ये, वृ० १ उ० ३ प्रक० भ० । सिमा विवा० १ ० ६ अ० कर्त्तरि क्रः श्वेतप्रभा पटलप्रबलनया हसति । श० १ ० १ ० । पहा प्रभा - स्त्री० । चन्द्राऽऽदीनां प्रकाशे, उत्त० २८ श्र० । दीप्तौ चं० प्र०१८ पाहु० । प्रभावे, उपा० २ श्र० । श्राव० । आलोश्रो उज्जोओ, दित्ती भासा पहा पयासो य । ना० ४८ गाथा । " पाइ० | पहाण - प्रधान न० । उत्तमे नि० १ ० १ वर्ग १ श्र० । झा० नं० जी० जे० । प्रवरे अपेक्षणीये, पञ्चा० ७ विव० । औ० । स्या । प्रभौ, स्था० ४ ठा० २ उ० । मुख्ये, विशे० । जं० । श्र० । भः । सूत्र० । साधकतमे पञ्चा० ४ विव० । स स्वरजस्तमोरूपे श्रव्यक्ते प्रकृतौ, सूत्र० २ श्रु० ५ ० श्राव० । दशा० । सम्म० । 1 (१५) अभिधानराजेन्द्रः । पाणकनिबंध-प्रधानकार्यनिबन्ध-पुं० प्रधानावि शिष्टफलदायिनि प्रयोजने आहे. द्वा० १२ द्वा० । पहाराकड प्रधानकन प्रि० । सांख्यपरिकल्पितया सच स्तमसां साम्यावस्थारूपयाऽऽविर्भाविते, सांख्यानां हि पुमर्थापेक्षप्रकृतिपरिणाम एव लोक इत्यन्यत्र परीक्षितम् । सूत्र० १० १ ० ३ उ० । पहाण जय-प्रधाननयः सर्वशत् ततो मनी जावत्वं विकरणाभावः प्रधानजयश्च । द्वा० २६ द्वा० । पहारादन्य-प्रधानद्रव्य न चन्दनागरुकर्पूरपुष्पाऽऽदिषु प्र परपूजा पा०वि० सम० । पहिय पथिक- पुं० पथि गच्छतीति पथिकः । नानाविधनगरग्रामदेशपरिभ्रमणकाशित पृ० १३०३ प्रफ महित त्रि० केनापि कचित्कार्य प्रेषिते ०१०८० प्रथित त्रि० । प्रसिद्धिं गते, सूत्र० १० २ ० २ उ० । पहियकित्ति - प्रथितकीर्ति - त्रिः । विश्रुतयशसि, औ० । जं० ॥ - । स्वास संचा० जे० पहीण महीरा त्रि० प्रकर्षेण हीनं रहितं प्रहीणम् । श्राव०३ । श्रा० म० । प्रभ्रष्टे, सूत्र० २ ० १ ० । प्रभ्रष्टे, त्यक्ते, उत्त० १४ श्र० । परित्यक्ले, सूत्र० ३ श्रु० १ प्रक्षीण- त्रि० । नष्टप्राये, स्था० १ डा० । ० । स्था० । पहाणपुरिस - प्रधानपुरुष - पुं० | तात्कालिकं पुरुषाणां शौ - पहीणगोत्तागार - प्रहीण गोत्रागार - न० । प्रहीणं विरलीभूतं ऽऽदिभिः प्रधानत्वात् । स० । वासुदेवे, स० । पहाणभाव - प्रधानभाव - पुं० । प्राधान्ये, पञ्चा० २ विव० । पारामा प्रधानमार्ग पुं० महापुरुषसेविते (उत्त० १४ मानुषं गोवागारं तत्स्यामि येषां तानि तथा भ० ३ श० ७ उ० । येषां महानिधानानां धनिक सम्बन्धीनि गोआणि अवाराणि च प्रीणानि विरलीभूतमि भवन्ति तानि प्रहीणगोवागाराणि । तेषु, कल्प० १ अधि० ४ क्षण । । प्रक्षीणे - पहीराजरमरण - पक्षीराजरामरण-पुं० प्रती पुनर्भा चिपेग जरामरणे येषां ते तथा जन्माऽऽदियजाभावात् । पं० सू० १ सूत्र । वयोहान्या प्राणत्यागेन च वियुक्ते. ल० । पीथवमी (डी) वसंस्तव पुं० प्रक्षीय प्रदी वा संस्तवः वचनसंवासरूपो वा यस्य सः । गृहिभिः सहासंसर्गवति, उत्त० २१ श्र० । पहीयसामिय-प्रहीणस्वामिक-न० | अल्पीभूतस्वामिके धने, कल्प० १ अधि० ४ क्षण । भ० । महकन० पीभूतनम भ० अ० ) प्रव्रज्यारूपे मोक्षमार्गे, उत्त० पाई० १४ श्र० । पहाणमहेलागुण--प्रधानमहेलागुण - पहाणमोलागुण- प्रधानमहेलागुण पुं० । श्रांतशायिमहे लानां प्रियम्वदत्वभर्तृवित्तानुवर्तकत्वप्रभृतिषु गुणेषु, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । पहाय - महाय श्रव्य० । परित्यज्येत्यर्थे श्र० । श्राचा० । पहार - प्रहार - पुं० | कशाऽऽदिना प्राणिनां क्लेशविशेषाऽऽपादने.शा॰ १ श्रु० २ अः । प्रश्न० । “ घणं पहारी । ” पाइ० ना० २२४ गाथा।" - ין पहारगाढ गाढप्रहार- पुं० । प्राकृतत्वात् गाढशब्दस्य परनिपातः । दृढायाते, दश०७ श्र० । पहारिय- प्रधारित - त्रि० । विकल्पिते, शा० १ श्र० ८ श्र० । पहारेता - प्रधारपिट - त्रि० । स्थापयितरि, भ० ५ श० ६ उ० । पहारेमा प्रचारयन् विपर्यालोचयति स्था०३डा० सूत्र ० पहावरा - प्रधावन - न० । शीघ्रं कार्यस्य निष्पादने, व्य० १३० । पहाविय प्रभावित वि० । वेगेन प्रवृत्तं प्रश्न ० ३ श्रश्र० द्वार । " ततो सां नगरं पहावितां । श्र० म० १ ० । तं चक्करयणं पुचाभिमुहं पहावियं । 1 आम० अ० | पहुजिगावरसूरि पहास महास-पुं० निन्दास्तुतिरूपे उपहासे, आतु० धी० । पहासमुदाय प्रभासमुदाय पुं० ६० कान्तिसमूहे, कल्प १ अधि० २ क्षण । - पहि-मधि-पुं० नेमी, रोगे है० । 1 पहिच पान्ध-पुं० "पथी रास्येकद" ॥ २१५५॥ "नित्यं पन्थश्च " ॥ ६ | ४ | ८६ ॥ इति सूत्रेण यः पथो णो विधितस्तस्यैकद् भवतीति इकट् । नित्यपथिके, प्रा० २ पाद । पूगफले, दे० ना० ६ वर्ग ६ गाथा पहिऊण - प्रहाय श्रव्य० । परित्यज्येत्यर्थे व्य० ३ उ० । पहित्ता प्रहाय - श्रध्य०। प्रकर्षेण स्थगयित्वेत्यर्थे, स० ३० परीणसे ३ श० ७ उ० | कल्प० । पहु-प्रभु - त्रि० । समर्थ, श्राचा० १ ० ५ श्र० ६ ३० । स्वामिनि, श्राव० ४ श्र० । श्रावा० । सम्बोधने तु "डो दीयों या " ॥ ८ ॥ ३ । ३८ ॥ इति नित्यं सेड प्राप्ती " अक्कीचे सौ " ॥ ८ ॥ ३। १२ ॥ इति इदुनोरकारान्तस्य च मामा सीवा भवतीति दीर्घविकल्पः । हे पहु हे पह प्रा० ३ पाद पजिरावरमिजिनवर रिपुं । विविधत शके प्रवचनाद्भावकं श्राचार्ये, ती० २१ कल्प । Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहुछ अभिधानराजेन्द्रः। पानकरण पह-प्रहष्ट-त्रि० । प्रकर्षण हृष्टः ग्रहृष्टः। प्रहसितमनसि, नि० पाई-पात्री-स्त्री०। भाजनविशेषे, स्था० ६ ठा० । जीरा। चू०४उ०। सूत्र। पहडि-प्रभृति-अव्य० । “प्रत्यादी उः"॥८१ । २०६ ॥ इति प्राची-स्त्री० । सूर्यदर्शनदिशि, यत्र यः सूर्य पश्यति सा त. तकारस्य उकारः । प्रा० १ पाद । " उदृत्वादा" ॥८११३१॥ स्य प्राची। सूत्र०२ श्रु०७ अ०। (" जस्स जो श्राइचो, इति सूत्रेण ऋकारस्योकारः । प्रा० १ पाद । तदारभ्येत्यर्थे, उपइ सा तस्स होइ पुवदिसा ॥४॥” इत्यादिगाथा ' दि. वाच०। सा' शब्दे चतुर्थभागे २५२३ पृष्ठ गता) पूर्वस्याम्, स्था०२ पहुत्त-प्रहल-न० । द्रव्यतो नीचैर्वृत्तिलक्षणे, भावतश्च सा- ठा० १ उ० । आचा। ध्वाचारं प्रति प्रवणत्वरूपे नीचत्वे, उत्त० १० । नि०चू०। पाईण-प्राचीन-त्रि० । अपश्चिमे, पं० चू०१ कल्प । पूर्वाभि" पजत्तं च पहुत्तं ।” पाइ० ना १८४ गाथा । मुखे प्राच्याः दिशि स्थिते, सूत्र०२ ध्रु०७०। प्राचा। पहत्थ-वि-रेच-धा० । आन्तरवस्तूनां बाह्याकरणे, “वि- पूर्वस्यां दिशि, स्था० २ ठा० १ उ० । सापाचा प्राम। रिचेरालुण्डोल्लएडपहुस्थाः "॥ ८।४।२६ ॥ इति विपूर्व- पाईणगामिणी-प्राचीनगामिनी-स्त्री०। पूर्व दिग्गामियाम् ककरेविधातोः पहुत्थाऽऽदेशः । 'पहुत्थइ ।' विरेचयति । प्रा० ल्प०१ अधि० ५क्षण । ४पाद। पाईणतम-पाचीनतम-स्त्री० । पूर्वजन्मनि, श्रा०क०४०। पहसदिट्ठप्रभुसंदिष्ट-त्रि० । प्रभ्वादिष्टे, पृ० १ उ०२ प्रक०। पाईणपडाणायय-माचीनप्रतीचीनाऽऽयत-त्रिका प्राचीनं पूर्वपहेजमाण-प्रहीयमान-न० । जीवप्रदेशः सह संक्लिएस्य क. मणस्तभ्यः पतनलक्षणेन हीयमाने कमाण,भ० १ श०१ उ०। तः प्रतीचीनं पश्चिमत आयता । पूर्वतः पश्चिमतश्च दीर्धे, स० ६००० सम०। पहेणय-प्रहेणक-न० । वध्वा नीयमानायाः पितृगृहे भोजने, पाईणवाय-प्राचीनवात-पुं० । पूर्वदिग्वाते, भ० ३ श० ७ उ०। श्राचा०२१०१०१०४ उ० सूत्र० । ''वायणं च पहणया" यः प्राच्या दिशः समागच्छति वातः । जी०१ प्रति० स्था। पाइ0 ना० २०६ गाथा । भोजनोपायोत्सवेषु, दे० ना० ६ वर्ग चं०प्र०। ७३ गाथा। पहेलिया-प्रहेलिका-स्त्री० । गूढाऽऽशयपधे, स० ७२ सम० । पाईणवाह-प्राचीनवाह-पुं० । पूर्वदिगभिमुखप्रवाहे, वृ० १ जं० । झा०। उ०३ प्रक। पहोइअ-देशी । पर्याप्त-प्रभुत्वयोः, दे० ना० ६ वर्ग २६ गाथा । पाईणस-प्राचीनश-पुं० । स्वनामख्याते गोत्रप्रवर्तके ऋपा, " थेरे अज्जभहबाह पाईणसगत्ते।" कल्प० २ अधि०८ क्षण । पहोलिर-प्रपर्णक-त्रि० । हिकायाम्, (हिंचकनार-गुजराती) पाईणा प्राचीना-स्त्री० । पूर्वस्याम् , स्था० ६ ठा० । ( का प्रा. "रंखोलिरं पहोलिरं।" पाइ० ना. १८६ गाथा । चीनेति 'दिसा' राब्दे चतुर्थभागे २५२३ पृष्ठे निर्णीतम् ) . पहोवण-प्रधोवन-२० । पुनःपुनः प्रक्षालने, भाचा०२ श्रु०१ चू० २ ० १ उ० । नि०चू। पाउ-पायु-पुं० । पिवति तैला:दिकमनेनेति पायुः। गुदे,प्रा. चा०१ श्रु०१०६ उ०। पा-पा-धा० । पाने, “स्वरादनतो वा" ४ । २५०। प्रादप-अव्य प्रकाश्ये सूत्र०१ श्रु० १५ १० । अनु शा० । त्यकाराऽऽगमः । 'पाइ । पाह' प्रा०४ पाद । पाचरणे.पारस्थलोपालन पाउप्र-प्रावत-त्रि० । "उदृत्वादो" ||८।१।१३१ ॥ इति सू. स्तीणे वितम्त्यद्धे, पादैकदेशत्वात्पादत्वव्यपदेशात् । अनु० । त्रेण ऋकारस्योकारः । आच्छादिते, प्रा० १ पाद । रथचक्रे, दे० ना० ६ वर्ग ३७ गाथा। पाउअय-प्रावृतक-त्रि० आच्छादिते, "ऊढिश्रयं पाउअयं ।" पापड-प्रकृत-वि० । "श्रतः स्वरादनतो वा" ॥८।४।२४०॥ पाइ० ना० २६५ गाथा। इनि सत्रणाऽऽदेर्वा दीर्घः । प्रक्रान्ते, प्रा०४ पाद । पाउमा-पादुका--स्त्री०। पदु-स्त्री० भावे उण पादृ स्वार्थ क हस्वः। पाइअ-देशी-यदनविस्तारे, दे० ना० ६ वर्ग ३६ गाथा । । चर्ममये पादाऽऽच्छादने, वाच । श्री। पाइक-पदाति-पुं०। “मलिनोभय-शुक्रि-छुनाऽऽरब्ध-पदा. पाउआजुग-पादुकायुग-पुं० । पादुकायुगे, औः। तेमइलावह-सिप्पि-छिका-ढत्त-पाइक" ॥२।१३८॥ पाउकर-प्रादुष्कर-त्रि० । स्वतः सन्मार्गानुष्ठायिनि, अन्ये. इति संत्रण पदातिस्थान पाइकाऽऽदेशः । प्रा०२ पाद । पाद पांच प्रादुर्भावके, सूत्र थु० १५ अ०। चारिणि सन्याहूपप. प्रश्नाथद्वार। पारकिमि-पायुकृमि-स्त्री० । गुदजातकमी, प्राचा० १श्रु० पाइत-देशी-इतस्तनः स्पन्दिते, वृ०१ उ०२प्रक०। । १०६ उ०। पाइत्त-पाक्य-त्रि० । पाकप्रायोग्ये, दश० ७०। पारक्त-देशी-मार्गीकृते, दे० ना० ६ वर्ग ४१ गाथा पाइभ -प्रातिभ-न० अक्षलिङ्गशब्दव्यापारानपेक्ष ज्ञान,रत्ना०२ पाउकरण-प्रादृष्करण-न० । प्रादुःशब्दः प्रकाशार्थस्तकपरि० । “प्रातिभान्सर्वतः संवित्" द्वा० २६ द्वा० । पो।। रणम् । पञ्चा० १३ विध) । यहिप्रदीपमगयादिना भिज्यपपाइलय-देशी-कटनिर्वनके अयोमये उपकरण. प्रा० म०१ नयनेन वा वहिनिष्काश्य द्रव्यधारणेन चा प्रकटकररंग, ध.३ अधिग अविशः। पञ्चापं.) व जी। प्रश्न | प्रव)। Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) पाउकरण अभिधानराजेन्दः । पाउकरण तद्योगात् प्रादुः प्रकट करणं यस्येति वा । उद्गमदोषविशिष्टे, परमिदानी चिन्तितं-किं मातृस्थानकरणेनेति न मायां भक्तादौ च । पिं० । प्राचा० । स्था। कुर्मः?, ततः सा चिन्तितवती-अहोऽयं निर्द्धमा पापीयान् , अथ प्रादुष्करणद्वारं विभणिषुः प्रथम. यस्तादृशमपि साधुं निन्दतीति विसर्जितः । इत्थंभूता च तस्तत्संभवं गाथाषट्रेनाऽऽह भक्तिपरवशगा साधुदानाय प्रादुष्करणमपि कुर्यादिति प्रा. लोयविरलुत्तमंगं, तवाकिसं जल्लखउरियसरीरं । दुष्करणसंभवः। जुगमेत्तंतरदिडिं, अतुरियचवलं सगिहमितं ॥ २६॥ ___संप्रति तदेव प्रादुष्करणं गाथाद्वयेनाऽऽहदट्टण य अणगारं, सड्डी संवेगमागया काइ। पाओकरणं दुविहं, पागडकरणं पगासकरणं ।। विपुलन्नपाण घेत्तू-ण निग्गया निग्गओ सो वि ॥२६३।। पागड संकामण कु-हदारपाए य छिन्न व ॥२६८।। नीयदुवारम्मि घरे, न सुज्झई एसण त्ति काऊणं ।। रयणपईवे जोई, न कप्पइ पगासणा सुविहियाणं । नीहम्मिए अगारी, अच्छइ विलिया व गहिएणं ॥२६४॥ अत्तढि अपरिभुत्तं, कप्पइ कप्पं अकाऊणं ॥२६६।। चरणकरमालसम्मि य, अनम्मि य आगए गहिय पुच्छा। प्रादुष्करणं द्विधा । तद्यथा-प्रकटकरणं प्रकाशकरणं च । तत्र इहलोग पलोग, कहेइ चइ इमं लोगं ॥ २६५ ॥ प्रकटकरणम्-अन्धकारादपसार्य बहिः प्रकाशे स्थापनम् ।प्र काशकरणं-स्थानस्थितस्यैव भित्तिरन्ध्रकरणादिना प्रकटीनीयदुवारम्मि, भिक्खं निच्छंति एसणासमिया। करणम् । एतदेवाऽह-तत्र प्रकटकरणमन्धकारादन्यत्र संक्राजं पुच्छसि मज्झ कहं, कप्पड़ लिंगोवजीवीऽहं ॥२६६॥ मणेन प्रकाशकरणं (कुडदारपाए इत्यादि ) अत्र सर्वत्राऽपि साहुगुणसणकहण, आउट्टा तम्मि तिप्पइ तहेव ।। तृतीयार्थे सप्तमी, कुड्यस्य द्वारपातेन रन्ध्रकरणन, यदि कुक्कुडि चरति एए, वयं तु चिमब्बया बीओ ॥२६७।। वा-कुडपेन मूलत एव छिन्नेन येन कुडयेन कुज्यैकदेशन काचित् श्राविका अनगारं साधुमेकाकिविहारिणं लो. वाऽन्धकारमासीत्तेन मूलत एवापनीतेनेत्यर्थः । चशब्दादचविरलोत्तमाङ्गम् अत्रोत्तमाङ्गशब्देनोत्तमाङ्गस्थाः केशा म्यस्य द्वारस्य करणेन चेत्यादिपरिग्रहः॥ तथा-रत्नेन पद्मराउच्यन्ते । ततोऽयमर्थः-लोचेन विरलोत्तमाङ्गकेशं तपःकृशं गाऽदिना प्रदीपेन प्रतीतेन ज्योतिपा ज्वलता वैश्वानरेण तमलकलुपितशरीरं युगमावान्तरन्यस्तदृष्टिमत्वरितमचपलं त्रैवं प्रकाशना सुविहितानां न कल्पते । किमुक्तं भवति ?स्वगृहमागच्छन्तम् ॥ दृष्ट्वा संवेगमागता, ततो गृहमध्ये विपु. प्रकाशकरणेत प्रकटकरणेन च यद्दीयते भक्ताऽऽदि तत्संयलं भक्तं पानं च गृहीत्वा गृहमध्याद्विनिर्गता, सोऽपि च सा- तानां न कल्पते, तत्रैवापवादमाह-(अत्तट्टि ति) आत्माधुः॥ नीचद्वारेऽस्मिन् गृहे न शुद्धयति ममैपणेति कृत्वा ततः र्थीकृतं तदपि कल्पते. नवरं ज्योति प्रदीपौ वर्जयेत्, तास्थानाद्विनिर्जगाम, निर्गते च तस्मिन् गृहीतेन भक्तपानेन भ्यां प्रकाशितमात्मार्थीकृतमपि न कल्पते, तेजस्कायदीप्तिसंजातविप्रिये वाऽवतिष्ठते ॥ अत्रान्तरे चरणकरणालसोऽ संस्पर्शनात् । साधुपात्रमाश्रित्य विधिमाह-इह सहसाकारा. न्यस्तस्मिन् गृहे साधुभिक्षार्थमागतः, ततस्तस्मै सा भिक्षा दिना प्राकुश्करणदोषाऽऽघ्रातं कथमपि भक्तं पानं वा गृहीतं, तया दत्ता, गृहीतायां च भिक्षायां स साधुः पृष्ठो यथा ततस्तत् अपरिभुक्तम् उपलक्षणमंतत्-अर्द्धभुक्तमपि परिस्थाभगवनिदानीमेव साधुरीशस्तादृशो वाऽत्र समागतः, परं प्योहरितसित्थुलेपाऽऽदिना खरण्टितापि तस्मिन् पात्रे कल्प तेन भिक्षा न गृहीता, त्वया गृहीता, तब किं कारणम् ?। जलप्रक्षालनरूपमकृत्वाऽप्यन्यत् शुद्धं गृहीतुं कल्पते । ततः स पेहलौकिकं भिक्षालाभमात्राऽऽदिकं पारलौकिकं एतदेव गाथाद्वयं विवरीषुः प्रथमतश्चुलीसं- . धर्म यथाक्रममल्पगुणं बहुगुणं च विचिन्त्येमं लोकम्-लो क्रमणमाश्रित्य प्रकटकरणं स्पश्यतिकात् लभ्यं भिक्षामाबाऽऽदिकं परित्यज्योक्तवान् ॥ यथा-नी- संचारिमा य चुल्ली, बहिं व चुल्ली पुरा कया तेसिं । चहारे गृढे साधव एवणासमितिसमिता भिक्षां नेच्छन्ति, तत्राम्धकारभावत एषणाशुद्धभावात्.सीऽपि च भगवान् । तहिं रंधति कयाई, उवही पूई य पाओ य ॥३००। साधुरेपणासमितस्ततो न गृहीतवानिति । यद्यप्युक्तम् इह विधा चुल्ली । तद्यथा-एका संचारिमा, या गृहाभ्यन्त. कि कारणं त्वया गृहीता?, इति, तत्राहं लिङ्गमात्रोपजीवी, न रवर्तिन्यपि बहिरानेतुं शक्यते । चशब्दात्साउन्याधाक रवतिन्याप बाहरा साधुगुणयुक्तः ॥ ततः साधूनां गुणानेपणां च यथागमं कथि. मिकी दृष्टव्या. द्वितीया बहिरेव तेषां साधूनां निमित्तं चुल्ली तवान्, ततः सा स्वचेतसि चिन्तयामास-अही जगति नि. पुरा कृता आसीत् । चशब्दात्तदानी वा साधुनिमितं वहिजदोपप्रकटने परगुणात्कीर्तनं चातिदुष्करम् , तदन्यतेन श्चुली कृता येदितव्या, सा च तृतीया । ततो यदि कदाचित कृतमिति तस्मिन्नतिशयेन भक्ति कृतवती. विपुलं च भक्त. तत्र तिसृणां चुलीनामन्यनमस्यां गृहस्था राध्यन्ति, ततो ही पानं (तिप्पा ति) तेपते क्षरति, ददाति स्मेति भावार्थः । दोपौ। तयथा-उपकरणपूतिः,प्रादुष्करणं च । यदाच चुल्ल्याः गते च तस्मिन् अन्यः कोऽप्यगणिनदीर्घसंसारपरिभ्रम- पृथकृतं तद्देयं वस्तु तदा प्रादुष्करणरूप एवैकः केवलो दोषः, एभयो निर्द्धर्मा साधुराजगाम, सोऽपि भितां हत्या नव पूनिदोपस्तूत्तीर्णः । यदा चुल्ल्योऽपि शुद्धात्तदाऽपि प्रादु. पृष्टः । ततः स पापीयानुक्तवान्-एते इत्थंभूताः कुकट्या फरणरूप पवैको दोपः।। मायया चरन्ति, ततस्त्वदीयचित्ताऽवर्जनार्थ तेन मातृस्था. । यदर्थ प्रादुरकरणं गृहस्था कृतवती तं भिक्षायै गृहमागनती न भिक्षा गृहीता,यावता न तत्र कश्चिद दोषः,दशानि च्छन्तं दृष्ट्वा यह जुत्वेन भापते, तदाहच मातृस्थानव हुलानि व्रताम्यस्माभिरपि पूर्व चीनि, नेच्छह तमिसम्मि नया, वाहिरचुल्ली साधु सिद्धम्म । Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाउरगा अन्निधानराजेन्डः। पाउस इय सोउं परिहरए, पुढे सिम्मि वि तहेव ।। ३०१ ॥ पाउग्गिअ-प्रायोगिक-पुं० । द्यूतकारयितरि, " पाउग्गियो हे साधो ! त्वं तमिश्रेऽन्धकारे भिक्षां नेच्छसि, ततो ब. य सहिश्रो।" पाइ० ना० १०४ गाथा। हिश्चुल्ल्यां सिद्धं पक्कमन्नम् इति अस्माभिः भक्तमिति श्रु. पाउड-प्रावृत-त्रि० । गुण्ठिते, प्राचा० १ श्रु० २ ०२ उ० । स्वा तया दीयमानं परिहरति, प्रादुष्करणदोपदुष्टत्वात् , छादिते, प्राचा० १ श्रु० २.४ उ० । प्रावरणसहिते, सूत्र० तथा प्रादुष्करणशकायां किमर्थमयमाहारोऽध गृहस्य बहि- २क्षु० २० । स्तारपकः ?, इत्येवं पृऐ तया ऋजुतया यथावस्थिते कथिते पाउप्पभाया-पादुःप्रभाता-स्त्रीला प्रादुः प्राकाश्येन प्रभाता।प्र. तथैव परिहरति । एतेनाऽऽधगाथायां "संकामण" इत्यवययो | काशप्रभातायां किश्चिदुपलभ्यमानप्रकाशायां रजन्याम् , व्याख्यातः। नन्षयं संक्रामणकृत श्राहारः केनाऽपि प्रकारेण अनु० । दशा०। कल्पते, किंवा न?, इति । उच्यते-आत्मार्थीकृतः कल्पते । पाउम्भवंत-प्रादर्भवत-त्रि० । प्रकटी नवति, स्था०३ वा०३ उ०। कथमस्या प्रात्मार्थीकरणसंभव इति चेदत आह- पाउम्भाव-प्रादुर्भाव-पुं० । उत्पादे, सूत्र० १ ० १ ०३ मच्छियघम्मा अंतो, बाहि पवायं पगासमासनं । उ० । दश०। तं०। इय भत्तद्वियगहणं, पागडकरणे विभासेयं ।। ३०२॥ इम्डाणां परस्परं प्रादुर्भावःसाभ्यर्थ पूर्व बहिश्युल्ल्यादि कृत्वा काचिदेवं चिन्तयति. पभू णं भंते ! सके देविंद देवराया ईसाणेणं देविंदगृहस्यान्तर्मक्षिका, धर्मश्च । उपलक्षणमेतत् , तेनान्धकारं दूर ण सद्धिं आलावं वा संलावं वा करेत्तए ?। हंतापभू जहा ब पाकस्थानात् भोजनस्थानमित्यादिपरिग्रहः, बहिश्च प्र. पाउब्भवणा । अस्थि णं भंते ! तेसि सक्कीसाणाणं देविपातं तेन मक्षिकाऽऽदयो न भवन्ति, तथा प्रकाशमासनं च पाकस्थानागोजनस्थानं, ततो वयमत्रैघात्मनिमित्तमपि दाणं देवराईणं किच्चाई करणिज्जाइं । हता! अत्थि । से सदैव पक्ष्याम इत्येषमात्मार्थीकृते प्रहणं, कल्पते इति भावः। कहमियाणिं पकरेइ ?। गोयमा! ताहे चेव णं से सके देविंदे इयं प्रकटकरणे कल्प्याकल्प्यविषया विभासा ।। देवराया ईसाणस्स देविंदस्स देवरलो अंतियं पाउंब्भवसंप्रति प्रकाशकरणं स्पष्टयन्, "कुडदारपाए" (२६८) इत्या इ। ईसाणे वा देविंदे देवराया सक्कस्स देविंदस्स देवदि ब्याचिण्यासुराह रमो अंतियं पाउब्भवइ । इति भो सक्का देविंदा देव. कुहस्स कुणइ छिई, दारं बलेइ कुणइ अन्नं वा। भवणेइ छायणं वा, ठावइ रयणं व दिपंतं ।। ३०३ ॥ राया दाहिणलोगाहिबई । इति भो ईसाणा देविंदा देवराया उत्तरडलोगाहिवई । इति भो इति भो त्ति ते अजोइपईवे कुणइ व, तहेव कहणं तु पुढ दुढे वा। भत्तद्विए उगहणं, जोइपईवे उ वजित्ता ॥ ३०४॥ मममस्स किच्चाई करणिजाई पच्चणुब्भवमाणा विहरति । प्रकाशकरणार्थ कुज्यस्य छिद्रं करोति, यत् वा-द्वारं लघु अस्थि णं भंते ! तेसिं सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं सत् वर्धयति बृहत्तरं करोति । यदि वा-अन्यत् द्वितीयं विवादा समुप्पअंति । हता! अस्थि । से कहमिदाणि प. द्वारं करोति। अथवा-गृहस्योपरितनं छादनं स्फेटयति । करेइ ?। गोयमा! ताहे चेव णं सकीसाणा देविंदा देवरायायदिषा-दीप्यमानं रत्नं स्थापयति ॥ यद्वा-ज्योतिः प्रदीप यो सणकुमारं देविंदं देवरायं मणसीकरेइ । तए णं से षा करोति, तथैवानन्तरोक्तेन प्रकारेण स्वयमेव यदि घापूरे सति प्रादुष्करणे कथिते यत् भक्ताऽऽदि प्रादुष्करणदो सणंकुमारे देविंदे देवराया तेहिं सकीसाणेहिं देविंदेहिं देवपए तत् साधूनां न कल्पते । यदि पुनः प्राप्तनेन प्रकारे- राईहिं मणसीकए समाणे खिप्पामेव सक्कीसाणाणं देविंगाऽस्मार्थीकरोति तदा प्रहणं कल्पते इति भावः । ज्योतिः- दाणं देवराईणं अंखियं पाउन्भवति । जं से बयइ तस्स श्राप्रदीपाभ्यां प्राकाशमात्मार्थीकृतमपि न कल्पते, तेजस्कायसं. णाउववायवयणनिदेसे चिट्ठति । भ०३ श०१ उ० । स्पात् । संप्रति "अपरिभुतं कप्पर कप्पं अकाऊणं" (२६६) इति पाउन्भूय प्रादुर्भूत-त्रि० । प्रायितने भागते, ज्ञा० १ ० १ ग्यात्रिख्यासुराह भाज। सू०प्र० । प्रौ। भा०म० समवसरणे समागते, रा०मा०म०॥ पागहपयामकरणे, कयम्मि सहसा व अहवऽणाभोगा 1 पाउया-पादका-स्त्री० । काष्ठाऽऽनिमये चरणरकोपकरणे, ध० गहियं विगिंचिऊणं, गेएहइ अन्नं अकयकप्पे ।।३०५॥ २ अधिः । भ० । प्रव० । " परिवारसंबुमा पाचयातो मुया !" प्रकट करणे प्रकाशकरणे वा कृते सति यत् सहसाऽनाभी. मा०म०प्र० सूत्र। गृहात तत् (धागाश्चऊण ) पारष्टाप्य तस्मिन् पा- | पाउरण-पावरण-न० । बने, आचा०२१०१३००१ न०) ने उज्झिते लेशमात्रखरएिटतेऽपि प्रकृतकल्प जलप्रक्षाल पाउरिय-प्राचुर्य-न । बाहुल्ये, स्था० ४ ० १ १० । नरूपकल्पदानाभावेऽप्यन्यत् शुद्धं गृह्णाति,नास्ति कश्चिहोवो, विशोधिकोटित्वात् । पिं पाउल्लग-पादवत्-न । पुरुषपुत्तल के, नि. चू०१०। पाउम्ग-पायोग्य-त्रि उचिते, पश्चा०१३ विव) । प्राय।। पाउस-पं०। प्रावष-स्त्री०1" उरत्वाद। " ॥८।११३१ ॥३. वशाला अनुज्ञापनीये, वृ०१ उ०२प्रक० । समाधिकारके ति उकारः। प्रा०१. पान । "प्रावृट-शरत्-तरगायः सि" द्रव्ये, नि० ० उ० प्रा० । । ॥ ६॥३१॥ इनि पुंस्त्वं प्राकृते । प्रा०१ पाद । आपादश्राव. Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१६ ) अन्निधान राजेन् पाउस णलक्षणे प्रथमऋतौ स्था० ५ ० २ ० । ० | सू० प्र० । प्र० । ज्यो०] । बं० प्र० । श्रावणाद्रमासयुगे, बृ० १ ०३ प्रक० । पाउसागमप्रावृषागम-पुं० । वर्षाप्रारम्भे, "पावसागमा जं. का।" पा३० २३२ गाथा । पाउसियकाल - प्रावृट्काल- पुं० । वर्षाकाले, "मदुगए जयरीए एगो साहू पाउलियकालं घेतुं श्रइकंताए ।" नि० चू० १ ३० । पाउसिया प्रादेषिकी श्री प्रषासरश्तेन 01 विकी | स०५ सम० भ० । प्रद्वेषो मत्स्वरस्तत्र भवा तेन घा निर्वृत्ता सा पत्र वा प्राद्वेषिक । भ० ३ ० ३ उ० । मत्लरिक्यां क्रियायाम्, स्था० २ ठा० १० भाव० ०० । पाए प्राक् भव्य०।" जतो पाए खेसे, गया परिणा ततो पाए । यतः प्राग् यतो दिनादारभ्येत्यर्थे वृ०१ उ०२ प्रक० । पारसया-पात्रेपणा स्त्री०कादिपात्रायेणखामा चार्यम्, भाचा० २ ० ६ ० । ( 'पत्त' शब्देऽस्मिन् एव भागे ३६२ पृष्ठे उक्का ) पाचोकरण- प्रादुष्करण - न० पाउक्करण' शब्दार्थे, पिं० । पायोगिथ प्रायोगिक थि० प्रयोगपरिणामपरिणामले सु म्भरागाऽऽदी, आ० म० १ भ० । 1 पात्रोपगम- पादोपगम- न० 'पाओगमण' शब्दार्थे, ००१०३० पाश्रवगमण - पादपोपगमन-२० पाइयो वृक्ष उपयो पमेयेऽपि समुपगच्छति सा दृश्येन प्राप्नोतीति पादपोपगमनम् । पाद पनि ध० ३ अधि० | इश० | नि० चू० । प्र० । कप० । सर्वथा परिस्पन्दवर्जि ते चतुर्विधाऽऽद्दारस्यागनिष्य को ऽनशन भेद, पञ्चा०१६ विष० सं०] । औ० | पं० ० संथा० । स्था० ॥ भ० | प्रब० । पादपोपगममविचार से किं तं पाभोगमये । पाश्चोपगमये दुबिहे पते । तं जहा-गीहारिमे व अशीहारिमे व शियमा अपदिकमे । सेतं पावगमये । भ० २५ श० ७ उ० । (पागमति पादयेोपगमनमरूपन्द तथा उपस्थानं पादपोपगमनम् । श्वं च चतुर्विधाऽऽद्वारपरिहारनियमेष भ निहारिने निहोरेश नि प अतस्तत्त्वस्य निरणाइति प्रा० २०१० ता मलिना यथा पादपोपगमनं प्रतिपेदे तथा 'तामलि' शब्दे ५५२२ पृष्ठे क्रम् अधुना पा त् सुत्राऽऽनि तोलयित्वा च प्रतिपद्यते । तत्र नियमतो नियति कनिका या उपवेशन प न चाम्येन वा येन स्थानेन स्थितः स यावज्जीवमपि तेन स्थाने रम्यायोगे 1 सेयर नाम प्रामादीनामन्तः प्रतिपद्यते, ततांहि मृतस्य स तस्तस्य शरीरं निष्काशन भवति परिम' शब्दे चतुर्थभागे २९५६ व्याख्या गता ) । अनिद्वारिमं नाम यत् प्रामाऽऽदीनां बहिः प्रतिपद्यते (अणीदार शब्दे प्रथमभागे ३४० पृष्ठे व्यावया पाचोवगमगा संप्रतिपादन निमि I " पापगमं भणियं समविसमे पायवी जहा पडितो नवरं परप्पयोगा, कंपेल जहा चल तरु व्व ॥ ५४४ ॥ पादपोपगमं नाम भणित यथा समे विषमे वा पादपः पतितस्तथैवाऽवतिष्ठते, तथा यो यथा समे विपमे वा पतितः स यावज्जीवं तथा तिष्ठति, नवरं परप्रयोगात् कम्पेत, य० था तरुः परप्रयोगाचलः । पादपस्ये बोपगमो ऽभ्युपगमः पतनस्य यत्र तत्तथेति व्युत्पत्तिः । शुके स्थrna निर्दोषत्वमेवाsssतसपायनीयरहिए, बित्यिपियारे डिलविद्धे । निदोसा निद्दोसे, उवेंति अन्भुज्जयामरणं ।। ५४५ ॥ प्राणी जर विस्तारे विचारे पत्र कृष् माणस्वाध्यस्थ रिमलगमनदोषो न प्रति तत्र निर्दोष सा vaisyaमरणं पादपोपगमनमरणमुपयन्ति प्रतिपद्यन्ते । पुण्यभवियचेरेणं, देवो साहरति कोऽवि पायाले। मा सो चरमसरीरेण वेययं किंचि पाविहिति ।। ५४६ ॥ पूर्वकामैरे कोऽपि देयस्तं प्रतिपक्षपादपोपगमनं पाया ले पाताल कलशेषु संहरेत् । माऽसौ बरमंशरीरेण काश्चिदपि वेदनां प्राप्स्यतीति कृत्वा स तथा हृतः सम्यक तमुपसंगै सहते न केवलमेमानपि। तथा बाऽऽहू उप्पन्ने उपसग्गे, दिब्बे माणुस्सर तिरिच्छेय। सब्बे पराइणित्ता, पायोवगया परिहरति ।। ५४७ ॥ उत्पन्नान् उपसर्गान् दिव्यान्मानुषान् तैरश्वांश्व सर्वाम्पराजि स्य पादपोपगताः प्ररिहरन्ति । जह नाम असी कोसे, अछो कोसे असी वि खलु भो । इयमे अओ देहो, अभो जीवो त्ति मांति ।। ५४८ ॥ यथा नाम असिः खड्गं कोशे प्रत्याकारे बर्त्तते तथान्यः पृथक खलु कोशोऽन्यः भसिरिति । एवममुना वृान्तप्रकारेण मान्यो देोऽन्यो जीवः परश्च भवति । देहो न जीव इति न काचिन्मे कृतिरिति मन्यते, तथा मननाब्य सम्यग् प्रसं गान् सहते । पुव्यावरदाहिण - सरेहि वाहिँ आक्तहिं । जह न विकंप मेरू, तह ते भाया न चलति ॥ ४४६॥ यथा मे पूर्वपक्षिय सति तथा ते पादपोपगता उपसर्गनिपातेऽगि ध्यानाश चलन्ति । पदमस्मि य संघ, वहंतो सेलकुडसामाणा । सिपि यच्छेदो, चोपुथ्वी बुच्छेए ||५५० || प्रथमे च ऋषभनाराच संहमने वर्तमाना धृत्या शैल कुड्यमानाः पादपगमनं प्रतिपादितेषामपि पादयोपगमनप्रति पूर्वपच्छे ऽभवत् । दिव्य मया दुग तिग, अस्से पक्रखेव सिया कृजा । वोसचदेहो, हाउयं कोइ पालेखा ।। ५५१ ॥ देवा मनुष्या वा अनुमानित " Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) पाओवगमण अभिधानराजेन्डः। पाअोवगमण कम,मनुलोमप्रतिलोमल कणोभयसहितं तदेव त्रिकम् । अथवा गृहीत्वा किं करोत्यत श्राहसचित्तमचितं वा इति डिक, तदेव हि मिश्रसहितं त्रिक, मजण गंधं पुप्फो-चयार परिचारणं सया कुजा । तस्य द्विकस्य त्रिकस्य बापास्ये मुने प्रक्षेपं कुर्युः,स तेन द्वारे. बोसट्टचत्तदेहो, अहाउयं कोवि पालेज्जा ॥ ५५६ ।। ण मुस्ने प्रक्रिप्तेन व्युत्सृष्टः प्रतिबन्धाभावतस्त्यक्तः परिकर्मक मस्या व्याख्या प्राग्वत् । रणता देहो येन स व्युत्सृष्टत्यक्तदेहः, कोऽपि यथाऽभुर्यथा. तथापस्थितमात्मीयमायुः पालयति । नवंगमुत्तपरिवोहि-याएँ अट्ठारसरतिविसेसकुसलाए । विकत्रिकाऽऽहारव्याख्यानार्थमाह वावत्तरिकलापं-डियाए चोसहिमहिलागुणेहिं च ।।५६०।। अणुलोमा पडिलोमा, दुगं तु उभयसहिया तिगं होति ।। द्वे अक्किणी, द्वौ को, यी नासापुरी, जिह्वास्पर्शने, नवम मनः अहवा चित्तमचित्तं, दगं तिगं मीसगसमग्गं ॥५५२॥ पतानि नव अङ्गानि याबदद्यापि यौवनं न भवति तावत्सुप्ताअनुलोमानि व्याणि प्रातसोमानि चेति द्विक, तान्येवोभवस. नि भवन्ति । न खलु तदानीमेतेषामतीचाराऽभिष्वतः सुख भ. हितानि त्रिकम् । अथवा सचित्तमचित्तमिति विक, तदेव । धति, ततः सुप्तानीति व्यपदिश्यन्ते । यौवने तु प्राप्तस्य कल्पगुमिश्रसमग्रं त्रिकमिति। णेन प्रतिबुझानि जायन्ते । नबाङ्गानि सुप्तानि प्रतिबोधितानि पुढविदगभगणिमारुन-वणस्सइतसेसु कोवि साहरइ। यया सा तया । तथा अष्टादशदेशभाषास्तासु मध्ये यस्य यत्र वोसट्टचत्तदेहो, अहाउयं कोइ पालेजा ॥ ५५३ ॥ रतिविशेषस्तत्र कुशल तया, हासप्ततिकतापण्डितया चतुःष ष्टि महेसागुणरुपेतया। कोऽपि पादपोपगमं प्रतिपकं पृथिव्यां पृथिवीकायमध्ये उ नवाजाऽऽदिव्याख्यानं तावदाहपके अपकाये अग्नौ मारते वायुकाये वनस्पतिषु बसेषु च संहरति, स च तथा संहतो व्युस्सृष्टत्यक्तदेहो यथायुः कोऽपि दो सोअ नेतमादी-णवगं सुत्ता हवंति एए उ । पालयति । देसीभासष्टारस, रतीविसेसा इगुवीसं ।। ५६१ ।। एत निजरा से, दुविहा भाराहखा धुवा तस्स । कोसल्लमेकवीसइ-विहं गुणेहिं तु जुत्ताए । अंतकिरियं व साहू, करेज देवोवपति वा ॥५५४॥ एवं च रूवजोव्वण-विलासलावस्मकलियाए ॥५६॥ एकान्तेन 'से' तथावस्थितस्य निर्जरा भवति । तथा तस्य द्वे श्रोत्रे, व नेत्रे, प्रादिशब्दानासापुटद्वयजिह्व स्पर्शनसंपरिभ्रवा द्विविधा सिद्धिगमनयोग्या कल्पोपपत्तियोग्या चारा प्रहः। एतानि नव नवसंख्यानि सुप्तानि भवन्ति । देशीभाग. धना यया साधुरन्तक्रिया वा कुर्यात्, देवोपपत्ति वा । ऽष्टादश ताः शास्त्रमासिकाः, रतिविशेष एकोनविंशतितमः । त. मजण गंध पुप्फो-वयार परियारणं सिया कुजा । त्र कौशलमेव त्रिंशतिविधं शास्त्रप्रसिद्धम, एवमादिभि गैः युक्तया, तथा रूपयौवनधिला समाधण्यकशितया । वोसट्टचत्तदेहो, अहाउयं कोइ पालेज्जा ॥ ५५५ ॥ चउकामम्मि रहस्से, रागेणं रायदिनपसराए। केचित रूपातिशयलुब्धाः तस्य कृतपादपोपगमनस्य मज्जन तिमिमगरोहिं उदही, न खोभित्रो जो मणो मुणिणो ।५६३। स्नान, ततः पटवासाऽऽदिगन्धं, तदनन्तरं पुष्पोपचार, ततः परिचारणं गले गलित्वा परिमन्थनपरिचुम्बनाऽऽदिरूपं स्यात् जाहे पराजिया सा, न समत्था सीलखंडणं काउं । कदाचित्कुर्यात् । तत्र स ब्युसरत्यक्तद हो यथायुः कोऽपि नेऊण सेलसिहरं, से सिल मुंचए उवरिं ॥ ५६४ ॥ पालयति, रक्तद्धितः सन् सम्यक तत्सहमानो यावजी- चतुःको रहस्ये रागेपानुरागेण राजदत्तप्रसरया गृह्यते, गृबमबतिष्ठते। होत्या चाऽनेकप्रकार: संजोभ प्रापद्यते । तत्र यमुनेमनपुब्वभवियपेम्मेणं, देवो कुरुउत्तरकुरासु । स्तत् न याति तिमिमकरैर्वोदधिर्न कीभितः, ततो यदा सा प. कोई तु साहरेजा, सव्वमुहा जत्थ अणुभावा॥५५६।। राजिता शीलखएमनं कर्तुं न समर्था तदा रोषात् शनशिखर नीत्वा (से) तस्योपरि शिलां मुञ्चति । पूर्वविकेन प्रेम्णा कोऽपि देखो यत्र अनुजवाः सर्वे शुभा एगंतनिजरा से, दुविहा आराहणा धुवा तस्स । स्तासुदेवकुलत्तरकुरुषु वा संहरेत् । स च तथा तथा तत्र अंतकिरियं च साहू, करेज देवोववत्तिं वा ॥ ५६५ ॥ संहतो व्युत्सृष्टत्यक्तदेहो यथायुः कोऽपि पालयति । पुन्वभवियपेम्मेणं, देवो साहरइ नागभवणम्मि। इयं प्राग्वत् । मुणिमुबयंतेवासी, खंदग दाहे य कुंभकारकडे । जहियं इट्ठा कंता, सबसुहा इंति अणुभावा ।। ५५७ ॥ देवी पुरंदरजसा, दंडइ पालक मरुतो य ॥ ५६६ ॥ पूर्षभविकेन प्रेम्णा कोऽपि देवो यत्र सर्व शुभा अनुभावा कुम्भकारकृते नगरे दएमकिर्नाम राजा, तस्य देवी पुरrः कान्ताश्च भवन्ति, तत्र नागजवने संहरेत, सोऽपि तत्रतथैवावतिष्ठते । दरयशाः, पाको नाम मरुकः पुरोहितः । तत्र भगवतो मुनि सुव्रतस्वामिनोऽन्तेवासी स्कन्दको नाम विहारक्रमेण गतःस वत्तीसलक्खणधरो, पाओपगतो य पागडसरीरो। स्वशिष्याणां यत्र पीडनन मरणं, विशेषतो बाल कह कस्यो। पुरिसद्देसी कमा, रायवितिमा उ गेण्हेजा ।। ५५७॥ पलभ्य संजातकोपो यन्त्रपीमनमारितोऽग्निकुमारेषु उत्पद्य कात्रिंशल्लकणधरः पादपोपगतः सन् प्रकटशरीरो जात- जाति स्मृत्वा समस्तस्यापि देशस्य दाहं कृतवान् , शिष्याः तं पुरुषविण) कन्या राजविती राना अनुझाता सती मुसमाधि प्राप्ता मृत्युमुपागताः (विस्तरः 'खदग' शब्द तृती. एएडायात् । यजागे ६६३ पृष्ठे गतः)। Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोवगमण अनिधानराजेन्द्रः । पांदुवंबलसिला तथा चाऽऽह शृगाल्या रात्रित्रिका भक्षितः सम्यक् सोटघा, एवमन्यै. पंच सया जंतणं, रुटेणं पुरोहिएण मलियाई। रपि सोढव्यम् । रागद्दोसतुलग्ग, समकरणं चिंतयंताणं ।। ५६७ ॥ जह ते गोहट्ठाणे, नोसट्टनिसट्टचनदेहा उ । रागद्वेषतुआग्रं समकरणं समभावं चिन्तयतां साधूनां प. उदएण वोझापणा, विरयाम्म उ संकरे लगा।।५७६॥ शतानि कष्टेन पुरोहितेन यन्त्रमलितानि, तथापि न तेषां | ग्राम उसनप्रदेशे केचिन्ताधवः पाद पोपगतास्ततो यथा ते मनागपि ध्यानविक्षोभोऽभवत् । एवमन्यैरपि सोढव्यम्। गोष्ठस्थाने प्रदेशविशेषे निसृष्ट निस्सहतया व्यु-मृष्ट त्यक्तदेहा तथा चाऽऽड अन्तरिक्वेण पति ननोदकन उह्यमामा विरये नद्याः श्रोतसि सं. जंतेण करकरण व, सत्येण व सावएहि विविहोहिं। करे खानाः सम्यम्बदनां सहमानाः कालगता, एवं शेषरपि देहे विद्धिस्संते, न हु ते झाणाउ फिटुंति ॥ ५६८॥ सोढव्यम् । यन्त्रेण कचेन शस्त्रेण वा स्वम्गाऽऽदिना इवापदैर्वा वि __एतदेवाऽऽदविधैः शृगालिकाप्रतिभिः देहे विश्वस्यमाने (न हु ) नैव वावीसमापव्वी, तिरिक्ख माया न भंसणस्थाए । ते पादपोपगता ध्यानात स्फिन्ति परिभ्रस्यन्ति । क्सियाणुकंपरक्खण, करेज देवा व मणुया वा ॥५७७॥ पडिणीयताएँ कोई, अग्गि से सव्वतो पदेजाहि। द्वाविंशति परीषहान् प्रानुपूर्व्य पूर्वानुपूर्त्या वा तिर्ययो पादोवगए सबे, जह चाणक्कस्स य करीसे ॥ ५६६ ॥ मनुष्या वा चारित्रभ्रंसनार्धमुदीरयेयुः । नथा देवा मनुष्या वा पादोपगते सति कोऽपि प्रत्यनीकतया से' तस्य सर्वतः विषयाणामिन्द्रियविषयाणां प्रत्यनीकतया अनिष्पानामनुकसर्वासुदिक्षु अग्नि प्रदद्यात् । यथा चाणक्यस्य करीषेक- म्पया स्टानामुदीरणममुकम्पया रक्षणं कुर्युः, तत्रारक्तद्विष्टः रोषमध्ये व्यवस्थितस्य स्वबन्धुनामामात्यः सर्वतोऽग्नि प्रदी. सन् सम्यक सहेत ! पितवानिति । पुनरपि दृष्टान्तान्तरमाहपडिणीययाएँ कोई, चम्मं से कीलएहि विहुणित्ता । जह सा वत्तीसघडा, वोसट्ठनिसहचत्तदेहा र । महुययमक्खियदेहं, पिपीलियाणं तु देजाहि ॥५७०॥ वीरा धातेण उदा-रिएण दियलम्मि ओलइया ॥५७।। प्रत्यनीकतया कोऽपि (से) तस्य पादपोपगमनस्य कील यथा सा द्वात्रिंशतगोष्ठी, पुरुषा इत्यर्थः । व्युत्मस्तत्प्रतिबन्धकैर्लाहमयैश्चम्मै बिधून्य तदनन्तरं तं मधुधृतम्रक्षितदेहं क. स्वा पिपीलिकानां दद्यात, तथापि स सम्यक सदेत । परित्यागेन निसृष्टोऽतिशयत्यक्तो,मनागपि परिचेष्टाया अकरणातत्र सहने रष्टान्तमाह त्,देहो यया सा तथा पादपोषगता भ्रातेन तृप्तेन द्वीपान्त. रवासिना म्लेच्न हष्टा, ततः कल्ये ममते नवयं प्रविष्यन्ती. जह सो चिलाइपुत्तो, वोसहनिसट्टचत्तदेहो उ ।। ति चिन्तयित्वा वृकं विमग्नापयित्वा (दिवलम्मि) बेलाथां सोणियगंधेण पिवी-लियाहि चालकितो धीरो॥५७१॥ जीवन्त एव ते ( ओनश्या ) अवम्बिताः; ते सम्यम्वेदनां यथा सचिमातीपुत्रो निसृष्टमतिश्येन व्युत्सृष्टत्यकदेहः शो. सहमानाः कालगताः। णितगन्धेन प्रिपालिकाभिश्चालकृतःचामनाकृतो धीरोम उपसंहारमाहनागपि भ्यानाचलितवान्न, एवं सर्वैरपि सोढव्यम्। एयं पाओपगम, निप्पडिकम्मं तु वस्मितं सुत्ते । अन्य दृशाम्तमाहजह सो कालपएसी,ठितोऽवि मोग्गल्लसेलसिहरम्मि। तित्थयरगणहरेहि य, साहूहि य सेवियमुदारं ॥५७६।। खइयो विउविऊणं, देवेणं सियालरूवेणं ॥ ५७२ ।। । एतत्पादपोपगमं सूत्रे प्रागमे निष्प्रतिकर्म वर्णितं तीर्थकयथा स ब्रह्मवर्याध्ययनप्रसिकः कानप्रदेशी मद्रव्यशनशिखरे रैर्गणधरैः शेषसाधुभिश्चोत्तमधृतिसंहननोपेतैः, उदारं स्फी. स्थितो देवेन शृगालरूप विकुर्वित्वा शृगालकोण खादितो भ. तं यथा भवति एवमासेवितम् । व्य० १० उ०।। कितः, तथापि सम्यगाधिसोढवान् , एवं सबैरपि सोढव्यम् पाओवगय-पादोपगत-त्रि० । पादपवदुपगतः पादपोपगतः । जह सो वंसिपएसी, वोसट्ठनिसट्टचत्तदेहो उ । अचेष्टतया स्थितेऽनशनविशेष मतिपन्ने, स्था०२ ठा० १३० । मीपत्ते िविशि-गावासो पाओसिणाण-प्रातःस्नान-न०। प्रत्यूपजलावगाहने, “पावथा साधुरेकः पादपोपगतः, स प्रत्यनाकैरुक्षिप्य वंशीकुमा ... ओ सिणाणाऽऽदिसु नत्थि मोक्खो।" सूत्र० १ श्रु०७०। स्योपरि मुक्तोऽधस्त्राच्च संशा उत्थितास्नशैः प्रवर्षमानैः पायोसिया-प्रादेषिकी-स्त्री०। प्रद्वेषो मत्सरस्तेन निवृत्ताप्रा. स साधुर्विको दूरमुत्पत्रैरङ्कररूपैर्विनिर्गतैर्दू रमाकाशमुक्तिप्तो देषिकी । ध। ३ अधि० । स्था० । मारयाम्येनमित्यशुभमन:घेदनां सोढवान् , एवं सवैरपि सोढव्यम् । सम्प्रधाने, प्रति० (किरिया' शब्दे तृतीयभागे ५५० पृष्टे . जहऽवन्तीसुकुमालो, वोसहनिसट्टचत्तदेहो उ।। सूत्रं गतम्) धारा सपल्लियाए, सिवाएँ तितो तिरिक्खणं ॥५७४ा पांडकंबलसिला-पाएकम्बलशिला-स्त्री० । मेरोः पाण्डकयथा अवन्तिसुकुमायो व्युमिनिसृष्टत्यक्तदेहो धीरः (स. वनस्य पर्वदक्षिणविदिशि शिलायाम्, "दो पडिकंबकसिला।" पेल्लिबार) पेखि कसहितया बालस्वपुत्र नाएडसहितया शिवया स्था०२ ठा०३ उ०। Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) पांडुकी अन्निधानराजेन्द्रः। पागसासण पांडकी-देशी-शिविकायाम् , दे० ना०६ वर्ग ३६ गाथा। अस्या इयमक्षरगमनिका-एकारपरः-ऐकारः, श्रोकारपर:पांडर-पाण्डुर-त्रि० । शुक्ने,शा० ११०१ १० । धौतपट्टे,अनु०। श्रीकारः, अंकारपरः-अःकार इति विसर्जनीयाऽऽख्यमक्षपांडुरंग-पाण्डुरङ्ग-पुं० । भस्मोद्धूलितगात्रे, अनु०। शैले,शा० रम् । तथा वकारसकारयोर्मध्यगे ये अक्षरे-शषा विति, या नि च कबर्गचवर्गतवर्गनिधनानि-प्रना इति । एताम्यक्षरा. ११० १४ अ० अनु० । णि प्राकृते न सन्ति । तत एतैरक्षरैर्विहीनं सद् वचनं तत्प्रा. पाकम्म-प्राकाम्य-न० । इच्छानभिघाते योगसिद्धिभेदे, द्वा० कृतमवसातव्यमेभिरेष-ऐऔअशष कुमन इत्येवं रूपैरुपेतं २६द्वा०। पाखिकायण-पाक्षिकायण-पुं०।मूलगोत्रकौशिकवंश्ये स्वना. संस्कृतम् । वृ०१उ० । प्राकृते हि विभक्तीनां व्यत्ययोअप भव ति । यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे-" व्यत्ययोऽप्यामण्यातेऽवान्तरगोत्रप्रवर्तकर्षों तत्सन्तानेषु च स्था०७ठा। सामिति ।" प्रा०म०१०। द्वितीयार्थे षष्ठी । यदाह पाणिपाग-पाक-पुं। विक्लत्यनुकूले व्यापार, ० । (मृभा निःस्वप्राकृतलक्षणे-" द्वितीयार्थे षष्ठी।" नं० । “प्राकृते राडानांपाक प्रथममषभदेव उपविदेशति 'उसह 'शब्दे हि हि पूर्वोत्तरनिपातोऽतन्त्रः। स्वा०११०४० ३ उ०। तीयभागे ११२६ पृष्टे उक्लम) (ग्लानार्थ साधुभिरपि पाकः ननु जैनं प्रवचनं सर्व प्राकृतनियद्धमिति दुःश्रद्धेयम् , मैवं कर्तव्य इति । गिलाण' शब्दे तृतीयभागे ८८८ पृष्ठे उक्तम्) शक्यम् । "बालस्त्रीमूढमूर्खाणां, नृणां चारित्रकाशिणाम् । शिष्टाश्च पुण्यार्थमेव पाकक्रियायां प्रवर्तन्ते । तथाहि-न पितृ | अनुप्रहाय तवः, सिद्धान्तःप्राकृतः स्मृतः ॥१॥" विकर्माऽऽविव्यपोहेनाऽऽत्मार्थमेव बुद्रसपवरप्रवतेन्ते शिष्टा शे० । प्रकृतिषु भवः प्राकृतः। प्रा० म०१०। साधारणे, एति न स्वार्थमेव पलव्यम् । दश०५०१ उ० । बलवति | स्वाभाविके. म स्वाभाविके, सूत्र०१ श्रु०१० उ० । लघुतरे, वृ०१ उ०। रिपौ च । मा म०१०। पागडिय-प्रकटित-त्रि०। प्रकटत्वं प्राप्ते, "पागडिपणं पंसुपागट्टि (ण)-प्राकर्षिन्-त्रि० । प्राकर्षके, शा०१ श्रु०१०। लिएणं।" तं०। प्रवर्तके, प्रश्न० ३ आश्र द्वार। पागडेमाण-प्रकटयत्-त्रि.। व्यक्तीकुर्षति,स्था० ३ ठा०४उ० । पागड-प्रकट-त्रि०। समृद्धयादित्वात् दीर्घः । प्रकाशान्वि पागदच-पाकद्रव्य-न० । कयरीपाकाऽऽदिविशिष्टनिष्पन्ने खा. ते, प्रा० म०१०। प्रव०। आव०। प्रश्न। घद्रव्ये, ही । कयरीपाक इत्यादिलोकप्रसिद्धानि पाकद्रव्याप्राकत-न०। प्रकृतिः संस्कृतं, तत्र भवं तत प्रागतं वा प्रा णि तदिवसनिष्पन्नानि आशाकप्रत्याख्यानवतां कल्पन्ते, न कृतम् । प्रा०१पाद । स्वभावसिद्धे, वृ०१ उ०१प्रक० । आत्मा पुगल एवमादिरूपस्य संस्कृतस्य विकृतिरूपे "मा. वेति प्रश्ने, उत्तरम्-अत्र कल्पन्ते रिशी प्रवृत्तिश्यते इति । ता पोग्गले" इत्यादिरूपे भाषाभेदे, आ० चू०१०। स्था। ही० ४ प्रका० । कयरीपाक इत्यादिलोकप्रसिद्धद्रव्याणि तत्रत्याः कतिपयनियमाः पासवाश्चाशाकावयवनिष्पन्नतया तत्प्रत्याख्यानवतां क ल्पन्ते,न घेति प्रश्ने,उत्तरम्-अन"कयरीपाक"इत्यादिलोकप्रअथ प्राकृतम् ॥ ८ । १ । १ ॥ अथशब्द पान सिद्धपाकद्रव्याणि पासवाश्चादशाकावयवनिष्पन्नान्यपि त प्र. तर्याोऽधिकारार्थश्च । प्रकृतिः संस्कृतं, तत्र भषं तत स्याख्यानयतांकल्पन्ते इति प्रवृत्तिदृश्यते इति । ही०४प्रका। मागतं वा प्राकृतं, संस्कृतानन्तरं प्राकृतमधिक्रियते । पागब्भ--प्रागल्भ्य-न० । धाष्टये, सूत्र० १०५० १०। संस्कृतानन्तरं च प्राकृतस्यानुशासनं सिद्धसाध्यमानभेदसंस्कृतयोनेरेव, तस्य लक्षणं, न देश्यस्येति शापना- पागम्भिय-मागल्भिक-त्रि० । प्रागल्भ्यं धार्थ तद वियते र्थम् । संस्कृतसमं तु संस्कृतलक्षणेनव गतार्थम् । प्राकृते यस्य तत् स प्रागल्भी। सूत्र०१७०५ म०१ उ० । टे.सूत्र० व प्रकृतिप्रत्ययलिङ्गकारकसमाससंज्ञाऽऽदयः संस्कृतवद्वेदि. १७०५.२ उ०। यः प्रागल्भ्येन चरति धृष्टतामापन्नः। तम्याः । लोकादिति च वर्तते । तेन --ल-ल-ऐ-औ- सून०२७० १५०। -म्-श्-ष-विसर्जनीय-प्लुत-बयों वर्णसमाम्नायो लो-पागभाव-पागभाव-पुं०। प्राक पूर्व वस्तूत्पत्तेरभाषः प्रागकादवगन्तव्यः।-नौ स्ववर्यसंयुक्तौ भवत एव । ऐदौतौ भावः । वस्तूत्पत्तेः प्रामालिकेऽभावे, रस्ना०। च केषाश्चित्-कैतवम् । कैवं । सौन्दर्यम् । सौरिनं । तत्र प्रागभाषमाविर्भावयन्तिकौरवाः । कौरवा । तथा च-अस्वरं व्यअनं द्विवचनं च- यभिवृत्तावेव कार्यस्य समुत्पत्तिः सोऽस्य प्रागभावः५। तुर्थीबहुवचनं च न भवति । यस्य पदार्थस्य निवृत्ताधव सत्यां, न पुनरनिवृत्तावपि, मबडुलम् ।। ८१।२॥ तिव्याप्तिप्रसक्तः। अन्धकारस्थाऽपि निवृत्तौ कचिद् ज्ञानोत्पबालमित्यधिकृतं वेदितव्यमाशाखपरिसमाप्तेः। ततश्च-क- तिदर्शनादम्धकारस्यापि ज्ञानप्रागभावत्वप्रसङ्गात् । न चैव चित् प्रवृत्तिः, कचि अप्रवृत्तिः, कचिद् विभाषा,कचिव अ. मपि रूपज्ञानं तभिवृत्तावेवोत्पद्यत इति तत्प्रति तस्य तस्व. - म्यदेव भवति । तच्च यथास्थानं दर्शयिष्यामः । प्रसक्तिरिति वाच्यम्।अतीन्द्रियदर्शिनि नकचरादौ चत. आर्षम् ॥ ८ । १ । ३ ॥ ऋषीणामिदमार्ष- झाषेऽपि तद्भावात् । स इति पदार्थः,अस्यति कार्यस्य ॥६॥ म् । आर्ष प्राकृतं बहुलं भवति । तदपि यथास्था प्रतोदाहरन्तिनं दर्शयिष्यामः । पार्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते ।। यथा मत्पिडनिवृत्तावेव समुत्पद्यमानस्य घटस्य मृत्पिण्डः।६० प्रा०१ पाद । रत्ना०३ परि। एभोकास्पगई, अंकारपरं च पायए नत्यि ।। पागसासण-पाकशासन पुं०। पार्क दैत्य शास्ति शिक्षयतीबसगारमज्झिमाणि य, कचवग्गतवग्गनिहणाई॥ ति पाकशासनः। कल्प०१अधि०१क्षण । पाको नाम बल Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पागसा सगा वान् रिपुः, स शिष्यते निराक्रियते येन स पाकशासनः । आ० म० १ अ० शके, पुरन्दरे, श्रा० म० १ अ० प्रज्ञा० । भ० जी० । उपा० । पागसासणी -पाकशासनी-श्री० इन्द्रजालसंहिकायां विद्यायाम्, सूत्र० २ ० २ अ० । पागार - प्राकार पुं० शालायाम्, प्रज्ञा २ पद । विपा० । गृहस्य पतनस्य वा (आचा० २ ० १ चू० १०५ उ० ) प्रे. उत्त० ६ श्र० । अनु० रा० प्रश्न० । जं० । पागारतिगणास प्राकारत्रिकन्यास-पुं० शालानां त्रयस्य म्यसने, पश्चा० २ विव० । पाड-पाड- पुं० । चडे, पाडाश्चडाः । बृ० ३ उ० । पाढग पाटक- पुं० [प्रामान्तर्गत पसतिसन्निवेशे जीत आचा० आ० म० । शा० । । पाढचर- पाटवर पुं० बोरे, "कलमो सुकुमाली तकरो व पाडच्चरो थेयो।" पाइ० ना० ७२ गाथा आसक्तचिने दे० ना० ६ वर्ग ३४ गाथा । पाडण - पा (त) टन - न० करपत्राऽऽदिभिः (श्राव० ६ ० ) निष्कुटादधो पद्मभूमी ०१० ५० १४० । लिने नि० १ ० १ १ ० पाडगा पातना- स्त्री० । अखण्डस्यैव बिपा० १ ० १ ० । पाडल-पाटल-त्रि० । रक्ते, " श्रहणं सोणं रतं, पाडलं श्रायं 1 गर्भस्य पातनोपाये, विरं तंबं ।” पाइ० ना० ६३ गाथा । ( ८२३ ) श्रभिधान राजेन्द्रः । पाडियंतिय इतस्ततो लुलन्ती च शुक्तिवन्नदीतटे क्वाऽपि गुप्तविषमे प्रदेशे लग्ना तस्थौ तस्य च करोटिकर्परस्यान्तः कदाचित् पाटलाबीजं न्यपतत्मात् करोटिकर्परं भिवा दक्षिणनो पाठ लातरुरुद्वतो, विशालश्चायमजनि । तदत्र पाटलिद्रोः प्रभावाsaraनिमित्ताच्च नगरं निवेश्यताम्, आशिवाशब्दं च सूत्रं दीयताम्। ततो राम्रा5दिशा नैमित्तिकाः पाटलां पूर्वतः कृत्वा पश्चिमां तत उत्तरां ततः पुनः पूर्वी, ततो दक्षिणां शिवाशब्दावधि गत्वा सूत्रमपातयमेवं यतखः सीमाः पुरस्य सनि देशे बभूवुः तत्राङ्किते प्रदेशे पुरमचकरः । तच पा टीनाम्ना पाटलिपुत्रं पतनमासीत् । ती० (नन्दराज वृत्तम् णंदराय शब्दे चतुर्थभागे १७५० पृष्ठे गतम् ) " गौडवंशावतंसस्य, श्रीजिनप्रभसूरयः, कल्पं पाटलिपु त्रस्य रचयां चक्रुरागमात् ॥ १ ॥ " ती० ३५ कल्प । प्रा० क० अ०म० अ० चू० 1 जी० । संथा० । श्राष० । विपा० । विशे० । करूप० । 4 पाडलिसंड- पाटलिखण्ड न० स्वनामख्याते भारतवाडी । ये पुरभेदे, विपा० १ ० ७ अ० । " पाडलिलंडे नयरे वणसंडे उज्जाणे उंबरदन्ते य जखे । तत्थ गं पाडलिसंडे णयरे सिद्धस्थराया। तस्य णं पाडलिसंडे पयरे सागरदत्तसत्यबाहे होन्था ।" विपा० १ ० ७ श्र० । श्रा० म० । स्था० । पाडवा - देशी - पादपतने, दे० ना० ६ वर्ग १८ गाथा । पाडिम पातित त्रि० निपतिते "श्रीसद्धं पाडि निशुद्धं च" पाइ० ना० १६४ गाथा । पादिश्रग्गदेशी-विश्वामे दे० ना० ६ वर्ग ७४७ गाथा पाडिज्म- देशी- पितृगृहात्पतिगृहे वध्वाः प्रापके, दे० ना० ६ वर्ग ४३ गाथा | - पाडलसउ - देशी- हंसे, दे० ना० ६ वर्ग ६ गाथा । पाडला पाटला-श्री० पुष्पजातिविशेषे शा०१ ०१७० । । रा० । प्रज्ञा० । कल्प० । जं० । - । पाटलिङ - पाटलिपुत्र - १० उदाधिनुपासिते मगधदेशीये पाटिकं प्रत्येकम् अप० । एकं जीवं प्रति प्रत्येकम् । गङ्गातटस्थे पुरमेरेती० । " प्रत्येकमः पाडिकं पाडिएकं " | ८ |२| २१० ॥ प्रत्येकमिस्पस्पार्थे पाहि पाडिपकमिति प्रयोक्तव्यं था । प्रा०२ पाद " एगे जीवे पाडिकपणं सरीरेणं ।" एकं जीवं प्रति गतं यच्छरीरं प्रत्येकशरीरनामक मोदयात्तत्प्रत्येकं तदेव प्रत्ये कम, दीर्घerssदि प्राकृतत्वात् । स्था० १ ठा० ।" लयमेष पाडि चितफल करेह" एकमात्मानं प्रति प्रत्येकं पितु फलकावू भिन्नमित्यर्थः । भ० १५ श० । स्था० ।" पाडिक पसे ।" पाइ० ना० २४५ गाथा । "मानम्य श्रीगेमिन-मनेकरत्नजनिपचित्रस्य । श्रीपाटलिपुत्राऽऽय नगरस्य प्रस्तुमो वृत्तम् ॥ १ ॥ " पूर्व किल श्रीबेणिक महाराजेस्तं गते तदात्मजः कृषिक पापापुरी प्राविशतािलेपशेष प्रया रसूनुरुदायिनामधेयञ्चम्पायां क्षीणिजानिरजनिष्ट । सोऽपि स्वपितुस्तानि तानि सभाक्रीडाशयनाऽऽसनाऽऽविस्थानानि पश्यनस्तोकं शोकमुदवहत् । ततोऽमात्यानुमत्या नूतनं नगरं निवेशयितुं नैमिनिकरात् स्थाननये पणायादिशत्। तेऽपि सर्वत्र तांस्तान् प्रदेशान् पश्यन्तो गङ्गातटं ययुः । तत्र स कुसुमं पाटलित प्रेश्य तच्छोभावशीकृतास्तच्छाखायां निष चार्य व्यालवदनं स्वयं निपतत्कीटपेटक मालोक्य तस्यचिन्तयग्रहो यथाऽस्य चापपतियो मुझे स्वयमेत्य कीटाः पतन्तः सन्ति, तथाऽत्र स्थाने नगरे निवेशितेऽस्य राज्ञः स्वयं श्रियः समेष्यन्ति । तच्च ते राशि व्यजिज्ञपन् । खोऽव्यतीय प्रमुदितः। तत्रैको जरसैमिनिको व्याहरतू देव! पाटलावरुरपं न सामान्यः पुरा हि हानिना कथितम्" पाटलातः पवित्रोऽयं महामुनिकरोटिनू ।" एकावतारोंऽस्य मूलजीवश्चेति विशेषः । ती० ३५ कल्प | ( प्रयागती। र्थकथा ' पयाग ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५०८ पृष्ठे उक्ता ) सु. करोमियमानाऽपि जलोर्मिभिर्नदीतीरं नीता पाटिकम - देशी प्रतिक्रियाया दे० ना० ६ वर्ग १६ गाथा । पाडिच्छिय - प्रातीच्छित् त्रि० । प्रतीच्छ केषु येऽम्यतो गच्छाम्तरादागत्य साधवस्तत्रोपसंपदं हन्ति तेषु प०१०। पाडिपहिय प्रातिपथिक पुं० । प्रतिपथेनाभिमुखेन चरति प्रातिपथिकः । सूत्र० २ ० २ ० । श्राचा० । सम्मुखप थिके, प्राचा० २ ० १ ० ० २ उ० । संमुखीने, श्राचा० १ ० १ ० ३ ० ३ ० नि० धू० । पारिप्फदि (इ) - प्रतिस्पर्द्विन् त्रि० । "प-स्पयोः कः ३ । । ॥ ८ । २ । ५३ ॥ " इति रूपस्य फादेशः । प्रा० २ पाद । समृज्यादा दीर्घ पराभिभवेच्छी प्रा० २ पा पाडिय - पातित- त्रि० । अधोभ्रंशिते, जं० ३ बक्ष० । पाडियंतिय प्रात्यन्तिक० अभिनय रा० 3 Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पामिया 1 पाडिया - पाटिका- स्त्री० । उत्तरीयवस्त्रे, म० १ ० १ उ० । पाडिया - प्रतिपद - स्त्री० । “ स्त्रियामादविद्युतः " ॥ ८ | १ | १२ ॥ न्यायव्य जनस्याऽऽन्यं भवति । हत्या स्वमन्त्यस्य । प्रा० १ पाद । प्रथमतिथौ, स० १५ सम० अने० ! ज्यो० । पारिवारिय प्रातिपदाचार्य पुं०: कल्कि नृपसमकालिके स प्रवर्तकाचायें, ती० २ कल्प। " पाडिवश्री नामेणं, अ गगारी " ति० । पाडवेसिय प्रातिवेश्मिक पुं० । पार्श्वगृहवासिनि प० । " सुप्रातिवेश्मि " इति । शोभनाः शीलाऽऽदिसंपन्नाः प्रानिवेश्मिका यत्र तस्मिन कुप्रातिवेश्मिकत्वे पुनः " संबगंजा दोषगुणा भवन्ति " इति वचनात् निश्चितं गुण हानिरुत्पद्यत इति तनिषेधः पुष्पातिवेश्मिकास्ते शा स्त्रप्रसिद्धा:-" खरिश्रा तिरिक्खजोणी, तालायरसमणमाहमुसाला । वग्गुरि अडवा गुम्मिन दरिएस पुलिम च्छिदा " ॥ १ ॥ ० १ अधि० । पाडसार देशी - पदुतायाम्, दे० ना० ६ वर्ग १६ नाथा । पाडिसिर-देशी-खलीनयुक्तायां खलायाम्, दे० ना० ६ वर्ग अभिनय ४२ गाथा । पास्यि- मातिश्रुतिक नाम ( ८२४ ) अभिधान राजेन्द्रः । भेरे, जं० ५ वक्ष० । श्रा० म० । । पाsिहत्थी - देशी - मालायाम्, दे ना० ६ वर्ग ४२ गाथा । पारिहारिय- मातिहारिक २० प्रतिहरणं प्रतिहारः प्रत्यर्पणं, तमईतीति प्रातिहारिकम् । पुनः समर्पणीये संस्ताकाssदौ, शा० १ श्रु०५ श्र० । श्राचा० | प्रब० । दशा० । पाटिहुआ देशी - प्रतिभुवि (साक्षिणि) दे० ना० ६ र्ग ४२ गाथा । पाडिहेर - प्रातिहार्य - न०| जिनानामतिशयपरमपूज्यत्वख्यापकालङ्कारविशेष, अष्ट महाप्रातिहार्याणि जिनानाम्-" अशी कवृक्षः १ सुरपुष्पवृष्टि २ दिव्यध्वनिधाम ४ मास च ५। भामण्डलं ६ दुन्दुभिरातपत्रं प षट् प्रातिहा र्याणि जिनेश्वराणाम् ॥ १॥ " दर्श० १ ततोहारे, श्री० । शा० । पाडीगणिय पाटीगणित न० । यावत्तावतिके गुणकारे, स्था० १० ठा० । 66 पा5चिया मातीतिका श्री० वा वस्तु प्रतीलाऽऽनित्य भ वा सा प्रातीतिका । स्था० २ ठा० १ उ० । जीवाऽऽदीन् प्रतीत्य भवन्त्यां क्रियायाम्, स्था ५ ठा० २ उ० । पाठथिया किरिया दुविदा परणता । तं जहा जीवपाचया वेव, श्रजीवपाडश्चिया चेव "| स्था० २ ठा० १ उ० । आव० । जीवं प्रतीत्य यः कर्मबन्धः सा तथा । श्रजीवं प्रतीत्य यो रागद्वेषोद्भवः तो या कर्मबन्धः सा अजीवातीति। स्था० २ ठा० १ उ । पाहूची देशी-तुरगमने ३० ना० ६ वर्ग ३६ गाथा "पाहवी तुरयदेहापंजरणं । पाइ० ना० २१० गाथा । पाढयंत पाठ-पाठ पुं० । पठनं पाठः । पठ्यते वा तदिति पठ्यते व्य क्रं क्रियतेऽनेनास्मादस्मिन्निति श्रभिधेयमिति पाठः । श्र० म० १ श्र० । शास्त्रे, " पाठो त्ति वा सत्थं ति वा एगट्ठा । श्रा० चू० १ अ० । प्रश्न० । 55 पाठशब्दार्थमाह पढणं पाठो तं तेण तम्मित्र पढिजएऽभिधेयं ति । (१३८४) पठनं पाठः । पश्यते वा व्यक्तीक्रियते तदिति पाठः । पठ्यतेनास्मादस्मिन्निति वा पाठः । प्रासेवना शिक्षायाम्, विशे० । श्राव० 1 पाठयंत पाठयत् जीवा० । श्रावकादिभ्यः सूत्रदानतः भाणयति, अधुना विंशतितममाहअउ गुरुपसिरिमो हरायाणापरण्यसा वाला | पार्दिति सावयजणे, उत्सग्गश्ववायगाहाओ ॥ १ ॥ पुनरप गुरुश्रीमोहराजाऽऽज्ञापरपशा महान तिशासनाऽऽयत्ताः, अत एव बाला हिताहितविवेकविकलाः, पाठयन्ति सूत्रदानतः आवकजनान् आजलोकान्, उत्समपवादगाथाः समयप्रसिद्धा इति गाथाऽर्थः । सरि सम्मलेन - तं तु न कहिं पि हरिसं, जो सुबहुस्सुयाण सूरीणं । जम्हा निसीहगंधे, सावयमुद्दिस्स भणियमियं ॥ २ ॥ तत्पुनर्न कथमपि न केनापि प्रकारेण हर्ष सन्तोष जनयत्यु स्यादयति बहुश्रुतानामतिशयाऽ आगमज्ञानानाम्, इतरेषां तु जनयेदपि, सूरीणामाचार्याणां यस्मान्निशीथप्रन्ये प्रतीते, श्रावक श्राद्धमुद्दिश्याऽऽश्रित्य भणितमुक्तमिदं वक्ष्यमाणमिति गाथा ऽर्थः । " तदेवार्थता गाथाद्वयेनाऽऽहइयर पिपातयाय साहब संजईणं च । हु पच्तिं खलु एवं सिताओ को तेसिं ॥ ३ ॥ छञ्जीवणिया सुत्ते-गमा पिंडेसव अत्थाओ । कप्पर पटि सो व आगमाथो न उस अर्थ ॥ ४ ॥ इतरसूत्रमपि प्रकरणादिकं न केवलसि शब्दाऽर्थः पाठवतां सूत्रदानतः आवकादिकमित्यच्याद्वारः साधूनां यतीनां संपतीनां यायिकाणां यः समुच्चये । प्रायधि तमेव समये प्रतीतमुत्सर्गतः। खलुरवधारणे, एतत् वक्ष्यमा सिद्धान्तादागमात्पुनस्तेषां श्रावकाणाम् | ३| षड्जीवनिका समसिमे पादानला अनुभाता सूत्रानु शायामर्थोऽपि एतस्यानुतः अभिमा fare पिरडेपणैव प्रतीना कल्पते युग्यंत अपवाद इति शेवः । पठितुं सूत्रतः, श्रोतुं वाऽर्थतः, श्रागमात् सिद्धान्तान पुनर्नवान्यदपरम् । तथा च निशीथगाथार्द्धम्-" पवज्जाए श्रमिमुह-वाति गिहिश्रनपाखंडी " एवं चूर्णि:- "गिहिं श्रनपासंडि वा पव्वज्जाभिमुहं सावगं वा छजीवणिय ति जाय सुबोधस्थ जाय सिखाओ एस गहराइ अववाउ न्ति । " इति गाथाद्वयाऽर्थः । 3 सूत्रेण विहितसंबन्धां गाथामाह किं च जई त्रिपरिणा-निवारा दिति धेयमुत्तन्धा । Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाढयंत (८२५) शनेिधानराजेन्द्रः । परिणयापरिणा - मियाण न उरांवदिट्टंता ||५|| किं वेत्यभ्युचये । धावकाणां तावन् दीनां सर्व था निषेधः सिद्ध एव यतीनामपि अतिपरिणामकारणामुत्सचादप्रियाणां दीयन्ते वितीयन्ते प्रथमार्थाः प्रतीताः अपरिणामकाणामपवादसिकानामुत्सर्गतम्ब निष्ठा नां नैव न च पुनःशब्दोऽवधारणार्थो दर्शित एव शान्तात् पुनज्ञातात्। तथेदम्-किल केनचिदाचा सिद्धा स्तरस्वं दातुकामेन निजसुखकपरीक्षार्थ जमाये दमुक्तम्- भो श्रस्मदर्थमात्र फलाम्यानयत । ततस्तैरिदं चिन्ति तम् प्रथमेन प्रष्टसह जयनम लेना कृत्यमिद्वितीयेन न कर्तव्यमिदं दतीयेन च कि बरातियां प रुपकै प्रयोजनमिति न सम्पण हायते। ततो गुरुम श्वान् भगवन्नबगतो युष्माकमादेशः परं विशेष मिच्छामि ततः कथयन्तु पूज्या येन तान्यानयामि शीप्रमिति । श्रत्र प्रथमः उत्सर्गप्रियत्वादपरिणामको द्वितीयस्त्ववादरुचित्वादन्यपरिणामकः, तृतीयस्तूभयप्रियत्वात्प रिणामकः । श्रद्यावयोग्यौ, तृतीयस्तु योग्य इति गाथार्थः। अत्रैवाऽर्थे दोषमाविष्कुर्वन्निदमाहअविडियवहाणार्थ, नारायारेण तह असम्झाए । सज्झाय कुतार्थ बहारे भशियमेवं ति ।। ६ ।। श्रविहितोपधानानामकृततपलां ज्ञानातिचारेण श्रुतमालिन्यजनकेन, तथा अस्वाध्याये कालवेलाssदौ स्वाध्यायं पाठं कुर्वतां विचतां व्यवहारे मन्थाऽऽये भणितसुक्रमेयमित्यमितिर्वाक्यसमासाविति गाथाऽर्थः । तदेवाऽऽहउम्मायं व लभेजा, रोगायकं व पाउणे दीहं । केवलिपन्नताओ, धम्माओ यानि सेना ॥ ७ ॥ प्रकटाऽर्था । वादोपं दर्शयन् दृष्टान्तदाष्टतिकगर्भगाचाद्वयमाह जह रत्ना पडिसिद्धे, पदातिनो देंत गेरह रयणाओ । पावर दंडमिहोरगं, तह जिसरमा तु नामए ॥ ८ ॥ सुवत्परयोव-मेओ मोहा पडत पाता । पावेंति महाघोरं भवदंडं लंघियजिणाणा ॥ ६ ॥ यथेति दृष्टान्तार्थो राशा भूपतिमा प्रतिपि निवारि नै तानि कस्य चिद्दातव्यानीति ददत् प्रयच्छन् भाण्डागारिकाऽऽदिः गृहंश्चाऽऽददानाः पदात्यादीन् रत्नानि माणिक्यानितुः पूरणे प्राप्नोति लभते विनापहारादिकम, इड जगत्यु पादानादि । तथेति दातियोजनार्थम, निराशा सर्वश्वरेश्वरेण तु तथैवन नैयाऽनुमताननुज्ञातान् छेदसूत्रार्थान् रत्नोपमान् माणिक्यसदृशान् मोहादशानात् पठन्तः श्रावकाऽऽदयः, पाठयन्तश्च तानेव यत्यादयः । विभ शिव्यत्ययात् प्राप्स्यति तस्य महाघोरम् अतीव रोई मदद संसारभ्रमणं किविशिष्टाः लजिनाशा: वक्रसर्वज्ञशासनाः । इति गाथाद्वयार्थः । यत एवमतो जीवशिक्षामाहतदा मा जीव तु सा देवसुत्थे । २०७ पाण पिप कसि किंचीतं पिबुद्धिए ।। १० ।। तस्मान्मति निषेधे जीवात्मन्! दो प्रया उपलक्षणत्वादस्यान्यपि सिद्धान्तनिषिद्धं द्रष्टव्यम् । पर्दा कथयति व्यासे किंचित स्वीकं दीपंताचा पूर्ववत् । तदपि च इतिबुद्धया एवंमत्या कंथय ब्रूहीति गाथाऽर्थः । तमिवाऽऽह अविकोविएहि तरलिय- मइणो मा धम्मबाहिरा हुंतु । - भवा से मि तेरा परिवक्वणाई ।। ११ ।। अत्रिकोविरैरगीतार्थैस्तर सितमतयां विसंस्धुलबुद्धधी, मे ति प्रतिषेधे, धर्मवाद्यादीनाम्री भन् बर्तन भय्या मोगामिनः। दर्शयामि प्रकटयामि तेन का रथेन प्रतिपक्षवचनानि उत्तरययांस । ननु अन्यान् धारयसि स्वयं तु संवाद निजनशितस्य सर्वत्र तगाथाः कथयसि विरुद्धमिदम् ? | सत्यम् । यदा विप्रतिपन्नो जनो दर्शनं प्रति भवति तदा रहस्यकथनेऽप्यदोषः । तथा च निशध मलिनदिम 66 'तम्हा न कहेयव्वं श्रयरिवणं तु परयणम् । खतं कालं पुरिसं, नाऊण पगासए गुज्भं ॥१॥" इति गाथाऽर्थः । व्यतिरेकमाह जइ पुरा तुमं पि एमेव करेसि सारा दुखियाखं । ता तुज्भ वि भवदंडो, निरत्ययो एरिसो होही ॥ १२ ॥ यदि पुनमा, न केवलं पूर्वोक्रा इत्पपेरर्थः (मेसि तरलितमत्यभावे कथयसि ना. फि विशिष्टानां ?, दुर्विदग्धानां ज्ञान लव गीतमतबा पिन चलानाम् इत्यपेरर्थः यदाई संसार रथेको निःप्रयोजनो भविष्यति इचि गाथाः । | जीवा० २० अधि० । पाढग पाठक पुं० बहुतत्यनिबन्धनपदवीविशेपभाजि अष्ट० ३२ अष्ट० । पाहा पाउनता श्री बाचनतायाम पाढण्या - स्त्री० । -- उद्दिसण वायगति य, पाढणता चेव एगट्ठा ।" पं० भा० ४ कल्प । पाढा - पाठा स्त्री० । अनन्तजीववनस्पतिविशेषे, प्रशा० १ पद । पाटीस पाठीन पुं० मत्स्यविशेषे प्रश्न १० द्वार पाण-- प्राण- पुं० । मातङ्गे, स्था०४ ठा० ४ उ० । “ मायंगा तह जगमा पाणा ।” पाइ० ना० १०५ गाथा । चाण्डाले व्य० १ उ० । ये ग्रामस्य नगरस्य च बहिराकाशे वसन्ति तेषां गुहाभावात् । व्य० ३ उ० । वृ० 1 गुच्छवनस्पतिकायमेरे, प्रज्ञा० १ पद पान - न० पीयत इति पानम । कर्मणि ल्युट् । उच्चवर्णरसाऽऽपेश० ५० १० खरद्राक्षापानका ४ द्वार । श्राचा० । स्था० । उत्त० | चं० प्र० । भ० । सुराऽऽदौ, स्था० ३ ठा० १ उ० सू० प्र० प्रश्न० । सौवीराम्बाSSदिध वने, ध० २ अधि० 1 दशाः । दश० । उष्णोदका ssaौ, स० १२० । दर्श० । श्राव० । श्राचा० ॥ श्र० चू० । पचा त्रिफलाइन प्राकं पानी कुल सिद्धान्ते क्रम स्तीति ? प्रश्ने, उत्तरम् अत्र त्रिफलाकृतं प्रासुकमुदकं सिद्धान्तानुमतं ज्ञायते यतः- “ तुवरं फले य पत्ते, रुक्खास -- 66 Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२६) पागा अभिधानराजेन्द्रः । पाणग लातुप्पमहणादीसु । पासंदणे पवाते प्रायवतत्ते बहे परहे। एगे ऊसासणीसासे, एस पाण त्ति वुच्चइ॥२॥ ॥२०॥” इति निशीथभाष्यगाथा । एतच्चूर्णी तुवरफला ह हृष्टस्य तुष्टस्य अनवकल्पस्य जरसापीडितस्य निरुपक्लिरीतक्यादय इति व्याख्यातमस्तीति ॥७॥ ही०३प्रकाप्रव०॥ घटस्य व्याधिना वाऽनभिभूतस्य जन्तोर्मनुष्याऽऽदेरेक उच्चा. संप्रति पानमाह सयुक्तो निःश्वास उच्चासनिश्वासः एष प्राण उच्यते । अनु। प्राणशब्देनाभेदोपचारात् तद्वान् गृह्यते । जन्ती, प्राचा०२ श्रु० पाणं सोवीर जवो-दगाऽइ चित्तं सुराइयं चेव । २१०३ उादशविधप्राणभोक्तृत्वात्तदभेदोपचारात् प्राणिनि, आउक्काओ सब्बो, कक्कडगजलाइयं च तहा ॥ २१२ ॥ सूत्र०१ श्रु० २०२ उ०। द्वीन्द्रयाऽऽदिजन्ती, वृ०६ उ० । सौवीर काजिकं,यवोदकाऽऽदि यवधावनम् श्रादिशब्दागो- "प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः धूमपष्टिकाऽऽदितन्दुलकोद्रवधावनाऽऽदिपरिग्रहः। तथा चित्रं पञ्चेन्द्रिया शेयाः,सत्त्वाः शेषाः इतीरिताः ॥१॥" स्था०५ ठा०२ नानाप्रकारं सुराऽऽदिकं चैव, श्रादिशब्दात्सरकाऽऽदिपरिग्र- उ० । सूत्र० । आचा० । प्रा०चू०। रसजाऽऽदिषु कुन्थ्वादिषु हः, तथाऽप्कायः सर्वः सरःसरित्कृपाऽऽदिस्थानसंबन्धी, प्राणिषु, पाव० ४ अ०। स्था०। प्राचा० । शाला कल्प० "मतथा कर्कटजलाऽऽदिकं च कर्कटकानि चिभिटकानि, तन्म- ब्वे पाणा सव्वे भूया सब्वे सत्ता सब्वे जीवा।" सर्वे प्राणाः श्रवर्ति जलं, तदादिर्यस्य तत्कर्कटजलाऽऽदिकमादिशब्दात् सर्व एव पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिखज्जू द्राक्षान्त्रिाश्चणिकापानकेक्षुरसाऽऽदिग्रहः । एतत्सर्व यबलोच्चासनिःश्वासाऽऽयुष्कलक्षणप्राणधारणात् माणाः । पानम् । प्रव०४ द्वार । आचा०१शु ४०१ उ० । ( कतिविधाः क्षुद्रजन्तु प्राणा चित्रपानलक्षणमाह - इति 'खुड्डजंतु' शब्दे तृतीयभागे ७५० पृष्ठे उक्तम् ) उस्सेइम संसेइम. पुप्फरसो रत्तपभिइ तणुजायं । पाणकलंद पाणकलन्द -न० । " पाणकलंदं कुंडं।" उदरम ध्यभागभवे, उपा०। आउक्कानो सव्वो, सोवीरजवोदगाईयं ॥४५॥ पाणक्कमण-प्राण्याक्रमण--न० । द्वीन्द्रियाऽऽदीनां प्रसानां उच्चुरस मेरयसुरा-ऽऽसव वर्फ य सिरिफलाइ फलनारं। पादेन क्रीडने, आव० ४ अ० । ध०। हिमकरवहरतणाई, चित्त पाणावाणापट्ट॥४ालमा पागक्खय-प्राणक्षय--पुं०1वलक्षये, भ० ३ श०७ उ०। मा. पानीयस्य अचित्तत्वकालः-उष्णकालाऽऽदौ उष्णं प्रासुकंवा रिकृते प्राणनाशे, जी० ३ प्रति० ४ अधिक। पानीयं पश्चाऽऽदिप्रहरं यावदचित्तं, ततः परं सचित्तं भवती. पाणग-पानक- न० । द्राक्षापानकाऽऽदी, स्था० ३ ठा० १ उ० । त्यक्षराणि कुत्र सन्ति । तथा तत्र यावत्त्रसजीवोत्पत्तिर्जाता चं० प्र०। सू० प्र० । भ० । “मरवइजोग्गो पंचहिं वारसेहिं जं न भवति तावद् गालितं तत्पातुं कल्पते, न वा इति प्रश्ने,उत्तर- सीसग होज्जा लोणव्चे सहियं तं पाणगो त्ति वुश्चइ ।" म्-अत्र उष्णकालाऽऽदी उष्णं प्रासुकं वा पानीयं पश्चाऽऽदि- पं० चू०१ कल्प । पं. भा० । व्रतियोग्ये जलविशेष, भ० प्रहरं यावदचित्तं, ततः परं सचितं भवतीत्यक्षराणि प्रवचन- १५ श । (उत्सेदिमाऽऽदिपानकानामचित्तीभवनम् 'अ. सारोद्धारसूत्रवृत्तिमध्ये प्रोक्तानि । तथा तत्र त्रसजीवोत्पत्ति चित्त' शब्दे प्रथमभागे १८७ पृष्ठे गतम्) बंता भवतु,मा वातथाऽपि गालितमेव तद्यापारणीय,नागा श्रचित्तत्वकालः कति प्रहरान् यावत्-"पणपहर माह लितमिति परम्परा दृश्यते इति । ही०४ प्रका०। पानीयाना- फग्गुण, पहरा चत्तारि चित्तवइसाहे । जिट्टासाढे तिपहर, मचित्तत्वकालः-एकविंशतिपानीयानां प्रासुकीभवनानन्तरं तेण परं होह अश्चित्तो" ॥२॥चालितस्तु मुहर्तादर्द्धमपुनः कियता कालेन सचित्तता भवति। तथा तेषां सर्वेषां वित्तः,तस्य चाऽचित्तीभूतानन्तरं विनशनकालमानं तु शास्त्रे सांप्रतं प्रवृत्तिः कथं नास्तीति प्रश्न, उत्तरम् अत्र उष्णो- न दृश्यते,परं द्रव्याऽऽदिविशेषेण वर्माऽऽदिबिपरिणामाऽभ. दकस्य यथा वर्षाऽऽदौ प्रहरत्रयाऽऽदिकः कालः प्रोको- वनं यावत्कल्पते उष्णनीरंतु त्रिदण्डोत्कालितावधि मिश्रम। ऽस्ति तथा प्रासुकोदकधावनाऽऽदीनामपीति बोध्यम्, तेषां यदुक्तम् पिण्डनियुकौप्रवृत्तिस्तु यथासंभवं विद्यते इति । ही ३ प्रका।पा भावे "उसिणोदगमणुवत्ते, दंडे वासे अपडिअमित्तम्मि । ल्युट पानं, जलाऽऽदेरुपभोगे, दर्श०१ तत्व । उच्चासाss. मुतणाऽऽदेसतिगं, चाउलउदगं बहुपसन्नं ॥ १८॥" दी. स्था०१ ठा० । बले. स्था०६ ठा। प्रव० । जीविते, ग०२ अनुवृत्तेषु त्रिदण्डेषु उत्कालेषु जलमुष्ण मिश्रं. ततः परअधि०"पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, निःश्वास उच्चासम- मचित्तं.तथा वर्षे वृष्टौ पतितमात्रायां ग्रामाऽदिषु प्रभूतमनुथान्यदायुः। प्राणा दशैते भगवद्भिरता-स्तेषां वियोगीकरणं प्यप्रचारभूमौ यजलं तद्यावन्न परिणमति तावन्मिश्रम्, अतु हिंसा ॥१॥" दर्श। ५ तवा विशे। सूत्र०। प्रव०। दशः। रण्यभूमौ तु यत्प्रथमं पतति तत्पतितमात्रं मिथं, पश्चानिश्रातु । श्राव। जी। द्विविधाः प्राणाः-द्रव्यप्राणा: भाव- पतत् सचित्तम्। आदेशत्रिकं मुक्त्वा तण्डुलोदकमबहुप्रसन्न प्राणाश्च । प्रशा० १ पद । (ते च 'परणवणा' शब्देऽस्मिन्ने. मिश्रम, अतिस्वच्छीभूतं त्वचित्तम् । अत्र त्रय आदेशा यथा व भागे ३८८ पृष्ठे व्याख्याताः) निश्वासे, स०भ०। (के- केचिद्वदन्ति तण्डुलोदके तण्डुलप्रक्षालनभाण्डादन्यत्र भाण्डे प्राणिनः कियता कालेन प्राणन्तीति प्राण' शब्दे द्विती उत्क्षिप्यमाणे त्रुटित्वाभाण्डपाा लग्ना बिन्दवी यावन्न शाम्ययभागे १०५ पृष्ठे उक्तम् ) उच्चासनिःश्वासयोरपि काले, न्ति तावन्मिश्रम् । अपरे तु तथैव जाता यावद् बुद्बुदान शातं० । संख्यातावलिकाप्रमाणे निश्श्वासकाले, स्था० २ म्यन्ति तावत् । अन्ये तु यावत्तन्दुला न सिद्धयन्ति तावत् । ठा०४ उ०। एते त्रयोऽध्यादेशा अनादेशाः, रूक्षेतरभाण्डपवनाग्निसंभहवस्सऽनवगप्पस्स, णिरुवकिट्ठस्स जंतुणो | वाऽऽदिभिरेषु कालनियमस्याभावात्ततोऽतिस्वच्छीभूतमवा Jain Education Interational Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालग चित्तम् । ध० २ अधि० । (तिब्बोदग इत्यादि गाथा ' श्राउकाय' शब्दे द्वितीयभागे २३ पृष्ठे गता ) ( ' परिवणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५७२ पृष्ठे उदकसंसक्तrssहारस्य परिष्ठापनिका गता ) ( ५२७) अनिधानराजेन्द्रः । " चतुर्थनक्रिका चतुर्थमक्रिकस्य पानकानि निवरस गं भिक्खुस कति तयो पागाई पडिगाहित्तए । तं जहा - उस्सेइमे, संसेइमे, चाउलधोवणे । छत्तिसगं भिक्खुस्स कप्पंति तय पाणगाई पडिगाहिए। तं जहा तिलोद, तुसाद, जवोदए। अट्ठमभतियस्स णं भिक्खुस्स कपंति तो पाणगाई पडिगाहित्तए । तं जहा आयामए सोचीरए, सुद्धविपदे । तद्यथास्ति स चतुर्थ भक्लिकस्तस्य, एवमन्यत्रापि शब्दव्युत्पत्तिमात्रमेतत् प्रवृत्तिस्तु चतुर्थभक्ताऽऽदिशब्दानामेकाssपासाऽऽदिति भिक्षणशीलं धर्मस्तत्साधुकारिता वा क रूप समिति वा सुवमिति विद्युस्तस्य पानकानि पानाऽऽहारा उत्स्वेदेन निर्वृतरस्वेदिमं येन श्रादिप सुरा उत्स्द्यते तथा सेवन निर्वृतमिति किनम् । अविकाऽदिपशाकमुस्काल्प येन शीतलजलेन संसिध्यते तदिति दुखधावनं प्रतीतमेचदिका 35दिनपरं तु दकम् आयामक Haraj arari काञ्जिकं शुद्धं विकटमुष्णोदकम् । स्था ३ डा० ३ ४० ('गिलास' शब्दे तृतीयभाग पृष्ठे तर काजिक तण्डुलोदकं संसृष्टं चेति क्रमेण देयमित्युक्तम् ) पानकग्रहणविधिः अन्ये अंतिमरि अ ऊसिते " इति द्वारमभिधित्सुः प्रथमतः संबन्धमाहभुतमि तु जम्हा नियमा दवस्स उपयोगो । समहियतरो पत्तो, कायच्या पाणए तम्हा || ६३५शा भुक् भोजनानन्तरं पानार्थे, संज्ञाभूमिगमनार्थं वा, भोजनललगल रक्षार्थ परवासियमा द्रवस्य पानकस्योपयोगी भव ति तस्मात् भक्तग्रहणप्रयत्नात् समधिकतरः प्रयत्नः पानकग्र हणे कर्तव्यः । इत्यतस्तद्मविधिरुत्सृज्यते । इह शक्तिकेषु वा गच्छेषु प्रभूतेन पानकंन कार्य भवति तथ कल्पनीयमेव ग्रहीतव्यम् अतस्तद्विधिप्रतिबजारसंग्रहि कामियां गाथामादपाणगजाइणियार, आहाकम्मस्स होइ उप्पत्ती | पूतीऍ मीसजाए, कडे य भरिए य ओसित् || ६३६ ॥ पानकस्य याचायामाधाकर्मण उत्पत्तिर्भवति सा वक्तव्या । ततः (पूर ) पुनिका (मीन सि) स्वपतिमिधा स्वपावरमा स्वाध्कमिश्रा (कंडे) श्राचाकृता श्रीवतास्वार्थता वक्रप्या (भरि ति) भरणं भरितमकिन नामाभिधातव्यम् (ओसित ति) उत्सेचनमुक्रिं तव्यमिति ज्ञारगाथासमासार्थः । अथ विस्तरार्थमाहअवभासण संदेसोपे घरसामी । कहि अनं, महलसोवीरिणि गेहे ।। ६३७ ॥ पाणाग कोऽपि भइको गृहपतिरम्यान संघाटकान् द्रव्यस्थाब भाषणं कुर्याताना ते मध्ये केपात् संघटका नां संदेशं मुरली चाट पानकं ना. स्तीदानीं भवद्येोग्यमिति क्रियमाणं निरीक्ष्य - ( पुराणे ति) पुस्यार्थे गृहस्वामिनी प्रीति-धर्मप्रिये ! मानाऽपि साधु जङ्गमं निधिमिव गृहाङ्गणमायातं प्रतिषेधयेः । किं भवत्या दानधर्मकथायाम को कति यथा 35 " चित्तस्य, गुणयुक्तस्य वाऽर्थिनः । दुर्लभः खलु संयोगः, सुबीजक्षेत्रयोरिव ॥ १ ॥ ततः सा ब्रूयात्- नास्त्येतावन्तं साधून यो काकिम् । ततोऽसीतिया स्थाप याम्यां महती सीविराणीमलिनीम् गेहे येन सर्वेषामपि योग्यं पानकं पूर्यते । एतच्चाकर यम्मा काहिसि पडिसिद्धो, जइ बूपा कुरा दारामसिं । ते विजी, न पावि नियं अधिपति ।। ६३८ ॥ न कल्पते एवं विधीयमानं ग्रहीतुमतो मा कार्षीः यद्येवं प्र तिषिद्धः स गृहस्वामी क्या ये कुर्यात्वं तावदप सीवीरिणीं परोपन ग्रहीष्यति ततोऽन्येषां साधून पानक दानं करिष्यते । ततो वक्तव्यम्-ते - तेऽपि साधव उद्दिविवर्जिनः साधर्मिकमुद्दिश्य कृतं वर्जयितुं शीलं येषां ते तथापि नित्यं पानार्थमपि निपतन्ति अनियतभिक्षाटनांद पाम् । इत्यमुले बसी गृहस्वामी पात् म्ह व होहि कजं, घेच्छंति वहू य अन्नपासंडा । पत्तेयं पडिसेहो, साहारे होइ जयगा उ ।। ६३६ ॥ अस्माकमपि भविष्यति कार्य काजिफेन ग्रहीष्यन्ति व बहवोऽन्येऽपि युष्मव्यतिरिक्ताः पाखण्डिन इति । तत्र सा धारणे यतना कर्त्तव्या । यथा श्रस्माकं तावन्न कल्पते ( पसेयं डिसेही सि) अथ गृहपतिर्भरहति- अम्पेऽपि निर्भयाः पान कार्थमायास्यन्ति, तेभ्यो दास्यते, इत्थं प्रत्येकं निर्ग्रन्थामेवाभिचीयमाने प्रतिषेधः कार्यो न त सा नामित्थं विधीयमानम् । एवं प्रतिषिद्धेऽपि कोऽपि सप्त सौवीरिणीः स्थापयेत् । ताश्चैताःआहाकम्पिय संघर, पाडमीसए जाव फी पर असफडे । म उस उ करे व काराविए चेत्र ।।६४०॥ आधाकर्मिका साधूनामेवावकारिता १. स्वगृहपतिविधा गृहस्य साधूनां पाप निर्माता २ गृहपा था. गृहस्य पारिनां चार्थाय कारिता पनि था तु यावन्तः केवनागारिणः पाखण्डिनस्वागमिष्यन्ति स्वगृहं यहिश्य कृता ४ नाव न गृहीना ५. पृतिकर्मिका प्राधाकर्मिकचाऽऽदिना पूरि त्मार्थ कृता, स्वगेहार्थमेव स्थापिता ७ एतासां सप्तानां सौवीरिनामेकस्यां संवरभरणानि भवन्ति सम दिन एकोनपञ्चाशपति एवाय प्रत्येकं कृते कारापिने पति ततो द्वाभ्यां गुरुवते जाना बेदनामान तिरिति । असम भरणानि दर्शयनिकम्मपरे पार्सदे, जान कीय अनकते। Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) अन्निधानराजेन्द्रः। पायाग पागाग भरणं मताधिकप्पं, इकिकीए उ रसिणीए । ६४१॥ अथानन्तरोलमडकेगु प्रायश्चित्तमाहआचाकामकं । स्वगृहयतिमिदं २, स्वगृहपाखशिडमिश्रं ३, जेण अमद्धा रसिणी, भरणं उभयं च तत्थ जाऽऽरुवणा। याचदर्थिकमिधंक्रीतकृतं , पूतिकर्मिकम् ६,आत्मार्थकृत सुद्धभय लहुसमित्त, कम्ममजीव वि मुणिभरणे ॥६४६।। चेति ७ सप्तविकल्पं सप्तप्रकारं भरणमेकैकस्यां रसिन्यां। सौवीरिगयां भवति । पूर्वोक्तमा यत्र येनाऽऽधाकर्माऽदिना दार्पणाशुद्धा रसिअथ कि सीव रसिन्यो भवन्ति नाधिका इत्युच्यते नी भरणं च उभयं वा सौचारिणीभरणयुगं यत्र यन दोसत्त ति नवरि नेम्म, उग्गमदोसा हवंनि को वि। पण दूषितं तत्र तदोषनिष्पन्ना या काचित् प्रत्येक संयो. गतो वा प्रारोपणा सा वक्ष्यमाणनीत्या वक्तव्या । तथा यसंजागा कायवा, सत्तहि भरणेहि रासणं ।।९४२॥ नरसिनी भरणं च उभयमपि शुद्धं, परं संयतार्थ पानफसप्तनि यदुक्तं तन्नवरं केवलं नम चिहमुपलक्षणं द्रष्टव्यं,तेना. मुत्सितं तत्र लघुमासः । (कम्ममजीचे वि मुणिभरण ति) द्मदाय श्रादेशिकाऽऽदयोऽन्येऽपि यथासंभवमत्र मन्त- यदजीवमपि प्राशुकमपि मुनीनां हेतोभरणं क्रियते तदप्याव्याः । याः प्रतिौरभ्यधिका अप्यक्लिन्यो भवन्ति, अत्र च धाकर्म मन्तव्यं परं विशधिकोटिः। संयामानाकाः कर्तव्याः, सप्तभिर्भरणैः सप्तानामेव रसिनी- अथाऽऽधाकर्माऽऽदिभेदेष्वारोपणामाहनामा -माधाकर्मिका सौवीरिणी भरणमपि तस्यामा तिन्नेव य चतुगुरुगा, दो लहुगा दो गुरुग अंतिमो मुद्धो। धार्मिका साचारिणीभरणं स्वगृहपतिमिश्रम्, एवं सौयी रिगं तस्यैव भरणं पाखएिडमिश्रम्. यावदर्थिकमिश्नम्, क्री एमेव य भरणे बी, एकेकीए उ रसिसीए ॥ ६४७ ॥ तकृतं, पृतिकर्मिकम् आत्मार्थकृतम् । एवं स्वगृहपतिमि- प्राधाकर्मणि स्वगृहमिश्रे पाखएडमिश्रे च प्रत्येक चतुर्गधारिधि सौवीरिणीषु प्रत्येकं सप्त २ भरणानि योज- रुकमिति त्रयः चतुर्गुरषो भवन्ति, योर्यावदर्थिकीत कृतयोश्चतुर्लघवः, भक्तपानपूतिके गुरुमासः, उपकरणपूतिके नतश्च कियन्तो भगका उत्तिष्ठन्ते इत्याह लघुमास इत्यनुक्कमपि दृश्यम् । अन्तिमः प्रात्मार्थकृतलक्षजायला रमिणीओ, तावइया चेव होति भरणा वि। णो भेदः शुद्धः, एवमेकैकस्यां रसियामुक्तम् भरणेऽप्येकैक. स्मिन्नेवं मन्तव्यम् । अपणो पामं भेया, सयग्गसो यावि णेयचा ॥१४३|| अथाऽऽगमे चाउम्लिनीनां मध्ये को विशेधिकोटिः को यावन्या यावसंख्याका रसिन्यस्तावन्त्येव तावत्संख्याका- वा अविशोधिकोटिरित्यादिचिन्तां चिकीर्षुराहग्य वान्त भरणानि । ततश्च यदा सप्ताम्लिन्यः, सप्त च भ संयतकडे य देसे, अप्फासुग फासुगे य भरिए य । गणानि गृहमन्त तदा एकोनपश्चाशद्भेदा भङ्गका भवन्ति । अथान्यातायुगमदोषान प्रक्षिप्य बहुतराः सौयारिण्यो बहु अत्तकडे वि य ठविए, लहुगो आणाइणो चेव ॥१४॥ नर्माण च भरणानि विवक्ष्यन्ते ततः शताप्रशः शतसंख्याप- संयतानेध केवलानाश्रित्य कृतं संयतकृतमाधाफर्म ( देसि. गिच्छता अपि भेदाः मन्तव्याः। त्ति) देशत एकदेशेन संयताऽऽदीनामाश्रित्य कृतं देशकृतं,गृअथाऽधाकर्मिकभरणं भावयति मूलभरणं च भावयति हमिश्राऽऽदिकमित्यर्थः । अप्राशुकेन प्राशुकेन वा संयतार्थ यद्भरणं तदप्याधाकर्म (अत्तकडे वि य ठविए त्ति) आत्मा. मूलभ तु वीया, तहि छम्मासा न कप्पए जाव । थै कृतायामम्लिन्यां यदात्मार्थ भरणं तदपि यदि श्रमणार्थतिन्नि दिशा कड्डियए,चाउलउदए तहाऽऽयामे ॥६४४॥ मुत्सृज्य बहिः स्थापयति तदा स्थापनादोष रति कृत्वा न मूलभरण नाम प्राशुकायामम्लिन्यां राजिकाऽऽदीनि बीजानि ग्रहीतव्यं, यदि गृह्णात तदा लघुको मासः, आशाऽऽदयश्च संयनाथ यक्षियन्ते तच्चाधाकर्मिकमतस्तत्र यदन्यत् प्रा- दोषाः । एषा नियुक्तिगाथा। शुकमपि क्षिपन्ति तत् परमासान् यावन्न कल्पते, परतस्तु अंथनामेव व्याख्यानयतिकल्पन । अथ तस्था रसिन्याः सकाशात्तदाधाकर्मिकमाकार्पि देसकडा मज्झपदा, आदिपदं अंतिम च पत्तेयं । तं मनस्तरिमनाकर्षित (चाउलोदगं) तन्दुलधावन तथा आयाममयमार्ग यत्तत्र क्षिप्यते तत् त्रीन् दिनान् न क उग्गमकोडी च भवे, विसोहिकोडी च जो दोसो ।९४६ हाते, पूनिकर्मवान् , तत ऊर्द्ध कल्पते ।। यानि मध्यपदानि स्वगृहमिथपाखण्डिभिश्रयावदर्थिकमि. अथ म्यगृह मश्राऽऽदिभरणान्यतिदिशन्नाह श्रक्रीतकृतपूतिकर्मलक्षणानि तानि देशकृतान्युच्यन्ते,देशनः स्वगृहाथै देशतस्तुसाध्वाद्यर्थममीपां क्रियमाणत्वात् । यत्पुनएमंत्र सघरपान - डमीस जाव किइ पूइ अत्तकडे । रादिपदमाधाकर्म अन्तिमपदं चात्मार्थ कृतं तद् द्वितयमपि कयकीयकई टविय, तहेव वत्थाइणं गहणं ॥६४शा । प्रत्येकमेकविषयं केवलमेव, साधुपक्षं स्वगृहपक्षं चोद्दिश्य प्रएवमेवाऽऽधार्मिकचरणवत् स्वगृहमिश्रं पाखण्डमिश्रं वृत्तत्वात् । अत्र च यो देशो देशकृतः ग्बगृहभिधाऽऽदिको जावदर्थिकमिश्नं की पूतिकर्म आत्मार्थकृतं च भरणं दोपःस उद्गमकोटिकोटि भवेत् अधिशाधिकोटिरित्यर्थः । मन्तव्यम् । वस्त्रादिविश्यमप्यतिदेशमाह-"कय इत्यादि" विशोधिकोटि । तत्र स्वगृहमिथं पाखण्डमिश्रं च नियमापश्चार्द्धम् । कृने संयतार्थ निप्पादिते शीतकृते मूल्येन गृहीते दविशोधिकोटी, पूतिकर्मयावदर्थिकमिथक्री कृतं चेति श्री. स्थापित साध्वर्थ निक्षिसे तथैव पानकवत् वखाऽऽदीनां ग्रह- णि विशोधिकोटयः । श्राधाकामकं पुनरे कान्तेनाविशोधि. णं भावनीयम् । एतच्च पश्चादूर्द्धमुत्तरत्र भावयिष्यते । । कोटिः आत्मार्थ कृतं तु निरयद्यमेवेति । Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणग अभिधानराजेन्डः। पाणग जं जीवजुयं भरणं, तदफाय फासुयं तु तदभावा । तेन खलिकाद्रव्यसंभारेण पायितः सन् किम् आधाकर्म न तं पि य हु होइ कम्म, न केवलं जीवधाएण ॥१५॥ भवति ?. त्वदुक्तनीत्या न भवतीति भावः । ततो यदि जी वोपधातनिष्पन्नत्वात्पायनमाधाकर्म, इतरत्तु तननं वितननं यजीवयुतं राजिकाऽऽदिबीजसहितं भरणं तदप्राशुक, तद वा कर्म न श्राधाकर्मेति ताई स पटो धौतः सन् क. भावाद्राजिकाऽदिवीजाभावाद्यद्भरणं तत्माशुकं, तदपि च निर्जीवं भरणं संयतार्थ क्रियमाणमाधाकर्म भवति, न के स्पतां, भवतोपनीतपायनिकालेपत्वात् । अपव्रवीथा:-धौतो. ऽप्यसो न कल्पते ततस्तननं वितननं चार्थादाधाकर्म सं. वलं जीवघातेन राजिकादिजिजन्तूपघातेन निष्पनमिति। वृत्तमिति सिद्धं नः समीहितम् । वृ०१ उ०२ प्रक। अथोत्लिक्लपदं भावयतिसमणे घर पासंडे, जावं ति य अत्तणो य मुत्तूणं । अपरिणतं पानकं न गृह्णातिछट्टो नत्थि विकप्पो, उस्सिंचणमो जयहाए ॥६५१॥ से भिक्खू वा भिक्खूणी वा जाव पविढे समाणे से जं पुण काञ्जिकस्य सौवीरिणीतो यनिष्काशनं तदुरिसक्तम् । तश्च पाणगजायं जाणेज्जा । तं जहा-उस्सेइमं वा संसेइमं वा चापञ्चधा-श्रमणार्थ साधूनामर्थायेत्यर्थः १, स्वगृहयतिमिनं २, उलोदगंवा अम्मयरं वा तहप्पगारं पाणगजायं अहुणा धोतं पाखएडमिभं ३,यावदर्थिकमिश्रम् ४ात्मार्थकृतम् ५। एतान् णविलं अव्योकंतं अपरिणतं अविद्धस्थ अफासुयं अणेसपञ्चभेदान् मुक्त्वा अपरः षष्ठो विकल्पो नास्ति यदर्थमुत्सेचनं भवेत् । अत्र चाऽऽत्मार्थ यद् गृहिभिरुत्सितं तदेव गृही णिज्जं लाभे संते णो पडिगाहेजा। अह पूण एवं जाणेज्जातुं कल्पते, न शेषाणीति । उक्त आहारविषयो विधिः। । चिराधोयं अंबिलं बुकंतं परिणतं विद्धत्थं फासुयं पतिअथोपधिविषयं तमेवाऽऽह गाहेजा । से भिक्खू वा जाव पविढे समाणे से जं पुष तत पाइय विततं पि य, वत्थं एकेकगस्स अट्ठाए । पाणगजायं जाणेज्जा । तं जहा-तिलोदगं घा, तुसाद पायं भिन्न निको-रियं च ज जत्थ वा कमइ ॥६५२।। । वा, जवोदगं वा,आयामं वा,सोवीरं वा, सुद्धवियर्ड वा अवस्त्र मेकैकस्थार्थाय ततं पायितं विततं वक्तव्यम् । तद्यथा-सं. मातरं वा तहप्पगारं पाणगजातं पुवामेव आलोएयतार्थ ततं. संयतार्थ पायितं, संयतार्थमेव व विततम् संघ ज्जा, आउसो त्ति वा भगिणि त्ति वा दाहिसि मे एसो तार्थ ततं,संयतार्थ पाथितम् अात्मार्थ विततम्। संयतार्थततम् शश्रात्मार्थ पायितं,संयतार्थ विततम् । संयतार्थ ततम्. श्रा अम्मतरं पाणगजायं ? । से सेवं वदंतस्स परो वएजा-- स्मार्थ पायितम् अात्मार्थमेव विततम् एवमात्मार्थ ततेनापि आउसंतो समणा ! तुमं चेवेदं पाणगजातं पडिग्गहेण चत्वारो भगा लभ्यन्ते,जाता अष्टौ भड़ा। अत्र चाष्टमो भङ्गः वा उस्सिचियाणं उयत्तियाणं गिबहाहि, तहप्पगारं पा. शुद्धः,त्रयाणामयात्मार्थ कृतत्वात् । एवं स्वगृहमिश्रपाखराडमिश्रयावदर्थिकमिप्यपि द्रष्टव्यं,सर्वश्राप चाष्टमो भङ्गःशु णगजायं सयं वा गिरिहज्जा, परो वा से दिज्जा, फायं द्धः शेषास्तु सर्वेऽप्यशुद्धा इति । पात्रमप्युद्भिनं निष्कादं चैलाभे संते पडिगाहिज्जा । (४१)। वमेव वक्तव्यम्। तद्यथा-संयतार्थमुद्धिनं,संयतार्थ चोत्कर्म१, संयतार्थमुद्भिन्नम् श्रात्मार्थमुत्कीराम् २,आत्मार्थधुनिम्नं सं. स भिक्षुहपतिकुलं पानकार्थ प्रविष्टः सन् पत्पुनरेवं जायतार्थमुत्कीर्णम् ३, प्रारमार्थमुद्भियम्. आत्मार्थमेव बोत्की. नीयात् । तद्यथा-(उस्सेइमं वेति)पिष्टोत्स्वेदनार्थमुदकम् - राणम् ४. अत्र चतुर्थी भङ्गः शुद्धः,शेपास्त्रयोऽप्यशुद्धाः। यद्रा सेइमं वेति)तिलधावनोदकम् । यदि बा-अरणिका दिसंस्थिक्रीतकुतस्थापिताऽऽदिकं यत्र वसले पात्रे वा क्रपते अवसर नधावनोदकम् । तत्र प्रथमद्वितीयोदके प्रासुके एव तृतीयवतितं तत्र सम्यगुपयुज्य योजनीयम् अत्र च तननं वा विशो तुर्थे तु मिथे कालान्तरेण परिणते भवतः । (चाउलोदयं ति) घिकोटिः, पायन विशोधिकोटिरित्याचार्यस्य मतम् ! परस्तु तन्दुलधावनोदकम् । अत्र च प्रयोऽनादेशाः । तद्यथा-- ब्रवीति-पायनमशोधिकोटिः, कन्दाऽऽदिजीवोपघातनिष्पत्र बुद्धदविगमो वा, भाजनलग्नविन्दुशोषो वा, तन्दुलपाको स्वात् ।तननं वितननं च विशोधिकोटि: जीवोपघातस्याह वा । श्रादेशस्त्वयम्-उदकस्वच्छीभावः, तदेवमायुदकम् श्यमानत्वादिति। अत्र सूरिराह-नास्माकं जीवोपघातेनैवा. अनाम्लं स्वस्वादादचलितम् अव्युत्क्रान्तमपरिणतमविऽऽधाकर्म, किं तु श्रमणार्थ वस्त्राऽऽदेयत्पर्यायान्सरनयनं ध्वस्तमप्रासुकं यावन्न प्रतिगृह्णीयादिति । तदप्याधाकर्म मन्तव्यम्। एतद्विपरीतं तु प्रायमित्याह-अहेत्यादि सुगमम् । पुनः पाअपि च नकाधिकार एव विशेषार्थमाह-स भिक्षहपतिकुल प्रविअत्तढियतंतूहि, समण ततो अ पाइय बुतो य। टो यरपुनः पान कजातमेवं जानीयात् । तद्यथा-'तिलोद' किं सारण होइ कम्म,फासूण विवजिओ जो उ ।६५३। तिलैः केनचित्प्रकारेण प्रासुकीकृतमुदकम् ४ एवं पर्यवे ५-६ तथा-याचाम्लम् अवश्यानं ७. “सावीरम् 'श्रार. जइ पजणं तु कम्मं, इतरं न स कप्पऊ धोत्रो । नालं, 'शुद्धीवकट' प्रासुकमुदकम् ६, अन्यना नथाप्रअह धोओ विन कप्पइ.तणणं विणणं तो कम्५४। कारं द्राक्षायानकाऽऽदि 'पानकजातं' पानीयसामान्यम्, पूर्व श्रात्मार्थिताः स्वार्थ निप्पादिता ये तन्तयस्तैः श्रमणार्थ यः मेव 'अवलोकयेत् ' पश्येत्। तच्च दृष्टा तं गृहस्थम् अमुक ! पटः ततः पायितो ऊतश्च स प्राशुकेगाऽपि स्वार्थमवित्तीय इति वा भगिनि ! इति वैत्यामध्येवं यात्-यथा दास्यासे २०० Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३० ) अभिधान राजेन्द्र | पाणग में किञ्चित्यान जान स पर निमेवमेत् यथा श्रायुष्मन् ! श्रमण ! त्वमेवेदं पानकजातं स्वकीयेन प पीपा कटाकेन बोस वा पा नकभाण्डकं गृहाण | स एवमभ्यनुज्ञातः स्वयं गृह्णीयात् प मेरो वा तस्मै दद्यात् तदेवं लाभे सति प्रतिगृह्णीयादिति । किञ्च - से भिक्खू वा० जाव समासे से जं पुरा पाणगजायं जाणेज्जा अतरहियाए पुढवीए० जाव संतापाए उद्धड्ड २ खिने सिया असंजर भिक्खुपडियाए उदर वा ससिणिद्वेण वा सकसारण वा मत्तेण वा सतिोदए वा संभोत्ता हड्ड दलएजा, तहप्पगारं पाणगजातं - फासुर्य लाभे संते णो पडिगाहेज्जा । एवं खलु तस्स भि क्खस्स वा भिक्खुशिए वा सामग्गियं जं सम्बद्वेहिं समिएहिं सएहिं सदा जज्जा ॥ ४२ ॥ स भिक्षुर्यत्पुनरेवं जानीयात्तत्पानकं सचितेष्वव्यवहितेषु पृथिकायादिषु तथा मटकाऽऽदिसन्तानके या उम्पती भाजनान्योत्य निक्षितं व्यवस्थापितं स्यात् । यदि वा स उ गलविन्दुना सनिग्धेत गल कविता सकपायेण सचि सामुद्रितेन मात्रे भाजनेन शीतोदकेन या (संभवता ) मिश्रयित्वा श्रहृत्य दद्यात्तथाप्रकारं पानकजानमाननेषणीयमिति मत्वा न परिवा २ ० १ चू० १ श्र० ७ उ० । आम्राऽऽदिपानकानि सेभिक्खू पा० जाव पविट्ठे समाये से जं पुरा पायगजायं जाणेज्जा । तं जहा- अंगपाणगं वा वाडगपाणगं वा कविवाणगं वा मातुलिंगपाणगं वा मुद्दियापारागं वा दालिमा वा खजूरपागे वा खालिएरवानाक रीरपाणगंवा कोलपा वा मलपाणी या विचापायगं वारं वा तहगारं पाणगजायं समट्ठियं सकरणुयं सदीयगं असंजय भिक्खुपटियाए इन्द्रेण वा दुसेग वा बालगेण वा आवीलियाण परिवीलियाण परिसाइवाण आह दलज्जा तप्यगारं पाणगजाये अफा लाभे संते णो पडिगाहेजा ।. समिति प्रविष्टः सन् यत् पुनरेवंभूतं पानक जातं जानीयात् यथा अंगपाणी इत्यादि । नवरं मुद्दिया द्राक्षा, कोलानि बदराणि एतेषु च पानकेषु द्वात्तावदविले काऽऽदि कतिचिस्यानकानि तयसंमर्य क्रियन्ते अपराणि त्वाम्राम्बाट काऽऽदिपानकानि द्विदिवानविते इत्येवंभूतं पानजातं तथा प्रकारमन्यदपि सास्थि सहास्थिना फुलफेन यक्षने तथा सह करकेन त्वगाद्यवयवेन यद्वर्त्तते तथा बीजेन सहयद्वर्तते । अस्थिवीजयोश्चाऽऽमलकाऽऽदौ प्रतीतो विशेव तदेवंभूतं पानजात्मसंतोख मिनुदिश्य साच्च नाम दि 3 पाणग वा, तथा (दूलं) वस्त्रं तेन वा, तथा (वालगेण त्ति ) गवादिबालधियाल निष्पन्नचालनकेन सुधरिकागृहकेन वेत्यादिनोप करवेनास्यायपनयनार्थ सदापीरूप पुनः पुनः परिपप तथा परिखाय निर्गाश्वास्य च साधुसमीप याद प्रकारं पानकजातमुद्गमदोषदुई सत्यपि लाभे न प्रतिगृह्णीयात्। ते चामी उद्गमदोषाः 66 'श्राहाकम्मुद्देसिय, पूतीकस्मे य मीसजाए य । ठवणा पाहुडियाए, पानोश्रर कीय पामिच्चे ॥ ६२ ॥ परियट्टिए अभिहडे, उब्भिसे मालोहडे इय । श्रच्छिजे श्रणिस, अज्झायर व सोलसमे ॥ ६३ ॥ " पिं० । व्याख्या-साध्वर्थे यत्सन्चित्तमचित्तीक्रियते, अचित्तं वा य स्पष्यते तदाकर्म तथा आत्मार्थ परपूर्वमेव लड़क चूर्णकादि साधूनुद्दिश्य पुनरपि सन्तप्तगुडाऽऽदिना संस्क्रियते तदुद्देशि के सामान्येन विशेषतो विशेषसूत्रादवगन्तव्यमिति । यदाकर्माद्ययसंमिश्र तत्पूतीक संयतासंयता 35वर्धमादेराभ्याऽऽहारपरियाको मिश्रम् साध्यर्थ शीराऽऽदि स्थापन स्थापना भएयते प्रकरणस्य साध्यर्थमुरसर्पणमसर्पणं या प्राभृतिका साधनुदिश्य गवाक्षादिप्रकाशकरणं बहियों प्रकाशे श्राहारस्य व्यवस्थापनं प्रादुःकरणम् । द्रव्याऽऽदि नियमन कृतं क्रीतम् साध्यं यदम्प हाते तत् 'पामिचं' इति । यच्छाल्योदनाssव कोद्रवादिना प्रतिवेशिक परिषददाति तत्परिवर्णनम्। यद् गृहाः साधुयमानीय ददाति वाहृतम् गोमयाऽयुपलितं भा जनमुद्भिद्य ददाति तद्धिनम् । मालाऽऽद्यवस्थितं निधेण्यादिमान्यता ददाति तन्मालाइतम् भ्रत्यादेरापित दाच्यम्। सामान्यं निभायेकस्य तो निस्सृतम् । स्वार्थी कृते पश्चातापा दध्यवपूरकः । तदेवमन्यतमेनाऽपि दोषेण दुष्टं न प्रतिगृह्णीयादिति । श्राचा०२०१ चू०१ ०७ उ० । (भक्तपानकमधिकृत्य विशेषः गोवरचरिया शब्दे तृतीयभागे १६६ पृष्ठे गतः ) पानकग्रहणम् । साम्प्रतं पानकविधिमाहतबुच्चावयं पाणं, अदुवा वारधोयणं । 'S सेमं चाउलोद, अदुगा धोयं विवज्जर ॥ ७५ ॥ तथैव यथा अशनम् उच्चावचं तथा पानम् उच्च वर्णा 55पाखापानादि, अथचं वर्णाऽऽदिहीनं त्याराला 5. दि अथवा धारकधावनं गुडपटपायनमित्यर्थः । संस्वेदजं पिष्टोकाऽऽदि एतदशनवरूपनगवादाभ्यां गृह्णीयादिति वाक्यशेषः । तदुलोदकम् " अद्विकरकं " अधुना धौतमप रितं विवर्जयेदिति सुषाऽर्थः । अविधिमाहजं नाशिविरा पीये, मई इंसखेण वा । पण सोचावा, जं च निस्संकिवं भवे ।। ७६ ।। तदुकं जानीया विद्याविधीक जानीयादित्याह- मत्या दर्शनेन वा मत्या तद्ग्रहणादिकर्म्मजया, दर्शनेनवा वर्णादिपरिणतसूत्रानुसारेण च, वा चशब्दार्थः, तद किती बेला स्पधीनस्पति वृद्धा गुहाया महती वेलेति श्रुत्वा च प्रतिवचः, यश्चेति यदेव निः शङ्कितं भति निरालम्वुलोदकं तति इतिशेषः इतिऽर्थः । Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायाग उष्णोदकाऽऽदिविधिमाह- जीवं परिणयं नचा. पडिगेरहेज संजए । यह संकियं भवेजा, आसाइता ग रोगन ।। ७७ || उष्णोदकमजीवं परिणतं त्या परिवर्तनादिरूपं त्या दर्शन त्या वर्तते तदित्थंभूतं प्रतिगृह्णीयात् सं यतः चतुर्थत्समपूरयादिदेोपकारकं सत्यादिना त्यर्थः । अथ शङ्कितं भवेत् तत श्रास्वाद्य रोचयेत् विनिश्वयं कु यदिति सुजाऽर्थः । तचैवम्रामायणट्टाए, हत्थगम्मि दलाहि मे । ( ८३१ ) अभिधानराजेन्ऊः । मा मे अच्चचिलंपू, नालं तरहं विखित्तए ||७|| स्तोकमास्वादनार्थ प्रथमं तावत् हस्ते दाई मे यदि साधुप्रायोग्यं ततो गृहीये. मामेत्य पूतिना तृपनोदाय ततः किमनेनानुपयोगिनेति सूत्राऽर्थः । गृह्यते एच, नी आस्वादितं च सत्साधुप्रायोग्यं चेद्रग्राह्यम्तं च श्रच्चत्रिलं पूयं, नालं तिरहं वित्तिः । दितियं परिशाइक्खे, न मे कप्यइ तारिसं ॥ ७६ ॥ तं च होत्र कामे, त्रिमणं पडिच्छियं । तं अपणा न पिवे नो वि अग्रस्त दाव || ८० ॥ तच्चात्यम्लाऽऽदि भवेत् श्रकामेन उपरोधशीलतया वि. मनस्केनान्यचित्तेन प्रतीप्सितं गृहीतं तदात्मना कायाप कारकमित्यनाभोगधर्म्मश्रद्धया न पिवेत् नाप्यन्येभ्यो दापये त्.रत्नाधिकेनापि स्वयं दानस्य प्रतिषेधज्ञापनार्थ दापनहणम् । इह च - " सव्वत्थ संजमं संजमाश्री अप्पाणमेव । " इत्यादि भावनयेति सूत्राऽर्थः । अस्यैव विधिमाहएगंतमवकमित्ता, अचित्तं पडिलेहिया । जयशाए परिद्वत्रे, परिद्वाय पडिकमे ।। ८१ ॥ एकान्तमवक्रम्य गत्वा श्रचित्तं दग्धदेशाऽऽदि प्रत्युपेक्ष्य च. तुपा प्रमृज्य च रजोहर ऐन, स्थण्डिलमिति गम्यते । यतम. त्यरितं प्रतिष्ठापयेत् विधिना यक्यपूर्वयुजेत्। प्रति ष्ठाप्य वसतिमागतः प्रतिक्रामेत ईर्यापथिकाम् । एतच्च बहिरागतनियमकरणसिद्धं प्रतिक्रमणमवहिरपि प्रतिष्ठाप्य प्र. तिक्रमणनियमज्ञापनार्थमिति सूत्रार्थः । दश०५ श्र० १० । बृ० | पं० ब० | प्रब० । पानकजातं प्रतिगृह्य परिष्ठापयति जे भिक्खु अाय पाणगजायं पडिम्गहित्ता पुष्फे २ आ इयंति, कसा 2 परिद्वायर परिद्वातं वा साइज ॥४२॥ श्रन्यतरग्रहणात् अनेके पानका प्रदर्शिता भवन्ति । खण्डकपालपुल फालिममुदितावाद पाने जानग्रहणा प्रदान विधिपूर्वकं गृहीत्या पुष्कं णाम अच्छे वगंधरसफासेहिं पधाएं. कसायं स्पर्धादिप्रतिलोमप्रधानं कषायं कलुववहलमित्यर्थः । स्वसशाप्रति सूत्रं एवं कस्व मासलई एस सुन्थी । पाणग अरुणा शिल्ली जं गंधरसोवेतं, अच्छं च दवं तु तं भवे पुष्कं । जं दुब्भिगंधिमरसं, कलुस वा तं भवे कलुसे ।। ३१४ ॥ कंठा । पितृ दोष विदाय, पत्ते जे पुण्फमादिता, कुञ्ज कसा दोरिण वि पुष्कं कसायं व, एगम्मि वा भायणे पतंगेसु या भाषणे पुण्फमाइत्ता कसाए परिवणं करेज, तस्व मासलहु । अव एकतो चैत्र । विचिणये ।। ३१४ ।। इमे दो पावे सो आणा अणावत्थं, पिच्छत्त विराधणं तहा दुविधं । पावति जम्हा तेरी, पुत्र कसाएतरं पच्छा ।। ३१६ ॥ श्रयसंजमविराहया पुच्वं कवा पिवे, इतरं पुकंप जो पिये का पति तरिसमे दोसा । तम्मिय गिद्धो अरोप अलभंतो एस पे 3 परिठाविते य कूड, तसाण संगामदितो ।। ३१७ | श्रच्छदच्वे गिद्धा श्ररणं कसायं णेच्छति पातुं तं क सायं परि गोपि हिंडेर सुतादिपथि प्र च्छं अलभतो वा एसंण पेलेन, आयविराहणातिया य दो परिसि वति । तदा तत्थ वि मच्छियादी पडिवति श्रमेय तत्थ ये पाणिपति, पिलिगाहिय संसजति यं यदुतातो दखिति पर संगामदितो तब्दी विए मच्छिया श्रलग्गंति तेसि घरकोइला धावति, तीर वि मज्जारी, मजारी सुरागोराव अ गणितं सुषलामियो कल करेंति एवं संगामो भवति, जम्हा एते दोला तम्हा णो पुष्कं श्रादिए, कसायं परिषेति । इमा खामापारी, वसहिपाल अत्यंत भक्ता गयसाम्रागम वार्ड गण्डमासज्ज एवं लिखिया भायणे उग्गादेति तो जो जदा साधुग ति तस्य तदा पादी अच्छे भाव परि गादेति । एवं श्रच्छं पुढो कज्जति, कलुस पि पुढो कजति, तं कला भुतं या अभूतं या पुपति मि पच्छा पुष्कं पिबंति । पुण्फरल इमे कारणा रिय प्रभावित पारागट्ठता पाउपोस धुवणट्ठा । होति व सुहं विवेगो, सुर आयमर्थ व सागरिए ।। ३० ।। श्रयरिस्त पाणाए, एवं श्रभावियस्स सेहस्स वि उ तरका पाना पापी पति वा उवरिवस्य थियेोजनानिदोसा भर्वति. सागारिए य श्रायमणादि सुहं कज्जति । भाणस्स कप्पकरणं, दट्ठू बहि आयमंतो वा । श्रभावणमग्गहणं, कुज्जा दुविधं च बोच्छेदं ।। ३१६ ॥ अच्छं भायणकरून कप्पकरणं भवति, बद्दल पुरा इम अहम्म तरा, अयुचित्वान् महाकरेज सर्पले पा ममतीता होते अप्राह्याः अगादरी वा श्रग्गद्दणं, दुविहं वो Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (-३२) अनिधानराजेन्द्रः। पाएबह पागग च्छेदं करेज-तद्रव्यान्यद्रव्ययोः,तद्व्यं पानकम् , अन्यद्र- पाणबह-प्राणवध-पुं० । प्राणा इन्द्रियाऽऽद्यायुःपर्यवसाना. व्यं भक्तवस्त्राऽऽदिा । स्तेषां वधो जीवेन सह वियोगीकरणं प्राणवधः। दर्श २ अह तस्स साधो अन्यस्य वा साधो अववाएणं पुण परि तव । प्रश्न । प्राणातिपाते, प्रश्न०१ आश्रद्वार । ट्ठावंतो विसुद्धो । जतो - प्राणवधवक्तव्यताद्वारसंग्रहःवितियपदे दोणिह वि बहू, मीसे व विगिंचणारिहं होइ । जारिसश्रो जनामा, जह य को जारिसं फलं दिति । अविगिचणारिहे वा, जवणिजे गिलाणमायरिए॥३०॥ जे विय करिति पावा, पाणवहं तं निसामेह ॥३॥ दो वि बहू पुष्कं कसायं च णज्जति । जहा अवस्सकीयं परिविजति, जइ वि तं पिजति, ताहे तं न पिवंति, यादृशको यत्स्वरूपकः, यानि नामानि यस्येति यन्नामा, पुष्पं पिवंति । एस पत्तेयगहियाणं विही । अह मीसं गहियं यदभिधानमित्यर्थः । यथा च कृतो निवर्तितः प्राणिभिर्भव. तत्थ गालिए पुष्कं बहुयं कसायं थोवं, ताहे तं परिट्र- तीति । यादृशं यद्रूपं फलं कार्य दुर्गतिगमनाऽऽदिकं ददाति विजति, पुष्फ पिवंति । अहवा-सायं विनिचिऽणारिह होज करोति। येऽपि च कुर्वन्ति पापाः पापिष्ठाः प्राणिनः प्राणा: अणेसणि जं ति, ताहे परिटुविजति । अहवा अविकिंचणा प्राणिनस्तेषां वधो विनाशः प्राणवधः (तं ति ) तत्पदार्थ. रिहं पिजं आयरियादीणं जावणिज ण भवति, एवं परि पञ्चकं (निसामेह ति) मिशामयत शृणुन. मम कथयत ट्ठावेतो सुद्धो। .. इति शेषः । तत्र तत्वभेदपर्यायाख्येति न्यायमासृत्य याविगिवणारिहस्स वक्खाणं इम दृशक इत्यनेन प्राणवधस्य तवं निश्चयतया प्रतिज्ञातं, य. सामेत्यनेन तु पर्यायव्याख्यानम् । शेषद्वारत्रयेण तु भेदव्याजं होति अपेयं जम-णेसियं तं विगिंचणरिहं तु । ख्याकरणप्रकारभेदेन फलनेदेन च तस्यैव प्राणवधस्य भि. विसकत मंतकतं वा, दबविरुद्धं कतं वा वि ॥३१॥ द्यमानत्वात् । अथवा-यादृशो यन्नामा चेत्यनेन स्परूपतः अपेवं मद्यमांसरसादि. अणेसणीयं उग्गमादिदोलजुतं । श्र प्राणिवधश्चिन्तितः, तत्पर्यायाणामपि यथार्थतया ततस्वरूहवा-श्रयेयं इमं पच्छद्धेण-विससंजुत्तं वसीकरणादिमंतेण वा पस्यैवाभिधायकत्वात् । यथा च कृतो ये च कुर्वन्ति अजेन अभिमंतियं,दचाविसुद्धं जहा खीरबिलाणं । नि० चू०२ उ० । तु कारणतोऽसौ चिन्तितः, करणप्रकाराणां कर्तृणां च त. कारणत्वात् यादृशं फलं ददतीत्यनेन तु कार्यत्वारसी थिपाणगजाय-पानकजात-न० । पानीयसामान्ये, “पुण पाण न्तितः, एवं च कालजयवर्तिता तस्य निरूपिता भवतीति । गजायं जाणेजा । तं जहा-तिलोदगं वा, तुलोदगं वा।" श्रा अथवा-अनुयोगद्वारावयवभूतोपोद्धातनियुक्त्यनुगमस्य प्र. चा०१ श्रु. १ चू० १ अ. ७.उ० । तिद्वाराणां" किं कदचिहं" इत्यादीनां मध्यात्कामिचिदनया पाणगपञ्चक्याण-पानकमत्याख्यान-ज०। पानकवर्जिते विधि गाथया तानि दर्शितानि । तथाहि-यादशक इत्यनेन प्राणवधःधाहारप्रस्थानरुपान,यतुर्विधाऽहारप्रत्याख्याने वा । ध०२ स्वरूपोपदर्शकं किमित्येतत् द्वारमुक्तं, यन्नामेत्यलेन तु निरुअधिः । “छ पाणे।"पडाकारा भवन्ति पानके पानकाऽहारे निद्वारम् । एकार्थ मत्युत्पत्तिकं शब्दाभिधानरूपत्वात्तस्यते चैते-“लेवाडेण वा अलेवाडेण वा अत्थेण वा वहलेण वा " सम्महिटिअमोहो" (८६९-८६२) इत्यादिना गाथायुगेन ससित्थेण वा असित्थेण वा वोसिरइ।"अयमर्थः-"इहान्यत्रे- सामायिकनियुक्तावपि सामायिकनियुक्तिप्रतिपादनात् । यथा त्यस्यानुवृतेतृतीयायाः पञ्चभ्यर्थत्वात् । (लेवाडेण व ति)क- च कृत इत्यनेन कथमिति द्वारमभिहितं, येऽपि च कुर्वतलेपाहा पिच्छिलत्वेन भाजनाऽऽदीनामुपलेपकारकात् ख. न्त्यनेन कस्येति द्वारमुक्कं. फलद्वारं स्वतिरिक्तमिहेति । जर्जूरादिवानकादन्यत्र तर्जयित्वेत्यर्थः। त्रिविधाऽऽहारं व्यु तत्र " यथोद्देशं निर्देशः” इति न्यायाद्यादृश इति द्वारा. त्सजतीति योगः। वाशब्दोऽलेपकृतपानकापेक्षयाऽस्या व. भिधानायाऽऽहजनीयत्वाचिशेषद्योतनार्थः। अलेपकारिणेब लेपकारिणाऽप्युपवासाऽऽदेर्न भङ्ग इति भावः । एवं अलेपकताता अपिच्छि- पाणवहो नाम एस पिच्चं जिणोहिं भणियो पावो चंडो लात् । अब्छादा निर्मला दुष्पोदकाऽऽदेहिल्याद्वा गडुला- रुद्दो खुद्दो साहसिओ प्रणारिओ निम्धिणो हिस्संसो महत् क्लितराहुलधायनादेः ससिक्थाद्वा भक्तपुल कोपेतादव- | मओ पइभयो अतिभो बीहणो तासणो अमजो - श्रावणाऽऽदेः (असिस्थाद्वा) सिक्थवजात्यानकाऽऽहारादिति । पञ्चा०५ विव०। उव्वेयजशो य णिरवयक्यो निद्धम्मो णिप्पिवासो गिपाणच्चाग-प्राणत्याग- पुं० । मरणाऽऽगमने, ग०२ अधिक। कलुणो निरयवासगमणनिधणो मोहमहन्भयपयट्टयो मरणपाणजाइय-प्राणजातिक--पुंगभ्रमराऽऽदिके प्राणित्यापछि. वेमयस्सो पढमं अहम्मदारं । ने,प्राचा० १६० ६ ० १ उ०। प्राणबधो हिंसा, नामेत्यलंकृतौ वाक्यस्य । एषोऽधिकृतत्वे पाणद्धी -देशी-रथ्यायाम् , दे. ना०६ वर्ग ३६ गाथा। न प्रत्यक्षा, नित्यं सदा.न कदाचनापि । पापचरा डादिकंव क्ष्यमाणस्वरूपं, परित्यज्य वर्तत इति भावीयम् । जिनमत पाणधारपट्टया-प्राणघारणार्थता-स्त्री० । जीवितव्यसंरक्ष भणित उलः । किविध इत्याह-पापप्रकृतीनां वन्यनुत्धन ' णे, प्रश्न १ संव० द्वार । पापः कोपोत्कटः, पुरुषकार्यत्वात् चण्डः रौद्राभिधानरस पाणषुम्म-प्राणपूर्ण-त्रि०। द्वीन्द्रियाऽऽदिजीवाऽऽकुले, स्था. विशेषप्रवर्तितत्याद्रौद्रः, नद्रा द्रोहका अधमा वा तत्वठा । | तित्वात् शुदाः, सहसा अचिनी प्रवर्तित इति साहसि Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणबह अभिधानराजेन्दः । परगाबह कः पुरुषः तत्प्रवर्तितत्वात्साहसिकः, श्राराद्याताः पापकर्म: दविधम्भव्यपदेश इति । (हिंसविहिस ति) हिंस्यन्त इति भ्य इत्यार्यात्तनिषेधादनार्या म्लेच्छादयः तत्प्रवर्तितत्याद- हिंस्या जीवास्तेषां विहिंसा विघातो हिंस्यविहिंसा, श्रनार्यः, न विद्यते घृणा पापजुगुप्सालक्षणा यत्र स निघृणः, जीवविधाते किल कथञ्चित्प्राणवधी न भवतीति हिंनृशंसा निःशूकास्तयापारत्वात् नृशंसः, निष्क्रान्ती वा शं- स्यानामिति विशेषणं विहिंसाया उक्नम् । अथवा हिंसा सायाः श्लाघाया इति निःशंसो,महद्भयं यस्मादसी महाभयः, विहिंसा चेह ग्राह्या, द्वयोरुपादानेऽपि बहुलमत्वादिति । अ. प्राणिनं प्राणिनं प्रति भयं यस्मात्स प्रतिभयः, भयान्यैहली. थवा-हिंसनशीलो हिम्नः प्रमत्तः "जी होइ अप्पमत्ता, अहिं. किकाऽऽदीन्यातक्रान्तीतिभयः। अत एवोक्तम्-"मरणभयं च सी हिंसी इयरो" इति वचनात् । तत्कतृका विशेषवती भयाणं ति।" (चाहण उत्ति) भापयति भयवन्तं करोतीति हिंसाऽऽहिंस्रविहिंसा ४ (तहा अकिञ्च च त्ति ) तथा तेनैव भापनकः, त्रासः आकस्मिकं भयम् अक्रमोत्पन्नशरीरकम्प प्रकारेण हिंस्याविषयमेवेत्यर्थः । अकृत्यं चाकरणीयं, चशमनःक्षोभाऽऽदिलिङ्गं तत्कारकत्वात्राशनकः । (अम्म जो ति) ब्द एकार्थिकसमुच्चयार्थः ।। घातना मारणा च प्रतीते ६-७। न न्यायोपेत इत्यन्यायः उद्वेगजनकः चित्तविप्लवकारी उ. चकारः समुच्चयार्थ एव । ( वहण त्ति) हननम् ८ ( उहव. द्वेगकर इत्यर्थः । चकारः समुच्चये । (हिरवयक्खो त्ति) नि. ण त्ति ) उपद्रवणमपद्रवणं वा ( तिवायणाय ति ) त्रर्गताऽपेक्षा परप्राणविषया परलोकाऽऽदिविषया वा यस्मिन्न- याणां मनोवाक्कायानामथवा विभ्यो देहाऽऽयुकेन्द्रियलक्षणसौ निरपेक्षः, निरवकाक्षो वा । निर्गतो धर्माच्छुतचारि भ्यः प्राणेभ्यः पातना जीवस्य भ्रंशना निपातना । उक्त त्रलक्षणादिति निर्द्धर्मः । निर्गतः पिपासायाः वध्यं प्रति स्ने च " कायवइमणो तिन्नि उ, अहवा देहाउ इंदियप्पाणा।" हरूपाया इति निःपिपासः, निर्गता करुणा दया यस्मादसौ इत्यादि । अथवा अतिशयवती पातना प्राणभ्यो जीवस्येत्यतिनिष्करुणः, निरयो नरकः स एव वासो निरयवासः, तत्र पातना, तीतपिधानाऽऽदिशब्देष्विवाऽऽकारलोपात् चकारी:गमनं तदेव निधनं पर्यवसानं यस्य स निरयवासगमन त्रापि समुच्चय इति १०। (श्रारंभसमारंभो त्ति ) श्रारभ्यन्ते निधनः, तत्फल इत्यर्थः। मोहो मूढता, महाभयमतिभीति विनाश्यन्त इति आरम्भाः जीवास्तेषां समारम्भ उपमर्दः । स्तयोःप्रकर्षकः प्रवर्तको यः स मोहमहाभयप्रकर्षकः। क्वचि. अथवा-आरम्भः कृष्यादिव्यापारस्तेन समारम्भी जीवोपमोहमहाभयप्रवर्धक इति पाठः । ( मरणयेमणसो ति) मर्दः । अथवा-श्रारम्भो जीवानामुपद्रवणं, तेन सह समार. मरणेन हेतुना वैमनस्यं दैन्यं देहिनां यस्मात्स मरणधै. म्भः परितापनमित्यारम्भसमारम्भः,प्राणवधस्य पर्याय इति। मनस्यः । प्रथममाद्यं मृपावादाऽऽदिद्वारापेक्षया अधर्मद्वार- अथवहाऽऽरम्भसमारम्भशब्दयोरेकतर एवं गणनीयो. बहु माथवद्वारमित्यर्थः। तदेवमियताविशेषेण समुदायेन यादृशः समरूपत्यादिति ११ । (आउयकम्मस्सुबद्दवी भेयनिढवणप्राणिवध इति द्वारमभिहितम् । गालणा य संवट्टगसंखेवो त्ति ) आयुःकर्मण उपद्रव इ. अधुना यन्नामेति द्वारमभिधातुमाह ति वा तस्यैव भेद इति वा तनिष्ठापनमिति वा तद्गालतस्स य इमाणि नामाणि गोणाणि हुंति तीसं । तं जहा- | नेति वा । चः समुचये, तत्संवर्तक इति वा। इह स्वार्थ कः पाणबहो १ उम्मूलणा सरीराओ २ अवीसंभो३ हिंसविहिंसा तत्संक्षेप इति वा प्राणवधस्य नाम । एतेषां च उपद्रवाss. दीनामेकतरस्थैव गणनेन नाम्ना त्रिंशत्तूरणीया, श्रायुच्छे. ४ तहा आकच्चं च ५ घायणा य ६ मारणा य ७ वह-| दलक्षणार्थापेक्षया सर्वेषामेतेषामकत्वादिति १२ । मृत्युः १३, णा ८ उद्दवणा हतिवायणा य १० आरंभसमारंभो ११ । असंयमः १४॥ एतौ प्रतीतौ । तथा कटकेन सैन्यन किलिजेन आउयकम्मस्सुबद्दवो भेयणिवणगालण्णा य संवट्टगसंखेश्रो वा अाक्रम्य मर्दन कटकमर्दनं, ततो हि प्राणबधो भवतीत्यु१२, मच्चू १३ असंजमो १४ कडगमद्दणं १५ वोर पचारात्प्राणबधः कटकमर्दनशब्देन व्यपदिश्यत इति १५ । (बोरमरणं ति) ब्युपरमणं प्राणेभ्यो जीवस्य व्युपरतिः । मणं १६ परभवसंकामकारओ १७ दुग्गतिप्पवायो १८ | अयं च व्युपरमणशब्दोऽन्तर्भूतकारितार्थः प्राणवधपर्यापायकोवो य १६ पावलोभो य२० छविच्छेनो २१ जी- यो भवतीति भावनीयम् १६। परभवसंक्रमकारक इति,प्राणवियंतकरणो २२ भयंकरो २३ अणकरो २४ वज्जो २५ वियोजितस्यैव परभवे संक्रान्तिसद्भावात् १७ । दुर्गतौ नरपरितावणासओ २६ विणासो २७ निज्जवणा २८ काऽऽदिकायां कारं प्रपातयतीति दुर्गतिप्रपातः,दुर्गती वा लुंपणा २६ गुणाणं विराहणे त्ति ३० वि य । तस्स एव प्रपातो यस्मात्स तथा १८ (पावकोयो य त्ति ) पापमपुण्य प्रकृतिरूपं कोपयति प्रपञ्चयति पुश्वाति यः स पापमाईणि णामधेज्जाणि हुंति तीसं २ पाणवहस्स कलुस- कोप इति । अथवा-पापंचासौ कोपकार्यत्वात्कोपश्चेति पापस्स कडुयफल देसगाई। कोपः, चः समुच्चये १६॥ (पावलोमो त्ति) पापमपुण्यं लुभ्यति तस्योतस्वरूपप्राणवधस्य, चकारः पुनरर्थः, नामान्यभि प्राणिनि निह्यति संश्लिप्यतीति यावत् । यतः सपापलोभः धानानीमानि वक्ष्यमाण तया प्रत्यक्षाऽऽसन्नानि गौणानि गु. अथवा-पापं चासौ लोभश्च तत्कायत्वात्यापलोभः २० । (छपनिष्पन्नानि भवन्ति त्रिंशत् । यथा प्राणानां प्राणिनां वधो विच्छेयो त्ति छविच्छेदः शरीरच्छे इनं, तस्य च दुःखोत्पाद. घातः प्राणवधः १ । ( उम्मूलणासरीराउ ति) वृक्षस्यो. रूपत्वात् । प्रस्तुतपर्यायविनाशकारणत्वेन चोपकारात्प्राणय. न्मूलनेवोन्मूलना निष्कासनं जीवस्य शरीराइहादिति २। धत्वमाह च--"तप्पजायविणासा.दक्खउप्पाजो य संकिलासी ( अवीसंभो त्ति) अविश्वासः, प्राणवप्रवृत्ती हि जीवा य। एस वही जिणभणिश्री. पज्जेयब्बा पयत्तणं ॥ १॥"त्ति। नामविधभणीयो भवतीति, प्राणवधस्याविश्रम्भकारणत्वा २१ । जीवितान्त करणः २२ । भयंकरश्च प्रतीत एव १३ । Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३४ ) अभिधानराजेन्द्रः । पाणबह ऋणं पापं करोतीति ॠणकरः २४ । (बजो त्ति) वज्रमिव वज्रगुरुत्वात्कारिप्राणिनामतिगुरुत्वेनाधोगतिगमनात् । वर्ज्यते या विवेकिभिरिति वर्ज्यः । "सावज्जो त्ति" पाठान्तरे । सावद्यः सपाप इत्यर्थः २५ | (परितावणश्रासोत्ति) परितापनापूर्वक श्रास्नत्रः परितापनाऽऽश्रवः । आश्रवो हि मृपावादाऽऽदिरपि भवति न चासौ प्राणवध इति प्राणवध संग्रहार्थमाश्रव स्य परितापनेति विशेषणमिति । अथवा प्राणवधशब्दं नामवन्तं संस्थाप्य शरीरोन्मूलनाऽऽदीनि संकल्पनीयानि । ततः परितापनेति पञ्चविंशतितमं नाम । आश्रय इति तु पि शतितममिति २६ | विनाश इति, प्राणानामिति गम्यते २७/ ( गिज्जवण ति ) निराधिक्येन यान्ति प्राणिनः प्राणास्तेषां निर्यातां निर्गच्छतां प्रयोजकत्वं निर्यापना २८ । ( लुंपण त्ति ) लोपना छेदेन प्राणानामिति २६ | गुणानां विराधनेत्यापि चेति । हिंस्यप्राणिगणगुणानां हिंसकजीवचारित्रगुणानां वा विराध. ना खण्डना इत्यर्थः । इतिशब्द उपप्रदर्शने, अपि चेति समुच्चयं इति ३० । (तस्सेत्यादि) प्राणिवधनाम्ना निगमनवाक्यम् । ( माईणत्ति ) श्रादिशब्दोऽत्र प्रकारार्थः । यदाह - "सामीये च व्यवस्थायां प्रकारे ऽवयवे तथा । चतुर्ष्वर्थेषु मेधावी, श्रादिशब्दं तु लक्षयेत् ॥ १ ॥ " इति । तेनैवमादीन्येवंप्रकारारायुक्तस्वरूपाणीत्यर्थः । नामान्येव नामधेयानि भवन्ति त्रिशत्प्राणिवधस्य कलुषस्य पापस्य कटुकफलादर्शकान्यसुन्दकार्योपदर्शकानि. यथार्थत्वात्तेषामिति । तदियता यन्नामेत्युकम् । अथ गाथोक्तद्वारनिर्देशक्रमाऽऽगतं यथा च कृतमित्येतपदर्शयति । तत्र च प्राणिवधकारणप्रकारेण प्राणिबधकर्तृणामसंयतत्वाऽऽदयो धर्मा जलचराऽऽदयो वध्यास्तथाविधानि मांसाssदीनि प्रयोजनान्यवतरन्त्येतन्निषेधत्वात्प्रावधप्रकारस्येति । तानि क्रमेण दर्शयितुमाह तं च पुरा करेंति केइ पावा असंजया अविरया आणिपरिणामदुपयोग पणवहं भयंकरं बहुविहं बहुष्पगारं परदुक्खुपायणपसत्ता इमेहिं तसथावरेहिं जीवेहिं पडिणि किं ते पाठीसतिमितिमिंगिल रोग झसवित्रिहजाइमंड - | कदुविहकच्छभगकमगरदुविहगाह दिलिवेश्य मंडुयसी मागारपुलुय सु सुमारत्र हुप्पगारा जलयरविहाणा कए य एवमाइ कुरंगरुरुसरभचमरसंवरउख्भससयपसरगोगरोहिय हयग-यखरकरभखग्गवानरगवयविगसियाल कोलमज्जारकोलसुहसिरिकंदलगावत्तको कंतियगोकम्म भियमहिसवियरयच्छ - गलदीवियसागतरच्छच्छभल्लस दूलसीह चिल्ललच उप्पयविहाणा कर य एवमाइ अयकर गोसावरा हिमाउलिकाकोदरदम्भपुष्पा सालियमहोरगोरगविहाणा कएय एवमाइ वीरसरंगसेसे लगगोधूं हर उल सरडजाहकसुगुसा | खाडहिलावाउप्पइयघरोलियस रीसिवगणे य एवमाइकादंबर्ककत्रबलाकासारसग्रडिसेतीय वंजुल पारिप्पवकीवसउ - दीवियहंसघत्तरट्ठभासकुलीकोशकुंचद गतुंडदे गियालग सूयीमुहकविलपिंगलक्खग कारंड चकवा गउको सगरुलपिंग - For Private पागाबह सुयवीरहिणमयणसाला नंदी मुहनंद माणगकोरंगभिंगारगकोणालगजीवजीवकतित्तिरखट्टगलावगकपिञ्जलगकवोतकगपारेवयगचडगढिंककुकुडवेसरमयूरच ओरगहयपोंडरीषकरकचीरल्ल सेणवा यसविहंगभेयणांसियचासवग्गुलिचमाट्ठलविततपक्खिखहचरविहाणा कए य एवमाइजलथलखचारिणो य पंचिदिए पमूगणे बियतियचउरिंदियपंचिंदिए य विवि जीवे पियजीविए मरणदुक्खपडिकूले राए हति संकलिट्ठकम्मा; इमेहिं विविहेहिं कारणे - हिं, किं ते चम्मवसामंसमेयसोणियजगिय फिफिसमधुलिंगहिययतपित्तको फसतट्ठा अट्ठिमिंजानहनयणकम्मरहारुणिनक्कधमणीसिंगदाढिपिच्छविसविसायबालहेओ हिं ंति य भमरमधुकरिगणे रसेसु गिद्धा तहेब तेइंदिर सरीरोगagar are atदिए बहवे वत्थोहरपरिमंडगट्ठा ह य एवमाइएहिं बहुहिं कारणसएहिं अबुहा इह हिंसंति तसे पाणे इमे य एगिंदिप बहने बराए तसे य असे तदस्सिए चैत्र तणुसरीरे समारंभति अत्ता अ सरणे अाहे अवधवे कम्मविगडबद्धे श्रकुसल परिणाममंदबुद्धिजणदुव्विजाणए पुढवीमर पुढवी संसिए जलमए जलगए अगलालितणवणस्सइगणनिस्सिए य तम्मयतजिए चैव तदाहारे तप्परिणतवस घर सफासत्रोंदिवे अक्सेय चक्खुसे य तसकाइए असंखे थावरकाइए मवारपतेयसरीरनामसाहारणे अयंते हयंति अविजाणओ य परिजाओ य जीवे इमेहिं विविहिं कारणेहिं किं ते करिसणपोक्खरणीवावीवप्पिणकूत्रसरतलागचितिवेदिखातिय आरामविहार धूभपागारदारगोपुरश्रकालगचरियसेतु संकमपासायविकप्पभवणघरसरणले च णत्रावणचेतियदेवकुलचित्तसभापवाश्रयतणाव सहभूमि - घरमंडवाण य कए भायणभंडोवगरणस्स विहिस्स या पुढविं हिंसंति मंदबुद्धिया जलं मज्जण्यपाणभोयणवत्यधोवलसे। यमाइएहिं पयणपयावणजलणजलावणविदंसणेहिं अगणि सुप्पवियणताल - विंटपेडुमुहकरयल सागपत्तवत्थमाइएहिं अखिलं यागार परियारभक्ख भोयण सय शासण फलक मुसल उखलततवितातोखबरणवाह मंडवविविभवण तोरणवि डंगदेवकुलजालद्धचंदनिज्जूहराचंद सालियवेदिय निस्सेखिदोणिचंगे -- रीखीलामङकसभाप्पत्राऽऽवसह गंध मल्लागुलेव अंवरजूलंगलमय कुसिय संदसीयार हसगडजाण जुग्ग अट्टालगचरियदारगोपुर फलि हजंतमूलकीललउड भुसुंडिसयग्विवहुपहरणाऽऽवरणुत्रक्खराण कर असेहि य एवमाइएहिं बहूहिं कारणसएहिं हिंसंति तरुगये भणियाभणि Personal Use Only Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (-३५) अभिधानराजेन्धः। पागाबह पागवह ए य एवमाइसत्ते सत्तपरिवजिए उवहणंति दढ- सस्थावरेषु जीवेष प्रतिनिविष्टास्तदरक्षणतस्तेषु वस्तुतो मूहा दारुणमती कोहा माणा माया लोहा हास रती अर द्वेषवन्तः। (किं ते त्ति) कथं प्राणिवधं कुर्वन्तीत्यर्थः । तद्यती सोयवेदत्थी जीयकामत्थधम्महेउं सवसा अवसा अट्ठाए थेति वा (पाठीणत्यादि) पाठीनो मत्स्यविशेषस्तिमयम्ति मिङ्गिलाश्च महामत्स्या भहामत्स्यतमा अनेकशा विविधअणडाए य तसे पाणे थावरे य हिंसंति मंदबुद्धी सव मत्स्याः सूचममत्स्यखलमत्स्ययुगमत्स्याऽऽदयःविविधजानयो सा हणंति अवसा हणं ति सवसा अवसा दुहओ हणंति अट्ठा नानाजातीयाः । मण्डूका द्विविधाः कच्छपा मांसकच्छाहणंति अणट्ठा हणंति अणट्ठा अट्ठा दहनो हणंति हासा स्थिकच्छपभेदात्। नका मत्स्यविंशपा एव(मकर दुधिहति) हणंति वेरा हणंति रतिय हणंति हासा वेरा रतिय हणंति मकरा जलचरविशवाः सुण्डामकरमत्स्यभेदेन द्विभेदाः ग्राहा जलजन्तुविशपा एव । दिलिवेटकः मदकसीमाकार पुलकास्तु कुद्धा हणंति लुद्धा हणंति मुद्धा हणंति कुद्धा लुद्धा मुद्धा ग्राहभेदा एव, सुसुमाग जलचरविशेषाः । तत एप द्वन्द्वः। हणंति अत्था हणंति धम्मा हणति कम्मा हणंति अत्था ततश्च ते बहुप्रकाराश्चति कर्मधाग्योऽतस्तान नतानि धम्मा कम्मा हणंति, कयरे जे ते सोयरिए मच्छवधा वक्ष्यमाणेन योगः । इह च द्वितीयावहुवचनेऽप्यकारभावसाउणया वाहा कूरकम्मा बाउरिया दीवियबंधप्पांगत श्छान्दसत्वात् । (जलयरविहाणा कए य एवमाइ त्ति) जल चराणां विधानानि भेदास्तान्यव विधानका न तानि कृतानि प्पगलजालचीरिल्लगायसडब्भवग्गुराकूडीछेलिहत्था हरि विहितानि यैस्ते तथा तान् जलचरविधानान कृतांश्च । इह च एसाउणिया य बीदंसगपासहत्था वणचरगा लुद्धका य कशब्दलोपेन विधानशब्दस्यान्तदीर्घत्वम् । एवमादीन् पाटीमहुघातपोतघाया एणीयारा परणियारा सरदहदीहिय- नाऽऽदीस्तथा कुरङ्गाः गृगाः, रुरवस्तीशेपाः, सरभा महा. तलागपल्ललपरिगालणमलणसोतबंधणसलिलासयसोसगा| कायाऽटव्य पशुविशेषाः ।' पगसरे ति' पर्यायाः। ये स्तिन मपि पृष्ठे समारोपयन्ति, चमशः पार गयगावः, संवरा ये. वि सगरस्स य दायगा उग्गतणवल्लरदवग्गिणियपलीव पामनेकशाखे शृङ्गे भवतः, ( उरभ त्ति) उरभ्रा मेपाः, शका कूरकम्मकारी इमे य बहवे मिलुक्खुजाई किं ते सक्का शाः शशका लोमटकाऽऽकृतयःप्रशग द्विखुगटव्यपशुविशजवणा सवरबब्बरगायमुरुडोडभंडगभित्तियपकणिया कुल- पाः, गोणा गावः, रोहिताश्चतुष्पदविशेषाः। पाठान्तरंग न क्खा गोडसींहलपारसकोंचअंधदविडचिल्ललपुलिंदारो एव रोहिंसाः । हया अश्वा गजा हस्तिनः खग गमगा क. रभा उशः, खड्गा येषां पाचया पवच्चागि लम्बते सडोवपोक्काणगंधहारगवहलीयजल्ला रोसमासबउसमलय | शृङ्गं चैकं शिरसि भवति, वानरा मर्कटाः, गवया गावाकचुंचया य चूलियकोंकणगा मेयपहवमालवमहुरआभा- तयो चतुष्पदाः, वृका ईहामृगपर्यायाः नाखरविंशयः, शसिया अणक्खचीणलासियखसखासियनेटरमरहट्टमुट्ठि- गाला जम्बुकाः, कोला उन्दुराऽऽकृतयः । पाठान्तरण कोका नखरविशपाः, मार्जारा विरालाः. (कोलमुणग त्ति) महाश. यारवडोविलगकुहणकेकयहूणरोमगरुरुमरुगचिलायविस कराः । अथवा कोडाः शूकराः, श्वानः कोलयकाः, श्रीकन्द-- यवासी य पात्रमाणो जलयरथलयरसणफतोरगखहचर- लका अवर्ताश्च एकखुरविशेषाः, कोकन्तिका लोमटका ये संडाणतोंडजीवोवधायजीवी सम्मी य असणिणो य पज्जत्ता रात्री को को इत्येवं रुवन्ति गोकर्णा द्विखुराश्चतुष्पदविशेअसुभलेस्सपरिणामा एते अप्ले य एबमाइ करेइ पाणा पाः, मृगाः सामान्यहरिणाः । कुरङ्गाऽऽयस्तु प्रागभिहिताः शृगालवर्णाऽऽदिविशेषणास्तद्विशेषाः सामादव गम्याः। इवायकरणं पावा पावाभिगमा पावरुई पाणबहं करेइ पा महिषाः प्रतीताः। (वियग्य त्ति) व्याघ्रा नखरविशेषाः। छगला णबहरूवाणुट्ठाणा पाणबहकहासु अभिरमंता तुट्ठा पावं अजाः, द्वीपिकाश्चित्रिकाऽभिधाना नखरविशेषाः, श्वानश्चरकरिउं हुंति य । टव्या एव कौलयकाः, तरक्षाः अच्छभल्लाः शाईलाश्च व्या घ्रविशवाः, सिंहा हरयः, चिल्लला नखरविशपाः एव । पा(तं चेत्यादि ) यस्य स्वरूपं नामानि चानन्तरमुक्तानि तं ठान्तरेण चित्रला हरिणाऽऽकृतया द्विखरविंशपाः। तत एपां प्राणबधमित्युत्तरेण पदेन संबन्धः। चकारो विशेषणार्थः। वि. कुरङ्गाऽऽदीनां द्वन्द्वः।(चउप्पयविहाणा कर य एवमाइए ति) शेषणं च कर्तृकारक. पुनःशब्दो भाषामात्रे, कुर्वन्ति विदध चतुष्पदविधानकानि तजातिविशेषाः, कृतानि विहितानि ति केचिदिति केचिदेव जीवा न पुनः सर्वे । कीदृशा इत्याह- यैर्व्यक्तिभूतैः कुरङ्गाऽऽदिभिस्त तथा । तत पूर्वपदेन कर्भधा. पापाः पातकिनः त एव विभज्यन्ते असंयता असंयमवन्तः, रयः। ततस्ताँश्च एवमाऽऽदीन कुरङ्गादिप्रकागन,तथा अजग. अविरता विशेषतो न ये तपोऽनुष्ठाने रताः (अनिहुयपरिणा- राः शत्रुःपर्यायाः उरःपरिलविशधाः, गाणशा निःफणामदुप्पोगी ति) अनिभृतोऽनुपशमपरः परिणामी येषां ते हिविशेषाः, वराहया दृष्टिविशवाऽऽदयः फणाकरणदक्षाः,मकुतथा दुष्प्रयोगा दुशमनोवाकायव्यापारा येषां सन्ति ते तथा। लिनो ये फणान् कुर्वन्ति, काकादगाः, दर्भपुप्याश्च द:ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः। प्राण वधं प्राणातिपातं,किंभूतं?, करसर्पविशेषाः, श्राशालिका महारगाश्चारपरिमपविशवाः । बहुविधं भयंकरम् । पाठान्तरेण भयंकर तथा बहुविधा बहवः तत्राशालिका यच्छरीरं द्वादशयोजनप्रमाणमुत्कर्षनो भवप्रकारा यस्य स तथा. सप्रभेदं भेदयुक्तमित्यर्थः। किंभूतास्ते ?, ति.क्षयकाल च महानगरस्कन्धाचारादीनाम् अधः उत्पद्यते, परदुःखोत्पादनप्रसक्ता तथा (इमेहि ति) पतेषु प्रत्यक्षेपुत्र. महारगास्त मनध्यक्षत्रहिभाविना. यच्छगर योजनसहर. Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणयह 1 प्रमाणमुत्कर्षत श्राख्यायत इति । तत एषां द्वन्द्वः । तत उरगविधानकानि कृतानि यैस्ते तथा । ततः कर्मधारयः । ततश्च तांश्च एवमादीनि तत्तथा । क्षीरलाः सारङ्गाश्च भुजपरिसर्पविशेषाः सेहास्तीक्ष्णशलाकाऽऽकुलशरीराः शल्पा कायधर्मकर्तलकैररक्षका विधीयते गांधीन्दुरनकुलाः प्रतीताः । शरटाः कृकलाशाः, जाहकाः कण्डका वृतशरीराः सुगुसाः वाढहिला 35 कृतयः खा हिला शुक्लकृष्णपट्टाङ्कितशरीराः शम्यदेवकुल 55दियासि या वातत्पत्तिका रुद्रायाः गृहको किलिकाः गृहगोधिकाः । एतेषां द्वन्द्वः । तत एते च ते सरीसृपगणाअति कर्मधारयः । ततस्तेषां व पवनादन क्षीरला 55दिप्रका रानित्यर्थः । तथा कादम्बाश्च हंसविशेषाः, कङ्काश्च वकोटावलाकाश्च विसकण्टिकाः सारसाश्च दाववाटाः, आडीसेटीका लाख सदियकः पारिप्लपाश्च शकुनाथ पीपीलिका (?) विकारका हंसाश्च श्वेतपक्षा धार्तराष्ट्रकाश्च कृ. मरणानना हंसा एव भासाश्च शकुन्ताः (कुली कोस त्ति) कुटीक्रोशाश्च कोश्चाश्च उदकतुण्डाश्च देखि काल काश्च शूचीमुखाश्व कपिलाश्च पिङ्गलाक्षकाश्च कारण्डकाश्व चक्रवाकाश्च रथाङ्गाः उत्कोशाश्च कुरराः, गरुडाश्च सुपर्णाः पिङ्गुलाश्च शुकाश्व कीराः, बर्हिणश्च कलापवम्मयूराः मदनशाला सारिकाविशेषाः नन्दीमुखानन्द मानका कोरड्राथ भृङ्गारिकाश सतिनिछे (?) सभी लशरीरा इत्येवंलक्षणाः, कोणालकाश्च जीवजीवकाश्च तित्तिराश्च वर्त्तकाश्च लावकाश्च कपिञ्जलकाश्च कपोतकाश्च पारापतकाच चटकाध फलविङ्का विद्वाथ कुठाय ताम्रचूडाः बेसराश्च मयूरकाश्च कलापवर्जिताः, चकोरकाश्च हदपुण्डरीकाश्च शालकाश्च । पाठान्तरेण करकाश्च चीरल्लाश्च श्येना एवं वायसाश्च काकाः, विहङ्गभेदनाशिताश्च बा पाच फिकीविनः यल्गुल्या चर्मास्थिता धर्मच टका विततपक्षिणश्च मनुष्य क्षेत्रबहिर्वर्तिन इति इन्द्रः । ते च ते ( खचरविहाणा कए यत्ति ) खचरविधानककृताचेति तथा तांश्च एवमादीनुक्तप्रकारान् । एतेषु च शब्देषु केचिदप्रतीयमानार्थाः केचित् प्रतीयमानपर्यायाः नामकोष पिकेषाञ्चित्प्रयोगानभिधानात्। श्राद य-"जीव जीव कपि लवको हारीतन्तुलकपोता। कारण्डवकाम्यकराया। पक्षिजाती शेषाः॥२॥ इति पूर्वोक्राते व संग्रह चनेनाइ-जलस्थलखचारिणश्च चशब्दो जलचराऽऽदिसामान्यसमुच्च पार्थः पचेन्द्रियापश्चन्द्रयान परागणान्पिविधान (वियतिय चरिदि सि) व त्रीणि व बरवारि बेन्द्रियाणि पद्रि याणि येषां ते तथा दीन्द्रियाः श्रीन्द्रियाः, चतुरित्य थतस्तान् विविधान् कुलभेदेन जीवान् जन्तून् प्रियजी: वितानभिमतप्राणधारणान् मरणलक्षणस्य दुःखस्य मरणदुःखयोर्वा प्रतिकूलाः प्रतिपन्थितो ये ते तथा तान् वराकान् तपस्विनः । किमित्यत आह-घ्नन्ति विनाशयन्ति बहु. free, सच्चा इति गम्यते । एवं तावद्वारेण वणवधस्य प्रकार उक्तः । श्रथ प्रयोजनद्वारेण स उच्यते । ए. भिक्ष्यमाणप्रत्यक्षविधिः कारणैः प्रयोजनः ( कि ते ति) किं तत्प्रयोजनं तद्यथेति वा । चर्म त्वकू वशा शारीरः स्नेहविशेवः, मांसं पलम्, मेदों देहधातुविशेषः शोणितं रकं, यकृ 1 ( ८३६) अभिधानराजेन्द्रः | पाणग्रह दक्षिणकुक्षौ मांसग्रन्थिः, फिप्फसमुदर मध्यावयवविशेषः, मतुलिङ्गं कपालभेल. हृदयं हृदयमांसम् पुरातत् पित्तं दोपविशेषः फोफर्स शरीरावयविशेषः दस्ता दशना प इन्द्रः एतेभ्य इदमित्येवं विद्यार्थशब्दयोजनीयाः ब मोदिनिमित्तमित्यर्थः। तथाऽस्थीनि कीकशानि मित्रा तन्म ध्यावयवविशेषः, नखाः करजाः, नयना लोचनानि कर्णाः श्रवगाः (राहारु ति) स्नायुः (नक्कं ति) नासिका. धमन्या नाड्यः शृङ्गं विषाणं दंष्ट्रा दशनविशेषः। (पच्छं ति) पत्रं, विषं कालकूटं विपाणं हस्तिदन्तः, वाला केशाः एतेषां इन्द्रः ततस्त एव हेतुरि त्येवं हेतुराब्दी योग्य ततः द्वितीया । ततोऽयमर्थःअस्थिमज्जाऽऽदिद्देतोर्धन्तीति प्रक्रमः। तथा हिंसन्ति च बहुसंक्लिकर्माण इति प्रक्रमः। भ्रमराः पुरुषतया लोकव्यवहृताः, मधुकर्यस्तु स्त्रीत्यव्यवहतास्तद्गणान् समूहान रसु वृद्धा, मधुवार्धमिति भावः । तथैव हिंसयेत्यर्थः। श्री न्द्रियान् कामत्कुणादीन शरीरोपकरणार्थ शरीरस्यीयकाराय यूकाऽऽदितः खपरिहारार्थम् अथवा शरीराव पकरणाय चषये श्रयमर्थः शरीरसंस्कारप्रवृत्ता उपकर ग्वाधनसंस्कारप्रवृत्ताश्च विविधाभिस्तान प्रतीति । कि म्भूतान् ? कृपणान् कृपास्पद भूतानिति तथा हून् (वत्थो वहरपरिमंडणडु त्ति) वखाणि चीवराणि (उचहर सि) उपगृहाणि आयविशेषा ते परिमार्थ भूपार्थ ह मिरांगण हि रजमानानि भूयन्ते वखाणि यास्तु मण्डन पत्र शशुअस्त्रार्थ परिमण्डनार्थं वेति । तत्रार्थ पट्टसूत्रसंपादने महिला सम्भवति श्रयार्थ मृतिकाला दिव्येषु दूतरकाऽऽदि घातो भवति, परिमण्डनार्थे हारादिकरणे शुक्त्यादिन्द्रि याणामिति । अन्येवमादिभिः कारणा बालि शाः, इह हन्ति इह जीवलोके हिंसन्ति प्रान्ति, त्रसान् प्राणान्, तथा इमांश्च प्रत्यक्षान् एकेन्द्रियान् पृथिवीकायिकाऽऽदीन् वराकास्तपस्विनः समारभन्त इति योगः । न केवलमेकेन्द्रियाण्येय, सांधान्यान तदाश्रितांधिय किभूतान् ? तनुश रीरान् अत्राणान् अनर्थप्रतिघातकाभावात् अशरणार्थ प्रापकाभावात् । अत एव श्रनाथान् योगक्षेमकारिनायकाभावात् भवान्धवान् स्वजनसंवाद्यकार्याभावान् कर्मनिगडबद्धानिति व्यक्तं तथा अकुशलपरिणामोदयाssवर्जितत्वेन मन्दबुद्धि मिथ्यात्योदवायी जनी लोकस्तन दुवा ने तथा तान् पृथिव्या विकाराः पृथिवीमयान् पृथिवीकायिकानित्यर्थः तथा पृथिवीसंधितान् अलसाऽऽदिवसान् एवं जलमयानष्कायिकान् जलगतान् पूतरकाऽऽदिवसान् शेव लाऽऽदिवनस्पतिकाविकांस अनलस्तेजस्कायो निलो वायुकायस्तृण वनस्पतिगणी बादरयनस्पतीनां समुदाय ए निधि एतदुपजीवकांध बसानिति हृदयम् (तम्यत नितेषामनला निल गुणवनस्पतिना विकारास्तरम या नलकायिकाऽऽदय एव, तथा तेषामेवानलाऽऽदीनां जीवास्तजीवास्तद्योनिका त्रता इत्यर्थः । तन्मयाश्च तजीवाश्चेति तन्मयतजीवाः। तथैव पाठान्तरेण तन्मयजीवाश्चेति । किन ? (लहान) पृथिव्या आधारे तदाधाराने या विपादीनां द्वारयन्तीति तदाद्वारास्तान् तेषामेव पृथिव्यादीनां परिणता वर्णगन्धरसस्पर्श 1 Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणबह अभिधानराजेन्डः। पाणबह र्या वोन्दी शरीरं सैव रूपं स्वभावो येषां ते तथा तान्, धविशेषः, नियूहकं द्वारोपरितनपावविनिर्गतदारु,चन्द्रशा. अचाक्षुषान् चक्षुषा ऽदृश्यांश्चातुषांश्च चक्षुर्लाह्यान् । कानवं- लिका प्रासादोपरितनशाला, वेदिका वितहिका, निःश्रेणिरथविधानित्याह- त्रसकायस्त्रसनामकर्मोदयवर्तिजीवराशिः,तत्र तरणी,द्रोणी नौः,चङ्गेरी महती काठपात्री, शहरपटलिका वा। भवाखसकायिकाः तान् । कियन्त इत्याह असंख्या तथा कीलाः शङ्कवः,मटका मुण्डका,सभा श्रास्थानिका, प्रपा जलस्थावरकायांश्च सूचमाश्च बादराश्च तन्नामकम्मोदयतिनः दानमण्डपः,यावसथः परिव्राजका थियः, गन्धाःचन - प्रत्येकशरीरमिति नामकर्मविशेषा येषां ते प्रत्येकशरीरनामा- षाः, माल्यं कुसुममनुलेपनं विलेपनमम्बराणि वस्त्राणि, यूपा नः, ते च साधारणाश्च साधारणशरीरनामकम्र्मोदयवर्तिन युगं,लागलं सीरं,(मत्तिय त्ति)मत्तिक,येन कृपा क्षेत्र मृज्यत,कुइति द्वन्द्वोऽतस्तान् । कियन्तः?,अनन्तान् साधारणानेव शेष- शिकं हलप्रकारः,स्यन्दनो रथविशेषो,यतो दिविधो रथः-सांस्थावराणामसंख्येयत्वात् । जीवानिति योगः। किमित्याह-न- ग्रामिको,देवयानरथश्च । तत्र संग्रामिकस्य कटीप्रमाणा वेदिन्ति । किंभूतान् ?, अविजानतश्च स्ववधपरिजानतश्च सुखदुःखे का भवति,शिविका पुरुषसहस्रवहनीयकृटाऽऽकारशिखराऽऽअनुभवतः। एकेन्द्रियान् अथवा स्वबधमजानत एकेन्द्रियान् च्छादितो जम्पानविशेषः,रथः प्रसिद्धः,शकट गन्त्री, यानं त तमेव परिजानतस्त्रसानिति जीवान जन्तून् एभिर्विविधैः का. द्विशेषः,युग्यं गोल्लदेशप्रसिद्धो द्विहस्तप्रमाणावेदिकोपशोभिरणैः प्रयोजनैः (किं ते त्ति ) किं तत् , तद्यथति बा। कर्षणं तो जम्पानविशेष एव, अदालकः प्राकारोपरिवर्ती आश्रयवि. कृषिः,पुष्करिणीः पुष्करवती चतुः कोणा वा वापीति पुष्करा. शेषः। चरिका नगरप्राकारान्तराले अष्टहस्तप्रमाणा मार्गः, वर्ता वा । (वप्पिण त्ति) केदाराः,कृपसरस्तडागाः प्रतीताः। द्वारं प्रतीतं,गोपुरं पुरद्वारः,परिघा अर्गला,यन्त्राणि अरघट्टाचितिभियादेश्चयन,मृतकदहनार्थ दारुविन्यासो वा, वेदिर्वि. दियन्त्राणि,शूलिका वध्यप्रोतनकाष्ठं,पाठान्तरे शूलकः कीतर्दिका,खातिका परिखा,पारामो वाटिका, विहारो बौद्धाऽऽ- लकविशेषः । (लउड त्ति)लकुटः मुसुण्डिः प्रहरणविशेषः,शद्याश्रयः,स्तूपः चितिविशेषः,प्राकारः शालद्वारं प्रतीतं,गोपुरं तघ्नी महती यष्टिः,बहान च प्रहरणानि करवालाऽऽदीनि,श्राप्रतोलीकपाट इत्यन्ये । अट्टालकः प्राकारोपरिवाश्रयविशे- वरणानि स्फरवाऽऽदीनि (?) उपस्करश्च गृहोपकण मञ्चकाषः, चरिका नगरप्राकारयोरन्तरेषु अष्टहस्तप्रमाणो मार्गः, ऽऽदि । तत पतेषां द्वन्द्वः। ततश्च एतेषां कृते अर्थाय 'पन्यैश्च एसेतुर्मार्गविशेषः,पालिवा। संक्रमो विषमोत्तरणमार्गः,प्रासादो वमादिभिः बहुभिः कारणशतः हिंसन्ति तरुगणान् । तथा नरेन्द्राश्रयः,विकल्पास्तभेदाः। भवनानि चतुःशालाss- भणिताभणितांचैवमादिकान् एवंप्राकारान् सचान् स. दीनि, गृहाणि सामान्यानि, शरणानि तृणमयानि, लयनानि त्वपरिवर्जितान् उपघ्नन्ति । दृढाश्च मूढाश्च दारुणमतपार्वतानि कुट्टितगृहाणि,आपणा हट्टाः,चैत्यानि प्रतिमाः,देव. यश्चेति प्रतीतम् । तथाविधक्रोधात् मानात् मायालाभात् कुलानि सशिखरदेवप्रासादाः,चित्रसभाः चित्रकर्मवन्मण्डपः, हास्यरत्यरतिशोकात् । इह पश्चमीलेपो दृश्यः । वेदार्थाश्च प्रपा जलदानस्थानम्,अायतनं देवाऽऽयतनम्,आवसथः परिवा वेदार्थमनुष्ठानं, जीविका जीवन, धर्मश्चार्थश्च कामश्चेजकाऽऽश्रयः,भूमिगृहं प्रतीतं,मण्डपश्छायाद्यर्थः पटादि- त्येतेषां हेतोः कारणात् , खवशाः स्वतन्त्राः, श्रवशास्तदिमय आश्रयविशेषः,पतेषां द्वन्द्वः। तत एतेषां कृते निमित्ते पृथि- तरे अर्थाय च अनर्थाय च त्रसप्राणान् स्थावरांश्च हिंसन्ति वीं हिंसन्ति इति संवन्धः भाजनान्यमत्राणि सौवर्णाऽऽदीनि, मन्दबुद्धयः। एतदेव प्रपश्चयन्नाह स्ववशा नन्ति,अवशा प्रन्ति, भाण्डानि तान्येव मृण्मयानि,क्रयाणकानि लवणादीन्युप- स्ववशा अवशाश्च इत्येवं (दुहउत्ति)द्विविधा नन्ति,एवमर्थाय करणान्यतृखलाऽऽदीनि । एषां समाहारद्वन्द्वः ततस्तस्य विवि.। इत्यादालापकत्रयम्। एवं हास्यवररतिभिरालापकचतुण्यमय धस्य चार्थाय हेतवे पृथिवीं पृथिवीकायिकान् हिंसन्ति मन्दबु- क्रुद्धलुब्धमुग्धैः अर्थधर्मकामैश्चेति । तदेवं यथा च कृत इति द्धिकाः। तथा जलं चाप्कायिकांव,हिंसन्ति इति वर्तते।मज्जन- प्रतिपादितम् । अधुना 'फलप्रधानाः क्रियाः" इति न्यायात्। कं स्नानं, पानं भोजनं च प्रतीतम् । वस्तधावनं वासःक्षालनं, फलद्वारं द्वारगाथायां कर्तृद्वारान् प्रागुपन्यस्तमप्युल्लध्य शौचमाचमनमेतदादिभिः कारणैः इति प्रक्रमः। तथा पचनं "कधीना क्रिया" इति न्यायेन कर्तुःप्रधानतया अल्पवक्तपाचनमोदनाऽऽदे (जलावणं ति)स्वतः परतो वाऽग्नेरुद्दीपनं, व्यत्वाद्वा येऽपि कुर्वन्ति पापाः प्राणबधमित्येतदाह-(कविदर्शनमन्धकारस्थवस्तुप्रकाशनमेतैः कारण। चः समुच्चये। यरेत्यादि) तत्र कतरे कृप्यादिकारणैः प्राणिनो प्रन्तीति अग्निं हिंसन्ति। तथा सूर्य प्रतीतं, व्यजनं वायूदीरकम् ताल- प्रश्नः । उत्तरमाह-(जे ते सोयरिए इत्यादि) तत्र शूकरैः मृवृन्तं,तदेव द्विपुटाऽऽदिः।(पेहुणं ति) मयूराङ्ग,मुखमास्थं,कर गयां कुर्वन्ति ये ते शौकरिकाः, मत्स्यवन्धाः प्रतीताः। शकु. तलं हस्तः,सागवत्रं बृतविशेषपत्र, वस्त्रं प्रतीतमेतदादिभिः नीन् मन्तीति शाकुनिकाः, व्याधाः लुब्धकविशेषाः क्रूवातोदणवस्तुभिः अनिलं वायु हिंसन्ति इति। तथा आगारं रकर्माण इत्येतेषामेव स्वरूपाभिधायकं विशेषणम् । (वागुरिगेहं (परियारो ति) परिवारो वृतिः,खगाऽऽदिकोशो वा। भ- य शिकवित्पाठः। तत्र वागुरिकया मृगवन्धनविशेषेण चरक्ष्याणि मोदकाऽऽदीनि । "खरविशदमभ्यवहार्य भक्ष्यम्" इति नीति वागुरिका इति । तथा द्वीपिकश्चित्रको मृगमारणाय वचनात्।भोजनान्योदनाऽऽदीनि,रायनानि शय्याः,आसनानि । बन्धनप्रयोगश्च बन्धोपायः तनश्च(?)तरकाराविशेो मत्स्यविटाणि,फलकान्पवटम्भनयूतादिनिमित्तानि, मुशलान्यु- ग्रहणार्थ जलावतरणाय , गलं च बडिशं जालं च मत्स्य. दुखलाश्च प्रसिद्धाततानि वीणाऽऽदीनि,विततानि पटहाऽऽ. बन्धनं, चिरल कश्च श्येनाभिधानः, शाकुनि शकुनिविनादीनि,आतोद्यानि वाद्यानि, वहनानि यानपात्राणि, वाहनानि शाय, श्रायसी लाहमयी दर्भमयी च या वागुरा मृगवन्धनः शफटादीऽऽनि,मराडापाः प्रतीताः। विविधभवनानि चतु:शा- विशेषः सा च कृटेन या स्थाप्यते चित्रकाऽदिग्रहणार्थ, लाऽऽदीनि,तोरणाान प्रतीतानि । विटङ्कः कपातपाली, देवकुलं छलिका अजा सा कृटछलिका सा च, अथवा कृटं च म. तात, जालक छिद्रान्वता गृहावयवावशेषः,अर्द्धचन्द्रः सौ- गाऽऽदिग्रहणयन्त्रं छलि का चात द्वन्द्वाता हस्ते या ततबा। २१० Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३८) अभिधान राजेन्द्रः । पाणबद (दीविय त्ति ) कचित्पाठः । तत्र द्वीपिकेन चित्रकेन चरन्तीति द्वीपिका इति । तत उत्तरपदेन द्वन्द्वम् । श्रयमालापकः क्व चित्कथश्चिद दृश्यते, नवरं गमक पक्षमाश्रित्य व्याख्यात । हरिकेशाश्चण्डालविशेषाः कुणिकाश्च सेवकविशेषाः । क्वचित् "साउणिय त्ति" पाठः । तत्र शकुनेन चरन्ति शाकुनिका इति । (विदंस ति) विदेशन्ति इति विदंशिका श्येनाऽऽदयः, पाशाव शाकुनिबन्धनविशेषाः हस्ते येषां ते तथा, वनचरका शवराः, लुब्धकाश्च व्याधाः, मधुघातपोतघाताः मधुग्राहकाः शाव ग्राहकाश्चेत्यर्थः । ( एसीयार त्ति ) पणी हरिणी मृगग्र. हणार्थ धारयन्ति पोषयन्ति ये ते। तथा - ( परीयारति ) प्रकृष्टश पणीचाराः प्रेणीचाराः, सरो जलाऽऽश्रयविशेषः, हदों नदः, दीर्घिका शारिणी, तडागं प्रतीतम्, पल्वलं नडुलमित्येतान् परिगालनेन च शुक्तिशंखमत्स्याऽऽदिग्रहणार्थ जलनिःसारणेन मलनेन च मर्द्दनेन च श्रोतोबन्धनेन च जल पारगमनाय सलिलाऽऽश्रयान् परिशोषयन्ति ये ते तथा । विषस्य कालकूटस्य गरलस्य च द्रव्यसंयोगविशेषस्य दायकाः दातारो ये ते तथा । उद्गततृणानामुद्गतवल्लराणां क्षेत्राणां दवाग्निना वह्निज्वलनेन निर्दयं यथा भवतीत्येवं ( पलीवग त्ति ) प्रदीपका ये ते तथा । क्रूरकर्मकारिग इमे बहवे ( मिलक्खुजाइ ति ) म्लेच्छ जातीयाः (किं ते ति) तद्यथा - शकाः १ यवनाः २ शवराः ३ बर्बराः ४ कायाः ५ मुरुण्डाः ६ उड्डाः ७ भण्डडाः ८ भित्तिकाः ६ पक्कणिकाः १० कुलाक्षाः ११ गौडाः १२ सिंहलाः १३ पारसाः १४ क्रौञ्चाः १५ आन्ध्राः १६ द्रविडाः १७ चिल्वलाः १८ पुलिन्दाः १० आरोषाः २० डोम्बाः २१ पोकणाः २२ गन्धद्वारकाः २३ वल्हीकाः २४ जल्लाः २५ रोसाः २६ माषाः २७ वकुशाः २८ मलयाश्च २६ चुञ्चुकाश्च ३० न्यूलिकाः ३१ कोङ्कणगाः ३२ मेदाः ३३ पह्नवाः ३४ मालवाः ३५ महुराः ३६ आभाषिकाः ३७ श्ररणकाः ३८ चीनाः ३६ लासिकाः ४० खसाः ४१ खासिकाः ४२ नेट्टराः ४३ ( मरहट्ट त्ति ) महाराष्ट्राः ४४ । पाठान्तरेण मुढीः ४५ मैौष्ट्रिकः ४६ आरवाः ४७ डोम्बिलकाः ४८ कुहुणाः ४६ केकयाः ५० हूणाः ५१ रोमकाः ५२ रुरवो ५३ मरुका इति ५४ । एतानि च प्रायो लुप्तप्र थमाबहुवचनानि पदानि तथा चिलातविषयवासिनो म्लेच्छदेशवासिनः । एते च पापमतयः । तथा त्र जल वराश्च थ लचराश्च ( सणहपय ति) सनखपदाश्च सिंहाऽऽदय उरगाश्व सर्पाssदयः ( खयरसदसतुंड त्ति ) खवराः सदंशतुण्डाश्च संदसाSSकारमुखपक्षिण इति द्वन्द्वः । ते च ते जीवोपघातजीविनश्चेति कर्म्मधारयः । कथंभूताः १, संज्ञिनश्चासंशिनश्व पर्याप्ताः श्रशुभलेश्या परिणामाः, एते चान्ये चैवमादयः कुर्व्वन्ति प्राणातिपातकरणं प्राणिबधानुष्ठानं, पापाः पायानुष्ठायिनः पापाभिगमाः पापमेवापादेयमित्यभिगमाः । पापरुचयः पापमेवोपादेयमिति श्रद्दधानाः, प्राणबधकृत रतिकाः प्राणबंध एव रूपानुष्ठानाः प्राणवधकथास्वभिरमतः ( तुट्ठा पाव करेतु हुति य बहुवगारं ति ) पापं प्राणबधरूपं कृत्वा बहुप्रकारं तुष्टाश्व भवन्ति ये ते कुर्वन्ति प्राणवधमिति प्रकृतम् । तदियता ये प्राणवधं कुर्वन्ति ते प्रतिपादिताः । इदानीं यादृशं फलं ददाति प्राणबधः एतदुपपादनायाऽऽहबहु पगारं तस्स य पात्रस्स फलविवागं प्रयाणमाणा वति For Private पागाबह महब्भयं अविस्सामत्रेयणं दीहकालं बहुदुक्खसंकडं नरयतिरिक्खजोगिइओ उक्खए चुया असुभकम्मबहुला उबवअंति नरएस हुलिये महाल एस वइरामयकुड्डरुंदनिस्संधिदारविरहियनिम्मद्दव भूमितलखर फां सविसमणिरय घरनार एसु महोसिणसयपतत्तदुग्गंधविस्सउव्वेयणगेसु वीभच्छदरिसत्रेिसु नि हिमपडलसीयलेसु य कालोभासेसु य भीमगंभीर लोमहरिससु रिभिरामेसु निप्पडियारबाहिरोगजरापीलिरसु अईव णिच्चंधयारतिमिसेसु पतिभएसु ववगयग चन्दसूर णक्खतजोइसेसु मेयवसामंसपडल पोच्चडपूयरुहिरुक्किपावलीण चिक्कणरसियावावमकुहियचिक्खल्लकद्दमेसु कुक्कूलानलपलित्तजालमुम्मुरअसिखरकरवत्तधारासु निसितविच्छु दंडकानिवातोव मफरिस अतिदुस्सहेसु य अत्ता असरा कडुयदुक्खपरितावणेसु अणुबद्धनिरंतरवेयसु जमपुरिससंकुलेसु तत्थ य तोमुहुत्तलद्धिभवपच्चएणं निव्वतिय ते सरीरं हुंडं वीभच्छदरिसणिजं बीभण हारूण रोमवजयं असुभगदुक्खविसहं ततो य पजत्तिमुषगया इंदिएहिं पंचहि वेएन्ति, असुभाए वेयणाए उज्जलबलविउलतिउलउक्कडखर फरुसपयंडघोरं बीहणगदारुखाए। किं ते कंदुमहाकुंभिपयण पउलणतवगतलण भट्टभजाणि लोहक डाहकढणाणि य कोट्टवलिकरणकुट्टणायि सामलितिक्खग्गलोह कंटकाभिसरणापसरणाणि फालयविदालयाणि य अवकोडकबंधणाणि लट्ठिसतालणाणि य गलगवलुल्लंत्रणाणि सुलग्गभेयणाणि य एसपर्वचणाणि खिंसणविमाणणाणि य विघुट्ठपजिणाणि वसयमातिकाणि य, एवं ते पुव्वकम्मकयसंचयोवतत्ता निरयग्गिमहरिंग संपलित्ता गाढदुक्खं महब्भयं ककसं असायं सारीरं माणसं च तिव्वं दुविहं वेएइ वेयणं पावकम्मकारी बहूणि पलिश्रवमसागरोवमाणि कलुग पार्लेति ते अहाउयं जमकायियतासिता य सदं करेइ भीया । किं ते अविभाव सामि भाय वप्प ताय जियवं । मेमरामि दुव्वलो वाहिपीलिओऽहं किं दाणाऽसि, एवं दारुणोदयमा देहि मे पहारे उसासे तं मुहुत्तगं मे देहि पसायं करेह मा रूस वीसमामि गंविअं मुंच मे मरामि गाढं तरहाइओ अहं देहि पाणीयं, ता हंद पिय इमं जलं विमलसीयलं, निघित्तूणय गिरयपाला तत्रियं तजयं से देति कलसे अंजलीसु दट्ठूण च तं पदीवियंगमंगा सुपगतपच्छा छिपा तरहा इय मे कलुणाणि जंपमाणा विप्पेक्खत्ता दिसो दिसिं अत्ताणा असरणा श्र हा अधवा बंधुविष्पहूणा विपलायंति मिया व वेगेण भयुव्विग्गा घित्तूण बला पलायमाणाणं निरणुकंपा मुहं Personal Use Only Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३६) पागाबह अभिधानराजेन्द्रः । पायाबह विहाडेत्तु लोहदंडेहिं कलकलं एहं वयणंसि बुब्भंति केइ | णंऽकणनिवायणऽद्विभंजणनासाभेदप्पहारदमणछविच्छेयजमकाइया हसंता तेण य दझा संते रसंति य भीमाई णअभिओगपावणकसंकुसारनिवायदमणाणि वाहणाणि विस्सराई रोविंति कलुणगाई पारेवतगाव एवं पलवितवि- । य मायापितिविनोगसोयपरिपीलणाणि य सत्थग्गिविलावकलुणो कंदियबहुरुनरुदियसद्दो परिदेवियरुद्धबद्धका- । साभिघातगलगवलावलणमारणाणि य गलजालुच्छिरवसंकुलो नीसट्ठो रसियमणियकुवियकुक्कुइयणिरयपालत- प्पणाणि पउलणविकप्पणाणि य जावजीवगवंधणाजियगिएहणकामणपहारछिंदर्भिद उप्पाडेहि उक्खणाहि क णि पंजरनिरोहणाणि य सहनिद्धाडणाणि धमताहि विकत्ताहि य भुज्जो हणविहणविच्चुभोच्छहआकड्डवि- णाणि दोहणाणि य कुदंडगलवंधणाणि वाटपरिवार-- कड्ड किं ण जंपेसि समराहि य पावकम्माइं दुकयाइं एवं बयण- णाणि य पंकजलनिमजणाणि वारिप्पसणाणि य ओवामहप्पगब्भो पडिसुयसहसंकुलो तासोसया निरयगोयराणं यनिभंगविसमणिवडणदवग्गिजालदहणाई एवं ते दुक्खमहानगरडज्झमाणसरिसो निग्योसो सुच्चए.अणिट्ठो तहियं सतसंपलित्ता नरगाओ आगया इहं सावसेसकम्मा तिरियेरइयाण जातिअंताणं जातणाहिं । किं ते-असिवणदब्भ- क्खपंचिंदिपसु पावंति पावकारी कम्माणि पमादरागदोबणजंतपत्यरसईतलखारवाविकलकलितवेयराणिकलंबवा-- सबहुसंचियाइ अतीव अस्सायकक्कसाई भमरमसगमच्छि - लुयाजलियगुहनिरंभणउसिणोसिणकंटइल्लदुग्गमरहजोय- गाइएसु जाइकुलकोडियसयसहस्सेहिं णवहिं चउरिंदिया तत्तलोहपहगमणवाहिणाणि इमेहिं विविहहिं आयुहेहिं । ण तहिं तहिं चेव जम्मणमरणाणि अणुभवंता कालसंकिं ते-मोग्गरभुसंढिकरकयसत्तिहलगयमुसलचक्ककुंततोम- खेजकं भमति नेरइयसमाणतिबदुक्खा फरिसरसणघाणरसूललउडभिंडिमालसद्धलपट्टिसचम्मेद्वदुघणमुट्टियअसि-- चक्खुसहिया तहेव तेइंदिएसु कुंथुपिपीलिकाअवहिकाइकेसु खेडगखग्गचावनारायकणगकप्पणिवासिपरसुटकतिक्खनि य जातीकुलकोडिसयसहस्सेहिं अट्ठहिं अणूणएहिं तेइंदियाम्मला अन्नेहि य एवमाइएहि असुभेहिं विउविएहिं पहर णं तहिं तहिं चेव जम्मण मरणाणि अणुभवंता कालसंखेणसएहिं अणुबद्धतिब्बवेरा परोप्परं बेयणं उदीरेंति अभि ज्जकं भमंति, नेरइयसमाणतिव्बदुक्खा फरिसरसणघाणसंहणंति तत्व य मोग्गरपहारचुमियभुसंदिसंभग्गमहितदेहा पउत्ता तहेव वेइंदिएसु गंडूल यजलोयकिमियचंदणगमादिजताप्पीलणफुरतकप्पिया, केइत्य सचम्मकविगता णिमू एसु य जातीकुलकोडिसयसहस्सेहिं सत्तहिं अणूणएहिं वेइंम्लुल्लूणकमोहनासिका छिन्नहत्थपाया असिककचति दियाण तहिं तहिं चेव जम्मणमरणाणि अणुभवंता कालसंक्खकुंतपरसुपहारफालियबासीसंतच्छितंगमंगा कलक खजगं भमंति नेरइयसमाणतिवदुक्खा फरिसरसणसंपलक्खारपरिसिचगाढहतमत्ता कुंतग्गाभिमजजरिय- उत्ता पत्ता एगिदियत्तणं पिय पुढविजलजलणमारुयवनप्फसम्बदेहा विलोलंति महीतले विसुशियंगमंगा, तत्थ य ति सहमवायरं च पञ्जत्तमपजतं पत्तेयसरीरनामसाहारणं विगसुणगसियालकागमजारसरभदीवियवग्धसडूलसीहद-- च पत्तेयसरीरजीविएसु य, तत्थ वि कालमसंखेजगं भमंति प्पियसुखुहाभिभूतेहिं णिश्चकालमणसिएहिं घोरारसमाण अणंतकालमणंतकाए फासिदियभावसंपत्ता दुक्खसमुभीमरुवेहिं अकमित्ता दढदाढागाढडक्ककड्डियसुतिक्खनह दए य इमं अणिढं पावेंति पुणो पुणो तहिं तहिं फालियउद्धदेहा विछिप्पंते समंतओ, विमुक्कसंधिबंधणा वियंगमंगा कंककुररगिद्धघोरकट्टवायस्सगणेहि य पुणो चेव परभवतरुगणग्गहणे कोदालकुलियदालणसलिल मलणक्खुमणरुंभणअणलाणिलविविहसत्थघणपरोप्पराखरथिरदढणखलोहतुंडेहिं ओवत्तित्ता पक्खाहयतिक्खणखविक्खित्तजिभिदियनयणनियो रूग्गभग्गविगयवणा भिहणनमारणविराहणाणि य अकामकाई परपोगो दीरणाहि य कज्जपउणेहिं य पेस्सपसुणिमित्तं ओसउक्कोसता य उप्पयंतनिप्पयंता भमंता पुवकम्मोदयो हाहारमादिएहिं उक्खणणउक्कथणपयणकुट्टणपासणपिट्टवगया पच्छाणुसयेण डज्झमाणा जिंदंता पुरेकडाई पावगाइं तहिं तहिं तारिसाणि ओसनचि-. णभज्जणगालणामोडणसाडणफुडणभंजणछेयणतच्छणकणाई दुक्खाइं अणुभवित्ता ततो वाऽऽउक्खएणं उ विलुचणं तज्झाडणअग्गिदहणाइयाई एवं ते भवपरंपराव्यट्टिया समाणा बहवे गच्छंति तिरियवसतिं दुक्खुत्तरं दक्खसमणबद्धा अडंति संसारे वीहणकरे जीवा पाणासुदारुणं जम्मणमरणजरावाहिपरियट्टणारहट्टं जलथल इवायणिरया अणंतं कालं । खहचरपरोप्परविहिंसणयं च इमं च जगपागडं घरागा दुक्ख बहुप्रकारं (तस्सेत्यादि) तस्य च पापस्य प्राणवधरूपस्य फ लविपाकस्य फलमिव वृक्षसाध्यमिव विपाकः कर्मणामुदयः पावनि दोहकालं । किं ते-सीउएहतराहखुहवेयणअप्पडीका- | फलविपाकस्तं फलविपाकम् (अयाणमाण ति) अजानतः रअडविजम्मणा णिचभरविग्गवासजागणवधवंधणताल- वर्द्धयन्ति वृद्धि नयन्ति, नरकतिर्यानिनिति योगः।त. Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४०) अभिधानराजेन्द्र पालबह सूत्रं द्विश्च पुनः पुनस्तत्रोत्पाद हेतु कर्मबन्धनात्, किंभूताम् ?, मह द्भयं यस्यां सा महाभया तां महाभयाम्, अविश्रामंवेदनां वि धान्तहितामसातंवेदनां दीर्घकालं यावन् भिः दुःखः शारीरमानयः या संकुला सा दीर्घकाल दुःखकटातां नरकेषु निषे च या योनिरुत्पत्सानरकतिर्य्यग्योनिस्तां, ततश्च इतो मनुष्यजन्मनः सकासादयुमर यति व्युतास्यतः (तस्वत्यादि) क्वचिदेव दृश्यते । अशुभकर्मबहुलाः कलुषकर्मप्रचुराः, उपपद्यन्ते जायन्ते नरकेषु (हुलियं ति ) शीघ्रं महालयेषु क्षेत्रस्थितिभ्यां महत्सु, कथंभूतेषु ?, वज्रमयकुड्या रुन्द्रा विस्तीर्णा निस्संपयो निर्विचराः द्वारविरहिताः अद्वाराः निर्मायभूमितलाश्य कर्कशभूमयः ये नरकार तथा ख लफास ति) कर्कश स्पर्शाः विषमा नम्रताः निरयगृहबन्धन नारकाः कुचकुटा नारकोत्पत्तिस्थानभूताः येषु नरकेषु ते तथा । ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः । अतस्तेषु तथा महोष्णाः श्रत्युष्णाः सदा प्रतप्ताः नित्यतप्ताः दुर्गन्धाः श्रशुभगन्धाः विधाः ग्रामगन्धः कुचितेत्यर्थ । उद्विज्यते उ यते यस्मिन् तेजनकारले थे ते तथा तेषु तथा भिरदर्श नीयेषु विरूपेषु नित्यं सदा हिमपटलमिव हिमवृन्दमिव शीतलाये ते तथा तेषु च कालः श्रावभासः प्रभा येषां ते त या कालावभावास्तेषु च भीमगम्भीराश्व ते अत एव लोमहर्षणाश्व रोमहर्षकारिणो भीमगम्भीरलोमहर्षणास्तेषु निरभिरामेष्वनभिरमणीयेषु निःप्रतीकारा अचिकित्स्या ये व्याधयः कुष्ठाऽऽद्याः जरा च प्रतीता रोगाश्च सघोघातिनो ज्वरशूलाऽऽदयः तैः पीडिता ये ते तथा तेषु । इदं च नारकधर्माध्यारोपान्नरकाणां विशेषणमुक्तम् । श्रतीव प्रकृष्टं नित्यं शाश्वतमन्धकारं येषु ते तथा तमिव ( ? ) अन्धका रस्ते अतीव नित्यावकारतमिया अथवा अतीयनित्यान्धकारेण तिमिलेव ये ते तथा तेषु । श्रत एव प्रतिभयेषु वस्तुं वस्तुं प्रतिभयं येषु ते तथा तेषु व्यपगतग्रहचन्द्रसूर्यनक्ष ज्योतिष्केषु इद ज्योतिशब्देन तारकान्ते । मेदश्च शरीरधातुविशेषः, वसा च शरीरस्नेहः, मांसं व पिशितं तेषां यत्पटलं वृन्दं ( पोच्चड त्ति ) श्रनिविडं च रुधिराभ्यां परक्रशोणिताभ्यां (उयिति) उत्की से मिश्रितं विलीनं जुगुप्सितं चिक्कणमापयत् रसि कया शारीररसविशेषेण व्यापन्नं विनष्टं स्वरूपमत एव कुथितं कोथवत् तदेव चिक्खलं प्रबलकर्द्दमः कर्द्दमश्च त दितरो येषु ते तथा तेषु, कुकूलानलश्च कारीषाग्निः प्र. यालाच मुर्मुश्य मस्मान्निः असिरकरपत्राणां पा रासु निशिता वृश्चिकदण्डकस्य तत्पुच्छकण्टकस्य च निपात इति इन्द्रः । एभिरौपम्यमुपमा यस्य स तथा तधाषिय स्पर्शः प्रति येषां ते तथा तेषु वा अनर्थमविधानकवर्जिताः, अशरणा स्वार्थप्रापफयर्जिता जीवाः कदा दुःख परिताप्यन्ते येषु ते अ वाणाशरण कटुकटु खपरितापनास्तेषु अनुबद्धनिरन्तरा अत्यन्तनिरन्तरा वेदना येषु ते तथा तेषु, यमस्य दक्षिदिकपालस्य पुरुषाः अम्बाऽऽदयः असुरविशेषा यमपुरुषा स्तैः संकुल येषु ते तथा तेषु तत्र च उत्पत्ती सति अन्तर्मु कालमानविशेषः लब्धिश्च वैक्रिय लधिर्भवप्रत्ययश्च पागणबह भवलक्षण हेतुरतथि भवप्रत्ययं तेन निर्वर्तयन्ति कुर्वन्ति ते पुनः पापाः शरीरं किंभूतम् हुए सर्वाि वीभत्सदर्शनीयं दुर्दर्शनं ( बोहरागं ति) भयजनकमस्थिस्नायुनखरोमवर्जितम् श्रसुभगं च तत् दुःखविपदं चेत्यसुभगदुःस्वविषहम् । पाठान्तरेणाः शुभं दुःखविषयं च यत् तन्तथा, ततः शरीरनिर्वर्तनानन्तरं पर्याप्तिमिन्द्रियपर्याप्तिमानप्राणपर्याप्त भाषापर्यत मनःपर्यात चोपगताः प्राप्ता इन्द्रियैः पञ्चभि दयन्ति अनुभवन्ति कं ? दुःखं महाकुम्भपचनादीनि दुःखकारणानीति योगः कथा कलितान्यशुया वेदना दुः रूपयेत्यर्थः । किंभूतयेत्याह-उज्जलेस्वादिला पिपलेशेनाप्यकता बला बलयती निवर्तयितुमशक्या विपुला सर्वशरीरावयव्यापिनी पाठान्तरेण- (तिडलं ति) त्रीन् मनोवाक्कायांस्तुलयत्यभिभवति या सा त्रितुला, उकटा प्रकर्षपर्यन्तवर्तिनी, खरममृदुशिलावत् यद् द्रव्यं त सम्पातजनिता खरा, परुपं कर्कशं कृष्मारडीदलमिच यत्तत्सम्पातसंभवाः परुषाः प्रचण्डाः शीघ्रं शरीरव्यापिकाः प्रचण्डापरिवर्तित प्रचण्डा पोरा भमिति जीविकारिणी श्रीदारिकवतां परिजीवितानपेक्षा या ये ते तथा घोरास्तत्प्रवर्तिस्वात् धीरा इति (वीह राग त्ति) भयेोत्पादिका । किमुक्कं भवति ? - दारुणा, तत एतेषां कर्मधारयः । श्रतः तया वेदयन्तीति प्रकृतम्। (किं ते त्ति) त यथा कन्दुली महाकुम्भी महत्वा तयोः पचनं च भक्तस्पेन (पति) पचनविशेषस्य पृथकस्य (तब ति ) तापिका, तत्र सलभ व समारिकाऽऽदेरिव अपरीषेव भर्जनं च पाकविशेषकर चलका उद्देरिवेति दन्तस्तानि च लोहकटाहे कथनानि चेक्षुरसस्येव (कोट्टं ति) क्रीडा, तेन वलिकरण वरिकाऽऽदेः पुरतो पश्वादयोपहारविधा नम् । पाठान्तरे" कोट्टाको किरिया " दुर्गा तस्यैच कोडाय प्राकाराय बलिकरणं तच्च कुट्टनं च कुटिलत्वकरणं वैकल्यकरणं वा कुट्टनं वा चूर्णनं तानि च शाल्मल्या वृक्षविशेषस्यामा लोकटका व लोहकण्टकास्तेष्वभिसरणं वांशिक मभिमुखाऽऽगमनमपसरणं च निवर्त्तनं शामलीतीदणाप्रतीह कण्टकाभिसरणापसरणैः स्फाटर्न च सकृद्दारणं च विहार व विविधप्रकारैरिति । ते चायकोटकबन्धनानि बास पृष्ठदेशे बन्धनानि पि शतताडनानि च प्रतीतानि गलके कण्ठे बलात् हठात् याम्युलम्बनानि वृक्षशाखाऽऽदादन्धनानि तानि गलकम्ब लोलम्बनानि शलाप्रभेदनानि व व्यक्तान्यादेशप्रपञ्चनान्यसत्यार्थदेशतो विप्रतारणानि बिसनविमाननानि च तत्र सिगानि निदान, विमाननाम्यपमानजनतानि (विधुपणिजणाणि त्ति ) विघुष्टानाम् एते पापाः प्राप्नुवन्ति, स्वकृतं पापफलमित्यादि चाग्निसंशब्दितानां प्रणयनानि बध्यभूमिप्रापणानि विषनानि यानि व्यक्रानि तान्येव माता उत्पत्तिभूमिर्येषां तानि बध्यशतमातृकाणि, यच्याऽऽधितदुःखानीत्यर्थः। तानि वैयमित्युक्ते पापकर्मकारिणयनेन संबन्धः (पुण्यकम्पत ति) पूर्वकृतकर्मणां सइयेनोपतप्ता सन्ताप येते तथा निरय एव अग्निर्निरपाग्निस्तेन महान्निने सं प्रदीप्ता ये ते तथा गाढदुःर ःखां गाढदुःखरूपां द्विविधां बेदनां वेदवतीति योगः किंभूताम्, मांसा तथा Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणबह भनिधानगजन्छः । पागाबह तां कर्कशां कठिनद्रव्योपनिपातजनितत्वात् असातामसाता- एवंप्रकारो निर्घोषः श्रूयते इति सम्बन्धः। प्रलपितम् अनऽऽख्यवेदनीयकर्मभेदप्रभवां शारीरि मानसीं च तीव्रांतीवा- र्थकभाषणं. विलाप पार्नेस्वरकरणं, ताभ्यां जरुणो यः स नुभागवन्धजनितां पापकर्मकारिणस्तथा बहूनि पल्योपमसा- तथा. तथा ऋन्दितं ध्वनिविशेषकरणं. बहु प्रभूतम् (राम गरोपमाणि करुणा दयाऽऽस्पदभूताः करुणं वा पालयन्ति ति ) अशुविमोचनम् ( रुदितं ति ) श्राराटीमोचनम । एतेषां ते इति पूर्वोक्ताः पापकर्मकारिणः (अहाउयं ति) यथा- एतानि वा शब्दः यत्र स तथा स्था,परिदेवनाश्च विलपिताः। यद्धमायुष्कगाढयाऽपि वेदनया नोपक्रम्यत इति भावः। तथा वाचनान्तरे परिवैपिताश्च प्रकम्पिता रुद्धाश्च बद्धकाश्च ये यमकायिकैः दक्षिणदिकपालदेवनिकायाऽऽश्रितैरसुरैरम्बा- नारकाः ते तथा तेषां य आरवः तेन यः संकुलः स तथा अदिभिरित्यर्थः। बासितोत्पादितभया यमकायिकत्रासिता- निसृष्टो नारकैः विमुक्तः प्रात्यन्तिको वा तथा रसिताः स्ते च शब्दमार्तस्वरं कुर्वन्ति भीताः सन्तः। (किं ते त्ति) त- कृतशब्दाः भणिताः कृता व्यक्तवचनाः कुपिताः कृतकोपाः द्यथा-(अविभाव त्ति) हे अविभाव्य अविभावनीयस्वरूप! उत्कृजिताः कृताऽव्यक्तमहाध्वनयो ये निरयपालाः तेषां (सामि त्ति) हेस्वामिन् (भाय त्ति) हे भ्रातः (वपत्ति) हे| यर्जितं-ज्ञास्यसिरे पापाः ! इत्यादि भणितं नारकविषयं वप्प हे पितः इत्यर्थः। एवं हे तात (जितवं ति) हे जितवन् प्राप्त- (गिराह त्ति) गृहाण कामं लघयेत्यर्थः । प्रहारो लकुटाजय जीतं वा (मुंच त्ति) मुञ्च (मो त्ति) मां (मरामि त्ति) निये। दिना छिन्दि खड्गाऽऽदिना (भिदि) कुन्ताऽऽदिना (उप्पाडेहि इह च नारकाणां बहुववनप्रकमेपि यदेकवचनं तदेकापेक्षं तद् | त्ति) उत्पाटय भूतलादुत्क्षिप (उक्षणाहि त्ति) समुत्खन,अक्षि जात्यपेक्ष छान्दसत्वाद्वा इति । यतः दुषलो व्याधिपीडितोऽहं। गोलकबाहादिकं कृत्त कर्तय नासाऽऽदिकं विकृत्त च विवि(किं दाण सि त्ति) किमिदानीम् असि भवसि (एवं दारुणो धप्रकारैः (भुजो त्ति) भूयः एकदा हतं, पुनरपि पाठात्ति) एवं प्रकारो दारुणो रौद्रो निदर्यश्च निघृणश्च, मा देहि न्तरे भा आमर्दय हन ताडय क्रियाओं हनशब्दो निपामे मम प्रहारान् (उस्सासेतं मुहत्तगं मे देहि त्ति) उच्चासं तः। (विद्दण त्ति) विशेषेण ताडय (विच्नुभ त्ति) विक्षिउच्चसनम्, एतं अधिकृतम् एकं वा मुहूर्त्तकं यावत् मे पत्रपुकाऽऽदिकं मुखे विकीर्ण वा कुरु । वाचनान्तरे विच्छुमह्यं देहि इति प्रसादं कुरुत, मा कुरुष्व (?) विश्रमामि भनिष्कर्षय इत्यर्थः। ( उच्छुह त्ति) आधिक्येन क्षिप, प्रवेशविधामं करोमि (गेविज ति) प्रैवेयकं ग्रीवाबन्धनं मुश्च- य इत्यर्थः । श्राकृष्ठ अभिमुखम् आकर्षणं कुरु, विकृपा वि. (मे) मम यतो ( मरामि त्ति) म्रिये तथा गाढमत्यर्थम् ( त. परीतं विकर्षणं कुरू, किं न जल्पसि । वाचनान्तरे तु किं न राहाइउत्ति) तृष्णाऽदितः पिपासितः, अहम् ( देहि त्ति) जानासि ?,स्मर हे पाप! कर्माणि दुष्कृतानि,पचममुना प्रकारेदत्त पानीयं जलम् इति नारकेण उक्ते सति नरकपाला यद् | ण यद्वदनं नरकपालप्रतिपादनं तेन महाप्रगल्भो स्फारी भणन्ति तदाह-(ता इति ) यदि त्वं पिपासितः ततः अहं, यस्य स तथा । (पडिमय त्ति) प्रतिशुतः प्रतिशब्दः तद्ताहंद इति चाऽऽमन्त्रणे, पिव इदं जलं विमलं शीतलम् इति रूपो य शब्दः तेन सलः त्रासकः । वाचनान्तरे तु-"वी. एतत्शब्दार्थः, भणन्तीति गम्यते । गृहीत्वा च निरयपालाः | हणयो तासणो पइभो अदभयो ति" एकार्थाः । सदा तप्तं त्रपुकम् ( से ) तस्य ददति कलशेन अजलिषु दृधा सर्वदा, केषां त्रासक इत्याह-(निरयगोयराणं) नरकवर्तिच तजलं प्रवेपिताङ्गोपाङ्गाः कम्पितसकलगात्राः अथुभिः नां (महानगरडज्झमाणसरिसो त्ति) दह्यमानमहानगरप्रगलद्भिः प्रप्लुते अक्षिणा येषां ते अश्रुप्रगलत्प्लुताक्षाः घोषसो निधोंधो महाध्वनिः श्रूयते अनिष्टः (तहियं ति) (छिराहा तरहा इयऽम्ह त्ति) (इय त्ति) इति भिन्नमः । तस्य तत्र नरके, केषां संबन्धीत्याह-( नेरइयाणं) किंभूतानामि च एवं सम्बन्धः, छिन्ना तृष्णा अस्माकम् इति एवं रूपा- त्याइ-यात्यमानानां कदर्यमानानां यातनाभिः कदर्थनाप्रणि करुणानि, वचनानि इति गम्यते । जल्पन्तो विपलायन्ते कारैः (किं ते ति) कास्ता असिवनं खड्गाऽऽकारपत्रवनं, च इति योगः। विप्रेक्षमाणाः (दिसो दिसं ति) एकस्या दिशः दर्भवनं प्रतीतं, दर्भपत्राणि छदकानि तदग्राणि च भेदकानि सकाशात् अन्यां दिशम् अत्राणा अनर्थप्रतिघातवर्जि भवन्तीति तद्यातनाहेतुत्वेनोक्तम् । यत्र प्रस्तरा घरट्टाऽऽदि. तत्वात् अशरणा अर्थकारकविरहिताः अनाथाः योगक्षेम- पाषाणयन्त्रमुक्तपापणा वा यन्त्राणि च पापाणाश्चात वा कारिविरहिताः अबान्धवाः स्वजनरहिताः बन्धविहीणाः यन्त्रपाषाणा सूचीतलमूर्द्ध मुखसूचिकं भूतलं खारव प्यः विद्यमानबान्धवविप्रमुक्ताः कश्चिदेकार्थिकानि अपि एतानि क्षारद्रव्यभूतवाप्यकलकलं ( त ति) कलकलायमानं यत् पदानि न दोषाय, अनाथताप्रकर्षप्रतिपादकत्वादिति । वि. अपुकाऽऽदि तद्भता वैतरणपविधाना या नदी सा कलकपलायन्ते च नश्यन्ति च, कथं?, मृगा इव वेगेन भयोद्विग्ना लापमानवैतरणी कदम्वपुष्पाऽऽकारा बालुका कदम्बबालुका इति गृहीत्वा च बलात् हठात् इत्यर्थः । नारकादिति गम्यते। ज्वलिता या गुहा कन्दरा सा। तती द्वन्धः। ततोऽनिवना55तेषां च विपलायमानानां निरनुकम्पा यमकायिका इति योगः।। दिपु निरोधन प्रक्षेपणस्तत्तथा उष्णोणे अत्युग (कंटरले मुखं विघाट्य विदार्य लोहदण्डैः (कलकलं गई ति) ति ) कराटकवति दुर्गमे कृच्छ्रपतिके रथशकटे यद्याकलकलशब्दयोगात् कलकलं, पूर्वोक्तं त्रपकम् इह पर्यते। जनं गवामिव तत्तथा, तने लोहपथे लोहमयमार्गे यद्गमन "राहं ति" वाक्यालङ्कारे। धदने मुखे क्षिपन्ति केचित् यमका- स्वयमेव वाहनं च परवानिव तत्तथा । ततः पदत्रयस्य द्वयिका अम्बाऽऽदयः । किंभूताः?. हसन्त इति । तती नारका न्धः। (इंभदि ति) एतैयाणर्विविधैः परस्परं देवतापुदीयत् कुर्वन्ति तदाह-तन व तप्तत्रपुणा दग्धाः सन्ती ( रस- रयन्तीति योगः। (किं ते ति । तयथा मुशरोऽयोवनः भु. न्ति च प्रल गन्ति च। किंभूतानि ववनानीत्याह-भीमानि सुरिहः प्रहरणविशेषः, (करकय त्ति) ऋक, करपत्रं, शक्तिः भयकारीणि विस्वराणि विकृतशम्दानि, तथा रुदन्ति च विलं. हलं लागलं, गदा लकुटिविशयः, मुशलं चक्रं कुन्तं करणकानि कारुण्यकारीणि । क इवत्याह-पारापता इवेति च प्रतीतं, नोभरी वाणविशेषः, शूलं प्रतीतम् । (लउड ति) Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४२ ) अभिधानराजेन्द्रः । पागा वह लकुट भिण्डिमालः प्रहरणविशेषः सद्धलो भाल पट्टिसः प्र हरणविशेषः (चम्मे ति ) चर्मवेष्टितं पाषाणविशेषो, दूषणो मुद्गरविशेषः मौषिको मुप्रिमाणपाषाण एव असि खेटकम् असिना सह फलकं खड्गः केवल एव चाप धनुः, नाराच श्रायसो बाणः, कणको वाणविशेषः । कपनी कर्ताविशेष पासी कोपर विशेषः । परशु कुठारविशेषः । तत एतेषां द्वन्द्वस्ततस्ते च ते उड्डा व तीक्ष्णा निर्मलाश्चेति कर्मधारयः, ततस्तैरिति व्याख्येयम्, तृतीयाबहुवचनलेोपदर्शनादिति । श्रन्यैश्चैवमादिभिः शुभैः प्रहरन्ती रा अविच्छिन्नोरकटवेरभावाः परस्परमन्योऽम्यं वेदनामु वीरयन्ति नारका एव तिसृभ्यः नरकपृथिवीभ्यः परतो नरकपालानां गमनाभावात् । ( तत्थ य त्ति ) तत्र च परस्परामिननेन वेदनोदीरणेन सङ्गरमहारचूर्णितो सुनि संभग्नो मथितश्च विलोडितो देद्दो येषां ते तथा, यन्त्रोपपीडनेन स्फुरन्तश्च कल्पिताश्च छिन्नाः यन्त्रोपपीडन स्फुरत्कल्पि ताः (केइत्थति) केचिदत तरके सम्मेकाश्रमेणा सह विकृताः, उत्कृत्ताः पृथकतम्मण इत्यर्थः । तथा निर्मुलोल्हून कर्णेौष्ठनालिका हस्तपादा असिककपतीणकु पशूनां महरिः स्फाटिता विदारिता ये ते तथा वारपा संतक्षितान्यङ्गोपाङ्गानि येषां ते तथा । ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः । तथा ( कल त्ति ) कलकलायमानक्षारेण यत्परिषिक्रं परिषेकः तेन गाढमत्यर्थ ( डज्यंत त्ति) दह्यमानं गात्रं येषां ते तथा कुन्ताभित्र जर्जरिता सर्यो देदा येषां ते ततः कर्मधारयः (विलाल ति) मिलन्ति । लुण्ठन्तीत्यर्थः । महीतले भूतले (विमुयिंगमंग नि ) जातवेपथुकापा ङ्गाः । वाचनान्तरे तु निर्गताग्रजिह्वाः ( तत्थ यत्ति ) तत्र च महीतल विलोनेन पृकादिभिः विक्षिष्यन्ते इति योगः । तत्र वृका ईहामृगाः (सुणग त्ति) कौलेयकाः शृगालाः, गोमायवः, काकाः वायसाः, मार्जाराः विडालाः सग्भाः परसराः, द्वीपिका चित्राः । (वियग्ध त्ति ) वैयाघ्राः व्याघ्रापत्यानि शा र्दूला व्याघ्राः सिंहा प्रतीताः । एते च ते दर्पिताश्च दृप्ताः नुदभिभूता बुभुक्षिता तथा नित्यकालमनसि तैः निर्भाजनैर्घोौरा दारुणक्रियाकारिणः श्ररसन्तः शब्दायमानाः भीमरूपाश्च ये ते तथा तैः श्राक्रम्य दृढं दंष्टाभिर्गाढमत्यर्थे ( डक्कत्ति ) दशाः ( कड्डियन्ति ) कृष्टाश्च श्राकर्षिना ये ते तथा सुतः स्फाटित उहाँ देहो येषां ते तथा । ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः । विक्षिष्यन्ते विकीर्यन्ते, समंततः, किनाले, विधिन्नाः कृतानाः तथा व्यङ्गितानि विकलीकृतान्यङ्गानि येषां ते तथा, तथा कङ्कः पक्षिविशेषः कुररा उत्कोशाः, गृद्धा शकुनिविशेषाः, धोका अधिकच वे वायसान्तेषां वे गवा (पुण : . समुचयार्थः खराः कर्कशा स्थिरा निश्चला रान गुरा नखा येषां ते तथा तथैव तुण्डं येषां ते तथा ततः कर्मधारयस्तैरवपत्य उपनिषत्य पक्षराहताः पक्षाऽऽहता ती विजिि लोचने, निर्दयं च निष्कृपं यथाभत्येव तथा (ओरुगं ति) अरुचितं च वदनं येषां पाठान्तरं "लुति" ज्ञान विकृतानि गात्राणि येषां ते तथा उत्को शाश्वत उत्पतन्त्र निन्तभ्रमन्तपूर्वकम्म पापबह योपगता इति च पदचतुष्टयं व्यक्तम् । पश्चादनुशयेन पश्चात्ता पेन रमाना निन्दन्तो जुगुप्समानाः (पुरे कडानि) पूर्वभव तानि कम्मति क्रियाः पापकानि प्राणातिपाता दीनि ततः ( तहिं २ ) ते तस्यां रत्नप्रभाऽऽदिकायां पृथिव्याम्, उत्कृट्रादि स्थिति के नरके तादृशामि जन्मान्तर उपार्जितानि प रमाधार्मिकोदीरितपरस्परोदीरित क्षेत्र प्रत्ययरूपाणि (उस्मरणचिकणारं ति ) उत्सन्नं प्राचुर्येण ( चिकणारं ) दुर्विमोचानि दुःखानि अनुभूय ततब्य निरादयेो वृत्ताः सम्तो बहवो गच्छन्ति तिर्यग्यसति तिर्यग्योनि यतो पाए मनुष्येत्पद्यन्ते दुःखीतराम् अनन्तोत् सर्विय बसविणावस्थितिकत्वात् तस्यां दुःख त्वात् जन्ममरण जराव्याधीनां या परिवर्तना पुनः पुनर्भवनानि ताभिररघो या सा तथा तां तिर्यग्वसति जलस्थलचरायां परस्परं विसिनस्य विविधव्यापाप विस्ता रोपांसा तथा तस्यां तस्यां च हर्ष मात्य जग स्कर्डन केवलमागमगम्यं, किंतु जजन प्रत्यक्षप्रमाणसिद्धतया प्रकटमेवेति वराकास्तपखिनः, प्राणवधकारिण इति प्रक्रमः। दुखं प्राप्नुवन्ति दीर्घकालं, याच (किंत सि) तद्यथाशीतोष्ण तृष्णाद्भिर्वेदना तथा अप्रतीकारं सूतिकर्मादिरहितम् । श्रवीजन्म कान्तारजन्म नित्यं भवेनोद्विग्नानां मृगादीनां पासोऽवस्थानं जागरणं च अनिद्रागमनं बधो मारणं बन्धनं संयमनं ताडनं कुट्टनम् अङ्कनं तप्तायः शला. कादिना चिन्हकरणं निपातनं गर्तादिप्रक्षेपणमभिनं कोकलामनं माखाभेदो नासिकाविवरकर महार ति) दमनमुपाविच्छेदनमवयवकर्तनम् अभियोगप्रापणं हठायापारप्रवर्तनं कक्ष धर्मपरिका अकुशं कृषि भारा प्रवराणी(!) दएडान्तर्तिनी लोह शलाका तासां निपा तः शरीरे निवेशनं दमनं शिक्षाग्रहणं ततो द्वन्द्रः । ततः एतानि प्राप्नुवन्तीति प्रक्रमः । वाहनानि च भारस्येति गम्यम् । मातापितृप्रयोगः श्रोतसां नासामुखादिरा परि पीडनानि रत्यादिवन्धनेन वाघनानि यानि तानि त था शोकपरिपीडितानि वा ततो द्वन्द्वः । ततस्तानि च श. स्वाऽग्नि विपं व मलिदानि तैरभिघात , 1 3 लक्ष्य कण्ठस्य गवलस्यं शृङ्गस्याssवलनं च मोटनमथवा गलस्य बलादालनं मारणे बेति तानि च गलेन बदिशेन जालेन वनायेन (उच्छपणाणि ति) जलमध्यान्मत्स्याऽऽदीनामुत्क्षेपणा म्याकर्षणानि यानि तानि तथा ( पउलनं ) पचनं विकल्प पायजीविकयन्धनानि परनिरोधनानि येति पदद्वयं व्यहम्। स्वधाभिघटनानि या स्वकीयनिकायनिष्कालनानीस्वर्थः धनानि महिव्यादीनां वायुपूरणानि दानानि च प्रतीतानि कुराडेन मग कराडे यानि बन्धनानि तानि तथा पा टेन वाटकेन वृत्पेत्यर्थ । परिवारणानि निराकरणानि या नि तानि तथा तानि पञ्जनमजनानि प्रायज योजनानि परिप्रशव जप तथा (बादल) श्रवपातेषु गर्तविशेषेषु उडक इत्येवंरूडेषु पतनेन निभङ्गा भजन गात्राणामवपातनिभङ्गः स च विषम निपतनं विषमनिपतनं तथ्य दवाग्निभियसाभिर्दहनं वेति तानि आदियेषां तानि तथा कर्माणि प्राप्नुवन्तीति योगः । एवमुक्रन्यायेन ते प्रापातिनः दुशवसंप्रीताः नरका Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४३) पाबह प्रभिधानराजेन्द्रः । पाणबह दागता दह तिर्यग्लोके, किंभूताः,सावशेषकर्माणः तिर्यक् यानि। एतदेव विशेषेणाऽऽह-परप्रयोगोदारणादिभि, स्वव्यपवेन्द्रियेषु प्राप्नुवन्ति पापकारिणः । कानीत्याह-कर्माणि तिरिक्तजनापारदुःखोत्पादनाभिनिष्प्रयोजनाभिरिति हृदयम्, कर्मजन्यानि, दुःखानीति भावः । प्रमादरागद्वेषैर्बहूनि यानि कार्यप्रयोजनैश्च अवश्यकरणीयप्रयोजनैः, किंभूतैः ?,प्रेष्यपशुसनितान्युपार्जितानि तानि तथा, अतीवाऽत्यर्थमशातकर्क: निमित्तं कर्म करगवादिहेतोरुपलक्षणत्वात्तदन्यनिमित्तं च याशानि अशातेषु दुःखेषु मध्ये कर्कशानि कठोराणि यानि न्यौषधाऽहारादीनि तानि तथातै.,उत्खननमुत्पाटनम् उत्कोतानि तथा,भ्रमरमशकमक्षिकाऽऽदिषु चेति सप्तम्याः षष्ट्या चनं त्वचोपनयनं पाकाकुट्टनं चूर्णनं पेषणं घरहाऽऽदिना दलर्थत्वा भ्रमरा दीनामिति व्याख्येयम् । चतुरिन्द्रियाणामिति नं पिट्टनं ताडनं भर्जनं भ्राष्ट्रपचनं गालनं छालनमामोटनमीषच सम्बन्धनीयम् । अथवा चतुन्द्रियाणां भ्रमराऽदिषु जाति द्भञ्जन शाटनं स्वत एव विशारणं स्फुटनं स्वत एव द्वैधीभावग. कुलकोटीशतसहस्रेष्वेवं घटनीयमिति । जातौ चतुरिन्द्रिय मनं भजनमामईनं छेदनं प्रतीतं,तक्षणं काष्ठाऽऽदोरिव वास्थाजाती यानि कुलकोटीशतसहस्राणि तानि तथा तेषु नषसु दिना विलुश्चनं लोमाऽऽद्यपनयनम् अन्ताटनं तरुपान्तपल्ल(तहिं२ चेव तितत्रैव तत्रैव चतुरिन्द्रियजातावित्यर्थः । जन- वफलादिपातनम्,अग्निदहनं प्रतीतम् एतान्यादिर्येषां तानि नमरणान्यनुभवन्तःकालं संख्यातकं संख्यातवर्षसहस्रलक्षणं तथा, दुःखान्येकेन्द्रियाणां भवन्तीति गम्यम् । एकेन्द्रियाधिभ्रमन्ति,किंभूताः?,नारकसमानतीनदुःखाः स्पशनरसनघ्राण कारं निगमयन्नाह-एवमुक्तक्रमेण ते एकेन्द्रियाः भवपरम्पराचतु सहिताः,इन्द्रियचतुष्टयोपेता इत्यर्थः। तथैवेति यथैव च- सु यद् दुःखं तत्समनुबद्धमविच्छिन्नं येषां ते तथा. अटन्ति तुरिन्द्रियेषु तथैव त्रीन्द्रियेषु जननान्यनुभवन्तः,भ्रमन्तीति प्र. संसार एव (वीहणकर त्ति) भयङ्कराः त्रसजीवाः प्राणाकृतम्। एतदेव प्रपञ्चपत्राह-कुन्थुपिपीलिका अवधिकादि- तिपातनिरताः अनन्तं कालं यावदिति। केषु च जातिकुल कोटिशतसहस्राटेत्यादिद्वीन्द्रियगमान्तं च- अथ प्राणातिपातकारिणो नरकादुद्वत्ता मनुष्यगतिगता तुरिन्द्रियगमवन्नेयं,नवरं (गंडूलय ति) अलसी (चंदणगति) यारशा भवन्ति तथोच्यतेअक्षाः । तथा (पत्ता पगिदियत्तणं पिय ति) न केवलं प. जे वि य इह माणुसत्तणं आगया कहं वि नरगाओ चेन्द्रियाऽऽदित्वमेव प्राप्ता एकेन्द्रियत्वमपि प्राप्ता दुःखसमु- उबट्टिया अधमा ते वि य दीसंति पायसो विकयदयं प्राप्नुवन्ति इति योगः । किंभूतमेकेन्द्रियत्वमित्याहपृथिवीजलज्वलनमारुतवनस्पतिसम्बन्धिवत् एकेन्द्रियत्वं विगलरूवा खुजा बडगा य वामणा य बहिरा काणा तत्पृथिव्याद्यवोच्यते, पुनः किंभूतं तत्सूभं बादरं च तत्क कुंटा य पंगुला वियला य म्रया य मम्मणा य अंधिलम्मोदयसंपाद्य, तथा पर्याप्तमपर्याप्तं च तत्तत्कर्मणोत्पाद्यमेव, गएगचक्खुविणिहयसपिल्ल यवाहिरोगपीलियअप्पाउयसत्ततथा प्रत्येकशरीरनामकर्मसंपाद्यं प्रत्येकशरीरनामैवाच्यते। वज्झवाला कुलक्खणुक्किामदेहदुबलकुसंघयणकुप्पसाधारणशरीरनामकर्मसम्पाद्यं च साधारण पर्याप्ताऽदि. पदानां कर्मधारयः। चः समुश्चये । एवंविधं चैकेनिज्यत्वं माणकुसंठिया कुरुवा किवणा य हीणदाणसत्ता णिचं प्राप्ताः कियन्तं कालं भ्रमन्तीति भेदेनाऽऽह-"पत्तेयेत्यादि" सोक्खपरिवजिया असुहदुक्खभागी गरगाओ उव्वाट्टत्ता (तत्थ वित्ति) तत्राप्येकेन्द्रियत्वे प्रत्येकशरीरे जीवनं प्रा- इहं सावसेसकम्मा एवं नरगतिरिक्खजोमिं कुमाणसतं गधारणं येषां ते प्रत्येकशरीरजीवितास्तेषु पृथिव्यादिषु, | च हिंडमाणा पावंति अणंताई दुक्खाई पावकारी, एसो चकार उत्तरवाक्यापेक्षया समुच्चयार्थः । कालमसंख्यातं भ्रमन्ति, अनन्तं कालं वाऽनन्तकाये साधारणशरीरोप्वत्यर्थः। सो पाणवहस्स फलविवाओ इहलोइए परलोइए अप्पमुआह च-"अस्संखोसप्पिणियो-सप्पिणीउ एगिदियाण उच हो बहुदक्खो महब्भो बहुरयप्पगाढो दारुणो ककसो उराहं । ता चेव ऊ अर्णता, वणस्सईए उ बोधव्वं ॥१॥" इति । असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चती ण य अवेदयित्ता,अस्थि हु किंभूतास्ते ?, स्पर्शनेन्द्रियभावेन परिणामेन तत्तया वास मोक्खो त्ति, एवमाहंसु णायकुलणंदणो महप्पा जिणो उ प्रयुक्ता ये ते तथा दुःखसमुदयमिमं वक्ष्यमाणमनिटं प्राप्नु वीरवरणामधिजो कहेसी य पाणवहस्स फलविवागं एचन्ति, पुनः पुनः तत्रैव एकेन्द्रियत्वे इत्यर्थ । किंभूतो?, परः प्रकृष्टः सर्वोत्कृएकायस्थितिकत्वाद्भव उत्पत्तिस्थानं तरुगणी सो सो पाणवहो पावो चंडो रुद्दो क्खुद्दो अणारिओ निवृक्षगुच्छाऽऽदिवृन्दसमूहो यत्रैकेन्द्रियत्वे । पाठान्तरे तु परभ ग्विणो निस्संसो महन्मयो वीभणश्रो उत्तासणओ अपलो बतगणगहनं यत्तत्तथा । तत्र दु:खसमुदयमेवाऽऽह-कुद्दालो उव्येयणो य णिरवयक्खो णिद्धम्मो निप्पिवासो णिक्कभूखनित्रं कुलिकं हलविशेषस्ताभ्यां (दालणं ति) विदारणं लुणो निरयवासगमणो मोहमहब्भयपवो मरणवेमणयत्तत्तथा.एतत् पृथिवीवनस्पत्यो? खकारण मुक्तं, सलिलस्य । सो पदम अहम्मदारं सम्मत्तं ति बेमि ।। भलनं च मईनं (खुमणं ति) क्षोभणं च सञ्चलणं (रंभणं ति) रोधनं च तानि सलिलमलनक्षोभणरोधनानि, अनेनाप्कायिका येऽपि इह मर्त्यलोके मनुष्यत्वमागताः प्राप्ताः कश्चित, नां दुखमुतम्। अनलानिलयोरग्निबातयोर्विविधैः शरैः म्व कन्चादित्यर्थः। नरकादुत्ता अधन्यास्ते ऽपि च दृश्यन्ते प्राय. कायपरकायभेदैर्यद् घट्टनं संघट्टनं तत्तथा । अनेम चाग्निया शः प्रायग विकृतविकरूपाः, प्रायशो ग्रहणेन तीर्थकराऽऽदि. वोर्तुःखमुक्तम् । परस्पराऽभिहननेन यन्मारणं च प्रतीतं वि.. भिजिचार: परिहतः । विकृतविकलरूपत्वमेव प्रपञ्चयन्नाहराधनं परितापनं ते तथा तेणं द्वन्द्वोऽतस्तानि दुःखानि भव काजाः पजडा चटकाश्च चोपरि काया:, वामनाचकाम्तीनि गम्यम्।तानि किंभूतानि?,अकामकानि अनभिलपणी । लानौचित्येनातिमहस्वदेहाः, बधिराः प्रतीताः, काणा:दीपका गा, फरला इत्ययः । कुएटाश्च विकृत हस्ताः, पदनाः गम Jain Education Interational Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४४) पागाबह अभिधानराजेन्द्रः। पाणसुहुम नासमर्थजङ्घाः, विकलाश्चापरिपूर्णगात्राः, मुकाश्च बचनासम. निर्द्धम्मों धर्मादपक्रान्तः, निःपिपात: बध्य प्रति स्नेहविरहा र्थाः, (पंगुला बि य जत्वमय त्ति ) पानगन्तरे । अपि चेति निःकरुगो विगतदया, निरयवासगमन इति व्यतम् । मोहमसमुच्चये । जनमृका जलप्रविष्टस्येव बदद इत्येवंरूपो ध्व. हामयप्रकर्षक-तत्पवर्तकमरणन वैमनस्य दैन्यं यत्र मरणवैमननिर्येषां मनमनाश्च येषां जल्पता स्खलिते बाणी। ( अधिव- स्यप्रथममधर्मद्वारं मृपावादाऽऽद्यपेक्तयेदमाद्यमाश्रयद्वारं स. ग त्ति) अग्धाः, एक चकुर्विनिहतं येषां ते एकचतुर्विनिहताः । माप्त, तद्वक्तव्यताऽपेक्रया निष्ठां गतमिति शब्द: समाप्ता,वामि (सपिल्लयत्ति) सर्वापचक्षुध।। पाठान्तरे (सपिसलय त्ति) तत्र प्रतिपादयामि, तीर्थकरोपदेशेन, न स्वमनीषिकयेति । पतञ्च सह पिमल्लयेन पिशाचेन वर्तत इति सपिसल्नयाः, व्याधि. सुधर्मस्थामी जम्बूस्वामिनः स्ववचसि सर्ववचनाऽऽधितत्वे. भिः कुन्छा ऽयैः रोगैगधिभिर्विशिष्टाभिर्वा प्राधिभिमनापीमा- नाव्यभिचारीदमिति प्रत्ययोत्पादनार्थम् । तथा स्वस्य गुरुपरनिः रोगैश्च पीमिताः व्याधिरोगपीडिताः, अल्पायुषः स्तोक तन्त्रताऽऽविष्करणार्य विनेयानां चैतन्यायप्रदनार्थमाख्यात. जीविताः, शस्त्रेण हन्यन्ते ये ते शस्त्रवत्याः, बालाः बालिशाः। वानिति । प्रश्न १ श्राश्र0 द्वार । ततोऽन्धकाऽऽदीनां द्वनः। कुत्रवगैरपलकणसत्कीर्ण पाकीणों पाणभूयजीवसत्तदयट्ठया-प्राणभूतजीवसत्त्वदयार्थता-स्त्री० । देहो येषां ने तथा । दुबंधाः कृशाः, कुसंहनना बलविकलाः, प्राणादिषु सामान्येन या दयाऽसाबर्थः प्राणाऽदिदकुप्रमाणाः अतिदीर्घा अतिमहस्वाः, कुसंस्थिताः कुसंस्थामाः। याऽर्थत्त जाबस्तत्ता । अथवा-षट्पदिका एव प्राणानामुच्चाततो दुनाऽऽदीनां धन्दः। अत एव कुरूपाः कृपणाश्च रकाः साउदीनां भावात् प्राणाभवनधर्मकत्वात् जुता नपयोगलक. हीना प्रत्यागिनो धनहीना व जात्यादिगुणैः (१) दीनसखा णत्या जीवा सत्वोपपेतत्वात्सवास्ततः कर्मधारयः तदर्थता । अल्पसरवा नित्यं सौख्यपरिवर्जिताः,अशुभमशुभाऽनुबन्धि यदू प्राणाऽऽदिरवणाभिलाषे, " पाणभूयजीवसत्त दयटुता ।" दुःखं तद्भागिना,नरकाऽवृत्तास्सन्तः,ह मनुष्यत्रो के दृश्यन्ते, वेशायन यूकाशय्यानर प्रति गोशालः । भ०१५शा सावशेषकर्माण इति निगमनम् । अथ यादृशं फलं ददातो. त्येतन्निगम यन्नाह-( एवमित्यादि ) एकमुक्तक्रमण नरकतिय पाणभोयण-पानभोजन-न० । जाकापान एखाधकाऽऽदिग्योनी कुमा नषत्वं च हिएम्मानाः अधिगच्छन्तः प्राप्नुव- के, दश० ५० १०० । (अत्रार्थे ' दायगदोल' श चतुर्थ. न्ति अनन्तकानि दुःखानि पापकारिणः प्राणवधकाः। विशेषण भागे २५०३ पृष्ठे विस्तरः) निगम पन्नाह-एष स प्राणि वधस्य फलविपाकः पेहलोकिकम- पाणभोयणा-पानभोजना-स्त्री०। प्राणा: प्राणिनो रसजाऽऽदय: नुवाकया मनुष्य भावाऽऽश्रयः, पारलाकि कमनुष्यापेक्षया न. नोजने दध्याद नाऽऽदौ, संघट्यन्ते विराध्यन्ते वा यस्यां प्राभृ. रकगत्याद्याधितः, अल्पसुखो भोगसुखन्नवसंपादनात, अवि. तिकायां सा प्राणभोजना । रसजाऽऽदिभोजनप्राभृतिकायाम, धमानसुखो वा; बहु दुःखो नरकाऽऽदिदुःखकारणत्वात् ।(मह "पाणभोयणाए बायभोयणाप हरिप्रभायणाए"। श्राव०४ अन मनोत्ति) महाभयरूपः, बहुरजःप्रभूतं कर्म प्रगाढं उमाचं पाणमंसोवम-पाणमांसोपम-पुं० । पारनो मातङ्गस्तमांसमयत्र स तथा,दारुणो रोः, कर्कश: कठिना, असातः असा. तवेदनीयकर्मोदयरूपः, वर्षसहस्रर्मुच्यते, ततः प्राणीति शेषः स्पृश्यत्वेन जुगुप्सया दुःखाऽऽयं स्यादेवं यस्तेषां दुःखा35. न च नैव, अवेदयित्वा, तमिति शेषः । अस्ति मोकः व्यः स पाणमांसोपमः । जुगुप्म्ये प्राहारे, स्था०४०४१०। अस्मादिति शेषः । इति शब्दः समाप्ती । अथ केनायं द्वार पाणय-प्राणत-पुं० । स्वनामख्याते विमानविशेष, दशमदेवपञ्चकप्रत्तियः प्राणातिपात लवणाऽऽश्रवद्वारप्रतिपादनपर: लोके तात्स्यात्तव्यपदेश इति । तल्लोकवासिदेवेषु च । प्रथमाध्ययनार्थः प्ररूपित इति जिज्ञासायामाह-( एवं ति) | अनु। विशे० स्था०। प्रवास पानत कल्पस्येन्द्रे, स्था० एवं प्रकारमतीन्द्रियभूतभव्यभविष्यदर्थविषयस्फुटप्रतिभास- ४४०४ उ० । प्रकाशनीयमननिहतं वस्तु ( आहंसु ति ) आख्यातवा- पाणवत्तिय-प्राणवृत्तिक न०। भित्रदोषप्रत्ययिकाऽऽख्ये दशमे न्, शातकुलनन्दनः ज्ञाताः क्वत्रियविशेषाः, तवंशसमृद्धिका क्रियास्थाने, सूत्र. २00२ अ०। र: महात्मेति प्रतीतं, जिनस्तु जित पव वीरवरनामधेयः पाणवत्तिया-प्राणप्रत्ययिका-स्त्री० प्राणवृत्तिके, स्था। प्राणा (वारवरे त्ति) प्रशस्तनामा, तथा कथितांश्व प्राणवधश्य उनासादयो बल वा प्राणास्तेषां नस्य वा वृत्तिः स्था० बाला फत्रविपाकमध्ययनार्थस्य महावीरानिदिनचे प्रतिपादितेऽपि पाणविहि-पानविधि-पुं । उदकमृत्तिकया प्रसादिनस्य सहयत् पुनस्ततफविपाकस्य वारकथितत्वाभिधान नमाणि. जनिर्मलस्य तत्सत्सस्कारकरणे, जं०२ वाज्ञा स०। वधम्य कान्ति का शुभफत्वेनात्यन्त परिहाराविधकरणार्थमि पाणसम-प्रागसम-पुं० । पत्यो, “ रमणो कतो पण, पाणसति । अथ शास्त्रकारः प्राणवधस्य स्वरूपं प्रथम द्वारोपदर्शितमाप निगमनार्थ पुनदर्शय चाड-पप स प्राणवधोऽभिहि मो पियसमो दी ।" पाइ० ना०६१ गाथा। तो योऽनम्तरं स्वरूपतः पर्यायतः विधानतः फलतः कर्ततश्च पाणसमारंभ-प्राणसमारम्भ-पुं० । प्राणिव्यपरोपणे, प्राचा०१ वक्त प्रतिकात आदावामीत् । किंभूतः ?, इत्याह-चराक कीपन- श्रु० ३ ०२ उ०। म्तत्प्रवृत्तित्वञ्चरामा, रौधरमप्रति चासोः, सुजनाच. पाणसाला-पानशाला-खो० । यत्रोदकाऽऽदिपान तस्यां शास्तित्वात् कः, अनार्यलोककरणत्वादनार्यः, घृणायाः अ. लायाम , निचू०६०। त्राविद्यमानत्वात् निधूपः, निःशुभजनकृतत्वान्नृशंसः, महाभ पाणमुहम-पारणसूक्ष्म-अनुहरिकुन्धी,स्था०० ठाणदश। यहेतत्वात् महाभयः । (वीणन नि) जयवत्प्रवृत्तिवान् । से किं तं पाणमुहमे? । पाणसुहमे पंचविहे पाने । तं श्रासका इस्त्रामतत्वात् । 'अन्यायो न्यायादनपतत्वात, उद्धे जनकच उगह तुत्वानिरवकाङ्कः परमाणापेक्षया वर्जितः, जहा-किरहे, नील, लाहिम, हाजिद, सुबाले ! अस्थि कुंथ Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माभिधानराजेन्द्रः। पाणाइवायविरय पाणसहुम अणुद्धरी नामं जा ठिया अचलमाणा उमत्थाणं निग्ग- पातेन प्राणातिपाताभ्यवसायेन क्रिया सामर्थ्यात् प्राणातिथाणं वा निग्गंधीण वा नो चक्खुफासं हलमागच्छइ, पातः क्रियते । कर्मकर्तयं प्रयोगः। भवतीत्यर्थः। प्रतीतनया. निप्रायात्मकोऽयं प्रश्नः । कतमोऽत्र नयः, यमध्यवसीय पू. जा अद्विया चलमाणा छउमत्थाणं निग्गंथाण वा निग्गं मिति चेत् ?,उच्यते-ऋजुसूत्रः । तथाहि-ऋजुसूत्रस्य हिंसाथीण वा चक्खुफासं हवमागच्छइ० जाव छउमत्वेणं परिणतिकाल एव प्राणातिपातक्रियोच्यते, पुण्यकर्मपदानुनिग्गंथेण वा निग्गयीए वा अभिक्खणं अभिक्खणं जा- पादानयोरध्यवसायानुरोधित्वात नान्यथा परिणताविति । त्र गवानभिहितशत्रुसूत्रनयमधिकृत्य प्रत्युत्तरमाह-हंता ! म. णियव्वा पासियव्वा पडिलेहियव्वा भवइ । से तं पाणसुहुमे। स्थि) हंतेति संप्रेक्षणप्रत्यवधारणवित्रादेषु । अत्र प्रत्यसत्र प्राणसदमं पञ्चविध प्राप्त तीर्थकरगणधरैः कृष्णाऽदि. बधारणे अस्त्येतत् । प्राणातिपाताध्यवसायेन प्राणातिपातकि. धर्मभेदात् । एकस्मिन्बों सहस्रशो अदा बहुप्रकाराश्च संयो या जवति।" परिणामियं पमाण, णियमवलंबमाणाणं ।" गास्ते सर्वे पम्चसु कृष्णाऽऽदिवप्नेव अवतरन्ति । प्राणसदम इत्याचागमवचनस्य स्थितत्वातदमेव वचनमधिकृत्याबश्य. तुकान्द्रियाऽऽदयः प्राणा यथाऽनुरूरी कुन्युः। स हि चलन्नेव | केऽपादं सूत्र प्राति।"माया चेव अहिंसा,माया दिस सिनि. विभाव्यते, न हि स्थानस्थःकल्प०३ अधि०६कण । दश। च्छो पतत्ति।"व्याचष्टे-मृधावादाऽऽदी तुक्रिया यथायथं प्राणापाणह-उपानह-बी०। काष्ठ(चर्म)पाकायाम, सूत्र. १९० तिपाताऽऽदिका भवतीति प्राणातिपाताध्यवसाये प्राणातिपात. है । निवर्तककार्येषु जायमानेषु प्राणातिपातोपचारो, मृपावादापाणाश्र-देशी-चाएमाले, दे० ना०६ वर्ग ३० गाथा। व्यवसाये च यथोचितक्रियानिवर्तककार्येषु जायमानेषु तदु. पचारस, इत्यत्र बीजमुत्पद्यमानमुत्पन्नम् इत्यस्यायें स्यादित ए. पाणाइवाइया-प्राणातिपातिका-स्त्री० । प्राणातिपातः प्रती पोपपादस्येत्यमेवोपचारेण संभवात् । परमार्थतस्तु चरमसतस्तविषवा क्रिया प्राणातिपातिकी। प्राणातिपातक्रियायाम् , मय एवोत्पद्यमानं तदैव चोत्पन्नम् । इत्यस्यार्थस्य महता भाव०४०। प्रबन्धेन महाभाष्ये व्यवस्थापितत्वात् । प्रास्मैव हिंसेति तु य. पाणाइवाय-प्राणातिपात-पुं०। प्राणा उच्चाऽऽसादयस्तेषाम चपि शब्दनयानां मतं, नैगमनयमते जीवाजीवयोः सा, संतिपतनं प्राणवता सह वियोजनं प्राणातिपातः । हिंसायाम् , प्रहव्यवहारयोः परजीवनिकायेषु, जुसूत्रस्थ प्रति स्वस्वधास्था पवेन्द्रियाणि त्रिविधं वनं च,उच्चासनिःश्वासमधाम्य. त्ये तद्भेदेन तन्मते हिंसाभेदाम्दनयानां स्वात्मनाऽन्यो (?). दायुः । प्राणा दशैते भगवभिला-स्तेषां वियोजीकर- प्यवृत्ताविति वचनात्तथा विषयविनागेन नयप्रदर्शन तत् । णं तु हिंसा ॥१॥" " एगे पाणाश्चाए० जाव एगे परि- तु हिंसास्वरूपविवेचनेन नयविभागः। तत्र च संक्लेशको. गहे।" स च प्राणातिपातो द्रव्यभावभेदा विविधो, वि. त्पादनात पर्यायविनाशभेदेन त्रिविधाऽपि हिंसा नैगमव्यवहानाशपरितापसंक्शभेदात त्रिविधो वा । आह च-"तप्पज्जा- रयोः, संक्लेशदुःखोत्पादनरूपा त्रिविधा संग्रहस्य,संक्लेशकयविणासो,ऽक्खुप्पाओ य संकिलेमो य । एस बहो जिणभाण- पैव जुसूत्रस्य सम्मतेत्येवं व्यवस्थितेः। संक्लेशश्चात्मपरिणा• । ओ,बजेयब्यो पयसेणं ॥१॥" अथवा-मनोवाक्कायैः करणका- मः,मात्मैवेत्येतन्मते प्रात्मैव हिंसेत्युको दोषाभावाचम्पमया. रणानुमतिभेदान्नवधा । पुनः स क्रोधाऽऽदिभेदात् पत्रिंश- नामप्येतदेव मतम--" मूलनिमेणं पज्जब०" (५) स्यादिविधो वा इति । स्था०१०। प्रश्न । आ००। प्राणानामि. गाथा सध्याच्या 'दबट्टिय' शमे चतुर्थभागे २४६० पृष्ठे जियोच्चासाऽऽयुरादीनामतिपातः प्राणिनः सकाशाद् विनं. गता । इति सम्मतिप्रन्येन तेषामजसूत्रविस्तारात्मकाऽव. शःप्राणातिपातःप्राणिप्राणवियोजने, पा०। जीववधे,पा०। स्थितेविशेषततरतदर्थकस्वस्यैव नियुक्ताबभिधानात्प्राणाभावप्राणिनां साधुभर्यादाऽतिक्रमेण पाते,मा वृ०४०। तिपातनिवृत्तस्वभावसमवस्थितमेव व्यायथाभाबशजुसूप्राणातिपातदोषकथा- . अमते, हिंसा तणाम्यथानावश्च शम्दनयमत इति तु विवेच. " पुमान् कोकणकः कश्चि-तस्य प्रियतमा मृता। काः । प्रति० । प्रज्ञा । " पाणाश्चायकिरिया बिहा पुत्रस्तदीयस्तस्याऽस्ति, तं दायादं विदन् जनः॥१॥ पमता । तं जहा-सहत्यपाणाश्चायकिरिया व १, परपरिणेतुं ददाति स्वां, पुत्री तस्य न कश्चन । स्थपाणावायकिरिया चेव ।" प्राणातिपातक्रिया विधा-स. ततस्तेन सुतोऽघाति, तिर्यलक्ष्येण खेलता ॥२॥" देहव्यपरोपणप्राणातिपातक्रिया, तत्र स्वदेव्यपरोपणक्रिया भा.क.६०। माघू।('पाणह' शम्देऽनुपदमेव - यत् स्वर्गहेतुः स्वयं देहं परित्यजति, गिरिशिखरे वनितंबा क्तव्यतोक्ता) प्राणातिपातजमिते तजनके वा चारित्रमोहनीयक दुतवह प्रविशति, अंभसि बाऽत्मानं परित्यजति, मायुधेन मणि, भ०१२०५०। वा स्वदेहं बिनामयति । परदेहस्य व्यपरोपणं प्राणातिपातपाणाइवायकरण-प्राणातिपातकरण-न० । प्राणिषधाऽनुष्ठाने, | क्रिया । तबधा-क्रोधाऽऽविधः। एवं मानमायालोभमोहको. प्रभा १ माघ द्वार। हिंसायाम , प्रम०३ भाभ० द्वार । धेन रुटो मारयति । एवं मानेन मत्तो, मायया विश्वासेन लोभेन लुब्धः शोकारकवत, मोहेग मूढः संसारमोचकपत, ये पाणाइयायकिरिया-प्राणातिपातक्रिया-खी। प्राणातिपात: चान्ये धर्मनिमित्त प्राणिनो व्यापादयन्ति मा.४म। प्रसिकस्तद्विषया क्रिया, प्राणातिपात एच था क्रिया प्राणाति. पातक्रिया। हिंसारूपे क्रियाभेदे, भ०३ श०३ उ०1("प्र पाणाइयायविरह-पाणातिपातविरति-श्री०। प्राणातिपातषि. स्थि णं नंते ! जीवाणं पाणाश्वापर्ण किरिया" इति कि. | रमणव्रते, सूत्र०१६० १४ १०। महा०। रिया' शब्द तृतीयभागे ५३४ पृष्ठे व्याख्यातम्)। प्राणाति- पाणाइवायविरय-मायातिपातविरत-त्रि० । प्राणानां वशम २१२ Jain Education Interational Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९) अभिधानराजेन्द्रः । पाणइवायविरय काराणामप्यतिपाती विनाशस्तस्मात् विरतः खितः । कृतप्राणातिपातविरती खूब० १ ० १० अ० सूत्र० श्र० । पाणावायवेरमण- प्राणातिपातविरमण १० हिंसानिवृत्ती अहिंसायाम् तश्च स्थूलसूक्ष्मभेदात् देशतः सर्वतो वा द्विधा प्रथमं भावकाणां द्वितीयं साधूनाम् । तत्राऽऽयं यथा प्रथममरवतं स्थूलकादत्ताऽऽदानाद् विरमणम् । घ० । " जीवा धूला सुहमा, संकप्पाऽऽरंभश्रो भवे दुविधा । वराह-निरवराहा. साविक्खा चेव निरविखा ॥१॥ ” अस्या व्याख्या - प्राणिबधो द्विविधः, स्थूलसूक्ष्मजीवविश्यभेदात् । तत्र स्थूला शीन्द्रियादयः सूक्ष्माचा केन्द्रियादयः पृथिव्यादयः पञ्चापि बादराः, न तु सुक्ष्मनामकर्मोदयवर्त्तिनः सर्वलोकव्यापिनः तेषां बधाभावात्, स्वयमायुः पुः क्षयेखैव मरणात्, अत्र च साधूनां द्विविधादपि वधानिवृत्त स्वाद्विशतिविशोषका जीवदया गृहस्थानां तु स्थूलप्राणिवानिवृत्तिर्न तु सूक्ष्मवधात् पृथिवीजलाऽऽदिषु सततमारम्भपुत्वात् इति दशविशोषकरूपम गतम्। ल प्राणिवधोऽपि द्विधा - संकल्पज आरम्भजश्च । तत्र संकल्पात् मारयाम्येनमिति मनः संकल्परूपाची जायते तस्माद् गृही निवृत्तो न त्वारम्भजात् कृप्याद्यारम्भे द्वीन्द्रियादिव्यापादनसंभवात्। अन्यथा व शरीर कुटुम्बनिर्वाहाऽभ्यभावात्। एवं पुनरजाताः पञ्च विशेषकाः संकल्पोऽपि द्वियासापराधविषयों, निरपराधविषयय तल निरपराधविषयनिवृत्तिः, सापराधे तु गुरुलाघवचिन्तनं, यथा गुरुरपराधो लघुर्वेति । एवं पुनरर्द्ध गते सार्डी द्वौ विशोपको जाती । निरपराधोऽपि द्विधा-साऽपेक्षो, निरपेक्षश्च । तत्र निरपेक्षानितिने तु साक्षात् निरपराधेऽपि बाह्यमानमपिवृचया 35 पाठाऽऽदितपुत्राऽऽदी व सापेक्षतया ववचवाऽऽ. दिकरणात् ततः पुनरर्द्धगते सपादो विशेोपकः स्थित इति । इथंच देशतः प्राणिवधः श्रावण प्रत्याख्यातो भवति । प्राणिवधो हि त्रयश्चत्वारिंशदधिकशतद्वयविधः । यतः" भूजलजल गानिलवण- बितिच उपचिदिप हि नव जीवा । मणवणाव गुणिया इति ते सत्तावीस ति ॥ १ ॥ इक्कासीई ते करण कारणानुमहतादिश्रा होइ। ते चित्र तिकालगुणिया, दुनि या हुंति तेयाला ॥२॥ इति तेषां मध्ये त्रैकालिक मनोवाक्कायकरणकद्विषिचतुः पञ्चेन्द्रियविषयक हिंसाकरणकारणस्यैव प्रायः प्रत्याख्यानसंभवात् । ततफलं वैमा" जंगमध्य डिहयं, तरतं फुडं । रूवं श्रप्पडिरूब-मुज्जलतरा कित्ती धर्ण वर्ण दीई आड अव परिक्षण पुला सुधासया, तं सम्यं सचराचरम्मि वि जए नूणं दयाप फलं ॥ १ ॥ " एतदनङ्गीकारे च पश्गुताकुणि ताकुडाऽऽदिमहारोगवियोगशोकपूर्णssयुर्दुः ख दौर्गत्याऽऽदिफलम् । यतः - "पाणिवहे व हंसाभमंति भीमा गभवही संसारमंडलगया, नरयतिरिवाजणी ॥ १ ॥ ॥ २५ ॥ घ० २ ० पावापरमणे" स्था० १ डा० । धूलगं पाणाइवायं पञ्चकखामि जावजीवाए दुविहं तिविहे ण करेमि व फारवेमि माना वचसा कायसा । (धूलगं ति) लसविषयं ( जाबजवाए त्ति ) यावती चासौ पावरमा 1 जीवा च प्राणधारणं यावज्जीवा, या वा जीवः प्राणधारणं यस्यां प्रतिज्ञायां सा यावजीवा तया ( दुविदं ति ) करणकारणमेदेन द्विविधं प्राणातिपातं (तिथिदेति ) मनःप्रभृतिना करणेन (कायस ति) सकार15300मिकल्यात्कायेनेत्यर्थः, न करोमीत्यादिनैतदेव व्यक्तीकृतम् । उपा० १ श्र० । पञ्चा० । पं० ब० । धूलगपाणाइयायं समणोवासच्च पञ्चकखाइ से पाथाइवाए दुबिहे जहा संकप्पओ अ १, आरंभ व २ तं तस्य समणोवासच्च संकपओ जावजीवाए पथक्खार, नो आरंभ। - स्थूलीन्द्रियादयः, स्थूलत्वं चैतेषां सकललीफिकजीचत्वमसि तदपेक्षयै केन्द्रियाः सूक्ष्माऽधिगमेनाऽजीवत्यि देरिति । स्थूला एवं स्थूलकारतेषां प्राणायास्तेपामनिपातः स्थूलकप्राणातिपातस्तं श्रमणोपासकः भावक इत्यर्थः । प्रत्याख्याति तस्माद्विरमत इति भावना सच प्राणातिपातो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तीर्थङ्करगणधरैः द्विविधः प्ररूपित इत्यर्थः । तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः । सङ्कल्पजश्व, आरम्भजश्च । सङ्कल्पाजात सङ्कल्पजः, मनसः संकल्पात् ही न्द्रियादिप्राणिनः मांसास्विचमनखवालदार्थ व्यापादयतो भवति । श्रारम्भाजात श्रारम्भजः। तत्राऽऽरम्भो हल-द तालखननस्तत्प्रकारस्तस्मिन् शतचन्दनकपिपीलिकाधान्य गृहकारकाऽऽदिसंघट्टनपरितापापद्रावणलक्षण इति । तत्र - मोपासकः सङ्कल्पतो यावज्जीवयापि प्रत्याख्याति, न तु या वज्जीवयैव नियमत इति नाऽऽरम्भजमिति, तस्याऽध्वश्यतयाऽऽरम्भसद्भावादिति । ब्राह एवं सङ्कल्पतः किमिति सूक्ष्म प्राणातिपातमपि न प्रत्याख्याति । उच्यते- एकेन्द्रिया हि मा यो दुःखपरिहाराः, सद्मवासिनां संकल्प्यैव सचित्तपृथिव्यादिपरिभोगात् । तत्थ पाणाइवाए कज्जमागे के दोसा, अकीरते के वा गुणा ? । ” तत्र दोसे उदाहरणं कोकणगी, तस्स भज्जा मया, पुत्तो य से अत्थि, तस्स दारगस्स दाइयभरण दारियं न लहर, ताहे सो अमलवे रमतो विच गुणे उदाहरणं सत्तदियो वितियं " 9 उजेशीर दारगो मालदि हरियो सावयदारगो सूपण कीओ, सो तेण भणिश्रो- लावगे ऊसासेहि | तेरा मुका | पुणो भरियो । मारहि ति । सोनेच्छ पच्छा पिट्टेउमारो, सो पिट्टिजंतो कूयति । पच्छा रना सुतो, सहायिऊण पु तांडे साहे रक्षा विभणिओ, नेच्छु, ताहे हत्थिणा भेसिश्रो तहा वि नेच्छह, पच्छा रना सीसरखो ठचिश्रो । अन्नया थेरा समोसढा, तेसिं श्रंतिए पव्यइश्रो । ततियं गुणे उदाहरणं पाडलिपु नपरे जिपस राया मो से मो चिहाए बुद्धी संपतो समोवासगो साथगगुण संप सो पुरा रभो हिउ ति कार्ड असि दंडभडभोश्याएं अमिनो । ते तरुल विणासानिमित्तं खेमसंतिए पुरिसे दा रामाणेहिं सक्कारेति । रनो अभिमरण पडंजंति, गहिया य Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४७) अभिधानराजेन्द्रः । पायावायवेरमण भरांति - हम्ममाणा अम्हे खेमसंगता, तेरा चैव खेमेण निउता । खेमो गहितो भणइ अहं सव्वसत्ताण खेमं करेमि किं पुरा रनो सरीरस्स सि ? तहा वि बज्मी रो य असोगणियाए अगाडा पोषखरिणी संपतभिसमुणाला उप्पलपदमेोषसोहिया। सा च मगरगादि दु· रवगाहा, न य ताणि उप्पलादीणि कोइ उश्विणिउं समरथो, जो य वज्भो रक्षा श्रइस्सर सो वुञ्चर इत्तो पोक्ख रणी पडमाथि आदि ति ताहे मी उडेऊण "न मो अरिहंताणं ति " भवितु जर हं निरवराही तो मे देवया सानिज्भं दैतु, सागारं भक्तं पञ्चकखाइउं श्रोगाढो, देवयासानिज्मे मगरपुट्ठिट्ठियो बहूणि उप्पल कमलाणि गेरिहसि। रक्षा हरसितेय वामिश्री उचढीय, पडि चलनिगम काऊ कि ते परं निरंभमाणेण वि पव्वज्जा चरिया पवइओ, एए गुणा पाणाइवायविरमणे" हवं चातिवाररहितमनुपालनीयम् आ०६०। अतिचाराः तदाऽतरं च संप्रलयस्स पायाइवायपेरमणस्स समणोवाम एवं पंच अइयारा पेयाला जाणियन्त्रा, न समायरियग्वा तं जहा बहे, बधे, खविच्छेए, अइमारे। भचपाणवोच्छेए । उपा० १ ० । 1 - ( एषां पदानामर्थः स्वस्वस्थाने द्रष्टव्यः ) " सव्वत्थ वि जयथा, जहा धूलगपाणाश्चायपेरमएस अतिया न भ यह तहा पवत्तियच्वं निरवेषखवहधादिसु योगा गा दोसा भाणियव्वा । " उकं सातिचारं प्रथमाणुव्रतम् । उपा० (पतदाश्रित्य भावकाणां भड़ाः पच्चक्वाय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ६० पृष्ठे गताः ) अधुना प्रकृतमाह परिवजिऊण य वयं तस्सइवारे जहाविहिं खातं । संपुन पालगडा, परिहरियच्या पयते ।। २५७ ।। प्रतिपद्य चाङ्गीकृत्य च व्रतं तस्य व्रतस्थाऽतिचारा अतिकमलहेतवो यथाविधि यथाप्रकारं ज्ञात्वा परिहर्त्तव्याः, सर्वैः प्रकारैर्वर्जनीयाः, प्रयत्नेनेति योगः । किमर्थम् ?, संपूपालनार्थ न तिवारयतः संपूर्ण तत्पात खराडनादिप्रसङ्गादिति । तथा चाऽऽह बं यह छवि, अहमारे भत्तपाणयोच्छेए । कोहाइदूसियमणो, गोमयादी यो कुजा ।। २५० ।। तल बन्धनं बन्धः, संयमनं रज्जुदामनका ऽऽदिभिः १ । इनयस्ता केशाऽऽदिभिः २ हृषिः शरीरं तस्य वेदः पाटनं करपचाऽऽदिभिः ३ भरणं भारः प्रतिभरणम् अ तिभारः प्रभूतस्य पूगफलाऽऽदे: स्कन्धपृष्ठारोपणमित्यर्थः ४ । भक्तमशन मोदनाऽऽदि पानं पेयमुदकाऽऽदि तस्य व्ययछेरो निरोध प्रदानमित्यर्थः । एतान्समाचरअतिचरति प्रथमत्सुतम् । एतान् कोचाऽऽदितिमना न कुर्यादि ति । अनेनाऽपवादमाह, अन्यथाकरणेऽप्रतिषेधावगमात् । तदत्रायं पूर्वाचार्योक्त विधिः "धाएं उप्पदा व श्रद्वा अणद्वार व पाणाश्वायरमा " अट्ठा न वह बंधेउं, श्रद्वा दुविहो निक्खेवो-सावेक्खो य निरवेक्खो य। निरवेक्खो निश्चलं धणियं जं बंधर, सावे खो जं दामगंठिणा जंत्र सक्केइ पलीवणगादिसुं मुंचि दिया ण संसरपालपण बंधेयव्वं, एयं ताव चउप्पयागं कुपया प दासो वा दासी वा चोरो वा पुन्तो वा ण पढंतगाइ जर बज्भंति तो साथि बंधितव्याणि रक्लिपचाणि य जहा अग्गि भवादिसु ण विस्संतिताणि किर पपउप्पयाणि साब गे गेरियव्वाणि जाणि श्रबद्धाणि चैव प्रत्यंति । वहो बि तह से यह नाम तालणं, अणद्वार किलो निर्य लेखा पुण्यामेव भीयपरिसेव होय माह करेजा, जइ करेज तो मम्मं मोत्तूण ताहे लयाए दोरेण वा एक्कं दो तिनि वारे तालेइ । छ विच्छेश्रो श्रण्ट्टाए तहेव णिरवेवो हत्याको विवाह स वा अरइयं वा छिंदेज वा, दहेज वा । श्रइभारो ण आरोवेय यो। पुवि चेव जाधाहरणाए जीविया सा मोत्तव्वा ण होज्ज अन्ना जीविया ताहे दुपदो जं सयं चैव उक्खिवर उत्तरेह था भारं एवं हाजिर हा जहा सामाविया विभाराधी ऊओ कीरह, इलसगडेसु वि वेलाए चेव मुयर, श्रासहत्थीसुं वि एस चैव विही, भन्तपाणवोच्छेदो ण कस्सर काययो तिब्बी मा मरेज, हेच अाए दोसा परिहरेजा, सावेक्खो पुरा रोगणिमित्तं वा वायाए वा भरोजा । अन ते या देमि ति संतिणिमितं वा उपवास कारवेज्जा सव्वत्थ वि जयणा जहा धूलगपाणाइवायस्स अहयारो न भवर तहा जश्यव्वं ति णिरवेक्खबंधाऽऽदिसु य लोगोधघातादिया दोसा भाणियत्र्वा । आह च.. परिसुद्धजलग्गहणं, दारुयधन्नाइप्राण तह चैव । गहियास विपरिभोगो, निही तसरक्खणडाए || २५६ ॥ परिशुद्धजलग्रहणं तवसरहित जलग्रहणमित्यर्थः । दा रुथान्यादीनां च तच परिशुद्ध महणम् अनिलाजी नामविशुद्धस्य धान्यस्य. आदिशम्यायावि धोपस्करपरिग्रहः । गृहीतानामपि परिभोगो विधिना कर्म परिमितमायुपे सिताऽऽदिना। किमर्थ, रक्षार्थी न्द्रियाविपालनार्थमिति भ्रा द्वितीयं पुनः सर्वस्मात् स्थापरमविराधमा रूपात् प्राणादिपातात् । ०३० संथा ० दश० सूत्र ० । (अत्र " तत्थ खलु पढमे भंते !" इत्या दि प्राणातिपातविरमविषये सूत्रम् ' परिक्रमण' शब्दे ऽस्मिन्नेव भागे २८४ पृष्ठे व्याख्यातम् ) पा० । सूत्र० । ध० । ( इवं च व्रतं सभावनाकम 'अहिंसा' शब्दे प्रथमभागे ८७५ पृष्ठादारभ्य व्याख्यातम् ) संयमे भ०२० श० २३० । गौणवृत्या धर्मास्तिकायें, इह धर्मचारिषलक्षण स प्राणातिपातविरमणाऽऽदिरूपः। ततब्ध धर्मशणसाम्योत् अस्तिकायरूपस्याऽपि धर्मस्य प्राणातिपातविरमणशब्दस्य पर्यायस्वात् । भ० २ ० १ ३० । पादाग्य प्रायापुप्-१० प्राणाः पश्चेन्द्रियाणि मनसा दीनि पलानि उष्ठासनिःभ्यास व काप्रती तत यत्र प्राणा आयुश्च सप्रभेदमुपवरायन्ते तदुपचारतः प्राणायुरिच्यते। द्वाद पूर्वे तस्य परिवामेका परकोटी पदपञ्चाशश्च पदलक्षाणि नं० । अत्र त्रिंशद् वस्तुनि । नं० । F Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणाडंबर पायाडंवर पाणाडम्बर पुं० । मातङ्गानामाडम्बरे महता समारम्भेण पूजनीये, स च यक्षो हिरिमिक्का परनामदेवतं वा । व्य० ७ उ० । श्रা० चू० । पाणापाण- प्राणापान - पुं० । उच्च्चासनिःश्वासेषु, कर्म०५ कर्म० | पाणापाणजोग-प्राणापानयोग- पुं० । प्राणापानव्यापारे, विशे० । (अस्य हि शरीरयोगान्तर्गतत्वेन न पृथग्योगत्वमित्युक्तं 'जोग' शब्दे चतुर्थभागे १६१५ पृष्ठे ) । पाणापाणपजचि प्राणापानपर्याप्ति - श्री. उच्चाखपर्याती यया पुनरुच्वासप्रायोग्यवर्गणादलिकमादाय उच्वासरूपतया परिणमध्यम्य च सुखति सा पं०सं०१ द्वार प्रशा पाणापाणवग्गणा-प्राणापानवर्गणा - स्त्री० । यानि पुनलद्रव्याणि जन्तवः प्राणापानरूपतया परिणमय्याऽऽलम्ब्य च निस्सृजति तदूवर्गणायाम्, पं० सं०५ द्वार । पालामा मायामी श्री० प्रणामोऽस्ति विधेयतया यस्पो सा प्राणामी । प्रणामविधियुक्तायां प्रव्रज्यायाम्, पाणा माए पव्बजाए पव्वइए ।" भ० ३ श० १ उ० । पाणायाम - माणायाम पुं० [श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदे ( ८४८) निधानराजेन्द्रः । 66 द्वा० । रेचकः स्वाद बहिर्वृति-रन्तर्वृतिय पूरकः । कुम्भकस्तम्भवृत्तिय, मायायामन्त्रित्वयम् ॥ १७ ॥ ( रेचक इति) बहितिः श्यासो रेचकः स्यात् प्रवृत्तिध प्रवासः पूरक, स्तम्भसि कुम्म पनि जलमिव कुम्भे नितपाप्रायोग्य वाच्यते इत्यं विधा प्रायामः प्रायुगतिविदाहतसिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छे दः प्राणायामः । २।५६ ॥ इति । श्रयं च नासाद्वादशान्ताऽऽदिदेशेन पविशतिमाचादिप्रमाण कालेन संख्या यतो वा रान् कृत एतावद्भिश्च श्वासप्रश्वासैः प्रथम उद्घातो भवती स्वादिलक्षणोपलचिता दीर्घसूक्ष्मसंज्ञाख्यायते । यथाक्रम"ख तु वाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृतिर्देश कालसंस्थानः परिदृष्टी दीर्घसूक्ष्मसंज्ञ इति । (२-५०)" बाह्याभ्यन्तरविषयो द्वादशान्तहृदयनामिवकादिरूप एप पर्यालोच्यैव सहसा तोपलनपति जलायेन युगपत् स्तम्भदृष्या नियमानात् कुम्भकापर्यालोचनपूर्वकत्वमात्रभेदेन च चतुर्थोऽपि प्राणायाम इष्यते । यथोक्तम्- "बाह्याऽऽभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः ।" २५१ ॥ इति ॥ १७ ॥ 33 धारणयोग्यता तस्मात् प्रकाशाऽऽवरयचयः । अन्यैरुकः क्वचिचैत- पुज्यते योग्यताऽनुगम् ॥ १८ ॥ ( धारणेति ) तस्मात्प्राणायामात् धारणानां योग्यता प्रा. णायामेन स्थिरीकृतं चेतः सुखेन नियतदेशे धार्यत इति । तदुक्तम्- " धारणा (सु) च योग्यता मनसः (२-५३ ) इति तथा प्रकाशस्य चित्तसत्वगतस्य यदावरणं क्लेशरू पं तत्क्षयः । तदुक्तम् -" ततः क्षीयते प्रकाशाऽऽवरणमिति ।" (२-५२) अव पश्वादिमिर व्याकुलतान निषिद्ध एव श्वासप्रश्वासरोधः यथायोगसमाधानमेव ते स्वात् प्राणरोधपलिमस्थस्यानतिप्रयोजनत्वात् । तदुक्रम्-" उरसाण रिंगर , पाणिि अभिसायि किम अचेट्ठा पसज्जमरणं निरोधे - मुहुमुस्लासं च जयणा ॥ १ ॥ " एतच्च पतञ्जल्पायुकं कचि पुरुषविशेष योग्यता ऽनुगं योग्यता अनुसारि युज्यते, नानारुचित्वाद्योगिनां प्राणायामरुचीनां प्राणायामेनाडापे फलासः स्वरुचिसंपत्तिसिद्धस्योत्साहस्य योगोपायत्यात्य थो योगबिन्दी "उत्साहानिश्चयादय-त्सन्तोषाप्रदर्श नात्। सुनेर्जनपदत्यागात्, प‌भियोगः प्रसिध्यति ॥ ४१० ॥" इति । तस्माद्यस्य प्राणवृत्तिनिरोधनन्द्रियवृत्तिनिरोधस्त स्य तदुपयोग इति तत्त्वम् ॥ १८ ॥ रचनाद् वाद्यभावानामन्तर्भावस्य पूरणात् । कुम्मनाभिचितार्थस्य, प्राणायामय भावतः ॥ १६ ॥ (रेचनादिति) बाह्यभावानां कुटुम्बदाराऽऽदिममत्व लक्षणामां रेचनात् अन्तर्भावस्य अयजनितविवेकलक्षणस्य पूर खात् निश्चितार्थस्य कुम्भनात् स्थिरीकरणाच्च भावतः प्राणायामो ऽयमेवाव्यभिचारेण योगाङ्गम् । अत एवोक्रम्" प्राणायामचती चतुर्थाङ्गभावतो भाषरेचक, दिभाषा 35दिति ॥ १६ ॥ " " प्राणेभ्योऽपि गुरुर्धर्मः प्राणाऽऽयामविनिश्रयात् । प्राणांस्त्यजन्ति धर्मार्थ, न धर्म प्राणसङ्कटे ॥ २० ॥ [ प्राणेभ्योऽपीति ] प्राणेभ्योऽपीन्द्रियाऽऽदिभ्योऽपि गुरुमेहत्तरो धर्म इत्यतो भावप्राणायामतो विनिश्वयात् धर्माथे प्राणांस्यजति तत्रोत्सर्गप्रपुणेः अत एव न धर्म त्य जति प्राणसङ्कटे प्राणकष्टे ॥ २० ॥ द्वा० २२ द्वा० । पाणारंभ प्राणाऽऽरम्भ ५० प्राणानामारम्भविनाशादि रूपः प्राणाऽऽरम्भः । प्राणातिपाते, "सव्वं पाणारंभं, पश्चक्खामिति । " श्रातु | पाणाली - देशी - हस्तद्वयप्रहारे, दे० ना० ६ वर्ग ४० गाथा । पाणि-पाणि-पुं० । हस्ते, औ० । " पाणी हत्था य करा ।" पाइ० ना० ११० गाथा । सूत्र० । उत्त० । श्राचा० । स० । क ल्प० । दशा० । माणि पुं०। दशविधाः प्राणा विद्यन्ते येषां ते प्राणिनः । सू० १ ० ६ श्र० । व्यक्तेन्द्रियेषु जीवेषु, सूत्र० २ ० १ श्र० । अनु० । आव० । श्रा० म० । श्राचा० । द्रव्या० । सच्चे भूते विशे० । पाणिम पानीय ज०म पानीपा 55दिष्वित् ॥ १।१०१ ॥ इति दीर्घेकारस्य ह्रस्वेकारः । प्रा० १ पात्र जले, आ० म० १ अ० । पाणिग्गहण - पाणिग्रहण- न० । हस्तसंयमने, आ० म०१५० । पाणिघंसि (ण) - पाणिघर्षिन् पुं० । पाणिना घर्षितुं शीलं येषां ते पाणिर्षिणः । माषधीनां पाणिभ्यांघर्षितुंशीपु तोष युगलमनुध्येषु, "आसी व पाणिसी, तिम्मिय तंदुरूपयापुडभोई पुडाद्वारा जया फिर कुलगरी उसभो ॥ १ ॥ आ० म० १ श्र० । पाणि- पाणिनि - पुं० । परानं पणः, ततोऽस्त्यर्थे इति तदपत्यम्, श्रण, तस्य छात्रः । इन् इस् । अष्टाध्यायीव्याकरणकारके दाक्षीपुत्रे मुनौ वाच० । [ तद्वचितं हि व्याकरणमि 39 - Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (at) पाणिणि अभिधानराजेन्डः। पाणेसा दानी सर्वेभ्यः शब्दशाखेभ्यः उत्तममध्ययनप्रतियखं च, क्षिप्यते इत्यक्षराणि शाखे न ज्ञातानि, ततो यथा यतना भ. परं तदसिद्धमसाधुन मन्तव्यम् । श्री व्याकरणान्यन्या- | पति तथा कर्तव्यं, परं यथा तथा संक्षारको न लिप्यते नीन्द्रादीनि लोकेऽपि साम्प्रतमभिधाममात्रेण प्रतीताम्ये | प. अतः कतिपयशब्दविषयलक्षणाभिधानतुच्छे पाणिनिनि पाणीयविदुमित्त-पानीयविन्दुमात्र-न सचित्तजललेशमात्र, मित एव नाऽमहः कार्य इति, व्यासाऽऽविप्रयुक्तशब्दानामपि तेनाऽसिद्धगन व ते ततोपि शनशास्त्रानभिज्ञा इति । मा ग०२ अधिक। प. २५० । प्राकृतलक्षणनामकं प्राकृतव्याकरणमपि तेन | पाणीयविहिपरिमाण-पानीयविधिपरिमाण-न० । पानीयप्र. रचितम् , यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे-" व्यत्ययो:- काराणां भोग्यत्वेयत्तापरिमाणे, ('पाणंद' शव्ये द्वितीयप्यासाम्" इति तत्र तत्रोझेखात् । कल्प०१ अधि०१क्षण। भागे १०८ पृष्ठादारभ्य सूत्रम्)-"अंतलिक्खोदयं ति।" यजपाणिणिवह-पाणिनिवह-पुं० । जीवसकाते, था। लमाकाशात्पतदेव गृह्यते तदन्तरिक्षोदकम् । उपा०१०। पाणु-माण-पुं०।संख्येयाऽवलिकारूपयोरुनासमिश्वासयो पाणिणीय-पाणिनीय-पुं०। पाणिनेरिमे छात्रा इति पाणि काले, कर्म०४ कर्म। अनु० । “हस्सऽनवगप्पस्स, णि नीयाः । पाणिग्यन्तेवासिषु, पाणिनिकृतव्याकरणे व । नपुं०।। रुवकिट्ठस्स जंतुणो । एगे ऊसासणिस्सासे, एस पाणु ति प्रा. ९०२ पाद । धुषार ॥१॥" स०७७ सम । भाइष्टस्य तुष्टस्याऽनवकल्प पाणिदया-पानीयदया-स्त्री० वर्षाऽऽदौ निपतबकायाऽदि स्य जरसाश्नभिभूतस्य निरुपक्लिष्टस्य व्याधिना प्राक्साम्प्रतं जीवदयायाम् , उत्त० २६ मा स्था। चानभिभूतस्य जन्तामनुष्याऽऽदेरेक उच्चासेन सह निःश्वा स उच्चासनिःश्वासः। यति गम्यते । एष प्राण इत्युच्यते। पाणिपडिग्गह-पाणिप्रतिग्रह-पुं० । करपात्रे जिनकरपे, क. | भ०६ श०७ उ०।" तिविहे पाणू पराणत्ते । तं जहा-तीते, ल्प.१ अधि०६क्षण | प्राचा० । पाणिप्रतिग्रही, एवंभूतः- पदुप्पन्न, अणागए त्ति।" स्था०३ठा०४ उ०। श्वपचे, दे० बज्रनाभो भरतक्षेत्रे प्रथमो जिनो भावीति । स एष भगवान्, | ना० ६ वर्ग ३८ गाथा। तदानीमेव तस्यैको मनुष्यः प्रधानेचुरसकुम्भसमूहप्राभृत-पाणसणा-पानेषणा-स्त्रीनपानग्रहणसामाचार्याम्, प्राचा। मादाय आगता,ततोऽसौ तत् कुम्भमादाय भगवन् ! गृहा अहावरानो सत्त पाणेसणाओ । तत्थ खलु इमा णेमां योग्यां भिक्षामिति जगाद । भगवताऽपि पाणी प्रसारिती, निसृष्टश्च तेन सर्वोऽपि रसः, न चात्र बिन्दुरप्यधः प. पढमा पाणेसणा-असंसढे हत्थे असंसटे मत्ते, तं तति, किं तूपरि शिखा वर्द्धते । यत:-"माइज घडस- चेव भाणियव्वं , णवर चउत्थाए णाणत्तं । से हस्सा, अहवा माहज सागरा सव्वे । जस्सेबारिसल- भिक्खू वा भिक्खुणी वा० जाव समाणे से जं पुण पाणद्धी, सो पाणिपडिग्गही होइ.॥१॥"कल्प०१ अधिक ७ क्षण । आचा। गजायं जागोजा । तं जहा-तिलोदगं वा, तुसोदगं वा, पाणिपाणिपमाण-प्राणिपाणिपमार्जन-न० । कुन्थ्वादीनां जवोदगं वा,पायाप वा,सोवीरं वा, मुद्धवियडं वा, अस्सि प्राणिनां हस्तेन प्रमार्जने, ध०२ अधिः । खलु पडिग्गहियंसि अप्पे पच्छाकम्मे तहेव. जाव पडि गाहेजा ॥ ६॥ पाणिपाणिविसोहणी-प्राणिपाणिविशोधनी-स्त्री० । हस्त पनिषणा अाप नेया भङ्गकाश्चाऽऽयोज्याः, नवरं चतुर्थी नास्योपरि कुन्थ्वादीनां प्राणिनां प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्रेण प्रमार्ज नात्वं, स्वच्छत्वाच्च तस्या अल्पलेपत्वं, ततश्च संसृष्टाऽsनायाम् , स्था० ६ ठा० । घभावः । श्रासां च एषणानां यथोत्तरं विशुचितारतम्यादेष - पाणिपिञ्ज-माणिपेय-त्रि० । तटस्थप्राणिभिः पातव्ये, "पा- एव क्रमो न्याय्य इति । गि पिजंति नो वए।" दश०.७ अ.। साम्प्रतमताः प्रतिपद्यमानेन यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाहपाणिबह-प्राणिवध-पुं० । पृथिवीकायाऽऽदिजीवसमाजस्वी इच्चेयासिं सत्तएहं पिंडेसणाणं सत्तएहं पाणेसणाणं अकृतनिजनिजप्राणोद्दालने, दर्श०१ तत्व । व्य० । प्राण्युपमर्दै, भयर पडिमं पडिवजमाणे णो एवं वदेजा-मिच्छापडिवन्ना प्रव० ४१कार। खलु एते भयंतारो, अहमेगे सम्म पडिवन्ने, जे एए भपाणिवहणिरय-प्राणिवधनिरत-त्रि० । जीवव्यापादनशक्ते, यंतारो एयाओ पडिमाओ पडिवज्जिता विहरांत, जो य ज्यो०६ पाहु०॥ अहमसि एवं पडिमं पडिवजित्ता णं विहरामि सव्वे वि ते उ पाणिरेहा-पाणिरेखा-स्त्री०। हस्तस्थाऽऽयुरेखाऽऽदौ, कल्प० | जिणाणाए उवट्ठिया अन्नोन्नसमाहीए, एवं च णं विहरं३ अधिक क्षण । जी०। ति, एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सापाणीय-पानीय-न० । जले, उत्त० ३५ अ०। स्था। प्रश्न। मग्गियं ॥ ६३ ॥ सू० प्रज्ञा प्रा० मा भ०। प्रासुकपानीयस्य संक्षारकः इत्येतासां सप्तानां पिण्डैषणानां पानैषणानां वाऽन्यतरां प्र-.. कच्चकपानीये मुच्यते, किं वा पृथक रक्ष्यते ?, इति प्रश्ने, तिमां प्रतिपद्यमानो नैतद्वदेत् । तद्यथा-मिथ्याप्रतिपन्ना नसउत्तरम-प्रासकपानीयस्य संक्षारकः सवित्तपानीये न म्यक पिण्डैधणाऽऽद्यभिग्रहवन्तो भगवन्तः साधवः, अहमेव. Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयक प्रतिपनो, यता न गच्छान्तर्गत पादकंबल-पादक (८५०) पाणेसणा प्रन्निधानराजेन्द्रः। पादणिजोग का सम्यकप्रतिपन्नो, यतो मया विशुः पिरोषणाऽभिग्रहः पादकंचणिया-पादकाचनिका-स्त्री० । पादधावनयोग्यायां सा,पमिश्च नारत्येवं गच्छानिर्गतेन गच्छान्तर्गतेन वा सम- काश्चनमय्यां पायाम, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । राएव्याः, नाडाप गच्छान्तर्गतेनोत्तरोत्तरपिरादेषणाऽ. भिग्रहयता पूर्वपूर्वतरपिण्डेषणाऽभिग्रहवन्तो दृष्या इति । पादकंबल-पादकम्बल-न० । पादप्रोञ्छने, उत्त० १७ अ०। पच्च विधेयं तदर्शयति-य पते भगवन्तः साधषः,पताः प्रतिपादकुकुड-पादकुकुट-पुं० । कुक्कुटविशेष, शा. १९०१७ अण माः पिएषणाचभिग्रहविशेषान् प्रतिपद्य गृहीत्वा प्रामा- | मा पादकेसरिया-पात्रकेशरिका-स्त्री०। पालप्रमार्जनहेतुः केशमुमाम बिहरन्ति यथायोगं पर्यटन्ति. यां चाहं प्रतिमा प्रति. पय बिहरामि. सर्वेऽप्येते जिनालायां जिनाऽऽशया या समु. रिका पात्रकेशरिका । भोघ० । पात्रप्रमार्जनपोस्तिकायाम् , स्थिता अभ्युद्यतविहारिणः संवृत्ताते चान्योऽधसमाधिता प्रश्न ५ संब० द्वार । यया पात्रं प्रत्युपेक्षते । पृ० ५ उ० । निर्घन्धीनामेष सन्ता पादकेशरिका करपते। पो पस्य गछान्तर्गताः समाधिरभिहितः। तयथा-सप्ता. गपि गच्छवासिमां,तम्रितानां तुयोरग्रहः पञ्चसु अभिप्रहः, सूत्रम्इत्यनेन विहरम्ति यतम्त इति। तथा विहारिणश्व सर्वेऽपि ते नो कप्पइ निग्गयीणं सवेंटियं पादकेसरियं धारित्तए था, जिनामा नातिलायते "जोऽविपत्थ तिवत्थो,बहुपत्थम- परिहरित्तए वा ॥ ४३ ।। कप्पड निग्गंयाणं सवेंटियं पादबलमोम्ब संथए । नहु तेहीलेति परं, सब्धे विय ते जिणाणाए ॥१॥" एतस्य भिक्षोभिण्या या सामप्रयं केसरियं धारिसए वा परिहरित्तए वा ॥ ४४ ॥ संपूर्ण भिजुभाषो यदात्मोत्कर्षवर्जनमिति । प्राचा०२भु० १ नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां सन्तिका पादकेशरिका धारयितुं ०१० ११ उ० । पा० । ध० । स्था। षा परिहर्तु वा ॥४३॥ कल्पते निर्ग्रन्थानां सवृन्तिका पा दकेशरिका धारयितुं वा परिहर्तु वा ॥४४॥ पात-पात्र-10। पतवद्महे, प्रथ० ६० द्वार।" पाताणि य में रयावहि।" सूत्र०१ श्रु०४ अ.२ उ० । (सर्या वक्तव्यता अथ केयं सवृन्ता पादकेशरिकेत्याह• पस' शब्वेऽस्मिभेष भागे ३६२ पृष्ठे गता) लाउयपमाणदंडे, पडिलेहणिया उ अग्गए बद्धा । पातखज-पाकखाय-माग प्रक्षेपकोद्रवपलालादिना वि. सा केसरिया भन्नइ सनालए पायपेहट्ठा ॥ २६४ ॥ पच्य भक्षणयोग्ये फले, प्राचा० १ श्रु०१ चू०४०२ उ०। यत्राभिनयसंकटमुखे अलावुनि हस्तो न माति,तस्याऽलाषु मो यदुश्चत्वं तत्प्रमाणो दण्डः क्रियते, तस्याप्रभागे बद्धा या पातग्ग-पादान-न० । चरणाग्रे, " पूजितो व ताए पातग्गकु प्रत्युपेक्षणिका सा पादकेशरिका सवृन्ता भएयते, कारतुमप्पतानन।" पादामकुसुमप्रदानेन । प्रा० ४ पाद । णगृहीतसनालमलायुकं तया प्रत्युपेक्षते, ततो मुत्रं क्रि. पातरास-मातराश-पुं० । प्रातरशनं प्रातराशः । प्रत्यूषस्येव यते । वृ० ५ उ०। भोजने, सूत्र०२९०१ ०। प्रथमालिकायाम् , नि० चू०१ पायपमञ्जणहेऊ, केसरिया पाएँ इक्केका । Toमाया। प्रा०म०। "जाव मागहो पातरासो ति।" प्रातराशं प्राभातिकं भोजनकालं यावत्प्रहरदयाऽऽदिकमि गोच्छक पत्तढवणं, इक्वेक्कं गणणमाणेणं ॥१०१८॥ त्वः । शा० १६० ८ ०। केशरिकाऽपि पात्रप्रमुखवत्रिकाऽपि पात्रकप्रमार्जननिमिपातिभणाण-प्रातिभज्ञान-न० । मार्गानुसारिप्रकृष्टोहे, द्वा० तं भवति पात्रे पात्रे एकैका पात्रकेशरिका भवति गणन या, तथा गोच्छकः पात्रस्थापनं च एकैकं गणनाप्रमाणमा२५० नेनेति । ओघ०। पात्थरिम-देशी-पल्लवे. दे० ना० ६ वर्ग २० गाथा । पादचार-पादचार-पुं० । चरणाभ्यामेव गमने, "पायचारेण पात-पात्र-10 | पतन्तमाहारं पातीति पात्रम् । अाचा ११० पज्जुवासति ।" शा. १ श्रु० १३ अ० । ०४ उ० । भाजने, प्राचा० १६०२चू० ३ ० ३ उ०। पादजालग-पादजालक-नापादाऽऽभरणे,प्रश्न०५संबद्वार । (पात्रस्य सर्गेऽधिकारः 'पत्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३६२ पृष्ठे गतः) कांस्यपाध्यादौ, सूत्र० १ श्रु० ३ ० ३ उ०। पादजालघंटिया-पादजालघण्टिका-स्त्री०। पादाऽऽभरणविमलापुकाऽऽदी, दश० ६ अ०। शेषे, औ.। पाद पुं०। घरणे,सूत्र० १ ० १ १०१ उ० । द्रव्या०। ध। पादट्टवण-पात्रस्थापन-न० । कम्बलमये पात्रोपकरणे, वृ०३ पश्चा.।" उहं पादं रापजा उद्धटु।" पादं संहृत्याग्रतलेन उ० । यत्र कम्बलखरा डे पाबं निधीयते। प्रश्न०५ संब० द्वार । पावं पावप्रवेशं चातिक्रम्य गच्छेत् । श्राचा०२१०१०३ पादणिज्जोग-पात्रनिर्योग-पुं० । पात्रपरिकरत्वे उपकरणकअ०१3० गाथाऽऽदिचतुर्थीशे.अनुका पट्टाऽऽद्यधोभागे.शा० | लापे, वृ. ३ उ०। १०१०। पडालमिते पादमध्यतले, अटी यवमध्या सच पात्रकयन्धाऽऽदिः सप्तविधःम्येकालमेतमालप्रमाणेन अन्यूनाधिकतया पडलानि पत्तं पत्ताबंधो, पायढवणं च पायकेसरिया। पादः पादस्य मध्यसलप्रदेशः। जं। ३ वक्ष)। किरणे, कल्प १मथिापण । " बुभ्नांहितुर्थाश-रश्मिप्रसन्तपर्यताss. पडलाइँ रयत्ताणं, गोच्छगो पायणिजोगो । विषु, "है। वृ. ३ उ।। (पपा गाथा 'उबहि' शदे द्वितीय भागे १०६३ Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पादणिज्जोग भाभिधानराजेन्द्रः। पादपुंछण पृष्ठे व्याख्याता) ध। पिं० । आचा० । औ०। ( पाद- प्रातिहारिक पावप्रोञ्छनं यान्त्रित्वा प्रत्यर्पयतिनिर्योगव्युत्पत्तिः "अपत्ते चिय" (२६) इत्यादिपिण्डनिय जे भिक्खू पाडिहारियं पायपुंछणं जाइत्ता तामेव रयणि निगाथायाः व्याण्याने धावण' शब्दे चतुर्थभागे २७५१ पृ. परचुप्पिणइस्सामि त्ति सुए पञ्चुप्पिणेइ, परचुप्पिणंतं वा ठे गता) साइजइ ॥१५॥ पादातणीय-पादातानीक-न० । पादातीनां समूहः पादातं,त. प्रतीपं हरणं प्रतीहार्य, तं अंजअ सुप घेलाए राती या स्यानीकं पादातानीकम् । उन० १८ १० । पदातिसमूहे, आणिहामि त्ति सुए कल आणेतस्स मासलहुं, प्राणादिया शा० १९०११०।० भ० । पदातिकटके, मौ० । य दोसा। पादत्ताणाहिवा-पादात्याधिपति-पुं० । पदातिकटकनाय- जे भिक्खू पाडिहारियं पायपुंछणं जाइत्ता सुए पच्चापिके, कल्प०१ अधि०२ क्षण । उत्त०। णेस्सामीति तामेव रयाणि पञ्चुप्पिणेइ, पच्चुप्पिणंतं या पाददहरय-पाददर्दरक-न० । भूमेः पादेनाऽऽस्फोटने,जी०३ | साइज्जइ ॥१६॥ प्रति०४ अधिः । भ०।हा। जे पाडिहारियं पायपुंछणं सुए उवातिणावेस्लामि ति पादपडिमा-पात्रप्रतिमा-खी० । पात्रविषयकाभिग्रहविशेष, तमेष रयणीए उपातिणावेति इत्यादि अर्थः पूर्ववत् । स्था० । चतुर्थी पात्रप्रतिमा-उहिट दारुपात्राऽऽदि याचिध्ये, पाउंछणगं दुविह, तं उद्देसम्मि वाभियं तहा पुन्छ । तथा प्रेक्षितं. तथा दातुःस्वाङ्गिक परिभुरूयायं वित्रिपु वा तं पाडिहारियं तू, गेण्हतोऽऽणादिया दोसा ॥४७॥ पत्रिषु पर्यायेण परिभुज्यमानं पात्रं याचिष्य इति तृतीया, उस्सग्गियं प्रयवालियं च पुतं वितिय उद्देसे सभेयं बलिउज्झितधर्मिकमिति चतुर्थी । स्था० ४ ठा) ३ उ०। यं, तं जो पाडिहारयं गेएहति, तस्स प्राणादिया दोसा । पादपप्फोडण पादमस्फोटन-न० । पादधूलिच्छोटने, व्य० ६ इमे पारिहारियदोसाउ०। (प्राचार्य उपाध्यायो वा वसतेरन्तः पादान् प्रस्फो. णद्वेहि य विस्तारते, अणप्पिणंतम्मि होइ वोच्छेत्रो। दयितुं शक्नोति इति 'अइसेस' शब्दे प्रथमभागे १२ पृष्ठे पच्छाकम्म पवहणं, धुवावसं वा तयवस्स ।। ४८॥ . उक्तम्) भिक्खाइ अडंतस्स पडि पणटुं तेणगेण हरियं,सम्झायातिपादपरियावम-पादपर्यापन-त्रि० । पात्रस्थिते, आचा० २ गयस्स काइयभूमिगयस्त कतो विस्तरियं, पतेहि कारणेहि श्रु० १ चू०१ अ० ११ उ० । अणप्पिसंतस्स तदरगदम्बस्स साहुस्स वा वो छ श्री हवेज, पादपलंच-पादपलम्ब-न। पादौ यावद्यः प्रलम्बते 'अलङ्का- गिहत्थो वा अमं पाउंछ गं करेज, पच्छाकम्मं या ठवियं रविशेषः,स पादप्रलम्बः । पादपर्यन्ते श्राभरणविशेषे, शा० १ या जं अस्थति पवहणं करेज. धुवावणं दवावणं तदट्टः श्रु०१०। स्त पादपुंछणस्स अरणटुं वा मुलं दवावेज, तम्हा पा. पादपास-पादपाश-पुं० । वागुराऽऽदिबन्धने, सूत्र १ श्रु० १ डिहारियं ण गेरहेज। उच्चत्ताए पुच्चं, गहणमलंभे उ होइ पडिहारी । अ० २ उ०। तं पि य ण छिमकालं, दोसा ते चेव छिपम्मि ॥४६॥ पादपीढ-पादपीठ-पुं० । पट्टाऽऽदिके, प्रति० ।स। रा० । जं पाडिहारियं णिदिसेज तं उच्चतागहणं पुवं तारिस पादपुछण-पादपोञ्छन-न०। रजोहरणे, श्री० । प्रश्नध०। घेत्तव्यं, तारिसस्स अलंभे पाडिहारियं अज वा कल वा दश । भ० । पा० । स्था। छिराणकाल न करेति, गेराहतेण भाणियव्यं-कताहिं वि कते निर्ग्रन्थीनां दारुदण्डकग्रोञ्छनकम् । सूत्रम् कजे श्राणहामि, दोसा छिण्णम्मि ते चेय, अज्ज सुए वा श्र. नो कप्पइ निग्गंथीणं दारुदंडयं पायपुंछणं धारित्तए प्पहामि त्ति छिन्नकाले कदाइ बाघातो हवेज, ततो अ णप्पिणंतो माया मोसं भवति अदत्तं ।। वा,परिहरित्तए वा ॥४५॥ कप्पइ निम्गयाणं दारुदंडयं० __ सो साहू इमेहि कारणेहिं पाडिहारियं गेरहतिजाव परिहरित्तए वा ॥ ४६ ॥ गटेहि य विस्सरिते, झामिय छुढे तहेव परिजुम्मे । यत्र दारुमयस्य दण्डस्याग्रभागे ऊर्मिका दाशिका वध्य- असति दुल्लभ पडिसे-ह गहणं पडिहारिए चउहा ॥५०॥ न्ते तदारुदण्डकं पादप्रोञ्छनमुच्यते, तन्निर्ग्रन्थीनां न क झामितं दद्धं, छूई ति उत्तरेण कालेण वा खुद्ध, प. ल्पते ॥४५॥ निम्रन्थानां तु कल्पते ॥४६॥ रिजुराणं असीत पाडिहारियं ण लम्भति, दुलभ वा जाय अत्र भाष्यम् लभति, पडिणीपण वा पडिसेधितो इमं चउब्धिहं पाडिते चेव दारुदंडे, पाउंछणगम्मि जे सनालं ति । हारियं गेराहति-उस्सग्गुस्सग्गियं, उस्सग्गियं, अब. दण्ह वि कारणगहणे, वप्पडए दंडए कुजा ॥ २६५ ॥ वाइयं. श्रववायाववातियं । अणामोगण को छिगणकाले, अलभंते या छिराणकाल कते दोगह वि सत्ताण बि-- ये सनाले पात्रे दोपा उक्लास्त एव दारुदण्डके ऽपि पा वजासकरण इमा जयणादप्रोञ्छनके भवन्ति । द्वयोरपि च सनालपानदारुदराडकयोः कारण निर्ग्रन्थीनामपि ग्रहणं भवति, तत्र च ग्रहणे तं पाडिहारियं पा-यपुंछणं गिरिहऊण जे भिक्चू । कृते वप्पडकान् दण्डकान् कुर्यात् । ०५ उ । वोच्चत्थमप्पिणादी, सो पावनि पागमादीणि ॥ ५१ ।। Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५२) पाउण अन्निधानराजेन्द्रः। पादलित्त तं पाडिहारियं छिएणकालं गेरिहतुं तम्मि चेष काले अप्पे- कमित्युच्यते । पिं०। (अत्र औत्सर्गिकत्यापवादिकत्वविचारः पन्चं, विपरीयमप्पिणंतस्स इमे दोसा 'रमोहरण' शब्दे वक्ष्यते) मायामोसमदित, अप्पचभो खिसणा उबालंभो। पादपमज्जण-पादप्रमार्जन-न०। पादानां पुनः पुनार्जने,नि. बोच्छेदपदोसादी, योश्चत्थं अप्पिणंतस्स ॥ ५२ ॥ .. • १५ उ०। पूर्ववत्। जे भिक्खू अप्पणो पाए आमज्जेज वा, पमओज वा, वितियपदे पाघातो, होजा पहुणो ष अप्पणो वापि । मामअंतं वा पमज्जतं वा साइज्जइ । १५ । पतेहि कारणेहिं, वोचत्थं प्रप्पिणिज्जाहि ।। ५३ ॥ (जे भिक्खू मप्पणो पाए इत्यादि) अप्पणो पाए मा. पभुणी णिबिसयाती कारणा होजा । मजति एकसि,पमजति पुणो पुणो। महषा-हत्येण भामज्जअप्पणो इमो-- णं, रयहरणेण पमजणं, तस्स मासलहुँ। गेलमवासमहिता, पडिबीए रायसंभम भए वा । इमा णिज्जुत्तीग्रह समणो पापातो, णिबिसयादी य इयरम्मि ॥५४॥ प्राइममणाइमा, दुविहा पादे पमजणा होति । गिलाणो जातो, पास महिता षा, पडिणीमो षा अंतरे संसत्ते पंथे वा, भिक्ख वियारे विहारे य ।। ५३ ॥ रापांपोहियाविभयं वा अग्निमादिसंभमं पा जातं । एते लमणोषाघातकारणा। पुषवं कंठं । जा भाइमा सा इमा भणेगविहा, संसत्तो जे भिक्खू सागारियसंतियं पायपुंछणं जाइत्ता तामेव | पादोमामजितव्यो, पंथे वा मथंडिलातो थंडिलं, डिलाश्री रपणिं पञ्चप्पिणंति, पचप्पिणतं वा साइजइ ॥१७॥जे षा अथंडिलं, अर्थडिलातो वा थंडिले विलक्खणे सकाय सत्थं ति काउं संकमंतो कराहमातासु पमज्जति, भिक्खातो भिक्खू सागारियसंतियं पायपुंछणं जाइत्ता सुए पच्चु- वा पडिणियत्तो,थियारे ति समाभूमीश्रो वा पागतो, विहारे प्पिणिस्सामिति तामेव रयणि पञ्चप्पिणइ वा, पञ्चप्पिणतं त्ति सज्झायभूमीए गामंतरानो ब्रा कुलगणादिएसु कजेसु या साइज्जइ ॥१८॥ पडियागो पमज्जति, ता उवकरणोवघातो भविस्सति । दो सुत्ता सागारिए सेज्जातरे। एसा आइमा खलु, तब्विवरीया भवे प्रणाइमा । जे भिक्खू पाडिहारियं दंडयं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं | सुत्तमणाइमाई, तं सेवंतीम्म प्राणादी ॥ ५४ ।। पाणुसूई वा एते वि दो वि चेव पडिहारियसागारियगा- खलु अवधारणे। एवमादिकारणयतिरित्ता प्राणातिया सुमए िणेयष्या ॥ २२ ॥ जे भिक्खू पाडिहारियसेन्जासंथा- सणिवाती प्रणाइमपमजणं णिसेवंतस्स प्राणादीया दोसा। एवं परचुप्पिणित्ता दोच्चं पि अणुप्मविय अहाटेइ, महाद्वैत इमा संजमविराहणापा साइज्जइ ।। २३॥ संघट्टपणा तु वाते, सुहुमे बादरें विराधए पाणे।। पो सुत्ता। सूत्रार्थः पूर्वषत् ।। पाउसदोस विभूसा, तम्हा ण पमञ्जए पादे ॥ ५५ ॥ परिहारिएँ जो तु गमो, पियमा सागारियम्मि सो चेव ।। पमजणे वातो संघट्टिजति, असे य पयंगादी सुहुमे बादरे दंगमादीसुतहा, पुष्व अवरम्मि य पदम्मि ।। ५५॥ वा विराहेति, पाउसदोसो य, बंभचेरे अगुत्ती, तम्हा पादे ण पमजए। पाउंछणगं दुविध, वितिउद्देसम्मि वलितं पुधि । बितियपदमणमझे, अप्पज्झुव्वातसज्जमाणे वा। सागारियसंतियं तं, गेण्हताऽणादिणो दोसा ।। ५६ ॥ पुव्वं पमज्जिऊणं, वीसामे कंदुएज्जा वा॥ ५६ ॥ णडेहि य विस्सरिए, अणप्पिणंते य होति वोच्छेदो। अणप्पज्झो अनात्मवशः,खित्तचित्तादिसु पमजणार करेन, पच्छाकम्म पवणं, जावसं वा तयट्ठस्स ॥ ५७ ॥ अप्पज्झो वा उब्बातो श्रांतः स पमज्जिो विस्सामिज्जति, उपत्ताए पुछ गहणं, अलंभे य होज पडिहारिं, तं पि य | खमासमणो वा पादे पमजिउं कंडइज्जति । उक्नार्थ पश्चार्द्धम्। ण बिएणकालं,ते श्चिय दोसा न छिमे ।। निचू०३ उ०। स्था(प्राचार्यस्योपाध्यायस्य वा बसतेरन्तः पडेहि तु विस्सरिते, झामिय छूढे तहेव जुम्मे । पादप्रमार्जनं युक्तमिति 'अइसेस' शब्दे प्रथमभागे १७ असती दुल्लभपडिसेइ. गहणं सागारिए चउहा ॥५८।। पृष्ठे उक्तम् ) सागारिसतियं तं, पाउंछण गेएिहऊण जे भिक्खू ।। पादवंधण-पादबन्धन-न० । पात्रबन्धे, प्रश्न० ५ संव० द्वार । बोस्छिन मप्पिणिज्जा, सो पावति आणमादीणि ॥५६॥ | पादबद्ध-पादबद्ध-न० । वृत्ताऽऽदिचतुर्भागमात्रैः पादः बद्ध, भाष्यप्रन्धः अधिशेषेण पूर्ववत् । नि०यू०५ उ० । पादेषु जं० १ वक्षः । जी। प्रोम्पति येन तस्पावपोछनकम् । नि० चू०२ उ० । रजोहर पादलग्ग--पादलग्न-त्रि० । चरणप्रविष्टे, पश्चा०१८ विव०। एस्य नीयनिषद्यायाम,पिं०।साच अभ्यन्तरनिषद्या या ति- पादलित-पादलिप्त-पुं० । “पाटलीपुत्रनगरे,मुरुण्डोऽभून्महीयंग्यएकाम् कुर्वन्ती चतुरमगुलाधिकैकहस्तमाना कम्बल- पतिः। प्राचार्यः पादलिप्ताऽख्य-स्तत्र विद्याजलार्णवः ॥१॥" मयी भवति, सा च उपबशनोपकारित्वादधुना पादप्राञ्छन- इति लक्षिते सूरिभेदे,श्रा०क०१ अनं०(विजासिद्ध'शध्ये Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पादवित्त कथा) ('णागज्जुण' शब्दे चतुर्थभागे १६३५ पृष्ठेऽपि तस्मै सtreatनमुक्तम् ) " संप्रतिविक्रमादित्यः, शालिवाहनवा भटौ । पादलिप्ताऽऽनदत्ता, इत्यस्योद्धारकारकाः ॥ १ ॥” ( शशुजयतीर्थस्य ) । ती० १ करूप । पादले हथिया - पादलेखनिका - स्त्री० । वर्षासु कईमनिर्लेखनाथै काष्ठोपकरणे, बृ० ३ उ० । ध० | पं० भा० । वासावासासु पायलेहणिया । वड उंबरे पिलक्खू, तस्स अलंभम्मि चिंचिणिया ||६२॥ वर्षा वर्षाकाले वर्षति सति पावलेखनिकया प्रमार्जनं कर्त्तव्यं साच किमयी भवस्यत उच्यते-षटभयी, उडु स्वरमयी, लक्षमयी, तस्याभावे प्रक्षस्याप्राप्तौ चिश्चिणिकामयी अम्बिलिकामयीति । सा च कियत्प्रमाणाभवतीत्याहवारसगुलदीहा, अंगुलमेत्तं तु होइ वित्थिन्ना । मसिना विय, पुरिसे पुरिसे य पत्तेयं ॥ ६१ ॥ द्वादशाह गुलदीर्घा भवति, येन मध्ये हस्तग्रहो भवति, विस्तारस्त्वेकमङ्गुलं स्यात् । सा च घना निविडा कार्या, मसृणा निर्मणा निर्ग्रन्थिः । सा च किमेकैव भवति ? । नेत्याह - पुरुषे पुरुषे च प्रत्येकम्, एकैकस्य पृथगसौ भवति । उभयं नहसंठाणा, सचित्ताचित्तकारणा मसिया । (का दुविहो, भोमो तह अंतलिक्खो य )||६२|| उभयोः पार्श्वयोः नखयन्तीक्ष्णा । किमर्थान्सौ उभयपार्श्वयो स्तीक्ष्णा क्रियते ?, सचित्तावित्तकारणात् तस्या एकेन पार्श्वेन खचित्तपृथिवीकायः संलिख्यते श्रन्येन पार्श्वेन श्रचित्त थिवीकाय इति । किंविशिष्टा सा ?, (मसिण त्ति)मा क्रियते नातितीक्ष्णा, यतो तथा लिखने आत्मविराधना भवति । श्रीघ० । (Ex) अभिधानराजेन्द्रः । एकेका सा तिविधा, बहुपरिकम्मा य अप्पपरिकम्मा । अपरिकम्मा य तहा, जलभावित एतरा चेव ॥२१३ ॥ "जलमज्झसिते कट्ठे जा कज्जति सा जलभाविता, इतरा श्रभाषिता । श्रद्धंगुला परेणं, छिअंती होति सा सपरिकम्मा । गुलमेगं तू, छिअंती अप्पपरिकम्मा || २१४ ॥ जा पुव्यवड्डिया वा, जयिता संठवित तच्छिता वा वि । लब्भति पमाणजुत्ता, सा खातव्या अधाकडिया ।। २१५ ॥ पढमत्रितियाण करणं, सुहुममबीजो तु कारवे भिक्खू | गिहि अतिथिएण व, सो पावति श्रणमादीणि । २१६ । घट्टितसंठविताए, पुवि जमिताए होति गहणं तु । असती पुव्वकडाए, कप्पति ताहे सयंकरणं ।। २१७ ॥ नि० चू० १ उ० । पादव - पादप-पुं । पारैरधः प्रसर्पिमूलाऽऽत्मकैः पिवतीति पादपः । उत्त०५ श्र० । दश० । वृक्षे, शा० १ ० १ ० । पादत्रगण - पादपगण-पुं० । वृक्षसङ्घाते, दश० १ श्र० । पादविहारचार -पादविहारचार -पुं० । पादविहाररूपे सञ्चरणे, श्राचा० । २१४ For Private पाभिश्च पादसंवाहण - पादसंवाधन न० | पादानामनेकशो मर्दने, नि० चू० । जे भिक्खू अपणो पाए संवाहेज्ज वा. पलिमदेज वा, संवाहतं वा पतिमतं वा साइज्जइ ।। १६ ।। 'सं' ति प्रसंसा, सोभणा वाहा संवाहा, सा वउब्विहा अ सुहासंसाऽऽरामतया । सा गुरुमाइयाण विभाले संबंधा भवति । जो पुणे अरसे पच्छिमस्ते दिवसतो वा अग सो संबाधेति सा परिमद्दा भाते । नि० चू० ३ उ० । पादसम-पादसमन पादशे वृत्तपात्रस्तेन तुल्यं मिलितं च । वृत्तांशतुल्ये गेये, स्था० ५ ठा० १७० । पादसीसग - पादशीर्षक - न० । पादानामुपरितने अवयवविशेपे, जी० ३ प्रति ४ अधि० प्रा० म० रा० आचा० । पादिम - पाच्य - त्रि० । पाचनयोग्ये, श्राचा० १४० १ ० ४ अ० २ उ० । पात्य - त्रि० । देवताऽऽदेः पातनयोग्ये, आचा० १ ० १ चू० ४ अ० २ उ० । पादोप- पादोष्पद - न० | दृष्टिवादस्य सिद्धश्रेणिका परिकर्मभेदे, स० १२ अङ्ग । पाभाइयक्खण - प्राभातिकक्षण - पुं० । प्राभातिककालग्रहणवेलायाम्, ध० ३ अधि० । | पाम पामन् - न० । विचर्चिकायाम्, प्रश्न० १ श्राश्र० द्वार । पामसमुद्दा - प्रामाण्यमुद्रा - स्त्री० । प्रमाणदा, प्रति० । पामद्दा- देशी - पदाभ्यां धान्यमर्दने, दे० ना० ६ वर्ग ४० गाथा । पामर - पामर - पुं० | गृहपतौ, “पामर गिहवर सेना-ल कासया दोण्या हलिया ।" पाइ० ना० ७१ गाथा । पामाड - प्रपुन्नाट - पुं० । वृक्षविशेषे, "तरबट्टो पामाडो ।” पाइο ना० १४५ गाथा । पामिच - प्रामित्य - न० । साध्वर्थमुच्छिद्य दाने, दश०५ श्र०१० ॥ To | श्राचा० । साध्वर्थमन्नाऽऽदिवस्त्रमुच्छिन्नमानीयते तत्प्रामित्यकम् । ध०३ अधि० पं० चू० । साध्वर्थमन्यत उद्यतकं यद् गृह्यते तत्प्रामित्यकम् । सूत्र० १ ० ६ श्र० । श्राचा०] प्रश्न० । दर्श० । अपमित्य भूयोऽपि तव दास्यामीत्येवमभिधाय यत्सा धुनिमित्तमुच्छिनं गृह्यते तत्तदप्रमित्यं गृह्यते, तदप्युपचारापमित्यमिति । पिं० । पञ्चा० । जीत० । उद्गमदोष विशेषे, पि० । प्रामित्यद्वारमाह पामि पि यदुविहं, लोइय लोगुत्तरं समासेणं । लोइय सझिलगाई, लोगुत्तर वत्थमाईसु || ३१६ ॥ प्रामित्यमार्प समासेन द्विविधं द्विप्रकारम् । तद्यथा - लौकिक, लोकोत्तरं च । तत्र लोके भवं लौकिकं तव साधुविषयं ( सम्झिलगाई ) सम्झिलगा-भगिनी, आदिशब्दाद् भ्रात्रादिपरिग्रहः । तस्मिन् किमुक्कं भवते ? भगिन्यादिभिः क्रियमाणं द्रव्यमिति श्रत्र च भगिनीशब्देन कथानकं सूचितं, Personal Use Only Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाभिच्च तदमे स्वयमेव पति लोकोत्तरं प्रामित्यं बरह्माऽऽदिषु विषयं साधूनामेव परस्परमय सेयम्। इह लौकिकं भगिन्यादावित्युक्तम् । ( ८५४) अभिधानराजेन्द्रः । तत्र भगिन्युदाहरणमेव गाथात्रयेण प्रकटयतिहिगमनायविही, बहि पुच्छा एग जीवइ ससा ते । पविसा पाग निवारण, उच्छेद तेल जहदायं । ३१७। अपरिमियनेहड्डी, दासचं सो य आगयो पुच्छा | दासतह मा रुप, अचिरा मोएमि एताहे ॥ ३१८ ॥ भिक्खदगसमारंभे, कहगाउट्टो कहिं ति वसहि ति । संवेया माहरणं, विसज्जु कहणा कश्वया उ ॥३१६।। कोशलाविषये कोप सामः तत्र देवराजो नाम कुम्बी, सारिकाsभिधा तस्य भार्या, तस्याश्च सम्मतप्रमुखा बहवः सुताः, सम्मतिप्रभृतयश्च प्रभूता दारिकाः, तच्च सकलमपि कुटुम्बं परमश्रावकं, तथा तस्मिन्नेव ग्रामे शिवदेवो नामश्रेष्ठी, तस्य भार्या शिवा, अम्यदा च समुद्रघोषाभिधाः सूरयः समागच्छन् तेषां समीपे जिनमणीतं धर्ममाकर जातसंवेगः सम्मतो दीक्षां गृहीतवान्, कालक्रमेण च गुरुरातोऽतीव गीतार्थः समजनिस वायदा बितयामास यदि मदीयः कोडापे ममयां हाति ततः शोभनं भवामेव हि तावकमुपकारकरणं यत्संसारार्ण यादुत्तारणमिति । तत एवं विन्तयित्वा गुरुमापुच्छ निज बन्धुममे समागमत् तत्र च हि प्रदेश कमपि परिण तवयसं पृष्टवान् पुरुषं यथाऽल देवराजाभिधस्य कुटुम्बिनः सत्कः कोडापे विद्यते ? इति । स प्राह-मृतं सर्वमापे तस्य कुटुम्ब, केवलमेका सम्मत्यभिधा विधवा पुल्लिका जीवतीति । ततः स तस्या गृहे जगाम । सा च भ्रातरमायान्तं दृष्ट्वा मनसि बहुमानमुद्रा करिका पर्युपास्य च त चिमिमाहारं पतमुपतस्थे । साधुध तां निवारितवान् यथा 9 कपमा कमस्मनिमित्तं किमपि कृतमिति ततो भिक्षावेलायां सा दुर्गतत्वेनान्यत्र कचिदपि तेलमात्रमप्यलभमाना कथमपि शिवदेवाभिचस्प पाणजो विपणेस्तैलपलिकाद्वयं दिने दिने द्विगुणवृद्धिरूपेण कलान्तरेण समानीय भ्रात्रे दत्तवर्ती । भ्रात्रा च तं वृत्तान्तमजानता शुद्धमिति ज्ञात्वा प्रतिज गृहे । सा च तहिनं भ्रातुः सकाशे धर्म श्रुतवती, तेन न पानीयाऽऽनयनादिना तस्तै सिकाइ प्रवेशयितुं प्रपारितव ती च द्वितीये दिने भ्राता ययाविहारकमं गतः। ततस्तस्मिन पिदिने तद्वियोगशो का 55 फीर्ण मानसतया ततैलपलिकायं द्विगुणीभूतं प्रवेशयितुमशक्ती तृतीये च दिने कर्पश्यमुले जातं, तथातिप्रभूतत्वान्न प्रवेशयितुं शम् अपि च-भोजनम पि पानीयानयनादिना कर्त्तव्यं ततो भोजनाय यत्नविधौ सकलमपि दिनं जगामेति न ॠणं प्रवेशयितुं शक्नोति, दिने दिने द्विगुणवृद्धया प्रवर्द्धमानमृणमपरिमितघटप्रमाणं जासं, ततः श्रेष्ठिना सा बनणे यथा मन तेलं देहि, यहा मेदासी भव । ततः सा तैलं दातुमशक्नुवती दासत्वं प्रतिपे, कियत्सु च वर्षेष्यतिक्रान्तेषु भूयोऽपि सम्मताभिधः साधुस्तस्मिन्नेव ग्रामे यथाविहारक्रममागमत् । सा च भगिनी स्वगृदे न दृष्टा तत श्रागता सती पप्रच्छे, तया च " पामिच प्राचीनः सर्वोऽपि व्यतिकरस्तस्मै न्यवेदयामासत्यं शि. देवगृहे जातमिति निषेधच स्वदुःखं रोदितुं प्रवृत्ता । ततः साधुषोत्मा रोरचिरात्वां मोचयिष्यामि । ततस्तस्या मोचनोपार्थ चिन्तयन् प्रथमतः शिवदेवस्यैष रहे प्रविवेश। शिवा च तस्य मिशनार्थ जलन हस्ती प्रज्ञालयितुं लग्नातच साधुर्निवारयामास यथैवमस्माकं न कल्पते भिक्षति। ततः समीपदेशयत श्रेष्ठी प्रोवाच फोन दोषः । ततः साधुः कार्यविराधनादीन् दोषान् यथागमं सविस्तरमचथित्। ततः साइतो भवति यथा भगवन! कुत्र युष्माकं वसति ? येन तत्राभ्याता वयं धर्मे शृणुमः । ततः साधुवादीत् नास्ति मे ऽद्यापि प्रतिश्रयः। ततस्तेन निजहैकदेशे वसतिरवाषि, प्रतिदिनं च धर्म शृणोति सम्यerengeतानि च प्रतिपन्नानि । साधुश्च काममापि षासुderssagerssवीर्णानने कानभिप्रहान् व्यावर्णयामास, यथा वासुदेवेनायमभिग्रहां जगृहे यदि मदीयः पुत्रोऽपि प्रवज्यां जिघृक्षति ततोऽहं न निवारयामीत्यादि । एवं च श्रुत्या शिवोऽप्यभिग्रहं गृहीतवान् यदि भगवन् ! मदीयो ऽपि कोऽपि प्रतिपद्यते ततोऽहं न निवारयामीति । अत्रान्तरे व शिवदेवस्य तनवो ज्येष्ठः सा व साधुभगि नी सम्मतिः प्रव्रज्यां श्रहीतुमुपतस्थे टिना व ती पि विसर्जित, ततः प्रतिपन्नाविति सूत्रं सुगमम् । केवलं 'श्रुताधिगमज्ञातविधिः श्रुताधिगमात् ज्ञातो वि - धिः क्रियाविधिर्येन स तथा । अत्राऽऽद्द - नन्वेतत्प्रामित्यं साधुना विशेषतो ग्रहीतव्यं, परम्परया प्रवज्याकारणत्वात्. श्रत आह" कहवया उ एवंविधा गीतार्था विशिष्टधुतविदो देशनाविधिनिपुणाः कतिपया एव भवन्ति, न भूयांसः, कतिपयानामेव च प्रव्रज्यापरिणामः, ततः प्रामि स्वं दोषाय । वयं विषये प्रनित्ये दोष उक्तः । सम्प्रत्यतिदेशेन वस्त्राऽऽदिविषये दोषानभिधित्सुराद्दएए चैव व दोसा, सर्विसेसयरा उत्थपासुं। लोइयपामिचे लोगुत्तरिया इमे अभे ।। ३२० ।। एते चैव दासत्वादयो दोषा वस्त्रपालविषयेषु लौकिकेषु प्रा. मित्येषु विशेषतरा निगडद नियन्त्रसपुरस्वरा द्रष्टव्या लोकोत्तरिकाः लोकोत्तरमामित्यविषयाः पुनरिमेऽन्ये दोषाः । तनिवाऽऽह - 39 9 मइलिएँ फालिएँ खोसिऍ, हिऍ नट्टे वावि अन्न मरते । अवि सुंदरे वि दिले, कररोई कलहमाई || ३२१ || इह द्विधा लोकोत्तरं प्रामित्थं कोऽपि कस्याऽपि सत्कमेवं aarssदि गृह्णाति यथा कियद्दिनानि परिभुज्य पुनरपि ते समर्पयिष्यामि कोऽपि पुनरेवम् एतावद्दिनानामुपरि तवैतत् सदृशमपरं वस्त्राऽऽदि दास्यामि, तत्र प्रथमे प्रकारे मलिनिते शरीराऽऽदिमलेन क्लेदिते । यदि वा पाटितेऽथवा-'खोसिते' जीते। यदि वा चीरादिना ते या कापि मार्गपतित कलादयो दोषाः। द्वितीये च प्रकारेऽभ्यद्र स्वाऽऽदिकं याचमानो याचमानस्य, 'श्रपिः ' सम्भावनायां, 'सुन्दरेऽपि ' पूर्वभुक्तः द्वस्त्राऽऽदेर्विशिष्टतरेऽपि दत्ते को पि दुष्करराविर्भवति महता कडेन तस्य रविरापादयितुं श Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पामिश्च अभिधानराजेन्डः । पायश्चित्त क्यते, ततस्तमधिकृत्य कलहाऽऽदयो दोषाः सम्भवन्ति, त- | पायगुड-पाकगुड-पुं० ।कथितद्रवगुडे, येन खजकाऽऽदि लि. स्माल्लोकोत्तरमपि प्रामित्यं न कर्तव्यम् । प्यते । ध०२ अधि। अत्रैवापवावमाह पायचार-पादचार-पुं० । 'पादचार' शब्दथे, शा० ११० उपत्ताए दाणं, दुल्लभ खग्गृड अलस पामिचे। १५०। तं पि य गुरुस्स पासे, ठवेइ सो देशमा कलहो ॥३२२।। पायच्छित्त-पापच्छित-म० । पापं छिनम्तीति पापनिछत्। यह दुर्लभे पखाऽऽदौ सीवतः साधार्यवि बनाऽऽदिकमपरण अथषा-व्यवस्थितप्रायश्चित्तम् । दश०१। स्था स। साधुना पातुमिष्यते, तर्हि तस्य ' उच्चतया' मुधिकतया पापच्छदकत्वात् प्रायश्चितं, विशेधिकत्याचा प्राकृते "पायदानं कर्तव्यं, न प्रामित्यकरणम, तथा यः 'खग्गूड' कु- च्छित्तमिति " शुजौ,तद्विषये शोधनीयातिचारे,स्था०३ठा०४ टिलो बैयावृत्यादौन सम्यग् पर्सते, योऽपि बालसा, तो उ० । निचू० । नौ ।भः । ("पावं छिदइ०" (१५०८) इस्यादुर्लभवनाऽऽदिवानप्रलोभनेनापि वैयावृस्य कार्येते, ततस्त. विगाथा पच्छित्त' शब्देऽस्मिभेष भागे १२६ पृष्ठे गता) व्या. विषयं प्रामित्यं सम्भवति, तत्रापि तदीयमानं बनाऽऽविकं ख्याधिशेषो दयते-पापं कर्मोच्यते, तत् पापं छिनत्ति यस्मा. वायको गुरोः पार्थे स्थापयेत् , म स्वयं दद्यात् , ततः स स्कारणात्प्राकृतशल्या "पायच्छित्तं ति" भएयते तेन कारणन, गुरुर्ववाति मा भूवन्यथा तयोः परस्परं कलह इति कृत्वा । संस्कृते तु पापं छिनत्तीति पापच्छिदुरूयते । आष०५०। उक्तं प्रामित्यद्वारम् । पिं०। पं०प० । प्रब०। प्रायश्चित्त-म०प्रायशो वा चित्तम् जीवं शोधयति कर्ममलिनं प्रतिग्रहं प्रामित्ययति विमलीकरोति तेन कारणेन प्रायश्चितमित्युच्यते । प्रायो या जे भिक्खू पडिग्गहं पामिच्चइ, पामिच्चाइ, पामिच्चमा बाहुल्येन चित्तं स्पेन स्वरूपेण अस्मिन्सतीति प्रायश्चित्तं,प्रा. हड्ड दिनमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहंतं वा साइजइ ॥२॥ योग्रहणं संवराऽऽदेरपि तथाविधचित्तसद्भावादिति गाथार्थः । आव०५०। स्था० । श्रा०चू० । पञ्चा)। "प्रायः पापं वि. जे पोतं पामिच्चे इत्यादि उच्छिमं गेराहति, गेराहावेति, | विनिर्दिष्टं, चित्तं तस्य च शोधनम् ।" इत्युक्तेः। अथवा-प्रकरेंअणुमोदेति तस्स चउलहुं । निचू० १४ उ० । प्राचा०।०। ण अयते गच्छति अमादाचारधर्म इति प्रायो मुनिलोकस्तेन पामुक-अमुक्त-त्रि० । “ पामुकं विच्छडि, अवहत्थि उ-| चिन्त्यते स्मयतेऽतिचारविशुद्धयर्थमिति निरुक्तात् प्रायश्चि. झिअं चत्तं।" पार ना०७६ गाथा। स्तम् । अनुष्ठानविशेष, ध० ३ अधि) । (प्रायश्चित्तस्य सर्वोपापोक्ख-प्रमुख-त्रि० । प्रवरे, शा० १ ० ५ ० । प्रा०म० । अधिकारः पच्छित्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १२६ पृष्ठे गतः) प्रमोक्ष-पुं० । आक्षेपस्य परिहारे उत्तरे, शा. १७०५०। भेदाःपाय-पाक-पुं० । स्विन्नताऽऽपादने, अनु०। तिविहे पायच्छित्ते पप्मत्ते । तं जहा-आलोयणारिहे, पप्रातर-अव्य०। प्रभातसमये, सू० प्र० २ पाहु० १ पाहु० डिक्कमणारिहे, तद्भयारिहे। तय विधा, दशविधत्वेऽपि तस्य विस्थानकानुरोधादिपाहु । उत्त) । स्था० । प्रत्युषसि. सूत्र०१ श्रु०७ अ० । पा ति । अालोचनाह, प्रतिक्रमणाह, तदुभयाईम् । स्था० ३ ठा० नं पायः । पाने, शा० ११०१०। ४ उ०। प्रायम्-अव्य० । बाहुल्ये, प्रा० चू०५ १० । वृ०। पं० व०। तिविहे पायच्छित्ते परमत्ते । तं जहा-णाणपायच्छित्ते,दंस. पञ्चा० । आव०। प्रायशब्दोप्यत्र । स्था। पात्र-न। पात्रेप। स्था०। णपायचित्ते, चरित्तपायच्छित्ते । (नाणेत्यादि)शानाऽऽद्यतिचारशुद्धयर्थं यदालोचनाशदिशानापाद-पुं० । किरणे, "अंसू रस्सी पाया,करा मऊहा गहत्थिः | ऽऽदीनां वा योऽतिचारस्तज्ज्ञानायश्चित्ताऽदि तत्राकाला. णो किरणा।" पाइ० ना० ४७ गाथा । चरणे, "चलणा विनयाध्ययनाऽऽदयो हातचारा शानस्य शङ्किता ऽदयो है कमा य पाया।" पार० ना० १०६ गाथा । सानौ, " पाया दर्शनस्य, मूल गुणात्तरगुणविराधनारूपाः विचित्राः चारित्रकडया साणू।" पाइ० ना. १३५ गाथा। स्येति । स्था० ३ ठा०४ उ।। (चतुर्विधप्रायश्चितविचार: प. पायए-पातुम-श्रव्यः । गलादधो द्रवं कमित्यर्थे, भ० श. च्छित' शब्देऽस्मिन्नेव भाग १२६ पृष्ठे गतः) ३३उ। छविहे पायच्छित्ते पामते । तं जहा-आलोयणारिहे.पडिपायकंचणिया-पादकञ्चनिका-स्त्री० । 'पादकंचणिया' शब्दार्थे, जी० ३ प्रति०४ अधि। कमणारिह,तदुभयारिहे, विवेगारिदे, विउस्सग्गारिहे, तवा रिहे । पायकंबल-पादकम्बल-न० । ' पादकंबल' शब्दार्थे, उत्त० आलोचनाऽहं यद् गुरुनिवेदनया शुद्धयति,प्रतिक्रमणाई य१७ श्रा मिथ्यादुष्कृतेन, तदुभयाई यदालोचनामिथ्यादुष्कृताभ्यां पायकेसरिया-पात्रकेशरिका-स्त्री० । • पादकेसरिया' श विवेकाहं यत्परिष्ठापित प्राधाकर्मादौ शुद्धयति, व्युत्पाई ब्दार्थे, श्रोघ०। यत्कायचेष्टानिरोधतः,तपोऽहं यनिर्विकृतिका दिना तपसेपायखज-पाकखाद्य-त्रि० । पाकेन खादितुं योग्यीकृते, "फ | ति । स्था०६ वा० । लाई पकाई पापखजाई ति नो घर।" दश ७१०। । अट्टविहे पायच्छिते पामते । तं जहा-बालोयपारिहे, प Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) पायच्छित्त अभिधानराजन्छः। पायलेहणिया डिकमणारिहे, तवुभयारिहे, विवेगारिहे, विउस्सगारिहे, पायण-पायन-न० । लोहकारेण तापितकुहिततीक्षणधारीकतवारिहे, छेयारिहे, मूलारिहे । स्था० ठा० । तपुनस्तापितानां जले निधोलने, हा०१ शु०७०। भण्डे, नवविहे पायच्छित्ते पाते । तं जहा-भालायणा० जाव नं0 1 महणे, दे. ना० ६ वर्ग ४. गाथा। मूलारिहे प्रणवठ्ठप्पारिहे। स्था०६ठा। पायणिजोग-पात्रनिर्योग-पुं०। पादणिज्जोग' शब्दार्थे, पृ० दसविहे पायच्छित्ते परमत्ते । तं जहा-आलोयणरिहे प ३ उ.। पायददरय-पाददर्दरक-न० । 'पावदहरय' शब्दार्थे, जी. ३ डिकमणारिहे, तदुभयारिहे, विवेगारिहे,विउस्सग्गारिहे, त- ५ प्रति०४ अधिक। वारिहे, छेदारिहे, मूलारिहे, अणवठ्ठप्परिहे, पारंचियारिहे। पायत्ताणीय-पादात्यनीक-न । पादत्ताणाय' शब्दार्थे,उत्त बह व प्रायच्छित्तशब्दः अपराधे, तच्छुद्धौ च रश्यते, त १८ मा दिहापराधे श्यः । अत्र (मालोयणारिहेति) मालोचना पायत्ताणाहिवा-पादत्राणाधिपति-पुं०। पादत्राणाधिपति' निवेदना, तहलणां शुचिं यदई त्यतिचारजातं तदालोचनाई शब्दार्थ, कल्प०१ अधि०२क्षण । मेवमन्यान्यपि केवलं प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतं, तदुभयमालोचनामिथ्यादुष्कृते विधेकोऽशुभकाऽऽविस्यागः, व्युत्स पायपडिमा-पात्रपतिमा-स्त्री० । पात्रमतिमा उद्दिष्टवारपात्रार्गः कायोत्सर्गः, तपो निर्विकृतिकाऽऽविछेदः प्रवज्यापर्या. ऽदि याचिष्ये, तथा प्रेक्षितं,तथा दातुः स्वाङ्गिकंपरिभुक्तप्रायं यहस्वीकरणं मूलं महावतारोपणम् अनवस्थाप्यम् - वित्रिषु वा पात्रेषु पर्यायेण परिभुज्यमानं पात्रं याचिष्य इति ततपसी प्रतारोपणं पाराश्चिकम् लिङ्गाऽऽविभेदमिति । उज्झितधर्मिकमिति चतुर्थी । स्था०४ ठा०३ उ०। प्रायश्चितं च तपः उक्तम् । भ० २५ श० ७ उ । स्था। पायपमजण-पादप्रमार्जन-न० । 'पादपमजण' शब्याथै, आप० । आ० चू । दुःस्वप्नाऽऽदिविघातार्थ करणीये कर्मः | नि० चू. १५ उ०। विशेषे, भ.। पायपष्फोडण-पादपस्फोटन-न० । 'पादपप्फोडण' शब्दापादच्छत-न० । पादेन वा छुप्तश्चक्षुर्दोषपरिहारार्थ पादच्छुप्तः । भ०२श०५ उ० । पादे पादेन षा छुप्ते, दशा०१०अ०। यरियावास-पादपर्यापन-त्रि०। 'पादपरियावम' शब्दा"कयकोउयमंगलपायच्छित्ता।" विपा०१ ०२०। थे, आचा०२ श्रु०१ चू० १० ११ उ०। पायच्छित्तकरण-प्रायश्चित्तकरण-न० । प्रायो बाहुल्येन चित्तं | पायपलंब-पादपलम्ब-न। 'पादपलंब' शब्दार्थे, मा० १ जीवं मनो वा शोधयति पापं विनन्दयति वा पश्चात् प्राय. श्रु०१०। श्चित्तम् । तत्करणम्: प्रायश्चित्तकरणम् । प्रायश्चित्ताऽऽचरणे, पायपास-पादपाश-पुं० । 'पादपास' शब्दार्थे, सूत्र० १ ध०२ अधि। प्रायश्चित्तकरणफलम् - श्रु०११०२ उ०। पायपंछण-पादमोच्छन-न।' पादपुंछण' शब्दार्थे, औ०। पायच्छित्तकरणेणं भंते ! जीवे किंजणयह पायच्छित्तकरणणं पावकम्मविसोहिं जणयइ, निरहयारे प्रावि भवि- पायप्पहड-देशी कुछुटे, दे० ना०६ वर्ग ४५ गाथा। स्सइ, सम्मं च णं पायच्छित्तं पडिवजमाणे मगं च मग्ग- पाय पायबंधण-पादबन्धन--न। 'पादबंधण 'शब्दार्थे, प्रश्न०५ फलं च विसोहेइ आयारं च आयारफलं च आराहेइ ।१६। संव० द्वार। हेभदन्त ! प्रायश्चितकरणेन पापशुद्धिकरणेन आलोचना पायबद्ध-पात्रबद्ध-न।' पादबद्ध' शब्दार्थे, जं०१वक्षः। दिकेन जीवः किं जनयाते?,गुरुर्वदति-हे शिष्य ! प्रायश्चित्त पायय-पात्रक-न० अल्पे पात्रे,स भिक्षुः स्वकीयं परकीयं वा करणेन पापकर्मविशोधिं जनयति, ततश्च निरतीचारोऽ. पात्रकं समाधिस्थानं गृहीत्वा । श्राचा०२ शु०२ चू०३ अ०। तिचाररहितो भवति, सम्यक् प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यमानः स. प्राकत-न० । प्रकृती भवं प्राकृतम् । वृ० १ उ०१ प्रक० । न्मार्ग सम्यक्त्वं च पुनर्मार्गफलं मार्गस्य सम्यक्त्वस्य फल संस्कृतविकृतिरूपे भाषाभेदे.वृ०१ उ०१ प्रक० । “बालस्त्रीज्ञानं तत् विशोधयति च पुनराचारं पाराधयति, प्राचा- मूढमूर्खाणां, नृणां चारित्रकाइक्षिणाम् । अनुग्रहाय तवः, रशब्देन चारित्रमाराधयति-पुनराचारस्य फलं मोक्षमारा- सिद्धान्तः प्राकृतः स्मृतः॥१॥" दश ३ अ।।। धयति साधयति । उत्त० २६ अ आव० । पापक-पुं०। नीचे, "श्रहमा इयरा य पायया नीया।"पाइक पायजालग-पादजालक-न। 'पादजालक' शब्दार्थ,प्रश्न ना० १०३ गाथा। ५संब० द्वार। पायल-देशी-चक्षुषि, दे० ना.६ वर्ग ३ गाथा। पायजालघंटिया-पादजालपण्टिका-स्त्री०। पाद्जालघंटिया' शब्दार्थे, औ०। पायलम्ग-पादलग्न--त्रि०ा पादलग्ग' शब्दार्थे.पश्चा०१८विधा पायट्ठवण-पात्रस्थापन-न । 'पादट्ठवण' शब्दार्थे, वृ०३ उ०॥ | पायलित-पादलिप्त-पुं०। पायलित्त' शब्दार्थे, श्रा० क०। पायड-प्रकट-त्रि० । आकाशीभूते, विशे। साक्षात्परिस्फुर-पायलेहणिया-पादलेखनिका-स्त्री० । 'पादलेहणिया' श. ति, चं० प्र० १ पाहु०१ पाहु. पाहु। | ब्दार्थे, वृ० ३ उ०। Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायव पायन-पादप पुं० [ उस०५ ० "साही चिडवी बी. महीरुहो पायवो तुमो य तरू ।” पाइ० ना० ५४ गाथा । पायवगण - पादपगण - पुं० । ' पादवगण ' शब्दार्थे, दश० २ श्र० । पायविहारचार पादविहारचार पुं० पादविहारचार 'शब्दार्थे, आचा० । पायस पायस - न० । ' पायसो-खीरी' पाइ०ना० २४० गाथा । परमा, अ०म० १ श्र० । जी० । श्रा० क० । पायसंजय पादसंयत पुं० कारणं विना कर्मयीने दश० ( =५७ ) अभिधानराजेन्धः । 6 ६ श्र० ३ उ० । पायसंवाहण - पादसंवाहन - न० । पादसंवाहण' शब्दार्थे, नि० चू० ३ उ० । पायसम - पादसम - न० । 'पादसम' शब्दार्थे, स्था०५ ठा०१ उ० । पायसीसंग पादशीर्षक १० पादसीखग शब्दार्थे जी० ३ प्रति० ४ अधि० । पायार माकार पुं०] दुर्गे, (किलो गुजराती) "सारी पायारो।" पाइ० ना० २३७ गाथा । पायाल - पाताल - पुं० । न० । पत- श्रालम् । धरायास्तलस्थे भुवने, ज्योतिषोक्ले लग्नाच्चतुर्थे स्थाने च । वाच० । वलयामुखपाताल कलशेवु, प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार । अनु० । श्री० ॥ भ० । " पायालं व रसायलं ।” पाइ० ना० १७१ गाथा । पायालकलस-पातालकलश-पुं समुद्र मध्यवर्तिषु (प्रव० १ द्वार ) वलयामुखप्रभृतिषु प्रश्न० १ श्र० द्वार । पायालगंगा पातालगङ्गा स्त्री० । स्वनामख्याताथां नेमिना यतिमायाम् पुरे शजिनाऽऽलये पालिनगरे मथुरायां द्वारकायां सिंहपुरस्तम्भती पातालगङ्गानि मिना थः । ती० ४३ कल्प । पायावच्च प्राजापत्य-पुं० । प्राकृतलोके, बृ० १ उ० ३ प्रक० । चं० प्र० । ज्यो० । एकोनविंशतितमे चतुर्दशे वाऽहोरात्रमु हू, स०३० सम० । पायारित प्रादक्षिण्य न० | नमस्कारपांडेन निवेदने, पं० व० ३ द्वार । पार शक् धा० । मर्षणे, " शके: चय-तर-तीर-पाराः 1 ॥ ८६ । ४ । ८६ ॥ इति शकेः पाराऽऽदेशः । 'पारह।' शक्नोति । पारयतेरपि पारेह ' प्रा० ४ पाद । पार पुं० न० तटे, परफूले, श्राचा० १० २ ० ३ उ० । सूत्र० स्थान । विशे० । तीरे, पर्यन्तगमने, सूत्र० २ ॐ० १ ० ।" परतीरं पारं ।” पाइ० ना० २२६ गाथा । दृ० । स्था० । नरकाssदिके परलोक, सूत्र० १ ० ६ श्र० । मोक्षे, संसारापतित्वादेतत्कारणेषु ज्ञानदर्शनचारित्रेषु श्रा चा० १५० २ ० २ उ० । प्राकार - पुं० । "व्याकरण- प्राकारागते कगोः ॥ ८ । ११२६८ ॥ इति कलु वा । 'पारो । पाचारो ।' नगरभिसौ, प्रा० १ पाद । पार - प्रावारक- पुं० । यावत्तावज्जीविताऽऽवर्त्तमानावट- प्रा. वारक- देवकुलैवमेवे बः " ॥ ८ । १ । २७१ ॥ इति सस्वरव्य६९५ - पारंचिय जनस्य वा लुक् । पारश्र । पावारश्री । उत्तमैौर्णवरसे, प्रा० १ पाद । पारंक - देशी सुरामानभाण्डे, दे० ना० ६ वर्ग ४१ गाथा । पारंगम - पारंगम - पुं० । पारं गच्छतीति पारं गमः । परकूलगन्तार, गमनं गमः, पारस्य पारे वा गमः पारगमः । परतटगमने, आचा० १० २ श्र० ३ उ० । ( " प्रतीरंगमा ए पण य तीरंगमित्त अपारंगमा एए ण य पारंगमित्तए । 'अपारंगम' शब्दे प्रथमभागे ६०६ पृष्ठे व्याख्यातम् ) अथ तीर - पारयोः को विशेष इति । उच्यते-तीरं मोहनीयं क्षयः, पारं शेषप्रातिक्षयः । अथवा तीरं घातिचतुष्टया ऽपगमः, पारं भवोपग्राहिकर्माभाव इत्यर्थः । श्रचा० १ ० २ श्र० ३ उ० । . पारंगय- पारङ्गत- त्रि० । पारं पर्यन्तं संसारस्य प्रयोजनवा - तस्य वा गतः पारं गतः सिद्धे, आव० ४ श्र० । पारंचिय- पाराश्चिक - न० । पारं तीरं तपसाऽपराधस्याञ्च ति गच्छति ततो दक्ष्यिते यः स पाराञ्चिः, स एव पाराश्चिकः, तस्य यत्तत्पाराञ्चिकम् । स्था०३ ठा०४ उ० । पारमन्तं प्रायश्वितानां तत उत्कृष्टनरप्रायश्यि साभावादपराधानां पारमञ्चति गच्छतीत्येवं शीलं पाराश्चिकम् । ध० ३ अधि० । व्य० । जी० । दशमप्रायश्वित्ते तच्छोध्यातिचारकर्तृपुरुये, स्था० १० ठा० । पञ्चा० । तपोविशेषेणैवाऽभिचारपारगमने, श्री । गए । धारास्थित यक्षिन् प्रतिसेविते लालसा पारमश्चितमर्हतीति पाराञ्चितम् । व्य० १ उ० । स्था० । ओ पारंचिया पचता । तं जहा बुडे पारंचिए, पमने पारांचए, अन्नमन्नं करेमाणे पारंचिए ॥ २ ॥ त्रयः पाराञ्चिकाः प्रशप्ताः । तद्यथा - दुष्टः पाराश्चिकः, प्रमत्तः पाराचिकः, अपीअर्थ परस्परं मुखपापुगतः प्रतिवचनां कुर्वाणः पाराक्षिक इति सूत्रसमासार्थः । अथ विस्तरार्थ भाष्यकृद्विभणिपुराहअंचु गति पूयम्मिय पारं पुराणुत्तरं बुधा चिंति । सोधीऍ पारमंचर, यावि तदपूजियं होति ।। ६३॥ श्रचु ' गतिपूजनयेारिति वचनात् श्रञ्चुधातुर्गती पूजने ar गृह्यते । तत्र गत्यर्थो यथा- पारं तीरं गच्छति येन प्रायविषितेन तत्पाराधिकम् अथ पारं मुष्यते इ स्याह पारं पुनः संसारसमुद्रस्य तीरं नियु वास्तfर्थवादवते । अनेन मिलितेन साधुमक्षिं ग छतीति भावः । तद्यस्याऽऽपद्यते ऽसावप्युपचारात्पराश्चिकमुख्यते । यथा शोधेः पारं पर्यन्तमञ्चति यत्तत्पाराचिकमपश्विमं प्रायश्चित्तमित्यर्थः ॥ पूजार्थो यथा नया नैव तत्प्रायश्वितपारगमनमपूजितं, किं तु पूजिनमेव । त तो येन तपसा पारं प्रापितेनाऽच्यते श्री श्रमणसङ्गेन पूज्य ते तत्पाराशि पाराधितं वाऽभिधीयते तद्योगात्सारपि पाराश्चिकः । 6 अथ तमेव भेदतः प्ररूपयतिआसायण-परिसेवी विहो पारंचितां समासे । Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५८) अभिधान राजेन्द्रः | पारंचिय एक्केकम य भरणा, सचरिते चेव श्रचरिते ॥ ६४ ॥ पाराञ्चिकः समासेन द्विविधः तद्यथा श्राशातनापाराश्चिकः, प्रतिविपाराश्चिकश्च । पुनरेकैकस्मिन् द्विविधा भजना कर्त्तव्या । कथमित्याह-द्वावप्येतौ सचारित्रिणौ श्रचारित्रिणौ वा । कथं पुनरेषा भजनेत्वाद सव्वचरितं भस्सति, केणइ पडिसेवितेण तु पदेणं । कत्थ विचिति देसो, परिणामश्वराहमासञ्ज ॥६५॥ केनचिदपराधपदेन पाराश्चिकः प्रतिपत्तियोग्येन प्रतिसेवि तेन सर्वमपि चारित्रं भ्रस्यति, कुत्राऽपि पुनश्चारित्रस्य देशोऽवतिष्ठते। कुत इत्याह- परिणाम तीव्रमन्दाऽऽदिरूपमपराधं चोत्कृष्टमध्यमजघन्यरूपमासाद्य चारित्रं भवेद्वा न वा । इदमेव भाषयति तुल्लम्म वि अपराहे, परिणामवसेस होइ गाणतं । कत्थ वि परिणामम्मि वितु भवरा गायनं ॥ ६६ ॥ तुल्येऽप्यपराधे परिणामवशेन तीव्रमन्दाऽद्यध्यवसायवैचि व्याधारित्रपरिभ्रंशादी नानात्वं भवति । कुत्रचित्यनः परिणामे तुल्येऽप्यपराधे नानात्वं प्रतिसेवनावैचित्र्यं भवति । अथाऽऽशातना पाराश्चिकं व्याचिख्यासुराहतित्थकर पareer, आयरिए गणहरे महिड्डीए । एते सायंते, पच्छित्ते मग्गणा होइ ॥ ६७ ॥ तीर्थकथनं श्रुतम् आचार्यान् गणधरान, महर्द्धिकां श्व एतान् आशातयति तस्य प्रायश्चित्ते वक्ष्यमाणलक्षणा मार्गणा भवति । 9 तत्र तीर्थङ्करं यथाशातयति तथाऽभिधीयतेपाहुडियं अनुमति, जातो किं च जती भोगे । थीतित्थं पि यच्चति, अतिकक्खडदेसणा यावि ॥६८॥ प्रातिकां सुरविरचितसमवसरण महाप्रातिहार्याऽऽदिपूजालक्षणामर्द्दन् यदनुमन्यते तन्न सुन्दरम् । ज्ञानत्त्रयप्रमाणेन च भवस्वरूपं जानन् विपाकदारुणान् भोगान् किमिति भुझे ? । मशिनाथा देख त्रियाया श्रपि यतीर्थमुच्यते। तदतीयासमनम्। अती कर्कशा अतीय पुरनुचरा तीर्थकरैः सर्वो पायकुशलैरपि या देशना कृता, साऽप्ययुक्ता । असंच एवमादी, अवि पडिमासु वि तिलोगमहिताणं । परुिवमकुव्वतो, पावति पारंचिषं ठाणं ॥ ६६ ॥ अन्यमप्येवमादिकं तीर्थकृतामले यो भाषते । तथा अपीस्यभ्युच्चये । त्रिलोकमहितानां भगवतां याः प्रतिमास्तास्वपि यद्येवमवर्ण भाषते न तासां पाषाणाऽऽदिमयीनां माल्यालङ्काराऽऽदिपूजा क्रियते एवं ब्रुवन् प्रतिरूपं वा विनयवन्दनस्तुतिस्तवाऽऽदिकं तासामेवावशाबुद्धधा अकुर्वन् पाराचिकं स्थानं प्राप्नोति । अथ प्रवचनं सङ्घस्तस्याऽऽशातनामाह कोसतज्जणादिसु, संघमहिक्खिवति सव्वपडिणीचो | वि त्य संघा, सियालमंतिकढकायं ॥ १०० ॥ यः प्रत्यनीकः अकोलतार सि) विभ यस्ययात् आक्रोशतर्जनाऽऽदिभिः समधिक्षिपति । यथा पारंचिय समयम्पेऽपि शृगालानां तिरुतीनां सह पारास्ते तादृशोऽयमपि इति भावः । एष आक्रोश उच्यते । तर्जना तु हुं हुं जातं भवदीयं सङ्घत्वमित्यादिका । अथ श्रुताऽऽशातनामाह काया बताय ते थिय, ते चैव पमायमप्यमादा य । मोक्खाहिकारिया, जोतिसविजासु किं च पुणो । १०१ । दशवेकालिकोत्तराध्ययनाऽऽदो यत्त एय पदकायाः तान्येव शतानि तावेव प्रमादाप्रमादी भूयो भूय उपवन्ते त देतदयुक्तम्। मोक्षाधिकारिणां व साधूनां ज्योतिषविधा पुनः किं नाम कार्य. येन श्रुते ताः प्रतिपाद्यन्ते । अथाऽचार्याऽखानामाहइरिससातगुरुगा, परोवदेसुज्जया जहा मंखा । अपोसणरया, पोसंति दिया व अप्पाणं ॥ १०२ ॥ श्राचार्याः स्वभावादेव ऋद्धिरससातगुरुकास्तथा मला इस परोपदेशीता, लोका53 बर्जनप्रसक्का इति भावः । (म स्वरूपं 'मंत्र' शब्दे श्रात्मार्थ पोपलरताः स्वोदर सः। इदमेव व्याचष्टेद्विजा इवाऽऽत्मानममी पोषयन्ति । गणधराऽऽशातनामाह अब्भुज्जयं विहारं, देसंति परेसि सयमुदासीणा । उवजीवंतिय रिद्धि, निस्संगा मो चि व भांति ॥ १०३ ॥ गणधरा गौतमा योऽभ्युद्यतं विहारं जिनकल्पप्रभृतिकं परेषामुपदिशन्ति स्वयं पुनरुदासीनास्तं न प्रतिपद्यन्ते । आदिवासीणमानसिकाचार155दिली निःसंगा वयमिति च भवन्ति । अथ महर्द्धिकपदं व्याख्यानयन्ति - गणधर एव महिड्डी, महातबस्सी व वादिमादी वा । तित्थगरपढमसिस्सा, आदिग्गहणेण गहिया वा ।। १०४ ।। इह गणधर एव सर्वलब्धिसंपन्नतया महर्द्धिक उच्यते । यज्ञा-महर्द्धिको महातपस्वी वा वादिविद्यासिद्धप्रभृति को बा भएयते। तस्य यदवर्णवादादिकरणं सा महविकाशातना । गणधरास्तु तीर्थकरप्रथमशिष्या उच्यन्ते, श्रादिग्रइणेन वा ते गृहीता मन्तव्याः । अथैतेषामाशातनायां प्रायश्चित्तमार्गणामाहपढमातिए चरिमं, सेसे एकेक चउगुरू होंति । सच्चे आसादिते पावति पारंचिवं ठाये ॥ १०५ ॥ अथ प्रथमतीर्थकरो द्वितीयः सङ्घस्तयोर्वेशतः सर्वतो शानायां पाराश्चिकं शेषेषु श्रुताऽऽदिषु एकैकस्मिन् देशत आशात्यमाने चतुर्गुरुकाः प्रायश्चितं भवति अथ स नस्तान्पाशातयति, ततस्तेष्वपि पाराचिकं स्थानं प्रा प्रोति । तिरथयरपदमसिस्सं, एकं पासाऽऽदयं तु पारंची । अरथस्सेव जिर्लिंदो, प्रभवो सो जेय सुतस्स ॥ १०६ ॥ तीर्थकरप्रथमशिष्यं गणधरमेकमप्याशानयन् पाराञ्चिको भवति कुत इत्याह-जिनेन्द्रस्तीर्थकर सके प्रभवः प्रथमत उत्पत्तिहेतुः । सूत्रस्य पुनः स एव गणधरो येन कारणेन प्रभवः प्रथमतः प्रणेता, ततस्तमे Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारंचिय कमप्याशातयतः पाराश्चिकमुच्यते । उक्त श्राशातनापाराशिका प्रतिसेवनापाराञ्चिकमाहपडि सेवणपारंची, तिविधो सो होइ आणुपुर । दुई य पमय सेयम् अय ।। १०७ ।। प्रतिसेवनापराशिका स इति पूर्वोपम्यस्तत्रिविधत्रिकाअनुपू सूत्रोपरिपाया भवति तद्यथा दृष्टः पारा चिकः प्रमत्तः पाराचिकोऽन्योन्यं च कुर्वाणः पाराचिको ज्ञातव्यः । " (५६) अभिधानराजेन्द्रः । तत्र दुष्टं तावदाहदुविधो य होइ दुडो, कसावट्टो बिसयो य । दुविहो कसायदुट्ठी, सपक्ख परपचख चतुर्थगो ॥ १०८॥ द्विविधश्व दुष्ट भवति कषायश्व विषयदुष्टख तत्र कषायदुष्टो द्विविधः--स्वपक्षदुष्टः, परपक्षदुश्च । अत्र चतुङ्गी । गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् । तद्यथा स्वपक्षः स्व. पक्षे दुष्टः १, स्वपक्षः परपक्षे दुष्टः २, परपक्षः स्वपक्षे दुष्टः ३, परपक्षः परपक्षे दुष्टः ४ । तत्र प्रथमभङ्गं विभावविषुराह सासवणाले मुह त प उलुगच्छि सिहरी क्षेत्र एसो सपक्खदुट्ठो, परपक्खे होति गविधो ॥ १०६ ॥ (सासवना ति ) सर्पपभर्जिका (मुहतर्फ) मुखवखि का, उलूको घूकस्तस्येवाक्षिणी यस्य स उलूकाक्षः शिखरिणी मार्जिता । एते चत्वारो दृष्टान्ताः । एष स्वपक्षकपायदुष्टो मन्तव्यः । परपक्षकषायदुष्टः पुनरनेकविधो भवतीति निर्युकिगाथासमासा ऽर्थः । अनामेव विवरीः सर्वपादान्तं तावदाद सासवणाले छंदण, गुरु सव्वं भुंजतरे कोवो | खामणसते, गर्मि उबेत्तसहि परिक्षा ।। ११० ।। पुच्छंतमणक्खाए, सोच्चऽपतो गंतु कत्थमे गहसरीरं । गुरु पुव्यकहि तहाइ न, पडियर दंतभंजणता ।। १११ ।। इह प्रथमं कथानकम्-" एगेण साहुणा सासवभज्जिया सुसंतिया लद्धा तत्थ से अतीव गेही, आयरियरस य श्रा लोह, पडिसिए निमंतिए अ श्रयरिए सव्वा वि समुद्दि ट्ठा। इतरो पदोसमाषसो आयरिपण लक्खियं, मिच्छामि दु· कडं कयं । तहा वि न उषसमइ । भणइ य-तुज्भं दंते भंजामि । गुरुणा त्रितियं -मां असमाहिमरणेण मारिस्सर ति । गणे अ गराह उपेता अर्थ गये गंतूण मतपच्चा क यं. समाहपि कालगया । इयरो गवेसमाणो सज्झतिए पुच्छर कहिं प्रायरिया ? | तेहिं न श्रक्खायं, सो अनतो सोचा तत्थ गंपुष्पक आयरिया से भांति समाही फाल या । पुणेो पुच्छर -कहिं सरीरगं परिट्ठवियं, आयरिपि पुण्यं भवियं मा तस्स पचे रससमसरीरपरिद्वावरिया भूमि कहे आहो मा आगहिविगाई करेमाणो उडाई काहिर । तेहिं अदिए तो सोतुं तत्थ गंतुं या गोला कहिऊण ते भजतो भावना लं खयं । तं साहूहिं पडियरंतेहि दिई । का - सर्षपनालाविषयं चन्दनं निमन्त्रणं गुरोः कृतं गुरुणा च अथाक्षरगमनि पारंचिय सर्व भुक्तम्, इतरस्य कोपो गुरुणा क्षामणे कृतेऽपि नोपशान्तः, ततोऽनुपशान्ते तस्मिन् गणिनमाचार्य स्थापयि त्वा अन्यस्मिन् गच्छे परिशां भक्तप्रत्याख्यानमङ्गीकृतं ततः शिष्याधमस्य गुरवः कुल गता इति पृच्छतोऽपि समि साधुभिर्नाऽऽपातं तनो अपतः त्या तत्र गत्या कु त्र तेषां शरीरमिति पृच्छा कृता । गुरुभिश्च सर्व एव तदीयो वृत्तान्तः कथित झासीत् । ततस्तेनाशरीरपारे छापन भूमिर्न दर्शिता । स चान्यतः श्रुत्वा गतो दन्तभञ्जनं कृतवान् साधुभिध गुपिलस्थाने स्थितः प्रतिचरणं कृतमेति । अथ मुखानन्तकदृष्टान्तमाह मुहंतगस्स गहणे, एमेव य गंतु खिसि गलग्गहणं १ संमूशियरेण वि, सो गलगहितो मत्ता दो वि ।। ११२ ।। एकेन साधुना मुखानन्तकमतीचोऽज्वलं लब्धम् तस्य च गुरुभिर्ग्रहणं कृतं, तत्राऽप्येवमेव पूर्वाऽऽख्यानकसदृशं व शव्यं, नवरं तत्तु तत्पुनर्मुखानन्तकं प्रत्यर्पयताऽपि न गृहीतं ततो गुरुणा स्वगण एव भक्तं प्रत्याख्यातं निशायां च विरदं सध्या मुखानन्तर्क गृहातीति भणता गाढतरं ग लग्रहणं कृतं. संमूढेन च इतरेणाऽपि गुरुणा स गलके गृहीतः, एवं द्वावपि मृतौ । उलूकाक्षदृष्टान्तमाह- अत्थं गए विसिव्यास, उलुगच्छी उपखणामि ते अच्छी । पदमगमो नवरि इहं, उलगच्छीड त्ति ढोकेति ॥ ११३॥ एकः साधुरस्तं गतेऽपि सूर्ये सीब्यन् श्रपरेण साधुना परिहासेन भणितालुका | किमेचमस्तं गतेऽपि सूर्ये सीव्यसि ? । स प्राह--एवं भणतस्तव द्वे श्रत्यक्षिणी उत्खनामि । श्रनाsपि सर्वोऽपि प्रथमाऽऽख्यानकगमो मन्तव्यः । नवरमिह स्वगणे प्रत्याख्यातभक्तस्य कालगतस्य रजोहरणाद् अयोमयं कीलिकामाकृष्य मामुलुकाक्षं भणसीति - वाणो द्वे अध्यक्षिणी उद्वृत्य तस्य ढौकयति, वैरं मया निर्यापितमिति कृच्छः | शिखरिसाशन्तमाहसिहरिणिलंभाऽऽलोयण, छंदिऍ सव्वा वि तेण उगरणं । भत्तपरिष्मा असहि, ण गच्छती सो इहं णवीर ॥११४॥ एकेन साधुना उत्कृष्टा शिखरिणी लब्धा सा च गुरुणामालोचिता, तया च गुरवश्यन्दिता निमन्त्रिताः । सा च तैः सर्वा पीता स साधु तो मार वान् स गुरुभिः क्षामितोऽपि यदा नोपशाम्यति तदा भक्तपरिशा कृता, नवरमिह स श्राचार्योऽन्यस्मिन् गणे न गतः, तस्य च समाधिना कालगतस्य शरीर : तेन पापात्मना दन्तकेन कट्टितम् । यत एते दोषाः ततोऽनन्तस्येष न कर्तव्यः । तथा बाऽऽहू तिब्वकसायपरिणतो, तिब्बयरागाणि पावइ भयाई । मयगस्स दंतमंजण, सममरणं डोकरिगरया ।। ११५ ।। तीमा उकटा ये कपायास्तेषु परितो जीवस्तीतर काणि भवानि प्राप्नोति । यथा प्रथम स्था55 पर्य स्पतीमलीमपरीतस्य दन्तभजनभयम् । द्विन्यो Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारंचिय भन्निधानराजेन्डः। पारंचिय स्तु शिष्याऽऽचार्यायोस्तीवक्रोधपरिणतयोः समकालं मरणम्। एनामेव नियुक्तिगाथां भावयतितृतीयदृष्टान्तप्रसिद्धस्य साधोलाचनढाकनम् । चतुर्थदृष्टान्तो सबहि वि गहियम्मी, थावं थोवं तु केइ इच्छंति । तस्थ दन्तकोतिरणम् । ईदृशाः स्वपक्षकपायदुपा लिङ्गपारा सबोस न वि भुजति, गहितं पि वितिय आदेसो॥१५॥ श्चिकाः कर्तव्याः । गतः प्रथमो भङ्गः। सर्वैरप्याचार्यप्रायोग्ये गृहीत केचिदाचार्या इदमिच्छन्तिअथ द्वितीयमाह यथा तत एकैकस्य हस्तात् स्तोकं स्तोकं गृहीत्वा गुरुणा रायवहाऽऽदिपरिणतो, अहवा वि हवेज रायवहो तु । भोक्तव्यम् । एष प्रथम श्रादेशः । अपरे बुवंत-एकनैव गुरुयो. सो लिंगता पारंची, जो वि य परिकती तं तु ।।११६।। ग्यं ग्रहीतव्यम् अथान्यैराप गृहीते ततस्तद्गृहीतमा नेपां राझो राजामात्यस्य वा परस्य वा प्राकृतगृहस्थस्य व- सर्वेषां हस्तात् स्ताकं स्तोकं न भोक्तव्यं,कि तु तैर्निमन्त्रितेन धाय परिणतः । अथवा-राजवधक एव स भवेत् , विहित. वक्तव्यम्-पर्याप्तम्,इत ऊर्द्ध न गच्छति। एप द्वितीय श्रादेशः। राजवध इत्यर्थः । एवमनेकविधपरपक्ष दुष्टः, एष सर्वोऽपि अमुमेव व्याचष्टलिङ्गपाराश्चिकः कर्तव्यः। योऽपि वाऽऽचार्याऽदिकस्तं राज गुरुभत्तिमं जो हिययाणुकूलो, वधकं परिकर्षति चोत्तापयति सोऽपि लिङ्गपाराश्चिको विधे सो गिणहती णिस्समणिस्यतो वा । यः । अथ तृतीयभा उच्यते-परपक्षः स्वपक्षे दुष्टः स कथं भवति । उच्यते-पूर्व गृहवासे वसन् वादे पराजित पासीत्, तस्सेव सो शिवहति णेयरेसिं, स्कन्दकाऽऽचार्येण पालकवत्, वैरिको वा स तस्याऽसीत् । अलब्भमाणम्मि य थोव थोवं ॥१२२॥ - स पुनः कीदृशो भवेत् ? , इत्याह गुरुभक्तिमान् यश्च गुरूणां हृदयानुकूल छन्दोऽनुवर्ती स सन्नी व असन्त्री वा, जो दुट्ठो होति तू सपक्खम्मि । गुरुप्रायोग्यं निथागृहेभ्यो अनिश्रागृहेभ्यो वा गृह्णाति तस्यैव च संबन्धि श्राचार्यो भनपानं गृहानि, नेनरेपामतस्स निसिद्धं लिंगं,अतिसेसी वा वि दिजाहि ।।११७॥ परसाधूनाम् । अथैकः पर्याप्तं न लमंत, नतो लभ्यमाने स्ताक स च संज्ञी वा असंही वा यः स्वपक्षदुपी भवति तस्य स्ताकं सर्वेपामपि गृह्णाति । एप ग्रहणधिधिरुतः। लिङ्गं निषिद्धं,प्रवज्या न दातव्येति भावः [ अतिशयज्ञानी वा | संप्रति निमन्त्रणे विधिमाहउपशान्तोऽयमिति मत्वा तस्याऽपि लिङ्गं दद्यात् । सति लम्मि वि शिणहति.इयरनि जाणिऊण निबंधं । अथ चतुर्थभङ्गे परपक्षः परपक्षे दुष्ट इति भाव्यतेरन्नो जुवरनो वा, वाघातो अहवा वि इस्सरादीणं । मुंचति य सावसेसं, जाति उवयारभणियं च ॥१२३।। सति विद्यमानेऽपि प्राचुर्येण लाभे यदीतर साधा निमसो उ सदसैंण कप्पति कप्पति अम्मम्मि अमाओ।११।। त्रयमाणा गाढं निबन्धं कुर्यते, ततस्तं ज्ञात्वा नेपामाप गृयोराज्ञो वायुवराजस्य वा वधकः स तु पुनः स्वदेशे दीक्षित काति, तच्च तदीयं भुजानः सावश मुञ्चति, मा सर्वस्मिन् न कल्पते. किं तु कल्पते अन्यस्मिन् देशे अज्ञाती दीक्षितुम् ।। भुक्ने प्रपं स गच्छन, उपचारभणितं च जानानि-अयमुपइत्थ पुण अधीकारो, पढमिल्लुगवितियभंगदुट्ठहिं । चारंणायं पुनः सद्भावेन निमन्त्रयते, इत्येवं बहिश्चिहरूपलतेसिं लिंगरिवगो, दुचारमे वा लिंगदाणं तु ॥११६।। क्षयतीत्यर्थः । अत्र पुनः प्रथमनितीयभङ्गः दुष्टैरधिकारः स्वपक्षपरपक्ष- गुरुणो भुत्तुवरियं,बालादसती य मंडलिं वावि। दुधा इत्याद्यभायवर्तिभिरिति भावः। एतेषां लिङ्गं विवेक- जं पुण सेसगगाहितं, गिलाणमादीण तं दिति ॥१२४॥ रूपं पाराश्चिक दातव्यम् । अतिशयशानी या यदि जानातिन गुरूणां यदू भुक्ताग्निं तद् बालाऽऽदीनां दीयते, तेपामभावे म. पुनरीहशं करिष्यति, ततः सम्यगावृतस्य लिङ्गविवेकंन क एडलीयानि मण्डलीप्रनिगृहे क्षिप्यते यत्पुनः शेपमुग्भक्तिमत्रोति । (दुवरिमे ति) तृतीयचतुर्थलक्षणे यो चरमभङ्गी तयो. ध्यतिरिक्तः साधुभिर्मात्रके गृहीतं तद् ग्लानादीनां प्रयर्वा विकल्पेन लिदानं कर्तव्यम् । किमुक्तं भवति?-परपक्षः च्छन्ति । स्वपक्षे दुष्टः परपक्षः परपोष्ट इति भावये वर्तमाना या ससाणं संसहूं, न छुब्भती मंडलिपटिग्गहिए। पशान्ता इति सम्यग् शायन्ते,ततो लिजन्दानं कर्तव्यम् । अथ नोपशान्तास्ततो न प्राज्यन्ते, आप तु तानि स्थानानि परि पत्तेगगहित छुम्भति, प्रोभासणलंभ मोत्तू ॥ १२५ ॥ हार्यन्ते । एप वाशश्वसूचितोऽर्थः। शेषाणां गुरुध्यतिरिक्तानां संसूट मण्डलीप्रतिग्रहेन क्षिप्य. अथ सर्पपनालाअदिइष्टान्तप्रसिद्धी दोगे मा भूदिनि हेती ते। यस ग्लानादीनामर्थाय प्रत्येकं पृथक पृथक मारकेपु गृराचार्येण यथा सामाचारी-स्थापना कर्तव्याः तथा प्रति होतं. तत्तपमुरितं मर डल्या प्रक्षिप्यते, परमवभापितलाभ मुक्त्या प्रक्षिप्यते इति भावः । पादयन्नाहसव्वेहि वि घेत्तव्यं, गहणे य निमंतणे य जो तु विही। पाहुणगट्ठा व तगं,धरेतु अतिवाडा विगिचंति । भुंजती जतणाए, अजतणदोसा इसे इंति ।। १२० ॥ इइ गहणभुजणविही, अविधाएँ इमे भवे दीसा॥१२६।। स_रापि साधुभिराचार्यप्रायोग्यं स्वस्वमात्रकेषु ग्रहीनव्यम्,! प्राघुणकार्थ या तक ग्लानार्थमानीतप्रायोग्यं धृत्वा स्थापतथा ग्रहणे निमन्त्रणे या याबद्दयमाणो विधिः स सर्योऽपि यित्या यदि 'अतिवाहडा' अतीव प्रानाः प्राघूर्णकाच नायाकलेव्यः। एवं यतनया सूरयो भुक्षते, अयतनया त भया- तास्तदा विवेचयन्ति परित्यजन्ति, एवमिह ग्रहणभोजनमानामिमे व माणा दाषा भवन्ति । विधिर्भवात। Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारंचिय (८६१) भन्निधानराजेन्द्रः। पारंचिय यद्येनं विधिं न कुर्वन्ति ततस्तस्मिन् विधौ इमे दोषा, वी वा स्यादसेची वा, तेन तत्कार्य कृतं वा भवेदकृतं वेति . भवेयु: भावः । एवमेव गीतार्थोऽगीतार्थो वा स सर्वोऽपि पाराश्चितिव्वकसायपरिणतो, तिब्वतराया. पावइ भयाई। कः कर्त्तव्यः । मयगस्स दंतमंजण, सममरणं ढोकुणुग्गिरणा ॥१२७॥ कथमित्याहव्याख्यातार्था । उक्तः कषायदुष्टः। उवसयकुले निवेसण-पाउगसाहि गाम देस रजे वा। . अथ विषयदुएमाह कुलगणसंघ निज्जू-हणाए पारंचितो होति ॥१३४।। संजति कप्पट्टीए, सिजायरि अमउत्थिणीए य । यस्य यस्मिन्नुपाश्रये दोष उत्पन्न उत्पत्स्यते वा स तत एसो उ विसयदुट्ठो, सपक्वपरपक्खचउभंगो ।। १२८ ।। उपाश्रयात्पाराञ्चिकः क्रियते । एवं यस्मिन् गृहस्थकुले दो ष उत्पन्नः, तथा निवेशनमेकनिर्गमप्रवेशद्वारो द्वयोर्मामयोइहापि स्वपक्षपरपक्षपदाभ्यां चतुर्भङ्गी । तद्यथा-स्वपक्षः स्व रपान्तराले द्वधादिगृहाणां संनिवेशः, एवंविधस्वरूप एव प्रापक्षे दुएः, स्वपक्षः परपक्षे दुष्टः, परपक्षः स्वपक्षे दुष्टः, प. मान्तर्गतः पावकः, साही शाखारूपण श्रेणिक्रमेण स्थिता रपक्षः परपक्षे दुष्टः ४ । तत्र कल्पस्थिकायां तरुण्यां संय प्रामगृहाणामतः परिपाटिः, प्रामः प्रतीतो, देशो जनपदो, त्यां संयतोऽभ्युपपन्न इति प्रथमो भङ्गः । संयत एव शय्यातरभ्रणिकायामन्यतार्थिक्यां वा अध्युपपन्न इति द्वि राज्यं नाम यावत्सु देशेषु एको भूपतिः राजा तावदेशप्रमा णम् । एतेषु यत्र यस्य दोष उत्पन्नः, उत्पत्स्यते वा, स ततः तीयः । गृहस्थयती कल्पस्थिकायामध्युपपन्नाविति तृती- पाराश्चिकः क्रियते । तथा कुलेन यो नियूंढो बाह्यः कृतः स यः। गृहस्थो गृहस्थायामिति चतुर्थः । एष च विषयदुष्टश्च कुलपाराश्चिकः ।गणाद् बाह्यः कृतो गणपाराश्चिकः, सक्काचतुर्विधो मन्तव्यः । स्य नि!हणा कृता स सङ्घपाराश्चिकः । पढमे भंगे चरिमं, अणुवरए वा वि बितियभंगम्मि । किमर्थमुपाश्रयाऽऽदिपाराश्चिकः क्रियत इत्याहसेसेण इहं पगतं, वा चरिमे लिंगदाणं तु ॥ १२६ ।। उवसंतो वि समाणो, वारिजति तेसु तेसु ठाणेसु । प्रथमे भले चरम पाराश्चिकम् । अनुपरतस्वाऽनिवृत्तस्य हंदि ह पुणो वि दोसं. तद्वाणाऽऽसेवणा कुणति ।। १३५ ।। द्वितीयेऽपि भले पाराश्निकम् । शेषण तृतीयचरमभङ्गद्वयन उपशान्तोऽपि वलिङ्गिनीप्रतिसेवनात्प्रतिनिवृत्तोऽपि सन् इह प्रकृतम् । अत्र पाराशिकस्य प्रस्तुतत्वात्तस्य च परपक्षे तेषु तेषु स्थानेषु प्रतिश्रयकुलनिवेशनाऽऽदिषु विहरन् वा. अघटमानत्वात् । अथवा ( वा चरिमे लिंगदाणं तु त्ति) वा यते । कुत इत्याह-'हंदि ' निष्कारणोपप्रदर्शने, हुरिति निविकल्पेन भजनया चरमभङ्गद्धये लिङ्गदानं कर्तव्यम्, यद्य श्चये, पुनरप्यसौ तस्य स्थानस्याऽऽसेवनात्तमेव दोषं करोति । पशान्तस्तदा अन्यस्मिन् स्थाने लिङ्गं दातव्यम्, अन्यथा इदमेव स्पष्टरमाहतु नेति भावः। अथ प्रथमभङ्गे दोषं दर्शयन्नाह- जेसु विहरति ताओ, वारिजति तेसु तेसु ठाणेसु । पढमे भंगे एवं, सेसेसु अ ताइँ ठाणाई ॥ १३६ ॥ लिंगेण लिंगिणीए, संपत्तिं जइ णियच्छती पावो। येषु ग्रामाऽऽदिषु ताः संयत्यो विहरन्ति तेषु तेषु स्थानेषु सवजिणाणऽजाओ, संघो आसातिओ तेणं ॥१३०॥ स विहरन् वार्यते. ततः पाराश्चिकः क्रियत इत्यर्थः । लिङ्गेन रजोहरणाऽऽदिना युक्नो लिङ्गिन्याः संयत्याः संप एवं प्रथमभङ्गे स्वपक्षः स्वपक्षे दुष्ट इति लक्षणे विधिरुक्तः । त्तिं यदि अधमतया कथमपि कश्चित्पापो नियच्छति प्रा. शेषष्वपि द्वितीयाऽऽदिषु भरेष तानि स्थानानि विसर्जनीप्नोति तर्हि तेन पापेन सर्वजिनानाम् आर्याः संयत्यः सङ्घ यानि । किमुक्तं भवति? द्वितीयभने यस्यां नगर्यामध्युपपश्व भगवानाशातितो मन्तव्यः। नस्तदीये कुलनिवेशनाऽऽदौ प्रविशन् धारणीयस्तृतीयचतुर्थपावाणं पावयरो, दिहिन्भासेऽवि सो ण वट्टति हु। । भङ्गयोः परपक्षः स्वपक्ष, परपक्षः परपक्षे वा दुष्ट इति लक्षणजो जिणपुंगवमुदं, नमिऊण तमेव धरिसेति ॥१३१॥ । योरुपशान्तस्यापि तेषु स्थानेषु लिङ्गं न दातव्यम् । पापानां सर्वेषामपि स पापतरः, अत एव दृष्टेर्लोचन- एत्थं पुण अहिगारो, पढमगभंगेण दुबिहदुढे वि । स्याभ्यासेऽपि समीपेऽपि कर्नु स न वर्तते न कल्पते, । उच्चारियसरिसाइ, सेसाइँ विकोवणद्वाए ॥ १३७ ॥ यो जिनपुङ्गवमुद्रां श्रमणी नत्वा तामेव धर्षयति । अत्र पुनर्विविधेऽपि कषायतो विषयतश्च दुष्टे प्रथमभनेसंसारमणवयम्ग, जातिजरामरणवेदणापउरं । नाधिकारः,शेषाणि पुद्धितीयभङ्गाऽदीनि पदानि उचारितपावमलपडलछन्ना, भमंति मुद्दाधरिससेणं ।। १३२ ।। सरशानि विनेयमतिविकोपनार्थमभिहितानि । गतो विषयः संसारमनवदग्रमपर्यन्तं जातिजरामरणवेदनाप्रचुरं पापम दुष्टः पाराश्चिकः। लपटलच्छन्ना मुद्राधर्षणेन परिभ्रमन्ति । ___ संप्रति प्रमत्तपाराश्चिकं प्राहततः कसाए विकह विगडे, इंदिय निदा पमाद पंचविधो। जत्थुप्पजति दोसो, कीरति पारंचितो स.तम्हा तु। अहिगारो सुत्तम्मी, तहिं नव इमे उदाहरणा ॥१३८।। सो पुण सेवि मसेवी, गीतमगीतो व एमेव ॥१३३ ॥ कषायाः क्रोधादयः, विकथाः स्त्रीकथाऽदिका, विकटं म. यत्र क्षेत्रे यस्य संयतीधर्षणाऽऽदिको दोष उत्पद्यते, उत्प- चम्, इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि, निद्रा वक्ष्यमाणा, एष पञ्चविस्यते वा स तस्मात् क्षेत्रात्पाराश्चिकः क्रियते, स पुनः से-धःप्रमादो भवति । अयं च निशीथपीठिकायां यथा सविस्तरं Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचिय (८६२) अभिधानराजेन्द्रः । पारंचिय सप्रायश्चित्तोऽपि भावितस्तथैवात्राऽपि मन्तव्यः, नवर- अणुवरमं पुण कीरात,सेसा नियमातु लिंगाओ।१५०। मिह स्वपनं सुप्त, निद्रा इत्यर्थः; तया अधिकारः । सा च द्वितीयो विषयदुए उपाश्रयाऽऽदे पाराश्चिकः क्रियते क्षेत्रत पञ्चविधा । वृ०५ उग(तत्र निद्रायाः स्वरूपम् "णिहा' शब्दे इत्यर्थः। न लिजात्, लिङ्गपाराञ्चिको न विधीयते । अथ ततो चतुर्थभागे २०७२ पृष्ठे गतम्) (निद्रानिद्राविवरणं विस्तरंतः दोषान्नोपरमते तदा श्रनुपरमन् लिङ्गतोऽपि पाराश्चिकः 'णिहाणिहा' शब्दे चतुर्थभागे २०७२ पृष्ठे गतम्) (प्रचला. क्रियते । शेगाः कपायदुष्टप्रमत्तान्योऽन्यसेवाकारिणो निययाः सर्वोऽधिकारः 'पयला' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५०७ पृष्ठ माल्लिङ्गपाराश्चिकाः क्रियन्ते । किमेत एव पाराश्चिका उऽस्ति ) (प्रचलाप्रचला चङ्क्रमतो जन्तोरिति 'पयलापय तान्योऽप्यस्ति ?। अस्तीति अमः। ला' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५०८ पृष्ठे गतम्) (अत्र पाराश्चि कीदृशः सः?, इति चेदुच्यतेकस्य प्रस्तुतत्वात् सत्यानद्धिनिद्रया अधिकारः । सा च 'थी. इंदियपमाददोसा, जो पुण अवराधमुत्तमं पत्तो। एद्धि'शब्दे चतुर्थभागे २४१२ पृष्ठे गता) इदानीं पुनः सामा. म्यलोकबलात् द्विगुणं त्रिगुणं चतुर्गुणं वालनं (बलं) भवतीति सब्भावसमाउहो, जति य गुणा से इमे होति ॥१५१।। मन्तव्यम् । यत एवमतः स प्रज्ञापनीयः सौम्य ! मुश्च लिङ्गं इन्द्रियदोषात्, प्रमाददोपाद्वा पाराश्चिकाऽऽपत्तियोग्याद्यः नास्ति तव चरण चारित्रम् । यद्येवं गुरुणा सानुनयं भ. पुनः साधुरुत्तममु-कृष्टमपराधपदं प्राप्तः स यदि सद्भावस. णितो मुश्चति, ततः शोभनम् । अथ न मुश्चति ततः मावृत्तो-निश्चयेन भूयोऽहमेवं न करिष्यामि, इति व्यवसितसवः समुदितो लिङ्गं तस्य मोलमनिच्छतः सकाशात् हर स्तदा स तपःपाराञ्चिकः क्रियते; यदि च ' से' तस्य इमे ति उद्घालयति, न पुनरेकजन इत्याह-मा तस्यैकस्योपरि | गुणा भवन्ति । प्रद्वेषं गच्छेत्, प्रद्विपश्च व्यापादनमाप कुर्यात् । के पुनस्ते इत्याहलिङ्गापहारनियमार्थमिदमाह संघयणविरियागम-सुत्तत्थविहाएँ जो समग्गो उ । अवि केवल मुप्पादे, ण य लिंग देति प्रणतिसेसी से। । तवसी निग्गहजुत्तो, पवयणसारे अभिगतत्थो ॥१५२॥ देसवत देसणं वा, गिएह अणिच्छे पलायति ।। १४७ ।। संहननं बज्रऋषभनाराचं, वीर्यवृत्या वज्रकुड्यसमानता, अपिः संभावने, स चैतत् संभावयति- यद्यपि तेनैव भव- भागमा जघन्येन नवमपूर्वान्तर्गतमाचाराऽऽख्यं तृतीयं वस्तु, ग्रहणेन केवलमुत्पादयति तथाऽपि (से) तस्य स्त्यानार्द्धः, उत्कर्पतो दशमपूर्व संपून तश्च सूत्रतोऽर्थतश्च यदि परिचित ततो लिङ्गमनतिशयी न ददाति. यः पुनरतिशयशानी स भवति। एतैः संहननाऽऽदिभिः, विधिना च तदुचितसमाचारेजानाति-न भूय एतस्य स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयो भविष्यति, ततो ण यः समग्रः संपूर्मः तपस्वी नाम सिंहविक्रीडताऽऽदितपःलिङ्गं ददाति । लिङ्गापहारे पुनः क्रियमाण अयमुपदेशो दीय. कर्मभावितः, निग्रहयुक्त इन्द्रियकपायाणां निग्रहसमर्थः, ते-देशवतानि स्थूलप्राणातिपातविरमणाऽऽदीनि गृहाण, प्रवचनसारे अभिगतार्थः परिणामितप्रवचनरहस्यार्थ इति । तानि चेत्प्रतिपत्तुं न समर्थस्ततो दर्शनं सम्यक्त्वं गृहाण । अथैवमप्यनुनीयमानो लिङ्गं मोक्तं नेच्छति तदा रात्रौ तं । तिलतुसतिभागमेत्तो,वि जस्स असुभो ण विजती भावो। मुक्त्वा पलायन्ते देशान्तरं गच्छन्ति । गतःप्रमत्तपाराश्चिकः । णिज्जूहणारिहो सो, सेसे णिज्जूहणा णत्थि ॥१५३ ।। अथान्योन्यं कुर्वाणं तमेवाऽऽह यस्य गच्छान्न!ढस्य तिलतुयलिभागमात्रोऽपि नि!ढोऽ. करणं तु अप्ममाम, समणाणं न कप्पते सुविहिताणं ।। हमित्यशुना भाचा न विद्यते स निर्ग्रहणाया अौं योग्यः, जे पुण करोत णाता,तेसिं तु विविंचणा भणिया।१४। शेरस्य एतद्गुणविकलस्य निर्ग्रहणा नास्ति न कर्तव्या। तुशब्दस्य व्यवहितसंबन्धतया अन्याऽन्यं परस्परं पुनर्य इरमेव व्याचलेकरणं मुखपायुप्रयोगेण संयनं तत् श्रमणानां सुविहिता एयगुणसंपउत्तो, पात्रति पारंचियारिहं ठाणं । नां कर्तुं न कल्पते । ये पुनः कुर्वन्ति ते यदि शातारस्तदा तेषां एयगुणविप्पपुक्को. तारिसगम्मी भवे मलं ॥१५४|| विवेचना परिठापना भणिता। एते. संहननाऽऽदिभिर्गुणैः संप्रयुक्तः पाराश्चिकाई स्थान प्रा. इदमेव ब्याचष्टे-- प्नोति । यः पुनरतद्गुणविप्रमुक्तस्तादृशे पाराञ्चिकाऽऽपत्तिआसगपोसगसेवी, केई पुरिसा दुवेयगा होति । प्राप्तेऽपि मूलमेव प्रायश्चित्तं भवति । तसिं लिंगविवेगो, वितियपदं रायपव्वइए ॥ ४६॥ अथ पाराश्चिकमेव कालतो निरूपयतिश्रास्यं मुखम्, पास्यमेवाऽऽस्यकं, पोपकः पायुः, पास्यक आसायणा जहासे, छम्मासुक्कोस वारसउ मासे । पोषकाभ्यां सेवितुं शालमेपामित्यास्यकपोषकसेविनः के. वासं वारस वासे, पडिसेवउ कारणा भइओ ॥१५॥ चित्पुरुषाः साधवो द्विवेदकाः स्त्रीपुरुषवेदयुक्ता भवन्ति, न. अाशातनापाराश्चिको जघन्येन परमासान , उत्कर्पतश्च पुंसकवेदिन इत्यर्थः । तेषां लिङ्गविवेकः कर्तव्यः। द्वितीयपद- द्वादश मासान् भवति, एतावन्तं कालं गच्छान्नि!ढस्तिमत्र भवति-यो राजा प्रवजितस्तस्याऽऽस्यकपापकसविनो- ठतीत्यर्थः । प्रतिसेवनापाराञ्चिको जघन्यन संवत्सरमुत्कर्ष ऽपि लिहंनापहियते, परं यतनया परित्यज्यते । गतोऽन्यान्यं तो द्वादश वर्याणि निर्यढ आस्ते । (पडिसवउ कारणे भकुर्वाणः पाराश्चिकः । इओ ति) यः प्रतिवेवकपाराश्चिकः, स कारणे कुलगणासंप्रति यो दुष्टाऽऽदिर्यतः पाराश्चिकः क्रियते तदेतद्दर्शयति- दिकाय भक्तो विकल्पितो, यथोक्नकालादागपि गच्छं प्रविश्या उवस्सयाई, कीरति पारंचियो न लिंगातो। चिशतीति भावः । Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) पारंचिय प्रनिधानराजेन्द्रः । पारचिय अथ तस्यैव गणनिर्गमनविधिमाह " उप्पन्ने कारणम्मि सन्चपयत्तेण कायव्वं" (१५६) ए तद्भाधयतिइत्तरिय णिक्खेवं, काउं असं गणं गमित्ताणं । आहरति भत्तपाणं, उबट्टणमाइयं पि सो कुणति । दव्वादिसुभे वियडण, निरुवसम्गट्ठ उस्सग्गो । १५६ ॥ सयमेव गणाहिबई,अह अगिलाणो सयं कुणति ।१६१॥ इह यः पाराश्चिकं प्रतिपद्यते स नियमादाचार्य एव भ. यदि पाराञ्चिको ग्लानो भवेत् ततस्तस्य गणाधिपतिराचाघति । तेन च स्वगणे पाराञ्चिकंन प्रतिपत्तव्यम् । श्रन्यस्मि यः स्वयमेव भक्तपाने चाऽऽहरति आनयति उद्वर्तनम् , न् गणे गन्तव्यम् । तत इत्वरं गणनिक्षेपमात्मतुल्ये शिष्ये कृ. आदिशब्दात् परावर्तनोद्धकरणोपवेशनाऽऽदिकं तस्य स्वा ततोऽन्यं गणं गत्वा द्रव्यक्षेत्रकालभावेषु शुभेषु प्रश स्वयं करोति । अथ जातोऽग्लानो नीरोगस्तत प्राचार्य न स्तेषु विकटनामालोचनां परगणाऽऽचार्यस्य प्रयच्छति, कमपि कारयति, किं च सर्व स्वयमेव कुरुते । उभावपि च निरुपसर्गप्रत्ययं कायोत्सर्ग कुरुतः । अथ किं कारणं वगणे न प्रतिपद्यते ? । उच्यते "अोलोयणं गयेसण ति” (१५६) ए तद् व्याख्यानार्थमाह उभयं पि दाऊण सपाडिपुच्छं, अप्पच्चय णिम्भयया, प्राणाभंगो अजंतणा सगणे । वाहुं सरीरस्स य वट्टमाणिं । परगणे न होंति एए, आणाथिरता भयं चेव ॥१५७।। आसासइत्ता य तवोकिलंतं, खगच्छ एव पाराश्चिकप्रतिपत्तौ अगीतार्थानामप्रत्ययो भवति-नुनमकृत्यमनेन प्रतिसेवितं येन पाराश्चिकः कृतः, त तमेव खत्तं समुति थेरा ।। १६२॥ तस्तेषां निर्भयता भवति, न गुरूणां बिभ्यति इत्यर्थः । अबि स्थविरा प्राचार्याः शिष्याणां प्रतीच्छकानां च. उभयमपि भ्यतश्चाऽऽशाभङ्गं कुर्वीरन्, अयन्त्रणा च स्वगणे भवति,शि सूत्रम च । किंविशिष्टमित्याह-सप्रतिपृच्छं पृच्छा प्र. प्यानुरोधाऽऽदिना स्वयमेव भक्तपानाऽऽनयनाऽऽदौ नि- श्नः, तस्याः प्रतिवचनं प्रतिपृच्छा, तया सहितं सप्रतिपृ. यन्त्रणे वक्ष्यमाणा न भवतीत्यर्थः । परगण च एते दोषा न च्छं, सूत्रविषयेऽर्थविषये यत् येन पृष्टं तत्र प्रतिवचनं भवन्ति । अपि च-तत्र गच्छता भगवतामाक्षाऽनुपालने स्थि- दच्या तत्सकाशमुपगम्य तदीयशरीरस्य (बट्टमाणि) व. रता स्थैर्य कृतं भवति, भयं चाऽऽत्मनः सञ्जायते । ततः पर. समाने काले भवा वार्तमानी, वार्तेत्यर्थः । तां वहन्ति, गणं गत्वा तत्र पाराश्चिकं प्रतिपद्य निरपेक्षा सक्रोशयोजनात् अल्पक्लाम्यतां पृच्छन्तीति भावः । सोऽपि चाऽऽनार्यमाक्षत्राद् बहिर्बजति । गतं मस्तकेन वन्दे इति फेटावन्दन केन वन्दते । शरीरस्य तस्य चेयं सामाचारी चोदन्तं पृष्ठा यदि तपसा क्लाम्यति, तत आश्वासयति । श्राश्वास्य च तदेव क्षेत्रं यत्र गच्छोऽवतिष्ठते तत्समुपजिणकप्पियपडिरूबी, बाहिं खेत्तस्स सो ठितो संतो । गच्छन्ति स्थविराः। विहरति वारस वासे, एगागी झाणसंजुत्तो ।।१५८॥ अथ द्वावपि सूत्रार्थ दत्वा तत्र गन्तुं न शक्नोति, ततः जिनकल्पिकप्रतिरूपी अलेपकृतं भैक्ष्यं प्रहीतव्यं, तृतीयस्यां को विधिरित्याहपौरुष्यां पर्यटनीयमित्यादिका यादृशी जिनकल्पिकस्य चर्या, असहू सुतं दातुं, दोवि अदाउं व गच्छति पगे वि। तां कुर्वन् क्षेत्राद् बहिः स्थितः सन् स पाराश्चिक एकाकी ध्यानसंयुक्तः श्रुतपरावर्तनैकचित्तो द्वादश वणि विहरति । संघाडन से भत्तं, पाणं चाऽऽणति मग्गणं ॥१६३ ॥ यस्याऽऽचार्यस्य सकाशे प्रतिपद्यते तेन यत्कर्तव्यं तदाह इहैकस्याऽपि कदाचिदेकवचनं कदाचिश्च बहुवचनं सर्व स्थाऽपि वस्तुन एकानेकरूपताऽऽख्यापभार्थमित्यदुष्टम् । ओलोयणं गवेसण, आयरिश्रो कुणति सबकालं पि। असहिष्णुराचार्यः सूत्रं दया गच्छति, अथ तथाऽपि न उप्परले कारणम्मी, सव्वपयत्तेण कायव्वं ॥ १५ ॥ शक्नोति, ततो द्वावपि सूत्रार्थावदत्त्वा (पगे) प्रगे प्रभात श्राचार्यः पाराञ्चिकस्य सर्वकालमपि, यावन्तं कालं त. पव गच्छति, तस्य च तत्र गतस्य एकः संघाटको भक्तं प्रायश्चित्तं वहति तावन्तं सकलमपि कालं यावत् प्रति- पानकं च मार्गेण पृच्छत श्रानयति। दिवसमवलोकनं करोति; तत्समीपं गत्वा तद्दर्शनं करोती- ___ कदाचित्तत्र गच्छदपि, तबैतानि कारणानित्यर्थः । तदनन्तरं गवेषणम्-गतोऽल्पक्लामतया भवतां दिव गेलम्मेण व पुट्ठो, अभिनवमुक्को ततो व रोगातो। सो रात्रिश्चेति पृच्छां करोति । उत्पन्ने पुनः कारणे ग्लानत्वलक्षणे सर्वप्रयत्नेन भनपानाऽऽहरणाऽऽदिकं स्वयमाचार्येण कालम्मि दुबले वा, कजे अप्ले य वाघातो ।। १६४ ।। तस्य कर्तव्यम् । स प्राचार्यो ग्लानेन वा पृष्टो भवेत् । अथवा-तस्माद् जो उ उवेहं कुजा, आयरिओ केणई पमाएणं । ग्लानत्वकारणात् रोगादभिनवमुक्तस्तत्काल मुक्तः स्यात् , ततो न गच्छेत् । यदि वा-काले दुर्बले न विद्यते बलं गमआरोवणा उ तस्सा, कायव्वा पुव्वनिविट्ठा ॥ ६०॥ नाय यस्मिन् गाढतपःसंभवाऽऽदिना स दुर्बलो ज्येष्ठायः पुनराचार्यः केनाऽपि प्रमादेन जनव्याक्षेपाऽऽदिना उपे- उपाढाऽऽदिकः, कालशब्दोऽभाववाची (?), तस्मिन्न गच्छेत, क्षां कुरुते, तस्य समीपं गत्वा तच्छरीरस्योदन्तं न वहति, शरीरक्लेशसंभवात् । “ कज्जे अन्ने च वाघातो” इति । तस्य श्रारोपणा पूर्वनिर्दिष्टा ग्लानद्वाराऽभिहिता कर्तव्या; अत्र सप्तमी तृतीयाथै, प्राकृतत्वात्। ततोऽयमर्थः-अन्येन चत्वारो गुरुकास्तस्य प्रायश्चित्तमारोपयितव्यमिति भावः । । वा कार्येण केनापि व्याघातो भवेत् । Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६४) पारचिय अभिधानराजेन्मः। पारंचिय किं पुनस्तत्कार्यमित्याह तमिच्छए संजयरूवि दहूं। कयपराजएण कुवितो, चेइयतद्दन्यसंजतीगहणे । निवेदयित्ता य स पत्थिवस्स, पुग्नुत्ताण चउराह वि, काण हवेज अनयरं ॥१६॥ जहिं निवो तत्थ तयं पवेसे ।। १७०॥ वादे कस्याऽपि राजवशामवादिनः पराजयेन कुपितः स्यात् । हे प्रतीहाररूपिन् ! मध्ये गत्वा राजरूपिणं राजानुकारिणं थवा-चैत्यं जिनाऽऽयतन किमपि तेनावरुखं स्यात्तत- भण-यथा त्वां संयतरूपी दृष्टुमिच्छति । एवमुक्तः सन् स L IHITS स्तन्मोचने कुद्धा भवेत् । अथवा-तद्र्व्यस्य चैत्यद्रव्य- प्रतीहारस्तथैव पार्थिवस्य निवेदयति, निवेद्य च राजानुमस्थ संयत्या वा ग्रहणं राज्ञा कृतं, तम्मोचने वा कुपितः। ततः त्या यत्र नृपोऽवतिष्ठते तत्र तकं साधुं प्रवेशयति । पूर्वोक्तानामिहैव प्रथमोद्देशके प्रतिपादितानां निर्विषयित्वा- तं पूयइत्ता य सुहासणत्थं, मापनभक्तपाननिषेधोपकरणहरणजीवितचारित्रभेदलक्षणा पुच्छिसु रायाऽऽगयकांउहल्लो। नां चतुर्षा कार्याणामन्यतरत् कार्यमुत्पन्नं भवेत् , ततो न गच्छेत् । अथवाऽगमने खोपाध्यायः प्रेषणीयोऽन्यो वेति । | पण्हे उराले असुए कयाई, तथा चाऽऽह स.यावि आइक्खइ पत्थिवस्स ॥ १७१॥ पेसेइ उवज्झायं, अन्नं गीतं व जो तहिं जोग्गो।। तं साधु प्रविष्टं सन्तं राजा पूजयित्वा शुभाऽऽसनस्थं शुभे पुट्ठो व अपुट्ठो वा, सया वि दीवेति तं कजं ॥१६६ ॥ आसने उपविएम्, आगतकुतूहलोऽप्राक्षीत् । कानिस्याह-प्रपूर्वोक्तकारणवशात् स्वयमाचार्यः तत्र गमनाभावे उपा मान् उदारान् गम्भीरार्थान् कदाचिदप्यश्रुतान् प्रतीहाररूपिन् ध्यायं, तदभावे अन्यो वा यो गीतार्थस्तत्र योग्यस्तं इत्येवमादिकान्। स चाऽपि साधुरेवं पृष्टः पार्थिवस्याऽऽचष्टे। प्रेषयति, तत्र गतः सन् तेन पाराञ्चितेन किमद्य क्षमाश्रमणा किमाचष्टे इत्याहनाऽऽयाता इति पृष्टो वा अपृष्टो वा तत्कार्य कारणं दापयेत् जारिसग आयरक्खा, सक्कादीणं तु तारिसो एसो।। यथा अमुकेन कारणेन नाऽऽयातः। तुह राय !दारपालो, तं पि य चक्कीण पहिरूवी ।१७२। जाणता माहप्पं, सयमेव भगति एत्थ तं जोग। यादृशकाः खलु शक्राऽऽदीनाम्,आदिशब्दावपराऽऽदिपरिणअत्थि मम एत्थ विसओ, अजाणए सो वए तेसिं। १६७।। हरापास्मरक्षाः, तादृश एष तव राजन् द्वारालस्तत उक्तम्इह यदि ग्लानीभवनाऽऽदिना कारणेन क्षमाश्रमणानागमनं हे प्रतीहाररूपिन् ! तथा त्वमपि यादृशश्चक्रवर्ती ताहशो न पृऐन अपृऐन वा दीपितं. तदान किमप्यन्यत्तेन पाराश्चितेन भवसि, रत्नाऽऽद्यभावात्। अत्रान्तरे चक्रवर्तिसमृद्धिराख्यातवक्तव्यं, किं तु गुर्वादेश एव ततो यथोदितः संपादनीयः। अथ व्या। किंच-प्रतापशौर्यन्यायानुपालनाऽऽदिना तत्प्रतिरूपी:राजप्रद्वषतो निर्विषयत्वाऽऽशानाऽऽदिना व्याघातो दीपित. सि, तत'उक्तम्-राजरूपिणं ब्रूहि, चक्रवर्तिप्रतिरूपमित्यर्थः। स्तत्र यदि ते उपाध्याया अन्ये वा गीतार्थास्तस्य किीचत् एवमुक्ने राजा प्राऽऽह-त्वं कथं श्रमणानां प्रतिरूपी। स्वयमेव बुद्धयन्ति, ततो जानन्तः स्वयमेव तस्य माहा. तत आहत्म्यं तं भणन्ति ब्रुवते-यथाऽस्मिन् प्रयोजने त्वं योग्य इति समणाणं पडिरूवी, जं पुच्छसि राय! तं जहमहं ति । क्रियतामुखमः। अथ न जानते तस्य शक्ति, ततः स पव तान् अजानानान् ब्रूते यथा अस्ति ममात्र विषय इति । निरतीयारा समणा, न तहाऽहं तेण पडिरूवी।। १७३ ।। एतच्च स्वमुपाध्यायाऽऽदिभिर्वा भणितो वक्ति यत् त्वं राजन् ! पृच्छसि अथ कथं त्वं श्रमणानां प्रतिरू पी, तदहं कथयामिन्यथा श्रमणा भगवन्तो निरतिचाराः, अत्थउ महाणुभागो, जहासुहं गुणसताऽऽगरो संघो । न तथाऽहं, तेन श्रमणानां प्रतिरूपी, न साक्षात् भ्रमण इति। गुरुग पि इमं कजं, मं पप्प भवेस्सए लहुयं ॥१६८॥ प्रतिरूपित्वमेव भावयतितिष्ठतु यथासुखं महान् अनुभागोऽधिकृतप्रयोजनाऽनुकूला निन्बूढो मि नरीसर., खेत्ते विजईण अत्यिउं न लभे। अचिन्त्या शक्तिर्यस्य स तथा, गुणशतानामनेकेषां गुणा अतिचारस्स विसोधि, पकरेमि पमायमूलस्स ।। १७४।। नामाकरो निधानं गुणशताऽऽकरः सङ्कः। यत इदं गुरुकमपि कार्य मां प्राप्य लधुकं भविष्यति,समर्थोऽहमस्य प्रयोजनस्थ हेनरेश्वर! प्रमादमूलस्थाऽतिचारस्य सम्प्रति विशोधि प्रकलीलयाऽपि साधने इति भावः। रोमि. तां च कुर्वन् नियूंढोऽस्मि निष्काशितोऽस्मि, तत एवमुक्तेऽसौ अनुशातः सन् यत्करोति तदाह आस्तामन्यत्, क्षेत्रेऽपि यतीनामहमास्थातुं न लभने, ततः श्रमणप्रतिरूप्यहमिति । राजा प्राह-कस्त्वया कृतोऽतिचारः, अभिहाणहेउकुसलो, बहूसु नीराजितो विउ सभासु। | को वा तस्य विशोधिः?। गंतृण रायभवणं, भरणाति तं रायदार? ॥ १६६ ।। इत्थं पृष्टे यत्कर्तव्यं तदाहअभिधानहेतुकुशलः, शब्दमागें तर्कमार्गे चाक्षम इत्यर्थः। कहणाऽऽउट्टण आगम-ण पुच्छणं दीवणा य कजस्स । अत एव बहुषु विद्वल्लभासु नीराजितो निर्वदित इत्थंभू- वीसज्जियं ति य मए, हासुस्ससितो भणति राया।१७॥ तः स राजभवने गत्वा तं राजद्वारस्थं प्रतीहारं भणति । कथना राक्षा पृष्टस्य प्रसङ्गतोऽन्यस्याऽपि यथा प्रवचनकिं भणीव्याह भावना भवति, तत आवर्तनमाकम्पनं, राक्षो भक्तीभवनमिपडिहाररूवी! भण रायरूविं, ति भावः । तदनन्तरमागमनकारणस्य प्रश्नः, केन प्रायो. . Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारंचिय अनिधानराजेन्छः। पारंचिय जनेन यूयमत्राऽऽगताः। अत्रान्तरे येन कार्येण समागतस्य छब्भागं दसभागं, वहिज सव्वं च झोसिज्जा ।।१८०॥ दीपना प्रकाशना ततो राजा (हासुच्छलिउ त्ति) हासेन युक्त द्वयोरपि आशातनाप्रतिसेवनापाराश्चिकयोर्जघन्य उत्कृष्टउच्छलितो हृष्टो,हसितमुख प्रहृष्टश्च सन्नित्यर्थः। भणति यथा श्व यः कालस्तस्य संबन्धिनं षड्भागं वा अनन्तरोक्तं वहे. मया विसर्जितमुत्कलितं निर्विषयाऽऽक्षपनादिकं कार्यमिति। स् । यद्वा-सर्वमप्यवशिष्यमाणं सङ्घो झोषयेत्, प्रसादेन मु. एवं च किं सञ्जातमित्याह ञ्चेदिति भावः । वृ०४ उ० । पञ्चा० । प्रवः। संघो न लभइ कजं, सव्वं कज्ज महाणुभारण। पाराञ्चितशोध्या प्रतीचाराःतुझं ति विसज्जेऽहं, सो वि य संघो त्ति पूएति ।।१७६।। तित्थयर पवयण सुयं, आयारियं गणहरं महिड्डीयं । निर्विषयत्वाऽऽज्ञापनमुत्कलनाऽऽदिलक्षण कार्य संघो न लभ- आसाइंतो बहुसो, आभिनिवेसेण पारंची।। ६४॥ ते, किं तु तेन पाराचिकेन महानुभागेन सातिशयाचिन्त्य तीर्थकराऽऽदीन् अाशातयन् हीलयन् पाशातनापाराप्रभावेन लब्धम् । न च स एवं कार्यलाभेन गर्वमुद्वहति । चिको भवति । यत आह-(तुझं ति इत्यादि) राजा प्राह-युष्माकं भणिते प्रतिसेवनापाराञ्चिकमाहनाहं पूर्वग्राहं त्यक्त्वा यत्कार्य विसर्जयामि, नान्यथा। सो जो य सलिंगे दुबो, कसायविसएहि रायवहगो य । ऽपि च पाराञ्चिको ब्रूते-राजन् ! कोऽहं ?, कियन्मात्रो वा गरीयान् सङ्घो भट्टारकः, तत्प्रभावादेवाहं किञ्चित् जानामि, रायग्गमहिसिपडिसे-चओ य बहुसो पगासो य ॥६॥ तस्मात् सङ्घमाहूय क्षमयित्वा यूयमेवं ब्रूत-मुत्कलितं रा. इह प्रतिसेवनापाराञ्चिकस्त्रिधा-दुष्टो, मूढः, अन्योन्यं कुर्वाक्षा युष्माकमिति । ततो राजाऽपि सङ्घ पूजयति ।। णश्च । यदाह-"पडिसेवणपारंची, ० (१०७)" इत्यादिगाथा अब्झत्यितो व रमा, सयं व संघो विसज्जति उ तुट्टो । सव्याख्याऽस्मिन्नेव भागे ८५६ पृष्ठे गता। यस्य दुष्टः स आदामझऽवसाणे,सया वि दोसो धुओ होइ ।।१७७।। द्विधा-कषायतो. विषयतश्च । पुनरंकैको द्विधा (सलिंग ति) राजा सर्छ ब्रूयात्-मया युष्माकं विसर्जन कार्य, परं मदीय समानालिङ्गे स्वपक्षे श्रमणश्रमणीरूपे, चकारात्परलिङ्गे च पमपि कार्यमिदानी कुरुत-मुञ्चतास्य पाराचिकस्य प्रायश्चि रपक्षे गृहस्थेऽन्यतीर्थिक वा ततश्च स्वपक्षपरपक्षाभ्यां कषासम् । एवं राज्ञा अभ्यर्थितो, यदि वा-स्वयमपि तुष्टः सङ्घो वि.| यदुष्टे विषयदुष्टे च चत्वारः चत्वारो भङ्गा भवन्ति। तत्रैवं सर्जयति मुत्कलयति। किमुक्तं भवति ?- यद् व्यूढं तद् व्यूढमेव कषायदुष्टे भङ्गचतुष्टयम्-स्वपक्षकषायदुष्टः परपक्षकषायदुशेषं तु पुनः देशतः सर्वतो वा प्रमादेन मुश्चति तस्य च पारा टश्चेत्येको भनः । स्वपक्षकषायदुष्टोन परपक्षकषायदुष्ट इति चिकतपसस्तदानीमादिमध्यावसानं वा भवेत्, त्रिधाऽपि द्वितीयः। न स्वपक्षकषायदुष्टः परपक्षकषायदुष्ट इति तृतीय । सङ्घस्याऽऽदेशात् सर्वोऽपि पाराश्चिकाऽऽपत्तिहेतोर्दोषो धूतः | उभाभ्यामपि न दुष्ट इति, चतुर्थः शुद्धो भङ्गः । उक्तं च-“दुकम्पितः, प्रमादेन स्फेटितो भवतीत्यर्थः । तत्र देशो देश. विहो य होइ दुट्ठो, (१०८)" इत्यादिगाथा सव्याख्याऽस्मिदेशो वा प्रायश्चित्तस्य तेन वोढव्यः। अथ राजा तस्याऽपि नेव भागे ८५६ पृष्ठे गता। तत्र स्वपक्षकषायदुष्टे चत्वायुदामोचने निर्विघ्नं करोति, तदा तदपि मुच्यते, देशो नाम ष हरणानि । “सासवनाले १, मुहणतए य २,उलूगच्छि ३,सिइभागः, देशदेशो दशभागः। हरिणी चेव ४।” (११०) इत्यादिगाथा सव्याख्याऽस्मिन्नेव तत्र देशो यावन्तो मासा भवन्ति तदेव प्रतिपादयति- भागे ८५६ पृष्ठे गता। एको य दोमि दोमि य,मासा चउवीस होति छब्भागो। "सासवनाल ति " सर्षपभर्जिका १देसं दोएह वि एयं, बहिज्ज मुंञ्चेज्ज वा सव्वं ॥१७८।। "साधुः कोऽपि गतो भिक्षा, लब्ध्वा सर्षपभर्जिकाम् । इहाऽऽशातनापाराञ्चिको जघन्यतो वर्षम्, उत्कर्षतो द्वा. रुच्यां सुसंस्कृतां गृद्धो-ऽप्याचार्याणामढौकयत् ॥१॥ दशवर्षाणि भवतीत्युक्तम् । तत्राऽपि वर्षस्य षड्भागो द्वी भुक्ता सर्वाऽपि साऽऽचार्यः, साधुश्चाऽऽक्रोशयत्स तान् । मासौ, द्वादशवर्षाणां षष्ठे भागे चतुर्विंशतिर्मासा भवन्ति । ततस्तैः क्षमितोऽप्युच्चै-रूचे भक्ष्यामि ते रदान् ॥२॥ एवंविधं देशं द्वयोरप्याशातनाप्रतिसेवनापाराश्चिकयोः सं. गुरुणाऽचिन्ति मामेष, मावधीदसमाधिना । बन्धिनं सङ्घस्याऽऽदेशाद् वहेत् । यद्वा-सर्वमपि सबो मुश्चे स्वगणेऽन्यमथाचार्य, कृत्वाऽगात्स गणान्तरे ॥३॥ त्, किमपि कारयोदित्यर्थः। मृतश्चानशनात् तत्र. सोऽथ दुष्टोऽवदन्मुनीन् । अथ देशदेशमाह गुरवः कागमन्नूचे, तैने विश्नोऽन्यतोऽथ सः॥४॥ अट्ठारस छत्तीसा, दिवसा छत्तीसमेव चरिमं च । ज्ञात्वा तत्रागमत्तांश्चा-पृच्छत् साधून् गुरुःक मे । .. तैरूचेऽद्य मृतस्त्यनं, श्मसानेऽस्ति च तवपुः॥५॥ धावत्तरिं च दिवसा, दसभाग वहेज्ज बितिओ तु ।।१७६।। गत्वा तत्राथ तद्दन्तान्, स भनक्ति बपति च। आशातनापाराश्चिके षण्मासानां दशमे भागे अष्टादश दि खादिष्यास पुनः किं मे, रुच्या सर्षपभर्जिकाम् ॥६॥ घसाः, वर्षस्य तु दशमे भागे षट्त्रिंशदिवसा भवन्ति । प्र "मुहणंतग ति" दर्शयति २- . तिसेवनापाराश्चिके संवत्सरस्य दशमे भागे पत्रिंशद्दिवसाः, अन्यः कोऽपि मुनिलब्ध्या, मुखानन्त्रकमुज्ज्वलम् । द्वादशवर्षाणां दशमे भागे वर्षमेकं द्वासप्ततिश्च दिवसा भव. गुरोरढीकयत् तचा55--ददे तैः सोऽपि रुष्टवान् ॥७॥ स्ति । एतावन्तं कालं यहेत्, एष द्वितीयो देशदेश उच्यते। तदर्थापयतोऽप्यस्य, नाऽऽददे तं पुनर्निशि । उपसंहरन्नाह तल्लास्यसीति जल्पन् स, गुरुं गाढं गलेऽग्रहीत् ॥८॥ पारंचीणं दोएह वि, जहन्नमुक्कोसयरस कालस्स । संमूढो गुरुरप्येनं , ततो द्वावपि तौ मृतौ । Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारंचिय प्रनिधानराजेन्द्रः। पारंचिय "सिहरिणि ति" दर्शयति ४.. दिशोऽयलोकनात् तय, मुनिभिर्मासमीक्षितम् ॥५॥ साधुना केनचित् कापि, लब्धा शिखिरिणी शुभा ॥६॥ सोऽथ स्त्यानर्द्धिमान् ज्ञात्वा. लिङ्गपाराश्चिकः कृतः । तया निमन्त्रितस्तन, गुरुस्तां निखिला पपौ। साधुर्भिक्षा भ्रमन् कोपि, मोदकान् वीक्ष्य कुत्रचित् ॥६॥ तं सोऽथास्मानमुद्राय हिंसनन्यैर्यवार्यत ॥ १० ॥ चिरमैक्षिष्ट गृद्धस्ता-नलब्ध्वाऽशेत तन्मनाः। तथाऽप्यनुपशान्ते च, तस्मिन्ननशनं गुरुः। जातस्त्यानर्द्धिरुत्थाय, गत्वा तवनं निशि ॥७॥ स्वगच्छ एव विदधे, नान्यं गच्छं जगाम सः॥११॥ भिवा कपाटमत्ति स्म. मोदकानुद्धतामथ । "उलुगच्छि त्ति" वर्शयति ३ पात्रे कृत्वाऽश्रये प्राप्तः प्रातः स्वप्नं न्यवेदयत् ॥८॥ अस्तं गतेडाप कोऽप्यकें सीव्यन् गुरुभिरौच्यत । हवा पादोनपौरुष्यां. तान् पात्रप्रतिलेखने । उलूकाक्षोऽसि भिक्षो ! त्वं, स रुष्टो गुरुमूचिवान् ॥१२॥ लिङ्गपाराश्चिकः सोऽपि, ततो गुरुभिरावधे ॥६॥ तवैवं वदतो वे अ-प्यक्षिणी उद्धराम्यहम् । एकः साधुर्गतो भिक्षा, त्रासितः करिणा ततः । अथाऽसौ गुरुणा गाढं, क्षमितोऽपि न शान्तवान् ॥ १३ ॥ पलायितः कथमपि, तस्मिन् रुष्टश्च सुप्तवान् ॥१०॥ ततो रजोहतो लोह-मयीमाकृष्य कीलिकाम् । जातस्त्यानर्द्धिरुत्थाय, गत्वा व्यापाद्य त गजम् । रोषाऽऽध्मातः स दुष्टाऽऽत्मा, समुद्दब्रेऽक्षिणी गुरोः॥१॥" पानीय दन्तमुशले, विन्यस्योपाधयोपरि ॥११॥ पते चत्वारोऽपि साधवो दुष्टत्वात् लिङ्गपाराश्चिकाः । पर पुनः सुप्तः प्रगे स्वप्नं, व्याचक्षेऽथ तपोधनैः । पक्षकपायदुष्टस्तु-राजवधक उदायिनृपमारकवत् । विषयदु दृष्ट्वा दन्तान् स विज्ञातो, लिङ्गपाराश्चिकः कृतः ॥ १२ ॥ टस्यैवं भङ्गचतुष्टयम्-स्वलिङ्गी स्वलिङ्गिनी साध्वी सेवते १, गच्छे महति कस्मिंश्चित्, प्रावाजीत्कुम्भकारकः । स्वलिङ्गी गृहलिङ्गिनी स्त्रियम् २, स्वलिङ्गी अन्यलिङ्गिनी परि- सुप्तः स्त्यानर्द्धिभावात्रौ, मृत्तिकाभ्यासतः स तु ॥ १३॥ ब्राजिकादिकाम् ३,अन्यलिङ्गी चान्यलिङ्गामिति ४.शून्योऽयं समीपस्थितसाधूनां, चिच्छेद च शिराँस्यधीः । भङ्गः । तत्राऽऽद्यो विषयदुष्टः-"पावाणं०" (१३१) इत्यादिगा- एकान्ते निक्षिप्य तानि, शीर्षाणि च वपूंषि च ॥ १४ ॥ थास्मिन्नेव भागे८६१ पृष्ठेगता। द्वितीयविषयदुष्टस्तु बहुशः शेषा अपसृता भूयः, सुप्तः स्वमं प्रगेऽवदत् । पौनःपुन्यन प्रकाशो लोकविदितः राजानमहिषीप्रतिसेवकश्च । मृतान् वीक्ष्याथ साधून स, लिङ्गपाराश्चिकः कृतः ॥१५॥ अग्रमहिषीग्रहणादन्या अप्यनतिदिष्टा राशस्तत्सेवकश्वश वटस्याऽधोऽध्वना कश्चित् , भिक्षाचर्या गतो मुनिः। ब्दात् युवराजसेनापत्याद्यग्रमहिषीसवकश्च । द्वावप्येतौ लि. आतपाऽऽर्तो वलन् वेगात्, चुत्तुग्रीष्मार्कतापितः॥१६॥ अपाराश्चिकौ । तृतीयविषयकुष्टस्याप्यतिशयी लिङ्गं दद्यान्ना तच्छाखायामास्फलितो, रुष्टस्तस्यामसनिशि । न्यः। अनतिशयी तु तस्यापि लिङ्गं पाराश्चिकमेव दत्त इत्यर्थः। स्त्यानद्धर्युदयतो गत्वा, भक्त्वा शाखां समागतः॥१७ ।। अत्राऽऽह शिष्यः- सामान्यस्त्रीसेवकः साधुः किं न पारा विन्यस्योपाश्रयद्वारे, सुप्तः स्वप्नं न्यवेदयत् । श्चिकः? । उच्यते-बहुपाया राजाद्ययमहिष्यः, तत्सेवने कु- प्रातः स्त्यानद्धिमान् ज्ञात्वा, लिङ्गपाराश्चिकः कृतः॥१८॥ लगणसङ्घाऽऽचार्याणां प्रस्तारः संहाररूपो, निर्विषयता वा केऽप्याहुः प्राग् वनेशोऽभूत् सोऽथ स्त्यानर्द्धिमान्नरः । स्यात्, इतरस्त्रीषु पुनर्वतभङ्ग एव दोष ; दोषवत एव चैक संजमे प्राग्भवाभ्यासाद् , वटशाखां ततोऽभनक ॥ १६॥" स्याउपाय इति तस्य मूलम् । व्याख्यातो दुष्टपाराश्चिकः। उक्नो मूढपाराश्चिकः। मूढपाराश्चिकमाह अन्योऽन्यं कुर्वाणः पाराश्चिकस्तु-(अण्णुन्नासेवणपसत्तो थीणद्धिमहादोसो, अण्णुमासेवापसत्तो य । य) अन्योऽन्यं पुरुषः पुरुषान्तरेण सह परस्परं मुखपायुप्रचरमट्ठाणावत्ति, बहुसो य पसजए जो उ॥६६॥ योगतो मैथुनाऽऽसेवनायां प्रसक्तः। तथा चरमस्थानं पाराश्चिस्त्यानद्धिदर्शनावरणीयकर्मभेदरूपस्य निद्रापश्चकस्य प- कं, तदापत्तिहेतवो ये अतिचारास्तेषु, बहुशः पौनःपुन्येन श्चमो भेदः, यदुदयेऽतिसंक्लिष्टपरिणामाऽऽदिनाऽदृष्टमर्थमु- यश्च प्रसजति प्रसक्तो भवति, स पाराश्चिकः क्रियत इत्यर्थः । त्थाय प्रसाधयति, केशवार्द्धबलश्च जायते । तदनुदयेऽपि च एतदेवाऽऽहस शेष पुरुषेभ्यस्त्रिचतुर्गुणवलो भवति । इयं च प्रथमसंहनिन सो कीरइ पारंची, लिंगाओ खित्त कालो तवओ। एव भवति,इयमेव च महान् दोषो यस्य स स्त्यानर्द्धिमहादो सो पागडपरिसेवी, लिंगाओ थीणनिद्दी य॥७॥ षः। अयं च मूढः प्रमत्तश्च कथ्यते। एते च पुगलमोदकहस्ति पाराश्चिकः चतुर्द्धा-लिङ्गतः, क्षेत्रतः, कालतः, तपोविशेदन्तकुम्भकारवटशाखाधवः पञ्च स्त्यानामुदाहरणानि । तद्यथा षतश्च । तत्र लिङ्गपाराश्चिके द्रव्यभावलिङ्गपाराश्चिके द्रव्य" एका कुटुम्बिको ग्रामे, मांसमेवात्यनेकधा। भावलिङ्गाभ्यां चतुर्भङ्गी-द्रव्यलिङ्गेन पाराश्चिको भावलिङ्गेश्रुत्वा धर्म स केषाश्चित्, समीपे ब्रतमग्रहीत् ॥१॥ न च १, द्रव्यलिङ्गन पाराश्चिको न भावलिङ्गेन २, भावविचरँश्च क्वचिद् ग्रामे, महिषं पिशितार्थिभिः। लिङ्गेन पाराश्चिको न द्रव्यलिङ्गेन ३, उभाभ्यामपि न पाराविभज्यमानमद्रासीत्, ततोऽभूत्तन सस्पृहः ॥२॥ श्चिक इति, चतुर्थः शुद्धः। तत्र स प्रकटमतिसेवी राजाप्रमसीऽब्युच्छिन्नतदाकाहने, भुक्को यातो बहिर्भुवम् । हिष्यादिसेवकः स्त्यानर्द्धिमान् । चशब्दाद् अन्योऽन्यासेवनासूत्रस्य पौरुषी चान्यां, चक्रे सुप्तस्तथा निशि ॥३॥ प्रसको राजबधकश्च, लिङ्गतः पाराश्चिको द्रव्यलिजनावलिजातस्त्यानर्द्धिरुत्थाय, गत्वा महिषमण्डलम् । साभ्यां पाराञ्चिकः क्रियत इत्यर्थः। इत्वकं भुक्तवान् शेष-मेत्य समोपरि न्यधात् ॥४॥ अत्र पाराश्चिकं गाथाद्वयेनाऽऽहईरग् दृष्टः प्रगे स्वप्नः, इत्यालोचितवान् गुरोः । वसहि निवेसण पाडग-साहिनिओगपुरदेसरजाओ। Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६७) अभिधानराजेन्रुः | पारंचिय खिचाओ पारंची, कुलगणसंपालयाओ वा ॥ ६८ ॥ जरथुप्पन दोसो, उप्पलिस्सा व जस्थ नाऊ । तत्तो तत्तो कीरइ, खित्ताओ खित्तपारंची ॥ ६६ ॥ 9 सतिः प्रस्तावाद् ग्राम निवेशनम् एकनिर्गमप्रवेशद्वारो ग्रामयोरन्तराले व्यादिगृहाणां संनिवेशः । एवंविधस्वरूप एव ग्रामान्तर्गतः पाटकः । " साही " शाखारूपेण थेणिक्रमेण स्थिता प्रामगृहाणामेकतः परिपाटि नियंगपुरं निश्चिता। योगाऽऽदिना कृतव्यापारा यस्य स नियोगो राजा, तस्य पुरं राजधानी देशी जनपदः राज्यं राष्ट्रं पापदेशेो भूपतिः राजा तावद्देशप्रमाणम् । एतेषां द्वन्द्यः । तस्मात् क्षेत्रात्पाराश्चिकः कुलगणसङ्घाऽऽलयाद्वा कुलगणसङ्घानामा सामस्त्येन यत्र क्षेत्रे लयनं मिलनं तस्माद्वा यत्र क्षेत्रे वसतिनिवेशनादिके पाराजिका3उपसिकारी, त्पत्स्यते च यत्र तिष्ठतो दोषस्तं ज्ञात्वा ततस्ततः क्षेत्रात् क्षेत्रपाराश्चिकः क्रियते । काल तपःपाराजिकावाह जत्तियमित्तं कालं, तवसा पारांचियस्स विसए वा । कालो दुविगप्परसपि, अवटुप्यस्स जोऽभिहियो । १०० । सूचकत्वात् सूत्रस्य यो यावन्तं कालमनुपशान्तदोषो अनुपरतपाराचिका 53पत्तिहेत्वतिवारः स तावन्तं कालं का लपाराचि ततः पाराधिको विधा-आशातनापाराजिका, प्रतिसेवनापाराचिकच प्रायः प्रागुक्ररूपः प्रतिसेवना पाराश्चि कस्त्रिधा - दुष्टः प्रमत्तोऽन्योन्यं कुर्वाणश्च । श्र द्यन्त्यभेदौ प्रागुक्तरूपौ । प्रमत्तो मूढः । स पञ्चधा कषायचिकथामयेन्द्रियनिद्रायैः प्रमाददेविस्तारेयः अस्य च तपः पाराश्चिकस्य द्विविकल्पस्थाऽपि स एव कालः प्रमाणसमयो यः पूर्वमनवस्थाप्यस्याऽभिहितः । तस्य चेयं योजना आशातनातपःपाराञ्चिकस्य द्विकल्पस्याऽपि स एव जघन्येन षण्मासः, उत्कर्षेण वर्षम् । प्रतिसेवनापाराश्चिकस्य तु जघन्येन वर्षम्, उत्कर्षेण द्वादश वर्षाणि । तथा पा राचिकमपि अनवस्थाप्यमिय संहननाऽऽदित एचदी ते. तपोऽपि पारिहारिकाऽऽख्यमनवस्थाप्यस्यैव पाराश्चिकस्याऽपि भवति । प्रतिपक्षपाराक्षिकस्य साधविधिमाहएगागी खित्तवर्हि, कुणइ तवं सुविउलं महासत्तो । अबलोपणमारिओ, पइदियमेगो कुणइ तस्स ।। १०१ ।। एकाकी महासच्वो जिनकल्पिक प्रतिरूपः क्षेत्राद्बहिः स्थितः सुविपुलं पारिहारिकतपोरूपं तपः करोति । स च यत्र यत्र क्षेत्रे आचार्यो विहरति ततस्ततः क्षेत्रादर्द्धयोजनं पयि तिष्ठति वहिः स्थितस्य च तस्याऽऽचार्यः प्रतिदिवसमयलोकनं करोति सूत्रापरुथी द्वे अपि दष्वा तस्य समीपं याति श्रर्थपौरूषीमदत्त्वा वा याति । अथवा द्वे अ व्यष्या पाति । अथाऽथाय दुर्बलवत्समीपे गन्तुमक्षमः कुलमणाऽऽदिकार्येण या व्यावृतः ततो मीतार्थ शिष्यं तव पयति तत्र चाचार्यस्याचार्यप्रेषितस्य या शिष्यस्य तत्समीपं गच्छतस्तत्समपादागच्छतो वाऽपान्तराले साधवो भक्तं पानं चोपनयन्ति । पाराञ्चिकसाधुस्तु यद्यग्लानस्त पारंग " दा स्वयमेव भक्तपानाऽऽदिकमानयति प्रतिलेखनामुर्तना ssदिकं च करोति । अथ ग्लानस्तस्याऽऽचार्योऽन्यो वा साधुपानाऽऽपनयति उर्तनाऽऽदिकं च करोति । खुषाऽर्थे चाचार्योऽम्पो वा तस्य पृच्छायामुत्तरमपि ददाति। एवमे तत् संक्षेपतः पाराचिका प्रायश्चितं भणितम् । जीत । पाराधिकरूप गणानुशा पारंचियं भिक्खुं गिलायमाणं नो कप्पर तस्स गणात्रदिवस निहित अमिलाए तस्स करखि वे याडियं० जाव रोगार्तकाच्यो विप्यमुळे ततो पच्छा तस्स अहालडुस्सगो बहारो पट्टषिपब्वे सिया || ६ || अथास्य सूत्रस्य पूर्वसूत्रेण सह कः संबन्धः ? । उच्यतेसगणे गिलायमाणं, कारणे परगच्छमागयं वावि । मा हुग कृज्जा खिज्जू हमगिलाए एस संबंधी ॥६८॥ यथाऽनवस्थाप्यस्य कर्तव्यं तथा प्रतिपन्न पाराञ्चितप्रा यश्चित्तस्याऽपि न पुनरेवं निर्यूद्दितो निष्कासित इति कृत्वा स्वगणे ग्लायन्तं रोगाऽऽतङ्कवशतो ग्लानिमुपगच्छन्तं, यदि या प्रागुक्रेरशिवादिभिः कारणैः परगा मा. दुनि सवैयावृत्यविषयं न कुर्यात् नाकात् किं तु तस्या उपि वैयावृष्यमवश्यमग्लान्या कर्तव्यम् तथा प्रतिपक्षपाराश्चितप्रायश्चित्तस्याऽपि तत्र गणे क्षेत्रवहिः स्थितस्याऽऽचार्यः स्वयमुदन्तं वहति, परगणेऽपि कारणवशादायातस्य तदीय आचार्यः करोति यथा वैयावृत्यमित्येव पूर्वसूत्रेण सहास्य सूत्रस्य संबन्धः । श्रनेन संबन्धेनाऽऽया तस्याऽस्य व्याख्या कर्तव्या । सा च प्राग्वत् । व्य० २ उ० । जीत० । पारंपर-देशी-राक्षसे, दे० ना० ६ वर्ग ४४ गाथा । पारंपरिय- पारंपर्य- न० । प्रणालिकायम्, “ श्रायरियपारंपरि यं ।" आचार्याः सुधर्मस्वामि जपूनामप्रभवार्यरक्षिता 33या. स्तेषां प्रणालिका पारम्पर्यम् । सूत्र० १० १३ अ० । पारंभ प्रारम्भपुं० ती ०२५० पारंभमंगल - प्रारम्भमङ्गल - न० | आदिमङ्गले, हा० २५ अष्ट० । पारक- पारक- त्रि० । छेदके, “पारके य सन्धेसि संसयाणं ।" सर्वेषां संशयानां छेदक इत्यर्थः । प्रश्न० ५ संब० द्वार । पारफेर - परकीय भि० " परराजभ्यां कडकी " ॥ ८॥ - । च २। १४८ ॥ इदमर्थस्य प्रत्ययस्य केराऽऽदेशः । पारकेरं । प्रा०२ पाद । " अतः समृद्धयादौ वा ॥ ८ । १ । ४४ ॥ इत्यादेरकारस्य दीर्घो जातः । परसम्बन्धिनि, प्रा० १ पाद । पारक परकीय चि०/ परसम्बन्धिनि, "परराजभ्यां डिग्री च" ॥ ८ । २ । १४८ ॥ इति कः । प्रा० २ पाद । " जइ भग्गा पारक्कडा, तो सहि ! मज्भु पिरण । श्रह भग्गा श्रहं तथा, तो ते मारिअ डेण ॥ १ ॥" यदि भग्नाः परकीयास्ततो सखि ! मम प्रियेण । श्रथ भग्ना श्रस्माकं ततस्तेन मारितेन । प्रा० ४ पाद । पारग - पारग- त्रि० । पारं गच्छतीति पारगः । श्राचा० १ ० १ ० १ उ० । पारगामिनि श्राचा० १० ८०८३० । Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारग 66 शा० । नि० | व्य० | तीरगामिनि, सूत्र० १ श्रु० ३ ० ३ उ० । पर्यन्तगामिनि, औ० । पा० । समर्थे, श्राचा० २ ० १ चू० ३ श्र० ३ उ० । सर्वस्यापि प्रारब्धश्रुतस्य पारगामिनि, बृ० ६ उ० । सिद्धान्तगामिनि, सूत्र० १० २ श्र० २ उ० । पारं तिवा पारगमण - पारगमन - न० । पूरणे, पालने, पालणं ति वा पारगमणं ति वा एगट्ठा। " श्र० चू० ५ ० पारगय- पारगत - त्रि० । संसारस्य प्रयोजनव्रातस्य वा पर्यन्तं गते, ल० । भ० । औ० । श्रा० म० । इन्द्रियविषयात्परतो ऽवस्थिते, भ० ५ श० ४ उ० । पारगामि ( ग )- पारगामिन् वि० पारो मोक्षः संसाराव तटवृत्तित्वादेतत्कारणानि ज्ञानदर्शनचारित्राण्यपि पार इति । भवति हि तात्स्थ्यात्तावृधर्म्यम् । यथा-" तन्दुलान् वर्षति पर्जम्यः" अतस्तं पारं ज्ञानदर्शनचारिचापं गन्तुं शीलं यस्य स पारगामी | मुक्के, श्राचा० १० २ श्र० २० । संसारस्यै कर्मणो वा उत्क्षिप्तभारस्य वा पर्यन्तगामिनि श्राचा० १ श्रु० ६ ० ५ उ० । पारण- पारण- म० । भोजने, सूत्र० २ श्रु० ६ श्र० । पञ्चा० । श्राचा० । (कस्य तीर्थकरस्य किं पारणकद्रव्यं प्रथममासीदिति 'उसह ' शब्दे द्वितीयभागे ११३३ पृष्ठे उक्क्रम् । ) पारसा पारणा स्त्री० । परिसमाप्ती पञ्चा० ६ विव० श्री श्रादिदेवस्य श्रेयांसेन बहुभिरिक्षुरसकुम्भैः पारणा कारिता, एकेनैवेनुरसकुम्भेन वेति साक्षरं प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम् -* मत्येति प्रमदोत्पन्न-रोमाञ्च सोमभूपभूः । उत्पा धेतुरसैः पूर्णान्, घटानागाजिनान्तिकम् ॥ १ ॥ " इति ऋषिमण्डलवृत्तौ ७ पत्रे । तावदावसथद्वारि राजसूनीरुपायने । ( ८६८) अभिधानराजेन्द्रः | केनचिचकिरे कुम्भाः, नवेरससंभृताः ॥ २६९ ॥ प्रेयांसो जातिस्मरणात् भिक्षादपरिसम् । मत्वा कल्प्यममुं स्वामिन् !, गृहाणेत्यभ्यधात् प्रभुम् ॥ २६२ ॥ प्रभुषालीकृत्य पाणिपात्रे पुरोधृते। स रसं कलश श्रेण्याश्चिक्षेपेक्षुसमुद्भवम् ॥ २६३ ॥ इति श्रीअमरकविकृते पद्मानन्दकाव्ये त्रयोदश सर्गे । " अपान्तरे कुमारस्य प्राकृत्ये केनचिन्मुदा । मरससंपूर्ण डोक चकिरे घटाः ॥ १० ॥ ततो विज्ञातनिर्दोष - भिक्षादानविधिः स तु । गृह्यतां कल्पनीयोऽयं रस इत्यवदद्विभुम् ॥ ६१ ॥ प्रभुरीकृत्य पाणिपात्रमधारयत् । उत्क्षिप्योत्क्षिप्य सोऽपीक्षु-रस कुम्भानलोठयत् ॥ ६२ ॥ " इति श्रीमन्द्रसूरिकृत षभदेवचरितवान्तच्ये व वसुदेवहिण्डौ देवडी प्रथमखण्डे च इत्यादिप्रत्याक्षरानुसारेण बहुभिरिरसः पारणा जातेति । तथा "ताहे सयं चैव खोश्रस्स रसघडगं गहाय भावसुद्धेणं पदिगाह तिथिदेणं किरणदा पहिला सांमिति" इत्याद्यावश्यकचूर्यावश्यक निर्युक्तिद्दारिभद्रवृत्ति तवृद्वादशसहस्रावृत्ति पर्द्धमानसूरिकृतवृषभचरित्रकल्पकिर यावलीप्रभृतिग्रन्धानुसारेण त्वेकेनैवेरसपटेन पारणा का रिति ज्ञायते तदाश्रित्य निर्णयस्तु सम्यंविज्ञेय इति । २७ [ प्र० । सेन० ३ उल्ला० । पारणादिने वाचना कल्पते न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - पारणादिनेऽपि वाचना कल्पते, इति ज्ञात " , पारिडावधिया मस्ति । २०७ प्र० । सेन० ३ उल्ला० । पारणादिनाऽनन्तरमुत्तरितुं कल्पते । न वेति प्रश्ने, उत्तरम्--न कल्पते । २०८ प्र० । सेन० ३ उल्ला० । पारणाईत पारणवत् - त्रि० । भोक्करि, श्रसहिष्णुत्वाऽऽदिना मण्डल्या बहिभरि पञ्चा० १२० । पारदारिय- पारदारिक- पुं० । परदारान् गच्छति पारदारिकः । उद्भ्रामके, श्रा० म० १ ० । पारदारिकाणां वृषण. च्छेदः शाल्मपुपगूहनाऽऽदीनि च परमाधार्मिकः क्रियन्ते सूत्र० १ श्रु० ५ अ० १ ० । पारद-प्रारम्भविण प्रकार स०६ अङ्ग । शा० सी० पारद्धि-पापा - स्त्री० । “पापर्धी रः " ॥ ८ । १ । २३५ ॥ अपदादौ पकारस्य रो भवति इति पस्य रः । "सर्वत्र० ८ २७६॥ इति रलुक्। पापाऽऽधिक्ये, पापोत्कर्षे, शाकुनिके, पुं० प्रा०१ पाद। पारमाणि-पुं० । परमक्रोधसमुद्घाते, स्था०३ ठा०४ उ०। बृ॰ । पारय- देशी - सुराभाण्डे, दे० ना० ६ वर्ग ३८ गाथा । पारस - पारस - पुं० । अनार्यदेशविशेषे प्रव० १४८ द्वार । प्रज्ञा० ॥ श्र० म० । सूत्र० । तज्जाते म्लेच्छमनुष्ये च । शब्द० । पारसकूल - पारसकूलन० परदेशमायाम् श्र०म०१० पारसी पारसी स्त्री०/ पारखा ब्यानार्यदेशोत्पन्नायां दास्या " म् भ० श० ३३ उ० । रा० । पाराभोय--पाराऽऽभोग- पुं० । पारं संसार भोगयन्ति प्रापयन्तीति । पारप्रापके, कल्प० १ अधि०८ क्षण । पारायण - पारायण - १० सुत्रार्थतदुभयानां पारगमने ५० ४ उ० ॥ श्र० म० । विशे० । पाराव - देशी - गवाक्षे. दे० ना० ६ वर्ग ४३ गाथा । पारावय- पारापत - पुं० । "पारापतेरो वा " ॥ ८ | १ | ८० ॥ पा रापतशब्दे रस्थस्यात पद् वा भवति । पारेवश्री । पारावओो ।' प्रा०१ पाद वृक्षविशेष. जं०४ पचिविशेषे, ०१०१० पारावार - पारावार - पुं० । समुद्रे, श्रा० क० १ ० | "मयरह सिंधुवई, सिंधू रयणायरो सलिलरासी । पारावारो जलही, तरंगमाली समुद्दो य ॥ ८ ॥ " पाइ० ना० ८ गाथा । पारासर-पाराशर - पुं० । स्वनामख्याते पराशराऽऽत्मजे मुना, "पारासरे दगं भोच्चा " ( ३ ) । सूत्र० १० ५ ० १३० । उत्त०। शा० । पारिग्गहिया - पारिग्रहिकी - स्त्री० । परिग्रहे भवायां क्रियायाम्, स्था० १ ठा० । श्रव० । । पारिजाणिय पारियानिक न० परियानं देशान्तरगमनं त रयोजनं येषां तानि पारियानिकानि गमनप्रयोजनानीत्यर्थः । देवानामशाश्वतेषु नगराऽऽकारेषु विमानेषु, स्था० १० ठा० । ('परियाणियविमा' शब्देऽस्मिमेव भागे ६२८ पृष्ठे का नि ) परियानप्रयोजनेषु भ० ११ ११ उ० । वृ० । पारिजाय - पारिजात-पुं० । सुरद्रुमविशेषे, अन्त० १ श्रु० ३ व ८ श्र० रा० । पारिहालिया पारिस्थापनिकी खी० स्थापन परिस्थापनमपुनर्ब्रणतया परि सर्वैः प्रकारः स इत्यर्थः तेन नि वृत्ता पारिस्थापनिकी । श्राव० ४ श्र० । सर्वथा त्य Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिद्वावणिया (८६६) अन्निधानराजेन्द्रः। पारिद्वावणिया प्रयोजने क्रियाभेदे, प्रव०४ द्वार। (पारिष्ठापनिकी विधि- एगो य समुग्धातो, इति सत्तण्हं अहाकप्पो ।। ४२३ ॥ स्तु 'परिट्ठवणा'शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५७० पृष्ठे उक्तः) चत्वारो जना विष्वग्भूतं वहन्ति, एकः कुशान् दर्भान पानं __नवरमसंयतमनुष्यपरिस्थापनानन्तरमिदं दृश्यम् च गृहीत्वा पुरतो याति, एकः षष्ठ उपाश्रयं रक्षति, एकः स्व. गामाणुगामं दूइज्जमाणे भिक्खू य श्राहच्च वीसं भवेजा, तमः समुद्घातः कालगत इति । एवममुना प्रकारेण सप्तानां तं च सरीरयं केइ साहम्मिया पासिजा, कप्पति से तं यथाकल्पो विधिकल्पः। सरीरयं मा सागारियं ति कट्टु तं सरीरयं एमंते अचित्ते सत्तएहं हेतुणं, अविही उन कप्पए विहरि जे । बहुफासुए उ थंडिले पडिलेहिता पमज्जित्ता परिढवित्तर एगागियस्स अविही,उ अत्थिउं गच्छिउं वा वि ।४२४| अत्थि या इत्थ केइ साहम्मियसंतिए उबगरणजाए सल सप्तानामधस्तादविधिस्ततस्तेषां षट् पञ्चप्रभृतीनां विहीं क्खणे परिहरणारिहे कप्पति से सागारकडं गहाय दोचं पि न कल्पते । 'जे' इति पादपूरणे । एकाकिनः पुनरासितुं गन्तुं वा नियमादविधिः । तेषामाप कदाचित् कारणवशतः स्थिओग्गहा अणुम्मवेत्ता परिहारं परिहरित्तए ।। १७॥ तानां यः परिष्ठापनविधिः साऽग्रेऽभिधास्यते । ग्रामानुग्राम (दूइज्जमाणे इति) विहरन् "प्राह च" कदाचित् तथा च एकानेकेषामेव विधिमभिधित्सुः प्रथमतो न केषां शरीरात् विष्वक् पृथक भवेत् ,म्रियते इत्यर्थः। तच शरीरकं के प्रतिजानीतेचित्साधर्मिकाःसंयताः पश्येयुः तत्रसा(म्मकस्थ तत् शरी. नेगाण विहिं बुच्छं, नायमनाए व पुव्वखेत्तम्मि । रंमा सागारिकं भवत्विति कृत्वा एकान्ते विविक्त अचित्त स्थशिडले बहुप्रासुके कीटकाऽऽदिसत्वरहिते प्रत्युपेक्ष्य प्रमायं दिसि थंडिलझामिय बि-बमादीसु य पदेसेसु ॥४२॥ च परिस्थापयितुम् (अत्थि या इत्थ इत्यादि) अस्ति चात्र कि- पूर्वमेकेऽनेके चोक्ताः, तत्र प्रथमतोऽनेकेषां विधि वयामि । श्चि-सार्धा मकसत्कमुपकरणजातं सलक्षणं पतद्ग्रहाऽऽदिप- प्रतिक्षातमेव करोति-तत्र ज्ञाते वा पूर्वक्षेत्रे दिक परिरिहरणाऽह कारप्यात (स इत्यादि) कल्पते (से) तस्य सागा- भावनीया, तथा त्रिषु प्रदेशेषु स्थारडलं, तच्च स्वाभाविरकृतं गृहीत्वा सागारकृतं नाम नाऽत्मना स्वीकरोति प्राचा- कं शिलातलाऽऽदिरूपं,ध्यामितमग्निना दग्ध, बिम्बाऽऽदीनां र्यसत्कमेतत् प्राचार्य एव एतस्य शायक एवं गृहीत्वा प्राचा- समीप च। र्याणां समर्प्य यदिदम् श्राचार्यस्तस्यैव ददाति ततः स मस्त तत्र प्रथमतो ज्ञातक्षेत्रविषयविधिमाहकेन वन्दे इति ब्रुवाणे प्राचार्यवचः प्रमाणं करोति, एप द्वि नाए अपुवदिटुं, तं चेव य थंडिलं हवति तत्थ । तीयोऽवग्रहस्तमनुज्ञाप्य द्विविधेन परिहारेण परिहत् परि अन्नाते वेलपत्ता, सन्नादिगया उ पेहति ॥ ४२६ ॥ भोगाधितुम्, अथाऽऽचार्योऽन्यस्मै ददाति, तदा तस्य तदिति सूत्रसंक्षेपाऽर्थः । शाते क्षेत्रे यत्पूर्व दृष्टं, तदेव तत्र स्थण्डिलं भवति । अहाते सम्प्रति नियुक्तिविस्तरः यदि वेलायां प्राप्तास्तदा संज्ञाऽऽदिगताः स्थरिडलं प्रेक्षन्ते । तं चेव पुन्वभणिय, सुत्तनिवातो उ पंथे गामे वा। अह पुण विकाले पत्ता-ई ता चेव उ करेंति उपयोग। गामे एगमणेगो, बहू व एमेव पंथे वि ॥ ४२१ ।। अकरणे हवंति लहुगा, वेलं पत्ताण चउगुरुगा ॥४२७।। यत्पूर्व कल्पाध्ययने चतुर्थे उद्देशके विष्वग् भवनं भाणितं. त अथ पुनर्विकालवेलायां प्राप्तास्तत श्रागच्छन्त एव स्थदेवात्राऽपि द्रष्टव्यं,नवरमिह विशेषोभण्यते-सूत्रनिपातो ग्राम ण्डिलविषयमुपयोगं कुर्वन्ति तदा उपयोगस्याकरणे चत्वावा भवेत् पथि वा "गामाणुगामं दूइज्जमाणे" इति वचनात् । रो लघुकाः प्रायश्चित्तं, वेलां प्राप्तानां पुनः स्थण्डिलविषयो. ग्रामे एको वा भवेदनेके वा, तत्र येऽनेके ते द्विप्रभृतयो या पयोगाकरणे प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। वत्सप्त बहवो वा द्रष्टव्याः । एवमेव पथ्यपि द्रव्यम् एको आणादियो य दोसा, कालगतेसुं भमादिसु हुज्जा । वाऽनेके वा, तत्राऽनेके द्विप्रभृतयो यावत्सप्त बहवो वा । अत्यंतमपेच्छंता, विणास गरिहं च पावेंति ।। ४२८ ।। एतदेवाऽऽह न केवलं प्रायश्चित्तं,कि स्वाज्ञादयश्च दोषाः। तथा तेषां म. एगो एगो चेव उ,दुप्पभिई अणंग सत्त बहुगा वा । ध्ये कोऽपि रात्री कदाचित्कालं कुर्यात् तत्र स्थण्डिल न प्र. कालगय गामे पंथे, व जाणगा उज्झणविहीए ॥४२२॥ त्युपेक्षितमिति न परिष्ठापयन्ति । अपरिष्ठापयतां च वेता लोत्थानदोषः । अथ परिष्ठापयन्ति तहस्थरिडलदोषा55एकस्तावदेक एव, तस्यैकत्वेन भेदाभावात् द्विप्रभृतयो या सङ्गः। तथाहि-रात्री वहिसम्भवो वा स्तेनसम्भ्रमो वा, पवत्सप्त,तावदानके, ततः परं बहवः । एतेषां मध्ये कदाचिदेको रचऋविभ्रमो वा जातः, सोऽपि च प्रती कालगतः,स्थरिडप्रामे पथि कालगतो भवेत् । तत्र उज्झनविधिः परिष्ठापन लं न प्रत्युपेक्षितमिति न परिष्ठापितः, तत्र यदि अग्निसंभ्रविधेयें ज्ञायकास्ते यथोक्तविधिना परिष्ठापयन्ति । अथाऽनेके मादिषु कथमनाथकलेवरमिव त्यक्त्वा वजामो, मा प्रवचद्विप्रभृतयो यावत्सतेति कस्मादुक्तं न पञ्च षट् वेति ?। उ- नस्योडाहोऽभूदिति विचिन्त्य तिष्ठन्ति तस्य समीपे, तदा ते. च्यते-सप्तानामेव समाप्तकरूपत्वादन्यथा त्वविधिरिति झाप पामग्न्यादेविनाश उपधेर्वा स्तेनाऽऽदिभिरपहरणम् । अथ न माऽर्थम् । तिष्ठन्ति किं तु तश्यक्त्वा पलायम्ते तदा ते जनमध्ये गही तथा चाह प्राप्नुवन्ति । अथवा-स्थरिडलं न प्रत्युपेक्षितमिति प्रभाते चउरो वहति एगो, कुसादि रक्खइ उवस्सयं एगो । परिष्ठापयन्ति तदा मलिनर्वस्त्रैस्तस्मिन्परिष्ठाप्यमान प्रवव Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (530) अभिधानराजेन्द्रः । पारिहाणिया नस्यापभ्राजना- अहो अभी वराका अदत्तदाना मृता अपि शोभां न लभन्ते इति । " " संभमादिसुं होजा" इत्यादिकमेव व्याख्यानयतितेऽग्गिसंभमादिसु तप्पडित्रेण दाहों हरणं या । मलेहि छड़ती, गरिहा य अथंडिले वावि || ४२६॥ स्तेनाग्निसंभ्रमात्, श्रादिशब्दात्परचक्रसंभ्रमाऽऽदिपरिग्रहः। तस्यतिबन्धेन कालाग्निदाहः स्तेनेव हरणं स्वात् अथ स्थगिडलं न प्रत्युपेक्षितमिति प्रभाते प रिठापयति तदा मतिं यति गर्दा स्थात् अथैतद्दोषमया स्थरिडलेऽपि परिष्ठापयन्ति । तथा अस्थण्डिले परितापनादोष:एए दोस अहि, यह पुरण पुत्रं तु पेहितं होतं । तो ताहि विष निता, एते दोसा न होता य ||४३०|| पते अनन्तरोदिता दोपा अमेतेि स्थण्डिले भवन्ति । श्रथ पुनः पूर्व प्रत्युपपेक्षितमभविष्यत्ततस्तदैव यदि अनायि प्यतस्तदा एते अनन्तरोदिता दोषा नाभविष्यन् । हिए वि पुत्रि, दिया व रातो व होज्ज बाघातो । सापयते भयावा. पि किया तारे अस्थावे ||४३१|| अथ पूर्वप्रेचितेऽपि स्थरिडले दिवा वा रात्री वा भवेत् व्याघातः । कथमित्याह-स्वापद्भयात्, स्तेनभयाद्वा । यदि वारात्री द्वाराणि तानि पिहितानि तदा स्थापयन्ति पर न्ति न परिष्ठापयन्तीत्यर्थः । तथा बन्धनछेदन जागरमाणादिका पक्का बननाऽपि स्थडिलस्य व्यापा तेनाऽऽदिभयापगमो भवति स्थलं या किमपि कालीचितं प्राप्यते तावत्सैव प्राक्तनी यतना कर्तव्या । असता सुकिला, दिकालगये निसिं विचिंति । पडिहारियं च पच्छा-कडादि कोडीदुगेणं वा ||४३२॥ अथ दिवसे कालगतः परं शुक्लानि वस्त्राणि न विद्यन्ते तीन बाणामभावे दिनकालगतं बन्धनाऽऽदियत नाविषयं कृत्वा निशि रात्री (विविचंति) परिपन्ति अथ रानी पूर्वेककार पावस्तर्हि यदन्यतएव या वत् शुक्लं वस्त्रं न लभ्यते तदा पश्चात्कृताऽऽदिषु प्रातिहारिकं शुक्रं वस्त्रं याच्यते । अथ तदपि न लभ्यते हि फोडीदि नाप्युत्पादयेत् । किमुक्कं भवति ? पूर्वे निशोधिकोटपापीति । असतीए रोड निसिं तु सागारि थंडिलं पेहे। पंडितवापासम्म वि, जया सेव कायया ॥४२३॥ कोटीकप्रकारेणापि शुक्रखाणामभावे निशि रात्री सा गारिकं शय्यातरं कालगतस्य समीपे स्थापयित्वा स्वयं साधवः स्थारडलं तथाविधं प्रत्युपेक्षन्ते । श्रथ स्थरिडल व्याघा तस्तदा एषैवानन्तरोदिता यतना कर्तव्या । रात्रिद्वारं गतम् । अथ दिग्द्वारमाह मल्ल पुर गामे वो, वस्सा वाडग साधियो । हरा दुत्रिभागाओ, कुग्णामे सुविभाविया ॥ ४३४ ॥ यन महापुरस्य महानगरस्य, महाप्रामस्य वा महत्वेन दिविभागो दुःखेन विभाव्यते, तत उपायाद्, वाटकातू, सा पारिहाणिया हेर्षा दिग्विभागः परिभावनीयः, इतरथा दुर्विभागा भवेयुः, कुप्रामे तु सुविभागा दिशः । ताः पुनरिमा दिशः दिस वर खाद - क्खिणाय वराय दक्खिणापुषा अवरुतरा व पुण्या, उत्तर पुव्युत्तरा चेव ।। ४३५ ।। दिक प्रथमतोऽपरदक्षिणा नैर्ऋती निरीक्षणीया, तदभा वे दक्षिणा, तस्या श्रभावे अपरा पश्चिमा, तस्या अप्य भावे दक्षिणपूर्वा, आग्नेयी इत्यर्थः । तस्या अभाव अप त्तरा वायव्यीति भावः । तस्या अलाभे पूर्वा, तस्या अ प्यभावे उत्तरपूर्वा । संप्रति प्रथमायां दिशि सत्यां शेषदिक्षु परिष्ठापने दोषमाहसमाही अभत्तपाणे, उवगरणज्झायमेव कलहो उ । भेदो गेला या, चरिमा पुख फड़ते अर्थ ।। ४३६ ।। अथ प्राप्तायामपरदक्षिणायां परिष्ठापने प्रचुरानपानलाभ तः समाधिरुपजायते, तस्यां सत्यां द्वितीयस्यां दक्षिणायां परिष्ठापने श्रमपानं भवानाऽलाभः तुतीस्वामनुपकरणसुपरभावः चतुथ्वी दक्षिणपूर्वस्यां स्वाध्यायाभाषः, पञ्चम्यामपरोत्तरस्यां कलह: पठ्यां पूर्वस्यां गच्छता सप्त म्यामुत्तरस्यां ग्लानत्वं, चरमा अष्टमी पूर्वोत्तरा कृतमृतकपरिष्ठापना अन्तकं कर्षपति, मरणमापादयतीत्यर्थः । एतदेव स्पष्टतरमाह परपाण पढमा वितियार भत्तपाणे न लभति । ततियाएँ उपहिमादी, नऽस्थित्व सम्झाओ।४३७| पंचमिया असंखड, छट्ठीऍ गणस्स भेवणं नियमा । सत्तमिए गेलं, मरणं पुरा अट्ठमी वेंति ।। ४३८ ॥ गाथद्वयमपि व्याख्यातार्थत्वात्सुगमं नवरं "परलपाख पढमा " इत्यत्र प्राकृतत्वात्सप्तम्या लोपः । ततः प्रथमायामिति द्रष्टव्यम् । अष्टमीति श्रम्यामिति । साम्प्रतमुक्रानुक्रद्वारसंग्रहार्थमाह रतिदिसा थंडिल्ले, सिल किंवा झामिए य उसमे । विभचे सीमा, सीसा चैव वबहारो ।। ४३६ ।। प्रथमं राजद्वारं तथ प्रागेव समम् द्वितीयं दिग्वारं तब्ध भयमानमाते तृतीयं स्थलद्वारे विधा शिलारूपं विम्बाऽऽदि वृक्षाऽऽदीनामथा ध्यामितम्। चतुर्थमुत्सन्नद्वारे, पञ्चभिभूमिमा हाम्रो सीमायां परिष्ठापनीयमित्येवंलक्षणं. पष्ठं श्मशाने इति द्वारम् । तत्र च व्यवहारोपयः । एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः । साम्प्रतमेनामेव पिपरीकामी शनिद्वारं किल प्रांगेय समपञ्चमुक्रमतो दिज्ञारस्य वक्तव्यशेषमाहलभमाणे पढमाए, तीए असतीऍ वावि वाघाते । ताहे अभावी दिसाऍ पेहेज जवणाए ॥ ४४० ॥ लभ्यमानायां गाधायां स्वं प्राकृतत्वात् प्रथमायां परिष्ठापनम् प्रथमाया अधर दक्षिणस्या श्रभावे व्याघाते वा सति तत Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिट्ठावणिया अग्निधानराजेन्द्रः। पारिद्वावणिया स्तस्याः प्रथमाया दिशोऽन्यस्यां दिशि द्वितीयस्यां स्थण्डि- असती अणुसद्वादी-ऽणंतग अंता इयरे वा ॥ ४४४ ।। लं यतनया प्रेक्षत, तस्या अपि लभ्यमानाया अभाव व्याघाते वा तृतीयस्यामेवं यावश्चरमायामपि, न च प्रागुक्तो दोषः, ती राजपथस्य प्रामवयमध्यस्य वा कथमध्यभाषे (ससाणे) श्मशाने परिष्ठाप्यते । अथ श्मशानपालकः श्मशानकराऽऽमानुपालनपुरस्सरं यतनया प्रवृत्तेः । यदि पुनर्विती द्वारे स्थितो निरुणद्धि, यथा यत् दातव्यं तहत्त्वा श्मशायस्यां सत्यां तृतीयस्यां दोष उक्तः स प्रसज्जति,चतुझं तृती नमभिगच्छथ, तदा अन्यत्रापरिभोगे यत्रानाथमृतकानि पयोक्तः। एवमुत्तरोत्तरदिनु अपि भावनीयम् ।गतं दिगद्वारम् । रिष्ठाप्यन्ते दह्यन्ते वा तत्र परिष्ठापयन्ति । अथ ताहक स्थान अधुना स्थण्डिलद्वारमाह-- न विद्यते तदा तस्य असत्यभावे तस्य श्मशानपालकस्य सिलायलं पसत्थं तु, जत्थ वुच्छदि फासुर्य। अनुशिष्टिः शासनम् । श्रादिशब्दात् धर्मकथा च क्रियते । झामथंडिलमादी वा, निंबादीणे समावगे ॥ ४४१ ॥ अथ तथापि न ददाति तर्हि (से) तस्य मृतस्य यानि शिलातलं शिलातलरूपं यत् प्रशस्त स्थण्डिलं तत्र परि- 'एंतिगानि अन्तानि' तस्मै दीयन्ते, अथ तानि नेच्छति, प्ठापयन्ति । अथवा-यत्र गोकुलमजा वा उपिताः। श्रादिशब्दा- तर्हि इतराणि नवानि दीयन्ते । दन्यद्वा यत्प्रासुकं तत्र । यदि वा-ध्यामिते अग्निना दग्धे प्र कथंभूतानीत्यत आहदेशे, प्रादिशब्दात् करीपाऽऽदिप्रदेशरूपे वा स्थण्डिले, यदि | अदासइ अणिच्छते, साहारण गमण दार मुत्तूण । बा-निम्बाऽऽदीनां वृक्षाणां समीपे यव महान् सार्थ उपित सति लंभावारुहणं, स चैव विगिचणाऽलंभे ।।४४५॥ स्तन परिष्ठापयन्ति । गतं स्थण्डिलद्वारम् । अधुना "उस्तम" द्वारमाह अदशानि दशारहितानि दीयन्ते, अथ तानि नेच्छति तर्हि साधारणं वचनं भरायते, यथाऽयं कालगनोऽयतारितस्ति. उस्सप्माऽऽचिम्म कप्पा उ, होति खेत्तेसु केसुई । तु, वयं ग्राम प्रविश्य मार्गयामो,यदि लभ्यामहे दास्यामा, नो अत्थंडिला दिसासुं वा, ते विजाणेज पामवं ।। ४४२॥ चेत् तमिदं मृतकमिति । एवं साधारण व वनमुक्त्या , नवरं कचित् क्षत्रषु उत्सन्नेन बाहुल्यन बहुकालादाचीमाः कल्पा श्मशानद्वारे अवतार्य ग्राममध्ये गमनं कुर्वन्ति । यदि लभवन्ति। किंविशिष्टा इत्याह-अस्थरिडलाः, तथाहि केवुचित् ब्धानि सदशानि वस्त्राणि तमः प्रत्यागत्य दवा परिष्ठापयग्रामेषु नगरेपु वा एवंरूपा मर्यादा यथा एतावति प्रदेशे मृतक न्ति। अथ न लब्धानि तदा राजकुले उपारोहणं चटनं, चटित्यतयनान्यत्र,यत्र च स्थण्डिलाभाचस्तत्र धम्मास्तिकायन- न्वा निवेद्यते-यथा युष्मदीयः श्मशानपालका श्मशाने प्रतिदेशनिश्रामुपकल्प्य परिष्ठापयेत् । यत्राऽपि नदीपूरेण वर्षासु नं कालगतं मोक्तुं न ददाति, साधवो हि निष्किश्चनाः स त्व. स्थाण्डल प्रदेशः प्लावितोऽन्यासु विदिशु स्थायडलव्याघात- स्मभ्यं याचते । एवं निवेद्य तस्य पुरुषमानीय परिष्ठापयस्तत्रापि धमस्तिकायप्रदेशाने या परिष्ठापनं कुर्यात् । एतच्च न्ति । एतेन यदधस्तनद्वारगाथायां व्यवहार इत्युक्तं तद्भाविप्रस्तावादुक्तम्, अन्यथा नायमाचीमः कल्पः । तथा केचित् तम्। अथ राजकुलं यात्-श्मशानपालस्यैतदायतं. ततो क्षेषु दिक्षु बहुकालाऽऽचीर्माः कल्पा भवन्ति।यथा अानन्दपुरे यत्स ब्रूते तत्कर्त्तव्यम् । एवं राजकुले व्यवहारस्यालाभे सैव उत्तरस्यां दिशि संयताः परिष्ठापयन्ति, ततस्तत्र तथैव परि- विवेचना । किमुकं भवति ?-पुनस्तत्र गम्यते । प्टापनं कर्त्तव्यं, नास्ति कश्चिदोषः । तानपि स्थण्डिलान् विक्ष सीयाणस्स वि असती, अलंभमाणे उवरि कायागं । या कल्प्यान् प्रज्ञावान् जानीयात् , ज्ञात्वा च तथैव समाचरे निसिरंता जयणाए, धम्मादिपदेसनिस्साए ॥ ४४६॥ दिति । गतमुत्सन्नद्वारम् । इदानी क्षेत्रविभक्ने सीमायामिति द्वारमाह अथ श्मशानपालकः श्मशानद्वारे मृतकस्य स्थापनं न दखेत वि भत्ते गामे, रायभए वा अदेंत सीमाए । दाति तदा श्मशानभ्याभावे श्मशानद्वारेऽवस्थापयितुमलभोजियमादी पुच्छा, रायपहे सीममझे वा ।। ४४३॥ भ्यमाने अस्थण्डिलेऽपि कायानां हरति. कायादीनामुपरि यतनया धर्माऽऽदिप्रदेशानेश्रया धर्मास्तिकायाऽऽदिप्रदेशविदं क्वचित् ग्रामे कौटुम्विकैः क्षेत्रभूमयः सर्वा श्राप सीमाछेदे परिष्ठापयाम इति कल्पनया,निसृजन्तः परिष्ठापयन्ति शुद्धाः। न विभक्ता,ततःसमस्तं भूखण्डं निरुद्धं, क्षेत्रसीमासु च न एसा सत्तएह मजाया, ततो वा जे परेण य । लभ्यते परिष्ठापयितुम् ।कुत इत्याह-(रायभए वा अत सीमाए) यदि क्षेत्रसीमायां परिष्टाप्यते तदा येषां कुटुम्बिना हेट्ठा सत्तएह लोगा उ,तेसिं बुच्छामि जो विही ॥४४७।। सीमा, ते राजकुले गृह्यन्ते, यथा युष्माभिरयं मारितः, ततः | । एषा अनन्तरोदिता मर्यादा विधिः सप्तानां तेभ्यो वा सप्त. सीमायां राजभयेन,वाशब्दः समुच्चये, अददत्सु कौटुम्बिके- भ्यः परेण परतो ये अष्टप्रभृतयस्तेषां द्रव्यो,ये तु सप्तानापु तस्य ग्रामस्थ यो भोजिको महतरः,स पृच्छयते-यथा क्षेत्र- मधस्नात् लोकास्तेषां यो विधिस्तं वचये । सीमायां वयं मृतकं परिष्ठापयामः,श्रादिशब्दात् यदि स घ्या प्रतिज्ञातमेव करातित्-श्रायुक्तो जानाति,नाहमिति । ततस्तं पृच्छ तदा स पृछय- पंचण्ह दोणिह हारा, भयणा आरेण पालहारेसु । ते, यदि सोऽनुजानाति ततः सुन्दरम्। अथ नानुजानाति तदा ते चेव य कुसपडिमा. नयंति हाराबहारो वा ॥४४८।। राजपथे परिष्ठाप्यते। यदि सप्तानामधस्तात् षट् भवन्ति, तदा त्रयो विश्रम्य अथवा-द्वयोमयोर्मध्ये सीमायां सरजोऽवग्रह इति कृ- | द्वौ द्वा भूत्वा वहन्ति, एको वसतिपालः, एकस्तृणाऽऽदि मात्वाऽधुना श्मशानमाह तृकं च गृहाति । पश्चानां विधि साक्षादाह-पञ्चानां साधुअसतीए तु ससाणे, रुंभण अत्रत्य अपारभोगम्मि। । नां संभवे द्वौ हारौ यहत इत्यर्थः। तृतीयः कुशाऽऽदि नयति, Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिहाणिया चतुर्थी वसतिपालः, पञ्चमः कालगतः । पञ्चानामारतो ये चतुःप्रभृतस्तेषां वखतिरक्षणे वहने च विकल्पना किमु भवति ? - यथासंभवमशून्यां वसतिं कृत्वा शय्यातरस्य वा निषेध शुन्यामपि कृत्वा यथा शक्नुवन्ति तथा परिष्ठाप यन्ति । तथा चाऽऽह-त एव हरामृतवाहकाः कुशानप्यानयन्ति । श्रयमत्र भावना - शय्यातरस्य च निवेदने कृते त्रयो विश्रम्य यदन्ति वस्तु विश्राम्यति स कुशाऽऽदि नयतीति । अथवा यः एव समर्थः स हरो भवेत् स वहतीति भावः । एक व दो जबहिं रति बेहास दिव अषीम्म | एकस्स य दो चेत्र य, छडण गुरुगा य आणादी || ४४६॥ यदि त्रयः साधवो भवेयुः तदा एकः कालगतो, यौ च द्वौ तौरात्रापधिं विहायसि कृत्वा एको द्वौ वा वहतः । अथ दिवा परिष्ठाप्यते तदा एकस्य मोचनेन विधिस्तथैव द्रष्टव्यो यथा द्वयोरनन्तरमुक्तः किमुक् भवति ?-रात्रापि विहायसि कृत्वा परिष्ठापयन्ति दिने शय्यातरभालनेन व समय परिपये ययेद्वितियः स्तोका वयं कथं दाम इति विनिमयन परिष्ठापयन्ति किं तु त्यक्त्वा गच्छन्ति, तदा तेषां प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः. न केवलं प्रायश्चित्तमेव किम्वा शादयश्च दोषाः तत्रिमि तमपि तेषां प्रायश्चित्तमिति भावः । . ( ७२ ) अभिधानराजेन्यः । " इमे वाम्ये दोषाः गिहि गोग मन्त्र राउल - निवेवगा पासकट्टा | खकाषाण विराहण, कारण सुक्ने य वाचने ||४५०|| साधूनामभावे गृहिणस्तं त्यजन्ति । यदि वा गावी बलीवर्दी योक्त्रयित्वा ताभ्यां गृहस्थाः कर्षयन्ति । अथवा मलैः परित्याजयन्ति । यदि वा गृहस्था राजकुले निवेदयन्ति तत्र पाणेराकर्षण प्रवचनस्योड्राहः। यथा प्राप्तमी धर्मेण य वेदशी अवस्था प्राप्यते. प्रवचनविरूपा दोषा इयं संयमविराधना असंयमाने पदकावराधना. ध्यापनं द इन तस्य कलेवरस्य गृहस्य क्रियेत, ततस्तवापि पा विराधना तथा व्याप कुथिते मिजास मुके शेोपपतेन्द्रियराधना । उपसंहारमाहतम्हा उपहितं चैव बोर्ड जे जइए बला। नयंति दो त्रिनिद्दोचे, सदोच्चे ठावए निसि ॥। ४५१ ।। यस्मादेते अनन्तरोदिता दोषास्तस्मात्स्तोकैरपि परिष्ठापयितव्यं तत्र विधिः प्रागुक्त एव । यथा यदि चत्वारस्तदा एको वसतिपालः, शेषास्त्रयो विथस्य विश्रम्य तत्कलेवरं यदन्ति यस्तु विभापतिस दुणानि मानके पति अथ यो जनाः, यदि वा द्वौ तदा यदि रात्री निर्भयं तर्हि (निहोमे) निर्भये येन तदुपरि को प्रति सह्याः समर्थास्ते द्वावपि नयन्ति, उपधि तच्च कलेवरं नयन्तीत्यर्थः । नीत्वा च कलेवरं परिष्ठापयन्ति । अथ बहिरुपकरणस्तेनभयं तदा रात्रावृपकरणं विहायसि विलाय द्वारं बद्धा परि प्राप्य प्रत्यागच्छन्ति यदि या सदीचे सतत्क लेवरं परिष्ठापयन्ति स्थापयित्वा कन्चनदेनजागरण 15रिक पतनां कुर्वन्ति ततो दिवसे यदि शक्नुवन्ति तदा पारिहाशिया उपकरणं गृहीत्वा परिष्ठापयन्ति । अथोपकरणं वोढुं न श बनुवन्ति तदा शय्यातराऽऽदीनां परिनिवेध द्वारं स्वगय त्वा परिष्ठापयन्ति परिष्ठाप्य भूयो वसतौ प्रत्यागच्छन्ति । अह गंतुमणा चैव तो नयति ततो च्चिय । श्रीलोयणमकुव्वतो, असढो तं तु सुज्झए ।। ४५२ ।। अथान्यं ग्रामं ते गन्तुमनसस्तत उपकरणं सह नयन्ति । नीत्वा तत्कलेवरं परिष्ठाप्य तत एव परिष्ठापनप्रदेशात्पर तोऽन्यं ग्रामं गच्छति । तत्र पशुमधस्तात्कल्पाव्यपने-अ घरक्कयम्मि अवलोयणा कायव्वा" इति । तदन्यग्रामगमनेनाशठोऽकुर्वन् शुध्यति, न दोषभाग् भवति । छडे जइ जंती, नायमनाए व तेण परलिंगं । जर कुठती गुरुगा, आणादी भिक्खुदितो ।। ४५३ ।। यदि कालगतं इयित्वा अपरिष्ठाप्य गतिर्हिते कि चारणीयास्तेन ग्रामेण ते ज्ञाता वा, तस्य परिचिता वा इत्यर्थः । तत्र ज्ञाते ग्रामस्य परिचये सति यदि कालगतस्य परलिङ्गं कुर्वन्ति कृत्वा वा परिष्टाप्य गच्छन्ति तदा प्रायश्चि त्तं चत्वारो गुरुकाः, आशाऽऽदयश्च दोपाः । अथ अज्ञाते परलिङ्गं कृत्वा अपरिष्ठाप्य गच्छन्ति तदा कालगतस्य परलि दर्शनती मिध्यात्यगमनम् धावकभिदुशन्तः स च आवश्यकटीकातो भावनीयः । ( स चाऽस्मिन् कोशे ऽग्रे भिक्खुदित' शब्दादवगन्तव्यः ) · तत्र ज्ञातेऽन्ये च दोषास्तानेवाऽऽहअत्रियत्तमादि वोच्छे - यमादि दोसा उ होंति परलिंगे । अनार आदि काले, अकर गुरुगा व मिच्छतं ॥ ४५४॥ बाते सति परतिमितरांध साधून अप्रीति कु सर्वन्ति । अटो इमे संयता निःशूका निर्लज्जा मा परिष्ठाप्योभूदिति परलिङ्गमारोप्यापरिष्ठाप्य वकवा गताः । आदिग्रह नाऽऽगाढमिथ्यादृष्टीनां प्रीतिरुपजायते इति परिग्रहः । सूत्रे चन्युच्छेदादयो दोषाः । तथाहि ते आगादमिच्यादृष्टयः प्रीति कुर्वते । अहो ! सुन्दरमात्मनैव तैः प्रवचनस्य हीलना कृता, मा एतेषामाहारादीनि प्रयच्ध आदिग्रहणाचल को पि प्रवज्यां प्रतिपद्येत, मा सोऽप्येवंविधामवस्थां प्राप्नुयात् । एते ज्ञातानां दोषाः । श्रथाज्ञाता यतनां कृत्वा तत्कलेवरमपरिष्ठाप्य व्रजन्ति यदि क्षिप्रमेव गतास्ततः स पश्चात्कालगतो देवलोके उत्पनीधि प्रयुक्। ततः स एवं मन्यते श्रहमेतेन लिङ्गेन देवो जातः, एवं मरणानन्तरं मिथ्यात्वगमनम् । अत्र काले कृते तेषां गमने प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः । वरमादेते दोषास्तस्माद्विधिना परिद्वाप्यः । संप्रति यः कथञ्चन एकाकी जातस्तस्य परिष्ठापनाविधिमाह एगागी तो जाहे, न तरेज विगिंचिउं तया सो उ । ताय विमग्गेज, इमेण विहिणा सहावाओ || ४५५॥ तत एकाकी त्यकलेवरं विनुयात् तदा धन वक्ष्यमाणेन विधिना सहायान्विमार्गयेत् । तमेव विधिमाहसंविग्गमविणे, सारूपसपुत सी य । Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " पारिहाणिया सग्गामम्मिय पुवि, सग्गामऽसती परग्गामे ||४५६ ।। अप्पा सयं वा वि गच्छई तत्व डाविया अ । असती निरचर वा, काउं ताहे व वचेजा || ४५७ ॥ संविग्गाई ते चिय, असती ताहें इत्थवम्मेण । सिद्धी साविग संजति, किटि मज्झिम कायतुल्ला वा । ४५८ । यदि तस्मिन् ग्रामे अन्येऽपि संविना सांभोगिकाः सन्ति तदा तैः सह परिष्ठापयन्ति तेषामभावे असावेनैः पार्श्वस्थादिभिः समं तेषामध्यभावे सा यामयाः भावः समम् । एवं पूर्व स्वप्राने मा गंणा कर्तव्या, तत्र स्वप्नाने संहिनामप्यसति भावे यदि परप्रामे स्वपक्षोऽस्ति तत्र कञ्चित्प्रेषयति, अन्यस्य तथाविधस्य प्रेषणयोग्यस्याभावे (अप्याहेर ति ) अयं गच्छ न्तमादिशति, अन्यस्यापि गच्छतोऽसंभवे कालगतस्य पार्श्वे कश्चित् स्थापयित्वा स्वयमन्यग्रामं गच्छन्ति, गत्वा स्वपक्षमन्यमानयति । अथ स कोऽपि न विद्यते यः कालगतस्य पार्श्वे स्थाप्यते, तर्हि यत्र कीटिभिर्न भक्ष्यते तत्र नि रत्यये निरपाये स्थाने कालगतं कृत्वा ततोऽन्यग्रामं व्रजेत् गत्वा संविग्नाऽऽदीनानयति प्रथमतः संविशान् सांभोगिकानानीय तैः समं परिष्ठापयति । तेषामप्यप्राप्तौ श्रावकैः समं तेषामप्यभावे स्त्रीवर्गेण । तत्र क्रममाह-प्रथमतः सारूपिकीभिः सिद्धपुत्रीभिरतुल्यवयोभिः, तासामप्यलाभे धाविकाभिरनुवयोभिः तासामप्यलामे वृद्धा भिः संवतीभिः तासामप्यप्राप्ती मध्यमकायाभिः संयताभिः तासामप्यलाभे तुल्याभिपि तुल्यवयोभिरापे संयतीभिः । गण भोइए व जुंगिते, संवरमादी मुहा अणिच्छंतो । अस असादी, तेहि समं तो पिचिति तु ॥४५॥ 1 ( ८७३) अभिधानराजेन्द्रः | 1 सामी संपतीनामभावे महगणं वा हस्तिपालग या कुम्भकारगणं या समुपतिष्ठति ततो यान ते सहायान ददति तैः समं परिष्ठापयति, गणानामभावे भोजिकं ग्रामम हत्तरमुपतिष्ठते ततो यावत्सहायान् ददाति तैः सह परिष्ठापयति, तत्रापि सहायानामलाभे ये जुङ्गिका हीनजातयो हीनकर्माणम संवयक्ष संवराः कवयरोत्सारका आदिश खरोधिकास्नान कारकक्षाचालकाविपरिग्रहः । ते षामनुशिष्टिं ददाति, ततस्तैः सहायैः परिष्ठापयति । श्रथ ते मु धा नेच्छन्ति तदा ये अन्ये जातिजुङ्गिका वरुडाऽऽदयस्तेषामशिष्ट ददाति प्रथतेापे सुधा ति तदा तेषामदशा नि वखाणि मूल्यं दीयते, अदशानामनिच्छायां ततस्तैः स मंत्ि अब भिन्न दारो, मूलं दाऊया नीखहा । सद्वादी तु तहियं असो वा भाती जती ||४६०॥ तस्मिन्कालगते कदाचित रात्री नीयमाने द्वारस्यो द्वारं रु यदि किञ्चित्प्रयच्छ ततो निष्काशं ददामि कचिदेशे पुनरवमाचारो दिवसेऽपि सृतं द्वारपालस्य किञ्चित् दवा निष्काश्यते तस्य तनुशिषि कर्त्तव्या आदिशब्दात् धर्मकथाsपि । तभ यदि नेच्छति ततो यद्यन्यः कोऽपि ध मैकधामनु वा त्याह मुंच दाहामदं मुखं उबेहं तत्य कुब्बती । २१६ पारिहाणिया अदसा देती बस्थे, असती साहरणं वदे ||४६१॥ अइ लभामो आमो, अल तं वियागयो । सो वि लोगरवा भीतो, मुंचते दारवालओ ।। ४६२ ।। मुञ्चामुं साधुमहं ते मूल्यं दास्यामि तत्रापेक्षां साधुः कुरुते, न तं मूल्यं प्रयच्छन्तं वारयति । अथान्यः कोऽपि नैवं भणति, तदा श्रदशानि वस्त्राणि ददाति तेषामनिच्छायां स. दशान्यपि । अथ पत्राणि सदशाम्पदशानि वा न सन्नि तदा तेषाभावे साधारणं वदेत् । तथाहि यदि लभ्यामहे तत आनेष्यामो श्रलाभे त्वमेतस्य कलेवरस्य विज्ञायकः, एवं साधारणे उक्ते सोऽपि द्वारस्थो लोकरवभीतो निय मात् मुञ्चति अमोचने तत्तत्रैव मुक्त्वा वत्पादनाव मच्छन्ति गत्वा तं प्रान्तं वा यमानस्यन्ति अलामे खो उप द्वारपालो सुतकेन दील्यते, ततो मुहसीनन्तरं स्वयमे चति । " शाविषये ऽपवादमाह असा वाद परं, लिंग जवणाएँ फार वर्षति । उवोगट्ठ नाऊणं, एस विही असहायए ।। ४६३ ॥ अथवा अशा श्रपरिचये ग्रामरूपे यतना कालगतस्य प रलिङ्गं कृत्वा व्रजति । कया यतनयेत्याह-उपयोगार्थ ज्ञात्वा एतावता कालेन तस्य कालगतस्य उपयोगलक्षणोऽर्थोऽभूत्, नातः परं परलिङ्गकरणेऽपि कश्चिद्दोष इति शा. स्वा एप विधिरसहायेध्यसहायस्य एकाकिनी इज्यो न तुतीनामपीति । ए सुन न गयं सुतनिवातो उ पंथगामे पा एगो व अखेगा वा हवेज वीसुंभिया भिक्खू ।। ४६४ ।। यदेतत् व्याख्यातमेतेन न सूत्रं गतं. किं तु सामाचारीप्रकाशनिमित्तं सर्वमेतत् व्याख्यातम् । संप्रति यदधः प्रतिपा दिवः सूत्रनिपातः पथि प्रमेवेति तदिदानीं व्याख्यायते एको वा श्रनेके वा भयेयुर्विष्वग्भूताः भिक्षवः । इयमत्र भावना । अत्र चत्वारो भङ्गाः - एकेन साधुना एकः कालगतो दृष्टः । १ । एकेन अनेके २, अनेकैरेकः ३ अने कैरनेके । ४ तत्र प्रथमभङ्गमधिकृत्य विधिमाहगागियं तु गामे, दहुं सोउं विगंचण तहेव । जो दाररुंभणं तू, एसो गामे विही बुत्तो ।। ४६५ ॥ ग्राम एकाकी एकाकिनं फालगत विवाहवा श्रुत्वा विवेचनं परिष्ठापनं तथा कुर्यात् यथेोक्तमनस्तरं तावत् द्वारे निरोधनम्। एवं शेषेच्यपि मङ्गेषु संवि शरीरं वा श्रसंविग्नशरीरम् वा " एगो एगं पास, एगो रोगे, ते पुण संविग्गियरे वा जे वा " प्रागुक्रेन कि चिना परिपतन्याः । पप प्रविधिका । संप्रति पथि विधिमभिधित्सुराहएमेव य पंम्मि वि. एगमगे विचिणा विहिणा । एत्थं जो उ विगेसो, तमहं वुच्छं समासेयं ॥ ४६६ ॥ (यमेव) अनेनैव प्रागुक्रेन प्रकारेण पथ्यपि एकस्थानेकस्य च विवेचना परिष्ठापना द्रष्टव्या नवरमत्र यो विशेषपतमहं समासेन वच्ये । Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिट्ठावमिया अभिधानगजेन्धः । पारिट्ठावणिया तत्र एकानकप्रतिपादनार्थमाह त्यमन्यपर्थन प्रव्रजनं, गृहस्थाऽऽदिभिराकर्षणम, अग्निकाये एगो एगं पासति, एगोऽणंगे अणेगे एंगं वा । न दहनं ४, यच्चान्यत्संमूर्छिताऽऽगन्तुकप्राणजातिविराधन. मिति तानि प्रानाति । तदेवं पञ्च पदानीत्यस्य व्याख्यानं रोगाणेग ते पुण, संविग्गितरे व जे दिवा ॥ ४६७ ॥ द्विधा कृतम्। एक एकं पश्यतीति प्रथमो भङ्गः १, एकाउनकान् २, । अनेके एकम् ३, अनेक अनेकान् ४, तत्र ये रशस्त सं संप्रति कर्षण पदं यच्चेति पदं व्याख्यानयति-- बिना भवेयुरसंबिना वा , सर्वथा परिष्ठापना कर्तव्याः __ गोणादि जत्तियाओ, व पाणजातीउ तत्थ मुच्छंति । अन्यथा प्रयचनोपघातः स्यात् ।। आगंतुगा व पाणा, जं पाते तयं पावे ।। ४७१ ।। संप्रति विशेषप्रतिपादनार्थमाह गयादयो यसमाकर्पयन्ति. यावन्तो वा प्राणजातयस्तत्र वीइकते भिन्ने, निय? सोकण पंच वि पयाई। कलेवरे मर्छन्ति, आगन्तुका वा प्राणा यथाऽऽनुवन्ति, तंदमिच्छत्त अन्नपंथे-ण कड्रणा झामणा जं च ।। ४६८ ॥ तत्सर्व साऽनिवर्तमानः प्राप्नोति, शेषपदानि सुगमानीति व्यतिक्रान्तं, व्यपगतजीवमिति भावः। मिन्नं श्वाऽऽदिभि कृत्वा न व्याख्यातानि । विकीर्स कुथितमथितं या तस्मिन् व्यतिक्रान्ते, भिन्ने. उप. अधुना विवेचनमाहलक्षमतत्-अभिन्ने वा थुते निवृत्य यथोक्लयिधिना तत्परिष्ठापयेत् । यदि पुनः श्रुत्वा एकमपि पदं गच्छति तरा दई वा सोउं वा, अब्बावामं विगिंचए विहिणा । श्राशाऽऽदीनि पश्चापि पदानि तस्य प्रसजन्ति, न केवलमा वावास परलिंगं, उवहीनातो व अमाती ॥ ४७२।। शादीनि पञ्च पदानि, किं त्वन्यान्य ऽपि मिथ्यात्वाऽऽदीनि पथि कालगतं हवा. यदि वा-कालगत इति अन्यतः श्रुत्या, प्रस जन्ति । तद्यथा-श्रुत्वा यदि परिष्ठापनामयादन्यपथेन । यदि तत् कल परमब्यापन्नम्, अविभिन्नमित्यर्थः । ततः पूर्योउन्मार्गेण वा अन्यनामाभिमुखं व्रजति तदा न स यथा क्कन विधिना विवेचयेत् । अथ स एकाकी, ततः परिष्टापवादकारीति तस्य मिथ्यात्यम्। (कडण त्ति) गृहे वाद्याऽऽक यितुं न शक्राति । यदि वा-शक्रांति परं बहवा मृतास्ततः पण यत्प्रायश्चितं तदपि प्राप्नोति । तथा ( झामण ति) परलिज कृत्या त्यजति । अथ तत् व्यापघ्नं तदा तस्मिन्परअग्निकायन यदि तस्य कलेवरस्य दाहः क्रियते तदा लिहुं कर्तव्यम् । परलिगकरणं नाम-यस्तस्योपधिग्रहण । ध्यामाननियन मपि तस्य प्रायश्चि तमापयते । यचान्यत्तदपि स चोपविर्षिया-ज्ञाता या अज्ञाता था । ज्ञाता नाम यथतप्राप्नोति । किं तदिति चेत् यावन्त प्राणा विमईन्ति नावन्तो सांभोगकम्य साधारुपकरणन, अज्ञाता नाम यो न शायंत, धिराध्यन्ते. यावन्तश्चाऽऽगन्तुकाः प्राणास्ते विराधनागाप्नुव- किमय साभानिकस्थ किंवा असामागिकम्यति। तत्र स्ति.तत्सर्वमपरितापयन्यानोति । अथवा श्रुत्वा पदमा अतिक्र. शातामाता या तस्यावधिग्रहीतव्यः । मेऽपि पश्चापि पदानि प्राभाति । कानि तानीति ?। श्रत पाहमिथ्यात्यमयथावादकारित्वात् पर्थन प्रजति तन्निमित्तं प्राय अथ कस्मात्परलिङ्गं क्रियत?, तत पाहश्चित्तम् । २ गृहस्थाऽदिभि कर्षणं, तनिष्पन्नम् ।३ अग्नि- मा णं पिच्छंतु वह, इति नाए वि करेइ पलिंगं । कायेन दहने तद्धेतुकम् । ४। यश्चान्यत्संभूर्छिताऽऽन्तुकप्रा- गहिरम्मि वि उवगरण, परलिंगं च तं होइ ।।४७३।। णजातिविराधनाजं, तदपि । ५। मा अम वहया जनाः प्रेक्षन्नामिति कृत्वा मात-पितस्मिन्का___साम्प्रतमेनामेव गाथां व्याविख्यासुराह लगतं परलिएं क्रियते । कि तत्परलिङ्गकरणमिति चेत् ?.श्रत तं जीवातिकतं, भिन्नं कुभिनेतरं च सोऊणं । श्राह-गृहीते चापकरण परलिङ्गमंव तद्भवति, साधुएगप पि नियते, गुरुगा उम्मग्गमादी वा ॥ ४६॥ लिझाभावात् । तत्कलेवरं जीवातिकान्तं व्यतिक्रान्तमुच्यते, मिन्नं श्वाऽऽ. संप्रति शातस्य चीपधिग्रहण विधिमाहदिभिर्विकीमतञ्च कुथितमकथितं वा। उपलक्षणमतत्-भिन्नं । सागारकडे एको, मणुम्म दिामा मुद्दा भवे विइयो । वा धृत्वा एकपदमपि न गच्छति, किंतु निवर्तत, अन्यथा एकपदातिक्रमेऽपि प्रायश्चित्तं चत्वारोऽपि गुरुकाः, उन्मार्गा. अमणुमे अप्पिणतो,न गेएहती दिज्जमाणं पि ॥४७४।। दौ वा प्रत्येक प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। सागारकृतं नाम य स्वयं नात्म कृतं किन्वाचार्या पतस्य आणादी पंचपदे, नियत्तणे पावए इमे अने। विज्ञाय का इनि बुद्ध्या पग्गृिहीतं तस्मिन्सागारकृते एकः प्रथ मोऽवग्रहः । यदि मांभोगिफस्योपधिरयमिति शातस्तदा श्रामिलत्ताऽऽदी व पदे, कमविकलेवा बजे पंच ॥४१०|| चार्यसमीपं गत्वा निवेद्य भावार्थस्य समर्पयति । नत्र यद्यावान केवल मनिवर्तने प्रायश्चितं,कि त्याज्ञादीनि पश्च पदानि । यो वतन्वंप्रवामुनधि परिभुदय. 'ततो मस्तकेन वन्दे' इति प्रानोति । तद्यथा-प्राज्ञा १,अनवस्था २, मिथ्यात्वम् ३, प्रा. भणि वा अन्येषां साधूनां निवेदयति । यथा क्षमाश्रमगतद् स्मविराधना ४, संयमविराधना च । न केवल प्रसूनि पदानि, वस्त्रं पात्रं वा महां दतमिति । ततस्ते घुयते-प्रागंग्यधारिणीकिन्स्यिपान्यपि मिथ्यात्वाऽदीनि पदान्यन्यानि प्रामोति । ता- यं क्षमाधमणानां गुणाईस्व । एवमन्यो ऽस्यस्य सांभांगिकनि च प्रागेव भावितानि । अथवा-पश्चापि पदानि प्राप्नोति इत्यु- स्थापघर्दन्तस्थावग्रही द्वितीयः । श्रथाभनाशः स उपधिक्लौतत्र तान्येव पञ्च पदानि द्वारगाथायां दर्शयति-प्रविषा- र्दिनं गुरोः समर्षयति, तं च गुरुपा दीयमानभपि न स्मादवितेषाद्यानि पञ्च पश्च पदानि मिथ्यावादीनि मिथ्या- गृहाति । Jain Education Interational Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिहाणिया (८७५) अभिधानराजेन्द्रः । इयरेसिंघे भोगिसरकरातमित्याहएते परिवेज चिड़िया उ । माए संविग्गो - वहिम्मि कुज्जा उ घोसणयं ॥ ४७५ ॥ इतरेषामसभोगान लिङ्गमात्रोपजीविनां वा संबन्धी यदि ज्ञातो भवति नहि आचायोगां तथव निवेदनीयं तत्र यद्यन्य उपधिर्नास्ति ततः कारणे श्राचार्यो ब्रूते- परि धिमिति तेन यति प्रतिपत्तव्यम्। अथाम्य उपधिः समस्ति तदा सूरिवचनान्तं गृहीत्वा एकान्ते प रिष्ठापयेत् । अथ न ज्ञाता भवति किमयमुपधिः सविग्नस्ये. नि तदा संविग्नीपथ विधिना घाणं कुर्यात्। ध्य ७ उ० । ध० ! - 86 4 परिद्वायागार पारिस्थापनिकाऽऽकार पुं० परिष्ठापनं सर्वथा व्यजनं प्रयोजनमस्य पारिष्ठापनिकम् । तदेवाऽऽकारः पारिष्ठापनिकाऽऽकारः । पञ्चा० ५ विव० । परिष्ठापनरूप प्रत्याख्यानाssकार, प्र० ४ द्वार पारिवामिय पारिणामिक पुं० पारे समताप्रमनं जीवाना मजीवानां जयादिरूपानुभवनं प्रति भवन परि सामः, स एव तेन वा निर्वृत्तः पारिणामिकः । कर्म०४ कर्म०॥ जीवाजीवभव्यत्वाऽऽदिलक्षणे भावभेद, सूत्र ०१ श्रु० १३ ४० अनु० | श्रा० म० । पं० सं० । श्राचा० । भव्वाभवजी धत्तपरिणामे । " भव्यत्यमभव्यत्वं जीवत्थं चेति भयो भेदा, त्रयो परिणामे । कर्म० ४ कर्म० । ( श्रस्य व्याख्या परिणामिय शब्देऽस्मिन्नेव भागे ६१५ पृष्ठे दर्शिता ) पारिणामिया पारिणामिकी श्री परि समाज परि सामः सुदीर्घकाल पूर्वापरार्थावलोकनाऽऽदिजन्य श्रात्मधर्मः स कारणं यस्याः सा पारिणामिकी भ० १५ ० ५ ० प्रायो वयोविपाकजन्ये बुद्धिभेदे, रा० । ज्ञा० आ० क । श्रा धू न० 1 (परिणामिया देव मागे ६१६ पृष्ठे इयं सोदाहरण लक्षिता) एवं दिल ' एवहि भासेहिं दारणी जावे तुझे दासी पाि असोगणियाए, कहियं से शियस्स, आगो, अंबाडिया किं से पदमपुर्ण उन्को ति है। गी असो उञ्जीवि नदी से नाम कर्म च कुपि कोलंगुली अहिचिद्धा. सुकुमालिया सा न पडण कृपा जाया, ताहे से दारहि नाम कयं कूणिश्रो त्ति । " ( १२८४ गाथा ) श्राव० ४ श्र० । (अशोकचन्द्रवृत्तमपि परिणामि या' शब्देऽस्मिन्नेव भांग ६२० पृष्ठे गतम् ) ( 'कृणिय शब्दे तृतीयभाग ६२८ पृष्ठादारभ्यात्र विशेषः ) पारितावणिया पारितापानकी श्री । परितापनं नाम दुःखं तेन निर्वृत्ता पारितापनिकी । ध०३ श्रधि० श्रावन | परितापनं दुःस्वविशेषलक्षणं तेन निर्वृत्ता पारितापनिकी । स० ४समः । पीडाकरणे भापकर या निर्वृतायां क्रियायाम् भ [स] ३४००० प्रा० स्थान बहा दिया पीडाकरणे. प्रश्न १ श्रथद्वार । सा च द्विधा स्वदेहपारितापनिकी, परपरितापनिकी । श्राया स्वदेहे परितापनं कुर्वतः दिती या - परदेहे परितापनमिति, तथा चान्यः रुष्टोऽपि स्वदेहपरि सपन क कवि स्वहस्तपारित पनि पालंब परहस्तपरितापनिकी व आधा स्वहस्तेन परितापनं कु तः, द्वितीया परहस्तेन कारयतः । श्राव० ४ श्र० । श्रा०चू० । पारित - पत्र - अव्य० । परलोके तं० । पारितए- पारयितुम् अन्य पारमेनुमित्यर्थ भ० १२० १ उ० । - पारितविइय- परत्र द्वितीय - पुं० । जीवानां परलोके द्वितीये पतं पारिप्पव पारिप्लव- पुं० । पक्षिविशेष प्रश्न० १ श्र० द्वार । श्राचा० । पारियह न० । बाह्यपृष्टस्य बाह्यभूमौ नं० । पारियाचखिया पारिपापनिफा-बी० कालान्तरं पायस्थि ती, " सव्यं च से उबारा परियाणियं परिकरेह | " ज्ञा० १ ० ६ श्र० । स्था० परितापनं ताडनाऽऽदुःखविशेषल क्षणं, तेन निर्वृत्ता पारितापनकी। स्था० २ टा० १ उ० । पारिपासिय परिवासित ० भ०१५ ० पर्युचिते, पृ० ३ ४० नि०ग० (पर्युषिताऽनिषेध 'गोबरबरिया' शब्द भाग २६७ पृष्ठतः ) पारिव्वज्ज- पारिव्रज्य न० परिव्राजामिदं पारिव्रज्यम् । मस्करिवे गृहस्थभावत्यागे, हा० १६ श्र० । । पारिव्याय- पारिव्राजन० परिवादसंवन्धिनि आ-म०१० पारिसाइणिया - पारिशानिका स्त्री० । परिशाटनं दानाय देवस्तुनी भूमी हर्दनं तेन निर्वृता पारिशानिकी १०३ अधिनाय पारिष्ठायनिक्याम् आ०७ पारिस्थिय पारिहस्तिक-पुं० य द सर्वप्रयोजनानामकालीनतया कर्तरि स्था० १ ठा० । पारिहारिय-पारिहारिक पुं० परिहस्तपाविशेषः तेन पर न्तीति पारिहारिकाः। ध०४ अधि० परिहार तपोवाह केषु जी० "गतास्तत्राऽथ तान् द्रष्टुं तावत्पश्यन्ति लिङ्गिकान् । पृच्छन्ति स्म ततस्ते तं स ददात्युत्तरं शवः ॥ श्राभादिपरीहारात् किन्नैते पारिहारिकाः ॥ १॥" जीत० ॥ पारी-देशी दोहनभाडे दे० ना० ६ वर्ग ३७ गाथा । पारुअग्ग- देशी-विश्रामे, दे० ना० ६ वर्ग ४४ गाथा | पारुअल्ल- देशी पृथु के, दे० ना० ६ वर्ग ४४ गाथा । पारुहल्ल- देशी-कृते, दे० ना० ६ वर्ग ४५ गाथा । पारवय-पारापत-पुंजी० १०० फलप्रधानचनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० १७ पद ४ उ० । प्रश्न० | रा पालंक - पालङ्क - पुं० | महाराष्ट्राऽऽदिप्रसिद्धे शाकभेदे, वृ० १ उ०२ प्रक० । श्राचा० । पालं प्रालम् । शुनके आपदीने आभरणविशे श्राचा० १ ० १ ०२ ० १ ३० । झा० भ० 1 गलाऽऽभर विशेषे श्र० । तपनीयमये विचित्र मणिरत्नभक्तिविले श्रा त्मनः प्रमाणेन सुप्रमाणे श्राभरणविशेष जी०प्र०७ अधि० । रा० । “ पालंबलंबमाणघोलंतभूसणधरे । " प्राल Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७६) भनिधानराजेन्मः। पालंब पाव म्बनलम्बमानघोलयद्भूषणधरः। ( पलंबमाणघोलंत त्ति) पालिभेद-पालिभेद पुं० । प्रतिपूर्णस्य शुद्धपरिणामप्रयुक्तदोलायमानानि भूषणानि, तानि धरतीति यः स तथा । स्याऽतिक्रमे, वृ०३ उ० । कल्प अधिक्षण | "पालंबपलंवमाणसुकयपडउत्त- त्रिका पन: पनरुपयोगप्रतिजागरणेन रतिरिजे।" प्रलम्बन दीर्धेण प्रलम्बमानेन च सुष्टु कृतं पटेनोत्तरीयमुत्तरासङ्गो येन स तथा । तं । प्रलम्बेन दीर्पण प्रल ते, स्था० ७ ठा। प्राचा० । आव० । “पालिय पुणों पुणो पम्बमानेन लम्बमानेन पटेन सुष्टु कृतमुत्तरीयमुत्तरासङ्गो ये रिजागरमाणेण जाहातिणं महुरावाणियत्तणं निसहपुत्ता न स तथा । भ० ७ श० उ० । औ०। रा०।"ओऊलं पा निक्खेवतो संम"। पा) चू०६अ। लंबं ।" पाइ० ना० २०५ गाथा । उदिए काले विहिणा, पत्तं जं फासियं तयं भणियं । पालग-पालक-न०। स्वनामख्याते शक्रेन्द्रस्याऽऽभियोगिक दे तह पालियं तु असई, सम्म उवोगपडिअरिअं॥५४८।। वे, तद्विरचित लक्षयोजनप्रमाणे शक्रस्य पारियानिके,ौ० । उदिते काले पूर्वोक्ताऽऽदौ विधिनोचारणाऽऽदिना प्राप्तं यत् स्था "पालययानविमानपाणकं ।" पालकदेवनिर्मितसी प्रत्याख्यानं स्पष्टं तद् भणितं परमगुरुभिः तत्पीलितं तु भ. धर्मेन्द्रसंवन्धि, यानं च तद्विमानं च यानाय वा गमनाय एयते. गृहीतं सद् यदसकृच्छम्यगुपयोगं प्रतिजागरितम् - विमानं यानविमानं, न तु शाश्वतमिति । विमाने, स्था०४ विम्ममिति गाथाऽर्थः । पं०व) २द्वार। सीमां यावत्तठा. ३ उ० । जं० । कल्प० । (पालकदेवस्य कृत्यवर्णनम् । परिणामहान्या रक्षिते. स्था०१० ठा। प्रव। 'तित्थयर' शब्दे चतुर्धभागे २२५१ पृष्ठे गतम्) चम्पामगरीराजस्य स्कन्दकस्य कुम्भकारनगरराजभार्यायाः पुरन्दरय. पाली-देशी-दिशि, दे० ना० ६ वर्ग ३७ गाथा! शसी भ्रातुर्मुनिसुव्रतखाम्यन्तिके प्रवजितस्य मारके ना- पालीबंध-देशी-तटाके, दे० ना०६ वर्ग ४५ गाथा । स्तिकदृष्टौ स्वनामख्याते ब्राह्मणे, नि० चू० १६ उ० । व्योपदेशी-वृत्तौ. दे ना ६ वर्ग ४५ गाथा । स्वनामख्याते कृष्णवासुदेवपुत्रे, ( कृतिकर्मण्ययं दृष्टान्तः) श्राप०३ श्रा० म० । निचू०। स्वनामख्यात ग्रामे, यत्र पालेमाण-पालयत-त्रि०। स्वयमेव पालनं कुर्वाणे, कल्प वीरजिनं वातिलो नाम वणिक् यात्रायां प्रस्थितोऽसिं गृही-१ अधि०१ क्षण । जं) । जी० । प्रज्ञा० । " आहे वच्चं पारेस्वा मारयितुं प्रवृत्तः, स्वयमेव छिन्नशिराः संजातः । (५२२ वञ्चं कारेमाणा पालेमाणा विहरह।" विपा०१थु० २ अ०। गाथा) श्रा० चू०१ अ)। आव० । श्रा० म०। अवन्तीराज. प्रद्योतसुते स्वनामख्याते वीरनिर्याणदिनाभिषिक्त अवन्ती पालेवि-पालयितुम-श्रव्य) । " तुम एवमणाणहमाह राजे, श्रा० क०४०। (तत्कथा 'अप्लायया ' शब्द प्रथम च" ।।४। ४४१ ॥ इत्यनेन तुमः स्थान तेवि आदेशः । भागे ४६४ पृष्ठे गता) "जं रयरिंग सिद्धि गो, अरहा तित्थं "जेपि च एप्पिणु सयल धर, लेविगु तबु पालेवि । वि. करो महावीरो । तं रणिमवंतीए, अहिसित्तो पालगो रा. णु संते तित्थेसरेण, को सक्कइ भुवन वि? ॥२॥ " जेतुं या ॥ ६१३ ॥” ति। त्यनं सकलां धरां लातुं तपः पालयितुम । विना शान्ति ना तीर्थेश्वरेण कः शक्नोति भुवनेऽपि ?॥ प्रा०४ पाद । पाला-पाला-स्त्री० । महत्तरिकायाम् , व्य०४ उ०। पाव-पाप-न० । “क-ग-च-ज०"॥८।१।१७७॥ इत्यापालि-पालि-पुं० । सेती, स्था-५ ठा०१ उ० । श्रा० मारा। दिना अनादेरेव लुग्विधानात् पस्य न लुक। "पावः" ||८| तडागाऽऽदेरनतिकमार्थ बन्धे,उपा-७ अ०। संयममहातडा. १।२३१। इति पस्य वः। प्रा० १पाद । पांशयति मलिनगस्याऽनतिक्रमे, बृ०३ उ० । पालिरिव पालिर्जीवितधार यति जीवमिति पापम् । (अवार्थे "पंसेइ)" (३०२५) णात् । भवस्थिती, उत्त०१८ अ०। इत्यादिगाथा सब्याख्या ' णमोकार ' शब्दे चतुर्थभाग पालिा -पालिका स्त्री॰ । खड्गमुष्टी, “असिमुट्ठी पालिश्रा १८०१ पृष्ठ गता ) विशे० । पातयति नरकाऽऽदिप्यिति य छरू।" पाइ० ना० १२१ गाथा। पापम् । श्राव) ४ ० । श्राचा० । श्रा० म०। पांशयपालिजत-पाल्यमान-त्रि० । सततोपयोगजागरणेन रक्षणी- ति गुरा यति आत्मनं पातयति चाऽऽत्मन श्रानन्दरसं ये, औः । " एअस्स पहावेणं, पालिज्जतस्स सया पयत्तेणं शोषयति क्षपयतीति पापम् । स्था०१ ठा० । असदनुष्टा(१५६७)" पं० व ५द्वार । नाउपादिते कर्मणि, सूत्र.१ शु) १२) । सर्वतः सावपालितग-पालित्रक-पुं० । पाटलिपुत्रीये स्वनामख्याते प्रा. द्यानुष्ठाने, सूत्र०११०२.१ उ० । हिंसाऽनृताऽऽदिरूपे चार्य, "पाडलिपुतणयरे पालित्तगायरिया अत्थंति" प्रा० कर्मणि, सूत्र०१७०१०प्र०ा अशुभे कर्मणि,पश्चा७वियन "एगे पावे।" स०१सम० । स्था०। असातोदयफले,अशुभचू, १ अ। प्रकृतौ, सूब०१थु०१ अ) १ उ० प्रश्न अपुण्ये, दश०१ पालित्ता-पालयित्वा-श्रव्य० । आसेव्येत्यर्थे, कल्प० ३ अ. चून उत्त०। सूत्राश्राव० श्राचाo"पुद्गलकर्मशुभ यत्तत्पुण्यधिक्षण। मिति जिनशासने दृष्टम् । यदशुभमथ तत्पापभि-ति भवति पालित्ताणय-पालित्राणक न० । स्वनामख्याते मगरभेदे, सर्वशनिर्दिएम् ॥१॥” इति । सूत्र०२ श्रु। ५० प्राचा०। "अस्थि चोल्लकजणवए पालि ताणयं नाम नयर, तत्थ असवेधे, सूत्र १ श्रु० ८ अ० । आचा० । असातवेकवडिनामधिजो गाममहत्तरो।" ती०२७ कल्प (कव.| दीयाऽऽदिके कर्मणि, सूत्र० ११० ६अ। अशुद्धे कर्महिजफ्ख' शब्द तृतीयभागे ३८५ पृष्ठे उक्तम्) | णि, तत्कारणत्वाद् हिंसाऽऽदिके कर्मणि पश्चा• ३ विवः । Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाव (८७७) अभिधानराजेन्ः | आगमनिषिद्धे कर्मणि०११ वि० सम्यक्त्वाऽऽविगुणविघाती ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदिमतिदम्बे पो० ३ विव० । प्रय० । पापनिक्षेपा पावेकं दब्बे, सचित्ताचित मीसगं चैव । चम्म निरयमाई, कालो श्रइदुस्समाईश्रो || ३८७ ॥ भावे पावं इमो, हिंसा मुसा चोरियं च अन्यंभं । 1 तत्तो परिग्नहो चिय, अगुणा भणिया य जे सुत्ते ||३८८ || पापे पापविषयः ( छक्कं ति ) षट्कः षट्परिमाणो नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्र कालभावभेदानिक्षेप इति गम्यते । तत्र च नामस्थापने सुशाने, द्रव्ये विचार्ये आगमतो शातानुपयुक्त नो भागमतस्तु व्यतिरिक्रमा-(सात मीस वेब सि ) इह व पापमिति योज्यते । प्राकृतत्वाचोभयत्र बिदुलोपः । तत्र सचित्तद्रव्यपापं यद् द्विपदचतुष्पदापदेषु म दुष्यपशुवृताऽऽदिव्यसुन्दरम् अचिराद्रव्यपापं तदेव जीवविप्रयुक्तं चतुरशीतिपापकृतयोवा या मिश्रव्यपापं तथाविधद्विपदाऽऽद्येचाऽशुभचारित शिवा जीववियुक्रेकदेशतानि सन्ति हि जीवशरीरेष्वपि जीववियुका नशा उदयस्तदेकदेशाः । उ हि "तस्सेव देसे चिए, तस्सेव देसे श्रणवचित् ति।" जीवप्रदेशापेक्ष मेव हि तत्र वितत्वमनुपचितत्वं वा विवक्षितं पापम कृतियु को वा जन्तुरेव मिश्रद्रव्यपापमुच्यते । ( चेवेति ) प्राग्वत्वचायें पापं नरकाऽऽदिपापप्रकृत्यविषयभूतं यत्र तदुदयोऽस्ति । काल इति कालपापम् दुष्पमाऽऽदिको, यत्र कालाऽनुभावतः प्रायः पापोदय एव जन्तूनां जायते । श्रादिशब्दादन्यत्र वा काले यत्र कस्यचिन्तास्तदुदयः । भाष विचारवितुमुपक्रान्ते पापम् इदमनन्तरमेव पदमा हिंस ति ) हिंसा प्रमत्तयेोगात्प्राणव्यपरोपणं, सृषाऽसदभिधानं, चौर्य च । सैन्यम् अमैथुनं ततः परिग्रह मूहांत्मकः श्रपिः समुच्चये, चः पूरणे, गुणाः सम्यग्दर्शनाऽऽदयः, तद्विपक्षभूता अगुवा मिथ्यात्वादयो दोषाः नम्रो चिप अप दर्शना मित्राऽऽदियत्। भणिता उक्ातुः समुच्चये व्यतिक्रम श्व, अगुणाश्च ये सूत्रे आगमे अन्यत्र इहैव वा प्रस्तुताऽध्ययने उत०१७म० । (पापतत्त्वम् 'नाणंतराय' इत्यादिगाथाभिः 'तत्त' शब्दे चतुर्थभागे२१८१ पृष्ठे प्रकटीकृतम्) इह पापं द्विधा गोल् स्फुटं च । गोप्यमपि द्विधा-लघु महच्च । तत्र लघु-कूटतुलामाना. दि. मह विश्वासघाताऽऽदि। स्फुटमपि द्विधा कुलाचार निर्लज्जत्वादिना च । कुलाऽऽचारेण गृहिणामारम्भाऽऽदि. म्ले. । दीनां हिंसादि च, निर्लज्जत्याऽऽदिना तु यतिवेपस्य हिंसाssव तत्र निर्लजत्वाऽऽदिना स्फुटेऽनन्त संसारित्वाऽऽथ पिनातुस्यात् कुला53 वारे पुनः स्फुटेस्तो तु तीतरोलस्यमयत्वात्। ०२ अि पापमेवापवीयमानमुपचीयमानं च सुखदुःखहेतुर्न पुण्यं कर्माऽस्ति पुण्यमेव त्रोपचीयमानमपचीयमानं व सुखदुःखहेतुर्म पापमस्तीति एवंविधवा निरस्वती भगवता पुणे श्रत्थि पावे।" श्री० ( श्रत्र समप्रो नवमगणधरवादः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे २५१ पृष्ठादारभ्य दर्शितः ) "संभाव्यमानपापोऽहं-मपापेनाऽपि किं मया । निर्विषस्यापि सर्पस्य भृशमु विजते मनः ॥ १ ॥ सूत्र० १ ० ४ ० १ ३० । “घावं का २२० पावकम्म ऊण सर्व अप्पाणं सुमेष पर करे पार्थ, वी बालस्स मंदन्तं ॥ १ ॥ " सू० १ ० ४ ० १ ० । दीयो जणपरिभूम असमत्यो उपरभग्यमिते णि पावकारी, तह वि हु पापप्फलं एवं ।। १६२ ।। । | दीनः कृपणः, जनपरिभूतो लोकगर्हिता, असमर्थ उदरभरणमात्रोऽपि आत्मानं भरिरपि न भवति विलेन पापकारी तथापि तु एवंभूतोऽपि सच सदिच्छा पापचित - त्यर्थः, पापफलमेतदिति जन्मान्तरकृतस्य कार्य, भाविनश्च कारणमिति गाथाऽर्थः पं० व०१ द्वार । पापमस्यास्तीति पापः । पापकारिणि, शा० १ ० ४ ० पापाऽऽत्मनि, प्रश्न ०१ श्रा श्रo द्वार । दशा० । हिंस्त्रे, स्था० ४ ठा० ४ ० । पापकर्मणि सूत्र० १० ५ ० १ ० । ० । पापिष्ठे, प्रश्न० १ - भ० द्वार। विशे । जीवानां पापं सर्व दुःखम् नेरइयां भंते! पात्रे कम्मे जे य कडे, जे य कज्जइ, जे यक जिस्सर, सच्चे से दुक्खे, जे निजि से सुहे हंता गोयमा ! नेरइयाणं पावे कम्मे जाव सुद्दे एवं० जाव बेमाणियाणं । ( नेरयाणमित्यादि ) ( सब्बे से दुक्खे ति) दुःखहेतुसंसारनिवन्धनत्वाद् दुःखम् । (जे निजिले से सुद्दे ति ) सुखस्वरूपमोक्ष हेतुत्वाद्यन्निजं कर्म तत्सुखंमुच्यते । भ०७०८ उ० नववा पावसाssaयया पष्मत्ता । तं जहा-पाणाइवाए० जान परिगड़े कोडे माथे माया लोभे । ( नवविद्या पावस्त्यादि) कव्यम् नवरं पापस्याशुभम तिरूपस्याऽऽयतनानि बन्धहेतव इति । स्था०६ ठा०| "दुरिनं अम्मी यम्मसे पायें मिच्छा मोहं विहलं. अलिमसच्चं श्रसम्भूयं ॥ ५३ ॥ पाइना ०५३ गाथा । । " पावय-पावक-५० अग्नी धूम पायओ सिद्दी परडी असलो जलगो हो, आसो ह व्यवाहोय ॥ ६ ॥ " पाइः ना० ६ गाथा । हो पिहा 1 पावस पापीयसमितिशयेन पापे, स्था० ४ डा० ४ ४० पावकम्य-पापकर्मन् - न० । अशुभ कर्मणि भ० २६ श० १ ४० | चारित्रप्रतिबन्धमोहीयकृती २० भशाना 33वरणाऽऽद्विकर्मकृतिषु श्र० विपास नापादिकर्मणि सू० १० २०२० प्रश्न० १ ० द्वार | पापत्र्यापारे, आ० चू० ३ ० । पा पोपादाने, अनुष्ठाने, श्राचा० १ ० ३ ० ३ उ० । विषयार्थ साबधानुष्ठाने, आचा० १ ० ५ ० १ ३० । संसारार्णवपरि भ्रमती, पा०१००२४० पापती हिंसाच झाने उत६० प्राचा०] सूत्र मैथुना 33 चना 55 १ ० ४ ०१ उ० । घातिकर्मणि स्था०२ ठा०४ उ । उत्तol ( " से वसुमं०" (१५५) सूवं 'धम्म' शब्दे चतुर्थभाग २६७५) पार्थ कामग अगंथे।" पाये पापपादानं कर्माइसमेत माचरन्। एवं अहं निर्मन्थः। श्राम्रा० १ ० ८ ०३३० "पाकम् असि तं परि महावी" पापं कर्मथ पतनकारित्वात्पापं, क्रियतइति कर्म्म, तथाऽष्टादशविधं मात्रःतिपातमुपाधादादन्तादामथुमपरिचयानमापाली- - . Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८) पावकम्म अभिधानराजेन्डः। पावकम्म भप्रेमद्वेषकलहाभ्याख्यानपैशुन्यपरपरिवादरत्यरतिमायाम- संग्रहणीगाथार्द्धमत्र- चिण उवचिण बंधोदी-रवेय तह पामिथ्यादर्शनशल्याऽख्यमिति । एवमेतत्पापमयादशभेदं निर्जरा चेव।" इति । अस्य व्याख्या-" एवमिति ।" यर्थक माम्वषयेन कुर्यात् स्वयं, न चाऽन्यं कारयेत्, न कुर्वाणमन्य- कालत्रयाभिलापेनोक्तं तथा साण्यपीति । कर्म च पुद्गलामनुमोदयेत् । (६१ सूत्र) आचा०१थु.१०७ उ० । सूत्र ऽत्मकमिति । स्था० ३ ठा०४ उ०। " पायाणं च खलु भी कडाणं कम्माणं पुब्बि दुच्चिरमाणं जीका णं चउट्ठाणनिव्वत्तए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिदुप्पडिकंताणं वेदइत्ता मोक्खो, णस्थि अवेयइत्ता, तबला या झोसाइसा।" प्राचा०१ श्रु०६०२ उ० । " जीया णं णिंसु वा, चिणिति वा, चिणिस्संति वा । तं जहा-णेदाहिं ठाणेहिं पावकम्मं बंधइ । तं जहा-रागेण चेव, दोसेण । रइयणिवत्तिा, तिरिक्खजोणिणियत्तिए, मणुस्सणिन्त्र-- चय।" रागद्वेषाभ्यां पापकर्म बध्यते उदीर्यते इति । स्था०२ | त्तिए, देवणिव्वत्तिए । एवं उवचिर्णिसु वा, उवाचणंति ठा० ४ उ० । ('बन्ध ' शब्दे विशेषः) जर्जावानां पापकर्म- | वा, उवाचणिस्संति वा । एवं " चिण उवचिण बंधोतया पुद्गलचयः दी-र वेय तह णिजरा चेव ।" जीवाणं दुट्ठाणनिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणंसु ( जीवा णमित्यादि) सूत्रषटकं व्याख्यातं प्राक् तथाऽपि वा,चिणंति वा,चिणिस्संति वा । तं जहा-तसकायनिव्वत्तिए क्रिश्चिल्लिख्यते-(जीवा णं ति) 'णं' शब्दो वाक्यलका. चेव,थावरकायनिव्वत्तिए चेव,उवाचणं वा, उवचिणंति रार्थः, चतुभिः स्थानकै रकत्वाऽऽदिभिः पर्यायैर्निवर्तिताः वा, उयचिणिस्संति वा, बंधिसु वा, बंधति वा, बंधिस्संति कर्मपरिणामं नीतास्तथाविधाशुभपरिणामवशाद बद्धास्ते चतुःस्थाननिर्वर्तितास्तान् पुद्गलान् । कथं निर्वर्तितानित्या. वा, उदीरिंसु वा, उदीरंति वा, उदीरिस्संति वा, वेदिमु वा. ह-पापकर्मतया अशुभस्वरूपज्ञानाऽऽवरणाऽदिरूपत्वेन वेदिति वा, वेदिस्संति वा, णिज्जारसुवा, णिजरिति वा, । (चिणि ति) तथाविधापरकम्मपुद्गलौश्चतवन्तः पापप्रणिजरिस्संति वा। कृतीरल्पप्रदेशा बहुप्रदेशीकृतवन्तः । ( नेरइयणिब्बत्तिए त्ति ) नैरयिकेण सा निर्वर्तिता इति विग्रहः। एवं सर्वत्र सूत्राणि घट् सुगमानि, नवरं जीवा जन्तवो, 'ण' वाक्याल तथा ( एवं उवचिणसु त्ति) चयसूत्राभिलापेनोपचयसूत्रं कारे, द्वयोः स्थानयोराश्रययोः त्रसथावरकायलक्षणयोः स. वाच्यम्, तत्र ( उवचिणंसुत्ति) उपचितवन्त पौनः पुन्येमाहारो द्विस्थान, तत्र मिथ्यात्वाऽऽदिभिर्ये निर्वर्तिताः सा न । एवमिति चयाऽऽदिन्यायेन बन्धाऽऽदिसूत्राणि वामान्येनोपार्जिताः वक्ष्यमाणावस्थाषट्कयोग्याकृताः, द्वयोर्वा च्यानीत्यर्थः । इद्द च बन्ध उदीरेयादिवतव्ये यश्चयोपचस्थानयोनिषेत्तिर्येषां ते द्विस्थाननितिकाम्तान् पुगलान् काभगान् पापकर्म घातिकर्म सर्वमेव वा ज्ञानाऽऽधरणाऽदि, यग्रहणं तत्स्थानान्तरप्रसिद्धगाथोत्तरार्धाऽनुवृत्तिवशादिति । तद्भावस्तसा, तया पापकर्मतया, तद्धतयत्यर्थः । चितव. तत्र (बन्ध त्ति) बन्धेयुः श्लयबन्धनबद्धान् गाढवन्धनबद्धा न् कृतवन्तः । ३ । ( उदीर त्ति ) ( उदीरिंसु ) उदयन्ता वा अतीते काले, चिन्वन्ति वा सम्प्रति, चेष्यन्ति वा अनागते काले. केचिदिति गम्यते, चयनं कषायाऽऽविपरिण. प्राप्ते दलिके अनुदितांस्तानाकृष्य करणेन वेदितवन्तः। वेतस्य कभपुद्गलोपादानमात्रम् उपचयनं तु धितस्याऽऽघाधा य त्ति ) ( वेदिसु) प्रतिसमयं स्वेन रसविकिनाऽनुभू. तवन्तः (तह निजरा चेव त्ति ) (निजरिंसु) कात्स्येनानुकालं मुक्त्वा ज्ञानावरणीयाऽऽदितया निषेकः । स चैवम् समयविशेषतहिपाकहान्या परिशाटितवन्तः । स्था0 ३ ठा० प्रथमस्थितो बहुतरं कर्मदलिकं निषिञ्चति, ततो द्वितीयायां ४ उ० । विशेषहीनम् । " एवं जावुकोसियाए विसेसहीणं निसिंचइ त्ति ।" बन्धनं तु तस्यैव झानाऽऽधरणाऽऽदितया निषि | जीवाणं पंचट्ठाणणिव्यत्तिए पोग्गले पावकम्मत्तार चिकस्य पुनरपि कषायपरिणतिविशषानिकाचनमिति । उदीर- णिंसु वा, चिणिति वा, चिणिस्सिति वा । तं जहाणं तु अनुदयं प्राप्तस्य करणे नाऽऽकृष्योदये प्रक्षेपणमिति । एगिदियानव्यात्तिए० जाव पंचिंदियनिवत्तिए । एवं "चियेदनमनुभवः, निर्जरा कर्मणोऽकर्मताभवनमिति । कर्म च पुद्गलाऽऽत्मकमिति । स्था० २ ठा० ४ उ० । ण उवचिण बंध उदी-र वेद तह निजरा चेव ।" स्था० नीवा णं तिहाणणिबत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चि ५ ठा० ३ उ०। णिंसु वा, चिणिति वा, चिणिस्संति वा । तं जहा-इत्थी जीवाणं छट्ठाणनिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंगिवत्तिए, पुरिसणिबत्तिए, णपुंसगणिवत्तिए । एवं मुंवा,चिणिति वा,चिणिस्संति वा । तं जहा-पुरविकाइय"चिणउवचिणबंधउदी-रखेए तह णिजरा चेव ।" निव्वत्तिएजाव तसकाइयनिबत्तिए । एवं "चिण उव(जीवा णमित्यादि ) सूत्राणि षट्. तत्र त्रिभिः स्थानः स्त्री चिण बंध उदी-र वेय तह निजरा चेव ।" स्था०६ ठा। वेदाऽऽदिभिर्निर्वर्तितान् श्रीजितान् पुद्गलान् पापकर्मतया जीवा णं सत्तट्ठाणनिबत्तिए पुग्गले पावकम्मत्ताए चिअशुभकर्मत्वेनोत्तरोत्तराशुभाध्यवसायतश्चितवन्त आसङ्क प्रिंसु वा, चिणंति वा, चिणिस्संति वा । तं जहा-नेरझ्यलनतः, एवमुपचितवन्तः परिपोषणतः, एवं बवन्तो निर्मापणतः,उदीरितवन्तःअध्यवसायवशेनाऽनुदीर्णोदयप्रवेशनतः । निव्यत्तिए० जाव देवनिव्वत्तिए । एवं" चिण. जाव वेदितवन्तः अनुभवनतः निर्जरितत्रन्तः प्रदेशपरिशाटनतः।। निजरा चव ।" स्था० ७ठा० । Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७६) अभिधानराजेन्द्रः । पावकम्म पावग जीवा णमट्ठाणनिव्वत्तिए पोम्गले पावकम्मत्ताए चि वेदयति चा न था। तथा मिथ्यात्वं तक्षयोपशमकाले नुभागकर्मतया न वेदयति. प्रदेशकर्मतया तु वेदयन्येये. णिंसु वा, चिणंतिवा, चिणिस्संति वा । पढमसमए नेरइय ति । इह च द्विविधऽपि कर्माण बेदयितव्ये प्रकारद्वयमनिव्वत्तिए०जाव आढमसमयदेवनिव्वत्तिए । एवं “चिण | स्ति, तच्चाहतैव ज्ञायत इति दर्शयन्नाह-शातं सामान्येनाउवचिण जाव णिज्जरा चेव।" स्था०८ ठा०। वगतमतक्ष्यमाणं वेदनाप्रकारद्वयम् , अहंता जिनन (सु. जीवा णं नवट्ठाणनिबत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चि यं ति) स्मृतं प्रतिपादितम् अनुचिन्तितं वा. तत्र स्मृत. मिव स्मृतं केवलित्वेन स्मरणाभावेऽपि जिनस्यात्यम्तमणिंसु वा, चिणंति वा, चिणिस्संति वा । पुहविकाइयनि- व्यभिचारसाधादिति । (विमायं ति) विविधप्रकाशकाव्यत्तिए जाव पंचिंदियनिव्वत्तिए । एवं “चिण उब- लादिविभागरूपैतिं विशातं, नंदवाड ह-(इम कम्मं अर्थ चिण जाव निजरा चेव ।" स्या. हठा। जीवे ति) अनेन द्वयोरपि प्रत्यक्षतामाह-केयलिन्यादर्हतः ( अज्झाबगमियाए ति ) प्राकृतत्यान् अभ्युपगमः, प्रथज्याप्र. जीवा णं दसट्ठाणनिबत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चि. तिपत्तितो ब्रह्मचर्यभूमिशयन केशलुश्चनाऽऽदीनामङ्गीकारस्त. णिंसु वा, चिणिति वा, चिणिस्संति वा । तं जहा-पढमस- न निर्वृत्ता आभ्युपगमिकी तया ( बेयरस्सइ सि ) भविष्यमयएगिदियनिव्वत्तिएजाव फासिंदियनियत्तिए । एवं स्कालनिर्देशः भविष्यपदार्थो विशिशानयतामेव जयोऽती. "चिण उवचिण बंध उदी-र वेय तह णि जरा चैत्र । " तो वर्तमानश्च पुनरनुभयद्वारेणान्यम्याऽपि शेयः सम्भव तीति ज्ञापनार्थः । । उवक्कमियाए नि) उपफ्राम्यतेऽननस्था० १००। त्युपक्रमः कर्मवदनापायस्तत्र भवा श्रीपक्रमिकी म्बयमुदी (यथा च पापकर्माणि पापफलविपाकसंयुक्तानि क्रियन्ते त. र्णस्य उदीरणाकरणेन योदयमुपनीतस्य कर्मणा नभयस्त. था ' अप उत्थिय' शन्दे प्रथममागे ४४० पृष्ठे गतम् ) या श्रीपक्रमिक्या वेदनया वेदयिष्यति । तथा न-(अहाकम्म से गूणं भंते ! नेरइयस्स वा तिरिक्खजोणियस्स ति) यथाकर्म बद्धकनितिक्रमण (अहानिगरणं नि ) वा मणुसस्स वा देवस्स वा जे कडे पावे कम्मे,णत्थि तस्स निकरणानां नियतानां देशकालाऽऽदीनां विपरिणामहेतूनाम नतिक्रमेण यथा यथा तत्कर्म भगवता दृष्टम, तथा तथा श्रवेइयत्ता मोक्खो ?, हंता गोयमा ! नेरइयस्स वा ति- विपरिणस्थति, इतिशम्दी वाक्यार्थसमाताविति । भ०१ रिक्खमणुस्सदेवस्स वा जाव मोक्खो । से केण?णं भंते ! श. ४ उ० । (अत्र विशेषम् ‘बंध' शब्दे वक्ष्यामि ) एवं वुच्चइ-नेरइयरस वा जाव मोक्खो, एवं खलु मए। पावकम्ममूल-पापकर्ममूल-न । लिप्टशानाऽऽवरणाअदिवीगोयमा ! दुविह कम्मे पम्पत्ते । तं जहा-पए सकम्मे य,अणु- जे, प्रश्न०२ श्राश्र० द्वार।। भागकम्मे य । तत्थ णं जं तं पएसकम्मं तं नियमा वेदेइ, पावकम्मविगम-पापकर्मविगम-पुं० । पापकर्म मिथ्यान्वतत्थ ण जंतं अणुभागकम्मं तं अत्थगइयं वेदेइ, अत्थे- मोहनीयाऽऽदि, तस्य विगमः विशिष्टी गमः। पापस्य अपुनगइयं नो वेदेइ, णायमेयं अरहया,मुयमेयं अरहया, वि र्भवबन्धकत्वेन पृथग्भावे, पं० सू०१ सूत्र । मायमेयं अरहया,इमं कम्मं अयं जीवे अझोवगमियाए पावकम्मोवदेस-पापकर्मोपदश-पुंज पातयति नरकादायवेयणाए वेयइस्सइ, इमं कम्मं अयं जीवे उबक्कमियाए ति पापं, तत्प्रधानं कर्म पापकर्म, तस्यापदंश इति समासः । वेयणाए चेयइस्सइ, अहाकम्मं अहाणिगरणं जहा जहा | कृष्यागुपदेश, श्राव। ६अ। श्री। यथा क्षत्राणि कृपय त्यादि । उपा) । ध० र० । पापकर्मप्रयतन कृप्यादितं भगवया दिढं तहा तहा तं विपरिणमिस्सतीति, से ते सावधव्यापारे, ध०२ अधिः।। गटेणं गोयमा ! नेरइयस्स वा जाव मोक्खो। पायकोव-पापकोप-पुं० । पापमपुण्यप्रकृतिरूपं फापयति प्र. (से गाणमित्यादि) नरहयस्स वा' इत्यादौ नास्ति मोक्ष इत्ये पञ्चयति पुष्णाति यः स पापकोप इति । अथवा पापं चासो वं सम्बन्धात् पष्ठी। (जे कडे ति) तैरेव यददं पायकम्मे ति)। कोपकार्यत्वान् कोपश्चति पापकोपः । पापा-मनि कोपनपापमशुभं नरकगत्यादि. सर्वमेव वा, पापं दुष्ट, मोक्षव्याघा. शीले च । एकोनविशे गौणप्राणातिपाने,प्रश्नप्राश ठार । तहेतुत्वात् । (तस्स त्ति) तस्मात्कर्मणः सकाशात् (अवे. इयत्त त्ति ) तत् कर्माननुभूय ( एवं खलु त्ति ) वदपमाण पावग-पावक-न० । पुनातीति पावकम् । शुभ अनुष्ठाने,तं०। प्रकारेण खलुक्याल कार (मए त्ति) मया। अनेन च व. अनौ, दश०४ अ०। उत्त। स्तुप्रतिपादने सर्वज्ञत्वेनाऽऽन्मनः स्वातन्त्र्यं प्रतिपादयति । पापक-न०। पापमेव पापकम् । पापोपादान कारण, आचा) (पएसकम्मे यत्ति) प्रदेशाः कर्म पुद्गला जीवप्रदशेध्यांत. १७. ०१ उ) | उत्त। सायद्यानुष्ठानरूपे कमरिण, प्रोतास्तद्रूपं कर्म प्रदेशकर्म (अणुभागकम्मे यत्ति) अनु. सूत्र०१ श्रु.) १२ अ । अवद्ये, सूत्र०१७०१ प्र०२ उ) । भागस्तेषामेव कमेघदेशानां संवद्यमानताविपयो रसस्त अशभे, प्रश्न०१ सम्बद्वार। उस० । करमप, सूब० १७० दूपं कर्मानुभागकर्म । तत्र यत्प्रदेशकर्म तन्नियमाद्वेदयति, १०२ उ. प्राणानिपाताऽऽदी, प्रश्न) १ श्राश्रवार । विपाकस्थाननुभवनेऽपि कर्मप्रदेशानामवश्यं क्षपणात्यदेशे- | आवा अशुभफलवृत्तिविशव, शा०१०१६ १०। दु:भ्यः प्रदेशानियमाच्छातयतीत्यर्थडनुभागकर्म च तथामा खदायके, उत्स०२० अ० । पापानुष्ठान, उत्तरमा । मथुना Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावग (८८०) माभिधानराजेन्द्रः। पावय ऽऽसेवनाऽऽदिके, सूत्र०१ श्रु० ४ अ०१ उ० । नरकाऽऽदि इदानी पापप्रकृतीराहहेती पापकर्मणि, उत्त० २ ०। सकारणभूतेषु आश्रयेषु, .........", अपढमसंठाणखगइसंघयणा । सूत्र०२ शु०५ १०। पापकमस्यास्तीति पापकः । पापवति । तिरियदुग असाय नीओ-बघाय इग विगल निरयतिगं।१६। सूब०२ श्रु.५०1श्राचा पाप एव पापकः । पापकतरि, दश० ६ ० । जलरुहभेद. आया०२ श्रु०१ अ०५ उ०। थावरदस वनचउक, घाइ पणयाल सहिय बासाई । पावपयडि ति दोसु वि, वनाइगहा सुहा असुहा ॥१७॥ पावगोयर-पापगोचर-पुं० । पापविषये, द्वा० २० द्वा० । (अपढमसंठाणत्यादि) संस्थानानि च खगतिश्च संहननानि पावजीवि (म्)-पापजीविन्-पुं०। पापश्रुताऽऽजीविनि,को- च संस्थानखगतिसंहननामि,अप्रथमानि च प्रथमवर्जानि तानि एटलाऽऽदिशास्त्रोपजीविनि, व्य० ३ उ०। संस्थानखगतिसंहमनानि च अप्रथमसंस्थानखगतिसंहनापावट्ठाणग-पापस्यानक-न० । पापहेतूनि स्थानकानि पाप नि । तवाऽप्रथमसंस्थानानि न्यग्रोधपरिमण्डलसादिकुज. स्थानकानि । हिंसाऽऽदिषु पापस्थानेषु, प्रव०१०६ द्वार । (ता वामनहुण्डाऽऽख्यानि पञ्च, अप्रथमखगतिरप्रशस्तविहायोग. तिः, अप्रथमसंहननानि-ऋषभनाराचनाराचार्द्धनाराचकीन्यष्टादश 'पेसुम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे बक्यामि) लिकाच्छदवृत्तरूपाणि पञ्च, तिर्यद्विकं तिर्यग्गतितिर्यगानुपावडण-पादपतन-न० । ' दुर्गादेव्युदुम्बर-पादपतन-पाद पूर्वी रूपम्, असातं, नीचर्गोत्रम्, उपघातम् (इग त्ति) एकेपीठे ऽन्तर्दः ॥८।१।२७० ॥ इति सस्वरव्यञ्जनस्य लुग्या। न्द्रियजातिः, (विगल त्ति) द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजात'पावड-पाश्रवडणं ।' पादयोः पाते, प्रा० १ पाद । यः, नरकत्रिकं नरकगतिनरकानुपूर्वीनरकाऽऽयुर्लक्षणं, स्थापावण-पावन त्रि०। पवित्रे, अष्ट० २६ अष्ट। वरदशकं स्थावरसूदमापर्याप्तकसाधारणाऽस्थिराऽशुभदुर्भय प्रापण-० । प्राप्तौ, शा. १ श्रु०१८ अ । हठाद् व्यापारम दुःस्वरानादयायशःकीर्तिरूपं, वार्मचतुष्कम्-वर्णगन्धरसस्प र्शाऽऽख्यं, (घाइपणयाल त्ति) सर्वघातिन्यो विंशतिः, देशवर्तन, प्रश्न १ श्राश्र द्वार । घातिन्यः पञ्चविंशतिः। उभया अपि मिलिताः सामान्येन पावणियाण-पापनिदान-न । पापानि पापनिवन्धमानि नि- घासिन्यः पञ्चचत्वारिंशद्भवन्ति,ताभिः सहितायुक्ताः पूर्वोक्ता दानानि । पापोपादानभोगाऽऽदिप्रार्थनायाम्. पा० । अप्रथमसंस्थानाऽऽदिका बर्मचतुष्कपर्यवसानाः सप्तत्रिंशपावणिवारण-पापनिवारण-न । त० । अशुभकर्मणो नि- संख्या द्वयशीतयः पापप्रकृतयो भवन्ति । इतिशब्दः परिसपंधके पा। माप्ती, द्वधतिय एव पापप्रकृतयो नाधिका इत्यर्थः । ननु द्विचत्वारिंशत्पुण्यप्रकृतयो भवन्ति,यशीतिश्च पापप्रकृतयो, पावणियण-पापनिवेदन-न०। रागद्वेपतानां कर्मणां स्वयं मिलिताश्चतुर्विशत्युत्तरं प्रकृतिशतं जातं, बन्धे तु विंशत्युकृतत्वेन परिकथने, पा० विव०।। त्तरमेव शतमधिक्रियते "बंधे विसुत्तरसय" मिति बचनात्. पावदिदि-पापदृष्टि-पुं०। पापा, दृष्टिः बुद्धिरस्येति पापदृष्टिः।। तत्कथं न विरोधः?, इत्याह (दोसु वि वनाइगह त्ति) द्वयोपापबुद्धौ उत्तः पाई १०।। रपि पुण्यपापप्रकृतिराश्योर्वाऽऽदिग्रहात् वर्णगन्धरसस्प र्शग्रहणान्न कश्चनापि विरोधः । अयमभिप्रायः-वरणाऽऽद. पावदुगुंछा-पापजुगुप्सा-स्त्री० । पापपरिहारे, पो०। यो हि पुण्यस्वभावाः पापस्वभावाश्च वर्तन्ते, ततः पुण्यव. पापजुगुप्सालक्षणम् राणचतुण्य पुण्पप्रकृतिषु मध्ये गृह्यते, पापवर्म वतुष्टयं पुनः पापजुगुप्सा तु तथा, सम्यक् परिशुद्धचेतसा सततम् । पापप्रकृतिषु । ततः पुण्यपापप्रकृतिराश्योर्वाऽऽदिचतुष्क पापोद्वेगोऽकरणं, तदचिन्ता चेत्यनुक्रमतः ॥५॥ यत्तदेकमेव सत् प्रशस्ताप्रशस्तभेदनोभयत्रापि विवक्ष्यते इत्यपापजुगुप्सा तु तथा पापपरिहाररूपा सम्यक परिशुद्धचे दोषः। तथा एता एव पुण्यप्रकृतयःशुभकारण जन्यत्वात् शु. तसा अविपरीतपरिशुद्धमनवा सततमनवरतं पापोद्वेगोड भा उच्यन्ते, पापप्रकृतयस्त्वशुभकारण जन्यत्वादशुमा अभितीतहतपापोधिनता अकरणं पापस्य वर्तमानकाले तदचि. धीयन्ते । कर्म ५ कर्म। म्ता चेल्प नुक्रमतः तस्मिन् भाविनि पापे अचिन्ताऽचिन्त- | पावभीरुयया-पापभीरुकता-स्त्री० । दृष्टाररेभ्यः पापकारममनुक्रमेण श्रानुपूर्त्या कालत्रयरूपया। अथवा-पापोद्वेगः | णेभ्यः कर्मभ्यो भीरुकतायाम् , ध०१ अधिक। रहारः कायप्रवृत्या प्रकरण वाचा तदचिन्ता पापाचि-पावमण-पापमनस-वि•। पापं प्राखातिपाताऽऽदिमत्सनिन्ता मनसा सर्वाऽपीयं पापजुगुप्सा धर्मतत्त्वलिङ्गम् । षो। दान वा मनो यस्य स पापमनाः। पापोपभोगाऽऽदिप्रार्थन४ विर० । अष्ट। या उपेते, पञ्चा। विव०। पावद्ध प्रावद्ध-त्रि० । पाशिते, नि चू०१६ उ०। पावमोक्ख-पापमोक्ष-पुं० । पातयति पांशयतीति वा पार्प, पावधन्म-पापधर्मन्-'• । क० स० । सावधेषु मनोवाका- तस्मान्मोक्षः । प्राचा०१० २ ०२ उ०। "पावमोक्खो यव्यापारेपु. सूत्र०१ श्रु०१४ प० । पापोपादानकारणे प्रा- त्ति मरणपणे अदुना प्रसंसा एवं परिणाय मेहाची।" रापुपमर्दप्रवृत्ती, सूष १० ११ १० । मिथ्यात्वाविरति- प्राचा०११०२०२ उ०। प्रति । प्रमादकमुषितान्तराऽऽत्मनि, सूत्र. १७०१४ अ०। । पावय-पावक-पुं० । अग्नी, “धूमची हुअवहो. विहायम् पावपगइ-पापप्रकृति-स्त्री० । कटुकरसासु अनुभप्रकृतिषु, पाययो सिही घरही । अखलो जलणो उहणो, हुलासगो कर्म.५ कर्म। हन्यवाहो य ॥६॥" पाइ ना०६ गाथा । Jain Education Interational Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावया अनिधानराजेन्दः । पावसमण पावयण-पावचन-न० । प्रकर्षणाभिविधिनोच्यन्ते जीवाऽऽद सुदुल्लहं लहिउं वोहिलाभ, यो यस्मिन् तत् प्रावचनम् । श्राव० ४० । ध० । प्रब विहरिज पच्छा य जहासुहं तु ॥१॥ चने, शासने, प्रश्न०२ संव.द्वार । "सुयधम्मो त्ति वा तित्थ ति वा पावयणं ति वा एगट्ठा ।" पा० चू०१ सिजा दढा पाउरणं मि अत्थि, अ० । संथा० । प्रशस्तं प्रगतं प्रथमं वा पचनमिति प्रव. उप्पज्जई भुत्तु तहेव पाउं । चनम् । भागमे, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् । स्था० ३ ठा० ४ उ०। जाणामि ज बट्टइ पाउसो त्ति, पावयणिय-प्रावचनिक-पुं० । प्रवचने प्रवचनार्थकथवे नि- किं नाम काहामि सुरण भवे ॥२॥ युक्तः प्राचचनिकः । नं०। प्रवचनं द्वादशाङ्गं गणिपिटकं तदस्यास्तीति प्रावचनी। युगप्रधानाऽऽगमे, प्राचार्य, प्रवच यः कश्चिदित्यविवक्षितविशेषणः तुः पूरणे। पठन्ति च-'जे के नप्रभावकभेदे, ध० २ अधि०। प्राचा० संथा। व्या इमे ति।' तत्र च (इमे.त्ति)अयं प्रवजितो निष्क्रान्तो निम्र न्थः प्राग्वत्, कथं पुनरयं प्रवजित इत्याह-धर्म भुतचापावयणि (न्)-प्रवचनिन्-पुं० । दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्। प्रव रित्ररूपं,श्रुत्वा निशम्य, विनयेन शानदर्शनचारिजोपचाराssचनप्रणेतरि जिने, भ० २० श. ८ उ० । आचार्य, प्रा | त्मकेनोपपनो युक्तो विनयोपपत्रः सन् सुदुर्लभमतिशयदुचा० २ श्रु० ३ चू०। पापम् (लभिडं ति) लब्ध्वा बोधिलाभं जिनप्रणीतधर्मपावरग-पावरक-पुं० । सलोमके पटे, प्रवारः सलोमकः | प्राप्तिरूपम् , अनेन भावप्रतिपल्याऽसौ प्रवजित इत्युक्तं भवपटः, स च माणिकीप्रभृतिकः, भन्ये तु प्रावारको बृह ति । स किमित्वाह-विहरेवरेत्पश्चात् प्रवजनोत्तरकालं. चः कम्बलः परियच्छित्याहुः। प्रव० ८४ धार । पुनरों विशेषद्योतकस्ततश्च प्रथमं सिंहवृश्या प्रवज्य प. श्वात्पुनर्यथासुखं यथा यथा विकथाऽऽदिकरणलक्षणेन प्रकारे पावरण-प्रावरण-न० । षट्पदिकाभयेन यत्प्रावियते तत्प्रा. ण सुखमात्मनोऽवभासते, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वाद्यथामसुख घरणम् । १०३ उ०। वर्षाकल्पाऽऽदौ, उत्त० १७ ०।। मेव शृगालवृत्यैव विहरेदिष्यर्थः । उक्तं हि-"सीहत्ताए निपावरुइ-पापरुचि-त्रि० । पापमेवोपादेयमिति अधाने, प्रश्न क्खंतो सियालत्ताए विहरइ ति।" स च गुरुणाऽन्येन वा १ श्राश्र० द्वार। हितैषिणाऽध्ययनं प्रति प्रेरितो यद्वति तदाह शय्या वसति ईदा वाताऽतपजलाऽऽद्युपद्रवैरनभिभाव्या, तथा प्रावरणं व. पावलोग-पापलोक-पुंगपापकर्मणां नरकादिके लोके,सूत्र० कल्पाऽऽदि मे मम अस्ति । किञ्च-उत्पद्यते जायते भोग्नु १ श्रु०२ १०३ उ०। भोजनाय तथैव पातुं पानाय यथाक्रममशनं पानं चेति शेपावलोभ-पापलोभ-पुं० । पापमपुण्यं लुभ्यति प्राणिनि स्नि- षः । तथा जानाम्यवगच्छामि यद्वर्तते यदिदानीमास्ति श्राह्यति, संश्लिष्यतीति यावत् यतः स पापलोभः । अथवा-पा युप्मन्निति प्रेरवितुरामन्त्रणमिति, एतस्माद्धेतोः किं नाम?,न पंचासौ लोभश्च तत्कार्यत्वात् पापलोभः । विंशतितमे गौ- किञ्चिदित्यर्थः । ( काहामि त्ति) करिष्यामि श्रुतेनाऽऽगमे. णप्राणातिपाते, प्रश्न०१ श्राश्र० द्वार। नाधीतेनेत्यध्याहारः।" भंते ति" पूज्याऽऽमन्त्रणम् । इहच पावविगार-पापविकार-पुं०। पापजन्ये विषयतृष्णाऽऽदी,पो० प्रक्रमात् क्षेपे । अयं हि किलास्याऽऽशयो यथा ये भवन्तो भ. १ विव० (धर्मतत्वयुक्तस्य विषयतृष्णाऽऽदयो न भवन्ति इति दन्ता अधीवन्ते तेऽपि नाऽतीन्द्रियं वस्तु किञ्चनाऽवबुध्य'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे २६७२ पृष्ठे दर्शितम्) म्ते, किंतु साम्प्रतमात्रक्षिण पव, तश्चैतावदस्माखेवमप्यस्ति, तत् किं हृदयगलतालुशोषविधायिनाऽधीतेनेति ?, इत्येवमपावसंतत्त-पापसन्तप्त-त्रि०ा पापकर्मणा सन्तप्ते, सूत्र०१६० ध्यवसितो यः स पापथमण इत्युच्यते इतीहाऽपि सिंहावलो४०१ उ०। कितन्यायेन संबध्यत इति सूत्रद्वयार्थः। पावसमण-पापश्रमण-पुं० । पापेनोक्तरूपेण उपलक्षितः श्रम किं चणः पापथमणः । पापश्रमणीयोत्तराऽध्ययनवर्णितभायसेवके दुःश्रमणे, उत्त०। जे केइ उ पव्वइए, निबासीले पगामसो । जे भावाऽकरणिज्जा, इह अज्झयणम्मि वनिय जिणेहिं ।। भोचा पिच्चा सुहं सुयई, पावसमणे नि वुच्चइ ।। ते भावे सेवंतो, नायव्यो पापसमणो त्ति ॥ ३६॥ यःकश्चित् प्रवजितो निद्राशीलो निद्रालुः प्रकामशो बये भावाः संसक्तापठनाशीलताऽऽदयोऽर्थाः अकरणीयाः क- शो भुक्त्वा दध्योदनाऽऽदि,पीत्वा तक्राऽऽदि सुखं यथा भवतुमनुचिताः इह प्रस्तुतेऽध्ययने ( वम्मिय ति) वर्णिताः प्र- स्येवं सकल क्रियाऽनुष्ठाननिरपेक्ष एव स्वपिति शेते । पठ्यते रूपिता जिनैस्तीर्थकृद्भिः तान् भावान् सेवमानोऽनुतिष्ठन् | च-(बसर सि) बसत्यास्ते प्रामादिषु, स इत्थंभूतः किमिज्ञातव्योऽवबोडव्यः पापेन-उक्तरूपेण उपलक्षितः श्रमणः स्याह-पापश्रमण इत्युच्यते प्रतिपाद्यत इति सूत्राऽर्थः । पापनमणः । इतिशम्दः पापश्रमपशब्दस्य खरूपपरामर्शक इत्थं न केवलमनधीयान एव पापश्रमण उच्यते, किंतुइति गाथाऽर्थ । उत्त० पाई १७५०। आयरियउवज्झाएहि, सुयं विणयं च गाहिए । पापश्रमणलक्षणम् ते चेव खिसई बाले, पावसमणे त्ति वुचई ॥ ४ ॥ जे केइ ऊ पव्वइए नियंठे, प्राचार्योपाध्यायः श्रुतमागममर्थतः शब्दतश्च विनयं चोलाधम्म सुणित्ता विणोवघले । रूपं ग्राहितः शिक्षितो,यैरिति गम्बते,तानवाचार्याऽऽदीम् २२१ Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावसमण (सिइति ) निन्दति बालो विवेकविकलो गम्यमानत्काद्यः स पापक्षमण इत्युच्यते इति सूत्राऽर्थः । इत्थं मानाऽऽचारनिरपेक्षं पापभ्रमणमभिधाय दर्शना55चारनिरपेक्षं तमेवाऽऽह (FR) अभिधानराजेन्द्रः | शायरियउपज्झायाणं, सम्मं नो पटितप्पई । अप्पडियर थद्वे, पात्रसमय चि बुचई || ५ || आबायोपाध्यायानां सम्यगवैपरीत्येव न परितप्यते न सतत विश्व दर्शना बारान्तर्गतवात्सल्यविरहितां न त कार्येष्वभियोगं विधते इति भावः । अप्रतिपूजकः प्रस्तावाददादिषु यथोचितप्रतिपत्तिपरामुखः स्तम्बो गर्योऽऽच्माकेनचित् प्रेर्यमाणोऽपि न तद्वचनतः प्रवर्त्तते यः सपापक्षमण इत्युच्यत इति सूत्राऽर्थः । सम्मति चारित्राचारविकलं तमेवाऽऽछसम्मरमाणे पाणाणि, बीयाणि हरियाणि य । असंजर संजय मममाणे, पारसमणि नि दुबई ।। ६ । संधारं फल पीढं, निसि पायकंचलं । अप्पमज्जियमारुहई, पात्रसमणि त्ति बुच्चई ॥ ७ ॥ दबदवस्स चरई, पमते य अभियां । उप य चंडेय, पावसममिति दुबई ॥ ७ ॥ परिलेटेड पमते, भवरह पायप पडिलेहाभयाउने, पारसमणि ति युवई ॥ 8 ॥ परिलेटेड पयले सो किंचि हु निसामिया । गुरुं परिभावए नि, पावसमा ति बुम्बई || १० | बहुमाई पहरी, बद्धे लुद्धे अणि । संविभागी अचियते, पावसमणि नि बुराई ॥। ११॥ मिवार्य च उदीरे, अथम्मे अतपहा । धुम्हे कलहे रते, पावसमणि ति बुच्चई ॥ १२ ॥ अथिरास कुईए, अस्थ तत्व निसीयई । आसम्म अणाउने, पारसमणि ति बुच्चई ॥ १३ ॥ सरक्खपाओ सुई, सि न पडिले हई | संचार भयाउलो, पात्रसमणि सि बुच्चई ॥ १४ ॥ संमईयन् हिंसन् प्राणानिति प्राणयोगात् प्राणिनो डीजिन शाल्यादीनि हरितानि च पूर्वा कुरा 55दीनि सकलैकेन्द्रियोपलक्षणमेतत्, स्पष्टतरचैतन्यलिङ्गत्वातदुपादानम् अत एवासंयतस्तथापि (जममाणिसि) सोपस्कारत्वात्संयतोऽहमिति मन्यमानः अनेन च सं पाक्षिकत्वमप्यस्य नास्तीत्युक्रम्, पापथमयुच्यते । तथा संस्तारं कम्बल्यादि, फलकं चम्पकपट्टाऽऽदि, पीठमासनं. विषयां स्वाध्यायभूम्यादिकां यत्र निष्यते पादम्ब पावनम् अप्रसृज्य र जोहर णाऽऽदिना असंशोध्य, उपलपदमत्युपश्यच धरोहति समाकामति यः स पापम इत्युच्यते । तथा ( दवदवस्स त्ति) मुतं तं तथाविधाssसम्बचिनाऽपि त्वरितं त्वरितं चरति गोचरदिप रिभ्राम्यति प्रमता प्रमादवशगश्च भवतीति शेषः श्रभीषणं + पावसमण पारं वारमुन बालादीनामुचितप्रतिपण्यकरणतोऽधःकर्त्ता चण्डश्च क्रोधनः । यद्वा-प्रमत्तोऽनुपयुक्तः, ईर्यासमिती उल्लङ्घनश्च वत्सडिम्भाऽऽदीनां चण्डश्चारभटवृत्याश्रयणतः, शेषं तथैव तथा प्रतिलेखयति अनेकार्थत्यात्प्रत्युपेक्षते प्रमत्तः सन् ( श्रवउज्झर ति ) अपोज्झति यत्र तत्र निक्षिपति, प्रत्युपेक्षमाणो वा अपोज्झति, न प्रत्युपेक्षते इत्यर्थः। किं तत् ?, पादकम्बलं पात्रकम्बलं वा प्रतीतमेव, समस्तोपध्युपलक्षणं चैतत् स एवं प्रतिलेखनाऽनायुक्तः प्रत्युषेक्षाsदुपयुक्तः, शेषं तथैव । तथा प्रतिलेखयति प्रमत्तः सन् (किंचि हुति) डुरपिशब्दार्थः ततः किञ्चिदपि विचा33दीति गम्यते । (निसामिय ति) निशम्याऽऽकरार्य तत्राऽऽक्षितचित्ततयेति भावः । ( गुरुपरिभासप त्ति ) गुरून् परिभापते विवदते गुरुपरिभाषकः । पाठान्तरतो गुरुपरिभावको नित्यं सदा । किमुकं भवति : असम्यक प्रत्युपेक्षमाणो ऽभ्या वितथमाचरन् गुरुमिवोदितस्तानेव विचरतेऽभिभवति वाsसभ्यवचनैर्यथा स्वयमेव प्रत्युपेक्षध्वं युष्माभिरेव वयमित्थं शिक्षितास्ततो युष्माकमेवैष दोष इत्यादि । शेषं त थैव, गुरुपरिभाषकत्वं प्रमत्तत्वस्य च निशमनहेतुत्वं पूर्वस्माविशेष इति न पीनरुक्त्यम् किं चमायी प्रभूतयनाम योगवान प्रकर्षेण मुखरः स्तब्धो लुग्ध इति च प्राग्वत्, अविद्यमानो निग्रहः - इन्द्रियनोइन्द्रियनियन्त्रणाSSत्मकोऽस्ये स्वनिग्रहः । संविभजति गुरुग्लान वाला 5 विभ्य उचितमश नाऽऽदि यच्छतीत्येवं शीलः संविभागी न तथा य आत्मपकस्येनैव सोऽसंविभागी ( अवियले ति ) गर्दादिष्यप्रीतिमान् शेषं पूर्ववत् । श्रन्यच्च विरूयो वादो विवा दः - वाक्कलहः तं चः पूरणे, ( उदीरेइ ति ) कथञ्चिदुपशुन्यमानाऽऽदिना वृद्धि नपति सम्मानसदाचारः ( श्रचपरहद्द ति ) श्रात्मनि प्रश्न आत्मप्रश्नः तं छन्त्यात्मप्रश्नहाः, यदि कश्चित्परः पृच्छेत् किं भवान्तरयायी अयमात्मा. उत नेति ?, ततस्तमेव प्रश्नमतिवाचालतया इन्ति यथा - नास्त्यात्मा प्रत्यक्षाऽऽदिप्रमाणैरनुपलभ्यत्वात्, तो "सति हि धमिणि धम्मश्चियन्ते " इति । पठ्यते च - ( अन्तपसह ति ) तत्र च श्रात्तां सिद्धान्ताऽऽदिश्रवणतो गृहीतामातां वा इहपरलोकयोः सद्बोधरूपतया हितां प्रज्ञामात्मनोऽन्येषां वा बुद्धि कुत 7 3 व्याकुलीकरणतो हन्ति यः स श्रातप्रज्ञाहा श्राप्तप्रशादा बाबुगादि ) ब्युदण्ड दिवानजनिते विरोधे कलहे तस्मिन्नेव वाचिके रक्तोऽभिष्वक्तः । शेषं प्राग्वत् । अपरं च स्थिरासनः कुकुयः कुकुचो वाचमपि पूर्ववत् पत्र तत्रेति संसक्तसरजस्काऽऽदावपीत्यर्थः, निषीदतीत्युपविशति आसने पीठाऽऽदावनायुक्तोऽनुपयुक्त सन् शेषं प्राग्वत् । त था सह रजसा वर्त्तते इति सरजस्कौ तथाविधौ पादौ यस्य स तथा स्वपिति शेते । किमुक्तं भवति ? - संयमविराधनां प्रत्यभीरुतया पादावप्रसृज्यैव शेते, तथा शय्यां वसतिं न प्रतिलेखयत्युपलक्षणत्वात् न च प्रमार्जयति, संस्तारके फलककबलाऽऽ सुत इति शेषः अनायुक्तः “कुडिपायपसारण, आयामे विडे ।" इत्याद्यागमार्थाऽनुपयुक्त अन्य वेति सूत्रनवकाऽर्थः । इदानीं तप आचारातिक्रमतः पापश्रमणमाहदुद्धदहीविगईओ, आहारे अभिस्वणं । Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३) पावसमण प्रनिधानराजेन्द्रः । पावसुयपसंग अरए य तवोकम्मे, पावसमाण ति वुच्चई ॥ १५ ॥ यते स स्वचातिपिण्डस्तं ( जेमति त्ति) भुक्त, नेच्छति नाअत्यंतम्मि य सूरम्मि, आहारेइ अभिक्खणं । ऽभिलपति समुदानानि-भिक्षास्तेषां समूहः सामुदानिकम् , " अचित्तहस्तिनोष्ठक" ॥ ४॥२॥४७॥ इति ठक। बहुगृहचोइनो पडिचोएइ, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ १६ ॥ संबन्धिनं भिक्षासमूहमक्षातोछमिति यावत् . गृहिणां नि. भायरियपरिच्चाई, परपासंडसवए। पद्या पर्यकतूल्यादिका शय्या, तां च वाहयति सुखशीलगाणंगणिए दुब्भूए, पावसमाण त्ति वुच्चई ॥ १७ ॥ तया आरोहति. शमं तथैवेति सुत्रद्वयार्थः । दुग्ध, क्षीरं,दधि च तद्विकार एव, दधिदुग्धे, सूत्रे च व्यत्य संप्रत्यध्ययनार्थमुपसंहरन्नुक्तरूपदोषाऽऽसेवनपरिहारयोः यः प्राग्वत् , विकृतिहेतुत्वात् विकृती, उपलक्षणत्वात् ,घृता. फलमाहऽऽधशेषविकृतिपरिप्रहः,आहारयत्यभ्यवहरति,अभीषणं वारं एयारिसे पंचकुसीलसंखुडे, पारं तथाविधपुटाऽऽलम्बनं विनापीति भावः। अत एवारत रूवं धरे मुणिपवराण हेडिमे । भाप्रीतिमांश्च तपःकर्मण्यनशनाऽऽदौ, शेषं प्राग्वत् । अपि अयंसि लोए विसमेवगरहिए, च-(अत्यंतम्मि यत्ति) अस्तान्ते अस्तमयपर्यन्ते, चः पूररणे,उदयादारभ्येति गम्यते । सूर्ये भास्वत्याहारयस्यभीषणम्। ण से इहं नेव परम्म लोए ॥ २० ॥ किमुक्तं भवति?-प्रातरारभ्य संध्यां यावत् पुनः पुनर्भुक्त, जो बज्ज एए उ सया उदोसे, यदि वा-(अत्यंतम्मि य ति) अस्तमयति सूर्ये पाहारय- से सुब्बए होइ मुणीण मज्झे । ति, तिष्ठति तु किमुच्यत इति भावः । किमेकदैवेत्याह-प्र. भीषणं पुनः पुनर्दिने दिने इत्युक्तं भवति । यदि चाऽसौ केन अयंसि लोए अमयं व पूइए, चित् गीतार्थसाधुना चोद्यते, यथाऽऽयुष्मन् ! किमेवं त्वया- आराहए दुहओ लोगमिणं (तहा परे) ॥ २१ ॥ ऽऽहारतत्परेणैव स्थीयते ?, दुर्लभा खल्वियं मनुजत्वाऽऽदि. एतारशो यारश उक्त:-(पंचे त्ति) पञ्चसंख्यः कुत्सितं चतुरसामग्री,ततः एनामवाप्य तपस्येवोद्यन्तुमुचितमिति । शीलमेषां कुशीलाः पार्श्वस्थाऽऽदयः समाहृताः पञ्चकुशील ततः किमित्याह-(चोइनो पडिचोएर ति) चोदितः सन् तबदसंवृतः-अनिरुद्धाऽऽभवद्वारः पञ्चकुशीलासंघृतो, रूपं प्रतिचोदयति, यथा-कुशलत्वमुपदेशकर्मणि न तु स्वयम- रजोहरणाऽऽदिकं वेषं धारयति रूपधरः, सूत्रे तु प्राकृतत्वानुष्ठाने, अन्यथा किमेवमवगच्छन्नपि भवान बिकृष्टं तपो- विन्दुनिर्देशः । मुनिप्रवराणामतिप्रधानतपस्विनाम्-( हिा? ऽनुतिष्ठति, शेषं तथैव । प्राचार्यपरित्यागी, ते हि तपः- मो ति) अधस्तादर्ती, प्रतिजघन्यसंयमस्थानवर्तित्वात्रिकर्मणि विषीदन्तमुधमयन्त्यानीतमपि चानाऽऽदि बालग्ना- कृष्ट इत्यर्थः। एतत्फलमाह-(प्रपंसि ति) अस्मिन् लोके नादिभ्यो वापयन्त्यतोऽतीचाहारलौल्वात्तत्परित्यजनशी. जगति विषमिवेति गरल इव गर्हितो निन्दितः भ्रष्टप्रतिको लः परानम्यान पापण्डान् सौगतप्रभृतीन "मृद्धी शय्या प्रात- हि प्राकृतजनरपि निन्यते-धिगेनमिति । अत एष न स रुत्थाय पेया, " इत्यादिकाभिप्रायतोऽत्यन्तमाहारप्रसक्तां-] हेति इहलोके नैवेति नाऽपि परब लोके,परमार्थतः समिति स्तत एव हेतोः सेवते-तथा तथाऽपसर्पतीति परपाषएड- शेषः, यो हि नैहिककमामुप्तिकं वा कञ्चन गुणमुपार्जयति सेषका, तथा च खेच्छाप्रवृत्ततया ( गाणंगणिपति)। स तगणनायामप्रवेशनस्तत्वतोऽविद्यमान एवेति । यो गणावू गणं परमासाभ्यन्तर एव संक्रामतीति गाणंगणिक वर्जयति परित्यजत्यैतानुक्तरूपान् (सया उ ति) सदैव दोइत्यागमिकी परिभाषा। तथा चाऽऽगमः-"छम्मासभंतरतो | षान् यथासुखविहाराऽऽदिपापाऽनुष्ठानरूपान् स तथाविधः गणा गणं संकम करेमाण।।" इत्यादि । अत एव च दुनिन्दा- सुव्रतो निरतिचारतया प्रशस्यब्रतो भवति मुनीनां मध्ये । यां, ततश्च दुरिति निन्दितं, भूतं-भवनमस्येति दुर्भूतो, दु- किमुक्तं भवति ?-भावतो मुनित्वेनाऽसौ मुनिमध्ये गण्यते, राचारतया निन्द्यो भूत इत्यर्थः,अपरं तथैवेति सूत्रत्रयाऽर्थः । तया वाऽस्मिन् लोके अमृतमिव सुरभोज्यमिव पूजितो. ___ संप्रति वीर्याऽऽचारविरहतः तमेवाऽऽह भ्यर्दितं आराधयति (दुहतो लोगमिसं तिहलोकपरलोसयं गेहं परिचञ्ज, परगेहंसि वावरे । कभेदेन विविध लोकम् (इणं ति) इममनेन चाऽतिप्रनीत तया प्रत्यक्ष निर्दिशतीति.इहलोके सकललोकपूज्यतया परनिमित्तेण य ववहरई, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥१८॥ लोके च सुगत्यवाप्तेः, ततः पापवर्जनमेवं विधेयमिति भाव समाइपिंडं जेमेइ, निच्छई सामुदाणियं । इति सूत्रद्वयाऽर्थः। उत्त । १७ ।। गिहिनिसिहं च बाहेइ, पावसमाण त्ति वुच्चइ ॥१३॥ पावसमणिज-पापश्रमणीय-न। पापश्रमणस्वरूपोपदर्शके, स्वमेव स्वकं, निजकमित्यर्थः । गेहं गृहं. परित्यज्य परिह- । सप्तदश उत्तराध्ययने, उत्त०१७ १०। स्थ, प्रवज्याङ्गीकरणतः परगेहेऽन्यवेश्मनि (बावरि तिव्या- मिपावत- पंदस्वप्ने, कल्प०१अधि०३क्षण । प्रियते पिण्डार्थी सन् गृहिणामात्मभावं दर्शयन् स्वतस्तत्कृत्यानि कुरुते । पठ्यते च-(ववहरि ति) तत पवतो . पावसुय-पापश्चत-म० । पापोपादानहेती शास्त्रे, स्था० . य॑वहरति गृहिनिमित्तं क्रयविक्रयव्यवहारं करोति, निमिते. | ठा० । आव। न च शुभाशुभसूचकेन व्यषहरति द्रव्यार्जनं करोति, अपरं च पावसयपसंग-पापश्रुतपसङ्ग-पुं० । पापोपादानहेतुः श्रुतं त. पूर्ववत् । अपि च-सन्नाय ति स्वशातयः स्वकीयस्वजना- | व प्रसङ्गस्तथा सेवारूपो विस्तरो वा सूत्रवृत्तिकरूपः पा. तैर्निजक इति यथेप्सितो यः स्निग्धमपुराऽऽदिराहारो दी- पश्रुतप्रसङ्गः । उत्पाताऽऽदिके पापश्रुते, स्था। Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८४) पावसवपसंग भाभिधानराजेन्द्रः। पावा नवविहे पावस्सुयपसंगे पसत्ते । तं जहा-" उप्पाए ने- भट्ट निमित्तंगाई, विव्वुप्पायंतलिक्खयोमं च । मिसि मंते, माइक्खए तिगिच्छीए । कलाऽऽवरण अन्ना- अंगसरलक्खणवं-जणं च लिविहं पुणोकेकं ॥१॥ णे, मिच्छापावयणे ति य ॥१॥" सुत्तं वित्ती तह व-त्तियं च पावमुय अउणतीसविहं । पापोपादानहेतुः श्रुतं शायं पापश्रुतं, तत्र प्रसङ्गः तथा से गंधव्वनवत्थु, आउं धणुवेयसंजुत्तं ॥२॥ वारूपो विस्तरो सूत्रवृत्तिकरूपः पापक्षुतप्रसनः। (उप्पाए भए निमत्तानानि, दिव्यं व्यन्तराऽऽट्टहासाऽऽविविषयम्, सिलीगो ) तत्रोत्पातः प्रकृतिविकाररूपः सहजरुधिरवृष्ट्या उत्पातम् सहजरुधिरवृष्ट्यादिविषयम् अन्तरिक्षम्-प्रहभेदादि तत्प्रतिपादनपरं शासमपि तथा, राष्ट्रोत्पाताऽऽदि, तथा | 3ऽदिविषयं, भौम-भूमिविकारदर्शनादेवास्माविद भवति :निमित्तमतीताऽऽदिपरिक्षानोपायशास्त्रं कूटपर्वताऽऽदि. म त्यादि विषयम्, अङ्गम् अङ्गविषयं, स्वरम्-स्वरविषयम, व्यश्रीमन्त्रशामं जीवोवरणगारुडाऽऽदि (प्रारक्चर ति)मात अनम्-मषाऽऽदि तद्विषयं,लक्षणं लाञ्छनाऽऽदि तद्विषयम् । अषिया, यदुपदेशावतीताऽऽवि कथयति डोव्यो कधिरा रति तथा च-अङ्गाऽऽदिदर्शनतस्तद्विदो भाविनं सुखाऽऽवि जानलोकप्रतीताः, किरतकमायुर्वेदः, कला लेखाऽऽया गणि मत्येव,त्रिविधं पुनरेकैकं दिव्यादि-सूत्रम.वृत्तिः, तथा-पातिक तप्रधानाः शकुनरुतपर्यवसाना द्वासप्ततिः, तच्छाखाण्यपि । चेत्यनेन भेदेनतथा भावियते आकाशमनेनेत्यावरणं भवनप्रासादनगराss- "दिव्याऽऽदीण सरूवं, अंगविषज्जाण होर सत्तरह। वितलक्षणं शानमपि तथा, वास्तुविधेत्यर्थः । अज्ञानं लौकि. सुतं सहस्सलक्खो, य वित्ति तह कोडि वक्वाणं ॥१॥ कथुतं भारतकाव्यनाटकाऽऽदिमिथ्याप्रवचनं शाक्याss- अंगस्स सयसहस्सं,सुत्तं वित्तीय कोडि विनेया। वितीर्थकशासनमिति । एतच सर्वमपि पापश्रुतं,संयतेन पुष्टा- वक्खाणं अपरिमियं, इयमेव य वत्तियं जाण ॥२॥" उलम्बनेनाऽऽसेव्यमानमपापश्रुतमेवेति । इतिरेवं प्रकारे,चः पापश्रुतमेकोनत्रिशविधं,कथम् ?,अटी मूलभेदाः सूत्राऽऽदिसमुपये । स्था० ६ ठा०। भेदेन त्रिगुणाश्चतुर्विशतिः गन्धर्वाऽऽदिसंयुक्ता एकोनविंश द्भवन्ति, (वत्थु ति) वास्तुविद्या (माउंति ) वैद्यकम् । मेष एगृखतीसइबिहे पावसुयपसंगणं पप्पत्ते । तं जहा--भीमे प्रकटार्थम् । आव०४ अ.। उप्पाप सुमिणे अंतरिक्खे अंगे सरे बंजणे लक्खणे । भो र वजण लक्खण । भा- पावसूयण पापसूदन-न०।"पापसूदनमप्येवं, तत्सत्पापाssमे विविहे पम्पते। तं जहा-सुत्ते वित्ती बत्तिए। एवं एकेकं उपेक्षया चित्रमन्त्रजपप्रायं, प्रत्यापत्तिविशोधितम् ॥१३॥" तिविह, विकहाजोगे,विज्जाणुजोगे,मंताजोगे, जोगाणुजो (यो० वि०) इतिलक्षिते तपोभदे, द्वा०। गे, भष्मतिथियपवत्ताणुजोगे ॥ पापसूदनमप्येवं, तत्तत्यापाऽऽद्यपेक्षया । पापोपादानानि श्रुतामि तेषां प्रसङ्गस्तथा सेवनारूपः पापश्रु चित्रमन्त्रजपपायं, प्रत्यापत्तिविशोधितम् ॥२॥ तमसनः। स च पापभुतानामकोनत्रिशविधत्वात् तद्विध उक्तः पापसूदनमप्येवं परिशुद्धं विधानतश्च यम् । तत्तचित्ररूपं पापातविषयतया पापक्षुतान्येवोच्यन्तेऽत एवाऽऽह-(भोमे यत्पापं साधुद्रोहाऽऽदि तदपेक्षया यथाऽर्जुनमुनिराजस्याजीइत्यादि ) तत्र भौमं भूमिविकारफलाऽभिधानप्रधानं निमित्त- कृतप्रवज्यस्य साधुवधस्मरणे तहिनप्रतिपमाभोजनाभिप्रशाख तथा उत्पातं सहजरुधिरवृष्यादिलक्षणोत्पातफलनि- हस्य षण्मासान् यावज्जातब्रतपर्यायस्य सम्यक् संपन्नाऽऽराकपर्क निमित्तशास्त्रम् , एवं स्वमं स्वप्नफलाऽऽविर्भा- धनस्य किल न कचिहिने भोजनमजनीति चित्रो नानाविधः बकम्, अन्तरिक्षमाकारामभवप्रहयुद्धभेदाऽऽदिभावफलनि "हीं असिनाउसा नमः" इत्यादिमन्त्रस्मरणरूपो मन्त्रजपः प्राबेवकम् मा शरीराऽवयवप्रमाणस्पन्दिताऽऽदिविकारफलो- यो बहुलो यत्र तत् प्रत्यापत्तिस्तत्तदपराधस्थानान्महता शाषकं, स्वरं जीवाजीवाऽभितस्वरस्वरूपफलाऽभिधायक, संवेगेन प्रतिक्रान्तिस्तया विशोधितं विशुद्धिमानीतम् । द्वा० ग्यजन मा दिव्यजनफलोपदेशक, लक्षणं लाञ्छनाऽधनेक- १२ द्वा। विधलक्षणम्युत्पादकमित्यष्टावतान्येय सूत्रवृत्तिवार्तिकभेदा- पावा-पापा-स्त्रीगमध्यमाऽपरनाम्न्यां वङ्गदेशराजधान्याम, चतुर्विशतिः तत्रावर्मितानामन्येषां सूत्रं सहनप्रमाणं,वृत्ति- प्रक० २७५ द्वार । पश्चा० । प्रशा० । प्रा० म० । सूत्र। लक्षप्रमाणा, वार्तिक पूर्व्याख्यानरूपं कोटिप्रमाणमास्य तु यत्र भगवान् निर्वृतः । ती०। सलक्षणं वृत्तिः टीका वार्तिकमपि परिमित्तमिति।तथा वि पापाकल्प:कथाऽनुयोगोऽनर्थकामोपायप्रतिपावनपराणि कामन्दकवा- सिद्धार्थोफ्त्या वनान्ते खरड(?) कुसुमितान्यञ्जनद्रोणिभाजः, स्स्ययानादीनि भारताऽऽदीनि वा शाखाणि२५.तथा विद्याs- शल्ये निष्क्रियमाणे श्रुतियुगविवरात्तीवपीडाऽदितस्य । नुयोगो रोहिणीप्रभृतिविद्यासाधनाऽभिधायकानि शाखाणि यस्या अभ्यर्णभागेऽस्तिमजिनमुकूटस्थोधदाश्चर्यमुथै२६ मन्त्रानुयोगधेटकादिमन्त्रसाधनाऽभिधायकानि पाप- श्वश्चधीकारराषस्फुटितगिरिदरी सश्यतेऽद्यापि पूरः ॥१॥ शास्त्राणि २७, योगाऽनुयोगो वशीकरणाऽऽदिकानिहरमेख- चके तीर्थप्रवृत्ति चरमजिनपतिर्यत्र वैशाखशुक्लैलाऽऽदियोगाऽभिधायकानि शाखाणि २८, अन्यतीर्थिकेभ्यः कापश्यामेस्य रात्री वनमनु महसेनाहयं अम्भिकातः। कापिलादिभ्यः सकाशात् यःप्रवृत्तः स्वकीयाऽऽचारव- सच्छा वास्तत्र कानश गणपतयो दीक्षिता गौतमाऽऽद्यार, स्तुतस्वानामनुयोगो विचारस्तत्करणार्थ शाखसन्दर्भ इत्य- जग्रन्थुर्वादशाही भवजलधितरी ते निषश्वात्रयेण ॥२॥ प, सोऽभ्य इति २६ । स०२६ सम. प्रा०चू० । प्राप यस्यां श्रीवर्द्धमानो चहमनशनकद्देशनाकत्तिमन्त्यां (१), सूत्राप्रश्न०11०। कृत्वाश्रीहस्तपालाभिधधरणिभुजोधिष्ठिता शुरुकशालाम्। Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८५) पावा अन्निधानराजेन्छः । पाया स्वाताबूर्जस्य दर्श शिवमसमसुखश्रीनिशान्तं निशान्ते, मंसाहारं निवारहस्संति.तो मझदेसे सत्त कुलगरा भधिप्रापत्पापास्तपापान विरचयतु जनान् सा पुरीणां धुरीणा।३।। संति,तत्थ पढमो विमलवाहणो.बीश्रो सुवामो, तामी संगनागा अद्यापि यस्यां प्रतिकृतिनिलया दर्शयन्ति प्रभावं, भो,चउत्था सुपासो,पंचमो दत्तो छट्ठोसुमुहो,सत्तमोसंमुची। निस्तैले नीरपूर्णे ज्वलति गृहमणिः कौशिके यन्निशासु । जाइसरणेणं विमलवाहणी नगराइनिवेसं काही. अग्गिन्मि भूयिष्ठश्वर्य्यभूमिश्वरमजिनवरस्तूपरम्यखरूपा, उप्पन्ने भएणपाणगं सिप्पा कालाभो लोगववहारं च सर्व सा पापा मध्यमाऽऽविर्भवतु वरपुरीभूतये यात्रिकेभ्यः।" पवत्तही । तो पगूणनवापक्खस्स मज्झिए उस्सप्पित्तीइतिश्रीपापाकल्पः । ती०१३ कल्प। भरयतुगे वाकते पुंडबद्धणदेसे सयबारे पुरे संमुश्नरया"पणमिय वीरं तुच्छं, तस्सेव य सिद्धिगमपवित्तीए । णो भहाए देवीए चउद्दसमहासुमिणसूदनो सेणियरायपापापुरीह कप्पं. दीषमहुप्पत्तिपडिबझं ॥१॥ जीवो रयणप्पभाए लोलुबुद्धयपच्छडाश्रो चुलसाई वाससागउडेसु पाडलपुरे, संपद राया तिखंडभरहई। स्सा आउंपालिता उबट्टो समाणो कुञ्छिसि पुत्तत्ताए उपअजसुहत्थिगणहरं, पुच्छा पणनो परमसहो ॥२॥ पजिहिर, वमप्पमाणालंबणाऊणि गम्भावहारवजं पंचकदीवालिप्रपब्वामिणं, लोए लोउत्तरे लोगो रचिभ्रं। । शापयाण मासतिहिनखत्ताणि जहा मम तहेव भविस्संति। भयवं! कह संभूयं ,मह भण्इ गुरू निव ! सुलेसु ॥३॥" | नवरं नामेणं पउमनाहो,देवसेणो,विमलवाहलो प्रातमओ बी. (ती) (इतोऽप्रे 'कलिजुग' शब्द तृतीयभागे ३७६ पृष्ठे पतित्थयरो सुपासाजीवो सूरदेवो, ताओ उदाहजीवी सु. गतम् ) (दुःषमावृत्तम् 'दूसमा 'शब्दे चतुर्थभागे २६०१ पृष्ठे पासो, चउत्थो पोट्टलिजीवो सयंपभो, पंचमो दढाउजीवागतम्) (कल्किवृत्तान्तम् कक्कि' शब्दे तृतीयभागे १८१ पृष्ठे श्रो सब्बाणुभूई, छट्ठो कित्तियजीवो देवसुत्रो, सत्तमो संखगतम्) । “दत्तो राया वावत्तरियासानो पइदिणं जिणचेइम जीबी दो, अट्ठमो आणंदजीवो पेढालो. नवमो सुनंदाजीवो डियं महिं काही.लोगं च सुहि काहिति । दत्तस्स पुत्तो जि पोट्टिलो, इसमो सयगजीवो सयकित्ती, एक्कारसमो देवायसत्तू,तस्सचित्रो मेघघोसो, कक्किमणंतरं महानिसीह न घ. जीवो मुणिसुब्यो बारसमो करणजीवो अमम्मो, तेरसमो हिस्सा दोवाससहस्सट्ठिरणो भासरासिग्गहस्स पीडाए नि सवाजीवो निक्कसाओ, चउहसमो बलदेवजीवो निप्पुलायत्ताए य देवा वि ईसणं दाहिति,बिज्जा मंताय अप्पेण घि जा. ओ, परागरसो सुलसाजीवो निम्मम्मो, सोलसमो रोहिणीवेण पहावं दंसिस्संति, मोहिनापजाइसरणाभावा य किंचि जीवो चित्तगुत्तो । “केह पुण भंणति-कलिपुत्तो दत्तनामोपपयहिस्संति, तदनंतरं एगुणवीससहस्सा जाब जिणधम्मो रणरसउ तिउत्तरे विक्कमवरिसे सेतुंजउद्धारं कारित्ता बहिस्सा(दुष्प्रसहसूरिवृत्तम् 'दुप्पसह'शब्दे चतुर्थभागे २५६२ जिणभवणमंडिअं च वसुहं काउं अज्जियतिन्थयरनामो सग्गं पृष्ठे गतम्) दुप्पसहो सूरी.फग्गुसिरी प्रजा,नाइलो साचो, गंतुं चित्तगुत्तो नामजिणवरो होहित्ति । इत्थ य बहुस्सुप्रसंसम्वसिरी साविया,अपच्छिमो संघो एस पुच्चरहे भारहेवासे मयं पमाणं ।"सत्तरसो रेवइजीबो समाही,भट्टारसो सयालिअत्थमेहिद मज्झरहे विमलवाहणो राया,समुहो मंती, अवर जीवो संबरो,पगूणवीसो दीवायणजीवो जसोहरो, वीसहमो रहे अग्गी,एवं धम्मरायनीदपागाईणं धुच्छेत्री होहिर, एवं पं करणजीवो विजश्रो, एगवीसो नारदजीयो मल्लो. बाधीसहचमो परमो दूसमा संपूरक्षा,तो दूसमसमाए छठे भरए प मो अंवडजीबो देवो, तेवीसइमो अमरजीवो अणंतविरो, यहे पलयवाया वाइरसंति,वरिसिस्संति विसहरजला, भवि चउबीसदमो सयंबुद्धजीवो भहकरो, अंतरालाइ पच्छाणुपु. स्ता वारसाचसमो सूरो, अइसीयं मुंघिस्सा चंदो, गंगा व्वीप जहा बहमाणजिणाणं । ते वि चक्कवट्टिणो दुवालस होसिंधूभयतडेसुं वेयजुमूले बाहत्तरिए मूलेसु खंडभराया हिंति । तं जहा-दीहतो,गूढतो,सिरिचंदो,सिरिभूई,सिरिसिणो नरतिरिया वसिस्संति,बेयमारो पुष्यावरतडेसुगं सोमो पउमो नायगो,महापउमो,विमलो,अमलवाहणो,विलो, गाए नव नव बिलाई, एवं वेयहपरमो वि एवं छत्तीसं. एमेव अरिट्ठो मानव भाविवासुदेवा।तं जहा-नंदी,नंदिमित्तो, सुंदसिंधूए वि छत्तीसं. एगत्ते बावत्तरि थिलाई रहपहमित्तपवा- रबाह,महाबाहू,अरबलो,दुविठू,तिचिटू य । नव भाविपडिहाणं गंगासिधूणं जले उप्पले मच्छाई ते विलवासिणो रति वासुदेवा जहा-तो लोहजंघो,केसरी,बली,पहरामो,अपराकहिस्संति,दिवा ताव भएण निग्गंतुमक्खमा सूरकिरणपको जितो, भीमो, सुग्गीयो । नव भाषिबलदेवा जहा-जयंतो, तेरयणीए खाहिति,योसहिरुक्खगामनगरजलासयपव्ययाई- अजिओ, धम्मो, सुप्पभो, सुदंसणा, आणंदे, नंदणो, पउमो, ण धेयहउसभकूडवजं निवेसटाणं पिन दीसिहिद छुव्वासा संकरिसणो य । इगसट्ठी सलागापुरिसा ओसप्पिणीए तहए इत्थीमो गम्भं धारिस्संति,सोलसवासाम्रो नरा पुत्तपपुत्तेद- भरप भविस्संति, अपच्छिमजिणचळवहिणो य दुम्मि चउच्छति,इत्थसमुस्सिमा काला कुरूषा उग्गकसाया नग्गा पायं त्थे अरए होहिंति । तो दसमगाई कप्परक्खा उप्पग्जिहिनरयगामी विखवासिणो एगवीसं सहस्साई भविस्संति एवं ति । भट्ठारस कोडाकोडीनो सागरोषमाणं निरंतरं जुगलछट्टे भरए प्रोस्सप्पिणीए समते वि पढमे अरए एसा चेष धम्मो भविस्तर। उस्सप्पिणी अवसप्पिणी कालचकाणि बत्तव्यया तम्मि बोलीणे वीयारपयारंभे सत्ताई पंच महाभा- अगंतसो वेअहाश्रो अणंतगुणाणि भारहे वासे होहिति। रहेपासे बासिस्संति कमेणं । तं जहा-पढमो पुक्खरापत्तोता- एवमार अग्ने पि भविस्सकाले सरूवं वागरित्ता कम्मि वि वं निब्यावहिरवीमो खीरोदो घनकारी,तामोघमोवो नह गामे देवसम्मविप्पस्त बोहणत्थं गोश्रमसामी पट्टविनो,जहा कारो चउत्थो मनोवमोमोसहीकरो, पंचमो रसोवनी भू एयस्स पेमबंधो झिझिर, तो तीसं बासाई आगारवामीए ससंजणणो,तेय तिवासिणो पासमयं बहमाणसरीरा. से बसित्ता पक्खेहिं अ सहवारसवासे छउमत्थो तीसं भोपुहविसु बठूण दिहतो निस्सरंति,धनं फलाभता वासा तेरस पक्खाई केवली विहरिता कत्तिप्रश्रमाव २२२ Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) अभिधान राजेन्द्रः । पावा साए राई चरमजाम दे बंदे दुबे संयच्रे पीरबडणे वासे मंदिरी पफ्ते देवानंदाय रयणी उपसमे दिये मागे करणे सव्वट्टसिद्धे मुहुसे साइनक्लत्ते श्रयं पकासो सामी सकेणं विश्वत्तो-भयवं ! दोवास सहसडिई भासरासी नाम तीसइमो गद्दो श्रखुद्दप्पा तुम्ह जम्मनसंकेत संपर्वता मुलं पडिक जहा तस्स मुद्दे वंचियं भवर, अमदा तुम्छ बितिन्यस्स पीडा विरं होद्दिति भवषया भणिदं भी देवरावराया अ 1 हर्षि मे दंड कार्ड पाइलाप सर्वभूरमणसमुदं चरिउं, लोनं च अलोप खिविडं समस्था, न उण श्राउकम्मं बजेउं वा हालेउं वा समत्था, तम्रो अवस्सं भा पिनाचार्य मत्थि परक्रमो तो दोबाससहस्से जाय अब एवं भाषिणी तिरवस् पीड सि सामोपचा सारं ज्ञायफलवियागारं पच्चावचं व पाचकम्मफलधिबागाई विभावरण इसी अदुवागरणारं बागरिता पहाणं नाम अभवणं वि भाषमाणे सेलेसीमुपगम्म क यजोगनिरोहो सिद्धारांतपंचगो एगागी सिद्धि संपत्ते अ तं नाणं, अतं दंसणं, अयंतं सम्मतं, अणतो आणं. दो. अतं विरयं च सि पंचाणंतगं, तया य अणुखरीकुं पूर्ण उपदिद अजयम संजमे दुराराहर भविस्स इति समासमणीओ बह भ प (सी०) अनं च -" कासीकोसलगा नव मलई नव लेच्छई अट्ठारसगणरायाणो अमावसाए पोसहोववासं पारिता गए भा बुजो दग्बुजां करिस्लामिति । (१२७ सूत्र कल्प० १ अधि०६) परिभाषिय रणमयीदि ओयको सि कालक्रमेण अग्गिदीवेहिं सो जाओ एवं दीवालिया जाया देवो देवीदिय म्रागच्छंतगच्छदि सा रवी उम कोलाहलसंकुला जाया भगवत्र व सरीरं देवेहिं सकारिय मासरासि पडिवो पीडापडियायत्वं देवमागणी. राजणा जहि कया तेरा किर मेरा इयाणि पविता जाया । गोयमसामी पुणं तं दिशं पडिवोहिता जाव भगवओो बंदरात्यं पचागच्छ ताव देवाणं संलावे सुरो, जहा भयवं कालगोरं अथिति गम्रो अहो ममम्मि भने विसामि यो नियाजमहं अंतसमय चि समीचे नाव, कई वा बीमरागाणं सिखेहु ति नायसुखं ति चत्रियपेमबंध तक्सग्रां बेव केवली जाओ । सक्केणं कन्तियसुद्धपडिवयाप आगास केवल महिमा कया। भयवं सहस्लदल कणय पंकर निवेसि श्रो, पुण्फप्पयरं काउं अट्ठ मंगलाई पुरओ आहिलिअाई. देसया य सुश्रा । अत्र चेव पाडिवर महसश्रो श्रज्ज वि जयं पि परियंतो गोधमसामीप सीओ, तस्साराहगा गोमकेतुष्पात्तयितु तिमि दिये समवसरणे अ क्षणापूर्ण सूरिणो करिति साच्या व भय अ त्यमिर सुचनाएं चैव सम्यविहासु पहाणं ति सुमनाएं पति मंदिवद्धनमरिंदो सामिणो जिद्रुभाया भगवंत सि जिगयं पृच्या अव सोगं कुतो पाडिवर वासो कलियुद्धवीया संबोदित्ता निजधरे आमंति सवाद भगिनीय मोहयो बलवत्थाह दिएवं तप्पभिरं भायवीयापन कई पर्व दीस संज्ञाया। जे अदीषमहे चउसिअमावस कोबीसहिमवदा कार्ड अट्टप्पगारपूपचाप सुचनानं पुरसा पंचाससहस्वपरिवारं सिरिगोधमा चक्षकमले टियं जाइता पद पंचा सदस्साई तंदुला पगले वारस सक्साई चंडीस पट्टय रोबोसा तदुपरि अखंडदीययं बोहिसा गोश्रमं धारादिति, परमपद पावेति सिदसयसमासा - गं कुजा । तत्थ दीवस्सवे जिसालय सऽक्खन्हावणाई पूयं काऊण नंदीसरपडपुरओ वा दप्पणसंकंतजिसबिबेस म्ह या कार्ड बायपणहि बसोबास पपनेया नारिगजवीरकवलीफलाईदि मालिवराह पूगाणि उच्छलडीओ बज्जूरमुखियावरिसालय उत्तरित्तिसालय उत्तरिया areनाईणि वीरमाइयालाई दीषयाहरुबाइकबोलियांची बावनं तंबोलाइदा पुग्धं सातिया णंदिया अनेक दीनूसबं विश्र भावसारा नंदीसरतवं मढविंति त्ति । पावा अ] पुणरषि अजहरवीणं संपइमहाराम्रो पु वर्ष ! इत्थ दीवालिया पम्पम्म बिसेसची घराण मंडणं नत्थाईं बिसिट्रुपरिभोगो अन्नोनं वाऽऽहाराइकरणं जाणं केण कारणेण दीसह । तत्य इमं परं हरियो पर्व जहा पुषं उज्जेणी पुरीष उज्जाये सिरिमुनिसुम्वइसामिसीसो सुब्वयाऽ: परिक्षा समासदो तस्य दत्थं गओ सिरिधम्मराया, तेस विनंती विर तत्थ गनो, सूरीहिं समं विवायं कुणतो खुल्लगेण पराजिओ, गो रक्षा समं गेहूं तिराप मुलियो हंतुं कमिखग्गो गम्रो उज्जाणं, देवया तंमिश्र गोसे चिहिरण रक्षा खामित्ता मोइली लज्जिओ नहो गयाउरे तत्थ पराया जाला तरस देवी, तीसे दो पुता-विएंडुकुमारी, महापदम सिं अभिमहाडमस्त वरायपये पिया दियं नई तरल मंती नाओ, तेरा सीइरहो रणे विजियो, महापडमो तुझे परे दिले, तेख म सीओ बरो. एगया जालावेषीय भरतरहो कारिओ, तीखे सवतीय लच्छी परिमविडीय पुराण बंभरहो, पढ रद्दकइये दुग्रह थि देवाणं विवाहे दोषि रहा रहा बारिया, माउ अवमाणं ददतुं महापडमो देतरं गम, कमेण मयणा - परिणिता साहिखंडभारहो गयउरं समागम, पिउणा रजं दिनं, बिरहुकुमारेण समं पउमुत्तरो सुब्वयाऽऽयरियपायमूले दिक्खं गिरिहत्ता सयं सिवं पत्ता, बिरहुकुमारस्स य सद्विवाससयाइं तवं कुतस्स भगाओ लीओ संपनाओ, महापदमो की जिणभवमंडियं महि कार्ड रह ताओ कारिता पूरे माउयमणोरद्दो, नमुचिया बढानासा कया बेरेण अणकरत्थं रज्जं मग्गिश्रो, तेरा सव्वसंघेण तस्स र दार्ड सर्प डियमंतेउरे, सुन्यापरिया व विहरिता । तया इत्थिाउरे वासाचउम्मासि ठिया, आगया सब्वे पासंडिणो अहिणवनिवं दयुं, न सुव्वयाऽऽयरिया, तो कुद्धो न भषे-ममभूमी तुहितविपरिन डाय अ हा मारेमि, जय मं ददयुं तुम्हे नागया तो सूरीहिं संघ पुछिन्ता एगो साहू गयणगामिविज्जाप संपन्नो माइट्ठो मेरुचूलि - याठियस्स विन्दुकुमारस्त आणयणत्थं । तेण विवत्तं भंते ! मम गंतुं सती अत्थि न उस आगंतुं गुरुर्हि दुलो-सो बेव तुमं श्रहसि। तो सो पत्तो मेरुतलं वंदिऊण वित्तं सव्व सरूवं महरिसिणा, तक्वणं चेष सो उप्परओ साहुगं Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावा अभिधानराजेन्सः। पावेसगाय साहुणा महतलं, प्रागो गयउर, राउलंच, नमुश्वज्जोह पावाण-पापान्य-पुं० । साधुधमें व्यवस्थिते, नि० चू०४ उ० । सञ्बेहि बंदियो, उपलक्खियो य । नमुई पवित्रा वि महो ठाउं न देह साहूणं । ताप विण्हुणा राय त्ति गयमाणा भूमी पावाभिगम-पापाभिगम-पुं० । पापमेवोपादेयमित्यभिगमे, तेण दिया।भणियं च-जो बाहि पयतिगामो दिट्रो,तं मारेहामि, प्रश्न०१ आश्र द्वार। तावेउब्वियलद्वीप लक्खजायणपमाणदेहो जानो,विण्हुरिसी पावाययण-पापाऽऽयतन-ना अशुभप्रकृतिबन्धहेता,स्था। किरीकुंडलगयाचकखग्गधरडं धार्रितो तं आहेण नाऊ "मव पावस्साऽऽययणा पसत्ता। तं जहा-पाणाइवाएजाब ण पटुपियानो सुरंगणाप्रो कमजा हेट्टायो महुरसरेण खति- परिग्गहे कोहे माणे माया लोहे।" स्था०६ ठा०1 ज्वसमगभगीयाणि गाईति, चक्कपट्टिपमुहा य विमायवारा पावारग--प्रावारक-पुं०। नेपालाऽऽदिराडूवरोमवृहत्कम्बलेषु, पसायणत्थं पाए सइंति, तो उवसंतो पगइमाषसो मह वृ० ३ उ० । नि० चू० । मा० जी० । रिसी खामिनो बकहिणा संघण य, विराहुकुमाराश्रो च. किणा य मोयाविमो किवाए नमुई, तया य वासाणं च-| पावासुभ-प्रवासिन् -त्रि० । “ प्रवासीधी"॥८।१।१५॥ उत्थमासस्स पक्खसंधिदिणं पासी, तंसि उप्पाए उपसमे इत्यादेरित उत्पम् ( पावासुमो) प्रोषिते,प्रा०१ पाद । लोपाहि पुषजायं च मप्पाणं मन्त्रमाणाहिं मनोनं वषहारा- पाविऊण-प्राप्य-श्रव्य । समाधिगम्येत्यर्थे, पं०प०१द्वार। कया, विसिट्ठघरमंडणच्छायणभोयणतंबोलाइपरिभोगा - ब्बतिया, तप्पभिर एयम्मि दिवसे एयवरिसंते वेष षषहा पाविडि-पापर्द्धि-स्त्री० । ऋद्धिविशेषे. " दाणभोगरहित्रा रा पयहिजंति, विन्दुकुमारो य कालेण केवली होऊण सि. साया बिड्डी अणत्थफला।" ध०२ अधिः। जो महापउमबकवट्टि ति दसपुस्विस्स मुहानो एवं सोऊण | पावित्ता-मा | पावित्ता-पाप्य-प्रब्य० । लब्ध्वेत्यर्थे,सूत्र०१६०११ मा संपानारदो मासी जिणपरयो वि सेसं पुवादियहेस म-पावियंत-पाप्यमाण-वि०। गम्यमाने, प्रश्न० ३ आश्र द्वार। ज्झिमाए पावाए पुटिव अपावा पुरि सिनामं प्रालि, सक्केणं पाविया-पापिका-स्त्री० । दोषवत्याम् , सूत्र० १ ० २ मा पावापुरि ति नामं कयं, जेण इत्थ महावीरसामी कालगो। इत्येव य पुरीए वसाहसुखएकारसीदिवसे भियगा- २ उ०। ० ॥ दुगोदेव्युदुम्बर-पादपतन-पादमामो रसिं बारस जोयणाणि प्रागंतूण पुखएहदेसकाले महसेणषये भयवया गोयमाइगणहरा खंडियगणपरिषुडा पीठेऽन्तर्दः" ॥१॥२७०॥ इति मध्ये धर्ममानस्य सस्वरव्यदिक्खिया, अणुभोगगणाणुना यतेसिं दिसा, तेहिं च नि अनस्य दकारस्य लुरा था। 'पावीढं। पापीढं।' पहाऽऽदी, सिज्जातिगेण उप्पावविगमधुबलक्खणं पयतिगं लणं प्रा० १ पाद । सामिसगासाओ तस्थ णं दुधालसंगी विवरिया । इत्येव न.पावेसणय-प्रवेशनक-पुं० । भगवतीनवमशतसत्कस्तीयोहेयरीए भयवनो कहिंतो सिद्धस्थवाणियउषकमेणं सरय- शके गायाभिधामानगारकृतनरकाऽऽदिप्रवेशनावचाभ. बेजेण कमसलामा उद्धरिया, तदुद्धरणे य वेदणावसेण ८ .१ उ०। भयषया चिकाररवो मुक्को, तेण पश्चासत्रपश्यत्रो दुहा जा तदेव दर्शातेभो, मज वि तस्थ अंतरालसद्धिमग्गो दीसा । तहार. वंदित्त बद्धमाणं, गंगेप्रसुपट्टभंगपरिमाणं । स्थेव पुरीए कत्तियश्रमावसाप रयणीप भगवो निवाणट्ठाणे मिच्छविट्ठीहि सिरिवीरथूभं ठाषियं नागमंडवे अज्ज विवा इगजोगे सग भंगा,दुगजोगे भंग इगवीसा ॥१॥ उपसियलोहा जत्तामहसघं करिति, तीए चेव एगरत्ती देवा- 'बंदित्त ति' पन्दित्वा वर्धमानं गाङ्गेयपृष्टभापरिमाणं ऽणुभाषेणं कूषा रहियजलपुलमल्लियाए दीवो पजला तिचं कथ्यत इति। "गजोगे" असंयोगे भड: सप्त सप्त भवन्ति विणा, पुसा य अत्थासयवया इत्येव नयरे वक्वाणिया, | सप्तसु नरकेषु, एकस्मिन्नेकस्मिन् विकसंयोगे भङ्गाः२१-२१, इत्थे भगवं संपत्तो सिद्धि, इच्चा अपभूयसंविहाणठाणं, तद्यथा-प्रथमद्वितीययोः १, प्रथमतृतीययोः २, प्रथमचतु. पावापुरीतित्यं । योः३, प्रथमपञ्चम्योः ४, प्रथमषष्ठ्योः ५, प्रथमसप्तम्योः "इय पावापुरिकप्पो, दीवमहुप्पत्तिभणणरमाण जो।। ६, द्वितीयतृतीययोः ७, वितीयचतुर्योः८, द्वितीयपश्च. जिणपहसूरीहि को, ठिपाहि सिरिदेवगिरिनयरे ॥१॥ म्योः, द्वितीयषष्ठयोः १०, द्वितीयसप्तम्योः ११, इत्यातेरहसत्तासीए, विक्कमवरिसम्मि भद्दवयबहुले। विभङ्गप्रस्तारवशाज्यम्। प्रथमनरकेण सहभाः ६, द्विती. पूसस्सिकारसिप, समस्थिो एस सत्थिकरो॥२॥" येन सह ५, तृतीयेन सह ४, चतुर्थेन सह ३, पञ्चमेन समाप्तः श्रीपापाबृहत्कल्पो, दीपोत्सवकल्पो षा। ती० सह २, षष्ठेन सह १, एवम्-२१ ॥१॥ २० कल्प। तिगचउजोमे पत्ते-अभंग पणतीस पंचसंजोए । पावाइय -प्रावादिक पुं० । प्रकर्षण मर्यादया वदितुं शीलं ये- इगवीस य छोए, सग भंगा सत्तए एगो ॥ २॥ षां ते प्रावादिनः, त एव प्रावादिकाः । यथाऽवस्थिताऽर्थस्य एकस्मिन्नेकस्मिन् विकयोगे चतुष्कयोगे व प्रत्येकं प्रत्येप्रतिपादनाय वावदूकेषु , प्राचा०१ श्रु०४ अ०३ उ०। के भक्ताः ३५-३५ भवन्ति । त्रिकयोगे यथा-प्रथम द्वितीयपावाउय-प्रावादुक-पुं०। प्रवदनशीलत्वात् प्रावादुकः। सूत्र० तृतीयेषु १. प्रथमद्वितीयचतुर्थेषु २, प्रथमाद्वितीयपश्चमेषु ३, १ श्रु०११०३ उ० । परमतिनि. सूत्र०२ श्रु० २० । प्रा- इत्यादिभङ्गप्रस्ताराज्ज्ञेयम् । प्रथमेन सह १५, द्वितीयेम सह पादुकाः पाखण्डिनः। सूत्र०१० १२ अप्राचा० । १०, तृतीयेन ६, चतुर्थेन ३, पञ्चमेन १, एवम् ३५। एक Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावेसण्य 1 , स्मिनेकस्मिन् चतुर्योगे भङ्गाः २२-२२, प्रथमद्वितीयचतुर्थेषु प्रथमद्वितीयतृतीयपञ्चमे २ प्रथमद्वितीयतृतीयप ठे ३ प्रथमहितीयतृतीय सप्तमेषु ४ इत्यादि प्रस्तारवशा ज्ज्ञेयम् । प्रथमनरकेण सह भङ्गाः २०, द्वितीयेन १०, तृतीयेन ४, चतुर्थेन १. एवम् ३५ । एकस्मिन्नेकस्मिन् पञ्च योगे भङ्गाः २१-२१ भवन्ति । प्रथमद्वितीयतृतीयचतुर्थप 1 इत्यादि प्रस्ताराज्ज्ञेयम् । प्रथमेन सह १५, द्वितीयेन सह ५, तृतीयेन सह १, एवम् २१। एकस्मिन्नेकस्मिन् पदसंयोगे भङ्गाः ७-७ प्रथम द्वितीय तृतीय चतुर्थ पञ्चन- १ इत्यादि भङ्गप्रस्ताराज्शेषम् । प्रथमनरकेण सह भङ्गा ६, द्वितीयेन सह १ एकः । सप्तसंयोगे भङ्गक एक एव प्रथमनरकेण सह प्रथमद्वितीय-तृतीय- चतुर्थ- पञ्चम- पष्ठ- सप्तमेषु प्रस्ताराज्ज्ञेयम् ॥ २॥ अधुना संयोगमधिकृत्या ssह (==) अभिधानराजेन्द्रः | एग से सत्त यदुपवसे सत्त ते असंजोगे । दुगसंजोगो एगो भंगगुणा जोग कायच्या ॥ ३ ॥ 3 एकप्रवेशे भङ्गाः सप्तैव द्विप्रवेशे ऽसंयोगे भङ्गाः समैव, ठियोग संयोग एक एव स्थापना बेयम् - रा गुणा योगाः कर्त्तव्याः किमुक्कं भवति ? यत्र यत्र द्विकयोगाssदिका यावन्तो यावन्तः संयोगा भवन्ति, ते संयोगा भङ्गगुणाः कर्त्तव्याः यस्मिन् यस्मिन् संयोगे पावती या वन्तो भङ्गाः भवन्ति तद्गुणाः कर्त्तव्याः ॥ ३ ॥ तिपवेसे इनजोगे, सच य मेगा इमेव सम्वत्व | दुगजोगे संजोगा, दो चैव हवंति नायव्या ॥ ४ ॥ त्रिप्रवेशे 'एकयोगे ' श्रसंयोग भङ्गाः सप्त ७, एवं सर्वत्र चतुःप्रवेशाऽऽदिषु ज्ञातव्यम् । श्रसंयोगे भङ्गाः ७–७, १२ द्विकसंयोग द्वौ संयोगौ भवतः ॥ ४ ॥ स्थापना चेयम्निगसंजोगे एगो चह य पवेसि तिमि दुअजोगा । तिष जांगा तिब्रेव य, पडसंभोगो भवे एगो ॥ ५ ॥ त्रिसंयोग एक एव स्थापना चेयम्-श (चऊसि) चतु प्र [13] शशश शे यो द्विकसंयोगा २२ विकसंयोगे त्रय १/२/१ भवन्ति स्थापना चेयम् - ३१ एव । तद्यथा- २/१/१ चतुष्कर्मयोगे एक पप ॥ ५ ॥ स्थापना यम् पंचपसि दुजोए, संजोगा इह हर्षति चत्तारि । तिगजोए जो चउसंजोगा य चारि ॥ ६ ॥ " पंचपवेसि ति पञ्चानां प्रवेशे | ~ चत्वारो द्विकसंयोगा भवन्ति । तद्यथा // 011230 शशशश १/१/२/१ त्रिक संयोगे षट् | संयोगा भङ्गा 8 min\n भवन्ति । तद्यथा--- 10/00/0 शर चतुष्क संयोगाश्चत्वारो भवन्ति ॥ ६॥ तद्यथा-२/१/१/१ इस पंचगसंजोगो, छपत्रे से पंच ति दुगजोगा । तिगजोगा दस चैव य, चउकसंजोग दस एव ॥ ७ ॥ " ५ | १ ४ | पञ्चकसंयोगे एक एव, FREQIRI ४. १ २ ३ | १ |१| १ | ३ पट्प्रवेशे पञ्च द्विकस- ३ ३ २ १/३ १ १ २ २ योगा भवन्ति । तद्यथा- ४ २ | २ | १ २ १ २ MUR31 BRD १ १ २ ३ त्रिक संयोगा दश भव न्ति । स्थापना चेयम्- २/३ पावसाय चतुष्कसंयोगा दश भवन्ति । तद्यथा संयोमोत्पादन उपायमाह-यथा- दश प्रवेशेऽधस्तात् बहवः स्थाप्यन्ते श्रष्टाऽऽदयः (सप्ताऽध्दयः) उपरि एक एकः स्थाप्यते । यथा चतु:संयोगे ४५-६-७ एष प्रथमो भङ्गः । पञ्चादूर्द्ध मुख १-१-१-७ १ ३ १ 1 भङ्गाः सचार्यन्ते १-१-२-६ एष द्वितीयसंयोगः । १-२-१-६एष तृतीयः संयोगो भवति । २-१-१-६, एष त्रतुर्थः संयोगः । ततः पश्चादुपरिस्थ एको निवर्तते, स च परमध्यादेकश्च द्वावप्येकत्र कृत्वा द्वितीयस्थामे सचार्यते । स्थापना - १-१-३-५, एप पञ्चमः संयोगः । ततो द्वितीयस्थानात् एकोऽग्रे संवार्यते १-२२५ ततोऽप्यूर्द्ध मेकः संचार्यते २-१-२-५ तत उपरिस्थ उ परिस्थ पकी निवर्तते स च द्वितीयस्थानमध्यादेका, द्वावपि तृतीये स्थान संचार्येत १-३-१-५, एप श्रष्टमः संयोगः । एवमूर्द्धमुखाः संवार्यन्ते सर्वोपरि गत्वा निवर्तन्ते श्रधस्ताविका यत्र वर्तन्ते तन्मध्यादेकेन सहाईस्थाने संचात तापकर्तव्याचच उपरस्था भवन्ति, अन्यत्र एक एक एवेति ७-१-१-१. एप चरमो भङ्गः, इत्थं संयोगा उत्पाद्याः ॥ ७ ॥ संजोगा पंच, स्मजोगो अ होइ इगु चैव । सपदि संजोगा इत्थ छचैव ॥ ८ ॥ ( पण संजोग प्ति ) पञ्चसंयोगाः १ १ १ पञ्च भवन्ति । सर्वत्र संयोगाः प्र १११ 13 स्तारवशाज्ञातव्याः । ते चेमे पञ्च - RE कसंयोगाः । स्थापना१ २ १ १ १ २ १।१.६ घटसंयोग एक एव । स्थापना - १ १ RARE सप्तप्रवेशे द्विक्संयोगाः षट् ॥ ८ ॥ तद्यथा ६६ २५ " तिगसंजोगा पणरस, वीसा पुरा हुंति चउक्कसंजोगा । पणजोगा पारस छओगा इंडि छचैव ॥ ६ ॥ त्रिक संयोगाः पञ्चदश संयोगप्रस्ताराज्ज्ञातव्याः । चतुःसंयोगा विशतिर्भवन्ति । पश्चसंयोगाः पति पट्संयोगाः षड् भवन्ति ॥ ६ ॥ Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) अभिधांनराजेन्द्रः । पावेसाय सजोने इग भंगो, अपवेसे दुजोग सत्तेव । चिमजोगे इगवीस य, चउजोगे हुंति पणतीसा ॥३०॥ सप्तसंयोगे भवति एकः, संयोगप्रस्ताराज्ज्ञातव्यःस्थापना - १ | १|१|१ | १|१ | १ अष्टप्रवेशे द्विकसंयोगाः सप्त । तद्यथा - त्रिसंयोगा एकविंशतिभङ्गा भव- 18 20 x म्ति चतुर्योगेश भङ्गा भवन्ति । तद्यथा एककेन संयोग एक द्वितीयाहून २, द्विकत्रिकाभ्यां ६, द्विकषिक१० किमिक १० एवं ३५ संयोगा भवन्ति ॥ १० ॥ पणजोए पणतीसा, इगवीस छजोग सच सगजोए । नव पविसि दुजोगा, तिग संभोगा य अटवीसा । ११ । पञ्चकसंयोगे पञ्चत्रिंशद् ३५, एककेन १. द्विकेन ४ द्विकत्रिका १०, ठिक २० एवं २५, भवन्ति । एकविंशतिः पद संयोगे एकेन संयोगः १. विन २ द्विकका १५ सप्तसंयोगे सप्त भङ्गाः, तद्यथां BRRRRRR] १|११|१|१ | २२ १/१/१/१२/११ १११.१/२ १ १ १ १ १/२ / १ १ १ १ १ | २१ | १ | १ १ १ २ | १ | १ : १ | १ | ११ 50 MIN नप्रवेशेो वियोगा तथा त्रिकसंयोगाः २८ ॥ ११ ॥ छप्पन्ना चउजोगे, सत्तरि हवई अ पंचसंजोए । aurat aजोए, अडवीसा सत्तसंजोया ।। १२ ॥ चतुर्योगे षट्पञ्चाशद् भङ्गा भवन्ति । पञ्चसंयोगाः सप्ततिः, षट् संयोगाः षट्पञ्चाशत्, सप्तसंयोगाः २८ अष्टाविंशतिः, एवं सर्वत्र संयोगप्रस्ताराज्जज्ञातव्याः ॥ १२ ॥ दसगपवेसे नव दुर्गा-संजोगा तिथि जोगें उत्तीसा । संजोगा पुलसी, पणजोग सर्प च जन्मी ॥ १३ ॥ दशप्रवेशे नव विकस x FARBEERHE योगा भवन्ति, तद्यथात्रिसंयोगाः ३६ षट्त्रिंशद्भवन्ति । चतुष्कसंयोगःः ८४ । पञ्चकसंयोगाः १२६ ।। १३ ।। छओगे १२६ छब्बीसं, सत्तगजोगे हवंति चुलसीई । एवं भंगपरूवण, कहिआ तेलोक्कदंसीहिं ।। १४ ।। षट्संयोगे १२६ संयोगा भवन्ति शतशब्दोऽत्रापि योज्यः । सप्तसंयोगे ८४ चतुरशीतिः भङ्गा ज्ञातव्याः ॥ १४ ॥ भंगा होमुहा खलु, चारेअव्या य भगभग्गन चैव । संजोगा उमुहा, दुतिच उपचाइ पि हु चेव ।। १५ ।। भना अधोमुखाधार्या (अमअगर सिन प्रेतमा भट्टा अमतोऽमतः संचार्याः संयोगास्तुमुखा उ पर्युपरि सा संयोग प्रस्तारचारातव्याः ।" दुनिय " इत्यादि ।। १५ ।। २९३ पावेसाय दुगजोगे एगेगो, तिजोगि हुंति अ इगाइ अर्द्धता । चउजोगि इग ति छ दस, पणरस इगवीस अडवीसा १६ द्विक्संयोग एककेन सह भङ्ग एक एव द्विकेन सह संबोगा एकः, एवं त्रिक्रेन १. चतुष्केण १, पञ्चकेन १, षट्केन १, सप्तकेन १, अष्टकेन, नवकैम १ एक एव संयोग उत्पद्यते । त्रि. संयोग एककेन सह १, विकेन सह संयोगी २ किषि काभ्यां २, द्विकषिकयतः ४ कित्रि द्विकत्रिकचतुष्कपञ्चकपट्कैः ६, द्विकाऽऽदिसप्तान्तैः, एवं द्वि. कायान्यमू सार्यमाणानां संयोगा लभ्य २६ चतुष्कसंयोग एककेन : १. द्विन २ फित्रकाभ्यां पद्यं द्विकादिचतुष्कान्तेः १०,पञ्चः १५ २१, सप्तान्तैः २८ । सर्वे चतुरशीतिः ८४ भवन्ति ॥ १६ ॥ दस वीस पणतीसा, छप्पन्न पणजुगि छसगजोआ । पण परस पणतीसा, सयार छ इगवीस छप्पन्ना ||१७|| पञ्चकसंयोग एककेन सह १. द्वितीयाहून सह ४ ठिक द्विकत्रिकाभ्यां १०. द्विकाऽऽदिनुकारः २० द्विकादिपञ्च कान्तैः : ३५, द्विकाऽऽदिषट्कान्तैः ५६. सर्वे १२६ । षट्संयोग एककेन सह १, द्विकेन सह ५, द्विकत्रिकाभ्यां १५, एवं द्विकाssदिचतुष्कान्तैः ३५ द्विकाऽऽदिपञ्चकान्तैः ७०, सर्वे १२६ । सप्तसंयोगे एककेन सह १, द्विकेन ६, द्विकत्रिकाभ्यां २१, द्वित्रिचतुः सचार्थमा सह २६ सर्वे ८४ १७ ॥ संजोग गुणि अभंगा, कायच्या सव्यमेव परिमाणं । उत्तरभंगाणं इह, बहुद्दिट्ठा य कायव्वा ॥ १८ ॥ संयोग गुणिता भङ्गाः कर्त्तव्याः, उत्तरभङ्गानां सर्व परि माणं भवेत् तद्यथा - एकप्रवेशे भङ्गाः ७, द्विप्रवेशेऽसंयोगे भङ्गाः ७, द्विकसंयोग एक एव द्विकसंयोगे भङ्गाः २१, तैरेको गुणितस्तावन्तः एव भवन्ति २१ सर्वे २८ । त्रिप्र येथे संयोग भङ्गाः ७ विकसंयोगी होती 1 त्या गुणितौ जाताः ४२. त्रिकसंयोग एक एव भङ्गाः ३५ तैहिना: भङ्गाः ३५ भवन्ति सर्वे ८४ चतुपासंयोग ७, द्विकसंयोगाः ३ मरेकविंशत्या गुणिता जाताः ६३, त्रिसंयोगाः ३ भः पञ्चत्रित गुणिताः १०५ चतुःसंयोग एक एव पञ्चत्रिंशता गुणिता जाता: ३५ सर्वे २१०६ पञ्चप्रवेशे ऽसंयोगे ७. द्विकसंयोगाः ४ भङ्गैरेकविंशत्या गुलि ता जाताः ८४, त्रिकसंयोगाः ६ पञ्चत्रिंशता गुणिताः २१०, चतुःसंयोगपति गुथिताः १४० पञ्चकसंयो ग एक एव ( भङ्गाः २१ तैर्गुणिताः ) भङ्गाः २१, सर्वे भ काः ४६२ । पद्मवेशे ऽसंयोगे ७, द्विकसंयोगाः ५ ( भङ्गाः २१ तैः ) भङ्गैर्गुणिताः १०५, त्रिकसंयोगाः १०, (ङ्गाः ३५ से) मणिताः ३५० चतुः संयोगाः १० पता गु गिताः ३५०, पञ्चकसंयोगाः ५ एकविंशत्या गुणिता जा ताः १०५ । पट्संयोग एक एव सप्तगुणाः ७, सब्बै भङ्गाः २४ । सप्तप्रवेशे ऽसंयोगे ७, विकसंयोगाः ६ एकविंशत्या गुचिता १२१, विकसंयोगाः १५ पञ्चशता गुणिता ४२४ चतुः संयोगः १० पञ्चभिता गुणिताः ७०० पञ्चसंयोगाः १५ एकविंशत्या गुणिताः ३१५, पट् संयोगाः ६ भनेः सप्तभिर्गुणिताः ४२, सप्तसंयोग एक पत्र सर्व्वे १७१६ । " Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणय " प्रवेशे ऽसंयोगे ७ द्विकसंयोगाः ७ एकविंशत्या गुणिताः १४७, त्रिक संयोगाः २१ पञ्चत्रिंशता गुणिताः ७३५, चतुः संयोगाः ३५ पञ्चत्रिंशता गुणिताः १२२५ पञ्चकसंयोगाः ३५ एकविंशत्या गुणिताः ७३५ पसंयोगाः २१ सप्तगुणाः १४७, सप्तसंयोगाः ७ एकगुणाः सप्तैव सर्वे ३००३ भवन्ति । नवप्रवेशऽसंयोगे ७, द्विकसंयोगाः ८ एकविंशत्या गुणिताः १६८, त्रिकसंयोगाः २८ पञ्चविंशता गुणिताः ६८०, चतुःसंयोगाः ५६ पञ्चत्रिंशता गुणिताः १२६०, संयोगाः ७० एकविंशत्या गुणाः १४७० प योगाः ५६ सप्तभिर्गुणिताः ३२२ सय २८ सर्वे २००५ दश प्रवेशे ऽसंयोगे ७ द्विकसंयोगाः १ एकविंशत्या गुणिताः१८६, त्रिक संयोगाः ३६ पञ्चत्रिंशता गुणिताः १२६०, चतुःसंगाः ८३ पञ्चत्रिंशता गुणिताः २६४), पञ्चसंयोगाः १२६ एकविंशत्या २९४१ पसंयोगाः १२६ सप्तगुणि ताः ८२ सप्तसंयोगाः एकगुणितास्तायन्त एव स ८२८ ॥ १८ ॥ ( एक प्रवेशादिभङ्गसव्यापरिमाणम् ) २८, ८४, एकप्रवेशे भङ्गाः ७, द्विप्रवेशे भङ्गाः त्रिप्रवेशे भङ्गाः चतुःप्रवेशे भङ्गाः २१०, पञ्चप्रवेशे भङ्गाः ४६२. पदप्रवेशे भङ्गाः ६२४, सप्तप्रवेशे भङ्गाः १७१६, अष्टप्रवेशे भङ्गाः ३००३, नवप्रवेशे भङ्गाः ५००५, दशत्रवेशे भङ्गाः ८०८, एवम् - ... १६४४७ । ( नरकसत्कासंयोगा 35 दिन कयन्त्रकम् ) अ० द्वि०त्रि०च०प०प०स० । (=10) अभिधानराजेन्द्रः | |१|१| १ | ११ | १/१ । १ १ १ / १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ | १ | १ ७,२१० ३५० ३५२१७१ एवं सर्वभङ्गकरचनां नरकप्रस्तारं च विधाय नष्टमाश्रित्यमाह काउ य भंगे, सोहिजा जत्य बहुअरा भंगा । संजोगेहिं हर तहि, लद्धे मुण मूलभंगे अ ॥ १६ ॥ (टुंडकाउ ति ) नष्टाङ्केभ्यो येऽल्पतरा भङ्गास्तान् शोधयेत्, नष्टाङ्कमध्यान्निष्काशयेत्, तावन्निष्काशयेद् याव द्वहुतरा भङ्गा न स्युः, यत्र तु नष्टाङ्काद्भङ्गा बहुतरास्तसंयोगस्तद्धयोगहर भज इति लग्धान् मूलभङ्गान् (मुण ति) जानीहि ॥ १६ ॥ उद्धरिए संजोगे, जाणिजा बहर अंतिपडिया य पावेसण य साहारणसंजोगा, भंगा जइ इमदुगतिगाई || २० || 1 उचरितान् संयोगान् जानीयाः किमुक्तं भवति -ताबन्तो भङ्गा गताः, वर्तमाने भङ्ग एतावत्परिमाणः संयोगो वर्तत इति । ( अहव त्ति ) अथवा यदि साधारणसंयोगा भङ्गा अन्त्ये पतिताः (दुगविगाह सि) एकाइकत्रिक चतुष्का 55दिसाधारणभङ्गा अन्त्यपतिताः ॥ २० ॥ ते तम्मना डच, उद्धरिए मिलिअभंग भइआ व । जाणिजा संजोगे, सेसे वि अ जाण भंगे अ॥ २१ ॥ 3 तान् भङ्गान् तल्लब्धमूलभङ्गक मध्यात् ( कहिश्र त्ति ) नि. कास्योद्धरितान् भङ्गान् मेलयित्वा यावद्भिः साधारणत्वं भवति तामेवा लभ्यान् संयोगान् जानीहि शे पानुद्धरितान् संयोगान्तर्गतभङ्गान् जानीहि शब्दादादाच पि साधारण संयोगा भवन्ति तत्र त्या संयोगान् जा नीहि अप्रवेशमाधित्योदाहरणं यथा केनाऽपि पृष्ठ, सैकोननवतिकाष्टादशशततमो भङ्गः स कीदृशो भवति ?, तदैतावन्मध्याद्भङ्गाः ७ श्रसंयोगिकाः, द्विकसंयोगे १४७, त्रिकसंयोगे ७३५, एवमप्रशतानि सैकोमनवतिकानि निष्कासितानि गुणः सहस्रं चतुष्कसंयोगे १२०५ भङ्गतः सन्ति बहुतरा इति कृत्वाऽत्र सहस्रं संयोगैर्हर इति संयोगाः ३५, पञ्चत्रिंशता हियमाणा लब्धभङ्गाः २८, श्रतीता गता, उदारता विंशतिर्भङ्गाः किमु भवति ?, एकोन त्रिंशत्तमे भने विंशतितमोऽयं संयोगो वर्तते, द्वितीये नरके ४, चतुर्थे नरके १, षष्ठे नरके १, सप्तमे २, इति कथनीयम् । अप्रवेशमाश्रित्य केनापि पृष्टं संकोनचत्वारिंश षोडशशततमो भङ्गः कीदृशो भवति ?, ततस्तन्मध्यात् १६३६, नष्टमध्यात् ८८६, निष्कास्यन्ते, शेषाः ७५०, ते पचत्रिंशता हियन्ते, लब्धाः २१, उद्धरिताः १५, एकविंशतितमो भङ्गोऽत्र साधारणपतितः, विभिः साधारणः पञ्चमपष्ठसप्तमसाधारणपतितोऽत एकविंशतिमध्यादेको निष् स्यते पृथक कियते पङ्गिः पञ्चदशर लिता जाता: ५०, त्रिसाधारण इति त्रिभिर्भक्काः १६ पोडश संयोगा उद्धरितौ द्वौ सप्तदशसंयोगे द्वितीयो भङ्गः । किमुकं भवति ? - विंशतिर्भङ्गा गता उपरि षोडश संयोगाः सप्तसंयोगे द्वितीय द्वितीयो महोर्त द्वितीयेन के १५१.२ सैकोन चत्वारिंशत्कयो शततमोऽयं भङ्ग शो भवति इति कथनीयं चशब्दा दादावपि साधारणा भङ्गाः पतितास्तदा तेऽपि भङ्गा याव साधारणातेर्भज्यन्ते यथा अप्रवेशे द्विसंयोगे घट् साधारणा भङ्गा भवन्ति, तदा षड्भिर्हियन्ते, यथाकेनापि पृष्टम्, अष्टप्रवेशे द्विकसंयोगे चत्वारिंशत्तमो भङ्गः स कीदृशो भवति ? तदा षट् साधारणत्वात् षड्भिर्भज्यते, लब्धाः ६, उद्धरिताः ४ तदा कथनीयं षट्संयोगा अतीताः सप्तमे संयोगे चतुर्थो वर्तते (प्रथम) ७ (पञ्चमे ) १ इति कथनीयमित्यादि ज्ञातव्यम् ॥ २१ ॥ इसि नष्टकरणगाथात्रयम् । अथोद्दिष्टकरणमाह उद्दि तीअभंगा, संजोगगुणा य सहि असंजोगा । Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६१ ) अभिधान राजेन्द्रः । पासवय उद्दिट्ठभंगसंखा, इअ कहिया धीरपुरिसेहिं ॥ २२ ॥ ( उद्दिट्ठत्ति ) उद्दिष्टे सति ये पूर्वे भगा अतीतास्त एकत्र करणीयाः, वर्त्तमाने संयोगे ये भङ्गास्तेऽपि तैः संयोगः कर्त्तव्याः । किमुक्कं भवति - वर्तमानाङ्ग गतास्ते भङ्गास्तत्सम्बन्धिभिःसंथेागगुणाः कर्तव्यावर्त माने भने ये संयोगास्तेऽपि ते त्रयोऽपि, ते त्रयोऽपि भेदा एकत्र करणीयाः, एवं कृते सति या संख्या भवति, तत्सख्यो भङ्ग इति उद्दिष्टभङ्गसङ्ख्या धीरपुरुषैः कथिता ॥ २२ ॥ जइ भंगयसाहारण - संजोगा जे अ तेहिं गुणिऊण | सेसे भंगे मेलि, एग्रीफाऊण सम्यगं ।। २३ ।। ( जर ति ) यदि भङ्गकसाधारण संयोगाः येऽतीताः गतास्तान् संयोगान्ते साधारण दि साधारण भयित्वा 'शेवान्' वर्तमान सम्बन्धिन उत्तरमेदान मेलबिया पश्चात्पूर्वमुत्पन्नान् भङ्गान् भा रणसंयोगांचैकीकृत्य वक्तव्यमेतावत्सख्याकोऽयं भङ्गः 1 प्रवेशमाश्रित्योदाहरणमाह- केनाऽपि पृष्टम् - ६ श्रमं भङ्गः कतिथः ?, तदा गणनीयं, गणने एकोनविंशतमोवर्तते। कथम् ? अथाविंशतिर्भङ्गा गतास्ते संयोगगुणाः कर्तव्याः पञ्चत्रिंशद् गुणाः कर्तव्याः, गुणनाज्जाताः २८० विश्वतितमः संयोग एकोनत्रिंशत्तमे भवर्तते ए कत्र करणे जातं सहस्रं पूर्व येऽतीताः प्रयोगे ७ द्विक्संयोगे १४७, त्रिसंयोगे ७३५, सर्व एकीकरणे जातानि भङ्गानां १ अाशनान्कोननवतिश्व वा कथनीय कोननवत्तमो भङ्गः यदा फेनचित् मशः कतिया ? तदाऽत्र भङ्गाः २० ग ताः, संयोगैर्गुणिताः ( ३५. गुणिताः ) जाताः ७००, एकविशति भने पोडश संयोगा अतीताना रणत्वात् त्रिभिर्गुणिता जाता: ४८, सप्तदशे संयोगे द्वितीयो भङ्गस्ताभ्यां सह जाताः ५०, सप्तशतैः सह जातानि साधन सप्तशतानि ७५० पूर्वमसंयोगे ७, द्विसंयोगे १४७, त्रिकसंयोगे ७३५, श्रतीतास्तेऽपि मध्ये क्षे. व्याः सबै जात्मनि सेकोनचत्वारिंशत्कानि पोडश शतानि तदा कथनीयम कोनत्तम भङ्गः । तृतीयमुदाहरणम् - केनचिरमयं भङ्गः कति ? तदा दृश्यते श्रत्र सप्तमसंयोगे चतुर्थो भङ्गोऽयम् अत्र पदसं योगा अतीताः ते पदसाधारणत्वात् षड्गुणाः क्रियन्ते, जाताः ३६, सप्तमे संयोगे चतुर्थो भङ्गो वर्तते श्रतस्तेऽपि मध्ये क्षेप्याः जाताः ४०, तदा कथनीयमयं चत्वारिंश तमो भङ्गः, एवं सर्वत्रोद्दिष्टभङ्गा श्रनेतव्याः । शेषं सुगमम् । एवं सख्येयानामसख्येयानां त्र संयोगा शातत्र्याः । यत्र यत्र ये ये उत्पद्यन्ते तत्र तत्र ते ते उत्पाद्याः सूत्रादनिविस्तारबाहुल्यान्न लिखिताः । श्रीभगवत्यङ्गनवमशते ३२ द्वात्रिशतमादेशकादयमधिकारोऽलेखि ॥ २३ ॥ इय विभवे नासंति अ पोररोगउवसग्गा । , पार्वति सुहसंपय, सिवं च देवत्तणं एई ।। २४ । सिरिमेहनामपंडिअ - सीसेरा सिरिविजयनामधे रण । पावेसण्य रइयं एयं सुतं, नियसरण परेतिं हिमहं ॥ २५ ॥ अनया सुगमा || २४ ॥ २५ ॥ इति गाङ्गेयपृष्टभङ्गका वचूरिः पन्यासश्रीविजयगणिना कृता समाप्ता । अथ गाङ्गेयभङ्ग प्रस्तारो लिख्यते एक एकसंयोगे भङ्गाः ७, प्र० १, द्वि० २ ० ३ च० ४, पं० ५, ५०६, स० ७ । द्विकसंयोगे भङ्गाः २१, प्र० द्वि० १, प्र० ० २, प्र० च० ३, प्र० पं० ४, प्र० प०५, प्र० स० ६, द्वि० तृ० ७, द्वि० ०८ द्वि० पं० ६, द्वि० प १०, द्वि० स२११, ० च० १२, तृ० पं० १३. तु प० १४, तु० स १५, च० पं० १६, च० ५० १७, ० स०१८ पं० ० १६, पं० स० २०, प० स० २१ । त्रिकसंयोगे भङ्गाः ३५ प्र० द्वि० तृ० १, प्र० द्वि० ० २, प्र० द्वि० पं० ३. प्र० द्विः प० ४, प्र० द्वि० स० ५ प्र० तृ० च० ६, प्र० तृ० पं० ७, प्र० तृ ०८, प्र० तृ० स० ६, प्र० च० पं० १० प्र० च १० १२. प्र० च० स०१२, प्र० पं० ० १३, प्र० पं० स० १४, प्र० प स० १५, द्वि० तृ० च० १६, द्वि० तृ० पं० १७, द्वि० तृ० प० १८, द्वि० तृ० स० १६, द्वि० च० पं० २०, द्वि० च० ० २२, द्वि० च० स० २२, द्वि० पं० प० २३ द्वि० पं० स० २४, द्वि ० स० २५, तृ० च० पं० २६, तृ० च० प० २७, तृ० च०स० २८, तृ० पं० ० २६, तृ० पं० स० ३०, तृ० प० स० ३१. च० पं० प० ३२, च० पं० स० ३३, ० प० स० ३४ पं० प्र० स० ३५ । चतुष्कसंयोगे भङ्गाः ३५, प्र० द्वि० ० ० १, प्र० हि० तृ० पं० २ प्र० द्वि० तृ० प०३, प्र० द्वि० तृ० स० ४, प्र. द्वि० च० पं० ५ प्र० द्वि० ० प० ६. प्र० द्वि० ० ० ७, प्र० द्वि० पं० प०८ प्र० द्वि० पं० स० ६, प्र० द्वि० प० स० १० प्र० ० ० पं० २२, ० ० ० प० १२, ० ० ० स० १३, प्र० तृ० पं० प० १४, प्र० तृ० पं० स० १५, प्र० तृ० [ष० स० १६, प्र० च० पं० ५० १७ प्र० च० पं० स०१८ प्र० च० ० ० १६, प्र० ० ० ० २०, द्वि० ०० ०२२ द्वि० तृ० च० ० २२, द्वि० ० च०स० २३, द्वि० ० पं०५० २४, द्वि० तृ० पं० स० २५ द्वि० तृ० प० स० २६, द्वि० च० पं० २७, द्वि० ० पं० स० २८ द्वि० ० ० ० २६, द्वि० ० ० ० ३०, ० ० ० प० ३१, ० च० पं०स० ३२, ० ० ० स० ३३. तृ० पं० प० स० ३४, ००० स० ३५ । पञ्चकसंयोगे भङ्गाः २१, प्र. द्वि० प्र० द्वि० तु ० च० प २ प्र० द्वि० तु सृ० पं० ० प० ४, प्र० द्वि० ० ० ० ५ ६, प्र द्वि० च० पं० प० ७, प्र० द्वि० द्वि० च० प्र० स० ६. प्र० द्वि० पं० प० स० १०, प्र० ० ६० पं० ५० ११, प्र० तु ० ० ० १२ प्र० ० ० ० ० १३, प्र० तु० पं० प० स० १४, प्र० च० ० ० ० १५० तृ० च० पं० ० १६. ० ० ० ० स० १७, द्वि० ० च० प्र० स० १८, द्वि० ० ० ० ० १६. द्वि०० ०५० स० [२०, ० ० पं प० स० २१ । पद्संयोगे भङ्गाः ७ द्वि० तृ० च० पं० प० १, प्र० द्वि० ० च० पं० स० २,५० द्वि० ० ० प० स० ३, प्र० द्वि० ० ० ० ० ४ प्र० द्वि० च० पं० प० स०५ प्र० ० ० ० ० ० ६ द्वि० तू च० पं० प्र० स० ७ । सप्तसंयोग भङ्गः १, ५० द्वि० ० च० पं० प्र० स० १ । ० च० पं० २, ० ० ३. प्र० द्वि० प्र० द्वि० तृ० प० स० " ० पं० स०प्र० , Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावेसणय पावेसाय अथ संयोगप्रस्तारो लिख्यते - एकस्य प्रवेशे भङ्गाः ७, १-१-१-१-१-१-१ । द्विप्रवेशे ऽसंयोगिकभङ्गाः ७ । द्विकसंयोगिकभङ्गः १, त्रिकप्रवेशे ऽयोगिकमङ्गाः । द्विकसंयोगिकी विकसंयोगिक एक एच भ ७ । भङ्गौ द्वौ- Nov भङ्गः ~ वयं- 010 । त्रिकसंयोलिन। चतुःप्रवे १ शेऽसंयोगिकभङ्गाः ७ । द्विकसंयोगिकभङ्गास्त्रयः, स्थापना ~ पञ्चकप्रवेशेगिभङ्गास्त्रयः, स्थापना चयंचतुष्कसंयोग एक एव, स्थापना चेयं-~~~ गिभङ्गाः ४, स्थापना संयोगिकङ्गाः अधिकसंयो | त्रिकसंयोगिभङ्गाः ६, चतुष्कसंयोगाः ४ स्थापना संयोगिकमङ्गाः ५ चतुष्कसंयोगिकभङ्गाः १०भङ्गाः १-~~~ द्विक्संयोगिकभङ्गाः ३, १ १/२ १ २ ३ १ ४ १ २ १ ३ २ १ ५ ४ ४ | ३ | ३ २ 6 ১০ | ra YAY 30 x/w सप्तप्रदेशे विसं १४ २ २ ३ ४ ५ ३ २ १ २ २ १ १ १ १/२ १ १ १ | १ | १/२ |१| १ | १ १ १/२ | १ | १ | १ २ पञ्चकसंयोग एक एव wwwस्थापना x 20 m n v r r | 20 | ১ \\r\n\n\n aroma. [u.orror or prorror oriror or o or | mr ३ ४ १ २ २ ३ |२| २ |२| २१ | २१ | १ सप्तमवेशे पञ्चयोगिभङ्गाः १५ १/२ | १ | १ | २ १/२/३ २ १ १ २ ।१ ३ २ १ १ १ १ १ १ ३ २ २ १ २ १ १ १ । ३ । २ २ २ २ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ ५ ४/३/२/१ १ १ (२८१) निधानराजेन्द्रः । १ १ १ १ १ २ arr | 20 १.१ २ १ २ ३ १ १ / २ /१/३/२ २ ४ | ६ | ५ | ५ | ४ | ४ ४ । पञ्चकसंयोगे भङ्गाः ५ ल सप्तप्रवेशयो ov | त्रिकसंयोगिकभङ्गा : १० | | | | १ १ ३ 7|0|0|0|0| www.m/ra तद्यथा- [am सप्तप्रवेशे चतुष्कसंयोगिभङ्गाः २०, १ १ १ २ १ २ १२ ३ | १ | १ १ २ ३ १ २ ३ ४ १ १ २ १ २ | १|३ | २ १ १ २ ३ २ १ | ४ | ३ २ १ १ २ / १ १ |२| २ | १ |१| १ | ४ | ३ २ २ २ १ ११ | ४ | ३ | ३/३/२ २ २ २ २ २ १ १ १ १ १ १ सप्तप्रवेशे पदसंयोगिकाः ६ | १ १ १ १ १ २ १/२ १ १/२ १ १ १ १ २ १ १ १ १/२ १६६१ १ २ १ १ १ १ २ १ १ १ १ १ प्रदेशे विकसंयोगिभङ्गाः २१ प्रवेशेऽसंयोगिकभट्टा ७ ठिक oooo 30 m mavr \v r ma | | | ॐ पट्संयोग एक एव कभङ्गाः ७ । सप्तप्रवेशे २ १ ३ १ २ ३ | ४ | १ २ ३ ४ ५ | १ २ ३ ४ ५ ६ ३ २ | १ | ५ | ४ | ३ |२| १ | ६/५/४/३/२/१ ३/३/२ २ २ २ २ | १|१|१|१ | १/१ ३ ३ सप्तप्रवेशे सप्तसंयोगी एक एव |१|१|१/१/२/RJ श्रष्टप्रवेशे ऽसंयोगिभङ्गाः ७। अष्टप्रवेशे द्विकसयो गिभङ्गाः ७ । अष्टप्रदेशे चतुष्कसंयोगः ३५ ५ १/२ १ २ १ १ २ ३ १ १ २ १ २ ३ १ २ ३ ४ १ ११२ १२ ३ १ २ ३ ४ १ २ ३ ४ १ १/२ १ १ २ १ २ १ १/२ १ ३ २ १ ४ | ३ |२| १ | १ २२.१ १/३ २/२ १ १ २ ४ ३ ३ २ २ २ १ १ १ १ ५ ५ | ४ | ४ | ४ | ३ | ३ | ३ | ३ ३ २ १ | ३ | २ | १ | ४ | ३ | २१ ५ ४ | ३ २ १ 1 ४ | ४ | ३ | ३ ३ २ २ २ २ १/१/११/१ ३ ३ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १/१/१ अमषेपयोगिभङ्गाः ३५ । १ १/१ १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ७ ६५ ४३ | २१ ११ १ २ १ १ २ २ ३ २ २ २ |१|१|१|१|२| १ | १/१/२/११/२/१/२ ३२१११ | १४२/१ | १/२/१/२|३|१|१|२| १|२| ३ |१| २|३| २ २ २ / १ २ १ ३ २ १ १ २ १ ३ २/१/४ ३ २ १ १ १ २ १ १ १ २ १ १ ३ २ २ १ १ १ १ २ १ १ ३ २ २ १ १ १ ४ ३ ३ २ २ २ १ १ १ १ १ ४ ३ ३ ३ २ २ २ २ २ |१|१/२/१/१ १ १ १ १ १ १ ३ २ २ २ १ १ १ १ १ २२/२ १ १ १ १ Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावेसणय (६३) अग्निधानराजेन्छः। पावेसणय अष्टप्रवेशे षट्सयोगिभङ्गाः २१ । मष्टप्रवेशे सप्तसंयोगिभङ्गाः । MAHA R राश३] RIRIRIRI RIशाशशरार! LITEILEDEREEEETTI शशशशशश २२३ १शशशशशश शशशशशशशशशशERI राशशशश RRRRRR नवप्रवेशेऽसंयोगिभनाः । नवप्रवेशे विकसंबोगिभङ्गाः २८ । नवप्रवेश विकसयोगिभरकाशशशशशशशशशशशशशशश।३।४।५६ाशाशवाणा |शाशहा।शशशशशशशशशशशहाशाखामा||२|| ||७|६||४||शा ७६|६||शाणा |३|३|३|३|शशशशशशशशशशशशशा नवप्रवेशे चतुष्कसंयोगिभङ्गाः ५६ । PIRIशरारा२१११२शराराशराशशरा२३ घरार शशारा राशशशशशशशशशRIRIशशशशशशशशशशशा |१|२शशशशशशशश४३| |२|शशशशश५४४३/३शश !६/५/५/५|४|४|४|४|४|४|३|३|३|३:३/३/३/३|३|३|२|शशशशशशश |३ ||३४|१||||२||२|३| ३ााराशशाराहा २]रा३२RIRIR||२|४|३|२|१५३२ शाशाशा शशशशशशश६५||४||शशशशशशशशशशशशश २/शशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशश। नवप्रवेशे पञ्चसंयोगिभङ्गाः ७०, शर१२ ३ ४२११३२ ३१२ r/arvarjar Jorr 2-0|rolod २२२२१३२ २२र७३ ३ ३ २२२ २३ शरिर ३३३३३३३३३रि२२२२२२२२२२२ rama wiraraja लललल Mirror arjawara Marror Jorjarlar| lovejorjar Marwar orror 9 darlar/ar on|or-10/ननर -rai-17 almma Jorjarm|-- I-100-10 Jord|-- -नन | ११/११२/११/२/१/२/३/२/ १ ३ |३४/५ -~ م | مه | م م س | سه | ع Morrora More ام - اه دام اس معاداه --- --- ३ ३ ३ २२२२२२२२२ श शशाताना नवप्रवेशे षट्संयोगिभङ्गाः ५६. PROPERTAIN२२२३२९ REPROD३२२RRRRRRRR२ RDRINEERIND३२२२१RRRRRRRR३२ - IFall31/3 शशशशशश/२२/शालामा ||शश|१|२| शरारा| |२|१ शिशशशशशशशश - २३२२१ Marwar Morjar|| اس ام اس ~ MANJorjar| ३ २ २ । مهام اسم اصمم २२२२२२२२१११११११ राशरारारारारारारा Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावसाय ( ८६४) अनिधानराजेन्द्रः। पावेमाय नवप्रवेशे सप्तसंयोगिभङ्गाः २८ ! पाशशरारारारारारारा||१२||२|३| RRRRRRRRRRRRRRRRI RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR R RRRRRRRR RRRRRRRRRRRIA३२२/२RRRRRRRRRI RRRRRRRRRRRRRRR दशकप्रवेशेऽसंयोयिभनाः । दशकप्रवेशे द्विकसंयोगिभङ्गाः ।।१२३४५६७ ४३/२१ दशकप्रवेशे त्रिकसंयोगिभङ्गाः ३६ । PRI||३||२३|०१२३२३४६१२१३५६जशरा३४५६ शशशशश:२३३२।। वनविहार ३३३३२२ शेरशारित दशकप्रवेशे चतुष्कसंयोगिभङ्गाः । ११२१२१२३ ११२|१२३ |३| |२|११३१२ ११२१३२११२३३२१४३२ १२|१|१३|२२१११४३|३२२|२|१|१|११||४|४३३३२ ५yyyggggggg३३३३३३३३ ७ Jorjmaril m rxlord | PM Israrlor १.५४।३ ३३३३३३३२२२२२२२२२२२२२२२२२ २।१२।१२।३।१२३।४।२३४४१२ ३ ४ ५/६१२३४५६ |२१|३/२/ १३२५४३ ६/५,४३२१७६३३। ज ।। ४३ ३ ३ ३ ३२२२२२ र RRRRRRRET R ITIRIRRIRITराहा। दशकप्रवेशे पञ्चसंयोगिभङ्गाः १२६ । Wio १| | ran.. l . राशा २३ राशर १२RR) शा १. शास४३३.२२ RT ३३ शशशशशशर प्रशिशिशेश ११/२ اما بالای ام الله الماسه श११॥ २राश३११शरा२३/१२ शशशशशश३ ३ ERRRRRRRR/ ३३३२३२२२२२३ ३/३शशशशशशशशशश स सस Imraram lamorajar Imarr|-r | ام اس |२|१२| oran ललन शराराराशशरा३२ ३१| १/३/ २ २३ शश २११४३३२१२२ ४४४४३|| |३/३ राशाशा JNK-.. MINIMIN Jor crimar اس ३३ IRI Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावेसणय ( ५) भभिधानराजेन्द्रः। पावसाय --10rjar|~ arrjaar Pala xarjarar CIdi Jor 102 ام اس مہم اس اس ام ممام او امام १.११.१.१ १११११ in Mor दशकप्रवेशे षदसंयोगिभङ्गाः १२६, o शशा२११/११ १/११/१/२RRRRI १/२१/१२ Lama Mar/ Marjar शश.११ 리지는 More २/२/7RIRAMPRAB/ orariajarai •m' -rm नरे२२१२ 1933 १/१२/११/२ :19:1 ३/२/११११ r १.शा rajarodar Plvri Majaraja Marwa ३/२ २/१/३/२/ १४.३३'२.२ शश११|१|| سهم امام س امر RIPR११ ३ सश२२२ ૨ી૨/૨ शरार RAHIRRRRRRRRR HARARIAHRHIRAIMAAR و ماسه --|om --- for - -orar-m1-mold m --1-1--1-100/-1-ror 01-1-ma| م | م | الم | لما --01-20 - الم سهام هم ماء السماء لم -mar|-10 م اسما - دام - 21400 س ما Jar 11.२ शशारारारा |शरा|३४|१|२||२|३|२|३४२ २२ ३२२रि३RG |३/२/ २ ३२२२, ४३३३/२/२२३ ३२२२२२२२२२२२| Janam- سر او ---1010KI -j तर दशप्रवेशे सप्तसंयोगिभङ्गाः । ---01-1 - नानानन ----- न-road नननन नन-l-ra नाना Galmala -MAM -1-11-1-10 - PM -- - - - 1-01-17 ल-la-|- -Maidalaa --- -- -|-/ar २२२.२ २२२ २/२/२/२ |१|११शराRRIशशशशशशशशशशशशशशशशश शरारारारारारारारारारारारारारारा DIRRRRRRRRR३२२१RRRRRRR र ३२३२ RRER/३/२२ २२ शरिरा३३२ ३३३३शशशशशशशशशशशशशरार... || ११/१२/११/११Rरारारारारारारागारागार Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावेसाय ३ १ १ १ ( ८६६ ) अभिधानराजेन्द्रः । १/२ १ २ २ १ १ २ १ २ / ३ / १ १ १ २ ३ १ २ ३ ४ २ १ ३ २ १ १ १ २ १ १ २ १ १ २ १ २ १ १ २ | १ | ३ |२| १ | १ | २ | १३ | २ | १ | ४ ३ १ १ ३ २ २ १ १ १ १ २ १ १ ३ २ २ १ १ १ ४ ३'३ | २ २ २ १ १ १/१ २ २ १ १ १ १ १ १ ४ | ३ | ३ | ३ |२| २/२ २ २ २ | १ | १ | १ | १ | १ | १ | १ १ १ १ २ २ २ २ २ २ २ २ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १/१/ १ | १ | १ | १ | १ | १ | १ १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ १ १ । १ । १ १/१।१।१ FREEEEEEEEERRRRRURE एकमदेशे मङ्गाः ७, दिपवेशे भक्तः २०, तन्मध्येऽसंयोगिकभङ्गाः ७, द्विसंयोगिभङ्गाः २१ । त्रिमवेशे भङ्गाः ८४, असं० ७, द्विकसं० ४२, त्रिकसं० ३५ । चतुः प्रदेशे भङ्गाः २१०, असं० ७, द्वि० ६२, त्रि० १०५, च० ३५ । पञ्चमवेशे भङ्गाः ४६२, असं० ७, द्वि० पदमवंशे भङ्गाः ६२४, असं० ७, दि० सप्तप्र० भङ्गाः १७१६, असं० ७, द्वि० अप्र० भङ्गाः २००२, असं० ७ दि ० नवव० भङ्गाः ५००५, अ० ७, द्वि० १६८, दशम० भङ्गाः ८००८, असं० ७, द्वि० १८६ [0:#:0 पावोवरय-पापोपरत त्रि० । पापात् पापहेतोः सावयानुष्ठानात् हिंसा तादानामरूपानुपरतः पापोपरतः । त्यक्तपापे, आचा० १श्रु० ५ श्र० १० । ८४, त्रि० २१० च० १४०, पं० २१ । १०४, प्रि०३५०, प० २५०, पं० १०५. १०७ । १२६, बि०५२५, ०७००, पं० ३१५ ५० ४२, स०१ । १०७३५ ० १२२५, पं० ७३५, १० १४७, स० ७ । ०६८०० १६६०, ०१४७०, १०३६२,०२८ ० १२६० च० २६४०, पं० २६४६, ०२०४ १४० षास दृश-धा० । प्रेक्षणे, " दृशो निश्रच्छ पेच्छावयच्छावयज्झ- वज्ज- सव्वव देक्खौ अक्खावक्खावश्रक्ख- पुलोपपुलए निश्रावास - पासाः " । ८ । ४ । १८१ ।। इति दृशधातोः 'पास' श्रादेशः 'पासइ ।' पश्यति । प्रा०४ पाद। "पासिमं दविए लोए" "पासि" इत्यादि वमुदेशका उदेरारभ्यानन्तर सूत्रं यावत्तमिममर्थ पश्य परिच्छिन्धि कर्त्तव्याकर्त्तव्यतया विवेकेनावधारय कोसी इत्यंभूती मफ़िगमनयोग्यः साधुरित्यर्थः । श्रात्रा ०१ श्रु०३ श्र०४ उ० । “दोहिं ठाणेहिं आया रूबाई पासह--देसेण वि, सव्वेण वि । स्था०२ ठा०१ उ० पाश-पुं० । पाशयति बनातीति पाशः । सूत्र० १ ० ४ श्र० १ उ० " परिसरो पालो । पाइ० ना० १३६ गाथा । पुत्रकलत्रधनप्रसुखबन्धने, उत्त० ४ श्र० । प्रश्न० । गल यन्त्राऽऽदौ, सू० १ ० ४ श्र० ७ उ० । रज्जुबन्धने, सूत्र० १ ० ४ अ० १ २ संयमपूर्ति प्रतिस्पातळयोपरोधिनि उत्त० पाई० ४ श्र० । बन्धनविशेषे प्रश्न० ४ श्राश्र० द्वार । श्राचा० | मिथ्यात्वाऽऽदिषु सम्पदेषु प० उ० अविद्या के दान्तिनां सांख्यानां कर्म जैनानाम् आदिशब्दात् बासना सोगतानाम्, पाशः शेवानाम् (११) ३० २६ द्वा० । द्यूतोपकरणे, जं० ३ वक्ष० । अत्यन्तपारवश्यहेतौ कलत्राऽऽदिसंबन्धे, उत्त० ६ श्र० । 1 पार्श्व - न० । समीपे, उत्त०२४ श्र० । वामदक्षिणभागे, प्रव० २ द्वार। सूत्र । स्वनामख्याते तीर्थकरे, श्राव० । सप्पं सबसे जी, तं पास तमसि ते पासनियो १०६१ इदानीं पास तत्र पूर्वोक्रक्रिकला यादेव पश्यति सर्वभावानिति पार्श्वः पश्यक इति चान्ये 'तत्थ सव्वेऽवि २ पास सव्वभावाएं जाएगा पासगा यत्ति सामणं, विसेसो पुर्णव्याख्या (माह) गम्भगए भगवंते लोकबंध सिरं गागं सयणिजे णिविज्जणे माया से सुविणे विट्ठत्ति, तहा अंधकारे सगिया गप्यभावेण तं सपासिउरलो सपरि शिग्या बाहा बडाविया मणिश्री य एस सप्पो वच्चर, रक्षा भणियं कहं जाणसि ?, भइ-पेच्छामि, दीवपण पलोश्रो, दिट्ठो य सप्पो, ररणा चिंता गम्भस्स एसो श्रइसयप्पहावो जेण एरिसे तिमि रंधयारे पासइ, तेरा पासो त्तिणामं कयं । श्राव० १ ० । पश्यति सर्वभावानिति निरुक्कात्पार्श्वः । तथा गर्भस्थे भगवति जनन्या निशि शयनीयस्य पार्श्वे अन्धकारे सर्पों दृष्ट इति गर्भानुभावोऽयमिति मत्वा पश्यतीति पार्श्वः । प २ अधि० अत्यामपि भरतक्षेत्र तीर्थ करे, अनु० । स० । श्रा० सू० । 1 अथ जयन्यमच्यमोस्टवाचनाभिः श्रीपार्श्वदेवचरित्रमाहते फालेणं तेणं समर्पणं पाने अरहा पुरिसादाणीए पंचविसाहे हुत्था से जहा बिसाहाहिं जुए पहला गर्भ वर्क विसाहाहिं जाए, विसाहाहिं मुंडे भवित्ता अगाराओ गरि पइए, बिसाहाहिं असंते अणुत्तरे निव्वाare निरावरणे कसि पडिपुत्रे केवलवरनाणंसणे समुपमे विसाहाहिं परिनिच्युडे || १४६ || (ते काले इत्यादि) तस्मिन्काले (समर्थ) त मिन् समये (पांच अरहा पुरिसाहासी) पार्श्वनामा अ ईन् पुरुषश्वास आदानीयथ आयवाक्यतया आनामतया च पुरुषादनीयः पुरुषप्रधान इत्यर्थः (पंचविसा होत्था ) पञ्च कल्याणकानि विशाखायां (पञ्चविशाख) अभवत् ( तं जहा ) तद्यथा - ( विसाहाहिं चुए, बहता गर्भ घते) विशाखायां च्युतः, च्युत्वा गर्भे उत्पन्नः १ ( विसा . Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६७) अनिधानराजेन् पास हाई जाए ) विशाखायां जातः २ ( बिसाहाहिं मुंडे भवि ता) विशाखायां मुण्डो भूत्या ( अगाराओ अणगारयं प व्यहर) अगारानिष्क्रम्य साधुतां प्रतिपक्षः ३ (विवादा हिं अते अरे निव्याधार) विशालाय मे निर्व्याघाते ( निरावरणे कलिये पडिपुने ) समस्ताssवर. परहिते समस्ते प्रतिपूर्वे (केवलवरनादसणे समुपचे ) एवंविधे केपलरज्ञानदर्शने समुत्पचे ४ (दिसादादि परि frogs ) विशाखायां निर्वाण प्राप्तः ५, ॥ १४६ ॥ च्युतिः तेणं काले तेणं समरणं पासे अरहा पुरिसादाणीए जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले तस्स गं चितबहुलस्स चउत्प पक्खे पाणयाओ कप्पाम्रो बीसं सागरोवमहियाओ अयंतरं चर्य चइता इद्देव जंबुदीने दीवे भार वासे वाणारसीए नयरीए श्राससेणस्स रनो बम्मा देवीए पुब्वरतावरतकालसमर्थसि बिसाहाहिं न क्खने जोगमुपागएवं आहारवर्णतीय भगवतीए सरीस्वयंती गम्भताए वर्षते ।। १५० ।। (ते फाले ) तस्मिन् काले (ते समय ) तस्मिन् समये ( पासे अरहा पुरिसादाणीय ) पार्श्वः अन् पुरुचादनीयः मासे) योऽली उष्णकालस्य प्रथमो मासः ( पढमे पक्खे ) प्रथमः पक्षः ( चितबहुले ) चैत्रस्य बहुलपक्षः ( तस्स णं विशबहुलस्ल चउत्थीपक्खेणं ) तस्य चैतबहुलस्य चतुर्थीदिवले ( पाणयाओ कप्पा ) प्राणतनामकात् दशमकल्पात्, कीडशात् ? - ( बी सागरीवर्मायाश्री) विशति लागरोपमःस्थि तिः प्रमाणं यत्र शात् ( अंतरं वयं वहता) अनन्तरं दिव्यशरीरं त्यक्त्वा ( इहेव जंबुद्दीवे दीवे) अस्मिमेव जम्बूद्वीपे द्वीपे ( भारहे वासे) भरत क्षेत्रे ( वाणारसपि नयरीए ) वाराणस्यां नगर्यो ( ससेणस्स र नो ) अश्वसेनस्य राशः ( वामाए देवीए ) वामायाः दे (पुष्यरत्तावरतकालसमधि) पूर्वापररात्रिसमये मं ध्यरात्री इत्यर्थः (बिसाहाहिं न जोगमुपागरणं) विशाखा नक्षत्रे चन्द्रयोगमुपागते सति (आहारपत्रतीए ) दिव्याssहारत्यागेन ( भववकंतीए ) दिव्यभवत्यागेन ( सरीरषकतीए ) दिव्यशरीरत्यागेन ( कुच्छिसि गम्भताप बकंते ) कुक्षौ गर्भतया व्युत्क्रान्त उत्पन्नः ॥ १५० ॥ च्यवनज्ञानम् - पासे अरहा पुरिसादागीर निभायोगए आवि हुत्था। तं जहा - चस्सामि त्ति जाणइ, तेणं चैव अभिलावेगं सुविदंसण विहाणेण सव्वं ०जाव निचगं गिहं अणुपविट्ठा जाय सुहं सुदे तं गर्भ परिवहर ।। १५ ।। ० ( पासे गं रहा पुरिसादाणीए ) पार्श्वः अर्हन् पुरुषादानीयः (तिम्रो आदि हुधा) विज्ञानोपयत आसीत् । ( तं जहा ) तद्यथा - ( बइस्लामि त्ति जागा ) व्योष्ये इति जानाति ( तेयं येष अभिलावे ) तेनैव पूर्वोकृपाठेन ( सुविणदंसणविद्वाणे ) स्वप्नदर्शनस्वप्नफलप्रश्न पास प्रमुखम् (सव्यं जाय निधनं हिं अनुपविट्टा ) सर्व पा यं यावत् निजे यामादेवी प्राविशत् (जाय सु सुणं तं गष्मं परिवहर) यावत् सुखं सुखेन तं गर्भ परिपालयति ॥ १५१ ॥ तें कालेयं तेणं समर्पणं पासे अरहा पुरिसादीणीए जे से हेमंता दुबे मासे तच्चे पक्खे पोसह बहुले तस्स णं पोसबहुलस्स दसमीपक्रखेणं नवराहं मासाणं बहुपडि - पुन्नाणं श्रद्धट्टमाणं राइंदिश्राणं विइकंताणं पुव्वरत्तावरत्तकालसमसि विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवाए आरोगारोगं दार पवाया ।। १५२ ।। ( ते काले ) तस्मिन् काले ( तेणं समपणं ) तस्मिन् समये (पाले रहा पुरिसादाणीए ) पार्श्वः अर्हन् पुरुषादानीयः (जे से हेमंताणं) योऽसौ शीतकालस्य ( दुबे माले तथेपले) द्वितीयो मासा तृतीयः पक्षः पोसव हुसे) पौषबडुलः ( तस्स गं पोसपलस्सइसी) तस्य पौषबहुलस्य दशमीदिवले ( नवराई मालाएं ) नबसु मासेषु ( बहुपडिनाणं ) बहुप्रतिपूर्णेषु सत्सु (अट्टमायं इंदिया) अर्थासु च महोरात्रेषु (विता) व्यतिक्रान्तेषु सत्सु ( पुग्दरतावर कालसमर्थसि ) पूर्वाप रात्रिसमये. मध्यराती इत्यर्थः (बिसाद्दाहि नखसेर्ण जोगसुवागरणं ) विशाखायां नक्षत्रे चन्द्रयोगे उपागते सति ( आरोग्गारोग्गं दारयं पयाया ) आरोग्या वामा आरोग्यं दारकं प्रजाता ।। १५२ ।। जं रयचिणं पासे अरहा पुरिसादाणीए जाए, सा यं रयी बहु देवेदि य देवीहि य० जाय जिलभूया कहकहगभूआ आवि हुत्था ।। १५३ ।। (जं यं यस्यां रजन्यां ( पासे भरा पुरसादा जापान पुरुषादानीय जात (सां रयणी बहूहि देवेहिय देवीहि य) सा रजनी बहुभिः देवैः देवीभिश्च कृत्वा (जाब उपिजलमाणभूश्रा ) यावत् भृशं आफुलाइ ( कदकदगभूषा भाषिया) अव्यवर्णकोलाहलमयी अभवत् ॥ १५३ ॥ सेसं तहेव, नवरं जम्म गं पासाभिलावेणं भाणिनं • जाव तं होउ कुमारे पासे नामे ।। १५४ ॥ 1 ( स तदेव नवरे पासाभिलावेगं भाणिय) शेर्पा ज मोत्सवादि तथैष पूर्ववत् परं पानिलापेन भ ( जाय तं छोड़ में कुमार पाले नामे ) यावत् तस्मात् भ वतु कुमारः पार्श्वः नाम्ना कृत्वा । तत्र प्रभो गर्भस्थे सति शयनीयस्था माता पार्श्वे सर्पन्तं कृष्णसर्प ददर्श ततः पार्श्व इति नाम कृतं क्रमेण यौवनं प्राप्तः । तश्चैवम् - " धात्रीभिरिन्द्राऽऽदिनाभि-र्लाल्यमानो जगत्पतिः । नवहस्तप्रमाणाङ्गः क्रमादाप च यौवनम् ॥ १ ॥ " ततः कुशस्थलेशः प्रसेनजिन्नूपपुर्वी प्रभावतानाग्नी [कनीम् एव पित्रा परि यितः अन्येतुर्गवाक्षथः स्वामी एकस्यां दिशि प्यादिपूजीकरण सद्विनाभागरांध निरीश्व पते क गच्छ पु Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (t) अभिधानराजेन्डः। पास पास म्तीति कश्चित्पप्रच्छ, स आह. प्रभो! कुत्रचित्तनिवेशे वा- यवस्स अहे सीयं ठावेइ,ठवेइत्तासीयानो पचोरुहाइ,पचोरुहस्तव्यो दरिद्रो मृतमातापितृको ब्राह्मणपुत्रः कृपया लोकै. | इत्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं प्रोमुअइ, श्रोमुअइत्ता जीवितः कमठनामा, स च एकदा रत्नाभरणभूषितान् नागरान् पीय अहो एतत्प्रागजन्मतपसः फलमिति विचि. सयमेव पंचमुडिअं लोअं करेइ, करेइत्ता अट्टमेणं भत्तेणं त्य पञ्चाग्न्यादिमहाकष्टार्थी तपस्वी जातः, सोऽयं पुर्या ब- अपाणएणं विसाहार्हि नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं एगं देहिरागतोऽस्ति तं पूजितुं लोका गच्छन्तीति निशम्य प्र- वसमादाय तिहिं पुरिससएहिं सद्धिं मुंडे भवित्ता आगाभुरपि सपरिवारस्तं द्रष्टुं ययौ । तत्र काष्ठाम्तर्दधमानं महा रामो अणगारियं पन्चाइए ॥ १५७॥ सर्प ज्ञानेन विज्ञाय करुणासमुद्रो भगवानाह-अहो मूढ तपस्विन् ! किं दयां विना वृथा कष्टं करोषि, यतः-"कृपा ( पुब्धि पिणं पासस्स अरहो पुरिसादाणीयस्स ) पूनदीमहातीरे, सर्वे धर्मास्तृणाकुराः । तस्यां शोषमुपेतायां, र्वमपि पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य ( माणुस्सगाकियनन्दन्ति ते चिरम् ? ॥१॥" इत्याकर्ण्य क्रुद्धः कमठो- ओ) मनुष्ययोग्यात् ( निहत्थधम्माओ ) गृहस्थधर्मात् ऽवोचत्-राजपुत्रा हि गजाश्वाऽऽदिक्रीडां कर्तु जानन्ति,धर्म (अणुत्तरे आहोइप) अनुपमम् उपयोगाऽऽत्मकम् अवधिज्ञानतुषयं तपेाधना एव जानीमः। ततः स्वामिनाऽग्निकुण्डात् मभूत् ( तं चेव सव्वं जाव दाणं दाइयाणं परिभारता) उबलत्काष्ठम् प्राकृष्य कुठ रेण द्विधा कृत्वा च तापब्याकु. तदेव सर्व पूर्वोक्तं वाच्यं, यावत् धनं मोत्रिणो विभज्य लः सपो निष्कासितः, स च भगवनियुक्तपुरुषमुखान्नम दवा (जे से हेमंताणं) योऽसौ शीतकालस्य ( दुच्चे स्कारान् प्रत्याख्यानं च निशम्य तत्क्षणं विपद्य धरणेन्द्रो मासे तच्चे पक्खे ) द्विर्तायो मासः तृतीयः पक्षः (पोसव. जाता, माही ज्ञानीति जनैः स्तूयमानः स्वामी स्वगृहं ययौ, हुले ) पौषस्य कृष्णपक्षः (तस्स णं पोसबहुलस्त इकारकमठोऽपि तपस्तप्त्या मेघकुमारेषु मेघमाली जातः॥ १५४ ॥ सीदिवसेणं) तस्य पौषबहुलस्य एकादशीदिवसे (पुठवरहपासे णं भरहा पुरिसादाणीए दक्खे दक्खपइन्ने पडिरूवे कालसमयसि) पूर्वाह्नकालसमये प्रथमप्रहरे ( विसालाए सिविआए ) विशालायां नाम शिविकायां ( सदेवमणुअलीणे भदए विणीए, तीसं वासाई अगारवासमझे व आसुराए ) देवमनुष्यासुरसहितया ( परिसाए ससित्ता पुणरवि लोयंतिएहिं जिअकप्पिएहिं देवेर्हि ताहिं मणुगम्ममाणमग्गे) पर्षदा समनुगम्यमानं प्रभुमग्रतः (तं इडाहिं० जाव एवं बयासी ॥१५५ ॥ चेव सव्वं नवरं ) सर्व तदेव पूर्वोक्त वाच्यम्, अयं विशेषः (वाणारसि नगरि मझ मज्झणं निग्गच्छा) वाराणस्या (पासे णं अरहा पुरिसादाणीए) पावः अईन् पुरु नगर्या मध्यभागेन निर्गच्छति (निग्गच्छित्ता) निर्गत्य (जेपादानीयः ( रक्खे दक्खप्परने) दक्षः दक्षप्रतिशः दक्षा देव पासमपए उजाणे) यत्रैव पाश्रमपदनामकमुद्यानम् प्रतिमा यस्य ( पडिरूवे अल्लीणे भदए विणीप ) रूपवान् (जेणेव असोगवरपायवे) यत्रैव अशोकनामा वृक्षः (तेणेव एणरालिङ्गितः भद्रकः विनयवान् (तीसं वासाई अगार उबागच्छर) तत्रैव उपागच्छति ( उवागच्छिता) उपागन्य पासमझे वसित्ता शिवर्षाणि गृहस्थावस्थायां स्थित्वा (असोगवरपायवस्स अहे ) अशोकवृक्षस्य अधस्तात् ( पुणरवि लोयंतिपहिं ) पुनरपि लोकान्तिकाः (जि ( सीयं ठावेह) शिबिकां स्थापयति ( ठवित्ता) संस्थाप्य भकप्पिएहि देवहिं ) जीतकल्पिकाः देवाः (ताहिं इट्टा ( सीयाओ पचोरुहर) शिबिकातः प्रत्यवतरति (पयोहिजाब एवं बयासी ) ताभिः इष्टाभिर्वाग्भिः यावत् एपम् अवादिषुः॥१५५॥ रुहित्ता) प्रत्यवतीर्य (सयमेव प्राभरणमालालंकारं मोमु अह) स्वयमेव आभरणमालालङ्कारान् अवमुञ्चति (ओ. " जय जय नंदा, जय जय भद्दा," जाव जयजयसई मुहत्ता ) अवमुच्य ( सयमेव पंचमुट्ठियं लोभं करा) पउंजंति ॥ १५६ ॥ स्वयमेव पश्चमकाएक लोचं करोति (करित्ता) लोचं कृत्वा (जय जय नंदा जय जय भद्दा जाव जयजयसई पउं (अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं) अष्टमेन भनेन अपानकेन जअंति) जयजयवान् भव, हे समृद्धिमन् ! जयजयवान् भव, लरहितेन (विलाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागपणं) विशाखा यां नक्षत्रे चन्द्रयोगमुपागते सति (एगं देवसमादाय) हैकल्पाणवन् ! यावत् जयजयशब्दं प्रयुञ्जन्ति ॥ १५६ ॥ एकं देवदूर्घ्य गृहीत्वा (तिहिं पुरिससपाहिं सद्धि मुंडे भ. पुबि पिणं पासस्स अरहो पुरिसादाणीयस्स माणु वित्ता ) निभिः पुरुषशतैः सार्द्ध मुण्डो भूत्वा (अगास्सगाभो गिहत्थधम्माओ अणुत्तरे अ होइए तं चेव रामो अणगारियं पव्वहए ) गृहानिकम्य साधुतां प्रतिसम्बं जाव दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता जे से हेमंदाणं दचे पन्नः ॥ १५७ । मासे तचे पक्खे पोसबहुले तस्स णं पोसबहुलस्स इक्का- पासे ण अरहा पुरिसादाणीए तेसीई राईदियाइं निरसीदिवसेणं पुधएहकालसमयंसि विसालाए सिविमाए चं वोसट्टकाए चियत्तदेहे , जे केइ उवसग्गा उप्पसदेवमणुमासुराए परिसाए समणुगम्ममाणमग्गे तं चेत्र अंति । तं जहा-दिव्या वा, माणुस्सा का, तिरिक्खसब्ब, नवरं वाणारसिं नयरिं मजकं मन्केणं निग्गच्छह जोणिया वा, अणुलोमा वा पडिलोमा वा, ते उप्पने निग्गरिछत्ता जेणेव पासमपर उजाणे जेणव असोग- सम्मं सहइ तितिक्रवइ खमइ अहियासेइ ।। १५८॥ बरपायवे तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता असोगवरपा- (पासे पं रहा पुरिसादाणीए) पार्श्वः अर्हन पुरुषा Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (CER) अभिधानराजेन्छः। पास पास दानयिः ( तेसीई राइंदियाई ) यशीतिं रात्रिदिवसान् शानदर्शने समुत्पन्ने (जाव जाणमाणे पासमाणे विहर) यावत् (निश्चं घोसट्टकाए चियत्तदेहे) नित्यं व्युत्सृष्टका. यावत् सर्वभावान् जानन् पश्यंश्च विहरति ॥ १५६ ॥ यः त्यक्तदेहः (जे केइ उपसग्गा उप्पजंति ) ये केचन पासस्स णं अरहो पुरिसादाणीयस्स अट्ठ गणा अट्ट उपसगा उत्पद्यन्ते । (तं जहा) तद्यथा-(दिव्वा वा माणुस्सा वा तिरिक्खजोणिश्रा वा ) देवकृताः मनुष्यकृताः ति. गणहरा हुत्था । तं जहा-"सुभे य १ अजधोसे य २ यकृताः (अणुलोमा वा पडिलोमा वा ते उत्पन्ने सम्मं स. वसिढे ३ बंभयारि य ४ । सोमे ५ सिरिहरे ६ चेव, हर) अनुलोमा वा प्रतिलोमा वा तान् उत्पन्नान् स- वीरभद्दे ७ जसेवि य ८॥१॥" ॥ १६० ।। म्यक् सहते (तितिक्खा खमइ अहियासह) तितिक्षते (पासस्स णं अरहो पुरिसादाणीयस्स ) पार्श्वस्य क्षमते अध्यासयति, तत्र देवोपसर्गः कमठसम्बन्धी । स चै अर्हतः पुरुषादानीयस्य (अट्ट गणा अट्ट गणहरा हुत्था) चम्-स्वामी प्रवज्यैकदा विहरन् तापसाऽऽश्रमे कूपसमीपे अटी गणा अष्टी गणधराश्च अभवन् , तत्र एकवाचनिका न्यग्रोधाधो निशि प्रतिमया स्थितः, इतः स मेघमाली सु यतिसमूहा गणास्तनायकाः सूरयो गणधरास्ते श्रीपार्श्वस्य राधमः श्रीपार्श्वमुपद्रोतुम् आगत्य क्रोधान्धः स्वविकुर्वितशा अष्टी । आवश्यके तु दशगणा दशगणधराश्चोक्काः, तस्मालवृश्चिकाऽऽदिभिरभीतं प्रभुं निरीक्ष्य गगनेऽन्धकारसन्नि दिह स्थानाझेच ही अल्पायुष्कत्वाऽऽदिकारणानोली इति भाम् मेघान् विकुऱ्या कल्पान्तमेघवदर्षितुम् आरभे विद्युत टिप्पनके व्याख्यातम् (तं जहा) तद्यथा-(सुभे य १ श्व अतिरौद्राऽऽकारा दिशि दिशि प्रसृताः, गर्जारवं च ब्रह्मा अज्जघोसे य २) शुभश्च १ आर्यघोषश्च २(वसिट्टे ३ एडस्फोटसरशम् अकरोत् , क्षणादेव च प्रभुनासाग्रं यावज. बंभयारि य ४) वशिष्ठः ३ ब्रह्मचारी ४ च (सोमे ५ सिले प्राप्ते आसनकम्पेन धरणेन्द्रो महिषीभिः सममागत्य रिहरे ६ वेब ) सोमः ५ श्रीधरश्चैव ६ (वीरभद्दे ७ जसेफलैः प्रभुम् आच्छादितवान् . अवधिना च विज्ञातोऽमर्षण वि य८) वीरभद्रः ७ यशस्वी ८ च ॥१॥ १६०॥ वर्षन् मेघमाली धरणेन्द्रेण हक्कितः प्रभु शरणीकृस्य स्वस्थानं पासस्स णं अरहो पुरिसादाणीयस्स अदिअपामुययौ,धरणेन्द्रोऽपि नाट्याऽऽदिभिः प्रभुपूजां विधाय म्वस्थानं ययो. एवं देवाऽऽदिकतानुपसर्गान् सम्यक् सहते ॥ १५८ ॥ क्खाओ सोलस समणसाहस्सीओ उक्कोसिश्रा समणसंतए णं से पासे भगवं अणगारे जाए, इरियासमिएक पया हुत्था ॥ १६१ ॥ (पासस्स णं अरहो पुरिसादाणीयस्स) पार्श्वस्य - जाव अप्पाणं भावमाणस्स तेसाई राइंदियाई विक्कंताई, हतः पुरुषादानीयस्य (अजदिन्नपामुक्खाओ) आर्यदिनचउरासीइमस्स राइदियस्स अंतरा बह्माणस्स जे से गि-प्रमुखाणि (सोलस समणसाहस्सीओ ) षोडश श्रमणसहम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले तस्स णं स्राणि ( उक्कोसिश्रा समणसंपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती चित्तबहुलस्स चउत्थीपक्खेणं पुषएहकालसमयंसि धायइ-| श्रमणसम्पदा अभवत् ॥ १६१ ॥ पायवस्स अहे छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं न पासस्स यं अरहो पुरिसादाणीयस्स पुप्फचूलापामुक्वत्तेणं जोगमुवागएणं झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अ क्खाओ अट्टत्तीसं अज्जियासाहस्सीओ उक्कोसिया - णंते अणुत्तरे जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पाने जाव जियासंपया हुत्था ॥ १६२ ।। (पासस्स णं अरही पुरिसादाणीअस्स) पार्श्वस्य - जाणमाणे पासमाणे विहरइ ॥ १५६ ।। ईतः पुरुषादानीयस्य (पुप्फचूलोपामुक्खाओ) पुप्पचूला(तए णं से पासे भगवं अणगारे जाए) ततः स पार्यो प्रमुखाणि (अट्टत्तीसं अज्जियासाहस्सी) अष्टत्रिंशत् श्राभगवान् अनगारो जातः (इरियासमिए. जाव अप्पाणं र्यासहस्राणि (उकोसिमा अजियासंपया हुत्था) उत्कृष्टा भावेमाणस्स) र्यायां समितः यावत् आत्मानं भावयतः एतावती आर्यिकासम्पदा अभवत् ॥ १६२॥ (तेसी राइंदिया विहर्कता) त्र्यशीतिः अहोरात्रा व्यति- पासस्स णं अरहो पुरिसादाणीयस्स सुब्बयपामुक्खाणं कान्ताः (चउरासीइमस्स राइंदियस्स अंतरा वट्टमाणस्स) समणोवासगाणं एगा सयसाहस्सी चउसही च सहस्सा चतुरशीतितमस्य अहोरात्रस्य अन्तरा घर्तमानस्य (जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे) योऽसौ प्रीष्मकाल उक्कोसिया समणोवासगाणं संपया हुत्था ॥ १६३ ॥ स्य प्रथमो मासः प्रथमः पक्षः (चित्तबहुले ) चैत्रस्य (पासस्स णं अरहो पुरिसादाणीस्स) पार्श्वस्य - बहुलपक्षः कृष्णपक्षः (तस्ल णं चित्तबहुलस्स चउत्थी- ईतः पुरुषादानीयस्य (सुव्वयपामुक्खाणं) सुवतप्रमुखापक्खेणं) तस्य चैत्रबहुलस्य चतुर्थीदिवसे (पुश्वराहका- | णाम् ( समणावासगाणं) श्रमणोपासकानां श्रावकाणां लसमयंसि) पूर्वाहकालसमये प्रथमप्रहरे (धायहपायवस्स (एगा सयसाहस्सी) एकलक्षः (च उलट्टी च सहस्सा)चअहे) धातकीनामवृक्षस्य अधः (छट्टेणं भत्तेणं अपाणए- | तुःषरिश्च सहस्राणि (उकोसिया समणोवासगाणं संपया ण) षष्ठेन भनेन अपानकेन जलरहितेन ( विसाहाहिं हुत्था) उत्कृष्टा एतावती श्रावकाणां सम्पदा अभवत् ॥१६३१ नक्खतेणं जोगमुवागरणं) विशाखायां नक्षत्रे बन्द्रयोगमु पासस्स णं अरहो पुरिसादाणीयस्स सुनंदापामुक्खाणं पागते सति (भाणंतरित्राए बट्टमाणस्स ) शुक्लध्यानमध्यभागे वर्तमानस्य (अणंते अणुत्तरे० जाव केवलवर समणोवासिाणं तिभि सयसाहस्सीओ सत्तावीसं च सनाणदसणे समुप्पन्ने) अनन्ते अनुपमे यावत् केवलवर- हस्सा उक्कोसिमा समणोवासियाणं संपया हुत्था ॥१६४॥ Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) पास अभिधानराजेन्डः। पास (पासस्स णं अरही पुरिसादाणीअस्स) पार्श्वस्य अर्हतः तेणं कालणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए पुरुषादानीयस्य ( सुनंदापामुक्खाणं ) सुनन्दाप्रमुखाणां (समणोवासियाणं) श्रमणोपासिकानां श्राविकाणां (ति तीसं वासाई अगारवासमझ वसित्ता, तेसीइं राइंदिआई भि सयसाहस्सीनो) त्रयः शतसहस्राः प्रयो खक्षाः (सत्ता- छ उमत्थपरिआर्य पाउणित्ता देसूणाई सत्तरिवासाई केपीसं च सहस्सा) सप्तविंशतिश्च सहस्राः ( उक्कोसिया। वलिपरिआय पाउणित्ता, पडिपुनाई सत्तरिवासाई सामसमणोबासियाणं संपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती श्रमणो अपरिआय प्राणित्ता, एक वाससय सव्वाउयं पालइत्ता पासिकानां सम्पदा अभवत् ॥ १६४॥ पासस्स णं अरहो पुरिसादाणीयस्स अट्ठसया खीणवेयणिज्जाउयनामगुत्ते इमीसे ओसप्पिणीए दूस मसुसमाए वहुविइकताए जे से वासाणं पढमे मासे दुच्चे चउद्दसपुब्बीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं० जाव चउ पक्खे सावणसुद्धे, तस्स णं सावणसुद्धस्स अट्ठमीपखेणं इसपुखीणं संपया हुत्था ॥ १६५ ।। (पासस्स णं अरहो पुरिसादाणीअस्स) पार्श्वस्य अ उप्पि संमेअसेलसिहरंसि अप्पचउत्तीसइमे मासिएणं ईनः पुरुषावानीयस्य (अबुट्ठसया चउहसपुवीणं) अध्यु भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुभागएणं शतानि चतुर्दशपूर्षिणां ( अजिणाणं जिणसंकासाणं ) पुब्बएहकालसपयंसि वग्घारियपाणी कालगए विइक्कते. मकेपलिनामपि केवलितुल्यानां (जाव चउद्दसपुवीणं सं. जाव सव्वदुक्खप्पहीणे ।। १६८ ॥ पया हुस्था ) यावत् चतुईशपूर्षिणां सम्पदा अभवत् ॥१६५।। पासस्स णं अरहो पुरिसादाणीयस्स चउद्दस सया ओहि (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये [पासे परहा पुरिसादाणीए ] पार्श्वः' अईन् पुरुषाणाणीणं दस सया केवलनाणीणं, इक्कारस सया बेउब्बिया दानीयः [सीसं पासाई अगारवासमझे वसित्ता] त्रिंशत् ण,छस्सया रिउमईणं,दस समणसया सिद्धा,वीसं अजिया वर्षागि गृहस्थावस्थायामुषित्वा स्थित्वा [तेसीइं राइदिसयाई सिद्धाई,भट्ठसया विउलमईणं,छ सया वाईणं, बारस आई] व्यशीतिमहोरात्रान् [ छउमत्थपरिभायं पाउणिसया अणुसरोववाइयाणं ॥ १६६ ॥ त्ता] छमस्थपर्यायं पालयित्वा [देसूणाई सत्तसत्तरिया(पासस्ल णं अरहो पुरिसादाणीपस्स) पार्श्वस्य अई. सा] किश्चिदूनानि सप्ततिवर्षाणि [ केवलिपरिमायं पा. तः पुरुषादानीयस्य (चउद्दस सया मोहिनाणीणं । चतुर्द उणित्ता] केबलिपर्यायं पालयित्वा [ पडिपुनाई सत्तरिवा. शशतानि अवधिज्ञानिनां सम्पदा अभवत् (दस सया के साई] प्रतिपूर्णानि सप्ततिवर्षाणि[सामनपरियायं पाउणित्ता] बानागाणं) वश शतानि केवलज्ञानिनां सम्पदा अभवत् । चारित्रपर्यायं पालयित्वा [एक्लं याससयं सघाउ पालहत्ता] (कारस सया घेउब्धियाणं) एकादश शतानि वैफियल. एक वर्षशतं सर्वायुः पालयित्वा [खीणे घेयाणज्जाउयनाधिमा सम्पदा अभवत् (छसया रिउमईणं) षट्शतानि मगुत्ते ] क्षीणेषु सत्सु वेदनीयाऽऽयुनामगोत्रेषु मर्मसु [श्मीसे जुमतीनां मनःपर्यवज्ञानिनां सम्पदा अभवत् ( दस सम श्रीसप्पिणी ] अस्यामेष अवसर्पिण्यां [ दुसमसुसमाए पसया सिद्धा) वश श्रमणशतानि सिद्धानि (पीसं अजिया बहुविरळताए ] दुष्षमसुषमनामके चतुर्थेऽरके बहुब्यति सया सिखाई) विंशतिः आर्याशतानि सियानि (अट्ठस क्रान्ते सति [जे से वासाणं पढमे मासे दुधे पक्खे] योपा घिउलमाणं) अष्टौ शतानि विपुलमतीनां सम्पदा अ. ऽसौ वर्षाकालस्य प्रथमो मासः द्वितीयः पक्षः [सायणभवत् (छसया बाईणं) षट्शतानि वादिनां सम्पदा - सुद्धे ] श्रावणशुद्धः [तस्त णं सावणसुद्धस्स अट्ठमीपक्खेभवत् (बारस सया अणुत्तरोववाइयाणं) द्वादश शतानि णं] तस्य श्रावणशुद्धस्य अष्टमीदिवसे [ उप्पि सम्मेअसेलअनुत्तरोपपातिमां सम्पदा अभवत् ॥ १६६ ॥ सिहरम्मि ] उपरि सम्मेतनामशैलशिखरस्य [अप्पचउपासस्स णं अरहो पुरिसादाणीयस्स दुविहा अंतगड तीसहमे ] आत्मना चतुस्त्रिशत्तमः [ मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं ] मासिकेन भक्तन अपानकेन [विलाहार्दि भूमी हुत्था । तं जहा-जुगंतगडभूमी, परियायंतगडभूमी य नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं ] विशाखानक्ष चन्द्रयोगमुपा जाव चउत्थाभो पुरिसजुगाश्रो जुगंतगडभूमी, तिवासप-| गते सति [पुवरहकालसमयंसि] पूर्वाह्नकालसमये, तत्र रिभाए अंतमकासी ॥ १६७ ॥ प्रभोर्मोक्षगमने पूर्वाग्रह एव कालः, "पुश्वरत्तावरत्तकाल(पासस्स णं भरहो पुरिसादाणीयस्स) पार्श्वस्य अई समयंसि ति" कचित्पाठस्तु लेखकदोषान्मतान्तरभदाहा तः पुरुषादानीयस्य (दुविहा अंतगडभूमी हुत्था) द्विवि- | [बग्घारियपाणी] प्रलम्बिती पाणी हस्तौ येन स तथा, धा मुक्तिगामिनां मर्यादा अभूत् (तं जहा-) तद्यथा-(जु. कायोत्सर्ग स्थितस्यात् प्रलम्बितभुजयः [कालगए विगंतगभूमी) युगान्तकृभूमिः (परियायंतगडभूमी य) कंतेजाव सब्वदुक्खप्पहीणे] भगवान् कालगतः व्यतिपर्यायान्तकृभूमिश्च (जाव चउत्थाश्रो पुरिसजुगाश्रो जुगं कान्तः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः ॥ १६८ ।। तगाभूमी) चतुर्थ पट्टधरपुरुषं युगान्तकृभूमिः, श्रीपा- पासस्स णं अरहो पुरिसादाणीअस्स० जाव सव्वदु. नाथादारभ्य चतुर्थ पुरुषं यावत् सिद्धिमार्गों वहमानः क्खप्पहीणस्स दुवालस वाससयाई विइकंताई, तेरसमस्स स्थितः (तिवासपरिमाए अंतमकासी) त्रिवर्षपर्याये कचिन्मुक्तिं गतः, पर्यायान्तकृभूम तु केवलोत्पत्तेत्रिषु ब य वाससयस्स अयं तीसइमे संवच्छरे काले गच्छबंधु लिधिगमन.55म्भः ॥ १६७ ॥ ३॥ १६६ ।। Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०१), अभिधानराजेन्बः। पास पास (पासस्स णं अरहमो पुरिसादाणीअस्स ) पार्श्व रटन् कालं कृत्वा विन्ध्याचले बहुयूथाधिपतिः करी स्य महतः पुरुषादानीयस्य (जाव सव्वदुक्खप्पही समुत्पन्नः । इतच अरविन्दराजा कदाचित् शरत्काले स्वाएस्स) यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणस्य (दुवालस वाससयाई न्तःपुरप्रसादोपार स्थितः क्रीडन् शरद सुस्निग्धं प्र. विता) द्वादश वर्षशतानि व्यतिक्रान्तानि (तेरसम च्छादितनभस्तलं मनोहरं ददर्श, पुनस्तत्क्षणादेव वायुस्स य वाससयस्स) त्रयोदशमस्य वर्षशतस्य (अयं ती. ना चिलीमं तदभ्रं पश्यन् दृष्टान्ताषष्टम्भेन सर्वेषां भावा. सहमे संघच्छरे काले गच्छर,] अयं विंशत्तमः संवत्सरः नां क्षणभङ्गुरतां भावयन् समुत्पन्नावधिज्ञानः परिजनेन कालो गच्छति , तत्र श्रीपार्श्वनिर्धाणात् पञ्चाशदधिक नियमाणोऽपि दत्तनिजपुत्रराज्यः प्रवजितः। अन्यदा स वर्षशतद्वयन श्रीधीरनिर्वाणं , ततश्चाऽशीत्यधिकनषषर्षश राजर्षिविहरन् सागरदत्तसार्थवाहेन समं संमेतशिखरतानि प्रतिक्रान्तानि, तदा वाचना; ततो युक्तमुक्तमिदं - चैत्यवन्दनार्थ प्रस्थितः, सागरदससार्थवाहेन पृष्टः-भगव. योदशमशतसंवत्सरस्यायं त्रिंशत्तमः संवत्सरः कालो गच्छ. न् !क गमिष्यसि । यतिना उक्तम्-तीर्थयात्रायाम् । सार्थवातीति । कल्प-१ अधि०७ क्षण ('तित्थयर' शब्दे चतुर्थ हेनोक्तम्-कीरशो भवतां धर्मः ? । मुनिना कथितो दयादानभागे २२४७ पृष्ठादारभ्यविस्तरः गतः) विनयमूलः सविस्तरः स्वस्य धर्मः, तंभुत्वा स सार्थवाहः पार्श्वनाथचरितं गमयम् श्रावको जातः, क्रमेण महाटवीं प्राप्तः, यत्र सो मरुभूतिजिणे पासि सि नामेणं, अरहा लोगेसु पूइयो । जीवः करी जातोऽस्ति, तन महासरोवरं वा तत्तीरे संबुद्धप्पा य सम्वन्नू , धम्मतित्थयरे जिणे ॥१॥ सार्थ उत्तीर्णः, अत्रान्तरे तस्मिन्नेष सरसि बहुहस्तिनीप" जिणे पासि ति नामेणं" इत्यस्यां गाथायां कतियो- रिवृतः स करी जलपानार्थमागतः, जलं सबिलासं पीऽयं पार्श्वनामा तीर्थङ्करः कस्मिन् भवे चानेन तीर्थकर- स्था पालमारूढः सर्वत्र चर्विक्षिपन् साथै एटा तदि. मामकर्म निवामिति सकौतुकं श्रोतृवैराग्योत्पादनार्थ पा- नाशनार्थ त्वरितं धाषितः, तं च तथाऽऽगच्छन्तं ष्ठा सार्थपर्यनाथचरित्रमुच्यते-ौष जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे पोतनपु-| जना इतस्ततः प्रणष्टाः, मुनिस्तु अवधिना ज्ञात्वा स्वस्थाने रनगरे अरविन्दो नाम राजा, तस्य विश्वभूति म पुरो स्थितः कायोत्सर्गेण, तेन करिणा सर्व सार्थप्रदेश भ्रमता हितः, स भाषकोऽस्ति, तस्य द्वौ पुत्रौ-कमठो, मरुभूति- राष्टः स महामुनिः, तदभिमुखं स धावितः, भासनप्रदेश च । तयोःक्रमेण भार्या वरुणा, बसुन्धरा व । तयोः क- गत्वा तं पश्यन् उपशान्तकोपो निश्चलः स्थितः, तथारूपं मठमभूत्योः शिरसि गृहकार्यभारं विम्यस्य स्वयं धर्म तं या तत्प्रीतबोधनार्थ पारितकायोत्सर्गो मुनिरेषमूचेकुर्वाणः क्रमेण कालं कृत्वा विश्वभूतिदेवलोकं गतः, त-| भो मरुभूते ! किन त्वं स्मरसि माम् अरविन्दनरपतिम, माकार्याऽनुदरी विशेषतपःकरणेन शोषितशरीरा मृता, क- स्मनः पूर्वभवं वा । एतन्मुनिवचः श्रुत्वा स करी सजातजामठोऽपि कृतमातृपितृप्रेतकर्मः पुरोहितो जातः, मरुभूति- तिस्मरणः पतितो मुनिचरणेषु मुनिनाऽपि सविशेषदेशनाकरपि प्रायो ब्रह्मचारी कृतोचमः सम्पन्नः, तस्य भार्याम- रणपूर्व स धावकः कृतः, ततः प्रणम्य स्वस्थानं गतः, - मोहरोनेरा कमठस्य चित्तचलितं, तां सविकारलोच- नान्तरे उपशान्तं तं करिणं रहा साधय सार्थजनः पुनः माभ्यां पश्यति, साऽपि कामविरहमसहमती तं सविकारंप- स्तत्र मिलितः, प्रणम्य मुनिचरणयुगलं प्रतिपन्नवान् द. श्यति, उभयोर्भश मोझासे अनाचारप्रवृत्तिर्जाता, मरुभू. यामूलं श्रावकधर्म, ततः कृतकृत्यः सोऽपि सार्थो मुनिविमा सामान्यतो शाता, विशेषज्ञानाय तस्याः कमठस्य च श्व स्वस्खाचारनिरतो विजहार । इतश्च स कमठपरिधाजपुरोऽहं प्रामान्तरं यास्यामीत्युक्त्वा निजमन्दिरा बहिर्गत्वा को मरुभूतिविनाशनेनाऽपि अनिवृत्तवैरानुबन्धो निजायु:संध्यासमये कार्पटिकरूपं कृत्वा स्वरभेदेन कमळं प्रत्येषं क्षये मृत्वा समुत्पनः कुकुटसर्पः, विन्ध्यावने परिभ्रमता बभाण-हे महानुभाव! निराहारस्य मम शीतत्राणाय किञ्चि तेन इष्टः सहस्ती पकनिमग्नः पूर्वबैरोल्लासेन कुम्भस्थभिवातस्थानं देहि, अविज्ञातपरमार्थेन कमठेन भणितम्- ले पटः, तद्विषवेदनामनुभवत्रपि थावकत्वात् मावान् अहो कार्पटिक! अत्र चतुर्हस्तमध्ये स्वच्छन्दं निवस, तत- मृत्वा समुत्पन्नः सहस्रारकल्पे देवः, कुर्कुटसोऽपि . स्तत्र रात्री स्थितो मरुभूतिस्तयोः सर्वमनाचारस्वरूप- स्मिन् समये मृत्वा सप्तदशसागरोपमाऽऽयुः पश्चमनरकपमालोक्य ईर्ष्यापरवशो जातः, परं लोकापवादभीरुत्वान्न त. थिव्यां नारक: सातःतश्च स हस्तिदेषश्च्युतःहष योः प्रतीकारं चकार, प्रभाते च राजान्तिके गत्वा सर्व त. जम्बूद्वीपे पूर्वधिदेहे कच्छविजये वैताख्यपर्वते तिलकनयोः स्वरूपं यथास्थितमाख्यातवान् । राज्ञा च कुपितेन गर्यो विद्युद्रतिविद्याधरस्य भार्यायाः कनकतिलकायाः किसमाविष्टाः स्वपुरुषाःतैर्दण्डमास्फालनपूर्व गलाऽऽरोपितश- रणधेगो नाम पुत्रो जातः, स च तन क्रमागतः राज्यमरावमालः खराऽऽरूढः कमठः सर्वतो नगरे भ्रामितः, भ्रा- जुपाल्य सुगुरुसमीपे प्रवजितः एकत्वविहारी वारणश्र. एजायाभोगकार्ययमिति जनानां पुरी निर्घोषं कृत्वा स मणो जातः, अन्यदा आकाशविहारी स गतः पुष्करनगराषिष्कासितः, ततः सजातामर्षः कमठोऽपि समुत्प- दीपे, तर कनकगिरिसनिवेशे कायोत्सर्गेण स्थितः किमगुरुवैराग्यो गृहीतपरिमाजकलिङ्गो दुस्तरं तपः कर्तु ल- श्चित्तपः कर्तुमारब्धः, इतश्च स कुर्कुटसर्पजीवो नरकादुद्ग्नः, तं च वृत्तान्तंसात्वा मरुभूतिः संजातपश्चात्तापः स्वाप- वृष्य तस्यैव कनकगिरेः समीपे सजातो महोरगः, तेन स राधक्षामणाय तस्यान्तिके गत्वा पादयोः पपात । कमठो- मुनिः इष्टो दष्टश्च, विधिना कालं कृत्वा अच्युतकल्पे जऽपि तदानीं समुत्पन्नपूर्ववैरोल्लासेन मरुभूतमूर्योपरि महा- म्बुमावर्तविमाने देवो जातः, सोऽपि महारगः क्रमेण कालं शिलां पातितवान् । ततो मरुभूतिस्तस्याः पाणिग्रहारेण श्रा- कृत्वा पुनरपि सप्तवशसागराऽऽयुः पश्चमपृथिवीनारको जात, Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पास (१०२) अभिधानराजेन्षः। पास किरणवेगदेवोऽपि ततः व्युत्वा इहैव जम्बूद्वीपेऽपरविदेहे वा समुत्पमोऽस्तीति स्वमानुसारेण पूर्णेषु मासेषु शुभसुगन्धविजये शुभङ्करानगर्या वज्रवीर्यराको विमता (१) या | बेलायां भगवान् जातः, षट्पश्चाशदिक्कुमारीभिर्जन्ममहोभार्याया बजनाभनामा पुत्रः समुत्पन्नः, सोऽपि तत्र क्रमा- त्सवः पूर्व कृतः, ततः स्वासनकम्पाद्विज्ञातभगवज्जम्माभिऽऽगतं राज्यमनुपाल्य दत्तचक्रायुधनामस्वपुत्रराज्यः क्षेम- घेकः शऊर्मेशिरसि जन्माभिषेकः कृतः, प्रभाते चाश्वसेकरजिनसमीपे प्रवजितः, तत्र विविधतपोविधानेन बहुल- नोऽपि नगरान्तईशाहिकोत्सवं कृतवान्, अस्मिन् गर्भस्थिते ब्धिसम्पन्नो गतः सुकच्छविजयं, तत्राप्रतिबद्धविहारेण विह भगवति जनन्याः पार्श्व गच्छन् सो रात्रौ दृष्टस्ततोऽस्य रन् सम्प्राप्तो ज्वलनगिरिसमीपं, दिनेऽस्तमिते तत्रैव का- | पार्श्व इति नाम कृतं,ततः कल्पतरुवजनाऽऽनन्दकः स भग. योत्सर्गेण स्थितः, प्रभाते ततश्चलितोऽटव्यां प्रविष्टः । इत- वान् वृद्धि प्राप, वार्षिकश्च भगवान् सर्वेकलाकुशश्च स महारगनायकः पश्चमपृथिवीत उद्देश्य कियन्तं संसा. लो बभूव । अथ भगवान् सर्वमनोहरं यौवनं प्राप, पित्रा च रं भ्रान्त्वा तस्यैव ज्वलनगिरिसमीपे भीमाटव्यां जातो बने- तदानीं प्रभावती कन्यां परिणायितः, भगवान् तया समं चरश्चाण्डाला,तेनाऽऽखेटकनिमित्तं निर्गच्छता रष्टः प्रथमं स विषयसुखं बुभुजे, अन्यदा भगवता प्रासादोपरि गवाक्षसाधु,ततः पूर्षभववरवशतोऽपशकुनोऽयमिति कृत्वा वाणेन जालस्थन दिगवलोकनं कुर्वता दृष्टो नगरलोकः प्रवरविद्धः, तेन विधुरीकृतवेदनो विधिना मृत्वा वज्रनाभो मुनि. कुसुमहस्तो बहिर्गच्छन् , पृष्टं च भगवता कस्यचित्पार्श्वमध्यमवेयके ललिताको नाम देवो जातः.सोऽपि चाण्डाल- वर्तिनः-भो! किमद्य कश्चित्पर्वोत्सवोऽस्ति, येनैष जनः पुष्पवनेचरस्तं विपन्नं महामुनि रष्ट्रा अहोऽहं महाधनुर्धर इति हस्तो बहिर्गच्छन्नस्ति । तेन पुरुषेणोक्तम्-अद्य कोऽपि पर्वोत्स. मन्यमानो निकाचितक्रूरकर्मा कालेन मृत्वा सप्तमे नरके वो नास्ति किंतु कमठो नाम महातपस्वी पुराव बहिः समागनारकत्वेन समुत्पन्नः,वज्रनाभदेवस्ततश्च्युत इहैव जम्बूद्वीपे तोऽस्ति, तद्वन्दनार्थ प्रस्थितोऽयं जनः, ततस्तवचनमाकर्य पूर्वविदेहे पुराणपुरे कुलिशवाहुराज्ञः सुदर्शनादेव्याः कनक- जातकौतुकविशेषो भगवान् तत्र गतः, पश्चाग्नितपः कुर्वाणं प्रभो नाम पुत्रो जातः, स च क्रमेण चक्रवर्ती जातः, अन्यदा कम दृष्टवान्, त्रिज्ञानवता भगवता शात एकस्मिन्नग्निकुण्डे प्रासादोपरि संस्थितेन आकाशे निर्गच्छन् देवसङ्घातो दृहः, प्रक्षिप्तातीवमहत्काष्ठमध्ये प्रज्वलन् सर्प उत्पन्नपरम तदर्शनादेय विज्ञातं जगन्नाथतीर्थकरागमः, स्वयं निर्गत- करुणेन भगवता भणितम्-अहो कटमज्ञानं यदीहशेऽस्तद्वन्दनाथे, वन्दित्वा च तत्रोपविष्टस्य तस्य पुरतो भग- पि तपसि क्रियमाणे दया न ज्ञायते । ततः कमठेन भ. बता देशना कृता, तां च श्रुत्वा दृष्टश्चक्रवर्ती वन्दित्वा स्व- णितम्-राजपुत्राः कुजरतुरङ्गाऽऽश्रममेव जानन्ति, धर्म नगी प्रविष्टः, अन्यदा कनकप्रभनामा चक्रवर्ती तां तीर्थ- तु मुनय एव विदन्तीति । ततो भगवता एकस्य स्वपुरुषस्य करदेशनां भावयन् जातजातिस्मरणः पूर्वभवान् दृष्टा एवमादिष्टम्-अरे! इदमग्निमध्ये प्रक्षिप्तं काष्ठं कुठारेण द्वि. भवविरक्तचित्तः प्रवजितः, इतश्च स क्रमेण विहरबसौ क्षी. धा कुरु, तेन पुरुषेण तत्काष्ठं द्विधा कृतं, तत्र दृष्टो दह्य. रवनाटव्यां क्षीरपर्वते सूर्याऽभिमुखं कायोत्सर्गेण स्थितः । मानः सर्पः, तस्य भगवता स्ववदनेन पञ्चपरमेष्ठिनमइतश्च स चाण्डालवनचरस्ततो नरकादुकृत्य तस्यामेवा स्काराः प्रदापिताः, नागोऽपि तत्प्रभावान्मृत्वा समुत्पन्नने टव्यां क्षीरपर्वतगुहायां सिंहो जातः, स च भ्रमन् कथमपि नागलोके धरणेन्द्रो नाम नागराजः, लोकैश्च अहो भगवतो संप्राप्तः सुनिसमीफे, ततः समुच्छलितपूर्ववैरेण तेन विना- शानशक्तिरिति भणद्भिर्महान् सत्कारः कृतः, ततो विलशितः स मुनिः, समाधिना कालं कृत्वा निबद्धतीर्थङ्करना. क्षीभूतः कमठपरिव्राजको गाढमज्ञानतपः कृत्वा मेघकु. मकर्मा प्राणतकल्पे महाप्रभे विमाने उत्पन्नो विंशतिसागरो मारनिकायमध्ये समुत्पन्नो मेघमाली नाम भवनवासी दे. पमायुदेवः, सोऽपि सिंहो बहुलसंसारं भ्रान्त्वा कर्मव- वः अन्यदा सुखेन तिष्ठतो भगवतो वसन्तसमयः समा. शाब्राह्मणो जातः । तत्रापि पापोदयवशेन जातमात्रस्य गतः, तापनार्थम् उद्यानपालेन सहकारमञ्जरी भगपितृमातृभ्रातृप्रमुखः सकलोऽपि स्वजनवर्गः क्षयं गतः, सच यतः समर्पिता, भगवता भणितम् -भोः किमेतत् । स ाहदयापरेण लोकेन जीवितः संप्राप्तयौवनोऽपि कुरूपी दुर्भगो भगवन् ! बहुविधक्रीडानिवासो वसन्तसमयः प्राप्तः, ततो दुःखेन वृत्ति कुर्वन् वैराग्यमुपगतो बने कन्दमूलफलाss मित्रप्रेरितः श्रीपार्श्वकुमारो वसन्तक्रीडानिमित्तं बहुजनहारस्तापसो जातः,करोति बहुप्रकारम् अज्ञानतपोविशेषम् । परिवारसमन्वितो यानाऽऽरूढो गतो नन्दनवनं, तन यानाइतश्च स कनकप्रभचक्रवर्तिदेवः प्राणतकल्पात् चैत्रकृष्ण समुत्तीर्य निषमो नन्दनवनप्रासादमध्यस्थितकनकमसिंचतुथ्यो व्युषा इहैव जम्बूद्वीपे भारते क्षेत्रे काशीदेशे हासने अतिरमणीयं नन्दनवनं सर्वतः पश्यन् भित्तिस्थं प. वाराणस्यां नगर्यामश्वसेनस्य राशो घामादेव्याः कुक्षी रमं रम्यं चित्रं दृष्ट्वा अहो किमत लिखितं ज्ञानमिति समध्यरात्रिसमये विशाखानक्षत्रे त्रयोविंशतितमतीर्थकरत्वेन म्यग् निरूपयता भगवता दृष्टम्-अरिष्टनेमिचरित्रम् , ततसमुत्पन्नः, तस्यामेव रात्रौ सा वामादेवी चतुर्दश स्वप्नान् चिन्तितुं प्रवृत्तः-धन्यः सोऽरिष्टनेमियों विरसावसानं विष यसुखमाकलय्य निभेरानुरागां निरुपमरूपलावण्यां ज. ददर्श, निवेदयामास च राज्ञः, तेनापि राज्ञा अतीवाऽऽनन्दमुखहता भणितम्-प्रिये ! सर्वलक्षणसम्पूर्णः शूरः सर्वकला. नकवितीणी राजकन्यां च त्यक्त्वा भनमदनमण्डलप्रचार: कुमार एवं निष्क्रान्तः, ततोऽहमपि करोमि सर्घसङ्गपरिकुशलस्तव पुत्रो भविष्यति,तद्वचः श्रुत्वा सुष्ठुतरं परितुष्टा, सा, प्रभाते च राशा स्वप्नपाठकानाइय तान् यथार्थानाच त्यागम् । अत्रान्तरे लोकान्तिका देवास्तत्राऽऽगत्य भगवन्तं स्यौ । तेऽपि पूर्णस्वप्नाध्यायं सविसारमाख्याय चतुर्दश प्रतिबोधयन्ति स्म, ततो मार्गणगणस्य यथेप्सितं साम्बस्वमानां फलमेवमाहुः-तीर्थकरमाता चक्रवर्तिमाता वा एतां. सरिकदानं दवा भगवान् मातृपित्राद्यनुशया महामहश्चतुर्दशस्वप्नान् पश्यति, ततोऽस्याः कुक्षी तीर्थङ्करश्चक्री । तत् 'अरिटुणेमि' शब्बे प्रथमभागे ७६२ पृष्ठे गतम् । Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पास पूर्वम् आश्रमपोद्यानेऽशोकपादपस्याथः पौषशुकादशी दिने पूर्वाह्नसमये पञ्चमौष्टिकं लोचं कृत्वा अपानकेन अ हममन एकं देवदूष्यमादाय त्रिभिः पुरुषशतैः समं निष्क्रान्तः । अथ श्रीपार्श्वो भगवान् विहरनेकदा वटपादपाधः कायोत्सर्गेण स्थितः । इतश्च स कमठजीवो मेघमासी असुरोधिना या आत्मनो व्यतिकरं स्मृत्या प पूर्वभववैरकारणं समुत्पन्नतीवामर्षः समागतस्तत्र प्रारब्धा सिंहादिरूपैरनेके उपसर्गाः तथाऽपि भगवा न श्रीपायो धर्मध्यानाच चलितः तादर्श तं ज्ञात्वा कमठ एवं चिन्तयामास - श्रहमेनं जलेन प्लावयिस्वा मारयामीति च्यात्या भगवदुपरिन्महामेघदृष्टिचकार, जलेन भगवदङ्गं नासिकां यावत् व्याप्तम्, अत्रान्तरे क पिताऽसमेन चरणेन्द्रेश अवधिमा भगवतिक रेण समागत्य स्वामिशीयोपरि कनिका टोपं कृत्या फणिशरीरेण भगवच्छरीरमावृत्य जलोपसर्गे च निवार्य भगवत्पुरो वीणागीतनिनादैः प्रयरं कर्तुमार वान् । कमठासुरस्तादृशम् श्रक्षोभ्यं भगवन्तं धरणेन्द्रकृत - महिमानं च हा समुपशान्तदपों भगवच्चरणी प्रणम्य गतो निजस्थाने, धरणेन्द्रोऽपि भगवन्तं निरुपसर्गे शा स्तुत्वा च स्वस्थानं गतवान् । पार्श्वस्वामिनो निष्क्रमणदिवसाच्चतुरशीतितमे दिवसे चैत्रकृष्णाष्टम्याम् अष्टमभक्रेन पूर्णसमयेऽशोकतरोरथः शिलापट्टे सुखनिरागस्य शुभध्यानेन क्षीणघातिकर्म्मचतुष्कस्य सकलला कावभासि केवलज्ञानं समुत्पन्नं, चलिताssसनैः शनैः तत्राऽऽगत्य केवलज्ञानोत्सवो महान् कृतः, पार्श्वोऽर्हन् सप्तफणालाहो पामदक्षिणपार्श्वयोः रोपाचरणेन्द्राभ्यां पर्या स्यमानः प्रियङ्गुवर्णदेहो नवहस्तशरीरो भव्यसध्वान् प्रतिबोधयन् चतुस्त्रिंशदतिशयसमेतः पृथिवीमण्डले विहरति, स्म पार्श्वभगवतो दश गणा गणधरा अभवन् आर्यदिअप्रमुखाः पोडशसह साधवोऽभवन् पुष्फलाप्रमुखा अर्थका अभवन, सुनन्दमुखाः श्रमणपासका एक चतुःषष्टिसहस्राक्ष अभय सुनन्दाप्रमुखा श्रमणोपासका लक्षत्रयं सप्तविंशतिसहस्राश्वाभयन् सार्द्धमणि शतानि चतुर्दशपूर्विणामभवन, अधिशा निनां चतुर्दश शतानि, केवलज्ञानिनां दशशतानि वैकिल धमताम् एकादश शतानि, विपुलमतीनां सार्द्धत्रीणि शतानि, वादिनां षट्शतानि अन्तेवासिनां दश शतानि सिद्धि गतानि धार्मिकाणां विंशतिशतानि सिद्धानि अनुत्तरोप पातिकानां द्वादश शतानि श्रभवन् श्रीपार्श्वनाथस्य एषा परिवारसम्पदा भूत् । ततः पाश्यों भगवान देशोनानि स शतिवर्षाणि केवलपर्यायेण विहृत्य एकं वर्षशतं सर्वायुः परिपाल्य संमेतशिखरे ऊर्डस्थित पाच कृतपाणिः निर्वा मगमत् । तत्कलेवरसंस्कारोत्सवः शक्राऽऽदिभिस्तत्रैव विहितः । उत्त० २३ ० । पार्श्वप्रतिमानां कल्पः ( ६०३ ) अभिधानराजेन्द्र "सुरसुरखपरफिचर- जोईसर बिसरमहुरा 55 कलिये। तिहुअणकमलागेहं नमामि जिणचलणनीररुहं ॥१॥ पुगि अपि अप्पाणण्यकष्पमम्मि । सुरनरकसिमहमहि कहियं खिरिपासजिए वरिषं ॥२॥ संखितसत्यनितितिति धमिजा । 66 पास तोसकर तं कप्पं, भणामि पासस्स लेसेणं ॥ ३ ॥ भवभमणभेषणत्वं भविष्धा! भयदुक्वभारभरियंगा। एयं समास पुण, पभणिजंतं मए सुराह ॥ ४ ॥ विजया जया य कमठो, पउमावइपासक्खवहरुदा । धरणी विज्ञा देवी, सोलसहिद्वायगा जस्त ॥ ५ ॥ पडिमुप्पत्तिनित्राणं, कप्पे कलिश्रं पि नेह संकलिश्रं । एयस्स गोरवभया, पढिहिइ न हु कोइ गं पच्छा ॥ ६ ॥ यह जलहि बुलुअमारां करें मारयविमाणसंखयं । पासजिएपडिममहिमं. कहिउं न वि पारए सो वि ॥ ७ ॥ एसा पुराणपडिमा अगवाणे संदऊ । खयरसुरनरवरेहिं, महिया उवसग्गसमणत्थं ॥ ८ ॥ तह विहु जणमण निश्चल-भावकर पाससामिपडिमाए । इंदाकयमहिमं कित्तिय मेत्ताइ ता बुच्छं ॥ ६ ॥ सुरसुरवंदिश्रपण, सिरिमृणिसुव्वयजिणेसरे इत्थ । भारहसरम्मि भविजण-कमलाई बोहियंतस्मि ॥ १० ॥ सदस्य कतियप्रभवे लयसंखाभिगहा गया सिद्ध । पाए भालाओ, वयगहणांतर तइया ॥ ११ ॥ सोमवासवोतं. पडिमा माहष्यसीहा सुवि चतरथेष ठि, महाविर दिव्या ॥ १२ ॥ एवं वच्चर कालो, कइवयवासेहिं रामचणवासो । राहवपद्दावदंसण - हेउं लोण हरिवयणा ॥ १३ ॥ रयणजडिखयरसंजुत्र - सुरजुअलेणं च दंडगार । सतुरयरहो अ पडिमा दिनेसा रामभद्दस्स ॥ १४ ॥ सहमा से नयदिअहे. विदेह दुद्दिश्रवणीय कुसुमेहिं । भत्तिभरनिम्मरे, महिमा गत ॥ १५ ॥ रामस्स य चलकम्मय-मलंघणिज्जं च वसराम । इं । नाऊण सुरा भुज्जो, तं पडिमं निंति सट्टाणं ॥ १६ ॥ पूर पुणेो चि सको, उभी दिव्यभापि एवं जा संपुमा, एगारस वासलक्खा य ॥ १७ ॥ ते काले जउ-वंसे वलएव करहजिणनाहा । श्रवन्ना संपत्ता, जुव्वणमह केसवो रज्जं ॥ १८ ॥ कराहेण जरासंध - स्स विग्गहे निश्रदलोवसग्गेसु । पुझे नेमी भय, पचविणासोवार्य ॥ १२ ॥ तत्ती आइसर पहू, परिसस्स मज्झ सिद्धिगमणाश्री । संगसयपक्षासाहित्र तेतीसहस+ि वरिसाणं ॥ २० ॥ डोडी पासो अरिहा, विविाहिदा नपचलो। जस्सच्चरहवणजला - सित्ते लोए समइ असिवं ॥ २१ ॥ सामी संप कर वि. तस्विर पडिमा । इच चक्रधरेणुते, तमिदमहि कहर नाही ॥ २२ ॥ इअ जिराजणद्दणाणं *, ग्रह सो मुखिउं मणोगयं भावं । मायलिसारहिरहिरहने परि ॥ २३ ॥ सुश्री सुर रिडिपडिनं. रहावा पणसारण प्रणरसेहि । पूयइ परिमल बहला-मलचंदणचारुकुसुमेहिं ॥ २४ ॥ यदि सिद्धं सिंदेह सामिसलिलेयं । जंतुवसगा वलित्रं, विलयं जह जोगिचित्तारं ॥ २५ ॥ बहुदुद्रवहणंतिम पत्ते पञ्च षट्टिम्म । जाओ जयजया जादवनियनिविडो ॥ २६ ॥ तत्थेव विजयठाणे, निम्मावि श्रमहिणवं जिणाऽऽपसा । संखउरनवरजु विगां पासपडुर्विषं ॥ २७ ॥ + ३३०० अनन्तरम् । * जिनजनार्दनयोः । Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) पास अभिधानराजेन्द्रः। पासंड पडिममिमं संगिरिहम, निमनयरमुवागयरस कराहस्स। रसथंभालो होही, थंभणयं नाम तित्थं ति ॥ ५२॥ भूवाह'वासुदेव-तणाभिसमोसबो विहिनी ॥ २८॥ उच्छिन्नवंसयालं-तरटिश्रो सुरहिस्खीरहविभंगो। कराहनरिंदेण तो, मणिकंचणरयणराप्रपासाए । अकंतखिइनिमग्गो, जणेण जरहु त्ति कयनामे ॥ ५३॥ सत्तयवसेसयाई, संठाविय पात्रा पडिमा ॥ २६ ॥ अवि पस्सा तयवत्थो, जिणनाहो पणसयााँ बरिसाणं । जाए जायबजाई-ए लए देवा उदारवादाहे। तयणु धरणिदनिम्मित्र--सभिज्मो विमसुनसारो ॥ ५४ ॥ सामिपहावा देवा-लयम्मिन पावगो लग्गो ॥३०॥ सिरिमभयदेवसूरी, दूरीकयदूरिअरोगसंघाओ। सद्धिं पुरी ताया, जलनिहिणा कारमंदिरसमेत्री।। पयर्ड तित्थं काही, महीणमाहप्पदिपंतं ॥ ५५ ॥ लोललहरीकरेहि, माहो नीरंतरे नीनो ॥ ३१॥ कंतीपुरीप भयर्ष, पुणो गमिस्सा तो जलहिम्मि। तक्खयनानिदेख, तामा रमणत्यमुरगरमणीहिं। बहुषिहनयरेसु अगह ब, अगणियमहिमा दिप्पते ॥ ५६ ॥ तत्थाऽऽगएण विट्ठा, पहुपडिमा पावनिहलणी ॥ ३२॥ |. मह कोती पणागय-पडिमाठाणाण साहणसमत्थो। पमुश्ममणेण तत्तो, नायब(विहिमनहकलहटुं। जा विहु सो सहसमुहो,हविज रसणासयसहस्सो ॥७॥ महया महेण महिमा, जाब सिवाई वाससहसाई ॥३३॥ पायाचंपऽट्ठावय--रेषयसंमेमषिमलसेलेसु । बरुणोऽवरहरितवई, तहेष सरसायरं पलोअंतो। कासीनासिगमिहिला-रायगिहप्पमुहतित्येसु ॥ ५८ ॥ तक्खयपूरजंतं, पासइ तिहुयणपहुं पासं ॥ ३४॥ जत्तार पूषणेणं, दाणेणं जं फलं लहाजीषो। एसो सो गोसामी, जो सुरनाहेण परमो पुटिव । तं पासपडिमदसण-मित्तणं पाषए इस्थ ॥५॥ इरिह मज्म वि जुजर, सहायणं सामिचलणाणं ॥ ३५॥ मासक्खमणस्स फलं, बंदणबुद्धी पाससामिस्स। चितिप्रमत्थमहीणं, पाय सेबह जिणेसमणवरयं । छम्मासिमस्स पावर, नयणपहगयाइ पडिमाए। ६०॥ जाव उ बच्छरसहसा, डिना य मह तेण समपणं ॥३६॥ निरषयो बहुतणो, धणहीणो धणयसंनिहो हो। सिरिषखमाणजलप, तिलए लोअस्स भरहवित्तभ्मि । दोहग्गो वि सुहमओ, पहु विट्ठीप जणो विट्ठा ॥ ११ ॥ अविरलगोपूरेणं, सिबिते भष्वसस्साई॥३७॥ मुक्ख कुकलतं, कुजाइजम्मो कुरुषदीणतं। कंतिकलाकलुसीकय-सुरपुरपउमाइ तिनयरीए । अन्नभषे पुरिसाणं, न [ति पहुपडिमपणयाणं ॥ ६२॥ पसा सुरसत्यवाहो, धणेसरो सत्थबाहु त्थि॥ ३८॥ अडसट्ठितित्थजत्ता-कए भमर कह वि मोहिनी लोओ। सो अन्नया महिम्भो, विणिम्गमी जाणवयजत्ताप। तेहिंतोऽणतगुणं, फलमप्पिते जिणे पासे ॥६३ ॥ संजसिमवयजुत्तो, सिंहलदीवम्मि संपत्तो ॥ ३६॥ एगेण वि कुसुमेणं, जो पडिमं महा तिब्यभायो सी। तस्थ बिटप्पिनपणगण-मागच्छतस्स तस्स धेगेण। भूषालिमउलिमउलिम-चरणो चाहियो होई ॥ ६४॥ पवहणथंभो सहसा, जामो जलरासिमझम्मि ॥४०॥ जे अट्ठविहं पूचं, कुणंति पडिमार परमभत्तीए। विमणमणो जा चिंता, पयडीहोऊण सासणसुरीता। तेसि देविदाई-पया परपंकजत्थाई ॥६५॥ पउमाई पयंपा, मा बीहसु पस्थ ! सुण वयणं ॥४१॥ जो परकिरीडकुंडल केउराणि कुणा देवस्स । महिणिम्मियमहिमोसो, महिमोहमररमहणो भद। तिहुमणमउडी होऊ-ण सो लहुं लहर सिषसुक्खे ॥६६॥ बहनीरतले चिट्ठा, पासजिणो नयसु सट्टाणं ॥४२॥ तिमणचूडारयणं, जणनयणामयसलागिगा एसा। देविकहं मह सत्ती, जिणेसगहणे समुरजलमूला। जेहिन विट्ठा पडिमा, निरत्ययं नाण मण्यत्तं ॥ १७ ॥ एवं धणेण कहिए, तो भासा सासणा देवी ॥४३॥ सिरिसंघदासमुणिणो, लहुकप्पो निम्मिो म पडिमाए । पविस मह पुट्टिलग्गो, कहासु पहुमामसुत्ततंतूहि। गुरुकप्पामो समया, संबंधलवे समुखरिओ॥ ६८॥ पारोषिय तं सावय, खुटुिंसु जलहिम्मि कत्ति पुणो ॥४॥ जो पढा सुबह चिंता, एयं कप्पं स कप्पवासीसुं। काऊण सव्यमयं, लोगुत्तमनायगं गऊण । नाहो होऊण भवे, सत्तमए पाषए सिद्धि॥६६॥ संजायहरिसपगरिस-पुलाभगची महासत्तो॥४५॥ गिहचम्मि जो पुण, पुत्थयलिहिभं पि कप्पमच्चेह। खणमित्तण सठाणं, समागी परिसरे पडकुडीयो। सो नारयतिरिएसु, निममा लई भचिरघोहि ॥ ७० ॥ राप्राविम जाविहिनो, पर पुणो सम्मुद्दो ताव ॥४६॥ हरिजलहिजलणगयगया-चोरोरगगहनिवारियारिपेयाणं । गंधव्वगीदवाइस-रखेण सुरवरनारिधषलेहि। वेयालसाइणीणं, भयानासंति दिणमणिणो ॥१॥ बहिरिभककुहो नाई, दाणं दितो पवेसेड ॥४७॥ भब्वाण पुग्नसोहा-पाणीपाइन्नहियठाणम्मि । रययालयसच्छाय, पासायं कारिऊण कंतीए । कप्पो कप्पतरू इव, विलसंतो बंछिअंदेउं ॥७२॥ विणवेसिनभषणगुरूं, तिव्वं पूरा भत्तीए ॥४॥ जावा मेरुपांवो, महिमल्लिो समुद्दजलतिले। कालंतरमावसे, धणेसरे पउरनायरबरेहिं। उज्जोभतो चिट्ठा, नरखित्तं ता जयउ कष्पो ॥७३॥" वाससहस्से पहुणो, पूइज्जतस्स वर्कते ॥४॥ इति श्रीपार्श्वनाथस्य कल्पसंक्षेपः। ती०५कल्प । अशिविदेवाहिदेवमुर्ति, परिअररहिनं तया य कंतीए । शोभयोः, दे० ना०६वर्ग ७५ गाथा। मेलियरसस्स थंभण-निमित्तमागासमग्गेणं ॥५०॥ पश्य- विपश्यतीति पश्यः। द्रष्टरि आचा०१ भु०२ १०३ उ०॥ कलिमकलाकालत्तय-पालित्सयगणहरोषएसानो। पासंड-पापण्ड-नावते, अनु० । अन्यदर्शिनि परिबाजनागज्जणे जा इंदो, आणेही अप्पणी ठाणे ॥५१॥ काऽऽदौ, पुं० । उत्त० २३ अ०। जोइणिगए कयस्थो, तत्थं मुसूण नाइसवीए। * तत्कल्पः थंभणय' शब्वे चतुर्थभागे २३८१ पृष्ठे गतः । Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५) अभिधानराजेन् पासंकत्थ 93 पासंडत्थ - पाषण्डस्थ- पुं० । लिङ्गिनि, शा० १० ८० तस्थे, भ० श०३२ उ० | "दरिद्दधेरा नाम पाखंडत्था" अ०म० १ अ० । “परिब्वायरत्तपडमादी पाखंडत्था "नि००१ ४० ॥ पाखंडग्राम - पापण्डनामन्न० । पापएिडविशेषप्रतिपापडके शब्दे से किं तं पाडा पाडाव पंड रंगे भिक्खू कावालिए अनावसए । सेतं पाखंडणा । इह येन यत्पाषण्डमाश्रितं तस्य तन्नाम स्थाप्यमानं पाषण्डस्थापनानामाभिधीयते । अनु० । पासंदधम्म- पापण्डधर्म-पुं० शाक्यादीनां धर्मे, जं०२ । पाडि (‍ ) - पाषण्डिन् पुं० । पाषण्डं व्रतं, तदस्यास्तीति पापडी । जैनसाथी, "पापण्डं व्रतमित्याहुस्तवस्था । स्यमतं भुवि। स पापडी बदमयन्ये कर्मपाशाद्विनिर्ग तः " ॥ १ ॥ दश० २ श्र० । द्वा० । द्विजाऽऽदिषु श्राचा० १ ० ४ ० २७० | परमतिकेषु प्रव० । असीस किरिया, १८० " अकिरिया हो लसीई ८४ | अाणि यसची ६७, वेण श्राणं च बत्तीसं ३२ ।। १२०२ ।। " 9 कर्त्तारमन्तरेण क्रिया पुण्यबन्धाऽऽदिलक्षणा संभवति, तत एवं परिशाय तां क्रियामात्मसमवायिनीं वदन्ति, तलाये से कियाचादिन आत्मा3यस्तित्वप्रतपत्तिल क्षणाः तेषामशीत्यधिकं शतं भवति वक्ष्यमाणप्रकारेण अशीत्यधिकशतसंख्यास्ते इति भावः । ता न कस्यचित् तिक्षणमवस्थितस्थ पदार्थक्रिया संभवति, उत्पस्यनन्तर मेय विनाशादित्येवं ये वदन्ति ते अक्रियावादिन आत्मा5.ऽरिगास्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणाः। तथा चालक क्षणिकाः क्रिया ? | भूतिर्येषां सर्वसंस्काराः, अस्थियां कुतः क्रिया सैव, कारकं सैव चोच्यते ॥ १ ॥ " तेषां चतुरशीतिर्भवति तथा कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं तदेषामस्ति तेन पाचरन्तीत्यज्ञानिका, असंचिन्त्य कृतवन्धवैफल्या चिप्रतिपा दनपराः। तथा हि-माने ज्ञानं तस्मिन् सति प रस्परं चिचायोगेन चित्तकालुप्याऽऽदिभावतो दर्शितरसंसा रप्रवृत्तेः । तथाहि - केनचित्पुरुषेणान्यथा देशिते वस्तुनि वि यति हामी शानभावगर्यो मातमानसस्तस्योपरि कल्पचित्तस्तेन सह विवादे च क्रियमाणे तीव्रतीव्रतरचित्तकालुष्यभावतोऽहङ्कारतश्च प्रभूतप्रभूततराशुभकर्म्मबन्धसंअपः तस्माददीर्घतरसंसार तथा बीकम् -" अादे सिम्मि भाषम्य नायमध्ये कुरा विवा यं कसिन-चित्ती ततो य से बंधो ॥ १ ॥ " या पु· मर्न ज्ञानमाधीयते तदा नाहङ्कारसंभो. नापि परस्योप पर चित्तकालुष्यभावः ततो न कर्म्मबन्धसंभवः । अपि च-यः संचिन्त्य कियते कर्मबन्धः स दारुणविपाको ए वावश्यं बेयस्तस्य तीमाध्यवसायती निष्पत्यात् वस्तु मनोव्यापारमन्तरेण कायवचनकर्मवृनिमात्र विधय से, न तत्र मनसोऽभिनिवेशः, ततो नासावयश्यंवेद्यो नाऽपि तस्य दारुणो विपाकः । केवलं शुष्कसुधापङ्कधवलितमितिरजाजिरियस कम्सङ्गः गभ एव शुभा२२७ 1 पासाया ध्यवसायपचनविक्षोभितोऽपयाति । मनसोऽभिनिवेशाभावयाज्ञानाभ्युपगमे समुपजायते, ज्ञाने सत्यभिनिवेशसंभ वात्तस्मादज्ञानमेव मुमुक्षुणा मुक्तिमार्गप्रवृतेनाभ्युपगन्तव्यं, न ज्ञानमिति । किं च भवेयुको ज्ञानस्याभ्युपगमो यदि ज्ञानस्य निश्वयः कर्ते पार्यते, परं यावता स एव न पा र्यते । तथाहि सर्वेऽपि दर्शनिनः पस्परं भिनमेव ज्ञानं प्रतिपनास्ततो न निश्चयः कर्तुं शक्यते किमिदं ज्ञानं स म्यगुत नेदमिति । "सध्ये पनि मिर्च, ना णं इद्द नाथियो जो बिंति तीर तओन कार्ड वि पिच्छओ एवमेय ति ॥ १ ॥ " तेषामज्ञानिकानां सप्तषटिभेदाः, तथा विनयेन ये चरन्तीति वैनायकाः । एते चानववृतलिङ्गाऽऽचारशास्त्राः केवलं विनयप्रतिपत्तिप्रधानाः, एषां च द्वात्रिंशद्भेदा इति । प्रव० २०६ द्वार । सूत्र० । श्र० । ध० । श्राचा० । नं० | दशा० । तत्र विषष्ट्यधिकशतत्रयपापरिडकाः समवसरणाद् वह्निस्तिष्ठन्ति, किंवा मध्ये इति प्रसे, उत्तरम् - पापरिङका प्रायो बहिरेव भवन्ति कथित क दाचिन्मध्येऽपि समेति, तदा कोऽत्र प्रभावकाश इति । १४३ प्रo | सेन० ३ उझा० । पासंडिय - पाषण्डिक पुं० द्विजाऽऽदिषु माचा० १०४ अ० २ उ० । । पासंडियावसह पापण्डिकाऽऽवसय पुं० पापण्डिकानामासः परिव्राजकानां शालागृद्दे. मि० सू० उ० -त्रि ० ० । प्राप्नुवति, सूल० १ ० ६ श्र० । पासंत पश्यत् 1 पासंदय-प्रस्यन्दन- १० निर्भरणे ० १ ० ३ प्र० । नि० चू० । पास-पाक-पुं० तोपकरणे, अत्रस्ताश्वाऽऽदिबन्धने, जं०३ वक्ष० । सूत्र०| जं० ॥ श्र०म० । (मनुष्यत्वदौर्लभ्ये पाशको दान्तः 'मासत' शब्दे वक्ष्यते विले, नि०० १४० पश्यक - पुं० । पश्यतीति पश्यः, स एव पश्यकः । पश्यतीति पश्यकः । सर्वज्ञे, तदुपदेशवर्त्तिनि च । श्राचा० १० २ श्र० ३ उ० ।" उद्देसो पालगरुल पत्थि वाले पुरा णिहे कामसमणुले । " श्रचा० १ श्रु० २ श्र० ३ उ० । परमार्थदृशि, " सव्वसो उसे पासगस्स पत्थि बाले । " आचा० १ श्रु० २ श्र० ६ उ० | तीर्थकृति, " दुक्खं च एयं पासगस्स दंसणं उपरयसत्थल पलियंतगरस्स भाषाएं दिसेदा सगडम्मि किमत्थि उवाधी पासगस्स व विजति ।" श्राचा० १ ० ३ ० ४ उ० । " कोहं च माणं च मायं च लोभं व एवं पासगस्त इंसणं । " आचा० १ ० ३ ० ३ उ० । पासण्या - पश्यता - स्त्री० । पश्यतो भाषः पश्यता । बोधपरिणामविशेषे भ० १६ श० ७ उ० । पश्यतावक्तव्यता कतिविहा गां भंते! पासणया पत्ता ? गोधमा दुविहा पासण्या पष्मत्ता । तं जहा सागारपासण्या, अणागारपासण्या य । सागारपासण्या गं भंते ! कतिविहा पत्ता ? गोयमा ! छव्विहा पष्मत्ता । तं जहा सुयनाण Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासण्या पासण्या, ओहिनायपासण्या, मखपज्जवनाणपासण्या, केवलनायपासण्या, सुपयभाग सागारपासण्या, विभंगनासागारपासण्या अणागारपासण्या गं भंते ! कई विहा पणता ?। गोवमा ! निविदा पत्ता तं जहा चवखुर्दसणअणागारपासण्या, ओहिदंसणणागारपासण्या, केबलदंसणच वागारपासणया एवं जीवाणं पि । ( कतिविधा णं ते! इत्यादि) कतिविधा कतिप्रकारा. समिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! (पासण्यति) 'शिर' प्रेक्ष 4 पश्यतीति सति बानिती" ।। ५। २ । १६ ॥ इति (हम) अतृप्रत्ययः कर्त्तयेदादेशः "पात्राध्मास्याम्नादाम्हश्वर्ति भौतिदिदः पिबजिम वमतिष्ठमनवच्पश्य कृधिशीयसीदाम्” ॥ ४ । ३ । १०८ ॥ इति (हैम०) दृशेः पश्याssदेशः पश्यतो भावः पश्यत्ता, “भावे स्वतलौ” ॥ ७ ॥ १५५ ॥ इति तन्प्रत्ययः “म त्” ||२४|१८|| इति (हम०) आप सेच पाखण येrयुच्यते, एव च 'पासण्या' शब्दो रूढिवशात् साकाराना कारबोधप्रतिपादकः, उपयोगशब्दयत् तथा चोपयोगविषये प्रश्नोतरसूत्रे ( उपभोगशब्दे द्वितीयभागे ५८ पृष्ठे गते ) "कइत्रिहा णं भंते ! पासण्या पलत्ता ? । गोयमा ! दुबिहा पासण्या सत्ता । तं जहा- सागारपासण्या, श्रणागारपासण्या इति । " ननु तुल्ये साकारानाकारभेदत्वे को ऽनयोः प्रतिविशेषो, येन पृथ्णुच्यते?, उच्यते-साकारानाकारभेदगतावान्तरभेदसंख्यारूपः । तथाहि पक्ष ज्ञानानि श्रीज्ञाना नीत्यविधः साकार उपयोगः, साकारपश्यक्ता तु षड्विधामतिज्ञानमत्यज्ञानपीः पश्यत्तयो अनभ्युपगमात् कस्मादिति चेत्, उच्यते-इह पश्यत्ता नाम पश्यतो भाव उच्यते, पश्यतो भावश्च 'दृशिर' प्रेक्षणे इति वचनात् प्रेक्षणमिह रूढिवशात् साकारपश्यत्तायां विम्यमानायां दीर्घकालम् अनाकारपश्तायां विम्यमानायां प्रकृएं परिस्कुटरूपमीक्षणमय सेयं तथा च सति येन ज्ञानेन त्रैकालिकः परिच्छेदो भवति तदेव ज्ञानं प्रदीर्घ कालविषयत्वात् साकार पश्यत्ताशब्दवा रूयं न शेषं मतिज्ञानमत्याने तु उत्पन्नाविनष्टार्थमाह सांप्रतकालविपये तथा च मतिज्ञानमधिकृत्याम्यलोकम्"जमवगाहादिकथं पचपन बधुगागं लाए। इंद्रियमनिमित्तं तं श्रभिनिबोधिगं वेति ॥ १ ॥ तत् द्वे अपि साकार पश्यत्ताशब्दवाच्ये न भवतः, श्रुतज्ञानाऽऽदीनि तु त्रिकालविण्याणि । तथाहि धनानेन अतीता अपि भावा शायन्ते, अनागता अपि । उक्तं च 37 (६०६) अभिधान राजेन्द्रः । " "जं पुरा तिकालविसर्य, आगमगंधाणुसारि विनाणं । इंदियमलोनिमित्तं सुयनाणं तं जिला बिंति ॥ १ ॥ " अवधिशा नमपि संख्यातीता उत्सर्पिण्यवसर्पिणी प्रतीताः परि निवि भाविनीच मनः पर्यायज्ञानमपि परोपमा पेयभागमतीतं जानाति भाषिनं व केवलं सफलकालवि सुहानविभङ्गाने अपि त्रिकालविषये, ताभ्यामपि यथायोगमतीतानागतभावपरिच्छेदात् ततो ज्ञानानि साकारवश्यताशब्दवाप्यानि उपयोगस्तु पत्राऽऽकारो यथादित स्वरूपः परिस्फुरति स बोधो वर्त्तमानकालविषयो वा यदि भवति त्रिकालिको वा तत्र सर्वत्राऽपि प्रवर्त्तते इति साकारोपयोगोऽष्टविधः, तथा चतुर्दर्शनमचतुर्दर्शनमयधिदर्शनं केवलदर्शनमिति चतुर्विधो ऽनाकारोपयोगः पासण्या अनाकारपश्यत्ता तु त्रिविधा, अवर्शनस्थानाकारपश्यसाशब्दवाच्यत्वाभावात् । कस्मादिति चेदुच्यते-उक्तमिह पूर्वमनाकारवश्यतायां विम्यमानायां प्रकटं परिस्कुटरूपमीसमयसेयमिति तत्रादर्शने परिस्फुटरूपमीन वि यते न हि चवशेषेन्द्रियमनोभिः परिस्फुटमीक्षते प्रमा तातो बनाउनाकारपश्यत्ताशयत्वाभावात् विविधानाकारपश्यता, तदेवं साकारभेदेऽनाकारभेद च प्रत्येकमवान्तरमे वैचित्र्यभावान्महानुपयोगपश्यनयोः प्रतिषि शेषः, एनमेव प्रतिविशेषं प्रतिपिपादयिषुः प्रथमतः साकारानाकारभेदौ ततस्ततावान्तरभेदान् प्रतिपादयति- (गोयमा ! दुविहा पासण्या पक्षता । तं जहा-सागारपासण्या, अणागारपालख्या य । सागारपासण्या णं भंते ! कतिविहा पघासा) इत्यादि भावितार्थम् । तदेवं सामान्यतो जीवपदवि शेषरहिता पश्यतो साम्प्रतं तामे सहितामभिषित्सुराह ( एवं जीवा पि) एवं पूर्वोक्रेन प्र कारण जीवानामपि जीवविशेषणसहिताऽपि पश्यत्ता - तव्या । सा चैवम्-" जीवा णं भंते ! कतिविहा पासण्या प सत्ता ? । गोयमा ! दुविधा पासण्या पत्ता । तं जहा- सागारपासण्या, अणागारपासण्या य । जीवाणं भंते ! सागारपासणया कतिविहा पत्ता । इत्यादि तदेवं जीवानामपि सामान्यत उक्ता संप्रति चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण वदतिरइया से भेतेतिविहा पासणया पाता है। गोषमा ! दुविहा पासण्या पम्मत्ता । तं जहा- सागारपासण्या, अबागारपासण्याय । रइया णं भंते ! सागारपासण्या कइविहा पपत्ता है। गोषमा ! चडचिडापना। तं जहा सुपनाखसा मारपासण्या, ओहिनागसागारपासण्या, सुयान्नाणसागारपासण्या, विभंगनाणसागारपासणया । खेरयाणं भंते अणागारपासण्या कविहा पत्ता १ । गोयमा ! दुविहा पाता । तं जहा चस्तुदंसणचणागारपासण्या, ओहिदंसणणागारपासण्या य । एवं ० जाव थणियकुमारा । पुचिकाइया ते कतिविहा पासया पता है। मोयमा ! एगा सागारपासण्या | पुढवीकाइया णं भंते ! सागारपासण्या कतित्रिहा पत्ता १ । गोयमा ! एगा सुय? अन्नाणसागारपासण्या पष्मत्ता । एवं० जाव वणप्फरकाइयाणं। बेइंदियाणं भंते! कतिविहा पामख्या पडता है। गोषमा एगा सागारपासण्या पछता । वेइंदिया सं भंते ! सागारपासण्या कइविहा पत्ता ? गोयमा ! दुविहायता । तं जहा सुयणाणसागारपासण्या, सुपाघाणसागारपासण्या य एवं इंदिया व वि चरेदिया पुच्छा | गोषमा दुविधा सागारपासावा पछता तं जहा - सागारपासण्या, अणागारपासण्या । सागारपासगया जहा वेदियाणं । चउरिंदिया णं भंते ! अणागारपासख्या कतिविदा पाता है। गोयमा ! एगा चखुदंसणअणागारपासण्या पत्ता | मणूसायं जहा Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासणया (१०७) अनिधानराजेन्डः। पासगाया जीवाणं सेसा जहा णेरइया. जाव वेमाणियाणं । (नेपया णं भंते ! ) इत्यादि सुगमत्वादुपयोगपदे प्रायो भावितत्वात् चानन्तरोक्तभावनाऽनुसारेण स्वयं परिभावनीयं , तदेवं सामान्यतो विशेषतश्च जीवानां पश्यत्तोक्ला। सम्प्रति जीवानेव पश्यत्ताविशिष्टान् विचिन्तयिषुराहजीवाणं भंते ! किं सागारपस्सी, अणागारपस्सी । गोयमा ! जीवा सागारपस्सी वि, अणागारपस्सी वि । से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-जीवा सागारपस्सी वि, अणागारपस्सी वि । गोयमा ! जे णं जीवा सुयनाणी, ओहिनाणी, मणपज्जवनाणी, केवलनाणी, सुयममाणी, विभंगनाणी, तेणं जीवा सागारपस्सी । जे णं जीवा चक्खुदंसणी ओहिदसणी केवलदसणी ते णं जीवा अणागारपस्सी, से एतेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जीवा सागारपस्सी वि , अण्णागारपस्सी वि । णेरइया णं भंते ! किं सागारपस्सी, अणागारपस्सी ? । गोयमा ! एवं चेव, नवरं सागारपासणयाए मणपज्ज- वनाणी, केवलनाणी न वुच्चति,अणागारपासणयाए केबलदंगणं नत्थि, एवं० जाव थणियकुमाग । पुढविकाइयाणं पुच्छा । गोयमा! पुढवीकाइया सागारपस्सी, नोअणागारपस्सी । से केण्टेणं भंते ! एवं वुबह । गोयमा! पुढविकाइयाणं एगा सुयअन्नाणसागारपासणया पसता । से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ । एवं जाव वणस्सइकाइयाणं वेदियाणं पुच्छा। गोयमा ! सागारपस्सी, नो अणागारपस्सी । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-गोयमा ! बेइंदियाणं दुविहा सागारपासणया परमत्ता । तं जहा-सुयनाणसागारपासणया, सुयअन्नाणसागारपासणया य । से तेणटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ । एवं तेइंदियाण वि । चंउदियाणं पुच्छा ? । गोयमा ! चउरिदिया सागारपस्सी वि, अणागारपस्सी वि । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ । गोयमा ! जेणं चउरिदिया सुयनाणी, सुयअनाणी, ते ण चाउरिदिया सागारपस्सी, जे णं चउरिदिया चक्खुदंसणी, ते णं चउरिदिया अणागारपस्सी । से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ । मणूसा जहा जीवा, अवसेसा जहा ऐरइया० जाव वेमाणिया ॥ ३१३ ॥ ( जीवा णं भंते किं सागारपस्सी इत्यादि ) जीवा जी क्मयुगालः, प्राणधारिण इत्यर्थः । णमिति वाक्याल हारे, किमिति प्रश्ने, साकारपश्यता वियते येषां ते साकारपश्यत्तिनः, प्राकृतत्वात्साकारपस्ती इत्युक्तम् । (मणपजधनाणी केवलनाणी न खुश्वाह इत्यादि ) नैरयिकाणांचारिजप्रतिषतेरभावबो मनापर्यवशामकेवलज्ञानकेवलदर्शना- ! नामभवात् । इह किल छन्मस्थानां साकारोऽनाकारश्चीपयोगः क्रमेणोपजायमानो घटते,सकर्मकत्वात्. सकर्मकाणां ह्यन्यतरस्योपयोगस्य वेलायामन्यतरस्य कर्मणाऽऽवृतत्वा. त् न घटते पवोपयोग इति , केवली तु घातिचतुष्टयक्षयाद्भवति, ततःसंशयः-किं क्षीणशानाऽऽवरणदर्शनावरणत्वात् यस्मिन्नेव समये रत्नप्रभाऽऽदिकं जानाति तस्मिवेव समये पश्यति, उत जीवस्वाभाव्यात्क्रमेणेति । ततः पू. च्छति केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढविं आगाहिं हेतूहिं उवमाहिं दिढतेहिं वन्नेहिं संठाणेहिं पमाणेहिं पडोयारेहिं जं समयं जाणइ तं समयं पासइ, जं समयं पासइ तं समयं जाणइ । गोयमा ! णो इणढे स. मढे । से केणडेणं भंते ! एवं वुच्चइ-केवली णं इमं रयणप्पभं पुढवि आगारोहिं जं समयं जाणइ, नो तं समयं पासइ, जं समय पासइ नो तं समयं जाणइ ? । गोयमा ! सागारे से नाणे भवइ, अणागारे से दंसणे भवइ । से तेणटेणं. जाव नो तं समयं जाणइ एवं० जाव अहे सत्तमं , एवं सोहम्मकप्पं जाव अच्चुयं । गेवेजगविमाणा अणुनरविमाणा इंसिप्पन्भारं पुढवीपरमाणुपोग्गलं दुपदेसियं खंधं जाव अणंतपदेसियं खंधं । केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारेहिं अहेऊहिं अणूवमेहिं अदिढतेहिं अवनेहिं असंठाणेहिं अप्पमाणेहिं अपडोयारेहिं पासइ न जाणइ । हंता गोयमा ! केवली णं इमं रयणप्पमं पुढवि-अणागारेहिं० जाव पासइ न जाणइ । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारहिं जाव पासइ न जाणइ । गोयमा ! अणगारे से दंसणे भवइ, सागारे से नाणे भवइ । से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-केवली णं इमं रयणप्पभं पुढवि भणगारेहिं० जाव पासइ न जाणइ, एवं. जाव ईसिप्पन्भारं पुढविं परमाणुं पुग्गलं अणंतपएसियं खंधं पासइ न जाणइ । (केवली णं भंते ! इत्यादि) केवलं ज्ञानं दर्शनं चास्यास्तीति केवली, णमिति वाक्यालाकृती, भदन्त ! परमकल्याणयोगिन् ! इमां प्रत्यक्षत उपलभ्यमानां रत्नप्रभाभिधां पृ. थिवीम्-(आगारोहिं ति) आकारभेदा यथा इयं रत्नप्रभा पृथिवी त्रिकाण्डा खरकाण्डपङ्ककाएडाप्काएडभेदात् , खरकाण्डमपि षोडशभेदम् । तद्यथा-प्रथमं योजनसहनमानं, रत्नकाण्डं तदनन्तरं योजनसहस्रप्रमाणमेव, बज्रकाण्ड तस्याप्यधो योजनसहनमानं वैडूर्यकाएडमित्यादि । (हेऊहिं ति) हेतव उपपत्तयः, ताश्चमाः केन कारणेन रत्नप्र. भेत्यभिधीयते । उच्यते-यस्मादस्या रत्नमयं काराडं तस्मा. द्रत्नप्रभा रत्नानि प्रभाः स्वरूपं यस्याः सा रत्नप्रभेति Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (80) भनिधानराजेन्द्रः। पासणाया पासणिय व्युत्पत्तेरिति । (उवमाहिं इति)उपमाभिः 'मा' माने, अस्मा- प्यपास्तमवगन्तव्यम् , अनेन सूत्रेण साक्षात् युक्तिपूर्व शा. । दुपपूर्वात् उपमितम् उपमा।" उपसर्गादातः" ॥५॥३॥११० ॥ नदर्शनोपयोगस्य क्रमशो व्यषस्थापितत्वात् । एवं शर्कराइति अप्रत्ययः । ताश्चैवम्-रत्नप्रभायां रत्नप्रभाऽऽदीनि प्रभाषालुकाप्रभापङ्कप्रभावूभप्रभातमःप्रभातमस्तमःप्रभासौकाण्डानि वर्णविभागेन, कीरशानि ?, पनरागेन्दुसहशा- धर्मेशानसनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोकलान्तकशुक्रसहस्रारानतनीत्यादि । (दिटुंतहि ति) दृष्टः अन्तः परिच्छेदो विवक्षि- प्राणतारणाच्युतकल्पप्रैवेयकविमानान्युत्तरविमानेषत्प्राग्भातसाध्यसाधनयोः सम्बन्धस्याविनाभावरूपस्य प्रमाणेन यत्र राभिधपृथिवीपरमाणुपुदलद्विप्रदेशिकस्कन्धयावदनन्तप्रदेते रष्टान्तास्तैर्यथा घटः स्वगतैर्खमैंः पृथुबुध्नोदराऽऽद्याका- शिकस्कन्धविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि । ननु यदि राऽऽदिरूपैरनुगतः परधर्मेभ्यश्च पटाऽऽदिगतेभ्यो व्यतिरिक्त ज्ञानदर्शने साकारानाकारतया पृथगेवं व्यवस्थापितविषये उपलभ्यत शति पटाऽऽदिभ्यः पृथक् वस्त्वन्तरं तथैवैषाऽपि तत इदमायातं,यदा भगवान् केवली रत्नप्रभाऽऽदिकमाका. रमप्रभा स्वगतभेदैरनुषक्ता शर्कराप्रभादिभेदेभ्यश्च व्यतिरि राऽऽधभावेन परिच्छनत्ति तदा स पश्यतीत्येवं वक्तव्यो तेति,ताभ्यः पृथग् वस्त्वन्तरमित्यादि (वन्नेहिं ति)शुक्लाभद न जानातीति । सत्यमेत्तथा चाऽऽह-"केवली णं भंते !इम वर्णविभागेन तेषामेव उत्कर्षापकर्षसंख्येयाऽसंख्येयाननगुण रयणप्पभं पुर्वि अणागारहिं अहेऊहिं ।" इत्यादि प्रायो विभागेन च वर्णग्रहणमुपलक्षणं तेन गन्धरसस्पर्शविभा भावितत्वात्सुगमम् प्रज्ञा० ३० पद । गेन चेति द्रष्टव्यम् । (संठाणोहिं ति) यानि तस्यां रत्नप्र पासणाह-पार्श्वनाथ-पुं०। पश्यतीति पार्श्वः, पावोऽस्य वै.. भायां भवननारकाऽऽदीनि संस्थानानि । तद्यथा-"तेणं भवणा यावृत्यकरः, तस्य नाथः पार्श्वनाथः । अवसर्पिण्यां जाते बाहिं बहा अंतो चउरंसा अहे पुक्खरकमियासंठाणसंठि- प्रयोविंशे तीर्थकरे, ध०२ अधि० : " पान्तु षः पार्श्वया। " तथा " ते णं नेरइया अंतो वट्टा बाहिं चउ- नाथस्य, पादपननखांशवः । अशेषविघ्नसंघात-तमोभैदैकहेरंसा अहे खुरप्पसंठाएसंठिया ।” इत्यादि । तथा तवः ॥१॥” आ० म०१०। प्रब० । ती । (पार्श्व( परिमायीह ति ) प्रमाणानि । (अहेत्यादि ) परि नाथवक्तव्यता 'पास' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽनुपदमेव गता) माणानि । यथा-" असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्ला र. पासणिय-प्राश्निक-पुं०। प्रश्नेन राजाऽऽदिकिंवृत्तरूपेण दर्पज्जुप्पमाणमेत्ता आयामविक्खंभेणं ।" इत्यादि (पडोयारे- णाऽऽदिप्रश्ननिमित्तरूपेण वा चरन्तीति प्राश्निकाः । प्रहिं ति) प्रति पर्वतः सामस्त्येन अवतीर्यते व्याप्यते यैस्ते भोपजीविनी साधौ, सूत्र० १ श्रु० २ ० २ उ०। प्रत्यवतारास्ते चात्र घनोदभ्यादिवलया वेदितव्याः। ते हि प्राश्निकं वन्दतेसर्वास विच विदिक्ष चेमां रत्नप्रभा परिक्षिप्य व्यवस्थिता- वा मारणा ॥४३॥जे स्तैः । (जं समयमिति) “कालाध्वनोाप्ता"॥२२॥४२॥ इत्यधिकरणभावेऽपि द्वितीया। ततोऽयमर्थः-यस्मिन् समये भिक्खू पासणियं पसंसइ, पसंसतं वा साइजइ॥ ५४॥ जानाति आकारादिविशिष्ट परिच्छिनत्ति (तं समय ति) जे पासणियं इत्येवमादि दो सुत्ता । जणवयववहारेसुण. तस्मिन् समये पश्यति केषलदर्शमविषयीकरोति । भ- डपडणादिसु वा जो पेक्खणं करेति, सो पासणियो। गवानाह-गौतम! नायमर्थः समर्थः-नायमों युक्त्युप- लोइववहारमूलो, पासत्थादिएसु कज्जेसु। पन्न इति भावः । तत्वमजानानः पृच्छति-( से केण्टेणं पासणियत्तं कुणती, पासणिो सो य नायव्वो ॥६६॥ भंते ! इत्यादि ) से इति अथशब्दार्थ, अथ केनार्थेन ___“लोइयववहारेसु ति।" अस्य व्याख्याकारणेन भदन्त ! एवं पूर्वोक्नेन प्रकारेणोच्यते ?, तमेव प्रकारं दर्शयति-(केवली णमित्यादि) भगवानाह-( गो साधारणे विरगं, साहति पत्त पउए य ाहरणा। यमेत्यादि) अस्यायं भावार्थः-दहशानेन परिच्छिन्दन् जा दोगह य एगो पत्तो, दोनिय महिला उ एगस्स ॥१७॥ नातीत्युच्यते, दर्शनेन परिच्छिन्दन्पश्यतीति, सानं च (से) दोण्हं सामगणं साधारणं तस्स विरेगं विभयणं तत्थले तस्य भगवतः साकारमन्यथा सानत्यायोगात् विशे- पासणिया छेत्तुमसमत्था सोभावच्छंणाम्रो छिदति, कहं ?, षानभिगृह्वानो हि बोधो ज्ञानं सविशेष पुननिमिति व. एत्थ उदाहरणं जहा-णमोकारणिज्जुत्ताए पडगाहरणं पि चनात् दर्शनमनाकारं निर्विशेषं विशेषाणां, ग्रहो दर्श- जहा तत्थव, एवं असेसु वि बहसु लोगववहारसु पासममुच्यते इति वचनात् तत्र ज्ञानं च दर्शनं च जीवस्य णियत करे. छिदति वा। खण्डशो नोपजायते, यथा कतिपयेषु प्रदेशेषु शानं, कति. "लोए सत्यादिप त्ति" अस्य व्याख्यापयेषु प्रदेशेषु दर्शनं, तथा स्वाभाव्यात्, किं तु यदा हानं छंदणिरुत्तं सत्यं, अत्यं वा लोइयाण सत्थाणं । तदा सामस्त्येन शानमेष, यदा दर्शनं तदा सामस्स्येन भावत्थए य साहति, छलियादी उत्तरे सजणे ॥ १८ ॥ दर्शनमेव, शानदर्शने च साकारानाकारतया परस्पर विरु- छंदादियाणं लोगसस्थाणं सुत्तं कहेति, अत्थं वा । अहवाखे, छायातपयोरिवेतरेतराभाबनान्तरीयकत्वात्,ततो यस्मि- अत्थं वत्ति, अत्थं सत्थं सेतुमादियाण वा बहूण कचाणं न् समये जानाति तस्मिन् समये न पश्यति, यस्मिन् स. कोडल्लयाणं य वेसियमाण य भावत्थं पसाहेति, छवियसिंगा. मये पश्यति तस्मिन् समये न जानाति । एतदेवाऽऽह-(से ए रकहाछीवरमगादी उत्तरे तित्थं दुत्तरादी, अहवा ववहारे गटेणमित्यादि) एतेन यववादीद्वादी सिद्धसेनदिवाकरोग-य- उत्तरं सिखावा । अहवा-उत्तरे ति लोउत्तरे वि सउणभयाथा केवली भगवान् युगपत् जानाति पश्यति चेति तक दीणि कहयति नि. चू०१३ उ० । साक्षिणि, दे० ना०६ •ए सिबसेनदिवाकरमतनिराकरणमपि । वर्ग ४१ गाथा। Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासत्य पासत्थ- पार्श्वस्थ-पुं० । सदनुष्ठानात् पार्श्वे तिष्ठन्तीति पा स्थानाचयादिकमण्डलचारिषु सू० १३०४ उ० । साधुशानाऽऽदीनां पार्श्वे तिष्ठतीति पार्श्वस्थः । पाशस्थ इति वा संस्कारस्तत्रेयं व्युत्पत्तिः मिध्यात्वाऽऽदयो ब ववः पाशास्तेषु तिष्ठतीति पाशस्थः । व्य० १ ३० | प्रब० । नि० । ध० जी० । शा० । पार्श्वः सम्यक्त्वं तस्मिन् ज्ञानाSSदिपार्श्वे तिष्ठतीति पार्श्वस्थः । सूत्र० १ ० ३ श्र० ४ उ० । दर्श० । साधुगुणानां पार्श्वे तिष्ठतीति पार्श्वस्य सू० १ ॐ० ६ श्र० । शबलाऽऽचारे, व्य० ३ उ० । मन्दधर्मे, ज्यो० १० पाडु | हानाऽऽदिबहिर्तिनि म० १० ० ४ ४० । 1 स्था० । (201) निधानराजेन्द्रः । पार्श्वस्थो भूत्वा गणमुपसम्पद्यते जे भिक्खु वा गयाओ अनकम्म पासत्यनिहारे विहरे, सेयइच्छेला दोषं पितमेव गये उपसंपचिता बिहारए अस्थि या इत्य से पुणो भलोएज्जा, पुणो पडिकमेला, पुणो छेदपरिहारस्स उवहाइआ । एवं महाछंदो कुसीलो ओप्पो संसन्तो ।। २६ ।। 'मिथुनरासार्थः, 'या' वाक्यभेदे, मयादपक्रम्य नित्य पा. श्रस्यविहारं पार्श्वस्थचय प्रतिपद्येत स भूयोऽपि भाव परिया इच्छेत द्वितीयमपि पारं गणमुपसंपद्य विर्तुम् । (अस्थि या इत्थ त्ति ) अस्ति चात्र कश्चित् यः शेषे चारित्रस्य सति पुनरालोचयेत्। पुनः प्रतिक्रामेत, पुनश् परिहारं प्रायधिसमापनस्तस्य देवस्य परिहारस्य वा प्र तिपत्तये अभ्युतिष्ठेत् । यः पुनः सवर्थाऽपगते चारित्रं पुनः रालोचयेत् पुनः प्रतिक्रामेत् स मूलमापन इति मूलस्य प्रतिपत्तये अभ्युत्तिष्ठेत् । व्य० १ उ० । ( यथान्दाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने ) 9 अथ कथं पार्श्वस्थाऽऽदयो जायन्ते तत आहगच्छम्म केइ पुरिसा, सउणा जह पंजतरनिरुद्धा । सारणपंजरचाया, पासस्थगयाइ विहरति ॥ २०६ ॥ यथा शकुनिः शकुनिका पञ्जरान्तर्निरुद्धा महता कष्टेन वर्त्तते तथा केचित् गुरुकर्माणः पुरुषा गच्छे स्मारणा मोदनाऽऽदिमहत्कष्टमभिमन्यमानाः कन वर्तन्ते ततः सार लक्षणपरत्यागिनः सन्तः पार्श्वस्थगता : हयः आदिशब्दाद्यथाच्छन्दोगताऽऽदिपरिग्रहः । विहरन्त्यवतिष्ठन्ते, विहत्य केवि भूषः स्वगणमुपसंपद्यन्ते । तेषां चोपसंपद्यमानानां प्रायश्चित्तं देयमतस्तद्विषरिदमाह तसं पायच्छित्तं वोच्छं ओहे य पयविभागे य । उप्पं तु पयविभागे आहेण इमं तु बुच्छामि ।। २१० ॥ तेषां पार्श्वस्थानां स्वगुणमुपसंपद्यमानानां प्रायश्चित्तं वक्ष्ये । कथमित्याह-ओघेन सामान्येन, पदविभागेन च कालाऽऽदिविशेषेण । गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे । तत्र यत्पदविभागेन प्रायश्वितं पयं तत् स्थापनीयं पधारयते इत्यर्थः । प्रोपेन सामान्येन कालादिविशेषरहितत्वेनेति भाषः । पुनमनन्तरं माता प्रत्यक्षीभूतमिव पश्यामि २२८ 1 पासत्य प्रतिज्ञातमेव निर्वाहपति उस कमाई, लडुओ लहुया अभिक्रखगहसम्मि | उस पार लहुया, गुरुगा य अभिक्खगहसम्म । २११ | उत्सववर्जमुत्सवाभावे यदि कदाचित् शय्यातरपिण्डाऽऽदिकं गृहीतवान् ततस्तस्य प्रायश्चित्तं लघुको मासः तथाऽ. गृहीतवान् ततचत्वारो लघुमासाः । प्रयोत्सवे । कदाचित् शय्यातरपिण्डमहत् तत्वारो लघुका मा साः । अथाभीक्ष्णमुत्सवेषु गृहीतवान् ततश्चत्वारो गुरुकाः । हाबा गुरुकशोधिप्रदानकर स्वयमेव प क्ष्यतीति नाभिधीयते । अत्र कालविशेषो न कोऽपि निर्दिष्ट इतीदमोधेन प्रायश्चित्ताभिधानम् । इदानीं कालसामान्यत श्राह - चम्मासे वरिसे, कयाइ लहु गुरु य तह य छग्गुरुगा । एएसु चैव भिक्खं, चउगुरु तह छग्गुरु च्छेदो ॥ २१२ ॥ चतुरो मासान् यावत्कदाचिदपि गृहीतवान् यदि शय्यातरपिण्डं ततचत्वारो लघुकाः, षण्मासान् कदाचित् महणे चत्वारो गुरुकाः वर्षे यावत्कदाचिदभिगृहीते परमासा गुरवः । एतेष्वेव चतुर्मासपरमासपर्येषु अभी यथाक्रमं चतुर्गुरु दकिमु भवति मासान् यावदभीक्ष्णग्रहणे चत्वारो गुरुकाः मासाः, परमासानभीक्ष्णग्रहणे षण्मासा गुरवः । वर्षे यावदभीषणग्रहणे छेद । शोत्सवानुत्सव विशेषरहिततया सामान्येनाभिधानम् । तथा चाऽऽह एसो उ होति आहे, एतो पयविभागतो पुणो बुई। चउत्थमासे चरिमे, ऊसववअं जइ कयाइ ।। २१३ ॥ गेeet लहु लहुया, गुरुया इत्तो अभिक्खगहणम्मि । चउरो लहुया गुरुया, छग्गुरुया ऊसवविवजा ॥ २१४॥ एषोऽनन्तरोक्तः प्रायश्चित्तविशेषः । श्रोधेन सामान्येन भवति इम्य अत ऊर्ध्वं पुनर्विभागतः पदविभागेन प्रायधितं वच्ये । यथाप्रतिज्ञातं करोति चतुरो मासान् यदि क दाचित् उत्सववर्जनप्रहीत् शय्यातरपिएडं ततो मासलघु, षण्मासानुत्सववर्जमभिगृहीते चत्वारो लघुकाः, वर्षे या वदुत्सववर्ज कदाचिदभिग्रहेण चत्वारो गुरुका इत ऊ ईमेते अथ चतुष पश्येबत्वारो लघु का गुरुकाः षड्गुरुका उत्सववर्णा यथाक्रमं ज्ञातव्याः । किमुकं भवति चतुरो मासानुत्सववशव्यातरपिण्डमभीषण मग्रहीत् ततः प्रायश्चित्तं चत्वारो मासा लघुकाः, परमासानुत्सववर्जमभीषणबत्या वयाच त्सववर्जमभीक्ष्णग्रहणे षड्गुरुकाः । उत्सववर्जे गतम् । इदानीमुत्सवे प्रतिपादयति चउरो लहुया गुरुगा, छम्मासा ऊसवम्मि उ कयाई । एवं अभिक्खगहणे, छग्गुरु चउ छग्गुरु च्छेदो || २१५ ॥ चतुरो मासान् यदि कदाचित् गृहीतवान् तत् ऐ मासा लघवः, षण्मासान् कदाचिदुत्सवे ग्रहणे चत्वारो गुरुकाः वर्ष यावत्कदाचित् गृहतः परमासा गुरवः । एतत्पुगर्वश्यमाणमभीषण गुरु इत्यादि । चतुरो मासानु रसवेच्य परमासा गुरवः । परमाखानुत्सवे व Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११०) अभिधानराजेन्द्रः पासत्थ भीषण कश्ये वर्षे यावदर्भाषणमुत्सवेषु मध्ये गुरु देद अथ करमायुत्सवेषु कराविदभीषणं वा ग्रह अधिकतर प्रायधिदानमत - ऊसवव न गेरहइ, निब्बंधा ऊसवीम्म गेरहंति । कोपरगादीया, इति अहिगा ऊसवे सोही ||२१६५ ए साधुत्यय उत्सवरहिते शेषे काले भिन्नहाति, उसने पुनवपुलं भरूपानं प्रामुपलम्य कथमपि निर्बन्धात् गाढाऽऽदरकरणात् गृह्णाति, ततोऽस्मैपर्याप्तं दातव्यमिति किंचित् न अध्यवपूरकाऽऽदयो दोषाः संभवन्ति । अदिशब्दात् मिकाऽऽदिदोषपरिग्रहः । इति अस्मादेतोत्सवे अधिका बहुतरा शोधिः प्रायश्चित्तमिति । एवं उपस्सिप पतिपिय साहुको पई हसति । चोएड रागदोसे, दितो पचगतिलेहिं ।। २१७ ।। मुपदर्शितेन प्रकारेण मातरचिएादि प्रतिसेव्य पु· नरकरण उपोपस्थितस्य महादिप्रयोजनेषु तता भ पानप्रदानाऽऽदिना सोपष्टम्भीकृताः साधवो येन स प्रतपितसाधुस्तस्य पदं प्रतिसेवालक्षणं इसति । एवमेव मुकरते अमत्र संप्रदायः यदि पञ्चरादिवं दशरात्रिदिवस त्यापो भवति ततः स एवमेव मु च्यते तस्य साधुमतप्येनैव शुद्धभावात् । अथ माखा55विक्रमापतिमं पदं इसति तद्यथापदि मा सावापनस्तत एको मासो मुच्यते, एको दीयते । अथ श्रीन्मासान् तर्हि एको मासेो मुच्यते, द्वौ मासौ दीपते इत्यादि। अत्र एके गोयन्तिथा पूर्व रा गद्वेषयन्त तथादि-नाप गतो हासपथ, येन पुनर्न प्रतितर्पितं तस्य द्वेषतः सकलभपिप्रा परिपूर्ण प्रादि- (दिपतिलेहि) न वयं रागद्वेषवन्तः । तथा चात्र दृष्टान्त उपमा । पत्रकतिलैः। तथादि-पतिला नाम दुर्गास्थान - बेऽपि स्वापिताः। तदेके निर्वासिता, अपरे स्था भाविका एव स्थिताः । तत्र ये निर्वासितास्तेयां दुरभिगन्धो बहुविधेनोपक्रमेणापनेतुं शक्यते, इतरेषां स्तोकेन । एवमिहापि ये स्वरूपतः पार्श्वस्थाः, अपरं व सासामाचारीद्वेषतो ग्लानाऽऽदिप्रयोजनेषु साधूनामप्रतर्पिते महता प्राधितेन ये तु पाखा अपि कम्र्मलघुता साबुतामादारानुरा गतः सापूर ग्लानाऽऽजनेषु प्रतप्यन्ति श्लाघाका रिश् ते स्वीकाराचेन मे शुद्धयन्ति महापरा घिनोऽन्तिम पहाखतः स्तोकेन प्रायश्चित्तेनेति । पत्रकतिलातेन सर्वाश्वसशिरोमाभ्यां चैातार दाभ्यां पद्मकतिलेन चोपमा द्रव्य तथा सर्व सोत्येवंशीलः सर्वाशी बहुत असर्वाशी पो तत्र सर्वांशी रोगी का क्रियया वृद्धिमासादयति, स्तोकया क्रियया । यथा वा द्वौ पटी शारदा, तजैकी वाले याति प्रतिदिवस तेन वातेन धून्यते, अपरो मोरच फालकमेण महिती विद्युत पटद्धिमासातपटो बहुप पासत्य क्रमे। एवं यः पार्श्वस्थः साधूनामवर्षभाषी स महता प्रायधिशेन शुद्धिं समते इति तस्मे परिपूर्व प्रायभि दीयते इतरस्य तु साधूनां प्रतर्पदेन वर्णभाष शुद्धिः संभवत्येतदर्थे व्हास इति । साम्प्रतमेतदेव विवरीः पर प्रश्नं भावयतिजो तुम्भ पडितप्पर तस्सेगं ठासगं तु हासेह । यह अपडितप्पे, इइ रागहोसिया तुम्भे ।। २१८ ॥ यो युष्माकं प्रतितप्यति उपकारं करोति तस्य एकं स्थानकमन्तिमलक्षणं प्रागुक्तस्वरूपं न्हासयथ, यः पुमर्न प्रतितयति ततर्पिते तोकस्थानमन्तिमलक्षणं पवच, परिपूर्ण त प्रायश्वितं स्य इत्यर्थः । इ. देवममुना प्रकारेण पूर्व रागद्वेषिका रामवन्तः । संप्रति यदुक्तम् " पनकतिलैर्दृष्टान्तः " इति सद्भावयतिइहरह बिताब चोयग !, कडुयं तेल्लं तु पन्नगतिलां । किं पुरा निवतिलेहिं भाविवाणं भवे खर्ज ॥ २१६ ॥ इतरथाऽपि निम्बकुसुमादिवासनामन्तरेणाऽपि तावत् है चोदक !पसकतिलानां तैलं कटुकमेव, तुकारार्थी भ अक्रमन्ध, न खाद्यं भवतीति भावः । किं पुनस्तेषां पद्मकतिलानां स्वतः तिलानि इस सूक्ष्मत्वात् तिलानि कुसुमानि स्वस्य तिलानि स्वतिला स्तैर्निम्बकुसुमैरित्यर्थः । भावितामां बासितानां तैलं खायं भवेत् मैच भवेदित्यर्थः । ए - ष्टान्तः । " , अयमथोपनय: एवं सो पासस्यो, अवयवादी पुयो य साहूयं । तस्स य महती सोही, बहुदोसो सोत्थओ चैव ॥ २२०॥ एवं शोधिकृतः साधुरेकं तावत्पार्श्वस्थसमाचारकारी पुनः साधूनामवर्णवादी, साधुसमाचारप्रद्वेषात् । ततस्तस्य तथारूपस्य महती शुद्धिः प्रायश्चित्तं यतः सोऽत्र प्रायश्चिसदानविधी परिविश्यमानो बहुदोष एव भवति वर्तते। त देवमप्रशस्ततिले रुपनयः कृतः । संप्रति प्रशस्ततिलैस्तमभिधित्सुराहजह पुरा ते चैव तिला, उसिणोदगधोयखारउव्वक्का देसि तं पयमा पी विसेसे ||२२१॥ यथा पुनस्त पच पचतिला उष्णोदकेन पूर्व धीतास्तद् नन्तरं क्षीरेण दुग्धेन (उब्वक्का) क्षीरमध्ये प्रक्षिप्य कियत्कातं त्वा ततो निष्काशिताः तेषां यतैलं तद् घृतमाडमपि विशेषयति, ततोऽप्यधिकतरं भवतीति भावः । एष दृष्टान्तः । अयमर्थोपनयः कारणें संविगाणं, आहारादीहि तप्पितो जो उ । नीयावाणुप्पी, तप्पक्खिय बावादी व ।। २२२ ॥ यः कारयेयशिवाय मौर्यादिषु संविधानां सुसंयतानामाद्वारा:विभक्तपानीपधादिभिस्तर्पितः प्रतर्पणं कृतवान् तथा यः संविद्मानां नीचैर्वृत्तिर्वर्तनं यस्य स तथा । किमुक्तं भवति ?स तान्यन्दते न पुनर्वन्दापयति । तथा प्रकल्प किमपि प्र. तिसेव्य अनु पश्चात् हा दुष्टं कारितमित्यादिरूपेण तपवि सन्तापमनुभवतीत्येवंशीलोऽनुतापी । तथा तेषां संविद्मानां Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासत्थ अनिधानराजेन्द्रः। पासस्थ पक्षस्तत्पक्षस्तत्र भवस्तत्पाक्षिका, संविग्नपाक्षिक इत्यर्थः । तथा वर्णवादी श्लाघाकारी सुविहितानाम् । ततः किमित्याहपावस्स उवचियस्स वि, पडिसाडण मा करेति सो एवं । सव्वासिरोगिउवमा,सरए य पडे अ विधुयम्मि ॥३२३।। एवमनुना प्रकारेण संविग्नतर्पणाऽऽदिनाऽद्यापि पार्श्वस्थेन सता उपचयं नीतं, तथाऽपि तस्योपचितस्यापि पापस्य परिशाटनभावं करोति । मो इति पादपूरणे, तेन तस्यैकपदस्य हासः । उक्का पन्नतिलकदृष्टान्तभावना। एवमवर्षवादिनः पार्श्वस्थस्य परिपूर्ण प्रायश्चित्तदाने सर्वाशिरोगिण उपमा, या च शारदिके पटे वातविधूते सा च इष्टान्तभावना भा. यितव्या। संप्रति तामेव रटान्तभाषनामाहपुभो यऽथ ते किमिणो य, अणुवायं वद्वितो य उलोय । केण वि सेवायपुत्तेणं,बुभुलइयं उलइयं सुणाण* ॥२२४॥ तदेवमितरः पार्श्वस्थः साधूनामप्रतर्पयिता, न च पापं कृत्वा सु तपति, यदपि च पापं कुरुते तदपि निर्दयः सन् , साधूनां पाऽवर्णभाषी. ततः सोऽन्यथा न शुध्यतीति तस्मै परिपूर्ण प्रायश्चित्तं दीयते, द्वितीयस्तु साधुप्रतर्पणाऽऽदिना बहु पापं पितवान् , न च निर्दयः सन्नकरोत्पापमिति तस्य पदहासः। तदेव भावयतिथोवं भित्रमासा-दिगाउ राइंदियाइँ जा पंच ।। सेसे उ पयं हसती, परितप्पिऍ एयरे सयलं ॥३२॥ यदि नाम स्तोकं भिन्नमासाऽऽदिकादारभ्य यावत्पश्चरात्रिदिवानि एतानि समुदितान्येकतरं वा प्रायश्चित्तमापभस्तदा स एवमेवमुच्यते, तस्य साधुप्रतर्पणाऽऽदिना शुद्धीभूतत्वात् । यदि पुनर्भिन्नमासस्योपरि प्रायश्चित्तमापनस्तत. स्तस्मिन् शेषे तु प्रायश्चित्ते समापतिते सति पदमन्तिमं प्रतपिते साधौ इसति, तस्य चान्तिमपदहासस्य भावना प्रागेव कृता, इतरस्मिन्साघूनामप्रतपिण्यवर्मवादिनि च सकलं परिपूर्ण प्रायश्चित्तं, तस्यानन्यथा शुद्धयभावात् । ततो न वयं रागद्वेषवन्तः । । संप्रति पार्श्वस्थान व्याख्यानयतिदुविहो खलु पासत्थो, देसे सव्वे य होइ नायव्यो। सव्वे तिमि विकप्पा, देसे सेजायरकुलादी ॥ २२६ ॥ विषिधो रिप्रकारः खलु निश्चितं पायस्थः । तद्यथा-देशे देशतः, सर्वस्मिन् सर्वतः पार्श्वस्थः । शब्दसंस्कारमाश्रित्य त्रयो विकल्पाः प्रयः प्रकाराः । तद्यथा-पार्श्वस्था, प्रास्वस्थः, पाशस्थश्च । एते स्वयमेवाने वक्ष्यन्ते । देशे देशतः पार्श्वस्थः शय्यातरकुलाऽऽविप्रतिसेवमानः। "तिमि विगप्पा" (२२६) इत्युक्तं तत्र प्रथम प्रकारमाहदंसणनाणचरिते, तवे य भत्ताहितो पवयणे य । तेसिं पासविहारी, पासत्थं तं वियाणाहि ।। २२७॥ दर्शनं सम्यक्त्वं ज्ञानमाभिनिनाधिकाऽऽदि, चारित्रमाश्रषनिरोधः। एतेषां समाहारो बन्दः। तस्मिन् , तथा तपसि बाबाऽऽभ्यन्तररूपे द्वादशप्रकारे,प्रवचने च द्वादशाङ्गलक्षणे । *इयं गाथा अलग्ना, असंगता, टीवतो भिन्नाथिका चास्ति । यस्याऽस्मा हतोपयुक्तो, न सम्यग्योगवानित्यर्थः । यदि वाअभिहितस्तेषां, विराधकत्वात् किं तु तेषां शानाऽऽदीनां पार्थे तटे विहरतीत्येवं शीलो विहारी, न तेषु शानाऽऽदिवम्तर्गत इत्यर्थः। स पार्श्वस्थ इति जानीहि । शानाऽऽदीनां पार्श्वे तिष्ठतीति व्युत्पत्तेरह यद्यपि यो दुष्करमाश्रयनिरोधं करीति स प. रमार्थतस्तपोयुक्त एवेति वचनतश्चारित्रग्रहणेन तपोशाननहणेन च प्रवचनं गतं तथापि तयोरुपादानं मोक्ष प्रति प्राधान्यं गतो व्याख्यानार्थ, भवति च तपो मोक्ष प्रति प्रधानमङ्गं पूर्वसंचितकर्मक्षपणत्वात्प्रवचनं च विधेयोपदेशदायिस्वादिति । उक्त एका प्रकारः । संप्रति द्वितीयं प्रकारमाहदसणनाणचरित्ते, सत्थो अत्थति तहिं न उजमति । एएणं पासत्यो, एसो अनओ वि पाओ ।। २२८॥ शानदर्शनचारित्रे यथोक्तरूपे यः स्वस्थेऽवतिष्ठते,न पुनस्तअशानाऽऽदौ यथा उद्यच्छति उद्यमं करोति, एतेन कारणे. नैष पार्श्वस्थ उच्यते। प्रकर्षण समन्तात् शानामदिषु निरुद्य. मतया स्वस्थः प्रास्वस्थ इति व्युत्पत्तेरेष खल्वया द्वितीयोऽपि पर्यायः । भपिशब्दः खल्वर्थे भिन्नक्रमश्न, स च यथास्थानं योजितः । उक्नो द्वितीयः प्रकारः। संप्रति तृतीयं प्रकारमाहपासो ति बंधणं ति य, एगट्ठ बंधहेयो पासा। पासत्थिोपासत्थो,भयो बि य एस पजाओ ।।२२६।। पाश इति वा बन्धनमिति वा एकार्थम् । इह ये मिथ्या. स्वाऽऽदयो बन्धहेतवस्ते पाशास्तेषु स्थितः पाशस्थः, पाशषु तिष्ठतीति पाशस्थ इति व्युत्पत्तेः । एषोऽन्यः खलु तृतीयः पर्यायः। उताखायोऽपि प्रकारास्तगणनाथ भणितः सर्वतः पार्श्वस्थः। इदानीं देशतः पार्श्वस्थं व्याधिस्यासुना यदुक्तम्- " सेजा यरकुलादी" इति, तद् व्याख्यामयतिसेजआयरकुल निस्सिय, ठवणकुल पलोयणा अभिहडे य । पुब्धि पच्छ संथव, निइअग्गपिंडभोइ पासत्थो ॥२३०॥ यः शय्यातरपिण्डं भुक्त, यानि च तस्य निश्रितान्याधि. तानि कुलानि तानि सततमुपजीवति । किमुक्तं भवति? या. नि कुलानि प्रपन्नानि, तानि येषु प्रामेषु नगरेषु धा वसन्ति, तेषु गत्वा तेभ्य आहाराऽऽदिकमुत्पादयति । (ठवण ति) स्थापनाकुलानि निर्विशति । अथवा-यानि लोके ग. हितानि कुलानि स्थापितान्युच्यन्ते, तेषामपरिभोग्यतया जिनः स्थापितत्वात् , तेभ्यः पाहाराऽदिकमुत्पादयति । (प. लोय लि) संखया सततमाहारलौल्पतः प्रलोकना येन कियते, शरीरस्य षा शुभवर्णाऽऽदिनिरीक्षणार्थ प्रलोकना तथा अभ्याहतानि माचीर्णानाचीणीचाऽऽहारान् यो गृहाति,यश्च पूर्व संस्तुतान् मातापित्रादीन् पश्चादसंस्तुतान् वा करोति । तथा नित्यपिण्डमप्रपिण्डं च यो भुक्ने सदेशतः पार्श्वस्थः। (नित्यपिएडव्याख्या 'णितियपिंड' शब्दे चतुर्थभागे २०६७ पृष्ठे गता)(अप्रपिण्डव्याख्या 'भग्गपिंड'शम्ये प्रथमभागे १६५ पो गता) ('अभिहड' शब्दे प्रभागे ७३१ पृष्ठ विस्तर) साम्प्रतमभ्याहतपिए नियतपिएच ब्याण्यानयतिभाइलमणाइम, निसीहरुभिहरं च नोनिसीहं च। Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२). पासत्थ अभिधानराजेन्डः। पासवणनमि साभावियं च निययं,णिकायणनिमंतणे लहुमो॥२३१॥ संसाविधीए वंदणं उच्छोभणवंदणं वा । एस सु त्तत्थो । नि० चू० १३ उ० । आव० । आचा० । अभ्याहतं द्विविधम्-प्राचीर्णमनाचीर्ण च। तथाऽचीर्णमुप श्रा० चू० । सूत्र० । पार्श्वस्थं तु यत्र स्थाने यत् भयोगसंभवे गृहत्रयमध्ये,ततः परमनाचीर्णम् ,उपयोगासंभवा णितं प्रायश्चित्तं तस्मिन् स्थाने यथाच्छन्दे विवर्द्धतां त्। अनाचीर्णमपि द्विधा-निशीथाभ्याहृतं,नोनिशीथाभ्याहृतं विशेषेण वर्द्धितं जानीहि, तश्च तथैवानन्तरमुपदर्शितम् । च। तत्र यत्साधोरविदितमभ्याहृतं तनिशीथाभ्याहृतम्,इतर कस्मादिह वर्द्धितं जानीहि इति चेत् ?। उच्यते-प्रतिसेवनात्, साधोर्विदितमानीतं नोनिशीथाम्बाहृतम् । एतानि कारणे प्ररूपणाया बहुदोषत्वात् । इह पार्श्वस्थत्वं त्रयाणामपि संनिष्कारणे वा यथाकथञ्चिदभिगृह्णानो देशतः पार्श्वस्थः । तत् भवति । तद्यथा-भिक्षोर्गणावच्छेदिन आचार्यस्य च,यथाच्छत्रिविधम् । तद्यथा-स्वाभाविकं निकाचितम् , अनिकाचितं, दत्वं पुनर्भिक्षोरेव। ततः पार्श्वस्थविषयं सूत्रं त्रिसूत्रारमकं, निमन्त्रितं च । तत्र यन्न संयतार्थमेव किन्तु य एव श्रम यथाच्छन्दविषयं त्वेकस्वरूपमिति । व्य० १ उ० । तथा देश णोऽन्यो वा प्रथममागच्छति तस्मै यदप्रपिण्डादि दीयते पार्श्वस्थो वन्द्यः कास्तीति, अत्र पूर्वोक्ताक्षरानुसारेणाऽऽचातत्स्वाभाविकं,यत्पुनर्भूतिकर्माऽदिकरणतश्वतुर्मासाऽऽदिक योऽदिः प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यमानो द्वादशाऽऽवर्त्तवन्दनं पार्श्वरणतश्चतुर्मासाऽऽदिकं कालं यावत् प्रतिदिवसं निकाचितं स्थाऽऽदेः करोति।कारणान्तरे सर्वपार्श्वस्थाऽऽदेरपि वृद्धवनिबद्धीकृतं गृह्यते तनिकाचितम्। यत्तु दायकेन निमन्त्रणापु बनाऽऽदि करोतीति आवश्यकनियुक्त्यादौ कथितमस्ति । रस्तरं प्रतिदिवसं नियतं दीयते तन्निमन्त्रितम् । एताम्यपि ही० ३ प्रका) । पार्श्वस्थाऽऽदीनामशनाऽऽदिदाने तेभ्योऽगृह्णानो देशतः पार्श्वस्थः स्वाभाविकनियते निकाचने नि शनाऽऽदिग्रहणे चतुर्लघु । ध०३ अधि)। मन्त्रणे च सर्वत्र प्रायश्चित्तं मासलघु । पासस्थविहारि (ण)-पार्श्वस्थविहारिन्-पुं० । पार्श्वस्थानां अथ पार्श्वस्थो भूत्वा पुनः कथं संविनविहारमुपपद्यते, यो विद्दारो बहूनि दिनानि यावत्तथा वर्तनम् स पार्श्वस्थवियेनोच्यते "से य इच्छेजा दोश्चं तमेव ठाणं उवसंप हारः, सोऽस्यास्तीति पार्श्वस्थविहारी । झा०१ श्रु.५ अ०। जित्ता | विहरित्तए" इत्यादि । तत पाह अकालं पार्श्वस्थसमाचारे, भ०१ श०४ उ०।। संविग्गजणो जडो, व जह सुहितो सारणाएँ वइओ उ । पासपिट्टतरोरुपरिणय-पार्श्वपृष्टान्तरोरुपरिणत-नि० । पार्श्व बच्चइ संभरमाणो, तं चेव गणं पुणो एति ।। २३२ ॥ च पृष्ठान्तरे च तद्विभागौ ऊरू च परिणतौ निम्पत्तिप्रकर्षाइह संविनो जनो जड़ इव हस्तीव वेदितव्यः । तथाहि- वस्थां गतौ यस्य स तथा । उत्तमसंहनने, उत्त०४०। यथा स हस्ती धनादानीतो घृतगुडाऽऽदिभिः पुष्टिं नीतः, पासपुट्ठ-पार्श्वस्पृष्ट-त्रि० । छुप्तमात्रे, स्था० १० ठा० । स्मृत्वा वनं जगाम, तच्च वनमनावृष्टिभावतोऽचारीभूतं, । भावताऽचाराभूत, पासमग्ग-पाशमार्ग-पुं० । पाशप्रधानो मार्गः पाशमार्गः । ततस्तत्र दुःखमनुभवन् घृतगुडाऽऽदिकं स्मरति, स्मृत्वा । पाशकूटकयागुराऽन्विते मागें, सूत्र १ श्रु० ११ १०। भूयो नगरमायाति । एवं सोऽप्यधिकृतः संविग्नो जनः संविग्नानां मध्ये भगवत्प्रसादत उत्कृष्टैराहारी पोषमुपाग पासमग्गण-पाशमार्गण-न० । गुप्तिगतनरसमीपा याचने, तस्ततः सुखितः सन् स्मारणामसहमानस्तया त्याजितः पा प्रश्न. ३ माश्रद्वार। वस्थविहारमुपपद्यते, तत्र च स्थितः पार्श्वस्थ इति कृत्वा पासमाण-पश्यत्-नि । अवलोकके, भ० १६ श० ६ उ०। धाज्ञाऽदिभिर्नाऽद्रियते, केवलं लोकत आक्रोशमवाप्नोति, “पासमाणो चिंतेइ ।" आ० म०१०। दर्शनोपयुक्त, प्रा. यथाऽयं धिक शिथिलो यात इति, ततः संविग्नानां पूजा स- चा० १ श्रु०८०१ उ०।। रकारं च संस्मरन् तमेवाऽऽत्मीयं गणं पुनरेति समागच्छति, पासमूल-पाचमल-न। पार्श्वसमुत्थरोगे, जी०३ प्रति०४ समागतश्च समालोचनाऽऽद्यर्थमभ्युत्तिष्ठति । अधिः । तत इदमाह पासल्लिय पार्श्विक-त्रि० । पार्श्वशायिनि, प्रव० ६७ शार। अत्थि य से सावसेसं, जइ नत्थी मूलमत्थि तवछया । । पञ्चा•ाभः। थोवं जइ आवनो, पडितप्पर साहुणा सुद्धो ॥२३३॥ पासवण-प्रश्रवण-न० । प्रकर्षेण श्रवयं, श्रवतीति श्रवणम् । पूर्वमिदं परिभाषनीयम्-(से) तस्य पालोचनाऽऽद्यर्थमभ्यु एकाकिकायाम्, प्राचा०२७०२८०३.। सूत्रे. आवo ४० स० । कल्प० । शा० । कायिकभूमिस्थाने, नि० चतस्य सावशेष चारित्रमस्ति, चशब्दात् किं वा नास्ति, चू. १ उ०। ततो मूलं दातव्यं, मूलं नाम सर्वपर्यायोच्छेवः । अथाऽस्ति पासवणणिरोह-प्रश्रवणनिरोध-पुं० । मूत्रसंरोधे, स्था० सावशेष चारित्रं, ततस्तस्मै तपो वा दीयता, छेदो वा, तत्र १०ठा। यदि स्तोकमापन्नो भवति । स्तोकं नाम रात्रिदिवपञ्चका पासवणपडिक्कमण-प्रश्रवणप्रतिक्रमण-न० । मूत्रोत्सर्ग विदारभ्य भिन्नमासं यावत्साधूनां च स प्रतितर्पितः, ततः स धायर्यापथिकाप्रतिक्रमणे,स्थाला"उच्चारं पासवणं भूमीए वो. साधुप्रतितर्पणादेव शुद्ध इति प्रसादेन मुच्यते । मासाऽऽद्या सिरितु उवउत्तो प्रोसिरिऊणं हरियायहियं पडिक्कमह बोसिपत्तौ स्वन्तिमपावहास इति ।गतं पार्श्वस्थसूत्रम् । व्य०१उ०। समत्सगे जान पडिकई य मत्तगं जो उ साहू परिवेश पार्श्वस्थं वन्दते प्रशंसति वा नियमेण पडिकमे सो उत्ति।" स्था० ६ ठा० । जे भिक्खू पासत्यं पसंसति, पसंसंतं वा साइजइ ।४११ पासवणभूमि-प्रश्रवणभूमि-स्त्री० । मूत्रस्थाण्डिले, ताथ द्वासुलदं ते माणुस्सं जम्मं, जं साहू ण वट्टसि, एबमादिप- दश । भालयपरिभोगान्ताः षट्, षद् बहिः । भाष०५०। Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१३) पासा अभिधानराजेन्कः । पाहिज्ज पासाभ-पासाद-पुं० । “पासामो हम्मिभं । " पाइo ना. पासावम-पेशी-गवाक्षे, दे० ना० ६ वर्ग ४३ गाथा। २७३ गाथा। पासावचिज-पार्थापत्यीय-पुं० । पार्थापत्यस्य पार्श्वश्वापासाईय-प्रासादीय-त्रि० । प्रसादाय मनःप्रसत्तये हि- मिशिष्यस्थापत्यं शिष्यः पार्थापत्यीयः । सूत्र. २ श्रु०७ तस्तरकारित्वात् प्रासादीयः । मनःप्रसत्तिकारिणि, जी० ३ प्र० । पापत्यानां पार्श्वजिनशिघ्याणामयं पार्थापत्यीयः। प्रति० ४ अधि० । झा० । प्रज्ञा । नं० । मनःप्रसा- म. १ श.१ उ०। पार्श्वनाथशिष्यशिष्ये, स्था० ६ ठा। दकारणे, व्य० ६ उ० । प्रसादो मनःप्रमोदः प्रयोजनं यस्ये- चातुर्यामिकसाधौ, भ. १५ श०। " समणस्स णं भगति । ०। नि०मा०म०ाद्रष्णां चित्तप्रसादजनके, भ० वो महावीरस्स अम्मापितरो पासावचिजा ।" प्राचा) ५ श०२ उ०रा० । विपा० । हा० । स्था० । प्रासादेषु २ श्रु०३चू०। भवा प्रासादया। प्रासादबहुलायां पुरि, स्त्री०सू०प्र०१ पासित्तए-द्रष्म-अध्य० । प्रेक्षितुमित्यर्थे, नि००६ उ० । पाहु०१ पाहु० पाहु० । “पासाईया।" प्रसादः प्रसन्नता निर्मलजलता घिचते यस्याः सा प्रासादिका । प्रासादा वासुदेव पासित्ता-दृष्टा-अध्यः। प्रेक्ष्येत्यर्थे, कल्प०१ अधिः ६ क्षण । कुलसधिवेशास्ते विद्यन्ते यस्यां समन्ततः सा प्रासादिका। अनु० । “दससुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा।" स्था० १० सूत्र०२०२०। ठा प्राचा पासाण-पाषाण-पुं० । स्फटिकाऽऽदिके पृथ्वीविकारे, नि.. पासिय-पाशित-त्रि० । पाशोपेते अनर्थापादके, सूत्र० १ चू० २ उ० । विजातीयरलेषु, दश० ६ ० । शु० ३ १०२ उ.। पासाणधाउ-पाषाणधातु-पुं०। युक्तिविशेषेण-भायमाने सु दृष्टवा-अव्य० । ज्ञात्वत्यर्थे , प्राचा० १ ० ३ ० १. वर्णवर्णेन परिणमिते पाषाणे, " जत्थ पासाणे जुत्तिणि उ० । दशा० । जुते या धममाणे सुषमदोयहं सो पासाणधातू ।" नि० पाशिक-पुं० । पाशेन बन्धनविशेषेण चरतीति पाशिकः । चू०१३ उ०। पाशेन हननोपजीवके, प्रश्न० २ आश्रद्वार। पासाणिन-देशी-साक्षिणि, ३० ना०६ वर्ग ४१ गाथा। पासियव्य-द्रष्टव्य-त्रिका चचुषा निरीक्षणीये,कल्प०३अधिक। पासादीय-प्रासादीय-नि० । 'पासाईय' शब्दार्थे, जी. ३ | शी-सायाम. ना.६ वर्ग ३७ गाथा । प्रति०४ अधिक। पासेष्टिय-पार्श्ववत-त्रि० । पार्श्वशायिनि, दशा०७०। पासाय-प्रासाद-पुं। देवानां राज्ञां च भवने, उत्सेधबहुले गृहे च । भ०५ श०३ उ० । जी०। प्रश्न अनु। उत्त० । प्रा पाहम-प्राधान्य-न० । प्रधानतायाम् , स०१० अङ्ग। खादभवनयोः को विशवः। उच्यते-भवनमायामाक्षेपया कि- पाहम्मया-प्रधानता-खी० । प्रधानस्य भावः प्रधानता । शिम्म्यूनोच्छायमानं भवति , प्रासादस्तु आयामद्विगुणो- प्रधानभावे, अनु। सलाय इति । शा० १६०१०। विपा। जं० । राजगृहे, से कितं पाहमयाए पाहमयाए अणेगविहे परमते ।तं मा०१ श्रु०५०। राजमन्दिरे, उत्त० १५०। जहा-असोगवणे सत्तवणवणे चंपगवणे चूमवणे नागव- . चक्रवादीनां प्रासादप्रमाणम् । ऊर्द्धतः परिमाणमाह णे पुवागवणे उच्छुवणे दक्खवणे सालिवणे । से तं भट्ठसयं चक्कीणं, चउसट्टी चेव वासुदेवाणं । पाहमयाए॥ बत्तीसं मंडलिए, सोलस हत्था उ पामतिए ॥४६॥ ( से किं तं पाहमयाए इत्यादि ) प्रधानस्य भावः प्र. अधाधिकं शतं सहस्रानामूर्द्धतश्चक्रवर्तिनां प्रासादो धानता, तया किमपि नाम भवति, यथा बहुण्यशोकवृक्षेषु भवति, चतुःषर्वािसुदेवानां, द्वात्रिंशत् माएडलिकस्य. को स्तोकेवाम्राऽदिपावपेच्यशोकप्रधानं बनमशोकवनमिति ना. व्य हस्ताः प्राकृतिके प्रारुतजनसंबन्धिनि प्रासादः। . मा सप्तपर्णाः-सप्तच्छदा,तत्प्रधानं षनं सप्तपर्णवनम्, इस्या दि सुगमम् , नवरमत्राप्याह-ननु गुणनिष्पनादिन भियते, • भवणुजाखादीणं, एसुस्सेहो उ वत्पुविजाए। नवम्,तत्र मादिगुणेन क्षमणाऽदिशब्दवाच्यार्थस्य सामभणितो सिप्पिनिहिम्मि उ,चक्कीमादीण सम्बेसि ॥४७॥ स्स्येन व्याप्तत्वावत्र वधोकाऽऽदिभिरशोकवनाऽऽविशमवाशिल्पिनिधी वास्तुविद्यायां सर्वेषामपि चक्रवर्यादीनां च्यानां वनानां सामस्त्येन व्याप्तेरभावादिति भेदः॥ ॥ अनु०॥ भवनोबानाऽऽदीनामेष उत्सेधो भणितः। व्य. उ०। पाहाण-पाषाण-पुं० । “दश-पाषाणेः पाहाण-पाषाण-पु.। "॥८।२।२६२ ॥ पासायवडिंसग-प्रासादावतंसक- मासादानामवतंसकर इति षकारस्य ह इति षकारस्य हः । पाहाणे । पासाणे । प्रस्तरे, प्रा० १पाद । व शेखरक इव प्रासादावतंसकः। प्रासादविशेष, जी०३/पाहाणजल-पाषाणजल-न। पाषाणानामुपरि वहति जले, प्रति०४ अधि०। मा०म० सारा प्रासादोऽवतंस- भोघ। कः । भ० २ ०८ उ० । प्रासादचावतंसक प्रासादावतं पाहिज-पायेय-ना पथि भक्ताऽविभृतौ, "पाहिजणाणसं यासकः। प्रधानप्रासादे, शा० १ ० ११०। हिमुभयपएसं चेव, गामा पच्छाकडाइएसुं।" पु. १ उ०२ पासाला-स्त्री०। देशी-भल्ल्याम्, दे० ना०६ वर्ग १४ गाथा। प्रकला पयस्थणं संबलं च पाहिजे।" पाह०मा० १५५ गाथा । २२॥ गाविस-परणे या गाम का पारिवणामका Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारा पाहुन अभिधानराजेन्द्रः । पाहुमिया पाएर-माभूत-१० प्रकर्षण समन्ताद् भियते प्राप्यते चि. द्विविधा प्राभृतिका । तद्यथा-बावरा, सूक्ष्मा च । एकैका. समभीएस्य पुरुषस्यांननेति प्राभृतमिति व्युत्पत्तिः । “कद्ध ऽपि विधा । तद्यथा-अषवष्कणेन,उत्रूबष्कणेन च। सूत्रे चात्र कुलम्"॥५ ॥२॥ इति वचनात् करणे प्रत्ययः । “उ विभक्तिलोप आर्षत्वात् , तत्रावष्यकणं स्वयोगप्रवृत्तनियइत्यादी"॥।१।१३१॥ इति त उत् । भस्य हः । तकालावधेरोक्करणम् , उत्वकणं परतः करणम् । तत्र प्रा. ९०१पाद । " पाहुडं उवायणं । " पाह० ना० २३६ बादरमाभूतिकाविषयमाह- कव्वट्ठीए समोसरणे ) ह गाथा । पूर्वान्तर्गते भुतविशेषे, विशे० । स० । अथ समयपरिभाषया 'कबट्टी'लप्पी दारिका भएयते । त. प्रामृतमिति कः शब्दार्थः ?। उच्यते-ह प्राभृतं नाम लोके स्थाः सत्कस्य, उपलक्षणमेतत्, पुत्राऽऽदेव सत्कस्थ विवाहप्रसिवं यदभीटाय पुरुषाय देशकालोचितं दुर्लभं घस्तु स्य अवयष्कणमुरवष्कणं वा समक्सरणे साधुसमुदापरिणामसुन्दरमुपनीयते ततःप्राधियते प्राप्यते चित्तमभी यविषये । इयमा भावना-साधुसमुदायं यथाविहारक्रममाएस्य पुरुषस्याननति प्राभृतमिति व्युत्पत्तेः " बहुलम् " यातं हवा कोऽपि श्राषकः चिन्तयति, यथा-ज्योतिर्वि॥५॥१॥२॥इति वचनात् च करणे प्रत्ययः । विवक्षिता दोपविष्टे विवाहदिने यदि विवाहः क्रियते, ततोऽर्षागेष सुअपि प्रथपतयः परमर्सभाः परिणामसुन्दराश्चाभीष्टे. विहितजनो विहारक्रमेण गमिष्यति. ततो न किमपि मदीयं भ्यो बिनयादिगुणकालतेभ्यः शिष्येभ्यो देशकालौविस्येनो. विवाहसंभवं मोदकाऽऽदिकं तन्दुलधापनाऽऽदि घोपकरिपनीयते । ०प्र० १ पा. १ पाहु० पाहु । सू. प्यते, सत एवं चिन्तयित्वा अर्याक विवाह करोति । यदि वा-भूयान् सुविहितजनो यथाविहारक्रममागच्छन् श्रृयते, प्रा भनु मात्रा० स०। कलहे, नि० चू० १० उ० । विवाहश्च तदागमनादर्याक, ततो न किमपि तेषां मदीपा स्था। कौशलिकपरमक्रोधे, स्था० ३ ठा०४ उ.प्रा यमुपकरिष्यतीति, तत एवं विचिन्त्य परतो विषाहं कभृतिकायाम्, प्रभ० ५ संघ• द्वार । रोति, इदं च विवाहस्यावयष्कणमुत्यष्कणं या करवा यदुपपाहरच्छेद-भाभृतच्छेद-पुं० । परिमाणपरिच्छिन्नप्राभृतयद- | स्क्रियते भक्काऽऽदि, सा बादरा प्राकृतिका।। थच्छेदे, नि० चू• २० उ० । व्य० । संप्रत्यपसर्पणरूपां सूक्ष्मप्राभृतिका भाष्यकृत् गाथाइयेपाहुपार-प्रामृतमामृत-न०। प्राभृतमिव प्राभृतम्। प्राभूतेषु नाहपान्तर्गतं प्राभूतं प्राभूतप्राभृतम । सू० प्र०१पाहु०१पाहु० कत्तामि ताव पेखें,तो ते देहामि पुत्त ! मा रोव । पाए । प्राभूतान्तर्षतिीन अधिकारविशेषे, कर्म. १ कम० । तं जइ सुणेइ साहू, न गच्छए तत्थ भारंभो ॥३५॥ पाहुपासमास-प्राभृतप्राभृतसमास-पुं०। पूर्वान्तर्वतिबा अबढ उडिया वा, तुज्झवि देमिति किं पि परिहरति। मधिकारविशेषाणां प्राभृतप्राभूतानां यादिसमुदाये, कर्म० १ किह दाणि न उठिहिसी, साहुपभावेण लम्भामो ।।३६।। कर्म० । मनु। काचित्कर्तनं कुर्वती भोजनं याचमानं बालकं प्रति वदपारसमास-मामृतसमास-पुं०। पूर्वान्तर्वय॑धिकारविशेषा ति-कृणन्मि तापदिदं पेलुं रूतपूलिका, कृणम्मीति णां प्राभूतानां पाविसमुदाये, कर्म. १ कर्म० । 'कृपवेष्टने ' इत्यस्य रौधादिकस्य प्रयोगः, ततः पश्चात् पारसीलया-प्राभृतशीलता-खी० । कलहनसम्बन्धतायाम्, (ते) तुभ्यं दास्यामीति मा रोदीः, अशान्तरे च साधुरास्था०५ ठा0 ४ उ०। गतो यदि शृणोति तर्हि तत्र गृहे न गच्छति, न तन भिक्षां गृहातीत्यर्थः । मा भूत्साधुनिमित्त प्रारम्भी बालकपाहुरिया-भाभृतिका-स्त्री० । कस्मैचिविष्टाय पूज्याय वा बहु. भोजनदानतदनन्तरहस्तधावनाऽऽदिरूपः। सा हिसाध्यर्थमुभानपुरस्सरीकारेण यदभीटं बस्तु दीयते तत्प्राभृतमुख्य त्थिता सती बालकस्यापि भोजनं ददाति, ततो हस्तधाते, तदेव प्राभूतिका । प्रव० ६७ द्वार । प्राभूतं कौशलिकं बनाऽदिनाऽप्कायाऽऽदिकं च विनाशयति । इह रूतपूणिका. तविधोपचारसाधात् या भिक्षा सा प्राभूतिका । पश्चा० कर्तनसमाप्त्यनन्तरं दातव्यतया बालकाय प्रतिज्ञाते भो. ॥विष प्राभूतमिय प्राभृतं साधुभ्यो देयं भिक्षाऽऽदिक जने साधुनिमित्तमर्वागुत्थानेन यदर्वागव बालस्य भोजनभारतमेव माभूतिका । यद् वा-प्र इति प्रकर्षेण मा इति दानं तदवसर्पणम् अथवा-गृहस्था कर्तनं कुर्वती भोजनं यासाधुवानललामर्यादया भृता निर्धर्तिता यका भिक्षा सा चमानं पुत्रं प्रति बदति अन्यार्थमन्येन प्रयोजनेनोस्थिता मामता, सा स्वाधिककप्रत्ययविधानात् प्राभूतिका । प्रव० सती तवाऽपि तुभ्यमपि किमपि खादिमाऽऽदि दास्यामि, १७बार । पिं०। कालान्तरभाविनो विवाहानेरिदानी स अत्रान्तरे च साधुरागत एवं धुते परिहरति । अथवाभिहिताः साधवः सन्ति तेषामप्युपयोगो भवत्यिति पुया तथाभूतगृहस्थावचनानाकर्षनेऽपि साधी समागते बालको इदानीमेव करणे, सनिकृष्टस्य विवाहाऽऽदे: कालान्तरे सा. जननीं वदति-कथमिदानी नोत्थास्यसि ?, समागतो ननु पुसमागम संचिन्त्योत्कर्षणे व । ध० ३ मधि। उनमदो साधुस्ततोऽवश्यमुत्थातव्यं त्वया, तथा च सति साधुप्र'पविशेषच भाषा०२१०१चू०२० ३३० । स्था। भावेण्ड वयमपि लप्स्यामहे, तत एवं बालकवचनं श्रुत्वा पं०पू०।पि। तया दीयमानं परिहरति, मा भूवषसर्पणरूपसूक्ष्मप्राभृ. संप्रति प्राभूतिकाद्वारमाभिधिस्सुराह तिकादोषः। पाएरिया विदुविहा, बायर सुहमा य होइ नायब्बा। संप्रत्युत्सर्पणरूपां सूक्ष्मप्राभृतिका गाथायेनाऽऽहउस्सकणमोसकण, कबट्ठीए समोसरणे ॥२८॥ मा ताव मंख पुत्तय, परिवाहीए इहेहि सो साह। Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहुडिया अनिधानराजेन्द्रः। पाहणिज्ज एयस्स उढिया ते, दाहं सोउं विवजेइ ॥ २८६ ॥ प्रकृतं विवाहाऽऽविकं द्विधा-द्वाभ्यां प्राकाराभ्यामवय. अहवा कितं भवति । तद्यथा-मङ्गलहतोऊवाहे गृहस्य साधुचरअंगुलियाए घेत्तुं, कडाइ कप्पट्टो घरं जत्तो।। गः स्पर्शनं तेभ्यो दानं च मङ्गलाय इति कृत्वा यद्वाकिंति कहिए न गच्चइ,पाहुडिया एस सुहुमा उ॥२८७|| पुण्यार्थम्, एवमुत्ष्वष्किकितमपि विधा, ततो निपुणपृच्छ हह काचित् गृहस्था भोजनं याचमानं पुत्रं प्रतिपादय. किमिदमिति पृष्टे गृहस्थेन च यथावस्थिते कथिते तद्द्वीयाति-हे पुत्रक! मा तावत् झष वारं वारं जल्प, इह परि हसत्कं परिहरन्ति, मा भूत् बादरप्राभृतिकादोषानुषङ्ग इति । पाट्या साधुरागमिष्यति ततस्तस्यार्थमुन्थिता सती ते येतुन पारीहरान्त तेषां दोषमाह तुभ्यं दास्यामि, अत्रान्तरे च साधुरागत इदं वचः श्रुत्वा पाहुडिभत्तं भुंजइ, न पडिक्कमए य तस्स ठाणस्स । विषर्जयति , मा भूदुत्सर्पणरूपसूक्ष्मप्राभूतिकादोषः , अत्रा- एमेव अडइ बोडो, लुक्कविलुको जह कवोडो॥ र्याक् विवक्षितस्य भोजनदानस्य साधुभिक्षादानेन समं परतः यःप्राभृतिकाभक्तं भुङ्क्तेन च तस्मात् प्राभृतिकापरिभोगरूकरणमुत्सर्पणम् । अथवा-प्राक्तने जनम्योक्ने बालकेन श्रुते पात् स्थानात्-प्रतिक्रामति स 'घोडाः' मुण्ड एवमेय निष्फ. सति स 'कप्पट्टों' बालकस्तं साधुमश्गुल्या गृहीत्वा यतो लमटति , यथा लुञ्चितविलुश्चितकपोतः । उक्तं प्राभृ. निजगृहं ततः समाकर्षति । ततः साधुस्तं बालकं पृच्छति। तिकाद्वारम् । पि० । वल्यादिनिमित्तं या ददाति । यथा कि मामाकर्षसि । ततः स यथावस्थितं कथयति, पिं० । पश्चा० । जी० । व्य० । सूक्मप्राभृतिकायाम् अ. बालकत्वेन जुत्वात् , ततः कथिते तब म गच्छति, मा भूवुत्सर्पणरूपसूक्ष्मप्राभृतिकादोषसंपर्कः। एषा सर्वाऽप्यनन्त विकृतिप्रायश्चित्तम् । जीत० । “ गोयरचरियाण पाहु डियं न पडिपरिया तस्स णं चउत्थं पायछि उपसररोक्ता सूक्ष्मप्राभृतिका। संप्रति “कम्वट्ठीए समोसरणे" इत्यवयवं व्याविख्यासुः जा।" महा०१चू०। "मंडीपाहुडियाए बलिपाहुडियाए ठव. प्रथमतोऽवयष्कणरूणं बादरप्राभृतिकामाह णापाहुडियाए अणेसणाए जो मे अइयारो को।" (मण्डी माभृतिकाऽऽदीनां यस्यां वसतौ स्थितानां कर्म प्राभृतं पुत्तस्स विवाहादिणं, ओसरणे भइच्छिए मुणिय सड्डी।। भवति सा प्राभृतिका । वसतेश्छादनलेपनाऽदिकरणे, प्रोसकंतो सरणे, संखडिपाहेणगदवट्ठा ॥२८॥ पाव० ४ अ०भा० चू०। (व्याख्या स्वस्वस्थाने) पुषस्य. उपलक्षणमेतत्, पुत्रिकाऽऽदेश्व, विवाहदिनं ज्योति र्षिदा अवसरणे साधुसमुदाये यथाविहारक्रममतिकान्ते वसतिविषया प्राभृतिका। अथ प्राभृन्यत्र गते सत्युपदिश्यमानं श्रुत्वा श्राद्धी विवाहमयप्वक तिकाद्वारं विभावयिषुराहते, पर्वाक दिनं या विवाहं करोति । किमर्थम् , इत्याह पाहुडिया वि य दुविहा,बायर सुहुमा य होइ नायव्वा । समवसरणे , षष्ठीसप्तम्योरथ प्रत्यभेदात् समवसरणस्य एकेका वि य एत्तो, पंचविहा होइ नायव्वा ॥ साधुसमुदायस्य विवाहरूपायां संखड्यां प्रेहणकं मोद- प्राभृतिका बसतेः छादनलेपनाऽऽदिरूपा, सा द्विविधा-याकाऽऽदि द्रवं-तन्दुलधावनाऽऽदि तदर्थ-तहानार्थम्, भाषना दरा, सूक्ष्मा च भवति ज्ञातव्या, एकैकाऽपि चेतः ऊर्षे पश्चच प्रथमगाथायामेव कृता । विधा भवति ज्ञातव्या। उत्सर्पणरूपां यादरप्रभृतिकामाह तत्र बादरा पश्चविधामपि तावदाहअप्पत्तम्मि य ठबियं, ओसरणे होहिइत्ति उस्सकणं ।। विद्धंसण छावण ले-वणे भूमीकम्मे पडुच पाहुडिया। स्थापितं विवाहदिनं किलाप्राप्त यथाविहारक्रममनागते | उस्सक्कण ओसक्कण, देसे सम्बं य नायव्वा ।। 'अवसरणे 'साधुसमुदायरूपे भविष्यति, ततो न किमपि १०१ उ०२ प्रक० । पं.) व० । (अस्या गाथायाः व्याख्या मदीयं विवाहसत्कं साधूनामुपकरिष्यतीतिकृत्वा विवाह 'बसहि' शब्दादवगन्तव्या ) सुरविरचितसमवसरणमहा। स्योत्सर्पणं करोति , साधुसमागमकाल एवं करोतीत्यर्थः । प्रातिहार्यादि (नि००५. उ०) पूजायाम् , पृ०४ उ० । प्राभृ. उक्ना बादरा प्राभृतिका। तिका भिक्षा भएयते, पूजाऽपि । वृ० १ उ.। संप्रति द्विविधाया श्रवसर्पणोत्सर्पणरूपायाः कारं प्रतिपादयति पाहुण-प्राघुण-पुं०ासङ्घस्थविरे.स च सहस्य गौरवाईतया तं पागडमियरं वा, करेइ उज्जू अणुज्जू वा ॥ २८६ ॥ प्रापुण उच्यते । वृ०३ उ० । विक्रेये, दे० ना.६ वर्ग४०गाथा। तामवध्यत्कणोत्ष्वकणरूपां द्विधामापि जुः प्रकट करो पाहणग-प्राघूर्णक-पुं० । आगन्तुके भिक्षा, स्था० ६ ठा० । ति सकल जननिवेदनेन करोति । अनुजुरितरत्-प्रच्छन्नम्, तदर्थे पथ्ये च । न । प्रा० चू० ३ अ०।०। यथा न कोऽपि जानातीति भावः । तत्र यदि प्रकटं करोति पाहुणगभत्त-माघूर्णकभक्त न० । प्राघूर्णका अागन्तुका भि. तर्हि तां जनपरंपरात एव हावा परिहरन्ति । प्रथाप्रकटं तुका एव तदर्थ यद् भक्तं तत्तथा प्राघूर्णको वा गृहीम तर्हि निपुणं शोधयित्वा वर्जयन्ति , निपुणशोधनेऽपि यदि यद्दापयति तदर्थ संस्कृत्य तत्तथा । प्राघूर्णकाSSहारे, कथमपि न परिक्षानं भवति तदा न कश्चिदोषः, परिणामस्य स्था० ६ ठा। प्राघूर्ण कः कोऽपि कवि गतो यत्प्रतिसि. द्धये संस्कृत्य ददाति, प्रार्णका वा साध्वादय इहाऽऽयाता अथ किमर्थ बादरमध्यकणाऽऽदिकं करोति, तत पाह- इति यहापयति तत्प्राघूर्ण कभक्तम् । श्री। मंगलहेउं पुन-ट्ठया व प्रोसक्कियं दुहा पगयं । पाहुणिज्ज-पाहवणीय-त्रिका प्रकर्षणाऽऽहवनीये, प्राचा०१ उस्सकि पि किं ति य, पुढे सिट्टे विवज्जति ॥२६०॥ श्रु० १० १० मा । शुद्धत्वात्। Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहुण्य अभिधानराजेन्यः। पिंगलग पाहुणिय-माधुनिक-पुं० । षष्ठे महामहे, "दो पाहुणिया।" पिउज्वेय-पित्रुवेग-पुं० । पिचित्तसन्तापे, हा०२५ अष्ट। स्था० २ ठा० ३ उ.। कल्प० । चं०प्र० । सू०प्र० । । । पिउसम-पितृसम-पुं०॥ पितृषिभूत्याऽनुमाने, स्था० ४ ग. पाहुम-प्राघूपये-न० ।मागन्तुकसंयतानामातिथेये, पृ. १ उ०३ प्रक० प्रा० मा पाहेज-देशी-पाथेये, दे०मा०६ वर्ग २४ गाथा। पिउसिया-पितृष्वस-स्त्री० । “ गौणान्स्यस्य " ॥१॥ पि-पि-अव्य०। सम्भावने, विशे०1" प्यादयः" ॥८।२। १३४ ॥ इति ऋत उत्वम् । प्रा०पाद । “मातृ-पितुः स्व सुः सिमा छौ"॥८॥२॥१४२॥ इति पितुः परस्य स्वसुः २१८ ॥ प्यादयो नियतार्थवृत्तयः प्राकृते प्रयोक्तव्या इति । 'सित्रा' प्रादेशः । प्रा०२ पाद । जनकभगिन्याम् , विपा० १ प्रा०२पाद। श्रु० ३ ०। पित्रण-देशी-दुग्धे, दे० ना०६ वर्ग ४८ गाथा । पिभमा-देशी-फलिन्याम् , दे० ना०.६ वर्ग ४६ गाथा । पिउसुक-पितृशुक्र-न० । जनकस्य शुक्रपुबले, नं० । स्था। पिउसेणकएह-पितृसेनकृष्ण-पुं०। श्रेणिकभार्यायाः पितृसेपिनमाहवी-देशी-कोकिलायम् , दे० ना०६ वर्ग ५१ गाथा। नकृष्णायाः पुत्रे, स च धीरान्तिके प्रवज्य वर्षद्वयपर्यायपिमा-पित-पुं०। जनके,"पिमा जणश्रो।"पाइ ना०२५२गाथा। परिपालनं कृत्वा प्राणतदेवलोके वशमे उत्पद्य एकोनविंश. पिभामह-पितामह-पुं० । प्रह्मणि, "कमलासण य सयंभू,चउ- तिसागरोपमाएयायुरनुपाल्य ततश्चुतो महाविदहे सेत्स्यम्मुडो य परमिट्ठी । थेरो विही विरिंची, पयाई कमलजोणी तीति निरयावलिकानां नवमे ऽध्ययने सूचितम् । नि० १९० च॥२॥" पार•ना०२ गाथा। १वर्ग ११०। पिउभ-पितृक-पुं०। " उदृत्वादी" ॥८।१। ५३१॥ ऋतु पिउसेणकएहा-पितृसेनकृष्णा-स्त्री० । स्वनामयातायांक इत्यादिषु शब्देषु प्रादेत उदिति कारस्योकारः । प्रा० १ णिकमहाराजजुद्रमातरि श्रेणिकभार्यायाम् , नि० १ ०१ पाव । जनके, उत्त०१)। स्था० । विपा० । आप० । जं०। वर्ग ५ असा चाऽऽर्यचन्दनाया भन्तिके प्रवज्य मुक्तावली पिउभंग-पैतृकाङ्ग-न । शुक्रषिकारबहुले पितृजाते भने, तपःकर्मोपसंपद्य सिद्धति अन्तकृशानाम् पश्चमेऽध्ययने र. चितम् । अन्त०१९०८ वर्ग । "मी पिउभंगा पक्षता । तं जहा-अस्थिमिजाकेसमंसुरो- कार-अधिकार-40। अकारलोपोग्नुस्वाराऽऽग गनहा।" तं०। शब्दे । अनुयोगभेदे, अपिः संभावनानिवृष्यपेक्षासमुपयगर्हापिउभा-पितृका-स्त्री०।"प्रान्ताम्ताहाः" ॥८।४। ४३२॥ | शिक्षामर्षणभूषणप्रश्नेषु तन-"एवं पि एगे प्रासासे।" इत्यत्र अपभ्रंश नियां वर्तमानावप्रत्ययो भवति इति डा। प्रा०४पाद। T०४पाद। सूत्रे एवमपि । अन्यथा पीति प्रकारान्तरसमुचयार्थोऽपिशपिउकज-पितकाये-न० । देवतानां पितृणां च जलाअलिदा- ब्दः । स्था० १० ठा०। नाऽऽदिके कत्ये, नि०१ श्रु०१ वर्ग ५ । पिंखा-प्रेक्खा-त्रिका "डोला पिंखा।" पाइ० ना०२३२गाथा । पिउच्छा-पितृस्वस-स्त्री०। ६ त० । “मातपितुःस्वसुः सिविखोलमाण-प्रेडखोलमान-त्रि० । दोलायमाने, शा० १५० प्रा-डी"।।२।१४२॥ इति स्वसुः स्थाने छादेशः। १० पितुभगिन्याम्, प्रा०२ पाद । "फुष्फिमा पिउच्छा।" पिपिकले. स्था. ४ ठा.२ उ० । कपिश, पाइ० मा०२५३ गाथा । और।" कविलं कविसं पिडगं,पिसंगयं पिंगयं कहारं च ।" पिउड-देशी-करशिक्थाऽऽदी, मा० म० १ ० । विशे० । । पाइ ना० ६३ गाथा। नि०५०। पिंगंग-देशी-मर्कटे, दे० ना० ६ वर्ग ४ गाथा। पिउदत्त-पितृदत्त-पुं० । श्रावस्त्यां नगा श्रीभद्रायाः श्राषिकायाः पत्यो स्वनामख्याते गृहपती,प्रा०म०१०।००। पिंगय-पिङ्गक-त्रि०ा पिते, पाइ० ना०६३ गाथा। पिउदेवया-पितृदेवता-खी । मघायाम, चं.प्र. १० पार पिंगल-पिङ्गल-त्रि। कपिले.हा. १६०८ अ । अनु । २० पाहु० पाहु। चत्वारिंशे महाग्रहे, कल्प०१ अधि०६क्षण । चत्वारिंशत्तमे पिउपजय-पितृमार्जक-पुं० । पितुम्प्रपितामहे, भ. ६ श० महाग्रहे, "दो पिंगला।" स्था० २ ठा-३ उ० । हा० । सू० माते। था। चं० प्र० । ('अत्तोवणीय' शब्बे प्रथम १३301 पिउपिंड-पितृपिपर-पुं०। मृतकमक्ते, भाचा०२० १० भागे ५०६ पृष्ठे उदाहरणम्) कपिलाऽऽदिगुणे स्थपती,पुं। स्था०४ ठा०३ उ० | "पिंगलंगुलिया।" पिङ्गाला पिका १०२ उ०। मगुल्यो येषां ते तथा । प्रश्न०४ पाश्र० द्वार । पिउबइ-पितृपति-पुं० । “गौणान्स्पस्य" १ | १३४॥इति पिंगलक्ख-पिङ्गलाक्ष-पुं० । पिङ्गले पिङ्गे अक्षिणी लोचने यस्य त उत् । यमे, प्रा०१ पाद । पिउषण-पितृवन-म० । “गौणान्त्यस्य" ||१|१३४ इति | सपिङ्गलाक्षः। कपिशलोचने,स्था० ४ ठा० र उ०। पक्षविशे थे, जी. ३ प्रति०४अधि। श्री. रा०प्रश्न । त उत्वम् । श्मशाने, प्राचा०१७०७०२ उ० प्रा० । प्रास्था० । 'पेभषणं पिउवणं मसाणं च।" पाइ. ना० । पिंगलग-पिङ्गालक-पुं० । चक्रवर्तिनां निधिभेदे, प्रष। १५८ गाथा। __ सच्चा आहरणविही, पुरिसाणं जा य महिलाणं । Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिंगसग आसाण म हत्थीय य, पिंगलगनिहिम्मि सा भणिया । १२२० सर्वोऽप्याभरणविधिर्यः पुरुषाणां या महिलानां तथाऽस्थानां इस्तिनां च स पचवत्येन पिङ्गलनामके महानिधी भखितः। प्रष० २१३ द्वार। श्रा०० | जं०। दर्श० | श्रावस्त्यां नगथी स्कन्दकेन कृतसम्बावे वैशालिकमायके निर्मन्ये म० २ ० १४० (बंध शब्दे तृतीयभागे ६८३ पृष्ठे स म्वाद उक्तः ) " पिंगला- पिङ्गला - स्त्री० । सागरदत्तसुतायां ब्रह्मदत्तचक्रभार्यायाम्, उत्त० १३ अ० । पिंगलायख - पिङ्गलायन - पुं० । कौत्समूलगोत्रान्तर्गतगोत्रषिशेषप्रवर्तके पिङ्गलापत्ये स्वनामस्याते पुरुषे, स्था० ७ ठा० । 탱 पिंगा - पिङ्गात्री० । आकाशभ्रमणप्रधानायां कपिञ्जलायाम्, सूत्र० १० ० ३ श्र० ४ उ० । पिंचू - देशी पक्ककरीरे, दे० ना० ६ वर्ग ४६ गाथा । पिछोली - देशी - मुखमारुताऽऽपूरित तृणवाद्यविशेषे, दे० ना० ६ वर्ग ४७ गाथा | विजयंती-पिजयन्ती श्री० कपखात्कार्पासिकविभजनं कु र्वन्त्याम्, घ० ३ अधि० । पिंजर - पिन्जर- पुं० न० पिजि घर हरिताले स्वर्गे, नागकेशर, विहगाऽऽदिबन्धनस्थाने, देहास्थिवृन्दे, अ श्वमेदे, पीतरकपणे च धुं० तइति, शि० बाच० जी० ३ प्रति० ४ अधि० । (२१७) अभिधानराजेन्द्रः । पिंजर - पिञ्जरक - पुं० ।" स्वायै कम वा " ॥ ८।२।१६४॥ इति प्राकृते स्वार्थिकः कः पक्षिवन्दीपञ्जरे, पीतवर्णे, मिश्रित, 66 कुंकुमपिंजर अं " प्रा० २ पाद । पिंजरुड देखी मेरा बदनद्वयोपेतभारुण्डापपतिपि ३० ना० ६ वर्ग ५० गाथा । पिंजिम - देशी-विधुने, दे० ना० ६ वर्ग ४६ गाथा । पिंजिय-देशी- बिधुने, दे० ना० ६ वर्ग ४६ गाथा । पिंजिय- पिजितन० पिन्जनिया ताडिते कसे, पृ० १ - उ० ३ प्रक० । 1 पिंड पिएड पुं० पिडि' संघाते पिण्डनं पिण्डः "हरितो नुम् धातोः ॥७|१|५८ ॥ इति नुम् । प्रव० ६७ द्वार। कथञ्चिदभिन्न इति त एव बहवः पदार्था एकत्र समुदिताः पिण्डशब्देनोच्यन्ते । पिं० । जीत० । दोषविशुद्धाऽऽहारे, ध० ३ अघि० । समयभाषया भक्ते, स्था० ७ ठा० । पिण्डादयोऽर्थाधिकाराः । तत्र प्रथमतः पिण्ड इति व्याख्यायते । व्याल्या व तत्वभेदपर्यायैः श्रतः प्रथमतः पिवराभ्यस्य पर्यायानभिधित्सुराहू पिंड निकाय समूहे, पिंड पिंडणा य समवाए । समुसरण निचय उबचय, चए य जुम्मे य रासी य ॥ २ ॥ एते सर्वेऽपि सामान्यतः पिण्डशब्दस्य पर्यायाः विशेयापेक्षया तु कोऽपि कापि रूढ तत्र पिड साते को निकायशब्दो भिक्षुकाऽऽदिस २३० पिंक श्याते रूढो, खसूहराब्दो मनुष्यादिसमुदाये, संपिडनदः सेवादीनां खण्डपाका 35 देख परस्परं सम्यसंयोगे पिण्डनाशब्दोऽपि तत्रेय केवलं मलिनमात्रे संयोगे समवायशब्दो वणिगादीनां संघाते, समवसरणशब्दः ती कृतः सदेवमनुजासुराणां पर्षदि निम्रयशब्दः करा55दिसंघाते उपचयम्प पूर्वावस्थातः मथुरीभूते संघातविशेषे वयशब्द इष्टिकारचनाविशेषे युग्मन्दः पदार्थद्वयसंघाते, राशिशब्दः पूगफलाऽऽदिसमुझाये । तदेवमिह यद्यपि पिण्डाssदयः शब्दाः लोके प्रतिनियत एव संघात - विशेष रूढाः, तथाऽपि सामान्यतो यद् व्युत्पत्तिनिमित्तं सं घातत्वमात्रलक्षणं तत्सर्वेषामप्यविशिष्टमितिकृत्वा सामान्यतः सबै पिडाः शब्दा एकार्थिका उहा सोनकधि दोषः । पि० आ०० | औ०। (विशेषतो निकायशब्दव्याख्या 'णिकाय' शब्दे चतुर्थभागे २०१६ पृष्ठे गता) (समूहशब्दविषयम्' समूह' शब्दे वक्ष्यामि) (संपिण्डनतस्वं तु 'संपिंडण' शब्दे व यामि) (पिण्डनाशब्दार्थः पिंडणा' शब्दा दवगन्तव्यः ) ( समवायविषया सर्वा वक्तव्यता 'समवाय शब्दादवगन्तव्या ) (निचयविषयस्तु विजयशब्दे चतु मागे २०५४ पृष्ठे गतः ) ( उपचयार्थाना दण्डकः 'उवचय' शब्दे द्वितीयभागे ८८१ पृष्ठे गतः ) ( चयः ' वय' शब्दे तृतीयभागे १९२३ पृष्ठे गत एव ) ( युग्मशब्दार्थविचारः, तत्र भेदाः, तद्वक्तव्यता च 'जुम्म ' शब्दे चतुर्थभागे १५७ पृष्ठादारभ्य महन्या ) ( राशिम् राखिशब्देवस्यामि ) । ● " 3 पिण्डव्याख्या । अथ भाष्यम्पिंड से संपर्क, पिंडकं च पिंटविगई वा । जं तु सभावा लुत्तं तं जाखसु लोयगं नाम ।। १८३ ॥ पिराड़ो नाम दर्शनादिकं संघर्ष विशिष्टाहारगुणयुक्रं परसोपेतमिति यावत् । यद्वा-यत्पिण्डमा पिण्डरूपतया हस्ते महीतुं शक्यते, पिण्डविकृतिर्वा गुडादिधनविकृति रूपा पियोऽभिधीयते । यत्पुनरचादिषु खभावादेव लुप्तमाहारगुणैरनुपेतं तोचकं नाम जानीहि । क्षीरचिनयनत सप्पिस्तैलादि सुप्रसिद्धानीति । पृ० २३० । सूत्र० । श्राचा० । तदेवं पिण्डदस्य पर्यायानभिधाय सम्मति भेदानाविन्यासुराह पिंडस्स उ निक्खेवो, चक्कओ छक्कओ व कायव्वो । निक्खेवं काऊ, परूवणा तस्स कायव्वा ॥ ३॥ (पिंडस) प्रागुक्रशब्दार्थस्य तुशब्दः पुनर स निक्षेपमानम्तरं योज्यः, 'निरोपो' नामाऽऽदिग्यासरूपः, पुनश्चतुष्ककः षट्कको या कर्त्तव्यः । तत्र चत्वारः परिमाणमस्येति चतुष्कः, "साडा ि " १३०० इति कः प्रत्ययः ततो भूयः स्वार्थिककप्रत्ययविधानाचतुष्ककः । एवं पट्ककोऽपि वाच्यः । इह यत्र वस्तुनि निशेषो न सम्य विस्तरतोऽवगम्यते ऽवगती चा विस्तृ तिपथमुपगतस्तत्राप्यवश्यं नामस्थापनाद्रव्यभावरूपातु[कको निक्षेपः कर्त्तव्य इति प्रदर्शनार्थ चतुष्कग्रहणं यत्र तु तथाविधगुरुसम्प्रदायतः सविस्तरमधिगतो भवति । नाप्यभिगतो विस्मृतिपथमुपगतस्तव सविस्तर निक्षेप Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक (६१८) अभिधानराजेन्धः। पिक वक्तव्य इति स्यायप्रदर्शनार्थ षट्ककग्रहणम् । तथा चो- शब्देऽस्मिन्नेव भागे ८२६ पृष्ठे गतम्)अन पानीयमपि पिण्डश. कम्-" जत्थ य जं जाणिज्जा, निक्खेवं निक्खिवे निरव ब्देनाभिहितम्, ततः पानीय पिण्ड इति नाम समयमसिद्धं, न सेसं । जत्थ वि य न जाणिज्जा, चउक्कयं निक्खिये त- चान्वर्थयुक्तमिति समयजमित्युच्यते,यदा पुनभिक्षुर्भिक्षुकी वा स्थ "॥१॥ ततश्चतदत्रोक्तं भवति-यदि षट्को निक्के- भिक्षार्थ प्रविष्टा सती गृहपनिकुले गुडपिण्डम् , ओदनपिण्ड पः सम्यगधिगतो भवति, अधिगतोऽपि च न विस्मृत- सक्नुपिण्ड वा लभते तदापिएडशष्यस्तत्र प्रवर्तमान उभयजः, स्तदा षट्करूपो निक्षेपः कर्तव्यः , अन्यथा तु नियमत- समयप्रसिद्धत्वादन्वर्थयुक्तत्वाच,यदा पुनः कस्यापि मनुष्यस्य चतुष्करूप इति । एवं च निक्षेपं कृत्वा तस्य पिण्डस्य पिण्ड इति नाम क्रियते,नच शरीरावयवसघातविवक्षा तदा प्ररूपणा कर्तव्या, येन पिण्डेनेहाधिकारः स पिण्डः प्र- तदनुभयजम् । सम्प्रति गाथाऽक्षराणि विवियन्ते-यत्पिण्ड कपणीय इति भावार्थः । इदमेव च नामाऽऽदिभेदीपन्यासेन इति नाम गौणं, यद्वा-समयकृतं समयप्रसिद्धम्, यद्वा भवे. ध्याख्यायाः फलं यदुत यावन्तो विवक्षितशब्दवाच्याः प- सदुभयकृतम्, उभयम्-गुणा, समयश्च । तव तनुभयं च तदुदार्थाः घटन्ते तान् सर्वानपि यथास्वरूपं वैविक्त्येनोपद- भयं तेन कृतं तदुभयकृतं, समयप्रसिद्धमन्वर्थयुक्तं चेत्यर्थः। ये येन केनचिन्नामाऽऽद्यन्यतमेन प्रयोजनं स युक्तिपूर्वमधि- अपिशब्दाद् यद्वा अनुभयजमन्वर्थविकलं समयाप्रसिद्धं च क्रियते, शेषास्त्वपाक्रिवन्ते । तथा चोक्तम्-अप्रस्तुतार्थापाक- तन्नामपिण्डं युवते तीर्थकरगणधराः। रणात्प्रस्तुतार्थव्याकरणाच निक्षेपः फलवानिति । इह चतु- अत ऊर्व स्थापनापिण्डमहं वक्ष्ये-एनामेव गाथां भाष्यकः षदको वा निक्षेपः कर्तव्य इत्युक्तं, तन नानिर्दिष्टस्व- कृत् सप्रपञ्चं व्याचिख्यासुः प्रथमं गौणं नाम व्याख्यारूपं चतुष्कं षट्कं वा निक्षेपं शिष्याः स्वयमेवावगन्तुमी. नयन्नाहशास्ततोऽवश्यं तत्स्वरूपं निर्देष्टव्यं, तत्र पट्के निर्दिष्टे त. गुणनिप्फलं गौणं, तं चेव जहत्यमत्थवी वेति । दन्तर्गतत्वाचतुष्कोऽर्थाभिर्दिष्टो भवति, ततः स एव षट्कनिशेपो निर्दिश्यते इति। तं पुण खवणो जलनो, तवणों पवनो पईवो य ॥१॥ गुणेन परतन्त्रेण (तन्त्रशब्दार्थाः 'तंत' शब्दे चतुर्थभागे पतदृष्टान्तपुरस्सरं प्रतिपिपादयिषुराह २१६७ पृष्ठे गताः) व्युत्पत्तिनिमित्तन द्रव्याऽऽदिना यनिष्पानं कुलए उ चउभाग-स्स संभवो छक्कए चउएहं च। नाम तद्गौणं, यच्च(स्यगुणैर्निष्पनं तद्गुणात्तस्मिन् वस्तुन्यानियमेण संभवो अ-त्थि छकगं निक्खिवे तम्हा ॥४॥ गतमिति “तत आगते" ॥६३/१४५॥ इत्यनेनाण्प्रत्ययः, तदेव यथा कुलके' चतुःसेतिकाप्रमाणे चतुर्भागस्य सेतिका. च गौणं नाम 'अर्थविदः' शब्दार्थविदो यथार्थ युवते । गौणं च प्रमाणस्य सम्भवो विद्यमानताऽवश्यं भाविनी, पवं पट्के नाम त्रिधा । तद्यथा-द्रव्यनिमित्तं, गुणनिमित्तं, कियानिमित्त निक्षेपे चतुर्णा निक्षेपस्य चतुष्करूपस्य निक्षेपस्य नियमेन चाएतच्च प्रागेव भावितं,तत्र पिण्ड इति नाम क्रियानिमित्तं, अवश्यतया सम्भवोऽस्ति,ततस्तमेव षट्ककमिह निक्षिपामि पिण्डनमिति व्युत्पत्तेः, तत उदाहरणान्यपि क्रियानिमिषट्करूपमेव निक्षेपं प्ररूपयामि, तस्मिन् प्ररूपिते तस्यापि सान्येव दर्शयति (तं पुण इत्यादि ) तत्पुनर्गौणं नाम क्षपण चतुष्करूपस्य निक्षेपस्य प्ररूपितत्वभावादिति भावार्थः। इत्यादि, तत्र क्षपयति कम्र्माणीति क्षपण-क्षपकर्षिः, (मन विस्तरः 'खवग' शब्द तृतीयभाग ७२७ पृष्ठे गतः)इहक्ष. प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति पकर्षेः क्षपणलक्षणां क्रियामधिकृत्य क्षपण इति नाम प्रवृत्त. नाम ठवणा पिंडो,दव्वे खेत्ते य काल भावे य । | मतो गौणम् , एवं शेषेष्वप्युदाहरणेषु भावना कार्या । तथाएसो खलु पिंडस्स उ, निक्खेवो छव्विहो होइ ॥५॥ ज्वलतीति ज्वलनः (अस्याः 'जलण' शब्दे चतुर्थभागे (नाम ति ) नामपिण्डः, स्थापनापिण्डः, 'द्रव्ये ' द्रव्यवि. १४२६ पृष्ठे गताः) वैश्वानरः। तपतीति तपनः (अर्थाः 'तव. षयः पिण्डो द्रव्यपिण्डः, द्रव्यस्य पिण्ड इत्यर्थः । तथा ण' शब्दाद् चतुर्थभागस्थ २२०६ पृष्ठादवगन्तव्याः ) रविः । 'क्षेत्रे क्षेत्रस्य पिण्डः, एवं कालपिण्डो, भावपिण्डव, पवते पुनातीति वा पवनः (विशेषः 'पवण' शब्देऽस्मिन्नेष 'एषः' अनन्तरोक्तः खलु 'पिण्डस्य' पिण्डशष्यस्य नि भागे ७७७ पृष्ठे गतः) वायुः। प्रदीप्यते इति प्रदीपः ('पाव' क्षेपः षडियो भवति । शब्देऽस्मिन्नेव भागे १२ पृष्ठे सर्व प्रतिपादितम्) दीपकलिका। तत्र नामपिण्डस्य व्याख्यानाय स्थापनापिण्डस्य तु सम्ब. चकारोऽन्येषामप्येवंजातीयानामुदाहरणानां समुच्चयार्थः । म्धनायाऽऽह तदेवं सामान्यतो गौणं नाम व्याख्यातम् । गोणं समयकयं वा, जं वावि हवेज्ज तदुभएण कयं ।। सम्प्रति पिण्ड इति नाम गौणं समयकृतं च व्याविण्यातं बिति नामपिंड, ठवणापिंडं अभी वोच्छं ॥६॥ सुराहदह यत् पिण्ड इति वर्णावलीरूपं नाम स नामपिण्डः, पिंडण बहुदव्याणं, पडिवक्खेणावि जत्थ पिंडस्खा। नाम चासो पिण्डश्च नामपिण्ड इति व्युत्पत्तेः। पिं०। (च सो समयको पिंडो, जह सुत्तं पिंडपडियाई ।। २॥ तुर्षा नाम 'णाम' शब्दे चतुर्थभागे १६६८ पृष्ठे गतम्) बहूनांसजायानां विजातीयानां वा कठिनद्रयाणां यत् पिपिण्डनं पिण्ड इति व्युत्पत्त्यघटनान गौणम्, अथ च एडनम् पका संश्लेषस्तन पिएक इति नाम प्रवर्तमान,गौणमिसमये प्रसिद्धम्। तथा च प्राचाराङ्गे द्वितीयश्रुतस्कन्धे प्रथमे या चआचारागाहतायभुतस्कन्धे प्रथमे ति शेषः,व्युत्पत्तिनिमित्तस्य तत्र विद्यमानत्वात्,तथा प्रतिपक्षपिण्डैषणाभिधानेऽध्ययने सप्तमोद्देशकसूत्रम्-'से भिक्खू वा | णाप्यत्र प्रकरणात्प्रतिपक्षशब्दः कठिनद्रव्यसंश्लेषाभाषषाची। भिक्खणी वा०जाव पहिगाहिजा।" (४१)। (इति सूत्र ‘पाणग'| ततोऽयमर्थः -यत्र प्रतिपक्षणापि बहूनां द्रव्याणां मीलनमन्तरे Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंड ण तावत्पिण्ड इति नाम प्रयर्तत एव न काचित्तत्र व्याहतिरित्यपिशब्दार्थः समयसिया पिएडाच्या पिण्ड इति नाम सपिएडा यावान्नामपिण्ड समयकृत इत्युच्यते तत्र ना मनामधतोरभेदोपचारादेवं निर्देश उपचाराभावे त्वयमर्थ:तत्र वस्तुनि तत्पिण्ड इति नाम समयकृतमिति । एतदेव द शेयति (जह सु पिपडिया) चेयुपदर्शने पिण्डेति पिण्डपात तत एवं गाथायां निर्देश पिंड चायपडिया" इत्यादि आदिशब्दात् "पायें समाये" (४१) इत्यादिसूत्रपरिग्रहः । ( त पाग शब्देऽस्मिन्व भागे ८२६ पृष्ठे प्रागेव दर्शितम् ) इयमत्र भावना - अत्र सूते प्रभूतकठिनङ्गव्यपरस्परसंमेषाभावेऽपि पानीये पिण्ड इति नामान्यर्थरहितं समयप्रसिद्धचा प्रयुज्यते , i तदसम इति । सम्प्रति उभय पिण्ड इति नाम दर्शयति- जस्स पुरा पिंडवाय या पविट्ठस्स होइ संपत्ती । गुडश्रयणपिंडेर्हि, तं तदुभयपिंडमासु || ३ || ( भा० ) यस्य पुनः कस्यचित् पिण्डपातार्थतया पिण्डपात प्रा. हारलाभस्तदर्शनया साथीगृहपतिगृहं प्रविष्टस्य सतो भ वति श्रा सम्प्राप्तिः, (गुडश्रोदणपिंडोह ति ) " व्यत्ययो ऽप्यासाम् ॥” इति प्राकृतलक्षणवशास्त्रष्ठयर्थे तृतीया । ततोऽयमगुडगुडगिस्य श्रोदनपिण्डस्य चेत्यर्थः । गुडइनग्रहणमुपलक्षणं तेन सपिएडा या सम्प्राप्तिस्तं गुडपिण्डादिकं तदुभयपिण्डं गुणनिष्पन्न समयप्रसिद्ध पिएड. शब्दवाच्यमुक्तवन्तस्तीर्थकर गणधराः इहापि नामनामवतो. रमेदोपचारात् एवं गाथायां निर्देश, उपचाराभावे स्वयं भा वार्थः तद्विषयं पिण्ड इति नाम उभयजम्, अन्वर्थयुक्त त्वात्समयप्रसिद्धत्वायेति । - ( ६१६ ) अभिधानराजेन्ऊः । 5. सम्प्रत्युभवातिरिकं सामान्यतो नाम प्रतिपादयतिउभयाहरितमहवा, अपि हु अत्थि लोइयं नाम । अत्ताभिष्पायकथं, जह सीहगदेवदत्ताई ||४|| ( भा० ) अथवेति नाम प्रकारान्तरताद्योतकः उभषातिरिकं गौण समयज्ञविभिनम् अन्यदप्यस्ति लौकिकं लो सिद्धमात्माभिप्रायकृतं नाम, अनुभयजमिति भावार्थः । तदे | बोदाहरणेन समर्थयमान ग्राह-यथा सिंहद दिशब्दाद्यदनादिपरिग्रह हि सिंहदेवदत्तादिकं ना म शौर्यीयनिबन्धनोपचारामाचे देवा देवासु रिति व्युत्पत्यर्थासम्भवे च यस्य कस्यचिदात्माऽभिप्रायतः पित्रादिनि गौणमन्यधविकलत्याचापि समयसिद्धमत उभयातिरिक्तमिति । एवं पिण्ड इत्यपि नाम उभ यातिरिक्तं भावनीयम् । ननु पिण्ड इति नाम निर्युक्तिगाथायामुभयातिरिकं नोपन्यस्तं तत्कर्थ भाष्यकृता व्याक्यायते । तत्युक्तं, नोपन्यस्तमित्यसिद्धेः, अपिशब्देन तत्र सूचितत्वात् । , तथा चाऽऽह भाष्यकृत् गोणसमयाइरिलं इणम पाऽवि सूइयं नाम । जह पिंड ति कीर, कस्सर नामं मणूसस्स II ५ H इदं पिण्ड इति नाम । श्रन्यद्वा-' गौणसमयातिरिक्तं ' गौसमयज्ञविभिन्नमपिशब्दसूचितमस्ति तदेव दर्शयति-यथा पिंड कस्यापि मनुष्यस्य पिण्ड इति नाम क्रियते, तद्धि न गौणं. प्रभूतद्रव्यसंश्लेषासम्भवाच्छरीरावयवसङ्घातस्य चाविक्षणात् नापि समपकृतम् अत इदमुभयातिरिक्तमिति 1 ननु समयकृतोभयातिरिक्तयोर्न कश्चित्परस्परं विशेष उपलभ्यते, उभयत्राप्यम्यधावकत्वादात्माभिप्रायकृतत्वाविशेषातत्कर्म योरुपादानम् ? साङ्केतिकमित्येोच्यताम् एवं दि द्वयोरपि ग्रहणं भवति तदयुक्तम् अभिप्रायापरिज्ञानात् । इह हि यल्लौकिकं नाम साङ्केतिकं तत्पृथग्जनाः सामाविकाश्च व्यवहरन्ति यत्पुनः समय एव साङ्केतिकं, तत् सामायिका एव न पृथग्जनाः । तुले जं तथा चाऽऽह भाष्यकृत् अभिपाए, समयपसिद्धं न गिरहए लोओ । लोयपसिद्धं तं सामइया उवचरंति || ६ || ( भा० ) ( अभिप्रायशब्दस्य बहवोऽर्थाः ' अभिव्याय ' शब्दे प्रथमभागे ७२५ पृष्ठे गताः ) रहाभिप्रायमेन पदैकदेशे पदसमुदायोपचारादभिप्रायकृतत्वमुच्यते । तत्रायमर्थः - अभिप्रायेण इच्छामावेश कृतं नतु वस्तु बलप्रवृत्तमभिप्रायकतं, तस्य भावोऽभिप्रायकृतत्वं, साङ्केतिकत्वमित्यर्थः तमिस्तुरयेऽपि समानेऽपि, आस्तामस माने इत्यपिशब्दार्थः समयमसिद्धं लोकः चन्जनरूपो न युद्धाति न समयमसिन साङ्केतिकेन नाम्ना व्यवहरति न खलु पृथग्जनो भोजनाऽऽदिकं समुद्देशऽऽदिना स मयप्रसिद्धेन साङ्केतिकेन नाम्ना व्यवहरति यत्पुनलॉक प्रसिद्धं तत्पृथग्जनाः सामयिकाश्चोपचरन्ति तत इत्थं समयकृतोभयातिरिक्तयोः स्वभावभेदाद् तद् द्वयोरपि पृथगुपादानमर्थवत् । एतेन गौणे भयकृतयोरपि स्वभावभेव सूचनेन पृथगुपादानं सार्थकमुपपादितं द्रष्टव्यम् । तथाहि यद्यपि गौणमुभयकृतं चान्वर्थयुक्तत्वेनाविशिष्टं, तथापि यद्वौणं तत्पृथग्जनाः सामयिकाच व्यवहरन्ति यत्पुनः समयप्रसिवं गौणं तत्सामयिका एव न पृथग्जनाः तेषां तेन प्र योजनाभावात् समयप्रसिद्धेन हि नाम्ना गौणेनापि यथो 3 , - समयपरिपालन निष्पन्नचेतसां गृहीतव्रतानां प्रयोजनं न गृइस्थानाम्, अतः स्वभावभेदान्तयोरपि पृथगुपन्यासः सार्थक इति । तदेवं नामपिण्डो निर्युक्लिकृतोपदर्शितो भाष्य कृता सप्रपञ्चं व्याख्यातः । पुण " " स्थापनापिण्डः । साम्प्रतं परपूर्व प्रतिज्ञातं नियुक्तिकृता ' ठवणापिडं अतो वोच्छं ' तत्समर्थयमानः स एवाऽऽद्द अक्खे वराड वा, कट्ठे पुत्थे व चित्तकम्मे वा । सम्भावमसन्भावं ठवणापिंड वियाणाहि ॥ ७ ॥ सत इव विद्यमानस्येव भावः सत्ता सद्भावः । किमुक्तं भवति ?स्थाप्यमानस्येन्द्राऽऽदेरनुरूपाङ्गोपाङ्गचिह्नवाहनमहरणादिपरिकररूपी व आकारविशेषो यद्दर्शनात्साक्षाद्विद्यमान ह स्वाऽऽदिच्यते स सद्भावः तदभावोऽसद्भाव सा मसद्भावं चाssश्रित्य 'अक्षे चन्दने कपर्दे वराटके, वाशब्दगुलीयकादिसमुचयार्थः। उभयत्रापि च जाताच तथा काठे दाणि पुस्ते' दिउह्निकाऽदी बाशदो या पाणसमुच्चये, चित्रकर्मणि वा या पिण्डस्य स्थापना सा Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) पिंड अन्निधानराजेन्द्रः। पिंड क्षादिः काष्ठाऽऽदिष्वाकारविशेषो वा पिण्डत्वेन स्थाप्यमानः शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यपिण्डनिधा । तद्यथा-. स्थापनापिण्डः । इयमत्र भावना-यदा काष्ठे लेष्ये उपले चि- सचित्तो, मिश्रोऽचित्तश्च । तत्र मिश्रः सचित्ताचित्तरूपः, इह प्रकर्मणि वा प्रभूतद्रव्यसंश्लेषरूपः पिण्डाकारः साक्षाद्विद्य- पृथिवीकायाऽऽदिकः पिण्डत्वेनाभिधास्यते स च पूर्व स. मान इवालिख्यते यद्वा अक्षाः कपर्दिका अगुलीयकाऽऽदयो चित्तो भवति,ततः स्वकायशस्त्राऽऽदिभिःप्रासुकीक्रियमाणः वा एकत्र संलेष्य पिण्डत्वेन संस्थाप्यन्ते, यथैष पिण्डः स्था- कियन्तं कालं मिश्रो भवति, तत ऊर्ध्वमचित्तः, तत एतदर्थपित इति तदा तन पिण्डाऽऽकारस्योपलभ्यमानत्वात् सत्- ख्यापनार्थ सचित्तमिश्राचित्ताः क्रमेणोकाः, 'इतो' भेदभावतः पिण्डस्थापना, यदा त्वेकस्मिन्नक्षे घराटकेगुलीय- प्रयाभिधानादनन्तरम् ' एकैकस्य' सचित्ताऽग्देर्भेदस्य प्रत्ये. के वा पिण्डत्वेन स्थापना-एष पिण्डोमया स्थापित इति,तदा कं नव नव भेदा वाच्या भवन्ति । तत्र पिण्डाऽऽकारस्यानुपलभ्यमानत्वात् , अक्षाऽऽदिगतप. तानव नवनवमेदानाह- . रमाणुसकातस्य चाविवक्षणादसद्भावतः पिण्डस्थापना,चि- पुढवी आउक्काओ, तेऊ वाऊ वणस्सई चेव । अकर्मण्यपि यदा एकविन्द्वालिखनेन पिण्डस्थापना यथेष | बेइदियं तेइंदिय, चउरो पंचेंदिया चेव ॥४॥ पिण्ड आलिखित इति विवक्षा तदा प्रभूतद्रव्यसंश्लेषाऽऽका. इह पिण्डशम्दः पूर्वगाथातोऽनुवर्तमानः प्रत्येक सम्बध्यते। रादर्शनादसद्भावपिण्डस्थापना, यदा पुनरकविन्द्वालिखनेऽपि एष मया गुडपिण्ड ओदनपिण्डः सक्नपिण्डो वा प्रालि तद्यथा-पृथिवीकायपिण्डोऽप्कायपिण्डस्तेजस्कायपिण्डो वायुकायपिण्डो बनस्पतिकायपिण्डो द्वीन्द्रियपिण्डस्त्रीन्द्रिखित इति विवक्षा तदा सदावतः पिण्डस्थापना। यपिण्डश्चतुरिन्द्रियपिण्डः पश्चेन्द्रियपिण्डव। अमुमेष सद्भावासद्भावस्थापनाविभागं भाष्यकृदुपद सम्प्रत्यमीषामेव नवानां भेदानां सचित्तत्वाऽऽदिकं विभार्शयति वयिषुः प्रथमतः पृथिवीकार्य भावयतिइको उ असम्भावे, तिएहं ठवणा उ होइ सम्भावे ।। पुढवीकाो तिविहो, सञ्चित्तो मीसो य अश्चित्तो। चित्तेसु असम्भावे, दारुचलेप्पोवले सियरो (भा०) सश्चित्तो पुण दुविहो, निच्छय ववहारमओ चेव ॥१०॥ एकोऽक्षो वराटकोऽङ्कलीयकाऽदिर्वा यदा पिण्डत्वेन स्था- पृथिवीकायत्रिविधः । तद्यथा-सचित्तो, मिश्रः, अचित्तथ। प्यते । तदा सा पिण्डस्थापना 'असावे' असद्भावविषया, सचित्तः पुनर्विधा । तद्यथा-निश्चयतो, व्यवहारतश्च । असद्भाविकीत्यर्थः,तन पिण्डाऽऽकृतेरनुपलभ्यमानत्वात् प्र. एतदेव निश्चयव्यवहाराभ्यां सचित्तस्य द्वैविध्यं प्रतिपाक्षादिगतपरमाणुसवातस्य चाविषक्षणात्।यवा तु प्रयाणा दयतिमक्षाणां वराटकानामङ्गलीयकाऽदीनां वा परस्परमेकन सं. निच्छयो सञ्चित्तो, पुढविमहापव्ययाण बहुमज्झे। लेषकरणेन पिण्डत्वेन स्थापना तदा सा पिण्डस्थापना, सबाये सद्भाविकी,तत्र पिण्डाऽऽकृतरुपलभ्यमानत्वात् त्रयाणां अच्चित्तमीसवज्जो, सेसो ववहारसच्चित्तो ॥ ११ ॥ चेत्युपलक्षणं, तेन योरपि बहूनां चेत्यपि द्रष्टव्यम् । तथा निश्चयतः सचित्तः पृथिवीकायो धर्माऽऽदीनां पृथिवीनां •चित्रेषु' चित्रकर्मसु यदैकविन्द्वालिखनेन पिण्डस्थापना मेादीनां महापळतानाम् ,उपलक्षणमेतत् तेन टकाऽऽदीनां तदा साऽप्यसद्भावे, यदा तु. चित्रकर्मस्वपि अनेकबिन्दुसं- च बहुमध्यभागे वेदितव्यः, तत्राचित्तताया मिझतायाश्लेषालिखनेन प्रभूतद्रव्यसंघाताऽऽत्मकपिण्डस्थापना तदा श्व हेतूनां शीताऽऽदीनामसम्भवात् , शेषः पुनः अचित्तसा सद्भावस्थापना, पिण्डाऽऽकृतेस्तत्र पर्शनात्, तथा-दारु- | मिश्रवजों वक्ष्यमाणस्थानसम्भविमिश्राचित्तव्यतिरिको निकलेप्योपलेषु पिण्डाऽऽकृतिसम्पादनेन या पिण्डस्य स्था. राबाधाऽऽरण्यभूम्यादिषु व्यवहारतः सचित्तो वेदितव्यः । पना स 'इतरः' सद्भावस्थापनापिण्डः, तत्र पिण्डाऽऽका- | उक्तः सचित्तपृथिवीकायः। रस्य दर्शनात् । सदेवमुक्तः स्थापनापिण्डः । सम्प्रति द्रव्य सम्प्रति तमेव मिश्रमाहपिण्डस्याऽवसः । स च द्विधा-पागमतो, मो भागमतश्च । तनाऽऽगमतः पिण्डशब्दार्थस्य साता चानुपयुक्ता, अनु खीरदुमहेद्वपंथे, कट्ठाले इंधणे य मीसो उ । पयोगो द्रव्यमिति वचनात् , नोआगमतनिधा । तद्यथा पोरिसि एग दुग तिगं,बहु इंधण मज्झ बोवे य ॥१॥ शरीरद्रव्यपिण्डः, भव्यशरीरध्यपिएडा, शरीरभव्य- (खीरदुमहे? त्ति) क्षीरनुमा बदाश्वत्थाऽऽदयस्तेषामधशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यपिएडव । तत्र पिण्डशब्दार्थहस्य यस्छ- स्तात् तल्लेपः पृथिवीकायः स मिथः । तत्र हिक्षीरमाणां रीरं सिद्धशिलातलाऽऽविगतमपगतजीवितं तत् भूतपिण्ड- माधुर्येण शस्त्रत्वाभावात् कियान्सचिसः शांताऽऽविशनसशब्दार्थपरिजानकारणस्वात् शरीरद्रव्यपिएडः, यस्तु वा- म्पर्कसम्भवाच कियामचित्त इति मिश्रता, तथा पथि लको नेदानीमवबुध्यते पिण्डशब्दार्थम्, अथ चावश्यमायत्यां प्रामाषगरावा बहिर्यः पृथिवीकायः घर्तते सोऽपि मिश्री, तेनैव शरीरेण परिवर्खमानेन भोत्स्यते स भावपिण्डशब्दार्थ- यतस्तत्र गन्त्रीचक्राऽऽदिभिर्य उत्खातः पृथिवीकायःस किया। परिक्षानकारणत्वाद् भव्यशरीरद्रग्यपिएडः। सचित्तःकियांश शीतवाताऽऽदिभिरचित्तीकृत इति मिश्रा, शरीरभव्यशरीरम्यतिरिकं तु द्रष्यपिगडं नियुक्तिकदाह (कटोले ति) कृष्टो हलविदारितः सोऽपि प्रथमतो हलेन वि दार्यमाणः सचित्तततःशीतवाताऽदिभिःकियानचित्तीकितिविहो उ दव्यपिंडो,सञ्चित्तो मीसमो प्रचित्तो य ।। पते इति मिश्रः, तथाऽऽदो जलमिश्रितः। तथाहि-मेघस्यापि एकेकस्स य एत्तो, नव नव भेभा र पत्तेयं ॥ ॥ जलं सचित्तवृथिवीकायस्योपार निपतत् कियन्तं पृथिवी. Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२१) प्रभिधानराजेन्मः। पिंड कायं विराधयति ततो जलाऽऽपृथिवीकायो मिश्र उपप- वर्द्धमानस्वामी भगवान् नानुज्ञातवान् , इत्थंभूतस्याचिघते, सोऽप्यन्तर्मुहूर्तादनन्तरमचित्तीभवति, परस्परशस्त्र- तीभवनस्य छमस्थानां दुर्लक्ष्यत्वेन मा भूत् सर्वत्रापि तडात्वेन द्वयोरपि पृथिव्यप्काययोरचित्तीभवनसम्भवात् । य- गोदके सचित्तेऽपि पाश्चात्यसाधूनां प्रवृत्तिप्रसङ्ग इतिकृत्वा, दा त्वतिप्रभूतं मेघजलं निपतति तदा तज्जलं यावन्ना. भावतोऽचित्तीभवनं पूर्ववर्णादिपरित्यागतो परवर्णाऽऽदितचापि स्थिति बध्नाति तावत् मिश्रः पृथिवीकायः, स्थिति- या भवनम्। तदेवमुक्तोऽचित्तोप पृथिवीकायः। एतेन चाचित्तेबन्धे तु कृते सति सचित्तोऽपि सम्भाव्यते, तथा इन्धने न साधूनां प्रयोजनम्। तथा चाऽऽह-(धुकंत इत्यादि) व्युत्क्रागोमयाऽऽदौ मिश्रः । तथाहि-गोमयाऽऽदिकमिन्धनं सचित्त. न्ता अपगता योनिः उत्पत्तिस्थानं यत्र तेन विध्वस्तयोनिना पृथिवीकायस्य शस्त्रं, शस्त्रेण च परिपीड्यमानो यावन्ना. प्रासुकेन, इदं वक्ष्यमाणस्वरूपं प्रयोजनं साधूनां भवति। चापि सर्वथा परिणमति तावन्मिश्रः । अत्रैवेन्धनविषये तदेवोपदर्शयतिकालमानमाह-( पोरिसीत्यादि ) बहिन्धनमध्यगत एका अवरद्धिगविसबंधे, लवणेन व सुरभिउवलएणं वा । पौरुषी यावन्मिश्री, मध्यमेन्धनसंपृक्तस्तु पौरुषीद्विकम् ।। अञ्चित्तस्स उ गहण, पोयणं तेणिमं वनं ॥ १४ ॥ अल्पेन्धनसम्पृक्तस्तु पौरुषीत्रिकं, तत ऊर्द्धमचित्त इति ।। अपराधनम् अपराद्ध पीडाजनकता, तदस्यास्तीति अपरा. तदेवमुक्तो मिश्रः पृथिवीकायः। द्धिको लूतास्फोटः.सर्पादिदंशो वा । विषं प्रतीतं तश्च दबूप्रसाम्प्रतमचित्तमाह भृतिषु चारितं सम्भवति, तयोरुपशमनाय बन्ध इव बन्धः सीउण्हखारखत्ते, अग्गीलोणूसअंबिलेनहे । प्रलेपस्तस्मिन् कर्तव्येऽचित्तपृथिवीकायस्य गौरमृत्तिकाकेवुकंतजोणिएणं, पोयणं तेणिम होइ ॥ १३ ॥ दारतरिकादिरूपस्य ग्रहणं प्रयोजनम्। यद्वा-लवणेन प्रतीतेइह सर्वत्र सप्तमी तृतीयाऽर्थे, प्राकृतलक्षणवशात् । तथा न (अचित्तस्त ति ) विभक्तिपरिणामेनेह तृतीयान्तं सचाऽऽह पाणिनिः प्राकृतलक्षणे- व्यत्ययोऽप्यासाम ।' इ- म्बध्यते, अचित्तेनालवणभक्तभोजनाऽऽदौ प्रयोजनम्, अथवा त्यत्र सूत्रे सप्तमी तृतीयार्थे । यथा- तिसु तेसु अलंकि सुरभ्युपलेन गन्धपापाणेन गन्धरोहकाऽऽण्येन प्रयोजनं, तेन या पुहवी' इति । ततोऽयमर्थः-शीतोष्णक्षारक्षण, तत्र हिपामाप्रसूतवातघाताऽऽदिः क्रियते, वाशब्दो विकल्पार्थः, शीतं प्रतीतम् ,उष्णः सूर्याऽऽदिपरितापः, क्षार: यवक्षारा अथवा-तेन पृथिवीकायनेदमन्यत्प्रयोजनम् । 5ऽदिः, क्षत्रं करीषविशेषः । एतैः, तथा (अग्गीलोरणूस तदेवाऽऽह.. बिलेनेहे इति ) अग्निः वैश्वानरः, लवणं प्रतीतम्, ऊषः ठाणनिसियणतुयट्टण-उच्चाराईण चेव उस्सग्गो। ऊपराऽऽदितेत्रोद्भवो लवणिमसम्मिश्री रजोविशेषः, श्राग्लं घुगडगलगलेबो, एमाइ पोयणं बहुहा ॥ १५ ॥ काजिकं, स्नेहः तैलाऽऽदिः। एतैश्चाचित्तः पृथिवीकायो भधति , इह शीताग्न्यम्लक्षारक्षत्रस्नेहाः परकायशस्त्राणि , इह साधुभिः सचित्तमिश्रपरिहारद्वारेणाचित्ते भूतलप्रदेश ऊषः स्वकायशस्त्रम् . उष्णश्वेह सूर्यपरितापरूपः स्वभा यत् स्थानं कायोत्सर्गो विधीयते, यच्च निषीदनम् उपवेशनं, बोष्णः, तथाविधपृथिवीकायपरितापरूपो वा गृह्यते । ना यच्च त्वगपवर्तनं स्वापः, यश्च उच्चाराऽऽदीनां पुरीषप्रसव ग्निपरितापरूपस्तस्याग्निग्रहणेनैव गृहीतत्वात् , ततः सो णश्लेष्मनिष्ठचूतानामुत्सर्गः, तथा यो घुट्टको लेपितपात्रमऽपि, स्वकायशस्रोपादानेन परकायशस्त्रोपादानेन चान्या सणताकारकः पाषाणो, ये च डगलकाः पुरीपोत्सर्गानन्तरम्यानि स्वकायपरकायशस्त्राण्युपलक्ष्यन्ते, यथा कटुकरसो मपानप्रोञ्छनकपाषाणाऽदिखण्डरूपाः,यश्च लेपोभोगपुरपा. मधुररसस्य स्वकायशस्त्रमित्यादि, एतेन पृथिवीकायस्या पाणादिनिष्पन्नस्तौम्बकपात्राभ्यन्तरे दीयते, एवमादि 'बचित्ततया भवनं चतुर्दा प्रतिपादितं द्रष्टव्यम् । तद्यथा-द्र हुधा ' बहुप्रकारम् अचित्तेन पृथिवीकायेन प्रयोजनम् । उक्नः व्यतः, क्षेत्रतः, कालतो, भावतश्च । तत्र स्वकायेन परका सचित्ताऽऽदिभेदभिन्नः पृथिवीकायपिएड.। पिं०-1(अप्कायस्य येण वा यदचित्तीकरणं तद् द्रव्यतः,यदा तु क्षाराऽऽदिक्षेत्रो पिण्डं सचित्तम् 'पाउकाय' शब्दे द्वितीयभागे २२ पृष्ठे. चोचम्) (अचित्तेनाप्कायेन बहुप्रकारो द्रव्यः) चीवरत्पन्नस्य मधुराऽऽदिक्षेत्रोत्पन्नस्य च तुल्यवर्णस्य भूम्यादेः पू. थिवीकायस्य परस्परं सम्पर्कणाचित्तताभवनं तदा तत् क्षेत्र धावनं संयतानां वर्षाकालादर्वाग् कल्पते, न शेषकालं, शेतर,क्षेत्रस्य प्राधान्येन विवक्षणात् । यद्वा-मा भूदपरक्षेत्रोद्भः षकाले वनेकदोषसंभवात् । (ते च दोषाः 'धावण' शब्दे वेन पृथिवीकायान्तरेण सह मीलनं. किन्त्वन्यत्र क्षेत्रे योजन चतुर्थभागे २७५१ पृष्ठे गताः) ( तेजस्कायः 'तेउक्काइय' तात्परतो यदा नीयते तदा सर्वोऽपि पृथिषीकायः सर्वस्मा शब्दे चतुर्थभागे २३४३ पृष्ठे गतः ) (' वाउक्काय' दपि क्षेत्राद्योजनशतादूर्द्धमानीतो भिन्नाऽऽहारवेन शीताss. शब्दे वक्ष्यामि वायुकायपिएडम् ) (द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियदिसम्पकेतचाऽऽवश्यमचित्तीभवति,इत्थं च क्षेत्राऽदिक्रमेणा चतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रियशब्देषु तत्तपिएडाः ) तदेवं सचि. चित्तीभवनमप्कायाऽऽदीनामपि भावनीयं,यावद्वनस्पतिकायि. त्ताऽऽदिभेदभिन्न स्त्रिप्रकारोऽपि द्रव्यपिण्डः प्रत्येकं पृथिकानां,तथा च हरीतक्यादयो योजनशतार्द्धमानीताऽचित्ती बीकायाऽऽदिभेदान्नवविध उक्तः । संप्रति एतेषामेव भूतत्वादीषधाऽऽपर्थ साधुभिः प्रतिगृयन्ते इनि । कालतस्त्व नवानां पृथिवीकायाऽऽदीनां द्वयादिमिश्रणती मिश्रं द्रव्य. चित्तता स्वभावतः वायुःक्षयेण सा च परमार्थतोऽतिशयशा पिण्डमभिधित्सुराहनेनैव सम्यक परिक्षायते,न छानस्थिकशानेनेति न व्यवहार अहमीसओ य पिंडो,एएसि चिय नवएह पिंडाणं । पथमषतरति । अत एव च तुषाऽतिपीडितानामपि साधूनां दुगसंजोगाईओ, नायव्यो जाव चरमो ति॥५३॥ खभाषता स्वायुःक्षयेणाचित्तीभूतमपि तडागोदकं पानाय । प्रथेत्यानन्तर्यद्योतने,केवलपृथिवीकायाऽऽविपिण्डाभिधाना २३१ Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२) पिंक अभिधानराजेन्डः। पिंक नन्तरं मिश्रकपिएडो व्याख्यायते इति द्योतयति । 'मिश्रकः'स पोग्गल लोण गुलोयण, णेगा पिंडा उ संजोगे ॥५४॥ जातीयविजातीयव्यमिश्रणाऽऽत्मकः पिण्डः, पतेषामेव न 'सौषीर' काजिकंतचाप्कायतेजस्कायवनस्पतिकायाऽऽवि. वानां पिण्डानां यादिसंयोगाऽऽत्मको शातभ्यः । तपथा-पृ. पिण्डरूपम् । तथाहि-तत्राप्कायस्तरबुलधावन, तेजस्कायोथिवीकायोऽकायमति द्विकसंयोगे प्रथमो भज, पृथिवीकाय उपधावणं, बनस्पतिकायस्तरबुलाषयवा यत्सम्पर्कतस्तण्डस्तेजस्काय इति द्वितीयः, एवं द्विकसंयोगे पशिद्रका लोदकं गहुलमुपजायते, लवणावयवाश्च केचन तत्र लवणसभावनीयाः। तथा त्रिकसंयोगे पृथिवीकायोऽकायस्तेजस्का म्मिश्रतण्डुलोदकाऽऽदिभिःसहपतम्ति,ततस्तत्र पृथिवीकाय इति प्रथमो भगः, पृथिवीकायोऽप्कायो वायुकाय इति योऽपि सम्भवतीति,एवमन्यत्रापि भावना स्म्रधिया कर्तव्या। द्वितीयः । एवं त्रिकसंयोगे चतुरशीतिर्भाः। तथा-चतुष्क तथा 'गोरसं' तक्राऽऽदि, तच्चाप्कायनसकायसम्मिश्रं भवसंयोगे पृथिवीकायोऽकायस्तेजस्कायो वायुकाय इति प्र ति, तथा 'पासवः' मधं, तच्चाकायतेजस्कायवनस्पतिकाथमोः भगः पृथिवीकायोऽकायस्तेजस्कायो मनस्पतिकाय याऽदिपिण्डरूपं, 'वेसनं' जीरकलपणाऽऽदि, तच वनस्पइति द्वितीयः, एवं चतुष्कसंयोगे षडिशं शतं भकानां भा. तिपृथिवीकायाऽऽदिपिण्डरूपं, भेषजं' यवागूप्रभृति, तच्चाघनीयम् । पञ्चकसंयोगेऽपि पड़िशं शतम्। घटूसंयोगे चतुरशी कायतेजस्कायवनस्पतिकायपिण्डरूपं, स्नेहः धृतवशातिः, सप्तकसंयोगे पत्रिंशत् , अष्टकसंयोगे नव, नवकसं उदि, तच्च तेजस्कायत्रसकायाऽऽदिपिण्डरूपं, 'शाकः' योगे एकः; सर्वसङ्ख्या भक्तानां पञ्चशतानि चधिकानि । वत्थुलभर्जिकाऽऽदिरूपः, स च बनस्पतिकायपृथिवीकायएतेषां च भङ्गानामानयनार्थमियं करणगाथा प्रसकायाऽऽदिपिण्डरूपः, 'फलम्' आमलकाऽऽदि, तच्चेह " उभयमुहं रासिदुर्ग, हिट्टिलाणतरेण भय पढम। । पकं ग्राह्य, ततस्तदपीत्यमेव भावनीयम् । (पोग्गलं) लग्रह रासिविभत्ते, तस्सुवरि गुणिन्तु संजोगा ॥१॥" मांसं, तदपीह पकं गृह्यते, ततस्तदपि शाकवद्भावनीयं, अस्याक्षरगमनिकाह नवानां पदानां द्वयादिसंयोगभङ्गा | 'लवणं' प्रतीतं, तच्चाकायपृथिवीकायरूपं, 'गुडौवनी' मानेतुमभिप्रेतास्ततस्तावत्प्रमाणी द्वी राशी उभयमुखा स्था- प्रतीती, तावपि फलवद्भावनीयौ । एवमन्येऽप्यनेके यथाप्येते । स्थापना चेयम्-१२ । अत्रैकस्योपरि नवका, सम्भवं संयोगे पिण्डा भावनीयाः, केवलं तं तं संयोग प. बत एककसंयोगे नव भङ्गा द्रष्टव्याः , न च तत्र करण- रिभाव्य यो यत्र द्विकसंयोगाऽऽदावन्तर्भवति स तत्र स्वय गोधाया व्यापारः, द्वयादिसंयोगभङ्गाऽऽनयनायैव तस्याः प्र- मेवान्तर्भावनीयः । तदेवमुक्तः सप्रपञ्चं द्रब्यपिण्डः । पिं०। वृत्तत्वात् , ततोऽधस्तने राशौ पर्यन्तवर्तिन एककस्थान लेपपिण्डसूचनायाऽऽहन्तरेण विकलक्षणेनोपरितनराशौ प्रथममई नवकरूपं भजेत् तस्य भागहारं कुर्यात् , ततो लब्धाः सार्दाश्चत्वारः, तेन अह होइ लेवपिंडो, संजोगेण खवयह पिंडाणं । च सार्थचतुष्केणाधोराशिनोपरितने प्रथमे) विभक्त ल. नायव्यो निष्फमे, परूवणा तस्स कायव्वा ॥६॥ ब्धेन तस्य द्विकलक्षणस्याङ्कस्योपरितनमङ्कमएकलक्षणं गुण- मथ भवति लेपपिण्डः संयोगेन नवानां पिण्डानां निष्पनी येत् तारयेत्, जाताः पत्रिंशत्, इत्थंचे गुणयित्वा 'संयोगाः' ज्ञातव्यः । कथं ?, चक्का गिडिया,तत्थ प्रक्वेसे पुढविकायस्स संयोगमा बाच्याः, यथा द्विकसंयोगे भकाः द्विशदि रो लगति, आउकाया नदी जे उत्तरणे लग्गति, तेउकाओ ति, ततो भूयोऽपि विकसंयोगभङ्गाऽऽनयनायं प्रथमपादर तत्थ लोहं घास इति, वाऊ तत्थेव, यनाऽग्निस्तत्र वाहिता करणगाथा व्यापार्यते, अधस्तने राशी स्थितेन द्वि युना भवितव्यं, वणस्सइअक्खो वितिभो उ संपातिमा पाकादनन्तरेण त्रिकेणोपरितनराशिव्यवस्थितं त्रिकोपरितन णा पडंति, पंचिंदियाण वि चम्ममयम्स ति। एवं संयोगेन सप्तकरूपाङ्कापेक्षया आद्यं षट्त्रिंशदूपमङ्कं भजेत् , ततो ल. निफनो लेवो। इदानीं तस्य प्ररूपणा कर्तव्या ॥ १२॥ोग्धा द्वादश, तैश्चाधोराशिनोपरितने के विभक्ते लब्धैत्रि. घ० । (सा च प्ररूपणा विस्तरतः । लेवपिंड' शब्दाकलक्षणस्याकूस्योपरितनं सप्तकलक्षणमडूं गुणयेत, गुणि. दवगन्तव्या) तेच सति जाताचतुरशीतिः, एतावन्तरिकसंयोगेष्वपि ___सम्पति क्षेत्रकालपिण्डावभिधित्सुराहभला आनेतव्या, यावन्नवकसयोगे एको भगः । तथा तिमि उ पएससमया, ठाणहिइउ दविए तया एसा । चाऽऽह-( जाष चरिमो ति) तावठिकसंयोगाऽऽदिको मिश्रपिण्डो ज्ञातव्यो यावच्चरमो नवकनिष्पन्न एकस चउपंचमपिंडाणं, जत्थ जया तप्परूवणया ।। ५५ ॥ यो मिश्रपिण्डः, स च लेपमधिकृत्योपदीते, इहाक्ष- इह क्षेत्रकालपिण्डौ-"नाम ठवला पिंडे,दब्वे खेत्ते य काले स्य धुरि प्रक्षितायां रजोरूपः पृथिवीकायो लगति, मदी-| भावे या" पति गाथानिर्देशक्रमापेक्षया चतुर्थपञ्चमपिएडौ,योमुत्तरतोऽकाया, लोहमया वपनघर्षणे तेजस्कायः, यत्र प्रम् आकाशम् कालः समयविवर्तरूपः,तत्र नयः प्रदेशाःतेजस्तत्र घायुरिति वायुकायोऽपि, वनस्पतिकायो धरेष, बप्रस्तावावाकाशप्रदेशाः, तथा प्रयः समयाः कालस्य निर्षिद्विविचतुरिन्द्रियाः सम्पातिमाः सम्भवन्ति, महिप्यादिच- भागा भागाः, तुशब्दो विशेषणार्थः, स च परस्परमनुगता ममयनाडिकाऽऽदेश्च वृष्यमाणस्याषयवरूपः पञ्चन्द्रियपि-1 इति विशेषयति चतुष्पञ्चमपिण्डयोः क्षेत्रकालपिण्डयोः स्व. राडा, इत्थंभूतेन चाक्षस्य खञ्जनेन लेपः क्रियते, इत्यसाबु- रूपम् । इयमत्र भाषना-त्रयः परस्परमनुगता आकाशप्रदेशापयोगी, इतिशयो मिश्रपिण्डसमाप्त्यर्थः, एतावानेव द्रव्य. नयः परस्परमनुगताःसमया यथाक्रम क्षेत्रपिण्डः कालपिण्ड पिण्डो मिश्रः सम्भवतीति। इति बेदितव्याः, त्रिग्रहणं बोपलक्षणं, तेन द्विचतुरादयोसम्प्रत्यस्यैव मिश्रपिण्डस्य कानिचिदुदाहरणान्वुपदर्शयति- | ऽपि एव्याः। तदेवं क्षेत्रकालपिण्डौ निरुपचरितौ प्रतिपासोवीरा गोरसासव, बेसण भेसज नेह साग फले । सम्प्रति तावेव सोपचारावभिधत्ते-( ठाणदिइउ दविए Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२३) अभिधानराजेन्सः । पिंड सया एसा) (दविए ति) द्रव्ये पुद्गलस्कन्धरूपे स्थानम्-अब- | ख्याबाहुल्यतश्च पिण्ड इति व्यपदेशः प्रवर्तते । तथा क्षेत्रगाहा, स्थितिःकालतोऽस्थानं, स्थानं च स्थितिश्च स्थान- प्रदेशेष्यपि पिण्डशब्दः प्रवर्समानो न विरुभ्यते, तवाऽपि स्थिती, ताभ्यां स्थानस्थितितः। अत्र पञ्चमी "यपः कर्मा- परस्परनैरन्तर्यरूपस्यानुवेधस्य सख्याबाहुल्यस्य च सम्भऽऽधारे " इत्यनेन सूत्रेण । ततोऽयमर्थः-स्थानं स्थिति वात्. तथा कालोऽपि परमार्थतः सन् द्रव्यं च, ततः सोऽपि चाऽऽश्रित्य यस्तदाऽऽदेशः क्षेत्रकालाऽऽदेशः क्षेत्रकालमा- परिणामे, सतः सर्वस्य परिणामित्वाभ्युपगमावू , अत्यथा धाम्यधिवक्षया क्षेत्रेण कालेन च व्यपदेशस्तस्माचतुष्पञ्च- सत्यायोगात्, एताच्चान्यत्र धर्मसाहणिटीकादौ विभामपिण्डयोः प्ररूपणा कार्या । किमुक्तं भवति ?-स्कन्धरूपे वित्तमिति नेह भूयो विभाव्यते, प्रन्थगौरवमयात्, परिपुदलद्रव्येऽवगाहचिन्तामाश्रित्य क्षेत्रप्राधान्यविवक्षया यदा णामी चान्वयी तेन तेन रूपेण परिणममान उच्यते, ततोऽ. क्षेत्रण व्यपदेशो यथा एकप्रादेशिकोऽयं द्विप्रादेशिकोऽयं त्रि. स्ति वार्तमानिकस्याऽपि समयस्य पूर्वापरसमयाभ्यामनुवेप्रादेशिक इत्यादि, स इत्थं क्षेत्रतो व्यपदिश्यमानः क्षेत्रपिण्ड धः, केवलं तौ पूर्वापरसमयावसन्तावपि बुध्या सम्ताविव इत्युच्यते,क्षेत्रतो व्यपविष्टः पिण्डः क्षेत्रपिण्ड इति व्युत्पत्ते विवक्षितौ, ततः सङ्ख्याबाहुल्यमपि तपास्तीति पिण्डश. यदा तु कालतोऽवस्थानमधिकृत्य कालप्राधान्यविवक्षया ब्दप्रवृस्यविरोधः। कालेन व्यपदेशो, यथा एकसामयिको द्विसामयिक इत्यादि, सम्प्रति क्षेत्र पिण्डशब्दप्रवृत्त्यविरोधं तदा स कालपिण्डोऽपि भएयते, कालतो व्यपदिष्टः पिण्डः ___दृष्टान्तद्वारेण समर्थयतेकालीपण्ड इति समासाऽऽथयणात् । अथवा-त्रिप्रदेशाऽऽधात्मकक्षेत्रपिण्डे, यदि वा-त्रिसमयाऽऽद्यात्मककालपि जह तिपएसो खंधो, तिसु वि पएसेसु जो समोगाढो । एडे यदवस्थितं पुद्गलद्रव्यं तसदादेशात् क्षेत्रकालव्य- अविभागिण संबद्धो, कहं तु नेवं तदाधारो ? ॥७॥ पदेशात् , क्षेत्रकालोपचारादित्यर्थः । यथाक्रम क्षेत्रपिण्डः यथा कश्चिदनिर्दिष्टव्यक्तिकः 'त्रिप्रदेशिकः' त्रिपरमारवाकालपिण्डः । प्रकारान्तरेण सोपचारी क्षेत्रकालपिण्डावाह स्मकः स्कन्धनिष्वयाकाशप्रदेशेष्यवगाढो, न त्वेकस्मिन् छ(जत्थ जया तप्परूषणया)'यत्र वसत्यादौ यदा प्र योर्वेत्यपिशब्दार्थः 'अविभागेन सम्बद्धो' विभागो नैरन्तथमपौरुष्यादी तत्परूपणा ' पिएडप्ररूपणा क्रियते सः र्याभावस्तवभावोऽविभागो, नैरन्तर्यमित्यर्थः । तेन सम्बद्धो पिण्डःप्ररूप्यमाणो नामाऽऽदिपिण्डोषसत्यादिक्षेत्रमधिकृत्य नैरन्तर्यसम्बन्धसंबद्ध इति भावः, पिण्ड इति व्यपदिश्यते, क्षेत्रपिण्ड उच्यते, यथाऽमुकवसतिरूपक्षेत्रपिण्ड इति, प्र नैरन्तर्येणावस्थानभावात् सङ्ख्याबाहुल्यतश्च, एवं त्रि. थमपीरुष्यादिकं तु कालमधिकृत्य कालपिराडो यथाऽमुकम प्रदेशावगाढत्रिपरमाणुस्कन्ध इव तदाधार:-त्रिपरमाणुथमप्रहराऽऽदिरूपः काम्लपिण्ड इति । "ह तिथि उ पएस स्कन्धाऽधारः प्रदेशत्रयसमुदायः कथं तु न पिण्ड इति समया" इत्यत्र पर आक्षेपमाह-ननु मूर्तेषु द्रव्येषु परस्प व्यपदिश्यते ?, सोऽपि पिण्ड इति व्यपदिश्यताम् , उभयरमनुषेधतः सङ्ख्याबाहुल्यतश्च पिण्ड इति व्यपदेशो घटते, त्राप्युक्लनीत्या विशेषाभावात्। । क्षेत्रकालयोस्तुन परस्परमनुवंधो नाऽपि काले सरख्याबाहु सम्प्रति “जत्थ जया तप्परवणया" इत्येतस्याचिख्यासुस्यम् । तथाहि-क्षेत्रमाकाशमुच्यते "खत्तं खलु आगासं" इति मस्थापनाद्रव्यभावपिण्डानां योगविभागसम्भवात् पारमावचनात् तच्च नित्यमकृत्रिमत्वात् , ततः सदैव विविक्तप्रदे र्थिकं पिण्डत्वं, क्षेत्रकालयोस्तु योगविभागासम्भवत औपशाऽऽत्मकतया व्यवस्थितमिति कथमाकाशप्रदेशानामनुवे चारिकं प्रतिपादयन्नाहधः?,एकत्र मिश्रणाभावात् । कालोऽपि पूर्वापरसमयविवितो वार्त्तमानिकसमयरूप एव परमार्थिकः, पूर्वापरसमययोर्वि भहवा चउराह नियमा, जोगविभागेण जुञ्जए पिंडो। मष्टानुत्पन्नत्वेन परमार्थतोऽसवात् , सतां च परस्परम- दोसु जहियं तु पिंडो, वमिजइ कीरए वावि ॥५८।। नुवेधः संख्याबाहुल्यं वा नासतां सदसतां वा, ततः काल अथवेति प्रकारान्तरघोतने, पूर्व हि क्षेत्रकालयोर्यथासद्वयमपि नोपपद्यते इति कथं तत्र पिण्ड इति व्यपदेशः । . अस्य प्रदेशसमयानां परस्पराऽनुवेधतः सख्याबाहुल्यतश्च - अत्र प्रतिविधानमभिधित्सुराह पारमार्थिकं पिण्डत्वमुक्तम् । यद्वा-तन्न युज्यत एव, योगविमुत्तदविएसु जुज्जइ, जइ अनोऽआणुवेहो पिंडो। भागासम्भवात् । तथाहि-लोके यत्र योगे सति विभागः मुत्तिविमुत्तेसु वि सो, जुजइ नणु संखबाहला ॥ ५६ ॥ कर्तुं शक्यते, विभागे वा सति योगः तत्र पिण्ड इति व्यननु यदि मूत्तेषु द्रव्येषु 'अन्योऽन्यानुषेधतः' परस्परा पदेशः, न च क्षेत्रप्रदेशेषु योगे सत्यपि विभागः कर्तुं श क्या, नित्यत्वेन तेषां तथाव्यवस्थितानामन्यथा कर्तुमशनुवेधतः, 'संखबाहुल्ला' इत्यप्यत्र सम्बध्यते, 'सङ्ख्या क्यत्वात् , ततो न ता पारमार्थिक पिण्डत्वं, तथा समयो बाहुल्यतश्च'धादिसल्यासम्भवतश्च पिण्ड इति व्यपदेयो 'युज्यते' योगमुपैति, घटते इत्यर्थः । तर्हि स पिण्ड धर्तमान एव सन् नातीतोऽनागतो वा, तयोर्षिनानुत्पन्नाइति व्यपदेशः 'सूतिविमुक्तयपि' मूर्तिरहितेष्वपि, अमू. स्वेनाबिचमानत्वात्, ततोऽत्र विभाग एव न तु कदाचनाऽपि बबित्यर्थः, क्षेत्रप्रदेशकालसमयेषु युज्यते, तत्राऽपि पिएड योग इति परमार्थिकपिएडत्वाभावः, ततोऽन्यथा क्षेत्रकालीपशमप्रवृत्तिनिमित्तस्य परस्परानुवेधस्य सख्याबाहुल्यस्य एडप्ररूपणा कर्तव्येति प्रकारान्तरता, 'चतुणी' नामस्थापच सम्भवात् । तथाहि-सर्वेऽपि क्षेत्रप्रदेशाः परस्परं नैर माद्रव्यभावपिण्डानां योगविभागेन' योगविभागसम्भषेन म्तर्यलक्षणेन संबन्धेन सम्बद्धा अवतिष्ठन्ते, ततो यथा बादर नियमास्पिण्ड इति व्यपदेशो युज्यते । तथाहि-नाम्नः पि. निष्पादिते चतुरस्राऽऽदिघने परस्परनरन्तर्यरूपानुवेधतः स. . पतनामा ग्रन्थः । Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिड एड, " नामनामवतोरभेदोपचारात् ।" यद्वा-नाम्ना पिण्डो नामपिण्ड इति व्युत्पत्तेः पुरुषाऽऽदिकमेव भण्यते तस्य व हस्तपादाऽऽदिभिरचयवैर्युक्रखापि सङ्गादिभिर्विभागः कर्तुं शक्यते इत्यस्ति योगे सति विभागः । यद्वा- पूर्व गर्भे मांसपेशीरूपस्य सतो हस्ताऽऽदिभिरचयचैर्नियोगः पश्चात्कमे तैः सह संयोग इति विभागे सति योगः ततः पिण्डरूपता, तथा स्थापनापिण्डे क्षत्रिकाऽऽदिरूपे पूर्व विभागे सति संयोगः, संयोगे वा सति विभाग इति पिण्डरूपता द्रव्यपिण्डेऽपि गुदनादि के विभागपूर्वकः संयोगः संयोगपूर्व को या विभागः सुमतीत इति पारमार्थिकपिण्डरूपता, भावपिण्डेऽपि भावनाववतोः कथञ्चिदभेदार लावादिरेष मूर्ती विग्रहवान् खते तत्र संयोगविभागनामपिण्ड गृह्यते, तास्विकाचिति पारमार्थिकी पिण्डरूपता कालयो स्तूक्तनीत्या न संयोगविभागाविति न तत्र पिण्डशब्दप्रवृविमानामाऽऽदिपिण्ड एव तत् क्षेत्रासादिकं प मुद्भूतरूपं विवक्षित्वा क्षेत्रपिण्डकालपिण्डशब्दाभ्यां व्यपदिश्यते। तथा चाऽऽह दो जहि तु इत्यादि। 'द्वयोः' क्षेत्रकालयोः 'पत्र' वसत्यादी यदा वा प्रथमपौरुष्यादी यः पिराडोनामादिरूपी पत्र महानाद वा पिण्डो गुडपिडाऽऽदिमाँद काऽऽदिपिएडो वा क्रियते यदा या प्रथम निष्पाद्यते सव्यायामान नामादिपि एडः क्रियमाणो वा गुडौदनाऽऽदिपिण्डस्तत्क्षे त्रकालापेक्षया क्षेत्रपिण्डः कालपिग व्यपदिश्यते यथाऽवसत्यादि प्रथमपीरुपी इत्यादि उक्ती क्षेत्रकालपिडी। सम्प्रति भावपिण्डमभिधित्सुराह दुवि उभावपिंडो, पत्थय चैव अप्पसत्थो य । एएस दो पि य पत्तेय परूवणं बोच्छं ॥५६॥ द्विविधः ' द्विप्रकारः भावपिण्डः, तद्यथा- प्रशस्तः, अप्रश । तत एतयोर्द्वयोरपि प्रत्येक प्ररूपणां प्ररुच्यते, ज्ञा eft भावपिडी यया गाथापद्धत्या सा प्ररूपणा, तां वक्ष्ये । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति 4 1 ( १२४ ) अभिधानराजेन्धः | " एगविहार दसविहो, पसत्थओ चेत्र अप्पसत्थो य । संजम विचरणे, नाणाऽऽदितिगं च तिविहो उ ॥ ६० ॥ नाणं दंसण तव सं-जमो य वय पंच छच्च जाणेजा । पिंडेसण पाणेसण, उग्गहपडिमा य पिंडम्पि || ६१ ॥ पत्रयणमाया नव बं-भगुतियो तह य समणधम्मो य । एस पसत्यो पिंडो, भणिओ कम्पट्टमहरि ॥६२॥ प्रशस्तः, अप्रशस्तश्च भावपिण्डः प्रत्येकं दशविधः दश. प्रकार: ' किं रूपः ?, इत्याह एकविधाऽऽदिकः ' एकविधो विविधविविधतुर्विधो यावदशविध इति, तत्र प्रथमत उदेशक मप्रामाण्यानुसरणात्प्रशस्तं भावपि दशम यभिदधाति - ( संजमेत्यादि ) तत्रैकविधः प्रशस्तो भावपिण्डः संयमः इह संयमी बनदर्शने बिना न भवति पूर्वइयलाभः पुनरुत्तरलाभ भवति सिद्ध इति वचनप्रामास्थात्, ततो ज्ञानदर्शने संयम एवान्तर्भूते विवक्षिते इति संयम एवैकः प्रशस्त भावपिएडत्वेन प्रतिपाद्यमानो न वि रुध्यते । ( प्रशस्तै कविधभावपिण्डः तत्स्वरूपम् संजम' शब्दे वक्ष्यामि ) १ । द्विविधः पिण्डः - विद्या 6 " पिंड - " २ चरणम् २ विद्या- ज्ञानं १ ( प्रशस्तद्विविधभावपिण्डः गाण शब्दे चतुर्थमा १२३८ पृठे गतः ) - - अभिनिबोधिक-धुतावधि - मनः पर्यव—केवलज्ञानभेदात् पञ्चविधम् (तत्र शामिनिवधिज्ञानम् श्रा भिणियोयिशु द्वितीयभागे २५२ पृष्ठे गतम्) (श्रुतज्ञानम् सुरान् पश्यामि ) ( अवधिज्ञानम् 'ओडिसास' शब्दे तृतीयभागे १५६ पृष्ठे प्रतिपादितम् ) ( मनः पर्यवज्ञानम् 'मणपजवणारा ' शब्दे वक्ष्यामि) (केवलज्ञान सर्वस्वम् 'केवलणाण' शब्दे तृतीयभागे ६४२ पृष्ठे विस्तरतो गतम् ) चरक्रिया २ (सा च विस्तरतः फिरिया 'शब्दे तृती यभागे ५३१ पृष्ठे निरूपिता) श्रत्र सम्यग्दर्शनं ज्ञान एवान्तर्भूतं विवक्षितमिति न पृथग्गणितं, विवक्षा हि वक्त्रधीना, वक्ता च कदाचित्संक्षेपेणाभिधित्सुस्तां तां प्रत्यासत्तिमधिकृत्य तत्तदन्तर्भावेनाभिधसे, कदाचि पुनर्विशेषपरिज्ञानोत्पादनाय विस्तरेणाभिधित्सुः सर्व विकल्येन पृथक् प्रतिपादयति ततः कदाचित् शामादत्रिकं संयम इति प्रतिपाद्यते, कदाचित् ज्ञानक्रिये इति कदाचित्पुनः परिपूर्णमपि साधायचा बानाऽऽदित्रिकमिति न कश्चिद्दोष: २ । त्रिविधः पिण्डः पुनः - 'ज्ञानाऽऽदित्रिकम् ज्ञानदर्शन -चारित्राणि (प्रशस्तत्रिविधभावपिएड-ज्ञानम् १* गाण' शब्दे चतुर्थभाग १८३६ पृष्ठे प्ररूपितम् तद्भेदाध स्वस्वशब्दादवगन्तव्याः । ( दर्शनम् २- सभेदम् 'दंसण' शब्दे चतुर्थभाग २४२५ पृष्ठे ऽवलोकनीयम्) (पारितम् ३- वारिस' शब्दे तृतीयभागे १९७५ पृष्ठे गतम्) (विस्तरात्र परित' शब्दे तस्मिन्नय भाग १९४१ पृष्ठे निरूपितः ) ३ चतु विधः पिण्डः - ज्ञान १ - दर्शन २- तपः ३ संयमाः ४, (प्रशस्तचतुर्विधभावपिण्डमध्ये ज्ञानम् -स्थाने दर्शनम् २, - , 6 " 6 दंसण ' शब्दे । तपः तद्भेदा ३ ' तव' शब्दे चतुर्थभागे २९६६ पृष्ठे सविस्तरं गतः ३ ) ( ' संयमं ' ४ स्वस्थाने वक्ष्यामि ) ४ । पञ्चविधः - पञ्चव्रतानि प्राणातिपात १मृपावादा २३दन्तादान ३–मैथुन-परिग्रहनिलखानि ५ । अत्रापि ज्ञानदर्शने अन्तर्भूते विवक्षिते इति न पृथग्गणिते, रात्रिभोजनविरमणमप्येतेषु पञ्चसु यथायोगमन्तर्भूतं विवक्षितं ततो न पञ्चविधत्यव्याघातः । पच सुत्तरत्राऽपि यथायोगमन्तर्भावभावना भावनीया । (प्रशस्तपञ्चविधभावपिण्डान्तर्गता प्राणातिपातनिवृत्तिः १ पाणावायवेरमण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ८४६ पृष्ठे गता ) (मृषावादनिवृत्तिः २ ' सुसावायवेरमण ' शब्दादवगन्तव्या ) (अनादाननिवृत्तिः ३ तारमण शब्दे प्रथम भांगे ४५० हे गता) (मैथुननिवृत्तिम् मेणवेरमण शब्दे श्यामि ) (परिप्रदनिवृत्तिः परिम्महवेरमण ५ शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५७० पृष्ठे गता) ५ पट्टियो भावि राह--पह प्रतानि तत्र पक्ष प्रतानि पूर्वोक्लाम्येय प्राणातिपातविरमादीनि षष्ठं तु रात्रिभोजनविरमणलक्षणम् (प्रशस्तपापडान्तर्गताः प्राणातिपाताऽ उदयः परि प्रहविरमणान्ताः स्वस्वस्थाने व्याख्याताः) (रात्रिभोजनविरमणम् राहभीयवेरमण शये पक्ष्यामि) ६ तथा सप्तविधे पिएडे सप्त पिण्डेषणाः सप्त पानैषणाः सप्त श्र महमतिमा । तर पिप पापा सप्त सं ष्टाऽऽदयः । ताखेमाः 6 " · Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਪਿੰਡ " संसट्टमसंसट्टा, उद्धड तह अप्पलेवडां चैष । " महिया पहिया, उपधम्मा व सत्तनिया ॥१॥"पिं० ॥ ( विस्तरं ' पिंडेसणा ' शब्देऽग्रे वक्ष्यामि ) ( पानैषणाश्च 'पासणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ८४६ पृष्ठे व्याख्याताः ) (अवग्रहमतिमा सतिविषयनियमविशेषाः ते च हि तीयभागे ७२४ पृष्ठे ' उग्गह ' शब्दे व्याख्याताः ) ( विशेषं चात्र ' वलहि ' शब्दे वक्ष्यामि ) ७ । तथा —- श्रष्टविधः पिण्डः - श्रष्टौ प्रवचनमातरः, (ताश्च ' पवयणमाउश्रा शब्देऽस्मिन्नेव भागे ७८५ पृष्ठे गताः ) ८ तथा नवविधः free: नय प्रह्मचर्यमुतयः । तासां वेदं स्वरूपम्सहि कद निसिजिदिय, कुतर पुण्यकीलिय पीए श्रमायाहार विभू-सरां च नव बंभगुत्तीओ ॥ १ ॥ ( प्रशस्तनवविधभावपिण्डप्रतिपादिकगाथाविशेषं यंभवेरगुति शब्दे पश्यामि ) तथा चेति समुच्चये, दशविधः पिण्डः दशप्रकारः श्रवणधर्मः । स चायम् - " खंती य मद्दवज्जव, मुत्ती तव संजमे य बोद्धव्वे । स सोयं श्राकिं चणं च बंभं च जधम्मो ॥ १ ॥ " 66 - ' 1 ( प्रशस्तदशविधभावपिण्डप्रतिपादिकाया अस्या गाथाया अक्षरगमनिका धम्म मे चतुर्थभागे २६६७ पृष्ठे मता ) ( विस्तरश्चrsa 'समणधम्म ' शब्दादवगन्तव्यः ) प्रश स्तभावपिण्डस्योपसंहारमाह - ( एसो इत्यादि ) ' एष द शप्रकारोऽपि भावपिण्डः कर्माष्टकमथनैः तीर्थकृद्भिर्भणितः अनेन स्वमनीषिकान्युदासमाह ॥ ६० ॥ ६१ ॥ ६२ ॥ सम्प्रति अप्रशस्तं भाषपिडं दशविधमपि कमेणाऽऽद अपसत्थो य असंजम अनार्य अविरई व मिच्छतं । कोहावासवकाया, कम्मे गुत्ती अहम्मो य ॥ ६३ ॥ ( अपत्यो य इत्यादि) अप्रशस्त पुनर्भावपिएड एकविधः - श्रसंयमः, विरत्यभावः श्राज्ञानमिथ्यात्वाऽऽदीनिसर्वावप्यन्तर्भूतानि विवश्यन्ते तती न कश्चिद्दोषः। ( श्रप्रशस्तै कविधभावपिण्डः असंयमः स च सप्तदशविधः ' असंजम ' शब्दे प्रथमभागे ८२३ पृष्ठे निरूपितः ) १ | द्विविधः श्रज्ञानाऽविरती चशब्दो मिथ्यात्वशब्दानन्तरं योजनीयः, श्रत्र मिथ्यात्वकषायाऽऽदयः स यत्रैवान्तर्भूता विवक्षितास्ततो न द्विविधत्यव्याघातः, एवमुत्तरचाप्यन्तर्भावभावना भावनीया. ( अप्रशस्तद्विवि भावपिण्डान्तर्गतम् अज्ञानम् १ अक्षाण शब्दे प्रथ मभागे ४८७ पृष्ठे सविस्तरं निरूपितम् । ) (तन्मध्यगा दशविधाऽपि अविरतिः २- अविरह शब्दे तस्मिन्नेव भागे ८० पृठे निरूपिता )२ विविध:- मिध्यात्वं थरादादज्ञानापिरती (मिध्यात्वम् १-मिच्छत श दादपगन्तव्यम्) (अहाना २-विरती स्वस्वस्थाने गते) ३ । चतुर्विधः चत्वारः क्रोधाऽऽवयः क्रोधमान माया लोभाः, ( तत्र क्रोधस्वरूपम् कोड शब्दे तृतीयभागे ६८३ पृष्ठे गतम्) (तस्थानेकविधोधरूपाऽत्मप्रतिष्ठितत्वाऽऽदिभेदाः सदण्डकाः ' कसाय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३६५ पृष्ठे उक्ला) (मानम् २' मा शब्दे विस्तरतोपवामि (माया ३- माया' शब्दादबलोकनया) (लोभः, तत्फलानि च ४लोम शब्दे पक्ष्यामि) ४ पञ्चविधः पञ्चाऽऽअचद्वाराणि प्राणानिपातनादसादानमैथुनपरिमहरूपाणि (नव " " २३० (ERX) अभिधान राजेन्द्रः । 3 , पिंड प्राणातिपातः १-पाणापाय' शब्देऽस्मिन्नेव मागे ८४३ पृष्ठे रूपितः ) (पावादम् २ मुखाचाय' शब्दे श्याम) ( दत्ताऽदानम् ३- 'अदत्तादाण' शब्दे प्रथमभागे ५२७ पृष्ठे ग तम् (मैथुन मेरा शब्दे सहयामि) (परिग्रह " 6 परिग्गह' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५५२ पृष्ठे गतः ) ५ । ह विधः (कार्यति) कायवधाः पृथिवीकायिकाऽऽदिविनाशाः, ( ते चायपतृतीयभागे १३४३ पृष्ठे निरूपि ताः ) ६ । सप्तविधः कर्मणि कर्मविषयो द्रष्टव्यः । इह क शब्देन कर्मबन्धनिबन्धनभूता अध्यवसाया गृह्यन्ते, भावपिण्डाधिकारात्, तत श्रायुर्वर्जशेषसप्तकर्मबन्धनिबन्धनभूताः काषायिका प्रकाषायिका वा परिणामविशेया जातिभेदापेक्षया सप्तभेदाः । सप्तविधोऽप्रशस्तो भावपिण्डः । ( अध्यवसायशब्दार्थः अज्भवसाय ' शब्दे प्रथमभागे २३२ पृष्ठे गतः ) ( ते च अध्यवसायाः अणुभागबंधद्वारा ' शब्दे प्रथमभागे ३६६ पृष्ठे विस्तरतो निरूपिताः ) ( सप्तविधकर्मज्ञानाय तृतीयभागे २४३ पृष्ठगतः कम्म शब्दो द्रष्टव्यः ) ७ । अष्टविधोऽपि भाafter:- कर्म्मविषयः । तत्रापीयं भावना-कर्माहरूबन्धनिवन्धनभूताः कापायिकाः परिणामविशेषा जातिभेदापेक्षयाऽष्टभेदाः अविशस्त भाव विहः । अष्टविधं कर्म 'कम्म' शीया २८ पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादितम् ) ( अनुतीओ ति ) नव ब्रह्मचर्यगुप्तिप्रतिपक्षभूता नव ब्रह्मचर्या गुप्तयः, (ताश्व भरगुति शब्द बयान ) तथा अधः-शयतिपक्षभूतः ( स चाधर्मः ' अध (इ) म्म' शब्दे प्रथमभागे ५६६ पृष्ठे गतः ) दशविधोऽप्रशस्तो भावविएडः १० । 4 " - 4 6 सम्प्रति प्रशस्ता प्रशस्तयोर्भावापेण्डयोर्लक्षणमाहबज्र य जेण कम्मं, सो सब्बो होइ अप्पसत्यो उ । मुच्चय जेण सो पुरा, पत्थओ नवरि विभे ॥ ६४॥ इह येन भाषपिरानेकविधा 55दिकेन प्रवर्त्तमानेन 'कम्मे ज्ञानावरणीयाऽऽदि बध्यते शब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः । स च दीर्घस्थितिकं दीर्घसंसारानुबन्धि विपाककटुकं येन वच्यते इति समुचिनोति स सर्वोऽप्यप्रशस्तो भावपिण्डो ज्ञातव्यः । येन पुनरेकविधा ऽऽदिना प्रवर्त्तमानेन कर्मणः सकाशात् शनैः शनैः सर्वात्मना वा मुच्यते स प्रशस्तो भावपिण्डो विशेयः । श्रह-पिण्डो नाम बहनामेकअ मीलनमुच्यते पिएनं पिएड इति व्युत्पत्तेः भाषाब्य संयमा यो पदा प्रवर्तन्ते तदेकण्या एच. एकरिमन् समये एकस्यैवाध्यवसायस्य भावात् ततः कथं पिएडत्वम् इति असरमाह दसवनाय परिचाय पअवा जे उ जतिया बाबि । सो सो होह तपक्खो, पजरषेपाला पिंडो । ६५ ।। इह चाहिये प्रभूत्यते तस्याऽपि विरति परिणामरूपतया चारित्रभेदत्वात् ततो दर्शनज्ञान बारि त्राणां प्रत्येकं ये ये 'पर्यषाः ' पर्यायाः अविभागपरिच्छेदरूपा यदा या 'यावन्तो' यत्परिमाणा वर्त्तन्ते स स तदा तदा त लदायी दर्शनाको ज्ञानाभ्यश्चारित्रास्यः पर्यवपालनाvिes, ' पर्याप्रमाणकरणेन पिएड, पर्यायसंहतिविवक्षया 3 Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनिधानराजेन्सः । पिण्डो भवतीत्यर्थः। इयमत्र भावना-दह यदा संयम एव के. यते स प्रशस्तो भावपिण्डः, येन त्वशुभं सोऽप्रशस्त इति । वलःप्राधान्येन विवश्यते, न तु सती अपि शानदर्शने, संयम- तदेवमुक्तो भावपिण्डः । पिं० । श्रोध० । पं० भा० । पं० चू० । स्य तदविनामावित्वेन तयोस्तत्रैवान्तर्भावविवक्षणात्,तदाये सम्प्रत्यमीषां पिण्डानां मध्ये येनात्रामस्य संयमस्याऽविभागपरिच्छेदाऽऽख्याः पर्यायास्ते समुः दायेनैकत्र पिण्डीभूय व्यवतिष्ठन्ते. परस्परं तादात्म्यसम्बन्धे. धिकारस्तमभिधित्सुराहन सम्बद्धत्वात् , ततः संयमपर्यायसंहत्यपेक्षया पिण्ड इति दव्वे अचित्तेणं, भावम्मि पसत्थरणिहं पगयं । संघम एकविधभावपिए डत्वेनोच्यमानो न विरुध्यते, यदा उच्चारियत्यसरिसा, सीसमइविकोवणढाए ॥ ६७॥ तु तस्मिन्नेव संयमरूपेऽध्यवसाये पृथग्ज्ञानविवक्षा क्रियाविवक्षा च भवति,यथा वस्तुयाथात्म्यपरिच्छेदरूपोऽशो शानं इह ' अस्यां पिण्डनियुक्तौ 'द्रव्ये' व्यपिण्डविषये प्राणातिपाताऽऽदिविरतिरूपः परिणामविशेषस्तु क्रियेति 'अचित्तेन ' अचित्तद्रव्यपिण्डेन 'भावे' भावपिण्डविषये तदा ये ज्ञानस्याविभागपरिच्छेदरूपाः पर्यायास्ते परस्परं ता पुनः 'प्रशस्तेन' प्रशस्तभावपिण्डेन 'प्रकृतं' प्रयोजन, दात्म्यसम्बन्धेनावस्थिता इति शानपिण्डः । ये तु क्रियाया यद्येवं तर्हि शेषाः किमर्थमभिहिताः?, अत आह-(उच्चा. अविभागपरिच्छेदरूपाः पर्यायास्ते क्रियापिण्डः, ततो द्वि रिए' त्यादि) शेषा-नामाऽऽदयः पिण्डाः पुनरुच्चारितार्थविधो भावपिण्डो ज्ञानक्रियाऽऽख्यः प्रतिपाद्यमानो न विरु सदृशाः उच्चरितः-प्रतिपादितः योऽर्थः पिण्डशब्देनान्व. भ्यते, यदा तु तस्मिन्नेव संयमरूपेऽध्यवसाये पृथग् शान थंयुक्तेन तत्सदृशाः-तेन तुल्याः, तेषामपि पिण्डा इत्येवविवक्षा दर्शनविवक्षा चारित्रविवक्षा च, यथा वस्तुया मुच्चार्यमाणत्वात् , ततः शिष्याणां मतेः विकोपनं प्रको. थात्म्यपरिच्छेदरूपोऽशो शानं तस्मिन्नेव वस्तुनि परिच्छिद्य पनं झटिति तत्तदर्थव्यापकतया प्रसरीभवनं तदर्थमुक्ताः। माने जिनैरित्थमुक्तम् , अत इदं तथेतिप्रतिपत्तिनिबन्धनं रु इयमत्र भावना-जगति नामाऽऽदयोऽपि पिण्डा उच्यन्ते, चिरूपः परिणामविशेषो दर्शनं, प्राणातिपाताऽऽदिविरति तत्रापि पूर्वोक्तप्रकारेण पिण्डशब्दप्रवृत्तिदर्शनात् , केवलरूपस्तु परिणामविशेषश्चारित्रमिति, तदा ये ज्ञानस्यावि मिह तेषां मध्येऽचित्तद्रव्यपिण्डेन प्रशस्तेन च भावपिण्डे. भागपरिच्छेदरूपाः पर्यायास्ते समुदिता शानपिण्डो, ये तु नाधिकारः, न शेषैरप्रस्तुतत्वादिति, अस्यार्थस्य वैवि. दर्शनस्य ते दर्शनपिण्डः, ये तु चारित्रस्य ते चारित्रपि कत्येन प्रतिपादनार्थ शेषनामाऽऽदिपिण्डोपन्यास इति । एड इति त्रिविधो शानदर्शनचारित्राऽऽख्यो भावपिण्ड उप श्राह-मुमुक्षूणां सकलकर्मशृङ्खलाबन्धविमोक्षाय प्रश स्तेन भावपिण्डेन प्रयोजनं भवतु, अचित्तेन तु द्रव्यपिपद्यते, यदा तु तपोरूपोऽपि परिणामो भवति भिन्नश्च चा. रित्राद्विवयते तदा त्रयः पिण्डाः पूर्वोक्ताश्चतुर्थस्तु तपः एडेन किं प्रयोजनम् ?, उच्यते-भावपिण्डोपचयस्य तदुपिण्ड इति चतुर्विधो भावपिण्डः, यदा तु पश्च महाव्रता. पष्टम्भकत्वात् । न्येव केवलानि विवक्ष्यन्ते शानदर्शनतपांसि पुनस्तत्रैवान्त एतदेवाऽऽहभूतानि तदा ये प्राणातिपातविरतिपरिणामस्याविभागपरि- आहार उवहि सेजा, पसत्यपिंडस्सुवग्गहं कुणइ । च्छेदरूपाः पर्यायास्ते परस्परं समुदितत्वात् प्राणातिपातचिरतिपिएडः, ये तु मृषावादविरतिपरिणामस्य ते मृपावाद: आहारे अहिगारो, अट्ठहि ठाणेहि सो सुद्धो ।। ६८॥ चिरतिपिण्डः । एवं यावद्ये परिग्रहविरतिपरिणामस्य ते इहाचित्तद्रव्यपिण्डस्त्रिधा। तद्यथा-आहाररूपः,उपधिरूपः, परिग्रहविरतिपिण्ड इति पञ्चविधी भावपिण्ड उपपद्यते । शय्यारूपश्च । एष च त्रिविधोऽपि प्रशस्तस्य शानसंयमा. एवं शेषेष्वपि पिण्डेषु पिण्डत्वभावना भावनीया । एवम ऽऽदिरूपस्य भावपिण्डस्य 'उपग्रहम् ' उपष्टम्भं करोति, प्रशस्तेष्वपि भावपिसडेषु । तदेवं पिण्डनं पिण्ड इति भाव ततस्त्रिविधेनाप्येतेन यतीनां प्रयोजनं, केवलमिह प्रन्थे 'श्रविषयां व्युत्पत्तिमधिकृत्य संयमाऽऽदेः पिण्डत्वमुक्तम् । श्र धिकारः' प्रयोजनम्, 'आहारे' आहारपिण्डे, स चाष्टभिः थवा-भावपिण्डविचारे पिण्डशनः कर्तृसाधनो विवक्ष्यते, स्थानः उद्गमाऽऽदिभिः परिशुद्धो यथा यतीनां गवेषणीयो यथा पिण्डयति कर्मणा सहाऽऽत्मानं मिश्रयतीति पिण्डो, भवति तथाऽभिधास्यते। किं कारणमत्र विशेषत आहारभावश्चासौ पिण्डश्च भावपिण्डः । पिण्डेन प्रयोजनम् ?, अत आहएतदेवाऽऽह निव्वाणं खलु कर्ज, नाणाइतिग च कारणं तस्स । निव्वाणकारणाणं, च कारणं होइ आहारो ।। ६६ ।। कम्माण जेण भावे-ण अप्पगे चिणइ चिक्कणं पिंडं । सो होइ भावपिंडो, पिंडयए पिंडणं जम्हा ॥ ६६ ॥ इह मुमुक्षूणां 'कार्य' कर्तव्यं निर्वाण मेव, न शेष, खलु शब्दोऽवधारणार्थः, शेषस्य सर्वस्याऽपि तुच्छत्वात् । 'तस्य' येन 'भावेन' परिणामविशेषेण कर्मणां पिण्डं (चिकण निर्वाणस्य कारणं 'शानाऽऽदिनिक' शानदर्शनचारित्ररूपम्त्ति) अन्योऽन्यानुवेधेन गाढसंश्लेषरूपमात्मनि चिनोति स " सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः"। (तत्वा० ० भावो भवति भावपिराड़ः । अत्र हेतुमाह-यस्मास्पिण्डनमिति | १ सू०६) इति । वचनप्रामाण्यात् , ततस्तदवश्यमुपादेयम् , पिर ड्यते आत्मा स्वेन सह येन तत्पिण्डनं कर्म ज्ञानाऽऽवर- उपायसेवामन्तरेणोपेयप्राप्त्यसम्भवात् , तेषां शानाऽऽदीनां णीयादि तापिण्डयति आत्मना सह सम्बद्धं करोति स निर्वाणकारणानां कारणमष्टभिः स्थानः परिशुद्ध आहारः, भावस्तस्मात्कारणात्स भावपिण्ड इत्युच्यते । अत्र चेत्थं प्र. श्राहारमन्तरेण धर्मकायस्थितेरसम्भवात्, उद्गमाऽऽदिदोषदुशस्ताप्रशस्तत्वभावना-येन भावेन शुभं कर्म आत्मन्युपची. एस्य च चारित्रभ्रंशकारित्वात् । Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंड एतदेवाऽऽहारस्य निर्वाणकारणशानाऽऽदिकारणत्वं दृष्टान्तेन समर्थयते जह कारणं तु तंतू, पदस्स तेर्सि च होति पन्हाई । नाणाइतिगस्सेवं, आहारो मोक्खनेमस्स ॥ ७० ॥ 6 यथा पटस्य तन्तवः कारणं तेषामपि तन्तूनां कारणानि परमाणि भवन्ति एवम् अनेन प्रकारेण मानादिविक स्य (मोफ्यनेमस्त सि) नेमशब्दो देश्यः कार्याभिधाने रूढः, ततो मोक्षो नमः कार्य यस्य तस्य कारणं भवत्याहारः इह कश्चित् ज्ञानादीनां मोक्षकारणतामेव न प्रतिपद्यते, विचित्रत्वात्सत्स्वचित्तवृत्तेः । ततस्तं प्रति ज्ञानादीनां मोक्षकारणतां दृष्टान्तेन भावयतिजह कारणमणुवहयं, कर्ज साहेइ अविकलं नियमा । मोक्खक्खमाण एवं, नाणारी उ अविगलाई ॥ ७१ ॥ यथा बीजाऽऽदिलक्षणं कारणमनुपहतम् श्रग्न्यादिभिरविध्वस्तम् 'अधिक' परिपूर्ण सामग्रीसम्पत्रं नियमाद्राऽऽदिलक्षणं कार्यं जनयति । ' एवम् ' अनेनैव प्रकारेण ज्ञानाऽऽ दीयप्यधिकलानि परिपूर्णानि दानुपहतानि च निय मतः ' मोक्षक्षमाणि ' मोक्षलक्षण कार्य साधनानि भवन्ति । तथाहि संसारापगमरूपो मोक्षः, संसारस्य च कारणं मिथ्यास्वाशानाचिरतयः, तत्प्रतिपक्षभूतानि च ज्ञानाऽऽदीनि ततो मिथ्यात्वाऽऽद्दिजनितं कर्म निमती हानाऽऽया सेवायामपण च्छति यथा हिमपातजनितं शीतमनला सेवायामिति का रणानि मोक्षस्य ज्ञानाऽऽदीनि तानि व परिपूर्णानि शब्दा यूनुपहतानि च अनुपहतत्वं च चारित्रस्मादिदोषप रिशुद्धाद्दार सति नान्यथा ततोऽष्टभिः स्थानैराहारो तिमि इत्येतदत्र वक्रव्यम् । अत आहारपिण्डेनेाचि कारः । पिं० । तदेवमुक्लपिण्डे, पं०व० ३ द्वार दर्श० | प्रब० । पिण्डनीये, प्रश्न० ५ श्राश्र० द्वार । ( शय्यातरपिण्डः, राजपिण्डश्च स्वस्वस्थाने ) ( पिण्डप्रतिसेवना 'पडिसेवणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३६४ पृष्ठे उक्ता ) शरीरे पो० ६ चिच० कालिजे, ( कलेजा ) पिण्डो मांसेन विकृतिः । पं० व० २ द्वार | गुडाऽऽदिपिण्डवत्पिण्डः । स्कन्धे, अनु० । पिंडकापय पिण्डकल्पिक पुं० पिण्डवद्धिविगुवाऽऽहा ( ६२७) अनिधानराजेन्द्रः । - सामाचारीके, पृ० 1 संप्रति पिण्डकल्पिकमाह अप्पत्ते अकहिता, अहिगयपरिच्छ यचउगुरुगा । दोहिं गुरुतत्रगुरुगा, कालगुरू दोहिँ वी लहुगा || ५३६॥ सूत्रं नाम प्रागासीत् साधारणतं पिचाध्ययनमिदा मी तु दशवेकालिकगतं पिण्डेपणाऽध्यवनं तस्मिन्मा अ पविते यदि पिण्डस्याऽऽनयनाय तं प्रेषयति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः, कालेनापि च गुरुकाः । श्रथ सूवं प्राप्तस्तथापि यदि तस्यार्थमकथयित्वा प्रेषयति तदा चत्वारो लघुकाः, नवरमेकेन कालेन लघवः । अथ कथि तोऽर्थः परं नाद्याप्यधिगतः श्रथवाऽधिगतः परमद्यापि न तं सम्यक् श्रद्दधाति, तमनधिगतार्थमश्रद्दधानं वा प्रेषयतश्चत्वारो लघुकाः, तपसैकेन लधवः । श्रथाऽधिगतार्थमप्य , विरुविज्जुत्ति परीक्ष्य प्रेषयति तदा चत्वारो लघुकाः, द्वाभ्यां लघवः । त द्यथा तपसा कालेन च यत एवं प्रायश्चित्तमतःपढिए य कहिएँ अहिगएँ, परिहरती टिकपितो एसो । तिविहं तीहि विसुद्धं, परिहर नवगेण भेदेण || ५४० ।। पिपणाध्ययने पठिते तस्यार्थे कथिते तेन चाधिगते उ पलक्षणमेतत् सम्पण अतेि च यस्त्रिविधम त्पादनशुद्धपणानं निभिर्मनोवाक्कायैर्विशुद्धं यः परि हारविषयेण नवकेन भेदेन परिहरति । तद्यथा मनसा न गृह्णाति नाप्यन्यैर्यादयति, न च गृह्णन्तमनुजानीते । एवं च वाक्कायेनापि प्रत्येकं त्रिकमवसातव्यम् । एष पिण्डकल्पिकः । अत्र पिण्डनिर्युक्तिः x सर्वा वक्तव्या । वृ० १० उ० १ प्रक० ] ( त्रार्थे पिंडणिज्जुत्ति' शब्दोऽवलोकनीयः ) ( उनमाssदिदोषाणां प्रायश्चित्तमन्यत्रान्यत्र ) पूर्व सूत्रतो ऽतचीतपिण्डकल्प आसीत् दानी पुनर्दशवेकालिकान्तर्गतायां पिण्डेपणायामपि सूत्रताऽर्थतश्रापीतायां पिण्ड कल्पकः क्रियते सोऽपि भवति । व्य० ३ उ० । पिंडग-पिण्डक- पुं० । पिण्डकरूपे कर्दमे, यः पादयोः पिएडरूपतया लगति । श्रोघ० । 6 पिंडगुड- पिएडगुड- पुं० । कठिनगुंडे, अद्रवगुडे, प्रव० ४ द्वा र। पं० व० । पिंटयर-पिण्डगृह न० विपद व्य , ४ उ० । पिंटया पिएडना स्त्री० [सेवाऽऽदीनां खरडपाका उदेश्य प रस्परं संयोगे, ( २ गाथा ) पिं० । पिंडगर- पिएडनिकर- ५० दापितभक्तं पिण्डदाने च नि० चू० ८ उ० । पितृपिण्डे, मृनकभक्ते, श्राचा० २ ० १ चू० १ ० २ उ० । पिंडणिज्जुत्ति - पिण्डनिर्युक्ति - स्त्री० । पिण्डेषणाभिधपञ्चमाध्ययननिकी, ०। सा चैवम्"जयति जनमान परहितनिरतो विधूतकर्मजाः । मुपिचचरणपोषकनिरवद्याऽऽदारविधिदेशी ॥ १ ॥ नत्वा गुरुपदकमलं. गुरूपदेशेन पिडनिक्रिम् । विवृणोमि समासेन, स्पष्टं शिष्यावबोधाय ॥ २ ॥ " श्राह-निर्युक्तयो न स्वतन्त्रशास्त्ररूपाः, किं तु तत्तत्सूत्रपरतन्त्राः, तथा तद्व्युत्पश्याश्रयणात् । तथाहि सूत्रोपात्ता अर्थाः स्वरूपेण सम्बद्धा अपि शिष्यान् प्रतिनियुज्यन्ते नि तिं सम्या उपदिश्य व्याख्यायन्ते यकाभिस्ता नियुक्रः, भवताऽपि च प्रत्यक्षा पिडनिमि विवृणोमि तदेषा पिण्डनि कस्य सूत्रस्य प्रतिषजेति । उच्यते-शाभ्ययनपरिणामश्चूलिकायुगलभूषितो वैकालिको नाम + इरावैकालिकपनानिि Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२८) पिमणिज्जत्ति अभिधानराजेन्द्रः। पिमणिज्जुत्ति भुतस्कन्धाता च पश्चममध्ययनं पिण्डैषणानामकं, दशवै- वक्तव्यं, (अङ्गारदोषः 'आहार' शब्दे द्वितीयभागे ५२२ कालिकस्य च नियुक्तिश्चतुर्दशपूर्वविदा भद्रबाहुस्वामिना पृष्ठे गतः) (विशेषः-'अंगार' शब्दे प्रथमभागे ४२ पृष्ठ कृना, तत्र पिण्डैषणाभिधपश्चमाध्ययननियुक्तिरतिप्रभूतग्र- गतः) ६ । (धूमदोषः 'धूम' शब्दे चतुर्थभागे पृष्ठे २७६८ स्थत्वात्पृथक शास्त्रान्तरमिव व्यवस्थापिता, तस्याश्च पि- सामान्यत उक्तः ) (विशेषम् । सधूम' शम्बे वक्ष्यामि ) ७। एडनियुक्तिरिति नाम कृतं, पिण्डषणानियुक्तिः पिण्डनियु- तदनन्तरं (कारण त्ति) यैः कारणैराहारो यतिभिरादीयते, क्लिरिति मध्यमपदलोपिसमासाश्रयणाव,अत एव चाऽऽदा- | यैस्तु न, तानि कारणानि च वक्तव्यानि, (आहाराऽनयनावत्र नमस्कारोऽपि न कृतो, दशवैकालिकनियुक्त्यन्तर्गतत्वेन ऽऽनयनकारणानि 'वेयणा' शब्द वक्ष्यामि) ८। सूत्रे च तत्र नमस्कारेणैवात्र विघ्नोपशमसम्भवात् , शेषा तु निर्यु: विभक्तिलोप आर्षत्वात् , तदेवम् ' अष्टधा ' अष्टप्रकारा क्लिर्दशबैकालिकनियुक्तिरिति स्थापिता । अस्याश्च पिण्डनि- अष्टभिरर्थाधिकारैः सम्बद्धेति भावार्थपिण्डनियुक्तिः पिण्डैर्युक्लेरादावियमधिकारसङ्ग्रहगाथा षणानियुक्तिः । स्यादेतद् , पतेऽष्टावप्यर्थाधिकाराः किं पिंडे उग्गम उप्पा-यणेसणा (सं) जोयणा पमाणं च ।। कुतश्चित्सम्बन्धविशेषादायाता , उत यथाकश्चितडब्याः?, उच्यते-सम्बन्धविशेषादायाताः । तथाहि-पिण्डैषणाऽध्ययइंगाल धूम कारण, अट्ठविहा पिंडनिज्जुत्ती ॥१॥ ननियुक्तिर्वक्नुमुपक्रान्ता, पिण्डैषणाऽध्ययनस्य चत्वार्यनुयोग'पिडि संघाते' पिण्डनं पिण्डः सघातो, बहूनामेकत्र स. द्वाराणि । तद्यथा-उपक्रमो, निक्षेपः, अनुगमो, नयाश्च । तत्र मुदाय इत्यर्थः ।समुदायश्च समुदायिभ्यः कथञ्चिदभिन्न इ. नामनिष्पन्ने निक्षेपे पिण्डैषणाऽध्ययनमिति नाम, ततः ति त एव बहवः पदार्था एकत्र समुदिताः पिण्डशब्देनो पिण्ड इति अध्ययनमिति च व्याख्येयं, तत्राध्ययनमिति प्रा. च्यन्ते,स च पिण्डो यद्यपि नामाऽऽदिभेदादनेकप्रकारो वक्ष्य गेव तुमपुष्पिकाऽध्ययने व्याख्यातम् , इह तु पिण्ड इति ते,तथाऽपीह संयमाऽऽदिरूपभावपिण्डोपकारको द्रब्यपिण्डो व्याख्येयं, तत एव गवेषणा च एषणा च गवेषणैषणा,ग्रहणगृहीष्यते, सोऽपि च द्रव्यपिण्डो यद्यप्याहारशय्योपधिभेदा षणा, ग्रासैषणा च । गवेषणैषणाऽऽदयश्च उद्गमाऽऽदिवि. त् त्रिप्रकार, तथाऽप्यत्राऽऽहारशुद्धःप्रक्रान्तत्वादाहाररूप विषयास्ततस्ते वक्तव्याः । पिं०। एवाधिकरिष्यते. ततस्तस्मिन्नाहाररूपे पिण्डे विषयभूते प्र. ___ संप्रत्यस्या एषणायाः सकलदोषसंकलनमाहथमत उद्मो वक्तव्यः, तत्र उद्गम उत्पत्तिरित्यर्थः । उद्गमशब्देन च ह उद्गमतादोषा अभिधीयन्ते, तथाविवक्षणात् । सोलस उग्गमदोसा,सोलस उप्पायणा य दोसा उ । ततोऽयं वाक्यार्थ:-प्रथमत उद्गमगता आधाकर्मिकाऽऽदयो दस एसणा य दोसा, संजोयणमाइ पंचेव ॥६६६ ॥ दोषा वक्तव्याः, (ते च 'उग्गम' शब्दे द्वितीयभागे ६६२ सुगमा । सर्वसंख्यया सप्तचत्वारिंशत् एषणादोषाः; एतान् पृष्ठे, 'आधाकम्म' शब्दे च तस्मिन्नेव भागे २१६ पृष्ठादार विशोधयन् पिण्डं विशोधयति, पिण्डविशुद्धौ च चारित्रभ्य दर्शिताः) १ । ततः-( उप्पायण सि) उत्पादनमुत्पाद- शुद्धिः, चारित्रशुद्धौ मुक्तिसंप्राप्तिः । ना,धात्रीत्वाऽऽदिभिः प्रकारैः पिण्डस्य संपादनमिति भावः। उक्तं चसा वक्तव्या।किमुक्तं भवति-उद्गमदोषाऽभिधानानन्तरमुत्पा. "एए विसोहयतो, पिंडं सोहेर संसश्रो नत्थि । दनादोषा धात्रीत्वाऽऽदयो वक्तव्याः,(ते उत्पादनादोषाः उप्पा एए अविसोहिते, चरित्तभेयं वियाणाहि ॥१॥ यणा' शब्दे द्वितीयभागे ८३६ पृष्ठे गताः)२ । तत (एसण समणत्तणस्त सारो,भिक्खायरिया जिणेहि पम्मत्ता । ति) एषणमेषणा,सा वक्तव्या, (एषणादोषाः 'एसणा'श एत्य परितप्पमाणं, तं जाणसु मंदसंवेगं ॥२॥ ब्दे तृतीयभागे ५३ पृष्ठे समुक्ताः) ३ । एषणा त्रिधा । तद्य पाणचरणस्स मूलं, भिक्खायरिया जिणेहि पमत्ता। था-गवेषणैषणा, ग्रहणैषणा, प्रासैषणा च। तत्र 'गवेष' एत्थ उ उज्जममाणं, तं जाणसु तिव्वसंवेगं ॥ ३ ॥ अन्वेषणे, एषणा अभिलाषो गवेषणषणा, एवं ग्रहणैषणा पिंडं असोहयंतो, अचरित्ती एत्थ संसो नत्थि । प्रासैषणेऽपि भावनीय, तत्र गवेषणैषणा उद्मोत्पादनावि चारित्तम्मि असंते, निरत्थया होइ दिक्खा उ॥४॥ षयेति तवग्रहणेनव गृहीता द्रष्टव्या। प्रासैषणा त्वभ्यवहार चारित्तम्मि असंतम्मि, निव्वाणं न उ गच्छा। विषया,ततः संयोजनाऽऽदिग्रहणेन सा गृहीष्यते, तस्मादिह निव्वाणम्मि असंतम्मि, सब्बादिक्खा निरत्थगा॥५॥" पारिशेष्यादेषणाशब्देन ग्रहणैषणा गृहीता द्रष्टव्या, ग्रहणे तस्माबुद्माऽऽदिदोषपरिशुद्धः पिण्ड एषयितव्य इति । षणाग्रहणेन च प्रहणैषणागता दोषा वेदितव्याः, तथाविव. एसो माहारविही, जह भणिो सवभावदंसीहि । क्षणात् । ततोऽयं भावार्थ:-उत्पादनादोषाभिधानानन्तरं प्रहषणागता दोषाः शतितम्रक्षिताऽऽदयोऽभिधातव्याः । ततः धम्मावस्सयजोगा, जेण न हायति तं कुजा॥ ६७० । संयोजना वक्तव्या,तत्र संयोजन संयोजना गृद्ध्या रसोत्कर्ष. एष आहारविधिः पिएडविधिर्यथा येन प्रकारेण भणितस्ती सम्पादनाय सुकुमारिकाऽऽदीनां खराडादिभिःसह मीलनं, थैकराऽऽदिभिस्तथा कालानुरूपस्वमतिषिभवेन मया व्यासा द्रव्यभावमेदाद् द्विधा । वक्ष्यति च-'दव्वे भावे संजोय. ख्यात इति वाक्यविशेषः। पश्चाईनापवावमाह-(धम्मेत्यादि) णा य' इत्यादि ।(संयोजनादोषाः 'संजोयणा' शब्दादवगन्त- धर्माऽऽवश्यकयोगाः श्रुतधर्मचारित्रधर्मप्रतिक्रमणाऽदिव्याव्याः)४। ततः प्रमाणं केवलसख्यालक्षणं वक्तव्यं, (प्रमा- पाराः येन नहीयन्ते नहानि ब्रजस्ति, तत्कुर्यात् , तथापम् 'आहार' शब्दे द्वितीयभागे ५२१ पृष्ठे गतम्)५चकारः तथापवाद सेबेतेति भावः, साऽधुना हि यथायथमुत्सर्गासमुच्चये, सच मिन्नक्रमत्वात्कारणशब्दानम्तरं द्रष्टव्यः । ततः पवादस्थितेन भवितव्यं, या चापवादमासेषमानस्याऽ(इंगालधूम त्ति) अङ्गारदोषो धूमदोषश्च यथा भवति तथा। शऽस्य विराधना साऽपि निर्जराफला। Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडगिज्जुत्ति (३२६) भाभिधानराजेन्द्रः। पिंडविसोहि तथा चाह पिंडवाय-पिएडपात-पुं भक्कादिभिक्षालाभे,स्था-५ ठा०१ जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स। | उ.। मिक्षालामे, प्राचा०२ श्रु०१०१०१)। भैक्ये, सा होइ निअरफला, प्रज्मत्थविसोहिजुत्तस्स ॥६७१।। सूत्र.११०३ अ. ३ उ०। प्राचा० । यतमानस्य सूत्रोक्तविधिपरिपालनपूर्णस्य, अध्यात्मविशो- पिंडवायपडिया-पिएडपातप्रतिज्ञा-स्त्री०। पिण्डस्य पातो भोधियुक्तस्य रागद्वेषाभ्यां रहितस्येति भावः । या भवेद्विरा- जनस्य पात्र गृहस्थानिपतनम्, तत्र प्रतिज्ञा शानबुद्धिः धमा अपवादप्रत्यया सा भवति निर्जराफला । इयमत्र भा- पिण्डपातप्रतिज्ञा । पिण्डस्य पातो मम पात्रे भव स्विति बना-कृतयोगिनो गीतार्थस्य कारणवशेन यतनयाऽपवाद- बुद्धौ, भ० श. ६ उ० । अहमत्र भिक्षां लप्स्ये इत्यमासेबमानस्य या विराधना सा सिद्धिफला भवतीति। ध्यवसाये, प्राचा०२७०१ चू०१०१ उ०। तदेवं निक्षिप्त पिण्डपदमेषणापदं च, तनिक्षेपकरणाचाभि-पिंडविसद्धिकत्ता-पिएडविशुद्धिकतो-पुं० । जिनवल्लभगहितो नाम निक्षेपः, तदभिधानाचाभवत्परिपूणो पिण्डनियु- णिनि. सेन । " पिण्डविशुद्धिविधाता जिनवाभगकिरिति। णिः स्वरतरोऽन्यो वेति प्रश्ने, उत्तरम्-जिनवल्लभगणे: “येनैषा पिण्डनियुक्ति-युक्किरम्या विनिर्मिता। खरतरगच्छसंबन्धित्वं न संभाव्यते, यतस्तत्कृते पौषधद्वादशाङ्गविदे तस्मै, नमः श्रीभद्रबाहवे ॥१॥ विधिप्रकरणे धाडानां पौषधमध्ये जेमनाक्षरदर्शनाव्याख्याता यैरैषा, विषमपदार्थाऽपि सुखलितवचोभिः । कल्याणकस्तोत्रे च श्रीवीरस्य पञ्चकल्याणकप्रतिपादनाथ अनुपकतपरोपकृतो, विवृतिकृतस्तानमस्कुर्वे ॥२॥ तस्य सामाचारी भिन्ना, खरतराणां च भिन्नति । २३ मा इमां च पिएडनियुक्ति-मतिगम्भीर विवृण्वता कुशलम् । सेन०१ उल्ला। यदवापि मलयगिरिणा, सिद्धिं तेनाश्नुतां लोकः॥३॥ अर्हन्तः शरणं सिद्धाः, शरणं मम साधवः । पिंडविसुद्धिकहण-पिएडविशुद्धिकथन-नाभाधाकर्माऽदि. शरणं जिननिर्दिष्टो, धर्मः शरणमुत्तमः ॥४॥" पिं०नि० चू। दोषादूषितभक्तभणने, जी० ३ अधि०। पिंढत्थ-पिएडार्य-पुं० । समुदायार्थे, विशे। अनु। पिंडाविसोहि-पिएडविशद्धि-स्त्री० "पिडि' संघाते इत्यस्य पिंडदाण-पिण्डदान-न । पितृभ्यः पिण्डविसर्जने, आ चू० "इदितो नुम् धातोः"॥७१।५८॥ इति (पाणि०) नुमि कृते पि. एडनं पिण्डः संघातो बहुनां सजातीयानां विजातीयानां वा क४मा प्रथमं मृताय श्रेणिकमहाराजाय कूणिकेन पिण्डदानं ठिनद्रव्याणामेकत्र समुदाय इत्यर्थः। समुदायश्च समुदायिभ्यः कृतमिति ततो लोके रूढम् । “ खामिन् पिण्डाऽऽदिदानेन, कथश्चिदभित इति त एव बहवः पदार्था एकत्र संश्लिष्टाः क्रियते निर्वृतः पिता। तथा चके जनेऽप्येषा, प्रवृत्तिरभवत्त- पिण्डशब्देनीच्यन्ते,तस्य विविधमनेकैराधाकर्माऽऽदिपरिहा तः ॥७॥" भी०क०४०। (सेणिय'शब्दे विशेषं वक्ष्यामि) रप्रकारैः शुद्धिनिर्दोषता पिण्डविशुद्धिः। प्रव० ६७ द्वार । पिंडदोस-पिण्डदोष-पुं० । पिण्डस्योद्गमोत्पादनैषणादोषेषु, ओघ आहाराऽऽदेरनेकैराधाकर्मादिपरिहरिनिर्दोषतायापश्चा० १३ विव०। म्, ध०३ अधि० । ग०। पं० चू०। द्रवरूपं च जलमपि सम. यभाषया पिण्ड एव । तदुक्तम्-"पिडो देहो भन्ना, तस्स भ. पिंडपगडि-पिण्डप्रकृति-स्त्री. प्रवान्तरभेदपिण्डाऽऽत्मिका वटुंभकारणं दव्वं । एगमणेगं पिंड, समयपसिचं विप्राणासु नामकर्मप्रकृतिषु.पं० सं०३ द्वार । क०प्र० (ताश्च 'णाम हि॥१॥" ध०३ अधि० प्रव० । नि०चू०('पढमालिया' कम्म' शब्दे चतुर्थभागे १६६६ पृष्ठे उक्ताः) शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३७६ पृष्ठे विशेष उक्तः) पिंडरस-पिण्डरस-पुं०। खजूराऽऽदा, वृ० १ उ० २ प्रक० । उद्गमाऽऽदिदोषरहित आहारः(पिण्डरसद्रव्याणि ' लेव' शब्दे प्रसङ्गोमातानि) सुद्धो पिंडो विहिनो, समणाणं संजमायहेउ ति। पिंडलइय-पिण्डलतिक-त्रि० । पिण्डस्वरूपे समुदिते, "पिं सो पुण इह विमओ, उग्गमदोसाऽऽदिरहितो जो ॥२॥ उजाय पिंडलायं।" पाइo मा० २०० गाथा। शुबी निरवच एव पिण्डो भनाऽऽदिरूपो विहितो प्राह्यतया पिंडलग--पिण्डलक--न । पटलके, " पिंडलगपिहुणसंठाण- निरूपितः,गुरुभिरिति गम्यम् ।श्रमणानां साधूनाम्। कुत एतसंठिया । " पिण्डलकं पटलकं पटलपुष्पभाजनं तद्वत् | देवामित्याह-संयमस्य पृथिव्यादिसंरक्षणरूपस्यात्मनः खशपृथुलं संस्थानं तेन संस्थिता इति । स्था० ७ ठा०। रीरस्य,संयमरूपस्य वामनः,संयमायस्य वा संयमलाभस्य पिंडलिभ-देशी-पिण्डीकृतार्थे, दे० ना० ६ वर्ग ५४ गाथा। हेतुर्निमित्तं संयमा ऽत्महेतुः संयमायहेतुर्वा इति कृत्वा । शुद्ध स्यैव लक्षणमाह-स पुनः शुद्धः, इह पिण्डाधिकारे विशेयो पिंडवद्धश-पिण्डवर्द्धन-न० । कवलवृद्धिकारणे, भ० ११ श० सातव्यः, उनमदोषरहितो वक्ष्यमाणलक्षणाद्रमोत्पादनैष. ११०। खादूषणविकलाय इति पिण्डः । इति गाथाऽर्थः। पिंडवाएसया--पिएडपातैषणा-श्रीविगुवपिण्डहणेषणा-| उनमदोषाऽऽदीनामेव परिमाणमाहयाम्,माचा. २०१चू० २ १०३ उ०। सोलस उग्गमदोसा, सोलस उप्पायणाऍ दोसाउ । पिंडवाएसणारय-पिएडपातैषणारत-त्रि०। लम्धे पिण्डपाते | दस एसणाएँ दोसा, बायालीसं इय हवति ॥३॥ प्रासैषणारते, "संथारपिंडं वा एसणारए संति भिक्खुणे।" षोडशोहमदोषा प्राधाकाऽऽदयो वश्वमाणस्वरूपास्तथा प्राचा० २०१०२ ५०२ उ०। कोशोत्पादनायामपि वक्ष्यमाणनिकायां, तस्या वा दोपा। Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) पिंडविसोहि अनिधानराजेन्द्रः। पिंडेसणा दूषणानि धात्र्यावयः, तुशब्दोऽपिशब्दार्थो, नियोजित मिश्रदोषशब्दार्थः 'उम्मिस्स ' शब्ने द्वितीयभागे ८५० वायं प्राक, तथा दशैषणायां वक्ष्यमाणनिरुकायां, पृष्ठे उक्तः) ३६। (अपरिणतदोषः 'अपरिणय' शब्दे प्रथतस्या था दोषा दूषणानि शङ्किताऽऽदयः, सर्वमी मभागे ६०१ पृष्ठे गतः)४०(लिप्तदोषम् 'लित्त' शब्दे व. लने यत्स्यात्तदाह-द्विचत्वारिंशद्दीषा इति । एवमुक्तकमेण, च्यामि) ४१ । (छर्वितदोषः 'छडिय' शब्वे तृतीयभागे भवन्ति जायन्ते, इति गाथाऽर्थः । पञ्चा० १३ घिय । पिं० । १३४६ पृष्ठे उक्तः) ४२। वर्श | महा। सम्मा तेच द्विचत्वारिंशदोषा नामतो निरूप्यन्ते | पिंडविहाण-पिण्डविधान-न० । मनपानाऽऽदिलक्षणपिण्ड(प्राधाकर्मदोषः 'आधाकम्म' शब्दे द्वितीयभागे २१६ प्रहणविधी, पञ्चा। पृष्ठे उक्तः) १ ('उद्देसिय' शदे तस्मिन्नेव भागे ८१७ पृष्ठे नमिऊण महावीरं, पिंडविहाणं समासो वोच्छं। औद्देशिकदोष उक्तः)२।(पूतीकर्मदोषः 'पूर्वकम्म' शब्दे. ऽस्मिन्नेय भागे पक्ष्यते)३। (मिश्रजातदोषम् 'मीसजाय' समणाणं पाउग्गं, गुरूवएसाणुसारेणं ॥१॥ शब्ने वक्ष्यामि )४। (स्थापनादोषः 'ठवणा' शब्दे चतुर्थ नत्वा प्रणम्य, महावीरं वर्धमानजिनम् , पिण्डविधानं भ. भागे १६८२ पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादितः) ५। (प्राभृ क्लपानाऽऽदिलक्षणं पिण्डग्रहणविधिम्, समासतः संक्षेपेण न तिकादोषः 'पाहुडिया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ६१४ पृष्ठे पुनर्विस्तरेण पिण्डैषणाध्ययनाऽऽदाविव,मन्दमेधसां समासगतः)६ । (प्रादुष्करणदोषः ‘पाउकरण' शब्देऽस्मिन्नेव तो भणनस्यैवोपयोगित्वात् , वक्ष्ये भणिष्यामि । किंभूतमिभागे १८ पृष्ठे उक्तः)। (क्रीतदोषः ‘कीयगड' शब्दे तृ त्याह-गुरवो जिनाऽऽदयस्तेषामुपदेश आशा, तस्यानुसार तीयभागे ५६३ पृष्ठे गतः) । (प्रामित्यदोषः 'पामिश्च' आशाऽनुरूप्यं गुरूपदेशानुसारोऽतस्तेन, न तु स्वमनीषया । शब्देऽस्मिन्नेव भागे ८५३ पृष्ठे उक्तः) I (परिवर्तितदोषः इति गाथाऽर्थः । पञ्चा० १३ विव० 'परियट्टिय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ६२७ पृष्ठे उक्तः) १०। पिंडहलिद्दा-पिण्डहरिद्रा-स्त्री०। कन्दविशेष, भ०७ श०३ उग (अभ्याहतदोषः 'अभिड' शब्दे प्रथमभागे ७३० पृष्ठे गतः) | पिंडाइचउक्कविसोहि-पिण्डाऽऽदिचतष्कविंशति-स्त्री०। पिण्ड२१ । (उद्भिनदोषः 'उम्भिम' शब्दे द्वितीयभागे ८४० पृष्ठे उक्तः) १२ । (मालाडूतदोषम् 'मालोहड' शब्दे वक्ष्यामि) | शय्यावस्त्रपात्राणामाधाकाऽदिदोषराहित्ये,ध०३ अधिक। १३। (मालेद्यदोषः 'अच्छिज्ज' शब्दे प्रथमभागे १६७ पृ. पिंडार-पिण्डार-पुं०। गोपे, "असती जा एसा सा तं परिहे प्रतिपादितः) १४ । (अनिसृष्टदोषः 'अणिस?' शब्दे चरति, सा य नम्मयाए परकूले पिंडारो, तेण समं पलग्गितस्मिमेव भागे ३३६ पृष्ठे समुक्तः) १५। (अध्यवपूरकदोपः या।" आव० ४ अ० । “न मुग्धा किन्त्वसत्येषा,स तच्चरित'अझोयरय' शब्दे तस्मिन्नेव भागे २३४ पृष्ठे गतः) १६। मीक्षते । नर्मदा परकूले च, गोपेन सममस्ति सा॥१॥" (धात्रीयोषः 'धाईपिंड' शब्दे चतुर्थभागे २७४० पृष्ठे प्र. श्रा० क०४०। तिपादितः) १७ । (दूतीदोषः 'दूई' शब्दे तस्मिन्नेव भा | पिंडालुग-पिण्डालुक-पुं०। कन्दभेदे, प्रव० ४ द्वार । ध०। गे २६०४ पृष्ठे गतः) १८ । (निमित्तपिण्डदोषः ‘णिमित्त' शब्ने तस्मिन्नेव भागे २०८२ पृष्ठे उक्तः ) १६ । (श्राजीवन | पिंडि-पिण्डि-स्त्री० । भिन्तके, सूत्र०२ श्रु०६अ। लुम्ब्यादोषः 'आजीव' शब्दे द्वितीयभागे १०२ पृष्ठे गतः ) २०।। म्, शा० ११०१०। ('वणीमग' शब्दे बनीपकदोषं वक्ष्यामि )२१ । (चिकिपिडिकंडिमराय-पिरिडकुण्डिमराज-पुं० । काङ्कतिके नृपः त्सादोपः 'तिगिच्छा' शब्दे चतुर्थभागे २२३८ पृष्ठे गतः) | भेदे, ती०४६ कल्प। २२। (क्रोधदोषः 'कोहपिंड' शब्दे तृतीयभागे ६८६ पृष्ठे उक्तः ) २३ । (मानदोषम् 'माणपिंड' शब्दे वक्ष्यामि) पिडिम-पिण्डिम-त्रि० । पिण्डेन निवृत्तः पिरिडमः। घोषव२४ । (मायावो 'मायापिंड' शब्दे वक्ष्यामि ) २५ । (लो- जिते, स्था० १० ठा। पिरिडते, रा०श्राम। भदोषम् - लोभ ' शब्दे वक्ष्यामि )२६ । ( पूर्वपश्चात्संस्तुत पिडिय-पिण्डित-त्रि० । मीलिते, तं०। औ०। सम्मीलिते, दोषम् 'संथपिंड' शब्दे वक्ष्यामि )२७ । (विद्यापिण्डोषम् 'विजा' शब्दे वक्ष्यामि )२८ । (मन्त्रदोषम् ‘मंत' शब्दे आचू०१ अ-गुणिते,औ०। एकजातिमापन्ने,प्रा०म०१ अ.. यच्यामि )२६ । (सूर्ण दोषः 'चुस' शब्दे तृतीयभागे ११६६ अनु० उत्त० । पिरिडतं किमुच्यते?, इत्याह-“संगहियमाग. पृष्ठे उक्तः ) ३० । ( योगदोष 'जोगपिंड' शब्द चतुर्थभागे हीय,संपिडियभेगजाइमाणीयं । संगहियमणुगमोवा, बहरेगो १६४१ पृष्ठे गतः) ३१ । (मूलकर्मदोषम् 'मूलकम्म' शब्दे पिडियं भणियं"॥२२०४॥ विशेग एकीभूते, श्रोधाश्रा०म० । वक्ष्यामि ) ३२। (शङ्कितदोषम् ' संकिय ' शब्दे वक्ष्यामि) पिंडियणीहारिमा-पिण्डितनिहारिमा-स्त्री० । पिरिडता स(स एव 'एसणा' शब्दे च तृतीयभागे ५४ पृष्ठे गतः)३३ । (म्र. ती निर्हारिमा दूरे विनिर्गच्छति पिण्डितनिर्हारिमा । जी० ३ क्षितदोषम् 'मक्खिय' शब्दे वक्ष्यामि । विस्तरतः 'एसणा' प्रति०४ अधि० । पुद्गलसमूहरूपायां दूरदेशगामिन्यां च । शब्दे तृतीयभागे ५५ पृष्ठे उक्तः) ३४ । (निक्षिप्तदोषः ‘णि- औलागन्धघ्राणे, शा० १ १०१ अ०। क्वित्त' शब्बे चतुर्थभागे २०२३ पृष्ठे गतः)३५ (पिहित पिंडी-देशी-मञ्जर्याम् , दे० ना. ६ वर्ग ४६ गाथा। दोषम् 'पिहिय 'शब्देऽस्मिन्नेव भागे वदयामि) ३६ । (संहतदोषम् 'साहरिय' शब्दे वक्ष्यामि ) ३७ । (दायकदोषः पिंडेसणा-पिण्डेपणा-स्त्री०। पिरडं समयभाषया भक्तं, तस्यै'दायगदोस' शब्दे चतुर्थभागे २५०० पृष्ठे गतः) ३८(उ- षणा ग्रहणप्रकाराः। स्था० ७ ठा० । पा० । प्रव०। पि पा। Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३१) पिसणा अनिधानराजेन्छ। पिसणा एडस्य प्रह]षणायाम, सा च दरावैकालिकस्य पञ्चमेऽध्यय- जैकः त्यागी 'तारशः' शुखवृत्तो 'मरणान्तेऽपि' बर. ने, इति तदभ्ययनमपि पिण्डेषणेत्युच्यते । तव्याख्यानाय | मकालेऽप्याराधयति 'संघरं'चारित्रं, सदैव कुशलघुभाष्यकार माह पिण्डैषणानिक्षेपः ध्या तद्वीजपोषणान् । इति सूत्रार्थः॥४४॥ तथा-(पायरिए मूलगुणा बक्खाया, उत्तरगुणअवसरेण भायाय । त्ति) प्राचार्यानाराधयति, शुद्धभावत्वात् , श्रमणाँचापि पिंडज्मयणमियाणि, निक्खेवे नामनिष्फमे॥ ६१॥ । तारश आराधयति, शुद्धभावत्वादेव, गृहस्था अपि मुखपृ मूलगुणाः प्राणातिपातनिवृष्यादयः व्याख्याताः सम्यकप्र. समेनं पूजयन्ति, किमिति, येन जानन्ति 'तारा' शुद्धतिपादिता अनन्तराध्ययने, ततश्च उत्तरगुणाषसरेणोत्सरगु. वृत्तमिति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ पश०५ म. २ उ०।। गप्रस्तावेनाऽऽयातम वमध्ययनमिदानीं यत्प्रस्तुतम्, इह पिण्डेषणाचानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववद्यन्नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तथा अह भिक्खू जाणेज्जा सत्त पिंडेसणाओ, सत्त पाणेसचाह-निक्षेपे नामनिष्पन्ने, किमित्याह-- णाओ, तत्थ खलु इमा पढमा पिंडेसणा-असंसटे हत्थे पिंडो य एसणा य, दुपयं नामं तु तस्स नायव्वं । असंसढे मत्ते तहप्पगारेणं असंसहेणं इत्येण वा मत्तएणं चउ चउ निक्खेवेहिं, परूवणा तस्स कायव्वा ।।२३४॥ वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा सयं वा णं पिण्डश्व एषणा च द्विपदं नाम तु द्विपदमेव विशेषाभिधानं जाएजा, परो वा से दिजा फासुयं पडिगाहेजा, पढमा तस्योक्तसंबन्धस्याध्ययनस्य ज्ञातव्यं, चतुश्चतुर्निक्षेपाभ्यां नामाऽऽदिलक्षणाभ्यां प्ररूपणा, तस्य पदद्वयस्य कर्तव्येति पिंडेसणा १। अहावरा दोच्चा पिंडेसणा-संसटे हत्थे गाथाऽर्थः। दश० ५ ०१ उ० । ( पिण्डशब्दार्थविचा- संसढे मत्ते तहेव दोचा पिंडेसणा३ । अहावरा र: ‘पिंड' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽनुपदमेव कृतः) (एप- तचा पिंडेसणा-इह खलु पाईणं वा ४ संतेगतिया गाशब्दार्थः 'एसणा' शब्दे तृतीयभागे ४२ पृष्ठे विस्तरतो निरूपितः ) ( द्रव्यैषणाऽपि तत्रैव पृष्ठे प्रतिपादिता ) सड्डा भवति-गाहावती वा० जाव कम्मकरी वा, तेसिंच (भावैषणा चापि विस्तरतस्तत्रैव निरूपिता) (द्रव्यैषणाभावै. णं अमयरेसु विरूवरूवेसु भायणजाएसु उवणिक्खित्तषणयोर्भेदाश्च तस्मिन्नेव भाग ५३ पृष्ठे गताः) । पिण्डेषणा | पुवे सिया, तं जहा-थालसि वा पिढरंसि वा सरगांस च सर्वा उद्गमाऽऽदिभेदभिन्ना संक्षेपेण अवतरति नवसु को. वा परगसि वा वरगंसि वा अह पुण एवं जाणेाटीषु ताश्च कोटय ('कोडीकरण' शब्दे तृतीयभागे ६७६ / असंसटे इत्थे संसढे मत्ते, संसट्टे वा हत्थे असंसट्टे मत्ते, पृष्ठे दर्शिताः) से य पडिग्गहधारी सिया पाणिपडिग्गहिए वा से पुतवं कुम्वइ मेहावी, पणीअं वजए रसं । वामेव आलोएज्जा आउसो त्ति वा भगिणी ति वा एतेमजप्पमायविरो, तबस्सी अइउक्कसो ॥ ४२ ॥ णं तुमं असंसटेणं हत्थेण संसटेण मत्तेणं संसहेण वा तस्स पस्सह कल्लाणं, अणेगसाहुपूइअं । हत्थेण असंसटेण मत्तेणं अस्सि पडिग्गहगंसि वा पाविउलं अत्थसंजुत्तं, कित्तइस्सं सुणेह मे ॥४३॥ पिंसि वा णिहड्ड उचित्तु दलयाहि, तहप्पगार भायणएवं तु सगुणप्पेही, अगुणाणं च विवजए । जायं सयं वाणं जाएजा, परो वा एसो देजा फासुयं एस. तारिसो मरणंतेऽवि, आराहेइ संवरं॥४४॥ णिजं. जाव लाभे संते पडिगाहेजा, तच्चा पिंडेसणा ३॥ आयरिए बाराहेइ, समणे आवि तारिसे। अहावरा चउत्या पिंडेसणा-से भिक्खु वा भिक्खुणी वा गिहत्था वि ण पूयंति, जेण जाणंति तारिसं ॥ ४५ ॥ से जं पुण जाणेज्जा पिहुअं वा. जाव चाउलपलवं वा यतश्चैवमत एतद्दोषपरिहारेण "तचं ति" सूत्रं, तपः करोति 'मेधावी' मर्यादावर्ती ' प्रणीतं ' स्निग्धं वर्जयति अस्सि खलु पडिग्गहियंसि अप्पे पच्छाकम्मे अप्पे पज्ज'रसं' घृताऽऽदिक, न केवलमेतत्करोति, अपि तु मद्यप्र वजाए तहप्पगारं पिहुयं वा. जाव चाउलपलं वा मादविरतो, नास्ति क्लिष्टसत्त्वानामकृत्यमित्येवं प्रतिषेधः, | सयं वा णं जाएज्जा. जाव पडिग्गाहेज्जा । चउत्था पिंडे'तपस्वी' साधुः 'अत्युत्कर्षः' अहं तपस्वीत्युत्कर्षरहि- सणा ४ । अहावरा पंचमा पिंडेसणा-से भिक्खू वा भित इति सूत्रार्थः॥४२॥ (तस्स त्ति) 'तस्य' इत्थंभूत क्खुणी वा उग्गहियमेव भोयणजायं जाणिज्जा । तं जहा-- स्य पश्यतः 'कल्याणं' गुणसंपद्रूपं संयम, किंविशिष्टमित्याह-अनेकसाधुपूजितं, पूजितमिति सेवितमाचरितं, 'वि सरावसि वा डिडिमंसि वा कोसगंसिवा, अह पुण एवं जापुलं' विस्तीर्ण विपुलमोताऽऽवहत्वात् 'अर्थसंयुक्तं' तुच्छ णज्जा-बहपरियावन्ने पाणी दगलेवे तहप्पगारं असताऽऽदिपरिहारेण निरुपमसुखरूपमोक्षसाधनत्वात् कीर्तयि- ण वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा सयं० जाव पडिगाध्येऽहं श्रृणुत 'मे' ममेति सूत्रार्थः ॥ ४३ ॥ ‘एवं तु', | हिज्जा पंचमा पिंडेसणा ५। अहावरा छट्ठा पिंडेसणाउक्लेन प्रकारेण 'स' साधुः 'गुणप्रेक्षी' गुणानप्रमादाऽऽदीन् प्रेक्षते तच्छी लश्च य इत्यर्थः, तथा 'प्रगुणानां च प्रमादाss से भिक्खू वा भिक्खणी वा पग्गहियमेव भोयणजायं दीनां स्वगतानामनासेवनेन परगतानां चाननुमत्या विव- जाणिज्जा, जं च सयट्ठाए पग्गहियं, जंच परवाए प Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३२) पिसणा अभिधानराजेन्छः। पिच्छी ग्गहियं तं पायपरियावनंतं पाणिपरियावलं फासुर्य पडिगा तधम्मिका नाम,साच सुगमा७।पासु च सप्तस्वपि पिण्डैषहिजा,छट्ठा पिंडेसणा ६।प्रहावरा सत्तमा पिंडेसणा-से भि- णासु संस्पृष्टाऽऽद्यष्टभङ्गकाभणनीयाः,नवरं चतुर्थ्यांनानात्व. बखू वा भिक्खुणी वा० जाव समाणे बहुउज्झियधम्मियं मिति तस्या अलेपत्वात्संसृष्टाऽऽद्यभाष इति । प्राचा०२०१ भोयणजायं जाणा , जं चऽसे बहवे दुपयचउप्पयसमण- । चू०१० ११ उ.। भाचाराङ्गद्वितीयश्चतस्कन्धस्याऽदित माहणभतिथिकिवणवणीमगा गावकंखंति, तहप्पगारं उ- प्रारभ्य सप्ताध्यायीरूपायाः प्रथमचूडायाः प्रथम अध्ययने, ज्झियधम्मियं भोयणजायं सयं जाणेज्जा, परो वा से दे- स. १ अङ्ग । प्रा० चू० । प्रश्न। ध०। ज्जा. जाव फासुर्य पडिगाहेज्जा, सत्तमा पिंडेसणा,इच्चे- पिंडे सिका-पिण्डषिका-पुं० । पिण्डं भोजनमिच्छन्त्यन्वेषययाभो सत्त पिंडेसणाप्रो ७।। न्ति वा ये ते पिण्डषिकाः । पिण्डान्वेषकेषु,भ०६ श०३३ उ०। अथशब्दोऽधिकारान्तरे किमधिकरते सप्त पिण्डैषणाः पा- पिंडोलग-पिएडावलग-पुं०। 'पिडि 'संघाते, पिएज्यते तत्सऔषणाति । अथान्तरं मिर्जानीयात्-काः सप्त पिण्डैषणाः | गृहेभ्य प्रादायात्यते इति पिण्डः, तमवलगते सेवते पिण्डापनिषणाच । ताधेमास्तद्यथा-"असंसट्ठा १, संसट्ठा २, उद्ध- | बलगकः । स्वयमाहाराभावतः परदत्तोपजीविनि, उत्त०५ ग३अप्पलेवा, उग्गहिया ५,पग्गहिया ६ उज्झितधम्मा ७" अ० सूत्र। "पिंडोलए व दुस्सीले, परगानो न मुच्चद।" इति।मत्र व इये साधयो गच्छान्तर्गता गच्छनिर्गताश्च। तत्र | उत्त०५ अ । प्राचा० । सूत्र। गच्छान्तर्गतानां सप्तानामपि ग्रहणमनुज्ञातं, गच्छनिर्गतानां पिंसुली-देशी- मुखमारुतपूरिततृणवाद्यविशेषे, दे० ना० ६ पुनराययोईयोरग्रहः पञ्चवभिग्रह इति । तत्राऽऽद्यां ताबद्दर्शयति-तत्रतासु मध्ये खस्वित्यलङ्कारे इमा प्रथमा पि.पिक-पक-त्रि० ।" सर्वत्र ल-व-रामचन्द्रे" |८२७६॥ इति एषणा । तण्या-असंसृष्टो हस्तः, असंपृष्टं च मात्र, द्रव्यं वलोपः। प्रा०२ पाद । "पकाङ्गारललाटे वा"॥१॥४७॥ इस्यकापुनःसावशेष वा स्यानिरवशेष वा, तन निरवशेषे पश्चात्कर्म रस्येकारः । प्रा०१पाद । “पर्क पिकं परिणयं।" पाइना दोषस्तथाऽपि गच्छस्य बालाऽऽद्याकुलस्वात्तनिषेधो नास्त्य १४३ गाथा। तपय सूत्रे तच्चिन्ता न कृता। शेष सुगमम् १ । तथा अपरा पिकमांसी-पकमांसी-स्त्री० । संस्कृते गन्धद्रव्यविशेष, प्रश्न द्वितीया पिरडेपणा। तद्यथा-संसृष्टो हस्तः, संपृष्टं मानकमित्यादि सुगमम् । अथापरा तृतीया पिण्डैषणा । तद्यथा-इह ५ संव० द्वार। जलु प्रज्ञापकापेक्षया प्राध्यां दिक्षु सन्ति केचित् श्रशालवः । ते पिक्खण-प्रेक्षण-न० । प्रेक्षणं चक्षुषा निरीक्षणम् । प्रत्युपेषाबामी गृहपस्यादयः कर्मकरीपर्यन्तास्तेषां च गृहष्वन्यतरेषु । नाव णे, ओघ०।। नानाप्रकारेषु भाजनेषु पूर्वमुक्षिप्तमशनादि स्थानाजनानि पिचुमंद-पिचुमन्द-पुं० । निम्बे, नि० चू० १ उ० । बस्थालादीनि सुबोभ्यानि, नवरं सरगमिति शरिकाभिः पिच्च-नीर-न। उदके, दश• ७ श्रा। कतं सूर्पादि.परगं वंशनिष्पन्नं छश्वकाऽऽदि यरगं मण्यादिम पिञ्चा-प्रेत्य-अव्य० । परलोके, "पिच्चा न ते संति"। सूत्र० हार्घसूल्यं, शेषं सुगम,यावत्परिगृह्णीयादिति। अत्र च संस्ष्टा १०१०१०। संसूधसावशेषद्रव्यैरष्टौ भङ्गाः,तेषुचाष्टमो भगः संसृष्टो हस्तः, संसूर्य मात्र,सावशेषं द्रव्यमित्येष गच्छनिर्गतानामपि कल्पते । पीत्वा-स्त्री० । पानं कृत्वेत्यर्थे, कल्प० ३ अधिक्षण । शेषास्तुभता गच्छान्तर्गतानां सूत्रार्थहान्यादिकं कारणमाधि पिच्चिय-पिच्चित-मा कुस्तित्वाये लेखनोपकरणे, स्था०५ स्य कल्पते इति ।अपरा चतुर्थी पिराडैषणा-अल्पलेपा नाम | ठा०४ उ० । सा यत्पुनरेषमल्पलेपं जानीयात्सयथा पृथुकमिति भुमशाल्या- पिच्छ-पिच्छ-पुं०। न० पत्रे, शा०९ श्रु०१ मा पले, मा०१० थपगततुषं यावत्सम्दुलप्रलम्बमिति भुमशाल्यादितन्दुलानिति ३ अापक्षावयव विशेषे,उपा.१० प्रश्न । प्रज्ञा० मयूराभनव पूथुकादिके गृहीतेऽप्यल्पं पश्चात्कम्मोऽदि, तथा रहे, जी०१७ अधि०।" पिच्छाई पेहुणाई" पाइना० १२६ मरूपं पर्यायजातमल्पं तुषाऽऽदि त्यजनीयमित्येवंप्रकारमल्प- गाथा। यते," उन पिच्छ । " पाइ० ना० २२३ गाथा । लेपमन्यदपि धावणकाऽऽदि यावत्परिगृहीयादिति ४ाप्रथाप | विच्छाविस-प्रेक्षणीय-नाद्रष्टुं योग्य, कल्प. अधि०२क्षण। रापश्चमी पिपोषणा-अवगृहीतानाम । तद्यथा-स भिपुर्यावदुपहतमेष भोलकामस्य भाजनस्थितमेव भोजनजातं दीकि पिच्छाघर प्रेक्षागृह-नावास्तुविद्याप्रसिद्ध गृहे,चं०प्र०४पाहुन तंजानीयात्तत्पुनर्भाजनं दर्शयति । तद्यथा-शरावं प्रतीतं,जि पिच्छाभूमि-प्रेक्षाभूमि-खी। जमण्डपे, "रंगो पिचापिडर्म कांस्यभाजनं, कोशकं प्रतीतं, तेन च दाना कदाचिस्प- भूमी।" पाइ० नां०२७२ गाथा। मेषोदकेन हस्तो मानकं वा धौतं स्यात्तथा च निषिद्धं प्रह-पिच्छि-पिच्छिन-पुं०। मयूराऽऽदिपिच्छवाहिनि, भ०६ श० णम्।मथ पुनरे जानीयाबहुपर्यापनः परिणतः पाण्यादिषू: ३३ उ० । औ०।०। बकलेपस्तत एवं मास्वा यावत् गृह्णीयादिति । अथापरा षष्ठी पिच्छिज्जमाण-प्रेक्ष्यमाण--त्रि० । विलोक्यमाने, कल्प०१ पिपोषणा-प्रग्रहीता नाम स्वार्थ परार्थ वा पिठरकादेवख | अधि.५ तण । प्रश्न। सबका दिनोक्षिप्ता परेण च न गृहीता प्रवजिताय या दायिता,सा प्रकर्षण गृहीता प्रगृहीतातां तथाभूतां प्राभृतिका | पिच्छिली-देशी-लज्जायाम् , दे० ना०६ वर्ग ४७ गाथा। 'पापपर्यापन या पात्रस्थिती पाणिपर्यापनांवाहस्तस्थितांचा पिच्छी-पृथ्वी-खी । “इस्कृपाऽदी" ॥८।१।१२८॥ इति पापस्मतिग्रहीयादिति अथापरा सप्तमी पिण्डैषणा-उज्मि- ऋत इत्वम् । औ.। जं० । " स्व-थ्व-व-स्वां च-च-ज Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३३) पिच्छी अभिधानराजेन्सः। पिड भाः कचित्"॥८॥२॥१५॥ इति भास्थाने छाऽऽदेश। क्षपकोण्यारूढः सन् समकालं क्षयं मयतीत्यर्थः । ततः प. प्रा०२ पाद । वादनन्तरं तेषां कर्मणां क्षयीकरणादनन्तरम् अनुत्तरं सर्वेभ्यः पिज-पा-धा पाने , “ पिबेः पिज-उल-पट्ट-घोहाः " प्रधानमननन्तमन्तार्थग्राहकं कृत्स्नं समस्तवस्तुपर्यायग्राहक ॥८।४।१०॥ इति पिवतेः 'पिज' प्रादेशः । पिजह । प्रतिपूर्ण सकलैः स्वपरपर्यायैः सहितं निरावरणं समस्तापिबति ।प्रा०४ पाद। बरणरहितं, वितिमिरम् अशानांशरहितं. विशुद्धं सर्वदोपेय-न । पयिमाने नद्यादी, वृ०२ उ०। परहितं, लोकालोकप्रभावकं लोकालोकयोः प्रकाशकारकम्, एतादृशं केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पादयति, यावत् सयोगी प्रेमन्-न । अभिष्वले , सूत्र० १.१० १६ अ०। भवति, मनोवाकायानां योगो व्यापारस्तेन सह वर्तते इति पिजणिस्सिय-प्रेमनिःसत-न०। प्रतिरक्कानां दासोऽहं तव- सयोगी भवति । त्रयोदशगुणस्थाने यावत्तिष्ठति तावत् ईर्यात्यादिरूपे मिथ्यावचने, स्था० १० ठा। पथिकं कर्म बध्नाति, ईरणं ईर्या गतिस्तस्याः पन्थाःया पथः, ईर्यापथेभषमीर्यापथिकं. पथो ग्रहणं हि उपलक्षणं तस्य पिज्जदोसमिच्छादसणविजय-प्रेमद्वेषमिथ्यादर्शनविजय-पुं० । तिष्ठतोऽपि सयोगस्य र्यायाः सम्भवात् सयोगतायां केप्रेम राग इत्यर्थः, स च द्वेषश्चाप्रीतिरूपो मिथ्यावर्शनं, सां पलिनोऽपि सूक्ष्मसञ्चाराः सन्ति, तत् ईर्यापथिकं कर्म कीशयिकाऽऽदिप्रेमद्वेषमिथ्यादर्शनानि, तद्विजयः। रागडेष दृशं भवति?, तदुच्यते-सुखयतीति सुखः सुखकारी स्पर्श मिथ्यात्वजये, उत्स०। आत्मप्रदेशैः सह संश्लेषो यस्य तत् सुखस्पर्श, द्विसमयस्थि: पिजदोसमिच्छादसणविजएणं भंते ! जीवे कि जणयइ। तिकं द्वौ समयौ स्थितिर्यस्याः सा द्विसमया, द्विसमया स्थिमोयमा! पिज्जदोसमिच्छादसणविजएणं नाणदसणचरित्ता तिरस्येति द्विसमयस्थितिकम् । तत् द्विसमयस्थितिकस्वरूप माह-प्रथमसमये बद्धं स्वस्य स्पर्शनाय अधीनं कृतमधीनराहणयाए अन्भुतुति, अट्ठविहस्स कम्मगंठिविमोयणयाए करणात् स्पृष्टमापि द्वितीये समये तद्वद्धं स्पृष्टं वेदितं का. तप्पढमढाएणं जहाणुपुन्चीए अट्ठावीसइविहं मोहणिज्जं येन अनुभूतं तृतीयसमये निजीर्ण परिशाटितं, निष्कषायकम्मं उग्याएइ, पंचविहं नाणावरणिजं नवविहं दसणा- स्य उत्तरकालस्थितेरभावों वर्तते, उत्तरकाले सकषायस्य वरणि पंचविहं अंतराय एए तिमि वि कम्मसे जु- बन्धो भवति, परं केवलिनो न भवति। तदेव पुनः सूत्रकागवं खवेइ, तो पच्छा अणंतं अणुत्तरं कसिणं पडिपुत्रं रः भ्रान्तिनिवारणार्थमाह-तत् ईर्यापथिकं कर्म केवलिनो घद्धम भात्मप्रदेशः सह श्लिष्टं व्योम्ना पटवत् तथा स्पृष्ट निरावरणं वितिमिरं विसुद्धं लोगालोगप्पभावगं केवलव मसृणमपि कुज्यापतितशुष्कचूर्णवत् इति विशेषणद्वयन रनाणदंसणं समुप्पाडेइ जाव सजोगी भवइ ताव इरि- | केवलिनो हि निधत्तनिकाचितावस्थयोरभावः, पुनरुदीरितयावहियं कम्मं निबंधइ, सुहफरिसं दुसमयट्टिइयं तं पढम- म् उदयप्राप्तं सत् वेदितम् अनुभूतं, केवलिनो हि उदीरणा समए बद्धं विइए समए वेइयं तइए समए निजिन्नं तं बद्धं पुढे न भवति, ततो निजीर्ण क्षयमुपगतम ततः (सेयाले इति) एण्यत्काले आगामिनि काले अकर्मा चापि भवति,कर्मरहितो उदारियं वेडये निजि सयाले य प्रकम्म यावि भवइ ।७१ । भवति इत्यर्थः उमा हे भदन्त ! स्वामिन् ! प्रेग्यद्वेषमिथ्यावर्शनविजयेन जीवः पिज़बंधण-प्रेमबन्धन-न । खहबन्धने, कल्प०१अधि. ६ किं फलं जनयति । तत्र प्रेय्यशनेन प्रेम रागः, द्वेषः प्रसि क्षण। खो. मिथ्यावर्शनं संशयाऽदिभिर्विपरीतमतित्वं, प्रेय्यं च द्वेषअमिथ्वादर्शनं च प्रेय्यद्वषमिथ्यादर्शनानि, तेषां विजयःप्रे पिट्ट-पिट्ट-न० । उदरे, पश्चा० ३ विषः। य्यद्वषमिथ्यादर्शनविजयस्तेन जीवः किं फलमुत्पादयति। पिट्टण पिट्टन-न० । वनाऽऽदेरिख मुन्द्रादिना हनने, मौ०। तदा गुरुराह-हे शिष्य ! रागद्वेषमिथ्यादर्शनविजयेन जीवी " धनहीनरण्डारमणीभिरिव पुनः पुनः प्रक्षेपपुरःसरमुखशानदर्शनचारित्राणामाराधनाय अभ्युतिष्ठते, सावधानो भ- योत्पिडनेन कुट्टने," पिं०। एतच वस्त्रं धावयता साधुना वति; अभ्युत्थाय च अष्टविधकर्मणां ग्रन्थि घातिकर्मणां न कर्तव्यम् । मोघ०। सूत्र०। प्रश्न। कठिनजालं विमोचनार्थ क्षपयितुम् अभ्युत्तिष्ठते सावधानो भवति । अथ कर्मग्रन्थिविमोचने अनुक्रममाह-तत् प्रथ पिट्टावणया-पिट्टनता-स्त्री। पिट्टनप्रापिकायां परितापनाया. मतया यथानुक्रममष्टाविंशतिविधं मोहनीयं कर्म उद्घा. म्, भ० ३ ०० ३ उ०। तयंति, पकणिमारूतः सन् पयति, षोडश कषायाः, पिट्टिय-पिट्टित-त्रि.। कदर्थिते, प्रा०म० १० । दर्श। नव नोकषायाः, मोहनीयवयम् । एवमष्टाविंशतिविध मोहनीयकर्म विनाशयति, ततश्चरमसमये यत् क्षपय पितृ-पिष्ट-न मुद्राऽऽदिचूर्णे, वृ०१ उ०२ प्रकाउएरका:ति तत् क्रममाह-मतिश्रुतावधिमनःपर्यायावरणरूपं | दिशकुमभृतिके, वृ०१ उ०२ प्रक० । झा० । धनि । कर्म पश्चाभवविधं दर्शनाऽऽबरणीयं कर्म चतुदर्शना:- प्रा० मा तन्दुलक्षादे, दश०५ १०१ उ०। चोदे. रामाचतुर्दर्शनावधिदर्शनकेषलवर्शनाऽऽधरणं निद्रापशकम् , | छटिततन्दुलचूर्णे, भाचा. २१०१ चू०१०६ उ.पि. एवं नवविध दर्शनाऽऽवरणीयं कर्म, ततः पश्चात्पश्च. स्य तु मिभ्रताधेषमुक्तं पूर्वसूरिभिः-"पणदिणमीसो लुट्ठो, विधम्-अम्तरायम्, एतानि त्रीणि (कम्मंसे इति) स- प्रवालिश्रो सावणे अभवए। चउबासीए कत्तिभ्र-मगसि. कर्माणि विद्यमानानि त्रीणि कर्माणि युगपत् क्षपयति रपोसेस तिथि दिणा॥१॥" ध०२मधि। २३४ Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिड पित्तिवस 66 19 1 पृष्ठ-न०।" पृष्ठे धाऽनुत्तरपदे ॥ ८११२६ ॥ इति हस्य पिडियापिटिका स्त्री० मजूषायाम् ० ० ४ ० दुः । प्रा० १ पाद । पश्चाद्भागे, स० ३४ सम० । पिपृष्ठतम् अव्य० पश्चाद्भागे, स० ३४ सम० पृष्ठदेशमानित्यस्यर्थे, उत्त० १ अ० । सूत्र० । “अहं पिटुओ किया।" पृष्ठतः कृत्वाऽनादृत्य । सूत्र० १ ० १५ अ० । “पिटुना कडा।" पृष्ठतः कृत्वा, परित्यक्त्वेत्यर्थे, सूत्र ०१ ० ३ ०४७० ॥ पित- पृष्ठान्तन० ६४० पिट्टी अंतं पिते।" अपान द्वारे, नि० ० ६ उ० । गुदे, दे० ना० ६ वर्ग ४६ गाथा । पिट्ठकरंडग- पृष्ठकरण्डक न० । पृष्ठवंशवर्युनते अस्थिमण्डे पांशुलिकायाम्, जं० २ वक्ष० । तं० । जी० । अणु० । पिखउरा दे० ना० ६ वर्ग ५० गाथा । पिखरिया श्री० । मदिरायाम्" बिटसुरा परि महरा ।" पाइ० ना० २११ गाथा । (२४) अभिधानराजेन्द्रः । पिट्ठचंपा - पृष्ठचम्पा - स्त्री० । चम्पानगरीपृष्ठतोऽतिसमीपनगर्याम्, तत्र त्रीणि वर्षारात्राणि वीरप्रभुः कृतवान् । कल्प १ अधि० ६ क्षण । ( ' चंपा ' शब्दे तृतीयभागे ९०६८ पृष्ठे कएप उक्तः ) पिट्ठपणा - पिष्टपचनक- न० । सुरार्थ पिष्टपचनकं यत्र सुरास स्थानाय पिष्ठं पच्यते तत् पिष्टपचनकम् । भाजने जी० ३ति० १ अधि० २ उ० । पिट्टि सी० पृष्ठ १० "स्वराणां पराः प्रायोप १ ४ । ३२८ ॥ इत्यकारस्येकारः । प्रा० ४ पाद। "वेमाजल्या. द्याः स्त्रियाम् ॥ ८ । १ । ३५ ॥ इति स्त्रीत्वं वा । 'पिट्ठी, पिंटू ।' प्रा० १ पाद । शरीराङ्गभेदे, प्रश्न० । पिडिया पृष्टिचम्पा - स्त्री० [पम्पासमीपनगरीभेदे आ - म० १ अ० । प्रा० चू० । 66 पिङ्किमंस- पृष्ठमांस-पुं० । परोक्षस्प दूषणा55 विष्करणे, मन० २ श्र० द्वार पिट्ठिमंसं न खाइजा " पृष्ठमांसं परोक्षदोषकीर्त्तनरूपं न खादेन्न भाषेत । दश० ८ श्र० । पिट्ठिमंसिय-पृष्ठांसिक पुं० पराङ्मुखस्य परस्यावर्णवादकारिणि स०२० सम० अगुणभाषिणि, दा० अ आव० । " पिट्ठिवंस- पृष्ठवंश-पुं॰ । पृष्ठमध्यवंशके, ग० १ अधि० । पिट्ठी - पैष्टी - स्त्री० । व्रीह्यादिधान्य क्षोदनिष्पन्नायां सुरायाम्, वृ० २ उ० । पिडग-पिटक - न० । वंशमये पात्रे, “ भोयणापडयं करेद्र ।" भोजनस्थाल्याधारभूतं वंशमयं पात्रं पिटकं, तत्करोतीत्यर्थः । ज्ञा० १० २ श्र० । “गणिपिडए ।" गणिन श्राचार्यस्य पिटकमिव पिटकम् । बगिज इव सर्वस्वस्थानं गविषिटकम् । स्था० १० ठा० । श्री० । सूत्र० । अनु० । वृ० । नं० स० चन्द्रद्वये सूर्यये च ही चन्द्रो हो स एकं । । पिटकमुच्यते सू० प्र० १० पा००० (तानि कि वन्तीति जोसिव' शब्दे चतुर्थभागे १५६२ पृष्ठे उक्तम् ) ' पिडा- देशी सख्याम, दे० ना० ६ वर्ग ४६ गाथा । पिढर- पिठर- पुं० । भाण्डे, " पिठरो मठरी य कोलंबो। " पाइ० ना० १७२ गाथा । " ठोढः " || ८ | १ | १६६ ॥ इति ठस्य ढः । प्रा० १ पाद । पिठरग-पिठरक-पुं० । उखायाम्, आचा० २ ० १ ० १ अ०११ ४० गागलि कुमारपितरि उस० पानी नगरी तत्र शालनामा राजा, महाशालनामा भर्त्ता, तत्पुत्लो गागलिः। उत्त० १० अ० । ती० । प्रा० म० । " पिणद्ध - पिनद्ध - त्रि० । परिहिते, शा० १० २ ० । ० । औ० । विपा० । यन्त्रिते, तं० । बजे, रा० । शा० । “ पिण्द्धगेवेज्जविमलवरचिंधपट्टे " पिनद्धं परिद्दितं प्रैवेयकं प्रीवाऽऽभ रणं येन स तथा विमलवरो बद्धश्चिह्नपट्टो योधचिह्नपट्टो येन स तथा ततः कर्मधारयः । भ० ७ शु० ६३० । जी० । रा० । “ श्रोलचं परिहियं पिणद्धं च । पाइ० ना० १७५ गाथा । पिणद्धित्तए-पिनडुम् - अव्य० । बहुमित्यर्थे, प्रश्न० ४ श्र० द्वार । श्र० पिणात्र देशी - वलात्कारे, दे० ना० ६ वर्ग ४६ गाथा । पिलाइ पिनाकिन् पुं० शिवे " खुली सिवो पिसाई धा गिरिसो भवो संभू ।” पाइ० ना० २१ गाथा । श्राज्ञायाम्, पिसाई- देशी- आशायाम्, दे० ना० ६ वर्ग ४८ गाथा । पिभाग-पिण्याक-पुं० । खले, सूत्र० २ ० ६ श्र० । श्राचा० ॥ पिछिया पिनिका स्त्री० ध्यामकाये गन्धमन्ये उत्त ४ प्र० । पिही - देशी - तामनि कुशे, दे० ना० ६ वर्ग ४६ गाथा | पित्त-पित्त च० मायुनामके शरीरस्थधातुविशेषे, प्र०२८ द्वार० । शा० । कर्म० । प्रश्न० 1 ध० | आचा० | तलक्षणं च - " परिस्रवंस्वेदविदाहरागाः, वैगन्ध्यसंक्लेदविपाकको । प्रलापसूचं भ्रमिपीतभावः, पित्तस्य कर्माणि परन्त तज्ज्ञाः " ॥ १ ॥ स्था० ४ ठा० ४उ० । पित्ततो- पित्ततस् - अव्य० । पित्तोदये, व्य० ३ उ० । पित्तमुच्छा - पित्तमूर्च्छा स्त्री० । पित्तनिमित्तं मूर्च्छा पित्तमूपिसीके ०२४० पिसावल्या मना सूर्याया म् भ० १ ० १ ० । श्राव० । पित्तसंक्षोभे, आ० ० ५ अ० । व्य० । पित्तसंक्षोभादीपम्मोहे, ध० २ अधि० । पित्तसोणिय - पित्तशोणित - न० । पित्तप्रधाने शोणिते, स्था० ५ ठा० २३० पित्तिय- पितृव्य-पुं । पितृभ्रातारे, " भगवश्रो महावीरस्सा पित्तिए सुपासे । कल्प १ अधि० ५ करा । श्राचा० । दैनिक वि० [पितरोग तं त्रि० । । - वित्तियस पितृवशत्रि पित्रा "जाया पिसवा जारी, । पित्तिवता उता नारी पतिव्वसा । " व्य० ३३० । Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) वित्विज्जमाण अभिधानराजेन्द्रः । पियंगुवमाम पित्थिजमाण-प्रार्थ्यमान-त्रि० । कान्त्यादिगुणहेतुभूतैः प्रा. पिप्पली-पिप्पली-स्त्री० । कणानामके औषधद्रव्ये, भाचा०२ यमाने. औ०। शु०१०१०० उ०पश्चा। "पिलक्लू पिप्पलभेदो, पिध-पृथक्-अव्य० । " इवुती वृष्ट वृष्टि-पृथक्-मृदा-जप्त. सो पुण इत्थियाभिहाणा पिप्पली भन्नति।" मि०पू०३७०। के" ॥८।१।१३७ ॥ इतन्यमुत्वं च । प्रा० १ पाद ।" पृथ- पिप्पिया-पिप्पिका-स्त्री० । दन्तमले, नं०। कि धो धा"॥८१॥१८॥ इत्यनेन यस्य धःप्रा.१ पाद । पिम्म-प्रेमन-न० । मेहे, " नेहो पिम्मं रसोय अणुरानी।" "भम्स्यम्यम्जनस्य" ॥ ८।१।११।। कलुक, बहुलाधिकारात् घा कस्य मः" प्रा०१पाद।। पाइ ना० १२० गाथा। पिपीलियंड-पिपीलिकाण्ड-न० । कीटिकाएडे, कल्प०३ म. पिय-प्रिय-त्रि०। प्रेमविषये, स्था० ८ ठा०नि०मा. धि०६क्षण। यिते, सूत्र०१० १५५०प्रदेण्ये.हा०११०८मक. रूप० । भाटे, उत्त०१मापात्मनो हिते,उत्त०२५०. पिपीलिया-पिपीलिका-स्त्री०। कीटिकापरनामके त्रीन्द्रिय वशा०। प्रेमकर्तरि.हा०१० १२५०। चं० प्र०।दश। जीवभेदे, जी०१ प्रति०। प्रा०म० । प्रहा। प्राचा० । उत्त०। । प्रेमावहे, स्था०६ ठा० । प्रेमोस्पावके, स्था• १ ठा० । प्रेम. पिप्पा-देशी-मशकोन्मत्तयोः, दे० ना० ६ वर्ग ७८ गाथा । निबन्धने, रा०प्रीतिकरे, इन्द्रियाऽऽहादके, स्था०२ ठा०३ पिप्पडा-देशी-ऊर्णापिपीलिकायाम्,देना०६ वर्ग ४८ गाथा। उ०। द्रष्णामानन्दोत्पादके, रा०। सर्वजनाऽऽनन्दके, दर्श ५ तव । औ० । वामे, औ०। पिप्पडिय-देशी-यत्किञ्चित्पठित, दे. ना. ६वर्ग ५० गाथा। पियंकर-प्रियकर-पुं० । प्रियमनुकूलं करोतीति प्रियङ्करः। कपिप्पय-पुं०।पिशाचे, " ढयरा पुणाइणो पि-प्पया परेया | थश्चित्केनचिदपकृतोऽपि न तत्प्रतिकूलमाचरति, किन्तु ममपिसल्लया भूत्रा।" पाइ० ना.) ३० गाथा । व कर्मणामयं दोष इत्यवधारयन्नप्रियकारिण्यपि प्रियमेव थे. पिप्पर-देशी-वृषभ-हंसयोः, दे० ना० ६ वर्ग ७६ गाथा। मृते यः, तस्मिन्नेतादृशे अनुकूलाऽऽचरणे, उत्त० ११ १०। पिप्पल-पिप्पल-न० । अश्वत्थे, “पिप्पलं आसत्थं " पाइ० पियंकरकर-प्रियङ्करकर-पुं०। प्रियङ्करहस्ते, पा०क०। ना० २५८ गाथा। "विदेहे पश्चिमाऽऽशस्थे. क्षितिमण्डलमण्डनम् । पिप्पलग-पिप्पलक-पुं०। इस्वक्षुरे, विपा०१ श्रु०६ पाश्रो. क्षितिप्रतिष्ठितं नाम, नगरं सुप्रतिष्ठितम् ॥१॥ प्रियङ्करकरस्तत्र, राजा राजेव विश्रुतः। घ०। पात्रमुखाऽऽदिकरणाय लोहमये (ध.३अधि०) किञ्चिद् वक्रे खुरविशेष, पितुरप्रे, वृ. ३ उ०। जीत० । सू. शुचिः कुवलयोल्लासी, प्रसन्नचन्द्रनामकः ॥२॥" श्रा०क० १०। (तत्कथा ' पसक्षचंद' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ८११ पापाचा जे भिक्खु पिप्पलगस्स उत्तरकरणं अमउत्थिएण वा। पृष्ठे समुक्ता) गारथिएण वा कारेइ, कारंतं वा साइजइ ॥१६॥ पियंग-पित्रङ्ग-न । पितुर्जनकस्याङ्गाम्यवयवाः पित्रमानि । प्रायः शुक्रपरिणतिरूपेषु पिनवयवेषु, " तो पियंगा पसपिप्पलगणहत्येणं, सोधणए चेव होंति एवं तु । ता। तं जहा-अट्ठी, मिंजा, केसमंसरोमनहे।" स्था० ३ ठा० रणव पण णाणतं, परिभोगे होति णायचं ॥ १८३॥ १०॥ पिपलगणहत्थे णं य कम सोहणे एकके चउरी सुत्ता, गाभ-प्रियङवाभ-त्रिका प्रियङ्गुः फालनातकस्त अत्थो पूर्ववत् । परिभोगे विसेसो इमो नीले, प्रव० २७ द्वार । “पासो मझी पियंगाभा ।" स्था०२ वच्छं छिंदिस्सामि, ति जाइउं पादछिंदणं कुणति। । ठा०४उ०॥ अधवा वि पादछिंदण-काहिंतो छिंदती बच्छं ॥१८४||पियंग-प्रिया-पु०। श्यामापर्याये फलिनीतरी, प्रव० ३० द्वाणक्खं छिदिस्सामि, ति जाइउं कुणति सल्लमुद्धरणं । राजा प्राचा।पञ्चमजिनस्य चैत्यवृक्षः। स । चम्पायां अहवा सल्लुद्धरणं, काहिंतो छिंदती णक्खे ॥१५॥ मित्रप्रभराजामात्यधर्मघोषभार्यायां धनमित्रसार्थवाहसुतसुपिप्पलगेण णक्खछ्यणाणं अप्पणे इमा विधी जातानुकारिकायाम्, श्रा० क०४०। श्रा००। श्राव। मज्झ व गेरिहत्ता णं, हत्थे उत्ताणयम्मि वा काउं। । ('संवेग' शब्दे कथा) वर्धमानपुरे धनदेवसार्थवाहमार्या. याम्, अञ्जूमातरि, स्त्री० । विपा० ११०१०१०। “पियंभूमीए व ठवेउं, एस विधी होति अप्पणणे ॥१८६॥ गुलो कंगू।" पाइथ्ना० २५६ गाथा। “फलिणी पियमा पिउभयतो धारणसंभवा मज्झे गेरहेऊण अप्पेति, सेसं कंठं। यंगू या" पाइ० ना० १४५ गाथा। कम्मं सोधिस्सामि, त्ति जाइतुं दंतसोधणं कुणति । पयंगलिया-प्रियङ्गलिका-स्त्री०। ब्रह्मदत्तभार्याया रत्नावत्याः अहवा वि दंतसोधण, काहंतो सोहती कस्मे ॥ १८७॥ सख्याम् , उत्त० १३ अ०। लाभालाभपरिच्छा, दुल्लभ अवियत्त सहस अप्पणणे । पियंगुवमाभ-प्रियङ्गवर्णाभ-त्रि० । प्रियङ्गुवर्णा इवाऽऽभा वारससु वि सुत्तेसु अ, अवरपदा होंति णायव्वा।।'ll छाया येषां ते तथा। प्रियङ्गुश्यामेषु, भा० म०१० नील नि.व.१०। वर्षे, प्रा००१ Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पियंत्रदा पिनंवदा -मियम्बदा - श्री० | सिद्धार्थराज दास्याम्, “ अस्मि अवसरे (पीर-जन्मसमये ) राहो, दासी नाना प्रियम्बदा । पुत्रजननोदन्तं गत्या शीमं न्यवेदयत् ॥ १ ॥ कल्प १ अधि० ५ क्षण । पियकारिणी प्रियकारिणी खी० भगवतो महावीरस्य मा तरि, कल्प० १ अधि० ५ क्षण । पिषगंधच प्रियगान्धर्व्य त्रि० गीतप्रिये प्रति० । ( १३६ ) अभिधान राजेन्खः । - पियग्गंथ -- प्रियग्रन्थ - पुं० । स्थविरसुस्थित सुप्रतिबुद्धयोः पशिष्याणां द्वितीये, कल्प० । प्रिवन्धकथा - (पियथेत्ति ) एकदा त्रिशतजिनभवनचतुःशतलौकिकप्रासादाष्टादशशत विशि छतवणिमोदनवशता :रामसरात वापीद्विशतकूप सप्तशत वागारविराजमाने अजमेरुनिकवनि सुभटपाल भूपाल संबन्धिनि दर्षपुरे श्रीप्रियग्रन्थसूरो अभ्येयुः तत्र चान्यदा द्विजैयगे छागो हन्तुमारेभे तैः श्राद्धकरार्पितवासक्षेप तं छा - गमागत्याम्बिकाऽभिष्ठिता, ततः स छागो नमसि वा । " बभाग - " इनिष्यत न मां बनीतायात मा छन । युष्मद्वन्नियः स्यां चेत् तदा इम्मि क्षणेन च ॥ १ ॥ यत्कृतं रक्षां कुपिते हनुमता तत्करोम्येष वः स्वस्थः, कृपा चेन्नान्तरा भवेत् ॥ २ ॥ यावन्ति रोमकूपाणि पशुगात्रेषु भारत ।। तार्षसहस्राणि पच्यन्ते पशुचातका ॥ ३ ॥ यो दद्यात् काञ्चनं मेरुं कृत्स्नां चैव वसुन्धराम । एकस्य जीवितं दद्या- न च तुल्यं युधिष्ठिर !॥ ४ ॥ महतामपि दानानां कालेन दीयते फलम् । भीताऽभयप्रदानस्य, क्षय एव न विद्यते ॥ ५ ॥ " इत्यादि । " कस्त्वं प्रकाशयात्मानं तेनोकं पायको ऽस्म्यहम् । ममेनं वाहनं कस्मा-त्रियांस पशुं वृथा ॥ १ ॥ इद्दास्ति श्रीप्रियग्रन्थः सूरीन्द्रः समुपागतः । तं पृच्छत शुभं धम्मै, समाचरत शुद्धितः ॥ २ ॥ यथा चक्री नरेन्द्राणां धानुष्काणां धनञ्जयः । तथा धुरि स्थितः साधुः, स एकः सत्यवादिनाम् ॥ ३ ॥ " ततस्ते तथा कृतवन्तः । कल्प० २ अधि० ८ क्षण । - पियजण प्रियजन - पुं० । मित्रजने प्रश्न० ३ श्रध० द्वार । पियजीव ( ) मयजीविन् चि जीवितुकामे, "सच्चे ग । पाणा पिवाया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीषिणो जीविकामा सव्वेति जीवियं पियं" सर्वे. प्राणिनो जन्तवः प्रियमायुर्येषु ते प्रियायुषः, ननु च सिद्धैभिवा न हि ते प्रियाऽऽयुषस्तद्भावात् नैष दोषो यती शुक्पादन प्राशस्योपरित मह जीवादिशव्युदासेन संसारमा पक्षखामि यत्किञ्चित् पाठान्तरं वा"सब्वे पाणा पियायया" आयत श्रास्माऽनाद्यन्तत्वात्स प्रियो येषां ते तथा सर्वेऽपि प्राणिनः प्रियाऽऽत्मानः । आचा० १ ० २ ० ३ ० । पिबद्ध या प्रियार्थता पिपख पान-न प्रीत्यर्थे ०११ ० ११४० ॥ दुङपनोदाय जलस्याभ्यवहरये पिं० । पियसुदंसण । पियदंसण- मिवदर्शन चि० प्रियं प्रेमकारि दर्शनं यस्य स प्रियदर्शनः सू० प्र०१० पाहु चं०प्र० प्रियं दर्शनं रूपं यस्य स तथा । भ० ११ श० ११ उ० । नि० चू० । प्रियं प्रेमावहं दर्शनं यस्य । प्रश्न० ४ श्रश्र० द्वार । वल्लभदर्शने, कल्प० १ अधि० १ क्षण । प्रेमकारिदर्शने, भ० १६ श० ६ उ० । प्रेमजनकारे, विपा० २ ० १ अ० । श्र० । मेरुपर्वते, स० १६ सम० । धातकीखण्डार्द्धदेवे, स्था० १० ठा० । जी० । द्वी० । जीत० । पियदंसणा - प्रियदर्शना-श्री० । अनवद्याङ्गथपरनामिकायां भगवतो महावीरस्य दुहितरि श्र० म० १ श्र० । श्रा० चू० । श्राचा० । श्र० क० । उत्त० । विशे० । ( सा च स्वभर्त्तरि जमाली मृते सहस्रपरिवारा प्रमजिता इति जमालिश तृतीयभागे १४०६ पृष्ठे उक्तम ) साकेतनगरराजस्य चन्द्रावतंसकस्य भार्यायां सुदर्शनासपत्न्याम् श्रा० म० १ ० । पियदढधम्म- प्रियहदधर्मन् पुं० । प्रियः प्रतिस्थानं स्थिरो विस्पष्यविमोचनाद् धर्मः श्रुतचारित्राऽऽमको यस्य सः प्रियदधर्म । प्रियधर्मत्वरधर्मत्वयति पा० १२ विव० । f , , पियधम्म- प्रियधर्मन् पुं० प्रियो धर्मों यस्य तन प्रीतिभावेन सुखेन च प्रतिपत्तेः स प्रियधर्मा । स्था० ४ ठा० ३ उ० । प्रिय इष्टो धर्मो यस्येति प्रियधर्मः । श्रघ० । धर्मप्रिये, शा० १ श्रु० ८ श्र० । व्य० ॥ प्रव。 । स्था० । धर्मश्रद्धालौ,' बृ० १ उ० २ प्रक० । एकान्तवल्लभ संयमानुष्ठाने, व्य० १ उ० । श्रा० म० । बृ० । तीव्ररुची, पं० ० ५ द्वार । पियमा प्रियतमा श्री० फलिन्याम् फलिणी पियमा 1 पियंगू य ।” पाइ० ना० १४४ गाथा । पियमाहवी - मियमाधवी स्त्री० । कोकिलायाम्, “पियमाद्दवी परहुआ : कलयंठी कोइला वणसवाई ।” पाइοना०४२ गाथा । पियमित्त प्रियमित्र न० सह पांशुक्रीडिता सू० १० १० ० । त्रयोविंशभवे वीरजीवे, स च अपरविदेहे सूकायां राजधान्यां धनञ्जयस्य राम्रो धारिण्या देण्याः कुक्षौ चतुरशीतलक्षपूर्वायुः प्रियमित्रनामा चक्रवर्ती बभूव कल्प अधि० २ क्षण । आ० चू० । प्रा० क० । षष्ठबलदेवपूर्वभयधर्माचा ति० स० , पियय मियक- पुं० । असनपये वृक्षभेदे श्री० । पिययम-मियतम- पुं० परी पिययम- प्रियतम - पुं० । पत्यौ, " रमणो कंतो पराई, पाणसमो पिययशो दओ ।" पाइ० ना० ६१ गाथा । पियरक्खिया- पितृरक्षिता- स्त्री० । पिनाऽकार्यानिवारितायाम्, औ० । - । पियरुव प्रियरूप वि० प्रीतिकारिस्वरूपे, विपा० २०० १ प्र० । पियसह - पितृसख- पुं० । पितृवयस्ये, आ० म० ९० ॥ पिपपपणचचरी प्रियवचनवारी श्री मिष्टवाणीमयम् सं० पियसुदंसस - प्रियसुदर्शन-पुं० । शोभनदर्शने, स्था० २ ढा० ४ ३० । " Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पियहुत अभिधानराजेन्दः। पिवासापरिसह पियहत-प्रियहत-न० । अभिमुखार्थे हुतशब्दः। प्रियाभिमु- पिल्लण-प्रेरण-न० । पारुढस्य पुंसोऽभिमुख दर्शनधाधनाखे, प्रा. २ पाद । दिना संशाकरखपूर्वके प्रवर्तने, अं०३ पक्षः। पिया-पिया-स्त्री० । दयितायाम् , सूत्र। पिल्लरी-देशी-गण्डुसंशक-तृणचरि-धर्मेषु , २० ना० ६ "प्रियादर्शनमेवास्तु, किमन्यैर्शनान्तरैः। वर्ग ७६ गाथा। प्राप्यते येन निर्वाणं, सरागेणाऽपि चेतसा ॥१॥" सूत्र०१ पिलि-पिलि-स्त्री०। यानभेदे, खाटानां यदुपभ्राणं रुढं तद. १० ३ १.४ उ०। न्यविषयेषु पिक्षिरित्युच्यते । दशा०६०। " स्नानाऽऽदिसर्वाङ्गपरिष्क्रियायां, पिन्ह-देशी-लघुपक्षिणि, दे० ना० ६ वर्ग ४६ माथा । विचक्षणःप्रीतिरसाभिरामः । पिव-इव-अव्य-"मिव पिव विव व्य व विनश्वार्थे वा" विश्रम्भपात्रं विधुरे सहायः, २॥१८॥ तीवार्थे पिवप्रयोगः।'चंदणं पिव ।' प्रा०२पाद । कोऽन्यो भवेन्नूनमृते प्रियायाः॥१॥" कल्प०१अधि०७क्षण। पिवडत्ता-पीत्वा-श्रव्य पानं कृत्वेत्यर्थे, स्था० ३ ठा०२ उ०। राजगृहनगरवास्तव्यभार्यायाम्, नि०१ शु० ४ वर्ग१०। पिवासा-पिपासा-स्त्री० । पातुमिच्छा पिपासा । सूत्र०१ पितृ-पुं०। पाति रक्षत्ययमिति पिता। उत्त० १ ० । शु० ३०१ उ० । कातातिरेके, उपा० २५० औ० । जजनके, सूत्र १ श्रु०६ अ० । जनको जनयिता यो वीजं नि लपानेच्छायाम् , शा०१ श्रु०६ अ० तृषि, स्था० १० ठा। षिक्तवान् । जं०२ वक्ष०। जीत "जनिता चोपनेता च, सापा० म०1" तरहा तिसा पिवासा।" पाइ० ना० यस्तु वियां प्रयच्छति । अन्नदाता भयत्राता, पञ्चते पितरः १३३ गाथा। स्मृताः॥१॥"शा०१ श्रु०१८ ० । पिवासापरिसह-पिपासापरिषह-पुं० । परिषद्यमाणा पिपासा पियाउमा-प्रियाऽऽयुष-पुं० । प्रियमायुर्वेषां ते प्रियाऽऽयुषः। पिपासापरीषहः । प्रव० ८६ द्वार । प्रा० म० । अपारदे. जीवितप्रिये, प्राचा० १७०२ १०३ उ०। वनेन पिपासापरिदवनसहने, पं० सं० ४ द्वार । " पिपापियामह-पितामह-पुं० । पितुः पितार, ब्रह्माणि चतुर्मुखे, | सितः पथिस्थोऽपि, तत्ववित् दैन्यवर्जितः । शीतोदकं ना. "कमलासणो सयंभू, पिया (आ) महो चउमुहो य पर भिलषेत्, मृगयेत्कल्पितौदकम् ॥१॥" आ० म० १०। मिट्ठी । थेरो विही विरिंची, पयावई कमलजोणी य॥१॥" प्रश्न। " पिपासितः पथिस्थोऽपि, तत्त्वविदैन्यवर्जितः। न पाइ० ना०३ गाथा । आचा। श्राव । प्रा० म०। शीतमुदकं वाञ्छे-देषयेत्प्रासुकोदकम् ॥१॥"ध० ३ अधिः। पियायय-प्रियाऽऽयत-पुं०। आयत आत्मा आत्मनोऽनाद्यन एतदेव सूत्रकृदाहन्तत्वात् प्रियो येषां ते तथा । प्रियाऽऽत्मकेषु, " सम्वे पाणा तो पुट्ठो पिवासाए, दुगुंछी लद्धसंजमे ।। पियायया।" प्राचा०११०२ १०३ उ० । सीओदगं न सेवेजा, वियडस्सेसणं चरे ॥४॥ पियाल-प्रियाल-पुं० । वृक्षभेदे, जं०४ वक्षः । “चारं पिया (तश्रो पुट्ठो ) तत इति तुत्पषिहात्तको वा उक्तविशेषलो भिक्षुः, स्पृष्टोऽभिद्रुतः, पिपासयाऽभिहितस्वरुपया (दुगुग्छी लं।" पाइ० ना०२५७ गाथा। ति) जगुप्सी, सामर्थ्यादनाचारस्येति गम्यते,अत एव लब्धोपिरडी-देशी-शकुनिकायाम् , दे० ना० ६ वर्ग ४७ गाथा। ज्याप्तःसंयमः पश्चाऽऽश्रवाऽऽदिविरमणात्मको येन स तथा, पिरिपिरिया-पिरिपिरिका-स्त्री० । कोलिकपुटकावनद्धमुखे। पाठान्तरं वा-" लज्जसंजमे त्ति" लज्जा प्रतीता संयम उवंशाऽऽदिनलिके वाद्यविशेषे, भ०५ श०४ उ०। आचा० । क्तरूपः, एताभ्यां स्वभ्यस्ततया सात्मीभावमुपगताभ्यामनन्य "पिरिपिरिया ततोणं सलागातोसुसिराम्रो जमलामो सं- इति स एव लज्जासंयमः । पव्यतेच-" लज्जासंजए ति" घातिजं ति मुहसूले एगमुहा सा संखागारेण घाइजमापी तत्र लज्जया सम्यग्यत्तते कस्य प्रत्यारतो भवतीति लज्जासंजुगवं तिमि सहे पिरपिरती करेंति । अझ भणंति-गुं | यतः सर्वधातूनां पचाऽऽदिषु दर्शनात्।स एवंविधः किमित्याजाएण वा भंडणा भवति ।" नि० चू०१७ उ० । ह-शीतं शीतलं, स्वरूपस्थतोयोपलक्षणमेतत् , ततः स्व कीयाऽऽदिशखानुपहतम् अप्रासुकमित्यर्थः। तच तदुदकंच पिरिली-पिरिली-स्त्री०। तृणरूपवाविशेषे, जी. ३ प्रति०४ शीतोदकं,न सेवेत म पानाऽऽदिना मजेत्किंतु-(विपरउ०। मि०पू०। गुच्छविशेषे वनस्पतिभेदे, प्रक्षा.१पाद । स्स लिविकृतस्य वक्ष्यादिना विकारं प्रापितस्यामासुकस्येपिलक्खु-प्लच-पुं० । पिप्पलभेदे, नि० चू. ३ उ० । प्र- ति यावत्। प्रक्रमादुदकस्य (पसणं ति) चतुर्थ्य द्वितीया। मा०स०। ततश्चषणाय गवेषणार्थ चरेत्तथाविधकुलेषु पर्यटेत् । अथपिलण-पेशी-पिच्छिले देश, देना०६ वर्ग ४६ गाथा। पा-एषणाम् एषणासमिति चरेत् चरतेरासेवायामपि दर्शना त पुनः पुनः सेवेत । किमुक्तं भवति?-एकवारमेषणाया भयपिलुटु-प्लष्ट-त्रि०। “लात्"॥८१।२। १६ ॥ इति अन्त्य. सावपि न पिपासाऽतिरेकतोऽनेषणीयमपि गृएहंस्तामुहस्थव्यम्जनात् पूर्व कारः। दग्धे, मा.९पाद । येद् इति सूत्रार्थः। पिद्धग-पिचक-पुं० । रानीबालके, व्य०२०। कदाचिजनाकुल एव निकेतनाऽऽदी बजातः स्वस्थ एवं पिदिन-चिप्स-पि० । उत्क्षिप्ते, “विच्छूटं उच्छितं, पपल्लि चैवं विदधीतेत्यत आह- . पिक्षि गलरियम।" पाई. ना०८३ गाथा। | छिमावाएम पंथेसु, पाउरेसु पिवासिए । .. Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • पिवासापरिसह परिसुकमुहेऽदी, तं तितिक्खे परीसहं ॥ ५ ॥ s छिन्नः अपगतः आपातो ऽन्यतोऽन्यत श्रागमनात्मकोऽर्थाखानस्य येषु ते वाऽऽपाताः, विविक्ता इत्यर्थः । तेषु पथिषु मार्गेषु गच्छत्रिति गम्यते कीदृशः सन्नित्याह-आतुरी अयन्ताकुलतः किमिति यतः सुछु प्रतिपिपासितस्तुषि तः सुपिपासित अत एव च परिशुष्कं विगतनिष्ठीवनतयानाईतामुपगतं मुखमस्येति परिशुष्कमुखः, स चासावदीनश्च देग्याभावेन परिशुष्कमुखादीनः तमिति तृपतितिक्षे तसदेत पठ्यते च - ( सव्वधी व परिव्यय शि) सर्व्वत इति सर्वान् मनोयोगादीनाधित्यचः पूरणे, परिव्रजेत् सर्वप्रकारं संयमाध्वनि यायात्, उभयत्रायमर्थो विविक्तदेशस्थोऽप्यत्यन्तं पिपासितः अखास्थ्यमुपगतोडापे च नोक्तविधिमुल वयेत्ततः पिपासापरीषहोऽध्यासितो भवतीति सूत्रार्थः । इदानीं नदीद्वारमनुसरन् " सीओदगं रा सेविजा " इत्यादिसूत्रावयवसूचितं निर्युक्लिकृत् दृष्टान्तमाह- ! उगी पगमिलो, पुत्तो से खुट्टओ अगसम्मा | तहाइ सोऽपीओ, फालगयो एल कच्छप ॥ ६० ॥ उज्जयिन्यां धनमित्रः ( से इति ) तस्य पुत्रः क्षुल्लकश्च धनपुत्रशर्मा (तराइतो त्ति) तृषितोऽपीतः कालगत एडकाक्षपथ - त्यत्तरार्थः । भावार्थस्तु संप्रदायादवसेयः । स चायम्-" एत्थ उदाहरणं किचि पडिवक्खेण किंचि श्रणुले मेरा । उज्जेणी नाम नयरी, तत्थ धणीमत्तो नाम वाणियत्रो तस्स पुत्ता धणसमा नाम दारो, सो धणमित्तो तेरा पुत्तेण सह पव्वइ । अन्या ते साडू माराला एल पट्टिया सोऽवि खुडगो तरहाइतो पति सोऽवि से खंतो सिणेहानुरागेण पच्छश्रो एति, साडुणो ऽवि पुरतो वच्चंति, अन्तरा वि नदी समावडिया, पच्छाते बुबा-यहि पुत इमं पालियं वाहि सोडावे तो नई उत्ति वितेति य-महागं ओखरामि. जायेसखु पाणियं पिप मा मे संकार न पाहि ति एते पडिच्छर, जाब खुट्टतो पत्तो पई पियति । इ ण भांति - अंजलीए उक्खित्ताए श्रह से चिंता जाया-पियामिति - हम पर हालाहले जीवे पिचिर ?, ण पीयं लाए छिनाए कालगतो, देवेसु उववरणो, ओपिडी, जाय खुट्टगसरीरं पासति तह अनुपि हो, खतं श्रलग्गति, खंतोऽवि पति त्ति पत्थितो, पच्छा तेरा तेसि देवे साहू गोटलाणि बिउब्वियाणि साह िता asयासु तकाईणि गिरहंति, एवं वईयापरंपरेण जाव जणवर्ष संपत्ता पार परंपार ते देवे विंडिया प साबिया जानिमित्तं एगो साहू पितो. पेच्हति विडिये. रात्थि वहया, पच्छा तेहिं णायं-सा दिव्वं ति, पच्छा तेरा देवेण साहुखो वंदिया, संतो न बंदिश्रो, तो सव्वं परिहे भरा पर अहं परिचतो तुमं णं पाणि पियाहि ति जदि में तं पाणियं पिवं होतं तो संसारं भमंतो, पडि गतो। एवं अहियासेयवं इत्यवसितः पिपासापरीषदः । अथास्याः कथाया व्याख्यारूपोऽनुवादोऽयम् " उपनी नाम नगरी तत्र जनमित्रो नाम पतितस्य पुत्रो धनशर्मा नाम दारकः, स धनमित्रस्तेन पुत्रेण सह प्रत्रजितः । अभ्यदा ते साधवो मध्याह्न वेलाया मेलकाक्षपथे प्र (३८) अभिधान राजेन्द्रः । " पिवासिय स्थिताः सोऽपि स्तृति पति सोऽपि तस्य पिता स्नेहानुरागेण पश्चादायाति खाधवोऽपि पुरतो नजन्ति अन्तराऽपि नदी समापतिता, पञ्चात्तेनोच्यते- पहि पुत्र ! इदं पानीयं पिब, सोऽपि वृद्धो नदीमुर्त्तीणश्चिन्तयति च मनागपसरामि । यावदेष क्षुल्लकः पानीयं पिबति, मा मम शया न पास्यतीति का प्रती पा नहीं न पिवति । केचिन्ति मलायामथ त स्य चिन्ता जाता - पियामीति, पश्चात् चिन्तयति - कथमहमेतान् हालाहलान् जीवान् पास्ये ?, न पीतम्, श्राशायां छि नायां काल गतः देवेषूत्पन्नः अवधिः प्रयुक्तः, यावत् क्षुल्लकशरीरं पश्यति तवानुप्रविष्टः बृजमयलगति प्रयोऽपि पतीति प्रस्थितः पचान्तेन देवेन तेभ्यः साधुभ्यो गोकुलानि विकु तानि साधवोऽपि तासु प्रजिकासु तफा 53दीनि ग्रहांन्त एवं व्रजकापरम्परकेण यावज्जनपदं संप्राप्ताः, पश्चिमायां कियां तेन देवेन चिरिएका विस्मारिता ज्ञाननिमितम्, एकः साधुः पश्यति चिटिकां नास्ति मजका प आशांत-सादिव्यमिति पत् तेन देवेन साधवो वन्दिवादितः ततः सर्व परिकथयति भणति पते नाहं परित्यक्तः - त्वमिदं पानीयं पिबेति यदि मया तत्पानीयं पीतमभविष्यत्तदा संसारमभ्रमिष्यम्, प्रतिगतः, एवमध्यासितव्यम् । उत्त० पाई० २ श्र० । अत्रोज्जयिन्यां धनमित्रकथा -- यथा उज्जयिन्यां धनमित्रो वणिक् धनशर्मनाना स्वसुतेन समं प्रवजितः अन्यदा मार्गे पुलस्तृपीडित नहीं रा पिताऽवादिबस पिप जलं पचादालोच नया दोषशुद्धियांविनी इत्युक्तको नेच्छति ततः पिता साधु स्वशङ्कानिरासार्थ शी नदीमुत्तीयां गतः हो नद्यां प्रविष्टः, जलाञ्जलिमुत्क्षिप्य चिन्तितवान् कथं जलं पिवामि ?, यतः " 9 3 गम्म उद्गवियुम्मि से जीवा जिबहिं पता। ते पारेवयमित्ता, जंबुद्दीवे न मायंति ॥ १ ॥ जत्थ जलं तत्थ वर्ण, जत्थ वणं तत्थ निच्छुत्रो अग्गी । तेऊ बाऊ सहगया, तसा य पश्चक्खया चैव ॥ २ ॥ हंतून परप्यावे, अध्याएं जे कुति सप्पाएं। अप्पा दिवसाणं, कए य नासेर अप्पाणं ॥ ३ ॥ " इति । संवेगेन जलमञ्जलितः पश्चाद्यत्नेन मुक्तं, ततस्तृपया मृत्वा स देवो जातः अवधिज्ञानादवगत पूर्वभववृत्तान्तेन सानामनुकम्पया पथि गोकुलं कृतं, तत्र तक्राऽऽदि शुद्धमिति गृहीत्वा साधवः सुखिनो जाता श्रग्रे चलिताः, तेन देवेन स्वस्वरूपापनार्थ एकस्य साधी चिटिका गोकुल स्थापि ता. विटा पश्चात् व्यासमुनिवचसा सर्वैरपि सा. धुभितगोकुलाभावस्तत्र दिव्यमाया ज्ञाता तत्पिण्डोज गविषयं मिथ्यादुष्कृतं दत्तं ततस्तत्राऽऽयान देन पितरं मुक्त्वा सर्वे साधवो यन्दिताः पित्रा बन्दनाकारणं पृष्ठ स देवः सर्व स्ववृत्तान्तं पितुर्जलपानानुमति च प्रोच्य गतो देवः स्वस्थानम् । एवं क्षुल्लकवत् तृट्परीषदः सोढव्यः । उ त० २ श्र० । श्राय० । - पिवासिय पिपासित त्रि० असाधारण दनासमुच्छलनात् । (जी० ३ प्रति० १ अधि० २ उ०) जातदुबे, प्रश्न ३श्रo द्वार । तृषिते, बृ० ४३० ॥ Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिचित्तए पिविच पातुम् अन्य जलमभ्यवहर्तुमित्यर्थे, श्री० । पिपलियंड पिपीलिकाएट १०पिपलियंड शब्दार्थे क ल्य० ३ अधि० ६ क्षण । पिबीलिया - पिपीलिका स्त्री० पिपीलिया' शब्दार्थ जी० १ प्रति० । (६३६) अभिधान राजेन्द्रः | पिव्व - देशी- जले, दे० ना० ६ वर्ग ४६ गाथा । पिथिल पिच्छिल शि० ।" श्रनादी " ॥ ८ ।४।२६५ ॥ इति मागध्यां वर्तमानस्य छस्य तालव्यशकाराऽऽकान्तः श्वः । सकर्दमे, यत्र पादौ विस्खलति । प्रा० ४ पाद । पिसंगय - पिशङ्गक- त्रि० । पीतवर्णे, " कविलं कपिसं पिंग पिसंगयं कडारं च ।" पाइ० ना० ६३ गाथा । पिसलय-पिशाच धुं "डबरा पुणाही पियवा परेवा - 1 पिसज्ञया भूश्रा य ।” पाइ० ना० ३० गाथा । पिसाच पिशाच धुं०" संचित पिशाचयोधः सह्री वा " ॥ ८ । १ । १६३ ॥ इति पिशाचशब्दस्य पिसिलादेशो वा । प्रा० १ पाद । व्यन्तरदेवभेदे, स्था० ८ ठा० । राक्षसे, स्था० १० ठा० । ते च पिशाचाः षोडशविधाः । तद्यथा - कूष्माण्डाः १, पदकाः २. जाषाः ३, श्रह्निकाः ४, कालाः ५, महाकालाः ६, चो ७.अक्षताल पिशाचाः ६. मुखरायाः १०. धस्तारकाः ११, देहाः १२. विदेहाः १३, महाविदेहाः १४, तू काः १५, वनपिशाचाः १६, इति । प्रज्ञा० १ पद । श्रा०क० । स० | प्रब० । ( ' ठाख ' शब्दे चतुर्थभागे १७०६ पृष्ठे एषां स्थानमिन्द्रस्यादर्शिषाताम् ) जातित्वात् श्रये पिशाची । कचित्रस्य जः । पिसाजी । प्रा० १ पाद । पिसाय - पिशाचकिन्- त्रि० पिशाचो ऽस्यास्तीति पिशाब की । " पिशाचात्कश्वान्ते " इत्यनेन मत्वर्थीय इन् कश्चान्ते । पिशाचेनाऽकान्तवपुषि भूताऽऽविष्टे, स्या० । पिसायभूय-पिशाचभूत-पुं० । पिशाचवद् भूतो जातो गम 4 66 कत्वात्समासः। ध्रुवावगुणितशरीरत्वेन मलिनवस्त्रत्वेन भूततुल्ये उत्त० १२० पिसायभूष "पिशाबी हि लौकि । " कानां दीर्घश्मनखरामा पुनका पांशुभिः समभिध्वस्त हुएस्ततः सोऽपि निष्प्रतिकर्मतया रजोदिग्धदेवतया चैवमुच्य ते । उस० पाई० १२ अ० । पिसिभ पिशित न मांसे पिसिद्धं खुशं मंसं" पाइ० ना० ११३ गाथा । पिसिज्जमाण - पिष्यमाण- त्रि० । संचूर्यमाणे, जं० ४ वक्ष० । पिसिय- पिशित- न० । पुनले मांसे पृ० ३३० । श्राष० । व्य० । सूत्र० । नि० चू० । पिखियाइयो पिशिताऽऽदिभोजिन् त्रि० मांसमयप्रभृतिकायम हिंसके पक्ष १३ विष० । पिसिल्ल - पिशाच- पुं० । ' पिसाच ' शब्दार्थे, प्रा० १ पाद । पशु-पशु-पुं०३०४ अधि । कुमशकजाती ४० नि० 1 पिहरुआ गाभिपह 1 1 पिमुख पिशुन बि० प्रीति शून्य करोतीति पिन - की शब्दनिष्पत्तिः । वृ० १३० १ प्रक० | परगुणासहनतया तदोषो द्वारके, सूत्र० १ ० १६ अ० । उत्त० । पर निन्दके, उत० ५ ० । वृ० । पिसुराभेया पिशुन भेदन-नभेद, परस्परं सम् द्वयोः प्रेमच्छेदने, प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार० । अथ पिशुनद्वारमाह पीई सुमति सुखो, गुरुगाई चरह जान लो । लहु उ अव असंता संते, लहूगा लहुगो तिही गुरुयो | (पीई सुखति स ) अलीकामतिराणि वा परदूषणानि भाषमाणः मौर्ति शून्य करोतीति पिशुनी शनि पतिः स च यथाऽचार्थः पैशुन्यं करोति तदा चत्वारो गुरवः, उपाध्यायः करोति चत्वारो लघवः, भिक्षुः करोति करोति मासगुरु शुकः करोति मारुलघु अम्मयाच " राह-गुरुगा इत्यादि) चतुसमाचापपाध्यायमिलकरूपाणां पैशुन्यकरणविषयभूतानां कर्तभूतानां यथाक्रमं गुरुकाऽदयां पायलपुमाखः प्रायश्चित्तम् अथ येति प्रकारान्तरोपन्यासे सामान्यतः यतः संयतः संयतेषु प शुन्यं करोति तत्रासति दूषविषये पैशुन्ये चत्वारो तपः सदूषणविषये लघुको मासः । एते एव प्रायश्चित्ते गृविषु गुरुके खास तथा गृहस्थषु असद्धिदाँपै पैशुन्य करोति चत्वारो गुरवः सद्भिः करोति गुरुमासः । वृ० १ उ० १ प्रक० | नि० चू० । श्रव । " पोरच्छो पिसुणों, मच्छरी स्खल सुमुहु य उप्फालो। " पाइ० ना० ७२ गाथा । पिमुखि कथित त्रि० कथिते, " वजीर सिद्ध-सूरउप्फालिन पिसुणिश्रइ साहिश्रयं ।” पाइ० ना० ८३ गाथा । पिसुया पिशुका - स्त्री० । श्रीन्द्रियजीवभेत्रे, प्रज्ञा० १ पद। जीन पिह-स्पृह - धा० । इच्छायाम्, “भियाइ, पिहार।” (भियाद)। स्पृहयति । यद्येवंविधं प्रहरणं मयाऽपि स्यादित्येवं तदभिलपति स्वस्थानगमनं चाभिलपति अथवा पिहा इति श्रक्षिणी पिधत्ते निमीलयति । भ० ३ श० २३० ॥ पृथक-अव्य० मि विशे पिहं पृथक् श्रव्य० । “ इदुतौ वृष्ट-वृष्टि- पृथस्- मृदङ्ग नप्तके ॥ ८ । १ । १३७ ॥ " इति ऋत इत्वम् । प्रा० १ पाद । " वा स्वरे मश्च ॥ ८ । १ । २४ ॥ इत्यनेन बाहुलकत्वात् कस्य अनुस्वारो वा । विभिन्ने, प्रा० १ पाद । नि० चू० । विशे० । पिहंड - देशी वाद्यविशेष विवर्णयोः, दे० ना० ६ वर्ग ६ गाथा ! पिहजण - पृथग्जन - पुं० । सामान्यजने, स्था० ३ ठा० १३० ॥ पिहड - पिटर - पुं० । “ पिठरे हो वा रच डः " ॥ ८|१| २०१ ॥ इति पिठरशब्दे ठस्य हः। तत्सन्नियोगे व रस्य डः । 'पिहडो' पिठरो । प्रा० १ पाद । स्थास्याम्, उपा० ७ श्र० । यत्र प्रभू: तजनयोग्यं धान्यं पच्यते । जी० ३ प्रति० १ अधि० २३० । पिहत्तत्र्यागामिपह- पिधत्तश्रागामिपथ - न० । अन्तरायकअंतराय शब्दे मर्मभेदे, स्था० ३ ठा० १ उ० । ( व्याख्या प्रथमभागे ६८ पृष्ठे गता ) । - Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिहनूय अभिधानराजेन्डः। पीउम्मत्त पिहन्भूय-पृथग्भूत-त्रि० । मिन्ने, विशे। पिहुणमिजिया-पिहुणमिञ्जिका-स्त्री.। मयूरपिच्छमध्यवर्तिपिहल-देशी-मुखमारतपूरिततृणवायविशेषे, दे० मा० ६ न्यां मिमिकायाम्, रा०। वर्ग ४७ गाथा। पिहुय-पृयुक-न० । शास्यादिखाजे, प्राचा० १९०१ चू. १ पिहाण-पिधान-न० । स्थगने, स्था• ४ ठा० ४ उ० । विशे। प्र० ६ उ० । अपगततुषे भुग्नशाल्यादी, प्राचा० १ ० १ सूत्र० । प्राचा। । म०७ उ० । इह ये ब्रीहयः परिपकाः सन्तो भ्राधाऽऽदौ भ. पिहाणिमा-पिधानिका-स्त्री०। आच्छादनकाम्, “पिहा- ज्यन्ते, ततः स्फुटिता अपनीतत्वचः पृथुका इत्युच्यते । वृ० णिमा मंडी।" पाइ० ना० २३३ गाथा। १ उ०२ प्रक०। पिहिम-पिहित-त्रि० । माच्छादिते, तिरोदिमं पिहिनं पिड्यखञ्ज-पृथुकखाद्य-त्रि) । पृथुकभक्षणयोग्ये, "पिडयअंतरिनं।" पाइ० ना० १७७ गाथा। खजारो सालीश्रो त्ति नो वए।" दश०७०। पिदधत्-त्रि० । स्थगयति, बा० १० १० पिहल-पृथुल-पि० । अतिपृथुनि, औ० । प्रा०म० । अतिविपिहिय-पिहित-नि० । स्थगिते, पश्चा० १३ विव०।दश। पुले, जं. २ वक्षः। विस्तीर्णे, स्था० १ ठा० । संस्थानभेदे. जीवा० । स्था० । ध। आचाग । कम्बलाऽऽद्यावृतश "एगे पिहले।” स्था० १ ठा०। ऊर्वोः, 'पिययं विउलं वित्थिरीरे, आचा० १ ० ६ ०२ उ० । सचित्तत्वेन स्थगिते णं वित्थयं रूविसालं ।" पाइ० ना० ८६ गाथा। उद्गमदोषविशेष, प्रध० २ द्वार । आचा०। (पिहितदोषः पिहुलवच्छ-पृथुलवक्षस्-त्रि० । पृथुलमतिविस्तीर्ण वक्षो. 'एसणा' शब्ने तृतीयभागे ५६ पृष्ठे प्रतिपादितः) दयं येषां ते । विस्तीर्णहृदयेषु, प्रश्न०४ आश्रद्वार। दगवारेण पिहिअं, नीसाए पीढएण वा। पिहोअर-देशी-तनौ, दे० ना० ६ वर्ग ५० गाथा । लोढेण वा वि लेवेण, सिलेसेण वि केणइ ॥४५॥ पीड-प्रीति-स्त्री० । रुचौ, विशेः । अभिष्वने, द्वा० २३ द्वा० । (दगवारेवत्ति) दकवारेणोदककुम्भेन पिहितं भाजनस्थं "प्रीतिश्च हितोदया भवति" प्रीतिश्चाभिरुचिरूपा हितोदसन्तं स्थगितम् । तथा (नीसाए त्ति) पेषण्या, पीठकेन वा या हित उदयो यस्याः सा तथा; भवति । षो०१० विव० । काष्ठपीठाऽऽदिना, लोढेन वापि शिलापुत्रकेण, तथा लेपेन आव० । प्रति० । पश्चा० । शा० । प्रीतिभक्तित्वे इच्छागतजा. मृल्लेपनाऽऽदिना, श्लेषण वा केनचिजतुसिक्थाऽऽदिनेति तिविशेषे, ध०१ अधि!"अत्यन्तवल्लभा खलु, पत्नी तकसूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ ता च जननीति । तुल्यमपि कृत्यमनयो-र्शातं, स्यात्प्रीतिभतं च उभिदिवा दिजा, समणवाएँ दावए । निगतम् ॥ ५॥" षो०१. विवः । दर्श । अष्ट। ('अनु. दितिनं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ।। ४६॥ द्वाण' शब्द प्रथमभागे ३७७ पृष्ठे व्याख्यातम् ) (तं च त्ति) तथ स्थगितं लिप्तं वा सत् उद्भिद्य दद्यापीइअणुद्वाण-प्रीत्यनुष्ठान-न० । “यत्राऽदोऽस्ति परमः,प्रीमणार्थ दायकः, नात्माऽद्यर्थम् सदुद्भिद्य दायको द- | तिश्च हितोदया भवति कर्तुः । शेषत्यागेन करो-ति यश्च तत् चात् । तदित्थंभूतं ददती स्त्रियं साधुर्वदेन मम कल्पते ता- प्रीत्यनुष्ठानम् ॥३॥" इत्युक्तलक्षणे नुष्ठानभेदेषो०६ विव०॥ हरामिति॥४६॥ दश०५१०१ उ०। "गुरुपिहिए चउ- ('अणुदाण' शब्दे प्रथमभागे ३७७ पृष्ठे व्याख्यातम्) गुरु।" पं. चू०१ कल्प । मुद्रिते, वृ० २ उ० । पीइगम-प्रीतिगम-न० । प्रानतदेवेन्द्रस्य पारियानिके बिमापिडियच्च-पिहितार्च-पुं० । पिहिता स्थगिताऽर्चा क्रोधज्वाला | ने, जं०५ विव० । औ० । स्था। येन स तथा । उपशान्तक्रोध, आचा०१६० अ०१ उ०। -पीतिदान-न। हर्षपूर्वके दाने, औ० । प्रीतिदानं पिहिबागामिपह-पिहिताऽऽगामिपथ-न०। पिधत्ते च आ यद्भगवदागमननिवेदने परमहर्षनिवेदने परमहर्षाभियुक्नेतरे. गामिनो लन्धव्यस्य वस्तुनः पथ आगामिपथस्तमिति । | भ्यो दीयते । श्रा० म. १० शा। यी कचिदागामिपथमिति दृश्यते । क्वचिच "आगामपहं ति" सन चलाभमार्गमित्यर्थः । स्था०२ ठा० ४ उ०। ( अंतरा पीइधम्मिश्र-प्रीतिधर्मिक-न० । स्थविराच्छ्रीगुप्ताभिर्गतस्य य' शब्द प्रथमभागे ८ पृष्ठे व्याख्या) चारणगणस्य द्वितीयकुले , कल्प०२ अधि०८ क्षण । पिरियाण-पिधान-म । स्थगने, स्था० ३ ठा० १३०। पीइबद्धण-प्रीतिवर्द्धन-पुंश लोकोत्तररीत्या कार्तिके, जं०७ पिहिचासष-पिहिताऽऽश्रव-पुं० स्थगितप्राणातिपाताऽऽचा- पक्ष। सू० प्र० । ज्यो। "पीश्वद्धणे मासे ।" कल्प०१. श्रवे, “पिहियासवस्स इत्तस्स, पावं कम्मं न बंधा।" यश धि०६क्षण। ४५०। पीइमण-भीतिमनम-त्रिका प्रीतिःप्रीणनमाप्यायनं मनसि यपिह-पृथु-नि। सामान्येन विस्ती, विशे०। स्येति प्रीतिमनाः । भ. श. ३३ उ०मा०। प्रीतियुक्तचि पिहर-पिहर-मनगरभेदे उत्तावादेशीये चम्पानगरीतः ते, कल्प०१ अधि०२क्षण | प्रा० म०1वशा० । भ०। प्रवाणमारा व्यापाराचे पिटु नगरं समायात इति। उत्त० पाई-दशा-तुरामा "न पीई-देशी-तुरामे, दे० ना०६ बर्ग ५१ गाथा। २१०। पीउम्मत्त-प्रीतोन्मत्त-वि० । प्रीतेन कनकेन परुतिरथन्यायेपिहुस-पिहस-न । मयूरपिच्छे, रा। । नार्थात् धातूदेकेणोन्मत्तः प्रीतोन्मत्तः। घूर्णिते,प्रष्ट०१५०। Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीऊस अभिधानराजेन्द्र पीढसप्पि (ण) पाऊस-पीयूष-न० । अमृते, " अमयं च सुहा य पीऊसं।" तत्थ उहाहो-समणो पडिउत्ति। एवं वंचणट्ठा दुटुतादिकयं पा० ना० १८३ गाधा। पासणतो अहियतरा उडाहपवंचणादोसा भवति । पीडरई-देशी-चोरस्त्रियाम् , दे० ना० ६ वर्ग ५१ गाथा । इमे संजमदोसापीडा-पीडा-स्त्री । बाधायाम् , पश्चा० १५ विव० । देहसमु गंभीरे तसपाणा, पुव्वं ठविते तविजमाणे वा।। स्थवेदनायाम् , पञ्चा०७ विव० । “किं ताए पढियाए, पय पच्नकम्मे य तहा, उप्फोसणधोवणादीणि ॥४७॥ कोडीए पयालभूताए । जत्थित्तियं न नायं, परस्स पीडा न गम्भीर गुक्लिं अप्रकाश, तत्थ दुनिरिक्खा कुंथुमादितसा कायब्वा ॥१॥" संथा। "अत्ती विश्रणा पीडा ।" पाइo पाणा ते विराहेज्जंति, एवं पुबटुविते समणट्ठा ठविजमाणे १६१ गाथा। वा इमो विद्रुतो-एगस्स रनो पुरतो साहुस्स तव्यनियस्स या दो साहू भणति-अरहंतपणीयो मग्गो सुद्दिट्ठो, इतरो बुपीडि-पीडित-त्रि० । वेदनाऽभिभूते, “अहिड्यं पीडि द्धपषीउ ति। एवं तेसिं बहुदिवसा गता, अमायरहो जाव परखं च।" पाइ) ना० १६१ गाथा । तेणागच्छंते ताव दोश्रमणा ठवित्ता अंडयाणि पत्थपच्छादिपीट-पीठ-नापासने,भ०२ श० ५उ० दशा०। स्था०। उत्त। तारिख कयाणि, तब्वनितो पुब्धि प्रागतो अपेहित्ता णिविट्ठो सिंहासनाऽऽदिके,उत्त०१७ अारा RTO | प्रश्न अंधक। साहू आगतो, वत्थं प्रवणीतं, दिट्ठा अंडा, अमासणे पमआसनविशेषे,श्री। पट्टाऽऽदिके,स्था०५ठा०२ उ० । उपा ज्जित्ता णिविट्ठी तुट्ठो राया, एस संमग्गो ति श्रोहाछगणाऽदिमये उपवेशनपट्टे, वृ. ३ उ० । पूर्वविदेहे पुष्क. मितो तब्बनिउ त्ति एतेण निल्लेवि ति चउत्थरसायणा लावतीविजये पुण्डरीकिरायां नग- वनसेनस्य तीर्थ- घा निल्लेवेति । एवं उप्फोसणादि पच्छाकम्मं करेज्ज। करस्य राक्षः सुते, वज्रसेनो हि पूर्वभवे ललिताङ्गो इमम्मि कारणे अधिटेजानाम देवः व्युत्त्वा कतिपयभवान् कृत्वा विदेहे चिकि वितियपदमणप्पज्झ,अहिढे अविकोविते व अप्पज्झे । सकसुत आसीत्तत्रायं सार्थवाहसुत आसीत् । प्रा० रायादिमंतिधम्मी, कहिवादिपराभिश्रोगे य ॥ ४६ ।। म० अ०(वृत्तम् ' उसभ' शब्दे द्वितीयभागे १९१८ पृष्ठे गतम् ) अस्मिन् भवे भ्रातृभिः सह प्रवजितः । पश्चा० १६ राया ममो वा अमचादि इडिमंतो धम्मकही बादी वा विव०। अनन्तरविमानादवतीर्य सुमङ्गलायामृषभदेवेन ज रायाभियोगादिणा वा अधिटेज्ज । निते बाहुभ्रातरि पुत्रे, प्रा. म. १० । प्रा० चूछ । इमा जयणाइचुनिपीडनयन्त्रे, दे० ना०६ वर्ग ५१ गाथा । आसने, पाह० पीढफलएसु पुच्वं, तस्सऽसतीए उ झुसिर परिभुत्ते । ना० १२० गाथा । पागडिएसु पमजिय, भावे पुण इस्सरे णातुं ॥ ५० ॥ पीढग-पीठक-न० । काष्ठमये छगणमये वा प्रासने, दश० पीठादि अमुसिरे पुव्वं अधि?ति, अमुसिराण असती - ५०१ उ० । ध० । पं० व० । वृ० । सिरे अधिटेति, मुसिरा वि जे गिहीतक्खणपुव्वं परिभुत्ता, पीढफलग-पीउफलक-२० । श्रासने, पीठमासनफलकमवए. तत्थ निवसंतो पागडिएसु पमज्जिय निवसति, तत्थ गि. म्भनार्थः। काष्ठविशेषे, दशा १० अ०। (निर्ग्रन्थीनां पीठ- हिवत्थं श्रवणेउं अप्पणो निसिज दातुं अधिोति, रायादिफलकम् 'पासण' शब्दे द्वितीयभागे ४४१ पृष्ठे उक्तम् ) इस्सराणि घरेसु जति पमजते तस्सत्तितो पमज्जति, अ. जे भिक्खू तणपीढयं वा पलालपीढयं वा छगणपीढयं ध कुकुर ति मन्नति तो पमजति। एवं भावाभावं गाउं पमवा कट्टपीढयं वा वेत्तपीढयं वा परवत्थेणोलणं अहिटेड, ज्जति ण वा। नि० ५० १२ उ०। अहिलुतं वा साइज्जइ ॥६॥ पीढफलगपडिबद्ध-पीठफलकमतिबद्ध-पुं०। पीठकमासनमा दिशब्दात्फलकपट्टिकाऽऽदयस्तत्र प्रतिबद्धः। कारणं विनापि पलालमयं तणपीढगं,वेत्तासणगं वेत्तपीढगं, भिसिमादिक ऋतुबद्धकाले पीठफलकपरिभोगिनि, ग० १ अधि०। ट्ठमयं छगणपीढयं पसिद्धं, परो गिहत्थो, तस्संतिएण वत्थेण पीढफलगसेज्जासंथार-पीठफलकशय्यासंस्तार-पुं० । काष्ठम. उच्छइयं तं जो साह अहिडेति,निवसतीत्यर्थः। तस्स चउलए, प्राणादिणो य दोसा यासनशय्याच्छादने, उपा०१०। पीढगमादी आसण, जत्तियमेत्ताउ आहिया सुत्ते । पीढमद्द-पीठमर्द-पुं०। पीठं मर्दयित्वा ये प्राप्ताऽऽसन्ना पपरवत्येणोच्छेत्ते, ताणि अहिद्वेति आणादी ॥ ४६॥ विशन्ति ते पीठमर्दाः । आव० १ ० । प्रा० म० । राक्षामास्थाने श्रासनाऽऽसीनसेवके वयस्ये, भ० ७ श08 इमे प्रायविराहणा दोसा उ0। कल्प० । मा0। औ० प्रा० चू०। दुट्ठियभग्गमपाए पडिज, तन्भावणा व से होजा। पीढया-पीठका-स्त्री० । प्रतिष्ठानपुरमतोल्या बहिर्देव्याम् , पवढेते उड्डाहो, वंचणडा कते अहियं ।। ४७॥ सा च प्रतिदिनचतुष्टयं परिणेतुर्विषयगृखस्य रामो मारपरेण जमासणं अजाणता पडिणीयट्टयाए पंचणा तु- गाथे विवाहवाटिकाग्रामवास्तव्यद्विजाऽऽराधिता प्रस्यतिष्ठट्टियं ठवियं, भग्गं वा ठवियं, एगदुति सब्यपादविरहियं । त् । ती० ३३ कल्प० । वा ठवियं, तत्थ वीसत्थी निविट्ठी पडिज्ज वा, निहोसे पीढसप्पि-(ण) पीठसर्पिन-पुं० । प्रसपेण संचरणशीले प. तम्भावणा वा से होम्जा, पडमाणो वा अवाउडो भवति । इविशेषे, जन्तुर्गर्भदोषान् पी पित्वेनोत्पद्यते, जातो पा २३६ Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौढसप्पि (यू) कर्मदोषा भवति स किल पाणिगृहीतकाष्ठः प्रसर्पतीति आचा० १ ० ६ ० १ ३० । पीडाशीय पीठानीकन० अश्वसेन्ये, स्पा० ५ डा० उ० पीढिया पीठिका - स्त्री० । उपवेशनाऽऽदिस्थानविशेषे, पृ० १ उ०२ प्रक० । “ झालंदी पीढिया ।” पाइ० ना० २६६ गाथा । 66 39 पी-पीन - त्रि० । उपचिते. जं० २ वक्ष० । जी० । स्थूले, शा० १ ० १ ० । प्रश्न० । पुष्टे, जं०२ बक्ष० । पीवरे, रा०|| शा० । पीण मट्टर मणिज्जगंडलेहा । पीना उपचिता मृष्टा मसृणा रमणीया रम्या गराडरेखा कपोलपाली यासां वाः पीनसह रमणीयनरेखाः जी० ३ प्रति पीस कवोल सभागा ।" पीनौ अकृशोपेतौ मांसलावुपचितौ कपोलदेशी गण्डभागी मुखस्य देशरूपी भागो येषां ते पीनमसल कपोलदेशभागाः । अथवा कपोलपोश भागाः कपो लदेश भागाः कपोलावयवा इत्यर्थः पीना मांसलाः कपोलशभागा येषां ते पीनमांसलकपोलदेशभागाः । जी० ३ प्रति० । "पीरारश्य संठिया ।” पीनं पीवरं रचितं तथा जगत्स्थिति स्वाभाव्यात् रतिदं वा संस्थितं संस्थानं यकाभ्यां तौ पीनरचितसंस्थितौ पीनरतिदसंस्थितौ वा । जी० ३ प्रति० ४ ङ) । " पीरणुन्नयकक्वक्णवत्थिष्परसा ।" पीना उपचितापमा उन्नता अभ्युताः कायदवस्तिरूपाः प्रदेशा यासां ताः पीतकावतीपतिप्रदेशाः जी०३ प्रति०४ अधिo | " रुंदा पीणा धूला य मंसला पीवरा थोरा । पाइ० ना० ७३ गाथा । चतुरस्रे, दे० ना०६ वर्ग ५६ गाथा । पीजि - प्रीणनीय त्रि० । प्रीणयतीति प्रीणनीयम् । "कृ- उ० " लम्" इति वचनात् कर्त्तनीयप्रत्ययः । प्रा० २० परसरुधिरादिधातुसमाकारिणि ००१० पीएचपीनत्व १० स्थूल मा २ पाद - - ( १४२ ) अभिधान राजेन्द्रः । " पीवाय पीनायिक-ग० पीना पाया, तया निर्वृतं पीनायिकम् । पामड्डानिर्वृते, ( रटिते ) " पीणाइयविरसरडिय सदेणं ।" ज्ञा० १ ० १ श्र० । पीणिमा पीनत्व श्री० "स्वस्थ डिमाती वा ॥ ८२ ॥ - । " ॥ १५४॥ इति त्वप्रत्ययस्य स्थाने डिमाऽऽदेशः । स्थूलत्वे, प्रा० २ पाद । पीणिय मीणित वि० परिवृद्धे दश०७० । पीथड - पीथड - पुं० । अर्बुदगिरितीर्थोद्धारकारके त्यवरिचण्डसिंहपुत्रे, सं० । “तत्त्राऽऽयतीर्थस्योलल्लो, महणसिंहभूः खलु पीथडस्त्वितरस्याभूत्, त्यवरिचर डसिंहजः ॥” ती० ७ कल्प। पीयन पीयक पुं० वृक्षविशेषे राजं पील-पीलन-न० इस्वादेरिव (० ० १ ० ) बन्ने । सकृदीषद् वा प्रेरणे, दश०४ श्र० । प्रश्न | - तदाक्षिप्तवेतसो द पीला पीडा त्री० । वशति वेतसी भावविराधमायाम् रा० ५ ० १ उ० । - पीलाकर- पीडाकर-त्रि० । पीडाकारिणि, सूत्र० १४० ३ ० १. उ० प्र० । पीलिम - पीडिम- त्रि० । पीडावति, दश० ३ श्र० । फीलिप पीडित भ० यन्त्रैरपडे, औ०रा० उत्त० । प्रश्न० 1 पुंछ एकास्किपिरोने१पद पीलु पीलु पु० श्राचा० । अनु० । रूपपूर्णिकायाम् आ० म० १ ० क्षीरे, अनु० बजे, "पोलू गधी मयगलो, पागो सिंधुरी क रे व दोषी ती वा-रोक कुंजरो इत्थी "पा ना० है गाथा । पीलुट्ठ- देशी- पृष्ठे ( दग्धे) दे० ना० ६ वर्ग ५१ गाथा | पीवइत्ता - पीत्वा पानं कृत्वेत्यर्थे, स्था० २ ठा० १ उ० । पीवर - पीवर त्रि० । स्थूले, शा० १ ० ६ श्र० ॥ भ० रा० । महति, प्रश्न० ५ संव० द्वार । शा० । प्रधाने, नि० चू० २ उ० । उपचिते, ज्ञा० १ ० १ श्र० । मांसले, हा० १ ० १ अ० पीचरफोमवरंगुलिया ।" पीवरा उपचिताः कोमला सुकुमारा वराः प्रमाणलक्षणेोपेततया प्रधाना श्रङ्गुलपो यासां ताः पीवरकोमलवराङ्गुलिकाः। जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।" रुंदा पीला धूला, य मंसला पीवरा थोरा ।" पाइ० ना० ७३ गाथा । पीवरगभा- पीवरगर्भा श्री० । आसन्नाऽऽ सबकालायाम्, श्रीघ० । पीवरपकोड - पीवरप्रकोष्ठ-पुं० । अकृशकलाचिके, औ० । पीवरसिरि-पीनरधीक त्रि। उपचितो मलम, अनु । पीवल-पीत भि० विद्युत्पत्र-पीताम्बाः ॥१७३॥ इति स्वार्थे खः। प्रा०२ पाद । "पीते वो ले वा " ॥ ८ ॥ १ ॥२९३॥ पीते तस्य वो वा भवति । स्वार्थे लकारे परे तस्य वः । प्रा० १ पाद । पीसंती - पीपंती बी । शिलायां नीलामलकादि प्रत्या म्, पिं० । श्रघ० । 1 पीसरा पेपण न० घरट्टाऽऽदिना दलने, प्रश्न० १ ० द्वार | नि० चू० । बृ० | सूत्र० । पीहेज्ज - स्पृहयेत् - क्रिया । त्रिभिः स्थानैर्देवा अभिलषेयुः स्था ३ डा० ३३० ॥ इतिदेवशब्दे चतुर्थभागे २६०७ पृष्ठे क्रम्) पीहा - स्पृहा स्त्री० । भोगेच्छायाम्,शा० १ श्रु० ६ श्र०। स्था०। पु पु । य० । प्रश्रवणे, श्रा० म० १ अ० । संस्कृतेरान्तःशरीरे, विशे० । पुअंड - देशी-तरुणे, दे० ना० ६ वर्ग ५३ गाथा । पुअंडा - पौगण्ड - पुं० । श्रवस्थाभेदे, " जुअलो जुन जुश्राणो, पुअंडो बोद्रहो तरुणो ।” पाइ० ना० ६२ गाथा । पुयाइसी- देशी-पिशाचपुडीतायाम्, दे० ना० ६ वर्ग ५४ गा था। उन्मत्तायाम्, दुःशीलायां च । दे०ना० ६ वर्ग ५४ गाथा । । दे० पुचाई- देशी-पुं० तरुणोम्मतपिशाचे ३० ना० ६ वर्ष ८० गाथा । पुंगव पुङ्गव त्रि० । प्रधाने शा० १ श्रु० १६ श्र० ! " यिगाओ भवणार्थ, विगाधी" उत्त० २२ प्र० । पुंछ - पुच्छ - न० । “ वक्राऽऽदावन्तः ॥ ८१ ॥ २६ ॥ इत्यागमरूपोऽनुस्वाराऽऽगमः । प्रा० १ पाद । पुंज पोल्छन- १० जसां हरणे, प्रश्न०२ संघ द्वार Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुंबण प्रभिधानराजेन्डः। पुंडरीय जे मिक्ख उच्चारपासवणं परिद्ववेत्ता णो पंछ। यविशेषष्वनन्तरभवे भाषी सव्यपौण्डरीकः । बलराम्रो च्छंतं वा साइज्जइ । नि० चू० ४ उ०। वाक्यालङ्कारे । भाषपौराडरीकं वागमतः पौण्डरीकपदार्थकरणे ल्युट । रजोहरणे, प्रोग्छनशम्येन तु रजोहरण- | शस्तत्र चोपयुक्त इति। मुच्यते । आह च चूर्णिकृत्-"पापंग्गहणेणं पापभंडयं एतदेव द्रव्यपौरहरीकं विशेषतरं दर्शयितुमाहपुंछणं रयहरणं ति बुच्चा ।" वृ० १ उ० ३ प्रक०।। एगभविए य बद्धा-उए य अभिमुहियनामगोए य । पुंछणी-पोञ्छनी-स्त्री० । निविडतराच्छादनहेतुलवणतर- एते तिमि वि देसा, दबम्मि य पोंडरीयस्स ॥१४६॥ तृणविशेषे,“ोहाडणी हारग्गहणं सहतुज्जलकं तु पुंछनी।" एकेन भयेन गतेनान्तरभव एव पौएडरीकेपूत्पत्स्यते, स इति ।रा० जी०। एकभविकस्तथा तदासन्नतरः पौण्डरीकेषु बजाऽऽयुष्कस्तपुंछित्र-पोञ्छित-त्रि० । “ उम्मुटुं पुंछि फुसिझं।" पाइo तोऽप्यासनतमोऽभिमुखनामगोत्रोऽनन्तरसमयेषु यः पौराडना० १८८ गाथा। रीकेयूत्पद्यते । अनन्तरोक्का एते प्रयो देशविशेषा द्रव्यपौण्डपुंज-पुञ्ज-पुं० । सशिखरे राशौ,विपा० १ श्रु० ६ अ० प्रमा०। रीकेश्वगन्तव्या इति।"भूतस्य भाविनी वा,भावस्य हि कारणं ' पुरवत्पुजः । स्कन्धे. अनु० । तु यलोके । तद्रव्यं तव,सचेतना वेतनं कथितम्॥१॥"इति पुंजपव्यय-पुञ्जपर्वत-पुं) । वीरप्रतिमाप्रधाने स्वनामख्याते बचनात् । इह च पुण्डरीककण्डरीकया त्रामहाराजपुत्रयो पर्वते, ती०४३ कल्प। सदसवनुष्ठानपरायणतया शोभनाशोभनत्वमवगम्य तदुपम याऽन्यदपि यच्छोभनं तत्पीण्डरीकमितरतु कण्डरीकमिति । पुंजाय-पुञ्ज-त्रि० । समुदाये, "पुंजायं पिंडलस्यं ।" पाइo (कण्डरीकराजकुमारवृत्तान्तम् ' कंडरीय' शब्दे तृतीयभाना० २०८ गाथा। गे १७२ पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादितम् ) तत्र च नरपुंजीकड-पुजीकृत-त्रि । अपुजाः पुजाः कृता इति ( व्यु कवर्जासु तिसम्वपि गतिषु ये शोभनाः पदार्थास्ते त्पत्तिः ) वताssकारधान्योत्कररूपतामापादिते, वृ०२ उ०। पौरपरीकाः, शेषास्त कण्डरीका इति। पिण्डीकृते, विशे। एतत्प्रतिपादयन्नाहपुंड-पुण्ड्-पुं० । पुडि-रक । इजु मैदे, माधवीलतायाम् , चि. तेरिच्छिया मणुस्सा, देवगणा चेव होति जे पबरा । अके,तिलकवृक्षे,क्षुद्रतक्षे, दैत्यभेदे च । वाचवश । स्वना- ते होंति पुंडरीया, सेसा पुण कंडरीया उ ॥ १४७॥ मख्याते विन्ध्यागिरिपाददेशे, " भारहे वासे विझगिरिपाय (तेरिच्छेत्यादि) कराठ्या। (तिरश्चां भेदाः, तिर्यकत्यमूले पुंडेसु जणवएसु सत्तदुवारे सुमास्स रखो भदाए भा. कारणानि च 'तिरिक्खजोणिय' शब्दे चतुर्थभागे २३१८ रियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववक्षे।" भ० १५१० । स्था। पृष्ठादवगन्तब्यानि ) ( मनुष्यभेदान् 'मणुस्स' शब्दे वक्ष्याधवले, मा० १ १० १७ अ।। प्रा० म०। मि)(देवानामस्तित्वं, तड्रेदाः, तत्स्वरूपम् , तेषामकानेकपंडइन-देशी-पिण्डीकृतार्थे, दे० ना० ६ वर्ग ५४ गाथा। शरीरत्वम्, तेषां स्थितिः,इत्यादिकं बहुतरम् 'देव' शब्दे च. पुंडरी-पुण्डरीक-न०। व्याने, “इल्ली पुली बग्यो, सहलो तुर्थभागे २६०७ पृष्ठादारभ्याषलोकनीयम्) पुंडरीश्रो य" पाइ० ना०४४ गाथा । कमले च । "अंबुरुहं तत्र तिर्यत प्रधानस्य पौएडरीकत्वप्रतिपादनार्थमाहसयवतं, सरोरुहं पुंडरीअमरबिंदं । राईवं तामरसं, महुप्पयं जलयरथलयरखयरा, जे पवरा चेव होति कंता य । पंकयं नलिणं ॥११॥" पाइo ना०११ गाथा। जे य सभावेऽणुमया, ते होती पुंडरीया उ ॥ १४८॥ पुंडरीग-पुण्डरीक-न० । श्वेतपमे, जं० १ षताबा० खे (जलचरेत्यादि ) जलचरेषु मत्स्यकरिमकाराऽऽदयः (जतशतपत्रे, सूत्र०२७० १ ० । रा० । कमले, संथा। लबरभेदाः 'जलयर 'शब्दे चतुर्थभागे ४२७ पृष्ठे गताः) औ०। प्रा० म01 स० । कल्प० । आचा० । स्थलचरेषुसिंहादयो बलवर्णरूपाऽऽविगुणयुकाः स्थलचराः पुण्डरीकनिक्षेपः ('थलयर' शब् तस्मिन्नेव भागे २३८६ पृष्ठे विस्तरतो निरू'णामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य गणण संठाणे । पिताः) उरःपरिसपेंषु मखिफणिनो (उरम्परिसर्पभेदाः 'उरभावे य अट्ठमे खलु, णिक्खेवो पुंडरीयस्स ॥१४४॥ परिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिय ' शदे द्वितीयभा. गे ८५१ पृष्ठे गताः) (विशेषम् 'सप्प' शब्दे वच्यामि) (णाम ठवणेत्यादि) पौण्डरीकस्य नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रका- | (भुजपरिसपेषु बहुवक्तव्यता 'भुयपरिसप्प' शब्दादवगन्त. लगणनासंस्थानभावाऽऽत्मकोऽष्टधा निक्षेपः। व्या) भुजपरिसपेषु नकुलाऽऽदयः, खचरेषु हंसमयूराऽऽदतत्र नामस्थापने चमत्वादनाहत्य द्रव्यपोगरीकमभिः यः। (खचरभेदः 'खहयर' शब्ने तृतीयभागे ७३४ पृष्ठादव धिसुराह गन्तव्यः) एवमम्येऽपि स्वभावेन प्रकृत्या लोकानुमतास्ते जो जीवो भविभो खलु,उववज्जिउकामों पुंडरीयम्मि । व पौण्डरीका इव प्रधाना भवन्ति । सो दबपुंडरीभो,भावम्मि वि जाणभो भणियो॥१४॥ मनुष्यगती प्रधानाऽविष्करणायाऽऽह(जो जीवो इत्यादि) यः कश्चित्माणधारणलक्षणो जीवो अरिहंत चकवट्टी, चारण विजाहरा दसारा य । भविष्यतीति भव्यः, तदेव दर्शयति उत्पतितुकामः समुत्पि जे भने इमिंता, ते होती पोंडरीया उ॥ १४६ ॥ रसुस्तथाविधकर्मोदयात्पौण्डरीकेषु श्वेतपणेषु बनस्पतिका- (अरिहंतेत्यादि) सर्वातिशायनी पूजामहन्तीति अन्तः, Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडरीय (६४४) अभिधानराजेन्फः। पंडरीय ते निरुपमरूपाऽऽदिगुणोपेताः (अर्हतां सर्वा वक्तव्यता 'ति- व्याः शुभकर्मसमाचाराः सप्ताष्टभवाग्रहणानि मनुष्येषु पूर्वत्थयर'शब्दे चतुर्थभागे २२४७पृष्ठादारभ्यावलोकनीया)तथा- कोट्यायुष्केष्वनुपरिवानन्तरभवे त्रिपल्योपमायुष्केषूत्पादनक्रवर्तिनः षट्खण्डभरतेश्वराः (चक्रवर्तिनां सर्वखम् 'च- मनुभूय ततो देवत्पद्यन्त इति कृत्वा ततस्ते कायस्थित्या कवट्टि (ण)' शब्दे तृतीयभागे १०६६ पृष्ठादारभ्य द्रष्ट. पौण्डरीका भवन्ति, अवशिष्टास्तु कण्डरीका इति । व्यम्)तथा चारणश्रमणा बहुविधाऽऽश्चर्यभूतलब्धिकलापो. कालपौण्डरीकानन्तरं गणनासंस्थानपौण्डरीकद्वयप्रतिपेता महातपस्विनः (चारणानां भेदाः तद्वक्तव्यता च 'चा. पादनायाऽऽहरण' शब्दे तृतीयभागे ११७३ पृष्ठे गता) तथा विद्याधरा गणणाए रज्जू खलु, संठाणं चेव होंति चउरस । चैतात्यपुराधिपतयः (विद्याधरवक्तव्यता 'विजाहर' शधादव गन्तव्या) तथा दशारा हरिवंशकुलोद्भवाः (दशार्हाणां एयाई पोंडरीगा-इँ होति सेसाइँ इयराई।।१५४॥ सर्वम् 'दसार' शब्दे चतुर्थभागे २४८५ पृष्ठे गतम् ) अस्य गणनया-सङ्ख्यया पौण्डरीक चिन्त्यमानं दशप्रकारस्य चोपलक्षणार्थत्वादन्ये ऽपीक्षवाकादयः परिगृह्यन्ते, एतदेव गणितस्य मध्ये 'रज्जु' रज्जुगणितं प्रधानत्वात्पौण्डरीकं, दर्शयति-ये चान्ये महर्धिमन्तो महेभ्याः कोटीश्वरास्ते दशप्रकारं तु गणितमिदम्-" परिकम्म १, रज्जु २. रासी ३, सर्वेऽपि पौण्डरीका भवन्ति । तुशदस्यानुक्तसमुश्चयार्थत्या- ववहारे ४, तह कलासवले ५, य । पुग्गल ६, जावं तावं ७, त् , ये चान्ये विद्याकलाकलापोपेतास्ते पौण्डरीका इति । घणे य ८ धणवग्ग ६ वग्गे य १०॥१॥" (अस्या गाथाया साम्प्रतं देवगती प्रधानस्य पौण्डरीकत्वं प्रतिपादयन्नाह- व्याख्या 'गणिय' शदे तृतीयभागे ८२४ पृष्ठे गता) संस्था नानां परमांमध्ये समचतुरस्र संस्थानं प्रवरत्वात्पौण्डरीकमि. भवणवइबाणमंतर-जोतिसवेमाणियाण देवाणं । त्येवमेते द्वे अपि पौण्डरीके, शेवाणि तु परिकर्माऽऽदीनि गजे तेसिं पवरा खलु, ते होती पोंडरीया उ ॥१५॥ णितानि न्यग्रोधपरिमण्डलाऽऽदीनि च संस्थानानि 'इतराभवणेत्यादि, भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां च- णि' कण्डरीकान्यप्रवराणि भवन्तीति यावत् । तुर्णा देवनिकायानां मध्ये ये प्रवरा:-प्रधाना इन्द्रेन्द्रसामानि- साम्प्रतं भावपौण्डरीकप्रतिपादनाभिधित्सयाऽऽहकाऽऽदयस्ते प्रधाना इतिकृत्वा पौण्डरीकाभिधाना भवन्ति । ओदइए उवसमिए, खइए य तहा खोवसमिए अ। साम्प्रतमचित्तद्रव्याणां यत्प्रधानं तस्य पौण्डरीकत्वप्रति परिणामसनिवाए, जे पवरा ते वि ते चेव ॥१५॥ पादमायाऽऽह औदयिके भावे तथौपशमिके क्षायिके क्षायोपशमिके कंसाणं दूसाणं,मणिमोत्तियसिलप्पवालमादीणं । पारिणामिके सान्निपातिके च भावे चिन्त्यमाने तेषु तेषां जे अ अचित्ता पवरा, ते होंती पोंडरीया उ ॥१५१॥ | वा मध्ये ये 'प्रवराः 'प्रधानाः 'तेऽपि' आदपिकाऽऽदयो कांस्यानां मध्ये जयघण्टाऽऽदीनि दृष्याणां चीनां- भावाः 'त एव' पौण्डरीका एवावगन्तव्याः, तथौदयिके भावे शुकाऽऽदीनि, मणीनामिन्द्रनीलवैडूर्यपद्मरागाऽऽदीनि, र तीर्थकराः (४ भागे 'तित्थयर' शब्दे गताः ) अनुत्तरोपपात्नानि मौक्तिकानां यानि वर्णसंस्थानप्रमाणाधिकानि, तथा तिकसुराः,तथान्येशी सितशतपत्रादयः पौण्डरीकाः,ौशिलानां मध्ये पाण्डुकम्बलाऽऽदयः शिलास्तीर्थकृज्जन्माभि पशमिके समस्तोपशान्तमोहाः, क्षायिके केवलज्ञानिनः, क्षाषेकसिंहासनाऽऽधारा:,तथा प्रवालानां यानि वर्णाऽऽदिगुणो. योपशमिके विपुलमतिश्चतुर्दशपूर्ववित्परमावधयो व्यस्ताः पेतानि, श्रादिग्रहणाङजात्यचामीकरं तद्विकाराश्चाऽऽभरण समस्ता बा, पारिणामिके भाव भब्याः, सान्निपातिके भाव विशेषाः परिगृह्यन्ते,तदेवमनन्तरोनानि कांस्याऽऽदीनि यानि द्विकाऽऽदिसंयोगाः सिद्धाऽऽदिषु स्वबुद्धया पौण्डरीकत्वन प्रवराणि तान्यचित्तपोण्डरीकाण्यभिधीयन्त इति । मिश्र- योजनीयाः, शेषास्तु कण्डरीका इति । द्रव्यपौण्डरीकं तु तीर्थकृच्चक्रवर्त्यादय एवं प्रधानकटकके- साम्प्रतमन्यथा भावपौण्डरीकप्रतिपादनायाऽऽहयूराऽऽद्यलङ्कारालङ्कृता इति । अहवावि नाणदंसण-चरित्तविणए तहेव अझप्पे । द्रव्यपौण्डरीकानन्तरं क्षेत्रपौण्डरीकाभिधित्सयाऽऽह जे पवरा होति मुणी, ते पवरा पुंडरीया उ ॥ १५६ ॥ जाई खेत्ताई खलु, सुहाणुमावाइँ होति लोगम्मि। • अथवाऽपि भावपौण्डरीकमिदम् । तद्यथा-सम्यग्ज्ञाने देवकुरुमादियाई, ताई खेनाइँ पवराई ॥१५२॥ तथा सम्यग्दर्शने सम्यक्चारित्रे सानाऽऽदिक विनये यानि कानिचिदिह देबकुर्बादीनि शुभानुभावानि क्षे- तथा 'अध्यात्मनि' च धर्मध्यानाऽऽदिके ये 'प्रवराः' प्राणि तानि प्रवराणि पौण्डरीकाभिधानानि भवन्ति । श्रेष्ठा मुनयो भवन्ति, ते पौण्डरीकत्वेनावगन्तव्यास्ततोऽन्ये साम्प्रतं कालपौण्डरीकप्रतिपादनायाऽऽह कण्डरीका इति । (शानदर्शनाऽऽदीनां महत्वं स्वस्वस्थाने) जीवा भवद्वितीए, कायठितीए य होंति जे पवरा । तंदवं सम्भविनमष्टधा पौण्डरीकस्य निक्षेपं प्रदाधुनह ते होंति पोंडरीया, अवसेसा कंडरीया उ ॥१५३॥ येनाधिकारस्तमाविर्भावयन्नाह'जीवाः 'प्राणिनो भवस्थित्या कायस्थित्या च ये 'प्रवराः'। एत्थं पुण अहिगारो, वणस्सतीकायपुंडरीएणं। प्रधानास्ते पौण्डरीका भवन्ति, शेषास्त्वप्रधानाः कराडरीका भावम्मि अ समयेणं, अज्झयणे पुंडरीअम्मि ॥१७॥ इति, तत्र भवस्थित्या देवा अनुत्तरोपपातिकाः प्रधाना भव- 'अत्र' पुनदृष्टान्तप्रस्ताव अधिकारो' व्यापारः सचिन्ति, तेषां यावद्भवं शुभानुभावत्वात् , कायस्थित्यां तु मनु- । त्ततिर्यग्योनिकैकेन्द्रियवनस्पतिकायद्रव्यपौण्डरीकेण जल Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४५) अभिधानराजेन्द्रः पुंडरीय " रुण, यदि वा औदयिकभाववर्तिना वनस्पतिकायपौण्डरीफेल तितपत्रे तथा भावे व 'सम्यग्दर्शनचारित्र विनयाध्यात्मवर्तिना सत्साधुनाऽस्मि अध्ययने पीएडरीका 53 धिकार इति । गता निरोपनिक्रि।। अधुना सूत्रस्पर्शिक निर्युक्तेरवसरः, सा च सूत्रे सति भवति सूत्रे च सूत्रानुगमे, स बावसरप्राप्तो तो स्वलिता 53दिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं तथेदम् सुर्य मे आउसंत भगवया एवमक्खायं - इह खलु पोंडरीए सामगे, तस्स से अयमं पाने । १ । से जहाखामर पुक्खरिणी सिया बहुउदगा बहुसेया बहुपुक्खला लट्ठा पुंडरीकिणी पासादिया दरसणीया अभिरुवा पडिरूवा । २ । तीसे गं पुक्खरिणीए तत्थ तत्थ देसे देसे तर्हि तहि बहवे पउमवरपोंडरीया बुइया, अ-गुपुम्बुट्ठिया ऊसिया रुइला वनमंता गंधमंता रसमंता फासमंता पासादिया दरिसणीया अभिरुवा परूिवा | ३ | तीसे गं पुक्सरिणी बहुमज्झदेसभाए एगे महं पउमवरपोंडरीए बुइ पुट्ठिए उस्सिते रुइले वनमंते गंधमेने रसमंते फासमंते पासादीए० जाव पदिरूने (सूर्य मे भावमित्यादि ) अस्य चानन्तरसूत्रेण सह संबन्धो वाच्यः । स चायम् - ( से एवमेव जागह जमहं भयंतारो नि ) तदेतदेव जानीत भयस्य व्रातारः । तद्यथाधुतं मयाऽऽयुष्मता भगवतेवमाख्यातम् आदिस्त्रेण च सह संवधो ऽयम्। तद्यथा-पगपतायातं मया तंत क्षुध्येतेत्यादिकम् । किं तद्भगवताऽऽख्यातमित्याह-इह प्रववने सूत्रकृद्धितीयश्रुतस्कन्धे वा, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे। पौण्डरीकाभिधानमध्ययनं पौगडरीकेण शितपत्रे मा भविष्यतीति कृत्वा, अतोऽस्याध्ययनस्य पौण्डरीकमिति नाम कृतम् । तस्य चायमर्थः - णमिति वाक्यालंकारे । प्रशप्तः प्ररूपितः | १ | ( से जह ति ) तद्यथार्थः । स च वाक्योप म्यासार्थः । नामशब्दः संभावनायां, संभाव्यते पुष्करिणीदृष्टातः पुष्कराणि पद्मानि तानि विद्यन्ते यस्यामयी पुष्करि श्री.स्वाद्भवेदेवंभूता तथा रमगाधमुदकं यस्यां सा बहूदका, तथा बहुः प्रचुरः सीयन्ते ऽवबध्यन्ते यस्मि अस सेयः कर्तुमः स यस्यां सा बहुसेवा प्रचुरकर्दमा । बहुश्वेतपद्मसद्भावात् स्वच्छोदकसंभवाब बहुश्वता बा, तथा पुष्कला बहुसंपूर्ण प्रचुरोदकभूतेत्यर्थः तथा लग्भः प्रातः पुष्करिशमान्यर्धतथाऽयों गया सा सग्धार्या अथवा मा स्थानमास्था प्रतिष्ठा, सा लब्धा यया सा लब्धाऽऽस्था, तथा पौराणि रातपत्राणि विद्यन्ते यस्यां सा पौण्डरी किणी, मथुरार्थे मत्वर्थीयोत्पत्तेर्यपद्मेत्यर्थः । तथा प्रसादः प्रसन्नता निर्मल जलता, सा विद्यते यस्याः सा प्रसादिका, प्रासादा वा देवकुलसन्निवेशास्ते विद्यन्ते यस्यां समततः सा प्रासादिका दर्शना शोभना सरसंनिवेशतो वा इष्टव्या दर्शनयोग्या तथाऽभिमुख्येन सदाऽवस्थितानि क पासि राजहंसचक्रवाकसार साऽऽदीनि गजमपिमृगयूथा दीनि वा जलान्तर्गतानि या करिमफरादीनि वा यस्यां सा २३७ पुंड 1 अभिरूपेति, तथा प्रतिरूपाणि प्रतिविम्बानि विद्यन्ते यस्यां सा प्रतिरूपा । एतदुक्तं भवति-स्वच्छत्वात्तस्याः सर्वत्र प्रतिचिम्बानि खमुपलभ्यन्ते तदतिशयरूपतची वा लोकेन तत् प्रतिबिम्बानि क्रियन्ते इति सा प्रतिरूपेति । यदि बा-(पासादीया दरिससीया अभिरूचा पडिकल ति) पर्याया इत्ये ते चत्वारोऽप्यतिशयरमणीयत्वख्यापनार्थमुपात्ताः । २ । तस्याश्च पुष्करिण्याः समितियाकपालंकारे त वीप्सापदेन पौण्डरीकेोपकत्वमाह-देशे देशे इत्यनेन स्वेकैकप्रदेश प्राचुर्यमाह तस्मिंस्तस्मिनित्यनेन तु नास्त्येवासी पुष्करिण्याः प्रदेशो यत्र तानि न सन्तीति । यदि वा देशे देशे इत्येतत्प्रत्येकमभिसंबध्यते । तत्र तत्रेति कोऽर्थो ?, देशे देशे तस्मिंस्तस्मिन्निति च कोऽर्थः ? देशैकदेश इति । यदि वाअत्यादरख्यापनायैकार्थान्येतानि श्रख्यपि पदानि तेषु च पुष्करिण्याः सर्वप्रदेशेषु बहूनि प्रचुराणि पद्मान्येव वराणि श्रेष्ठानि पौण्डरीकाणि पद्मपरपीडरीकाणि, पद्मग्रहणं त्रव्यानव्यवच्छेदार्थ, पौण्डरीकग्रहणं ततपत्रप्रतिप स्वर्थ वरग्रहणमप्रधाननिवृत्यर्थं तदेर्वभूतानि बहूनि पचव पौesiकाणि ( बुइय त्ति ) उक्तानि प्रतिपादितानि विधन्त इत्यर्थः । श्रानुपूर्व्येण विशिष्टरचनया स्थितानि, तथोच्छ्रितानि पङ्कजले अतिलयोपरि व्यवस्थितानि, तथा रुचिर्दीप्तिस्तां लान्त्याददति रुचिलानि सदीप्तिमन्ति तथा शोभनवर्णगन्धरसस्पर्श यन्ति तथा प्रासादयानि दर्शनीयानि, अभिरूपाणि प्रतिरूपाणि ३ तस्याथ पुष्करिण्याः सर्व तः पद्मावृतायाः वमिति वाक्यालङ्कारे रेशमय मागे निश्पचरितमध्यदेशे एकं महत्यथवरपीए डटकमुक् मानुपूर्वेण व्यवस्थित रुचि वर्णगन्धरसस्पर्शत् तथा प्रासादीयं दर्शनीयम् अभिरूपतरं प्रतिरूपतरमिति । ४ । सांप्रतमेतदेवानन्तरोक्तं सूत्रद्वयम् - ( सव्वावनि ति) इत्यनेन विशिश्मपर सूत्रइयं द्रष्टव्यम् + सय्यायंति च यं तीसे पुक्खरिणीए तत्थं तत्थ देसे देसे तर्हि तहि बहवे पउमवरपोंडरीया बुझ्या अणुपुब्बुडिया ऊसिया रुहला० जान पडिरूवा, सव्वायंति व तीसे गं क्खरिणीए ममदेसभा एवं महं पउमच पडरी बुइए अव्वुट्ठिए जाव पडिरूवे ॥ १ ॥ अह पुरिसे पुरिश्थिमाओ दिसाओ आगम्य तं पुक्खरिगि तीसे क्खरिणीए तीरे ठिया पासति महं एग पउमवरपोंडरीयं अणुपुब्बुट्ठियं ऊसियं० जाव पडिरूवं । तर से पुरिसे एवं बयासी – अहमंसि पुरिसे खेयने कुसले पंडिते वियते मेहावी अवाले मग्गत्थे मग्गविऊ मग्गस्स गतिपरक्कमण्णू अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उभि - खिस्सामि ति कट्टु इति वृपा से पुरिसे अभिकमेति, तं पुक्खरि जावं जावं च यं अभिकमेइ, तावं तावं च खं महंते उदए महंते सेए पहीये तीरं अपत्ते पउमवरपॉटरीं यो हव्वा णो पारा, अंतरा पोक्खारखीए सेयंसि निसच्चे पढमे पुरिसजाए ! ।। २ ।। Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... 'पुंडरीय प्रानिधानराजेन्द्रः। पुंडरीय मस्यायमर्थः-( सव्वावंति त्ति) सर्वस्या अपि तस्याः पुष्क- मग्गत्थे मग्गविऊ मग्गस्स गतिपरक्कमएणू महमेयं पउमरिण्याः सर्वप्रदेशेषु यथोक्तविशेषणविशिष्टानि बानि वरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामि त्ति कहु इति वच्चासे पुरिपानि तथा सर्वस्याश्च तस्या बहुमध्यदेशभागे यथो- से अभिक्कमे तं पुक्खारीर्ण, जावं जावं च णं अभिविशेषणविशिष्टं महदेकं पौण्डरीकं विद्यत इति । । कमेइ तावं तावं च णं महते उदए महंते सेए पहीणे तीरं उभयत्रापि चः समुचये । णमिति वाक्यालङ्कारे । १। इति । | अथानन्तरमेवंभूतपुष्करिण्याः पूर्वस्या दिशः कश्चिदेकः पुरु अपत्ते पउमवरपोंडरीयं णो हवाए णो पाराए अंतरा पोषः समागत्य तां पुष्करिणी तस्याश्च तीरे तटे स्थित्वा तदेत- क्खरिणीए सेयंसि णिसने दोचे पुरिसजाते (सूत्र ३)॥ स्पनं प्रासादीयाऽऽदिप्रतिरूपान्तविशेषणकलापोपेतं स पुरुषः अहावरे तच्चे पुरिसजाते , अह पुरिसे पचत्थिमाओ दिपूर्वदिग्भागव्यवस्थितः, एवमिति घश्यमाणनीत्या बदेत् ब्रू. यात्-(अहमंसि सि) अहमस्मि पुरुषः, किंभूतः १-कुशलो साओ आगम्म तं पुक्खरिणं तीसे पुक्खारीणीए तीरे हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्तिनिपुणस्तथा पापाडीनः पण्डितो ध | ठिच्चा पासति-तं एगं महं पउमवरपोंडरीयं अणुपुत्रुमझो देशकालमा क्षेत्रसो व्यको बालभावानिष्कान्तः परिणत- हियं० जाव पडिरूवं,ते तत्थ दोनि पुरिसजाते पासति प- . बुद्धिर्मेधावी सपनोसपनयोरुपायशः, तथा-अबालो मध्यम- हीणे तीरं अपत्ते पउमवरपोंडरीयं णो हवाए णो पाषयाः पोडशवर्षोपरिवर्ती,मार्गस्थः सद्भिराचीर्णमार्गव्यवस्थि राए० जाव सेयंसि णिसभे, तए णं से पुरिसे एवं बया- तस्तथा सन्मार्गझस्तथा मार्गस्य या गतिर्गमनं वर्तते तया यत्पराक्रमणं-विषक्षितदेशगमनं,तज्जानातीति पराक्रमशः।य सी-ग्रहों णं इमे पुरिसा अखेयत्रा, अकुसला अपंडिदिवा-पराक्रमः सामर्थ्य तज्ज्ञोऽहमात्मा इत्यर्थः। तदेवंभूत- या अवियत्ता अमेहावी बाला णो मग्गत्या णो मग्ग-. विशेषणकलापोपेतोऽहमेतत्पूर्वोक्तविशेषणकलापोपेतं पचय विऊ णो मग्गस्स गतिपरक्कमण्णू, जंण एते पुरिसा एवं रपौण्डरीक पुष्करिणीमध्यदेशावस्थितमहमुत्-क्षेप्स्यामीति | कस्बेहागत इत्येतत्पूर्वोतं तत्प्रतीत्योक्त्वाऽसौ पुरुषस्तां पुष्क मन्ने अम्हे एतं पउमवरपोंडरीयं उमिक्खिस्सामो , नो रिणीमभिमुखं कामेत् , अभिक्रामेत् तदभिमुखं गच्छेचाव. य खलु एयं पउमवरपोंडरीयं एवं उभिक्खेतव्वं जहा पापचासौ तदवतरणाभिप्रायेणाभिमुर्ख कामेत्तावत्तावच, णं एए पुरिसा मने, अहमंसि पुरिसे खेयन्ने कुसले पंडिए एमिति वाक्यालङ्कारे । तस्याश्च पुष्करिण्या महदगाधमुद- वियत्ते मेहावी अबाले मग्गत्थे मग्गविऊ मग्गस्स गतिप. कं.तथा महांश्च सेयः कर्दमस्ततोऽसौ महाकर्दमोदका रक्कमपणू , अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उमिक्खिस्सामि त्ति बामाकुलीभूतःप्रहीणः सद्विवेकेन रहितस्त्यक्त्वा तीरं सुध्यत्ययावा तीरात्महीणः प्रभ्रष्टोऽप्राप्तश्च विवक्षितं पनव-| कहु इति वुच्चा से पुरिसे अभिक्कमे तं पुक्खरिणिं जावं रपीएडरीकं तस्याः पुष्करिण्यास्तस्यां वा यः सेयः, कर्दम- जावं च णं आभक्कम ताव ताव च जावं च णं अभिक्कमे तावं तावं च णं महंते उदए मस्तस्मिनिषको निमन आत्मानमुद्धर्तुमसमर्थस्तस्माश्च ती. हंते सेए. जाव अंतरा पोक्वारणीए सेयसि णिसने, राबपि प्रभ्रषस्ततस्तीरपत्नयोरन्तराल पवावतिष्ठते,यत एव तच्चे पुरिसजाए ।। (वं ४)॥ अहावरे चउत्थे पुरिसमतः(नो हब्बाए ति नार्वाक तटवर्त्यसो भवति । (नो पाराए ति)मापि विवक्षितप्रदेशप्राप्त्या पारगमनाय वा समर्थो भ. जाए, अहपुरिसे उत्तराओ दिसाप्रो आगम्म तं पुक्खबति। एषमसावुभयभ्रष्टो मुक्तमुक्कोलीकवदनायैव प्रभवती रिणिं, तीसे पुक्खरिणीए तीरे विच्चा पासति-तं महं एगं स्वयं प्रथमः पुरुषः,पुरुष एव पुरुषजातः पुरुषजातीय इति ॥२॥ पउमवरपोंडरीयं अणुपुत्रुट्टियं० जाव पडिरूवं, ते तत्य तिनि पुरिसजाते पासति पहाणे तीरं अपत्ते जाव से. महावरे दोच्चे पुरिसजाए, अह पुरिसे दक्खिणाओ यंसि णिसन्ने, तए णं से पुरिसे एवं बयासी-अहो दिसामो भागम्म तं पुक्खरिणिं तीसे पुक्खरिणीए तारे ण इमे पुरिसा अखेयन्ना० जाव णो मग्गस्स गतिपरठिच्चा पासति-तं महं एग पउमवरपोंडरीयं अणुपुबुद्धि कमएणू जं णं एते पुरिसा एवं मन्ने अम्हे एतं पयं पासादीयं० जाव पडिरूवं. त च एत्थ एगं पुरिसजातं उपवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामो यो य खलु एयं पउपासति-पहीणतीरं अपत्तपउमवरपोंडरीयं णो हव्वाए। मवरपोंडरीयं एवं उन्निक्खेयवं जहा णं एते पुरिसा णो पाराए अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि णिसनं, तए मन्ने, अहमसि पुरिसे खेयन्ने० जाब मग्गस्स गतिपरणं से पुरिसे तं पुरिसं एवं बयासी-अहो णं इमे पुरिसे कमएण , अहमेयं परमवरोडरीयं उन्निक्खिस्सामि त्ति अखेयमे अकुसले अपंडिए अवियत्ते अमेहावी बाले कः इति बुच्चा से पुरिसे तं पुक्खरिणि जावं जावं च यो मग्गत्थे णो मग्गविऊ णो मग्गस्स गतिपरक्कमण्णा, णं अभिकमे तावं तावं च णं महंते उदए महंते सेए। जन एस पुरिसे, अहं खेयो कुसले. जाव पउमवर- .जाव णिसन्ने, चउत्थे पुरिसजाए ।। (सूत्रं ५)॥ पौडरीयं उमिक्खिस्सामि, णो य खलु एवं पउमवरपोंड अथवेति वाक्योपन्यासार्थे । अथ कश्चित्पुरुषो दक्षिणादिरीयं एवं उत्रिक्वेयव्वं जहा णं एस पुरिसे मने, प्रह भागादागत्य तां पुष्करिणी, तस्याश्च पुष्करिण्यास्तीरे स्थिमंसि पुरिसे खेयो कुसले पंडिए वियत्ते मेहावी अबाले । स्था तस्य पश्यति महदेकं पनवरपौएडरीकमानुपू Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुमरीय (६४७) अभिधानराजेन्डः। पुंरुरीय व्येण व्यवस्थितं प्रासादीयं यावत्प्रतिरूपम् । अत्र चास्मि चतुरः पुरुषान् पश्यति। यत्र च व्यवस्थितानिति,किंभृतान् ?, श तीरे व्यवस्थितस्तं च पूर्वव्यवस्थितमेकं पुरुषं पश्य- त्यक्ततीरानप्राप्तपन्नवरपुण्डरीकान् पङ्कजलावमन्नान् पुनति, किंभूतम् ?-तीरात्परिभ्रष्टमनवाप्तपद्मवरपौण्डरीकमु-- स्तीरमप्यागन्तुमसमर्थान् दृष्ट्रा च तांस्तदवस्थान ततोऽसौ भयभ्रष्टमन्तराल पवावसीदन्तं, हा च तमेवमवस्थं | भिक्षुः एवमिति-वक्ष्यमाणनीत्या वदेत् । तद्यथा-अहो इति पुरुषं ततोऽसौ द्वितीयः पुरुषस्तं प्राक्तनं पुरुषमेवं वदेत्- खेदे णमिति वाक्यालंकारे, इमे पुरुषाश्चत्वारोऽपि अखेदशा अहो इति खेदे । सर्वत्र णमिति वाक्यालङ्कारे द्रष्टव्यः। यो यावन्नो मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञाः,यस्मात्ते पुरुषा एवं शातबऽयं कर्दमे निमग्नः पुरुषः सोऽखेदशोऽकुशलोऽपण्डितो न्तो यथा वयं पद्मवरपौण्डरीकमुत्क्षस्यामः उत्खनिष्यामः, न ऽव्यक्तोऽमेधावी, बालो न मार्गस्थो न मार्गशो नो मार्गस्य च खलु तत्पीण्डरीकमेवम्-अनेन प्रकारेण यथैते मन्यन्ते तगतिपराक्रमशः। अकुशलत्वाऽऽदिके कारणमाह-यद्यस्मादेष थोत्तव्यम्। अपि त्वहमस्मि भिक्षू रूक्षो यावद्गतिपराक्रमशः, पुरुष एतत्कृतवान् , तद्यथाऽहं खेदशः कुशल इत्यादि भ- एतद्गुणविशिष्टोऽहमेतत् पौण्डरीकमुक्षेप्यामि-उत्खनिणित्वा पनवरपौण्डरीकमुत्क्षेपस्यामीत्येवं प्रतिक्षातवान् । न प्यामि समुद्धरिष्यामीत्येवमुक्त्वा असो नाभिकामेत तां पुचैतत् पनवरपौण्डरीकम्, पवमनेन प्रकारेण यथाऽनेनोत्क्षे. करिणीं न प्रनिशेत् । तत्रस्थ एव यत्कुर्यात्तदर्शयति-ततुमारब्धमेवमुत्क्षप्तव्यं यथाभ्यं पुरुषो मन्यत इति । ततोऽह- स्यास्तीरे स्थित्वा तथाविधं शब्दं कुर्यात् । तद्यथा-ऊर्ध्वमुमेवास्योत्क्षेपणे कुशल इति दर्शयितुमाह-( अहमसीत्यादि स्पतोत्पत, खलुशब्दो वाक्यालंकारे, हे पद्मवरपौण्डरीक ! जाव दोच्चे पुरिसाजाए त्ति) सुगमम् ॥३॥ तृतीयं पुरुषमा तस्याः पुष्करिण्या मध्यदेशादेवमुत्पतोत्पत । अथ तच्छन्दधिकृल्याऽऽह-(श्रहावरे तञ्च इत्यादि) सुगमम् । यावच्चतुर्थः श्रवणादनन्तरं तदुत्पतितमिति । ६ । पुरुषजात इति ॥४-५॥ तदेवं दृष्टान्तं प्रदर्य दान्तिकं दर्शयितुकामः श्रीमन्मसाम्प्रतमपरं पञ्चमं तद्विलक्षणं पुरुषजातमधिकृत्याऽऽह- हावीरवर्धमानस्वामी स्वशिष्यानाहअह भिक्खू लूहे तीरट्ठी खेयन्ने०जाव परक्कमम अन्नतरा- किहिए नाए समणाउसो', अढे पुण मे जाणित भश्रो दिसाओ वा अणुदिसाओ वा आगम्म तं पुक्खरिणं वति, भत्ते ति समणं भगवं महावीरं निग्गंथा य नितीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एग पउमव- ग्गंधीओ य बंदंति, नमसति, वंदेवा नमंसित्ता एवं रपोंडरीयं० जाव पडिरूवं, ते तत्थ चत्तारि पुरिसजाए पा- बयासी-किहिर नाए समणाउसो !। अई पुण से सति पहीणे तीरं अपत्तेजाव पउमवरपोंडरीयं णो हव्वाए ण जाणामो समणाउसो ! ति , समणे भगवं मणो पाराए अंतरा पुक्खरिणीए सेयंसि णिसन्ने,तए णं से हावीरे ते य बहवे निग्गंथे य निग्गंथीयो य आ. भिक्ख तं एवं बयासी-अहो णं इमे पुरिसा अखेयन्ना० मंतेत्ता एवं बयासी-हंत समणाउसो ! आइक्खाजाव णो मणस्स गतिपरक्कमण्णू, जं एते पुरिसा एवं मन्ने मि, विभावेमि, किमि, पवेदेमि सअटुं सहेउं सनिमित्त अम्हे एयं पउमवरपोंडरीयं उमिक्खिस्सामो यो य खल, भुओ भुओ उवदंसेमि, सेवेमि । ( सूत्रं ७)॥ एयं पउमवरपोंडरीयं एवं उत्रिक्खेत्तव्वं जहा णं एते पुरि कीर्तिते कथिते प्रतिपादिते मयाऽस्मिन् शाते उदाहरणे हे श्रमणाः! आयुष्मन्तोऽर्थः पुनरस्य ज्ञातव्यो भवति भवद्भिः। सा मन्ने अहमंसि भिक्खू लूहे तीरट्ठी खेयने जाव मग्गस्स पतदुक्तं भवति-जास्योदाहरणस्य परमार्थ यूयं जानीथ, एवगतिपरकमएणू अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उमिक्खिस्सा मुक्त भगवता ते बहवो निर्ग्रन्था निर्घन्ध्यश्च तं श्रमणं भ. मित्ति कह इति वुच्चा से भिक्खु णो अभिकमे तं पुक्खरिणं गवन्तं महावीरं ते निर्ग्रन्थाऽऽदयो वन्दन्ते कायेन, नमस्यन्ति तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा सई कुजा, उप्पयाहि खलु तत् प्रहः शब्दैः स्तुवन्ति, वन्दित्वा नमस्थित्वा चैवं वभो पउमवरपोंडरीया! उप्पयाहि,अह से उप्पतिते पउमवर क्ष्यमाणं वदेयुः । तद्यथा-कीर्तितं प्रतिपादितं ज्ञातमुदाहरणं भगवता अथे पुनरस्य न सम्यक जानीमः, इत्येवं पृष्टो भगपोंडरीए ॥ (मूत्रं ६)॥ वान् श्रमणो महावीरस्ताग्निम्रन्थाऽऽदीनवं बदेत-हस्तेति (अह भिक्खू लूहे इत्यादि ) अथेत्यानन्तर्य, चतुर्थपुरुषाद- संप्रेषणे । हे श्रमणाः! आयुष्मन्तो यद्भवद्भिरहं पृष्टस्तत्सोयमनन्तरः पुरुषस्तस्यामूनि विशेषणानि-भिक्षणशीलो भि- पपत्तिकमाख्यामि भवतां, तथा विभावयाम्याविर्भावयामि तुः-पचनपाचनाऽऽदिसावद्यानुष्ठानरहिततया निर्दोषाss- प्रकटाथै करेमि, तथा कीर्तयामि, पर्यायकथनद्वारेणेति, हारभोजी.तथा रुक्षो रागद्वेषरहितः,तौ हि कर्मबन्धहेतुतया तथा प्रवेदयामि प्रकर्षण हेतुदृष्टान्तैश्चित्तसन्ततावारोपस्निग्धौ.यथा हि स्नेहाभावाद् जो न लगति तथा रागद्वेषा- यामि । श्रथ वैकार्थिकानि चैतानि । कथं प्रतिपादयामीति भावात्कर्मरेणुन लगत्यतस्तद्रहितो रूक्ष इत्युच्यते । तथा दर्शयति-सहार्थेन दार्शन्तिकेन वर्तत इति सार्थः पु. संसारसागरस्य तीरार्थी, तथा क्षेत्रशः खेदशो वा । पू. करिणीष्टान्तस्तं, तथा सह हेतुना अन्वयव्यतिरेकरूपे4 व्याख्यातानेष विशेषणानि, यावन्मार्गस्य गतिपरा- ण वर्तत इति सहेतुस्तं तथाभूतमर्थ प्रतिपादयिष्यामि, य. क्रमशः . स चान्यतरस्या दिशोऽनुदिशो वाऽगत्य तां पु- था ते पुरुषा अप्राप्तप्रार्थितार्थाः पुष्करिणीकदमे दुरुत्तार ष्करिणीं तस्याश्च तीरे स्थित्वा समन्तादवलोकयन् बह-निमग्ना एवं पक्ष्यमाणास्तीर्थिका अपारगाः संसारसागरमध्यदेशभागे तन्महदेकं पनवरपौण्डरीकं पश्यति । तांश्च स्य तत्रैव निम जन्तीत्येवंरूपोऽर्थः सोपपत्तिका प्रदर्शयि Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय पुंडरीय अनिधानराजेन्द्रः। प्यते, तथा सह निमित्तेन-उपादानकारणेन सहकारिका- तथा निर्वाणं मोक्षपदमशेषकर्मक्षयरूपमीपत्प्रागभाराऽऽख्यं रणेन वा वर्तत इति सनिमित्तम्-सकारणं दृष्टान्तार्थ भूयो भूभागोपर्यवस्थितक्षेत्रखण्डं वाऽऽत्मन्याहृत्य स पावरपौण्डभूयोऽपरैहेतुरष्टान्तरुपदर्शयामि सोऽहं साम्प्रतमेव ब्रवीमि रीकस्योत्पातोऽभिहित इति । सांप्रतं समस्तोपसंहारार्थशृणुत यूयमिति ॥७॥ माह-एवं पूर्वोक्तप्रकारेण एतल्लोकाऽऽदिकं च खल्वात्मन्याहतदधुना भगवान् पूर्वोक्लस्य दृष्टान्तस्य यथावं दार्टा त्याऽऽश्रित्य मया श्रमणाऽऽयुष्मन् ! (से) एतत्पुष्करिण्यान्तिकं दर्शयितुमाह दिकं दृष्टान्तत्वेन किञ्चित्साधादेवमेतदुक्तमिति । तदेवं सामान्येन दृष्टान्तदान्तिकयोर्योजनां कृत्वाऽधुना । लोयं च खलु मए अप्पाहड्ड समणाउसो ! पुक्खरिणी विशेषेण प्रधानभूतराजदाान्तिकं तदुद्धरणार्थबुइया, कम्मं च खलु मए अप्पाहड्ड समणाउसो! से उ त्वात्सर्वप्रयासस्येति दर्शयितुमाहदए युइए,कामभोगे य खलु मए अप्पाहहु समणाउसो! से इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदाणं वा दाहिणं वा सेए पुइए जणजाणवयं च खलु मए अप्पाहहु समणाउ- संतेगतिया मणुस्सा भवंति अणुपुव्वेणं लोग उववना । सोते बहवे परमवरपॉडरीए बुइए, रायाणं च खलु मए तं जहा-आरिया वेगे अणारिया वेगे उच्चागोता वेगे अप्पाहा समणाउसो! से एगे महं पउमवरपोंडरीए बुइप, णीयागोया वेगे कायमंता वेगे रहस्समंता वेगे सुवना अमरत्थिया य खलु मए अप्पाहव समणउसो! ते चत्ता वेगे दुव्वना वेगे सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसिं च णं मणुरि पुरिसजाया बुइया, धम्मं च खलु मए अप्पाहड्ड सम- याणं एगे राया भवइ, महयाहिमवंतमलयमंदरमहिंदसार खाउसो! से भिक्खू चुइए, धम्मतित्थं च खलु मए अ- अच्चंतविसुद्धरायकुलवंसप्पमूते निरंतररायलक्खणविराइयंप्पाहहु समणाउसो ! से तीरे बुइए, धम्मकहं च खलु मए गमंगे बहुजणबहुमाणपूइए सव्वगुणसमिद्धे खत्तिए मुअप्पा समणाउसो ! से सद्दे बुइए, निव्वाणं च खलु दिए मुद्धाभिसित्ते माउपिउसुजाए दयप्पिए सीमंकरे मए अप्पाहहु समणाउसो ! से उप्पाए बुइए, एवमेयं सीमंधरे खेमकरे खेमंधरे माणुस्सिदे जणवयपिया जसच खलु मए अप्पाइकु समणाउसो ! से एवमेयं बुइयं ।।। वय पुरोहिए सेउकरे केउकरे नरपवरे पुरिसपवरे पुरिस (सूत्रम् ८) साहे पुरिसासीविसे पुरिसवरडरीए पुरिसवरगंधहलोकमिति मनुष्यक्षेत्रम् । चशब्द उत्तरापेक्षया समुथयार्थः. | त्थी अड्डे दित्ते वित्ते वित्थिन्नविउलभवणसयणासणजाणसालरिति पाक्यालकारे, मयेत्यात्मनिर्देशः, योऽयं लोको मनुष्याऽऽधारस्तमात्मन्याहृत्य व्यवस्थाप्य अपाहत्य वा हे वाहणाइसे बहुधणबहुजातरूवरतए आओगपोगसंपउत्ते मायुष्मन् ! श्रमण पात्मना वा मयाऽऽहत्य न परोपदेश. विच्छडियपउरभेत्तपागणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूतः सा पुष्करिणी पमाऽऽधारभूतोता, तथा कर्म चाष्टप्र ते पडिपुरमकोसकोट्ठागाराउहागारे बलवं दुबलपचामित्त कारं यदलेन पुरुषपौण्डरीकाणि भवन्ति । तदेवंभूतं कर्म ओहयकंटयं नियकंटयं मालियकंटयं उद्धियकंटयं अकंटयं मयाऽस्मन्याहत्य भास्मना वा पाहत्य अपाहृत्य वा । एत- ओहयसत्तू निहयसत्तू मलियसत्तू उद्धियसत्तू निजियसत्तू दुकं भवति- श्रमण आयुष्मन् ! सर्वावस्थानां निमित्तभूतं कर्माऽऽभित्य तदुदकं दृष्टान्तत्वेनोपन्यस्तं, कर्मचात्र दार्था पराइयसत्तू ववगयदुभिक्खमारिभयविप्पमुक्कं रायवनओजस्तिकं भविष्यति,तत्रेच्छामदनकामाः शयाऽऽदयो विषयास्ते हा"उववाइए"*जाव पसंतडिंबडमरं रज्जं पसाहेमाणे विएष भुज्यन्त इति भोगाः। यदि वा-कामा इच्छारूपा मदन. हरति । तस्स णं रनो परिसा भवह, उग्गा उग्गपुत्ता भोगा कामास्तु भोगास्तान् मयाऽऽत्मन्याहत्य सेयः कर्दमोऽपि. भोगपुत्ता इक्खागा इक्खागाइपुत्ता नाया नायपुत्ता को हितः,यथा महति पढे निमग्नो दुःखेनाऽस्मानमुद्धरत्येवं विपयेष्यप्यासक्लो नाऽऽत्मानमुद्धर्तुमलमित्येतत्कर्दमविषययोः रव्या कोरव्यपुत्ता भट्टा भपुत्ता माहणा माहणपुत्ता लेसाम्यमिति । तथा जनं सामान्येन खोक. तथा जनपदे भवा च्छइ लेच्छइपुत्ता पसत्थारो पसत्यपुत्ता सेणावई सेजानपदा विशिष्टाऽऽर्यदेशोत्पना गृह्यन्ते, ते चाईडिशति. णायइपुत्ता । तेसिं च णं एगतीए सड्ढी भवइ । कामं तं जनपदोद्भवा इति । तांध समाश्रित्य मया दाष्ट्रान्तिकत्वे- समणा वा माहणा वा संपहारिंसु गमणाए, तत्थ अन्नतमाणीकृत्य तानि बहूनि पावरपौण्डरीकाणि दृष्टान्तत्वे- रेणं धम्मेणं पन्नतारो वयं इमेणं धम्मेणं पनवइस्सामो, से नाभिहितानि, तथा राजानमात्मन्याहूत्य तदेकं पक्षधरपोपरीकष्टान्तस्वेनाभिहितम्,तथाऽम्यतीथिकान् समाधि एवमायाणह भयंतारो जहा मए एस धम्मे सुयक्खाए मुस्य ते चत्वारः पुरुषजाता अभिहिताः, तेषां राजपौर डरीको. पन्नत्ते भवइ ॥ बरणे सामर्थ्यवैकल्यात् । तथा धर्म च खलु चाऽऽमन्याह (बह खलु इत्यादि ) इहास्मिन्मनुष्यलोके, खलुर्वाक्यास्य श्रमणाऽऽयुष्मन् !स भियुकवृत्तिराभहितस्तस्यैव च- लंकारे, बहास्मिन् लोके प्राच्या प्रतीच्या दक्षिणायामुदीच्याकवादिराजपमवरपौण्डरीकोखरणे सामर्थ्यसद्भावाद्ध मन्यतरस्यां वा दिशि सन्ति विद्यन्ते पके केचन तथाविधा मंतीय च खल्बाधित्य मया तत्तीरमुक्तम् । तथा सद्धर्म | मनुष्या आनुपूयेणेमं लोकमाश्रित्योत्पत्रा भवन्ति । तानेदेशनां चाऽऽभिस्य मया स भिसम्बन्धी शब्दोऽभिहितः, औषपातिकग्रन्थे। Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घुमरीय अप्निधानराजेन्धः। पुमरीय बानुपूर्येण दर्शयति-तद्यथेत्युपन्यासार्थः, आराधाताः अ०। (तं जहा-दत्याद्यवशिष्ट सूत्रम्-"तज्जीवतच्छरीरपाइ सर्वहेयधर्मभ्य इत्यार्याः, तत्र क्षेत्राऽऽर्या अर्धडिशतिजन- (ण)" शब्दे चतुर्थभागे २१७३ पृष्ठे व्याख्यातम्) पदोत्पत्राः, तथ्यतिरिक्तास्त्वनार्या एके केचन भवन्ति । ते | प्रथमपुरुषानन्तरं द्वितीयं पुरुषजातमधिकृत्याऽऽहचानार्यक्षेत्रोत्पना अमी द्रष्टव्याः । तद्यथा अहावरे दोचे पुरिसजाए पंचमहन्भूतिए ति भाहिजइ । इह “सगजवणसबरबब्बर-कायमुरुंडोडगोडपकणिया । अरबागहूणरोमय, पारसखसखासिया चेव ॥१॥ खलु पाईणं वा ६ जाव संतेगांतेया मणुस्सा भवंति भणुपुडोबिलयलउसबोकस, भिलंधपुलिंदकोयभमररुया। ब्वेणं लोयं उववन्ना । तं जहा-आरिया वेगे अणारिया वेगे कोचा य चीणचंचुय-मालव दमिला कुलग्धा य ॥२॥ एवं ज्जाव दुरूवा वेगे,तेसिं च णं महं एगे राया भर म. केकयकिरायहयमुह-खरमुह तह तुरगमेंढयमुहा य । हया० एवं चेव णिरवसेसंजाव सेणावइपुत्ता,तेर्सि च णं हयकमा गयकता, असे य प्रणारिया बहवे ॥ ३ ॥ पावा य चंडदंडा, प्रणारिया णिग्घिणा णिरणुकंपा। एगतिए सड्ढा भवंति कामं तं समणा य माहणा य पधम्मो ति अक्खराई, जेण ण णजंति सुमिणेऽपि ॥४॥" | हारिंसु गमणार, तत्थ अन्नयरेणं धम्मेणं पन्नत्तारो वयं इत्यादि । तथोश्चर्गोत्र-इक्ष्वाकुवंशाऽऽदिकं येषां ते तथा इमेणं धम्मेण पनवइस्सामो से एवमायाणह भयंताविधा एके केचन तथाविधकर्मोदयवर्तिनः. वाशब्द उत्तरा. रो! जहा मए एस धम्मे सुअक्खाए सुपात्ते भवति ।। पेक्षया विकल्पार्थः । तथा नीचैर्गोत्रं, सर्वजनावगीतं येषां अथशब्द प्रानन्तर्याथै, प्रथमपुरुषानन्तरमपरो द्वितीयः ते तथा एके केचन नीचैर्गोत्रोदयवर्तिनो, न सर्वे, वाशब्दः | पुरुष एव पुरुषजातः पञ्चभिः भूतैः पृथिव्यप्तेजोवाय्याकाशापूर्ववदेव, ते चोर्गोत्रा नीचैर्गोत्रा वा कायो-महाकायः ऽऽख्यैश्वरति पाञ्चभौतिकः । पञ्च वा भूतानि अभ्युपगमप्रांशुत्वं तद्विद्यते येषां ते कायवन्तः, तथा स्ववन्तो वा- द्वारेण विद्यन्ते यस्य स पञ्चभूतिको, मत्वर्थीयष्ठक । सच मनककुम्जवडभाऽऽदय एके केचन तथाविधनामकोदयव. सांख्यमतावलम्ब्याऽऽत्मनस्तुणकुब्जीकरणेऽप्यसामर्थ्याभ्युर्तिनः, तथा शोभनवर्णाः सुवर्णाः, प्रतप्तचामीकरचारुदेहाः, पगमात् भूताऽऽत्मिकायाश्च प्रकृतेः सर्वत्र कर्तृत्वाभ्युपगमाद् तथा दुर्वर्णाः-कृष्णरुक्षाऽऽदिवर्णा एके केचन, तथा सु.। द्रष्टव्यो; लोकायतमतावलम्बी वा नास्तिको भूतव्यतिरिक्तरूपाः सुविभक्कावयवचारुदेहाः, तथा दुष्टरूपाः-दुरूपाः नास्तित्वाभ्युपगमादाख्यायते, प्रथमपुरुषादनन्तरमयं पञ्चचीभत्सदहाः, तेषां चोच्चैर्गोत्राऽऽदिविशेषणविशिष्टानां भूतात्मवाद्यभिधीयते चेति । अत्र च प्रथमपुरुषगमेन "इह महान् कश्चिदेवैकस्तथाविधकर्मोदयाद्राजा भवति, स खलु पाईणं वा" इत्यादिको ग्रन्थः “सुपएणत्ते भवति" विशेष्यते-महाहिमवन्मलयमन्दरमहेन्द्राणामिव सार:-सा- इत्येतत्पर्यवसानोऽवगन्तव्य इति ॥ मर्थ्य विभवो वा यस्य स तथा इत्येवं राजवर्णको या- साम्प्रतं साक्ष्यस्य लोकायतिकस्य चाभ्युपगमं दर्शयिवदुपशान्तडिम्बडमरं राज्यं प्रसाधयंस्तिष्ठतीति । तत्र | तुमाहडिम्बः-परान कशृगालिकः (डिम्बविशेषः 'डिंब' शब्दे चतु इह खलु पंच महब्भूता, जेहिं नो विज्जइ किरियाति वा र्थभागे १७३५ पृष्ठे गतः ) डमरं-स्वराष्ट्रक्षोभः ( डमरविचारः डमर' शब्दे चतुर्थभागे १७३४ पृष्ठे कृतः ) अकिरियाति वा सुक्कडेति वा दुक्कडेति वा कल्लाणेति वा पावए पर्यायौ वैतावत्यादरख्यापनार्थमुपात्तौ इति । तस्य चैवं ति वा साहु त्ति वा असाहुत्ति वा सिद्धि त्ति वा प्रसिद्धि त्ति विधगुणसंपदुपेतस्य राक्ष एवंविधा पर्षद्भवतीति । त- वाणिरपत्ति वा अणिरएत्ति वा अवि अंतसो तणमायमवि ।। द्यथा-उपास्तत्कुमाराश्चोप्रपुत्राः, एवं भोगभोगपुत्राऽऽदयो- इहास्मिन् संसारे द्वितीयपुरुषवक्तव्यताऽधिकारे वा, खलु ऽपि द्रष्टव्याः । शेषं सुगमं, यावत्सेनापतिपुत्रा इति । (ण- शब्दो वाक्यालंकारे । पृथिव्यादीनि पञ्च महाभूतानि विवरं लेच्छरत्ति) लिप्सुकः स च वणिगादिः, तथा प्रशा- धन्ते । महान्ति च तानि भूतानि च महाभूतानि, तेषां च सर्वस्तारो बुभ्युपजीविनो मन्त्रिप्रभृतयः, तेषां च मध्ये क- व्यापितयाऽभ्युपगमात् महत्वं, तानि च पञ्चैव अपरस्य षष्ठबिदेवैका श्रद्धावान् , धर्मलिप्सुः भवति, काममित्यव- स्य क्रियाकर्तृत्वनानभ्युपगमात् , यैर्हि पञ्चभिर्भूतैरभ्युपगम्यधृतार्थे ऽवधृतमेतद्यथाऽयं धर्मश्रद्धालुः, अवधार्य च तं ध मानैः नः अस्माकं क्रिया परिस्पन्दाऽऽत्मिका चेष्टरूपा कि. मंलिप्सुतया श्रमणा ब्राह्मणा वा संप्रधारितवन्तः स. यते, प्रक्रिया या निर्यापाररूपतया स्थितिरूपा क्रियते। मालोचितवन्तो धर्मप्रतिबोधनिमित्तं तदन्तिकगमनाय त- तथाहि-तेषां दर्शनं सत्वरजस्तमोरूपा प्रकृतिर्भूतात्मभूताः बचान्यतरेण धर्मेण-स्वसमयप्रसिद्धेन प्रशापयितारो ब- सर्वा अर्थक्रियाः करोति ।"पुरुषः केवलमुपभुके,बुद्ध्यध्यवासियमित्येवं नाम संप्रधार्य तं राजानं स्वकीयेन धर्मेण प्रः | तमर्थ पुरुषश्चतयति" इति वचनात् । बुद्धिच प्रकृतिरेष तद्वि. जापयिष्याम एवं संप्रधार्य राज्ञोऽन्तिकं गत्ववमचुः । त. कारत्वात्। तस्याश्च प्रकृतेर्भूताऽऽत्मिकायाः सवरजस्तमसां चथा-पतद्यथाऽहं कथयिष्यामि एवमिति च वषयमाल. चयापचयाभ्यां क्रियाक्रिये स्यातामिति कृत्वा भूतेभ्य एवं नीत्या भवन्तो यूयं जानीत भयात्वातारो वा यथा येन क्रियाऽऽदीनि प्रवर्तन्ते, तद्व्यतिरेकेणापरस्याभावादिति भा. प्रकारेण मयैष धर्मः स्वाम्यातः सुप्रज्ञप्तो भवतीति । एवं वानथा सुष्टु कृतं सुरुतमेतश्च सत्वगुणाऽधिक्येन भवति, तीर्थकः स्वदर्शनानुरजितोऽन्यस्याऽपि राजादेः स्वाभि- तथा दुष्ट कृतं दुष्कृतमेतदपि रजस्तमसोरुत्कटतया प्रवर्तते। प्रयणा देश ददाति । वाऽऽद्यः पुरुषजातस्तज्जीवतच्छ- एवं कल्याणमिति वा पापकमिति वा साध्विति वा असारीरवादी राजानमुरिश्यैवं धर्मदेशनां चके । सूत्र०२४०१ घितिया इत्येतत्सम्यादीनां गुणानामुत्कर्षानुत्कर्षतया यथा. Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) पुंमरीय प्रनिधानराजेन्धः। पुमरीय संभवमायोजनीयम् । तथेप्सितार्थनिष्ठानं सिद्धिविपर्ययस्त्व- सम्भव समुत्पत्तिरस्ति, कारणे कार्यस्य विद्यमानस्यैवोत्फसिद्धिनिर्वाणं वा-सिद्धिः, असिद्धिः-संसारः संसारिणां त- सिरिष्टा, नासतः, सर्वस्मात्सर्वस्योत्पत्तिप्रसङ्गात् । तथा चोथा नरकः पापकर्मणां यातनास्थानमनरकस्तिर्यमनुष्याम- क्लम्-" नासतो जायते भावो, नाभावो जायते सतः।" इराणामेतत्सर्व सवादिगुणाधिष्ठिता भूताऽऽस्मिका प्रकृति- त्यादि। तथा असतः खरविषाणाऽऽदेरकरणादुपादानकारणविधते।लोकायताभिप्रायेणापीहैव तथाविधसुखदुःखावस्था- स्य च मृत्पिण्डाऽऽर्धटार्थिनोपादानाऽऽदित्यादिभ्यश्च हेने स्वर्गनरकावितीत्येवमन्तशस्तृणमात्रमपि यत्कार्य ततै- तुभ्यः कारणे सत्कार्यवादः ।। रेव प्रधानरूपाऽऽपनैः क्रियते । तथा चोक्तम्-"सत्वं लघुप्र- एतावताच जीवकाए, एतावताव अत्थिकाए, एतावताव काशक-मिष्टमुपष्टम्भकं बलं च रजः । गुरु चरणकमेव तमः, सबलोए,एतं मुहं लोगस्स करणयाए,अवियंतसो तणमाप्रदीपवच्चार्थतो वृत्तिः ॥१॥” इत्यादि । तदेवं सांख्याभिप्रा यमपि । येणाऽऽत्मनस्तृणकुञ्जीकरणेऽप्यसामर्थ्यालोकायतिकाभिप्रा तदेवमेतावानेव तावदिति सांख्यो. लोकायतिको वा माध्ययेण त्वात्मन पवाभावाद्भूतान्येव सर्वकार्यकर्तृणीत्येवमभ्युपगमः । तानि च समुदायरूपाऽऽपन्नानि नानाखभावं कार्य स्थ्यमवलम्बमान एवमेवाऽऽह । तद्यथा-अस्मद्युतिभिर्विचाकुर्वन्ति । र्यमाणस्तावदेतावानेव जीवकायो, यदुत पञ्च महाभूतानि, यतस्तान्येव सांख्याभिप्रायेण प्रधानरूपतामापन्नानि सवाऽsतं च पिहुद्देसेणं पुढो भूतसमवाय जाणेजा । तं जहा दिगुणोपचयापचयाभ्यां सर्वकार्यकर्तृण्यात्मा चाकिञ्चित्करपुढवी एगे महन्भूते,भाऊ दुचे महन्भूत्ते, तेऊ तच्चे महन्भू- त्वादसत्कल्प एव, लोकायतस्य तु स नास्त्येवेत्यत एतावाते,वाक चउत्थे महन्भूते, आगासे पंचमे महन्भूते. इच्चेते पंच नेव भूतमात्र एव जीवकायः, तथा एतावानेव भूतास्तिमहन्भूया अणिम्मिया अणिम्माविया अकडा णो कि स्वमात्र एवास्तिकायो नापरः कश्चित्तीथिकाभिप्रेतः पदा थोऽस्तीति । तथा एतावानेव सर्वलोको यदुत पञ्च महाभूत्तिमा णो कडगा अणाइया अणिहणा अवंझा अपुरोहि. तानि प्रधानरूपाऽऽपन्नानि, आत्मा चाकर्ता निर्गुणः सांख्यता सता सासता आयछट्ठा पुण एगे एवमाहु-सतो ण. स्य, लोकायतिकस्य तु-पञ्चभूतात्मक एव लोकः, तदतिरि त्थि विणासो, असतो णत्थि संभवो ।। स्या परस्य पदार्थस्याभावादिति । तथा एतदेय पञ्चभूतातं च तेषां समवायं पृथग्भूतपदोद्देशेन जानीयात् । तद्य- स्तित्वं मुखं कारणं लोकस्य,एतदेव च कारणतया सर्वकार्येथा-पृथिव्येका काठिन्यलक्षणा महाभूतं, तथाऽऽपो द्रवल षु व्याप्रियते । तथाहि-सांख्यस्य प्रधानाऽऽत्मभ्यां सृष्टिरुपक्षणा महाभूतं,तथा तेज उष्णोद्योतलक्षणं तथा वायुकृतिक- जायते। लोकायतिकस्य तु भूतान्येवान्तशस्तृणमात्रमपि काम्पलक्षणः,तथाऽवगाहदानलक्षणं सर्वद्रव्याऽऽधारभूनमाका- ये कुर्वन्ति, तदतिरिकस्यापरस्याभावादिति भावः। स चैवम् शमित्येवं पृथम्भूतो यः पदोद्देशस्तेन कायाकारतया यस्त- वाद्येकत्रात्मनोऽकिश्चित्करत्वादन्यत्र चाऽऽत्मनोऽसवादषां समवायः स एकत्वेऽपि लक्ष्यते,इत्येतानि पूर्वोक्तानि पृथि- | सदनुष्ठानैरप्यास्मा पापै कर्मभिर्न वध्यत इति मन्यते । तत् व्यादीनि,संख्या हघुपादीयमाना संख्याऽन्तरं निवर्तयतीति कृ- दर्शयितुमाहत्वा न न्यूनानि नाप्यधिकानि विश्वव्यापितया महान्ति, त्रि- से किणं किणावेमाणे हणं घायमाणे पयं पयावेमाणे कालभवनाद्भूतानि तदेवमेतान्येव पञ्चमहाभूतानि । प्रकृते अवि अंतसो पुरिसमवि किणित्ता घायइत्ता एत्यं पि जामहान् ततोऽहङ्कार-स्तस्माच्च गणः षोडशकः । तस्माद णाहिं पत्थिऽत्थ दोसो,ते णो एवं विपडिवेदेति । तं जहापि षोडशकात् , पश्चभ्यः पञ्च भूतानि ॥१॥ इत्येवंक्रमेण व्यवस्थितान्यपरेण कालेश्वराऽऽदिना केनचिदनिर्मितान्यनि किरियाइ वा जावणिरएइवा,एवं ते विख्वरूवेहिं कम्पसपादितानि, तथा परेणानिर्मापयितव्यानि, तथाऽकृतानि न मारंभेहिं विरूवरूवाई कामभोगाई समारभंति भोयणाए, केनबित्सानि क्रियन्ते , अभ्रेन्द्रधनुरादिवद्विस्रसापरिणामेन एवमेव ते अणारिया विष्पडिवन्ना तं सदहमाणा तं पत्तिनिष्पन्नत्वात् तथा न घटवत्कृत्रिमाणि, कर्तृकरणब्यापारसाध्यानि न भवन्तीत्यर्थः। तथा परब्यापाराभावतया (नो) नैव यमाणा० जाव इति, ते णो हव्याए णो पाराए, अंतरा कृतकानि अपेक्षितपरव्यापारः स्वभावनिष्पत्ती भावः कृतक कामभोगेसु विसमा, दोच्चे पुरिसजाए पंचमहब्भूतिए ति इति व्यपदिश्यते , तानि च विनसापरिणामेन निष्पन. आहिए ॥१०॥ त्वात् कृतकव्यपदेशभाजिन भवन्ति, तथाऽनायनिधनानि, (से किणं ति) स इति यः कश्चित्पुरुषः ऋयार्थी क्रीणन् किअवन्ध्यान्यवश्यकार्यकर्तृणि, तथा न विद्यते पुरोहितः का- चित् क्रयेण गृएहस्तथाऽपरं कापयंस्तथा प्राणिनो प्रन् ये प्रति प्रवर्तयिता येषां तान्यपुरोहितानि, स्वतन्त्राणि स्व- हिंसन् तथा परैर्धातयन् व्यापादयन् , तथा पचनपाचकार्यकर्तृत्वं प्रत्यपरनिरपेक्षाणि, शाश्वतानि नित्यानि वा, नाऽऽदिकां क्रियां कुर्वस्तथाऽपरैश्च पाचयन् , अस्य चोपल"नकदाचिदनीदृशं जगत्" इति वचनात् । तदेवं भूतानि क्षणार्थत्वात् (अनुमोदयन् ) क्रीणतःकापयतो प्रतो घात. पञ्चमहाभूतान्यात्मषष्ठानि पुनरे के एवमाहुः। आत्मा चाs- यतः पचतः पाचयतश्वापरांस्तथाऽप्यन्तशः पुरुषमपि पञ्चेकिश्चित्करः सांख्यानां, लोकायतिकानां पुनः कायाकारपरि- न्द्रियं विक्रीय घातयित्वा.अपि पश्चेन्द्रियघाते नास्ति दोषो. लतान्येव भूतान्यभिव्यक्तचेतनानि अात्मव्यपदेशं भजन्त इ. प्र एवं जानीहि अवगच्छ, किं पुनरेकेन्द्रियवनस्पतिघात ति । तदेवं सांख्याभिप्रायेण सतो विद्यमानस्य प्रधानाऽऽ- इत्यपिशब्दार्थः । ततश्चवंवादिनः सांख्या बार्हस्पत्या वा नास्ति विनाशोऽत्यन्ताभावरूपो नाप्यसतः शशविपणादे (नो) नैवैतद्वषयमाणं विप्रतिवेदवन्ति जानन्ति । तद्यथा-क्रि Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुमरीय अन्निधानराजेन्द्रः। पंकरीय या परिस्पन्दाऽऽमिका सावद्यानुष्ठानरूपा, एवमक्रिया वा इह खलु पादीणं वा ६ संतेगतिया मणुस्सा भवंति. स्थानाऽऽदिलक्षणा यावदेवमेव विरूपरूपैरुश्चावचैर्नानाप्रकारै अणुपुत्रेणं लोयं उववन्ना । तं जहा-आयरिया वेगे० जाव जलस्नानावगाहनाऽऽदिकैस्तथा प्राण्युपमर्दकारिभिः कर्मस मारम्भर्विरूपरूपान् नानाप्रकारान् सुरापानमांसभक्षणा तेसिं च णं मंहते एगे राया भवइ० जाव सेणावइपुत्ता गन्यगमनाऽऽदिकान् कामोपभोगान् समारभन्ते स्वतः, प तेसिं च णं एगतीए सड्डी भवइ, कामं तं समणा य माहरांश्चोदयन्ति-नास्त्यत्र दोष इत्येवं प्रतार्यासत्कार्यकरणाय णा य पहारिंसु गमखाए० जाव जहा मए एस धम्मे सुत्रप्रेरयन्ति एवं च तेऽनार्या अनार्यकर्मकारित्वादार्यान्मार्गाद्वि- क्खाए सुपन्नत्ते भवइ । रुद्धं मार्ग प्रतिपन्नाः विप्रतिपन्नाः। तथाहि-सांख्यानामचेतन अथ द्वितीयपुरुषादनन्तरं तृतीय ईश्वरकारणिक आख्यायस्वात्प्रकृतेः कार्यकर्तृत्वं नोपपद्यते, अचेतनत्वं तु तस्याश्चैः ते, समस्तस्यापि चेतनाचेतनरूपस्य जगत ईश्वरः कारणं. त्यन्यं पुरुषस्य स्वरूपमिति वचनात्, श्रात्मैव प्रतिबिम्बो. दयन्यायेन करिष्यतीति चेत्तदपि न युक्तिसंगतम् , य. प्रमाणं चात्र तनुभुवनकरणाऽऽदिकं धर्मित्वेनोपादीयते, ई श्वरकर्तृकमिति साध्यो धर्मः, संस्थानविशेषत्वात्कृपदेव. तोऽकर्तृत्वादात्मनो नित्यत्वाच्च प्रतिबिम्बोदयो न यु कुलादिवत्,तथा स्थित्वा २ प्रवृत्तेर्वास्यादिवत् । उक्तं च-"ज्यते, किञ्च-नित्यत्वात्प्रकृतेर्महदादिविकारतया नोत्पत्तिः स्यात् । अपि च “ नासतो जायते भावो, नाभावो जायते हो जन्तुरनीशः स्या-दात्मनः सुख दुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छे-स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥१॥" इत्यादि । तथा "पुरुष सतः।" इत्याद्यभ्युपगमात्प्रधानाऽऽत्मनोरेष विद्यमानत्वात् एवेदं सर्व, यद् भूतं यच्च भाव्यम्" इत्यादि । तथा चोक्तम्महदहङ्काराऽदेरनुत्पत्तिरेव.एकत्वाच प्रकृतेरकाऽऽत्मवियोगे "एक एव हि भूताऽऽत्मा, भूते भूते प्रतिष्ठितः । एकधा बसति सर्वात्मनां वियोगः स्यादेकसंबन्धे वा सर्वात्मनां प्रकृतिसंयोगो न पुनः कस्यचित्तत्त्वपरिज्ञानात् प्रकृतिवियोगे हुधा चैव, श्यते जलवन्द्रव ॥१॥" इत्यादि, तदेवमी. मोक्षोऽपरस्य तु विपर्ययात्संसार इत्येवं जगद्वैचित्र्यं न स्या श्वरकारणिक आत्माद्वैतवादी वा तृतीयः पुरुषजात प्रा. त् प्रात्मनश्वाकर्तृत्वे तत्कृती बन्धमोक्षा न स्याताम् , पतच ख्यायते (बह खलु इत्यादि ) इहैव पुरुषजातप्रस्ताव , दृष्टेष्टवाधितम् । नापि कारणे सत्कार्यवादो, युक्तिभिरनुपप खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे प्राच्यादिषु विचवम्यतमस्यां दिशि द्यमानत्वात् । तथाहि मृपिए डावस्थायां घटोत्पत्तेः प्राग्य व्यवस्थितः कश्चिदेवं घूयात् । तद्यथा-राजानमुद्दिश्य ता. टसंबन्धिनां कर्मगुणज्यपदेशानामभाषात् ,घटार्थिनां च क्रि पद्यावत्स्वाण्यातः सुप्रसप्तो धर्मो भवति । यासु प्रवृत्तेन कारणे कार्यमिति। लोकायतिकस्यापि भूताना इह खलु धम्मा पुरिसादिया पुरिसोत्तरिया पुरिसप्पणीमवेतनत्वारकर्तृत्वानुपपत्तिः, कायाऽऽकारपरिणतानां चैत- | या पुरिससंभूया पुरिसपजोतिता पुरिसअभिसमयागया न्याभिव्यक्तयभ्युपगमे च मरणाभावप्रसङ्गः स्यात्तस्मान पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति, से जहाणामए गंडे सिया पञ्चभूताऽऽत्मकं जगदिति स्थितम् । अपिचेदं शानं स्वसं- सरीरे जाए सरीरे संबड्डे सरीरे अभिसमलागए सरीरवित्तिसिद्धमात्मानं धर्मिणमुपस्थापयति, न च भूतान्येव धर्मित्वेन परिकल्पयितुं युज्यन्ते, तेषामचेतनत्वात् । अथ मेव अभिभूय चिट्ठति, एवमेव धम्मा पुरिसादिया जाव कायाऽऽकारपरिणतानां चैतन्यं धर्मो भविष्यतीत्येतदप्ययु पुरिसमेव अभिभूय चिटुंति, से जहाणामए अरई सिकम् , यतः कायाऽऽकारपरिणाम एव तेषामात्मानमधिष्ठा- या सरीरे जाया सरीरे संबुड्डा सरीरे अभिसमामागतारमन्तरेण न भवितुमर्हति, निर्हेतुकत्वप्रसङ्गान्निर्हेतुकत्वे या सरीरमेव अभिभूय चिट्ठति, एवमेव धम्मा वि पुच नित्यं सत्वमसच्वं वा स्यादिति । तदेवंभूतव्यतिरिक्त आ रिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति, से जहास्मा, तस्मिश्च सति सदसदनुष्ठानतः पुण्यपापे, ततश्च जगट्रैचित्र्यसिद्धिरिति । एवं च व्यवस्थिते तेऽनार्या सारख्या णामए बम्मिए सिया पुढविजाए पुढविसंवुड पुढवित्रलोकायतिका वा पञ्चमहाभूतप्रधानाभ्युपगमेन विप्रतिपन्ना भिसममागए पुढविमेव अभिभूय चिट्ठइ, एवमेव धम्मा यत्कुर्युस्तदर्शयितुमाह-( तं सहहमाणा इत्यादि ) तमा-| वि पुरिसादिया० जाब पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से स्मीयमभ्युपगमं पूर्वोतया नीत्या नियुक्तिकमपि श्रद्दधानाः जहाणामए रुक्खे सिया पुढविजाए पुढविसंवुड्ढे पुढपञ्चमहाभूतात्मकप्रधानस्य सर्वकार्याणि उपगच्छन्ति । त. देव च सत्यमित्येवं प्रतियन्तःप्रतिपद्यमानास्तदेव चाऽऽत्मी. विअभिसमामागए पुढविमेव अभिभूय चिट्ठति, एवमेव यमभ्युपगमं रोचयन्तस्तद्धर्मस्याऽऽख्यातारं प्रशंसयन्तः ।। धम्मा वि पुरिसादिया०जाब पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठतद्यथा-खाख्यातो भवता धर्मोऽस्माकमयमत्यन्तमभिप्रेत | ति । से जहाणामए पुक्खरिणी सिया पुढविजाया० जाव इत्येवं ते तदध्यवसायाः-सायद्यानुष्ठानेनाप्यधर्मो न भवती. पुढविमेव अभिभूय चिट्ठति, एवमेव धम्मा वि पुरिसात्यध्यवसायिनः स्त्रीकामेषु मूञ्छिता इत्येवं पूर्ववत् क्षेयं यावसदन्तरे कामभोगेषु विषमा ऐहिकाऽऽमुष्मिकोभयका दिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिति । से जहाणामए र्यभ्रष्टा नाऽऽत्मत्राणाय, नापि परेषामिति। भवत्येवं द्वितीयः उदगपुक्खले सिया उदगजाए जाव उदगमेव अभिपुरुषजातः पञ्चमहाभूताभ्युपगमिको व्याख्यात इति। भूय चिट्ठति, एवमेव धम्मा वि पुरिसादिया०जाव पुसाम्प्रतमीश्वरकारणिकमधिकृत्याऽऽह रिसमेव अभिभूय चिटुंति, से जहाणामए उदगबुब्बुए प्रहावरे तच्चे पुरिसजाए इसरकारणिए इति पाहिज्जड, सिया उदगजाए जाव उदगमेव अभिभूय चिट्ठति, एव Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५२) पुंडरीय अभिधानराजेन्द्रः। पुंडरीय मेव धम्मावि पुरिसादिया. जाव पुरिसमेव अभिभूय तद्यथा नाम उदकवुदः स्यात् , अत्रापि रष्टान्तदान्तिके चिट्ठति ।। न तस्मादवयविनः पृथग्भूत इति सुगमम् । स चायम्ह खलु धर्माः स्वभावाश्चेतनाचेतनरूपाः पु. तदेवं यदीश्वरकृतत्वेनाभ्युपगम्यते तत्सर्वं तथ्यमपरं तु रुष ईश्वर आत्मा वा कारणमादिर्येषां ते पुरुषाऽऽदिका ई मिथ्या इत्येतदाविर्भावयन्नाहश्वरकाराणिका श्रात्मकारणिका. वा, तथा पुरुष एवोत्तरं जपि य इमं समणाणं णिग्गंथाणं उद्दिट्ट पणीयं वियं जियं कार्य येषां ते पुरुषोत्तराः, तथा पुरुषेण प्रणीताः सर्वस्य दुवालसंगं गणिपिडयं । तं जहा-आयारो,सूयगडो० जावतदधिष्ठितत्वात् तदात्मकत्वाद्वा, तथा पुरुषेण द्योतिताः दिहिवातो। सबमेवं मिच्छा, ण एवं तहियं,ण एवं पाहाप्रकाशीकृताः प्रदीपमणिसूर्याऽऽदिनेव घटपटाऽऽदय इति । ते च धर्मा जीवानां जन्मजरामरणव्याधिरोगशोकसुखदुःख तहियं, इमं सच्चं, इमं तहियं, इमं आहातहियं, ते एवं सन्न जीवनाऽदिकाः, अजीवधर्मास्तु मूर्तिमतां द्रव्याणां वर्णगन्ध कुव्वंति, ते एवं सत्र संठवेंति, ते एवं सन्नं सोवढवयंति, रसस्पर्शा प्रमूर्तिमतां च धर्माधर्माऽऽकाशानां गत्यादिका तमेवं ते तजाइयं दुक्खं णातिउटृति सउणी पंजरं जहा । धर्माः, सर्वेऽपीश्वरकृता आत्माद्वैतवादे वाऽत्मविवर्ताः, स ते णो एवं विप्पडिवेदेति । तं जहा-किरियाइ वा० जाव वेऽप्येते पुरुषमेवाभिभूय अभिव्याप्य तिष्ठन्ति । अस्मिन्नर्थे अणिरएइ वा, एवामेव ते विरूवरूवेहिं कम्मसमारंभेहि स्टान्तानाविर्भावयन्नाह-( से जहाणामए इत्यादि ) 'से' शब्दस्तच्छब्दार्थे, नामशब्दः संभावनायाम् । तद्यथा--नाम विरूवरूवाई कामभोगाई समारभंति भोयणाए, एवामेव ते गण्ड स्याद्भवेत् , संभाव्यते च शरीरिणां संसारान्तर्गता- अणारिया विपडिवना एवं सद्दहमाणा० जाव इति ते णो नां कर्मवशगानां गण्डाऽऽदिसमुद्भवः, तच्च शरीरे जातं श- हव्वाए णो पाराए,अंतरा कामभोगेसु विसम्मे त्ति तच्चे पुरीरजातम् -शरीरावयवभूतं, तथा-शरीरे वृद्धिमुपगतम् , रिसजाए ईसरकारणिए त्ति आहिए ॥ ११॥ शरीराभिवृद्धौ च तस्याभिवृद्धिः, तथा शरीरे अभिसमन्वागतं--शरीरमाभिमुख्येन व्याप्य व्यवस्थितं, यदपि चेदं संव्यवहारतः प्रत्यक्षाऽऽसन्नभूतं श्रमणानां यतीनां न तदवयवोऽपि शरीरात्पृथग्भूत इति भावः । तथा निर्ग्रन्थानां निष्किश्चनानामुद्दिष्टं तदर्थ प्रणीतं व्यञ्जितम्-तेशरीरमेवाभिभूय आभिमुख्येन पीडयित्वा तिष्ठति । यदि वा षामभिव्यक्तीकृतं द्वादशझंगणिपिटकं,तद्यथा आचार इत्यादि तदुपशमे शरीरमेवाऽऽश्रित्य तद्गण्डं तिष्ठति न शरीरा यावद् दृष्टिवादः,सर्वमेतन्मिथ्या, अनीश्वरप्रणीतत्वात, स्वरद्वहिर्भवति । एतदुक्तं भवति-यथा तत्पिटकं शरीरैकदे चिविरचितरथ्यापुरुषवाक्यवत्तथा नैतत्तथ्यमिथ्येत्यनेनाभूशभूतं न युक्तिशतनापि शरीरात्पृथग्दर्शयितुं शक्यते, एवमे तोद्भावनत्वमाविष्कृतमचौरचौर त्ववत्, नैतत्तथ्यमित्यनेन तु वामी धर्माश्चेतनाचेतनरूपास्ते सर्वेधीश्वरकर्तृका न ते ईश्व सद्भूतार्थनियो यथा नास्त्यात्मेति तथा नैतद्यथातथ्यम्-यरात्पृथक पार्यन्ते। यदि वा-सर्वव्यापिन आत्मनस्त्रैलोक्योद थास्थितोऽर्थः,न तथाऽवस्थितमिति भावः। अनेन सद्भूतार्थनिरविवरवर्तिपदार्थाऽऽत्मनो ये केचन धर्माः प्रादुःषति ते पृथ हवेनासद्भूतार्थाऽऽरोपणमाविष्कृतम्। तद्यथा गामश्व त्रुवतोकर्नु न शक्यन्ते, यथा तदण्डं शरीरविकारभूतं तदपृथग्भूतं sश्वं वा गामिति, एकाथिकानि वैतानि शकेन्द्राऽऽदिव द्रष्टसद्विनाशे च शरीरमेवावतिष्ठते,एवमेव सर्वेशप धर्माः पुरुषा व्यानि । तदेवं यदेतद् द्वादशाङ्गं गणिपिटकं तदनीश्वरप्रणीत. दिका: पुरुषकारणिकाः पुरुषविकाररूपा वा न पुरुषात्पृथ त्वान्मिथ्येति स्थितम् इदंतु पुनरीश्वरकर्तृकत्वं नामाऽऽत्माद्वैग्भवितुमर्हन्ति,तद्विकारापगमे चाऽत्मानमेवाऽश्रित्यावतिष्ठ- तं वा सत्यं यथा वस्थितार्थप्रतिपादनात्। तथेदमेव तथ्यं सम्तेन तस्मादबहिर्भवन्तीति शास्त्रे च दृष्टान्तप्राचुर्यमविरुद्धम्। द्भूतार्थोद्भासनात् , तदेवं ते ईश्वरकारणिका आत्माऽद्वैतयदि वा-अस्मिन्नथें बहवो दृष्टान्ताः संभवन्तीश्वरकर्तृत्ववाद वादिनो वा.पवमनन्तरोक्लया नीत्या सर्व तनुभुवनकरणाssस्याऽत्माद्वैतवादस्य च सुप्रसिद्धत्वात् दृष्टान्तबहुत्वमित्याह दिकम् ईश्वरकाराणकं, तथा सर्व चेतनमचेतनं वाऽऽत्म(से जहा इत्यादि)तद्यथा नामारतिश्चित्तोद्वेगलक्षणा स्याद्भ- विवर्तस्वभावम्, आत्मन एव सर्वाऽऽकारतयोत्पत्तरि. वेत्, सा च शरीरजाता इत्यादि गण्डवन्नेया, दार्शन्तिकेs. त्येवं संज्ञानं संज्ञा, तामेव कुर्वन्त्यन्येषां च ते खदर्शनानुरप्येवमेव.सर्वे धर्माः पुरुषाऽऽदिका पुरुषप्रभवा इत्यादि पूर्वव-| | क्वमनसां संशा संस्थापयन्ति, तथा-त एव एवंभूतां संज्ञा म्नेयम् । तथा तद् यथानाम वल्मीकं पृथ्वीविकाररूपं वक्ष्यमाणेन न्यायेन नियुक्तिकामपि सुष्टु उप सामीप्येन स्यात् , तच्च पृथिव्यां जातं पृथिवीसंबद्धं पृथिव्य- तदाग्रहितया तदभिमुखा युक्तीः निनीषवः स्थापयन्ति भिसमन्वागतं पृथिवीमेवाभिसंभूय तिष्ठति, एवमेव प्रतिष्ठापयन्ति । ते चैवं वादिनस्तमीश्वरकर्तृत्ववादमात्माद्वैयदेतच्चेतनाचेतनरूपं तत्सर्वमीश्वरकारणिकमात्मविव- तवाद वा नातिवतेन्ते, तदभ्युपगमजातीयं च दुःखं दुःखतरूपं वा नाऽऽत्मनः पृथग्भवितुमर्हति, पृथिव्या बल्मीक- | हेतुत्वाद् दुखं नातिवर्तन्ते न त्रोटयन्ति था। अस्मिन्नर्थे पत्,तथा तयथा नाम वृक्षोशोकाऽऽदिकः स्यात्स च पृथिवी- दृष्टान्तमाह-यथा शकुनिः पक्षिविशेषो लावकाऽऽदिकापजात इत्यादिष्टान्तदान्तिके पूर्ववदायोज्ये , तद् यथा अरं नातिवर्तते पौन पुन्येन भ्रान्त्वा तत्रैव वर्तते, एवं ते. नाम पुष्करिणी स्यात्-तडागरूपा भवेत् , साप पृथिव्या- ऽप्येवंभूताभ्युपगमवादिनस्तदापादितकर्मबन्धं नातियर्तन्ते, मेव जातेत्यादि प्राग्वच्चय॑स्तथा तद्यथा नाम पुष्कलं प्रचुर- न वा त्रोटयन्ति । ते च स्वानहाभिमानग्रहप्रस्ता नैतद्वक्ष्यमामुदकपुष्कलमुदकप्राचुये तच्च तवमरवावुदकमेव यावद- णं विप्रतिवेदयन्ति न सम्यक जानन्ति । तद्यथेय क्रिया कमेवाभिभूय तिष्ठति, एवं दार्शन्तिकेऽण्यायोज्यम् । तथा सदनुष्ठानरूपेयं चाक्रिया तद्विपरीतेत्येवं स्वाग्रहिणी नान्यत् Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३) पुंडरीय अभिधानंराजेन्सः । पुंडरीय शोभनमशोभनं वा यावदयमनरक इत्येवं सदसद्विवेकरहित- संयोगमप्राप्तो विवक्षित स्थानमन्तराल एव कामभोगेषु मूत्वानावधारयन्त्येवमेव यथा कथञ्चित्ते विरूपरूपैः कर्मसमार- छितो विषम इत्यधगन्तव्यमिति । म्भै नाप्रकारैः सावद्यानुष्ठानद्रव्योपार्जनोपायभूतैर्द्रव्यमुपा सांप्रतं चतुर्थपुरुषजातमधिकृत्याऽऽहदाय विरूपरूपान्कामभोगानुश्चावचान समाचरन्ति भोजना- अहावरे चउत्थे पुरिसजाए णियतिवाइए ति श्राहियोपभोगार्थमित्येवमनार्यास्ते विरुद्ध मार्गप्रतिपन्ना विप्रतिपन्ना जइ, इह खलु पाईणं वा तहेव० ६ जाव सेणावइपुत्ता वा, न सम्यग्वादिनो भवन्ति। तथाहि-"सर्वमीश्वरकर्तृकम्" इत्यत्राभ्युपगमे किमसावीश्वरः स्वत एवापरान् क्रियासु प्रवर्तये सिं च णं एगतीए सड्डीभवइ, कामं तं समणा य मादुतापरेण प्रेरितः। तत्र यद्याद्यः पक्षस्तदातद्वदन्येषामपि स्वत हणा य संपहारिंसु गमणाए. जाव मए एस धम्मे सुत्रएच क्रियासु प्रवृत्तिर्भविष्यति किमतगडुनेश्वरपरिकल्पनेन। क्खाए सुपनत्ते भवइ । अथासावप्यपरप्रेरितः,सोऽप्यपरेण,सोऽप्यपरेणेत्येवमनवस्था- अथ तृतीयपुरुषादनन्तरमपरश्चतुर्थः पुरुष एव पुरुषजातो लता नभोमण्डलमालिनी प्रसर्पति किंच-असावीश्वरो महा- नियतिवादिक आख्यायते प्रतिपाद्यते । स चैवमाह-नात्र पुरुषतया वीतरागतोपेतः सन्नेकानरकयोग्यासु क्रियासु प्रव. कश्चित्कालेश्वराऽऽदिकः कारणं,नापि पुरुषकारः, समानक्रितयत्यपरांस्तु स्वर्गापवर्गयोग्यास्विति? अथ ते पूर्वशुभाशुभा- याणामपि कस्यचिदेव नियतिबलादर्थसिद्धरतो नियचरितोदयादेव तथाविधासु तासु क्रियासु प्रवर्तन्ते,स तु नि. तिरेव कारणम् । उक्त च-"प्राप्तव्यो नियतिबलाऽऽश्रयेण योमित्तमात्रम् । एतदपि न युक्तिसङ्गतम्। यतः प्राक्तनाशुभप्रवर्तः ऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति नमपि तदायत्तमेव । तथा चोक्तम्-"अशो जन्तुः" इ. कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः स्यादि । अथ तदपि प्राक्तनमन्येन प्राक्तनतरेण कारितमिति, ॥१॥” इत्यादि। एवमनादिहेतुपरम्परेति,पवं च सति तत एव शुभाशुभे स्था नियतिवादी स्वमतमाहने भविष्यतः किमीश्वरपरिकल्पनेन ?। तथा चोक्तम्-"श- इह खलु दुवे पुरिसा भवंति-एगे पुरिसे किरियमाइस्त्रौषधाऽऽदिसंबन्धा-चैत्रस्य व्रणरोहणे ।असंबद्धस्य किं स्था- क्खइ, एगे पुरिसे णो किरियमाइक्खइ, जे य पुरिसे किरिणोः, कारणत्वं न कल्पते ॥१॥" इत्यादि। यद्योक्तम्-सर्व त- यमाइक्खइ जे य पुरिसे णो किरियमाइवखइ, दो वि ते पुनुभुवनकरणाऽऽदिकं बुद्धिमत्कारणपूर्वकं संस्थानविशेषत्वा रिसा तुल्ला एगट्ठा, कारणमावन्ना ॥ त् देवकुलादिवदित्येतदपि न युक्तिसङ्गतम् , यत पतदपि साधनं न भवदभिप्रेतमीश्वरं साधयति.तेन सार्धं व्याप्त्यसि. इहाऽस्मिन् जगति, खलुशब्दो वाक्यालंकारे । द्वौ पुरुषा द्धेः, देवकुलादिके दृष्टान्त ऽनीश्वरस्यैव कर्तृत्वेनाभ्युपगमा भवतः। तलका क्रियामाख्याति । क्रिया हि देशाद्देशान्तरात्। न च संस्थानशब्दप्रवृत्तिमात्रेण सर्वस्य बुद्धिमत्कार. वाप्तिलक्षणा पुरुषस्य भवतीति । न कालेश्वराऽऽदिना चोदिणपूर्वकत्वं सिद्ध्यति , अन्यथाऽनुपपत्तिलक्षणस्य साध्य तस्य भवत्यपि तु निर्यानधरितस्य,पवमक्रियाऽपि । यदि तावसाधनयोः प्रतिबन्धस्याभावात् । अथाविनाभावमन्तरेणैव त् स्वतन्त्री निवामक्रियावादं च समाश्रितौ तौ द्वा. संस्थानमात्रदर्शनात्साध्यसिद्धिः स्यात् एवं च सत्यतिप्रसङ्गः वपि नियत्यधीनत्वात्तुल्या, यदि पुनस्तौ स्वतन्त्रौ भवतस्यात् । उक्तं च-" अन्यथा कुम्भकारेण, मृद्विकारस्य क स्ततः क्रियाऽक्रियाभेदान्न तुल्यौ स्यातामित्यत एकार्थावस्यचित् । घटाऽऽदेः करणात्सिद्धे-वल्मीकस्यापि तत्कृतिः ककारणाऽऽपन्नत्वादिति,नियतिवशेनैव तौ नियतिवादनि यतिवादं चाऽऽश्रिताविति भावः । उपलक्षणार्थत्वाचास्या॥१॥” इत्यादि । न चेश्वरकर्तृत्वे जगद्वैचित्र्यं सिध्यति, तस्यैकरूपत्वादित्युक्तप्रायमिति । आत्माद्वैतपक्षस्त्वत्यन्त न्योऽपि यः कश्चित्कालेश्वराऽऽदिपक्षान्तरमाश्रयति सोऽपि मयुक्तिसङ्गतत्वान्नाऽऽश्रयणीयः । तथाहि-तत्र न प्र नियतिचोदित एव द्रष्टव्य इति । माणं न प्रमेयं न प्रतिपाद्यं न प्रतिपादको न हेतुर्न ___ साम्प्रतं नियतिवादी परमतोद्विभावयिषयाऽऽहदृष्टान्तो न तदाभासो भेदेनाऽवगम्यते, सर्वस्यैव जगत बाले पुण एवं विप्पडिवेदेति कारणमावन्ने अहमसि एकत्वं स्यादात्मनोऽमिन्नत्वात्, तदभावे च कः केन प्रतिपा- दुक्खामि वा सोयामि वा जरामि वा तिप्पामि वा पीडाद्यते?, इत्यप्रणयनमेव शास्त्रस्याऽऽत्मनश्चकत्वात्तत्कार्यमण्ये- मि वा परितप्पामि वा अहमयमकासि परो वा जं दुक्खइ काकारमेव स्यादित्यतो निर्हेतुकं जगद्वैचित्र्यम् । तथा च स षा सोयइ वा जूरइ वा तिप्पइ वा पीडइ वा परितप्पड़ ति-"नित्यं सवमसत्वं वा.हेतोरन्यानपेक्षणात् । अपेक्षातोहि भावानां, कादाचित्कत्वसंभवः॥१॥” इत्यादि । तदेवमी वा परो एवमकासि, एवं से बाले सकारणं वा परकाश्वरकर्तृत्वमात्माद्वैतपक्षश्च युक्तिभिर्विचार्यमाणो न कश्चिद् रणं वा, एवं विप्पडि।ति कारणमापन्ने । घटां प्राञ्चति। तथापिपते स्वदर्शनमोहमोहितास्तज्जातीयाद् बालोऽज्ञः पुरुषकारकालेश्वरवादीत्यादिकः, पुनरिति विशे. दुःखात् शकुनिः पारादिव नातिमुच्यन्ते. विप्रतिपन्नाश्च षणार्थः। तदेव दर्शयति एवमिति वक्ष्यमाणनीत्या विप्रतिवे. तत्प्रतिपादिकाभियुक्तिभिस्तदेव स्वपक्षं प्रतियन्ति, श्रद्दध- दयति जानीते कारणमापन्नः सुखदुःखयोः सुकृत दुष्कृतयोर्वा तीति पूर्ववन्नेयम् । यावत् (णी हव्वाए णो पाराए अंत- स्वकृत एव पुरुषकारः कालेश्वराऽऽदि, कारणमित्येवमभ्यरा कामभोगेसु विसम त्ति ) इत्ययं तृतीयः पुरुषजात पपनो नान्यत् नित्यादिकं कारणमस्तीति तदेवाऽऽह । तद्यथाईश्वरकारणिक इति । स वेवमाह-"यस्य बुद्धिर्न लिप्येत, योऽहमस्मि दुःखामि शारीरं मानसं दुःखमनुभवामि, तथा हत्वा सर्वमिदं जगत् । श्राकाशमिव पङ्केन, नासौ पापेन शोचामीष्टानिष्टवियोगसंप्रयोगकृतं शोकमनुभवामि , तथा लिप्यते ॥१॥" इत्थाद्यसमञ्जसभापितया त्यक्त्वा पूर्व (तिप्पामित्ति शारीरवलं क्षरामि तथा (पीडामि त्ति) २३६ Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय प्रन्निधानराजेन्द्रः। पंडरीय सयाह्याभ्यन्तरया पीडया पीडामनुभवामि, तथा (परितप्पा. स्यन्तीति प्रसाद्वीन्द्रियाऽऽदयः स्थावराश्च पृथिव्यादयः प्रा. मिति ) परितापमनुभवामि. तथा (जूरामि ति) अनार्य- णाःप्राणिनस्ते सर्वेऽप्येवं नियतित एवौदारिकाऽऽदिशररिसं. कर्मणि प्रवृत्तमात्मानं गर्हामि, अनर्थावाप्ती घिसूरया- बन्धमागच्छन्ति नान्धन केनचित्कर्माऽऽदिना शरीरं प्राह्यन्त, मीत्यर्थः । तदेवं यदहं दुःखमनुभवामि तदहमेवाकार्ष, प. तथा बालकुमारयौवनस्थविरवृद्धावस्थाऽदिकं विविधपर्यापीडया कृतवानस्मीत्यर्थः । तथा परोऽपि यहःखशोका- यं नियतित एवानुभवन्ति, तथा नियतित एव विवेकं शरी5ऽदिकमनुभवति मयि वा पादयति, तत् स्वयमेष कृतमिः | रात्पृथग्भावमनुभवन्ति । तथा नियतित एव विविध विधाति। तदेय दर्शयति-(परो घेत्यादि) तथा परोऽपि यन्मां दुःख नम्-अवस्थाविशेषं कुब्जकाणखावामनकजरामरणरोगश:यति शोचयतीत्यादि प्राग्वनेयं तत्सर्वमहमकार्षमित्येवं काऽऽदिकं वीभत्समागच्छन्ति, तदेवं ते प्राणिनखसाः स्थाद्वाभ्यामाकलितोऽशो वा बाल एवं विप्रतिवेदयति जा घरा एवं पूर्वोक्कया नीत्या संगति यान्ति-नियतिमापन्ना नानीते स्वकारणं या परकारणं वा सर्व दुःखाऽऽविपुरुषकार नाविधविधानभाजी भवन्ति । त एव वा नियतिवादिनः (सं. कृतमिति जानीते एवं पुरुषकारकारणमापन इति । गइयं ति ) नियतिमाश्रित्य तदुत्प्रेक्षया नियतिवादोत्प्रेक्षया तदेयं नियतिवादी पुरुषकारकारणवादिनो बालत्वमापाच यत्किञ्चनकारितया परलेाकाभीरवो (नो) नैव पतक्ष्यमाणं विप्रतिवेदयन्ति जानन्ति । तद्यथा-क्रिया-सदनुष्ठानरूपा, अ. स्वमतमाह क्रिया तु-असदनुष्ठानरूपा इत्यादि यावदेवं ते नियतिवादिनमहावी पुण एवं विप्पडिवेदेति कारणमावन्ने अह स्तदुपरि सर्व दोष जातं प्रक्षिप्य विरूपरूपैः कर्मसमारम्भर्विरूमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि | परूपान् कामभोगान् भोजनाय उपभोगार्थ समारभन्त इति । वा पीडामि वा परितप्पामि वा, णो अहं एवमकासि, __ एवमेव ते अणारिया विपडिवना तं सद्दहमाणाम् जाव परो वा जं दुकावइ वा० जाव परितप्पइ वा, णो परो इति ते णो हवाए णो पाराए अंतरा कामभोगेसु बिएवमकासि, एवं मे मेहावी सकारणं वा परकारणं वा सम्मा; चउत्थे पुरिसजाए णियइवाइए त्ति आहिए । एवं विप्पडिवेदेति कारणमावन्ने, से वेमि पाईणं वा तदेवमेव पूर्वोक्तया नीत्या तेऽनार्या विरूपं नियतिमार्ग प्र. ६, जे तसथावरा पाणा ते एवं संघायमागच्छंति, ते तिपन्नाः विप्रतिपन्नाः, अनार्यत्वं पुनस्तेषां नियुक्तिकस्यैव निएवं विपरियासमावअंति, ते एवं विवेगमागच्छंति, ते यतिवादस्य समाश्रयणात् । तथाहि-असौ नियतिः किं स्वत एव नियतिस्वभावा उतान्ययानियत्या नियम्यते ?,किश्चातः?, एवं विहाणमागच्छति,ते एवं संगतियंति उवेहाग, णो एवं तत्र यद्यसौ स्वयमेव तथास्वभावा सर्वपदार्थानामेव तथास्वविप्पडिवेदेति । तं जहा-किरियाति वा० जाव णिरए भावत्वं किं न कल्भ्यते?,किं बहुदोषया नियत्या समाश्रितति वा अणिरएति वा, एवं ते विरूवरूवहिं कम्म- या?। अथाऽन्यया नियत्या तथा नियम्यते, साऽप्यन्यया समारंभहिं विरूवरूवाई कामभोगाई समारभंति भो साऽप्यन्ययेत्येवमनवस्था । तथा नियतेः स्वभावत्वाभियत स्वभावया अनया भवितव्यं, न नानास्वभावयेति, एकस्वायणाए । व नियतेस्तत्कार्येणाप्येकाऽऽकारेणैव भवितव्यम् , तथा च गेधा मर्यादा, प्रज्ञा वा, तद्वान् मेधावी नियतिवादपक्षाश्र- सति जगद्वैचित्र्याऽभावः,न चैतद् दृष्टमिष्ठं वा । तदेवं युक्तियी. एवं विप्रतिवदयति जानीत , कारण मापन्न इति नियः भिर्विचार्यमाणा नियतिर्न कश्चिद् घटते। यदप्युक्तम्-द्वाबतिरेव कारणं सुखदुःखाऽऽद्यनुभवस्य, तद्यथा--सोऽहमम्मि पिता पुरुषी क्रियाऽक्रियावादिनी तुल्यौ, एतदपि प्रतीतिदुःखयामि शोचयामि. तथा (तिष्यामि त्ति) क्षरामि ( पी. बाधितम् , यतस्तयोरेकः क्रियावादी, अपरस्त्वक्रियावादीडामि ति) पीडामनुभवामि ( परितप्पामि ति ) परि- ति, कथमनयोस्तुल्पत्वम् , अथैकया नियत्या तथा नियततापमनुभवामि नाहमवमकार्य दुःखम् , अपि तु नियतित वातुल्यता अनयोः, एतच्च निरन्तगः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, पवैतन्मय्यागनं, न पुरुपकाराऽऽदिकृतं, यती न हि कस्य- नियरप्रमाणत्वात् । अप्रमाणत्वं च प्राग्लेशतः प्रदर्शितविदास्मानियो येनानिमा दुःखात्पादाऽऽदिकाः क्रियाः समार- मेव । यदप्युक्तम्-"यद् दुःखाऽऽदिकमहमनुभवामि तन्नाहमभते,नियत्यैवासावनिच्छन्नपि तत्कार्यते येन दुःखपरम्पराभा- कार्षम्" इत्यादि । तदपि बालवचनप्रायम् । यती जम्मान्तरकग्भवति, कारणमापन्न इति परेऽप्येवमेव योजनीयम् । एवं त शुभमशुभं वा तदिहोपभुज्यते, स्वकृतकर्मफलेश्वरवादमति नियतिवादी मेधावीति सोल्लुएठमेतत् , स किल नि- सुमताम् । तथा चोक्तम्यतीवादी दृष्टं पुरुषकारं परित्यज्यादृएनियतिवादाऽऽथयण "यदिह क्रियते कर्म, तत्परत्रोपभुज्यते। महाविवेकीत्येवमुल्लएज्यते, स्वकारणं परकारणं च दुःस्वा. मूलसिक्केषु वृतेषु, फलं शाखासु जायते ॥१॥" 5ऽदिकमनुभवन्नियतिकृतमतदेवं विप्रतिवेदयति--जानाति तथानाऽऽत्मकृतं नियतिकारणमापनं, नियतिकारणं चाकस्या- " यदुपात्तमन्यजन्मनि, शुभमशुभं वा स्थकर्मपरिणत्या । सदनुष्ठानरतस्यापि न दुखमुत्पद्यते, परस्य तु सदनुष्ठायि- तख्छुक्यमन्यथा नो. कतु देवासुरैरपि हि॥२॥" माऽपि तद्भवति इत्यतो नियतिरेव कीति । तदेवं नियति- तदेवं ते नियतिवादिनोऽनार्या विप्रतिपन्नास्तमेव नियुपावे स्थिते परमपि यत्किश्चित्तत्सर्व नियत्यधीनमिति दर्शयि. क्लिकं नियतिवादं श्रद्धवानास्तमेव च प्रतीयन्ते इत्यादि तुमाह-( से वेमीत्यादि) सोऽहं नियतिवादी युक्तितो नि- तावन्नेयं यावदन्तरा कामभोगेषु विषमा इति चतुर्थः पुरुमित्य प्रर्धामीति प्रतिपादयामि, ये केचेन प्राच्याविषुदित .पजातः समाप्तः। Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंकरीय अनिधानराजेन्डः । पुंझरीय साम्प्रतमुपसंजिघृजुराह अनार्याः शकयवनाऽऽविदेशोद्भधाः, तथा च उगोत्रीया इच्छेते चत्तारि पुरिसजाया णाणापना णाणाछंदा णा इक्ष्वाकुहरिबंशाऽऽदिकुलोद्भवाः, तथा-नीचैर्गोत्रोद्भवाः-बणासीला णाणादिट्ठी णाणारुई णाणारंभा णाणाअज्म पसवसंभूताः, तथा-कायवन्तःप्रांशवः,तथा-इस्खा वामन काऽऽदया, तथा-सुवर्णा दुर्वाः सुरूपाः कुरूपा या एक चसाणसंजुत्ता पहीणपुव्वसंजोगा अारियं मर्ग असंपत्ता केचन परवशा भवन्ति. तेषां चार्याऽऽदीनाम्. णमिति घाइति ते णो हवाए णो पाराए अंतरा कामभोगेसु वि- क्यालङ्कारे, क्षेत्राणि शालिक्षेत्राऽऽदीनि वास्तूनि खातोषिछूसम्मा ( १२ सूत्रम् )। ताऽऽदीनि तानि परिगृहीतानि स्वीकृतानि भवन्ति । ताम्येष विशिनधि-अल्पतराणि स्तोकतराणि वा प्रभूततराणि या इत्येते पूर्वोक्तास्तजीवतच्छरीरपञ्चमहाभूतेश्वरकर्तृत्वनिय. भवन्ति । तथा-तेषामेव च जनजानपदाः परिगृहिता भवतिवादपक्षाऽश्रयिणश्चत्वारः पुरुषा.नानाप्रकारा प्रज्ञा म न्ति, तेऽप्यल्पतराः प्रभूततरा वा भवेयुः,तेषु चार्याऽऽविधितिर्येषां ते तथा. नाना-भिन्नश्छन्द:-अभिप्रायो येषां ते त. शेषणविशिष्टेषु तथाप्रकारेषु कुलेवागम्यैवंभूतानि गृहाणि था, नानाप्रकारं शीलम् अनुष्ठानम् येषां ते तथा , ना. गरवा, तथा प्रकारेषु धा कुलेष्यागम्य जन्म लभ्याऽभिनारूपा दृष्टिः-दर्शनं येषां ते तथा , नानारूपा रुचिः-चे. भूय च विषयकषायाऽऽदीन् परीषहोपसर्गान् वा सम्यगुत्था. तोऽभिप्रायो येषां ते तथा, नानाप्रकार प्रारम्भी-धर्मानुष्ठानं नेनोत्थाय प्रवज्यां गृहीत्वैके केचन तथाविधसवयन्तो भियेषां ते तथा. नानाप्रकारेण परस्परभिन्ननाऽध्यवसायेन सं. क्षाचर्यायां सम्यगुस्थिताः समुत्थिताः, तथा-सतो विद्यमाना. युक्ता धर्मार्थमुद्यताः, प्रहीणः-परित्यक्तः पूर्वसंयोगो-मातृ नपि वा एके केचन महासरवोपेता ज्ञातीन् स्वजनान् अशातीन् पितृकत्वत्रपुत्रसम्बन्धो यैस्ते तथा, तथा-आराद्यातः सर्वहे. परिजनांस्तथोपकरणं च कामभोगाझंधनधान्यहिरण्याऽऽदियधर्मेभ्य इसार्यो मार्गों निर्दोषः पापलेश्यासंपृक्तस्तमार्य के विविध प्रकर्षण हित्वा त्यक्त्वा भिक्षाचर्यायां सम्यगुत्थिमार्गमसंप्राप्ता इति पूर्योतया नीत्या ते चत्वारोऽपि नास्ति ताः,असती वा ज्ञातीनुपकरणं च विप्रहाय भिक्षाचर्यायामेके काऽऽदयो (णो हब्वाए इति) परित्यक्तत्वान्मातापित्राऽऽदि केचनापगतस्वजनविभवाः समुत्थिताः । संबन्धस्य धनधान्यहिरण्याऽऽदिसञ्चयस्य च नैहिकसुखभा. जो भवन्ति । तथा-(णो पाराए त्ति) असंप्राप्तत्वावार्यस्य पुब्वमेव तेहिं णायं भवइ । तं जहा-इह खलु पुरिसे मार्गस्य सर्वोपाधिषिशुद्धस्य प्रगुणमोक्षपद्धतिरूपस्य न सं. अनमन्नं ममट्ठाए एवं विप्पडिवेदेति । तं जहा-खत्तं में सारपारगामिनो भवन्ति, न परलोकसुखभाजो भवन्तीति, वत्थू मे हिरमं मे सुवनं मे धणं मे धर्म में कंसं मे दूसं किं त्वन्तराल एव गृहवासार्यमार्गयोर्मध्यवर्तिन एव काम मे विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्त-- भोगेषु विषम्मा अध्युपपन्ना दुष्पारपङ्कमग्ना करिणे इव विषीदन्तीति स्थितम् । उक्काः परतीर्थिकाः। रयणसंतसारसावतेयं मे सद्दा मे रूवा मे गंधा मे रसा साम्प्रतं लोकोत्तरं भिक्षावृत्तिं भिक्षुकं पञ्चमं पुरुषजात मे फासा मे, एते खलु मे कामभोगा अहमवि एतेसि ।। मधिकृत्याऽऽह से मेहावी पुवामेव अप्पणो एवं सपभिजाणेजा। तं से बेमि पाईणं वा ६ संतगतिया मणुस्सा भवति । तं जहा जहा-इह खलु मम अन्नयरे दुक्खे रोयातंके समुप्पआयरिया वेगे अणारिया बेगे उच्चागोया वेगे णीयागोया जेजा, अणिढे अकंते अप्पिए असुभे अमणुने अमणावेगे कायमंता वेगे हस्समंता वेगे सुवन्ना वेगे दुवन्ना वेगे सुरूवा मे दुक्खे णो सुहे से हता भयंतारो ! कामभोगाई मम वेगे दुरूवा वेगे,तेसिं च णं जणजाणवयाई परिग्गहियाणि अनयरं दुक्खं रोयातंक परियाइयह अणि8 अकंतं अभवति । तं जहा-अप्पयरा वा भुञ्जयरा वा, तहप्प प्पियं असुभं अमणुनं अमणामं दुक्खं णो सुहं, ताऽहं गारहिं कुलेहिं पागम्म अभिभूय एगे भिक्खायरिया दुक्खामि वा सोयामि वा जरामि वा तिप्पामि वा ए समुट्टिता सतो वा वि एगे णायो अणायो य उव पीडामि वा परितप्पामि वा इमाओ मे अमयराओं दुक्खाओ रोयातकाओ पडिमोयह अणिहारो अर्कतागरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्टिता असतो वा वि एगे णायो य अणायो य उवगरणं च विप्पजहाय श्रो अप्पियाश्रो असुभाओ अमणुनाओ अमणामाओ दुक्खाओ यो सुहायो, एवामेव णो लद्धं पुव्वं भवइ । भिक्खायरियाए समुहिता, जे ते सतो वा असतो वा गायो य अणायो य उवगरणं च पिप्पजहाय भि ये ते पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टा भिन्नाचर्यायामभ्युद्यताः पूर्वमेव प्रवज्याग्रहणकाल एव तैरेतज्ज्ञातं भवति । तद्यथा-(इहे. क्वायरियाए सुमुहिता ।। त्यादि ) इह जगति, खलुर्वाश्यालङ्कारे, अन्यदन्यद्वस्तृद्दिश्य यादृकामभोगवसक्तः सन्नन्तरा नोऽवसीदति, पावर- ममतद्भोगाय भविष्यतीति. पवमसौ प्रवज्यां प्रतिपन्नः प्रपाण्डरीकोद्धरणाय च समर्थो भवति, तदेतदहं प्रवीमीति। विवजिघुर्वा प्रवेदयति जानात्येवं परिच्छिनत्ति । तद्यथा-क्षेत्र अस्य चार्थस्योपदर्शनाय प्रस्तावमारचयन्नाह-प्राचीनाऽऽदि- शालिक्षेत्राऽऽदिकं वास्तु खातोच्छिताऽऽदिकं हिरण्यं धर्मलाकामन्यतरां दिशमुद्दिश्यैके केचन मनुष्याः सन्ति भवन्ति ।। भाऽऽदिकं सुवर्ण कनकं धनं गोमहिष्यादिकं धान्य शालगातद्यथा-भार्या प्रार्यदेशोत्पन्ना मगधाऽऽदिजनपदोद्भवाःतथा- धूमाऽऽदिकं कांस्य कांस्यपात्राऽऽदिकं तथा विपुलानि प्रभूत Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरीय अभिधानराजेन्द्रः । पुंकरीय तराणि धनकनकरत्नमणिमौक्तिकानि (संखसिल त्ति) एकदा व्याध्युत्पत्तिकाले जराजीर्णकाले वाम्यस्मिन्वा राजामुक्तशैलाऽऽदिकाः शिलाः प्रबालं विद्रुमं, यदि वा-(सि- | ऽऽद्युपद्रवे तान्कामभोगान् परित्यजति, स या पुरुषो द्रव्यालप्पबालं ति) श्रिया युक्तं प्रवालं श्रीप्रवालं वर्णाऽदि- ऽऽद्यभावे तैः कामगिर्विषयोन्मुखोऽपि त्यज्यते,स चैवमयगुणोपेतं, तथा-(रत्तरयणं ति) रतरत्नं पनरागाऽऽदिकं धारयति अन्ये मत्तो भिन्नाः खल्वमी कामभोगाः, तेभ्यतथा सत्सारं शोभनसारमित्यर्थः । शूलमण्यादिक, तथा श्वान्योऽहमस्मि । तदेवं व्यवस्थिते किमिति वयं पुनरेते. स्वापतेयं रिक्थं ( शुद्धं ) द्रव्यजातं सर्वमेतत्पूर्वोक्तं ध्वनित्येषु परभूतेष्वन्येषु कामभोगेषु मूर्छा कुर्म इत्येवं (मे) ममोपभोगाय भविष्यति, तथा शब्दा धेरवादयो, रूपा केचन महापुरुषाः परिसंख्याय सम्यक् ज्ञात्वा कामभोगा न्वयं विप्रजहिण्यामस्त्यच्याम इत्येवमध्यवसायिनो भवन्ति । एयङ्गनाऽऽदीनि, गन्धाः कोष्ठपुटाऽऽदयो, रसा मधुराऽऽदयो मांसरसाऽऽदयो बा, स्पर्शा मृद्वादयः, एते सर्वेऽपि खलु (मे) पुनरपरं वैराग्योत्पत्तिकारणमाह-(से मेहावी)स मेधावी कामभोगाः, अहमप्येषां योगक्षेमार्थ प्रभविष्यामीत्येवं सं सथुतिकः एतज्जानीयात् . तद्यथा-यदेतत्क्षेत्रबास्तुहिरण्यसु. प्रधार्य ।। स मेधावी पूर्वमेवाऽऽत्मानं विजानीयादेवं पर्या र्वणशब्दाऽऽदिविषयाऽऽदिकं दुःखपरित्राणाय न भवतीत्युलोचयेत् । तद्यथा-वह संसारे, खलु शब्दोऽवधारणे, इहैव पन्यस्तं तदेतद्वाह्यतरं वर्तते।। अस्मिन्नेव जन्मनि मनुष्यभवे ममान्यतरद् दुःखं-शिरोवेदना इणमेव उवणीयतरागं । तं जहा-माया मे पिता मे भा5ऽदिकमातङ्कोवाऽऽशुजीवितापहारीशूलादिकः समुत्पद्य- या मे भगिणी मे भजा मे पुत्ता मे धृता मे पेसा मे नत्ता ते,तमेव विशिनष्टि-अनिष्टः कान्तः अप्रियः अशुभोऽमनोज्ञो- मे सराहा मे सुहा मे पिया मे सहा मे सयणसंगथसंथुया ऽवनामयतीत्यवनामः-पीडाविशेषकारी दुःखरूपो,यदि वा-न मे, एते खलु मम णायओ अहमवि एतसिं, एवं से मेहावी मनागमनाक(मे)मम नितरामित्यर्थः,दुःखयतीति दुःखं,पुनरपि दुःखोत्पादनमत्यन्त दुःखप्रतिपादनार्थ, सुखलेशस्याऽपि परि पुवामेव अप्पणा एवं समाभिजाणेजा, इह खलु मम अन्नहारार्थ च । (नो) नैव शुभः, अशुभकर्मविपाकाऽऽपादितत्वा- यरे दुक्खे रोयातके समुप्पजेजा, अनिद्रु० जाव दुक्खे को दिति । अत्र च यदुक्कमपि पुनरुच्यते तदत्यादरख्यापनार्थ सुहे से हंता भयंतारो ! णायो इमं मम अन्नयरं दुक्खं तद्विशेषप्रतिपादनार्थ चेति । तदेवंभूतं दुःखं रोगाऽऽतर्छ वा रोयातंक परियाइयह अणिटुं० जाव णो सुह, ताऽहं दुहन्त इति खेदे भयात्वातारो यूयं क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णध. नधान्या विकाः परिग्रहविशेषाः शब्दाऽऽदयो वा विषया क्खामि वा सोयामि वा० जाव परितप्पामि वा, इमामो मे स्तथा हे भगवन्तः! कामभोगा यूयं मया पालिताः परिगृही. अन्नयरातो दुक्खातो रोयातकाो परिमोएह अणिट्ठाओ ताश्च ततो यूयमपीदं दुःखं रोगाऽऽतएं वा (परियाइयह त्ति) जाव णो सुहाओ, एवमेव णो लद्धपुब्बं भवइ, तेविभागशः परिगृह्णीत यूयम् । अत्यन्तपीडयोद्विग्नः पुनस्तः। सिं वावि भयंताराणं मम णाययाणं अन्नयरे दुक्खे देव दुःखं रोगाऽऽतईं वा विशेषणद्वारेणोच्चारयति, अनि- रोयातके समुपओजा अणिढे जाव गो सुहे, से हैएमप्रियमकान्तमशुभममनोशममनाग्भूतमवनामकं वा दुःखमेवैतत्ततोऽशुभमित्येवंभूतं ममोत्पन्नं यूयं विभजताहमनेना ता अहमेतेसिं भयंताराणं णाययाणं इमं अन्नयरं दुतीव दुःखामीति दुःखित इत्यादि पूर्ववन्नेयम् इति । अतोऽ. खं रोयातक परियाइयामि अणिढे जाव णो सुहे, मुष्मान्मामन्यतरस्माद् दुःखाद्रोगाऽऽतङ्काद्वा प्रतिमोचयत मा मे दुक्खंतु वा जाव मा मे परितप्पंतु वा, इमानो णं यूयम् , अनिष्टाऽऽदिविशेषणानि तु पूर्ववद्वयाख्येयानि । प्र अण्णयराओ दुक्खातो रोयातकाप्रो परिमोएमि अ. थमं प्रथमान्तानि पुनर्वितीयान्तानि, सांप्रतं पश्चम्यन्तानी-1 ति । न चायमर्थस्तेन दुःखितेनैवमेवेति, यथा प्रार्थितस्तथै णिट्ठामो जाव णो सुहाओ, एवमेव णो लद्धपुव्वं भव लब्धपूर्वो भवति । इदमुक्तं भवति-न हि ते क्षेत्राऽऽदयः वइ , अनस्स दुक्खं अन्नो न परियाइयति अनेन कडं परिग्रहविशेषा, नाऽपिशब्दाऽऽदयः कामभोगास्तं दुःखितं | अन्नो नो पडिसंवेदेति, पत्तेयं जायति, पत्तेयं मरइ, पत्तेयं दुःखाद्विमोचयन्तीति । चयइ, पत्तेयं उववजइ, पत्तेयं झंझा पत्तेयं सना पत्ते. पतदेव लेशतो दर्शयति यं मन्ना एवं विन्नू वेदणा, इह खलु णातिसंजोगा इह खलु कामभोगा णो ताणाए वा णो सरणाए वा, णो ताणाए वा णो सरणाए वा, पुरिसे वा पगता पुपुरिसे वा एगता पुचि कामभोगे विप्पजहति, कामभोगा विणातिसंजोगाए विप्पजहति, णातिसंजोगा वा एगता पा एगता पुनि पुरिसं विप्पजहंति, अन्ने खलु कामभो- पुब्धि पुरिसं विप्पजहंति , अन्ने खलु णातिसंजोगा अ. गा असो अहमंसि, से किमंग पुण वयं अन्नमन्नेहि का- नो अहमसि, से किमंग ! पुण वयं अनमन्त्रीहं णामभोगेहिं मुच्छामो ?, इति संखाएणं वयं च कामभोगेहिं तिसंजोगेहिं मुच्छामो ?, इति संखाए णं वयं णातिसंविप्पजहिस्सामो, से मेहावी जाणेजा बहिरंगमेतं । जोगं विप्पजहिस्सामो॥ (बह खलु इत्यादि) हास्मिन् , खलुः वाक्यालङ्कारे, ते काम- इदमेव चान्यद्वयमाणमुपनीततरमासन्नतरं वर्तते, तद्यभोगा अत्यन्तमभ्यस्ता न तस्य दुखितस्य त्राणाय शरणाय था-मातापिताभ्राताभगिनत्विादयो ज्ञातयः पूर्वापरसंस्तुघा भवन्ति । सुलालितानामपि कामभोगानां पर्यवसानं दर्श-| ता एते खलु ममोपकाराय शातयो भविष्यन्ति , अहमयितुमाह-(पुरिसे या इत्यादि) पुरि शयनात्पुरुषः प्राणी, । प्येतेषां स्नानभोजनाऽऽदिनोपकरिष्यामीत्येवं स मेधावी पूर्व Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५७) पंडरीय अभिधानराजेन्द्रः। पुंडरीय मेवाऽऽत्मनैवं समभिजानीयादित्यादि, एवं पर्यालोचयत् क. त्तो भिन्ना इन्वरा एभ्यश्चान्योऽहमस्मि, तदेवं व्यवस्थिते ल्पितवानिति वा, एतदध्यबसायी चासौ स्यादिति दर्शयि किमङ्ग ! पुनर्वयमन्थैरन्यैातिसंयोगैच्छी कुर्मो?, न तेषु तुमाह-दहास्मिन्भवे मम वर्तमानस्याऽनिष्टाऽऽदिविशेषण - । मूर्छा क्रियमाणा न्याय्या इत्येवं संख्याय सात्वा प्रत्याविशिमो दुःखात्तकः समुत्पद्येत ततोऽसौ तदुःखदुःखितो कलय्य वयमुत्पन्नवैराग्या झातिसंयोगांस्त्यक्ष्याम इस्येवं शातीनेवमभ्यर्थयेत् , तद्यथा-इमं ममान्यतरं दुःखाऽऽतङ्क: कृताध्यवसायिनो विदितवेद्या भवन्तीति । मुत्पन्नं परिगृहीत, यूयमहमनेनोत्पन्नेन दुःखाऽऽतङ्केन पीड साम्प्रतमन्येन प्रकारेण वैराग्योत्पत्तिकारणमाहयिष्यामीत्यतोऽमुष्मान्मां परिमोचयत यूयमिति, न चैतत्तेन दु:खितेन लब्धपूर्व भवति , न हि ते शातयस्तं से मेहावी जाणजा, बहिरंगमेयं, इणमेव प्रवणीयतरागं। दुःखान्मोचयितुमलमिति भावः । नाप्यसौ तेषां दुःखमोचना तं जहा-हत्या मे पाया मे बाहा मे उरू मे उदरं मे यालमिति दर्शयितुमाह-(तेसि वा वीत्यादि ) सर्व प्राग्व- सीसं मे सीलं मे आऊ मे बलं मे वो मे तया द्योजनीयं, यावदेवमेव नोपलब्धपूर्व भवतीति । किमित्येवं मे छाया मे सोयं मे चक्खू मे घाणं मे जिन्भा मे नोपलब्धपूर्व भवतीत्याह-(अण्णस्स दुक्खमित्यादि) सर्वस्यैव संसारोदरविवरवर्तिनोऽसुमतः स्वकृतकर्मोदयाद्यद् दुः. फासा मे ममाइजइ, वयाउ पडिजूरइ । तं जहा-आउओ खमुत्पद्यते, तदन्यस्य संबन्धि दुःखमन्यो मातापित्राऽऽदिकः बलाओ वरणाश्रो तयाओ छायाओ सोयाओ० जाव कोपेन प्रत्यापिबति, न तस्मात्पुत्राऽऽदेवुःखेनास नात्यन्त- फासाओ सुसंधितो संधी विसंधी भवइ, बलियतरंगे पीडिताः स्वजनाः नापि तद्दुःखमात्मनि कर्तुमलम्। किमित्ये- गाए भवइ, किण्हा केसा पलिया भवति, तं जहावमाशङ्कयाऽऽह-(अस्मण कडमित्यादि)अन्येन जन्तुना कषाय- जं पि य इमं सरीरगं उरालं आहारोवइयं एवं पि य अवशगेन इन्द्रियाऽनुकूलतयाऽभोगाभिलाषिणा ज्ञानाऽऽवृतेन मोहोदयवर्तिना यत्कृतं कर्म तदुदयमन्यः प्राणी नो प्रतिसंवे. णपुब्वेण विप्पजहियव्वं भविस्सति, एयं संखाए से दयति-नानुभवति, तदनुभवने यकृताऽऽगमकृतनाशी स्या- भिक्खू भिक्खायरियाए समुट्टिए दुहओ लोग जाणेजा, तं ताम् । न चेमौ युक्तिसंगतौ , अतो ययेन कृतं तत्सर्वस । जहा-जीवा चेव,अजीवा चेव तसा चेव थावरा चेव ॥१३॥ एवानुभवति। तथा चोक्तम्-"परकृतकर्मणि यस्मा-नाऽऽक्रा स मेधावी स श्रुतिक एतद्वदयमाणं जानीयात्, तद्यथा-वा. मति संक्रमो विभागो वा । तस्मात्सवानां कर्म, यस्य य खतरमेतद् यशातिसंबन्धनमिदमेवान्यपनीततरम्-आससेन तवेद्यम् ॥ १ ॥” यस्मात्स्वकृतकर्मफलेश्वरा जन्तव. नतरं,शरीरावयवानां भिन्नशातिभ्य श्रासन्त्रतरत्वात् , तव्यस्तस्मादेतद्भवतीत्याह-(पत्तेयमित्यादि) एकमेकं प्रति प्रत्येक | था-हस्ती ममाशोकपनवसदृशी, तथा भुजौ करिकरा. सर्वोऽप्यसुमान् जायते,तथा क्षीणे चाऽयुषि प्रत्येकमेव म्रिय- कारौ परपुरज्जयो प्रणयिजनमनोरथपूरको शत्रुशतजीविताते,उक्तं च--"एकस्य जन्ममरणे,गतयश्च शुभाशुभा भवाऽऽव- तकरी यथा मम न तथाऽन्यस्य कस्याऽपीत्येवं पादायते। तस्मादाकालिकहित-मेकेनवाऽऽत्मनः कार्यम् ॥१॥” इ. पि पद्मगर्भसुकुमारावित्यादि सुगमम् , यावत्स्पर्शाः स्प. ति।तथा प्रत्येक क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णाऽऽदिकं परिग्रहं श. र्शनेन्द्रियं (नमाति) ममीकरोति, यादृङ्मे न ताहगन्यस्यति ब्दादींश्च विषयान्मातापितृकलत्राऽऽदिकं च त्यजति,तथा ज. भावः । एतच हस्तपादाऽऽदिकं स्पर्शनेन्द्रियपर्यवसानं शरीत्येकमुपपद्यते युज्यते, परिग्रहस्वीकरणनया, तथा प्रत्येक रावयवसंबन्धित्वेन विधक्षितं यत्किमपि वयसः परिणाझम्झाकलहस्तद्ग्रहणात्कषायाः परिगृह्यन्ते, नतः प्रत्ये- मात्कालकृतावस्थाविशेषात् ( परिजूर त्ति) परिजीर्यते कमेवासुमतां मन्दतीव्रतया कषायोद्भवो भवति, तथा-सं. जीर्णतां याति,प्रतिक्षणं विशरारुतां याति,तस्मिश्च प्रतिसमयं ज्ञानं संज्ञा-पदार्थपरिच्छित्तिः, साऽपि मन्दमन्दतरपटुपटु- विशीर्यति शरीरे प्रतिसमयमसी प्राणी एतस्मात् अश्य. तरभेदात्प्रत्येकमेवोपजायते, सर्वज्ञादारतस्तरतमयोगेन म- ति, तद्यथा-पायुषः पूर्वनिबद्धात्समयाविहान्याऽपचीयने. तेर्व्यवस्थितत्वात्। तथा-प्रत्येकमेव ( मन्न त्ति ) मननं प्रावीचीमरणेन प्रतिसमयं मरणाभ्युपगमात् , तथा बखाचिन्तनं, पर्यालोचनमिति यावत् । तथा प्रत्येकमेव (वि. दपचीयते, तथाहि-यौवनावस्थायाश्च्यवमाने शरीरके प्र. राणु त्ति) विद्वांस्तथा प्रत्येकमेव सातासातरूपवेदना सु. तिक्षणं शिथिलीभवत्सु सन्धिबन्धनेषु बलादवश्यं भ्रश्यते, खदुःखानुभवः । उपसंजिघृक्षुराह-( इति खलु इत्यादि) इ. तथा वर्णा त्वचश्छायातीऽपचीयते । अत्र च सनत्कुमार. त्येवं पूर्वोक्नेन प्रकारेण यतो नान्येन कृतमन्यः प्रतिसंवे- दृशन्तो वाच्यः (तं च 'सणकुमार'शब्दे व शामि) तदयते.प्रत्येकं च जातिजरामरणाऽऽदिकं ततः खल्वमी शाति- था जीर्यति शरीरे धोत्राऽऽदीनीन्द्रियाणि न सम्यक स्वविसंयोगाः-स्वजनसंबन्धाः संसारचक्रयाले पर्यटतोऽत्यन्त षयं परिच्छेत्तुमलं, तथा चोक्तम्-" बाल्यं वृद्धिर्वयो मेधा, पीडितस्य तदुद्धरण न त्राणाय न त्राणं कुर्वन्ति , नाप्य- स्वचक्षुःशुक्रविक्रमाः। दशकेषु निवर्तन्ते, मनः सर्वेन्द्रिनागतसंरक्षणतः शरणाय भवन्ति, किमिति ?, यतः पु. याणि च ॥१॥" तथा च-विशिश्वयोहान्या सुसन्धितः रुप एकदा क्रोधोदयाऽऽदिकाले शातिसंयोगान् विप्रजहाति सुबद्धः सन्धिर्जानुकूर्पराऽऽदिको बिसन्धिर्भवति, विगलितबपरित्यजति, खजनाश्च न वान्धवा इति व्यवहारदर्शना ग्धनो भवतीत्यर्थः। तथा वलितरकाऽऽकुलं सर्वतःशिराजालत् . शातिसंयोगावेकदा तदसदाचारदर्शनतः पूर्वमेव तं पु. वेष्टितमात्मनोऽपि शरीरमिदमुद्धेगवद्भवति,किं पुनरन्येषाम्?। रयान्त । तदव व्यवस्थि- तथा चोक्तम्-"वलिसन्ततमस्थिशेषितं.शिथिलस्नायुवृतं कले. ते एतद्भावयेत् , तद्यथा--अन्ये खल्वमी शातिसंयोगा म- परम । स्वयमेव पुमान् जुगुप्सते, किमु कान्ताः कमनाय २४० Jain Education Interational Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंगरीय 1 1 विग्रहाः ॥ १ ॥ " तथा कृष्णाः केशा वयःपरिणामजलप्र चालिताल प्रतिपदले त पय परिणामापादिनगमनिग्नापयेत् यथा-यदीदं शरीरमुदारं शोभ नातं विशिष्टाऽऽहारोपचितम् एतदपि मया वश्यं प्रतिक्षणं विशीर्यमाणमायुषः क्षये विप्रहातव्यं भविष्यतीस्पेनगम्य शरीरानित्यतया संसारासारतां संख्याय अ गम्य परित्यक्त समस्तगृप्रपञ्चः निष्किजनतामुपगम्य स संयमयात्रार्थ भिक्षाचर्यायां समुत्थितः सन् द्विधा लोकं जानीयादिति । तदेवं लोकद्वैविध्यं दर्शयितुका म आह । तद्यथा जीवाश्च प्राणधारणलक्ष गास्तद्विपरीताश्च अती-धर्माधर्माः तस्य भिलोरहिंसाप्र सिद्धयजीवान् विभागेन दर्शयितुमाह-जीवा श्रभ्युपयोगल क्षणा द्विधा । तद्यथा त्रस्यन्तीति त्रमा द्वीन्द्रियादयः, तथा निमीति स्थावराः पृथिवीकायाऽऽन्यः । तेऽपि सूक्ष्म पर्याप्त कार्यासादिभेदेन पहुचायाः पतेषु चापीर बहुधा व्यापारः प्रवर्तते । ( १५८ ) अभिधानराजेन्द्रः साम्प्रतं तदुपमर्दकव्यापारकर्तृन् दर्शयन्नाहइह खलु गारस्था सारंभा सपरिम्हा, संतेगतिया स मरणा माहया विसारंभा सपरिम्हा ने इसे तसा था वरा पाहाते सर्प समारंभति कवि समारंभावेति अपि समारभतं समजाति इह खलु गारत्या मारंभा सपरिमहा संगतिया समया माया विसारंभा सपरिग्गहा, जे इसे कामभोगा सचिता वा अचित्ता वासयं परिगिएहति, अत्रेण वि परिगिएहावेंति, अनं पि परिगिनं समगुजरांति । इह खलु गारस्था सारेभा सपरिग्गहा, संनगनिया समणा मारणावि सारंभा मपरिगहा, श्र खलु णारं अपरिग्गद्दे, जे खलु गारस्था सारंभा सपरिगता संतगनिया समया माहणा विसारंभा सपरिग्गहा, एतेसिं चे निस्साए वंभचेरा वास्सामा फस्नं हे जहा पुर्व हा अवरं जहा अवरं तहा पुत्रं, अंजू एते अवर या अवट्टिया पुणरवि तारिसगा चैत्र || " इहास्मिन् संसारे, खलुर्वाक्वाकारे, गृहम् - श्रगारं त नितीति गृहस्थाने व सहारीम करिणा वर्तन्त इति सारम्भा तथा सह परिग्रहेण द्विपदचतुष्पदधनधान्याऽऽदिना वर्तन्त इति सपरिग्रहाः, न केबलं त एवान्येपि सन्ति विद्यन्ते एके केचन श्रमणाः शाक्याऽऽयते च पचनपाचनानुमतेः सारम्भाः दास्यादि परिग्रहाब सपरिग्रहाः तथा ब्राह्मणाधि चमारम्भक स्पष्टतरं दर्शयति-य हमे भाग'व्यावर्णिनासाः स्थावराश्च प्राणिनस्तान्स्वयमेव अपर प्रेरिना एवं समारभन्ते, तदुपमर्दकं व्यापारं स्वत एव कुर्यन्तीत्यर्थः तथायां समारम्भपन्ति समारम् कुर्वन श्वान्यान् समनुजानन्ति । तदेवं प्राणानिधानं प्रदर्श्य भोगाभूतं परियहं दर्शयितुमाह-ख इत्यादि पुंरुरीय गृहस्थाः सारम्भाः सपरिग्रहाः सन्ति श्रमणा ब्राह्मणाश्च, ते च सारम्भपरिग्रहस्यात् किं कुर्वन्तीति दर्शयति-मे प्रत्यक्षाः कामप्रधाना भोगाः कामभोगाः, काम्यन्त इति का माः स्त्रीगावपरिष्वङ्गयन्त इति भोगाः स चन्दनवादित्राऽऽदयः त एते सचित्ताः सचेतना श्रचेतना या भवेषु तदुपादानभूता वाऽर्थाः तां सवितानचि तान् वार्थास्ते कामभोगार्थिनो गृहस्थाऽऽदयः स्वत एव प रिइन्ति अन्पेन च परिग्राहयन्ति अपरं च परिगृहन्तं समनुजानत इति । साम्प्रतमुपसंजिघृचुराह - ( इह खलु इत्यादि ) इ अस्मिन् जगति सन्ति विद्यन्ते गृहस्थास्तथाविधाः श्रमणा ब्राह्मणाश्च सारम्भाः सपरिग्रहा इत्येवं शाश्वास भिमवधारयेद् अहमेवाऽथ खल्यनारम्भोऽपरि ग्रह, ये यामी गृहस्थाऽ उदयः खारम्भाऽऽदिगुणायुक्ताः तदे तया तदाषेण च च भ्रामण्यमाचरिष्यामो नारम्भा अपरिग्रहाः सन्तो, धर्माऽऽधारदेह प्रतिपालनार्थमाहारादिकृते सारम्भपरिग्रहगृहस्थनिश्रया प्रवज्यां करिष्यामइत्यर्थः ननु च यदि तनिया पुनरपि विहर्तव्यं किमर्थे ते त्यज्यन्त इति जाताऽऽशङ्कः पृच्छति कस्य हेतोः फेन कारन ततस्थमाह्मणत्यजनमत मिति, श्राचार्योऽपि विदिताभिप्राय उत्तरं ददाति यथा पूर्वम आदी सारम्भपरिग्रहवं तेषां तथा पास कालमपि गृहस्थाः खारम्भाऽऽदिदोषाः भ्रमणाच न यथा पूर्व गृहस्थभावे सारम्भाः सपरिग्रहास्तथा श्रप रस्मिन्नपि प्रब्रज्याऽऽरम्भकाले तथाविधा एव त इति. अधुनोभयपदाव्यभिचारित्वप्रतिपादनार्थमाह-यथा अपरम् अपरस्मिन् प्रव्रज्याप्रतिपत्तिकाले तथा पूर्वमपि गृहस्थभावाऽऽदावपीति । यदि वाकस्य हेतोस्तद्गृहस्थ यतिनेत्याह-यथा पूर्व प्रव्रज्यारम्भकाले सर्वमेव भिक्षाssदिकं गृहस्थाsयत्तं तथा पश्चादपि, अतः कथं तु नामानवद्या वृत्तिर्भविष्यतीत्यतः साधुभिर्वारम्भः खारम्भावि धेयम् । यथा चैते गृहस्थादयः सारम्भाः सपरिग्रहाश्च तथा प्रत्ययोपलभ्यन्त इति दर्शवितुमाह- ( अंजू इति ) व्य - तदेते गृहस्थाय यदि वा अज्जू रतिप्रायेन स्वरसायानुष्ठानभ्योपरताः परिमारम्भा सत्संयमानुष्ठानेन चानुपस्थिताः सम्यगुत्थानमकृतवन्तो येऽपि कथञ्चिदवायोस्थितास्युभिजित्वात्साय पानपरत्या गृहस्थावानुष्ठानमनतिवर्तमानाः पुनः रपि तादृशा एव गृहस्थकल्पा एवेति । साम्प्रतमुपसंदरति जे खलु गारख्या सारंभा सपरिम्हा, संवेगतिया समा माहावि सारंभा सपरिग्गहा, दुहतो पावाई कुब्वंति इति संखाए दोहिं विहिं दिस्समाणो इति भिक्खू रीएजा से दे पाई ना० ६ जाव एवं से परिणायकम्मे एवं से ववेकम्मे, एवं से वि अंतकारए भवतीति मक्खायं ।। १४ ।। " इमे गृहस्थादयस्ते द्विचागारम्भपरित्या मुभाभ्यामपि पापान्युपाददते, यदि वा रागद्वेषाभ्यामुभाभ्यामणि, यदि वा गृहस्थप्रवज्यापर्यायाभ्यामुभाभ्यां पापानि Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५६) पंडरीय अभिधानराजेन्द्रः। पुंडरीय कर्वत इत्येवं संस्थाय परिज्ञाय द्वयोरप्यन्तयोरारम्भ- गहातो णो दंतपक्खालणणं दंते पक्खालेजा णो अंपरिग्रहयो रागद्वेषयोर्वा अदृश्यमानः अनुपलभ्यमानो, जणं णो वमणं णो धृवणे णो तं परिभाविएजा ॥ यदि बा-रागद्वेषयोर्यावन्तौ-अभावी तयोरादिश्यमानोरागद्वेपाभाववृत्तित्वनापदिश्यमानः सन्नित्येवंभूती भिक्षण- तत्रेति कर्मवन्धप्रस्तावे, खलुक्याल कारे, भगवता उ. शालोऽनवद्याऽऽहारभोजी सत्संयमानुष्ठाने रीयेत प्रवर्तेत, त्पन्न ज्ञानेन तीर्थकृता षड्जीवनिकाया हेतुत्वेनोपन्यम्ताः, एतदुक्तं भवति-ये इमे ज्ञातिसंयोगा यश्चार्य धनधान्याऽऽदिकः तयथा-पृथिवीकायी यावत्रसकायोऽपीति, तेषां च पीउपपरिग्रहो यश्चेदं हस्तपादाऽऽद्यवयवयुक्तं शरीरं यच्च तदायु- मानानां यथा दुःखमुत्पद्यते तथा स्वसंवित्तिासीन रटान्तेन बलवर्णाऽऽदिकं तत्सर्वमशाश्वतमनित्यं स्वप्नन्द्रजालसदृश दर्शयितुमाह-तद्यथा नाम मम असातं दुःखं वक्ष्यमाणैःप्रकामसारं गृहस्थधमणब्राह्मणाश्च सारम्भाः सपरिग्रहाच, ए- रैरुत्पद्यते तथाऽन्येषामपीति, तद्यथा-वरडेनास्थ्ना मुटिना तत्सर्व परिक्षाय सत्संयमानुष्ठाने भिक्षू रीयेतेति स्थितम् ।। लेलुना लाठेन कपालन कर्परेण आकोट्यमानस्य संका. स पुनरप्यहमधिकृतमवार्थ विशेषिततरं सोपपत्तिकं व्र. च्यमानस्य हन्यमानस्य कशाऽ:दिभिस्तजमानस्याश्गुल्या. धीमीति-तत्र प्रज्ञापकापेक्षया प्राच्यादिकाया विशोऽन्यत- 5ऽदिभिस्ताड्यमानस्य कुड्याऽऽदायभिघाताऽऽदिना परिरस्याः समायानः स भितयारयन्तयारदृश्यमानतया स तप्यमानस्याग्न्यादौ अन्येन वा प्रकारेण परिक्लाम्यमा. संयम रीयमाणः सन् पवमनन्तरातन प्रकारेण शपरिश नस्य तथा अपद्राव्यमाणस्य मार्यमाणस्य यावलोमोत्खनया परिक्षाय प्रत्याख्यानपरिशया प्रत्याख्याय च परि ज्ञात नमात्रमपि हिंसाकरं दुःखं भयं च यन्मयि क्रियते त. कर्मा भवति । पुनरप्येवमिति परिशानकर्मन्यायपतकर्मा सर्वमहं संवदयामीत्येवं जानीहि । तथा सर्ये प्राणा जी. भवति- अपूर्वस्यायन्धको भवतीत्यर्थः । पुनरेवमिन्यवन्ध- वा भूतानि सवा इत्येते एकार्थिकाः कथञ्चिद्रेदमाश्रिकोभनिराधापापनः प्रापचितस्य कर्मणा विशेषणान्त-त्य व्याख्येयाः, ततेां दण्डादिना कुम्यमानानां याकारकी भवतीनि, एतञ्च तीर्थकरगाधराऽऽदिभितिशय बहामात्खननमात्रमपि दुःखं प्रति संवदयतामेतच्च हिंसाराख्यातमिति । करं दुःखं भयं चोत्पन्नं ते सर्वे प्राणिनः प्रतिसंवेदय न्ति-साक्षाददुभवन्तीति, एवमात्मोपमया पीज्यमानानां कथं पुनः प्राणागिपातविरतिव्रताऽऽदिव्यवस्थितस्य कर्माप जन्तूनां यतो दुःखमुत्पद्यतेऽतः सर्वेऽपि प्राणिनो न हन्त. गमो भवतीन्युक्तम्?, यतस्तत्प्रवृत्तस्याऽऽत्मापम्यन प्राणिनां व्या न व्यापादयितव्या नाशापयितव्याः बलात्कारेण ध्यापीडोत्पात,तया च कर्मबन्ध इत्येवं सर्व मनस्याधायाऽऽह पारे न प्रयोक्तव्याः, तथा न परिग्राह्या न परितापयितव्या तत्य खतु भगवता छजीवनिकायहेक पामत्ता, तं ज- नापद्राययितव्याः ॥ सोऽहं ब्रवीमि, एतन्न स्वमनीपिकतया हा-पुढवीकाए. जाव तसकाये, से जहाणामए मम | किंतु सर्वतीर्थकराऽऽशयेति दर्शयति-(जे प्रतीए इत्यादि) अस्सायं दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलूण वा ये केचन तीर्थकत ऋषभाऽऽदयोऽतीता ये च विदेषु ध र्तमानाः सीमन्धराऽऽदयो ये चाssगामिन्यामुत्सर्पिण्यां भकवालण वा आउहिजमाणस्स वा हम्ममाणस्स वा तजि विष्यन्ति पद्मनाभाऽऽदयोऽईन्तोऽमरासुरनरेश्वराणां पूजाजमाणस्स वा ताडिज्जमाणस्स वा परियाविजमाणस वा हा भगवन्त ऐश्वर्यादिगुणकलापोपेताः सर्वेऽप्येवं ते व्यकिलाविज्जमाणस्स वा उद्दविजमाणस वा० जाव लोमु क्याचा प्राण्यान्ति प्रतिपादयन्ति । एवं सदेवमनुज्ञायां पर्पदि भाषन्ते, स्वत एव, न यथा यौद्धनां वोधिसवप्रभाक्खणणमायमवि हिंसाकारगं दुक्खं भयं पडिसंवदमि, इ. वात् कुज्याऽऽदिवेशनत इत्येवं प्रकर्षण शापयन्ति तदाहर. जेवं जाण सव्व जीवा सव्वे भूता सब्जे पाणा सव्वे स- णाऽऽविभिः, एवं प्ररूपयन्ति नामाऽदिभिर्यथा सर्वे प्राणान ता दंडेण वा० जात्र कवालेण वा पाहिजमाणा वा हस्तव्या इत्यादि. एष धर्मः प्राणिरक्षणलक्षणः प्राग्व्यावर्णिहम्ममाणा वा तजिजमाणा वा ताडिज्जमाणा वा प तस्वरूपो ध्योऽवश्यंभावी नित्यः क्षान्त्यादिरूपेण शाश्वत रियाविज्जमाणा वा किलाविज्जमाणा वा उद्दविजमा इत्येवं चाभिसमेन्य केवलज्ञानेनावलोक्य लोकं चतुर्दश रज्ज्वात्मकं खेदज्ञस्तीर्थकाद्भिः प्रवेदितः कथित इत्येवं सर्व णा वा० जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंगाकारगं दुक्खं शात्वा स भिक्षुर्विदितवेद्यो विरतः प्राणातिपाताधावत्पभयं पडिसंवदति, एवं नचा सव्वे पाणा० जाव सत्ता रिग्रहादिति । एतदेव दर्शयितुमाह-(णो दंत इत्यादि) इद्द ण हरव्या ण अञ्जावयव्या ण परिघेतव्वा ण परितावे पूर्वोक्तमहायतपालनार्थमनेनोत्तरगुणाः प्रतिपाद्यन्ते, तनापयया ण उद्दवेयच्या; मे बेमि जे य अतीता जे य प रिग्रहोनिष्किञ्चनः सन् साधुनों दन्तप्रक्षालनेन कदम्बाऽऽदिडुप्पन्ना जे य आगमिस्मा अरिहंता भगवंता सच्चे ते काष्ठेन दन्तान् प्रक्षालयेत्. तथा नो अञ्जनं सौवीराऽऽदिक विभूपार्थमचरणोर्दद्यात्,तथा नो बमनविरेचनादिकाः क्रियाः एवमाइक्खंति एवं भासंति एवं पामवेति एवं परू-ति- कुर्यात तथा नो शरीरस्य स्वीयवस्त्राणां वा धूपनं कुर्यात्रापि सचे पाणा. जाव सत्ता ण हतव्या ण अज्जावेयवा कासाऽऽद्यपनयनार्थतंधूमं योगवर्तिनिप्पादितमापिवेदिति ॥ ण परिघेतव्या ण परितावेयव्या ण उद्दवेयव्या, एस ध- साम्प्रतं मूलगुणोत्तरगुणप्रस्तावमुपसंजिवृक्षुराहम्मे धुवं णीतिए सासए समिच्च लोगं खेयन्नहिं पवेदिए, से भिक्खु अकिरिए अलूसए अकोहे प्रमाणे अमाए अ- . एवं से भिकम्बू विरते पाणातिवायातो जाव विरते प.। लोहे उवसंते परिनिव्युडे णो आसंसं पुरतो करेज्जा इमेण मे Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय (६०) अभिधानराजेन्दः । पंडरीय दिद्वेण वा सुएण वा मएण वा णाएण वा विनाएण वा वायाओ अरइरईओ मायामोसाओ मिच्छादसणसल्लाइमेण वा सुचरियतवनियमबंभचेरवासेण इमेण वा जाया ओ इति से महतो आयाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविमाया बुत्तिएणं धम्मेणं इो चुए पेच्चा देवे सिया काम- रते से भिक्खू । जे इमे तसथावरा पाणा भवंति ते णो भोगाण बसवत्ती सिद्धे वा अदुक्खमसुभे एत्थ वि सिया सयं समारंभइ, णो अमेहिं समारंभावेंति,अन्नं समारभंतं न एत्य वि णो सिया। समणुजाणंति, इति से महतो आयाणाओ उवसंते उवहिए स मूलोत्तरगुणव्यवस्थितौ भिक्षुर्मास्य क्रिया-सावद्या विद्य- पडिविरते से भिक्खू । जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अचि. ते इत्यक्रियः,संवृतात्मकतया सांपरायिककर्माबन्धक इत्य- त्ता वा ते णो सयं परिगिएहंति,णो अन्नेणं परिगिएहावेंति, थेः, कुत एवंभूतः यतः प्राणिनामलूकोऽहिंसकोऽनुपम अन्नं परिगिएहंतं पि ण समणुजाणंति, इति से महतो आदेक इत्यर्थः, तथा न विद्यते क्रोधो यस्येत्यक्रोधः, एवममानोऽमायोऽलोभः कषायोपशमाच्चोपशान्तः शीतीभूतस्त याणाओ उवसंते उवहिए पडिविरते से भिक्खू ॥ दुपशमाच्च परिनिर्वृत इव परिनिर्वृतः । एवं तावदैहि केभ्यः स भिक्षुः सर्वाऽऽशंसारहितो वेणुवीणाऽदिषु शब्देष्यमूर्निछकामभोगेभ्यो विरतः पारलौकिकेभ्योऽपि विरत इति दर्श- तोऽगृद्धोऽनध्युपपन्नः तथा-रासभाऽऽदिशब्देषु कर्कशेषु अ. यति-(नो प्रासंसमित्यादि) नो नैवाशंसां पुरस्कृत्यं म द्विष्टः, एवं रूपरसगन्धस्पर्शध्वपि वाच्यमिति । पुनरपि मानेन विशिष्टतपसा जन्मान्तरे कामभोगावाप्तिर्भविष्यती- सामान्येन क्रोधाऽऽद्युपशमं दर्शयितुमाह-(विरए कोहाश्री ति एवंभूतामाशंसां न पुरस्कुर्यादिति । एतदेव दर्शयि- इत्यादि ) क्रोधमानमायालोभेभ्यो विरत इत्यादि सुगमम् , तुमाह-(इमेणमित्यादि ) अस्मिन्नेव जन्मन्यमुना विशिष्टतप यावदिति । ( से महया आयाणाश्री उवसंते उपट्टिए पडिश्वरणफलेन दृष्टेनामर्पोषध्यादिना तथा पारलौकिकेन च श्रु विरए से भिक्खु त्ति) स भिक्षुर्भवति यो महतः कर्मोतेनाकधम्मिन्ब्रह्मदत्ताऽऽदीनां विशिष्टतपश्चरणफलेन, तथा पादानादुपशान्तः सत्संयमे वोपस्थितः सर्वपापेभ्यश्च (मएण व ति) मननं ज्ञानं जातिस्मरणाऽऽदिना ज्ञानेन विरतः प्रतिविरत इति । पतदेव च महतः कर्मोपादनाद्विरतथाऽऽचार्याऽऽदेः सकाशाद्विशानेनावगतेन ममापि विशिष्टं मणं साक्षादर्शयितुमाह-(जे इमे इत्यादि ) ये केचन प्रसाः भविष्यतीत्येवं नाऽऽशंसां विदध्यात् , तथाऽमुना सुचरित स्थावराश्च प्राणिनो भवन्ति, तान् सर्वानपि (नो ) नैव स्वयं तपोनियमब्रह्मचर्यवासन तथाऽमुना वा यात्रामात्रावृत्तिना सत्साधवः समारभन्ते प्राण्युपमर्दकमारम्भं नारम्भन्त इति धर्मेणानुष्ठितेन इतोऽस्माद्भवाच्च्युतस्य प्रेत्य जन्मान्तरे यावत् , तथा नान्यैः समारम्भयन्ते, न चान्यान् समारम्भस्यामहं देवः, तवस्थस्य च मे वशवर्तिनः कामभोगा भवेयुः, माणान् समनुजानत इत्येवं महतः कर्मोपादानादुपशान्तः अशेषकर्मवियुतो वा लिद्धः अदुःखोऽशुभाशुभकर्मप्रक- प्रतिविरतो भिजुर्भवतीति । सांप्रतं सामान्यतः सांपत्यपेक्षयेत्येवंभूतोऽहं म्यामागामिकाल इत्येवमाशंसां न वि. रायिककर्मोपादानकामभोगनिवृत्तिमधिकृत्याऽह-(जे इमे दध्यादिति। यदि वा-विशिष्टतपश्चरणाऽऽदिनाऽऽगामिनि का. इत्यादि) ये केचनामी काम्यन्त इति कामा भुज्यन्त इ. ले ममाणिमा लधिमेत्यादिकाऽष्टप्रकारा सिद्धिर्भविष्यतीत्य ति भोगास्ते च सचित्ता अचित्ता या भवेयुस्तांश्च न स्वनया च सिद्धया सिद्धोऽहमदुःखोऽशुभो वा मध्यस्थ इत्येवं तो गृह्णीयानाप्यनेन ग्राहयेत् , नाप्यपरं गृहन्तं समनुजानीरूपामाशंसां न कुर्यात् । तदकरणे च कारणमाह-(पत्थ यदित्येवं कर्मोपादानाद्विरतो भिक्षुर्भवतीति । वि इत्यादि) अत्रापि विशिष्टतपश्चरणे सत्यपि कुतश्चिन्नि साम्प्रतं सामान्यतः साम्परायिककर्मापादाननिषेधमधिः । मित्तात् दुष्प्रणिधानसद्भावे सति कदाचित्सिद्धिः स्यात्कदाचि कृत्याऽऽहच्च नैवाशेषकर्मक्षयलक्षणा सिद्धिः स्यात् । तथा चोक्तम् जं पि य इमं संपराइयं कम्मं कन्जइ, णो तं सयं करेति, "जे जत्तिया उ हेऊ, भवस्स ते चेव तत्तिया मोक्खे ।" इत्या. णो अप्ोणं कारति, अन्नं पि करेंतं ण समणुजाणइ दि । यदि वा अत्राप्यणिमाऽऽद्यष्टगुणकारणे तपश्चरणाऽऽदी इति, से महतो आयाणाओ उवसंते उवहिए पडिविरते । सिद्धिः स्यात् कदाचिश्च न स्यात् , तद्विपर्ययोऽपि वा स्याद् , इत्येवं व्यवस्थिते प्रेक्षापूर्वकार्यकारिणां कथमाशंसां कर्तु से भिक्खू जाणेजा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं युज्यते, इति सिद्धिश्चाष्टप्रकारेयम्-(अणिमा १, लधिमा २, वा अस्सि पडियाए एग साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाई महिमा ३. प्राप्तिः, ४, प्रकाम्यम् ५, ईशित्वम् ६, वशित्वम् ७, भूताई जीवाई सत्ताई समारंभ समुहिस्स कीतं पामिचं यत्र कामावसायित्वमिति ८ । तदेवमैहिकार्थमामुष्मिकाथै | अच्छिजं अणिसह अभिहडं आहङ देसियं तं चेतिय कीर्तिवर्णश्लोकाऽऽद्यर्थ च तपो न विधेयमिति स्थितम् ।। साम्प्रतमनुकूलप्रतिकूलेषु शब्दाऽऽदिषु विषयेषु रा. सिया तं णो सयं भुंजइ,णो अम्माणं भुजावेंति,अन्नं पि भुंगद्वेषाभावं दर्शयितुमाह जंतं ण समणुजाणइ इति , से महतो अयाणाओ उवसंते से भिक्खू सद्देहिं अमुच्छिए रूवेहिं अमुच्छिए गं- | उवहिए पडिविरते ॥ धेहिं अमुच्छिए रसेहिं अमुच्छिए फासेहिं अमुच्छिए (जं पि य इत्यादि) यदपीदं संपर्येति तासु तासु गतिध्व नेन कर्मणेति सांपरायिक. तश्च तत्प्रद्वेषनिह्नवमात्सर्यान्तराविरए कोहाओ माणाम्रो मायाो लोभायो पेजाओ याशातनोपघातैर्बध्यते, तत्कर्म तत्कारणं वा न कृतकारितादोसाओ कलहाम्रो अभक्खाणाम्रो पेसुबाश्रो परपरि- नुमतिभिः करोति स भिक्षुरभिधीयत इति । सांप्रतं भिक्षावि Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय शुद्ध भिक्खू इत्यादि) स भिन्युनरेवंभूतमाहारजातं जानीयात् (अरिस पडियार सि) एतरप्रतिक्ष याऽऽहारदानप्रतिज्ञया यदि वाऽखिन पाय वस्थितमेकं साधुं साधर्मिकं समुद्दिश्य कश्चिच्छ्रावकः प्रकृतिभद्रको वा साध्वाहारदानार्थ प्राणिनः प्रव्यक्तेन्द्रियान् भूतानि त्रिकालभावीनि जीवानायुकधरणतणान्सचान्सदा सच्चीपेतसमारभ्य तदुपमर्दकमारम्भं विधाय समुद्दिश्य त स्पीड सम्यमुद्दिश्य की पेण इव्यविनिमयेन ( पा मिति । उद्यतकमाच्छेयमित्यन्यस्मादायि अनिष्टमिति परेणानुत्संकलितमभ्याहृतमिति साध्वभिमुखं ग्रामा रानीमत्पत्य साध्वर्थे कृतमुदेशिकमित्येवंभूतमाहारजातं साधवे दत्तं स्यात्, तच्चा कामेन तेन परिगृहीतं स्यात्, तदेवं दोषदुष्टं च ज्ञात्वा स्वयं न भुञ्जीत, नाप्यप रंग भोजयेत् न च भुञ्जानमपरं समनुजानीयादित्येवं दुष्टाSSहरदोषान्निवृत्तो भिक्षुर्भवतीत्यर्थः । 1 सेभिक्खू पु एवं जाणेज्जा । * तं जहा विज्जति तेसिं परकमे जस्सट्ठा ते चेइयं सिया, तं जहा - अप्प - णो से पुत्ताणं वा शहाणं घातीणं गातीगं राईगा दासाणं कम्मकराणं कम्मकरी आदेसाए पुडो प हसाए सामासाए पातरासाए सन्निहिसंचए किजति इहमेसि माणवाणं भोगणाए । तत्थ भिक्खू परकडं परणिद्वितमुग्गमुप्पायणे सणासुद्धं सत्थाईयं सत्यपरिणामियं अविहिंसिये एसियं वेसियं सामुदाणियं पत्तमसणं कारणट्ठा पमाणजुत्तं अक्खोवंजणवणलेवणभूयं संजमजायामायावतिलमिव पद्मभूयं अप्पारोणं आहारं आहारेज्जा, अनं अनकाले पाणं पाणकाले वत्थं वत्थकाले लेगं लेकाले सय सयणकाले || अथ पुनरेवं जानीयादित्यादि । तद्यथाविद्यते तेषां गृहस्थानामेवम्भूतो वक्ष्यमाणः पराक्रमः सामर्थ्य माहारनिवर्तनं प्रत्यारम्भस्तेन च यदाहारजातं निर्वर्तितं यस्य चा र्थाय यत्कृते तच्चेतितमिति दत्तं निष्पादितं स्याद्भवेत् । यत्कृते च निष्पादितं तत्स्वनामग्राहमाह । तद्यथा-श्रात्मनः स्वनिमिनमेषाऽऽहारादिपाक निर्वर्तनं कृतमिति तथा पुत्रार्थे यावदादेशाया दिश्यते यस्मिनागते संभ्रमेण प रिजनस्तदाशनदानाऽऽदिव्यापारे स श्रादेशः प्राघूर्णकस्तद 1 या पृथकप्राविशिष्टाऽऽहार निर्वर्तनं क्रियते तथा श्यामा रात्रिस्तस्यामशनमाशः श्यामाऽऽशस्तदर्थे, प्रातरशनं प्रातराशः प्रत्युपस्य भोजनं तदर्थं निधिः संवि विशिष्टाऽऽहारग्रहस्य संवयः कियने अनेन तव्यतिपा दितं भवति वायुदलानाऽऽदिनिमित्तं प्रत्यूषाऽऽदिसमये यपि मिलाउने कियते तस्य चायमभिहितः संभवः स च संनिधिसंवय केपां मानवानां भोजनार्थ भवति, तव भिरुतविहारी परकृतपरनिष्ठितमुनोत्पादनेपा शुद्धमादारमाहरेत् अत्र च परकृतपरनिष्ठिते चत्वारो भङ्गाः । तद्यथा - तस्य कृतं तस्यैव च निष्ठितं, तस्य कृतमन्यस्य निष्ठितम् अन्यस्य कृतं तस्यैव निष्ठितम्, अन्य " " * इह पुस्तकान्तरे भूयान् पाठभेदो दृश्यते । ( ६६९ / अभिधानराजेन्द्रः । ર पुंडरीय स्य कृतमन्यस्य निष्ठिनमित्ययं चतुर्थो भङ्गः सूत्रेणोपात्तः, अयं च शुद्ध द्वितीयान्यस्य निष्ठितत्वातत्राः पाकमदशि[55] उमदीचा पांश तथात्पादनादोचा पाशीत्यादिकाः पीडादपाः शङ्किताऽदय दश एवमिि चत्वारिंशदो पैरहितत्वाच्छुद्धम् । तथा शस्त्रमग्न्यादिकं ते. नातीतं प्रासुकीकृतं शस्त्रपरिणामितमिति शस्त्रेण स्वकापरकायाssदिना निर्जीवीकृतं वर्णगन्धरसाऽऽदिभिश्च परिशमितं हिंसा प्राप्तं हिंसितं विरूपं हिंखितं विद्धिसिने-न सम्यक निजीकृतमित्यर्थः तत्यधि जीवमित्यर्थः । तदप्येवितमम्प्रेषितं भिक्षाविधिना प्रा वैपिकमिति केवल साधुवेपावाप्तं न पुनर्जात्याद्याजीवनतो निमित्तत्पादितं तदपि सामुदानि समुदानं भि छा समूहस्तत्र भवं सामुदानिकम व भवनि-मधुकरवृस्यावाप्तं सर्वत्र स्तोकं स्तोकं गृहीतमित्यर्थः । तथा प्रार्थनोपासनम् आहारजानं त दपि वेदनावैयावृत्यादिके कारणे सति तलाऽपि प्रमाणयुक्तं नातिमात्रम् । प्रमाणं चेदम-" श्रद्धमसणस्स सव्वं-जणस्स कुजा दवस दो भाए। वाउपवियारण्ड्डा, छब्भागं ऊणयं कुजा ॥ इति न चला किन्तु पानमात्रेणा Ssहारेण देहः क्रियासु प्रवर्त्तते । तत्र दृष्टान्तद्वयमाह--तद्यथाअक्षस्योपाञ्जनम् अभ्यङ्गी व्रणस्य च लेपनं प्रलेपस्तदुपमया श्राहारमाहरेत् । तथा चोक्तम्--" अभंगण व संगई. ग तरह विग पिता जी साह। सो रामशेखरहि मनाएं पिडिड तं सेवे ॥ १ ॥ " एतदेव दर्शयति- संयमयात्रायां मात्रा संयमयात्रामात्रा यावत्याऽऽहारमात्रया संयमयात्रा प्रवर्त्तते सा तथा तया संयमयात्रामात्त्रया वृत्तिर्यस्य तत्तथा, तदपि वि प्रवेशपगभूतेनाऽऽऽहारमाहेर । तदुकं भवति यथाऽहिर्बिलं प्रविशन तूर्ण प्रविशत्येवं साधुनाऽप्याहारस्तत्स्वादमनास्वादयता शीघ्र प्रवेसयितव्य इति । यदि वा-सपैणेवाऽऽहारो लब्ध्वा स्वादमभ्यवहार्यत इति । तदेवं चाऽऽहारजातं दर्शयितुमाह-अन्नं भक्तमन्नकाले सूत्रार्थ पौरुष्युत्तरकाले भिक्षाकाले प्राप्त पुरः पश्चारकर्म] परिहर्त भीत यथोकमा उडनेन ग्रहणकालावानं भैक्षं परिभोगकाले भु जीत, तथा पानकं पानकाले नातितृषितो भुञ्जीत, नाप्य तिबुभुक्षितः पानकं पिबेदिति तथा वस्त्रं वस्त्रकाले गृही यादुपभोगं वा कुर्यात्, तथा लयनं गुहाऽऽदिकमाश्रयस्तस्य वर्षास्पपश्यमुपादानमन्यदात्यनियमस्तथा शय्यते ऽस्मिधितिने संस्तारकः, स च शयनकाले तत्राप्यगीतार्थानां हर्ष निद्राविमोक्ष गीतार्थानां प्रहरमेकमिति । से भिक्खु मायने यरं दिसं अणुदिसं वा पडिवो धम्मं आइकले विभए कि उपद्विषसु वा अणुद्विसु वा सुस्मृसमाणे पवेदए, संति विरतिं उत्रसमं निव्वाणं सोयवियं अज्जवियं मदवियं लाघवियं अणतिवातियं सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूताणं० जात्र सत्ताणं अणुवाई fare धम्मं ॥ स भिक्षुराहारोपधिशयनस्वाध्याय ध्यानाऽऽदीनां मात्रां जानातीति सन् अन्यतरां दिशमदिवा प्रतिपक्षः मात्रितो धर्ममाख्यापयेत् प्रतिपादयेत्, यद्येन विधेयं तद्यथा Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६२) अभिधानराजेन्डः। पुंडरीय पडरीय योग विभजेद्धर्मफलानि च कीर्तयेद-आविर्भावयेत् ,तश्च ध. वीराः कर्मविदारणसहिष्णवो ये चैवंभूतास्ते एवं पू. मंकथनं परिहितार्थप्रवृत्तेन साधुना सम्यगुपस्थितेषु शिष्ये- वोक्तविशेषणविशिष्टानुष्ठानतया सर्वस्मिन्नपि मोक्षकारणे पु अनुपस्थितषु वा कौतुकाऽऽदिप्रवृत्तेषु शुश्रूषमाणेपु श्रीतुं सम्यग्दर्शनाऽऽदिके उप सामीप्येन गताः सर्वोपगताः, तथैव प्रवृतिपु स्वपरहिनाय प्रवदयेदावेदयेत्प्रकथयदिति यावत् । सर्वेभ्यः पापस्थानेभ्यः उपरताःसर्वोपरताः, तथा त एव सर्वोश्रीतुमुपस्थितषु यत्कथयेत्तदर्शयितुमाह-(संति विरई इत्या- पशान्ता जितकषायतया शीतलीभूतास्तथा एव सर्वाऽऽत्मतदि) शान्तिरुपशमः क्रोधजयस्तत्प्रधाना प्राणातिपाताss. या सर्वसामर्थ्येन सदनुष्ठानेनोद्यमं कृतवन्तो ये चैवंभूतास्तेदिभ्यो विरतिः शान्तिविरतिः। यदि वा-शान्तिरशेषक्लेशोप- उशेषकर्मक्षयं कृत्वा परि समन्नानिवृताः अशेषकर्मक्षयं कृ. शमरूपा तस्य तदर्थ विरातः शान्तिविरतिः तां कथयेत्तथा तवन्त इति प्रवीमिति पूर्ववत् । उपशममिन्द्रियनाइन्द्रियोपशमरूपं रागद्वेषाभावजनितं तथा साम्प्रतमध्ययनोपसंहारार्थमाहनिर्वृतिं निर्वाणमशेषद्वन्द्वोपरमरूपं तथा (सोयवियं ति) ___ एवं से भिक्खू धम्मट्ठी धम्मविऊ णियागपडिवस्मे से शाचं तदपि भावशीचं सर्वोपाधिविशुद्धता व्रतामालिन्यम् जहेयं वुतियं अदुवा पत्ते पउमवरपोंडरीयं अदुवा अप(प्रज्जयियं ति) आर्जवममायित्वं तथा मार्दवं मृदुभावं सर्वत्र प्रश्रयवरवं, बिनयनम्रतेति गावत् । तथा-( लाघवियं ते परमवरपोंडरीयं, एवं से भिक्खू परिएणाय कम्म तिकर्मणां लाघयाऽपादनं कर्मगुरोऽमनः कर्मापनयनतो परिण्णाय संगे परिणाय गेहवासे उवसंते समिए सलध्वषस्थासंजननम् । सांप्रतमुपसंहारद्वारेण सर्वशुभानुष्ठा हिए सया जए, सेवं वयणिजे, तं जहा-समणेति वा नानां मूलकारणमाह अतिपतनं अतिपातः प्राण्युपमर्दनं त. माहणेति वा खंतेति वा दंतेति वा गुत्तेति वा मुत्तेवियते यस्यासाबतिपातिकस्तत्प्रतिषेधादनतिपातिकस्तं मग प्राणिनां भूतानां यावत्सत्यानां धर्ममनुविविच्यानु ति वा इसीति वा मुणाति वा कतीति वा विऊति विचिन्त्य वा कीर्तयत्कथयेत् । इदमुक्तं भवति-सर्वप्राणिनां वा भिक्खूति वा लूहेति वा तीरहीति वा चरणकरणरक्षाभूतं धर्म कथयेदिति । पारविउ त्ति बेमि ॥१५॥ इति वितियसुयक्खंधस्स पोंसाम्प्रतं धर्मकीर्तनं यथा निरुपधि भवति तथा दर्शयि- डरीयं नाम पढमज्झयणं सम्मत्तं ॥ तुमाह एवमिति पूर्वोक्तविशेषणकलापविशिष्टः स भिक्षः पुनसे भिक्खु धम्म किमाणे णो अन्नस्स हे धम्ममाइ. रपि सामान्यतो विशिष्यते धर्मः श्रुतचारित्राऽऽख्यस्तेनार्थी कावा, को पाणस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा, णो वत्थस्स धर्मार्थी, यथाऽवस्थितं परमार्थतो धर्म सर्वोपाधिविशुद्ध उं धम्ममाइक्खेजा, णो लेणस्स हेउं धम्ममाइक्खे जानातीति धर्मवित्तथा नियागः संयमो विमोक्षो वा का रणे कार्योपचारं कृत्वा तं प्रतिपन्नो नियागप्रतिपन्नः, स उजा, णो सयणस्स हेउं धम्ममाइक्वेज्जा, णो अन्ने चैवंभूतः पञ्चमपुरुषजातस्तं चाऽऽश्रित्य यथेदं प्राक् प्रदर्शित सिं विख्वरूवाणं कामभोगाणं हेउं धम्ममाइक्वेज्जा, तत्सर्वमुक्तं, सच प्राप्तो वा स्यात्पद्मवरपोण्डरीकमनुग्राह्य अगिलाए धम्ममाइकरवेज्जा, नन्नत्थ कम्मनिज्जरट्ठ.ए पुरुषविशपं चक्रवोदिकं तत्प्राप्तिश्च परमार्थतः केवलधम्ममाइक्खेज्जा । इह खलु तस्स भिक्खुस्स अंतिए धम्म शानावाप्ती सत्यां भवति , साक्षाद्यथावस्थितवस्तुस्वरूपप रिच्छित्तेः, अप्राप्तो वा स्यान्मतिश्रुतावधिमनःपर्यायशानद्यसोचा णिसम्म उहाणं उट्ठाय वीरा अस्सि धम्मे समु स्तैः समस्तैर्वा समन्वितः, स चैवंभूतः प्राग्व्यावर्णितगुडिया जे तस्स भिक्खुस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म णकलापोपेतो भिक्षः परि समन्तात् शातं कर्म स्वरूपतो सम्म उहाणणं उट्ठाय वीरा अस्मि धन्मे समुडिया ते विपाकतस्तदुपादानतश्च येन स परिक्षातकर्मा, तथा पएवं सयोवगता ते एवं सब्यावरता ते एवं सव्योव- रिक्षातः सङ्गः संबन्धः सबाह्याभ्यन्तरो येन स तथा पसंता ते एवं सत्ताए परिनिबुडे ति बेमि ॥ रिज्ञातो निःसारतया गृहवासो येन स तथोपशान्त इ. न्द्रियनाइन्द्रियोपशमात् , तथा समितः पञ्चभिः समिस भिक्षुः परकृतपरनिष्ठिताऽऽहारभोजी यथा क्रियाकालानु- तिभिस्तथा सह हितेन वर्तत इति सहितो शाना55शायी शुश्रूषत्सु धर्म कीर्तयत् ,नान्नस्य हेतोर्ममायमीश्वरोध- दिभिर्वा सहितः समन्वितः सदा सर्वकालं यतः मकथाप्रवणो विशिएमहारजातं दास्यतीति पतन्निमितं संयतः प्राग्यावर्णितनियमकलापोपेतः, स एवं गुणम धर्ममाचक्षीत । तथा पानवस्त्रलयनशयननिमित्तं न कलापा ऽन्धित एतद्वचनीयः । तद्यथा-श्राम्यतीति श्रमण: धर्ममाचक्षीत । अन्येषां वा विरूपरूपाणामुच्चाबचानां समना वा, तथा मा प्राणिनो जहि-व्यापादयेत्येवं प्रवृत्तिः कार्याणां कामभोगानां वा निमित्तं न धर्ममाचक्षीत, तथा उपदेशो यस्य स माहनः, स ब्रह्मचारी वा ब्राह्मणः, क्षाग्लानिमनुपगच्छन् धर्ममाचक्षीत , कर्मनिर्जरायाश्चान्यत्र न्तः स क्षमोपेतो , दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियदमनेन , तन धर्म कथयत् , अपरप्रयोजननिरपेक्ष एव धर्म कथयेदि- था तिसृभिगुप्तिभिर्गुप्तः, तथा मुक्त इव मुक्तः, तथा विनि । धर्मकथाभवणफलदर्शनद्वारेणोपसंजिघृक्षराह-रह- शिष्टतपश्चरणोपेतो महर्षिः, तथा-मनुते जगतस्त्रिकालावखलु तस्येत्यादि ) हाऽस्मिन् जगति , खलः थाक्यालं स्थामिति मुनिः, तथा-कृतमस्यास्तीति कृती पुण्यवान् परकार । तस्य भिक्षोर्गुणवतोऽन्तिके समीपे पूर्वोक्तविशेषण- मार्थपण्डितो था, तथा-विद्वान् सद्विणेपेतः, तथा-भिक्षुविशिष्ट धर्म श्रुत्वा निशम्य अवगम्य सम्यगुत्वानेनोत्थाय निरवद्याऽऽहारतया भिक्षणशीलः,तथा अन्तप्रान्ताऽऽहारत्वेन Jain Education Interational Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसेस (६६३) पुंडरीय अभिधानराजेन्नः। रूक्षः, तथा संसारतीरभूनो मोक्षस्तदर्थी तथा चर्यत इति च. येनोपायेन गृहीतकमलः सन् तां पुष्करिणीमुल्लङ्घयदविपन्न रणं मूलगुणाः , क्रियत इति करणम्-उत्तरगुणास्तेषां पारं इति । तदुलनोपाय दर्शयितुमाह-(विजा वेत्यादि ) वितीरं पर्यन्तगमनं तद्वेत्तीति करणचरण पारविदिति । इतिशब्दः द्या वा काचित्प्रज्ञप्त्यादिका देवता कर्म वाऽथवा-श्रकाशगपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति तीर्थकरवचनादार्यः सुधर्मस्वामी मनलब्धिर्वा कस्यचिद्भवेत्तेनासावविपन्नो गृहीतपौण्डरीका जम्बूस्वामिनमुद्दिश्य एवं भणति-यथाऽहं न स्वमनीषि- सन्नुलपयेत्तां पुष्करिणीम् एष च जिनैरुपायः समाख्यातः इ. कया व्रवीमीति । ति । सर्वोपसंहारार्थमाह -(सुद्धप्पे इत्यादि ) शुद्धप्रयोगविसाम्प्रतं समस्ताध्ययनोपात्तदृष्टान्तदान्तिक द्यासिद्धा जिनस्यैव विज्ञानरूपा विद्या नान्यस्य कस्यचिद्ययोस्तात्पर्यार्थ गाथाभिर्नियुक्ति था विद्यया तीर्थकरदर्शितया भव्यजनपौण्डरीकाः सिद्धि कृद्दर्शयितुमाह मुपगच्छन्तीति । गतोऽनुगमः । साम्प्रतं नयास्ते च पूर्ववद् उवमा य पुंडरीए, तस्सव य उवचरण निज्जुत्ती।। द्रष्टव्या इति । समाप्तं पौण्डरीकाऽऽख्यं द्वितीयधुतस्कन्धे प्र थमाध्ययनमिति । सूत्र २७०१ अ) । "प्रभुभणितपुण्डअधिगारो पुण भणिो , जिणोवदेसेण सिद्धि त्ति ।१५८।। रीका-ऽध्ययनरत्सरी हि यत्राऽभूत् । दशपूर्विपुण्डरीका, सुरमणुयतिरियनिरो-वंगे मणुया पहू चरितम्मि । स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ १ ॥” ती० १७ कल्प । अवि य महाज गनेय-त्ति चक्कादिम्मि अधिगारो॥१५॥ शयुञ्जये, ती० १ कल्प । भ० । व्याने, स्था० २ ठा० ३ उ० । "देवधीपुण्डरीकाऽऽख्य-भूभृच्छिखरशेखरम्। अलङ्करिष्णुः अवि य हुभारियकम्मा, नियमा उक्कस्स निरयठितिगामी। प्रासाद, श्रीनाभेयः थियेऽस्तु सः ॥२॥" ती०१कल्प । श्रा.) ते वि हु जिणोवदेसेण, तेणेव भवेण सिझंति ।१६०। क० । श्रादिदेवगणधरे, शा. १श्रु०५ अ०।स। क्षीरवरही. जलमालकद्दमालं, बहुविहवल्लिगहणं च पुक्खरणिं ।। पाधिपती, जी०३ प्रति०४ अधि० पुष्कलावर्तविजये पुराउजंघाहि व बाहाहि व, नावाहि व तं दुरवगाहं ॥१६१॥ रीकिण्यां नगर्या महापनदत्तोराजाभवत्,तस्य पद्मावती ग. पउमं उल्लंघेत्तुं, ओयरमाणस्स होइ वावत्ती। ज्ञी बभूव, तस्याः कुक्षिसम्भूतौ पुण्डरीक-कण्डरीकनामानी पुत्रौ जाती, पितर्युपरते पुण्डरीको राजा बातः, कण्डरीका कि नत्थि से उवाओ, जेणुल्लंघेज्ज अविवन्नो ? ॥१६२।। युवराज इति । उत्त० । ज्ञा० श्राव । प्रा० क०। प्रा० विजा व देवकम्म, अहवा आगासिया विउवणया । म० प्रा० चू०। (तयोः 'कण्डरीक' शब्दे तृतीयभाग पउमं उल्लंघेत्तुं, न एस इणमो जिणुक्खाओ ॥ १६३ ॥ १७२ पृष्ठे वृत्तान्तमभाषिषम् ) महाकुष्ठभेदे, प्रश्न ५ संव० सुद्धप्पोगविजा, सिद्धा उ जिणस्स जाणणा विज्जा । द्वार । स्था० । भवियजणपोंडरीया, उ जाए सिद्धिगतिमुवेति ॥१६४॥ पु पुंडरीयगुम्म पुण्डरीकगुल्म-न। अष्टमदेवलोकविमाने, स० १८ सम०। ( उवमा इत्यादि ) इहोपमा दृष्टान्तः पौण्डरीकेण श्वेतशतपत्रण, कृतस्तस्पेहाभ्यर्हितत्वात् , तस्यैव चोपचयेन स पुंडरीयणयण-पुण्डरीकनयन-वि० । पुण्डरीकं सितपनं त. वयवनिष्पत्तिर्यावद्विशिष्टोपायनोद्धरणम , दार्शन्तिका- इन्नयने येषां ते । कमलाक्षे , पुं० । प्रश्न ४ आश्र द्वार । धिकारस्तु पुनरत्र भणितः अभिहितश्चकवादेर्भव्यस्य पुंडरीयणाय-पुण्डरीकज्ञात-न० । पुष्कलावतीविजयमध्यगपुजिनोपदेशेन सिद्धिरिति, तस्यैव पूज्यमानत्यादिति । पूज्य एडरीकिणीनगरीराजपुण्डरीकवक्तव्यताप्रतिबद्ध एकोनविंश त्वमेव दर्शयितुमाह-(सुरमणुए इत्यादि) सुराऽऽदिषु चतुर्ग शाताध्ययने, शा०११०१ श्रा('कंडरीक' शब्दे तृतीयतिकेषु जन्तुषु मध्ये मनुजाश्चरित्रस्य सर्वसंवररूपस्य प्रभवः-शक्ता वर्तन्ते,न शेषाः सुराऽऽदयः,तेष्वपि मनुजेषु महा भागे १७२ पृष्ठे कथोक्का) जननेतारश्चक्रवादयो वर्तन्ते, तेषु प्रबोधितेषु प्रधानानु- पुंडरीयदह-पुण्डरीकहद-पुं० । जम्बूद्वीपे महादविशेषे, गामित्वात् इतरजनः सुप्रतिबोध एव भवतीत्यतोत्र चक्र- स्था० ६ ठा० । "पुंडरीयदहे दस जोयणसयाई आयामेणं प. वादिना पौण्डरीककरपेनाधिकार इति । पुनरप्यन्यथा मत्ते।" पुण्डरीकहदो लक्ष्मीदेवीनिवासः शिखरी वर्षधरोपमनुजप्राधान्य दर्शयितुमाह-(अवि य हु इत्यादि) गुरुकर्माणो. रिवर्तीति । स० १००० सम० । स्था० । “ दो पुंडरीयद्दहा दो अप मनुजा प्रासंकलितनरकाऽऽयुवोऽपि नरकगमनयोग्या पुंडरीयहहवासिणीश्री लच्छीश्री देवीओ।” स्था०२ ठा० अपि तेऽप्येवंभूतात् जिनोपदेशात्तेनैव भवेन समस्तकर्मक्षयात् । स्तकमक्षात् ! ३ उ०। सिद्धिगामिनो भवन्तीति । तदेवं दृष्टान्तदाान्तिकयोस्ता | पुंडरीया-पुण्डरीका-स्त्री० । उत्तररुचकवास्तव्यायामुत्तरदित्पर्यार्थ प्रदर्श्य दृशान्तभूतपौण्डरीकाऽधारायाः पुष्करिण्या दुरवगाहित्वं सूत्राऽऽलापकोपात्तं नियुक्तिकद्दर्शयितुमाह-(ज । कुमार्याम् , जं०५ वक्षः। श्रा० म०। लमालेत्यादि ) जलमालामत्यर्थप्रचुरजलां, तथा कर्दममाला- डे-देशी-वजेत्यर्थे, दे) ना०६ वर्ग ५२ गाथा। म् अप्रतिष्ठिततलतया प्रभूततरपङ्कां तथा बहुविधवल्लिगहनां च पुष्करिणी जङ्घाभ्यां वा बाहुभ्यां वा नावा वा दुस्त पंढो-देशी-गर्ते, दे० ना०६ वर्ग ५२ गाथा। रां पुष्करिणी,दृऐति क्रियाध्याहारः। किं चान्यत्-(पउमं इ. पुंपून-देशी-संगमे, द० ना०६ वर्ग ५२ गाथा। त्याद) । तन्मध्ये पद्मवरपौण्डरीकं गृहीत्वा समुत्तरतो वश्यं व्यापत्तिः प्राणानां भवेत् किं तत्र कश्चिदुपायः स नास्ति?, विसेस-विशेष-पुं० । पुरुषविशेषे, द्वा०। Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेय बेय- पुम्बेद पुं० पुरुषवेदे पुरुषस्य खियं प्रत्यभिलाषे तद्विपाकवे कर्मणि च । प्रशा० २३ पद । यत्पुनः पुंसः श्लेष्मोदयादम्लाभिलाषावत् स्त्रियामभिलाषा भवति स पुंवेदः । बृ० १०२ प्रक० । पुंसंजल - पुंसंजलन - पुं० । पुरुषवेदे संज्वलनसंशेषु क्रोधा55दिषु कषायेषु पं० [सं० ३ द्वार पुंसफोइलग पुंस्कोकिलक पुं० पुमांयासी कोकिल पर पुष्टः पुंस्कोकिलः स्था० १० डा० कोकिल २०१६ श० ६ उ० । 1 पुकल- पुष्कल त्रि० विस्ती ०१०२ प्र० । अनायेदेशविशेषे भ० श० ३३ उ० । , ( १६४ ) अभिधानराजेन्द्रः । पुकली - पुकली - स्त्री० । पुकला ऽऽख्यानार्यदेशजदास्याम्, भ० ६ श० ३३ उ० । पुका - व्याहार-स्त्री० । दुष्टे, ( खोटो-बूमाट- गुजराती ) “ पु. काम अलिअपोयसालावा । " पाइ० ना० २८० गाथा । पुकार पूत्कार - पुं०। पूदितिशब्दकरणे, "अप्पेश्या पुकारेति । " रा० । विशे० । पुक्खर - पुष्कर - न० । पद्मे, आव०५ श्र० । सूत्र० । पद्मवरे, अनु० । धर्मपुटके, जं० १ बक्ष० । रा० । श्र० म० । श्र जयमेरुसमीपे पुष्करिणीरूपे तीर्थभेदे तच देवकृतं मोशीचन्दनमय्या देवाधिदेषप्रतिमायाः कृते संग्रामा ये प्रस्थितस्य उदायनस्य प्रीष्माऽऽर्तसैन्यत्राणार्थ प्रभावचिकुर्विताऽऽप्यायितमासीदिति । चू० १० उ० । पुक्खरकश्चिया पुष्करकर्मिका श्री० पद्मवीजको मध्यभागे, स हि वृत्ता समोपरिभागा च । जं० १ वक्ष० । स्था० । औ० । पद्ममध्यगतायामुन्नतसमचित्रबिन्दु किन्याम्, प्रा० २ पत्र । " अहे पुक्खरकम्नियासंठाणसंठिया । प्रज्ञा० २ पत्र । "3 3 खरगय-पुष्करगत न० | दा विशेषविषयकविज्ञाने कलाभेदे, जं० २ वक्ष० । स० । पुक्खरदीव पुष्करदीप पु० पुष्कवरद्वीपे जम्बूद्वीपा ऽऽदिग जनया तृतीये, स्था० ३ ठा० ४ उ० । पुक्खरद्ध- पुष्करार्द्ध- न० । पुष्करवरद्वीपार्छे, सू० प्र०१६ पाहु० । पुकवरवरदीव पुष्करपरदीप- १० पुष्करवरोपसहितो द्वीप पुष्करवरद्वीपः । जम्बूद्वीपाऽऽदिगणनया तृतीये जी० संप्रति पुष्करवरद्वीपवक्तव्यतामाह - - कालोयं णं समुदं पुक्खरवरे णामं दीवे वक्त्रलयागारसंठायसंठिते सन्तो समता संपरि० तहेव० जाव समचकबालसंठाग्रसंहिते, नो विसमचकपालसंठागसंठिते, पुवस्वरवरेणं भते ! दीवे केवतियं चत्रालविक्खंभे से केवतियं परिक्खेमेगं पाते। गोयमा सोलस जोयणसहस्साई चकचाल पुक्खरबरदीव विवखभेग कोडी या सडती खलु सगसहस्सा अउपायउति भवे सहस्साई असयाचा परिरो पुक्खरवररस से गं परमवर एके य परासंदेशं दोराह वि ( कालोयं णं समुहमित्यादि) कालोदं, एमिति वाक्यालङ्कारे, समुद्रं पुष्करवरो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाऽऽकार संस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य तिष्ठति, ( पुषखरवरे दीये कि समयकालसंडिए इत्यादि) प्राम्यत् । विष्कम्भाss दिप्रतिपादनार्थमाह - ( पुषखरबरे गं भंते ! दीवे इत्यादि) प्रनसूत्रं सुगमम् । भगवानाह गौतम ! पोडश योजनशतसहस्राणि चक्रवालविष्कम्भेण एका योजनकोटी द्विनवतिः श तं सहस्राणि एकोननवतिः सहस्राणि श्रष्टौ शतानि चतुर्न यतानिपरिक्षेत (स समित्यादि) सरवरी एका पद्मवेदिकया अयोजन जगत्युपरिभाविन्य ति गम्यतेः एकेन वनचरा सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः, द्वयोरपि वर्षकः पूर्ववत् । अधुना द्वारवक्तव्यतामाह खरवरस्य णं भंते! कति दारा पत्ता तं जहा बि जये, बेजयंते, जयंते, अपराजिते । ( पुक्खरवरदीवस्त समित्यादि ) पुष्करवर द्वीपस्य भदन्त ! कति द्वाराणि शतानि । भगवानाह गौतम ! चत्यारि द्वाराणि प्रशतानि । तद्यथा-विजयं, वैजयन्तं, जयन्तम्, अपराजितम् । कहि णं भंते ! पोक्खरवरस्स दीवस्स विजये णामं दारे-. पलने हैं। गोयमा ! पुक्खरदीयपुरच्छिमापरेत पुक्खरोदं समुदं पुरच्छिमद्धस्स पचच्छि मेलं एत्थ से पुक्खरवरदीयस्स विजये णामं दारे पत्ते, तं चैव सव्वं, एवं चत्तारि वि दारा सीया सीयोदा णत्थि भाणियन्वा । (कदि से भंते इत्यादि) क भदन्त पुष्करपरद्वीपस्य विज नाम द्वारं शतम् । भगवानाह गौतम ! पुष्करवरी ईपर्यन्ते पुष्करोदस्य समुद्रस्य पश्चिमदिशि अत्र पुष्करवरद्वीपस्य विजयं नाम द्वारं प्रप्तं तथ जम्बूद्वीपजियार दविशेषेण नवरं राजधानी अन्यस्मिन् पुष्करर या एवं वैजयन्ताऽऽविद्वारसूत्रास्यपि भाषनीपानि स न च राजधानी श्रन्यस्मिन् पुष्करवरद्वीपे । जी० ३ प्रति० ४ अधि० । ( पुष्करवरधाराणां परस्परमन्तरम् अंतर ' शदे प्रथमभागे ७३ पृष्ठे गतम् ) संप्रति नामनिमित्तप्रतिपादनार्थमाह पदेसा दोयहं विपुट्टा जीवा दोसु वि भाणितम्या से 1 ? केसां भंते! एवं वृति पुक्खवरं २ गोयमा पुक्खरवरेणं देवे तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बह पउमरुक्खा पउमवणसंडा णिश्चं कुसुमिता जीवा चिट्ठति, परममहापडमरुस्सु तत्व परमपदरीया शामं दुबे देवा महिड्डिया जाय पतिभेोषमद्वितीया परिवर्तति से ते गोपमा ! एवं युवति पुक्खरबरदीचे० २जाब शिथे। ० Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुक्खरवरदीव अभिधानराजेन्डः। पुक्खरवरदीव (से केण?णमित्यादि) अथ केनार्थेन भदन्त एवमुच्यते पुष्क- करवरं द्वीपं द्विधा सर्वासु दिनु विदिसु च विभजमानी रवरद्वीपः पुष्करवरद्वीप इति ?। भगवानाह-गौतम पुष्करव. विभजमानस्तिष्ठति, केनोलखन द्विधा विभजमानस्तिष्ठतीरद्वीपे तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवः त्यत आह । तद्यथा-अभ्यन्तरपुष्कराई च, बाह्यपुष्कराई पद्मवृक्षाः पमानि अतिविशालतया वृक्षा इव पद्मवृक्षाः पन्ना- च । चशब्दो समुच्चय । किमुक्तं भयति ?-मानुपांत्तरपर्वताखण्डाः, पनवनानि, खण्डवनयोर्विशषः प्राग्वत् । (निश्चं दर्वाक् यत् पुष्करार्द्ध तत् अभ्यन्तरपुष्कगद्धे नत् पुनस्तकुसुमिया इत्यादि ) विशेषणजातं प्रग्वत् । तथा पूर्वा. स्मान्मानुषोत्तरात् पर्वतान् परतः पुष्कराई तत् बाह्यपुढे उत्तरकुरुषु यः पनवृक्षः पश्चिमार्द्ध उत्तरकुरुषु यो एकरार्द्धमिति । महापद्यवृक्षस्तयोरत्र पुष्करवरद्वीपे यथाक्रमं पद्मपु अम्भितरपुक्रवरद्धणं भंते! केवतियं चक्कवालणकएडरीको देवी महर्द्धिको यावत् पल्योपस्थितिको यथाक्रम पूर्वार्धापरार्द्धाधिपती परिवसतः। तथा चोक्तम् वतियं परिक्वेवण पामत्ता गोयमा ! अहजायणमहस्मा "पउमे य महापउमे, रुक्खा उत्तरकुरुसु जंबुसमा । एएसु ति चक्कवालविखंभणं कोडी वायालीसा तीस दोगहवसंति सुरा, पउमे तह पुंडरीए य ॥१॥ " पनं च पुष्क- वि सया अगुणपामा पुक्खरमद्धपरिरओ उ, एवं से म. रमिति पुष्करवरोपलक्षितो द्वीपः पुष्करवरद्वीपः।" से गुस्सस्स णं खेत्तस्स। एएणं” इत्याद्युपसंहारवाक्यम् । ( अम्भितरपुक्वरद्धणमित्यादि ) प्रश्नसूत्रं सुगमम् । संप्रति चन्द्राऽऽदित्यपरिमाणमाह भगवानाह गौतम ! अष्टौ योजनशतसहस्राणि चक्रवापुक्खरवरणं भंते ! दीवे केवइया चंदा पभासेंसु वा, के- लविष्कम्भण एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशत् शतमहवइया पभासंति वा,केवइया पभासिस्संति वा,एवं पुच्छा स्राणि त्रिंशत् सहस्राणि द्वे योजनशते एकोनपश्चांश कि " चोयालं चंदमयं, चउयालं चेव मूरियाण सयं । चिदिशपाधिके परिक्षण प्राप्तः । पुक्खरवरम्मि दीवे, चरंति एते पभासेंता॥१॥ से केण?ण भंते ! एवं बुच्चति-अम्भितरपुक्खरद्धं चत्तारि सहस्साई, वत्तीसं होंति चेव णक्खत्ता। अभितरपुक्ग्वरद्ध गायमा ! अभितरपुक्खरद्धणं माणुसुछच्च सया पावत्तर-महग्गहा वारस सहस्सा ।। २॥ | त्तरेणं पब्बतेणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ते । से केणढणं?। छापउइ सयसहस्सा, चत्तालीसं भवे सहस्साई । गोयमा ! अभितरपुक्खरं अत्तरं च णं जाव णिच्चे ।। चत्तारिसया पुक्खरवर, तारागणकोडिकोडीणं ॥३॥" ( से केण?णमित्यादि ) अथ केनार्थेन भदन्त ! ए. वमुच्यते-अभ्यन्तरपुरकरार्द्धमभ्यन्तरपुष्करार्द्धमिति । भगसोभंसु वा, सांभंति वा, सोभिस्संति वा । वानाह-गौतम ! यसरपुष्करार्द्ध मानुपोत्तरेण पर्वतेन (पुक्खरचरेत्यादि) पाठसिद्ध, नवरम् नक्षत्राऽऽदिपरिमाणम- सर्वतः समन्ताद संप रजिप्तम् । ततो मानुषोत्तरपर्वताभ्यः विशेत्यादि संख्यानि नक्षत्राऽऽदीनि चतुश्चत्वारिंशेन शतेन | न्तरे वर्तनादभ्यन्तरपुकारार्द्धम् । तथा चाऽऽह--(से एएण. गुणयिन्या स्वयं परिभावनीयम् । उक्तं चैयरूपं परिमाण- मित्यादि) गतम् ।। मन्यत्रापि। अभितरपुक्खरद्धणं भंते ! केवतिया चंदा पभा" चोयालं चंदसयं, चोयालं चेव सूरियाण सयं । सेंसु वा, पभासंति वा, पभासिस्संति वा सा एवं पुच्छा. पुक्खरवरम्मि दीवे, चरंति एए पगासंति॥१॥ चत्तारि सहस्साई, छत्तीसं चेव होति नक्खत्ता। जाव तारागणकोडिकोडीओ ? । गोयमा! छच्च सया वावत्तर, महागहा वारस सहस्सा ॥२॥ " वावतरं च चंदा, वायत्तरिमेव दिणयरा दित्ता । छन्न उइसयसहस्सा, चोयालीसंभव सहस्साई । पुक्खरवरदीवड्डे, चरंति एते पभासेंता ।।१।। चत्वारि वा सयाई, तारागणकोडीकोडीणं ॥३॥” इति । तिमि सता छत्तीसा. छच्च सहस्सा महग्गहाणं तु । संप्रति मनुप्यक्षत्रसीमाकारिमानुषोत्तर णक्खत्ताणं तु भवे, सोलाई दुवे सहस्साई ॥ २ ॥ पर्वतवक्तव्यतामाह अडयालसयसहस्सा, बावीसं खलु भवे सहस्साई । पुक्खरवरदीवस्स णं बहुमझदेसभाए एत्थ णं माणु दो य सयपुक्खरद्धे, तारागणकोडिकोडीणं ॥३॥" मुत्तरनामं पव्वत्त पामते वट्ट वलयागारसंठाणसंठित जे सोभेसु वा, सोभंति वा, सोभिस्संति वा । व पुक्खग्वर दीवं दुहा विभयमाण विभयमाणे चिट्ठति | (अभितरपुक्खरद्धे णं भंते ! कह चंदा पभासिसु इत्यादि) अभितर पुक्खरवरद्धं च वाहिरपुक्खरवरद्धं च । चन्द्राऽऽदिपरिमाणसूत्रं पाठसिद्धं, नवरं नक्षत्राऽऽदिपरिमा( पुक्खरवरदीवस्स णमित्यादि ) पुष्करवरस्य , ण- णमष्टाविंशत्यादीनि नक्षत्राणि द्वासप्तत्या गुणयित्वा परिभामिति वाक्यालंकार द्वीपस्य बहुमध्यदेशभागे मानुषी. वनीयम् । उक्तं चैवं रूपं परिमाणमन्यत्राऽऽपिका पर्वतः प्राप्तः, स च वृत्तो वृत्तं च मध्यपूरर्ण- "वावतरं च चंदा. बाबत्तरिमेव दियरा दित्ता। मपि भवति । यथा-कीमुदी शशाङ्कमण्डलं ततस्तप- पुक्खरवरदीवडे. चरंति एए पगासंता ॥१॥ ताब्यवच्छेदार्थमाड्-अलयाऽऽकार संस्थानसंस्थितो यः पु.! तिमि सया छतीसा, च सहस्सा महागहाणं तु । Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुक्खरवरदीव अन्निधानराजेन्द्रः। पुक्खरिणी नक्वत्ताणं तु भवे, सोलाणि दुवे सहस्राणि ॥२॥ श्री दीहियाओ गुंजालियाश्रो सरानो सरपंतीनो सरसरअइयालसयसहस्सा, बावीसं चेव तह सहस्साई। पंतीश्रो विलपंतीओ अच्छाप्रो सराहाश्रो रययामयकलाओ दाय सयपुश्वरद्ध. तारागणकोडिकोडीणं ॥३॥" समतीराओ बयरामयपासाओ तवाणिज्जतलाओ सुवमइह सर्ववतारापरिमाणचिन्तायां काटीकोट्य, कोट्य एव द्र- सुब्भरययवालुयाओ वेरुलियमणिफालियपडलपञ्चोपडामो प्रव्याः। तथा पूर्वसूरिव्याख्यातादपरै उच्छ्याङ्गलप्रमाणमनु सुउया महोत्ताराश्री णाणामणितित्थसुबद्धाश्री चाउकोणा. मृत्य कोटी कोटीरव समर्थयन्ते । उक्तं च-"कोडाकोडीसत्तं- श्रो अणुपुब्बसुजायवप्पगंभीरसीयलजलाश्री संछन्नपत्तभितरं तु मन्नति कर थोवतया । अन्ने उस्सहंगुल-माणं काऊ- समुणालाश्री बहुउप्पलकुमुयणलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयरण ताराणं ॥१॥" इति । जी० ३ प्रति० । सू०प्र० स्थान महापुंडरीयसयपत्तसहस्तपत्तफुल्लकेसरोवचियाश्रो छप्पयपुष्कराईद्वीप भरतक्षेत्रवत् कालः। स्था० ३ ठा० १ उ० । परिभुजमाणकमलाओ अच्छविमलसलिलपुरमाओ परिह" जम्बूदीवे पुक्खरवरदीवपुरच्छिमद्धे पञ्चच्छिमद्धे तो त्थभमतमच्छकच्छभयणेगसउणिमिथुणियविपरिया पत्तेयं निधा-मागहे, वरदामे, पभासे।" स्था० ३ ठा० १ उ०।। पत्तयं पउमवरवेड्यापरिक्खित्ताश्रो पत्तेयं पत्तेयं व. पुष्करवरद्वीपार्द्धपश्चिमाः तिस्रोऽन्तनधः ऊर्मिमालिनी, फे- णसंडपरिक्षित्ताश्री अप्पेगइयानो पासवोदगाओ अप्पेनमालिनी, गम्भीरमालिनी । स्था० ३ ठा०४ उ०। गइयाश्रो वारुणोदगाओ अप्पेगइयायो घोदात्री अप्पेगः पुक्खरखरदीवड्ड--पुष्करवरद्वीपार्द्ध-न० । पुष्कराणि पदानि तै- इयात्री खोदोदगाओ अप्पेगइयाश्रो श्रमयरसरसोदगानी वरः पुष्करबरः, स चासो द्वीपश्च पुष्करबरद्वीपस्तृतीयो अप्पेगइयाओ उदगरसेणं परमत्तानो पासादीयाो । ४ । हीपस्तस्यार्द्धः । मानुपोत्तरादचलादर्वाग्भागवर्तिपुष्करवर अत्र व्याख्या-(तस्सेत्यादि) प्राग्वत्, बढ्यः क्षुद्राः अखातद्वीपखण्डे, ध०२ अधि० । द्वी० । स्था० । ल । नं० । अनु०॥ सरस्येता एव लव्यः क्षुल्लिका वाप्यश्चतुरस्राऽऽकाराः पुष्कसू० प्र० । आव०। रियो वृत्ताऽऽकाराः दीधिका सारण्यः ता एव वक्रा गुञ्जा लिका बहाने केवलानि पुष्पावकीर्णकानि सरांसि, सूत्रे स्त्रीपुक्खरवरदीवद्धपुरच्छिमद्धणं मंदरस्स पबयस्स उत्तर त्वं प्राकृत्वात् , बहूनि सरांसि एकपङ्क्तया व्यवस्थितानि दाहिणेणं दो वामा परमता बहुसमतुल्ला. जाव भरहे सर पनि ता वृद्धया सरपतयः। तथा येषु सरस्सु पक्रया चव एरवए चेव० जाव दो कुराओ पामत्ताया-दक्कुरा व्यवस्थितेषु एकस्मात्सरसोऽन्यत् तस्मादन्यत्रयं संचारकचेव, उत्तरकुरा चेत्र । तत्थ णं दो महतिमहालया महादुमा पाटकेनोदकं संचरति, सा सरःसरःपतिस्ता बड्यः सरः पामता । तं जहा कूडसामली चेव,पउमरुक्खे चेव । देवा सरापलयः बिलानीव विलानि कूपास्तेषां पङ्क्तयो बिल पक्रयः। एताश्च सर्या अपि कथंभूता इत्याह-अच्छाः स्फगुरुले चेव, वेणुदेवे पउमे चेव० जाव छविहं पि कालं टिक बद्धहिमनिर्मलप्रदेशाः, श्लदगाः श्लदणपुद्गलनिष्पादिपच्चणुब्भवमाणा विहरति । पुक्खरवरदीवद्धपञ्चत्थिमद्धेर्ण तबहिःप्रदेशाः रजतमयं रूप्यमयं कृलं यासां ताः, तथा मंदरस्स पव्ययस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा पलत्ता । तं समं न गर्ता सद्भावतो विषमं तीरं तीरवर्ति जलापूरितं जहा-तहेव णाणतं कूडसामली चव, महापउमरुक्खे चेव, स्थानं यासांता समतीराः, तथा वज्रमयाः पाषाणाः यासां तास्तया, तथा तपनीयं हेभविशेषस्तन्मयं तलं यासां तादेवा गरुले चेव वेणुदेवे,पुंडरीए चेव । पुक्खवरदीवड्डेणं दो स्तथा। तथा (सुवम सुम्भरययवालुपात्रो इति) सुवर्म पीभरहाई दो एरवयाई०जाव दो मंदरा दो मंदरचूलिकाओ। तद्देम शुभ्रं रूप्यविशेषः रजतं प्रतीतं तन्मयो वालुका यासु पुक्खरवरस्स णं दीवस्स वेइया दो गाउयाई उड्ढे उच्चत्त- ताः सुवर्सशुभ्ररजतवालुकाः । तथा (वेरुलियमणिफलिणं परमत्ता. सव्वसि पि णं दीवसमुदाणं वइयाओं दो हपडल पञ्चोयडाश्री इति) वैडूर्यमणिमयानि स्फाटिकपटल मयानि स्फाटिकरलसंबन्धिपटलमयानि प्रत्यन्ततटानि गाउयाई उडू उच्चत्तेणं पामत्ताओ। तटसमीपवर्त्यभ्युन्नतप्रदेशा यासां तास्तथा । तथाव्याख्या सुकरा । स्था० २ ठा० ३ उ ।। सुखेनावतारो जलमध्ये प्रवेशनं यासु ताः स्ववतापुक्खरसंवट्टग-पुष्करसंवर्तक-पुं० । स्वनामख्याते महामेधे, रास्तथा सुखनोत्तारो जलाद् बहिर्विनिर्गमनं यासु ताः अनु० । ( अस्य वक्तव्यता ‘परमाणु' शब्देऽस्मिन्नेव भागे सुखोत्तराः। ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः। तथा नाना५४० पृष्ठे गता) मणिभिः सुबद्धानि तीर्थानि यास तास्तथा । अथ बहुव्रीहापुक्खरावत्त-पुष्करावर्त-पुं० । जम्बूद्वीपप्रमाणे स्वनामख्याते वपिनान्तस्य परनिपातो भार्यादिदर्शनात्, प्राकृतशैलीवमहामेधे , नं० । विशे। शाद्वा (चाउकोणाश्रो इति) चत्वारः कोणा यासां ताः तथा पुक्खरिणी-पुष्करिणी-स्त्री० । पुष्कराणि विद्यन्ते यत्र सा दीर्घत्वं च "अतः समृदयादी वा"॥राया इति सूत्रेण प्रा कृतलक्षणवशात्। एतच्च विशेषणं वापीकूपांश्च प्रति द्रष्टव्यम्। पुष्करिणी, रा०। जी० । वृत्ताकारायां चाप्याम. जी०३ तेषामेव चतुकोणत्वसंभवात् न शेगणां आनुपूव्र्येण क्रमेण प्रति०४ अधि० । व्यः। प्रशा० । नि० चू०। पुष्करवति, शा० नीचैः नीचस्तरभावरूपेण सुष्ठु अतिशयेन यो जातो वप्रः १७.१०। कर्दमप्रचुरजले, स्था० ४ ठा०३ उ०। सूत्रः। केदारो जलस्थानं तत्र गम्भीरमलब्धस्ताचं शीतलं जलं यासु अं०। पुष्करिणीवर्णकः ताः-श्रानुपूर्व्यसुजातवप्रगम्भीरशीनलजलास्तथा । तथा संअथ पुष्करिणीसूत्रं यथा-" नत्थ गं वणसंडस्स तत्थ तत्थ छन्नानि जलनान्तरितानि पत्रविशमृणालानि यासु ताःतथा। देसे तहि तहि बहुई प्रोखुट्टा खुड़ियायो वाधीनो पुस्तरिणी- इह विशमृणालसाहवर्यात् पत्राणि पद्मिनीपत्राणि द्रष्टव्या Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरखरिणी अभिधानराजेन्द्रः। पुक्खरोद नि,विशाान कन्दाः,मृणालानि पद्मजालानि, तथा वहनामुत्प- (पुक्खरोदे णमित्यादि ) पुष्करोदो भदन्त ! समुद्रः लकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापौण्डरीकशतप कियत्वक्रवालविष्कम्भेण कियत् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः ? असहस्रपत्राणां फुल्लानां विकस्वराणां केशरैः किंजल्कैः । भगवानाह-गौतम ! संख्ययानि योजनशतसहस्राउपचिता भृताः,विशपणव्यवस्थितया निपातः प्राकृतत्वात्। णि परिक्षेपण प्रज्ञप्तः । ( से णमित्यादि ) स पुष्करोदः तथा षट्पदैः भ्रमरैः परिभुज्यमाननि कमलानि उपलक्षण समुद्र एकया पद्मवरवेदिकया सामर्थ्यादष्टयोजनोन्यया मैतत् कुमुदाऽऽदीनि यासु ताः तथा,अच्छेन स्वरूपतः स्फटि- जगत्युपरि भाविन्या एकेन वनखण्डेन सर्वतः समन्तात् संपकवत् शुद्धननिर्मलनाऽगन्तुकमलरहितन सलिलेन पूर्णः त- रिक्षिप्तः । (पुक्खरोदस्स णं भंते ! इत्यादि) पुष्करोदस्य भ. था " पडिहत्था" अतिरोकता अतिप्रभूता इत्यर्थः । देशीश । दन्त ! समुद्रस्य कति द्वाराणि प्राप्तानि।भगवानाह-गौतम! ब्दोऽयं "पडिहत्थ सुठ्ठमायं, अइरेगइयं च जाण पाऊणं ।” चत्वारिद्वाराणि प्रज्ञप्तानि । तद्यथा विजयं,वैजयन्तं,जयन्तमप इति वचनात् । उदाहरणं चाऽत्र-"घणपडिहत्थं गयणं,सराई। राजितम् । क भदन्त ! पुष्करोदसमुद्रस्य विजथं नाम द्वारं प्रशनवसलिलसुट्ठुमाथाई। अहिरेइयं मह उण, चिंताए मणं तुहं प्तम्। भगवानाह-गौतम! पुष्करोदसमुद्रस्य पूर्वार्द्धपर्यन्ते अ. विरहे ॥१॥"इति । भ्रमन्तो मत्स्यकच्छपाः यत्र ताः"पडिहत्य" रुणवरद्वीपपूर्वार्द्धस्य पश्चिमदिशि अत्र पुष्करोदसमुद्रस्य थिभ्रमन्मत्स्यकच्छपाः अनेकैः शकुनिमिथुनकैः प्रविचरिता इ. जयं नाम द्वारं प्रज्ञप्तम् ,तच्च जम्बूद्वीपविजयद्वारवद्वक्तव्यं,नतस्ततो गमनेन सर्वतो व्याप्ताः, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमा- बरं राजधानी अन्यस्मिन् पुष्करोदे समुद्र (कहि णमित्यादि) सः एता वाध्यादयः सरस्सर पङ्किपर्यवसानाः प्रत्येकं प्रत्यकम् क्व भदन्त ! पुष्करोदसमुद्रस्य वैजयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्तम् । इति एकम् एकं प्रति प्रत्येकमत्राभिमुख्य प्रतिशब्दो,न वीप्सा- भगवानाह-गौतम पुष्करोदसमुद्रस्य दक्षिणपर्यन्ते अरुणवविवक्षायां पश्चात्प्रत्येकशदस्य द्विर्व वनमिति पद्मवरयेदिका- रप्रदक्षिणार्द्धस्योत्तरतोऽत्र पुष्करोदसमुद्रस्य वैजयन्तं नाम याः परिक्षिप्तःप्रत्येकं प्रत्येकं वनखण्डपरिक्षिप्ताश्च,अपिाढाथै द्वारं प्रशतं तदपि जम्बूदीपगतवैजयन्तद्वारबदविशेषेण वक्तवाढमेककः काश्चन वाग्यादय पासवमिव चन्द्रहासाऽऽदिपर. व्यं, नवरं राजधानी अन्यस्मिन् पुष्करोदे समुद्रे ( कहि ण मासवमिव उदकं यासां ताः तथा अप्येकिकाः वारुणस्यव मित्यादि) क्व भदन्त ! पुष्करोदसमुद्रस्य जयन्तं नाम द्वारवारुण समुद्रस्थय उदकं यासांता अय्येकिकाः क्षीरमिवाद- म्। भगवानाह--गौतम पुगकरोदसमुद्रस्य पश्चिमपर्यन्त अकं यासां ता अन्येकिकाः घृतमिवोदकं यासां ता अप्यकि- रुणवरद्वीपपश्चिमार्द्धस्थ पूर्वतोऽत्र पुष्करोदसमुद्रस्य जयन्तं काः क्षोद इब इक्षुरस इवोदकं यासा ता अव्यकि- नाम द्वारं प्रज्ञप्तं, तदपि जम्बूद्वीपगतजयन्तद्वारबत् , नवरं का अमृतरससमरसम् उदकं यासां ता अमृतरससम राजधानी अन्यस्मिन् पुष्करोदसमुद्रे , (कहि णमित्यादि) क रसरमोदका अप्यकिका उदकेन स्वाभाविकन प्रजा भवन्त ! पुष्करोदसमुद्रस्याऽपराजितं नाम द्वारं प्रज्ञतम ? भ. माः, ( पासाईया) इत्यादि प्रागवत् । जं० १ वक्षः । गवानाह-गौतम! पुष्करीदसमुद्रस्योत्तरपर्यन्त अरुणदीप. अनु। वृते वा जलाशयविशेष,भ०५ श०७ उ०। प्रव। स्योत्तरार्द्धस्य दक्षिणतोऽत्र पुष्करोदसमुद्रस्य अपराजित औ०। जं) । विपा०। (अञ्जनपर्वतगाः पुष्करिण्यः अंजन- नाम द्वारं प्रज्ञप्तम् । एतदपि जम्बूद्वीपगतापगजितद्वाग्वतकग' शब्दे प्रथमभागे ४८ पृष्ठे दर्शिताः) "पुस्खरिणी दीहि. व्यम्, नवरं राजधान्यस्मिन् पुष्करीदसमुद्र, (पुक्वरोदम्स श्रा सरसी।" पाइ) ना० १३० गाथा । णमित्यादि ) पुष्करोदस्य भदन्त. समुद्रस्य द्वारस्य परस्परपुक्खरिणीपलास पुष्करिणीपलाश-पुं०। पद्मिनीपत्रे, उत्त० मेतत् कियत्या अवाधया अत्तरत्वाद्याचातरूपया प्रशतम् । ३२ अ०। भगवानाह-गौतम! संख्येयानि योजनशतसहस्राणि द्वारस्य परस्परमवाधया अनन्तरं प्रज्ञप्तम्।(एर सेत्यादि)प्रदेशजीवापपुक्वरोद-पुष्करोद-पुं० । पुष्करवरद्वीपस्य परितः समुद्रे, पातसूत्रचतुपयं तथैव पूर्ववत् । तचैवम्-"पुक्वरीयस्म णं भंत! चं० प्र०१६ पाहु० । स्था० । सू० प्र० । अनु । स्था० । समुदस्स पएसा अरुणवरं दीवं पुट्ठा। हंतापुट्टा। तेणं भंते! सम्प्रति विष्कम्भादिप्रतिपादनार्थमाह पुक्खरोदसमुद्दे अरुणवरदीवे ?। गोयमा ! पुक्खरोए णं समुद्दे पुक्खरवरे णं दीवे पुक्खरोदे णामं समुद्दे बट्टे वलयागा नो अरुणवरे दीवे। अरुणवरस्सणं भंते ! दीवस्स परसा पु क्खरोदे णं समुदं पुट्ठा। हंता पुट्ठा। तेणं भंते ! किं अरुणवरे दीय रसंठाणे०जाव संपरिक्खित्ता गं चिट्ठति । पुक्खरोदे णं भं पुक्खरोए समुद्द? गोयमा अरुणवरे णं दावे नो खलु ते पुक्खते! समुद्दे केवतियं चक्कवालविक्कंभेणं केवतियं परिक्खेवे- रोए समुद्दे । पुखरोदे णं भंत!समुदे जीवा उद्दाइत्ता अरुणणं पामते ?। गोयमा ! संखेजाति जोयणसयसहस्साति वरे दीवे पव्वायति । गोयमा ! प्रत्येगइया पब्वायंति अत्थ चकवालविखंभेणं संखेजाई जोयणसयसहस्सातिं परि गइया नो पब्वायति । अरुणवरे गंभंते! दीवे जीवा उद्दाइत्ता कखेवणं पम्पत्ते । पुक्खरोदस्स णं भंते ! समुदस्स कति पुक्खरोदे समुहे पब्वायंति ? गोयमा ! अत्यगइया पव्वायंति अत्थेगइया नो पब्वायति ।” अस्य व्याख्या प्राग्वत् । दारा पामत्ता ?। गोयमा ! चत्तारि दारा पामत्ता, तहेव सवं संप्रति नामनिमित्तं पिपृच्छिपुराहपुक्खरोदसमुदपुरिच्छिमापरंते वरुणवरदीवपुरच्छिमद्धस्स से केणटेणं भंते ! एवं बुचति-पुकवरोदे समुद्दे २१ । पच्छिमेणं एत्थ णं पुक्खरोदस्स विजये नामं दारे गोयमा ! पुक्खरोदस्स णं समुदस्स उदगे अच्छे पिच्छे पामत्त । एवं सेसाण वि दारंतरम्मि संखेन्जाइं जोयणसय- जच्चे तणुए फलितनम्माभे पगतीए उदगरसेणं सिरिहरसिसहस्साई अबाधाए अंतरे पापत्ते, पदेसा जीवा य तहेव ॥ प्पभा य, तस्थ दो देवा पहिड्डिया. जाव पलितोवमट्टि Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुक्खरोद मन्निधानराजेन्द्रः। तीया परिवसंति, से तेणटेणं० जाब णिच्चे । पुक्खरोदे णं विजए पमत्ते । गोअमा! णीलवंतस्स दाहिणणं सीआए भंते ! समुद्दे केवतिया चंदा पभासेंसु वा, पभासंति वा, उत्तरेणं पंकावईए पुरच्छिमेणं एकसेलस्स वक्खारपब्वपभासिस्संति वा । गोयमा! संखेजा चंदा पभासेंसु वा, यस्स पञ्चच्छिमेणं एत्थ णं पुक्खले णामं विजए परमत्ते, पभासंति वा,पभासिस्संति वा जाव तारागणकोडिकोडी- जहा-कच्छविजए तहा भाणियवं. जाव पुक्खले अ भो सोभिंसु वा, सोभति वा, सोभिस्संति वा। इत्थ देवे पलिअोवमट्टि परिवार से एएगाटेणं । (से केण्टेणमित्यादि) अथ केनार्थेन भदन्त ! एव मुच्यते- (कहि णमित्यादि ) सर्व स्पष्ट जना पकालावतः सप्तपुष्करोदः समुद्रः पुष्करोदः समुद्र इति। भगवानाह-गौतम! मो विजयः, स एव चक्रवर्तिविजतव्यत्वन चक्रवर्तिीवजय पुष्करोदस्य,णमिति पूर्ववत्,समुद्रस्य उदकमच्छम् अनाविलं इत्युच्यते । जं० ४ वक्षः। पथ्यं न रोगहेतुजात्यं न विजातिमत् तनु लघुपरिमाणं स्फ- पुक्खलि-पुष्कलिन्-पुं० । शवश्रमणापासके,स्था०६ ठा। टिकवाऽऽभं स्फटिकरलच्छायं प्रकृत्या उदकरसं प्रज्ञप्तम । (वृत्तम् ‘संख' शब्दे वक्ष्यामि )। श्रीधरश्रीप्रभो चात्र पुष्करोदे समुद्रे द्वौ देवौ महर्द्धि पुग्गल-पुद्गल-पुं० । पूरणगलनधर्माणः पुद्गलाः। दश०१०। को यावत्पल्योपमस्थितिको परिवसतः, ततस्ताभ्यां सप समस्तपुद्गलास्तिकायं गतेषु परमाणुषु, प्रव० २५६ द्वार । रिवाराभ्यां गगनमिव चन्द्राऽऽदित्याभ्यां ग्रहनक्षत्राऽऽदि. पुद्गलास्तिकाये च । उत्त० २८ अ० । अमांसे, “बहुअट्टियं परिवारोपंताभ्यां तदुदकमवभासते इति पुष्करमिव उदकं अणिमिसं बहुकंटयं ।" दश०५ अ. १ उ० । यस्यासी पुष्करोदः । तथा चाऽऽह-( से एएणटेणमित्यादि) उपसंहारवाक्यम् । (पुक्खरोए णं भंते! समुहे कइ चंदा पभा पुग्गललहुया-पुद्गललघुता-स्त्री० । शरीरपुद्गलानां जाड्या पगमे, व्य०१ उ०।जिंसु वा इत्यादि ) पाठसिद्धम् । सर्वत्र संख्येयतया निर्व पुग्गलवग्गणा-पुदलवर्गणा-स्त्रीपुद्गलसमुदायविशेपे.क. चनभावात् । जी०३ प्रति०। प्र. १ प्रक० । ( "वग्गणा" शब्द चैषा उपपादयिष्यते) पुक्खल-पुष्कल-त्रि० । सम्पूर्णे, ध० २ अधिः । श्राव। पुग्गलविवागिणी-पुदगलविपाकिनी-स्त्री० । पुद्गल पुशरीरसूत्र० । प्रचुरे, सूत्र. २ थु. १ श्राव० । समधिके, तया परिणतेषु परमाणुषु विपाक उदयो यासां ताः पुद्गलश्रा० चू० ५ ० । औषधिनामनगरीप्रतिबद्धविजयक्षेत्रयुगले, 'दो पुक्खला"। स्था० २ ठा० ३ उ० । विपाकिन्यः । शरीरपुद्गलेवंवाऽऽत्मीयां शक्तिदर्शिकासु कर्म प्रकृतिषु, कर्भ०५ कर्भ० । (ताश्च 'कम्म' शब्द तृतीयभागे पुक्खलसंवघ्य-पुष्कलसंवर्तक-पुं० । स्वनामख्याते महामेघे, २६७ पृष्ठ दर्शिताः।) स्था०४ ठा०४ उ० । ति०। पुच्छ-प्रच्छ-धा० । शीप्सायाम् , “प्रच्छः पुच्छः" |८४६७॥ पुक्खलाबई-पुष्कलावती-स्त्री० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पूर्व | इति प्रच्छधातोः पुच्छाऽऽदेशः। पुच्छह । पृच्छति।प्रा०४पाद । सीताया महानद्या उत्तरे (स्था० ८ ठा० ) "दो पुक्ख- पुच्छण-प्रच्छन-न । पृच्छायाम् , प्रोक्षणे च । निलेपीकरण, लावई ।" तयोः, स्था०२ ठा०३ उ०। उत्त । दर्श०। श्रा० नि०चू०४ उला (उच्चारप्रश्रवणं कृत्वा गुदं यो भिक्षुर्न प्रोग्छते म० । कल्प० । पुण्डरीकिणीनगरीप्रतिबद्ध विजयक्षत्रयुगले, तस्य प्रायश्चित्तं 'थंडिल' शब्दे चतुर्थभागे २३८० पृष्ठे उक्तम् ) " दो पुक्खलावई" स्था० २ ठा० ३ उ० । शा० । कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे पुक्खलावई णामं चक्क पुच्छणकप्प-प्रच्छनकल्प-पुं० 1 पृच्छासामाचार्याम् , पं०भा० पुच्छणकप्पो अहुणा, जाई पुच्छेज संकियादितु । वहिविजए परमत्ते ?। गोअमा! णीलवंतस्स दक्खिणेणं सी ताहि भन्मति इणमो, अहक्कम आणुपुबीए । पाए उत्तरेणं उत्तरिल्लस्स सीआमुहवणस्स पच्चच्छिमेणं पदमक्खरमुद्देसं, संधी सुत्तत्थ तदुभयं चेव । एगसेलस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे पुक्ख घोसनिकाइतईहितसु-विमम्गितहेतुसम्भावं ।। लावई णामं विजए पामत्ते, उत्तरदाहिणायए एवं जहा पदमादी जा घोसा, वुत्तत्था होति एते सव्वे वि । कच्छविजयस्स० जाव पुक्खलावई अ इत्थ देवे परिवसइ, हिणियम्मिणिकाएउं, पुच्छति तु णिकाईयं ।। एएणटेणं ॥ पुन्बावरेण ईहित, एयमए एव होति ण व होति । पुरुकलावतः पुष्कलावती चक्रवर्तिविजयोऽपि योध्यः ।। हेतूहि कारणेहिं, तेसुवि मग्गिय एव तु मए त्ति ॥ जं०४ वक्षः। सम्भावो अत्थो खलु. संदिद्धाई तु पुच्छते ताई। पुक्खलावईकूड-पुष्कलावतीकूट-न । महाविदेहे वर्षे एक एयाई चिय कमसो, परियट्टे चेव अणुपेहे ॥ शैलपर्वतस्य चतुर्थकूटे. जं० ४ वक्षः। पं. भा० १ कल्प । पं० चू०। पुक्खलावत्तकूड-पुष्कलावतकूट-न । महाविदेहवर्षगैकश पुच्छणा-प्रच्छना-स्त्री० । विशोधितस्य सूत्रस्प मा भूदविस्मलपर्वतस्य तृतीये कूटे. जं०४ वत०। रसमिति गुरोः प्रश्नरूपे स्वाध्यायभेदे.प्रव०६वार । श्रा०। पुक्खलावत्तविजय-पुष्कलावत्तविजय-पुं० । महाविदेहमध्य दश०। स्था०। उत्ता अनुराधा गुरुसन्निधाविति प्रच्छभसप्तमचक्रवर्तिविजये, जं.। नाविधिस्त्वेवमशरीराऽऽदिवार्ता प्रश्ने, नि। "पासणगो न कहिणं भते : महाविदेहे वासे पुक्खलावते णामं पछिजा, ऐव सिजागो कयाइ वि । आगमुकडी संतो, Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुच्छणा अग्निधानराजेन्डः। पुच्छणा पुच्छिज्जा पंजलिउडो॥१॥"ध०३ अधि० । ध० २० ।। प्रासाढी आसाढपोसिमाए, इदं लाडेस सायणपोझिमाए कालिकश्रुतस्य ३ पृच्छाभ्यः परं पृच्छति । (३३ गाथा भवति इंदमहो,श्रासोयपुस्लिमाए कत्तियपुसिमाए चेव सुगि'कालियसुय' शब्दे तृतीयभागे ४६६ पृष्ठे गता) अपुणरुतं म्हात्रो, चेत्तपुस्मिमाए एते अंतदिवसा गहिश्रा आदिती पुण जावतियो कहिश्रो पुच्छति सा एगा पुच्छा। एत्य चउभंगो। जत्थ वि स राजतो दिवसातो महामहो पवत्तति, ततो एकणिसेज्जा एका पुच्छा पच्छा सुद्धो, एक्का णिसेज्जा. अ. दिवसातो प्रारम्भ जाव अंतदिवसो ताव सज्झातो ण णेगाो पुच्छाओ, पत्थ तिरहं सुत्तरहं वा परेण चउल- कायब्वो,एसि चेव पुलिमाणं अणंतरं जे बहुलपडिवया चहुगा, अणेगा णिसिज्जा एगा पुच्छा विसुद्धो, अणेगा णि- उरो ते वि वजेयवा।। सिजा अणेगा पुच्छा, तिरहं सत्तरहं वा परेण पुच्छंतस्स पडिसिद्धकाले करेंतस्स इमे दोसाचउलहुगा। अम्मतरपमादजुत्तं, छलेज पडिणी जये तं तु । अहवा तिमि सिलोगो,ततिसुणवकालिए तरेतिगा सत्त। अट्ठोदहि होती पुण, लभेज जयणोपजुत्तम्मि ॥ ३१ ॥ जत्थ य एग य समती, जावतियं वावि उग्गिएहे ॥३४॥ ___सरागसंजतो सरागत्तणतो इंदियविसयादिभ्रमयरे पमातिहि सिलोगेहिं एगपुच्छाहि शव सिलोगा भवंति । एवं दजुत्तो हवेज, विसेसतो महामहेसु तं पमायजुर्स पडिणीयकालियसुयस्स एगतरं दिट्टे वाए सत्तसु पुच्छासु एगवी- देवया अप्पिट्ठिया खित्तादिछलणं करंज, जयणाजुत्तं पुण सं सिलोगा भवंति । अहवा-जत्थ एगत्तं समापयति थो-। साहुं जो अप्पिट्टितो देवो अटोदधीउ ऊणाड्ढ ति सो ण वं बहुं वा सा एगा पुच्छा । अहवा-जत्तियं पायरिएण सक्कति छलेउं अट्ठसागरोवमट्टितोतो पुण जयणाजुत्तं पि छतर उच्चारितं घेत्तुं सा एगा पुच्छा। लेति, अस्थि सेसा मिच्छं तं पिपुववेरसंबंधसरणतो कोति वितिया पगाढ सागा-रियादि कालगत असति वोच्छेदे । छलज । चोदगाऽहा-" वारसविहम्मि वि तवे, सम्भितरवा. एतेहि कारणेहिं, तिएह समएहं तहवरेण ॥ ३५ ॥ हिरे कुसलपिढे । ण वि अस्थि, ण वि य होही, सज्झाय. समो तवो कम्मं ॥१॥" किम्महेसु संझासु वा पडिसिझकंठ्या पूर्ववत् । कम्हा दिट्ठिवाए सत्त पुच्छानी ? । अतो | ति। प्राचार्याऽऽहभातिनयवादसुहुमयाए, गणिभंगसुहुमे णिमित्ते य । कामंसू उपभोगो, तवोवहाणं अणुत्तरं भणितं । मंथस्स य बाहुल्ला, सत्त कया दिहिवादम्मि॥ ३६॥ | पडिसेहितम्मि काले, तहा वि खलु कम्मबंधाय ॥४०॥ णेगमाऽऽदि सत्त गया एकेको तेसु तिविधो, तहिं सभेदा दिटुं महेस सज्झायम्म पडिसहकरणं पाडिवएस कि जाव दब्वपरूवणा दिहिवाए कजति सा णयवादसुहुमया पडिसिझर ?। उच्यते-- भमति, तह परिकम्मेसु गणियसुहुमया, तहा परिमाणमा- बिइयदिवसेसु छम्म, पाडिवएमुं वि छणा पसजंति । दीसु वस्मगंधरसफासेसु एगगुणकालगादिपजवभंगसुहुमता, - मेहेवाउलतणतो, असारिताणं च संमाणो ॥ ४१ ।। तहा अटुंगमादि णिमित्तं बहुवित्थरत्तणतो दिट्ठियायगंथस्स | छमस्स उवसाहियं जं मजपाणादिगं तं सवं गोवभुतं य बहु अत्तणतो सत्त पुच्छाओ कंठाओ। तं पडिवयासुं उब जति अतो पडिवयासु वि छम्मो असूत्रम् गुसज्जति, अमं च मेहदिणेसु वाउलत्तणतो जे य मित्ताऽदि जे भिक्खु चउसु महामहेसु सज्झायं करेइ, करंतं वा सारिता ते पडिवयासु संभारिति त्ति छलो ण बद्दति, साइजइ । तं जहा-इंदमहे १ खंदमहे २ जखमहे ३ भूत तेसु वि ते चेव दोसा, तम्हा तेसु वि लो करेजा। महे ४॥ ११॥ वितियागाढे सागा-रियादि कालगत असति वोच्छेदे । रंधणपथणखाणपाणनृत्यदेवगेयप्रमोदे च महता महा महा एतेहि कारणेहि, जयणाए कप्पती काउं॥४२॥ तेसु जो सज्झायं करेइ तस्स चउलहुं । कएठ्या पूर्ववत् । सूत्रम् सूत्रम्जे भिक्खू चउसु महापाडिवएसु संज्झायं करेइ,करंतं वा जे भिक्खू चाउकालं सज्झायं ण करेइण करतं वा सासाइजइ ।। तं जहा-मुगिम्हिया पाडिवए १, आसाढा पा इजइ ॥ १३ ॥ जे भिक्खू पोरिसिं सज्झायं उवइणावेइ, डिवए २,आसोयपाडिवए ३ कत्तियपाडिवए ४ ॥ १॥ उवाणावंतं वा साइजइ ॥ १४ ॥ तेसिं चेव महामहाणं । कालियसुत्तस्स चउ सज्झायकाला, ते य चतुपोरिसिणिचउसुं चउ पाडिवए, तहेव तेर्सि महामहासु च। प्फमा, ते उवातिणावेति त्ति, जो तेसु सज्झायं न करेह त. जे कुजा सज्झायं, सो पावति प्राणमादाणि ॥ ३७॥ स्स चउलहुं, प्राणादिणो य दोसा । गाहाजे चउरो पाडिवयदिवसा पतेस पि करेंतस्स चउलहुं। च- अंतों अहोरत्तस्स उ, चउरो सज्झाय पोरिसीओ व । उसु गाहा कंठ्या। के पुण ते महामहा उच्यन्तेआसाढी इंदमहो, कत्तियसु गिम्हरो य बोधव्या। जे भिक्खू उवायणाती,सो पावति आणमादीणि ॥४३॥ अहोरत्तस्स अंतो अभंतरे, सेसं कंठं नि०० १६ उ० । एते महामहा खलु, एतेर्सि जाव पाडिवया ॥ ३८॥ । (४४ गाथा-'कालियसुय' शचे तृतीयभागे ५० पृष्ठे गता) Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुच्छगा। श्रक्षेपे यदि स च नाम न सर्वाजीवो नमस्कारस्तर्हि म किस्वरूपो जीवो नमस्कारः किं स्वरूपो वाऽनमस्कार इति पृच्छा ? । अ० म० १ श्र० । विशे० स्था० । पुच्छणी - पुच्छनी स्त्री० ! श्रविज्ञातस्य संदिग्धस्य चार्थम्य हानाथै तदनियुक्तप्रेरणरूपायां भाषायाम् भ० १० श० ३ उ० | मार्गाऽऽदेः कथञ्चित् सूत्रार्थयोर्वा प्रश्ने, स्था० ४ ठाउ । प्रज्ञा । संथा० । श्रवघाटिनीनामुपरि निविडनराऽऽहानहेतुव तरतु विशेषस्थानीये, जी०। मूलटीकाकारः 'श्रीहाडनीहार' ग्रहणं महत्तुलकं तु पुच्छ नी इति । जी० ३ प्रति० ४ श्रधि० । पुच्छबाल - पुच्छबाल-पुं० । लाङ्गूल केशे तं० । पुच्छा - पृच्छा-त्री० प्रश्ने, दश० १ श्र० । सामाचारीव्याख्यायाम् ० ० १ ० । ('उसह' शब्दे ११ पृष्ठे विवेचि नमेतत् । ब्राहरणदीप दश । पुच्छा फोशिओ खलु निस्सारणम्मि गोयमस्सामी । नाहियवाई पुच्छे, जीवत्थितं आणिच्छंतं ॥ ७८ ॥ , पृच्छायां प्रश्न इत्यर्थः कोशिकः अणिकपुत्रः खलूदाहरणम्-" जहा तेरा सामी च्छो-चक्कवट्टिणी अपरिचत्तकामभोगा कालमा कालं किया कर्हि उवअंति ? । सामिया भणिय अहे सत्तमीए चक्रवट्टिणी उ ववजति । ताहे भगइ श्रहं कत्थ उववज्जिस्सामि ? । सा. मिणा भवितुमंद सो भण-श्रहं सत्त मीए किं न उबवजिस्सामि ? | सामिया भणियं सत्तमांद चको उपजेति ताहे सो भगर अकि न होमि चकबट्टी ?, मम विचउरासी दंतिसयसहस्सा शिखामिया मत रणाणि निहीओ रात्थि । नाहे सो कित्तिमाई रयणाई करिता श्रवतिउमारद्धो, तिमिसगुहार पविसिउं पवतो, भणिश्रो य किरिमाल - एं बोलीणा चकवट्टिणो वारस वि, विणस्सिहिसि तुमं, वारिजंती विण ठाइ, पच्छा कयमालपण श्राश्री, श्री य छट्टि पुढवि गो, एयं लोइयं । एवं लोगुत्तरे वि यस्तु धरिया अझ ऊय पृच्छया पुच्छि ताय सकणिजाणि समायरियव्वाणि श्रसक्कणिजाणि परियाणि । भणियं च पुच्छर पुण्य पं दिए सारे वरण मा मलेवविलित्ता, पारत हियं ण जाणिहिद ॥ १ ॥ " उदाहरणंदेशता पुनरस्याः मिहितैकदेश पत्र प्रदान तेनेव चोपदारादिति । ए यं तावचरण करणानुयोगमधिकृत्य व्याख्यातं पृच्छाहा अ] प्रयानुयोगचक्रव्यनामचास्य मा थोपन्यासानुलोमतो निधावनमभिधानुका आनि श्रावचनद्वारम् । दश० । ( तच्च णिस्सावयण' शब्दे चतुर्थभागे २१४२ पृष्ठे गतम् ) अधुना इज्यानुयोगमधिकृत्य - तत्रेदं गाथादलम् - ( ' गाहियवाई' इत्यादि) ना स्तिकवादिनं चार्वाकं पृच्छे जीवास्तित्वमनिच्छन्तं सन्तमिति गाथा: र्थः किंपृच्छे hi ति नत्थि आया, जेण परोकखेत्ति तव कुविन्नाणं । होइ परोक्खं तम्हा, नत्थि त्ति निसेहर को शु १ ॥७६॥ ? केनेति केन हेतुना ? , 3 नास्त्यात्मा न विद्यते ( ६७०) अभिधानराजेन्द्रः । , म. " जीव इति पृच्छेत् ? सव्वात् येन परोक इति येन प्रत्यक्षेण नोपलभ्यत इत्यर्थः स च वक्तव्यः भद्र ! कुविज्ञानं ' जीवास्तित्वनिषेधकध्वनिनिमित्तत्वेन तनिषेधकं भवति परोक्षम् श्रन्यप्रमातृणामिति " 6 तव 6 " तस्मात् भवदुपन्यस्तयुक्त्या नास्तीति कृत्वा निषेधते को नु ? विज्ञानाचे विशिष्टानुत्पत्तेः । इति गाथाऽर्थः ॥ दश० १ ० । ( पृच्छा ऋषभकाले जाता इति उस ह शब्दे तृतीयभागे ११ पृष्ठे गतम् ) " ( मार्गे कथं पृच्छा कर्त्तव्येति 'बिहार' शब्दे ) " कत्थर पुच्छर सीसो कहि च पुच्छापर्यति आपरिया। सीसाणं तु हियडा विउलतरागं तु पुच्छार ॥ १ ॥ " ति । अपुच्छतोऽपि शिष्यस्य हिताय तत्वमाख्येयमिति । स्था० ३ डा० २ उ० । 12 पुच्छिय-पृष्ट-त्रि । शीप्सिते, दशा० १० अ० । पुच्छियह - पृष्टार्थ- पुं० । पृष्टोऽर्थो येन सः सांशयिकार्थप्र नकरणात् । दश० १ श्र० भ० । परस्परतः कृतप्रश्नविषयीकृतार्थे, भ० ११ श० ११ उ० । श्र० । " गहिय ट्ठा पुष्षा विणिवा " दर्श३ तच्च । पुच्छे यन्त्र - प्रष्टव्य - वि० । शीप्सितव्ये, कल्प० ३ अधि क्षण । भ० ! 1 पुहिल - , पुज पूज्य वि० सर्वजनस्साये उस० १ ० पूजवि पुज्ज-पूज्यतुमर्हे उत्त० १ श्र० । पञ्चा० । पूज्यं व वस्तु द्विविधम्जीवरूपं जिनादि, श्रजीवरूपं च प्रतिमाऽऽदि । विशे० । ( 'रामोकार ' शब्दे चतुर्थभागे १८३८ पृष्ठे व्याख्यातम् ) पुज्जसत्थ- पूज्यशास्त्र - पुं० । पूज्यं सकलजनश्लाघाऽऽदिना पूजार्ह शास्त्रमस्येति पूज्यशास्त्रः । शास्त्रस्य विशेषेण पूजके विनीते । उत्त० १ श्र० । पूज्यशास्त्रक पूज्यः शास्ता गुरुरस्वेति पूज्यशास्त् कः पूज्यस्याऽपि शास्तुर्विशेषेण पूजके । उत्त० १ श्र० । पूज्यशस्त त्रि० । पूज्यश्चासौ शस्तश्च पूज्यशस्तः । सर्वत्र प्रशंसाssस्पदत्वेन पूज्ये, शस्ते च । उत्त० १ ० पुष- पुण्य-ग" 01 - "८४२६३ ॥ ६ति मागध्यां एयस्थाने अकाराऽऽकान्तारः । शुभकर्मणि प्रा० ४ पाद । | । भवति। चुम्बकम्मो 'शु पुत्रकम्म- पुरुषकर्मन्न०ः८४२०५ ॥ ॥ " " इति पेशाः स्थाने भकर्मणि प्रा० ४ पाद । पुत्रमाह-पुण्याहन पो" ॥ २४ २०५ ॥ इि पैशाच्यां एयस्थाने ज्ञः । प्रा० ४ पाद ।" न्यण्यशओं || ८ | ४ | २६३ ॥ इति मागध्यां एयस्थाने द्विरुक्को प्रकारः । पुण्यतिथी प्रा० ४ पाद । पुट्टय- पोट्टज - त्रि । जठरोद्भवे तं । पुट्टिल - पोट्टिल - पुं । स्वनामख्याते अनगारे, स्था० ६ ठा० । पो हिलो नगारोनरोपपातिकाऽचीती हस्तिनापुरवासी भद्राभिधान सार्थवाहीतनयो द्वात्रिंशद्वार्यात्यागी महावीरशिष्यमा संलेखना सर्वार्थसिद्धोपन महाविदेहा राम अयं विभगामीति गतिस्त 0 1 Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुट्टिल अन्निधानगजेन्द्रः । पुममेयण तोऽयमन्यः संभाव्यत इति । स्था०८ ठा० । प्रियमित्रप्रव- पुट्ठ लाभिय-पृटलाभिक-पुं० । पृष्टस्यैव हे साधी ! कि ने ज्यादायके प्राचार्य, आव० १ अ०। दीयते इत्यादिप्रशिनतस्य यो लाभः स यस्यास्ति स नथा। पुत्तो धणंजयस्सा, पुट्टिलपरिपाइ कोडिसबढे। औ० । तथाविधभिक्षाभिग्रहग्रहिले साधा. मूत्र०२श्रु०२०। नंदण छत्तग्गाए,पण (चउ) वीसाउं सयसहस्सा ॥४४६।। पुट्ठवागरण-पृष्टव्याकरण-न० । प्रश्नितानां सूत्रितानां सकृद् पव्व पुहिले सय-सहस्स सव्वत्थ मासभत्तेणं । द्विर्वाऽभिधानरूपायां भाषायाम् , पञ्चा) १८ विव.।। पुप्फुत्तर उववनो. तो चुओ माहणकुलम्मि ॥४५०|| पुट्ठसेणियापरिकम्म-पष्टश्रेणिकापरिकर्मन्-न । रट्रिवादस्य अक्षरार्थः स्पष्टः । भावार्थः कथातो ज्ञेयः परिकर्मभेदे, स० १२ प्रक। "ततोऽपरविदेहेपु, मूकापुर्या महीपतिः । पुढापुट्ठ-स्पृष्टाऽस्पृष्ट-न० । दृष्टिवादसूत्रभदे, स० १२ अग। धनञ्जयस्य धारिण्याः, पत्न्याः कुक्षौ समीयिवान् ॥ १॥ पुहि पुष्टि-स्त्री० । उपचीयमानपुण्यतायाम, पो) ३ यिव० । चतुर्दशस्वप्नराजा-35ख्यातचक्रधरर्द्धिकः । चित्तस्य शुद्धस्य पुण्योपचये, ध० १ अधि) । परितोष, काले सा सुषुवे सून, सर्वसम्पूर्णलक्षणम् ॥२॥ षो०४ विवाजी । पुण्योपचयकारणत्वात् त्रयोविंशगी. प्रियमित्र इति नाम, पितृभ्यां तस्य निर्ममे । णानुशाया भेदे. प्रश्न०१ संब० द्वार । वईमानः शशीवाऽऽप, सकलत्वं द्विधाऽपि सः ॥ ३॥ प्रष्टि-स्त्री० । " स्वराणां स्वराः प्रायोउपभ्रंश" ॥८४३२६ ॥ निर्मिः कामभोगेभ्यः, पार्थिवोऽथ धनञ्जयः । इति ऋत उः । प्रा०४ पाद । पृच्छायाम् , स्था०२ठा० उ०। प्रियमित्रं सुतं राज्ये, स्थापयित्वाऽग्रहीद् व्रतम् ॥४॥ पुद्विम-पुष्टिमन्-पुं० । वाणिजकग्राम भद्रायाः सार्थवाह्याः मित्रवप्रियमित्रस्य, प्रतापैकमहोदधेः । स्वनामख्याते पुत्रे, स च वीरान्तिक प्रवज्य संलेखनया चक्रप्रभृतिरत्नानि, क्रमादासंश्चतुर्दश ॥ ५॥ मृत्वा सर्वार्थसिद्ध उपपद्य सतश्च्युत्वा महाधिदेहे वर्षे सेपटखराउविजय सोऽपि. प्राग्वदन्यान्यचक्रिवत् । त्स्यतीति अनुत्तरोपपातिकदशानां तृतीय तथा पष्ठऽध्ययने कृतचक्राभिषेकः स-मीत्या गज्यमपालयत् ॥ ६॥ अन्यदा पाहिलाऽऽचार्यो-पान्ते धर्म निशम्य सः । सूचितम् । अनु०। सुतं राज्य निवेश्याऽथ, प्रावाजीत्सर्वशत्रुजित् ॥ ७ ॥ पुट्ठिया-पृष्टिजा-स्त्री०। पृष्टिः पृच्छा, ततो जाता पृष्टिजा। वर्षकोटी तपस्ने, शुक्रे सर्वार्थयानके। प्रश्नजनित व्यापारे, स्था०२ ठा०। पूर्वलक्ष चतुरशी-त्यायुम॒त्वा सुरोऽभवत् ॥८॥ स्पष्टिजा-स्त्री० । स्पृष्ठिः स्पर्शनं, ततो जाता स्पृष्टिजा। च्युवेह भरते छत्रा-यां पुर्या जितशत्रुतः । स्पर्श नजे क्रियाभेदे, स्था०२ ठा० । पृष्टं प्रश्नः वस्तु षा तदभद्रादेव्यां स उत्पेदे , नन्दनी नन्दनाऽऽहयः॥६॥ स्ति कारण वेन यस्यां सा पृष्टिजा । प्रश्नजनित क्रियाधितं न्यस्यौद्यौवनं राज्ये, जिनश जुनराधिपः। शेष, स्था० २ ठा०। प्रावाजीनन्दना राज्यं. शशासेन्द्र इव क्षितौ ॥१०॥ स्पष्टिका-स्त्री स्पृष्टिः स्पर्शनं तदस्तिकारणत्वेन यस्यां सा चतुर्विशत्यदलक्षी, जन्मतोऽतीत्य नन्दनः । स्पृष्टिका । स्पर्शजे क्रियाविशेपे, स्था०२ ठा। जीवादीन पाहिलाऽऽचार्यपाश्चय, संयम स प्रपन्नवान् ॥ ११ ॥ रागाऽऽदिना पृच्छतः स्पृशतो वा क्रियायाम् . स्था० ५ ठा० मामापवास्यब्दलक्ष, श्रामण्यं स प्रकर्पयन् । २ उ । “पुट्टिया किरिया दुविहा परमत्ता-जीवपुट्टिया चव, विशल्या स्थानका प्राग्व तीर्थकृत्कर्म निर्ममे ॥ १२॥" अजीवपुट्ठिया चेव । " श्राव०४ अ०। "जीवपुट्टिया जीवाश्रा) का अ।। धिगारं पृच्छति । रागदोसेणं अजीवाधिगारं वा । अहवा पुपट्ट-पुष्ट-त्रि)। " प्रस्यानुऐटासंदष्ट " ॥ ८ ॥२॥ ३४ ॥ इति द्विय त्ति फरिसणकिरिया, सा वि जीवषु ट्ठिया चेव अजीवपुप्रस्य हः । प्रा०२ पाद । उपचितमांमलतया पुष्टिभाजि, उ- ट्ठिया चेव।" श्रा० चू०४ अ०। श्रहवा पुट्टिया फारसणांकन) ७ अ०। ज्ञा० । प्रदशप्रक्षपनः पाषित, भ०१३ श०६उ० । रिया, तत्थ जीवफरिसणाकरिया इत्थी पुरिसणपुंसर्ग वा स्पत--बि)। " उदृत्वादी" ॥८।१।१३१ ॥ इति त उ. फरिसति । संघडियं ति भणियं होइ । अजीवसु सुहणिस्वम । प्रा०पाद । व्याप्त, श्रा) म १ श्र।। प्राञ्छिते. मित्तं मियलोभादिवत्थुजायं मोत्तिगादि वा रत्नजायं फरिसुघृष्ट वृ।१ उ०२ प्रक) । श्रा) चू० । भ०। सूत्र। छुने, सति ।' प्राव. १ अ.)! मूत्र) श्र० ३ ० १ उ० । स्था) । उत्त० । अभिद- पुड-पूट-पुं० । न०। सम्बद्ध दलद्वय, स. ३० सम० । नि० ते, उत्त।२ ।। आश्लिप, उत्त० २ ।। स्पृश्यत इति | चू० । कोष्ठपुटे, रा०।। स्पृष्टम् । तनी रेणुवदालिङ्गितमात्रे, विशे। ("पुटं सुणेइ पश-दशी-पिण्डीकृतार्थे, दे० ना.६ वर्ग ५४ गाथा। मई, रुवे पुण पासए अपुटुं तु । " ' इंदिय ' शब्दे द्वितीयभागे ५५६ पृष्ठे व्याख्यानम् ) कञ्चुकबन्छुप्ते, उत्त० पुडग पुटक-न । खल्लके, वृ. १ उ०३ प्रक०। ३ अ) । सूत्र । जीवप्रदशरात्मीकृत कर्मणि, विशे० । पुडपाग-पुटपाक-पुं। कुष्टिकानां कणिकाऽऽवेष्टितानामग्निना भ०।सकत घनकटितसचीकलाप न पचने,पाकविशेषनिष्पन्ने औषधविशेषे च । ज्ञा०१ श्रु०१३। णि. प्रज्ञा० २० पद ५ द्वार। पुडमेयण-पुटभेदन-न० । “ नाणा दिसाऽऽगयाणं, भिजति पुट्टपूच्च-स्पष्टप्रवे-त्रि० 1 प्रारब्धपूर्व, प्राचा० थु० अ० पुडा उ जत्थ भंडाणं । पुडभेयणं तगं...... ..... ॥॥" ३०॥ नानाप्रकाराभ्यो दिग्भ्य भागतानां भाण्डानां कुकुमादीनां Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवी (६७२) पडनेया अनिधानराजेन्द्रः। पुटा पचविक्रयार्था भिद्यन्ते तत्पुटभेदनम् । फयाणकवाणि- यावत्करणात् (महज्जुइए) शरीराऽऽदिदीप्त्या (महाबले) ज्यप्रधाने नगरे, वृ०१उ०२ प्रक० । नि.चू०। प्राणतो महानुभागे वैक्रियाऽऽदिकरणतः । (महेसको) महेपुडाइणी-देशी-नलिन्याम् , दे० ना० ६ वर्ग ५५ गाथा । श इत्याख्या यस्येति उन्मग्ननिमग्निकामुत्पतनिपतां कुतोऽपि, पुडिंग-देशी-विन्दु-वदनयोः, दे. ना०६ वर्ग ८० गाथा।। दर्पाऽऽदेः कारणात् कुर्वन् देशं पृथिव्याश्चलयेत्. स च चले दिति ॥२॥ नागकुमाराणां सुपर्णकुमाराणां च भवनपतिविपुढवादिघट्टणादि-पृथिव्यादिघटनादि-पुं० । पृथिव्यप्तेजोवा शेषाणां परस्परं संग्रामे वर्तमाने जायमाने सति ( देसं ति) युवनस्पतिद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाणां संघट्टनपरितापापद्रावणे देशश्चलेदिति । (इच्चएहिं इत्यादि) निगमनमिति ॥३॥ घु, पञ्चा० १५ विव०। पृथिव्या देशस्य चलनमुनमधुना समस्तायाम्तदाह-(तिहीपुढवी-पृथिवी-स्त्री०।" उदृत्वादौ" ॥८।१।१३१ ॥ इति त्यादि) स्पष्टं, किन्तु केवलेव केवलकल्पा, ईषदूनता चेह न ऋत उत्वम् । प्रा०१ पाद । “पथि-पृथिवी-प्रतिचन्मूषिक विवक्ष्यते,अतः परिपूर्णेत्यर्थः। परिपूर्णप्राया चेति पृथिवी भूः। हरिद्रा-विभीतकेयत्" ॥८।१८८॥ इति मध्येकारस्या (अहे ति) अघोधनवातस्तथाविधपरिणामो वातविशषो ऽकारः । प्रा०१पाद । “निशीथपृथियोर्वा" ॥८।१ । २१- गुप्येत व्याकुली भवेत्तुभ्योदित्यर्थः। ततःस गुप्तः सन् घनाद६॥ इति थस्य ढः । प्रा० १ पाद । आधारकाठिन्यगुणे म- | वि तथाविधपरिणामजलसमूहलक्षणमेजयेत् कम्पयेत् । हाभते, सूत्र०१०१०१ उ०। प्रज्ञा० । ग० । गन्धत- (तानिनोनन्तरं मनोभाजितः (तए णं ति)। ततोऽनन्तरं स घनोदधिरेजितः कम्पितः मात्रात्पृथिवीगन्धरसरूपस्पर्शशब्दवती । सूत्र १ श्रु०१ सन् केवलकल्पां पृथिवीं चालयेत् , सा च चलेदिति । देवो अ० १ उ० । मृत्तिकायाम् , भ. १५ श० । सूत्र० । भुवि, | वा ऋद्धिम्परिवाराऽऽदिरूपां, दुर्ति शरीराऽदेर्यशः पराक्रम स्था०३ ठा०४ उ० । नरकपृथिव्यः कृतां ख्याति बलं शरीरं वीर्य जीवप्रभवं पुरुषकारं साभिमा नव्यवसायनिष्पन्नफलं तमेव पराक्रममिति । बलवीर्याऽऽयपदरायगिहे०जाव एवं बयासी-कई गं भंते ! पुढवीओ प र्शनं हि पृथिव्यादिचलन विना न भवतीति तद्दर्शयन् तां पत्ताओ? गोयमा ! सत्त पुढवीओ पप्पत्ताओ। तं जहा चलयेदिति । देवाश्च वैमानिका इति असुरा भवनपतयस्तेषां रयणप्पभा० जाव अहे सत्तमा । भ० १३ श० १ उ०।। भवप्रत्ययं वैरं भवति । अभिधीयते च भगवत्याम्-"फि पत्तिय अएमस्थाने, " ईसिप्पभारा पुढवी" इत्यधिकमष्टमा । णं भंने! असुरकुमारा देवा सोहम्मं कप्पं गया य गमिस्संति | स्था० १० ठा० । ( पता नरकपृथिव्यो ' णरग ' शब्दे| या गोयमा! तेसि गं देवाणं भवपच्चइए घराणुबंधे ति।" चतुर्थभागे १९०४ पृष्ठे व्याख्याताः। गोत्राण्यासां 'गरग' ततश्च संग्रामः स्यात्तत्र च वर्तमाने पृथ्वी चलेत्तत्र तेषां म. शब्दे चतुर्थभागे १६०४ पृष्टे व्याख्यातानि) हाव्यायामत उत्पातनिपातसम्भवादिति । (इच्चेएहीत्यादि) पृथिवी चलेत् निगमनमिति । स्था० ३ ठा०४ उ० । तिहिं ठाणेहिं देसेहिं पुढवी चलेजा । तं जहा-अहेण एकैकस्याः ३ बलयानिमिमीसे रयणप्पभाए पुढवाए उराला पोग्गलागि चलेजा. एगमेगा णं पुढवी तिहिं बलएहिं सव्वो समंता संपतए णं ते उराला पोग्गला णिवत्तमाणा देसं पुढवीए रिक्खत्ता । तं जहा-घणोदहिवलएणं, घणवायवलएणं, चलेजा, महोरए वा महिड्डिए० जाव महेसक्खे, इमीसे तणवायवलएणं ॥ रयणप्पभाए पुढवीए अहे उम्मजणिमजियं करेमाणे देसं (एगमेगेत्यादि ) एकैका पृथिवी रत्नप्रभाऽऽदिका सर्वतः। पुढवीए चलेजा, णागसुवरमाण वा संगामंसि बमाणसि किमुक्तं भवति?-समन्तादथवा दिक्षु विदिचु चेत्यर्थः,सम्परिदेसं पुढवीए चलेजा, इच्चेएहिं ठाणेहिं केवलकप्पा क्षिप्ता वेष्टिता पाभ्यन्तरं घनादधिवलयं ततः क्रमेणेतरे तत्र घनः स्न्यानो हिमशिलावत् उदधिर्जलनिचयः स चासौ स पुढवीए चलेजा । तं जहा-अहेणं इमीसे रयणप्पभाए चेति घनोदधिः, स एव वलयमिव वलयं कटकं घनोदधिवपुढवीए घणवाए गुपेजा, तए णं से घणवाए गुविए स- लयं,तेन । एवमितरेप,नवरं घनश्चासौ वातश्च तथाविधपमाणे घणोदहिमेएज्जा,से घणोदहीए एइए समाणे केवल- रिणामोपेतो घनवात एवं तनुवातोऽपि, तथाविधपरिणाम कप्प पुढविं चालेजा, देवे वा महिड्डिए. जाव महेसक्खे एवेति । भवन्त्यत्र गाथाःतहारूवस्स समणस्स माहणस्स वा इड्डूि जुतिं जसं बलं "न वि य फुसति अलोग,चउसु पि दिसासु सवपुढवाओ। बीरियं पुरिसकारपरकम उवदंसेमाणे केवलकप्पं पुढवि चा संगहिया बलाहिं. विक्खंभं तेसि वोच्छामि ॥१॥ छ चव १ अद्धपंचम २, जायण अद्धं च ३ हौति रयणाए । लेजा, देवासुरसंगामंसि वा वट्टमाणंसि केवलकप्पा पुढवी उदही १ घण २ तणुवाथा, ३ जाहासंखण निहिट्ठा ॥२॥ चलेजा, इच्चेपहिं तिहिं।। तिभागो १ गाउय चेव २, तिभागो गाउयस्त य ३। स्पर्ष कंवल देश इति भागः पृथिव्या रत्नप्रभाभिधाना- आइधुवे पक्खयो, अहो अहो जाव सत्तमियं ॥ ३॥" या इति । (अहे ति ) अधः (ोरालि त्ति) उदाराः वा- इति । स्था० ३ ठा०४ उ०। लोष्ठाऽऽहिरहितायाम् दश०४ दरा निपतेयुर्विश्रसापरिणामात् ततो विचटेयुरम्यतो वा- अलग सन्या भामा भामेतिवत् । नदीतटभिसादिरूपायां शुद्धSऽन्य तत्र लगेर्यन्त्रमुक्तमहोपलवत् । (तए णं ति)त- पृथिव्याम् ,प्रज्ञा०१ पद । जी० पृथिवीकायिके सत्वे,सूत्र०१ तस्ते निपतन्ना देशं पृथिव्याश्चलयेयुरिति । पृथियोदशश्चले. शु०७०। सुपाचजिनमातरि,प्रया १२ द्वार। पश्चिमरुचकदिति महोरगी व्यन्तरविशपः॥१॥(महि डिए)परिवारादिना यरपर्वतस्य हिमपरकूटदि कुमारीमहत्तरि कायाम् स्था०टा० Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढची अन्निधानराजेन्द्रः। पुढवीकाश्य मा० ० । जं० । ईशानलोकपालसोममहाराजस्याप्रम- पुद्गलान् गृहीत्वाऽनाभोगनिवर्तितेन वीर्येण तद्भावनयनहिन्याम् , स्था० ४ ठा० १ उ० । स्फटिकाऽऽदिपृश्वी शक्तिरिन्द्रियपर्याप्तिरिति । यया पुनरुच्चासप्रायोग्यान पुसचित्ता अचित्ता वेति प्रश्ने, उत्तरम्-स्फटिकाऽऽदिपृथ्वी द्गलानादायोगसरूपतया परिणमय्याऽऽलम्घ्य च मुश्चसचित्ता, " फलिहमणिरयणविद्दुम " इति वचनात्. ति सा उच्चासपर्याप्तिः, यया तु भाषाप्रायोग्यान् पुगरत्नाम्यचित्तानि भवन्ति, “ सुबक्षरययमणिमुत्तियसंखसि लानादाय भाषात्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुञ्चति सा लप्पवालरयणाणि प्रचित्तानि " इत्यनुयोगद्वारसूत्रप्रान्त भाषापर्याप्तिः, यया पुनर्मनःप्रायोग्यान पुनलानादाय मनवचनादिति । १० प्र० । सेन० ३ उल्ला०। स्त्वेन परिणमय्याऽऽलम्थ्य चमुञ्चति सा मनःपर्याप्तिः, एता. पुढनीकाइय-पृथिवीकायिक- । पृथिव्येव कायो' येषां ते श्व यथाक्रममेकेन्द्रियाणां सशिवर्जानां द्वन्द्रियाऽऽदीनां संक्षिा पृथिवीकायिनः, समासान्तविधेस्त एव स्वार्थिककप्रत्ययात् नां चतुःपञ्चपदसंख्या भवन्ति । उक्तञ्च प्रशापनामूलटीका. पृथिषीकायिकाः । स्था०२ ठा०१ उ० । पृथिवी काठिन्या55 कृता-एकेन्द्रियाणां चतस्रो विकलेन्द्रियाणां पञ्च संशिनां प. दिलक्षणा प्रतीता,सव कायः शरीरं येषां ते पृथिवीकाया,पृ डिति, उत्पत्तिप्रथमसमय एव ता यथातथं सर्वा अपि युथिवीकाया एव पृथिवीकायिकाः स्वार्थे इकप्रत्ययः । पृथिवी. गपनिष्पादयितुमारभ्यन्ते,क्रमेण च निष्ठामुपयान्ति। तद्यथाकायजीवेषु एकेन्द्रियभेदेषु, प्रज्ञा० १ पद । दश०। प्रथममाहारपर्याप्तिस्ततः शरीरपर्याप्तिस्तत इन्द्रियपर्याप्ति रित्यादि । आहारपर्याप्तिश्च प्रथमसमयमेव निष्पत्तिमुपपता अथ के ते पृथिवीकायिकाः ? सूरिराह शेषास्तु प्रत्येकमन्तमुहूर्तेन कालेन। श्रथाऽऽहारपर्याप्तिः प्रथ. से किं तं पुढविकाइया । पुढविकाइया दुविहा परमत्ता । मसमय एव निष्पद्यते इति कथमवसीयते ?, उच्यतेतं जहा-सुहुमपुढविकाइया य, बादरपुढविकाइया य ।११। यत आहारपदे द्वितीयोदेशके सूत्रमिदम्-"आहारपजसी. . पृथिवीकायिका द्विविधाः प्राप्ताः। तद्यथा-सूचमपृथिवीका- ए अपजत्तए णं भंते ! किं आहारए श्रणाहारए ?। गोयमा: यिका बादरपृथिवीकायिकावासूदमनामकर्मोदयात्सूक्ष्माः बा. नो आहारए अणाहारए।" इति । ततश्राहारपर्याप्त्याऽपर्या वरनामकर्मोदयाद्वादराः, कर्मोदयजनिते खल्वेते सूक्ष्मवादर- तो विग्रहगतावेवोपपद्यते, नोपपातक्षेत्रमागतोऽपि, उपपातस्वेनापेक्षके बदरामलकयोरिव,सूक्ष्माश्च ते पृथिवीकायिकाश्च क्षेत्रमागतस्य प्रथमसमय एवाऽऽहारकत्वात् ,तत एकसामा. सूचमपृथिवीकायिकाः, चशब्दः स्वगतपर्याप्ताऽपर्याप्तभे- यिकी आहारपर्याप्तिनिवृत्तिः। यदि पुनरुपपातक्षेत्रमागतोऽपि दसूचका, बादराश्च ते पृथिवीकायिकाश्च बादरपृथिवीका- आहारपर्याप्त्या पर्याप्तः स्यात्तत एवं सति व्याकरणसूत्रमित्थं यिकाः,अवापि चशब्दः स्वगतशर्करावालुकाऽऽदिभेदसंसूब- भवेत्-"सिय आहारए सिय अणाहारए।" यथा शरीराकः,तत्र सूक्ष्मपृथिवीकायिकाःसमुद्रकपर्याप्त प्रक्षिप्तगन्धावय- ऽदिपर्याप्तिषु-"सिय श्राहारए सिय प्रणाहारए।" इति। ववत् सकललोकव्यापिनो, बादराः प्रतिनियतदेशचारिणः, | सर्वासामपि च पर्याप्तीनां परिसमाप्तिकालोऽन्तर्मुहर्सप्रमा'तच प्रतिनियतदेशचारित्वं द्वितीयपदे प्रकटयिष्यते । णः, पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां ते पर्याप्ताः "अभ्राऽऽदिभ्यः " तत्र सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां स्वरूपं ॥७।२।४६॥ इति मत्वर्थीयोप्रत्ययः। पर्याप्तकाश्च ते सूक्ष्मजिशासुरिदमाह पृथिवीकायिकाश्च पर्याप्तकसूक्ष्मपृथिवीकायिकाः।चशब्दोलसे किं तं सुहुमपुढविकाइया? ।सुहुमपुढविकाइया दुविहा ब्धिपर्याप्तकरणपर्याप्तरूपस्थगतभेदयसूचको, ये पुनः स्थ योग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकलास्तेऽपर्याप्ता अपर्याप्ताच ते परमत्ता। तं जहा-पजत्तसुहुमपुढविकाइया य, अपजत्तसु सूक्ष्मपृथिवीकायिकाच अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकाः चशहुमपुदविकाइया य । सेतं सुहमपुढविकाइया ।। १२ ।। ब्दः करणलब्धिनिबन्धनस्वगतभेदद्वयसूचकः । तथाहि-शि अथ के ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः । सूरिराह सूक्ष्मपृथिवी विधाः सूक्ष्मपृथिवीकायिका अपर्याप्ताः, तयथा-लब्ध्या,ककायिका द्विविधाः प्रसप्ताः। तद्यथा-पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीका रणश्च । तत्र ये अपर्याप्तका एष सन्तो नियन्ते ते लयिकाच, अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकाश्च । तत्र पर्याप्तिर्नाम ध्य ऽपर्याप्तकाः,ये पुनः करणानि शरीरेन्द्रियाऽऽदीनि न ता आहाराऽऽदिपुद्गलग्रहणपरिणमनहतुरात्मनः शक्तिविशेषः, स पनिवर्तयन्ति, अथ चावश्यं निवर्तयिष्यन्ति ते करणाच पुद्गलोपचयादुपजायते।किमुक्तं भवति? उत्पत्तिदेशमागते. पर्याप्ताः । उपसंहारमाह-(से तमित्यादि)त पते सूक्ष्मपृथिन प्रथमसमये ये गृहीताः पुगलास्तेषां तथाऽन्येषामपि प्रति- वीकायिकाः। समयं गृह्यमाणानां तत्सम्पर्कतस्तदूपतया जातानां यः शक्ति तदेवं सूक्ष्मपृथिवीकायिकानभिधाय सम्प्रति बादरपृथिविशेषः आहारादिपुनलखलरसरूपताऽऽपादनहेतुर्यथोदरा बीकायिकानभिधित्सुस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाहन्तर्गतानां पुदलविशेषाणामाहारपुरलखलरसरूपतापरिणमनहेतुः, सा च पर्याप्तिः बोढा-माहारपर्याप्तिः,शरीरपर्याप्ति से किं तं बादरपुढविकाइया । । बादरपुढविकाइया रिन्द्रियपर्याप्तिः,प्राणापानपर्याप्ति षापर्याप्तिर्मनः पर्याप्तिश्च । दुविहा परमत्ता । तं जहा-सएहवादरपुढविकाइया य, तत्र यया बाह्यमाहारमावाय खलरसरूपतया परिणमयति खरवादरपुढषिकाइया य ॥ १३ ॥ सा माहारपर्याप्तिः, यया रसीभूतमाहार रसासृग्मांसदो- अथ के ते बादरपृथिवीकायिकाः । सूरिराह-वावरपू. ऽस्थिमजायकलक्षणसप्तधातुरूपतया परिणमयति साश- थिवीकायिका द्विविधाः प्राप्ताः। तद्यथा-लपणवादरथिरीरपर्याप्तिः, यया धातुरूपतया परिणमितमाहारामिन्द्रियरू- बीकायिकाश्च, खरबावरपृथिवीकायिकाश्च । तत्र श्लपणा ना. पतया परिणमयति सान्द्रयपर्याप्तिः, तथा चायमोंs. मर्णितलीएकल्पा मृदपृथिवी तवात्मका जावा मप्युप न्यत्रापि भवन्तरेलीलः । पञ्चानामिन्द्रियाणां प्रायोग्यान चारता आपणास्ते च ते बादरपूधियीकापिका सषण. २४४ Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७४) पढवीकाइय अभिधानराजेन्डः। पुढवीकाइय बादरपृथिवीकायिकाः। अथवा लक्षणा च सा बादरपृथिवी च अथ के ते खरबादरपृथिवीकायिकाः । सरिराह-खसा कायः शरीरं येषां ते लक्षणबादरपृथिवीकायास्त एव रबादरपृथिवीकायिका अनेकविधाः प्राप्ताः, चत्वारिंशस्वार्थिके कप्रत्ययविधानात् श्लदणबादरपृथिवीकायिकाः,चश- नेवा मुख्यतः प्राप्ता इत्यर्थः । तानेव चत्वारिंशद्भेदानाब्दो वक्ष्यमाणखगतानेकभेदसूचका,खरा नाम पृथिवी सात ह-" तं जहा-पुढवी य” इत्यादि गाथाचतुएयम् , पृ. विशेष काठिन्यविशेषं चाऽऽपन्ना तदात्मका जीवा अपि स्व- थिवीति भामा सत्यभामावत् शृद्धपृथिवी च नदीतटभि. रास्ते च ते बादरपृथिवीकायिकाश्च खरबादरपृथिवीका- ग्यादिरूपा. चशब्द उत्तरभेदापेक्षया समुचये १ शर्करा-खयिकाः अथवा-पूर्ववत् प्रकारान्तरेण समासः, चशब्दः स्व. घूपलशकलरूपाः २ बालुका सिकताः ३ उपल:-टरऽऽद्युगतवक्ष्यमाणचत्वारिंशद्दसूचकः । पकरणपरिकर्मणायोग्यः पाषाणः ४ शिला-घटनयोग्या देवकुलपीठाऽऽधुपयोगी महान् पाषाणविशेषः ५ लवणं सासे किं तं सण्हबादरपुढविकाइया ?। सहबादरपुढविका मुद्राऽदि ६ ऊषो-यदशादूषरं क्षेत्रम् ७ अयस्ताम्रपुसी। इया सत्तविहा परमत्ता। तं जहा-किएहमत्तिया,नीलमत्तिया, सकरूप्यसुवर्णानि प्रतीतानि १३ वजो हीरकः १४ हरिलोहियमत्तिया, हालिद्दमत्तिया, सुकिल्लमत्तिया,पंडुमत्तिया, तालहिङ्गलकमनःशिलाः प्रतीताः १७ सीसकं पारदः १८ अञ्जनं सौवीराजनाऽऽदि १६ प्रवालं-विद्रुमम् २० अभ्रपपणगमत्तिया । से तं सराहबादरपुढविकाइया ॥ १४ ॥ टलं प्रसिद्धम् २१ अभ्रवालुका-अभ्रपटलमिश्रा वालुका २२ अथ के ते श्लदणबादरपृथिवीकायिकाः । सूरिराह-श्ल ( वायरकाये इति) बादरपृथिवीकायेऽमी भेदा इति दणबादरपृथिवीकायिकाः सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः। तदेव सप्तवि शेषः, ( मणिविहाणा इति) चशब्दस्य गम्यमानत्वाधत्वं तद्यथेत्यादिनोपदर्शयति-कृष्णमृत्तिका कृष्णमृत्तिका. न्माणिविधानानि च-मणिभेदाच बादरपृथिवीकायभेदत्वेरूपा, एवं नीलमृत्तिका, लोहितमृत्तिका, हारिद्रमृत्तिकाः, न ज्ञातव्याः । तान्येव मणिविधानानि दर्शयति-(गोमिशुक्लमृत्तिका, इत्थं वर्णभेदेन पञ्चविधत्वमुक्तम्, पाण्डु जए इत्यादि ) गोमेजकः २३ चः समुपये, रुचकः मृत्तिका नाम देशविशेषे या धूलिरूपा सती पाराष्ट्र इति २४ अङ्क: २५ स्फटिकः २६ चः पूर्ववत् . लोहिताक्षः २७ प्रसिद्धा तदात्मका जीवा अप्यभेदोपचारात् पाण्दुमृत्ति मरकतः २८ मसारगल्लः २१ भुजमोचकः ३० इन्द्रनीलकेत्युक्ला । (पणगमट्टिय ति)नद्यादिपूरप्लाविते देश नद्यादि श्च ३१ चन्दनो ३२ गैरिको ३३ हंसगर्भः ३४ पुलकः ३५ पूरे ऽपगते यो भूमौ श्लक्ष्णमृदुरूपी जलमलापरपर्यायः प सौगन्धिकश्च ३६ चन्द्रप्रभो ३७ वैड्यो ३८ जलकान्तः कः सा पनकमृत्तिका तदात्मका जावा अप्यभेदोपचारात् ३६ सूर्यकान्तश्च ४० । तदेवमाद्यगाथया पृथिव्यादयश्चत. पनकमृत्तिका । निगमनमाह-( सेत्तं सरहबायरपुढविका दशभेदा उक्नाः, द्वितीयगाथयाऽपी हरितालाऽऽदयः, तृइया ) सुगमम् । तीयगाथया गोमेज काऽऽदयो नव, तुर्यया गाथया नवेति स. से किं तं खरवादरपुढविकाइया । खरवादर ङ्ख्यया चत्वारिंशत् ४०। (जे यावन्ने तहप्पगारा इति) येऽपि चान्ये तथाप्रकारा मणिभेदाः पदरागाऽऽदयस्तेऽपि काइया अणेगविहा परमत्ता । तं जहा खरबादरपृथिवीकायत्वेन वेदितव्याः।(ते समासो इत्यादि) "पुढवी य सकरा वा-लुया य उवले सिला य लोणू से । ते सामान्यतो बादरपृथिवीकायिकाः समासतः सङ्क्षेपेण अय तंव तउय सीसे, रुप्पसुवप्मे य वरे य॥१॥ द्विविधाः प्राप्ताः। तद्यथा-पर्याप्तकाश्च अपर्याप्तकाश्च । तत्र येहरियाले हिंगुलुर, मणोसिला सीसगंजणपवाले। उपर्याप्तकास्ते स्वयोग्याः पर्याप्तीः साकल्येनासम्प्राप्ता इति । अथवा असम्प्राप्ता इति विशिष्टान् वर्णाऽऽदीन अनुपगता. अभपडलब्भवालुय, बादरकाए मणिविहाणा ॥२॥ स्तथाहि-वर्णाऽऽदिभेदविवक्षायामेते न शक्यन्ते कृष्णादिगोमेज्जए य रुयए, अंके फलिहे य लोहियक्खे य । वर्णभेदेन व्यपदेष्टुम्। किं कारणमिति चेत् ?,उच्यते-इह शरीमरगयमसारगल्ले, भुयमोयग इंदनीले य॥३॥ राऽदिपर्याप्तिषु परिपूर्णासु सतीषु वादराणां वर्णादिविभा. चंदण गेरुय हंस, पुलए सोगंधिए य बोधवे। गः प्रकटो भवति नापरिपूर्णासु, ते चापर्याप्ता उच्चासपर्याचंदप्पभ वेरुलिए, जलकंते सूरकंते य ॥४॥" प्स्याऽपर्याप्ता एव नियन्ते ततोन स्पष्टतरवर्णाऽऽदिविभाग इ त्यसम्प्राप्ता इत्युक्तम् । ननु कस्मादुच्छासपर्याप्त्यैवाऽपर्याप्ता जे यावणे य तहप्पगारा ते समासो दुविहा पन्नता। नियन्ते नोर्वाक् शरीरेन्द्रियपर्याप्तिभ्यामपर्याप्ता अपि?। उच्यतं जहा-पज्जत्तगा य, अपज्जत्तगा य । तत्थ णं जे ते ते-तस्मादागामिभवाऽऽयुर्वद्धा नियन्ते सर्व एव देहिनो नाबअपज्जत्तगा ते णं असंपत्ता, तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ध्वा,तच शरीरेन्द्रियपर्याप्तिभ्यां पर्याप्तानां बन्धमायान्ति ना न्यथा इति । अन्ये तु व्याचक्षते-सामान्यतो वर्णाऽऽदीनसएतेसिं वहादेसणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं म्प्राप्ता इति,तश्च न युक्तं,यतः शरीरमावभाषिनो वर्णाऽऽदया, सहस्सग्गसो विहाणाई, संखज्जाई जोणिप्पमुहसतस- शरीरं च शरीरपर्याप्त्या सात इति(तत्थ णं जे ते पजत्तगा हस्साई, पज्जत्तगणिस्साए अपग्जत्तगाऽवक्कमंति, जत्थ इत्यादि) तत्र ये ते पर्याप्तकाः परिसमाप्तस्वयोग्यसमस्तएगो तत्थ नियमा असंखेज्जा । सेतं खरवायरपुढवि पर्याप्तय एतेषां वर्णादेशेन वर्णभेदविवक्षया, एवं गन्धादेशेन रसादेशेन स्पर्शादेशेन सहनाप्रशः सहनसङ्ख्यया विधानाकाइया, सेत्तं बायरपुढविकाइया, सेत्तं पुढविकाइया । नि भेदाः। तद्यथा-वर्गा, कृष्णाऽऽविभेदात्पश्च,गन्धौ सुरमीत. ( सूत्र १५)॥ रभेदाडौ,रसास्तिकाऽऽदय पश्च.स्पर्शा मृदुकर्कशाऽवयोगटी, Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७५) पुढवीकाइय प्रनिधानराजेन्द्रः। पुढवीकाइय एकैकस्मिंश्च वर्णाऽदौतारतम्यभेदेनानेकेन्वान्तरभेदाः। तथा साम्प्रतं प्ररूपणाद्वारम्हि-भ्रमरकोकिलकजलाऽऽदिष तरतमभावादित्यादिरूपत दुविहा य पुढविजीवा, सुहुमा तह बायरा य लोयम्मि । याम्नेके कृष्णभेदाः,एवं नीलादिध्वप्यायोज्यम्।तथा गन्धर सुहमा य सव्वलोए,दो चेव य बायरविहाणा ।। ७१ ।। सस्पर्शष्वपि तथा परस्परं वर्णानां संयोगतो घूसरकवूरत्वाऽऽ. दयो'ने के सख्याभेदाः,एवं गन्धाऽऽदीनामपि परस्परं गन्धा पृथिवीजीवा द्विविधाः-सूदमा बादराश्च । सूक्ष्मनामकर्मोदऽदिभिः समायोगादतो भवन्ति. वर्णाऽऽद्यादेशः सहस्राग्रशो यात् सूक्ष्माः, बादरनामकमोदयात् बादराः,कर्मोदयजनिते ए. भेदाः। (संखेजाई जोणिप्पमुहसयसहस्साई इति ) संख्येयानि वैषां सूक्ष्मबादरत्वे न त्वांपक्षिके बदरामलकयोरिव । तन योनिप्रमुखाणि योनिद्वाराणि शतसहस्राणि । तथाहि एकैक- सूदमाः समुद्कपर्याप्तप्रक्षिप्तगन्धावयववत्सर्वलोकव्यापिनः । स्मिन् वर्णे गन्धे रसे स्पर्श च संवृता योनिः पृथिवीका- बादरास्तु मूलभेदाद् द्विविधा इत्याहयिकानां, सा पुनस्त्रिधा-सचित्ता, चित्ता, मिश्रा च । पुनरे. दुविहा बायरपुढवी, समासो सएहपुढवि खरपुढवी । कैका त्रिधा-शीता, उष्णा, शीतोष्णा । शीताऽऽदीनामपि प्र सरहा य पंचवमा, अवरा छत्तीसइविहाणा ॥ ७२ ॥ त्येकं तारतम्यभेदादनेकभेदत्वं केवलमेव विशिवर्णाऽऽदियु. काः संख्याऽतीता अपि स्वस्थाने व्यक्तिमेदेन योनयो जातिमा ' समासतः 'संक्षपात् द्विविधा बादरपृथिवी-श्लक्ष्णबादधिकृत्यैकैव योनिर्गण्यते , ततः संख्येयानि सप्तपृथिवी. रपृथिवी खरमादरपृथिवी च , तत्र श्लक्ष्णबादरपृथिवी ककायिकानां योनिशतसहस्राणि भवन्ति, तानि च सूचमया. णनीललोहितपीतशुक्लभेदात्पञ्चधा, इह च गुणभेदात् गुदरगतसर्वसंख्यया सप्त । ( पज्जत्तगनिस्साए इत्यादि ) णभेदोऽभ्युपगन्तव्यः, खरबादरपृथिव्यास्त्वन्येऽपि पत्रिपर्याप्तनिश्रया अपर्याप्तका व्युत्क्रान्ति उत्पद्यन्ते , कियन्त शद्विशेषभेदाः सम्भवन्तीति । इल्याह-यत्रैकः पर्याप्तस्तत्र नियमातन्निश्रया असंख्येयाः तानाहसंख्यातीता अपर्याप्तकाः । उपसंहारमाह-( सेत्तमित्या- पुढवी य सक्करा वा-लुगा य उवले सिला य लोणसे । त्यादि ) निगमनत्रयं सुगमम् । प्रशा०१ पद । ('पिंड' अय तंव तउय सीसग, रुप्प सुबन्ने य वेरे य ॥७३।। शब्देऽस्मिन्नेव भागे ६२० पृष्ठे सचित्ताऽचित्तमिश्रपृथिवीपि. एडा उक्लाः )। हरियाले हिंगुलए, मोसिला सीसगंजण पवाले । पृथिवीकायोद्देशः अब्भपडलऽभवालुय, वायरकाए मणिविहाणा ||७४॥ पुढवीए निक्खेवो, परूवणा लक्खणं परीमाणं । गोमेजए य रुयए, अंके फलिहे य लोहियक्ख य । उवभोगो सत्थं वे-यणा य वहणा निवित्तीय ॥ ६८॥ मरगय मसारगल्ले, भुयमायग इंदनीले य ॥ ७५ ॥ प्राग् जीवोद्देशके जीवस्य प्ररूपणा किं न कृतेत्येतच ना. चंदप्पभ वेरुलिए, जलकंते चेव सूरकते य । शनीयं, यतो जीवसामान्यस्य विशेषाऽऽधारत्वाद्विशेषस्य एए खरपुढवीए, नामं छत्तीसयं होति ॥ ७६ ॥ च पृथिव्यादिरूपत्वात्सामान्यजीवस्य चोपभोगाऽऽदेरसंभचात् पृथिव्यादिचचयैव तस्य चिन्तितत्वादिति। तत्र पृथिव्या अत्र च प्रथमगाथया पृथिव्यादयश्चतुर्दश भेदाः परिगृही. नामाऽऽदिनिक्षेपो वक्तव्यः, प्ररूपणा-सूक्ष्मवादराऽऽदिभेदा, ताः द्वितीयगाथया त्वष्टा हरितालाऽऽदयः, तृतीयगाथया लक्षणं साकारानाकारोपयोगकाययोगाऽऽदिकं, परिमाणम् दश गोमेधकाऽऽदयः, तुर्यगाथया चत्वारः चन्द्रकान्ताssसंवर्तितलोकप्रतरासंख्येयभागमात्रादिकम् उपभोगः शय दयः। अत्र व पूर्वगाथाद्रयेन सामान्यपृथिवीभेदाः प्रदर्शिताः, नाऽसनचक्रमणाऽदिकः,शस्त्रं स्नेहाम्लक्षाराऽऽदि,वेदना उत्तरगाथाद्वयेन मणिभेदाः प्रदर्शिताः, एता स्पष्ट इति स्वशरीराव्यक्तचेतनानुरूपा सुख दुःखानुभवस्वभावा,वधा-कृ. कृत्वा न विवृताः। तकारितानुमतिभिरुपमईनाऽऽदिका, निवृत्तिः-अप्रमत्तस्य एवं सूक्ष्मबादरभेदान् प्रतिपाद्य पुनर्वाऽऽविभेदेन पृथिमनोवाक्कायगुप्त्याऽनुपमाऽऽदिकेति समासार्थः। वीभेदान् दर्शयितुमाहव्यासार्थ तु नियुक्तिकृयथाक्रममाह वरुणरसगंधफासे, जोणिप्पमुहा हवंति संखज्जा। नाम ठवणा पुढवी, दव्यपुढवी य भावपुढवी य । णेगाइ सहस्साई, होति विहाणम्मि एकिके ॥ ७७ ।। एसो खलु पुढवीए, निक्खेवो चउबिहो होइ ।। ६६॥ तत्र वर्माः शुक्लाऽऽदयः पञ्च, रसास्तिक्ताऽऽदयः पञ्च, गम्धी __ स्पष्टा । नामस्थापने चरणत्वादनाहत्याऽऽह सुरभिदुरभी,स्पर्शाःमृदुकर्कशाऽऽदयः श्री,तत्र वर्माऽऽदिके दव्वं सरीरभविप्रो, भावेण य होइ पुरविजीवो उ । एकैकस्मिायोनिप्रमुखा योनिप्रभृतयः संख्येया भेदा भवन्ति, संख्येयस्यानेकरूपत्वाद्विशिष्टसंख्यार्थमाह-अनेकानि सहस्रा. जो पुढविनामगोयं, कम्मं वेएइ सो जीवो ॥ ७॥ रयेकैकस्मिन्बर्माऽऽदिके विधाने भेदे भवन्ति,योनितो गुणततत्र द्रव्यपृथिवी भागमतो, नोमागमतश्च, आगमतो शा. श्च भेदानामिति । एतच सप्तयोनिलक्षणप्रमाणत्वात् पृथिव्या ता तब चानुपयुक्ता, नो पागमतस्तु-पृथिवीपदार्थज्ञस्य श- एवं भावनीयमिति । उक्नं च प्रज्ञापनायाम्-"तत्थ "" (१५) रीरं जीवापेतं तथा पृथिवीपदार्थक्षत्वेन भव्यो-यालाऽऽदिः, इत्यादि । (तथाऽस्मिन्नेव भागे-पृष्ठे दर्शितम्)हब संघृ ताभ्यां विनिर्मुको द्रव्यपृथिवीजीव:-एकभाविको बद्धाऽऽयु- तयोनयः पृथिवीकायिका उक्लाः, सा पुनः सचित्ता प्रचित्ता कोऽभिमुखनामगोत्रश्च , भाषपृथिवीजीवः पुनर्यः प्रथिवी- मिश्रावा. तथा पनच शीता उण्या शीतोष्णा स्येवमादिका नामाऽदिकमोदीर्ण बेदयति । गतं निक्षेपद्वारम् । द्रष्टव्यति। Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) पुढवीकाइय माभिधानराजेन्सः । पुढवीकाइय एतदेव भूयो नियुक्तिकृत् स्पष्टतरमाह दीसंति सरीराई,पुढविजियाणं असंखाणं ।।२।। वमम्मि य एकेके, गंधम्मि रसम्मि तह य फासम्मि। स्पष्टा । कथं पुनरिदमवगन्तव्यं,सन्ति पृथिवीकायिका इति, नाणत्ती कायव्वा, विहाणा होइ एक्किकं ।। ७८ ।। उच्यते, तदधिष्ठितशरीरोपलब्धेरधिष्ठातरि प्रतीतिर्गवावावर्णाऽऽदिके एकैकस्मिन्विधाने भेदे सहस्राग्रशो नानात्वं वि- दाविव इत्येतदर्शयितुमाहधेयम्,तथाहि -कृष्णो वर्ण इति सामान्यं,तस्य च भ्रमराङ्गारकोकिलगवलकजलाऽऽदिषु प्रकर्षाप्रकर्षविशेषाद्भेदः कृष्णः एएहि सरीरोहिं, पच्चक्खं ते परूविया होति । कृष्णतरः कृष्णतम इत्यादि,एवं नीलादिष्वप्यायोज्यं तथा सेसा आणागेज्मा, चक्खूफासं न जं इंति ॥ ८३॥ रसगन्धस्पर्शेषु सर्वत्र पृथिवीभेदा वाच्याः। तथा-वर्माऽऽदी एभिरसंख्येयतयोपलभ्यमानः पृथिवीशर्कराऽऽदिभेदाभिन्नैः नां परस्परसंयोगाद्धूसर केसरकर्बुराऽऽदिवर्णान्तरोत्पत्तिरे- | शरीरैस्ते च शरीरिणः शरीरद्वारेण प्रत्यक्ष साक्षात्प्ररूपिताः वमुत्प्रेक्ष्य वर्माऽऽदीनां प्रत्येकं प्रकर्षाप्रकर्षतया परस्परानुवे ख्यापिता भवन्ति , शेषास्तु सूक्ष्मा श्राशाग्राह्या एव धेन च बहवो भेदा वाच्याः । द्रष्टव्याः, यतस्ते चतुःस्पर्श नागच्छन्ति, स्पर्शशब्दो वि. पुनरपि पर्याप्तकाऽऽदिभेदानेदमाह षयाऽर्थः। जे बायरे विहाणा, पज्जत्ता तत्तिया अपज्जत्ता। प्ररूपणाद्वारानन्तरं लक्षणद्वारमाहसुहमा वि होति दुविहा, पज्जत्ता चेव अपजत्ता ॥७॥ यानि बादरपृथिवीकाये विधानानि भेदाः प्रतिपादितास्ता. उवयोगजोग अज्झव-साणे मतिसुय अचक्खुदंसे य । नि यावन्ति पर्याप्तकानां तावन्त्येवापर्याप्तकानामपि, अत्र भे- अट्ठविहोदयलेसा, सन्नुस्सासे कसाया य ॥८४ ॥ दानां तुल्यत्वं द्रष्टव्यं न तु जीवानां, यत एकपर्याप्तकाऽऽथये- तत्र पृथिवीकायाऽऽदीनां स्त्यानाधुदयाद्यावती चोपयोणासंख्येया अपर्याप्तका भवन्ति, सूक्ष्मा अपि पर्याप्तकापर्या गशक्तिरव्यक्ता ज्ञानदर्शनरूपेत्येवमात्मक उपयोगी लक्षणं, तकभेदेन द्विविधा एव, किं तु पर्याप्तकनिश्रया पर्याप्तकाः तथा योगः-कायाऽऽख्य एक पब, औदारिकतन्मिश्रकार्मसमुत्पद्यन्ते,यत्र चैकोऽपर्याप्तकस्तत्र नियमादसंख्येयाः पर्या णाऽऽत्मको वृद्धयष्टिकल्पो जन्तोः सकर्मकस्याऽऽलम्बनाय प्तकाः स्युः। पर्याप्तिस्तु-"आहारसरीरिंदिय-ऊसासवश्रोम व्याप्रियते; तथाऽध्यवसायाः-सूक्ष्मा श्रात्मनः परिणामविणोऽहिनिव्वत्ती । होति जतो दलियारो, करणं पद-सा उप शेषाः, ते च लक्षणम् , अव्यक्तचैतन्यपुरुषमनःसमुद्भूतचिजत्ती ॥१॥" जन्तुः समुत्पद्यमानः पुद्गलोपादानेन करणं नि न्ताविशेषा इवानभिलक्ष्यास्तेऽभिगन्तव्याः, तथा साकारोपर्तयति तेन च करणविशेषेणाऽऽहारमवगृह्य पृथग् खलरसा. पयोगान्तःपातिमतिभुताज्ञानसमन्विताः पृथिवीकायिका उऽदिभावन परिणति नयति स ताहकरणविशेष आहारपर्या- बोद्धव्याः, तथा स्पर्शनेन्द्रियेणाचक्षुर्दर्शनानुगता बोद्धव्याः, प्तिशब्देनोच्यते, एवं शेषपर्याप्तयोऽपि वाच्याः, तत्रैकेन्द्रिया तथा ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽद्यष्टविधकर्मोदयभाजस्तावद्वन्धभाणामाहारशरीरेन्द्रियोच्छासाभिधानाश्चतस्रो भवन्ति,पताश्चा जश्व, तथा लेश्या-अध्यवसायविशेषरूपाः कृष्णनीलकान्तर्मुहूर्तेन जन्तुरादत्ते, अनाप्तपर्याप्तिरपर्याप्तकोऽवाप्तपर्याप्ति पोततेजस्यश्चतस्रस्ताभिरनुगताः, तथा दशविधसंशानुगस्तु पर्याप्तक इति,अत्रच पृथिव्येव कायो येषामिति विग्रहः। ताः,ताश्च आहाराऽऽदिकाःप्रागुक्ता एव.तथा सूक्ष्मोरछासयथा सूक्ष्मबादराऽऽदयो भेदाः सिद्धयन्ति तथा प्रसिद्ध निःश्वासानुगताः । उक्नं च-" पुढविकाइया णं भंते ! जीया भेदेनोदाहरणेन दर्शयितुमाह प्राणवन्ति वा, पाणवन्ति वा, ऊससन्ति वा, णीससंति वा। रुक्खाणं गुच्छाणं, गुम्माण लयाण वल्लिबलयाणं । गोयमा ! अविरहियं संतयं चेव आणवन्ति वा, पाणव जह दीसइ नाणतं, पुढविक्काए तहा जाण ॥८॥ न्ति वा,ऊससंति वा, नीससंति वा।" कषाया श्राप सूक्ष्माः • यथा वनस्पतेर्वृक्षाऽऽदिभेदेन स्पष्ट नानात्वमुपलभ्यते, तथा | क्रोधाऽऽदयः। एवमेतानि जीवलक्षणाऽऽद्युपयोगाऽऽदीनि कपृथिवीकायिकेअप जानीहि,तथा वृक्षाः-चूताऽऽदयो गुच्छा पायपर्यवसानानि पृथिवीकायिकेषु संभवन्तीति, ततश्चैवंवृन्ताकीसल्लकीकर्पास्यादयः,गुल्मानि-नवमालिकाकोरएट. विधजीवलक्षणकलापसमनुगतत्वात् मनुष्यवत् सचित्ता काऽऽदीनि, लताः--पुन्नागाशोकलताऽऽद्याः, वल्यस्त्रपुषीवा पृथिवीति । ननु च तदिदमसिद्धमसिद्धेन साध्यते, तथा. लुकीकोशातक्याद्याः, वलयानि-केतकीकदल्यादीनि । हि-न हधुपयोगाऽऽदीनि लक्षणानि पृथिवीकायेषु व्यक्तानि पुनरपि वनस्पतिभेददृष्टान्तेन पृथिव्या भेदमाह-- समुपलक्ष्यन्ते,सत्यमेतद् ,अव्यक्तानि तु विद्यन्ते, यथा कस्यश्रोसहि तण सेवाले, पणगविहाणे य कंद मूले य । चित्पुंसः हत्पूरकव्यतिमिश्रमदिरातिपानपित्तोदयाकुलीजह दीसइ नाणतं, पुढवीकाए तहा जाण ॥ १ ॥ कृतान्तःकरणविशेषस्याव्यक्ता चेतना,न चैतावता तस्याचि दूपता,एवमत्राप्यव्यनचेतनासंभवोऽभ्युपगन्तव्यःननु चात्रो यथा हि बनस्पतिकायस्य ओषध्यादिको भेद एवं पृथिव्या छासादिकमध्यनचेतनालिङ्गमस्ति,न चेह तथाविधं किञ्चिअपि द्रष्टव्यः । तत्र ओषध्यः शाल्याऽद्याः, तृणानि दर्भा55. श्चतनालिङ्गमस्ति नैतदेवम्,इहापिसमानजातीयलतोद्दाऽदीनि, सेवालं जलोपरि मलरूपं, पनकः काष्ठाऽऽदावल्लीविशे- दिकमर्शोमांसाङ्कुरवञ्चेतनाचिह्नमस्त्येव,अव्यक्तचेतनानां हि पः पञ्चवर्षः, कन्दः सूरणकन्दादिः, मूल-मुशीराऽऽदीति। सम्भावितैकचेतनालिङ्गानां वनस्पतीनामिव चेतनाऽभ्युपगएते च सूक्ष्मत्वाकयादिकाः समुपलभ्यम्ते, यत्सण्या- न्तव्येति, वनस्पतेश्च चैतन्यं विशिष्टतुपुप्पफलप्रदत्वेन स्पष्ट स्तुपलभ्यन्ते तदर्शयितुमाह साधयिष्यते च, ततो व्यक्लोपयोगाऽऽदिलक्षणसद्भावात्सचिएकस्स दोएह तिएह व,संखज्जाण व न पासि सका।। त्ता पृथिवीति स्थितम् । Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाइय अभिधानराजेन्द्रः। पुढवाकाइय मनु चाश्मलताऽऽदेः कठिनपुगलाऽऽस्मिकायाः कथशेत- नान् पृथिवीकायिकजीवान् यदि मिनोति ततोऽसंख्येयान नस्वामित्यत माह लोकान् पृथिवीकायिकाः पूरयन्ति । अट्ठी जहा सरीर-म्मि अणुगयं चेयणं खरं दि8 ।। पुनरपि प्रकारान्तरेण परिमाणमाहएवं जीवाणुगयं, पुढविसरीरं खरं होई ।। १५॥ लोगाऽऽगासपएसे, एकेकं निक्खिये पुढविजीवं । यथाऽस्थि शरीरानुगतं सचेतनं खरं रमेवं जीवानुगतं | एवं मविज्जमाणा, हवंति लोगा असंखिज्जा ||८८॥ पृथिवीशरीरमपीति । प्राचा०१४०१०२ उ० । स्पष्ट। विप्रतिपत्तिनिरासाथै पुनराह साम्प्रतं कालतः प्रमाणं निर्दिदिक्षुः क्षेत्रकालयोः सूक्ष्मवा दरत्वमाहपुढवी चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढो सत्ता । - निउणो य हवइ कालो, तत्तो निउरणयरं हवइ खेत्तं । मत्थ सत्यपरिणएणं । (१सूत्र)। अंगुलसढीमित्ते,ओसप्पिणिो असंखिज्जा ।। ८६ ॥ 'पुढवी चित्तमंतमक्खाया' 'पुढवी' पृथिवी उक्तलक्षणा, निपुणः सूचमः कालः समयाऽऽत्मकः ततोऽपि सूचमतरं क्षत्रं चित्तवतीति चित्तं-जीवलक्षणं तदस्या अस्तीति चि भवति, यतोऽङ्गुलीश्रेणिमात्रक्षेत्रप्रदेशानां समयापहारेणाचवती, सजीवेत्यर्थः । पाठान्तरं वा- पुढची चित्तमत्तम संख्येया उत्सपियवसर्पिरयोऽपकामन्तीत्यतः कालात् क्षेत्र क्खाया।' अत्र मात्रशब्दः स्तोकवाची, यथा सर्षपत्रिभा सूक्ष्मतरम्। गमात्रमिति, ततश्च चित्तमात्रा-स्तोकचित्तेत्यर्थः । तथा प्रस्तुतं कालतः परिमाणं दर्शयितुमाहच प्रबलमोहोदयात्सर्वजघन्य चैतन्यमेकेन्द्रियाणां, तदभ्यधिकं द्वीन्द्रियाऽऽदीनामिति, 'पाख्याता' सर्वशेन कथि अणुसमयं च पवेसो, निक्खमण चेव पुढविजीवाणं । ता, इयं च अनेकजीवा' अनेके जीवा यस्यां सा- काए कायटिइया, चउरो लोगा असंखेजा ।। ६० ।। उनेकजीवा, न पुनरेकजीवा, यथा वैदिकानां पृथिवी दे. तत्र जीवाः पृथिवीकायेऽनुसमयं प्रविशन्ति निष्कामन्ति चतेत्येवमादिप्रवचनप्रामाण्यादिति । अनेकजीवाऽपि कै- च, एकस्मिन् समये कियतां निष्क्रमः प्रवेशश्च १-२, तथा श्चिदेकभूताऽऽत्मापेक्षयेष्यत एव । यथाहुरेके-" एक एव हि विवक्षिते च समये कियन्तः पृथिवीकायपरिणताः सम्भवभूताऽऽत्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव,दृश्य न्ति ३, तथा-कियती च कायस्थितिरित्येते चत्वारो विकते जलचन्द्रवत् ॥१॥" अत आह-'पृथक्सवा' पृथग्भू- ल्पाः काल तोऽभिधीयन्ते, तत्रासंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशपताः सवा-आत्मानो यस्यां सा पृथक्सचा, अगुलासंख्ये- रिमाणाः समयेनोत्पद्यन्ते विनश्यन्ति च, पृथिवीत्वेन परिणयभागमात्रावगाहनया पारमार्थिक्याऽनेकजीवसमाश्रितेति ता अप्यसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणाः, तथा-कायस्थिभावः । आह-यद्यवं जीवपिण्डरूपा पृथिवी ततस्तस्यामुश्चा- तिरपि मृत्वा मृत्वाऽसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशपरिमाणं का. राऽऽदिकरणे नियमतस्तदतिपातादहिंसकत्वानुपपत्तिरित्य- लं तत्र तत्रोत्पद्यन्त इति । . संभवी साधुधर्म इत्याह-'अन्यत्र शस्त्रपरिणतायाः'शत्रप एवं क्षेत्रकालाभ्यां परिमाणं प्रतिपाद्य परस्परावगाहरिणतां पृथिवीं विहाय-परित्यज्यान्या चित्तवत्याख्यातेत्यर्थः। प्रतिपिपादयिषयाऽऽहदश०४०। बायरपुढवीकाइय-पज्जत्तो अप्ममममोगाढो। साम्प्रतं लक्षणद्वारानन्तरं परिमाणद्वारमाह सेसा ओगाहंती, सुहुमा पुण सबलोयम्मि ।। ६१ ॥ जे बायरपअत्ता, पयरस्स असंखभागमेत्ता ते । बादरपृथिवीकायिकः पर्याप्तो यस्मिन्नाकाशखण्डे अवगाढसेसा तिन्नि वि रासी, वीसुं लोया असंखेज्जा॥८६॥ स्तस्मिन्नेवाकाशखण्डेऽपरस्यापि बादरपृथिवीकायिकस्य शरीरमवगाढमिति, शेषास्तु अपर्याप्तकाः पर्याप्तकनिधया तत्र पृथिवीकायिकाश्चतु , तद्यथा-बादराः पर्याप्ताः, अ समुत्पद्यमाना अनन्तरप्रक्रियया पर्याप्तकावगाढाउकाशप्रपर्याप्ताश्च । तथा सूक्ष्मा: अपर्याप्ताः, पर्याप्ताश्च । तत्र ये बादराः पर्याप्तकास्ते संवर्तितलोकप्रतरासंख्येयभागमात्रव देशावगाढाः, सूक्ष्माः पुनः सर्वस्मिन्त्रीप लोकेऽवगाढा इति । उपभोगद्वारम्तिप्रदेशराशिप्रमाणा भवन्ति, शेपास्तु प्रयोऽपि राशयः प्रत्येकमसंख्येयानां लोकानामाकाशप्रदेशराशिप्रमाणा भवन्ति, चंकमणे य द्वाणे, निसीयण तुयट्टणे कयकरणे । यथानिर्दिष्टक्रमेण चैते यथोत्तरं बहुतराः । यत उक्तम् उच्चारे पासवणे, उवगरणाणं तु निक्खिवणे ॥ १२॥ "सब्वत्थावा बादरपुढविकाइया पजत्ता, बादरपुढविका आलेवण पहरण भू-सणे य कयविक्कए किसीए य । इया अपज्जत्ता असंखेजगुणा सुहुमपुढविकाइया अपजत्ता भंडाणं पि य करणे, उवभोगविही मणुस्साणं ।। ६३ ॥ असंखेजगुणा, सुहुमपुढविकाइया पज्जत्ता असंखेजगुणा ।" एएहि कारणेहिं, हिंसंति पदविकाइए जीवे । प्रकारान्तरेणाऽपि राशियस्य परिमाणं दर्शयितुमाहपत्थेण व कुडवेण व, जह कोइ मिणज्ज सच्चधमाई । सायं गवसमाणा, परस्स दुक्खं उदारंति ॥ १४ ॥ एवं मविज्जमाणा, हवंति लोया असंखेज्जा ।। ८७ ॥ चक्रमणोर्द्धस्थाननिषीदनत्वग्वर्तनकृतकपुत्रककरणउचा. रप्रश्नवणउपकरणनिक्षेप भालेपनप्रहरणभूषणक्रयविक्रयक. यथा प्रस्थाऽदिना कश्चित्सर्वधाम्यानि मिनुयाद् एवमसद्भा षीकरणभण्डकघट्टमाऽऽदिषूपभोगविधिर्मनुष्याणां पृथिवीवज्ञापनाङ्गीकरणात लोक कुवीकृत्याजवन्योत्कृष्टावगाह कायेन भवतीति । यद्येवं ततः किमित्यत आह-(एपहास्या २४५ Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (E) अभिधानराजेन्द्रः । पुढवीकाइय दि) एभिक्रमणाऽऽदिभिः कारणैः पृथिवीजीवन हिंस निकिमर्थमिति दर्शयति-स्वातं सुखमात्मनो ऽपचयन्नः परदुःखान्यज्ञानानाः कतिपयतिरमणीयभोगाऽ शाकर्षि समस्यामा विमूढचेतसइति परस्य पृथिव्याधितज तुराशेः दुःखमसातलक्षणं तदुदीरयन्ति - उत्पादयन्तीत्यनेन भूदानजनितशुभफलोदयः प्रत्युत इति । अधुना राम्रारम्शस्यतेऽनेनेति शस्त्रम् । तच द्विधा द्रव्यशस्त्रं, भावशस्त्रं च । पपि समासविभागमेदार शिवे तत्र समासइव्यत्ययतिपादनाया 55हलकलियविसपुरा-लासित्तियमिगसिंगकडमग्गी च । उचारे पावणे पर्य तु समासओ सत्यं ॥ ६५ ॥ तम हलकुलिकषिकुलालचक मृगशृङ्गकाष्ठाम्युक्वार श्रवणादिकमेतत्समासतः संक्षेपतो द्रव्यशस्त्रम् । , विभागद्रव्यशाप्रतिपादनायाऽऽद्द किंची सकायसर्थ, किंची परकाष तदुभयं किंचि । एयं तु दव्बसत्यं भावे य असंजमो सत्यं ॥ ६६ ॥ किञ्चित्स्कायशखं पृथिव्येव पृथिव्याः किञ्चित्परकाय मुकादम किञ्चिदिति भूकं मिलितं भुव इति । तत्र सर्वमपि द्रव्यशखं भावे पुनरसंयमः दुष्प्रयुका मनोवाक्कायाः शस्त्रमिति । श्राचा० १ ० १ ० २ उ० । दव्यं सत्यग्गविर्सनेविल खारलीयमाईये। भाषोउ दुप्पो, बाया काओ अविरई प ।। २२० ।। इममिति द्वारपरामर्शः तनखाऽवि अनिविष हालागि प्रसिद्धानि सारलवणादीनि रामभवः प्रतीतम आविदा करीचादिपरि महः। उक्रं द्रव्यशनम्। अधुना भावशा माह-भावस्तु दुःप्र युकी वाकायो अविरति भाव्यमिति तत्र भायो दुः प्रयुक्त इत्यनेन द्रोहामिमाने ऽऽदिलक्षणो मनोः प्रयोगो गृ· हाते पाकः प्रयोगस्तु हिंस्रपरुषाऽऽदिषत्रनलक्षणः, कायदुःप्रयोगस्तु धावनचनादि, अचिरनिरत्वविशिष्टा प्रा. पापथानकप्रवृतिः एतानि पापा स्थाकर्मधनिमित्तमितिगाथार्थ इह न भाषश लेखाधिकारः अपि तु द्रव्यशस्त्रेण तच जिसका भवतीत्याह- किंची सकापसत्य, किंवी । . एयं तु दव्बसत्यं भात् ।। २३१ ॥ किञ्चिकाया. यथा कृष्णा मृनीला विमृदः शमम् एवं गन्धरसस्पर्शमे पियोजना कार्या तथा क्रिया ति परकाश पथा पृथ्यसेजःप्रभृतीनाम् बाधिपाः। तदुभयं भयं भवति, यथा कृष्णामृबुदकस्य स्पर्शरसगन्धाऽऽदिभिः पाण्डवश्च यकृष्णामुदकं भवति तदाऽसौ रुपय पापमुवध श भवति, एवंतु तबू द्रयशनं, तुशब्दोऽनेकप्र. कारविशेषणार्थः पतत्रनेकप्रकारं द्रव्यशस्त्रम, भाव इति द्वापरामर्श असंयमः रात्रं चरणस्थति गाचाऽर्थः । एवं च परिहतायां पृथिव्यामुरुद्वारा ऽऽदि फर ये ऽपि नास्ति तद · तिपाठ इत्यसि कत्बोपपतेः संभवी साधुधर्म इति । एष 1 पुढवीकाइय तावदागमः, अनुमानमप्यत्र विद्यते - सात्मका विदुमलवणोपलाऽऽदयः पृथिवीविकाराः, समानजातीयाङ्कुरोत्पत्त्युपलम्भात् देवमांसाङ्कुरवत् । एवमागमोपपत्तिभ्यां व्यथस्थितं पृथिवीकायिकानां जीवत्वम् । उक्कं च" श्रागमभेोपपत्तिका संपूर्ण लक्षणम् । अतीन्द्रियाणामर्थानां सजायप्रतिपतये ॥ १ ॥ आगमो वचनमा दोषपाहिदुः । वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न ब्रूयात्वसंभवात् ॥ २ ॥ इत्यलं प्रसङ्गेन । दश० ४ श्र० । बेदनाद्वारमाहपायच्छेषण भेषण, घोरु तव अंगुषंगे। जह हुंति नरा दुद्दिया, पुचिकार तहा जाय ॥६७॥ यथा पादाङ्गप्रत्यङ्गेषु न भेदादिकया क्रियया नरा दु खितास्तथा पृथिवीकायेऽपि वेदनां जानीहि । raft पादशिरोग्रीवाऽऽदीन्यङ्गानि पृथिवी कायिकानां न सन्ति तथापि तच्छेदनातुरूपा बेदनाऽस्त्येवेति दर्शयितुमाह नथियसि अंगुरंगा, तयागुरुवा व वेपणा तेसिं केसिं चि उदारंती, केसिं चतिवाय पाणे ||६ पूर्वा गतार्थ, केपाञ्चित्पृथिवीकायिकानां तदारम्भिणः पुरुषा वेदादयति केषाश्चि प्राणानप्यतिपातयेयुरिनि तथाहि भगवत्यां दृष्टान्त उपान्तो यथा चतुरम्तचकवर्तिनो गन्धा यौवनवर्तिनी बलवती आर्द्राऽऽमलकप्रमाणं सत्रि तपृथिवीगोलक मेकविंशतित्वम्प कठिनशिलापु केण विध्यात्ततस्तेषां पृथिवीजीवानां कश्वित्संघडितः कविपरितापितः कविद्यापादितोऽपरः किल तेन शिलापुफेण न स्पृष्टोऽपीति । बधद्वारमाह पयंतिय अणगारा ण य तेहि गुणेी अहं भयगारा । पुर्वि विहिंमाया न हु ते वायाहि अमगारा ||२६|| अणगारवाइयो - विहिंसगा निम्गुणा बगारिसमा । निहोस त य मइला, विरइदुगंछाइ मइलतरा ॥ १००॥ आचा० १ ० १ ० २ उ० । ( हवं गाथाद्वयम् ' अणगार शब्दे प्रथभागे २०७ पृष्ठे व्याख्यातम् ) केई सयं वहती, केई अमेहि महाविती । केई अनुमती पुरविकार्य बहेमाया ।। १०१ ।। स्पष्टा । मधे अन्येषामपि तदाधितानां वधो भवतीति दर्शयि तुमाह · जो ढषि समारंभ, भेवि य सो समारभइ काए । अनियार अनियाए, दिस्से य तदा आदिस्से या १०२ ॥ यः पृथ्वीकार्य ' समारभते 'व्यापादयति सः अन्यानपि ' waterssaीन् 'समारभते' व्यापादयति, उदुम्बरब टफलभक्षणमवृत्तः तत्फलान्तप्रणिति तथा अणिषा व निवार ति) अकारणेन कारणेन च यदि बाल्न संकल्पेन च पृथिवीजन्तून समारभते तार Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) पुढवीकाश्य अभिधानराजेन्डः। पुढवीकाश्य म्भवांश्च ‘रश्यान् ' दर्दुराऽऽदीन् 'अदृश्यान् ' पनकादीन् । जीवा इति। उक्नं च-"रागदोसकसाएहि, इंदिएहि य पंचहि । समारभते' व्यापादयतीत्यर्थः। दुहा वा मोहणिज्जेण,अहा संसारिणो जिया ॥१॥"यदिवाएतदेव स्पष्टतरमाह सानाऽऽवरणीयाऽदिना शुभाशुभेनाष्टप्रकारेण कर्मणा मार्तः, पुढवि समारभंता, हणंति तनिस्सिए य बहुजीवे । कः पुनरेवंविध इत्यत्राऽऽह-लोकयतीति लोकः-एकद्वित्रि चतुःपञ्चेन्द्रियजीवराशिरित्यर्थः अत्र लोकशब्दस्य नामस्थासुहुमे य बायरे य, पजत्ते या अपजते ।। १०३॥ पनाद्रव्यक्षेत्रकालभवभावपर्यायभेदादष्धा निक्षेपं प्रदर्ष्याप्रस्पा । मन च सूक्ष्माणां वधः परिणामाशुद्धत्वात्तद्विषय- शस्तभावोदयवर्तिना लोकेनेहाधिकारो वाच्यः, यस्माद्यावानिवृष्यभावेन द्रष्टव्य इति। तिः स सर्वोऽपि परियूनो नाम परिपेलयो निस्सारः औपविरतिद्वारमाह शमिकाऽऽविप्रशस्तभावहानः अव्यभिचारिमोक्षसाधनहीनो एवं वियाणिऊणं, पुढवीए निक्खिवंति जे दंडं। वेति । स च द्विधा द्रव्यभावभेदात् , तत्र सचित्तद्रव्यपतिविहेण सम्बकालं, मणेण वायाएँ कारणं ।। १०४॥ रियूनो जीर्णशरीरः स्थविरकः जीर्मवृक्षो वा, अचिसद्रव्यएवमित्युक्तप्रकारानुसारेण पृथिवीजीवान् विज्ञाय तद्वधं परियूनो जीर्णपटाऽऽदिः, भावपरिघून औदयिकभावोदयात् बन्धं च विज्ञाय पृथिवीतो निक्षिपन्ति ये दण्डं-पृथिवीस प्रशस्तज्ञानाऽऽविभावविकलः,कथं विकलः, अनन्तगुणपारमारम्भाद् ब्युपरमन्ति, ते ईरक्षा अनगारा भवन्तीत्युत्तर हाण्या । तथाहि-पश्चचतु: खिये केन्द्रियाः क्रमेण ज्ञानगाथायां पश्यति, त्रिविधेनेति कृतकारितानुमतिभिः 'सर्व विकलाः, तत्र सर्वनिकृष्टज्ञानाः सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकाः प्रथा कालं' याषजीवमपि मनसा वाचा कायेनेति । मसमयोत्पन्ना इति । उक्तं च सर्वनिकृष्टो जीव-स्य दृष्ट उपयोग एष वीरेण । अनगारभयने उक्तशेषमाह सूचमनिगोदापर्या-तकानां स च भवति विज्ञेयः॥१॥ गुत्ता गुप्ताहि सयाहिं, समिया सीमईहि संजया। तस्मात् प्रभृति ज्ञानविवृ-द्धिा जिनेन जीवानाम् । जयमाणगा मुविहिया, परिसया हूंति प्रणगारा ॥१०॥ लब्धिनिमित्तः करणैः, कायेन्द्रिययागमनोहराभिः ॥२॥" निसभिमनोवाकायगुप्तिभिर्गुप्ताः,तथा पञ्चभिरीर्यासमित्या. स च विषयकषायातः प्रशस्तज्ञानघूनः किमवस्थो दिभिस्लमिताः, सम्यक-उत्थानशयनवरफ्रमणाऽऽविक्रिया भवति इति वर्शयति-दुःसंबोध इति दुःखेन संबोध्यते-धसु यताः संयताः ' यतमानाः ' सर्वत्र प्रयत्नकारिणः, शो. मंचरणप्रतिपत्ति कार्यते इति दुःसंबोधो, मेतार्यवत् इति, भनं विहितं-सम्यग्दर्शनाऽऽनुष्ठानं येषां ते तथा, ते रिक्षा | यदि वा दुःसंबोधो यो बोधयितुमशक्यो, ब्रह्मदत्तवत् , कि अनगारा भवन्ति, न तु पूर्वोक्तगुणाः पृथिवीकायसमारम्भि मित्येवम् ?, यतः (अविजाणए सि) विशिष्टावयोधरहितः णः शाक्याऽऽदय इति । गतो नामनिष्पनो निक्षेपः । स चैवंविधः किं विवड्यात् इत्याह-अस्मिन् पृथिवीकायलो के प्रव्यथिते प्रकर्षेण व्यथिते.सर्वस्याऽऽरम्भस्य तदाश्रयत्वा अधुना सूत्रानुगमेऽस्खलिताऽऽदिगुणो. दिति प्रकर्षार्थः, तत्तत्प्रयोजनतया खननाऽऽदिभिः पीडिते - पेतं सूत्रमुबार्यते, तबेदं सूत्रम् नानाविधशस्त्राव भीतेधा 'व्यथ' भयचलनयोति कृत्वा व्यभद्दे लोए परिजुम्मे दुस्संबोहे अविजाणए अस्सि लोए | थितं भीतमिति । ( तत्थ तत्थेति ) तेनु तेषु कृषिखाननगृह, पवाहिए तत्थ तत्थ पुढो पास भातुरा परिताउँति । करणादिषु पृथग्विभिनेषु कार्येषु उत्पनेषु पश्य इति विनेय(१४ सूत्र) भाचा। स्य लोकाकार्यप्रवृत्तिःप्रवयते, सिद्धान्तशल्या एकादेश अपि प्राकते पहावेशो भवतीति. मातुराः विषयकषायाऽऽविभिः 'भ'इत्यादि परम्परसम्बन्धस्तु 'रह एगेसिं णो समा भष अस्मिन् पृथिवीकाये विषयभूते सामर्थ्यात् पृथिवीकार्य पति'स्युक्त, कथं पुनः संज्ञा न भवतीति, पार्षस्वात्, तदाह रितापयन्ति परि समंतात्तापयन्ति पीत्यम्तीत्यर्थः,बाषब(मोइत्यादि) मार्लोनामाऽऽविधतुर्धा, नामस्थापने बुझे, ननिर्देशस्तु तदारम्भिणां बहुरवं गमयति,यदि वा-लोकशष्यः मशरीरभग्यशरीरव्यतिरिको नोमागमतो द्रव्यातः शकटा. प्रत्येकमभिसंबध्यते, कश्चितोको विषयकषायऽदिभिरातः Sऽदिचकाणामुविमूले वा यो लोहमयः पो दीयते स ग्या अपरस्तु कायपरिजीर्णः कश्रिवणसंबोधस्तथाऽपरो थिभाषा-स्तुविधा-भागमतो नोभागमतभाताऽऽगमतो शिक्षानरहितः, पते सर्वेऽन्यातुरा विषयजीदेहाऽऽविभिः साता-भार्सपदार्थशास्तत्र बोपपुलो, मोभागमतस्तु प्रौद सुखाऽप्तये अस्मिन् पृथिवीकायलोके विषयभूते पृथिवीकार्य यिकमावषी रागद्वेषप्रापरिग्रहीतान्तरात्मा प्रियषिप्रयो. नानाविधैरुपायः परितापयन्ति परि-समन्तात्तापयन्ति पीरगाऽऽविदुःखसहरनिमग्नो भावार्सति म्यपदिश्यते, अथवा यन्तीति सूत्रार्थः। शबाऽऽविषिषयेषु विषविपाकसरशेषु तदाकात्विात् हि मनु बैकवेषताविशेषाऽवस्थिता पृथिषीति शक्य साहितविचारगम्यमना भावार्तःकर्म उपचिनोति । यत उक प्रतिपई, न पुनरसंख्येयजीवसंस्थातरूपत्येग-"सोदिपषसणं, भंते!जीवे किंधा, किं बिणाति?, तत्परिहतुकाम पाहकिंग्पषिणाति गोयमा! कम्मपगीभो सिढिलपंध संति पाणा पुढो सिया लजमाणा पुढो पास भणगारा पवामी धणियपंधणामी पकरेति जाव प्रणादीयं ब प्रणवदग्गं दीहम चाउरंतसंसारकंतारमणपरिया।" मोति एगे पक्यमाणा जमिण विरूवरूयहि सस्थेहि परस्पर्शनाऽदिम्पपिमायोजनीयम्।एवं क्रोधमानमायालो. पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्यं समारंभेमाणा भणेगलवे मपनमोहनीयचारित्रमोहनीयाऽऽदिभिर्भावार्ताः संसारिणो। पाणे विहिंसा ।। Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाइय अभिधानराजेन्डः। पुढवीकाइय सम्ति विद्यन्ते प्राणाः सत्वाः पृथग् पृथग्भावनागुलासं- समारभमाणानन्यांश्च स एष समनुजानीते, एषमतीतानाक्येयभागस्यदेहावगाहनया पृथिव्याऽऽश्रिताः,सिता वा सं. गताभ्यां मनोवाकायकर्मभिरायोजनीयम् । पद्धा इत्यर्थः अनेनैतत् कथयति-नैकदेवता पृथिव्यपि तु प्र तदेवं प्रवृत्तमतेर्ययीत तदर्शयितुमाहस्येकशरमरपृथिवीकायाऽऽत्मिकेति,तदेवं सचेतनत्वमनेकजीपाधिष्टितन्वं च पृथिव्या आविष्कृतं भवतीति । एतच्च हा. तं से पहिभाए तं से अबोहीए से तं संबुज्झमाणे भास्था तदारम्भनिवृत्तान् दर्शयितुमाह-(लज्जमाणा पुढो पास याणीयं समुट्ठाय सोचा खलु भगवो भणगाराणं इहति) लज्जा द्विविधा-लौकिकी, लोकोत्तरा च । तत्र लौकि- मेगेसिं णातं भवति-एस खलु गंये एस खलु मोहे एस की स्नुषासुभटाऽऽदेः श्वशुरसंग्रामाविषया, लोकोत्सरा स खलु मारे एस खलु णरए इच्चत्थं गडिए लोए जमिणं सदशप्रकारः संयमः । तदुक्तम्-" लज्जा दया संजम बंभचे विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसमारंभेण पुढविसत्यं सरं।" इत्यादि । लजमानाः संयमानुष्ठानपराः, यदि वापृथिवीकायसमारम्भरूपादसंयमानुष्ठानासजमानाः पृथगि- मारंभमाणे अप्मे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ, से बेमि अप्पेगे ति प्रत्यक्षशानिनः परोक्षज्ञानिनश्च , अतस्तान् लज्ज- अंधमब्भे अप्पेगे अंधमच्छे अप्पेगे पायमब्भे अप्पेगे पामामान् पश्येत्यनेन शिष्यस्य कुशलानुष्ठानप्रवृत्तिविषयः यमच्छे अप्पेगे गुप्फमब्भे अप्पेगे गुप्फमच्छे अप्पेगे जंघमप्रदर्शितो भवतीति । कुतीथिकास्त्वन्यथावादिनोऽन्यथाकारिण इति दर्शयितुमाह-(अणगारा इत्यादि) न विद्यते ब्भे २ अप्पेगे जाणुमब्भे २ अप्पेगे ऊरुमब्भे २ अप्पेगे अगारं-गृहमेषामित्यनगारा-यतयः स्मो वयमित्येवं प्रकर्षे कडिमम्भे २ अप्पेगे णाभिमब्भे २ अप्पेगे उदरमब्भे २ ण वदन्तः प्रवदन्त इति, एके शाक्यादयो ग्राह्यास्ते च अप्पेगे पासमब्भे २ अप्पेगे पिढिमन्भे २ अप्पंगे उरमब्भे घयमेव जन्तुरक्षणपराः क्षपितकषायाज्ञानतिमिरा इति । २ अप्पेगे हिययमब्भे २ अप्पेगे थणमब्भे २ अप्पेगे खंएवमादिप्रतिक्षामात्रमनर्थकमारटन्ति, यथा कश्चिदत्यन्तशु. धमन्भे २ अप्पेगे वाहुमब्भे २ अप्पेगे हत्थमन्भे २ अप्पेचिोंद्रश्चतुःषष्टिमृत्तिकास्नायी गोशवस्याशुचितया परित्यागं विधाय पुनः कर्मकरवाक्याश्चर्माऽस्थिपिशितस्नाय्वादे गे अंगुलिमब्भे २ अप्पेगे णहमभे अप्पेगे गीवगब्भे २ यथास्वमुपयोगार्थ सङ्ग्रहं कारितवान् , तथा च तेन शुच्य अप्पेगे हणुमन्भे २ अप्पेगे होडमब्भे २ अप्पेगे दंतमन्भे भिमानमुद्रहताऽपि किं तस्य परित्यक्तमेवमेतेऽपि शाक्याss. २ अप्पेगे जिन्भमब्भे २ अप्पेगे तालुमब्भे २ अप्पेगे गपयोऽमगारबादमुवहन्ति , न चानगारगुणेषु मनागपि प्रव लमन्भे २ अप्पेगे गंडमब्भे २ अप्पेगे कममम्भे २ अतते, न च गृहस्थचर्या मनागप्यतिलङ्घयन्ति इति वर्शयति-ययस्मादिममिति सर्वजनप्रत्यक्षं पृथिवीकायं विरूपरू प्पेगे णासमब्भे २ अप्पेगे अच्छिमब्भे २ अप्पेगे भमुहपि नाप्रकारैः शस्नेहलकुदालखनित्राऽऽदिभिः पृथिव्याश्रयं मन्भे २ अप्पेगे णिडालमब्भे २ अप्पेगे सीसमन्भे २ अकर्म-क्रियां समारभमाणा विहिंसन्ति, तथाऽनेन च पृथिवी- प्पेगे संपसारप, अप्पेगे उद्दवए, इत्यं सत्यं समारंभमाकायसमारम्भेण पृथिवीशस्त्रं समारभमाणो व्यापारयन् पृ. णस्स इच्चेते आरंभा अपरिमाता भवति (१६ सूत्र ) थिवीकार्य नानाविधैः शौः व्यापादयन्ननेकरूपान् , तदाधितानुवकवनस्पत्यादीन् विविधं हिनस्ति, नानाविधैरुपाया (तं से अहियाए तं से अयोहीए ) तत् पृथिवीकायसमारपादयतीत्यर्थः। म्भणं (से) तस्य कृतकारितानुमतिभिः पृथ्वीशस्त्रं समारएवं शाक्याऽऽदीनां पार्थिवजन्तुवैरिणामयतित्वं प्रतिपाद्य भमाणस्याऽऽगामिनि काले अहिताय भवति तदेव चाबोधिसाम्प्रतं सुखाभिलाषितया कृतकारितानुमतिभिर्मनोवाकाय. लाभायेति,न हि प्राणिगणोपमर्दनप्रवृत्तानामणायसाऽपि हि. लक्षणां प्रवृत्ति दर्शयितुमाह तेनाऽऽयत्यां योगो भवतीत्युक्तं भवति, यः पुनर्भगवतः स काशात्तच्छिष्यानगारेभ्यो वा विज्ञाय पृथ्वीसमारम्भं पापातत्थ खल भगवया परिस्मा पवेइया, इमस्स चेव जी ऽऽत्मकं भावयति स एवं मन्यत इत्याह-( से तमित्यादि) वियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइसमा मेरमाए दु- 'सः' ज्ञातपृथवीजीवत्वेन ' विदितपरमार्थः तं' पृथ्वीशक्वपडियायहेउं से सम्म पुनिया समारंभइ,अम्महि वा स्नसमारम्भमहितं सम्यगवबुध्यमानः ' श्रादानीयं' प्राचं सम्यग्दर्शनाऽऽदि सम्यगुत्थाय-अभ्युपगम्य, केन प्रत्ययेनेति पुढविसत्थं समारंभावेइ, अश्मे वा पुढविसत्थं समारंभंते दर्शयति-'श्रुत्वा' अवगम्य साक्षाद्भगवतोऽनगाराणां वा समणुजाणइ (१५ सूत्र)। समीपे, ततः 'इह' मनुष्यजन्मनि 'एकेषां' प्रतिबुद्धतत्वातत्र पृथिवीकायसमारम्भे, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, भग- नां साधूनां शातं भवतीति, यत् साते भवति तदर्शयितुमाहपता श्रीवर्द्धमानस्वामिना परिक्षानं परिक्षा, सा प्रवेदितेति । ( एसत्यादि ) एष पृथ्वीशलसमारम्भः, खलुरवधारणे, इदमकं भवति-भगवतेदमाख्यातम्-यथैभिवक्ष्यमाणैः कार. कारणे कार्योपचारं कृत्वा 'नड्वलोदकं पादरोगः' इति फतकारितानुमतिभिः सुखषिणः पृथिवीकार्य समारभन्ते, न्यायेनैष एव ग्रन्थ:--अएप्रकारकर्मबन्धः, तथैष एव पृथ्वीतानि बामूनि-अस्यैष जीवितस्य परिपेलवस्य परिबन्दन- समारम्भो मोहहेतुत्वान्मोहः कर्मबन्धविशेषो दर्शनचारित्रमाममपूजमार्थ, तथा जातिमरणमोचनार्थ दुःखप्रतिघातहेतुं भेदोऽविंशतिविधः, तथष एव मरणहेतुत्वान्मार:-मायुब ससुखलिप्पुवुःखहिद स्वयमात्मनैष पृथिवीशस्त्रं समार- ककर्मक्षयलक्षण,तथेष एव नरकहेतुत्वाभरका सीमन्तकाभते, तथाऽम्पैच पृथिवीशखं समारम्भयति, पृथिवीशस्त्रं दिर्भूभागः,अनेन चासातावदनीयमुपात्तं भवति, कथं पुन Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६ ) पुढवीकाइय माभिधानराजेन्द्रः। पुढवीकाइय रेकप्राणिव्यापादनप्रवृत्तावष्टाविधकर्मबन्धं करांतीति, उच्यते- समारंभा परिष्माता भवंति से हु मुणी परिपातकम्मे त्ति मार्यमाणजन्तुज्ञानावरोधित्वात् शानाऽऽवरणीयं बनात्येवम | बेमि (१७ सूत्र०)। न्यत्राप्यायोजनीयमिति,मन्यदाप तेषां जातं भवतीति दर्शयितुमाह-हिचथमित्यादि)इत्येवमर्थम् आहारभूषणोपकरणार्थ अत्र पृथिवीकाये शस्त्र द्रव्यभावभिन्नं , तत्र द्रव्यशस्त्र तथा परिवन्वनमाननपूजनार्थ दुःखप्रतिघातहेतुं च 'गृयो' स्वकायपरकायोभयरूपं, भावशस्त्रं वसंयमो दुःप्रणिहित. मूर्षितो' लोकः'प्राणिगणः,एवंविधेऽप्यतिदुरितनिचयषि मनोवाकायलक्षणः, एतद् द्विविधमपि शत्रं समारभमाणस्येपाकफले पृथ्वीकायसमारम्भे महानवशान्मूञ्छितस्त्वेतद्वि ति पते खननकृष्याद्यात्मकाः समारम्भाः बन्धहेतुस्खेनापधत्त इति दर्शयति-'यद्' यस्माद् 'हम' पृथ्वीकार्य विरूपरूपैः रिक्षाता अविदिता भवन्ति , एतद्विपरीतस्य परिक्षाताभशस्त्रैः पृथिवीकर्म समारभमाणो हिनस्ति, पृथिवीकायस. पन्तीति दर्शयितुमाह-(पत्थेत्यादि ) अन पृथिवीकाये द्वि. मारम्भेण च पृथिव्येव शस्त्रं स्वकायाऽऽदेः पृथिव्या वा श. विधमपि शस्त्रमसमारभमाणस्याऽव्यापारयत इति , पते खं हलकुद्दालाऽऽदि तत्समारभते,पृथिवीशस्त्रं समारभमाण प्रागुताः कर्मसमारम्भाः परिशाता विदिता भवन्ति, अनेन श्वान्याननेकरूपान् 'प्राणिनो' द्वीन्द्रियाऽऽदीन्विविधं हिन च विरत्यधिकारः प्रतिपादितो भवतीति , तामेव विरति स्तीति । स्यादारेका, ये हि न पश्यन्ति न शृण्वन्ति न जि स्वनामसाहमाह-( तमित्यादि) तं पृथिवीकायसमारम्भ घ्रन्ति न गच्छन्ति कथं पुनस्ते वेदनामनुभवन्तीति ग्रही बन्धं परिक्षाय अलमारम्भे वा प्रबन्धमिति मेधावी कु. तव्यम् ?, अमुध्यार्थस्य प्रसिद्धये दृष्टान्तमाह-(से बेमी शलः एतत् कुर्यादिति दर्शयति-नैव पृथिवीशखं द्रव्यभात्यादि ) सोऽहं पृष्टो भवता पृथिवीकायवेदनां ब्रवीमि, वभिन्नं समारमेत, नापि तद्विषयोऽन्यैः समारम्भः काअथवा-' से' इति तच्छब्दार्थे वर्तते, यत्वया पृष्टस्तदहं रयितव्यः , न चान्यान् पृथिवीशस्त्रं समारभमाणान् सब्रवीमि, अपिशब्दो यथानामशब्दार्थे, यथा नाम कश्चिज्जा मनुजानीयात् इति । एवं मनोवाक्कायकर्मभिरतीतानागस्यन्धो बधिरो मूकः कुष्ठी पगुः अनभिनिर्वृत्तपाण्याद्य तकालयोरप्यायोजनीयम् इति , ततश्चैवं कृतनिवृत्तिरसौ बयपविभागो मृगापुत्रवत् पूर्वकृताशुभकर्मोदयाद्धिताहित मुनिरिति व्यपदिश्यते, न शेष इति दर्शयन्नुपसंजिहीर्यु. प्राप्तिपरिहारविमुखोऽतिकरुणां इशां प्राप्तः , तमेवंविधम राह-(जस्सेत्यादि ) यस्य विदितपृथिवीजीववेदनास्वरू: न्धाऽऽदिगुणोपेतं कश्चित्कुन्ताग्रेण (अब्भे इति ) आभिन्द्या पस्यैते पृथिवीविषयाः कर्मसमारम्भाः खननकृष्याद्यात्मत् तथाऽपरः कश्चिदन्धमाच्छिन्द्यात् , स च भिद्यमानाऽऽद्य- काः कर्मबन्धहेतुत्वेन परिज्ञाता भवन्ति शपरिशया तथा वस्थायां न पश्यति न शृणोति मूकत्वानोचैरारटीति,किमेता प्रत्याख्यानपरिक्षया च परिहिता भवन्ति , हुरवधारणे, स यता तस्य वेदनाऽभाषो जीवाऽभावो वा शक्यो विज्ञातुम् ?, एव मुनिदिविधयाऽपि परिक्षया परिज्ञातं कर्म-सावद्यानुष्ठा एवं पृथिवीजीवा अप्यव्यक्तचेतना जात्यन्धबधिरमूकपडया नमएप्रकारं वा कर्म येन स परिशातकर्मा, नाऽपर, शाक्या. दिगुणोपेतपुरुषवदिति,यथा वा पञ्चेन्द्रियाणां परिस्पष्टचेतना- ऽऽदिः, ब्रवीमि पूर्ववदिति शस्त्रपरिज्ञायां द्वितीय उद्देशक नाम् ( अप्पेगे पायमभे इति ) यथा नाम कश्चित्पाद- समाप्तः । गतः पृथिव्युद्देशकः । आचा०१ १०१ १०२ उ०। माभिन्द्यादाच्छिन्द्यावेत्येवं गुल्फाऽऽदिष्वप्यायोजनीयमिति सुतंदर्शयति, एवं जयाजानूरुकटीनाभ्युदरपार्श्वपृष्ठोरोहदय- जे भिक्खू पुढविकायस्स कलमायं वि समारंभइ, समारं. । स्तनस्कन्धबाहुहस्ताइगुलिनखग्रीवाहनुकोष्ठदन्तजिहातालु भंतं वा साइज्जइ ।। ८॥ एवं० जाव वणफइकायस्स १२॥ 'गलगण्डकर्णनासिकाऽतिभ्रललाटशिरम्प्रभृतिष्यवयवेषु भि कलमाय ति स्तोकप्रमाणं, अहवा कलो त्ति चणी चमानेषु विद्यमानेषु वा वेदनोत्पत्तिर्लक्ष्यते,पवमेषामुत्कटमो तप्पमाणमे तंपि जो विराहेति तस्स चउलहुं , प्राणा'हामानभाजां स्त्यानवर्याद्युदयादव्यनचेतनानामव्यक्तव वेद- दिया य दोसा, एवं कठिणा उक्का ते तेउवाउपत्ते ना भवतीति प्रायम् । अत्रैव दृष्टान्तान्तरं दर्शयितुमाह- पवणस्सतिसु दाव पुण आउक्काए बिंदमित्तं, बाउक्काए (अप्पेगे संपमारए अप्पेगे उद्दवए )यचा नाम कश्चित् 'सम' कलमत्तं कहं ?, भन्नति-वित्थिपूरणो लम्भति । एकीभावेन प्रकर्षेण प्राणानां मारणम्-अव्यक्तत्वाऽऽपादनं कस्याचत् कुर्यात् , मूर्छामापादयेदित्यर्थः, तथाऽवस्थं च जे भिक्खु पुढविकार्य, कलवंधनप्पमाणमेत्तमवी । यथा नाम कश्चिदपदापयेत प्राणेभ्यो व्यपरोपयेत् न चासो आऊ तेऊ वाऊ, पत्तेयवणं विराहेजा ॥५०॥ तां वेदनां स्फुटमनुभवति, अस्ति चाव्यक्ता तस्याऽसी बे कलधन ति चणगं धनं, सेसं कंठं । दनेति, एवं पृथिवीजीवानामपि द्रष्टव्यमिति । जो एते काए विराधेतिपृथिवीकायिकानां जीवत्वं प्रसाध्य तथा नानाविधशस्त्र सो प्राणा प्रणवत्थं, मिच्छत्त विराहणा तहा दुविहं । संपाते वेदनां चाऽऽविर्भाव्य अधुना ताये बन्धं पावति जम्हा तेणं, एते उ पदे विवजेजा ॥५॥ दर्शयितुमाह पुढवाऽऽदिविराहतस्स संजमविराहणा। आहारे त्ति पंडपत्य सत्यं असमारभमाणस्स इच्छेते आरंभा परि रोगाऽऽदिसंभवे प्रायविराहणा, सेसं कंठं सीसो पुच्छति. माता भवति, तं परिमाय मेहावी नेव सयं पुढविसत्थं कलमेतहीणतरे विराधिते किंवउलहून भवति प्राणादिया य दोसा। समारंभेआ, वह पुढविसत्थं समारंभावेआ, वऽस्से गुरु भणतिपुढविसत्यं समारंभते समणुजाणेज्जा, जस्सेते पुढविकम्म कलमेत्तेणं चरिमे, एकम्मि वि घातियम्मि चउलहुगा । २४६ Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाश्य (९८२) अभिधानराजेन्छः । पुढवीकाश्य कलमेत पुण जायइ, वणबजाणं असंखेहिं ॥६॥ औदारिकम् वैक्रियम्.अाहारकम्,तैजसम् कार्मणं च । (जी०) निममित नेम प्रदर्शनमित्यर्थः। वणस्सस्कायमेत्तं वजि- | एतेषां पश्चानां शररािणां मध्ये यानि श्रीणि शरीराणि सू. ता सेसो गहियकायाणं असंखेज्जाणं जीवसरीराणं स- धमपृथिवीकायिकानां तानि नामग्राहमुपदर्शयति-(तं जहामुदयसमितिसमागमेणं कलमत्तं लम्भति । ओरालियेत्यादि ) वैकियाऽऽहारके तु तेषां न संभवः, स्वभाइमं घणस्सतिकाए सरीरप्पमाणं वत एव तल्लग्धिशून्यत्वात् । जी० १ प्रति०। एगस्स अणेगा चेव, कलाउ हीणाहिगं पि तु तरूणं । के महालए णं भंते ! पुढवीसरीरे परमत्ते । गोयमा! - जा ता अद्धामलगा,लहुगा दुगुणा ततो वुड्डी ॥ ६१॥ णं ताणं मुहुमवणस्सइकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे पगस्स पत्तेयवणस्सतिकाइयस्स. असंखेज्जाण चा क. सुहुमबाउसरीरे, असंखेज्जाणं सुहुमवाउसरीराणं जावइया लधनप्पमाणमेत्तं सरीरं भवति, कलमत्ताश्री हीणं अहियं सरीरा से एगे सुहुमतेउसरीरे असंखेआणं सुहुमतेउघा घिरातस्ल जाव अशामलगमेतं ताष चउलहुं, अ. ओ परं दुगुणबुड्ढीप जाव अटुवीसाहिएं से चरिमं अगते काइयसरीराणं जावइया सरीरा से एगे सुहुमाउसरीरे, अचउगुरुगाऽऽदि नेयव्यं । संखेजाणं सुहुमाउकाइयसरीराणं जावइया सरीरा से कारणे विराहेज्जा.. एगे मुहुमपुढवीसरीरे, असंखेजाणं सुहुमपुढवीकाइयाणं बितियं पढमे वितिए, पंचमें श्रद्धाणकञ्जमादीसु । जावइया सरीरा से एगे बादरे वाउसरारे असंखेगेलमादी तइए, चउत्थकाए य सेहादी ।। ६२ । । जाणं बादरवाउकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे । बितियं अथवादपदं, पढमे त्ति पुढविकाए, वितिए घि मा- बादरतेउसरीरे, असंखेज्जाणं बादरतेउकाइयाणं जावइउकाइए, पंचमम्मि तिवणस्सतिकाइए, एपसु तिसु कापसु या सरीरा से एगे बादरभाउसरीरे, असंखेज्जाणं बादरअशाणकज्जिमादिया जे पेढवत्तिया कारणा ते हंदव्या। ताप सि तेउवाए जे दीहगिलाणादिकारणा भणिया, च उ. पाउकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे बादरपुढवीसरीरे, त्थे ति घाउकाइएजे सेहादिया कारणा भणिया ते ई ए महालएणं गोयमा ! पुढवीसरीरे पमत्ते । वटुव्वा । नि०चू. १२ उ०॥ भ० १६०३ उ०। संप्रति पिनेयजनानुग्रहाय शेषचक्रव्यतासंग्रहार्थ अधुनाऽवगाहनाद्वारमाहमि संग्रहणीगाथाद्वयमाह तेसि णं भंते ! जीवाणं के महालिया सरीरोगाहणा 4सरीरोगाहणसंघयण-संठाण कसाय होंति सम्मानो। सत्ता गोयमा! जहनेणं भंगुलासखेज्जतिभागं,उक्कोसेण लेसिदिय संघाए, सम्मी वेए य पञ्जत्ती ॥१॥ वि अंगुलमसंखेजहभागं । दिट्ठी दंसण नाणे, जोगुवोगे तहा किमाहारे । सुगमम् , नवरं अवन्यपदोत्कृष्टपदयोस्तुल्यक्षुतावपि जघउववाय लिई समुघा-ऍ चयण गईरागई चेव ॥२॥ म्यपदादुत्कृष्ट पदमधिकमवसातव्यम् । जी० १ प्रति। प्रथमतः सूक्ष्मपृथिवीकाधिकानां शरीराणि वक्तव्यानि, प्रकारान्तरेण पृथिवीकायिकाबगाहनाप्रमाणमाहतवमन्तरमवगाहना, ततः संहननं, सहननानन्तरं संस्था पुढवीकाइयस्स णं भंते ! के महालया सरीरोगाहणा नं, ततः कषायाः, ततः कति भवम्ति संशा इति षकव्यं ततो लेश्याः, तदनन्तरमिन्द्रियाणि, ततः संघाताः, ततः परमसा। गोयमा से जहाणामए रखो चाउरंतचक्कबहिस्स कि संशिनोऽसंझिनो पा इति वक्तव्यम्, तदनन्तरं दो बक्त षसगपेसिया तरुणी बलवं जुग जुवा अप्पायंका बलमो० व्या, ततः पर्याप्तयो यथा कति पर्याप्तयः सूखमपूथिवीकायि- जाव निपुणसिप्पोयगया णवरं चम्मेहदहणमुढियसमाहयकानामित्यादि, पर्याप्तिग्रहणमुपलक्षणं, तेन तत्प्रतिपक्षभूता णिचियगतकाया न भाइ सेसं तं चेत्र० जाब निपुणअपर्याप्तयोऽपि वक्तव्या इति द्रव्यम्,तवनम्तरं रषिक्तव्या, ततो वर्शनं, तदनन्तरं ज्ञानं, ततो योगः,तत उपयोगः, तथा सिप्पोषगया तिक्खाए बरामईए सरहकरणीए तिक्खेणं किमाहारमाहारयन्ति सूचमधिषीकायिका इत्यादि वक्तव्यं, पारामएणं बहा परपणं एग महपुटवीकाइयं जतुगोलातदनन्तरमुपपातः, ततः स्थितिः, ततः समुवातः समुदा. समाणं गहाय पडिसाहरिय परिसाहरिय पडिसखिय पतमधिकन्य मरणं वक्तव्यमित्यर्थः, तवनन्तरं व्यवनं, ततो सिंखिय जाप इणामेष ति का ति सत्तक्खुत्ता उ पीसेगत्यागती इति सर्वसंख्यया प्रयोविंशतिर्वाराणि । आ. तत्य णं गोयमा ! प्रत्येगइया पुरवीकाइया मालद्धा शरीरवारव्याख्यानार्थमाह प्रत्येगइया णो भालद्धा भत्गइया संघल्यिा भत्थेगइया तेसियभंते जीवाणं कतिसरीरया पहाता । गोयमा! यो संघट्टिया प्रत्येगाया परियाविया प्रत्येगइया णोपतभो सरीरा पमत्ता । तं जहा-भोरालिए, तेयए, कम्मए । रियाविया प्रत्येगइया उद्दविया प्रत्येगइया यो उपविया तेषां सूखमपृथिवीकायिकानांणमिति वाक्यालंकारे,भवन्त! परमकल्याणयोगिन् ! कति शरीराणि प्राप्तानि (जी०)नी प्रत्येगइया पिट्ठा प्रत्येगल्या णो पिट्ठा । पुढबीकाइयस्स णि शरीराणि प्राप्तानि। रह शरीराणि पश्च भवन्ति । तपथा- णं गोयमा! ए महालिया सरीरोगाहणा पत्ता। Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढचीकाइय ( पुढवीत्यादि ) ( वागपेसिय प्ति) चन्दनपेधिका तरुहीति प्रवर्द्धमानवथाः बलपती सामर्थ्ययती (गति) सुषमदुपमाऽऽदिविशिष्टकाती (वाणि स पपा ( अप्पार्थक ति) नीरोगा (ओलि ) अनेनेदं सूचितम् (धिरहस्थादपाणिपादपितरोरुपरित्यादि कि- "बम्मेदुहणा" इत्याद्यप्यधीतं तदिह न वाच्यम् एतस्य विशेषणस्य स्त्रिया असम्भवात्। श्रत एवाऽऽह - (चम्मेदुदुह मुट्ठियसमायनिचियगत्तकाया न भरणइ ति ) । तत्र च चEssar व्यायामक्रियायामुपकरणानि तैः समाहूतानि व्यायामप्रवृत्तावत एव निचितानि च घनीभूतानि गात्राण्यङ्गानि यत्र स तथाविधः कायो यस्याः सा तथेति । (तिक्खाए ति ) । परुषायाम् । ( बहरामाए ति ) वज्रमय्यां सा हि नीरन्धा कठिना च भवति । ( सरहकरणी ति) लवणानि चूर्णरूपाणि इव्याणि क्रियन्ते यस्पांसा पणशिला तस्याम् ( वट्टावरपणं ति ) वर्त्तकरण लोकप्रधानेन ( पुढविका ति ) पृथिवीकापिकल मुदयम् । ( जतुगोलासमा ति ) डिम्भरूप उनकजतुगोलकप्रमाणे, नातिमद्दान्तमित्यर्थः ( पडिसाहरित्यादि ) - प्रतिसंहरणं शिलायाः शिलापुत्रकाच संहत्य पिराडी करणं, प्रतिपणं तु शिलायाः पततः संरक्षणम् (अ गाय ति) सम्स्येके कंचन ( प्रालिद्धति) आदिग्धाः शि. सायां शिलापुत्रके चलना ( संघट्टिय सि ) संघर्षिताः । ( परिताषिय ति) पीडिताः ( उदवियति ) मारिताः, कथं यतः ( पिट्ठन्ति ) पिष्टाः (ए महालिय त्ति ) ( एवं मह ती सि ) महति वाति सूक्ष्मेति भावः यतो विशिष्टायामपि पेषणसामन्यां केविन पिष्टा नैव च ता अपी ति (अत्थेगया संघट्टिय त्ति ) । भ० १६ श० ३ उ० । संहननद्वारमाह (42) अनिधानराजेन्डः | 1 तोसे गं भंते ! जीवाणं सरीरा किंसंघयणा पश्चत्ता | 'गोयमा यथा पत्ता । तेषां भदन्त जवानां शरीराणि किंसंहननानि प्रमा नि ? | संहननं नाम अस्थिवियरूपं तच्च पोढा । जी० १ प्रति ( संहननमेवान् संहनन " संप्रति संस्थानद्वार माह तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरा किंसेठिया पत्ता ? । गोपमा ! मरचंदसंठिया पमता । सुगमम् । नबरं (मसूरचंद संठिया इति) मसूरकाऽऽयथाविशेषस्य कृति मसूरकचन्द्रस्तद्वत् संस्थितानि | war भाषार्थः इह जीवानां पदसंस्थानामि समचतुरखादीनि वच्यमाणलक्षणानि तेपामाद्यानि पश्चासं इननानि मसूरचन्द्रका कारण संभवन्ति, तक्षणायोगात इयं मसूरचन्द्राकारं संस्थानं हुए प्रतिपत्तव्यं सर्वत्रानंस्थितम्यरूपस्य तलक्षणस्त्र योगात्, जीवानां संस्थानातराभावाच्च । माह व मूलटीकाकार:- संस्थानं मसूर कसंस्थितमपि हुए सर्वप्रासंस्थितत्वेन तज्ञक्षणयोगात् जीवानां संस्थानान्तराभावाच्चेति । गतं संस्थानद्वारम् । पुढवीकाइय चत्तारि कसाया पत्ता । तं जहा- कोहकसाते, माणकसाते, मायाकसाते, लोभकसाए । तेषां भदन्त ! सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां कति कषायाः प्रशसाः । तत्र कषाया नाम कप्यन्ते हिंस्यन्ते परस्परमस्मिन् प्रा. चिन इति रूपः संसारस्नमयन्ने वेभिर्जन्त नि कषायाः क्रोधाsssयः परिणामत्रिशेषाः । तथा चाऽऽह (गांयमेत्यादि) सुगमं नवरं कांधी मीतिपरीणाम माना ग रिलामा, माया निकृतिरूपा लामो गालक्षणः। एते च starssertshrri मन्दपरिणामतयाऽनुपदर्शितवान्यशरीर विकारा एवानाभागतस्तथा तथा वैचित्र्येण भवन्तः प्रतिपतव्याः । गतं कषायद्वारम् । संज्ञाद्वारमाह नेमि से भंते! जीवा कति साओ पाओ। गोयमा ! चत्तारि साओ पत्ताओ । तं जहा - भाहारसमा ० जाब परिग्गहसमा । सुगमम् । नवरं लिश्यते रिलप्यते प्रारमा कर्मणा सहा मयेति लेश्या कृष्णाऽऽविद्रव्यसाचिन्यादात्मनः शुभा शुभकपः परिणामः उ "कृष्णाऽि परिणामों य भ्रात्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्याशब्दः प्रवर्तते ॥ १॥" सा च पोढा । तद्यथा - कृष्णलेश्या १ नीललेश्या २ कापलेले ४ पलेया कलेश्या मास च स्वरूपं जम्बूफलजाइरुषट्पुरुषहान्तेनैव मयसेयम् । "पंथा उबरिग्भट्ठा, इप्पुरिसा अडविमभवारभ्मि । जम्बूनदस्त हेड्डा, परोपरं ते विथितेति ॥ १ ॥ निम्मूलखाला गोच्छे पछे व सहियाई । अह पपा भाषा, तह लेसाओ बि नायया ॥ २ ॥" अमीषां च सूक्ष्मपृथिवीकाधिकानामतिसंक्रिटपरिणामस्वाद्देवेभ्यः सूक्ष्मेध्यतुस्पादाच्चाचा पच तिखः कृभ्यमी अधुना कषायद्वारमाह तेसि णं भंते ! जीवाणं कति कसाया पष्मत्ता ? । गोयमा ! | लकापोतरूपा लेश्या न शेषा इति । गतं लेश्याद्वारम् । सुगमम्. नवरं संज्ञानं संज्ञाः सात्र द्विधा - ज्ञानरूपा, अनुभवरूपा च । तत्र ज्ञानरूपा मतिक्षतावधिमन पर्यायकेवल भात्यअफारा, तत्र केवल विकासापोपमा अनुभवासातचेदनीयादिकर्म मुल्या प्रयोजनमनुनयसंख्या ज्ञानसंज्ञायाद्वारे परि गृहीत्वान्नाहार संज्ञानाम महारामिल: न प्रभयः स्वात्मपरिणामविशेषः एप बा पजायते । भयसंज्ञा भयवेदनीयोदयजनितत्रासपरिणामरूपा, परिग्रहशा लोभविपाकोक्यसमुत्थमूर्छा परिणामरूपा मैथुतो मैथुनानिलाः पापमो प्रभा पता अपि सूक्ष्मपृथिवीकाधिकानामध्य रूपाः प्रतिपलक्या गर्त संधाद्वारम् । 1 1 अधुना लेश्याद्वारमाह तेमिणं भंते! जीवाणं कति लेसाओ पचताओ ? । गोयमा ! तभो लेसाओ पाओ तं महा-कहलेसा, नीललेसा, काउलेसा | Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाइय अनिधानराजेन्द्रः। पुढवीकाइय इदानीमिन्द्रियद्वारमाह "तेसिणं भंते!" इत्यादि सुगमम् । तेसि णं भंत ! जीवाणं कति इंदियाई पमत्ताई ?। गोयमा! पर्याप्तिप्रतिपक्षा अपर्याप्तिस्तनिरूपणार्थमाहएगे फासिंदियए परमत्ते। तेसि णं भंते ! जीवाणं कति अपज्जत्तीओ पमत्ताओ?। इन्द्रियं नाम- परमैश्वये. "उदितः” इति नुम्। इन्दनादिन्द्र गोयमा! चत्तारि अपज्जत्तीभो पमत्तातो। तं जहा-माहामात्मा सर्योपलब्धिरूपपरमश्वर्ययोगात्, तस्य लिङ्गं चिह्नम रमपजत्ती जाव प्राणापाणुभपज्जत्ती । विनाभावि इन्द्रियर इन्द्रियमिति निपातनसूत्रादूपनिष्पत्तिः । (तेसि णं भंते ! इत्यादि ) पाठसिद्धम् , नवरं चतस्रोऽप्य. तत्पञ्चधा। तद्यथा-श्रोत्रन्द्रियं, चचुरिन्द्रिय,प्राणेन्द्रियं, रसे पर्याप्तयः करणापेक्षया द्रष्टव्याः. लग्ध्यपेक्षया त्येकय प्राणान्द्रियं, स्पर्शनेन्द्रियं च । एकैकमपि द्विधा-द्रव्येन्द्रियम् , भा. पानपर्याप्तिर्यस्मादेवमागम इह लब्ध्य उपर्याप्तका अपि नि. पेन्द्रियं च । द्रव्येन्द्रियं द्विधा-निवृत्तिरूपम्, उपकरणरूपं च । यमादाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तावेव म्रियन्ते, नार्वानिर्वृत्तिर्नाम प्रतिविशिष्टः संस्थानविशेषः । साऽपि द्विधा क, यत् प्रागामिभवाऽऽयुर्बध्वा मियन्ते सर्व एव देहिनः, वाह्या, अभ्यन्तरा च । तत्र बाह्या कर्मपपटिकाऽऽदिरूपा। तच्चाऽऽहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तानामेव बन्धमायान्तीति ॥ मा च विचित्रा न प्रतिनियतरूपतया निर्देष्टुं शक्यते । (जी०) सम्प्रति दृष्टिमाहगोयमेत्यादि सुगमम् । गतमिन्द्रियद्वारम् । ते णं भंते ! जीवा किं सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्टी, सअधुना समुद्धातद्वारम्। तेसि ण भंते ! जीवाणं कति समुग्धाया पामत्ता ?। गो | म्मामिच्छादिट्ठी ? । गोयमा ! णो सम्मदिट्टी, मिच्छादि|यमा ! तो समुग्धाया पलत्ता । तं जहा-वेयणासमुग्याते, ट्ठी, णो सम्मामिच्छादिट्ठी ।। ( तेसि णं इत्यादि) सुगमम् , नवरं सम्यग् अविपरीता कसायसमुग्याए, मारणंतियसमुग्घाते । दृष्टिर्जिनप्रणीतवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्येषां ते सम्यग्दृष्टयः, मिअनेकसमुद्घातसंभवे सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां तान् पृ. थ्या विपर्यस्ता दृष्टियेषां भक्षितहत्पूरपुरुषस्य सिते पीतप्रछति-(तेसि णं भंते ! इत्यादि) सुगमम् । नवरं वैक्रियाss. तिपत्तिबत् ते मिथ्यादृष्टयः, एकान्तसम्यगरूपमिथ्यारूपन - हारकतैजसकेबलिसमुद्धाताभावे वैश्रियाऽऽदिलब्ध्यभावात्। तिपत्तिविकलाः सम्यग्मिथ्यादृष्टयः। निर्वचनसूत्रम्-(गोयगतं समुद्धातद्वारम् । मेत्यादि ) सुगमम् । नवरं सम्यग्दृष्टित्वप्रतिषेधः सास्वासंप्रति संशिद्वारमाह दनसम्यक्त्वस्यापि तेषामसंभवात् , सास्वादनसम्यक्त्व॥ ते णं भंते ! जीवा किं सन्नी, असनी ? । गोयमा ! वतां तन्मध्ये उत्पादाभावात् , ते ह्यतिसक्लिपरिणामाः सानो सन्त्री, प्रसन्नी । स्वादनसम्यक्त्वपरिणामस्तु मनाक् शुभ इति तन्मध्ये सा| ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः,णमिति वाक्यालंकारे,भदन्त ! जी स्वादनसम्यक्त्ववतामुत्पादाभावः, अत एव सदा संक्ति वाः किं संशिनोऽसंझिनो वा.संज्ञानं संज्ञा भूतभवद्भाविभाव- एपरिणामत्वात्तेषां सम्यग्मिथ्यादृष्टित्वपरिणामोऽपि न भः पर्यालोचनं,सा विद्यते येषां ते संक्षिनः विशिष्टस्मरणाऽऽदि वति, नाऽपि सम्यमिथ्यादृष्टिः सन् तन्मध्ये उत्पद्यते "न रूपमनोविज्ञानभाज इत्यर्थः , यथोक्तमनोविज्ञानविकला अ. सम्ममिच्छो कुणह कालं ।" इति वचनात् । गतं दृष्टिद्वारम् । संमिनः । अत्र भगवान्निर्वचनमाह-गौतम ! नो संशिनः, अधुना दर्शनद्वारम्किं त्वसंशिनः, विशिष्टमनोलब्ध्यभावात् , हेतुवादोपदेशेना'ऽपि न संशिनोऽभिसंधारणपूर्विकायाः करणशक्तरभावात् , ते ण भंते ! जीवा किं चक्खुदंसणी,अचक्खुदंसणी,प्रोइहासंशिन इत्येव सिद्धे नोसंक्षिन इति प्रतिषेधः, प्रतिषेधप्र- हिंदसणी, केवलदसणी। गोयमा! नो चक्खुदंसणी,अचधानो विधिरयमिति झापनार्थ प्रतिपाद्यस्य प्रकृतिसावद्यत्वा: क्खुदंसणी, नो ओहिदंसणी, नो केवलदसणी। दिति । गतं संशिद्वारम्। दर्शनं नाम सामान्यविशेषाऽऽत्मके वस्तुनि सामान्यावयोधवेदद्वारमाह स्तचतुर्खा । तद्यथा-चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनम् अवधिदर्शनं,केवतेणं भंते ! जीवा किं इत्थिवेयया,पुरिसवेयया, नपुंसगवेय- लदर्शनं च। तत्र सामान्यविशेषात्मके वस्तुनिचक्षुषा दर्शन या। गोयमा नो इथिवेया, णो पुरिसवेया, नधुंसगवेया । रूपसामान्यपरिच्छेदश्चतुर्दर्शनम् ,अचक्षुषा चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रि । (इरिथवेयगा इति ) स्त्रिया वेदो येणं ते स्त्रीवेदकाः,ए. यमनोभिः दर्शनम् प्रचक्षुर्दर्शनम्,अवधेरेव दर्शनं रूपिसामापं पुरुषवेदका नपुंसकवेदका इत्यपि भावनीयम्, तत्र स्त्रियाः न्यग्रहणम् अवधिदर्शनं,केवलमेव दर्शनं सकलजगद्भाविवस्तुपुंस्यभिलापः स्त्रीवेदः, पुंसः खियामभिलाषः पुंबेदः, उभयोर- सामान्यपरिच्छित्तिरूपं केवलदर्शनं, तत्र किमेषां दर्शनमिति प्यऽभिलाषो नपुंसकवेदः। भगवानाह-गौतम! न स्त्रीवेदकाः, जिज्ञासुः पृच्छति-(ते णं भंते ! इत्यादि) पाठसिद्धम् । नवरन पुरुषवेदकाः, नपुंसकवेदकाः, संमूछिमवात् । “नारक मचतुर्दर्शनित्वं स्पर्शनेन्द्रियापेक्षया शेषदर्शनप्रतिषेधः सुझा. संमूर्षिमा नपुंसकाः" इति भगवचनम् । तः। गतं दर्शनद्वारम्। पर्याप्तिद्वारमाह शानद्वारमाहतेसिणं भंते ! जीवाणं कह पजत्तीओ पम्पत्तायो। गो- तेणं भंते! जीवा किं नाणी मबाणी। गोयमा! नोपमा ! चसारि पज्जतीनो पमत्तानो । तं जहा-आहारप- नाणी प्रमाणी नियमा दुअन्नाणी । तं जहा-मतिअची, सरीरपजत्ती, इंदियपअत्ती, प्राणापाणपजत्ती॥ ' अनाणी य, सुयअनाणी य ।। Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८५) पुढवीकाश्य अभिधानराजेन्द्रः। पुढवीकाश्य मज्ञानित्वं मिथ्याष्टित्वात्,तदपि चाज्ञानित्वं मत्यज्ञानश्रु- गवन्नाई आहारेंति , दुवन्नाई आहारेंति , तउवामाई ताज्ञानापेक्षया। तथा चाऽह-(नियमा दुअलाणीत्यादि) पाठ- आहारेंति , चउवामाई श्राहारेंति पंचवामाई आहासिद्धं नवरं तदपि मत्यवानं श्रुतावानं च शेष जीवबादरा 35दिराश्यपेक्षयाऽत्यन्तमल्पीयः प्रतिपत्तव्यम् । यत उक्तम् रोत ?। गोयमा ! ठाणमग्गाणं पडुच्च तेगवामाई पि दुवालाई पि तिवामाई पि चउवस्माई पि पंचवरमाई पि “सर्वनिकृष्टो जीव-स्य दृष्ट उपयोग एष वीरेण । सूचमनिगोदापर्या-प्तानां स च भवति विशेयः ॥१॥ आहारैति, विहाणमग्गणं पडुच्च कालाई पि आहारैति० तस्मात् प्रभृति शानविवृ-द्धिदृष्टा जिनेन जीवानाम् । जाव सुक्किलाई पि आहारेति । जाई वामो कालाई पि खब्धिनिमित्तैः करणैः, कायेन्द्रियवाङ्मनोहग्भिः॥२॥" आहारेति ताई कि एगगुण कालाई पि आहारेति० जाव योगद्वारमाह अणंतगुणकालाई आहारेति ?। गोयमा ! एगगुणकालाई पि ते णं भंते ! जीवा किं मणजोगी वइजोगी कायजोगी । | आहारेंति० जाव अणंलगुणकालाई पि आहारेंति, एवं० गोयमा ! नो मणजोगी, नो वइजोगी, कायजोगी। जाव सुकिलाई । जाइं भावतो गंधमंताई आहारेंति ताई पाठसिद्धम्। गतं योगद्वारम् । किं एगगंधाई आहारति दुगंधाई आहारैति । गोयमा ! अधुनोपयोगद्वारम् ठाणमग्गणं पडुच्च एगगंधाई पि आहारैति दुगंधाई पि आते ण भंते ! जीवा किं सागारोवउत्ता,अणागारोवउत्ता। हारेंति, विहाणमग्गणं पडुच्च सुन्भिगंधाई पि आहारेंति गोयमा ! सागारोवउत्ता वि, अण्णागारोवउत्ता वि । दुब्भिगंधाई आहारेति । जाइं गंधयो सुन्भिगंधाई आहारति तत्रोपयोगो द्विविधः-साकारोऽनाकारश्च । तत्राऽऽकारः प्रति ताई कि एगगुणसुब्भिगंधाई आहारेंति० जाव अणंतगुवस्तु प्रतिनियतो ग्रहणपरिणामः, " आकारो उ विससो" णसुब्भिगंधाई आहारेति ?। गोयमा ! एगगुणसुभिगंधाई पि इति वचनात् । सहाकारो यस्य येन वा स साकारो शानप. आहारेंति० जाव अणंतगुणमुभिगंधाई पि आहारेंति, एवं चकमज्ञानत्रिकम्,यथोक्ताऽऽकारविकलोऽनाकरः,स चक्षर्दश दुब्भिगंधाई पि रसा जहा वामा । जाई भावतो फासमंनाऽऽदिको दर्शनचतुष्टयाऽऽत्मकः । उक्तं च-"ज्ञानाक्षाने पश्च, त्रिविकल्पे सोऽधा तु साकारः। चतरऽचक्षरवाधक-बल ताई आहारैति ताई कि एगफासाइं आहारेंति• जाव विषयस्य नाकारः॥१॥" तत्र क एपामुपयोग इति जिशा- अट्टफासाई आहारति ?। गोयमा ! ठाणमग्गणं पडुच्च नो सुः पृच्छति-(ते णं भंते ! इत्यादि) निगदसिद्धं नवरं साका एगफासाई आहारैति नो दोफासाई आहारति नो तिरोपयोगोपयुक्ता मत्यज्ञानश्रुताज्ञानोपयोगापेक्षया अनाकारीपयोगोपयुक्ता असंख्यातप्रदेशाऽऽत्मका अचक्षुदर्शनोपयोगा फासाई आहारेंति, चउफासाई आहारति, पंचफासाई पि पेक्षया इति । जाव अट्टफासाइं पि आहारेंति, बिहाणमग्गणं पडुच्च साम्प्रतमाहारद्वारमाह कक्खडाई पि आहारैतिजाव लुक्खाई पि आहारेति । जाई ने णं भंते ! जीवा किमाहारमाहारेंति । गोयमा ! दव फासतो कक्खडाई पि आहारेति ताई कि एगगुणकक्खओ अणंतपदेसियाई दवाई,खेत्ततो असंखंजपदेसोगाढाई, डाई पि आहारेति जाव अणंतगुणकक्खडाइं आहाकाला अप्लयरसमयद्वितीयाई, भावओ वामनंताई गंधर्म- रोत ? । गोयमा ! एगगुणकक्खडाई पि हारेंति. ताई रसमंताई फासमंताई। जाव अणतगुणकक्खडाई पि आहारेंति, एवं. जाव सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः,णमिति वाक्यालंकारे। ( भंते ! जीवा लुक्खा नेयव्वा। किमाहारति)भदन्त ! ते जीवाः किमाहारमाहारयन्तिभिग प्रश्नसूत्रं सुगमम । भगवानाह-(गोयमा! ठाणमग्गणं पहुश्च वानाह-गौतम द्रव्यता द्रव्यस्वरूपपर्यालोचनायाम् अनन्त त्ति) तिष्ठन्ति विशपा अस्मिन्निति स्थानं सामान्यम् एकवर्ण द्विवर्ण त्रिवर्गमित्यादिरूपं तस्य मार्गणमन्वेषणं तत् प्र. प्रादेशिकानि द्रव्याणि अन्यथा ग्रहणासंभवात् न हि संख्यात. प्रदेशाऽमका असंख्यातप्रदेशात्मका वा स्कन्धा जीवस्य तीत्य, सामान्यचिन्तामाश्रित्येति भावार्थः । एकवर्णान्यपि द्विवर्णान्यपीत्यादि सुगम, नवरं तेषामनन्तप्रदेशिकानां ग्रहणप्रायोग्या भवन्ति , क्षेत्रतोऽसंण्येयप्रदेशावगाढानि, स्कन्धानामेकवर्णत्वं द्विवर्णत्वमित्यादि व्यवहारनयमतापे. कालताऽन्यतरस्थितिकानि जघन्यस्थितिकानि , मध्यम क्षया : निश्चयनयमतापेक्षया त्वनन्तप्रादेशिकः स्कन्धोऽस्थितिकानि उत्कृष्टस्थितिकानि चेति भावार्थः । स्थि ल्पीयानपि पञ्चवर्ण एवं प्रतिपत्तव्यः । ( विहाणमग्गणं निरिहाऽऽहारयोग्यस्कन्धपरिणामन्य भावस्थानं प्रत्येतव्य पहुच्चेत्यादि ) विविक्तमितरव्यवच्छिन्नं, धानं पोषणं स्वरूमाह मूलटीकाकार:-कालतोऽन्यतरस्थितीनि तद्भावाब पस्थ यत्तत् प्रतीत्य सामान्यचिन्तामाश्रित्य विधानं विशे. स्थानेन जघन्याऽऽदिरूपां स्थितिमधिकृत्येति भावती वर्णवन्ति गन्धवन्ति रसबन्ति स्पर्शयन्ति, प्रतिपरमारवंकैकय. पकृष्णो नील इत्यादि प्रतिनियतो वर्णविशेष इति यावत्, र्णगन्धरसद्विस्पर्शभावात् । जी०१ प्रतिः। भ तस्य मार्गणं तत् प्रतीत्य कालवान्यायाहारयन्तीत्यादि। सुगम,नवरमेतदपि व्यवहारतः प्रतिपत्तव्यम् ,निश्चयतःपुन. जाई भावो पनमंताई आहारति ताई कि ए- स्वयं तानि पञ्चवर्णान्येव । (जाई वमतो कालवलाई इत्या Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाश्य अभिधानराजेन्दः। पुढवीकाश्य दि ) सुगमम् । यावत्-(अनंतगुणसक्किलाई पि आहारति) र्यगन्याहारयन्ति, तानि किमादावाहारयन्ति, मध्ये वाऽऽहाएवं गन्धरसस्पर्शविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि । रयन्ति,पर्यवसाने वा आहारयन्ति ।अयमत्राभिप्रायः-सूक्ष्म जाई भंते ! अणंतगुणलुक्खाइं आहारेंति ताई भंते ! किं थिवीकायिका हि अनन्तप्रादेशकानि द्रव्याण्यन्तर्मुहर्त कालं यावदुपभोगोचितानि गृह्णन्ति ततः संशयः-किमुपभोगोपुट्ठाई आहारेंति, अपुट्ठाई आहारेति । गोयमा पुट्ठाई मा चितस्य कालस्यान्तहूर्तप्रमाणस्याऽऽदौ प्रथमसमये पाहाहारेंति, नो अपुट्ठाई आहारेंति । ताई भंते ! कि श्रोगाढाई रयन्ति, उत मध्यसमये, पाहोस्वित् ! पर्यवसाने पर्यवसानआहारेंति, अणोगाढाइं आहारेति । गोयमा ! ओगाढाई समये । भगवानाह-गौतम! श्रादावपि,मध्ये ऽपि,पर्यवसाने. आहारेंति, नो अणोगाढाई आहारेति । ताई भंते ! किमणं- | ऽपि आहारयन्ति । किमुक्तं भवति ?-उपभोगोचितकालस्यातरोगाढाई आहारेंति, परंपरोगाढाई आहारेति । गोयमा ! न्तर्मुहर्तप्रमाणस्याऽऽदिमध्यावसानसमयेष्वाहारयन्ति इति । अणंतरोगाढाई आहारैति, नो परंपरोगाढाई आहारेति । नाई भंते ! किं सविसए आहारेंति, अविसए आहारेंति ? (जाइं भंते ! अणंतगुणलुक्खाई इत्यादि ) यानि भदन्त ! | गोयमा! सविसए आहारेंति,नो अविसए श्राहारेंति । अनन्तगुण रूक्षाणि, उपलक्षणमेतत् एकगुणकालाऽऽदी यानि भदन्त ! श्रादावपि मध्येऽपि पर्यवसानेऽप्याहारयन्ति न्यपि आहारयन्ति, तानि स्पृष्टानि श्रात्मप्रदेशस्पर्शविषया तानि भदन्त ! किं स्वविषयाणि स्वोचिताऽऽहारयोग्यानि ण्याहारयन्ति, उतास्पृष्टानि ? । भगवानाह स्पृष्टानि, नो अ आहारयन्ति, उत अविषयाणि स्वोचिताहाराऽयोग्यानि स्पृष्टानि तात्मप्रदेशः संस्पर्शनमात्मप्रदेशाऽवगाढक्षेत्राद् श्राहारयन्ति ? भगवानाह--गौतम! स्वावषयाण्याहारयन्ति, बहिरपि संभवति । ततः प्रश्नयति-(जाइं भंते ! इत्यादि)। नो अविपयाणि। यानि भदन्त ! स्पृष्टान्याहारयन्ति तानि किमवगाढानि आ- ताई भंते ! किं आणुपुब्धि आहारैति, अणाणुपुठिंब पास्मप्रदेशः सह एकक्षेत्रावस्थायीनि, उत अनवगाढानि श्रा. हारेति । गोयमा आणुपुब्दि आहारेंति, नो प्रणाणुपुचि त्मप्रदेशावगाढाऽवगाहनक्षेत्राद बहिरवस्थितानि ? । भगवानाह-गौतम श्रवगाढान्याहारयन्ति नाऽनवनाढानि। यानि आहारैति । ताई भंते ! कति दिसं पाहारेति । गोयमा! भदन्त श्रवगाढान्याहारयन्ति, तानि किमनन्तरावगाढानि । निवाघाएणं छद्दिसिं, वाघातं फच्च सिय तिदिसि, सिय किमुक्तं भवति?-येष्वात्मप्रदेशेषु यान्यव्यवधानेनावगाढानि चउदिसिं, सिय पंचदिसिं, उस्सामकारणं पडुच्च वसतो नैरात्मप्रदेशस्तान्येवाहारयन्ति, उत परम्परायगाढानि एक कालनील. जाव सुकिलाई, गंधो सुग्भिगधाई दुन्भिदिव्याद्यात्मप्रदेशव्यवहितानि ?, भगवानाह-गौतम ! अनन्तरावगाढानि, न परम्परावगाढानि । गंधाई. रसता जाव तित्तमहुराई, फासो कक्खडमउय० नाइं भंते ! कि अणूई आहारेंति, बायराइं आहारेति । जाव निद्धलुक्खाइं,तसिं पोराणे वरसगुणे० जाव फासगुणे वि परिणामतित्ता परिपीलइत्ता परिसाडइत्ता परिविद्धं'गोयमा! अणूई पि आहारेंति, बायराई पि आहारैति । यानि भदन्त ! अनन्तरावगाढान्याहारयन्ति , तानि सइत्ता अन्ने अपुव्वे वणगुणे गंधगुणे०जाव फासगुणे उप्पाभदन्त ! अनन्तप्रादेशिकानि द्रव्याणि किमर]नि स्तोका- एत्ता आतसरीरतोगाढे पोग्गले सचप्पणयाए माहारन्याहारयन्ति, उत बादराणि प्रभूतप्रदेशोपचितानि ? । भग-| माहारेति । वानाह-अणून्यपि आहारयन्ति, बादगण्यपि श्राहारयन्ति, यानि भदन्त स्वविषयाण्याहारयन्ति तानि भदन्त किमानपइहाणुत्वबादरत्वे तेषामेवाऽऽहारयोग्यानां स्कन्धानां प्रदेश ा श्राहारयन्ति,अनानुपूर्व्या आहारयन्ति प्रानुपूर्वी नाम स्तोकत्वबाहुल्यापेक्षया प्रज्ञापनामूलटीकाकारणाऽपि व्या यथासन्नम्। (जी) (आनुपूर्वीभेदाः 'प्राणुपुथ्वी' शब्द ख्याते, इतोऽस्माभिरपि तथैवाभिहिते। द्वितीयभागे १३० पृष्ठादारभ्य दर्शिताः) तद्विपरीता अनानुनाई भंते ! किं उझं आहारति. अहे आहारति, तिरियं पूर्वी। भगवानाह-गौतम! अानुपूर्ध्या,सूत्रे द्वितीया तृतीयार्थे आहारेति । गोयमा उर्ल्ड पि आहारैति,अहे वि आहारति, वेदितव्या, प्राकृतत्वात्, यथा श्राचाराले-“अगिग पुट्ठा". निरियं पि आहारेंति । त्यत्र आहारयन्ति, नो अनानुपूर्ध्या ऊर्द्धमधस्तिर्यग्या यथा सन्नं नातिक्रम्याहारयन्तीति भावःायानि भदन्त श्रानुपूर्व्या भदन्त ! यानि अणून्यपि आहारयन्ति तानि किसूप्रदेश- आहारयन्ति तानि भदन्त !(किं तिदिसिं ति) तिस्रो दिशः स्थितान्याहारयन्ति, अधस्तिर्यग्वा ? । इहोधिस्तिर्यक्त्वं समाहृतास्त्रिदिक् तस्मिन् व्यवस्थितानि आहारयन्ति,चतुर्दियावति क्षेत्रे सूचमपृथिवीकायिकोऽवगाढस्तावत्येव क्षेत्रे शिपञ्चदिशि षट्दिशिवा। इहलोकनिष्कुटपर्यन्ते जघन्यपदेनदपक्षया परिभावनीयम् । भगवानाह-ऊर्द्धमप्याहारयन्ति पित्रिदिग्व्यवस्थितमेव प्राप्यते, तद्विदिगव्यवस्थितमेकदिकऊप्रदेशावगाढान्यप्याहारयन्ति , एवमधोऽपि, तिर्यगपि ।। व्यवस्थितं वा अतस्त्रिदिश प्रारभ्य प्रश्नः कृतः। भगवाना ताई भंते ! किं आदि पाहारेंति, मझे आहारेंति, पञ्ज- ह-गौतम! (निव्वाघाएणं छहिसिं इत्यादि ) व्याघातो नामबमाणे आहारेति । गोयमा! आदि पि आहारेंति, मज्झे अलोकाऽऽकाशेन प्रतिस्खलनं व्याघातस्याऽभावो नियाधा तं, शचप्रथादा(प्रवादा)वन्ययं पूर्वपदार्थे नित्यमव्ययीभाव वि आहारेंति, पजत्रमाणे वि आहारैति । इत्यव्ययीभावः,तेन तृतीयाया इति विकल्पनाम्भावविधानात् यानि भदन्त ! उर्द्धमप्याहारयन्ति,अधोऽप्याहारयन्ति, ति- पक्षेत्रामुभावः नियमावश्यंतया पदिशि व्यवस्थितानि Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढधीकाश्य (६८७) अभिधानराजेन्द्रः। पुढवीकाश्य षड्भ्यो दिग्भ्य भागतानीति भावः। द्रव्यारयाहारयन्ति,व्या- भदन्त ! सूक्ष्मपृथिवीकायिका जीवाः कुतः केभ्यो जीवे. घातं पुनः प्रतीत्य लोकनिष्कुटाऽऽदौ स्यात् कदाचित् त्रिदि- भ्य उद्धृत्योत्पद्यन्ते-किं नैरयिकेभ्य इत्यादि प्रतीतम् । भशि त्रिसृभ्यो दिग्भ्य आगतानि कदाचिश्चतसृभ्यः कदाचित् गवानाह-गौतम ! नो नैरयिकेभ्यं इत्यादि पाठसिद्धं नवरं पञ्चभ्यः। काऽत्र भावेनेति चेत्?। उच्यते-इह लोकनिष्कुटे पर्य- देवनायिकेभ्य उत्पातप्रतिषेधो, देवनैरयिकाणां तथा भवताधस्त्यप्रतरानेय कोणावस्थितो यदा सूक्ष्मपृथिवीकायिको स्वभावतया तन्मध्ये उत्पादासम्भवात् । ( जहा धकंतीए वर्तते,तदा तस्याधस्तादलोकेन व्याप्तत्वात् अधोदिक पुद्गला- इति । यथा प्रशापनायां व्युत्क्रान्तिपदे तथा वक्तव्यम् । तथैभावः आग्नेयकोणावस्थितत्वात् पूर्वदिक् पुनलाभावो दक्षिण- वम्-तिर्यग्योनिभ्योऽप्युत्पादः पर्याप्तेभ्यो वा केवलमसंख्यादिकपुद्गलाभावश्च । एवमधः पूर्वदक्षिणरूपाणां तिसृणां दिशाम- तवर्षाऽऽयुष्कवर्जितेभ्यो मनुष्येभ्योऽपि अकर्मभूमिजान्तरलोकेन व्यापनात् ता अपास्य या परिशेषा ऊर्ध्वा अपरा उत्तरा द्वीपजासंख्यातवर्षाऽऽयुष्ककर्मभूमिजव्यतिरिक्तभ्यः पर्याप्तेच दिग्याहता वर्तते तत भागतान् पुद्गलान् श्राहारयन्ति, भ्योऽपर्याप्तेभ्यो वेति । गतमुपपातद्वारम् । यदा पुनः स एव पृथिवीकायिकः पाश्चमां दिशमनुसृत्य वर्तते अधुना स्थितिद्वारमाहतदा पूर्वदिगभ्यधिका जाता, द्वे च दिशो दक्षिणाधस्त्यरूपे तेसिणं भंते ! जीवाणं केवतियं कालं ठिती पष्मता। अलोकेन व्याहते इति स चतुर्दिगागतान् पुद्गलानाहारयति, यदा पुनरूद्ध द्वितीयाऽऽदिप्रतरगतपश्चिमदिशमऽवलम्ब्य गोयमा ! जहोणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं। तिष्ठति तदाअधस्याऽपि दिगभ्यधिका लभ्यते,केवला दक्षि (तसिणं भंते ! इत्यादि) सुगम, नवरं जघन्यपदादुत्कृष्टप. रंगवैका पर्यन्तवर्तिनी अलोकेन व्याहतेति पञ्चदिग्गतान पु दमधिकमवसेयम् । गतं स्थितिद्वारम् । द्गलानाहारयति (वलतो इत्यादि) वरणतः काल नीललोहि- अधुना समुद्घातमधिकृत्य मरणं विचिन्तयिषुगहतहारिद्रशुक्लानि, गन्धतः सुरभिगन्धानि दुरभिगन्धानिया, ते णं भंते ! जीवा मारणंतियसमग्यातेणं किं समोहया रसतस्तिकानि यावत् मधुराणि, स्पर्शतः कर्कशानि यावत् मरंति,असमोहया मरंति । गोयमा! समोहतावि मरंति, अरूक्षाणि, तेषामाहार्यमाणानां पुद्गलानां पुराणान् अग्रेतनान् वर्णगुणान् गन्धगुणान् रसगुणान् स्पर्शगुणान् “ विपरि समोहतावि मरंति। णाइत्ता परिपीलदत्ता परिसाडरत्ता परिविद्धंसइत्ता।" एता. (तणं भंते ! इत्यादि ) सुगमम् । उभयथापि मरणसंभवात् नि चत्वार्यपि पदानि एकाधिकानि विनाशार्थप्रतिपादकानि च्यवनद्वारमाह-- नानादेशजविनेयानुग्रहार्थमुपात्तानि । विनाश्यं किमित्याह ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उघट्टिना कहिं गच्छंति, अन्यानपूवान् वर्णगुणान् गन्धगुणान् रसगुणान् स्पर्शगुणान् | कहिं उववजंति-कि नेरइएसु उववअंति, तिरिक्खजोणिएउत्पाद्याऽऽत्मशरीरक्षेत्रावगाढान् पुद्गलान् ( सवप्पण सु उववअंति, मणुस्सेसु उववजंति, देवेसु उववजंति । या) सर्वाऽऽत्मना सर्वैराहाररूपान् पुद्गलानाहारयन्ति । गतमाहारद्वारम् । जी० १ प्रतिः । गोयमा ! नो नेरइएसु उववअंति, तिरिक्खोणिएसु उयदाहरयति तच्चीयते ववअंति, मणुस्सेमु नववअंति, नो देवेसु उववअंति, तिते ण भंते ! जीवा जमाहारेंति तं चिति, जंणो श्रा रिक्खजोणिएसु उववजंति । किं एगिदिएसु उववअंति. हाति तं णो चिजति, चिमेवा से उद्दाइ बलिसप्पति वा। जाव पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु उववअंति। गोयमा ! हंता गोयमा ! ते णं जीवा जमाहारेंति, जं नो० जाव | एगिदिएसु उववअंति० जाव पंचिंीदयतिरिक्खजोणिएम बलिसप्पंति वा । उववजंति, असंखजवासाऽऽउयवजेसु पजनापजत्तएम (तं चिज्जा त्ति) तत्पुद्गलजातं शरीरेन्द्रियतया परिण- उववजंति, मणुस्सेसु अकम्मभूमगअंतरदीवगसंखेजवामतीत्यर्थः। (विले वा से उदाइ त्ति) चीM वाऽऽहारितं (से) साऽऽउयव सु पजत्तापजत्तएमु उववअंति । तत् पुद्गलजातमपद्रवत्यपयाति विनश्यति,मलवत् सारश्चा ते सूक्ष्मपृथिवीकायिका भदन्त ! जीवा अनन्तरमुढत्य सू. स्य शरीरोन्द्रियतया परिणमति एतदेवाऽऽह (पलिसप्पर चमपृथिवीकायिकभवादानन्तयणोवृत्येति भावः।क गच्छन्ति त्ति) परिसर्पति च समन्ताद् गच्छतीति । भ०१६ श०३ उ०। कोत्पद्यन्ते । एतेनाऽस्मनो गमनधर्मकतापर्यायान्तरमधि साम्प्रतमुपपातद्वारमाह कृत्योत्पत्तिधर्मकता च प्रतिपादिता, तेन ये सर्वगतमनुत्पते ण भंते ! जीवा कतोहिंतो उववअंति-किं नेरइएहितो। त्तिधर्मकं चाऽऽत्मानं प्रतिपन्नास्ते निरस्ता द्रष्टव्याः। तथारूउववजंति , तिरक्खजेणिएहिंतो उववअंति, मणुस्सेहितो पे सत्यात्मनि यथोक्तप्रश्नार्थासम्भवात् । ( किं नेहरसु उववजति,देवेहितो उवयजति । गोयमा! नो नेरइएहितो गच्छंति) इत्यादि प्रतीतम्, भगवानाह-(नो नेहपसु गच्छउववजंति, तिरिकवजोणिएहितो उववअंति, मणुस्सहिंतो ति इत्यादि) पाठसिद्धम् । (जहा व कंतीए इति) यथा प्रशाउववज्जति. नो देवेहिंतो उववजंति, तिरिक्खजोणियप पनायां व्युत्क्रान्तिपदे पवनमुक्तं तथाऽत्रापि वक्तव्यं, तच्चो. त्पादवत् भावनीयमिति । गतं च्यवनद्वारम् । अत्तापञ्जत्तेहिंतो असंखेजवासाउयवहितो मणुस्सेहितो अधुना गत्यागतिद्वारमाहअकम्मभूमिगअसंखेजवासउयवओहिंतो उववजंति, वर्क- तेणं भंते जीवा कतिगतिया,कति प्रागतिया पसत्ता। ति । उववातो भाणियन्यो। गोयमा! दुगतिया, दुआगइया । Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाइय " ते भदन्त ! जीवाः कति गतिकाः कति गतयो येषां ते क निगतिकारकतिभ्यो गतिय आगतियैषां ते करवागतिका भगवानाह - गौतम ! द्वयाकतिकाः, नरकगतेर्देवगतेश्च सूक्ष्मेत्पादाभावात् द्विगतिका नरकगती देवगती च तत उतानामुत्पादाभावात् । परिता असलेला पण्यता समग्राउसो ! सेतं सुमपुढचिकाइया ॥ परीताः प्रत्येकशरीरिणः असंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणस्वात् प्रशप्ताः मया शेषैश्व तीर्थकृद्भिः । श्रनेन सर्वतीर्थकृतामविसंवादियजनतामाहदे भ्रमण हे आयुष्मन् ! (खेतं सुदुमपुदधिककाइया) त एते सूक्ष्मपृथिवीकाधिका उक्लाः । ! (==) अभिधानराजेन्द्रः | अधुना पादपृथिवीकायिकासुराह से किं वारविकाया वायरपुवीकाइया दुविहा पातं जहा सरावादरपुढविकाइया, खरवावर पुढवि काइया । अथ के ते बादरपृथिवीकायिकाः । सुरिराह बादरपृथिवी कायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-लक्ष्णबादरपृथिवीकायिकाः, खरबादरपृथिवीकायिकाश्च । श्लक्ष्णा नाम चूर्णितलो ष्टकल्पा मृदुः पृथिवी, तदात्मका जीवा श्रपि उपचारतः लक्ष्णाः ते च ते बादरपृथिवीकायिकाश्च लक्ष्णवादरपृथि वीकायिकाः । श्रथवा श्लक्ष्णा च सा बादरपृथिवी च सा कायः शरीरं येषां ते वादपृथिवीकापास्त एव स्वा थिंके कप्रत्ययविधानात् क्षणवादरपृथिवीकाषिकाः खरा नाम पृथिवी संघातविशेषं काठिन्यविशेषं वाऽऽपन्ना तदारमका जीवा श्रपि खरास्ते च ते बादरपृथिवीकायिकाश्च चादपृथिवीकायिकाः अथवा पूर्ववत् प्रकारान्तरेण स मासः चशब्दी वगनानेकमेकी जी० १ प्रति । (वादपृथिवीकाषिकाः तथा खरचादरपृथिकायिकाच अस्मिन्नेव शब्दे ६७४ पृष्ठे उक्ताः ) लक्ष्ण पृथिवीकायिकानां शरीराणि तेसि णं भंते! जीवारां कति सरिगा पणत्ता ? मोयमा । तो सरीरगा पत्ता । तं जहा ओरालिए, तेयए, कम्मए । तं चैव सम्यं, नवरं चनारि लेसाओ, असे जहा सुदुम'पुविकाइया । "लेखिणं भंते! जीवाणं इत्यादिना शरीरावगाहना33दिद्वारकलापचिन्तां करोति । सा च पूर्ववत्, तथा चाऽऽह" एवं जो बेव सुमपुविकाइया गमो सो वेष भा यिव्वो ।” इति ( नवरमित्यादि ) इदं नानात्वं लेश्याद्वारे चतस्रो लेश्या वक्तव्याः, तेजोलेश्याया श्रपि संभवात् । तथाहिपतराव ईशानान्ता देवा भवनविमानाऽऽदावतिम् 'ईया आत्मीयरत्नकुण्डलाऽऽदावप्युत्पद्यन्ते, ते च तेजोलेश्यायन्तोऽपि भवन्ति यझेश्यश्च नियते ऽपि रामेश्य एवोपजायते, "जज्ञे से मरह तले से उववजइ" इति वचनात् । ततः किय कालमपर्याप्तावस्थायां तेजोलेश्याऽप्यवाप्यते इति चतस्रो वक्तव्याः । आहारो० जाव णियमा छद्दिसिं उववातो तिरिक्खजो 33 पुढवीकाइय मिस्सेहिंतो देवेहिंतो ० जाव सोधम्मीसारोहितो द्विती जहमेणं अंतोमुडुत्तं उक्को सेयं बावीसं वाससहस्साइं ते गं भंते! जीवा मारणंतियसमुग्धाएयं किं समोहया मरंति, अ समोहया मरंति । गोयमा ! समोहता वि मरंति, समोहता वि मरति । ते संभवे जीवा अयंतरं उष्वहित्ता कहिंगच्छ कहिं उबवति किं नेरइएस उववज्जंति पुच्छा ? | गोपमा नो नेरइतु उवनज्जेति तिरिक्लजोगिएसु उपनति, मगुस्से उपवति नो देवेसु उपयजेति तं ० जान जवासाज्यवज्जेहिंतो उनवति । ते सं भंते ! जीवा कति गतिया कति आगतिया पपत्ता ?। गोमा ! दुगतिया तिगतिया पणत्ता, परित्ता असंखेआ पत्ता समझाउसो ! सेतं वायरपुचिकाया से पुचिकाया । श्राहारो नियमात् षदिशि बादराणां लोकमध्य एवोपपातभावात् उपपातो देवेभ्योऽपि बादरेषु तदुत्पादविधानात् स्थितिर्जघन्यतो ऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि देवेभ्योऽयुत्पादात् त्रयो गतयः विगतयः पूर्ववत् । एतेऽपेच परीताः प्रत्येकशरीरिणो ऽसंख्येयाः प्रशप्ताः। हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !" सेतं " इत्याद्युपसंहारवाक्यम् । उक्ताः पृथि वीकायिकाः । जी० १ प्रति० । 1 एकतः साधारणशरीरं बध्नन्ति रायगिहे० जाव एवं बयासी सिय भंते! ०जाब चरि पंच पुरवीकाइया एगयओ साधारणसरीरं बंपति, ए २ तो पच्छा आहारेति वा, परिणामेति वा, सरीर वा बंधति वा । खो इस समझे, पुढवीकाइया से पत्तेवाहारा पत्तेयपरिणामा पत्तेयं सरीरं बंधंति, बंधंतित्ता तो पच्छा. आहारेति वा परिणामति वा, सरीरं वा वंधति ॥ (रायगित्यादि) हह चेयं द्वारगाथा कचिदृश्यते--"सिय १ लेसा २ दिट्टि ३ नाणे ४, जोगु ५ वोगे ६ तहा किमाहारे ७ । पाणावाय ८ उप्पा-य ६ डिइ १० समुग्धाय ११ उच्वट्टी १२ ॥ १॥ " इति । अस्याश्चार्थो वनस्पतिदण्डकान्तोद्देश का र्थाधिगमवगम्य एव तत्र स्याद् द्वारे (सिय त्ति) स्याद्भवेदयमर्थः अथवा पृथिवीकाषिका प्रत्येकं शरीरं भ्रन्तीति सिद्धं किंतु (सिप ति) स्थात्कदाचित् (० जाय तर पं च विकार सित्वारः पञ्च वा पारकरणात् ही यात्र यो वा उपलक्षणत्याच्चास्य बहुतरा वा पृथिवीकायिका जीया (ग) एकत एकीभूप संयुग्वेव साहार शरीरं बध्नन्ति पहनो सामान्यं शरीरं यन्ति दितस्तत्प्रायोग्यपुङ्गलग्रहण (आहारैति सि) विशेषादापेक्षा सामान्य द्वारस्पाविशिष्टशरीर बन्धनसमय एचतत्वात् । ( सरीरं वा बंधति सि ) श्राहारितपरिणामितपुशरीरस्य पूर्वबन्धविशेषतो वधं कुर्वन्तीत्यर्थः॥ नायमर्थः समर्थ, धतः पृथियाकाविका प्रत्येकाद्वारा प्रत्ये परिणामायातः प्रत्येकं शरीरं यतीति योग्य व Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ER) पुढवीकाश्य अभिधानराजेन्द्रः। पुढवीसिलापट्टय लग्रहणतः, ततश्व (आहारति इत्यादि) एतच्च प्राग्वत्। पुढवीजीव-पृथिवीजीव-पुं०। पृथिव्येव जीवः पृथिवीजीवः। संज्ञाऽऽदि उत्त० ३६ अ०। पृथिवीरूपे जीव, पृथिव्याधिते वा जीवे, तेसि यं भंते ! जीवाणं एवं समाति वा,पमाति वा, म- सूत्र० १७० ११ १०।। णोइ वा, बईति वा, अम्हे णं आहारमाहारैति ? । यो पुढवीजोणिय-पृथिवीयोनिक-पुं० । पृथिवीजाते जीचे, सूत्र० इणढे समढे,पाहारेंति पुण ते। तोसि णं भंते ! जीवाणं ए. २ श्रु० ३ ० । वं समाति वा जाव वति वा अम्हे में उणि फासे पुढवीपिस्सिय-पृथिवीनिश्रित-त्रि० । पृथिवीकायत्वेन परिडिसंवेदेमो । यो इणटेसमटे पहिलेत पण । पते, प्राचा०१ श्रु.१०४ उ०। (एवं सरणार यत्ति) एवं बच्यमाणोजेखन | पुढवीथूभ-पृथिवीस्तूप-पुं० । पृथिव्येव स्तूपः पृथिव्या वा हारिकार्थावग्रहरूपा मतिः, प्रवर्तत इति शेषः। (परणाइव । स्तूपः। पृथिवीसंघातावयवे, सूत्र० १ श्रु० १०१ उ०। स्तूपन पृथिवासघातावयव, सूत्र०९शु० १ ति) प्रक्षा सूक्ष्मार्थविषया मतिरेव (मणोइ व ति) मनो- पुढवीपइटिप-पृथिवीप्रतिष्ठित-त्रि० । मनुष्याऽऽदौ पृथिवीसद्रव्यस्वभावं ( वाईति व ति) वाग्द्रव्यश्रुतरूपा। माथिते, स्था०८ ठा। "पुढवीपइट्ठिया तसा थावरा पाप्राणातिपाताऽऽदिद्वारे गा।" भ०१श०६ उ०। ते णं भंते ! जीवा किं पाणातिवाए उवक्खाइअंति, पुहवीपुप्फफलाहार-पृथिवीपुष्पफलाऽऽहार-त्रिका पृथिवी पु. मुसावाए अदिमादाणे० जाव मिच्छादसणसल्ले उद- पफलानि च कल्पद्रुमाणामाहारो येषां ते तथा । युगलिकमक्खाइअंति । गोयमा ! पाणाइवाए वि उवक्खाइअंति० नुष्येषु, तं०। जाव मिच्छादसणसले वि उवक्खाहअंति.जेसि पिय | पुढवीपुरी-पृथिवीपुरी-स्त्री० । अप्रहितराजराजधान्याम् । जीवाणं ते जीवा एवमाहिजंति, तेसि पि य णं जीवाणं । ती० २० कल्प। यो विमाए माणत्ते पुलवीफास-पृथिवीस्पर्श-पुं०। पृथिव्याः शीतोष्णरूपायास्ती. । पाणायाप पखारतीयामा पनि बवेदनोत्पादकः स्पर्शः संपर्कः। नरकपृथिषीसंपर्के, सूत्र०१ स्थिता इति शेषः । प्राणातिपातवृत्तय इत्यर्थः। उपाण्यायन्ते श्रु०४ अ. १ उ०। अभिधीयन्ते, यह वचनाऽऽधभावेऽपि पृथिवीकायिकानां पुडवीभूसण-पृथिवीभूषण-ज० । भूभूषणे, "पृथिवीभूपणं मृषावादाऽऽदिभिरुपाख्यानं तन्मृषायादाऽऽद्यविरतिमाधि- नाम, नगरं गतदूषणम्।" मा०क०५०। स्थोच्यत इति । अथ हन्तव्याऽऽदि जीवानां का वार्तेत्याह-(जे-पडवीमय-प्रथिवीमय-त्रि० । पृथिव्या विकारः पृथिवीमयः । सि पिणं इत्यादि) येषामपि जीवानामतिपाताऽऽदिविषयभूशियोकायिके. प्रश्न आश्र द्वार। तानां प्रस्तावात्पृथिवीकायिकानामेव संबन्धिनाऽतिपातादिना । (ते जीव त्ति) तेऽतिपाताऽऽदिकारिणो जीया पुड वीवइ-पृथिवीपति-पुं० । राजनि, "पंचमसरसंपना,भषंति माहिज्जति त्ति) अतिपाताऽऽदिकारिण एत इत्याख्यायन्ते, पुढवीर्वा । सूरा संगहकत्तारो, अगगणणायगा"॥१॥ तेषामपि जीवानामतिपाताऽऽदिविषयभूतानां न केवलं घात- स्था ५ ठा० उ०। कानां (नो) नैव विक्षातमवगतं नानात्वं भेदो यदुत वयं च- पुढवीसंसिय-पृथिवीसंश्रित-नि०। पृथिव्या हिते, प्रश्न १ ध्याऽऽदयः, एते तु बधकाऽऽदय इत्यमनस्कत्वात्तेषामिति । आप द्वार। भ०१६ २०३ उ०। (पृथिवीकायिकानां स्थानानि 'ठाण' शमे चतुर्थभागे १६६७ पृष्ठे उक्तानि) "पुढवीकार्य विहिंसंतो, पुडवीसत्य-पृथिवीशन-नापृथिव्येव शस्त्रं स्वकाया। हिंसा उ तपस्सिए । तस्सेय विविहे पाणा, चक्खुसे य अ. पृथिव्या वा शस्त्रं हलकुहालाऽऽवि, तत्समारभते पृथिवीचक्खुसे ॥१॥" दश० ६ ०"सुखपुढवी न निसिपज्जा, शनम् । पृथिवीहिंसासाधने, "पुढबी सत्थं समारभमाणे जाता जस्त उग्गह।" दश० ८०(पृथिवीकायिकस्य विरूषरूवे पाणभूए हिसह।" प्राचा०१०१०२ उ०। शरीरावगाहना कीहढा कथं वा तस्यामाकम्यमाणायां बे-पडवासिरी-पथिवीश्री-स्त्री० अम्जूदारिकापूर्वभवजीव,था। दनेति 'सरीरोगाहणावेदणा'शब्दयोः वक्ष्यते) यथा प्रस्थाऽऽ- इन्द्रपुरे नगरे पृथिवीश्री नाम गणिकाऽभूत्सा च परन् राजदिना कश्चित्सवैधान्यानि मिनुयादेवमसद्भावप्रज्ञापनाङ्गीकर. कुमारषणिकपुनाऽऽदीन् मन्त्रीऽऽदिभिर्वशीकृत्योदाराम् णालोकः कुडवीकृत्य जयन्योत्कृष्टावगाहनान् पृथिवीकायि भोगान् भुक्तवती षष्ठयां च गत्वा बर्द्धमाननगरे धनदेषकान् जीवान् यदि मिनोति ततः पृथिवीकायिका असंख्ये-| सार्थवाहदुहिता अम्तरित्यभिधाना जाता । स्था० १० ठा। यान लोकान् पूरयन्तीत्याचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धप्रथमाध्य । ('अंजू' शब्दे प्रथमभागे ५० पृष्ठे कथोक्ता) यनद्वितीयोदेशकवृत्तौ स्थावरचतुर्णा त्वगुलासंख्येयभा. गप्रमितिरषगाहमोक्ताऽत पते पृथिवीकायिकाः कथं पूरय | पुढवीसिला-पृथिवीशिला-श्री० । पृथिवीरूपायां शिलायाम् , म्तीति प्रश्ने ?, उत्तरम्-प्रस्थष्टान्ते सामान्योक्तावपि प्रत्या. - भ०२ श.१ उ०। काशमेकैकपृथवीकायिकजीवकल्पनया (१) लोकरूपपल्बमर पुढवीसिलापट्टय-पृथिवीशिलापट्टक-पुं०। पृषिधीशिलाकपः हाः संसूच्यतेऽन्यथा प्रशापनासूत्रवृष्यादिग्रन्थान्तरविरोध पहकासनविशेषः पृथिवीशिलापकः । पृथिवीशिलामये इति । ८२ प्र० । सेन०२ उमा। प्रासनविशेबे, भ०२१०१३०।। २४८ Jain Education Interational Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीसिलापट्टय भनिधानराजेन्दः । पुग्णा वर्णकः सग्गा ४ पुढोविमाया।" पृथग् विभिन्ना विविधा माना हा. तेसु णं जातिमंडवएसु जाव सामलयामंडवएसु बहवे | साऽऽदिवस्तुरूपा येषु ते पृथग्विमात्राः । अथवा-पृथग्विपुढवीसिलापट्टगा पप्पत्ता । तं जहा-हंसासणसंठिता कों विधा मात्रा विमात्रा । स्था० ४ ठा०४ उ०।चासमासंठिता गरुलासणसीठता उलयासणसंठिता पण- पुढोसत्त-पृयक्सत्व-त्रि० । पृथक् सवाः पृथग्भूताः सत्त्वा गासणसंठिया परितासणसंठिया दीहासणसंठिता भद्दा आत्मानो यस्यां सा पृथग्सत्वाः । दश०४०। सूत्र० । प्रा. सणसंठिता पक्खासणसठिता चमरासणसंठिया उसभा चा० । अनेकजीवे, सूत्र. १ १०२ १०२ उ०। सणसंठिया सीहासणसंठिया पउमासणसंठिया दिसासो पुढोसिय-पृथकाश्रित-त्रि० । प्रत्येक व्यवस्थिते, सूत्र० १६० त्यियासणसंठिया पमत्ता, तत्थ बहवे वरसयणाऽऽसण ७ अः। पुण-पुनर-अव्य० । विशेषणे, नं० । नि० च । प्रश्न । विसिट्ठसंठाणसंठिया पम्पत्ता, समणाउसो ! आईणगरू स्था० । विशे० । उत्त० । विशेषद्योतने , विशे० । समुशयबूरणवणीततूलफासमउया सव्वरयणामया अच्छा स- ये, प्रश्न०१आश्र० द्वार। प्रा०च० । नि० चू० दश०. एहा लएहा घट्टा मट्ठा णीरया णिम्मला निप्पंका नि- भजनीयशब्दावधारणे, नि० चू० १ उ०। द्वितीय वारापेक्षा. कंकडछाया सप्पभा सस्सिरीया सउञ्जोया पासादीया द याम् , व्य० १ उ० । पादपूरणे, नि चू० १ उ०। रिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा । जी०३ प्रति० ४ अ पुणब्भव पुनर्भव-पुं० । पुनरुत्पादे, प्रश्न० ३ आश्र0 द्वार। धिः । आचा। पुनःपुनर्जन्मनि, प्रश्न० २ आश्र0 द्वार । पौनःपुन्येनो. त्पादे , औ० । पुढवीसोय-पृथिवीशौच-नापृथिव्या शौचं मृत्तिकया शरी पुणरावित्ति-पुनरावृत्ति-स्त्री०। विपरिणाम, पृ० १ 30 ३ रादिभ्यो घर्षपोपलेपेनेति । जुगुप्सितमलगन्धयोरपनयने, " एका लिङ्गे गुदे तिम्र-स्तथैकत्र करे दश। प्रक० । मोक्षं गत्वाऽपि पुनः संसारपाते, “शानिनो ध. मतीर्थस्य, कारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि, उभयोः सप्त विज्ञेयाः, मृदः शुद्धौ मनीषिभिः ॥१॥ भवं तीर्थनिकारतः" ॥१॥ दशा० १० । स्या० । पतच्छौचं गृहस्थानां, द्विगुणं ब्रह्मचारिणाम्। त्रिगुणं वानप्रस्थानां, यतीनां च चतुर्गुणम् ॥ २॥" पुणरुत्त-पुनरुक्त-न० । शब्दार्थयोः पुनर्वचने,प्रा० म०१०। तदिह नाभिमतं गन्धाऽऽधुपघातमात्रस्य शौचत्वेन विव- प्रयोदशे निग्रहस्थानभेदे, स्या० । पुनरुक्तं द्विधा-शब्दतः, अ-' त्रयोदश निग्रहस्थानभद, स्या क्षितत्वात् तस्यैव च युक्तियुक्तत्वादिति । स्था०५ ठा०३ उ०।। तश्च । तथाऽर्थाऽऽपन्नस्य पुनर्वचनं पुनरुक्तम् । तत्र शब्दतः पदम-प्रथम-त्रि० । “प्रथमे पथो वा"८1१। ५५ ॥ इति पुनरुक्तं यथा-घटः कुटः कुम्भ इत्यादि । अर्थाऽऽपन्नस्य पुनर्वचनं यथा-पीनो देवदत्तो दिवा न भुक्ते इत्युक्तेऽर्थादेव प्रथमशब्दे पकारधकारयोरकारस्य युगपत्क्रमेण च उकारो गम्यते रात्री भुङ्क्ते इति । तत्रार्थाऽऽपन्नमपि यः साक्षादेव वा । 'पुदुमं । पुढमं । पदुमं । पढमं ।' श्राद्ये, प्रा१पाद । स्यात् तस्य पुनरुक्तता । विपा० २ श्रु०१ उ० । विशे०। पुनपुढो-पृथक्-अव्य० । विभिन्ने, प्राचा०१ श्रु०५०२ उ०।। रुक्तं त्रिविधम्-अर्थपुनरुक्तं, वचनपुनरुक्तम् , उभयपुनरुक्तं नानाशब्दार्थे, सूत्र.१७० १० अ)। च । तत्रार्थपुनरुक्तं यथा-इन्द्रः शक्रः पुरन्दर इति । व पुढोछंद-पृथक्छन्द-त्रि० । पृथग् विभिन्नश्छन्दोऽभिप्रायो ये- चनपुनरुक्तं यथा-सैन्धवमानय लवणं सैन्धवमानयत्यादी । षांते पृथक्छन्दाः । नानाभूतवन्धाध्यवसायस्थानेषु, “पत्तेयं उभयपुनरुक्तं यथा-क्षारं क्षीरम् । बृ० १ ० १ प्रक० । सायं पुढो छंदा इह माणवा पुढो पवेदितं से अविहिसमाणे।" "वक्ता हर्षभयाऽऽदिभि-राक्षिप्तमना स्तुवंस्तथा निन्दन् । यत् श्राचा०१श्रु०५०२ उ०। सूत्र। पदमसकृद् घूयात् , तत्पुनरुक्तं न दोषाय ॥१॥" शा०१ श्रु० ८ ०। औ० । अनु० । “अनुवादाऽऽदरवीप्सा-भृत्या. पुढोजग-पृथग्जग-पुं० । पृथग्भूते व्यवस्थिते, " जमिण जग. र्थविनियोगहेत्वसूयासु । ईषत्संभ्रमविस्मय-गणनास्मरण ती पुढोजगा । (४ गाथा)" सूत्र० १ श्रु० २०१०। त्वपुनरुक्तम् ॥१॥" श्राव० ४०। सू० प्र० । “पुणरुत्तं पुढोजण-पृथग्जन-पुं० । प्राकृतपुरुषे अनार्यकल्पे, " इच्चा- कृतकरणे "॥८२।१७६॥ पुणरुत्तमिति कृतकरणे प्र. हंसु पुढोजणा" (६ गाथा) सूत्र० १ श्रु० २ ० १ उ०। योक्तव्यम् । " पंसुलिणीसहेहि अगेहिं पुणरुत्तं।" प्रा० २ पाद । "सज्झायज्माणतवी-सहेस उवएसथुपमाणेसु । संपुढोवम-पृथ्व्युपम-त्रि० । पृथिवीवत्सर्वसहे, "पुढोवमे धुणइ तगुणकित्तणेसु य, न हुंति पुणरुत्तदोसानो ॥१॥" पा०। विगयगेहिं, न समिहिं कुब्वति पासुपन्ने ।" स हि भगवान् यथा पृथिवी सकलाऽऽधारा वर्तते तथा सर्वसत्यानामभ- पुणब्वसु-पुनर्वसु-पुं०। नतत्रविशेषे, ज्यो०६ पाहुन । यप्रदानतः सदुपदेशदाना वा सम्वाधार इति । यदि चा- सू०प्र० । स्था० । विशे० । दशमतीर्थकरप्रथमभिक्षादायके, यथा पृथ्वी सर्वसहा एवं भगवान् परीषहोपसर्गान् स- प्रा० म०१० । अनु० । स्था० । स० । षष्ठबलदेवस्य म्यक् सहते । सूत्र० १ ० ६ ०। पूर्वभवधर्माऽऽचार्ये, ति०। पुढोविमाय-पृथग्विमात्र-त्रि०। पृथग् विविधा मात्रा येषां ते। पुणाइ-पुनर-अव्य०।" नारपुनर्यादाइ वा" ॥८॥१॥६५॥ अनेकप्रकारेषु, प्राचा० १ श्रु० ६ १०५ उ० । " दिव्या उब- नत्रः परे पुनःशब्दे आदेरस्य श्रा-आर इत्यादेशौ वा भ Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ER) अनिधानराजेन्द्रः। पतः । इति केवलस्यापि दृश्यत इति । पुणाइ । द्वितीयवा- मणुयदुर्ग ७ देवदुगं .पंचिंदियजाइ तणुपण १५॥१॥ रायाम् , प्रा०१ पाद। अंगोवंगतियं पि य१८, संबयणं वनरिसहनारायं १०। पुणुई-स्त्री० । गुच्छवनस्पतिभेदे, प्रशा० १ पद । श्वपचे, पढम चिय संठाणं, वन्नाश्चउक्कसुपसत्थं २४ ॥२॥ दे. ना.६ वर्ग ३८ गाथा । गुरुलहु२५परावायं२६,उस्सासं२७आयवं च२८उज्जोयं२६ । पुणो-पुनर-श्रब्य० । स्वरूपावधारणे, नि० चू. २ उ० । वि सुपसस्था विहयगई३०,तसाइदसगंच ४० णिम्माणं ४१ ॥३॥ शेषणे, निचू०३ उ०। वाक्यान्तरोपन्यासे , उत्त० ३६ तित्थयरेणं सहिया, वायाला पुन्नपगईओ।" इति । श्र.। पूर्वस्माद् विशेषे, प्राचा०१ श्रु०४ १०२ उ०।। एवं द्विचत्वारिंशद्विधमपि । अथवा-पुण्यानुबन्धिपापानुब न्धिभेदेन द्विविधमपि । अथवा-प्रतिप्राणिविचित्रत्वादनन्तपुणोपुणो-पुनःपुनर-श्रव्य० । बहुशः शब्दार्थे, सूत्र० १७० भेदमपि पुण्यसामान्यावेकमिति । अथ कर्मैव न विद्यते, ५० १ ०। “बहुसो त्ति वा भुजो त्ति वा पुणोपुणो त्ति | प्रमाणगोचरातिकान्तत्वात् शशविषाणवदिति कुतः पुण्यकथा एगटुं।" नि० चू०२ उ०। विपा० । मसत्तेति? असत्यमेतत् । यतोऽनुमानसिद्धं कम तथाहि-सुपूणोभव-पुनर्भव-पुं० । पुनर्जन्मान्तरे, दश० ८ ० । खदुःखानुभूतेहेतुरस्तिकार्यत्वादङ्करस्यैव बीजं यस्य हेतुत्वं त. पुणोय-पुनश्च-अव्य० । पुनरपीत्यर्थे, प्रश्न० ५ आश्र0 द्वार। कर्म,तस्मादस्ति कर्मेति। स्यान्मतिः-सुखदुःखानुभूतेई एव पुण-पूर्ण-त्रि० । भृते, भ० १ श० ६ उ० । “ईश्रो पु हेतुरिष्टानिष्टविषयप्राप्तिमयो भविष्यति किमिह कर्मपरिक ल्पनयाान हि निमित्तमपास्य निमित्तान्तरान्वेषणं युक्त पाओ।" दश०७०। श्रा०म०। समस्ते, उत्त०१२१०।। रूपमिति,नैवं व्यभिचारात्। इह यो हि द्वयोरिटशब्दाऽऽदियभ०। सूत्र० । सकलावयबयुक्ते,स्था०४ ठा०४ उ० । यत्स्वरक षयसुखसाधनसमेतयोरेकस्य तत्कले विशेषो दुःखानुभूति लाभिः परिपूर्ण गीयते तत्पूर्णम् । रा० । जी० । स्था० ।। मयो यचानिष्टसाधन समेतयोरेकस्य तत्फले विशेषः सुखास्वरकलाभिः सर्वाभिरवियुक्तं कुर्वतः पूर्णम् । अनु० । नुभूतिमयो नासौ हेतुमन्तरेण संभाव्यते । न च त तुक पूर्णाष्टकम् पवासी युक्तः साधनानां विपर्यासादिति, पारिशेष्याद्विशिष्टऐन्द्रश्रीसुखमग्नेन, लीलालग्नमिवाखिलम् । हेतुमानसौ कार्यत्वाद् घटवत,यश्च समानसाधनसमेतमोस्त. सच्चिदानन्दपूर्णेन, पूर्ण जगदवेदयते ॥ १ ॥ त्फलविशेषहेतुस्तत्कर्म, तस्मादस्ति कर्मेति । श्राह च-"जो अथ पूर्णत्वं वस्तुनो निरूपयति तुलसाहणाणं, फले विसेसो न सो विणा हेउं । कजसणी पूर्णता या परोपाधेः, सा याचितकमण्डनम् । गोयम! घडो व्य हेऊ य से कम्मं ॥१६९॥" (विशे०) किं च-अन्यदेहपूर्वकमिदं बालशरीरम् इन्द्रिया विमरवात, य. या तु स्वाभाविकी सैव, जात्यरत्नविभानिभा ॥२॥ दिहन्द्रियाऽऽदिमत्तदन्यदेहपूर्वकं दृष्टं,यथा बालदेहपूर्वकं युवअवाप्तवी विराकल्पैः, स्यात् पूर्णताऽन्धेरिवोर्मिभिः। । शरीरमिन्द्रियाऽऽदिमश्चेदं यालशरीरकं तस्मादन्यशरीरपूर्वकं, पूर्णाऽऽनन्दस्तु भगवा-स्तिमितोदधिसन्निभः ॥ ३ ॥ यच्छरीरपूर्वकं चेदं बालशरीरकं तत्कर्म,तस्मादस्ति कमेति । जागर्ति ज्ञानदृष्टिश्चेत , तृष्णा कृष्णाहिजागली। आह च-"बालसरीरं देह-तरपुव्वं दियाइमत्तानो।जह था. लदेहषुब्यो, जुव देहो पुष्यमिह कम्मं ॥१६१४॥" (विशे०) पूर्णाऽऽनन्दस्य तकि स्या-दैन्यवृश्चिकवेदना ॥४॥ ननु कर्मसद्भावेऽपि पापमक विद्यते पदार्थो न पुरयं पूर्यन्ते येन कृपणा-स्तदुपेक्षैव पूर्णता । नामास्ति, यत्तु पुण्यफलं सुखमुच्यते तत्पापस्यैव तरतमयोपूर्णाऽऽनन्दसुधास्निग्धा, दृष्टिरेषा मनीषिणाम् ॥ ५ ॥ गादपकृष्टस्य फलं, यतः पापस्य परमोत्कर्षेऽत्यन्ताधमफलअपूर्णः पूर्णतामेति, पूर्यमाणस्तु हीयते । ता, तस्यैव तरतमयोगापकर्षभिन्नस्य मात्रा परिवृद्धिहाम्या यावत् प्रकृष्टापकर्षस्तत्र या काचित् पापमात्रा अव तिष्ठते पूर्णाऽऽनन्दस्वभावोऽयं, जगदद्भुतदायकः ॥ ६ ॥ तस्यामत्यन्तं शुभफलता पापापकर्षात्तस्यैव पापस्य सर्वापरस्वत्वकृतोन्माथा, भूनाया न्यूनतेक्षिणः।। मना क्षयो मोक्षः, यथाऽत्यन्तापथ्याऽऽहारसेवनादनारोग्यं. स्वस्वत्वसुखपूर्णस्य, न्यूनता न हरेराप ॥ ७॥ तस्यैवापथ्यस्य किञ्चित्किश्चिदपकर्षाद्यावत् स्तोकापथ्याकृष्णे पक्षे परिक्षीणे, शुक्ले च समुदश्चति । हारत्वमारोग्यकरं सर्वाहारपरित्यागाच्च प्राणमोक्ष इति । पाहच-"पाषुक्करिसेऽधमया,तरतमजोगावकरिसवो सुभद्योतते सकलाध्यक्षा, पूर्णाऽऽनन्दविधोः कला ॥८॥ या। तस्सेव खए मोक्खो,अपत्थभत्तोवमाणाओ ॥१६१०॥" अष्ट १ अष्ट। (विशे०) अत्रोच्यते-यदुक्तमत्यन्तापचितात् पापात् मुखप्रकर्ष इक्षुवरसमुद्रदेवे, सू० प्र० १६ पाहु० । दाक्षिणात्यानां इति । तदयुक्तम्,यतो येयं सुखप्रकर्षानुभूतिः सा स्वानुरूपकर्मद्वीपकुमाराणामिन्द्रे. स्था० ४ ठा० १ उ० स०। प्रकर्षजनिता प्रकर्षानुभूतित्वात् दुःखप्रकर्षानुभूतिवत्,यथा पुण्य-न0 । 'पुण' सुभे इति वचनात् पुणति शुभीकरो. हि दुःखप्रकर्षानुभूति खानुरूपपापकर्मप्रकर्षजनितेति त्वया ति, पुनाति वा पवित्रीकरोत्यात्मानमिति पुण्यम् ।शुभकर्म- ऽभ्युपगम्यते तथेयमपि सुखप्रकर्षानुभूतिरिति स्वानुरूपपुणि, 'उणाऽऽदयो बहुलम् ॥३।३।१।। इति बालकत्वादभावे रायकर्मप्रकर्षजनिता भविष्यतीति प्रमाणफलमिति । स्था०५ क्यप्। उत्त०५ अ । शुभकर्मणि, स्थातच-सवेद्याऽऽदि- ठाशा(एतच 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे २५१ पूछे भयल. द्विचत्वारिंश द्विधम् । यथोक्तम्-. धातुः संघादेन प्रतिपादितम) (पुरमतस्वम् 'त'श "सायं १ उचागोयं २, नर ३तिरि देवाउ ५ नाम एया उ।' चतुर्थभागे २१८० पृष्ठे गतम् ) Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ER) अभिधानराजेन्दः। पुल पुण्याष्टकम् भवति तदनन्तरं नारकाऽऽधशुभगतिपरम्पराकारणं च शासनोन्नतिकरणाद्वितोदयामुन्नति प्राप्नोति इत्युक्तं, तत्र | तत्पापानुबन्धि पापमुच्यते.तथाविधविलाडाऽऽदरिव, तच्च किमहितोदयाऽप्युनतिरस्ति येनासौ सविशेषणाऽभिधीय- महाप्राणातिपाताऽऽदिहेतुकमिति। ते १। उच्यते-अस्ति, यतः (पुण्यजन्योन्नतिः) पुण्या चतुर्थभरकमधुना प्राहपुण्यविचारे चत्वारो भङ्गाः भवन्ति। तद्यथा-पुण्यानुबन्धि गेहाद्रेहान्तरं कश्चि-दशुभादितरभरः। पुण्यमित्येकः, पापानुबन्धि पुण्यमिति द्वितीयः, पापानुबन्धि पापमिति तृतीयः, पुण्यानुबन्धि पापमिति चतुर्थः । तत्रा याति यदत्सुधर्मेण, तद्वदेव भवाद्भवम् ॥ ४ ॥ ऽऽद्यभङ्गप्रतिपादनायाऽऽह-पाठान्तरापेक्षया पुनरेवं संबन्ध- गेहाद्नेहान्तरं कश्चिन्नरो यद् याति, किंविधार्तिकविधमिस्तीर्थनामकर्मण इति प्रागुक्तं तच पुण्यं पुण्याऽऽदिविचारे | त्याह अशुभादकमनीयादितरम्छोभनं, तद्वदेव सुधर्मेण कुशव प्रागुक्ता एवं चत्वारो भङ्गका भवन्ति । तत्राऽऽयभङ्ग- लानुष्ठानमिश्रनिर्निदानाऽऽदिकुशलानुष्ठानलक्षणेन भवादशु. काभिधानायाऽऽह भतिर्यगादेर्भवं शुभं मनुष्याऽऽदिकमिति, यत्किल तिर्यगादेगेहाद्नेहान्तरं कश्चि-च्छोमनादधिकं नरः। जीवस्य प्राग्भवार्जितं कर्म तिर्यक्त्वाऽऽद्यशुभभावानुभूतिनियाति यद्वत्सुधर्मेण, तदेव भवानवम् ॥१॥ मित्तभूतं भवति,तदनन्तरं देवाऽऽदिशुभगतिपरम्पराहेतुश्च त. त्पुण्यानुबन्धि पापमुच्यते,चण्डकौशिकाऽऽदेरिव । (तकृत्तम्गेहाद्नेहान्तरं कश्चिदनिर्दिष्टनामा, नर इति योगः। किंभूता. 'वीर' शब्दे वक्ष्यामि ) इह न भङ्गकनिर्देशे यद्यपि पापं प्रधानं देहाच्छोभनाद्रमणीयात् किंभूतं गेहान्तरम् ?-अधिकं शोभन तथापि पुण्यानुबन्धिहेतुत्वात् पुण्यानुबन्धकारिणि पापे तरं, नरो मानवः, नरग्रहणं चेह विशिष्टवरण साध्यपुण्ययो शुभधर्मतामुपचर्य सुधर्मेण तद्वदेवोत्पाद्यमित्युक्तमिति ॥ ४ ॥ गत्वेन तस्य प्राधान्यख्यापनार्थम्। याति गच्छति, यद्वत् य. थेति दृष्टान्तः, सुधर्मेण पुण्यानुबन्धित्वाच्छोभनः कृपाss. एवं फलतश्चतुर्दा कर्म व्यवस्थाप्योपदेशमाहदिधर्मजन्यत्वाद्धर्मश्चेति सुधर्मस्तेन, पुण्यानुबन्धिपुण्यक- शुभानुबन्ध्यतः पुण्यं, कर्तव्यं सर्वथा नरैः । र्मणेत्यर्थः । तदेव तथैव, भवान् मनुष्याऽऽदिजन्मनः शो यत्प्रभावादपातिन्यो, जायन्ते सर्वसंपदः॥ ५ ॥ भनस्वभावात्सकाशाद्भवं देवाऽऽदिभवं शोभनतरस्वभावं शुभं पुण्यं कर्मानुबनान्यनुसन्धत्ते यदेवं शीलं तत्शुभानुयातीति प्रकृतम् । यत्किल शुभमनुष्याऽऽदेर्जीवस्य पूर्वभवप्र- बन्धि, अत इति यतो गेहाद् गेहान्तरमित्यादिदृष्टान्तं प्रतिपश्चितं कर्म मनुष्यत्वाऽऽदि शुभभावानुभवहेतुर्भवति त पादितं, शुभाशुभं कर्मफलमस्ति. एतस्मात्कारणात्पुण्यं शुदनन्तरं देवाऽऽदिगतिपरम्पराकारणं च तत् पुण्यानुषन्धि भकर्म कर्तव्यं विधेयं सर्वथा सर्वप्रकारैर्नरैर्मानवैः, किंभूतं पुण्यमुच्यते । एतच्च झानपूर्वनिर्निदानकुशलानुष्ठानाद्भवति, तदित्याह-यस्प्रभावाद्यस्य सामर्थ्यादपातिन्योऽपतनशीला भरताऽऽरिवेति । (भरतवृत्तम् 'भरह 'शब्बे वक्ष्यामि) अविनश्वर्यों जायन्ते भवन्ति सर्वसंपदः समस्तनरामरनिर्वाअथ द्वितीयभनकमाह णश्रिय इति ॥५॥ गेहाद्नेहान्तरं कश्चि-च्छोभनादितरन्नरः । तयुनः शुभानुबन्धि पुण्यं कथं क्रियते !, इत्याहयाति यद्वदसद्धांत, तद्वदेव भवानवम् ॥ २॥ सदागमविशुद्धेन, क्रियते तच्च चेतसा । गेहाद्नेहान्तरं कश्चिनरो,यद्वद्यातीति संबन्धः। किंभूतात्कि- एतच्च ज्ञानवृद्धेभ्यो, जायते नान्यतः क्वचित् ॥ ६॥ भूतम् १-शोभनाद्रमणीयादितरत् शोभनं. तद्वदेव तथैव अ. सदा सर्वकालम् । अथवा-सदागमीस्त्रकोटीदोषवर्जितत्वेसद्धौदसनशोभनः पापानुबन्धित्वाद्धर्मश्च दयाऽऽदिधर्म न शोभनं शास्त्रं तेन विशुद्धं निर्मलीकृतं यत्तत्तथा तेन जन्यत्वादित्यसद्धर्मः, तस्मात् पापानुबन्धिपुण्यादित्यर्थः. भ सदागविशुद्धेन चेतसेति योगः। क्रियते विधीयते, तच्च पाच्छाभनान्मनुष्याऽऽदेर्भवमशोभनं नरकाऽऽदिकमिति । तत्पुनः शुभानुबन्धि पुण्यं, चेतसा मनसा, एतच्च एतत् यत्किल शुभमनुष्याऽऽदेर्जीवस्य पूर्वभवार्जितकर्म मानुषत्वा पुनः सदागमविशुद्ध चेतो ज्ञानवृद्धेभ्यः श्रुतस्थविरेभ्यः ऽदि शुभभाषानुभूतिहेतुर्भवति, तदनन्तरं नारकाऽऽदिभवप- सम्यगुपासितेभ्यो, जायते संपद्यते, नान्यतो न पुनरभ्यस्मारम्पराकारणं च तत्पापानुबन्धि पुण्यमित्युच्यते, तश्च निदा कारणान्तरात् , कचिद्देशे काले पात्रे चेति । यद्यपि कालस्व. मात्शानदूषिताद्धर्मानुष्ठानाद्भवति, ब्रह्मदत्ताऽऽदेरिवेति २। भावनियतिकर्मपुरुषाऽऽकाराणां कारणभावः सर्वत्र. तथापि (ब्रह्मदत्तवृत्तम् 'बंभदत्त' शब्दे वक्ष्यामि ) कर्मक्षयोपशम चित्तविशुद्धेरान्तरकारणे मानवृद्धसंपर्कस्य अथ तृतीयभाकमाह प्रधान कारणत्वात्तच्च ज्ञानवृद्धभ्य इत्युक्तमिति ॥ ६ ॥ गेहाद्नेहान्तरं कश्चि-दशुभादधिकं नरः । यदि विशुद्धं चेतो न भवति ततः किं स्यादित्याहयाति यद्वन्महापापात, तद्वदेव भवाद्भवम् ॥३॥ चित्तरत्नमसंक्लिष्ट-मान्तरं धनमुच्यते । गेहान्नेहान्तरं यत्कश्चिन्नरो याति, किंविधात् किंविधः यस्य तन्मुषितं दोष-स्तस्य शिष्टा वित्तयः ॥७॥ मित्याह-अशुभादरमणीयादधिकमशुभतर,तद्धदेव महापापा- चित्तं मनस्तद्रत्नमिव वित्तरलं,निर्मलस्वभावत्वोपाधिजमहच्च तत् पापानुबन्धित्वात् पापं चाशुभकर्मेति महा- नितविकारन्वादिसाधर्म्यात्, असंक्लिष्टं रागादिसंक्लेश/जपापं, तस्मात्पापानुबन्धिपापादित्यर्थः। भवादशुभात्तिर्यगादे. तमान्तरमाध्यात्मिकंधनं वसूच्यते अभिधीयते, यस्य देहिनः र्भवमशुमतरं नारकाऽऽदिकमिति । यत्किल तिर्यगादेर्जीवस्य तश्चित्तरत्नं, मुषितमपहृतं दोषै रागाऽऽदिभिस्तस्य देहिनः पूर्वजन्मोपात्तं कर्म तिर्यगाद्यशुभभावानुभवननिमित्तभूतं ' शिष्टा उद्धरिता विपत्तयो व्यसनानि, असंक्लिष्टचित्तरत्ना Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६३) अभिधानराजेन्सः । पुमहापगड भावे हि हर्षविषादाऽऽदिरूपा कुगतिगमनरूपा वा विपत्तय पात्रायान्नदानाद्यस्तीर्थकरनामाऽऽदिपुण्यप्रकृतिबन्धः - एवावशिष्यन्त इति ॥ ७॥ दन्नपुण्यम् एवं सर्वत्र नवरं(लेणं ति)लयनं गृहं,शयनं संस्ताअन्ये त्वमुं श्लोकं चास्य स्थान पठन्ति रकाऽऽदिः, मनसा गुणिषु तोषात् वाचा प्रशंसनात् कायेन प्रकृत्या मार्गगामित्वं, सदपि व्यज्यते ध्रुवम् । पर्युपासनात् नमस्काराच्च यत्पुण्यं तन्मनःपुण्याऽऽदीति । ज्ञानवृद्धप्रसादेन, वृद्धिं चाऽऽमोत्यनुत्तराम् ॥ ७॥ उक्तं च-"अन्नपाने च वस्त्रं च, श्रालयः शयनाऽऽसनम् । शु आगमविशुद्ध चित्तं शानवृद्धेभ्यः सकाशादुपजायत इत्युक्तम्, श्रूषा वन्दनं तुष्टिः, पुण्यं नवविधं स्मृतम् ॥ १॥” इति। स्था० तत्रेदं किं सदुत्पद्यते,असद्वा। यदि सदिति पक्षःस न युक्तः, ६ ठा० । सूत्र० । अभ्युदयप्राप्ती, सूत्र०१७०१ १०१ उ० । सतं उत्पादायोगात्,गगनस्येव सतोऽप्युत्पादे उत्पादाविराम पुण्यप्रकृती, कर्म०५ कर्मः सुकृते, शा. १७०१ अ०। प्रसङ्गात् । अथासदिति पक्षः। सोऽप्ययुक्तः,सर्वथा असत उ पवित्रे, शा० १श्रु० ८ अ । नि० । संविग्नसाधुदानाऽऽदौ, पादाभावात् , गगनाम्भोरुहस्येवेति । अनोत्तरमाह-प्रकृत्या तं । " णथि पुग्ने न पाये य, वं सन्नं णिवेसए । अस्थि स्वभावन मार्गागामित्वमागमविशुद्धत्वं, चेतस इति गम्यते । पुसे य पावे य, एवं सरणं विवेसए ॥१॥" सूत्र०१ शु. सदपि कथञ्चिद्विद्यमानमपि,अपिशब्दादू व्यक्तितः अविद्यमा ११ अ० । पापः पापेन कर्मणा पुण्यः पुण्येन कर्मणा । पा) नमपि,अननकान्तसत्वासवपक्षोक्तदोषः परिहतो भवति।कि म. १०।" पुरणं सुकयं च भागहेयं च ।" पाह. ना. मित्याह-व्यज्यत व्यक्तं भवति,ध्रुवं निश्चितम्,अनेन ज्ञानवृद्ध १६७ गाथा। प्रसादस्य मार्गगामित्वव्यजकत्वं प्रत्यव्यभिचारिकारणतामा पुस्मकंखिय-पुण्यकाइक्षित-त्रि० पुण्ये काङ्क्षा संजाताऽस्येह-केनाभिव्यज्यते ?,इत्याह-शानेन बोधेन वृद्धा महान्तो शानं ति पुण्यकातितः । पुण्य गृद्धे, तं। वा वृद्धं येषां ते ज्ञानवृद्धास्तेषां प्रसादः प्रसन्नता ज्ञानवृद्ध- पुस्मकलस-पूर्णकलश-पुं०। जलपरिपूर्णघटे,पञ्चा०८ विधा। प्रसादस्तेन,किमभिव्यक्तिमात्रमेव?,नेत्याह-वृद्धि च विपुलतां, रा०। ध। चशब्दः समुच्चये,प्राप्नोति लभते,अनुत्तरामविद्यमानप्रधान. तरां, मार्गगामित्वमिति प्रकृतमिति शुभानुबन्ध्यतः पुण्यं पुरमकलसमयणमुत्ति-पूर्णकलशमदनमूर्ति-पुं० । उज्जयन्तपकर्तव्यमित्युक्तम् । ते पूज्ये नेमिनाथे, श्रीउज्जयन्ते पुण्यकलशमदनमूर्तिः थ्रीअथ तदुपायोपदर्शनायाऽऽह नेमिनाथः । ती० ४३ कल्प। दया भूतेषु वैराग्यं, विधिवद् गुरुपूजनम् । पुराणकलसा-पुण्यकलशा-स्त्री० । लाटदेशीये स्वनामख्याने विशुद्धा शीलवृत्तिश्च, पुण्यं पुण्यानुबन्ध्यदः ॥ ७॥ | ग्रामे, प्रा. म०१ अ०। आ० चू० । दया कृपा भूतेषु सामान्यतो जीवेषु, वैराग्यं विरागता, पुरणकलसाऽऽदिट्ठवण-पूर्णकलशाऽऽदिस्थापन-न० । पूर्णद्वेषाभावाविनाभूतत्वाद्वैराग्यस्येति, विगतद्वेषता च, विधि. | कलशानां मङ्गलदीपानां म्यासे, पञ्चा०८ विव० । विधानं शास्त्रोक्तो न्यायः श्रद्धासत्कारक्रमयोगाऽऽदिः,स वि. पुण्णकलसाऽऽदिरूव-पुण्यकलशाऽऽदिरूप-पुंजलपरि. द्यते यत्र तद्विधिवत् इह यद्यपि विधिमदितिशब्दः सिद्धय- पूर्णघटपूर्वभारोतमृत्तिकाऽऽदिरूपे, जं०१ वक्षः। ति तथाऽप्यन्द्राऽऽदिव्याकरणप्रवीणत्वाद्धारभद्राऽऽनार्यस्य | नापशब्दः शङ्कनीय इति । ( इन्द्रव्याकरणं कदा जातमिति पुरमकामय-पुण्यकामक-वि० । पुण्ये तत्फलभूतेषु शुभकर्म'इंदवागरण' शब्दे .द्वितीयभागे ५४७ पृष्ठे निश्वितम् )। "" णि कामो यस्य स पुण्यकामकः । पुण्येच्छुके, नं०। गुणन्ति शास्त्रार्थमिति गुरवः साधवस्तेषां पूजनं भक्तपान- पुराणकड-पूर्णकट-न० । कच्छदीर्घवैतात्यपर्वतस्य अपमे वनपात्रप्रणामाऽऽदिभिरभ्यर्थनं गुरुपूजनं, विशुद्धा निरति-कटे, स्था० । ठा0 । गन्धि लावतीदीर्घयतात्यपर्वतस्य षष्ठेचारा शीलवृतिहिंसाऽनृतादत्ताब्रह्मपरिग्रहविरमणरूपकुश कूटे, स्था०६ठा। लानुष्ठानवर्तनं; चशब्द उनसमुच्चये, अनुक्तगुणान्तरसमु होस गोष-पं० । ऐरवते वर्षे प्रागमिष्यन्त्यामुत्सच्चये वा । किमेतदित्याह-पुण्यं शुभं कर्म पुण्यकर्म, ब. | घहेतुत्वेनोपचारात् । किंभूतमित्याह-पुण्यानुबन्धि शुभ पिण्यां भविष्यति एकादशे तीर्थकरे, सका ती। कर्मसन्तानवत्,अद एतदनन्तरोदितम् । ननु दया भूतेषुह परमचंद-पूर्णचन्द्र-पुं० । भारतवर्षे समयायामपि मेदिन्याभृत ग्रहणमनर्थकं यतो दया प्राणिगोचरैव दया हि दुखितेषु ममारघातोवघोषके राजनि, संथा। भवति, दु:खितत्वं च प्राणिनामेवति । अत्रोच्यते-न भूतग्र. इसमवेतनव्यवच्छेदार्थमपि तु भूतसामान्यग्रहणार्थ, तेन पुम्मट्ठापगड-पुण्यार्थप्रकृत-त्रि० । साधुवादाङ्गीकरणन पु. सर्वभूतेषु तदुचितेषु दया विधेयेत्युक्तं भवति । श्राह ण्यार्थकृते, दश। च-" बढण पाणिनिवहं, भीमे भवसायरम्मि दुक्खतं ।। असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। अविसेसोऽणुकंप, दुहा वि सामथओ कुणइ ॥१॥” इति । जं जाणज सुणिज्जा वा, पुस्मट्ठा पगडं इमं ॥ ४६॥ हा० २४ प्रह। प्रति०। पश्चा। पं० व०! तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । पुण्यानि दितियं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥५०॥ नवविहे पुम्मे परम ते । तं जहा-अम्मपुत्र,पाणपुरे वत्थपुग्ने ले- एवं पण्याथै,पुण्यार्थ प्रकृतं नाम-साधुवादानङ्गीकरणेन यत्पुपुणे,सयणपुमे,मणपुले,वयपुने,कायपुग्ने, नमोकारपुग्ने । ण्यार्थ कृतमिति । अत्राऽऽह-पुण्यार्थप्रकृतपरित्यागे शिष्टकुलेषु For Private & Personal-Use Only Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुसट्टापगड अभिधानराजेन्छः। पुलमासिणी वस्तुतो भिक्षाया अग्रहणमेव,शिष्टानां पुण्यार्थमेव पाकप्रवृत्ते , भद्राऽभिधानदेवनिवासात् पूर्णभद्रकटम । जम्बूद्वीपे भरतखतथाहि-न पितृकर्माऽऽदिव्यपोहेनामार्थमेव क्षुद्रसववत्व एडे दीर्घवैतात्य षष्ठकूटे, स्था० ६ ठा। जं०। ऐरवतदीनम्न शिष्टा इति,नैतदेवम् प्राभेप्रायापरिज्ञानात् स्वभोग्याति. घंवैतात्यपर्वतस्य षष्ठ कुटे,स्था ठा० । अन्त० । पाचू। रिक्तस्य देयस्यैव पुण्यार्थकृतस्य निषेधात्, स्वभृत्यभोग्यस्य श्रा०म० । माल्यवद् वक्षस्कारपर्वतस्याऽष्टमे कुटे , जं०४ पुनचितप्रमाणस्यत्वरयदृच्छादेयस्य कुशलप्रणिधानकृत पक्षचम्पानगर्या उत्तरपूर्वदिग्भागे स्वनामके चैत्ये नि स्याऽप्यनिषेधादिति, एतेनाऽदेयदानाभावः प्रत्युक्तः,दयस्पैव १०१ वर्ग १० विपा०[अन्त शा० । उपा० । ओघ । यरच्छादानानुपपतेः कदाचिदपि वा दाने यदृच्छादानोपपत्ते, मा० चू० । प्रा० म० । वाणिजग्रामे स्वनामख्याते तथा व्यवहारदर्शनात् ,अनीशस्यैव प्रतिषेधात् तदारम्भदो गृहपती, स च धीरान्तिके प्रव्रज्य पञ्चवर्षपर्यायः विपुले प. पेण योगात् , यहच्छादाने तु तदभावेऽप्यारम्भप्रवृत्तेः ना ते सिद्ध इति अन्तकृहशानाम् । अन्त०१७) ५ वर्ग २ सौ तवर्थ इत्यारम्भदोषायोगात् , दृश्यते च कदाचित्सू अ०। स्थविरस्यार्यसम्भूतविजयस्य द्वादशशिष्याणां सप्तमे, तकाऽऽदाविव सर्वेभ्य एवं प्रदानविकला शिष्टाभिमनानाम कल्प० २ अधि०८ क्षण। गि पाकप्रवृत्तिरिति, विहितानुष्ठानत्वाच्च तथाविधग्रह पुम्ममंत-पुण्यवत-त्रि० । पुण्यमस्त्यस्य पुण्यवान् । "प्रालिबजामदोष इत्यलं सकेन, अक्षरगमनिझामात्रफलत्वात्प्रया- लोल्लाल-वन्त-मन्ततर-मणा मतोः " ॥ ८।२।१५६ ॥ इति सस्येति ॥३॥ प्रतिषेधः पूर्ववत् ॥५०॥ दश० ५०१ उ० । मतोः स्थाने मन्ताऽऽदेशः। पुण्यवान् । पुण्य विशिष्ट प्रा०२पाद । पुस्मणिमित्त-पुण्यनिमित्त-न० । शुभकर्मनिबन्धने, पश्चा पुष्पमासिणी-पोर्णमासी-स्त्री० । पूर्णो मासो यस्यां सा पौर्ण१५ विव०। मासी । प्रज्ञाऽऽदित्वात् स्वार्थे ऽण । अन्ये तु ब्याचक्षते-पों. पुपतिहि-पूर्णतिथि-ली० । पूर्णासंज्ञकतिथौ, पञ्चमी द- उमाश्चन्द्रमा अस्यामिति पौर्णमासी, अग तथैव । प्राकृतत्वाशमी पञ्चदशी च तिथिः पूर्णा उच्यते। पञ्चा० १५ वि. त्सूत्रे पुलमासिणी । जी० ३ प्रति०४ अधिः । पकायाम् , या। जं ज्यो। स्था०५ ठा०३ उ०। पौल मास्यःपुणपगइ-पुण्यप्रकृति-स्त्री०। जीवाऽऽहादजनिकायां शुभकर्मप्रकृती, कर्म०५ कर्मः । प्रय०। (ताश्च सुरगत्याद्या द्वाचत्वा ता कहं ते पुम्ममासिणी आहिताति वदेजा । तत्थ खलु रिशत् ' कम्म' शम्ने तृतीयभागे २६७ पृष्ठे दर्शिताः) इमानो बारस पुग्ममासिणीओ,बारस अमावासाओ पस्मता ओ। तं जहा-साविट्ठी १, पोहवती २, असोया ३, कत्तिपुम्मपगय-पुण्यप्रकृत-त्रि० । पुण्यार्थ साधिते, प्रश्न ५ श्रा. या ४, मग्गसिरी ५, पोसी ६,माही ७, फग्गुणी ८, चेती अ० द्वार। पुस्मपय-पुण्यपद-न० । पुण्यहेतुत्वात्पुण्यं, तच्च तत्पद्यते | ६, विसाही १०, जट्ठामूली ११, आसाढी १२ । गम्यतेऽनेनार्थ इति पदम् . पुण्यस्य वा पदं स्थानम् । 'ता' इति पूर्ववत् । कथं ? केन प्रकारेण केन नक्षत्रेण पपापपरिवर्जनाऽऽत्मके शब्दसंदर्भ, उत्त०१८ अ.। रिसमाप्यमाना इत्यर्थः, पौर्णमास्य श्राख्याताः, अन पौ र्णमासीग्रहणममावास्योपलक्षणं, तेन कथममावास्या अपि पुम्पपाल-पुण्यपाल-पुं० । पापायां नगर्यो चरमव/रात्रं स्थि श्राख्याता इति वदेत् । एवमुक्ते भगवानाह (तत्थेत्यादि) तस्य श्रीवीरस्य घन्दनार्थमागते अष्टादशस्वप्नपृच्छके , तत्र-तासां पौर्णमासीनाममावास्यानां च मध्ये जातिभेदमनी०२० कल्प। धिकृत्य खल्विमा द्वादश पौर्णमास्यो द्वादश चेमा श्रमावा. पुम्सपाव-पुण्यपाप-न० । शुभाऽशुभकर्मणोः, उपा०।"णस्थि स्याः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-श्राविष्ठी प्रौष्ठपदी इत्यादि, तत्र श्रपुणे . य पावे य, णवं सन्नं णिवेसए । ” इति । सूत्र विष्ठा धनिष्ठा, तस्यां भवा श्राविष्ठी श्रावणमासभाविनी, २७०५० । ('अस्थिवाय' शब्दे प्रथमभागे ५२० पृष्ठे प्रोष्ठपदा-उत्तरभद्रपदा तस्यां भवा प्रौष्ठपदी-भाद्रपदमासव्याख्यातम्) भाविनी, अश्वयुजि भवा आश्वयुजी अश्वयुग्मासभाविनी, पुापपिवासिय-पुण्यपिपासित-त्रि० । पिपासेव पिपासा प्राप्ते. एवं मासक्रमेण तत्तन्नामानुरूपनक्षत्रयोगात् शेषा अपि वऽपि पुरयेऽतृप्तिः,पुण्यपिपासा सा साताऽस्येति पुण्यपिपा कव्याः । सितः । नित्यं पुण्याऽतृप्त, तं०। सम्प्रति यैन तबैरकैका पौर्णमासी परिसमाप्यते तानि पिपृच्छिपुराहपुस्मप्पभ-पूर्णप्रभ-त्रि० । इक्षुवरे समुद्रे तदधिपे देवे, सू० ता साविढि णं पुस्लमामि कति णक्खत्ता जोएंति। ता प्र० १६ पाहु। तिमि णक्खत्ता जोति । तं जहा-अभिई, समणो, धणिपुम्मप्पमाण-पूणोंऽऽत्ममान-त्रि पूर्णप्रमाणः पूर्ण वा जलेना द्वा(१)। ऽऽस्मनो मानं यस्य स पूर्णाऽत्ममानः। जलपूर्णमाने, “सा ना. 'ता' इति पूर्ववत् , श्राविष्ठी पौर्णमासी कति नक्षत्राणि यु. मा तेहिं पासबदारहिं प्रापूरमाणी २ पुसा पुमयमाणा बो अन्ति, कति नक्षत्राणि चन्द्रेण सह यथायोग संयुज्य परिससहमाणा बोसहमाणा समभरघडताए चिटुइ ।" भ० १श० मापयन्ति ? भगवानाह-(ता तिमि इत्यादि ) 'ता' इति पू. संवत्, त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति-त्रीणि नक्षत्राणि चन्द्रेण पुस्मभर-पूर्णभद्र-पुं० । दक्षिण पक्षनिकायेन्द्र स्था०९ ठा० ।। सह यथायोगं संयज्य परिसमापयन्ति । तद्यथा-अभिजित. यक्षनिकायभेदे, प्रहा। २ पद । भ०। ति०/श्रा। चू०। पूर्व. श्रवणो, धनिष्ठा च । इह श्रवणधनिष्ठारूपे दे एव नक्षत्रे Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानमामिगी अनिधानराजेन्छः । पुरणमासिगी धाविष्ठी पांगमानी परिसमापयतः, कंवल मभिजिन्नक्षत्र नक्षत्रकरणार्थमष्टादशभिः शनैशिदधिकैः सप्तपष्टिभाग श्रवणन मह सम्बद्ध मिति तदापे परिसभापयतीत्युक्तम् . रुपैर्गुणयन्ते , जातान्येकनयतिः शतानि पश्चाशवधिकानि कधमनदयनीयंत इति चेत् ?, उच्यते-इह प्रवचनप्र- १९५०, छेदराशिरपि द्वापष्टिप्रमाणः सप्तषष्ट्या गुण्यंत, मित्रममावाम्यापोर्ग मामीविषयचन्द्रयोगपरिक्षानार्थमिदं क- जातान्येकचन्यारिंशत् शतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि ४१५४, रगाम उपरितनो राशिमुहूर्ता नयनाथै भूयः विशता गुण्यते, जाने '' नाउमिह अमावास.जइ इच्छसि कम्मि होइ रिक्वाम्म । . द्व लक्ष चतुःसप्ततिः सहस्राणि पश्च शतानि २७४५००, तेषां अवहारं ठाविजा. तत्तियरूवेहि संगुणए॥१॥ चतुःपञ्चाशदधिकैकचत्वारिंशच्छतैर्भागहरणं, लब्धाः पदछावट्ठी य मुहुत्ता, विसट्ठिभागा य पंच पडिपुता। षष्टिर्मुहर्ताः ६६. शेषा अंशास्तिष्ठन्ति त्रीणि शतानि पदबामट्टिभागसत्त-ट्रिगी य एको हवर भागो ॥२॥ त्रिशदधिकानि ३३६. ततो द्वाषष्टिभागाऽऽनयनार्थ तानि पयमवहाररासिं. इछ अमावाससंगुणं कुज्जा। द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि विशतिः सहस्राणि अष्टौ शतानक्खत्ताणं एत्तो, सोहणगविहिं निसामेह ॥ ३॥ नि द्वात्रिंशदधिकनि २०८३२, तेषामनन्तरोक्नेन छेदराशिबावीसं च मुहुत्ता. छायालीसं विसट्टिभागा य। मा ४१५४ भागो हियते, लब्धाः पश्च द्वापष्टिभागाः ५. एयं पुणवसुस्स य, सोहेयध्वं हवा बुच्छं ॥४॥ शेषास्तिष्ठन्ति द्वाषष्टिः, ततस्तस्या द्वापए या अपवसेना यावत्तरं सयं फ-गुणीण वाण उदय बे विप्ताहासु। क्रियते, जात एकका, छदराशरपि द्वाषष्टयाऽपवर्तनायांल. चत्तारि अबायाला, सोज्मा अह उत्तरासाढा ॥५॥ ब्धाः सप्तपष्टिः, तत श्रागतं पट्पष्टिमा एकस्य च मु. एयं पुणवसुस्त य, बिस ट्ठिभागसहियं तु सोहणगं । हूर्तस्य पञ्च द्वापष्ट्रिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः स. इत्ता अभिईआई, बिइयं वुच्छामि सोहणगं ॥ ६॥ प्तपष्टिभाग इति, तदेवमुकमवधार्य राशिप्रमाणम् ॥ २ ॥ अभिहस्त नव मुहुत्ता, विसट्ठिभागा य हुंति चउवीसं । संप्रति शेवविधिमाह-( एयमवहारे ३-इत्यादि ) एतमनन्तछावट्ठी असमत्ता, भागा सत्तट्टिछेयकया ।। ७॥ रोदितस्वरूपमवधार्थराशिमिच्छामावास्यासंगुणं-याममावा. उगुणटुं पोटुवया-तिसु चेव नवोत्तरं च रोहिणिगा। स्यां ज्ञातुमिच्छसि तत्संख्यया गुणितं कुर्यात्,अत ऊद्ध तु नक्षनिसु नवनवरसु भवे, पुणवसू फग्गुणीश्री य ॥८॥ त्राणि शोधनीयानि,ततोऽत ऊर्द्ध नक्षत्राणां शोधनकविधि पंचव उगुणपन्नं, सयाइ उगुणुत्तराई छवेव । शोधनकप्रकारं वक्ष्यमाणं निशामयत पाकर्मयत ॥३॥ नत्र सोझाणि विसाहासुं, मूले सत्तेव चोयाला ॥६॥ प्रथमतः पुनर्वसुशोधनकमाह-(बावीसं चेत्यादि ४) द्वाविंशअट्ठसय उगुण वीसा, सोहणगं उत्तराण साढाणं । तिर्मुहर्ता एकस्य च मुहर्तस्य षट्चत्वारिंशत् द्वापष्टिभागाः, चउसिं खलु भागा, छावट्ठी चुसियाओ य ॥१०॥ एतत् एतावत्प्रमाणं पुनर्वसुनक्षत्रस्य परिपूर्म भवति शाएयाइ सोहाता, जं सेस तं हविग्ज नक्खतं । व्यं, कथमेवंप्रमाणस्य शोधनकस्योत्पत्तिरिति चेत् ? उ. इत्थं करो उडुबह, सूरेण समं श्रमावासं ॥ ११ ॥ च्यते-इह यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपइच्छापुस्लिमगुणिश्री, अवहारो सोत्थ होइ कायम्यो। र्याया लभ्यन्ते तदैकं पातिक्रम्य कतिपयास्तेनैकेन पतं व य सोहणगं, अभिई अहं तु कायब्वं ॥ १२ ॥ बणा लभ्यन्ते ?, राशित्रयस्थापना-१२४ । ५।१। अत्रान्त्येन सुम्मि य सोहणगे, जं सेसं तं हवेज्ज नक्खतं । राशिना एककलक्षणेन मध्यो राशिः पञ्चकरूपो गुण्यते, जा. तत्थ य करेर उवा, पडिपुराणो पुमिमं विउलं ॥ १३॥" ताः पञ्चैव. " एकेन गुणितं तदेव भवति" इति वचनात् , एतामांगाथानां क्रमेण व्याख्या-याममावास्यामिह-युगे ज्ञा- तेषां चतुर्विंशत्यधिकन शतेन भागो हियते लब्धाः पञ्च चतु. 'तुमिच्छसि-यथा कस्मिनक्षत्रे वर्तमाना परिसमाप्ता भवतीति विंशत्यधिकशतभागाः,ततो नक्षत्राऽऽनयनाथमेतेऽष्टादशभिः नायडूपर्यावत्यो ऽमावास्या अतिक्रान्तास्तावत्याः संख्याया इ. शतैत्रिशदधिकैः सप्तपष्टिभागरूपैर्गुणयितव्या इति,गुणकारत्यर्थः, वक्ष्यमाणस्वरूपमवधार्यते-प्रथमतया स्थाप्यते इति छदराश्योकेिनापवर्तना, जातो गुणकारराशिनव शतानि प"न्यवधार्यों भवराशिः तमवधार्य राशि पट्टिकाऽऽदौ स्थापयि- ञ्चदशोत्तराणि ६१५. छेदराशि षष्टिः ६२, ततः पञ्च नवाभिः यित्वा चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन संगुणयेत् ॥१॥ अथ पश्चःशोत्तरैः शतैर्गुण्यन्ते , जातानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि किंप्रमाणोऽसाववधार्यों राशिरिति तत्प्रमाणनिरूपणार्थ- पञ्चसप्तत्यधिकानि ४५७५, छेदराशिषिष्टिलक्षणः सप्तषश्था |माह-(छावट्ठी गाहा २) पट्पटिर्मुहर्रा एकस्य च मुहूर्तस्य गुण्यते , जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुःपश्चाशदधिकापञ्च परिपूर्णा द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः नि ४१५४, तथा पुष्यस्य ये प्रयोविंशतिः सप्तषष्टिभागाः प्रासप्तपरितमो भागः, पतावाप्रमाणोऽवधार्यराशिः, कथ क्लनयुगचरमपर्वणि सूर्येण सह योगमायान्ति ते द्वाषटया गुमतावनप्रमाणस्यास्योत्पत्तिरिति चेत् ?.उच्यते-इह यदि च. रायन्ते, जातानि चतुर्दश शतानि षड्विंशत्यधिकानि १४२६, नुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन पश्च सूर्यनक्षवपर्याया लभ्यन्ते एतानि प्राक्तनात् पञ्चसप्तत्यधिकपश्चचत्वारिंशच्छतप्रमानती द्वाभ्यां पर्वभ्यां किं लभामहे ?, राशि त्रयस्थापना- णात् शोध्यन्ते, शेवं तिष्ठन्ति एकत्रिंशत्शतानि एकोनपश्चा१२४ । ५। २ । अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यो राशिः शदधिकानि ३१४६,तत एतानि मुहूर्ताऽऽनयनाथै त्रिशता गुपञ्चलक्षणो गुण्यते, जाता दश, तेषां चतुर्विशत्यधिकेन एयन्ते,जातानि चतुर्णवतिः सहस्राणि चत्वारि शतानि सप्तभागहरणंतत्र छेयच्छदकराश्योकेिनापवर्तना क्रियते.जात स्यधिकानि ६४४७०, तेषां छेदराशिना चतुःपञ्चाशदधिकैकउपरितनश्छेद्यो राशिः पञ्चकरूपोऽधस्तनो द्वापष्टिरूपः, चत्वारिंशच्छतरूपेण भागो हियते, लब्धा द्वाविंशतिर्मुहुलम्धा पश्च द्वापष्टिभागाः, एतेन नक्षत्राणि कर्तव्यानीति | ःि, शेषं तिष्ठन्ति त्रीणि सहस्राणि नशीत्यधिकानि ३०.. Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) पएयामासिणी अनिधानराजेन्द्रः । पएगामासिगी ८२, एतानि द्वापष्टिभागाऽऽनयनार्थ द्वाषष्टया गुण्यन्ते, जात- धनकं कर्तव्यं, केवलमािजदादिकं न तु पुनर्वसुप्रभृतिक, मेकं लक्षमकनवतिः सहस्राणि चतुरशीत्यधिकानि १६१०८- शुद्धे च शोधनके यत् शेषमवतिष्ठते तत् भवनक्षत्र पौ. ४, तेषां छेदराशिना ४१५४ भागो हियते,लब्धाः पदवत्वारि- र्णमासीयुक्तम् , तस्मिश्च नक्षत्रे करीति उहुपतिश्चन्द्रमाः शत् मुहर्तस्य द्वापष्टिभागा: मां पुनर्थ सुनक्षत्रस्य शोधनक- परिपूर्णः पौर्णमासी विमलामिति । एष पौर्णमासीचन्द्रनक्षनिष्पत्तिः॥४॥ शेषनक्षत्राणां शोधनकान्याह-(बावत्तरंसयमि- प्रपरिज्ञानविषयकरणगाथाद्वयाक्षरार्थः । ११-१२ । संप्रत्यत्यादि ५)द्वासप्ततं द्विसप्तत्यधिकं शतं फल्गुनीनामुत्तरफल्गु- स्यैव भावना क्रियते कोऽपि पृच्छति-युगस्याऽऽदी प्रथमा नीना-शोध्यम् । किमुक्तं भवति?-द्विसप्तत्यधिकेन शतेन पुनर्व- पौर्णमासी श्रावीष्ठी कस्मिन् चन्द्रनक्षत्रे परिसमाप्तिमुपैति?, सुप्रभृतीन्युत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धयन्ति । एव- तत्र पट्पष्टिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वापपिभागा मुत्तरत्रापि भावार्थो भावनीयः,तथा विशाखासु विशाखापर्य- एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभाग इत्येवंरूपोऽव. म्तेषु नक्षत्रेषु शोधन द्वे शते द्विनवत्यधिके २६२,अथानन्त- धार्यराशिधियते, प्रथमायां किल पौर्णमास्यां पृमित्यरमुत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि अधिकृत्य शोध्यानि च- केन गुरायते, एकेन च गुणितं तदेव भवति, ततस्तस्मास्पारि शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि ४४२ ॥ ५॥ ( एयं दभिजितो नव मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिर्दा पुणेत्यादि६) एतत् अनन्तरोक्तं शोधनकं सकलमपि पुनर्वसु- षष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पष्टिः सप्तपष्टिसरकापष्टिभागसहितमवसेयम्। एतदुक्तं भवति-ये पुनर्वसु- भागा इत्येवंपरिमाणं शोधनकं शोधनीम् । तत्र पट्पष्टसरका द्वाविंशतिर्मुहस्तेि सर्वेऽप्युत्तरस्मिन् शाधनकेऽन्तः- नव मुहूर्ताः शुद्धाः स्थिताः पश्चात् सप्तपञ्चाशत् , तेभ्य प्रविष्टाः प्रवर्तन्तेन तु द्वापष्टिभागाः, ततो यत् यत् शोधनकं एको मुहर्ता गृहीत्वा द्वाषष्टिभागीकृतस्ते च शापटिरपि शोभ्यते तत्र तत्र पुनर्वसुसत्काः षट्चत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा द्वापरिभागराशी पञ्चकरूपे प्रक्षिप्यन्ते, जाताः सप्तषष्टिः उपरितनाः शोधनीया इति, पतञ्च पुनर्वसुप्रभृति उत्तरा- द्वापष्टिभागास्तेभ्यश्चतुर्विशतिः शुद्धाः स्थिताः पश्चात्विचपाढापर्यन्तं प्रथम शोधनकम् , अत ऊर्द्धमभिजितमाद्यं कृत्वा स्वारिंशत्तेभ्य एक रूपमादाय सप्तपष्टिभागीक्रियते, द्वितीयं शोधनकं वक्ष्यामि ॥ ६॥ तत्र प्रतिज्ञातमेव निर्वाह ते च सप्तषष्टिरपि भागाः सप्तपष्टिभागकमध्ये प्रक्षियति (अभिरस्सेत्यादि गाथाचतुएयम् ७-८-8-10-) अ. प्यन्ते, जाता अएषष्टिः सप्तषष्टिभागाः , तेभ्यः षष्टिः भिजितो नक्षजस्य शोधनकं नव मुहर्ता एकस्य च मुहूर्त- शुद्धाः, स्थितौ पश्चात् द्वौ सप्तपष्टिभागौ . ततखिशता स्थ सत्काश्चतुर्विशतिषष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टि मुहतैः श्रवणः शुद्धः, स्थिताः पश्चात् मुहर्ताः। पहप्रिंशतिः, भागस्य सप्तपष्टिभ्छेदकृताः परिपूर्णाः पदपष्टिभागाः, तथा तत इदमागतं धनिष्ठानक्षत्रस्य त्रिषु मुहूर्तेषु गतेप्येकस्य च एकोनपटम्-एकोनषष्ट्यधिकं शतं प्रोष्ठपदानाम्-उत्तर- मुहर्तस्य एकोनविंशतिसंख्येषु डाष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापभद्रपदानां शोधनकम् । किमुक्तं भवति ?-एकानपष्ट्यधिकेन टिभागस्य पञ्चपटिसंख्येषु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु प्रथमा श्राशतेनाभिजिदादीन्युत्तरभद्रपदापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धयन्ति, विष्ठी पर्णिमासी परिसमाप्तिमियति । यदा तु द्वितीया श्राविएवमुत्तरत्रापि भावना कर्तव्या,तथा त्रिपुनवोत्तरपुशतेपुरी- ठी पौर्णमासी विन्त्यते तदासा युगस्यादित प्रारभ्य त्रयाहिणिका रोहिणीपर्यन्नानि शुद्धयन्ति, तथा त्रिषु नयनवनेषु दशीति स ध्रुवराशिः ६६ । ।, त्रयोदशभिर्गुण्यते, जामवमवत्यधिकेषु शतेषु शोधितषु पुनर्वसुपर्यन्तं नक्षत्रजातं तनि मुहूर्तानामष्टौ शतानि अष्टापञ्चशदधिकानि ८५८. एकशुद्धयति, तथैकोनपञ्चाशदधिकानि पञ्च शतानि प्राप्य फा. । स्य च मुहर्तस्य पञ्चपष्टिषष्टिभागाः , एकस्य च द्वाल्गुन्यश्च-उसरफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्यन्ति , वि पष्टिभागस्य सत्काः त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः ८५८ । शाखासु-विशाखापर्यन्तपु नक्षत्रप्वकानसनधिकानि प. ५।१३। तत्राष्टभिः शतरकोनविंशत्यधिकमतीनामेकस्य द शतानि शोध्यानि ६६६, मूलपर्यन्त नक्षत्रजात सप्त शता- च मुहर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापीटनागरेकस्य च द्वाषष्टिभाग. नि चतुःचत्वारिंशदधिकानि शाध्यानि७४४, उत्तरापाढानाम- स्य सत्कैः पट्पट्या सप्तषष्टिभागरेको नक्षवपर्यायः शुद्धः,ततः उत्तरापादापर्यन्तानां नक्षत्राणां शोधनकमष्टो शनानि एका स्थिताः पश्चादेकोनचत्वारिंशन्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य नविंशत्यधिकानि ८१, सर्वप्वपि च शोधनकारि अभि चत्वारिंशद्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्दश जितो नक्षत्रस्य संबधिना र टिभागाश्चतुर्वि सप्तपछिमागाः ३६।११। ततो नवभिमुहरेकस्य च मुह. शतिः षट्पटिश्च चूणिका भासा मकस्य द्वापष्टिभागस्य तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पद. सप्तपतिभागाः शोधनीयाः ७-८-६-१०। (१९एयाई इत्यादि) पपया सप्तषष्टिभागैरभिजिन्नक्षत्रं शुद्धयति स्थिताः पश्चात् त्रिं. एतानि अनन्तरोदितानि शोधनकानि यथायोगं शोधयित्वा शन मुहूर्ताः पञ्चदश मुहूर्तस्य द्वापीष्टभागा एकस्य च द्वापपच्छेपमवतिष्ठते तद्भवति नक्षत्रम् , पस्मिश्च नक्षत्रे करा- टिभागस्य पञ्चदश सप्तपाटभागाः ३ तेभ्यरित्रशता ति सूर्येण सममुडपतिरमावास्यामिति । तदेवममावास्यावि. श्रवणः शुद्धः, श्रागतम् एकोनविंशतिमुहतेषु एकस्य च मु. षयचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थ करणमुक्तम् । सम्प्रति पौर्णमासीविष- हुस्य षट्चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभापचन्द्रयोगपरिक्षानार्थ करणमाह-( १२-इच्छापुसि प्रत्या- गस्य द्विपञ्चशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु धनिष्ठायां द्वितीया दि) यः पूर्वममावास्याचन्द्रनक्षत्रपरिज्ञानार्थमवधार्थराशि- | धाविष्ठी पौर्णमासी परिसमाप्तिमात । यदा तु तृतीया श्रावक्तः स एषात्रापि पौर्णमासीवन्द्रनक्षत्रपरिज्ञानविधी ईप- विठी पौर्स नाली चिन्त्यते तदा सा युगा:ऽदितः पञ्चविंशति सितपौर्णमासीगुणितो-यां पौर्णमासी ज्ञातुमिच्छति तरतं. तमेति स पूर्वोक्तो ध्रुवराशिः ६६।१२।3. पश्चविश या गु. व्यया गुणितः कर्तग्य, गुणिने च सति तदेव पवॉक्तं शो- गते , जानानि पोडरा शनानि पञ्चाशदधिकानि १६५०, Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरामामासिगी भनिधानराजेन्द्रः। पुराणमासिणी एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चविशं शतं द्वापष्टिभागानाम् १२५. प. खेकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकादशसु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु कस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः सप्तपष्टिभागाः २५, तत्र परिणमयति । पोडशभिः शतैरटानिशदधिकैः १६३८, मुहूर्तानामेकस्य च ता आसोईणं पुम्मिमं कतिणक्खत्ता जोमंति ?। तादोमि मुहूर्तस्याप्टाचत्वारिंशता द्वाषष्टिभागः ४८. एकस्य च द्वापहिभागस्य द्वात्रिंशदधिकेन शतेन १३२, द्वो नक्षत्रपर्यायौ शु नक्खत्ता जोएंति । तं जहा-रेवती य, अस्सिणी य ॥३॥ ख्यतःस्थिताः पश्चात् द्वादश मुहूर्ताः १२, एकस्य च मुहर्त्त ( ता पासोईणमित्यादि) आश्वयुजी. णमिति वाक्यास्य पञ्चसप्ततिषष्ठिभागाः ७५, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य लकारे, पार्ममासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति । भगवानाहसप्तविंशतिः सप्तपष्टिभागाः २७, ततो नवभिमुहूतेरेकस्य च (तात्यादि) 'ता'ति पर्ववत ये न तो युक्तः, तयमुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य | था-रेवती च, अश्वनी च । इहोत्तरभद्रपदान त्रमपि काश्चिषट्पष्टया सप्तषष्टिभागैरभिजिन्नक्षवं शुद्धयति, स्थिताः प दाश्वयुजी पौर्णमासी परिसमापयति, परं तत्प्रौष्ठपदीमपि श्वात् त्रयोदश्श मुहूर्ताः १३ । एकस्य च मुहूर्तस्य पश्चाशत् | पौर्णमासी परिसमापयति. तत्रैव च लोके तस्य प्राधान्यं तडापष्टिभागाः एकस्य च द्वाषाष्टिभागस्याष्टाविंशतिः सप्त माम्ना तस्याः पौर्णमास्या अभिधानात् अतस्तादेह न 'पष्टिभागाः आगतं श्रवणनक्षत्रं शितो मुहतेष्वेकस्य च विवक्षितमित्यदोषः। तथाहि-प्रथमामाश्वयुजी पौर्णमासीममुहर्तस्य एकादशसु द्वापष्टिमागेषु एकस्य च द्वाष्टि श्विनीनक्षत्रमकविंशता मुहूर्तेधेकस्य च । द्वापष्टिभागस्य भागस्यैकोनचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु वतीयां श्रा त्रिपष्टौ सप्तपष्ट्रिभागेषु शेषेषु पारेसमापयति , द्वितीयाविष्ठी पाखमासी परिसमापयति, एवं चतुर्थी श्राविष्ठी पौष माश्वयुनी पौर्णमासी रेवतीनक्षत्रं सप्तदशसु मुहर्नेष्वे मासी धनिष्ठानक्षत्रं षोडशसु मुहूप्वेकस्य च मुहर्सस्य कस्य च मुहूर्तस्य पत्रिंशति द्वापष्टिभागेवेकस्य च द्वा प्रयविंशति ठाष्टिभागवेकस्य च डाष्टिभागस्य पञ्च पाटभागस्य पञ्चाशात सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयामाश्वविंशती सप्तषष्टिमागेषु शेषेषु परिसमापयति, पश्चमी श्रा युजी पासमासामुत्तरभद्रपदानक्षत्रं चतुर्दशसु मुहूसेंपु ए. विष्ठी पौर्यमासी श्रवणनक्ष द्वादशसु मुहूर्तेवेकस्य च कस्य च मुहूर्तस्य एकस्मिन् द्वापष्टिभागे एकस्य च मुहूर्तस्य षष्टि सख्येषु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाप द्वापष्टिभागस्य सप्तत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु चतु. हिमागस्य द्वाविंशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु परिसमाप्ति थीमाश्वयुजी पौर्णमासी रेवानक्षत्रं चतुर्प मुहर्तेषु एकस्य नयतीति । तदेवं यानि नक्षत्राण धाविष्टी पौर्णमासी च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य द्वापष्टिभागपरिसमापयन्ति तान्युक्तानि ॥ १॥ स्य प्रयोविंशती सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमीमाश्वयुजी ___ सम्प्रति यानि प्रोष्ठपदी परिसमापयन्ति तान्याह पौर्णमासीमुत्तरभद्रपदानक्षत्रमेकस्य च मुहूर्तस्य पश्चात ता पोढवतिं यं पोषिमं कति णक्खचा जोरंति। ता द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य दशसु सप्तपतिणि णक्खत्ता जोएंति । तं जहा-सतभिसया, पुव्वासा- प्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति ॥ ३॥ ढवती, उत्तरापोडवया ॥ २॥ ____ता कत्तियं णं पुस्लिम कति णक्खता जोएंति ? । ता ( ता पोटुवई पं इत्यादि ) ता इति पूर्ववत् , प्रोष्ठपदी दोसि नक्खत्ता जोएंति । तं जहा-भरणी य कत्तिथा भाद्रपदी, णमिति वाक्याल घारे, पौर्णमासी कति नक य॥४॥ त्राणि युञ्जन्ति ?-कति नक्षत्राणि यथायोगं चन्द्रेण सह सं. युज्य परिसमापयन्तीत्यर्थः? , एवं सर्वत्रापि युञ्जन्तीत्यस्य ( कत्तियं णमित्यादि) कार्तिकी पौर्णमासी कति नक्षपदस्य भावना कर्तव्या । भगवानाह-(ता इत्यादि ) 'ता' इ. त्राणि युञ्जन्ति ?। भगवानाह-द्वे नक्षत्रे युक्तः, तद्यथाति पूर्ववत् , बीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति , तद्यथा-शतभि. भरणी, कृत्तिका वा।इहाऽप्यश्विनीनक्षत्रमपि काञ्चित् का. पक्, पूर्वप्रोष्ठपदा, उत्तरप्रोष्ठपदा च । तत्र प्रथमां प्रोष्ठप तिकी पौर्णमासी परिसमापयति, परं तदाश्वयुज्यां पौर्णदी पौर्णमासीमुत्तरभद्रपदानक्षत्रं सप्तविंशतौ मुहूर्तेषु ए. मास्यां प्रधानमितीह तन्न विवक्षितं, तत्र प्रथमां कार्तिकी कस्य च मुहर्सस्य चतुर्दशसु द्वाषष्टिभागेषु चतुष्षष्टी स- पौर्णमासी कृत्तिकानक्षत्रमेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्पु द्वापतषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति नयति । द्वितीयां प्रौष्ठप- टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वाषzी सप्तपष्टिभागेषु दी पौर्णमासी पूर्वभद्रपदानक्षत्रमष्टसु मुहूर्तेषु शेषेवेक शेषेषु, द्वितीयां कार्तिकी पौर्णमासी कृत्तिकानक्षत्रं पतिस्थ च महर्तस्यै कचत्वारिंशति द्वाषीष्टभागबेकस्य च द्वा. शती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्यैकत्रिशति द्वापष्टिभागेपु षष्टिभागस्यैकपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु परिणमय- | एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकोनपश्चाशति सप्तपष्टिभागेपु शेति । तृतीयां प्रौष्ठपदी पोर्ममासी शतभिषक पञ्चसु षेषु, तृतीयां कार्तिकी पौर्णमासीमश्विनीनक्षत्रं सप्त ममुहूतेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षट्सु द्वापष्टिभागेषु एस्य च इर्तेष्वकस्य च मुहूर्तस्याप्टापश्चाशति द्वापष्टिभागेयकस्य द्वाषष्टिभागस्याष्टाविंशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी | च द्वाषष्टिभागस्य पत्रिंशात ससपष्टिभागेषु शेषेषु, प्रौष्ठपर्दी पौसभासीम् उत्तरभद्रपदानक्षत्रं चत्वारिंशति म. चतुर्थी कार्तिकी पौर्णमासी कृत्तिकानक्षत्र पोडशसु इसेष्वेकस्य च मुहूर्तस्यैकचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेष ए. महसेवेकस्य च मुहूर्तस्याप्टापञ्चाशति द्वापटिभागेष्वेकस्य च द्वावष्टिभागस्य चतुर्विशतौ सप्तषष्टिभागेषु शेष- कस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वविंशती सप्तषधिभागेषु शेधु, पञ्चमी प्रौष्ठपी पौर्णमासी पूर्वभद्रपदानक्षत्रमेकर्षिश- पेष, पश्चमी कार्तिकी पौर्णमासी भरणीनक्ष नव मुहत्तेतो मुसेवेकस्य च मनस्य पञ्चपञ्चाशति द्वापष्टिभाग- बकस्य च महतस्य पञ्च वत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (E ) पुण्गामासिणी अभिधानराजेन्दः। पुराणमासिणी च द्वाषष्ठिभागस्य नवसु सप्तषष्टिभागेषु शेपेषु परिसमा- (ता माहि णमित्यादि ) 'ता' इति पूर्ववत् , माघीं, णमितिपयति ॥ ४॥ वाक्यालारे, पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जति ?। भगता मग्गसिरिंण पुम्मिमं कइ णक्खत्ता जोएंति । ता दो- वानाह (ता दोलीत्यादि) द्वे नक्षत्रे युक्तः। तद्यथा-अललिणवत्ता जोएंति । तं जहा-रोहिणी.मग्गसिरो य ॥५॥ षा, मघा च । चशब्दात्काश्चिन्माधी पौर्णमासी पूर्वफाल्गुनी'ता' इति पूर्ववत्, कति नक्षत्राणि मार्गशीर्षी पौर्णमासी नक्षत्र काश्चि पुष्यनक्षत्रं च । तद्यथा-प्रथमा माघी पौर्णमासी युजन्ति ? । भगवानाह-( ता दोसीत्यादि ) 'ता' इति मघानक्षत्रमेकादशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकपञ्चाशप्राग्वत्, दे नक्षत्रे युक, तद्यथा-रोहिणिका, मृगशिरश्च । ति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनषष्टौ सप्तष.. मत्र प्रथमां मार्गशीर्षी पौर्णमासी मृगशिरोऽपसु मुहत्तेष्वे टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां माघी पौर्णमासीमश्लेषानक्षत्रमएस कस्य च मुहूर्तस्य सम्बन्धिनो द्वापष्टिभागस्य सत्केष्वेक मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षोडशसु द्वापष्टिभागेष्येकस्य च षा सप्तटिभागेषु शेवेषु, द्वितीयां मार्गशीर्षी पौर्णमा जाष्टिभागस्य घचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां सी रोहिणीनक्षत्रं पञ्चसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य ष. माघी पौर्णमासी पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रमष्टाविंशत। मुहूर्तेषु एकद्विशती डापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्याणाचत्वारिंश स्य च मुहर्तस्य अष्टाविंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां मार्गशीर्षी पौर्णमासी षष्टिभागस्य द्वाविंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी मा. रोहिणीनक्षत्रमेकविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रि. घी पौर्णमासी मघानक्षत्रं पञ्चविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च पञ्चाशति द्वाषष्टिभागष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चचत्वा. मुहूर्तस्य विषु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकोरिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेपेषु, चतुर्थी मार्गशीर्षी पौर्णमासी नविशती सप्तरष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी माघी पौर्णमासी मृगशिरोनक्षत्रं द्वाविंशतौ मुहूतेषु एकस्य च मुहूर्तस्य पुण्यनतत्रं षट्स मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिंशति द्वा. त्रयोदशसु द्वापटिमागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकविंशती पष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पट्सु सप्तषष्टिभागेषु सप्तपष्टिभागेपु शेषेषु, पश्चमी मार्गशीर्षी पौर्णमासी रोहि शेषेषु परिसमापयति ॥ ७॥ णीनक्षत्रम् अष्टादशसु मुहर्सषु एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वा- __ता फग्गुणि गं पुमिमं कति णक्खत्ता जोएंति ? । ता रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्याटसु सप्तपटिभागेषु शेषेषु परिणमयति ॥ ५॥ दुभि नक्षत्ता। जोएंति तं जहा-पुब्बफग्गुणी,उत्तराफग्गु । णी य ॥८॥ ता पोसिणं पुस्लिम कति णखत्ता जोएंति । ता तिमि (ता फग्गुणिं णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत् , फाल्गुनी,ण'णक्खत्ता जोएंति । तं जहा-अदा,पुणवमू, पुस्सो॥६॥ मिति वाक्यालङ्कारे, पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युअन्ति ? (ता पोसिं णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत् , पोपी, णमिति भगवानाह ( ता दोषीत्यादि) 'ता' इति प्राग्वत् ,द्वे नक्षत्रे, चाक्पालङ्कारे, पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति । भग तद्यथा-पूर्वफाल्गुनी, उत्तरफाल्गुनी च । तत्र प्रथमा फाल्बानाह-(ता इत्यादि ) 'ता' इति पूर्ववत् , त्रीणि नक्षत्राणि गुनी पौर्णमासीमुत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं विंशता मुहूर्तेषु एकयुञ्जन्ति । तद्यथा-श्राद्री, पुनर्वसुः, पुष्यश्च । तत्र प्रथमां पौ- स्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु पकस्य च पी पौर्णमासी पुनर्वसुनक्षत्र द्वयोर्मुहूर्तयोरेकस्य च मुहूर्त- द्वापष्टिभागस्याष्टापश्चाशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां स्थ षट्पञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य फाल्गुनी पौर्णमासी पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रं द्वयोर्मुहूर्तयोरेकस्य पौ सप्तषष्टिभागेषु, द्वितीयां पौषी पौर्णमासी एकोनत्रि- च द्वापष्टिभागस्य पश्चवत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेपेषु, शति मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्यैकविंशती द्वापटिभागेषु तृतीयां फाल्गुनी पर्णिमासीमुत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं सप्तसु मुपकस्य च द्वावष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु हर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वापटिभागेषु एकशेषेषु, तृतीयां पौषी पौर्णमासीमधिकमासादालनामा. | स्य च द्वाषष्टिभागस्य एकविंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, नक्षत्रं दशसु मुद्दतेष्वेकस्य च मुहूर्तस्याष्टाचत्वारिंशति चतुर्थी फाल्गुनी पौर्णमासीमुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं त्रयस्त्रिंशद्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्विंशति सप्तपष्टि- ति मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षष्टी द्वापष्टिभागेष्येकस्य च भागेषु शेपेषु. अधिकमासभाविनी पुनस्तामेव तृतीयां पी- द्वाष्टिभागस्याऽष्टादशसु सप्तषप्टिभागेपु शेषेषु, पञ्चमी णमास पुष्यनक्षत्रमेकोनविंशता मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्न- फाल्गुनी पौर्णमासी पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रं पञ्चदशसु मुहूर्तेप्चस्य त्रिचत्वारिंशतिद्वाषष्ठिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य कस्य च मुहूतस्य पञ्चविंशतौ द्वापष्टिसङ्ख्येषु भागेष्वेप्रविशति सप्त राष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी पौषी पौर्णमासी कस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु पुनर्वसुनक्षत्रं षोडशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टसु परिसमापयति ॥८॥ द्वापष्टिभागेसु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य विंशती सप्तसष्टिमागेषु शेषेषु, पञ्चमी पौषी पौर्णमासी पुनर्वसनक्षत्रं द्वि- ता चितिं णं पुस्मिम कति णक्खत्ता जोएंति । ता दोचत्वारिंशति मुहर्नेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चविंशति द्वापष्टि- मि नक्खत्ता जोएंति । तं जहा-हत्थो,चित्ता य॥६॥ भागेसु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तसु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, परिसमाप्तिं नयति ॥६॥ (ता चित्ति णमित्यादि ) 'ता' इति पूर्ववत् , चैत्री पार्णमा सी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? । भगवानाह-( ता इत्याता माहिणं पुमिमं कति णक्खत्ता जोएंति । ता दोषि दि) द्वे नक्षत्रे युक्तः। तद्यथा-हस्तः, चित्रा च । तत्र नक्खत्ता जोरिति । तं जहा--अस्ससा, महा य ॥ ७॥ । प्रथमां चैत्री पौर्णमासी चित्रानक्षत्रं चतुर्दशसु मुहूर्तेष्वे Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पए पनासिणी अनिधानराजेन्द्रः। पुरणमारिणी कस्य च मुहूर्तस्य एकचत्वारिंशति द्वापाटभागेष्वेकस्य च दशसु मुहूर्तेपु एकस्य च मुहूर्तस्य अशापश्चाशति द्वा. हापष्ट्रिभागस्य सप्तपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेपु शेषेषु, द्वितीयां पष्टिभागेषु एकम्य च द्वापष्टिभागस्य द्विचत्वारिंशति स. चत्री पौर्णमासी हस्तनक्षत्रमेकादशसु मुहूर्तप्वकम्य च मुहू. तषाटभागेषु शेषषु, तृतीयां ज्येष्ठामौली पर्णमामी सूलना। तस्य षटसु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुश्चः क्षत्रं चतुर्पु मुहूर्तबेकस्य च मुहूर्तस्थाऽष्टादशसु द्वाष्टस्वारिंशति सप्तषष्टिभागेपु शेपेषु तृतीयां चैत्री पौर्णमासींचि- भागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्याटाविंगती सप्तषष्टिभागषु पानक्षत्रमेकस्मिन् मुहूते एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टाविंशती शेषेषु, चतुर्थी ज्येष्ठामौली पौर्णमासी ज्येष्ठानक्षत्रमेकस्य च द्वाषष्टिभागवेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चत्वारिंशाते सप्तष- मुहूर्तस्य पञ्चचत्वारिंशति द्वाषाष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिप्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी चैत्री पौर्णमाली चित्रानक्षत्रं सप्त- भागस्य पञ्चदशसु सप्तषष्टिभागेषु शेपेषु, पञ्चमी ज्येष्ठाविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चपञ्चाशति द्वापष्टि- मौली पौर्णमासीम् अनुराधानक्षत्रं द्वादशसु मुहूर्तेषु एकस्य भागेषु एकस्य च द्वापप्टिभागस्य सप्तदशसु सप्तषष्टिभागेषु च मुहूर्तस्प दशसु द्वापष्टिभागेपु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य शेषेषु, पञ्चमी चैत्री पौर्णमासी हस्तनक्षत्रं चतुर्विशती मुहू! द्वयोः सप्तपष्टिभागयोः परिसमाप्तिमुपनयति ।१२। तेध्यकस्य व मुहर्तस्य विंशतौ द्वापष्टिभागेषु एकस्य च | आसाहिणं पुस्लिम कति णक्खता जोएंति । ता दो द्वापष्टिभागस्य चतुषु सतपष्टिभागेषु शेषेषु परिणमयति ॥६॥ | एक्खत्ता जोएंति । तं जहा-पुव्वासाहा, उत्तरासादा य • ता पइसाहिं णं पुमिमं कति णक्खता जोएंति ?। ॥ १२ ॥ (३८. सूत्र) दोसि णक्वत्ता जोएंति । तं जहा-साती,विसाहा य॥१०॥ (प्रासादि णमित्यादि)'ता' इति पूर्ववत् , अापाढीण( ता वासाहि णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्, वैशाखी, मिति वाक्यालङ्कारे,पौर्णमासी कति नत्राणि युञ्जन्ति । भ. णमिति वाक्याल कारे.पौर्णमास कति नक्षत्राणि युजन्ति । गवानाह-(ता दो इत्यादि ) 'ता' इति पूर्ववत् , द्वेमक्ष अगदानाह-(ता दोषीत्यादि ) 'ता' इति प्राग्वत् द्वेन युङले। तद्यथा-पूर्वाषाढा,उत्तराषाढा च। तत्र प्रथमामापाडी क्षत्रे युक्तः। तद्यथा-स्वातिः, विशाखा च, चशदादनुराधा पौर्णमासी मुत्तराषाढानक्षत्र पटिश तौ मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहू. च । इदं हि-अनुराधानक्षत्रं विशाखातः परं, विशाखा चा तस्य पडिशता द्वापष्टिमागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुस्यां पौर्णमास्यां प्रधाना, ततः परस्यामेव पौर्णमास्यां त. पञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयामाषाढी पौर्णमा साक्षापात, नेहेति , तत्र प्रथमां वैशाखी पौर्णमासी वि. स पूर्वाधाडानक्षत्रं सप्तसु मुहूर्तेधेकस्य च मुहूर्तस्य त्रिपशाखानक्षत्रमश्सु मुहतेपु एकस्य च मुहर्तस्य षट्त्रिंश- ञ्चाशति द्वाषीहभागेबेकस्य च डाष्टिभागस्पैकचत्वारिंशति द्वापधिभागेयु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पदपश्चाशति स- ति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु. तृतीयामाषाढी पौर्णमासीम् उत्त'प्लटिभागेषु शेप द्वितीयां वैशाखी पौर्णमासी विशाखा-! राषाढानक्ष त्रयोदशस मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य प्रयोनक्षत्रं पञ्चविंशता मुहूर्नेषु एकस्य च महूर्तस्यैकस्मिन् द्वा दशसु द्वापष्टिभागेपु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तविंशती 'परिभागे एकस्य च द्वापष्ठिभागस्य त्रिचत्वारिंशति सप्त सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थीमाषाढी पौर्णमासीमुत्तराषाढा. परिभागेषु शेषपु, तृतीयां वैशाखी पौर्णमासीम् अनुरा. नक्षत्रमे कोनचत्वारिंशति मुहूतेषु एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वाधानक्षत्रं पञ्चविंशती महतध्वेकस्य च मुइतस्य प्रयोवि रिंशति हाष्टिभागेपु एकस्य च कापष्टिमागस्य चतुर्दश सु शता द्वापष्टिभागपु पकस्य च द्वापहिभागस्यै कोनत्रिशति सप्तपटिभागेषु शषेषु परिसमापयति, पञ्चमीमाषाढी पौर्ण - सप्तपरिभागेपु शेषयु, चतुर्थी वैशाखी पौर्णमासी विशाखा- मासीमुत्तरापाढानक्षत्रं स्वयं परिसमाप्नुवन् परिसमापयति । नक्षत्रमेकविंशत। मुहर्तेपु एकस्य च मुहर्तस्य पञ्चाशति किमुक्तं भवति?-एकत्र पञ्चमी प्राषाढी पौर्णमासी समाद्वापष्टिभागेषु एकत्य च द्वापष्टिभागस्य षोडशसु सप्तप. प्तिमेति अन्यत्र चन्द्रयोगमधिकृत्वोत्तराषाढानमिति । इह रिभागेषु शेषपु, पञ्चमी वैशाखी पौर्णमासी स्वातिनक्षत्रं सूत्रकृत एव शलीयं यद् यद् नक्षत्रं पौर्णम सीममावास्यां या त्रिषु मुहूर्तेपु एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चदशसु द्वापएिभागेषु परिसमापयति तद्यावत् शेषे परिसमापयति तावत्तस्य एकस्य च द्वाएभागस्य त्रिपु सप्तपठिमागेषु शेषेषु प शयं कथयति, ततस्तदनुरोधेनास्माभिरप्यत्र तथैवोक्तम् , रिणमयति ॥१०॥ यावता पुनर्यावत्यतिक्रान्ते परिसमापयति तावदेव प्रागुता जेट्ठामालिं णं पुषिमासिं णं कति णक्खत्ता जोएं क्लकरणवशात् कथनीयं, चन्मप्रशप्ताबाप तथैव वक्ष्यामि, अमावास्याधिकारमपि अनन्तरं तथैव पक्ष्यामः, तदेति । ता तिनि नक्खता जोएंति । तं जहा-अण- वं यानि नक्षत्राणि यां पौर्णमाप्ती युजन्ति तान्युक्तानि ।' राहा, जेट्ठा, मूलो य ॥ ११ ॥ संप्रति गतामपि मन्दमतिविषोधनार्थ कुलाऽऽदियो. (ता जेहामलिं णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत् , ज्ये. जनामाहठामौली, णमिति वाक्यभूषणे, पौर्णमासी कति नमाणिता साविढेि णं पुलिमासे णं किं कुलं जोएति, उबकुलं जन्ति ? । भगवानाह- (ता इत्यादि) ता' इति पूर्ववत्, जोएति,कुलोबकुलं जोरति । ता कुलं वा जोएति, उव - श्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति । तद्यथा-अनुराधा, ज्येष्ठा सू.. कुलं वा जोएति, कुलोवकुलं वा जोएति, कुलं जोएमाणे लं च । तत्र प्रथमा ज्येष्ठामाली पौर्णमासी मूलनक्षत्रं स. धणिहाणक्वते जोएति, उवकुलं जोएमाणे सवणे णप्तदशसु मुहूसेपु एकस्य च मुहूर्तस्यैकत्रिंशति द्वापष्टिभागेप्वेकस्य च द्वापटिभागस्य पञ्चपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु शे- " खत" खत्ते जोएति, कुलोबकुलं जोएमाणे अभिईणक्ख ते जोपेषु, द्वितीयां ज्येष्ठामौली पौर्णमासी ज्येष्ठानक्षत्रं त्रयो-। एति । साविढि पुलिम कुलं वा जोएति उपकुलं वा जो Jain Education Interational Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (१०००) पुणवासिगी अभिधानराजेन्द्रः। पुरणोवाय एति,कुलोबकुलं या जोएति,कुलेण वा उवकुलेण वा कुलो कुलं वा जोएर उवकुलं वा जोएड.कुलेण या जुत्ता उपकुलेग बकुलेण वा जुत्ता साविट्ठी पुलिमा जुत्तातिवत्तव्वं सिया । वा जुत्ता कत्तियपुरिणमा जुत्त त्ति वत्तब्वं सिपा' इत्यादि तावद्वक्तव्यं यावदाषाढीपौर्णमासीसूत्रपर्यन्तः। तथा चाहता पोहबतिं णं पुस्लिमं किं कुलं जोएति,उबकुलं जोएति, 'जाव प्रासाढी पुनिमा जुत्तत्ति वत्तम्वं सिया'। तदेवं पौMकुलोवकुलं वा जोएति ? । ता कुलं वा जोति, उपकुलं मासी वक्तव्यतोक्का । सू० प्र० १० पाहु०५ पाहु. पाहु। वा जोएति , कुलोवकुलं वा जोएति , कुलं जोएमाणे (पौर्णमास्यानां चन्द्रयोगमधिकृत्य सन्निपातः 'अमावसा' उत्तरापोवया णक्खत्ते जोएति , उवकुलं जोएमाणे शब्दे प्रथमभागे ७४६ पृष्ठे गतः) (कियत्सु मुहर्तेषु गतेषु पौर्णमास्या अनन्तरममावस्या भवति-कियत्सु मुहूर्तेषु गते. पुवापुटुबया णक्खत्ते जोएति, कुलोवकुलं जोएमाणे पु अमावस्यातः पौर्णमासीति 'अमावसा' शब्द प्रथमभागे मतभिसया णक्ख ते जोपति । पोहवति णं पुष्पमासिं णं ७४५ पृष्ठे गतम् ) " पंचसंवच्छरिए जुगे बावर्द्धि पुकुलं वा जोएति, उपकुलं वा जोएति,कुलोवकुलं वा जोए- निमाश्रो ।" स० ६१ सम । (संवच्छर' शब्दे ति, कुलेण वा जुत्ता ३ पुट्ठवता पुणिमा जुत्तात्ति वत्तव्वं व्याख्यास्यते) सिया। ता पासोई णं पुमिमासिणं किं कुल जोएति, उ-- पुम्ममेह-पूर्णमेघ-पुं० । पुष्कलाऽऽवर्तमेघे, श्राब० ४१०। पकुलं जोएति, कुलोबकुल जोएति, णो लभति कुलोव पुरणवत्थ पुण्यवस्त्र-न०। “हीरह जं आणंदे, वत्थं तं पुसव त्थं ति।" पाइ० ना० २१२ गाथा । प्रमोदहतवस्त्रे, दे० ना०६ कुलं, कुलं जोएमाणे अस्सिणीणक्खत्ते जोएति, उपकुलं वर्ग ५३ गाथा। जोएमाणे रेवतीणक्खत्ते जोएति, प्रासोई णं पुस्लिमं च पुष्मसंभार-पुण्यसंभार-पुं०।र्थिकरनामाऽऽदिशभकर्मसंकुलं वा जोएति, उबकुलं वा जोएति, कुलेण वा जुत्ता चये, " अचिन्त्यपुण्यसंभार सामर्थ्यादेतदीदृशम्। तथा चोउपकुलेण वा जुत्ता अस्सादिणं पुलिमा जुत्त ति वत्तव्यं त्कृष्टपुरयाना, नास्त्यसाध्यं जगत्त्रये ॥१॥" हा० ३१ अष्टः । सिया, एवं णेतवाओ, पोसं पुषिमं जेट्ठामूलं पुषिमं च | पुमसेण-पूर्णसेन-पुं०राजगृहे नगरे श्रेणिकस्य राशो धारकुलोचकुलं पि जोएति, अवसेसासु णस्थि कुलोवकुलं ।। एयां जाते स्वनामख्याते पुत्रे,(स च वीरान्तिके प्रव्रज्य पो. डशवर्षपर्यायः संलेखनया मृत्वा सर्वार्थसिद्धे विमाने उपप. (ता साविद्धिं णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्, श्राविष्ठी पौर्णमासी किं कुलं युनक्ति उपकुलं युनक्ति कुलोपकुलं वा च महाविदेहे सेत्स्यतीति अनुत्तरोपपातिकदशानां द्वितीय वर्ग प्रयोदशे अध्ययने सूनितम् । अणु। युनक्ति ? । भगवानाह-'ता कुलं वा' इत्यादि. कुलं वा युनकि, वाशब्दः समुचये, ततः कुलमपि युनतीत्यर्थः । एवं पुस्मा-पूर्णा-स्त्री० । पक्षस्य पञ्चम्यां दशम्यां पञ्चदश्याच मुपकुलमपि कुलोपकुलमपि, तत्र कुलं युजन् धनिष्ठानक्षत्रं तिथी, सू० प्र० १० पाहु) १३ पाहु) पाहु । प्र। पुनक्लि, तस्यैव कुलं (लतया) प्रसिद्धस्य सतः श्राविष्ठयां द० प० । पूर्णभद्रस्य यक्षेन्द्रस्याग्रमाहियाम् , स्था. ४ पौर्णमास्यां भावात् . उपकुलं युजन् श्रवणनक्षत्रं युनक्ति, ठा. १ उ० । (अभ्याः पूर्वोत्तरभवकथा 'अम्गमहिसी' कुलोपकुलं युजन अभिजिन्नक्षत्र युनक्ति, तद्धि तृतीयायां | शब्दे प्रथमभागे १७१ पृष्ठे गता) . 'श्रावि च्यां पौर्णमास्यां द्वादशसु मुहूर्तेषु किश्चित्समधिकेषु पुरमाग-पुत्राग-पुं) । पुमान् नाग इव श्रेष्ठः, प्रधानत्वात् स शेषेषु चन्द्रेण सह योगमुपैति, ततः श्रवणेन सह सहच- एव । स्वनामख्याते पुण्यप्रधान,वृक्षभेदे, श्वेतोत्पले, जातीफरस्यात् स्वयमपि तस्याः पौर्णमास्याः पर्यन्तवर्तित्वात् तदपि ले, पारडवर्णहस्तिनि, नरश्रेष्ठे च । वाच०। अनु । प्रशा। तां परिसमापयतीति विवक्षितत्वात् युनतीत्युक्तम् । सम्प्रति कल्प० । प्राचा। उपसंहारमाह-(साविढि णमित्यादि) यत एवं त्रिभिरपि पुष्माणुभाव-पुण्यानुभाव- पुरुषाणां पुण्यविपाके, पो० कुलाऽऽदिभिः भाविष्ठयाः पौर्णमास्या योजनाऽस्ति, ततः ५विव०॥ श्राविष्ठी पौर्णमासी कुलं या युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति । कुलोपकुलं वा युनतीति वक्तव्यं स्यात्-इति स्वशिध्येभ्यः पुरणाम पुन्नाग-पुं० । " पुन्नागभागिन्योगों मः" । प्रतिपादनं कुर्यात् , यदि वा-बुलेन वा युक्ता सती आविष्ठी १६० ॥ इति गस्य मः । स्वनामख्याते पुष्पप्रधाने वनस्पती पौर्णमासी उपकुलेन वा युक्ता कुलोपकुलन वा युक्तति प्रा० १ पाद। वक्तव्यं स्यात् , एवं शेषमपि सूत्रं निगमनीयं, यावत्-एवं परणाली-देशी-असत्याम् , . ना.६ वर्ग ५३ गाथा । मेयब्वामी' इत्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण शेषा अपि पौर्णमास्यो नेतव्याः-पाठक्रमेण वक्तव्याः, नवरं पौषी पौर्णमासी पुस्लिमा-पूर्णिमा-स्त्री० । पौर्णमास्याम्, प्रा०म० १ अ०।"पं. ज्येष्ठामूली च पौर्णमासी कुलोपकुलमपि युनक्ति, अवशेषासु चसंवच्छरिए णं जुगे वावट्ठि पुचिमाओ।" स० ६१ समः। व पौर्णमासीषु कुलोपकुले नास्तीति परिभाव्य बकायापुमोदयसहाय-पुण्योदयसहाय-त्रि०। पुण्यानुभावसहिते, ताश्ववम्-ता कसियं णं पुषिमासिणी किं कुलं वा जोपा. | षा०१. विव०। उपकुलं वा जोपहाता कुलं पि जोएर उपकुलं पि जोएडनो परमोचाय-परायोत्पाद-पुं०।पुण्योरपादने, “दया भूतेषु बरालमेर कुलोषकुलं, कुलं जोएमाणे कत्तिश्राण खत्ते जोएइ उ- ग्यं विधिदानं यथोचितम् । विशुद्धा शीलवृत्तिश्च,पुण्योपायाः . कुलं जोपमाणे भरणीनकालते जोपा, ता फसिनं गां पमिमं प्रकीर्तिताः॥१॥"षा०४ विव० । Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००१) अन्निधानराजेन्द्रः। पुत्तणत्तुपरियालपण यबहुल पुत्त-पुत्र-पुं० । पुनाति पितुराचारानुवर्तितयाऽऽत्मानमिति वा दोएहस्स वा तिएहस्स वा, उकोसं सयपुहत्तस्स पुत्रः। उत्त० ११० । सुते.सूत्र०११०२१०१ उ०। स्था०।। जीवाणं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छइ । एगजीवस्स णं भंते ! अनु० । औरसे, सूत्र०१ श्रु०६अ। अजे, उत्त०१६ ०। सं० अपत्ये, सूत्र. १ श्रु० १ ०२ उ०। एगभवग्गहणणं केवइया जीवा पुत्तत्ताए हन्धमागपुत्रनिरूपणायाऽऽह च्छति । गोयमा ! जहन्नेणं इक्को वा दो वा दसपुत्ता पम्मत्ता । तं जहा-अत्तए,खित्तए, दिप्मए,विस्मए, तिमि वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवाणं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छति । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ० जाव हव्वओरसे, मोहरे, सोंडीरे, संबड्डे, ओववाइए, धम्मंतेवासी ॥ मागच्छह । गोयमा! इथिए य पुरिसस्स य कम्मकडाए (दस पुत्तत्यादि ) पुनाति पितरं पाति वा पितृमर्यादामिति पुत्रः सूनुः, तत्र आत्मनः पितृशरीराजात पात्मजो | जोणीए मेहुणवत्तिए । नामं संजोए समुप्पज्जइ, ते दुहो यथा भरतस्याऽऽदित्ययशाः । क्षेत्र भार्या, तस्यां जातः क्षेत्र- सिणेहं संचिणंति; तत्थ णं जहन्नेणं इको वा दो वा तिमि जो, यथा पाण्डोः पारड्याः, लोकरूया तद्भार्यायाः कुन्त्या वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवाणं पुत्तत्ताए हबमाएव तेषां पुत्रत्वान्न तु पाण्डोः,अदित्याऽऽदिभिर्जनितत्वादिति गच्छइ, से तेणटेणं० जाव हव्वमागच्छइ ।। २श (दिसा ति) दत्तकः पुत्रतया वितील. यथा बाहुबलिनाऽनिलवेगः श्रूयते, स च पुत्रवत् पुत्रः,एवं सर्वत्र ३ (वि मनुष्याणां तिरश्चां च बीजं द्वादश मुहूर्तान्यावद् योनिभूतं मए त्ति) विनयितः शिक्षा ग्राहितः४। [ोरसे त्ति ] उप- भवति , ततश्च गवादीनां शतपृथक्त्वस्यापि बीजं गवादिगतो जातो रसः पुत्रस्नेहलक्षणो यस्मिन् , पितृस्नेहलक्षणो योनिप्रविष्टं बीजमेव, तत्र च वीजसमुदाय एको जीव वा यस्यासाघुपरसः,उरसि वा हृदये स्नेहावर्तते यः स और उत्पद्यते, स च तेषां बीजस्वामिनां सर्वेषां पुत्री भवति । यत सःशमुखर एव मोखरो मुखरतया चाटुकरणतोय आत्मा- उक्तम्-( उक्कोसेणं सयपुहत्तस्लेत्यादि ) ( सयसहस्सपुहत्त नं पुत्रतया अभ्युपगमयति स मौखर इति भावः ६। शौ- ति) मत्स्याऽऽदीनामेकसंयोगेऽपि शतसहस्रपृथक्त्वं गर्भ ण्डीरः यः शार्यवता शूर एव रणकरणेन वशीकृतः पुत्रतया उत्पद्यते निष्पद्यते चेत्येकस्य एकभवग्रहणे लक्षपृथक्त्वं पुत्राप्रतिपद्यते, यथा कुवलयमालाकथायां महेन्द्रसिंहाभिधानो णां भवतीति । मनुष्ययोनी पुनरुत्पन्ना अपि बहवो न निराजसुतः श्रूयते ७।[अथवाऽऽत्मज एव गुणभेदाद्भिद्यते। पद्यन्ते इति । ( इथिए पुरिसस्त य इति ) एतस्य " मेहु. तत्र ( विरणपत्ति) विज्ञकः परिडतोऽभयकुमारवत् ४ । णवत्तिए नामं संजोगे समुप्पजइ" इत्यनेन संबन्धः। क(ोरसे ति) उरसा वर्सत इति औरसो बलवान् , बाहु स्यामसावुत्पद्यते ? , इत्याह-(कम्मकडाए जोणीए त्ति) वलीव ५, शौण्डीरः शूरो वासुदेववत् गर्वितो वा शौगडीरः नामकर्मनिवर्तितायां योनौ । अथवा-कर्म मदनोद्दीपको व्या. " शौण्डं गर्वः” इति वचनात् ७१] (संवढे सि ) संवर्द्धितो पारस्तत् कृतं यस्यां सा कर्मकता, अतस्तस्यां मैथुनस्य भोजनदानाऽऽदिनाऽनाथपुत्रकः। (ोववाइय त्ति) उपया वृत्तिः प्रवृत्तियस्मिन्नसौ मैथुनवृत्तिको , मैथुनं वा प्रत्ययो चिते देवताऽऽराधने भव औपयाचितकः, अथवा-अवपातः हेतुर्यस्मिन्नसौ स्वार्थि के कप्रत्यये मैथुनप्रत्ययिकः (नाम ति) सेवा,सा प्रयोजनमस्येति श्रावपातिकः, सेवक इति हृदयम् , नामनामवतोरभेदोपचारादेतन्नामेत्यर्थः। संयोगः सम्पर्कः। ६। तथा अन्ते समीपे वस्तुं शीलमस्येति, अन्तेवासी धर्मार्थ (ते इति ) स्त्रीपुरुषा । (दुहनो ति) उभयतः स्नेहं रेतःशामन्तेवासी धर्मान्तेवासी , शिष्य इत्यर्थः १० । स्था० णितलक्षणं. संचिनुतः संवन्धयत इति (मेहुणवत्तिए नाम संजोए त्ति) प्रागुक्तम् । भ०२श ५ उ० । श्रीभगवत्युका १० ठा०। एकपुत्रस्य नवशतपितरः कथं संभवन्ति ?.इति प्रश्ने, उत्तर"इदं तत्स्नेहसर्वस्वं, सममाढ्यदरिद्रयोः । अचन्दनमनौशीरं, हृदयस्यानुलेपनम् । १॥ म्वादश मुहूर्तान् यावीर्यमविनएं स्यात् तावत्कालावधि यत्तच्छपनिकेत्युक्तं, बालेनाव्यक्तभाषिणा। नवशवीमतवृषभाऽऽदिभिर्भुक्त गवादा यो गर्भ उत्पद्यते, स हित्वा सौख्यं च योगं च, तन्मे मनसि वर्तते ॥२॥" तावतां पुत्रो भवतीति । १७२ प्र० । सेन०२ उल्ला०।"तस्स णं अजगस्स नसुए होत्था इट्टे कते।" इति राजप्रश्नीयोपाने सूत्र० १ श्रु० ४ ० २ उ० । " अपुत्रस्य गतिर्ना आर्यको नप्तृक उक्तः, श्राद्धविधिवृत्ती तु आर्यकः पुत्रः कथं स्ति।" इति न युक्तियुक्तम्, “ बहुपुत्रो हुपी गोधा, ता प्रोक्तः, इति प्रश्ने. उत्तरम्-पुत्रो नप्ताऽप्यतीय वल्लभत्वात्पुत्रम्रचूडस्तथैव च । तेषां च प्रथमं स्वर्गः, पश्चाल्लोको ग त्वेन लोकैर्व्यवहियते,तेनात्रापि नप्तृशब्दः पुत्रत्वेन व्यवहतः मिष्यति ॥१॥" उत्त० १४ श्र०।" बरं कूपशतात् वापी, संभाव्यते । २५० प्र० । सेन० ३ उल्ला० । वरं वापीशतावू क्रतुः । वरं ऋतुशतात्पुत्रा, सत्यं पुत्र वरम् ॥ २ ॥ स्था०४ ठा०३ उ० । पुरुषास पुत्तकारण-पुत्रकारण-न । सुतनिमिसे, सूत्र० १ श्रु०४ सर्गेऽपि स्त्री गर्भ धरति । बृ० ३ उ० । पुत्र इव पुत्रः । अ०२उ.! शिष्ये, उत्त०१०॥ पुत्तजीवय-पुत्रजीवक-पुं० । देशविशेषप्रतिबद्ध एकास्थि___ एकस्य पितुः कति पुत्राः कवृक्षभेदे, प्रक्षा० १ पद। एगजीवे णं भंते ! एगभवग्गहणेणं केवइयाणं पु-पत्तणतपरियालपणयबहल-पुत्रनप्नृपरिवारमणयबहुल-त्रिका त्तत्ताप हव्वमागच्छइ ?। गोयमा ! जहनणं इक्कस्स पुत्राः सुताः, नप्तारः पौत्रा दौहित्राश्च, पतलक्षणो यः परिवा Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुतणत्तुपरियालपणय बहुल अन्निधानराजेन्द्रः । पुष्फचूलिया रसात्र यः स्नेहः स बहुलो बहुर्येषां ते तथा । पुत्राऽऽदिषु पुप्पत्र-देशी-न०। पीने, दे० ना० ६ वर्ग ५२ गाथा । बहुस्निग्धे, भ. ७ श०६ उ०। पुष्फ-पुष्प-न० । पुष्प अच। "कुसुमे,पुप्फाणि य कुसुमाणि य, पुत्तदार-पुत्रदार-न० । पुत्रकलत्रे, उत्त० १६० फुल्लाणि य तहेव होति पसवाणि । सुमणाणि य मुहुमाणि पुत्तदारपरिकिन-त्रदारपरिकीर्ण-त्रि० । विषयसेवनात् पुत्रकलादिभिः सर्वतो विक्षिते. "पुत्तदारपरिकिन्नो मोहसं य, पुप्फाणं होति एगट्ठा ॥ ३६॥" दश० १ १० । कल्प० । ताणसंती (८ गाथा)।” दश०१ चूछ। स्त्रीरजसि, विकासे, कुवेरस्य विमाने, नेत्ररोगभेदे च । स्वार्थ कन् । रत्नमयकङ्कणे, रसाञ्जने, शकट्याम् , कापुत्तदोहल-पुत्रदौहृद-पुं० । पुत्रे गर्भस्थे दोहृदमेव पुत्रदौहृदः। सीसे.च । वाचा हा०३ श्रा०।('अट्टप्प्फी 'शब्दे प्रथमभागे अन्तर्वन्याः फलाऽऽदावभिलापविशेषे,सूत्र०१ श्रु०४०२ उ०।। २४५ पृष्ठे उक्तानि अष्ट पूजोपयोगिकुसुमानि) पुत्तपोसि (ए)-पुत्रपोषिण-त्रि० । "अदु पुत्तदोहलढाए, पुष्फल-पुष्फक-पुं० । फेने, “डिंडीरो पुप्फो फेणो।" श्राणप्पा हवंति दासा वा।" पुत्रेच्छापूरणार्थ दासभावमाप | पाइ० ना० १३२ गाथा। , ने पुत्रपोषके, सूत्र० १ श्रु० ४ ०२ उ०। पुष्फकंत-पुष्फकान्त-पुं० । दशमकल्पी यविमानभेदे, स० पुतफल-पुत्रफल-नं० । पुत्रलक्षणं फलं पुत्रफलम् । पुत्रो २० सम० । वा फलं यस्य कर्मणस्तत्पुत्रफलम् । पुत्ररूपे कर्मफले, पुत्रफलकरे कर्मणि च । स्था०५ठा०२ उ०। पुप्फकरंड-पुष्फकरण्ड -न० । हस्तशीर्षनगरस्योत्तरपश्चिमदि ग्भागे स्वनामख्याते उद्याने,विपा०२ श्रु.१ अ० प्रा०मः। पुत्तबह-पुत्रवध स्त्री० । पुत्रपत्ल्याम् , " सुराहा पुत्तबहू।" श्रा० चू। पाइ) ना० २५२ गाथा! पुप्फकेउ-पुष्पकेतु-पुं० । गङ्गातटस्थपुष्पभद्रपुरराजे, ती० ३५ पुत्तभंड-पुत्रभाएड-न० । पुत्ररूपे इष्टाऽऽधायके वस्तुनि, श्रा० कल्प । पुष्पचूडयोः पितरि, ती० ३५ कल्प । वर्श । म०१ श्राव० । श्रा०क०। नं0 । बृ. । श्रशीतितमे महाग्रहे, "दो पुत्तमंस-पुत्रमांस-पुंग सुतकलले,दश०। तदुपमया भोक्तव्यम्, पुप्फकेऊ।" स्था०२ ठा० ३ उ । चं० प्र० । ऐरवतजे अत्र उपमा दृष्टान्तः-पृत्युदकोपमानतः खल्वन्नपानमुप-। भविष्यति सप्तमे कुलकरे, स०। भोक्तव्यमित्यत्रोदाहरणम्--" जहा एगेणं वाणियएणं दारिहदुक्खाभिभूएणं कहिं हिडतेण रयणदीवं पावेत्ता ते. पुप्फचंगेरी-पुष्पचङ्गेरी-स्त्री०। पुष्पशिखाबलिरचितायां च. लोकसुंदरा श्रणग्घया रयणा समासादिता.सो य ते चौरा- अय्योम् , नं०। कुला दीहद्धाणभएण ण सकाइ णिच्छादिऊण मुव्योग- पुप्फचारण-पुष्पचारण-पुं० । चारणभेदे, ये हि नानादुमलभूमिमाणे उं, ततो सो बुद्धिकोसल्लण ताणि एगम्मि पदेसे तागुल्मपुष्पाण्युपादाय पुष्पसूक्ष्म जीवान् विराधयन्तः कुसुठयेऊण जुन्ने जरपट्ठाण घेतुं पट्टि गहिल्लगवेसेण रयणवा मतलदलावलम्बनसङ्गगतयः । ग०३ अधि। णिश्रो गच्छत्ति, भावे तेण तिनि बारे जहा कोइ नवि उद्धेति ताहे धितूण पलाइनो अडवीए तिसाए गहितो जाव पुप्फीचीचीणा-पुष्पचायिनी-स्त्री० । मालाकारिण्याम्, कुहियपाणिय छिल्लरम्मि विण, पासति, तत्थ बहवे हरिणा-" पुष्फचिचिणिश्राश्री पुप्फफलाईश्री । " पाइ० ना० उदयो मता, तेण तं सव्वं उदगं वसाजाया, ताहे तं तेणं । १०६ गाथा। अराणुस्लसियाए प्रणासायंतेण पीयं, नित्थारियाणि अणेण पुप्फचूल-पुष्पचूड-पुं० । अङ्गेषु चम्पास्वामिनि ब्रह्मदत्तपरयणाणि । एवं रतनद्राणगाणि णाणदंसनचरित्ताणि, स्याश्चलन्या भ्रातीर, उत्त०१३ श्र०। गङ्गातटे पुष्पभद्रनगचोरट्ठाणिश्रा विसया, कुहितोदगट्टाणिश्राणि फासुगेस रराजपुष्पकेतुपुत्रे, स च स्वभगिन्या पुष्पचूडया भार्याभूतया णिज्जाणि अंतपंताणि आहाराइयाणि श्राहारितण ताहे सह विषयाऽऽसक्तः स्वमात्रा पुष्पवत्या देवीभूतया नरकदर्शतप्फलेण जहा वाणियगो इह भवे सुही जातो. एवं साहू वि नेन प्रतिबोधितः सन् श्राचार्यानिकापुत्रोपदेशात् वतं जगृसुही भविस्तइ 'सि' अडविट्ठाणीयं संसारं णित्यारेति हे।ा. क. १०। श्राव० । दर्श० । प्रा० चू० । श्रा० म० । त्ति।" (३८ गाथा) दश० अ०। ग० । ती०। नं० । भरते वर्षे विमलयशसः सुमङ्गलायां पुत्तलिया-पुत्तलिका-स्त्री० । प्रतिकृती, "बाउल्ली पुत्तलि- देव्यां जाते पुष्फचूलाभ्रातार वङ्कचूलापरनामके पुत्रे, ती० श्रा।" पाइ० ना० ११७ गाथा। ४२ कल्प। पुत्थ-देशी-नं० । मृदुनि, दे० ना०६ वर्ग ५२ गाथा। पुप्फचूला-पुप्पचूडा-स्त्रीहस्तिशीर्षनगरे दीनशत्रुराजेन धापुध-पृथक-अध्य० । " पृथकि धो वा" ॥८।१।१८८ ॥ रण्या देव्यां जनितस्य सुबाहुकुमारस्य प्रधानभायाम् .वि. पृथक्शब्दे थस्य धो वा भवति । भिन्ने, प्रा०१ पाद। पा०२श्र । १० । पार्श्वनाथप्रवत्तिन्याम् शा०२ श्रु.६ वर्ग १ अ०। कल्प० । ति० । ग०। प्रा०म०1श्रा चू० । स०। उक्त। पुनपन-पुण्यजन-पुं० । यते, " पुग्नयणा गुज्झया जक्खा।" ['पास' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ९०३ पृष्ठे पुष्फचूलाकथोला) पार ना०६६ गाथा । पुग्नाश्र-पुत्राग-पुं० । देववृक्षे, “पुग्नाश्रो सुरवली ।" पाइ० पुष्फचूलिया-पुष्पचूलिका-स्त्री०। पूर्वोक्तार्थविशेषप्रतिपादिना० १४६ गाथा। का पुष्पचूडा। नं०। पानिरयावलिकाश्रुतस्कन्धचतुर्थव Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००३) पप्फच लिया अभिधानराजेन्द्रः। पप्फसाल र्गरूप विपाकचतोपाने, जं० १ वक्षः । " जर णं भंते ! पुप्फफली-पुष्पफली-स्त्री० । कूष्माण्डायाम,आ० म०१०। समणेणं भगवता उक्खेवो० जावं दस अज्झयणा पन्नत्ता। तं जहा-सिरि" इत्यादयः । (ते च स्वस्वस्थाने दर्शिताः) पुष्फबलि-पुष्पबलि-पुं। उपचारे, "उवयारो पुष्फबली।" " नि० १ श्रु० ४ वर्ग १ अ। पाइ ना० २०६ गाथा। पुप्फछाजिया-पुष्पच्छादिका-स्त्री० । पुष्प तायाम् उपरि पुप्फभद-पुष्पभद्र-न०। पुष्पकेतुनृपपालिते गङ्गातीरस्थे न. स्थगनिकायाम् , रा०। गरभेदे, प्रा० चू०१०। पुष्पपुरमित्यपरमस्य नाम । वृ० पुप्फजाइ-पुष्पजाति-स्त्री० । मालतीप्रभूतिपुष्पविशेषे, शा० | १ उ०२प्रक० । पुष्पभद्रा इति स्त्रीत्वमपि । ग०२अधिक। श्रु०१०। श्रा० ० । श्रा० म० । ती । दर्श०। श्रा० क० । श्राव। पुप्फणंदि (ण)-पुष्पनन्दिन्-पुं० । देवदत्तसार्थवाहस्य दु. पुष्फभूइ-पुष्पभूति-पुं०। सिन्धुवर्धननगरराजप्रबोधके, प्राहितुर्देवदत्तायाः पत्या स्वनामख्याते राशि, स्था० १० ठा० । चार्य, श्रा० क० ४ ० । ( कथा 'मुंडिवग' शब्दे ) पुप्फजुय-पुष्पयुत-पुं। ऋषभदेवस्य पुत्रशतकान्तर्गते एकप पुण्फमइ-पुष्पमति-स्त्री० । सुव्रतजिनस्य प्रथमशिष्ये, ति। चाशत्तमे पुत्रे, कल्पा १ अधि० ७ क्षण। पुष्फमाला-पुष्पमाला-स्त्री० । ऊर्ध्वलोकवास्तव्यायां दिक्कुपुप्फणालिया-पुष्पनालिका-स्त्री० । कुसुममध्यभागे, तं०। मारीमहत्तरिकायाम् , स्था०८ ठा० । अधोलोकवास्तव्यायां पुष्फणिजाससार-पुष्पनिर्याससार-पुष्परसप्रधाने भासवे. स्वनामख्यातायां दिक्कुमार्याम् , जं. ५ वक्षः । ती० । श्रा० चू।। श्रा० म०। प्रा० क०। जी० ३ प्रति०४ अधि। | पुप्फमित्त-पुप्पमित्र-पुं०। स्थूणानगयों जाते धीरपूर्वभवजीपुप्फदंत-पुष्पदन्त-पुं) । पुष्पकलिकामनोहरदन्तत्वात्पुष्पद | वे , आ० म०१ श्र०। न्तः ध०२ अधिः। सुविधिजिने,[अस्य सर्या वक्तव्यता 'ति पुप्फमिस्सियकस - पुष्पमिश्रितकेश-पुं० । कुसुमवासितकुस्थयर'शब्दे चतुर्थभाग २२६१ पृष्ठ उका] "सुविहिपुष्पदंतेणं | श्ररहंए एगं धणुसयं उड्डे उच्चत्तेणं होत्था ।" स०१०० सम० | न्तले, तंग "सुविहिस्स णं पुष्फवंतस्स रही पन्नतरि जिणसया हो- पुप्फय-पुष्पक-ना पुष्पाऽऽकृतिललाटाभरणे,जं०२ वक्ष। स्था।" स० ७५ समा स्था० ।"पुष्कदंते गं अरहा पंचमूले ईशानेन्द्रस्य पारियानिके विमान, जं०५ वक्ष० । स्था० । होत्था।" स्था०५ ठा०१ उ० । ईशानस्य देवेन्द्रस्य कुञ्जरा- औ । विशे० । नीकाधिपती हस्तिराजनि, स्था० ५ ठा० १ उ० । बृहस्व-पप्फलंबसग-पुष्पलम्बसक-पु० । गण्डुक, उ तिशिष्ये गन्धर्वविशेषे, "श्रीहीरसूरिसगुरोः प्रवरी विनेयौ, ४ अधिक। जाता शुभी सुरगुरोरिव पुष्पदन्ती । श्रीसोमसोमविजया. भियवाचकेन्द्रः, सत्कार्तिकीर्तिविजयाभिधवाचकश्च ॥१॥" प्रष्फलाई-पुष्पलावी-स्त्री०। मालाकारिण्याम्, "पुष्फचिकल्प० ३ अधि. ६ क्षण । पात्रो पुष्फलाईश्रो।" पाइल्ना० १०६ गाथा ।। पुष्फदत्त-पुष्पदत्त-पुं० । वीरपुरनगरे जातस्य सुजातकुमार- पुप्फबई-पुष्पवती-स्त्री पुष्पभद्रनगरराजपुष्पकेतुमहिष्याम्, स्य पूर्वभवजीवे इपुकारनगरे ऋषभदत्तगृहपतिपुते, वि ग.२ अधिः । श्रा० क० । ती० । उत्त!श्रा० म० । मरिणपा०२ श्रु० ३ ० । तोरण पुर्या मितयशसो राशः कन्यायाम् , उत्तश्रा बि शतितमतीर्थकरस्य प्रवर्तिन्याम्, स० । प्रव० । सुपुरुषस्य पुप्फपाय-पुष्पपात-पुं० । कुसुमपतने, पञ्चा० २ विव०। किंपुरुषन्द्रस्याग्रमहिण्याम् , स्था०४ठा०१ उ० । तुलिकानपुफपायवियडण-पुष्पपातविकटन-न० । कुसुमपतने सति गर्या बहिरुत्तरपूर्वस्मिन् दिग्भागे चैत्ये,भ०२ श० ५ उ०। शङ्काऽऽतिचाराऽऽलोचनायाम्, स्वाभिप्रायनिवेदनमात्रे च। पत-पपवन्त-पं० द्वि० ब० । एकयोक्त्या चन्द्रसूर्ययोः, पञ्चा० २ विव० । द्रव्या०४ अध्या। पुप्फपुंज-पुष्पपुञ्ज-पुंग। पुष्पसंभारे, " पुष्फपुजोवयारक पुष्फवदलय-पुष्पवादलक-न० । पुष्पवृधियोग्यं वादलकम् । लितं करेति ।" पुष्पपुञ्ज एव उपचारः पूजा पुष्पपुऔपचा रस्तेन कलित युक्तम् । जी० ३ प्रति० ४ अधि० : रा०। पुष्पवर्षके मेघे, रा०। पुष्पवृष्टिनिमित्ते, प्रा० म०१०। तं। पुष्फविहि-पुष्पविधि-पुं०। चम्पकाऽऽदिकायां पुष्पजाती, पृ० पुष्फपुर -पुष्पपुर-न० । पाटलिपुत्रे नगरे, वृ० १ उ०२प्रक। १ उ०१ प्रक०। प्रश्न । उपा। ('पाणंद ' शब्दे द्वितीयपुष्फपूरय-पुष्पपूरक-न। पुष्परचनाविशेष, और। पुष्पशे. भागे १०६ पृष्ठे सूत्रं गतम्) खरे, शा०१२ । १६ अ० पुष्फवुट्टि-पुष्पवृष्टि-स्त्री० । पुष्पवर्षणे, प्रा० म०१०। पुप्फप्पभ-पुष्पप्रभ-पुं० । अरुणोदसमुद्रे पश्चानामावासानां पुफिसाल-पुष्पसाल-पुं० । बसन्तपुरपत्तनीये स्वनामचतुर्थे, दी। ख्याते गायके, प्रा० का १ ('सोइंदिय' शब्दे उपुष्फफलजंभय-पुष्पफलजृम्भक-पुं० । पुष्पफलोभयजम्भके दाहरणम्) । मागधे गोब्बरमामे स्वनामख्याते गृहपती, देवे, भ०४ श८ उ० प्रश्न। प्रा०क० १०॥श्रा०म०। Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००४) अभिधानराजेन्द्रः / पुप्फसालसुय - पुष्फसालमुय - पुष्पमालसुत पुं० । मागधगोव्यरमामचास्त व्यपुष्पशालगृहपतिपुत्रे, श्रा० सू० १ अ० । घ०र० । (विनesमुदाहरिष्यते) पुष्कसिंह- पुष्पसिंह पुं०। जम्बूद्वीपे पुष्कलावतीविजये मणितोरण मितयशसो राशः पुत्रे, उत० ० पुप्फ सुहुम- पुष्पसूक्ष्म [न० । वटोदुम्बराणां पुष्पाणि तानि त सूक्ष्माणि पुष्पमाणि । पुष्पपर्वेषु भलक्षणीयेषु सूक्ष्मभेदेषु स्था० ८ ठा० । दश० । से किं तं पुप्फयुडुमे । पुफहुये पंचविहे पचते । तं जहा - किल्ले जाव सुकिल्ले अस्थि, पुष्फलुटुये रुक्खसमाणवमे नाम पद्मते, जे छउमत्थें जाव पडिलेहि यव्वे भवइ, से तं पुप्फसुमे ॥ ५ ॥ पृष्फोवग- पुष्पोषम शि० । पुष्पाणि कुसुमान्युपगच्छति पुष्पोपगः । बहलपुष्पे, स्था० ४ ठा० ३ उ० । दुष्फोमवार- दुप्पोपचार पुं० पुष्पप्रकारे स० ३४ सम० शे० । ( से किं तं पुण्फ सुदुमे ) श्रथ कानि तत् सूक्ष्मपुष्पाणि । गुरुराह - सूक्ष्मपुष्पाणि पञ्चविधानि प्रशप्तानि, कृष्णानि या वत् शुक्लानि सन्ति सूक्ष्मपुष्पाणि वृक्षसमानवर्णानि प्रसि यानि तानि यानि स्थन पावत् प्रतिलेखितव्यानि भयन्ति । (सेतं पुण्फसुडुमे ) तानि सूक्ष्मपुष्पाणि । कल्प० ३ अधि० ६ क्षण । पुमत्ता - पुंस्ता - स्त्री० । पुरुषत्वे, दशा० १० अ० । स्था० । पुमपलवणी- पुंप्रज्ञापनी - स्त्री० । पुरुषलक्षणप्रतिपादिकायां मोहनस्वरतादामित्यादिरूपायां भाषायाम्, प्रशा० ११पद । पुयपुत पुं० [अण्डकोश, पृ० ३३० प्रश्नः । पुयाइ प्रयादिन् पुं० । पिशाचे, " डबरा पुपाइप परेया पिसल्लया भूआ ।” पाइ० ना० २० गाथा । पयित्वा अन्यत्र नीया ज्या पथाऽऽरक्षितस्य व्या० ०६ पुप्फसेन- पुष्पसेन- पुं० । पुष्पभद्रनगरराजे, आ० ० १ अ० । पुयावइत्ता - प्रावयित्वा - अव्य० । 'प्लुङ्गतावितिवचनात् ला पुष्पवतीपती पुष्पण्डपुष्पचूडापितरि आ० म० अ० पुप्फादेशीयसरि दे ना० ६ वर्ग ५२ गाथा । बुल्फाइय पुष्पाऽऽदिक०मधूपदीपती विवo | पुष्काराम-पुष्पाऽऽराम-पुं० पुष्पवाटिकायाम्, "असल मालागारस्स रायगिहस्स नगरस्स बहिया एत्थ सं महं पुप्फ रामे होत्था ।" अन्त० १ ० ६ वर्ग ३ श्र० पुप्फारोवण - पुष्पाssरोपण - पुं० । पुष्पाणां देवस्य मस्तकेषु रोपणे, ध० २ अधि० । । एगे पुण्फालिग पुष्पावकीर्मक क्रि० पुण्याचीच इतस्ततोऽयकीर्णानि विप्रकीर्णानि पुष्पावकीर्णानि इति व्युत्पत्तेः । आय लिकाबाह्ये विमाने, जी० ४ प्रति० ३ उ० । पुप्फासव - पुष्पाssसव- पुं० । धातकीपत्ररससारासवे, जी० ४ प्रति० ३ अधि० प्रा० । पुरंदर संपत्तेणं पुष्फियाणं दस अज्झयणा पक्षता । तं जहा 'चंदे १ सरे २३ पुलिया ४ पुन ५ माणिभदे ६ य । इत्ते ७ सिवे८य बलिया ६, अणाढीप १० चेव बोधव्वे ॥ १ ॥ ” नि० १ ० ३ वर्ग १ श्र० । पुष्पिका स्त्री० पितृष्वसरि, "पुष्टिमा पिउत्था " पाह० ना० २५३ गाथा । पुष्पाहार पुष्पाहार पुं० पुष्पमात्राऽऽहारे औ०नि० पुण्कम पुण्यस्य हिमालया ॥ ८२१४४४ इति स्वस्य डिंमाऽऽदेशः । पुष्पधर्मे, प्रा० २ पाद । पुल्फिया - पुष्पिता - स्त्री०/ प्राणिनः संयमभावना पुष्पिताः सुजिताः भूयः संयमपरित्यागतो दुःखाचासमुकुस मुकु लिया। पुनस्तत्परित्यागेन पुचिताः प्रतिपाद्यन्ते ताः पुष्पि ताः। नं० पा० । निरयापालिकानां तृतीय करणानामुपाङ्गे, नि० १ ४० ३ वर्ग १ श्र० । जं०। " उबंगाणं फिया के पहले एवं खल जंबू समजाव पुष्कुतरा पुष्पोत्तरा- श्री. शर्करा ०२० जी० goफोदय पुष्पोदकन कुसुमचासिते जसे. जं ३ यक्ष पुपरसमिथे जले, कल्प० १ अधि० ३ क्षण । शा० । औ० । 1 इति ५ ठा० ४ उ० 1 पूतयित्वा स्त्री० [पूर्त या दूषणव्यपोहेन कृत्वा या सा पूतयित्वेति । स्था० ५-ठा० ४ उ० । । आ०चू । । " पुर-दुर न० | नगरे अन्तःपुरे, रा० प्रा डा नगरादेश प्राकारावृते नगरेकदेशे स्था० ५ डा० १४० पुरश्रो- पुरतस् - अव्य० । पुर- तसिल् । “ श्रतो डो बिसर्गस्य” ॥ ८ । १ । ३७ ॥ इति श्रतः सेः स्थाने डो । 'पुरश्री ' प्रा० १ पाद । श्रत इत्यर्थे पञ्चा० ३ विष० । दश दशा० । अनुः । उत्त० । आव० नि० चू० । स० । श्रा० चू० । अग्रभागे, स्था० ४ ठा० २ उ० । शा० । श्राष० । " पुरश्र य श्राश्रो ।” पाइ० ना० २७४ गाथा । - पुरभो कहु परतः कृत्य-धन्य । अग्रतः कृत्वेत्यर्थे, “ मखं वा वयं वा तो पुरश्र कट्टु विहरेजा श्रप्पुस्सए । " श्राचा० २ ० १ चू० ३ ० १ ३० । पुरोकार्ड पुरस्कृत्य प० प्रथानीकृत्येत्ययें भ० २० १ उ० । - पुरोपटिबद्ध पुरतः प्रतिबद्ध जि० अग्रतः प्रतिप्र व्रज्याभेवे, स्था० ३ ठा० २ उ० । (विशेषार्थस्तु 'पष्वजा ' श. देऽस्मिन्नेव भागे ७३० पृष्ठे गतः ) पुरं पुरम् अव्य पूर्वकाले समये च स्था० २ ० १४० पुरंटिरि पुरएिटरि ० कातीराजयंश्ये ०५६ पुरंदर - पुरन्दर - पुं०। पुराणि वैम्यनगराणि दारयति विध्वंसयतीति पुरन्दर । दैत्यमगरविध्वंस के इन्द्रे, उत्त० ४ अ० । स्था - Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००५) अभिधानराजेन्द्रः । पुरंदर शक्रेन्द्रे, प्रश्न०२ श्राश्र०द्वार | भ० । प्रशा० ॥ श्र०म० जी०। अ० चू० सूत्र० । अनु० । स्वनामख्याते राजनि, ध०र० । गुणानुरागे पुरन्दरराजवक्क्रयता यथागुणरागी गुणवंते, बहु मन्त्र निम्मे उबेरेह । गुणसंग पवत्ता, संपत्तगुणं न मइलेइ ॥ १६ ॥ गुणेषु धार्मिक लोकभाविषु रम्यतीत्येवंशीलो गुणरागी गु णवतो गुरुगुणभाजो यतिश्रावकाऽऽदीन् बहु मन्यते मनः प्रीतिभाजनं करोति । यथा - अहो धन्या पते, सुलब्धमे सेवां मनुष्यजन्मेत्यादि । तर्हि निर्गुणानिन्दतीत्यापनम्, यथा देवदत्तो दक्षिनेन चचुषा पश्यतीत्युक्ते यानेन न पश्यती स्ववसीयते तथा चाऽऽडुरेके "शत्रोरपि गुणा ब्राह्याः, दोषा बाच्या गुरोरपि " इति। न चैतदेवं धार्मिकोचितमित्याह-नि. र्गुणानुपेक्षते-असंक्लिष्टचित्ततया तेषामपि निन्दां न करोति । यतः स एवमालोचयति "सन्तो ऽप्य सन्तोऽपि परस्य दोषाः, नोहाः श्रुता वा गुणमाचइन्ति । वैराणि परिवर्द्धयन्ति, 'वक्तुः 37 श्रोतु तयन्ति परां कुबुद्धिम् ॥ १ ॥" "कालीन अाप असारदोहि बासि जीवे । जं पावियद गुणो वि हु, तं मन्नह भो महच्छरियं ॥ २ ॥ रिगुणाविरल थिय, एकगुणो वि हु जो न सन्वत्य निदोसाण विभ, पसंसिमो धोवदोंसे वि ॥ ३ ॥ इत्यादि संसारस्वरूपमालीयसी निर्गुणानपिन निन्दति किं तूपेक्षते, मध्यखभावेनाऽस्त इत्यर्थः तथा गुणानां संग्र समुपादाने प्रवर्त्तते यत ते, संप्राप्तमङ्गीकृतं गुणं सम्यग्दर्शनविरत्यादिकं नमनितिन सातियारं करोति पुरन्दराजयत्। "अथ सलामरहिया नगरी बाहारसी हरिपुरि छ । निद्दलिय सत्तुसे, तत्थ नरिंदो विजयसेणो ॥ १ ॥ तस्सासि कमलमाला, सुकमलमाल व्व गुणजुया देवी । सो पुरंदरीत पुरंदरों इशुरु ॥ २ ॥ खो गई गुगरा-गसंग यंग सुखीलेन । अणवरयं सो गिजर, पुररमणीहि गुणप्पसरो ॥ ३ ॥ तरुल मदाणपरिस-वन्नणपणो विमुक्कनियकियो । अभिरम बिदुमगाव-जय सपलनपरी ॥ ४ ॥ तागुण दिई व तम् अतुरता । गाढं अभा निव-स्ल पणइणी मॉलई नाम ॥ ५ ॥ पेसेइ निययधाई, उज्जाणगयं भणेइ सा कुमरं । एतं काउ खणं, मद्द वयणं सुणसु कावारीय ! ॥ ६ ॥ कुमरेण वि तह विहिए, सा जंप निवणो हिययदया। मालनामा देवी, भवस्स गंगेव सुधसिद्धा ॥ ७ ॥ साद समता । सिच्च कुमर ! बराय, तुमए नियलंगमजलेणं ॥ ८ ॥ तं सुणिय चिंता इमो, अहह अहो मोहमोहिया जीवा । रुचितमक पयति ॥६॥ इय सविसाओ चितिय, तं धारं भणइ नरवरंगरुहो । मज्झस्था होऊणं. मह वयणं सुरासु खणमेगं ॥ १० ॥ परनरामेते वि कुलं-गणारा जुतो न होइ अणुराओ । ओ पुरा पुते व इमो, सो दूरं चिय विरुद्धो ॥ १९ ॥ सुकुलुम्भवनारीश्रो परपुरिसं विसभित्तिलि हियं पि । रमंडल पिडिमंहति १२ ॥ २५९ पुरंदर चिच्छिककरचर- बनासमयि वासस्यपरिमाणं । परपुरिसं कुलनारी, आलवणाईहि वजेइ ॥ १३ ॥ इमणिय तेरा भाई विसखिया ती कहर सा सम्बं तह विहु अढायमाणी सा पेसह दूइमन्नुन्नं ॥ १४ ॥ ततो विचिसो बितर कुमरो इमेमि किं अयं । श्रवा परघाविव पडिसिद्धो श्रप्पधाओ वि ॥ १५ ॥ जह य कहिज्जर रनो, इमा वराई तत्र विण्स्लेह । ता संतरगमणं, जुत्तं मे सयलदोसहरं ॥ १६ ॥ इय वीमंसिय हियप, करकालयकालकालकरवालो । नयनत कुमरी जा जाइ कि पि भुवं ॥१७॥ ता मिलिओ तस्खेगी दिखो भएर कुमरऽहं गमिथामि । सिरिसं डिब्भाविसहक्क -- मंडणे नंदिपुरनयरे ॥ १८ ॥ कुमरो चि आह ब्रहमचि तत्वेच गर्मी अहां सुखति । इय वृत्तु दोवि चलिया, अग्ने अग्गे श्रणुविग्गा ॥ १६ ॥ अह उच्छुरियो पसन शिमिश संप पक्षिव बज्रभुओं व भगियों तेरा नियत ॥ २० ॥ मा भतिजं न कहि रे रे एस तुम्भ पिउनू । तो खलभलियं विप्पं, संठविडं भणइ कुमरो वि ॥ २१ ॥ जं पिउरिउणो उचियं तं बालो विन्दु इमो जणो कुण्ड । करुणारसो जर परं किं पि खणं न निवारे ॥ २२ ॥ इय सवियद्धं कुमर-स्स भणिय भ्रायन्निऊण पलिवई । रियगुरुकोपबिज्जू परिसर सरसिरधाराई ॥ २३॥ खरमारुयलहरी इव, विद्दलावि य असिलयाइ ताउ लहुं । कुमरो किरणपश्रोगा, चडिऊण रद्दम्मि चरडस्स ॥ २४ ॥ दाउ दिए पायं, करं करेणं गहित अह भगइ । रे कत्थ हणामि तुमं स श्राह सरणागया जत्थ ॥ २५ ॥ वितर कुमरो इमिणा चयमेण निवारण पहारमिमो सरणागयाण गरुया, जेण न पद्दरंति भणियं च ॥ २६ ॥ मयरादी दीणचराई करचरणपरिपनि बालवृतिमंत विससियहं पाहि । रमणि समसिर-पराई दीगई दुि जेनिया पति खन्त विकुलतमा फुड पापा नयंति इय भाविय सो मुक्को, पलिवई विनवे कुमरवरं । तुह अम्हि किंकरोsहं, तुह श्रायतं सिरं मज्झ ॥ २८ ॥ इस मणिगओ देखें। कुमरी पि दिवस समं, मेरा मंदिरमयन्तो ॥ २६ ॥ तत्थ य बहिरुजाणे, वीसमह इमो समाहणो जाव । ताब पर ससहररचसिचयधरं ॥ ३० ॥ गुणगणत्तं इंतं, कंपि नरं वचिंत कुमरो । यारिसा सुपुरिसा, नूयं अरिहंति पाडवा ॥ ३१ ॥ तो अभुट्टिय दूरा-उ पायमवधारह सि अंपेर । उबवेसिडं संठाणे, कयंजली विभवद्द एवं ॥ ३२ ॥ सामि सजायं सफलं ममागममित्य जनाइरहस्ता पहुचरियं सोऽमिच्छामि ॥ ३३ ॥ असा निवसुविया दयियि हमे पसार गुरुयं पि रहस्सं तुह, कहियव्यं किं पुरा इमं ति १ ॥ ३४ ॥ हमारे सबसेलम्म सि 9 भूपा नामे- कुमार निवसामि सियो ॥ ३५ ॥ मह अत्थि सारभूया, इक्षा विज्जा अहाउयं थेोषं । नाऊण अपणोऽहं चितिउमेवं समारद्धो ॥ ३६ ॥ Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००६) पुरंदर अभिधानराजेन्दः । पुरंदर पत्तस्स प्रभावामओ, विजं एवं करेमि कहमिरिह। तह अप्पाहारनर-स्स होर विजा प्रणत्थाय ॥ ६॥ न य विज्जाए दाणं, उचियमपत्ते जी भणियं ॥ ३७॥ परिपूणगसमपत्ते, दितो विजं गुरु वि पावेह। मरिज्ज सह बिज्जाए, कासे पत्ते वरं विऊ । बहुविहकिलेसभारं, जणाववायाइदोसे य ॥ ११ ॥ अपत्तं नेष वाइजा, पत्तं तु न विमाणए ॥ ३८॥ भत्तिभरनिम्भरणं, कुमरेणं पुण वि पभाणिए सिद्धो। इय चिंतिरस्स मज्झ, निवेनी तीइ चेव पिज्जाए। दाऊण माणस्स वि. विजं पत्तो सए ठाणे ॥ १२ ॥ गुणरागचंगगुणगण-कुलिश्रोतं चिय सुजोग त्ति ॥ ३६॥ तो पुवोदयविहिणा, कुमरेण पसाहिया महाविज्जा । तोतं दाउमहं तुह, समागमो गिराह भो महाभाग ! पयडीहोउं पभणह, सिद्धाऽहं तुह सया भद्द॥ ६३॥ जेण भवामी सुहिया, मोहरियभरु व्व भारवहा ॥४०॥ किंतु दिनो कत्थ गो. रचाह तए न चिंतियबाप। एसा य महाविज्जा, विहिणा संसाहिया परदिणं पि । कालेण फुडं होही, इय भणिय तिरोहिया देवी ॥१४॥ ऊसीसमम्मि ठावइ, कणयसहस्सं निवंगरुह ! ॥४॥ हा हा किसे जायं, ति चिंतिरो काउ ती विजाए। पायमिमीह पभावा, संगामपराजयाइ नहु होइ । पच्छा सेवं कुमरो, पत्तो नंदिउरमज्झम्मि । ६५ ॥ इंदियविसयाईयं, पि नजए वत्थुजायं च ॥ ४२ ॥ विजाविनचामी-यरेण बहुभोगदाणकलियस्स । मंतिसुएणं सिरिनं-दणेण जाया य से पीई। ६६॥ उल्लसिरविणयभरनमिर-मउलिकममेण निवइतणएण। संजोडियकरजुयले -ण तयणु इय वयणमुल्लषियं ॥४३॥ अह तत्थ पुरे सिरिसूर-राइणो मंदिरोवरि रमंती। गंभीरा उबसंता, निम्मलगुणरयणरोहणसमाणा। बंधुमइनामधूया, हरिया केण वि अदिट्टेण ॥ ६७ ॥ तो तब्बिरहे राया, मुहूं मुहूं मुच्छर रुया बहुसो। बुद्धिसमिद्धिसमेया, गुणिजणअणुरायपरिकलिया॥४४॥ परिभमिरभुवणकित्ती, परावयारिकमाणसा धणियं । सयलोऽपि रायलोश्रो, सपुरजणो पाउलो जाओ। ६८ ॥ पहु? तुम्हारिस चिय, जुग्गा एवं रहस्साणं ॥ ४५ ॥ तं दटु तिलयमंती, भइ सिरिनंदणं नियं पुत्तं । बालाण सुतुच्छमई-ण सुद्धविनाणनाणरहियाणं। बच्छ! नरनाहतपबा-ऽऽणयगोवायं विचिंतेसु । ६६॥ के अम्ह गुणा का अ-म्ह जुग्गया इय सुविज्जाणं ॥४६॥ न हि तुह बुद्धितरीय, विणाइमो बसणसागरोगरुषो। किं तु गुरुएहि विहिया, पुरश्रो खहुणो वि इंति कज्जकरा । नित्थरिउं पारिजा, तत्तो सिरिनंदणो भणइ ॥ ७० ॥ रविणा अग्गे विहिनो,अरुणो वि हणे तिमिरभरं । ४७॥" ताय!तुमम्मि वि संते,मह सिसुणो कोणु बुद्धिप्रवयासो। उहए सहस्सकिरणे, रेहद फुरियं न दीवस्स ॥ ७ ॥ तथा तिलयसचिवो वि जंपद, न य एगतो इमो अहं बच्छ । शाखामृगस्य शाखायाः, शाखां गन्तु पराक्रमः। जं पिउणो तणपहि, गुणाहिपहिं न होयब्वं ॥ ७२ ॥ यत्पुनस्तीर्यतेऽम्भोधिः, प्रभावः प्राभवो हि सः॥४८॥ जो"अह भणइ सिद्धपुरिसो,जुग्गु चिय तं सि इय रहस्साणं । जडसभवो वि चंदा, पिच्छह उज्जोयए तिहुयर्णपि । गुखरायो जस्सित्तिय-मित्तो विष्फुर चित्तम्मि ॥ ४६॥ पंकुम्भवं ति कमल, वहंति अमरा वि सीसणं ॥ ७३॥ जं दूरे ते गुणिणो, गुणगणधवलियअसेसमाहिबलया। । सिरिनंदणो य जंपह, जइ एयं तो तुह प्पभावेण । जेसिं गुणाणुरायो, वि ते वि बिरला जत्रो भणियं ५०" | नांगो मए उवाओ, एगो तीए समायणे ।।७४॥ नागुणी गुणिने वेत्ति, गुणी गुणिषु मत्सरी। मेरु ब्व थिरो चंदु,व्व सोम्मश्रो कुंजरो व्व सौडीरो। गुणी गुणानुरागी च, विरलः सरलो जनः ।। ५१। भाणु ब्व गुरुपयायो, गंभीरो नीरनाडु ब्ब ॥ ७५ ।। "इय बुनु सबहुमाणं, तं विजं दाउ तस्स पभणेह । नियविजयसेणतणश्रो, पुरंदरो देसदसणबसेण । भद! हंडवीप, इगमासं सुद्धबंभधरो ।। ५२ ।। बारपारसीपुरीश्रो. भमिरो पत्तो इहं अत्थि ॥ ७६ ॥ अटुउबवासपुवं, कसिणच उद्दसिनिर्सि इमं विजं। मह मित्तं सो नजर, बिचिट्ठिएहिं व सिद्धवरबिजो। सम्मं साहिज तो, अइउग्गुवसम्गवग्गंते ॥५३॥ बंधुमााणयणे, सत्तो जर ताव सो चेव ।। ७७ ॥ रणितमणिवलयरमणा, पयडियाइदित्तकंतनियरूवा। तोऽगुन्नाओ पिउणा, पत्तो सिरिनंदणो कुमरपास। बरसु बरं ति भणंती, सिज्झिस्सइ तुह इमा विजा ॥ ५४॥ अभत्थिऊण निउणं, कुमरं आणेह निवमूले ॥७॥ थिरकरणत्थं पच्छ वि, धरिज बंभमिगमासमिय वुत्तुं। विहिरोचियपडिवर्ति, तं भणइ निवो महो पमाओं मे। जा गमिही सो सिद्धो, तो विनत्तो कुमारेण ॥ ५५ ॥ नियमित्तविजयसेण-स्स नंदणो जमिह पत्तो वि ॥ ७॥ मह मित्तस्ल इमस्स वि, दियस्त दिजउ इमा महाविजा । नहु विनाश्री संमा-णिोय न वि तो भणेह वरकुमरो। कयजयभूयाणंदो, भूयाणं दो वि जंपेड ॥ ५६ ॥ देव! न वुत्तं जुत्तं, एवं तुम्हें जो भाणियं ॥८० ॥ भो कुमर! एस विप्पो, मुहरो तुच्छो अवनवाई य । गरुयाणं संमाणो, सुच्चिय जो माणसो पसाउ ति। गुणरागेण विमुक्को, विजाए नेव जुग्गु ति ॥ ५७ ॥ बहिपडिवत्तीश्रो पुण, मायावीणं पिदीसति ॥८॥ अगुणम्मि नरे गुणरा-गवजिए गुणिप्रवन्नवाइम्मि । विजादाणं सप्पे, दुद्धपयाणं व दोसकरं ॥ ५८॥ तत्तो भूसन्माए, रना सिरिनंदणो समाइटो। तं वुतंतं कहिउं, कुमरं पर जंपए एवं ॥२॥ किं च अपत्ते निहिया, विजा तस्सेव कुण वयारं। धीरवर ! चिंतिऊण, इत्थ उवार्य करेसु तं किं पि। विज्जादायगगुरुणो, गरुय तह लाघवं जण ॥ ५६ ॥ जं अम्हे सयलजणा, देखो य सुनिन्चुत्रो होह ॥ ३॥ तथाहि परक जकरणसजो, कुमरो वि पवजिऊण तं कर्ज। जह श्रामघडे निहियं. नीरं लह होड से विणासाय। पत्तो नियम्मि भवणे, विहिणा सुमरे तं विजं ॥४॥ Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरंदर सापचया बुट्टा कुमरेण कह निवषा । hi हरियत्ति तम्रो, सो भण्इ इहऽत्थि वेयड्डे ॥ ८५ ॥ समिद्ध महपुर सामी विज्ञाह मणिकिरीटो। मंदीरबरचलिओ, घुम इह निलीय ॥ सरसहि सो. तं बालं दरिय लडन । पत्तो कुरामा विदुर वीवाह सामग॥ ८७ ॥ ताप विमा, आरोहण तथ तेण वि तह चेव कर. नीओ कुमरो तर्हि तीए ॥ ८८ ॥ दिट्ठो य तत्थ खयरो. बंधुमई सुपुन्ननयणजुयं । परिणय पातो व हकिओ नरवर ॥ ८६ ॥ रे रे सरेसु सत्थं, सुठु गवि करेसु जियलोयं । अविनिश्रवहर-पवण संपइ विण्डो सि ॥ ६० ॥ तं सोएं खपरो, संतो विडिया व रावसुवा । किमियं ति नियंतेहि, दिडो श्रमरुव निवतश्रो ॥ ११ ॥ नू बंधुमईए. कुढियत्ते कोषि श्रागो एस। इस वितिय करपगद्दिय कोदंड भराई ॥ ३२ ॥ रे बाल श्रीसर लहुं. मा मद्द सरपसरजलिर जलम् । सलभु व्व देस पं. ता हसिरो भाइ रायसुश्रो ॥ ६३ ॥ जो मुज्झर कजेसुं तं चिय बालं भणति समयचिऊ । पिप बंधु ॥ ६४ ॥ कि तु पहरेम आहे. निधरिदि देव पयस्त है। जर पुण अवगो, श्रज्ज वि ता पहरसु तुमेव ॥ ६५ ॥ तो कोवदट्टउट्ठो, खयरो मुंचेर निसियलरनियरं । विज्जाबलेण कुमरे - तं हयं निययबाणेहिं ॥ ६६ ॥ एवं परमुकं नराणंदणे जरा सप्पत्थं गरुडत्थे ण वायवत्थेण मेहत्थं ॥ ६७ ॥ मुको श्रयगोलो. खयरेणं बहुकुलिंग लयभीमो । खणं पडिगोले निवसु ॥ ६८ ॥ असमभाव, बंधुप विपस्स । विवासरे परोस कुमारेण ॥ २६ ॥ गाढप्पहारविदुरो परो सहस सि निवडियो प पाणा पणियं निवपुत्ते पुणो भणियं ॥ १०० ॥ उदगिर गुम हो। कापुरिस थिय जम्हा, न संडवते पुणे श्रप्पं ॥ १०१ ॥ तो श्रणुवमसुरडत्तण- इयहियो खेयरो भइ कुमरं । तुह किंकरुचिवय अहं, जं उचियं तं समाइससु ॥ १०२ ॥ चिता दिया बुता यंति ते थिय जयस्थि । जे धुव्यंते एवं दप्पुद्धरवइरिवग्गेण | ॥ १०३ ॥ श्रह तं बालं श्रासा - सिऊण गहिउं च जा निवंगरुहो । मंदिर पर सही तो भवियं मणिकिरीडे ॥ १०४॥ भजपनि भगिरी बंधुमकुम मह सामी ! ता परिय नियपा, लहु मह नयरं पवित्तेसु ॥ १०५ ॥ दारवाद, गंधमिदं पुरं कुमरो। नाही ते या पविती ॥ १०६ ॥ ततो नरिदपुत्ता, जुत्तो खयरेण निवसुयाए य । परमाणारुडी पत्ती मंदिराचं ॥ १०७ ॥ बाविय गंतुं, एगेणं वेयरेण सूरनियो । सो गुरुसामग्मी, चलियो कुमरस्य पचोणि १०८ ॥ पुरो पथि महाविभूईए । तो - ( १००७) अभिधानराजेन्द्रः | " पुरंदर कुमरो कुमरी य तहा, श्रोयरिडं वरविमाणाश्री ॥ १०६ ॥ पण्या य निवइचरणे, तेरा वि अभिसंदिया पहिद्वेण । सव्वो रन्नो सिद्धो, खयरेणं कुमरबुत्ततो ॥ ११० ॥ अहरिसपवरवसेणं, सूरनिवेषं पुरंदरो तत्तो । महाकविगुरु ॥ ११९ ॥ । बरपासायलगी. मणइसियलविलय दोदुगु व्व श्रमरो कुमरो अकमर बहुकालं ॥ ११२ ॥ अरिये जाय हमो चिट्ठर भडकोडि करकलियकण्यदंडे - वित्तिणा ताव इय भणिश्रो ॥११३॥ देव ! तुह दंसणत्थी, बहि चिट्ठा चउरवयणनामनरो । तु मुंच मुंबइय कुमरेणुसे सिपवेसि तेयं ॥ ११४ ॥ तं नियजणय पहाणं, जाणिय श्रवगूहियं च पुच्छेद । कुस अम्माण एवं चिसो किं ।। ११५ दुहरि दुई अति बाह जलाऽऽविलनयणा, सव्वन्नू चैव तं मुणइ ॥ ११६ ॥ तं सुणिय विसन्नमणेो कुमरो पुच्छित्तु सूरनरनाहं । बंधु सहिओ दयमयरहसुदपरिकलियो ॥ ११७ ॥ समुदयागयसिरिविजय- सेरा नियविडियगपपरितोस । .3 - हिमो पविडो नियं नपरि ॥ ११८ ॥ कुमरो दइयासहिश्रो, पणश्री अम्मापिऊण पयकमलं । तेद्दि वि आसीवार-हि ँ नंदिश्रो नंदिस हिरहि ॥ ११६ ॥ वह हरिलियस पल जणस्स निवइतण्यस्स दंसणत्थं च । संपत देतो, पडियकुंकुसुमभरो ॥ १२० ॥" अवान्तर क्षितिपाति सविनयमुद्यानपालकात्य श्रीविमल बोधसुगुरो-रागमनमचीकथन्दुच्चैः ॥ १२१ ॥ वापरस्तेभ्यो दच्या व दानमतिमानम् । युवराजपौरसाम+तसपियाम्परिकलितः ॥ १२२ ॥ वागन्पथिम्पुर-मधिरुढः प्रौढभक्रिसंभारः । पतिपतिचिन तिनिमित्तं निरगच्छ परिवारः ॥ १२३ ॥ दार्पितनिथि-तरागरखरखितैरिव प्रसभम् । सिन्दूरखुपुराण- करचरनसैर्विराजन्तम् १२४ ।। पुरपरियप्रतिमभूतं सुरशलशिलाविशालवशस्कम् । पार्श्वगायनं राजा मुनिराजनैशिष्ट ॥ १२४॥ युग्मम् ) तत उसी करीन्द्रादुम्मुच्य च चामराऽऽदि चिह्नानि । नत्वा गुरुपदकमलं प्रोवाच सुवाचमिति दृष्टः ॥ १२६ ॥ कि युष्माभिय-चिति सत्यपि रूपवमिमसरे । नृपवैभवोचितैरपि सुदुष्करं व्रतमिदं जगृहे ॥ १२७ ॥ जगदे जगदेकदिन सुरिया समाहितो भूप ! सृजन दिवातिविस्तर- मस्तीह पुरं भवाऽऽयम् १२ तस्मिम कुटुम्बी, संसारिक जीवनामकोऽभूचम् । सोहममे हि तरं वसति सकलमपि ॥ १२८ ॥ तत्र च वयं वसन्तः सर्व्वेऽप्येकेन निष्ठुरविषेण । निःशूकदन्दशूके--न नवघनाभेन किल दष्टाः ॥ १३० ॥ " विषमविभावितत्वेन समागच्छन्त्य नाममुनिमीलति सोचनानि श्रवीभवन्ति प्रकामि विगलन्ति मतयः न बुध्यते कार्याऽऽदिविभागः न प रिज्ञायते निजमपि स्वरूपं तथास्यामि गरायते हि तोपदेशाः, न दृश्यन्ते समविषमाणि न विधीयन्ते औ वित्यप्रतिपत्तयः नालप्यन्ते समीपस्थाम्यपि स्वजन Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०००) अभिधानराजेन्द्रः | पुरंदर 9 , म्हानि केचन काष्ठपनिवेश संजाताः केचिदश्य शब्देन घुघुरायमाणा लोलुठ्यन्ते महीपीठे, अपरे शून्य. हृदया तो बम्भ्रम्यन्ते, अन्ये तीव्रतरविषप्रसरसंभू रामभूतादयेापरिभूता स्मितन्त्यतिप्रचुम्भोली केचित्पुनरारसम्यभ्याग्भिर्न शक्नुवन्ति जतुमपि कु टवचनैः केचन पुनः कदाचन स्खलन्ति कदाचिन्निपतन्ति कदाचिन्मूईम्ति कदाचन स्वपन्ति कदाचिज्जाप्रति क्षणमेकं पुन स्वपन्ति विषाऽऽवेगात् अन्ये पुनः सच निर्भरं स्वपन्ति न किमपि चेतयन्ते । एवं च तस्मिन् सकलेापे पुरे विनाऽभिभूते समागादेको महानुभागो बि नीतविनयवृन्दपरिवारो महानरेन्द्रः तच्च तथाविधं पुरमा लोक्य समुत्पुण्यकायेन तेन वनापि लोकाः यथाभो भो लोका मोचयामि वः सर्वानप्येतस्या महोरगविषबेदनायाः यदि मयोपदिशं क्रियामावरत । तैरुक्रम-कीटशी सा? | गारुडकक्रियापरिवृढः प्रोवाच श्रहो लोकाः प्रथममेव तावन्मामीशयसम्वेषयतिपत्तव्यो वेषः रक्षा सकलत्रिभुवनोदरविवरवर्तिनः प्राणिनः न वक्तव्यं सूक्ष्म. मप्यलीकं न प्रहीतव्यमदत्तं पालवितव्यं नवगुप्तिसनाथमजिला मोय स्पनेदेऽपि प्रतिबन्धः वर्जनीयं रजन्यां चतुर्विधमप्याहारजातं वस्तव्यं स्त्रीपशुपराडक विरहितवसति श्मशान गिरिगह्वर शून्यसदनकाननाऽऽदिषु क भूमिकाष्ठशय्यासनं परिभ्रमित युगमादलोचनः जल्पनीयं द्विसमितागर्दितनिरवयं वचः भोकव्यमकृताकरितमननुमतमसंकल्पितं पिजातं. नि. वारणीयं सदाऽध्यकुशल चिन्तायां मानसं परिवर्जयितव्याः सर्वथा राजा ऽऽदिकथाः परित्यक्तव्यो दूरमकल्याणमिवसंप कं, परिहरणीयः सर्वे कुमारुडिसंबन्धः कर्तव्यानि यथाशक्ति सुधरतपश्चरणानि भ्रमितव्यमनियतविहारेण सोढव्याः सम्यग् परीषहोपसर्गाः तितिक्षणीयानि नीचदुभाषितानि भवितव्यं सर्वसय सर्वसः किंबहुना 1 क्षण , यस्यां क्रियायां न प्रमाद्यं, तथा कर्त्तव्यो मदुपदिष्टस्य मन्त्रस्य निरन्तरं जापः ततो निवर्तन्ते पूर्ववर्णितविषविकाराः, उन्मीलन्ति निर्मलबुद्धयः किं बहुभाषितया ?, प्राप्यते परम्परया तदपि परमाऽऽनन्दपदमिति । एवं च तस्य वचनं महाराज ! कैथन विषादेशविपरीत नेपामप्येके उपइसन्ति, अन्ये बधीरत अपरे निम्ति केन दुग्धित्वेन स्वशिल्पकरितानश्च कुचि कल्पः प्रतिप्रति ए केन अति अपरे श्रद्दधाना अपि नानुतिष्ठन्ति कचि 3 मधुकर्माणो महाभागा युक्तियुक्रमिति धनुतिष्ठ न्ति च । ततो मयाऽपि महाराज ! विषधरवेदनानिर्विशेनामृतमिव प्रतिपेदे तद्वचः, उररीकृतः सबहुमानं तत्समर्पितो घेषः मारेने मानतिदुष्करां क्रिषां तदेतन्मम मतमहये कारणं समजनिष्ट । तदाकराय नमान जयसेनपार्थिवेन प्रणम्य पृष्टो भूयोऽपि मुनीन्द्र:- भगवन् ! कथं ततादशविस्तारभया बर्तनगरं सकलमपि सहोदरेसति कथमेकेन करे सर्वेऽपि ते एकदा कथं पै क एव महानरेन्द्र वृन्दारका सफलजननिर्विपत्करणे सम र्थः, कथमेतादृशो विषनिर्घातन विधिरिति । ततः प्रोक्तं गुरु , - महाराज ! नेषं बहितं वचनमात्रं किं तु भव्यजनभववैराग्यकारणं समस्तमप्यन्तरङ्गभावार्थकलितम् । तथादि पुरंदर " नैरयिकाऽऽदिभवाना-मावतों येन तत्र नरनाथ !। संसारस्तेनेह म्यगादि नगरं भवाऽऽवर्त्तम् ॥ १ ॥ कर्मपरिणामराजः सर्वेषां कालपतिसमेतः । जनको येन ततोऽमी, जीवाः सर्वेऽपि सोदर्याः ॥ २ ॥ अत्र भवावर्तपुरे त एव निवसन्त्यनन्तका जीवाः । एकेन विषधरेण च ते दष्टा येन शृणु तच्च ॥ ३ ॥ अष्टमस्थानफणो. दृढरूढकुचाखनामलिनदेहः । रत्यरतिचपलरसनो ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिडिम्भयुतः ॥ ४ ॥ कोपमहाविषकण्टक-विकरालो द्वेषरागनयनयुगः। मायादिमहादिप दाटी मियादयः ॥ ५ ॥ डास्याविचलनः सपरिकरखिभुवनं दशति निखिलम्। कृतवितविलनिवासी मोहमहाविषधरी भीमः ॥ ६ ॥ दा तेन जीवा मूतिच्चेतयन्ति न हि कार्यम् । मीलन्ते लोचनानि मात्र सुखानुभवनेन ॥ ७ ॥ अत्यधरैरिव संचायत सेवकजनेन । लग्नाः करे न देवं न गुरुं च मुणन्ति गतमतयः ॥ ८ ॥ किं मम युक्तमयुक्तं, किं वा मम कोऽहमिति तथाऽऽत्मानम् । न विदन्ति दितमपि तथा शूरयन्ति न गुरुभिरुपदिष्टम् ॥॥॥ समविषमाणि न सम्पण, बीज्ञन्तेनैव गुरुजनस्यापि । विदधत्यौचित्यं किल, मूला इव नालपन्ति परम् ॥ १० ॥ अतितीव्राभिहताः मा केन्द्रिया विगतयेाः । अल्प व रसतो. लुठन्ति विकलेन्द्रिया चरणी ११ ॥ शेवाश्च तत्रयुक्त्या शुन्य राजन ! दाहाऽऽदिदुःखदम्भो-लयस्तु नैरयिकजन्तूनाम् ॥ १२ ॥ येनासाताभिलघु-भुजङ्गमस्वातिनिष्ठुरो वंशः । तेषां जाती हो, शेयः सर्वत्र च विशेषः ॥ १३ ॥ अव्यक्तं विरसन्तः करिकरप्रभृतयो विनिर्दिशः । स्खलनपतनाssदिधर्माः, विज्ञेया मानवानां तु ॥ १४ ॥ जाग्रति ते प्रतिपना विति विषायानुभावेन । भूयो मोहविवशात् स्वपन्ति परिमुलांवर तिगुणाः ॥१५३ श्रविरतनिद्रावसतः स्वपन्ति देवाः सदेति सकलजने । मोहोरविपविधुरे गाडि जिवेन्द्रम् ॥ १६ ॥ यतिकरणीयायां सदा कियायां हि तदुपदिष्टायाम्। यदि मितिमा क्रियते सिद्धान्तमन्त्रजप ॥ १७॥ एकोऽपि समर्थो, मोहविषोच्छेदने त्रिभुवनस्य । निष्कारणमधुरसौ, भव्यानां परमकारुणिकः ॥ १८ ॥ एवमवगम्य नरपतिरपून् कमपि । भातस्थलमिलितकरः प्रणम्य मुनिराजमित्यूचे ॥ १६ ॥ सत्यमिदं मुनिपुङ्गष, वयमपि मोहविषधारिता अधिकम् । आरमदितयत्कालं ततः किमपि नैव ॥ २० ॥ अधुना तु राजसीस्थ्यं कृत्वाऽऽदत्स्ये मतं प्रभुपदान्ते । गुरुरप्याह नरेन्द्र ! क्षणमपि मा स्म प्रमादीस्त्वम् ॥ २१ ॥ तदनु पुरन्दरपुत्रे, राज्यभरं स्यस्य विजयसेननृपः । सामन्तकमलमाला -मन्त्र्यादियुतः प्रववाज ॥ २२ ॥ अथ मालत्यपि देवी, निजदुश्चरितं निवेद्य सुगुरूणाम् । कर्मवनगनदहन - प्रतिमां दीक्षां समादन्त ॥ २३ ॥ नम्रसुरासुर किन्नर - विद्याधरगीयमानश्शुभ्रयशाः । भोपकारहरण्यम्यत्र विजहार ॥ २४ ॥ "अह परिपाल र पुरन्दरोदरियहरियो। श्रपुव्यचेदया जिन्तु द्धारे य कारंतो ॥ २५ ॥ "3 - Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००६) पुरंदर अनिधानराजेन्डः। पुरवर साहम्मियवच्छल्लम्मी, उज्जुनो निज्जिो न करणेहिं । तत्तमेव भविका गुणाकाराः, पालंतो य पयाओ, पयाउ इव वसणवारणी ॥२६॥ धत्त चित्तनिलये कृताऽऽदाराः ॥ ५० ॥ करया वि सो नरिंदो, बंधुमईसंजुत्रो सपरिवारो। इति पुरन्दरराज बरितम् । ध० र० १ अधि. १२ गुण । श्रोलोयणोवविट्ठो. जा पिच्छइ निययपुरसोहं ॥२७॥ सुरपती, । " अक्खंडलो सुरवई, पुरंदरो वासयो सुणासीता बहुयडिंभनयरे-हि वेडिओ कोटिश्रो ब्व मच्छीहिं। रो।" पाइ० ना० २३ गाथा। धूलीधूसरदेहो, निम्मियश्राइबहुबहल बोलो ॥२८॥ पुरंदरजसा-पुरन्दरयशस्-स्त्री० । चम्पानगरीराजस्कन्दकभ. दंडी खंडनिवसणो, कुद्धो धावंतश्रो चउदिसास । गिन्याम् , निचू०१६ उ०। दिट्रो स मित्तविप्पो, जेणं नाराहिया विज्जा ॥२६॥ पुरंधी-पुरन्ध्री-स्त्री०। भार्यायाम् , " जाया पत्ती दारा, घरितं उबलक्खिय सरिया, विज्जा देवी निवेण इय भणइ । जणउवहासपरो वि-ज्जाइ विराहगो य इमो ॥ ३०॥ णी भज्जा पुरंधी य।" पाइ० ना० ५७ गाथा । तो कुवियाए वि मप, तुह दक्खिन्नेण मारिश्रो न इमो । पुरक्खड पुरस्कृत-त्रिः। अवश्यप्राप्तव्यतयाऽग्रे कृते,पञ्चा०४ सिक्वामित्तमिणं पुण. अह राया विन्नवर एवं ॥ ३१॥ विव० । चं० प्र० । प्रज्ञा० । अभिमुख कृते, श्रा० म०१ अ. जइ वि इमो परिसगो, तहा वि सज्जं करेसु तं देवि!। पुरक्खडभाव-पुरस्कृतभाव-पुं०1 भाविनो भावस्य योग्ये प्रा. काऊण मह पसायं. खमेसु एयं तु अवराहं ॥ ३२॥ भिमुख्य, श्राव०५०। तो देवी तं विप्पं, सज्जीकाउं असणं पत्ता। पुरक्खाय-पुराख्यात-त्रि० । पूर्वकथिते, सूत्र. १ श्रु० ११० सकारिय जहउचियं, रन्ना वि विसजिओ एसो॥३३॥ १उ०। इत्तो य चिरं कालं, पालियअकलंकचरणकरणगुणो। पुरक्खार-पुरस्कार-पुं। पुरस्करणं पुरस्कारः। सर्वकार्येष्यप्र. सो विजयसेणसमणो, अणंतसुक्खं गोमुक्खं ॥३४॥ तः स्थापने, श्रावा०१ श्रु०५१०४ उ० । ध०। राया पुरंदरो वि हु, सिरिगुत्तं नंदणं ठविय रजे। पुरच्छा-पुरस्तात्-अव्य० । पूर्वस्मिन् , सूत्र०१ शु० ५०१ सिरिविमलबोहकेबलि-पयमूले गिराहइ चरित्तं ॥ ३५॥ जाओ कमेण गीओ, एगल्लविहारपडिमपडिवन्नो। उ०। दश। कुरुदेट्ठियगाम-स्स बाहेि अायावणापरमो ॥ ३६॥ पुरच्छिम-पौरस्त्य-त्रि० । अप्रभागे,०प्र०२० पाहु । भ०। संठविय रुक्वपुग्गल-दिट्ठी सुज्माणलोणपरमप्पा। स्था । पूर्वस्यां दिशि, स्था०८ ठा। सू०प्र०। जा चिट्ठह स महप्पा, वजभुषणं तु ता दिट्ठो ॥ ३७॥ | पुरच्छिमदाहिणा-पूर्वदक्षिणा- स्त्रीश्रग्निकोणे,स्था०१०ठा। तो कुविश्रो पल्लिवई, रे रे तइया मलितु मह माणं । पुरच्छिमद्ध-पौरस्त्याई-न०। पौरस्त्यं पूर्वम् । पूर्वार्द्ध, स्था. गच्छिहिसि कत्थ इरिह, इय भणिय स निठुरं पावो ॥३॥ २ ठा० ३ उ । मुणिणो चउद्दिसि झ, त्ति खित्तु तणकटुपत्तउक्करं। | पुरच्छिमा-पूर्वा-स्त्री० । प्राकृतशैल्या मागधदेशीभाषावृया पिंगलजालाभरभरिय-नयलं जालए जलणं ॥ ३६॥ ! या साधुत्वम् । ऐन्द्रयां दिशि, आचा० १ श्रु० १ ० १ तो जह जह डझंतं, संकुडइ कलेवरे न सा जालं । उ० । स्था। तह तह मुणिणो वडइ, भाणमसंकुडियसुहभावं ॥ ४०॥ पुरच्छिमिल्ल-पौरस्त्य--त्रि० । पूर्व दिग्वर्तिनि पर्वते, "चत्तारि तत्तो चिंतारे जिय!, अपंतवाराउ ते सहियपुवो। इत्तो अणंतगुणदा-हदायगो निरयदहणो वि ॥४१॥ अंजणगपव्वया पराण तातं जहा-पुरच्छिमिल्ले०" इत्यादि । घणदवदुसहहुयासे, तिरिपसु विऽणंतसो तुम जीव!। स्था.४ ठा०२ उ०। दहो पर अकाम तणेण न तर गुणो पत्तो ॥ ४२ ॥ पुरतोवाहत-पुरतोव्याहत-न० । “जहा जीवे भंते !नेरतिए इरिह सइंतस्ल विसु द्धझाणिणो नाणिणो सकामस्स । जीवे? गोयमा!जीवे सिय नेरतिए सिय अनेरतिए नेरतिए तत्तो अणंतगुणिया, थोवण वि निजरा तत्झ ॥ ४३ ॥ पुण नियमा जीवे।" इति पूर्वोपात्तव्याप्तियुक्त,श्रा०चू०१श्रण ता सहस जीव! सम्मं, खणमित्तं काउ केवलं मित्तं । पुररक्ख-पुररक्ष-पुं०। ग्रामरक्षके, " अारक्खो पुररक्खा ।" एयम्मि पल्जिनाहे, अशंतकम्मक्खयसहाप॥४४॥ पाइ ना० १६६ गाथा। इय सुद्धभावानलद-दुकम्मगहणो पलित्तबहिगत्तो। पुरव-पूर्व-त्रिका "पूर्वस्य पुरवः"।४।२७०॥पूर्वशब्दस्य शौरस पुरंदररायरिसी, अंतगडो केवली जाश्रो ॥ ४५ ॥ शेन्यां पुरवाऽऽदेशो था। 'पुब्ब' शब्देऽभिहितार्थे, प्रा०४ पाद । बज भुश्री वि हुअाइगरु-यपावकारि त्ति परियणविमुक्को। पुरवइ-पुरपति-पुंग पुरस्य पतिःपुरपतिः। प्रामाधिपती,प्रा० एगागी नस्संतो, निसि पडिओ अंधकूवम्मि ॥ ४६॥ म०१०। कलखुत्तसारखाइय-कीलयविद्धोयरो दुहवंतो। रुद्दज्माणोवगो, मरिउं पत्तो तमतमाए ॥४७॥ पुरवर-पुरवर-न० । नगरे, प्रश्न) ३ श्राश्र० द्वार। नगरेकदेजत्थ य पुरंदररिसी, सिद्धो अमरोह तत्थ हिटुहि।, शभूते,प्रश्न ५ आश्र द्वार। "पुरवरकवाडोवमे से बच्छ ।" महिमा विहिया परमा, गंधोदगवरिसणाईहिं ॥४८॥ पुरवरकपाटोपमं (से) तस्य वक्ष उरस्थल, विस्तीर्णत्वाबंधुई विहु अहसु-द्धवंधुरं संजमं निसेवित्ता। दिति । उत्त०२०। राजधानीरूपे प्रधाननगरे, प्रश्न०४ घरनाणदसण जुया, परमानंदं पयं पत्ता ॥ ४६॥ आधद्वार। "पुरवरपरिघव।"पुरवरपरिघवत् नगराइत्यवेत्य गुणरागसंभवं, गेलावत् वर्तितौ वृत्तौ बाह्यवर्तितौ च बाहू यस्य स तथा । श्रीपुरन्दरनृपस्य वैभवम् । श्री । । Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१०) पुरवरधम्म प्रन्निधानराजेन्दः । पुरिम पुरवरधम्म-पुरवरधर्म पुं० । पुरवरं प्रति भिन्ने लौकिके नचैत्यसंघाऽऽदिप्रयोजनं तदेवाऽऽकारः प्रत्याख्यानापवादो धम, स च क्वविकिश्चिद्विशिष्टोऽपि पौरभाषाप्रतिपादना महत्तराकारस्तस्मादप्यन्यत्रेति योगः। यश्चात्रैव महत्तराकार स्याभिधानं न नमस्कारसहिताऽऽदौ तत्र कालस्याल्पत्वं मदिलक्षणः। दश. १ अ.। हत्वं च कारणमाचक्षते । ध०२ अधिः । श्रा०चू०। पुरस्सर-पुरस्सर-त्रि०। पूर्वस्मिन् , द्वा० २२ द्वा० । अग्रतः पुरिमार्द्धशोध्या प्रतीचाराः । इदानीं येषु पुरिमार्द्ध प्रायकृते, वाच०। श्चित्तं तान् गाथात्रयेणाऽऽहपुरा-पुरं-स्त्री० । "रो रा" ॥८1१।१६॥ इति रेफस्य रा श्रोह विभागुद्देसो-वगरणपइयचिरठवियपागडिए। इत्यादेशः। नगर्याम् , प्रा० १ पाद। लोगुत्तरपरियट्टिय-पामिच्चपरभावकीए च ॥ ४० ॥ पुरा-श्रव्यः) । विवक्षितकालात्पूर्वस्मिन् , तं० । सूत्र । सग्गामाहडदद्दर-जहन्नमालोहडुज्झरे पढमे । भ० । विपा० । स्था) । प्राग्भवे, जी) ३ प्रति० ४ अधिक। सुहमतिगिच्छासंथव-तिगमक्खियदायगोवहए ॥४१॥ "पुब्बा तत्थेव जत्थ पुरा" पासीदित्यर्थः । नि० चू ६ उ.। सूत्राचा हा विशे"पुरा पोराणाणं कम्माणं।" पत्तेयपरंपरठवि-यपिहियमीसेयणतराईसु ।। पुरा पूर्वकाले, कृतानामिति गम्यते । एवं पुराणानां चिरन्त- पुरिमद्धं संकाए, जे संकइ तं समावजे ॥ ४२ ॥ नानाम् । विपा. १ श्रु.१ अ० । कला० । श्रोध. सामान्योद्दशि कं, विभागोद्देशे उद्दिष्टोद्देशसमुद्देश उपुराकड-पुराकृत त्रि। जन्मान्तरोपाते,दश ६ अ०।सूत्र ।। द्दिष्टसमादेशाऽऽख्यं विभागोद्देशिकप्रथमभेदचतुएयम । उपकपुराण--पुराण-त्रि० । पुरातने, सूत्र. २ श्रु० ६ श्र) । मा0 | रण पूतिकाचिरस्थापनाप्रकटकरणम्। एप द्वन्द्वः तस्मिन् . लो कोत्तरपरिवर्तितप्रामित्ययोः परभावक्रीते च।अत्रापि द्वन्द्वः। चिरन्तने, वृ०२ उ० । बहुकालीने, स्था०६ ठा० । अनेकम स्वग्रामाऽऽहते दर्दरोद्भिन्ने जघन्यमालापहृते (उझरे पढमे घोपात्तत्वेन चिरन्तने, उत्त० ११) । श्रावा1 पश्चात्कृत त्ति) भिकारो लाक्षणिकत्वाद् यावदर्थिकमिश्राख्यध्यवपूरश्रमणभावे, व्य० ७ उ० । वृ० । पुरातनवस्तुविषये हेतो, कप्रथमभेदे। इहापि द्वन्द्वः। सूक्ष्मचिकित्सा वचनसंप्राप्तिका पू. स्था०६ ठा। पुरातनवस्तुवक्तव्यताप्रतिबद्धे कथानकमाये घे पश्चात्संस्तवे उदकादिम्रक्षनमिश्रकर्दमं म्रक्षितरूपं पृथ्वी प्रन्थे, 'अङ्गानि घेदाश्चत्वारो. मीमांसा न्यायविस्तरः । धर्म म्रक्षितम् उदकाहृतेतं...(?)कुकृतोत्कृष्ट्याख्यत्रिविधप्रत्येशास्त्रं पुराणं च, विद्या ह्येताश्चतुर्दश ॥१।" श्रा०म०१ श्रा। कम्राक्षतं चेति त्रिकं म्रक्षितमपि यत् लोठयन्ती रूतं विरलपुराणकुम्मास-पुराणकुल्माष-पुं० । पुराणाः प्रभूतकालं या-| यन्ती कर्त्तयन्ती, दायकाय दत्ते नदायकोपहृतम् । एषामपि घरसचित्ताः पुराणाश्च ते कुल्माषाश्च पुराणकुल्माषाः । पुरा द्वन्द्वः। तस्मिन् । यथोक्तम्-"बाले वुड्ढे मत्ते,उम्मत्ते थयिरे यजतनराजमाषेषु, उत्त० ८ ० ।'प्रभूतवर्षधृते कुल्माषे, रिए य । एए तिसेसवज्जा. एसि दायगोवहयं ॥१॥" तदत्र उस०८०। पुरिमार्द्धप्रस्तावनाद्नेयम् , एतेभ्यो दायकेभ्यो ग्राहकाणामापुराणविणिजरा-पुराणविनिर्जरा-स्त्री. । चिरन्तनक्षपणाया- चामाम्लप्रायश्चित्तस्योक्लत्वात्।(पत्तेयपरंपरउवियपिहिय त्ति) म्, (३३ गाथा) श्राव० ४ अ०। सुप्ले पःप्राकृतत्वात् । प्रत्येकशब्दस्य चोपलक्षणत्वात् सचि त्तपृथिव्यादिषदायपरस्थापितपिहितेष्विति शेयम् । स्थापितं पुराणसावग-पुराणश्रावक-पुं०। पुराणनिगृहीतान्यणुप्रतानि निक्षिप्तमुच्यते, बहुवचनात् संहृतछर्दितयोश्च । (मीसयणंतयस्य स श्रावकः । अविरतसम्यग्दृष्टौ, नि० चू० १६ श्र०। राईसु ति) सूचकत्वान् सूत्रस्य मिश्रपृथ्व्यादिपढ़ायानपुराणा-पुराणा-खीणपश्चात्कृतव्रतायां साध्व्याम्, व्य०७उ०। न्तरनिक्षिप्तसंहृतोन्मिथापरिणतछर्दितेष्वित्यर्थः । उन्मिश्रापुरादिवइ पुराधिपति-पुं० । श्रेष्ठिनि, वृ०४ उ०। परिणतधोधानन्तरे विशोधनं योज्यम्। किंतहि मित्रं षट्वायोपुरिम-पूर्व-त्रि । " पूर्वस्य पुरिम" ॥८॥२ । १३५ ।। इति निमश्रं,मिश्रषटायापरिणतं चेत्येव योज्यम् । एषु सर्वेषु पुरिपूर्वस्य पुरिमाऽऽदेशः। प्राग्जाते, पञ्चा० ११ विव०। बृः। मार्द्धप्रायश्चित्त शङ्कायां दोषमाशङ्कते,तस्याप्येकान्तदोषश्च प्राउत्त। "पुरिमपच्छिमाणं तित्थयराणं ।"स्था) ४ ठा० १ उ यश्चित्तमापद्यते। जीत कालाध्वातीतानामधिकीभूतानां वा प्रस्फोटके, "छप्पुरिमा नव खोडा।" स्था० ६ ठा० । प्रवः। भक्ताऽऽदीनामन्येषां वा परिष्ठापनीयानां प्रस्रवणानाम विधि. विवेचनायामशुद्धस्थण्डिलाऽऽदौ परित्यागे पुनःपुरिमार्द्धम् । पुरिमड-पुरिमार्द्ध-पूर्वार्द्ध-न०। पुरिमं पूर्व,तश्च तदर्द्ध च । दि. जीत। मस्याऽऽये प्रहरदये, पञ्चा०५विव०। पूर्व ढे, स्था०५ ठा0 एयं चिय सामन्न, तवपडिमाऽभिग्गहाइयाणं पि। १ उ०। प्रहरवयकालावधिप्रत्याख्याने, व्य०१ उ०। पं०५०। ध० । आव०। श्रथ पूर्वार्द्धप्रत्याख्यानम्-'सूरे उग्गए पुरिमई निम्विइगाई पक्खिय, पुरिसाइविभागो नेयं ॥५१॥ पर बक्खाइ.चउब्विहं पिाहारं असणं पाणं खाइमं साइम एतदेव पुरिमार्द्धरूपं प्रायश्चित्तं सामान्य निर्विशे तपा-प्रतिअन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं माऽभिग्रहाऽऽदीनामपि।अयमर्थः तपो द्वादशविधं यथा--"श्रसाहुक्यणेणं महत्तरागारेणं सब्यसमाहिवरियागारेणं बोसिर नशनमूनोदरता, वृतेः संक्षपणं रसत्यागःकायलशालीन।" पूर्व च तदर्द्ध च पूर्वार्द्ध दिनस्याऽऽयं प्रहरद्वयं, पूर्वार्द्ध तेति बाचं तपः प्रोक्लम ॥१॥ प्रायश्विसं ध्यानं, वैयावृत्याविनप्रत्यायपाति पूर्वाईप्रत्याख्यानं करोति, षडाकाराः पूर्ववत् । यावथोत्सर्गः। स्वाध्याय इति तपः षट्-प्रकारमाभ्यन्तरं भव(महत्तरागारेणं इति) महत्तरं प्रत्याख्यानानुपालनलभ्यनि- ति ॥२॥" तस्य तपसोऽकरणे प्रतिमा अपिद्वादश ए.मासिकी जरापेक्षया वृहत्तरनिर्जरालाभहेतुभूतं पुरुषान्तरासाध्यं ग्ला- द्विमासिकी २ त्रिमासिकी ३ चतुर्मासकी४पश्चमासिकी५ Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०११) अभिधानराज पुरिमन ८ परी ६ सप्तमानिकी प्रथम तरिया द्विती सप्तरात्रन्दिवा तृतीय सप्तरात्रन्दिवा १० अहोरात्रिकी ११ एकरात्रिकी १२ चाते। एतासाम श्रद्धाने विपरीतप्ररूपणा च । अभिप्रायला ते पुर माम् एव प्रायश्चितम् । उत्तरार्द्ध तु (पक्खियति) उपलक्षितत्वात् पाक्षिकचातुर्मा लेकसांपासारकेषु निर्विहतिका दिकं पुरुऽऽदिविभागतो ज्ञेयम् । अयमर्थः- पाक्षिके चामाम्लं च नित्यदिनकृत्यतपसो वाऽधिकं तपः शक्त्यनुसारे ण कुर्वतः क्षुल्लकस्य वृद्धस्याऽऽपुरिक्षष ( ? ) उपाध्यायस्य आचार्यश्यामनार्थचातुर्मासिके मन्या यथाशक्त्य चनात् क्षुल्लकाऽऽदीनां पञ्चादीनां पुरिमा काशनावाम्लवतुर्थ. सांवत्सरिके चाष्टममन्यद्वा यथाशक्त्या तपः कुर्वतामेकाशनाचाम्ल व तुर्थषष्ठाष्टमानि यथासंख्यं भवन्ति । fuise पारिएँ, भग्गे वेगानंद पुस । निधीपुरा-सा सम्धेतु चावानं ॥ ५२ ॥ स्किडिपत्र भग्ने वा काननिर्वि कृतिक रिकाशतानि सर्वेषु वाचाम्लमिति । श्रयं भावा र्थः निद्रादिप्रमादवसतो गुरुभिः सह प्रतिक्रमणे स्फिटि नमिता एका कृतिके, द्वयोः पु रिमात्रिप्येकानं तथा गुरुवारेपेकोस स्वयमात्मता प्रथममेव पारिते भरने वा कायोत्सर्गे श्रवि स्वापि सर्व एव पारिएका विलेपकायोत्सर्गे या विर्विद्वति शतानि सर्वेयविकार किसे मग्नये च श्रचामाम्लम् । एवं वन्दनकेऽपि स्फिटितत्वपश्चात्पतितत्वे गुरोर्वन्दनकं ददानस्य स्वयमग्रतः प्रदत्तः, प्रदत्ते कृसत्येन भने वा पचाव्यमेकस्मिन् ि सर्वेषु श्रचामाम्जम् । जति । पूरितवाल - पुरिमताज न० । उदितोयनुपपालिते पुरविशेपे, श्रा० क० १ श्र० । यत्र च महावलो राजाऽऽसीत् । विपा० १ ० ३ श्र० । यत्र वा चिह्ननामा महर्षिरासीत् । उत्त० १३ श्र० । श्रा० चू० । ० म० । कल्प० । । पुरिमपच्छिमग- पूर्वपश्चिमक - पुं० । पूर्वचरमे स्था० ५ ठा० १० " पुरिमाणं वित्थपरावं" पुरिमा भ रतैरावतेषु चतुर्विंशतिरादिमाः ते च पश्चिमकाश्चरमाः पुरिमपश्चिमाकास्तेषां जिनानामर्हताम् । स्था० ५ ठा० १३० ॥ पुरिया पुरिका बी० नगरपम् ००१० पुरिन पौरव त्रिभिये २/ १६३॥ इति भवेऽर्थे नाम्नः परो डिल्लनत्ययः । पुरोजाते प्रा० १ पाद | बृ० | प्रबरे, दे" ना० ६ वर्ग ५३ गाथा । विदेशी 66 ०६२२ गाथा । पुरिल्ल हाडा - देशी - श्रद्विदंप्रायाम्, दे० ना० ६ वर्ग ५६ गाथा | पुरिस - पुरुष - पुं०। "पुरुषे रोः ॥ ८ । ११११॥ इति रोरिः । प्रा१पाद पुरिपूर्ण सुखानां वा पुरुषः। आवा० १ ० १ ० १ उ० । नं० । ० म० । जीवे पुलिस 1 विशे० । सूत्र० । कल्प० | विशिष्ट कर्मोदयाविधस्थानवच्छरीरवासिनि घ० २ अधि० । मानवे, श्राचा० १ श्र० ५ ० २ उ० । मणुश्रा नरा मणुस्सा, मचा तह माणवा पुरिसा । " पाइ० ना० ६० गाथा | निक्षेप: दाभिलाचिंधे, वे धम्मत्थभोगभावे य । भाष रिसो उ जीवो, भारे पगवं तु भावेखं ||२०६०|| (दयति द्रव्यरुप विस्तरेण वरमाणस्वरूपः - मिलापः शब्दः ततोऽमिलापपुरुषः पुिं भिवानमात्रपुरुष इतेि घटः पट इत्यादिर्वा । चिह्नपुरुपस्त्व पुरुषोऽपि पुरुषविशेपलक्षितो यथा नपुंसकं श्मश्रुविहम् इत्यादि । पापकर्मानुभाव वेदप्रुषः । धर्मायापारः साधुपुरुष अर्थजनपरस्यर्थपुर पः समभोगसुखा भोगपुरुषः । भावेपसि भावपुरुषश्च । चशब्दो नामाऽऽयनुक्त मेदसमुच्चयार्थः । तत्र भावे भावद्वारे विधायें भावपुरुषः इत्याह-पुरुषस्तु जीवः । इदमुकं भवति-पूः शरीरं, पुरि शरीरे शेते इति निद्रापुः पारनाका पुरुष इत्याभिलाषपु रुपादेवपाधिराज / तले प्रकृतं प्रस्तुतं भावेन भावपुरुषेण शुद्धेन जीवेन, सीकर| दादग्वैख वेदाऽऽदिपुरुपेणधरैरिहा चिकारा सूषतस्तेभ्यो पि सामायिकस्य निर्गतस्यादिति निर्युगाचा पार्थः ॥ २०६० ॥ विस्तरार्थं तु भाष्यकारः प्राऽऽहआगो, इयरो दग्धपुरियो तहा तहयो । 3 विषातिविहो, मूनु तर निम्न वा वि || २०६१ ॥ इह नामस्थापनापुरुषौ नोलौ, तद्विवारस्यातिप्रतीतत्वात् । द्रव्यपुरुषस्तु द्वेधा- श्रागमतो नोश्रागमतश्च । तत्राऽगमतः पुरुषपदार्थज्ञः, तत्र चानुपयुक्तो द्रव्यपुरुष उच्यते । इतरस्तु नाभागमत इत्यर्थः पुरुषव्यतिरि मेदास्त्रात रामपपुवा वफादिवत् सुबच्च तीयस्तु शरीरमभ्यरम्यतिरि को पुरुषः पुनरप्येकमधिकच युष्काममुखनामगोत्र भेदात्थिविथः । अथवा व्यतिरिको द्विविधः कथम-मूलगुणनिम्मितः, उत्तरमुपनिम्मितब्ध तव मूलगुण निर्मित पुरुषमायाग्याणि द्रव्याणि उत्तरगुणनिम्मितस्तु तान्येष तदाकारयन्तीति ॥ २.६९ को पुरुषः । इदानीमभिलापचिह्नपुरुषौ प्राऽऽहअभिलायो गामिहासमेतं पो पिंधे । रिसाई नपुंसो बेच्यो वा पुरिसवेसो वा || २०६२ ॥ अभिलाषः शब्दस्तद्रूपः पुरुषोऽभिलापपुरुषः, यथा पुरुष इति पुंल्लिङ्गस्यभिधानमात्रं, घटः पट इत्यादिर्वा । विहे विहविषये पुरुषधिहपुरुषः पुरुषाऽऽकृतिर्नपुंसामा रम धुप्रभृतिपुरुचियुक्तः । अथवा वेदः पुरुषवेदश्विपुरुषः, इति चिह्नयते लक्ष्यते पुरुषोऽनेनेति कृत्वा । अथवा पुरुयस्य संबन्धी येपो यस्य स पुरुषवेषः रूपादिरपि चिह्नमात्रेण पुरुषधि पुरुष इति । २०६२ ॥ व्व " Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिस अभिधानराजेन्छः। पुरिस वेदधर्मपुरुषौ प्राह रिसा तिविहा पणत्ता । तं जहा-जलचरा,थलचरा, खहचवेयपुरिसो तिलिंगो, वि पुरिसवेयाणुभूइकालम्मि। राय। मणुस्सपुरिसा तिविहा पयत्ता । तं जहा कम्मभूमिधम्मपुरिसो तयज्जण-वावारपरो जहा साहू ॥२०६३॥ या,अकम्मभूमिया, अंतरदीवया । स्था०३ ठा० १उ० । स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गत्रयवृत्तिरपि प्राणी यदा तृणज्वालोपम सम्प्रति पुरुषप्रतिपादनार्थमाहविपाकं पुरुषवदमनुभवति तदा पुरुषवेदानुभावमाश्रित्य से कितं तिरिक्खजोणियपुरिसा तिरिक्खजोणियपुरिसा पुरुषो वेदपुरुषः स्त्र्यादिरप्युव्यते । धर्मार्जनव्यापारपरी तिविहा परमत्ता । तं जहा-जलचरा,थलचरा,खहयरा य । इधर्मापुरुषो यथा साधुरिति ॥ २०६३॥ त्थिभेदो भाणियबोजाव खहयरा सेत्तं खहयरतिरिक्ख. अर्थभोगपुरुषौ प्राऽऽह जोणियपुरिसा । से किं तं मणुस्सपुरिसा । मणुस्सपुरिसा अत्यपुरिसो तयजण-परायणो मम्मणो व निहिपालो । तिविहा परमत्ता । तं जहा-कम्मभूमगा, अकम्मभूमगा, अंभोगपुरिसो समन्जिय-विसयमुहो चकवष्टिव्य २०६४॥ गतार्था । नवरं राजगृहनगरनिवासी रत्नमयवलीवर्दनि तरदीवगा य । सेत्तं मणुस्स पुरिसा । से किं तं देवपुरिमापको मम्मणवीणगावश्यकवृत्तितोऽवसेय इति ।२०६४॥ सा। देवपुरिसा चउब्धिहा पएणत्ता । तं जहा-भवणवाभावपुरुषमाह सिणो, वाणमंतरा, जोतिसिया, वेमाणिया य । इत्थिभेदो भावपुरिसो उ जीवो, सरीरपुरि सयणो निरुत्तवसा ।। भाणियव्यो० जाव सव्वट्ठसिद्धा ।। अहवा पूरणपालण-भावाप्रो सबभावाणं ॥ २०६५|| अथ के ते पुरुषाः पुरुषास्त्रिविधाः प्राप्ताः, तद्यथा तिर्यकभावपुरुषस्तुद्रव्याभिलापबिहाऽद्युपाधिरहितः शुद्धो जीवः।। योनिकपुरुषाः,मनुष्यपुरुषाः,देवपुरुषाश्च (से किं तमित्यादि) कुतः,पूः शरीरं, तत शयनान्निवसनात्पुरुष इत्येवंभूतनिरु अथ के ते तिर्यग्योनिकपुरुषाः? तिर्यग्योनिकपुरुषास्त्रिविधाः तषशान् । अथवा-सर्वेषामपि स्वर्गमर्यपातालगतानां स्वर्ग प्राप्ताः। तद्यथा-स्थलचरपुरुषाः,जलचरपुरुषाः, खबरपुरुषा श्च। मनुष्यपुरुषा अपि विविधाः। तद्यथा- कर्मभूमकाः,अकर्मविमानः। वनशयनाऽऽसनयानवाहनदेहविभवाऽऽदिभावानां नानाभवेषु 'पृ' पालनपूण्योः पूरणपालनभावाद्भावरूपः भूमका, अन्तरद्वीपकाश्च । देवसूत्रमाह- (से किं तं इत्यादि) अथ के ते देवपुरुषाः। देवपुरुषाश्चतुर्विधा प्रशप्ताः। तद्यथापारमार्थिकः पुरुषो भावपुरुषः शुद्धो जीव इति ॥ २०६५ ।। भवनवासिनो,वानमन्तराः,ज्योतिप्काः,वैमानिकाश्च । भवनकथं पुनः शुद्धो जीवो भावपुरुष ?. इत्याह पतयोऽसुराऽदिभेदेन दशविधा वक्तव्याः।वानमन्तराः पिशादबपुरिसाइभेया, विजं च तस्सेव हेति पज्जाया। चाऽदिभेदेनाष्टविधाः ज्योतिष्काश्चन्द्रादिभेदेन पञ्चविधाः तेणेह भावपुरिसो. सुद्धो जीवो जिणिदो व्य॥२०६६॥ वैमानिकाः कल्पोपपनककल्पातीतभेदेन द्विविधाः ।कल्पोपन केवलं यथोक्तानरुक्तवशाद्भावपुरुषो जीव उच्यते, य. पन्नाःसौधर्मा दिभेदेन द्वादशविधाः कल्पातीता प्रेयेयकानुसाथ द्रव्याभिलापचिह्नाऽऽदिपुरुषभेदा अपि तस्यैव शुद्धजी- सरोपपातिकभेदेन द्विविधा तथा चाह--(जाब अणुत्तरोषस्य पर्याया भवन्ति, तेनाऽऽद्यप्रकृतित्वाच्छुद्धो निर्विशेष. बवाय त्ति) । जी०२ प्रति (सितिः ठिइ'शध्ये चतुर्थभागे णो जीव एवेह भावपुरुषो जिनेन्द्रवदिति ॥ २०६६ ॥ १७२६ पृष्ठे उक्ना) (पहविधः पुरुषोधमाधम इत्यादि इत्थी' केन पुनः पुरुषेणेहाधिकारः?, इत्याह शब्दे द्वितीयभागे ६१६ पृष्ठे गतम्) (प्रायश्चित्तार्हाणां कृतपगयं विसेसो ते-ण वेयपुरिहि गणहरेहिं च । । करणादिना व्याख्या 'पच्छित्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १३६ सेसा वि जहासंभव-माउञ्जा उभयवग्गे वि ॥२०१७॥ पृष्ठे उक्ना) (मार्गे पृच्छनीयाः पुरुषाः 'विहार' शब्दे वच्यन्ते) शतवर्षाऽऽयुःपुरुषस्वरूपम्अनेकविधपुरुषप्ररूपणेऽत्र विशेषतः प्रकृतं प्रस्तुतमधिकारस्तेम भावजीवरूपेण जिनेन्द्रेण श्रीमन्महावीरेण,तस्यैवा पाउसो ! से जहानामए केइ पुरिसे एहाए कयवलिकम्मे र्थतः सामायिकप्रणेतृत्वात्तथा सूत्रतस्तत्प्रणभिवंदपुरुषर्ग कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सिरसि एहाए कंठे मालकडे णधरैधेहाधिकारः। श्राह-ननु जिनेन्द्रो यथा भावपुरुषः तथा आबिद्धमणिसुवन्ने अहयसुमहग्यवत्थपरिहिए चंदणोकिसवैष धर्मव्यापारनिरतत्वाद्धर्मपुरुष पि भवति, तथा चिह्न नगायसरीरे मरससुरहिगंधगोसीसचदणाणुलित्तगते सुपुरुषोपि.पुरुषचिह्नयुक्तत्वात् पर गणधरेषु अपि वाच्यं तत व यथा भावपुरुषेण वेदपुरुषैश्वाधिकारः तथा धर्माऽऽदिपुरु इमालावन्नगविलेवणे कप्पियहारद्धहारतिसरयपालवपलंपैरप्पविकारोऽत्र वकं युज्यत एव,इत्याशक्क्याह-शेषा - वमाणकडिसुत्तयसुकयसोहे पिणद्धगेविजअंगुलिअगलपिधर्मपुरुषाऽऽदयो यथासंभवं तीर्थकरगणधरलक्षण उभयव- लियंगयललियकयाभरणे नाणामणिकणगरयणकणगतुगेंऽप्यायोज्याः,ततः संभवद्भिर्धर्मपुरुषाऽदिभिरपीहाधिकारी डियर्थभियभूए अहियरूवसस्सिरीए कुंडलुओवियाणणे पाच्य इति गाथासप्तकार्थः । विश• । “मेहनं खरता दाय, मउडदित्तसिरए हारुच्छयसुकयरइयवत्थे पालंबपलंबमाशौएडीर्यश्मधुवृष्टता । स्त्रीकामितेति लिङ्गानि, सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षते ॥१॥"जीता । णसुकयपडउत्तरिजे मुद्दियापिंगलंगुलिए, नाणामणिकणपुरुषभेदाः गरयणविमलमहरिहनिऊणोचियमिसमिसंतविइयसुसिलितिविहा पुरिसा पपत्ता। तं जहा तिरिक्खजोणिय- | दुविसिट्ठलट्टाविद्धवीरवलए, किं बहुणा. कप्परुक्खे विव पुरिसा, मणुस्सपुरिसा, देवपुरिसा । तिरिक्खजोणियपु-' अलंकियविभूसिए सुई य पयए भविता भन्मापियरो अभि. Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिस (१०१३) पुरिस अभिधानराजेन्मः। चंदा । तए णं तं पुस्सिं अम्मापियरो एवं वइजा-जीव पुः | अलीयकानि कएठकाख्योर्मिकाव्यानि येन स तथा। (ल. ता! बाससयं ति तं पियाई तस्स नो बहुयं भवः । लियंगय ति) ललिताङ्गक शोभमानशरीरे अन्यान्यपि इ, कम्हा , बाससयं जीवतो वीस जुगाई जीवइ १, वीसं ललिवानि शोभनानि कृतानि न्यस्तानि श्राभरणानि सा. रभूषणानि यस्य स तथा ततः पदद्वयस्थ कर्मधारयाना: जुगाई जीवंतो दो भयणसयाई जीवइ २, दो अय गसयाई नामणिकनकरत्नानां करकरितैईस्तबाहाभरणविशेषैर्वजीवंतो छउउसयाई बीवह ३, छउउमयाई जीवंतो बारस- दुत्वात् स्तम्मिताविव स्तम्भिती भुजौ यस्य स तथा अधि. भाससयाई जीवइ ४, बारसमाससयाई जीवतो चवीस प. करूपेण सश्रीका सशोभनो यस तथा,कुण्ड लाभ्यां को खसयाई जीवइ ५, चउवीसं पक्वसयाई जीवंतो छत्तीसं भरणामामुचोतितमुयोतप्रापितमाननं मुखं बस्व स तथा राइंदिशसहस्साई.जीवति ६,छत्तीसं राईदियसहस्साई जीवं. मुकुटदीसशिरस्का हारेणावस्तृतमामवादितं तेनैव सुष्ट रुतं वो दस असीयाई मुहलसयसहस्साई जीवह ७, दस असी रतिदं च वक्ष उरो यस्यासी अवस्तृतसुकतरतिरक्षा प्र. लम्बेन-दीर्घेण प्रलम्बमानेन च सुकुकृतं परेनोत्तरीयमु. याई मुहचसयसहस्साई जीवंतो चत्तारि उसासकोटिमए सरासतो येग स तथा, मुद्रिका भल्याभरणानि ता. सत्त य कोडीओ प्रयालीसं च सयसहस्साइं चत्ता- मिः पिङ्गलाः कपिला अमुल्लयो यस्य स तथा बानामलीस च ऊसाससास्साई जीवइक,चत्तारि य ऊसासकोडि णिकमकरस्नैर्विमलानि विगतमलानि महाहणि महासए सत्त य कोडीनो अडयालीसं च सयस इस्माई चनाली णि मिपुणेन शिल्पिना (मोवीय ति) परिकर्मि। सानि (मिसिमिसिंतत्ति) दीप्यमानानि यानि विरचि. संच ऊसाससहस्साई जीवंतो भद्धतेवीस तंदुलबाहेन तानि निर्वृत्तानि सुश्लिामि सुसन्धीनि विशिशनि ।कही,माउसो अद्धतेवीसं तंदुलवाडे मुंजह । गोयमा! अन्येभ्यो विशेषवन्ति लष्टानि मनाहराणि भाविद्धानि परि. दुमलाए खंडिपाणं बलिगाए छहियाणं खयरमुसलपचा- हितानि वीरवलयानि येन स तथा सुभटो हि यदि कचिदन्योइयाणं वगयतुसकाणयाणं अखंडाणं अप्फुडियाणं फल- ऽप्यस्ति वीरवसधारी तदाऽसौ मां विजित्य मोचयत्वेता. गसरियाणं एककनीयाणं अद्धतेरसपलियाणं पत्थयणं, से नि बलयावि स्पर्द्धयन वावि कटकानि परिदधावि तानि बीरबलयानीत्युच्यन्ते । किंबहुना, वर्मितेनेति शेष:-कल्प. विय णं पत्थए मागहए कलं पत्थो, सायं पत्थो, उस वृक्ष व अलंकृतो दलाऽऽदिभिर्विभूषितश्च फलादिमिः, एव. द्वितंदुलसाहस्ससीमो मागहो पत्थो । मसावपि मुकुटादिभिरखंकृतोऽपि भूषितो पसाऽऽदिभिरि. (माउसो! से जहा)हे आयुष्मन् ! स यथानामको-यत्प्र. ति शुचिप, पवित्रस्थानमित्यर्थः भूत्वा भय अम्बापितरीम. कारनामा देवदत्ताऽदिनामेत्यर्थः अथवा-(से इति)साय- भिवादयते पादयोः प्रणिपातं करोतीत्यर्थः ततोऽभिवादनानथेति हटान्तार्थः। “नामे" इति सम्भावनायाम्, 'ए' इति न्तरंणमिति वाक्यालकारे,तं पुरुष स्वपुषलक्षणं मातापित. चास्यालद्वारे, कश्चित्पुरुषः स्नातः कृतस्नाना, स्नानानन्त रावेवं वदता, कथत इत्यर्थः। हे पुत्र ! स्वं जीवा वर्षशतमिति रं कृतं निष्पादितं बलिकर्म स्वगृहदेवतानां पूजा येन स तदपि चा इति अलंकारे,तस्य वर्षशतायुःपुरुषस्थ यदि कृतवलिकर्मा, तथा कृतानि कौतुकमखान्येव प्रायश्चित्तार्थ तदायुर्वर्षशतप्रमाणं भवति तदा तस्य पुत्रस्य न बहुकं वर्षादुस्वप्चादिविधाबार्थमवश्यकरणीयस्वाद येन स तथा, तत्र ताभिकं भवतिकिस्मात्?, यस्माद्वर्षशतं जविरविंशतियुगानि कौतुकानि मपतिलकाऽडीनि,मलादीनि तु सिदार्थकद. जीवत्येव. निरूपकमाऽऽयुष्कत्वात्तत्र युमं चन्द्रादिवर्षपध्यक्षतारादीनि इति शिरसि उत्तमा स्नातः-कृत शात्मकमिति १,विंशनियुगानि जीवन् पुरुषःभयनसते स्नानःपूर्व देशस्नानमुक्तमिह तु सर्वस्नानमिति न पीनरु जीवति,तत्रायनं षण्मासात्मकमिति२,देभयनशते जीवर कत्यम् । कराठे-ग्रीवायाम् ( मालकडे ति) कृता माला पुष्प. जीवः षद् ऋतुशतानि जीवति,तर तुर्माखदयात्मकः३, माला येन सः कृतमाला, प्राकृतत्वात् 'मालकड़े त्ति'। षटऋतुशतानि जीवर जन्तु द्वादश मासशतानि जीवतिष्ठ प्राषिशानि परिहितानि मणिसुवर्णानि येन सबथा । तत्र द्वादश मासशतानि जीवन् प्राणी चतुर्विशतिपक्षशतानि जी. (मणि चि) मणिमयानि भूषणानि एवं सुवर्णमयानीति। अ. बलि२४००।५, चतुर्विशतिपक्षशतानि जीवन पत्रिंशवहाराइतं मलमूषिकादिमिरनुपहतं, प्रत्यप्रमित्यर्थः । सुमहार्य असामाणि जीवति सत्वः ३६०००।६, षशिवहोरात्रसह. बामपं पत्रं परिहित-परिगतं येन स तथा, बन्दनेन । साथि जीवन् असुमान् दश मुहूर्तलक्षाणि अशीतिमुहूश्रीखण्डेनोस्की चर्चितं गावं शरीरं येन बधा, सरसंसहस्राणि १०००००० जीवति ७. दशलक्ष मुहूर्नानि मशी. सेन रसयुक्रेन सुरभिवन्धेन सुष्टु गम्भयुकेन बोशीर्षव- तिमुहर्ससहस्राणि जीवन् देहधारी स्वारि उच्छाबनेन हरिवन्दनेन (अतीति) अविशयेब लिप्त बिलेपनरू. सकोटिशतानि सप्तकोटि, अवस्वारिंशवछतसहस्रापावं याचं शरीरं यस्य स तथा, शुचिनी पवित्र माला च णि चत्वारिंशदुवृाससहस्राणि च जीवति देत पुष्पमाला वर्णकविलेप च मण्डनकारिकुक्कुमाऽऽदिविले. ४०७४८४०००० व चत्वारि उच्चासकोदिशतानि यावषपनं यस्य सनथा, कहिपतो बिभ्यस्ताहारोऽधायशसरिको स्वारिंशदुलालसहस्राणि जीवन् सार्थवार्षिशतितम्वुल. सहारोनवखरिका, निसरिकं प्रतीतमेव,यस्य स तथा का। बाहान् वक्ष्यमाणस्वरूपान भुमक्ति। कथम् .. मायुष्मन् डिस्वेण कल्याभरणविशेषेण सुष्ठ कृता शोभा यस्य स तथा। हेसिद्धार्थननन्दन । सायेद्वाविंशतितकुलबाहान भुतति स. ससा पदत्रयस्य कर्मधारयः । अथ करिपतहारादिभिः कृता सारीति। तं०1(प्रस्थकप्रमाणक्यावया' परंथग' शब्देऽस्मिा शोभा यस्य स तथा, पिनमानि-परिहितानि प्रैवेयका- वेष भागे ४२६ पृष्ठे गता) Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिस भनिधानराजेन्धः। पुरिसकार एवं कवला कतिभिस्तन्दुलैः स्थादित्याह दिनं द्विभोजनेन एतापन्ति तन्तुलान् भुननीति अतोऽविशबिसाहम्सिएण करले णं । तिसहस्राधिकं लकं वर्षशतेने पविशहिनसहनमानस्यात् बिसाहसिकेण तन्दुलेन कवलो भवति, तत्र गुजाः कति | ट्त्रिंशसाहस्यन्ते शून्यानि पक्ष भवन्ति चत्वारि भवन्ति ?. यथा एकविशत्यधिकशतप्रमाणाः किंचिम्यना कोडिशतानि षष्टिः कोटयः अशीतिलक्षाणि तन्दुलाएका गुजा चेति । मामिति । (तं एवं ति) तदेवं सार्द्धवाविंशतितन्दुलवाहान् बत्तीस कवला पुरिसस्स आहारो१,अट्ठावीसं इस्थियाए२, / भुम्जन् सार्बपञ्चमुदकुम्भान् भुनक्लि. सार्च पश्चकमुद्रकुंम्भाचवीस पंडगस्स ३,एवामेव पाउसो'एयाए गणणाए दो न् भुखन् चतुर्विंशतिः नेहाऽऽढकशतानि भुनति चतुर्षिश: तिहाऽऽढकशतानि भुजन् पत्रिंशक्षणपससहसाथिभु. प्रीमो पसई१,दो पसईको सेड्या होइ २,चत्तारि सेइगा नति, पत्रिंशत्रवणपालसहस्राणि भुखन षट्पटकशाट कशकुडमोर,चत्तारि कुरुवा पत्यो४,चत्तारि पत्था प्रादगं५,स- तानि (नियंसेति) परिक्वाति, द्वाभ्यांमासाभ्याम् (परि वीर माढगाणं जहए य कुंभे,असीइमाढगाणं मज्झिमे यदृपणं ति) परावर्तमानत्वेनेति वा । अथवा-मासिकेन परावर्तन्धेन द्वादशपटशाटकसतानि (नियंसेप्ति).परिवधा कुंभे७,माढमसयं उकोसए कुंभेफ,अद्वैव माढगसयाशिवा ति ( पयामेति ) उपप्रकारको बायुष्मन् ! वर्षशतायुका होहाए काप्पमाशेणं अद्धतेवीसं तंदुलबाहे भुंजइसे य पुरुषस्य सर्व गतिं तदुलप्रमाणाऽऽदिना तुलितं पलप्रमागणियनिविता-"चत्वारि य कोडिसबा, सढि चेव य हवंति णाऽऽदिमा मधितमसतिप्रमत्यादिना प्रमाणेन । तरिकमिल्या. कोडीमो। पासीइंच तंदुलस-यसहस्सा हवंति ति।"म- ह-बहलवणभोजनाऽऽच्छादन मिति । एतत्पूर्वोक्तं गमिका क्खायं ४६००००००००। तं एवं अद्धतेवीसं तंदुलबाहे माणं द्विधा भणितं महर्षिभिर्यस्य अन्तोरस्ति तुलाऽदि. कं तस्य गण्यते, यस्य तु नास्ति तस्य किं. गण्यते ?,न किमः सुजतो अछडे मुग्गकुंभे भुंजइ, अद्धछठे मुग्गकुंभे मुंजतो पिइति"बहार गाथा।"व्यवहारगणितं स्थूलन्याचवीसं नेहाटगसयाई भुंजइ, चवीसं नेहाढगसयाई यमीकस्य कथित सहा निश्चयगतं ज्ञातव्य, यदि पतत् भंतो छत्तीसं लवणपलसहस्साई भुंजा, छत्तीसं लवण- निभयगतं भवक्ति लापन व्यवहारगणितं नास्त्येवर पलसहस्साई भुजतो छप्पडगसाडगसयाई नियंसेइ , भतो विषमा गस्थानावातव्येति ।। दोमासिएणं परियट्टएणं मासिएण वा तस्य पुरिसस्स अंता, भाई ऊ भो हवंति चत्तारि । परियटेणं ते चेव झल्यिवानो.नि भोकारपरिहीया ॥३॥ पारस पडसागसयाई नियंसेड; एवामेव पाउसो ! | 'तत'तसिन् त्रिविक नाम्नि पुस्यस्य' पुंलिङ्गवाससयाउयस्स सम्बं गणियं तुलियं मथियं नेहलवण सेर्नाम्नः । अंता 'अन्तवर्तीन्यक्षराणि चत्वारि भवन्ति । भोयणच्छायण पि एयं गणियप्पमाणं दुविहं भणियं तद्यथा--प्राकार ईकार ऊकार ओकारश्वत्यर्थः । एतामि महरिसीहिं जस्सऽस्थि तस्स गणिजइ जस्स नस्यि तस्स किं बिहाव नापरं प्राकृत पुंलिङ्गवृत्तमोऽस्तेऽक्षरं सम्भवगणिज्जा "ववहारगणियं दिह, सुटुमं निच्छयगय मुणेय हीत्यर्थ । नीलिवृत्ताग्नोऽण्यन्ले माकारर्जान्यताम्ये. याकारकासेकारलक्षापानि त्रीणि अक्षराणि भवन्ति । नाप. वं । जइ एयं न वि एयं,विसमा गणणा मुणे यया ॥१॥" रमिति,अत्र चानम्तरमाथावाम 'इत्थीपुरिसमिति' निर्दिश्या अनेन कबलमानिन पुरुषस्य द्वात्रिंशत्कवलरूप आहारो पियविहाऽऽदी पुंलिनानो लक्षणकयनं तत्पुत्रप्राधाम्यभवति १, मिया अष्टाविंशतिकवतरूप प्राहारः२, पराडकस्य ख्यापनार्थमिति गाथाऽर्थः ॥२॥अनु. नपुंसकस्य चतुर्विंशतिकवलरूप आहारः ३। ( एखामेधे सिपरिसमासाविस-पुरुषाशीविष-पुं०। पुरुष प्राशीविष इका उक्कप्रकारेण बश्यमाणप्रकारेण च हेमायुष्मन् ! एतया ग दोषविनाशनशीलतया पुरुषऽऽशीविषः। रा० । शापसमय खनया एतम्मानं भवति, प्रथालत्यादिमानपूर्वकम् अष्टार्षि- पुरुष, स्थान शतिसहसाधिकलक्षतम्वुलमानं चतुःषष्टिकवलप्रमाणं प्रस्थ परिसंतर-पुरुषान्तर-40एकस्मात् पुरुषादपरस्मिन् पुरुष, इयं प्रतिदिनं भुखानः शतवण कति सम्पुलबाहान् प्राचा०२ ध्रु. १०१०१०। कति तलव भुननस्याह-(दो असईनो पसा इत्यादि) गाद) पुरिसंतरकड-पुरुषान्तरकृत-न. । ( साधुप्रतिश्या साधुमु Mar-.. धान्यभूतोऽवारमुखीकृतो डरतोऽसतीत्युच्यने द्वाभ्यामस-रिभ्य गृहस्थनीतधाताऽऽदिकं वस्त्रं) पुरुषान्तरेण कृतं तीभ्यां प्रतिः दाभ्यां प्रतिभ्यां सेतिका भवति २चत. | तसिन, प्राचा०२ २०१५.५०१०। सभिः सेतिकाभिः करमः ३, चतुभिः कुडवैः प्रस्था, बतु- परिसकार-परुषकार- साभिमानव्यवसायनिष्पत्रफले, प्रिस्थैराटकः ५.षष्ट्या माढकर्जघन्यकुम्भः ६,मशीत्याद स्था०३०४उ. पोस्माभिमाने, . प्र०.१६ पाहु। ध्यमाकुम्भः७,पाढकशतेमोत्कृष्टः कुम्भा,अष्टभिराढक- स्थाशातं० । मौ० भ०। साधिताभिमतप्रयोजने पशौचाडो भवति । अनेन वाहप्रमाणेन सासद्वाविंशतितम्दु. साक्रमे, सू०म०२० पाहु । सोचमे, द्वा०१७.द्वा०। कर्मशत्रून् लवाहाम् भुवक्कि वर्षशतनेति. तेच वाहोकतन्दुला गणिस्था प्रति स्वधीयोतक, ग १ अधि० । सू०प्र०ा उपा० दश० । संख्यां कृत्वा निर्दिा कथिताः, यथा बस्यारि कोटिशतानि स्था०। (न पुरुषकारात् । नियतेरेवसमिति 'शिया' शब्ये पष्षि कोटयः अर्शीतिस्तन्दुखशतसहस्राणि भवतीलि चतुर्थभागे २०८५ पृष्ठ नियतिकादिभिरुक्तम् , सत्रैवास्माभिः माक्यातं कथितम्. एकेन, प्रस्थेन चतुःषष्टितन्दुलसहस्राणि खण्डितम्) भवन्ति,प्रस्थदयनाटाविंशतिसहस्राधिकं लग्नं भववि, प्रति । नोट-४६०८०......! Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसकार पुरुषकारोऽपि कारणं यस्मात् न पुरुषकारमन्तरेण किञ्चिसिद्धयति । तथा चोक्तम्- "म देवमिति संचिमय वजे दुधममात्मनः । कस्तैलं. तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति ॥ १ ॥ अनुद्यमन ( २०१५ ) अनिधानराजेन्ध तथा उद्यमायाचिनि नरो भद्राणि पश्यति । उद्यमपि न ममान् ॥ २ ॥" सूत्र० १ ० १२ अ० । पुरसकारसकहा- पुरुषकारसत्कथा-श्री० पुरुषकारस्योरसाइलक्षणस्य महात्म्य प्रशंसने घ० १ अधि० । पुरिसच्छाया - पुरुषच्छाया - स्त्री० । पुरुषस्य छाया यतो भ यति । सूयमानस्य दृष्टिपथप्रासतायाम् बं० २०२० ३ पाहु० पाहु० सू० प्र० । पुरिसजाय - पुरुषजात-पुं० । पुरुष एव पुरुषजातः पुरुषजातीये सूत्र० २ ० २ अ० । पुरुषप्रकारे, स० ३ अङ्ग । भ० सम्म० । पुरुषजाताः वृक्षा: तम्रो रुक्खा पाचा । तं जहा - पत्तविए फलावर पुप्फो१ एवामेव तो पुरिसजाता पहना। तं जहा पो वारुववसामाथा, पुप्फोषारुक्खसामाया, फलोबा रुक्खसामाया २ तो पुरिसजाया पक्षता । तं जहानामपुरिसे, उदयपुरसे, दम्यरिसे ३ तम्रो पुरिसनाया यता जाना पुरिसे, सवा पुरिसे, चरिचपुरि ४ तो पुरिसजाया पचता । तं जहा वेदपुरिसे, चिंधपुरिसे, अभिलापुरिए विषहा रिसजाया पचचा ज डा उत्तमपुरिया, मज्झिमपुरिसा, मरिसा मधुरिमा तिविहा पयचा तं जहा धम्मपुरिसा, भोगपुरिसा, कम्मपुरिसा । धम्मपुरिसा - भरिहंता, भोगपुरिसा कम्मपुरिसा वासुदेवा | मक्रिमपुरिसा तिविद्या पछतावा योगा, रायका ८ जरा तिविहा पच्छत्ता । तं जहा- दोसा, भयगा, भातिलगाए । ( १२८ सूत्र ) 'तम्रो रक्खा' इत्यादि सूत्रद्वयम् पत्रायुगतिप्राश पत्रोः एवमितरी। एवमेवेति दार्शतिकोपनयनार्थः पुरुषजातानि पुरुषकारा यथा पचादियुमदारमाि शिविशिष्टतरोपकारकारि द्योऽर्थिषु वृक्षाः तथा लोको सरपुरुषाः सुभायमानमुपकारविशेष कारित्वात् तत्समाना मन्तव्याः । एवं लौकिका प्रपीति, इह च' पन्तोष' इत्यादिवाच्ये 'पलोवा' इत्यादिकं प्राकृ तलक्षणवशादुक्तम् ।' समाणे ' इत्यत्राऽपि च 'सामाणे 'इ ति । अथ पुरुष प्रस्तावात् पुरुषान् सप्तसूया निरूपया इत इत्यादि करा. नवरं नामपुरुषः पुरुष इति नामैव, स्थापनापुरुषः पुरुषप्रति माऽऽदि, द्रव्यपुरुषः पुरुष. · पुरिसजाय उत्पाद उत्पपूर्ण पति विशेषो यो भवति । अत्र माध्यगाथा-" आगमचो उ इसे इयपुरियो तिहार एगा सिवि मूलुसरनिम्मिश्रो वा वि ॥ १ ॥ " मूल गुण निर्मितः पुप्रायोग्याणि द्रव्याणि उत्तर गुण निर्मितस्तु तदाकारचम्ति ताम्येवेति । भावपुरुष भेदाः पुमशीन पुरुषाऽऽदयः शान भावप्रधानपुरुष हामपुरुषः । एवमितराषि वेदः पुरुषवेदः तदनुभवमप्रधानः पुरुषो वेदपुरुषः, स च स्त्री. पुंनपुंसकसम्बन्धिषु त्रिष्यपि लिङ्गेषु भवतीति । तथा पुरुषविहेः मम भूतिमिति पुरुषधिहपुरुषो यथा नपुंसकं मचिमिति पुरुषो या बिहपुरुषले बि हृद्यते पुरुष इति कृत्वेति पुरुषवेषधारी वा ख्यादिरिति अभिनेत अभिलाशादः स पुरुष हिलङ्गतया प्रभिधानात् यथा घटः कुटो बेति । ब्राह च"अभिलाषा महामेघडोव रिसाको, देखो या पुरिसदेसो वा ॥ १ ॥ बेटि सोतीपुरको बेदकास" इति घ मपुरिस' ति) धर्मः क्षायिक खारिश्राऽऽदि स्तदर्जन पराः पुरु. - धर्मपुरुषाः । उक्तं च-" धम्म पुरिसोतरा- बाबार परो अह सुसाइ ।" इति । भोगाः नमोहाः शब्दाऽऽदय स्तत्पराः पुरुषा भोगपुरुषाचो समजिय-वि सरसुहोश इति ममा • 99 पानि नाका समस्य राज्य काले ये आरक्षका श्रासन, भोगारतत्रैव गुरवः, राजन्या. स्तत्रैव वयस्याः तदुक्तम्- "उग्गा भोगा राय- नखशिया संगहो भवे चउहा । भारविख गुरु वयंसा, सेसा जे खशिया से ॥१॥ इति । यदर्द इति । २ व मध्यमत्वमनुत्कृष्टस्याऊ घन्यत्वाभ्यामिति । दासा-दासीपुत्रादयः कृतका:- सूक्ष्यतः कर्मकराः (भा भगोकइति ॥ उक्तं मनुष्यपुरुषाणां वैविध्यम् । स्था० ३ ठा० १ ३० । पुरुषप्रकारामेयाऽऽद्द तनो पुरिसजाया पचन्ता । तं जहा - सुमणे, दुम्मणे, खो सुमो सो दुम्म १। तभी पुरसनाया पहला तं जहा गंता यायेंगे सुमो भवति, गंगा खायेंगे दुम्मयो भवति, गंता खायेगे यो सुमणे णो दुम्मणे भवति २। तभो पुरिसजाया पकता । महानामीयेगे सुमखे भवति, जाभीगे दुम्मयो भवति नामीलेगे को इमो यो दुम्मो भीगे सुखे भवति० ३|४| मो रसजाया पक्षाचा जहा भगंता या मेगे सुमो भवति ० ३५ रु पुरिसजाता हा महाजाभिगे सुतं मणे भवति० ३२६| तो पुरिसजाया पाता। संजहा- ग जाइरसामि एगे सुमणे भवति० ३।७| एवं आगंतायामेगे सुम भवति० ३८ | एमितेगे सुमये भवति०३, एस्साभीति एगे सुमणे भवति ० ३ । एवं एएवं अभिलाषेणं Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय "गंतात १, आता खलु तचा अयागंता ‍ चिह्नितपचिट्टिता ३, खिसिदित्ता चैव नो चेव ४ ॥ ९ ॥ हंता य महता य ५, छिंदित्ता खलु तहा मछिंदित्ता ६ । बूतिता अतिता ७, मासिता चैव खो क्षेत्र ॥ २ ॥ दवा व मदचा व ६, त्रिया खलु वा अधुनिया १० मिता ममता ११, पीता चे नो चेत्र १२ ॥ ३ ॥ सुचित्ता असुतित्ता १३, जुज्झिता खलु तहा अजुज्झिता १४ अतिया ना १५ पराजित व नो चेत्र १६ ॥४॥ सदा १७११६, रसा२० य फासा २१ तहेब ठाखा य । ( २१-६-१२६-१-१२७ ) ( १०१६) अभिधानराजेन्रूः । निस्सीलस्स गरहिता, पसस्था पूरा सीलवंतस्स ॥ ५ ॥ एवम तिथि तिमि भावगा भाविषथा। सर्व सुखे वा खाने सुजणे ति० ३ एवं मुखे चि०३ सुपीति०३, एवं मनुवा वामेने तुम ये भवति०३ न सुभीति०३, व सुविस्सापीति०३, एवं सवाई गंधाई रसाई फसाई, एकेके व मालावता भाणिवन्या, १२७ मालागा भवंति । ( १६० सूत्र ) (तम्रो पुरखेत्यादि) पुरुषजातानि पुस्वपकारा, सुड मनोवस्था सुमनाः हर्षवान् इत्वर्थ:-दुना बादिमान् द्वित्यर्थः मोना न " " स्थः, सामायिक वानित्य र्थः । सामान्यतः पुरुषप्रकारा उक्ताः, ए सानेव विशेषतो गत्यादिक्रियापेक्षया 'तो' इत्यादिनिः बैराइत गया यारवा कविद्विद्वारा ही नांमति सम्मापनावान् एकः कथित् मनाभवति-पति वयेवा म्यो गोबति अन्यः स पति अतीतकाल सूत्रभित्र वर्तमानमचिरकाल नबरंजामी दिषु इतिशब्द स्वर्थः । ' एवमगंता' इत्यादि प्रतिषेधसूत्रा णे 'आगमनसूत्राणि च सुगमानि 'पत्रम्' एतेनानन्तरे ना मिलान एमपि वव्यानि भयेान्य दुकानि च जाणि संहर गाथापञ्च हवा-मंत्यादि) तामा आमडेयुक्रम् (मनात) "अगं नायेगे तुमसे म बर. अगागंता नामेगे दुम्मणे मंत्र, अद्यागंता नामेगे नेो सु. मनोदुम्मणेभव ३, एवं न अगच्छामीति० ३, एवं न आगमिस्सामीति० ३ " ( चिट्टित त्ति ) स्थित्वा ऊईस्थाने न सुमना दुना अभयं च भवति एवं बिट्ठामीति, वि. हिस्सामीति विद्विषारापात एवं सर्वत्र निनो वेव) षिच नाि " श्व ३. विश्वा द्विधा कृत्वा ३, अच्हित्वा प्रतीतम् ३, । बुद्द सि) उक्त्वा भावा पदवाक्यादिकम् ३ (अनुसति ) ३, (भासिते ति) भाषित्वा संभाय कञ्चन सम्भा नो वेव सि) वित पीच २ (दति ) दवा ३, अदस्या ३, भुरे, अभु काना३ अध्या ३, पीरवा ३. (नो चेत्र सि) अपी रहा है, बुलवा है, असुवा ३ युवा ३ युवा ३ ( जस 1 पुरिसजाव ति ) जित्वा परम् ३, अजित्वा परमेव ३ ( पराजिणित्ता) भूशं जित्वा ३ परिभङ्गं वा प्राप्य सुमना भवति, बर्डनकमा - विमहावियपविनिर्मुयात् पराजितान् प्रतिवादिनः सम्भावितान विनिर्मुकमोबेश ) अपराजि जित्य ३ | ४ || सद्देत्यादिगाथा ५ सूत्रत एव बोद्धव्या, प्रतिस्था तारा इति पचाने इत्यादि) मिति यत्या दिसूत्रोक्तक्रमेण एकैकस्मिन् शब्दाऽऽदौ विषये विधिप्रति पेधाभ्यां प्रत्येकं त्रयस्त्रयं आलापकाः-सूत्राणि कालविशेषा सुमनाः दुना मो सुमना जो दुना इत्येतत्पद यवन्तो भणितव्याः । एतदेव दर्शयन्नाह - ( सद्दमित्यादि ) भवितार्थम्बाई इत्यादि यथा वि. धिनिषेधाभ्यां वयय आलापका भणिता एवं रुवाई प्रा सित्ता' इत्यादयः त्रयस्य एवं दर्शनीयाः । एवञ्च यद्भवति त दाह - (एके इत्यादि) एकैकस्मिन् विषये पडालापका भा नियतीति तत्र शब्दे दर्शिता का पानि मीति वम् घडा ४. न पश्यामीति पश्वामीति २ मोति षट् ६ एवं गन्धान् धावा ६, रसानास्याद्य ६, स्पर्शान् स्पृष्टुति ६ । स्था०३ ठा० २३० ॥ तो पुरिसजाया पथवा तं जहा-सुतधरे, भवरे, मरे (१६९ छत्र ) 'तम्रो' इत्यादि सुबोधम्, नत्ररमेते यथोसरं प्रधाना इति स्था० ३ ठा० ३ उ० । पुरुषकारानेव वृक्षाऽऽदिदृष्टान्तेनाऽऽहचनारि वापस वा तं जहा-भर नावे उभर १ उन नाममेगे पण २, पद्यते नाममेगे उन्नवे ३, पणते नाममेमे पढते ४। १ एवमेव चचारि पुरिसजाता पता । तं जहा उन्नते नामेगे उन्नते, तहेव० नाव पखते नामेगे पखते |२| चचारि रुक्खा पक्षता । तं जहा- उन्न नाममेणे उमतपरिणते १, उसर नामगे पतपरियते २, पणते खाममेगे उन्नतपरिणते ३, पर नाममेगे पणयप रियर ४। ३। एवामेव चचारि पुरिसजाया पसचा | वं जहा- उन्नते नाममेगे उमयपरिणए० चउभंगो ४ । ४ । चचारि दक्खा पाता । तं जहा उनले नामेगे उ अतरूवे ० तदेव चडभंग ४ | ३ । एवमेव चचारे पुरिसजाया प जहा उमर नामवेगे० ४ ६ बचारि पुरि जाया पष्ठता । तं जहा उनने नाममेगे उन्नतमये उनए० ४. ७ एवं संप्पे ०८, पत्रे ० ६, दिडी ०१०, सीलायारे०११, ववहारे० १२, परकमे० १३, एगे पुरिसजाए पडित्रक्खो नस्थि । चचारि रुक्खा पसता । तं जहा - उज्जू नाममेगे उज्जू, उज्जू नाममेवं चउभं गो० ४ । एवामेव चचारि पुरिसजाता था। नाज्जू नाम०४ ज पखतेदिं गमो तहा उज्जुनि केहि वि भाषियन्त्रो नाम परकमे। ९६ । (२२६ सूत्र ) Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१७ ) अभिधानराजे पुरिसजाय कण्ठ्यं, किन्तु वृश्च्यन्ते छिद्यन्ते इति वृक्षाः, ते विवक्षया चत्वारः प्रज्ञप्ता भगवता । तत्र उन्नतः - उच्चो द्रव्यनया, नामेति सम्भावने, वाक्यालङ्कारे वा । एकः कश्चिद् वृक्षवि शेषः, स एव पुनरुन्नतो जात्याऽऽदिभावतोऽशोकादिरित्ये को भङ्गः । उन्नतो नाम द्रव्यत एव एकः अन्यः प्रणतो जा. त्यर्थः इति द्वितीयः मैकद्रव्यः खर्व इत्यर्थः । स एव उन्नतो जात्याऽऽदिना कादिरिति तृतीयः इयत एव खःस दिदीनो निम्बादिरिति चतुर्थश्रथवा पूर्वमुततुः अधुना युतस्तु एव इत्येयं कालापेखपा वर्तुङ्ग १ एवमित्यादि वयमेव वचत्वारि पुरु बजातानि - पुरुष प्रकारा अनगारा अगारिणो वा, उन्नतः पुरुष: कुलमर्याऽऽदिभिलौकिक गुणैः शरीरेस वा गृहस्थप यांचे पुनरुतो लोकापर्या अथवा उन्नत उत्तमभवत्वेन पुनरुन्नतः शुभगतित्वेन कामदेवाऽऽदि. बदित्येकः (तदेव स वृत्तषमिदम् (जाति) यात् 'पण नाम एगे पण त्ति' चतुर्थभङ्गकस्तावत् वाच्यं तत्र उन्नतस्तचैव प्रतस्तु विहाराऽऽदिदिगम नावा शिथिल कराजविद्वेति द्वितीयः । दतीयः पुनरागमेतावद्वा चतुर्थ उदा विनुपमा कालीकरिकपति २ एवं दार्श तिसूत्रे सामान्यतोऽभिधाय तद्विशेषसूत्रापवादउन्मतः तुङ्गतया एको वृक्षः उन्नतपरिणतः श्रशुभरसाऽऽदिरूपमनुन्नतत्वमपहाय शुभरसाऽऽदिरूपोन्नततया परिणत इत्येकः, द्वितीयेमहे परियत उक्तक्षयेोधतत्रत् नुसारेण तृतीयचतुर्थी वाच्यों, विशेषसूत्रता चास्य पूर्व. मुस्तत्सामान्येनामिति पूर्वावस्थातोऽव स्थान्तरयममेव विशेषिते इति । एवं दाऽपि परि रात सूत्रमवगन्तव्यमिति । परिणाम कारबा दात् त्रिधा, तत्राऽऽकारमाश्रित्य रूपसूत्रं, तत्र उन्नतरूपः संस्थानावयवादी गृहस्थपुरुष ये स्तु संविझला धुनेपथ्यधारीति ६, बोधपरिणामापेक्षणिय स्वारि सूत्राणि तत्र उन्नतो जात्याऽऽदिगुणैरुच्चतया वा उन्न तमनाः - प्रकृत्या श्रदार्याऽऽदियुक्तमनाः एवमन्येऽपि श्रयः, एवमिति समेषु चतुमेहिकातिदेशोकरा पाप-विकल्प मनोविशेष पत्र मह थे उतत्वं वापीहायोऽऽचियुक्तया सा महा सूक्ष्मार्थविधेयक विषर्थ तस्याश्री अतश्वमविसंवादितया है, तथा दर्शनं दृष्टि:- चतुर्ज्ञानं नयमतं वा तदुतश्वमप्यसंवादितयैवेति १०, क्रियापरिणामा उपेक्षामतः सुत्रत्रयम् तत्र खावा, शीलं समाधिस्त स्प्रधानस्तस्य वाऽऽचारः अनुष्ठानं शीलेन वा स्वभावेनाss चार इति, उन्नतत्वं चास्यादूषणतया । वाचनानन्तरे तु शील सूत्रमाधारसूत्रं च भेदेनाधीयत इति ११। व्यवहारः श्रन्योऽ [[पदानादिस्ति १३. पारविशेषः परेषां या माम तस्योन्नतस्वमप्रतिहतत्वेन शोभनविषयत्वेन चेति १२ । उप सर्वत्र प्रणतत्वं भाषणीयमिति पुरी यदि विषु सप्तसु चतुहिने एक पुरुषजाताऽऽलापको प्रतिपक्ष द्वितीय २५५ | पुरिसजाय दृष्टान्तभूतः वृक्षसूत्रं नास्ति, नाध्येतव्यमिति यावत् । इह भृतीनां दातिरुपुरुषधर्माणां दम्भूतग्यस वादिति निर्व कश्चिद्वृत्तः, तथा ऋजुः श्रविपरीतस्वभाव औचित्येन फलादादित्येक द्वितीये द्वितीयं पदं फलाssदौ विपरीतः, तृतीये प्रथमपदं वक्रः- कुटिलः, चतुर्थः सुशानः, अथवा - पूर्वम ऋजुः श्रवक्रः पश्चादपि ऋजुः अवकः, अवारीका - - पुरुषको बहिस्तात् शरीरा दिभिस्तथा तुरन्तर्नियायेन सुद तथा ऋजुस्तथैव, 'वङ्क' इति तु वक्रः, श्रन्तर्मायित्वेन कार प्रयुक्ताऽऽर्जवभावदुःसाधुवदिति द्वितीयः तृतीयस्तु कारणवशादर्शित बहिरनार्जवो ऽन्तर्निर्माय इति प्रवचन गुठि वृतादिति चतुर्थ पत तथाविचशठवदिति, कालभेदेन वा व्याख्येयम् २ | अथ ऋजु ऋजुपरित इत्यादिका एकादश चतुर्महिका लाघवार्थमतिदेशे नाऽऽह एवमित्यनेन भर्ना प्रजुरित्यादिनदर्शिक मभङ्गकमेण यचेति येन प्रकारेण परिणतपादिविशे कविशेषितश्वर्थः उद्यतप्रयताभ्यां परस्परं प्रतिष क्षभूताभ्यां गमः - सदृशपाठः कृतः, ' तथा ' तेन प्रकारेख परिणत रूपादिविशेषितायामित्यर्थः जुवाम्यामपि भणितव्यः । क्रियान् स इत्याह- (०जाव परक्कमेत) ऋजुव वृक्षसूत्रात् त्रयोदशसूत्रं यावदित्यर्थः तत्र त्र ऋजु२ऋजुपरिएतानि पद सुवाचि वृतपुरुष दान्तिकस्वरूपाणि शेषाणि तु मनःप्रभृतीनि खप्त अट टान्तानीति १३ । स्था० ४ ठा० १ उ० । पुरुष दानाद चत्तारि वत्था पत्ता । तं जहा सुद्धे गामं एगे सुद्धे १, सुगा २ अ या एगे सुद्धे ३ मु खाएंगे सुद्धे ४ | एवामेव चत्तारि पुरिसजाना पत्ता । महा-मुझे गानं एगे सुदे० चउमंगो ४ एवं परियतरूत्था सपविक्खा । चत्तारि पुरिसजाता पलता । तं जहा सुदेवायें प्रगे सुमो ४ एवं कप्पे जात्र परकमे । ( २३६ सूत्र ) चारित्यादि) स्पा नरं यं प निर्मल तवाहिकारावा पुनः शुद्ध मागन्तु कमलाभावादिति । अथवा- पूर्व शुद्धमासीदिदानीमपि शुद्धमेव पक्षी सुहानावेवेति । अथ दायि जना (यमेवेत्यादि शुजास्थादिना पुनः सु निर्मलानादिगुणतया कालापेक्षया वेति । (उमंगो ति) चत्वारो भङ्गाः समाहृताः चतुर्भङ्गी चतुर्भङ्गं बा. पुंलिङ्गता चाऽत्र प्राकृतत्वात् । तदयमर्थो वस्त्रवच्चत्वारो भङ्गाः पुरु· बेऽपि वाच्या इति । एवमिति यथा शुद्धात् शुद्धपदे परे चतुर्भङ्गं सदान्तिकं वस्त्रमुक्तमेवं शुद्धपदप्रादे पतिपदेरुपपदे णि सपि प्रितपाणि यानीति तथाहि 1 " चत्तारि वस्था पत्ता तं जद्दा सुद्धे नामं एगे सुद्धपरि Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१८ ) अभिधानराजेन्द्रः | पुरिसजाय "चतुर्भङ्गी । चमेवेत्यादि पुरुषासूत्र बतुङ्गी । "एवं सुखे नामं प्रो सुरु" । चतुर्भङ्गी एवं पुरुषेणाऽपि, तु पूर्ववत् । ( चन्तारीत्यादि ) शुद्धो बहिः शुद्धमना अन्तः एवं शुद्धसङ्कल्पः शुद्धः शुद्धदृष्टिः शुद्धशीलाऽऽचा रः शुद्धव्यवहारः शुद्धपराक्रम इति वस्त्रवर्णाः पुरुषा एव चतु भङ्गवन्तो वाच्याः, व्याख्या व प्रागिवेति । अत एवाऽऽहदवमित्यादि । पुरुषाधिकार वेदमाह चारि सुना पाता। तं जहा अतिजाने जाते, श्रवजाते, कुलिंगाले । (२४० सूत्र ) चत्तारि पुरिसजाता पत्ता । तं जहा - सच्चे नामं एगे सचें, सच्चे नामं एगे श्र सच्चे० ४, एवं परिणते ०जाव परकमे । चत्तारि वस्था, बता, तं जहा - सुती नाम एगे सुती, सुई नाम एगे सुई भंग ४ । एवमेव चत्तारि पुरिसजाता पत्ता । तं जहा सुती गामं एगे सुती पडगो एवं जदेव सुदे बत्थेणं भणितं तद्देव सुतिया कि० जाव परक्कमे । (२४१ सूत्र ) चारि कोरवा पछता । तं जहा अपपलंय फोरवे, तालवलंब कोरवे, वलिपलंब कोरवे, मेंढविसायकोरवे । एवमेव चत्तारि पुरिसजाता पाता । तं जहा - रपलं चकोरवसमाणे, तापलंब कोरवसमाणे, वल्लिपलंब कोरवसमा, मेंढ-विसाय कोरवसमाणे (२४२ सूत्र ) सुताः - पुत्राः ( अइजाए त्ति ) पितुः सम्पदमतिलक्ष्य जातः संवृतोऽतिकायाः प्रविशश्रखइत्यर्थः इत्यजितोऽतिपातो वा वत् । तथा-(अणुजाए ति ) अनुरूपः सम्पदा पितुस्तुल्यो जातोऽनुज्ञातः अनुगतो या पितृवियाऽनुपातः पितृसम इत्यर्थः महायोद् आदित्यवापिश्राव स्वात्तस्य, तथा ( श्रवजाए त्ति) अप इत्यपसदो हीनः पितुः सम्पद जातो जातः पितुः सकाशादीपीनगुणस्पर्थः आदित्योत् मरताऽपेक्षया तस्य डीस्यात् । तथा कुति) कुलस्वा दूषकत्वादुपतापकत्वाद्वेति कण्डरीकवत् । एवं शिष्यचातुर्विध्यमप्यवसेयं सुतशब्दस्य शिष्येष्वपि प्रवृत्तिदर्शनात् । ताजितः सिंगारस्वामिय , भवापेक्षा यशोभद्रवत्। अपजातो भद्रबाहुस्त्राम्यपेक्षया स्थूलभद्रवत् । कुलाङ्गारः कूलवालक व दुदायि नृपमारकवद्वेति । तथा ( चत्तारीत्यादि ) सत्यो यथावद्वस्तुभ नाद यथाप्रतिज्ञातकरणाच्च, पुनः सत्यः संयमित्वेन सद्भ्यो हितत्वात् अथवा पूर्व सत्य आसीदिदानीमपि स पति एवंप्रकारसुत्रास्पतिदिन इत्यादि व्यक्रं नरमेयं सूत्राणि "बसारि पुजापा तंजाचे नासपरि०४ रुवे०४, साम०४, सञ्चसंकल्पे०४, सच्चपने०४, लच्च दिडी ०४, सबसीताया२०४०४ रक्कमेरु पाधिकार पद्मपरमाद, बचारि बस्थेत्यादि पवित्र - पुरिसजाय 2 स्वभावेन पुनः शुचि संस्कारे कालमेदेन वेति पुरुषचतुर्भ पुरुषोऽपूतिशरीरतया पुनः शुचिः समानेति । 'परिषद सुरुवातको तम् 'सुरमयेइत्यादि पुरुष मात्राऽऽधितमेष सूत्र सप्तम विदिशा यमित्यादि करपम् पुरुषाधिकार एवेदम परमाह- ( चत्तारि कोरवे इत्यादि ) तत्र ब्राम्नः- चूतः त स्य प्रलम्बः फलं तस्य कोरकं तनिष्पादकं मुकुलम् आम्र लम्बकोरकम् एत्रमन्येऽपि नवरम्-तालो वृक्षविशेषः, बल्ली - कालिङ्गादिका, मेएढविषाणामेषशृङ्गसमानफला - नस्पतिजातिः आउ (तु) शिविशेष इत्यर्थः तस्याः कोर कमि ति विग्रहः, एतान्येव चत्वारि दृष्टान्ततयोपात्तानीति च स्वारस्युम्, न तु चावाय सोफे कोरकाणि बहुत पालम्भादिति । एवेत्यादि ' सुगमं, नवरमुपनय एवं यः पुरुषः सेव्यमान उचिताले उपकारफलं जनयस्थ सावा म्रप्रलम्ब कोरकसमानः यस्त्वतिचिरेण सेवकस्य क छैन महदुपकारफलं करोति स ताम्ब कोरकसमान यस्तु अाणि दशति स शीलम्कोरक समानः यस्तु सेव्यमानोऽपि शोभनवचनान्येव ब्रूते, उ पकारं तु न कञ्चन करोति स मेराढविषाणकोरकसमा - नः, तत्कोरकस्य सुवर्णवर्णत्वादखाद्यफलदायकत्वाश्चेति । स्था० ४ ठा० १ उ० । फलन्ते पुरुषानाइ , चचारि कला पपवा तं महाश्रमे याने महुरे १, आमे थायमेगे कमरे २ पके ममे आममहुरे २, पके खामगेगे पकनरे ४ । एवमेव चतारि पुरिसजाता पष्ठत्ता । तं जहा श्रामे खाममेगे ग्राममहुरफलसमा ४ (२५३ सूत्र ) 9 . तद्विशेषभूत पुरुषनिरूपणाय फलसूत्रम् । आमम्- अपर्क सत् प्रामिष मधुरम् श्राममधुरमीपम्बर त थाश्रमं तत् क्वमिव मधुरमत्यन्तमधुरमित्यर्थः तथा पक्वं सत् श्रममधुरं प्राग्वत्, तथा पक्कं सत् पकमधुरं प्राग्वदेवेति । पुरुषस्तु आमो-वयः श्रुताभ्यामव्यक्तः श्रममधुरकलसमान, उपशमादिस्य मायाव भावात्, तथा धाम एव पकमधुरफलसमानः पक्कफलवमधुरानोपरामादिगुणयुक्तत्वादिति तथा कोच परितः श्रामपुर पशमादिमास्यापत्यात् तथा पवस्तथैव परम धुरफल समानोऽपि तथैवेति । अनन्तरं पचमधुर उक्तः, स ॐ सत्यगुणयोगात् भवतीति स्था०४ डा० १ ० पुरुषाधिकारादेवापरथा पुरुषसूत्राणि चतुर्द्दशचचारि पुरिसजाता पाता। तं जाते या मेगे णो संवासभद्दते १, संवासभदर खाममेगे यो आबातमदर २, एगे यात्राभरते व संवासभर २, एगे गो, वायभद्दते नो वा संत्रासभदए० ४ । १ । चचारि पुरिसजाया पत्ता । तं जहा अप्पयो नाममेगे वज्रं पासति यो परस्स, परस्स याममेगे वज्जं पासति० Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बघण्णा पुरिसजाय अन्निधानराजेन्धः। पुरिसजाय ४।श चत्तारि पुरिसजाया पहाचा . तं जहा-अप्प- विहस्ता निहस्ता वा त्वया भूमिः अनितव्यतावचे धनं णो णाममेगे वजं उदीरेइ णो परस्स० ४ । ३ । अप्पणो दास्यामीत्येवनियम्येति । हगाथेनाममेगे बज उवसामेति यो परस्स. ४ । ४ । चत्तारि " दिवसभयो उ घेप्पा छिमेण धणेण दिवसदेषसि । जत्सा उ होगमणं, उभयं वा पत्तियधणेणं ॥१॥ पुरिसजाया पडत्ता । तं जहा-प्रभुढेइ नाममेगे णो अ. कब्बालमोडमाई हत्थमियं कम्म पत्तियधणेणं। म्भुहावेति । एवं बंदति खाममेगे यो बंदावेइ ।६। एवं एच्चिरकालुबत्ते, कायव्वं कम्मजं बेति ॥२॥" सक्कारेइ ७ सम्माति ८, पूएइ, वाएइ १०, पमिपुच्छति उक्तं लौकिकस्य पुरुषविशेषस्यान्तरम,अधुना लोकोत्तरस्य तस्यान्तरप्रतिपादनाय प्रतिषेविसत्रम्, तत्र संप्रकटम् अगी११, पुच्छइ १२, वागरेति १३, सुत्तधरे णाममेगे तार्थसमक्षमकल्प्यभक्ताऽऽदिप्रतिषेवितुं शीलं यस्य स संप्र. णो अत्यधरे, भत्थधरे नाममेगे णो मुत्तघरे । १४ । कटप्रतिसेवीत्येवं सर्वत्र, नवरं प्रच्छन्नमगीतार्थासमक्षम् । (२५५ सूत्र) अत्र चाऽऽये भजकत्रये पुष्टाऽऽलम्बनो बकुशा 55दिः निरासुगमानि, नवरमापतनमापात:-प्रथममीलका, तत्र भद्रको लम्बनो वा पार्श्वस्थाऽऽदिः द्रष्टव्यः । स्था० ४ ठा० १ उ० । भकारी दर्शनाऽऽलापाऽदिना सुखकरत्वात् , संवास: दीनाऽऽदिभेदमाइचिरं सहवासस्तस्मिन्नभद्रको हिंसकत्वात् संसारकारणनियोजकत्वाद्वेति, संवासभद्रका सह संघसतामस्यन्तोपका चत्वारि पुरिसजाया पप्पत्ता। तं जहा-दीखे णाममेगे दीये, रितयानो पापातभद्रका अनालापकठोराऽऽलापाऽऽदिना,एवं दीणे णाममेगे अदीणे,अदीणे णाममेगे दीणे, प्रदीणे णाद्वावन्यो। ( वज्जति) बज्यत इति वयम्, अवध वा अका. ममेगे अदीणेचनारि पुरिसजाया परमत्ता। तं जहा-दीणे रलोपात, बजवनजं वा गुरुत्वादिसाऽनृताऽदि पापं कर्म | तदात्मनः सम्बन्धि कलहादौ पश्यति, पश्चात्तापान्वितत्वात् , णामेगे दीणपरिणए. दीणे णामेगे श्रदीणपरिणए, अदीये न परस्य ,तं प्रत्युदासीनत्वात् , अन्यस्तु परस्य नाऽऽत्मनः , णामेगे दीणपरिणए, अदीसे णामेगे अदीणपरिणए २ । साभिमानत्वात् , इतर उभयोः, निरनुशयत्वेन यथाषद्वस्तु. चत्तारि पुरिसजाया परमत्ता । तं जहा-दीणे णामेगे दीबोधात् , अपरस्तु नोभयोर्विमूढत्वात् इति । दृष्टा चैक णरूवे०(४)३ । एवं दीणमणे०४।४। दीणसंकप्पे०४। श्रात्मनः सम्बन्धि अवद्यमुदीरयति-भणति यदुत मया ५दीणपन्ने०४।६। दीण दिट्टी०४/७। दीणसीलायारे०४॥ कृतमेतदिति,उपशान्तं वा पुनः प्रवर्तयति, अथवा-वजं कर्म तदुदीरयति-पीडोत्पादनेन उदये प्रवेशयतीति । एवमुपश. जादीणववहारे०४६। चत्तारि पुरिसजाया पसत्ता । तं मयति-निवर्तयति पापं कर्म वा । (अब्भुढेइ ति) जहा-दीणे णाममेगे दीणपरक्कमे, दीणे खामेगे अदीणअभ्युत्थानं करोति न कारयति परेण, संविग्नपाक्षिको ल. परक्कमे० [४]।१०। एवं सव्वेसिं चउभंगो भाणियब्यो। घुपर्यायो बा, कारयत्येव गुरुः, उभयवृत्तिवृषभाऽऽदिः, अनु. भय वृत्तिर्जिनकल्पिकोऽधिनीतो वेति । एवं वन्दनाऽऽदिसूत्रे. दीनो दैन्यवान्, क्षीणोर्जितवृत्तिः पूर्व पश्चादपि दीन एव,अप्यपि नवरं वन्दते द्वादशाऽऽवर्ताऽदिना, सत्करोति वस्त्राss थवा-दीनो बहिर्वृया पुनर्दीनोऽन्तर्वृत्या इत्यादिश्चतुर्भगी। दिदानेन, संमानयति स्तुत्यादिगुणोन्नतिकरणेन, पूजयति | तथा दीनो बहिर्वृष्याम्लानवदनस्वाऽऽदिगुणयुक्तशरीरेणे त्यर्थः। उचित पूजाद्रव्यैरिति, पाचयति-पाठयति, (नो वायावेइ) एवं प्रक्षासूत्रं यावदादिपदं व्याख्येयं,दीनपरिणतःअदीनः सन् मात्मानमन्येनेति उपाध्यायाऽऽदिः, द्वितीये शैक्षकः, तृतीये दीनतया परिणतोऽन्तर्वृत्त्या इत्यादिश्चतुर्भङ्गी ।२। बथा दीनकचित् ग्रन्थातरेऽनधीती, चतुर्थे जिनकल्पिकः । स्था० ४ रूपो मलिनजीर्णवस्त्राऽऽदिनेपथ्यापेक्षया। ३। तथा दीनमनाठा०१उ। स्वभावत एवानुन्नतचेता। दीन संकल्प उन्नतचित्तस्थामाभृतकदृष्टान्तमाविर्भावयति व्येऽपि कथञ्चिहीमविमर्शःश तथा दीनप्रक्षःहीनसूधमार्थाचत्तारि भायगा पम्सचा। जहा-दिवसभयते, जत्ता ऽ लोचनः ।६। तथा दीनश्चित्तादिभिरेवमुत्तरत्रापि आदिपर्व, भयते, उच्चत्तभयते, कन्चालभयते । (२७१ सूत्र) चत्तारि तथा दीनरष्टिविच्छायचक्षुः। तथा दीनशीलसमाचारोही नधर्मानुष्ठानः। तथा दीनव्यवहारो दीनाम्योऽन्यदानप्रतिपुरिसजाया पश्चत्तातं जहा-संपागडपडिसेवी थामेगे णो| दानाऽऽदिक्रियः, हीनविवादो वा तथा दीनपराक्रमो-ही. पच्छमपडिसेबी, पच्छमपडिसेवी णामेगे यो संपागडप- नपुरुषकार इति ।१०।। डिसेवी, एगे संपागडपडिसेवी वि पच्छलपडिसेवी वि, एगे दीनो दीनवृत्ति:णो संपागडपडिसेवी, खो पच्छसपडिसेवी । (२७२ सूत्र) चत्तारि पुरिसजाया पसत्ता । तं जहा-दाणे णामेगे दीम्रियते पोध्यते स्मेति भृतः, स एवानुकम्पितो भृतकः, | णवित्ती०४।१॥ एवं दीणजाई१२,दीणभासी १३, दीणो. कर्म कर इत्यर्थः । प्रतिदिवस नियतमूल्येन कर्मकरणार्थ भासो १४ । चत्वारि पुरिसजाया पसना । तं जहा-दी यो गृद्यते स दिवसभृतकः १ यात्रा-देशान्तरगमनं तस्यां णामेगे दीणसेवी०[४] ॥१५॥ एवं दीणे णामेगे दीगापसहाय इति भ्रियते यः स यानाभृतकः २। मूल्यकाखनियम करवा यो नियतं-यथावसरं कर्म कार्यते स उच्चताभृतकः३, रियाए०१६। एवं दीणे णामेगे दीणपरियाले.[४] ११ कव्वारभृतकः क्षितिखानक मोडाऽऽविर्यस्य स्वं कर्माप्यते । सम्वत्थ चउभंगो। [२६६ सूत्र ] Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२० ) अभिधानराजेन्द्रः । पुरिसजाय तथा दीनस्येव वृत्तिर्वर्तनं जीविका यस्य स दीनवृत्तिः ॥ ११॥ एवं दीनं दैन्यवन्तं पुरुषं दैन्यवद्वा यथा भवति तथा याचत इत्येवंशील दीनयाची, दीनं वा यातीति दोनयायी, दीना वा-हीना जातिरस्येति दीनजातिः | १२| तथा दीनवद्दीनं वा भाषते दीनभाषी । १३। दीनवदषभाषते प्रतिभाति श्रवभाषते वा याचत इत्येवंशीलो दोनावभासी, दीनावभाषी वा । १४ । तथा दीनं नायकं सेवत इति दीनसेवी । १५ । तथा दीनस्येव पर्यायोsवस्था प्रव्रज्याऽऽदिलक्षणा यस्य स दीनपर्यायः | १६| (दीनपरियाले प्ति) दीनः परिवारो यस्य स तथा । १७ । (स. व्यस्थ चउभंगो ति ) सर्वसूत्रेषु चत्वारो भङ्गा द्रष्टव्या इति पुरुषजाताधिकारवत्येवेयमष्टादशसूत्री | श्रार्यो नामैकः- सारि पुरिसजाया पत्ता । तं जहा श्रजे गामेगे श्रजे० |४|१| चत्तारि पुरिसजाया पत्ता । तं जहा श्रज्जे यामेगे अज्जपरि०४ |२| एवं अज्जरुवे० ३। अज्जमणे ४ | अ कप्पे ०५ | अज्जपो०६। अजदिट्ठी ०७ | अज्जसीलायारे०८ | श्रज्जववहारे०६ । अजपरकमे०१० । अजवित्ती० ११। अजाई ०१२ | अभासी० १३ । अञ्जश्रोभासी० १४ । अञ्जसेवी ०१५ | एवं अज्जपरियाए०१६ | अपरियाले ० १७ । एवं सत्तरस आलावगा० १७ । जहा दीणं भणिया तहा जेण वि भाणियन्त्रा । चचारि पुरिसजाया पणत्ता । तं जहा अज्जे खामेगे श्रजभावे, भजे खायेगे अणभावे, अणजे या मेगे अजभावे, अण थामेगे अज्जभावे ।। १८ ।। [ २८० सूत्र ] गतार्था । नवरम् आर्यो नवधा । यदाह " खेत्ते जाई कुल कम सिप्प भासाए नारावरणे य । दंसणप्रायरिय नवहा, मिच्छा सग जवण खसमाई ॥ १ ॥ " इति । तत्र श्रार्यः क्षेत्रतः, पुनरार्यः पापकर्म बहिर्भूतत्वेनापाप इत्यर्थः । एवं सप्तदश सूत्राणि नेयानि । तथा श्रार्यभावः क्षायिकाऽऽदिशाmissदियुक्तः अनार्य भावः क्रोधाऽऽदिमानिति । पुरुषजातप्र करणमेव दृष्टान्तदान्तिकार्थोपेत माविकथासूत्रादभिधीयसे, पाठसिद्धं चैतत् । जातिकुल संपद्मा:-- चारि उसभा पत्ता । तं जहा- जाइसंपन्ने, कुलसंपत्रे, बलसंपन्ने, रूपसंपन्ने । एत्रामेत्र चत्तारि पुरिसजाया पत्ता । तं जहा -- जाइपने, कुल संपन्ने, बलसंपत्रे, रूपसंपन्ने १। चसारि उसभा पछता । तं जहा -- जाइसंपछे खापयेगे मो कुलसंपत्रे, कुलसंपत्रे खाममेगे खो जाइसंपले, एगे जाइ संपले विकुलसंपत्र, एगे यो जाइसंपले नो कुलसंपले । एवमेव चारि पुरिसजाया पष्ठत्ता । तं जहा जा इषधे याममेगे०४ । २ । चत्तारि उसभा पष्ठत्ता । तं जहाजाइसंपन्ने नाममेगे नो बलसंपन्ने । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पता । तं जहा- जाइपने० ४।३। चत्तारि उस पुरिसजाय भत्ता । तं जहा- जाइसंपन्ने नाममेगे नो रूवसंपन्ने ० ४। एवमेव चत्तारि पुरिसजाया पत्ता । तं जहा जाईसंप याममेगे यो रूवसंपले, रूवसंपये नाममेगे० ४|४| चत्तारि उसमा पत्ता । तं जहा - कुलसंपन्ने नाममेगे नो बलसंपत्रे० ४। एवमेव चत्तारि पुरिसनाया पाचा । तं जहा - कुलसंपन्ने नाममेगे नो बलसंने० ४ । ५। चत्तारि उसभा पत्ता । तं जहा - कुलसंपले खाममंगे गो रूपसंप० ४ । एवमेव चत्तारि पुरिसजाया पपत्ता । तं जहा - कुल संपन्ने नाममेगे० ४ । ६ । चत्तारि उसभा पगणता । तं जहा - बलसंपले खामभेगे यो रूव संपए० ४, एवामेव चचारि पुरिसजाया पत्ता । तं जहा - बलसंप नाममेगे० ६ । ७ । नवरम्, ऋषभा बलीवर्दाः, जातिः - गुणवन्मातृकरवं कुलं गुणवत्पितृकत्वं बलम् भारवहनाऽऽदिसामर्थ्य, रूपं शुरीरसौन्दर्य्यमिति । पुरुषास्तु स्वयं भावयितव्याः । अन तरदृष्टान्तसूत्राणि तु सपुरुषदान्तिकानि जात्याऽऽदीनि चत्वारि पदानि भुवि विन्यस्य पक्ष द्विक संयोगानाम् "जाइसंपन्ने तो कुलसंपन्ने " इत्यादिना स्थानभङ्गक क्रमेण षडेव चतुर्भङ्गिकाः कृत्वा समवसेयानि । इस्तिसदृशाः चारि हस्थी पत्ता । तं जहा-भद्दे मंदे, मिए, संकिष्ये । एवमेव चचारि पुरिजाया पत्ता । तं जहा भदे, मंदे, मिए, संकिसे । चत्तारि हत्थी पत्ता । तं जहा-भद्दे खाम मेगे भदमणे, भद्दे णाममेगे मंदमणे, भद्दे खाममेगे मियपणे, भद्दे खाममेगे संकिसमये । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पत्ता । तं जहा - भद्दे खाममेगे भद्दम, भदे णाममेगे मंदमणे, भद्दे खाममेगे मियमणे, भद्दे णाममेगे संकिणे । चत्तारि हत्थी पत्ता । तं जहा मंदे खाममे गे भद्दम । मंदे णाममेगे मंदमणे, मंदे याममेगे मिवमणे, मंदे याममेगे संमिणे । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पयसा । तं जहा- मंदे खाममेगे भद्दमणे० तं चेत्र । चत्तारि हत्थी पात्ता । तं नहा - मिते णाममेगे भदवणे, मिते णाममेगे मंदमणे, मिते खाममेगे मियम, पिते याममेगे संनिमणे । एवमेव चत्तारि पुरिसजाता पयता । तं जहा मिते याममेगे भद्दमणे तं चैव । चत्तारि इत्थी पण्णत्ता । तं जहा - संकिराये याममेगे भद्दमणे, संकि मे णाममेगे मंदमणे, संकिने नाममेगे मियमणे, संकिमे याममेगे संकिमये । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पणता । तं जहा सेकिने खाममेगे भद्दमणे तं चैव० जाव संकिने याममेगे संनिमये ॥ " मधुगुलियपिंगलक्खो, पुत्र सुजा यदीह गंगूलो । For Private Personal Use Only Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय पुरो उदग्गधीरो, सव्वंगसमाधितो भो ॥ १ ॥ पलपल बिसमचम्यो, धूमसिरो यूलर पेरथ । थूलदलवालो, हरिपिंगललोय मंदो || २ || पीतवतो खुपदंत वालो । भीरू तत्थुब्विग्गो, दासी च भवे मिए णामं ॥ ३ ॥ एतेसिं हत्थी, थोवं थोषं तु जो हरति हस्थी । रूपेण व सीलेण व, सो संकिनो त्ति नायब्चो ॥ ४ ॥ भों मज सरए, मंदो उण मज्जते वसंतम्पि । मिड मजति हेमंते, संकियो सब्दकालम् ॥ ५ ॥ हस्तिभद्रादयो हस्तिविशेषा वक्ष्यमाणलक्षणा बना दिविशेषिता यदाह' हो ग 39 धा गजाः । धनप्रचार सारूप्य सभ्य भेदोपलक्षिताः ॥ ॥ इति । तत्र भद्रो हस्ती भद्र एव धीरत्वाऽऽदिगुणयुक्तत्वात् मन्दो सभ्य एव धैर्यवेगाऽऽदिगुणेषु मन्दत्यात्र. मृगो मृग एव तनुदिना संकीर्ण किञ्चिङ्गन 55 दिगुणसंयुकत्या संकीर्ण [पवेति पुरुषोऽप्येवं मावनीयः । उत्तरसूत्राणि चत्वारि सदान्तिकानि भद्राऽऽदिपदानि चत्वारि तदधःक्रमेण बरवायैव भद्रमनः प्रभृतीनि च विन्यस्य " भद्दे णाममेगे भद्दभणे " इत्यादिना क्रमेण समवसेयानि । तत्र भद्रो जात्याssकाराभ्यां प्रशस्तः तथा भद्रं मनो यस्य । श्रथवा-भ अस्यैव मनो यस्य स तथा; धीर इत्यर्थः । मन्दं मन्दस्येव वा मनो यस्य स तथा नात्यन्तधीरः । एवं मृगमना भीरुरिस्यर्थः । संकीर्णमना भद्राऽऽदिचित्रलक्षणोपेतमना विचित्रचित्त इत्य र्थः । पुरुषास्तु वक्ष्यमाणभद्राऽदिलक्षणानुसारेण प्रशस्ताप्रश स्तस्वरूपा मन्तव्या इति । भद्राऽऽदिलक्षणमिदम्- 'महुगाथा' मधुगुटिकेच सीडिकेच पिङ्गले पिक्षी यस्य स तथा श्रानुपूर्येण परिपाट्या सुष्ठु जातः उत्पन्नो यः सोऽनुपूर्व सुजातः खजात्युतिकालमजतो हिल ssदिगुणयुक्तो भवति स चासौ दीर्घलालश्च दीर्घपुच्छ इति स तथा अनुपूर्वेण वा स्थूलसूक्ष्म सूक्ष्मतरलक्षणेन सुजातं दीर्घं लागलं यस्य स तथेति, पुरतः अग्रभागे उदग्र उनतः, तथा श्रीरः श्रक्षोभः तथा सर्वाण्यङ्गानि सम्यक्प्रमाणलक्षणोपेतत्वेन श्राहितानि व्यवस्थितानि यस्य स स ने समाहितो भद्रो नाम गजविशेषो भवतीति । 'चलगाद्दा । तथा स्थूलशिराः, स्थूलकेन ( पेपण ति) पेचकेन पुच्छमूलेन न्युक्तः स्थूलनखदन्त बालो, हरिपिङ्गललोचनः सिंहवत् पिङ्गा. श्रो मन्दो गजविशेषो भवतीति । तंणु गाहा ?' तनुकःकुराः तनुग्रीवः तनुस्वक्-तनुवर्मा तनुकदन्तनखबालः, भीरुः - भयशीलः स्वभावतस्त्रस्तो भयकारणवशात् स्तब्धक करणादिलक्षणोपेतो भीत एव उद्विग्नः कष्टविहाराSSदादेगवान् स्वयं प्रस्तः परानपि त्रासय भ मं तीति प्रासी च भवेन्मृगो नाम मजभेद इति 'सिंगाडा । "भो गाहा । कराख्ये । तथा 'दंतेहि हर भदो, मंदो हत्थेण ब्राहणाइत्थी । गत्ताधरेहि य मिश्र, संकिन्नो सव्यश्री इ ॥ १ ॥ इति स्था० ४ ठा० २ उ० ફ્ ( १०२१ ) अभिधानराजेन्धः । - मृ मृ सं मं सं पुरिसजाय अधुना पुरुषजातप्रधानतया कायविशेषमाह-चत्तारि पुरिसजाया पष्मत्ता । तं जहा- किसे गामयेगे किसे, किसे खाममे दढे, दढे खाममेगे किसे, दढे खाममेगे दडे । चचारि पुरिसहाया पडतातं जड़ा किसे याममेगे किससरीरे, किसे याममेगे दसरीरे, दढे लाममेगे किससरीरे, दढे याममेगे दढसरीरे ४ । चचारि पुरिसजाया पण्यता । तं जहा - किस सरीरस्स खाममेगस्सादंसणे समुप्पा खो दढसरीरस्स, दढसरीरस्स या - ममेगस्स गाणदंसणे समुप्पअर यो किससरीरस्स एगस्स किससरीरस्स वि नागदं समुप्पा ददसiree वि, एगस्य खो किससरीरस्स नागदंसणे समुप्यार खो दढसरीरस्स । ( २८३ सूत्र ) (बचारि पुरिमेयादि) कव्यं नरं कृशस्त शरीरा पूर्वे पश्चादपि कुश पर अथवा भावेन हीनस स्वाऽऽदि स्वात्पुनः कृशः शरीराऽऽदिमिवं ढोऽपि विपर्ययादिति पू. सूत्रार्थावशेषाऽऽश्रितमेव द्वितीयं सूत्रं तत्र कृशी भावतः, शेषं सुगमम् | शस्यैव चतुर्भया ज्ञानोत्पादमाह (बचारीत्यादि) व्यक्तं किन्तु कुशशरीरस्य विविधतपसा भात्रितस्य शुभपरिणामसम्भवेन सदावरणसमभवात् ज्ञानं च दर्शनञ्च ज्ञानदर्शनं ज्ञानेन वा सह दर्शनं ज्ञानदर्श में स्थिकं केवलिया, न शरीरस्य तस्यदि उपतिश्वेन महता तथाविधशुभ परिणा माभावेन क्षयोपशमाऽऽद्यभावादित्येकः । तथा मन्दसंहननस्याल्पमोहस्य दृढशरीरस्यैव ज्ञानदर्शनमुत्पद्यते स्वस्थश. रीरतया मनःस्वास्थ्येन शुभपरिणामभावतः क्षयोपशमाऽऽ. दिभावा शरीरस्वास्वास्थ्यादिति द्वितीय तथा स्य स्य या तत्पद्यते विशिष्ट संहननस्याल्पमोहस्योभयथापशुपरिभावात् नापेन इति तृतीयः । चतुर्थः सुखात ज्ञानदर्शनपर उक्त स्था०४ डा०२४० चचारि पुरिसजाता पाता से जहा तहेनायमेगे, नोत ना ममेगे,सोस्थी नाममेगे, पधाणे नाममेगे ४ । चत्तारि पुरिसजायापतजदा आतकरे नामयेगे यो परंतकरे |१| परंतकरे खाममेगे यो आतंक २, एमे आकरे बि परंतकवि ३, एगे यो आतकरे णो परंतकरे ४ | २ | चारि पुरिसजाया पचचा । तं जहा भावंतने याममे नो परंतमे, परंतमे नाममेगे, नो प्रातंत मे ०४ | ३ | चार पुरिसजायापता संजामादमे नाममेवे यो परंदमे ० ४।४। [ २०७ सूत्र ] - "साह" इत्यादिविप कराव्यानि तानि केवलं (तह ति) सेवकः सन् यथैवादि श्यते तथैव यः प्रवर्त्तते स तथा अन्यस्तु नो तथैवान्यथाऽपीस्वर्थ इति नोतथः तथा स्वस्तीत्याह, बरति वा सौवस्तिकः, प्राकृतत्वात्कारणासोबाची मालिका मागचा ऽऽदिन्यः । तेषामेवाभ्यया प्रचामः प्रभुरम्य Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२२) परिसजाय अभिधानराजेन्ः। परिसजाय इति । (आयतकरे त्ति) प्रारमनोऽन्तमवसानं भवस्य करोती | तथैव, प्रसिद्धितत्वाभ्यां वा । एवं पुरुषोऽपि क्रोधाऽऽधुप त्यात्मान्तकरः,नो परस्य भवान्तकरो, धर्मदेशनाउनासेवकः द्रवरहिततया क्षेम इति । क्षेमो भावतोऽनुपद्रवत्वेन क्षेमप्रत्येकबुद्धाऽऽदिः१.तथा परस्य भवान्तं करोति मार्गप्रवर्त्तनेन रूप प्राकारेण मार्गः। पुरुषस्तु प्रथमो भावद्रव्यलिङ्गयुक्तः परान्तकरो, नाऽऽत्मान्त करोऽचरमशगर श्राचार्याऽऽदि:२, साधुद्वितीयः कारुणिको द्रव्यलिङ्गवर्जितः साधुरेव, तु. तृतीयस्तु तीर्थकरोऽन्यो वा ३चतुर्थो दुःषमाऽऽचार्याऽदिः४, तीयो निवः, चतुर्थोऽन्यतार्थिको गृहस्थो धेति । अथवाऽत्मनोऽन्तं मरणं करोतीत्यात्मान्तकर एवं परान्तक संबूकाःरोऽपि । इह प्रथम आत्मवधको द्वितीयः परवधकः,तृतीय उ. चचारि संवुका परमत्ता । तं जहा-वामे णाममेगे वाभयहन्ता चतुर्थस्त्ववधक इति । अथवाऽऽत्मतन्त्रः सन् कार्या मावते, वामे णाममंग दाहिणावत्ते, दाहिणे णाममंगे वाणि करोतीत्यात्मतन्त्रकरः, एवं परतन्त्रकरोऽपि । इह तु प्र. थमो जिनो, द्वितीयो भिक्षु', तृतीय श्राचार्याऽऽदिः, चतुर्थः मावत्ते, दाहिणे णाममेगे दाहिणावने ८ । एवामेव चकार्य विशेषापेक्षया शठ इति । अथवा प्रात्मतन्त्रम आत्मा. तारि पुरिसजाया पामत्ता । तं जहा-नामे णाममंगे वायस धनगच्छाऽऽदि करोति इन्यात्मतन्त्रकर एवमितराऽपि मावत्ते०४।। भयोजना स्वयमूोति तथाऽत्मानं तमयति खेदयतीत्या संबूका-शइखो वामो वामपाचव्यवस्थितत्वान्प्रतिकुलगुणस्मतमः प्राचार्याऽऽदिः,परं शिष्याऽदिकं तमयतीति परत. त्वाद्वा वामाऽऽवतः प्रतीतः । एवं दक्षिणावर्तोऽपि, दक्षिणा । मः सर्वत्र प्राकृतत्वादनुस्वारः । अथवा यात्मनि तमः-प्रज्ञानं दक्षिणपार्श्वनियुक्तत्वादनुकूलगुणत्वाद्वेति ८ । पुरुषस्तु वामः क्रोधों वा यस्य स श्रात्मतमाः, एवमितरेऽपि, तथा आत्मानं प्रतिकूलस्वभावतया वाम एवाऽऽवत्तते-प्रवर्तत इति वामा. दमयति शमवन्तं करोति शिक्षयति वेत्यात्मदमः, प्राचार्यो ज्यों विपरीनप्रवृत्तरेकोऽन्यो वाम एव स्वरूपेण कारणअश्वदमकाऽऽदिर्वा, एवमितरेऽपि,नवरं परः शिष्योऽश्वा55. वशाक्षिणाऽऽवर्तोऽनुकूलप्रवृत्तिः,अन्यस्तु दक्षिणोऽनुकूलम्ब दि । स्था०४ ठा०२ उ०। भावतया कारणवशाद्वामाऽऽवऽननुकूलप्रवृत्तिरित्येवं च. अात्मनः अलमस्तु तुर्थोऽपीति । चत्तारि पुरिसजाया पमता। तं जहा-अप्पणो णाममंगे धूमशिखाःअलमंथू भवइ नो परस्स, परस्स णाममेगे अलमंथ भवह। चत्तारि धूपसिहा पणत्ताओ। तं जहा-वामा णाममे. नो अप्पणो, एगे अप्पणो वि अलमंधू भवइ, परस्स वि, गा वामावत्ता०४।१०। एवामेव चनारि त्थियात्री परमएगे णो अपणो अलमंथू भवइ णो परस्स १। ताओं । तं जहा-वामा णाममेगा वामावत्ता०४११॥ चत्तारि व्यक्कानि, केवलम् अलमस्तु निषेधो भवतु य एवमाह सोड.। अग्गिसिहा पामत्ताओ। तं जहा-बामा णाममेगा वामा. लमस्त्वित्युच्यते, निषेधक इत्यर्थः । स चात्मानो दुर्नयषु वत्ता०४।१२। एवामेव चत्तारि स्थियाओ पप्मत्ताओ । तं प्रवर्तमानस्यको निषेधकः । अथवा- (अल मंथु त्ति)समयभाषा | जहा-चामा णाममेगा वामावता०४।१३। चचारि वाय या समर्थोऽभिधीयते , तत श्रात्मनो निग्रहसमर्थः क. मंडलिया पालत्ता । तं जहा-बामा णाममेगा वामावत्ता०४॥ श्चिदिति । १४ । एवामेव चत्तारित्थीयो पामत्तानो। तं जहा-बामाचत्तारि मग्गा पलता। तं जहा-उजू णाममेगे उज्जू ,उ-| णाममेगा वामावत्ता०४।१५ । चत्तारि वणसंडा पाता। ज्जूणाममंगे बंके,वंके णाममेगे उज्जवके णाममेगे के शा तं जहा-बामणाममेमे वामावत्ते०४।१६ । एवामेव चत्ताएवामेव चत्तारि पुरिसजाया पामत्ता । तं जहा-उज्ज णाम रिपुरिसजाया परमशा । तं जहा-वामे णाममेगे वामावरो. मंगे उज्जू०४।३। ४ । १७ । (२८६ सूत्र ) एको मार्ग ऋजुः आदौ,अन्तेऽपि ऋजुः अथवा ऋजुः प्रतिभाति धूमशिखा घामा वामपार्श्ववर्तितयाननुकूलस्वभावत यावा तवतोऽपि ऋजुरेवेति पुरुषस्तु ऋजुः पूर्वापरकालापेक्षया, अ. वामत एवावर्त्तते या तथा वलनाला वामावर्त्ता १० स्त्रीस्तस्तववाहस्तत्त्वापेक्षया वेति । वाच तु-"उज्जू गाभं एगे उ. पुरुषवद् व्याख्येया,कम्बुदृष्टान्ते सत्यपि धूमशिखाऽऽदिराज्जुमणे ति" पाठः । सोऽपि बहिस्तस्यान्तस्तत्वापेक्षया व्या. न्तानांस्त्रीदारान्तिके शब्दसाधणोपपत्रतरत्वाद्भेदेनोपादा ख्येयः ॥ ३॥ नमिति ११॥ एवमिग्नशिखाऽपि १३॥ वातमण्डलिका-मण्डले. चत्तारि मग्गा पमत्ता । तं जहा-खेमे णाममेगे खेमे, नोद्धप्रवृत्ती वायुरिति । इह च स्त्रियो मालिन्योपतापचाप खेमे णाममेगे अखे०४।४। एवामेव चत्तारि परिस- व्यस्वभावा भवन्तीस्पभिप्रायेण तासुधमशिखा दिहान्त. जाया पपत्ता । तं जहा -खने णाममेगे खेमे०४१७ च त्रयोपन्यास इति । उक्त च-"चवला मइल पसीला, सिलेहतारि मग्गा पाम ता । तं जहा-खेने णाममेगे खेमरूवे, खे. परिपूरिया वि तावइ । दीवयसिह व महिला, लद्धवस रा भयं देइ ॥ १ ॥” इति । १५। वनखण्डस्तु शिखावत् मणाममेगे अखमरूवे. ४ । ६ । एवामेव चत्तारि पुरि नबरं वामावती धामवलनेन जातत्वाद्वायुना वा तथा धूय सजाया पापला । तं जहा-खेमे णामभंगे खेमरू. ४।७।। मानत्वादिति । १६ । पुरुषस्तु पूर्ववदिति । १७ । स्था० . क्षमी नामको मार्ग प्रादौ निरुपद्रवतया, पुनः क्षेत्रोले | ठा०२ उ०। Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२३) पुरिसजाय अभिधानराजेन्डः। पुरिसजाय संप्रकटप्रतिसेविन: रेइ, णरइएसु उवव जइ, मेंढविसाणकेपणासमाणं मायमचत्तारि पुरिसजाया पम्पत्ता । तं जहा-संपागडपडिसेवी | गुप्पविटे जीव कालं करेइ, तिरिक्खजोणिपसु उवषजइ, गाममेगे,पच्छम्मपडिसेवी खाममंगे, पडुप्पणणंदी णाममेगे, गोमुत्तिा जाव कालं करेइ, मणुस्सेसु उबवजह, अवले. णिस्सरमाणंदी याममेगे। हणिया०जाव देवेसु उववजइ ।। सुगमा च। नवरं कश्चित्साधुर्गच्छवासी संप्रकटमेव-अगी. (चत्तारीत्यादि) प्रकट, किन्तु केतन-सामान्येन वर्क वस्तु तार्थप्रत्यक्षमेव प्रतिसेवते मूलगुणानुत्तरगुणान् वा दर्पतः पुष्पकरण्डस्य वा सम्बन्धि मुष्टिग्रहणस्थानं बंशादिदलकं, कस्पेन चेति संप्रकटप्रतिसेवीत्येकः। एवमन्यःप्रच्छन्नं प्रति तच्च धकं भवति, केवलमिह सामान्येन वर्क वस्तु केतनं सेवत इति प्रच्छन्नप्रतिसेवी अन्यस्तु प्रत्युत्पन्नेन लब्धेन वस्त्र गृह्यते,तत्र वशीमूलं च तत्केतनं च बंशीमूलकेतनमेवं सर्वत्र, शिष्यादिना प्रत्युत्पन्नो वा जातः सन् शिष्याऽऽचार्याऽऽदिरू. नवरं मेराढविषाणं-मेषगृहं, गोमूत्रिका प्रतीता (अवलेहणिय गेगा नन्दति यः स प्रत्युत्पन्ननन्दी,अथवा-नन्दनं नन्दिरानन्दः, त्ति)अवलिरुपमानस्य वंशशलाकादेर्या प्रतन्बी त्वक् साऽवले. प्रत्युत्पन्नेन नन्दिर्यस्य स प्रत्युत्पन्ननन्दिः, तथा प्राघूर्णकशि खनिकेति । वंशीमूलकेतनकादिसमता तु मायायास्तद्वताम: च्याऽऽदीनामात्मनो वा निःसरणेन गच्छाऽऽदेर्निर्गमेन नन्दति नार्जवभेदात् । तथाहिन्यथा वंशीमूलमतिगुपिलवक्रमेवं यो नन्दियं यस्य स तथा । पाठान्तरे तु-प्रत्युत्पन्नं यथालब्धं कस्यचिन्मायापीत्येवमल्पाल्पतराल्पतमानार्जवत्वेनान्यापि सेवते-भजत नानुचितं विवेचयतीति प्रत्युत्पन्नसेवीति । भावनीयेति । इयं चानन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्याना सेना: वरणसंज्वलनरूपा क्रमेण क्षेया, प्रत्येकमित्यन्ये, तेने. चत्तारि सेणाम्रो पपचामो । तं जहा-जइत्ताणागमेगा णो| वानन्तानुबन्धिया उदयेऽपि देवत्वाऽऽदिन विरुध्यते, एवं पराजिणिचा, पराजिणित्ता णाममेगा णो जइत्ता, एगा जइ- मानाऽऽदयोऽपि वाचनान्तरे तु-पूर्व क्रोधमानसूत्राणि ती त्ता वि पराजिणित्ता वि, एगा णो जइत्ता णो पराजिणित्ता। मायासूत्राणि,तत्र क्रोधसूत्राणि- "चत्तारि राईनो पन्नताश्री। २। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पसत्ता। तं जहा-जइ-1 तं जहा-पब्बयराई, पुढविराई, रेगुराई, जलराई । एषामेव चउबिहे कोहे" इत्यादि मायासूत्राणि वाऽधीतानि, फलसूत्र ताणाममेगे णो पराजिणित्ता० ४।३ । चत्तारि सेणाप्रो। अनुप्रविष्टस्तदुदयवर्तीति। पमत्तायो । तं जहा-जइत्ताणाममेगा जयइ,जदत्ताणाममेगा ___ स्तम्भपुरुषा:पराजपाइ, पराजिणित्ता णाममेगा जयइ, पराजिणित्ता चत्तारि थंभा पसत्ता । तं जहा-सेलथंभे, अद्विधभे, दा. णाममेगा पराजिणइ वा एवामेव चत्तारि पुरिसजाया परम- रुयंभे, तिणिसलयाथंभे । एवामेव चउविहे माणे प. त्ता। तं जहा-जइत्ताणाममेगो जयइ०४।५। (२६२ मूत्र)| एणते । तं जहा-सेलथंभसमाणे जाच तिणिसलया(जदत्त त्ति जत्री जयति रिपुबलम् एका, न पराजेत्री-न | भसमाणे, सेलथंभसमाणं माणं अणुप्पविढे जीवे कालं पराजयते रिपुबलान भज्यते, द्वितीया तु पराजेत्री- परेज्यो करेइ, रइएसु उववज्जइ, एवं० जाव तिणिसलयाभाभाक अत एव नो त्रीति, तृतीया कारणवशाभयः। थंभसमाणं माणं अणुप्पविढे जीवे कालं करेइ देवेसु स्वभावेति, चतुर्थी त्वविजिगीषुत्वादनुभयरूपेति । पुरुषः उववज्जइ ॥ साधुः स जेता परीषहाणां न तेभ्यः पराजेता-उद्विजते शिलाविकारः शैलः, स चासौ स्तम्भश्च स्थाणुः शलइत्यर्थः महावीरवदिति एको, द्वितीयः कण्डरीकवत् , तृतीयस्तु कदाचिजेता कदाचित्कर्मवशात् पराजेता, शेजा स्तम्भः, एवमन्ये ऽपि, नवरमस्थि दारु च प्रतीतम् , तिनि शो- वृक्षविशेषस्तस्य लता-कम्बा तिनिशलता, साचात्यकराजर्षिवत् , चतुर्थस्तु अनुत्पन्नपरीषहः। जित्वा एकदा रिपुबलं पुनरपि जयतीत्येका अन्या जित्वा पराजयते भज्य न्तमृद्वीति । मानस्यापि शैलस्तम्भाऽऽदिसमानता.तद्वतीनते, अन्या पराजित्य-परिभज्य पुनर्जयति, चतुर्थी तु पराजि मानाभावविशेषात् शेयेति, मानोऽप्यनन्तानुबन्याऽदिरूपः त्य परिभज्यैकदा पुनः पराजयते, पुरुषस्तु परीषहाऽऽविवेवं क्रमेण दृश्यः, तत्फलसूत्र व्यक्तम् । चिन्तनीय इति। वस्त्राणिजतव्याश्वेह तत्वतः कषाया एवेति तत्स्वरूपं दर्शयितुका. चत्तारि वत्था पएणत्ता । तं जहा-किमिरागरत्ते, कहमः क्रोधस्योत्सरत्रोपदर्शयिष्यमाणत्वान्मायाऽदिकपायत्रय मरागरत्ते, खंजणरागरत्ते, हलिदरागरत्ते । एवामेव च. সুন্ধমাদ্র उबिहे लोभे पण्णत्ते । तं जहा-किमिरागरत्तवत्थसमाणे, चत्तारि केपणा पत्ता । तं जहा-बंसीमलके अणए, में | कइमरागरत्तवत्यसमाणे, खंजणरागरत्तवत्थसमाणे, हलिदविसाण के अणए , गोमुत्तिकेत्रणए, अवलेहणियाके- इरागरत्तवत्यसमाणे । किमिरागरत्तवत्यसमाणं लोभमणुप्पभगाए । एवापेव चउबिहा माया पपत्ता । तं जहा-बंसीमू- विटे जीवे कालं करेइ, नेरइएसु उववज्जइ, तहेव. जायह लकेप्रणासमाणा. जाव अवलेहणियाकेपणासमाणा, | लिद्दरागरत्तवत्थसमाणं लोभमणुप्पविढे जीवे कालं क. सीमलकेपणासमाणं मायं अणुप्पविढे जीवे कालं क- रेइ, देवेसु उववजह । (२६३ मूत्र ) Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५४) अन्निधानरा जेन्यः । पुरिसजाय कृमिरागे वृद्धसम्प्रदायोऽयम् मनुष्यादीनां रुचिरं गृहीत्वा केनापि योगेन माने स्वाध्यते ततस्तत्र कृमय उत्पद्यन्ते, ते व वाताऽभिलाषिणः छिद्र निर्गता आसना म्र मम्तो निलाल भुवन्ति ता मिसूत्र भएयते तच पपरिणामरामरक्षितमेव भवति । अन्ये भयन्ति ये रुधिरे कृमय उत्पद्यन्ते तान् तत्रैव सृदित्या कयवरमुचा त द्रले कश्चित् योगं प्रक्षिप्य पट्टसूत्रं रचयन्ति, स च रसः कृमिरागो भएयते अनुत्तारीति । तत्र कृमीणां रागो रञ्जकरसः कमिरागस्तेन र मगर एवं सत्र न घर को गोपादान लडने दीपाऽऽहां हर प्रतीतैवेति । मिरानाऽऽरिसमानता व समस्या मसानुबन्ध्याऽऽदितवत जीवानां क्रमेण दीनहीनत रहीनतमानुबन्धिस्यात् । तथाहि -कृमिरागरकं वनं दग्धमपिन रागानुबन्धं सुतोऽपि त्वात् एवं मृतोऽपि लोभानुबन्धं न मुञ्चति तस्याभिधीयते लोभः कृमिरागरसमानोदेति । एव सर्वत्र मा बना कार्येति । फलसूत्रं स्पष्टम् । इह कषायप्ररूपणा गाथाः ॥ जलप राईसरि फोटो। तिथिखलाडियो मायावलेहिगोमुस्लिमैदसिंगघणवंस मूलसमा । लोभोलि कम किमसारि ॥ २ ॥ पक्खचउमालवच्छर जाव जीवाणुगामिणो कमलो । देवनरतिरिवार साहदेववो भविया ॥ ३ ॥ " इति । स्था० ४ ठा० २ उ० । चत्तारि पक्खी पत्ता | तंजहा - रुयसंपन्ने खाममेगे यो रूपसंपत्रे, रूपसंपन्ने नाममेगे खोरुपपत्रे, एगे रूपसंप विरुतसंपन्ने वि, एगे णो रुपसंपन्ने नो वसंपकने । एत्रामेव चत्तारि पुरिसजाया पत्ता । तं जहा - रुयसंपन्ने नाममेने नोरूपसंपत्रे० ४ चचारि पुरिसजाया पणता जहा पतियं करेमीलेगे पचिये करे. पचिये करेमीनेगे अपत्तियं करे, अपत्तियं करेमीतेगे पत्तियं करेइ, अपतियं करेमी अवियं करे। चचारि पुरिसजाया पपत्ता । तं जहा - अप्पयो याममेगे पत्तियं करेइ यो परस्स, परस्स णाममेगे पत्तियं करेइ यो अप्पयो० (४) चचारि पुरिसजाया पचता तं महापचियं पवेसामीले पचियं पयेमे पतियं पवेसामीतेंगे अप चिपसे० ४। चचारि पुरिसजाया पच्छता से नहाअसामयेगे पनि पसे हो परस्य परस्प०४ । ( ३१२ सूत्र ) चचारि लापता से नहापत्तो, पुप्फोवए, फलोवर, छायोवए। एवमेव चत्तारि पुरिसजाया पत्ता । तं जहा - पत्तावा रक्खसमाणे पुष्कोवारुक्खसमाणे, फलोचा रूक्ससमा छाओ नारुक्ख समाये । ३१२ सूत्र " पुरिसजाय " अधुना तद्वतः पुरुषान् सदृष्टान्तान् " चतारि पक्खी इत्यादिना " अत्थमियत्थमिए " इत्येतदन्तेन प्रथेनाऽऽ. पारं तं रूपं च सर्वेषामेव पक्षिणामस्त्यतस्ते विशिष्टे एवेह प्राये ततो दतं मनोः शब्दः तेन संपन्नः एकः पक्षी नमन कोकिलवत् रूप पीतः प्रातरुषत् उभयसंप मयूरयत् । अनुभवस्वभावा काकचदिति । पुरुषोऽथ यथायोगं मनोक उदः प्रशस्त रूपश्च प्रियवादित्यसद्वेषवाभ्यां साधुर्वा सिद्धमि द्धान्तप्रसिद्धशुद्धधर्मदेशनाऽऽदिस्वाध्यायप्रबन्धवान् लोचवि रल बालोत्तमाङ्गता तपस्तनुतनुत्वमल मलिन देवता अल्पोपकरखतादिलक्षणसुविहित सारूपधारीया योग्य इति । (पतियंति) प्रीतिरेव प्रीतिकं स्वार्थिककप्रत्ययोपादानेऽपि कर्नपुं. सकतेति, तत्करोमि, प्रत्ययं वा करोमीति परिणतः प्रीतिकमेa प्रत्ययमेव वा करोति स्थिर परिणामत्वात् उचितप्रतिपतिनित्यात् सौभाग्यपत्यादेति । ग्रन्यस्तु प्रीतिकर परितोऽप्रीति करोति उक्तवैपरीत्यादिति । अपरोऽप्रीतीपरिषतः प्रीतिमेव करोति संजातपूर्वभानिवृतत्वात् पर स् वा अप्रीतिहेतुतोऽपि प्रीत्युत्पत्तिस्वभावत्वादिति । चतुर्थः सुज्ञानः आत्मन एकः कश्चित् प्रीतिकमानन्दं भोजनाऽऽच्छादादिभिः करपादयत्यात्मप्रधानत्वाच परस्य, अन्य परस्य परार्थप्रधानत्वाचामनोऽपर उभयस्याप्युभयार्थप्र धानत्वादितरो नोभयस्याप्युभयार्थवत्वादिति, आत्मनः प्रत्ययं प्रतीति करोति न परस्येत्याद्यपि व्याख्येयमिति । ( पचियं पवेसेमिसि ) प्रीतिकं प्रत्ययं वा श्रयं करोतीत्येवं प रस्य चित्ते विनिवेशयामीति परिणतस्तथैवैकः प्रवेशयतीत्येक इति । सूत्रशेषोऽनन्तरसूत्रं च पूर्ववत् । पत्राणि पर्णान्युपगच्छतीति पत्रोपगो बद्दलपत्र इत्यर्थः । एवं शेष अपि । प समानता तु पुरुषाणां लोक कानां चार्थिषु तथाविधोपकाराकरणेन स्वस्वभावलाभ एव सूत्रदानादिनोपकारकत्या 33 नाऽऽदिना महोपकारकत्वाद् ३ अनुवर्त्तनापायसंरक्षणाऽऽदिना स ततोऽपश्यत्वा क्रमेण इति स्था० ४ दा० ३ ३० । उदितोदिता चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता । तं जहा - उदिओ दिए खामगेगे, उदिपत्यमिए खाममेगे, अत्थमिचदिए सामयेगे, अत्यमिवस्यविए थामगेगे। भरदे राया चारंतचकवट्टी णं उदिदिए, बंभदत्ते णं राया चाउचकट्टी उदियस्थपिए, हरिएसनले खाममखगारे प्रत्यमिओदिएकाले वं सोपरिए अत्थमियस्यमिए । ( ३१५ सूत्र ) उदितश्चासाबुन्नतकुलबल समृद्धि निरवद्यकर्मभिरभ्युदयान्ध परमपद होयेनेदेोविधा भ रतः, उदितोदितत्वं वास्य प्रसिद्धम् ? तथा उदितन तद अस्तमित मास्कर इच सर्वसा गतिगतत्वाचेति उदितास्तमितो ब्रह्मदत्तवर्तीय। स हि पूर्वमुदित उत्पादितानुपाति Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२५ ) अग्निधानरा जेन्ड पुरिसजाय ब्राज्यत्वेन च पश्चादस्तमितः, अतथाविधकारण कुपित: ब्राह्मणमयुरूपसुपाल धनुसिका प्रक्षेपणोपायप्रस्फोटितासि बोलकतया मरणानन्तराप्रतिष्ठान महानरक महावेदनाप्राप्तत. या बेति २। तथा अस्तमितश्वासौ हीन कुलोत्पसि दुर्भगत्वषुतत्वाssदिना उदितश्च समृद्धि कीर्ति सुगतिलाभाऽऽदिने तिमोदितोथाइरोनास हि जन्मान्तरोपासनी चै गौत्र कम्मे यशावाप्तहरिकेशाभिधान चाण्डाल कुलतया दुर्भगतया दरिद्रतया च पूर्वमस्तमिवाऽऽ दिव्य वामयुद्यतइति प्रतियो निष्प्रकम्पचरणगुणाऽऽवर्जिन देवकृत सानिध्यतया प्राप्तप्रसि द्वितया सुगतिगयता च उदित इति ३ | तथा अस्तमितखासी सूर्य व दुष्कुलतथा दुष्कर्मकारितया च कीर्ति खिलक्षण तेजोविवर्जितरपादस्यमिता दुवैतिगमनादि त्यस्तमितास्तमितो, यथा कालाभिधानः सौकरिकः, स हि सूकरति सुवयां करोतीति यथार्थ सौरिक पत्र - कुलोत्पन्नः प्रतिदिनं महिषपञ्चशतीन्यापादक इति पूर्वमस्त मिनः पापिया समरथियों गत इति अत मित एवेति ४ । 'भरहे स्यादि तूदाहरणसूत्रं भावितार्थमेवेति । स्था० ४ ठा० ३ उ० । चचारि पुरिसजाया पत्ता नं जहा उच्चे खाममेगे उच्चच्छंदे, उच्चे नाममेगे सीमच्छंदे, सीए सामवेदे बीएणाममेगे णीयच्छंदे । ( ३१८ सूत्र ) 3. उच्चः पुरुषः शरीरकुलादिभिः तथा उच्च उच्चताभिप्रायः, औदार्याऽऽदियुक्तत्वात् । नीचच्छन्दस्तु विपरी तो नीचो ऽच्वविपर्ययादिति । स्था० ४ ठा० ३ उ० ॥ यानानि । चत्तारि जाणा पण्णत्ता । तं जहा जुने गाममेगे जुत्ते, जुत्ते नाममेगे अजुते, अजुत्ते पापमेगे जुत्ते, भजुते यामेगे अ जुते । एवमेव चचारि पुरिसजाय पणाला तं जहा जुने जुत्ते, । खामगे मुवे जुते खामयेगे अजुते ० ४ चचारि जाणा पचा। तं जा-जुळे खाममेगे जुतपरिणए, जुने सामयेगे अजुषपरि० ४ श्वामेव चचारि पुरिसनाया परायचा । तं जड़ा-जुते खाममेगे जुतपरि० ४ पत्तारि जाणा पण्णत्ता । तं जहा- जुते खाममेगे जुत्तरूवे, जुत्ते खामेगे अरू अजु याममेगे जुतरूपे० ४ । एवामेव चारि पुरावा पाच तं जहा जुते गाममे सुरु रू० ४ । चचारि जाणा पाता । तं जहा- जुत्ते खापमेगे जुतसोमे० ४ | एवामेव चचारि पुरिसजाया पचत्ता । तं जहा जुने गामये सोमे ०४। पतारि जुग्गा पता । तं जहा जुते खायेगे जुते ०४ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पता । जहाजुचे गायेगे हुवे ०४ एवं जहा जाये चचारि लावगा तहा जुग्गेण वि, पडिवक्खो तदेव पुरिसजाया ० नाव सोभेति । (चतरीत्यादि) का नया कदाचित धुकं बलवदिभिः पुनर्युकं सङ्गतं समग्र सामग्रीकं वा पू ९५७ । । पुरिसजाय र्वापरकालापेक्षया वेत्येकम् अन्यत् युक्तं तथैवायुक्तं तुवि परीत्यादिति । एवमित पुरुषस्तु धनादिभिः नर्युक्त उचितानुष्ठानः सद्भिर्वा पूर्वकाले वा युक्तो धनधर्मादुष्ठानादिभिः पचातिवेति चतुङ्गी अथवा द्रव्यलिङ्गेन भावलिङ्गेन चेति प्रथमः साधुः, द्रव्यलिङ्गेन तरेति द्वितीय दिनवि न तु युक्त इति तृतीयः प्रत्येक बुद्धाऽऽदिः, उभयवियुक्तश्चतुर्थीगृहस्थाऽविरिति । एवं सूत्रान्तराण्यपि, नवरं युकं गोभिर्युपरियातं तु रसामध्या तया परिणतमिति । पुरुषः पूर्ववत् स्वभावा पतितुको चना 55दिना बाना रूपतिः सुविति तथा तथैष युॐ श्रीमते या शोभा यस्य तत् युक्तसोममिति पुरु वस्तु युक्तो गुणैस्तथा युक्ता उविता शांभा यस्य स तथेति, युग्यम् - वाहनम् अश्वादि, अथवा गोल्लविषये जस्पानं द्विहस्तप्रमाणं चतुरस्रं सवेदिकमुपशोभितं युग्यक मुख्यते, त - मारोह समस्या पर्याविकया पुनर्युकं बेगा-दिभिरित्येवं यानवद् व्याख्येयम्। एतदेवाऽऽह्न ( एवं जद्देत्या दितिथेव को साबित्याह (रिसजाति पुरुषानी परिरूपशोमा प्रतिपक्षाच्या मंग असने बतदेवाऽऽ जाय समेति ) । सारधयः चत्तारि सारही पत्ता । तं जहा- जोयावइत्ता याममेगे यो विषाचा विजयावहता याममेगे यो जोवाचा एगे जो विवियावा व एमे को जवाब - - यो वा ४ एवमेव चचारि हवा पाचा । तंजा-जुखाम जुने जुने सामे अजुने ०४ एवामेव चचारि पुरिसजाया परवाचा जहाजुले वाममंगे जुते, एवं जुचपरियर, जुनरूपे, जुतसोमे, सब्बेसि पटिवखो पुरिसजाया। चचारि गया पाता । तं जहा जुलेखामेमेजु० ४। एवमेव चचारि पुरिसनाया पाचा जा-जुते खामयेगे जुते ०४ एवं ब्रदा हया तहा गयाविभावि पडिक्लो तहेव पुरिसजाया । चचारि जुग्गारिया पता । तं जहा पंचजाई खाममेगे यो उप्पजाई, उपजाई साथमेगे यो पंचभाई, एगे पंचनाई विउपहनाई विगेोचभाई यो उप्पहजाई। एवमेव च चारि पुरिसजाया । । - सारथिः शाकटिको योजयिता शकटे गवादीनां न वियोज पिता मोक्का अन्यस्तु वियोजयिता न तु योजयितेति । एवं शे. पानिपत्येयेति अथवा पितेति । लोकोत्तर पुरुषविवक्षायां तु सारथिरिव सारथिर्योज यः वियोकश्यतः प्रयोका तु विका पिता-संयम साधूनां प्रति वियोजयतु - पावन नवसंवितेति सूत्रत्या ति । (जुग्गारियत्ति ) । युग्पस्य चर्या - वद्दनं गमनमित्यर्थः । Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२६ ) अभिधानराजेन्द्रः । पुरिसजाय पुरिसजाय कंचित "जुग्गायरियत्ति" पाठः । तत्राऽपि युग्याचर्येति | फलसमाणे, चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता । तं जहापथयाथ्येकं युग्यं भवति नोत्पश्यामीत्यादिश्चतुर्भङ्गी. इद्द च युगस्य चर्याद्वारेणैव निर्देशे चतुर्विधत्वेनोक्लत्वात्तच्चर्यया एवोद्देशेन चातुर्विध्यमव सेयमिति । भावयुग्यपक्षे तु युग्य. मिष युग्यं संयमयोग भरवोढा साधुरेव स व पथि याय्यप्र मत्त उत्पथयायी लिङ्गावशेष उभययायी प्रमत्तश्चतुर्थः सिद्धः, क्रमेण सदसदुभयानुभयानुष्ठानरूपत्वात् । अथवा पथ्युत्पथयोः स्वपरसमयरूपत्वात् यायित्वस्य च गत्यर्थत्वेन बोधप र्यायत्वात् स्वसमय पर समय बोधापेक्षयेयं चतुर्भङ्गी नेयेति । पुष्पाणि चारि पुष्का पत्ता । तं जहा - रूवसंपच्छे णाममेगे यो गंध संपले. गंधसंपले गामयेगे यो रूव संपले, एगे रूपसंनेवि गंध संपवि, एगे यो रूत्रसंपन्ने यो गंधसंपन्ने । एवामेव चचारि पुरिसजाया पत्ता । तं जहा रूव संपन्ने मेगे, यो सीलसंपन्ने० ४ । चत्तारि पुरिसजाया पाता । तं जहा - जाइपने खाममेगे णो कुल संपन्ने०४ । १ । चतारि पुरिसजाया पत्ता । तं जहा - जाइसंपन्ने खाममे यो वलसंपन्ने, बलसंपले या ममेगे खो जाइसंपत्रे ०४ । २ । एवं जाईए रूत्रेण ० ४ चत्तारि भालावगा । ३ । एवं जाईए सु य०४ | ४ | एवं जाईए सीसे ०४|५| एवं जाईए चरि ०४६ । एवं कुलेश य बलेग० ४ । ७ । एवं कुलेख रूत्रेण य० || ८ | कुलेख सुरण य० ४ ६ | कुलेण य सीले ०४|१०| कुलेश य चरितेण य०४ । ११ । चत्तारि पुरिसजाया पष्ठत्ता । तं जहा - बलसंपत्रे ग्राममेगे यो रूवसंपन्ने० ४|१२| एवं बलेण य सुरण य०४ | १३ | एवं बले य सीले य० ४। १४ । एवं बलेण य चरितेय ०४/१५) चत्तारि पुरिसजाया पत्ता, तं जहा - रूपसंपन्ने खाममेगे यो सुयसंपन्ने ० ४ | १६ | एवं रूत्रेण य सीलेण य०४।१७। रूपेण य चरितेश य० ४।१६। चत्तारि पुरिसजाया पत्ता । तं जहा - सुयसंपन्ने साममेगे, गो सीललंपने० ४ | १६ | एवं सुएग य चरितेण य० ४।२०। तारि पुरिसजाया पपत्ता । तं जहा-सील संपामधे यो चरित्त संपन्नेाभमाणा । एकं पुष्पं रूपसम्पन्नं न गन्धसम्पन्न माकुली पुष्पवत् द्वितीयं च वकुलस्येव तृतीयं जातेरिव चतुर्थ वदर्यादेरिवे ति, पुरुषो रूपसम्पन्नो रूपवान् सुविद्दितरूपयुक्तो वेति । ७ जाति ६ कुल ५ ब६४ रूप ३ श्रुत २ शील १ चारित्रलक्षपु सप्तसु पत्रे एकचिशती विकसंयोगेषु एकविंशतिरेव चतुर्भङ्गिकाः कार्याः, सुगमाश्चेति । फलानि - चत्तारिफला पत्ता । तं जहा- आमलग महुरे, मुद्दियामहुरे, खीरमहुरे, खंडमहुरे, । एवमेव चत्तारि आयरिया पता । तं जहा- आमलगम गुरफलसमा जान खंडम हुर ० For Private श्रायवेयावच्चकरे नाममेगे णो परवेयावच्चकरे० ४ । चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता । तं जहा - करेइ खाममेगे वेयावचं गो पडिन्छ, पडिच्छ खाममेगे वेयावचं नो करेइ० ४ । चारि पुरिसजाया पसत्ता । तं जहा- भट्टकरे याममेगे गोमाकरे, माणकरे खाममेगे यो अटुकरे, एगे अट्टकरे विमाकरे वि, एगे णो अटुकरे णो माणकरे । चत्तारि पुरिसजाया पत्ता । तं जहा गणट्ठकरे खाममेगे यो मा करे०४ । चचारि पुरिसजाया पत्ता । तं जहा-गणसंगहकरे खामयेगे यो माणकरे०४ । चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता । तं जहा - गण सोभकरे यामं एगे यो माणकरे० ४ । चत्तारि पुरिसजया पण्णत्ता । तं जहा गण सोहि - करे णाममेगे णो माणकरे० ४ । चारि पुरिसजाया पण्णत्ता । तं जहा - रूवं खाममेगे जहइ नो धम्मं, धम्मं खामगे जहइ नो रूवं, एगे रूवं पि जहर धम्मं पि जहर, एगे णो रूवं जहइ यो धम्मं जहद्द ४ । चत्तारि पुरिसजाया पक्ता । तं जहा - धम्मं णाममेगे जहइ यो गणसंठि० ४ । चत्तारि पुरिसजाया पत्ता । तं जहा -पियधम्ममे खो दढम्मे, दढधम्मे णाममेगे पो पि मे, गे पियधम्मे वि ददवम्मे वि, एगे गोपयो दढम्मे । आमलकमिव मधुरं यदन्यत् आमलकमेन वा मधुरमामकमधुरम् | ( मुद्दियति ) मृद्वीका - द्राक्षा तद्वत्सेव वा म धुरं मृद्वीक्रामधुरम् | क्षीरवत् खण्डवच्च मधुरमिति विग्रहः । यथैतानि क्रमेणे बहुबहुत बहुतम माधुर्यवन्ति तथा ये श्राचार्या ईपबहुब हुतरबहुत मोपशमाऽऽदि गुणलक्षणमाधर्यवन्तस्ते तत्समानतया व्यपदिश्यन्त इति । श्रात्मवैयावृष्यकरोऽलसो विसम्भोगिको वा परवैयावृत्यकरः स्वान र्थनिरपेक्षः स्वपरवैयावृत्यकरः स्थविरकल्पिकः कोऽपि उभयनिवृत्तो ऽनशनविशेषप्रतिपन्नकाऽऽदिरिति करोत्येवैको वैयावृत्यं निःस्पृद्दत्वात् ? प्रतीच्छत्येवान्य श्राचार्यस्वग्लानस्वाऽऽदिना २, अन्यः करोति प्रतीच्छति च स्थविरकल्पिकविशेषः ३ उभयनिवृत्तन्तु जिनकल्पिकाऽऽदिशित ४ । ( अकरेति ) श्रर्थान् हिताहितप्राप्तिपरिहाराऽऽदीन् रा जादीनां दिग्यात्रादौ तथोपदेशतः करोतीत्यर्थक मन्त्री, नैमित्तिको वा, सचार्थकरो नामको न मानकरः । कथमदमनभ्यर्थितः कथयिष्यामीत्यवलेपवर्जितः। एवमितरे - यः । अत्र च व्यवहारमध्यगाथा-" पुट्ठापुझे पढमो, ज हियाहियं परिकद्देद । तद्दश्रो पुट्ठो सेसा, उ खि. कला, एव गच्छेवि ॥ १ ॥ " इति । गणस्य साधुसमु दायस्याऽर्थान् प्रयोजनानि करोतीति गणार्थकर :- आहारादिभिरुपष्टम्भकः, न च मानकरोऽभ्यर्थनानपेक्षत्वात् । एवं त्रयोऽन्ये । उक्ते च" आहारउवहिसया इहि ग ताह स्वाहं कुणइ | वीश्रो न जाइ माणं, दोनिवि तह न च उत्थो ॥ १ ॥ " इति । अथवा (नो माकरोति) ग Personal Use Only Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय करोनि मद्यतीति। अनन्तरं गणस्यार्थ उक्तः, सच सोऽत ग्राह- (गण संगहकरे त्ति) गणस्याऽऽद्दारा दिना बानादिना च स करोतीति शे तथैव। उक्तं च-"सो पुरा गच्छस्सऽट्ठो, उ संगहो तत्थ संगहो दुविहो । दब्वे भावे नियमा, उ होति श्राहारणाणाऽऽदी ॥१॥" आहारोपधिशय्याज्ञानाऽऽद्दी नत्यर्थः, न माद्यति, गणस्यानवसाधुसामाचारीयर्तनेन वादिकथनेमितिकविद्यासि स्वाऽऽदिना वा शोभाकरणशीलो गणशोभाकरी, नो मानकरोऽभ्यर्थनाऽनपेक्षितया महाभावेन वा, गणस्य यथायोगं प्रायधिदानादिना करोतीति गधिक अथयां शङ्किते भक्ताऽऽदौ सति गृहिकुले गत्वाऽनभ्यर्थितो भक्तशुद्धिं करोति यः स प्रथमः यस्तु मानाच गच्छति सद्वितीयः परत्वभ्यर्थितो गच्छति स तृतीया वस्तु नाभ्यर्थनाऽपेशी नापिता चतुर्थइति रूपं सा धुप जाति-स्वजति कारणात् न धर्मक्षणं बोटिक मध्य स्थित मुनिवत् अन्यस्तु धर्म न रूपं निहववत् उभयमपि उत्प्रव्रजितवत्, नोभयं सुसाधुत्यो निरूपं न गणसंस्थिति " मर्यादा करानुपदेशेन सं स्थितिः पथा-मामानिमहापात , " सत्काय देयमिति, एवं च योऽन्यगण सत्काय न तद्ददावि जितिन गरास्थित जिनानुपान तीर्थकरोपदेश हो सर्वेभ्यो योग्येभ्यः तं धतव्यमिति प्रथमो यस्तु ददाति स द्वितीयः यस्त्वयोग्ये ज्यः तद्ददाति तृतीयः यस्तु ताप्यपदार्थ सदस्य सम र्थस्य परशिष्यस्य स्वकीयदिग्बन्धं कृत्वा तं ददाति ते नन धर्मो नापि गणसंस्थितिस्त्यक्लेति स चतुर्थ इति । वक्लच "सयमेव हिसाबंध, काऊस पडिगर जो दे मयमा कामं तु तयं पि पूमो ॥ १ ॥ इति । प्रियो धर्मो यस्य तत्र प्रीतिभावेन सुखेन च प्र तिपत्तेः स प्रियधर्मा, न च दृढो धर्मों यस्यः श्रापद्यपि त परिणामानात् अश्वादित्यर्थः स धर्मेति । उक्तञ्च-दस विद्दयेावचे अतरे खिप्यमुखमं कुण श्रश्चंत मन्वाणि धिविरिय किसो पदमभंगो ॥ १ ॥ अन्यस्तु रचर्मा मङ्गीतापरित्यागा तु कोन धर्मप्रतिपत्तेः इतरी तु सुखानी उ उ गाहिज्जर, बीश्रो गद्दियं तु नेइ जा तीरं । उभयं तो कलाणो, तश्रो चरमो उ पडिकुट्टो ||१|| स्था०४ ठा०३७० ॥ धर्मा चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता । तं जहा पियधम्मे नामं एगे नो दधम्मे दधमे नामं एगे नो पियधम्मे, एगे पियधम्मे विम्ब एगे नो विधम्मे नो दधम्मे ॥ अस्य संबन्धमाह - धम्मो नो जहियन्यो, गणसंडितिमित्थ नो पसंसामो । जस्सपो सोम्पोसो न जहति तो जोनो ७५२ अनन्तरसूत्रेदमु नागे जति मं । " तत्र यस्य प्रियो धर्मः स एवं चिन्तयति-धर्मो न त्यक्तव्यो, गणसंस्थितिमत्र न प्रशंसामः, एवं चिन्तयित्वा धर्मेन] जहाति चतयधर्मस्य योगः । 1 1 ( १०२७) अभिधान राजेन्द्रः । .. وو पुरिसजाय संप्रतिशिवधर्मादिव्यापानार्थमाहवेयावचेण मुणी, उवचिव संगण पियधम्मो । Tags दधम्मो सन्वेसिं निरतियारो य ॥७०३ ॥ प्रिय निर्यात प्रयतः आहारादिना भावतो वाच मादिना संगृह्यते सा चैपापेन तस्य पतिते नाम्या, अन्यस्य वा धर्मः सर्वेषामविशेषेायेन पतिष्ठते तावत्सर्वत्र निरविवारः । संप्रति भङ्गयोजनामाह दसविहवेयावच्चे, अन्नरे खिप्पमुजमं कुणइ । तमणिव्वाही, धितिविरियकिसे पढमभंगो ॥ ७६४ ॥ यो दशविध वैयावृत्यस्य वक्ष्यमाणस्याम्यतरस्मिन् येयावृत्ये धर्मतया मिमं करोति केचलमरट धर्मतया अत्यन्तमनिर्वाही तस्मिन् धृतिवीर्यकृशे प्रथमभङ्गः । दुक्खेण उ गाहिर विश्र गहियं तु नेइ जा तीरं । उभयतो लागो तो चरिमो परिकुट्टो ||७६५|| द्वितीयस्तु प्रियधर्मस्वाद दुःखेन महता कटन प्रथमतो वैयावृत्प्रादीनं तु वास्तवापास्तीतयति । उभयतः कल्याणस्तृतीयः । चरमो न प्रियधर्मो नाऽपि धर्मप्रति निराकृ० १०० , आत्मम्भशि चारि पुरिसजाया पण्यथा तं महाश्रयंभरे साममेगे यो परंभरे, परंभरे थामयेगे यो आवंभरे एगे भायंभरे वि परंपरेवि एगे । अयंभरे को परंभरे ॥ ( चत्तारीत्यादि ) आत्मानं विभर्ति पुष्णातीति श्रात्मम्भरिप्रकृतत्वात् 'आर्यन' इति तथा परंपर रिति, प्राकृतत्वात् परंभरे, इति । तत्र प्रथमभङ्गे स्वार्थकारक एव स च जिनकल्पिकः । द्वितीयः परार्थकारक एव । स च भगवानस्तस्य विवक्षया सकलस्वार्थसमाप्तेः वरप्रधानप्रयो. जनप्रापतये स्वपराधकारी स परिकल्पिको विहितानुष्ठानतः स्वार्थरत्वाधियरिस दान्तदेशनातच परार्थसम्यादकत्वात् । चतुर्थेभानुकारीसम्मतिः कचि पचान्दो वेति। एवं खौकिकरुषोऽपि योजनीयः । दुर्गतः चार रिक्षा पाता। तं जहा दुमाए साथमेगे दु एम्पाए, सुभाए वाममंगे दुग्गए, सुग्गए णाममेगे सुग्गए । चत्तारि पुरिजसाया पण्णत्ता । तं जहादुग्गर खाममेगे दुब्बए, दुग्गए णामं एगे सुब्बए, सुग्गए गाममे दुब्बर, सुम्वर या एगे सुव्वर ४ चारि पुरिसजाया गया। तं जहा दुग्गए यामयेगे दुष्पटिप:यांदे दुम्बद गामयेगे सुपाडियादेव ४ । चचारि पुरिसमाया परागचा तं जहां दुग्गर खायेगे दुगाइगामी, दुग्गए खाममेगे सुगइगामी ० ४ चत्तारि पुरिस जाया पण्णत्ता । तं जहा -दुरगए खाममेगे दुगाई गए, दुग्गए खाममेगे सुगई गए० ४ । Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२८) पुरिसजाय भनिधानराजेन्सः। पुरिसजाय उभयानुपकारी च दुर्गत पवस्यादिति दुर्गतसूत्रम्।दुर्गतो-द- मेगे सो परिमायसम्मे,परिमायसमे णाममेगे णो परिमारिपूर्वधनविहीनत्वात्मानादिरस्नविहीनस्वाद्वा.पश्चाद- यम्मे. एगे परिसायकम्मे वि परिणायसमे वि, एगे नो पितधव दुर्गत एवेति। अथवा दुर्गतीद्रव्यतः पुनर्तुगतोभाष. ततिप्रथमः,एवमध्ये प्रयो,नवरं सुगतो द्रव्यतीधनी भावतो परिणायकम्मे नो परिलायसमे । चत्तारि पुरिसमाया पकानाऽविगुणवानिति, दुर्गतः कोऽपि बती स्यादिति पत्ता । तं जहा-परिमायकम्मे णापमेगे णो परिमायगिहा. दुर्वतसूत्रम् । दुर्गतो-दरिद्रः दुर्वतोऽसम्यग्वतः, अथवा वासे, परिष्ठायगिहावासे सामं एगे सो परिमायकम्मे०४। दुययः भायनिरपेशव्ययः, कुस्थानव्ययो ति एकः। चत्तारि पुरिसजाया पलत्ता । तं जहा-परिमायसमे णामअम्य दुर्गतः सन् सुबतो निरतिखारनियमा, सुव्ययो वा औचित्यप्रवृत्तेरिति । इतरी प्रतीती। दुर्गतस्तथैव दुःप्रत्यानन्द मेगे णो परिमायगिहावासे,परिमायगिहावासे णाममेगे०४॥ उपकतेन कृतमुपकारं यो नाभिमन्यते, यस्तु मन्यते तंस चत्तारि पुरिसजाया पणता । तं जहा-इहत्ये णाममेगे यो सुप्रत्यानम् इति दुर्गतो-दरिजःसन दुर्गतिं गमिष्यतीति दु. परत्थे, परत्थे णाममेगे गो इहत्ये०४। गैतिगामीत्येवमायेऽपि नबरं सुगति गमिष्यतीति सुगति- परिशातानि-सपरिशया स्वरूफ्तोऽवगतानि प्रत्याख्यानप. गामी, सुगत ईश्वर इत्यर्थः । दुर्गतस्तथैव दुर्गति गतः या रिक्षया च परिहतानि कर्माणि कृष्यादीनि पेन स परिक्षात. भाजनकुपिततम्मारणप्रवृत्तद्रमकवत् , एवमन्ये त्रयः । कर्मा (नो न च परिशाताः संज्ञा पाहारसंशाऽऽया येन स प. तमः रिशातसंक्षः, अभावितावस्थः-प्रवजितः श्रावको बेत्येकः । पत्तारि परिसजाया पएणता। तं जहा-तमेणाम एगेतमे. परिक्षातसंज्ञः सद्भावनाभावितत्वान्न परिकातकर्मा कृप्याच. तमे णाम एगे जोई,जोई णाममेगे तमे,नोई णाममेगे जोई। निवृत्तेः श्रावक इति द्वितीयः, तृतीयः साधुः चतुर्थः असंपत्तारि पुरिसजाया पएणत्ता । तं जहा-तपे नाममेगे तम- यत इति । परिक्षातकर्मा-सावद्यकरणकारणानुमतिनिवृत्त:बले, तमे नाममेगे जोतिबले,जोती नाममेगे तमवले, जो कृप्यादिनिवृतो वा न परिक्षातगृहावासोऽप्रवजित इत्येका, ती नाममेगे जोतीबले । चत्तारि पुरिसजाया पाणत्ता । तं अन्यस्तु परिक्षातगृहावासो न स्यक्ता ऽऽरम्भो दुःप्रवजित . महा-तमे नाममेगे तमबलपलअणे, तमे नाममेगे जो ति द्वितीयः, तृतीयः साधुः.चतुर्थोऽसंयतः, त्यसंझो विशि. एगुणस्थानकत्वादत्यनगृहावासो गृहस्थत्वादेका, अन्यस्तु तीवलपलजणे.४। परिहतगृहावासो यतिवादभावितस्वान परिहतसंशः, म. तम ब तमः पूर्वमहानरूपत्वाइप्रकाशत्वाद्वा पश्चादपि न्य उभयथा, अम्यो नोभयथेति । हैव जम्मनि अर्थ:--प्रयो. तम पत्येकर, अम्पस्तु तमः पूर्व पश्चाज्ज्योतिरिव ज्यो- जनं भोगसुखाऽऽदि आस्था वा इदमेव साध्विति बुद्धिर्यस्य ति उपार्जितहानत्वात् प्रसिद्धिप्राप्तस्वाहा । शेषो सुझानौ । स रहार्थ इहास्थो वा भोगपुरुष रख लोकप्रतिबद्धो बा, तमा-कुकर्मकारितया मलिनस्वभाषस्तमः-अज्ञातं बलं. परव जन्मान्तरे अर्थः प्रास्था वा यस्य स परार्थः परा. सामध्ये पस्य तमा-अन्धकारंथातदेव तत्र वा बलं यस्य स स्था वा साधुलतपस्वी चा । ह परत्र च यस्यार्थ तथा प्रसदाचारवानानी रात्रिचरो पा चौरादिरित्यकः। आस्था वा स सुधायक उभयप्रतिबद्धो वा उभयप्रति तथा तमस्तथैव ज्योतिःसानं बलं यस्य श्रादिस्याऽऽदिप्रका. धवान् कालसौ(शौ)करिकादिढो घेति । अथवा-व शो पा ज्योतिस्तदेव तत्र वा बलं पस्य स तथा, अयं चास विवक्षिते प्रामाऽऽदौ तिष्ठतीति इहस्थः तत्प्रतिबन्धान परवाचारोक्षाघान् दिनचारी वा चौरादिरिति द्वितीयः। ज्यो स्थोऽन्यस्तु परत्र प्रतिबन्धात् परस्थः, अन्यस्तूभयस्थाऽन्यः ति-सत्कर्मकारितयोऊवलस्वभावस्तमोबजस्तथैव, अयं च सर्वाप्रतिबद्धत्वादनुभयस्थः साधुरिति । सदाचारषान् अशानी कारणान्तराद्वा रात्रिचर इति तृतीयः। चत्तारि पुरिसजाया पएणत्ता । तं जहा-एगेणं णाममेगे पतुः समझामःप्रयश्च सदाचारवान् शानी दिनचरो बेति।त. बइ एगेणं हायइ, एगेणं णाममेगे बतइ दोहिं हायइ, था तमस्तथैव (तमबलपलज ऐत्ति)तमो मिथ्याशानमम्धकार बातदेव बलं तत्रया.अथवा तमस्युक्तरूपेयले च सामध्ये पर। दोहिं णाममेगे बड्डइ एगेणं हायइ, एगे दोहिं णाममेगे ज्यते रति करोतीति तमोबल पर अनः । एवं ज्योतिर्य जपर द दाहिं हायइ ।। नोऽपि,नवरं ज्योतिः सम्यगज्ञानमाधिदिप्रकाशा वेति एकनेति,भुतेन एकः कश्चितते एकेनेति सम्यग्दर्शनेन हीय एयमितराबपि। इहापित एव-गलोकाः पुरुषविशेषाःप्रर. ते। यथोक्तम्-"जह जह बहुस्सुप्रो सं-मओ य सीसगणसंप. अनविशेषिता द्रष्टव्याअथवा-तमस्तथैवाप्रसिद्धो वा तमो. रिखुडो य । प्रविणिच्छियो य समए, तह तह सिखंसपडिणी. बलेगान्धकारबलेन संचरन् प्रलज्जते इति तमोबलप्रलज्जनः प्रो" ॥१॥इति एकातथा एकेन श्रुतेनैवान्यो बखते द्वाभ्यां सप्रकाशचारी। पमितरोऽपि,नवरं द्वितीयोऽधकारचारी,त. म्यम्पर्शनविनयाभ्यां हीयत इति द्वितीया, द्वाभ्यां श्रुतानुष्ठातीयः प्रकाशचारी, चतुर्थः कुतोऽपि कारणादग्धकारचार्ये वे नाभ्यामन्यो पर्व ते एकेन सम्यग्दर्शनेन हीयत इति तृती. ति । "पजालणे सि"कवित्पाठः। तत्राज्ञानवलेनान्धकारबलेन यः, द्वाभ्यां श्रुतानुष्ठानाभ्यामन्यो वसते वाभ्यां सम्यग्दा बाहानवलेन पर प्रकाशवलेन पा प्रज्वलति-दर्पिती भव-1 शेन विनयाभ्यां दीयत इति चतुर्थः। अथवा-झानेन वर्द्धते ति भएम्मं करोति यः स तथेति । रागेण हीयत इत्येकः , मन्यो शानेन वर्द्धते रागद्वेषाभ्यां परिक्षातकर्मा हीयत इति द्वितीयः, अन्यो ज्ञानसंयमाभ्यां पीते रागेण चक्षारि पुरिसजाया पस्पचा। जहा--परिमायकम्पे गाय-! हीयत इति तृतीयः, अन्यो ज्ञानसंयमाभ्यां वर्द्धते राग Jain Education Interational Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय अन्निधानराजेन्धः। पुरिसजाय द्वेषाभ्यां हीयत इति चतुर्थः । अथवा-क्रोधेन वर्द्धते माः | तान्येवानुसरन्ति सन्ति दश दान्तिकपुरुषमूत्राणि भव. बते कोपेन बर्वते मायालोभाभ्यां हीयते को तीति, नवरं जया-पराभिभव इति । धमानाभ्यां पर्खते मायया हीयते क्रोधमानाभ्यां वर्द्धते सिंहतयामायालोमाभ्यां हीयत इति । । चत्तारि पुरिसजाया पनत्तातं जहा-सीहत्ताए णाममेप्रकन्थका: मे निक्खते सीहत्ताए विहरइ, सीहत्ताए णाममेगे निचत्तारि पथगा पमत्ता। तं जहा-पाइने णाममेगे श्रा क्खते सियालत्तार विहरइ, सियालत्ताए णाममेगे निइने, भाइने नाममेगे खलुंके, खलुंके णाममेगे पाइने, क्खंते सीहत्ताए विहरइ, सियालचाए णाममेगे निखते खलुंके णाममेगे खलुंके । । एवामेव चत्तारि पुरिस- सियालत्ताए विहरइ । ( ३२७ सूत्र ) जाया पण्णत्ता । तं जहा-पाइने णाममेगे श्राइने० च | सिंहतया-ऊजवृत्या निष्कान्तो गृहवासात् तथैव च विहरउभंगो । चत्तारि पकंथगा पसत्ता । तं जहा-पाइन्ने ति उद्यतविहारणेति । शृगालतया दीनवृत्त्येति । स्था० ४ णाममेगे आइत्रयाए विहरह, पाइने णाममेगे खलंकयाए। ठा० ३ उ०। तिर्यग्लोकाधिकारात्तत्सम्भवं संपताऽऽदि विहरइ० ४ । एवामेव चनारि पुरिसजाया परमत्ता । तं पुरुष भेदैराहजहा-प्राइने णाममेगे पाइन्नत्ताए विहरहचउभंगो। चत्तारि पुरिसजाया पन्नता । तं जहा-हिरिसत्ते हिस्थिचत्तारि पकंथगा परमत्ता । तं जहा-जाइसंपने णाममेगे णसचे चलसत्ते थिरसत्ते । (३३० सूत्र) णो कुलसंपने ४ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया प. (चत्तारि इत्यादि हिया-लजया सत्य-परीषहाऽऽदिसहने पत्ता । तं जहा-जाइसंपन्ने णामं एगे. चउभंगो । चत्तारि रणाङ्गणे पा अवष्टम्भो यस्य स हीसम्बः । तथा हिया हु. कंथगा परमात्ता। तं जहा-जाइसंपणे णाममेग । यो सिष्यन्ति मामुत्तमकुलजातं जना इति लजया मनस्व न बलसंपन्ने०४ा एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णता ।। काये रोमहर्षकम्पाऽऽविभयलिङ्गोपदर्शनात् सवं यस्य स तं जहा-जाइसंपन्ने णाममेगे णो बलसंपण्णे०४ । च हीमनःसवः,चलम् -अस्थिर परीषहाऽऽदिसम्पाते ध्वंसात्सायं यस्य स चलसवः, एतद्विपर्ययारिस्थरसव इति । स्था० तारि कंथगा पन्नत्ता । तं जहा-जाइसंपएणे णाममेगे णो ४ ठा० ३ उ०।। रूवसंपने०४ा एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पमत्ता। तं जहा चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता । तं जहा-वणकरे नाममेगे जाइसंपने णाममेगे णो रूवसंपने०४। चत्तारि कंथगा पन नो वणपरिमासी, वणपरिमासी णाममे गे नो वणकरे, एगे सा। तं जहा-जाइसंपने णाममेगे णो जयसंपन्ने ४ । वणकरे विवण परिमासी वि.एगे नो वणकरे नो वणपरिएवामेव चत्तारि पुरिस जाया पन्नत्ता । तं जहा-जाइसंप- मासी वि।। चत्तारि परिसजाया पन्नता। तं जहा-वण करे नेकपा एवं कुलसंपन्नेण य,बलसंपत्रेण य०४। कुलसंपन्ने णाममेगे नो वणसारखी०४।२। चचारि पुरिस नाया पण य स्वसंपन्नण य०४ । कुलसंपन्नण य जयसंपन्नेण य अत्ता । तं जहा-वणकरे णाममेगे नो वणसरोही. ४।३। ०४। एवं बलसंपमेण य रूवसंपन्नेण य०४ा बलसंपमेण य चनारि वमा पन्नता । तं जहा-अंतो सल्ले णाममेगे जो जयसंपन्त्रेण य.४। सव्वत्थ पूरिसजाया पडिबक्खो । च. बाहिं सल्ले० ४ । १ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया चारि कंथगा पन्नता । तं जहा--रूवसंपन्ने णाममेगे णो पन्नत्ता । तं जहा-अंतो सल्ले णाममेगे णो बाहिं सल्ले. जयसंपन्ने०४ । एवामेव चत्वारि पुरिसजाया पन्नता । तं ४।२ । चत्वारि वणा पन्नत्ता। तं जहा-अंतो दुढे नाममेगे जहा-रूवसंपन्ने णागमेगे णो जयसंपन्ने०४। नो बाहिं दुट्टे, बाहिं दुढे नाममेगे नो अंतो दुढे०४।३। प्रकन्थकाः, पाठान्तरतः कन्यका वा-अश्वविशेषाः, पाकी एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पमत्ता । तं जहा-अंतो दुढे गों व्याप्तो जवाऽऽविगुणैः पूर्व पश्चापि तथैव । अन्यस्त्वा. नाममेगे नो बाहिं दुढे० ४। ४ । कीर्णः पूर्व पश्चात् खलु को-गलिरविनीत इति । अन्यः पूर्व अथाऽऽत्मचिकित्सकान् भेदतः सूत्रत्रयेणाऽऽह-'चत्तारि' खलुः पादाकीर्णो-गुणवानिति चतुर्थः । पूर्व पश्चा इत्यादि कराठ्यांनवरं व्रण देपेक्षतं स्वयं करोति रुधिराऽऽदि. दपि खलु पवेति । भाकीगा-गुणवान् श्राकीर्णतया गुण- निर्गालनार्थमिति वणकरो नो-नैव वर्ण परिमृशतीत्येवंशीलो बत्तया विनयवेगाऽऽविभिरित्यर्थः । वहति प्रवर्तते,विहरती. बणपरिमीत्येकः। अन्यस्त्वन्यकृतं वणं परिमृशति न च ति पाठान्तरम् । शाकीर्णोऽन्य भारोहदोषेण खलुकूतया तत् करोतीति । एवं भावत्रणम्-अतिचारलक्षणं करोति का. गलितया बहति, अम्बस्तु खलु मारोहकगुणात् आकी. येन न च तदेव परिमृशति-पुनः पुनः संस्मरणेन स्पृशति । र्णगुणतया बद्दति । चतुर्थः प्रतीतः। सूत्रद्वये ऽपि पुरुषा। दा. अन्यस्तु तत्परिमृशस्यभिलाषान्न च करोति कायतः संसारछोन्तिका योज्या, सूबे तु कचिनोक्का, विचित्रत्वात् सूत्र भयाऽऽदिभिरितिवणं करोति न च तत्पबन्धाऽदिना संर. गतेरिति ५ । जातिकुल ३बलररूप१जयपदेषु दशभिः क्षति, अभ्यस्तु कृतं संरक्षति न च करोति, भावनणं स्वाधि. ईिकसंयोगैर्दशैव प्रकन्धकष्टान्तचतुर्भहीसूत्राणि, प्रत्येक स्वातिचारं करोति न च तं सानुबन्धं भवन्तं कुशीलाऽऽदिसं. २५० Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1020) अनिधानराजेन्द्रः | पुरिसजाय सदानपरिवारत रत्ये कोयस्तु पूर्वकृतवाहि दामपरिहारी रक्षति नवं च न करोति, मोसं रोहयत्वोपचदानादितिरोडी, नोव्रणरोही प्रायश्चित्ताप्रतिपत्तेः, वणसंरोही पूर्वकृताऽतिचारातप्रतिपस्या पूतिकारिया दिति । उक्ता आत्मचिकित्सकाः । श्रथ चिकित्स्यं व्रणं ह शान्तीकृत्य पुरुषानाह बतारम्यादि चतुःसू सुगमा, नवरम्, अन्तः- मध्ये शल्यं यस्य श्रदृश्यमानमित्यर्थः; तथा वादिति स्यादिस्तु बहु तद्र बहिरिव वहिरित्युच्यते अन्तो बहिः शल्यं यस्य त सथा, यदि पुनः सर्वथैव तततो बद्दिः स्यात्तदा शल्यतैव न स्यादुद्धृतत्वे वा भूतभावितया स्यादपीति २, यत्र पुनरन्त हिरण्युपलभ्यते स चतुर्थः शूल्य इति । गुरुसमक्षमनालोचितत्वेनान्तः शल्य मतिचाररूपं यस्य स त था, बहिः शल्यमालोचिततया यस्य तत्तथा अन्तर्बहिश्च शमालोचितानाति स तथा चतुर्थः शू विदो बड़ी रामायनी पश्यात् । पुरुषस्तु अन्तः शतया संवृताऽकारस् न] बहिरिस्का अभ्यस्तुकारदर्शिताक्पारुयाऽऽवि स्वात् द्विति। परिसजाय केन वा मन्यते विशदशुभानुष्ठानात् । इह च " मनिजद्द " इति प्राकृतत्वेन "म" इत्युकं यया स्मभ्यरुचि परायणत्वात् पापीयानित्यात्मानं मन्यते स एव वा पोजमा १ पापीयानपरा मिध्यास्यापततया पान मन्यते कुत्त२ पापीयानस्योऽचि रतिकत्वात् पापीयानित्यात्मानं मन्यते, सद्बोधत्वात्, अ. संयतो वा मन्यते, संयत लोकेनेति ३, श्रेयानेको भावती इम्पतस्तु किञ्चित्सदाविश्वात् प्रेयानित्ये विकल्प नकत्वेन सदशकोऽन्येन श्रेयसा मम्यते-शायते जनेनेति विभक्पिरिणामाद्वा सदृशकमात्मानं मन्यत इति एवं शेषाः ४ । श्राख्यायकः चारि पुरिसजाया पन्नता से जा-पता नाममेगे जो परिभावइत्ता, परिभावइत्ता याममेगे नो आघवइसत्ता० ४/५ । चत्तारि पुरिसजाया पन्नता । तं जहा आघव इत्ता याममेगे नो जंछजीविसंपन्ने, उंछजीविसंपन्ने नाममेने नो आपवता० ४ । ६ । (अाघवइत्ते चि) श्रख्यायकः प्रज्ञापकः प्रवचनस्य एकः कः श्चिन्न च प्रविभावयिता प्रभावयिता प्रभावकः शासनस्य उ दारक्रियाप्रतिभाऽऽदिरहितत्वात् प्रविभाजयिता वा प्रवच नार्थस्य नयोत्सर्गादिभिर्विवेचयितेति । श्रथवा श्राख्यायकः सूत्रस्य प्रविभावयिता प्रविभाजयिता वाऽर्थस्येति श्राख्यायकएकः स्वार्थस्य न जीविका नेइत्यर्थः॥ 'चो स चापइतः संविग्नः संविग्नपाक्षिको वा । यदाह"हुबहु बसणं पत्तो पाएँ समस्य चरण करणे असुके, सुद्धं मग्गं परुवेजा ॥ १ ॥ 66 श्रेयान् - चचारि पुरिसमाया पाता। तं जहा से से नाम से यं से, सेयं से नाममेगे पावसे, पावसे नामभेगे सेयं से, पावसे नाममेगे पासे । चचारि पुरिसजाया गया। जहा सेयं से नाममेगे सेयं से त्ति सालिसए, सेयंसे नाममेगे पासे ४२ बचारि पुरिसजाया पछ ता । तं जहा - सेयंसेति णाममेगे सेयं से त्ति ममइ, सेयं से ति नाममेगे पावसेति मरणइ० ४ । ३ । चत्तारि पुरिसजाया परायचा तं जहा से सेनाममेगेसेसे चि सालिसप मन्नइ, सेयं से नाममेगे पासे त्ति सालिसए मन्नइ० ४ । ४ । पुरुषाधिकारात् प्रतिपादनाय पी. कठ्या च किन्तु अतिशयेन प्रशस्यः श्रेयानेकः प्रशस्यभावः सद्बोधत्वात् पुनः श्रेयान् प्रशस्तानुष्ठानत्वात् साधुव दियेका १. अन्यस्तु प्रेपस्तथैव प्रतिश्वेन पाप पापी यान्स बारितत्वेन पुरनुष्ठादिति २ वस्तु पा पीयान् भावतो मिथ्यात्यादभित्र सदनुष्ठायित्वाश्च श्रेयान् उदायिनृपमारकवत् ३, चतुर्थः चत्तारि मेहा पण्णत्ता । तं जहा गज्जित्ता नाममेगे यो स एव कृतपाप इति ४ । अथवा श्रेयान् गृहस्थत्वे निष्क्रमणकाले वा पुनः श्रेयान् प्रव्रज्यायां विहारकाले वेत्येववासिता, वासिना नाममेगे यो नजिता, एमे गजिता मानेको भावतस्यान्तइति विवि को हो गञ्जिता यो वासिता १। ए एवं बुद्धिजनकत्वेन सदृश को ऽन्येन श्रयसा तुल्यो न तु सर्वथा वामेषु चत्तारि पुरिसजाया पण्यचा । तं जहा -गजित्ता श्रेयानेवेति एकः, अन्यस्तु भावतः श्रेयानपि द्रव्यतः पा नायेंगे होनामिना० ४। २ । चचारि मेहा परागुत्ता। तं पीयानित्येवं बुद्धिजनकत्वेन सरकोम्पेन पापीयसा जहा गजिचा नाममेगे यो विलुपाचा विजुपाइता समानो न तु पापीयानेवेति द्वितीयः २, भावतः पापीयानव्यन्यः संताssकारतया धेयानित्येवं बुद्धिजनकतया सहनाममेगे• ४ ३। एवमेव चचारि पुरिभाषा पा शकोऽन्येन श्रेयसेति तृतीयः । चतुर्थः सुज्ञानः । श्रेयानेकः सं नागमिचा नाममंगे हो विज्जुपादचा० ४।४ । सद्वृत्तत्वात् प्रियानित्येवमात्मानं मन्यते यथाच चालोचनारि मेदाचा । तं महावासिचा नाममेगे यो - तथा "पि विहारे, कम् सिडिइ सुलही प चरखकर चिसुद्धं उतो परूचैव ॥ २ ॥ " शामर्थ व्यसनं प्राप्तो भवेत् ) तथा पि) अशुद्धे चरणकर शुद्धं मार्ग प्ररूपयेत् ॥ १॥ [वि.] हारेऽवन्नोऽपि कर्म शिथिलयति सुलभ बोविश्व विशुद्धं चरणकरणमुपबृंहयन् प्ररूपयंश्च ॥ २ ॥ इत्येकः, द्वितीयो यथान्तीय खातु दस्थाि सूत्रे साधुपुरुषस्याधिकासम्पन्नत्वलक्षणा गुणविभूषोक्ता । स्था० ४ ठा० ४ उ० । मेघदृष्टान्तः Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३१) पुरिसजाय अन्निधानराजेन्मः। पुरिसजाय विज्जुयाइत्ता०४।५ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया प- दिविचित्रप्रवृत्युपार्जितकर्मभारा ये पुरुषा भवन्ति ते अयोस्पत्ता । तं जहा-वासित्ता णाममेगे णो विज्जुयाइत्ता०४। गोलकसमाना इत्यादिव्यपदेशवम्तो भवन्ति पितृमातपत्र६। चत्तारि मेहा पमत्ता । तं जहा-कालवासी नाममेगे कल त्रगतम्नेहभारतो वेति २७ । हिरण्याऽऽदिगोलेषु क्रमेणा ल्पगुणगुणाधिकगुणाधिकतरगुणाधिकतमेषु पुरुषाः समृणो अकालवासी०४।७। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया जितो ज्ञानादिगुणतो वा समानतया योज्या, २८।२६। परमत्ता । तं जहा-कालवासी नाममेगे णो अकालवासी०४। असिपत्रादीनि८चमारि मेहा पमत्ता । तं जहा-खेत्तवासी नाममेगणो चत्तारि पत्ता पम्पत्ता । तं जहा-असिपत्ते,करपत्ते,खुरपत्ते, अखत्तवासी०४।६। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पामत्ता। कलंबचीरियापत्ते ३० एवामेव चत्तारि पुरिस नाया पट. तं जहा-खत्तवासी नाममेगे णो अखत्तवासी०४।१०। त्ता। तं जहा-असिपत्तसमाणे. जाव कलंबचीरियापत्त " चत्तारि मेहेत्यादीनि " सुगमानि च, नवरं मेघाः-प सामाणे ३१। योदाः, गर्जिताः गर्जिनकृत्, नो बर्षिता न प्रवर्षणकारीति १.! पत्राणि-पर्णानि तद्वत् प्रतनुतया यानि अस्यादीनि तानि एवं कश्चित्पुरषो गर्जितव, गर्जिता दानज्ञानव्याख्यानानु- • गाजता दानज्ञानव्याख्यानानु पत्राणीति, असिः-स्त्र, स एव पत्रमसिपत्रं करपत्रं-क्रक. प्राणीति अमि:ष्ठानशत्रुनिग्रहाऽऽदिविषये उचैः प्रतिज्ञावान्,नो-नैव वर्षिते व चं येन दारु छिद्यते, चुर:-छुरः, स एव पत्रं खुरपत्रं, कदचर्षिता-वर्षकोऽभ्युपगतसम्पादक इत्यर्थः । अन्यस्तु कार्य म्वचीरिकेति शस्त्रविशेष इति ३०। तत्र का छेदकत्वादसेर्यः कर्ता न चोच्चैः प्रतिज्ञावानिति । एवमितरावपि नेयावि पुरुषो दागेव स्नेहपाशं छिनत्ति. सोऽसिपत्रसमानः, अब. ति २। (विज्जुयाइत्त त्ति) विद्युत्कर्ता ३। एवं पुरुषो धारितदेववचनसनत्कुमारचक्रवर्तिवत्, यस्तु पुनः पुनरुच्या ऽपि कश्चिदुच्चैः प्रतिज्ञाता, न च विद्युत्कारतुल्यस्य दाना मानो भावनाऽभ्यासात स्नेहतर छिनत्ति स करपत्रसमान. 3ऽदिप्रतिज्ञातार्थाsरम्भा डम्बरस्य कर्ता अन्यस्त्वारम्भा. स्तथाविधश्रावकवत् करपत्रस्य हि गमनामनाभ्यां कालऽऽडम्बरस्य का न प्रतिशातेति । एवमन्यावपीति ४,वर्षिता क्षेपण छे दकत्वादिति, यस्तु श्रुतधर्ममार्गोऽपि सर्वथा स्नेहकश्चिद् दानाऽऽदिभिर्न तु तदारम्भाऽऽडम्बरकर्ता, अन्य स्तु छेदासमों देशविरतिमात्रमेव प्रतिपद्यते स तुरपत्रसविपरीतोऽम्य उभयथा अन्यो न किञ्चिदिति ५.६, कालवर्षी मान, सुरो हि केशाऽऽदिकमल्पमेव छिनत्तीति, यस्तु स्नेहअवसरवर्षीति । एवमन्येऽपि ७ पुरुषस्तु कालवर्षीव का. च्छेदं मनोरथमात्रेणैव करोति स चतुर्थः अविरतसम्यग्. लवर्षी-अवसरे दानव्याख्यानाऽऽदिपरोपकारार्थप्रवृत्तक एका, दृष्टिरित्ति, अथवा-यो गुर्वादिषु शीघ्रमन्दमन्दतरमन्दतम. अन्यस्त्वम्यथेति । एवं शेषा ८ । क्षत्रं धान्याऽऽद्युत्पत्ति- तया स्नेहं छिनत्ति स एषमपदिश्यते ३१ । स्थानम् , पुरुषस्तु क्षेत्रवर्षी च क्षेत्रवर्षी-पात्रे दानश्रुता55. चत्तारि कडा पसत्ता । तं जहा-सुंबकडे, विदलकडे, चदीनां निक्षपका, अन्यो विपरीतोऽन्यस्तथाविधविवेकविकल म्मकडे,कंवलकडे ३२॥ एवामेव चत्तारि पूरिसजाया पामत्ता। तया महादार्यात् प्रवचनप्रभावनाऽऽदिकारणतो वा उभयस्व. रूपोऽभ्यस्तु दानादावप्रवृत्तकः १० । इति । स्था०४ ठा०४ उ०। तं जहा-सुंबकडसमाणे. जाव कंबलकडसमाणे ३३ । बत्तारि गोला पपत्ता । तं जहा-मधु(ह)सित्थगोले,जउगोले (२४६ मत्र) दारुगोले, मट्टियागोले ।२४। एवामेव चत्वारि पूरिसजाया कम्बाऽऽदिभिरातानवितानभावेन निष्पाद्यते यः स कटा, कट इव कर इत्युपचारात्तत्वादिमयोऽपि कट एवेति । तत्र पएणता । तं ज़हा-मधुसित्थगोलसामाणे० ४। २५। (सुंबकडे त्ति) तृणविशेषनिष्पन्नः। (विदलकडे त्ति) वंश चत्तारि गोला पएणता । तं जहा-प्रयगोले, तउ- शकलकृतः । (चम्मकडे ति) वर्धन्यूतमञ्चकाऽऽदिः । (कंबगोले, तंबगोले, सीसागोले, २६ । एवामेव चचारि पुरि- लकडे त्ति) कम्बल मेवेति ३२ । एतेषु चाल्पबहुबहुतरबह सजाया पएणना । तं जहा--अयगोलसमाणे जाव सी. तमाऽवयवप्रतिबन्धेषु पुरुषा योजनीया। तथाहि-यस्य गुवासगोलसमाग, २७ । चत्तारि गोला पएणता । तं जहा दिष्वल्पः प्रतिबन्धः स्वल्पव्यलीकाऽऽदिनाऽपि विगमात्स सु. म्बकडसमान इत्येवं सर्वत्र भावनीयमिति ३३ । स्था०४ हिरामगोले,सुवएणगोले,स्यणगोले, वयरगोले,१०,एवामेव ठा०४ उ.। चत्तारि परिसजाया पएणत्ता । तं जहा-हिरमगोलसमा निष्कृष्टःणे० जाव वयरगोलसमाणे । २६ ॥ चत्तारि पूरिसजाया पएणता। तं जहा-णिकटे नाममेगे (चत्तारीत्यादि) मधुसि(क्थं त्थं-मदनं,तस्य गोलो-वृत्तपिः | णिकटे, णिकडे नाममेगे अणिकडे०४।३६। चत्तारि पुरिएडे। मधुसि(क्थ)स्थगोलः । एवमन्येऽपि, नवरं जतु-लाक्षा, दारुमृत्ति के प्रसिद्ध । २४ । इति । यथते गोला मृदु सजाया पलत्ता । तं जहा-णिकडे नाममेगे णिकटप्पा, णि. कठिनकठिनतरकठिनतमाः क्रमेण भवन्त्येवं ये पुरुषाः कटे नाममेगे अणिकट्टप्पा०४।४। । परीपहाऽऽदिषु मृदुदृढतरढतमसवा भवन्ति ते मधुसि. निष्कृष्टो-निष्कर्षितस्तपसा कृशदेह इत्यर्थः । पुनर्निरकृष्टो (क्थ) स्थगोलकसमाना इत्यादिभियंपदेशद्यपदिश्यन्त इति भावतः कृशीकृतकषायत्वादेवमन्ये त्रय इति । ३६ । एतद्भा. २५ । अयोगोलादयः प्रतीता: २६ । एतैश्चाऽयोगोला | वनार्थमेवानन्तरं सूत्रम्-निष्कृष्टः कृशशरीरतया तथा नि. काऽऽदिभिः क्रमेण गुरुगुरुतरगुरुतमात्यन्तगुरुभिरारम्भा- कृष्ट आत्मा कषायाऽऽदिनिर्मथनेन यस्य स तथेत्येवमम्ये Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३२) पुरिसजाय अभिधानराजेन्दः। पुरिसजाय त्रय इति । अथ निष्कृष्टः-तपसा कृशीकृतःपूर्व पश्चादपि तथै रत्वादुत्ताममुदकं स्वच्छतयोपलभ्यमध्यस्वरूपत्वात् तथा वेत्येवमादिसूत्रं व्यास्पेयम, द्वितीयं तु यथोक्लमेवेति ४०।। गम्भीरमगाधत्वात् पुनर्गम्भीरमुदकं गहुलत्वादिति, पुरुषस्तु बुधः उत्तानोऽगम्भीरो बहिर्दर्शितमददैन्याऽदिजन्यधिकृतकायचा. चहारि पुरिसजाया पलत्ता। तं जहा-बुहे नाममेगे घुहे, कचेष्टत्वादुत्तानहदयस्तु दैन्याऽऽनियुक्तगुषधरणासमर्थचित्त स्वादिस्येका अन्य उत्तानः कारणवशाददर्शितविकतचत्वात् बुहे नाममेगे अबुहे०४।४१ । चत्तारि पुरिस जाया पप्पत्ता । गम्भीरहृदयस्तु स्वभावेनोत्तानहदयविपरीतस्वात् तृतीयस्तु तं जहा-चुहे नाममेगे बुइडियए० ४।४।। गम्भीरो दैन्याऽऽदिवस्वेऽपि कारण पशात् सम्वृताकारतया बुधो बुधत्वकार्यभूतसक्रियायोगात् । उक्तं च-"पठका पाठ. उत्तानहृदयस्तथैव चतुर्थः प्रथमविपर्ययादिति । तथा उत्ताम कश्चैव, ये चान्ये तवचिन्तकाः । सर्वे व्यसनिनो राजन्!, यः प्रतलत्वादुत्तानमवभासते स्थानविशेषात् सथोत्तानं तथैव क्रियावान् स पण्डितः॥१॥" इति । पुनर्बुधः-सविवेकमनस्त्वा- गम्भीरमंगाधमवभासते संकीर्णाश्रयवादिना २,तथा गदित्येका, मन्यो बुधस्तथैव, अबुधस्त्वविविक्रमनस्त्यादपर. म्भीरम् अगाधमुतानावभासि तु विस्तीर्गस्थानाऽऽक्षयस्या स्त्वबुधोऽसक्रियत्वाद् बुधो विवेकवञ्चित्तत्वाचतुर्थ उभयनि- दिना। तथा गम्भीरमगाधं गम्भीरावभासि तथाविधस्था षेधादिति ४१ । अनन्तरसूत्रेणैतदेव व्यक्तीक्रियते-बुधः नाऽऽधितत्वाऽऽदिनैवेति, पुरुषस्तूत्तानस्तुच्छ उत्तान पचाऽव. सक्रियत्वात्. बुधं हदयं मनो यस्य स बुधहदयो विवेच- भासते प्रदर्शिततुच्छत्वविकारत्वात् , द्वितीयः सम्वृतस्वात्, कमनस्वात्, अथवा-बुधः शानक्षत्वात्, बुधहधयस्तु कार्य- तृतीयः कारणतः। दर्शितविकारत्वाचतुर्थः सुझानः। अमूहलक्षणवादित्येकः । एवमन्ये प्रय ऊह्याः ४२।। उदधिसूत्रम्चत्तारि पुरिसजाया परमत्ता । तं जहा-श्रायणुकंपए णाम- चत्वारि उदधी पसत्ता । तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उ. मेगे नो पराणुकंपए०४। ४३ । (३५२ मूत्र) त्ताणोभासी, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी०४।७। एवामेव भारमानुकम्पका आत्महितप्रवृत्तः प्रत्येकबुद्धी जिनकल्पि चत्तारि पुरिसजाया पएणता । तं जहा--उत्ताणे गाममेगे को धा परानपेक्षा वा निघृणः, परानुकम्पको निष्ठितार्थतया उत्ताणोभासी०४।८। (३५८ मूत्र) तीर्थकर बाग्मानपेक्षो वा पैकरलो मेतार्यवत्, उभयानुक तथा-उदकसूत्रद्वयवदुदधिसूत्रद्वयमपि सदान्तिकम म्पकः स्थविरकल्पिक उभयाननुकम्पक: पापाऽऽस्मा काल वसेयमिति । अथवा उत्तानः सगाधत्वावकः उदधिः-उद(सौ) शौकरिकाऽऽदिरिति ४३ । स्था०४ ठा०४ उ.। थिदेशः पूर्व पश्चादपि उत्तान एव वेलाया बहिः समुद्रे. उदकानि स्वभावात् द्वितीयस्तूत्तानः पूर्व पश्चाद् गम्भीरो वेखाउगमे. चत्तारि उदगा परमत्ता । तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ता- नागाधत्वात् तृतीयस्तु गस्मीर: पूर्व पश्चावेलाधिगमेनीगोदए, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोदए, गंभीरे णाममेगे उ । त्तान उदधिश्चतुर्थः सुज्ञानः। ताणोदए, गंभीरे णाममेगे गंभीरोदए १। एवामेव त्तत्तारि समुदप्रस्तावात् तत्तरकान सूत्रद्वयेनाऽऽह चत्वारि तरगा पस्मता । तं जहा-समुइं तरामीतेगे समुई पुरिसजाया पसत्ता । तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणहि तरइ,समुदं तरामीतेगे गोपतं तरइ, गोपतं तरामीत (ते)गे. यए,उत्ताणे णाममेगे गंभीरहियए०४।२। चत्तारि उदगाप ४।१। चत्तारि तरगा पएणता । तं जहा-समुई तरित्तापत्ता । तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी उत्ताणे णाममे गे समुद्दे विसीयइ,समुदं तरेता णाममेगे गोपदे विसीणाममेगे गंभीरोभासी०४।३। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया दति, गोपदे तरेत्ता णाममेगे०४।२। ( २५६ सूत्र) पपत्ता । तं जहा-उत्ताणे णाममंगे उत्साणोभासी, उत्ताणे " चत्तारि तरंगत्यादि " व्यक्तं, नवरं तरन्तीति तरा. णाममेगे गंभीरोभासी०४।४। चत्तारि उदही पमत्ता। तं जहा. स्त एव तरकाः, समुद्रं समुद्रवत् दुस्तरं सर्वबिरत्यादि. उत्साणे णाममेगे उत्ताणोदही, उत्ताणे याममेगे गंभीरो- के कार्य तरामि करोमीत्येवमभ्युपगम्य तत्र समर्थवादेन दहीवाशएवामेव चत्तारि पुरिसजाया पपत्ता । तं जहा- का समुद्रं तरति तदेव समर्थयतीत्येका, अन्यस्तु तदभ्यु. पगम्यासमर्थत्वाद्रोपदं तत्कल्पं देशविरस्यादिकमल्पतम उत्ताणे णाममेगे उत्ताणहियए.४।६। तरति निर्वाहयतीति, अन्यस्तु गोपद्मायमभ्युपगम्य धार्याचत्तारीत्यादीनि, व्यक्तानि च, किन्तु उदकानि-जलानि प्र तिरेकारसमुद्रप्रायमपि साधयतीति चतुर्थःप्रतीतः। समुद्र. शतानि,तत्रोत्तानं नामै तुच्छत्वात् प्रतलमित्यर्थः पुनरुत्तानं प्राय कार्य तरित्वा निर्वाह्य समुद्रप्राये प्रयोजनान्तरे विषी. स्वच्छतयोपलभ्यमध्यस्वरूपस्वादुदक-जलम्, ( उत्तागोदए दति, न तद् निर्वाहयति विचित्रत्वात् क्षयोपशमस्येति, ए. त्ति व्यस्तोऽयं निहेंशःप्राकृतशैलीवशात समस्त इवावभा. वमन्ये त्रय इति । सते, न च मूलोपात्तेनोदकशब्देनायं गतार्थो भविष्यतीति घाच्यं, तस्य बहुवचनान्तत्वेनेहासंबध्यमानत्वातू, साक्षादु चत्तारि कुम्भा पाता । तं जहा-पुस्मे णाममेगे प्रमे, दकशम्दे च सति किं नस्य वचनपरिणामादनुकर्षणेनेत्येव. पुपणे णाममेगे तुच्छे, तुच्छे णाममेगे पुगणे, तुच्छे णामुदधिसूत्रेऽपि भावनीयमिति । तथोत्तानं तथैव गम्भीरमु. दकंगबुलवादनुपलभ्य मानस्वरूपं, तथा गम्भीरमगा प्रचु। ममेगे तुच्छे । एवामेव चत्वारि परिसजाया पग Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३३) पुरिसजाय अभिधानराजेन्डः। पुरिसजाय तं जहा-पुले णाममेगे पुस्मे०४। चत्तारि कुंभा पएणता।। साधकत्वादेस्तुच्छोऽवभासते, एवं शेषौ ३ । पुरुषस्तु पूर्णो तं जहा-पुले नाममेगे पुलोभासी पुने नाममेगे तुच्छो धनक्षुताऽऽदिभिस्तद्विमियोगाच्या पूर्ण पवावभासते, अभ्यस्तु तदविनियोगात् तुच्छ पधावभासते. अभ्यस्तुच्छोऽपि क. भासी, तुच्छे णाममेगे पुलोभासी, तुच्छे णाममेगे तुच्छो थमपि प्रस्तावोचितप्रवृत्तेः पूर्णवदधभासते, अपरस्तु तुच्छो भासी । चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता । तं जहा-पुने धनश्रुताऽदिरहितोऽत एव तदविनियोजकत्वात् तुच्छाव. णाममेगे पुनोभासी०४। चत्तारि कुम्भा पसत्ता । तं जहा भासीति०४ा तथा-पूर्णी नीराऽऽदिना पुनः पूर्ण पुण्यं वा प. वित्रं रूपं यस्य स तथेति प्रथम, द्वितीये तुच्छ-हीन रूपम् पुन्ने खाममे पुन्नरूबे, पुन्ने नाममेगे तुच्छरूवे०४ । प्राकारो यस्य स तुच्छरूपः। एवं शेषौशपुरुषस्तु पूर्णो शाना. एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पलत्त। । जहा-पुरले णा- ऽऽदिभिः पूर्णरूपः पुण्यरूपो वा विशिष्ठरजोहरणाऽऽविद्रममेगे पुनरूवे. ४ । चत्तारि कुंभा पमत्ता । तं व्यलिसद्भावात् सुसाधुरिति, द्वितीयभने तुच्छरूपः कार. जहा-पुने वि एगे पियडे, पुन्ने वि एगे अबदले । णात् स्यनलिङ्गः सुसाधुरेवेति, तृतीये तुच्छो-सानादिविहीनो निहवादिः, चतुर्थो शानाऽऽविद्रव्यलिङ्गहीनो गृहस्थाऽदिरि तुच्छे वि एगे पियट्टे, तुच्छे वि एगे अबदले । ति६ तथा पूर्णस्तथैव,अपिस्तुच्छापेक्षया ममुच्चयार्थः,एकाक एवामेव चत्तारि पुरिसगया परमत्ता । तं जहा-पुन्ने वि श्चित् प्रियाय प्रीतये अयमिति प्रियार्थः कनकादिमयत्वा. एगे पियढे ४ । तहेव चत्तारि कुम्भा पन्नता । तं स्सार इत्यर्थः,तथा अपदलम्-अपसदं द्रव्यं कारणभूतं मृत्ति जहा-पुन्ने वि एगे विस्संदर, पुन्ने वि एगे णो वि- काऽऽदि यस्यासावपदलोऽधवलति वा दीर्यत इत्यवदल मा. संदर, तुच्छे वि एगे विस्संदा, तुच्छे वि एगे यो वि मपकतया प्रसार इत्यर्थः, तुच्छोऽप्येषमेवेति । पुरुषो ध. नश्रुताऽऽदिभिः पूर्णः प्रियार्थः कश्चित् प्रियवचनदानादिभिः स्संदा। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नता । तं जहा प्रियकारी सार ति, अन्यस्तु न तथत्यपदलः परोपकारं पुन्ने वि एगे विस्संदइ ।। तहेव चत्तारि कुंभा पन्नत्ता । प्रत्ययोग्य इति । तुच्छोऽप्येवमेवेति । पूर्णोऽपि जलाऽऽदे. तं जहा-भिन्ने, जज्जरिए, परिस्साई,अपरिस्साई। एवामेव विष्यमते-भ्रवति, तुच्छस्तुच्छजलाऽऽवि, स एष षिष्य. चउबिहे चरित्ते पत्ते । तं जहा-भिन्ने जाव अपरिस्सा- न्दते, अपिः सर्वत्र समुच्चये प्रतियोग्यपेक्षयेति । पुरुषस्तु ई। चत्वारि कुभा पन्नत्ता । तं जहा-महुकुंभे णाममेगे म. पूर्णोऽप्येको विष्यन्दते-धनं ददाति श्रुतं वाऽन्यो नेति तु. उछोऽप्यल्पचित्ताऽदिरपि धनश्रुताऽदि विष्यन्दते अम्यो नैवे. सुप्पिहाणे,महुकुंभे णाममेगे विसपिहाणे, विसकुम्भे णाम. ति १० । तथा भिन्नः-स्फुटितो जर्जरितो-राजीयुक्तः प. मेगे महुप्पिहाणे, विसकुंभे णाममेगे विसपिहाणे । एवामे- रिश्राधी दुष्पकत्वात तरकः अपरिधावी कठिनस्वादिति ११॥ व. चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता। तं जहा-मधुकुंभे णाम- | चारित्रं तु भिन्नं मूलप्रायश्चित्ताऽऽपल्या जर्जरितं छेदाऽऽदिप्रामेगे मधुप्पिहाणे. ४। प्या परिश्रावि सूक्ष्मातिचारतया. अपरिधाषि निरतिचार. "हिययमपावमकलुसं,जीहावि य मधुरभाणी णिचं। तयेति । इह च पुरुषाधिकारेऽपि यच्चारित्रलक्षण पुरुषध मभणनं तद्धर्मर्मिणोः कश्चिदभेदावनवद्यमषगन्तव्यमिजम्मि पुरिसम्मि विजइ, से मधुकुंभे महुपिहाणे ॥१॥ ति १२ तथा मधुनः-झौद्रस्य कुम्भो मधुकुम्भो , मधुभृ. हिययमपावमकलुसं, जीहा वि य कडुयभासिणी णिचं । तं मध्वेव वा पिधानं स्थगनं यस्य स मधुपिधानः । एवमजम्मि पुरिसम्भि विज्जइसे मधुकुंभे विसपिहाणे ॥२॥ न्ये त्रयः १३ । पुरुषसूत्रं स्वयमेव 'हियय' मिस्यादि गाथाचतुष्टयेन भावितमिति, तत्रदयं-मन: अपापम् जं हिययं कलुसमयं, जीहा वि य महुरभासिणी णिचं । अहिंस्त्रम्-अकलुषम् अप्रीतियर्जितमिति, जिहापि च मधुर. जम्मि पुरिसम्मि विजइ, से विसकुंभे महुपिहाणे ॥३॥ भाषिणी नित्यं यस्मिन् पुरुषे विद्यते स पुरुषो मधुकुम्भ जं हिययं कलुसमय, जीहा वि य कडुगभासिणी णिच्चं । इष मधुकुम्भो मधुपिधान व मधुपिधान इति प्रथमभर जम्मि पुरिसम्मि विज्जइ, से विसकुंभे विसपिहाणे ॥४॥" योजना। तृतीयगाथायां यत् हृदयं कलुषमयम्-अप्रीस्या स्मकमुपलक्षणत्वात् पापं व जिहा या मधुरभाषिणी नित्यं (३६० सूत्र) तत्सा चेति गम्यते, यस्मिन् पुरुषे विद्यते स पुरुषो विष. पुरुषानेष कुम्भदृष्टान्तेन प्रतिपिपादयिषुः सूत्रप्रपञ्च. कुम्भो मधुपिधानस्तत्साधयोंदिति १४ । स्था०४ठा०४०। माह-सुगमवायं, नवरं पूर्ण:-सकलावयययुक्तः प्र मित्राऽऽदिष्टान्त:माणोपेतो या पुनः पूर्णो-मध्यादिभृतः, द्वितीये भने चत्वारि पुरिसजाया पएणत्ता । तं जहा-मित्ते नाममेगे तुच्छो-रिक्तः, तृतीये तुच्छः-अपूर्णावयबो लघुर्वा, चतु: मित्ते, पिसे नाममेगे अमित्ते,अमिते नाममेगे मित्ते, प्रमिते र्थः सुझानः । अथवा-पूर्णाः भृतः पूर्व पश्चादपि पूर्ण इत्येवं नाममेगे अमित्ते । चत्तारि पुरिसजाया पपणचा । तं जहाचत्वारोऽपि १ । पुरुषस्तु पूर्णों जास्यादिभिर्गुणैः पुनः मित्ते नाममेगे मित्तरूवे०४ चउभंगो। चत्तारि पुरिसजाया पूर्णीमानाऽदिभिरिति । अथवा पूर्णो धनेन गुणैर्वा पूर्व पसत्ता। तं जहा-मुत्ते नाममेगे मुत्ते,मुत्ते नाममेगे भमुत्ते०४। पश्चादपि तैः पूर्ण पवेति एवं शेषा अपि । २। पूर्णोऽवयवै। दध्यादिना या पूर्ण एवावभासते द्रष्ट्रणामिति पूर्णावभा. चत्तारि पुरिसजाया पएणत्ता । तं जहा-मुत्ते नाममेगे मुत्त. सीत्का, अन्यस्तु पूर्णोऽपि कुतचितोर्षिषक्षितप्रयोजना. रूवे०४। Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय अभिधानराजेन्द्रः। पुरिसजाय (चत्तारीत्यादि ) स्पटा चेयं, नवरं मित्रमिह लोको. विस्तरार्थ भाध्यकृदाहपकारिस्वात्, पुनर्मित्रं परलोकोपकारित्वात् सद्गुरु- पुरि सजाया चउरो, विभासियमा उ आणुपुबीए । वत् । अन्यस्तु मित्रं स्नेहवरवाद मित्रः परलोकसाधन अस्थकरे माणकरे, उभयकरे नो य उभयकरे ॥३॥ विध्वंसारकलत्रादिवत् । अन्यस्त्वमित्रः प्रतिकूलत्वाव मित्रं निवनोत्पादनेन परलोकसाधनोपकारित्वादविनी अधिकृतभासूचिताश्चत्वारः पुरुषा इमे भानुपूा-परि. सकलत्रादिवत् , चतुर्थोऽमित्रः प्रतिकूलत्वात् पुनरमित्रः पाट्या विभाषितव्याः। तद्यथा-प्रथमभने अर्थकरः, द्वितीयसंक्लेशहेतुत्वेन तुर्गति निमित्तस्वात् पूर्वापरकालापेक्षया चेदं भले मानकर, तृतीये उभयकरः, चतुर्थे नोभयकरः। भाषनीयमिति । तथा मित्रमन्तः स्नेहवण्या मित्रस्यैव रूप. चतुष्टयम्माकारोबायोपचारकारणरवात् यस्य स मित्ररूप इत्येका, पदमतइया य एत्यं, तू सफला निष्फला दुवे इयरे । द्वितीयः ममित्ररूपो वाह्योपचाराभावात् तृतीयोऽमित्रः ने. दिलुतो सगतेणा, सेवंता अबरायाणं ।। ४ ॥ हवर्जितन्याविति,चतुर्थःप्रतीतःतथा मुक्तः त्यालसंगो द्रव्यतः | अत्र एष चतुर्थपुरुषेषु मध्ये प्रथमतृतीयौ सफलौ, तरी पुनर्मुक्तो भावतोऽभिष्वङ्गाभावात् सुसाधुवत् , द्वितीयोऽमुक्तः द्वितीयचतुर्थी निष्फली । एतेषु चतुर्ध्वपि दृष्टान्तोऽन्य. साभिष्वङ्गस्वाद्रवत् , तृलीयोऽमुक्तो द्रव्यतो भावतस्तु राजानं सेवमानाः शकस्तेनाः। मुक्को राज्यावस्थोत्पन्न केवलशानः भरतचक्रवर्तिवत्, चतुर्थी तमेव दृष्टान्तमभिधित्सुराहगृहस्था, कालापेक्षया चेदं दृश्यमिति, मुक्को निरभिष्वङ्गतया उन्जेणी सगरायं, नीया गया न मुठ्ठ सेवेति । मुक्तरूपो बैराग्यपिशुनाऽऽकारतया यतिरिवेत्येकः, द्वितीयोऽ. विसिप्रदाणं चोज्ज, निधिसया अयणनिवसेवा ॥शा मुक्तरूपः उक्तरूपविपरीतस्वात् गृहस्थावस्थायां महावीर इव. तृतीयो मुक्तः साभिष्वङ्गत्वात् शठयतिवत्, चतुर्थो गृहस्थ धावइ पुरतो तहम-गतो य सेवइ य पासणं नीयं । इति । स्था०४ ठा०४ उ०। भूमीए पि निसीयइ,इंगियकारी उ पढमो उ॥६॥ हीसत्त्वाऽऽदिपुरुषा: चिखल्ले अन्नया पुरतो,उ गतो से एगों नवरि सेवंतो। पंच पुरिसजाया पएणत्ता।तं जहा-हिरिसत्ते,हिरिमणस. तुढेण तहा रना, वित्ती उ सुपुक्खला दिना ॥७॥ ते, चलसत्ते, पिरसत्ते, उदयणसत्ते। यदा कालिकाचार्येण शका पानीतास्तदा उज्जयिन्यां नगा(पंच पुरिसेत्यादि) (हिरिसचे) हिया-लज्जया सवं परी. यो शको राजा जातः, तस्य निजका-भास्मीया एषोऽस्माकं पहेषु साधोः संप्रामाऽऽदावितरस्य वा अवष्टम्भोऽविचलत्वं जास्या सरश इति गर्वात्तं राजानं न सुष्टु सेवन्ते, ततोराजा यस्याऽसौ हीसत्यः, तथा हियाऽपि मनस्येव सत्वं न देहे तेषां वृत्ति नादात्, प्रवृत्तिकाश्च ते चौर्य कर्तुं प्रवृत्ताः, ततो शीताऽऽदिषु कम्पाऽऽदिविकारभावात् स बीमनःसख, बलं राजा बहुभिर्जनैर्विक्षप्तेन निर्विषयाः कृताः। ततस्तैर्देशान्तरं भरंसवं यस्य स तथा,पतद्विपर्ययात् स्थिरसवा, उदयनमुः गत्वा मन्यस्य नृपस्य सेवां कर्तुमारब्धा,तत्रैकः पुरुषो राक्षा दयगामि प्रवर्द्धमानं सत्त्वं यस्य स तथा स्था०५ ठा० उ०।। प्राशप्तश्च,यदि राजासनं प्रजानाति तथापि सनीचमासनमर्थकरी गणेश: माश्रयते कदाचिव राक्षः पुरतो भूमावपि निषीदति, राक्षवे. चत्तारि पुरिसजाया पएणता । तं जहा-अकरे नाम एगे जितं ज्ञात्वा अनाज्ञप्तोऽपि विवक्षितप्रयोजनकारी । अन्यदा च राजा पानीयस्य कर्दमस्य मध्येन धावितः, शेषश्च भूयान् नो माणकरे १, माणकरे नाम एगे नो अट्टकरे २, एगे लोको निःकर्दमेन प्रदेशेन गन्तुं प्रवृत्तःस पुनःशकपुरूषोऽश्व. भट्टकरे वि माणकरे वि ३,एगे नो अट्टकरे णो माणकरे ४। स्याग्रतः पानीयेन कर्दमेन च सेव्यमान पकः ( से) तस्य एतत्प्रभृतीनां च पुरुषजातसूत्राणामयं संबन्धः पुरतो धावति। ततस्तस्य राक्षा तुटेन सुपुष्कला-अतिप्रभूता बवहारकोवियप्पा, तदढे नो पमायए जोगे। वृत्तिर्दत्ता। मायहु तदुञ्जमंते, कुणमाणं एस संबंधो ॥१॥ चितिओ न करे अटुं, माणं च करेइ जाइकुलमाणी । पञ्चविधव्यवहारकोविदात्मा तदर्थ-व्यहारार्थे योगेन म. न निवसति भूमीए, न य धावति तस्स पुरतो उ॥८॥ नोवाकायाप्रमाद्यति,न व्यवहारविषये प्रमादमाचरतीति- द्वितीयः पुरुषोऽहमपि राजवंशिक इति गर्वा न कमप्यर्थ भावः । 'मायड' निश्चितं तस्मिन् व्यवहारे उद्यच्छति राशः प्रयोजनं करोति जातिकुलमानी सन् मानं च भूयांउद्यम कुर्वति, मानमहमकार्षमिति शापयत्येवमादीनि सू- समात्मनि करोति, न च भूमौ निवसति, न च तस्य राक्षः बाणि, एष पुरुषजातसूत्राणां सम्बम्धः। पुरतो धावति। प्रकारान्तरेण सम्बन्धमाह तृतीयमाहवुत्ता वा पुरिसजाया, अस्थो न वि गंथयो। सेवति ठितो वि दिमे, वि पासणं पेसितो कुणइ अहूं। तेसिं परूवपत्थं, तदिदं सुत्तमामयं ॥ २॥ इइ उभयकरो तइयो, जुज्झइ य रणे समाभट्ठो ॥६॥ वाशब्दः प्रकारान्तरद्योतने । अथवा-अनेन व्यवहासूत्रेण प्रसीयः परुषो राजानं प्रथमपुरुषवत् सेवते. नबरमावस्य अर्थतः पुरुषजाताः उका:-सचिनाः, न वै ग्रन्धतः उकार,तेषां पुरतो न धावति किंतु पृष्ठतः, तथा ऊर्ध्वस्थितः सेवते । प्ररूपणार्थ तदिदं सूत्र-पुरुषजातसूत्रमागतम् । अस्यावरगम | विती प्रासने स्थितोऽप्युपविष्टोऽपि प्रासनं सेवति न निका तु प्रतीता। भूमौ निषीदति । तथा प्रेषितः सन् अर्थ करोति, नाऽप्रेषितो. Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय अन्निधानराजेन्डः। पुरिसजाय मानवशादिति । एवमेष उभयकरः। रणे च संभ्रामे च-राज । देवचिन्तका नाम-ये शुभाशुभं राशः कथयन्ति, ते पाह. पुत्र इति समाभाषितो युध्यते । रणं-दृष्टान्तः। ' तमेव भावयतिउभयनिसेहो चउत्थे,विइयच उत्थेहि तत्य उन लद्धा। पुडा पुट्ठो पढमो, उ साई न उ करेइमाणं तु । वित्ती इयरेहि लद्धा, दिटुंतस्सेस उवणेओ ॥१०॥ चतुर्थे पुरुषे उभयस्य अर्थस्य समानस्य च निषेधः । वितिओ माण करेई, पुट्ठो वि न साहई किंचि ॥ १६ ॥ सत्र द्वितीयचतुर्थाभ्यां वृत्तिन लब्धा, इतराभ्यां प्रथमतृती- तइओ पुट्ठो साहइ, नापुट्ट चउरथ नेव सेवइ तु । याभ्यां लब्धा । रष्टान्तस्य एष वक्ष्यमाण उपनयः। दो सफला दो अफला, एवं गच्छे विनायन्ना ॥१७॥ तमेवाऽऽह प्रथमो राक्षा पृष्टोऽपृष्टो वा यत्नात् शुभाऽशुभं या साधयति, एमेवाऽऽयरियस्स वि, कोई अटुं करेइ न य माणं । न तु मानं करोति। द्वितीयो मानं करोति न च मानादेव होउ उच्चमाणो, वेयावच्चं दसविहं तु ॥११॥ पृष्टोऽपि किशिकथयति । तृतीयः पृष्टः साधयति नापृष्टः । चतुर्थः सेवते एव राजान नेति । अथ द्वौ प्रथमतृतीयौ प्रहवा भन्भुट्ठाणं, भासणकितिमत्तपायसंथारो। सफलो, द्वौ च द्वितीयचतुर्थावफलौ । एवम्-अमुना स्टान्त. उपवाया य बहुविहा, इच्चाइ हवंति अट्ठा उ ॥१२॥ गतेन प्रकारेण गच्छे द्वौ प्रथमतृतीयौ सफलौ, द्वौ च हि. एवमेव-शकपुरुषदृष्टान्तगतेन प्रकारेण, कोऽप्याचार्यस्या तीयचतुर्थावफला चशातव्यौ । थे करोति, न च मामम् । अर्थों वदयमाणसूत्रेणोच्यमानः । तेषां चतुर्णामपि स्वरूपमाहका पुनः स इत्याह-दशविधं वैयावृत्यम् । अथवा-समाग आहारउवहिसयणा-इएहि गच्छस्सुवग्गहं कुणइ । च्छतोऽभ्युस्थानमासनदान, कृतिकर्म-विश्रामणा, यथा खेल. विइओ माणं उभयं, च तइय नोभय चउत्थो उ ।।१८।। मुच्चारमात्रकस्य श्लेष्ममात्रकस्य चोपनयः, संस्तारकस्य करणमुपपताश्च समीपभवनलक्षणा बहुविधास्तत्प्रयोजन प्रथम प्राहारोपधिशयनाऽऽदिभिर्गच्छस्योपप्रहं करोति न भेदतोऽनेकप्रकारा इत्यादयोऽर्था भवन्ति । मान, द्वितीयो मान, तृतीय उभयं-गच्छस्योपग्रहं मानं च, वितिम्रो माणकरे तू, को पुण माणो हवेज तस्स इमो।। चतुर्थो नोभयं-न गच्छस्योपग्रह नापि मानमिति । सूत्रम्अब्भुट्ठाणऽभत्थण, होइ पसंसा य एमादी ॥१३॥ चचारि पुरिसजाया पन्नता। तं जहा-गणसंगहरे नाम द्वितीयो भवति मानकरः कः पुनस्तस्य मानः१. उच्यते एगे नो माण करे, एगे माणकरे नो गणसंगहकरे,एगे अयं वचयमाणः । तमेवाऽऽह-(अम्भुष्ठाणमित्यादिमागच्छतो. उभ्युत्थानं न कृतं, यदि वा-न मेऽभ्यर्थयति वा कृता मम गणसंगहकरे वि माणकरे वि, एगे नो गणसंगहकरे प्रशंसा इत्यादि। नो माणकरे । तइनोभय नोभयतो, चउत्थो , दो वि निष्फलगा। अस्य संबन्धमाह सो पुण गणस्स अट्ठो, संगहो तत्थ संगहो दुविहो । सुत्तत्योभयनिज्जर-लाभो, दोगह भवे तत्थ ॥ १४ ॥ दम्बे भावे तियगा, उदोन्नि आहार नाणादी ॥१६॥ वतीय उभयकरोऽर्थकरो मानकरश्वतुर्थो नोभयकरः, तत्र द्वौ अनन्तरसूत्रे गणार्थकर उक्तः, स पुनर्गणस्याथैः संग्रहकरः, द्वितीयचतुर्थी* उभयनिर्जरालाभाभावात्।तथाहि-म तयोरा. तत्प्रतिपादनार्थमिदं सूत्रम् । तत्र संग्रहो विधा-द्रव्यतो,भा. चार्याः सूत्रमर्थमुभयं वा प्रयच्छन्ति,नापि ते निर्जराप्राप्नुतः, बतश्च । तत्र द्रव्ये भाव च हो त्रिको द्रष्टव्यौ । तद्यथाद्वयोः प्रथमतृतीययोः सूत्रार्थोभयनिर्जरालाभोऽर्थकारितया आहाराऽऽदित्रिकं द्रव्ये, सानाऽऽवित्रिकं भावे । सर्वस्याऽपि सम्भवात् । तस्मात्प्रथमतृतीयाभ्यामिव बर्तित तदेवं संग्रहं व्याख्याय संग्रहकरत्वयोजनामाहव्यं, न द्वितीयचतुर्थाभ्यामिव । * निष्फलो। आहारोवहिसेजा-इएहि दवम्मि संगई कुणइ । सूत्रम् - चत्तारि पुरिसजाया पमत्ता । तं जहा-गणढकरे नाम सीसे पडिच्छेवाए, भावेण तरंति जाहि गुरू ॥२०॥ एगे नो माणकरे, माणकरे नाम एगे नो गणहकरे, एगे द्रव्यतः संग्रहं करोति आहारोपधिशम्यादिभिः,अत्राss. दिशब्द आहारादीनां स्वगतानेकभेदसूचकः। भावेन यदा गणढ़करे विमाणकरे वि, एगेनो गणहकरे नो माणकरे। गुरवः शक्नुवन्ति तदा शिध्यान् प्रतीच्छिकाम्बा वाचय. अस्याक्षरगमनिका सुप्रतीता। स्ति । एष प्रथमः पुरुषः। द्वितीयो मानं करोति न तु द्र. प्रपञ्चं भाष्यकृदाह व्यतो भावतो वा गणस्य संग्रह, तृतीय उभयं, चतुर्थी नो. एमेव हॉति भंगा, चत्तारि गणकारिणो जइयो। । भयमिति । रमो सारूविय दे-वचिंतगा तत्थ श्राहरणं ॥१५॥ सूत्रम्एवमेव-अनन्तरसूत्रोकप्रकारेण गणार्यकारिणोऽपि यतेश्चत्वा चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता । तं जहा-गण सोहकरे नाम रो भङ्गा भवन्ति । ते च सूत्रतः स्पष्टा एव । तेषु च चतु. एगे नो माणकरे , एगे माणकरे नो गणसोहकरे, पगे र्वपि पुरुषजातेषु ये सारूपिका यतेः समानरूपधारिणी | गणसोहकरे वि माणकरे वि , पगे नो गणसोहकरे नो मुरिडतशिरस्का भिक्षाटनशीला इत्यादिमागुक्लस्वरूपाः माणकरे ।। Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय अत्र भाष्यम् एवं सोम्य वि, पारो पुरिसा हवंति नायया । सो भाषेति गवं खलु इमेहि ते कारवेहिं तु ॥ २१ ॥ एवम् उक्रेन प्रकारेण सोमायामपि कर्त्तव्यबा ते व सूत्रपाठा र गोमा करो नाम यो गणं शोभयति। ते च गणं शोभयन्ति। शोभा खलु एभिः - वक्यमाणैः कारणैः- प्रयोजनैर्वादाऽऽदिभिः । तानेव वादाऽऽदीन दर्शयतिगणसोभी खलु वादी, उद्देसे सो उ पदमए भणितो । धम्मक निर्मिती या बिजातिसरण वा जुतो ||२२|| गणं यादप्रदानतः शोभयतीत्येवंशीलों गणशोभी खलु वादी, स च वादेन यथा गणं शोभयति तथा प्रथमे उ देश के मतिः। न केवलं वादी गोभी किं तु धर्म कथी । तथाहि धर्म्मकथासरकस्वरूपमाक्षेपतः कथयितुं जनयति गणस्य महतीं शोभां तथा निमित्ती अतीताऽऽदि. विद्यातिशयेन महतोअपि संघप्रयोजनस्य विद्याभावतः साचात् चचारि पुरिसजाया पाता। तं जहा-गयसोहिकरे नाम एगे नो मागाकरे, एगे मायकरे नो गणसोहिकरे, एगे माणकरे विसोहि करे वि, एगे नो गणसोहिकरे नो माणकरे ॥ ( २०३६ ) अभिधानराजेन्डः | अत्र भाष्यम् एवं गणसोहिकरो, चउरो पुरिसा हवंति विन्नेया । किड पुरा गगणस्य सोहिं, करेन सो कारण एहिं ॥ २२ ॥ एवम् उक्तप्रकारेण शोधिकाः पुरुषा भवन्ति ि याः कथं पुनः स प्रथमः तृतीयो वा गणस्य शोधि कुर्यात् ? । सूरिराह-एभिः पदम कारवादिनः। ताम्बेवा एगदवे पाडेय लमाऽऽलोभणार संका छ । ओषसि सम्बध धुमय तं दुवे च ।। २४ ।। एक अध या एकेन सङ्गाटकेन एकस्मिन् गृहे पूपलिका लब्धाः । अन्येनापि सहानाश्यप पत्रिका लब्धाः । एवं तृतीयेन चतुर्थेन पञ्चमेन वा लब्धाः । तैः सः न्निवृतैर्गुरुसमीपमागत्याऽऽलोचितं दर्शिताश्च पूपलिकाः, ततो जाता सर्वेषां शङ्का, उगमाशुद्धा भवेयुः । एवं राहावं किं युष्माकं गृहेऽच संख डिभक्तलाभनकं समागतम्, अथवा प्राघूर्खकाः समागताः, यदि वा साधूनामर्थाय कृताः क्रीता वा । तत्र गृहे भिक्षासायनको प्रवेशं यते तत्र साधुरेकोजस्वी मानु षाणां संस्तुतः, संस्तुततया च तस्मिन् गृहे संमतोऽनिवारि तप्रसरस्तत् दुःप्रवेश गृहं प्रविशति, प्रविश्य च निःश हितं करोति। अब योषितानितः श्रीमा गच्छति स प्रथमः पुरुषजातः । यस्तु मानेन गच्छति एवं नो जयति • (?) 1 श्रस्य संबन्धमाह- 1 हाणंतरसुने, गणसोही एस सुन्तसंबंधो । . पुरिसजाय सोहि चिन धम्मो चि व एगई सो दुइ होइ ।। २५ ।। अचलने अनन्तर गणस्य शोधिका शोधिरिति या धम् इति वा एकार्थम् स च द्विप भाषत। तत्र तत्प्रतिपादनार्थमिदं सूत्रमित्येष सूत्र संबन्धः । सम्मतिरूपधर्मव्याक्यागार्थमाह रूवं होति सलिंगं, धम्मो नाखादियं तियं होइ । मेव मे य, मदनज भंग पारि ।। २६ ।। रूपं नाम भवति साधुजिहादि मा 33नि चिकम्। कपेण धर्मेऽत्य सूत्रपाठसिद्धा एव तेषां विषयविभागमाह रूवजढमन्नलिंगे, धम्मजढे खलु तहा सलिंगम्मि । उभयजढो गिहिलिंगे, उभभो सहिओ सलिंगेणं ॥ २७ ॥ रूपं त्यक्तं येन स रूपत्यक्तः, सुखाऽऽदिदर्शनात् शान्त, स्य परनिपातः । सोऽस्त्यस्य लिने द्रष्टव्यः । इयमत्र भा० वना भावतो ज्ञानादित्रिक समन्वितः कारणवशेनाभ्यलिङ्गं गृहिलिङ्गं वा यः प्रतिपद्यते । श्रत्र निदर्शनं यथा- कोऽपि रा जा महामितिकवादी वायक दर्शनमिः सह बाई या द्वारमुपजीव्य दर्शन पतिपदासामा सहादी यता साधुर्वादिसाधसंपन खमन्त संघस्थापभ्राजनेति अन्यलिङ्गं गृहिलिङ्गं वा कृत्वा राशः समीपे वादेनोपस्थितः प्रवृत्सो द्वयोरपि वादः, तत्र राजा अल्पशक्तिकत्वात् स्वपक्षं निर्वाहयितुमशक्नुवन् होलनां तस्य कृतषान्ततः सवादस्फेटनाथ तथ्य राम्रो सुननाकम्याssकाशेन वायुरिव पलायिश्वा स्वस्थानं गतः । देवा तस्स पंडियपाणिस्स, बुद्धिलस्स दुरप्पयो । मुद्धं पाए अम्म, बादी वारिपाऽऽगतो ॥ २८ ॥ तस्य नास्तिकादिनी राह परिभ्रतमानिनो बुद्धिपरस्य बुद्धि लाति उपजीवति इति बुद्धिलः, तस्य दुरात्मनो मूर्खानं पादनाय बाद वायुरिव पलापित्वा स्वखानमागतः । एषः प्रथमः पुरुषः । द्वितीयो धर्मत्यक्लो न रूपत्यक्त इत्येवं रूपः खलु स्वति प्रतिपलव्य ॥ स च पार्श्वस्थादीनामन्यतमा नि कारणप्रतिसेवी, अतः तप भाव तस्त्यक्तधर्मत्वात्स्वलिङ्गस्य च धारणादिति । (उभयंजढो गि हिलिंगे इति ) उभयत्यक्को मिथ्यादृष्टिर्गृहिलिङ्गे वर्त्तमानः । उभयसहितः खलिङ्गेन सहितो, ज्ञानाऽऽदित्रि कोपेतका । सूत्रम् चचारि पुरिसजाया पता। तं जहा गठित नाममेगे जहति नो धम्मं, धम्मं नामेगे जहति नो गणसं ठिर्ति, पगे धपि जहति गठित पि जति एवं नो धम्मं जहति नो गणसंठितिं । अत्र भाष्यम् गठित धने वा चउरो घाति नायया । गडी असिस्से महफप्पसु न दायव्वं ॥ २६ ॥ Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय भभिधानराजेन्दः। पुरिसलक्षण पूर्वप्रकारेण गण संस्थिती धमें च भागवारो भवन्ति च दया दमन । कामस्य विसंच वर्षयन,मोक्षस्य सोप. बातम्या, तेवतत्र पाठसिवा एव । गणसंस्थिति मग रमा क्रियासु ॥१॥" स्था० ३ ठा०३० । णस्य मर्यादा, यथा प्रशिध्ये-अयोग्ये शिष्ये महाकल्पना पुरिसदेय-पुरुषाइत-मायोर्भाषो द्विता,तस्यां भवम्, ले. संन दातव्यम् । व वा वैतं पुरुषस्याद्वैतम् । पुरुषकस्खे, तप-विशिएं केवलं संप्रति चतुर्णामपि भङ्गानां विषयविभागमाह रागाऽऽदिवासनारहितभवयोधमा बा, बोधस्खलक्षणं पा. सातिसयं इपरं वा, अनगणते न देयमझयणं । seमानं वदतां वेदान्तिनामभिप्रेतम् । षो०१६ विषः । पुरिसधम्म-पुरुषधर्म--पुं० । प्राकृत पुरुषाणां जानपर्यायलक्षणे इई गणसंठितीनो, करेंति सच्छंदतो केई ॥३०॥ पुरुषे, "पुरिसधम्मामो षा मे उच्चरिए महोवहिए पाणपत्ते दत्तो पढमो, बितितो भंगो न कस्सइ वि दत्ते । दसणे समुप्पो।" स्था०१० ठा० । जो पुण अपत्तदाई, तइओ भंगो उ तं पप्प ॥३१॥ पुरिसनाण-पुरुषज्ञान-म० । किमयं प्रतिवादी पुरुषः सांच्या सयमेव दिसाबंध, काऊण परिच्छगस्स जो देह। सौगतोऽन्यो वा तथा प्रतिभाऽऽविमानितरोधेति परिभाषने, उभयमवलंबपाणं, कामं तु तगं पिज्जामो ॥ ३२॥ अयं च मतिसंप: । उत्त०१०। सातिशयं-देवेन्द्रोपपातिकाऽदि, इतरद्वा-महाकल्पमतम. पुरिसपरिमाण-पुरुषपरिज्ञान-न० । किं नयोऽयं वाचादिरि. अन्या-अध्ययनमन्यगणसक्तस्य न दातव्यमिति। एवंप्रकारा ति परिक्षाने, प्रयोगसम्पनेव एषः । स्था०८ ठा। गणसंस्थितीः स्वच्छन्न तीर्थकरानुपदेशन कुर्वन्ति । तत्र-main-ORTETr-01 अम्याशियां भरतघं गणसंस्थितौ कृतायां योऽन्यगणसकोऽपि पात्रे महा. क्षेत्रे जाते षष्ठे वासुदेवे, आव० १०। प्रव० । ति० । सु. कल्पभुताऽदिकमध्ययनं ददाति तेन गण संस्थितिस्स्यक्ता, न धर्मः, तीर्थकरोपदेशे वर्तमानत्वात् । एप हि भगवतां ती. | खार्थिनां पुरुषाणां पूज्ये सेव्ये च तीर्थकराऽऽदौ, स्था.. र्थकृतामुपदेशः-सर्वस्यापि पात्रस्याविशषेण दातव्यः । य. ठा० । । शपोः सः ॥८१२६०॥ इति सः । प्रा०। स्तु गणसंस्थितौ कृतायां न कस्यापि परगनासकस्य पात्र । पुरिसपुर-पुरुषपुर-न० । स्वनामख्याते नगरे, पाटलिपुरमगरे स्य ददाति तं प्राप्य द्वितीयो भतः। य: पुनरपात्रस्य दाता मुरुएडो नाम राजा, तदीयदूतस्य पुरुषपुरे नगरे गमनं, तत्र तं प्राप्य तृतीयो भगः, तेन गणस्थितेः तीर्थकरा33 सचिवेन सह मीलनं तेन च तस्याऽऽयासोऽदायि । ततो रा. शाखण्डनतो धर्मस्य च त्यतत्वात् । यस्वनयोर्व्यवच्छे । जानं द्रष्टुमागतो, रक्लपटा अपशकुना भवन्तीति कृत्वा स पश्यन् मेधावी प्रवचनोपग्रहकरो भविष्यतीत्यादिगुणस दूतो न राजभवनं प्रतिशति । वृ० १ उ. ३ प्रक० । माया। मन्वितं प्रातीच्छिकमुपलभ्य तस्य तस्य स्वयमेवं निज दिग्बन्धं कृत्वा सातिशयमस्यापूरिसप्पणीय--पुरुषमपीत-त्रिका ईश्वरेण पात्मना या प्र. प्रथमभङ्गवर्तिनमित्यपिशब्दार्थः । उभयं गणसंस्थितिं धर्म गीते, सूत्र०२ श्रु.१० । सर्वत्र लबरामवन्द्र २७॥ चावलम्बमानं पूजयामः । एष चतुर्थः । व्य०१०३० इति रखुकि । समासे वा HEIRIE७॥ पद्विस्वम् । प्रा०। पुरिसजुग-पुरुषयुग-न०। पुरुषाः शिष्यप्रशिध्याऽविक्रमव्यव. पुरिसमेह-पुरुषमेध-पुं० । पुरुषयछे, व्य. १ उ० । स्थिता युगानीय-कालविशेषा व क्रमसाधात् पुरुष पुरिसरयण-पुरुषरत्न-१० । पुरुषाणां मध्ये रस्त बोरको युगानि । स०४४ सम 1 शिष्याऽऽविक्रमप्राप्ते पुरुषान्तरे,व्यः . पहले, मापुरुषे रोः ॥१॥१९॥ इति ॥ प्रा० । एमा३ उ०। कल्प० । स्था(कस्मात् पुरुषयुगात्कस्य तीर्थक. श्लाघारगे। बा२।१०१॥ इति नात् पूर्वमत् ॥ प्रा०। रस्य कियती युगान्तकृभूमिरिति तित्थयर' शब्द चतुर्थ . पुरुषरत्नानिभागे २२७१ पृष्ठे उक्तम् ) के से भयचं ! पंच पुरिसरयणा पमत्ता । जंन्। पुरिसजेट-पुरुषज्येष्ठ-पुं० । पुरुषः एष ज्येष्ठः पुरुषज्येष्ठः । रुयपेक्षया प्रशस्ते पुरुष, पश्चा० १७ वित्रः । पायरियपुरिसरयणे १, उवझायपुरिसरयणे २, पवति. सर्वेषामपि तीर्थकृतां पुरुषस्य साधो नियः साव्यो बन्दर्भ यपुरिसरयणे ३, थेरे पुरिसरयणे ४, रायणिए पुरिसरददति । तथा चाह यणे ५ । एए पंच पुरिसरयणा । कह णं भंसे ! साहणं मज्झे मायरिए० जाव रायणिए पुरिसरयणे, अछे पंच. सिज्जायरपिंडम्मि य, चाउआमेय परिसजेडे य। महन्वयधरणसीला साहू पुरिसरयणा ण.हवंति। जंबू! कितिकम्मस्स य करणे,ठियकप्पो माझिमाणं पि॥१०॥ विपरिसरयणा. परं पायरियाणं परंपराए.वा उपवले पञ्चा० १७ विषः । (मस्या (१०) गाथाया व्याख्या समणसंघे संकाकखाइदोसरहिए विरंति प्रभो ते परिसअट्टियकप्प' शम्ये प्रथमभागे २५५ पृष्ठे गता) रयणे । प्रत। परिसस्थ-पुरुषार्थ-पु. धर्मार्थकामनाक्षेषु, पं०५०१द्वार। परिसलक्खण-पुरुषलकण-न। सामुद्रिकमसिनपुंलक्षणप. इच्छाविषयेषु, "अर्थस्य मूलं निकृतिः क्षमा च, धर्मस्य धान रिक्षानलक्षणे कलाभेदे, जं०२ वक्षः । सूत्रासा० । Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसलिंग सिक पुरिसचि (च) जयविभंग पुरिसलिंग सिद्ध-पुरुष लिङ्गसिद्ध - पुं० । पुंलिङ्गशरीर निवृत्ति सेव्यन्ते, निर्वाणनिबन्धनं च जायन्त इति नैव मिश्रांती. योपमायोगे ऽप्यर्थतो विरोधाभावेन योतिष इति रूपे व्यवस्थिते सति सिद्धे, नं० पा० । एकानेकस्वभावं च वस्तु, अन्यथा तत्तस्यासिद्धेः, सवामूर्त. पुरिसबग्घ- पुरुषव्याघ्र पुं० । पुरुषेषु व्याघ्र इव शूरतया पुरु स्वादिधर्मरहितस्य जीवत्वाऽऽद्ययोग इति स्थाय पवनः । रा० । रोषे सति रौद्ररूपे पुरुष, औ० । मुद्रा न सत्यमेवमूर्त्तत्वाऽऽदि सर्वत्र सङ्गात् एवं पुरिसवयण - पुरुषवचन- न० । घटः पट इत्यादिरूपे पुंवचने, मूर्त्तत्वाऽऽद्ययोगः, सस्वविशिष्टताऽपि न. विशेषणमन्तरेणा प्रसङ्गात् एवं निमित्याह विरोध पुण्डरीकाणि ॥ ८ ॥ ० ॥ ४० ॥ रसवरपुंडरी, अरहा इव सब्जपुरिससीहार्य ॥ ( ५ ) ( पुरिसवर ति) पुरुषाणां मध्ये वरः पुरुषवरः, पुरुषवरायांमध्ये पुण्डरीकमिव कमलमय यथा पुजा तं जले च वृद्धिमुपगतं न पक्केन लिप्यते, नापि जलेन, किंतु जलोपरि वयैव भवति, एवमहपि तीर्थकरः, कामैर्जातो भो. गोकाक तु त्रिभुवन पर्चेव जातः पुण्डरीकमानपत्रं पुरुषांम तपसिद्धि प्रापं निवारयति अपि कम्पनिया समर्थवानोमीयते । यदि वा पुत्रः पुरुषवराणां मध्ये पुण्डरीक इत्र, यथा स केनापि पशुजातीयेन न पराभूषते एवमपि विधिनिभिः पापडकर्न कदाऽपि पराभूयत इति । संथा० ॥ घ० । स० । पुरिसवाइ (पुरुषवादिन् पुं० दिन सम्म० । अभ्यस्त्वाद्द-पुरुष एक सोकस्थितिसर्गप्रलयहेतुः प्र लये ऽप्यलुप्तज्ञानातिशयशक्तिरिति । तथा चोक्तम्-" ऊनाभ इवाशूनां चन्द्रकान्त इवाम्भसाम् । प्ररोहाणामिव प्रक्षः, स हेतुः सर्वजम्मिनाम् ||१||" इति । तथा "पुरुष एवेदं सर्वे यत् भूतं यच माध्यम्" इत्यादि । ऊर्णनाभोज कर्मटको व्या ख्यातः । अत्र यथा सफललोकस्थितिसर्गप्रलयदेतुता ईश्वरस्यैवं पुरुषवादिभिः पुरुषस्येष्टा । विशेषस्तु समवायाऽऽद्यपरकारण सव्यपेक्ष ईश्वरो जगति वर्तयत्ययं तु केवल एव अस्य वेश्वरस्येव जगदेतुताङ्गता । तथाहि पुरुषो म्हेतुषितः । गग नाम्भोजयत् सर्व-मन्यथा युगपद् भवेत् ॥ १ ॥ " सम्म० ३ काण्ड | स्था० । आबा० २ ० १ ० ४ ० १ उ० । औ० । । पुरिसवर पुरुषवर पु० पुरुषाणां मध्ये प्रथाने स्था० पुरिसवरगंध इत्थि (ण्)-पुरुषवरगन्धइस्तिन्- पुं० तीर्थकरे, भ० पुरुष एष परमन्यदस्ती पुरुषवरगन्धहस्ती यथा गन्ध स्तिनो गन्धेनापि समस्तेतरहस्तिनो भजन्ते तथा भगवत स्तद्देशविहरणेन इतिपरचक्र दुर्भिक्षडमरमर काऽऽदीनि दु रितानि मयन्तीति पुरुषचरपदीच्यते इति । पुरुषाचेमे, भ० १ ० १ उ० । कल्प० । रा० । प्रणिपातदण्डकनयमसूत्रम् - - पुरिसवपस्यीयं ॥ ६ ॥ " पुरुषवरगन्धहस्तिभ्य इति । पुरुषाः पूर्ववदेव, ते वरगन्ध हस्तिन इव-गजेन्द्रा इव क्षुद्र गजनिराकरणाऽऽदिना धर्म साम्येन पुरुषगन्धहस्तिनः यथा गन्धांगव संदेशविदारिणःशेषजा भयन्ते ततेऽपि परच दुरितः सर्वा विपुण्या नुभावतो भगवद्विहारपवनगन्धादेव भजयन्त इति न चैकान नेकस्वभावत्वे वस्तुन एवमप्यभिधानक्रमाऽभावः, सर्वगु णानामन्योऽन्यसंवलितत्वात् पूर्वाऽनुपूर्व्याऽऽद्यभिधेयस्वभा बस्यात्, अन्यथा तथाऽभिधानानैवमभिम तथा मचदवदित्युक्र अकमवासि माम व्यवस्था ऽभ्युपगमाच्च, अन्यथा न वस्तुनिबन्धना शब्दप्रवृ सिरिति स्वचैवमेव ततखान्धकारानुकारी प्रपास इति, पुरुषवरगन्धहस्तिन इति ॥ ६ ॥ ल० | घ० । पुरिसवर पुंडरीय पुरुषवर पुण्डरीक-5- न० । तीर्थकरे, वरपुराडकं प्रधानधषसहस्रपत्रं पुरुषो वरपुण्डरीकमिवेति पुरुषषरपुण्डरीकम् । धवलत्वं वास्य भगवतः सर्वाशुभमलीमसहितम्बाद सर्वे भानुमाः स्यात् अथ या पुरुषाणां तत्सेवकजीवन बहरीकमिव पर मित्र यः सन्तापापनिवारणासमर्थत्वात् भूषाकारा स पुरुषवरपुण्डरीकमिति । भ० १ ० १ उ० । सूत्र० । स० | जी० | १० | कल्प० । पुरुषो वरपुण्डरीकमिव संसार जादिना धर्मसापेन पुरुषबरपुर डरीकम् । ध० २ अधि० । - ( १०३८) अभिधान राजेन्द्रः । - 1 1 पिकापुरिसवरदरीया ॥ ० ॥ बधा पुण्डरीका पनि जानि तदुभयं विद्या वर्त्तते प्रकृतिसुन्दराणि च भवन्ति निवासो भुवनला आयतन चराद्यानन्दस्य प्रवरगुणयोगतो निरा मरैः सेव्यन्ते, सुखद्देतूनि भवन्ति च तथैतेऽपि भगवन्तः करके जाता दिव्ययोगले पनि विहाय वर्त्तते सुन्दरायाति निवास गुद तव दर्शनाऽऽद्यानन्दस्य, केवलाऽऽदिगुणभाववेन भव्यसचैः 1 पुरिसवि (च) जयविभंग - पुरुषवि (च) जयविभङ्ग ९० पुरुषा विधीयते सग्यन्ते विज्ञानद्वारेणान्वेष्यन्ते येन स पुरुषविषय पुरुषधिया केसानां तेन ज्ञानबलेनाधिप्रयु क्रेनानर्थानर्थानुबन्धेन विजपादिति । स च विभङ्गवदपनि विशेषः पुरुषविषयश्चासीविभङ्गपु. विज्ञानविशेषे, सूज० त्रयोदश कियास्थानेषु पचाभिहितं पापस्थानं ि भणिपुराह - श्रदुत्तरं च गं पुरिसविजयं विभंग माड़ क्खिस्सामि, इह खलु ाया गया बंदायं यावासीलार्थ दावादिट्ठीगंगाबाईचं खायाचार्य याया श्रसाथसंजुता वाणाविपावसुयश्यप एवं भव ( अन्तरमित्यादि ) अस्मात्त्रयोदशक्रियास्थानप्रतिपादना दुत्तरं यदत्र म प्रतिपादितं तदधुनोतरभूतेनानेन सूत्रसं Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसवि(च)जयविभंग अनिधानराजेन्डः। पुरिसवि(च)जयविभंग भैण प्रतिपाद्यते । यथाऽऽचारे प्रथमश्रुतस्कन्धे यनाभिहि- यराई मासुरियाई किन्धिसियाई ठाणाई उववत्तारो भवनं तदुत्तरभूताभिश्चूलिकाभिः प्रतिपायते, तथा चिकि ति, ततोऽवि विप्पमुच्चपाणा भुओ एलमूयत्ताए तमस्साशाख मूलसंहितायां श्लोकस्थाननिदानशारीरचिकि षयाए पञ्चायति ।। ३० ।। सितकल्पसंहकायां यत्राभिहितं तदुत्तरेऽभिधीयते, एव. मन्यत्रापि छन्दश्चित्यादासरसद्भावोऽवगन्तव्यः, तदिहापि तद्यथा-भूमी भवं भौम-निर्घातभूकम्पादिकं, तथोरपातं. पुर्येण यत्राभिहितं तदनेनोत्तरप्रन्थेन प्रतिपाद्यत इति ।च: कपिहसिताऽऽदिक,तथा स्वनं-गजवृषभसिंहादिकं, तथा समुच्चये, णमिति वाक्यालकारे, पुरुषा विचीयन्ते-मृग्य. अन्तरिक्षम्-अमोघाऽदिकं तथा अङ्गे भवमानम्-अविवार न्ते विज्ञानद्वारेणाम्बेष्यन्ते येन स पुरुषविचयः, पुरुषविजा स्फुरणाऽदिकं.तथा स्वरलक्षणं-काकस्वरगम्भीरस्वराऽदिकं, यो पा. केषाश्चिवल्पसस्वानां तेन ज्ञानलवेनाविधिप्रयुक्तना. तथा लक्षणम्यवमत्स्यपद्मशावक्रश्रीवत्सादिक, व्यञ्जनं. नर्थानुबन्धिना विजयादिति, स च विभङ्गचदवधिविपर्यव. तिलकमाषादिकं,तथा श्रीलक्षणं-रकरवरणादिकम्, पर्व विभको-ज्ञानविशेषः पुरुषविचयश्चासौ विमङ्गश्च पुरुषवि. पुरुषाऽदीनां काकिणीरत्नपर्यन्तानां लक्षणप्रतिपादकशासप. चयविमास्तमेवंभूतं ज्ञानविशेषमास्यास्यामि-प्रतिपादयि. रिशानमवगन्तव्यम् । तथा मन्त्रविशेषरूपा विद्याः, तयथा-- च्यामि । यारशानां चासो भवति तां लेशतः प्रतिपादयि. दुर्भगमपि सुभगमाकरोति सुभगाकरां, तथा सुभगमपि तुमाह-(बह खलु इत्यादि)ह-जगति मनुष्यक्षेत्रे प्रवचने दुर्भगमाकरोति दुर्भगाकरां, तथा गर्भकरां--गर्माऽऽधानविधा या नानाप्रकारा विचित्रक्षयोपशमात् प्रज्ञायतेऽनयेति प्रक्षा, यिनी, तथा मोहो-व्यामोहो वेदोदयो वा तत्करणशीलामाय. सा चित्रा येषां ते नानाप्रशाः, तया चाऽल्पाल्पतराल्पतमया | चणीमाथर्वणाभिधानां सद्योऽनर्थकारिणी विद्यामधीयते.तथा चिन्यमानाः पुरुषार पदस्थानपतिता भवन्ति, तथा छन्दोऽ. पाकशासनीमिन्द्रजालसंक्षिकां, तथा नानाविधैव्यैः कणधी. भिप्रायः स नाना येषां ते तथा तेषां नानाशीलानां तथा ना. रपुष्पाऽऽदिभिर्मधुघृताऽऽदिभिर्वोच्चाटनाऽदिकैः काही. नारूपा रष्टिः-अन्त:करणप्रवृत्तिर्येषां ते तथा तेषामिति,तेषां मो-हवनं यस्यां सा द्रव्यहवना तां, तथा क्षत्रियाणां विद्या च त्रीणि शतानि त्रिषष्ट्यधिकानि प्रमाणमवगन्तव्यं, तथा धनुर्वेदाऽऽदिका अपरा वाया स्वगोत्रक्रमेणाऽयाता तामधीजाना चिर्येषां ते नानारुचयः। तथाहि-माहारविहारशयना त्य प्रयुअते, तथा नानाप्रकारं ज्योतिषमधीस्य व्यापारयती. सनाच्छादनाऽऽभरणयानवाहनगीतबादित्राविषुमध्ये ति दर्शयति-(चंदचरियमित्यादि ) चन्द्रस्य-ग्रहपतेश्वरितं न्यस्याऽन्याऽन्यस्याम्या रुचिर्भवति, तेषां नानारुचीनामिति । चन्द्रचरितमिति, तच्च वर्णसंस्थानप्रमाणप्रभानक्षत्रयोगरा. तथा नानाऽऽरम्भाणां कृषिपाशुपाल्यषिपणिशिल्पकर्मसेवाऽऽ हुग्रहाऽऽदिकं, सूर्यचरितं स्विदम्-सूर्यस्य मण्डलपरिमाणरा विष्यन्यतरमारम्भेणेति तथा नानाध्यवसायसंयुतानांशु शिपरिभोगोयोतावकाशराहूपरागाऽऽदिकं, तथा शुक्रवारो भाध्यवसायभाजामिहलोकमात्रप्रतिबद्धानां परलोकनिपिपा. वीधीत्रयचाराऽऽदिकः, तथा बृहस्पतिवारः शुभाशुभफलम. सानां विषयतृषितामामिदं नानाविधं पापश्रुताध्ययनं भवति । दः संवत्सरराशिपरिभोगाऽऽदिकश्च, तथा उल्कापाता दिग्दा हाश्च वायव्याऽदिषु मण्डलेषु भवन्तःशखाग्निचुत्पीडाविधा. तं जहा-भोमं उप्पायं सुविणं अंतलिपं अंगं सरं ल यिनो भवन्ति, तथा मृगा-हरिणशृगालाऽऽदय भारण्या. क्खणं बंजणं इथिलक्खणं पुरिसलक्खणं हयलक्खगां स्तेषां दर्शनरुतं प्रामनगरप्रवेशाउदो सति शुभाशुभं यत्र बि. गयलक्खणं गोणलक्खणं मिंढलक्खणं कुकुडलक्षणं त्यते सम्मृगचक्रम् , तथा वायसाऽऽदीमां-पक्षिणां यत्र स्था. तित्तिरलक्खणं वट्टगलक्खणं लावयलक्खणं चकलक्षणं नविकस्वराश्रयेणाऽशुभशुभफलं चिस्यते तज्ञापसपरिमा पडलं, तथा पांगुकेशमांसदधिराऽऽविषयोऽनिएफलमा यत्र छत्तलक्षणं चम्मलक्खणं दंडलक्खणं भसिलेक्वणं म शाने खिम्त्यते तत्तदभिधानमेव भवति, तथा विद्या माना. णिलक्खणं कागिणिलक्खणं सुभगाकरं दुम्भगाकरं ग- प्रकारा, जुद्रकर्मकारिएया, तामेमा वैताली नामषिचा भाकर मोहणकरं भावणि पागसासणि दबहोम खत्ति- नियताक्षरप्रतिवसा, साव किल कतिमिर्जपैएडमुस्थापयविजं चंदचरियं मूरचरियं सुक्कचरियं वहस्सहचरियं उ- यति, तथा अधबैताली तमेवोपशमयति, तथा-मपखापिनी कापायं दिसादाहं मियचक्कं वायसपरिमंडलं पंसुवट्टि के तालोघाटनीश्वपाकी शाम्बरी तथा-अपरा-द्राविडी कालि. की गौरी गान्धार्यवपत युरपतनी म्भिणी स्तम्भनी श्ले. सहि मंसवुद्धि रुहिरबुद्धि वेतालिं भवेतालि भोसोवणि षणी प्रामयकरसी विशस्यकरणी प्रक्रामणी अन्तर्धानकरणी तालुघाडाणं सोचागि सोवरि दामिलि कालिंगि गोरि इत्येषमाविका विद्या प्रधीयते । प्रासां चार्थः संशाती:गंधारि उवतिथि उप्पयणि जंभणिं यं भाग लेसणि भाम- बसेय इति, नवरं शाम्बरीद्राविडीकालियस्तदेशोवायकरणिं मिसनकरणिं पक्कमणिं अंगद्वाणि पायमिणि स्तनापानिवजा वा चित्रफला भिवपतनी तु जपस्थत एष पतस्यन्यं पा पातयत्यषमुस्पतम्यपि एव्या । तदेवमे. एवमाइमामो विजाभो अबस्स हेउं पति पाणस्स बमादिका विद्या, मादिग्रहणात्मज्ञप्त्यादयो गृह्यन्ते । एता. हे पउंजति बस्थस्स हेउं पति लेणस्स प- अविणः पाखरिशकाः प्रविदितपरमार्धा गृहस्था या जंति सपणस हेउं पति, अमेसि वा विरूवरूवा स्वयूच्या पाण्यालिधारिणोऽसपानाम्य प्रयुक्षम्ति, अ. शंकामभोगाणं हेउं पति, तिरिच्छ से विजं सेति,ते म्येषां वा विपरुपाणाम्-उच्चावचामां शब्दाभोना काम. भोगानां कृते प्रयुजन्ति । सामान्येन पिपासेवनमनिष्टका प्रणारिया विपडिवमा कालमासे कालं किच्चा प्रम- रीति दर्शयितुमार-(तिरिच्छमित्यादि) तिरधीनाम्-अननुः Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसवि(च)जयविभंग प्रन्निधानराजेन्दः । पुरिसवि(च)जयविभंग कूलो सदनुष्ठानप्रतिघातिका ते मनायो-विप्रतिपमा वि. भत्ता उवक्खाइचा भव ॥१॥ से एगइमो उपचरयमाव या सेवते,ते च यद्यपि क्षेत्राऽऽर्या भाषास्तिथाऽपि मिथ्या. पडिसंधाय तमेव उवचरियं हंता छेता. भेत्ता नुपइत्ता स्वोपहतबुद्धयोऽनार्यकर्मकारित्वादनायो एष द्रव्याः , ते व स्थाऽऽयुषः क्षये कालमासे कालं कृत्वा यदि कथ. विलुपइसा उबवत्ता माहारं माहारेति, इति से महया शिदेवलोकगामिनो भवम्ति ततोऽन्यत्तरेषु मासुरीयके. पाव कम्मेहिं भत्ताणं उबक्खाइला भनइ ॥२॥ पुकिरिषषिकाऽऽदिषु स्थानघूत्पत्स्यन्ते, ततोऽपि विप्र तत्रैकः कश्चिवारमाऽऽयर्थमपरस्य-गन्तु माम्तरं किश्चिद्रः मुक्ताश्च्युताः, यदि वा-मनुध्येषूत्पद्यन्ते, तन च तस्कर्म व्यजातमवगम्य तदादित्सुस्तस्यैवानुगामुकभावं प्रतिसंघाशेषतयडमूकत्वेनाव्यक्तभाषिणस्तमस्त्वेनान्धतया मूकतया या प्रत्यागच्छन्ति, ततोऽपि नानाप्रकारेषु यातनास्थानेषु य सहगन्तृभावेनाऽऽनुकूल्यं प्रतिपद्य विवक्षितवचनापसर. मरकतिर्यगादिषूत्पद्यन्ते । कालाऽऽधपेक्षी तमेव गच्छन्तमनुव्रजति , तमेव चा. भ्युत्थानविनयाऽऽदिभिरत्यन्तोपचारैरुपचर्यानुवज्य च वि. साप्रतं गृहस्थानुद्दिश्याधर्मपक्षसेवनमुध्यते बक्षितमवसरं लावा तस्याऽसौ हन्ता दण्डाऽऽदिभिः, से एगइमोपायहेउं वाणायहेउं वा सयणहेउं वा भगारहे। तथा छेत्ता खाऽऽदिना हस्तपादाऽऽदेः, तथा भेत्ता यजमु. वा परिवारहे वा नायगंवा सहवासियं वा णिस्साए अदुवा | ष्टयादिना,तथा लुम्पयिता केशाऽऽकर्षणाऽऽदिकदर्थनतः,त. अणुगामिए', अदुवा उवचरए २, अदुवा पडिपहिए ३, था-विलुम्पयिता कशाप्रहागऽऽदिभिरत्यन्त दुःखोत्पादनेन, अदुवा संधिच्छेदए ४, अदुवा गठिच्छेदए ५, अदुवा उर-| तथाऽपदावयिता जीविता व्यरोपणतो भवतीत्येवमादिकंक. त्वाऽऽहारमाहारयत्यसौ। पतदुक्तं भवति-गलकर्तकः कश्चि. भिए ६, अदुवा सोवरिए ७, अदुवा वागुरिए ८, अदुवा दन्यस्य धनवतोऽनुगामुकभावं प्रतिपद्य तं बहुविधैरुपायैसाउणिए है, पहा मच्छिए १०, अदुवा गोपाय- विश्रम्भे पातयित्वा भोगार्थी-मोहान्धः साम्प्रतेक्षितया तस्य ए ११, अदुवा गोवालए १२, अदुवा सोवणिए रिक्थवतोऽपकृत्याऽमहाराऽऽदिकां भोगक्रियां विधत्त । इत्येष. १३, अदुवा सोवणियतिए १४।। मसौ महद्भिःकरैः कर्मभिः-अनुष्ठानमहापातकभूतैर्वा तीवा. (से एगी इत्यादि )स एकः कदाचिन्निस्त्रिंशः सांप्र. नुभावदीर्घस्थितिकैरात्मानमुपाख्यापयिता भवति, तथा छ. तापेक्षी अपगतपरलोकाध्यवसायः कर्म परतया भोगलिपसुः यमसौ महापापकारीत्येवमात्मानं लोके ख्यापयति, अधप्र. संसारस्वभावानुवर्यात्मनिमित्तं वेत्येतान्यनुगामुकाऽऽदीन्य. कारैः कर्मभिरात्मानं तथा बन्धयति यथा लोके तद्विपाका. न्यकर्त्तव्य हेतुभूतानि चतुर्दशाऽसदनुष्ठानानि विधत्ते,तथा-शा ऽपादितनावस्थाविशेषेण सता नारकतिर्यङ्नरामररूपत. तयः स्वजनास्तनिमितं तथा उगारनिमित्तं-गृहसंस्करणार्थ याऽऽख्यात इति ॥१॥ तदेवमेकः कश्चिदकर्तव्याभिसन्धिना सामान्येन वा कुतुम्बार्थ-परिवारनिमित्त वा-दासीदासकर्मः परस्य स्वापतेयवतस्तवञ्चनार्थमुपचरकभावं प्रतिसंधाय कराऽऽनिपरिकरकृते, तथा बात एव शातकः-परिचितस्तं प्रतिज्ञाय पश्चात्तं नानाविधैर्विमयोपायरुपचरति, उपचर्य समुद्दिश्य, तथा सहवासिकं वा प्रातिश्मिकं निश्रीकृ- च विश्रम्भे पातयित्वा तद्रव्यार्थी तस्य हन्ता छेत्ता भेत्ता त्यैतानि पश्यमाणानि कुर्यादिति संबन्धः। तानि च दर्श यावदपद्राययिता भवतीत्येवमसावात्मानं महद्भिा-वृहद्भिः यितुमाह-(अदुवेत्यादि) अथवेत्येवंवक्ष्यमाणापेक्षया प पापैः कर्मभिः उपाख्यापयिता भवतीति ॥२॥ तान्तरोपलक्षणार्थः, गच्छन्तमनुगच्छतीत्यनुगामुकास चा- से एगइयो पाडिपहियभावं पमिसंधाय तमेव पडिपो कार्याध्यवसायेन विवक्षितस्थानकालाऽऽद्यपेक्षया विरूपका संव्यचिकीर्षुस्तं गच्छन्तमनुगच्छति,अथवा-तस्यापकर्त्तव्य द्विचा हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुपत्ता उद्दवइत्ता स्यापकारावसरापेच्युपचरको भवति, अथवा-तस्य प्राति. आहारं माहारेति, इति से महया पावेहि कम्महिं पथिको भवति प्रतिपथं संमुखीनमागच्छति, अथवा-श्रा भत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ ।। ३ ।। से एगइनो संधिच्छेस्मस्वजनार्थ सम्धिच्छेदको भवति चौर्य प्रतिपद्यते, अथवा दगभावं पडिसंघाय तमेव संधि छेत्ता भेत्तान्जाव इति से भ्रषैश्चरत्यौरभ्रिकः । अथवा--सौकरिको भवति, अथवा.. महया पावहिं कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ ॥४॥ शकुनिभिः-पक्षिभिश्वरतीति शाकुनिका, अथवा-वागुरया मृगाऽऽविबन्धनरज्ज्वा चरति वागुरिका, अथवा-मत्स्यैश्वरः अथैकः कश्चित्प्रतिपथेन अभिमुखेन चरतीति प्रातिपथिक. ति मात्स्यिका, अथवा गोपालभावं प्रतिपद्यते , अथवा.. स्तद्भावं प्रतिपद्यापरस्यार्थवतस्तदेव प्रातिपथिकत्वं कुर्वन् गौघातकः स्थायू , अथवा-श्वभिश्चरति शावनिका, शुनां प्रतिपणे स्थित्वा तस्यार्थवतो विश्रम्भतो हन्ता छेत्ता यावद. परिपालको भवतीत्यर्थः, अथवा-(सोधणियं ति) श्वभिः पदावयिता भवतीत्येवमसावात्मानं पापैः कर्मभिः व्यापय. पापद्धिं कुर्वन्मृगाऽऽदीनामन्तं कसेतीत्यर्थः। तीति ॥३॥ प्रथैकः कश्चिद्विरूपकर्मणा जीवितार्थी संधिच्छेतदेवमेतानि चतुईशाऽप्युद्दिश्य प्रत्ये। दकभावं-खनखननस्वं प्रतिपद्याऽनेनोपायेनाऽऽस्मानमहंककमादितःप्रभृति विवृणोति तयिष्यामि इत्येवं प्रतियां कृत्वा तमेव प्रतिपद्यते, ततोऽसौ एगइयो आणुगामियभावं पडिसंधाय तमेव अणुगा सन्धि छिन्दन खत्रं खनन् प्राणिनां छेत्ता भेत्ता विलुम्पयिता भवतीति,एतश्च कृत्वाऽऽहारमाहारयतीति । एतच्चोपलक्ष. मियाणुगामियं हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइना विलुंपइत्ता उद्द णमन्यांश्च कामभोगान् स्वतो भुजेऽन्यदपि शातिगृहादिकं पा. इत्ता आहारं पाहारेति, इति से महया पावेहि कम्मेहिं लयतीत्येषमसौ महद्भिः पापैः कर्मभिरामानमुपस्यापतिक्षा Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसवि(च)जयविनंग भनिधानराजेम्मः। पुरिसवि(च)जयविभंग से गामो गंठिच्छेदमा परिसंधाय तमेव गति बेला भेत्ता | से एगामो पणियंतियमा परिसंघाप तमेव मगुस्स जाप इति से माया पायनिकम्मर मचाणं उपक्खाइताबा भन्नयरंपा तसं पाता जाब प्रारं माहारभा॥५॥से एगानो उरम्भियभाव परिसंघाय उरम्भपा ति, इति से महया पावेहि कम्पमत्तार्थ उपक्खाहता भएणवर बा तसं पाणं (ता. जाप पक्खाइचा भवद । भवः । १४ । (१मूत्र) एसोप्रमिलामो सम्बस्थ॥६॥ प्रयका कमिजयन्यकर्मकारी शोधनिकमा प्रतिपथ-साप्रयका कमिदसपनुष्ठापी पुर्घराऽऽदिना प्रथिन्वेषकमा रमेयपापविभा प्रतिक्षाय तमेव वा सेना पर मुगप्रतिपय तमेवानुयाति । शेषं पूर्ववत् ॥५॥ अषका कविध. खुकराऽऽविकं असं प्राणिनं व्यापादयेत्तस्याममाऽशिकार मकर्मत्तिहरमा उरणकास्तभाति पास मौरभ्रिक, सब क्रियाः कुर्यादिति ॥१३॥ अथका कधिवनार्यो-निविकर सपूर्णया तम्मालाऽऽदिना पास्मानं वर्तयति, तदेषमसीत. (लोषणियंतियभावं ति) श्यभिचरति शौयनिक मन्तोमा प्रतिपचोरनं वा अन्य वात्रसं प्राणिनं स्वांसपुष्यर्थे ऽस्यास्तीस्यन्तिकोऽन्ते वापरस्यास्तिका पर्यम्तमासीत्यर्थः, व्यापादयति, वस्य पाहताहेत्ता भेत्ता भवतीति, शेषं पूर्व शौयनिकचासायान्तिक सौवनिकाऽऽम्तिका-रसारबत् ॥६॥ मेयपरिप्रहः प्रत्यन्त निवासी व प्रत्यन्तनिवासिभिर्वा . से एगइमो सोयरियभावं पहिसंधाय महिसं वा भएण भिधरतीति तदसौ तनावं प्रति सम्धाय-दुष्टसारमेयपरिवरं वा तसं पाणं. जाव उवक्खाइचा भवइ ।। ७॥ से एग प्रहं प्रतिपच मनुष्यं षा कञ्चन पधिकमभ्यागतमभ्यं षा मृगसूकराऽऽदिकं असं प्राणिनं हन्ता भवति । अयं व ता. इम्रो बागुरियभावं पदिसंधाय मियं वा प्रयतरं वा तसं च्छीलिकस्तृन् । लुट्प्रत्ययो वा द्रष्टव्यः । दृषि तु साध्यापाय ता. जाव उवक्खाइना मवह ॥८॥ हारं प्राग्वद् व्याख्येयम् । तद्यथा-पुरुषं व्यापादयेत्तस्य च अत्रान्तरे सौकरिकपदं, तब्च खबुद्धया व्याख्येयम् ।। हम्ता छेत्ता इत्यादि, तन् लद्प्रत्ययौ प्रागपि योजनीसौकरिका:-श्वपचाश्चारालाः, खट्टिका इत्यर्थः॥७॥अथै- याविति । तदेवमसी महाक्रूरकर्मकारी महद्भिः कर्मभिरा. कः कश्चित्-पुद्रसवो बागुरिकभावं लुब्धकत्वं प्रतिसन्धा- स्मानमुपण्यापयिता भवतीति १०॥ ३१ ।। उताऽसदाजीय-प्रतिपच वागुरया मृगं हरिणमन्यं षा असं प्राणिनं वनोपायभूता वृत्तिः। शशाऽऽदिकमात्मवृत्यर्थे स्वजनाऽऽद्यर्थ वा व्यापादयति, इदानी कचित् कुतश्चिनिमित्तावभ्युपगम यातितस्य च हन्ता छेत्ता भेत्ता भवति । शेषं पूर्ववत् ॥८॥ से एगइनो परिसामझामो उट्टित्ता हमेयं णामिति से एगइमो साउणियभावं पडिसंधाय सउणि वा अस्पतरं वा तसं पाणं हंता जाब उपक्खाइत्ता भवइ ।। ६ ॥ कह तित्तिरं वा वगं लावगं वा कबोयगं वा कविंजलं से एगइभो मच्छियभावं पडिसंधाय माळं भस्मतरं वा भन्नयरं वा तसं पाणं हंता जाव उपक्खाइत्ता भवइ ।। वा तसं पाणं हन्ता • जाव उवक्खाइत्ता भवइ ।। १०॥ से एगइमो केणइ भायाणेणं विरुद्धे समाणे अदुवा खल. भयकः कश्चिदधमो-पापजीवी शकुना:-लावकाऽऽव्यस्तै-दाणणं अदुवा सुराथालएणं गाहावतीण वा गाहावापुत्चाय भरति शाकुनिकस्ता प्रतिसंधाय तम्मांसाऽऽर्थी शकु. वा सयमेव अगणिकाएणं सस्साई भाड, प्रमेण बि नमभ्यं वा असं व्यापादयति, तस्य च हननादिकां क्रि- अगणिकाएणं सस्साई झामावेइ, अगणिकाएणं सस्साई यां करोतीति । शेषं पूर्ववत् ॥ ६॥ अथैकः कश्चिदधमाध झामंतं वि श्रनं ममणुजाणइ, इति से महया पावकम्मे मो मात्स्यिकभाव प्रतिपच मत्स्यं वाऽन्यं जलचरप्राणिनं व्यापादयेखननाऽऽदिका बाक्रियाः कुर्यात् शेष सुगमम्॥१०॥ अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइनो गोपायभावं पडिसंधाय तमेव गोणं वा अयं चात्र पूर्वस्माद्विशेषः-पूर्वत्र वृत्तिःप्रतिपादिता प्रमा भायरं वा तसं पाणं हताजाव उवक्खाइत्ता भवइ या प्राणव्यपरोपणं कुर्यात्, इह तु कुतश्विनिमित्तात्साक्षा. जनमध्ये प्राणिब्यापादनप्रतियां विधायोद्यच्छत इति वर्ग॥११॥से एगइमो गोवालभावं पदिसंधाय तमेव गोवालं यति-अथैकः कश्चिन्मांसावनेच्छया-व्यसनेन क्रीडयावा परिजविय परिजविय ताजाव उवक्खाइत्ता भ- पितो वा पर्षदो मध्यादभ्युत्थायैधंभूतां प्रतिक्षां विदध्यात्। वह ॥ १२॥ यथाऽहमेनं यक्ष्यमाणं प्राणिनं हनिध्यामीति प्रतिक्षां रुत्वा अथैकः कश्चित्क्रूरकर्मकारी गोघातकभावं प्रतिपद्य गाम. पश्चात्तित्तिराऽऽदिकं हन्ता भेत्ता छेत्तेति ताच्छीलिकस्तुन् भ्यतरं या असं प्राणिनं व्यापादयेत्सस्य च हननादिकाः लुट्प्रत्ययो वा, तस्य वा हन्तेत्यादि, यावदात्मानं पापेम क्रियाः कुर्यादिति ॥ ११ ॥ अथैकः कश्चिद्रोपालकभावं कर्मणा क्यापयिता भवतीति । इह चाधर्मपातिकबभिधी. प्रतिपय कस्याश्चिद्रोः कुपितः सन् तां गां परिषिध्य पृथक यमानेषु सर्वेऽपि प्राणिद्रोहकारिणः कश्चिदभिधातम्यास्त. कृत्वा तस्या हन्ता छेत्ता भेत्ता भूयो भूयो भवति । शेष प्र पूर्वमनपराधक्रुद्धा अभिहिताः । साम्प्रतमपराधकबार पूर्ववत् ॥ १२॥ दर्शयितुमाह-(से एगो इत्यादि) अथैकः कश्चित्प्रकस्या क्रोधनोऽसहिष्णुतया केनचिदादीयत इत्यादानं शम्दाऽऽदिकं से एगइयो सोपणियभावं पदिसंधाय तमेव सुणगं वा व मुणग वा . कारणं तेन विरुद्धः समानः परस्यापकुर्यात् शब्दावामन ता. अनयरं वा तसं पाणं हताजाव उवक्खाइत्ता भवइ ।।१३।। बरकेनचिदशे निन्दितो बाचा विरुभ्येत,रूपाऽऽदानेमनुषी. २६१ Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४२) पुरिसवि(च)जयविनंग । अभिधानराजेन्डः। पुरिसवि(च)जयविनंग भरसंकञ्चन रट्वाऽपशकुनाध्यवसायेन कुप्यते। गन्धरसा| सिगं वा चेलगं वा चिलिमिलिगं वा चम्मगं वा छेयणगं विकं वादानं सूत्रेणैव दर्शयितुमाह-अथवा खलस्य कुधिता. वा चम्मकोसियं वा सयमेव अवहरति जाव समणुजाऽऽविविशिष्टस्य दानं खलस्य वाऽल्पधान्याऽऽदेनं खलदान णइ, इति से महया जाव उवक्खाइत्ता भव ।। तेन कुपिता,अथवा-सुरायाः स्थालक-कोशकाऽऽदि तेन वि. पक्षितलाभाऽभावात् कुपितः गृहपत्यादेरेतत् कुर्यादिस्याह (से एगइओ इत्यादि ) अथैकः कश्चित्स्वदर्शनानुरागेण स्वयमेवाग्निकायनामिना तस्सस्यानि खलकवर्तीनि शालि वा वादपराजितो वाऽन्येन धा केनचिनिमित्तेन कुपितः श्रीयादीनि ध्यामयेहदवन्येन वा वाहयेहहतो वाऽन्यान्सम- समेतत्कुर्यादित्याह । तद्यथा-श्राम्यन्तीति भ्रमणास्तेनुजानीयावित्येवमसौ महापापकर्मभिरात्मानमुपख्यापयिता | षामन्येषामपि तथाभूतानां केनचिदादानेन कुपितः सन् भवतीति। दण्डकाऽऽदिकमुपकरण जातमपहरेत् , अन्येन पा हारयेसाम्पतमन्येन प्रकारेण पापोपादानमाह व अन्यं वा हरन्तं समनुजानीयात्, इत्यादि पूर्ववत् । एवं से एगइभो केणइ भायाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खल- तावद्विरोधिनोऽभिहिताः । दाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावतीण वा गाहावइपुत्ताण साम्प्रतमितरेऽभिधीयन्तेपा उहाण वा गोणाण वाघोडगाण वागहभाण वा सयमेव से एगइयो यो वितिगिछइ । तं जहा-गाहानतीण वा घरा(उ)मो कप्पेति, अत्रेण वि कप्पावेति, कप्पंत पि अनं गाहावापुत्ताण वा सयभेव अगणिकाएणं मोसहीमो झामेह,जाव अनं पि झामंतं समाजागाइ, इति से महया समणुजाणइ, इति से महया जाव भवइ । जाव उपक्खाइत्ता भवति । मकाकश्चित्केनचित् तु खलदानाऽऽदिनाऽऽदानेन गृहपत्या. ( से एगी इत्यादि ) अथैकः कश्चित् ढमूढतया कुपितस्तत्संबन्धिन उष्ट्राऽऽदेःस्वयमेवात्मना परश्वाss (नो वितिनिछा ति ) न विमर्षति-न मीमांसते यथाsदिना (घूरामो सि) जवाः खलका या कल्पयति छिनण्य नेन कृतेन ममाऽमुत्राऽनिष्टफलं स्थात्, तथा मदीयमिदज्येन वा छेदयति, अन्यं वा छिन्दन्तं समनुजानीते, इत्येव मनुष्ठानं पापानुबन्धीस्येवं न पर्या लोचयति, तावाऽपत्रमसाबारमनं पापेन कर्मणोपाख्यापयिता भवति । श्व यत्किश्चनकारितया हलोकपरलोकविरोधिनीः क्रिकिंच याः कुर्यात् । एतदेवोदेशतो दर्शयति, तद्यथा-गृहपत्यादेसे एगाभो केणइ मायाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा निनिमित्तमेव-तत्कोपमन्तरेणैव स्वयमेवारमनाऽनिकायन खलदाणेणं भावा सुरायालपणं गाहावतीण पा गाहावा अग्निना औषधी:-शालित्रीह्यादिकाः ध्यामये दहेत् तथाऽन्येन दाहयेद्दहन्तं च समनुजानीयादित्यादि । पुत्ताय वा उहसालाभो वा गोणसालानो वा घोडगसा से एगइमो यो वितिगिंछइ । तं जहा-गाहावतीण वा लामो पा गहमसालामो वा कंटकबोंदियाए पडिपे-| हिचा सयमेव अगणिकाएणं मामेह,अत्रेण विझामावेइ, गाहावइपुत्ताण वा उट्टाण वा गोणाण वा घोडगाण वा मामंतं विमसमणुजाण, इति से महया जाव भवइ । गदभाण वा सयमेव घूरा(उ)ो कप्पेइ,अनेण वि कप्पा बेति,अनं पि कप्पंतं समणुजाणइ । से एगइयो णो वितिअर्थका कमिकेनचिनिमित्तन गृहपत्यादेः कुपितस्तत्सः । गिंछह । तं जहा-गाहावतीण वा गहावइपुत्ताख वा उट्टसाबम्धिनामुष्ट्राऽऽदीनां शालागृहाणि (कंटकबोदियाए ति) कएटकशाखाभिः प्रतिविधाय-पिहित्वा स्थगित्वा स्वय. लामो वा जाव गद्दभसालाओ वा कंटकबोंदियाहिं पमेवामिना दहेत् । शेषं पूर्ववत् । दिपेहित्ता सयमेव अगणिकाएणं झामेइ जाव तमयुअपि च जाणइ । से एगइओ णो वितिगिंछइ । तं जहागाहावतीसे एगइनो केणइ मायाणेणं विरूद्धे समाणे अदुवा ख- ण वा गाहाबइपुत्ताण वा १जाच मोत्तियं वा सयमेव भलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावतीय या गाहावइ- वहरइ० जाव समणु जाणइ । से एइमो णो वितिगिच्छइ । तं पुत्ताण ना कुंडलं वा मणि वा मोत्तियं वा सयमेव अवहरइ. जहा-समणाण वा माहणाण वा छत्तगंवादंडगं वा जाव प्रमेण वि प्रवरावइ,वहातं पि अन्नं समगुजाणइ, इति चम्मच्छेदणगं वा सयमेव अवहरइजाव सम जाणइ, इसे महया जाव भवइ । ति से महया जाव उवक्खाइत्ता भवइ । भकः कश्चित्केनचिदादानेन कुपितो गृहपत्यादेः सम्बन्धि तयेहामुत्र च दोषाऽपर्यालोचको निशितया गृहपत्यादि. कुण्डलाऽऽदिक द्रव्यजातं स्वयमेवापहरेदवशिष्टं पूर्ववत् ।। संबन्धिनां कमेलकाऽऽदीनां जयाऽऽदीनवयबाँश्चिन्यात् ।त. साम्प्रतं पानशिकोपरि कोपेन यत्कुत्तदर्शयितुमाह था शाला दहेत्, तथा गृहपत्याऽऽदेसम्बन्धि कुण्डलमणि मौक्तिकाऽऽदिकमपहरेत् । तथा श्रमणब्राह्मणाऽऽदीनां दण्टासे एगइयो केणइ वि आदाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा अदिकमुपकरणजातमपहरेदित्येवं प्राक्तना एवाऽऽलापका खलदाणेणं अदुवा सुरायालएणं समणाण वा माहणाण आदानकुपितस्य ये अभिहितास्त एव तवमावेनामिधातपा छत्तगं वा दंडगं वा भंडगं वा मत्तगं वा लहि वा भि-। व्या इति । Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २०४२ / अभिधान राजेन्द्रः । पुरिस वि (च) जयविभंग साम्प्रतं विपर्यस्तदृष्टय भागाढमिध्याष्टयोऽभिधीयन्तेसे एगइमो समयं वा माहणं वा दिस्सा यायाविहेहिं पावकम्मेहिं प्रत्ताणं उबक्खाइता भवइ, अदुवा खं अच्छराए आफालित्ता भवइ, अदुवा गं फरुसं बदित्ता भवइ, कालेण वि से अपविट्ठस्स असणं वा पाणं वा ०जाव णो दबाबेला भवर, जे इमे भवंति वोनमंता भारकंता अलसगा वेसलगा किवा (निउजमावणगा ) समयगा पञ्चयंति । अथैकः कश्चिदभिगृहीतमिथ्यादृष्टिरभद्रकः साधुप्रत्यनीकतमाश्रमणादीनां निर्गच्छतां प्रविशतां वा स्वतच्च निर्गच्छन् प्र विशन् वा नानाविधैः पापोपादानभूतैः कर्मभिरात्मानमुपख्यापयिता भवतीति । एतदेव दर्शयति अथवेत्य यमुत्तरापेक्षया प शान्तरोपग्रहार्थः कचित्साधुदर्शने सति मिथ्यात्वोपहतदृष्टित याsपशकुनोऽयमित्येवं मन्यमानः सन् दृष्टिपादपसारचन् सा घुमुद्दिश्वावयासरायाः - सप्पुटिकायाः श्रास्फालयिता भ घति । अथवा-ततिरस्कारमापादयन् परुषं बच्चो ब्रूयात् । तद्यथा-ओदनमुराड ! निरर्थक कायक्लेशपरायण! दुर्बुद्धे ! अपसरा तस्तदसौ भ्रकुटीं विदध्यादसत्यं वा ब्रूयात् तथा भिक्षाकालेनापि (से) तस्य भिक्षोरन्येभ्यो भिक्षाचरेभ्योऽनु-पश्चात्प्रवि स्य सतोऽत्यन्तदुष्टतयाऽऽऽदेन दापयिता भवति. अपरं च दानोद्यतं निषेधयति तत्प्रत्यनीकतयः एतश्च द्यूते ये इमे पारिका भवन्ति त एवंभूता भवन्तीत्याह - (बोघं ति) वृण. काष्ठाऽऽदिकमधम कर्म तद् विद्यते तेषां ते नद्वन्तः, तथाभारेण कुटुम्बभारेण पोहलिकाऽऽदिभारेण वाऽऽक्रान्ताः-प रामग्नाः सुखलिप्सबोऽलसाः क्रमाऽऽगतं कुदुम्बं पालयितुम समर्थास्ते पाषण्डव्रतमाश्रयन्ति । तथा चोक्तम्- "गृद्दाऽऽश्रम. परो धर्मः, न भूतो न भविष्यति । पालयन्ति नरा धन्याः, क्लीवा - पाषण्डमाश्रिताः ॥ १ ॥ " इत्यादि । तथा ( वेसलग ति ) वृषला अधमाः शूद्रजातयस्त्रिवर्गप्रतिचारकास्तथा कृपणाः कीवा:- अकिञ्चित्कराः श्रमणा भवन्ति प्रव्रज्यां गृहन्तीति । साम्प्रतमेषामगारिकाणामत्यन्त विपर्यस्त मतीनामसद्वृत्त माविर्भावयनाद इमेव जीवितं धिजीवितं संपडिबूर्हेति, नाइ ते परलोगस्स अहार किंचि वि सिलीसंति, ते दुक्खति, ते सो तिते जूति ते तिष्यति ते पिद्धति ते परितप्यति ते दुक्खजूर सोयगतिष्पणपिढणपरितिष्पणवहवंधण परिकि लेसाओ अप्पडिविरया भवंति; ते महया आरंभेणं ते म या समारंभणं ते महया आरंभ समारंभणं विरूवरूवेहिं पावकम्मेहिं किचेहिं जरालाई माणुस्सगाई भोग भोगाई भुंजितारो भवंति । तं जहा अनं अन्नकाले पायं पाणकाले बस्थं वत्थकाले लेणं लेखकाले सयणं सयणकाले सपुव्यावरं च ये एहाए कयबलिकम्मे कयकोउय मंगलपाय सिरसा एहाए कंठे मालाकडे आविद्धमणिसुवन्ने क पियमाला पडली पडिबद्धसरीरे बग्घारिय सोखि सुत्त गमल्लदामकला महतवत्थपरिहिए चंदणोक्वित्तगायसरीरे महति महालियाए कूडागारसालाए महतिमद्दालयंसि सी For Private पुरिसवि (च) जयविभंग हासांसि इत्थीगुम्मसंपरिवुडे सब्वगएवं जोइया कियायमाणं महया हयनदृगी वाइयततीतलतालतु डियूषण: मुइंगपडुप्पवाइयरवेणं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई जमाणे विहरइ || (ते इणमेव इत्यादि) ते हि साधुवर्गापवादिनः सप्रत्यनीका इदमेव जीवितं परापवादोहनजीवितं धिग्जीवितं कुत्सितं जीवितं साधुजुगुप्सापरायणं संप्रति इंइन्ति एतदेवासवृत्तजीवितं प्रशंसन्तीति भावः । ते चे. लोकप्रतिबद्धाः साधुजुगुप्साजीविनो मोहान्धाः साधूनपवदन्ति, नापि च ते पारलौकिकस्यार्थस्य साधनम् - अनुष्ठानं किञ्चिदपि स्वल्पमपि लिष्यन्ति समाधयन्ति, केवलं ते परान् साधून वागादिभिरनुष्ठानैर्दुःखयन्ति पीडा. मुत्पादयन्ति आत्मनः परेषां च तथा तेऽज्ञानान्धास्तथा तन्कुर्वन्ति येनाधिकं शोचन्ते परानपि शोचयन्ति-दुर्भा पिताऽऽदिभिः शोकं चोत्पादयन्ति तथा ते परान् (जूरयंति) गर्दन्ति, तथा ( तिप्पंति ) सुखाच्यावयन्त्यत्मानं परों. च, तथा ते बराका अपुष्टधर्माणोऽसदनुष्ठानाः स्वतः पीडय ते परांश्च पीडयन्ति तथा ते पापेन कर्मणा परितप्य -अन्तर्दश्यन्ते परांश्च परितापयन्ति । तदेवं तेऽसद्वृत्तयः सन्तो दुःखनशोचनाऽऽदिक्लेशादप्रति विरताः सदा भवन्ति । एवंभूताश्च सन्तस्ते महताऽऽरम्भेण प्राणिव्यापादनरूपेण तथा मद्दता समारम्भेण - प्राणि परितापनरूपेण, तथोभाभ्यामप्यारम्भसमारम्भाभ्यां विरूपरूपैश्च नानाप्रकारैः सावधानुष्ठानैः पापकर्मकृत्यै रुदारानस्यन्तोद्भटान्समप्रसा मग्रीकान् मधुमद्यमांसाऽऽद्युपेतान् मानुष्यकान् मानु व्यभवयेोग्यान् भागेभ्योऽप्युत्कटान् भोगभोगान् ते साबधानुष्ठायिनो भोकारो भवन्ति । एतदेव दर्शयितुमाह - ( तं जहेत्यादि ) तद्यथत्युपदर्शने । अन्नमनकाले यथेप्सितं तस्य पापानुष्ठानात्संपद्यते, एवं पानवकाशयनाऽऽसनाऽऽदिकमपि । सर्वमेतद्यथाकालं सपूर्वापरं संपद्यते, सह पूर्वेण पूर्वाह्नकर्तव्येन अपरेण चापराङ्ककर्तव्येन यदि वा - पूर्व यक्ि यते स्नानाऽऽदिकं तथा परं च यत्क्रियते विज्ञेपनभोजनाSS दिकं तेन सह वर्तत इति सपूर्वापरम् । इदमुक्कं भवतियद्यदा प्रार्थ्यते तत्तदा संपद्यत इति अभिलषितार्थप्राप्तिमेव लेशतो दर्शयितुमाह । तद्यथा-विभूत्या स्नातस्तथा कृ. तं देवताऽऽदिनिमित्तं बलिकर्म येन स तथा, तथा कृतानि कौतुकान्यवतारणकाऽऽद्दीनि मङ्गलानि च सुवर्णचन्दनदध्यक्षत दूर्वा सिद्धार्थ काऽऽदर्श कस्पर्शनाऽऽदीनि, तथा दुःखप्ना दिप्रतिघातकानि प्रायश्चित्तानि येन स कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः, तथा कल्पितश्चासौ मालाप्रधानो मुकुटश्च २, स तथा विद्यते यस्य स भवति कल्पितमालामुकुटी, तथा प्रतिष शरीरो दृढावयत्रकायो युवेत्यर्थः । तथा - ( बग्घारियं ति ) प्रलम्बितं श्रोणीसूत्रं कटिसूत्रं मज्ञामकलापञ्च येन स तथा, तदेवमसौ शिरसि स्नातः नानाविधविलेपनावलितश्च कण्ठे कृतमालस्तथाऽपरयथोक्तभूषणभूषितः सम्महत्यामुचायाम् - ( मद्दालियाए त्ति ) विस्तीर्णायां कूटागारशालायां तथा मद्दति महालये विस्तीर्णे सिंहाऽऽसने भद्रा ssed समुपविष्टः स्त्रीगुल्मेन युवतिजनेन सार्द्धमपरपरिवा रेण संपरिवृतो वेष्टितो यस्तथा, महता बृहत्तरेण प्रहृत Personal Use Only Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४४) परिसवि(क)जयविभंग भनिधानराजेन्डः । पुरिसवि(च)जयविभंग नाव्यगीतबादितम्यादिरणोदारान मानुष्यकाम् भोगभी. बेगे मभिगिज्झति, अभिझझारा अभिगिम्झति, एस गाम्मुखामी विहरति-प्रषिपरति, विम्भतीत्यर्थः। हाणे प्रणारिए अकेवले अप्पडिपुओं प्रणेयाउए प्रसंसुद्ध तस्स एगमनिमायबेमायरस जाब पत्तारिपंच असलगत्तणे प्रसिदिमम्गे प्रमुचिमग्गे भनिन्यायमग्गे भ. जणा मधुत्ता ष अम्मुईति, भणइ देवाणुप्पिया! णिज्माणमग्गे असम्बदुक्खपहीणमग्गे एगतमिच्छे मसाहु, किंकरेमो ,किंमाहारमो, किं उपणेमो, किमाथि हामो ,कि मेहियं इपिछर्य ,किं मे भासगस्स सय, एस खलु पढमस्य ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एक माहिए । (३२ सूत्र) तमेव पासिचा प्रणारिया एवं पयंति-देवे खनु भयं इत्येतस्य पूर्वोकस्य स्थानस्य ऐश्वर्यलक्षणस्य शुल्गारमूलपुरिसे, देवसिणाए खनु भयं पुरिसे, देवजीवणिजे खनु स्य सांसारिकस्य परित्यागबुझाएके-केचन विपर्यस्तमतयः प्रयं पुरिसे, प्रमेण विच उपजीवति । तमेव पासित्ता पापविकीस्थानेनोस्थिताः परमार्थमजानानाः (मभिगिज्झंमारिया पयंति-अभिकतारकम्मे खलु भयं पुरिसे भ- ति सिमाभिमुण्येन लुभ्यन्ते लोभवशगा भवतीत्यर्थः। तिधुने मायायरक्खे दाहिणगामिए नेपए कयापक्खि- तथापके के वन साम्प्रतक्षिणस्तस्मात् स्थानावनुपस्थिता गृहएभागमिस्साणं दुखामोहियाए यावि भविस्सइ । स्था एष सन्तः (अभिझम ति) भंझा-तृष्णा तदातुरा: तस्पचित्प्रपोजने समुत्पने सति एकमपि पुरुषमा- सन्तोऽप्यस्यर्थे लुभ्यन्ते, यत एवमतो स्थानमनार्याबापयतो यापखवारस पश्च या पुरुषा अनुक्ता एव स नुष्ठानपरत्वादनार्य महापुरुषानुचीणे न भवति,तथा न विय मुपतिष्ठते । ते च किं कुर्वाणाः१, पतवक्ष्यमाणमूचुः । ते केषलमस्मिनित्यकेवलमशुद्धमित्यर्थः। तथेतरपुरुषाची. तपथा-भण-माज्ञापय स्वामिन् ! धन्या यं येन स्वादपरिपूर्ण सद्गुणविरहातुच्छमित्यर्थः। तथा न्यायेन च. भवताऽप्येवमादिश्यन्ते कि कुर्मः । इत्यादि सुगमम् । रति नैयायिक, न नैयायिकमनैयायिकम्-असन्यायवृति. पावसदयेदिलसमिति, तथा किं च ते युष्माकमास्यकस्य कमित्यर्थः। तथा 'रगे लगे' संवरणे, शोभनं लगनं-संवरणम् मुखस्य स्वदते स्वादु प्रतिभाति?, यदिवा-यदेवास्य भवदी. इन्द्रियसंयमरूपं सल्लगस्तद्भावः सल्लगस्त्रं न विद्यते समपास्यस्य सषति निर्गच्छति तदेव वयं कुर्म इति । तथा गस्वमस्मिनित्यसलगत्वम् । इन्द्रियासंवरणरूपमित्यर्थः । य. तमेवेत्यादि । तमेष राजानं तथा क्रीडमान वा अन्येऽनार्या दिवा-शल्यवच्छल्य-मायानुष्ठानमकार्य तद्रायति-कधएवं वदन्ति । तपथा-देवः खल्वयं पुरुषस्तथा देवस्नातको पति, तच्छल्यगं यत्परिक्षानं तन्मात्रेत्यशल्यगत्वमिति । देषभेष्ठो बाहुनामुपजीव्यः तथा-तमेवं साम्प्रतेक्षितया सदनु तथा न विद्यते सिद्धर्मोक्षस्य विशिष्टस्थानोप लक्षितस्य डायिन एाभार्या-विवेकिनः सदाचारयन्त एवं घुयते। तद्य मागों यस्मिस्तदसिद्धिमार्ग, तथा न विद्यते मुक्तपा-मभिकान्तक्रूरकर्मा खल्वयं पुरुषो,हिंसाऽऽदिक्रियाप्रवृत्त रशेषकर्मप्रच्युतिलक्षणाया मार्गः सम्यग्दर्शनशानचारित्रा-- इत्यर्थः, तथा धूयते-रेणुवायुना संसारचक्रवाले भ्राम्यते ऽऽत्मको यस्मिस्तवमुक्तिमार्ग, तथा न विद्यते परिनिर्वृतेः प. गतवतं-कर्म, औणाऽऽदिको नक्प्रत्ययः। अतीव-प्रभूतं रिनिर्वाणस्याऽऽत्मस्वास्थ्याऽऽपत्तिरूपस्य मार्गः-पन्था ब. भूतमप्रकार कर्म यस्य सोऽतिधूतः, तथाऽतीवाऽऽरम स्मिन् स्थाने तदपरिनिर्वाणमार्ग,तथा न विद्यते सर्वदुःखानां मा पाप कर्मभिः रक्षा यम्य सोऽस्यात्मरक्षा , तथा शारीरमासानां प्रक्षयमार्गः सदुपदेशाऽऽत्मको यमिस्तद. पशिणस्यां विशिगमनशीलो दक्षिणगामुकःविमुक्तं भवति सर्वदुःखप्रक्षीणमार्ग, कुत एवंभूतं तत्स्थानमित्याशस्क्याss बाहिरकर्मकारी साधुनिम्दापरायणस्तहाननिषेधकः स ह-(पगंतेत्यादि) एकान्तेनैव तत्स्थानं यतो मिथ्याभूतं मि. ध्यात्वोपहतबुद्धीनां यतस्तद्वत्यत एवासाभवसङ्घसस्वात् पसिणगामुको भवति-दाक्षिणात्येषु नरकतिर्यग्मनुष्या. न ह्ययं सत्पुरुषसेवितः पन्थाःयेन विषयान्धाः प्रवर्तन्त इति । मरेषु उत्पचते, तारभूतश्चायमतो दक्षिणगामुक इत्युक्तम् । तदयं प्रथमस्य स्थानस्याऽधर्मपाक्षिकस्य पापोपादानभूतस्य पवमेवाड-(नेराप इत्यादि) नरकेषु भवो नारकः, कृष्णः विभङ्गो-विभागो विशेषः स्वरूपमिति यावत् ५७ । पक्षोऽस्यास्तीति कृष्णपाक्षिकः, तथा अागामिनि काले भरकादुद्धत्तो दुर्लभबोधिकश्चायं बाहुल्येन भविष्यति । साम्प्रतं द्वितीयं धर्मोपादानभूतं पक्षमाधिस्याऽऽहबबमुक्तं भवति-दिक्षु मध्ये दक्षिणा दिग् प्रशस्ता गतिषु महावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवनरकगतिः, पक्षयोः कृष्णपक्षः, तदस्य विषयान्धस्येन्द्रियानु माहिजइ-इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाकुलपतिमा-परलोकनिस्पृहमतेः साधुपद्वेषिणी दानान्तराय. विधायिमो दिगादिकमशस्तं दर्शितम् , अभ्यदपि यदशस्तं हिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति । तं जहा-श्रारिया वेगे तिर्यगत्यादिकमबोधिलाभाऽऽविकं च तद्योजनीयमस्येति । प्रणारिया वेगे उच्चागोया वेगेणीयागोया वेगे कायमंता वेगे एतविपरीतस्य तु विषयनिःस्पृहस्य इन्द्रियाननुकूलस्य प. हस्समंता वेगे सुवना वेगे दुनना बेगे सुरूवा वेगे दुरूवा रोकभीरी। साधुप्रशंसावतः सदनुष्ठानरतस्याऽदक्षिणगा. बेगे, सेसि च णं खेत्तवत्थूणि परिग्गहियाई भवंति, एसो प्रकत्वं सुदेषस्वं शुक्रपाक्षिकत्वं तथा सुमानुषत्वाऽऽयातस्य सु. नभबोधित्वमिस्येवमादिकं सशर्मानुष्ठायिनः सबै भवतीति । भालाबगो जहा पोंडरीर तहा तमो, तेणेव अभिलासाम्प्रतमुपसंजिघृशुराह वेण जाव सरोवसंता सबसए परिनिबुडेत्ति बेमि । इषेयस ठाणस्स उहियावेगे अभिगिज्झति,अणुट्टिया- एस ठाणे पारिए केवले. जाव सम्मकावप्पहीणमग्गे ए Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४५ पुरिसपि(जयविभंग अभिधानराजेन्द्रः। पुरिसधि(च)जयविभंग गंतसम्मे साहु,दोग्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स बिमंगे को साम्पतं तदाधिताः स्थानिमोऽभिधीयते, यदि वा-प्राशन. मेवाम्येन प्रकारेण विशेषिततरमुच्यते-तत्राऽऽयमधार्मिकएयमाहिए । (३३ सूत्र) स्थानकमाधिस्याह(महावरेस्यादि) प्रथेति-अधर्मपाक्षिकस्थानादनम्तरमयमा महाऽबरे पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवपर द्वितीयस्य स्थानस्य धर्मपाक्षिकस्य पुण्योपादानभूतस्य | माहिजइ-इह खलु पाईगंवा, पडीणं वा उदीणं वादाविभको-विभागः सहर्ष समाधीयते-सम्यगास्यायते । त- हिणं वा संगतिया मणुस्सा भवंति-गिहस्था महिला पथा-प्राचीनं प्रतीचीनमुखीची दक्षिणंबा दिग्विभागमा | महारंभा महापरिग्गहा अधम्मिया अधम्माणुया अधभिस्य सम्ति विचम्ते एके केचन कल्याणपरम्परामाजः मनुप्याः, पुरुषाःते बबच्यमाणखभाषा भवन्ति । तयथेस्ययमु म्मिट्ठा प्रधम्मक्खाई मधम्मपायजीविणो अधम्मपलोई पप्रदर्शनार्थः,भार्या एके-केचनाऽऽयदेशोत्पन्नास्तथा अनार्याः अधम्मपलजणा अधम्मसीलसमुदायारा अधम्मेणं चेव शकययनशवरबर्बराऽऽदय इत्यावं यथा पौण्डरीकाध्ययने वित्ति कप्पेमाणा विहरति ।। तथेहाऽपि सर्व निरषयवं भणितव्यम् । (तच 'पुंडरीय'शम्बे. अथापर:-अम्यः प्रथमस्य स्थानस्याऽधर्मपाक्षिकस्य विभक्तो ऽस्मिन्नेव भागे गतम्) याषते एवं पूर्वोक्न प्रकारण सर्वे विभागः स्वरूपं व्याख्यायते-(इह खलु इत्यादि) सुगम, या भ्यः पापस्थानेभ्य उपशान्ता तथा प्रतः एव सर्वाऽऽस्मत- | धम्मनुष्या एवं स्वभावा भवान्तीति । एते च प्रायो गृहस्था या परिनिर्वृता इत्यहमेवं ब्रवीमि । तदेवमेतत्स्थानं कैवलिक एवं भवन्तीत्याह-(महेच्छा इत्यादि) महती-राज्यविभवपप्रतिपूर्ण नैयायिकमित्यादि प्राग्रद्विपर्ययेण नेयं यावत् द्विती. रिवारादिका सर्वातिशायिनी इच्छा-अन्तःकरणप्रवृत्तिर्येषां यस्य स्थानस्य धार्मिकस्यैष विभको-विभागः-स्वरूपमाख्या- ते महच्छाः,तथा महानारम्भो-वाहनोटमण्डलिकागवीप्रयातमिति ॥ ३३॥ हकृषिषण्डपोषणाऽऽदिको येषां ते महाऽऽरम्भाः,ये चैर्वभूतासाम्प्रतं धर्माऽधर्मयुक्तं तृतीय स्थनामाश्रित्याऽऽह- । स्त महापरिग्रहा:-धनधान्यद्विपदचतुष्पदवास्तुक्षेत्राऽऽदिप रिग्रहवन्तः कचिदप्यनिवृत्ताः अत एवाधर्मेण चरन्तीत्यधाप्रहावरे तबस्स ठाणस्स मिस्सगस्स विभंगे एवमाहि मिकाः, तथाऽधर्मिष्ठा निस्त्रिंशकर्मकारित्वादधर्मबहुलाः,तत. बइ-जे इमे भवंति प्रारमिया पावसहिया गामणियं- श्चाधर्मे कर्तव्ये अनुशा-अनुमोदनं येषां ते भवत्यधर्माऽनुशाः, तिया कएहुईरहस्सिता जाव ते तो विप्पमुञ्चमाणा भु- एवमधर्मम् श्राख्यातुं शीलं येषां ते तथा, एवमधर्मप्रायजी जो मुजी एलचूयत्ताए तमूताए पञ्चायंति, एस डाणे अणा नः,तथा अधर्ममेव प्रविलोकयितुं शीलं येषां ते भवम्त्यधर्मप्र विलोकिनः, तथाऽधर्मप्रायेषु कर्मसु प्रकर्षेण रज्यन्त इति - रिए अकेवले जाव असम्बदुक्खपहीणमग्गे एगंतमिच्छे धर्मप्ररक्ताः।"रलयोरैक्यम्" इति रस्य स्थाने लकारोऽत्र कृत इ असाह, एस खलु तच्चस्स ठाणस्स मिस्सगस्स विभंगे एव- ति, तथाऽधर्मशीला अधर्मस्वभावास्तथाऽधर्माऽत्मकः समु. माहिए। [३४ सूत्र ] दाचारो यत्किञ्चनानुष्ठानं येषां ते भवन्त्यधर्मशीलसमुदा चाराः,तथाऽधर्मेण-पापेन सावद्यानुष्ठाननैव दहनाङ्कननिा . अथापरस्तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकाऽऽस्यस्य विभको-वि छनाऽऽदिकेन कर्मणा वृत्तिर्वर्तनं कल्पयन्तः-कुर्वाणा विहरभागः-स्वरूपमाख्यायते-अत्र चाधर्मपक्षण युक्तोऽधर्मपक्षो न्तीति-कालमतिवाहयन्ति । मिश्न इत्युच्यते, तत्राऽधर्मस्येह भूयिष्ठत्वावधर्मपक्ष एवायं पापानुष्ठानमेव लेशतो दर्शयितुमाहद्रष्टव्यः। एतदुक्तं भवति-यद्यपि मिथ्यादृष्टयः काश्चित्-तथा इण छिन्द भिन्द विगत्तगा लोहियपाणी चंडा रुद्दाखुद्दा प्रकारां प्राणातिपाताऽऽदिनिवृत्ति विवधति, तथाऽप्याशयाशुद्धत्वादभिनवे पित्तोदये सति शर्करामिश्रक्षीरपानवधर साहस्सिया उकुंचववंचणमायाणियडिकूडकवडसाइसंपओ प्रदेशवृष्विद्विवचितार्थासाधकस्याधिरर्थकतामापद्यन्ते, नतो गबहुला दुस्सीला दुव्वया दुप्पडियाणंदा असाह सम्बामिथ्यात्वानुभावात् मिश्रपक्षोऽप्यधर्म एवावगन्तव्य इति । श्रो पाणाइवायाो अप्पडिविरया जावजीवाए. जाव सएतदेव दर्शयितुमाह-(जे इमे भवंतीत्यादि) ये इमे अनम्त- वाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया जावजीवाए सव्वारमुच्यमाना अरण्य चरन्तीत्याररियकाः कन्दमूलफला- | ओ कोहाओ० जाव मिच्छादसणसलामो अप्पडिविरया, शिनस्तापसाऽऽदयो,ये चावसथिका आवसथा-गृद्ध तेन च | सव्वाश्रो एहाणुम्मद्दणवणगगंधविलवणसद्दफरिसरसरूवरन्तीत्यावसथिका गृहिणः, ते च कुतश्चित् पापस्थानाधिवृत्ता अपि प्रबलमिथ्यात्वोपहतबुद्धयः, ते यद्यप्युपवासा गंधमन्त्रालंकाराश्रो अप्पडिविरया जावजीवाए सन्यानो ऽऽदिना महता कायकलशन यगतयः केचन भवन्ति,नथाs सगडरहजाण जुग्गगिल्लिथिलिसियासंदमाणियासयणासपि ते आसुरीयेषु स्थानेषु किल्विषिकेषूत्यन्त इत्यादि णजाणवाहण भोग भोयणपवित्थरविहीनो अप्पडिविरया सर्वे पूर्वोकं भणनीयं यावत्ततश्च्युता मनुष्यभवं प्रत्याया- जावजीवाए सब्बाओ कयविक्कयमासद्धमासरूवगसंववहाराता पलमूकत्वेन तमोऽन्धतया जायन्ते । तदेवमेतत्स्थाम ओ अप्पडिविरया जावजीवाए सव्वाश्रो हिरमसुवमधणधमनार्यमकेवलम् असंपूर्णमनैयायिकमित्यादि यावदेकान्तमिथ्याभूतं सर्वथैतदसाध्धिति, तृतीयस्थानस्य मिश्रकस्या ममणिमोत्तियसंखसिसप्पवालाओ अप्पडिविरया जायजीय विभ-विभागः स्वरूमाण्यातमिति । उक्नाम्यधर्मधर्म-बाए सवाया कूडतुलकूडमाणाश्रो अप्पडिविरया जावजीमिथस्थानानि ॥ ३४॥ . ..... | पाए सव्वानो प्रारंभसमारंभाओ अप्पडिविरया जावीवाए Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिस जयवि मंग सब्दाओं करणकारापगाओ अप्पडिविरया जाबजवाए स वावा अपदिविरयां जावजीवा स याओ पिङ्गतजगाताडावर किल्लेमाओडिरिया जालवाए, जे आव तप्यगारा जे सावजा बोहिया कम्मता परपाण परियावणकरा जे अणारिए हिं कांति ततो अप्पद्विविरया जावजीबाए । ( २०४६ ) अभिधान राजेन्द्रः । 9 (हण छिंद दि इत्यादि ) स्वत एव हननाऽऽदिकाः क्रियाः कुर्यागा नाममादेशं ददर्शन-दण्डादिभिस्तत्कारयस्ति तथा छिन्धि कणीऽऽदिकं भिन्धि missfदना. चिर्तकाः प्राणिनामजिनापनतारोऽत एवं लोहितपाण्यः तथा चडा रौद्रा-नित्रिंशाः क्षुद्राः क्षुद्रककारित्वात् तथा साहसिका श्रसमीक्षितकारिणः, तथा उकु अन्य अनमाया निकृतिकृटकपटाऽऽदिभिः सहाययांगो - गाये तन बहुलास्तत्प्रचुरास्ते तथा तत्रार्ध्व कुश्ञ्चनं लाचार तथा कुमारः प्रद्योतमणिकाभिधनिया पश्चितः मायावचनद्धिः गजाविनिकृतिस्तु डादिकरन प्रधानधित्रिय पर कानामिवास्थान देशभाषानेपथ्यादिविष ययकरणं कपटं यथा श्रापाढभूतिना नटेनेचा परापरचेपपरावृत्याचार्योपाध्यायका . - कूर्दतु दे नाधिककरणम्, (, एतैरुत्कुञ्चनाऽऽदिभिः सहातिशयन संप्रयोगा, यदि वा सातिशयेन इत्येकका दिनापरस्य द्रव्यस्य संप्रयोगः सातिसंप्रयोगस्तद्बहुलास्तत्प्रधाना इत्यर्थः । उक्क्रंच - "सो होइ सातिजोगो. दव्यं जं छादियादध्वसु । दोसगुणावयसु य, श्रत्थविसंवाय कुरा ||१|| अन यो मायाया इन्द्रक ञ्चित् क्रियाभेदेऽपि द्रष्टव्याः । तथा दुष्टं शीलं येषां ते दुःशीलाश्चिरमुपचरिता अपि क्षिप्रं विसंवदन्ति • दुःखानुमया: दारुणस्वभावा इत्यर्थः । तथा दुष्टानि व्रतानि येषां ने तथा, यथां मांसभक्षणयतकालसमाप्ती प्रभूततरमवाप घातेन सदनम् अन्य भोजन दुष्ट व्रतमिति, तथाऽन्यस्मिन् जन्मान्तरं मधुमद्यमांसाऽऽदिकभभ्यवहरिष्यामीत्येवमज्ञानान्धा जन्मान्तरविवि मनि दानमेव व्रतं गृह्णन्ति तथा दुःखन प्रत्यानन्द्यन्ते दुष्प्रत्युपनन्द्याः । इदमुकं भवति तेरानन्दनेनारंग केनचिन्प्रत्युप कारेष्ना गर्वाssध्माता दुःखन प्रत्यानन्द्यन्ते यदि वा सत्यप्युपकारे प्रत्युपकारभीरखां नैवाऽऽनन्द्यन्ते प्रत्युत-शउतयोपकार दोपमेोत्पादयन्ति तथा चोक्तम्- " प्रतिकर्तुमशक्लिष्ठाः, नराः पूर्वोपकारिणाम् । दोषमुत्पाद्य गच्छन्ति, मद्गूनामिव वायसाः ॥ ६ ॥ " यत एवमताऽसाधवस्ते पापकर्मकारित्वात् तथा यावज्जीवं यावत्प्राणधारगन सम्मानपानाद्यनिरिता लोकनिन्दनीयापि प्रा ह्मणघानाऽऽदेवरता इति सर्वग्रहणम् एवं सर्वस्मादपि कृ साक्ष्यादेरप्रतिविरता इति तथा सर्वमान्स्त्रीबालाऽऽदेः परस्याहरणादरिताः तथा सर्वस्मान्परमन नादवताः एवं परिग्रहाद नियति " 1 पुरिसवि (च) जयवि मंग साधनमाचरना तथा कलहाभ्याख्यानपैशुन्य पर परिवादाऽरतिरतिमायामृषावादमध्यादयोऽनुभ्या तिविरता भवन्ति इति । तथा सर्वस्मात्स्नानोन्मर्द नवकवि पपरीकपरसगन्धमालद्वारा कामान्मादजनि तादतिथिरता यावयति इदयग्र शेपाऽऽपादक लोभाऽऽदिकं गृह्यते, तथा सर्वतः शकटस्था शेषादिकात्यतिविस्तरविधेः परिकर - 'ग्रहादप्रतिविरताः, इह च शकटरथाऽऽदिकमेव यानं शकटरथयानं, युग्यं पुरुषात्क्षिप्तमाकाशयानं (गिल्लि त्ति) पुरुषद्वयाक्षिप्ता भोल्लिका । (थिलि त्ति) वेगसराद्वयविनिर्मिता यानविशेषः । तथा (संदमाणियत्ति ) शिविका विशेष पव तदे यदि परियारभूतावित या सर्वतः सर्वस्मात् क्रिया करता या मा कार्यवायकरूपकादिनिया 55मकः संव्यवहारस्तस्मादविरता यावज्जीवयति, तथा सर्वस्माद्रिप्रधानता तथा टमानाऽऽदेरविरताः, तथा सर्वतः कृषिपाशुपाल्याऽऽदेर्यत्स्व तः करणमन्येन च यत्किञ्चित्कारयति तस्मादविरताः, तथा पचनपाचनतः तथा कण्डनकुट्टापट्टनन जनताडनबधवन्धाऽऽदिना यः परिक्लेशः प्राणिनां तस्मादविरताः । साम्प्रतमुपसंहरति ये चान्ये तथाप्रकाराः परपीडाकारिणः सावयाः कर्मसमारम्भा वोधिकाः- बोद्धयभावकारिणः तथा परमापरितापनकरा गोग्राह वन्दिग्रहग्रामघानाऽऽत्मकाः येऽनायैः क्रूरकर्मभिः क्रियन्ते ततोऽप्रतिविरता यावज्जीवयेति । पुनरन्यथा बहुप्रकारमधार्मिकप " प्रतिधिपादयिषुराह से जहागामए केइ पुरिने कलममसूर तिलमुग्गमासनिफाकुलत्थयालिमंदगपलिमंथगमादिएहिं अयंते करे मिच्छा पनि एवंमेव तपगारे पुरिसजाए निभिरचट्टगलावगकवोतकविजलमियम हिसवराहगाहगाह कुम्म सिरिसिवमादिएहिं अयंते क्रूर मिच्छादंड पउंजंति, जावि य से बाहिरिया परिसा भव । तं जहा-दामे वा पसेड़ वा भएइ वा भाइले कम्मकरएड वा भोगपुरिसेइ वा पिय से अन्यरंस वा अहालदुर्गति अवराति सयमेव गरुयं दंड निवत्नेड् । तं जहा - इमं दंडेह, इमं मुंडह, इमं नजेह, इमं तालेह, इमं अदुयबंधं करह, इमं नियलबंधणं करह, इमं हड्डिबंध करेह, इमं चारबंध करह, इमं नियलजुयल संकोधिय मोडिये करह, इस हत्थच्छिन्नयं करह, इमं पायच्छिन्न कंरह, इमं कन्नपि करे, इमं नकोदुमीममुहच्छिन्नयं करेह, इमं वेयगछहियं अंगछहियं पक्खाफोडियं करेह, इमं यणुष्पाडियं करेह, इमं दंसणुष्पाडियं चमगुष्पाडियं जिन्भुष्पाडियं ओलंचियं करह, घमियं करह, घोलिये कर लाइ करेह, मूलाभिनय करे, खारवनियं करंट, पञ्चपचिपं फरह, सहपुच्यिगं करेह समप Page #1070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसवि (च) अपविभंग aari करेह, carगयंग कागणिर्भसक्वावियंगं भत्तपायनिरुद्ध हमें जावजी वह करेह इमे अभय रेगे असुभेण कुमारेणं मारह | तद्यदर्शनार्थो नामशब्दः संभावनायां संमापते अ स्मिन्दिचित्रे संसार भूताः पुरुषा ये कलममूरति कचनवंभूताः लमुद्गाऽऽदिषु पचनपाचनाऽऽदिकया क्रियया स्वपरार्थमयता श्रप्रयत्नवन्तो निष्कृपाः क्रूरा मिथ्यादण्डं प्रयुञ्जन्ति, मिध्येय अपराधिध्ये दोषारोप्यो धति तथैवमेव-प्रयोजनं विनैव तथाप्रकाराः पुरुषा निष्करुका जननिरतातिनिवर्तकलायादिषु जीवनप्र येषु प्राणिवयताः क्रूरकर्माणो मिथ्या दण्डं प्रयुञ्जन्ति । तषां रथा राजा तथा प्रतिपरिवारो ऽपि तथाभूत एव भवतीति तथा दर्शयितुमाह - ( जावि य से इत्यादि) याऽपि च तेषां वाह्या पर्षद्भवति । तद्यथा-दासः स्वदासीसुतः प्रेष्यः योग्य नृत्यदेश्यो भूतको बेननेनादाऽऽद्यानयनविधायी तथा भागिका यः पष्ठांशाऽदिलान कृष्यदौ व्याप्रियते, कर्मकरः प्रतीतः तथा नायकांऽऽक्षितः कश्चिद्धोगपरः, तदेवं ते दासाऽऽदयोऽन्यस्य लघावप्यपराधे गुरुतरं दण्डं प्रयुञ्जन्ति प्रयोजयन्ति च । स च नायकस्तेषां दा सादीनां बाह्य पद्भूतानामन्यतरस्मिंस्तथा लघावप्यपराधे शब्दश्रवणाऽऽदिके गुरुतरं दण्डं वक्ष्यमाणुं प्रयुङ्क्ते । तद्यथाइमं दास प्रध्याऽऽदिकं वा सर्वस्वापहारेण दरोडयत यूयमित्या दि सूत्रसिद्धं यावदिममन्यतरेणाशुभेन कुत्सितमारण व्यापादयत यूयम् । ( १०४७ ) अभिधानराजेन्द्रः । " जाविप से भरिया परिसा भव । तं जहा मायाइ वा पियाइ वा भायाइ वा भगिणीइ वा भजाइ वा पुनाइ बाताइबा सुदाइ वापि अपरं बहालहूगंमि वराहंसि सयमेव गरुयं दंडं वित्तेइ, सीओदगविय डंमि उच्छलता भवह जहा मिनदोसवसिए ०जाय अहिए परंसि लोगांसे, ते दुक्खंति, सोयंति, जूरंति, तिप्पंति, प्रिवृति, परितप्पंति ते दुक्खण सोयराज्ररणतिष्पणपिट्टण परितप्पणवहबंध परिकिलेसाओ अप्पडिविरया भ वंति । याsपि च कर्मवतामभ्यन्तरा पर्षद्भवति । तद्यथा-मातापिचादिका, मित्रदोषत्यधिक क्रियास्थान बंद नेयं यावदहिलोकइतिपयकारी पर स्मिपि लोके नंदवं तं मातापित्रादीनां स्वल्पापराधिनामपि गुरुतरामा पन्ना पायैस्तयां शाकमुपादयन्ति शोकयन्ति इत्यने हुप्रकारपीडोत्पादका- यावद्वधयन्धपरिक्लेशादप्रतिविरता भ यन्ति । ते च विषयाऽसकृतया एवत्कुर्वन्ति इति, न दर्शयिनुवादगिद्धा गंडिया अमो वालाई उपंचमाई समाई वा अप्पतरो पुरिमवि(च) जयविभंग वा भुञ्जतरो वा कालं भुंजित भोगभोगाई पत्रिमुत्ता बेरायताई संचिणिता बहूई पावाई कम्माई उत्सन्नाई सेभारकडेय कम्मला से वहाणाम अवगीले वाली लेड वा उदगंसि पनि उद्गतलमवना आहे घर शितलपड्डु। म एवमेव हत्यारे पुरिसजति बहुले पंकबहुले वेवत्रुले अप्पत्तियःबहुले दंभवहुले गियडियले साइबहुले अयसवहुँले उस्सन्नतपाणघाती कालमासे कालं किच्चा घरतिलमत्ता हे रगतलपट्टा भव । (२५) , बहुले ( एवमेव इत्यादि) एवमेव पूर्वोक्तस्वभात्रा एवं ते निकृपा, निरनुक्रोशा बाह्याभ्यन्तरपर्षदोरपि कर्णनासाविकनाऽऽदिना दण्डपातनस्वभावाः स्त्रीप्रधानाः कामाः स्त्रीकामाः । यदि वा स्त्रीषु मदनकामविषयभूतासु कामेषुच शब्दाऽऽदिषु इच्छा वा प्रथिता अयुपपन्नाः एते च शक्रपुरन्दरादिवत्पर्यायाः कथया ऽऽश्रित्य व्याख्येयाः, ते च भोगाऽऽसक्का व्यपगत परलोकाडव्यवसाया यावद्वर्षाणि चतुः पञ्च षद् सप्त घा दश वाऽल्पतर वा कालं प्रभूततरं वा कालं भुक्त्वा भागभागान् इन्द्रियानुकृजानू मधुमद्यमांसपरदारासयनरूपान् भोगाइसकलया व परपोत्पादनो पैराला राधानुपा द्य-विधाय तथा संचयित्वा संचिन्त्योपचित्य बहूनि प्रभूतततरकालस्थितिकानिक काकानि नरकादिषु या तनास्थानेषु क्रकचपाटनशाल्मल्य व रोहनप्त्रपुपाना जन्मका नि कर्माण्यप्रकाराणि बद्धस्पृष्टनिघत्तनिकाच नाव स्थानि विधानसंचारकर्तन कर्माप्रार वो वा नरकनलप्रतिष्ठाना भवन्तीत्युत्तरक्रिययापादितवहुवचनरूपयेति संबन्धः । श्रस्मिन्नवार्थे सर्वलोकप्रतीत ह प्रान्तमाह ( से जहागामए इत्यादि ) नद्यथानामाऽयांगोलको पशिलको वृत्ताश्शकले वा उनके प्रक्षिप्तः समानः सलिलमनि अनला तलप्रतिष्ठानां भवति । अधुना दान्तिकमाह - ( एवमेवेत्यादि) यथाऽसावयोगालको न्यारीयमेवाधा त्येवमेव तथाप्रकारः पुरुषजातः । तमेव लेशता दर्शयतिवज्रवद्वज्र गुरुत्वात्कर्म तद्बहुलः – तत्प्रचुरः बध्यमानककर्मगुरुरित्यर्थः तथा घूयत इति धूतं प्रावद्धं कर्म तत्चुरः पुनः सामान्यनाऽऽह - पङ्कयति इति पङ्कम् -पातल तथा संदेयार दर्शमाह - रानुबन्धप्रचुरः, तथा ( अपत्तियं ति ) मनसो दुष्प्रणिधानं तत्प्रधानः तथा दम्भो मायया परवञ्चनं तदुत्कटः तथा निकृतिः -- माया वेषभाषा परावृत्तिछद्मना परद्रोहबुद्धिस्तन्मया तथा खानियल इति सातिशयन पेपरस्य हीनगुणस्य द्रव्यस्य संयोगः सातिस्तद्रहुलः तत्करणप्रचुरः, तथाऽयशः- श्रश्लाघा असद्वृत्ततया निन्दा, यानि यानि पराभूतानि कर्मानुष्ठानानि तेषु तेषु कर्मसु करचरमादिषु पश्रीभाग्भवतीति । एवंभूतः पुरुषः कालमासे खायुषः पृथि क्षये कालं कृत्वा - 9 . Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४०) पुरिसषि(ब)जयविभंग अभिधानगजेन्द्र:। पुरिसवि(जयविभंग ज्या-रसप्रभाऽऽविकायास्तलमतिवर्य-योजनसानपरिमा- पवडति, एषामेव तहप्पगारे पुरिसजाए गम्भातो गम्भ ज. णमतिलापनरकतलप्रतिष्ठानोऽसौ भवति । मातो जम्मं मारामो मारं गरगामी परग दुक्खाभी दु. मरकसरूपनिरूपणायाssतेणं गरगा तो वहा माहिं चउरसा अहे खुरप्पंसठाण पसं दाहिणगामिए, ओरल काहपक्खिए भागमिस्साणं संडिया णिचकारतमसा बवगयगहचंदसूरनक्सत्तजो दुखभवोहिए. याषि मवइ. एस ठाणे मणारिए अकेषले इसप्पहा मेदवसामंसरुहिरपूयपडलचिक्खिलिताणुलेव जाब भसध्यदुक्खपहाणामग्गे गंतमिप्रसाह पढम स्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एबमाहिए । बसला असुई बीसा परमम्मिगंधा करहा भगणियमामा फक्खरफास्त दुरहियासा भसुभा गरगा प्रसुभा शरएसु (से जहाखामा स्यादि) तपथानाम कश्चित् पशः पर्षताबेयखायो। प्रे जातो मूले चिन्नाशीनं यथा मिसे पतति , एबमसासमिति बाण्यालबारे मरकाः सीमन्तकादिका बार- बण्यसाधुकर्मकारी सत्कर्मवारितः शीघ्रमेव नरके पतस्थमडीकस्याम्तमध्ये इत्ता बहिरपि चतुरक्षा अधश्च जुर- ति, ततोऽप्युवृत्तो गर्भावर्भमवश्यं याति तस्य किप्रसंसासंस्थिता । एतच्च-संस्थानं पुष्पाबंकीर्णानाधि- चित्राणं भवति, यावदागामिन्यपि कालेऽसौ दुर्लभधर्मप्रतिज्योक मामेव प्रचुरवात, प्रालिकाप्रविष्टास्तु वृत्त- पत्तिमक्तीति । साम्प्रतमुपसंहरति-(पस ठाणे इत्यादि) ऽयमचतुरखासंस्थाना एक भवन्ति, तथा नित्यमेवा- तदेतत्स्थानमनायें पापानुष्ठानपरत्वाधायदेकान्तमिथ्याकचतमसं येषु ते नित्यान्तमसाः । कचित्पाठो-नित्यान्ध- पमसाधु । तदेवं प्रथमस्याधर्मपाक्षिकस्थ: स्थानस्य विभका कारतमसा पति , मेघवम्छन्नास्वरतलकृष्णपक्षरजनीवत् । विभागः स्वरूपमेवं व्याख्यातः॥ ३७॥ समोबहुलाः, तथा व्यपगतो महवन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिःपथो महावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपखस्स विमंगे एवमायेषां ते तथा पुनरप्यनिष्पादनार्थ चामेव विशेषणान्या. हिज्जइ-इह खलु पाईखे कापडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा ह-(मेदवसेत्यादि) दुकृतकर्मकारिण ते नरकास्तदुःखोस्पादनायचभूता भवन्ति तद्यथा-मेदोवसामांसरुधिरपूयाss संतेगतिया मगुस्सा भवंति। तं जहा-अनारंभा अपरिगहा दीना पटलानि सङ्कास्तलितानि पिच्छिलाकृतान्यनुलेपनत धम्मिया धम्माणुया धम्मिट्ठा जाव धम्मेणं चेव वित्ति लानि अनुलेपनप्रधानपनि तलानि येषां ते तथा, अशुचयो कप्पेमाणा विहरंति.सुसीला सुब्बया सुप्पडियाणंदा सुसाहू विष्ठाऽसक्केदप्रधानत्वादत एवं विश्राः कुथितमासादिक सधतोपाखातिवायानो पडिविरया जावजीवाए.जाव जेल्पकर्दमाऽवलिप्तत्वात् , एवं परमदुर्गन्धाः कुथितगोमायुकले यावन्ने तहप्पगारा सावजा अघोहिया कम्मंता परपाणपरिपरावपि प्रसह्यगन्धा,तथा कृष्णानिवर्णाभा रूपतः, स्पर्शस्तु यावण करा कजंति ततो विपडिविरता. जावजीवाए। कर्कशः कठिनो बजकस्टकादयधिकतरः स्पों येषां ते तथा किंबहुना?,मसीव दुःखेनाधिसामन्ते,किमितिः, यतस्ते नर अथाऽपरस्य द्वितीयस्य यिभका विभागः स्वरूपमेवं वक्ष्य माणनीत्या व्याख्यायते । तद्यथा-(इह खलु इत्यादि) प्राकाः पशानामपीन्द्रियार्थानामशोभनन्वादशुभाः तत्रच स व्यादिषु मध्येऽस्यतरस्यां दिशि सन्ति विचन्त, ते वंभूता स्वानामशुभकर्मकारिणामुनप्रदण्डपातिनां च बजप्रबुराणां भवन्तीति । तद्यथा-न विद्यते सायद्य प्रारम्भो येषां त तथा, सीमा अतिदुःसहवेदना: शारीराः प्रादुर्भवन्ति। तथा अपरिग्रह निकिश्वनाधर्मेण चरन्तीति धार्मिकाः या. यो चेव परएसुनेरइया खिदायति वा,पयलायति वा,सुई पद्धगवात्मनो वृत्ति परिकल्पयन्ति,तथा सुशीला: सुबताः या रतिं वा धिति वा मर्ति वा उपलभंते, ते शं तत्थ उज्ज- सुप्रत्यानन्दाः सुसाधवः सर्वस्मात्माणातिपाताद्विरता एवं लं विउलं पगाढं कडुयं कक्कसं चंडं दुक्खं दुग्गं तिब्वं दुर- यावत्परिग्रहाद्विरता इति । तथा ये चान्ये तथाप्रकाराः हियासं णेरड्या वेयणं पञ्चांम्भवमाया बिहरंति (चिट्ठति)। सावद्या प्रारम्भा यावरबोधिकारिणस्तेभ्यः सर्वेभ्यों अपि वि. रता इति । सत्र०२ श्रु०२०। (अनगारवर्णकः 'अणगा(३६ सूत्र) रगुण' शब्छे प्रथमभागे २७८ पृथे उक्तः) तया च वेदनयाऽभिभूतास्तेषु नरकेषु मारका यातनिमेषमपि काले निद्रायन्ते,नाप्युपविष्टाऽऽधस्था अक्षिसं एगच्चाए पुण पगे भयंतारो भवंति, अवरे पुण पुख्खकोचनरूपामीपनिद्रामयाप्नुवन्ति,न यंभूतयेदनाऽभिभून कम्मावसेसेणं कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएस्य निद्रालामो भवतीति दर्शयति, ताज्ज्वला तीवा- सु देवत्ताए उववत्तारो भवंति । ते जहा-महडिएम नुभावनोत्कटामित्यादिविशेषणविशिष्टा यावद्वेक्यन्स्पनुभव- महज्युतिपसु महापरक्कमेसु महाजमेसु महाबलेसु महाणुभान्तीति ॥ ३६॥ वेसु महासुखेसु तेषं तस्थ देवा भवेति महड्डिया महज्जुअयं तायदयोगोलकपाषाणदृष्टान्तः शीघमधोनिमजनार्थप्रतिपादकः प्रदर्शितोऽधुना शीघ्रपातार्थप्रतिपाय तियाजाव महासुस्खाऽऽहारविराइयवच्छा कडगतुडियर्थकमेवापररष्टान्तमधिकृत्त्याऽऽह भियभुया अंगयकुंडलमहगडपलकमपीरधारी विचित्तहसे जहाणामए रुक्खे सिया पब्बयग्गे जाए मले छिन्ने स्थाभरणा विचित्तमालामउलिमउडा कल्लाणगंधपवरवभग्मे गरुए जो णि जो विसमं जो दुग्गं तो स्थपरिहिया कल्लाणगपवरमवाणुलेवणधरा भासुरबोंदी Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (१०४१) पुरिसवि(च)जयविभंग प्रन्निधानराजेन्दः । पुरिसवि(च)जयविभंग पलंबवणमालधरा दिव्षेणं रूवेणं दिध्येणं वणं दिव्येण धर्ममिति स्थितं धार्मिकपक्ष पवायम् । हास्मिम् जगति गंधेणं दिनेणं फासणं दिवेणं संघापणं दिघेणं संठा प्राच्यादिषु दिनु एके केचन शुभकर्माणो मनुध्या भवन्तीति । तद्यथा-अल्पाः स्तोकाः परिग्रहाऽऽरम्भेविच्छा-मम्ताकरणलेखं दियाए इट्टीए दिच्चाए जुतीए दिब्बाए पभाए दि. प्रवृत्तियेषां ते तथा एवंभूता धार्मिकवृत्तयः प्रायः सुशीला ब्वाए छायाए दिव्साए मच्चाए दिवेणं तेएणं दिवाए सुबताः सुप्रत्यानन्दाः साधवो भवन्तीति । तथैकस्मात् स्थ. लेसाए दस दिसाओ उजेवेमाणा पभासेमाणा गइकल्लाणा | लात् संकल्पकृतात् प्रतिनिवृत्ता एकसाथ सूखमादारम्भ. ठिकाणा भागमेसिभइया यावि भवंति, एस ठाणे प्रा. जादप्रतिनिवृत्ता एवं शेषाएयपि व्रतानि संयोज्यानि इति । एतस्मादपि सामान्येन निवृत्ता इत्यतिविशमाह-(यावरी (य)रिए. जाव सचदुक्खपहीण मग्गे एगंतसम्मे सुसादू इत्यादि)ये चाम्ये मावद्या नरकाऽदिगमनहेतवः कर्मसमार. दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए । म्भास्तेभ्म एकस्माद्यन्त्रपीडननिलाग्छनकृषीवलाऽऽदेर्निपत्ता (३८ सूत्र) एकस्माच कवियाऽऽदेरनिवृत्ता इति । एके पुनरेकयाऽर्चया एकेन शरीरेणैकस्माद्वा भवासिद्धि तांश्च विशेषतो दर्शयितुमाहगतिं गन्तारो भवन्ति,अपरे पुनस्तथाविधपूर्वकर्मावशेषे सति से जहाणामए समणोवासगा भवंति अभिगयजीवाजीतरकर्मवशगाः कालं कृत्वा अन्यतमेषु वैमानिकेषु देवेषूप. धन्ते, तन्द्रसामानिकत्रयस्त्रिशल्लोकपालपार्षदात्मरक्षप्रकी वा उवलद्धपुष्पपावा पासवसंवरवेयणाणिउजराकिरियाणेषु नानाविधसमृद्धिषु भवन्तीति, नन्वाऽभियोगिककिल्वि हिगरण पंधमोक्खकुसला असहेज्जदेवासुरनागसुवनजक्खरषिकादिग्विति । एतदेवाऽऽह-(तं जहेस्यादि।तद्यथा-महर्या क्खसकिन्नरकिंपुरिमगरुलगंधधमहोरगाइएहिं देवगणेहि दिषु देवलोकेषट्पद्यन्ते । देवास्वयंभूता भवन्तीति दर्शयति निग्गंथाओ पावयणाम्रो अणइकमणिज्जा इणमेव निगंथे ( ते णं तस्थ देवा इत्यादि ) ते देवा नानाविधतपश्चरणोपा. सशुभकर्माणो महर्यादिगुणोपेता भवन्तीत्यादिकः सामा. पावयणे हिस्संकिया णिकंखिया निम्मितिगिच्छा लहा भ्यगुणवर्णका,ततो हारविराजितवक्षस इत्यादिक प्राभरणव. गहियहा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा अडिमिंजखपुष्पवर्णकः । पुनरतिशयाऽऽपादनार्थ दिव्यरूपाऽऽदिप्रति. पेम्माणुरागरत्ता अयमाउसो! निग्गंये पावयणे अटे भयं पादनं चिकीर्षुराह-(दिश्वेणं रूवेणमित्यादि) दिवि भवं दिव्यं, परमट्टे सेसे अणढे उसियफलिहा अवंगुयदुवारा भचिय. तेन रूपेणोपपता यावहिव्यया द्रव्यलेश्ययोपपता दशापिदि तंतउम्परघरप्पवेसा चाउद्दसट्टमुद्दिषिमासिणीसु पतिशः समुद्योतयन्तः,तथा प्रभासयन्तोऽलङ्कर्वन्तो गत्या देवलो करूपया कल्याणा:-शोभना गत्या वा शीघ्ररूपया प्रशस्तवि पुग्नं पोसह सम्म अणुपालेमाणा समणे निग्थे फासुए. हायोगतिरूपया या कल्याणाः, तथा स्थित्या उत्कृष्टमध्यमया सणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्यपडिग्गहकल्पासास्ते भवन्ति तथाऽऽगामिनि काले भद्रकाः शोभनग. बलपायपुंछणेणं प्रोसहभेसजेणं पीढफलगसञ्जासंथारपणं नुष्यभवरूपसंपदुपपेता,तथा सद्धर्मप्रतिपत्तारश्च भवन्तीति । पडिलाभेमाणा बहूहिं सीलब्धयगुणवेरमणपच्चकखाणपोतदतत्स्थानमायकान्तेनैव सम्यग्भूतं सुसाध्वितीत्येतत् द्वितीयस्य स्थानस्य धर्मपाक्षिकस्य विभङ्ग एवम ख्या. सहोववाहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावे. तः । ३८। माणा विहरति । ते णं एयारूपेणं विहारेणं विहरमाणा अहावरे तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिजइ बहूई वासाई समणोवामगपरियागं पाउणंति, पाणित्ता ह खल पाहणं वा० ४ संतेगतिया मणुस्सा भवंति । तं आवाहंसि उप्पनसि वा अणुप्पत्रंसि वा बहूई भत्ताई महा-अप्पिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्मा पच्चक्खायंति, बहूई भत्ताई पच्चक्खाएत्ता बहूई भत्ताई णुया. जाव धम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरति । सु अणसणाए छेदेति,बहूई भत्ताई अणसणाए छेदइत्ता प्रासीला सुब्बया सुपहियाणं दा साहू एगच्चाओ पाणाइ.1 लोइयपडिकंता समाहिपत्ता कालमासे कालं फिच्चा श्रवायाो पडिविरना जावजीवाए गच्चाो अप्पडिवि. नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति । तं जहाग्या. जाव जे यावले तहप्पगारा सावजा अबोहिया क. महड्डिएसु महज्जुइएसु जाव महामुक्खेसु सेसं तहेब जाव पंता परपाणपरितावणकरा कजंति, ततो वि एगच्चायो पस ठाणे श्रा(य)रिए जाव एगंतसम्म साहू । तच्चस्स अप्पडिविरया । ठाणास्स मिस्सगस्स विभंगे एवं माहिए। अथापरस्य तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकाण्यस्य विभङ्गः (से जहेत्यादि) विशिष्टोपदेशार्थ श्रमणानुपासते सेवन्त समाख्यायते-(इह खलु इत्यादि) एतच यद्यपि मिश्र इति श्रमणोपासकाः, ते च श्रमणोपासनतोऽभिगतजीवाजी. त्याधर्माधर्माभ्यामुतप्रेतं तथापि धर्मभूयिष्ठत्वाद्धार्मिकपक्ष वस्वभावाः,तथोपलब्धपुण्यपापा:रह च प्रायः सूत्रावशेषु एमावतरति । तद्यथा-बहुषु गुणेष मध्यपतितो दोषो ना ! नानाविधानि सूत्राणि दृश्यन्ते. न च टीकासंवाघेकोऽप. श्मानं लभते,कलक व चन्द्रिकाया,तथा बहूदकमध्यपतितो स्माभिरादर्शः समुपलब्धोऽत एकमादर्शमङ्गीकृत्या उस्मामृच्छकलावययो नोदकं कलुषयितुमलम् , एवमधोऽपि भिर्थिवरणं फियते इत्येतदवगम्य सूअधिसंवाददर्शनावित Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसवि(च)जयविभंग शनिधानराजेन्दः । पुरिसवि(च)जयविभंग व्यामोहोन विधेय इति । ते भाबकाः प्रतिक्षातबन्धमी | दर्थः शेषस्त्वनों, यस्मादेवं प्रतिपद्यन्ते तस्मात समु. कस्वरूपाः सन्तो न धर्माच्च्याव्यन्ते मेकरिव निष्पकम्पा | विछतमनसः सम्ता साधुध भावकधर्म व प्रकाशयन्तो वि. रढमाईते पर्शनेऽनुरक्ताः । अत्र चार्थे सुखप्रतिपस्यर्थ :- शेषणकादशोपासकप्रतिमाः स्पृशम्तो विहरतोऽहमीच. शान्तभूतं कथानकम् । नवम्-राजगृहे नगरे कश्चिदेका तुर्वश्यादिषु पौषधोपवासाऽऽदौ साधून प्रासुकेन प्रतिक्षामा परिवाद विद्यामन्त्रीषधिलब्धसामर्थः परिषसति , सच यन्ति , पाश्चात्ये च काले संलिखितकायाः संस्तारका. विद्याऽऽदिवलेन पत्तने पर्यटन यां यामभिरूपतरामानां प मणभावं प्रतिपय भक्तं प्रत्यास्यायाऽऽयुषः लये देवेपत्पर श्यति त तामपहरति, ततः सर्वनागरैः राजे निवेदितम् । ते, ततोऽपि च्युताः सुमानुषभावं प्रतिपय तनैव भोनो. पथा देव! प्रत्यहं पत्तनं मुप्यते केनापि, नीयते सर्वसार स्कृष्टतः सप्तस्वासु वा भवेषु सिद्धयन्तीति । तदेतरस्थानं क मानाजनोऽपि, यस्तस्यानभिमतः सोऽत्र केवलबमास्ते, ल्याणपरम्परया सुखविपाकमिति कृत्वाऽऽयमिति। अयं वि. तदेवं क्रियतां प्रसादस्तदन्वेषणेनेति । राणाऽभिहितं-गच्छत भास्तृतीयस्य मिश्रकाऽऽस्यस्याऽऽण्यात इति । उता था. प्यं विश्रब्धा भवताऽवश्यहं तं दुरास्मानं लप्स्ये । किं मिकाः, अधार्मिकास्तदुभयरूपाश्चाभिहिताः। -यदि पञ्चरहोभिर्न लभे चौरं विमर्षयुक्तोऽपि च त्य साम्प्रतमेतदेव स्थानत्रिकमुपसंहारद्वारेण संक्षेपतो विभ. क्याम्यात्मानमहं ज्वालामालाकुले यही । तदेवं कृतप्रतिकं णिषुराहराजानं प्रणम्य निर्गता नागरिकाः । राक्षा च सविशेष नियुक्ता भारक्षकाः । प्रात्मनाऽप्येकाकी खड्गखेटकसमे अविरई पहुच बाले पाहिजइ, विरई पहुच्च पंडिए मातोऽम्बेष्टमारम्धो, न खोपलभ्यते चौराततो राक्षा नि- हिजड़, विरयाविर पडुच्च पालपटिए पाहिजा । सस्थ पुणतरमन्वेषयता पञ्चमेऽहनि भोजनताम्बूलगन्धमाल्या- जा सा समतो अविर एस ठाणे प्रारंभटाये प्रणाअदिकं गृहन् रात्री स्वतो निर्गतेनोपलब्धः स परिवाद, स पारबाट | रिए जाव असम्बदुक्खप्पहीणमम्गे एगंतमिच्छे मसाह, तस्पृष्ठगामिना नगरोद्यानवृक्षकोटरप्रवेशेन गुहाभ्यन्तरं प्र तत्थ णं जा सा सव्वतो विरई एस ठाणे प्रणारंभट्ठाये विशय व्यापादितः। तदनन्तरं समर्पितं यद्यस्य सत्कमजनाजनोऽसीति । तत्र चैका सीमन्तिनी अत्यन्तमौषधिभि- भारिए नाव सम्बदुक्खप्पहीणमग्गे । एगंतसम्म साह,तस्थ भौविता नेच्छस्यात्मीयमपि भार, नतस्तद्विद्भिरमिहितम् णं जा सासवमो विरयाविरई एसटाणे भारंभयोमारंभट्टा यथाऽस्याः परिमाट्सत्काम्यस्थीनि दुग्धेन सह संघृण्य यदि ये एस ठाणेमा (य) रिए .जाव सम्बदुक्खप्पहीणमग्गे दीयन्ते तदेयं तदाग्रह मुवति, ततस्तत्स्वजनरेवमेव कृत. पगंतसम्मे साह। (३६मूत्र) पथा यथा चासो तवस्थ्यम्पवहारं विधत्ते तथा तथा तरस्ते. हानुबन्धोऽपैति, सर्वास्थिपाने चापगतःप्रेमानुबन्धा, तदानु (अविरर इत्यादि) येयमविरतिरसंयमरूपा सम्यक्त्वा . रक्ता निजे भर्तरि । तदेवं यथाऽसावत्यन्तं भाविता तेन परि भावान्मिथ्याडव्यतो विरतिरप्यविरतिरेव,तांप्रतीस्य मा. नाजा नेकछत्यपरमेवं धावकजनोऽपि नितरां भावितारमा श्रित्य बालवद्वालोऽहः सदसद्विवेकविकलस्वात् इत्येवमा. मौनीन्द्रशासने न शक्यते. अन्यथा कर्तुम् , अत्यन्तं सम्य धीयते व्यवस्थाप्यते माख्यायते वा, तथा विरति च. परवौषधेन वासितस्वादिति । पुनरपि श्रावकान् विशिनधि प्रतीस्य-माश्रित्य पापाहीनः परिडता परमार्थको वेत्येवमा(जाप उसियफलिहा इत्यादि) इच्छितानि स्फटिकानीव धीयते माल्यायते वा, तथा बिरताविरति चाऽभित्य बा. स्फटिकामि-प्रतःकरणानि येषां ते तथा । एतदुक्तं भव लपरिडत इत्येतस्माखदायोज्यमिति। किंमित्यविरतिविरस्या. ति-मानीन्द्रवर्शनावाप्ती सत्यां परितुएमानसा इति, तथा भयेण बालपपिरतपाण्डित्यापत्तिरित्याशयाssx-त. अप्रापतानि द्वाराणि वैस्ते तथा , उद्घाटितषवारास्ति स्थमित्यादि)ता पूर्वोक्षु-स्थानेषु येयं सर्वाऽऽत्मना सर्व. अस्ति । अधियत्तोऽनभिमतोऽन्तःपुरप्रवेशवत्परगृहद्वार स्मात् अविरतिबिरतिपरिणामाभाषा, एतत्स्थानं साव. प्रवेशोज्यतीथिकप्रवेशो येषां ते तथा अनवरतं भमणानुपु. पाssरम्मस्थानमाश्रयः एसदाभित्यसोएयपि कार्याणि कि. कविरिणो निन्थान् प्रासुकेनैषणीयनाशनाऽऽदिना तथा यन्ते । यत एवमत पतदनाय स्थान निःशकतया परिकमपीठकलकशथ्यासंस्तारकादिना च प्रतिलाभयन्तस्तथा नकारित्वापावसबंदुःखप्रक्षीणमागोऽयं तथैकाम्तमिप्यारूबनि वर्षाणि शीलवतगुणवतप्रत्यास्यानपौषधोपवासरा पोऽसाधुरिति । तत्र थेयं विरतिः सम्यक्त्वपूर्षिका सावधा. स्मानं भाषयम्तस्तिष्ठन्ति । तदेवं ते परमश्रावकाः प्रभूतका. Ssरम्भानिवृत्तिः सास्थगितद्वारस्वात् पापानुपादामरूपेति । लमणुवसगुणमतशिक्षाबतानुष्ठायिनः सधूनामौषधषस. पतदेवार तदेतरस्थानम् अनारम्भस्थानं सावधानुष्ठान पात्राऽदिनोपकारिणः सन्तो यथोक्तं यथाशक्ति सवनुष्ठान हितत्वात्संयमस्थान.तथा चैतत्स्थानमार्यस्थानम् ।भारापातं विधायोत्पने षा कारणेऽनुत्पने वा भलं प्रत्यावयायाsलो. सहयधर्मभ्य इत्याय,तथा सर्वदुःखप्रक्षीणमार्गोऽशेषकर्मक्षा चितप्रतिक्रान्ताः समाधिप्राप्ताः सन्तःकालमासे कालं कस्वा. पपथः इति । तथैकान्तसम्पग्भूतः। एतदेवा-साधुरिति, ऽन्यतरेषु देवेपत्पचन्ते इति । एतानि चाभिगतजीवाजीया. साधुभूतानुष्ठानात्साधुरिति । तत्र व येयं विरताविरतिरमि. दिकानि पदानितुहेतुमद्राबेन नेतन्यानि तपथा-यस्मा. धीयते सैषा मिशस्थानभूता,तदेतदारम्मानारम्भरूपस्थानमे. दभिगतजीपाजीवास्तस्माकुपलब्धपुण्यपापा, यस्मादुपलब्ध. तदपि कश्चिवार्यमेवपारम्पर्येण सर्वदुःसाहीणमार्गः, तथै. पुण्यपापास्तस्मादुन्छिनमनसः । एवमुत्तरत्रापि एकैकं पदं कान्तसम्यग्भूतः साधुमेति। तदेवमनेकविधोऽयमधर्मपक्षो त्यजदिरेकैकं चोसरं गृहनिर्वाच्यं, परेण पृष्टा - धर्मपक्षस्तथा मिश्रपक्षवेति संक्षेपेणामिहिता पक्षत्रयलमा. पृष्ठा या पतषा -अयमेष मौनीन्द्रोको मार्ग:स.। श्रयणेन । सूत्र०२२०२०प्रतिक। Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसविज्जा भनिधानराजेन्सः। पुरिसोत्तम पुरिसविजा-पुरुषविद्या-स्त्री० । पुल्ल कनिम्रन्थीयापरनामके | पुरिसाइम-पुरुषाऽऽकीर्ण-त्रि०। पुरुषबहुले, नि० ०१ षष्ठे उत्तराध्ययने, स०३६ सम । उत्स। उ०। सर्वत्र ल०।८।२७६ । रलोपे गाद्वित्वम् । प्रा०। परिसवेय-पुरुषवेद-पुं० । श्लेष्मोदयावम्लाभिलाषवत् पुंसः | पुरिसादाणीय-पुरुषादानीय-पुं० । पुरुषाणां मध्ये भादात्रियामभिलापनिबन्धने कर्मभेदे कर्म०६कर्मी०सं० नीयः पुरुषाऽऽदानीपः भ.५० उ० स्था।स।पुजी०। प्रशा०। (पुंवेदस्य प्ररूपणा कसायवेयणिज' शम्ने रुषाणां मध्ये मादीयते त्यावानीय उपादेय इत्यर्थः। स्था०८ चतुर्थ भागे २१६१ पृष्ठे गता) ठा०। पुरुषश्चासौ श्रादानीयश्च प्रादेयवान्यतया मादेयनाम. शरिसह-पुरुषसिंह-पुं०। तीर्थकरे. सिंह इव सिंह, पुरुष. तया व पुरुषाऽऽदानीयः। पुरुषप्रधाने.कल्प०१अधि०७ पाण। सानिका पार्श्वनाथो हि पुरुषाऽऽदानीय इत्युच्यते, “तथैव आसौ सिाति पुरुषसिंहः । लोकेन हि सिंहे शौर्यमति. पासेखं बरहा पुरिसादाणीप।"इत्यादि सूत्रेषु व्यवहारात् । प्रकृष्टमभ्युपगतमतः शौर्य स उपमानं कृतः, शौर्य तु भगवती स्था०६ठा। मुमुक्षूणां पुरुषाणामादानीया भाश्रयणीयाः बाल्ये प्रत्यनीकदेवेन भाध्यमाणस्याभीतत्वात् कुलिशकठि पुरुषाऽऽदानीयाः। महतोऽपि महीयसि सूत्र०१६०० नमुष्टिप्रहारप्रतिप्रबर्द्धमानामरशरीरकुम्जताकरणाच्च । भ० पुरिसाधम-पुरुषाधम-पुं० । पुरुषाणां मध्येऽधमे, पु. १२.१उ० ल०। ३ उ•। शपोः सः।।१।२६०। इति । सः। प्रा। प्रणिपाबदण्डकसप्तमसूत्रम् पुरिसासीविस-पुरुषाशीविष-पुं० । आशीविषा-सर्पः पुरुषपुरिससीहायं ॥७॥ वासावाशीविषश्च पुरुषाऽऽशीविषः, कोपसाफल्यकरणसा. पुरुषसिंहेभ्य इति । पुरुषाः प्राग्व्यावर्णितनिस्कास्ते सिंहा | मांत् । सर्पोपमे पुरुष, मौ०१ इव प्रधानशौर्याऽऽदिगुणभावेन स्याताः पुरुषसिंहाः, ख्याता मतम-पषोत्तम-। तीर्थकरे, जी०३ प्रति०४ - भकर्मशत्रून्प्रति शूरतया तदुच्छेदनं प्रति क्रौर्येण क्रोधाऽऽ. दीन् प्रति-असहनतया रागाऽऽदीन्प्रति वीर्ययोगेन तपःकर्म धिला प्रति वीरतया अवयं परीपहेचु न भयमुपसर्गेषु न चिन्ता | पुरिसोत्तम-पुरुषोत्तम-पुं०। पुरुषाणांमध्ये तेन तेन रूपाssदि. पीन्द्रियवर्ग न खेदः संयमाध्वनि निधकम्पता सध्यान ति। नातिशयेनोद्भुतत्वात्विादुत्तमः पुरुषोत्तमः । म० म चैवमुपमा मृषा, तद्वारेण तवतः तदसाधारणगुणाभिः १श०१उ.सासंथा/करपात्रका रा०। घ०। पुधानात् , विनयविशेषानुप्रहार्थमेतत् , इत्थमेव केषाश्चिदुक्त | रुषाणामुत्तमः पुरुषोत्तमः। तीर्थकरे, भगवम्तो हि संसागणप्रतिपत्तिदर्शनात् चित्रो हि सरवानां क्षयोपशमः, ततः रमप्यावसम्तःसदा परार्थव्यसनिन उपसर्जनीकृत स्वार्थी उकस्यचित्कश्चिदाश्रयशुद्धिभावात् । यथाभव्यं व्यापक चितक्रियावतोऽदीनभावाः कृतज्ञतापतयोऽनुपहतचित्ता दे. भानुग्रहविधिः,उपकार्याप्रत्युपकारलिप्साऽभावेन महतां प्र. वगुरुबहुमानिन इति भवन्ति पुरुषोत्तमाः। जी०३ प्रति०४ अर्गनात, महापुरुषप्रणीतश्वाधिकृतदण्डका, आदिमुनिभिः अधि० । व्यः। रईच्छिष्यैर्गणधरैः प्रणीतत्वात् , मत एवैष महागम्भीरः प्रणिपातदएडकषष्ठसूत्रम्सकलन्यायाssकर भवप्रमोदडेतुः परमार्षकपणे निदर्शनमन्ये पुरिसोत्तमागां ॥ ६॥ पामिति, न्यायमेतदुत पुरुषसिंहा इति ॥ ७॥ ल. ।। पुरि शयनात् पुरुषाः सखा एव, तेषां उत्तमाः साजतया स्था भी। जी० । प० ।रास.कपासून भण्यस्वादिभाषता प्रधानापुरुषोत्तमा तथाधकालमेते परा. अस्यामसर्पियो जाते परमे वासुदेवे, स० । भाब० । येव्यसनिन उपसर्जनीकृतस्वार्था उचितक्रियावन्तोऽदीनमा. भर्मजिनसमये व लोऽभवत् । ति० । प्रव० । "पुरिल. वाःसफलारम्भिणारढानुशयारुतातापतयोऽनुपहतथि सीरवंबासुदेवे दस पाससयसहस्सा सम्याउयं पालात्ता तादेवगुरुबहुमामिनस्तथा गम्भीराशयाइदिन सर्व पषि. बट्टीप तमाए पुडवीए नेत्यत्ताए उवषने।"स्था०१० ठा०। घाखुइ() )का)कामांव्यत्ययोपलव्धे,अन्यथापा "पुरिससीहेणं बासुदेबे इस बाससयसहस्साई सम्बाउयं () (E)(का)काभावातिनाशुखमपिजात्पर समानमः पालता पंचमाए पुढवी नेररएसुनेत्यत्ताए उवषने।" जास्यरक्षेन, नवेतरवितरेण तथा संस्कारयोगे सत्युत्तरकापत्र सूत्रविरोधश्चिमयः। स०१०००००० सम। लमपि तदोपपत्तामहिकाबः परागी भवति, जात्पनुः परिससेण-पुरुषसेन-पुं० । द्वारवस्यां वसुदेवस्य धारययां च्छेदेन गुणप्रकर्षाभाषावित्यं तदेवं प्रत्येकबुखाऽऽदिवचन. जाते पुत्रे, सबारिपनेम्यस्तिके प्रवजितः शत्रुञ्जये सिन प्रामाण्यातङ्गेदानुपपत्ते, न तुल्यभाजनतायां तनेदो न्याय इति अन्तकृशानां चतुर्थे बर्गे चतुर्थेऽध्ययने सूचितम् ।। इति । न बात एवमुक्तावपि विशेषः, करस्मकर्मक्षयकार्य। अन्त०१ भुर्ग १०। श्रेणिकय धारयो जाते स्वात्, तस्य चाविशिएवात् , एच दरिद्रेश्वरयोरप्यविशि. पुत्रे,बीरास्तिके प्रव्रज्य षोडश वर्षाणि भामण्यपर्यायः मृत्वा छो मृत्यु, मायुक्षयाविशेषात्म वैतावता तयोः प्रागप्य. अपराजिते उपपत्रः युवा महाविदेहे क्षेत्रे सेत्स्यतीति विशेषा, तदम्यहेतुविशेषानिदर्शनमात्रमेतदिति पुरुषोत्तमा अनुत्तरोपपातिकदशानां प्रथमे बर्गे चतुऽध्ययने सूचि ॥६॥ "जहा से पुरिसोत्तमे"। अत्र पुरुषोत्तमो रथनेमिः। तम् । मणु०१४० १ वर्ग ४ मा दश०२०। ऋषभपुत्राणां शतसाण्याकाना पचवत्वारिपरिसा-पुरुषा-सी०। प्रख्या लिपेः भेदे, प्रज्ञा.१ पद। शे, कल्प०१ अधि०७ क्षण। अनन्तजिनकालभाविनि (स. ४६ सम०) चतुर्थवासुदेवे, सापावाप्रपा प्रधान, त्रि० Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसोत्तम (१०५९) भभिधानराजेन्दः। पुरिसोत्तम इसषोत्तमोहिधर्मः सर्वतीर्थकसमता पत्रा०१७विषः। असिषोषसमणभेरि, बदाउ अमरो गमो सग्गं ॥१८॥ गुणानुरागकथनपूर्वकं पुरुषोत्तमचरितम् तत्तो काहो पत्तो,मोलरणे जिणवरं ममिय विरिणा। उबियाणे निखियाय सामी कहाधम्मक.. गुणलेसं पिफ्संसह, मो भबिया! भवगहणे, दुलह कह का विलहिय सम्म। गुरुगुणयुद्धीद परगयं एसो। तस्स विसुद्धिनिमितं, संतगुणपसंसणं कुणह॥२०॥ जह संयलतत्सविसया, मर्म सम्मत्सनालिया भणिया। दोसलवेण विनियगं, तह संतगुणाणुषवू-राणा वि भयारसंजणणी ॥२१॥ गुणनिवहं निग्गुणं गणइ ॥ १२१ ॥ अरसंहा विनगुणा. पसंसणं पाउणंति सत्ताणं । तो बहुकिले उमा-को ताण मायरं कुजा२९॥ (१००) (अस्या व्याख्या गुणानुरागि शवतीय भागे तो नाणाईविसए, गुगोसं जत्थ जसियंपासे। १३२ पृष्ठे द्रष्टव्या) समसंग अवग-म्म तत्व संसिज साबरयं ॥२३॥ पुरुषोत्तमचरितमिस्थम् जो पुण मच्छरवसनी, पाइप्रो वा गुणेन संसिज । "अस्थि सुरक्षाषिसए, वारवई नाम पुरषरी रम्मा । संते वि सो दुहाई, पावर भवदेवसूरि ॥ २४॥ कंत्रणमणिमयमंदिर-पाया राधणयणिम्मवया ॥१॥ पुच्छरहरी भयवं!, भवदेो नाम एस को सूरी। तस्थ य हरिकुलनयल-हरिणंको मरिसमूहमयमयणो। भणद पर पहभरहे, मासि पुरा एस मुणिमाहो ॥२४॥ मामयणो नाम नियो. दाहिणभरहवरजघरो ॥२॥ दुखी सुरगुरुसमो, नवरं चरणमिम ईसिसिढिलमयो । तत्य या विविहुणिय-ग्रघणघणघारकम्मपम्भारो। तस्स य एगो सीसो. नामेणं बंधवनु सि.२६॥ दुरियमदलनेमी, भरिटुनेमी समोसरिभो ॥३॥ सो पुण निम्मलचरणो,सुरमई वायसद्धिसंपये। सिरिरेषयगिरिसंठिय-उजाणे नंदणम्मि रमणीए । तकागमे य कुसलो, ममच्छरिल्लो विणीमोय ॥२७॥ सुररायसमोसरणे, उपविटो देससं काउं॥४॥ तो तस्स पायमूले, जिसमयषियक्वणा समणसंधा। खत्यषियहा सडा-विजयणवणा कयंजलिणा॥२८. तत्तो निउत्तपुरिसा, जिणभागमणं मुणेवि हिमणो। मिसुणंति जिणिशगम मुखउत्तमणा तासि जंपंता। बलिमो भरारूपई, बंदणदेउंजिसिंधस्स ॥५॥ पकुणति य बहुमाणं, पवित्तचारित्तजु सि॥२६॥ बलिया तेण समा णं, दस वि इसारा समहविजयाई। तो भवदेखो सूरी, मच्छरभरियो विचितए हियए। तरवेष महावीरा, पंच वि बलदेवपामुक्खा ॥६॥ में मुरमे मुखा, कि एयं पज्जुवासंति॥३०॥ सोलस रायसहस्सा, संचलिया उग्गसेणनिषण्मुहा । महवा मुखा मुणिो , गिहिणो व इमे कुणंतुजं कि पि । इगवीस सहस्साई.वीरसेल्पमुहाण वीराणं ७॥ एस उरण कीस सीसो, तहा मप दिक्खिनो वि फुर॥३१॥ दुईतकुमारणं, सहिसहस्साण संयपमुहाणं । तहबासुत्रो महथिय,को वितह गुरुगुणेषु विमो वि। पज्जुनप्पमुबानो, अशुधकुमारकोडीनी ॥८॥ मं प्रषगणि पवं,वह परिसाद भेयम्मि ॥ ३२ ॥ कप्पच सहस्सा, महखेगपमुहबलवगाणं पि । नरनाहम्मि जियते, न छत्तभंगो हवा एसी वि। मनो वि लिट्ठमाई, नागरलोगो प्रगविहो ॥६॥ पएण अणजेणे, मझे न सुप्रो जणपवाभो ॥ ३३॥ बची सौहम्मई, विहुमणं भोहिणा मुणेऊण । जह संपर वारिज, इमो मप धम्मकाणमाईयं । गारिसिपाहियो, सहागोभणा निपश्रमरे ॥१०॥ तो मच्छरि ति लोगो, सुद्धो में मन्नए एस ॥ ३४॥ हो पिच्छह पिसह, परकिर कैसवा महाभागा। ता काउ उबेह चिय, इमम्मि मूढास्मि इण्डि मह उचिथा। गुनगुण बुद्धी नयं-ति परगयं गुणलवं पिसया॥१५॥ स्य जा मच्छरपुत्रो, सो सूरी गमा कवि दिणे ॥ ३५॥ लिसुणो इव खलु पहुणो. जह तह पंति इय विचित । ता पारलिपुरनयरा-संघापसेण तस्स पामनि। सिग्धं परिक्खणत्थं, एगो अमरो रहे पत्तो ॥ १२॥ पत्तो मुणिसंघाडो, मुणी वि अम्भुट्रिो सो वि॥ ३६॥" भोसरणगमणमग्गे, गयजीयं परमदुरहिगंधहूं। अथ तस्य यतिपतेर्यति-जनस्य कस्वा यथोचितं सर्वम् । विलियमुहसियदतं, पगं साणं विउब्वेद ॥ १३॥ मुनिश (संघा)टक एवं, संघादेशं स्यबीवदत् ॥ ३७॥ प्रशाऽवहातगुरु-बिंदुराऽऽखयोऽव्यालिकिस्तत्र। तग्गंघेणऽभिभूयं, सिचं सयलं पिअनमो हुतं। खैर विजहार बिरं, षड्दर्शनविप्लुतिं कुर्वन् ॥ ३८॥ दढपिहियवयणनासा-डं फुड गंतुमारखं ॥ १४॥ करहो पुण परतो, तेणेच पहेण वठु तं साणं। तथाहिपरसामा सग्गहण म्मि जालसो अंपए एवं ॥१५॥ काणावानमवान् प्रनधिषणाऽऽधिक्यानवाच्या पार शक्यास्तवचोविचारविमुखान् सांख्यानसंख्यामपि। पयस्ल कसिणसाण-स्स भाणणे सेयतघणपंती। कौलान् भ्रष्टबलान निरस्तयशसो मीमांसकान् व्यसकान, एसा मरगयथाले, मुत्चामालेव कह सहा ॥१६॥ कुर्मन् वारणवविशङ्कमचरत्सर्वत्र गोंजुरः ॥ ३६॥ बनाउं हरिचरियं. का विनदोस बयंति सप्पुरिसा। संप्रति जैनमुनीन्द्रः साई स्पो चिकीर्षते दुष्टः । सो जायपषनी सुर-बम्मि पयह नियरूयं ॥१७॥ तदर्शनकृत्यमिदं कर्तुं तत्रैत लघु यूयम् ॥ ४०॥ परगुणगहण पहाणं, बहुसो थुणिउं हरि सबहुमाणं । "इय लोडं सो सूरी, जा चलिमी पाडलीपुराभिमुई। Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसोत्तम अन्निधानराजेन्द्रः। पुरेकम्म पषयणपभाषण, ता जाया भभिमुहा छीया ॥ ४ ॥ ४०।"शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो वद्यते । "मा. बामा खेमा लाभ-म्मि दाहिया पच्छिमा नियते।। म.१०। छीया नूणमभिमुहा, कयं पिकजं विणासेर॥४२॥ । दय चिंतिऊण सूरी, विहारकरणाउ उवरो सहसा । पुरीसणिरोह-पुरीषनिरोध-पुं०। विडुस्सर्गपलनिरोधे, मूग तो भणियं प्रागंतुय-मुणिसंघाडेण वयणमिणं ॥ ४३ ।। निरोधे चचुरुपघातो भवति। पुरीषमिरोधेन जीवितोपघाजह तुम्हाण विहारो, सउणअभावा उ तस्थ नहु जानी। तः । पं० चू०१ कल्प। ता बंधुदत्तसाई. लहु पेसह वायलद्धिवं ।। ४४ ॥ पुरुपुरिमा-देशी-उत्कण्ठायाम् , देना०६ वर्ग ५५ गाया। तो सूरिणा बधिह, विचितिडं सो विसजिमो तत्थ। पत्तो धोबविणेहि, सुसउणपरिवट्टिइच्छाहो ॥४५॥ पुरुहू-देशी-घूके, दे. ना०६ वर्ग ५५ गाथा। विट्ठो तस्थ नरिंदो, कया पन्ना इमा दुवेहिं पि । पुरेकड-पुरस्कृत-त्रि । जन्मान्तरोपाते, दश० ८ ० | सू० जो जेण नूण जिप्पर, स तस्स सीसो हवेउ सि ॥४६॥ प्र० । प्राचा. जन्मान्तरोपार्जिते, सूत्र. १६० १५ भ०। संधुदत्तमुणिणा, सियवायविसुधिविहवेणं । जन्मशतोपाते कर्मणि, सूत्र० ११०५ म०२ उ०। पहुषयण वित्थरेणं, वायम्मि पराजिनो विदुरी॥४७॥ पुरेकम्म (ण )-पुरःकर्मन्-न. पुरो दानात् पूर्व कर्म हस्त. लखं च विजयपतं, विदुरो पब्वाधिो तया चेव । बियसियमुहकमलणं, पसंसिओ सयल संघेणं ॥४८॥ धावनाऽदि यत्र तत्पुरत्कर्म । प्रश्न.५संब० द्वार । भिक्षावा. विदुरबिषयसमेमो, पए पर बुहजणेण थुम्बंतो। नादग्रतः कृते प्रक्षालनाऽऽदिके कर्मणि. प्राचा०२०१० तो बंधुदत्तसाहू. पत्तो नियसूरिपासम्मि । ४६॥ १०६ उ० । भक्तदानात्प्राग्यतिनिमित्त हस्ताऽऽविधायने, ध० तंतु पुण मच्छरवसा, न मणाग पिपसंसिओ एस। ३ अधिः। पं०चू । पं०भा० इस्तेन साधुनिमिते प्राकक. मग विट्ठो ससिणे, पालविभो सहरिसं नेव ॥ ५० ॥ तजलोज्झनव्यापारे, दश०५१०१ उ०।"पुरमा कयं जंतु हा जर गुरुणो वि मप,न रंजिया मंदबुद्धिकलिपण | तं पुरेकम्म।" भिक्षायाः पुरतः-प्रथममेव यत्कृतं कर्म करता सेसाण गुणाणं, समजणेणं हवउ मज्म ॥ ५५ ॥ प्रक्षालनाऽऽदि तत्पुरः कर्माभिधीयते । भोघ०। इय चिंताउलचित्तो, हिययमिम पहंतो महास्नेयं । अथ पुरकर्मद्वारमाहसप्पभिरबंधुदत्तो, जानो गुण मज्जणे विमुहो ॥ ५२ ।। अकयनियदोससुखी, भवदेवमुणीसरो वि मरिऊण । पुरकम्मम्मि य पुच्छा, किं कम्माऽऽरोवणा परीहरणा। पयडबहुकिब्बिसे सुं, किब्विसिपमुं सुरो जाभो ॥ ५३ ॥ एएसिं तु पयाणं, पत्तेय परूवणं वोच्छं ।। ६७६ ।। तयणु दरिहियदियन-दणी उ सो मूपी समुप्पश्नो। पुरकर्मणि पृच्छा कर्सव्या। तद्यथा-कि पुरस्कर्म,कस्य वा कद्द कह विलहिययोहि, काउ तवं सगमणुपत्ती ॥ ४ ॥ इय सोउ कराह पमुहा,लोया भवदेवसूरिणो चरिणो । पुरकर्म? का वा पुर:कर्मण्यारोपणा, कथं वा पुरस्कर्म चरियं जाया पमुइय-हियया परगुणगहणिक्कतलिच्छा ॥५४॥ णः परिहरणं क्रियते । एतेषां चतुर्णामपि पदानां प्रत्येकमहं भुजो भुज्जो नेमि,पणमिय पत्ता सएसु ठाणेसु । प्ररूपणां वक्ष्ये । समणगणसंपरिखुडो, विद्वरद अनस्थ सामी वि ॥ ५६ ॥ तत्र किमिति द्वारस्य प्ररूपणां चिकीर्षुः प्रेर्यमुत्थापयन्नाहइति स्फुरदोषलतालवित्रं, जाज पुरतो कीरह, एवं उट्ठाणगमणमादीणि । निशम्य विष्णो रुचिरं चरित्नम् । दुष्कर्मनीरोघभिदानिदाघ, होति पुरेकम्मं ते, एमेव य पुनकम्मे वि ॥ ६८०॥ सुसाधवो धत्त गुणानुरागम् ॥ ५७ ॥" परः प्राह यदि साधोभिक्षार्थिनो गृहाणमागतस्य यत् इति पुरुषोत्तमचरित्रम् । ध० र० ३ अधि०६ गुण । पुरोऽग्रतः क्रियते तत्पुरकर्मेति व्यवहियते, एवं ते तष परिसोत्तमणाभिसंभव-पुरुषोत्तपनाभिसम्भव-पुं० । ब्रह्मणि, | यानि दायिकस्योत्थानगमनाऽऽदीनि कर्माणि साधारणत: क्रियमाणानि तानि सर्वारयपि पुरकर्म भवति । अथ पूर्षा"ममिऊण परमपुरिसं, पुरिसोत्तमणाभिसंभवं देखें। याचकः पुरशब्द हाधिक्रियते, एवमेव च पूर्वकर्मण्यपि पुच्छ पाइपलच्छिति, नाममालं निसामेह ॥१॥" द्रष्टव्यम्। किमुक्तं भवति?-पुरः साधोरागमनात्पूर्व कर्म पुराक पाइ ना.१ गाथा। त्यस्यामपि व्युत्पत्ती यान्युत्थानाऽऽवीनि पूर्व कृतानि तानि पुरिसोत्तमप्पणीय-पुरुषोत्तमप्रणीत-त्रि० । उत्तमपुरुषगदिते, पुरस्कर्म प्राप्नुवन्ति । पश्चा० ७ विष०। यदि नामैवं ततः का नो हानिरितिवेत् , उच्यतेपुरिसोत्तर-पुरुषोत्तर-त्रि० । पुरुषप्रधाने,०१ उ०३ प्रक० । एवं फासुपफासुं, न विजए य काइ सोही ते । पुरी-पुरी-खी० । नगर्याम्, स्वनामख्याते नगरीभेदे, पश्चा हंदि हु बहूणि पुरतो, कीरंति कयाणि पुलंच ||१०|| दुत्पदितः स्यामी, प्राप्तो नाम्ना पुरि पुरीम् । प्रा० क.१०। एवं विधाऽपि समासे क्रियमाणे प्राशुकमप्राशु वान विद्यते पुरीस-पुरीष-न० । विष्ठायाम् , तं० । स्था। उचारे, भाष० नशायते सर्वस्थाऽप्युत्थानगमनादिवेष्टयो पुरकर्मवप्राप्ते। Page #1077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरेकम्म अज्ञायमाने च प्राशुकामा शुकविभागे शोधिरपि काचिनास्ति (ते) तचाभिप्रायेण तस्याभ्राभावे चारिवस्याप्यभावः । इन्दीस्युपमदर्शने हुरियामन्त्रये तसे हे आचार्य बहूनि पुरत किमले बहूनि च वायकेन पूर्व कृतानि तानि सर्वाि पुरा कर्म प्राप्नुवन्ति । ( २०१४ ) निधानराजेन्द्रः | अत्र सूरिः प्रतिवचनमाहकार्यं खलु पुरसो, पचवखपरोक्खतो दुडा होइ । तह वि य न पुरेकम्मं, पुरकम्मं नोदग ! इमं तु ॥ ६८२॥ काममनुमतं खलुशब्दो ऽवधारणे, अनुमत मे वास्माकं यत्पुरः शब्दः प्रत्यक्ष परोक्षतो द्विधा भवति यदा पुरोऽग्रतः कर्म पुरः. कर्मेति व्युत्पतिराजीयते तदा प्रत्यार्थवाचकः दि तु पुरा कर्म तदा परोक्षार्थवाचकः। एवं पुरःस्य प्रत्यक्ष पार्थवाचकतया यद्यप्युत्थानाऽऽदीनि पुरा कर्म प्राप्नुवन्ति तथापि तानि पुरः कर्म न भवन्ति, किं तु पुरःकर्म हे नोदक ! इदं वश्यमाणं भवति । तद्देवाऽऽइ इथं वा मावि सीतोदरच जं धोवे। समया दाता, पुरकम्मं तं वियागादि ॥ ६८३ ॥ इस्तं वा मात्र या पूर्व मिक्षादानात् प्रथमं शीतोदकेन सचिन पहाताना धावति प्रज्ञापति - कर्म विजानीहि न शेषमुत्थानगमनाऽऽदिकम्, तथा समयप रिभाषया स्यात् । गतं किमितिद्वारम् । अथ कस्येति द्वारस्य प्ररूपणामाहकस्स सि पुरेकम्मं, जो तं पुण पभू सर्व कुआ । अना पशुमंदिट्टो, सो पुरा सुहि पेस बंधू वा ॥ १०४ ॥ कस्य पुनः पुरः कर्म भवतीति पृच्छायां निर्वचनम् - यते स्तत्परिहारिणः साधोः पुरः कर्म मन्तव्यं तदितरेषां दोषत्वेनानभ्यु. पगमात् । तत्पुनः पुरःकर्म प्रभुर्गृहस्वामी स्वयमेव कुर्यात् । श्र यवा-प्रभुसंदिष्टः प्रभुषा आषिस पुनः प्रभुसंदिचा तद्यथाद्दत् मिश्रं प्रेामादिर्माता भगिम्बादि । अथ पुरः कर्मणः संभवमाहदमए पमायपुरिसे, जाए पंती वाऍ मोयं । सो पुरिसो तं वनं तं दब्बं अन्न अन्नं वा ॥ ६८५ ॥ संखयां परिपरिवेषये नियुक्तः कोऽपि इमका कर्मकर एतेन प्रभुदयम् प्रमाणपुरुष वा स्वामी अने न च प्रभुग्रहणम् । ततश्च दाता प्रभुर्वा प्रभुसंदिष्टो वा यस्यां परको पुरःकर्म कृतवान् तामुक्त्वा यद्यम्य प संक्राम ति तदा यदि परिणत हस्तस्ततः कल्पते । अत्र चाष्टौ भङ्गा भवन्ति पुरुषः तां पाप, तद् इयमम्ब पं वा स्यनेन चत्वारो मङ्गः सूचिताः। एवमपुरुष स्यनेनाऽपि चत्वारो भङ्गाः सूच्यन्ते । एवमेतेऽष्टौ भङ्गाः । एतानेवाष्ट भङ्गान् स्पष्टयतिसोता अभी दो वने । एमेव य अत्रेण वि, भंगा खलु होंति चत्तारि ||९८६|| स पुरुषस्तद् द्र्यं तस्यां पाविति प्रथमः १. स पुरुषः तद् द्रव्यमन्यस्यां पङ्क्राविति द्वितीयः २ ।ल पुरुषो ऽन्यद् द्रव्यं त स्यां पाविति प्रथमः १ स पुरुषस्तद्द्रव्यमन्यरूप पक्का - पुरेकम्म विति द्वितीयः स पुरुषो द्रम्यं तस्यां पात यः स पुरुषो द्रव्यमन्यस्यां पाविति चतुर्थः ४ ॥ अत्र च द्वे अपि द्रव्यपरक्ली अन्ये इति । एवमेवान्य पुरुषपदेनाऽपि चस्वारो भङ्गा भवन्ति । तद्यथा अन्य पुरुषस्तद्रव्यं त स्यां परी ५, अभ्यः पुरुषस्तद् द्रष्पम् अभ्यस्यां परौ ६ अभ्यः पुरुषः अभ्यषु षभ्यं तस्यां पक्की ७, अम्यः पुरुषः अन्यत् इभ्यम् अन्यस्य पी एतेषां मध्ये येषु यथा कल्पते तदेतद्दर्शयतिकम्प समेतु तह समम्मि तयम्मि विभवावारे। अतट्ठियपि दोसुं, सव्वत्य य भयसु करमत्ते ॥८७॥ समेषु द्वितीयचतुर्वपामेषु गृहीतुं ते तथाहि-तीये तावदन्यस्यां परलौ संक्रान्तत्वेन द्रव्यमपि वक्ष्यमाणानीया चतुर्थे तु यान्तरत्वेनाम्यस्यां पर दीपमानव च पठे तु पुरुषान्तरेचा उपरस्य पक्की दी इति देवी ने तु तिसृणामपि पुरुषव्यनामम्पस्थेन परिस्फुटमेव कल्पत इति तथा सप्तमेऽपि भनेच, पुरुषान्तरेाम्ययस्य दीयमानत्वात् तृतीये तु ि पारेति वा साधुरामाचे हस्तमात्रक शासनव्यापारः कृतः स यदा व्यापारान्तरेण छिनो भवति तदा तेनैव पुरुषेाम्पत्यं तस्यां पक्की दीयमानं कल्पत इति भाषा द्वयोः प्रथमोदितव्यं तेनास्मा र्थितं भवति ततः कल्पते, नान्यथा । सर्वत्र चाष्टस्वपि भङ्गेषु करमात्र के भज- विकल्प, यदि इस्तो वा मात्र यासनिग्धमुदका वा न भवति ततः कल्पते, अन्यथा तु नेत्येवं भजना कर्त्तव्येत्यर्थः । अथ किमर्थ पुरःकर्म करोतीत्याहअच्चुसि चिकना, कूरे घुषितं पुणो पुणो देइ । आयम्मि पुत्रं दद्दल जयं परमया ॥ ८८ ॥ परिवेषणं कुर्वतो वाधक वा कूरस्तत एकत्र हस्तदायादपरच हस्ते विद्वान् कुण्डकाऽऽदिखितेनोइकेन स दाता पुनः पुनरषा दस्तमात् ददाति प रिवेषयतीत्यर्थः । साधोरप्यागतस्य तथैव यदि भिक्षां ददाति तदा पुरः कर्म भवति । यदि वा पूर्वमाचम्य हस्तं मात्रकं वा प्रक्षाल्य प्रथमत एत्र यतीनां दद्यात् ततोऽन्येभ्यः परिवेषयेत् तदापि पुरःकर्म भवति । पपुरःकर्मणि कृते यय कल्पते तदेव निर्बुलिगाथया दर्शयतिदाऊद कोई दिजा पुग्यो वि तं चैव । अद्रि संकामिषगहणं गीयस्थ संविग्गे ॥ ८६ ॥ तदनेषणाकृतं द्रव्यं मुक्त्वा अन्यस्मै द्रव्यं दत्वा परिवेष्य कश्चित्तदेवानेषणाकृतं द्रव्यं पुनरपि तस्यामन्यस्यां वा पको साधूनां दद्यात् एवं व्यापारे मार्थितं सत् कल्पते अथवा संकामियति तदायं स दाता श्रन्यस्मै परिवेषयेत् स यदि दद्यात् तत एवं संक्रा मितं सत् कल्पते । एतच्च प्रहरां गीतार्थस्यानुज्ञातं यतो गीतार्थस्तद् इन्यमित्यं गृद्धानोऽपि संविग्नो भवति । एतदेवाम्य भाष्यकारो भावयति गीत्थायेगं द्विपमा गेल्हई गीतो । " , Page #1078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरेकम्म संविग्गग्गणं तं गियतोऽषि संविग्यो | ६६० ॥ गीतार्थग्रहणेन कृतेनैतज्ज्ञापितं यदाम्मार्थितम् आदिशब्दात् संक्रामितं तदायातो गीतार्थ एच डा ति नागीतार्थः संनिमयेन तु तदात्मार्थिताऽऽदि डा मोऽपि गीतार्थः संग्लिो भवति नासंविग्न इत्युकं भवति । इथं पुनः पुरतः कर्म भवतीति दर्शयतिपुरतो वि हुजं धोय, अतट्ठाए न तं पुरेकम्मं । उद (उ) भल्लं, ससिखि- दगं च सुके तर्हि गहणं ॥ ६६१ ॥ पुरतोऽपि साधोरप्रतोऽप्यात्मार्थे धीतं तत्पुरःकर्म न भवति किं तु तदाऽऽई सम्रिग्धं वा मन्तव्यम् । उद ssc विन्दुसहितं सस्निग्धं बिन्दुरहितं तस्मिन्नुभयेपिच्छे परिवते मध्यम्। , (२०५५) अभिधानराजेन्द्रः । 3 पुरः कर्मोद काऽऽर्द्वयोर्विशेषमाह - तुझे विसमारंभ, सुके गहयेक एकपडिसेहो । अमस्थ छूट तानिय, असो होइ खिप्यं तु ॥ ६६२ ॥ काss पुरःकर्मणोः तुल्येऽध्यष्कायसमारम्भे एकस्मि मनुरका शुष्के सति ब्रहणम्, एकस्मिन् पुरः कर्मणि पुनः केऽप्यनात्मार्थिने ब्रह्मणस्य प्रतिषेधः तथाहि संयतार्थ द्वाभ्यां पृथक पृथक रकमेत परितम् उ बकाईस स्निग्धौ न तः परं येनास्मार्थितं तप हस्तात् कल्पतेपेतुमार्थितं तस्य इस्लाम कहते। एवं चि कालिके पुरः कर्मयुक्रम्। यत्र तु हस्ती मात्रा यमेव अन्यत्र तादी माशु प्रतिमा वातापि मपि मयं कर्तव्यम्। गर्त कस्येति द्वारम् अथाऽऽरोपणाद्वारमाहचाउम्मासुकोसे, मासिय मक्के व पंचग जाने । पुरकम्मे उदझे, मसिविद्धाऽऽरोवणा भणिया ||६६४|| . उदक समारम्भे पुरःकर्मोत्कृष्टमपराधपदम् उदका म स्यमं सस्निग्धं जघन्यम उकडे बायारो माला प मध्यमे लघुमासिकं, जघन्ये पञ्च रात्रिन्दिनानि । एवं पुरःक मोदकाऽऽर्द्रसस्निग्धेषु यथाक्रममारोपणा भणिता । अथ परिहरणाद्वारमाह परिहरणावि यदुविधा, विहि अविडीए अ होइ नायब्बा । पढभिल्लुगस्स सव्वं, बिइयस्स य तम् गच्छामि ॥ ६६४ || तयस्स जावजीवं चउथस्स य तं न कप्पए दब्बं । तदिवस एगगणे निपट्टगहणे व सचमए ॥ ६६५ ।। परिहरणाऽपि च द्विविधा विधिपरिहरणा, अविधिपरिह रणा च भवति ज्ञातव्या । अविधिपरिहरणा सप्तविधा-त s] प्रथमस्य नोदकस्य सर्वमपि द्रव्यजातं स्वगच्छे परगकलेच यावज्जीयमकल्पनीयं द्वितीयस्य तु तस्मिन्नेव ग यावज्जीवं तृतीयस्य यावज्जीवं तस्यैवैकस्य साधोः सर्वमपि व्यजातं चतुर्थस्य तु तत् इन्यमेकं पाचवी पचमस्य तु तद्दिवसं सर्वद्रव्याणि पठस्य तु तस्येवेकद्रव्यस्य प्रहणं न कल्पते, सप्तमस्य निवृत्तः सन् स एव साधुः परिणतेन हस्तेन ग्रहणं करोवित्यभिप्रायः । 9 - अथैतेषामेव पराभिप्रायाणां व्याख्यानमाहपढमो यावज्जीवं सब्बेसि संजयाय सव्त्राणि । पुरेकम्म दव्याणि निवारे बीमो पुरा तम्मि गरम || ६६६ ॥ प्रथमो मोदको परिपुरकर्म कर्म त याबद पुरः कर्मकारी दाता तदर्थे च तत्पुरःकर्म कृतं ततो याबजीपति तावत् स्वगच्छ पर गलका (का) मां सर्वेषां संतान सर्वाणि द्रव्याणि निवारयति द्वितीया पुनः तस्मिन् गच्छे सर्वेषामपि साधूनां यावज्जीवं सर्वद्रव्याणि निवारयति । सओ यावजीवंत सेवेगस्य सम्पदम्पाई । uits areथो पुण, तस्सेवेगस्त तं दब्बे || ६६७ ॥ तृतीय : प्रबीति यदर्थे पुरा कर्म कृतं तस्यैवैकस्य याव जीवं सर्वद्रव्याणि न कल्पन्ते चतुर्थस्तु तदेकं व्यं स्वैयैकस्य पारशी पारयति । 3 सव्वाणि पंचमो तं दियं तु तस्सेव छट्टो तं दब्बं ! समओ नियतो गिएइ तं परिणयकरम्प ||६६८ || 1 पञ्चमो ब्रवीति तदेवैकं दिनं सर्वाणि द्रव्याणि तदीयगृहे न कल्यम्ले षष्ठो भूते तदेवैकं द्रव्यं तस्य तद्दिनं न माह-परितकरे परिणतारकाये सति इस्ते मिश्रादित्वा निवर्तमानस्तत्रैव गुडेस साधुः सर्वद्रव्याणि हातु न कचिद्दोषः । • पति - एगस्स पुरेकम् वतं सब्बे वि तस्थ वॉरेंति । दव्यस्स प दुलभता, परिचतो गिलायो तेहि ॥६६६॥ एकस्य साधोरर्थाय पुरःकर्म यत्र पूर्ण संजा तत्र ये सर्वेषामेकस्य वा सर्वद्रव्याणि । उपलक्षणत्वादेकमपि द्रव्यं यावज्जीवं तद्दिनं वा वारयन्ति तैईयस्य ग्लानप्रायोग्यस्याभ्यत्र दुर्लभतया खाना परित्य को मन्तव्यः । 1 - एतदेव सविशेषमाह जेर्सि एसुवरसो, भावरिया तेहि उ परिचत । खममा पाहुना विप, सुब्बतमजायगा से तु।। १०००|| येषां यथान्दवादिनामेच सर्वद्रव्यमथाऽऽदिमतिषेधरूप उपदेशाचा पकार प्राधूका परित्यका दिव्यस्याम्यत्र दुर्लभते प्रायोग्य यहं परिस्फुटम् महा मूर्खाः, अतश्वषेदित्वात् स्वद प्ररूपणानिष्पन्नं वामीषां चतुर्गुरु प्रायश्चित्तम् । ये सर्वानपि साधून परिहारं कारयन्ति ते स्वपक्ष साधनसमर्थं विधिमाह अद्वाय निगवाई, उम्माम खमंग भक्खरे रेखा | मग करा परंपर, समजायगा से वि ।। १००१ ॥ यंत्रकर्मकृतं साध्यनिर्मताऽऽदय उन्ामका पा यदि प्रामे मिला नशीला भजानन्तो माप्राविशमिति कृत्या क्षपकस्तत्र स्थाप्यते । अथ नास्ति क्षपकस्ततः कुब्याऽऽदायक्षराणि विषयन्ते यथा पुरा कर्म न केनापि भिक्षा प्राह्मेति अथ तारा लिखितुं न जानीतस्ततः रेखा संख्या अथाऽपि सा केनाऽपि न बावेति ततोऽपरे साधून मार्ग कृत्वा मिलितानां नीयम् अपि पुरःकर्मकृतं तेऽपि परस्परया सर्वसाधून ज्ञापयसि इथं ये (सुब्बचं ) सुब्बलं तेऽप्यन्वा मम्तव्याः ।" - Page #1079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरेकम्म अनिधानराजेन्सः । पुरेकम्म प्रयतदेष भावयति अथ विस्तरार्थमभिधित्सुराहउम्भाममणुब्भामग-सगच्छपरच्छजाणणद्वाए। एगेण समारद्धे प्रमो पुण जो तहिं सयं देति । भस्था तहियं खमए,तस्सऽसह स एव संघाहो॥१००२।। जति अजाणगा हवंती, परिहरितव्यं पयत्तेणं ॥२००६।। भइ एगस्स वि दोमा,अक्खर ण उ ताई सब सो रेखा । एकेन साधुना प्रतिषिझे तव द्रव्यं यद्यन्यं स्वयमेव कश्चिद नई फसणसंकदोसा, हिंडता चेव साईति ॥ १०.३॥ ददाति तदा यद्यमा अगीतार्था अगीतार्थमिश्रा वा भवन्ति उझामकाणां बाह्यप्रामे भिक्षाटनं विधायापर्याप्त वत्रैव ततःप्रयत्लेन परिहर्तव्यम्।। भिक्षामटतामनुब्रामकणां मौलप्रामे भिक्षापरिभ्रमणशी. इदमेव व्यतिरेकेणाऽऽहलानां स्वगच्छीयानां परगाछीयानां च सर्वेषां हापनार्थ समणेहि भ भमंतो,गिहिमणिो अपणो व छदेणं । पापकस्तगृह निषमस्तिष्ठति , स च यः साटकस्तत्रा मोनुं भजाणगमीसे, गिरता जाणगा साहू।।१००७॥ ऽऽगच्छति, तस्य तस्य कथयति-मत्र पुरस्कर्म कतं वर्तते। पुरस्कर्मकारिणि प्रतिषिद्ध श्रमणैः साधुभिर्भरायमानो य. अथ नास्ति सापक, पारणकं वा तस्य तहिने, ततो यदर्थ चन्यो दाता गृहिणा केनाऽपि भणित प्रात्मनो वा छन्देनापुरस्कर्म कृतं, स एव सहाटकस्तत्र तिष्ठति । अथ भिप्रायेण ददाति तदा मुक्त्वा प्रज्ञान अगीतार्थान् मिश्राव तयोरेकः प्रथमद्वितीयपरीषहपीडितो न शक्नोति स्थातुं, गीतार्थमिश्रान् बायका गीतार्थास्तद् द्रव्यमात्माधितं गृहन्ति ततः स प्रतिश्रयं ब्रजति, द्वितीयस्तु तत्राप्रते, अथैक. मथ किमर्थमगीतार्थेषु तद् गृह्यते इति संबन्धाऽऽयातं स्य तस्य तिष्ठतः स्त्रीसमुत्पाऽऽदयो दोषाः ततः कुण्याss विषु पुराकमकरणसूचकान्यक्षराणि लिख्यते, प्रथम तु प्रसजनाद्वारं विवृण्वन् तावदगीतार्थाभिप्रायमाहनैव ताम्यक्षराणि सऽपि लिखितुं जानते, ततः साधुशान. मम्हट्ट समारद्धे, तं दव्वऽमेण किह णु निहोस । साङ्केतिकी रेखा करणीया । यदि तस्याः स्पर्शना-पादोपधा सविसमाऽऽहरणेणं,मुज्झइ एवं अजाणतो ॥१००८।। तेन मईना, तद्विषया माशङ्कादोषा भवेयुः । बहुवचननि: अस्माकमायापकाये समारब्धे सतिदायकेन यद् द्रव्य शादम्यामपि रेखां करीतीत्याशङ्कापरिग्रहः। ततस्तावेष साधू गृहीतं तदम्येनदीयमानं कथं नु निर्दोषं. सदोषमेवेति भावः। भिक्षामटती अपरेषां साधूनां कथयतः, तेऽपि हिरडमाना सविषाहरणेन सविषं यदन्नं तदृष्टान्तेन । यथा दि एव परम्परया सर्वसाधूनां कथयन्ति, इत्थं येषां परिहर बैरिणोऽर्थाय केमचि विषयुक्तं भक्तं कृतं, तदन्येन दीयमानं पविधिस्ते सुव्यक्तमहा मन्तव्याः। कि सदोषं न भवति?, एवमस्मदर्थमुदकस्याऽऽरम्भं कृत्वा या उपसंहरबाह भिक्षा गृहीता तो यचन्यो ददाति तदा किं दोषो न प्रसज्ज. एसा अविही भणिया, सत्ताविहा खलु इमा विही गई। तीत्येवमजानमगीतार्थो मुद्धति, न पुनर्भावयति-यथा तद. तत्थाऽऽई चरिमदुर, अत्तट्टियपाइ गीयस्स ॥१०॥ म्येन दीयमानं पुरस्कमैव न भवति । एषा प्रविधिपरिहरणा सप्तविधा भणिता, इयं तु वय. यत एवमतोऽगीतार्थेषु विधिमाहमाणा विधिपरिहरणा भवति । सा चाष्टविधा-तत्र यदाचं. पदं, यचरममन्तिम प्रकारवयं, तेषु त्रिषु भेदेषु पारमार्थिते, एगेण समारद्धे, प्रमो पुण जो तहिं संयं देह। मादिशब्दारसंक्रामिते च सति गीतार्थस्य प्रहणं भवति । जह जायगा उ साहू, परिभोत्तुं जे सुहं होइ ॥१००६ ।। पतच्च यथास्थानं भावयिष्यते । एकेन पुरस्कर्मणि समारब्धे यदन्यः स्वयं ददाति, यदि के पुनस्ते अष्टौ भेदाः, उच्यते बायका गीतार्थाः साधवस्ततः परिभोक्तुं 'जे'तिपाद एगस्स बीयगहणे, पसजणा तत्थ होइ कपट्टी। पूरणे, सुकं भवति, परिभोक्तव्यं तदिति भावः। पारण ललियासणिोतूणं कम्म हत्थ उप्फासे॥१००शा अथवा'एगस्स त्तिविभक्तिव्यत्ययादेकेन पुरःकर्मणि कृते यदि द्विती. गीयस्थेसु वि भयणा, अन्नो श्रमं च तेण मत्तेयं । यो ददाति तदा तस्य द्वितीयस्य हस्ताद ग्रहणे च विधिर्वक्त विप्परिणयम्मि कप्पइ,ससिणिबुद उल्ल पडिकुट्ठा।१०१॥ व्यः । (पसज्जण ति)अगीतार्थाभिप्रायेण(तस्थति)तत्र द्वितीये ऽपि दायके प्रसजना प्रसादोषो भवतीति वक्तव्यम् । (कम्प. गीताथैयपि भजना । कथम् ?, इत्याह-अन्यः पुरुषोऽन्यद्वा हिति) कल्पस्थिकास्तरुणखियः केलिप्रियतयाऽभीषणं पुरः. तदा द्रव्यं तेन पुरस्कर्मकृतेन मात्रकेण यदि ददाति, तदा कर्म यथा कुर्वन्ति तथा निरूपणीयम् । (वारणललियासणिउ विपरिणतेऽकाये पारमार्थिते च सति कल्पते, यदि तु स. त्ति)यदि साधुः-त्वं मा देहिएषा दास्यतीत्यविधिना पुरकर्मः स्निग्धमुवकाss वा दायकस्य पाणितलं भवति ततः प्रतिकारिणीं वारयति तदा ललिताशनिक इति गण्यते । (गंतूणं क्रुष्टा सा भिक्षा, न कल्पत इत्यर्थः। ति) गत्वा प्रतिनिवृत्तायास्मै दास्यामीति बुद्धया यदि दाता अथ कल्पस्थितिकाद्वारं व्याख्यातिहस्तगृहीतया भिक्षया तिष्ठति तदान कल्पते (कम्मे ति) तरुणीउ पिंडियाओ, कंदप्पा जइ करे पुरेकम्म । द्रव्यभावभेदभिन्नं पुराकर्म भवति (इत्थ त्ति ) तत्र पुर: पदमविझ्यासु मोत्तुं, सेसे आवज चउलहुगे। ॥१.१९॥ कर्मणि किं हस्ते उपघात उत मात्रके इत्यादि चिन्तनीघम् । (उप्फास त्ति) उत्स्पर्शनं-छन्दनं तद्वत्रविषयं वक्त काश्वित्तरुण्यो युवतयः पिण्डिता एकत्र मिलिताः साधु व्यमिति द्वारगाथासमासार्थः। समायान्तं वा परस्परं जल्पन्ति-पतेषां तावतदर्थ-धौतेन Page #1080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०५७) पुरेकम्म अनिधानराजेन्धः। पुरेकम्म हस्तेन मात्रकेण वा दीयमानं न कल्पते , अतः पश्या अथ कर्मेति द्वारं विवृणोतिमस्ताबदेतमस्माभिः खलीकृतः किमेष करोनीस्येकया दव्वेण य भावेण य, चउक्तभयणा भवे पुरेकम्मं । तासां मध्यादुत्थाय पुर कर्म कृतं, ततः साधुः प्रतिनिवर्तितुं सागारिय भावपरिण य,तइओ भात्र य कम्मे य ।।१०१७।। लग्नाद्वितीया नीति -प्रतीक्षस्व भगवम् ! अहं ते दास्यामि । सुनो चउत्थभंगो, मझिला दोसि वी पडीकुट्ठा। ततो भूयोऽप्यामतस्य तस्य तयाऽपि पुरकर्म कृतम् , ततः प्रतिनिवर्तमानं यदि तृतीया काचिदाहयति तदा ज्ञातव्यं यथै संपत्ताइ वि असती, गहणपरिणते परेकम्मं ।। १०१८॥ सा मां खलीकुर्वन्ति ततो न प्रतिनिवर्तितव्यम् । अत एवाs द्रव्येण च भावेन च चतुष्कभजना-चतुर्भङ्गीरचना पुरस्कर्मह-यदि ताः कन्दरपुरकर्म कुरिन् ततः प्रथमद्वितीये णि भवति । तद्यथा-द्रव्यतापुरःकर्मन भावतः१,भावतःपुर:तरुण्यो मुक्त्वा शेषाभिराकारितः प्रतिनिवर्तमान प्रापद्यते कर्म न द्रव्यतः२,द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि पुरस्कर्म३,न द्रव्यतो चतुर्लघुकम्। नभावतःपुरस्कर्म ४॥ अथामीषां भावना ( सागारिय त्ति) अथ वारणललिताशनिकद्वारं व्याचले शौचवादिनोऽभाविताश्च गृहस्थास्ते पुरस्कर्मणि कृते यदिन पुरे कंम्मम्मि कयम्मी, जइ भन्मइ मा तुम इमा देउ । गृह्यते ततोऽशुचयोऽमी इति मन्येरन् इत्थं सागारिकभयामंकापदं च होजा, ललियासणिउ च मन्मत्तं ।२०१२। त्पुर:कर्मकृतेन हस्ताऽऽदिना भक्ताऽऽदि गृहीत्याऽपि परि ठापयतो द्रव्यतः पुरकर्म भवति न भावत इति १ ।(भाव. पुरःकर्मणि कृते यदि साधुना दानी भएयते-मा दास्त्वम् इयं परिणयत्ति) भिक्षामवतरन् पुराकर्म कृतं भक्काऽऽदि गृहीये दादतु । ततः सा चिन्तयति-अहं विरूपा वृद्धा वा अतोना. इति भावेन परिगातस्तथाऽपि पुरस्कर्म कृतं न लब्धामस्मै प्रतिभाले,इयं तु सुरूपा यौवनमधिरूढा प्रतिभासते। श. ति भावतः पुरकर्म न द्रव्यत इति २।। तइओ भावे य कापदं वा तस्याश्चेतसि वा भवेत्-किमेष एतया सह घ. कम्मे य त्ति) पुरःकर्म कृतं गृहीच्यामीति भावपरिणतो टितो यदेवमस्याः पार्वात् भिक्षा प्रहीतुमिच्छति ? । यदि शिक्षामवतीर्णः प्राप्तं च तेन पुरस्कति तृतीयो भङ्गः३। चतु. वा यात्-भवान् सुव्यक्तं ललिताशनिको लक्ष्यते यदेवं र्थस्तु पुरःकर्म प्रतीत्योभयथाऽपि शून्यः४। अयं चात्र निरवधः यथाभिलषितां परिवेषिकामभिलषसि । प्रतिपत्तव्यः । मध्यमौ द्वितीयतृतीयभो द्वावपि प्रतिकुष्टौ अथ गत्वेति द्वारं व्याख्यानयति प्रतिषिद्धौ भावम्याविशुद्धत्वात् । प्रथमभङ्गस्तु शुज इव मगंतूण परिनियत्तो, सो वा अन्नो व से तयं देइ । न्तव्यः प्रयोजनापेक्षत्वात् । द्वितीयभने तु (संपत्ताइवि अस. अन्नस्स व दिजिहिई, परिहरियध्वं पयत्तेणं ॥१०१३॥ ती गहणपरिणए पुरेकम्मं ति) द्रव्पतः संप्राप्तावसत्यामपि भावता ग्रहणपरिणतम्य पुरःकर्म भवति । कृतपुरकर्मा दायको मिक्षां ददानः साधुना प्रतिषिद्धश्चिन्त अस्यैव नियुक्निगाथाद्वयस्य भावार्थमोक्षपरिहाराभ्यां स्पष्ट यति-यदि एष साधुरस्यां गृहपको गत्वा प्रतिनिवृत्तः समा. यितुभाहयास्यति तदा दास्यामीति तत्तद् द्रव्यं स वा अन्यो वा दा. पुरकम्मम्मि कयम्मी, जइ गिएहइ जहन तस्स तं होइ। यकः (से) तस्य साधोर्ददाति तदान कल्पते । अथ यथेष न गृहाति ततोऽन्यस्य साधोर्दास्यते इति संकल्पयति । ततस्ते. एवं खु कम्मबंधो, चिट्ठह लोए य बंभव हो ।। १०१६ ।। नापि परिहर्त्तव्यं तद्भक्तं प्रयत्नेन । एषा नियुक्निगाथा। पुरकर्मणि कृते यदि गृह्णाति, यदि च तस्य यतेस्तत्पुर:अस्या एव व्याख्यानमाह कर्मग्रडणं प्रति भावो भवति, तदा तृतीयभक्तो भवतीति पुरे कम्भम्मि कयम्मि, पडिसिद्धो जइ भणिज्ज अन्नस्स । वाक्पशषः । पुरःकर्मदोषस्तावद् दायकस्य न भवति । कृती ऽपि चाऽसौ प्रथमभने साधोगुहतोऽपि यदि न भवति । एवं दाहं ति पहिनियत्ते,तस्स व अम्मरस व न कप्पे ।१०१३ खुरवधारणे। पुरसकर्मकृतः कर्मबन्धी दायकग्राहकयोरस्थि. पुरकर्मणि कृते प्रतिषिद्धो दायको यदि भणेत् अन्यस्मै साधवे तस्तटस्थ एव तिष्ठति, यथा लोके ब्रह्मवधः। "लोइयं दाम्यामीति, ततः प्रतिनिवृत्तस्य तस्य वा अन्याय पान उदाहरण-इंदेंण उडंक (उडए रिसिपत्नी रूपवती दिट्टा, तो कल्पते । अझोपवना, तीए समं अहिगमं गतो, सो तो निग्गच्छता रिसिणा दिट्ठो, र?ण रिसिया तस्स सावो दिनो-जम्हा तुमे भिक्खयरस्सऽन्नास व, पुवं दाऊण जइ दए तस्स । श्रग (म्मा) सारिसिपत्ती अभिगया तम्हा ते बंभवज्झा उब. सो दाया तं वेलं, परिहरियव्यो पपत्तेणं ॥ १०१५ ।। ट्रिया,सोतीप भीश्री कुरुक्खे)खेत्तं पविट्टो,साबंभवज्झा कुरु वेत्तस्स पासश्रोभमइ,सोचि तीउ भया न नीति इंदण विणा पुरणकर्मणि कृते पूर्वमन्यस्य भिक्षाचरस्थ भिक्षां दत्त्वा पश्चा. सुन्नं इंदट्ठाणं, ततो सब्वे इंदं मग्गमाणा(ोहिणा) जाणिऊण दच्छिन्नव्यापारस्तस्य साधोभितां दद्यात् , स दाता तस्यां बेलायां प्रयत्नेन परिहर्तव्य इति । कुरुक्खेत्ते उपट्टिपा भणंति-एहि सणाहं कुरु देवलोगं । सो भणइ-मम उ निग्गच्छतस्ल बंभवज्झा लग्गइ, ततो सा देवे. अमुमेवार्थ किञ्चिद्विशेषयुक्तमाह हिं बंभवज्झा चउरा विहत्ता,पको विभागो इत्थीणं रिउकाले, बस्सव दाहामिति, अन्नस्स वि संजयस्स न वि कप्पे। वीश्रो उदगकाइयं निलिरंतस्स, तइओ बंभणस्स सुरापाणे, अत्तहिए व चरगा-इणं व दाहं ति तो कप्पे ॥१.१६।। च उत्थो गुरुपत्तीए अभिगमे। सा बंभवज्झा एएसु ठिप्रा.इंदो. अन्यस्मै वा साधये दास्यामीति यदि इति संकल्पयति तदा वि देवलोगं गो । एयं तुभं पिपुरेकम्मका कम्मबंधदोसो।' अन्यस्यापि संयतस्य नैव कल्यते । प्रथाssमार्थयति चर. ब्रह्महत्यावद्वेगलो भवति । * विलग्नो। काऽऽदीनां वा दास्यामि इति संकल्पयति, ततः परिणते | पर पवाडहस्ते मात्र के या कल्पते। संपत्ती वि असती, पुरकम्मं पत्तियो विय अकम्म । Page #1081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरेकम्म एवं खु पुरेकम्मं ठत्रण मितं तु चोएइ || १०२० ।। यदि संप्राप्तायामद्वितीयाकर्म पतित धारयेत्थमेव प्रतिष्ठितम् पोतपुरकर्म स्थापनामात्रम् शस्यैवकारारार्थत्वात् प्ररूपणा मात्र मेवमिति नोदयति । ( १०५८) अभिधानराजेन्ड असते या पुरःकर्मकृतः कर्म एव तिष्ठति तत्र तिष्ठतु नाम न कदाचिदस्माकं क्षतिरुपाने तथा चात्र तदुक्रमेव दम्म न्यूयास्माभिः स्वामि इंदे बंभवज्झा, कया तो भीओ ताएँ नासंतो । कुरुते य पविट्टो, सावि हि पडिच्छए तं तु ॥ १०२१ ॥ निगच्छे पुणो विगिएहे. कुरुखं तं एत्थ संजमो अहं । इ ततो नीइ जीवो, घेप्पर तो कम्पणं ॥१०२२॥ इन्द्रेण ब्रह्महत्या कृता, ततो भीतः सन् तस्या नस्यन् कुरुक्षेत्रं प्रविष्टः साऽपि ब्रह्महत्या तमिन्द्रं बहिः प्रतीक्षते यथ - मादितः कुमार जाने कर्मच निर्गतस्तु प्रथमवतु सनि संग कुल इति चेदुच्यतेजे जे दोसाणा, ते ते सुते जिहिं पडिकुट्ठा । ते खलु भाय तो सुद्धां इहरा तु भइयच्यो ।। १०२३ ॥ प्रतिपादनमायतनानि कर्मानि तानि प्रतिनि अतस्तानि खलु दोषाऽऽयतनानि अनाचरन् साधुः शुद्धो मम्तव्यः इतरथा तु समाचरन् भक्तव्यः । परः प्राऽऽह - का भयगा। जइ कारणं. जयगा।ए अकल्प किंचि पडिसेवे । सोइ पुन सुर से ।। १०२४।। कामना विशद करनापुर कर्माsss किञ्चिदकल्यं यदि प्रतिसेवने ततः शुद्धः, इतर था पुनरयतनया दता वा सेवमानो न शुद्ध्यति । अथ पुराकवर्धने कारणमुपति समापसिंकी अगि पारित | गितावाससुद्धं एमियं समा ।। १०३५ ।। पुरःकर्मकृतं गृहाकायविराधनानुमतिस्तत्परिशताषमता पुरक परिहरति । अपि च यदि कर्मकृतमप्याद्दियां भूयः पुरःकर्मकरण प्रसको पनि अनवरत तिच तोऽशभाषाः सन्तः श्रमणाः सविशुद्धमेषणीयं गृह्णन्ति । श्रय हस्तद्वारं विवृणोतिकिंत्माउद्गम् । पु ना ब्रह्म पर्थम् स्थापनामा तिमि य ठाण | सुद्धा, उदगम्मी सणा भणिया । १०२६ । शिष्यः पतिपुरकर्मकृते कि इस्ते यता, उत मात्र, आहोस्वित् द्रव्ये, उताहो उदके । पुरेकम्म सूरिराह - हस्त मात्रकद्रव्याणि वीण्यपि स्थानानि शुद्धानि, नेतान्यनेपणीयानि किंतु उसके अनेयता मणिना । अपपत्तिमाह जम्हा उ इत्थमत्ते हि कप्पती तेहि चैव तं दव्वं । तद्विष परि परिणत म्हादगमसि || १०२६ ।। यस्मात्ताभ्यामेव इस्तमात्रकाभ्यां तदेव द्रव्यमात्मार्थितं सत् परिभुक्तशेषं वा परिणते काये वल्पते, तस्मादुदकमेवाने. माकप्यासीति चाषवि - धिरुक्तः । सम्प्रति वस्त्रविषयं तमेवाऽऽहकिंतर चोकले विपि अतद्रिय संकामिय, गांगीवर ॥। १०२८ ।। प्रक्षालितं ररीकृतं बो रजक पार्श्वदती योज्ज्वलं कारितं शुचिकमशुच्यादिनं। पलितं सत् पवित्रीकृतम् । एतानि साध्वर्थे वस्त्रे कृतानि भवेयुः । तत श्रच शिष्यः पृच्छति किं धौते उपघातः उत रक्ते, उताहो चो आशुवीकृत है। अपि तदेव निन चतुतिमप्युपघातः किं च यत खानप्रयत्मार्थित संक्रामितं या तं ततो गीतार्थसंविग्नस्य ग्रहणं भवति नान्यस्य । किमर्थमेतद्ग्रहणमितिचेत् ?, उच्यतेथाहणं, अत्तद्वियमाइ गिएहई गीतो । विगतं गतो व संविग्यो । १०२६ ।। गीतार्थप्रणेनैव शाप्यते आत्मर्थितं संक्रामितं वा गी. सानिमीतार्थः संविग्ननार्थिव दिकं विना इति सूयते । उत्स्पर्शनतारं व्याय एमेव य परिभुत्ते, नवे य तंतुग्गए अधोयस्मि । उसिक देते, असिविए म ।। १०३० ॥ परिधानादिना परिमलितंत्र द्विपरीतं नवं तन्तुभ्य उद्द्भूतमात्रं ततः परिभुकं नवं वा तन्तूद्गतम् अधौतं सद् यद् उत्स्पृश्योदकेन । भ्युक्षणं दवा द दाति तत्राप्येवमेवनत्यर्थः - तम आत्मना वा सेविनं परिभुक्तं ततो ग्रह क सेव्यम् । बृ० १३०२ प्रक० । + जे भिक्खू पुरेकडे वा हत्थेण वा मत्तेण वा दत्रिएण वा भायले पा असणं पापा वा वाइ वा साइमं वा पडिग्गाहेइ, पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ १८ ॥ इमो सुत्तत्थोंहत्थे मत्ते व पच्छापुरकम्पए गेरहती जो उ । आहारउवहिमादी, सो पावति आमादीणि ॥ ८३ ॥ पुरस्तात्कर्म पुरःकर्म कम मच भङ्गो । पदमभंगे दो चउलहुया, बितियततिपसु एक्केके चतु· लहुं, चरिमो सुद्धो । उदउल तिसु विभङ्गेषु मासलहुया, ससद्धिसु तिसु भहेतु पंचरातिदिया । नि०० १२ उ० । ध० | कल्प० । जीतानुसारेण पुरःकर्मणि श्राचामालं प्रायश्चित्तम । जीत० । 31 Page #1082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०५६) पुरेकम्म भन्निधानगजेन्दः । पुला जे भिक्खू उदउल्लेण वा समणिद्धणे वा हत्येण वा मने- प्रान्युदयिके कार्य क्रियमाणायां संखडी, प्राचा. २ श्रुक ण वा दविएण वा भायणेगा वा अमणं वा पाणं वा खाइम | १चू०१०१ उ०।। वा साइमं वा पहिगाहेइ, पडिगाहंतं वा साइजइ ॥ ४०॥ | पुरेसंधुय-पुर:मस्तुत-पुं० । भ्रातृव्याऽऽदौ प्राकृतपरिचये, प्राचा० २ ध्रु० १ चू. १ म०४ उ० । पितृव्याऽऽदौ, एवं उदउल्ल ४१, ससणिद्धे ४२,ससरक्खे ४३,मष्टिया ४४, । प्राचा०२ श्रु.१० १०६ उ०। उसे ४५, लोणे य ४६, हरियाले ४७, मणसि लाए)णे ४८, पुरोकाउं-पुरस्कृत्य-अय० । अङ्गीकृत्येत्यर्थे, सूत्र० १ ०१ रस्सगए ४५, गेरू य ५०,सेटिए५१,हिंगुलु ५२,अंजणे५३, अ० ३ उ०।। लोढे ५४, कुक्क(कु)सा ५५, पिट्ट ५६, कंद ५७, मूल५८, पुगेग-पुरोग-पुं० । पुरःसरे नायके, वृ० १ उ० ३ प्रक० । सिंगवेरे य ५६, पुप्फकं ६०. कुटुं ६१, एए एकवीसं भवे | पुरोवग-पुरोपग-पुं० । राजवृते. श्राचा०। इत्था पडिगाडेइ, पडिगाहंतं वा साइजइ ॥ ६१ ॥ पुरोहड-पुरोहत-न० । रमणीयसंयतीप्रायोग्यविचारभूमि के, गिहिणा सवित्तीदगेण अप्पणट्ठा धोयं इत्थाऽऽदि अपरि- वृ०२ उ० । अनद्वारे, प्रा० । असमे, देना०६ वर्ग१५गाथा। रायं उदउल्लं भवति . पुढवीमो मत्तश्री कंसमयं भायणं, पुरोहय-पुरोधस्-पुं० शान्तिकारिण, स्था० ६ ठा० । अंजणमिति सोधीरयं, रसंजणं वा; ते पुढविपरिणामावः पुरोहिय-पुरोहित-पुं० । पौरजानपदयुक्तस्य राज्ञो होमाss. स्त्रिया जेण सुवमं वणि जति, सोरट्टिया तुवरि मट्टिया भ. दिनाऽशिवाऽऽधुपद्रवप्रशमने, वृ० ३ उ० । स्था० । शा० । एमति तंदुलपिढे आमं असच्छोवहततंदुलाण कुक्कसा स प्रश्नारा०प्रव०।"जो होम(म्म)जवादिपहिं असिवादि पसचित्तवणस्सती, तुमोश्रो कुट्ठो भमति. असंसट्ठ अणुवलितं । मेति सो पुरोहितो।" नि० चू० ४ उ० । उद (उल्ले) महिया वा, रस्सगते चेव होति बोधव्वे । पुरोहियरयण-पुरोहितरत्न-न। पुरोहितः शान्तिकर्माऽऽदि. हरिताले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे ॥२८॥ कारी स एव स्वजातिमध्ये समुत्कर्षयन् रत्नं निगद्यते । पुरो गेरुयवस्मिय सेटिय, सोरट्ठिय पिट्ठ कुक्कुसकते वा। हितानामुत्कृष्टे, “पगमेगस्स णं चक्कवट्टिस्त चउद्दस रयणा कुटुमसंसढे वा, णेसब्वे आणुपुबीए ।। २८३ ॥ इत्थीरयणे गाहावहरयणे पुरोहियरयणे।" स०१४ समः । श्रा०म० । स्था। एत्तो एगतरेणं, हत्येणं दविभायणणं वा । पुलअ-दृश-धा। प्रेक्षणे, "दृशो निअच्छ-पेच्छावयच्छावयजे भिक्खू असणादी, पडिगाहे प्राणमाणदीणि।।२८४॥ ज्म वज सव्वव-देक्खौ अक्खावखावअक्ख-पुलोम-पुलए उदउलादीए तू , हत्थे मत्ते य होति चतुभंगो। निश्रावास-पासाः" ॥८४१८१॥ इति डशेपुलभ आदेपुढवी आउवणस्सति, मीसे संमोग पच्छितं ॥२८॥ शः। 'पुलबह'। पश्यति । प्रा०४ पाद । हत्थे उद उल्ले मत्ते उदउल्ले, हत्थे उदउल्ले नो य मत्ते, नो पुलाअ-उल्लस-धा० । उल्लासे, " उल्लसेरूसलोसुंभ-णिलहत्थे मत्ते, नो हत्थे नो मते । एवं पुढवादिसु चउभंगी। ए स-पुला -गुंजोलारोत्राः" ॥८४२०२॥इति उत्पूर्वस्य लस. ते चउरो भना-पुढवीमाउवणस्सतिसु संभवंति, णो सेस तेः'पुलआअ' आदेशः। 'पुलाई'। उल्लसति । प्रा०४ पाद । कापसु । मीसेसु वि चउभंगा काबब्बा, संजोगपच्छित्तं, प. पुलइन--पुलकित-त्रि० । रोमाञ्चे, " रोमंचिअं भारेहढमभंगे दो मासलहुं, सेसेसु एक्केक, सरिमो सुद्धो । अहवा मीसे संजोगपच्छित्तं ति । सचित्ता पाउणा उदउल्लो हत्थो अं, उससि पुलइरं च कंटरअं । " पाइ० ना० ७६ गाथा। मासलहु । पुढविकायगतो मत्तो, पत्थं जं पच्छितं तं संजो दृष्ट-त्रि० । रऐ, " सञ्चवि-दिट्ट-पुलइन-निअच्छिाई गपच्छित्तं भवति । एवं सर्वत्र योज्यम्। असंसिटे इमं कारणं निहालिप्रथम्मि।" पाहना ७८ गाथा। मा किर पच्छाकम्म, होज असंसट्टगं तो वजं । पुलंपुल-पुलम्पुल-न० । अनवरते, प्रश्न०३ आश्रद्वार । करमत्तेहि तु तम्हा, संसद्धेहि भवे गहणं ॥ २८६ ॥ पुलंपुलप्पभूय-पुलपुलप्रभूत-त्रि० । अनवरतोद्भूते, प्रश्न०३ __ कारणे गहणं प्राश्रद्वार। असिवे प्रोमोयरिए, गयडुढे भए व गेलप्मे । पुलग-पुलक-पुंगा रत्नविशेष, प्रा० म०१०। सूत्र । शा०। श्रद्धाणरोधर वा, जतणागहणं तु गीतत्थे ॥ २८७॥ प्रशा० । लवे, शा०१ श्रु० १ अ०। रा०। नि० । विपा० । तत्र जयणाए गहाणं ति जयणाए पणगपरिहाणीए मास. पुलगकंड-पुलककाएड-न० । रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पुजकर, लहुं पत्तो, ततो गेएहति । नि० चू०४ उ०। लमये कारडे, “रयणप्पभाए पुढवीए पुलयकंडे दस जोयणपुरकम्मिया-पुरस्कमिका-स्त्री० । पुरः प्रथमं कर्म यस्यां सा | सया बाहल्लेलं पाते।" स्था० १० ठा० । स०। पुरस्कमिका । पुसकर्मपण दृष्टायाम, ध०३ अधिः। पुलगसार-पुलकसार-पुं० । वर्णातिशये, शा० १६०१ पुरेवाय-पुरोवात-पुं० । पूर्वदिकसम्बधिनि वाते, शा० १ अ.नि। श्रु०११५०। पुला-पुला-स्त्री० । लघुतरस्फोटिकासु पुलाकिकासु, स्था. पुरेसंखडि-पुर:संखडि-पुं० । जातनामकरणविवाहाऽऽदिके। १० ठा। Page #1083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । (१०६०) पलाकिमिय अभिधानराजन्ः। पुलागनत्त लाकिमिय-पुलाकृमिक-पुं० । पायुप्रदेशोत्पन्नेषु कृमिषु, | अस्य संबन्धमाद्दजी०१ प्रति । प्रहा। पु(उ)त्तरिय पञ्चयट्ठा, सुत्तपिणं मा दु दुज बहिभावो। पुलाग-पुलाक-पुं०। बल्लचणकाऽऽदिक ऽसारे, उत्त०८।। जससंरक्षणमुभए, सुत्तारंभो उ वइणीए ॥३६॥ भाचा भ०। प्रथमे चारित्रिणि, दर्श०४ तव । लोकोतरिका(ना)नाम परिणामकातिपरिणामकानां प्रत्ययार्य धनमसारं भनइ, पुलायसद्देण तेण जस्स समं ।। सूत्रमिदमनन्तरमुक्तं,मा तेषां बहिर्भावो भवेदितिकृत्वा । अयं चरणं सोपुलामो, लद्धीसेवाहिं सो य दुहा ॥७३०॥ तु वतिनीविषयः प्रस्तुतसूत्रस्यारम्भः उभये लोके लोकोत्त. पुलाकशम्देन भसारं निःसारं धान्यं तन्दुलकणशून्यं पलजि. रेच यशःसंरक्षणार्थ क्रियते । अनेन संबन्धेनाऽध्यातस्यास्य कर्प भएयते, तेन पुलाकेन समं सरशं यस्य साधोश्चरणं चा. (४५ सूत्रस्य) व्याख्या-निर्ग्रन्थ्या गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रति रित्रं भवति स पुलाका, पुलाक व पुलाक रति कृत्वा । अ. शया अनुप्रविष्टाया अन्यतरत् धाम्यगन्धरसफल कानां बल्ल पमर्थः-तपाधुतहेतुकयोः संघाऽऽदिप्रयोजने सबलबाहनस्थ विकटदुग्धाऽऽदिरूपाणामेकतरं पुलाकभक्त प्रतिगृहीतं स्या. बकवावरपि चूर्णने समाया लम्धरुपजीवनेनशानाss. त्, सा च तेनैव भक्तन संस्तरेत् दुर्भिक्षाऽऽद्यभावाग्निवहेत् । अतिचाराऽसेवनेन वा सकलसंयमसारगलनात्पलाअवभि ततः कल्पते तस्याः तदिवस तेनैव भक्तार्थेन पर्युषितं नि. सारो यः स पुलाकः । स च द्विधा-लब्ध्या, सेवया च । हियितुं नो (से) तस्याः कल्पते द्वितीयमपि वारं गृहफजब्धिपुलाका, सेवापुलाकम्त्यर्थः । तत्र लम्धिपुलाको । तिकुलं पिण्डपातप्रतिक्षया प्रवेष्टुम् । अथास्या न संस्तरेत् . देवेन्द्रर्षिसमसमृद्धिको लब्धिविशेषयुक्तः । यवाह-"संघाइ ततः कल्पते तस्या द्वितीयमपि वारं गृहपतिकुलं पिण्डपामाण कजे, चुक्षेला बसवष्टिमवि जीए। तीए लद्धी जुओ तप्रतिक्षया प्रवेष्टुम् । इति सूत्रार्थः । ललिपुलामो मुणेयध्वो ॥१॥" अन्ये स्वाहुरासेवनतो अथ नियुक्तिभाध्यविस्तर:पोहानपुलाकस्तस्येयमीरशी लब्धिः स एव च लब्धि. तिविहं होइ पुलागं, घशे गंधे य रसपुलाए य । पुलाको, न तब्यतिरिकः कश्चिदपर इति । प्रासेवापुरला । चउगुरुगाऽऽयरियाई, समणीणुद्धहरगहणे ।। ३६६ ॥ कस्तु पञ्चविधः-हानपुलाकः, दर्शनपुलाकश्चारित्रपुलाका, त्रिविधं पुलाकं भवति । तद्यथा-धान्यपुलाकं, गन्धपुलाकं लिपुलाका यथासूक्ष्मपुलाकश्च । तत्र स्खलितमलिनाss रसपुलाकं चेति । एतत्सूत्रमाचार्यः प्रवर्तिम्या न कथयति दिभिरतिबारैनिमाश्रित्याऽऽस्मानमसारं कुर्वन् शानपुलाकः चतुर्गुरु, प्रादिशब्दात्प्रवर्तिनी निग्रंन्धीनां न कथयति चतुर्गु एवं कुंडष्टिसंस्तथाऽऽदिभिर्दर्शनपुलाकः, मूतोत्तरगुणप्रतिषे. रु, निन्थ्यो न प्रतिशृण्वन्ति मासलघु, श्रमणीनामप्यूटुंदरे भनया बारिश्रषिराधनकश्चरणपुलाका, यथोक्कलिङ्गाधिक सुभिक्षे पुलाकं गृहतीनां चतुर्गुरु । महणाभिकारणान्यलिङ्गकरणाद्वा लिपुलाकः, किश्चित्म. __अथ त्रीण्यपि धान्यपुलाकाऽऽदीनि व्याचष्टमादाम्मनसा प्रकल्प्यग्रहणाद्वा यथासूक्ष्म पुलाकः । अन्यत्र निप्फाबाई धमा, गंधे वादिगपलंडुलसुणाई । पुनरेषमुक्तम्-"महासुमो य एपसु चेव चउसु वि जो पोवयोवं विराति ।" प्रव०६३ द्वार । व्य० । पं० भा० । खीरं तु रसपुलाओ, चिंचिणिदक्खारसाई य॥३६७।। ० सूत्र०।०। कल्प। स्था० । उत्त। निष्पाबा वल्लास्तदादीनि धान्यानि पुलाकं. तथा 'वाइग वि. पुलाकाः कट, पलाएकुलसुने च प्रतीते, तदादीनि यान्युत्कटगन्धानि पुलाए पंचविहे पत्ते । जहा-णाणपुलाए,दसणपुलाए, तत् गन्धपुलाकम, यत्पुनः क्षीरं, ये च चिञ्चिणिकाया गोपरिच,पुलाए, लिंगपुलाए, महामुहमपुलाए नाग पंचमे।२। स्तनिकाया रसोया मादिशब्दादपरमपि यद् भुक्तमतीसारय. ति तत्सर्वमपि रसपुलाकम् । पुनाकस्तन्दुलकणशून्या पलनिस्तद्वत् यस्तपाश्रुतहेतुका. पालघाऽदिप्रयोजने चक्रवर्यादेरपि चूर्णनसमर्याया ल. अथ किमर्थमेतानि पुलाकाम्युच्यन्ते , स्याहघडपजीवनमानाऽऽयतिचाराऽऽसेवनेन पा संयमसारर. पाहारिया आसारा, करेंति वा संजमाउ हिस्सारं । हितःस पुलाक।। अत्रोक्तं जिनप्रेरितादागमात्-सदैवाप्रति निस्सारं च पवपणं, दटुं तस्सेविणिं चिंति ॥ ३६८।। पातिनो हानानुसारेण कियाऽनुयायिनो लभिमुपजीवन्तो बद पुलाकमसारमुच्यते, तत पाहारितानि वखादीनि निर्भया पुलाका भवतीति । स्था०५ ठा०३ ३० । उत्त। यतोऽसाराणि सन्ति ततः पुलाकानि भण्यन्ते, संयमाद्वा सं. (पुलाकस्य वर्षाणि द्वाराणि 'णिग्गंथ' शब्दे चतुर्थभागे यममकीकृत्य यतः क्षीराऽऽदीनि निस्सारां साधी कुर्वन्ति, २०१४ पृष्ठे उलानि) ततस्ताम्यपि पुलाकानि , प्रवचनं वा निस्सारं. तेषां प्रजागभत्त-पुलाकमक्क-नानिासाराऽऽहारे, निपावासदि. विकदाऽऽदीना सेवनशीलां संयती दृष्टा जना ब्रुवते तत. चाम्ये निदपाः पात्रे पुखाकभक्तं प्रतिगृहीतं स्यात् । १०। स्तानि पुलाकाम्युच्यन्ते । निग्गंधीर गाहावाकुलं पिंडबायपदिपाए अणुप्पविट्ठाए पथदोषानाहअभयरे पुलागमते पहिग्गाहिए सिया, साय तेणेव संथ. माणाइयो य दोसा, विराहणा मज्जगंधमय खिंसा । रिजा, तमो कम्पह से तदिवसं तेमेव मतदेखं पोसवि. निग्गहणे गेलयं, पडिगमगाईणि लाए ॥ ३६६ ।। पए, नो से कप्पा दुषंपि गाहावाकुलं पिंडकायपटियाए | एषां प्रयाणामपि पुलकानां ग्रहणे माझाऽयो दोषाः, वि. पविसिचए, महसे यन संथरिखा, समो से कप्पइ दुर्थ राधना संयमाऽऽत्मविषया भवति, तथा गम्धपुलाके पीते स. पि गाहावाकुलं पिंडवायपडियाए पविसित्तए ।। ५४॥ । ति मधगन्धमाघ्राय मविकलां वा नां रा लोकः खि Page #1084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुलागभन्त सां कुर्यात्. धान्यपुलाके पुनराद्दारिते वायुकायः प्रभूतो नि. ति ततो यदि भिक्षार्थ प्रतिस्य निरोधं करोति सदा भवेत् अथ वायुकार्य करोति तत उड्डाहो भवेत् हिताला प्रतिगमनादीनि कुर्यात् एवं रसलाकेsपि क्षीrssदौ पीते भितां प्रविष्टा यदि संज्ञामागच्छत निरुणद्धि ततो महानत्यम् अथ न ततो यु सृजन्ती केनाऽपि दृष्टा लज्जया प्रतिगमनाऽऽदीनि कुर्यात् । किं च 1 1 (२०६१) अभिधानराजेन्द्रः । बसीए बिगरहिया, कि पूरा इस्वी बहुलयम्मि सक्खीवा । लाहु पेवा सम्मानासो पसंगो य ॥ ३७० ॥ स्त्री निर्मची सक्षीया मधमद्युक्ता बसतावपि सम्तीम हिंसा कि पर्यटन्ती तथाहि तां मदविकलाम् अपतन्ती प्रपतन्तीमाल मालामिव प्रलपन्तीं दृष्ट्वा लोकः प्रव चमस्य वाक्यं लाघवं कुर्यात् अहो मतं बालं पाखण्ड मिदमयादि । मदेन पाना संजाता सती प्रार्थनीया सा भवति, तत उद्भ्रामकाऽऽदयस्तस्याः प्रेरणं कुर्युः, मदवशे न यदपि तदपि प्रलपन्त्या खजानाशो भवेत्, ततः प्रति सेवनाऽऽदावपि प्रसङ्गः स्यात् । घुमर गई सदिट्टी, जहा य रसा सि लोयणकवोला । अरहर एस घुताई, थिसेवई सम्झए गेहे ।। ३७१ ।। तां तथा मदभावितां दृष्ट्वा लोको ब्रूयात् यथाऽस्या गतिः दृष्टियुक्ता घूर्णते, यथा वाऽस्या लोचनकपोला रक्ता ड श्यन्ते तथा नूनमद्देत्येषा घुताकी देशीवचनत्वादुद्धा मिकी, मनुभवितुं या सध्ययन मेहानि कल्पपा निषेध पिला यथायोगममी दोषाः । छकायाथ विराहय, पाउभय निसम्मओ अवभो । उन्तीस अस दम्म उड्डा हो । ३७२ ॥ मदविला पक्षामपि कायानां विराधन कुर्यात् धान्य बुलाकेन वा भुक्रेन वायुकायः मयं च संज्ञाकायिकी रूपं न सा गच्छेत् ततो भिक्षां हिण्डमाना यदि तेषां नि. सर्गे करोति ततः प्रवचनस्यावर्षो भवेत् परावप्र वा sयुत्सृष्टं पुरीषाऽऽत्रिकमवग्रह स्वामिनस्तस्याः पार्श्वात् उ झापयन्ति, स्वयमेव वा ते गृहस्था उज्झन्ति । (सह असह दम्म उड्डा अस्ति पूर्व परकलुषं स्वीकं या नास्ति या मूलत एवं नत उपचाऽपि न भवेत्। कले अह सक्खीवा, आसी यं संखवाइभजा वा । भग्गा खाए सुविही, दुद्दिट्ठ कुलं सि गरिहा य || ३७३ || कल्पे - अन्यस्मिन् दिने अचेत्युपदर्शनेसीया मद्यमद्युक्का शासीत्, खुमितिरेक कवत जना उपसम्ति । वायुकायशब्दं च श्रुखा वीरन् अयं शङ्खवादकस्य भार्या पूर्वमासीत् । यद्वा भग्ना अनया इत्थं वायुकायेनाश्रान्तं पूरयन्त्या सुविही अङ्गण मण्डपिका एवं प्रपञ्चयेयुः । ( दुद्दिट्ठकुलं सि गरि यत्ति ) दुष्टिधर्माणोऽमी कुलगृहं चैताभिरात्मीयं मलिनीकृत मेषं यह भवति, तत प्रतिगमनाऽऽदयो दोषाः । यत एवमतः हि एरिसो महारोग समये पुण्यवधिया दोसा पुलिश पुरुष-पुं०" रसो" ॥ ssn " 1 पुलिश गढ़ भाभोर ओमे सह कारखेहि गया | २७४ | यत्र विषये ईदृशं पुलाक आहारो लभ्यते तत्र निर्मन्थीभिर्नैव गन्तव्यं, यदि गच्छन्ति तदा त एव पूर्ववर्धिता दोषाः । अथवा अशिषाऽऽदिभिः कारयेा भवेयुः तत्र बानाभो मेन पुखाकमस्य प्रभवेत् । ततः किमित्याह S. गयिमा भोगेणं, वाइगवअं तु सेस वा गुंजे । मिरुपियं तु भुतं जा गंधोता न हिंडंसी ॥ ३७५ ॥ घनाभोगेन पुलाकं गृहीतं भवति तदा (बाइब कर्जयित्वा शेषं वा विभाषया भुखीरन् । किमु भवति यदि तदपर्याप्तमन्यच्च भक्तं लभ्यते तदा न भुञ्जते, किंतु परिपथ पर्याशं तदा भुखते, मुक्त्वा तेनैव माचैन पर्युपयन्ति विकटं तु सर्ववन मो प्लेयिं नाम पलाण्डु तत्पुन, यापत्तीयो गन्ध श्रागच्छति तावन्न हिण्डन्ते । कारणगमये वितर्हि पुब्वं पेत्य पच्छ तं चेत्र । " हिंडण पेल्ल बिए, ओमे तह पाहुणट्ठा वा ॥ ३७६ ।। अवमाऽऽदिकार खैर्गतायामपि मद्यपलाण्डुलसुनाम्येकान्तेन प्र तिषिद्धानि अथ पूर्वमनाभोगाऽऽदिना गृहीतं, ततः पुलाकं गृहीस्वापयातदेवार्थेन समासते न भूषो मिक्षामन्ते द्वितीय द्वितीयमपि वरं प्रविशेत् अथमं दुर्भिक्षं तत्र पर्यासं न लभ्यते प्राणका या संयत्यः समायाताः भूयोऽपि मां हिनामि यवना (पिह्नव सिधाला आधारित यदि पा युकाय आगच्छेत् तत्र एकं पुनः पार्श्वे वायुकार्य निसृजति उभयमिदम् तेन यदा संज्ञासंभवः तदा यद्यन्यासां संयतीनामासन्ना वसतिस्तदा तत्र गन्तभ्यं तद भावे भाषितायाः धाविकायाः पुरोहडाऽऽही व्युत्सर्जनीयम् । एसे गमो नियमावलागपि होइ समयायं । वरं पुण नातं, दोइ मिलायरस पहयाए ॥ ३७७ ॥ गमः प्रकारो नियमात् त्रिविधेऽपि बुला के भ्रमणाना मपि भवति, नवरं पुनरत्र नानात्वं ग्लानस्य दुग्धाऽऽदिकमा तुं जिषां साधयो गच्छेयुस्तत्र च गताः संस्तरन्त आत्मयोग्यं रसपुलाकं न गृह्णन्ति अथ न संस्तरन्ति, ततः क्षीराऽऽदिकं भुक्त्वा न भूयो मिक्षामटम्ति, कारणे तु भूयोऽन्तस्तचैव यत ४० । पुलागलद्धि - पुलाकलब्धि-स्त्री० । पुलाकत्वनिबन्धने लब्धिभेदे. प्रव० २७० द्वार । ( ' पुलाग ' शब्दे लक्षणं गतम् ) लागविपुला पुलाकविलाक पुं०] संयमासारतापादकदोषरहिते, "पुल ( लाग) विपुलाए कयविज्ञयसंनिहिभोवरप सव्वसंगावगए जे स भिक्खू ।" दश० १० अ० । पुलासिअ - देशी- अझिकणे, दे०ना० ६ वर्ग ५५ गाथा । पुलिभ - पुलित - न० । गतिविशेषे, औ० । पुलिंद पुलिन्द पुं० धनादेशविशेषे २०१०। शा० प्रश्न० रा० । प्र० प्रा० | आव० । नि० चू० । ४२८ ॥ इतिमा " " Page #1085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुलिश अभिधानराजेन्द्रः। पुव्वगय गभ्यां रेफस्य लः, सस्य शः । पुंसि । प्रा०४ पाद। यमिदं विशेषणं, प्राधान्यं च पूर्वाणां पूर्व प्रणयनात् म. लुट्ठय-प्लुष्ट-त्रि. दिग्धे, "पुलट्टयं पउलिभं दई।" पाह द्वाप्रमाणस्वात् अनेकविधामन्त्रमयस्वाध कल्प०२ अधिक मा० २०० गाथा। पक्षण । पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् पूर्षानुपूर्षीति । पुलोए-दृश्-धा० । दर्शने, "रशी निश्रच्छ पेच्छावयच्छाध. अनु० । परिपाट्याम्, व्य०१ उ०। यज्झ-बज-सब्बव-देक्यौ अक्खायकवावख-पुलोए-पु. पव्वंग-पूर्वाङ्ग-पुं० । प्रथमदिवसे, जं०७ वक्षः । कल्प। लए-निनाबमास-पासाः" ॥८।४।१८१॥ इति दृशधा. ज्यो० । चतुरशीतिवर्षलक्षप्रमाणे कालविशेषे, श्रा०म०१ तोः 'पुलोर' इत्यादेशः । पश्यति । प्रा०४ पाद । अ० । "चउरासीवाससयसहस्साणि से एगे पुवंगे।" भ० पुलोमतणया-पुलोमतनया-स्त्री० । इन्द्राण्याम, " पुलोम. ६ श०६ उ० । ज्यो० । जं०। कर्म०।०प्र० । अनु०। स्था। तणया स य दाणी।" पा० ना०६८ गाथा। (अत्र विस्तर: 'जीवाजीव' शब्दे चतुर्थभागे १५५६ प्रष्टे पुलोमी-पौलोमी-स्त्री०। "उत्सौन्दर्याऽऽदौ" ॥८।१।१६०॥ गतः) स्पोत उत्वम् । इम्पत्म्यां पुलोमजायाम् . प्रा०१पाद। पुवकड-पूर्वकृत-त्रि० । पूर्वमवेषणात्ते,सूत्र.१७० १५ अ०। पुलिंग-पुलिङ्ग-पुं० । लिबानुशासनाऽऽदिसूत्रे, "पुजिङ्ग कट | पूर्वसश्चिते. ओघ । प्रश्न । ण."(लिङ्गानु०१ सूइति पुल्लिामिति सानुस्वारं सानुना पुनकम्म-पूर्वकर्मन्-न । प्राकर्तव्ये प्रत्युपेक्षणाऽऽदिक का सिकंधा युक्तमिति प्रश्ने, उत्तरम्-" तो मुमो व्याने स्वौ" मणि, "जं पुवकम्मं तं पच्छाकम्मं जं पच्छाकमं तं ॥ १।३.१४ ॥ (म० इति सूत्रेणानुस्वारानुनासिकावुभायपि पुब्बकम्मं तं भिक्खू पडियाए घट्टमाणा करेज्जा ।" प्राचा स्त इति । १४२ प्र० । सेन०२ उल्ला। २ श्रु०१० २०१०। पूर्वकृतकर्मणि,प्रश्न०१ माम० पुत्री-देशी-व्याप्रसिहयोः, दे० ना० ६ वर्ग ७६ गाथा।" द्वार । पूर्वकर्मोदयोपगते, प्रश्न १ आश्रद्वार! जी पुल्ली बग्यो.सदूलो पुंडरीओ य।"पाइ० ना०४४ गाथा। पुवकय-पूर्वकृत-त्रि०। पूर्वमेव निपादिते, "पुयकयकम्म. पुवंत-जवत्-वि० । गच्छति, प्लुरु गताविति वचनात् । भ० परिभावणाह।" पूर्वकृतं प्रथममर्जितं यत्कर्म तस्य परि-सम. १५श। शत्रानशः।८।३।१८१॥ इति न्तः । प्रा। न्तात् भावना । प्रातु० । " पुवकयकम्मसंचभोवतत्त पुष्य-पूर्व-पुं०। प्रथमे, प्रादौ, दर्श०२ तव । ज्यो। वि.] ति।" पूर्वकृतकर्मणां सञ्चयेनोपतप्ता प्रापनसम्तापा ये ते शे। सूत्रः । प्रालि, उत्त० २५० स० । पूर्वजन्मनि, उ. तथा । प्रश्न०१आश्र द्वार। स.२०। प्राचा। अनु० । आवश्रातु। पुब्धकालिय-पूर्वकालिक-त्रि० । प्राक्कासिके, "पुब्बकालियनाम ठवणा दविए, खेत्ते काले दिसि तावखेत्ते य।। वयणदच्छे । "वानुकामस्य वचनात यत्पूर्वमुत्तरमभिधीयते पनवगपुन्नवत्थू, पाहुडअइपादुटे भावे ॥ १६०॥ । पराभिप्रायं लक्षयित्वा तत्पूर्वकालिकं वचनं तत्र वक्तव्ये नामस्थापने सुम्से, द्रव्यपूर्वम्- मखराद्वीजं, दनः तीरं, फा दक्षास्ते तथा वा पूर्वकालिकानामर्थानां वचनेऽदक्षाः । णितास इत्यादि, क्षेत्रपूर्व-यवक्षेत्राच्छालिक्षेत्रं, तत्पूर्व प्रश्न. १ आश्र द्वार। कस्वात्तस्य, अपेक्षया चान्यथाऽप्यदोषः, कालपूर्व-पूर्वः कापुच्वकीलिय-पूर्वक्रीडित-न । गृहस्थावस्थायां पुरा कृते पू. लः शरदःप्रावृद रजन्या दिवस इत्यादि. पावलिकाया वा- ताऽदिकीडने, उत्त० १६ अ०। प्रश्न । च्यादिभिःपूर्वका. समय स्यादि, दिक्पूर्व-पूर्व दिगियं च रुचकापेक्षया, ता. | सभाविद्यूतदुरोदराऽऽदिरमणे, उत्त०१६ अ०। पक्षेत्रपूर्वम्-मादित्योदयमधिकृत्य यत्र या पूर्वा दिक । उक्तं पुवगणिय-पूर्वगणित-न० । प्राकृतिसंख्याते,ज्यो०१पाए। च-"जस्त जतो आदियो, उदेति सा तस्स होर पुब्बदिसा।" इत्यादि । प्रज्ञापकपूर्व-प्रशापकं प्रतीत्य पूर्वा दिक यः पुब्बगय-पूर्वमत-1० । पूर्वाणि दृष्टिवादाभागभूतानि तेषु दभिमुख पवासौ सैव पूर्वा, पूर्वपूर्व-चतुईशानां पूर्वाणा. गतं प्रविष्टं तदभ्यन्तरीभूतं तत्स्वरूपं यच्छुतं तत्पूर्वगतम् । माचं, तब उत्पाद पूर्वम् , एवं वस्तुप्राभृतातिप्राभृतेप्पपि स्था०३ ठा० १ उ० । दृष्टिवादान्तर्गतश्रुताधिकार विशेषे, योजनीयम् । अप्रत्यक्षम्वरूपाणि चैतानि । भावपूर्वम्- नं.। (पूर्वगतम् 'दिट्टिवाय' शब्दे चतुर्थभागे २५१४ पृष्ठे माधो भावः। स चौदायिक इति गाथाऽर्थः । दश २ गतम्) म। भ० । चतुरशीतिलक्षगुणिते पूर्व, अनु० । साचा । " उप्पाए पयकोडी, अग्गे णीयम्मि छन्न उदलक्खा । जं। कर्म। भा(जीवाजीव 'शदे चतुर्थभागे १५५६ विरियमि सयरिलक्खा,सट्टि लक्खा उ अस्थि नस्थिम्मि ॥३॥ पृष्ठेऽस्यार्थः) “तिविहे पुब्बे पडते । तं जहा-सीते, पडुप्पो, एगयऊणा कोडी, नाणपवायम्मि हो। पुब्वमि । भणागए।" स्था०३ ठा०४ उ०। प्रशालनपूरणयोरित्यस्य एगा पयाण कोडी, छच सया सश्चवायम्मि ॥४॥ धातोः पूर्यते-प्राप्यते पाल्यते च येन कार्य तत्पूर्वम् , छब्बीसं कोडीओ, प्रायपवायम्मि होह पयसंखा। औणाऽऽदिको पक्प्रत्ययः । कारणे, "मापुष्वं जेण सुयं ।" कम्मपवाए कोडी, असीइलक्खेहि अभहिया ॥५॥ मंशा । पूर्व करणात्पूर्वाणि उत्पादपूर्वाऽऽदिषु दृष्टिवावा. चुलसीरसयसहस्ला, पथक्खाणम्मि बनिया पुब्बे। तर्गतेषु, स्था०४ ठा.१०।०० । "वउद्दसपुब्धि एका पयाण कोडी, दससहस्समहिया य अगुवाए ॥६॥ पो एकारसंगिणो।"चतुर्दशपविणो द्वादशामिस्खे उक्त च- छब्बीसं कोडीओ, पयाण पुरवे प्रबंभनामम्मि । प्रदेशपवित्वं तथाऽपि भागतमेव पूर्वाणां प्राधान्यख्यापना. पाण उम्मि य कोडी, छप्पनलक्खहि अम्भहिया ॥७॥ गाथाऽर्थः । तुरशीतिलग जं Page #1086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्वगय अभिधानराजेन्दः। पुव्वरत्तावरत्तकाससमय मव कोडीमो संखा, किरियषिसालम्मि पनिया गुरुणा। | पुवपुरिस-पूर्वपुरुष-पुं०।मतीत मरे,का. ११मानि० । अवतरस लक्खा. पयसंखा विंदुरसारम्मि | " स्था०४ पुष्यप्पभोग-पूर्वप्रयोग-पुं० । पाणस्येष सकर्मतायां गतिपडा०१० सर्वश्रुतात् पूर्व क्रियन्ते इति पूर्वाणि उत्पादपू बोणि उत्पादपू- रिणामयचे. भ०७श०१०। प्रवृत्तव्यापार एव नापूर्ववोऽदीनि चतुर्दश तेषु गतोऽभ्यन्तरीभूतः तस्वभाषः। व्यापारनियोजने, पश्चा०१०विष०। पूर्वस्वभावे रष्टिवारे. स्था० १० ठा०। - पूर्वाणां विच्छेदकाल: पुन्यप्पोगपञ्चइय-पूर्वप्रयोगप्रत्ययिक-पुं० । पूर्वः प्राकाला. "बो(वो)लीणम्मि सहस्से, वरिसाणं वीरमोक्खगमणाउ । ऽऽसेवितःप्रयोगो जीवव्यापारो घेदनाकषायाऽऽदिसमुदातउत्तरवायगवसभे, पुषगयस्स भवे छेदो ॥८०१ ॥ रूपः प्रत्ययः-कारणं यत्र शरीरबन्धे स तथा स एव प्रत्युबरिससहस्से पुमे, तित्थोग्गाली' वद्धमाणस्स । त्पन्नप्रयोगप्रत्ययिकः तस्मिन् , भ०८श०१ उ०। नासिहि पुब्वगतं, अणुपरिवाडीऍ जं जस्स"॥८०२॥ति०। पुग्धपुत्तसिणेहाणुराय-पूर्वेपुत्रस्नेहानुराग-पुं०। प्रथमगर्भाधापुब्बगहिय-पूर्वगृहीत-त्रि० । प्राकालोपाते, "पुष्वगाहिएण नकालसम्भवे पुत्रस्नेहलक्षणेऽनुरागे. भ. श. ३३ उ०। छदेण गुरुप्राणाए।" पश्चा० १२ विव०। पुवफग्गुणी-पूर्वफाल्गुनी-स्त्री०। द्वितारे नक्षत्रभेदे, स्था० २ ठा०४ उ० । सू०प्र०। जसका पुबनाइ-पूर्वजाति-स्त्री०। प्राक्तनजन्मनि.शा० ११०१ | पुनबद्धवर-पूर्वबद्धवैर-त्रि० । पूर्व भवान्तरेऽनादिकाले या पुचट्ठाण-पूर्वस्थान-न । पूर्वमिति द्वन्द्वं वधूवराऽऽदिकं,त. बद्धं निकाधितं वैरममित्रभावो येषां ते तथा । जन्मास्थानम् । दम्पत्युपवेशनाईवेदिकायाम् , प्राचा० २ थु०२ न्तरबद्धवैरभावे शत्रौ, स. ३४ समः । चू०४०। पुन्चणिज्जुत्त-पूर्वनियुक्त-त्रि० । पूर्वकाले व्यापारिते, पश्चा• पुनबंधव-पूर्ववान्धव-पुं०। जन्मान्तरबन्धुनि,प्रा०चू०१०। १२ विव०। पुनभणिय-पूर्वभणित-त्रि० । पूर्वप्रतिपादिते,ज्यो०२ पाहु । पुब्बणिवाय-पूर्वनिपात-पुं० । पूर्वदेशकालवृत्तिताऽऽपादने,के- पुधभदवया-पूर्वभाद्रपदा-स्त्री० । द्वितारे नक्षत्रभेदे, ज्यो०२ चित्राचार्या माहुः-"यदल्पाच्तरं तत्पूर्व निपतति।"यथा-प्स- पाहु । स्था। "पुब्बा(ब्व)भदवया नक्वत्ते दुतारे पसत्ते।" सत्यग्रोधौ अन्ये पाहुः-यथा मातापितरौ, वासुदेवार्जुनौ पं० सं०१द्वार। इत्यादि । नि.चु.१ उ० । पुन्वभव-पूर्वभव-पुं० । पूर्वजन्मनि, " पुब्बभवजणियनेहपुनःणसिद्ध-पूर्वनिषिद्ध-त्रि० । प्राककालनिवारिते, पश्चा० पीतिबहुमाणे ।" पूर्वभवे पूर्वजन्मनि जनिता जाता स्ने१२ विव०॥ हात् प्रीतिः प्रियत्वं, न कार्यवशादित्यर्थः बहुमानश्च गुणापुनबह-पूर्वाह-न०।"सूक्ष्म-श्न-पण-ब-इ-द-दणां एहः” नुरागस्ताभ्यां सकाशाजातः शोकः चित्तखेदो विरहसद्भा॥८।२।७५ ॥ इति हकाराकान्तणकारस्य णकारा5 वेन यस्य स पूर्वभवजनितस्नेहप्रीतिबहुमानः। डा० १५० १०। स०। कान्तो कारः। प्रा०२पाद । दिनस्यार्ध-प्रहरदये, स्था०४ पुव्वभवचरियणिबद्ध-पूर्वभवचरितनिबद्ध-नाचरमतीर्थकठा०२ उ० प्रा० चू० । आवश्रा०म०। रमहावीरपूर्वमनुष्यभवचरितनिबद्ध नाटकभेदे. रा०। पुन्नमत्थ-पूर्वन्यस्त-त्रि० । प्रागुपन्यस्ते, रा०। पुब्बभविय-पूर्वेभविक-पुं० । पूर्वभवभाविनि, "पुश्वभवियपुब्बतव-पूर्वतपस-न । सरागावस्थायां भाविततपस्यायाम, वेरेणं. अहवा रागेण रंजितो संतो।" व्य०१ उ.।" एएवीतरागावस्थापेक्षया सरगावस्थायाः पूर्वकालभावित्वात् । सि णं चउब्धीसाए तित्थगराणं पुवभचिया चउब्बीस भ०२श०५उ०।। नामधेजा भविस्संति ।"स०। पुवच-पूर्वत्व-न । पूर्वकालयोगित्वे, नं। पुवभाग-पूर्वेभाग-न० । अग्रे,स्था०६ठा। दिवसस्य पूर्वभाग. पुबदारियणखत्त-पूर्वद्वारिकनक्षत्र-न । पूर्व द्वारं येषाम- वन्द्रयोगस्याऽऽदिमधिकृत्य विद्यते येषां तानि पूर्वभागानि । स्ति तानि पूर्वद्वारिकाणि । पूर्वस्यां दिशि येषु गच्छतः शुभं पूर्वाहे चन्द्रयोगसकतेषु नक्षत्रेषु, सू० प्र० १० पाहु० २ भवति तेषु नक्षत्रेषु, स०७सम। "कत्तिपाइमा सत्तन. पाहु०पाहु। क्खसा पुव्वदारित्रा।" स्था. ७ ठा०।. पुब्बरत-पूर्वरात्र-पुं०।रात्रेः पूर्वभागे, विपा.१७०१०। पुव्वदेस-पूवेदेश-पुं० । मथुरात भाराभ्य समुद्रपर्यन्तेषु राः प्रथमे यामे, प्राचा.१७०५१०३ उ०। देशेषु. प्राचा. १ श्रु०५०१ उ०।। पुबरनावरत्तकालसमय-पूर्वरात्रापररात्रकालसमय-०। पू. पुनधर-पूर्वधर-पुं० । पूर्वाणि धारयन्तीति पूर्वधराः। दश रात्रश्च रात्रेः पूर्वी भागोऽपररात्रश्च रारपरी भागस्ताचतुर्दशपूर्ववित्सु, विशे० । आषापा। वेष कालः समयोऽषसरो जागरिकायाः। स्था० ३ ठा०२ उ० । राः पूर्वभागे पश्चाद् भागे च । विपा०१७०६० पुचपडिवालय-पूर्वप्रतिपनक-पुं० । पूर्वप्रतिश्रुते, स्था। प्रदोषसमये प्रातःसमये च, जी० ३ प्रति०४ अधि०। पूर्व पुन्वपद-पूर्वपद-न। उत्सर्गपदे. "पुवपदं उस्सग्गपद अवर रात्रश्वासी अपररात्रश्चेति पूर्वरात्रापररात्रः, स एव कालः पदं अववायपयं।" नि० चू०१ उ.।। समयः कालविशेषः । रात्रः पश्चिमे भागे, नि० १ ध्रु० ३ पुलपाट-पूर्वप्रविष्ट-त्रि०। पूर्वमेव क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थ प्रधि वर्ग ४० । पूर्वरात्रश्वासावपररात्रश्च पूर्वरात्रापररात्रा, स टेषु, पृ० १३०२प्रक०। | एव काललक्षणः समयःन तु समाचाराऽऽदिलक्षणः समयः Page #1087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुधरतावरत्तकालसमय अन्निधानराजेन्मः। पुया ! पूर्वरात्रापररात्रकालसमयः । मध्यरात्रे, " पुञ्चरत्तावरत्त । परिचिताः सम्यक् स्तुता वा सद्भूतगुणोत्कीर्तनाऽऽदिभिः कालसमयंसि सुसजागरा । " हर चार्षस्वावेकरेफलोपेन पूर्वसंस्तुताः । उत्त० १ । अपररात्रशम्दोऽयमिति ।बा० १६० १ ० । पूर्व. सायले जे पुव्वं, दिवा भट्ठा व परिजिता वा वि । रात्रच रात्रेः पूर्वी भागोऽपररात्रश्च अपकृष्ठा रात्रिः, पश्चि. ते हुंति पुग्वसंधुय, जे पच्छा एतरा होति ।। २८३ ॥ मस्तद्भाग इस्पर्थः। तल्लक्षणो यः काल:-समयः कालाऽऽत्मक: साममप्रतिपत्तिकालात् पूर्व पश्चाद्वा अहवा-साममकाले समयः स तथा तत्र। अथवा-पूर्वरात्रापररात्रकालसमय वेव चितिज्जंति। इत्यत्र रेफलोपात् " पुन्धर सावरत्तकालसमयंसि ति" - गाहास्यात् । भ०२ श०१ उ०"जो पुचरत्तावरत्तकाले, संपेहए अमया विहरतेण, संथुता पुव्वसंथुता। अप्पगमप्पपणं,' । यः साधुः पूर्वरात्रापररात्रे काले रात्री संपदं विहरतेणं, संथुता पच्छसंथुता ।। २८४ ॥ प्रथमचरमयोरेवार्थम् । दश०२चू०। प्रतीतवर्तमानकालं प्रतीत्य भावयितव्यम् । नि० चू०२ पुच्चरय-पूर्वरत-न। पूर्व कृतं रतं-मैथुनं पूर्वरतम् । उत्त० उ०। उत्त। १६ ०। गृहस्थावस्थायां स्त्रीसंभोगानुभवने, स्था० पुषसमास-पूर्वसमास-पुं० । उत्पातपूर्वाऽऽदिद्वयादिसंयोगे, ठा० । गृहस्थावस्थालक्षणे पूर्वस्मिन् काले स्यादिभिः सह- कर्म०१ कर्म। विषयानुभवने, उत्त०१६ ०। पुन्बसुय-पूर्वश्रुत-न० । पूर्वाणि च तत् श्रुतं पूर्वश्रुतम् । पूर्व पुच्चय-पूर्ववत-न। विशिष्टं पूर्वोपलब्धं चिह्नमिह पूर्वमु- गते श्रुते, प्रमा०१ पद । श्रा०म० । व्यते तदेव निमित्तरूपतया यस्यास्ति तत्पूर्ववत्, सवा• बसूर-पूर्वसूर-पूर्वात. प्रा० म०१०। रेण गमकमनुमानं पूर्ववत् । अनु० । कारणात्कार्या पुब्धमूरि-पूर्वमूरि-पुं० । चिरन्तनाऽऽचार्ये, जी० २४ अधिः। नुमाने, सूत्र० १७० १२ १०। ( से किं तं पु. प्रा०म०। पूर्वाऽऽचार्य, पञ्चा० १८ विव० । उद्युक्तविहारि ब' इत्यादि सूत्रं सव्याख्यानम् अणुमाण 'शब्द चिरन्तनाचार्ये,जी. १ अधिक। प्रथमभागे ४०३ पृष्ठे गतम् ) पूवसेवा-पूर्वसेवा-स्त्री० । अनुयोगप्रासादात्प्रथमभूमिका. प्रवविदेह-पूर्वविदेह-पुं० । पूर्वश्चासौ विदेहश्चेति । जम्बूद्वीपे | याम, यो०वि०।। मदरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि व्यवस्थिते महाविदेहः तत्क्रमस्वेवम्स्यैकदेशीभूते (जं०४ वक्ष) क्षेत्रे, स्था०२ ठा० ३ उ०। पूर्वसेवा तु तन्त्रझै-गुरुदेवाऽऽदिपूजनम् । यत्रेदानी सीमन्धरः प्रभुः। श्रा० क०४ १०। तच क्षेत्रमक. सदाचारस्तपोमुक्त्य-द्वेषश्चेह प्रकीर्तिता ॥ १०६॥ मभूमिस्वारसदा सुषमर्या विराजते । स्था०२ ठा० ३३० । पूर्वसेवा तु योगप्रासादप्रथमभूमिकारूपा पुनस्तन्त्रः स. अनु० । "दो पुश्वविदेहाई।" स्था० २ ठा० ३ उ० । म्यगधिगतशालैः प्रकीर्तिता इस्युत्सरेण योगः । कीरशीपुख्वविदेडकड-पूर्वषिदेहकूट-न। निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य स्याह-गुरुदेवाऽऽदिपूजनं वक्ष्यमाणरूपम् १. तथा-सदाचार: पूर्वविदेहप्रतिकूटे, जं०४ वक्षः। २. तपः ३, मुक्त्यद्वेषश्च ४ाह योगचिन्तायां प्रकीर्तिता नि रूपिता ॥१०॥ यो वि०। (गुरुदेवादिपूजाविधि 'पूया'शब्दे पुन्बवेरिय-पर्ववैरिक-पुं०। जन्मान्तरीयशनी, " यंष्ट्वा वर्द्ध वक्ष्यामि) 'ते क्रोधा, स्नेहच परिहीयते । स विशेयो मनुध्येण, एष मे पुषहर-पूर्वधर-पुं०। पूर्वाणि धारयतीति पूर्वधर दशच. पूर्ववैरिकः ॥१॥" प्रा० म०१ अ। तुर्दशपूर्वविदि.यथा पूर्वधरो जायते स पूर्वधरलब्धिरित्युच्या पुख्यसंगइय-पूर्वसङ्गतिक-पुं० । पूर्व पूर्वकाले सङ्गतिमित्रत्वं ते । प्रा०म० १० । घटिकाद्वयमध्य भानुपूय॑नानुपू. येन स स पूर्वसङ्गतिकः।बा.१९०११० . जन्मान्तरीय वाभ्यां चतुर्दशपूर्वगणनलब्धिमत्तश्चतुर्दशपूर्वभृतश्चतुर्दशमित्रे,भ०७श० उ०। " गोयमाइसमणे भगवं महावीरे पूर्वाणि गणयन्ति, तत् स्मरणमावेण,वामात्रेण वेति प्रश्ने, पुब्बसंगइयं कतं । " भ०२१०१३०। गृहस्थत्वे परिचिते, उत्तरम्-चतुर्दशपूर्वधराश्चतुईश पूर्वाणि ताल्वोष्ठपुरसं. भ०३ श०१ उ०। योगजन्यश्वर्वाग् घटिकाये गणयन्ति । यदुक्तं परिशिष्टपर्व णि-"सोऽप्युवाच महाप्राणः,ध्यानमारब्धमस्ति यत् । साध्य पुण्वसंजोग-पूर्वसंयोग-पुं०।मातापित्रादिसंबन्धे, प्राचा-१ द्वादशभिर्वन गमिष्याम्यहं ततः॥१॥"६१ मा सेन ३ '०६०२ उ० । धनधान्यस्वजनादिभिः संयोगे, सूत्र उल्ला । यथा चतुर्दशपूर्वधरा दशपूर्वधरा नवपूपूर्वधराया १९०११०४ उ०माचा। पश्यन्ते, तथा द्विपूर्वधराश्चतुःपूर्वधराः पश्चपूर्वधरा भव. पुनसंथव-पूर्वसंस्तव-पुंक। मात्रादिकल्पनया परिचयकरणे, न्ति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-जीतकल्पसूत्रावायाचारप्रक. वि०नि०लादर्शप्राचा०। ( 'संथष ' शदे एवं पाऽऽद्यष्टपूर्वान्तस्य भुतन्यवहारस्योक्तस्वादेकधादिपूर्व• म्यास्यास्यामि) धरा अपि भवन्तीति ज्ञायते । २६ प्र० । सेन०४ उल्ला० । पुध्वसंधुय-पूर्वसंस्तुत-पुं० । श्रामण्यप्रतिपत्तिकासात् पूर्वमेष पुवहसिया-पूर्वहसिता-खी । यया सह पूर्व हसितमासीकृतपरिचये, उत्त० । पूर्व वाचनादिकालादारतो न तु त् तारश्यां खियाम् , व्य०७ उ०। वाचनादिकाल पुष, तत्काल विनयस्य कृतप्ततिक्रियारूपत्वे | पुवा-पूर्वा-स्त्री०। प्राचीनायां दिशि, स्था०६ हा०। येषां य.. म तथाविधप्रसादाजनकत्वात् , संस्तुता विनयविषयत्वेन | स्यां दिशि सूर्य उद्गच्छति सा तेषां पूर्वा । प्रा० म०१०। Page #1088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुव्वा स्था० । श्राय०।" जस्स जओ आइयो, उदेह सा तस्स होइ पुग्दा (४७ गाथा) माचा० १ ० १ ० १७० ( स्वा गाधाया व्याख्या दिसा शब्दे चतुर्थभागे २५२३ पृष्ठे विस्तरतो गता । प्रज्ञापकापेक्षया पूर्वदिनिरूपणमपि रात्रैष ) पाउस - पूर्वाऽऽयुक्त थि० पूर्वे तहागमनकालात् प्राक् ज्ञाबुरचनस्थारत्रात्रौ प्रक्षिप्तं पूर्वाऽऽयुक्तम् । स्वार्थमेव राजु मारधे, पञ्चा०] १० बि० । पूर्वाऽऽयुक्तब्धा उलोदनः पूर्वा ऽऽबुक्क इति। ०००''िशब्दे चतुर्थभागे २००४ पृष्ठे बिस्तरो गतः ) पुष्वाड ड- देशी--पीने, दे० ना० ६ वर्ग ५२ गाणा । पुवाखुपुथ्वी - पूर्वानुपूर्वी स्त्री० । क्रमे, रा० । पूर्वस्यानुपूर्वः पूर्वानुपूर्वः स्थवि पर दो अतितिकल पुष्षा मस्ल तिथि अणुते य चक्कस्स पुण्या एवं स चैत्र। "अहवा - पुण्वेष अनुपूर्वः स एव पूर्वः पूर्वानुपुर्वी । नि० च्०२० उ० । पुण्वारणाभंग - पूर्वाऽऽचरणामङ्ग-पुं० । बहोः कालात्मवृत्ता यः प्रवृत्तेर्विमा, जी० १ अधि० । पुवापरिष पूर्वाऽऽचार्य पुं० अतीतरी नि० ० १४० पञ्चा० । पुवाया - पूर्वयामन-१० पूर्वस्य सीमम्वरः प्रभुः । अ० क० | तब क्षेत्रं कर्मभूमिस्वात्सदा सुषमसुषम विराजते । क्षेत्रविशेषे, स्था० २ ठा० ३३० । पुष्वावर पूर्वापर-न० | पूर्वाणि च पराणि च पूर्वापरं समाहारप्रधानो द्वन्द्वः । पूर्वापर समुदाये, नं० । पुव्त्रावरसंजुत्त-पूर्वापरसंयुक्त-न० । पूर्व सूत्रमिद्धे पश्चात्सु त्रेण विरुध्यमाने "पुरुखं सुतविद्धो पच्छासु विरु माणो पुख्वापर संजुत्तं भवति । " नि०० ११० । पुण्यासाद- पूर्वाषाढ- पुं० अम्मीदेवताके चतुलारे नक्षत्रमेवे, जं० ७ वक्ष० । सू० प्र० । अनु० । स्था० । वात पूर्वाभिमुख० " पुण्याहुसो हाव - (१०६५) श्रभिधानराजेन्द्रः । ०७० प्राचीदिभिमुखे पुष पूर्व न० पूर्वस्मिन् काले सू० १ ० १ ० ४ ४० - - आवा० । पूर्विन् पुं० पूर्व प्र०१ द्वारा पुचिचा संघ पूर्वपचात्संस्तव दु० 1 पच्छाय सं थवे !" पूर्वे दानात्प्रा पश्चाच संस्तवो दातुः श्लाघा पूर्वप बात्संस्तवः । पञ्चा० १३ विष० । आचा० । सुब्बिन पूर्व भि० पूर्वस्थायें इस · घंटे पालो ताहे तर अादियमहिम कहे।" पूर्वस्मिन् आ० म० १ ० मुद्दा पूर्वोश्यायिन् पु० पूर्व प्रसरे संयमानुष्ठाने नोत्यतुं शीतमस्येति पूर्वोस्थायी प्रमभ्याससंवि मे " जो पुब्बुट्ठाई पच्छ । निवाती । " श्राचा० १ श्रु० ५ अ० ३ ३० । " पुरा- पूर्वोत्तरा श्री० खानको व्य० ७४० । हुम्बु पूर्वोपच थि० विररुदे पुण्या न पुछत वा, न हुंति श्रनाउ कम्मासं । " ज्यो० १ पाहु" । पुग्योइय पूर्वोदित ०ि प्रामयिते पृ० १४० प्र० पूर्वोहिते पञ्चा , पुत्र-प(पृच्छा० "स्य मारी" ॥ ४२ ॥ मा गध्यामनादी वर्णमानस्य यः।" दुखदि। "पृच्छति। प्रा० ४ पान | 99 पुस- मृज् - शृद्धौ, " मृजेरुग्घुख लुझ्छ- पुञ्छ- पुंस- फुल- पुलखुद ऐसा ।। ८ । ४ । १०५ ॥ इति मुजतेः पुसाऽऽदेशः । प्र० ४ पाद पुस्म-पुष्य पुं० । बृहस्पतिदेवताके नक्षत्रविशेषे, ज्यो० ६ पाहु० । अनु० । विशे० चं० प्र० । " दो पुरुला ३ ठा० ३ उ० सू० प्र० । पुस्सनल सितारे । स. ३ सम० पुष्यनक्षत्रं हि यात्राणं सिद्धिकरम् । यदा" अपि इदयमे चन्द्रे पुच्या सर्वार्थसाधकः " ० १ द्वादशमे ० अ० । ऋषिभेदे च । जं० ७ वक्ष० । 91 स्था• 44 93 । पुस्सजोय- पुष्प्रयोग- पुं० उपलक्षणस्यात् पुष्याऽऽद्दिनक्षत्राणां चन्द्रेण सह पश्चिमाभियोगपत्रमा दियो स०३ अङ्ग पुसमासव पुष्यमानव-पुं० मागचे घ० लोकप्रसि I लक्षणविशेषे च । जी० ३ प्रति०४ अधि० । पुस्तावण पुध्यायन पुं. पुष्यनामकपर्युवापत्ये सु०प्र० १० - । पाहु० ११ पाहु० पाहु । जं० चं० प्र० । पुह - पृथक् श्रम्य०। " पृथकि धो वा " ॥ ८ ॥ ११॥ · थकुशब्दे थस्य घो वा भवति । पिधं । घुधं । पिडं पुढं । भिये, प्रा० १ पाद । पुहई - पृथिवी स्त्री० ।" उदत्यादौ " || ८ | १ | १३१ ॥ इति चम्प्रा० १ पाद पधि पृथिवी प्रतिक्षुचिक दरिद्रा विनीतकेय " ॥ १॥ इतीतोऽम् प्रा० १ पाद ० ० पश्चिमवास्यायां माम प्रा० चू० १ ० ति० । श्राधानां त्रयाणां गणभृतां मातरि श्रा० म० १ अ० । श्रा० चू' । तृतीयवासुदेवस्य मातरि च । स० । ति० । सुपार्श्व जिनमावरि ति०1 पुस- पृथक्त्वन० विस्तारे मा १२ पद पाये थे अनु बहुत्वे भ० श० ६ उ० । पृथक्त्वशब्दो बहुत्ववाची । यदादहिसरा पत्याची प्र०१० पृथक्त्वशब्दो बहुत्ववाची, बहुत्वं चेद्द पञ्चविंशतिरूपं दृष्टस्यम् विप्राभूतीकायाम् नं० प्रथविमान वाले श्रा० म० १ अ० । नैयायिकसंमते गुणभेदे, सम्म० । संयुक्त. मपि द्रव्यं यद्वशात्रेदं पृथगित्युपादीयते तत् अपोद्धारव्यवहारकारणं पृथक्त्वं नाम गुण इति काणादाः घटाss दिभ्योऽनन्तरं सरखत्यपविसदानमाह्यत्यात्सुखाऽऽदि वदिति व्यवस्थिताः । श्रत्र तावद्धेतोरसिद्धता, परस्पर स्वरूपक्या रूपादिव्यतिरेकेणार्थान्तरभूतस्य पृथक्त्वगुणस्या ध्यक्षे श्रप्रतिभासनेन घटाऽऽदि विलक्षणज्ञानग्राह्यत्वस्यासिद्धेः अत एवोपला त्वेनाभ्युपगतस्यानुपलम्भाश्वम् न व पृथगिति विकल्पप्रत्ययावयत्वेन तस्य सवं सजातीय. विजातीयव्यावृपाऽऽद्यनुभवनिबन्धनात् तस्याव भाषानां स्वस्वभावण्यस्थितेः, अन्यथा स्वतो व्यावृत्तरूपाणां Page #1089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्दत पुदीचंद - रिमरिम् 2 1 पृथक्वाविवश पृथकरूपता लिखेः पृथक्त्वाऽऽदेर्भि | पुहवीचंद - पृथ्वीचन्द्र पुं० | अयोध्या राजहरिसिंहपुत्रे, धरण अभिवृधरूपताकरणे अकरकरा भेद संब सिकरूपस्य भावस्येोत्पतिरभूत पृथकल्पनावैयर्थ्यात् तत एवं पृथग्भ्यवहारखिये। हेतोरनैकान्तिकत्वम् । किं च यथा-परस्परयाऽऽम तया सुखदु· खाऽऽदिषु गुणेषु पृथगिति प्रत्ययविषयता, पृथ. गुणाभावेऽपि गुणेषु गुणासम्भवात् तथा घटाऽऽदिव पि भविष्यतीति कान्तिकता परिस्फुटे न च गु पृथगिति प्रत्ययो महोमुपाविशत् पृथगिति अपोदारव्यवहारस्य स्वरूपविभिन्नपदार्थनिबन्धनात् प रोपन्यस्तानुमाने प्रतिज्ञाया अनुमानबाधा तथा च प्रयोगः- ये परस्परव्यावृतास्तेव्यतिरिवानाधा यथा सुखाऽऽदयः परस्परव्यावृत्ताऽऽत्मानश्च घटाऽऽदयः स्वभावदेतुरेकस्याने कवृत्यनुपपत्तिः, संबन्धाभावश्च समवायस्य प्रतिषेत्स्यमानत्वात् सुखाऽऽदिषु तद्व्यवहाराभावप्रशक्लिश्च विपर्यये बाधकं प्रमाणम् । तन पृथक्त्वं गुणः, तत्साधकप्र माणाभावाद्वाधकोपपत्तेश्चेति व्यवस्थितम् । सम्म० ३ काण्ड | स्था०] १० डा० पृथक भेदो चने इत्यर्थः तदनुयोगो यचाधिकार धम्मस्थिकाय ऐसे धम्मस्थिकायपदेसा । " इद सूत्रे धर्मास्तिकाय प्रदेशा इत्येतद्बहुवचनं तेषामसंख्या तत्वख्यापनार्थमिति । स्था० १० ठा० । पृथक्त्वम्- "एगो श्चिय" ( २२८३गाथा ) विशे० । पुतभाव पृथवस्याभाव-पुं० । प्रतिसूत्रमविभागेन प "माणविभागाभावेन विशे० । पुत्तवियक - पृष्यत्ववितर्क - पुं० । पृथक्त्वेनैतद्द्रव्याऽऽश्रितानामुपादादिपर्यायाणां भेदेन विकल्पे ०१ अधि० । पुचचियस विपार पृथक्त्व वित्त कंस विचार न० पृथग्भावः पृथत्वं नानाखं चितर्फः सुतानं द्वादशानं, विचारो व्यञ्जनयोग संकान्तिमभिधानं तद्विषयो यो मनोयायोग कान्तिः परस्परतः परिवर्तनं पृथ त्वेन वितर्कस्यार्थव्यञ्जनयोगेषु संक्रान्तिविचारोऽस्मिन्नस्ति तत्पृतिविधान् शुध्यानमेदे सम्म० तथा साबुतमसंहननात् भावयति वितिपुरुषकारवीपसम अनुयोग ( १०६६ ) अभिधानराजेन्ः | " हताशेषविशेषकर्मादि. मिर्दालयन् महासंवरसार्थ्यतो मोहनीयमचिन्त्य सामर्थ्य म शेषमुपशमयन् पचन या द्रव्यपरमाणुं भावपरमाणुं वैकम वलम्ब्य द्रव्यपर्यायार्थाद् व्यञ्जनं व्यज्ज्ञानाद्वाऽर्थ योगाद् यो गान्तरं व्यञ्जनाश्च व्यञ्जनान्तरं च संक्रामन् पृथक्त्ववितर्कस विचारम् । सम्म० ३ काण्ड । श्राव० भ० । दर्श० । पुरतम-पृथक्त्वशब्द- पृथकत्वेनानेकर कोऽयों नानातुर्यादिग्ययोगेन खरो मलशब्दवत् स पृथक्त्व इति, स चालौ शब्दश्चेति । शब्दमेदे, स्था० १० डा० । योग- पृथक्त्वानुयोग - पुं० । श्रार्यवज्रस्वामिभिः पृ. थकत्वेन स्थापितेऽनुयोगे तेणारेण पु ( कालिय हुतं, सुर्यादिट्टिवाए य। " ( २२८४ गाथा ) विशे० । हनीपृथवी स्त्री० [तरवीतु पात्तं युव्यान्यग्य अनापूर्व उकारः । प्रा० २ पाद । राज्ञः शातवाहनस्याग्रमहिष्याम् व्य० ६ उ० । भूमौ च ।" पंचमसरमंताश्रो, हवंति पुहवीघई । " अनु० । माचा० । (अस्याः स्वरूपं 'भूगोल' शब्दे ) & । "पुरी उम्कायसपछि भूलिया सब नयवंत पढमसीहो, नरनाहो तत्थ हरिसीहो ॥ १ ॥ मयणविलासविलिजिय-पडमा पढनाबाई पिया तस्स । पुती पुद्दषीचंदो, दुज्जल भूरिजलपसरो ॥ २ ॥ सो मुणिण ससरि-यपुष्य भव विद्दियचारुचारितो । उषितभोगिभोग,व्व कामभोगे यह दूरं ॥ ३ ॥ न कुरा उम्भडवेलं, लिंगारगिरं न जंपर कयावि । मिलेनिविकीला न दम दमकरितुरंगे ॥४॥ मायपिइभतिजुत्तो, मुणिपयभत्तो जिबगुज्जुतो । परमत्थसत्थनिव, चिंततो विट्ठर सया वि ॥ ५ ॥ यसु विति राया, कह नाम इमो नदि भोगोपभोगमा लगिस्वर ॥ ६ ॥ नवजुवारं स सरिता निवसुयागा जियोए । सिंगारहारि चरियं, रिडविजनों उज्जमो धणियं ॥ ७ ॥ पल मुहिम सत्यवितिप होही उप-परकीया ॥ ८ ॥ तास संप, कॉरम फलसंग एयं । सयमेव तव्व सगो, काही सव्वं पि जं भणियं ॥ ६ ॥ ता श्रोता माणी, ता धम्मी ता वडज श्री सोमो । जाय घरनडु व्व नरो, न भासिओ दढमलाहिं ॥ १० ॥ इय वितिय सप्पणयं परिणयत्वं नियो मा कुमरं । जयारोहओ सो, तं पडिवज्जद्द अकामो वि ॥ ११ ॥ तपशु कुमरेण समर्ग सामंतकुलपां अडुवा पाणिग्गणं कराये ॥ १२ ॥ मंगलूरे, पचाइमसवे प नश्चंतयम्मि तरुणी जम्मि लोए पढिट्ठमणे ॥ १३ ॥ पुहवीचंद्रकुमारी, निजिपमा विवेयगुणसारो । बिन्यो भरतडुडो जहा समो ॥ १४ ॥ विरार अहमद, मोहमारायविलखिए। राजविन अमुविन्तो मुद्दा एलो ॥ १५३ गीयं पलावपायं, देह परिस्लमकरं फुडं नहं । गुरुभारालंकारा, भोगुवभोगा किलेसकरा ॥ १६ ॥ जणयाण श्रहो मोहो. जं कवयदिकयस्ति संवासे । खिजेतिर एवं निविडने । १७ ॥ रंभागम्भ असारे, इह संसारे खं पिन हु जुतं । रमिडं विन्नायजिणं-दसमयतत्ताण सत्ताण ॥ १८ ॥ श्रइनिविडो निबंधो, श्रस्मापियराण इत्थ वस्युम्मि । मद्द विरहं खणमवि न हु, सहंति गुरुने इनडिया ते ॥ १६ ॥ पेमभरपरवसान, परिणीयाश्र इमाउ बालाओ । मुनीओ संपदा यति बुद्दिया २० मोही अन्नो वि जणो, निंदर मं पञ्चयंतमित्ताद्दे । शायारोडी, अयं कह कडे पडिओ १ ॥ २१ ॥ किंपि न विट्टमवा, इसिंह पिइमा उ जइ विवाहेमि । लडुकम्मायें दिवसं, कपासिया गिरासि ॥ ५२ ॥ जर पण्ययामि अयं पिवडियोहि मिति तो सम्बेसिस उपपरियं हुआ निष्पक्ष ।। २३ ।। वितिय निव्ययि दिएर पियाहि सहमरो। Page #1090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुहवीचंद (१.६७) अभिधानराजेन्द्रः। पुहवीचंद राहगमो उचिय-ढाणासीणो भणा एवं ॥ २४ ॥ घुट्ठी य अमोघामो, सयले नियमंडले तेण ॥४७॥ पह भोगाविसमिव मुह-महुरा परिणामदारुणविवागा। पार्य अत्री विजणी, विहिमो जिणसासणम्मि भाभत्तो। सिषनयरमहागोउर-निविद्यकवाडोषमा भोगा ॥ २५ ॥ सर्थ व बयणमेयं, जह राया तह पया हो ॥४८॥ भोगा सुतिक्खबहुतु-क्खलक्ष हुयवहिंधणसमाणा। काया वि सभाऽऽसीणो.स वित्तिणा पणिमो जहा देव। धम्मामउम्मूलक्षण-समीरलहरीसमा भोगा ॥ २६ ॥ तुहसणं समीक्षा देसंतरषाणिभो सुधणो ॥४६॥ मुंबसुइय निवभणिप. सो मुको वित्तिणा तमो सुधणो । अंभुत्तमणाइभवे, जीवेणाहारभूसणाईयं । नमिऊण पुहाना, उचियाणम्मि प्रासीणो॥५०॥ एगस्थ पुंजियं तं, मारेर धरधरं धरणि ॥ २७ ॥ रमा भणियं भी सि-ट्टि!कास कत्तो समागमोऽसि । पीया जा सुमणो-रमा पाणार पाणिणो पुटिव । भमिरेण माहि करथ बि, किं विटुं अच्छरिज्जब? ॥ १ ॥ विजंति ताहन तत्ति-या सलिलाइ जलहीसु ॥ २८॥ सिट्ठी वि माह सामिय!,गयपुरनगराउ भागमोऽम्हिार। पुष्पाणि फलाणि दला-णि जाणि भुत्ताणि पाणिणा पुखि ।। भुवणजणविम्हयकर,अच्छरियं पुण इमं दिटुं ॥ ५२ ॥ विजंति न तिहुयणतरु-गणेसु किर वट्टमाणेसु ॥ २६॥ तथाहिअधि य मासिह गयपुरनयरे, बहुरयणो रयण संचओ सिट्ठी । भुत्तूणं सुसुंदरे सुरबहूसंदोहदेहाइए, भजना सुमंगला से, पुत्तो गुणसायरो नाम ॥ ५३ ॥ भोए सायरपल्लमाणमणहे देवत्तणे जं नरो। अब रयणसंचएणं,पसरियनवजुब्वणस्स तस्स कए। रज्जंतिस्थिकलेवरेसु असुईपुन्नेसु रिट्ठीयमा, अट्ठण्ड नयरसिट्ठी-ण अट्ट धूयाउ वरियानो ॥ ५४ ॥ मन्ने तित्तिकरा जियाण न चिर्र भुत्ता वि भोगा तो॥३०॥ अमदिणे पोलोयण-ट्ठिएण गुणसायरेण रायपहे। ता पडिबुज्झह बुज्झह, मा भोगपरब्यसं मणं काउं। भिक्खत्थं पुरमझे, पविसंतो मुणिवरो दिट्ठो ॥ ५५॥ दुत्तरप्रणोरभवजल-निहिम्मि परिभमह दुक्खता ॥ ३१॥ कत्थ वि परिसरूवं, पुरा वि मे पिच्छियं ति चितंतो। इय सोउ कुमरवयणं, ताउ पबुद्धाउ निपाधूयाओ। परिपालियचरणभरं, पुब्बभवं संभरह सो उ ॥५६॥ अहनिबंधेण तओ, वयगणकए स पुच्छप पिउणो । घिसयविरत्तमणाओ, कयंजलीओ भणंति इमं ॥ ३२ ॥ रुयमाणी दीणमणा, से जणणी भणह तो एयं ॥ ५७ ॥ सामिय! अवितहमेयं जं तुमए जंपियं परं कहसु। जर वि तुह वच्छ! चित्तं खणं पिन रदं गिहे कुणासह वि। को परिहरणोवाओ, विसया कहे तो कुमरो ॥ ३३॥ नवपरिणीयनियमुहदं सणेण रंजेसु णे हिययं ॥ ५८ ॥ सुहगुरुगिराह अकलं-कचरणासेवणं तो जाओ। तयणव्ययगहणविसए, तह उतरायं न कि पि काहामो । पभणंति सामि ! अम्हे. दिक्खार लहुवि सज्जेसु ॥ ३४॥ तुह घरिणीसहेणं, वयं कयत्था उ अज जायाश्रो। इय जणणीए चयणं, तह त्ति पडिवज्जए सो वि ॥५६॥ घेवाहियसिट्रीणं, कहावियं रयणसंचरण में। संप पुण गिहवासे, न खणं पि र लहेमु त्ति ॥ ३५ ॥ परिणयणाणंतरमेव मह सुओ गिरिहही दिक्खं ॥ ६॥ तुट्ठो भणा कुमारो, जुत्तमिणं तुम्ह य विवेयाणं । किं तु समाहिजुयाश्रो, गुरुबागमणं पडिक्लेह ॥ ३६॥ तं सोउं ते वाउल-हियया मंतंति किं पिता धूया । समए वयमवि एवं, कहामो ताउ जं पवज्जति । जंति किमिह ताया!, कन्ना दिज्जंति वारदुर्ग ॥ ६१ ॥ परियणमुहाउ एयं, हरिसीहनिवेण विनायं ॥ ३७॥ सो च्चिय भत्ता जं सो, करिस्सप तं वयं पिकाहामो। तो तेण चिंतियमिणं, वसीको नेव एस महिलाहिं। तेणं च अपरिणीया, न करिस्सामो वरं अवरं ॥ ६२॥ नवरं इमिणा चरणु ज्जुयाउ एयाउ विहियाभो ॥ ३८॥ इय सोउ पुत्तिषयणं, ते सव्वे सिटुिणो पहिट्ठमणा । तो ससिणे पभणिय, इमं निउंजेमि रजवरम्मि । गुणसायरेण कारं-ति पाणिगहण नियसुयाणं ॥ ६३॥ अंसव्वाउलयाए, वीसारह धम्मवत्तं पि ॥ ३६॥ गिज्जंतबहुलधबले, वीवाहमहे पयट्टमाणम्मि । इप निच्छिय तेणुत्तो, कुमारो बहुरजगहणविसम्मि । कयसयलजणक्खेबे, पुरो नझिम बटुंते ॥ ६४॥ पडिकलिउमचयंतो, पिउवयणं सो सुदक्खिनो ॥४॥ गुणसायरो वि नासा-निहियको रुद्धइंदियषियारो। चिंता अहो विरुद्धं रजग्गहणं तज्जयमईणं । चिंतह एगग्गमणो, समणो होई सुए श्रदयं ॥ ६५ ॥ सागरगमणमणाणं, हिमवंताभिमुहगमणं व ॥४१॥ एवं तवं करिस्सं, एवं इं गुरुण विणयभरं । निबंधो पुण पिउणो, लक्खिज्जइ गुरुतरो इहत्थम्मि । इय संजमे जइस्सं, इय झारस्सं सुहज्माणं ॥६६॥ दुप्पडियारा गुरुणो, न लंधियब्बा सयहि ॥४२॥ दय चितंतो निहुयं, सुमरंतो पुब्वभवसुयरहस्सं । संभाविज्जर पच्छा, वि पत्थणा परिसी किर इमस्स । उल्लसियमियज्झाणो, संपत्तो केवलं नाणं ॥ ६७ ॥ धम्मायरियागमणं, पडिक्खियम्वं मए वि धुवं ॥४३॥ ताश्री वि नवबहुभो, तह निच्चललोयणं तमेगग्गं । ता परमपीइपउणं, पिउणो वयणं करोमि अहमिरिह। पेहति पहिट्ठाओ, लज्जामुरलिंतनयणाश्रो ॥ ६॥ इय चितिय पडिवजा कुमरो निवसासणं सिरसा ॥४४॥ चिंतंति अहो धनो,उवसमलच्छीइ रंजियो धणियं ॥ तो पुरविचंदकुमरं, असेससामंतमंतिसंजुत्तो। अम्हासु कई रज्जह सज्जो सावज्जभरियासु ॥ ६६॥ अभिसिंचिय रज्जभरे, कयकिच्चो नरवाई जात्रो ॥ ४५ ॥ षयमवि सुपुनपुना, जं लो एस सुगुणधणअहो । मरराया पुण तीए रायसिरीए न रंजिनो कि पि । सिवनयरसत्यवाहो, भवरनविलंघणसमत्थो ॥ ७॥ कुणातहा वि पविति, उचियं जणयाणुरोहेणं ॥४६॥ एयाणु मग्गलग्गा, सम्मं धम्म सुनिम्मलं चरिउं । रजं वसणविरहियं, विहियं मुक्काउ सयलगुत्तीनी । काहामो भूरिभवु-भवाण दुक्खाण वुच्छेयं ।। ७१॥ Jain Education Interational Page #1091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६८) पुहवीचंद अभिधानराजेन्द्रः। पश्कली एवं विचितिरीमो, अणुमोयंतीउ सुखभाषाभो । संजमगुणेण तुम्भे, विजयविमाणे सुरा समुप्पत्रा। पत्ताउ केवलसिरि, खणेण तामी वि सव्वानी ॥ ७२॥ महयं पुण सव्य, संजोगो पुण इहं जामो ॥ १६ ॥ तब्बेलं बिय जयरव-विमिस्सपडपडहसहभरियनहं। तो मज्झ उवरि गुरुभो, नेही तुम्हाण इय सुर्णताणं । चालतकमकुंडल-सुरमंडलमागयं तत्थ ॥ ७३ ॥ ताणं जायं जाई-सरणं तह केवलं नाणं ॥१७॥ परिषदम्वलिग, तं मुणिपवरं नह सुरसंघो। तेलि पिकया महिमा, सुरवाणा भत्तिभारनमिरेण । केवलमहिम परमं, करे। हरिसं सुपडिपुत्रो ॥ ७४ जाओ परमाणंदो, नयरीप जणियजण पुज्जो ॥६॥ पळूण तं व चि. सुमंगला रयणसंचश्रो सिट्ठी। अह सुधणसत्यवाहो, मुणीसरं नमिय पुच्छर एवं । गुरुसंवेगोषगो, संपत्तो झत्ति वरनाणं ॥ ७५ ॥ तुम्ह गुण सायरस्स य, समाणगुणया कहमिवेसा? ॥६॥ प्रय पिच्छिवि अच्छरियं, राया सिरिसेहरो सपरिवारो। साहर तश्री मुणिदो,पुष्यभवे एस कुसुमके उ ति । पत्तो तहिचि पणमिय, सुमुणिं पुरी समासीपो ॥ ७६ ॥ मह नंदणो अहेसी, वयं गहेसी मए सद्धिं ॥१०॥ महयं पि पुग्धपेसिय-वरबाइणजाणपरियणो देव!। मम समसुविधम्मो, तणुश्यकम्मोऽणुभूयसुरजम्मो। हमांगतुमणो वि, पत्तो कोऊहले तहिं॥७७॥ सो कुसुमकेउतियसो, सुंदरगुण सायरो जाओ ॥ १०१॥ नियचरियकरणपुग्वं, तेगुसोऽहं जहा तुमं सुधण!। पुत्रं सुहाणुबंध, समपरिणामेण पुटुमम्हेहि।। बज्झाए गंतुमणो, पत्तो पुण कोउगेण हं॥ ७॥ समसुद्द परंपराए, परिणयमेवं तमो अम्हे । १०२॥ तथाहि पयानो वि बहुप्रोड-खंतरभवभारियाउ दुराई पि। दुरं पत्तो सत्यो, पुणरबि सुलहन परिसं पुजं । कयसंजमाउऽणुत्तर-सुरेसु वसिऊण सुहजोगा। १०३ ॥ इय बिताबाउलिमो, न तरसि गंतुंन बा ठाउं ॥ ७॥ जायात्रो जायात्रओ, एवं भवियब्धयानिोगेणं। ताकित्तियमित्तमिणं, चिसं इहरि क्खिया ( पुणो ) जंते। संपत्ताओ केवलि सिरिं च सामम्गिजोगेण ॥ १०४॥ वहसि इत्तो अभा-हियमुभयं तस्य संपत्तो।०॥ दय सोउं पडिबुद्धो, सुधणो वि सुसावयत्तमणुपत्तो। इय सम्म मायनिय, नमिय गुरुं इह समागमोऽम्हि कमा। मन्त्री वि बहू लोगो, सुचरियचरणुज्जुश्रो जाओ ॥ १०५॥ संपर अच्छरियकर, प? तुह पासं समणुपसो१॥ हरिणा हरिसीहसुनो, ठविनो रज्जम्मि तयणु हरिसेणी। य निसुणंतो गुरुतर-गुणाणुरागाइरेगमो राया। पुहर्रचंदरिसी वि, सुचिरं विहरिय सिवं पत्तो ॥ १०६॥ मार्णवमुदियमणो. चिंति उमेवं समारद्धो ॥२॥ पृथ्वीचन्द्रक्षितिपचरितं संनिशम्येति सम्यक, सम्वगुणसायरो सो, महाणुभावो महामुणी जेण । तातभ्रातृस्वजनदयितामुख्य लोकोपरोधात् । तसाहियं सक, निजियमोहाणुबंधेण ॥३॥ दीक्षाऽऽदानप्रगुणमतयो गेहवासेऽपि सन्तो, धनाणं मंजियमो-निविडनिगडाण भोगसामग्गी । भव्या लोकास्त्यजत सततं कामभोगेषु शक्तिम् ॥ १०७॥ मतरका धम्म-तरायमचंततुंगा वि ॥४॥ इति पृथ्वीचन्द्रनरेन्द्रकथा। ध० २०२ अधि० ६ लक्षः। हा कह जाणंतु चिय, पडिप्रोऽहं रज्जकूडतम्मि । पुहवीचल-पृथिवीचल-पुं०। अनङ्गमञ्जरीपितरि स्वनामख्या. गुरुजणदक्खिन्नवसा-वभारसामनदंति व्य ॥२५॥ ते नरनाथे, दर्श० ३ तव । सोपारकपट्टनराजे अट्टनमलपो. काइया सहेलपरिमु-कसयल भोगोवभोगजोगाणं । धके, आव०४ अ०। धम्मधराण मुणीणं, मज्झे गणणं लहिस्सामि ॥८६॥ पुहवीस--पृथ्वीश-पुकाराजनि, "न युवर्णस्यास्वे"॥८॥१॥६॥ काया गुरुपयपत्री, नाणचरित्ताणु भायणं होई। इति सन्धिनिषेधे अस्वे इति पयुदासात-पुहवीसो । प्रा. काया सम्म सहि उपसग्गं परिसहुप्पीलं॥७॥ १पाद । इच्चा चितयतो, अपुग्यकरणकमेण स महापा। पुहत्त-पृथुत्व-न। विस्तारे, स्था०४ ठा.२ उ० समयप. सिवपयगमनिस्सेणि, स्वगरसेणि समारूढो ॥८॥ रिभाषया द्विप्रभृतावानवतौ, विशे०। भेदे द्विवचनबहुवचसियमाणघणेण खणे-ण तेण घणघापकम्मसंघायं । नयोः तदनुयोगोऽपि तथा, यथा-"धम्मथिकाए धम्मत्थि. संचुनिऊण संप-समुत्तमं केवलं नाणं ॥८॥ कायदेसे धम्माधिकायप्पदेसा।"बह सूत्रे धर्मास्तिकायप्रदेशा महतस्थ सुहम्मबई, पत्तो अपितु दवलिंग से। इत्येतत् बहुवचनं तेषामसंख्यातत्वख्यापनार्थमिति । स्था. पणमित्चलमजुयल, केवलिमहिमं करेसी य॥१०॥ १०ठा०। संबटुंहरिसीहो, राया पउमाई (य)सह तस्थ। संपत्तो जपतो, अहो किमयं किमेयं ति॥३१॥ पून--देशी-दधनि, देना०६ वर्ग ५६ गाथा। सानो वि तस्स भज्जा-उ तत्थ हरिण आगया उ लहुँ। पह-प्रति-स्त्री०। नासाकोथलक्षणे रोगविशेषे, (२०८ गाथा) संवेगपरिगयाश्रो, केवलनाणंच पसाओ ॥१२॥ विशे। दुर्गन्धतायाम् , अनु०। मांसाऽऽदौ, श्राव. ५ अ०। रथ तं गुणसायर-केलिकहियं मतमच्छरं। वृक्षषिशेषे, प्रशा०१पद। सो सुधणसत्यवाही, विमिहयचित्तो विचिते ॥३॥ पूइकड-पुतिकृत-नाआधाकर्माऽऽदौ,सूत्र. १ श्रु०११०३० मह पुरुछा नरनाहो, भय । कि तुम्ह उवरिअम्हाण। पडकमी-पतिकी-स्त्री०। पूतिपरिपाकतः कुथितगन्धा कमागुरुत्री पडिबंधो, तो इय अंपासमणसीहो॥६॥ सं निवचंपार पुरा, अयराया पियमई पित्रा दुस्था। मिकुलाऽऽकुलस्वादुपलक्षणमेतत् तथाविधी कणी-भूती य. कुसुमागुत्तिमामे- नंदगो तुम प्रहमासि ॥६५॥ स्याः । पत्करतं वा पूतिः तयाऽऽत्तौ कौँ यस्याः सा पूतिकर Page #1092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६६) अभिधान राजेन् पूइकक्षी र्णी । उत्त० १ ० । सटितकर्याम् उत्त० । 'जहा सुखी पूइकसी ' उस० १ ५० । पूइकम्म- पूतिकर्मन् - न - न० पूर्ति अपवित्रं तस्य कर्म, पवित्रस्य स पदमलनेन कर पूतिकर्म, योगा ऽऽद्यपि पूतिकर्म। पञ्चा०वि०सम्मानाऽऽचाकमोब यवसम्मिश्रे, दश०५ श्र० १५० । श्रधाकर्माऽऽद्यविशुद्धको यवयवेनाऽपि संपृक्ते, सूत्र० १० १९ अ० ग• । यथा शुचिः पोधोऽपि मद्यन्युनाऽशुचिः स्यात्तथा पूर्तिक विशुद्धाद्वारमपि धाकर्मियोगात् पूतिकं स्यात् । श्रयं तृतीयो दोषः । उस० २४ अ० । माचा० । पं० चू० । घ० । ० दर्श० । पं० व० । वृ० । पृतिश्चतुर्विधा तद्यथानामपूतिः नामस्थापने सुखान सम्प्रति पूतिद्वारं स्थापनातिभिषपूतिय स्वाद्नाडत्य द्रव्यभावपूती प्रतिपादयतिपूर्वकम्पं दुविहं, दव्वे भावे य होइ नायब्वं । दम्म गम्मिय, भावम्मिय वायरं सुमं । २४१ • वृतिकम् पूतीकरणं द्विधा तथा ध्येयषि चर्यभावे भावविषयं तत्र धार्मिक गो मयोपलक्षितो धार्मिको दृष्टान्तः भाषा-बादरं, सूक्ष्मं च । इह यद् द्रव्यस्य पूतिकरणं तद् द्रव्यपूतिः, येग पुनर्द्वपेण मावश्य पूतिकरणं तद् द्रव्यमन्युपचाराद् भावपूयमाणमुपकरणाऽऽवि माचपूतित्येनामि श्रीमान विरु तब प्रथमती द्रव्यपूतिलक्षणमाहघागुसमिद्धं, नंद अपव्ययं । पूचि परिहरि, ते जाणसुदव्य चि ।। २४४ ।। इह यत् पूर्व स्वरूपतो गन्धाऽऽदिगुणविशिष्टं' सुरभिगमध्यादिगुणविशिष्टमपि अरित्र सामपम्प पश्चाद चिगन्धद्रव्ययुक्तं सत् पूतिरिति परिइियते, तद् द्रव्यं जानीतिरिति । अत्रार्थ गाथाद्वयेनोदाहरणमाहगोडिनिसो पम्मी, सहाऍ मासश्रगमिता । समयसुरवल्लमीसं अजिन्न सन्ना महिसिपोहो ॥ २४५ ॥ संजयलित्तभत्ते, गोट्टिगगंधोत्ति बल्लवणियाश्रो । उक्खणिय अन्न छगणे- लिंपणं दन्त्रपूई उ ॥ २४६॥ समि नाम पुरं तत्र बहिण्याने समातिदेि कार्या मणिमो नाम पक्ष अन्यदा च तस्मिन् पुरे श्री तलकाभिधम शिवमुपतस्थे ततः कैश्चित्तस्य यक्षस्योपया चितकमहं यद्यस्मादशिषाद्वयं निस्तरामस्ततस्तवैकं वर्षमम्बाऽऽदिचापनिकां करिष्यामः ततो निस्तीर्णाः कथम पि तस्मादशिवात्तलि चमत्कारो यथा नूनमयं स प्रातिहार्यो यक्ष इति । ततो देवशर्माभिधो भाट कमदानेन पूजाकारको बनणे यथा वर्षमेकं यापदम्यादिषु प्रातरेव गोपल येन तत्र पवित्रभूतायां मागरोद्यापन तथैव तेन प्रति ततः कदाचि दयोद्यापनका भविष्यतीति कृत्या सभोपद सूर्येकस्यापि कुटुम्बिनो गोपारके गाय प्रवेश २६८ " 1 पूइकम्म तत्र च केनाऽपि कर्मकरेण रात्रौ मण्डकवल्लसुराऽऽद्यभ्यवहो जाताजी मित्रभागे स्मिथ गोपा दुर्गम पुरीषं दस तस्योपरि मदि महिषी ममागत्य गणपोई मुक्तवती ततस्तेन स्थगित तदजी पुरीषं देवशर्मा न ज्ञातमिति देवशर्मा पोहं सकलमपि तथैव गृहीत्वा तेन सभामुपलिप्तत्रान् उद्यापनका कारिणश्च जना नानाविधमोदनाऽऽदिकं भोजनमानीय यावत् भोजनार्थ वर्षापविशन्ति तापातीरभिगन्धः समायातः, ततः पृष्टो देवशर्मा, यथा कुतोऽयमशुचिगन्धः समायाति ? इति । तेनोकं न जाने, ततस्तैः सम्यक परिभावयद्भिरुपलेपनामध्ये चाद्यवादवही जपलेपनमध्ये पुरीषमप इति ततः सबै भोजनमतकृत्या परित्यक्रम उपलेपनं च समूलमुत्खातम्, अन्येन च गोमयेन सभोपलेपिता, भोजनाऽऽदिकं चान्यत् पक्वा भुक्तमिति । सूत्रं सुगमं नवरं धर्म धार्मिकः ('समिय ' ति ) मराडकाः सज्ञा' पुरीपम् अत्र पंडुलेपनं यच तथ म्पस्तं भोजनादिकं तत्ख द्रव्यपूतिः। उक्ता इव्यतिः । . अथ भावपूतिमाद + 4 उग्गम कोडी अवयव - मित्तेरा वि मीसियं सुसुद्धं पि । सुद्धं पि कुइ चरणं, पूरं तं भावओो पूई ।। २४७ ॥ 'उद्रमस्य' उङ्गमदोषालय या कोटः विभागा श्रधा issदिरूपा भेदा इत्यर्थः । ताश्च द्विधा विशोधयोविशोधयश्च तत्रेदाविशोधयो प्राह्मा तासामविशोधि रूपाणामुद्रमोदीनामपि मिश्रितमादिकं स्वरूपतः 'सुशुद्धमपि ' उद्गमाऽऽदिदोषरहितमपि सत् यद् भुज्यमानं शुद्धमपि निरनिवारमपि पूर्ति करोति तदशनाऽऽदिकं भावपूतिः । ' उग्गमकोडी ' इत्युक्रम् । ततस्ता एयोमोटीरनिधिसुराह आहाकम्मुद्देसिय मी तह वापरा व पाहुटिया । पूई कोरो, उग्नमकोडी भवे एसा ।। २४८ ॥ आधा सफलं तथा औदेशिकं वावचिकं मुफ्त्या शेष कम्मौदेशिकं मिथं पादिसाधुबाद [च] प्राभृतिका पूति भावपूर्ति अध्ययपूरक धोतर मे घामका पा पति उस कोटिरविधिकोटिरूपा। तदेवं भावपूर्ति स्वरूपत उपदर्श्य सम्प्रति भेदत आहबायतु भावे व पूयं मबोच्छामि । उनगरणे भणपाये, दुनिया बावरं पूरं ॥ २४६ ॥ 'भावे' भावविषया] पूतिर्द्विविधा । तद्यथा-बादरा, सूक्ष्मा च। सूत्रे व नपुंसक निर्देशः प्राकृतत्वात्, तत्र सूक्ष्मां भाष पूतिमुपरि बाद पुनर्द्विधा तथया उपकरणे उपकरण विषया, 'भक्तपाने ' भक्तपानविषया । तत्र भक्तपानपूर्ति सामान्यतो व्याचिख्यासुगहलुलिया डोए, दबी छूटे यमीसगं पूरं । are लो हिंगू, संक्रामण फोडणे धूमे || २५० ॥ 'चुली' प्रतीता, 'उखा' स्थाली, 'डोय: ' बृहद्दारुहस्तकः, महांक इत्यर्थः, 'दव्वी ' लघीयान् दारुहस्तका, ए. . 4 1 · Page #1093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूश्कम्म (१.७०) श्रभिधानराजेन्डः। पूकम्म तानि च सरियामाकम्माऽऽविरूपाणि द्रष्टव्यानि, सर्वत्रापि | नया दिशा अन्यस्याप्युपकरणस्य पृतित्वं भावनीयं, तत्र व तृतीया सप्तमी । ततोऽयमर्थः-एतैः सम्मिश्रं शुद्धमपि चुहयुखाविषये कल्प्याकल्प्यविधिरनन्तरमेवोक्तो दाबहयवथनाऽऽदितत् पूतिः,तत्र चुल्ल्युखाम्या मिश्रिताभ्यां कृत्वा स्तके वाऽऽधाकर्मणि पूतिरूपे वा स्वयोगेन स्थास्या बहिरमधमेन । यद्वा-तब स्थापनेन, तथा 'डाय'वाकालवणं हि- कृते स्थाल्यां स्थितमशनाऽऽदि कल्पते, न तु तेन सम्मिश्र. अब प्रतीतम्, पौराधाकर्मि कैः सम्मिथ पूतिः । तथा मिति । संक्रामणस्फोटनधूमैः' इति, तत्र संक्रामणम्-प्राधाकर्म. 'सम्प्रति' "ददी बूढे य" इति व्याविख्यासुराहभक्ताऽऽदिवरपिटते स्थास्यावौशुद्धस्याशनाः पवनं मोच. दवीछूढे त्ति जं वुत्तं, कम्मदनीऍ जं दए । मंबा,यद्वा-दाकहस्तेनाऽऽधाकर्मणाऽन्यत्र स्थाल्यां सश्चारणं, कम्मं घट्टिय सुद्धं तु, घट्टए हारपूइयं ॥ १५४ ।। स्फोटनम् प्राधाकर्मणा राजिका मदिना संस्कार करणं धूमः | 'दब्बी छूढे'(२५०) इति यत् प्रागुतं तस्यायमर्थ:-'कर्मदा , हिन्वादिसस्को बधारः। आधार्मिकदा यत् शुद्धमप्यशनाऽऽदिकं घट्टयित्वा द.. एनामेव गाथा व्याचिण्यासुः प्रथमत उपकर- दाति तद् - श्राहारपूतिः' भक्तपूतिः । सा घेर्वी स्थाल्या: खशवं व्याख्यानयति सकाशानिष्काशिता तर्हि स्थात्याः सत्कं कल्पते, यद्वा. सिज्झतस्मुवयार, दिजंतस्सव करेइ ज दन्छ । मा भूवाधाकर्मिकी दर्वी, केवलं शुद्धयाऽपि दा यदि तं उवकरणं चुल्ली, उक्खा दवी य डोयाई ॥ २५१ ।। पूर्वमाधाकर्मिकं घट्टयित्वा' चालयित्वा पश्चादाधाकर्मा. वयवखरण्टितया यदपरं शुद्धमपि भक्कादिकं ययति, घ. (पिं० ) (अस्याः व्याख्या ' उवगरण' शब्दे २ द्वितीयभागे दृयित्वा च ददाति तदप्याहारपूतिः। अस्यां च दयों स्था८७७ पृष्ठे गता।) ल्या निष्काशितायामपि पाश्चात्यं स्थालीभक्तं न कल्पते, तत्र चुल्ल्युस्खयोः स्थितमशनाऽऽदिकमाश्रित्य कल्प्याक प्राधाकर्मावयवमिश्रितत्वात् । लण्यविधिमाह "डाए" (२५० गा०) इत्याधुत्तरार्द्ध व्याविख्यासुराहचुल्लुक्खा कम्माई, प्राइमभंगेमु तीसु वि अकप्पं ।। अत्तटिय पायाणे, डायं लोणं च कम्म हिंगुं वा । पडिकुटुं तत्थऽत्थं, अन्नत्थगयं अणुनायं ॥ २५२॥ तं भत्तपाणपूई, फोटण अन्न व जं छुडइ ॥ २५५ ॥ पहचुल्ल्युस्खे कदाचिद् द्वे अप्वाधाकर्मिके श्राधाकर्मिक- संकामेउं कम्म, सिद्धं जं किंचि तत्थ छूढं वा । कर्दमसम्मिधे वा भवेतां, कदाचिदेकतरा काचित् , तत्र च अंगारधूमि थाली, वेसण हेढा मुणिहि धूमो ।। २५६ ॥ भङ्गाश्चत्वारा, तद्यथा-चुल्ली प्राधाकर्मिकी उन्ना च १, चु. आत्मार्थम् आदाने' तक्राऽऽदिपाकारऽऽम्भकरणरूपे सति ल्ली प्राधाकर्मिकी नोखा २, उखा प्राधाकर्मिकी न चुल्ली ३, यदाधाकर्मिक डायं ' शाकं, यदि वा-लवणं, यद्वा-हिङगुः, नोखा प्राधाकर्मिकी नापि चुल्ली ४। तत्राऽऽदिमेषु त्रिवपि अन्यथा स्फोटनं राजिकाजीरकाऽऽदि तत् तक्राऽऽदिकं तेन भनेषु रम्धनेनावस्थानमात्रेण वा स्थितमकल्प्यं पूतिदोषात्। सम्मिश्रं भक्तपानपूतिः। पतेन "डाए लोणे हिंग फोडणं" अकल्प्यस्यापि तस्य विषयविभागेन कल्प्यतामकल्पयतां इति व्याख्यातम् । तथा यस्यां स्थाल्यां राद्धमाधाकर्म तद. चाऽऽह-तत्र' चुल्ल्यादौ रन्धनेनान्यतो वाऽनीय स्थापनेन न्यत्र संकमध्य प्रतिक्षिप्य तस्यामेव स्थाल्यामकृतकल्पत्र. स्थितं सत् 'प्रतिकुष्टं' निराकृतम्, अन्यत्र गतं पुनस्तदेवा- यायां यदात्मार्थ सिद्धं किश्चित् , यद्वा-तत्र प्रक्षिप्तं तदपि नुहातं तीर्थकरादिभिः। इयमत्र भावना- यदि तत्र राद्ध- भक्तपानपूति, अनेन "संकमणं, " ति व्याख्यातं. तथा 'म, अथवा-अन्यतः समानीय स्थापितं ततो यदि तदेवा 'अङ्गारेषु' नि माग्निरूपेषु । वेसने ' बेसनग्रहणमुपल. न्यत्र स्खयोगेन नीतं भवति न साध्वर्थ तहि कल्पते ।। कणम् तेन बेसनहिगुजीरकादौ प्रतिते सति यो धूम तदेवं चुल्ल्युखास्थितस्य करण्याकल्प्यविधिमुपदय, सम्प्र. उच्छलति स बेसनाङ्कारधूम इति ज्ञातव्यं, पूर्वगाथायां ति चुल्ल्यागुपकरणानां पूतिभावं विदर्शयिषुः "चुल्लुक्व धूम इत्यस्य पदस्यायमों भावनीय इत्यर्थः बेसनलिया डोप"(२५०) इति पूर्वोकगाथाऽवयवं व्याख्यानयति शब्दस्य च व्यस्तः सम्बम्ध आर्षत्वात् , अङ्गाराऽऽदीनां च कम्मियकद्दममिस्सा, चुल्ली उक्खा य फडगजुया उ। मध्ये एक खे त्रीणि वाऽधाकर्मिकाणि द्रष्टव्यानि, अनेन च धूमेन या व्याप्ता स्थाली तक्राऽऽदिकं वा तदपि पूतिः । उक्ला उवगरणपूइमेयं, ढोए दंडे व एगयरे ।। २५३ ॥ बांदरपूतिः। आधार्मिकेन कईमेन या मिश्रा । किमुक्तं भवति ?-कि अथ सूक्ष्म पूतिमाहयता शुद्धेन कियता चाधाकर्मि केण या निष्पादिता चुली इंधणधूमेगंधे-अवयवमाईहि सुहुमपूई उ । उस्खा च सा प्राधाकर्मिककईममिश्रा, कथम् ? इति, पाह- सुंदरमेयं पूई. चोयग भणिए गुरू भणइ ।। २५७ ।। (फहगजुया उत्ति) अत्र हेतौ प्रथमा । ततोऽयमर्थः-यतः अत्रैकारवयस्य छन्दोऽर्थवादादिशब्दस्य व्यत्ययान्मकारस्य फह(के)गेन प्राधाकर्मिकेन कईमसूचकेन युता तत प्राधाक- चालाक्षणिकत्वादेवं निर्देशो द्रष्टव्या-'हन्धनधूमगन्धाऽऽद्यब. मिककर्दममिश्रा, ला इत्थंभूता उपकरणपूतिः, तथा 'डोए' यः, इति, इन्धनग्रहणं चोपलक्षणं.ततोऽलारा अपि गृह्यन्ते, इति । एकदेशे समुदायशब्दोपचारात् 'होय' इत्युक्त डो. प्रादिशब्देन च वाष्पपरिग्रहः। ततोऽयमर्थः-इन्धनालारायस्याग्रभागो गृह्यते, तस्मिन् , यद्वा-दण्डे एकतर- वयवधूमगन्धवाप्पैराधाकर्मसम्बन्धिभिः सम्मिश्रं यत् शु.. स्मिन्नाधाकर्मणि स दारुहस्तकः पूतिर्भवति , एवम । अमशनाऽऽदिकं तत् सूक्ष्मपूतिः। एषा च किल सूक्ष्मपूतिर्न Page #1094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०७१) पूऽकम्म अनिधानराजेन्ः। परकम्म भागमे निषिध्यते, ततश्चोदक श्राह-सुन्दर युक्तमेनां पूर्ति | परित्यागानम्तरं प्रस्फोटनं कृत्वा हस्तेनाऽऽस्फालनाऽऽदिना बर्जयितुं, तकि नागमे निषिध्यते । एवं परेणोक्के मुरुः । सर्वानयाधाकम्मावयवानपसार्य प्रकृते 'कल्प'कल्पत्रये यन् भणति गृहीतं तत्सूचमतिर्भवति,कतिपयोद्धरितसूक्ष्माऽधाकर्मावय. इंधनधूमेगंधे-अवयवमाई न पूइयं होइ । पमिश्रणसम्भवात् , तस्य च सूक्ष्मपूतेः परिहरणं धावना55. जसि तु एस पूई, सोही न वि विज्जए तेसि ।।२५८॥ दिभिःकिमुक्तं भवति?-पात्रस्याऽऽधाकर्मिकपरित्यागानम्तर अत्रापि पदयोजना प्रागिव । ततोऽयमर्थ:-इन्धनानाराव. कल्पत्रयधावनेन प्रक्षालनं क्रियते तई सूचमपूतिनं भवति, पवधूमगन्धवाष्पैराधाकर्मसम्बन्धिभिर्मिकं पूतिनं भवति, तत एवं सूचमपूर्तः परिहरणमपि घटते, तस्मादिदमेव सु. येषां तु मतेन पूतिर्भवति तेषां मतेन साधोः शुद्धिः चमपूतिस्वरूपमुच्यतामिति भावः। तदेतवयुक्तम् । यत इयं बा. सर्वथा न विद्यते। दरपूतिरेख, तथाहि-गृहीतोऽस्ति तस्याऽधाकर्मणः सस्कैः एतदेव भावयति स्थूलैः सिकथाऽऽद्यवय वैः, तम्मिकं सस्कथं स सूक्मपूतिः । इंधनगणीअवयव, धूमो बफ्फो य भन्मगंधो य । सव्वं फुसंति लोयं, भन्नइ सव्वं तमो पूई ।। २५६ ॥ धोयं पि निरावयवं, न होइ पाहच्च कम्मगहणम्मि। इन्धनान्यवयवाः सूक्ष्मा ये धूमेन सहाहश्यामाना गच्छ न य अहव्वा उ गुणा, भन्नइ सुद्धीको एवं ।।२६४|| स्ति, तथा धूमो बाष्पोऽन्नगन्धश्च, पते सर्वेऽपि प्रसरता कदाचित् 'कर्मग्रहणे' प्राधाकर्मिकग्रहणे सति तत्परिस्या. किल सकलमपि लोकं स्पृशम्ति, तत्पुतलानां सकलमपि गानम्तरं पश्चात् ' धौतमपि' प्रक्षालितमपि पा सर्वधान लोकं यावदमनसम्भवात् , ततस्तवाभिप्रायेण सर्वमपि पू. निरवययं भवति, पश्चादपि गन्धस्योपलभ्यमानत्वात् , अथ तिरापद्यते, तथा च सति साधोः कथं शुद्धिः? इति । गन्ध एवं केवल उपलभ्यते न तु तदवयनः कश्चिवस्तीति अत्र परः प्रागुक्तविरोध दर्शयन् स्थपक्षं समर्थयति- वूषे, तत पाह-न च 'अद्रव्याः ' द्रव्यरहिताःगुणाः गनणु सुहुमपूइयस्सा,पुवुधिहस्सऽसंभवो एवं । म्धाऽऽदयः सम्भवन्ति । ततो गन्धोपलम्भावयश्पं तत्र इंधणधूमाइहि, तम्हा पूइ त्ति सिद्धिमियं ॥ २६०॥ धौते ऽपि केचन सूचमा अवयवा द्रष्टव्याः, ततो भएयते-'ए. मनु यदीन्धनान्यवयवाऽऽदिभिः पृतिर्न भवेत् , एवं सति बमपि' अपिरन्न सामागम्यते, भवत्परिकल्पितमकारणा' ताई पूर्वोहियस्य "भाषम्मि उ बायरं सुहुमं" इत्येवमुक्तस्य पि कुतः सूचमपूतेः 'शुद्धिः' परिहारो ?, नैव कथञ्चन इति सूचमपूतेरसम्भवः प्रामोति, मन्यस्य सूचमपूतेरभावात् भावः, तस्मात्पूर्वोक्त एव सूक्ष्मपूतिः, तस्य च प्रक्षापनामात्र, न तु परिहरणं कत शक्यमिति स्थितम् । ननु यदि स परतस्मात् सिद्धमिदं यदुत इन्धनधूमाऽऽविभिः सम्मिश्रं पूतिः | मार्थतः सूक्ष्मपूतिस्ततस्तस्याऽपरिहारे नियमावशुद्धिः प्रामो. सूक्ष्मपूतिरिति । अत्र गुरुराह ति.सोऽपि च सूक्ष्मपतिः सकललोकव्यापीष्यते, गन्धाऽऽदि. चोयग ! इंधणमाई-हि चउहि वी सुहुमपूइयं होइ । पुद्रलानां क्रमेण सकललोकव्यापनसम्भवात् , ततो यदा त. का वा काप्याधाकर्मसम्भवे सर्वेषामपि साधूनामशुद्धिप्रामो. पनवणामित्तमियं, परिहरणा नरिथ एयस्स ॥ २६१ ॥ तीति,नेष दोषो,गन्धाऽऽविपुलामां बरणभंशाऽऽपावमसाम. 'हे चोदक!' प्रेरक! इन्धनाऽऽदिभिः' इन्धनान्यवयवधू- ायोगात् . न चैतदनुपपत्र, लोकेऽपि तथा दर्शनात् । मबाष्पगन्धैश्चतुर्भिरपि स्ट; सूक्ष्मपूतिर्भवति, नात्र कश्चिति तथाहिबादः, पनामेव च सूक्ष्मपूतिमधिकृत्य प्रागुतम् ( भावम्मि लोए वि असुइगंधा, विपरिणया दूरभो न दसति । उ पायरं सुहुमं इति) केवलमिदं सूचमपूतिस्वेन भणनं प्र. न य मारंति परिणया, दूरगयाभो विसावयवा ॥२६॥ बापनामा, परिहणं पुमस्तस्याः सूक्ष्मपूतेर्नास्ति , भ. लोकेऽपि प्रशुचिगन्धा, अशुविसरका गन्धपुतला दूरत शक्यत्वात्। एतदेव प्रपञ्चयति भागता विपरिणताः सन्तः स्पृष्टाः अपि 'म तुष्यन्ति 'ग सज्झमसउझं कज्जं, सज्झं साहिज्जए न उ असज्झ। स्पृष्टिदोषमशुचिस्पर्शनरूपं लोकप्रसिखं जनयन्ति, नबि. पावयषा भपि दूरगताः सन्तः 'परिणताः' पर्यायान्तरमा जो उ असज्झं साहर,फिलिस्सइ न तं च साहे।।२६।। पना मारयन्ति. तहाण्याधाकर्मणः सम्बन्धिनो गन्धाऽदि. इह विविध कार्य साध्यमसाध्यं च शक्यमशक्यं चेत्यर्थः, पुद्रलापूरता समागच्छन्तो विपरिणता नपरयमाणाम् तत्र सायं साध्यतेमस्वसाध्य,यस्वसाध्यं युष्मारशा साथ, विनाशयितुमीशा, नाग्याधाकर्मसंस्पर्शलक्षणं दोषं जनव. पति स नियमात् क्लिश्यते, नब तस्काय साचयति, मषि. न्तीति। चमानीपायत्वात् एषोऽपि वानम्तरीला सुधमपूतिरशक्य. तदेवमिन्धनाऽऽषयवापेक्षया यः पूपमपूतिस्तमपरिहार्य परिहार, ततोन परिहियते। प्रतिपाद्य सम्प्रति शेषद्रव्यपूर्ति परिहार्य प्रतिपादयतिसम्प्रति पर "वायाम ति"समर्थयमानोऽपरं सूमः | सेसेहि उदबेहि, जावइयं फुसइ तत्तियंपूर।। पूर्ति तस्य परिहरणं च शक्यं प्रतिपावयति लेवहि तिहि उपई, कप्पा कप्पे कर तिगुये ॥२६६।। माहाकम्मियभायण-पप्फोडण काय अकयए कप्पे । शेषैः धनाऽऽद्यवयषव्यतिरिक्तः शाकलपणाऽऽविभिर्यावत् गहियं तु सुहुमपूर्व, धोषणमाईहि परिहरणा ॥२६॥ | स्थास्याविपरिमितं द्रव्यं स्परं भवति तावत्प्रमाणं पूति तथा या भावने हीतमायाकर्म बसिन् मानने भाषाकर्म त्रिमिााविसमावना-बारा किला Page #1095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०७२) अभिधानराजेन्डः। प्रतिणिव्वलणमास राखं, ततस्तस्या अपनीतम् , अपनीते च तस्मिन् या पा' व्यं ता हि अपृष्टा एवान्यमुद्दिश्य कथयन्ति, यथाऽस्माकं वात्या स्वररिटः सा एको लेपः, ततस्तस्यामेव स्थाल्यामकृ श्वः परतरे वा दिने सयभक्तं दत्तमासीत् , यद्वा-सक्खडिः तकल्पत्रयायां शुद्ध राद्ध पूतिः, एवं वारद्वयमन्यदपि राखं साव्यां च कृतं साध्वर्थ प्रभूतमशनाऽऽदिकमिति, तत एवं पूतिः, चतुर्थे तु बारे रान पूतिः,प्रथात्मयोगेन यदि गृ. तासां संलापानाकर्य पूत्यपूती ज्ञात्वा परिहारग्रहणे कार्ये । हस्थाः तस्याः स्थाल्याःनिःशेषावयबापगमाय कल्पत्रयं ददा. उक्तं पूतिद्वारम् । पि। तितहिका वार्ता, तत आह-कल्पते तस्यां स्थाल्यां शुद्ध. जे भिक्खू परकम्म भुंजइ, भुंतं का साइजइ ॥२७॥ मशनाऽऽदि राखं, यदि 'कल्पे' प्रक्षालने त्रिगुणे-त्रिसस्ये जे मिक्खू पूकम्मं भुजति, वाव विणटुं कुहितं पूर्ति भ. कृते सति राद्धयति न शेषकालम् । पति, पुण समये विसुद्ध आहाराऽऽति अविसोधिकोहि एतदेव भावयति दोसजुरण संमिस्सं पूतियं भमति । नि० चू०१ । इंधणमाई मोत्तुं, चउरो सेसाणि होति दवाई। उ० । जीतानुसारेण पूतिकर्मणि क्षपणं प्रायश्चित्तम् । तेसिं पुण परिमाणं, तयप्पमाणाउ प्रारम्भ ।। ३६७ ।।। जीत। इन्धनावयवाऽऽदीनि चत्वारि पूर्वोक्तानि मुक्त्वा शेषाणि'द्र. | पूडकम्मिया-पूतिकर्मिका-स्त्री०। आधार्मिकमुद्रया परित. ध्याणि' अशनादीनि पूतिकरणप्रवणानि ज्ञातव्यानि. तेषां छिद्रायां बसतो. वृ०१उ०२प्रक०। पशुद्धाशनाऽऽदिपूतिकरणविषये परिमाणं स्वप्रणामादा. पूइकुहिय-पूतिकुथित-न० । स्वस्वभावचलिते. जी० ३ प्रति. रभ्य द्रष्टव्यम् । इयमत्र भावना-तण्डुलाउदीनामाधाकर्मणां अधिक। गन्धाऽऽदिचतुष्टयं परिहत्य शेषं त्वगवयवमात्रमप्यादौ कः | पुइमंस-पूतिमांस-न । दुष्पपिशिते, पञ्चा० १६ विव० स्वा यवर्तते तेन स्पृथं शुद्धमप्यशनाऽऽदि पूतिर्भवतीति । - सम्प्रति दातृगृहं साधुपात्रं चाऽऽश्रित्य पूतिविषयं | पूइमसाइ-पूतिमांसाऽऽदि-पुं०1 दुष्पपिशितमेदःप्रभृती,पश्चा. कल्पयाकल्प्यविधिमाह १६ विव०। पढमदिवसम्मि कम्म, तिमि न दिसवाणि पश्यं होड। पूइय-पूतिक-त्रि० । जीर्णतया कुचितप्राये, हा १० पईसु तिसुन कप्पइ, कप्पइ तइओ जया कप्पो ।२६८। अ.। दुर्गन्धे, तं०। पूतिकर्मदोषदृषिते, स्था० ठा। तं। इह यस्मिन् दिने यत्र गृहे कृतमाधाकर्म तत्र तस्मिन् दिने पूजित-त्रि० । पुष्पैर्मानिते ; शा० १ श्रु. १ अ. । अर्जिते, कर्म' आधाकर्म व्यक्तमेतत् . शेषाणि तु त्रीणि दिनानि उत्त०४ अ " सदेवगंधव्यमणुस्सपूइए चइत्त देहं। " पूतिर्भवति, तद् गृहं पूतिदोषवद्भवतीत्यर्थः, तत्र च पूतिषु मनुष्यैः पूजिता (तो) भवति । उत्त० ११०। पूतिदोषवत्सु त्रिषु दिनेषु प्राधाकर्मदिने च सर्वसम्ख्यया पूइयचम्म-पूजितचर्मन्-न०। शुभाऽजिने तं। चत्वारि दिनानि यावन कल्पते, साधुपात्रे च पूतिभूते तदा शुद्धमशनाऽऽदि प्रहीतुं कल्पते , यदा तृतीयः कल्पो पूइयच्छिदय-पूतिकच्छिद्रक-त्रि० । अपवित्र लघुविधरवृद्ध.. बत्ती भवतिन शेषकालं, पूतिकोषसम्भवात् । विघरे, तं। सम्प्रत्याधाकर्म पूर्ति च वैविक्त्येन प्रतिपादयन्नुपसं पूइयणास-पुतिकनास-त्रि०। अपवित्रनासिके, तं०।। हरति पूइयदेह-वृतिकदेह-त्रि० । दुर्गन्धिगात्रे, तं० । समणकडाहाकम्म, समणाणं जं कडेण मीसं तु । पूइयत्यय-पूजित पूजक-त्रि० । लोकैः पूजितस्य पूजाकारके, प्रहार उवहि वसही, सव्वं तं पूइयं होइ ॥ १६ ॥ मा० म०१०। श्रमणानामर्थाय कृतमहारोपधिवसत्यादिकं यत् तत्सर्व. पूइयपूया-पूजितपूजा-स्त्री०। पूजितस्य सतः सास्य पूज्यैः । माधाकर्म, यत्पुनः श्रमणानामर्थाय कृतेनाधाऽऽकर्मणा मि. पूजायाम् , पञ्चा० - विव० । प्रा०म०। भमाहाराऽऽदि तत्सर्वे पूतिभर्वति। पूइयमंत-पुतिमत-त्रि.। अपवित्रमये, तं०। सम्प्रति परिक्षानोपायमाह पूउरित्र-देशी-कार्ये, देना.६ वर्ग ५७ गाथा। सट्टस्स ये (थो) वदिवसे-सुखंडी पासि संघभत्तं वा । पूण- देशी-हस्तिनि, दे० ना०६ वर्ग ५६ गाथा। पुच्छितु निउणपुच्छं, संलावाओ वडगारीणं ॥२७०।। । पूर्ण इह प्रथमत प्रागतेन श्राद्धगृहे तथाविधं किमपि सक्ख पुण उ-देशी-पूर्वे, नि० चू०१ उ०। ज्यादि विहमुपलभ्य पूतिदोषसंशयभावे श्राद्धस्य पावें पणिया-वृणिका-खी । रुतसम्बन्धियां प्रन्थिकायाम् ,ला. . उपलक्षणमेतत् , श्राविकाऽऽदेश्च पार्श्वे निपुणपृच्छं प्रव्यं, देशे रुतसम्बन्धिनी या पूणिकेति प्रसिद्धा सैव महाराष्ट्रयथा-युष्माकं गृहे ' स्तीकदिवसेषु' स्तोकदिवसमध्ये, कविषये पेलुरित्युच्यते। विशे०। प्रभूतदिवसातिक्रमेण पूतिदोषो न सम्भवतीति स्तोकदि मी-देशी-तललतायाम, यन्मध्यारसुत्रतस्तनिःसरति । दे. बसग्रहणं, 'साहिः,' वीवाहाऽऽदिप्रकरणरूपा सहभकंवा | ना.६ वर्ग ५५ गाया। दत्तमासीत् १. सखल्यां वा साधुनिमित्तं किमपि कृतम् मा. पूतरक-पूतरक-पुं० । डोलणकभ्रमरिकाच्छेदनका दिषु चुभवत् १, ततस्तहिनादर्वाग् दिनत्रयं पूतिरितिकृत्वा परिह तव्यं, चतुर्थाऽऽदिषु तु दिनेषु परिग्राह्यम् , अथवा-काऽपि द्रजन्तुषु, सूत्र.२ श्रु० ३ १०।। प्रश्नमन्तरेणाप्यगारिणीनां संलापात् पूतिरपूतिर्वति शातः पूतिणिवलणमास-पतिनिर्वलनमास-पुं०। पूतिर्दुर्गन्धिस्त. Page #1096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पया (१०७३) पूणिव्वलणामास अभिधानराजेन्षः। स्य निर्वलनं-स्फेटनं तत्प्रधानो मासः प्रतिनिर्वलनमासः। -पूतपटी-स्त्री०पूतपट्याम् , भ०१५ श०। प्रमोदमासे,यत्र निरूढप्रायश्चित्तो जनः प्रमोदते । व्य०३ उ० प्रतिपियाग-पृतिपिण्याक-न० । कुथितखले, प्राचा० २श्रु. पूया-पजा-स्त्री० । 'पूज' पूजायाम् अस्मात् "गुरोश्च हलः" १चू०१ १०८ उ०। ॥८।३।१०३॥ इत्यप्रत्ययान्तस्य पूजन पूजा । प्रशस्तम नोवाकायचेष्टायाम् , श्राव०३० । स० सत्कारे. पश्चा. पूय-पूत-त्रि० । पवित्रे, अष्ट० ३२ अष्ट । ६ विव० । गायध्यादिपाठपूर्वके सन्ध्याऽर्चने, अनु । पुष्पापूय-न० । पक्के रुधिरे, सूत्र. १ श्रु० ५० १ उ० । प्रश्न । अदिभिरर्चने, स्था० ३ ठा० ३ उ० । गन्धमाल्यवस्नपात्राप्रज्ञा । स० 101 प्राचा।" पर सोणियं पूर्व भाति।" | अपानप्रदानाऽऽदिसत्कारे, हा०२ अष्ट । सक्का । यथोचि. निचू० ३ उ4 त्येन पुष्पफलाहारवस्त्रादिभिरुपचारे, प्रथ. १.द्वार। पृयग-पूतग-न०। शुभगन्धवति पुरीषे, शा०१७०६०। स्था० । स्तवाऽऽदिभिः सपर्यायाम् , दर्श०१ तत्त्व । (प्रतिष्ठित पृयद्वाण-पूजास्थान-न० । पूजायाः स्थानं पूजास्थाम् । स्य जिनबिम्बस्य पूजाविधिः समग्रोऽपि वेश्य' शब्दे पूजाऽहे, दश०१०। तृतीयभागे १२७७ पृष्ठे उक्तः ) 'अट्ठपुप्फी' शब्दे प्रथमभा. यहि (ख)-पूजार्थिन-निकापूजामर्थयते यः सःपूजार्थी। गे २४५ पृष्ठे तत्पूजाका ) (सिद्ध बलिविधानमपि 'चाय' शब्द तृतीयभागे १२७४ पृष्ठे उक्तम् )(पूजार्थ गन धरेत् इति 'गणपूजाकामे, स०३० सम। धर'शब्दे तृतीयभागे ३३२ पृष्ठे उक्तम्) प्रोतपुष्पैः पूजा-प्रोतपु. पृयण-पूजन-न० । वनपात्राऽऽदिना (सूत्र०११०१००। पैः पूजनाक्षराणि साम्प्रतं श्राद्धदिनकृत्य सत्कानि शातानि उत्त। दश)सत्कारे,सूत्र.१ श्रु० १२०। प्राचा। वनपा. सन्ति १० । तथा ईददिने अस्वाध्यायविषये वृद्धरनाचरणघाऽऽदिलाभे,सूत्र० १ श्रु०१३ अ० । दश। सत्कारपुरस्कारे, मेव निमित्तमवसीयते ।११। ही० ३ प्रका० ।। कुमारपाल सूत्र०१श्रु०४ अ०१ उ० गन्धमाल्याऽऽदिभिर भ्यर्चने,श्राव० राजेन हेमाचार्यस्य सुवर्णकमलेः पूजा कृता इति 'गुरुपूया' ४ ०। सूत्र० । द्रविणदानान्नपानसत्कारप्रणामसवाविशे. शब्दे ३ भागे ६४४ पृष्ठे गतम्) (द्रव्यपूजानिषेधः साधूषसपे, प्राचा०१श्रु०१.१ उ० । ययाक्रमं गुर्वादीनामाहार- नाम् ' चेय ' शब्दे तृतीयभागे १२१७ पृष्ठे दर्शितः ) संपादनविनय करणे, ज्ञानाऽऽचाराऽऽदिषु पञ्चस्वाचारेषु य- अथ द्रव्य पूजोपस्काररूपं भावपूजास्वरूपभावनोपचार रूपं थायोगमुद्यच्छतामुपबृंहणे, व्य० ३ उ० । भावपूजाकंचितन्यते-तत्र गृहस्थोऽनेकसंसारभारत्रस्तः कपूयणकाप-पूजनकाम-त्रि० । सत्कारपुरस्काराभिलाषिणि. दाचित् निर्विकाराऽऽनन्दरूपां जिनमुद्रा विलोक्य प्राप्तवैरा. सूत्र० १७०४ अ०१ उ० । ग्यो भवोद्विग्नःसर्वासंयमत्यागाभिलाषया परमसंवररूपंपर. पुयण द्वि(ण)-पूजनार्थिन्-ति० । पूजनं वस्त्रपात्राऽऽदिना ते मेश्वरं सद्भक्या पूजयति, स्वयोगस्वपरिग्रहाऽऽदिकं सर्वथा नार्थः पूजनार्थः, स विद्यते यस्थासौ पूजनार्थी । पूजाप्रार्थके, त्यनमसमर्थः सर्वमपि तीर्थंकरभक्तियुक्तं करोति, ततश्च श्रा. सूत्र. १ श्रु० १० अ०। स्मा स्वगुणपरिणतः स्वरूपसाधनरूपां भावपूजां करोति, तत्स्वरूपा नामतः पूजा इति कथनम् स्थापनातः तल्लिङ्गा. पूयणमाउच्चारण-पूजनाऽऽद्युचारण-न०। पूजाप्रभृतिपदाभि चरणम द्रव्यतः चन्दनाऽऽदिभिःशून्योपयोगेन च, भावतः धाने, पञ्चा० १० विव। गुणकत्वरूपा, सा व्याख्यायतेपूयणवत्तिया स्त्री० । पूजनप्रत्यय-न । पूजननिमित्ते, पूजमं च गन्धमाल्याऽऽदिभिरभ्यर्चनम् । ध०२ अधि० । ल० । दयाऽम्भसा कृतस्नानः, सन्तोषशुभवस्त्रभृत् । प्रति०। विवेकतिलकभ्राजी, भावनापावनाऽऽशयः ॥१॥ पृषणा-पूतना-खी० । दुष्टव्यन्ताम् , पि० । अपत्यमारि भक्निश्रद्धानघुमणो-म्मिश्रपाटीरजद्रवैः । कायां गडुरिकायाम् , पिं० । नवब्रह्माङ्गन्तो देवं, शुद्धमात्मानमर्चय ।।२॥ (युग्मम् ) घूयणासुय-पूजनाऽऽस्वादक-पुं०। पूजनं देवाऽऽदिकृतमशो काऽऽदिकमास्वादयत्युपभुत इति पूजनाऽऽस्वादकः । सम. युग्मतो व्याख्यानं दर्शयति-हे उत्तम ! एवंविधं शुद्धावसरणे देवादिकपूजोपभोगिनि,"अणुसासणं पुढो पाणीव. त्मानम् , अनन्तज्ञानाऽऽदिपर्यायम् भात्मारूपं देवं नवप्र. सुमं पूयणासुते।" सूत्र.१ श्रु० ११ १०। कारब्रह्मरूपाङ्गतः अर्चय-पूजय । कीदृशो भूत्वा ?, इत्याहपूणिज्ज-पूजनीय-त्रि० । पुष्पैरर्चनीये, शा० १ श्रु०१०। दया-द्रव्यभावस्वपरप्राणरक्षणरूपा,सा एव अम्भ:-जलं पा. नीयं, तेन कृतं स्नानं पाविध्यं येन सः, सन्तोषः पुद्गलभाव. भ० । पञ्चा । औ०। पिपासाशोकाभावरूपः स एव शुभवस्त्राणि तेषां भृत्-धारक: पूयपाव-पुतपाप-त्रि०। विशुद्धमासे, अपगतपापे, विशे०। विवेकः स्वपरविभजनरूपं ज्ञानं तदेव तिलकं तेन भ्राजी प्रयफली-पूगफली-स्त्री०। (सोपारी) वृतविशेषे, "पूयफली शोभमानः । पुनः कथंभूतः ?-भावना अद्गुण कन्वरूपा खजूरी,बोधव्वा नालिएरी य ।" भ०८ श० ३ उ०। प्रशा। तया पावन:-पवित्र प्राशयोऽभिप्रायः यस्य सः, पुनर्भक्ति. पुयलिया-पुपलिका-स्त्री० । स्नेहदिग्धतापिकायाम् परिपकः | राराध्यता श्रद्धा-प्रतीति:-"एस अट्टे परम?" एवंरूपा पोततः। परिपके पूरे,ध.२ अधिक। आचा। अपूपाऽऽदि- तपघुसणेन उन्मिभ्रं पाटीरज, तस्य द्रवः, तैः शुद्धाऽऽत्मा के, ०१ उ. ३ प्रक०। परमेश्वरः, स्वकीयाऽऽत्माऽपि, दीव्यति स्वरूपे इति Page #1097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रया (२०७४) अन्निधानराजेन्षः। पूया देषः, तम् अर्चय-पूजय, तद्भक्तिरतो भव इति ॥१॥२ द्रव्यपूजोचिता भेदो-पासना गृहमेधिनाम् । अथ अनुक्रमेण पूजाप्रकारानाह भावपूजा तु साधूना-मभेदोपासनाऽऽत्मिका ॥८॥ क्षमा पुष्पस्रनं धर्म-युग्मदीमद्वयं तथा। गृहमेधिना-गृहस्थानां भेदोपासनारूपा प्रारमनः सकाशात् ध्यानाऽऽभरणसारंच, तदने विनिवेशय ॥ ३ ॥ अहन्-परमेश्वरः भिन्नःनिष्पन्नाऽऽनन्दचिद्विलासी,तस्योपा. हे भव्य । तबले श्रात्मस्वरूपरूपे पक्षमा क्रोधोपशम. सना-सेवना निमित्ताऽऽलम्बनरूपा द्रव्यपूजा उचिता-योग्या स्साषचनधर्मक्षमारूपां-पुष्पन पुष्पमालां निवेशय-स्थापय, तु-पुनः साधूनामभेवोपासनाऽऽत्मिका परमात्मना स्वान्माऽ. तथा-तथैव धर्मयुग्म-श्रावकसाधुरूपं श्रुतचारित्ररूपं वा भेवरूपा भावपूजा उचिता। यद्यपि सषिकल्पकभाषः पूजा सामवयं बनवयं निवेशय, पुनानं धर्मशुक्तं तदेव भाभ- गुणस्मरणबहुमानोपयोगरूपा भावपूजा गृहिणां भवति, त रणस्य सारं प्रधानं परमब्रह्मणि निवेशय, इत्येवं गुणपरि- थाऽपि निर्विकल्पोपयोगस्वरूकस्वरूपा भावपूजा निर्ग्रन्था. यमनकां पूजां कुरु ॥३॥ नामेव । एवम्-श्राश्रवकषाययोगचापल्यपरावृत्तिरूपमदस्थानभिदात्यागे-लिखाग्रे चाष्टमङ्गलीम् । द्रव्य पूजाऽभ्यासन अर्हद्गुणस्वात्मधर्मकस्वरूपभावपूजासानाग्तो शुभसंकल्प-काकतुण्डं च धूपय ॥ ४ ॥ वान् भवति, तेन च तन्मयतां प्राप्य सिद्धो भवति, इत्येवं मदा-मानोन्मादः तस्य स्थानानि, तान्येव भिदा भेदाः तेषां साधनेन साध्योपयोगयुक्तेन सिद्धिः-निष्कर्मता भवति ॥८॥ स्थागा-पर्जमेरहमालीम लिख । तथा-बानाऽग्नौ शुभ- इति व्याख्यातं भावपूजाष्टकम् । अष्ट० २६ अष्टः । संकल्पा-शुभरागपरिणामस्तद्रूपं काकतुण्डं-कृष्णागुरुंधू- "माता पिता कलाचार्यः, एतेषां ज्ञातयस्तथा। पप इत्यनेन रागाऽभयवसायाः शुभाः पुण्यहेतवः सिद्धि वृद्धा धर्मोपदेष्टारो, गुरुवर्गः सतां मतः ।।११०॥" साधने त्याज्या एव, अतःहानबलेन तेषां पागो भवति ॥४॥ ('गुरुवग्ग' शब्ने तृतीयभागे ६४४ पृष्ठे दर्शितोऽयम्) प्रागधर्मलवयोनार, धर्मसंन्यासवहिना । गुरुवर्गपूजाविधिर्दयतेकुर्वन् पूरय सामर्थ्य-राजबीराजनाविधिम् ॥ ५॥ पत्रात्मस्वरूपार्चने'धर्मसंन्यासवहिना' धर्मः'स्वरूपसत्ता. पूजनं चास्य विज्ञेयं, त्रिसंध्यं नमनक्रिया । सरजपरिणामिकलक्षण: चन्दनगन्धतुल्यः तस्य सम्यग् न्या. तस्यानवसरेऽप्युरुचै-श्वेतस्यारोपितस्य तु ॥ १११॥ ला-क्यापमंस एष बहिः, तेन प्राक-पूर्वसाधनरूपःधर्मः सवि. पूजनं च पूजनं पुनः, अस्य-गुरुवर्गस्य, विशेयमवगन्तव्यम् । कल्पभाषनारूपा तदेव लषणं तस्योत्तारो-निवारणं, निर्षिक किमित्याह-"त्रिसंध्यं" संध्याप्रयाऽऽराधनेन "नमनक्रिया" पकलमाची साधकस्पाऽपि सविकल्पकधर्मस्य त्याग एव प्रमाणरूपा । यदि कश्चित्साक्षादसौ प्रणन्तुं न पार्यते, तदा भवति। एवं भाषरूपम्पबादसाधनरूपं लवणोत्तारं कुर्वन् , किं कृत्यमित्याह-"तस्य" गुरुवर्गस्य, "अनवसरेऽपि" 'सामराजनीराजनाविधि' पूर्व सामर्थ्य योगरूपा राजत् तथाविधप्रघट्टकरशारिक पुनरवसर इत्यपिशब्दार्थः । " उ. योभमानानीराजना-भारतिका तस्या विधिस्तं पूरय, साम चैः" प्रत्यर्थ " चेतसि" मनास "भारोपितस्य तु" पूर्व योगरूपं ब-यत्र कर्मबन्धहेतुषु प्रबर्तमानबीर्यस्य न वद् गुरुवर्गस्य पूजनमिति । तारण प्रवृत्तिा, स्वाऽऽस्मधर्मसाधनाऽनुभवकत्वे प्रवर्तमानो तथानिष्प्रयासस्पेन प्रवर्तते स योगः सामर्थ्य उच्यते ॥५॥ अभ्युत्थानाऽऽदियोगश्च, तदन्ते निभृताऽऽसनम् । स्फुरन्मङ्गलदीपं च, स्थापयाऽनुभवं पुरः। नामग्रहश्च नास्थाने, नावर्णश्रवणं क्वचित् ।। ११२।। योगनृत्यपरस्तीय-त्रिक संयमवान् भव ॥६॥ अभ्युत्थानाऽऽदियोगोऽभ्युत्थानाऽसनप्रदानस्थितपर्युपासपा-पुनः स्फुरत् देवीप्यमानं मङ्गलदीपं मङ्गलं सर्वद्रव्यभावो- नाऽऽदिविनयव्यापाररूपः, चःसमुश्चये, तदन्ते गुरुवर्गान्ते, नि पद्रवमुक्तं. दीप-भावप्रकाशम्, अनुभवं स्पर्शज्ञानस् प्रास्मस्थ. भृताऽऽसनमप्रगल्भतयाऽवस्थानम्,नामप्रहच नामोच्चारणभाषाऽऽस्वादनयुक्तं ज्ञानं, पुर:-अग्रे स्थापय । योगाः मनोवा: रूपः,न-नैव,अस्थाने मूत्रपुरीषोत्सर्गाऽऽदिस्थानरूपे,न-नैव, कायरूपास्तेषां साधनप्रवर्तनरूपं नृत्य, तत्र तत्परः सोचमः अवर्णश्रवणमवर्णवादाऽऽकर्णनम्, कचित्परपतमध्याव, सम् परमाध्यात्मधारणाभ्यानसमाधिरूपलायोग अपरि- स्थानेऽपीति। सामनरूपः पूजात्रयमयो या 'तूपाययभः तवान् तथाभव, इत्यनेन प्राभ्यन्तरपूजया सवाऽनन्दमयं च चैतन्यल. साराणां च यथाशक्ति, वस्त्राऽऽदीनां निवेदनम् । क्षणं स्वारमानंतपं कुरु ॥६॥ परलोकक्रियाणां च, कारणं तेन सर्वदा ॥ ११३ ॥ उद्धसन्मनसः सत्य-घएटां कादयतस्तव । साराणां चोकृपानाम्, यथाशक्ति यस्य यावती शक्तिस्तया. भावपूजारतस्येत्यं, करकोडे महोदयः ॥ ७॥ पत्राऽऽदीनां बसनभोजनालङ्काराऽऽदीनाम्, निषेवनं-समर्प. हाय भावपूजारतस्य तष महोदयः-मोक्षःकरकोडे-स्ततले णम् , तथा परलोकक्रियाणां च देवातिथिदीनानाथप्रतिप. मास्ति । किं कुर्वतः-उन्मसन्मनसः-प्रसन्नचित्तस्य सस्पर्या. तिप्रभृतीनाम् , कारणं-विधापनम् , तेन गुरुवर्गेण, सर्वदा परूपा'पएटा पादयतः' शब्दं कुर्वत स्यनेन सहर्षसत्यमनो. सर्वकालम् । नासपएट नावयता लतः पूर्वोक्तपूजाकरणेन सर्वशक्तिमादु. तथाभर्भावरूपो मोसो भवति ॥ ७॥ त्यागश्च तदनिष्टाना, तदिष्टेषु प्रवर्तनम् । • मेघाऽऽघोष-मा- शक्ल । भौचित्येन स्विदं ब्रेयं, माहुर्धर्माऽऽयपीच्या ।। ११४ ।। Page #1098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रया (१०७५) अभिधानराजेन्डः । . पूया त्यागश्व-प्रोज्झनम् , तदनिष्टानां-गुरुवर्गासमतानां व्यवहा- प्रस्थितानामनुकूलाचरणा भवन्तीति कथमविशेषेण नम. राणाम् , तदिष्टेषु-गुरुवर्गप्रियेषु व्यवहारेष्वेव प्रवर्तनम् । स्का (क)रणीयतेत्याशक्याऽऽहअत्रापवादमाह- "औचित्येन तु" औचित्यवृत्या पुनः "इदं" चारिसंजीवनीचार-न्याय एष मतां मतः ।। पूजनं "यं प्राहुः" उक्तवन्तः पूर्वेऔचित्यमेव व्यनक्लि- नान्यथाऽवेष्टसिद्धिास्या द्विशेषेणाऽऽदिकर्मणाम।११६ धर्माऽऽद्यपीडया-धर्माऽऽदीनां पुरुषार्थानामबाधया. यदि चारः प्रतीतरूपाया मध्ये सञ्जीवन्यौषधिविशेषश्चारिसजी. तदनिष्टेभ्यो निवृत्तौ तदिष्टेषु च प्रवृत्ता धर्माऽऽदयः पुरुषा । धनी, तम्याश्चाचरणं. स एव न्यायो दृष्टान्तश्चारिसली. र्था बाध्यन्ते,तदान तन्निवृत्तिपरेण भाव्य,किं तु पुरुषार्थाऽs वनीचारल्यायः एषोऽविशेषेण देवतानमस्का स्कारणीयतो. राधनपरेणैव, अतिदुर्लभत्वात्पुरुषार्थाऽऽराधनकालस्येति ॥ पदेशः सतां विशिष्टानाम्, मत:--अभिप्रेतः। तथा "भावार्थस्तु कथागम्यः, स चायमभिधीयते । तदासनाऽऽद्यभोगश्च, तीर्थे तद्वित्तयोजनम् । अस्ति स्वस्तिमती नाम, नगरी नागगडकुला॥१॥ तस्यामासीत्सुता काचिद, ब्राह्मणस्य तथा सखी। तद्विम्वन्याससंस्कारः, ऊर्ध्वदेहक्रिया परा ॥११शा तस्यामेव परं पात्र. सदा प्रेम्णो गतावधेः ॥२॥ तवासनाऽऽद्यभोगश्च-गुरुवर्गस्याऽसनशयनभोजनपात्राऽऽदी तयोर्विवाहवशतो, भिन्नस्थाननिवासिनीः । नामभोगोऽपरिभोगः,तीर्थे-देवताऽऽयतनाऽऽदौ, तद्वित्तयोजन. जशेऽन्यदा द्विजसुता, जाता चिन्तापरायणा ॥ ३॥ म्-अलङ्काराऽऽदिगुरुवर्गद्रव्यनियोजनम्,अन्यथा-तत्स्वयंग्रहे कथमास्ते सखीत्येवं ततः प्राघुर्णिका गता। गुरुवर्गमरणाऽऽद्यनुमतिप्रसनः स्यात् । तद्विम्बन्याससंस्कारः दृष्टा विषादजलधौ, निमग्ना सा तया ततः॥४॥ तस्य गुरुवर्गस्य यो बिम्बन्यासः प्रतिबिम्बस्थापना रूपस्तस्य पप्रच्छ कि त्वमत्यन्त-विच्छायवदना सखी? । संस्कारो धूपपुष्पाऽऽदिपूजारूपः,तत्कारितदेवताऽऽदेः पूजा तयाचे पापसद्माऽहं, पत्यु दुर्भगतां गता ॥ ५ ॥ रूप इत्यन्ये । ऊर्ध्वदेहक्रिया-गुरुदेवपूजनाऽऽदिमृतकार्यकर मा विषाद विषादोऽयं, निर्विशपो विषात्सखि!। णरूपा, परा-दर्शिताऽऽदरा । करोम्यनवाहमहं. पर्ति ते मूलिकाबलात् ॥ ६ ॥ अथ देवपूजाविधिमाह तस्याः सा मूलिका दावा, संनिवेशं निजं ययौ । पुष्पैश्च बलिना चैत्र, वस्त्रैः स्तोत्रैश्च शोभनैः। अप्रीनमानसा तस्य, प्रायच्छत्तामसौ ततः॥७॥ देवानां पूजनं ज्ञेयं, शौचश्रद्धासमन्वितम् ॥ ११६ ॥ अभदौद्धरस्कन्धो, झगित्येव च सा हृदि । पुष्प-जातिशतपत्रिकाऽऽदिसंभवैः,बलिना पक्वान्नफलाय. विद्राणैप कथं सर्व कार्याणामक्षमो भवेत् ॥८॥ पहाररूपेण, वस्त्रैर्वसनैः, स्तोत्रैः-स्तवनैः । चशब्दो चैवश गोयूथान्तर्गतो नित्यं, बहिवारयितुं सकः । ब्दश्च समुच्चयार्थाः । शोभनरादरोपहितत्वेन सुन्दरैः, देवा तयाऽऽरब्धो बटस्याधः सोऽन्या विश्रमं गतः॥६॥ नाम्-श्राराध्यतमानाम्, पूजनं शेयम् । कीरशामित्याह-शौच. तच्छाखायां नभश्चारि-मिथुनस्य कथश्चन । अद्धासमन्वितम् शौवेन शरीरवस्त्रव्यवहारशुद्धिरूपेण श्र. विश्रान्तस्य मिथो जल्प प्रक्रमे रमणोऽब्रवीत् ॥ १०॥ द्धया च-बहुमानेन समन्वितं-युक्तमिति । नात्रैष गौः स्वभावेन, किं तु वैगुण्यतोऽजनि । पत्नी प्रतिबभाषेसा, पुनर्नासौ कथं भवेत् ? ॥ ११ ॥ पतञ्च मूलान्तरोपयोगेन. काऽऽस्ते साम्यतरोरधः । अविशेषेण सर्वेषा-मधिमुक्तिवशेन वा । श्रुत्वैतत्सा पशोः पत्नी. पश्चात्तापितमानसा ॥ १२॥ गृहिणां माननीया य-सर्वे देवा महात्मनाम् ।। ११७॥ अभेदक्षस्ततश्चारि, सर्वो चारयितुं तकाम् । अविशेषेण-साधारणवृश्या, सर्वेषां-पारगतसुगतहरह- प्रवृत्तो मूलिकाभोगा-रलद्योऽसौ पुरुषोऽभवत् ॥७॥ रिहिरण्यगर्भाऽऽदीनाम् । पक्षान्तरमाह-अधिमुक्तिवशेन.वा अजानानो यथा भेदं. मूनिकायास्तथा पशुः। अथवा, यस्य यत्र देवतायांमतिशयेन श्रद्धा तद्वशेन । कुत चारितः सर्वतश्चारिं, पुनर्तृत्वोपलब्धये ॥ १४ ॥ इत्याह ?-"गृहिणाम् " अद्याऽपि कुतोऽपि मतिमोहाद. तथा धर्मगुरुः शिष्यं, पशुप्राय विशेषतः । निर्मीतदेवताविशेषाणां " माननीयाः" गौरवाहाः " यत्" प्रवृत्तावक्षम शात्या, देवपूजा विक्रे विधौ ॥ १५ ॥ यस्मात् “सर्वे देवाः" उक्तरूपाः " महात्मनां" परलोक सामाम्यदेवपूजाऽऽदौ, प्रवृति कारयन्नपि। प्रधानतया प्रशस्ताऽऽस्मनामिति । विशिष्टसाध्यसिद्धयर्थ,न स्याद दोषी मनागपि ॥१६॥" इति। एतदपि कथमित्याह? विपक्षे बाधामाह-(न) नैव " अन्यथा " चारिसंजी. वनीचारन्यायमन्तरेण "अत्र" देवपूजनाऽऽदो प्रस्तुते "इए. सर्वान्देवान्नमस्यन्ति, नैक देवं समाश्रिताः। सिद्धिः" विशिएमार्गावताररूपा " स्यात् " भवेत् । अयं जितेन्द्रिया जितक्रोधाः, दुर्गायतितरन्ति ते ॥११॥ चोपदेशो यथा येषां दातव्यस्तदाह-" विशेषण" सम्यसर्वान्देवान्नमस्यन्ति-नमस्कुर्वते । व्यतिरेकमाइ-"न" गृहष्ट्याधुचितदेशनापरिहाररूपेण "आदिकर्मणां "प्रथम. कञ्चन " देवं समाश्रिताः " प्रतिपत्रा वर्तन्ते, यतो-" जि मेवारब्धस्थूलधमोऽऽचाराणाम् । म त्यस्तमुग्धतया क. तेन्द्रियाः-निगृहीतहषीकाः " जितक्रोधाः " अभिभूतको श्चन देवताऽदिविशेषमजानाना विशेषप्रवृत्तेरद्यापि योग्याः, पाः "दुर्गाणि " नरकपाताऽऽदीनि व्यसनानि "अतितर कितु सामान्यरूपाया एवेति । न्ति " व्यांतकामन्ति ते--सर्वदेवनमस्कारः। ताई कदा विशेषप्रवृत्तिरनुमन्यत इत्याशक्याऽहननु नैव ते लोके व्यवाहियमाणाः सर्वेऽपि देवा मुक्तिपथ. गुणाऽऽधिक्यपरिज्ञाना-द्विशेषेऽप्येतदिष्यते । Page #1099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूया अद्वेषेण तदन्येषां ताऽऽधिक्ये तथाऽऽश्मनः ॥ १२० ॥ गुणाधिकयपरिज्ञानाद्देवताऽन्नप गुणाधिक बृद्धेरवगमात् विशेषेऽध्यर्द्धदादौ किं पुनः सामान्येन । एतत्पूजनमिष्यते कथमित्याह-""अमरसरेण "तदयेषां "पूज्यमानदेयताव्यतिरिकानां देवतास्राणां "वृत्ता35चिषये" आचाराधिकवे सति। "तथा" इति विशेषमुच्चये । 66 स्वस्य देवताऽन्तराणि प्रती. स्पेति । आत्मनः 39 गुरुदेवाऽऽदिपूजनमित्यत्राऽऽदिशब्दप्रगृहीतं पूजनीयान्तरमधिकृत्याऽऽद्दपात्रे दीनाssदिवर्गे च दानं विविदिष्यते । पोष्यवर्गाविरोधेन न विरुद्धं स्वतथ यत् ।। १२१ ॥ पात्रे दालोकरक्षाका निर्दि () () ना उदय मणिष्यमाणरूपए दानं स्वतसर्वरूपम्. विधिवद्विधियुक्तम् इष्यते मतिमद्भिः । कथमित्याह-पीय वर्गाविरोधेन " मातापित्रादि पोषणीयलोकस्य वृत्तेरनुच्छे दमेन, " न विरुद्धं " न दायक ग्राहकयोर्धर्मबाधाकारि हलमुसलाऽऽद्दिवत् । 99 स्वतश्व स्वात्मना च " यत् " दीयमा नमिति । " ( १०७६) अभिधानराजेन्द्रः । एतदेव भाषयति व्रतस्था लिङ्गिनः पात्रमपवास्तु विशेषतः । स्वसिद्धान्ताविरोधेन वर्तन्ते ये सदैव हि ॥ १२२ ॥ मनस्याहियानादिपापस्थानपिरति तसूचकता थियनेपथ्यवन्तः पारम् । नापि विशेषमाह-अयस्तु स्वयमेवापानका रुप क्षारपरायवितारः परपमानामनुमतार एव विशेषतो विशेषेण पात्रमिति । तथा नशाखोकिपाउनु सदैव हिसानमेवेति । दीनान्धकृपणा ये तु व्याधिग्रस्ता विशेषतः । निःस्वाः क्रियान्तर शक्ताः, एतद्वर्गे हि मीलकः ।। १२३ ।। दीनान्धकृपणाः- दीना:- क्षीण सकल पुरुषार्थशक्क्रयः अन्धाः नयनरहिताः कृपणाः-स्वभावत एव सतां कृपास्थानम् । ये तु येा: कुष्ठाभिभूता विशेषतोऽयम् तथा निःस्वा निर्धनाः । कीदृशा पत इत्याह- "क्रियान्तराशक्ताः निर्वाहा। किमित्याह एनद्वर्गः " दोनों का दि पादपूरणार्थ, मीलकः दीना 33दीनामेवेति । 33 3 1 " विधिवत् ” ( १२१ ) इत्युक्तमथ तदेव व्याचष्टेद यदुपकाराय द्वयोरप्युपजायते । नाप तु तदेतद्विचिन्मतम् ॥ १२४ ॥ दसं वितीर्णम् यदनादि, उपकाराय - अनुग्रहाय द्वयोरपि दायकप्राकयोरुपजायते, न पुनरेकस्यैवेत्यपिशब्दार्थः । व्यतिरेकमाह-न नैव, आतुरापश्यतुल्यं तु ज्वराऽऽदिरोगविधुरस्य घृतादिदानसदृशं पुनः यम्मुचलदला दिला कमाइकारपकारि त विधिवत मनीष्टम् । पया दामादीनामपि प्रकारान्तरेण पूजात्यमेव श्रदान मेव स्तुवन्नाह - धर्मस्याऽऽदिपदं दानं दानं दारिद्र्यनाशनम् । जनप्रियकरं दानं, दानं कीर्त्यादिवर्धनम् ॥ १२५ ॥ धर्मस्थ-योपस्थ, आदिप प्रथमस्थानम् दानमुकलक्षणम् दानं दारिद्रयनाशनम् परमनारा नामसंभवाई। त्यापकारि जनप्रियकरं लोकसन्तोषहेतुर्दानम्, दानं कीर्त्यादिवर्धनं कीर्तिः स्ववित्तपोषजनसीमाम्बाऽविवृद्धिहेतु पुनः पुनः दनिशब्दोचारणं तस्यादरणीयतास्थापनार्थमिति । यो० वि० । ईसरतलपरमाई विवाद सिददवि । و 5. जाकिर कीरइ पूया, सा पूया दव्वतो होइ ।। ३१५ ।। ईश्वर पनि तलवर-प्रभुस्थानीया नगरादिचिन्तक मत मात क्ला, स च ईश्वरनलवर माडम्बिकास्तेषां तथा शिवश्व शम्भुरिन्द्रश्व पुरन्द्रः स्कन्दश्य-स्वामिकार्तिकेय वि शिवेन्द्रस्य या किल क्रिपने पूजा था पूजा पति द्रव्यपूजेति योऽर्थ किलशब्दस्तित्वहापारमार्थिकत्वख्याप की, द्रव्यतोऽपि हि भावपूजादेतुरेव पूजोच्यते इयं तु द्रव्यार्थमप्रधाना वा पूजेति द्रव्यपूजा, श्रतोऽपारमार्थि वयानं तु यदस्यानेकार्थत्वमिति गाथाऽर्थः । भावपूजामाह तित्थगर केवलीणं, सिद्धाऽऽपरियाण सव्वसाहूणं । जा फिर फीर पूया सा पूया भावतो हो । ३६ ।। तीर्थकराश्च अन्तः, केवलिनश्च - सामान्येनैवोत्पन्न केवलातीर्थकर केवलिनस्तेषां सिद्धाऽऽचार्यायां प्रतीतानां तथा सर्वसाधूनां का? या किल क्रियते विधीयते पूजा सा पूजा भारती नावनिक्षेपमाधिस्य भवति किलपा. सवादका तीर्थकरा55दिना हि सर्वाऽपि क्षायोपशमि कार्ति भवतीति भावपूय पुष्पाऽऽदि पूजा स्वयमुकं तद्वादिभिः स्तय इति व्युत्पत्तिमाश्रित्य संपूर्ण नावस्तव कारणत्वेन वेति गाथाऽर्थः । सम्प्रति प्रस्तुतोपयोग्याह " जे किर चउदसपूवी, सव्वक्खरसन्निवाइयो निउणा । जालिया खलु सा माये ताएँ अहिगारो ॥ ११७ ॥ ये प्राग्वत् किलेति वाक्यालङ्कारे, चतुर्द्दशपूर्विश्चतुर्दशपू. धरः सर्वाणि समस्तानि यान्यक्षराणि अकाराऽऽदीनि ते षां सन्निपातनं - तत्तदर्थाभित्रायकतया साङ्गत्येन घटनाक रणं सरसाितः स विद्यतेऽमित्रां मी सर्वानिपानि निपुणाः कुचला पातेषां चतु दर्शपूर्विणां पूजा चितिपतिरूप उपल श्रुतपूजायाः, प्राधान्याच्चास्या एवोपादानं खलु निश्चितं सा भाने भाषा तथा तालक्षणया भागपूजये. दाऽधिकारः प्रकृतमिति गाथा इयुको नामनिष्पनि 1 Page #1100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०७७) पया अभिधानराजेन्द्रः। पूयाभत्त क्षेपः। उत्स० ११ अ०। राहवणविलेवण' इति गाथात्रये ध्व-पयापणिहाण-पजाप्रणिधान-न० पूजा-अर्चनं तत्र प्राणधा. जाऽष्टमङ्गलको न दृश्येते,साम्प्रतं तु ध्वजाऽवसरे तु तो क्रि. नम् । पूजां करोमि इत्येवंविधे ऐकाम्ये, पञ्चा०४ विषः । येयातां तत्र कि कारणमिति प्रश्ने, उत्तरम्-" राहवणवि. पूयापामासग-पूजापञ्चाशक-न० । पूजाप्रतिपादके हरिभद्रलेवण" इत्यादिगाथामध्ये ध्वजाऽष्टमङ्गलकयोरुपलक्षणेन च सूरिविरचिते पञ्चाशद्गाथाsseमके प्रन्ये, "विहिणा उकीर. ग्रहणं बोध्यं, यत आत्मीयानामवच्छिन्नपरम्परागत: स्नात्रा मारणा, सब्बा वि अफलवई भवे चेद्रा हिलोइया वि किपु. अदिविधिनिर्मूलो न भवतीति सम्भाव्यते इति । सेन ण, जिणपूमा उभयलोगहिश्रा॥॥"ध०२ अधिक। २ उल्ला० । सप्तदशभेदपूजाकरणं दिवसे शुद्धधति, किंवा रात्रावपीति प्रश्ने, उत्तरम्-सप्तदशभेदपूजाकरणं दिवस एष पूयाभत्त-पूजाभक्त-न०। पूज्यानामर्याय निष्पादिते पूज्येभ्यः शुद्धथति, न तु रात्रौ । तीर्थाऽऽदौ तु यत् कदाचित् पूजाकरणं प्रदत्ते भक्ते, वृ०। तत्तु कारणि कमिति । ११६ प्र० सेन०२ उम्ला०ा तथा सप्त. सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुढियाए , सादशभेदपूजायां क्रियमाणायां पूजां पूजां प्रति स्थालीमध्ये गारियस्स उवगरणजाए निहिए णिसट्टे पाडिहारिए तं साकलशो ध्रियते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-पूजां पूजां प्रति. गारिओ देइ, सागारियस्स परिजणो देइ, तम्हा दावए, नो स्थालीमध्ये कलशो धरणीय एवंविधनियमो क्षातो नास्ति । से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥ २५ ॥ यदा यद्वस्तुनः पूजा तदा तद्वस्तुमोचनप्रवृत्तिः स्थालीमध्ये रश्यत इति । २११ प्र० । सेन० ३ उल्ला० । चतुर्दशीपूजां कृत्वा अथास्थ सूत्रस्य का सम्बन्धः १, इत्याहस्थालीमध्ये प्रदीपं मुक्त्वा ऊर्द्धस्था मायन्ति,किं तत्र प्रदीपा. दो हिमपछिम, न कप्पते कप्पए य इति वुत्तं । धिकारोऽस्ति अथवा-नास्तीति प्रश्ने,उत्तरम्-चतुर्दशीपूजातः इदमन्ने पुण भावे, अमोच्छिम्मम्मि पडिसिद्धं ॥३५॥ पश्चात् स्थालीमध्ये प्रदीपो मुच्यते एवेति ज्ञातो नियमो ना. द्रव्यतः-छिन्न-विभक्तं सदंशिकाद्रव्यं कल्पते तदेवाच्छि. स्तीति । २१२ प्र०ा सेन०३ उल्ला० । साधूनां भावपूजाक. श्रमविभक्तं न कल्पते इति प्रोक्तम् । इदं पुनरम्यस्मिन् सूत्रे थिताऽस्ति.प्रतिष्ठादावजनराणाकाकरणे तुद्रव्यपूजा जा. सागारिकस्याव्यवच्छिन्ने भावे प्रतिषिद्धं,न कल्पते इत्यर्थः। बते, तस्कधमिति प्रश्न, उत्तरम्-साधूनां बाहुल्येन भावपूजा, अविसेसिमो व पिंडो, हेष्टिमसुत्तेसु एसमक्खातो।। श्राद्धानां च बाहुल्येन द्रव्यपुजा कथिताऽस्ति परमनका. म्तो मातो नास्ति । यतः श्रीस्थानातसूत्रे-"पूर नामेगे पू. इह पुण तस्स विभागो,सोपुण उवकरण भत्तं वा ॥३५६॥ जावे" इति चतुर्भङ्गिकाऽस्ति, एतस्या अर्थकरणे यतीना. अथवा-मधस्तनसूत्रेषु अविशेषितो भागरहित एष सा. मेकान्तद्रव्यपूजानिषेधोशातो नास्ति, यतोऽरागेण यतिप गारिकपिण्ड पाख्यातः, इह पुन: प्रस्तुतसूत्रे तस्य सागातीनां पूजा क्रियते, साऽपि द्रव्यपूजा भवतीति । ४४७ प्र०। रिकपिण्डस्य विभाग उच्यते । कथामत्याह-स पुनः-पिएड सेन० ३ उल्ला० । अथ ग० माणिक्यविजयकृतप्रश्नी तदुत्तरे उपकरणं वा भवेत् , भक्तं वा । इत्यनेन संबन्धेनाऽऽयातस्याच-यथा श्राद्धः स्वहस्तेन पुष्पाणि बोदयित्वा पूजां करो. स्य ( २५ सूत्रस्य) व्याख्या-सागारिकस्य ये पूज्याः स्वामितीति कुत्र प्रन्धेऽस्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-श्रीशान्तिनाथ कलाचार्याऽऽदयस्तदर्थ भक्कमशनाऽऽदि पूज्यभक्तम् । तत्रो चरित्रे श्राद्धो वाटिकातः स्वयं पुष्पाणि गृहीत्वा पूजां देशः-संकल्पस्तेन निर्वृत्तमौदेशिकतानेव पूज्यानुद्दिश्य कृत. करोतीत्यक्षराणि दृश्यन्ते । ४७५ प्र० । सेन०३ उल्ला० । मित्यर्थः। ततस्तेषामेव प्राभृतिकायां तं चेतति,ढोकनीकृतमु. पनीतमिति भावः । तथा सागारिकस्योपकरणजातं वस्त्रं कश्राद्धोऽभिमानेनान्यपूजास्पर्द्धया वा सप्तदशभेद पूमा करो. म्बलाऽऽदिकं पूज्यानामर्थाय निष्ठितं-निष्पादितं, ततो निसृष्टं ति, तस्य किं फलं भवतीति प्रश्ने, उत्तरम् मुख्यवृस्याभि पूज्येभ्यः प्रदत्तच्च-भक्तमुपकरणं, यतिभ्यः प्रातिहारिकदमानादिकं विना केवलवीतरागभक्त्या पूजा क्रियते, यदि तं भक्नावशेष सदिदं भूयोऽप्यस्माकं प्रत्यर्पणीयमिति भावः । कश्चिदभिमानाऽऽदिना पूजां करोति तदा तस्य न तथाविधं तदेवंप्रकारं संयतानां सागारिको वा दद्यात, सागारिकफलमिति । ४६२ प्र०। सेन०३ उल्ला। त्रिकालवेलायां पूजा स्य परिजनो वा दद्यात् , किं कल्पते न वेत्याह-तस्मात् या क्रियते सा त्रिकालपूजा कथ्यते, कारण विशेषे तु न्य पूज्यभक्तात् पूज्योपकरणाद्वा प्रातिहारिक दद्यात्, परं न नाधिककालेऽपि कृता सैव कथ्यते इति । सेन०४ कल्पते प्रति ग्रहीतुमिति सूत्राऽर्थः ॥ २५ ।। उल्ला। त्रिकालपूजाकरणे प्रभाते पुष्पमालादिनिर्माल्यम अथ भाष्यम्पास्य सर्वस्नानेन पासपूजा क्रियते, अन्यथा वेति प्रश्ने, उत्त संबंधी सामि गुरू, पासंडी वा वितं समुहिस्स । रम्-प्रभाते पुष्पामालादिनिर्माल्यमनपास्य श्राद्धा वासपू. पूया उक्खित्तं ति य, पट्टगभत्तं च एगट्ठा ॥२५७ ॥ जां कुर्वन्तो दृश्यन्ते, सर्वस्नानकरणेऽप्येकान्तो बातो ना. स्ति, हस्तपादप्रक्षालनेन शुद्धयतीति । ३६७ प्र० । सेन० सागारिकस्यैव यः सबन्धी पितृव्यमातुलाऽऽदियों वा तस्य स्वामी प्रभुर्गुरुर्वा कलाऽचार्यः, यस्य वा पाखण्डिनो भक्तिः ४उल्ला०। स पूज्य उच्यते, तं समुद्दिश्य कृतं सत्पूज्यभक्कमुच्यते, तत्र पूयाइ-पूजाऽऽदि-पुं० । पूजासत्कारप्रभृती, पञ्चा० ८ विष०। भेदपर्यायाच्या निर्वचनादेकाधिकाम्याह-पूज्यभक्तस्,उत्क्षि. प्याकम्म-पूजाकर्मन्-न० । पूजायाः कर्म पूजाकर्म । पूजाक्रि. तभनं. पट्टकभक्कम्, एतान्ये कार्यानि पदानि । यायाम् , पूजैव कर्म । कृतिकर्मणि भाव०३१०। ( पूजाक चेहय कडमेगहें, पाहुडिय पहेणगं च एगट्ठा । मौषि विधा किकम्म' शब्ने तृतीय भागे ५०८ पृष्ठेऽस्ति) उवगरणं वत्थादी, जाच विभागो उ जोग वा ।। ३५८ ॥ २७० Page #1101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०७८) पूयाभत्त अभिधानराजेन्डः। पूरिम चेतितं, कृतं चत्येकार्थः । प्राभृतिका प्रहेण कमिति एका-पयारिह-पृचाई-त्रि.। पूजामईतीति पूजाऽई। पूजयितुम, थें । उपकरणं-वस्त्राऽऽदिकं, वस्त्रं, चेह क्षौमिकं गृह्यते, तच्च | प्रा. म०१ अ०। परिधानं प्रावरणं वा पूज्यानां दातव्यम् । श्रादिग्रहणात्पाखरिडनः प्रतिग्रहो वा कम्बलं वा, एकादशप्रतिमा प्रतिपित्सो पूयाविहि-पूजाविधि-पुं० । पूजाप्रतिपादके स्वनामख्याते वा रजोहरणं दातव्यम् । एवमादिको यावान् विभागो घटते, ग्रन्थे, ध०२ अधि। यद्वा-यद्यस्योपकरणं योग्यं तद्वतव्यम् । पूयासकार-पूजासत्कार-पुं०। पूजा स्तवाऽऽदिरूपा तत्पूर्वक: निद्रिय कडं च उक्को-सकं च दिमं तु जाणसु णिसहूँ। | सत्कारो वस्त्राभ्यर्चनम् । पूजायां वा आदरः पूजासत्कारः। स्तवाऽऽदिरूपे सत्कारे स्था० ६ ठा०। भुत्तुन्वरियं पडिहा-रितं तु इयरं पुणो चनं ।। ३५६ ।। निष्ठितं कृतमित्येकोऽर्थः, यद्वा-यदुत्कृष्टं वस्त्राऽदि | पूयासकारथिरीकरणट्टया-पूजासत्कारस्थिरीकरणार्थताप्राप्तमितिकृत्वा निष्ठितमुच्यते । यत्तु इत्तं तभिसृष्टं जानीहि । स्त्री०। पूजासत्कारयोः पूर्वप्राप्तयोः स्थिरताहेती, अस्थिरयोः भुक्तोद्वरितं भूयोऽस्माकं प्रत्यर्पणीयमिति यत्प्रतिक्षातं तत्प्रा. पूजासत्कारयोः स्थिरीकरणाथै, भ०१५ श० । तिहारिकम् इतरत्पुनरप्रातिहारिकं सागारिकेण भक्तभुपकर. | पूयासकारलाभट्टि (ण)-पूजासत्कारलाभार्थिन-त्रि• । पूजा-' पं वा यत् त्यक्त निर्देयतया दत्तमित्यर्थः । एवंविधं प्रातिहाऽद्यर्थः क्रियासु प्रवर्तमाने, सूत्र०१.ध्रु०१६अ। रिकदत्तं शय्यातरपिण्ड इति कृत्वा न गृहीतव्यम् । सूत्रम पूयाहज-पूजाऽऽहार्य-त्रि०ा पूजितपूजके,स्था०५ ठा०३०॥ सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए. जाव पाडिहा- पूर-पूरि-धा० । प-णिच् । पूरणे, "पूरेः अग्घाडाग्धवोद्धमा रिए, तं नो सागारियस्स परिजणो देजा, सागारियस्स श्गुमाहिरेमाः"॥४॥ १६६॥ इति पुग्घाडाऽऽदयःपञ्चा. ऽऽदेशा। अग्घाडइ । उग्घवइ । उद्धमह । अमर भति पूया देखा, तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिगाहित्तए रेमह । पूर । पूरयते । प्रा०४ पाद । पूर-पुं०। पूरणे,स्था०४ ठा०४ उ० । नदीप्रवाहे,पृ०४ उ०। अस्य व्याख्या प्राग्बत् । नवरम अन्यं न सागारिकजनो दद्यात् किं तु सागारिकस्य पूज्यः संबन्धी स्वाम्यादिर्दद्यात्,तथापि | पूरतिया-पुरयन्तिका-स्त्री० । पर्षद्भदे, सा च यदा राजा निर्गन कल्पते, प्रातिहारिकतया दत्तमितिकृत्वा सागारिकपिण्ड. उच्छति तस्मिन् निर्गते यः कोऽपि महान् जनः स सर्वोऽमि स्वात्। राशो ढोकते यावद् गृहं नायाति, सा पर्षत् पूरयन्तिका । सूत्रम् बृ०१ उ०१प्रक०। सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइयाए पाहुडियाए | सागारियस्स उवगरणजाए निट्ठिए निसट्टे अपाडिहारिए तिर्वती प्राणायामे, द्वा० २२ मा। तं सागारिओ देइ , सागारियस्स परिजणो देइ, तम्हा पुरण-पूरण-न०। पूरेः ल्युट्। पालने,पारगमने "पारणं ति वा दावए, नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥ २७॥ पूरणं ति वा पालणं ति वा पारगमणं ति वा एगट्टा।" प्रा. अयममातिहारिकतया सागारिकपिण्डो न भवति, परं चू०५०। पूरयतीति पूरणः। पूरके, विशे०। चमरस्यासागारिकस्तत्परिजनो वा ददातीति कृत्वा प्रक्षेपकाऽऽदि. सुरेन्द्रस्य पूर्वभवजीवे, जम्बूद्वीपे भारते वर्षे विम्यगिरिपा. दोषसद्भावान कल्पते। दमूले वेभेलसन्निवेशे जाते गृहपती, भ० ३ श० २ उ०। सूत्रम् उपा०। ('चमर' शब्द तृतीयभागे १९१२ पृष्ठे कथोक्का) दशानां दशाहोणामष्टमे, अन्त० १ श्रु० १ वर्ग १०। सूर्य, सागारियस्स पूयाभत्तेजाव अपाडिहारिए तं नो सा देना०६ वर्ग ५६ गाथा। सलिलावतीविजये धीतशोकाया गारियो देड, नो सागारियस्स परियणो देइ, सागारियस्स राजधान्या नूपस्य बलस्य धारण्यां जाते पुत्रे च । ०१ पूया देइ, तम्हा दावए, एवं से कप्पा पडिग्गाहित्तए॥२८॥ ध्रु०००। अत्र सागारिकेण दृष्टं सरपूज्योऽप्रातिहारिकं ददातीति कृत्वा पूरयंत-पूरयत-न० । शब्दव्याप्तं कुर्वन्नित्यर्थः । तस्मिन्, कल्पते, परं द्वितीयपदे, नोत्सर्गतः। कल्प०१ अधि० ३ क्षण। यत पाह पूरित्तए-परयितुम्-अव्य० । पूरणं कर्तुमित्यथे, प्राचा. १ प्रयाभत्ते चेति', उवकरणे पिंट्रिते णिसट्टे य ।। श्रु० ३ १०२ उ०। तं पिन कप्पति घेत्तुं, पक्खेवगमादिणो दोसा ॥३६॥ पूरिगा-पूरिका-स्त्री०। पूर्यते स्तोकैरपि तन्तुभिः पूर्णा भव. पूज्यानामर्थाय यद्भक्तं चेतितं-कृतं, यच्चोपकरणं निष्ठितं, तीति पूरिका । स्थूलगुलमयपटे, जीत०।१०। तसेभ्यो निस्टममातिहारिकतया प्रदत्तं, तदपि न कल्पते प्रहीतुं, प्रक्षेपकाऽऽदयो दोषा भद्कप्रान्त कृता अभूवनिति । पूरिम-पूरिम-नापूरेण पूरणेन निर्वृत्तं पूरिमम् ।मृन्मये अनेक | छिद्रवंशशलाकाऽऽदिपारेच । पत्रपुष्पैः पूर्यते। स्था०४.. वृ.२र०। Page #1102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेच्छ ( १०७६) पूरिम अभिधानराजेन्धः। ४ उभयेन वंशशलाका दिमयपजरादि पूर्यते । रायल्लघुः । सो अंतत्रो जमो कालो।" पाइ० ना०२४ गाथा। च्छिद्रे निषेशन पूर्यते । जं०१ वक्षः। जी । येन कूर्ताऽऽदि वा | पेंड-देशी-खण्डवलययोः, दे० ना०६ वर्ग ८१ गाथा । पूर्यते। शा०१शु०१. दशा० । श्राचा० । पित्तलाऽऽदिरा रेशी-तरुणे. पण्डे, देखना०६ वर्ग ५३ गाथा। मयप्रतिभाषद्भरिमे पदार्थ, ग०२ अधिः । अनु । मा० । भाचा। | पेंडधव-देशी-खड़े, दे० ना.६ वर्ग ५६ गाथा। परिमा-पूरिमा-स्त्री० । गान्धारग्रामस्य तृतीयमूर्छनायाम् , पंडवाल-देशी-पिण्डीकृतार्थे, दे० ना.६ वर्ग ५४ गाथा। स्था०७ ठा। पेंडल-देशी-रसे, दे० ना० ६ वर्ग ५८ गाथा। परी-देशी-तन्तुवायोपकरणे.देना.६ वर्ग ५६ गाथा। | पेंडार-देशी-गोपे, देवराजस्य महिषीपाले, दे० ना०६ धर्ग रोट्टि-देशी-अवकरे, दे० ना० ६ वर्ग ५७ गाथा । ५८ गाथा। प्रलिय-पूलित-न। तृणसमुदायग्रन्थौ, नि०चू०१ उ०। पेंढा-देशी-मये, दे० ना०६ वर्ग ५० गाथा । पूर्व-पुप-पुं० । अपूपे, (पुत्रा) वृ०१ उ०३ प्रक। । पेइयंग-पैतृकाङ्ग-न० । शुक्रविकारबहुले शरीराने, भ०। पूवलग-पूपलग-पुं०। मिष्टपूपे, नि० चू०१उ। करणं भंते ! पेइयंगा पमना । गोयमा! तो पेइयंगा पलिकाखायय-पलिकाखादक-पुंग भाषणवेलायां चवच परमत्ता। तं जहा-अहिअद्विमिजाकसमंसुश्मिथु) रोमनहे । वाशब्दकारके.वृ० १३०३ प्रक०। (पूपलिकाखादकस्य स्वरू. (पेइयंग त्ति) पैतृकाङ्गानि, शुक्रविकारबहुलानीत्यर्थः । पम् 'पडिबद्धसिजा'शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३३० पृष्ठे गतम्) पविगा-पूपिका-स्त्री० । तिलमोदके, नि० चू०१६ उ०। (अट्टिमिंज त्ति) अस्थिमध्यावयवः, केशाऽऽदिकं बहुसमा. नरूपत्वादेकमेव । उभयव्यतिरिक्तानि तु शुक्रशोणितयोः सम. पूस-पुष्य-j | "लुप्त-य-र-व श ष-सां श-ष-सा दीर्घः"८।१।। विकाररूपत्वात् पितृमात्रोःसाधारणानीति । भ०१ श०७ उ०। २॥ रति तुपमकारापूर्वग दीर्घः। पा०१पाद | पृहस्पति- कम-पीयप-न। " एत्पीयुषाऽऽपीड-विभीतक-कादशह। देवताके नक्षत्रभेदे,अनु० । स्था०।"दो पूसा"। स्था०२ ठा०३ उ०। ज्यो। सातवाहन-शुकयोः,देना०६ वर्ग ८० गाथा। | श"॥८॥१॥१०५॥ इतीत एत्वम् । 'पेऊसं।' अमृते, प्रा. पषन-पुं। सूर्य,स्वमामण्याते देवविशेषे,जं०७वक्षन ति। १पाद। पुष-धा। पुटी, "रुषाऽऽदीनां दीर्घः" ।। ४।२३६ ॥ इति पेक्षण-प्रेकण-न । इशिरुत्प्रेक्षणे । प्रत्यक्षस्य प्रकृऐ चेक्ष. पुषो दीर्घः । 'पूसर।' पुष्यति । प्रा० ४ पाद । णे, प्रा०४ पाद । पुस-पूष्यक-पुं० । शुके, "कणाल्लो सत्रो कीरो।" पा.पेक्खिदं-प्रेक्षितम-श्रव्य । द्रष्टुमित्यर्थे, "श्रमञ्चलक्खशं पेइ० ना० १२५ गाथा । क्खि, इंदाप्यव प्रागश्चदि "। (३०२ सूत्र ) प्रा० ४ पाद । पसगिरि-पुष्पगिरि-पुं० । गिरिभेदे, कल्प०१अधि०१क्षण।विय-प्रकिन-त्रिका प्रत्यपेक्षिते. नि० च० २ उ०। प्र. पुसफली-पुष्पफली-खी० । वल्लीभेदे, प्रशा० १ पद ।। वलोकने, व्य०१० उ० । स्था। पुसमाणव-पुष्पपाणव-पुंज नग्नाऽऽचार्य,शा०१७०१ अ न-प्रेत्य-अध्य० । जम्मान्तरे, प्राचा० १६० १०। पर. मागधे, कल्प०१ अधि०५क्षण । ०। भ०। लोके, विशे० । सूत्र। पूसमित्त--पुष्पमित्र-पुं० । तगरायां नगर्यो कस्यचिदाचार्यः पेच्चभव-पत्यभव- जन्मान्तरे,शा०१ श्रु०१०। विशे। स्य स्वनामख्याते शिष्ये, व्य०३ उ०। सावर्धननगरराज (अथ विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविश. मुण्डिपकाराजोपदेशकवसुभूत्याचार्यशिष्ये, यहुश्रुते, प्रा० ति न प्रेत्य संझाउस्तीत्यादिवेदवाक्यजनितसन्देहभाज इन्द्र च०४मा आयरक्षितसूरिशिध्ये, तद्गच्छे हि त्रयः पु. भूतेः 'माता' शम्ने द्वितीयभागे १७६ पृष्ठे समाधानम्) पमित्रा:-तुर्थलिकापुष्पभित्रः, वखपुष्पमित्र, घृतपुष्पमित्रः | श्चेति । भाष०१० । आ० ० । थूणानामसनिवेशजा. पेच्चभाव-प्रेत्यभाव-पुं० । संसारे, स्था० । परलोकसद्भावे, ते ब्राह्मणविशेषे वीरजिन पूर्वभवजीबे, श्रा० चू०१०। सूत्र.१७० १२ प्र.। पूसमित्तिय-पुष्पमित्रीय-पुं० । स्थविराद्वारीतसगोत्राभिर्गः पञ्चभाविय-प्रेत्यभाविक-त्रि० । प्रेत्य-जन्मातरे भवति शु. तस्य चारणगणस्य चतुर्थे कुले, कल्प० २ अधि० ८ क्षण। फलतया परिणमयतीत्येवंशीलं प्रेत्यभाविकम् । जन्मा. पूसाण-पूषन्-पु०। पुस्यन आणा राजवच्च " ॥८॥३॥ न्तरे शुभफलजनके, प्रश्न०१संब० द्वार। ५६॥ इति पुंल्लिो वर्तमानस्थानन्तस्य स्थाने प्राणाऽऽदेशः। पेच्चममा-प्रेत्यतंबा-सी० । मृत्वा पुनर्जन्मनि, प्रा० म० 'पुसाणो।' सूर्ये, प्रा. ३ पाद । १०। प्रवण-प्रेतवन-न । श्मशाने, “पेश्रवणं पिउवणं मसाणं पेच्छ-दृश-धा० । प्रेक्षणे, "शो निच्छ-पेच्छाषयच्छाच।" पाइना० १५८ गाथा । वयज्झ-बज-सव्वव-देक्खौ अक्वायफ्नावअक्सा-पुलोएपेमाल-देशी-प्रमाणे, दे० ना० ६ वर्ग ५७ गाथा। पुलए-निश्रावास-पासाः" ॥८।४।१८१॥ इति हशेः मेशाहिव-प्रेताधिप-पुं० । यमे, " पेत्राहियो कयंतो, कीणा पेच्छाऽऽदेशः। पेच्छ।' पश्यति । प्रा०४ पाद । Page #1103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेच्छा अभिधानराजेन्डः । पेढालपुत्त पेच्छन-देशी-दृष्टमात्राभिलाषिणि दे० ना.६ वर्ग ५८ गाथा। विकारसम्पादकमोहनीयकर्मपुलराशेर्बन्धनं जीवप्रदेशेषु पेच्छत-प्रेक्षमाण-त्रि० । पश्यति, प्रा०४ पाद । योगप्रत्ययतःप्रकृतिस्वरूपतया प्रदेशरूपतयास सम्बन्धनम्। पेच्छक-प्रेक्षक-त्रि। दर्शके, आव ·४०। तथा-कषायभ्रत्ययतः स्थित्यनुभागविशेषाऽऽपादनं च प्रेम. पेच्छण-प्रेक्षण-न. नानाविधवंशखेलकाऽऽदिसंबन्धिनि कौ. बन्धः। स्था०२ ठा०४ उ०। पेजवत्तिया-प्रेम(वृत्तिका)प्रत्यया-स्त्रीका प्रेम-रागोवृत्तिर्वर्स, तुकदर्शने, प्रश्न ४ संव० द्वार । प्रेक्षण के,शा० श्रु०८० पेच्छणग-प्रेक्षणक-न० । प्रेक्षाविधी, " पेच्छणगा वि णडा नरूपं. प्रत्ययो वा हेतुर्यस्याः सा प्रेमवृत्तिका प्रेमप्रत्यया था । दी।" पञ्चा० विव०। स्था० । मूर्खाभेदे, मूळ द्विविधा-" पेजबत्तिया चेव, दोसवत्तिया चेव । पेज्जवत्तिया मुच्छा दुविहा पमत्ता। माए पेच्छणघरग-प्रेक्षणगृहक-न०। प्रेक्षणं प्रेक्षणकम् , तद्गृहम् । चेव,लोभे चेव।"स्था०२ठा०४ उ०। (व्याख्या स्वस्वस्थाने) शा०१०३०प्रेक्षणकभवने, यत्रागत्त्य प्रेक्षणकानि रागप्रत्ययागं कियायाम् , स्था०५ठा०२ उ. । प्राव। विदधति निरीक्षन्ते च । जी० ३ प्रति०४ अधि० ज०। "पेज्जं नाम" राग इत्यर्थः । अथवा-"तं वयमं उदाहरति, क. रा० । स्थाापा० म०। रेति वा, जेण परस्स रागो भवति ।"प्रा०चू०४१०। पेच्छणघरमंडव-प्रेषणगृहमण्डप-पुं०। प्रेक्षाभवनमण्डपे,रा पेज विहि-पेयविधि-पुं०। पेयाऽऽहारप्रकारे, उपा० १५०। पेच्छणिज-प्रेक्षणीय-त्रि०। द्रष्टव्ये, “ उत्ताणणयणपेच्छणि पेज.ल-देशी-वैपुल्ये, दे०मा०६ वर्ग ७ गाथा जा।" सौभाग्यातिशयादुत्तानिरनिमिषितैनयनैः-लोचनैः पट्ट-पट्ट-न० । उदरे, दर्श०१ तत्त्व। . प्रेक्षणीयाः। औ०। | पेडइ-देशी-कणाऽऽदिविक्रेतरि वणिजि, दे० ना०६ बर्ग पेच्छा-प्रेता-स्त्री०। प्रेक्षणके, स्था.. ठा०२ उ०। ५६ गाथा। पेच्छाघरमंडव-प्रेक्षागृहमएडप-पुं०। प्रेक्षा प्रेक्षणं; तदर्थ गृह- साकार पेडा-पेटा-स्त्री० । मञ्जूषायाम् , का. १६० १. नि । रूपा मण्डपाः प्रेक्षागृहमण्डपाः । स्था० ४ ठा०२ उ० । पेक्ष जनप्रतीते वंशदलमय वस्त्राऽऽदिस्थानेसाच चतुरमापति. णकगृहकेषु,यत्राऽऽगत्य प्रेक्षणकानि विदधति निरीक्षन्ते च । ततश्च साधुरभिग्रहविशेषाद्यस्यां गोचरचर्यायां प्रामादि। रा०। । क्षेत्रं पेटावच्चतुरनं विभजन्विहरति । ताशि गोचरचा. पेचिऊण-प्रेक्ष्य-श्रव्य० । दृलेत्यर्थे, " पेच्छिऊण कीलंतं।" | भेदे, स्था०६ ठा०1०।गध। उत्त० दशा। पश्चा०७विव०। पेड्डा-देशी-भित्ति-द्वार-महिषीषु, दे० ना० ६ वर्ग ८० गाथा नियन-न। प्रियस्य भावः कर्म वा प्रेम । अनभिव्यक्त. पेट-पीट-पुं०1"नीड-पीठे वा"E1१1१०६॥रतीत पत्वम्। मायालोभस्वभावे अभिष्वङ्गमात्रे, दशा०६०। स्नेहविशेषे, प्रा० १ पाद । “धातुपाषाणकाष्ठश्च, त्रिविधः पीठ उच्यते,, प्रव०४१द्वार । स्था।शा" एगे पेज्जे ।" स्था० १ठा। पुत्रकलाधन धान्याऽऽद्यात्मीयेषु रागे, भ०१२ श०५ उ०। पेढाइहर-पीठाऽऽदिधर-पुं०। कल्पपीठनियुक्तिक्षातरि, पं. स्था० । दर्श। सूत्रासचानर्थहेतुरिति उक्तम्-“रागः सं. | व०४ द्वार। पापमानोऽऽपि,तापयत्येव देहिनम् । कोरस्था*ज्वलन्नरण्य, पेढाल-पेढाल-पुं०दृढभूमिनामकादेशीयजनपदीये, भाव. दावानल इच दुमम् ॥१॥"दर्श०१ तव । *यथा दीप्तो, १०। "ततो सामी दभूमि गतो, तीसे बाहिं पढालं नाम संदंसणेण पीई, पीई उरई ई उ वीसंभो। उजाणं, तत्थ पोलोसं नाम चेयं" श्राव०१०। “दढभू. वीसंभाो पणो , पंचविहं बड्डए पेजं ।।। मी बहुमेच्छा, पेढालग्गाममागतो भयवं।" दृढभूमि म ब. संदर्शनेनोभयोरपि प्रथमतःप्रीतिरुपजायते, ततः प्रीत्यार. हुम्लेच्छा, तत्र पेढालं नाम ग्रामं गतो भगवान् । प्रा. म.१ १०। श्रा० चू० प्रा० क० । चेटकदुहितुः सुज्येष्ठायाः पुति:-चित्तविधान्तिः, रतेश्च विधम्मो-विश्वासः,विश्वासाच्च त्रस्य महेश्वरव्यन्तरत्वेन जनिध्यमाणस्य विद्याशितके स्वमिथः कथादि कुर्वतोः प्रणयोऽशुभे रागो जायते,एवं पञ्चविध नामख्यात विद्यासिद्धे, बाव०१०। भविष्यति भरतक्षपञ्चभिः प्रकारैः प्रेम वर्द्धते । बृ०१ उ०३ प्रक०। बजे अपमे जिन, प्रव०७द्वार। ती। श्राव०। गोला55प्रेयस-त्रि०।अतिशयन प्रिये,औ०। प्रकर्षण वा ज्या पूजाऽ. कारे, "पेढालनिकलवट्टलाई परिमंडलस्थम्मि।" पाइना. स्थति प्रेज्यम् । पूज्ये, औ०। ८४गाथा। प्रेयर्य-त्रिका नेतव्ये, प्रौ। पेढालपूत्त-पेढालपुत्र-पुं०।भरतक्षेत्रे आगामिप्यन्त्यामुत्सपि पेय-त्रिका "वोत्तरीयानीय-तीय-कृये जः"॥१॥२८॥ एयां भविष्यति अष्टमे जिने, स. समाति० पा.प. स्यीये स्वानामके स्थाविरे, स्था०६ ठा०तेन सह गौतमर्षि। इति यस्य जः। प्रा०१पाद । जलमद्य दुग्धाऽऽदौ,शा० १७० सम्बाद इत्थं नालन्दीयेऽध्ययने उक्तम्१६ अ०। प्रश्न । पातव्यपदार्थ, वाच०। तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिडे नाम नयरे होत्था, पेजदोसाणुगय-प्रेमद्वेषानुगत-त्रि० । प्रेमद्वेषाभ्यामनुगतः ।। रिद्धिस्थिमितसमिद्धे, वमो-जाव पडिरुवे । तस्म णं रा. उत्तपाई०४अारागद्वेषानुगते, उत्त०४५। पेजबंधण-प्रेपबन्धन-न । बन्धभेदे, प्रेम्णः प्रेमलक्षणविचः । यगिहस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्प Page #1104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेढालपुत्त पेढालपुत्त (१०१) भन्निधानराजेन्दः । णं णा(नालंदानाम बाहिरिया होत्था, अणेगभवणसयस किं चान्यत्निविद्या जाव पडिरूवा ॥१॥ तत्थ णं नालंदाए बाहि- "गतं न गम्यते ताव-दगतं नैव गम्यते । रियाए लेवे नाम गाहावई होत्या. अड्रे दित्ते वित्ते वि. गतागतविनिर्मुक्तं, गम्यमानं तु गम्यते ॥१॥" स्थिमविपुलभवणसयणाऽऽसणजाणवाहगाऽऽइसे बहुध इत्यादि । तदेवमत्र नकारः प्रतिषेधविधायकोऽप्युपातः, असंशब्दोऽपि यद्यपि . अलंपर्याप्तिवारणभूषणेप्पपीति, णबहुजायरूवरजते आओगपोगसंपउत्ते विच्छवियपउ त्रिवर्थेषु पठ्यते , तथाऽपीह प्रतिषेधवाचकेन ना सा. रभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए बहुजणस्स | हचर्यात्प्रतिषेधार्थ एवं गृह्यते, तत्र चालंशब्दे नामस्थाअपरिभूए यावि होत्था ॥ २ ॥ पनाद्रव्यभावभेदाच्चतुर्विधो निक्षेपो भवति, तत्र नामालम् यस्य चेतनस्य अवेतनस्य वा अलमिति नाम क्रियते, स्थाप. सूत्रार्थस्त्वयम्-सप्तम्यर्थे तृतीया, यस्मिन्काले यस्मि नाऽलं तु-यत्र क्वचिच्चित्रपुस्तकाऽऽदौ पापनिषेधं कुर्वन्साधुः श्वावसरे राजगृहं नगरं यथोक्लविशेषणविशिष्ठमासी. स्थाप्यते, द्रव्य निषेधस्तु-नोश्रागमतो शशरीरव्यतिरिक्लो द्रत, तस्मिन् काले तस्मिश्च समये दमभिधीयते । व्यस्य चौराऽऽद्याहतस्यैहिकापायभीरुणा यो निषेधः क्रियते राजगृहमेव विशिष्टि-प्रासादाः संजाता यस्मिस्त-- स द्रव्यनिषेधः, एवं द्रव्येण द्रव्याद् द्रव्ये वा निषे. स्मालादितमाभोगमद्वा, अत एव दर्शनीयं-दर्शनयोग्यं दृष्टि धः॥ २०१॥ सुखहेतुत्वात् , तथाऽऽभिमुख्येन रूपं यस्य तदभिरूपं त. भावनिषेधं तु स्वत एव नियुक्तिकारोऽलंशम्दस्य संभविथा-अप्रतिरूपमनन्यसदृशं, प्रतिरूपं वा प्रतिबिम्ब वा स्वर्ग: नमर्थ दर्शयन्धिमणिषुराहनिवेशस्य, तदेवंभूतं राजगृहं नाम नगरं होत्थ' त्ति, आ. सीत्, (तवर्षक: रायगिह' शब्दे वक्ष्यते) यद्यपि तत्का. पजत्तीभावे खलु, पढमो बीनो भवे अलंकारे । लनयेऽपि सत्तां विभर्ति तथाप्यतीताऽऽख्यानकसमाश्रय ततितो उ पडीसेहे, अलसहो होइ नायव्यो ॥२०॥ णादासीदित्युक्तम् । तस्य च राजगृहस्य बहिरुत्तरपूर्वस्यां पर्याप्तिभावः-सामर्थ्य, तत्राऽलंशब्दो वर्तते, प्रलं मी दिशि नालन्दा नामबाहिरिका आसीत् , सा चानेकभवन. मल्लाय, समर्थ इत्यर्थः , लोकोत्सरेऽपि " नालं ते तई शतसन्निविष्टा-अनेकभवनशतसंकीर्णेत्यर्थः ॥१॥ सूत्र । ताणाए वा सरणार वा"। अन्यैरप्युक्तम्-"द्रव्यास्तिकरया * ( नालन्दा चैवं व्युत्पाद्यते-प्रतिषेधवाचिनो 55रूढः, पर्यायोयतकार्मुकः। युक्तिसमाहवान् वादी, कुवानकारस्य तदर्थस्यैवालंशब्दस्य • हुदाचू दाने ' इत्ये. दिभ्यो भवत्यलम् ॥१॥" अयं प्रथमोऽलंशब्दार्थों भवति, तस्य धातोर्मीलनेन नालं ददातीति नालन्दा । इदमुक्तं भ. खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, द्वितीयस्त्वर्थोऽलङ्कारे-अलङ्कार वति-प्रतिषेधप्रतिषेधेन धात्वर्थस्यैव प्राकृतस्प गमनास्ल. विषये भवेत् , संभावनायां लिङ्, तद्यथा-अलवतं देव. दाऽधिभ्यो यथाऽभिलषितं ददातीति नालंदा-राजगृहनगर. देवेन स्वकुलं जगच्च नाभिसूनुना इत्यादि । तृतीयस्त्ववंबाहिरिका,तस्यां भवं नालन्दीपमिदमध्ययन, अनेन चाऽभि. शब्दार्थः प्रतिषेधे शातव्यो भवति , तद्यथा-प्रलं मे गृह धानेन समस्तोऽप्युपोधात उपक्रमरूप आवेदितो भवति. वासेना तथा 'अलं पापेन कर्मणा ।' उक्त च-" असं कु. तत्स्वरूपं च पर्यन्ते स्वत एव नियुक्तिकार: पासावश्चिज्जे' तीर्थैरिह पर्युपासितै-रलं वितर्काऽऽकुलकाहलैर्मतैः। अलं च मे इत्यादिगाथया निवेदयिष्यतीति । कामगुणैनिषेधित भयंकरा ये हि पर चेहच॥२०२॥" साम्प्रतं सम्भविनमशब्दस्य निक्षेपं नादौ परित्यज्य (मलसूत्र (तत्थ) तस्यां च नालन्दायाम् लेपो नाम 'गृहपतिः' कतुमाह कुटुम्बिक पासीत् स चाऽऽत्यो दीप्त:-तेजस्वी वित्तः सर्वजनहामअल ठवणअलं, दबलं चेव होइ भावमलं । विख्यातो विस्तीर्ण विपुलभवनशयनाऽऽसनयानवाहनाss. कीणों बहुधनबहुजातरूपरजतः,भागेगा:-अर्थोपाया यानएसो मलसद्दम्मि उ, निक्खेवो चारविहो होइ ॥२०१|| पात्रोष्ट्रमरालिकाइयः,तथा प्रयोजनं प्रयोगः-प्रायोगिकतत्र-प्रमानोनाः प्रतिषेधवाचकाः। तद्यथा-अगौः अघट. स्वं तैरायोगप्रयोगैः संप्रयुक्तः-समन्विता, लथेततश्च वि. त्याधकारःप्रायो द्रव्यस्यैव प्रतिषेधवाचीति अलं दानेन स. क्षिप्तप्रचुरभक्तपानो बहुदास्याऽऽदिपरिवृतो बहुजनस्याप. हास्य प्रयोगाभावः, माकारस्त्वनागतक्रियाया निषेधं वि. रिभूतश्वासीत्। तदियता विशेषणकदम्बकेनैहिकगुणाऽऽवि. धत्ते, तद्यथा-मा कार्बस्त्वमकार्य, मामस्थाः संस्थानो, यु. करणेन द्रव्यसंपदभिहिता ॥२॥ मदधिष्ठितदिगेय वीतायेत्यादि । नोकारस्तु देशनिषेधे सर्व अधुनाऽऽमुसिकगुणाऽऽविविन निषेधे च वर्सते, तद्यथा-नोघटो घटैकदेशे घटैकदेशनि भावसंपदभिधीयतेषेधेन, तथा हास्याऽऽदयो नोकायाः कषायमोहनीयैकदेश- से णं लेवे नाम गाहावई समणोवासए यावि होत्या, भूताः, नकारस्तु समस्तद्रव्यक्रियाप्रतिषेधाऽभिधायी, त. अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ, निगंथे पावयणे नियथा-न द्रव्यं न कर्म न गुणोऽभावः, तथा नाकर्ष, न क रोमि, न करिष्यामीत्यादि । तथाऽन्यैरप्युक्तम् संकिए निखिए निम्धितिगिच्छे लद्धढे गहियढे पुच्छि"न (नैव) याति न तत्राऽसी-दस्ति पश्चानवांशवत् ।। यढे विणिच्छियहे अभिगहियढे अढिमिजापेम्माणुरागरते, जहाति पूर्व नाऽऽधार-महो व्यसनसंततिः ॥१॥" अयमाउसो! निग्गये पावयणे अयं अट्ठ अयं परम सेसे २७१ Page #1105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेढालपुत्त अणट्ठे, उस्सियफलिहे अप्पावयदुवारे वियत्तंतेउरप्पवे से समुद्दिमासिणीसु पडिपुनं पोसहं सम्म अणुपालेमा समये निग्गंथे तहाविषेणं एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलामेमाणे बहूहिं सीलव्त्रयगुणविरमणपच्चक्खाणपोसहोववासेहिं अप्पा भावेमाणे एवं यं वर ।। ३ । 6 (सेणं इत्यादि) खमिति वाक्यालङ्कारे स लेपाऽऽ गृहपतिः भ्रमणान् - सानुपास्ते प्रत्यई सेचत इति भ्रमण पालकातनेन विशेषणेन तस्य जीवादिपदार्थाविर्माक श्रुतज्ञानसंपदाचेदिता भवति तदेव दर्शयति-अभिगतजी बाजीवेत्यादिना प्रत्वेन सदावोऽपि देवासुरा 55दिमि देवगणैरनतिक्रमणीयः - श्रनतिलङ्घनीयो धर्मादप्रच्यावनीय इति यावत् तदियता विशेषणकलापेन तस्य सम्यग्ज्ञा नित्वमावेदितं भवति । साम्प्रतं तस्य विशिष्ट सम्यग्दर्शनत्वं प्रतिपादयितुमाह - ('निग्गंधे' इत्यादि) निर्ग्रन्थे- आईते प्रवचने निर्गता शङ्का देशरूपा यस्य स निःशङ्कः, तदेव सत्यं निःशङ्कं पनेि प्रवेदित' इत्येवं कृताध्यवसायः तथा निर्गता काङ्क्षा-अन्यान्यदर्शनप्रहणरूपा यस्वाऽसी निरा का तथा निता विचिकित्साविशविष्णुतिर्विज् प्ला वा यस्यासौ निर्विचिकित्सः, यत एवमतो लब्धःउपलब्धोऽर्थः - परमार्थरूपो येन स लब्धार्थी ज्ञाततत्व इत्यथे, तथा गृहीतः स्वीकृतोपों-मोक्षमारूपनगृही सार्थ तथा विशेषतः पृष्टोऽर्थो येन स पृष्टार्थो यतएवमतो विनिश्चितार्थः ततोऽभियतः- पृष्ठनियमतः प्रतीतोऽयों येन सोऽभिगतार्थः, तथा अस्थि मिजा- अस्थिमध्यं यावत् स धर्मे प्रेमानुरागेण रक्तः प्रत्यन्तं सम्य इति वाचाऽऽविवाद अमाउस इत्यादि । केनचिद्धर्मसर्वस्वं पृष्टः स तद्यथा-भी आयुष्य सिमी चनमर्थतार्थ तथा प्र या सदमे मे परमार्थः पापस्व शुद्धनित्वात् शेषस्तु सर्वोऽपि लौकिकतीर्थिक रिकल्पितोऽनर्थः, तदनेन विशेषण कदम्बकेन सम्यक्त्वगुणा ऽऽविष्करणं कृतं भवति । साम्प्रतं तस्यैव सम्यग्दर्शनशाना भ्यां कृतो यो गुणस्तदाविष्करणायाऽऽह - ( 'उस्सिय' इत्या दि) प्रातं स्फटिकमभिर्मलं यश यासा स्फटिक, प्रख्यात निलया इत्यर्थः तथा अप्रातः म् अस्यतिंद्वारे गृहमुखं यस्य सोऽप्रावृतद्वारः इदमु भवति प्रविश्य तीर्थको यद्यत्कथयति तदसौ कथयतु न तस्य परिजनोऽप्यन्यथा भावयितुं सम्यक्त्वा यितुं शक्यत इति यावत् । तथा राहां वज्ञमान्तःपुरद्वारेषु प्रवेष्टुं शीलं यस्य स तथा । इदमुक्तं भवति - प्रतिषि याम्यजनप्रवेशाश्यपि पानि स्थानानि भाण्डागारान्तः पुराऽ दीनि तेष्वप्यसी प्रकपातथावकाऽऽरुपयाखसितम देश तथा चतुश्वम्पादिषु तिथिष्यदिशासु-महाका संबन्धि तथा पुण्यतिथिश्वेन प्रयातासु तथा पौर्णमासीषु च तिसृण्यपि चतुर्मास कतिचिष्वित्यर्थः वभूतेषु धर्मद बसेषु सुनिन प्रतियोि शेषस्तं प्रतिपूर्णम् - आहारशरीरसत्कारब्रह्मचर्याव्यापाररूपं - ( १००२) अभिधान राजेन्द्रः । - पेढालपुत " पौषधमनुपालयन् सम्पूर्ण श्रावक धर्ममनुचरति, तदनेन वि शेषणकलापेन विशिष्टं देशवारिश्रमावेदितं भवति । साम्प्रतं तस्यैयो गुण्यापनेन दानधर्ममधिकृत्या समनि सांधे इत्यादि सुगम पावत् पडिलामा ति साम्प्रतं तस्य शीतपावनामा बहुम स्यादि) बहुभिः शीलगुणमाया सैस्तथा यथा परिगृहांच तपःकर्मभिरा एवं चानन्तरोपनी विहरति-धर्ममाचरंस्तिष्ठति, च समुच्चये। समिति वाक्यालङ्कारे ॥ ३ ।। तस्स गं लेक्स्स गाहावइस्म नालंदाए बाहिरियाए उतरपुरच्छिमे दिसिभाए एत्थ गं से सदविया नामं उदगसाला होत्या, अगवंसयसमिवि पासादीया०जाव पडिवा, तीसे यं सदविचार उदगसालाप उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए, एत्थ गं इन्थिजामे नामं वणसंडे होस्था, किडे व बद ॥ ४ ॥ तस्य चैवंभूतस्य लेपोपासकस्य गृहपतेः सम्बन्धिनी नालमायाः पूर्वोत्तरस्यां दिशि शेषद्रव्याभिधानादोष द्रव्येण कृता शेषद्रव्येत्येतदेवाभिधानमस्या उदकशालायाः सेवंभूताऽसीदतम्भतसनिविष्टा प्रासादीया दर्शनी याभिरूपा प्रतिरूपेति तस्पार पूर्वदिति माख्यो वनखण्ड आसीत् कृष्णावभास इत्यादिवर्णकः ॥ ४ ॥ सि च निपदेसम्म भगवं गोयमे निर भग यं अहे आशमंसि । अहे उदर पेडालते भगवं पा सावच्चि नियंठे मेयजे गोत्तेणं जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छत्ता भगवं गोयमं एवं बयासी उसंतो ! गोयमा ! अस्थि खलु मे केइ पदेसे पुच्छि - यच्चे, तं च माउसो महासुरं महादरिसि मे दिया गरेहि सवायं, भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासीअविपाइ आउसो ! सोच्या निसम्म जाणिस्थामो सवार्थ उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी ॥ ५ ॥ तस्मिथ बनखण्डदेशे भगवान् गौतमस्वामी वर्धमानस्वामिगणधरो विहरति । अथानन्तरं भगवान् गौतमस्वामी तस्मारामे सह साधुभिर्व्यवस्थितः अथानन्तरं समितिचालंकारे, उकास्यो निर्भया पेढालपुत्रः पायय स्वस्थ पार्श्वस्यामिशिष्यस्यापत्यं शिष्यः पापस्यीय स मेला गोत्रेण येनेति तृतीया यस्यां दिि यस्मिन्वा प्रदेशे भगवान् श्री गौतमस्वामी तस्यां दिशितस्मिन्दा प्रदेशे समागत्येवं वचमा प्रोषाचेति । अत्र निर्युक्लिकारो ऽध्ययनोत्थानं तात्पर्ये च गाथया दर्शयितुमाह पासावच्चिज्जो पु-च्छियाइश्रो श्रजगोयमं उदगो । सागपुच्छा धम्मं, सोउं कहियम्मि बसंता ॥। २०५ ।। (पालावचीत्यादि) पार्श्वनाथाशिष्य उदकाभिधान आर्यगौतवान् किं तत् आवकगतं श्रावकविषयं प्रश्नं तद्यथाभो इन्भूते ? साधोः धावकारणुवतदाने सति स्थूलप्राणा Page #1106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८३) अभिधानराजेन्द्र पेढालपुत्त तिपाताऽऽदिविषये तदन्येषां सूक्ष्मबादराणां प्राणिनामुपघाते सत्यारम्भजनिते तदनुमतिप्रत्ययजनितः कर्मबन्धः कस्मान्न भयति । तथास्थूलपणातिपाताऽऽदिविषये प्रतिनस्तमेव पर्यायान्तरगतं व्यापादयती नागरिक निवृत्तस्य तमेव हि स्थं व्यापादयत इव तद्वतभङ्गजनितः कर्मबन्धः कस्मान्न भ यतीत्येतत्प्रश्नस्योत्तरं प्रविमोक्षोपमा द तवान् तश्च श्रावकप्रश्नस्योपम्यं गौतमस्वामिना कथितं श्र. स्वोदका निर्धन्य उपशान्तः- अपगत इति सांप्रतं सूत्रमधियते स उदको गौतमस्यानिसमा स्य भगवन्तमिवादीत् तथा आयुष्मन् गौतम ! अस्ति मम विद्यते कश्चित्प्रदेशः प्रब्रव्यः, तत्र संदेहात् तं च प्रदेशं यथाश्रुतं भवता यथा च भगवता दर्शितं तथैव मम व्यागृणीहि प्रतिपादय । एवं पृष्टः स चायं भगवान्, यदि वा सह दिन सवाई पृए सार्थ वा शोभनभारतीय प्र एस्तमुदकं पैदालपुत्रमेवमवादीत् तथा अपि च-आयु दत्वा भवदीयं प्रश्नं निशम्य चावधार्य च ! दोषविचारणतः सम्यगास्ये, तदुच्यतां विभवता स्वाभिप्रायः ' सवायं' सद्वाचं सवाई वा उदकः पेढालपुत्रो भगवन्तं तमेवमवादीत् ५ ॥ " सो गोया अस्थि खलु कुमार पुचिया नाम समया निथा तुम्हाणं पवणं पवयमाणा गाहावई समणोवासगं उसंपर्क एवं पचखावेंति सत्य भएवं गाइावइचो रगइयं विमोक्णया तसे पाहिा दंड एवं एवं पच्चक्खंताणं दुप्पच्चक्खायं भवइ, एवं एवं पच्चक्खावेमा । णं दुप्पच्चक्खाविव्वं भवइ, एवं ते परं पच्चक्खावे माणा प्रतियरंति सयं पतियां कस्स णं तं बेठी, मारिया खलु पाया था बरा विपणा तसचाए पचाति तसा वि पाखा वावरतार पच्चायति, थावरकाया यो विष्पमुचमाया तसकायंसि उववअंतितसकायाओ विषयमाया यादरकार्यसि उति तेसिं च यं यावर कार्यसि जाणं ठामेयं घर्त ।। ६ ।। सभी अस्तीत्ययं विभक्तिप्रतिको निपान इति वृदितस्ततायमर्थः सन्ति-विद्यते कुमारपुत्रा नाम निग्धा युध्धादीयं प्रथमं प्रवदन्नः वद्यथा पति श्रमणोपासकमुपसंपन्नं नियमवोत्थितमेवं प्रत्याख्यापयन्ति प्रत्याख्यानं कारयन्ति, तद्यथा-स्थूलेषु प्राणिषु दण्डयतीति दण्ड:- प्राण्युपमर्दस्तं निहाय परित्यज्य प्राणातिपातनिवृति कुर्वन्ति । तामेवापवदति- नान्यत्रेति, स्वमनीषिकाया अन्यत्र राजाऽऽद्यभियोगेन यः प्रघातन तत्र निवृतिरिति । तत्र किल स्थूलप्रविशेषण तदन्येषामनुमतिप्रत्ययः स्या दित्याशङ्कावानाह - (गाहाबद्द इत्यादि) अस्य चार्थमुत्तरत्राssविर्भावयिष्यामः । येनाभिप्रायेणोदकञ्चोदित वाँस्तमाविष्कु. - एवं एद्दमित्यादि) एदमिति वाक्यालङ्कारे अवधार येवायमेव समाधिविशेषयत्वेनापरभूतविशे पणरहितत्वेन प्रत्याख्यानं गृहतां भावकाय दुध्यत्याक्यानं भवति, प्रत्याख्यानभङ्गसद्भावात्तथैवमेव प्रत्याख्यापयतामपि साधूनां दुष्टं प्रत्याख्यानदानं भवति । किमित्यत श्रा ह एवं ते श्रावकाः प्रत्याख्यानं गृह्णन्तः साधवश्च परं प्रस्याख्यापयन्तः स्वां प्रतिज्ञामतिचरन्ति अतिलङ्घयन्ति । (कस्स. पैदासपुत हेति मातरिश्वर्थ तत्र प्रतिज्ञाभङ्गकारणमाह - ( संसारिया इत्यादि) संसारो विद्यते येषां ते सांसारिकाः । खलुरलङ्कारे, प्राणिनो--जन्तवः स्थावराः प्राणिनः पृथियसे जांदा वनस्पतयः सम्योऽपि तथाविधक मोंदयात्रा श्येन दिनाचे प्रयत . त्पद्यन्ते तथा त्रसा श्रपि स्थावरतयेत्येवं च परस्परगमने व्यवस्थिते सत्यवश्यंभावी प्रतिज्ञाविलोपः । तथाहिनागरिको मया न हन्तम् इत्येवंभूता येन प्रतिज्ञा सुदीता, या बहिरारामादौ व्यवस्थितं नागरिकं व्यापादयेत्किमे तावता तस्य न भवेत्प्रतिज्ञाविलोपः ? । एवमत्रापि येन त्रस यधनिवृतिः कृता स यदा तमे से प्राणिनं स्थावरका पथितं व्यापारिक तस्य न भवेत् प्रतिज्ञाविलोपः भवे देवेत्यर्थः । एवमपि स्वारकावे समुत्पनन यदि तथाभूतं किञ्चिदसाधारणं लिङ्गं स्यात्ततस्ते त्रसाः स्थान वरत्वेनाप्युत्पन्नाः शक्यन्ते परिहर्तु न च तदस्तीत्येतद्दर्शयितुमाह - (थावरकायाश्री इत्यादि) स्थावर कायात्सकाशा द्विविधम् श्रनेकैः प्रकारै: प्रकर्षेण मुच्यमानाः स्थावर काया युषा तापः कर्मभिः सर्वात्मना सका समुत्य यन्ते तथा काया सर्वाऽऽरमनामानास्तत्क स्थावरका समुत्पद्यन्ते तत्र चोर तथाभूतस विभावातलो इत्येतरच दर्शयितुमाह-लेखि च खमित्यादि) तेषां त्रसानां स्थावर काये समुत्पन्नानां गृहीतत्रसप्राणातिपातविरतेः श्रावकस्याप्यारम्भप्रवृत्तत्वेनैतत्स्थावराधास्थानं भवति तस्मादनिवृत्तत्वात्तस्येति ॥ ॥ 1 , एवं एवं पञ्चवखतायं सुपच्चक्रखायं भवइ, एवं एवं पचक्खा पच्चक्खावेमाबेमाथायं सुपच्चक्लापि भवइ एवं ते परं खाया यातियरंति सयं परमं मत्थ अभियोगेणं गाहावइचो 1 विमोक्याए तहिं पाहिं विहाय दंड, एवा मेव सइ भासाए परकमे विज्जमा जे ते कोहा वा लोहा वा परंपच पि यो उनसे यो आउ भवई, अवियाई उसो गोयमा ! तुब्भं पि एवं रोयइ ॥ ७ ॥ तदेवं व्यवस्थित नागरिकान्तेन समेव स्थापत्या व्यापादयोऽवश्यंभावी प्रतिज्ञाविलोपीय मदुक्रवा वक्ष्यमा प्रत्यायया भव मेव प्रत्यापापयतां प्रत्यापितं भवति एवं च ते प्रत्या स्थापनात स्वीयां प्रतिष्ठामित्येतदर्शवितुमाहगृहपतिः प्रत्याख्यानमेवं गृहातिद्यथाभूतेषु वर्तमानकालेसन प्राणिषु दण्डयतीति दण्डप्रामदेवतं विहाय परिवश्य प्रत्याख्यानं करोति तदिह भूतत्वविशेषणात् स्थावरपार्यायाऽऽपन्नवधेऽपि न प्रतिक्षा विलोपः। तथानाम्यनियोगेनेति राजाऽद्योगाय प्रत्याख्यानमिति तथा गृहपतिचौरषिमोक्षयतयेति एतच भ पद्भिः सम्पम् एतदपि सा भूतत्वविशेषणमभ्युप गम्यतामिति पतभ्युपगमेऽपि हि यथा विकृतिप्र नमोऽपिन प्रतिष्ठाविलोपत स्वा न हन्तव्या इत्येवंप्रतिज्ञावतः स्थावर हिंसायामपि न प्रत्या स्यानातिचारः । तदेवं विद्यमाने सति भाषायाः प्रत्याख्यानवापराक्रमे भूतविशेषाद्दोषपरिहारामध्ये एवं पूर्वोक्या Page #1107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८४) पेढासपुत्त अभिधानराजेन्डः। पेढालपुत्त नीत्या सति दोषपरिहरणोपाये ते केचन क्रोधाद्वा लोभा। भूतशब्दविशेषणवादिनोऽभ्याख्यान्ति-दूषयन्ति । किमित्यत वापरं श्रावकादिकं निर्विशेषषमेव प्रत्याश्यापयन्ति ते. आह-(कस्स गमित्यादि) कस्माद्धेतोस्तदसद्भूतं दूषणं भव. षां प्रत्याख्यानं ददतां मृषावादो भवति, गृहतां चावश्यं- तीति । यस्मात्सांसारिकाः खलु प्राणाः परस्परजातिसंक्रम. भावी व्रतविलोप इति । तदेवमयमपि ना-अस्मदीयोपदेशाs. गुभाजो यतस्ततनासाः प्राणिनः स्थावरत्वेन प्रत्यायान्ति, भ्युपगमो भूतत्वविशेषणविशिष्टः पक्षः किं भवतां (नो) स्थावराश्व असत्वेनेति । श्रसकायाश्च सर्वात्मना प्रसाss. नैव नैयायिको-म्यायोपपनो भवति । इदमुक्तं भवति-भू- युकं परित्यज्य स्थावरकाये तद्योग्यकर्मोपादानादुत्पद्यन्ते,त. सत्यविशेषणेन हि असान् स्थायरोत्पन्नान् हिंसतोऽपि न था स्थापरकायाच तदायुष्काऽदिना कर्मणा विमुच्यमाना. प्रतिक्षाऽतिचार इत्यपि चैतदायुष्मन् गौतम! तुभ्यमपि खसकाये समुत्पद्यन्ते,तेषां च त्रसकाये समुत्पन्नानां स्थानमे. रोचते॥७॥ तत्त्रसकायाऽऽख्यमघात्यम्-अघाताह भवति । यस्मातेन श्राव. सवायं भगवं गोयमे ! उदयं पेढालपुत्तं एवं क्यासी केण प्रसानुद्दिश्य स्थूलप्राणातिपातविरमणं कृतं, तस्य ती. माध्यवसायोत्पादकत्वाल्लोकगर्हितत्वाश्चेति । तत्रासौ स्थलपाउसंतो ! उदगा! नो खलु अम्हे एवं रोयइ,। प्राणातिपातानिवृत्तस्तनिवृत्या च बसस्थानमघात्यं वर्तते, जे ते समणा वा माणा वा एबमाइक्खंति-जाव स्थावरकायाच्चानिवृत्त इति तद्योग्यतया तत्स्थानं घात्यपरूवैति, यो खलु ते समणा वा णिग्गंधा वा भा- मिति । तदेवं भवदभिप्रायेण विशिष्साचोइसेनाऽपि प्राणा. सं भासंति, अणुतावियं खलु ते भासं भासंति, भ. तिपातनिवृत्ती कृतायामपरपर्यायाऽऽपन्नं प्राणिनं व्यापाद यतो व्रतभङ्गो भवति, ततश्च न कस्यचिदपि सम्यग्यतपालने म्भाइक्खंति खलु ते समणे समणोवासए वा, जेहिं स्थादित्येवमभ्याख्यातमसद्भुतदोषोद्भावनं भवन्तो वदति । वि अहिं जीवहिं पाणेहिं भूएहि सत्तेहिं संयमयंति यदपि भवद्भिर्वर्तमानकालविशेषणत्वेन किलाऽयं भूतशताण वि ते भन्भाइक्खंति, कस्स णं तं हेउं ?, संसारिया ब्द उपादीयतेऽसावपि व्यामोहाय केवलमुपतिष्ठते । तथा. वि-भूतशब्दोऽयमुपमानेऽपि वर्तते । तद्यथा-देवलोकभूतं न. खलु पाणा तसा वि पाणा थावरत्ताए पञ्चायंति, थावरा गरमिदं.न देवलोक एव तथाऽत्रापि त्रसभूतानां प्रससह वि पाणा तसत्ताए पञ्चायंति, तसकायाश्रो विप्पमुच्च- शानामेव प्राणातिपातनिवृत्तिः कृता स्यान्न तु प्रसानामिति । माणा थावरकासि उववअंति, थावरकायाभो विप्पमुच्च- अथ तावयें भूत शब्दोऽयं, यथा शीतीभूतमुदकं शीतमित्या माणातसकायंसि उववअंति, तेसिं च णं तसकायसि र्थः । एवं प्रसभूतानसत्वं प्राप्तास्तथा च सति प्रसशब्देनैव गतार्थत्वात्पीनरुक्त्यं स्यात् । अथैवमपि स्थिते भूतशब्दोपा. उपवमाणं ठाणमेयं प्रघत्तं ॥८॥ दानं क्रियते, तथा च सत्यतिप्रसङ्गः स्यात् । तथाहि-क्षीएवमेतद्यथा मया व्याख्यातम् । एवमभिहितो गौतमः सदाचं रभूतविकृतेः प्रत्याख्यानं करोम्येवं घृतभूतं मे ददस्वैवं घ. सवादंषा तमुदकं पेढालपुत्रमेवं वक्ष्यमाणमयादीत् , तद्य टभूतः पटभूत इत्येवमादायप्यायोज्यमिति ॥८॥ था-नो खल्पायुष्मन्नुदक!अस्मभ्यमेतदेवं यथा त्वयोच्यते तद्रोचत इति । एवमुक्तं भवति-यदिदं सकायविरती भू. तदेवं निरस्ते भूतशब्दे सत्युदक आहतत्वविशेषणं क्रियते, तभिरर्थकतयाऽस्मभ्यं न रोचत इति सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं बयासीतदेवं व्यवस्थिते भो उदक! ये ते श्रमणा वा ब्राह्मणा वा कयरे खलु ते आउसंतो गोयमा! तुम्भे वयह-तसपाणा एवंभूतशमविशेषणस्वेन प्रत्याख्यानमाचक्षते, परैः पृष्टा. स्तथैव भाषन्ते प्रत्याश्यानं स्वतः कुर्वन्तः कारयन्तश्चैः तसा आउ अन्नहा । सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढामिति-सविशेषणं प्रत्याख्यानं भाषन्ते, तथैवमेव-सविशे. लपुत्तं एवं वयासी-उसंतो उदगा! जे तुम्भे वयह-तक्सप्ररयाक्यानप्ररूपणाषसरे सामान्येन प्ररूपयन्ति , पवं च सभूता पाणा तसा ते वर्ष वयामो तसा पाणा,जे वयं . प्ररूपयस्तोगबलु ते श्रमणा वा निन्या पा यथाथी भाषां यामो तसा पाणा ते तुम्भे वयह तमभूया पाणा,एए संति भापते.अपि स्वनुतापयतीस्यतापिका तां.तथाभूतां च खलु दुवे ठाणा तुल्ला एगट्ठा, किमाउसो! इमे भे सुप्पणीयतराए से भाषा भाषन्ते, अन्यथा भाषणे ह्यपरंण जानता बोधिः तस्य सतोऽनुतापो भवतीत्यतोऽनुतापिकेत्युच्यत इति । पु भवइ, तसभूया पाणा तसा, इमे भे दुप्पणीयतराए भवइ, नरपि तेषां सविशेषणप्रत्याख्यामतामुल्वणदोषोतिभावधि तसा पाणा तसा, ततो एगमाउसो पडिक्कोसह एक अ. षयामह-(अब्भारक्खंति इत्यादि ते हि सविशेषणप्रत्यानया- भिणंदह अयं पि भेदो से णो णेश्राउए भव ॥६॥ . नवादिनो यथावस्थितं प्रत्याख्याने ददतः साधून गृहतश्च श्रमणोपासकानभ्याक्यान्ति-अभूतदोषोदावनतोऽभ्याख्यानं सवाचं सवाद वा उदकः पेढालपुत्रो भगवन्तं गौतममेवमवा. दवति । किं चाम्यत्-(जेहिं बीस्यादि)येयप्यन्येषु प्राणिषु-भू दीत्। तद्यथा-हे आयुष्मन् गौतम!कतरान्प्राणिनो यूयं वदया असा एव ये प्राणाः प्राणिनस्त एव प्रसाः प्राणा इति, उतातेषु जीयेषु सरवेषु विषयभूतेषु विशिष्य ये संयम कुर्वन्ति संयमयस्ति । तद्यथा-ब्राह्मणो न मया हम्तव्य इत्युक्ते न्यथेति. एवंपृष्टो भगवान् गौतमस्तमुदकं सद्वाचं पेढालपुत्र. मेवमयादीत्। तद्यथा-प्रायुष्मन्नुदकीयान् प्राणिनो यूयं वदथ स यदा वर्णान्तरे तिर्यनु वा व्यवस्थितो भवति, तदधे | प्रसभूतानसत्वेनाऽऽविर्भूताःप्राणिनो नातीतानाप्येप्याकि ब्राह्मणवध मापद्यते, भूतशब्दाविशेषणात्तदेवं ताम्यपि तु?,वर्तमानकाल एव प्रसाःप्राणा इति, तानेव वयं वदामः विशेषज्ञतानि सूकरो मया न हन्तव्य इति एवमादीनि ते. प्रसानसत्वं प्राप्तास्तरकालवर्तिन एवं प्रसाः प्राणा इति । Page #1108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेढा एतदेव व्यत्ययेन विभणिपुराह - ( जे वयमित्यादि ) यान्वयं वदामस्त्रसा एव प्राणास्त्रसाः प्राणास्तानेव यूयमेवं वदथ त्रसभूता एव प्राणास्त्रसभूताः प्राणाः एवं च व्यवस्थिते एते अनन्तरो अपि स्थाने एका तुल्ये भवतो नार्थमेदः कचिदस्यम्यन शब्दभेदादिति, पर्व व व्यवस्थिते किमायु न्यायं पद्मः सुष्ठु प्रणीततरी युक्तियुक्त प्रति भासते । तद्यथा - त्रसभूता एव प्राणानसभूताः प्राणाइति तु पीततरो भवति प्रतिभासते भवताम् । व यथा-सा एव प्राणाखाः प्राणाः सन्ति चैकार्थत्वेन भवतां कोऽयं व्यामोहो ?, येन शब्दभेदमा भित्यात एकं पक्षमाक्रो, शपथ, द्वितीयं निन्दयइति तमपि तु स स्येकस्य पचपन्नमपरस्य सविशेषण पसस्याभिनन्दन मित्येष दोषाभ्युपगमो भवतां नो नैयायिको-म न्यायोपपन मत्युभयेोरपि पक्ष समानत्वात् विशेष भूतशब्दोपादानं मोद्दमावहतीति ॥ ६ ॥ खच्च भवताऽस्माकं प्राग्दोषोद्भावनमकारि । तद्यथा भ सानां बधनिवृत्ती येषां धातुमतिः स्यात् साधो तथा भूतशब्दानुपादानेऽन्तरमेव असं स्थावरपर्यायापनं व्यापायतो व्रतभङ्ग इत्येतत्कुखोद्यजातं परिहर्तुकाम माहभगव च यं उदाहु संतेगइमा मस्सा भवति, तेर्सि चणं एवं वृत्तं भवइ यो खलु वयं संचारमो मुंडा भविता भगाराम अग्रगारियं पपइच सायं पई अणु वे गुस्स लिसिसामो, ते एवं संखवेंति ते एवं संखं वयंति ते एवं सखं ठावयंति नन्नत्थ अभिश्रोए गाचोरामोरावार तमेहिं पायेहिं निहाय दं तं पलिमेव भव ।। १० ।। भगवान् (भगयं च यमित्यादि समिति वा गौतमस्वामी, चशब्दः पुनः शब्दार्थे । पुनराह । तद्यथा - सन्ति विद्यन्ते एके केवन लघुकोणी मनुष्याः प्रश्यां कर्तुमसमर्थाः तद्यतिरेकेशव धर्म चिकीर्षवस्तेषां वैयपा यिनां साघोर्धर्मोपदेशप्रवणस्याग्रत इदमुक्तपूर्व भवति । तद्यथा-मोसन तु वयं शक्नुमो मुण्डा भवितुं प्रीतुमगारागृदादनमारतां साधुभावं प्रतिप वयं स्वानुपूर्व्येण क्रमशो गोत्रस्येति गां वायत इति गोत्रं साधुत्वं तस्य साधुभावस्य पर्यायेण परिपाल्याऽऽत्मानमनुरेषयिष्यामः । इदमुकं भवति पूर्व देशविरतिरूपतया आधर्म योग्य मगिन्धमनुपालयामस्ततोऽनुक्रमेण प धर्ममिति तत एवं ते संपवस्थां भावयन्ति प्रत्याख्यानं कुर्वतः प्रकाशयन्ति तद्यथा नान्यत्राभियोगेन स चाभियोगो राजाऽभियोगो गणाभियोगो बलाभियोगो देवताअभियोगो गुरुनियेत्येवमादिनाऽभियोगेन व्यापादयतोऽपि असं न व्रतभङ्ग तथा गृहपति चोरवि मोत्यस्पाय मर्थः पचिपतेः षट् पुषाः सत्यपि पितृपिताम क्रमापति महति बिले तथाविधकर्मोदयाद्राज कुलभाण्डा गारे चौर्यमकारि, राजपुरुषैश्च भवितव्यतानियोगेन गृही. तास्ते इत्येके । परे त्वन्यथा व्याचक्षते, तद्यथा पुरे नगरे खरो नाम राजा तेन च परितुटेनरमासाऽयमद्दिषीप्रमुखान्तःपुरस्य की मुरीप्रचारोऽनुज्ञातः, तब २७२ ( १०८५ ) अभिधान राजेन्द्रः । · पेढालपु गम्य नागरलोकेनापि राजानुमत्या स्वकीयस्य स्त्रीजनस्य तथैव क्रीडनमनुमतं राशा च नगरे सडिएमदमघो पितम् । तद्यथ। श्रस्तमनोपरि कौमुदीमहोत्सवे प्रवृत्ते यः कचित्पुरुषः समुपलभ्यते नगरमध्ये तस्याविज्ञप्तिकः शरीरनिग्रहः क्रियते इत्यस्थिते सत्येकस्य पि पद ना तेच कौमुदीदिने पक्रियसंध्यापा तावस्थिता यावत्सविता ऽस्तमुपगतः तदनन्तरमेव स्थ गितानि च नगरद्वाराणि तेषां च तत्कालात्ययान निर्गमन. मभूत्, ततस्ते भयसंभ्रान्ता नगरमध्य एवात्मानं गोपथि स्वास्थितास्ततो निष्कान्ते कौमुदीमबारे राम्रा ऽऽरक्षिका समाहूयादि यथा सम्यक निकाय सूर्य नाथ न कौमुदीबारे कधिरुप व्यस्थित इति । तैरप्यारक्षि सम्यक निरूपयद्भिरुपलभ्य पहषधिकपुत्रान्तो यथा वस्थित एव राशे निवेदितः । राज्ञाऽप्याशाभङ्गकुपितेन तेषां सामपि वधः समादिष्टः । ततस्तस्पिता पुत्रवधसमाकर्णनगुरुशोकविलकाण्डाऽऽपतित कुलक्षयोद्भ्रान्तलोचनः किं कर्त्तव्यतामूढतया गणित विधेया विधेयविशेषो राजानमुपस्थितीच गङ्गदया गिरा । यथा मा कृथा देवकु अक्षयं गृह्यतामिदमस्मदीयं कुलमायातं खभुजोपार्जितं प्रभूतं प्रबिणजातं, मुख्यतां मुख्यताममी पद् पुत्राः क्रियता , ममममम राजानमनाक 9 1 1 एवं पुनरपि सविशेषमादिदेश प्रसावपि वणिक्सधाशङ्की सर्वमोचनानभिप्रायं राजानमवेत्य पश्चानां मोच या चितवान् तानभ्यसौ राजान मोलमना इत्येवमभिगम्य चतुर्मोचनकृते सादरं दिसतं तथापि राजा तमना कुपस्थितः तत्राणां विमोचने कृताऽऽ दरस्तस्पिताऽभूत् वानप्यमुञ्चन्तं राजानं ज्ञात्वा गणितस्वापराधो द्वयोर्मोचनं प्रार्थितवान् । तत्राऽप्यवज्ञाप्रधानं नृपतिमवगम्य ततः पौरमह समसमेतो राजानमेवं विशुत्रान् । तद्यथा-देव ! अकाण्ड एवास्मार्क कुलत्तयः समुपस्थितः, तस्माच्च भवन्त एव त्राणायामतः क्रियतामेकमत्पुत्रवि मोचनेन प्रसाद इति भणित्वा पादयोः सपौर महसमः प तितो रामापि संजाताऽनुकम्पेन मुक्रस्तदेको उपेठपुत्र ति । तदेवमस्य दृष्टान्तस्य दान्तिक योजनेयम् । तद्यथासाधुनाऽभ्युपगत सम्यग्दर्शनमवगम्य आप कम खिलप्राणाति पातविरप्रियं प्रति चोदितोऽप्यशक्रिया यदा न सर्वप्राणातिप्रातरिति प्रतिपद्यते यथाऽसौ राजा बनाउत्प विज्ञापितोनि पपि पुत्रान् मुमुक्षतिप खिािन् पुत्रानिति । तत एकविमान तार्थमिव मन्यमानः स्थितोऽसावेवं साधोरपि श्रावकस्य यथाशक्ति वतं गृह्णतस्तदनुरूपमेवारणुव्रतदानमधिरुद्धमि• ति, यथा च तस्य वणिजो न शेषपुत्रवधानुमतिले शोउपयस्येवं साधीरपि न शेषवाणिधनु कर्मयन्धो भवति किं तर्हि ?, यदेव व्रतं गृहीत्वा या नेव सच्चान् यादान् संकल्पजप्राणिवधनिश्वा रक्षति तमितः कुशलानुबन्ध एवेत्येतत्सूत्र दर्शवितुमाह(तसेादिस्वन्तीति सा दियाऽऽदयस्तेभ्य सकाशाशिवाय निहाय वा परित्यज्येति यावत् । कम् ? - दण्डयतीति दण्डस्तं परिश्वश्प प्रसेषु प्राथातिपातवि रतिवेत्य तदपि च प्राणामि 1 Page #1109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेढालपुत तेषां देशविरतानां कुलाकुलमेव भवति ॥ १० ॥ यच्च प्रागभिहितं तद्यथा तमेव प्रलं स्थावरपर्यायानं नागरिकमिय एवं व्यापादयतोऽपश्यंभाषी इस्तत्परिहर्तुकाम आइ ( १००६) अभिधानराजेन्द्रः । तसा विचति तसा तससंभारकडेणं कम्मुखा यामं च अयं भवइ, तसाउयं च णं पलिक्खीयां भवर, उसका यहिया से तो भाउयं विध्यजति ते तभो आउयं विप्यनहिता यावरताप पचायति । थावरा वि बुकचेति बावरा पावरसंभारकडे कम्णा गामं च गं अवगमद वावरायं च यं पक्खियां भव समार्थ उदय पेढालने भय गोयमं एवं प्रयासी-आ थावर काय द्विइया ते तम्रो श्राउयं विष्वजति, तो उयं उसंतो गोयमा ! गस्थि गं से केइ परियाए जं गं समविप्यमहिचा जो परलोयता पचायति, ते पाया विसोबासगस्स एगपायातिवापविश्य वि दंडे निक्खिते, कर पुनरप्यन्यथोदकः पूर्वपक्षमारचयितुमाह " चंति, ते तसा विवृच्चंति, ते महाकाया ते चिरहिइया ॥ ११ ॥ (तसा बीत्यादि असा अपि द्रीन्द्रियाऽऽदयोऽपि सा इत्युच्य वे असा प्रससंभारकृतेन कर्मणा भवन्ति भारी नाम अ ययंतया कर्मो विपाकानुभवेन वेदनं नामप्रत्येक नामेत्यादिकं नामकर्माभ्युपगतं भवति, सत्येन यत्परिषद्धमायुकं तदोप्रा भवति तदा संभारकृतेन कर्मणा सा इति व्यपदिश्यन्ते न तदा कथञ्चित्स्थावरत्वव्यपदेशो यदा च तदायुः परिक्षीणं भवति, सुमिति वाक्यालङ्कारे, जसकाय स्थिति च कर्म यदा परिक्षीणं भवति, तच्च जघन्यतोऽ मुहूर्तः सातिरेकसहससागरोपमपरिमाणं त दातकापस्थितेरभावादायुकं ते परित्यजन्ति अपरा एयपि तत्सहचरितानि कर्माणि परित्यज्य स्थावर त्वेन प्रत्या• यान्ति, स्थावरा अपि स्थावरसंभारकृतेन कर्मणा तत्रोत्पद्यन्ते, स्थावराऽऽदि नाम च तत्राभ्युपगतं भवति । अपराण्यपि त रसहचरितानि सर्वाना परित्यज्य स्थावरस्बेनीदयं यान्ति इत्येयं च व्यवस्थिते कथं स्थावर कार्य व्यापादयती गृहीतकायप्राणातिपासनिवृत्तेः श्रावकस्य मतभद्र इति किं चाम्पत्यावरा च यमित्यादि) वदा तदपि स्थावराऽऽयुष्कं परिक्षीणं भवति तथा स्थावरका स्थिति सा जघन्यतो ऽन्तर्मुहूर्त मुस्कष्टतो अनन्त कालमसं रूपेयाः पुलपरावर्ता इनि ततस्तस्काय स्थितेरभावासदायुष्कं परित्यज्य भूयः पुनरपि पारलौकिकस्वेन स्थावरकापश्थितेरभावात् सत्वेन सामर्थ्यात्वत्यायान्ति तेषां प सानामम्बधिकाम्यनिधानाम्यविधातुमाह से पाब त्यादि) ते जससंभारकृतेन कर्मणा समुत्पन्नाः सन्तः सामान्यसंख्या प्राया अयुच्यन्ते तथा विशेषतः अस'भयचजनयोः, इतिधात्वर्थानुगमाद्भय चलनाभ्यामुपपेताखला अप्युच्यते तथा महान् कायो येषां ते महाकावा योजनलक्षप्रमाणथरीरविकुर्वात् तथा चिरस्थितिका अप्युच्यन्ते मवस्थित्य क्षया त्रयत्रिशत्सागरोपमाऽऽयुष्कसद्भावात् ततपर्यायव्यवस्थितानामेव प्रत्याख्यानं तेन गृहीतं, न तु स्थावरका यत्वेन व्यवस्थितानामपीति । यस्तु नागरिक पन्यस्तोऽसावपि दृष्टान्तदान्तिकयोरसाम्यात्केवलं भवतोऽनुपासितगुरुकुलवासिश्वमाविष्करोति । तथाहि -नगरaarya नागरिकः, स च मया न हन्तव्य इति प्रतिज्ञां गृहीत्वा यदा तमेव व्यापादयति वह्निःस्थितं पर्यायाऽऽप I -- 1 . पेढालपुत तदा तस्य किल व्रतभङ्ग इति भवतः पक्ष इति स च न घटते, यतो यो हि नगरधर्मैरुपेतः स बहिःस्थोऽपि नागरिक एवातः पायाऽऽपन्न इत्येतद्विशेषणं मोपपद्यते सामरस्येन परिवण्य नगरीवर्तते तमेवेत्येतद्विशेषणं नोपपद्यते तदेव सः सर्वात्मना असत्वं परित्यज्य यदा स्थावर समुत्पद्यते तदा पूर्वपर्यापरित्यागादपरपर्यायाऽऽपन्नत्वात् स एवासौ न भवति । तद्यथा-नागरिकः पल्ल्यां प्रविष्टस्तसमोपेतत्वात्पूर्वधर्म परित्या गाव नागरिक एवासौ न भवतीति ॥ ११ ॥ णं तं हेडं १, संसारिया खलु पाया, थावरा वि पागा तसचार पच्चायंति तसा वि पाया थावरत्ताए पच्चायंति, थावरकापाओ विष्पचपाया सच्चे उसकासि उबवअंति तसकाया विष्पमुच्चमाणा सच् यावर कायंसि उवत्रअंति, तेर्सि चणं यावरकायंसि उववन्नाणं ठाणमेवं वतं ।। १२ ।। (समादत्यादि) सहार्थ सवाई या उदकः पैढाल पुत्रो भवन्तं गौतममेवात्तद्यथा प्रायुध्यन् मोतम ! नास्त्यसौ कचित्पर्यायो यस्मिनेकप्राणातिपातविरमणेऽपि श्रमणोपासकस्य विशिष्टविषयामेव प्राणातिपातनिवृत्तिं कुर्व तो दण्डः प्रापमनरूप निक्षिप्तपूर्व परिश्वकपूर्वो भवति। इदमुकं भवति श्रायकेण सपर्यायमेकमुद्दिश्य प्राति पातविरतिं गृहीतं संसारियां च परस्परगमन संभ चालू ते व साः सर्वेऽपि किल स्थावरत्वमुपगताः, ततश्च सानामभावाचिर्विषयं यत्प्रत्याख्यानमिति । एतदेव प्रश्नबैंक दर्शवितुमाह- कस्य णं तं नित्यादि । समिति वाक्यालङ्कारे कस्य हेतोरिदमभिधीयते, केन हेतुनेत्यर्थः । सांसारिकाः प्राणाः परस्परसंसरणशीला यतस्ततः स्थावराः सामान्येन त्रसतया प्रत्यायान्ति, असा अपि स्थावरतथा प्रत्यायान्ति । तदेषं संसारियां परस्परगमनं प्रद ना परपरेण विवक्षितं तदाविष्कुर्ववाह (धावरकाया इत्यादि) स्थावरकायाद्विप्रमुख्यमानाः स्वायुषा तत्सहचरि धर्म सर्वे निरवशेषसका समुत्पद्यन्ते त्रस कायादपि तदायुषा विप्रमुध्यमानाः सर्वे स्थावरकाये स. मुत्पद्यन्ते तेषां च प्रसानां सर्वेषां स्थापरकायसमुत्पन्नान स्थानमेतद् घात्यं वर्तते, तेन भाषकेण स्थावर कायद्य धनिवृत्तेरकरणावतः सर्वस्य सकायस्य स्थावर कायत्वेनोत्पतेर्निर्विषयं तस्य धावकस्य प्रसवनिवृतिरूपं प्रत्यायानं प्रमोति यथा केनचिदूतमेवंभूतं गृहीतम् । यथा मया नगर निवासी न इन्तव्यस्त थे। द्वसितं नगरमतो निर्विषयं तस्य प्रत्याक्यानम् एवमत्रापि सर्वेषां प्रसानामभावानिर्विषयत्वमिति । १२ । मुकेनाभिहिते सति तदभ्युपगमे गौतमस्वामी दूषयितुमाहसवायं भगवं गोषमे उदयं पेढाल एवं बयासी-खो खलु आउसो १ अस्साकं वत्तम्वएवं तुम्भं चेक Page #1110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८७ ) अभिधान राजेन्द्रः । पेढालपुत अपवादे अस्थि से परियार ने णं समोवासree Hosपाणेहिं सव्वभृएहिं सव्वजीवेहिं सव्वसत्तेहिं दंडे निखिते भव, फरस यं तं हे १, संसारिया खलु पाया, तसा वि पाया थावरचाए पश्चायति पावरा वि पाया तसचार पच्चायंति, उसकायाथो विष्पवृष्यमया सब्वे धावरकासि उपअंति, थावरकायाओ विप्पसुमाया सधे तसकासि उवजांति तेतिसकार्यसि उबवन्नाणं ठाय मेयं अधत्तं, ते पाणात्रि वुच्चनि, ते महाकाया ते चिरडिया, ते बहुपरगा पाया जेहिं समगोत्रासगस्त सुपश्चक्खायं भवति, ते अपयरागा पाया मेहि समयोमासगस्त अपच्चक्खायं भवइ, से महया तसकायाश्रो उवसंतस्स उडियस पडिविरयस्स जन्नं तुब्भे वा अन्नो वा एवं वदहयत्थि खं से केइ परियाए जं से समणोवासगस्स एगपाखार वि दंडे शिक्खिते श्रयं पि भेदे से णो णेथाउ भवइ || १३ ॥ ( सवायामित्यादि ) सद्वाचं, सवायं वा तमुदकं पेढालपुत्रं गौतमस्वाम्येवमवादीत्। तद्यथा - नो खल्वायुष्मन्नुइक ! अ स्माकमित्येतदेशे गोपालाङ्गनादिसिद्धं संस्कृत मेयोच्यते तदिहापि तथैवोधारितमिति तदेवमस्माकं तदशोभनं किं तईि ? युवामेवा प्रयादेतदशोभनम् । इदमुकं भवति- अस्मद्वयेनास्य चो चस्यानुत्थानमेष तथाहि भूतं न सभवति नापि क दाचिद्भविष्यति यदुत सर्वेऽपि स्थावरा निपतया इस त्वं प्रतिपद्यन्ते, स्थावराणामानन्त्यास्त्रसानां चासंख्येयत्वेन तदाधारत्वानुपपत्तेरित्यभिप्रायः तथा असा अपि सर्वेऽपि न स्थावरस्वं प्रतिपणा न प्रतिपद्यन्तेनापि प्रतिपत्स्यते । इदमु भवति यद्यपि विवक्षितकालयर्तिगखसा कालपर्यायेण स्थावर कायस्थेन यास्यन्ति तथाऽप्यपरापरत्र सोत्पस्या सजात्यनुच्छेदान्न कदाचिदपि श्रसकायशून्यः संसारो भ तीति तदेवान्तेन चधानुयानमेव अभ्युपगम्य च भवदीयं पक्षं युष्मभ्युपगमेनैव परिहियते तदेव पराभि प्रायेण परिहरति प्रत्यसी पर्यायः स वायम् भवदभिप्राये या सर्वेऽपि स्थावराचार्य प्रतिपद्यन्ते यमित्यर्थाचे अवस्थाविशेषे श्रमणोपासकस्य कृतत्राद्यातिपातनिवृतेः सतः असत्वेन च भवदभ्युपगमेन सर्वप्राणिनामुत्पत्तेः तैश्च सर्वप्रादिभिनसत्वेन भूतैरुपसैः करणभूतैः तेषु वा विषय भूतेषु इण्डो निक्षिप्तः परियमेवति यदा सर्वेपि स्थावराः भवदभिप्रायेण श्रसत्वेनोत्पद्यन्ते तदा सर्वप्राणिविषयं प्रत्याख्यानं श्रमणोपासकस्य भवतीति । एत देव प्रश्नपूर्वकं दर्शयितुमाह - ( कस्ल णं हे मित्यादि ) सुगमं यावत्सकाये समुत्पन्नानां स्थान मे तदधात्यम् श्रघाताई तत्र विरतिसद्भावादित्यभिप्रायः ते च सा नरक तिर्थरा मरगतिभाजः सामान्यसंज्ञया प्राणिनो ऽप्यभिधीयन्ते । तथा विशेषसंज्ञा भवचलनोपेतस्यास्थता अप्युच्यन्ते तथा म हान् कायः शरीरं येषां ते महाकायाः, वैकियशरीरस्य यो. ढालपु जनसममात्यादिति तथा विरस्थितिका 1 गरोपम परिमाणत्वाद्भवस्थितेः तथा ते प्राणिना बहुत मा भूयिष्ठा यैः श्रमणोपासकस्य सुप्रत्यादवानं भवति, सानुद्दिश्य तेन प्रत्याश्यानस्य प्रसादभ्युपगमेन च सर्वस्थाबराणां सरगोपशेरतस्तेऽपतरकाः प्राणिनो यैः करणभूते भावकस्याप्रत्याख्यानं भवति भवतिअल्पशब्दस्याभाववावित्वान्न समस्येष ते येष्यप्रत्याख्यानमितीस्येवं पूर्वोक्क्रया नीत्या ( से ) तस्य भ्रमणोपासकस्य म. इतालकाय । दुपशान्तस्य उपरतस्य प्रतिविरतस्य सतः सुप्रत्याययानं भवतीति संबन्धः, तदेवं व्यवस्थिते वमिति वाक्यालङ्कारे सूर्य व अन्यो वा निय सावित्यादि सुगमम् यावत् (खो णेयाउए भवर ति) ॥१३॥ साम्प्रतंत्रानां स्थावरपर्यायाऽऽपन्नानां व्यापादनेनापि न व्रतमो मतीस्पर्थस्य प्रसिद्धये त्रयमाहभगवं च उदाहू नियंता खलु पुछिया भाडसंतो गां एवं बुतपुत्रं भवइ जे इमे मुंडे नियंठा इह खलु संतेगइया मगुस्सा भवंति तेसिं च भविता भगाराम्रो (अ) गारियं पव्वइए एसिं च णं आमरणंताए दंडे शिक्खित्ते, जे इमे अगारमावसंति, एएम मामरणंता दंडे यांचे कई च गं समथाब्जाव वासाई चपंचमाई बट्टहसमाई अप्पयरो वा भुजयरो वादे दुइञ्जिता अगारमावसेज्जा १ । इंता वसेज्जा, तस्स यं तं गारस्थं वहमायस्य से परखा भंगे भव । यो तिखट्टे समद्वे, एवमेव समयोवागस्य वि तहिं पा हिं दंडे शिक्खित्ते, थावरेहिं पाणेहिं दंडे यो णिक्खिते, तस्स णं तं थावरकायं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे यो भंगे भवइ, से एवमायाग्रह १, खियंडा ! एवमायाविषयं ॥ १४ ॥ (भगवं च समित्यादि) पमिति पाक्पारे रा पुनः शब्दार्थे पुनरपि भगवान् गौतमस्थास्वाह रिहरणार्थमपरानपि ततः स्थविरान् साक्षिणः कर्तुमिदमाहनिर्ग्रन्थाः युष्मत् स्थविराः खलु प्रष्टव्यास्तद्यथा-आयुष्मन्तो नि " युवामध्ये यमाणमभिमत माहोस्थिप्रेति । अथ इम्मेन वेदमाह युष्माकमध्येतदभिप्रेतं यदहं तथाशान्तिरुपशमस्तत्प्रधाना एके केचन मनुष्या भवन्ति न नरकतिर्यदेवाः किं तर्हि ? मनुष्याः, तेऽपि नाकर्मभूमिजा नापि म्लेच्छा अनार्या वा तेषां चार्यदेशोत्पन्नानामुपशमप्रधानानामेतदुक्तपूर्वे भवति श्रयं व्रतग्रहणविशेषो भवति । तद्यथा-यें इमे मुण्डा भूत्वाऽगाराद्-गृहानिर्गस्थानगारतां प्रतिपचाः प्रवजित इत्यर्थः । एतेषां बोपर्यारणा म या दण्डो निक्षिप्तः परित्यक्लो भवति । इदमुकं भवतिकश्चित्तथाविधो मनुष्यो यतीनुद्दिश्य वतं गृह्णाति तद्यथान मया यावज्जीवं यतयो हन्तव्याः तथा ये खेमे गारं-गृहबालमानसति तेषां दो निक्षिप्त इत्येवंप प्रणविशेषे व्यवस्थिते सति इदमपदिश्यते भ्रमजिताः कियन्तमपि कालं ममापर्या -- केचन प्रति Page #1111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ({otta) अभिधान राजेन्द्रः । पादयतमेव कालविशेषं दर्शयति यावद्वर्षाणि चत्वारि पञ्च या षड् दश वा अस्य चोपलक्षणार्थत्वादन्योऽपि कालविशे षो द्रष्टव्यः । तमेषाऽऽह अल्पतरं वा प्रभूततरं वा कालं तथादेशं च ( दूइजइति ) विहृत्य कुतश्चित् कर्मोदयात्तथाविधपरिणतेरगारं - गृहबासं वलेयुर्गृहस्था भवेयुरित्येवंभूतः पर्यायः किं सम्भाव्यते, उत नेश्येवं पृष्ठा निर्मन्थाः प्रत्यूषुःइम्स ! गृहवासं व्रजेयुस्तस्य च यतिबधगृहीतव्रतस्य तं गृहस्वं व्यापादयतः किं प्रभङ्गो भवेत् । उत मेति । आहुः-नेति, एषमेष श्रमणोपासकस्यापि प्रसेषु दण्डो निक्षिप्तो न स्थावरे. स्थिति, अता स्थावरपर्यायांऽऽपनं व्यापादयतस्तत्प्रत्या क्यानभङ्गो न भवतीति ॥ १४ ॥ साम्प्रतं पुनरपि पर्यायाऽऽपस्यान्यथात्वं दर्शयितुं द्वितीयं तं प्रत्यायादविषयगतं दर्शवितुकाम भाइ भगव च उदा नियंठा स्खलु पुछिया- माउसंतो! नियंठा !, इह खलु गाहावई वा गहावइपुतो वा तहपगारेहिं कुलेहिं आगम्म धम्मं सवयवत्तियं उनसंक मेजा १ । ईता उपसंकमेज । तेसिं च य सहप्पगाराणं धम्मं श्र. इब्बे । ता आइक्खियो। किं ते तहप्पगारं धम्मं सो ser सिम्म एवं बएज- इयमेव निगंधं पावयणं स अणुतरं केवलियं परिपु संसुद्धं येघाउयं सन (ग) कलयं सिद्धिमगं मुस्तिमग्मं निजायमगं निव्वाणम अषि तहमसंदिद्धं सम्दुक्खपहीण मगं पत्थं दिया जीवा सि मंति बुज्यंति मुचेति परिणिन्यायंति सब दुखाणमंतं करेंति, तमाखाए तहा गच्छामो तहा चिट्ठामो तहा णिसीयामो तहा तुपशमो तहा झुंजामो तहा भा सामोता अट्ठामो तहा उट्ठाए उट्ठेमो हि पाया भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमामो त्ति बज्जा ।। हंता एआ। किं ते तप्यगारा कप्पंति पव्यात्तिए । हंता कप्पंति । किं ते तदप्पगारा कप्पंति मुंडावितए १ । हंता कप्पंति । किं ते तपगारा कप्पंति सिक्खावित्त १ । हंसा कप्पंति । किं ते तहप्पगारा कप्पंति उवद्वावित्तए १ । हंता क पंति । तेसिं चणं सहपगाराणं सव्वपायेहिं ०जाब स वसतेहिं दंडे शिक्खि ते १ । हंता शिक्खिते । सेयां एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा०जाव वासाई चउपंचमाई छट्ट दसमाई वा अप्पयरो वा अयरो वा दे दुइओत्ता भगारं वजा १ | इंता वजा । तस्स यं सव्वपाये हिं०जाव सव्वसतेहिं दंडे खिक्खिते १ । यो इट्टे समट्ठे से जे से जीने जस्स परे सव्वपाणेहिं ०जाव सव्वस सेहिं दंडे यो णिविखते, से जे से जीवे जस्स श्रारेणं सपाहिं० जान सतेहिं दंडे शिक्खिते, से जे से जीवे जस्स इयार्थि सव्वपाणेहिं जाव सत्तेहिं दंडे यो णिक्खिते भवइ, परेणं असंजर आरेणं संजए, इयाणि असंजए, असं जयस्स यं सव्वपाणेहिं० जान: सत्तेहिं दंडे यो शिक्खि पेढालपुत ते भवइ, से एवमायाग्रह ? यिंठा !, से एवमायाणियव्यं ।। १५ ।। ( भगवं च णमित्यादि ) भगवानेव गौतमस्वाम्येवा SSE तद्यथा - गृहस्थाः यतीनामन्तिके समागत्य धर्मं श्रुत्वा सप्रतिपद्य तदुत्तरकालं संजातवैराग्याः प्रवज्यां गृ हीत्वा पुनस्तथाविधक्रर्मोदयात्सामेव त्यजन्ति, ते च पूर्व गृहस्था:- सर्वाऽऽरम्भप्रवृत्तास्तदारतः प्रब्रजिताः सन्तो जी. बोपमपरित्यक्तदण्डाः पुनः प्रत्रज्यापरित्यागे सति नो परित्यक्त्र एडाः, तदेषं तेषां प्रत्याक्यातृणां यथा उपस्थात्रयेऽप्ययथारवं भवत्येवं प्रसस्थावरयोरपि द्रष्टव्यम्। पता भगवं च मुदा" इत्यादेर्धन्यस्य "से पत्र मायाणिय' इत्येतस्य र्यवसानस्य तात्पर्यम्। अक्षरघटना तु सुगमेति स्वबुद्ध्या कार्या। तवेषं द्वितीयं दृष्टान्तं प्रदर्श्याधुना तृतीयं तं परतीर्थोद्देशेन दर्शयितुमाह मग व उदाहु यिंठा ! खलु पुच्छियध्वा-भाउतो नियंठा ! इह खलु परिब्वाइया वा परिव्वाइश्राश्रो वा भवरे हिंतो तिस्थायययेहिंतो भागम्म धम्मं सबणवतियं उवसंमेजा १ | हंसा जबसंक्रमेजा । किं तेसिंहगारयां धम्मे इक्खिपब्बे । हंता भाइ विखयन्त्रे । तं चैव उबट्टा वित्तए० जान कप्पति ? । हंता कप्पंति । किं तहप्पगारा कप्पंति संभुंजित्तए । हंता कप्पंति | तेणं पयारूत्रेण विहारेणं विहरमाया तं चेत्र जाव अगारं एआ ? | हंता व एज्जा । ते णं तपगारा कप्पंति संभुं - जित्तए १ । यो इट्ठे सपट्टे से जे से जीवे जे परेणं नो कति संभुंजितए, से जे से जीवे आरे कप्पंति संभुंजित्तए, से जे से जीवे जे इयाणि यो कप्पंति संभुंजित्तए, परेणं अस्समणे श्रारेण समणेइयाणि अस्समणे, अस्समणेणं सद्धिं यो कप्पंति समयाणं निग्गंथाणं संभुंजित्तर से एवमायाग्रह : खियं. ठा !, से एवमायाणियन्वं ।। १६ ।। ( भगवं च मुदाहुरिस्यादि०जाव से एवमायाणियन्वं ति ) उत्तानार्थम् । तात्पर्यार्थस्त्वयम् पूर्वं परिव्राजकाऽऽदयः सन्तो संभोग्याः साधूनां गृहीतश्रामण्याः साधूनां संभोग्याश संवृत्ताः पुनस्तदभावे त्वसंभोग्या इत्येवं पर्यायाऽन्यथात्वं सस्थावराणामप्यायोजनीयमिति ॥ १६ ॥ तदेवं दृष्टान्तत्रये - प्रथमे दृष्टान्ते इन्तव्यविषयभूतो यतिगृहृस्थभाषेन पर्यायभेो दर्शितो, द्वितीये दृष्टान्ते प्रत्याख्यातृ विषयगतो गृहस्थयतिपुनर्गृहस्थभेदेन पर्यायभेदः प्रदर्शितः, तृतीये तु दृष्टान्ते परतीर्थिक साधुभावो निष्क्रमणभेदेन संभो गालंभोगद्वारेगा पर्याय भेदव्यवस्थापित इति । तदेवं दृष्टान्तप्राचुर्येण निर्दोषां देशविरति प्रसाध्य पुनरपि तद्गतमेव विचारं कर्तुकाम आह भगवं च उदाहु संतेगझ्या समोवासगा भवंति, तेचि एवं वृत्तपुत्रं भवइ - णो खलु वयं संचारमो मुंडा भवित्ता श्रगारा अणगारियं पव्वत्तए, वय गं चाज्रद्दसमुद्दिद्वपुसिमासिणीसु पडिपुषं पोसहं सम्म For Private Personal Use Only Page #1112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेढाल पुस अणुपालेमाणा विहरिस्सामो, धूलगं पाणा इवायं पञ्चकखाइस्मायो एवं धूल सावार्थ भूवगं अदिनादायं धूल मे हुथूलगं परिभाई पच्चक्वाइस्सामो, इच्छा परिमाणं करिस्सामो, दुविहं तिविहेणं, मा खलु ममट्ठाए किंचि करेह या करावे विपच्चक्खा इस्सामो, ते णं भो अपिच्चा असिणाइत्ता आसंदी पेढियाओ पच्चारुहिता, ते तहा कालगया कि वत्तव्त्रं सिया सम्मं कालगत ति १, वसिया, पाविति ते तसा विच्चति ते महाकाया ते चिड़िया ते बहुतरमा पाया जेहिं समणोबासगस्स सुपच्चकवायं भवद ते अप्परगा पाया हिं समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ, इति से महयाओ जं तुम्भे वह तं चैव जाव अयं पि भेदे से णो णे याउए भवइ ॥ १७ ॥ (१००) अभिधान राजेन्द्रः । - (भगवदारित्यादि) पुनरपि गोस्वामी उद प्रतीदमाह । तद्यथा बहुभिः प्रकारैखलसद्भावः संभाव्यत ततः संसारस्तदम्यत्वेन निर्विषयं भावकस्य सपनिवृत्तिरूपं प्रत्नम् तदधुना बहुप्रकारस भूयशून्यसंसारस्य दर्शयति भगवानादखम्ति विद्य न्ते शान्तिप्रधाना वा एके केचन श्रमणोपासका भवन्ति, पदमुपूर्व भवति संयते च वाणामेवंभूतस्य वचसः संभव इति । तद्यथा न खलु वयं शक्नुमः प्रव्रज्यां मिति वाक्पालकारे चतुर्दश्एमपी मासीषु संपूर्ण पोषध माहारशरीर सरकारच व्यापार रूपं पोषयं सम्यगनुपालयन्तो विहरिष्यामः तथा स्थू प्राणातिपातमृषावादादत्ताऽऽदानमैथुनपरिग्रहं प्रत्याख्यास्या मो द्विविधमिति कृतकारितप्रकारद्वयेनानुमतेः श्रावकस्या प्रतिषिद्धत्वात् तथा-त्रिविधेनेति मनसा वाचा कायेन च, तथा माइति निषेधे, खलु इति वाक्यालङ्कारे, मदर्थे पचनपाचनाऽऽदिकं पौषधस्य मम कृते मा कार्ष्ट, तथा परेण मा कारयत तत्राप्यनुमतावपि सर्वथा यदसंभवि तत्प्रत्याख्यास्यामः, ते एवंभूतकृतप्रतिशाः सन्तः श्रावकाः श्रभुक्त्वा अपीत्वा स्नात्वा च पौषधोपेतत्वादा सन्दीपीठिकातः प्रत्यारु - श्रवतीर्य सम्यक पौषधं गृहीत्वा कालं कृतवन्तः ते तथा प्रकारेण कृतकालाः सन्तः किं सम्यक्कृतकाला उताऽस गिति कथं चयं स्यादिति एवं पृष्टेनिरवश्यमेवं वक्तव्यं स्यात् सम्यक्का लगता इत्येवं च कालगतानामवश्यं भावी तेषां देवलोकेषूत्पादः, तदुत्पन्नश्च त्रस एव ततश्च कथं निर्विषयता प्रत्यारूपानस्योपासकस्येति ॥ १७ ॥ पुनरम्यथा आपको देनेव प्रत्यास्थानस्य विषयं प्रदर्श यितुमाहभगवं च उदाहु संतेनइया समणोवासगा भवंति, तेसिं च यं एवं वृत्तपुत्रं भवइ, खो खलु वयं संचामो मुंडा भविता अगाराओ०जाय पाइएको खलु वर्ष संचामो चा उद्दसमुपाभिखीमु० जाव श्रणुपाले माया विहरितए, वयं णं पच्छिम मारणंतियं २७३ पेढालपु संलहणाजू (भू) साजू (झ) सिया भत्तपाणं पडियाइ क्खिया ० जाव कालं खमाया विदरिस्सामो, सन् पाणावायें पच्चकख । इस्सा मो० जाव सव्यं परिग्गहं पच्चक्खा इस्सामोतिषि विवि मा खलु ममद्वार किंचि विजान संदीपढियाओ पच्चोरुहित्ता एते तहा कालगया, किं वत्तब्वं सिया सम्मं कालगय त्ति १, वत्तन्वं सिया, ते पाणा वि वुच्चति ०जाव अपि भेदे से णो णेयाउए भव ॥ १८ ॥ (भगयं च यमित्यादि) गौतमस्वायेाऽनयथा सन्ति विद्यन्ते एके केन भ्रमणोपासकाः तेषां पूर्व म ति तद्यथा खलु न म वर्ष व तुनाऽपि चतुर्दश्यादिषु सम्यक् पौषधं पालयितुं वयं चापश्चिमया प्रतिकायाः यदि वा-लेखनापजोषितानिता उत्तमार्थगुणैरित्येवंभूताः सन्तो भक्तपानं प्रत्याख्याय काले दीर्घकालमनामा वि रिष्यामः इदमुनीकालं पोषचादिकं व सं पालयितुं समर्थाः कितवानिपातादि कं प्रत्याख्याय संलेखनया संलिखितकायाश्चतुर्विधाऽऽद्दारप रित्यागेन जीवितं परित्यकुमलमिति । एतत्सूत्रेणैव दर्श. यति - ( सव्वं पाणाइवायमित्यादि ) सुगमम् । यावन्ते तथा कालगताः किं वक्तव्यमेतत्स्यात्सम्यक् ते कालगता इति ?, एवं पृष्ठ निर्मन्था एतद्धा ते सन्मनसः - शोभनमनसस्ते कालगता इति, ते च सम्यक् संलेखनया यदा कालं कुर्व स्ति तदाऽवश्यमन्यतमेषु देवांकेप्रपद्यन्ते तत्र सोत्पन्ना यद्यपि व्यापादवितुं न शक्यते तथापि सत्वाचे आ वकस्य सवधनिवृत्तस्य विषयतां प्रतिपद्यन्ते ॥ १८ ॥ I ० 3 पुनरष्यन्यथा प्रत्याकयानस्य विषयमुपदर्शयितुमाहभगवं च णं उदाडु संतेगइया मगुस्सा भवंति । तं जहामहइच्छा महारंभा महापरिग्गदा अहम्बिया जाय दुपटियागंदा जाव व्याओ परिग्गदाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताप दंडे शिक्खिते ते ततो आउ प्यिजति ततो जो सगमादा बुग्गामियो भवति ते पाया वि बु. चंति, ते तसा विवृचंति, ते महाकाया ते चिरद्विइया ते बहुवरगा आयाम इति से महवाओं णं णं तुम् बदपि भेदे से सो पाउ भवइ ।। १।। (भगच उदादुरित्यादि) भगवाना-एके केवल मनुष्या एवंभूता भवन्ति । तद्यथा-महेच्छा महारम्भा महापरिग्रदा इ. त्यादि सुगमं यावद्यैर्येषु वा श्रमणोपासकस्याऽऽदीयत इत्यादा नं प्रथमवतग्रहणं तत आरभ्याऽऽमरणान्ताद्दण्डो निक्षिप्तः परित्यक्तो भवति । ते च तादृग्विधास्तस्माद्भवात्कालात्यये स्वा चिजदन्ति त्यक्त्वा त्रसजीवितं ते भूयः पुनः स्वकर्त स्वकु तंदी दुर्गम भा पति- महापरिमृताः पुनरनार कसत्वेनोत्पद्यन्ते ते च सामान्यसंज्ञया प्राणिनी विशेषसंज्ञ. Page #1113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६०) पेढालपुत्त अभिधानराजेन्धः। पेढालपुत्त पात्रता महाकायाः चिरस्थितिका इत्यादि पूर्ववद्यावत् हस्तपादाऽऽदिक्रियासु.तथा-ज्ञानाऽऽवरणीयावृतत्वान्न बहु(णो णयाउए त्ति)॥१६॥ विरताः सर्वप्राणभूतजीवसस्वेभ्यस्तत्स्वरूपापरिशानात्तद्धपुनरप्यन्येन प्रकारेण प्रत्याख्यानस्य विषयं दर्शयितुमाह-- धादविरता इत्यर्थः । ते तीथिकविशेषा बहसंयताः स्वतो. भगवं च णं उदाहु संगइया मणुस्सा भवंति । तं ज. अविरता आत्मना सत्यामृषाणि वाक्याम्यवमिति बश्यहा-अणारंमा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया०नाव स. माणरीत्या वियुजन्ति । "एवं विप्पडिवेदेति" कचित्पाठः, अस्यायमर्थः-एवंविधप्रकारेण परेषां प्रतिवेदयन्ति-शा. धामो परिग्गहाम्रो पहिविरया जावजीवाए, जेहिं समणो पयन्ति, तानि पुनरेवंभूतानि वाक्यानि दर्शयति । तद्यथापासगस्त मायाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते ते तो अहं न हन्तव्योऽन्ये पुनर्हन्तव्याः तथाऽहं नाशापयितव्यः, भाउगं विपजहंति ते तो मुजो सगमादाए सोमाइगा. अन्ये पुनराशापयितव्या इत्यादीन्युपदेशवाक्यानि ददमियो भवंति, ते पाणा वि वच्चंतिजाव णो णयाउए ति । ते चैवमेवोपदेशदायिनः स्त्रीकामेषु मूर्छिता गृद्धा अध्युपपना याववर्षाणि चतुःपञ्चमानि वा षड्दशमानि या भवद ॥३०॥ श्रतोऽप्यल्पतरं वा प्रभूततरं वा कालं भुक्त्वोत्कटा भोगा भो. (भगवं व णं उदाहरित्यादि ) पूर्वोक्नेभ्यो महारम्भपरिन गभोगास्तांस्ते तथाभूताः किञ्चिदशानतपःकारिणः कालमासेपदादिभ्यो विपर्यस्ताः सुशीला: सुव्रताः सुप्रत्यानन्दाः कालं कृत्वाऽन्यतरेष्वासुरीयेषु स्थानेषु किल्विषेष्यपुरदे. साधष इत्यादि सुगम यावत् "णो णेयाउए भाति ।" एते वाधमेषु स्थानपूपपत्तारो भवन्ति । यदि षा-प्राण्युपमर्दोपव सामान्यभावकार, तेऽपि त्रसेम्वेवान्यतरेषु देवेषूत्पद्यन्ते। देशदायिनो भोगाभिलाषुका असूर्येषु-नित्यान्धकारेषुकिल्विष. ततोऽपि न निर्विषयं प्रत्याख्यानमिति ॥ २० ॥ प्रधानेषु नरकस्थानेषु ते समुत्पद्यन्ते; ते च देवा नारका वा किश्चान्यत् त्रसत्वं न व्यभिचरन्ति, तेषु च यद्यपि द्रव्यप्राणातिपातो न भगवं च णं उदाह संतेगड्या मणुस्सा भवंति। तं जहा-अ संभवति, तथापि ते भावतो यः प्राणातिपातस्तद्विरतेर्वि. प्पेच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया. षयतां प्रतिपद्यन्ते. ततोऽपि च देवलोकाच्च्युता नरकोवृताः निष्टपञ्चेन्द्रियतिर्यचु तथाविधमनुष्येषु चैडमूकतया समु. जाव एगच्चामो परिम्गहाम्रो अप्पडिविरया, जेहिं समणो. स्पद्यन्ते,तथा(तमोरूवत्ताए त्ति) अन्धवधिरतया प्रत्यायान्ति, पासगस्स मायाणसो भामरणंताए दंडे णिक्खित्ते, ते त. ते चोभयोरप्यवस्थयोस्त्रसत्वं न व्यभिचरन्ति , इत्यतो न भो भाउगं विप्पजहंति, ततो भुजो सगमादाए सोग्गइगा. निर्विषयं प्रत्याख्यानम, एतेषु च द्रव्यतोऽपि प्राणातिपातः मिणो भवंति, ते पाणा वि बुच्चंति जाव णो णेयाउए संभवतीति ॥ २२॥ साम्प्रतं प्रत्यक्षसिद्धमेव विरतेविषयं दर्शयितुमाहभवइ ॥ २१ ॥ भगवं च ण उदाहु संतेगइया पाणा दीहाउया जेहिं स. (भगवं च णं उदाहुरित्यादि) सुगमम् । यावत् (ो प्याउए सि) एते चापेच्छाऽऽदिविशेषणविशिष्टा अवश्यं प्रकृतिभद्र मणोवासगस्स आयाण सो आमरणंताए जाव दंडे णितया सतिगामित्वेन प्रसकायेत्पद्यन्ते इति द्रष्टव्यम् ॥२१॥ क्खित्ते भवइ, ते पुवामेव कालं करेंति,करिता पारलोइयकिश्चाभ्यत् त्ताए पच्चायंति, ते पाणा वि दुच्चंति, ते तसा वि वुच्चतिभगवं च णं उदाहु संतेगइया मणुस्सा मवेति । तं जहा ते महाकाया ते चिरहिइया ते दीहाउया ते बहुयरगा, जेहिं भारमिया भावसहिया गामणियंतिया कण्हुई रहस्सिया, | समणोचासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ, जाव णो णेयाउएजेहि समणोवासगस्स प्रायाणसो आमरणंताए दंढे णि. भवइ ॥ २३ ॥ क्खित्ते भवइ, णो बहुसंजया णो बहुपडिविरया पाणभूय. (भगवं च णं उदाहुरित्यादि) भगवानाह-यो हि प्रत्याजीवसरोहिं . अप्पणा सच्चामोसा एवं विहिवे. ज्यानं गृह्णाति तस्माद्दीर्घायुष्काः प्राणा:-प्राणिनः, तेच देंति-महं शतब्बो, अन्ने ईतना, आबालसे कालं नारकमनुष्यदेवा द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियतिर्यश्वश्च सम्भवन्ति, ततः कथं निर्विषयं प्रत्याख्यानमिति । शेषं सुगमम् । (जाव किया अभयराइं पासुरियाई किन्दि सियाईजाव उवक णो णेयाउए भवा) ॥ २३ ॥ तारो भवंति, तो विप्पमुच्चमाणा भुज्जो एलमयत्ताए त. भगवं च णं उदाहु संतेगइया पाणा समाउया,जेहिं सम. मोरूवत्ताए पच्चायंति, ते पाणा वि वुच्चंति जाव णो णोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए०जाव दंडे णिक्खित्ते णयाउए भवइ ।। २२ ॥ भवइ,ते सयमेव कालं करेंति,(काल)करित्ता पारलोइयत्ताए (भगवं च णं उदाहुरित्यादि) गौतमस्वाम्येव प्रत्याख्यान पच्चायंति, ते पाणा वि वुच्चंति, तसा वि वुच्चंति,ते महास्य विषयं दर्शयितुमाह-एके केचन मनुष्या एवंभूता भव. स्ति । तराया-भरण्ये भवा श्रारण्यकास्तीर्थिकविशेषाः, तथा काया से समाउया ते बहुयरगा,जेहिं समणोवासगस्स सुपभाषसथिकास्तीर्थिकविशेषा एव,तथा प्रामनिमन्त्रिका, त. चक्खायं भवइ, जाव णो खेयाउए भवइ ।। २४ ॥ था (कारहस्तियत्ति) चित्कार्य रहस्यकाः, कचिद्रह- | एवमुत्तरसूत्रमपि तुल्याऽऽयुष्कविषयं समानयोगक्षेमत्वायू स्यका, पते खर्षेऽपि तीथिकविशेषाः, च नो पा संयता व्याख्येयम् ॥ २४ ।। Page #1114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६१) पेढासपुत्त अभिधानराजेन्द्रः। पेढालपुत्त भगवं च णं उदाहु संतेगइया पाणा अप्पाउया, जेहिं | स्वाऽऽयुष्कं परित्यज्य तत्रैव गृहीतपरिमाणदेश एव-योजना. ऽऽदिदेशाभ्यन्तर एव असाःप्राणास्तेषु प्रत्यायान्ति । इदमुक्त समणोवासगस्स आयाणसो भामरणंताएजाव दंडे णि भवति-गृहीतपरिमाणदेश प्रसाऽऽयुकं परित्यज्य सेवेवो. क्खित्ते भवइ, ते पुवामेव कालं करेंति, करित्ता पारलोइय त्पद्यन्ते, ततश्च तेषु श्रमणोपासकस्य सुप्रत्याख्यानं भव. ताए पञ्चायंति, ते पाणा वि वुचंति, ते तसा वि वुचंति, ते म स्युभयथापि प्रसत्वसद्भावात् । शेषं सुगम, यावत् (यो हाकाया ते अप्पाउया ते बहुयरगा पाणा, जेहिं सपणोवास णयाउए भवतीति ) ॥ २६ ॥ गस्स सुपच्चक्खायं भवइ, जाव णो णेयाउए भवइ ।।२।। __ तत्थ भारेणं जे तसा पाणा जेहिं सपणोवासगस्स तथाऽऽऽयुष्कसूत्रमप्यतिस्पष्टत्वात् सूत्रसिद्धमेवाइयां भायाणसो आमरणताए दंडे णिक्विते ते तमो माउं स्तु विशेषो-यावत्ते न नियन्ते तावत्प्रत्याख्यानस्य विषयान. विप्पजहंति , विष्पजहिता तत्थ भारेणं चेव०माव सेषु वा समुत्पन्नाः सन्तो, विषयतां प्रतिपद्यन्ते इति ॥ २५ ॥ थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स भट्ठाए दंडे पुनरपि श्रावकाणामेव दिग्बतसमाश्रयणतः प्रत्याख्यानस्य भणिक्खिसे अपवाए दंडे णिक्खिते तेमु पञ्चायंति, विषयं दर्शयितुमाह तेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे प्रणिक्खित्ते अणट्ठाए भगवं च णं उदाहु संतेगइया समणोवासगा भवंति, दंडे णिक्खित्ते ते पाणा वि बुचंति, ते तसा ते चिरविड्या तेसिं च णं एवं वुत्तपुवं भवा-णो खलु वयं संचाएपो जाव अयं पि भेदे से०॥२७॥ तत्थ जे आरेणं तसा पाणा मुंडे भवित्ताजाव ५०पाए, यो सड वयं पंचापमो जेहिं ममणोवासगस्स प्रायाणसो आमरणंताए दंडेतमओ चाउद्दसहमट्टिपुलमासिणीसु पडिपुराणं पोसहं मणुपालि भाउ विप्पजति, विप्पजहिला तत्य परेणं जे तसा थावरा नए, यो खलु वयं संचाएमो अपच्छिमं० जाव विहरित्तए, पाणा जेहिं समणोवासगस्स प्रायाणसो आमरणाए. वयं च णं सामाइयं देसावगासियं पुरस्था पाईणं वा तेसु पच्चायति, तेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ, पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं वा एतावताजाव सव्वपाणेहिं ते पाणा वि०जाव अयं पि भेदे से॥२८॥ तत्थ ने श्राजाव सव्वसत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते सव्वपाणभूयजीवसत्तेहिं रेणं थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे म. खेमंकरे अहमसि, तत्य आरेणं जे तसा पाणा जेहिं मिक्खित्ते अणट्ठाए णिक्खित्ते ते तो भाउं विप्पजहंति, समणोवासगस्त मायाणसो भामरणंताए दंडे णिक्खित्ते, विप्पजहित्ता तत्थ पारणं चेव जे तसा पाणा जेहिं समणो तो माउ विप्पजहंति, विप्पजहित्य तत्थ आरेणं चेव जे वासगस्स आयाणसो भामरणंताए तेसु पच्चायंति, तेसु तसा पाणा जेहिं समयोवासगस्स आयाणसो जाव तेसु | समणोवासगस्स सुपचक्खायं भवइ, ते पाणा वि .जाव पच्चायंति, जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ, ते अयं पि भेदे से णो . ।।२७॥ तत्य जे ते भारेणं जे थापाणा वि जाव अयं पि भेदे से० ॥ १६ ॥ वरा पाणा जेहिं समयोवासगस्स अट्टाए दंडे प्रशिक्खिसे. अणट्ठाए णिक्खिचे, ते तो पाउं विप्पजहंति, विप्पज(भगवं च णमित्यादि) सुगमं यावत् (वयं णं सामाइ हिता ने तत्थ भारेणं चेव जे थावरा पाणा जेहिं समयं देसावकासियं ति) देशेऽवकाशो देशावकाशः, तत्र भ. वंदेशावकाशिकम् । इदमुक्तं भवति-पूर्वगृहीतस्य दिग्व योवासगस्स अट्ठाए दंडे मणिक्खित्ते अणहाए णिक्खि. तस्य योजनशताऽऽदिकस्य यत्प्रतिदिनं संक्षिप्ततरं योजनग. ते तेसु पञ्चायंति, तेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए अणंडाए व्यूतिपत्तनगृहमर्यादाऽदिकं परिमाणं विधत्ते तद्देशावकाशि | ते पाणा वि जाव अयं पि भेदे से णो.॥३०॥ तत्थ जे कमित्युच्यते । तदेव दर्शयति-(पुरत्था पाईणमित्यादि)। ते भारेणं थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अठाए दंप्रातरेव प्रत्याख्यानावसरे दिगाश्रितमेवंभूतं प्रत्याख्यानं | करोति, तद्यथा-प्राचीन-पूर्वाभिमखं प्राच्यां विश्येता आणक्खित्त भट्टाए णिक्खित्ते तो श्राउ विप्पजचन्मयाऽद्य गन्तव्यं, तथा प्रतीचीनं-प्रतीच्यामपरस्यां इंति, विप्पजहिता तत्थ परेणं जे तसगावरा पाणा जेहि दिशि, तथा दक्षिणाभिमुखं-दक्षिणस्यामेवमुदीच्यां दि. समणोवासगस्स प्रायाणसो आमरणताए तेसु पच्चायंति, श्येतावन्मयाऽद्य पञ्चयोजनमात्रं तदधिकमूनतरं वा गन्त व्यमित्येवंभूतं स प्रतिदिनं प्रत्याख्यानं विधत्ते, तेन च गृ. तेहिं समयोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ, ते पाणा वि. हीतदेशाधकाशिकेनोपासकेन सर्वप्राणिभ्यो गृहीत परिमाणा- जाव अयं पि भेदे से णो णेयाउए भपड़ ॥ ३१ ।। स्परेण दण्डो निक्षिप्तः परित्यको भवति। ततश्चासौ श्राव- तत्य जे ते परेणं तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स कः सर्वप्राणभूतजीवसवेषु क्षेमकरोऽहमस्मि इत्येवमध्य. आयाणसो आमरणंताए० ते तमो भाउं विप्पजहंति, विप्पबसायी भवति, तत्र गृहीतपरिमाणे देशे ये पारेण प्रसाः प्राणा येषु श्रमणोपासकस्याऽऽदान इत्यादेरारभ्याऽऽमरणा जहित्ता तत्थ पारेणं जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स तो दण्डो निक्षिप्तः-परित्यको भवति, ते च प्रसाः प्राणाः आयाणसो आपरणंताए०तेसु पञ्चायंति, तेहिं समयो Page #1115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६२) अभिधान राजेन्द्रः । पेढालपुत वासगस्स सुपरचखाएं भवइ, ते पाया विजाय भयं पि भेदे से हो वाउ भवइ || ३२ ॥ तस्य जे ते परेणं तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए०ते तत्र आउं विष्पजहंति, विप्पजहित्ता तत्थ आरेयं जे बावरा पाया जेहिं समयोवागस्स अट्ठाए दंडे अ शद्वार ते पचायत जेहिं सम गोवासगस्स श्राए अणिक्खिते श्रट्टाए णिक्खि से ० जाव से पाणा वि० जाव अयं पि भेदे से गो० ॥ ३३ ॥ तत्थ ते परे वसवावर पाण। जहि समय बासगस्स आयाणसो मरणंताए• ते तम्रो आउं विष्पजहंति, विध्वजहित्ता सेतरथ परे व जे तथा पाखा जेहि समयोपास गस्स आयाणसो आमरणंताए तेसु पच्चायंति, जेहिं सम कोषागर सुपचक्खा भव, ते पाया षि जाव अयं पि भेदे से खो पाउ भवइ ॥ ३४ ॥ पवमन्याम्यप्य सुत्राणि यानि सर्पायपि, नवरं त प्रथमे सूत्रे तदेव यद्वयाख्यातं तच्चैवंभूतम् । तद्यथा - गृहीत परिमाणे देशे ये वास्ते गृहीतपरिमाण देशस्थास्तेष्वेव सेत्पद्यन्ते । तथा द्वितीयं सूत्रं स्वाराद्देशवर्तिनस्त्रसा धारादेशवर्तिषु स्थापत्पद्यन्ते ॥ २७ ॥ तृतीय स्था राशवर्तिना गृहीत परिमाणाद्देशाद् पहिये असा स्था वराश्च तेषूत्पद्यन्ते ॥ २८ ॥ तथा चतुर्थसूत्रे स्वाराद्देशवर्त्तिनो ये स्थावरास्ते तद्देशवर्त्तिष्येव त्रसेषूत्पद्यन्ते ॥ २६ ॥ पञ्चमं सूत्रं तु श्रराद्देशवर्तिनो ये स्थावरास्तेषु तद्देशवर्तिष्येव स्थावरेषूत्पद्यन्ते ॥ ३० ॥ षष्ठं सूत्रं तु परदेशवर्तिनां ये स्थावरास्ते गृहीत परिमाणास्तेषु प्रसस्थाय रेषूत्पद्यन्ते ॥ ३१ ॥ सप्तमसूत्रं त्विदम् - परदेशवर्तिनो ये असस्थावरास्ते श्रारा देशवर्तिषु श्रसेषूत्पद्यन्ते ॥ ३२ ॥ श्रष्टमसूत्रं तु परदेशवर्तिनो ये सस्थावरास्ते श्राराद्देशवर्तिषु स्थावरेषूत्पद्यन्ते ॥ ३३ ॥ नवमसूत्रं तु परदेशव तिनो ये सस्थावरास्ते परदेशवर्तिष्वेव सस्थावरेत्पद्यन्ते । एवमनया प्रक्रियामाथि सूत्राणि भवनीया नि । तत्र यत्र यत्र तसास्तत्राऽऽदानशः - श्रादेरारभ्य श्रमणोपास केनाऽमरणान्तो दण्डस्त्यक्त इत्येवं योजनीयं यत्र तु स्थावरास्तत्रार्थाय दण्डो न निक्षिप्तो-न परित्यक्को ऽनर्थाय च दण्डः परित्यक्त इति । शेषाक्षरघटना तु स्वबुद्ध्या विधेयेति ॥ ३४ ॥ तदेवं बहुभिर्दृष्टान्तैः सविषयतां श्रावकप्रत्याख्यानस्य प्रसाध्याधुनाऽत्यन्तासंबद्धतां चोद्यस्थ सूत्रे दर्शयितुमाह भगवं च यां उदाहु य एतं भूयं ण एवं भव्वं एतं भविस्संति जं णं तसा पाणा वोच्छिज्जिर्हिति थापरा पाया भवितति, पावरा पाणा वि बोच्छिर्दि ति तसा पाखा भविस्संति, श्रव्वोच्छिन्नेहिं तसथावरेहिं पाणेहिं जं गं तुम्भे वा अन्नो वा एवं वदह -- यत्थि सं से के परियाए • जान यो रोयाउए भवई ।। ३५ ।। पेढालपुत्त (भगच उपहरित्यादि) भगवान् गौतमस्वाभ्युदकं प्रत्येतदा तद्यथावद्भूतमनादिके काले प्रागतिक्रान्ते नाप्येतदेशेनले फालेमा भवति । ये असा प्राणाः सर्वथा निर्देयतया स्वायुध्देदेनोच् त्स्यन्ति - स्थावरा भविष्यन्ति इति । तथा स्थावराश्च प्राणिनः कापि नैव समुत-सा भविष्यन्ति यद्यपि च तेषां परस्पर संक्रमेण गमनमस्ति तथापि न सामस्त्येनान्यतरेपामितरत्र सद्भावः तथाहि भूतः संभ वोऽस्ति यदुत प्रत्याख्यायिनमेकं विहाय परेषां नारकातिर मनुष्यदेवानां च सर्वदामा चः । एवं च त्रसविषयं प्रत्याख्यानं निर्विषयं भवति, यदि तस्य प्रत्याख्यानितो जीवत एव सर्वेऽपि नारकाऽऽदयस्त्र साः समुच्यते न वास्य प्रकारस्य संक्रम्यावे. नेति स्थावराणां मानतानामनन्तत्वादेव येषु त्रपादइति प्रतीतमिदं देवमव्यवस्था परे प्रतिदिन मम्पो वा कचिदति तथा नात्यसौ पर्यायो यत्र चालकस्यैकत्र सविषयो 3पि दण्डपरित्याग इति नीत्या सर्वमशेोभनम ति ।। ३५ । साम्प्रतमुपसंजिघृचुराह - णं भगवं च उदानु आउसंतो ! उना जे खलु समर्थ वा माहणं वा परिभासेइ मित्ति मन्नति आगमित्ता खाणं श्रागमित्ता दंसणं आगमित्ता चरितं पावाणं कम्पां करागार से खलु पर लोग पलमंधचार पिडा, नेटबु चिट्ठा, समयामा । परिभासह मिति मति आगमि त्ता खाणं श्रागमित्ता दंसणं श्रागमित्ता चरितं पावाणं क या अकराए से खलु परलोगविसुद्धीए निद्रा, त णं से उदर पेढालपुत्ते भगवं गोयमं श्रणाढायमा ले जामेव दिसिं पाउन्भूते तामेव दिसिं पहारेत्यगमणाए ।। ३६ ।। ( 9 उदादुरित्यादि) गौतमस्वाम्पाद आयुष् स्नुद्रक ! यः खलु श्रमणं वा यथोक्तकारिणं माद्दनं वा स परमानन्दति मैत्रीमयमानोऽपि तथा सस्यकज्ञानमागम्य, तथा दर्शनं चारित्रं च पापानां कर्मणामकरणाय समुत्थितः स खलु लघुप्रकृतिः पण्डितंमन्यः परलोकस्य मुगलिस्य तत्कारणस्य वा सरसंयमस्य पलिस्थाय सलिना तद्विघाताय तिष्ठति य स्तु पुनर्महासस्वरत्नाकर गम्भीरो व मादीन् प रिमापते तेषु च परमां नेत्र सम्यते सम्यदर्शनानचारित्रा एयनुगम्य, तथा पापानां कर्मणामकरणायोस्थितः स खलु पर. लोकतते । अनेन च परपरावर्तन पथा पापदर्शनतो गौतमस्वामिना स्वयं परि भवति, तदेवं यथावस्थितमर्थ गौतमस्वामिनाऽवगमितोऽप्यु दकः पेदालकपुत्री बदा भगवन्तं गोतमममामा यस्या दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं गमनाय संप्रचारितवान् ॥ ३६ ॥ Page #1116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१३) पेढालपुत्त अन्निधानराजेन्दः। पेमाबंध तं चैवमभिप्रायमुदकं दृष्टा भगवान्गौतम णं से उदए पेढालपुत्ते समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो स्वाम्याह । तद्यथा आयाहिणं पयाहिणं करेइ, तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं भगवं च णं उदाहु आउसंतो उदगा! जे खलु तहाभू करित्ता वंदइ, नमसति वंदित्ता नमसतित्ता एवं वयासी-इतस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमनि पारियं च्छामि णं भंते ! तुम्भं अंतिए चाउज्जामामो धम्माओ पंचधम्मियं सुवयणं सोच्चा निसम्म अप्पाणो चेव सुहमाए महब्बइयं सपडिकमणं धम्म उवसंपज्जित्ता ण विहरित्तए । पहिलेहाए अणुत्तरं जोगखेमपयं लंभिए समाणे सोवि तए णं समणे भगवं महावीरे उदयं एवं वयासी-अताव तं आढाइ, परिजाणाति, वंदति, नमसति, सक्कारेइ, स हासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करे(ह)हि, तए णं से उदए रमाणे इ० जाव कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जवास पेढालपुत्ते समणस्स भगवो महावीरस्सं अंतिए चाउति ॥ ३७ ॥ जनमाओ धम्माप्रो पंचमहन्वइयं सपडिक्कमयं धम्म उवआयुष्मन्नुदक! यः खलु तथाभूतस्य श्रमणस्य ब्राह्मणस्य वा. ऽन्तिक-समीपे एकमपि योगक्षेमाय पद्यते-गम्यते येनार्थस्त संपज्जित्ता णं विहरइ त्ति वेमि ॥४०॥ स्पदं योगक्षेमपदं, किंभूतम?, आर्यम्-आर्यानुष्ठानहेतुत्वादार्य, ततोऽसौ गौतमस्वामी तं गृहीत्वा तीर्थकरान्तिकं जगाम, तथा धार्मिक.तथा शोभनवचनं सुवचन-सद्भतिहेतुत्वात्तदेवं. उदकश्च भगवन्तं वन्दित्वा पञ्चयामिकधर्मग्रहणायोस्थितो, भूतं पदं श्रुत्वा-निशम्यावगम्य चाऽऽत्मन एव तदनुत्तरं योग- भगवताऽपि तस्य सप्रतिक्रमणः पञ्चयामो धर्मोऽनुज्ञातः, क्षेमपदमित्येवमवगम्य सूक्ष्मया कुशाग्रीयया बुद्धद्या प्रत्युपेक्ष्य स च तं तथाभूतं धर्ममुपसंपद्य विहरतीति । इति परि. पर्यालीच्य, तद्यथा-अहमनेनैवंभूतमर्थपदं लम्भितः-प्रापितः समाप्त्यर्थे, धीमीति पूर्ववत् , सुधर्मस्वामी स्वशिष्यानिदसन्नसावपि तावल्लौकिकस्तमुपदेशदातारमाद्रियते-पूज्योज्य माह । तद्यथा-सोऽहं ब्रवीमि येन मया भगवदन्ति के श्रुतमिति । मित्येवं जानाति, तथा कल्याणं मङ्गलं देवतामिव स्तौति- सूत्र०२२०७ अ० वाणिजकग्रामे पेढालगृहपतिना भद्रायां ज. पर्युपास्ते च, यद्यप्यसौ पूजनीयः किमपि नेच्छति तथाऽपि निते स्वनामरुपाते पुरुष,सच द्वात्रिंशत्कन्या: परिणीय वीरा तेन तस्य परमार्थोपकारिणो यथाशक्ति विधेयम् ।। ३७ ॥ स्तिके प्रवज्य बहुवर्षाणि प्रवज्यां परिपाल्य संलेखनया मृत्वा सर्वार्थसिद्धे विमाने उपपद्य महाविदेहे सत्स्यतीत्यनुसरो तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वयासी-ए पपातिकदशानां तृतीये वर्ग अष्टमाध्ययने सूचितम् । अ. तेसिणं भंते ! पदाणं पुचि अन्नाणयाए असवणयाए अबो गु० । स्था। दिख अणभिगमेणं अदिवाणं असुयाणं अमुयाणं अविनाया- पेढिया-पीठिका-स्त्री०। ग्रन्थभूमिकायाम् , यस्यामुक्ताया प्रयोगदा अणिगढाणं अविच्छिन्नाणं अणिमिट्ठाणं मेव ग्रन्थार्थोऽवतिष्ठते । प्रा० म० ११० । रा०। नि० चू०। अणि वृहाणं अणुवहारियाणं एयमझु णो सदहियं णो प- पढिपाय-प्रतिपाद-पुं० । मूलपादानां प्रतिविशिष्टोपटम्भत्तियं णो रोइयं,एतेसि णं भंते! पदाणं एपिंह जाणयाए । करणाय पादेपु, " नाणामणि मया पेढीपादा।" जी०३ प्रति. ४अधि०। (अत्र प्राकृतव्याकरणं चिन्त्यम्) सवणयाए बोहिए०जाव उवहारण याए एय मह सदहामि, पेएडव-मस्थाप-धा० । प्रस्थानकारणे, "प्रस्थापेः पट्टवपत्तियामि.रोएमि, एवमेव से जहेयं तुम्मे वदह ।।३८ ।। पेण्डवी"॥ ८।४। ३७ ॥ इति प्रपूर्वस्य तिष्ठतेर्यन्तस्य तदेवं गौतमस्वामिनाऽभिहित उदक इदमाह-तद्यथैतेषां पेण्डयाऽऽदेशः । प्रा०४ पाद । पदानां पूर्वमशानया+श्रवणतया बोध्या चेत्यादिना विशेषण - कदम्बकेन न श्राद्धनं कृतवान् ।साम्प्रतं तु युष्मदन्तिके विज्ञा पेम-प्रेमन्-न । अभिष्वङ्गलक्षणे रागे, और। मायालोभरूपे यैनमर्थ श्रद्दधेऽहम् ।। ३८ ॥ (उत्त.६०)स्नेहे. स्था० ३ठा० ३३० । "प्रथमतर. मथेदं चिन्तनीयं न वाऽऽसीद . बहुजनदयिते न प्रेम कृत्वा तए णं भगवं गोयमे उदयं पेढाल पुत्तं एवं वयासी-स जनेन । हतहदय निरास क्लीय! जंतप्यसे किन हिजडगत तो. दहाहि णं अजो! पत्तियाहिणं अज्जो !रोएहि णं अज्जो ! ये सेतुबन्धाः क्रियते ॥ १॥" प्राचा०१ श्रु० २ १०५ उ०। एवमेयं नहा णं अम्हे वयागो, तए णं से उदए पेढालपुत्ते कन्नसुक्खेहि सद्देहि, पमं नाभिनिवसप । भगवं गोयम एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुम्भं अंतिए दारुणं ककसं फासं, कारण अहिासए ॥ २६ ॥ चाउज्जमाओ धम्माओ पंचमहन्धाइयं सपडिक्कमणं धम्म कर्णसौख्यहेतवः कर्णसौख्याः शब्दाः वेणुवीणाऽऽदिस. उसपजित्ता ग विहरित्तए ॥ ३९ ॥ म्बन्धिनस्तेषु प्रेम-रागं न अभिनिवेशयेत् , न कुर्यादित्यर्थः। एवमवगम्य गौतमस्वाम्युदकमेवाह-यथाऽस्मिन्नर्थे श्रद्धा. तथा दारुणमनिटं, कर्कशं-कठिनं, स्पर्शमुपनतं सन्तं काये. नं कुरु,नान्यथा सर्वज्ञोक्तं भवतीति मत्वा, पुनरप्युदक एवमा. न अधिसहेन तत्र द्वेष कुर्यादिति,अनेनाऽऽद्यन्तयो रागद्वेषनि हु-इष्टमेवैतन्मे, किं त्यमुष्माउचातुर्थामिकाद्धर्मात्पश्चयामिक | राकरणेन सन्द्रियविषयेषु रागद्वेषप्रतिषधी वेदितव्यः। इति धर्म सम्प्रति सप्रतिक्रमणमुपसंपद्य विहर्तुमिच्छामि ।। ३६ ।। सूत्राऽर्थः ॥ २६ ॥ दश०८ अ०। तए णं से भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं गहाय जेणेव पेमरागरत्त-प्रेमरागरक्त-त्रि० । कामरागप्रथिलीकृते, तं०। समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता तए पेमाबंध-प्रेमाबन्ध-पुं० । प्रेमरूपे पा-समन्ताद् बन्धे प्रेम्णोध. Page #1117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेमाबंध अभिधानराजेन्डः । पेसप्पयोग न्धाभावे, 'गते प्रेमाबम्धे प्रणयबहुमाने च गलिते,निवृत्ते सन्। करणं निर्वर्तकम् । वंशाऽऽदिमय्यां शलाकायाम् , यया पेलुः भावे जन इच जने गच्छति पुरः । समुत्प्रेक्ष्योत्प्रेक्ष्य प्रियसखि! क्रियते । विशे० । गतांस्तांश्च दिवसा- जाने को हेतुर्दलति शतधा यन्न हदय पेलग-पलक-न० । अनन्तजीवधनस्पतिभेदे, प्रशा० १ पद । म? ॥१॥"प्राचा०१श्रु०२ १०५ उ०। पेम्म-प्रेमन्-न । तैलाऽऽदौ'।८।२११८॥ इति मद्वित्वम् । पेलेजा-प्रेरयेत-क्रिया । संयमभारं बलादपहत्याऽऽपातयेत् । "पेम्म।" राग. प्रा०२ पाद । ०१ उ०२ प्रक०। पंय-प्रेत-पु० । मृते, व्यन्तरविशेषे च । भ. ३ श०७०। पेल्ल-क्षिप-धा० । प्रेरणे, " क्षिपेर्गलस्थाइक्व-सोल्ल-पेल्ल - प्रेयस-त्रि०ा अतिशयेन प्रिये, औ० स्त्रियां प्रेयसी । श्री। गोल-छुह-हुल-परीघताः "॥८।४। १४३ ॥ इति क्षिपः प्रे. पंयकाइय-प्रेतकायिक-पुंग व्यन्तरविशेषे,भ० ३ श०७ उ० । ल्लादेशः । प्रा०४ पाद । पयदेवलकाइय-प्रेतदेवलकायिक-पुं० । प्रेतसत्कदेवतानां प्रेर्य त्रि०। दरिद्रे. "पेल्लस्स तेण कप्पति।" पेल्लो दरिद्रो। नि० सम्बन्धिनि, भ०३ श०७ उ० । । चू०१ उ०। पेया-पेया-स्त्री०। अल्पतण्डुलसहिते राद्ध दुग्धे, ध०२ पल्लग-प्रेरक- पुं० । श्वगवीनां स्वगृहे प्रविशन्तीनां नि. अधिः । दुग्धकालिके, प्रव०४ द्वार । वायविशेषे, रा . वारके,१०१ उ० २ प्रक० । सार्थाऽधिपस्य सार्थस्य प्रक तक, पेयाल-पेयाल-न । प्रमाणे, नं० । श्रा० म० । व्य । अप. नि. चू०। १६ उ०। पेलण-प्रेरण-न० चोदने, नि० चू. १७ उ० । रिक्षाने अन्तर्गमने, प्रा० चू० १ ० । "निवम्गसुत्तत्थगः । हणपेयाला उभयलोगफलवती । " प्रा० क० १०। पेल्लपया-प्रेरणा-स्त्रीका विषयार्थना प्रेरणे, वृ.१ उ०२ प्रक। सारे प्रधाने, "पंच अइयारा जाणियचा न समारियव्या।" पेलिअ-देशी-पीडिते, दे० ना०६ वर्ग ५७ गाथा। साराः-प्रधानाः स्थूलत्वेन शक्यव्यपदेशात् । उपा० १ ०। पल्लिय-प्रेरित-त्रि० । पातिते, व्य०२ उ०। परंत-पर्यन्त-पुं० ।" एतः पर्यन्ते" ॥८।२। ६५ ॥ इत्येका. पेश्व-प्र-ईक्ष-धा० । दर्शने, प्रा० । पेच्छइ। " छस्य श्वेोऽनारात्परस्य यस्य सः। परंतो।' अवयविनः सर्वान्तिमप्रदेशे. मा० ३ पाद । "परिजूरियपरंतं ।" वसन्तसमये परिजीर्ण दौ"||८।४।३६५॥ इति छस्य श्वः मागध्याम् । “तिरिश्चि पेश्चदि।" तिर्यक् प्रेक्षते। प्रा०४ पाद। पर्यन्तम् । अनु० । “छेत्रा पेरंत अखंती ।" पाइC ना. १७३ गाथा। पेस-प्रेष्य-पुं० । स्त्री० । यलोपः । "न दीर्घाऽनुम्बारात्" ॥८॥ पेरंतवच्च-पर्यन्तवर्चस-न । मण्डपे गृहे, " मण्डवं परंतवञ्चं २।१२॥ इति सस्य प्राप्त द्वित्वं न । प्रा०२ पाद । प्रे. भलति, सव्वं वा सीथाणं सीताणस्स वा परंतवच्चं भा- षणयोग्य,सूत्र०२६०२०। प्रादेश्ये,प्रश्न०२ श्राश्र द्वार। ति।" नि० चू. ३ उ०। कर्मकरे, सूत्र. १श्रु० ५०२ उ०। प्रेषणयोग्ये भृत्यादी , परज्म-पगवश्य-न । पराधीनस्वे, भ०७श०० उ०। श्राचा० १७०२ १०१ उ० । तथाविधप्रयोजनेषु प्राप्तिकपेरण-देशी-ऊर्ध्वस्थाने, दे० ना० ६ वर्ग ५ए गाथा । रे, बृ०१ उ. ३ प्रक०। नगरान्तगऽऽदिषु प्रेष्यन्ते । शा० १ पेरिज-देशी-साहाय्ये, दे. ना०६ वर्ग ५८ गाथा । श्रु०२० । सिन्धुविषये एव सूक्ष्मचर्मणि पशौ तवमनिष्प वस्त्रे, प्राचा०२ श्रु०१ चू०५०१ उ०। परित-प्रेरित-त्रि । प्रणुन्ने, प्राचा०१ श्रु० ५ अ० १ उ०। सग-प्रेष्य-पुं०। स्त्री०। कर्म करे, सूत्र. १ श्रु०२ १०२ उ०। आवाचा नि००। पेलव-पेलव-पुं० । सुकुमारे, औ०। कोमले, जं०३ वक्षः। पेसगजण-प्रेषकमन-पुं० । प्रयोजनेषु प्रेषणीय लोके, प्रश्न०४ निःसरखे, वृ०१ उ०३ प्रक०"सिणेहा पेलवा हो।"गणा. आश्रद्वार। निर्गते यस्यापि गणस्याऽऽचार्यस्य वा स्नेहः परस्परं पेलवः पेसगसग-प्रेष्वप्रेष्य-पुं०। कर्मकरस्य कर्मकरे, सूत्र०१० प्रतनुर्भवति । व्य० १० उ०। मृदुनि, 'कोमलयं सुहफासं. | २०२ उ०। सोमालं पेलवं मउयं ।" पाइना०८८ गाथा। पेसण-प्रेषण-न० । व्यापारणे.वृ०१ उ०३ प्रक०। नियोजने। पेलवत्तण-पेलवस्व-न । सुदुत्व-लघुत्वे, शा० १७०१०।। सूत्र १ श्रु० . अ०२ उ० भृत्याऽऽदेर्विवक्षितक्षेत्रात् बहिः पलवाइरेग-पेलवातिरेक-पुं० । मृदुत्वलघुत्वगुणे, "हयलाला प्रयोजनाय व्यापारणे, प्रव० । कार्ये, देना०६वर्ग ५७ गाथा । पेल बाइरेग।" हयलाला-अश्वलाला तस्या अपि पेलवाम. पेसणारी-देशी-इत्याम् देना०६ वर्ग ५६ गाथा। तिरकेण हयलालापेलवातिरेकं बाहुलकादेवं समासः । वि. पेसता-प्रेष्यता-स्त्री० । आदेश्यतायाम्, भ०१२ श० ७७०। शिष्टमृदुत्वलघुत्वगुणैरुपेतम् । पाव०१०। पेषपडिमा-प्रेष्यप्रतिमा-स्त्री०ानव मासान् प्रेयरप्यारम्भं न पल-पलक-न०। पूणिकया वलिते क्ते, पृ. १३०३ प्रक०।। कारयतीति नवम्यामुपासकप्रतिमायाम् , ध०२ अधिक। निच० लाटदेशे सतसम्बन्धिनी या पूरिखका इति प्रसि. खा सैव महाराष्ट्रविषये पेलुग्त्युिच्यते। विशे०। पेसपणिमिच-प्रेष्यपशुनिमित्त-न० । कर्मकरगवादिहेती, बेलुकरण-पेलुकरण-न०1 लाटदेशे रूतसम्बम्धिनी या पूणि- प्रश्न०१ श्राश्रद्वार। केति प्रसिद्धा व महाराष्ट्रकविषये पेलुरित्युच्यते, तस्याः पेसप्पभोग-प्रेष्यप्रयोग-पुं०। प्रेष्यस्य-आदेश्यस्य प्रयोगः ।वि. Page #1118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१५) पेसप्पभोग अभिधानराजेन्ः। पहामंडव चक्षित क्षेत्रात् बहिः प्रयोजनाय स्वयं गममे व्रतभरभयाss- सर्व सप्रभेदं प्राणातिपातं १.तथा सर्वमलीकं-मृषावादं २० पन्नस्य व्यापारणे, पश्चा०१ विव०। ध०। तथा सर्वमदत्तम्-अदत्ताऽऽदाम३.तथा सर्व मैथुनं४.तथा सर्वे. पेसयंतिया-पेषपन्तिका-स्त्री० । गोधूमाऽऽदीनां घरहाऽऽदिः परिग्रहं ५,तथा सबै रात्रिभक्तं च-रजनि(नी)भाजमं ६,व्युत्स. ना पेषणकारिकायाम्, शा०१ श्रु०७०। जामः-परिहरामः। तथा सर्व क्रोधं ७,मान,मायां ह.लो. पेसन-पेशल-त्रि० । सुन्दरे, द्वा० १द्वा० । शोभने,माचा० १ भं च १०.रागद्वषो च११-१२,तथा कलहम्१३.अभ्याख्यानं१४, श्रु०६१०५ उ०। उत्त० मनोशे, जी०३प्रति०४ अधिक। पैशुन्यं १५, परपरिवाद, १६, मायामृषां१७, मिथ्यात्वदर्शनशप्रहा। सूत्र।"धम्मं च पेशलं नचा तं पविज भिक्खं ।" ल्यं च १८, तथैव सप्रभेदं व्युत्सृजामः । एतान्यष्टादश पापहे. प्रति। मिष्टवाक्ये विनयाऽऽदिगुणसमन्विते, सूब०१ श्रु. तूनि स्थानकानि पापस्थानकामि । न केवलमेतान्येव, किंतु १३ म० । "ललिभं वग्गुं मंजु, मंजुलयं पेसलं कलं महुरं।" अन्तिमे उच्छासे; परलोकगमनसमये इत्यर्थः । देहमपि निज पाह० ना०८८ गाथा। शरीरमिति व्युत्सृजामस्तत्रापि ममत्वमोचनात् जिमाऽऽदि. पेसलेस-प्रेसलेस-न० । प्रेषचर्म सूक्ष्मपदमनिष्पने वनविशेष, प्रत्यक्ष-तीर्थकरसिद्धाऽऽदीनां समक्षमिति । तत्र प्राणातिपात. प्राचा० २ श्रु०१ चू०५ अ.१ उ० । नि. चू०। मृषावादादत्ताऽऽदानमैथुनपरिप्रहरात्रिभोधमानमायालो. पेसवरणप्पोग-प्रेषणप्रयोग-पुं० । बलाद् विनियोज्य, प्रेष्य. भाःप्रतीताः, तथा रागोऽनभिव्यकमायालोभलक्षणस्वभावभे स्तस्य प्रयोगः । अभिगृहीतप्रवीचारदेशव्यतिक्रमभयाया दमभिष्वामात्रम् । (दोसो त्तिद्वेषणं द्वेषः, क्षणं वा दोषः,स अवश्यमेव गत्वा मम गवाऽऽद्यानेयमिति. या तत्र कर्त चानभिव्यक्तकोधमान लक्षणभेदः स्वभावोऽप्रीतिमात्रम् । कल. व्यमित्येवंभूते देशावकाशिकवताविचारे, ध० २ अधि० । हो-राटी.अभ्याख्यान-प्रकटमसहोषाऽऽरोपणं, पैशुन्यं पिशुनं उपा० । श्राव। कर्म,प्रच्छन्नं सदसदोषाऽऽविर्भावनम् । तथा परेषां परिवादः पेसविध-प्रेषित-त्रि०। प्रस्थापिते, "पेसविध पट्टविनं।" परपरिवादो, विकत्थनमित्यर्थः । तथा माया च-निकृतिा, पाइ ना० २०१ गाथा। मृषा च मृषावाद, मायया था सह मृषा मायामृषा, प्रापेसाय-पेशाच-पुं० । सुप्तप्रमत्तकन्याग्रहणात्मके विवाह. कृतत्वात्-"मायामोसं वा"दोषद्वययोगदोषोपलक्षणं, वेशा. तरकरणेन खोकप्रतारणमित्यन्ये । तथा मिथ्यावर्शनं-वि. भेदे, ध०१अधिक। पिशाचसम्बन्धिनि, वृ०२०। पेसिय-प्रेषित-त्रि०। प्रेषिते, "दुओ पेसियो।" प्रा० म० पर्यस्ता दृष्टिः, तदेव तोमराऽऽदिशल्यमिव शल्यं, दुःखहेतु स्वामिथ्यादर्शनशल्यमिति । स्थानाङ्गे च रात्रिभोजनं पा. १०। पस्थानमध्ये न पठितं, किंतु परपरिवादानतोऽरतिरतिः, पेसी-पेशी-सी० । घनस्वरूपे मांसखण्डे, तं० । दीर्घाऽऽकारे तस्य चायमर्थ:-अरतिश्च तन्मोहनीयोदयजश्चित्तविकार उद्वे. वृक्षमध्यावयवे, नि०० १५ उ० । फल्याम्. आचा०२ श्रु. गलक्षणः,रतिश्च तथाविधाऽऽनन्दरूपा, अरतिरतिरित्येकमेव १चू०७०२ उ01तं० । वृषा विवक्षितं, यतः कवन विषये या रतिस्तामेव विषयान्तरापेसुख-पैशुन्य-न०। परोने सतोऽसतो वा दोषस्योद्घाटने, पेक्षयाऽरति व्यपदिशन्ति । एवमरतिमेव रतिमित्यौपचाप्रशा० २१ पद । औ०। प्रच्छन्नमसदोषाऽऽविकरणे वशा०६ रिकमेकत्वमनयोरस्तीति । ततो रागपदस्थाने "पिज"पदं व अ०। प्रव०। परगुणाऽसहनतया तदोषोघट्टने, सूत्र. १ पठन्ति । तत्र च प्रियस्य भावः कर्म या प्रेम, अर्थस्तु रागश्रु०१६ अपिशुनकर्मणि, रा०1 प्रश्न । स्था० मा पदवाच्य एवेति । प्रव०२३७ द्वार। (अत्रार्थे 'पावट्ठाण शब्दोऽवलोकनीयः) पहण-प्रेक्षण-ना अवलोकने, "चारुपेहली।" उत्त० २२ श्रा 'अट्ठारस पावठाणचाइत्ति' सप्तत्रिंशदधिकद्विशततमः पेहमाण-प्रेक्षमाण- त्रिपालोचने, पाया. १ श्रु०० द्वारमाह ४ उ०प्रकर्षेण पश्यति. दश० ५ अ० १ उ० । आचा० । सव्वं पाणाइवायं १, श्रा० म०। दृश्यवस्तूनि पश्यति।०१७०१० सूत्र। अलिय२ मदचं च ३ मेहुखं सव्वं ४ पहा-प्रेक्षा-स्त्री० । बुद्धौ, उत्त०१०। चिन्तायाम् , बाव० सव्वं परिग्गहं ५ तह, ४०। प्रत्युपेक्षणायाम् , वृ०१ उ०३ प्रक० । राईभत्तं ६ च बोसिरिमो ॥६५॥ पेहाप्रसंजम-प्रेक्षाऽसंयम-पुं०प्रेक्षायामसंयमो यःस तथा। सव्वं कोहं ७ माणं ८, असंयमभेदे, स च स्थानोपकरणाऽऽदीनि अप्रत्युपेक्षणम विधिप्रत्युपेक्षणं वा । स०१७ समः। मायं ६ लोहं १० च राग ११ दोसे १२ य । पेहाए-प्रेक्ष्य-श्रव्य दृष्ट्वेत्यर्थे, श्रावा०१७००४ उ०॥ कलह १३ अब्भक्खाणं १४, पेहादोस-प्रेचादोष-पुं० । कायोत्सर्गदोषविशेषे, प्रत्र । पेसुचं १५ परपरीवार्य १६ ॥ ६६ ॥ अणुपेहंतो तह वा-नरो व्ध चालेइ हट्टफुडे ॥६६॥ मायामोसं १७ मिच्छा अनुप्रेक्षमाणो नमस्काराऽऽदिकं चिन्तयन्नुत्सर्गतो वानर दसणसल्लं १८ तहेव वोसरिमो । व चालयस्योष्ठपुटाविति प्रेक्षादोष इत्येकोनविंशतिः। प्रव. अंतिमऊसासम्पी, ५द्वार। देहं पि जिणाइपच्चक्खं ॥ ६७॥ | पहामंडव-प्रेक्षामएडप-पुं० प्रेक्षणार्थमएडपे, प्रष० २६८ द्वार। Page #1119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेडिय पहिय-प्रेक्षित- त्रिष्टे, श्राचा० २ ० १ चू० ५ ० १ उ० । भावे क्तः । वक्रावलोकने, उत्त० ३२ श्र० । नि० चू० । मेदय - अव्य०। दृत्यर्थे, सूत्र० १० २ ० १ ३० । पेहुण - पेहुण - न० । पिच्छे " पिच्छाई पेहुणाई । " पाइ० ना० १२६ गाथा । दे० ना० । पेहुणा - पेणक - न० | मयूरपिच्छकृतव्यजने श्राचा० २ ० १ चू० १ ० ७ उ० । मयूराङ्गमय्यां पिच्छायाम् बृ० १ उ० ३ प्रक० | दश० । जं० । पेहुणमिजिया - पेहुणमिञ्जिका स्त्री० । मयूरपिच्छमध्यवर्ति न्यां मिजायाम्, जं० १ वक्ष० । श्रा० म० । प्रशा० । पेटुगाहस्थ-पेस्तक-पुं० मयूरास दश० ४ श्र० । मयूरपिच्छकृतव्यजने, आवा० २ ० १ ० १ श्र० ७ उ० । पो-पोत- पुं० । बालके, "उहरी डिमो चुल्लो, सिसू सिलंबा "" श्रम पो । पाइ० ना० ५८ गाथा | जलवद्दनमार्गे, पांश्रवहणं । " 'पाइ० ना० २७३ गाथा । धववृक-लघु योः दे० ना० ६ वर्ग ८१ गाथा । देशी मु - 41 - ( १०६६ ) अभिधानराजेन्द्रः । - पण्डं च । दे० ना० ६ वर्ग ६६ 3 गाथा । संयंत देशी - शपथ, दे० ना० ६ वर्ग ६२ गाथा । पांच स्त्री० [निलुनावाम " पोइआ य वयली मयाली य।” पाइ० ना० १४८ गाथा । निद्राकरलतायाम, ६० ना० ६ वर्ग ६३ गाथा । पोल- देशी आश्विनमासारखवाऽपूपयोः बालसन्त त्यन्ये । दे० ना० ६ वर्ग ८१ गाथा । पांचा देशी ग्रामप्रधानपुरुष, ६० ना० ६ वर्ग ६० गाथा । पोथाई-पोता की स्त्री० । शकुन्तिकायाम, परिब्राजकप्रयुक् (tro चू० १ ० ) विद्याविशेषे च । श्रा० क० १ ० । पांचाल - देशी-वृषभे, दे० ना० ६ वर्ग ६२ गाथा । , " पोहच पोत शि० परांबेलु' (गुजराती) "पिकार-पृत्कार पु० - । इथं " पाइ० ना० २६८ गाथा । काविन्दके, खद्योत इत्यन्ये । दे० ना० ६ वर्ग ६३ गाथा । पोइया - देशी - निद्राकरलतायाम् दे० ना० ६ वर्ग ६३ गाथा । पोड पांति देशी पोई -पांची खी० । ताम्बूलाऽपि कोप ०१०२ लघुलायमुल्यक पोक्खल विभाग पोंडरींग - पुण्डरीक न० । शताम्बुजे, जी० ३ प्रति० ४ श्र धि० । प्रज्ञा० । लोमपक्षिविशेषे. प्रज्ञा० १ पद जी० । भगघत ऋषभस्याऽदिगण घरे, ५०४ ३० क्षीरवर द्वीपाधिपती, स्था०१० ठा० । पुष्कलावतीविजये पुण्डरीकिणीराजमहापद्म पुत्रे, आचू० ४ श्र० । श्राव । श्र० २० सूत्रकृताङ्गाध्य यनभेद, श्रा० चू० १ अ० । सूत्र० । एकोनविंशे ज्ञाताध्ययने, स० १६ सम० । सप्तमदेवलोकीये विमानभेदे, स० सम० । पडरीगतव पुण्डरीकतपम्-न० चैत्रपौर्णमास्यां पुण्डरीकपूजा उपवासाऽऽद्यन्यतरस्मिन् तपसि पञ्च०१६ विव० । पडरीगिणी - पुण्डरीकखी-स्त्री पुण्डरीकाणि-श्वेतपद्मनि विद्यन्ते यस्यां सा पुण्डरीकिणी । सूत्र० २ ० १ ० । पुकरिण्याम् जम्बूद्वीप मन्दरस्योत्तरेण लक्ष्मीदेव्यावासभून, स्था० ३० ४० आ० चू० जम्बूदीपं पुष्कलावतीविजय क्षेत्र युगलराजधानी युगलं. दो पौडगिओ । स्था० २ ठा० ३ उ० । श्राचू० । श्रा० म० । जं० ॥ आ० कर फले, प्रश्न० ४ श्राश्र० द्वारा महा० । पुष्णे च । उत्त० ३ ० । यूथाधिपतौ, दे" ना० ६ वर्ग ६० गाथा । पोंडबद्धणिया- पौण्डबर्द्धनिका स्त्री० । गोदासगणस्य तृतीय शाखायाम्, कल्प० ३ अधि० ८ क । पोंडय - पौण्डज - न० । वनीफलादुत्पन्ने कार्पासिके, सूत्र ० १ ० १ उ० नि० चू० । | 1 पांण्डरीकिणी-स्त्री० । पौण्डरीकाणि - श्वेतपत्रापि ि द्यन्ते यस्यां सा पौण्डरीकिणी प्राचुर्य मत्वर्थीय इनिः । ब हुपद्मायाम् (सूत्र० २ ० २ श्र० ) पश्चिमाञ्जनात्तर. दिग्वर्तियां पुष्करिण्याम् ती० २३ कल्प० । द्वी० महाविदेह मध्यनगरीभेद, विपा० २ ० २ श्र० । पांक- व्याह-विआ हृ- धा० कथने, व्याहृगे: कोकपीकी" || ४| ७६ ॥ इति व्याहरतः पोकाऽऽदेशः । पोक्कर ! व्याहरति । प्रा० ४ पाद । अग्रे स्थूलोन्नत उत्त० १२ श्र पोकनास पांकनासत्रामध्ये " 3 - ना नासा यस्य स पोक्कनासः । चिप्पटनासे, उत्त० १२० पांकरिय-पूत्कारित- न० । भावे क्लः । अहूते, "तओ मरण - भीयाए पोक्करियं ।” दर्श० ३ तत्त्व । पाका पाका ५० जाती मनुष्य छ । - प्रश्न० १ आश्र० द्वार । पोक्खरिणी - पुष्करिणी - स्त्री० । पुष्करवत्यां चतुष्कोणायां वाप्याम् प्रश्न० १ श्रध० द्वार । " असोगणियाए श्र गद्दा पाक्खरिणी संछन्नयत्तं । " श्रावण ६ ० । स्था० । पोरादेशीक ००६६२ गाथा पोंड -पौएड-न० । “पड़ा बमणी तस्स फलं" नि०चू० ३ ३० । पोक्खल पुष्कर - नव । पद्मकेसरे, आचा० २ ० १ ० १ अ०८ उ० । । श्राह्नान, । विशे पोक्खर - पुष्कर - न० " षक स्कयोर्नानि " ॥ ८ । २ । ४ ॥ इति एकस्य खः । प्रा० २ पाद। खद्वित्वम् । खस्य कः । "ओत्संयोगे " ॥ ८ | १ | ११६ ॥ इति उकारस्यौकारः । प्रा० १ पाद। कमले, नि० चू० १२ उ० । पक्खल पुष्करक्षक ०१ पाक्खलपाल - पुष्करपाल - पुं० । वज्रसेननृपुत्रे, आ० चू १ अ० । गोक्खलविभाग पुष्करविभाग- पुं० । पद्मकन्दे, आचा० २ " श्र० ८ ३० । Page #1120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१७) पोक्खलि अभिधानराजेन्डः। पोग्गल पोक्रवलि-पुष्कलि-पुं०। श्रावस्तीवास्तव्ये शतकापरनामके जीवाणं दसटाण' स्था०१० ठा० । इत्यादिसूत्राणि 'पाश्रावके.भ०८ श०१उ०। (संख' शब्द ऽस्य कथां वक्ष्यामि) वकम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ८७८ पृष्ठे गतानि ) पोग्गल-पुल-पुं०। पूरणगलनधाः पुद्गलाः । " श्रोत्संयो. | पुदलान् द्रव्यत्रकालभावैः द्विस्थानकावतारेण निरूपगे" ॥८।१ । ११६ ॥ इत्युकारस्यौकारः । परमाणुद्विप्रदे याह । अनम्ता:शिकाऽऽदो द्रव्यविशेष, श्रा०म०१ अ० प्रा० । "स्पर्शरसग- दुपएसिया खंधा अणंता परमत्ता, दुपएमोगाढा पोग्गला म्धवर्ण-शब्दमूर्तस्वभावकाः । संघातभेदनिष्पनाः, पुद्गला अणंता पमत्ता । एवंजाब दुगुणयुक्खा पोग्गला जिनभाविताः ॥ १॥" वर्श०४ तव । अणंता पत्ता। पुद्गलानां लक्षणमाह "तुपएसि" इत्यादि सूत्रत्रयोविंशतिः, सुगमा चेयं नवरं या. सद्दऽन्धयारउज्जोमो, पहा छायाऽऽतवेइ वा । रकरणात्"तुसमट्टिए"इत्यादिसूत्राएयेकविंशतिधीच्यानि । वनगंधरसा फासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥ १३॥ कालं पश्चांवपश्चाष्टमेवावर्णगन्धरमस्पर्शाश्वाधिस्येति । वाशब्दो-वनिरूपः, पालिका तथा-अन्धकारं तदपि पुद्गलरूप, चना चैवम्-"समयट्ठि(इ)या पोग्गलेत्यादि।" स्था०२ठा०४उ०॥ तथा उद्यातो-रत्नादीनां प्रकाशः, नधा प्रभा-चन्द्राऽध्वीनां पुद्रलस्कन्धान प्रति त्रिस्थानकमाहप्रकाश तथा छाया-वृक्षादीनांछाया शत्यगुणा,तथाभातपी तिपपसिया खंधा अनंता पसत्ता । एवं०जाय तिगुणलबरुण प्रकाशः, इनि पुद्गलस्वरूपं, वाशब्धः समुच्चये, वर्ण। क्खपोग्गला अर्थता पसत्ता । गम्बरसस्पर्शाः पुद्गलानां लक्षणं झयम् । वर्णा:-शुकधीतहरि (तिपासिएत्यादि ) स्पमिति । सर्वसूत्रेषु व्याख्यातशेष तगत रुष्णाऽवयामध:-दुर्गन्धसुगन्धाऽऽत्मको गुणः,रसा: कराव्यम् । स्था० ३ ठा०४ उ० । पद-तीषण कटुककषायाऽम्लमधुरलवणाऽऽयाः, स्पर्शा:-शी. तोपणाखरमृस्निग्धरूक्षलघुगुदिया,एते सर्वेऽपि पुनलास्ति चतुःप्रवेशिका:कायस्कन्धलक्षणा पास्याः या इत्यर्थः, एभिलक्षणैरव पु. चउप्पएसिया खंधा अनंता पसत्ता । चउप्पएसोगाढा पोदला लम्यन्त इति भावः । उस०२८० ग्गला अणंता पसत्ता । चउसमयहिईया पोग्गला भणंताप. वर्णाऽऽदिकगुण मेंदी, ज्ञायते पुद्रलस्य च । (२०) । सत्ता । चउगुणकालगापोग्गला अणंता पमत्ता | जाव च(वर्णेति ) वर्णगन्धरसस्पशीऽऽदिकगुणः पुबलद्रव्यस्य । जग्गुणलुक्खा पोग्गला भयंता पसत्ता । स्था०४ठा०४ उ०। न्येभ्यो धर्माऽऽविद्रव्येभ्यो भेदो ज्ञायते । वर्णाः पञ्च शुक्लपीत. पश्च पुद्रला अनन्ता:हरितरकृष्णभवात् । गन्धौ नौ-सुरभ्यसुरभी चेति । रसाः षट्-तिलक टुककषायामल मधुरलवणभेदात्। स्पर्शा अटी-शी. पंचपएसिया खंधा अणंता परमत्ता । पंचपएसोगाढा पो तोणे,खरमृदू, लघुमहती,स्निग्धरूक्षेच ॥” इति । सर्वमप्येत. ग्गला अणंता पसाता। जाव पचगुणलुक्खा पोग्गला अत्पुबलभदाद्भिद्यते । द्रव्या०१० अध्या०। णता पाता । स्था०५ठा०३०॥ पुद्गलास्तिकायभेदः । पुद्गलाश्चतुर्विधाः पदनदेशिकाः पुद्गला अनन्ताःखंधा, खंघदेसा,खंधप्पएसा,परमाणुपोग्गला। ते समासः | छप्पएसिया णं खंधा अणंता पप्पत्ता । छप्पएसोगाढा ओ पंचविहा परमत्ता । तं जहा-वमपरिणया, गंधपरिणया, पोग्गला अणं०प०,छसमयढिक्या पोग्गला अणं०प०, छग्गु. रसपरिणया,फासपरिणया, संठाण परिणया। प्रज्ञा०१ पद। णकालगा पोग्गला जाव छग्गुणलुक्खा पोग्गला अणंता ('जीव' शब्दे प्रथमभाग २०४ पृष्ठे सव्याख्यानमेतद् । पत्ता । स्था०६ठा०। दर्शितम् ) पुद्गलाःपुद्गला अनन्ताः सत्तपएसिया खंधा अणंता पमत्ता। सत्तपएसोगाढा पो. एगपएसोगाढा पोग्गला अणना पसत्ता । एवमेगसमय ग्गला जाव सत्तगुण लुक्खा पोग्गला अणंता पपत्ता । द्वितिया एगगुणकालगा पोग्गला अणंता पमत्ता जाव | स्था०७ठा। एगगुणलुक्खा पुग्गला अणता पमत्ता। अष्टप्रदेशिका:(गप्पासोगाढेत्यादि ) सुगमम् । नवरमेकत्र प्रदेशे-ते. । अट्ठपएसिया खंधा अणंता पमत्ता। अपएसोगाढा पोप्रस्यांशविशेष अवगाढा अाश्रिता एकप्रदेशावगाढाः, ते च ग्गला. जाव अट्टगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पमत्ता। परमाणुरूपाः स्कन्धरूपाश्चेति । एवं वर्ण ५ गन्ध २ रस ५ स्था०८ठा। स्पर्श भेदविशिष्टाः पुतला वाच्या अत एवोक्तम्-"जाव नवप्रदेशिका:पगगुणलुक्खत्यादि ।" स्था० १ ठा०। ('जीचा णं दुट्ठाण' नवपएसिया खंधा अयता परमत्ता। नवपदेसोगाढा पुग्गला स्था.२ ना०४ उ । 'जीवा रातिष्ठाण स्था० ३ ठा०४ अणंता पत्ता । नवगुणलुक्खा पुग्गला आणता पछत्ता । उ०। जीवा णं चउट्ठाण' स्था०४ ठा ४ उ०। 'जीवा णं पं. स्था०६ ठा। चहाण' स्था०५ ठा० ३ उ० । 'जीवा गं छटाण' स्था० दशप्रदेशिका:६ ठा० । "जीया ण सत्तट्ठाण.' स्था०७ ठा० । 'जीवा गं अ दसपएसिया खधा अणता पपत्ता। दसपएसोगाढा पु. ट्रद्राणु०' स्था०८ ठा0। 'जीव। ण नवढाण' स्था) 810 गला अणंता पणत्ता। दसरामयडिया पोरगला शांता २७५ Page #1121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) पोग्गल अभिधानराजेन्द्रः। पोग्गल पाता। दसगुणकालगा पोग्गला अणंता पमत्ता । एवं व. भिद्यन्ते इति भिदुराः, भितुरत्वं धर्मो येषां ते भितुरधर्माणः, मेहिं गंधेहिं रसेहिं फासेहिजाब दसगुणलक्खा पोग्गला अन्तभूतभाषप्रत्ययाऽयम् । प्रतिपक्ष प्रत याला अन्तर्भूतभावप्रत्ययोऽयम् । प्रतिपक्षाप्रतीत पवेति। परमाश्च अयंता पाता। तेऽणभेति परमाणः मो परमाणवः समाधाः सूक्ष्मा येषां सूचमः परिणामः शीतोष्ण स्निग्धरूक्षलक्षणाश्चत्वार एवं "वसेत्यादि " सूत्रवृन्द, सुगमंच, मघरं दशप्रदेशा येषां ते स्पास्ते च भाषाऽऽदयः । बादरास्तु येषां बादरः परिणामः नथा, त एव दशप्रदेशिका दशाणुकाः स्कन्धाः समुच्चया पञ्चाऽऽदयश्च स्पर्शाः ते चौदारिकाऽऽदयः४पान स्पृष्टाः दे. इति द्रव्यतः पुलचिन्ता,तथा दशप्रदेशेष्वाकाशस्यावगाढा त्वचा छुप्ताः रेणुषत् पार्श्वस्पृष्ठाः ततो बद्धाः गाढतरसंमाश्रिता शप्रदेशावगाढा इति क्षेत्रतः, तथा दशसमयान् क्लिष्टास्तनी तोयषत् पाश्वतः स्पृष्टाय ते बसाधेति राजद. स्थितिर्येषां ते तथेति कालता, तथा दशगुण एकगुणकाखापे म्ताऽदित्वात् बद्धपार्श्वस्पृष्टाः । माहच-"पुढे रेणु व त. तया दशाभ्यस्तः कालो-वर्णविशेषो येषां ते दशगुणका म्मि बद्धमप्पोकयं पएसेहिं।" इति । एतेच घ्राणेन्द्रियाऽऽदि. लकाः, पवमन्यैश्चतुर्भिवणाभ्यां गन्धाभ्यां पञ्चभी रसैरष्टा प्रहगोचराः तथा नो बद्धाः किं तु पार्श्वस्पृष्टा इत्येकपदभिः स्पर्शर्विशषिताः पुद्रला अनन्ता बाध्यात एषाऽऽह निषेधे श्रोत्रेन्द्रियग्रहणगोचराः । यत उक्तम्-" पुढे सुणेह (एवमित्यादि)". जाब दसगुणलुक्खा पोग्गला अणंता सई, कवं पुण पासई अपुटुं तु । गंध रसं च फासं, बद्धं पुढे पक्षता।" इत्यनेन भावतः पुलचिन्तायां विंशतितम मा. वियागारे॥१॥" इति । उभयपदनिषेधे धोत्राऽऽद्यविषया. लापको दर्शितः इहचानन्त शवोपादानेन वृद्धधादिशब्देन श्वक्षुर्विषयाश्चेति । इयमिन्द्रियापेक्षया बद्धपार्यस्पृष्टता पुदगचानन्तमलममिहितमयं चानन्तशब्द रह सर्वाध्ययनानाम लानां व्याख्यातापवं जीवप्रदेशापेक्षया परस्परापेक्षया च व्या. म्ते पठित इति सर्वेष्वप्यन्तमङ्गलतया बोझव्य इति तदेवं नि. स्येयेति । (परियाइय ति) विवक्षितपर्यायमतीताः पर्याप्ता वा गमितमनुगमद्वारांशभूतं सूत्रस्पर्शकनियुक्तिद्वाराणि तु स. सामस्त्यगृहीताः कर्मपुद्गलबत् प्रतिषेधः सुझातः। आत्ता-गुध्यियनेषु प्रथमाध्ययनवदनुगमनीयानि । स्था०१० ठा। द्वाभ्यां स्थानाभ्यां पुद्रलाः भिद्यन्ते परिशटस्ति हीताः स्वीकृता जीवेन परिग्रहमात्रतया शरीराऽऽदितया या इष्यन्ते स्म अर्थ क्रियार्थिभिरितीष्टाः कान्ता:-कमनीयाः वि. दोहिं ठाणेहिं पोरगला साहनंति। तं जहा-सयं वा पोग्गला शिष्टवर्णाऽऽदियुक्ताः प्रियाः प्रीतिकराइन्द्रियाऽऽहादका मन. साहनंति, परेण वा पोग्गला साहबंति । दोहिं ठाणेहिं पोग्गः सा शायन्ते शोभना एन इत्येवं विकल्पमुत्पादयन्तः शोभनव ला भिजति । तं जहा-सयं वा पोग्गला भिअंति, परेण प्रकर्षाऽऽद्येते मनोशाः-मनसो मताः वल्लभाः सर्वस्याप्युपभोक्तः बा पोग्गला भिजंति । दोहिं ठाणेहि पोग्गला परिसडंति । सर्वदा च शोभनत्वप्रकर्षादेव निरुक्तिविधिना-(मणामा इति १२) व्याख्यानान्तरं स्वेवम्-दष्टा-बलमाः सदैव जी. तं जहा-सयं वा पोग्गला परिसडंति,परेण वा पोग्गला प पानां सामान्येन कान्ताः-कमनीयाः सदैव तद्भावेन प्रिया रिसडंति, एवं परिवति, विद्धंसति । अद्वेच्या सर्वेषामेव मनोहा:-कथयाऽपि मनोरमा,मन मा(दोहीत्यादि ) सूत्रपञ्चकं कराठ्यं, नवरं स्वयं चेति स्वभा. मा-मन:प्रियाश्चिन्तयाऽपीति विपक्षः सुखातः सर्वश्रेति । बेनपा अभ्राऽऽदिष्विव पुरलाः संहन्यन्ते-सम्बध्यन्ते कर्म. स्था.२ठा०३उ०। कर्तृप्रयोगोऽयं,परेण वा पुरुषाऽऽदिन। वा संहन्यन्ते-संहताः विभिः प्रकारैः स्थानरच्छिन्नाः पुतलाश्वलन्तिफ्रियन्ते कर्मप्रयोगोऽयम्, एवं भियन्ते विघटन्ते यथा प. तिहिं ठाणेहिं अच्छिन्ने पोगाले चलेज्जा । तं जहा-माहारिपतन्ति पर्वतशिखराऽऽदेरिवेति परिशटन्ति कुष्ठाऽऽदेनि मित्तादगुल्यादिषत् विश्वस्यन्ते-विनश्यन्ति घनपटलव. रिज्जमाणे वा पोग्गले चलेज्जा,विउब्वमाणे वा पोग्गले च. दिति ॥५॥ लेज्जा,ठाणामोठाणं संकामेजमाणे वा पोग्गले चलेज्जा । पुद्रलानेव द्वादशसूत्राणि निरूपयवाह (तिहीत्यादि ) छिन्नाः सद्गाऽऽदिनापुद्रलाः समुदायात् चदुविहा पोग्गलाः पयत्ता । तं जहा-भिन्ना चेव,अभिना लम्स्येवेत्यत पाह-"अएिछनपुबल इति । "(माहारिजमा. चेव । विहा पोग्गला पसत्ता। तं जहा-भिउरधम्मा चेन, णे ति)माहारतया जीवेन गृह्यमाणः स्वस्थानाच्चलति जी वेनाऽऽकर्षणात् एवं विक्रियमाणो विक्रियकरणवशतितयेनो भिउरधम्मा चेव । दुविहा पोरगला पमत्ता । तं जहा- | ति, स्थानात् स्थानान्तरं संक्रम्यमाणो हस्ताऽऽदिनेति । स्थाo परमाणुपोग्गला चेव, नो परमाणुपोग्गला चेव । दुविहा ३ ठा. १ उ०। पोग्गला रमत्ता । तं जहा-सुहमा चेव, बायरा चेव । दु स्थानरच्छिमाः पुद्रलाश्चलन्ति । इन्द्रियार्थाश्च पुलधविहा पोग्गला पम्मत्ता। तं जहा-बद्धपासपुट्ठा चेव, नो ो इति। पुद्गलखरूपमाह दसहि ठाणेहिं अच्छिने पुग्गले चलेजा-पाहारिज्जबद्धपासपुट्ठा चेव । दुविहा पोग्गला पसत्ता । तं जहापरियादितच्चेव, अपरियादितच्चेव । दुविहा पोग्गला पम माणे वा चलेज्जा, परिणामिज्जमाणे वा चलेज्जा,प्रोस्स'चा । तं जहा-अत्ता चेव, अणत्ता चेव । दुविहा पोग्गला स्सेजमाणे वा चलेजा, परियायेजमाणे वा चलेजा,णिस्सपमना । तं जहा-इट्ठा चेव,अणिहा चेव । एवं कंता,पिया, सिजमाणे वा चलेजा, वेदिज्जमाणे वा चलेज्जा, निज्जमणुना, मणामा। रिजमाणे वा चलेजा, विप्रोविजमाणे वा चलेज्जा, जक्खा. (दुवित्यादि) मिन्ना:-विघटिता इतर त्वभित्राः स्वयमेव | इट्टे वा चलेज्जा, वातपरिगए वा चलेजा। Page #1122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१६ ) अभिधानराजेन्द्रः । पोग्गल ( दसीत्यादि) स्पष्ट, नवरम् (अच्छि त्ति ) अच्छि शः- अपृथग्भूतः शरीरे विवक्षितस्कन्धे वा संबद्ध एव चले त् स्थानान्तरं गच्छेत (आहारिजमाणे ति) आहियमा राः - खाद्यमानः पुल आहारे वा अभ्यवाहियमाणे सति पुङ्गलश्लेत् परिणम्यमानः पुल एंबोदराग्निना खलरस भाषेन परिणम्यमाने वा भोजने उच्छास्यमान उच्छ्रासवा ग्रुपुङ्गल उच्छ्रास्यमाने या उच्छुसिते क्रियमाणे एव निःश्व मानो निःश्वस्यमाने वा वद्यमानो निर्जीर्यमाणश्च कर्मपुत्र तः । अथवा बेद्यमाने निर्जीर्यमाणे च कर्म्मणि वैक्रियमाणो वै. क्रियशरीरतया परिणम्यमानो वैक्रियमाणे वा शरीरे परिवा र्यमाणो मैथुन संज्ञया विषयीक्रियमाणः शुक्रपुङ्गलाऽऽदिपरि चार्यमाणे वां भुज्यमाने स्त्रीशारीराऽऽदौ शुकाऽऽदिरेव यक्षाऽऽविष्ट-भूताऽऽद्यधिष्ठितो यक्षाऽऽविष्टे वा सति पुरुषे यक्षाऽऽवेशे वा सति तच्छरीरलक्षणः पुद्गलो वातपरिगतो गतवाप्रेरितो वातपरिगत वा देद्दे सति बाह्यवातेन चोत्क्षिप्त इति । स्था० १० ठा० । परमाणुपुङ्गलः किं सार्द्धः समध्यः, एवं द्विप्र देशिको यावदनन्तप्रदेशिकः-दुपदेभिए पुच्छा ?। गोयमा!सड्ढे यो अणड्ढे । तिपदेसिए जहा परमाणुपोग्गले । च उप्पदेसिए जहा दुपदेसिए । पंचपदेसिए जहा तिपदेसिए । छप्परसिए जहा दुपदेसिए । सत्तपएसिए जहा तिपदेसिए । अट्ठपएसिए जहा दुपदेसिए । वपदेसिए जहा तिपदेसिए । दसपदेसिए जहा दुपदेसिए । संखेञ्जपएसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा १ । गोसिम, सिय अड्डे, एवं असंखे अपएसिए वि । एवं पदेसिए । ( परमाणु इत्यादि ) ( सिय अण्डे ति ) यः समसङ्ख्यप्रदेशाऽऽत्मकः स्कन्धः स सार्द्धः, इतरस्स्वनर्द्ध इति । परमाणवः सार्द्धाः - 1 परमाणुपोग्गला गं भंते! किं ससड्डा अड्डा १ । गोमा ! अड्डा वा अखड्डा वा, एवं० जाव अयंतप देसिया | परमाणुपोग्गले खं भंते ! किं सेए गिरे १। गोमा ! सिय सेए सिय पिरेए । एवं०जाब श्रणं तपदेसिए । परमाणुपोग्गला गं भंते । किं सेया गिरेमा १ । - गोयमा । सेया वि, खिरेया वि । एवं० जाव अयं तपदेसिया | परमाणुपोग्गले णं भंते सेए कालो केवचिरं होई । - गोयमा ! जहोण एकं समयं, उक्कोसेणं श्रावलियाए असंखेज्जभागं । परमाणुपोगले णं भंते! गिरेए कालओ के । चिरं होई । गोयमा ! जहम्मेणं एकं समयं उक्कोसेण श्र · संखे कालं; एवं ० जाव अतपदेसिए । परमाणुपोगले भंते! सेया कालओ केवचिरं होइ १ । गोयमा ! सब्बद्धं । परमाणुपोग्गला गं भंते! गिरेया कालओ केवचिरं होई । गोयमा ! सम्बद्धं एवं० जाव अणतपदेसिया | (परमाणुपोग्यसेत्यादि ) यदा बहवोऽणवः समसंख्याः For Private पोग्गल भवन्ति तदा सार्द्धाः, यदा तु विषमसंख्यास्तदा मनः, संघात भेदाभ्यामनवस्थितस्वरूपत्वात्तेषामिति । पुलाधि कारादेवेदमुच्यते - ( परमाणु इत्यादि । ( सेए ति ) चलः, जत्वं चोरकर्षतोऽप्यावलिकाऽसंख्येयभागमात्रमेव, निरेजतया श्रौत्सर्गिकत्वादत एव निरेजत्वमुत्कर्ष तो सवयेयं कालमिति । ( निरेए ति ) निश्चलः बहुत्वसूत्रे ( लम्बजं ति) सर्वाखां सर्वकालं परमाणवः सेजाः सन्ति, न हि fare समयोऽस्ति कालवयेऽपि यत्र परमाणवः सर्व एव न चलन्तीत्यर्थः । एवं निरेजा अपि सर्वाद्धामिति । भ० २५ ८०४ उ० । ( अत्र निर्मन्थीपुत्रं प्रति नारदपुत्रस्य प्रश्नः 'णियंठिपुत्त' शब्दे चतुर्थभागे २०८८ पृष्ठे उक्तः ) ( परमाणवः सार्द्धाः समध्या इत्यनन्तरमेवोक्तम् ) परमाणुपुङ्गलानामन्तरम् । तत्र परमाण्वादीनां सेजत्वाऽऽद्यन्तरमाह परमाणुपोग्गलस्स णं भंते ! सेयस्स केवइयं कालं श्रंतरं होई । गोयमा ! सट्टातरं पडुच्च जहसेणं एकं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जइकालं । परद्वाणंतरं पडुच्च जो एवं समयं उक्कोसेणं असंखेजकालं । खिरेयस्स केवइयं कालं अंतरं होइ ? । गोयमा ! सट्टातरं पडुच्च जहसेणं एकं समयं उक्कोसेण श्रावलियाए असंखञ्जइभागं । परद्वाणंतरं पडुच्च जहमेणं एकं समयं, उक्कोसेणं श्रसखेअकालं । दुपदेसियस्स णं भंते! खंधस्स पुच्छा ।। गोयमा ! सद्वाणंतरं पडुच्च जहोणं एकं समयं, उक्कोसेणं असंखेजं कालं । परद्वातरं पडुच जहणं एकं समयं उक्को सेणं तं कालं । णिरेयस्स केवइयं कालं अंतरं होइ १ । गोयमा ! सट्टातरं पडुच्च जहोणं एकं समयं, उक्कोसेणं । आवलियाए असंखेज्जइभागं । परद्वांतरं पडुच्च जहपेणं एकं समयं, उक्कोसेणं अतं कालं; एवं ० जाव अ संतपदेसियस्स । परमाणुग्गोला गं भंते । सेयाणं केव इयं कालं अंतर होइ १ । गोयमा ! यत्थि अंतरं खिरेयाणं केवइयं कालं अंतरं होइ १ । गोयमा ! यत्थि अंतरं, एवं ०जाव अणतपदेसियाणं खंधाणं । (परमाणु इत्यादि) (लट्ठायंतरं पहुच त्ति) स्वस्थानं परमाणोः परमाणुभाव एव तत्र वर्तमानस्य यदन्तरं चलनस्य च व्यत्रधानं निश्चलत्वभवनलक्षणं तत्स्वस्थानान्तरं, तस्प्रतीत्य (जद्द घेणं एकं समयं ति) निश्चलता जघन्य काललक्षणम् (उक्कोलेणं असंखेतं कालं ति) निश्चलताया एवोत्कृष्टकाललक्षणं, तत्र जघन्यतोऽन्तरं परमाणुरेकं समयं चलनादुपरम्य पुनश्चलतीत्वम् उत्कर्षतश्च स एवासइख्येयं कालं कचिस्स्थिरो भूत्वा पुनश्चलतीत्येवं दृश्यमिति । (परद्वातरं पडुच ति परमागोर्यत्परस्थाने द्व्यणुकादावन्तर्भूतस्थान्तरं चलनव्यवधानं तत्परस्थानान्तरं तत्प्रतीत्य (जहसेणं एकं समयं उक्कोसेणं असं कालं ति ) परमाणुपुद्गलो हि भ्रमन् द्विप्रदेशाऽऽदिकस्कग्धमनुप्रविश्य जघन्यतः तेन सबैकं समयं स्थित्वा पुनर्भ्राम्यति, उत्कर्षतस्तु सहवेयं का-प्रदेशाऽऽदितया स्थित्वा पुनरेकतया भ्राम्यतीति (नि. Personal Use Only Page #1123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गल (११००) अन्निधानराजेन्डः। पोग्गल रेयस्लेत्यादि) निश्चलः सन् जघन्यतः समयमेकं परिभ्रम्य या दबट्टयाए असंखेजगुणा, ते चेव पदेसट्टयाए अपुनर्निवलस्तिष्ठति, उत्कर्षतस्तु निश्चलतः सन्नावलिकाया असक्येयं भाग चलनोत्कृष्टकालरूपं परिभ्रम्य पुनर्निश्चलः संखेजगुणा; असंखेज्जपएमिया खंधा णिरेया दव्वट्ठ. एव तिष्ठतीति स्वस्थानान्तरमुक्तम् । परस्थानान्तरं तु चिश्चलः | याए असंखेज्जगुणा ते चेव पदेसड्डयाए असखेज्जगुणा । सन् तता स्थानाचलितो जघन्यतो द्विप्रदेशाऽऽदो स्कन्धे ए. (एएसिणमित्यादि) (णिरेया असंखेगुणेत्ति) स्थितिके समय स्थित्वा पुनर्निश्चल एष तिष्ठति । उत्कर्षतस्त्वसाये। क्रियाया भीत्सर्गिकत्वात् बहुस्वमिति अनन्तप्रदेशिकेषु सैजा यंकासं तेन सहस्थित्वा पृथग्भूत्वा-पुनस्तिष्ठति (तुपएसिया अनन्तगुग्णा, वस्तुस्वभावात् । एतदेव द्रव्यार्थप्रवेशार्थोभयास्सेत्यादि) (उकोसेणं प्रणतं कालं ति ) विप्रदेशिका धैर्निरूपयमाह-( एएसि णमित्यादि) सत्र व्यार्थतायां संचलितस्ततोऽनन्तः पुगलैः सह कालभेवेन सम्बन्धं कु- सजस्वनिरेशस्वाभ्यामष्टी पदानि । एवं प्रदेशार्थतायामप्युभया चनम्तेन कालेन पुनस्तेनैव परमाणुना सह सम्बन्ध प्रति. र्थतायां तु चतुर्दश, सैजपो निरेजपक्षे च परमाणूषुद्रपच पुमबखतीस्यवमिति। व्यार्थाप्रदेशार्थपदयोईष्यार्थीप्रदेशार्थतेत्येवमेकीकरणेनाभिलैजाउदीनामेयास्पयत्वमाह लापात् । अथ "पएसट्टयाए एवं बेव सि" अत्रातिदेशे यो एएसिणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं सेयाणं शिरेयाण य क- बिशेषोऽलावुच्यते, नवरम् ( परमाणु स्यादि) परमाणुपये परे कयरे माप विसेसाहिया वा?, गोयमा! सम्बत्योवा पर प्रदेशार्थतायाः स्थान प्रदेशार्थतयेति षाध्यमप्रदेशवास्पर मारपूनां तथा द्रव्यातासूत्र संख्यातप्रवेशिका निरेजाः निरेज. माणुपोग्गला सेया, शिरेया भसंखेअगुणा एवंजाव भ परमाणुभ्यः संख्यातगुणा उक्काः । प्रदेशार्थतासूत्रे तुतेभ्यो. संखेज्जपएसियाणं खंधाणं । एएसि णं भंसे ! अणंतप- ऽसंख्येयगुणा बाच्या यतो निरेजपरमाणुभ्यो द्रव्यार्थतया देसियाण सेयाण य निरेयाण य कयरे कयरे जाव बिसे निरेजसंख्यातप्रवेशिका: संक्यातगुणा भवन्ति तेषुब ममाहिया पा'। गोयमा ! सव्यत्योवा प्रणतपदेसिया ध्ये बहूनामुकष्टसंख्यातकप्रमाणप्रदेशस्वाभिरेजपरमाणुभ्य से प्रदेशतोऽसंख्येयगुणा भवन्ति, उत्कएसंण्यातकस्योपर्येक. खंभा णिरेया सेया भणंतगुणा। एएसिणं भंते । परमाणु प्रदेशप्रक्षेपेऽप्यसंक्यातकस्य भाषाविति । पोग्गलाणं संखेजपएसियाणं अखेसंजपएसियाणं अणं मथ परमारषादीनामेष लेजरपाऽदि निरूपयवाहतपएसियाणं खंधाणं सेयाण य णिरेयाण य दवद्वयाए परमाणुपोग्पले णं भंते ! किं देसेए, सम्वेए, पिरेए है। पएसट्टयाए दव्यदुपएसट्टयाए कयरे कयरे०जाव घिसेसाहिया वा ? | गोयमा ! सम्वत्थोवा भणंतपरसिया गोयमा ! यो देसेए, सिय सब्बेए, सिय णिरेए । दु. खंश णिरेया दवट्ठयाए अणंतपएसिया खंधा सेया पदेसिए संभंते ! खंधे पुच्छा। गोयपा ! सिय देसेए, दबट्टयाए अपंतगुणा । परमाणुपोग्गला सेया दत्र 'सिय' सम्बेए, सिय णिरए, एवं०जाव अणंतपदेसिए ट्ठयाए अर्णतगुणा । संखेजपएसिया खंधा सेया दबट- ए। परमाणुपोग्गला णं भंते ! कि देसया, सम्वेया, याए असंखेजगुणा । असंखजजपएमिया खंधा सेया। णिरेया ?। गोयमा! णो देसेया, सव्वेया वि, णिरेदबट्ठयाए असंखेज्जगुणा । परमाणुपोग्गला णिरेया| या वि। दुपदसिया णं भंते ! खंधा पुच्छा | गोयमा ! दबयाए असंखेज्जगुणा । संखेज्जपएसिया खंधा णिरे देसेया वि सम्वया विणिरेया वि एवं जाव भयंतप.. या दबट्टयाए संखेज्जगुणा । असंखेज्जपएसिया खंधा देसिया । परमाणुपोग्गले सं भंते ! सम्बेए कालो के. गिरेया दबट्टयाए असंखेअगुणा । पदेसट्टयाए एवं चेव. वचिरं होइ ? गोयमा ! जहलेणं एक समयं, उक्कोणवरं परमाणुपोग्गला अपदेसट्टयाए भाणियब्वा । सं सेणं प्रावलियाए असंखेजइभागं । गिरेए कालमो के. खेञ्जपएसिया खंथा णिरेया पदेसट्टयाए असंखेज्जगु वचिरं होई। गोयमा ! जहणं एवं समयं, उक्कोसेणं णा, सेसं तं चेव । दखहपएसट्टयाए सम्बत्थोवा अशंतप असंखेजइकालं । वुपदेसिए शं भंते ! खंधे देसए का. देसिया खंधा णिरेया दबट्टयाए ते चेव पदेसट्टयाए लमो केवचिरै होइ । गोयमा! जहमेणं एकं समअणंतगुणा । भणंतपदेसिया खंधा सेया दबट्ठयाए - यं, उक्कोसणं प्रावलिगाए असंखजइभागं । सम्वेप काणतगुणा ते चेव पदेसट्टयाए अणंतगुणा, परमाणुपो- लो केवचिरं होइ ।। गोयमा ! जहणं एवं समय, ग्गला सेया दबअपएसहयाए अणंतगुणा । संखे- उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जहभागं । गिरेप कालो अपएसिया खंधा सेया दबट्टयाए असंखेजगुणा, ते केवचिरं होई। गोयमा! जहमेणं एक समय, उकोचेव पदेसट्टयाए संखेज्जगुणा, असंखेजपएसिया खंधा | सेणं असंखेज्जं काले, एवं जाव अणंतपदेसिए । प. सेया दबट्टयाए असंखेज्जगुणा ते चेन , पदेसट्टयाए रमाणुपोग्गलाणं भंते ! सोया कालो केवचिरं होई। असंखेजगुणा। परमाणुपोग्गला शिरेया दबट्टयाए अप- गोयमा! सव्वाद्धं । णिरेया कालमो केवचिरं होई । देसद्वयाए असंखेजगुणा, संखेज्जपएसिया खंधा णिरे- गोयमा ! सव्वळू । दुपदेसिया णं संत खंधा देसेया कालो याए दवडपएसट्टयाए भयंतपरसियालेसिए शं भंते ! वध Page #1124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११०१ ) अभिधानराजेन्द्रः । पोग्गल | चिरं होई | गोमा ! सम्बद्धं । सव्वेया कालओ केव - चिरं होइ ?। सब्बद्धं । णिरेया केवचिरं होई ।। सब्बद्धं । एवं० जाव अखंतपदेसिया | परमाणुपोग्गलस्स णं भंते ! सन्धेयस्य काल केवचिरं तरं होइ ? । गोयमा ! सट्टातरं पडुच्च जहसे एकं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं । परहाणंतरं पडुच्च जहमेणं एवं समयं उकोसेणं एवं चैत्र । णिरेयस्स केवइ० १ । सट्टातरं पडुच्च जहां एकं समय, उक्कोसेणं श्रावलियाए असंखेज्जइभागं । परद्वाणंतरं पद्दुच्चै जहोणं एवं समयं उक्को सेणं असंखेज्जं का - लं । दुपदेसियस्स यं भंते ! खंधस्स देसेयस्स केवइयं कालं अंतरं होइ ? । गोयमा ! सट्टातरं पडुच्च जहसेणं एवं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं । परद्वाणंतरं पडुच्च जहमेणं एवं समयं, उक्कोसेणं श्रतं कालं । सब्वेयस्स केवइयं कालं ? । एवं चेव जहा देसेस्स । शिरेयस्स केवइयं कालं ? । सहाणंतरं पडुच्च जहोणं एकं समयं उकोसेणं अवलियाए | असंखेइभागं । परद्वाणंतरं पडुच्च जहसेणं एकं समयं उक्कोसेणं तं कालं एवं० जाव अणतपदेसियस्स । परमाणु पोग्गलाणं भंते! सच्चेयाणं केवइयं कालं अंतरं होई ? | गोयमा ! णत्थि अंतरं । णिरेयाणं केवइयं ० १ । स्थि अंतरं । दुपदेसिया भंते ! खंधाणं देतेयाणं केवति कालं० १ । णत्थि अंतरं । सब्वेयाणं केवइ०१ । स्थि अंतरं । खिरेया इ० १ । त्थि अंतरं । एवं जाव अतपदेसिया | अल्पबहुत्वम्- एएस यं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं सव्वेयाणं रेियाण य कयरे कयरे ०जाब विसेसाहिया वा १ । गोमा ! सव्वत्थोवा परमाणुभोग्गला सब्वेया, खिरेया गुणा। एएस गं भंते ! दुपदेसियाणं खंधाणं सेयाणं सव्याणं खिरेयाण य कमरे कयरे ० जाव विसाहियावा ? | गोमा ! सव्वत्थोत्रा दुपदेसिया खंधा सन्या, देसेया असंखे जगुणा गिरेया असंखेजगुणा, एवं ०जाब असंखेञ्जपए सियाणं खंधाणं । एएसिणं ते! अतपदेसियाणं खंधाणं देतेयाणं सव्बेया खिरेयाण य कमरे कयरे०जाव विसेसाहिया , १ । गोयमा ! सव्वत्थोवा अणतपदेसिया खंधा सन्धेया, खिरेया भतगुणा, देसेया भगंतगुणा | एसि भंते! परमाणुपोग्गलाणं संखे अपए सियाणं असंखेजपए सियाणं श्रणंत एसियाण य खंधाणं देतेयाणं सश्रयाणं णिरेयाणं दब्बट्टयाए पदेसट्टयाए दबटुपए सट्टयाए क्रयरे कमरे० जात्र विसेसाहिया वा । गोया ! सुव्वत्योत्रा ૨૦૬ पोग्गल श्रणंतपदेसिया खंधा सव्वैया दव्वट्टयाए, अतपदेसिया खंधा शिरेया दन्वट्टयाए अतगुणा, अणतपदेसिया खंधा देतेया दव्बट्टयाए अतगुणा, असंखेअपदेसिया संधा सव्वेया दव्बट्टयाए श्रणंतगुणा, संखेजपदेसिया खंधा सब्वेयादन्या असंखेज्जगुणा । परमाणुपोउगला सब्बेया दव्वट्टयाए श्रसंखेञ्जगुणा, संखेअपदेसि - या बंधा देसेया दव्बट्टयाए श्रसंखेजगुखा, असंखेज्ज - पएसिया खंधा देसेया दव्बट्टयाए श्रसंखेजगुणा, परमाखुपोग्गला खिरेया दव्बट्टयाए असंखेज्जगुणा, संखे ज्जपदेसिया खंधा रेिया दव्बट्टयाए संखेञ्जगुणा, असंखेजपदेसिया खंधा णिरेया दव्वट्टयाए श्रसंखेजगु या पदेसया सम्वत्थोवा श्रर्यंतपदेसिया बंधा पट्टयाए एवं दव्यपदेसट्टयाए वि, वरं परमाणुपोराला अपदेसट्टयाए माणिपच्या । संखेअपएसिया खंधा शिरेया पदेसट्टयाए असंखेअगुणा, सेसं तं चैव । दव्बट्ठपएस या ए सव्वत्थोत्रा अतपदेसिया खंधा सव्र्व्वया दव्त्रट्टयाए ते चेत्र, पपसट्टयाए अतगुणा, अतपदेसिया खंधा रेिया दव्वट्टयाए अयंतगुणा, ते चैव पदेसट्टयाए अवगुणा, श्रयं तपएसिया खंधा देखेया दव्वद्वयाए अतगुणा ते चेत्र पदेसइयाए - गुणा, असंखेज्जपएसिया वा सव्वैया दब्बट्टयाए श्रणंतगुणा, ते चैव पदेसट्टयाए असंखेजगुणा, संखेअ - एसिया खंधा सन्धेया दव्बट्टयाए श्रसंखेखगुणा से चेव पदेसट्टयाए संखे अगुणा, परमाणुपोग्गला सब्बेया एसए असंखेञ्जगुणा, संखेज एसिया देसेयादा संगुणा, ते चैव पदेसट्टयाए संखेगुणा, श्रसंखेज्जएसिया खधा देतेया दट्टयाए असंखे जगुणा, ते चैव पट्टयाए असंखेजगुणा, परमापोग्गला शिरेया दव्व एट्टयाए असंखेजगुणा, संखेज्जपदेसिया दब्बट्टयाए संखेअगुणा, ते चेत्र पदेसह - या संखेज्जगुणा, असंसेज्जपदेसिया खिरेया दव्बट्टयाएअसंखेज्जगुणा, ते चैत्र पदेसट्टयाए श्रसंखेज्जगुणा । (परमाणु इत्यादि) इव सर्वेषामपबहुत्वाधिकारे व्यर्थता यां परमाणुपदस्य सर्वैजत्वनिरेजस्वविशेषणात् संख्येयाऽऽदीनां तु प्रयाणां प्रत्येकं देशजसबै जनिरेजत्वैर्विशेषणादेकादश पदानि भवन्त्येवं प्रदेशार्थतायामपि, उभयार्थतायां त्वेतान्येव विंशतिः सर्वैजपक्षे निरेजपक्षे न परमाणुषु द्रव्यार्थप्ररेशार्थपदयोर्द्रव्यार्था प्रदेशार्थतेत्येवमेकी कर ऐना भिलापादिति । भ० २५० ४ उ० । परमाणुपुङ्गल एजते बेपते परमाखुपोग्गलं गं भंते! एयइ बेयइजात्र तं तं भाप For Private Personal Use Only Page #1125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1202) अभिधान राजेन्द्रः । पोग्गल रिणमइ ? । गोयमा ! सिय एयइ बेयइ०जाब गरिमइ सिय गो एयइ ०जाव णो परिणमइ दुप देसिए णं भंते ! खंधे एयइ ०जाव परिणमड् ! गोयमा ! सिय एयइ०जाव परिणमइ, सिय नो एयइ०जाव नो परिसमइ, सिय देसे एयर देसे नो एयइ । तिपएसिए मंत खंधे एय १ । गोयमा ! सिय एयर, सिय नो एयर सिय देसे एयइ नो देसे एयर, सिय देसे एयइ सिप नोदेसा एयंति, सिय देसा एयंति नो देसे एयई । चउप्पर सिए भंते! खंधे एयई । गोयमा ! सिग एयइ, सिय नो एवइ, सिय देसे एयइ णो देसे एयइ सिय देसे एयड़, खो देसा एयंति, सिय देसा एयंति नो देसे एयर, सिय देसा एयंति नो देसा एयंति | जहा चउप्पदेसि तहा पंचप्पएसिश्रो०जाव तहा अतपसि || ( परमाणुमित्यादि ) ( सिय एयइत्ति ) कदाचिदेजते क दाचित्कत्वात्सर्व पुगलेष्वेजनाऽऽदिधर्माणां द्विप्रदेशिके त्रयो विकल्पाः स्यादेजनं, स्यादनेजनं स्याद्देशे नै जनं, देशनानेजनं चेति ३, यंशत्वात्तस्येति । त्रिप्रदेश के पञ्च श्राद्यास्त्रयस्तएव द्वय कस्यापि तदीयस्यैकस्यांशस्य तथाविधपरिणामेनैकदेशतया विवक्षितत्वात् । तथा देशस्य एजनं देशयोवाने जनमिति चतुर्थः, तथा देशयोरेजनं देशस्य चाने जनमिति पञ्चमः । एवं चतुः प्रदेश केऽपि नवरं षट्, तत्र षष्ठोद्देशयोरेजनं, देशयोरेव चानेजनमिति । द्विप्रदेशिकाऽऽदयः कथं परमाण्वादिकं स्पृशन्ति ?-- परमाणुपोग्गले णं भंते! असिधारं वा खुरधारं वा उगाजा || ता उग्गाहेजा । से णं तत्थ छिजेज्ज वा, भिज्जेज वा !! गोयमा ! णो दृट्टे समट्ठे, नो खलु तत्थ सत्यं क मइ, एवं जाव असंखेञ्जपरसियो । अतपएसिए णं भंते! खंधे असिधारं वा खुरधारं वा उग्गाहेजा ? | हंता उगाजा से गां तत्थ छिज्जेज वा, भिज्जेज वा ? । गोमा ? त्येगइ छिज्ज वा, भिज्जेज्ज वा, अत्थेगइए यो छिज्जेज्ज वा, यो भिज्जेज वा । एवं अगणिकायस्स मज्भं मज्झेणं तहिं,णवरं ज्झियाएज्ज भाणियव्वं, एवं पुक्खलसंवट्टस्स महामेहस्स मझं मज्झेणं तर्हि उल्ले सिया, एवं गंगाए महाणईए पडिसोयं हन्यमागच्छेज्जा, तहिं वि खिहायमावज्जेज्जा,उदगावत्तं वा उद्गबिंदु वा उग्गाद्देज्जा, से गं तत्थ परियावज्जेज्जा । पुनलाधिकासदेवेदं सूत्रवृन्दम् (परमाणु इत्यादि ) ( उग्गा हेज्जत्ति ) श्रवगाद्देत-आश्रयेत छिद्यते द्विधाभावं यायात्, भिद्येत विदारणभावमात्रं यायात् । ( नो खलु तत्थसत्थं कम त्ति) परमाणुत्वाद्, अन्यथा परमाणुत्वमेव न स्या दिति । ( श्रत्येगइए छिज्जेज त्ति ) तथाविधवादरपरि जामत्वात् । ( श्रत्थैगइए नो छिज्जेज ति ) सूक्ष्मपरिणा मत्वात् । (उले सियत्ति ) । आर्द्रा भवेत् । ( विणिद्दाय पोग्गल मावज्जेज्जत्ति ) प्रतिस्खलनमापद्येत ( परियावजेजत्ति ) पर्यापद्येत विनश्येत् । दुपपतिए भंते ! खंधे किं सड़े समझे सबसे, उदाहु अड्डे अमझे आपसे ? । गोयमा ! सभडे मझे सबसे, यो अड्डे यो समझे यो अपएसिए । तिपएसिए गं भने ! खंधे पुच्छा ? । गोयमा ! अड्डे समझे सपएसे, नो सश्रड्डे नो श्रमन्भे नो अपसे जहा दुपएसओ तहा जे समा ते भाणियaar, जे विसमा ते जहा तिपएसियो तहा भाणियन्वो । संखे अपए सिए एं भंते ! खधे किं स पुच्छा । गोमा ! सिय सडे अपके सपएसे, सिय अड्डे जपएसओ विश्रांतपरसियो कि । परमाणुपोग्गले सके सपए से जहा संखेज्जएसिओ तहा असंखेणं भंते ! परमाणुपुग्गलं कुसमाणं किं देलेणं देसं फुस, देसेणं देसे फुलइ देसेणं सव्वं फुस, देसेहिं देवं फुसइ, देमेहिं देखे फुस, देसेहिं सं फुसह, सन्धेणं देसे फुसइ, सच्चे णं देसे फुमड़, सव्वेणं सव्वं फुसइ ? । गोयमा ! नो देसेणं देस फुसइ, नो देसेणं देते फुस, नो देसेणं सव्वं फुस, नो देसेहिं दे फुसइ, नो देसेहिं देसे फुमइ, नो देसेहिं सव्वं फुसई, नो सच्त्रणं देसं फुसई, नो सच्णं दे फुस, सन्त्रेणं सव्वं फुसइ | परमाणुपोगले दुपए सियं फुसमाणे सत्तमनत्र मेहिं फुस । परमाणुपले तिपएसियं फुलपाणे पिच्छि महिं तिहिं फुसइ जहा परमाणुपोग्गले तिपएसियं । कुमाविश्रो, एवं फुसावेयन्त्रो जाव तपसि दुपए सिए गं भंते! खंधे परमाणुपोग्गलं फुसमाणे पुच्छा ! । तइयनवमेहिं फुस, दुपए सियो दुपए सिगं फुलमाणो पढमतइयसत्तमनवमेहिं फुस, दुपए सिओ तिपएसियं फुसमायो आदिल्लएहि य पच्छिल्लएहिं तिहिं फुस, मज्झिमएहिं तिहिं वि पडिसेहेयच्वं । दुपए सिओ जहाति - परसियं । फुसाविश्र एवं फुसावेयन्वो ० जाव तपएसियं । तिपिएसिए गं भंते! खंधे परमाणुपोगलं फुलमाखे पुच्छा ? । तइयट्टमेहिं फुसइ, तिपएसओ दुएसियं कुसमाणो पढमएणं तइयएणं चउत्थछट्ठसत्तमनमेहिं फुसइतिपएसियो तिपए सियं फुसमाणो सन्देसु वि ठाणेसुफुस जातिपरसिओ तिपएसियं फुसाविश्रो, एवं तिपएसओ जाव अयं तपए सिएणं संजोएयन्बो, जहा तिपए सिओ, एवं ०जाव अयंत एसियो भाणि यव्वो । ( दुपप सप इत्यादि ) यस्य स्कन्धस्यसमा प्रदेशाः For Private Personal Use Only Page #1126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०३) पोग्गस अभिधानराजेन्मः। पोग्गल स सा?, यस्य तु विषमाः स समध्यः, संख्येयप्रदेशा- निरुपग्रहतया धर्मास्तिकायाभावेन तजनितगत्युपष्टम्भाउऽदिस्तु स्कन्धः समप्रदेशिक इतरश्च तत्र यः समप्रदे भावात् गन्ध्याऽऽदिरद्दित पडवत् , तथा रूक्षतया सिकताशिकः स सार्दोऽमध्यः, इतरस्तु विपरीत इति । (परमाणुपो- मुष्टिवत् लोकान्तेषु हि पुद्रला रूक्षतया तथा परिणमग्गले भंते ! इत्यादि)"किं देखणं देसं" इत्यादयो नव विक न्ति यथा परतो गमनाय नालं कर्मपुद्गलानां तथा भावे ल्पाः। तत्र देशेन स्वकीयेन देशं तदीयं स्पृशति देशेनेत्यनेन देशं जीवा अपि सिद्धास्तु निरुपग्रहतया वेति.लोकाऽनुभावन-लो. देशान् सर्वमित्येवं शब्दत्रयपरेण त्रय एवं देशैरित्यनेन ३.स- | कमर्यादया विषयक्षेत्रादन्यत्र मार्तण्डमडलवादिति । स्था० बैणत्यनेन च श्रय एवेति । अत्र च सर्वेण सर्वमित्येक एव ४ ठा०६ उ०। (मार्तण्डमण्डलं भ्रमन् स्वक्षेत्र एवावतिष्ठत घटते, परमाणोनिरंशत्वेन शेषाणामसम्भवात् । ननु यदि स- इति राद्धान्तः । अत्र विशेषो । दिसा' शब्दे चतुर्थभागे वेण सर्व स्पृशति इत्युच्यते तदा परमाएवारकत्वापत्तेः २५२३ पृष्ठ " जस्स जो प्राइच्चो" (४७) इत्यादिगाथा. कथमपरापरपरमाणुयोगेन घटाऽऽदिस्कन्धनिर्वृत्तिरिति २। भिर्दर्शितः। नवीनास्तु मार्तण्डमण्डले भ्रमग्णाभावं कल्प. अत्रोच्यते-सर्वेण सर्व स्पृशतीति कोऽर्थः ?, स्वात्मना ताव. यन्ति ) ( परमाणुपुद्गलानामन्तरम् ' अंतर ' शब्दे . न्योन्यस्य लगतो न पुनरर्धाऽऽयंशेन अर्धाऽऽदिदेशस्य तयोर. प्रथमभागे ७८ पृष्ठे गतम् ) (द्रव्यक्षेत्रावगाहनाभावस्थानाभावाद् घटाऽऽधभावापत्तिस्तु तदैव प्रसज्यत यदा तयोरेक- ऽऽयुषां पुद्गलानामल्पबहुत्वम् " अप्पाबहुय "शब्दे प्रथम स्वापत्तिर्भवति, न च तयोः सा, स्वरूपभेदात् । (सत्तमन. भागे ६४८ पृष्ठ उक्तम् ) (क्षेत्रानुपाताऽऽदिनाऽल्पबहुचमेहि फुसहत्ति) सर्वेण देशं सर्वेण सर्वमित्येताभ्यामित्यर्थः, त्वम् । अप्पाबहुय' शब्दे प्रथमभागे ६४६ पृष्ठे उक्तम् ) तत्र यदा द्विप्रदेशिकः प्रदेशद्वयावस्थितो भवति तदा तस्य अचित्ता अपि पुनला अवभासन्त इति 'अरणउत्थिय । परमाणुः सर्वेण देशं स्पृशति, परमाणोस्त इशस्यैव विषय- शब्दे प्रथमभागे ४४८ पृष्ठे उक्तम् ) स्वात्, यदा तु द्विप्रदेशिकः परिणामसौदम्यादेकप्रदेशस्थी महाकर्मणो यावद् महावेदनस्य भवति तदा तं परमाणुः सर्वेण सर्व स्पृशतीत्युच्यते । सर्वतः पुद्गला वध्यन्ते(णिप्पच्छिमपहि तिहि फुसइ त्ति ) त्रिप्रदेशे कमसौ से नूणं भंते ! महाकम्मस्स महासवस्स महाकिरियस्स स्पृशेत्रिभिरत्या स्पृशति, तत्र यदा त्रिप्रदेशिकः प्रदेशत्रः | महावयणस्स सम्बो पोग्गला वझति, सबओ पोग्गला यस्थितो भवति तदा तस्य परमाणुः सर्वेण देशं स्पृशति, चिति. सव्वनो पोग्गला उपचिति. सया समियं पोपरमाणोस्तद्देशस्यैव विषयत्वात् यदा तु तस्यैकत्र प्रदेशे गला वझंति,सया समियं पोग्गला चिज्जति, सया सद्वौ प्रदेशावन्यत्र एकोऽवस्थितः स्यात्तदा एकप्रदेशस्थित. परमाणुद्वयस्य परमाणोः स्पर्शविषयत्वेन सर्वेण देशौ स्पृ. मियं पोग्गला उवचिज्जति , सया समियं च णं तस्स शतीत्युच्यते , ननु द्विप्रदेशिकेऽपि युक्तोऽयं विकल्पस्तत्राs. आया दुरूवत्ताए दुवपत्ताए दुगंधताए दुरसत्ताए दुफा-- पि प्रदेशद्वयस्य स्पृश्यमानत्वात्, नैवम् । यतस्तत्र द्विप्रदेश. सत्ताए अणिद्वत्ताए अकंतअप्पियअसुभअमणुएणमणामात्र एघावयवीति कस्य देशौ स्पृशति, त्रिप्रदेशिके तु त्र. मत्ताए अणिच्छियत्ताए अहिझियत्ताए अहत्ताए नो यापेक्षया दयस्पर्शने एकोऽवशिष्यते, ततश्च सर्वेण देशी उड्डत्ताए दुक्खत्ताए, नो सुहत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति? त्रिप्रदेशिकस्य स्पृशतीति व्यपदेशः साधुः स्यादिति, यदा स्वेकप्रदेशावगाढोऽसौ तदा सर्वेण सर्व स्पृशतीति स्यादि हंता गोयमा !। महाकम्मस्स तं चेव । से केणं । गोयमा! ति । ( दुपपसिए णमित्यादि ) ( तइयनवमेहि फुसइत्ति) | से जहानामए वत्थस्स अहतस्स वा धोयस्स वा तंतुगयदा द्विप्रदेशिको द्विप्रदेशस्थस्तदा परमाणुदेशेन सर्व स्पृ. यस्स वा आणुपुम्चीए परि जमाणस्स सबो पोग्गलो शतीति तृतीयः, यदा त्वेकप्रदेशावगाढोऽसौ तदा सधैंण वज्झति सव्वओ पोग्गला चिजति जाव परिणमंति, सर्वमिति नवमः । (दुपएसिओ दुपपसियमित्यादि) यदा तु से तेणटेणं । से णूणं भंते ! अप्पासवस्स अप्पकम्मस्स द्विप्रदेशिको प्रत्येकं द्विप्रदेशावगाढी तदा देशेन देश अप्पकिरियस्स अप्पवेयणस्स सव्वो पोग्गला भिअंति, मिति प्रथमः, यदा त्वेक एकत्रान्यस्तु द्वयोस्तदा देशेन स. मिति तृतीयः तथा सर्वेण देशमिति सप्तमः । नवमस्तु सव्वओ पोग्गला छिज्जति, सव्वो पोग्गला विद्धंसंति,सप्रतीत एवेति । अनया दिशाऽन्येऽपि व्याख्येया इति । भ० वो पोग्गला परिविद्धसंति सया समियं पोग्गला भिअं५श०७ उ०। स्थानः पुनला बहिर्न गच्छन्ति ति,छिअंति,विद्धंसंति,परिविद्धंसंति,सया समियं च णं तस्स चाहिं ठाणीह जीवा य पोग्गला यणो संचाएइ बहिया आया सुरूवत्ताए पसत्थं नेयव्यं० जाव सुहत्ताए नो दुक्खलोगंता गमणयाए गइअभावणं निरुवग्गयाए लुक्खत्ताए ताए भुजो भुजो परिणमइ । ता गोयमा !जाव परिणमइ। लागाणुभावेणं । से केणटेणं । गोयमा! जहानामए वत्थस्स जल्लियस्स पा (चउडीस्यादि ) व्यक्त, परमन्येषां गतिरेव नास्तीति "जी. पंकियस्स वा मइल्लियस्स वा रतिल्लियस्स वा पाणुपुबीए था य पोग्गला य" इत्युक्तम्- (नो संचाए त्ति) न शक्नुवन्ति नालं (बाहिय त्ति) पहिस्तात्-लोकान्तात्, अलोकमित्यर्थः। परिकम्पिजमाणस्स सुद्धेणं वारिणा धोव्यमाणस्स सव्वमो गमनतायै-गमनाय , गन्तुमित्यर्थः । गत्यभावेन लोकान्तात् पोग्गला भिजति जाव परिणमंति, से तेणटेणं । परतस्तेषां गतिलतणखभावाभावावधो दीपशिखावत्तथा । (महाकम्मस्सेत्यादि ) महाकर्मणः स्थिस्याचपेक्षया महा. Page #1127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोल क्रिपस्य अलघुका विक्रयादिकियस्य महाधयस्य बृहन्नि व्यास्थानिक बन्नुस् महानस्य महापीडः सर्वतः सर्वासु दिनु सर्वान् वा जीवप्रदेशानाश्रित्य बध्यन्ते श्रासङ्कलनतश्चीयन्ते बन्धनत उपचीयन्ते निषेकरचनतः, अथवा बध्यन्ते बन्धनतश्चीयन्ते निधत्तत उपचीयन्ते निका चनतः । (सया समियं ति) सदा-सर्वदा सदात्वं च व्यवहा रतोऽसातत्ये ऽपि स्यादित्यत श्राह समितं संततं ( तस्स श्रा. यत्ति) । यस्य जीवस्य पुद्गला बध्यन्ते तस्यारमा बाह्यरमा शरीरमित्यर्थः (अति अति ( तताए ति असुन्दरतया (अवियत्ताप ति श्रप्रेमहेतु. तया (अभतार मिलतयेत्यर्थः (अतालि नमसा भयो मनस्तापस्तता तया ( श्रमणामत्ताए त्ति ) न मनसा श्रम्यते गम्यते संस्मरणतोऽमनोभ्यस्तद्भावस्तत्ता तया । ( श्रखिच्छित्ताप लि) अनीता प्राप्तुमात्येन ( त्रस्य " तर ति ) भिध्या लोभः, सा संजाता यत्र स भिध्यितो, न भिध्यितोऽभिध्यतस्तद्भावस्तत्ता तया । ( श्रदत्ताए ति ) जघन्यतया । (नो उड्डत्ताए त्ति । न मुख्यतया । (श्रयस्स त्ति ) अपरिभुक्तस्य । ( घोयस्स त्ति ) प्रक्षालि सस्य (संतुंगवस्त्र व शि ) सम्तोमाऽऽदेरपनीतमा वजयंती" त्यादिना पदत्रयेणेह वस्त्रस्य पुद्गलानां यथोत्तरं संबन्धप्रकर्ष उक्तः । ( भिज्जति त्ति ) प्राक्क्रनसम्बन्धविशेषत्यागात् । ( विद्धंसंति त्ति ) ततोऽधः पातात् (परिविति त्ति ) निःशेषतया पातात् । ( जल्लियस्स त्ति ) यलितस्य-यानलगनधर्मोपेत मलयुक्तस्य । ( पंकियस्स त्ति) आईमलोपेतस्य ( मइलियस्स त्ति ) कठिनमल युक्त स्य । ( इल्लियस्स त्ति ) रजोयुक्तस्य (परिकम्निमाणस त्ति) क्रियमाणशोधनार्थोपक्रमस्य । भ० ६ श . ३ उ० ॥ अचित्ताः पुङ्गलाः प्रयोगपरिणताः - विविधा पौगला पत्ता । तं जहा पगपरिया, मी सापरिणया, वीससापरिणया || - ( ११०४ ) अभिधानराजेन्द्रः | तिमिलेत्यादि) प्रयोगपराजयापारेण तथाविधपरिणतिमुपनीता यथा पटाssदिषु कर्माऽऽदिषु वा ( मीस नि ) प्रयोगविलाभ्यां परिणता यथा पट पुद्गला पत्र प्रयोगेण पटतया विश्वसा परिणामेण बाभीगेऽपि पुरासमेत वितर धनुरादिवदिति पुद्गप्रस्तापाद्विप लरूपाणाम् । स्था० ३ ठा० ३ उ० । ( ' परिणाम ' शब्देsस्मिन्नेव भागे ६०२ पृष्ठे उक्तमेतद्भेददर्शक कदम्बकम् ) ( सुरभिगन्धपुद्गला दुरभिगन्धपुद्गलतया परिणमन्ती ति 'परिणाम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे उक्तम् ) सरूपाः सकर्मलेश्याः पुद्गलाः अत्थि णं भंते ? सरूत्रिं सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभा संति० ४१। इंता अस्थि । कयरे भंते ! सरूवी सम्मले स्मा पोग्गला श्रभाति जापभाति ४ गोयमा ! I आई इयाओ चंदिमसुरियासां देवा विमाहिती लम्साओ बहिया अभिनिस्साओ पभावेति एएस गोमाते ० पोम्गल सरूपी सम्मलेसा पोगाला भोमासंति ॥ थिमित्यादि (विति वह रूपेण मूर्तया येऽऽदिग्स सम्मलेस्वति पूर्व वत् पुद्गलाः स्कन्धरूपाः । ( श्रभासंति त्ति ) प्रकाश लेखा ) तेज दिया अधिनिस्सा शि) पतिभिनिःसूना निर्माता इ पनि चन्द्रा दिन एवं पृथिवोकायिका कालेश्यास्तथापि गलत स्पेनोपचारात् सकलेश्वापगम्यमिति । गाधिकारादिदमाद नैरविकास कियता पुद्गला श्रागच्छन्ति 1 रइयाणं भंते ! किं अत्ता पोग्गला असता पोग्गला । गोयमा यो अता पोमला पगला असुरकुमाराणं भंते! किं श्रत्ता पोग्गला, अणत्ता पोग्गला १ । गोयमा ! अत्ता पोग्गला यो अत्ता पोग्गला, एवं०जाब - यिकुमाराणं | पुढचीकाइयाणं पुच्छा ? । गोयमा ! तावि पोला, अगचा व पांगाला एव०जाब म गुस्साएं वाणमंतरजोइ सियंत्रमागया जहा कुमा राते किं इट्टा पोग्ला अणि पांगा ला? | गोमा ! णो इट्टा पोला, श्रणिट्टा पोरगला, जहा अनामणिया एवं इट्ठा विकता या विमा भाणिया, एवं पंच दंडगा ॥ , ( नेरइयामित्यादि ) ( त ति आ - श्रभिविधिना यति सुखं बोत्पादयति इति यात्रा श्राप्ता वा एकान्तहिताः, अत एव रमणीया इति वृद्धैर्व्या ख्यातम् । एते च मनोज्ञाः प्राग्व्याख्यातास्तं दृश्याः त था ( इट्टेत्यादि ) प्राग्वत् । भ० १४ ० ६ उ० । जीवः पुद्गली, अपुद्गलो वा ? - I जीणं भंते ! किं पं.ग्गली, पोगले १। गोयमा ! जीने पोग्गली वि, पोगले वि। से केणणं भेतं! एवं वुच्चइजीव पोलीपिपले वि गोषमा से महानामए छत्ते छत्ती, दंडेणं दंडी, घडणं घडी, पडेणं पडी, करे करी एवमेवगांवा जीव व सोईदियचखिदिवासिंदियजिभिदियफ सिंदियाई पडुच्च पोग्गली, जीवं पडुच्च पांगले, से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - जीवे पोगली वि, पोगले वि। नेरइएवं भंते! किं पोग्गली, पोगले १। एवं चंद । एवं ०जाव त्रेमाणिए नवरं जस्स जइ इंदियाई तस्स तड़ भाणियन्त्राई । सिद्धे णं भंते! किं पो ग्गली, पांगले ? । गोयमा ! नो पोग्गली, पोरंगले । से केख द्वेणं ? । गोयमा ! जीवं पडुच, से तेराद्वेगं एवं बुच्चइ-सिद्धं दो पांगली, योग्य से मं ॥ ( जांचेयमित्यादि (पाली) गा Page #1128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११०५) अभिधानराजेन्खः । पोग्गल assदिरूपा विद्यन्ते यस्याऽसौ पुद्गली ( पुग्गले विचि ) पुल इति संज्ञा जीवस्य ततस्तद्योगात्पुल इति । ए तदेव दर्शयन्नाह - ( से केणेत्यादि ) । भ० ८ ० १० उ० । ( जीवानां पापकर्मतया पुङ्गलोपचयः पावकम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ८७६ पृष्ठे उक्तः ) ( देवो बाह्यपुङ्गलानादाय प्रभुरागन्तुमिति 'गंगदन्त' शब्दे तृतीयभागे ७८० पृष्ठे ऽस्ति ) नैरयिकाणां निर्जरापुनले श्रासि वर्ततुं वा कल्पते 1 गोरयाणं भंते! पावे कम्मे जे य कडे एवं चैव एवं ०जाव माणियाणं । रइयाणं भंते ! जे पोंगले आहारताए गेहंति, वेसि णं भंते! पोग्गलाणं सेयकालंसि कइभागं श्राहारेति, कहभागं खिजरेंति । मागंदियपुता ! असं अहभागं श्राहारेति, भांतभागं खिजरेंति । चक्कियाणं भंते! केइ तेसु खिजरापोग्गलेसु आसइत्तए वा ब्जाव तुयट्टित्तए बा ? । णो इणट्टे समट्टे, अण्णाहारमेयं बुइयं समाउसो !, एवं ०जाव वेपाणियाणं, सेवं भंते भंते चि । (रया इत्यादि ) ( सेयकासंसि सि ) एष्यति काले ग्रहणानन्तरमित्यर्थः । (श्रसंखेजहभागं आहारिति त्ति ) गृहीतमुद्गलानाम संख्येयभागमाद्दारी कुर्वन्ति, गृहीतानामेवानन्तभागं निर्जरयन्ति मूत्राऽऽदिवस्यजन्ति । ( चक्कियति ) शत्रूनुयात् । ( श्रणाहरणमेयं वुइयं ति) आधियते अनेने व्याधरणमाधारस्तनिषेधो ऽनाधरणमाधर्तुमक्षमम् एतन्नि जरापुलजातम् उक्कं जिनैरिति । भ० १८० ३३० । एष पुलः श्रतीतोऽनागतः भविष्यश्चएस यं भंते! पोग्गले तीतपणंतं सासयं समयं भुवीति व्वं सिया ? | हंता गोयमा ! एस गं पोग्गले तीतमतं सायं समयं वीति बत्तन्वं सिया । एस यं भंते! पोग्गले पप्पां सासयं समयं भवतीति वत्तन्वं सिया ? | इंवा गोमा ! तं चैव उच्चारयन् । एस यं भंते! पोग्गले अद्यागयमणंतं सासयं समयं भविस्सतीति वत्तव्यं सिया १ । हंता गोयमा ! तं चैव उच्चारयण्वं । एवं खंधेण वि तिथि आलावगा, एवं जीवेण वि तिमि मालावगा भाणियन्वा । ( एस णं भंते! इत्यादि ) ( पोगले ति ) परमाणुरुत्तरत्र " सर्वे ध्व स्कन्धग्रहणात् । (तीतं ति ) अतीतम् । इह व भागकालाः" इत्यनेनाऽऽधारे द्वितीया । ततश्च सर्वस्मिन्नतीत इत्यर्थः । (अति) अपरिमाणमनादित्वात् । ( सासयंति ) सदा विद्यमानं, न हि लोकोऽतीतकाले न कदाचिच्छून्य इति ( समयं ति) कालम् (भुविति ) अभूत्, इति एतव्यं स्यात् सद्भूतार्थत्वात् । (पशुपति) प्रत्युत्पन्नं वर्त्तमानमित्यर्थो वर्त्तमानस्याऽपि शाश्वतत्वं खड़ा आचादेवमनागतस्याऽपीति । अनन्तरं स्कन्ध उक्ता, स्कन्ध-खप्रदशो ऽपेक्षया जीवोऽपि स्यादिति, जीवस्त्रम् । अ०] १८०४ उ० ।। अवशेषं विषयम् पोग्गलस्थिकाय ' शब्दे वक्ष्यामि) समयपरिभाषया मांस, ( २३५ गाथा ) विशे० । व्य० नि० चू० । " पोगला तिथि - जलधरं २७७ पोग्गल लय, खरं च । नि०यू० १३० । प्रालम्भिकायां नग शङ्खषनस्योद्यानस्यावूर सामन्ते परिवसति परिब्राजके, भ० ११० १२० । ( पुलपरिवाजक वशग्यता इसि महल' शब्दे द्वितीयभागे ६३४ पृष्ठे गता ) ता जे गं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसति त ते गं पोगला संतप्पति, ते गं पोग्गला संतप्यमाणा तदांतराई बाडिराई पोग्गलाई संतावेंतीति । एस से समिते तावक्खेचे, एगे मासु १ | एगे पुण एवमाहंसु-ता जे गं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति ते पोग्गला नी संतप्पंति । ते णं पो ग्गला असंतप्यमाणा तदतराई बाहिराई पोग्गलाई यो संततीति । एस से समिते तावक्खेते, एगे एवमाहंसु २' एगे पुण एवमाहंसु - ता जे गं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुति ते गं पोग्गला अत्थंगतिया संतप्यंति, अत्थे गतिया खो संतप्पंति, तस्थ अत्येगइया संतप्यमाणा तदणंतराई बाहिरा पोग्गलाई अत्थे गतियाई संतावेति, अत्येगतियाई यो संतावतीति । एस से समिते तावक्खे ते, एगे एवमाहंसु ३ । वयं पुण एवं वदामो-ता जाओ इमाओ चंदिमसूरियाणं देवाखं विमाणेहिंतो लेसाओ उच्छूढाओ अभि सिट्टा बाहिता पतावेंति, एतासि णं लेसाणं अंतरेसु श्रवणतरीओ छिपलेस्साओ संमुच्छ्रति तते यंताओ मिस्सा मुछियाओ समाणीओ तदणंतराई बाहिराई पोग्गलाई संवार्वेतीति । एस यं से समिते तावक्खेते । (सूत्र ३० ) 'ता जेणं' इत्यादि, 'ता' इति पूर्ववत् ये, णमिति वाक्या खङ्कारे, पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति, ते पुनलाः सूर्यलेश्यासंस्पर्शतः सन्तप्यन्ते सन्तापमनुभवन्ति सन्तप्यन्त इति कर्मकर्तरि प्रयोगः । ते च पुद्गलाः सन्तप्यमानाः तदन. तरान् तेषां सन्तप्यमानानां पुगलानामव्यवधानेन ये स्थि ताः पुलास्ते तदनन्तरास्तान् बाह्यान् पुलान् सूत्रे क नपुंसक निर्देश: प्राकृतस्वात् । सम्तापयन्ति इतिशब्दः प्र स्तुत वक्तव्यतापरिसमाप्तिसूचकः । 'एस गं' इत्यादि एतत् एवं स्वरूपं (से) तस्य सूर्यस्य समितम् - उपपन्नं तायक्षेत्रम् । अत्रोपसंहारमा - एगे पवमासु' १, एके पुनरेवमाद्दुः'ता' इति पूर्ववत् ये, समिति प्राग्वत्, पुङ्गलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति ते मुला न सम्तप्यन्तेन सम्तापभनुभवन्ति, यश्च पीठफ काऽऽदीनां सूर्य लेश्या संस्पृष्टानां सम्ता उपलभ्यते स तदाऽऽश्रितानां सूर्यवेश्यापुंङ्गलानामेव स्वरूपेण, न पीफलकाऽऽदिगतानां पुतलानामिति न प्रत्य क्षविरोधः । ते समिति प्राग्वत्, पुद्दला असन्तप्यमानास्तदनन्तराम् बाह्यान् पुलाब सम्तापयन्ति - मोष्णीकुर्व न्ति स्वतस्तेषामसंतप्तत्वात् इतिशब्दः प्राभ्ववू व्यक्तः, एस णं इत्यादि एतत् - एवंस्वरूपं ' से ' तस्य सूर्यस्य तापक्षेत्रं समितम् - उपपन्नमिति । अत्रोपसंहारमाह-पगे मासु २ ) एके पुनरेवमाहुःता इति पूर्ववत् णमिति प्राग्वत् ये पुलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति से कु For Private Personal Use Only Page #1129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११०६ ) अभिधानराजेन्द्रः । पोग्गल ठूला अस्तीति प्राकृतत्वान्निपातत्वाद्वा सन्ति एककाः केचन पुनला ये सूर्यलेश्या संस्पर्शतः सन्तप्यन्ते सन्तापमनुभवन्ति, तथा सन्त्यककाः केचन पुद्गला ये न सन्तप्यन्तेः तत्र ये सन्त्येककाः सन्तप्यमानास्ते तदनन्तरान् बाह्यान् पुद्गलान् अस्त्येतत् यत् एककान् कांश्वित्सन्तापयन्ति श्र स्त्येतद्यदेककान्- कांश्चिन सन्तापयन्ति इतिशब्दः पूर्ववत् 'एस' इत्यादि एतत् एवं स्वरूपं, 'से' तस्य सूर्यस्य लमितम् उपपन्नं तापक्षेत्रम्। श्रत्रोपसंहारमाह ( एगे एव. मासु ३) पतास्तिस्रोऽपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपास्तथा एता व्युदस्य भगवान् भिनं स्वमतमाह-, 'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरेवं वक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदामः । तमेव प्रकारमा - "ता जईए (जाओ इमाओ)" इत्यादि, 'ता' इति पूर्ववत् या इमाः प्रत्यक्षत उपलभ्यमानाश्चन्द्रसूर्याणां देबानां सरकेभ्यो विमानेभ्यो लेश्या उच्छूढाः, एतदेव व्यावष्टे अभिनिःसृतास्ताः प्रतापयन्ति बाह्यं यथोचितमाका शर्ति प्रकाश्यं प्रकाशयन्ति, पतासां वेत्थं विमानेभ्यो निःसृतानां लेश्यानामन्तरेषु- अपान्तरालेष्वन्यतराश्छिन्नलेश्याः सम्मूर्च्छन्ति, ततस्ता मूलच्छिन्ना लेश्या सम्मूर्छिताः सत्यस्तदनन्तरान् बाह्यान् पुद्गलान् सन्तापयन्ति, इतिशब्दः पूर्ववद, एस णं इत्यादि एतत् एवं स्वरूपं ' ले 'तम्य सूर्यस्य समितम् उपपन्नं तापक्षेत्रमिति । त देवं तापक्षेत्रस्य स्वरूपसम्भव उक्तः । सू०प्र० ६ पाहु० । (नैयिकानां कतिविधाः पुलां भिद्यन्ते चीयन्ते इत्या दि जीव' शब्दे चतुर्थभागे १५३६ पृष्ठे उक्तम् ) पोग्गलकाय पुलकाय पुं० 1 प्राणिशरीरे, “वाउकापणं फुडं पोग्गलकार्य । " स्था० ७ ठा० । पोग्गलक्खेष - पुनलचेप - पुं० । नियन्त्रित क्षेत्राद् बहिः स्थित• स्य कस्यचिवाss विक्षेपणेन स्वकार्यस्मरणे देशावकासि कवतातिचारे, ध० २ अधि० । पोग्गलजोखिय-पुद्गलयोनिक - त्रि० । पुङ्गलाः शीताऽऽदिस्पर्शा योनिः येषां ते तथा । शीताऽऽदियोनि जनितेषु भ०१४ श०६० पोग्गल द्विइय- पुद्गल स्थितिक नि० । पुला आयुष्ककर्म पु लाः स्थितिर्येषां ते तथा । पुङ्गलजनित स्थिति केषु भ० १४ श० ६ उ० । पोग्गलत्थिकाय- पुद्रलास्तिकाय - पुं०। पूरणगलनधर्माणः पुग लाः, पृषोदराऽऽदित्यादिष्टरूपसिद्धिः । कल्प०१ अधि०४ क्षण । पुङ्गलाः- परमाण्वादयः । अनन्तः शुकस्कन्पन्ति दि. तचिद् द्रव्याङ्गलन्ति - वियुतः पूरयन्तीति भावः । ते च तेऽस्तिकात समासः "स्पर्शरस गन्धवर्ण-शब्द मूर्तिस्वभावकाः संघात भेद निष्पन्नाः, (पुद्गला) जिनदेशिताः ॥ १॥" इत्युक्तलक्षणेषु द्रव्येषु आव०४ अ० ० पुङ्गलास्तिकायस्य लक्षणानि - पोग्गलत्थकार पुच्छा ? गोयमा ! पोग्गलत्थिकाए णं raj भोलि वेडब्बिय आहारगतया कम्मा सोइंदियश्वखिदियघाणिं दियजिभिदियफा सिंदियपण जोगवइजो - | गायजोगमाया पायाणं च गहणं पवत्तंति, गहणलक्खये यं पोगलत्थिकाए । पोग्गल त्थि काय ( पोग्गलस्थिकारणमित्यादि ) इद्दौदारिकाऽऽदिशरीराणां श्रोत्रेन्द्रियाऽऽदीनां मनोयोगान्तानामानप्राणानां च ग्रहणं प्र वर्त्तत इति वाक्याऽर्थः । पुद्गलमयत्वादौदारिकाऽऽदीनामिति । भ० १३ ० ४ उ० । इलास्तिकायस्थ पर्यायाः पोग्गलत्थिकायस्स णं भंते ! पुच्छा ? । गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पत्ता । तं जहा पोग्गलेति वा, पोग्गलथिका ति वा परमाणुपोग्गले ति वा दुपदेसिए ति वा तिपदेसिए ति वा जाव असंखेअपएसिए ति वा श्रणंतपसि तिवा खंधे जे यावसे तहप्पगारा सच्चे ते पोग्गलत्थकायस्स अभिवयणा पत्ता, सेवं भंते ! भंतेति । भ० २० श० २ उ० । ( एकः पुद्रलास्तिकायः संहत्य स्कन्धो भवति ) ( पुद्गलानां वर्णगन्धाऽऽदीन् ' वस' शब्दे वक्ष्यामि) पोगलत्यिकार पंच पंचरसे दुगंधे फासे रूबी जीवे सास अवट्टिए ०जाव दव्बओ गं पोग्गलत्थिकाए अताई दव्बाई, खेत्तओ लोगप्पमाणमेत्ते, कालचो ण कयावि यासि जाव निश्चे, भावओो वनमंते गंधमंते रसमंते फासमंते, गुण गहणगुणे ॥ पुद्गलास्तिकायश्च तयोस्तत्रैव भावादिति । ( गद्दणगुणेति ) ग्रहणम् श्रदारिकशरीराऽदितया प्राह्मता, इन्द्रिया ग्राह्यता वा वर्णाऽऽदिमत्त्वात् परस्परसंबन्धलक्षणं वा तद्गु णो धर्मो यस्य स तथा । स्था०५ ठा० ३ उ० । ( लोकस्य क्क कस्यां कस्यां दिशि पुद्गलाश्चीयन्ते इति दव्व' शब्दे चतुर्थभागे २४६४ पृष्ठे उक्तम् ) एकः पुङ्गलास्तिकाय प्रदेशः - एगे भंते ! पोग्गलत्थिकायप्पएसे किं दव्वं १, दव्वदेसे २, दव्बाई ३, दव्बदेसा ४, उदाहु-दव्त्रं च दव्वदे ५, उदाहु- दव्वं च दव्वदेसा व ६, उदाहु- दव्बाई च दवसे य७, उदाहु-दब्वाई च दव्वदेसा य ८ गोया सिदव्वं, सिय दव्वदेसे, नो दव्बाई, नो दव्वदेसा, नो दव्वं च दव्वदेसे य, नो दव्वं च दव्वदेसाय, नो दव्वाई च दव्यदे से य, नो दव्बाई च ददेय। दो मंते ! पोग्गलत्थिकायप्पएसा किंदव्यं, दब्वदेसे पुच्छा ? । गोयमा ! सिय दव्वं, सिय दव्त्रदेसे, सिय दव्वाई, सिय दव्वदेसा सिय द च दव्वदेसे य, नो दव्वं च दव्वदेसा य, सेसा पडिसेहेयव्वा । तिमि भंते ! पोग्गलत्थिकायप्पएसा किं दव्वं, दव्व देसे पुच्छा है। गोयमा ! सिय दव्बं १, सिय दव्त्रदेसे २, एवं सत्त भंगा भाणियन्त्राण्जाव सिय दव्बाइं च दव्बदेसे य, नो दव्वाई च दव्त्रदेसा य । चत्तारि भंते ! पोग्गलत्थिकायप्पएसा, किं दव्वं दव्व देसे पुच्छा १ । गोया ! सियद, सिय दव्बदेसे, श्रवि भंगा भाणियन्त्रा For Private Personal Use Only Page #1130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०७) पोग्गलस्थिकाय अभिधानराजेन्द्रः। पोग्गलपरिणाम जाब सिय दबाई च दबदेसा य, जहा चत्तारि भणिया, (तिविहेत्यादि ) पुद्गलानामरावादीनां प्रतिघातः-स्खलनं पुद्गलप्रतिघातः,परमाणुश्वासौ पुद्गलश्च परमाणुपुमलः,स तद् एवं पच छ सत्त. जाव संखेज्जा असंखजा अणंता । भंते ! अनन्तरं-प्राप्य प्रतिहन्येत-गतेःप्रतिघातमापद्येत रूक्षतया वा पोग्गलत्थिकायप्पएमा किं दव्वं दबदेसे य, एवं चेव. तथाविधपरिणामान्तराद्गतितः प्रतिहन्येत लोकान्ते वा परजाव सिय दबाई च दव्यदेसा य । तो धर्मास्तिकायाभावादिति । स्था० ३ ठा०४ उ०। गेमंते! पोग्गलस्थिकाए इत्यादि ) पुद्गलास्तिकायस्योगालपरिणाम-पदलपरिणाम-पु०। पुद्गलानां पर्यायभूते चएकाणुकाऽऽदिपुद्गलराशेः प्रदेशो-निरंसोऽशः पुद्गला. स्तिकायप्रदेशः-परमाणुः द्रव्यं गुणपर्याययोगि द्रव्यदेशो-द्र तुर्विधे परिणामे, स्था। व्यावयवः। एवमेकत्वबहुत्वाभ्यां प्रत्येक विकल्पाश्चत्वारो द्वि चउविहे पोग्गलपरिणामे पलत्ते । तं जहा-बामपरिणामे, कसंयोगा अपि चत्वार एवेति प्रश्नः । उत्तरं तु स्याद् द्र. गंधपरिणामे, रसपरिणामे, फासपरिणामे । व्यं द्रव्यान्तरासम्बन्धे सति , स्याद् द्रव्यदेशो द्रव्यान्तर ' (बउबिहेत्यादि ) परिणामः अवस्थातोऽवस्थान्तरगमनं, सम्बन्धे सति, शेषविकल्पानां तु प्रतिषेधः, परमाणोरेक न च सर्वथा विनाशः। उक्तं च-"परिणामो ह्यान्तर-गमस्वेन बहुत्वस्य द्विकसंयोगस्य चाऽभावादिति । (दो भंते ! नं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः, परि. इत्यादि ) इहाऽष्टासु भङ्गकेषु मध्ये श्राद्याः पञ्च भवन्ति, णामस्तद्विदामिष्टः॥१॥” इति । तत्र वर्णस्य कालाऽऽदेः प. न शेषास्तत्र द्वौ प्रदशौ स्याद् द्रव्यं, कथं ?, यदा तो द्विप्रदे. रिणामोऽन्यथाभवन, वर्णेन वा कालाऽऽदिनेतरत्यागेन पुद्गशिकस्कन्धतया परिणतौ तदा द्रव्यं १, यदा तु घणुकस्कन्ध लस्य परिणामो, वर्णपरिणामः, एवमन्ये ऽपि ॥ ६॥ स्था०४ भावगतावेव तौ द्रव्यान्तरसम्बन्धमुपगतो तदा द्रव्यदेशः २, ठा०१ उ०। (इन्द्रियविषयः पुद्गलपरिणामः 'परिणाम' शब्देयदा तु तौ द्वावपि भेदेन व्यवस्थितौ तदा द्रव्ये ३ , यदा ऽस्मिन्नेव भागे ६०२ पृष्ठे गतः) तु तावेव घ्यणुकस्कन्धतामनापद्य द्रव्यान्तरेण सम्बन्ध मुपगतो तदा द्रव्यदेशौ ४. यदा पुनस्तयोरेकः केवलतया | नैरयिकाणां यावद्वैमानिकानामिष्टाऽनिष्टपुद्गलपरिणामःस्थिती, द्वितीयश्च द्रव्यान्तरण सम्बद्धस्ततो द्रव्यं च द्र णेरइया दसट्टाणाई पच्चगुब्भवमाणा विहरति । तं जहाव्यदेशश्चेति पञ्चमः ५। शेषविकल्पानां तु प्रतिषेधोऽसम्भवा- अणिवा सद्दा अणिहा रूवा अणिहा गंधा अणिवा रसा दिति । (तिमि भंते ! इत्यादि ) त्रिषु प्रदेशेष्वष्टमविकल्प. अणिट्ठा फासा अणिट्ठा गई अणिट्ठा ठिई अणिटे लावघर्जाः सप्त विकल्याः सम्भवन्ति । तथाहि-यदा त्रयोऽपि से अणिटे जसो कित्ति अणिटे उहाण कम्मबलवीरियपुत्रिप्रदेशिकस्कन्धतया परिणतास्तदा द्रव्यं १, यदा तु ते त्रिप्रदेशिकस्कन्धतापरिणता एव द्रव्यान्तरसम्बन्धमुपग रिसक्कारपरक्कमे । असुरकुमारा दस हाणाई पच्चणुब्भवमाणा तास्तदा द्रव्यदेशः २, यदा पुनस्ते त्रयोऽपि भेदेन व्यव. विहरति । तं जहा-इट्ठा सद्दा इट्ठा रूवा जाव इटउहाणे स्थिता द्वौ वा दूधणुकीभूतावेकस्तु केवल एव स्थि- कम्मबलवीरियपुरिसक्कारपरक्कमे, एवं जाव थणियकुतस्ततः ( दवाई ति ३,) यदा तु ते त्रयोऽपि स्कन्धताम मारा । पुढवीकइया छ हाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरति । गता एव द्वौ वा व्यणुकीभूतावेकस्तु केवल एवमित्येवं तं जहा-इट्टाणिटफासा इट्टाणिढगई, एवं जाव परकमे, द्रव्यान्तरेण सम्बद्धास्तदा (दव्वदेसा इति ४) यदा तु तेषां द्वौ यणुकतया परिणतावेकश्च द्रव्यान्तरेण सम्बद्धोऽथवा एवं जाव वणस्सइकाइया । वेइंदिया सत्त द्वाणाई पञ्चएकः केवल एव स्थिती द्वौ तु द्वथणुकतया परिणतस्य द्र. णुब्भवमाणा विहरति । तं जहा-इटाणिहरसा, सेसं जहा ध्यान्तरेण सम्बद्धौ तदा ( दव्वं च दबदेसे यत्ति ५) । एगिदिया । तेइंदिया अट्ट द्वाणाई पच्चणुब्भवमाणा वियदा तु तेषामेका केवल एव स्थितौ द्वौ च भेदेन द्रव्या. हरति । तं जहा-इटाणिद्वगंधा,सेसं जहा बेइंदियाणं । चन्तरेण सम्बद्धौ तदा (दव्वं च व्वदेसा यत्ति ६) यदा उरिदियाणं छ द्वाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरति । तं पुनस्तेषां द्वौ भेदेन स्थितावेकश्च द्रव्यान्तरेण सम्बद्धस्त. दा (दब्बाई च दव्वदेसे य त्ति ७) अष्टमविकल्पस्तु न स जहा-इट्ठाणिहरूवा, सेसा जहा तेइंदियाणं । पंचिंदियतिम्भवति, उभयत्र त्रिषु प्रदेशेषु बहुवचनाभावात् प्रदेशचतु- रिक्खजोणिया दस द्वाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरति । टयादौ त्वष्टमोऽपि सम्भवत्युभयत्राऽपि बहुवचनसद्भा- तं जहा-इटाणिसदा जाव परक्कमे । एवं मणुस्सा वि । वादिति । भ०८श०१० उ०। वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा । पोग्गलदन्व-पुद्गलद्रव्य-न० । प्रणगलमधर्माणः पुद्गलाः, पुद्गलाश्च ते द्रव्याणि च तानि पुद्गलद्रव्याणि । दश. १०। तत्र ( अणिट्टागइ ति ) अप्रशस्तविहायोगतिनामोदय सम्पाद्या नरक गतिरूपा वा (अणिट्ठा ठिा ति) नरकापोग्गलपडिघाय-पुद्गलप्रतिघात-पुं० । अण्वादीनां पुद्गलानां वस्थानरूपा नरकाऽऽयुष्करूपा वा (अणिट्रे लावसे त्ति) स्खलने स्था। लावण्यं शरीराऽऽकृतिविशेषः। " श्रणि? जसो कित्ति त्ति" तिविहे पोग्गलपडिघाए परमत्ते । तं जहा-परमाणुपोग्ग प्राकृतत्वादनिष्टेति द्रष्टव्यं, यशसा सर्वदिग्गामिप्रख्याति. ले परमाणुपोग्गलं पप्प पडिहम्मेज्जा लुक्खत्ताए वा पडिह रूपेण पराक्रमकृतेन वा सह कीतिरेकदिग्गामिनी प्रम्मेजा लोगते वा पडिहम्मेजा। ख्यातिनिफलभूता वायशः कीर्तिः अनिष्टत्वं च तस्या दु: Page #1131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११००) श्रनिधानराजेन्ड: । "खंडे हि पोग्गल परिणाम ) मतिरूपत्वात् । (अणि उट्ठायेत्यादि) उत्थानाऽऽड्या पर्याग्राक्षयोपशमादिजन्यवीर्य विशेषा, अनिश् च तेषां कुतस्यादिति (ढायादि) (पट्टायाति पृथिवीकाधिकानामेकेन्द्रियत्वेन पूर्वोकस्थानमध्ये श रूपगन्धरसा न विषय इति स्पर्शाऽऽदीन्येव षट् ते प्रत्यनुभवन्ति । (इट्ठाणिट्ठाफाल ति सातासातोदय सम्भवाछुभाशुभ क्षेत्रोत्पत्तिभावाच ( इट्टाणिट्ठा गइ सि ) यद्यपि तेषां स्थावरत्वेन गमनरूपा गतिर्नाऽस्ति स्वभावत स्तथाऽपि परप्रत्यया सा भवन्ती शुभाशुभत्वेनेष्टाऽनिष्ट व्यपदेशा स्वा-यद्यपि पापरूपत्यासियग्गतिर निष स्वासथाsपि ईषत्प्राग्भाराऽप्रतिष्ठानाऽऽदितेोत्पत्ति' द्वारेणेष्ठाऽनिष्टा गतिस्तेषां भावनीयेति । " एवं० जाव परक मेति" वचनादिदं दृश्यम् - " इट्टाणिट्टा ट्ठिई " लाच ग तिषद्भावनीया ( इट्टाणिडे लावसे) इदं च मरायन्धपा पाणाऽऽदिषु भावनीयम् (ट्टाणि जो किसी) इयं सरप्रख्यात्य सत्प्रख्यातिरूपा मण्यादिष्वेवावसेयेति । (इट्ठा. लिट्टे बजाय परकमेस) उत्थानादि च यद्यपि स्थावरत्वानास्ति तथाऽपि प्राग्भवाऽनुभूतोत्थानाssदिसंस्कारयासमिवाययमिति दिया ति) शब्दरूपगन्धानां स्वाइप 33दिस्थानानि च शेषाणि एकेन्द्रियाणामि पानि गतिस्तु तेषां सत्यरूपाद्विविधाप्यस्ति भषगतिस्तूत्पत्तिस्थानविशेषेणेष्टाऽनिष्टा ऽव सेयेति । भ० १४ श०५ उ० । पुलपरिणाम:कवडे यां भेते ! पोल परिणामे पाते हैं। गोयमा पं हे पोग्गल परिणामे पते । तं जहा-वपरिणामे, गंपरिणामे, रसपरिणामे, फासपरिणामे, संठा परिणामे । वपरिणामे भंते ! करविहे पत्ते १ । गोयमा ! पंचविहे पाते । तं जहा - कालवपरिणामे०जाव सुकिल्लवमपरिया मे एवं एवं अभिलावेगं गंधपरिणामे दुबिहे, रसप रिया मे पंचविहे फासपरिणामे विडे । संठाय परिणामे यं मेवे ! कवि पसे । गोयमा पंचविते । तं जहा - परिमंडल संठा परिणामे जाव श्रायय संठाणपरियाम | ( कविदे शमित्यादि सरित्यागाइत प्रावि (परिमंडल परिमल संस्थानं वलयाऽऽकारं, यावत्करणाच - "वसंठा परिणामे ठाणपरिणामे चउरंस संठाणपरिणामे, ति" दृश्यम् । भ० श० १० उ० । पुद्गलद्रव्याणां च दशविधः परिणामः, तद्यथा बन्धन गतिसंस्थानभेद वर्णगन्धरस स्पर्शागुरुलघुश - दरूप इति । तत्र बन्धः स्निग्धरूक्षत्वात् गति परिणामो दे शान्तरमाशिक्षण संस्थानपरिणामः परिमण्डलादिकः पञ्चचा भेदपरिणामः खर्णकटिकारिका मेन पश्वधैव । खण्डाऽऽदिस्वरूपप्रतिपादकं चेदं गाथा. म् । तद्यथा पोग्गल परियट्ट खंडभेयं पयरम्भेयं जम्भपडलस्स । यमेयं अणुरायं सकलयं ॥ १ ॥ समारोह मेरा । बीससपयोगमीम संघापविद्योग विविदगमो २॥" वर्णपरिणामः पञ्चानां परिस्ि इयादिसंयोगपरिधि तत्व पायाभ्योऽवसेयम्। तायेमाः "कागमेपि बहुगुणं । पराका सुचा सुतिमेगगुणं, फालतु गुजर ब परिणामिज्जह सुकं, कालेण गुणाहियगुणेणं ॥ २ ॥ जर सुकं एकगुणं, कालगदव्वं पि एक्कगुणमेव । कावोयं परिणामं, तुल्लगुणन्तेण संभव ॥ ३ ॥ एवं पंच विवा, संजोए तु वक्षपरिणामो । एकतीसं भंगा, सब्बेऽवि य ते मुयन्त्रा ॥ ४ ॥ एमेव य परिणामो, गंधाण रसाण तह य फालाणं । संभव बहु२॥ एकत्रिंशद्भङ्गा एवं पूर्यन्ते दश द्विक संयोगाः दश त्रिकयोगाः पञ्च चतुष्क संयोगाः, एकः पञ्चकसंयोगः, प्रत्येकं व र्णाश्च पश्चेति । अगुरुलघुपरिणामस्तु परमाणोरारभ्य याव दवन्नानन्तदेशिका कन्धाः सुदमाः शब्दपरिम तिनसुषिरभेदाचतु तथा व्यापाराऽऽक मिनिवच अन्येऽपि य पुलपरियां माश्यापादयो भ न्ति । ते चामी - 'छाया य श्रायवो वा, उज्जोश्रो तह य अंधकारो य । एसो उ पुग्गलाणं, परिणामो फंदा चेव ॥ २ ॥ सीया पाइपगासा, छाया णाइचिया बहुविगप्पा । उग्दो पुण व्यगालो, गायत्रो श्रायवो नाम ॥ ६ ॥ न वि सीओ नवि उरहो, समो पगासो य होइ उजोभो । कालं महल तमं पि य, विया तं अंधयारं ति ॥ ३ ॥ बस्स चलण पष्कं दणा उसा पुरा गई उ मिद्दिट्ठा । बीससपनोगमीला, अत्तपरे तु उभश्रोऽवि ॥ ४ ॥" तथाऽन्द्रतुदादिषु कार्येषु पानि पुद्गलद्रव्यादि परिणतानि तद्विसाकरणमिति ॥ ८ ॥ सूत्रक १ श्रु० १ श्र० १ उ० । पोमलपरियह पुलपरिवर्त० गलनांकयामाहारयर्जितानामीदारिकादिप्रकारेण एक जीयापेक्षा परिवर्तनं वामस्त्येन स्पर्श पुगनपरिवर्तः स च यावता कालेन भवति इति स कालोऽपि पुद्गल परिवर्त्तः । अनमोल विसर्पिणीरूपे कालभेदे, स्था० ३ ठा० ४३० ॥ अनु० | पं० [सं० । पुलपरावर्त्तमरूपणा--- रायगिद्दे जाय एवं बयासी दो भंते! परमाणुपोगला एगयओ साहयंति, एगयत्रो साहणित्ता किं भवइ १ | गोमा ! दुपदेसिएधे भवई से भिमाणे दुहा कञ्ज, एगो परमाणुपले एगयओं पर मले भवइ । तिमि त ! परमाणुपोग्गला पूगयशो साहपित्तए कि Page #1132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११०२) अभिधानराजेन्खः । पोग्गल परिय भवर १ । गोयमा ! तिपदेसिए खंधे भवइ । से भिमाये दुहा वितिविहावि काइ, बुडा कज्जमाये एगयो प रमापोगले एगो दुपदेसिए खंधे भवः, तिहा कअमाणे विष्टि परमाणुपोग्ला भवंति । चत्तारि भंते! प पोला पुच्छा । गोयमा ! च उष्पदेसिए बंधे भवइ, से भिमा हुडा वितिहा वि चउहा धिकज्जइ, दुहा कञ्जमा एगयो परमाणुपोग्गले एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ, हवा-दो दुपदेसिया खंधा भवति, तिहा कउजमा गयो दो परमाणुपोग्गला एगयो दुपदेसि ए, खंधे भवइ, चहा कज्जमाणे चचारि परमाणुपोग्गला भवति । पंच भंते ! परमाखुपोग्गला पुच्छा ? । गोयमा ! पं | सिए खंधे भव से भिमाणे दुडा वितिहा विचउहा वि पंचहा विकज्जइ, दुहा कज्जमाये एगयो परमाणुपोगले एगो चउप्पदेसिए बंधे भवइ, अहवा युगयत्र दुपदेसिए खंधे एगयओ तिपदेसिए खंधे भवड़, तिहा कमाये एगयओ दो परमाणुयोग्गला गयओ तिपदेसिए खंधे भवइ । महवा - एगयो परमाणुपोग्गले एगो दो दुपदेसिया खंधा भवंति चउडा कज्जमाणे एगयचो तिष्ठि परमाणुवोग्गला एगयश्रो दुपदेसिए खं भवइ, पंचहा कज्जमाये परमाणुपोग्गला भवति । छन्भंते ! परमाणु पुच्छा ।। गोयमा ! छप्पदेसिए खंधे भ व से भिजमा दुहा व तिहा वि० जाव छव्विहा वि कज्ज, दुहा कज्जमा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ पंचपरसिए खंधे भवइ, अहवा - एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयश्श्रो चउप्पएसिए खंधे भवइ, हवा - दो तिपदेसिया खंधा भवंति, तिहा कज्जमा गयो दो परमाणुपोग्ग ला एगो चउपदेसिए खंधे भवइ, श्रहवा – एगयो परमाणुपोग्गले एगो दुपदेसिए खंधे भवइ, एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ, हवा - तिमि दुपदेसिया खंधा भवति, चउहा कञ्जमा एगयओ तिथि परमाणुपोग्गला एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ, अहवा - एगयत्र दो परमापोग्गला एगो दुपदेसिया खंधा भवंति, पंचहा कअमाणे एगयओ चचारि परमाणुपोग्गला एगयो दुपदेसिए खंधे भवइ, छहा कज्जमा छ परमाणुपोग्गला भवंति । सत्त मंते ! परमाणुपोग्गला पुच्छा है। गोयमा ! सत्तपरसिए खंवें भवइ, से भिज्जमाये दुहा वि ०जाव सत्तविहाविकज्जइ । बुहा कज्जमा एगयओ परमाणुपोग्गले एगो एसिए खंधे भवइ १, अथवा एगयओ दुपदे सिए खंधे एग पंचपएसिए खंधे भवइ २ अहवाएग तिपदेसिए खंधे एगयत्रो चउप्पदेसिए खंधे भ २७८ For Private पोल परियट्ट गयो दो परमाणुपोग्ला एग ३, तिकमा पंचपदेसिए खंधे भवइ ४, महवा - एगयो परमागुपोगले एगयमो दुपदेसिए खंधे एगयश्रो चप्पदेसिए खंधे भवइ ५ अहवा - एगयओ परमाणुपोगले एगयो दो तिपदेसिया खंधा भवंति ६, श्रहवा एगयो दो दुपदेसिया खंधा एगयओ तिपदेसिए बंधे भवइ ७, चउहा कजमाये एगवओ तिथि परमाणुपोगला एगयओ च एसिए खंधे भवइ ८, श्रहवा एगयो दो परमाणुपोउगला एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ ६, श्रवा - एगयओ परमाणुप। गले एगयओ तिष्ठि दुपदेसिया खंधा भवंति १०, पंचहा कजमाये एगयओ चत्तारि परमाणुयोग्गला एगयो तिपदेसिए खंधे भवइ ११, हवा - एगो तिमि परमाणुपोग्गला एगयओ दो दुपदेसिया खंधा भवति १२, छहा कजमाणे एगयश्री पंच परमाणुपोराला एगयओ दुपदेसिए खंधे भवइ, १३, सत्तहा कमाणे सत्त परमाणुपोग्गला भवति १४ । परमाणुपोग्ला पुच्छा ? । गोयमा ! अट्ठपदेसिए खंधे गयओ सत्तपदेसिए खंधे भवइ १, अवा-गयओ दुप-भवइ० जाव दुहा कज्जमाये एगयओ परमाणुपोग्गले एदेसिए खंधे भवइ, एगयत्र छप्परसिए खंधे भवइ २, अहवा - एगय विपदेसिए खंधे एगयो पंचपदेसिए खंधे भवइ ३, हवा - दो चउप्पदेसिया खंधा भवंति ४, तिहा कमाये एगयओ दो परमाणुपोग्गला भवंति, एगयओ छप्पदेसिए कंधे भवइ ५ अहवा - एगय श्रो परमाणुपोगले एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयश्रो पंचपदेसिए खंधे भवइ ६, अहवा - एगयओ परमागुरोगले एगयओ तिपदेसिए बंधे एगयओ चप्पदेसिए खंधे भवइ ७ अहवा - एगयओ दो दुपदे - सिया खंधा एगयओ चउप्पदेखिए खंधे भवइ ८, हवा - एग दुपदेसिए खंधे भवइ, एगयभो दो ति पदेसियाई खंधाई भवंति है, चउहा कञ्जमा गयो तिथि परमाणुपोग्गला एमयत्रो पंचपदेसिए खंधे भवइ १०, अहवा - एगो दोसि परमाणुपोग्गला एगयो दुपदेसिए खंधे भवइ, एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवह ११, महवा - एग श्री दो परमाणुपोग्गला एगयश्रो दो तिपदेसिया खंधा भवंति १२, अहवा - एगयो परमाणुपोग्गले एगयओ दो वुपदेसिया खंधा भवंति, एगयो तिपदेसिए खंधे भवइ १३, श्रहवा - चत्तारि छुपदेसिया खंचा भवति १४, पंचहा कजमाये एगयभो चत्तारि Personal Use Only Page #1133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गलपरियट्ट अनिधानराजेन्डः पोग्गलपरियट्ट परमाणुपोग्गला एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवइ १५, भवइ २०, अहवा-एगयो परमाणुपोग्गले एगयो चअहवा-एगयो तिमि परमाणुपोग्गला एगयो दुपदे-चारि दुपदेसिया खंधा भवंति २१, छहा कज्जमाणे एगसिए खंधे एगयो तिपदेसिए खंधे भवइ १६, अहवा- यो पंच परमाणुपोग्गला. एगयो चउप्पदेसिए खंधे एगयो दो परमाणुपोग्गला एगयो तिलि दुपदेसिया भवइ २२. अहवा-एगयो चत्तारि परमाणुपोग्गला एखंधा भवंति १७, छहा कमाणे एगयो पंच परमाणु- गयो दुपदेसिए खंधे एगयो तिपदेसिए खंधे भवइ२३, पोग्गला एगयो तिपदेसिए खंधे भवति १८, अहवा- अहवा- एगयो तिलि परमाणुपोग्गला एगयो तिमि दुएगयनो चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयो दो दुपदेसि. पदेसिया खंधा भवति २४, सत्तहा कज्जमाणे एगयनो छ या खंधा भवंति १६, सत्तहा कज्जमाणे एगयो छ पर- परमाणुपोग्गला एगयो तिपदेसिए खंधे भवइ २५, मागुपोग्गला एगयो दुपदेसिए खधे भवति २०।। अहवा- एगयो पंच परमाणुपोग्गला एगयो दो दुपदेअहहा कामाणे अट्ट परमाणुपोग्गला भवंति २१ । णव सिया खंधा भवंति २६, अट्टहा कन्जमाणे एगयो सत्त भंते ! परमाणपोग्गला पुच्छा। गोयमा! जाव णवहा परमाणुपोग्गला एगयो दुपदेसिए खंघे भवइ २७,णवहा कजइ, दहा कजमाणे एगयो परमाणुपोग्गले एगयो कज्जमाणे णव परमासुपोग्गला भवंति २८ । दस भंते ! अट्ठपएसिए खंधे भवइ, एवं एक्केकसंचारिएहि जाव अ- परमाणुपोग्गला पुच्छा । गोयमा !जाव दुहा कज्जमाणे हवा-एगयो चउप्पदेसिए खंधे एगयो पंचपदेसिए खंधे एगयो परमामुपोग्गले एगयो णवपदेसिए खंधे भवह भवति ४, तिहा कन्जमाणे एगयो दो परमाणुपोग्गला १, अहवा-एगयो दुपदेसिए खंधे एगयो अट्ठपदेसिए एगयो सत्तपएसिए खंधे भवइ ५, अहवा-एगयो खंधे भवइ २, एवं एकेकं संचारेंनि. जाव अहवा-दो परमाणुपोग्गले एगयो दुपदेसिए खंधे एगयो छप्प- पंच पदेसिया खंधा भवंति ५, तिहा कज्जमाणे एगयो दसिप खधे भवइ ६, अहवा-एगयो परमाणुपोग्गले एग. दो परमाणुपोग्गला एगयो अट्ठपदेसिए खंधे भवइ ६. यमो तिपदेसिए खंधे एगयो पंचपदेसिए खंधे भव- अहवा-एगयो परमाणुपोग्गले एगयो दुपदेसिए खंधे १७, अहवा-गयो परमाणुपोग्गले एगयमो दो चउ- एगयो सत्तपदेसिए खंधे भवइ ७, अहवा-एगयो प्पदेसिया खंधा भवंति , अहवा-एगयो दुपदेसिए परमाणुपोग्गला एगयो तिपदेसिए खंधे भवइ, एगयो एगयो तिपदेसिए एगयो चउप्पदेसिए खंधे भवइ ६, छप्पदेसिए खंधे भवइ ८, अहवा-एगयो परमाणुपोग्ग. अहवा-तिथि तिपदेसिया खंधा भवंति १०, चउहा क. ला एगयो चउप्पदेसिए खंधे एगयो पंचपदेसिए खंधे अमाणे एगयमो तिमि परमाणुपोग्गला एगयो छप्प- भवइ ६,अहवा-एगयो दुपदेसिए खंधे एगयो तिपएसिए खंधे भवति ११, अहवा-एगयो दो परमाणु- देसिए खंधे एगयो पंचपदेसिए खंधे भवइ ५, अहवापोग्गला एगयो दुपदेसिए खंधे एगयो पंचपदेसिए एगयो दुपदेसिए खंधे एगयो दो चउप्पदेसिया खंधा खधे भवइ १२, अहवा-एगयो दो परमाणुपोग्गला भवंति ६, अहवा-एगयो दो तिपदेसिया खंधा एगयएगयभो तिपदेसिए खंधे एगयो चउप्पदेसिए खंधे भ ओ चउप्पदेसिए खंधे भवइ ७, चउहा कज्जमाणे एगयवह १३, अहवा-एगयो परमाणुपोग्गले एगयो दो मोतिमि परमासापोग्गलाएगयमो सत्तपदेसिए खंधे भ०१, दुपदेसिया खंधा भवंति,एगयो चउप्पदेसिए खंधे भवइ, अहवा-एगयो दो परमाणुपोग्गला एगयो दुपदेसिए १४, अहवा-एगयो परमाणुपोग्गले एगयो दुपदेसि- खंधे एगयो छप्पएसिए खंधे भवइ २, अहवा-एगयो ए खंधे एगयो दो तिपदेसिया खंधा भवंति १५, अह. दो परमाणुपोग्गला एगयओ तिपदेसिए खंधे एगयो वा-एगयो तिमि दुपदेसिया खंधा एगयो तिपदेसिए पंचपदेसिए खंधे भवइ ३, अहवा-एगयो दो परमाणुखंधे भवति १६, पंचहा कञ्जमाणे एगयनो चत्तारि पोग्गला एगयो दो चउप्पदेसिया खंधा भवंति ४, प्रपरमाणुपोग्गला एगयो पंचपदेसिए खंधे भवति १७, हवा-एगयो परमाणुपोग्गले एगयो दुपदेसिए खंध अहवा-एगयो तिमि परमाणुपोग्गला एगयी दुपदे- एगयो तिपदेसिए खंधे एगयो चउप्पदेसिए खंधे भवसिए खधे एगयो चउप्पदेसिए खधे भवति १८,अहवा- इ५, अहवा-एगयो परमाणपोगले एगयो तिमि एगयो तिलि परमाणुपोग्गला एगयो दो विपदेसिया तिपदेसिया खंधा भवंति ६, अहवा-एगयो तिमि दुपखंधा भवंति १६, अहवा-एगयो दो परमाणुपोग्गला देसिया खंधा एगयो चउप्पदेसिए खंधे भवइ ७,महवाएगयो दो दुपदेसिया खंधा एगयो तिपदेसिए खंधे एगयो दो दुपदेसिया खंधा एगयो दो .तिपदेसिया . Page #1134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गलपरियट्ट अभिधानराजेन्डः। पोगालपरिय खंधा भवंति ८, पंचहा कञ्जमाणे एगयनो चत्तारि पर- पोग्गला एगयो संखेज्नपएमिए खंधे भवद ६, अहवामाणुपोग्गला एगयो छप्पएसिए खंधे भवइ, अहवा- एगयो परमाणुपोग्गले एगयो दुपदेसिए खंधे एगय. एगयनो तिणि परमाणुपोग्गला एगयो दुपदेसिए खंधे प्रो संखेजपदेसिए खंधे भवइ २। अहवा-एगयो परभवइ, एगयओ पंचपदेसिए खंधे भवइ १०, अहवा-एग- माणुपोग्गले एगयो तिपदेसिए खंधे एगयो संखेज्जा यो तिलि परमाणुपोग्गला एगयो तिपदेसिए खंधे परसिए खंधे भवइ ३, एवं जाव अहवा-एगयो परएगयो चउप्पदेसिए खंधे भवइ ३, अहवा-एगयो दो माणपोग्गले एगयो दसपएसिए खंधे एगयो संखज्जपरमाणुपोग्गला एगयो दो दुपदेसिया खंधा एगयो। पएसिए खंधे भवइ १० । अहवा-एगयो परमाणुपोग्गचउप्पदेसिए खंधे भवइ ४, अहवा-एगयो दो परमा- ले एगयो दो संखेन्जपएमिया खंधा ११ । अहवाणुपोग्गला एगयो दुपदेसिए खंधे एगयो दो तिपदे गयनो दुपदेसिए खंधे एगयो दो संखज्जपएसिया सिया खंधा भवंति ५, अहवा-एगयो परमाणुपोग्गले खंधा भवंति १२। एवं जाव अहवा-एगयो दुपदेएगयो तिम्मि दुपदेसिया खंधा एगयो तिपदेसिए सिए खधे एगयो दो संखेज्जपएसिया खंधा भनंति २०, खंधे भवइ ६, अहवा-पंच दुपदेसिया खंधा भवंति ७, अहवा-तिमि संखेज्जपएसिया खंधा भवंति २१ , छहा कजमाणे एगयो पंच परमाणुपोग्गला एगयो चउहा कज्जमाणे एगयो तिमि परमाणुपोग्गला एगयपंचपएसिए खंधे भवइ १, अहवा-एगयो दो ओ संखेजपएसिए खंधे भवइ, अहवा-एगयो चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयनो दुपदेसिए खंधे एगयो चउप्पए परमाणुपोग्गला एगयो दुपदेसिए खंधे एगयो संखे उजपएसिए खधे भवइ । अहवा-एगयो दो परमासिए खंधे भवइ २, अहवा-एगयो चत्तारि परमाणुपो पोग्गला एगयो तिपदेसिए खंधे एगयो संखेज्ज. गला एगयो दो तिपदेसिया खंधा भवन्ति ३, अहवा पएसिप खधे भवइ ३, एवंजाव अहवा-एगयो दो एगयो तिलि परमाणुपोग्गला एगयो दो दुपदेसिया परमाणुपोग्गला एगयो दसपएसिए खंधे एगयो संखंधा एगयो तिपदेसिए खंधे भवइ४, अहवा-एगयो खज्जपएसिए खंधे भवइ १० । अहवा-एगयो दो परदो परमायापोग्गला एगयो धत्तारि दुपदेसिया खंधा माणपोग्गला एगयो दो संखेज्जपएसिया खंधा भवंति भवंति ५, सत्तहा कञ्जमाणे एगयो छप्परमाणुपोग्गला | ११। अहवा-एगयो परमायुपोग्गले एगयो दुपदे. एगयो चउप्पएसिए खंधे भवइ १. अहवा-एगयो सिए खंधे एगयो दो संखेज्जपएसिया खंधा भवंति१२। पंच परमाणपोग्गला एगयो दपदसिए खंधे एगयो वंजाव अहवा-एगयो परमाणुपोग्गले एगयो दसपतिपदेसिए खंधे भवइ २, अहवा-एगयो चत्तारि पर- एसिए खंधे एगयो दो संखेजपएसिया खंधा भवंति २० माणुपोग्गला एगयो तिमि दुपदेसिया खंधा भवंति ३, अहवा-एगयो परमाणुपोग्गले एगयो तिमि संखेजपएअट्टहा कजमाणे एगयो सत्त परमाणुपोग्गला एगयो सिया खंधा भवंति २१ अहवा-एगयो दुपदेसिए खंधे एतिपदेसिए खंधे भवइ ४, अहवा-एगयो छ परमाणु- गयो तिमि संखेजपएसिया खंधा भवंति । एवं० माव पोग्गला एगयो दो दुपदेसिया खंधा भवंति ५, णवहा | अहवा-एगयो दसपएसिए खंधे एगयो तिमि संखेजकजमाणे एगयो अट्ठ परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदे- पएसिया खंधा भवंति । एवं एएणं कमेणं पंचसंजोगो वि सिए खंधे भवइ ६, दसहा कन्जमाणे दस परमाणुपोग्ग- भाणियम्वोजाव णव संजोगा। दसहा कजमाणे एगयो ला भवंति । संखेजा णं भंते ! परमाणुपोग्गला एगयो णव परमाणुपोग्गला एगयो संखेज्जपएसिए खंधे भव. साहणंति एए किं भवंति ? । गोयमा! संखेज्जपएसिए अहवा-एगयो अट्ठ परमाणुपोग्गला एगयभो दुपदेखंधे भवइ,से मिज्जमाणे दुहा वि जाव दसहा वि संखे. सिए एगयनो संखेजपएसिए खंधे भवइ । एवं एएणं जहा वि कज्जा,दुहा कज्जमाणे एगयो परमाणुपोग्गले कमेणं एकेको पूरेयवो. जाव अहवा-एगयो दसपएएगयो संखेजपएसिए खंधे भवइ १,महवा-एगयो दु: सिए खंधे भवर, गयो णव सखेजपएसिया खंधा भवं. पदेसिए बंधे एगयो संखेजपएसिए खंधे भवइ, अहवा-ति.अहवा--दस संखजपएसिया खंधा भवंति ६१। संखेजहा एगयो तिपदेसिए खंधे एगयो संखेजपएसिए खंधे०३, कञ्जमाणे संखेजा परमाणुपोग्गला भवंति । असंखेज्जहा एवंजाव अहवा-गयो दसपदेसिए खंधे भवइ,एगयो यं भंते ! परमाणुपोग्गला एगयो साहणंति एमयभो सा. संखेज्जपएसिए खंधे 'बर, अहवा-दो संखेअपएसिया हणिचा किं भवंति ? । गोयमा ! असंखजपएसिए खंधे भ. खंधा भवंति ११ । तिहा कामाणे एगयनो दो परमाणु-बति से भिजमाणे दुहा विजाब दसहा वि संखेज्जहानि Page #1135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११२ ) अभिधान राजेन्द्रः । पोगल परिय असंखेज्जहा विकज्जइ । दुहा कज्जमाणे एगयो परमापोले एगो असंखेजपरसिए खंधे भवर, एवं ०जाव अहवा एगयओ दसपएसिए खंधे भवइ, एगयो | असंखेञ्जपएसिए खंधे भवइ । श्रहवा एगयओ संखेज्जएसिए खंधे एगयओ श्रसंखेजपएसिए खंधे भवइ ११ । हवा - दो श्रसंखेजपरसिया खंधा भवंति १२ । तिहाकजमाये एग दो परमाणुपोग्गला एगयओ असंखेजपरसिया खंधा भवंति १ | अहवा - एगयो परमाखुपोग्गले एगयओ दुपदेसिए एगय असंखेज्जपए सिए खंधे भवति । एवं० जाव अहवा एगयो परमाणुपोग्गले एगओ दसपरसिए खंधे एगयओ असंखेज्जपए सेए खंधे भवइ १० । अह्नवा-एगओ परमाणुपोगले एगयो संखेज्जपरसिए खंभे एगयओ असंखेज पर सिए खंधे भवइ ११ | अहवा - एगयो परमाणुपोग्गले एगयओ दो संखेजपरसिया खंधा भवति १२ । श्रहवा - एगयओ दुपदेसिए खंधे एगो दो श्रसंखेज्जपएसिया खंधा भवंति १३ । एवं ० जाव अहवा - एगयओ संखेजपए सिए खंधे एंगओ दो असंखे अपदेसिया खंधा भवंति २२ । अहवा - तिमि श्रसंखेजपसिया खंधा भवति २३, चउदा कअमाणे एगयओ तिथि परमाणुपोग्गला एगयओ असंखे एसिए खंधे भवइ । एवं चउक्कसंजोगो० जाव दसकसजोगो एवं जहेब असंखेजपरसियस वरं असंखेज्जयं एगं अन्भद्दियं जाणियां ० जाव अहवा-दस असंखेअपएसिया खंधा भवंति । संखेजहा कज्नमाणे एगयो संखेजा परमाणुपोग्गला एगयो असंखेज्जपरसिए खंधे भवइ । हवा एगो संखेजा दुपएसिया खंधा एगयो अ संज्ज एसिए खंधे भवइ, एवं ०जाव अहवा - एगय श्रो संखेज्जा दसपएसिया खंधा एगयओ असंखे अपएसिए खंधे भव, अवा - एगयो संखेजा संखेज्जपएसिया खंधा एगो असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ, अहवा – संखेज्जा असंखेज एसिया खंधा भवति । असंखज्जहा कज्जमाणे श्रसंखज्जा परमाणुपोग्गला भवति । अंताणं भंते! परमाणुपोग्गला जाव किं भवंति ? | गोमा ! भयंneसिए खंधे भवइ, से भिज्ञमाणे दुडा चि तिहा वि० जाव दसहा वि संखेजदा असंखेजहा भयंता वि कज्जइ, दुहा कज्जप्राये एगयो परमाणुपोग्गले एगो असंतपदेसिए खंधे भवड़ एवं ०जाव अहवा दो अणतपदेसिया खंभा भवं ति, तिहा कज्जमाणे एगयत्र दो परमाणुपोग्गला एगयओ तपसिए संत्रे भवइ । अवा-गयओ परमाणु For Private पोग्गल परिष पोगले एगो दुपदेसिए एगयओ अणतपदेसिए खंधे भवइ जाव प्रहवा - एगयओ परमाणुपोग्गले एगयो असंखेज्जपरसिए खंधे एगयो भयंत एसिए खंधे भवइ । श्रहवा - एगयत्रो परमाणुपोग्गले एगयश्रो दो पसिया खंधा भवंति अहवा एगयो दुपदेसिए खंधे एगयओ दो श्रतएसिया खंधा भवति । एवं ०जा एगयो दसपएसिए खंधे एगयश्रो दो श्रतपदेसिया खंधा भवंति | अहवा - एगयओ संखेजपएसिए खंधे एगयओ दो श्रतएसिया खंधा भवंति । श्रहना- एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे एगयओ दो अ तपदेखिया खंधा भवंति । श्रहवा - एगयों संखेजपदेसिए खंधे एगओ दो अणतपरसिया खंधा भवंति । अवा-तिष्ठितपदेसिया खंधा भवंति २५ । चउहा कजमाणे एगयओ तिमि परमाणुपोग्गला एगयओ अतपदेसिए खंधे भवइ । एवं चउक्कसंजोगो ०जाव श्रसंखेजसंजोगो । एए सब्बे जहेब असंखजाणं भणिया तहेव जाव श्रताण वि भाणियन्त्रं वरं एवं अणंतगं अमहियं भाषियव्वं जाव श्रहवा एगयओ संखेज्जा संखेज्जपदेसिया खंधा एगयओ अयं तपदेसिए खंधं भवइ । श्रहवा - एगयओ संखेज्जा अणतपदेसिए खंधा एगमो श्रणतपदेसिए बंधे भवइ । अवा-संखेज्जा अतपदेसिया खंधा भवति । असंखेज्जहा कज्जना एगयओ श्रसंखेज्जा परमाणुपोग्गला एगयओ अतपदेसिए खंधे भवइ । श्रहवा एगयओ असंखेज्जा दुपए सिया खंधा एगो तपएसिए खंधे भवइ०जाव अहवा एगयो असंखेज्जा संखेज्जपएसिया खंधा एगमश्र अतदेसिए खंधे भव । श्रहवा एगयओ असंखेज्ना असंखेएसिया खंधा एगयओ अतपदेसिए खंधे भवइ । अअसंखेज्जा अणतपदेसिया खंधा भवंति । जमाअता परमाणुपोग्गला भवंति ५७५ । भंते ! परमाणुपोग्गलाणं साहयणाभेदाणुवाणं वाणं पोग्गलपरियहाणं श्रणंतागुंता पोग्गलपरिया समणुगंतन्त्रा भवतीतिमक्खाया १ । हंता गोया ! एसि णं परमाणुपोग्गलाणं साहणाया भेदामु हवा - एग अता एसि णं • जाब मक्खाया। ( एगयओ ति ) एकत्वतः - एकतयेत्यर्थः । ( साहतिति ) संहन्येते - संहती भवत इत्यर्थः । द्विप्रदेशिक स्कन्धस्य भेदे एको विकल्पः, त्रिप्रवेशिकस्य द्वौ. चतुःप्रदेशिकस्य चत्वारः, पञ्चप्रदेशिकस्य षट् पद्मदेशि कस्य दश, सप्तप्रदेशिकस्य चतुर्द्दश, अष्टप्रदेशिकस्यैकविंशतिः, नव प्रदेशिक स्याष्टात्रिंशतिः, दशप्रदेशिकस्य चत्वारिंशत्, सं Personal Use Only Page #1136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गल परियह क्यामवेशिकस्य द्विधा मेरे १२ शिया मेदे २१ चतुर्था भेदे ३१ पञ्चधा मेत्रे ४१ बोढावे ५१ सप्तधात्वे ६१ अष्ट७ क एव । विकल्पमेवाऽऽद्द - ( संखेजद्दा कजमाणे संखेजा परमा· युरोपमा भतित असतप्रदेशिका १२ त्रिधात्वे २३ चतुर्जात्वे ३४ पञ्चधात्वे ४५ षोढावे ५६ सप्तधावे ६७ अष्टधा ७८ नवधारये ८ दशभेदत्वे १०० संख्यातमे. दवे द्वादश १२ संख्यात भेदकर त्वेक एव। तमेवाऽऽह (अ. संखा परमाणुयोग्गला मति ति) अनन्तप्रदेशिकस्य तु १३ विघा २५३७ ४६ डि धत्वे ६१ सप्तधात्वे ८५ नवघावे ६७ दशभेदत्वे १०६ संख्यातस्ये १२ असंख्यातत्वे १३ अनन्तभेदकरणे स्वेक एव विकल्पः। तमेव दाइत्यादि) दो भंते ! परमाणुयोगाला साइति" इत्यादिना पुलान न" से मादा कद ना च तेषामुक्तोऽथ तावेवाधित्याऽऽद्द - (परसि समित्यादि ) " ( १११३ ) अभिधानराजेन्ऊः । तेषामनन्यरोवरूपायां परमाणुपुङ्गलानां परमाना मित्यर्थः सइयादावति)"साति" प्राकृतत्वात्संहननं-सङ्घातो, भेदश्व वियोजनं तयोरनुपातो योगः संहननभेदानुपातस्तेन सर्वपुङ्गलद्रव्यैः सह परमाणुनां संयोगेन घियोगेन चेत्यर्थः । ( श्रणंतागुंत ति ) अनन्तेन सुचिता अनन्त अनन्तानन्ता एकोऽपि हि परमार्थका अमिरकान्तैः सह संयुज्यमानोऽनन्तान्परिता म प्रतिद्र परिवर्तभावात् अनन्तरथाच्च परमानां प्रतिपरमाणु चानन्तत्वात्परिषतां परमा सुपुलपरिवर्तना मनन्तानन्तरयं व्यमिति ( पुग्गनपरिषद् ति) पुङ्गले :- पुल इस परिव-परमाणु मीलनानि पुलपरिव समनुगन्तव्या अवगन्तव्या भवन्ति इति हेतोराख्याता:- परूपिताः भवद्भिरिति गम्यते। मकार प्राकृत शैलीप्रभवः । दण्डकः । अथ पुनलपरावर्त्तस्यैव भेदाभिधानायाऽऽद्दकवि णं भंते! पोग्गलपरियट्टे पत्ते १ । गोयमा ! पोपरि पछते तं जहा ओरालिपपो परियहे वेडवियोगल परियट्टे तेपायेोगलपरियडे, कम्पोरियमपोग्गलपरियहे वइपोग्गपरियहे, आयापाशुपाल परिवहे । • (कविमादि ) ( श्रराखियोगालपरिय सि) श्रदारिकशरीरे वर्तमान जीवन ददारिकाय द्रव्याणामौदारिकशरीरतया सामस्त्येन ग्रहणमसावौदारि कवि एवमन्येऽपि । खेरड्या ते करविडे पोम्गलपरियट्टे पाते हैं। गोमा ! सत्तविहे पोग्गलपरियट्टे पष्मत्ते । तं जहा ओरा लियोग्गल परियहे बेडब्बियपोगलपरिपडे, जाव आपापग्गल परियहे, एवं जाव वेमाणियाणं । (नरद्रयाणति ) नारकजीवानाम् अनादौ संसारे संसरतां सप्तविधः पुलपरावतः प्रशप्तः । म० १२ ८० ४ ३० । २७६ पोग्गल परियट्ट तिविहे पोग्गल परियहे पत्ते । तं जहा श्रतीते, पडुपने अणागए। स्था० ३ ठाः ४ उ० । पापराव गाथात्रयेण निरूपयितुकामः प्र थमं तावतस्यैव भेदान् परिमाणं चाऽऽह . दखिये काले, भावे चउड बाय मो हो तुमपि परिमायो दुग्गलपरहो ॥ ८६ ॥ द्रव्ये द्रव्यविषयः, क्षेत्रे क्षेत्रविषयः काले कालविषयः, भावे भावविषयानुरूप पुनराबलों म तीसरे संटा। पुनरेकैको इय्यादिविध प्रकारो भवति । द्वैविध्यमाह - ( बायरो सुमो ति) बादरश्ननेमिनः। अयमर्थः-पुनलपरास बादरः. सूक्ष्मश्च | क्षेत्र पुलपरावर्शो द्वेधा - बाहर, सूक्ष्मश्च । कालपुङ्गलपरावर्ती द्वेधा - बादरः, सूक्ष्मश्च। भावपुद्गल परावत द्वेधा - बादरः, सूक्ष्मश्च । कियत्कालप्रमादः पुनरयमेकैकादोर्णपण रिमाणो ति भवति - जायते, उत्सर्पन्ति प्रतिसमयं का सममा जन्तूनां शरीर 33 यु प्रमाण 55दिकमपेक्ष्य वृद्धिमनुभवन्तीत्युत्सर्पिरायः ततोऽनन्ता उत्सर्पिण्यः, उपलसर्पति प्रतिसमयं कालप्रमार्थ असून शरीरा 55प्रमाणाऽऽदिकमपेक्ष्य हानिमनुभवन्तीत्यवसर्पिएय ताश्च परिमाणं यस्य सोऽनन्तोत्सर्पिण्य व सर्पिणी परिमाणः, पू· रनर्माण पुला तेषां पुचानां चतु > . मोतिपरमा परावर्त श्रदारिका 35दिशरीरमा वृहीत्वा मोचनं वस्मिन् कालविशेषे स यद्यपि शेषाऽऽदिविषयस्य सपरावर्ती नटांत तथाऽप्यन्यथा व्युत्पादितापिशब्दस्याऽन्यथागोशब्दवत् प्रवृत्तिदर्शनात्समयप्रसिद्धमथे विषयीकरोतीति न कश्चिद्दोष इति ॥ ८६ ॥ द्रव्यपुद्गल परावर्ती बादरः सुरमा भवतीत्युक्तम् । अतः क्रमप्राप्तं बादर सूक्ष्मद्रव्य युगल परावर्त्तस्वरूपं प्ररूपयन्नाहउरलाइससणं, एगजिश्रो सुयह फुसिय सव्वअणू | अतिकालि धूलो, दब्बे सुमो सगचपरा ॥ ८७ ॥ सुबत्स्यहारिका 35दिसतकस्येन श्रदारिकप वै. रमानीदारिकशरीरया आदिशामा क्रियशरीरतया, तैजसपर मांस्तेज सशरीरतया, कार्मणपरमाणून् कार्मणशरीरतया भाषा परमाणुन भाषात्वेन मनोवर्गण | परमाणून प्राणापानपरमाखून् प्राणापानतया, मनस्त्वेन न पुनराहारकशरीरमप्यत्र प्रार्थ. कादाचित्क त्वात्तलाभस्येति । स्पृष्ट्रा परिणमध्य तथा परिणामं नी. स्वा एकजीयो वियोति-स्वजति स शरज्यात्मकवर्ति समस्तपरमाणुन अधिकालिसि ) यावता कालेन विभक्तिव्यत्ययश्च प्राकृतत्वात्, यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे -" उपस्य यो ऽप्यासा मि ति" इन्स्पर्शमामेनोपमितः कालविशेषः स्थूली बादरः ( दग्वि प्ति) द्रव्य पुद्गल परावतों भवतीति प्रक्रमः । इकिल संसारकारे पर्यटक ज कलकर्तिमा सर्वानपि पुद्गलान् यावता कालेन प्रश किरकिरी से समापनमन कार्य - 9 " · Page #1137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गसपरियह भभिधानराजेन्डः। पोग्गलपरियट्ट णशरीरलक्षणपदार्थसप्तकभावेन यथास्व परिलमय्य मुञ्चति एवेति । कालतस्तु यदोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयेषु सैध्यपि स तावत्प्रमाणःकालो द्रव्यतो पादरः पुद्रलपरावर्ती भवती क्रमेणोरकमेण चानस्तानम्तैर्भवैरेको जन्तु मृतो भवति तदा ति तात्पर्यम् । इत्यभिहितो बादरो द्रव्यपुद्रलपरावर्तः । इदानीं बादरकालपुद्गलपरावतों भवति, केषलं येषु समयेष्वेकदा सूक्ष्मद्रव्यपुद्रलपरावर्तमाह-(सुहुमो सगन्नयर त्ति) सूक्ष्मो मृतोऽन्यदाऽपि यदि तेम्वेव समयेषु म्रियते तदा ते न द्रव्यपुद्रलपरावर्ती भवतीति सम्बन्धः कथमित्याह-सप्तका. गरायन्ते , यदा पुनरेकद्वितीयाऽऽदिसमयक्रममुझक्यापि न्यतरस्मात्-सप्तकाम्यतरेण, विभक्तिव्यत्ययश्च प्राकृतत्वा. अपूर्येषु समयेषु म्रियते तदा ते व्यवहिता अपि समया त् । इदमत्र हृदयम्-सप्तानामौदारिकवैक्रियतैजसभाषाप्रा | गण्यन्त इति । भावतः पुदलपरावर्त उच्यते-अनुभागव. णापानमनःकार्मणमध्यादन्यतरेण पुनरेकेन केनचिदादारिका ग्धाध्यवसायस्थानानि मन्दप्रवृद्धप्रवृद्धतराऽऽदिभेदेनाऽसं. दिना पूर्वप्रदर्शितप्रकारेण सकललोकवर्तिपुद्गलानां स्पर्शने ख्येयानि वर्तन्ते.एतेषणं चासंख्येयत्वप्रमाणमुत्तरत्र ययामः। औदारिकाऽऽदिशरीरतया गृहीत्वा मोचने सूक्ष्मद्रव्यपुगलप. ततो यदैकै कस्मिन्ननुभागबन्धाध्यवसायस्थाने क्रमेणोत्क्र. रावतों भवति । विवक्षितभेदाविशेषैः षभिभेदैः परिणमिता मेण च प्रियमाणन जन्तुनाऽसंख्ययलोकाsकाशप्रदेश. अपिन गृह्यन्त इति । एके वाचार्या एवं द्रव्यपुद्गलपरा- प्रामाणानि सर्वाण्यपि तानि स्पृष्टानि भवन्ति तदा बादरो घर्तस्वरूपं प्रतिपादयन्ति । तथाहि-यदैको जीवोऽनेकैर्भव- भावपुद्गलपरावर्तो भवति; अत्राऽपि यदध्यवसायस्थानमे. ग्रहणैरौदारिकशरीरवैक्रियशरीरतैजसशरीरकार्मणशरीरच- कदा मरणेन स्पृष्टं तदेवान्यदाऽपि यदि स्पृशति तदा तन्त्र तुष्टयरूपतया यथास्वं सकललोकवर्तिनः सर्वान् पुगलान् गण्यते, अपूर्व तु. दूरव्यवहितमपि स्पृष्टं गएयत एवेति परिणमय्य मुञ्चति तदा बादरो द्रव्यपुद्रलपरावों भवति । भाषिता बादरा क्षेत्रपुद्गलपरावर्तकालपुरलपरावर्तभावपु. यदा पुनरोदारिकाऽऽदिचतुष्टयमध्यादेकेन केनचिच्छरीरेण द्गलपरावर्ताः । साम्प्रतमेत एव सूक्ष्मा भाव्यन्ते-इह येवासर्वपुद्गलान् परिणमय्य मुश्चति शेषशरीरपरिणमितास्तु पु. काशप्रदेशेववगाढो जन्तुरेकदा मृतस्तेभ्योऽनन्तरव्यवस्थिदूला न गृह्यन्ते एव तदा सूक्ष्मो द्रव्यपुद्गलपरावर्ती भवती- तेवेव नभःप्रदेशेष्वन्यदाऽपि यदि म्रियतेऽपरस्यां वेलायां ति ॥८७ ॥ उक्नो द्वेधाऽपि द्रव्यपुद्गलपरावतः। तेषामन्यनन्तरव्यवस्थितेघाकाशप्रदेशवन्यस्यां वेलायाम् सम्प्रति क्षेत्रकालभावपुद्गलपरावर्तन बादर तेषामप्यनन्तरव्यवस्थितेवाकाशप्रदेशेवन्यस्यां तु वेलायाम् सूक्ष्मभेदभिन्नान्निरूपयन्नाह तेषामध्यनन्तरेवन्यप्वेवं तावन्नेयं यावदित्थमपरापरेषु नैरलोगपएसोसप्पिणि-समया अणुभागवंधठाणा य । न्तर्यव्यवस्थितेषु नभःप्रदेशेषु क्रमेण म्रियमाणो जन्तुः स. जह तह कममरणेणं, पुट्ठा खित्ताइ थूलियरा ॥८॥ निपि लोकाऽऽकाशप्रदेशान् स्पृशति, ये चापरप्रदेशः लोकस्य-चतुर्दशरज्ज्वात्मकक्षेत्रखण्डस्य प्रदेशा-निर्विभागा. द्धिरहिताः पूर्वावगाढा एवं दूरव्यवस्थिता वाऽऽकाशप्र. भागा लोकप्रदेशाः । तथोत्सर्पिणीशब्देनावसर्पिण्यप्युपल- देशा मरणेन स्पृष्ठास्ते च न गण्यते तदा सूक्ष्मः क्यते, दिनग्रहणे राज्युपलक्षणवत्, तयोः समयाः परमनिक. क्षेत्रपुद्गलपरावर्त इति । पञ्चसंग्रहशास्त्रे तु सूक्ष्मबादरभेदतो टकालविशेषा उत्सपिण्यवसर्पिणीसमयाः, समयस्वरूपं च द्विविधोऽपि क्षेत्रपुद्गलपरावर्तः इत्थं व्याख्यातः-यथापशाटिकापाटनदृष्टान्तादुत्पलपत्रशतभेदोदाहरणाचावसे- चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकस्य सर्वप्रदेशेषु प्रत्येकं यावता का. यम् । ततो लोकप्रदेशाश्चोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयाश्चेति लेनकजीवो मृतो भवति । कोऽर्थः ?-यावन्तो लोकाद्वन्द्वः। तथाऽनुभागस्य-रसस्य बन्धो बन्धनं तस्य निमि- 35काशप्रदेशास्ते प्रदेशे प्रदेशे क्रमोत्क्रमाभ्यां मरणं कु. सभूतानि स्थानानि कषायोदय विशेषलक्षणान्यनुभागव. ाणेन यदा सर्व व्याप्ता भवन्ति तदा बादरः क्षेत्र पुगल. धिस्थानानि अनुभागबन्धा ऽध्यवसायस्थानानीत्यर्थः । चः | परावर्तः, सूक्ष्मस्तु-यावता कालेन प्रथमप्रदेशानुवद्धप्रदेश. समुच्चये । ततश्चैते प्रत्येकं त्रयोऽपि पदार्था यदा मरणश- क्रमेण मृतो भवति, कोऽर्थः ?-यत्राकाशप्रदेशे मृतस्त. ब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धाद्यशा तथा मरणेन-क्रमोरक्रमा दनम्तरप्रदेशक्रमेण यदा सर्वेऽपि लोकाऽऽकाशप्रदेशा मरभ्यां प्राणपरित्यागलक्षणेन स्पृष्टा-व्याप्ता भवन्ति तदा (खि- णेन व्याप्ता भवन्ति तदाऽसौ भवति, व्यवहितेषु च म. त्ताइथूल त्ति) क्षेत्रपुद्गलपरावर्तकाल पुद्गलपरावर्तभावपुद्गल- रणं न गण्यते । यद्यपि जीवस्यैकप्रदेशेऽवस्थानमेव ना. परावर्ताः स्थूला-बादरा भवन्ति । यदा पुनस्त पब लोंका35 स्ति तथाऽपि जीवावगाहनावस्थानानां प्राधान्येनैक: पकाशप्रदेशा उत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमया अनुभागबन्धाध्यव. रिकल्प्यते, तस्माद्गणनाप्रवृत्तिः, अमुना च प्रकारेण प्र. सायस्थानानि चेति प्रत्येक प्रयोऽपि पदार्थाः क्रममरणेन | भूतकालख्यापनं कृतं भवतीति । सूक्ष्मस्तु कालपुद्गलपरा. पूर्वस्पृष्टाऽऽकाशप्रदेशाऽऽदिभ्योऽव्यवधानतः प्राणपरित्याग. वर्तस्तदा भवति यदोत्सर्पिण्या अवसर्पिण्या वा प्रथमसलक्षणेन स्पृष्टा भवन्ति तदा क्षेत्रपुरलपरावर्तकालपुद्रलपरा. मये कश्चिन्मृतस्ततः पुनरपि समयोनविंशतिकोटीकोटी. घर्तभावपुनलपरावर्ताः (यर त्ति) इतरे-सूचमा भवन्तीति निरतिक्रान्ताभिभूयोऽपि स एव जन्तुः कालान्तरेण त. गाधाऽक्षरार्थः । भावार्थः पुनरयम्-यदाऽनन्तभवभ्रमण. स्या एवं द्वितीयसमये म्रियते पुनरपि कदाचित्तथैव ताशालो जन्तुरनन्तरेषु-व्यवहितेषु चापरापराऽऽकाशप्रदेशेषु भिरतिक्रान्ताभिस्तस्या एवं तृतीयसमये । एवं चतुर्थपश्चमनियमाणः सर्वानपि चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकाकाशप्रदेशा. षष्ठाऽऽदिसमयक्रमेणानन्तानन्तैर्भवैर्यावत्सर्वेऽप्युत्सपिण्यस्मरणेन स्पृशति तदा बादरक्षेत्रपुद्गलपरावर्तो भवति, नवरं वसर्पिरायोविंशतिसागरोपमकोटीकोटीमानयोः समया येवपरप्रदेशवृद्धिरहितेषु पूर्वावगाढेवेव नभःप्रदेशेषु मृत. मरणेन ब्याप्ता भवन्ति । ये तु प्रथमाऽदिसमयक्रममुल्ल. स्ते न गएयन्तेऽपूर्वास्तु दूरव्यवहिता अपि स्पृष्टा गण्यन्त । य व्यवहितसमयाः पूर्वस्पृष्टा वा मरणेन व्याप्तास्ते तु Page #1138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गलपरियड न त प्रतिभावपरावर्तते किलाऽनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि बध्यमानकर्मपुद्रलेषु भागपर्तिकानि यलोक153काशप्रदेशमा निमवृद्धवृद्धतरादि 1 व सर्व स्तोका नुभाग पशिछेदजनके कषायोदये वर्तमानः कवितुर्मृतः ततः कदाचित् पुनरपि तस्मादनन्तरय द्वितीयेागन्धाच्यवसायस्थाने विशेषाधि का अनुभागलिच्छेदजनके वर्तमान सृतः पुनरपि तस्मा व कदाचिद्विशेषाऽचिकाउनु भागपलिच्छेदजनके सुनीये एवं क्रमेव क्रमेण विशेषाधिकाऽनुभाग लिनका अध्यवसाय स्थानकेषु वर्तमानस्य मरणं तावद्वाच्यं यावसर्वोत्कृष्टभागाध्यवसायस्थाने नियमानन्तु मानसपपि स्पृष्टानि भवन्तीति व्यव हितानि पूर्वस्पृष्टानि च न गरायन्त इति ॥ ८ ॥ व्याख्या तं पयस्वरूपम् कर्म०५ कर्म० । पोग्गल परियो इह, दव्बाइ चउब्विहो मुणेयव्त्रो । एकेको पुरा दुबो, वायरसभेषणं ।। ३५ ।। इहास्मिन् पारमेश्वरे प्रवचने पुलपरावर्ती द्रव्याऽऽदितो इयक्षेत्र कालयायमंदारो यः त यथा-द्रव्यपुङ्गलपरावर्त्तः, क्षेत्र पुलपरावर्त्तः, कालपुद्रपरायः माचपरावर्त्तश्व मु ' जामुदी" ॥ ८४॥ ७॥ इति कृताना 1 देशः पुनरप्येक पुराव (१९१५) अभिधान राजेन्द्रः । - 1 धाद्विप्रकारः, तद्यथा - बादरः " बादमे सूक्ष्मश्च ॥ ३५ ॥ तत्र बादर - सूक्ष्मद्रव्यपुद्गल परावर्त्तावाहसंसारम्मितो, जात्रय काले फुसिय सव्वाणू | इगु जीवु पायर, अन्नपरतगुडिओ मुद्दयो ||२६|| संसरति प्राणिनोऽस्मिन्निति संसारः चतुईशरज्ज्वात्मक क्षेत्रं तस्मिन् संसारे घटन- परिभ्रमको जीवा, सफ. लेऽपि संसारे ये केचन परमाणवस्तान् सर्वानपि याव ता कालेन स्पृड्डा मुखति श्रदारिकादिरूपतया परिभु परिभुज्य परित्यजति तावान् कालविशेषो बादरद्रपुलपते किमुकं भवति यावता कालेनैकेन सर्वेऽपि जगद्वर्त्तिनः परमावी दथायोगमोदारिकवैक्रिय तैजसका भाषाप्राणापानमनस्त्वेन परिभुज्य परित्यक्तास्तावान् कालविशेषो बादरद्रव्यपुद्गलपरावर्त्तः । सूक्ष्मद्रव्य पुद्गल परावर्त्तमाह " · इत्या द्वि सुम श्रदारिकादीनां शरीराणामन्यतमस्यां तनौ - शरीरे स्थितः सन् यावता कालेनैको जीवः संसारं परिभ्रमन् सर्वानप्यणून स्पृष्ट्वा - परिभुज्य मु श्ञ्चति , तावान् कालविशेषः सूक्ष्मद्रव्यपुद्गलपरावर्त्तः । इयमत्र भावना - यावता कालेन सर्वेऽपि लोकाऽऽकाशभा. विनः परमाणव श्रदारिकाऽऽद्यम्यत वैकरूप तया परिभुज्य निष्ठां नीयन्ते तावान् कालविशेषः सू दमद्रव्यपुङ्गपरावर्त्तः, पुङ्गलानां परमाणूनामौदारिकाऽऽदि रूपतया विवक्षितैकशरीररूपतया वा सामस्त्येन पराब परिपाति का सतावान् कालः पुलपरा इदं च शब्दस्य व्युत्पत्तिनिमित्तम् अनेन च व्युत्पत्ति निमित्तेन स्वैकार्थसमयादिप्रवृत्तिनिमित्तमनन्तोस पिणीमानत्वरूपं लक्ष्यते, तेन क्षेत्रपुलपरावर्त्ताऽऽदी पुन परावर्त्तनाभावेऽपि प्रवृतिनिमित्तनोरसर्पिएयय सर्पिणीमानत्वरूपस्य विद्यमानत्वात्परायशब्दः प्र वर्तमानो न वियते यथा गोशब्द पूर्व मनेपु त्पादितः तेन च गमनेन व्युत्पत्तिनिमित्तेन स्वैकार्थसम वायिखुरक कुद्ल | गूलसानाऽऽदि मश्वरूपं प्रवृत्तिनिमित्तमु. ततो मममरहितेऽपि गोपिराडे प्रवृतिनिमित द्भावाद् गोशब्दः प्रवर्तते इति । श्रस्मिश्च सूक्ष्मे द्रव्यपुजपराव विपक्षि शरीरयतिरेकेाऽयरीया ये परिभुज्य परिभुज्य परित्यज्यन्ते न गए कि तुम भूतेऽपि काले गते सति विवक्षितैकशरीररूपतया परि गम्यते एवं गरायन्ते तदेवमुक्का सूक्ष्म बादमे मि नो द्रव्य पुगलपरावर्त्तः ॥ ३६ ॥ सम्प्रति बादर - सूक्ष्मभेदभिन्नं क्षेत्र पुद्गलपरावर्त्तमाहलोगस्स पसे, अतरपरंपरायची | 1 चम्म बायरोसो, सुमो उ अर्थतरमयस्स ॥ ३७ ॥ लोकस्य - चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्याऽनन्तरपरम्परा विभक्तिभ्याम् श्रनन्तरप्रकारेण परम्पराप्रकारेण च, सर्वेषु प्र. देशेष्वेकस्य जीवस्य मृतस्य यावान् कालविशेषो भवति. सतापान्यो बादरपरावर्त्तः । किमुकं म वति ? - यावता कालेनैकेन जीवेन क्रमेणोत्क्रमेण वा यत्र तयिमान सर्वेऽपि खोकाऽऽकाशप्रदेशा मरणसंस् सान्कालविशेष क्षेत्रापरावतः । · स सम्प्रति क्षेत्रसूक्ष्मपुङ्गपरावर्तमाद'सुमोतरमस्य चतुरस्य कस्य धेषु प्रदेशेयवन्तरतस्यैकस्य जीवस्य यावान् कालविशेषः स तावान् सूक्ष्मः-सूक्ष्म क्षेत्र पुगलपरावर्त्तो भवति । इयमंत्र भावना - यद्यपि जीवस्याऽवगाहना जघन्याऽपि असंख्येयप्रदे ब्रि यमाणस्य विवक्षितः कश्चिदेकः प्रदेशोऽवधिभूतो विव पते ततस्तस्मात्प्रदेश देशान्तरे ये नमः प्रदेशामरणेनाऽवाप्यन्ते ते न गरायन्ते, किं त्वनन्तेऽपि काले गते सति विवक्षितात्प्रदेशादनन्तरो यः प्रदेशो मरणेन व्या. तो भवति, स गण्यते, तस्मादप्यनन्तरो यः प्रदेशो म रणेन व्याप्तः स गएयते । एवमानन्तर्य्यपरम्परया यावता कालेन सर्वेऽपि लोकाकाशप्रदेशा मन स्पृष्टा भवन्ति तावत्कालविशेषः सूक्षेत्रपुराव बा दरसूक्ष्मभेदभिन्नः क्षेत्र पुद्गलपरावर्त्तः ॥ ३७ ॥ सम्प्रति बादर सूक्ष्मभेदभिन्नं काल पुगलपरावर्त्तमाहउस्तपखित, अतरपरंपराविभचोहिं कालम् बायरो सो सुमो उ अतरपयस्स ॥ ३८ ॥ इहोत्सर्पिणीग्रहणेनाऽबसर्पिण्यप्युपलक्ष्यते । ततोऽयमर्थःउत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयेषु सर्वेष्वपि श्रनन्तरपरम्पराविभ क्रिभ्याम् - अनन्तरप्रकारेण परम्पराप्रकारेण च मृतस्य• यावान् कालो भवति तावान् बादरः कालपुद्रलपरा मर्त्तः । एतदुक्तं भवति यावता कालेनैको जीवः सर्वा पोगालपरियह · 3 3 Page #1139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गलपरियह अन्निधानराजेन्छः। पोग्गलपरियट्ट नप्युत्सपिण्यवसर्पिणीसमयान् क्रमेणोतक्रमेण षा मरणेनते। न शेषाण्यपान्तरालभावीन्यनम्तान्यपि मरणानि । एवं व्याप्तान् करोति, तावान्कालविशेषो बादरपुद्गलपरावर्तः।। क्रमेण सर्वाश्ययनुभागबन्धाऽध्यवसायस्थानानि यावता सूक्ष्मकालपुद्रलपरावर्तमाह कालेन मरणेन स्पृष्टानि भवन्ति, तावान् कालविशेषः सूक्ष्म (मुहुमो उ अणंसरमयस्स) समस्तेयप्युत्सविण्यवसर्विः । भाषपुद्रलपरावर्तः।बह सर्वाऽपि बादरपुद्रलपरावर्तप्ररूपमा गीसमयेम्वनन्तरमृतस्य , उत्सर्पिणीप्रथमसमयादारभ्य ।। बिनेयानां सूक्ष्मपुद्रलपरावर्तप्ररूपणा सुस्वाधिगतिनिमितं ततः परं क्रमेण मृतस्यैकस्य जीवस्य यावान् कालवि कृतान हिकोऽपि बादरपुद्रलपरावर्सः कचिदपि सिद्धान्त. शेषो भवति , तावान् सूचमः-सूक्ष्मकालपुद्गलपराषः। प्रदेशे प्रयोजनवानुपलक्ष्यते, केवलं तस्मिन् प्ररूपिते सति अत्राऽपीयं भावना-इहोत्सर्पिणीप्रथमसमये कश्चिज्जीवो मृ. सूक्ष्म पुद्गलपरावर्तः प्ररूप्यमाणो विनेयैः सुखेनाऽधिगम्यते,. त्युमुपागतः ततो यदि समयोनविंशतिसागरोपमकोटी. इति तन्प्ररूपणा क्रियते । तथा इह चतुर्णामपि सूक्ष्मपुद्गल. भिरतिकान्ताभिभूयोऽपि स एव जन्तुरुत्सर्पिणीद्वितीय परावर्तानां परमार्थतो न कश्चिद्विशेषः, तथाऽपि जीवाभिग. समये नियते, तदा स द्वितीयः समयो मरणस्पृष्टी माऽऽदौ पुलपगवत क्षेत्रतो बाहुल्येन गृहीतः, क्षेत्रतो मा. गएयते, शेषास्तु समया मरणस्पृष्टा अपि सन्तोन गण्यते । गंणायां तस्योपादानात् । तथा च तत्सूत्रम्-"जैसे साइए यदि पुनस्तस्मिन्नुत्सर्पिणीद्वितीयसमये न म्रियते, कि. सपज्जवसिप मिच्छाविट्ठी से जहमेणं अंतोमुत्तं, उकासक स्तु समयान्तरे, तदा सोऽपि न गृह्यते, कि स्वनन्ता अणंतं का. अणंतानो उस्सप्पिणीप्रोसप्पिणीयो कालो स्वप्युरसर्पिण्यषसर्पिणीषु गतासु यदोत्सर्पिणीद्वितीयसमा खेत्तमो अवई पोग्गलपरियट्ट देसूखं।" इत्यादि । ततहाये एव मरिष्यति तदा समयो गण्यते । एवमानन्तर्यप्र. पिपुलपरावर्तग्रहणे क्षेत्रपुबलपरावों प्राश इति पं० कारेण यावता कालेन सर्वेऽप्युत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमया सं० २ द्वार। मरणच्याप्ता भवन्ति , तावान् कालविशेषः सूचमकालपु एगमेगस्स णं भंते ! णेरइयरस केवइया ओरालियपोग्गद्रलपरावर्तः, उक्लो बादरसूक्ष्मभेदभिः कालपुरलपरा. लपरियट्टा अतीता। गोयमा! अणंता । केवइया पुरवत्तेः ॥३८॥ क्खडा? गोयमा! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्स साम्प्रतं चादर-सूचमभेदभिन्नं भावपुद्रलपरावर्तमाहअणुभागहाणेसु, अणंतरपरंपराविभत्तीहिं । अस्थि जहोणं एको वा दो वा तिलि बा, उक्कोसेणं संभावम्मि बायरो सो, सुहुमो सव्वेसणुक्कमसो ॥ ३६ ।। खेजा वा असंखेजा वा अर्णता वा । एगमेगस्स शं भंते ! बहानुभागस्थानानि कर्मप्रकृतिसंग्रहाधिकारे बन्धनकरणे असुरकुमारस्स केवइया पोरालियपोग्गलपरियट्टा एवं चेव । अनुभागबन्धविचारे "एकज्भुवसायसमजियस्स दलियस्स एवं०जाव वैमाणियस्स । एगमेगस्स णं भंते ! रइयस्स किरसो तुल।" इत्यादिना ग्रन्थेन स्वयमेव वक्ष्यति, तानि केवइया बेउब्बियपोग्गलपरिगट्टा अतीता। गोयमा ! अणंचाऽसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणानि तेषां चानुभागस्था ता, एवं जहेव पोरालियपोग्गलपरियट्टा तहेव वेउब्बियपोनानां निष्पादकाये कषायोदयरूपा अध्यवसायविशेषास्ते प्यनुभागस्थानमित्युच्यन्ते, कारणे कार्योपचारात् । ते चा. ग्गलपरियट्टा भाणियच्चा, एवं० जाव वेमाणियस्स, एवं ऽप्यनुभागबन्धाभ्यवसाया असंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्र- जाव आणापाणुपोग्गलपरियङ्का, एए एगझ्या सत्त दंडगा माणाः । सम्प्रत्यक्षरयोजना-अनुभागस्थानेषु-अनुभागः भवंति । णेरयाणं भंते! केवझ्या भोरालियपोग्गलपरियट्टा बन्धाध्यवसाय स्थानेषु असख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणेषु अतीता,गोयमा ! अणंता । केवइया पुरक्खडा । भणंता, सर्वेष्वपि पावता कालेनैको जीवोऽनस्तरपररम्परारूपे ये विभली-विभागी, ताभ्यामानन्तर्येण पारम्पर्येण चेत्यर्थः । एवं जाव वेमाणियाणं, एवं वेउब्बियपोग्गजपरियता वि, मृतो भवति, तावान् कालविशेषो बादरभावपुद्गलपरावर्तः । एवं जाव माणापाणुपोग्गलपरियहा वि .जाव बेमाणिकिमुक्तं भवति १-याषता कालेन क्रमेणोत्क्रमेण वा सर्वेष्वयाणं, एवं एए पोहत्तिया सत्त चउव्वीसदंडगा। एगमेप्यनुभागबन्धाऽभ्यवसायस्थानेषु वर्तमानो मृतो भवति- गस्स णं भंते ! मेरइयस्स पोरइयत्ते केवइया भोरालिया तावत्कालो बादरभावपुद्रलपरावर्तः । पोग्गलपरियता अतीता। पास्थि एको वि । केवइया पुरक्ख - सूक्ष्मं भावपुद्गलपरावर्तमाह। सुहुमो सम्बेसणुकमसो) सर्वेष्वनुभागबन्धाअध्यवसा. डा। नत्थि पक्को वि । एगमेगस्स णं भंते ! येरझ्यस्स अ. यस्थामेष्वनुक्रमशः-परिपाट्या यावता कालेन मृतो भवति, सुरकुमारत्ते केवइया ओरालियपोग्गलपरियट्टा । एवं चेव । तावत्काल सूचमः-सूक्ष्मभावपुद्गलपरावर्तइयमत्र भावना- एवं० जाव थणियकुमारत्ते जहा असुरकुमारत्ते। एगमेगस्स कचिजन्तुः सर्वजघन्ये कषायोदयरूपे अध्यवसाये वर्तमानो णं भंते ! णेरहयस्स पुढविकाइयत्ते केवइया ओरालिमृतः, ततो यदि स एष जन्तुरनन्तेऽपि काले गते सति प्र. यपोग्गलपरिया अतीता। अणंता। केवइया पुरक्खडा । धमादनन्तरे द्वितीयेऽज्यवसायस्थाने वर्तमानो म्रियते, त. मरणं गण्यते,न शेषारायुस्कमभावीन्यनन्ताम्यपि मरणानि । कस्सइ अस्थि,कस्सइ णस्थि,जस्सस्थि जहमेणं एको वा दो ततः कालान्तरे भूयोऽपि यदि द्वितीयस्मादनन्तरे तृतीये. वा तिमि वा, उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेना वा अणंता इयवसायस्थाने वर्तमानो म्रियते, तदा वतीयं मरणं गण्यावा, एवं जाच मणुस्सत्ते, वाणमंतरजोइसियवेमाणियचे Page #1140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगलपरियड जहा असुरकुमार | एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स इयत्ते केवइया ओरालियपोग्गल परिया ? | एवं जहा णेरइयस्स वत्तव्त्रया भणिया तहा असुरकुमारस्त विभाणि ( १११७) अभिधानराजेन्द्रः । जाव मायिते, एवं ०जान थणियकुमारस्स । एवं पुढविकाइयस्स वि, एवं ०जाव वैमाणियस्स । सब्बेसिएको गम । एगमेगस्स णं भंते ! खेरइयस्स खेरइयत्ते केवइया पोल परिया अतीता १ । अता । केवइया पुरक्खडा १ । एगुत्तरिया • जाव श्रणंता वा । एवं ०जाव थणियकुमारते | पुढवीकाइयते पुच्छा १ । यत्थि एक्को वि । केवइया पुरक्खडा ? । त्थि एको वि, एवं जत्थ वेउब्वियसरीरं प्रत्थि तत्थ एगुत्तरियाश्रो, जत्थ गत्थि तत्थ जहा पुढ विकाइय से तहा भाणियन्त्रं ०जान बेमाणियस्म वैमाणि यत्ते, तेयापोग्गल परिया कम्मापोग्गलपरियट्टा सन्वस्थ गुरिया भाणियव्वा, मण पोग्गल परियट्टा सन्देसु पंचि दिए एगुत्तरिया, विगलिदिए रात्थि, वइपोग्गलपरियट्टा एवं चेत्र, वरं एगिदिएसु गत्थि भाणियब्वा, आणापापोग्गल परियट्टा सम्वत्थ एगुत्तरिया, एवं ०जाब बेमायस वेमायिने । रइयाणं भंते ! रइयते केवइया ओरालियपोग्गल परियट्टा अतीता । णत्थि । केवइया रक्खडा ? | थिएको वि, एवं ०जाव यणियकुमारत्ते । पुढविकाइयते पुच्छा | श्रता । केवइया पुरक्खडा १। अता, एवं जाव मणुस्सत्ते वाणमंतरजोइसियवेमाणियत्ते जहा रयते, एवं सच वि पोग्गल परियट्टा भाणियच्या, जत्थ स्थितत्थ श्रतीतावि, पुरक्खडा विश्रांता भाणियन्त्रा, जस्स स्थितम दो वि यत्थि भणियच्या, जात्र मणियाणं वैमाशियत्ते केवइया आणापाणुपोग्गलपरियट्टा अतीता ? । श्रणंता, केवइया पुरक्खडा ? । श्रयंता | ( एगमेगस्लेत्यादि ) अतीता अनन्ता अनादित्वात् अतीतकालस्स जीवस्य चानादित्वात् अपरापर पुलग्रहणस्वरू परवाच्येति । पुरखडे त्ति ) पुरस्कृता भविष्यन्ति । ( कसर अस्थि कस्सा नत्थि त्ति ) कस्यापि जीवस्य दूरभव्याभव्यस्य वा ते सन्ति कस्यापि न सन्ति उद्धृत्य यां मानुष श्वमासाद्य सिद्धिं यास्यति संख्येयैरसंख्ययेव भवैर्यास्यति यः सिद्धिं तस्यापि परिवृत्तो नास्त्यनन्तकाल पूर्वत्वात् (त सेचि ) ( एगत्तिय त्ति एकत्विका एकनारकाऽऽद्याश्रिताः । (सत्तति) श्रदारिकाऽऽदिसप्तविधपुङ्गलविषयत्वात् सप्त एडकाश्चतुर्विंशतिदएड़का भवन्ति । एकत्वपृथक्त्वदण्डकानां चायं विशेषः- एकत्वदण्डकेषु पुरस्कृतपुद्गल फ्रावर्त्ताः कस्या पि न सम्यपि बहुस्वदण्डकेषु तु ते सन्ति जीवसामान्याऽऽ. श्रयणादिति । (एगभेगस्लेत्यादि नत्थि एको विति) नारक स्व वर्तमानस्यौदारिकपुद्गलग्रहणाभावादिति । ( एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स असुरकुमारते इत्यादि ) इद्द व नैरयिकस्य वर्त्तमानकालीनस्य असुरकुमारखे वातीतानागतका २८० For Private पोग्गल परियह संवन्धिनि (गुत्तरिया० जाव अरांता व प्ति) अनेनेदं सुचितम् - "कस्सइ अस्थि, कस्सर नत्थि, जस्सऽस्थि तस्स ज इसे एक्को वा दो वा तिष्ठ वा उक्कोसेण संखेजा वा श्रणंनावत्ति एवं जत्थ वेडब्बियसरीरं तत्थ एगुत्तरिउ ति । " यत्र वायुकायें मनुष्यपञ्चेन्द्रयतिर्यक्षु व्यन्तरादिषु च वैकियशरीरं तत्रैकी वैश्यादिवाच्यमित्यर्थः । ( जस्थ नत्थीत्यादि ) यत्राऽकायाss नास्ति वैक्रियं तत्र यथा पृथिवीकायिकर तथा वाच्यं न सन्ति वैक्रियपुङ्गलपरावर्त्ता इति वाच्यमित्य र्थः । (तयापोग्गलेत्यादि) सैजलकामेण पुनरूपरावर्त्ता भवि यन्त एकादयः सर्वेषु नारकाऽऽदिजीपपदेषु पूर्ववद्वायाः, तैजस काणयो: सर्वेषु भाषादिति । ( मण पोलेत्यादि ) मनःपुनलपरासीः पञ्चन्द्रियेष्वेव सन्ति भविष्यन्तश्च ते ए कोतरिकाः पूर्ववद्वान्याः । (षिगलिन्दिरसु नस्थिति ) वि कलेन्द्रियग्रहणेन चैकन्द्रिया अपि प्राह्माः तेषामपीन्द्रियाणा संपूर्णत्वान्मनोवृतेश्वाऽभावादतस्तेष्वपि मनःपुनलपराव न सन्ति (इपुग्गल परियट्टा एवं वेष सि) तैजसाऽऽद्दिप रिवर्त्तवत्सर्वनारकाऽऽदिजीव पदेषु वाच्याः, नयर मेकेन्द्रियेषु वचनाभावाच सन्तीति वाच्याः । " नेरइयाणं " इत्यादिना पृथक्त्वदण्डकानाह- '० जाव वैमाणियाणं इत्यादिना पर्यन्तमदण्डको दर्शितः । watererssage परावर्त्तानां स्वरूपमुपदर्शयितुमाह सेयं भंते ! एवं बुच्चइ - ओगलियपोगगल परियहे, ओरालियपोग्गल परियट्टे । । गोयमा ! जं गं जीवेणं श्रोरालिय सरीरे बट्टमाणं श्रोरालिय सरीरपाउग्गाई दब्बाई श्रोरालि यसरी रसाए गहियाई बद्धाई पुट्ठाई कडाई पहचियाई निविट्ठा अभिवा अभिसमयागयाई परियागयाई परिसऽयं गोयमा ! एवं बुचड़-ओरालियपोग्गल परियहे ओरा खामियाई शिखिष्लाई खिसिरियाई निमिट्ठाई भवंति से तेलियपोग्गल परियट्टे, एवं वेडब्बियपोग्गलपरियडे वि, वरं विसरीरे वट्टमागां वेडब्बिय सरीरपा जग्गाई, सेसं तं चेव । एवं ० जाव आणापाशुपोगल परियदेवि, वरं श्राखापाशुपाश्रोग्गाई सव्वदव्या श्राणापाणुत्ताए सेसं तं चैव । ( से केणमित्यादि ) ( गहियाई ति ) स्वीकृतानि (ब. (दाई ति ) जीवप्रदेशैरात्मीकरणात् । कुत इत्याह - ( पु· ट्ठाई ति ) यतः पूर्व स्पृष्टानि, तनौ रेणुवत् श्रथमा-पुष्टानि-पोषितान्यपरापरग्रहणतः । ( कडाई ति ) पूर्वपरिणामापेक्षया परिणामान्तरेण कृतानि । ( पटुबियाई ति ) प्रस्थापितानि - स्थिरीकृतानि जीवेन । ( निविट्ठाई ति ) यतः स्थापितानि ततो निविष्टानि जीवे स्वयम् (अभिनिविट्ठाई ति ) अविधिना निविष्टानि सर्वाण्यपि जीवे खानीत्यर्थः । (अभिसमन्नागयाई ति ) अभिषिधिना सर्वाणीत्यर्थः । समन्यागतानि - संप्राप्तानि जीवेन रसानुभूति स माश्रित्य ( परिवाइयाई ति : पर्याप्तानि - जीवेन सर्वाव• वयवैरात्तानि तमसाऽऽदानद्वारेण । (परिणामियाई ति ) - सानुभूतित पत्र परिणामान्तरमापादितानि । ( निखिखाई Personal Use Only Page #1141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोच्च (१९१८) पोग्गसपरियह अभिधानराजेन्द्रः । तिवीपरसीकतानि । (निसिरिया) जीवप्रदेश- तद्ग्रहणमित्यौदारिकपुद्रखपरिवर्तनिर्वसनाकालादनम्तगणभ्यो निःसृतानि । कथम-(निसिट्ठाई ति) जीवेन निसृ- तान प्राणपुद्गलपारवतेनिवेतेनाकालस्येति , ततो मनापुद्र. शनि-स्त्रप्रदेशांस्त्याजितानि । इहाऽऽद्यानि चत्वारि पदानि लपरिवर्तनिर्वर्तनाकालोऽनन्तगुणः, कथं, यद्यप्यानप्राणपुरऔदारिकपुद्रलानां ग्रहणविषयाणि. तदुसराणि तु पञ्चस्थि. लेभ्यो मन:पुद्रलाः सूचमा बहुप्रदेशाश्वेत्यल्पकालेन तेषां तिविषयाणि, तदुत्तराणि तु चत्वारि विगमविषयाणीति । प्रहणं भवति तथाऽप्येकेन्द्रियाऽऽदिकायस्थितिवशाम्मनस. - अथ पुद्रलपरावर्तानां निर्वतनकालं तदलाबहुत्वं च द. श्चिरेण लाभान् मानसपुदलपरिषों बहुकालसाध्य इत्यशयना: नन्तगुण उक्तः, ततोऽपि वाक्पुद्गलपरिवर्तनिर्वर्तनाकालोमोरालियपोग्गलपरिय: णं भंते ! केवइयं कालं नन्तगुणः कथं, यद्यपि मनसः सकाशाद्भाषा शीघ्रतरं लभ्यते द्वीन्द्रियाऽऽद्यवस्थायां च भवति तथाऽपि मनोद्रव्येभ्यो भाषा. णिबत्तिजइ ? । गोयमा ! अणंताहिं उस्सप्पिणीपा द्रव्याणामतिस्थूलतया स्तोकानामेवैकदाग्रहणात्ततोऽनन्त. सप्पिणीहिं एवइयकालस्स णिनित्तिजइ । एवं बेउब्विय- गुणो बाकपुदलपरिवर्तनिर्वर्तनाकाल इति, ततोऽपि वैकि पोग्गलपारयवि,एवंजाव आणापाणपोग्गलपरियति । यपुद्रलपरिवर्तनिर्वर्तनाकालोऽनन्तगुणों वैक्रियशरीरस्यातिएयस्स मं भंते ! ओरालियपोग्गलपरियाणिवत्ता बहुकाल लभ्यत्वादिति। णाकालस्स. वेउब्धियपोग्गल जाव प्राणापाणपो-- पुनलपरिवर्तानामेवाल्पबहुत्वं दर्शयन्नाह एएसिणं भंते ! ओरालियपोग्गलपरियट्टाणं जाव पा. गलपरियणिवत्तणाकालस्स कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा गोयमा ! सम्बत्थोवे कम्मग - णापाणुपोग्गलपरियहाण य कयरे केयरहितो जाव पोग्गलपरिपणिवत्तणाकाले, तेयापोग्गलपरियदृणि विसेसाहिया वा। गोयमा ! सम्बत्थोवा घेउब्बियपो. वत्तणाकाले अणतगुणे, ओरालियपोग्गलपरिय गलपरियट्टा वइपोग्गलपरियट्टा अणंतगुणा, मणपोग्गलनिबत्तणाकाले अणंतगुणे, प्राणापाणुपोग्मलपरिय परियहा अणंतगुणाजाव प्राणापाणुपोग्गलपरिया णिवत्तणाकाले अणंतगुणे, मणपोग्गलपरियट्टणिवत्त(ह) अणंतगुणा, ओरालियपोग्गलपरिया अणंतगुणा,तेयापोणाकाले अणंतगुणे,वइपोग्गलपरियणिन्नत्तणाकाले अणं गलपरिया अणंतगुणा, कम्मापोग्गलपरिय हा अणंतगुतगुणे, वेउब्वियपोग्गलपरियदृणिवत्तणाकाले अणंतगुणे । या सेवं भंते ! त्ति भगवं जाव विहरह। ( एएसि णमित्यादि ) सर्वस्तीका वैक्रियपुदलपरिवर्ती (ओरालिपत्यादि) (केवडयकालस्स लि) कियता का. लेन निर्वय॑ते । (अणंताहिं उसप्पिणीप्रोसप्पिणीहिति) बहुतमकालनिर्वर्तनीयत्वात्तेषां, ततोऽनन्तगुणा वाग्विषया एकस्य जीवस्य प्राहकत्वात् पुद्रलानां चानन्तत्वात् पूर्व अल्पतरकालनिर्षयत्वादेवं पूर्वोक्तयुक्त्या बहुबहुतराः क मेणान्येऽपि वाच्या इति । भ० १२२.४ उ०। भाचा। गृहीतानां व ग्रहणस्थागण्यमानत्वादनम्ता अवसविण्य इत्यादि सुष्कमिति । ( सव्वस्थोवे कम्मगपोम्गलेत्यादि) महा० । पश्चा० । कर्म । यो । स्था । सर्वस्तीका कार्मणपुदलपरिवनिर्वसनाकाला, ते हि सूः। पोग्गलपरिसाह-पुदलपरिशाट-पुं० । पुद्रलानां परिशटनका पमा पतमपरमाणुनिष्पनाच भवन्ति, ततस्ते 'लपि | रणप्रेरणे, (६४ गाथा ) क.प्र.२ प्रक०। बायो गृहाम्ते, सर्वेषु बनारकादिपयेषु वर्तमानस्य पोग्गलपेवाण-पुद्गलप्रेरण-1०। पुदला:-परमाणवस्तरसात. जीवस्य तेऽनुसमयं ग्रहणमायान्तीति स्वल्पकाले- समुया-चादरपरिणाम प्राप्ता लोऽदयोऽपि तेषां प्रेरणं नापि तत्सकलपुरलग्रहणं भवतीति । ततस्तैजसपु- क्षेपणम्। देशाषकाशिकवतस्य पश्चमेऽतिवारे,प०२अधिक। इलपरिवर्तनिर्वतमाकालोऽनन्तगुणो, यता स्थूलत्वेन पोग्गलविवागिणी-पुलविपाकिनी-सी । पुलविषये पि. सैजसपुरलानामपानामेकदा प्रहणम्, एकदाग्रहणे चा पाकर फलदानाभिमुख्यं पुलविपाका. सविधते यासांता एपप्रदेशनिष्पारखेन तेषामल्पानामेव सदानां प्रहणं पुबल विपाकिम्पः । पुलविषयकफलप्रदानाभिमुमासु कर्म. भवत्यतोऽनन्तगुणोऽसाविति । तन श्रीहरिकपुद्गलपरिवते. प्रतिष.पं०सं०३द्वारताश्व पविशतिः 'कम्म' श. विवेतनाकालोऽनन्तगुणा, यत मादारिकपुनला भातस्थू ने तृतीयभागे २६८ पृष्ठे दर्शिताः) रा, स्थूराणां बाल्पानामेबैकदा प्रहणं भवति, अल्पतरप्रदे. पोग्गलायण-पुद्गलायन-नाकोत्सगोत्रीयपुद्रलनामर्यपस्वे, शाश्वते ततस्तहणेऽप्येकदाल्पा पवाणवो गृह्यन्ते, न च स्था०७ ठा। कार्मणतैजसपुदू नवतेषां सर्वपदेषु प्रहणमस्त्यौदारिकशः | रीरिणामेव तद्ग्रहणादतो बृहत्तव कालेन तेषां प्रहणमिति पोग्गलि (ण)-पुद्गलिन्-पुं० । पुद्रला:-श्रोत्राऽऽदिरूपा विद्यतत पानप्राणपुलपरिवर्तनिर्वर्तनाकालोऽनन्तगुणो, यद्यपि न्ते यस्य स पुदली । श्रोत्राऽऽविरूपपुगलशालिनि, “जीवेणं हि औदारिकपुर लेभ्य प्रानप्राण पुलाः सूक्ष्माः बहुप्रदेशि. | भंते! पोग्गली पोग्गले।"भ०८ श०१० उ०। काश्चेति तेषामल्पकालेन ग्रहणं सम्भवति, तथाऽपर्या. पोग्गलिय-पोद्गलिक- त्रिपुद्रलाऽऽत्मके पुतलस्वरूपग्राहिसकावस्थायां तेषामग्रहणात् पर्याप्तकावस्थायामप्यौदारिका | णि, अष्ट०१६ अष्ट। शाल्योदने, पिं०।' शरीरपुद्रलापेक्षया तेषामल्पीयसामेव प्रहणात न शी पोच-देशी--सुकूमारे, दे० ना०६ वर्ग ६० गाथा। Page #1142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योच्चड अभिधानराजेन्द्रः। पोहसालग पोखड-पोचह-त्रि० । असारे, शा० १७० ३मा मलिन, विजाओ गहाय गमो सभं, भणियं चाऽणेण-एस कि मिचू०११ उ.। विलीने, शा०१ श्रु०८०। जाणति १, एयस्स चेव पुवपक्खो होउ, परिग्वानो चि तेह-एए निउणा तो एयाण चेव सिखंतं गेएहामि, जहा पोट्ट-पोट्ट-नादेशी-उदरे,मा० क०१०। दे० नाना . मम दो रासी, तं जहा-जीषा य, मजीवा य । ताहेयरेमामा० चू० । जठरे, उपा०२०। ण चिंतियं-पतेण अम्ह चेव सिखंतो गहिभो , तेण स. पोट्टलिय-पोट्टलिक-पुं० । पोहलिकावाहके,नि० चू०१६ उ० स्स बुद्धिं परिभूय तिनि रासी ठविया-जीवा, अजीवा, पोलिया-पोहलिका-सी० । पोटली इति ख्याते पस्तुकम्ब. नोजीवा । तत्थ जीवा संसारस्था, अजीया घडाउदि, नो. लाऽऽदिमये वेटनके, भ०१.६ उ०।। जीवा घिरोलियाछिनपुच्छाई, विटुंतो इंडो, जहा रस्स पोट्टसालग-पोशालक-पुं०। लोहपट्टासपोहजम्बूवृत्तशाला- आदि मझ अग्गं च , एवं सम्वे भाषा तिविहा, एवं सो योगाथ पोहशालकः । जीवाजीवराशियप्ररूपके नाजीवा, तेण निप्पट्ठपसिणवागरणो कत्रो , ताहे सो परिष्वायो ख्यतृतीयराशिस्थापकगोष्ठामाहिलेन पराजिते परिव्राजक रुट्ठो विच्छुए मुया, ताहे सो तेर्सि पडिवक्खे मोरे मुयाह, विशेषे, स्था०७ ठा०। ताहे तेहि हपविलिए िपच्छा सप्पे मुया, इयरो ते"इहान्तरखिकापुर्या, बलश्रीरभवन्नृपः। सिं पडिघाए नउले मुयह, ताहे उंदरे तेसिं मजारे , मिय तत्र भूतगुहोद्याने, तस्थुः श्रीगुप्तसूरयः॥१॥ तेसि बग्घे , ताहे सूयरे तेसिं सीहे, काके तेसि उलूगे, तच्छिष्यो रोहगुप्ताऽस्यो, प्रामेऽन्यत्र स्थितोऽभवत् । ताहे पोयागी मुया, तेसिं ओलाई , एवं जाहे न तरह समागाछत्युपाचार्य,स च प्रायेण पन्दितुम् ॥२॥ ताहे गहभी मुक्का । तेण य सा रयहरणेण पाहया, सा परिवाट वादिराट् कोऽपि तत्राऽयातः कुतोऽपिहि। परिवायगस्स उवरि छरिता गया , ताहे सो परिवायगो पोट्टे बवाऽयसः पहूं, जम्बूशालां करेऽवहन् ॥ ३॥ हीलिजंती निच्छुढो । ततो सो परिब्वायर्ग पराजिणित्ता पृष्टः किमेतदूचे ऽथ. पोर्ट्स स्फुटति विद्यया । गो पायरियसगासं, भालोपह-जहा जिओ एवं, मा यरिया पाह-कीस तए उट्रिएण न भणियं-नस्थिति बद्धस्ततोऽयसः पट्टो, जम्बूशाला चमत्करे ॥४॥ तिमि रासी, पयस्ल मए बुद्धि परिभूय पण्णविया, - जम्बूद्वीपसमस्तेऽपि, समानः कोऽपि नास्ति मे। याणि पि गंतुं भणाहि-सो नेच्छा, मा मे मोहावणापटई वादयामास, सगर्वाद्वादिनः प्रति ॥५॥ उत्ति, पुणो पुणो भणिश्रो भण-को वा एत्थ दोसो', पोहे पट्टः करे शाला, पोशालोऽथ सोऽभवत् । जह तिथि रासी भणिया, अस्थि चेव तिथि रासी, प्राबारितो रोहगुप्तेन, पटहस्तस्य पाद्यहम् ॥ ६ ॥ यरिया पाह-अज्जो असम्भावो, तित्थगरस्स पालाय. गुरूणां स तदाख्यो. गुरवोऽप्यवस्ततः। णा य , तहा वि न पडिवज्जा , ततो सो पायरिएण न भव्यं विदधे वत्स!, यतोऽसौ विद्यया बली ॥ ७॥ समं वायं लग्गो, ताहे पायरिया राउलं गया भगंति-ते. वादे पराजितोऽप्येष, विद्यया युध्यतेऽधिकम् ।" ण मम सिस्सेण अवसिद्धंतो भणियो । अम्हं तुवे चेष राप्रा. क.१०। सी, याणि सो विप्पडिवो, तो तुम्भे महं पायं सुणेह. तस्स इमामो सत्त विज्जाओ, तं जहा, भाष्यगाथा परिस्सुयं राणा, ततो तेसिं रायसभाए रायपुरनो भाष, विच्छुय सप्पे मूसग, मियी वराही य कायपोआई। डियं, जोगदिवसं उद्याय २म्मासा गया, ताहेराया एयाहिं विज्जाहिं, सो उ परिवायभो कुसरो ॥१३७।। भण-मम रजं अबसीदति, ताहे मायरिपरि भणियंतत्र भिकेति धिकप्रधाना विद्या गृह्यते, सति रामए पचिरंकासं धारिमी, पत्ता पासक सर्पप्रधाना, 'मूलग'ति मूषकप्रधाना तथा मृगी नाम विषसं भागए निगिपहामि, ताहे पभाए भण-कुति पाषणे परिक्सिजउ, तस्थ सम्बदब्वाणि अस्थि, माणेविधा मुगीरूपेणोपचातकारिणी , एवं पाराहीच, 'का. जीवे मजीवे मोजीये य, तारे देण्याए जीवा भाजीगपोसि सि 'काकषिया, पोताकीषिणच, पोताच्या शकुनिका भण्यम्ते , एतासु विद्यासु पताभिर्धा विचाभिः पायरियणा, मोजीमा नस्थि, एषमादिबोयालसपणं पु. सपरिवाजका कुशल ति गाथाऽर्थः। छाणं निग्गहिमो॥" सो भणइ-किं सका एत्ताह निलुकि?, ततो सो मा- ममुमेवार्थमुपसंहरबाह भाष्यकार:यरिएण भणिभो-पढियसिखाउ इमाउ सत्त प सिरिगुत्तेणऽवि छलुगो, छम्मासे कट्टिऊण वाये जिभो। डिसक्वाविज्जायो गेरह, तं जहा । भाष्यगाथा पाहरणकुत्तियावण, चोयालसएण पुच्छाणं ।। १३६ ॥ मोरी नजलि विराली, वग्धी सीही उलूगि भोवाई। निगदसिद्धा,"नवरं चोयालसयं-तेण रोहेण छम्मूलपय. एयाभो बिज्जामो, गेयह परिवायमहणीमो ॥ १३ ॥ स्था गहिया, तं जहां--दब्धगुणकम्मसामनविसेसा छ?मौरी नकुजी बिराली ब्यानी सिंही च उलूकी ('मोवाई' .भो य समबानो , तत्थ दम्ब नबहा, जहा-भूमी इ. सि) भोलाषयवप्रधाना , एता विद्या गृहाण परिव्राजकम- दयं जलयो पक्षणो आगासं कालो दिसा अपनो मणो थिन्य इति गाथाऽर्थः ॥ "रयहरणं च से अभिमंतेउं दिवं, यति, गुणा सत्तरस, तं जहा-वं रसो गंधो फासो नामपि उडेर, तो रयहरणं भमाडिज्जासि, तो मजे. संखा परिमाणं पुदुतं संभोगो विभागो परापरजी यो होहिसि , देणाऽवि सकिहिसि नो जेतुं, ता तामे । सुदुक्र इच्छा दोसो पयतो प, कम्मं पंचधा-उसो Page #1143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोतय - (१९२०) पोट्टसालग अभिधानराजेन्धः । वणं अवक्नेवणं आउंचणं पसारणं गमणं च, साम। लभवग्रहणे इति । स. १००००००० सम। हस्तिनापुरे भझं तिविह-महासामसं १ सत्तासाममं त्रिपदार्थसत्- द्रायां जाते तत्पुत्रे, स च धीरान्ति के प्रवज्य मासिकया संबुद्धिकारि २ साममविसेसो द्रव्यत्वाऽऽदि ३ । अन्ये त्वेवं लेखनया मृत्वा सर्वार्थसिद्धे उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यतीति व्याख्यानयन्ति-त्रिपदार्थसत्कारी सत्ता, सामसंव्यस्वाऽऽ.. अनुत्तरोपपातिकदशानां तृतीयवर्गस्य नवमेऽध्ययने सूचि. दि, सामनविसेसो पृथिवीत्वाऽऽदि, विसेसा अंता ( अणं- तम् । अणु०१ श्रु०३ पर्य०१०। ताय) पच्चयऊय समवानो, एए छलीसं भेया ।राहिला- पीतलिपरनगर बनकर पोहिला-पोहिला-स्त्री० । तेतलिपुरनगरे कनकरयस्थ रामो एत्थ पकेके चत्तारि भंगा भवंति , तं जहा-भूमी अभूमी नोभूमी नोमभूमी,एवं सम्वत्थ , तत्थ कुत्तियाबणे भूमी मात्यस्य तेतलिपुत्रस्य समये कलादस्य मूषिकारदारकस्य मग्गिया लेडुत्रो लडो मभूमीप पाणियं. नोभूमीए जलाधेष दुहितरिका.१क्षु. १४ अाश्रा०चू०। प्रा०म०। (तेतलि. तु नो राश्यन्तरं, नोभूमीए लेछए चेव एवं सम्वत्थ ॥" सुय' शब्दे चतुर्थभागे २३५२ पृष्ठे कथोक्ला) प्राहच भाष्यकार: पोट्टिलायरिय-पोट्टिलाचार्य-पुं० । पुल शब्ने उक्ने वीरप्रयो. जीवमजीवंदा, णोजी जाइनो पुणोउनी। विंशभषजीवप्रियामित्रदीक्षाग्राहकमुनी , कल्प० १ अधि. दे चरिमम्मि जीवं, न उ खोजीवं सजीवदलं ॥१४॥ ततो निग्गहिओ. छलूगो, गुरुणा से खलमल्लो मत्थए पोढवती-प्रोष्ठपदी-स्त्री०। प्रोष्ठपदा उत्तरभाद्रपदा तस्यां भवा भग्गो । ततो निद्वाडिनो गुरु घि पूतिनो णगरे य प्रोष्ठपदी। भाद्रपदमासभाविभ्याम् । चं. प्र० १० पा०५ घोसणयं कयं-घमाणसामी जयइ ति॥" पाहु० पाहु० । सू० प्र० । जं। अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह भाष्यकार: पोडइल-पोठइल-न । तृणभेदे. प्रशा०१ पद । वाए पराजिभो सो, निविसो कारिओ नरिंदेणं । पोडिअ-देशी-पूर्णतायाम् , दे० ना०६ वर्ग २८ गाथा। घोसावियं च णयरे, जयइ जियो वखमाणो त्ति ॥१४१॥ पोद-पौढ-त्रिः। समर्थे, व्य०५ उ०। विशे० । “पक्का सहा निगदसिद्धा, “ तेणाऽवि सरक्खरडिएणं चेव बरसेसियं | समत्था य, पकला पच्चला पोढा।" पाइ० ना० ३६ गाथा। पणीयं, तं च असमझेहिं खाई णीयं, तं चोलूयपणीय. पोणय-देशी-त्रि. प्रसस्थावदेहनिष्यनं पूयमाने, नि० चू० न्ति पुच्चा, जो सो गोत्तणोलूश्रो प्रासि ॥" आव०१०। १उ०। पोट्टसारणी-पोइसारणी-खी० । मतीसाराऽऽख्ये रोगभेदे, | पोणिया-देशी-सूत्रभृत्तळ, दे. ना० वर्ग ६१ गाथा । मा० क.४०। प्रायः । पोहसीसवेयणा-पोटशीर्षवेदना-स्त्री०।६ ताउघरमस्तक-पति-पोत-पुं० । प्रवहणे, वृ०४ उ० । 'पोतं वहावैति ।' नि० वेदनायाम् , जं० २ वक्षः। चू०१ उ० । व्य० । प्रश्न । निवसने, अनु० । धने चिलि मिलिकायाम् , बृ० २ उ० । बस्नचिलिमिलिकायाम् , बृ०१ पोहिल-पोट्विल-पुं०। उत्सपिण्यां भारते वर्षे भविष्यति चतु. उ०३ प्रक। तीर्थकरे , स ती० । प्रवः । ति । पुट्टिल इति पोत्तकम्म-पोतकर्मन्-न । पोतं वस्त्रमित्यर्थः,तत्र कर्म पोतः प्रकरणे उक्तवक्तव्यताके प्राचार्य, प्राक०१०। पाश्च०। मा० म०। वीरस्य प्रयस्त्रिंशद्भवानां प्रथमभवजीवे, स०। कर्म । बस्ने,पल्लवनिष्पन्नटिउल्लियारूपे कर्मणि ग०२ अधिः। समणे भगवं महावीरे तित्थ गरभवग्गणाओछट्टे पोहिल-पोतग-पोतक-न० । ताड्यादिपत्रसंघातनिष्पन्ने, प्राचा०२ भवग्गहणे एगवासकोहिं सामनपरियागं पाउणिता सह- श्रु०१चू०५ १०१ उ०। सारे कप्ये सबढविमाणे देवताए उवव ।। पोतघाय-पोतघात-पुं०। शावप्राहके, प्रश्न० १ प्राथद्वार। (समणेत्यादि) किल भगवान् पोट्विलाऽभिधानो राजपुत्री पोतणपुर-पोतनपुर-न । स्वनामण्याते नगरे, यत्र पोतन. बभूव,तत्र वर्षकोटी प्रवज्यां पालितवानित्येको भवः,ततो दे | पुरे परतीथिभिः सह वाद उपस्थितः, ततस्तैः सह सद्वाद घोऽभूदिति द्वितीयः, ततो नन्दनाऽभिधानो राजसूनुः छ- दत्त्वा महतीं जिनशासनप्रभावनां कृत्वा भगवान् निर्वृत्तः । प्राग्रनगयों जझे इति तृतीयः । तत्र वर्षलक्षं सर्वदा | बृ०६ उ० । "इहास्ति पोतनपुरं, नगरं जितसागरम् । भूरिः मासक्षपणेन तपस्तप्रवा दशमदेवलोके पुष्पोत्तरवरविजयपुः श्रीजिनसंशोभि, नावृताखिलजन्तुकम् ॥१॥" प्रा० क०१ पडरीकाभिधाने विमाने देवोऽभवदिति चतुर्थः। ततो ब्रा- अतिविठ्ठ' शब्द चतुर्थभागे२३२४ पृष्ठे विस्तरः)"पोत. यणकुण्डमामे ऋषभदत्तब्राह्मणस्य भार्याया देवानन्दाऽभि. णपुरे णगरे सोमचंदो राया,तस्स धारिणी देवी, पोतणं नाम धानायाः कुक्षावुत्पन्न इति पञ्चमः। ततस्यशीतितमे दिवसे प्रासमपदं ।" श्रा० चू०१०। क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे सिद्धार्थमहाराजस्य त्रिशलाभिधा. पोतणा-पोतना-स्त्रीमहाविदेहीय नगरीभेदे,प्रा०चूरमा नभार्यायाः कुत्ताविन्द्रवचनकारिणा हरिनैगनेषिनाम्ना देवेन पोतपूसमित्त-पोतपुष्पमित्र-पुं० । दुर्बलिकापुष्पमित्रगच्छीये संहतस्तीर्थकरतया च जात इति षष्ठः। उक्तभवग्रहणं हि स्वनामख्याते साधौ, आ. चू. १०। विना नाम्यवग्रहणं षष्ठं श्रूयते भगवत इत्येतदेव षष्ठभ. me पोतय-पोतक-न० । कार्यासिके, वृ०२ उ० । शणाऽऽदिवल्को धग्रहणतया व्याख्यातं, यस्माश्च भवग्रहणादिदं षष्ठं, तदप्ये | तस्मात् षष्टमेवेति सुच्यते, तीर्थकरभवग्रहणात्षष्ठे पोट्टिः । पाते, नि० चू० । उ० । प्रा० चूछ। Page #1144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोता अभिधानराजेन्द्रः। पोत्यग पोता-पोता-स्त्री० । शाटिकायाम् , विशे०। पुस्तके शुषिरतया यो जन्तूनामुपधातस्तत्र जिनैः-तीर्थपोतिय-पौतिक-ज०। पोतमेव पौतिकम् । कार्यासिके, स्था० कृद्भिर्वागुरया लेपेन जालेन चक्रेण च दृष्टान्तः कृतः (लोहिय ५ ठा० ३ उ० । मा० । त्ति) यदि तेषां पुस्तकान्तर्गतानां जन्तूनां लोहितं-रुधिरं भ. पोतिय-पुं० । वस्त्रधारिणि वानप्रस्थे, औ० । भ० । नि० । वेत् ततः पुस्तकबन्धनकाले अक्षराणि परिस्पर्शात् तत् रुधिरं परिगलेत् । (लहुग त्ति) यावतो वारांस्तत्पुस्तकं ब. पोन-पौत्र-पु.। पुत्रस्यापत्ये, भ० १२ श०२ उ०। वस्ने । ध्नाति मुञ्चति वा अक्षराणि वा लिखति तावन्ति चतुर्ल. बृ०१उ.२ प्रक०। घूनि,प्रासाऽऽदयश्च दोषाः। पुस्तकस्य मोचने बन्धेच संघट्टपोत्तअ-देशी-वृषे, दे० ना०६ वर्ग ६२ माथा । नम् उपलक्षणत्वात् परितापनमपद्रावणं वा यदापद्यते, तनि पत्रं प्रायश्चित्तमिति निर्युनिगाथासमासार्थः। । पोत्तखेल-पोतखेल-पुं० । गोरसभावितायां तुघरवृक्षगुटिकायाम्, 'गुलति तुवररुक्मवृत्तगुलियानो कन्जंति मोरसभा साम्प्रतमेनामेव विवृणोतिविठो पोत्तखेलो भमति ।" नि. चू० १२ उ०॥ चउरंगवम्गुरापरि-वुडो वि फिटेञ्ज अवि मिगोडाले। पोत्ती-देशी-काचे, दे ना वर्ग ६० गाथा। छीरखउरलेवे वा, पडिओ णउणो पलाएजा ।। १४६ ।। पोचल्लया-पोतपुत्तालिका-स्त्री० । वस्त्रमयपुत्रिकायाम् , चतुरङ्गसेनारूपा बागुरा, तया परिवृतोऽपि-समन्ताद्वेष्टि. धानवस्त्रे. शा० १श्रु० १८ १०॥ तोऽपि मृगोऽपीति संभावनायां, संभाव्यतेऽयमों-यत्त. पोत्य-पुस्त-न। "ओत्संयोगे" ॥८।१ । ११६ ॥ इत्युत थाविधक्षताऽऽदिगुणोपेतो मृगोऽऽरण्ये तादृशादपायाश्रोत्वम् । प्रा०१ पाद । लेप्ये, विशे०। पुस्तके, ग०२ अधिक। स्पिटेत् , न पुनः पुस्तकपत्रान्तरप्रविष्टा जीवाः स्फिटेयुः। पोत्थकर्म-पुस्तकर्मन्-न । पुस्तं ताडपत्राऽऽदि, तत्र कर्म । तथा शकुन्तः पक्षी, स चेह मक्षिकाऽऽदिः क्षीरे वा-दु ग्धे, खपुर वा-चिकणद्रव्ये, लपे वा अवधावणाऽऽदौ प. पुस्तच्छेदनिष्पन्ने रूपके, अथवा-पुस्तमिह संपुटकरूपं तितोऽपि पलायेत् , न पुनः पुस्तकजीवास्ततः पलायि. गृह्यते,तत्र कर्म । पुस्तकमध्ये वर्तिकालिखिते रूपके,अनु।। तुं शक्नुयुः । प्राचा०। सिद्धत्थगजालेणं, गहितो मच्छो वि णिप्फडेजाहि । पोत्यकार-पुस्तकार-पुं० । पुस्तकशिल्पोपजीविनि, अनु। तिलकीडगा व चक्के, बला पलाए न ते जीवा ॥१५॥ पोत्थग-पुस्तक-न । लेप्ये, स्था० । ध01दश नि चू।पं० सिद्धाः व० । जीत। सर्षपाः तेऽपि येन जालेन गृह्यन्तै तत् सिद्धा__ तश्च पञ्चविधम् यंकजालं,तेनाऽपि गृहीतो मत्स्यः कदाचिन्निस्फिटत् । तथा चक्र-तिलपीडमयन्त्रे प्रविष्टास्तिलकोटका वा निर्गच्छेयुः, गंडी कच्छवि मुट्ठी, संपुडक फलए तहा छिवाडी य । न च ते जीवास्ततः पुस्तकानिर्गन्तुं शक्नुयुः। एयं पोत्धयपणयं,परमत्तं वीयरागेहिं । स्था०४ ४०२ उ०। जइ तेसिं जीवाणं,तत्थ गयाणं तु लोहियं होजा । (एषां स्वरूपं , स्वस्वशब्दे द्रष्टव्यम् । ) पीलिज्जत धणियं, गलेज्जतं अक्सरे फसितं ॥१५॥ , अथ पुस्तकपञ्चके तावदोषानुपदर्शयति यदि तेषां तत्र गतानां पुस्तकपत्रान्तरे वा स्थितानां जीवासंघस अपडिलेहा, भारो अहिकरणमेव अविदिनं । । नां कुन्थुप्रभृतीनां लोहितं भवेत्. ततः पुस्तकबन्धनकाले तपां संकामणपलिमंथो, पमाएँ परिकम्मणा लिहणा ॥१४७॥ 'धणियं' गाढतरं पीड्यमानानां तदनन्तरोक्तं रुधिरमक्षराखि पुस्तकाऽऽदिकं प्रामान्तरं नयतः स्कन्धे संघर्षः स्यात् , स्पृष्ठा बहिः परिगलेत्। ततश्च व्रणोत्पत्यादयो दोषाः , शुषिरत्वाच तत्र प्रत्युपेक्ष अत एवणा न शुद्धपति , भारो मार्गे गच्छतो भवेत् । अधिकरणं जत्तियमित्ता वारा-उ मुंबई बंधई व जति वारा। च कुन्थुपनकाऽऽदिसंसक्तिलक्षणं भवति । यद्वा-तत्पुस्त. जति अक्खराणि लिहती,तति लहगाजंच आवजे।१५२॥ कं स्तेनैरपहियेत. ततोऽधिकरणं, तीर्थकरैरदत्तश्चायमुपधिः, स्थानान्तरं च पुस्तकं संक्रामयतः परिमन्थः, प्रमादो-ना. यावन्मात्रान् धारान् पुस्तकं मुञ्चति छाटयति, यावतो वा. म पुस्तके लिखितमस्तीति कृत्वा न गुणयति, अगुण रांश्च बध्नाति । 'यति वा' यावन्ति अक्षराणि लिखति 'त. नाच्च सूत्रनाशाऽऽदयो दोषाः । परिकर्मणायां च सुत्रार्थ- ति ति' तावन्ति चतुर्लघूनि, यच्च कुन्थुपनकादीनां संघट्टनं. परिमन्धो भवति । अक्षरलेखनं च कुर्वतः कुन्थुप्रभृति- परितापनमपद्रवणं चा प्रापद्यते, तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । प्रसप्राणिव्यपरोपणेन काटिकाऽऽदिबाधया च संयमात्म- बृ०३ उ०। विराधना। इमं पोत्थगपणगं । गाहाकिंच गंडी कच्छवि मुट्ठी, संपुट पिहलो तहा छिवाडी य । पोत्थग जिणदिलुतो, वागुर लेवे य जाल चक्के य। । साली वीही कोदव, रालो रमतणाइँ पणगं व ॥२५॥ लोहिय लहुगा माणा-दि मुयणे संघदृणा वाधे।४१८।। दीहो बाहल्लपुहत्तण तुल्लो चउरंसो गंडी पोत्थगो, अंते २८१ ___ Page #1145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोत्थग तपादकच्छी द या वृत्ताकृती मुट्ठीपोत्थगो; श्रहवा- चउरंगुलदीहो चउरंसे मुट्टीपोटो दुबाफलगा संपुढं दोदो रोपापली दिवा वादी ( 'रालउ ति ' कंगुपललसभगाइ श्रारभतणा । 1 गाहा अप्पाडलेडियमे तूली व नाय पालिगगि, मसूर चेव पोतम ( ११२२ ) अभिधानराजेन्डः | --- ॥ २६ ॥ बकसेरा तूली अकालभरिया वा तूली, रूपादिपु सिरोषहाणमुत्रहाणगं, तस्सोवरि गंडले जा दिजति साचादिगा जानुकोपयदि जादिति सामालिनी चम्यत्थतं वा परूयादिपुत्रं विषसां मसूरी इमे पडिले नि०० १२४० । पुस्तक लेखने फलम् - जिनवचनं दुःश्रमाकालवशा बुच्छिन्नप्रायमिति मत्वा भगव द्विर्नागार्जुनस्कन्दिलाऽऽचार्य प्रभृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तं, ततो नमामिना सोनी, विभिरभ्यर्चनीयं च । पारा दुर्गतिमाप्नुवन्ति न सूत मे भाषम् । न बान्धतां बुद्धिविहीनतां च ये लेखयन्तीह जिनस्य वाक्यम् ।। १ ।। " जिनाऽऽगमपाठकानां भक्तितः सम्मानं दाह-पठति पाठवते पहतामसी, बसनभोजन पुस्त कचस्तुभिः । प्रतिदिनं कुरुते य उपग्रहं स इद्द सर्वविदेव ||१|| लिखितानां च पुस्तकानां संविग्रगीतार्थेभ्यो बहुमानपूर्वकं व्याख्यानं व्यापापनार्थ दानं व्याख्यायमा मान प्रतिदिनं पूर्वतिरधि पुस्त कानां श्रीकल्पाssयागमजिनचरित्राऽऽदिसत्कानां न्यायार्जि तदिन विशिष्टपत्रलेखनम् तथा बा संगीतार्थेभ्यः प्रत्यपूजानपूर्वकं व्याख्यापनम् उपलक्षणत्वात्तद्वाचनभणनाऽऽदिकृतां यस्मादिभिरुपगम्यतः "ये लेखयन्ति जिनशासन पुस्तकानि व्याख्यानयन्ति च पठन्ति च पाठयन्ति । एव म्ति रक्षणविधौ च समाद्रियन्ते, ते मर्त्यदेवशिवशर्म नरा लभन्ते ॥ १ ॥ इत्यादि पूर्व जिनाऽऽगमे धनवनाधिकारे प्रतिमेति (७० लोक ) ०२० पोय "बलपुर नपरे देवणिमुदचेि पुत्धे आगमविदिओ नवयसी वीराश्री ॥ १ ॥ " सम्पति "शांति परमानन्दे । समक्षं सम प्रारम्भं वाषितुं यः ॥१॥" इत्याद्यन्तव्यवचनात् श्रीवीरनिर्वाणात् त्य नतिक्रमे कल्पस्य सभासमक्षं पाचना जाता, तां ज्ञापयितुमिदं सूत्रं न्यस्तमिति । तत्वं पुनः केवलो विदन्तीति वायरियंत्र नवतितमः संवत्सरः कालो गच्छतीति दृश्यते । अत्र केचि इदन्तिनान्तरे कोऽर्थः प्रत्यन्तरे "इतिह श्यते यत्कल्पस्य पुस्तके लिखनं, पर्षदि बाचनं वा अशीस्थधिकनवतातिक इति पुस्तके संखितं स्तकात विनवत्यधिक नववर्षशतातिक इति ते इति भावः अन्ये पुनन्ति "स्वयम्" अशीतितमे संवत्सरे इति कोऽर्थः ? पुस्तके कल्पलिखनस्य हेतुभूतः । भयं भीबीरास् दशमस्य शतस्य अशीतितमसंवत्सर लक्षणः कालो गच्छति " बायंतरे " इति कोऽर्थः । एकस्याः पुस्तकलिखन रूपाया वाचनाया अन्यत् पर्षदि वाचनरूपं यद्वाचनान्तरं तस्य पुनर्हेतुभूतो दशमस्य शतस्यायं त्रिनवतितमः संवत्सर तथा चायमर्थः-नाशीतितमर्षे कसूत्रस्य पुस्तकें लिखनं नवशतत्रिनवतितमवर्षे च कल्पस्य पर्षद्वामेति तथो श्रीमुनिसुन्दरम खतस्तोत्रर शेबी २६३ शरीर 'नभूपति वसिम्म संसद चना-माद्यां तानपुर न कः स्तुते ॥ १ ॥ " पुस्तक लिखन कालस्तु यथोक्तः प्रती "सीपुरम गरे।" इत्यादिवचनात्पुनः केवलिनो विदन्तीति । कल्प० १ अधि० ६ क्षण (शाश्वतप्र तिमाकम् विजयदेव न्याय पचपामि ) पोत्यार - पुस्तककार पुं० पुस्तककरण शिल्पोपजीविन, जी० ३ प्रति ४ अधि० । 6 पोत्थी - पुस्ती - स्त्री० । पोतकन्यकाय ब्रह्मदत्तचक्रिभार्यायाम्, उत्त० १३ श्र० । पोद्दाम - प्रोद्दाम त्रि० | प्रबलतरे, प्रति० । कदा पुस्तकाऽऽरूढः सिद्धान्तो जातःसमयस्स भगवप्रो महावीरस्साव सम्यक् यस नत्र वाससयाई विकताई, दसमस्स य वासस्यस्य अयं असी काले अ तेथ परेकाले गच्छ इति दोस ।। १४८ ॥ तत्र व्यतिक्रान्नानि तब भगवतो निर्वृतस्य नव वर्षात दशमस्य व वर्षशतस्यायमशीतितमः संवत्सरः कालो ग नि यद्यपि एतस्य सूत्रस्य व्यक्तया भावार्थो न शायते, तथापि यथा पूर्वीकारितं तथा व्याख्यायते । तथाहि अत्र केचिद्वदन्ति यत्कल्पसूत्रस्य पुस्तक लिखनकाल ज्ञानाय इदं सूत्रं श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणैः लिखितं, तथा चायमर्थो यथा श्रबीरनिर्वाणादशीत्यधिकशतत क्रमे पुस्तकाऽऽरूढः सिद्धान्तो जातः तदा कल्पोऽपि पुस्तकाऽऽरूढो जात इति । तथोक्तम् - पोष्फल - पूगफल - न० । " श्रोत्पूतर - बदर नवमल्लिका नवफा - लिका-फले ११७०॥ इति सव्यजनेन सहोत "सोपारी" इति प्रसिद्धे फलभेदे, स्त्रीत्वमप्यत्र ' पोष्फली । प्रा० १ पाद । पोप-पद्म -न० । " ओरपद्मे " | ८ | १ | ६१ ॥ इति आदेरत श्रश्वम् । प्रा० १ पाद कुसुम्भके नि० चू० १३० । पोपरदेशी कम्मर व दे०६ वर्ग ६३ गाया। पोमिल-पोमिल- पुं० । स्थविरस्याऽऽवज्रसेनस्य स्वानामख्याते स्थविरे, कल्प० २ अधि० ८ क्षण । पोय पोत- पुं० न० । लघुबालकयोग्ये वाखण्डे, पिं० श्रा चा० । वत्रे, स्था० ३ ठा० १३० । ( अत्र विशेषः लक्षणं व 'बाव' शब्दे चतुर्थमागे २७५० पृष्ठे गतम्) सागर धब श्र० म० १ अ० । विपा० । वोहित्थे, आव० ४ श्र० । शिशौ, सूत्र० १ ० १४ प्र० । A " Page #1146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयया पोषण - प्रोतन- न० | आत्मनि प्रवेशने, आ०म० १ श्र० । सूत्र० । आश्रमविशेषे, आ० म० १ ० पायणपुर - पोतनपुर - न० । प्रसन्नचन्द्रराजपालिते नगरभेदे, श्रा० म० १ अ० । श्रव । तत्रैव वज्रसिंहो नाम राजाऽभवत् । दर्श० १ तत्व | उत्त० । " श्रासी य पोयणपुरे, श्रजा नामेण पुष्फचूल ति । तीसे धम्मायरिश्रो, बहुस्सुश्रो अन्नियापुतो ॥ १ ॥ " संथा | व्य० । (१९२३) अग्निधानराजेन्द्रः । पोयय- पोतज - पुं० । पोतवद् वस्त्रवज्जरायुवर्जिततया शुद्धदे. दाद्यनिविशेषाज्जाताः पीताऽऽदियो दिव्याञ्जाताः पोता इव वा वस्त्रसंमार्जिता इव जाताः पोतजाः । भ०७ श०५ ३०। "अन्येष्वपि दृश्यते ॥ ३ । २ । १०१ ॥ इति प्रत्ययः । जनेरिति वचनात् । हस्तिगुणीच मेलीकाप्रभृतिषु दश० ४ ० ० । सूत्र । प्रतिबन्धभेदे, तत्रायं हस्त्यादिरयमिति वा प्रति जी बन्धः स्यात् । स्था० ६ ठा० | पोतक - पुं० बालके, वस्त्रे च । अथवा-पोतको बालक इति श्वा । अथवा-पोतकं वस्त्रमिति वा प्रतिबन्धः स्यात् । स्था० ६ठा० । सूत्र० । पोगाई-पोता की स्त्री० शकुनिकायाम् सहस्रशः शकुनिथिकुर्वाणारूपे परिव्राजकविद्याभेदे, आ० म० १ श्र० । विशे० । पोर पोर वि० पुराने प्रा० पाद पूतर - [-पुं० ।" ओत्पूतर बदर नवमालिका नवफलिका - पूग फले " ॥ ८ । १ । १७० ॥ इति पूतरशब्दे श्रादेः स्वरस्य सस्वरव्यञ्जनेन सहोत् । क्षुद्रप्राणिभेदे, प्रा० १ पाद । पोरकच्च - पौरकृत्य - न० । द्वासप्ततिकलानामन्यतमे पौराणां परिपालनाssस्म के कलाभेदे. स० । पोरपुरः काव्य-१० पुरतः पुरतः काव्ये शीघ्रकविले जं० २ वक्ष० । शाo | - " पोरग पर्न न० । हरितवनस्पतिभेदे प्रशा० १ पद । पोर - पुं० । दुर्जने, “पोरच्छो पिसुखो मच्छरी खलो मुहुमुद्दो य उप्फालो ।” पाइ० ना० ७२ गाथा । दे० ना० । पोरजाय - पर्वजात- न० पर्वसमुत्पन्ने, श्राचा० २ ० १ चू० १० ८ उ० । " पोरवाल - पौरपाट० वैश्वजातिविशेषे सी० ४ कल्प पोरवीय पर्वबीज -न० । पर्वमात्रबीजजन्ये वनस्पतिभेदे, श्र चा० १४० १ चू० १ श्र० ८ उ० सूत्र० । इक्ष्वादौ स्था० ४ ठा० १३० । ● पोरय- देशी-क्षेत्रे दे० ना० ६ वर्ग २६ गाथा । पोरयामपर्वाऽऽयामन० प्रतिष्ठितायाः प्रदेशि म्यास्तदपान्तराले तावत्प्रमाणाऽऽयामे, वृ० ३ उ० | पोरा पुराण पुरातने श्री पूर्वमुत्पन्ने ०ि० ४ उ० । प्राग्भावे पूर्व जाते, जी० ३ प्रति०४ अधि । द. शा० । श्रतीतकाल भाविनि शा० १३० १६ अ० । जरठे, वि. पा० १ ० १ श्र० । दशा० ग्रन्थविशेषे, "तिस्थयरभासितो जस्सत्थो गंध। गणधरनिबद्धो तं पोरां । श्रहवा पापब 1 , - पोरिसी द्धं पोराणं ।" नि० चू० ११ उ० । पुराणो वृद्धः पुराणं वा शास्त्र विशेष प्रावो भवतीति नैकमे डा० पुषु भवं पौराणम्रा पुरावजाते, जी०३ प्र ति०४ अधि० । पुराणायामवस्थायां जाते. व्य० १उ० । पोराणदुद्धर - पौराणदुर्द्धर - पुं० । पौराणमिव पौराणं यादृश तीतद्वयोर्मासात् तादृशमिदानीमप्यति बहुत्वेनेति भावः । दु ताङ्गता प्राकृत नरम पर प्रवचनमिति पौराणदुर्द्धरः । तथाविधे विशिष्टप्राचच निके व्य० ३ उ० । पोराणिक पौराणिक पुं० पुराखयेसरि ० १ ० १ ० ३० पुरा तीर्थकर पूर्वपुरुप्रणीते ० 1 ४ उ० । पोरिसग्घी - पौरुषघ्नी - स्त्री० । “प्रवज्यां प्रतिपन्नो यस्तद्विरोधेन वर्त्ततेदारस्तस्य पति की ॥१॥" ('गोयरचरिया' शब्दे दतीयभागे २००७ पृष्ठेपा) मि. क्षाभेदे, ध० ३ अधि० । हा० । पोरिसी- पौरुषी - स्त्री० । पुरुषः प्रमाणमस्याः सा पौरुषी । घ० २ अधि० । पुरुषप्रमाणायां छायायाम् श्राचा० १ ० ६ अ० १ उ० । सूत्र० । तत्प्रमितः कालोऽपि पौरुषी । प्रहरे, प्रच० ४ द्वार । कतिकाष्ठा किंप्रमाणा पौरुषीच्छाया ता कतिकट्ठे ते सूरिए पोरिसीच्छायं णिव्वसेति श्रहितेति देखा है। तत्थ खलु इमाओ तिथि पडिवसीओ प ताओ, तत्येंगे एवमाहंसु । । 'ता कइकट्ठे ते ' इत्यादि पूर्ववत् । कति - किंप्रमाणा काष्ठा - प्रकर्षो यस्याः सा कतिकाष्ठा, तां कतिकाष्ठां - किं प्रमाणां ? । ते-तब मते सूर्यः पौरुष पुरुषे भवा पौरुषी निपति निर्वयत इति पदे । प्रिमानां पौरुषीच्यामुत्यादयन् सूर्यो भगवान् त्वया प्रख्यात इति वदेदिति सङ्क्षेपाऽर्थः । एवं प्रश्ने कृते भगवानेतद्विषये यावन्त्यः प्रतिपत्तयस्तावतीरुपदर्शयति- ' तत्थ ' इत्यादि, तत्र तस्याः पौरुष्याः छायायाः प्रमाणचिन्तायां प्रधमतस्तावदिमास्तापत्रस्वरूपविषयाः खलु तिम्रा प्रति पत्तयः प्रशप्ताः । तद्यथा-तत्र तेषां त्रयाणां परतीर्थिकानां मध्ये एके प्रथमा पवमाद्दुः । सू० प्र० ६ पाहु० । (पुलाः संतप्यन्ते सूर्यलेश्यातो, न वेति 'पोग्गल शब्देऽस्मिन्नेव भागे ११०५ पृष्ठे गतम् । ) सम्प्रति किंप्रमाणां पौरुषीच्छायां निर्वर्तयतीत्येतत् बोद्धुकामः पृच्छन्नाह ता कतिकट्ठे ते सूरिए पोरिसीच्छायं खिन्वतेति आहितेति वदेजा १ । तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिबचीओ पाओ, तस्येंगे एवमाहंता असमयमेव सूरिए पोरिसिच्छायं शिन्वत्तेइ आहितेति वदेज, एगे एवमासु । मेरा माता अमेरि पोरिसिच्छायं णिव्वचेति यहितेति वदेज, एतेणं अ - Page #1147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोरिसी अभिधानराजेन्डः। पोरिसी भिलावेणं तव्वं, ता जाओ चेव ओयसंठितीए पणुवी- पति , जहस्सए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति तंसि च सं पढिवत्तीओ ताओ चेव तव्यामो, जाव अणुउस्स णं दिवसंसि मूरिए णो किंचि पोरिसीए छायं णिवत्तेप्पिणीमेव सूरिए पोरिसीच्छायं णिवत्तेति पाहिनाति ति , तं जहा-उम्गमणमुहृत्तंसि य अत्थमणमुहुत्तंसि य, चदेजा, एगे एवमाइंसु । वयं पूण एवं वदामो-ता मूरि- नो चेव णं लेसं अभिवुड्डेमाणे वा निम्बुड्डेमाणे वा । ता यस्स णं उच्चत्तं च लेसं च पहुच छाउद्देसे उच्चत्तं च कर कहूं ते मूरिए पोरिसीच्छायं निबत्तेइ प्राहिय तिवछायं च पडुच्च लेसुइसे लेसं च छायं च पडुच्च उच्च- इजा। तत्थ इमाओ छम्मउइपडिवत्तीओ पमत्तानो, तोहसे, तत्य स्खलु इमाओ दुवे पडिवत्तीओ पप्पनाओ, | तत्थेगे एवमाहंसु-अत्यि णं ते से देसे जंसि गं देसंतत्थेगे एवमासु ता अस्थि णं से दिवसे जंसि | सि मूरिए एगपोरिसियं छायं निव्वत्तेइ, एगे एवमाइंसु, दिविसंसि सूरिए चउपोरिसीच्छायं शिवत्तेइ, अत्थि एगे पुण एवमाहंसु-ता अस्थि णं से देसे जंसि देसंसि से दिवसे जसि दिवसंसि मूरिए दुपोरिसीच्छायं मुरिए दुपोरिसियं छायं णिवत्तेति, एवं एवं एतेणं अ. णिवत्तेति, एगे एबमाइंसु, एगे पुख एवमासु ता - भिलावेणं तब्ब, जाव छपउतिं पोरिसियं छायं खित्थि णं से दिवसे जसि णं दिवससि रिए दुपोरिसी- व्वत्तेति , तत्थ जे ते एवमाइंसु-ता अस्थि गं देसे नं छायं णिवत्तेति अस्थि णं से दिवसे जंति दिवसंसि | सि णं देससि सूरिए एगपोरिसियं छायं शिवत्तेति, ते सरिए नो किंचि पोरिसिरछायं णिवतेति, तत्थ जे ते । एवमासु-ता मरियस्स णं सबहेट्रिमातो सरप्पडिहितो एवमाइंसु-ता अस्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि बहित्ता अभिणिसट्टाहिं लेसाहिं ताडिजमाणाहिं इसीसे र. सरिए चउपोरिसियं छायं णिवत्तेति,अस्थि णं से दिवसे यणप्पभाए पुढबीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ मंसि शं दिवसंसि मुरिए दोपोरिसियं हायं निव्वत्तेइ, ते जावतियं मूरिए उर्दू उच्चत्तेणं एवतियाए एगाए श्रद्धाए एवमाइंसु-ता जता णं मूरिए सम्वम्भंतरं मंडलं उपसंक- एगणं छायाणुमाणप्पमाणेणं उमाए तत्थ से मूरिए एगमित्ता चारं चरति तता णं उत्तमकहपसे उक्कोसिए अट्टा. पोरिसियं छायं णिवत्तेति, तत्य जे ते एवमाईसु-ता अस्थि रसमहसे दिवसे भवति, जहलिया दुवालसमुहुत्ता राई णं से देसे सिणं देसंसि सरिए दुपोरिसिं छायं शिवभवति, तेसिं च णं दिवसंसि मूरिए चउपारिसिये छायं त्तेति ते एवमासु-ता सूरियस्स णं सबहेडिमातो मूरियनिव्वत्तेति, ता उम्गमणमुहुसंसि य अस्थमणमुहुर्ससि य पडिधीतो बहिता अभिणिसहिताहिं लेसाहिं ताडिजमालेसं अभिवडेमाणे नो चेव णं णिव्वुड्डेमाणे, ता जता णं णीहिं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमाणिजातो भ. सुरिए सम्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरात तता मिभागातो जावतियं सरिए उई उच्चत्तेणं एवतियाहिं दोणं उत्तमकढपत्ता उक्कोसिया भट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, हिं श्रद्धाहिं दोहिं छायाणुमाणप्पमारोहिं उपाए एत्थ णं जहमए दुवालसमुहुने दिवसे भवति, तंसि च णं दिवसं. से मूरिए दुपोरिसियं छायं णिवत्तेति, एवं णेयव्वंजाव मि मुरिए दुपोरिसियं छायं निबत्तेइ, तं जहा-उम्गमण तत्थ जे ते एवमाइंसु-ता अस्थि णं से देसे जंसि णं दे. मुहत्तंसि य अत्यमणमुहुर्ससि य, लेसं अभिवड्डेमाणे नो संसि सूरिए छमउहिं पोरिसियं छायं णिवत्तेति ते एवचव णं निम्बुड्डेमाणे १, तत्थ णं जे ते एवमासु ता अ. | माहंसु-ता मरियस्स ग सबहिटिमातो सूरप्पडिधीओ ब. त्यि णं से दिवसे सि णं दिवसंसि रिए दुपोरिसियं हिसा अभिणिसहाहिं लेसाहिं साडिज्जमाणीहिं इमीसे छायं णिवत्तेइ, अस्थि णं से दिवसे जंसि णं दि रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जातो भूमिभागातो बसंसि मूरिए खो किंचि पोरिसियं छायं णिवत्तेति ते जावतियं मूरिए उड्डे उच्चत्तेणं एवतियाहि वसवतीए एवमाइंसु , ता जता खं सरिए सम्बन्भंतरं मंडलं उवस- छायाणुमाणुप्पमाणेहिं उमाए एत्थ णं से सूरिए छमउ. कमित्ता चारं चरसि सता उत्तमकद्वपत्ते उक्कोसिए प्र. तिं पोरिसियं छायं णिवत्तेति एगे एवपाहंसु, वयं पुण्य द्वारसमुहुने दिवसे भवति जहमिया दुवालसमूहुत्ता राई एवं वदामो-सातिरेगअउणहिपोरिसीणं मूरिए पोरिभवति, तसि पखं दिवसंसिरिए दुपोरिसियं छायं णि- सीछायं णिवत्तेति, अबदपोरिसी णं छाया दिवसस्स न्वति , तं जहा-उम्गमणमुहुत्तसि प्रथमणमुहूत्तसि य | किंगते वा, सेसे वाता तिभागे गते वा सेसे वा, ता लेसं अभिवडेमाणे णो चेष णं णिबुडेमाणे, ता जया पोरिसी गं छाया दिवसस्स किंगते वा सेसे वा । ता यं सरिए सम्बबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति त- चउभागे गते वा सेसे वा । ता दिवद्धपोरिसी यं वाणं उत्तमकदुपत्ता नकोसिया प्रहारसमुहत्ता राई भ. छाया दिवसस्स किं गते वा सेसे वा १। ता पंच Page #1148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोरिसी मागासेसेवा एवं अपोरिसिं छोड़ पुच्छा दिवस मार्ग छोडं वा करसं जाव ता अघउसद्विपोरिसीछाया दिवसस्स किं गते वा सेसे बा ? गुणवीस सतभागे गवे वा सेसे वा, ता उससद्विपोरिसी गं छाया दिवसस किं गते वा सेसे वा वाचीससइस्सभागे मते वा सेसे वा, ता सातिरेगा उस सद्विपो. रिसी गं छाया दिवसस किं गते वा सेसे वा १ । तर यत्थि किंचि गते का सेसे वा, तत्थ खलु इमा पणवीसनिविट्ठा छाया पत्ता । तं जहा - खंभच्छाया, रज्जुच्छाया, चागाच्छा पासा उच्छाया, उचत्तच्छाया, सुलोमच्या चारमिता समापहिता स्त्रीलाया, प खच्छाया, पुरतो उदया, पुरिमकंठभाउवर्गता, पच्छिमकंठभाउवगता, छायाशुवादिखी, किद्वालुवादियाछाया, छायच्छाया गोलच्छाया, तत्थ खं गोलच्छाया श्रविहा पाच तं महा-गोलछामा अरगोल छाया गाढलो. लच्छाया अबद्धगाढलगोलच्छाया गोलावलिच्छाया, अब गोलाच्या गोल गोलपुंजच्छाया । ( सूत्र ३१ ) 9 'ता कइकट्ठे ते' इत्यादि 'ता' इति पूर्ववत् कतिकाष्ठां - किंमा भगवन्! त्या सूर्यः परुषा निर्वा ख्यात इति वदेत् ? । एवमुक्ते भगवान् प्रथमतो लेश्या स्वरूपविषये यावन्त्यः परतीर्थिकानां प्रतिपत्तयस्तावतीरुपदर्शयति- ' तत्थ खलु' इत्यादि, तत्र तस्यां पौरुष्यांछान्यायां विषये लेश्यामधिकृत्य खल्बिमाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः प्रशप्ताः । तद्यथा-तत्र तेषां पञ्चविंशतेः परतीर्थिका मां मध्ये एके एवमाहुः- ता इति पूर्ववत्, अनुसमयमेवप्रतिक्षणमेव सूर्यः पौरुपच्छायाम् इद्द लेश्यावशवः पौरु श्रीभवतीति ततः कारये कार्योपचारात् पौरुष येति लेश्या या निर्वर्तयति निर्यातयात इ चदेत् । किमु भवति - प्रतिमम्याम्यां सूर्यो से श्यां निर्वर्त्तयन् श्रख्यात इति वदेत् । अत्रोपसंहारः - 'ए मासु एवमस्यादि) एवम् उक्रेन प्रकारेण ए. तेन- अनन्तदिनामिलान सूर्य पाठ जः संस्थितौ पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तय उक्ताः ता एव क्रमेणात्रापि नेतव्याः । (ताश्व 'श्रीयसंठिद्द' शब्दे द्वितीयभागे २२ पृष्ठे दर्शिताः । तावद्याचरतिपति दकमिदं सूत्रम्- 'एगे पुरा एवमाता अणु श्रसपि णिउस्लपिणिमेव सूरिए' इत्यादि मास्त्वालापका एयः पुमा असमेव सु , ( १९२५) अभिधान राजेन्रूः । 1 रिपोरि मासु' इत्यादि । तदेवं लेश्याविषयाः परप्रतिपतीपद सम्प्रति तद्विषयं स्वमतमाइ वयं पु' इत्यादि, क्यं पुनरेवं वदामः कथमित्याह - ता सूरियस्स इत्यादि. 'ठा' इति पूर्ववत् सूर्य वेश्यां च प्रतीत्य छायोद्देशः । किमुक्तं भवति ? - यथा सूर्यः 1 २८२ पोरिसी उच्चैरुचैस्तरामधिरोहति यथा च मध्याह्नादूर्ध्व नीचैर्नीचैस्तरामतिक्रामति एतदपि लौकिकव्यवहाराऽऽपेक्षया उच्यते, लौकिका हि प्रथमतो दूरतरवर्तिनं सूर्यम् उदयमानमतिनीचैस्तरां पश्यन्ति, ततः प्रत्यासनं प्रत्यासन्नतरं भवन्तमुच्चैरुच्चैस्तरां मध्याह्रादूर्ध्व व क्रमेण दूरं दूरतरं भवन्तं जीनस्तरामिति तथा यथाश्या सम्बन्ति तद्य था प्रतिनीचैस्तरां वर्तमाने सूर्ये सर्वस्याऽपि प्रकाश्यस्य वस्तुन उपरि प्रवमाना वस्तुनो दूरतः परिपतन्ति ततः प्रकाश्यस्य वस्तुनो महती महत्तरा छाया भवति, उच्चैरुच्चैस्तरां वर्द्धमाने सूर्ये प्रत्यासन्नाः प्रत्यासन्नतराः परिपतन्ति, ततः प्रकाश्यस्य वस्तुनो दीना दीनतरा छाया भवति, तत एवं तथा तथा वर्त्तमानं सूर्यस्योश्चत्वं लेश्यां च प्रतीत्य छाया. या अन्यथा भवन्त्या उद्देशो ज्ञातव्यः इह प्रतिक्षणं तत्तत्पु लोपचयेन तत्तत्पुनलद्दान्या वा यत् छायाया श्रन्यत्वं तत्के बल्देव जानाति ग्रस्थस्तूदेशतः । तत उक्तम्- हायोद्देश इ ति'' उश्चत्तं च छायं च पहुच लेसोद्दस इति । तथा त या विवर्तमानं सूर्यस्योपवत्वं छायां च होनीतरामधिकमधिकतरां च तथा तथा भवन्ती प्रतीत्य- श्राश्रिस्य लेश्यायाः - प्रकाश्यस्य वस्तुनः प्रत्यासनं प्रत्यासन्नस रं दूरं दूरतरं वा परिपतन्त्या उद्देशो ज्ञातव्यः । तथा 'ले. संच छायं च पडुच्च उच्चत्तोद्देसे ' इति, लेश्यां प्रका इयस्य वस्तुनो दूरं दूरतरमासन्नमासन्नतरं परिपतन्तीं छा यांच होना हीनतरामधिकाधिक च भवन्तीं प्रतीत्य सूर्यगतस्योचवत्वस्य तथा तथा विवर्त्तमागस्यादेशो ज्ञातव्यः किमु भवति 4 " 1 प्रतिक्षणमन्यथाऽन्यथा विवर्त्तन्ते तत एकस्य द्वयस्य वा तथा तथा विवर्तमानस्योदरात उपलम्भादिरस्था देशतोऽयगमः कर्त्तव्य इति तदेवाखरूपमुक्रम्। सम्प्र ति पोश्याचा परिमानविषये परीक सम्भयं कथयति श्रयादि) तत्र तस्य पोया शायादाः परिमाणचिन्तायां विषये प्रति प्रज्ञते । तद्यथा-तत्र तेषां द्वयानां परतीर्थिकानां मध्ये एके मास्ति दिवस पस्मिन् दिवसे सूर्य उग्रम नमुइ अस्तमनमु च चतुप्पीहर्षी चतुष्पप्रमाणां पुरु पद्ममुपलक्षणं तेन सर्वस्यापि प्रकाश्यस्व वस्तुनतु गुगां छायां निर्वर्त्तयति, अस्ति स दिवसो यस्मिन् दि. बसे उद्गमनमुहूर्ते अस्तमनमुहूर्ते च द्विपौरुष - द्विपुरुषप्र मांसू निर्वसंयति अत्रापि पुरुषग्रहणमुपलक्षणं, ततः सर्वस्याऽपि वस्तुनः प्रकाश्यस्य द्विगुणां छा यां निर्वर्तयतीति द्रष्टव्यम् । अत्रोपसंहारः-पगे पवमा • १. एके पुनरेवमाता' इति पूर्ववत् सिदि यसो यस्मिन् दिवसे उमममुहूर्ते मनमुरों सूर्यो द्विपौरुषीं - - पुरुषद्वयप्रमाणां छायां निर्वर्त्तयति, पुरुषप्रद्दणस्पोपलक्षणत्वात् सर्वस्याऽपि प्रकाश्य वस्तुनो द्विगुणांपा यां नियतीत्यर्थः तथा अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवस खुपसे उमनमुहूर्तच ना पौरुषायां नियति सम्म ममाययतितेषां यानांमध्ये येते घादिन अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे चतुष्पदु छायाँ निर्वर्तयति अस्ति स दिवसो वस्मिन् दिवसे सूर्यो द्वि - Page #1149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोरिसी अभिधानराजेन्द्रः। पोरिसी पौरुषर्षी छायांनिर्वतयति। एवं स्वमतविभावनाऽर्थमा:-'ता सूर्यों द्विपौरुषी-द्विपुरुषप्रमाणां, पुरुषप्राणस्योपलणत्वात् जया ण' इत्यादि, तत्र यदा यस्मिन् काले, णमिति वा. सर्वस्याऽपि वस्तुनः प्रकाश्यस्य द्विगुणामित्यर्थः, छायां नि. क्याउलङ्कारे, सर्वाऽभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चार चर• वर्तयति , अत्रोपसंहार:-'एगे एबमाइंसु'२' ' एवं '.. ति सदा उसमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकोऽष्टादशमुहतों दिवसो त्यादि, एवम् उक्लेन प्रकारेण पतेनानन्तरोदितेनाभिलापेनभवति , जघन्या द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, तस्मिश्च दिवसे सू सूत्रपाठगमनेन शेषप्रतिपत्तिगतमपि सूत्र नेतव्यं तावद्यापयश्चतुष्पौरुर्षी-चतुष्पुरुषप्रमाणां छायां निर्षर्तयति । तद्य- धरमप्रतिपत्तिगतं सूत्रं , तदेव स्खण्डशो दर्शयति-' छाउ' था-उगमनमुहर्नेऽस्तमनमुहूसेच स चौद्गमनमुहूर्तेऽस्तमन इत्यादि , एतच्चैवं परिपूर्ण द्रष्टव्यम्-“एगे पुण एवमाहमु, मुहूते च चतुष्पौरुषी छायां निर्वतयति. लेश्यामभिवर्द्धयन् । अस्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए छन्नापोरिसि प्रकाश्यवस्तुन उपरि प्लवमानां दूरं वरतरं परिक्षिपन् नो छायं निम्वत्त बाहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमासु" मध्य. चैव-नैव नियन्-प्रकाश्यवस्तुन उपरि प्लवमानां प्रत्यासन्नं मप्रतिपत्तिगतास्त्वालापकाः सुगमत्वात् स्वयं परिभावनीयाः प्रत्यासातरं परिक्षिपन् तथा सति छायाया हीनहीनतरत्व सम्प्रत्येतासामेव पश्यतिप्रतिपत्तीनां भावनिकां चिकीर्षुराहसम्भषात् 'ता जया णं'इत्यादि, तत्र यदा सर्वबाह्य मण्ड 'तत्थ 'इत्यादि, तत्र-तेषां पवतिपरतीथिकानां मध्ये ये नमुपसकम्य चारं घरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षि ते वादिन पषमाहु-अस्ति स देशो यस्मिन् देशे समागत: का अष्टादशमुहूर्ना रात्रिभर्वति, जघन्यो द्वादशमहत्तो विव. सूयः एकपारुषा-प्रकाश्यवस्तुनः स्वप्रमाणां छाया निषत्त सा, तस्मिथ विषसे सूर्यों द्विपौरुषी-पुरुषद्वयप्रमाणां छायां यति, त एवं स्वमतविभावनार्थमाहु:-' ता सूरियस्स णं'। निर्वर्सयति । तद्यथा-उद्गमनमुहः अस्तमनमुहत्तेच, सच इत्यादि, 'ता' इति पूर्ववत् , सूर्यस्य सर्वाऽधस्तनात् सूर्यतवा विपौरुष छायां निर्वतयति , लेश्यामभिवर्द्धयन् नो चैः प्रतिधेः-सूर्यप्रतिधानात् , सूर्यनिवेशादित्यर्थः। बहिनिःसृता बनिएयन् , अस्य वाक्यस्य भावाऽर्थः प्राग्बद्भावनीयः।। या लेश्यास्ताभिः (ताडिजमारणाहिं ति) ताज्यमानाभितथा तत्र-लेषां जयानां मध्ये ये वादिन एबमाहुः-अस्ति स. रस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीच्या भूमिभागाद् विषसो यस्मिन् दिवसेस सुर्यों द्विपारुषी छायां निर्वतयति यावति सूर्य ऊर्ध्वमुच्चस्त्वेन व्यवस्थित पताकताऽभवना. मस्तिस दिवसो यस्मिन् दिवसेसूर्योन काश्चिदपिपौरुषर्षी छा. सूत्रे चाध्वशब्दस्य स्त्रीत्वेन निर्देशः प्राकृतत्वात , एकेर यांनियतित पर्व समतविभावनार्थमाचक्षते-'ता जनाणं' च छायाऽनुमानप्रमाणेन प्रकाश्यस्य वस्तुनो यदुदेशतः इत्यादि तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्क्रम्य प्रमाणमनुमीयते तेन, हाऽऽकाशदेशे सूर्यसमीपे प्रका. चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकोऽयादशमुहूत्तों श्यस्य वस्तुना प्रमाण नैव साक्षात् परिग्रहीतुं शक्यते, विषसो भवति, जघन्या द्वादशमहतो रात्रिः । तस्मिश्च किन्तु देशतोऽनुमानेन ततश्छायाऽनुमानप्रमाणेनेत्युक्रम, दिवसे यों द्विपारुषी छायां निर्वतयति । तद्यथा-उनमन (उमाए सि) अवमितः परिच्छिनो यो देशः-प्रदेशो यमुहतेऽस्तमनमुहः च, स च तदानीं विपौरुषी छानि. स्मिन् प्रदेश भागतः सन् सूर्य एकपौरुर्षी, पुरुषग्रहणस्योबर्तयति लेश्यामभिवर्द्धयन् नो चैव निर्वेधयन , 'ता जया पलक्षणत्वात् सर्वस्य प्रकाश्यस्य वस्तुनः, प्रमाणभूतां छायां 'त्यादि, तत्र यदा मिति वाक्यालकमरे सूर्यः सर्व निर्वर्तयति । इयमत्र भावना-प्रथमत उदयमाने सूर्ये या बाझं मण्डलमुपसकम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्ता लेश्या धिनित्य प्रकाशमाश्रितास्ताभिः प्रकाश्यवस्तुदेश उत्कर्षका अष्टादशमहूर्ण रात्रिः, जघन्यो द्वादशमुहर्तप्रमा ऊचे क्रियमाणाभिः किञ्चित्पूर्वाभिमुखमवनताभिः प्रकायो दिवसस्तस्मिश्च दिवसे उडूमनमुहते ऽस्तमनमुहतें च श्येन च वस्तुना यः सम्भाव्यते परिच्छिन्न आकाशप्रदेश: सूर्यो न काश्चिदपि पौरुषी छायां निवर्तयति , 'नो चेव गं' तत्रागतः सूर्यप्रकाश्यवस्तुप्रमाण छायां निर्वर्तयति । इत्यादि, मच-नैव तवानी सूर्यो लेश्यामभिवर्द्धयन् म. एवमुत्तरत्राऽपि भावना कार्या, (तत्थेत्यादि) तत्र ये ते पति निबंध्यन् वा अभिवर्द्ध (य) ने अधिकाऽधिकतराया वादिन एवमा:-अस्ति स देशो यस्मिन् देशे समामत: निबंध (य) ने हीनहीनतरायाश्छायायाः सम्भवप्रसवात् ।। सूर्यो द्विपौरुषर्षी छायां निवर्तयति त एवं स्वमतविस्फारतदेवं परतीर्थिकप्रतिपत्तिद्वयं श्रुत्वा भगवान् गौतमः स्वमतं णार्थमाहुः-(ता सूरियस्स णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत् पृच्छति- ता करकटूं' इत्यादि, यद्येवं परतीथिकानां प्र. सूर्यस्य सर्वाऽधस्तात् सूर्यप्रतिधे.-सूर्यनिवेशाद्वद्धिर्मिःस. तिपत्ती 'ता' ताई भगवन् ! स्वमतेन त्वया कतिकाष्ठां-किं. ताभिलेश्याभिस्ताड्यमानाभिरस्या रसप्रभायाः पृधिव्या क. प्रमाणां सूर्यः पौरुषी छायां निर्वर्तयन् पाण्यात इति वदेत् । हुसमरमणीया भूमिभागादूर्ध्वमुच्चत्वेन व्यवस्थितः पतातत्र भगवान् स्वमतेन देशविभागतः पौरुषर्षी छायां तथा त. बद्रयां द्वाभ्यामद्धाभ्यां द्वाभ्यां छायाऽनुमानप्रमाणाभ्यां था अनियतप्रमाणां वपति, परतीर्थिकास्तु प्रतिनियतामे प्रकाश्यवस्तुप्रमाणाम्यामवमितः-परिच्छिन्नो यो देशस्तत्र पप्रतिदिवसं देशविभागनेच्छम्ति, ततः प्रथमतस्तम्मतान्ये. बोपदर्शयति-, तस्थेत्यादि. तत्र-तस्मिन् देशविभागेम | समागतः सूर्यो द्विपौरुषी-प्रकाश्यवस्तुनो विगुणां छायं प्रतिदिवसं प्रतिनियतायाः पौरुष्याश्छायाया विषये षण्णवः | निर्वतयति, एवमेकैकप्रतिपत्ताकैकच्छायाऽनुमानप्रमाणतिः प्रतिपसयः प्रशप्ताः। तद्यथा-तत्र-तेषां पावते परती। वृद्ध्या ताबन्नेतव्यं यावत्यमवतितमा प्रतिपत्तिः, तद्गतानि पिकानां मध्ये एके एवमाहुः-'ता' इति पूर्ववत् अस्ति स दे. च सूत्राणि स्वयं परिभावनीयानि, सुगमत्वात् , तदेवमुक्ताः शो यस्मिन् देशे सूर्य पागतः सन् एकपौरुषीम्-एकपुरुषप्र. परतीर्थिकमतिपत्तयः । सम्प्रति स्वमतमुपदर्शयति-वयं माणां पुरुषग्रहणमुपलक्षणं सर्वस्याऽपि प्रकाश्यवस्तुनःस्व. पुण' इत्यादि, वयं पुनरेवं-वक्ष्यमाणेन प्रकारेण बदाम, प्रमाणां छायां निर्वत यति । अत्रोपसंहार:- एगे पवमासु १, तमेव प्रकारमाह-(सातिरेगेस्यादि) सूर्य उगमसमये अ'एके पुनरेवमाहुः-अस्ति स देशो यस्मिन् देशे समागतः स्तमनसमये च सातिरेकैकोनवरिपुरुषप्रमाण छायां निर्व Page #1150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोरिसी यति । एतदेव विभावयिषुराह - 'ता सवडे' इत्यादि, अ पगतमर्द्ध यस्याः सा अपा, सा चाडसी पौरुषी च अपापी . पी छाया पुरुषप्रणयेोपलक्षात् सर्वथाऽपि वस्तुनः प्रकाश्यस्था ऽर्द्धप्रमाणा छाया एवमुत्तरत्नाप्युपलक्षणण्याख्यानं द्रष्टव्यं दिवसस्य किंगते- कतमे भागे गते शेष वेति कतितमे भागे शेषे भवति । भगवानाह - ता' इत्यादि, 'ता' इति पूर्ववत् दिवसस्य त्रिभागे गते भवति, दिवसस्य त्रिभागे या शेषे ( ता इत्यादि) पौरुषी पुरुषप्रमाणा. प्रकाश्यस्य वस्तुनः स्वप्रमाण इत्यर्थः । छाया किं गते – कतितमे भागे गते, शेषे वेति-कतितमे वा भागे शेषे भवति । भगवानाह - दिव सस्य चतुर्भागते चतुर्भागे शेषे या प्रकाश्यस्य वस्तुनः स्वप्रमाणभूता छाया अन्यत्र ग्रन्थान्तरे सर्वाध्यन्तरं मण्ड समधिकृत्पोका । तथा च नः पुरख सिंकू रीवा पुरिसे निष्कना पोरिसी एवं स वस्स वत्थुषो यदा स्वयमाणा छाया भवति तदा पोरि सी हवइ एवं पोरिसीपमाएं उत्तरायणस्ल अंते दक्खिणायस्स श्रईए इक्कं दिखं भवद्द, अतो परं श्रद्धा एगलट्ठि भागा गुस्सा बहुत उत्तरायणे इति एवं मंडले मंडले अन्ना पोरिसी " इति । तत इदं सकलमपि पौरुपविभागप्रतिपादनं सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमि त्याचवे तथा ताइति पूर्ववत् उपपोसा पुरुष छाया दिवसस्य किमाने कवि भागे गते भवति, किं शेषे वा कतितमे वा भागे शेषे ? भगवानाह 'ता' इति पूर्ववत् दिवसस्य पचने मागे गये या भवति शेषेापभागे (मित्यादि) एवमुक्रेन प्रकारेण अर्द्धपौरुषम् श्रर्द्धपुरुषप्रमाणां छायां क्षिप्त्वा क्षिप्त्वा पृपृथ्ायं दिवसात पूर्वपूर्वापे एकैकमधिकं दिवसमा विकिरणउत्तरसूत्रं ज्ञातव्यम् । तच्चैवम् " विपोरिसी णं छाया किं गए वा से सेवा?, ता छभागगए वा सेसे वा, ता श्रडाइज्जपोरिसी - 1 छाया किं गए वा सेसे वा ? ता सत्तभाग गए वा सेसे वा " इत्यादि । एतश्च एतावत् तावत् यावत् ता उगुपट्टी ' इत्यादि सुगमं, सातिरे कै कोनषष्टिपौरुषी तु छाया दिवसस्य प्रारम्भसमये पर्यन्तसमये वा तत श्राह तानत्थि किंचि गए वा सेसे वा' इति, सम्प्रति छायाभेदान् व्याचष्टे - ( तत्थेत्यादि ) तत्र तस्यां छायायां विचार्यमाणायां खल्वियं पञ्चविंशतिविधाः छायाः प्रशप्ताः ? । तद्यथाभावेयादि) सुगमे विशेषापापानं चामीयां पदानां शाखाद्ययासम्प्रदाय वाच्यं - 1 " ( ११२७ ) अभिधान राजेन्द्रः । 1 व तस्तामेव गोलच्छायां भेदत श्रद्द - (तत्थेत्यादि) तत्र ता. सां पञ्चविंशतिच्छायानां मध्ये खल्वियं गोलच्छाया अष्टवि धा प्रशप्ता । तद्यथा - 'गोलच्छाया ' गोलमात्रस्य छाया गोलच्छाया, अपार्द्धस्य - श्रमात्रस्य गोक्षस्य छाया अपार्द्धगो लच्छाया गोलानामावलिगल । वलिस्तस्याः छाया गोलाव विष्ठाया अपाया-पायावाया गोलावले. पार्द्धगोलावलिच्छाया गोलानां पुञ्ज गोलपुञ्ज, गोलोस्कर इत्यर्थः; तस्य छाया गोलपुञ्ज च्छाया, अवार्डस्य श्रर्द्धमानस्य गोलपुजस्य छाया अपाला सू० प्र० पा०| श्रावण शुद्ध सप्तम्याम् 3 सुद्धसत्तमीए गं सूरिए सत्तावसिंगुलियं पो पोरिसी रिसिया शिष्या से दिवसखेचं निवडूमाये स्यणिखेत्तं श्रभिणियमाणे चारं चरः । सप्तविंशत्यङ्गुलिकां श्रावणमासस्य शुद्धसप्तम्यां सूर्यः हस्तप्रमाणशोरिति गम्यते पौरुषीछायां निर्वर्त्य दि वक्षेत्र रविकर प्रकाशमाकाशं निवद्धयन् प्रकाशद्दान्या हानि नयन् रजनित्रयम्बका कान्तमाकाशमभिन् काशदानवृद्धि नयन् चारं परति स्योनमले भ्रमणं करो श्रियमत्रभावार्थ- हद फिल सम्यमात्य भाषा चतुर्विंशत्यकुलप्रमाणा पौरुषी छाया भवति दिनसके सा तिरेकच्छायाङ्गलं वर्द्धते । ततश्च श्रावणशुद्ध सप्तम्यामङ्गलत्रयं वर्द्धते सातिरेकैकविंशतितमदिनत्वात् तस्याः तदेवमाषातिसरा ति तस्तु कर्क संक्रान्तेरारभ्य यत् सातिरेकैकविशतितमं दिनं तत्ररूपा पौरुषीछाया भवति ॥ स० २७ सम० ॥ घ० । [का] पूर्वापरा वा यदा शरीरमा स्यात्तदा पौरुषी तद्युक्तः कालोऽपि पौरुषी प्रहर इत्यर्थः सासरा वहा देवापर्यन्तः स्पृशति तदा सर्वदिनेषु पोषी या पुरुषस्योस्य दकि निशितास्य दक्षिणायनायदिने पढ़ा जानु द्विपदा तदा पौरुषी । यथा साढमासे दुपया, पोले मासे चउप्पया । चिता मासे पिया दो पारिसी १ ॥ हानिवृद्धी त्वेवम् "सर 6" वहुए हायर वावि, मासेणं चउरंगुलं ॥ १ ॥ " इति । "इत्यत्र च पाप्राप्यधिकारः, अ स्तनपायोपरि यदि लावणे छद्दिगुलेहि पडिलेहा । अट्ठहि बिश्रश्रम्मी, तहश्रत्थेि ||१|| " पौरुषी प्रत्याख्यान समानप्रत्याख्याना सापीरुषी त्वेवम्-" पोसे तरगुच्छायाए, नवहि पि तु पोरिसी सहा । तावेकेका दाणी, जावासाढे पया तिनि ॥ १ ॥ " पूर्वार्द्धाऽग्रे वक्ष्यमाणोऽपि प्रमाणप्रस्तावादिहैव विशेयः "पोले बिद्दत्थिछाया, बारल अंगुलपमाणमिमा दुगुलासा विडिया सम्बे॥१॥" ध० २ अधि । सुखावबोधार्थ स्थापना चैषाम् Now मासाः १२ श्राषाढ १ २ श्रावणः २२ ० ० २ ६ | २ | ६ |३ ४ | ६ | २ | १० | ४|० भाद्रपदः ३ २८ ८३ | ४|५| ० ४ आश्विनः ४ | ३ ०||३|६| ६ |०|०|६ कार्तिकः ५ | ३/४ ८ ४० ७ ० मार्गशीषः ६ | ३ | = | १० | ४ | ६ | ८ | ० पाषः माघः ० ८ ३ | ८ | १० | ४ | ६ फाल्गुनः ६ ३ | ४ |६| ४ |०७० क्षेत्रः १० ३ 0 ८ | ३ | ८ | ६ ००६. वैशाखः ११ | २ | ८ | ८ | ३ | ४ | ४|०|०|४ ज्येष्ठः १२ | २ | ४ | ६ | २ | ० | ४|०|०|२ ७ | ४ | ० | १० | ४|१०| ६ |० ८/० ८ ० ० | १० ० /१२ ० |१० Page #1151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९२८) पोरिसी अभिधानराजेन्मः। पोरिसी सम्प्रति पौरुषीपरिमाणप्रतिपादकमेकविंशतितमप्राभृतं दक्षिणायने द्विपादयोः-पदवयस्योपरि अङ्गलानां वृद्धिांत. विषाराह ब्या। उत्तरायणे चतुर्थ्यः पादेभ्यः सकाशावङ्गलानां हानिः। पव्वे पारसगुणे, तिहिसहिए पोरसीएँ श्राणयणे । तत्र युगमध्ये प्रथमे संवत्सरे दक्षिणायने ततो दिछलसीइसयविभत्ते, जं लद्धं तं वियाणाहि ॥१॥ वसादारभ्य वृद्धिस्तनिरूपयतिजइ होइ विसम लद्धं, दक्षिणमयणं हविज्ज नायव्वं । सावणबहुलपडिवए, दुपया पुस्ख पोरसी धुवं होइ। मह हवइ समं लद्धं, नायव्वं उत्तरं अयणं ॥२॥ चत्तारि अंगुलाई, मासेण य वङ्कए तत्तो ॥ ५ ॥ युगमध्ये यस्मिन् पर्वणि यस्यां तिथौ पौरुषीपरिमाणं एकत्तीसइभागा, तिहिए पुण अंगुलस्स चत्तरि। मातुमिष्टं ततः पूर्व युगादित प्रारभ्य यानि पर्वाणि भ. दक्षिणप्रयणे वुड्डी, जाव चत्तारि उ पयाइँ॥६॥ तिक्रान्तानि तानि भियन्ते धृत्वा च पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते,गुण- युगस्य प्रथमे संवत्सरे श्रावणमासि बहुलपये प्रतिपदि यित्वा च विवक्षितायास्तिधेर्याः पूर्वमतिक्रान्तास्तिथयस्ता. पौरुषी द्विपदा-पदवयप्रमाया ध्रुवराशिर्भवति,ततस्तस्याःप्र. भिः सहितानि क्रियन्ते, कृत्वा च षडशीत्यधिकेन तेषां तिपद प्रारभ्य प्रतितिथिक्रमेण तावद्वर्धते यावन्मासन भागो हियते इकस्मिन्नयने यशीत्यधिकमण्डलशत. सूर्यमासेन सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणेन चन्द्रमासापेक्षया एपरिमाणे चन्द्रनिष्पादितानां तिथीनां घडशीत्यधिकं शतं कत्रिंशता तिथिभिरित्यर्थः ( एकतीसत्यादि ) यत एकभवति, ततस्तेन भागहरणं, हृते च भागे यल्लब्धं तत् वि. स्यां तिथौ चत्वार एकत्रिंशद्भागा वर्धन्ते, एतच प्रागेव जानीहि-सम्यगवधारयेत्यर्थः । तत्र यदि विषमं भवति, भावितं, परिपूर्णे तु दक्षिणायने वृद्धिः परिपूर्णानि चत्वारि तद् यथा एककस्त्रिकः पश्चकः सप्तको नवको वा तदा तत्पः | पदानि, ततो मासेन-सूर्यमासेन सार्द्ध त्रिंशदहोरात्रप्रमाणेन र्यन्तवर्ति दक्षिणमयनं ज्ञातव्यम् । अथ भवति । लब्धं सम, त एकत्रिंशत्तिथ्यात्मकेनेत्युक्तम् । तदेवमुक्ता वृद्धिः। द्यथा-द्विकश्चतुष्कः षट्कोऽष्टको दशको वा तदा तत्पर्य सम्प्रति हानिमाहम्तवर्ति उत्तरायणमवसेयम् । तदेवमुक्ता दक्षिणायनोत्तरा- उत्तरअयणे हाणी, चउहिं पायाहि जाव दो पाया। यणपरिक्षानोपायाः। एवं तु पोरिसीए, बुडिखया होति नायब्वा ।।७।। सम्प्रति षडशीत्याधिकेन शतेन भागे हते यच्छेषमवतिष्ठते, युगस्य प्रथमसंवत्सरे उत्तरायणे माघमासबहुलपक्षे सप्तम्या यदि वा-भागासम्भवे यत् शेषं तिष्ठति तद्गतविधिमाह प्रारभ्य चतुर्थ्यः पादेभ्यः सकाशात् प्रतितिथि एकत्रिंशद्अयणगए तिहिरासी, चउग्गुणे पव्वपायभइयम्मि । भागचतुष्टयहानिस्तावदवसेया यावदुत्तरायणपर्यन्ते हो पादा जं लद्धमंगुलाणि य, खयबुड्डी पोरिसीए उ ॥ ३॥ पौरुषीति । एवं प्रथमसंवत्सरगतो विधिः । द्वितीये संवत्सरे यो भागासंभवेन शेषत्वतोऽयनगतस्तिथिराशिर्वर्तते स श्रावणे मासि बहुलपते त्रयोदशीमादौ कृत्वा वृद्धिः,माघमासे चतुर्भिर्गुण्यते , गुणयित्वा च पर्वपादेन युगमध्ये यानि शुक्लपक्ष चतुर्थीमादि कत्वा क्षयः । तृतीये संवत्सरे श्रावण सर्वसंख्यया पर्वाणि चतुर्विशत्यधिकशतसंख्यानि तेषां मासे शुक्लपक्ष दशमी वृद्धेरादिः, माघमासे बहुलपक्षे प्रतिपादेन-चतुर्थाशन, एकत्रिंशता इत्यर्थः । तेषां भागे हृते पत् क्षयस्याऽदिः । चतुर्थसंवत्सरे श्रावणमासे बहुलपक्षे सयल्लब्धं तान्यङ्गलानि, अङ्गुलांशाश्च पौरुष्याः क्षयवृद्धया शा. समी वृद्धरादिः, माघमासे बहुलपक्षे प्रयोदशी क्षयस्याssतव्यानि, दक्षिणायनपदध्रुवराशेरुपरि वृद्धौ ज्ञातव्यानि, उ. दिः । पञ्चमे संवत्सरे (खुडिखया होति नायब्वा)पवमुक्तेन प्र. त्तरायणे पदभूधराशेः क्षय इत्यर्थः, अथैवं भतस्य गणका कारण पौरुष्याम्-पौरुषीविषया वृद्धिक्षयौ यथाक्रमंदक्षिणायने रस्य भागहारस्य वा कथमुत्पत्तिः ?, उच्यते-यदि परशी- उत्तरायणे च वेदितव्यो । तदेवमुक्तं करणम् । त्यधिकेन शतेन चतुर्विशतिरकुलानि क्षये वृद्धा बा सम्प्रतिकरणस्य भावना कियते- . प्राप्यन्ते,तत एकस्यां तियो का वृद्धिःक्षयो वा?। राशित्रय. कोऽपि पृच्छति-युगे श्रादित प्रारभ्य पश्चाशीतितमे पर्व. स्थापना-१८६, २४.१ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन णि पञ्चम्यां तिथौ कतिपदा पौरुषी भवति । तत्र चतुरशी. मध्यमो राशिश्चतुर्विशतिरूपो गुण्यते, जातः स तावानेव, तिधियते, तस्याश्चाधस्तात् पञ्चम्यां तिथी पृष्टमिति प. तत आधन राशिना षडशीत्यधिकशतरूपेण भागो ड्रियते, ञ्च चतुरशीतिश्च पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातानि द्वादश शता. नि षष्टयधिकानि १२६० । तेषु मध्येऽधस्तनाः पञ्च प्रक्षि. तत्रोपरितनराशः स्तोकत्वात् भागो न लभ्यते , ततः छेद्य. छेदकराश्योः षट्केनापवर्तना, जात उपरितनो राशिश्चतु. प्यन्ते, जातानि द्वादश शतानि पञ्चषष्टयधिकानि १२६५ । एकरूपोऽधस्तन एकत्रिंशत् , लब्धमेकस्यां तिथौ चत्वार तेषां षडशीत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धाः पद आगतं षट् अयनानि अतिक्रान्तानि, सप्तममयनं वर्तते, त. एकत्रिंशवभागाः क्षये वृद्धा वेति चतुषको गुणकार उक्त दूतं च शेषमेकोनपश्चाशदधिकं शतं तिष्ठति तत् चतुर्भिः एकत्रिंशदभागहार इति । इह यल्लब्धं तान्यङ्गलानि क्षये वृद्धी चेत्युक्तं, तत्र कस्मि. गुण्यते,जातानि पञ्च शतानि परणवत्यधिकानि५६६ । तेषामे. कत्रिंशता भागहरणे लब्धा एकोनविंशतिः १६, शेषाः तिष्ठअयने कियत्प्रमाणराशेरुपरि वृद्धा कस्मिन् वा अयने किं. न्ति सप्त, तत्र द्वादशाङ्गुलानि पाद एकोनविंशतेोदशभिः प्रमाणराशेः क्षये इत्येतनिरूपणार्थमाह पदं लब्धं, शेषाणि तिष्ठन्ति सप्ताङ्गलानि, षष्ठं चायनमुत्तरादक्षिणवुड्डी दुपया-उ अंगुलाणं तु होइ नायव्वा । यणं, तच्च गतं, सप्तमं च दक्षिणायनं वर्तते, ततः पदमे. उत्तरप्रयणे हाणी, कायन्या चउहि पायाहिं ॥ ४॥ । कं सप्ताङ्गुलानि पदद्धयप्रमाणे ध्रुवराशौ प्रक्षिप्यते, जाता. Page #1152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोरिसी नि त्रीणि पदानि सप्त अङ्गुलानि ये च सप्त एकत्रिंशद् भा गाः शेषीभूता वर्तन्ते तान् यवान् कुर्मः, तत्राष्टौ यवा श्रकुले इति ते सप्त अष्टभिर्गुण्यन्ते जाताः षट्पञ्चाशत् ५६. तस्य एकत्रिंशता भागे हुते लब्ध एको यवः, शेषास्तिष्ठन्ति यस्य पञ्चविंशतिरेकविशद् भागाः आगतं पञ्चाशीतितमे पर्वणि पञ्चम्यां त्रीणि पदानि सप्त अङ्गुलानिं एको यवः, एकस्य च यवस्य पञ्चविंशतेरेकत्रिंशद्भागा इत्येतावती पौ रुपीति । तथा अपरः कोऽपि पृच्छति - सप्तनवतितमे पर्वणि पञ्चम्यां प्रतिपदा पीरुपीति तत्र परापयतिप्रियते, तस्याधस्तात् पञ्चमी परणवतिश्च पञ्चदश. भिर्गुण्यते, जातानि चतुर्दश शतानि चत्वारिंशदधिकानि १४४०, तेषां मध्येऽधस्तु ता एवं प्रक्षिप्यन्ते, जातानि चतु देश शतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि १४४५, तेषां च षडशी त्यधिकेन शतेन भागो हियते लब्धानि सप्त प्रयनानि. शेषं तितिवारि१४३त्य जातानि द्विसप्तत्यधिकानि पञ्च शतानि, ५७२, तेषामेकत्रिंश. , ( ११२६ ) अभिधानराजेन्ऊः । भागो हितेमध्ये द्वारा भिरङ्गलैः पदमेति, लब्धमेकं पदं षट् अङ्गुलानि, उपरि बांशा रामनामजाद शोत्तरं शतम् ११२, तस्यैकत्रिंशता भागे हुते लब्धात्रयो या शेषास्तिष्ठति पवस्व एकोनविंशतिरेकविशद् भागाः, सप्त वा यवान्यतिक्रान्तानि, अष्टमं वर्तते, अष्टमं चायनमु तरायणम्, उत्तरायणे च पदे चतुष्करूपात् ध्रुवरा शेनिर्वक्लव्या, तत एकं पदं सप्त मङ्गुलानि त्रयो यवा एकस्य वयवस्य एकोनविंशतिरेकत्रिंशभागा इति पदचतुष्टया यति पदे चत्वारि अ एकस्य च यवस्य एकोनविंशतिरेकत्रिंशद्भागा द्वादश एक. सिद्धाः पावती गाय पण प अम्पपीति एवं सर्वत्र भावनीयस् । सम्प्रति पीपीपरियदर्शनी उपनग परमार्थमाद चड्डी वाहाणी वा, जावइया पोरिसीऍ दिट्टा उ । ततो दिवस, जंल से गणगयं ॥ ८ ॥ तं खु पौरुष्यां यावती वृद्धिनिर्वा दृष्टा ततः सकाशात् दिव समान मानेन वा वैराशिक ततो यज्ञब्धं तत् अयनं गतम्, अयनस्य तावत् प्रमाणं गतं दरगाथाऽक्षरार्थः । भावना खियम् दक्षिण पस्योपरि चरवारि बुद्धी दृष्टानि ततः कोऽपि पृच्छति-कियद् गतं दक्षिणायनस्य ?, अथ राशिककर्माचा-यदि त्रुि गैरेका तिथिर्लभ्यते, ततश्चतुर्भिरङ्गुलैः कति तिथी लभामहे ? | रा. शित्रयस्थापना - ४,१.४ । अत्रान्त्यो राशिरकुलरूप इत्येकत्रिंश गरार्धमेतिय जातंयधिकशत म् १२४. तस्यादिराशिना भागो ि एकत्रिंशतिथयः आगतं दक्षिणायने एकत्रिंशत्तमायां तिथौ वृद्धिरिति तथा उत्तराप गुला एक दीनं पौरुष्था उपसभ्य कोऽपि पृच्छति - किंत २.८३ पोरिसी मुत्तरायणस्य है। अत्रापि त्रैराशिक यदि चतुस्त्रि शभा गरेका तिथिर्लभ्यते, ततोऽष्टभिरङ्गुलैः कति तिथयो ल. भ्यन्ते । राशियस्थापना ४,१८ अत्रान्त्येन राशिरेक त्रिशद्भाग करणार्थमे जाते द्वे शते अष्टाच त्वारिंशदधिके २४८, ताभ्यां मध्यो राशिककरूपो गुरायते, जाते त एव द्वे शते अष्टाचत्वारिंशदधिके २४८ तयोराधेन राशिना चतुरकरूपेण भागहरणं तच्चा शष्टिः भगत सराय द्वातिमायां तिथीला पीठप होना नीति । ज्यो० २१ पाहु० । harssश्विन पूर्ण मालीषु पौरुषीमानम् - बेतास पुनासी सह छत्तीसंगुलियं सूरिए परिसार्य निम्ने । यदि अभ्ययुः पौर्णमास्यांपलिका पोषी छाया भवति तदा कार्तिकस्य कृष्णा सप्तम्य । मङ्गुलस्य वृद्धिं गतत्वासप्तत्रिंशदङ्गुलिका भवतीति । स०३० सम० । कार्तिक बहुल सप्तम्याम् कत्तिय बहुलसत्तमी गं सूरिए सत्ततीसंगुलियं पोरिसीवार्ष निव्यचचा गं चारं चरह फाल्गुन पूर्णिमायाम् फग्गुणमासीर से मूरिए पचालीसंगुलिये पो रिसीकायं निव्वत्तइत्ता यं चारं चरह । एवं कत्तियाए वि पुछिमाए । , (कन्गुणमामि किम् उप"पीले मासे चउप्पया" इति वचनात् पौषपौर्णमास्यामष्टच. वारसा भवति ततो माघे त्वारि फाल्गुने च चत्वारि अनि पतितानीत्येवं फागुनमास्य चत्वा रिंशदलिका पीपी छाया भवति कार्तिक्यामप्येवमेव । यतः - " चेत्तासोपसु मासु,तिपया छोइ पोरिसी ।" इत्युक्तम् । ततः पदत्रयस्य पद्विशदङ्गुलप्रमाणस्य कार्तिकमासातिक्रमे चतुरङ्गलवृद्धौ सत्वारिंशदङ्गुलिका सा भवतीति । स० ४० म० । श्रघ० । पं० ० ( 'पमाणकाल' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ४७८ पृष्ठे दर्शित) पोषकृत्यानि पदिक( रिया शऽस्मिन्नेव मागे उक्लानि) उपोरिसिओ दिवसो, राई चडपोरिसी चेव ॥२०६६॥ पीनिर्दियो भवति रात्रिपि निः ॥ २०६६ ॥ ननु पीच्याः किं मानम् इति विनेयमारा भा व्यकारः प्राऽऽद्द् परिसिमानिय दिवस निसाबुद्धिराखिमावाओ । हीणं तिनि मुडुत- पंचमा मासुको || २०७० ॥ न निवर्तमानमस्ति पौरुष्याः कुतः दिवसा वात् भवति दिवसस्य राय चतुर्थी भागः पौरुषी भरायते । ततश्चेयं दिवसस्य रात्रेर्वा वृद्धिहानिभ्यां वृद्धा हीना च भवति । तत्र दिवससम्बन्धिम्या पोराच्या सर्वदीनं जघन्यमानमिह प्रथमुपद घटिका मकरसक्रान्तिदिने द्रष्टव्यम् रात्रिसम्बन्धिन्या • -- • Page #1153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९३०) पोरिसी अभिधानराजेन्डः। पोरिसी अपि जघन्यमिदमेव मानम्, केवलं कर्कसक्कान्तिरजम्यां दिनशतेन भागे हृते प्रतिदिन मेकषष्टिभागो वृद्धी हानी या मन्तव्यम् । उत्कृएं तु मानमस्या अर्धपञ्चममहर्ता नव घटि- । पौरुष्या लभ्यत इति स एवाऽर्थः, प्रस्याप्य कस्यैकषष्टिका दिवससम्बन्धिन्याः कर्कसक्रान्ती, रात्रिसम्बन्धिन्याः | भागस्य मुहूर्सद्वाविंशशततमभागरूपत्वादिति । विशे। स्तु मकरसक्रान्ताविति ॥ २०७० ॥ तत्र पीरुध्येव न ज्ञायते किं प्रमाणा', अतस्तत्प्रतिजघन्यायाः पौरुष्या उत्कृष्टायाश्च प्रारभ्य प्रतिदिनं किं पादनायाऽऽहस्विद् वर्द्धते, किं वा हीयते ?. इत्याशक्याऽऽह पोरिसिपमाणकालो, निच्छयववहारो जिक्खायो। बुड्डी वावीसुत्तर-सयभागो पइदिणं मुहुत्तस्स । निच्छयभो करणजुनो, ववहारमतो परं बोन्छ ॥२८॥ एवं हाणी वि मया, अयणंदिणभागो नेया॥२०७१।। पौरुध्याः प्रमाणकालो विविधः; निश्चयतो व्यवहारतश्च इह जघन्यपौरुष्याः प्रतिदिनं वृद्धिर्भवति । कियती, इ. सातव्यः, तत्र निश्चयतो-निश्चयन्दयाऽभिप्रायेण करणयुत्याह- मुहूर्तस्य द्वाविंशत्युत्तरशततमो भागः, उत्कृष्टपौर को गणितम्यायात् , अतः परं व्यावहारिको व्यवहारनप्यास्तु प्रतिदिनं हानिर्भवति, साऽपि चैवमेव मता, मुहू यमतेन वक्ष्ये। तस्य द्वाविंशत्युत्तरशततमो भाग इत्यर्थः । इयं च पौरुष्या तत्र निश्चयपौरुषीप्रमाणकालप्रतिपादनायाऽऽहवृद्धिीनिश्चोत्तरायण-दक्षिणायन-दिनभागतो शेया । इद. अयणाई य दिणगणे, अवगुणेगडिभाइए लद्धं । मत्र हृदयम्-पभिर्मासैस्तावदुत्तरायणं दक्षिणायनदिन- उत्तरदाहिणमाई, पोरिसि पयसुझपक्खेवा ।। २०२॥ भागतो शेयं भवति, एवं दक्षिणायनमपि । तत्रीत्तरायणे दक्षिणायने उत्तरायण दिनानि, उत्तरायणे दक्षिणायनप्रतिदिनं चतुर्भिः पानीयपलैर्वर्द्धमानानां दिवसानामुत्कृष्ट दिनानि मीलयित्वा गण्यन्ते , स राशिरष्टभिर्गुण्यते, एदिवसे षड् मुहूर्ता वर्द्धन्ते, रात्रीणां स्वनयैव हान्या ही कषष्ट्या भागो हियते, लब्धेऽजलानि, द्वादशाङ्गलेः पादः यमानानां सहीनायां रात्रौ षड् मुहूर्ता हीयन्ते । एवं द. यावता भवति (उत्तर ति)मकरदिने ४ पादाः। (दाहिण त्ति क्षिणायने ऽपि, नवरं रात्रेः घड् मुहूर्त्ता वर्द्धन्ते, दिवसस्य कर्कदिने २ पादौ, शेषेषु पदशुद्धिप्रक्षेपौ। तुहीयन्त इति व्यत्ययोऽवगन्तव्यः। ततश्चैवं सति षह भिः षड्भिर्मासैदिन-रजन्योर्यथायोगं षड् मुहूर्ता वर्धन्ते , व्यवहारसोऽधुना पौरुषीप्रमाणकालप्रतिपादनायाऽऽहहीयन्ते च । मासेन त्वेकस्य मुहूर्तस्य वृद्धि-हानी । सूर्य आसाढे मासे दुपया, पोसे मासे चउपया। संवत्सरस्तु षट्पष्टयधिकैस्त्रिभिर्दिनशतैर्भवति । ततश्चकैक. चित्तासोएसु मासेसु, तिपपा हवइ पोरिसी ॥ २८३ ॥ मयनं व्यर्शत्यधिक दिनशतेनाऽतिक्रामति । मासे तु सूर्य. आषादे माले पौर्णमास्यां द्विपदा पौरुषी भवति, पदं च सम्बन्धिान सार्धत्रिशहिनानि भवन्ति, यश्च मासे मुहूर्तो द्वादशाङ्गलं ग्राह्य, पौषे मासे पौर्णमास्यां चतुष्पदा पौरुषी वर्धते तस्यैतैः सार्धत्रिशदिवसैर्भागो हियते, मुहूर्तस्तु द्विघ. भवति, तथा चैत्राश्वयुजपौर्णमास्यां त्रिपदा पौरुषी भवति । टिकामानी भवति, अत एकैकस्पा अपि घटिकाया एक- अधुना कियती वृद्धिः कियत्सु दिनेषु कियती वा हानिरि. षष्टिभागाः कल्प्यन्ते । ततो घटिकाद्वय एकषष्टिभागानां त्येतत्प्रतिपादयन्नाहद्वार्षिशं शतं भवति । सार्धशिद्दिनमाने च मासे रात्रि अंगुणं सत्तरत्तणं, पक्खेणं तु दुभंगुलं । दिनपौरुषीणामपि प्रत्येक गर्विशं शतं भवति । अत पते. बर हायए वावि, मासेणं चउरंगुलं ॥ २८४ ।। नद्वाविंशेन शतेन मातंगदाटकै कषष्टिभागानां द्वाधिश. स्य शतस्य भागेत एकैको द्वार्षिशशततमो घटिकैकष. भाषाहपौर्णमास्या मारभ्यागुलं सप्तरात्रेण पर्वते. प. हिभागः समागच्छति । स च प्रतिदिनमेकैकस्या विम-रा. क्षेण तु मालवयं षर्धते, तथा मालेनाङ्गलचतुष्टयं बर्बते. त्रिपारच्या यथायोगं वर्धते, हीयते चेति। अतः साधूकम्। इयं च वृद्धिमत्तरोत्तरं तावनेया यावत्पौष मासपौर्णमास्यां 'बुही चावीसुसर' इत्यादि ॥ २०७१॥ पक्षचतुष्टयेन पौरुषी जायते, हानिरपि पौर्णमास्याः परत ए. प्रथया-प्रकारान्तरेणाऽप्यस्याऽर्थस्याऽधयोधार्थमा षमेव च द्रष्टव्या, यदुतागुलं सप्तरात्रेणापहियते, पणा. बालद्वयं, मासेनालचतुष्टयम् एवमियंहानिरुत्तरोत्तरता. उकांस-जहमाण, जदंतरालमिह पोरिसीणं तं । बोया यावदाषाढपौर्णमास्यां द्विपदा पौरुषी जायेत । स्था. तसीयसयविभत्तं, वुद्धि हाणि च जाणाहि ।।२०७२।। पना चेय-"प्रासाढपुझिमाए पद २ पोकली, सायणपुतिमा. उत्कृष्टा नवघटिकाप्रमाणा पौरुषी, जघन्या तु षब्धटिका. ए पद २ अंगुल ४. भद्दषयपुसिमाए पद ५ अंगुल ८, पालोप्रमाणत्युक्तमेव । एतयोश्च जघन्योस्कृष्टयोः पौरुष्योर्य घ. यमिमाए पद ३, कत्तियपुन्निमाए पद३ अंगुल ४, मटिका प्रयलक्षणमन्तरालं तदयनगतध्यशीतिशतविभक्तं प्र. ग्गसिरपुमिमाए पद ३ अंगुल ८, पोसपुसिमाए पद ४, पसि. तिदिनं पौरुण्या वृद्धि हानि च जानीहि । वमुक्तं भवति- अंजाब वुडी हो । माहपुरिणमाए पद ३ अंगुल ८, फग्गुपद व्यशीतेन दिनशतेन तिनी घटिका चर्धन्ते हीयन्ते णपुरिणमाए पद ३ अंगुल ४, चेत्तपुरिणमाए पद ३. वरबा पौरुष्याः, ती प्रतिदिनं तस्याः किं वर्धते हीयते वा?, साहपुनिमाए पद २, अंगुल ८, जेट्टयुनिमाए पद २ अंगृल, इत्यस्य जिज्ञासायां घटिकात्रयस्य यशीतेन भागो हियते, | आसाढपुशिमाए पद २ इत्तियं जाव हाणी । भावस्थो इमोतत एकैका घटिकै कषष्टिभिर्भागैः क्रियते, ततळ्यशीत्या सावणस्स पढमदिवसाओ आरब्भ बुढी जदा भवति तदा धिकं शतमेकपशिभागानां भवति, तस्य च ध्यशीतेनैव दिवसे दिवसे अंगुलस्स सत्तमो भागो किंचिप्पूणो वहर, Page #1154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९३१) पोरिसी अन्निधानराजेन्दः । पोरिसीपच्चक्खाण इमं भणिभं होइ-सावणस्स पढमदिवसे दोहि पहिं पो , आगारा छच्च पोरिसीए उ । रिसी हो अंगुलस्स. सत्तमेण भागेण किंचिप्पूणेण अहि. सत्तेव य पुरिमड्ले, एगासणगाम्म अटेव ॥ १५६४।। या, एवं वितियदिवसे दो पयाई दो अ सत्तमभागा अंगु लस्स किंचिपूणा, एवं एयाए बुड्डीए ताव जाव साबण सत्तेगट्ठाणस्स उ, अटेवायविलम्मि आगारा । पुझिमाए दो पयाई चत्तारि य अंगुलाई घुड़ी जाया, एवं पंचव अभत्तहे, छप्पाणे चरिमि चत्तारि ॥ १६००॥ इमाइ कम वुड्डीए ताव नेयव्वं जाव पोसमासपुसिमा । तत्थ चउप्पया पोरिसी, ततो परं माहपढमदिवसाउ प्रार पंच चउरो अभिग्गहि, निधीए अट्ट नव य भागारा। म्भ हाणी पतेण चेव कमेण नायब्वाजाव आसाढपुस्लिमा।" अप्पाउरागा पंचउ,हवेति सेसेसु चत्तारि ।१६०१ श्राव। माह-इदमुक्तं सप्तभिर्दिवसैरालं वर्द्धते.तथा पक्षणाङ्गुलद्वयं ('आसां गाथानामर्थः 'पञ्चक्खाण 'शम्देऽस्मिन्नेव भागे वर्द्धते इत्युक्तं, तदयं विरोधः कुतो?, यदा पक्षणाङ्गुलद्व १०४ पृष्ठे गतः।) षट् चेति पौरुष्यां तु,हच पौरुषी यं वर्द्धते तदा गुलं सप्तभिः सार्दिवसैर्वर्द्धने ? आचार्य नाम-प्रत्याख्यानविशेषः, तस्यां षट् प्राकारा भवन्ति । स्वाह-सत्यमेतत् , किन्त्वनेनैव तत्पण्याप्यते-वरं किश्चिद. वृद्धायां पौरुष्यां पारितं मा भून्यूनायां प्रत्याख्यानभनभ इह चेदं सूत्रम्यात् , न्यूनता च पौरुष्यामेवं भवति, यदि याऽसौ मातुमा- पोरिसिं पच्चक्खाति, उग्गते मरे चउब्धिहं पि श्राहारं रब्धा छाया, तस्यां यदि प्रदीर्घायां भुङ्क्ते तदा न्यूना पौर- असणं पाणं खाइमं साइमं अपत्थऽणाभोगेणं सहसागापी, अधिका च तदा भवति यदा सा छाया स्वल्पा | रेणं पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं साधुवयणणं सबसमा. भवतीति। अधुना येषु मासेष्वहोरात्राणि पतन्ति तान् मासान् हिवत्तियागारेणं वोसिरह । प्रतिपादयन्नाद अनाभोगसहसाकारसंगतिः पूर्ववत् , प्रच्छनकालाऽऽदीनां भासाढबहुलपरखे, भदवए कत्तिए य पोसे य । त्विदं स्वरूपम्-"पच्छमातो दिसा उरएण रेणुणा पवएण फग्गुणवइसाहेसु य, बोद्धव्वा प्रोपरत्ताओ ।। २८५ ॥ वा अराणपण वा अंतरिते सूरोण दीसति, पोरिसी पुरणप्राषाढस्य मासस्य बहुलपक्षे-कृष्णपक्षेऽहोरात्रं पतति, त्ति कातुं पारितो, पच्छा णातं, ताहे ठाइतञ्षंण भग्गं, जति तथा भाद्रपदबहुलपक्षे कार्तिकबहुलपक्षे पौषबहुलपक्षे फा. भुंजति तो भग्गं, एवं सम्वेहि वि, दिसामोहेण कस्सा पुरिगुनबहुलपत्ते वैशाखबहुलपक्षे चाहोरात्राणि पतन्ति । 'प्रो. सस्स कम्हि वि खत्ते दिसामोहो भवति, सो पुरिमं पच्छिमं मरतं ' अहोरात्रं न च तैरहोरात्रैः पतद्भिरपि पौरुष्या दिसं जाणति, एवं सो दिसामोहेण अइरुग्गई पि सूरं बडु न्यूनता वेदितव्या, अस्याऽर्थस्य ज्ञापनार्थमिदमुक्तम् । उस्सूरीभूतं ति मरणति, णाते ठाति, साधुणो भणंति-उ. एवं तावत्पौरुष्याः प्रमाणमुपगतं, या तु पुनश्वरम ग्घाड पोहसी ताव सो पजिमितो, पारित्ता मिणति, भो वा मिणइ, तेणं से भुंतस्स कहितं प. पूरितं ति, ताई पौरुषी सा कियत्प्रमाणा भवतीत्यतस्तत्स्वरूपप्रति. पादनायाऽऽह ठाइदब्ध, समाधी णाम तेण य पोरिसी पच्चक्माता, भा सुकारितं च दुक्खं जातं मरणस्स यां, ताहे तस्स पसमजेट्ठामूले आसा-ढसावणे छहि ऽङ्गुलेहि पडिलेहा । णणिमित्तं पाराविजति मोसह पा दिज्जति, पत्यंतरा गाते अद्वहि बीभवियम्मि य,तइए दस अट्ठहि चउत्थे ।२८६। तहेष विवेगी।"सप्तष व पुरिमा-पुरिमाई प्रथमप्रारवय ज्येष्ठासूले मासे तथाऽषाढवाषणे षडभिरस्गुलैोषणा कालावधिप्रत्याख्यानं गृह्यते, तत्र सप्त माकारा भवन्ति । ऽपि पौरपी न पूर्यते तापच्चरमपौरुषी भवति । (भट्ट बवं सूत्रम्-'सूरे उग्गते' इत्यादि, पडाकारा गतार्या, बिपीमतियम्मिसि) भाद्रपदे पाश्वयुजे कार्तिके चा- नवरं महत्तराकार सप्तमः, असायपि सोसरगुणप्रया. ऽस्मिन् द्वितीयत्रिकेऽभिरगुलविवचापि पौरुषी न पू क्याने साकारे कृताधिकारे भौष व्याण्यात तिन प्रतयेते तापच्चरमपौरुषी भवति । (ताप दस सि) मा क्यते । भाष६माघ। पचाल००। र्गशिरेपौषे माघे च एतस्मिन् तृतीये बिके दशभिरगु "पोरिस पथक्वार"इत्यादिभाषश्यकषष्ठाभ्ययनर.६ नषिदचाऽपि पौरुषी न पूर्यते तापधरमपौवंषी भवति । एषमपि व्याख्याता(अट्ठति पडत्थे ति) फारगुने क्षेत्रे वैशाले व मस्मि- | पुरुषाप्रमाणमस्याः सा पौरुषी छाया, तत्प्रमिताकासोऽपि अतुर्थे विकेऽभिरश्गुलैर्याषा पूर्वते पौरुषी तापच्चरम- पौरुषी,महरइत्यर्थः। तां प्रत्याश्यातिभित्रब" कालाधनो. पौरुषी भवति ॥ मोघः। रत्यम्तसंयोगे"॥२॥३१॥ इति द्वितीया। ततः पौरुषर्षी याषत पोरिसीपच्चक्खाण-पौरुषीप्रत्याख्यान-न । प्रथमपौरुष्यां प्रत्याख्यानं करोतीत्यर्थः । एषमभ्यत्रापि, कथं चतुर्षिधचतुर्विधाऽऽहारप्रत्याख्याने, तत्पस्यास्याने षड६ आकाराः।। मायाहारमशनादिकं व्युत्सृजतीति । अन्यत्रामाभोगाssप्रब०४द्वार। पाकारेभ्यस्तत्रानाभोगसहसाकारौ पूवैषदम्यत्र प्रभावकार नमु (का) कारपोरिसीए, पुरिमझेगासणेगठाणे य। । लात् दिएमोहात् साधुवचनात्, सर्वसमाधिप्रत्ययाकाराभायंबिल ऽभत्तढे, चरमेय अभिग्गहेविगहे।। १५६७॥ बाप्रच्छन्नता च कालस्य घनतरचनाघनपटलेन बिस्फु. रद्रजसा गुरुतरगिरिणा चाम्तरितस्वात विषाकरोनश्यदो छच्च सत्त प्रह, सतह य पंच छच पाणम्मि। . ते, तत्र पौवर्षी पूर्ण झाषा भुखानस्यापर्णायामपि पौरपर पंच भद्ध नवयं, पत्तेयं पिंडए नवए ।। १५६८॥ । व्यां न भावास्था तु अर्बभुक्तनाऽपि तथैव स्थातम्य Page #1155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३२ ) अभिधानराजेन्द्रः | पोरिसीपच्चक्खाणा यावत्पौरुषी पूर्णा भवति, पूर्णायां ततः परं भोक्तव्यम् । अपूपौरुषीति तु शाने तु भुञ्जानस्य भङ्ग एवेति । दिग्मो हस्तु यदा पूर्वामपि पश्चिमति जानाति तायामपि पौरुभ्यां भुजानस्य न भङ्गः । कथमपि मोद्दोपगमे तु पूर्वबदर्द्धभुक्तेनापि स्थातव्यम्, अन्यथा तु भङ्ग एवेति । तथा साधुवचनम् "उद्धारादिकं विभ्रमकारणं तत् जनस्य न भो, भुञ्जनेन तु झाते अन्येन वा केनापि निवेदिते पूर्ववत् तथैव स्थातव्यम् । तथा कृतपदपीत्पास्यानस्य सहसा संजातदितया समुत्य मोरार्तध्यानयोः सर्वधा निराशः सर्वसमाधिः स एव प्रत्ययः कारणं, स एवाऽऽकारः प्रत्याख्यानापबाद सर्वस. अधिप्रत्ययाकारः । पौरुण्यामपूर्ण यामप्यकस्मात् शूलाऽऽदि. उपधायामुपायतपक्षमाचपयानि भुञ्जानस्व न प्रस्यास्यानभङ्ग इति भावः । वैद्याऽऽदिर्वा कृतपौरूषीप्र त्याच्यातोऽभ्यस्यानुरस्य समाधिनिमिया अवाम पिपौर के तमु यातुरस्य स माथी मरने चोत्पले सति तथेष भोजनत्यागा । सार्वपी प्रस्थान पौडी तस्य तदन्तर्गतत्वादिति । ०द्वारान स्थान चतुर्विधा हारमेव भवति, अन्यथाऽपि वेरव्यध्य " निसिपारिसिपुरिमेगा-लाइ लड्डाण दुतिचउद्दा।" इति भाष्यवचनात् द्विवि. पाउदा विविधाद्वारे चतुर्विधा ॥४॥ डी० ३ प्रका० । पोरिसीमंडल - पौरुषी मडल- १० पुरुषः पुरुषशरीरं 1 शकुः, चा, तस्मान्निष्पन्ना पौरुषी । " तत आगतः " ॥ ४ । ३ । ७४ ॥ इत्य चूर्विकृत्-" पुरिस सि संकूनं शत्रुः शरीरं वा तस्मानिष्पन्ना पौरुषी । पा । विशेषव्याख्यानम् ' पडिकमण ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे पृष्ठे पतम् । पोरिसीय-पोषिक न० पुरुषः परिमाणामस्येति पौराधिकम् । पुरुषपरिमिते ० १ ० ६ ० पोरेबल-पौरपत्थन० पुरस्य पतिः पुरपति, तस्य कर्म पौरपायम्। सर्वेषामप्रेसरत्वे. जी. ३ प्रति०४ अधि० पुरोष सिंश्ये, विपा० १ ०१ ० स० । जं० । शा० जी०। प्रशा० । सर्वेषामात्मीयानां मध्ये प्रेसरखे, आ०म०१ ४० ॥ श्र० ॥ भ० | पोल पोल-म० शुचि ००२ द्वार पोलच - देशी-खटितभूमौ ३० ना० ६ वर्ग ६३ गाथा । पोलङ्कण - प्रोल्लएड न० प्रकर्षेण द्विनिर्वोशहने, शा० १ पुरुषः अत्र २०४ ४० १ अ० । पोलमराय - प्रोलमराज - पुं०। काहतीये नृपभेदे, ती०४६कल्प । पोलास - पोलास - न० । श्वताभ्यां नगयो स्वनामख्याते उ. घणे स्था० ७ ठा०|" पोलासं उज्जाणं, तत्थ अनासादा नाम आयरिया । " उत्त० ४ ४० प्रा० खू० । कल्प० । पोलासपुर - पोलासपुर - न० 1 पुरमेदे यत्र सद्दालपुत्र आसीत्। "पोलासपुरं खाम यरं सहसंबवणे उज्जाये जियलतू राया, पासपुरे ययकारे 1 पोसह आ० म० १ अ० । उपा० आ० चू०| स्था० । अन्त० । पोलासाठ-पोलासाठ- न० । श्वेताम्बिकायां नगर्यो पोलासोधाने स्वनामच्या येाऽऽपादादयो व्यक्तिका निवा जाताः । विशे० । पोलिन - देशी सैनिके, दे० ना० ६ वर्ग ६२ गाथा | पोलिंदी - पोलिन्दी - स्त्री० | पुलिन्दसम्बन्धिम्या शाम्या हि पेमेंदे, प्रश्न० १ आधद्वार । पोलिया पोखिकाखी० बहुभिस्थितैर्निष्यादितायाम्, भ चा० १ ० १ अ० ५ उ० । श्राष० । पोल-पोल त्रि० । रिक्शे, तं० । " पोझे य मुट्ठी जह से असारे, अतिए कायदे व राद्रायणी बेगम ग्ध होइ य जाणएसु ॥ ४२ ॥ " उत्त० २० अ० । तं " पोलगपुष्टि पोखकमुष्टि- श्री० [रिकी रिमुट्टी [[चिव बालाओ" (शिव) रि - मुष्टिवत् बाललोभनीया अभ्यक्तजनको भनयोग्याः, वल्कलबीतापवत् । तं । पोसपी० भावे ममत्ययः पोषये प्रबं० द्वार दतिया पतीति तेनानेन पुष्यतइति पोषः आत्मानं वा तेन पोषयतीति पोषः। गीपदे नि प्यू० ६ उ० । नेति । पोस पुं० पुस उत्सर्गे सति पुरीषमुदति अपानदेशे, जी० ३ प्रति०४ अधि० । पौष-पुं० पुष्यनपूर्णिमाके मासमे ०२०८ सम० । झा० म० । “ हेमंतो पोल-मग्गलिरो । " पा० वा० २०७ गाथा । पोत पोषान्न० ६ ० गीपदस्य योगे) अधरने प्रान्ते, नि० चू० ६ उ० । . पोसण - पोषण- न । भरणे, सूत्र० १ ० ३ ० २ उ० । प्रतिजागरण करणे, सू० १० २०१० अर्थदाना दिना सम्माने आचा० १ ० २ ० १ ० । यवलाऽऽदिदा मतः पुष्टीकरणे, प्रश्न० २ श्र० द्वार । पोमन ० स इसमें इति धातोरनटि पोसनम् । अपाने, जं० ३ वक्ष० । पोमय पोषकत्र रक्षके, पचपादिपोषके प्रश्न०२० द्वार। ये तितिरकुकुटमयूरान् पोषयन्ति । ६०२ उ० । स्था० । पं० ० । पोसक पुं० पायो, ०४० t पोसवस्य- पोषवस्त्र न० । कामं पुष्यतीति पोषं कामोत्पादकारि शोभनामित्यर्थः । तच्च तद् प च । मनोहरवस्त्रे, "अभय पोखवत्थं परिहिंति" तद्भीमनवतं तेन अभिक्खणं शिथिलाऽऽदिष्यपदेशेन परिदधति स्थानियमावेदयत्य शिथिलीकृत्य पुनर्निि साधुप्रतारणार्थे परिधानं ( स्त्रियः ) सूत्र० १ ० ४ ० १ ० पोम पोषच पोषं पुष्टिं प्रमा धर्मस्य परो करोतीति - । Page #1156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोसह पोसह अभिधानराजेन्छः। पोषधः । अष्टमीचतुर्दशीपौर्णमास्यमावास्यापर्वदिनानुष्ठेये व. पोषधोपवासः, अथवा-पोषधः अष्टम्यादिपर्वदिवसः उपेति तविशेषे, ध०२ अधि०। सूत्र0 शा० । स्था० । औ० ।। सह उपावृत्तदोषस्य सतो गुणैराहारपरिहाराऽऽदिरूपैर्वास अध० । तं०।दश। अनु। भ० स०। पञ्चा• । दशा। उपवासः।यथोक्तम्-"उपावृत्तस्य दोषेभ्यः, सम्यग्वासो गुणैः विधिसूत्रम् सह । उपवासः स विज्ञेयो, न शरीरविशोषणम् ॥१॥" इति । पोसहोववासे चउबिहे पन्नत्ते । तं जहा-आहारपोसहे, ततः पोषधेषूपवासः पोषधोपचासः, आवश्यकवृत्ताविश्य व्याख्यातत्वात् . तथाहि-"इह पोषधशब्दो रूल्या पर्वसु सरीरसकारपोसहे , बंभचेरपोसहे, अध्वाचारपोसहे (११) वर्तते. पर्वाणि चाष्टम्यादितिथयः, पूरणात्पर्व धर्मोपचयहेतु. इह पौषधशब्दो रूल्या पर्वसु वर्तते, पर्वाणि चाष्टम्या स्वादित्यर्थः. पोषधेषूपचसनं पोषधोपवास:-नियमविशेषाभि. दितिथयः, पररणात्पर्व, धर्मोपच यहेतुत्वादित्यर्थः , पौषधे उ. धानं चेदमिति।" इयं च व्युत्पत्तिरेव प्रवृत्तिस्त्वस्य शब्दस्यासबसनं पौषधोपवासः नियमविशेषाभिधानं चेदं पौषधांप- ऽऽहाराऽऽदिचतुष्कवर्जनेषु.समवायाजवृत्ती श्रीअभयदेवसूरिवास इति । अयं च पौषधोपवासश्चतुर्विधः प्रशप्तः । तद्य- भिरेवमेष व्याख्यानत्वात् । पौषधश्च आहारशरीरसत्कार२बा-आहारपौषधः, पाहारः प्रतीतस्तद्विषयस्तन्निमित्तं पौ. ब्रह्मचर्याऽ३व्यापार भेदाच्चतुर्वा, एककोऽपि, देशसर्वषध पाहारपौषधः, आहारनिमित्तं धर्मपूरणं पर्वेति भावना। भेदावद्विधेत्यष्टधा, तत्राऽऽहारपोषधो-देशती विवक्षितएवं शरीरसत्कारपौषधः, ब्रह्मचर्यपौषधः, अत्र चरणी- विकृतेरविकृतेराचाम्लस्य वा सकृदेव द्विरेव वा भोजनयं चर्यम् , "प्रचो यत्" ॥३।१।१७॥ इत्यस्मादधिकारा- मिति , सर्वतस्तु चतुर्विधस्याप्याहारस्याहोरात्रं यावत्प्र. त्"गदमदचरयमश्चानुपसर्ग"॥३१॥१०॥ इति यत्। त्याण्यानं १, शरीरसत्कारपोषधो-देशतः शरीरसरकारस्यै. ब्रह्म-कुशलानुष्ठानम् । यथोक्तम्-"ब्रह्म वेदा ब्रह्म तपो, ब्रह्म कतरस्याकरणं, सर्वतस्तु सर्वस्याऽपि तस्याकरणं २, प्र. शानं च शाश्वतम् । " ब्रह्म च तश्चर्य चेति समासः, शेष ह्मचर्यपोषधोऽपि देशतो दिवैव रात्राधेव सरुदेव द्विरेव वा पूर्ववत् । तथा अव्यापारपौषधः । "एत्थ पुण भावत्यो । खीसेवां मुक्त्वा ब्रह्मचर्यकरणं , सर्वतस्तु अहोरात्रं यावत् मो-आहारपासहो दुविहो-देसे , सम्वे य । देसे अमुगा ब्रह्मचर्यपालनं ३ . कु (अ) व्यापारपोषधस्तु देशत एकविगती आयंबिलं वा पक्कसिं वा दो वा, सव्वे चउबिहो वि तरस्य कस्याऽपि कुव्यापारस्थाकरणं, सर्वतस्तु सर्वेषां आहारो अहोर पच्चक्खाओ, सरीरसकारपोसहो-रहा- कृषिसेवावाणिज्यपाशुपाल्यगृहकर्मादीनामकरणम् ४ । इस गुब्वडणवमागविलवणपुप्फगंधतंबोलाणं परथाभरणाण य च देशतः कुव्यापारनिषेधे सामायिकं करोति वा न था, स. पडिचागो य, सो वि देसे सम्धे य । देसे अमुगं सरीर. वंतस्तु कुव्यापारनिषेधे नियमात्करोति सामायिकम् , अक. सकारं करेमि, अमुगं न करेमि ति। सम्वे अहोर। बंभचेर रण तु तत्फलेन बच्यते. सर्वतः पोषधवतं च चैत्यगृहे षा पोसहो देसे सव्ये य, देसे दिवा रत्ति वा एकसिं दो बा- साधुमूले वा गृहे वा पौषधशालायां वा त्यनमणिसुवर्णाबारे सि, सम्वे अहोरति बंभयारी भवति, अव्वाबारे पो. ऽऽद्यलङ्कारो व्यपगतमालाविलेपनवर्णकः परिहतप्रहरणःप्र. सहो दुविहो-देसे सव्वे य, देसे प्रमुगं वावारं न करेमि, तिपद्यते , तत्र च कृते पठति , पुस्तकं वाचयति , ध. सम्वे सयलवावारे हलसगडघरपरकमादीश्रोन करेति, पत्थ | मध्यानं ध्यायति, यथा एतान् साधुगुणान मन्दमाग्यो जो देसपोसह करेइ सामाइयं करेइ चा न वा, जो सब- न समर्थों धारयितुमिति आवश्यकचूर्णिभाषकप्राप्तिपोसहं करेइ सो नियमा कयसामाइश्रो. जदि न करेति तो वृष्याधुक्तो विधिः । योगशास्त्रवृत्तौ स्वयमधिकः । तथाहिनियमा बंचिजति, तं कहि, चेयघरे साहुमूले वा घरे वा “ ययाहारशरीरसत्कारब्रह्मवर्यपोषधयत्कुण्यापारपोषधमपोसहसालाए वा उम्मुक्कमणिसुवन्नो पदंतो पोत्थगंवा वायं. प्यम्यत्रानाभोगेनेत्याचाकारोचारणपूर्वकं प्रतिपद्यते, तदा तो धम्मज्झाणं झाया, जहा पए साहुगुणा अह असमत्थी सामायिकमपि सार्थक भवति, स्थलवास्पोषधप्रत्याख्यामंदभग्गो धारेउं विभासा।" श्राव०६अ। नस्य, सूचमत्वाच्च सामायिकवतस्येति । तथा पोषधव. संपूर्णो विधिः पौषधस्य ताऽपि सावद्यब्यापारो न कार्य पव, ततः सामायिकम. कुस्तलाभाद् भ्रश्यतीति, यदि पुनः सामाचारीषिशेषात् आहारतनुसत्कारा-ब्रह्मसावटकर्मणाम् । सामायिकमिव विविधं त्रिविधेनेस्येवं पोषधं प्रतिपद्यते, त्यागः पर्वचतुष्टय्या, तद्विदुः पौषधवनम् ॥ ३९ ॥ सदा सामायिकार्यस्य पोषधेनैव गतत्वास सामायिकमस्य. पर्वचतुष्टयी-अष्टमीचतुईशीपूर्णिमामावास्यालक्षणा, त- तं फलबत् यदि परं पोषधसामायिकलक्षणं प्रसवयं प्रस्याम् , पाहारःप्रतीता, तनुसत्कार:-स्नानोवर्सनवर्ण कवि- तिपत्रं मयेत्यभिप्रायात्फलवदिति ।" पतेषां चाऽऽहाराऽऽदि. लेपनपुष्पगन्धविशिष्टवस्त्राऽऽदिः, अब्राह्म-मैथुनं, सावधकर्म- पदानां चतुणों देशसर्वविशेषितानामेकद्वयादिसंयोगजा अशी. कृषिवाणिज्याऽऽदि, पतेषां यस्त्यागस्तत्पौषधनतं विदुर्जिना तिर्भा भवन्ति । तथाहि-एककसंयोगाः प्रागुक्ता पवाटी। इत्यम्बयः। यतःसूत्रम्-"पोसहोषवासे बउबिहे पडते । तं विकसंयोगाः षट् एकैकस्मिश्च शिकयोगे-देसे देसे १ देसे जहा-माहारपोसहे, सरीरसकारपोसहे.भरपोसहे,अव्वा- सव्वे २ सव्धे देसे ३ सव्वे सब्वे ४ एवं चत्वारश्चत्वारो बारपोस(१२माष०६०)"ति। तत्र पोषं-पुष्टि प्रक्रमाद्धर्मः भना भवन्ति, सर्वे चतुर्विशतिः २४। त्रिकयोगाश्चत्वारो स्य परीति पोषधा, स एव व्रतं पोषधवतमित्यर्थः, पोषधो- भवन्ति, एकैम्मिश्च त्रिकयोगे देशसपेक्षया-देसे देसे पवास इत्यप्युच्यते, तथाहि-पोषध उक्ननिर्वचनोऽवश्यम- देसे १ देसे देसे सब्वे २ देखे सम्बे देसै ३ देसे सम्बे सम्बंध म्यादिपर्वदिनाऽनुष्ठेयो व्रतविशेषस्तेनोपवलनमू-अवस्थानं सधे देसे देसे ५ सब्वे देले सधे ६ सम्बे सम्बे देसे ७ सम्बे Page #1157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोसड सव्वे सन्वे एवमष्टाष्टौ भवन्ति, सर्वे द्वात्रिंशत् ३२ । चतु योगे एकः, तत्र देशलर्वीपेक्षया षोडश १६ मङ्गाः - देसे दे देखे देखे देखे देखे देसेसचे २ देखे देसे वे देखे ३ देले देले सब्वै सब्वे ४ देसे सब्वे देसे देते ५ देसे सन्धे देसे सव्वे ६ देसे सब्बे सत्रे देसे ७ देसे सवै सव्वे सध्ये ८ सन्वे देसे देसे देसे 8 सव्वे देसे इसे सब्वे १० सव्वे देस सव्वे देसे ११ सव्ये देसे सच्चे सब्वे १२ सव्वे सवे देसे देसे १३ स स देसे सम्ये १४ सव्वे सन्वे सच्चे देते १५ सच्चे सब्वै सव्वे सन्धे १६ एव सर्वेषां मीलने ८० अशीतिर्भङ्गाः स्युः स्थापना यन्त्रकाणि चेमानि- (१९३४) अभिधानराजेन्डः । पांमध्ये 35वार्य परम्परया समाचारविशेषेणा ऽऽहारपोष एव देशमेाऽपि सम्यति कि यते, निरवद्याऽऽद्दारस्य सामायिकेन सहा विरोधदर्शनात् । पोषधस्याऽशीतिभङ्गयन्त्राणि एक संयोगा देशतः ४ श्रा० पो० दे० १, स०पो० दे०२, बं० पो० दे० ३। एककभङ्गाः सर्वतः ४ - श्रा० पो० स०५, स० पो०स० ६, बं० पो० स० ७ । सर्वसामायिकव्रतवता साधुना-अ० पो० दे० ४, श्र० पो० स० ८ । उपधानतपोवाहिश्रावकेणाप्याहारग्रहणात् शेषास्त्रयः पोषधाः सर्वत एवो. ध्याने देशस्तै प्रायः सामायिकस्य विरोधात् यतः सामायिके- आहारशरीरयोगे ४ - श्र०पो० दे० स० पो० दे० १, प्रा० पो० दे० स०पो० स०२, ०पो० स० स० पो० दे० ३ श्र०पो० स० स०पो० स० ४ | श्रद्दारब्रह्मयोगे - आ० पो० दे० बं० पी० दे०५ श्र० पी० दे० बं० पो० स० ६, श्रा० पो० स० [सं० पो० दे० ७ श्र० पो० स० बं० पो० स०८ । आहारव्यापारयोगे ४- श्रा० पो० दे० अ० पो० दे० ६, प्रा० पो० दे० अ० पो० स० १०, ०पो० स० अ० पो० दे० ११, श्र०पो० स०अ० पो० स० १२ । शरीरब्रह्मयोगे ४-० पो० दे० बं० पो० दे० १३, स०पो० दे० बं० पो० स० १४, स० पो० स० बं० पो० दे० १५, स०पो० स० बं० पो० स० १६ । शरीरव्यापारयोगे ४- स०पो० ३० अ० पो० दे० १७, स० पो० दे० श्र०पो० स०१८, स०पो० स० अ० पो० दे० १६, स० [पो० स० अ० पो० स० २० । ब्रह्माव्यापारयोगे ४-० पो० दे० अ० पो० दे० २१. बं०पो० दे० अ० पो० स० २२, ०पो० स० प्र० पो० दे० २३, बं० पो० स०अ०पो० स० २४ | श्राहाराऽऽदिचतुर्थी त्रिकयोगे भङ्गाः ४ । तत्रैकैकस्मिन्दे० दे० दे० इत्याद्यष्ट योजने ३२ | आहारशरीरब्रह्मयोगिकस्य दे० दे० दे० इत्यादियोगे ०पो० दे० स०पो० ० ० पो० दे० १, ०पो० दे० स० पो० दे० बं० पो० स० २, श्र० पी० दे० स०पो० स० बं० पो० दे० ३ ०पो० दे० स० [पो० स० बं० पो० स० ४ श्र० पो० स० स०पो० दे० बं० पो० दे० ५. श्र०पो०स० स०पो० दे० बं०पो० स०६, श्रा० पो० स० स०पो० स० वं० पी० दे० ७ श्रा० पो० स० स०पो० स० बं० पो० स० ८ । श्रद्दारशरीरव्यापारयौगिकस्य दे० दे० दे० इत्यादियोगेऽष्टौ यथा-आ० पो० दे० स० पो० दे० अ० पो० दे० ६, आ० पो० दे० स०पो० दे० अ० पो० स० १० आ०पो० दे० स०पो० स० प्र०पो० दे० ११, - पोसह श्र० पो० दे० स० पो० स० श्र० पो० स०१२ श्र०पो० स० ०पो० दे० अ० पो० दे० १३. प्रा० पो० स० स०पो० दे० अ० पो० स० १४, आ० पो० स० स०पो० स०अ०पो० दे० १५, श्रा० पो० स० स०पो० स०अ० पो० स० १६ । 'सावज्जं जोगं पच्चक्खामि' इत्युच्चार्यते, शरीरसत्काराऽऽदित्रये तु प्रा. यः सावयो योगः स्यादेव निरवद्यदेदसत्कारव्यापारावपि विभूषा 53 लिोभनिमित्तत्वेन सामायिके निषिद्धावेव श्रा हारस्य स्वन्यथा शक्त्यभावे धर्माऽनुष्ठाननिर्वाहार्थ साधुवदुपासकस्याप्यनुमतस्वात् । । उक्तं चाssवश्यक चूर्णी - श्राद्दारब्रह्माव्यापारयोगिकस्य दे० दे० दे० इत्यादियोगे ऽष्टौ यथाश्र० पो० दे० बं० पो० दे० अ० पो० दे० १७. आ० पो० दे० बं० पो० दे० श्र० पी० स० १८. श्र० पो० दे० बं० पो० स० अ० पो० दे० १६, ० पो० दे० बं० पो० स०अ०पो० स० २०, ०पो० स० बं० पो० दे० अ० पो० दे० २१, श्र० पी० स० [सं० पो०दे० अ० पो० स० २२, झा०पो० स० वं०पो० स० [अ०] पो० दे० २३. प्रा० पो० स० बं० पो० स० श्र० पो० स० २४ । शरीरब्रह्माव्यापारयौगिकस्य पूर्ववत् अष्ट भङ्गाः• स०पो० दे० ब० पो० दे० अ० पो० दे० २५, स०पो० दे० बं० पो० दे० अ०पो० स० २६, स० पो० दे० बं० पो० [० स० [अ०] पो० दे० २७, स० पो० दे० बं० पो० स० श्र० पो० स० २८, स०पो० स० बं० पो० दे० अ० पो० दे० २६, स०पो० स० बं०पो० दे० श्र० पी० स० ३०, स० पो० स० [बं० पो० स० अ० पो० दे० ३१, स०पो० स० बं० पो० स० [अ०पो० स० ३२ । चतुःसंयोगिकस्य दे० दे० दे० दे० इत्यादियोगे १६ भङ्गाः श्र०पो० दे० स० पो० दे० बं०पो० दे० अ० पो० दे० १, श्रा० पो० दे० स० पो० दे० बं० पो० दे० अ० पो० स० २ श्र० पो० दे० स० पो० दे० बं० पो० स० अ० पो० दे० ३, श्रा० पो० दे० स० पो० दे० बं० पो० स० [अ०पो० स०४, प्रा० पो० दे० सं० पो० स० पं० पो० दे० अ० पो० दे० ५ श्रा० पो० दे० स०पो० ल० बं० पो० दे० अ० पो० स० ६, ०पो० दे० स०पो० स० बं० पो० स० श्र० पो० दे० ७ ० पो० दे० स० पो० स० बं० पो० स० श्र०पो० स०८ ०पो० स० स०पो० दे० बं० पो० दे० अ० पो० दे० ६, आ० पो० स० स० पो० दे० बं० पो० दे० अ० पो० स० १०, श्रा० पो० स० स० पो० दे० बं० पो० स०अ० पो० दे० ११, आ० पो० स० स०पो० स० बं० पो० स० श्र०पो० स० १२ श्र०पो० स० स०पो० स० बं० पो० दे० अ० पो० दे० १३ श्र० पो० स० स०पो० स० [बं० पो० दे० श्र०पो० स० १४, प्र०पो० स० स० [पो० स० बं० पो० स०अ० पो० दे० १५, आ० पो० स० स०पो० स० बं० पो० स०अ० पो० स० १६ । पोषधव्रताधिकारे तु तं सत्तिश्रो करिजा तवो अ जं वलिओ समासेणं । देसावगालिएणं, जुतो सामाणं वा ॥ १ ॥ " निशीथ भाष्येऽप्युक्तं पौषधिनमा - श्रित्य " उद्दिकडं पि सो भुंजे इति, चूर्णे च "जं च उद्दिटुकडं तं कडसामा वि भुंजे जे " इति । पोषचसहित] समापिका सं यिकेतु मुहूर्त्त मात्र नानत्वेन पूर्वऽऽवार्य परम्पराऽऽदिनाऽऽहा 33 Page #1158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोसह (१९३५) पोसह अन्निधानराजेन्डः । रग्रहणस्याक्रियमाणत्वास , श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रचूर्णावप्यु- पउरणपोरिसी, तो स्त्रमासमणपुव्वं पुत्ति पष्ठिय तहेव स. क्लम्-" जहदेसओ आहारपोसहिो तो भत्तपाणस्स ज्झायजाव कालवेला, जर देवा बंदियवा हुंति , तो गुरुसक्खि पारावित्ता आवस्सिनं कारत्ता ईरियासमि- आवस्सियापुव्वं चेश्यहरे देवे वंदर जा पारण शो प. ए गंतु घरं इरियावविध पडिक्कमइ, आगमणालोअणं च च्चक्खाणे पुले खमासमणपुब्बं पुत्ति पेहिय खमासमणं दा. करेर चार बंदेश तथा संडासयं पमजित्ता पाउंछणे निसी- उं भणइ-"पारावह पोरिसी पुरिमडो वा चउपाहारको अइ. भायणं पमजा, जहोचिए अभोणे परिवेसिए पंच निहारको आसि, निव्वीएणं आयंबिलेणं एगासणेणं पामंगलमुच्चारेड, सरेइ पच्चक्खाणं. तो वयणं पमजित्ता. णाहारेण वा जा कारवेला तीए, तो देखे बंदिन सज्मा. " असुरसुरं अचवचवं, अअमबिलंबिअं अपरिसार्डि । यं करिय नियगिहे गंतुं जह हत्थसयानो बाहि तो परियं पडिमिय आगमणमालोइय अहासंभषं अतिहिसंविभा. मणवयणकायगुत्तो. भुंजह साहु ब्व उवउत्तो ॥१॥" जाया गवयं फासिय निच्चले आसणे उवविसिय इत्थे पाए मु. मायाए भुचा फासुअजलेण मुहसुद्धिं काउं नवकारस इंच पडिलेहित्ता नमुक्कारं भणिय फासुयमरत्तदुट्ठो जिमे. रणण उट्ठाइ, देवे बंदह, वंदणयं दाउ संवरणं काऊण पुणो | ३. पोसहसालाए वा पुव्वसंदिट्ठनियसयणहि श्राणियं, नोवि पोसहसालाए गंतुं सज्झायंतो चिटुइ" त्ति । अतो दे. शपोषधे सामायिकसद्भावे यथोक्तविधिना भोजनमागमा भिक्खं हिंडा । तो पोसहसालाए गंतुं इरियं पडिकमिय देवे वंदिय वंदणं दाउं तिहारस्स चउहारस्स वा पच्चक्खाइ, नुमतमेव दृश्यते । पोषधग्रहणपालनपारणविधिस्वयम् जह सरीरचिंताए अट्टो तो श्रावस्सियं करिय साहु व्व "ह जम्मि दिणे सावो पोसह लेइ, तम्मि दिणे घरवावारं उवउत्तो निजीचे थंडिल गंतुं विहिणा उच्चारपासवणं वो. वजिन पोसहसालार गहियपोसहजुग्गोवगरणो पोसह सिरिय सोयं करिय पोसहसालाए आगंतुं इरियं पडिक्कसालं साहुसमीवे वा गच्छइ, ती अंगपडिलेहणं करिय, | मिय खमासमणपुब्वं भण-'इच्छाकारेण संदिसह भगव(अङ्गप्रतिलेखनाः पञ्चविंशतिः । ताश्च 'पडिलेहणा' शब्दे. न् ! गमणागमण पालोयउ इच्छं वसति हुंता वापसी ऽस्मिन्नेव भागे ३४१ पृष्ठ "दिट्रिपडिलेह एगा." इत्यादिगा. करी अवरदक्खिणनिसि जाइउ दिसालोधे करिय अणुथाभ्यां प्रतिपादिताः।) उच्चारपासवणे थंडिल पडिलेहिय, जाणह जस्सुग्गहत्ति भणिय, संडासए पंडिलं च पमजिन, (उच्चारप्रश्रवणस्थण्डिलानां प्रतिलेखना ' पडिलेहणा' उच्चारपासवणं बोसिरिय, निसीहियं करिय, पोसहसालाशब्देऽस्मिन्नेव भागे ३४८ पृष्ठ गता।) गुरुसमीवे नव ए पविट्ठा, श्रावंततेहिं जं खंडिचं जं विराहि तस्स कारपुव्वं वा ठवणायरियं ठावहता, ('ठवणायरिय' शब्दे. मिच्छामि तुक्कडं।' ती सज्झायं करेति जाब पच्छिमप. चतुर्शभागे १६६३ पृष्ठे तत्स्थापनविधिर्गतः।) इरियं पडिक्कमिः । हरो, तो खमासमणपुव्वं पडिलेहणं करेमि, बीयखमासमय समासमणेण वंदिय, पोसहमुहपत्ति पडिलेहा । तो ख. णणं पोसहसाल पमजेमित्ति भणिय सावो पुक्ति पाउछणमासमणं दाउं उद्घट्टिी भणइ-'इच्छाकारेण संदिसह भग गं पहिरणगं च पेहेर, साविया पुण पुति पाउंछणगं वन् ! पोसह संदिसावेमि' बीयखमासमणेण 'पोसह ठा साडिवं कंचुगमुत्तरीयं च पेहेर, तो ठवणायरियं मि' त्ति भणिय नमुक्कारपुव्वं पोसहमुच्चारे ' करेमि च पेहिय, पोसहसालं पमज्जिय स्खमासमणपुव्वं उबाहिभंते ! पोसहं श्राहारपोसह सयो देसमो वा, सरीरस. मुहपत्ति पेहिय खमासमणेण मंडलीप जाणुट्टिमो कारपोसह सम्बो, भरपोसहं सवओ, अब्बावारपो. सज्झायं करिय वंदणं दाउं पच्चक्खाणं करिय खमासह सयो चउब्धिहे पोसहे ठामिजाव अहोरत्तं समणदुगेण उवहिं संदिसाथिय वत्ययले पतिपज्जुवासामि, दुविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं, लेहिय सज्झायं करेइ, जो पुण अभनट्ठी सो स. न करेमि न कारमि, तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि ब्बावेहिते पहिरणगं, साविया पुण गोसि ब्य उहि प. गरिहामि अप्पाणं बोसिरामि ' एवं पुतिपेहणपुवं ख- डिलेहेर, कालबेलाए पुण खमासमण पुवं सज्झाए अंतोमासमणदुगेण सामाइ करिय पुणो खमासमण दुगेण जह वहिं च वारस बारस काइयउच्चारभूमीमो पेडे । यत:परिसारत्तो तो कट्ठासणगं सेसट्टमासेसु पाउंछणगं सं- " बारस बारस तिथि श्र, काइउच्चारकालभूमीमो । दिसावित्र खमासमण दुगेण सज्झायं करे । तो पडिका अंतोवहि अहिवासे, अणहिमासेण पडिलेहा ॥१॥" मणपुवं करिय खमासमणदुगेण बहुवेलं संदिसाविय समासमणपुर्व पडिलेहणं करेमि त्ति भणिय, मुहपत्ति पाउं. स्थापनाछषगं परिहरणं च पेहिय, साविया वि पुण पुति पाउंछ बडी नीति संथारान समीपि-प्रागाढे पासने उच्चारे पा. णगमुत्तरीयं कंचुगं साडियं च पेहिय, स्खमासमणं दाउं सवणे अणहियासे १, आगाढे मज्झे उच्चारे पासषणे भणा-'इच्छाकारि भगवन् ! पडिलेहणा पडिलेहावउ' तश्री श्रणहियासे २, मागाढे दूरे उच्चारे पासवणे आणहिया. से ३ । लघुनीति-श्रागाढे आसन्न पासवणे अणहियासे १, इच्छंति भणिय, ठवणायरियं पेहिय, ठविय, खमासमणपु. आगाढे मज्झे पासवणे अणहियासे २, मागाढे दूरे पा. ग्वं उबहिमुहपति पेहिय समासमणदुगेण उपार्ह संदि. सवणे अणहियासे ३ । उपाश्रय नां बार मांहि लरंपाससाविय पत्थकंबलार पडिलेहेर, तो पोसहसालं जयणाए आगाढे आसने उच्चारे पासषणे अहियासे १, भागादे पमजिय, कज्जयं उतरिय, परिदृषिष, परियं पडिकमिय गमो उच्चारे पासवणे अहियासे २. मागाटेवरे उहवा. मणागमणमालोच्य स्त्रमासमणपुवं मंडलीए साहु व्व स.| रे पासवणे महियासे ३ । उपाश्रयद्वार बाहिर लई पासर स्मार्य करे। तभी पढ गुणा पोस्थयं वा चापाजाव आगाढे पासने पासवणे अहियासे १, मामाडे मज्मे Page #1159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९३६) पोसह अभिधानराजेन्डः। पोसह पासषणे अहियासे २. आगाढे दूरे पासवणे अहियासे ३। जेसि पसंसद भयवं. दढव्वयं तं (दढव्वयत्तं) महावीरो॥२॥" अणागाढे आसमे उच्चारे पासवणे अणहियासे १, अ.| पोसहविधे लीधउँ विधे पारिश्रो विधि करतां जा का प्र. णागाडे मज्झे उच्चारे पासवणे अहियासे २, अणामा. विधिखंडनविराधना मने वचने कायाईतस्स मिच्छामि दुक. है दूरे उच्चारे पासवणे अणहियासे ३ । अणागाढे "एवं सामानं पि, नवरंआसन्ने पासवणे अणहियासे १, प्रणागढि मज्झे पासव. ण प्रणहियासे २, अणागाढे दूरे पासवणे अणहियासे ३ । सामाइयवयजुत्तो, जाव मणे होइ नियमसंजुत्तो। स्थण्डिलस्थान-प्रणागाढे आसन्ने उच्चारे पासपणे अहि छिंदा असुहं कम्म, सामाइन जत्तिश्रा वारा ॥१॥ यासे १, अणागाढे मज्झ उच्चारे पासवणे अहियासे २, छउमत्थो मूढमणो, कित्तिमित्तं च संभर जीवो । अणागाढे दूरे उच्चारे पासवणे अहियासे ३ । अणागाढे जं च (न) सुमरामि अहं,मिच्छा मि दुक्कडं तस्स ॥२॥ पासने पासवणे अहियासे १. अणागाढे मज्झे पासवणे सामाइपोसहसु-टिअस्स विस्स जाइ जो कालो। अहियासे २, अणागाढे दूरे पासवणे अहियासे ३ । ती सो सफलो बोधब्बो, सेसो संसारफलहेऊ ॥ ३॥ पडिकमणं करिय सह संभवे साहणं विस्सामणा खमासमा तो सामायिक विधई लिधउँ इच्चाई भरपड , एवं एणं दाऊण सज्झायं करेह, जाव पोरिसी, तो स्त्रमासम दिवसपीसह पि, नवरं- जाव दिवसं पज्जुवासामि , णपुब्वं भणइ-इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! बहुपडि. त्ति भणद, देवसिाइपडिकमणे कर पारेउं कप्पर । पुना पोरिसी राइसंथारए ठामि, तो देवे बंदिय सरी. राषिपोषधमप्येवं, नवरं मज्झरहानो परमो जाव दि. रचितं सोहिय सम्वं बाहिरुवहिं पहिय जाणुवरि संथारु वसम्स अंतोमुहुत्तो ताव घिप्पा, तहा 'दिवस सेसं रवि सरपट्ट मेलिय जो पाए भूमि पमजिय सणियं संथर पज्जुवासामि ' ति भणइ, पोसहपारणए साहुसंभवे द, तो वामपाएण संथारं संघट्टिय पुत्ति पेहिय निसी नियमा अतिहिसंविभागवयं फासिय पारेयवं।"पत्रच ही नमो खमासमणाणं अणुजाणह जिट्टिज त्ति भणंतो सं. पर्वचतुष्टयीति तस्यामवश्यकर्त्तव्यत्वोपदर्शनार्थमुक्ता , न तु थारए उपविसिय नमुकारतिनं तिनि चारे सामाइयं कहिय तस्यामेवेति नियमदर्शनाय "सम्बेसु कालपब्वेसु, पस. "अणुजाणह परमगुरू. गुरुगुणरययोहि मंडियसरीरा। त्थो जिणमए तहा जोगो। अटुमिच उद्दसीसु, निश्रमेण ह विज्ज पोसहि ॥१॥” इति । आवश्यकचूादी तथा बहुपडिपुत्रा पोरिसि, राईसंथारए ठामि ॥१॥ अणुजाणह संथारं, बाहुवहाणेण वामपालेणं । दर्शनात् । न च ' चाउद्दसट्टमुहिद्दपुरिणमासीसु परिपुरणं पोसह अणुपालेमाणा' इति सूत्रकृताङ्गादौ श्रावकवर्णनाकुक्कुडिपायपसारण, भतरंत पमज्जए भूमि ॥२॥ संकोयसंडासा, उव्वट्टते य कायपडिलेहा। धिकारीयाक्षरदर्शनादष्टम्यादिपर्वस्वेव पोषधः कार्यों न शेष. दव्वाई उवयोग, ऊसासनिरंभणाऽऽलोए ॥३॥ दिवसेविति वाच्यं, विपाकभुताने सुबाहुकुमारकृतपौषधत्र जा मे हुज्ज पमाओ, इमस्स देहस्स इमाएँ रयणीए । याऽभिधानात् , तथा च सूत्रम्-"तए णं से सुबाहुकुमारे श्रमाहारमुवहिदेह, सव्वं तिविहेण वोसिरियं ॥४॥" प्रया कयाइ चाउद्दसट्ठमुहिट्ठपुरिणमासीसुजाव पोसहसा. बत्तारि मंगलमिच्चाइभावणाभाविय नमुक्कारं समरंतो र. लाए पोसहिए अट्ठमभत्तिए पोसहं पडिजागरमाणे विहर" ओहरणाणा सरीरगं संथारगस्सुवरिभागं च पमज्जिन इति । एतद्धतफलं त्वेवमुक्तम्-" कंचणमणिसावाणं, थंभ सहस्सुस्सिनं सुवरणतलं । जो कारिज जिणहरं, तो वामपासण बाहूवहाणेण सुयइ, जइ सरीरचिंताए अट्ठो वि तवसंजमो अहिश्रा ॥२॥" एकस्मिन् सामायिके मु. संधारगं अनेण संघहाविय श्रावस्सियं करिय पुब्बपति हूर्त्तमात्रे "बाणवई कोडीओ" इति गाथया प्रागुकलाभः , यथंडिले काइयं वोसिरिय इरियं पडिक्कमिय गमणागम स त्रिंशन्मुहूर्तमानेऽहोरात्रपौषधे त्रिशद्गुणों बादरवाया। णमालाइ जहन्नेण वि तिन्नि गाहाओ सज्झाइय नमुकार स चायम्-"सत्तत्सरि सत्त सया, सतहत्तरि सहस लक्ख. समरतो तहेव सुयह । पच्छिमजामे इरियं पडिकमिय 'कुसु. कोडीयो । सगवीसं कोडिसया, नवभागा सत्त पलिअस्स मिणुदुसुमिणकाउस्सग्गं' चिइवंदणं च काउं पायरियार ॥१॥" अङ्कतोऽपि-२७७७७७७७७७७१ एतावत्पल्यायुर्वबंदिय समायं करेइ, जाव पडिक्कमणवेला, तो पुवं व न्ध एकस्मिन् पोषधे ॥ ३६॥ इति प्रतिपादितं तृतीयं शिपडिक्कमणाइ जाव मंडलीए सज्झानं करिअ जइ पोलह पा. क्षापदव्रतम् । ध०२ अधि०। रिउकामो तो खमासमणं दाउं भण- इच्छाकारेण सं. पौषधमेव स्वरूपतो दर्शयन्नाहदिसह भगवन् ! मुहपुत्तिं पडिलेहेमि । 'गुरु भणह-'पडि. लेहर' तो पुत्तिं पहिय खमासमणं दाउं भणह-' इच्छाका. पोसेइ कुसलधम्मे, जं ताऽऽहारादिचागऽणुट्ठाणं । रेण संदिसह पोसह पारउ ?। गुरु भणइ-'पुणो वि कायव्वं' इह पोसहोत्ति भमति, विहिणा जिणभासिएणेव ॥१४॥ (व्वो) बीयखमासमणेणं भणइ-- पोसह पारिश्रो ।' गुरू अथ पोषधं तत्त्वतो निरूप्य भेदतस्तनिरूपयनाहभणइ-'प्रायारो न मुत्तम्वो।' तो उद्घट्टिो नमुक्कारं भणि वाणुट्ठिो भूमिट्टियलिरो भणइ आहारपोसहो खलु, सरीरसक्कारपोसहे चेव । " सागरचंदो कामो, चंदवडिसो सुदंसणो धन्नो । बंभऽव्वावारेसु य, एयगया धम्मवुटि त्ति ॥ १५ ॥ जेसि पोसहपडिमा, अखंडिश्रा जीवियंते वि॥१॥ पञ्चा०१० विव० । स्था० । आ० चू० । ('उवासगपडिमा' भन्ना सलाइणिज्जा, सुलसा आणंद कामदेवा य । शन्दे २ भागे ११०३ पृष्ठे ब्याख्या गता।) Page #1160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोसह अस्यातिचाराः तयातरं च णं पोसहोववासस्स समयोवासएवं पंच अइयारा जाणिवण्या न समायरियच्या तं जहा अप्प डले हिदुप्य डिले हिय सिज्जासंचारे १ अप्यमजियदु जयसिज संथारे २. अप्पाडले हि यदुपडिले हिपावभूमी अप्यमभिवदुप्पम जिवठचारपा ३, सवणभूमी ४ । पोसहोववासस्स सम्मं श्रणुपालख्या । उपा० १ ० । ( एषां पदानां व्याख्या स्वस्वस्थाने ) प्रव० । श्रत्र हीर विजयसूरिं प्रति प्रश्नाः - पीपस्यो ना 1 दे गुरुगुणगानं कुर्वन्तीति कास्ति ? अत्र शास्त्रोका रीतिरिति बोध्यम् । १० प्र० । ही० ३ प्रका० । श्राद्धस्य गृहे पौषधोच्चार तथा श्री गुरुमुखेन पौषधमुच्चारयति सदा गमनाऽऽगमने श्रालोचयति न वेति, अत्र यदि स्वयं पौबधकरणानन्तरं गमनागमने कृते भवस्तदा गुरुमुखेन पोषकराऽवसरे ते बालोचयति नान्यथेति । प्र० । ४० ३ प्रकार । तथा पोषधे शकलातसंस्तारिकं व्यापारयितुं कल्पते, न येति तथा तंबोलीतुं कल्पते न वेति है, तथा जमनापकरणानि कथं ते पतस्तत्र मुल्कूल नी वस्तु कल्पते न वेति । अत्र शकलातसंस्तारिक पौषधम ये व्यापारथितुं कपाल काटिका 55दि कःकार पौषधमध्ये भाषितुं कल्पते तथा मुस्कलानी तोपकरणानां शुद्धद्यमानतानिषेधो ज्ञातो नास्तीति ॥ ११ ८० । ही०४ प्रका० । पौषधे उच्चारिते सामायिकोच्चारणम्पौषधे उच्चारित कः सावद्यव्यापारः स्थितो वर्तते यदर्थे सामायिक तथा पौधे देशाकाशिकी. सामायिकेच्या तत्र किं प्रयोजनम् है, इति। अत्र पौषधकरणा मन्तरं यत्सामायिकमुचाते त इजापतितनयाऽऽरांधानार्थे यत्पुनर्देशावकाशिन क्रियते तत् पौषधि निरवद्यतया गमनादौ प्र तेन सत्करणे किं प्रयोजनमिति, सामायिकमध्ये देशाव काशिककर तु सामायिके द्विघटिकामाने पारितेापेत तः परं विरतिकरणार्थम् । इति ॥ २३ प्र० । द्वी० ४ प्रका० । पौषधिकस्य मस्तकबन्धाऽऽदि पीपधिक आ मस्तक बन्चयित्वा देवमध्ये गत्वा देववन्दनं करोति न वेति ?, अत्र पौषधिकश्राद्धस्य मुख्यवृत्त्या मस्तकब धनाधिकारो नास्ति, कारणे पुनः " फालीओ " इति प्रसिद्धच बधनं देवमध्ये देवयन्दनादिविकि यमाणार्या छोटितं विषय विशेष हातो ना. स्तीति ॥ ३३ प्र० | डी० ४ प्रका० तथा अन्यतीर्थीयः कश्चियदि चारयति तदा किं नन्दि बिना प्युच्चार्य ति उत नन्दिसहितमेवेति श्रत्र अन्यतीर्थीयः कश्चिर्यव्रत मुच्चारयति तदा नन्दि विनापि उच्चाय मेषः कोऽपि ज्ञातो नास्तीति ॥ ३६ प्र० । तथा पौषधिका द्धो यथाहारं गृह्णाति तदा तस्य जेमनानन्तरं चैत्यवन्दनाकरणमन्तरा पानीयं पातुं शुद्ध्यति, न वा?, तथा स्वाभा विकउपधानवाहकाद्वाराऽऽहक पौषधिकः सन्ध्यासमय २८५ ( ११३७) व्यभिधानराजेन्दः । -- पोसह तिनकेनानुकमेव करोतीति त्र पौषधिदस्या दारणानन्तरं चैत्यन्दनायां फतायामेव पानीयं पातुं शुज्यति नान्यथा यतः पौषधमध्ये आस्पाऽपि बड़ी फि प्यारातिर्यतिवदेव वर्तते, तथा श्राहारग्राहक पौषधिकः स न्ध्यासमये प्रतिलेखनायां मुखबत्रिकां प्रतिलिष्य परिधानां शुकं परिवृत्य- "पडिला पडिलेहावो" इत्यादेश मार्गयित्वा तत्वं च विधाय उपथि मुख प्रतिलिप स्वाध्याये तस्कृत्यं मुखपदीं कृत्वा वन्दनकद्वयं दध्वा प्रत्याख्यानं कृत्वा० उपधि दिसा उपधि पडिले हुं" इत्यादेशद्विकं क्षमाश्रमण डिकेन मार्गयतीति सामाचारी वर्तते, उपधानपौषधिकस्यायं वि शेषास्थानीयपानानन्तरं गुरुपार्श्वे स्थापना ऽऽचार्थपा वा मुखवस्त्रिकां प्रतिलिख्य वन्दनकद्वयं दत्त्वा च प्रत्याख्यानं करोति न पुनः प्रतिलेखनासमये वन्दनंकदानप्रत्याख्याने करोति श्रन्यदन्तरं तु ज्ञातं नास्तीति ॥ ३७ प्र० । तथा रात्रिपौषधिः प्रवरभूम्योः कति मण्डलकानि करोतीति रात्रिपौषधिः पराभू ग्योतुर्विशतिमण्डलानि करोति द्वादश मध्ये द्वादश विश्व, "बारस बारस तिनि ।" इति वचनादिति ॥ ३८ प्र० । तथा यः करोति स वरानन्तरं पानीयं पिवति न वेति ?, अत्र यः सन्ध्यायां रात्रिपोषधं करोति तस्याहारीचा सर्व पोवार्यते, न देशन लेन दिवसभवतु मा वा परंपषधकरणानन्तरं स पानीयं न पिवतीति ॥ ३६ प्र० । तथा-त्रिविधाऽऽद्दा रामकृति के काशनका रानकेषु कृतेषु कम पनि निर्विकृविधा ssद्वारप्रत्याख्यानेषु एकान्तेन श्रार्द्रशाकभक्षणनिषेधो ज्ञातो नास्ति, संवरार्थे न गृह्णाति तदा वरमिति ॥ ४० प्र० । तथा दिवसपधिक सन्ध्यासमयप्रतिलेखनत्रिपौषधं करोति तदा किं प्रतिलेखनादेशान् पुनरपि मार्ग यति है, उस प्रामातैिरेव तैः शुद्धनीति प्रतिलेखना देशाः पुनर्माता बि४९० हो०४ प्रका० पोषये पारयम्पौषध सामायिकयोर्ग्रहणानन्तरं तयोः पारणकाले प्राप्ते ग्राहकशरीरे क्लामनायां किं विधेयमिति है अब पोषसमाधिः यदि ग्राहकस्य शरीरे कामना भवति, तदा समीपस्था श्रन्यवेलायां प्राप्तायां पारणविधि श्रावयन्ति, यावच्च न श्रा वितस्तावत् महती विराधनां कर्तुं न ददतीति संभाव्यते इति ।। ४३ प्र० । द्दी० ४ प्रका० । J तथापीषारपडे" इति पदमाहारपोष एव वर्तते नतु शरीरसत्कारादिपौषधेषु तेन स्वयं स्वशरीरे वैयावृत्यविलेपनाssदेः करणं कारापणं व कल्पते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - पौषधिकानां कारणमन्तरेण स्वयं विलेपना55दि कर्तुं कारयितुं च न करते यद्यन्या कलिया क रोति तदा कल्पतेऽपीति । ७० प्र० । सेन०२ उल्ला० । तथा - पौत्रप्राहिण्य आर्यिका गुरोः पुरो गूहलिकां कुर्वन्ति, न वा द्रव्यस्तवत्वादिति प्रश्ने, उत्तरम् - द्रव्यस्तवस्वान्न शुद्ध्यतीति । १६३ प्र० । सेन०२ उल्ला० । तथा गणीनां पुरः श्राद्धाः श्राड्यश्व पौषधदेशं मार्गयन्ति तदा गणय आदेशं ददति न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - उपधानाऽऽदिविशेष• Page #1161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोसह (११३८) पोसह अभिधानराजेन्डः। क्रियां विना पौषधं कुर्वतां श्राद्धाऽऽदीनां गणय आदेशंन द. ति व्याख्यातं, ततः केवलदिवसपौषधाक्षराणि क सन्ती. दति, श्राद्धाऽऽदयस्वादेशं मार्गयित्वा पोषधाऽऽदिक्रियां कुर्व- ति प्रश्ने, उत्तरम्-उत्तराध्ययनसूत्रपञ्चमाध्ययने-"अगारिसा. म्तीति वृद्धपरम्पराऽस्तीति । ४६ प्र० । सेन०३ उल्ला। तथा माइअंगाई"एतगाथावृत्त्यनुसारेण प्रतिपूरार्णपौषधकरणं प्रा. पोषधदिने श्राद्धः प्रतिक्रमणं कृत्वा देवान् वन्दित्वा पश्चा- यिकं शेयमिति ।३३६ । प्रकापौषधिका पट्टपट्टिकालिखितप्रति. त्पौषधं करोति, तथा कृतपौषधः शुद्धयति न वेति प्रश्ने, मा वासेन पूजयति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-पौषधिका कारणं उत्तरम्-पौषधं कालबेलायां कृत्वा प्रतिक्रमणं च कृत्वा | बिना पट्टाऽऽदिकं न पूजयतीति शेयमिति।३४०प्र०ासेन०३ उ. देवान् बन्दत इति विधिः, कालातिक्रमादिकारणवशानु जागा तथा-द्वादशवतपौषधवहने श्राद्धानांप्रारम्भवासरे कि. पूर्व देवान् वन्दित्वा पश्चात्पौषधं गृह्णातीति । १२५ प्र०। माचामाम्लं कार्यते,अथवा-एकाशनकं तथा भोजने चाऽऽर्दशा सेन०३ उल्ला । तथा-पौषधवतां श्राद्धानां कर्पूराऽऽदिभिः काऽऽदिग्रहणं कल्पते,न वेति प्रश्न उत्तरम्-श्राद्धानां द्वादशव. । कल्पाऽदिपुस्तकपूजा पौषधवतीनां श्राद्धानां च हलिकान्यः। तपौषधवहने यथाशक्ति तपो विधेयं, तथाऽशाकभक्षणंतु छनकाऽदिकरणं शुद्धधति, न वेति प्रश्ने,उत्तरम्-पौषधवती | कारणं विना न फल्पते इति । ३६८प्र० । सेन०३ उल्ला। मां पाद्धानां कर्पूरादिभिः कल्पादिपुस्तकपूजा न घटते.द्र । तथा-पौषधकारिणः श्राद्धाः कियती भुवं यावद्यान्तीति प्रव्यस्तवरूपत्वाद्, गुरुपारम्पर्येणाऽपि तथाऽहएत्वाञ्च, एवं श्ने, उत्तरम्-पौषधकारिणः श्राद्धा ईर्यासमित्यादिना ध. पौषधवतीनां श्राद्धानां गूहलिकन्यूछनकाऽऽद्याधिस्यापि शेय. मार्थ यथेष्टं व्रजन्ति , न चात्र भूभागनियम इति । ३६४.प्र. मिति । १७० प्र०। सेन०३ उला तथा पौषधपारणानन्तरं सेन० ३ उल्ला० । तथा-पौषधकं कर्तुकामस्योपवासं कर्तुका. श्रीसेघनेन पौषधस्य दूषणं लगति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्- मस्य च रात्रौ सुखभक्षिकाभक्षणं कल्पते, न वेति प्रश्ने, उ. पौषधस्य दूषणं न लगति, परं पद्धतिथिविराधना भवतीति तरम्-पौषधोपवासं कर्तुकामस्य श्राद्धस्य मुख्यवृष्या रात्री ॥२१६ प्र० । सेन० ३ उल्ला० । तथा देशावकाशिकं पौ. सुखभक्षिकाभक्षणं न कल्पते, यस्य तु सर्वथा तद्विना न षधस्थाने क्रियते, तत्र कः क्रियाविधिः ? । तथा-देशावका. चलति, स प्रथमरात्रिमहरद्वयं यावत्कदाचित्सुखभक्षिकां भ. शिकमध्ये पूजास्नात्राऽऽदिकं सामायिकं कर्तुं कल्पते, न वेति क्षयति, तथा पौषधस्योपवासस्य वा भक्तो न भवति, यदि प्रश्ने, उत्तरम्- देशावकाशिके "देसावगासिधे उवभोगपरि तु तत्कालानन्तरं भक्षयति, तदा भङ्गो भवतीति । ४५३ प्र०। भोगं पच्चक्खामि"इत्यायेवाऽऽचारविधिस्तथा स्थचिन्तिता. सेन०३ उल्ला श्रथ गणिज्ञानसागरकृतप्रश्नस्तदुत्तरं च य. नुसारेण पूजास्नात्राऽऽदिकं सामायिकं च क्रियते, न कश्चिदे. था-अन्यग्रामादागत्य पौषधं लात्वा पुनस्तत्र याति, न वेति कान्त इति । २२१ प्र० । सेन. ३ उल्ला । तथा-पौषधे प्रश्ने, उत्तरम्-पौषधविधिना याति,तदा निषेधो ज्ञातो ना. पारिते सामायिकपारणमुखवत्रिकायां प्रतिलिण्यमानायां स्तीति । ४८५ प्र० सेन०३ उल्ला० । तथैकप्रहरदिवसघटना. पञ्चेन्द्रियछिन्दने जाते सति पौषधपारणे मुखवस्त्रिका पुनः दनु पौषधग्रहणं शुद्ध्यति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-प्रहरदिप्रतिले निता विलोक्यते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-पौषधः पुनः वसाननु पोषधग्रहणं न शुद्धयतीति परम्पराऽस्तीति । ४६४ पारितो विलोक्यते इति । २४२ प्र० । सेन. ३ उल्ला तथा- प्रासेन ३ उल्ला। अथ देवगिरिसंघकृतप्रश्नः तदुत्तरं “ उम्मुकभूसणगो" इत्यक्षरानुसारेण पौषधमध्ये श्राद्धा च । यथा-ये श्राद्धा दैवसिकपौषधं गृहीत्वा पश्चात्संध्यायां मामाभरणमोचनमुक्तमस्ति,सांप्रतं तु ते परिदधति,तत्कथमिः भाववृतौ यदा रात्रिपौषधं गृह्णन्ति तदा पौषधसामायिककति प्रश्ने, उत्तरम्-उत्सर्गमार्गेण यदि सर्वतः पौषधं प्रतिपः रणानन्तरं" सज्झाय करूँ, बहुवेल करस्यु, उपधि पडिले हुँ"इ. यते तदा तन्मोचनमेव युक्तं, विभूषालोमाऽऽदिनिमित्तत्वेन स्यादेशान् मायन्ति, किंवा "सज्झाय करु" इत्यनेन सरतीति सामायिके तयोरपि निषिद्धत्वादिति वचनात् यदि देशतः क. प्रश्ने, उत्तरम्-'सज्झाय करूँ"। इत्यादेशमार्गणेन सरति,बहुवे. रोति तदा तत्परिधानमपि भवतीति । ३६५ प्र० । सेन. ३ लादेशमार्गणनियमस्तु ज्ञातो नास्ति, यतः स प्रातर्मार्गितोउल्ला०तथा-"मज्झरहाओ परोजाय दिवसस्स अंतो मुहुः उस्तीति बोध्यम् । ६० प्र० सेन०४ उल्ला० । तथोजयिनीसं. तो ताप घिप्पह" इति सामाचारीमध्ये विद्यते,तेन तृतीयया- घकृतप्रश्नः तदुत्तरं च-यथा कश्चित्पौषधिकधावको गु. मादक मध्याह्नात्परतः रात्रिपौषधः कर्तुं करोशिश गोरर्थपौरुषीचैत्यवन्दन वेलायामुपसर्गहरस्तोत्रं कथयति, न श्ने,उत्तरम्-मध्याह्वात्परतः गैष शुद्धः परं सांप्र. थति प्रश्ने, उत्तरम्-पौषधिकथाद्धो गुर्वग्रेऽर्थपोरुषीचैत्यय. तीनप्रवृत्त्या प्रतिलेखनात मग कायते, कि तु परत इति न्दने उपसर्गहरस्तोत्रं कथयतीति निषेधो ज्ञातो नास्ति, वृ। ३.२ प्र० । सेन०३उल्ला० । तथा-घटिकाद्वयाऽऽदिशपरा. द्धपरम्परया प्रवृत्तिरपि दृश्यते इति ८५ प्र० । सेन० ४ त्रिसमये पौषधं करोति कश्चित्, कश्चिच्च वस्त्राङ्गप्रतिले. उल्ला० । तथा-पौषधमध्ये सामायिकमध्ये चर्चालापकहु. खनां कृत्वा तत्करोति, तयोर्मध्ये कः शास्त्रोक्तविधिरिति प्र. डिका वाच्यते , न वेति प्रश्ने , उत्तरम्--सा मनसि श्ने, उसरम्-पश्चात्यरात्री पौषधकाले पौषधविधानमिति वाच्यते , न तु बाढस्वरेण, सिद्धान्तालापकगर्मितत्वादिति मौलो विधिःकालातिक्रमे तद्विधानं वापवादिकमिति ।३१२ ।१.१ प्र० सेन०४ उल्ला। तथा-पोषधे सामायिक च श. प्रासेन. ३ उल्ला०ा तथा पौषधिकस्य भोजनाक्षराणिक तहस्ताद बहिर्गमने ईर्यापथिकी प्रतिक्रम्य गमनागमनाss. सन्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-पौषधिकस्य भोजनाक्षराणि पञ्चा. लोचन क्रियते,नवेति प्रश्ने, उत्तरम्-पौषधमध्ये शतहस्ताद्ध. शकणों, भाजप्रतिक्रमणसूत्रचूण्यादौ व्यकानि सन्ती. हिर्गमनानन्तरमीर्यापथिकी प्रतिक्रम्य गमनागमनाऽऽलोच ति। ३३७ प्र० । सेन०३ उल्ला। तथा सिद्धान्ते "पडिपुराणं नविधिदृश्यते, सामाचार्यामपि कथितमस्ति, सामायिकेतुश. पोस पालेमाणे" इति पाठः, टीकायां प्रतिपूर्ण महोरात्रमिः तहस्तावहिर्गमनमेव नोक्तमिति।११३ प्र० । सेन० ४ उल्ला० । Page #1162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३६ ) अभिधानराजेन्द्रः | पोसह तथा - श्राद्धाः पौषधमध्ये सान्ध्यप्रतिलेखनाः काजकोद्धरणं क दा कुर्वन्तीति प्रश्ने, उत्तरम् श्राद्राः पौषधमध्ये सान्ध्यप्रतिलेखनादेशौ मार्गयित्वा प्रोच्छनकं व रवणकं च प्रतिलि ख्य यद्येकाशनकं तदा परिधानांशुकं परावृत्य " पडिलेहा प डिजेदााओ" इत्यादेवाय च काकोदरचं कु वेन्तीति भावप्रमुखप्रन्येषु प्रोक्रमस्ति पापप्र तिषिय का निष्कास्य परिहापयन्तीति परम्परातीति । १४५ प्र० । सेन० ४ उल्ला० । अथ उणीयार संघकृतप्रश्नः, दुसरं च यथा वृद्धि कलपादिने पोषचकर वामः पूजाकरणे वेति प्रश्ने, उत्तरम् - मुख्यवृत्या पौषधकरणे महान् लाभः, कारणविशेषे तु यथा प्रस्तावो भवति तथा करणे लाभ एवास्ति यतो जिनशासने एकान्तवादात वास्तीति । १५१ प्र० । सेन० ४ उल्ला० । पोपटिया पौषधमतिमा स्त्री० चतुरी मासांश्चतुःप पर्वप्रतिमाऽनुष्ठानखण्डितं पौषधं पालयतीति । चतुर्थ्यामुपा सकप्रतिमायाम्, घ० २ अधि० प्रश्न० । इह यद्वर्जयत्यसैौ तदाहअप्प विदृष्यलेडियसेनाथारवाई बजेनि । सम्मं च पालण माहारादीसु एयपि ।। १६ ।। 'अति' पदावरचे पदसमुदायोपचारात् 'प्याड लेहियति दृश्यम् ततश्चाप्रत्युपेक्षित दुष्यत्युपक्षितासंस्तारकादि वर्जयति परिहरतिक्षितमनि क्षितं दुर्निया शयनं तदर्थः सं स्तारका कम्यादिखण्डम् अथवा रायसतिः सर्वा 'ङ्गीणशयनं वा, संस्तारकश्च ततो लघुतर इति । समाहारद्वन्द्वात् शय्यासंस्तारकम् । श्रादिशब्दादप्रमार्जित दुष्प्र मार्जितव्यासंस्तारकमप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षितयार प्रय भूमिमत्रमार्जित बुध्यमार्जितोचारप्रवणभूमि चेति । सपायथागमंच अनुपालनमनाराधनं भोजनाऽऽन्या ऽऽदिभिः। श्रद्दाराऽऽदिष्विति सप्तम्याः षष्ठ्यर्थत्वादाहारश शेरसत्कारह्मचर्या व्यापारपोषचानाम् एतस्मिनिति पोषचे वर्जयतीति प्रकृतमिति तदेवमियं पोषचप्रतिमा प्रथा त न्तराऽभिप्रायेणाऽष्टम्यादिपर्वसु सम्पूर्ण पौषधाऽनुपालनारूपोत्कर्षतचतुर्मासनाथा भवति इति गाथाऽर्थः ॥ १६ ॥ पञ्चा० १० विव० । पोसहवय - पौषधव्रत- न० पौषध एव व्रतं पौषधव्रतम् । पौधोपवासे, घ० । आहारतनुसत्कारा-ब्रह्म सावध कर्मणाम् । स्थानः पर्वतद्विदुः पोष व्रतम् ॥ २६॥७०१ अधि० (अस्य व्याख्या 'पोसह' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १९१३३ पृष्ठे गता ।) पोसह विधि - पोषधविधि- पुं० । पोषं पुष्टिं धर्मस्य दधातीति दीपस्तस्य विधिः । आहारशरीरसस्कारमा वर्षाव्यापारे श्रतु० । प्राच मिजनार्थं कारिता प्रगुणिता व निरवद्यत्येन यथावसरं साधूनामप्युपाश्रयत्वेन प्रदेया, तद्दानस्य महाफलम् । यतः" जो देव उवलयं जह-वराण तवणिश्रमजोगजुत्तां । तेणं दिरणा वत्थ-नपत्तलयणासणविगप्पा ॥ घ०२ अधि० । आ०म० । पोसहिय- पौषधिक पुं० कृतोपपासाऽऽदी आपके डा० १ श्रु० १ ० । पोसहवास - पौषधोपवास-पुं० । पोषं पुष्टि कुशलधर्माण ध पदादारत्यागादिकमनुष्ठानं तत्पौषधम् अथवा-पौषयं पर्यदिन म्यादि तत्रोपवास उार्थ पौषधोपचा इति तेनोपसम्-स्थानहोरात्रं यावदिति पोषधोप वास इति । स० ११ सम० । स्था० । पर्वदिनोपवसने, भ० ०५०। आद्वारा 55दित्यागपषधरूपे उपवासे, कल्प [१] [अ०] [६] पक्षा० (चातुर्विध्यमस्य पीस' शब्दे भागे ११३३ पृठे क्रम पोसहवासरिय-पौषधोपनासनिरत-पुं० श्री० पौषधो पवासासक्ते, स० ११ सम० । पोसाऽसाद पौषाऽऽपाद पुं० पौषापादमास "पो. खासा मासे सर उफ्फोसे अद्वारसमुदिवसे भवद, सह उक्को से श्रद्वारसमुडुत्ता राती भवइ । " स १८ सम० । पोसिस देशी-दुः पोसित - त्रि० । पुष्टि नीते, उत्त० २७ श्र० । प्रोषित - त्रि० । प्रवासं गते, आचा० १ ० १ ० १ उ० । पोसी- पौषी-स्त्री० । पुष्येण नक्षत्रेण युक्ता पूर्णिमा पौषी, पौबे भवा वा पौषी । पौषमासंभाविन्यां पौर्णमास्याम्, अमायां च । चं० प्र० १० पाहु० । जं० । सू०प्र० । पोह-मोद-पुं० हस्ति गुल्फे दे० पोहण - देशी- लघुमरस्ये, दे० ना० ६ वर्ग ६२ गाथा । पोइसियत पृथक्विकसूत्र म० पृथक्यसूत्रेषु बहुवच नान्तसूत्रेषु भ० ५० ४ ७० । प्रयावदी प्रजापति -पुं० । "वाऽधोरो लुक” ॥ ८|४| ३६८ ॥ - तिरग्य प्रह्मणि सो - ०० ६६१ गाथा सिक्खु जगभ तेहि सारिक्खु ॥ १ ॥ " प्रा० ४ पाद । यदि स घटयति प्रजा पति: कुत्राऽपि लिखित्वा शिक्षाम् । यत्राऽपि तत्राऽप्यत्र जगति भय तस्याः सादृश्यम् । ( सूत्र ४०४ ) प्रा० ४ पाद । प्रस्सदृश घा० प्रेक्षणे, "दृशेः प्रस्सः ॥ ८६ । ४ । ३८३ ॥ इतो प्रस्त' आदेश 'प्रस्सदि । पश्पति प्रा० ४ पाद । प्राउ 'शब्दार्थे प्रा० ४ पाद । " । । माहम्ब-प्रायम् भव्य पोसहसाला-पोषाला स्त्री० [पौषधं पर्वदिनाऽनुष्ठानम् प्राइव-प्रायम् अन्य 'प्रात' शब्दायें प्रा० ४ पाद - । उपवासाऽऽदि, तस्य शाला गृहविशेषः पौषधशाला । झा०] १ श्र० १० । पौषधाऽऽदिग्रहणार्थे साधारणस्थाने, घ० । तथा पौधशालायां श्राद्धाऽऽदीनां पौषधाऽऽदिग्रहणार्थ साधारणस्थानस्य निरवद्यधर्मिंजनाऽऽकीर्ण स्थानविधापनं सावध 66 प्रायसः प्राउ-प्राइव प्राउ - प्रायस् - अव्य० | बाहुल्ये, प्राहस्व परिगस्वाः ॥ ८ । ४ । ४१४ ॥ अपभ्रंशे प्रायस इत्येतस्य प्राउ प्राइव प्राइम्ब परिणम्ब इत्येते चत्वार आदेशा भवन्ति ॥ Page #1163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माउ अभिधानराजेन्सः। प्रिय "अम्ने ते दीहर सोमण, अन्नु त भुभ जुअलु । ते सम्मुह संपेसिभा, दिति तिरिच्छी घत्त पर ॥४॥ अग्नु सधणपणहारु तं अन्नु जि मुहकमलु ॥१॥ एसी पिउ रूसेसु हउँ, रुट्ठी मर अणुणे।। भग्नु जिकेसकलाचु, सुन्नु जि प्राउ विहि। पग्गिम्ब पर मणोरहर. दुकरु दाउ करो॥॥" प्रा०४ पाद । अब णिम्बिणि घडिन, स गुणलावरणणिहि ॥२॥ प्रिय-प्रिय-त्रिका "वाऽधोरो लुक"।८।४।३६८॥" इति र. प्राइब मुणिहिंवि भंतडी, ते मणिप्रणा गणंति । अखद निराम परमपद, अन्ज वि लउ न लहंति ॥३॥ लुग्वा अपभ्रंशे । “जइ भग्गा पारकडा, तो सहि मझु प्रियेभंसुजले प्राइम्ब गोरिभ-हे सहि उब्धत्ता नयणसर। णा".प्रा०४ पाद । SARAMARNERNMENERRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRREKKEREKASARREARRIERENERA *WERAIKSHA इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकरूपश्रीमद्भद्वारक-जैन श्वेताम्बराचार्य श्री श्री १००० श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अनिधानराजेन्द्रे' पकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् ॥ RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRHERMERRRRREE IIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII •मन्ये ते दीर्घलोचने , भन्यत्तद् भुजयुगलम् । मन्यः स धनस्तनभार-स्तदन्यदेव मुखकमलम् ॥ १॥ अन्य एख केशकलापः, स भन्य एव प्रायो विधिः। बेन नितम्बिनी षटिता' सा गुणलावण्यानिधिः ॥ १ ॥ जागो मुनीनामपि भ्रान्ति-स्तेन मयिकान् गणयन्ति । अक्षये निरामये परम-पदेऽद्यापि लयं न लभन्ते ॥ ३ ॥ अश्रुजलेन पायो गौर्याः , सखि ! उद्वृत्ते नयनस रसी। तेन (अपरेण ) संमुखे सपोषिते दत्तस्तिर्यग्धातं केवलम् ॥ ४ ॥ एष्यति प्रियो रुषिच्या-म्यहं रुष्टां मामनुनयति । प्राय रतान्मत्तोरथान् , दुष्करान् दयिता करोति ॥ ५॥ . Page #1164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। फग्गू Shabar AAA फकारः तीर्थस्थनद्याम् , याच। अजितजिनस्य स्वनामख्यातायां प्र. थमा ऽयिकायां च । स्त्री "फग्ग अजियस्त ।"ति।स। प्रव० । वसन्तसमये मिथ्यावाक्ये च । पुं० । वाच । फग्गुण-फाल्गुन-पुं० फल्गुश्चूर्ण भेदो नीयतेऽस्मिन् । नी-दुः। फाल्गुने मासे, फल-उनन्-गुक च स्वार्थे प्रशाऽऽधण । अर्जुने मध्यमपाएडवे.पाचा फालानी पौर्णमासी अत्र । मास अण् । वैत्रावधिके द्वादशे मासे,वर्षस्य हि चैत्राऽऽदित्यम । वाच । "फग्गुणे अम्भसंघडा" स्था०४ ठा०४ उ०।" सिसिरो फग्गुणमाहो।" पाइ० ना• २०७ गाथा। प्रा०म० स०। फ-फ-पुं०१५.क-डः । पारदर्शमे, देवे, न्याये, ज्ञाने, नीरधौ, फग्गुणी-फान्गनी-स्त्री० फल-उनन्-गुरु-गौराऽऽदि-कीए । अर्के, माहेन्द्रे, जालके, अहेः फूत्कारे च। अयने, बीजे, | काकोऽम्बरिकायाम् , अश्विभ्यषधिके भगदेवताके एकादश, फले, निष्फले, ध्वनी, वक्रवर्मनि, लाभे, लोभे, विपर्यये, । अर्यमदेवताके द्वादशे नक्षत्रे च । वाचा"महा य दो फग्गु. मूर्ती, अयने, एका० । रूक्षकथने, झम्झावाते, वर्द्धके, जृम्भा- णीमो य ।” स्था०२ ठा०३ उ० । अनु । श्रावस्त्यां नगर्यो अविष्कारे, फलभागे च । न०। वाच०। परोक्षे, हिते च। वास्तव्यस्य शालेतिकापितुर्ग्रहपतेः स्वनामण्यातायां भा. त्रि० । एका०। र्यायाम् , ( तत्कयोपासकदशाया दशमे ऽध्ययने 'सालेश्या. फंद-स्पन्द-ईपरकम्पे, भ्वादि० श्रात्मक प्रक० सेट् इदित् । पिया' शब्दे दृश्या) फल-उनन् -गुक्च,स्वाथे प्रज्ञाऽऽद्यण , "पस्पयोः फः॥८।२।५३ ॥"रति प्राकृतसत्रेण स्पस्य डीप् । अश्विन्यबधिके एकादशे, द्वादशे नक्षत्रे च । फल्गुनी. फः। फंदर । प्रा०२पाद । " इमे य घद्धा फंदंति, मम हत्थ. भिर्युका पौर्णमासी अण् । चान्द्रफाल्गुनमासपौर्णमास्याम् , जमागया" अस्थितिधर्मतया गन्धरा दृश्यन्ते सुरक्षिता वाच । सू० प्र० १० पाहु०६ पाहु०पाहु० ज०।०प्र०। अपि यान्तीरपर्थः। (४५ गाथा) उत्त० १४ अ०। फग्गुमई-फल्गमती-स्त्री० । कस्याश्चिनटव्यां निवसतोरुरका फंदत-स्पन्दमान-त्रि०। षिचलति, स्था० ६ ठा० । " फंदते लकलिङ्गाभिधानयोभ्रानोश्चौर्यवृष्या जीवतोः स्वनामबिण मुखए ताहे।" स्पन्दमानोऽपि ततः पाशान्न मुच्यते। ख्यातायां भगिन्याम , प्राचा० २ श्रु०१चू० २ ० १ उ । सूत्र १ श्रु०४ १०१ उ०। (तत्कथा द्रव्य शय्योदाहरणावसरे 'सिजा' शब्दे वक्ष्यते ) फंदण-स्पन्दन-न० 1 किञ्चिश्चलने, शा०१ श्रु०३ अ.।। फग्गमित्त-फल्गमित्र-पुं। पार्यपुष्पगिरेः शिष्ये प्राचार्यध. फंदिय-स्पन्दिन-त्रि० । ईषच्चालिते, जं०१ वक्ष० । वीणा- नगिरेगुरौ गौतमसगोत्रे स्वनामख्याते स्थविरे , "थेरस्त मधिकृत्य-"फंदियाए" स्पन्दिताया नखाग्रेण स्वरविशे- ण अजपूसागारस्स णं अजपूसगिरिस्स कोसियगुत्तस्स अजफग्गुमित्ते थेरे षोत्पादनार्थमीषच्चालितायाः। जी०३ प्रति०४ अधिo. अतेवासी गोयमस गुत्ते।" कल्प. २अधि. ८क्षण । "वं. "चुलुचुलिअं फंदिनं फुरिनं।" पाइ० ना० १६० गाथा। दामि फग्गुमित्तं, गोयम धणगिरि च पासिटुं । " कल्प०२ फंफसअ-देशी-लताभेदे, दे० ना० ६ वर्ग० ८३ गाथा । अधि०८ क्षण। फंस-स्पृश-स्पर्श, तुदा०-१र०-सक० । अनिट् । “ स्पृशः फग्गुरक्खिय-फल्गुरक्षित-पुं०। दशपुरनगरस्थसोमदेवद्विजात् फास-फंस-फरिस-छिप-छिद्दालुक्खालिहाः" ॥८।४। रुद्रसोमायां भार्यायामुत्पन्ने प्रार्यरक्षितस्याऽऽचार्य्यस्यानुजे २८२ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण स्पृशतेरेते सप्ताऽऽदेशाः। स्वनामख्याते श्रमणे, (तत्कथा 'मजक्विय' शब्द प्रथम. 'फासह । फंसह । फरिस। प्रा०४पाद।"फरिसो फंसो" भागे २१२ पृष्ठे गता) “माया य रहसोमा. पिया य ना पाइ० ना०२४० गाथा। मेण सोमदेव त्ति । भाया य फग्गुरक्खिय, तोसलिपुत्ता य विसंवद-विरोधे, "विसंबदेर्विग्रह-विनोट्ट-फंसाः" ॥१४॥ आयरिया ॥ ७७५ ॥" आव० १ अ । दर्श। विशे• पा. १२६ इति प्राकृत सूत्रेण विसंपूर्वस्य बदेः फंस प्रादेशः। म.। स्था० । प्रा० चू। प्रा०४पाद। फगुसिरि-फल्गुश्री-पुं• ! अस्यामवसर्पिण्या दुषमायामन्ते फंसण -देशी-युक्तमलिनयोः, दे० ना०६ धर्ग०८७ गाथा। भविष्यस्य चरमयुगप्रधानस्य दुःप्रसहाचार्यस्य गच्छस्य ख. फंसली-देशी-नवमालिकायाम् , दे० ना० ६ वर्ग ८२ गाथा।। नामख्याते श्रमणे, तादृश्यां स्वनामख्यातायां श्रमण्याम्, ति०। फकई-भगवती-स्त्री० । भगोपेतायाम् " चूलिका-पैशा " दुप्पसही अणगारो, नामेण अपच्छिमो पधयणस्त। विके तृतीय-तुर्ययोरायद्वितीयो" ।।४। ३२५ ॥ इति फग्गुसिरी नामेणं,साधिय समयाण पच्छिभया"॥ ३९॥ति.। प्राकृतसूत्रेण पैशाच्या फः। प्रा०४ पाद ।। जिनदत्तधायकस्य स्वनामण्यातायां श्राविकायाम् , स्त्री. । फग्गु-फन्गु-त्रि० । फल गुरु च । रम्ये. सारे,निरर्थके,वाच।। "तं पिणं जिण दत्तफग्गुसिरीनाम सावगमिहुणं । " महा०४०। निस्सारे, मा०म०१०। मल्पे च । प्राचा०१ श्रु. ३ अ. ३ उ० । धुलिरूपे चूर्णभेने काकोद) एम्बरिकायाम, गया। फग्ग-देशी-बसन्तोत्सबे, देना.६ वर्ग२ गाथा। Page #1165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फड 9 फड - देशी- अद्विसर्वाङ्गफण्योः दे० ना० ६ वर्ग ८६ गाथा । फट- पुं० । स्फुट विकाशे । अच् । सर्पाणां फणायाम्, वाच० । उपा० २ श्र० । भ० । ज्ञा० । स्फट-परिहासे, चुरा उभ० सक० सेद् दित्स्फण्ड यति । अपस्फण्डत् । वाच० । , 39 - , । । ।" " फडण - स्फटन-न० | विशोधने नि० चू० ३ उ० ।" भोश्रो फडा फत्थे । पाइ० ना० १५१ गाथा । फडाडोव स्फटाटोप पुं० फखाऽऽडम्बरे, "फडा डोक र।" उपा० २ ० संरम्भे म० १०० हा फडिय स्फटिक पुं० । स्फटिरिव कायति पायें कन् । स्वनामख्याते स्वच्छे मयौ, वाच० । स्फटिकनिभे वस्त्रे च । "फडिगपाहाणा ।" स्फटिका अच्छा इत्यर्थः । स्फटिकनिभं वस्त्रम् । नि०यू०७७० | स्वायें अय् स्फाटिकमप्यत्र वाच० फडीय स्फटीक पुं० [फडिय' शब्दार्थे नि० चू० ७ ० । पड़ स्पर्द्ध पुं० समुदाये, आ० ० १ अ संघा पराभिभवेच्छायाम्, वाच० । फड्डग-स्पर्द्धक-न॰ । स्पर्द्धः, संघर्षः, समुदायः, पिण्डह तरम् [स्पर्ट पर स्पर्द्धकम्। समुदाये, भा० ० ० तस्थ पव्वश्यगा फडुगेहिं पंति । " श्र० म० १ श्र० । स्प सोत्तरवृद्धया वर्गणा अत्रेति स्पर्द्धकम्। "लम् इतिवचनादधिकरणे घः । वर्गणासमुदाये, क० प्र०१ प्रक० कर्म । श्रथ स्पर्द्धक इति कः शब्दार्थः । उच्यते- एकोत्तरवी. भागवृद्धा परस्परं स्पर्द्धन्ते वर्मणा पत्र तत्कर्म० कर्म अथ किमिदं स्पमिति, उच्यते तदनन्तानन्तैः पर माभिर्निष्पन्नान् स्कन्धान् जीवः कर्म्मतया गृह्णाति तत्र चैकैकस्मिन् स्कन्धे यः सर्वजघन्यरसः - परमायुस्तस्याऽपि रसः, केवलिया छिद्यमानः सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणान् रसविभागान् प्रतीति, अपर एकाधिकान् अन्यस्तु चिका न एवमेकोसरा वृदधातात्रेयं पादयः परमायुः सिद्धा नम्यमानामध्येभ्योऽधिकान् रसभावान् प्रयच्छ ति। तत्र जघन्यरसा ये केचन परमाणवस्तेषां समुदायः समानजातीयत्वादेका वर्गणा इत्युच्यते श्रन्येषां त्वेकाधि करसभावयु जो समुदायो द्वितीया वर्गणा इयधिकरभागयुक्तानां समुदाय दुतीया व नया दिशा एकैकरसा विभागवृद्धानां परमाणूनां समुदायरू पा वर्गणा: सिद्धानामनन्तभागकल्पाः अभव्येभ्यो ऽनन्तगुणा वाच्याः, एतासां च समुदायः स्पर्द्धकनुष्यते इस ऊर्द्धमे कोरया निरन्तरं वृथा मनोरोन लभ्यते कि तु सर्वजीयानन्तरेव रसमागैस्ततस्तेनैव क्रमेण ततः प्रभूति द्वितीयं स्पर्द्धकमारभ्यते, एवमेव च तृतीयम् ए वं तावद्वाच्यं यावदनन्तानि स्पर्द्धकानि तेभ्य एव चेदानों प्रथमादिवर्गणा गृहीत्वा विशुद्धिप्रकर्षवशादनन्तगुणाहीन. राः कृत्वा पूर्ववत् पर्द्धकानि करोति न वैभूतानि कायनापि पूर्व कृतानि ततोऽपूर्व इत्युच्यन्ते पं० सं० १ द्वार । आ० चू० । गवाक्षजालाऽऽदिद्वार विनिर्गतप्रदीपप्रभाया वावधिज्ञानप्रभायाः प्रतिनियते विच्छे दविशेषे, तथा चाऽऽ६ जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः स्वोप भाष्यटीकायाम् स्पर्द्धकोऽयमचधिविच्छेद विशेषः "इ " 1 1 (१९४२) अभिधानराजेन्द्रः | , तु म ति | नं अपवरकाऽऽदिजालकान्तरस्थप्रदीपप्रभानिर्गमस्था नानीवाधिज्ञानावरणक्षयोपशम अन्यायधिशाननस्थानानीह फडकान्युच्यन्ते । विशे० आ०म० । फडगफडपवेस-एक स्पर्धमवेश त्रि० स्पर्धके प्र विशत्न पुनः सर्वेऽप्येकत्र पिण्डीभूयेति भाषा ० १३० फरसुराम २ प्रक० । फङ्कगणिदेस स्पर्द्धकनिर्देश पुं० [स्पर्द्धकप्ररूपणायाम् ० , प्र०२ प्रक० । फट्टगवई - स्पर्द्धकपति-पुं० चौराखां मूलप नामन्यासां पल्लीनां पत्यौ, मूलपलीं मुक्त्वा या अन्याः पल्ल्य स्तासामधिपतयखपरावर्तिनःस्पतय उच्यन्ते । वृ० १ ० ३ प्रक० । फट्टगावहि सर्द्धकावधि पुं० । अपवरकजालकान्तरस्थत्रदीपप्रभो अवधिज्ञानभेदे, " जालंतरत्थदीव-प्पडोवमे फ गावही ढाह नित्तो विमलो मंदो, मलीमसो मीसरूवो य ॥ १ ॥ " नि०० १० । (तद्वक्तव्यता 'ओहि ' शब्दे तृतीयभागे १४४ पृष्ठे गता ) फड्डाल - स्पर्द्धपतु भि० 46 श्राविल्लोल्लाल - वन्त-मन्ते-र मणा मतोः " ॥ ८ । २ । १५६ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण मतोः स्थाने श्रालाऽऽदेशः। संघर्षवति, प्रा० २ पाद । फणफण-पुं० । स्त्री० 1 फण-अच् । दर्व्याकारे संकोचवि काशयति सर्वमस्तके बाद सत्यप " 33 19 डागा । 'श्राव० ४ श्र० । " भोश्रो फडा फणत्थे । पाइ० ना० १५१ गाथा । गतौ, अनायासेनोत्पत्तौ धा० । वाच० । फल-फणन न० क्काथने, सूत्र० १० ४ ० २० । फणस - पनस-पुं० । पन्- असच् । घ- परिक्षा - पनस - पारिभद्रे फः ॥ ८ । १ । २३२ ।। इति सूत्रेण फः । प्रा० १ पाद । कण्टकिफले, वाच० । बहुबीजके वृक्षभेदे, जी० १ प्रति० । प्रशा० रा० । " पाटि परुष परि० 33 फणि (न्) - फणिन् पुं० । फणाऽस्त्यस्य इति । सर्पे, फ णवदादयोऽप्यत्र । वाच० । चिट्ठर फणी" प्रा०१ पाद। स्था०। तद्रूपे लाने च । प्रव० २६ द्वार। " उरश्रो श्रद्दी भुअंगो, भुगमो फणी भुयो ।” पाइ०ना० २६ गाथा । फणिकेउ फणिकेतु-पुं० । नागराजे, टिंपुरीवर्णकमधिकृत्यदक्ष जयति बेल्लणपायों, भावुक तप क णिकेतुः । " ती० ४२ कल्प | फणिह फसिह पुं० [कते ०२ अधि० "संडासच कवि (लि) " कथि केशसंयमनाथ कतम् सू० १ श्रु० ४ ० २ उ० । फगुजय-फोन वनस्पतिकाय मेदे महा०१ फर- देशी फलके, ००६२ गाथा | फरसुराम-परशु (शु)आराम-पुं० परशुधारी रामः । शाक० । जमदग्निपुत्रे स्वनामख्याते ब्राह्मणे, येन सप्तकृत्वः क्षत्रिया व्या पादिताः । (तत्कथा' जमदग्गि, ' शब्दे चतुर्थभागे १४०१ पृष्ठे गता ) " पर्शुरामः सप्तकृत्वः, क्षितिं निःक्षत्रियां व्यधात् ।” आ०क० १ अ० रा० । - Page #1166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४३ ) अभिधानराजेन्द्रः । फरिस फरिस स्पर्श-पुं० [करिसी फंसी "पाना० २४० गाथा । स्पृश - घा० 1 स्पर्शे, प्रा० ४ पाद | फस पर 4 " या । स पारिभद्रे कः || १२३२ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण पस्य फः प्रा० १ पाद । निष्ठुरवचने, वाघ० । जी० ३ प्रति० १ अ धि० २ उ० । प्रश्न० । औ० मर्मोद्घाटनपरे वाक्ये, आचा० २ श्रु०१ चू०४ श्र० १ उ० । परुषं वचः परचेतोविकारीति । सूत्र० १४० १४ श्र० । पीडाकारिवचने च । “या वि किंचि फस वरजा ।" सूत्र ०१ श्रु०१४ प्र० । कर्मसंश्लेषाद् यावानिर्ममत्वादल्पसचैरनुष्ठेयात्कर्कशमन्तप्रान्ता ऽऽहारोपयोगाद्वा पद चम् । संयमे, सूत्र० १ ० १४ अ० " ओर तहीयं फरुसं बि. या । " सूत्र० १ ० १४ उ० । तीछे, " फरुला उदीरिश्राचा० २ ० ४ ० । कठोरे, उत्त० १ ० । "कढिला य कक्कसा निट्-ठुरा खरा खप्पुरा फरुला ।” पाइ ना० ७४ गाथा । परुषं कर्कशमिति । प्रश्न० १ ० द्वार । सूत्र ० | उत्त | ज्ञा० । “पुठ्ठे फरुलेहि माहखे ।" परुषैर्दण्डकाSS. दिभिः वाभिर्वा । सूत्र० १०२ अ० २ उ० 1 दुष्टे, "फरुसादुतिवियाई । " परुषाणि कर्कशानि दुष्टानि वा । आचा० १ ० १ ० १ उ० । अनार्ये पीडाकारिणि, सूत्र ० १ श्रु० २ श्र० १ उ० । " फरुसियं खो वदेति । " परुषतां क कशतां पीडाकारितामिति । श्राचा० १ श्रु० ३ ० १ उ० । चित्रवर्णे च । त्रि० । नीलीभिष्टयाम्, वाच० । फरसग परुषक पुंकुम्भकारेफर' शब्देन समयस ज्या कुम्भकारोऽभिधीयते । विशे० । बृ० ४ उ० नि० चू० । (तद्वक्तव्यता 'श्रीणद्धि' शब्दे चतुर्थभागे २४१२ पृष्ठे गता ) फरसच परुषत्व १० निष्ठुरभाषितायाम् व्य १ फरसधरिसणा - परुषधर्षणा स्त्री० । निष्ठुरवचननिर्भर्त्सने, श्री० प्रश्न० । फरुस मासि ( ख ) - परुषभाषिण - पुं० । निष्ठुरभाषिणि, व्य० १ उ० । उपपादप-परिध परिक्षा पन फरसवपय-परुषवचन- २० जन्मतः दुरी त्यादिनिष्ठ रचनात्मके वचनमे स्था० ६ ० | प्रब० ० फसवं नि० ० १० तब फरुवा मासा, गुरुभू प्रोपाथी । सचा विसान बचच्या, जयो पापस्स आगमो ॥ १ ॥ तथैव परुषा भाषा निष्ठुरा - भावस्नेहरद्विता, गुरुभूतोपघातिनी- महाभूतोपघातवती, यथा कश्चित्कस्यचित् कुलपु· प्रत्वेन प्रतीतस्तदा तं दासमित्यभिद्धतः, सर्वथा सत्या - पिसा बाह्यार्थ तथाभावमङ्गीकृत्य न वक्तव्या यतो यस्या भाषायाः सकाशात् पापस्याऽऽगमः- अकुशलबन्धो भवतीति सूत्रार्थः । दश० ७ श्र० । अथ परुषवचनमाह दुहिं च फसवणं, लोइय लोउत्तरं समासेणं । लोउतरियं उप्पं लोइय बोरुडेमिमं वायं । ४० ॥ द्विविधं वचनं समासतो भवति सोफि रिकं च । तत्र लोकोत्तरिकं स्थाप्यं, पश्चाद्भविष्यत इत्यर्थः । लौकिकं तु वचनमिदानीमेव बच्चे समेा भवति । फरुसवयण I अमरता, बाइस्स कुटुंबियस्स विग घ्या । शासि च फसवणं श्रामिसपुच्छा समुप्पां ॥४१॥ व्यावस्थ, कुटुम्बिनोविच घृता' दुहितरी अम्य समर क्ले. परस्परं सख्यौ इत्यर्थः । तयोश्च परुषवचनमामिपृच्छया समुत्पन्नम् । कथमिति वच्यतेकेणाऽऽणीतं पिसियं, फरुसं पुख पुच्छिया भणति वाही । किं तु तु पिचार, आगीचं उत्तरं पोच्छे । ४२ ।। ध्याचहिया पुलमानीतं ततः कुटुम्बडिया सा भाई पिशितमानी तो ध्याता पृष्टा सती परुषवचनं भणति - किं खु त्वदीबेन पित्रा प्रा भीतम्। कुदिता भणति - किं महीपताव्यापी न पुङ्गलमानयेत् । एवं लौकिकं परुषवचनम् । अथोत्तरं लोको सरिकं वक्ष्ये । • प्रतिज्ञातमेवाऽऽह - फरुसम्पि चंडरुद्दा, अवतिलाभे य सेह उत्तरिए । चालते वाडित्ते, वावारिऍ पुच्छिएँ खिसि ।। ४३ ॥ परुषवचने चण्डरुद्र उदाहरणम् अवन्त्यां नगर्या शैक्षस्य लाभस्तस्य संजातम् । इति तदुदाहरणस्यैव सूत्रकृता पत लोकसरि परुषवचनम् एतेषु स्थानेत्यद्यते (आ लत्ते इत्यादि ) श्राप्तो नाम अयं किं तब वर्तते ?, इत्येवमाभाषितः। व्याहृतः इत पहीत्येवमाकारितः। व्यापारित:-इदमिदं च कुर्बिति नियुक्तः पृष्ट-किं किंवा न कृतमित्या दि पर्यनुयुक्त पिवेत्येवमादिष्टः पतेषु पञ्चसु स्थानेषु परुषवचनं संभवति इतिनियुकिगाथासमासार्थः । श्रथैनां विवरीषुश्चण्डरुद्रदृष्टान्तं तावदाहभोसर सवयंसो, इन्भतो त्यभूसियसरी दोसयम चंदरु एस पर्वचेति अम्हे ति ॥ ४४ ॥ भूति भायय आणते, दिसतो दिवं गता मिता । बत्तोसरणे पंथ, पेहावय दंडगाऽऽउट्टो || ४५ | - - विम्यां नगर्यो रथयात्रोत्सवे 'सोसरये बहूनां साधूनाम् एकत्र मीलकः समजनि, तत्र सयपस्यो भूषित शरीर इभ्यसुतः साधूनामन्ति के समायातो भणति मां प्रवाज यत । ततः साधवः चिन्तयन्ति एष प्रपञ्चयति- विप्रतारयत्य • स्मानिति । तैश्वण्डरुद्राऽऽचार्यस्य दर्शनं कृतं. घृष्यतां कलिना कलिरिति कृत्वा । ततश्चण्डरुद्रस्योपस्थितः - प्रवाजयत मा. मिति । ततस्तेनोक्रम् भूर्ति क्षीरमानय ततस्तेन भूतापानी तायां लोचं कृत्वा दीक्षितस्ततस्तदीयानि मित्राणि क्रन्दित्वा प्र भूतं रुदित्वा स्वस्थानं गतानि । वृत्ते च समवसरणे चण्डरुद्रण शैक्षो भणितः पन्थानं प्रत्युपेक्षस्व येन प्रभाते बजानः, ततः प्रत्युपेक्षिते पथि प्रभाते पुरतः पृष्ठतरड (बचत) मजति स ची गच्छन् स्थाणावास्फिटित स्तब्ध रुद्रो कष्ट इति भवन् शिरसि दण्डकेन ताडयति । शैक्षो मिथ्या दुष्कृतं करोति, भणति च सम्यगायुक्तो गमिष्यामि । ततश्चण्डरुद्रस्तदीयोपशमेन श्रवृत्तश्चिन्तयतिः अहो अस्याभिनवदीक्षितस्यापि कियान् रामप्रकर्षो नम Page #1167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फरुसवयण अभिधानराजेन्द्रः । फरुसवयफ तु मन्दमागस्य चिरप्रवजितस्याप्येवंविधः परमकोटिमुप- लघु। व्याहतस्यैतेध्येव तूष्णीकाऽऽदिषु लघुमासादारब्धं पर गतः क्रोध इति परिभावयति, सपकश्रेणिमधिरूढस्य गुरुकान्तम्। व्यापारितस्य गुरुमासाऽऽदिकं छेदान्तम्। पृष्टस्य केवलज्ञानमुस्पेदे । एवं चण्डद्रस्थ दुष्ट शैक्ष इत्याविभणन. चतुर्लघुकाऽऽदिकं मूलान्तम्। निसृष्टस्य चतुर्गुरुका दिकममिव परुषवचनं मन्तव्यम् । नवस्थाप्यान्तं द्रष्टव्यम् । एवमाचार्येणैव भिक्षोरालप्ताऽऽदिषु अथाऽऽलप्ताऽऽविपदेषु परुषं मषतीति पवेषुलघुभिन्नमासादारण्धं मूलान्तम् । स्थविरस्य गुरुविंशतियदुक्कं तस्य व्याख्यानमाह रात्रिन्दिवादारब्धं छेदान्तम् । शुल्लकस्य लघुर्विशतिरात्रिन्दि. पादारब्धं षद्गुरुकान्तं प्रायश्चित्तं प्रतिपत्तव्यम् । एवं तावदातुसिणीए हुंकारे, किं ति व किं वडगरं करेसि ति। चार्यस्याऽऽचार्यादिभिः पञ्चभिः पदैः समं चारणिका दर्शिता। किंणिव्वृत्ति ण देसी, केवतियं वावि रडसि सि४ि६|| साम्प्रतमुपाध्यायाऽऽदीनां चतुर्णामप्याचार्याssप्राचार्याऽऽदिभिरालप्तो-व्याहतो व्यापादितः पृष्टो निस्यो दिपदपञ्चकेन चारणिकां दर्शयतिया तूष्णीको भवति, कारं वा करोति, किमिति वा भणति, पायरियादभिसे गो, एकगहीणो तहिक्किणा भिक्खू । किंवा बटकर करोषीति बबीति, किं निवृत्ति न दवासीति थेरो तु तहेकेणं, थेरा खुडो वि एक्केणं ।। ५१ ॥ छूने, कियद्वा रटिष्यसीति भणति । एते सर्वेऽपि परुषवचन प्राचार्यादभिषेक-उपाध्याय भालापकाऽदिपदानि कुर्वाणप्रकाराः। . अयेतेष्वेव प्रायश्चित्तमाह श्वारणिकायामेकेन प्रायश्चित्तपदेन हीनो भवति । तद्यथा उपाध्याय प्राचार्यमालपति-क्षमाश्रमणाः कथं वर्तन्ते ?. इ. मासो लहुमो गुरुगो, चउरो मासा हवंति लहु गुरुगा। त्यादि । पधमालप्ते तूष्णीक प्रास्ते भिन्नमासो गुरुकम् । हुङ्कार छम्मासा लहु गुरुगा, छेदो मूलं वह दुगं च ।। ४७॥ करोति मासलघुकाऽऽदिकं मूलान्तम् , निसृष्टस्य वा । एवं लघुको मासो गुरुको मासश्चत्वारो मासा गुरवः षण्मासा तेनैव चारणिकाक्रमेण तावन्नेयं यावदुपाध्यायनाचोयस्य लघधः षण्मासा गुरषः छेदो मूलं, तथा द्विकमनवस्थाप्यं पा. निसृष्टस्य किमेतदारटसीति त्रुवारपस्थानवस्थाप्यम् । अर्थाराश्चिकं चेति। पाध्याय उपाध्यायमालपति तत पालताऽऽदिषु पञ्चसु एतदेव प्रायश्चित्तं चारणिकया गाथायेन दर्शयति- पदेषु तूष्णीकताऽऽदिभिः षभिः पदैः प्रत्येकं चार्यमाणैपायरिएणाऽऽलित्तो, पायरियो चेत्र तुसिणिो लहुओ। लघुभिन्नमासादारब्धं मूले तिष्ठति । एवमुपाध्यायेनैव भि. क्षोरालप्ताऽऽदिषु पदेषु तूणीकताऽऽदिभिरेव पदैर्गुरुविंशरडसि त्ति छग्गुरुं तं, वाहित्तू गुरुगाऽऽदिछेदंतं ॥४॥ तिरात्रिन्दिवादारब्धं, छेदान्तम ॥ स्थविरस्य लघुविंशतिरा. लडुगाई वावारिते', मूलंतं गुरुगाई पुच्छिए णवमं । त्रिदिवादारब्धं षदगुरुकान्तम् । क्षुल्लकस्य पश्चदशरात्रिन्दिवा. णीसटे छसु पदेसु, छलहुगाऽऽदि तु चरिमंतं ।। ४६ ।। । दारब्धं षट्लघुकान्तं द्रष्टव्यम् । यदा तु भिक्षुराचार्याऽऽदीनाप्राचार्येणाऽऽलप्त प्राचार्य एव तूष्णीको भवति मासा लपति तत उपाध्यायाऽऽदेरेकेन पदेन (न) हीनो भवति,सर्व. लघु । अथवा-हुकाराऽऽदिकं रटसीति पर्यन्तं करोति तदा | चारणिकाप्रयोगेण लघुकं-पश्चदशरात्रिन्दिवादारब्धं प्रायश्चि. षड्गुरुकाम्तम् । तद्यथा-हुङ्कारं करोति मासगुरुकमिति ।। तं मूले तिष्ठतीत्यर्थः ॥ यदा तु स्थविर प्रालपति तदा भिक्षो. भाषते न मस्तकेन वन्दे इति प्रवीति चतुर्लधु । किं घटकर रेकेन पदेन हीनो भवति, सर्वचारणिकाप्रयोगेण गुरुकरोषीति युवाणस्य चतुर्गुरु । किं निवृत्ति न ददासि इति राशिन्दिवादारब्धं छेदे तिष्ठतीत्यर्थः ॥ यदा तु क्षुल्लक श्राभाषमाणस्य षड् लघु। कियन्तं घा कालं रटसीति त्रुवतः षट्। चार्याऽऽदीनालपति तदा सोऽप्ये केन पदेन हीनो भवति । त. गुरु । व्याहतस्य तूष्णीकताऽऽदिषुमासगुरुकादारब्धं छेदान्तं यथा-चुल्लक आचार्यमालपति यद्याचार्यः तूष्णीकाऽऽदीनि शेयम् ॥ व्यापारितस्य चतुर्लघुकादारब्धं मूलान्तम् । पृष्ठस्य पदानि करोति सत आसप्ताऽदिषु पञ्चसु पदेषु लघुविंशतिचतुर्गुरुकादारब्धं नवममनबस्थाय्यम् । निसृष्टस्य इदं गृहाण रात्रिन्दिवादारब्धं षट्गुरुके तिष्ठति । एवं दुल्लकेनैवोपाध्याभुरुच्च द्रव्यायुक्तस्य षट्स्वपि तूष्णीका दिपदेषु षट् लघुका. यस्याऽऽलप्ताऽऽदिषु पदेषु तूणीकताऽऽदिभिः पद्भिः पदैः दारब्धं चरम-पाराश्चिकं तदन्तं सातव्यम् । एवमाचार्येणा35. प्रत्येकं चार्यमाणैर्गुरुपञ्चदशकादारब्धं षट्लघुकान्तम्। भिक्षो. चार्यस्याऽऽलप्ताऽदिपदेषु शोधिरुला। लघुपञ्चदशकादारब्धं चतुर्गुरुकान्तम् । स्थविरस्य गुरुदशअथ वाऽऽचार्येणैवाऽऽलतादीनाम् उपाध्यायप्रभृती कादारब्धं चतुर्लघुकान्तम् । तुल्लकस्य लघुदशकादारब्धं मा. नां शोधि दर्शयितुमाह सगुरुकान्तं प्रायश्चित्तं भवति । एवं सर्वचारिकाप्रयोगण सएवमुवज्झाएणं, भिक्खू थेरेण खइएणं च। घुदशकादारग्धं षरगुरुके तिष्ठतीति । एवं तावनिर्जन्याना. भालत्ताइपरहिं , इकिकपयं तु हारिजा ॥ ५॥ मुक्तम्। पषम्-भाचार्यषत् उपाध्यायेन भिक्षुणा स्थविरेण शुलकेन ___अथ निर्घन्धीनामतिदिशनाहव सममालप्ताऽऽविपदैः प्रत्येकं तूष्णीकताऽऽदिप्रकारष भिक्खुसरिसी तु गणिणी,थेरसरिच्छी त होइ अभिसेगा। दे यथाक्रमम् एकैकं प्रायश्चित्तपदं हासयेत् । तद्यथा-प्रा. भिक्खुणि खुइसरिच्छी,गुरुलहपसगाइ दो इयरा ॥५२॥ चार्या उपाध्यायमनुरूपेणाऽभिलापेनालपति ततो यापा. बह निर्ग्रन्थीवर्गेऽपि पञ्च पदानि । तपथा-प्रवर्तिनी. अभि. ध्याय: तूष्णीक मास्ते तदा गुरुभिन्नमासाहुकार करीति षेका, भिक्षुणी,स्थविरा, सुखिका च । तथाऽत्र गणिनी प्रथा भासलघु एवं यापत्किमेतावमात्रमारटसीति भणतः षट्- र्शिनी, सा भिसरशी मन्तव्या। फिमुक्तं भवति ?-प्रवर्तिमी Page #1168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४५) फरुसवयण अभिधानराजेन्डः। फरुसवयण प्रभृतीनां पञ्चानामन्यतमामालप्ताऽऽदिभिः प्रकारैरालपति, सखेद णीसह विमुक्कगत्तो, सा चालप्यमाना तूष्णीकाऽऽदिपदषटूं करोति,ततो भिक्षावा. भारेण छिन्नो ससई व दीहं। लपति यदाचार्याऽऽदीनां प्रायश्चित्तमुक्तं तत्तासां प्रवर्ति हीरो मिजं पासि रयावसाणे, नीप्रभृतीनां मन्तव्यम् । अथाभिषेका प्रवर्तिन्यादीनामन्यतरामालपति, सा च तूष्णीकाऽऽदिपदानि करोति, ततः स्थ. अणेगसो तेण दम (वयं) पवरलो ॥ २६ ॥ विरे पालपति यदाचार्याऽऽदीनां प्रायश्चित्तमुक्तं तत् तासांद्र. यत् रतावसाने मृतमिव भवति तदेवंविधं गुह्यं चिक्कणं एव्यम् । अत एवाह-स्थविरसदृशा अभिषेका भवति। श्र. मलं क्षरत्-परिगलत् भार्या चात्मीयेच्यनेषु प्रात्मा चान्येवा. थ भिक्षुणी प्रवर्तिनीप्रभृतिकामालपति, साच तूष्णीकाऽऽदी. गानि जुगुप्तनीयतया निगृहयन्ती मया दृष्टा, एतन्मे नि. नि करोति,ततः तुमके प्रालपति यदाचार्याऽऽदीनां प्रायश्चि चेदं-निर्वेदकारणं हे सौम्ये!जानीहि ॥ तथा सखेदम् ('नीस. त्तमुक्तं तत्तासामपि यथाक्रमं शेयम् । अत एधाऽऽह-भिक्षुण्णी टुं. प्रत्यर्थ विमुक्तगात्रः-शिथिलीकृताङ्गो भारेण छिन्नः-त्रुटितो तुल्लकसरशी । अथ स्थविरा प्रवर्तिनीप्रभृतिकामालपति, भारवाहको यथा दीर्घ निःश्वसति तथा अहमपि रताव. ततःप्रवर्तिन्या तूष्णीकाऽऽदिपदपटूं कुर्वाणाया गुरुपश्चदश. साने यदनेकश एवंविध श्रासम्-अभूवम, तदतीय हीतो-ल. जिता, तेन- निदेन ( दम )संयमम् । पाठान्तरेण-व्रतं वा, . काऽदिकं षट्लघुकान्तम् । अभिषेकाया लघुपश्चदशकाऽऽदि. प्रपन्नोऽहम् । गतं परुषवचनम् । वृ० ६ उ० । कं चतुर्गुरुकान्तम् । भिक्षुण्या गुरुदशकाऽऽदिकं चर्तुलघुका तथा च निशीथसूत्रम्न्तम् । स्थविराया लघुदशकाऽऽदिकं मासगुरुकान्तं शु. ल्लिकाया गुरुपञ्चकाऽऽदिकं मासलघुकान्तं शेयम् । अथ तु. जे भिक्खू लहुस्सगं फरुसं वयइ,वयंतं वा साइजइ ॥१७॥ लिकाप्रवर्तिनीप्रभृतिकामालपति, सा व तूष्णीकाऽऽदीनि लहुस्स-षिदल्पं-स्तोकमिति । यावत् फरुसं णेहवन्जियं पदानि करोति, ततः प्रवर्तिन्या लघुपश्चदशकाऽऽदिकं चतुर्गु यं असं साहुं वदति-भाषते इत्यर्थः । तं फरुसं । रुकान्तम् । अभिषेकाया गुरुदशकाऽऽदि चतुर्लघुकास्तम्। भि चउविहं तंतुण्या लघुदशकाऽऽदिकं मासगुरुकान्तम् । स्थविराया गुरुपः दव्ये खेत्ते काले, भावम्मि य लहुस्सगं भरे फरुसं । श्वकाऽऽदिकं मासलघुकान्तम् । क्षुल्लिकाया लघुपञ्चकादिक एतमि णाणतं, वोच्छामि अहाणुपुबीए ॥ ३७॥ गुरुभित्रमासान्तं मन्तव्यम् । अपर एवाह-(गुरुलहुपणगाई एतेसि दव्यखेत्तकालाणं। दो इयर त्ति) इतरे स्थविराक्षुल्लके तयोईयोरपि यथाक्रमं गुरु. जहासंखं इमं वक्खाणंपञ्चकाऽऽदिकं लघुपश्चकाऽऽदिकं च प्रायश्चित्तं भवति। इह दवम्मि वत्यपत्ता-ऽऽदिएसु खेत्ते संथारवसधिमादीसु । परुषग्रहणेन निष्ठुरकर्कशे अपि सूचिते। काले तीतमणागत, भावे भेदा इमे होंति ॥ ३८॥ ततस्तयोः प्रायश्चित्तं दर्शयितुं परुषस्य च प्रकारान्तरेण शोधिमभिधातुमाह आदिगहणणं डगलगसूइपिप्पलगाऽऽदो वि घेप्पंति । "दव्वे वत्थपत्तादिएK ति" अस्य व्याख्यालहुओ उ लहुस्सगम्मी, गुरुगो आगाढफरुसवयमाणो। वत्थाऽऽदिमपस्संतो, भणाति को णु सुवती महं तेणं । निठुरककसवयणे, गुरुगा य ततो को जंवा ॥५३॥ खेत्ते को मं द्वाए, चिट्ठति मा वा इहं ठाहि ॥ ३६ ।। लघुस्वके स्तोके परुषवचने सामान्यतोऽभिधीयमाने मासलघु, आगाढपरुषं बदतो मासगुरु , निष्ठुरवचने क वत्थपत्तसूइगाऽऽदि अप्पणो वया अपस्संतोएवं भणातिकेशवचने च चत्वारो गुरुकाः, यश्च ते परुषभणिताः प्रद्वे महं अस्थिति काउं इमस्लाभावेण को णिई लभति, इमस्स षतः करिष्यन्ति तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । भावेण वा महं तेणं हडं, एवं दव्यश्री लहुस्सयं फरुसं अथ किमिदं निष्ठुरं किं वा कर्कशमित्याशङ्कायकाशं वि भासति खित्तमो लहुस्सयं फरसं-तस्स संथारभूमीए कि लोक्याऽऽह चि ठियं पासित्ता भणति-को ममं संथारगभूमीए ठाति अप्पं जाणमाणो?, अधवा मामसंथारगभूमीए ठाहि। निव्वेद पुच्छितम्मी, उम्भामइल त्ति निठुरं सव्वं । (३८गा०) "काले तीतमणागति" अस्य व्याण्या । गाहामेहुणसंसह क-कसाइ णिव्वेद साहेति ॥ ५४॥ गंतव्यस्स न कालो, सुहसुत्ता केण बोहिता अम्हे । कयाऽपि महेलया कोऽपि साधुः पृष्टः-केन निदेन त्वं प्रवजितः। स प्राह-मदीया भोजिका उद्भामिका दुःशी हीणाहिएँ कालं वा, केण कयमिणं हवति गंतव्वं ।।४०॥ ला अतोऽहं प्रवजितः। एवमादिकं सर्वमपि निष्ठुरमुच्यते । ते साहुणो पगे गंतुमणा, ततो उट्राधिज्जतो भणति-गंत. तथा मैथुने संसृष्टं विलीनभावं दृष्ट्वा प्रवजितोऽहम् । एवं ब्बस्स ण कालो अज्जवि, सुहसुत्ता केण वेरिएरण अधोण निर्वेदं यत्कथयति तदेवमादीनि तानि कर्कशानि । पहियोहिया अम्हे ?, अधवा-हीणं अधियं वा कालं केण इदमेव व्याचष्ट कयमिणं ?, तं च इमं भवति काले हीणातिरित्तं गंतव्वं । मयं व जे होइ रयावसाणे, गाहा ओसहपडिलेहपरिणा-पायोसियसुवणभिक्खसज्झाए । तं चिक्कणं गुज्झ मलं छरंतं । हीणातिरित्तकरणे, एमादी वादितो फरुसं ।। ४१ ।। अंगेसु अंगाइँ णिगृहयंती, गिलाणस्स भोसहट्टाए गंतब्बे हीणातिरित्तं, श्रद्दधा-श्रा. णिवेयमेयं मम जाण सोम्मे ! ॥ ५५॥ | यरिया पसणाऽऽदिणिमित्ते गिलाणासहोवनोगे वा पच्चू. २८७ Page #1169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल (११४६) फरुसवयगा भभिधानराजेन्द्रः । साबररहेसु पडिलेहणं पहुच्च परिति जेण पोरिसिमादियं भावफरुसउप्पत्तिकारणभेदा इमेपचक्खायं तस्स पारेउकामस्स भत्ताऽऽदीणं वा गंतुकामस्स पालते वाहिते, वावारिते पुच्छिते णिसट्टे य । उग्घाडणे च त्ति,भत्तपच्चक्खायस्स वा समाहिपाणगाऽऽदि फरुसवयणम्मि एए, पंचेव गमा मुणेयव्या ।। ४८॥ प्राणेयव्वा हीणाधिकं कतं, पादोसियं वा काउंसुविणे सु. विउकामाणं भिक्खं वा हिंडिउकामाणं सज्झाए पट्ठवणवेलं आलत्ते पाहिले बावारिते एषां त्रयाणां ब्यागयापदुच्च कालवेल वा, एवमादिसु कारणेमु हीणाधिकं करतो पालावो देवदत्ता-दि किं भो ति किं वदे देति । वाइनो फरुसं वपज्जा। वाहरणं एहि इओ,वावारण गच्छ कुण वा वि ॥ ४६॥ अहवा इमो फरुसवयणुप्पायप्पगारो कंठा। गच्छसि ण ताव कालो,लभसु घितिं किं चढप्पडस्से । पुच्छणिसट्ठाण दुवराह वि इमा व्याख्याअतिपच्छा सि विबुद्धो,किंवज्झसितं. पएतन्वं ॥४२॥ पुच्छा कताकतसुं, आगतकच्चंतातुरादीहि । गुरुणा पुव्वं संदिट्ठो ओसहातिगमणे असं, तत्थेव गंतुकाम णिसिरण इंदसु मुंजसु, पियसुं वा एतिमं भत्तं ॥५०॥ साधु पुच्छति-गच्छसि ?, सो पुच्छितो साधू फरुसं वयति. कंठा ! निचू०२ उ०। ण ताव कालो, लभसुधिति, किं चडप्पडस्लेव । अहवा-सो फरुसवयणे इमे दोसाचेवं पुच्छिो भणति-पच्छद्धं कंठं । एतेसामध्यतरं, जे भिक्खू लहुस्सगं वदे फरुसं । एस गाहत्थो पडिलेहणाऽदिपदेसु जत्थ जुज्जते तत्र तत्र सो प्राणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ॥ ५८।। सर्वत्र योज्यं । कारणाश्रो पुण भासेजा विअधवा-दव्याऽऽदिणिमित्तं एवं फरुसं भासति वितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झे वा वइज खरसज्झे। वत्थं वा पायं वा, गुरूण जोगं तु केणिमं लद्धं । किंवा तुम जतिस्ससि, इदि पुट्ठो वेति तं फरुसं ॥४३॥ अणुसासणा वदेसी, वएज व विकिंचणट्ठाए ।। ५ ।। खित्ताइचित्तो भणेज वा, भणिया था आयरियादि, एगेण अभिग्गहाणभिग्गहेण साहुणा गुरुपाउग्गं वत्थं पसं खरसज्झा वा भणे ज्जा, अन्नहा नवाइ मृदू वि अनुसासंथारगाऽऽदि उग्गमियं,तममेण साहुणा दिटुं,तेण सो उग्गा सणं पदुच्च भणेज, मालवसिंधुदेसवासभावेण फरसभामेतबाहू पुच्किो -केणुग्गमितं ?, सो भणति-मया । त्वं सी पंडगाऽऽदि वा विकिंचितब्बो फरुसवयणेणं, सोय चाक्षमाः,पाषाणवल्लद्धो अलद्धिमा लब्भसि, एवं फरुसमाह । फरुसावितो असहमाणो गच्छह । नि०चू०२ उ०। इदाणी खेत्तं पदुश्च गाहा भदन्तं प्रति परुषवाक्यनिषेधो यथा। सूत्रम्खेत्त महा जणजोग्गं, बसधी संचारगा य पाओग्गा । जे भिक्खू भदंतं फरुसंवदइ, वदंतं वा साइजइ ।। २ ।। केणुग्गमिता एते, तहेव फरुसं वदे पुट्ठो ॥१४॥ गाहाक्षेत्रेऽप्येवं। जं लहुसगं तु फरुसं, वितिउद्देसम्मि वलितं पुर्दिछ । इदाणि तीतमणागतकालं पदुच्च गाहा ते चेव य आगाढं, दसमुद्देसम्मि नायव्वं ॥ ३४ ॥ उउवासमूहो कालो, तीतो केणेस जाइओ अम्। जहा बितिउद्देसे फरुसं तहा इई पि उस्सग्गषधातह जो एस्सति वा एस्से, तठेव फरुसं वदे अहवा ॥ ४५॥ बत्तव्वं, णवर इह पायरियसुत्तणिवाओउत्ति उदुबद्धकालो,वास त्ति वासकालो । अहवा-उदु त्ति जे भिक्ख भदंतं आगाढं फरुसंवदइ, वदंतं वा साइजइ।३। रिऊ, तस्सि बासः सुखेन उउवासः सुखः। शेषं कराठा। गाहासूत्रम्दव्वाऽऽदिसु पच्छित्तं ममति एसेव गमो णियमा, मीसगसुत्ते विहोति घेतव्यो। दब्वे खेत्ते काले, मासो लहुओ उ तीसु वि पदेसु । आगाढफरुसमीसे, पुव्वे अवरम्मि य पदम्मि ।। ३५ ॥ तकालविसुद्धो वा, पायरियादी चतुएहं पि ॥ ४६ ॥ दव्यखेत्तकालनिमित्तं फरुस वयंतस्स दोहि वि लहू। जो पतेसु दोसु पुबुत्तेसु सुत्तेसु गमो सो वेव इह इवाणिं भावफरुसं मीलगसुत्ते गमो दटुब्यो, णवरं संजोगपच्छित्तं भाणियब्वं । नि० चू० १० उ०। भावे पुण कोधाऽऽदी.कोहाऽऽदि विणा नु किं भवे फरुसं। फरुससाला-परुषशाला-स्त्री०। कुम्भकारशालायाम् , वृ० उवयारो पुण कीरति, दव्वाति समुप्पती जेण ।। ४७ ।। ३उ.। पुणसहा विसेसणे, किं विशेषयति ? । भ्रमति-दव्वा. फरुसासि (ण)-परुषाशिन-पुं० । कक्षाशिनि, " फरुदिपसु वि कोहाऽऽदिभावो भवति, तु दब्बा55. दिणिरवेक्खो कोहाऽऽदिभावो घेप्पा । एवं विशेषय सासी लट्ठिगहा । " परुषाशिनो रूक्षाशितया च प्रकृतिति। दब्धाऽऽदिसु वि कोहाऽऽदिणा विणा फरुसंग क्रोधनाः । आचा० १७०६ अ. ३ उ० । भवति।चोदग पाह-तो किमिति इब्वादिफकसं, भाति-फल-फल-न० । गती, भ्वादि० पर०सक० सेट् । फलति । भाषफरसमेव भन्ना। आचार्य श्राह-द्रव्यादीनाम् उपचा- अफालीत् । ज्वला. कर्तरि वाडणः फलः। फालः। वाव। रणमात्र, पतस्ते क्रोधादयः द्रव्यादिसमुत्था भवन्तीत्यर्थः।। श्रा० चू। Page #1170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४७). अभिधानराजेन्छः। फसवडिय फल-नगा फल अच् । वृक्षाऽऽदीनां शस्ये,वाचकाफलानि ना हम्ममाणे फलगावतट्टी।" फलकवदवकृष्टः यथा फलकमु. लिकेरदाडिमाऽऽदीनि । पञ्चा०विवाफला पतट्रिया । । भाभ्यामपि पार्वाभ्यां तष्टं घट्टितं सत्तनु भवति, अरक्तद्विष्टं प्रज्ञा । फलं पुष्याऽऽदीति । स्था०६ ठा०विपा० । उत्त० । वा समवन्येवमसावपि साधुः सबाह्याभ्यन्तरेण तपसा नि. सुत्रः। (फलभेदनिरूपणाय फलसूत्रम (२५३) ।'परि टप्तदेहस्तनुर्दुर्बलशरीरोऽरक्तद्विष्टश्चेति। सूच०१ श्रु०७०। सजाय' शम्दे अत्रैव भागे १०१८ पृष्ठे समुक्तम) ला- फलकाऽऽपदर्थिन्-पुं०। फलं कर्मक्षयरूपं तदेव फलकं,ते. भे. उद्देश्ये, जातीफले. त्रिफलायाम् , कक्कोले, वाणाग्रे, नाऽऽपदि संसारभ्रमणरूपायामर्थः प्रयोजनं फल काऽऽपदर्थः, फाले, दाने, मुष्के, फल के. वाच०। काष्ठफलके, सूत्र०१ स विद्यते यस्यासौ फलकाऽऽपदर्थी । संसारभ्रमणरूपायामाप. श्रु०११ ०। कार्ये, वृ० १ उ०२ प्रक०। स० । सूत्र। श्रावका साध्य, पञ्चा०८विव०। प्रयोजने. सूत्र०१ श्रु०१२ दि कर्मक्षयरूपफलेनार्थिनि, प्राचा०१ श्रु०८०६ उ० । अ० । दर्श० भ०नि० चूछा विपा० शाला विशे० । वेगे च । फलकावस्थायिन्-पु.। तक्ष्यमाणोऽपि दुर्वचनवास्यादिभिः रयो वेगश्चेष्टाऽनुभवः फलमित्यनान्तरम् । श्राव०१०। कषायाऽभावतया फलकवदवतिष्ठते तच्छीलश्चेति फलकाव. कुट जवृते. पुं० । वाच०। (संवेगाऽऽदीनां फलानि संवेगाss स्थायी। वासीचन्दनकल्पे, “समाहियच्चे फलंगावतट्टी।" दिशब्देषु द्रष्टव्यानि) प्राचा० १७०८०६ उ०॥ फलग-फलक-न० । फलमेव फलकम् । फलशब्दार्थे, आचा० फलचारण-फलचारण-पुं०। नानागुमलतागुल्मपुष्पाण्युपा. १ श्रु० ८ ० ६ उ० । शयनोपयोगिन्येकपट्टाऽदिरूपे प्रतले | दाय पुष्पसूक्ष्मजीवानविराधयन् कुसुमतलदलावलम्बनसक. आयते काष्ठनिर्मिते वस्तुनि, वृ० ३ उ० । आचा० । उत्त० । ततया पुष्पचारणः। चारणभेदे, ग०२ अधि०। प्रव० । शयनं खदाफलकाऽऽदि प्राचा०१ १०१ अ०५ उ०। स्था) | फलप्परूवणा-फलप्ररूपणा-स्त्री०। फलं काय तस्य प्ररूपणा अवषम्भनार्थे काष्ठविशेष, औला भ०। उपा० । प्रश्ना "पीढ प्रशापना फलप्ररूपणा । कार्यप्रशापनायाम्, ध०१ अधि। फलगसेज्जासंथारएणं । "राशा० । स्था०।"फलगं व तच्छति कुहाडहत्था " फलकमिव काष्ठशकलमिवेति। फलप्पहाण-फलप्रधान-त्रि० । सफले, नं0 मूत्र०१ श्रु०५०१ उ०।" ते भिमदेहा फलगं व तट्ठा।" फलभाव-फलभाव-पुं० । कार्यभावे, " हेउफलभावो ई. फल कमिवोभाभ्यां क्रकचाऽऽदिनाऽवतष्टाः। सूत्र०१६०५०१ ति।" फलभावतः कार्यभावेन । पं०व० १द्वार। उ०। संपुटफलके.स्था०४ ठा०२ उ०। खेटके,गृतोपकरणविशेफलभोयण-फलभोजन-नाफलान्याम्राऽऽदीनि तेषां भोजनचे, प्रश्न०१ आध. द्वार। फलकानि संपुटफलकानि खेटका माफलंत्रपण्याऽऽदि. तस्य भोजनम् । भुज्यत इति भोजनामा नि वा अवष्टम्भनानि वा घूतोपकरणानि वा । औ० । जं०। ति कृत्वा तदेव वा भोजनम् । फलभोजनं फलस्य भक्षणे, सोपानाङ्गभूते काष्ठाऽऽदिपट्टे, "सुवमरुप्पमया फलगा।"जी० फलरूपे भक्षणे च । स्था०६ ठा० । ३प्रति०४अधि० श्रा०म०। पट्टिकायाम्,उत्त०१०ाफलकंप. फल-फलवत-त्रि० साध्यसाधके, "सव्वं चिय फलवई ट्टिका,यस्यां लिखित्वा पठ्यते। समवसरणफलके चधितश्च भवाचेट्रा।" पश्चा०४ विव०। कारणे अवष्टम्भार्थ भवति उत्सर्गतश्च साधूनामवष्टम्भो न यु. फलवडिय-फलवर्द्धिक-न मेतार्यनगरसमीपस्थे(सांप्रतं फ. क्ला, प्रत्युपेक्षितेऽपि स्तम्भाऽऽदौ कुन्थुपिपीलिकाऽऽदिजन्तुसं. लोधीति ख्याने)नगरभेदे, तत्रत्ये चैत्ये च तचैत्यस्थे पावना. चारस्य दुर्यारत्वात् , यतः-"अवोच्छिन्ना तसा पाणा,पडिले. थे, पुं०। फलवर्द्धिकनगरस्थायां स्वनामख्यातायां देव्यां च । हा न सुज्झई। तम्हा हट्ठपहट्ठस्ल,अवटुंभी न कप्पई ॥१॥". स्त्री०।ती। ति। ग्लान्यादिकारणे तुघनमसृणादिगुणोपेते फलके पाषा तवक्तव्यता यथाणमये स्तम्भे सुधामृष्टे कुड्ये कुड्यसंलग्नोपधिविएटलिकाया "सिरिफलवद्धि(ह)अवेड्य-परिट्रियं पणमिऊण पासजिग। याऽवनीतेति । "अतरंतस्स उ पासंगा, जेणं दुक्खति तेण: तस्सव वेमि कप्पं, जहासुदं दलिअकलिदप्पं ॥१॥" ऽबटुंभे । संजमपेट्टीचंभे, सेले उ तह कुडविलिए ॥१॥"ध०३ अस्थिसकलखीणदोसमे उत्तयनगरसमीबट्रिो धीरभवणाअधिचर्ममये अनप्रतिघातनिवारके स्फुरके, पदार्थभेदे, इनाणाविहदेवावयाभिरामोफलबद्धी नाम गामो, तत्थ फलब वाच.।"भरिएहि फलपाहि।"हस्तपाशितैः स्फुरकैःविपा० दीनामधिजाए देवीप भवरणमुत्तंगसिहरं चिट्ठा, सो प्ररि१६०८अशा० श्राचा। डिसमिद्धोवि कालकमेय उवस्सयाश्रो संजाश्री. तहा वि फलगपटिया-फलकपट्टिका-स्त्री० । काष्ठाऽऽविपट्टिकायाम, तत्थ कित्तिश्रावि पाणिनगा श्रागंतूण अवसिसु तेसु "फल गपट्टियाए सिरिकताए रूवं लिहिऊण दंसह।" श्रा०। एगो सिरिसिरिमालबंसमुत्तामणी धम्मिश्रलोअगामगाम. म. १०। णी "धंधलो" नाम परमसावी इत्था। बीओ अतारिसगुफलगमग्ग-फलकमार्ग-पुं०। मार्गभेदे, यत्र कर्दमाऽऽदिभया णो चेव ओसवालकुलनयलनिसाकरो सिवंकरोनाम । स्फलकैर्गम्यते । सूत्र०१ श्रु० ११ अ०। ताण दुराई पि पभूधाश्रो गावीश्री आसि। तासि मज्झे फलगसेजा-फलकशय्या-स्त्री० फलकं प्रतलमायतं काष्ठं त. एगा धंधलस्स घेणू पहदिणं दुभंती वि दुद्धं न देह । तो दूपा शय्या फलकशय्या । फलकरूपायां शय्यायाम् , स्था० धंधलेण गोवालो पुच्छिश्रो-किमेसा घेणू तुमए चेव बाहिर ६ठा०। | दुज्झर अनेण वा केणावि.जेण सान दुद्धं देह । तो गोवाफलगावतहि (ण)-फलकावकृष्टिन-पुं० । फलकवत् वास्या-लेण सवथाई काऊण अप्पा निरबराहीको। तमो गोदिभिरुभयतो बाह्यतोऽभ्यन्तरतश्चावकृष्टः फलकावधी। वालेण समं निरिक्खंतेणं एगया उच्चरयडस्स उरि बोरिं. प्राचा. १ श्रु० ८ ० ६ उ० । फलकवदुर्बलशरीरे, " अवि. तो समीवे चहिवि थणेहि खीरं झरती दिट्ठा सा सुरही। Page #1171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फलिय (१९४८) फलवडिय अन्निधानराजेन्द्रः। एवं पादिणं पिच्छेतेण वसिमा धंध लस्स । तेण चिं- यरदेवपट्टणकरहेडयनागद्दहसिरिपुरसामिणिचारुपट्टीपुरी ति-नृणं कोह इत्थ जक्खाइदेवयाविसेसो भवि. उजेणीसु सुद्धदंसतीहरिकिंसिलिंड्याइहाणवट्टमाणपासनास्साह भूमिमज्झटिओ। तो गिहमागपण तेण सुहपसुत्ते. हपडिमाणं करिज्ज जत्ता कया हवा त्ति संपदायपुरिसाणं ण रत्तीए सुमिणश्री उवलद्धो । जहा-पगेण पुरिसेण उवएसो। वुतं-इत्थ रयडए भयवं पासनाहो गम्भहरदेवलियामझे “इभ फलपद्धिपुरट्टिन-पासजिणिदस्स कप्पमविअप्पं । चिट्ठा, तं बाहिं निकासिऊण पृएहि । तो धंधलेण प. निसुर्णताणं भव्वा-ण होउ कल्लाणनिप्फत्ती॥१॥" हाप बुद्धेण सिवंकरस्स निवेइयो सुमिणतंतो। तमो दो "इत्याप्तजनस्य मुखात् , किमप्युपादाय संप्रदायलवम् । बि पि कोऊबलाउलियमाणसेहि बलिपूनाविहाणपुव्वं उद्दे. प्रथितं जिनप्रभसूरिभिः, कल्पं फलचिपार्श्वविभोः ॥२॥" हिरयडभूमि खणावित्सा कहिश्रो गम्भहरदेउलियासहिस जियो murलियामीस. ती०५४ कल्प। तफणिफणामंडिओ भयवं पाससामी, पइदिन पूर्वति फलवाइण-फलबादिन-पुं० । फलवदनशीले, "दुग्गई फलमहया इडीए ते दोचि । एवं पूजते भुवनाहे पुणो वि. वाईणं ।” सूत्र.१ श्रु०११ ०। अहिट्रायगेहि सुमिणे प्राइटुं तेसि । जहा-तत्येव पएसे चेह- फलविंटिय-फलवृन्तिक-पुं० । फलवृन्तोद्भवे श्रीन्द्रियजीवअंकारावेह ति। तो तेहि पहिट्ठचित्तेहि दोहिं वि निमः विशेषे, प्रशा० १ पद । जी। विहवाणुसारेण चे कारावेउमाढतं । पयट्टिा सुत्त. फलविवाग-फलविपाक-पुं०। फलरूपो विपाकः फलधिहारा कम्मट्ठाणेसु जाव अग्गमंडले निष्पन्ने, तेसि अप्पट्टिप्रत्तेण दब्वेणं निवणअसमत्थयाए नियत्तो कम्मट्रानो, पाका । फलरूपविपाके. स०। तो धणियं पावत्रा दो वि परमोदासया। तयणंतरे रया से समासो दुविहे पामते । तं जहा-दह विवागे. सहगणीए पुणो वि अहिट्ठायगसुरेहिं सुमिणे भणियं, जहा-अह. विवागे य । प्पभाए अलवंतसु कापसु देवस्स अग्गओ दम्मा सस्थि ' फलस्य कार्यस्य विपाको व्यक्तीकरणम्। फलस्य व्यक्तीकरणे, पहदिणं पिच्छस्सह, ते दम्मा केह अकले चइयत्त ति। तेहिं स०५५सम०। फलमिव वृक्षसाध्यमिव विपाकः कर्मणामुदयः तहेव दिटे, ते दम्मे घित्तूण सेसकम्मट्ठाय कारवे उमाढतं जाय फलविपाकाकर्मणामुदये,प्रश्न०१आश्रद्वार फलस्येवालापडिपुला पंच वि मंडवा य लहुमंडवाय, तिहुयणजणचित्तच. वुकाऽऽदेः विणको विपच्यमानता रसप्रकर्षावस्था फलवि. मुक्कारकारए बहुनिप्पनम्मि चेमम्मि तेसि पुत्तेहि चिति पाकः । कर्मणां रसप्रकर्षावस्थायाम् , भ० श. ३२ उ०। कत्तो एअंदवं संपञ्जइ,जंअविच्छेए कम्मट्टाय उपस्सात्ति। फलविसेस-फलविशेष-पुं०। भोगाऽऽदिके साध्यभेदे, “भो. अहएमि दिणे अइप्पहाए चेव खंभाइअंतरिमा होऊण गाइ फलविसेसा । "पञ्चा०६ विषः। निहुभं दठुमारद्धा, तम्मि दिवसे देवेहिं न पूरिनं दम्माणं फलविहि-फलविधि-पुं० । फलप्रकारे, प्रश्न. २ प्राच सत्थिनं, आसनंच मिच्छरज्जं नाऊण पयत्तेण प्रागहिया वि द्वार।"फलविहिपरिमाणं करेइ । " उपा०१०।('श्राअहिट्ठायगान पूरिंसु दिव्यं ति विउं तदवत्थो चेयकम्मटाओ। एगारससएसुरक्कासीइसमहिएस ११८१ विक्कमाइ (च) वरि. . णंद' शब्दे द्वितीयभागे १०६ पृष्ठे सूत्रम्) सेसु पहकतेसु रायगच्छमंडण सिरीसीलभद्दसूरिपट्टपट्टिए फलसाहण-फलसाधन-न० । फलार्थमारम्भप्रवर्सने, मा-- हि महावाइंदियवरगुणविंदविजयपत्तपइटेहि सिरिधम्म चा० १७०५०१ उ01 घोससूरिहिं पासनाइचेइअसिहरे चउब्बिहसंघसमक्खं फल सुरा-फलसुरा-स्त्री० । तालफलद्राक्षाखर्जरादिनिष्पन्ने पट्टा कथा । कालंतरेण कलिकालमाहप्पेण कलिप्पिया - सुराभेदे, वृ०२ उ०। तरा हवंति अस्थिरचित्ता यत्ति पमायपरबसेसु अहिट्टायगे- फलहि-फलधि-पुं०। हलावयवभेदे, "एकेणं हत्थेणं हलं सु सुरत्ताणसहाबुदाणण दिलं फुरमाणं , जहा-एस्स | बाहेर, पकेणं फलही उप्पाडे।।" उत्त०३ अ०। देवभवणस्ल केणावि भंगो न कायब्धो ति, अशं च विवं। फलही-देशी-कापसे, देखना०६ वर्ग ३२ गाथा। किर भयवनो अहिटायगा न सहति ति संघण विवंतरं फलाकिटि-फलाऽऽकृष्टि-स्त्री० । स्त्रीणां चतुष्पष्टिकलास्वन्यन ठावि, विगलिअंगस्स वि भगवो महयाई माहप्पाई तमे कलाभेदे, कल्प०१ अधि०७ क्षण । उपलब्भंति.पइवरिसं च पोसबहुल दसमीए जम्मकल्लाणयदि. फलावंचगजोग-फलावञ्चकयोग-पुं० "फलावञ्चकयोगस्तु, णे चाउहिसाओ विसावयसंघा आगंतूण नच्चगीअनवाइअकुसुमाभरणरोहणदपयाईहि मणहरजत्तामद्विम कु- सभ्य एव नियोगतः । सानुबन्धफलावाप्ति-धर्मसिद्धौ स. णंता संघपूमआईहिं सासणं पभाविता निलंति दूसमा- तां मता" ॥१॥ इत्युक्तलक्षणे योगभेदे, षो० । समयविलसियाई वि उवंति गुरुमं सुकृतसंसारं, इत्थ य फलावद-फलाऽऽबह-त्रि० । फलसंयुक्ने, षो० १५ विव० । चेहए धरणिदपउमाबाईखित्तवाला अहिट्टायगा संघस्स विग्ध. फलासब-फलाऽऽसव-पुं० मद्यभेदे,"फलासवे वा।"प्रशा. पम्भारं उबलामिति.पणयोत्राणं मणोरहेछ पूरिति, इब्बो. १७ पद ४ उ०। विध थितिरविद्वत्थं पुरिसं चेमज्झे संचरंतं पासंति, समाहिश्रमणा इत्थ रति वुत्थत भविप्रजणा पनि महानि फलाहार-फलाहार-पुंग तापसभेदे,नि०११०३ वर्ग३०। स्थभूए पासनाहदिट्टे कालिकुंडकुक्कडेसरसिरिपब्वयसंखेसर- फलिप-फलित-त्रि० । "फुलिन फलिभं च पलिअं, उद्दलिभेरीसयमहुसवाणारसीअहिच्छत्ताभणपज्जाहरपवयन- मं।" पाइ० ना० १६१ गाथा। Page #1172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९४६) फलिग्रारी अभिधानराजेन्दः। फाणिय फलिभारी-देशी-दृर्षायाम् , देना०६ वर्ग ८३ गाथा। धःसंकुचिता, खातेति तूभयत्रापि सममिति । जी० ३प्रफलिणी-फलिनी-सी० । प्रियङ्गो, “फत्रिणी पियमा पियं ति०३ अधि। प्राचा०॥ फलिहोवाड-फलिकोपहत-न । उपहृतमुपहितं भोजनस्थागूया" पाना०५४ गाथा। ने ढाकितं, भक्तमिति भावः । फलिकं प्रहेणका35दि, तच्च फलिह-परिघ-पुं०। परि-इन-क-निः । “पाटि-पष-प. तदुपहतं चेति फलिकोपहृतम् । अवगृहीताभिधानपश्चमरिध-परिवा-पनस-पारिभद्रे फः "n १।२३२ ॥ पिण्डैषणाविषयभूते उपहृतभेदे, व्यः । ति प्राकृतसूत्रेण फः । प्रा०१ पाद । " हरिद्रादौ लः " यदाह व्यवहारभाष्ये१८।१।२५४॥ इति प्राकृतसूत्रेण ख:1 प्रा०१ पाद । फलियं पहेणगाई, वंजणभक्खेहि वा विरहियं तु । मार्गपरिहननात् परिषः। नगरद्वाराऽऽदिसम्बन्धिम्यामर्गला. याम्, नंदश।"असिवे णो फलिहा। " पाहना० २४० भोत्तुमणस्सावाहियं,पंचमपिंडेसणा एसा ।। व्य०२ उ०। गाथा । "अग्गला फलिहो । " पाइना० २६७ गाथा।| फला-वशागलाषयावना फली-देशी-लिङ्गघृषयोः, देना.६ वर्ग ८६ गाथा। नि००।ौ० । रा० प्रश्नाहा० । स्था। अर्गलाद-फलस्सुक-फलोत्सुक्य-न० । अभ्युदयाऽऽशंसायाम, द्वार राडे ची । २१द्वा०॥ फलिक-ब० । प्रहेणकाऽऽदौ, "फलियं पद्देणगाई।" स्था०३ फलोवागय-फलोपगत-पुं० । फलान्युपगच्छतीति फलोपगः ठा०३ उ० । वमनीवृते, तत्फले च । अनु। फलोपगतो वा । 'फलोवगय' इत्येवं वाच्यम् । “फलोषा " इति प्राकृतलक्षणवशात् । पहलफले वृक्षभेदे, स्था०३ स्फटिक-पुं० । स्फटीव कायति , इवार्थे कन् । “पाटि-4. ठा०१ उ०। 'फलोवागपसु वा।"प्राचा०२ श्रु०२चू०३०॥ रुष-परिध-परिखा-पनस-पारिभद्रे फा"।।१।२३२॥ इति प्राकृतसूत्रेण पस्य फः । प्रा० १ पाद । "निक. फलोवारुक्खसमाण-फलोपगतवृद्धसमान-पुं०।'फलोषगय. रुक्खसमाण इति वाच्ये 'फलोवारुक्खसमाण' इति प्राकृत. ष-स्फटिक-चिकुरे हा ""८१।१८६ ॥ इति प्राकृ लक्षणवशात् । पुरुषभेदे, स्था०४ ठा०३ उ० । ससूत्रेण कस्य हः। प्रा०१पाद।" स्फटिके ला" ||८1१। २६७॥इति प्राकृतसूत्रेण टस्य लः । प्रा०१पाद । स्व. फल-फल्य-न। फलाय हितं यत् । पुष्पे,वाच०। फजाय हि. नामख्याते मणिभेदे , स्था० १० ठा० । रा०। सूत्र. चिं तः फल्यः । सौत्रिके वस्र, वृ०१ उ० ३ प्रक। प्र०बाउत्त० । स्फटिकमये रत्नप्रभायाः पृथिव्याः स्व. | फन्वीह-देशी-लाभे, 'फव्वीहामो कम्हे।' "फब्धीहामो चि" नामख्याते काण्डे, स्था० १० ठा० । स्फटिकमिव स्फ. देशीपदत्वात् यहच्छया भक्तपानं लभामहे । वृ०१उ०३ प्रक०॥ टिकम् । अन्तःकरणे, सूत्र. २ श्रु० २ अ० । स्फटिक फसल-देशी-सार-स्थासकयोः, देना०६ वर्ग ८७ गाथा। मिव स्वच्छत्वात् स्फटिकम् । माकाशे, भ०१६ श०३ उ० । काबर चित्र गजराती)"फसलं सबलं सारं, किम्मीर फलिहकूड-स्फटिककूट-न० । जम्बूद्वीपस्य गन्धमादनवक्ष- चित्तल च बोगिल"पाहना०६४ गाथा । स्कारपर्वतस्याधोलोकनिवासिन्या भोगकराया दिककु. फसलाणिव-देशी-कृतविभूषे. दे०मा०६ घर्ग ८३ गाथा । माऱ्या निवासभूते स्फटिकरलमये स्वनामख्याते कूटे, स्था० फसलिश्र-देशी-कृतविभूषे, दे०ना०६ वर्ग ८३ गाथा । ८ ठा० । जं० । कुण्डलवरद्वीपस्थस्य कुण्डल शैलस्योत्त. रस्यां दिशि स्थिते स्वनामख्याते कूटे, द्वी० । रुचका फसुल-देशी-मुक्ने, देना०६ वर्ग ८२ गाथा । द्वीपस्थरुचकपर्वतस्य दक्षिणस्यां दिशि स्थिते स्वना. फा-फा-स्त्री०। मृगमारीचे, फणायाम् , भषणे, निष्ठुरोली, मख्याते कुठे च । द्वी०। कलायाम्, केकायाम् , उत्कण्ठायाम् , तनौ च । " फातो फलिहगिरि - स्फटिकगिरि-पुं० । कैलाशे, "फलिहगिरी के. मृगमारीचे,फा फणा भषणे च फा।" एका० । अथवा त्रिलासो।"पाइ ना० १७८ गाथा। याम् । "निष्ठुरोक्तिकलाकेको-कण्ठातनुषु कथ्यते।" एका०। फाइ-स्फाति-खी। स्फाय-भावे क्लिन् । वृद्धी,वाच० "फाफलिहमल-स्फटिकमल-पुं० । भृगुकच्छादागते उज्जयिनी. तीए मुच्छाए।" निचू०१०। नगरस्येनाऽट्टणमल्लेन सह कृतयुद्धे स्वनामख्याते मल्ले,फाईकय-फातीकत-त्रि० । स्फीतिमुपनीते, "फाईकयमन. श्राव.४०। मसि।" श्रा० म०१०।। फलिहा-परिखा-स्त्री० । परितः खन्यते खन-: । " पा. फाणिय-फाणित-न। फण-णिच् क्तः । गुडविकारभेदे. वाटि-परुष-परिघ-परिखा-पनस-पारिभद्रे फा"॥८॥१॥२३२॥ चा फाणितो द्रवगुडः। ध०२ अधि०। प्रशा० । भौ० । इति प्राकृतसूत्रेण फ: । प्रा०१ पाद | " हरिद्राऽऽदी लः" | दशा फाणितं गुडपानकम्। पिं०'फाणयं वा'उदकेन धी॥८।१ । २५४ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण लः। प्रा०१पाद । कृतो गुडः कथितो वा। श्राचा०२धु०१०११०४ १०॥ द्रषिक: पुराऽऽदो रिपुप्रभृतीनां दुधवेशनासिद्धये गर्तरूपायां पिराडगुड एवं पानीयेन द्राविता, एतदुभयमपि फाणितमुवेष्टनाऽऽकारभूमी, वाच० । परिखा, खातं , वलयः | च्यते । वृ०२ उ०।"फाणियाणि दोषि ।" द्रषगुडे, पि०। मिति । शा० १शु० १३ अ० । सा चाध उपरि "फाणिो गुडी भमति । सो दुविहो-दषगुडो, खंडगुडो व समखातेति । औ०। रा०' । उपरि विशाला अधः | वा"निच०४ उकाये. "णियफाणिया था।" फाणित संकुचितेति । प्रशा०२पर । परिखोपरि विशाला - काथ इति प्रेक्षा०१७ पद ४ उ०। पञ्चा०। २८ Page #1173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाणियगुस अभिधानराजेन्द्रः। फास फाणियगुल-फाणितगुड-पुं० । द्रवगुडे, भ०१८ श०५ उ० । स्था । स्वगिन्द्रियप्राधे पृथिव्युदकज्वलनवृत्तिके, सम्म। फारुसिय-पारुष्य-न । परुषतायाम् , "फारुसियं समादि स्पर्शनकरणविषये, स्था० १ ठा० । कर्कशाऽऽदिके गुणभेदे, यं।" आचा०१७०६ १०४ उ०। प्राचा०१श्रु०११०२०।सामा०म० । औ०। प्रा० । पं० फाल-पाट-घा० । पद-णिच् । "पाटि-परुष-परिघ-परिक्षा सं०। कर्म।"फासाई पडिसंवेद। स्था०२ ठा० २ उ०। पनस-पारिभद्रे फा" ॥८।१।२३२ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण श्रा०म० । जी०भ०।" विराहणा फासभावबंधी य । " एयन्तस्य पाटे पस्य फाऽऽदेशः। प्रा०१ पाद । " चपेटापाटौ नि०यू०१७ उ० ते चाटी कर्कशमृदुगुरुलघुशीतोष्णनिबा"।।१।१९८॥ इति प्राकृतसूत्रेण पाटेण्यन्तस्य टस्थ ग्धरूक्षभेदात् । विशे०। प्राचा०पं०सं०। उत्त० । अनु०। प्रव०। प्रज्ञा लो वा 'फालाफाले । फाड । फाडे ।'प्रा०१पाद । फाल-नाफलाय-शस्याय हितम् । अण् । फल्यते-विदार्यते अट्ट फासा पसत्ता । तं जहा-कक्खडे, मउए, गुरुए, लहुए, सीए, उसिणे, निद्धे, लुक्खे । स्था०८ ठा। भूमिरनेन वा घम् । स्वनामख्याते लागलमुखस्थे लोहभेष, वाच.।"फालसरिलजीहं।" फालं-द्विपश्चाशत्पलप्रमा स्पर्शाः संबाधनाऽऽलिङ्गनचुम्बनाऽऽदिका इति । भाचा १४.५१०४ उ० ते च प्रत्येक द्विविधाःणलोहमयो विष्यविशेषः । शा०१ ध्रु०८१० । "फालसरिसा से बंता।" काला नोहमयकुशास्तत्सदृशादीर्घत्वात् । दुविहा फासा पसत्ता । तं जहा–अत्ता चेव, अणत्ता उपा०२ मा फाल मस्त्यस्य अच् । बलदेवे, महादेधे च । पुं० । चेव जाव पणामा । स्था०२ ठा०३ उ०।। फलस्य विकारः श्रण । कापासवखे, त्रि० । फालकरणके "पगे फासे ।" एकत्वं सामान्यतः सजातीयविजाती. दिव्यपरीक्षाभेदे, न० । फलेषु भवः श्रण । जम्बीरबीजाss यव्यावृत्तरूपापेक्षया वा भावनीयम् । स्था०१ठा। दी, पुं। वाच । स्पर्शवणकश्व मणीनधिकृत्यफालण-स्फाटन-न० । विदारणे, श्राव०६०। प्रश्न । स०। तेसि णं मणीणं इमेयारूवे फासे पामते । से जहानाफालिफालि-स्ना० । शाखायम् , “संवलिफालि व्व श्र- मए आईणेइ वा, रुएइ वा, चूरेइ वा, नवणीएइ वा, हंसतुग्गिणा दहा।" संथा । खण्डे, "अंबपेसियं वा ।" आम्रपेशी णीएइ वा, सिरीसकुशुमनिचएइ वा, बालकुसुमपतारासीह प्रानफाली। प्राचा०२ श्रु०१ चू०७०२ उ०॥ वा । प्रज्ञा० २३ पद । रा०। फालिअ-पाटित-त्रि.द्विधाकते, " फालिनं औरंपिनं च स्पृश्यते-स्पर्शेन्द्रियेणानुभूयते इति स्पर्शः । उपतापे, ओरत।" पाइ० ना. १६८ गाथा। प्राचा०१७०८ अ.२ उ० । देशमशकादिके परीषहोफालित्ता-स्फालयित-त्रि० । स्फालनकर्त्तरि, सूत्र० २ श्रु० पसर्गाऽऽत्मके दुःखविशेषे , सूत्र। २०। एते भो कसिणा फासा, फरुसा दुस्सहिया सया। फालिय-फालिक-न० । महार्घमूल्ये वस्त्रभेदे, "फालियाणि हत्यीसरसं वित्ता, कीवाऽवस गया गिहं ॥ १७॥ वा।" प्राचा० १७० १ चू०५ अ० १ उ०। . सूत्रः११०३१०१उ.(अस्या व्याख्यानम् 'परिसह' स्फाटित-त्रि० । विदारिते, उत्त० १६ अ०।श्राव० । प्रश्न। शब्देऽस्मिन्नेव भागे ६४८ पृष्ठे गतम्) नरकाऽऽदिके दुःखस्फाटिक-ना रनविशेषे,कल्प०१ अधि०३ क्षण । श्रा०म०। विशेषे, “पुव्वं दंडा पच्छा फासा पुवं फासा पच्छा दंडा।" फालियवमाभ-स्फटिकवर्णाभ-त्रि० स्फटिकवर्णवदाभा य. आचा०१ श्रु०५ १०४ उ०। गाढप्रहारादि जनिते दुःखविशेष, स्य स तथा । स्फटिकवर्णसदृशवोपेते, भ०१२ श०। "कासा य असमंजसा ।" प्राचा०१श्रु.६०१ उ०। फालिहद--पारिभद्र-पुं० । परितो भद्रमस्त्यस्य प्रशाऽऽद्यण् । अदुवा फासा फुसति ते फासे पुढे वीरो अहियासए । "पाटि-परुष-परिघ-परिखा-पनस-पारिभद्रे फा" ८१२५४॥ अथवा-तेषु प्रामाऽऽदिषु स्थानेषु तिष्ठतो गच्छतो वा स्पर्शाः तुःखविशेषा श्रात्मसंवेदनीयाः स्पृशस्ति-अभिभवन्ति, ते इति प्राकृतसूत्रेण फः । प्रा०१ पाद । “ हरिद्राऽऽदी लः" । चतुर्विधातद्यथा-घट्टनतक्षणकण्डनाऽऽदे पननता,भ्रमिमू. ८।१।२५४ ॥ इति लः । प्रा०१पाद । वृक्षभेदे, वाच। .ऽऽदिना स्तम्भनता, वातादिना श्लेषणता, तालुनः पाता. फाली-फाली--स्त्री०। 'फालि' शब्दार्थे, संथा। दगुल्यादेर्वा स्यात् यदि वा-वातपित्तश्लेष्माऽऽदिक्षोभात् प. फास-स्पर्श-पुं० । प्रहणे, स्तेये च । चुरा०-उभा-सक० सेट् ।। ः स्पृशन्ति । अथवा-निष्किञ्चनतया तृणस्पर्शवंशमशक- सर्वत्र लबराम(च)वन्द्रे"।।२।७६॥ इति प्राकृतसूत्रेण शीतोष्णाऽऽद्यापादिताः स्पर्शाः दुःखविशेषाः कदाचित्स्पृश. संयुक्तस्योपरिस्थितस्व रस्य लुक । प्रा०२ पाद। "लुप्त यर- न्ति-अभिभवन्ति, तैश्च स्पृष्टः परीषदस्तान् स्पर्शान् दुःख व-श-ष-सां दीर्घः"॥८।१। ४३॥ इति प्राकृतसूत्रेण रलोपे विशेषान् धीरोऽक्षोम्योऽधिसहेत नरकाऽऽदिदुःखभावनया कृते शकारात्पूर्वस्य दीर्घः। प्रा० १ पाद । "श-प-तप्त-बजे बन्ध्यकर्मोदयापादितं पुनरपि मयैवैतरलोढव्यमित्याक. था"॥८।२।१०५ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण संयुक्तस्यान्त्यव्य अना लय्य सम्यक्तितिक्षेतेति । प्राचा० ११०६ अ०५ उ०। त्पूर्व इकारो वा । प्रा०२पाद । फास। फरिस । स्पर्शयति । अचेलं तणफासा फुसंति सीयफासा फुसंति तेउफाअपस्पर्शत् । वाच । स्पृशतीति स्पर्शः। स्पर्शन्द्रिये, विशे०। सा फुसंति दंसमसगफासा फुसंवि एगयरे अपयरे प्रशासम्म । 'स्पृश' स्पर्श । स्पृश्यते। छुप्यत इति स्पर्शः। "अकर्तरिच०" ॥३३॥ ११॥ इति घम्प्रत्ययः। प्रज्ञा०२३ पद।। विरूवरूव फास भाहयासात । Page #1174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAMA फास अभिधानराजेन्डः। फासण अचेलं कचिद् प्रामादौ स्वकत्राणाभावात् तृणशय्याशायि. तथा च परमाणुद्रव्यमाश्रित्य तावदवगाहना-स्प. नं तृणानां स्पर्शः परुषास्तृणैर्वा जनिताः स्पर्शा दुःखविशेषा र्शयोर्विशेषविविदिषयाऽऽहस्तृणस्पर्शास्ते कदाचित् स्पृशान्ति, तांश्च सम्यगदीनमन- अवगाहणाइरितं, पि फुसइ बाहिं जहाऽणुणोऽभिहियं । स्कोऽधिसहत इति संवन्धः। तथा शीतस्पर्शाः स्पृशन्स्युप- एगपएसं खेत्तं, सत्तपएसा य से फुसणा ॥ ४३२ ॥ तापयन्ति, तेज उष्णस्तरस्पर्शाःस्पृशन्ति, तथा वंशमशकस्प इह यत्रावगाढस्तत् केत्रमुच्यते, यत्ववगाहनातो बहिरप्यः स्पृशन्स्येतेषां तु परीषहाणामेकतरेऽविरुवा दंशमशक. तिरिक्त क्षेत्रं स्पृशति सा स्पर्शनाऽभिधीयते, इति क्षेत्रस्पर्श. तृणस्पर्शाऽऽदयः प्रादुर्भवेयुः, शीतोष्णाऽऽदिपरीषहाणां वा नयोर्विशेषः, यथा परमाणोः, प्रागमे यत्रैकस्मिन्प्रदेशेऽव. परस्परविरुद्धानामन्यतरे प्रादुष्युः, प्रत्येक बहुवचननिवेशश्व गाढः, तदेकप्रदेश क्षेत्रमभिहितम् , सप्तप्रदेशा तु (से) तीव्रमन्दमध्यमावस्थासंसूचका, इत्येतदेव दर्शयति-विरूपं- तस्य स्पर्शना प्रोक्का, यत्रै कस्मिन् प्रदेशेऽवगाढस्तम् अम्यांग धीभत्सं मनोनाहादि विविधं वा मन्दादिभेदारूपं स्वरूपं दिसंबन्धिनः षट् नमःप्रदेशान् परमाणुः स्पृशतीति येषां ते विरूपरूपाः के ते?-स्पीः दुःखविशेषाः, तदापाद- कृरवेति ॥ ४३२॥ कास्तृणाऽदिस्पर्शाबा, तान् सम्यक करणेमापध्यानरहितो. प्रकारान्तरेणापि क्षेत्रस्पर्शनयो दमाहअधिसहते । प्राचा०१श्रु०६१०३ उ० । दुःखोत्पादके शी. अहवा जत्थोगाढो, तं खेत्तं विगहे मया फुसणा। तोष्णादिके,"ससहफासा फरसा बुदीरिया।" प्राचा खेत्तं च देहमित्तं, संचरो होइ से फुसणा॥ ४॥३॥ २७०४० स्पृश्यतेऽनेन वस्तुतत्वमिति स्पर्शः । वस्तु तस्ववाने, पो. १२ विव.। (स्पर्शलक्षणम् 'दिक्खा' शब्दे पाठसिद्धैव । विशे०। ( स्पर्शनाद्वारम् 'प्राणुपुब्धी' शब्द चतुर्थभागे २५०८ पृष्ठे गतम्) अन्योऽन्य संघट्टने, बृ०१ उ०३/ द्वितीयभाग १३५ पृष्ठ गतम् ) ( 'परमाणुपोग्गल' शब्देऽ. प्रक० । सम्पर्के, सुत्र. १९०५ ० १ उ०। अभिभवे, स्मिन्नेव भागे ११०० पृष्ठे स्पर्शनासूत्रं गतम् ) प्राचा०१९०५ १०५ उभाराधने, " फासेर अणुत्तरं अथ नानाजीवानधिकृत्य क्षेत्रस्पर्शने प्राऽऽहकरणं । " स्पृशत्याराधयति । वृ० उ०२प्रक01 पालने, होति असंखेजगुणा,नानाजीवाण खेत्तफुसणाश्रो(४३४) "तिविहेण फासयते।" स्पृशन् पालयनिति । भ० १५ श० एकस्याऽभिनियोधिशानिजीवस्य ये क्षेत्रस्पर्शने, ताभ्यां ७ उ०। पञ्चा०1 ग्रहणे, रोगे, युद्धे, गुप्तचरे उपतापके, पायौ, | सकाशाद नानाऽऽभिनियोधिकजीवानां याः क्षेत्रस्य स्पर्श ना. बाचा प्राशीतिमहाप्रदेष्यन्यतमे स्वनामख्याते महानद्दे, स्ता असंख्येय गुणाः, नानाऽऽभिनिबोधिकजीवानां सर्वेषाम"दो फास्मा" स्था०२ ठा०३ उ०। संख्येयत्वादिति भावः। विशे। फासंत-स्पृशत्-त्रिका पालयति, पञ्चा० १० विव० । स्पर्शनामेवाऽधिकृत्याऽऽहफासकरण-स्पर्शकरण-न• । प्रयोगकरणभेदे, तरुच विशि लोयते भंते ! अलोयंतं फुसइ, अलोयतेऽवि लोयतं फुहेषु भोजनाऽऽदिषु सत्सु यद्विशिष्टाऽऽपादनम् । सूत्रों सइ । हंता गोयमा ! लोयंते अलोयंतं फुसइ, अलोयंतेऽ १७० १ ० १ उ०। वि लोयंत फुसइ । तं भंते ! किं पुढे फुसइ, अपुष्टुं फुसइ. फासकीव-स्पर्शक्तीव-पुं० । क्लीवभेदे, "गोवालगकंचुत्रो फा- जाव नियमा छद्दिसिं फुसइ । दीवंते भंते ! सागरंतं फुसे फासकीवो तं पाउणित्ता अप्पणो गोवालकंचुयं काउं| सह, सागरते वि दीवंतं फुसइ । हंता०जाब नियमा छदिसिं उब्वहणाइ करे।" नि०चू०४ उ०। फुसइ , एवं एएणं अभिलावेणं उदयंते पोयतं, छिईते फासजोग-स्पर्शयोग-पुं० । स्पर्शो ज्ञानं, तेन योगः सम्बन्धः दूसंतं, छायंते भायवंतं० जाव णियमा छदिसि फुसइ ॥ स्पर्शयोगः । ज्ञानसम्बन्धे, षो० १२ विव०। (लोयंते भंते ! अलायतमित्यादि) लोकान्तः सर्वतो तो. फासण-स्पशेन-न० । स्पृश ल्युट् । प्रहणे, स्पर्श च ।। कावसानम्, अलोकान्तस्तु तदनन्तर पति । हाऽपि (पु. वाच । दुःखने, "एयाई फासाई फुसति वालं ।" सूत्र०१ टुं फुसर इत्यादि ) सूत्रप्रपञ्चो दृश्योऽत एवोक्तं (जाप ६०५ १०२ उ० । इन्द्रियभेदे, प्रव०६७ द्वार । णिस् ल्युट । नियमा छहिसिं ति ) एतद्भावना चैवम्-स्पृष्टमलोकान्तं स्पू. स्पर्शने, वाने च । स्पृश-कर्तरि ल्युट् । वायौ, पुं० । वाच । शति, स्पृष्टत्वंस व्यवहारतो दूरस्थस्याऽपि एम्. य. था-चक्षुः स्पर्श इत्यत उच्यते, अवगाढम्-मासनमित्यर्थः, फासणकिरिया-स्पर्शनक्रिया-स्त्री० । क्रियाभेदे, प्रा०चू। अवगाढत्वचाऽऽसत्तिमात्रमपि स्थावत उच्यते, अनन्तराष. स्पर्शनक्रिया द्विविधा-जीवस्पर्शनक्रिया, अजीवस्प. गाढमव्यवधानेन सम्बद्धं न तु परम्परावगाढं शृङ्खलाकर्शनक्रिया । तत्र जीवस्पर्शनक्रिया-स्त्रीपुंनपुंसकं वा टिका इव परस्परसम्बद्ध तश्चाऽणुं स्पृशति, अलोकान्तस्पृशति, संघयतीत्यर्थः । अजीवस्पर्शनक्रिया-सुखस्पार्थ स्य कचिविषक्षया प्रदेशमात्रत्वेन सूत्रमत्वात् यादरमपि स्पृ. मृगलोमाऽऽदिवखजातं,मुक्तकाऽऽदिया रत्नजातं स्पृशती. शति, कचिद्विवक्षयैव बहुप्रदेशस्वेन वावरत्वात् , तम् ऊति । माखू ४ मा मधस्तिर्यकच स्पृशति, ऊर्वादिदिनु लोकान्तस्याऽलोफासणा-स्पर्शना-स्त्री०। स्पर्श, प्राप्ती, स्पर्शना प्राप्तिरवगाहो | कान्तस्य च भावात् । तं चादी मध्ये ऽन्ते व स्पृशति, क. सम्भाति। मा०चू०६अ। क्षेत्रस्पर्शनयोरयं विशेषः-क्षेत्रमय- थमधस्तिर्यगढलोकप्रान्तानामादिमध्यान्तकल्पनात् तंब. गाहाऽक्रान्तप्रदेशमात्रम् । स्पर्शनातु प्रदेशावहिरपि भवति।। स्वविषये स्पृशति । स्पचाऽवगाबादौनाविषयेभसादा. Page #1175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फासणा अभिधानराजेन्दः। फासणा विति तं चाऽनुपूर्ध्या स्पृशति । प्रानुपूर्वी चे प्रथम स्था- | रणामी वायुकायो बस्तिना स्पृष्टो, वस्तेर्वायुकायस्य परित ने लोकान्तस्ततोऽनन्तरं द्वितीय स्थाने अलोकान्त इत्येवमः एव भावात् । भ०१८ श०१० उ० । (माकाशथिबलस्पर्शः घस्थानतया स्पृशति । अन्यथा तु स्पर्शनैव न स्यातं च ष. 'आगासथिग्गल' शब्दे द्वितीयभागे १६ पृष्ठे उहा) दसु दिपु स्पृशति, लोकान्तस्य पार्वतः सर्वतोऽलोका. धर्मास्तिकायाऽऽदीनां स्पर्शों यथाम्तस्य भावात् । हच विदितुम स्पर्शनाऽस्ति । विशां लो | एगे भंते ! धम्मत्थिकायप्पएसे केवइएहिं धम्मत्थिकविष्कम्भप्रमाणत्वाद्विदिशां च तत्परिहारेण भावात् । एवं कायप्पएसेहिं पुढे । गोयमा ! जहमपदे तिहिं, उक्कोसपदे. द्वीपान्तसागरास्ताऽऽदिसूत्रेषु स्पृष्टाऽऽदिपदभावना कार्या, नवरं बीपसागरास्तादिसूत्रे"छहिसि" इत्यस्यैषम्भावना- छहिं । केवइएहिं अहम्मस्थिकायप्पएसेडिं पढ़े। गोयमा। योजनसहनायगाढा द्वीपाश्च समुद्राश्च भवन्ति, ततश्चोप. | जहमपदे चउहि, उक्कोसपदे सत्तहिं । केवइएहि आगारितनानधस्तनांश्च द्वीपसमुद्रान् प्रदेशानाधियोद्धाऽधो दि- सस्थिकायप्पएहिं पुढे? गोयमा! सत्तहिं । केवइएहिं जीवयस्य स्पर्थना याच्या, पूर्वाऽऽदिदिशा तु प्रतीतव , स प्टे गोयमा प्रांत के मन्ततस्तेषामवस्थानात् । (उदयंते पोयतं ति)नद्याधुदकास्तः पोतान्तं नौपर्यवसानमिहाप्युच्छयाऽपेक्षया ऊदिक पोग्गलस्थिकायप्पएसेहिं पुढे । गोयमा! अणं तेहि केवइस्पर्शना बाध्या । जलनिमज्जने चेति (किइंते दृसंतं ति) एहिं श्रद्धासमएहिं पुढे । सिय पुढे सिय णो पुढे जई पुढे छिद्रान्तो दृश्यान्तं वस्त्रान्तं स्पृशति । इहाऽपि षड्दिकस्प- णियम अणं तेहिं । र्शना भावना वस्त्रीच्छ्याऽपेक्षया, अथवा-कम्बलरूपवस्त्र- (धम्मत्यिकायप्पएसे इत्यादि) (जहसर तिहिति) अधः पोहलिकायां तन्मभ्योत्पन्नजीवभक्षपेन तन्मध्यरन्धाऽपेक्षया भ्यपदं लोकान्त निष्कुटरूपं, यत्रैकस्य धर्मास्तिकायाऽदिप्रदे. लोकान्तसूत्रवत् पददिक्स्पर्शना भावयितव्या । (छायते शस्यातिस्तोकैरन्यैः स्पर्शना भवति । तश्च भूम्यासनापबरकप्रायवंतं ति ) इह छायाभेदेन षदिग्भावनैवम्-पातपे कोणदेशपाय इहोपरितनेनैकेन द्वाभ्यां च पार्श्वत एको व्योमवर्तिपक्षिप्रभृतिद्रव्यस्य या छाया तदन्त भातपान्तं विवक्षितप्रदेशः स्पृष्ट एव जघन्येन त्रिभिरिति । (उको. चतसृषु दिशु स्पृशति, तथा तस्या एव छायाया भूमेः सपए छदि ति) विवक्षितस्यैक उपर्येकाऽधश्चत्वारो दिदा सकाशात् तद् द्रव्यं यावदुच्छूयोऽस्ति । ततश्च छायान्त पात- इत्येवं पहभिरिद प्रतरमध्ये, ( जहमपदे चहि ति ) पान्तमूर्चमधश्च स्पृशति । अथवा-प्रासादवरण्डिकाऽऽदेर्या धर्मास्तिकायप्रदेशो जघन्यपदेऽधर्मास्तिकायप्रदेशश्चतुर्भिः छाया तस्या भित्तरवतरम्त्या आरोहन्त्या वा अन्त पातपान्तः स्पृष्ठ इति । कथम् । तथैव प्रयश्चतुर्थस्तु धर्मास्तिकायप्रदेशमूर्खमधश्च स्पृशतीति भावनीयम् । अथवा-तयोरेव छाया. स्थानस्थित पवेति । उत्कृष्टपदे सप्तभिरिति कथम् । षदिक. तपयोःपुद्गलानामसण्येयप्रदेशावगाहित्वादुच्छ्रयसद्भाव. पटे सप्तमस्तु धर्मास्तिकायप्रदेशस्थ पवेति । प्राकाशप्र. स्तत्सद्भावाचीोऽधोविभागस्ततश्च छायान्त आतपान्त शैः सप्तभिरेव लोकान्तेऽपि अलोकाऽऽकाशप्रदेशानां विद्यमूर्द्धमधश्च स्पृशतीति । भ. १ श०६ उ.। मानस्वात् ३ (केवतिएहि जीवस्थिकायप्पएसेत्यादि) (प्रपरमाणुपोग्गले णं भंते वाउयाए णं फुडे, वाउयाए वा णतेहि ति) अनन्तैरनन्तजीवसम्बन्धिनामनन्तानां प्रदेशापरमाणुपोग्मले णं फुडे?। गोयमा ! परमाणुपोग्गले वाउयाए नां तत्रैकधर्मास्तिकायप्रदेशे पावतश्च दिक्रियाऽऽदौ वि.. द्यमानत्वादिति ४। एवं पुद्गलास्तिकायप्रदेशैरपि। (के. णं फुडे, णो वाउयाए पोग्गले णं फुडे । दुपदेसिए णं वहपहिश्रद्धासमपहि इत्यादि ) अद्धासमयः समयक्षेत्र एभंते ! खंधे वाउयाए गं एवं चेव । एवंजाव असंखेज- वन परतोऽतः स्यात् स्पृष्टः स्यानेति । ( जइ पुढे नियम पएसिए । अणंतपएसिए णं भंते ! खंधे वाउयाए पुच्छा। अणंतेहिं ति) अनादिस्वादद्धासमयानाम् । अथवा-वर्तमान. गोयमा! अणंतपएसिए खंधे वाउयाए णं फडे बाउयाए। समयाऽऽलिहितान्य ऽनन्तानि द्रव्याण्यनन्ता एव समया. अणंतपपसिए शंखधे णं सिय डे,सियणो फुडे । बस्थी गं स्यनन्तैरते स्पृष्टा इत्युच्यते इति । एगे भंते ! अहम्मत्थिकायप्पएसे केवइएहि धम्मत्यिकाभंते ! वाउयाए णं फुडे वाज्याए वस्थिणा फुडे । गोयमा!| यप्पएसेहिं पुढे । गोयमा जहमपदे चउहिं उकासपदे सत्तबत्थी वाउयाए णं फुडे, णो वाउयाए वत्थिणा फुडे ।। (वाइयाय ण फुडे त्ति) परमाणुपुद्गलो वायुकायेन स्पृष्टो हिं । केवइएहिं अहम्मस्थिकायप्पएसेहिं पुढे । गोयमा ! जहव्याप्तो मध्ये किप्त इत्यर्थः । “नो वाउयाए " स्यादि । नो पपदे तिहिं, उक्कोसपदे छहिं । सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स ।। वायुकायः परमाणुपुरलेन स्पृष्टो व्याप्तो मध्ये क्षिप्तो वा. अधर्मास्तिकायप्रदेशस्य शेषाणां प्रदेशः स्पर्शना धर्मास्तियोर्महत्वादणोश्च निःप्रदेशत्वेनातिसूक्ष्मतया व्यापकत्वाभा कायप्रदेशस्पर्शनानुसारेणावसेया। वादिति। (अर्णतपएसिए णमित्यादि) अनन्तप्रदेशिका एगे भंते ! भागासस्थिकायप्पएसे केवइपहिं धम्मत्थिस्कन्धो वायुना व्याप्तो भवति, सूक्ष्मतरत्वात् तस्य , वायु- | कायप्पएसेहिं पुढे १ । गोयमा ! सिय पुढे, सिय णो पुढे, कायः पुनरनन्तप्रदेशिकस्कन्धेन स्यादू व्याप्तः स्यान्न व्या-1 जह पुढे जहमपदे एक्केण वा दोहिं वा तिहिं वा, उक्कोसपदे सः कथम् , यदा वायुस्कन्धापेकया महानसौ भवति तदा बायुस्तेन व्याप्तो भवत्यन्यदा तु नेति। (वस्थीत्यादि) वस्ति सत्तहि। एवं अहम्मस्थिकायप्पपसेहिं वि।केवडएहिं श्रा. गासत्थिकायप्पएसेहिं पुढे । गोयमा कहिं । केवइएहिं जी. Jain Education Interational Page #1176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९५३) अभिधानराजेन्द्रः । फासणा वत्थकायप्पए सेहिं पुट्ठे ? । गोयमा ! सिय पुढे, सिय यो पुट्ठे, जइ पुट्टे यि अहिं, एवं पोग्गलत्थिकायप्पदे से हिं वि, श्रद्धासमएहिं ॥ (एगे भंते! आगासस्थिकायप्यरसे इत्यादि ) सिय पुढे ति ) लोकमाश्रित्य ( लिय तो पुढे त्ति ) अलोकमाश्रित्य (जर पुढे इत्यादि) यदि जघन्यपदे पकेन धर्मा स्तिकायदेशेन स्पृष्टः। कथन्। एवंविधान धर्मा स्तिकायैकदेशेन शेषमतिको निर्गतेनैके भागवतांक153काशप्रदेशाः सन्ति समितिका प्रदेशैः स्पृष्टः, स चैवम् यस्त्वेवं लोकान्ते को वागतो व्योमप्रदेशोऽखायेकेन धम्मस्तिकायदेशेन तद्वगानाम्येन उपरिवर्तन दिना या द्वाभ्यां च दिग्द्रयावस्थिताभ्यां स्पृष्ट इत्येवं चतुर्भिः, यश्चाध उपरि च तथा दिग्द्वये तत्रैव व मानेन धर्मान्तिकदेशेन पृष्टः स पञ्चमः पुनर उप रि च तथा दिये तथैव वर्त्तमानेन धम्मस्तिकायदेशेन स्पृष्टः स षद्भिः यश्चाध उपरि च तथा दिक्चतुष्टये तत्रैव वर्त्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स सतभिर्धर्मास्तिका यप्रदेश: स्पृष्टो भवतीति १. धर्मास्तिकाय प्रदेशैरपि २. (केवहा आयासत्यिक ि काका प्रदेशपालीकाका प्रदेशस्य वा दिग्व्यय स्थितैरेव स्पर्शनात् पभिरित्युक्रम ३ जीवास्तिकायसूचे(सिय पुट्ठे त्ति) यद्यसौ लोकाऽऽकाशप्रदेशो विवक्षितस्ततः स्पृष्टः (सिय नो पुढे त्ति) यद्यसावलोकाऽऽकाशप्रदेश विशेषस्तदा न स्पृष्टो जीवानां तत्राभावादिति ४ एवम् पुद्गला ६। एगे भंते ! जीवस्थिकायप्पए मे केवइएहिं धम्मस्थिका पुच्छा ? | जापदे चउहिं, उक्कोमपदे सत्तर्हि एवं अहम्मथिकायपदेसेहिं वि । केवइ एहिं श्रागासत्यिकाय पुच्छा १ । सतहिं केवहा जीवथिकायच्छा? सेसे जहा धम्मस्विकायस्स || I - (गे भंते! जीवथिका इत्यादि) जयस्यपदे लोकानको सर्वास्यास्पदेन चतुरिति कथम् ?. श्रध उपरि वा, एको द्वौ च दिशोरेकस्तु यत्र जीवप्रदेश एवावगाढ इत्येवम्। एकश्च जीवास्तिकाय प्रदेश एकत्राssकाशप्रदेशाऽऽदौ केवलिसमुद्धात एव लभ्यत इति । (उक्कोसप सतहिं ति) पूर्ववत् १, ( एवं अहम्मेत्यादि ) पूर्वोक्त:नुसारेण भाषणीयम् । एगे भंते! पोग्गनस्थिकायष्पदेसे केवइएहिं धम्मस्थिकाय पसेहिं ? | एवं जद्देव जीवत्थिकायस्स ॥ कायादीनां ४, लास्तिकायस्य बेकप्रदेश स्य स्पर्शनोक्शा | अथ तस्यैव द्विपदेशादिकन्यानां तां दर्शयन्नाहदो भंते ! पोलरियकायप्पदेसा के इ धम्मस्थिका rurat प्परसेहिं युद्ध है। गोयमा [जापदे खर्दि, उक्कांसपदे ! बारसहिं । एवं अहम्मत्थि कायप्पदे सेहिं वि । केवइएहिं आ मासरिथका पपुच्छा गोषमा वारस से नदा I त्थिकायस्स ॥ २८६ फासणा इन्द्रियं तत्परमाणुद्रयमिति मन्तव्यम्, तत्र वार्षा चीनः परमाणुर्धर्मास्तिकायदेशेन स्थितेन पृष्टः परभागवर्ती व परतः स्थितेनैवं द्वौ तथा ययोः प्रदेशयोर्म• ध्ये परमाणु स्थाप्येतत द्वितीयेन च द्वितीय इति चत्वारो द्वौ चावगाढत्वादेव स्पृष्टावित्येवं षट् । (उक्कोसपर वारसहिं ति ) कथम् ?, परमाद्वयेन द्वौ प्रदेशावगाढत्वात्स्पृष्ठौ द्वौ चाधस्तनानुपरितनी च पूर्वापरपाही ही दक्षिनोसर पायोकेक इत्येवमेते द्वादशेति । एवममस्तिका प्रदेश २ | ( केवतिपहिं श्रागसत्धिकायापसंहि वारसाई ति ) इह जयम्यपदं नास्ति लोकान्ते ऽप्याकाशप्रदेशानां दिति द्वादशभिरित्युक्रम से जदा धम्मस्थिकापस्व अर्थमंते! पोलकिपरसा केव हिं जीवस्थिकापसेहिं पुट्ठा १ । गोयमा ! श्रणंहि ४ । एवं पुद्गलास्तिकाय प्रदेशैरपि ५. श्रद्धासमयैः स्यात्स्पृष्टो स्यान्न, यदि स्पृष्टौ तदा नियमादनन्तैरिति ६ । तिथि मंते । पोग्गल स्थिकायप्पदेसा केवा पम्म विकायप्यदेखे पुट्टा १। गोयमा ! जहपपदे अट्ठहिं उकोसपदे सत्तर सहिं; एवं अहम्मत्थिकायष्पदे सेहिं वि । केच आगासस्थि । सत्तरसा से जहा धम्मस्थिका एहिं ०१ सेसं यस्स | एवं एएवं गमएवं भाणियव्वा ०जाव दस, - वरं जहपपदे दोति पक्खिवियन्वा, उक्कोसेणं पंच । चचार पोग्गलस्थिकाय० १ पदे सहि उोसपदे वा वीसाए | पंचपोग्गलत्यिकाय ०१ । जहम्मपदे वारसहि, उक्कास पदे सत्तावीसाए । छपोग्गलस्थिकाय ०१ | जहष्मपदे चउदसहिं, उको बनसार सनपोशालस्थिकाय ०१। जाप सो सर्दि उकीसपदे सततीसाए। शपोग्गलयिकाय० १। ज eerut अारसहिं, उक्कोसपदे वायालीसाए । गव पोग्गलविका । जापदे वीसाए, उको सपदे सीयालीसाए । दसपोग्गलत्विकाय ० १ । जहम्मपदे बावीसाए, उकोसपदे बाबा | आगासस्थिकाय० । सम्वत्य उक्कोसगं भायिव्वं ॥ (तिहि ते ! इत्यादि) (जहर अहिं ति ) कथम् पूर्वोपमवाप्रवेशखिया अवस्तनोऽपि उपरितनोऽपि वा त्रिधा द्वौ पार्श्वत इत्येवमष्टौ । ( उक्कोसपए सतरसहिं ति) प्राग्वद्भावनीयम् । इह च सर्वत्र जघन्यपदे विवक्षित परमाणुभ्यो द्विणाद्विरूपाधिका साक प्रदेशा भवन्ति उत्कृटपरे तु विपतिपरमाणुभ्यः पञ्चगुणा द्विरूपाधिकाश्च ते भ्रमन्ति तत्र चैकाणोर्द्विगुणत्वे द्वौ द्वपसहितत्वे चरवारों जधन्यपदे पका प्रदेशाः उत्कृष्टदे स्वकारणोः पञ्चगुणत्वे द्विकसतित्ये च सप्तस्पर्शकाः प्रदेशा मे इत्यादि (भागासत्धिकायस्थ सम्बन्ध छन् भवन्ति एवं काऽऽदिष्यपि एतदेवाऽऽद (ए पण गमेणं ) shravi भाणियवं ति ) सर्वत्र एकप्रदेशिकाऽऽद्यनन्तप्रदे. शिकार गरी उत्कृष्टमेव न जयन्धकमित्यर्थः प्रा. कार विद्यमानत्वादिति । · Page #1177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५४) फासणा अभिधानराजेन्डः । फासया संखेजा णं भंते ! पोग्गलस्थिकायप्पदेसा केवइएहि ति कथम् ।प्रद्धासमय विशिष्टं परमाणुध्यमेकत्र धर्मास्तिधम्मस्थिकायापदेसेहिं पुच्छा ? । जहमपदे तेणेव संखे. कायप्रदेशेऽवगाढमन्ये च तस्य षट्सु दिदिवति सप्तेति, जीवास्तिकायप्रदेशश्वानन्तैरेकप्रदेशेऽपि तेषामनन्तत्वात् । अएणं दुरूवाहिएणं, उक्कोसपदे तेणेव संखेजएणं पंच ( एवं जाव श्रद्धासमयहि ति । इह यावत्करणादिवं सूचि. गुणेणं दुरूवाहिएणं । केवइएहिं अहम्मस्थिकाएहिं०? एवं तम्-पकोऽद्धासमयोऽनन्तैः पुद्गलास्तिकायप्रदेशरखासमचेव । केवइएहिं पागासत्यिकाय० ॥ तेणेव संखेजएणं पं- यैश्च स्पृष्ट इति । भावना चास्यैवम् अद्धासमयविशिष्टमणुद. प्चगुणेणं दुरूवाहिएणं । केवइएहिं जीवस्थिकाय? अणं- व्यमद्वासमयः, सचैकः पुनलास्तिकायप्रदेशैरनन्तैः स्पृश्यते, तेहिं । केवइएहिं पोग्गलत्यिकाय.?। अणंतेहिं । केवइएहिं एकद्रव्यस्थाने पावतश्वानन्तानां पुद्गलानां सद्भावात् , तथा अद्धासमबरनन्तै रसौ स्पृश्यते, श्रद्धासमयविशिष्टानामनश्रद्धासमएहिं० । सिय पुढे,सिय णो पुढे जाव अयंतेहिं । न्तानामध्यणुव्याणामशासमयत्वेन विवक्षितत्वात् , तेषां च , असंखेजा भंते ! पोग्गलत्थिकायप्पदेसा केवइएहिं धम्म- तस्य स्थाने तत्पार्श्वतश्च सट्टावादिति । धर्मास्तिकायाss. स्थिकायप्पदेसेहिं ०?। जहमपदे तेणेव असंखेज्जएणं दुगुणेणं दीनां प्रदेशतः स्पर्शनोक्का । दुरूवाहिएणं, उक्कोसपदे तेणेव असंखेज्जएणं पंचगुणएणं अथ द्रव्यतस्तामाहदुरूवाहिएणं,सेसं जहा संखेज्जाणं जाव णियमं अणंतेहिं । धम्मत्थिकाए णं भंते ! केवइएहिं धम्मस्थिकायपदेसेहि (संखेजा भंते ! इत्यादि ) (तेणेव त्ति) यत्संख्येयकमयः पुढे । णस्थि एकेण वि । केवइएहिं महम्मत्थिकायप्पदेसेस्कन्धस्तेनैव प्रदेशसंख्येयकेन द्विगुणेन द्विरूपाधिकेन स्पृष्टः। हिं०।असंखजेहिं । केवइपहिं भागासस्थिकायप्पदेसेहि। वह भावना-विंशतिप्रदेशिकः स्कन्धो लोकान्ते एकप्रदेशे असंखेजेहिं । केवइएहिंजीवस्थिकायप्पदेसेहिं०१॥ भयंतेहि। स्थिता, स च भयमतेन विंशत्यावगाढप्रदेशविंशत्यैव च केवइएहिं पोग्गलस्थिकायप्पदेसेहिं० । अणंतेहिं । श्रद्धासनयमतेनैवाधस्तनपरितनैर्वा, प्रदेशयां व पार्श्वप्रदेशा. भवां स्पृश्यत इति । उत्कृष्टपदे तु विंशत्या निरुपचरितैरव मयेहिं सिय पुढे, सिय णो पुढे, जइ पुढे णियमा अणंतेहिं । गाढप्रदेशः, एवमधस्तनै २० रुपरितनैः२. पूर्वापरपार्श्वयोश्च (धम्मस्थिकाए णमित्यादि) (नस्थि पगेण वित्ति) स. विशत्या २द्वाभ्यां च दक्षिणोत्तरपावस्थिताभ्यां स्पृष्टस्ततश्च. कलस्य धर्मास्तिकायद्रव्यस्य प्रश्नितस्वात्तव्यतिरिक्तस्य च बिशतिरूपः संख्याताणुकः स्कन्धः पञ्चगुणया विशत्या धर्मास्तिकायप्रदेशस्याभावादुक्तम् , नास्ति-न विद्यते अयं प्रवेशानां प्रदेशश्येन च स्पृष्ट इति । अत एवोक्तम्-(उक्को पक्षो यदुत एकेनापि धर्मास्तिकायप्रदेशनाऽसौ धर्मा. सपदे तेणेव संखेज्जएणं पंचगुणणं दुरूवाहिएणं ति) | स्तिकायः स्पृष्ट इति, तथा धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकाय. प्रदेशैरसंख्येयैः स्पृष्टः धर्मास्तिकायस्पर्शनत एवं व्यवस्थि. "मसंखज्ज" इत्यादी पदसूत्री तथैव । तत्वावधर्मास्तिकायसम्बन्धिनामसंख्यातानामपि प्रदेशानाभणंता भंते! पोग्गलस्थिकायप्पदेसा केवइएहिं धम्मत्थि मिति,आकाशास्तिकायप्रदेशरप्यसंख्येयैः असंख्येयप्रदेशस्थ. काय०१। एवं जहा-असंखेजा तहा अणंता गिरवसेसं । रूपलोकाsकाशप्रमाणत्वाधर्मास्तिकायस्य, जीवपुबलप्रदेशै. "अणंता भंते !" इत्यादिरपि पदसूत्री तथैव, नवरमिह स्तु धर्मास्तिकायोऽनन्तः स्पृष्टस्तव्याप्स्या आस्तिकाययथा जघन्यपदे औपत्तारिका अबगाहप्रदेशा अधस्तना स्यावस्थितत्वात्तेषां चानन्तवादद्धासमयैः पुनरसौ स्पृष्टउपरितना वा तथोस्कृष्टपदेऽपि, न हि निरुपचरिता अनन्ता श्चास्पृष्टश्च, तत्र, यः सृष्टः सोऽनन्तैरिति ६। माकाशप्रदेशा अवगाहतः सन्ति, लोकस्याप्यसंख्यातप्रदे. अहम्मस्थिकारणं भंते ! केवइएहिं धम्मत्थि काय? अ. शाऽऽरमकत्वादिति । इह च प्रकरणे इमे वृद्धोक्तगाथे भवतः संखजेहिं । केवइएहिं अहम्मत्थि० । णस्थि एकण वि; "अम्माइपएसहि, दुपएसाई जहरणयपयम्मि । सेसं जहा धम्मस्थिकायस्स । दुगुणदुरुचाहिएणं, तेणेव कहं तु ह फुसज्जा ? ॥ १॥ एवमधर्मास्तिकायस्थ ६,आकाशास्तिकायस्य६. जीवास्ति पत्थ पुण जहरणयपयं, लोगंते तस्य लोम्सालिदि। कायस्य ६, पुद्गलास्तिकायस्य ६. श्रद्धासमयस्य च ६, सूत्राफुसणा दायब्वा, अहवा खंभाइकोरी ." इति । णि वाच्यानि, केवलं यत्र धर्मास्तिकायाऽऽदिस्तत्प्रदेशैरेव एगे भंते ! भद्धासमए केवइएहिं धम्मत्थिकायप्पदेसेहि चिन्स्यते तत्स्वस्थानमितरच परस्थानं, तत्र स्वस्थाने (नस्थि. पुढे०१ । सत्तहिं केवइएहिं अहम्मत्थिकायप्पएसेहिं पुढे । एगेण वि पुढे) इति निर्वचनं वाच्यम् , परस्थाने च धर्मास्तिएवं चेव । एवं भागासस्थिकाय पएसेहिं०१। केवइएहिं जीव कायाऽऽदित्रयसूत्रेषु ३ असंख्येयैः स्पृष्ट इति वाच्यम् , असं. ख्यातप्रदेशत्वाद्धर्मास्तिकाययोस्तत्संस्पृष्टाऽऽकाशस्य च जी. स्थिकायप्पएसेहिं०१। अणंतेहिं । एवंजाव श्रद्धासमएहि । वाऽऽदित्रयसूत्रेषु चानन्तः स्पृष्ट इति वाच्यम् , अनन्तप्रदेश. (पगे भंते ! अद्धासमए इत्यादि ) इह वर्तमानसमयवि त्वात्तेषामिति । शिष्टः समयक्षेत्रमध्यवर्ती परमाणुरखासमयो प्रायः । अन्यथा एतदेव दर्शयन्नाहतस्य धर्मास्तिकायाऽऽदिप्रदेशैः सप्तभिःस्पर्शना न स्यादिद च जघन्यपदं नास्ति मनुष्य क्षेत्र मध्यवर्तित्वादद्धासमयस्थ, स एवं एएणं गमएणं सव्ये वि सहाणपणं णस्थि एक्के.. जघन्यपरस्य च लोकान्त एव सम्भवादिति । तत्र सप्तभिरि ण वि पुढा, परवाणेहिं आदिल्लएहिं तिहिं असंखेजएहिं Page #1178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फासणा १११५५) अभिधानराजेन्डा फासणा भाणियव्वं, पच्छिल्लरसुतिसु भयंता भाखियन्वा जाव " पुढवादहीषणतणू-कप्पा गेवेजऽणुत्तरा सिद्धी । श्रद्धासमा त्ति । केवइएहि अद्धासमयहिं पुढे । खस्थि संखेज्जइभागं अं-तरेसु सेसा असंखेज्जा ॥१॥" एक्कण वि। (इमा संमंते ! इत्यादि) इह प्रतिपृथिवि पञ्च सूत्राणि, दे. रह चाऽऽकाशसूत्रेऽयं विशेषो द्रराय:-श्राकाशास्तिकायो | बलोकसूत्राणि द्वादश, प्रैवेयकसूत्राणि श्रीणि, अनुत्तरेषत्प्रा. धर्मास्तिकायाऽऽदिप्रदेशः स्पृष्टश्चास्पृष्टश्च, तत्र यः स्पृष्टः सोऽ- भारसूत्रे दे। एवं द्विपञ्चाशस्सूत्राणि । धर्मास्तिकायस्य कि संख्येयधर्माधर्मास्तिकाययोः प्रदेशैः जीवास्तिकायादीमा समस्येयं भागं स्पृशन्तीत्याद्यमिलापेनावसेयानि, तत्रायका. खनन्तैरिरहि(जाव अद्धासमात्ति) प्रद्धरसमयसूत्रं पाच- शान्तराणि सङ्ख्येयभागं स्पृशन्ति, शेषास्वसंख्येयभाग. रसूत्राणि वाच्यान्मत्यर्थः । "जाव केवइपहि" इत्यादी याव- मिति, निर्वचनम् । एतान्येव सूत्राण्यधर्मास्तिकायलोकाss. स्करणाववासूत्रेमाचं पदपञ्चकं सूचितं , षष्ठं तु लिखितमेवा काशयोरिति । इहोतार्थसत्प्रहगाथा भाविताथैव । भ०२ ऽऽस्ते, तत्र तु (नस्थि एगेख वत्ति) निरुपचरितस्यावास- श०१०3०। मयस्यैकस्यैव भावान्, अतीताचागतसमययोचामियानुत्प जंबूदीवस्स णं भंते ! दीवस्स पदेसा लवणसमुदं पुट्ठा। अत्वेनासवान समयान्तरेण स्पृष्टताऽस्तीति । भ०१३ | हंता पुढा। ते णं भंते ! किं जंबूढीवे दीवे लवणसमुद्दे १ । गो. श०४ उ.. स्पर्शनाधिकारादधोलोकाऽऽदीन धर्मोस्तिकायाऽदि. | यमा ! जंबूदीवे णं दीवे नो खलु ते लवणसमुद्दे। लवगतां स्पर्शनां दर्शयबाह णसमुहस्स पदेसा जंबूद्दीवं दीवं पट्टा ?। ता पुढा । ते णं भंते! पहेलोए पं भंते ! धम्मस्थिकायस्स केवइयं फुसइ ।। श्य फुसइ । किं लवणस मुद्दे जंबुद्दीवे दीवे? | गोयमा! लवणाणं समुद्दे गोयमा! साविरगं अद्धं फुसइ। तिरिवलोएणं भंते ! पु नो खलु ते जंबूद्दीवे दीवे । रुछा? । गोयमा! असंखेजइमागं फुसइ । उड्डलोए णं भंते ! जम्बूद्वीपस्याणमिति पूर्ववत् । भवन्त! द्वीपस्य प्रदेशा:-स्व. पुच्छा। गोयमा! देसूर्ण श्रद्धं फुसइ । सीमागतचरमरूपा लवणसमुद्रं स्पृष्टाः । कर्तरिक्रप्रत्ययः । (अहेलोए पमित्यादि ) ( सातिरेगमद्धं ति ) लोकव्या- स्पृष्टवन्तः१, काका पाठ इति प्रश्नार्थत्वावगतिः। पृच्छतश्चाएकत्वाधर्मास्तिकायस्य सातिरेकसप्तरज्जुप्रमाणत्वाचाधो- यमभिप्रायः-यदि स्पृष्टास्तर्हि वक्ष्यमाणं पृछपते, नो चेत् त. प्लोकस्य (असंखजामा ति) असङ्ख्यातयोजमप्रमाणस्य हिनेति भावः। भगवानाह-हंतेत्यादि) हन्तेति प्रत्यवधाधर्मास्तिकायस्याहादशयोजनशतप्रमाणस्तिर्यग्लोकोऽसंख्या रणे, स्पृष्टाः । एवमुक्त भूयः पृच्छति-(ते पमित्यादि ) तभागवर्तीति तस्यासावसझयेयभामं स्पृशतीति ( देसो- ते भवन्त! स्वसीमागतचरमरूपाःप्रदेशाः किं जम्बूदीपः, किं णं अति) देशोनसप्तरप्रमाणत्वादू लोकस्येति । वा लषणसमुद्रः । इह यत् येन स्पृष्टं तत् किश्चित् तद्व्यप. इमा णं भंते । रयणप्पभा णं पुढवी धम्मस्थिकायस्स देशप्रश्नवदुपलब्धं, यथा सुराष्ट्रभ्यः संक्रान्तो मगधदेश मा. कि संखेजइभामं फुसइ, असंखेअइभागं फुसइ, संखेजे गध इति, किश्चित् पुनर्गतम्यपदेशभाक् यथा तर्जन्या सं. स्पृष्टा ज्येष्ठालिज्ये ठेवेति हापि च जम्बूद्वीपचरमप्रदेभागं फुसइ, असंखेजे भागं फुसइ, सव्वं फुसइ । गोया! शा लषणसमुद्रं स्पृष्टचन्तस्ततो व्यपदेशखिम्तायां संशय णो संखेजागागं फुसइ, असंखेजइभागं फुसद, यो इति प्रश्नः। भगवानाह-गौतम! जम्बूद्वीपे पष,णमिति नि. संखेले भागं फुसइ, यो असंखेजेभागं फुसइ, नो पातस्यावधारणार्थत्वात् ते चरमप्रदेशाद्वीपो जम्बूद्वीपसध्वं फुसह, इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए सीमावर्तित्वात् न खलु ते जम्बूद्वीपचरमप्रदेशा जम्बद्धी. पसीमानमतिक्रम्य लषणसमुद्रसीमानमुपगता किंतु-स्व. पुढवीए घणोदही धम्मस्थिकायस्स किं संखेजहभागं सीमागता एव लषणसमुद्रं स्पृष्टवन्ता ततस्तटस्थतया संसफुसइ ? गोयमा! जहा रयणप्पभाए तहा घणोदहिषण- शंभाषात् तर्जन्या संस्पृष्टा ज्येष्ठाऽलिरिष से स्वव्यपदेश चायनणुवाया वि । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पु. भजन्ते,न व्यपदेशान्तरम् । तथा चामह-नो खलु जम्बूद्वीपच. रमप्रदेशा लवणसमुद्रः, एबम् (लवणस्स णं भंते ! समुरस्स दवीए उवासंतरे धम्मत्थिकायस्स किं संखेज्जइभार्ग फु पदेसा इत्यादि ) लवणविषयमपि सूत्रं भावनीयम् । जी० सह, असंखेज्जहभागं फुसइ पुच्छा । गोयमा ! संखे ३ प्रति०1 ज्जइभागं फुसइ,णो असंखेज्जइभागं फुसइ,नो संखेजे भा०, जंबूदीवे णं भंते ! दीवे किराणा फुडे , कहिं वा नो असंखेज्मे भा०, नो सव्वं फुसइ,उवासंतराइं सन्चाई जहा | काएहिं फुके, किं धम्मस्थिकारणं जाव भागासस्थिरयणप्पभाए पुढवीए वत्तम्बया भणिया एवं जाव भ- कारणं फुडे । गोयमा! णो धम्मत्यिकाए णं फुडे, प. हे सत्तमाए जद्दीवाझ्या दावा लवणसमुहाइया समुहा, मस्थिकायस्स देसेणं फुडे, धम्पस्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे। एवं सोहम्मे कप्पे जाव इसिप्पम्भाराए पुढवीए ते सव्वे एवं अधम्मत्थिकायस्स वि, भागासस्थिकायस्स वि, पुढवि असंखेज्जहभागं फुसइ । मेसा पडिसोयब्बा । एवं भ- विएणं फुडेजाव वणस्सइकाएवं फुडे, तसकाइए णं सिय धम्पत्थिकाए, एवं लोयागासे वि । गाहा | फुडे,सिय नो फुडे,सिय अदासमए णं फुढे । एवं लवणसमदे Page #1179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फासणा धायइसंडे दीवे, कालोए समुदे, अभितरपुक्खरद्धे बाहिरपुखर एवं चैव नरं अद्धासमयं नो फुडे, एवं० जान सर्वभूरमणसमुदे | एवं सम्पादिविषयावपि षाणि भावनीयानि, नवरं बहिः पुष्कराचितायाम् ( प्रजासमी कुठे इति मुन बरेच धर्मइसा भावितं ततो बहिर्जी समुद्रामा समयस्पर्शनप्रतिषेधे जम्बूही ये गाड़ा ( १९५६ ) प्रभिधान राजेन्द्रः । 46 एसा परिवाडी इमाहि गाहाहिं धतुगंतव्या । तं जहा" जंबूदी लग पायकारे वरुणे । वीरघय खोय मंदिर - अरुणवरे कुंडले रुयए ।। १ ॥ " सर्वद्वीपसमुद्राणामभ्यन्तरवर्ती जबूद्वीपस्तत्परिकरो लवसमुद्रन्तरं धातकी खामियानो द्वीपस्ततः का सोदः समुद्रस्तदनन्तरं पुष्करवरो द्वीपस दशनामानः समुद्राः, ततः पुष्करवरलमुद्राः, तदनन्तरं वरु घरो द्वीपो वरुणोदः समुद्रः क्षीरवरो द्वीपः क्षीरोदः समुद्रः. तव द्वीपो तो समुद्र वरो द्वीप पर स मुद्रः, नन्दीश्वरो द्वीपो नन्दीश्वरः समुद्रः । एतेऽष्टावपि च समुद्रा एकप्रत्यवतारा एकैकरूपा इति भावः । श्रत ऊर्दै तु डीपाः समुद्राका त्रिप्रत्यवदाराः । तथा - ( अरुण इति ) अरु saणबरावभासः कुण्डलः कुण्डल वरः कुण्डलवरावभासः, रुचको रुचकवरो रुचकवरावभास इत्यादि । ए नीरसमुद्रमरुण द्वीप समुद्र ततोऽरुणवरो द्वीपो ऽरुणवरः समुद्र इत्यादि । - किमतः खलु सामग्राीपसमुद्रा शक्यन्ते, ततस्तश्चामसंग्रहमाह - " श्राभरणवत्थगंधे, उप्पलतिलए य पउमनिहिवयणे । वासहरदहनईओ, विश्यायारपि ॥ २ ॥ कुरुमंदिरवासा, कूडा नक्खत्तचंदसूरा य । देवे नागे जक्खे, भ्रूए य सयंवरमणे य || ३ |" एवं जा बाहिरपुक्खर भगिए तहा जात्र सयंभूरमणे महा समुद्दे जाप अद्धायम गं गो फुडे । "आरत्यादि "गाथाद्वयम् । यानि कानि रक्षनामानि द्वारा उदार अन्ना चवनामानि चीना मानिकानि पनि नामानि जल uraप्रमुखानि च, तिलकप्रभृतीनि वृक्षनामानि यानि पद्मनामानि शतपत्रसहस्रपत्रप्रभृतीनि यानि च पृथिवीनामानि पृथिवीशाकेव्यादीनि यानि च नानां विधा चतुर्दशानां नांदादीनां पता ssarai ssदीनां गङ्गासिन्धुप्रभृतीनां नदीनां कच्छाऽऽदीनयनां मदादीनां वक्षस्कारपर्वतानां 35 दीनां कल्पानां शक्रा ऽऽदीनामिन्द्राणां देवकुरुत्तरकुरुमन्दरा. यामायासान शादिसम्बन्धादीनां दादिसम्बन्धि कृतिका फासणाम चन्द्राणां सूर्याणां च नामानि तानि सर्वाण्यपि द्वीपसमुद्राणां त्रिप्रत्यवाराणि वक्तव्यानि । तद्यथा- -हारो दीपो, हारस्समुद्रः हारवरावभासा द्वीपो, हारवरावभासः समुद्र इत्यादिना प्रकारेण त्रिप्रत्यवतारास्तावद्वक्तव्याः यावत्सूर्यो द्वीपः सूर्यः समुद्रः सूर्यपरी द्वीपः सूर्पपरः समुद्रः सूर्यरावभासा द्वीपः, सूर्यवरावभासः समुद्रः च जधाभिगम" अखाईदीमुनिपडायारा" यावत्सूर्यवयासः समुद्र सूर्यवरावभास परिक्षेपे देवो द्वीपः ततो देवः समुद्रः तदनन्तरं नाम द्वीपसमुद्री पक्षः स मुद्रः, ततो भूतो, द्वीपों भूतः समुद्र, स्वयंभूरप्रणो द्वीपः स्वभूमणः समुद्र पक्ष देवा द्वीपा पक्ष देवान्यः समुद्राः, एकरूपा न पुनरेषां त्रिप्रत्यवतारः । उक्तं च जीवाभिरमचूर्णे - पते पञ्चद्वीपाः पञ्चसमुद्रा एकप्रकारा इति । जी. वाभिगम सूत्रे ऽप्युक्तम्-"देवे नागे जक्खे, भुए य सयंभुरमणे य । एकैक्को ब्रेव भाणियब्बो तिरद्वंपडोयरं नत्थि । " इति । पूर्वमाकाश थिग्गलशब्देन लोकः पृष्ठः, अधुना लोकशमेराद लोगे णं भंते! किला फुडे कहिं वा काहिं जहा श्रामाथिले | अलोए गं भंते! किला फुडे कहिं वा काहिं पुच्छा है। गोयमा ! वो धम्मत्विक एवं फुडे० नाव नो आगासत्यिका एवं फुडे, आगास स्विकायरूप देसेणं फुडे यागासस्थिकायस्थ पदेसेहि फुडे, नो पुढविकाप फुडे • बाब नो भद्रासमयं पुढे एगे जीवपदे अगुरुलहुए अयंतेहिं अगुरुल हुयगुजुगासे अयंतभागुणे ॥ ? Q लोग मंते ! किला फुडे " इत्यादि पाव सिम लोक सूत्रमपि पाठसि नरम असे इति लो क एकोजीद्रव्यदेश आकाशास्तिकायस्य देश इत्यर्थः परिपूर्णत्वाकाशास्तिकायन पतिखो दीन. स्वास नग संयुक्तः प्रतिप्रदेशं स्वपरभेदभिन्नानामनन्तानामगुरुलघुपर्या याणां भावात् । किं प्रमाणतो लोक इति चेत आह-सर्वा काशमनन्न भागोनलोकाऽऽकाशभागखण्डद्दीनं सकलाऽऽकाशमाणमिति भावः प्रज्ञा०१५ पद १३० । पं०सं० क०प्र० । ० समुद्घानगतानां देशतः स्पर्शाऽऽदि 'समुदाय' श वाम फामग्राम स्पर्शनान्न० ''संस्पस्पृश्यतेति एक र्शः । " अकर्त्तरि०” | ३|३ | १६|| इति घञ्प्रत्ययः । स च कर्कश गुरुशीतोष्णदाकार म स्पर्शनाम । प्रज्ञा० २३ पद । पं०सं० । कर्म० । अनु० । स्पृश्यते इति स्पर्श दिनुस्यात् कर्मापि स्पर्श लाम । कर्म० १ कर्म० । नामकर्मभेदे, स० ४२ सम० । प्र 3 ब० । था० । फासनामे पुच्छा १ । गोयमा ! श्रद्धविहे पत्ते । तं जहाक्खडफासनाये जाय लुक्खफासखाये || ० तत्र पदयाञ्जन्तुशरीरेषु कर्कशः स्पर्शो भवति यथा Page #1180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फासणाम । अनिघानराजेन्डः। फासिदिय पात्रधिशेषाऽऽदीनां तस्कर्कशस्पर्शनाम। एवं शेषारयपि स्पर्श | "जितशत्रुर्महाराजो, वसन्तपुरपत्तने । नामानि भावनीयानि । प्रशा० २३ पद । स्पर्शाभिधायके | सुकुमाखतमस्पर्शा, तत्प्रिया सुकुमालिका ॥१॥ शम्, तदपि पूर्ववदष्टधा । अनु०।। तबीयस्पर्शलालस्या-द्राज्यचिन्तां मुमोच सः। फासपरिणय-स्पर्शपरिणत-त्रि०। स्पर्शतः परिणतः, स्पर्श एवं प्रजाति काले च, सर्वरालोच्य मन्त्रिभिः ॥२॥ तं निःसार्य समं पल्या. राज्येऽस्थाप्यत तत्सुतः। रूपतया परिण मति, परिणमिष्यतीति स्पर्शपरिणतः । स्पर्श यातस्य च महाटव्यां राशी तृष्णाऽऽतुराऽभवत् ॥ ३॥ परिणते स्कम्बाऽऽदिके, प्रशा०१ पद । (स्पर्शपरिणताना. पानीयं प्रार्थयामास, ततःप्रेम्णा नराधिपः । मष्टविधत्वम् 'परिणाम' शब्देऽस्मिन्नेष भागे ६०८ पृष्ठे गतम् ) बध्वाऽश्वलेन तन्नेत्ने, मा भैषीरित्युदीर्य च ॥४॥ फासपरिणाम-स्पर्शपरिणाम-पुं० । परिणामभेदे, प्रशा। कृत्वा पत्रपुटं बाहु-शिरोरलेन पूरितम् । फासपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पमचे। गोयमा अट्टविहे तदम्तमलिका क्षेपि, येन न स्त्यानां व्रजेत् ॥५॥ पपत्ते । तं जहा-कक्खडफासपरिणामेजाव लुक्खफास अपाय्यसारशं रक्त, तामथ व्यथितां बुधा । भोजयित्वोकमांसानि, रोहिण्याऽऽरोहयन्त्रणम् ॥ ६॥ परिणामे य । प्रज्ञा० १३ पद । स्था। ततः स कापि देशेऽगा-दूषणैः कृतनीषिकः। (मत्र भविधिः 'पोग्गलपरिणाम' शब्देऽस्मिनेष भागे वाणिज्यमकरोत्तत्र, परास्त दरक्षकः कृतः॥७॥ ११०८ पृष्ठे दर्शितः) पोर्गीतेन सा क्षिप्ता, तं पति कर्तुमैहत । कासपरियारग-स्पर्शपरिचारक पुं० । परिचरति-सेवते नि. गतं गातटोद्याने, गायां पतिमक्षिपत् ॥८॥ यमिति परिचारकः, स्पर्शतः परिचारकः स्पर्शपरिचारकः । द्रव्ये निष्ठां गते शेषे, वहन्ती मस्तकेन तम् । स्पीदेवोपशान्तवेदोपतापे स्पर्शपरिचारणकारके, स्था। गायन्ती तेन सार्द्ध च, भिक्षते सा गृहे गृहे ॥६॥ दोसु कप्पेसु देवा फासपरियारगा पसत्ता । तं जहा-सणं- किमेतदिति पृष्टाऽऽख्य-पितृभ्यां दत्त ईदृशः। कुमारे चेव,माहिंदे चेव । स्था०२ ठा०४ उ० । प्रज्ञा स च भर्ता बहन् बाहे, तटमासाद्य निर्ययो ॥१०॥ अधैकत्र पुरासले. श्रान्तस्तरुतलेऽस्वपीत् । फासपरियारण-स्पर्शपरिचारण-ना बदनचुम्बनस्तनमर्दन तस्योद्यत्पुण्यशेषेण , तच्छाया पर्यवर्तत ॥ ११ ॥ बाहुग्रहणजघनोरुप्रभृतिगात्रसंस्पर्शरूपे परिचारणभेदे,": तदा पुत्रो मृतः माभू-दश्वराजोऽधिवासितः। कछामो णं मच्छराहिं सद्धि फासपरियारं करेत्तए।" प्रशा० समुपेत्य स्थितः सोऽश्वो, हेषते स्म बर्षतः॥१२॥ ३४ पद। ततश्व हयद्देषाभि-नूणां जयजयाऽऽरवैः । फासमंत-स्पर्शवत-त्रि०। स्पर्श-प्रशंसायां मतुप् । स्थार ४ प्रबुखोऽश्वं तमध्यास्य, नीत्वा राज्ये म्यवेश्यत ॥१३॥ ठा०४ उ०। शोभनस्पर्शवति, सूत्र. २१०१०। “फा. साऽपि तत्रागता राक्षः, केनापि कथिता यथा। सवंताणि य।"प्राचा०श्च०१चू०४०१3०1। देव देवाङ्गना काऽपि, पळूशिरसि विभ्रती ॥१४॥ फासामय-स्पर्शमय-त्रि० । स्पर्शेन्द्रियविषयोपावानरूपे सौ. दृष्टा भिक्षांभ्रमन्त्यत्र, गीतगानपरायणा। ख्याऽऽदौ,"फासामयाओ सोक्खाश्रो फासामएणं दुक्खेणा" सानायिता च सा राहा, अष्टा पृष्टा कथं विदम् ॥१५॥ साऽवदहेव! दत्तोऽयं, पितृभ्यां पतिरीरशः। स्था० ६ ठा। ततः पतितात्वेन, वहाम्येनं शिरस्थितम् ॥ १६ ॥ फासावेह-स्पर्शावेश्व-पुं० । रूपर्शस्तवहानं, तस्याऽऽवेधः सं. राज्ञोकम्स्कारः । तवज्ञानसंस्कारे, पो०१४ विव० । बाहुभ्यां शोणितं पीत-मुरुमांसं च भक्षितम् । कासिंदिय-स्पर्शेन्द्रिय-न। त्वगिन्द्रिये, सम्म० ३ काण्ड । गलायां वाहितो भसो, साधु साधु पतिव्रते!॥१७॥ (संस्थानाऽदिवक्तव्यता 'इंदिय' शब्दे द्वितीयभागे ५४८ ज्ञात्वा नृपं लजिता सा, खचरित्रेण पापिनी । पृष्ठं गता) निर्वासिता नरेन्द्रेण निजोपार्जितभागभूत् ॥८॥ "उउभयमाणसुहेसु य, सविभवहिययमणनिव्वुइकरेसु । राज्यभ्रंशाय यशोऽभू-दवाइयं स्पर्शनेन्द्रियम्। फासेमु रजमाणा, रमंति फासिंदियवसट्टा ॥१॥" तस्मादियं तु पापारमा, ललिता सुकुमालिका ॥१६॥ कराव्या,नवरम्-ऋतुषु हेमन्ताऽदिषु भज्यमानानि-सेव्य. आक०१० प्रा०। मानानि यानि सुखानि सुखकराणि तानि तथा तेषु, स स्पर्शन्द्रियविषयविपाकोदाहरो महेन्द्रो राजपुत्रः। तत्कथा विभवानि-समृद्धियुक्तानि, महावचनानि इत्यर्थः । हितकानि चेयम्प्रकृत्यनुकूलानि , सविभवानां वा श्रीमतां हितकानि यानि विश्वपुरे धरणन्द्रो राजा महेन्द्रः पुत्रः, मदनः श्रेष्ठिपुत्रो तानि तथा, मनसो निर्वृतिकराणि यानि तानि तथा। ततः मित्रं, मदनस्य चन्द्रवदना भार्या, साऽन्यदा पतिमित्राय पत्रयस्य यस्य वा कर्मधारयो तस्तेषु नकचन्दनानावस. महेन्द्राय गृहाऽऽगताय स्वहस्तेन ताम्बूलमर्पयति, तस्या हस्तस्पर्श. सुकुमारं ज्ञात्वा सोऽभ्युपपना । स्पर्शनेन्द्रिनतूल्यादिषु, कव्येविति गम्यते । शा०१०७०।। यपरवशतया ततस्तया सह हास्यं करोति, एवं प्रसङ्गतो. फासिंदियदुइंतण-रस श्रह पुत्तिउ हवइ दोसो। उतीचारमपि सेवते स्म । अभ्यदा राजा महेन्द्रस्य राज्य जं खायं कुंजर-स्स चोईकुसो तिक्खो॥१०॥ दातुमिच्छति, तश्च महेन्द्रेण चन्द्रवदनासुकुमा स्पर्शलु. भाषना प्रतीतैव ॥१०॥ धेन मदनं हन्तुं नियुक्ताः, सेवकार,ते मदन प्रहारयन्ति २६० Page #1181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिट्ट (१९५८) फासिदिय अभिधानराजेन्दः। तलारईया राक्षः पावें नीताः। राज्ञा पृष्ठा नियुक्ता:-केन फासिया-स्पर्शिका-श्राव.६१०। स्त्री विन्दुनिपाते, स. यूयं प्रहिताः। तेऽप्यूचुः-महेन्द्रकुमारेण । ततो राज्ञा सम्यक | म० ३४ समक्षा । प्राचा। वृत्तान्तं ज्ञात्वा स देशानिःकाशितः । चन्द्रवदनां लास्वा स गतो विदेशान्तरे, मदनो वैद्यैः सउजीकृतः । राजाऽन्यपुत्राय फासी-स्पर्शी-स्त्री०। जलस्पर्शिकायाम् . व्य०७ उ.। राज्यं दवा प्रवज्य मोक्षं गतः। मदनोऽपि तथाविधं खीच फासुप्र-प्रामुक-निकाप्रगता असव-उच्छ्रासादयः प्राणायरितं रठा संविग्नः प्रवज्य त्रैमानिको देवो जातः। चन्द्रव. | स्मात् स प्रासुकः । स्था०४ ठा०४ उ० दशा प्रगता म. दनामहेन्द्र विदेश भ्रमन्तौ चौरनिहीती वव्वरकुले वि. सबो-मतुवलोपादसुमन्त:-सहजसंसक्रिजम्मानो यस्मात्तस्प्रा. कीती। तत्र रुधिराऽऽकर्षणवेदनां सहेते, भवमनन्तं भ्रान्तो। सुकम् । उत्त०१० । स्था। जीवरहिते, दर्श०४ तश्च । इति स्पर्शनेन्द्रियविषयविपाके महेन्द्रकथा । ग० ३ अधि०। प्रश्नका सूत्रः। उत्त०। आचा०। सकल जीवोपाधिरहिते, फासिंदियणिग्गह-स्पर्शेन्द्रियनिग्रह-पुं० । स्पर्शेन्द्रियस्थ नि. दर्श०५ तस्व। माधाकर्माऽऽदिदोषरहिते, "फासुयअकय. प्रहः-स्वविषयाभिमुखमनुधावतो नियमनं स्पर्शन्द्रियनिग्रहः। अकारिय , अणणुमयादिटुभोई य ।"दश०१०। स्पर्शेन्द्रियनियमने, उत्त० २६ अ०। केरिसयकप्पणे जं, फासुयगं फासुयं तु केरिसगं । फासिदियनिग्गहेणं भंते जीवे किं जणयइ फासिदिय । जीवन जं दवं, तंपिय जं एसणिजंतु । पं०भा० निग्गहेण मणुबामणनेमु फासेसु रागद्दोसनिग्गई जणयइ, १कल्प । तप्पाचइयं कम्मं न बंधइ, पुनबद्धं च निज्जरेइ ॥६६॥ "निर्जीवं यच्च यद् द्रव्यं, मिश्रं नैव च जन्तुभिः। हे भगवन् ! स्पर्शेन्द्रियनिग्रहेण जीवः कि जनयति । | तत्मासुकमिति प्रोकं जीवाजीवविशारदैः ॥१॥" पं० सदा गुरुराह-हे शिष्य ! स्पर्शनेन्द्रियनिग्रहेण जीवो मनो चू०१कल्प । "फासुयं तिविद्धत्थजोणित्ति "नि००१ उ० हाऽमनोज्ञेषु स्पर्शषु रागद्वेषनिग्रहं जनयति, तत्प्रत्ययिकं कर्म अपकफलस्य प्रासुकत्वे जेसलमेरुसंघकृतप्रश्नो यथा-अपन बनाति, पूर्वबद्धं च कर्म निर्जरयति ॥६६॥ उत्त०२६ अ०। कफलं बीजकर्षणादनु घटिकायान्तरे प्रासुकं भवति, नवे. फ सिंदियणिब्धट्टिय-स्पर्शन्द्रियनिर्वतित-त्रि० स्पर्शन्द्रियेण ति प्रश्नः। प्रनोत्तरं यथा-पत्र अनिलवणाऽऽदिप्रबलसंनिर्वतितो-निष्पादितः स्पर्शेन्द्रियनिवर्तितः। स्था०१० ठा०। स्कार प्रासुकं भवति, नान्यथेति । १ प्राही०४ प्रका। स्पर्शेन्द्रियनिईत्तिक-त्रिका स्पर्शेन्द्रियेण निर्वृत्तिर्यस्य स स्प. फासुएसपिज-पासुकैषणीय-त्रि० । जीवरहिते एषणीये, शेन्द्रियनिर्वृत्तिकः। स्पर्शेन्द्रियेण निष्पन्नपुद्रलाऽऽदौ, स्था० आहाराऽऽदौ, भ०। १० ठा फासुएसणिजं भंते ! भुंजमाणे किं बंधइ ४, जाव उवफासिदियबल-स्पर्शेन्द्रियबल-न । स्पर्शेन्द्रियविषयग्रहण चिणाइ । गोयमा ! फासुएसणिजं भुंजमाणे आउयवजासामाऽऽत्मके बलभेदे,स्था० १० ठा०। श्रो सन कम्मपयडीओ धणियबंधणबछानो सिढिलचंफासिंदियमुंड-स्पर्शेन्द्रियमुण्ड-पुं० । स्पर्शेन्द्रियं मुण्डयति धणबद्धाश्रो पकरेइ जहा से संबुडेणं, णवरं पाउयं च णं "अपनयति स्पर्शेन्द्रियमुण्डः। अपनीतस्पर्शेन्द्रियविषये मु. कम्म सिय बंधइ, सिय नो बंधड़, सेसं तहेवजाव बीईवयइ, एडभेने, स्था० १० ठा०। फासिंदियविसय-स्पर्शेन्द्रियविषय-पुंकास्पर्शेन्द्रियविषयभूते से केणटेणंजाव वाईवयइ । गोयमा! फासुएसणिजं भुंजस्त्रीकलेवरादी, "फासिदियविसयतिब्बगिद्धा।" प्रश्न. ३ माणे समणे निगंथे भायाए धम्म नाइकमइ, आयाए धम्म प्राश्रद्वार। अणइकममाणे पुढविकायं अवखइ जाव तसकायं फासिंदियसंवर-स्पर्शेन्द्रियसम्बर-पुं० । स्पर्शेन्द्रियविषयेषु भवकंखइ, जेसि पिय पं जीवाणं सरीराई श्राहारेइ रागद्वेषनिरोधने प्रश्न०५ संवद्वार । ( अस्य विस्तरः ते वि जीवे अवखड से तेणटेणंजाव बीईवयइ ।। परिग्गहवेरमण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५६६ पृष्ठे गतः) । फासित्ता-स्पृष्टा-अव्यास्पृश-क्त्वा । स्पर्श कृत्वेत्यर्थे, "स. भ.१श०६०। म्मं कारण फासित्ता।" प्राप्येत्यर्थे च । कल्प०३ अधिक क्षण। फासुयविहार-पासुकविहार-पुं० । निर्जीवमाश्रये , भ०। माचा० । उत्तास्था०। स्पृहत्यर्थ छ । स्था०२ ठा०४ उ०।। किंते भंते ! फासयविहारं सोमिला ! जण पारामे. फासिय-स्पष्ट-त्रि० । स्पृश:-क्तः । गृहीते, दशा०७०। मु उज्जाणेसु देवकुलेसु सभासु पवासु इत्थीपसुपंडप्राप्ते. प्रव०४ द्वार। गवज्जियासु वसहीसु फासुएसणिजं पीढफलगसे जा. स्पर्शित-त्रि०।स्पर्शः संजातोऽस्येति । प्रव० ४ द्वार । गृहीते, दशा-७०। प्राप्त च । प्रत्याख्यानमधिकृत्य-"सम्म कापण संथारगं उवसंपञ्जित्ता णं विहरामि, सेत्तं फायविहारं । फासिया।" स्पृपा-प्रतिपत्तिकाले विधिना प्राप्ता।" उचिपू भ. १८ श० १० उ०। काले विहिणा,पतंज फासियं तयं भणिय।" स्था०७ ठा० । फिक्की-देशी। हर्षे, देना.६ वर्ग ८३ गाथा। पं०व० । आचा० प्रा०चू०। स्पृष्टमित्यस्य स्थाने प्राकृते | फासियमिति । स्पर्शो वा संजातोऽस्येति इति च स्पर्शित- फिट्ट-भ्रंश-अधःपतने, धा०दिवा०-पर० सक०-सेट् । “भ्रंशः मिति । प्रध०४द्वार । आचा। फिड-फिट्ट-फुड फुट-घुक्क-भुल्लाः "॥८। ४ । १७७ ॥ इ. Page #1182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिट्ट अभिधानराजेन्दः । फुडविसय ति प्राकृतसूत्रेण भ्ररेते पडादेशाः । फिडर । फिट्टा। फुकरण-फुत्करण-न । मुखेन धमने, दश०४ म०। फुडर । फुहह । चुकरा मुल्ला । पक्षे-भंसद। प्रा० ४ पाद ।। भ्रश्यति । अभ्राशीत् । मभ्रशीत् । बेट् । वाच । फुकार-फुत्कार-० । फूदित्येवमनुकरणे, वाच । प्राचा. १७० १५०७ उ०। फिवंत-भ्रश्यत-त्रि० । व्यतिक्रामति , पृ.१ उ०२ प्रक०। " तप्पभि फिहह।" नि००१ उ०। फुक्का-देशी-मिथ्यायाम् , देना०६ वर्ग ८४ गाथा। फिड-ग्रंश-धा। फिह' शब्दार्थे, प्रा० ४ पाद । फुक्की-देशी-रजक्याम् , देना० ६ वर्ग ८४ गाथा । फिडिभ-भ्रष्ट-त्रिका समुदायाच्युते,"भट्रफिडिसकं" फुकिय-फूत्कृत-त्रिका फूदित्येवंशब्दिते,वाचा पाया पाइना० १६१ गाथा। फुग्ग-फुग्ग-त्रि०। असम्बद्धे, "फुग्गफुग्गाश्रो ति।" पर. स्फिटित-त्रि०। परिभ्रष्टे, वृ० २ उ. । व्य० । मोघ । परासम्बरोमिके, विकी रोमिके इत्यर्थः । उपा०२०। "इमो य गोसालो भगवंतो फिरो।" प्रा. म. १०। फुट-भ्रंश-धा। फिह' शब्दा, प्रा०४ पाद। "फिडिया भिक्खावेला।"प्रा०म०१मा प्रोप० । विप्र-फुट-स्फुट-' स्फुट 'भेदन, धा-पुरा०-उभ०-सक० सेट् । णटे, "मग्गफिडिया वा मग्गतो विप्पणट्ठा।" नि००१ उ०।। " स्फुटि-घले"॥८।४।२३१॥ इति प्राकृतसूत्रेणानयो. अतिक्रान्ते, दरीभूते च । भौ०। रस्त्यव्यस्य वा द्वित्वम् । फुहा । फुडा। प्रा०४ पाद । फिडी-देशी । वामने , दे०मा०६ वर्ग ८४ गाथा। स्फोटयति । स्फोटयते । अपुस्फुटत् । वाचः। फिप्प-देशी-वामने, देना० ६ वर्ग३ गाया। स्फुट-त्रि.। स्फुट-कः । विदीर्णे, उपा०२ अानाणेणं पोर्ट्स फिफस-फिफस-न । अन्त्रान्तर्वर्तिमांसविशेषरूपे । सूत्र. फुहर।" प्रा०म० १०। “सब्वस्थ रज्जे फुह भण।" १ भु.५१०१ उ०1) उदरमध्यावयबविशेष, प्रश्न. १मा- माव०४०। विकीर्णे, "फुट्टसिरं" स्फुटितमबन्धनत्वेन श्रद्वार विकीर्ण शिर इति शिरोजातस्वारकेशा यस्य । शा०१७०८ फिफिस-फिप्फिस-न।' फिप्फस ' शब्दार्थे , पूत्र १ मा भ० विपा । शोधिते, "फुटाणं सालीणं ।" सूर्याशु०५५.१०॥ अऽदिना स्फुटा:-स्फुटीकता, शोधिता इत्यर्थः। बा.१०७ फिसग-फिसक- पु.। पुते , उपा०२०। म.। निर्मल, ई०प्र० १ पाहु । " फुडषियडपायडत्यं, फिह-स्पृह- स्पृह'इच्छायाम, धा० चुस०-उभ०-सक. वोच्छामी एस णं पत्तो।" स्फुटो निर्मलस्तात्पर्य्यानवयोसेट् । "स्पृहः सिह"८४ । ३४ ॥ इति प्राकृत धकश्मलरहितः । पिं० । विशुद्धे, पं०चू०१ कल्प। शा० । सोख स्पर्यन्तस्य सिहाऽऽदेशो था । प्रा०४ पाद । अवितथे, उत्त०१६ अ० । शा01 सप्रकाश, भ.१ श० "प-स्फयोः फा"॥८२॥५३॥ इति प्राकृतसूत्रेण फः । प्रा. २ उ० व्यक्तः स्पष्टः प्रकटः प्रत्यक्षः। उपा.२०ाहा । २पाद । सिहा। फिहरामा स्पृहयति । अपस्पृहत् । वाच०। प्रा० म०। निचू०। भ०। प्रतिः। विशे०। औ०। उत्त०। प्रश्न । द्वा. ज्योतिषोक्नेषु मेषाऽऽदिराशिषु,अंशविशेषस्थि. फिहयालु-स्पृहयालु-त्रि० स्पृह-पालुच् । स्पृहाशीले,बाचा तेषु सूर्याऽऽदिग्रहेषु.पुं। तेषां तत्तवंशकलाऽदिषु गतौ,स्त्री०। “गुणान्तरेण स्पृहयालुरेव ।" स्या। उत्प्रेक्षाया चोतने, न० । सर्पफणायाम् , पाच । उपा० २ फिहा-स्पृहा-खी। स्पृट-बर। "स्पृहायाम"1012 (२३॥ अ. । अतिकायस्य महोरगेन्द्रस्य स्वनामख्यातायामप्रइति प्राकृतसूत्रेण संयुक्तस्य या छः।प्रा०२ पाद। पक्षे-"प्प. हिष्यां च । स्त्री० । स्था०४ ठा०१ उ०म०।. स्फयोः फः"1८।२।५३॥ इति प्राकृतस्त्रेण फा। प्रा०२ स्पृष्ट-त्रिवास्पृश-कः। "केनाऽप्फुमाऽऽदयः"॥४॥२५॥ पाद । इच्छायाम् , अष्ट०११ मष्ट। इति प्राकृतसूत्रेण स्पृशः कान्तस्य निपातः । प्रा० स्था। फिहावह-स्पृहावह-त्रि० । माशालोलुपे, अष्ट. ११ अष्टभाव्यात, स्या भ०। व्याप्ते, स्था०४ठा०३ उ.1 प्रालि, उत्त०२५०। फी-फी-स्त्री० । सगर्भयोषिति, " सगी योषिता की | फुड-"विसयं फुडं ।" पाइना० २६७ गाथा। 'फिट' स्यात् ।" एका। शब्दार्थे, प्रा०४ पाद। फफमा-श्रीगोमयागौ,"फुफमा कोउमाकरीसग्गी" फुइंत-फुल्यमान-त्रि.विदार्यमाणे, 'प्रश्न. ३.प्राथद्वार। पाइ ना० १५३ गाथा। विपाशा। फुफमा-नेशी-करीपानी, देना.६ वर्ग ८४,गाथा। फुडण-स्फुटन-न० । स्फुट-ल्युट । विकशने, वाचः। वैधीफग-फफक-पुं० । करीषाऽनौ,०२ उ० ३.प्रक० । 'फुफु भाषगमने, प्रश्न०१ आश्रद्वार । विघटने च। बा १ कशमोदेशीरूपत्वात्कारीषवाचकःजी.२ प्रतिकातं०।। ० ८ ०।। फुटा-देशी केशवधने, दे०मा०६ वर्ग ८४ गाथा। .. फुटवयण-स्फुटवचन-न० । परिस्फुटवाक्ये, दशाम । फुफुलाइता-पम्फुलिवा-मध्य० । अतिशयेन पुनः पुनर्वा | फुडविसय-स्फुटविशद-त्रि० । अत्यन्तम्यक्त. भी०। फलिस्वेत्यर्थे, "गोणाश्यः "८३।१७४॥ति प्राकृ. स्फुटविषय-त्रि० । स्फुटा, भी।"फुडविसयमारगंमी. तसूत्रण निपातितः। प्रा०२पाद। ] रणादियाए।" २५०। Page #1183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्मः। फमिजंत फुडा-स्फुटा-स्त्री० । अतिकायस्थ महोरगेन्द्रस्य च मनमहि स्मानं निक्षिपन्तः । सूत्र.१ श्रु०५०१ उ० । “फुरंतथिध्याम् , स्था० ४ ठा०१ उ०। ज्जुजसंतसिहरस्स।" नं0। उत्त। फुगडोव-स्फटाइटोप-पुं० । फणाडम्बरे, उपा०२मा फुरण-स्फुरण-न० । स्फुर-युट् । ईपरम्पन्दने, पाच । स्था. फुडिअ-स्फुटित-त्रि.। "फुडिफलियं च दूलि उहरिश्रा" २ ठा०४ उ० । प्रकम्पने, शा० १ १०८अाबेष्टने, स्था०१ पाहना० १८१ गाथा । ठा०1"कणी फरणं "पाइना० २७३ गाथा ।। फुडित्ता-स्फुटित्वा-प्रव्य० । स्फुट कृत्येत्यर्थ, प्रकाशीभूये- फुरफुरत-फुरफुगयमाण-त्रिका प्रकम्पमाने, शा. १ श्रु०८ त्यथें, स्था०७ ठा। भ० । प्रश्न । पीड्योबेल्ले । पिं० । “ताव णं फुरफुरज्जा।" स्फोटयित्वा-श्रव्य०। विशीण कृस्वेत्यर्थ, स्था. २ ठा. महा० १०॥ ४ उ०। फराविति-देशी-अपहारयतीत्यर्थे. “ पन्याउमणा उ ते फु राविति।"" फुराविति ति" देशीपदमेतत् । अपहारयन्ति । फुडिय-स्फुटिन-त्रि.। स्फुट-का विकशिते, व्यकीकृते, प. व्य० ३ उ०। रिहासिते. भिन्ने च । वाच । स्था०४ठा.४३० । संजात. राजीके.पा.१७०७ अपामा । "फुडितच्छविवि. फुरित्र-स्फुरित-नः । स्पन्दिते. "चुलुचुलिअं फदिकं फुरिछविया।" स्फुटिता राजिशतसंकुलेति । जी. ३ प्रति० १ | अं| "पाइना० १६० गाथा । निन्दिते, देण्ना०६ वर्ग अधि.२ उ.1 विकृते च। "कुडितच्छधिविच्छविया।" ८४ गाथा । स्था। विपादिकाविचर्षिकादिभिर्षिकृतस्वचः। प्रश्न. २ माधः फुरिता-स्फुरित्वा-श्रव्य० । स्फुरणं कृस्वेत्यर्थे, स्था। द्वार। स्फोरयित्वा-अब्य० । स्फुरन्तं कृत्वेत्यर्थे, स्था०७ ठा० । फटि(डित्ता-स्फोटित्वा-अन्य स्था०२ ठा०४ उ० (अर्थस्तु स्पन्दं कृत्वेत्यर्थे च । स्था०२ ठा०४ उ०। 'आता'शब्दे द्वितीयभागे १६६ पृष्ठे गतः) फुरिय-स्फुरित-त्रि० । स्पन्दिते, स्था०२ ठा०४ उ.।" चिं. फाय-फडक-न० । लघुतरगच्छकदेशे, "फुहाफुहि अप्पग' | तासायग्मवगाहमाणस्स फुरियं दाहिणलोयणं।" दर्श०१ त. इया वायति ।" फुडकं-लघुतरो गच्छदेश पव गयावच्छेदका- य । चेष्टिते, न । म्या। धिष्ठित इति । औला फुलिंग-स्फुलिङ्ग-पुं०। स्त्री । स्फुल-बङ्गच । स्फु इत्यव्यक्त. फुत्ति-स्फूर्ति-खी० । स्फुरणे,विकशने,प्रतिभायोचावाच । शब्दो लिङ्गति-गच्छति यस्मात् लिगि घम् । पृ० था । अग्नि मा०म०१ मा प्रतिक्षणं प्रबर्द्धमानकान्तौ च । “मूर्तिः कणे, वाचा" फुलिंगजालामालासहस्सेहि।" भ०.३ श. स्फूर्तिमती सदा विजयते । " स्फूर्तिः प्रतिक्षणं प्रवर्द्ध २उ.। हिमे च । गुडविकारभेदे. स्त्री. वाच । मानकान्तिः, संनिहितप्रातिहार्यत्वं वा, तद्वती। प्रति।। फुस-फुल्ल-न० । पुष्पे, दश। फुप्फुस-फुप्फुस-न. । उदरान्तर्वर्तिम्यन्त्रविशेषे, प्रश्न०१ माद्वारसूत्र। पुष्पाणि अकुसुमाथि अ,फुल्लाणि तोव होंति पसवाणि। कुम-भ्रम-धाका चलने, भ्वा०-पर.-सक०-सेट । “भ्रमे सुमणाणि असुदुमाणि अ, पुप्फाणं होति एगवा ॥३६॥ टिरिटिल-दुरादुल-ढण्टल्ल-चक्वम्म भम्मा-भमड-भमाड-- पुष्पाणि कुसुमानि चैब फुल्लानि प्रसवानि च सुमनांलि ललप्रएट भएट-झम्प-भुम-गुम-फुम-फुस-दुम-दुस-परी चैब 'सूक्ष्माणि' सूक्ष्मकायिकानि चेति ॥ ३६॥ दश.१ । पराः"॥४॥१६९॥ इति प्राकृतसूत्रेण भ्रमेः फुमाऽऽदेशाश..reign40 15ऊन फुल्लंघन--पुष्पंधय-पुं० । भ्रमरे, " फुलंधश्रा रसाऊ, भिंगा मरे . फुमा भ्रमति । प्रा०४पाद । भसवा य महुअरा अलियो । इंदिरा दुरेहा धुअगाया छ. फुमंत-फुमत-त्रि.। मुखेन फूत्कुर्वति, दश०४ अ.। नि० प्पया भमरा ॥ १२ ॥" पाहना० १२ गाथा | अमरे, बूभाचा। देना। फुमण-फुमन-न०। फूत्करखे वश• ४१०। | फुसिम-स्पृष्ट-त्रि० । उन्मृष्ट "उम्मुटुं छिपें फुसिकं ।" पार. जे भिक्खू अप्पणो पायं फूमेज वा, रएज वा, मंखेज वा, ना. १८८ गाथा। फुमंतं वा रयतं वा मखतं वा साइजइ । नि०चू०३ उ० । फुसित्ता-स्पृष्टा-मस्य० । श्लिष्ट्येत्यर्थे, स्था० ४ ठा०४ उ०। "इत्येण वा मुख वा मेजवावीरज पा।" (मेज वे फुसी-स्पी -स्त्री० । 'फासो' शब्दार्थे, क्य० ७ उ । ति) मुखवायुना शीतीकुर्यात् । प्राचा० २ ० १ ० १ फुप-देशी-लाहकारे, देना. ६ वर्ग ८५ गाथा। फुमावंत-फुपयत्-त्रि०। फूत्करणे, निचू० १७ उ०। मंत-मत्-त्रिक । फुमंत 'शब्दार्थे, दश० ४ अ०। फुमिअंत-फुम्यमान-त्रि० । रिक्रयमाचे, निचू. ३० फूपण-मन-न० । 'फुमण' शब्दार्थ, दश्श०४१०। फुरंत-स्कुरत्-शिकाइतस्ततःस्पन्दमाने, "फुर थलविरलिनी फूमावत-फुमयत-त्रि।। फूकरणे,ति०चू. १७ ३० । • मच्छो।" स्फुरवि-स्पन्दते । शाकभु०१७ मा प्रश्न। कृमिअंत-फूम्यमान-त्रि० | 'फुमिज्जत' शब्दार्थ, निकम "पयंति णं गरइप फुरते । " स्फुरन्त इतक्षेतश्च विलमा.' ३ उ०। Page #1184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फोड फेडण अभिधानराजेन्द्रः। फेडण-स्फेटन-न० । आच्छोटने, वृ० । म, वर्णावोत्पतेरभावात्-प्रतिनियतस्थानकरणाऽऽदिसंपा. फेण-फेन-पुं० । “डिंडीरो पुप्फो फेणो।" पाइ० ना० १३२ चत्वाधर्णानां, वर्णाभावेऽपि च वर्णोत्पत्तिदर्शनास वर्णजन्यगाथा। बुधुके, कल्प०१ अधि. ३क्षण । स्वम् । अथार्थवानोत्पत्ती सहकारित्वं पूर्ववर्णानामन्त्यवर्ण फेणग-फेनक-पुंगपानीयप्रस्फोटके,उत्त०१६अारा।ौ०। प्रत्युपकारकत्वम् । एतदप्ययुक्तम् । अविद्यमानानां सहकारि स्वानुपपत्तेः । अत एव प्राक्तनवर्णविज्ञानानामपि सहकारि. फेण पूज-फेनपुज-पुं०। डिण्डीरोत्करे, जी०३ प्रति०४. स्वमयुक्तम् न च पूर्ववर्णसंवेदनमभवाः संस्काराः तस्सधि०। प्रश्न । जं०। हायता प्रतिपद्यन्ते, यतः संस्काराः स्वोत्पादकविज्ञानविषय. फेफस-फेफस-न। 'फिप्फस' शब्दार्थे, सूत्र० १०५ स्मृतिहेतयो नार्थान्तरक्षानमुत्पादयितुं समर्थाः-न हि घटअ०१ उ.। कानप्रभवः संस्कारः पटे स्मृति विदधद् दृष्टः। न च तत्संस्काफेणबह-देशी-वरुणे, देना.६ वर्ग ५ गाथा । रप्रभवाः स्मृतयः सहायता प्रतिपद्यन्ते.युगपदयुगपद्विकल्पा नुपपत्तेः। न हि स्मृतीनां युगपदुत्पत्तिः,अयुगपदुत्पन्नानांधा. फेणबंध-देशी-वरुणे, देना०६ वर्ग ८५ गाथा। वस्थितिरस्ति । न च समस्तसंस्कारप्रभवका स्मृतिस्तत्सह. फेणमालिणी-फेनमालिनी-खी। जम्बुमन्दरपश्चिमायां शी | कारिणी , परस्परविरुद्धानेकपदार्थानुभवप्रभवप्रभूतसंस्का. ताया महानद्याः कुलवर्तिन्यां स्वनामख्यातायामन्तनद्याम् , राणामप्येकस्मृतिजनकत्वप्रसक्तः, न अनेकवर्णसंस्कारजत्वं स्था०६ ठा।"दो फेणमालिणीभो।" स्था०२ ठा०२ उ०।। स्मृतेः संभवतीति कुतोऽस्था अन्त्यवर्णसहकारित्वम् । जम्बूद्वीपस्य महाविदेहे वर्षे वप्रावतीविजयस्थायां नद्यां न चान्यविषया स्मृतिरन्यत्र प्रतिपत्तिं जनयति, खदिरच । " वप्पावई विजए अवराईया रायहाणी, फेणमा-1 व्यापृतपरशोः कदिरच्छेदक्रियाजनकत्वप्रसक्नेः । न लिणी गई।" जं०४ वक्षः। चाम्यवर्णनिरपेक्ष एवं गौः' इत्यत्रात्यो वर्णः ककुफेलाया-देशी-मातुलान्याम् , देना०६ वर्ग ८५ गाथा । दादिमदर्थप्रत्यायकः, पूर्ववर्णोचारणवैयर्थ्यप्रसक्तः घटश. ध्दान्तव्यवस्थितस्याऽपि तत्प्रत्यायकत्वप्रसक्तेश्च । तस्मान्न फेल्ल-देशी-दरिद्रे, देख्ना०६ वर्ग ८५ गाथा । वर्णाः समस्त-व्यस्ता अर्थप्रत्यायकाः संभवन्ति । । फेल्लुसण देशी-पिच्छलदेशे, दे०मा०६ वर्ग ८६ गाथा । अस्ति च गवादिशब्देभ्यः ककुदादिमदर्थप्रतिपत्तिरिति फेम-देशी-त्रासद्भावयोः, देना.६ वर्ग ८७ गाथा। तदन्यथानुपपल्या वर्णव्यतिरिक्तोऽर्थप्रतिपत्तिहेतुः स्फोटाख्यः फोइय-देशी-मुक्तविस्तारितयोः, देना०६ वर्ग ८७ गाथा । शब्दो ज्ञायते । थोत्रविज्ञाने च वर्णव्यतिरिक्तः स्फोटात्मा निरव यवोऽक्रमः स्फुटमबभातीति तस्याऽध्यक्षतोऽपिसिद्धिः।तफोक्क-देशी। अग्रे स्थूलोन्नते, उत्त० १२० थाहि-श्रवणब्यापारानन्तरभाविन्य भिन्नार्थावभासा संवि. फोक्कणास-फोक्कनास-त्रि ।"फोक ति" देशीपदम् । दनुभूयते, नचासौ वर्णविषया, वर्णानां परस्परव्यावृत्तरूपततश्च कोका-अग्रे स्थूलोन्नता च नासाऽस्येति । स्थूलोन्नता स्वादेकावभासजनकत्वविरोधात् तदजनकस्यातिप्रसङ्गतस्त प्रनासिके, उत्त० १२ १०।। द्विषयत्वानुपपत्तेः । न चेयं सामान्यविषया, वर्णत्वव्यतिरेके णापरसामान्यस्य गकारौकारविसर्जनीयेष्वसंभवात् वर्णत्व. फोड-स्फोट-पुं० । स्फुटत्यर्थो यस्मात् । स्फुट-घम् । व्या. स्य च प्रतिनियतार्थप्रत्यायकत्वायोगात्। न त्रेयं भ्रान्ता,अबा. करणोक्ने घर्णातिरिक्त पूर्वपूर्ववर्णानुभवसहितचरमवर्णव्य. ध्यमानत्वात्।न चाबाध्यमानप्रत्ययगोचरस्यापि स्फोटाऽऽस्यजथार्थप्रत्यायके अखण्डे शब्दभेदे, वाच। अत्र वैयाकरणाः स्य वस्तुनोऽसत्वम् अवयविद्रव्यस्याप्यसवप्रसक्तः। एवमप्यप्राऽऽहुः-“यस्मादुच्चरितात् ककुदादिमदर्थप्रतिपत्तिः स वयव्यभ्युपगमे स्फोटाभ्युपगमोऽवश्यंभावी तत्तुल्ययोगक्षेमशब्दः। " ननु अत्र किं गकारौकारविसर्जनीयाः ककुदादि. स्वात् । स च वर्णेभ्यो व्यतिरिक्तो नित्यः,अनित्यत्वे संकेतकाला. मदर्थप्रतिपादकत्वेन शब्दव्यपदेशं लभन्ते, आहोस्वित्तव्य नुभूतस्य तदैव ध्वस्तत्वात् कालान्तरे देशान्तरेच गीशब्दश्रव. तिरिक्त पद-स्फोटादिः । तत्र न तावद्वर्णा अर्थप्रत्यायकाः णात् ककुदादिमदर्थप्रतिपत्तिर्न स्यात्,असङ्केतिताच्छब्दावर्थयतस्त किं समुदिता अर्थप्रतिपादकाः, उत व्यस्ताः?, यदि प्रतिपत्तेरसंभवात्।संभवेवा द्वीपान्तरादागतस्य गौशब्दाद् ग. व्यस्तास्तदैकनैव वर्णेन गवाद्यर्थप्रतिपत्तिरुत्पादितेति द्विती. वार्थप्रतिपत्तिर्भवेत् । सङ्केतकरणवैययं च प्रसज्येतातस्मानित याऽऽदिवर्णोच्चारणमनर्थकं भवेत् । अथ समुदिता अर्थप्र त्यस्फोटाख्यश्शब्दो व्यापकश्व, सर्वत्रैकरूपतया प्रतिपत्तेः। स्यायकाः। तदपि न संगतम्। क्रमोत्पमानामनन्तरविनष्टत्वेन असदेतदिति वैशेषिकाः । ते याहुः-एकदा प्रादुर्भूता वर्णाः समुदायासंभवात् । न च युगपदुत्पत्रानां समुदायप्रकल्पना, स्वार्थप्रतिपादका न भवन्तीत्यत्राविप्रतिपत्तिरेव । क्रमप्रादुर्भूएकपुरुषापेक्षया युगदुत्पत्यसंभवात् प्रतिनियतस्थान-कर तानां न समुदाय इत्यत्राप्यविप्रतिपत्तिरेव । अर्थप्रतिपत्तिस्तूण-प्रयत्नप्रभवश्वात् तेषाम्। न च भिचपुरुषप्रयुक्तगकारौकार- पलभ्यमानात्पूर्ववर्णध्वंसविशिष्टादन्त्यवर्णात् । न चाभावस्य विसर्जनीयानां समुदायेऽध्यर्थप्रतिपादकत्वं रष्ट,प्रतिनियतक सहकारित्वं विरुद्धं वृन्तफलसंयोगाभावस्येवाऽप्रतिबद्धगुरुमवर्णप्रतिपायुत्तरकालभावित्वेन शान्याः प्रतिपत्तेः संवे | त्वविशिष्टफलप्रपातक्रियाजनने, दृष्टं चोत्तरसंयोगं विदधत् दनात् । न चान्त्यो वर्णः पूर्ववर्णानुगृहीतो वर्णानां क्रमोत्पादे | प्राक्तनसंयोगाभावविशिष्ठं कर्म परमारबग्निसंयोगश्च परमासत्यर्थप्रत्यायकः, पूर्ववर्णानामन्त्यवर्ण प्रत्यनुग्राहकत्वायोः णौ तद्तपूर्वरूपप्रध्वंसविशिषो रक्ततामुत्पादयन्। गात् यतो नान्स्यवर्ण प्रति जनकत्वं पूर्ववर्णानां तदुपकारित्व- यद्वा-उपलभ्यमानोऽन्त्यो वर्णः पूर्ववर्णविज्ञानाभावविशिष्ट Page #1185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फोड पदरूपतामासादयन् पदार्थे प्रतिपतिं जनयति, प्राक्तनवर्णसं. वित्प्रभव संस्कारसव्यपेक्षो वा ? न च संस्कारस्य विषयान्तरे कथं विज्ञानजनकत्वमिति प्रेर्व्यम्, तद्भावभावितयाऽर्थप्रतिप तेरुपलब्धेः पूर्ववर्णविज्ञानप्रभव संस्कारश्वान्त्यवर्णसहायतां पूर्वपूर्वसंस्कारप्रमयता प्रणालिकया विशिष्ट समुत्पन्नः स न् प्रतिपद्यते । तथाहि - प्रथमवर्णे तावद्विज्ञानं तेन च संस्कारो जन्यते, ततो द्वितीयवर्णविज्ञानं तेन पूर्ववर्णविज्ञा नाssहित संस्कारसहितेन विशिष्टः संस्कारी जन्यते, ततस्तुसीवानं तेन पूर्वसंस्कार विविशिष्ट संस्कारो नित्यं इति यावदः संस्कारो प्रतिनि काम्यवसाय तथाभूतसंस्कारमवस्मृतवा ऽस्यो वर्णः पदरूपः पदार्थप्रतिपत्तिहेतुः । अथवा - शब्दार्थो पलब्धिनिमित्तानियमाद्विन एवं पूर्ववर्णविना संस्कारा संस्कारं विश्वति पूर्ववर्णेषु स्मृतिरुप जाता श्रस्यवर्णेनोपलभ्यमानेन सहार्थप्रतिपत्तिमुत्पादयति वाक्यार्थप्रतिपती वाक्यस्याप्ययमेय न्यायेऽङ्गीक संध्यः [च]] (१९३२) अभिधानराजेन्द्रः | परभावप्रतिपादनं सिसाधनमेव तदेवं वच सहकारिकारण सव्यपेक्षा दन्त्याद्वर्णादर्यप्रतिपत्तिरन्वयव्यति रेकाभ्यामुपजायमानखेन निश्चीयमाना स्फोट परिकल्पनां नि रख्यति। तद्भावेति पत्रकार संभवेऽस्यधान पपत्तेः प्रक्षयात् । न हि दृष्टादेव कारणात् कार्योत्पादृष्ट तदन्तरपरिकल्पना युसिङ्गाप्रसङ्गात् किं च वसुप लभ्यमाना वर्णा व्यस्त समस्ता नार्थप्रतिपत्तिजनन समर्थाः, स्फोटामियावपि न समर्था भवेयुः तथाहि नसाले स्फोटमभिपति सामरस्यासंभवात् नापि प्रत्ये तर करकेनैव स्फोटा भिम्पले जनितस्वात् पांतर स्फोटस्य संस्कारेयो वर्षस्तस्यामिति अभिव्यक्रिष्यतिरिक संस्काररूपानवधारणतथाहि न वायसरकारी नि मूर्त्तेष्वेव भावात् । नापि वासनारूपः अचेतनत्वात् । स्फोटस्य त तम्याम्युपगमे वा स्वाविरोधः नापिखितिस्थापकास स्यापि मूर्तयत्वात् स्फोटस्य चात्वाम्युपगमात्। किसका स्फोट रूपलों वालायाः क एपस्फोटस् द्वितीययतिरिक व्यतिरिक्त विकल्पानुपपत्तेः । तथाहि श्रसौ धर्म्मः स्फोटादृव्यतिरिक्रः प्रयतिरिको यावद्यस्यतिरिकस्ता सत्करणे स्फोट कृती भवेदिति तस्यानिवत्स वाभ्युपगमविरोधः । अथ व्यतिरिक्तस्तदा तत्संबन्धानुपपत्तिः तदनुपकारकत्वापगमे व्यतिरिक्ता अपतिरिविकल्पः तः त्रापि पूर्वोक्त एव दोषोऽनवस्थाकारी न च व्यतिरिक्तधर्मसद्भा घेऽपि स्फोटस्यानभिव्यक्तिस्वरूपव्यवस्थितस्य पूर्ववदर्थप्रतिप सिहेतुत्वम् तत्खरूपत्यागे वाऽनित्यत्वप्रसक्तिः । अथ न व्यतिरिकसंस्कारकृतमुपकारमव पूर्वरूपपरित्यागादसावर्थप्रतिपतिं जनयति किं तु-संस्कारसहायोऽविचतिरूप बैककार्यकारित्यय सहकारिभ्युपगमात्। नम्बेषम् - वर्णानामप्यन्यकृतोपकारनिरपेक्षाणामेक कार्य निर्व -- सहकारित्वत्स कारिसहितानामर्थप्रतिपन किमपरस्फोटयामाथिका कार्य किं पूर्व संस्कार स्फोटस्य क्रियाः किमक मनाचा भूताः अनर्था ', फोड तरेक रसूता था । पद्यर्थान्तरभूतास्तदा तेषां का म्यासिद्धि उपकारे व्यतिरिक्काव्यतिरिक्रषिकपोलदोषानु चङ्गः । न च समवायादनुपकारेऽपि तेषां तत्संबन्धिता, तस्यानभ्युपगमात् । परैरभ्युपगमे च स्वकृतान्तविरोधोऽर्थातरभूत बैंकदेशानां तेभ्य एवार्थमतियसेन स्फोट स्यार्थ प्रत्यकता अपि च एकदेशानामयंप्रतिपत्तिहेतुत्वाम्युपगमे [च] परं तामेव तद्भ्युपगतम् एवं लोकप्रतीतिरनु भ येत् अधाव्यतिरिक्रास्तदेकदेशास्तदा स्फोटस्यैकेनैव संस्क सत्यादपरवच्चारणवैयर्थ्यम्न व पूर्ववर्णसंभव स्कारसहितस्तत्स्मृतिसहितो वाल्यवस्फोटसंस्कारकर पर्वभूतस्यास्यार्थप्रतिपतिजननेऽपि शक्तिप्रतिघाताभावात् स्फोटपरिकल्पना निरवसरैव ॥ अपि च-स्फोटसंस्कारः स्फोट. संसारापनयनं चापनयनं वापरापगमे सर्वदेशावस्थितेनि त्यरूपतये । पलभ्येत, तस्य नित्यत्वव्यापित्वाभ्यामपगताऽऽब रास्य सर्वत्र सर्वोपलभ्यस्वभावत्वात् अनुपम्य स्वभाव वान केनचित् कदाचित् कुत्रचिदुपलभ्येत । अथैकदेशाऽवरणापगमः क्रियते, नन्वेवमावृतानावृतत्वेन सावयवत्वमस्यानुष ज्येत अथ निर्विभागत्या कानावृतः सर्वतोप गम्यते तदा तद्यस्था शेषदेशावस्थित रुप निरवयवत्यादेावृतः सर्वशामाता का व्यावृतः सर्ववतः इति मनागपि नोपलभ्येकिं - एकदे स्फोटातरम् अनन्तरं वातरत्वेऽपि स्वभाषाः, अशब्दात्मका वा यद्यशब्दात्मका नार्थप्रतिपत्तिहेतवः अथ शब्दस्वभावाः; तत्रापि यदि गोशब्दस्वभावास्तदा चा गोशब्दानेकर गोशब्दरूपा न गया प्रत्यायका भवेयुः । अथाग्व्यतिरिक्तास्तदा स्फोट एव संस्कृत इति सर्वदेशावस्थितैर्व्यापिनस्तस्य प्रतिपतिरिति ए· मेष दूषणम् । किंश्च एकदेशाऽवरणापाये स्फोटस्य खण्डशः प्रतिपत्तिः प्रसज्येत । अथस्फोटविषय संविदुत्पाद स्तत्संस्का रः सोऽपि न युक्त वर्णानामर्थप्रतिपत्तिजनन व स्फोटप्रति पति जननेऽपि सामर्थ्याऽसंभावात् न्यायस्य समानत्वात् । यदि च-स्फोट उपलभ्यस्वभावः सर्व दोपलभ्येत, अनुपलभ्यस्वभा याचे आवरणापगमेऽपि वत्स्वभावानतिन पलभ्येताप्रतिपतिः शाब्दव्यवहार चिलोपः । अनेनैव न्यायेन वाचूनामपि त्वमयुतं यागाध्य परिस्फोटावाय प्रतिपादने वा तेषामनुपयोगात् । स्थिते च स्फोटस्य वर्णोचारणात् प्राक् सद्भावे वर्णानां वायुनां वा व्यञ्जकत्वं परि कल्प्येत । न च तत्सद्भावः कुतश्चिंत्प्रमाणादवगत इति न तत्परिकल्पना ज्यायसी । यदपि प्रत्यभिज्ञाज्ञानं स्फोटस्य नित्यत्वप्रसाधकं वर्णोच्चारणात् प्रागप्यस्तित्वमवबोधयति इत्यभ्युपगतं तप-प्रत्यास्थ सदश्य निय नाविषये प्रतिपादितत्वात् संगतम् एक तितात् गोशब्दाद् गोव्यक्तयन्तरे अन्यत्रान्यदा व नित्यत्वमन्तरेणापि प्रतिपत्तिर्यथा संभवति तथा प्रतिपादितं प्रति पादयिष्यते च मातोऽपि स्फोटस्य प्राग् व्यञ्जकात् सव सिद्धिरिति । "नादेनाऽऽहित बीजाया-मन्त्येन ध्वनिना सह । परिपाका बुद्धी शब्दोऽभासते "ि भर्तृहरिषची निरस्तं यम्यपि विभिन्न प " 4 5 Page #1186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फोड safarssकारं श्रोतान्वयव्यतिरेकानुविधाय्यध्यक्षं स्फोटसद्भावमययोधयति' इत्युक्रम्। तदप्यवारम् घटादिशब्दे परस्परव्यावृतातिरिक्रस्य स्फोटाम यकस्यैकस्वाध्यप्रतिपतिविषयत्वेनाप्रतिभासनात्या भिन्नावभास्वमात्रादभिन्नार्थव्यवस्था, अभ्यथा दूरादविरलामेध्येतरेन - युध्यमानत्वात् । नैकस्यव्यवस्थापकस्यम् स्फोटप्रतिभासबुद्धेरपि बाध्यत्वस्य दर्शितस्वात् । न चैकत्वावभासः स्फोटसद्भावमन्तरेणानुपपन्नः वर्णत्वा " विषयत्वेनाप्येकस्पावयास स्पोषपद्यमानत्वारिय स्पाक्रमस्य नित्यस्वाऽऽदिधर्मोपेतस्य स्फोटका सज्ञानेनाननुभवात्, अन्यथाऽवभासस्य वान्यथाभूतार्थाव्यवस्थापकत्या व्यवस्थापनेऽतिप्रसङ्गात्। श्रवयवि द्रव्यं स्वयययजन्यत्वेन सदाशिवेनाश्वये प्रतिभासत इति न तन्न्यायः स्फोटे उत्पादयितुं शक्यः । तन्न स्फोटाऽऽत्मा शब्दो वर्णेभ्यो व्यतिरिक्तः अथ तस्यतिरिक्कोऽसाभ्युपगम्यते, ता वर्णनानात्वे तन्नानात्वप्रसक्तिः तदेकत्वे वा वर्णानामध्येक स्वमसहिः। ३२गा०टी० सम्म०१काण्ड (मीमांसकमतोद्वाटव शिरसाऽदिविषयस्तु सम्मति एव ने प्रतायते विस्तर भयात्) स्फोटाऽऽस्ये वर्णभेदे च । वाचस्था०१०४० | फोटकम्म-स्फोटकर्मन् १० फोट- पृथिस्वादिविदाम्पत क्षेत्र कर्म] [स्फोटकर्म प०२ अपि स्फोडिने स्फोटनम इ कुद्दालाऽऽदिभिः सैव कर्म स्फोटिकर्म । भ० ८ श० ५ उ० । स्फोटजीविकायाम्, तपे कम दानवे ०२ अधि० • चु० । उपा० । “ फोडीकम्मं उडतेणं इलेणं वा भूमिफोडओ।" श्रा० । पञ्चा० । ध०र० । आव० । प्रव० 1 स्फो कर्म वापीकूपतडागादिचनम्। यज्ञा-कुलादि मा भूमिदारणं. पाषाणाऽऽविघट्टनं वा, यवाऽऽदिधान्यानां स क्वादिकरणेन विक्रयो वा ! यदुक्तम्" जपण्याची-ममुग्ामासकर डिष्यमि सत्धुमदाखिकणिका तंदुलकर थाई फोट॥ १ ॥ ( ११६३ ) अभिधान राजेन्द्रः | 3590598908 500-500 502 5085088031 309050898080801 1380880884 फोस या फोडीका सीरे भूमिको जंतु। उसणयं च तद्दा, य सीलकुट्टत्तयं चेति ॥ ॥ २ ॥ " , ०६ द्वार एक वर्जनीयम्। उ "सरःकृपाऽऽदि खननं शिलाकुन कर्मभिः पृथिव्यारम्भसम्भूतै जीवनं स्फो जीविका ॥ १ ॥ अनेन च पृथिव्या वनस्पतिजसाऽऽदि स्तूनां च घातो भवतीति दोषः स्पृष्ट एव । ध० २ अधि० । फोडजीनिया स्फोटजीविका स्त्री० [स्फोटकर्मणि घ० २ अधि० । ( 'विति शब्देऽपभागे स्फोटजीविकानिपेधं वक्ष्यामि । ) फोडण - स्फोटन - न० । स्फुट ल्युट् । विदारणे, विकाशने च । वाच० । स्था० २ ठा० १ ८० । व्यञ्जनवासनार्थे राजिकाजीर. कादिके वस्तुनि भि० । पिं० । फोडप-स्फोटक पुं० स्कुल मेद विदारके च 808508 81 वाच० । स्था० १० ठा० । फोडिअप - देशी- राजिकाभूमितयो सिंहाऽऽदिविधी दे ना० ६ वर्ग दव गाथा । फोडियस्फोटित ५० मि. स्था० ४ डा० १४० बिहार ते, स्था० २ ठा० १ उ० । औ० । जीरकहिधूपवासिते व्यज. नभेदे च । ०ब० १ उ० । फोडमा ०२ फोटीकम्प-स्फोटीकर्मन्न अधि० । भ० । फोफस फोफसन कुप्फुस शब्दार्थे प्रश्न० १ ० द्वार । फोफा-देशी-भीतिपदे मध्ये, दे०ना० ६ वर्ग ८६ गाथा ! फोल्लय - फोल्लन० । भक्षणे, शा० १ ० ७ ० । फोस स्फ्पस पुंस्क्यस उत्सर्गे स्वयस्यन्ति पुरीषमु त्यनेनेति व्युत्पत्तिः । अपानप्रदेशे सं० । उनमे दे०ना० ६ वर्ग ८६ गाथा | - 09082083063080808484810821302030680830808080 इति श्रीमत्सौधर्म बृहत्तपागच्छीय-कलिकाल सर्वज्ञकल्पश्रीमहारक- जैन श्वेताम्बराचार्य श्री श्री १००० श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वर विरचिते 'अविधानराजेन्द्रे' फकाराऽऽदिशब्दसनं समाप्तम् ॥ 38308 Page #1187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्धः। बंध प्रदेशाम्योम्याऽऽगमे, दशा०१०५.ज्ञानाऽऽधरणाऽऽदिपुद्रलयोगे, दश०४०। जीवकर्मयोगे, दश०४ मा पं०सू०। बन्धसत्त्वम्। बकारः तत्रच सर्वबन्धान(घ)वनिरोधा, अशेषकर्मपरिक्षयसामर्थ्यो। पपत्तेः.तदेव च निःशेषभवदुःखविटपिदावानलकल्पं साक्षामोक्षाकरणं, तद्ध्यानवांश्चायोगिकेवली निशेषितमलका को वाप्तशुद्धनिजस्वभाव ऊर्द्धगतिपरिणामस्वाभाब्यात् निषाब-ब-पुंoापवर्गमध्यमोऽयं वर्ण औष्ठ्यःस्पिर्शसंशः। बल-डः। तप्रदेशप्रदीपशिखावगच्कृत्येकसमयेन पालोकान्तात् वि. सूचने, तन्तुसन्ताने , चयने , बहने , घटे , समुद्रे, यौनौ,। निर्मकाऽशेषबन्धनस्थ प्राप्तनिजस्वरूपस्याऽऽत्मनो लोकान्ते. जने च । बाबा विकल्पे, गगने, गिरौ, कलमे, खगगर्भ, ऽक्षस्थानं मोक्षः। "बन्धवियोगो मोक्षः" इति वचनात् । अत्र पदे, अल्पे, कर्मणि , विभूतिकारे, विन्दी, बलाऽऽकृष्टे, च जीवाजीवयोरागमादिवाऽध्यतानुमानतोऽपि सिद्धिःप्र. विमोचने, नले.न०। अमले, त्रि०। बल्ल्याम, काह. दर्शिता,आश्रषस्याऽपि तथैव, कर्मयोग्यपुद्गलाऽऽत्मप्रदेशानां मनायां शृङ्खलायां च । स्त्री। एकाळं। परस्पराऽनुप्रवेशस्वभाषस्य तु बन्धस्याऽनुपलब्धावप्यध्यक्ष. "बो दन्त्यष्टियस्तथोष्ठ-योऽपि, वक्षणे घारुणे बरे। शोषणे यवने गन्धे, वाले वृन्दे चवारिधी ॥७॥ तोऽनुमानात्प्रतिपत्तिः । तथा हि-अशेषशेयज्ञानस्वभाव. बन्दने बदने वादे, वेदनायां च वा स्त्रियाम् । स्याऽऽत्मनः स्वविषयेऽप्रवृत्तिर्षिशिष्टद्रव्यसम्बन्धनिमित्ता, झझावाते तथा मन्त्रे,सर्वमन्त्रे मृताऽऽत्मके ॥८॥"एका०। पीतहरपूरपुरुषस्थविषयज्ञानाप्रवृत्तिवत्,यश ज्ञानस्य स्ववि. बइल-वलीवर्द-पुंग"गोणाऽऽदयः" ॥८।२।१७४ ॥ इति निपा षयप्रतिबन्धकं द्रव्यं तज्ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदि वस्तु सत्पुद्गलरूपं कर्म, आत्मनश्व सकलशेयज्ञानस्वभावता स्वविषया प्रवृत्तिश्च तः। प्रा०२पाद । प्रा०म० | पुंगवे, तं०। बलीचर्दे, देना०६ वर्ग ६१ गाथा। छमस्थाऽवस्थायां प्राक्प्रदर्शितैव । औदारिकाऽऽद्यशेषशरीरनि. बउल-बकुल-पुं० । बकुलनामके वृक्षे, "केसरो बउलो।" बन्धनस्याऽनेकावान्तरभेद भिन्नाऽष्टविधकर्माऽऽत्मकस्य कार्मपाइना० २५४ गाथा। "क-ग-." ॥८।१।१७७॥ इति कलुक। णशरीरस्य सर्वशप्रणीताऽऽगमात् सिद्धः कथंन ततो बन्धसि. द्विान -कार्मणशरीरस्य मूर्तिमत्त्वात् स उपलब्धिः बउहारी-देशी-संमार्जन्याम् , देखना० ६ वर्ग ६७ माथा। स्यात् अनुपलम्भाश्च तदसदिति वाच्यम यतो न सर्व मूर्तिबंक-वक्र-त्रि० । कुटिले, स्था। मदुपलभ्यते, सौक्षम्यात् । पिशाचाऽऽदिशरीरस्येव औदा. बंझ-बन्ध्य-त्रि० । अनियतकार्यकर्तरि, सूत्र०२ श्रु०१०। रिकाविशरीरनिमित्ततयोपकल्पितस्याऽनुपलम्भेऽप्यपहातुमविफले, पो० १५ विव० । स०। अपत्यफलापेक्षया निष्फ शक्यत्वात् । कथमनुपलभ्यमानस्याऽस्तित्वं तस्येति चेत्, सायां स्त्रियाम् , नि. १ श्रु०३ वर्ग०३०।०। प्राम। म प्राप्तवादात्तस्य सिद्धः।न च तदभाव औदारिकाद्यपूअर्थशून्ये, सूत्र० १० ११ अ० ।षत्रिंशत्तममहाग्रहे, शरीरयोग आत्मनः स्यात् । न हि रउवाकाशयोरिव मूर्ताऽ. सू०प्र० २० पाहु० । कल्प० । पूर्व धीरयति, अपुनर्वन्धकानां मूर्तयोर्बग्धविशषयोगः कार्मणशरीराविनाभूतश्वामुक्तः सदा. कर्मप्रकृतिबन्धश्च अस्मिन् बन्धशब्दे दृष्टव्यः । प्रशा। स्मेति तस्य कथञ्चिन्मूर्तत्वम् । ततश्च-औदारिकाऽऽदिशरीरसं. बन्धो रज्जु-घटयोरिवोपपत्तिमान् । अथ सूक्ष्मशरीरसिद्धाव. बंदि-बन्दिन-पुं० । चारणे, " मंगलपाढय-मागह-चारण वे. प्याश्रवनिरपेक्षाः परमाणवो वाय्वादिसूक्ष्मद्रव्यनिमित्तपरमा. ग्रालिमा बंदी।" पाइना० ३२ गाथा । गुद्रव्यवद्भविष्यन्तीति नबन्धहेत्वाधवसिद्धिनेतत् कोडीक. बंध-बन्ध-पुं० । मनुष्यगवादीनां रज्जुदामनकाऽऽदिभिः सं. चैतन्यप्रयोजनम्याचेतनयाse यमने, घर । मावाचाo.1 भृत्ये, देखना०६पत्तेः। नाभ्यन्तरीकृतचैतन्य प्रयोजनस्य आकाशद्रव्याऽऽदे. वर्ग गाथा । निगडाऽदिभिः संयमने,व्य०६३० । श्रा61 वांग-बुद्धिःशरीराऽऽरम्भाऽऽदिनिरपेक्षपरमाणुजन्यता परस्याऽ. पञ्चा० । रज्ज्वाविबन्धने, प्रा०१६० ८० प्रश्न० ज०। पिसिद्धाअतः तृष्णानुबद्धस्य चैतन्यस्य मनोवाकायव्यापारव. जीवस्य कर्मपुतलसंश्लेषे, स०१ सम० । पाश्रवनिमित्ते | तःकम्भवर्गणापुद्गलसचिवस्य कार्मणशरीरानुविद्धस्य तथासकषायस्याऽऽस्मनः कर्मवर्गणापुद्गलैः संश्लेषविशेषे. विधतच्छरीरनिर्वर्तकत्वम, अन्यथा तथाविधकारणप्रभवतसम्म०३ काण्ड । अप्रकारकर्मपुद्गलैः प्रतिप्रदेशं जीवस्या- कछरीराभावे पात्मनो बन्धाऽभावतःसंसारिसत्वविकलं जग. घष्टम्भे, आचा०२७० ३चू.११० । (कर्मपुद्रलानाम् ) त् स्यादेषातीर्थान्तरीयरपि अातिवाहिकादिशन्नवाच्यतया. विशिष्टरचनयाऽऽत्मनि स्थापने, भाव० ३ अ.। जीवकर्म- उभ्युपगम्यमानं कार्मणशरीरं सकलहष्टपदार्थाविसंवाघई दु. संयोगे, प्रा०म० १ ० । आत्मकर्मणोरस्यन्तं संश्लेष, क्लाऽऽगमप्रतिपाद्यमवश्यमभ्युपगन्तव्यम् । अन्यथा-सकलर. उत्त० १ ० । प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशाऽऽत्मकतया टाउदष्टव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गः,न च-अचेतनस्य तस्य कथं भवाकर्मपुतलानां जीवेन खव्यापारतः स्वीकरणे, सूत्र। तिरप्रापकत्वम् ? । चेतनाधिष्ठितस्याऽचेतनस्याऽपि देवदत्त. णस्थि बंधे व मोक्खे वाणेवं सनं निवेसए। व्यापारप्रयुक्तदेशान्तरप्रापणशक्तिमन्नौद्रव्यवद् अचेतनस्या. अस्थि बंधे व मोक्खे वा एवं सम्बं निवेसए ।। १५ । । पि तत्प्रापकत्वाविरोधात् । न च सदा चैतन्याऽनुषक्तस्थ तस्याऽचेतनव्यपदेशयोगितेति प्राक प्रतिपादितत्वात् । तदेसूत्र०२ शु०५०। ('अस्थिवाय' शब्दे प्रथमभागे २०५ / यम्-अनुमानाऽऽगमास्यां बन्धस्य सिद्धिः। (६३/गाथा टी०१) पूछे ग्याक्यातम्) कर्मणामभिनवग्रहणे, पा० । कर्मपुदलजीव- सम्म०३ काण्ड । Page #1188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध अभिवानराजेन्द्रः। बंध बन्धभेदा: विहे पणते । तं जहा-मुलपगडिबंधे य, उत्तरपगडिबंधे य । एगे बंधे । स्थान व्याख्या-बन्धनं बन्धः, सकपायत्वात् जीवः कर्मसो| णेरइयाणं भंते ! कविहे भावबंधे पामते ?। मागंदिययोग्यान पुनलानादत्ते यत् स बन्ध इति भावः । स त्ता ! दुविहे पप्मत्ते । तं जहा-मूलपगडिबंधे य, उत्तरपच प्रकृतिस्थितिप्रदेशानुभावभेदात् चतुर्विधोऽपि बम्धसामा. गडिबंधे य । एवं०जाव वेमाणियाणं । णाणावरणिन्यारेकर, मुक्तस्व सतः पुनधाभावाद्वष एको बन्धति ।। अस्स णं भंते ! कम्मरस कइविहे भावबंधे पामते । माप्रथया-द्रव्यतो बन्यो निगडाऽऽदिभिःभावतःकर्मणा त. गदियपुत्ता! दुविहे भावबंधे पसते । तं जहा-मूलपगयोश्च बन्धनसामान्या देको बन्ध इति । स्था० १ ठा० । बन्धस्यैष स्वरूपमाह-"प्रवाहसोऽनादिमानिति ।" प्रथा. डिबंधे य, उत्तरपगडिबंधे य । णेरइयाणं भंते । णाणावइतः परम्परातोऽनादिभान् मादिभूतबाधकालषिकलाः अ. रणिअस्स कम्मरस कविहे भावबंधे पत्ते । मागंदिश्रेयाथै उपचयमाह-"कृतकस्वाप्यतीतकालबदुपपत्तिरिति।' यपुत्ता ! दुविहे भावबंधे पत्ते । तं जहा-मूलपगडिबंध रुतकस्थेऽपि स्वहेतुभिर्निष्पादितस्वेऽपि, बन्धस्यातीतका य, उत्तरपगडिबंधे य । एवंजाब वेमाणियाणं याणासस्पेवोपपत्तिर्घटनाऽनादिमवस्य वक्तव्या। किमुक्तं भव- वरणिण जहा दंडनो भणियो एवं जाव. अंतराइयं ति-प्रतिक्षणं क्रियमाणोऽपि बन्धः प्रथाहापेक्षया उत्तीत. कालवदनादिमानेष । ध० १ अधि० । बन्धप्रकारा भाणियो । (६२०) भ०१८ श.३ उ०। -बंधो बुषिहो-दुपयाणं चउप्पयाणं च प्रेमद्वेषबन्धौ अट्टाए प्रणट्ठाए य । अणट्ठाए म बट्टेड पंधेउ । बट्टाए दुविहो-सावे. दुविहे बंधे पत्ते । तं जहा-पेअबधे चेव, दोसबंधे चेव । को य, निरपेक्खो य । निरपेक्यो निश्चलं धणियं जं बंधद, (दुविहत्यादि) प्रेम-रागो मायालोभकषायलक्षणो, द्वेषसावक्खो जं दामगंठिणा जं सकेर पलीवणगादिसु मुं. स्तु कोधमानकषायलक्षणः। यदाह-" मायालीभकषाय थे. चिउं, छिदिउंचा, तेण संचरपासएणं बंधेयब्वं, एवं ताव स्यैतद्रागसंशितं द्वन्द्वम् । क्रोधो मानश्च पुन-द्वेष इति समास. चउप्पयाणं दुषयावं पि दासो वा, चोरो था, पुत्तो वा अ. निर्दिष्टः ॥१॥" इति । प्रेम्णः प्रेमलक्षणचित्तविकार सम्पादकपदंतगादि जा बज्झर तो सषिकम्माणि बंधेयध्याणि.र. मोहनीयकर्मपुद्रलराशेर्बन्धनं जीवप्रदेशेषु योगप्रत्ययः प्रकृ. क्खियम्माणि य, जहा अग्गिभयादिसुन घिणस्संति, ताणि तिरूपतया प्रदेशरूपतया च संबन्धन, तथा कषायत्रत्ययतः किर दुषषचोप्पयाणि सावगेण गेरिहयवाणि अबद्धाणि स्थित्यनुभागविशेषाऽऽपादनं च प्रेमयन्धः । एवं द्वेषमोहनी. चेव अत्यति, बहो वि।" आव०६ म०पासून (इत्या. यमम्बन्धो द्वेषबन्ध इति । उक्तं हि-"जोगा पयडिपएसं, मेदि 'वह' शब्दे विस्तरतो वक्ष्यते) ठिा अणुभागं कसायी कुणा ॥" इति । स्था) २ ठा. द्रव्यबन्धं निरूपयन्नाह ४उ०।१०। प्रातु। कइविहे गं भंते ! बंधे पछते । मागंदियपुत्ता ! विहे जीवप्रयोगानन्तरबन्धपरम्परबन्धा:बंधे पप्पत्ते । तं जहा-दवबंधे य,भावबंधे यादवबंधे णं | काबिहे गं भंते ! बंधे पमत्ते । गोयमा! तिविहे बभंते! कइविहे परमते । मागंदियपुत्ता! दुविहे पामते । धे पणत्ते । तं जहा-जीअप्पभोगबंधे, अणंतरबंधे, परंनहा-पयोगबंधे य, वीससाबंधे य । वीससाबंधे गं अंत परबंधे । णेरइयाणं भंते ! कविहे बंधे परमते ?। एकाविहे परमते । मागंदियपुत्ता ! विहे पामते । नहा वं चेव । एवं जाव वेमाणिए । णाणावरणिअस्स गं सादीयवीससावंधे य, अणादीयवीससाबंधेय : योगवीस- भंते ! कम्मस्स कइबिहे बंधे पपत्ते । गोयमा ! तिसाबंधे णं भंते ! कइविहे पम्पते । मागंदियपुना! दुविहे | विहे बंधे पमते । तं जहा-जीवप्पोगबंधे, अणंतरपाते । तं जहा-सिढिलबंधणबंधे य,धणियबंधणबंधेय। बंधे, परंपरबंधे । णेरइयाणं भंते ! पाणावरणि अस्स (काविहे णमित्यादि) (दब्यबंधे यत्ति ) द्रव्यमन्ध कम्मरस कइविहे बंधे पमते? । एवं चेव । एवंजा मागमाऽऽविभेदादनेकविधः केवलमिहोभयव्यतिरिक्तो प्रायः, व वेमाणियस्स, एवंजाव अंतराइयस्स । णाणावराण. सच द्रव्येण हरज्ज्वादिना द्रव्यस्य वा, परस्परेण ब. जोदयस्स णं. भंते ! कम्मस्स कइविहे बंधे पाते। न्धी द्रव्यबन्धः। (भावबंधे य सि) भाषबाध पागमाऽऽदिभेदा वेधा । स चह नोमागमतो प्रायः, तत्र भावेन मि. गोयमा ! तिविहे बंधे पाप्मत्ते, एवं चेव । एवं णेरहथ्यात्वाऽऽदिना भावस्य चोपयोगभावव्यतिरेकाजीवस्य ब याण वि, एवंजाव वेमाणिए, एवं जाव अंतन्धो भावबन्धः। (पोयबंधे सि) जीवापयोगेण द्रव्या- तराइयोदयस्स । इत्यीवेदस्स णं भंते ! कविहे बंधे पबां बन्धनम् । (वीससाबंधे य त्ति) स्वभावतः (साईय- पत्ते । एवं चेव । अमरकुमाराणं भंते ! इत्थीवेदस्स कबीससाधंधे यत्ति) अभ्राऽऽदीनाम् । (श्रणायवीससाबंधे य इपिहे बंधे पमते । एवं चेव । एवं जाव वेमाणिति) धर्मास्तिकायाऽधम्मास्तिकायाऽऽदीनाम् । (सिदिलबंभणबंधे य सि) तणपूलिकाऽऽदीनाम् (धणियबंधणबंधे य | ए, णवरं जस्स इथिवेदो अस्थि, एवं पुरिसवेदस्स वि त्ति) रथचक्राऽऽदीनाभिति। एवं चेव । णपुंसगवेदस्स वि . जाव चेमाणिए । ण. भावबंधे शंभंते! काविहे पाते । मागंदियपुत्ता! दु-वरं जस्स जो. अस्थि वेदो । दसणमोहणिजस्स णं भैते ! Page #1189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध बंध भभिधानगजेन्दः। कम्पस्स कइविहे बंध । एवं णिरंतर जात्र बेमाणिए । ठिारस पिएसत्ति।२१ गाथा) बन्धशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्ब. एवं चरितमाहमिजस्स विजाव पाणिए । एवं एए धारप्रकृतिबन्धः,स्थितिबन्धः.रसबन्धः प्रदेशबन्ध इति अमुना णं कमणं मांगलियसरीरस्स जाव कम्मगसरीरस्त श्रा प्रकारेण बन्धश्चतुर्धा भयनि । तत्र स्थित्यनुभागप्रदेशबन्धानां या समूदायः स प्रकृतिबन्धः, अध्यवसायविशेषगृहीतस्य हारसम्माए जाच पारग्गहसाए करहलस्साए जाव कर्मदलिकस्य यत् स्थितिकालनियमनं स स्थितिबन्धः, क. मुक्कलेस्साए सम्मदिट्टीए मिच्छादिट्ठीए सम्मामिच्छ-मपुतलानामेष शुभोऽशुभो वा घात्यघाती वा यो रसः ट्टिीए भाभिणिचाहियणास्स जाव केवलणाणस्स सोऽनुभागवन्धो, रसबन्ध इत्यर्थः । कर्म पुदलानामेव यद मइप्रमाणस्स मुमप्रमाणस्स विभंगणाणस्म । एवं | ग्रहणं स्थितिरसनिरपेक्षं दलिकसंख्याप्राधान्येनैव करोति स प्रदेशबन्धः भाभिणियोहियणाणविमयस्स णं भंते ! काविहे बंधे | । उक्तं च "ठिबंध दलस्ल ठिई. पएसबंधो परसगहणं जं। पक्षते, जाव केवलणाणविसयस्स वि, मतिप्रमा ताण रसो अणुभागो, तस्समुदाओ पगबंधो॥१॥" णविस यस्स सुभप्रमाणविस यस्स विभंगणाणविसयस्स, अन्यत्राप्युक्तम्एएसि पदाणं तिविहे बंधे परमत्त । सन्चे ते चउवीस "प्रकृतिः समदायः स्यात, स्थितिः कालावधारणम् । अनुभागो रसः प्रोक्तः, प्रदेशी दलसश्चयः॥१॥" दंडगा भाणियन्या, वरं जाणियब्वं जस्स जं अ. कर्म. ५ कर्म । ( एते प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धाः त्यिजाव वैमाणिए । विभंगणाणविसयस्स कइविहे बंधे 'कम्म' शब्द तृतीयमागे २८३ पृष्ठे दर्शिताः) पामत्त । गोयमा! तिविहे बंध पसन। नं जहा-जीवप्प. अथैकैकाभ्यवसायगृहीतकर्मपुदलद्रव्यस्य यस्मिम् कर्मणि. भोगबंधे, अणंतरबंधे, परंपरबंधे ॥ यावन्मात्री भागो भवतीत्येतदभिधित्सुराह - थेवो भाउ त. ( काविहे णमित्यादि) (जीवप्पोगवन्धे ति) जीवस्य दंसो ति)इहाएविधबन्धकेन जन्तुना यदेकनाध्यवसायेन प्रयोगण मन प्रभृतिव्यापारेण बन्धः कर्मापुद्र लानामात्मप्र विचित्रतागर्भेण गृहीतं दलिकं तस्यायौ भागा भवन्ति, देशेषु संश्लेषो बद्धस्पृष्टाऽऽदिभावकरण जावप्रयोगबन्धः । सप्तविधवन्धकस्य सप्त भागाः, षद्विधबन्धकस्य पर भागाः, (अनंतरं बंधेत्ति) येषां पुद्गलानां बद्धानां सतामनन्तर! एकविधबन्धकस्यैको भागः। तत्र यदायुर्बन्धकालेऽपवि. समयो वर्तते तेषामनन्तरबन्ध उच्यते, येषां तु बहानां द्वि. धवन्धको जन्तुर्भवति तदा शेषकर्मस्थित्यपेक्षयाऽऽयुषोऽल्पतीयादि समयो वर्तते तेषां परम्परबन्ध इति । (नाणाव. स्थितिस्वेन गृहीतस्य तस्यानन्तस्कन्धात्मककर्मद्रव्यस्यां. रणिजोदयस्मति शानावरणीयोदयस्य-शानाऽवरणी. शो-भागः सर्वस्तोकः आयुषकरूपतया परिणामति । ततो योदयरूपस्य कमेण उदयप्राप्तशानाऽऽवरणीयकर्मण इत्यर्थः। नाम्नि गात्रे च तुल्यस्थितित्वेन स्वस्थाने द्वयोरपि भागः अस्य च बन्धो भूतभावापेक्षयेति । अथवा-सानाऽवरणीय. समः । ततः आयुष्कभागास्वधिको-विशेषाधिक इति ॥७॥ तयोदयो यस्य कर्मणस्त सथा।झानावरणाऽऽदिकर्म हिकिं. विग्धाऽऽवरण मोहे, सब्योवरि वेयणीय जेणप्पे । चित्झानाऽऽद्यावारकतया विपाकतो वेद्यते किश्चित्प्रदेशत | तस्स फुडत्तं न हवइ, ठिईविसेमेण सेसाणं ।। ८०॥ एचइत्युदयेन विशेषितं कर्म अथवा-झानाऽवरणीयोदये यद् बध्यते घेद्यते वा; तत् हानावरणीयोदयमेव तस्येत्येवमन्य विघ्नस्यान्तरायस्य प्रावरणयोर्शानाऽऽवरणदर्शनावरण. त्रापि (सम्म हिट्टीपत्यादि) ननु सम्मट्टिीप." इत्यादौ कथं ब. योर्भागः, समः स्वस्थाने त्रयाणामपि तुल्यस्थितिकत्वात् । न्धो दृष्टिमानानानपौलिकत्वात्? अत्रोच्यते-नेह बन्धशब्दे नामगोत्रापेक्षया त्वधिको-विशेशाधक इत्यर्थः । ततोऽन्त. न कर्मपुद्रलानां बन्धो विवक्षितः, किंतु-मम्बधमात्रम् तच्च रायज्ञानाचरणदर्शनावरणभागान्मोहे-मोहनीये भागोजीवस्य दृष्ट्यादिभिर्द्धमः सहास्स्येव जीवप्रयोगबन्धाऽऽदि ऽधिको विशेषाधिकाननु तर्हि वेदनीयस्थ किरूपो भागो व्यपदेश्यत्वं च तस्य जीवधीर्यप्रभवस्थात् अत एवाभिनिबो. भवतीत्याह-सर्वोपरि वेदनीये स्वकर्मभागोपरिष्टाद्विशेषा. धिज्ञानविषयस्येत्याद्यपि निरषद्यं, ज्ञानस्य क्षेयेन सहसा धिको भागो भवति । इदमक्तं भवति शेषकर्मापेक्षया ता. म्बन्धविवक्षणादिति । इह संग्रहगाथे वन्मोहनीयस्योपरि भागः उक्का, बेदनीयस्य पुनर्मोहनीय"जीवपश्रोगबंधे, अणंतरपरंपरेय बोधव्ये। भागादपि सकाशादुपयेव भागः । अत्र विनेयः पृच्छतिपगडी ८ उदये ८ वेदे ३, दसण मोहे चरिते य ॥१॥ किं पुनरिह कारणं येनोलक्रमेण कर्मणां भागाऽऽधिक्यं भ वतीति । अत्र वेदनीयस्य तावद्भागाऽऽधिक्ये कारणमाहओरालियबेउब्बिय-पाहारगतेयकम्मए चेव । "तस्स फुडत्तं न हवा ति" येन कारणेनाल्पे-स्तोके समालेसा६दिट्ठी३. नाणा५ऽनाणेसु३ तब्बिसप ८॥२॥" दलिके सति तस्थ वेदनीयस्थ कर्मणः स्फुटत्वं-सुखदु:भ० २०१०७ उ.. चतुर्विधबन्धः स्वानुभवव्यक्तिरिति यावत् न,-नैव भवति-जायते । ए तदुक्तं भवति-सुखदुःख जननस्वभावं वेदनीयं कर्म तद्भा. चउबिहे बंधे पपत्ते । तं जहा-पगइबंधे, ठिइबंधे अणु वपरिणताच पुद्गलाः स्वभावात्प्रचुरा एक सम्तः स्वका. भागबंधे, परसबंधे। स०४ सम | स्था० । श्रा०। । ये सुखदुःखरूपं व्यक्तीकर्तुं समर्थाः, शेषकर्मपुद्रला पुन: बन्धव्याख्यान-संप्रति यदुक्तम्-"वुच्छ बंधविहसामीय सि" स्वल्पा अपि स्वकार्य निष्पादयन्ति । दृश्यते च पुद्रला. तनिर्वाहणार्थ बन्धविधान ब्याचिन्यासुराह-(चंधी पयह नां स्वकार्यजननेऽल्पबहुत्वकृतं सामर्थ्यवैचित्र्यम् । यथा Page #1190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध स्वार्थमा हि-यदि गोतसुद्धीका यथा विषं स्वरूपमापे मारणाऽऽदिकार्य साधयति, लेष्ठु कात्यमिहापि उपनयः कार्यः तस्मात् प्रभूता बेदनीयपुङ्गवः सुखदुःखे साधयन्तीति सुखदुःखस्फुटत्यकार महान् भाग इति स्थितम् चकर्मणां भागस्य हीनाधिकत्वे कारणमाह - ( ठिईवि. से साति) दीपादीनां भागस्य हीनत्वमाधिक्यं वा विशेयम् । केनेत्याह-स्थितिविशे मेव हेतुभूतेन यप नामयोषादेरायुकाऽऽयपेक्षया महती स्थितिस्तस्य तदपेक्षया भागोऽपि महान् यस्य त्वसौ दीना तस्य सोऽपि हीन इति भावः । ननु स्थित्यनुरोधेन भागो भवन -खायुषः सकाशानामगोत्रयोर्भागः संख्यातगुणः प्राप्नोति त स्किमित्युक्तं विशेषाधिक इति ?, सत्यमेतत् किं तु सर्वोऽपि मरकन्यादिकर्मकता आयुष्कोदयमूल दयात्, अन आयुष्कं प्रधानत्वाद्वदुपुङ्गव्यं लभते । यथैवं तदपेक्षयाऽप्रधानत्वाविशेषाि शमिति । सत्यमेतत्, किं तु नामगांत्रे सतत बन्धिनी, ततस्त दपेक्षा बहुमान आयुकं तु कादाचिकवधा स्थित्यनुसारेण सं " यातगुणे दीनतापाताविशेषकमयाऽन बिभागमा नाम गोत्रे स्वप्रधानतया हीनताप्राप्तावपि सततबन्धित्वादायुकापेक्षया विशेषाधिकमेव भागं लभते । ननु तथापि ज्ञा गावरणाद्यपेक्षया मोहनीयस्य संगतगुणो भागः प्राप्नोति तत्स्थितेर्शानाऽऽवरसीयाऽऽदिस्थिस्यपेक्षया सं , यातमुखखात्, अतः कथं विशेषाधिक उक्तः १ । सत्यं, दर्शनमोहनथापा एकस्या वाहते सप्तनिसागरोपमकोटीकोटीलक्षणा स्थितिरुक्का चारिश्रमोहनीयस्य तु कषायलक्षणस्य चत्वारिंशत्सागरोपम कोटीकोटीलामैव स्थितिः श्रतस्तदनुसारेण विशेषाधिक एव तद्भाग उक्लो न तु संख्यातगुणः । दर्शनमोहनी इयं तुखमेव चारित्रमोहनीयदकात् सर्वघातित्वे नानन्तभाग एव वर्तत इति न किश्चित्तेन वर्धत इति । चैतत् विश्ववस्तु धी सर्वज्ञवचनप्रामाण्यादेवातीन्द्रियार्थप्रतिपत्तिः । भवत्येवं तथाऽप्येकस्मिन् समये गृही तद्रव्यस्य कथमष्टधा परिणामः कथं चैवं भागाऽऽदिकल्पनेति चेदुपते अस्थित्वा जीवचित्रत्वाच पुल परिस्य जीवतिरिकानामपि पु बांविपरित किमुत जीवपरिगृहीता नामित्यलं विस्तरेणेति ॥ ८० ॥ कृता मूलप्रकृतीनां भा रामरूपणा । (१३) अभिधानराजेन्द्रः । - साम्प्रतप्रकृतीनां भागरूपण कि नियमाइल लिया तो सव्यपायें | बस्तीया विभज से सेसाथ पमयं ॥ ८१ ॥ यक्का यक्काः प्रकृतयो यस्यां यस्यां मूलप्रकृतौ पढ़िता वि चन्ते, तासां सत्र प्रकृतिर्निजज्ञातिर्विज्ञेया। तथा तथा नि. अजितप्रकृतिरूपा निजतात्या यनुप्राप्तं दलिका स्योः अनन्त भागः पचावियु सदस बंध प्रकृती फेलानपरय के चलना 55 परनिद्वापक मिध्यास्य संज्यसनय द्वारापालन विशति संख्यानामपि भवति जायते । काऽत्र युक्तिरिति चेदुरूयते - इहाष्टानामपि मूलप्रकृतीनां प्रत्येकं ये स्निग्धताः परमाणते लोकाते व स्वन्यमूलकृति परमाणु नाम नन्ततमो भागः, त एव च सर्वघातिप्रकृति योग्याः, तस्मिंआन मागे सर्वधानिरसय उपसारि पद लिकस्य देशघातिरखोपेतस्य का बालैश्यादती विभजद इत्यादि) बध्यमानानां न स्ववध्यमानानां विभ जयने - विभागीक्रियते विभज्य विभज्य दीयत इत्यर्थः । शे पं सर्वप्रातिप्रत्यनन्तभागावशिष्टं प्रदेशाप्रम् | कासां बच्य मानानां विभज्यत इत्याह-शेषाणां सर्वघातिं प्रकृत्य वशि ष्टानाम् । कथमित्याह - प्रतिसमयं - प्रतिक्षणं. बन्धनविभज नक्रिययोरुभयोरपि क्रियाविशेषणमिदं योजनीयम् । अयमत्र तात्पर्यार्थः ज्ञानाऽऽवरणस्य पश्च तावदुत्तरप्रकृतयः तासु चैका केवलज्ञानाऽऽवरणलक्षणा सर्वघातिनि,शेषाश्चत नो देशघातिन्यः तत्र ज्ञानाऽऽवरणस्य माने यद्दलिकमाया. ति तस्य नभागमा सर्वधातिरमोपेतं इयं तकेवल ज्ञानावरणस्येव भग सोपेतं द्रव्यं चतुर्धा विभज्यते, तथा मतिज्ञानावरणत मानाऽऽराम पर्यायाना बरखेभ्यो दीयते । दर्शना536 नवसनयता केवलदर्शनावर नि द्वापञ्चकं चेति षट् सर्वघातिभ्यः, शेषास्तिनो देशघातिभ्यः, तत्र दर्शनाssवरणस्य भागे यत् द्रव्यमागच्छति तस्य मध्येत्याविरो सर्वप्रकृति परमतिशेशघातिरवयुक्तं द्रव्यं शेषप्रकृतित्रयभागरूपतयेति । वे दनीग्रस्य पुनः सात रूपाऽसातरूपा बैकैव प्रकृतिरेकदा बध्यते, न युगपदुभे अपि, सातासातयोः परस्परं विरोधात्, अतो वेदनीयभाग लब्धं द्रव्यमे कस्या एव बध्यमानायाः प्रकृतेः सर्वे भवति । मोहनीयम्य स्थित्यनुसारेण यो मूलभाग आभजति तस्यानन्ततमो भागः सर्वघातिप्रकृ तियोग्य पिते वेदनमोहनीया चारित्र मोहनीयस्य तादर्शमोदी समग्रमपि मि पारमोनीयस्य डीकने चारित्रमोहनीयस्य तु सत्कम द्वादशधा क्रियते, ते च द्वादशभागा आयेभ्यो द्वा पावेत. वयाने तु कपास्यापि तु इत त्रैको भागः कषाय मोहनीयस्य द्वितीयो नोकषायमोहनीयतत्र कषायमोहनीयस्य भागश्चतुर्धा क्रियते, ते चत्वा रोऽपि भागाः संज्वलनको धमाममायालोभानां दीयन्ते । गोपायमोहनीयत्व पुनर्योगः पञ्चचा कि पायाचा त्राणां वेदानामन्यमेवेदाव मानाय, हास्यरतियुगलारतिशोकयुगल योरन्यतरस्मै पुग ज्ञाय, भयजुगुप्साभ्यां च दीयन्ते, नान्येभ्यः बन्धाभावात् । महिना पाया गया कि क्लाः पञ्चचैत्र । आयुषस्तु भागे यद् द्रव्यमागच्छति तरलमे कस्या एव बध्यमानप्रकृतेर्भवति यत आयु एकस्मिन्का ले एकै प्रकृतिर्वध्यत इति । नामकर्मको भागभावमा कर्म तु देशतिर , Page #1191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध बंध (१९६८) अभिधानराजेन्डः। प्रकृत्यभिप्रायेण दर्श्यते । तत्रेयं गाथा मुल प्रकृतेः संपवते । निदर्शनं चात्र बथा स्त्यानिित्र"पिंडपगईसु बझं-तिगाण वन्नगंधरसफामाणं। .. कम्य बन्धव्यवच्छेदे तद्भागलभ्यं द्रव्यं सर्वमपि सजातीयसम्बेसि संघाए, तणुम्मि य तिगे चउके या ॥१॥" योः निद्राप्रचलयोर्भवति तयोरपि बन्धविच्छदे सति स्वम् अस्या अक्षरार्थगमनिका-पिण्डप्रकृतयो-नामप्रकृतयः। या लपकृत्यन्तर्गतानां चतुर्दर्शनाऽऽवरणाऽऽदीनां विजातीया दुक्तं कर्मप्रकृतिचूर्णी-"पिंडपगईओ नामपईश्री ति।" नामपि भवति, तेषामपि च बन्धे विच्छिन्ने उपशान्तमो. तासु मध्ये बध्यमानानामन्यतमगनिजातिशरीरबन्धनसघा. हाऽऽद्यवस्थायां निःशेष सातवेदनीयस्यैव भवति । मिथ्यातनसंहननसंस्थानाङ्गोपाङ्गानुपूर्वीणां वर्णगन्धरसस्पर्शागु स्वस्य तु बन्धविच्छेदे सति सजातीयाभावात्तद्भागलकलघुपराघातोपघाताच्छासनिर्माणतीर्थकराणाम् पातपाद् भयं दलिकं सर्व विजातीयानामेव क्रोधाऽऽदीनाद्यद्वादशकपोतप्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतित्रसस्थावरबादरसूचमपर्याप्ता. पायाणां भवतीत्यनया विशा तावन्नेयं यावत्सूचमसंपरायगु. पर्याप्तप्रत्येकसाधारणस्थिरास्थिरशुभाशुभसुभगदुर्भगसुस्वर- सस्थाने मोहनीयस्य भागलभ्यं द्रव्यं षभागतया भवति , दुःस्वरादेयाना देययशाकीय॑यशःकीय॑न्यतराणां च मूल तत ऊईमुपशाम्ताद्यवस्थायां सर्वथा शेषमूलप्रकृतीनां भागो विभज्य समर्पणीयः । अत्रैव विशषमाह-वर्णेत्यादि) बन्धविच्छेदे तागलभ्यं द्रव्यं सर्व सातवेदनीयस्यैव भा. वर्णगन्धरसस्पर्शानां प्रत्येकं यद्भागलब्धं दलिकमायाति गतया भवतीति । अत्रैव कर्मप्रकृतिटीकाकारोपदर्शितं तरसर्वेभ्यस्तेषामेवावान्तरभेदेभ्यो विभज्य विभज्य दीयते । स्वस्वोत्तरप्रकृतीनामुस्कष्टपदे जघन्यपदे चापबहुत्वं वि. तथाहि-वर्णनाम्नो यशागलब्धं दलिकं तत्पश्चधा कृत्वा शु. नेयजनानुग्रहाय प्रदाते-तत्रोत्कृष्टपदे सर्वस्तीकं प्रदेशाग्रं क्लाऽऽदिभ्योऽवान्तरभेदेभ्यो विभज्य विभज्य दीयते, एवं केवलज्ञानावरणस्थ, ततो मनापर्यवज्ञानावरणस्यानगन्धरसस्पर्शानामपि यस्य यावन्तो भेदास्तस्य संबन्धिनो | म्तगुणं, ततोऽवधिज्ञानाऽऽवरणस्य विशेषाधिक, ततः श्रुभागस्य ततिभागाः छत्वा तावद्भ्यो ऽवान्तरभेदेभ्यो दा. तमानाऽऽवरणस्य विशेषाधिक, ततो मनिशानावरणस्य तस्याः । तथा संघाते तनी च प्रत्येकं यद्भागलब्ध दलिका विशेषाधिकम् , तथा दर्शनावरणे उत्कृष्टपरे सर्वस्तोकं प्र. मायाति तत्रिधा चतुर्धा वा कृत्वा त्रिभ्यश्चतुभ्यों वा दी. चलायाः प्रदेशाग्रं, ततो निद्राया विशेषाधिक, ततः प्रचयते। तत्रौदारिकतैजसकार्मणानि वैफियतैजसकार्मणानि वा लामचलाया विशेषाधिकं, ततो निद्रानिद्राया विशेश्रीणि शरीराणि संघातान् वा युगपनता बिधा क्रियते, षाधिकं, ततः स्त्यानर्विशेषाधिक, ततः केवलदर्शनाssवैक्रियाऽऽहारकतैजसकामणरूपाणि चत्वारि शरीराणि सं. धरणस्य विशेषाधिकं. ततोऽवधिदर्शनाऽऽधरणस्यानन्तगुणं घातान् वा बनता चतुर्धा क्रियते । 'सत्तेकार विगप्पा बंधण ततोऽचक्षुर्दर्शनावरणस्य विशेषाधिक, ततश्चक्षुर्दर्शनाss. नामाण' बन्धननाम्नां भागलब्धं यहलिकमायाति तस्य घरग्णस्य विशेषाधिक, तथा सर्वन्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्र. सप्त विकल्पा:-सप्त भेदाः शरीरत्रये, एकादश वा मसातवेदनीयस्य, ततः सातवेदनीयस्य विशेषाधिकम् । विकल्पाः शरीरचतुष्टये क्रियन्ते। तत्रादारिकीदारिक तथा मोहनीये सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्रमप्रत्याख्याना१औदारिकतैजस २औदारिककार्मण ३औदारिकतैजसका. ऽऽवरणमानस्य , ततोऽप्रत्याख्यानावरणक्रोधस्य विशेषा. मण ४ तेजसतैजस ५ तैजसकार्मण ६ कार्मणकर्मिण ७ लक्ष. धिकं. ततोऽप्रत्याख्यानाऽऽवरणमायाया विशेषाधिकम् , णबन्धनानि बनता सप्त, वैक्रियचंतुष्काहारकचतुष्कतैज. ततोऽप्रत्याख्यानावरण लोभस्थ विशेषाधिक. ततः प्रत्याख्या सत्रिक लक्षणाम्येकादश बन्धनानि बनता एकादश, अबशेषाणां च प्रकतीनां यद्भागलब्धं दलिकमायाति तन्न भू. नावरणमानस्य विशेषाधिकं ततः प्रत्याख्यानाऽऽवरणयो विभज्य, तासां युगपदवान्तरद्वियादिभेदबन्धाभा क्रोधस्य विशषाधिकं ततः प्रत्याख्यानाऽऽवरणमायाया बात् , तेन तासां तदेव परिपूर्ण दलिकं भवतीति । गो। विशेषाधिकं ततः प्रत्याख्यानाsवरणलोभस्य विशेषाधिक अस्य तु यनगागतं द्रव्यं तदेकम्था पर बध्यमानप्रकृतेः ततोऽनन्तानुबन्धिमानस्य विशेषाधिकं ततोऽनन्तानुवसवे भवति, यदानस्यैकदा उचगोपलक्षणा नीचैगोत्रलक्ष. धिक्रोधस्य विशेषाधिकं ततोऽनन्तानुबन्धिमायाया वि. णा वैकैव प्रकृतिर्वध्यते । अन्तरायभागलग्धं तु द्रव्य शेषाधिकं, ततोऽनन्तानुबन्धिलोभस्य विशेषाधिकम्, सतो दानान्तरायाऽऽदिप्रकृतिपञ्चकतया परिणमति, यत एताः मिध्यात्वस्य विशेषाधिकम् , ततो जुगुप्साया अनन्तगुण, पश्चापि ध्रुवबन्धित्वात्सर्वदैव बन्धन्त इति । ननु "वज्म ततो भयस्य विशेषाधिकम् . ततो हास्यशोकयर्विशेषा धिकं. स्वस्थाने तु द्वयोरपि परस्परं तुल्यम् , ततो रत्य. तीण विभज्जद त्ति" वचनेन बध्यमानानामेवायं भागवि. रत्यार्विशेषाधिकं. तयोः पुनः स्वस्थाने तुल्यम् । ततः स्त्रीवेधिरुतः, यदा च स्वस्वगुणस्थाने बन्धव्यवच्छेदः संपद्य दनपुंसकवेदयोर्विशेषाधिकं, स्वस्थाने तु परस्परं द्वयोरपि तु. ते तदा तासांभागलब्धं द्रव्यं कस्या भागतया भवतीति, अ. ल्यम्, ततः संज्वलमक्रोधस्य विशेषाधिकं, ततः संज्वलन. त्रोच्यते-यस्याः-प्रकृतेर्वधो व्यवच्छिद्यते तद्भागलब्धंद्र मानस्य विशेषाधिकम्, ततः पुरुषवेदस्य विशेषाधिकम , व्यं यावदेकाऽपि सजातीयप्रकृतिबंध्यवे तावत्तस्था एवं तद्भवति । यदा पुनः सर्वासामपि सजातीयप्रकृतीनां ब ततः संज्वलनमायाया विशेषाधिकं , ततः संज्वलनलोभधो व्यवच्छिनो भवति न च मिथ्यात्वस्येवापरा सजाती स्यासंख्येयगुणम् , तथा चतुर्णामप्यायुषामुत्कृष्टपदे प्रदेशानं या प्रकृतिरस्ति तदा तद्भागलभ्यं द्रव्यं सर्वमपि मूलप्र (सर्वस्तोकं तिर्यमनुष्याऽऽयुषोः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यं, कृत्यन्तर्गतानां विजातीयप्रकृतीनामपि भवति । यदा ता- ततो देवनारकाऽऽयुषोरसंख्येय गुणं स्वस्थाने ) परस्पर अपि व्यवरिना भवन्ति तदा तद्दलिकं सर्वमप्यन्यस्या। तुल्यम् , नामकर्मण्युत्कएपदे प्रदेशानं गतौ देवगतिनर Page #1192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९६६) अभिथानराजेन्डः। बंध कगत्योः सर्वस्तोक, स्वस्थाने तु द्वयोरपि तुल्यम् , ततो ततो विशेषाधिक स्थावरनाम्नः। एवं बादरसूक्ष्मयोः पर्यामनुजगती विशेषाधिकं, ततस्तिर्यग्मती विशेषाधिकम् ।। तापर्याप्तयोः प्रत्येकसाधारणयोः स्थिरास्थिरयोः शुभाशु. तथा जातो चतुर्णा द्वीन्द्रियाऽऽदिजातिनानामुत्कृष्टपद प्रदे भयोः सुभगदुर्भगयोः सुस्वरदुःस्वरयोरादेयानादेययोर्यशः. शाऽयं सर्वस्तीक, स्वस्थाने तु तेषां परस्परं तुल्यं , तत कीर्त्ययशाकीयोर्वाच्यम् । प्रातगोड्योतयोरुत्कृष्टपदे प्रदेशापकेन्द्रियजातेर्विशेषाधिकम् । तथा शरीरनानि सर्वस्तो- प्रं सर्वस्तो, स्वस्थाने तु द्वयोरपि तुल्यम् । निर्माणोछा. कमुत्कृष्ठपने प्रदेशाप्रमाहारकशरीरस्य, ततो वैक्रियशरी- सपराघातोपघातागुरुलघुतीर्थकराणां स्वलाबहुस्वं नास्ति , रस्य विशषाधिकं, तत औदारिकशरीरस्य विशेषाधिकं, यत इदमल्पवहुत्वं सजातीय प्रकृत्यपेक्षया प्रतिपक्षप्रकृत्यपेसतस्तैजसशरीरस्य विशेषाधिकं ततः कार्मणशरीरस्य क्षया वा चिन्त्यते, यथा कृष्णाऽदिवर्णनाम्नः शेषवर्गापेक्ष. विशेषाधिकम् । एवं संघातनानोऽपि द्रष्टव्यम् । तथा | या प्रतिपकप्रकृत्यपेकया वा यथा सुभगदुर्भगयाः, न चै. सम्धननानि सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशाप्रमाहारकाऽऽहार- ताः परस्परं सजातीया अभिन्नैकमूलपिण्डप्रकृत्यभावात् , कबम्धननामा, सत बाहारकतैजसबन्धननाम्रो विशेषा- नापि विरुद्धा युगपदपि बन्धसंभवात् । तथा गोत्रे मर्यधिकम् । नत माहारककार्मणबन्धननाम्नो विशेषाधिक, तत स्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशाधे नीचैर्गोत्रस्य , तन उर्गोत्रस्य माहारकलैजसकार्मणवन्धननाम्नो विशेषाधिक, ततो वै. विशेषाधिकम् । तथाऽन्तरायकर्मणि सर्वस्तोकमुस्कृष्टपदे क्रियक्रियबन्धननाम्नो विशेषाधिक, ततो वैक्रियतैजसब- प्रदेशाग्रं दानान्तरायस्य , ततो लाभान्तरानस्य विशेषा. म्धननामो विशेषाधिकं ततो वैक्रियकार्मणबन्धननाम्नो धिकं, ततो भोगान्तरायस्य विशेषाधिकं, तत उपभोगाविशेषाधिकं. ततो वैफियतैजसकार्मणबन्धननाम्नो विशे. तरायस्य विशेषाधिकं , ततो वीर्यान्तरायस्य विशेषाधि. पाधिकं तत औदारिकौदारिकबन्धननाम्नो विशेषाधिकं कम् । तदेवमुक्तमुत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टपदे प्रदेशापाल्पबहुस्वं, तत औदारिकतैजसबन्धननाम्नो विशेषाधिक, तत औदारि- संप्रति जघन्यपदे तदभिधीयते-तत्र सर्वतोक जघन्यपदे कार्मणबन्धननानो विशेषाधिकं,तत औदारिकतैजसकाम. प्रदेशानं केवलज्ञानाऽऽवरणस्य,सतो मनापर्यवज्ञानाऽऽवरणगबन्धननानो विशेषाधिक ततस्तैजसतै जसबन्धननाम्रो. स्यानन्तगुणं,ततोऽवधिशानाऽऽवरणस्य विशेषाधिकं, ततः विशेषाधिकं, ततस्तैजसकामणबन्धननानो विशेषाधिकं, श्रुतक्षानाऽऽवरणस्य विशेषाधिकं, ततो मतिज्ञानाऽऽधरणस्य ततःकार्मणकामणबन्धननानी विशेषाधिकम् । तथा संस्था. विशेषाधिकम् । तथा दर्शनावरणस्य सर्वस्तोकं जघन्यपदे जनानि संस्थानानामाचन्तवर्जानां चतुर्णामुन्कृष्टपदे प्रदेशाग्रं प्रदेशाग्रं निद्रायाः, ततःप्रचलाया विशेषाधिक, ततो निद्रा. सर्वस्तोकं, स्वस्थाने तु तेषां परस्परं तुल्यं, ततः समचतु निद्राया विशेषाधिकं,ततःप्रचलाप्रचलाया विशेषाधिकं. ततः रसंस्थानस्य विशेषाधिकं ततो हुण्डसंस्थानस्य वि. स्त्यानर्देर्विशेषाधिक, ततः केवलदर्शनावरणस्य विशेषा शेषाधिकं, तथाउलोपानानि सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशान धिकं ततोऽवधिदर्शनाऽऽवरणस्यानन्तगुणं ततोऽच खुर्दर्शना माहारकालोपालनानः, ततो वैक्रियाओपाङ्गनाम्रो विशे ऽऽयरणस्य विशेषाधिकं, ततश्चक्षुर्दर्शनावरणस्य विशेषाचाधिकं, ततोऽप्यौदारिकाङ्गोपाङ्गनाम्रो विशेषाधिकम् । धिकम् । तथा मोहनीय सर्वस्तोकं जघन्यपदे प्रदेशाप्रमप्रत्या. तथा संहनननानि सर्वस्तोकमाद्यानां पञ्चानां संहननाना. स्यानाचरणमानस्य,ततोऽप्रत्याख्याना धरणक्रोधस्य विशे. षाधिक.नतोऽप्रत्याख्यानाऽऽवरणमायाया विशेषाधिकं, ततो. मुकष्टपदे प्रदेशाप्रं, स्वस्थाने तु तेषां परस्परं तुल्यं, ततः ऽप्रत्याख्यानाऽवरणलोभस्य विशेषाधिकम् तिन पवमेव प्र. सेवार्तसंहननस्य विशेषाधिकम् । तथा वर्णनाम्नि सस्तो त्याख्यानाडावरणमानक्रीधमायालोभानन्तानुबन्धिमानीकमुन्कृष्टपदे प्रदेशानं कृष्णवर्णनाम्नः , ततो नीलवर्णना. धमायालोभानां यथोत्तरं विशेषाधिकं वक्तव्यम् । ततो मिथ्या. स्नो विशेषाधिकं ततो लोहितवर्णनाम्नो विशेषाधिकं, न. त्वस्य विशेषाधिकम्। ततो जुगुप्लाया अनन्तगुणम् । ततो भ. ता हारिद्रवर्णनाम्नो विशेषाधिक, ततः शुक्लवर्णनाम्नो वि. यस्य विशेषाधिकम्।ततो हास्यशेाकयाधिशेषााधकं,स्वस्थाने शेषाधिकम् । तथा गन्धनाम्नि सर्वस्तोकं सुरभिगन्धना तुद्वयोरपि परस्पर तुल्यम्। ततो रत्यरत्योर्विशेषाधिकं, स्व. म्नः , तता दुरभिगम्धनाम्नो विशेषाधिकम् । तथा रसना. स्थाने तु द्वयोरपि परस्परं तुल्यम् । ततोऽन्यतरवेदस्य विशमिन सस्तोकमुस्कृपदे प्रदेशाग्रं कटुरसनाम्नः, ततस्ति पाधिकम् । ततः संज्वलनमानक्रोधमायालोभानां यथोत्तरं करसनाम्नो विशेषाधिकं. ततः काषायरसनाम्नो विशेषा विशषाधिकम् । तथाऽऽयुपि सर्वस्तोक जघन्यपदे प्रदेशाग्रं धिकं ततोऽम्लरसनाम्नो विशेषाधिकं, ततो मधुरसना. म्नो विशेषाधिकम् । तथा स्पर्शनाम्नि सर्वस्तोकमुत्कृष्ट तिर्यङ्मनुष्याऽऽयुषोः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यं, ततो देव. नारकाऽऽयुषोरसंग्येयगुणं स्वस्थाने तु परस्परं तुल्पम् । तथा पदे प्रदेशानं कर्कशगुरुस्पर्शनाम्नोः, स्वस्थान द्वयोरपि नामकर्मणि गती (सर्वस्तोक) जघन्यपदे प्रदेशाग्रं तिर्यग्गतेः परस्परं तुल्यं, ततः स्निग्धोष्णस्पर्शनाम्नार्विशेषाधिकं, स्व. ततो मनुजगविशेषाधिक, ततो देवगतेरसंख्येयगुणं, ततो स्थाने तु योरपि परस्परं तुल्यम् । तथाऽऽनुपूनामिन सं. मरकगतेरसंख्ययगुणम् । तथा जातौ सर्वस्तोकं जघन्यपदे प्र. वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशानं देवगतिनरकगठ्यानुपूर्योः, स्व. देशाग्रं चतुर्णा द्वीन्द्रियाऽऽदिजातिनाम्नां, तत एकेन्द्रियजा. स्थाने तु. योरपि परस्परं तु ततो मनुजगस्यानुपू तेर्विशेषाधिकम्।तथा शरीरनानि सर्वस्तोकमौदारिकशरीा विशेषाधिकं ततस्तिर्यग्गत्यानुपूर्या विशेषाधिकम् । रनाम्नततस्तैजसशरीरनाम्नो विशेषाधिकं. ततः कार्मणश, तथा बिहायोगतिनाम्नि सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्रं प्रश रीरनाम्नो विशेषाधिकम्, ततो वैक्रियशरीरनाम्नोऽसहायेस्तविडायोगतिनाम्नः, ततोऽप्रशस्तविहायोगतिनाम्नो वि. यगुणम् । ततोऽप्याहारकशरीरनाम्नोऽसंख्येयगुणमा एवं स. शेषाधिकम् । तथा सर्वस्तोकमुक्तपदे प्रदेशाग्रं त्रसनाम्ना, घातनाम्नोऽपि वाच्यम्। अशोपासनामिन सर्वस्तोकं जघ. २९६ Page #1193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। बंध म्पपदे प्रवेशाप्रमौदारिकाङ्गोपाङ्गनाम्नः, ततो वैक्रियानोपा- तमुधेिद्यामसंख्येनगुणप्रदेशानां च नां विधत्ते । ततोs अनामोऽसंक्पेयगुणं, ततोऽप्याहारकाङ्गोपालमानोऽसंक्थे | प्ययोगिकेपली वरमविशुद्धिपरिकरिषतः संख्येयगुणहीनापगुणम् । तथा सस्तोकं जघन्मपदे प्रदेशानं नरकगति- म्तर्मुहर्तवेद्यामसंख्येयगुणप्रदेशानां च तां परिकरूपयति । देवगत्यानुष्योः . स्वस्थाने तु योरपि परस्परं तुल्पं. ततो तदेवं यथा यथाऽतिविशुद्धिस्तथा तथा इस्वकालबहुपदेमनुजानुपूर्या विशेषाधिक, ततस्तिर्यग्गत्थानुपा विशे- शाग्रत्वं च गुणश्रेणर्भवतीति ॥२॥ निरूपिता गुणणिरेकादपाधिकम् । तथा सर्वस्तो असनाम्ना, ततः स्थावरना- शधा । कर्म०५ कर्म० । ( गुणस्थानम् ' गुणट्ठाण ' रामे मो विशेषाऽधिकम् । एवं बादरसूचभयोः पर्याप्तापर्याप्तयोः तृतीयभागे ११४ पृष्ठे गतम्) प्रत्येकसाधारणयोधशेषाणां तु नामप्रकृतीनामल्पबहरवं न सम्प्रति यो जन्तुर्यथाविधः सन्नुत्कृष्ट यथाविधश्च जघन्य वियते। तथा सातासातवेदनीययोरुबैर्गोत्रनीचर्नोत्रयोरपि।। अन्तराये पुनर्यधोत्कृष्टपये तथैवावगम्तव्यमिति ॥ १ ॥ प्रदेशबन्धं विधसे इत्येतत् स्वामित्वद्वारेण निरूपयवाहप्रतिपादितं मूलोत्तरप्रकृतीनां भागस्वरूपम् । अप्पयरपयडिबंधी, उक्कडजोगी य सत्रिपअत्तो। संप्रति भागलपलिकं प्रभूततरं गुणश्रेणिरचनयैव कुणइ पपसुक्कोसं, जहन्नयं तस्स बच्चासे || ८६ ॥ जन्तुः पयत्यतो गुणधेणिस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह मल्पतराव ताः प्रशतयश्चास्पतरप्रकृतबस्तासां बम्धः सम्मदरसम्वविरई, भणविसंजोयदंसखवगे य । स विद्यते यस्यासावल्पतरप्रकृतिबन्धी । यो यो मौलानां मौलतराणां चाल्पप्रकृतिभेदानां बन्धका स स उत्कष्टप्रदेशमोहसमसंतखबगे, खीणस जोगियर गुण सदी ॥२॥ बन्धं करोति, भागानामल्पत्वसद्भावात। उस्कटयोगी-3. गुणभेणय एकादश भवन्तीति संबन्धः । कुत्र कुत्रेत्याह- स्कटवीर्यवान् सर्वोत्कृष्टयोगव्यापारे वर्तमान इत्यर्थः । 'चा' 'सम्मदरसम्बधिरह'इत्यादि.तत्र (सम्मं ति) सम्यक्त्वं समुच्चये, स च भिन्नक्रमे पर्याप्तधेनि योषयने । संवा मनो. सम्यग्दर्शनं तमामे एका गुणश्रेणिः। तथा विरतिशम्दस्य विकल्पनलाब्धा सा विद्यते यस्यासौ संही. पर्याप्त समाप्तप. मेत्य सम्बन्धादरविरतिस्तल्लाभे द्वितीया गुणधेणिः । स- याप्तिकः, करोति-विदधाति प्रदेशानामुत्कर्ष उत्कृष्टत्वं प्रदेपिरतिः संपूर्णविरतिस्तल्लाभे तृतीया गुणश्रेणिः ।। शोत्कर्षस्तमुत्कृष्टप्रदेशमिति यावत् । हसंबीति विशेष्यं, (अणविसंजोय त्ति ) अनन्तानुबन्धिविसंयोजनायां च- शेषाणि तु विशेषणानि । अत्र व यो मनःपूर्षिकां क्रियां दुधी गुणमेणिः 1 (सखबगे ति) पदैकदेशे पक्षप्रयो- विदधाति तस्य सर्वजीधेभ्य उत्कृष्टा चेष्टा भवति, तयव गदर्शनादर्शनस्य-दर्शनमोहनीयस्य क्षपको-दर्शनक्षपक- चोत्कृष्टप्रदेशबन्धो भवतीति सनिग्रहणम्। संश्यपि जघन्य. सत्र तषिया पञ्चमी गुणश्रेणिः । चशब्दः समुच्चये। योग्युत्कृपयोगी च भवत्यतो जघन्ययोगिम्युदासार्थमुस्क(मोहसम सि) मोहस्य-मोहनीयम्य शमः शमक उपश योगिग्रहणं तस्यैवोत्कृष्टप्रदेशबन्धात् । संपप्यपर्याप्तको मका, सोपशमण्यारुढोऽनितिबादरः सचमसंपराय नोकृष्टमदेशबन्धं विदधातुमल्पवीर्यस्वात् तस्येति पर्याप्तभाभिधीयते, तत्र मोहशमे षही गुणश्रेणिः ।। संत त्ति) प्रहणम् । एवंविधस्यापि बहुतरप्रकृतियन्धकस्य भाग. बात उपशाम्तमोगुणस्थानकवी तत्र सप्तभी गुणधे- बाहुल्यात् स्तोकप्रदेशबन्धो लभ्यते इत्यानरप्रकृतिबा णिः(साबगि सि) क्षपका क्षपक श्रेण्या रूढोऽनिवृत्ति- न्धीत्युक्तम् । तस्मादेवंविधविशेषणविशिश जन्तुरुत्कृष्ट प्रदेश बाबरः सूचनसंपरायश्च निगयते , तत्रपकेऽष्टमी गुणश्रे- बन्धं विधत्ते इति। तर्हि जघन्यं प्रदेशबन्धं कथं करोतीत्या. णिः। (वीण सि) क्षीणस्य-क्षीणमोहस्य नवमी गुणश्रेणिः। -(जहन्नयं तस्स बच्चासे ति ) जघन्य एव जघन्यक: (लागि सि) सयोगिकेवलिनो दशमी गुणधेणिः (इतर "यावाऽदिभ्यः" ॥ ७।३।१५॥ आकृतिगणोऽयम् । इति सि) अयोगिकेवलिन एकादशी गणश्रेणिरिति गाथाऽक्षरा स्थायें कः प्रत्ययः । तं जघन्यकं प्रदेशबन्धम् इति प्रक्रमः । ।। भावार्थः पुनरयम्-सम्यक्त्वलाभकाले मन्दविशुद्धिका तस्य पूर्वप्रदर्शितस्य विशेषस्य विशेषणकलापकस्य च त्पाजीबो दीर्घान्तर्मुहुर्तवेद्यामल्पतरप्रदेशाग्रं च गुणश्रेणि- व्यत्यासे विपर्यये सति जन्तुः करोतीति योगः। अयमर्थःमारवयनि तितो देशविरतिलाभे संख्येयगुणहीनाम्तमुहर्सवे. बहुतरप्रकृतिबन्धको मन्द योगोऽपर्याप्तकोऽसंझी जीवो जघपामसंक्वेयगुणप्रदेशानां च तां करोति । ततोऽप्यनम्नानुष. म्यप्रदेशबन्धं विदधातीति ॥अभिहितः सामान्योस्कधिषिसंयोजतायां साधेयगुणाहीलाकात द्यामसड्खये एजघन्यप्रदेशबन्धस्वामी । यगुणप्रदेशानां च तां विदधाति । ततो दर्शनमोहनीयक्षपका सम्प्रति मूलप्रकृतीरुत्तरप्रकृतीन प्रतीत्योत्कृष्टसस्नपेयगुणहीनान्तर्मुहुर्तवेद्यामसखधेयगुणप्रदेशाप्रां च प्रदेश बन्धस्वामिनं निरूपयमाहतां निर्मापयति। ततोऽपि मोहशमकः सङ्खपेयगुणहीना मिच्छ अजयचउ भाऊ,वितिगुणविणु मोहि सत्त मिच्छाइ। समारपेचाममखयेयगुणप्रदेशानां च तां विरचयति । छएवं सतरस सुहमो, अजया देसा वितिकसाए ॥६॥ ततोऽप्युपशाम्नमंहगुणस्थानकवी सवयेयगुणहीना-- (आउ ति ) आयुष उत्कृष्टप्रदेशबन्धस्वामिनः पक्ष। तमुहर्सचामक्येयगुणप्रदेशाप्रां च तां बिरचपति । ततोऽपि पकः सङ्क्येयगुणहीनाम्तमहर्नयद्यामसहयये- तद्यथा-(मिच्छ त्ति ) मिथ्यारष्टिः, (अजयचउत्ति ) भयपगुणप्रदेशाप्रां च तां विरचयति । ततोऽपि क्षीण मोहः तेनाविरतसम्यग्दृष्टिनोपलक्षिताश्चत्वारोऽविरतसम्यग्राष्टिदे. संख्येयगुणहीनाम्सासेवेद्यामसंख्येपगृणप्रदेशानां च तां शबिरतप्रमत्ताप्रमत्तलक्षणापौष जनाः" अप्पसरपयडि तितोsपि सयोगिकवली भगवान् संख्येयगुणहीना- धी" इत्यादिभणितगाथासंभवद्विशेषणविशिरा मायुष ड. Page #1194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध बंध अन्निधानराजेन्डः। कप्रदेशबन्धमुपकरूपयन्ति । सम्यग्मिध्यारहिरपूर्वकरणा | तुष्यसातवेदनीययश-कीर्षुबैर्गोत्रान्तरायपञ्चलक्षणानामुअवयवाऽऽयुनेपनम्तीसिह गृहीतासास्वादनस्ताय । सरप्रकवीनां सरमसंपराय उत्कश्योगे वर्तमान उत्करप्र. नास्येव स फिमिति न गृहीतः१,रति दुख्यत-तमीस्कृ. देशबम्धं विदधाति.मोहाऽयुषी असान बनातीस्या तडा. प्रदेशभिवन्धोकप्रयोगाभावात् । तथाहि-मनम्नानुब गोऽधिको लभ्यते ।। अपरं च-दर्शनावरणभागो मामनिधनामुत्कर्षाऽनुकरच प्रदेशबन्धी मिथ्यारष्टौ सायभुव ए भागध सर्वोऽपीर यथासक्यं दशर्नाऽऽवरणचतुकस्व च भणियते , यदि तु सास्वादने ऽप्युकटयोमो सभ्यते यशाकीर्तकस्था भवतीति समसंपरायस्पैव प्राणम् । सदाऽसावप्यनम्तानुबन्धिनो बनास्येव, अतो यथाs. (अजया देसा बितिकसाए ति)प्रयता अविरतसम्यग्रह विरतादिष्वप्रल्पापानावरणाऽदिप्रकृतीनामुकृपा यः सप्तविधबन्धका उत्कएयोग वर्तमामा द्वितीयकषायान देशबन्धसदावतोऽनुस्कृष्टः । प्रदेशबन्धः साचाऽऽदि प्रत्याख्यानावरणानुत्कृष्टप्रदेशबन्धान् विदधति, मिथ्या. चतुर्विकल्पोऽप्यभिधास्यते तथैवानन्नानुबन्धिना मि- स्वमनन्तानुबधिनते न बचन्त्यतस्तद्भागद्रव्यमधिकं. ध्यास्वभागलाभात् सास्वादने उत्कृष्टप्रदेशबन्धसङ्का- भ्यत इत्यमीषामेव प्रहणम् । तथा देशा-देशविरताः सप्त. |वतोऽनुस्कृष्टः प्रदेशबम्धः साचाऽविचतुर्विकल्पोऽपि विधवम्वका उत्कृष्टयोगे वर्तमानास्तृतीय कपाया प्रत्या. स्यात् , न चैवं निर्दिश्यते, तस्माजकायतेऽस्पकालभा. क्यानाऽऽवरणाऽऽक्यानुस्कृष्टप्रदेशवधान् कुर्वते, प्रत्याक्यावित्वेन तथाविधप्रयत्नाभावादन्यतो बा कुतश्चित्कार- नाऽऽबरणानामप्यमी प्रवन्धका अतस्तद्भागोऽधिको सभ्यशात्सास्वादनस्योत्कृष्टयोगो नास्ति । किच-अनन्तरमेवोत्तर त इति कस्वा ॥१०॥ प्रकृतिस्वामित्वे मतिज्ञानाबरणाऽऽदिप्रकृतीनां प्रत्येकं सू. पण अनियही सुखगह, नराउसुरसुभगतिग विउविदुगं । बमसंपरायाऽदिषत्कृएं प्रदेशबन्धमभिधाय भाणितशेषप्रकतीनां मिथ्यारष्टिमेवोत्कृष्टप्रदेशबन्धस्वामिनं निर्देष्यति न समचउरंसमसायं, वरं मिच्छो व सम्मो वा ।। ६१ ॥ सास्वादन, यदयति-"सेसा उक्कोसपएसगा मिच्छो ।" (पण त्ति) पञ्च प्रकृतीः पुरुषवेदसंज्वलनचतुष्टयलक्षणा, बृहच्छत के ऽप्युक्तम्-“सेसपपसुक्कडं (कोसं ) मिच्छो त्ति।" अनिवृन्तिबादरः सर्वोत्कृष्योगे वर्तमान उत्कृष्टप्रदेशबन्धः भतोऽपि ज्ञायते 'नास्ति सास्वादनस्थोत्कृष्टयोगसंभवः।' करोति । तत्र पुरुषवेदस्य पुंवेदसंज्वलनचतुष्टयामकं पञ्च भतो ये साम्वादनमप्यायुष उत्कृष्टप्रदेशस्वामिनमिच्छन्ति विधं बननसावुत्कृष्ट प्रदेशबन्धं करोति, हास्यरतिभयसम्मानमुपेक्षणीयमिति स्थितम्। ( वितिगुणधिणु मोहि स जुगुप्साभागो लभ्यत इत्यस्यैव प्रहणम् । मज्वलनकोधस्य तमिच्छा इति) मोहनीयस्थोत्रप्रदेशबन्धस्वामित्वे द्विती निवृत्नियादरः पुंवेदबाधे व्यवच्छिने संज्वलक्रोधादिच. यतृतीयगुणी बिना सास्वादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिध्यारष्टि तुण्यं बन्धन कश्योगे वर्तमान उस्कएं प्रदेशवन्धं विदधागुणस्थानके च बर्जयित्वा शेषाणि मिथ्यारयादीनि अ- | ति, मिथ्यात्वाऽऽद्यकवायद्वादशकभागः सर्वनोपायभागनिवृत्तिबादरान्तानि सप्त गुणस्थानकान्यधिक्रियन्ते । इदमत्र स्व लभ्यत इति कृत्वा । संज्वलनमानस्य स एव क्रोधवन्धे खयम्-भिध्यादृष्ट्यविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणा व्यवच्छिन संज्वलनमानाऽदित्रयं बनम्नुस्कृष्टप्रदेशबन्ध निवृत्तिवादग्गुणस्थानकवर्तिनः सप्त जना उत्कृष्टयोगे ब मानस्य करोति क्रोधमानो लभ्यत इति कृत्वा । स एव मा. मानाः समविधवन्धका मोहस्योत्कृएं प्रदेशबन्धं कुर्वन्ति। नवन्धे व्यवस्छिने मायालोभी बघ्नन् मायाया उत्कर्ष प्र. अम्ये तु-सास्वादनमिश्रावपि संगृह्य" मोहस्स नब उठा देशबन्धं करोति मानभागोऽपि लभ्यत इति कथा । स पाणि ति" पठन्ति, तशन युक्रियत, यतः सास्वादन एवं मायावन्धे व्यवच्छिचे खोभमेकं बघ्नस्तस्यैवोत्कर्ष प्र. स्थोस्कृष्योगो न लभ्यते इत्युक्तमेष, मिधेऽप्यत्कृष्टयोगो देशबन्धं करोति एक ही समयो, एतच विशेषणं प्रागपि न लभ्यते । तथाहि-द्वितीयकषायाणामुत्कृष्टप्रदेशबन्धस्वा. द्रष्टव्यं समस्तमोहनीयभागस्तत्र सभ्यत इति लोभवन्धक मिनमविरतमेव निर्देश्यति "मजया देसा वितिकसाए" स्यैव प्रहणमिति। तथा मुखगतिःप्रशस्तविहयोगतिः,नरायुः, इति वचनात् । यदि तु मिश्रे अप्युत्कृष्टयोगो लभ्यते तदा त्रिशब्दस्य प्रत्येक संबन्धात् सुरत्रिक सुरगतिपुरानुपूर्वीसु. सोऽपि तत्स्वामितया निर्दिश्पेत, न च बलध्य मिधावल्प राऽऽयुर्लक्षणं.सुभगत्रिकं सुभगसुस्वराऽऽदेयस्वरूपम बैकितरप्रकृतिबन्धकोऽविरत इत्ययमेव गृहीतो , यतोऽबिरतो यद्विकम्-वैक्रियशरीरक्रियाओपागलक्षणं, समचतुरस्रसं. ऽपि मूलप्रकृतीनां सप्तविधवन्धकस्तत्र गृहीष्यते , मि स्थानम्, मसातवेदनीयम् (वारं ति) बजऋषभनाराबसंह भोऽपि सप्तविधबन्धक एव, उत्तरप्रकृतीरपि मोहनीयस्य | ननम् इत्येतात्रयोदश प्रकृतीमिपारष्टिः सम्यम्हरियो उत्कसप्तदशाविरतो बध्नाति , मिश्रेऽप्येतावतीरेब, तस्मात्क. प्रष्टदेशाः करोति । तथाहि-प्रसातं यथा मिथ्यारहिः सप्तप्रयोगभाव विहाय नापरं तत्परित्यागे कारणं सभीक्षामहे विधबन्धको बनाति, तथा सम्पष्टिरपि सप्तविधवन्धक इति । मिधेऽप्युत्कृष्टयोगाभावात्सप्तैव मोहोत्कृष्टप्रदेशबन्ध पवैतधनास्यतः प्रकृतिलाघवाऽऽदिविशेषाभावाइस्कृश्योगे का इति स्थितम्। 'छराई सत्तरस सुहुमुत्ति।' मूलप्रकृतीनां वर्तमानौ द्वावण्यसातमुस्कृष्टपदेशबन्धं कुरुतः देवमनुष्याss पक्षां ज्ञानाबरणवर्शनाबरण वेदनीयनामगोत्रान्तराया। युधोरप्यष्टावधबन्धकावुत्कृष्टयोगे वर्तमानी वावयविशेष. लक्षणानाम् । सूचकत्यात्सूत्रस्य सूचमसंपराय उत्कृष्टयोगे व णात्कष्टप्रदेशबन्धं कुरुतः । देवगतिदेवानुपूर्वी वैक्रियशरीर. समान उत्कृष्टप्रदेशबन्धं विदधाति, सूक्ष्म संपरायो हि मोहा. वैक्रियाजोपाङ्गसमचतुरनसंस्थानप्रशस्तविहायोगतिसुभगगुषी नवनात्यनस्तागोऽधिको लभ्यत इत्यस्यैव प्रहणमिः | सुस्वराऽऽदेयलक्षणा नव नामप्रकृतयो नाम्नोऽष्टाविंशतिबन्ध ति तथा सप्तस्थानांकनावरणपञ्चकदर्शनाऽऽवरणच. काले पव बन्धमागच्छन्ति, माधस्तनेषु पूर्वोक्तरूपेषु प्रयो Page #1195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७२ ) अभिधानराजेन्द्रः । बंध बैध विशतिपञ्चविंशतिषविंशतिबन्धेषु । तां चाष्टाविंश- पानी स्थानिित्रकं वनीत इति मेद ति देवगतिप्रायां सम्यगृष्टिमिष्पादृष्टि बध्नाति । गुदाती मिश्रवेतन बध्नाति केवलमुक्तनांत् तस्योतथाहि - देवगतिर्देवानुपूर्वी पञ्चेन्द्रियजातिर्वैक्रियशरीरं वै- स्कृष्टयोगो न लभ्यते इति सोऽपि नेहाधिकृतः । हास्यकिया तैजसका समचतुरस्र संस्थानं वर्ण चतु- रत्यरतिशोकभयजुगुप्सानां तु ये ये सम्यग्दृष्टोऽविरनाSSकमगुरुलघुनाम पराघातनाम उपघातनाम उच्कासनाम प्र. पूर्वकरणान्तानां मध्ये तद्यन्धकास्ते ते उपोगे वर्त शस्त विहायोगतिनाम असलाम बादरनाम पर्याप्तनाम प्र माना उत्कृष्टं प्रदेशयन्यमनिनिर्वर्तयन्ति मिध्यात्यागो स्थेकनाम स्थिराsस्थिरयेोरेकतरं शुभाशुभयेोरेकतरं सु- सम्पत इति सम्यगृष्टिमम्रनाम्नो उपरिभगनाम सुस्वरनाम आदेयनाम यशःकी यशःकीयरेक तरं निनामेति देवगतिप्रायोग्याठाविंशतिबन्धवद्दखरिता पता नव प्रकृतीनिर्वर्तयति । सप्तविधबन्धकौ यष्टिमिथ्यादृष्टी उत्कृष्टयोगे वर्तमानावविशेषेणोत्कृष्टप्रदे शावितः यदाविशतिमिष्यामि रतिदेशविरतानां देवतामा अधाविंश परमेोविदादिवन्यस्थानेष्यप्येता न प्रकृतयो बध्यन्ते, केवलं तत्र भाग बाहुल्यादुत्कृष्टः प्रदेशबन्ध न लभ्यत इस्यष्टाविंशतिसहचरितत्वेन ग्रहणम् । वज्रऋषभनाराचस्या पि सम्पर्मिया सप्तविधयग्यको नाम प बभनाराचसहिता मे कोनत्रिशतं तिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्व्यां प ओन्द्रिय जातिरौदारिकशरीरमादारिकाङ्गोपाङ्गं तेजलकार्मये वज्रऋषभनाराचसंहननं समचतुरस्र संस्थानं वर्णचतुष्कम् अगुरुलघु उपघातं पराघातम् उच्कासनाम प्रशस्त विद्यायोग तिः सनाम बाइरनाम पर्याप्तनाम प्रत्येकनाम स्थिरा स्थिरयो रेकतरं शुभाशुभयेोरेकतरं सुभगनाम सुस्रनाम प्रादेयनाम यशःकी यशः कीत्योरेकतरं निर्माणमिति लक्षणाम् मनुष्यगतिमनुष्यापूर्वी पञ्चेन्द्रियजातिरौदा रिकशरीरमारिका I पाने का समचतुरसंस्थानं वज्रऋषभनाराय संहननं वर्णचतुष्कमगुरुलघु पराघातम् उपघातनाम उल्लासनाम प्रशस्त विहायोगतिः त्रसनाम बादरनाम पर्याप्तनाम प्रत्ये• नाम विचरा खिररिकतरं शुभाशुभमोरेकतरं सुभगनाम सुस्रनाम आदेषनाम यशः कीर्ययशः कीोरेकतरं निर्माण मिति निर्वर्तयन्तुष्टयोगे वर्तमान उत्कृष्ठ प्रदेशब करोति । एकोनत्रिंशतोऽधस्तनबन्धेष्विदं न बध्यते, त्रिंशबामदेव न लभ्यत इत्येकोनत्रिंशद्वन्धगतस्यैव ग्रहणमिति सम्यग्दशिमिष्यादयोरविरोधेन भातियोदशानामपि प्रकृतीनामुत्कृष्टः प्रदेशबन्ध इति ॥ ६१ ॥ निशपयलाइजुयल कुच्छा तित्थ सम्यगो सुई । माहारदुर्ग सेसा उको सपएसमा भो ।। ६२ ॥ मिद्रा प्रचला द्वयोर्युगलयोः समाहारो त्रियुगलं हास्यरस्य रतिशोका 55वयं भयं (कुच्छ चि) जुगुप्सा, (विरथं ति) तीर्थकरनामेत्येतत्कृतिनवर्क, सम्याति शानादिमोक्ष मार्गमिति सम्यग्गाः सम्यग्दृष्टिः उत्कृष्टयोगे वर्तमान उ चिरत सस्यगृह याद पूर्व करणान्ताः सर्वोत्कृष्टयोगे वर्त्तमानाः सप्तविधय काले एर्क हो या समधाएं प्रदेश कुर्वन्ति । पुव्यभागोऽधिको लभ्यत इति सप्तविधबन्धकग्रहणं, स्थानर्वित्रिकं सम्यग्दृष्टयो न बध्नम्यतस्तद्भाग लाभोइपि भवतीति सम्यग्रहष्टीनामेष ग्रहणम् । मि पूर्वराकृति गतिर्देवानुपूर्वी पायरी क्रं समचतुर का संस्थानमुच्छ्रासनाम पराघातनाम प्रशस्तविहायोगतिखसनाम बादरनाम पर्याप्तनाम प्रत्येकनाम स्थिरास्थिरयोः शुभाशुभ योर्यशः कीर्त्य यशः की त्यों: पृथगम्यत रं सुभगनाम सुस्वरनामा उदेयनाम वर्णचतुष्कं तेजसका ये अगुरुलघुपयातनाम निर्माणमित्येामतीकरनामसहितामेको देवगतिप्राकृती नन्नुकृष्टयोगे वर्तमान प्रदेशबन्ध करोति मि बनातीति सम्यन्दरिग्रहम् तीर्थकरनामसहिताथ प्रयोविंशत्यादिका पूर्वोक्ररूपाना उत्तरप्रकृतयो न यते तु पूर्वोक्रनीस्पा तीर्थकर नामसहितौ बध्येते, केवलं तत्र भाग बाहुल्या दुस्कृप्रदेशबन्ध न लभ्यत इति शेषपरिहारेको इतिबन्धम् तथा सुपतिः शोभनावादप्रमयतिर पूर्वकरण गृह्यते द्वयोरपि प्रमादतिन सुयतित्वात् । ततखेतौ द्वावपि देवगतिर्देषानुपूर्वी पञ्चेन्द्रि यजातिवैक्रियशरीरं वैक्रियाङ्गोपाङ्गं समचतुर संस्थानं परा घातनामोच्यनाम विहायोगतिनाम बदनाम पर्याप्तनाम प्रत्येकनाम स्थिरनाम शुभनाम सुभगनाम सुस्वरनामाऽऽदेयनाम यशः कीर्तिनाम वर्ण चतुष्कं तेजस फार्मये नानिमामाद्वारा द्वारकाङ्गोपाङ्गमित्येतदेवगतिप्रयोगतप्रकृतिक · दम्बकं वारयोगे वर्तमानावाहारकद्विकमहारकशरीराऽऽद्दारकाङ्गोपाङ्गलक्षण मुत्कृष्टप्रदेशं बध्नीतः, तीर्थकर नामवदिशि किंतु हुल्यान गृह्यते । तथा शेषा भणितचतुःपञ्चाशत्प्रकृतिभ्य उरित स्थान विकमिध्यास्थानस्ता नपुंसक वेदनारकाऽऽयुष्क तिर्यगायुष्क नरकगतिनरका ऽऽनु· पूर्वीतिर्यस्यति तिर्यगानुपूर्वी मनुष्यगति मनुष्य 155नुपूण्यकेन्द्रि यजातिद्वन्द्रियजातिबीन्द्रियजातिश्चतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रियजातिमोदारिकशरीरीदारिकाङ्गोपाङ्ग ते साधमवज्रसं जनप्रथम संस्थानची चतुका गुरु धूपघातपराधातो कासाऽऽतपोद्योताप्रशस्त विद्वायो गति त्र सस्थावराबाद रस् पर्याप्ता पर्याप्तप्रत्येक साधारण स्थिरास्थिर शुभाशुभमंग दुःखरामादेया कीर्तिनिर्माण गणिताः षट्च" प्रिकृतय उत्कृष्ट प्रदेशका उत्कृष्टप्रदेशवन्धा (मिच्छो ति) मियादृष्टिरेव करोति । तथाहि मनुष्य द्विक पश्चेन्दियजास्यौदारि कहिले जसका कारण धूपघातपराधातो सत्रसयात्रपर्याप्रत्येकखराखरकर्तन लक्षणः पञ्चविंशतिप्रकृतीस्या शेषा एकचत्वारिंसपत्र मागच्छन्ति । साचादस्तु काि · Page #1196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०३) अभिधान राजेन्द्रः । बंध ति परं तस्योत्कृष्टयोगो न लभ्यते श्रत एता एकचत्वारिंशत्मकृतीनामुत्त कृतीनां च यथासंभव मल्पतरबन्धक उत्कृष्ट प्रदेशाः करोति । या श्रपि चोक्लस्वरूपाः पञ्चविंशतिप्रकृतयः सम्यग्दृटेर्बन्धे स· मागच्छन्ति तावपि मध्ये श्रीदारिकते असा तुष्कागुरुलघुग्घ तबादरप्रत्येका स्थिराशुभायशः कीर्तिनिर्मापलक्षणानां पञ्चदश प्रकृतीनामपर्याप्तै केन्द्रिययोग्यो नाम्नस्त्रयोविंशतिप्रकृतिनिष्यस्ते जयादा धूपघात निर्माण तिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्यै केन्द्रियजात्यादारिक शरीर हुए संस्थान व स्थावर सूक्ष्मे कतरापर्या प्रत्येकाचा राम्यतरास्थिशुभ दुर्भगानादेयायशः कीर्ति तेनैव सह बध्यमानानामुप्रवेशी ते नो पञ्चविंशस्यादिन्यैः नागाल्यात्तु मनुष्यि कपञ्चेन्द्रिय जास्यौदारिकाङ्गोपाङ्गपराघतोच्ला सत्र सपर्याप्त - शुभांदकृतीनां यथासंभवं पर्याकेन्द्रियाययोग्यपञ्चविंशतिबन्नेव सह बन्यमानानामुत्कृष्टः प्र देशको लभ्यते गोरे विद्यादिवर्मागाल्पादेव नाप्यधस्तनेन त्रयोविंशतिन तासांत यशश्वि पर्याप्तमनुध्यायोग्यच करवाल स्पेश्यत एतासामपि पञ्च विशतिकृतीनां यथोक्रप्रकारेण त्रयोविंशत्या पाया च सह बध्यमानानां सप्तविधबन्धक उत्कृष्टयोगो मिथ्याप्रदेश करोतीति ॥ २॥ निति प्रकृतीनामुत्कृष्टमदेशयन्यखामित्वम् । अधुना तासामेव जघन्य प्रदेशबन्धस्वामित्वमभिधित्सुराह सुमुखी दुन्नि असन्नी, निरयतिगसुराउसुरवि उव्विदुगं । सम्मो जिथं जाणं, सुमनिषाइखखि सेसा ॥ ६३ ॥ सुमुनिः प्रमादरहितत्वेन प्रधानसाधुः श्रप्रमत्तयतिः । (दु आहारउद्दारकाय जघन्य प्रदेशे बध्नाति । श्रयमर्थः - परावर्तमानयोगो घो नयोगीत्यर्थः । अष्टविधयन्धका स्वप्रायोग्य सर्वजवी. ये व्यवस्थित नाग्नी देवगतिर्देवानुपूर्वीन्द्रजाति विशरीरं का समयतुरख संस्थानम् उच्यू नाम पराघातनाम प्रशस्त विद्यायोगतिस्त्रसनाम बादरनाम पर्याप्त नाम प्रत्येकनाम स्थिरनाम शुभनाम यशःकीर्तिनाम सुभगवा सुस्वरनामाऽऽदेयनाम वर्णचतुष्कं तैजसफार्म धूपात निर्माणं तीर्थकरनामा हारकशरीरमाहारकायामित्येवमेतिं तीन प्रमयतिराहार कशरीराऽऽहारकाङ्गोपाङ्गलक्षणे द्वे प्रकृती जघन्य प्रदेशे बध्नाति । त्रिंशद्वन्धेऽध्ये ते बध्येते परं तत्राल्पा भागा इत्येकत्रिंशद धग्रहणम् । एतश्च प्रकृतिद्वयमन्यत्र न बध्यत इत्यप्रमत्तः यतिग्रहणम् । तथाऽसंज्ञी सामान्योक्तावपि घोलमानयोगः परावर्त्तमानयोग इत्यर्थः । नरकवि नरकगतिनरकानु नरकासुराः इत्येताश्चतस्रः प्रकृतीय पदेशयन्थाः करोति तथाहि पृथिव्यप्तेजोवनस्प तिकाधिकद्विन्द्रियन्द्रियतुरिन्द्रिया देवनार पश्यभा वादेवतायतनः प्रकृतीनं यमस्तीति मेदाधिक्रियते । असंश्यप्यपर्याप्तकस्तथाविध संक्लेशविशुद्धयभावान्नैता बना २६४ बंध स्यतः सूत्रे सामान्योक्लावपि "व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः" इति न्यायात् पर्याप्तकोऽसौ द्रष्टव्यः । सोऽपि यद्येकस्मिन्नेव वाग्योगे काययोगे वा चिरमवतिष्ठमानो गृह्येत तदा तीवचेष्टो भवेत् । योगात्तु योगान्तरं पुनः संक्रामतः स्वभावादल्पचेष्टो भवतीति परावर्त्तमानयोगग्रहणम् । ततश्च परावर्त्तमानयोगोऽष्टविधं बध्नन्न पर्याप्तोऽसंशी स्वप्रायोग्यस जी वर्तमानः प्रकृतिचयस्यैकं चतुरो वा समयान् यावज्जघन्य प्रदेश बन्धं करोतीति परमार्थः । पर्यासजघन्ययोगस्योत्कृष्टतोऽपि चतुःसमयावसानस्यादुत्तरत्राप्येष कालनियमो द्रष्टव्यः । ननु पर्याप्तसंज्ञी किमिति प्रकृतप्रकृतिचतुष्टयं न बध्नातीति चेदुध्यते - प्रभूतयोगत्वा जयपोऽपि हि पर्यासयोगः पर्याा संयुकृष्टयोगाद संस्थेयगुण इति तथा सुरविविदुगं ति) ठिकशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धात्सुरद्विकं सुरमतिसुरानुपूर्वीकप वैकिडि किपशरीरक्रियाङ्गोपाङ्गलजिननामतीर्थकरनामेत्येतत्प्रकृतिपञ्चकम् (सम्मोत्ति) सम्यग्दृष्टिः " व्या ख्यान तो विशेषप्रतिपत्तिः ।" इति न्यायाद्भवाऽऽद्यसमये वर्त्त मानः ( जद्दनं ति) जघन्यं - जघन्यप्रदेशं करोति । तथा हि-कग्यिनुवस्तीर्थकरनाम बटु देवेषु समुत्यन्नःप्र थमसमय एव मनुष्यगतिप्रायोग्यां तीर्थ करनामसहितां नामप्रकृतिशितं मनुष्यगतिर्मयानुपूर्वीद्रयतिरि शरीरमदारिकाङ्गास्थानं वज्रपा राष्ट्टा प्रस्तावद्वापगतिबाद रामन पर्या प्रत्येक धिरास्थिरपोरेकतरंशुमानयोरेकतरं यशःकीरितरं सुरमादेये तीर्थकरनाम कार्म अनुरुधूपघातं निर्माणमिति लक्षणां बध्नन्मूलप्रकृति सप्तविधबन्धको ऽविरत सम्यग्दृष्टिः स्वग्यजीयें वर्तमानस्तीरामजन्यप्रदेशन्धं करोति । नारकोऽपि श्रेणिका ऽऽदिवदेवं तद्वन्धकः संभयति परम देव योगत्यादनुत्तरवासी ह्यते नारकेषु स्वयंभू जघन्ययोगो न तेषु सुमुपयो नेव गृहीतः तिर्यञ्चस्तु तीर्थकरनाम न बध्नन्तीत्युपेक्षि ताः, मनुष्यास्तु भवाऽऽद्यसमये तीर्थकरनामसहितां नाम्न एकोनविंशतमेव वध्नन्त्यतस्तत्राल्पा भागा भवन्ति । एशिवस्तुतीर्थकरनामरादितः संयतस्यैव भवति, त " • वीर्यमन सभ्यते अन्येषु तु नामबन्धेषु तीर्थकरमेयःशेषपरिहारेण जिरादे वस्यैव ग्रहणं, देवद्विकवैक्रियद्विकयोस्तु बद्धतीर्थकरनामदेवनारकेभ्ययुग्वा समुत्यश्री मूलप्रकृतिस सविधयन्धको देवगतिर्देवानुपूर्वी पञ्चेन्द्रियजातिर्वैक्रियशरीरं वैक्रियाङ्गीपानं समचतुरख संस्थानमुष्वासं पराधातं प्रशस्तवि हायोगतिखसनाम बादरनाम पर्याप्तनाम प्रत्येकनाम स्थिरास्थिस्योरेकतरं नानपोरेकतरं रा कीत्योरेकतरं सुभगनाम सुस्वरनाम प्रादेयनाम वर्णचतु एवं तेजसकार्मण गुलघातं निर्माण तीर्थकरनामेतिलक्षणां देवानामैनशितं निर्यर्तयन स्वप्रायोग्यं सर्वअघन्यवीर्ये व्यवस्थितो भवाऽऽयसमये वर्तमानो मनुष्यो जयन्देशम् करोति । देवनारका हि तावद्भवप्रत्ययादेवैतत्प्रकृतिचतुष्टयं न बध्नन्तीति नेहाधि • Page #1197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध कृताः 1 निश्चः पुनरभाग भूमिजा भवाऽऽचसमयेऽपि बन अता मोहनीयाssयुभगयोर्यथास्वमत्र प्रवेशाभिद्रापश्च भा देवगतिप्रायोग्यामाविशठिनेव पूर्वपियन्ति नदीत्यात् निरश्यां तु स्यापि चाच प्रवेशाद्रस्याम सभ्यत इति रायग्रहणम् । उत्कृष्टध प्रदेशबन्ध उक्तनात्या उत्कृष्टेनेव योगेन भवतीत्युत्कृष्टयोगग्रहणम् । उत्कृष्टयोगावस्थागकाल तावानेव भवतीत्येकडिलमपग्रहणम् अतस्तेषु भागा अल्प लपन्ते इति तेऽपीह माधिक्रियते । मनुष्यस्याप्यषाविंशतिबन्धकस्य भागा बहवो न लभ्यन्ते. शिशुदेशिन्तु देवगतिप्रायोग्य संपवस्व भवतः तत्र च वीर्यमयं न लभ्यते । अन्ये तु देवगतिप्रायोग्यबम्याद नसतान्धकस्य मनुष्य स्व चम्म पर्याप्ताही देव कृतिचतुष्टयं बध्नाति स कस्मादिह नाङ्गीकृतः १ । उच्यतेप्रभूतयोगात्पर्यातयोगादि पर्याप्तडियो धन्योऽप्यसंवगुण इति । ( सुडुमनिगोयाइखाणि सेल मनिगोदजी पाये शवन्धं कृत्वोपशाम्त मोहावस्थां चाऽऽरुह्य पुनः प्रतिपस्योत्क योगाद्वाऽत्रैव प्रतिपस्य यदाऽनुत्कृष्टप्रदेशबन्धं करोति त हामी सादिः एतच्च स्थानमातपूर्ण कामनादिः सनि रन्तरं बध्यमानस्यात्, भुषोऽभव्यानाम् अध्रुवो भध्याना मिति । निद्राप्रचलाद्विकस्य त्वरित सम्यग्रष्टादयोऽपूर्वकरणात सर्वोत्कृष्टयः सप्तविधाए - या समावेश विश्चति आग्यभागी ऽधिको लभ्यत इति सप्तविधबन्धकग्रहणम् । स्यानर्जित्रिकं सम्यग्दृष्टयो न वस्नन्तीत्यतस्तद्भागलाभोऽपि भवतीति सम्यग्दृष्टीनामेव ग्रहणम् । मिथ्यादृष्टिसास्वादनौ स्यानर्द्धित्रिकं बध्नीत इति नेह गृहीतौ । मिश्रस्त्वेतन बना ति केवलमुनीत्या तस्ययोगो न लभ्यत इति सोउपि नेहाधिकृतः । ते चाषितसम्यग्रहयष्ट योगाद्वन्यव्यवच्छेदावा प्रतिस्प्रदेश " पयति तदाऽसौ सादिः सम्यक्त्वसहितं बोपोगम प्राप्त पूर्वावामनादिः स्यानामिति । तथा भयजुगुप्सयोः सम्यग्दृष्टिरविरताऽऽदिर पूर्व करणान्त उत्कृष्टयोगे वर्त्तमान उत्कृष्टं प्रदेशबन्धं करोति मिध्यात्वभागो लभ्यत इति सम्यग्दृष्टिग्रहणम् । कषायभागः पुनः सजातित्वात्कप्रायाणामेव भवति, नैतयोः । मिध्यादृष्टिस्तु मिथ्यात्वं बध्नातीति मिथ्यात्व भागो न लभ्यत इति त ग्रहणम् सास्वादनयोस्तु सम्यते मिध्यायमा गः केवलमुक्तनीत्या तयोरुत्कृष्टयोगो न लभ्यत इति नावपि नेहाधिकृतौ । अपूर्वकरणोपरिवर्तिनस्तु भयजुगुप्ले न पूर्व करावशेष ते ( ११७४ ) अभिधानराजेन्द्रः । ति) शेषा भविनेादकृतिशिष्ट नवतरशतसंख्या महतीक्षित्यसला " यही प्रकृतीन् जघन्य प्रदेशयस्याः करोति सर्वांसामध्यत्र बन्धसङ्गावात सर्व जघन्यवीर्यस्य चात्रैव संभवा दिति ॥ १३ ॥ निरूपितं जघन्य प्रदेशवन्धस्वामित्वम् । अधुना प्रदेशयत्यमेव साचादिनिपपा दंग भयकुच्छा वितितरिय कसायग्यिनाथाय मूलगेणुकासो, चउह दुहा सेसिमव्वत्थ ॥ ६४ ॥ दर्शनषद्धं चतुर्दर्शनाचतुर्दर्शनाबधिदर्शन केवलदर्शनाव रनिद्राप्रायं भयं जुगुप्सा वितरसाय मि ) कषायशब्दस्य प्रत्येकं योगात् द्वितीय कषाया अप्रत्या क्यानाssवरणास्तृतीयकषायाः प्रत्याख्यानाऽऽचरणाः, तुर्या चतुर्थाः कषायाः संज्वलन कथायाः, विनानि पञ्च दानलाभभोगापोतरायाऽऽक्यानि मानिन " मतिज्ञानावरणतज्ञानाऽऽबरणावधिज्ञानाssवरण मनःप [पाना][3] चलान 133वरण सक्ष सामुत्तरप्रकृतिषु मध्ये त्रिंशतः प्रकृतीनाम् । तथा (मूलगेति) मूलप्रकृतिष ज्ञानावरणदर्शनाऽऽवरण वेदनीय नामगोत्रा. रानुए प्रदेश साधनादिरूपचतुर्विकल्पो ऽपि भवता वचत्र सर्वबयः कर्मस्कन्धा गृहान्ते स उत्कृष्टः प्रदेशबन्धः, ततः स्कन्धहानिमाश्रित्य यावत्सर्वस्तोककर्म स्कन्धग्रहणं तावत्सर्वोऽप्यनुत्कृष्ट इत्युत्कृष्टानुत्कृष्टप्रकारद्वयेन सर्वोऽपि प्रदेशबन्ध संगृहीतः। यंत्र सर्वस्तीकर्म स अन्ततः . स्कन्धग्रहणं तावत्सर्वोऽप्यजघन्य इति जघन्याजधन्यप्रकार. येन सर्वोऽपि प्रवेशबन्धः संगृहीत इत्यनया परिभाषया दर्श[[मावरच 53दीनामुतप्रकृतीनामनुसा missदितुर्विकल्पो भवतीति । तथाहि खुर्दर्शनावरणा सुदर्शनावरणावधिदर्शनावरणकेवलदर्शनावरल प्रकृतितुविषय परोपकस्य वा सूक्ष्मसंप रायस्य सर्वोत्कृष्टयोगे वर्त्तमानस्यैकं द्वौ वा समयौ यावदुस्कुष्टः प्रदेशबन्धः प्राप्यते । सूक्ष्मसंधरायो हि मोहमीयाssयुःकर्मद्वयं सर्वथा न बध्नाति दर्शनावरणस्थाव्यतदेव प्रकतप्रकृतिचतुष्टयं बध्नाति न शेषप्रकृतीः, · ष्ट्याइयो योत्कृष्टयोगान्धव्यवच्छेदाद्वा प्रतिपस्याऽनुत्कृष्टं प्रदेश बन्धमुपकल्पयन्ति तदा असौ सादिः, तस्स्थानमप्रापूषामनादियानाम् प्रभुषो मध्यानामिति । तथाप्रत्याख्यानाssवरणचतुष्टयस्योत्कृष्टयोगोऽविरतसभ्य - ग्रष्टि सप्तविधबन्धक उत्कृष्टं प्रदेशबन्धं करोति, मिध्यात्वम नन्तानुबन्धिनश्चासौ न बध्नात्यतस्तद्भागद्रव्यमधिकं लभ्यत इत्यस्यैव हणम् । मिथ्यादृष्टिर्मिध्यात्वमनन्तानुबन्धिनश्च सास्वादनयनानुषीति वि अस्तु मिध्यात्वमनानुन बनाती स्या तस्योत्कृष्टयोगो न लभ्यते, देशविरताऽऽदयस्त्वप्रत्याख्यामाउपरया बनतीति नारित सम्यरेषा चिनः। एष वादिसम्बन् गाडा प्रतिपय पुनरनुप्रदेशात सदाऽसौ सा दिस्थानमा पूर्वादिनाम ब्यानामिति । तथा प्रत्याख्यानाऽऽवरणचतुष्टयस्योत्कृष्टयोगो देशविरतः सप्तविधबन्धक उत्कृष्टप्रदेशबन्धं करोति । अप्र स्याख्यानाssवरणानामध्य सावबन्धको अतस्तद्भागोऽधिको ल भ्यत इति । एष व देशविरतो यदा बन्धव्यवच्छेदादु रकृष्टयोगाद्वा प्रतिपस्य पुनरनुरकष्टप्रदेश बन्धं करोति तदा Page #1198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९७४) अभिधानराजेन्द्रः बंध उसी सादि तत्स्थानमा पूर्वमनादिः भुवयानाम अयोध्यानमिति पनि दर वेबन्धे संज्वलनको धाऽऽदितुष्टयं वचनमनुत्कृष्टयोगे स्थित उत्कृष्टं प्रदेशबन्धं करोति । मियाराssचकषाय द्वादशकभागः सर्वमोकषाय भागच लभ्यत इति कृत्वा । संचलनमानस्य स एव कांधबन्धे व्यवसिंस्थलनमामाऽऽद्दिजयं करोति लभ्यत इति कृत्वा स एव मानबन्धे व्यवाच्छुने मायालो भी बनायाया उत्कृष्टप्रदेशं करोनि मान भागोऽपि स*यत इति कृत्वा स एव मायाबन्धे व्यकि लोभमे के बस्तस्यैकदेशं करोति सौ एतच विशेषणं प्रायपि इयं समस्त महीभाग लभ्यत इति लोभवन्धकस्यैष प्रहणम् । एष चानिवृति बादी यथा बन्धम्या प्रतिपय पुनर नुत्कृष्टप्रदेशबन्धं करोति तदाऽसौ सादिः, तत्स्थानमप्रापूर्वादिनाम् अ ध्यानामिति । तथाानाञ्चकारापकविष कस्य वा सुक्ष्म संपरायस्य सर्वोत्कृष्टयोगे वर्त्तमानस्यैकं द्वौ या समयौ यावदुत्कृष्टः प्रदेशनम्धः प्राप्यते । सूक्ष्मसंपरायो हि मोहनीयाऽऽयुः कर्मद्वयं न बध्नाति एतयोर्भागयोर यत्र होनाssवरणपञ्चके उत्तरायपञ्चके च यथास्वं प्रवेशा बहुभ्यमिह लभ्यत इति सूक्ष्मसंपरायग्रहणम् । इह बो पोपशान्तमोहावस्थां चारुह्य पुनः प्रति पश्योर प्रयोगाद्वाऽजैष प्रतिपश्य यदा पुनरनुत्कष्टप्रदेशब करोति दासी सादि एतच स्थानमम. पूर्वाद्या मनादिः सदा निरन्तरं बध्यमानत्वात् भुवोऽभव्यानाम् अभयानामिति । उत्तरप्रकृतीनामनुस्कृष्टः प्रदेशबन्धः साधाऽऽदिचतुर्विकल्पो ऽपि भावितः । शे , त्रयस्व का वास्याह - ( दुहा सेसि सम्वस्थ ति । शे ये भणितोद्धति उत्कृष्टजघन्थाऽजघन्य प्रदशेबन्धलक्षणे स न विविधेऽपि द्विधा द्विविकल्पः साचवलक्षण व म्यो भवतीत्यर्थः । तातुनको पिप्रकृतीनां सूक्ष्म परायादिषु दर्शितः स च तत्प्रथमतया यमानात्सादि सर्वच बन्धाभावे ऽनुबन्धसंभ बे वाऽवश्यं न भवतीत्यभुवः । जघन्यः पुनरेतासां त्रिशत्प्र तीनां प्रदेशबन्ध पर्याप्तस्य सर्वमन्दवीर्यलब्धिकस्य सप्तविधबन्धकस्य सुषमनिगोद्स्य भवाऽऽद्यसमये लभ्यते । जघन्य प्रदे वो हि धन्ययोमेन भवतीत्युक्रम्स बास्यैव वचोविशे शलभ्यते मनसाय गुणवृद्धेन वीर्येण वर्धत इति भवाऽचलमयग्रहणम् । द्वितीयाप्रियेष्वयमप्य अक्षम्य बच्चाति, पुनःसंक्यानाक्यान या कालेन पूर्वोक्तजघन्य योगं प्राप्य स एव जघन्यं प्रदेशबन्ध क रोति पुनरज म्यमित्येवं अन्य प्रदेश सं सरतामसुमतांद्वाती साथी भवतः इति भाषितसिरात उत्तरप्रकृतीनामनुप्रदेशबन्यो उत्कृष्ट जघन्य जघन्य प्रदेश बन्धश्च द्विधा । शेषे का वास्याह-"दुडा से सम्बन्ध "ि परं भूयोऽप्यनुवत्येतेषेण पिस्त्यानमित्याना चांदिचतुष्क तेजस कामेच गुरुखपातनिर्मा " बंध भुकृतिक औहारिकपेडियाऽऽहाशरीराङ्गोपाङ्गयसंस्थ पहना तिचतुष्काियोगसिद्विकानुपूर्वी लष्कतीर्थकरनामो का सनामोचननामाऽऽतपनाम पराघाननाम सदशकस्थानरोगोपसातासात वेदनीयाव्यस्त M - कामितिसंक्ाकृति समूहे सर्वानु ऽपि प्रदेश बन्धे द्विधा द्वप्रकारः सादिरया बन्धा भवति । तथाहि धनीनामधित्यानु घन्य जघन्यस्तत्प्रदेशबन्धः सर्वोऽपि साचध्रुव एव भवतिमि वर्तमानाधिकादेशबम् मे है। वा समयौ यावत् करोति, सभ्यगृष्टिरेताः प्रकृतीमें बनातीति मिष्यामहम् । मिया एता प्रकृतीः सास्वादनोऽपि बध्नाति परं भणितप्रकारण सास्वादनस्योत्कृष्टयोगो न लभ्यत इति तस्याग्रहणम् । उ. कृष्टयोगस्यैतावानेव काल प्रत्येकद्विसमय नियमः । उत्कृयोगात् प्रतिपस्य स एवानुप्रवेशयन् करोति पुमोकृष्टमिसा " शव पुनरेतासां सर्वाव मानः सप्तविधं वनपर्यासननियोगः करोति । द्वितीयादिसमयेषु च स एवायं करोति । कालान्तरे पुनः स एव जप करोतीत्येतावपि साम यतः तथा चतुष्कतेजन फार्म वागुरुलघुननिर्मा लक्षणस्य प्रकृतिनय कस्याप्युत्कृष्टानुकष्टी ज प्रदेश साधनायेवमेव यम्यौ नवरमुत्कृष्टयोगी मूलप्रकृति सप्तविधयको नागापूर्वी केन्द्रियजातिदादिशरीरं एडसंस्थानं स्बाद रयोरम्यतरत् प्रत्येकाचारयोरन्यतर अ स्थिरनाम अशुभनाम दुर्भावनाम अनादेषनाम कीर्ति अपघातं निर्माणमित्येवं त्रयो विद्यतिमुरकृतीमध्यप्रदेशको या यः शेषं तथैव । नाइनो हि पञ्चविंशत्यादिवन्धग्रहणे बहवो भागा भवन्तीति त्रयोविंशतिबन्धग्रहणम् । इति भाषिता उत्तरप्रकृतीराश्रित्योत्कृष्ट नुत्कृष्ट जघन्याजघन्य प्रदेश बन्धेषु, खाद्याऽऽदिविकल्पाः सम्प्रति मूलप्रकृतीः प्रतीत्यदेशबन्धादिमङ्गेषु खाद्याऽऽदिन कानमिचित्राह (मूउहसि मूल प्रकृतिपा ssवरणदर्शनाssवरण वेदनीय नामगोत्रान्तरायला अनुक प्रदेशसाऽऽद्यनादिमुवाच तुका भवति तहि प्रस्तुत कर्मचचिषयः क्षपकस्पोपशुमक स्य वा सूक्ष्मसंपरायस्य सर्वोत्कृष्टयोगे वर्तमानस्यैकं द्वौ वा समयौ यावदुत्कृष्टः प्रदेशबन्धः प्राप्यते । सूक्ष्मसंपरायो हि मोहनीयाऽऽयु कर्मद्वयं न बध्नाति किं . तदेव प्रस्तुत कर्म बनायो मोहनीयाऽऽयुर्भागयोरमेष कर्मद्वे प्रवेशो, बहुद्रव्यमिह लभ्यत इति सूक्ष्म संपरायमहम्द प्रदेशबन्ध त्यो गेव भवतीत्युपगम्योगावस्थानकाल यायावयेद्विसमग्रहणम् । एवं प्रदेश Page #1199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध बंध अभिधानराजेन्ः। बन्धं कृत्वोपशान्तमोहावस्थांचाऽऽरुह्य पुनः प्रतिपस्य उत्कृ. श्रेणरसंख्येयांशः । एतदुक्तं भवति-श्रेण दयमाणरूपाया प्रयोगाद्वाऽत्रैव प्रतिपत्त्य यदा पुनरनुस्कृष्टप्रदेशबन्धं करोति असंख्येयभागे यावन्त आकाशप्रदेशा भवन्ति तावन्ति योग. तदाऽस। सादिः, एतच्च स्थानमप्राप्तपूर्वाणामनादिः सदा स्थानानि । एतानि चोत्तरपदापेक्षया सर्वस्तोकानीति शेषः । निरन्तरं वध्यमानत्वात् , ध्रुवोऽभव्यानाम्, अध्धो भव्या तत्र यथैतानि योगस्थानानि भवन्ति तथोच्यते-ह किल नाम्, इत्युक्तः पयां मूलप्रकृतीनामनुत्कृष्टप्रदेशबन्धश्चतुर्विका सूचमनिगोदस्यापि सर्वजघन्यवीर्यलब्धियुक्तस्य प्रदेशाः के. पशेषबन्धषिके साद्याऽदिभड़कानाह-(दुहा सेसि सब्ध. चिरल्पवीर्ययुक्ताः केचित्तु बहुबहुतरबहुतमबीयोंपिताः । तत्र स्थ त्ति ) शेष-भणितोद्धरिते जघन्याजघन्योत्कृष्टप्रदेशबन्ध सर्थजघन्यवीर्ययुक्तस्यापि प्रदेशस्य संबन्धि चीये केबलिप्रक्षा. लक्षणे त्रिक द्विधा-साऽऽद्यधुवल ज्ञणो द्विप्रकारो बन्धो भव. छदेन छिद्यमानमसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणान् भागान् ति । तत्रानुत्कृष्टभणनप्रसङ्गेनोत्कृष्टः सूचमसंपरायेऽनन्तरं द- प्रयच्छति, तम्यैवोत्कृष्टवीर्ययुक्त प्रवेश यद्वीर्य तदेतेभ्योऽसं. शिंतःस च तत्प्रथमतया बध्यमानस्वारसादिः, उपशान्ता55. ख्येयगुणान् भागान् प्रयच्छति । उक्तं चयवस्थायां पुनरनुत्कृष्टबन्धगमने चावश्यं न भवतीत्य भुवः, " पन्नाए छिज्जता, असंखलोगाण जलिय पपसा। जघन्यः पुनरमीषां परमां कर्मणां प्रदेशबन्धोऽपर्याप्तस्य सर्वमा तत्तिय पीरियभागा, जीव पएसम्मि इकिकं ॥१॥ दबीयत ब्धिकस्य सप्तविधयन्धस्थ सूधमनिगौदस्यभवाध. सबजहनगचिरिए, जीवपपसम्मि तत्तिया संस्खा। समये लम्पते । जघन्यप्रदेशबन्धी हि जघन्ययोगेन भवतीत्यु तत्तो असंखगुणिया, बहुविरिए जियपएसम्मि ॥२॥" क्लम्स चास्यैव यथोक्नविशेषणविशिष्टस्य लभ्यते, द्वितीया. भागा-अविभागपलिच्छा इति चानान्तरम । ततः सर्वऽऽदिसमयेषु वसावसंख्येयगुणवृद्धेन वीर्येण वर्द्धत इति भवा. स्तोकाविभागपलिच्छेदकलितानां लोकाऽसंख्येयभागवर्यउद्यासमयग्रहणम्। द्वितीयाऽदिसमयेध्ययमप्यजघन्यं बना. संख्येयप्रतरप्रदेशगशिसंख्यानां जीवप्रदेशानां समानवीर्यपति, पुनः संख्यातेनाऽसंख्यातेन वा कालेन पूर्वोक्तजघन्ययोग लिच्छेदतया जघन्यैका वर्गणा, तत एकेन योगपलिच्छदेना. प्राप्य स एव जघन्यदेशबन्धं करोति, पुनरजघन्यमित्येवं धिकानां तावतामेच जीवप्रदेशानां द्वितीया वर्गणा, एवमेकै. जघन्याजघन्ययोः प्रदेशबन्धयोः संसरतामसुमतां द्वावप्ये कयोगपलिच्छदवृद्धया वर्धमानानां जीवप्रदेशानां समानजातो साधुवी भवत होते । भाविता मूलप्रकृतिषटुस्योत्कृ तीयरूपा घनीकृतलोकाsकाशश्रेणरसंख्येयभागप्रदेशराऽऽदिवन्धविकल्पाः साद्याऽऽदिभङ्गकैः, अथावशिष्टयोर्मो शिप्रमाणा वर्गणा चास्याः। एताश्चैतावत्योऽप्यसत्कल्पना हाऽयुषोत्कृष्टाऽऽदिप्रदेशबन्धान् साधाऽऽदिविकल्पतःप्र. या षट् स्थाप्यन्ते । तत्र जघन्यवर्गणायां जीवप्रदेशा असंख्ये. रूपयनाह-(दुहा सेसि सम्बत्थ त्ति) शेषे भणितोद्धरिते मोद्दे | यवीर्यभागान्विता अप्यसत्कल्पनया दश भागान्विताः स्था. आयुषि च सर्वत्रोत्कृष्टेऽनुत्कृष्ट जघन्येऽजघन्ये च प्रदेशब. प्यन्ते । ते च जीवप्रदेशा पकैकस्यां वर्गणायामसंख्येयप्रतरधे द्विधा साद्यध्रुवलक्षणो द्विविकल्पो बन्धो भवति । त. प्रदेशमाना अप्यसत्कल्पनया त्रयस्त्रयः स्थाप्यन्ते । एताश्चैप्रमिथ्यादृष्टिः सम्यग्दृष्टिोऽनिवृत्तिबादरान्तः सप्तविधब. तावत्यः समुदिता एकं वीर्यस्पर्धकमिन्युच्यते । अथ म्पर्धन्धकाले उत्कृष्टयोगे वर्तमानो भोहनीयस्थोत्कष्टप्रदेवबन्धं क इति कः शब्दार्थः । उच्यते-एकैकोत्तरवीयभागवृद्धया करोति , पुनरनुत्कृष्टयोगं प्राप्यानुत्कृष्ट प्रदेशबन्धं करोति, परस्परं स्पर्धन्ते वर्गणा यत्र तत्स्पर्धकम् । तत ऊचमेकेन पुनरुत्कृष्ट, पुनरप्यनुत्कृष्टमित्येवमुत्कृष्टानुत्कृष्टप्रदेशबन्ध- द्वधादिभिर्वा वीर्यपलिच्छेदैराधिका जीवप्रदेशा न प्राप्यन्ते योः संसरतां जन्तूनां मोहस्योत्कृष्टानुत्कृष्टप्रदशेबन्धौ द्वा. कि तर्हि प्रथमस्पर्द्धक चरमवर्गणायां जीवप्रदेशेषु यावन्तो बपि सावध्रुवी भवतः, जघन्याजघन्या स्वेतत्प्रदेशबन्धी वीर्यपलिच्छेदास्तेभ्योऽसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणैरेव यथा सूचममिगोदाऽदिषु संसरतामसुमतां कर्मषट्कस्थान. वीर्यपलिच्छेदैरधिका जीवप्रदेशा लभ्यन्ते ऽतस्तेषामपि समानरमेव भाषितौ तथाऽप्रापि निर्षिशेष भावनीयौ । आयु नवीर्यभागानां समुदायो द्वितीयस्पर्धकस्याऽऽद्यवर्गणा। तत कस्य स्वध्रुवबन्धित्वादेव तत्प्रदेशबन्ध उत्कृष्टाऽऽदिचतुर्वि एकेन वीर्यभागनाधिकानां समुदायो द्वितीया वर्गणा । एवकल्पोऽपि साद्यध्रुव एव भवतीति ॥ १४॥ निरूपितः प्रदेश मेकोत्तरवृद्धिक्रमेणैता अपि श्रेण्यसंख्येयभागवर्ति प्रदेशमा. बन्धः साधाऽऽदिप्ररूपणतः। नावाच्याः। एतासामपि समुयायो द्वितीयं स्पर्धकम्। इत ऊचे पुनरप्येकोत्तरवृदिर्न लभ्यते, किं तह्यसंख्येयलोका55संप्रति प्रागुक्तचतुर्विधबन्धे योगस्थानानि कारणं प्रकृतयः काशप्रदेशतुल्यैव वीर्यभागैरधिकास्तत्प्रदेशाः प्राप्यन्तेऽत. प्रदेशाश्च तत्कार्य प्रवर्तन्ते, तथा स्थितिबन्धाभ्यवसाय- स्तेनैव क्रमेण तृतीयस्पर्धकमारभ्यते, पुनस्तेनैव कमेण च. स्थानानि कारणं स्थितिविशेषास्तु तत्कार्यम् , अनुभाग तुर्थम्. पुनः पञ्चममित्येवमेतान्यपि वीर्यस्पर्धकानि श्रेण्यसंङ बन्धाभ्यवसायस्थानानि कारणम् , अनुभागस्थानानि तु त. ख्येयभागवर्तिप्रदेशराशिप्रमाणानि वाच्यानि । एतेषां चैताव. स्कार्य वर्तन्ते इति कृत्वा सप्तानामप्येषां पदार्थानां परस्पर तां स्पर्धकानां समुदाय एक योगस्थानकमुच्यते। इदं ताब. मल्पबहुत्वमभिषित्सुराह देकस्य सूक्ष्मनिगोदस्य भवाऽऽद्यसमये सर्वजघन्यवीर्यस्य यो. सेढिअसंखिजसे, जोगहाणाणि पयडिठिइभेया । गस्थानकमभिहितम्,तदन्यस्य तु किश्चिदधिकवीर्यस्य जन्तो. रनेनैव क्रमेण द्वितीयं योगस्थानकमुत्तिष्ठते.तदन्यस्य तु तेनैव ठिइबंधज्झवसाया-णुभागठाणा असंखगुणा ॥६५॥ क्रमेण तृतीयं,तदन्यस्य तु तेनैव क्रमेण चतुर्थमित्यमुना क्रमे योगो-धीर्य तस्य स्थानानि पीयांविभागांशसंघातरूपाणि । | तान्यपि योगस्थानि मानाजीवानां कालभेदेनकजीवस्य कियन्ति पुनस्तानि भवन्तीत्याह-(सेदिप्रसंखिजसे सि) वा घेणरसंख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणानि भव Jāin Education International Page #1200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध बंध अभिधानराजेन्डः। स्तिाननु जीवानामनन्तत्वातनवाद्योगस्थानान्यनम्तानि क. सत्तारतम्मभेया, जेण बहुं हुंति प्रावरणजणिया। स्मान भवन्ति । नैतदेव, यत एकैकस्मिन् साशे योगस्था तेणासंखगुणं तं, पयडीणं जोगो जाण ॥२॥" इति । मेऽनम्ताः स्थावर जीवा वर्तन्ते, सारस्वकैकस्मिन् सहशे । चनसृणामानुपूर्वीणां बन्धोदयवचियेणासंख्याता भेदास्ते योगस्थानेसंक्याता वर्तन्ते. तेषां च तदैकैकमेव विव च लोकस्यासंख्येयभागवर्तिप्रदेशराशितुल्या इति वृहच्छत. क्षितम. तो विसरशानि यथोक्लमानान्येव योगस्थानकानि कचूर्णिकारोक्को विशेषः । ननु जीवानामनम्तत्वासेषां बभवन्ति । तथाऽपर्याप्ताः सर्वेऽप्येकैकस्मिन् योगस्थानके ए. ग्धोदय वैचियेरणानन्ता अपि प्रकृतिभेदाः कम्मान भवन्ति, समयमेवावतिष्ठन्ते , ततः परमसंख्येयगुणवृद्धषु प्रतिस. नैतदेवंसहशानां बन्धोदयानामेकत्वेन विवक्षितस्वाद्विसर. मयमन्योऽभ्ययोगस्थानकेषु संक्रामन्ति । पर्याप्तास्तु सर्वेऽ- शासवेतावन्त एव तद्भेदा भवन्ति । ते च भेदाः प्रकृतिपिस्वप्रायोग्ये सर्व जघन्ययोगस्थानके जघन्यतः समयमुत्कृ. भदत्वात्प्रकृतय इत्युच्यन्ते । ततश्च योगस्थानेम्पोऽसंख्यात. टतश्चतुर: समयान् यावर्तन्ते । ततः परमभ्ययोगस्था गुणाः प्रकृतयः यत पकैकस्मिन् योगस्थाने वर्तमानैनोनकमुपजायते । स्वप्रायोग्योस्कृष्टयोगस्थानकेषु तु जघन्यतः नाजीवः कालभेदादेकजीवेन या सर्वा अप्येताः प्रकृतयो समयमुत्कृष्टतस्तु ही समयौ । मध्यमेषु जघन्यतः सम. बध्यन्त इति । तथा तेभ्यः प्रकृति मेदेभ्यः स्थितिभेदा: स्थितिविशेषा अन्तमहर्ससमयाधिकाम्तर्मुह द्विसमयायमुत्कृष्तस्तु कचिस्त्रीन् कचिच्चतुरः कचित्पश्च कचित् धिकाम्तर्मुहर्सनिसमयाधिकान्तमुहर्ताऽदिलक्षणा असंषट्कचित्सप्तकचिवही समयान् यावर्तन्ते इति, भयं ण्यातगुणा भवन्ति, एकैकस्याः प्रकृतेरसंख्यातः स्थितिबैतावानपि योगो मनःप्रभृतिसहकारिकारणवशात् संक्षि. विशेषैर्यध्यमानस्वात् । एकमेव हि प्रकृतिमेवं कश्चिजीबोप्य सत्यमनोयोगासत्यमनोयोगसत्यमृषामनोयोगासत्यमृषा ऽन्येन स्थितिविशेषण बध्नाति, स एव च तं कदाचिदमनोयोगसस्यवाग्योगासस्यवाग्योगसत्यमृषाचाग्योगासत्य म्येन, कदाचिदन्यतरेण कदाचिदन्यतमेनेत्येवमेकं प्रकृतिभे. मृषावाग्योगौदारिकमिश्रकाययोगक्रियकाययोगक्रियमि. दमेकं च जीवमाधिस्थासंख्याताः स्थितिभेदा भवन्ति, कि भकाययोगाऽहारकमिश्रकाययोगकामणकाययोगभेदतः प. पुनः सर्वप्रकृतीः सर्वजीवानाश्रित्य प्रकृतिभेदेभ्यः स्थितिशवशधा प्रोक्तः, इत्यलं प्रसङ्गेन । एतेभ्यश्च योगस्था- भेवानामसंख्थातगुणत्वमिति, अतः प्रकृतिभेदेभ्यः स्थिति नेभ्योऽसंख्येयगुणा-असंख्यातगुणिता: ( पयडि सि ) भेदा असंख्यातगुणा भवन्ति इति । तथा स्थितिभेदेभ्य: भेदशम्नस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् प्रकृतिभेदा हानाsधर- सकाशात् स्थितिबन्धाध्यवसायाः पदैकदेशे पदसमुदायोखाऽऽदीनां भेदाः । (असंख गुण त्ति) पदमनुभागबन्धस्था. पचारात् स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानान्यसंख्यातगुणानित नानि थावत्सर्वत्र योजनीयम् । इयमत्र भावना-इह ताब स्थान-स्थितिः कर्मणोऽवस्थानं तस्या बन्धः स्थितिबन्धः । दावश्यकाऽऽदिष्ववधिज्ञानदर्शनयोः क्षयोपशमवैचित्र्यादसं. अध्यवसानानि-अध्यवसाया:,ते चेह कषायजनिता जीवपरिक्यातास्तापट्टेदा भवन्ति । भणिताः ) ततश्चैतदावरण णामविशेषाः। तिष्ठन्ति जीवा एग्विति स्थानानि । मध्यव. बन्धस्थापि तावत्प्रमाणा भेदाः संगच्छन्ते, वैचित्र्येण ब. साया एवं स्थानान्यध्यवसायस्थानानि । स्थितिबन्धस्य अस्यैव विचित्रक्षयोपशमोपपत्तरिति । कथं पुनः क्षयोपश कारणभूतान्यभ्यवसायस्थानानि स्थितिबन्धाभ्यवसायस्था. मवैविधेऽप्यसंख्येयभेदत्वं प्रतीयत इति चेदुच्यते-क्षेत्र नानि । तानि स्थितिभेदेभ्योऽसंख्येयगुणानि, यतः सर्वजध. तारतम्येनेति । तथाहि-त्रिसमयाऽऽहारकसूचमपनकसावा. म्योऽपि स्थितिविशेषोऽसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाऔर. वगाहनामानं जघन्यमवधिद्विकस्य क्षेत्र परिच्छेद्यतयोक्तम् । ध्यवसायस्थान म्पते, उत्तरेषु तु स्थितिविशेषास्तरेष यथो. यदाह सकलश्रुतपारश्वा विश्वानुग्रहकाम्यया विहिताने त्तरं विशषवृद्धर्जन्यम्तेऽतः स्थितिभेदेभ्यः स्थितिवन्धाकशास्त्रसंदर्भो भगवान् श्रीभद्रबाहुस्वाभी-"जावयति ध्यवसायस्थानान्यसंख्यातगुणानि सिद्धानि भवन्ति । तथा समयाऽहा-रगस्स सुहमस्स पणयजीवरस । श्रोगाहणा ज. (अणुभागट्ठाण ति) पदेकदेशे पदसमुदायोपचारानुभा. गस्थानाम्यनुभागबन्धाभ्यवसायस्थानानि तत्रानु-पश्चात. हमा, ओहिक्वत्तं जहनं तु ॥१॥" उत्कृष्टं तु सर्वबहुतैज. ग्धोत्तरकालं भज्यते-सेव्यते-अनुभूयते इत्यनुभागो रसस्त. स्कायिकजन्तूनां शुचिः सर्वतो भ्रमिता यावन्मानं क्षेत्र स्य बन्धोऽनुभागबन्धः। अध्यवसानाम्यध्यवसायास्ते चेहक स्पृशति तावन्मानं तस्य प्रमाणं भवति । यदाहुः श्रीम पायजनिता जीवपरिणामविशेषाः तिष्ठन्ति जीवा येविति दाराध्यपादा:-" सब्यबहुअगणिजीया, निरंतरं जत्तियं भ. स्थानानि । अध्यवलाया पब स्थानाम्यध्यवसायस्थानानि । रिजंसु । खेत्तं सम्बदिसागं, परमोहिक्खेत्तनिहिट्ठो॥१॥" इति। अनुभागबन्धस्य कारणभूतान्यध्यवसायस्थानान्यनुभागब. ततो जघन्यात्क्षेत्रादारभ्य प्रदेशवृद्ध्या प्रवृद्धोत्कृष्टक्षेत्रविषय. ग्याश्यवसायस्थानानि । स्थितिबन्धाभ्यवसायस्थानेभ्यस्तास्वे सत्यसंक्षेपभेदत्वमवधिद्विकस्य क्षेत्रतारतम्येन भवति, स्पसंख्येयगुणानि भवन्ति । स्थितिबन्धाभ्ययसायस्थानं वेकेअतस्तदावारकस्यावधिद्विकस्यापि नानाजीवानां क्षेत्रादि कमन्तमहर्तप्रमाणमुक्तम् अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानं वेके. भेदेन बन्धवैचिज्यादुदयवैचिच्याद्वाऽसंख्यगणभेदत्वम् । कंजघन्यतः सामयिकमुस्कृष्टतस्वष्ठसामयिकान्तमेवोक्लम् , एवं नानाजीवानाश्रित्य मतिज्ञानाधरणादीनां शेषाणा अत एकै कस्मिन्नपि नगरकल्पे स्थितिबन्धाध्यवसायमप्यावरणाना तथाऽन्यासामपि सर्वासांमूलप्रकृतीनामुत्तर: स्थाने तदन्तर्गतानि-नगरान्तर्गतोचैन हकल्पानि प्रकृतीनां च क्षेत्रादिभेदेन बन्धचिश्यादुदयचिपाद्वाऽ. नानाजीवान् कालभेदेनैकं जीवं वा समाश्रित्याऽसंख्येसंख्याता भेदाः संपद्यन्ते इति । उक्तं च यलोका33काशप्रदेशप्रमाणाभ्यनुभागबन्धाभ्यवसायस्थाना"जम्हा उ मोहिबिसनो, उकोसो सम्वबहुयलिहिसूई। नि भवन्ति । तथाहि-जघम्यस्थितिजनकानामपि स्थि. अत्तियमित्रं फुसई, तत्तियमित्तप्पएससमो॥१॥ तिबन्धाभ्यवसायस्थानानां मध्ये यदाचं सर्यलघुस्थिति२६५ Page #1201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध के बन्धाध्यवसाय स्थानं तस्मिन्नपि देश क्षेत्र काल भावजीवभेदे मासंख्येयलोकाऽ ऽकाशप्रदेशप्रमाणान्यनुभागबन्धाध्यवसा यस्थानानि प्राप्यन्ते, द्वितीयाऽऽदिषु तु तान्यप्यधिकाम्यधि कतराणि च प्राध्यन्त इति सर्वेष्वऽषि स्थितिबन्धाध्यवसा यस्थानेषु भावना कार्या, अतः स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानेभ्योऽनुभागवन्धाच्यवसाय खानाम्यति॥ तो कम्मरसा अयंगुखिया राम्रो रसच्छेया । जोगा पडिपएस, टिपणुभागं कसायाओ || ६६ ॥ ततस्तेभ्यो ऽनुभागवन्धाध्यवसायस्थानेभ्यः कर्मप्रदेशाः-क काम तात्पर्य प्रत्येक मनःसिद्ध न भाग पर्तिभिः परमाणुभिर्मिष्या न्] अध्यानन्तगुणानेव कन्यामि व्याग्याऽऽदिमितुमप्रति समीपगृहास्युक्तम् अनुभागान (१९७०) अभिधानराजेन्द्रः । तु न 1 सर्वावप्यसंश्येयलोकाकाशमरेशमि तानि अतोऽनुभाग वन्ध्यवसायः कर्मप्रदेश मतगुणाः सिद्धा भवन्ति । तथा ( तो रसच्छेत्ति ) रास्तेयः कर्मदेशेभ्यो वेदान्त तथाहि इद्द क्षीरमिम्बर साऽऽयधिश्रयणैरिवानुभागमन्धाध्य बापस्थानस्तरले यि कर्मले रसो जन्यते स चै कस्यापि परमार्थ सम्बन्धी केवलमहाद्यमानः सर्व जीवानन्तगुणाविभागपतिच्छेदान् प्रयच्छति यसाङ्गा गादति सूक्ष्म तपाऽन्यो भागो नोत्तिष्ठति सोऽविभागपलि भूतानुभाग स्थाविच्छेद सपर्यायाः सर्वकर्मस्कन्धेषु प्रतिपरमाणु सर्व जीवानन्तगुणाः संप्राप्यन्ते । उक्तं च " गहणसमयस्मि जीवो, उप्पारह ड गुणे सपस्थयो । सम्बजियातगुणे कम्मप सब्वे ॥ १ ॥ " गुणशब्देने हा विभागपलिच्छेदा उच्यन्ते, शेषं सुगमम् । कर्मप्रदेशाः पुनः प्रतिस्कन्धं सर्वे प्रसि खानामप्यनन्तभाग एव वर्तन्तेऽतः कर्मप्रदेशेभ्यो रसच्छेदा अनन्तगुणाः सिद्धाः भवन्ति इति । अत्राऽऽछ - ननूक्लो भ प्रदेशस्थः परं कस्मादेतो जीवः क रोतीति वक्तव्यमिति प्रश्नमाशङ्क्य प्रदेशबन्धस्य प्रसङ्गतः पूर्वोानां प्रकृतिस्थित्यनुमगन्धान - यन्नाह - ( ओोगा। पयडपएस, ठि श्रणुभाग कसायाश्रोत्ति) योगो, वीर्य, शक्ति, उत्साहः, पराक्रम इति पर्यायाः। तस्माद्योगा करणं प्रकृतिः कर्मणां मारणादिस्वभाषः प्रकृष्टाः वास्तिकायदेश प्रदेशाः कर्मणान्तःपातिनः कर्मस्क न्धाः प्रकृतया प्रदेशाश्च प्रकृतिप्रदेशं समाहारो द्वन्द्वः । त जीयः करोतीति शेषः । प्रकृति प्रदेशबन्ध या योगो हेतुरित्यर्थः । भवति यद्यपि कषाययोगाः सामान्येन कर्मणो बन्धहेतव उक्तास्तथाऽ• व्यायकारणत्रयाभावेऽयुपशास मोदिगुरास्थानकेषु के. पोसावे वेदलक्षणा प्रकृतिस्तखदेशाख वच्यन्ते अयोग्यवस्थायां तु योगाभावैन बध्यन्ते इत्यन्वयव्यतिरे काका कृति प्रधानं कारयम्। तथा - (ठिप्रणुभागं कलायाओ ति) स्थानं स्थितिः कर्मणो तिखागम कोटी कोटीपर्यन्तमवस्था ममित्यर्थः । अनु-पश्चातुम्धोतरकालं भजनं - स्थितेः सेवम पाखानुभयो रस इत्यर्थः स्थिति बानुभाग बंध व स्थित्यनुभागं समाहारो इन्द्रः । तज्जीवः करोतीति शेषः । कस्मादित्याह-कायात् क वायवशात् इयमत्र भाषना- कषायाः क्रोधमानमायालोमा स्तनितो जीवस्याध्यव• -साथ विशेषः कषायशब्देनेोच्यते । काया कुदीरणा नानाजीवानां कालभेदेनैकजीवस्य वा सर्वजघन्याया अपि ज्ञानाव[35] विवेकाम्य संपली मान्यतान्यव्यवसायस्थानानि जनयन्ति, सम याधिक तज्जघन्यस्थितिजनकानि तु त एवं तेभ्यस्तानि विशेषाधिकानि जनयन्ति हिसमयाधिक धन्यस्थितिजनकानि पुनस्त एवानन्तरेभ्पस्तानि विशेषाधिकानि ज नयन्ति, जिसमपाधिक तज्जन्यस्थिति जनकानि पुनस्त वानन्तरेभ्यस्तानि विशेषाधिकानि जनयन्ति एवं समयांतरवृद्धतज्जघन्य स्थितिजनकानि विशेषाधिकानि तावद्वा व्यानि यावस एव कषायाः समयोनोत्कृष्टज्ञानाऽऽचरणाऽऽदिस्थितिजनकाध्यवसायस्यानेभ्यः सर्वोत्कृहत स्थितिजन कापसास्यानानि विशेषाधिकानि निपतितानि सर्वापि मिलिताम्य संध्येयलोका 55 का प्रदेशमा भवति स्थाप्यमानानि च विषयचतुर मात स्थापना यम्-देवमेतैः कषायजनिताध्यवसायजन्यत्वात् कर्मणः स्थिति कषाय प्रत्यया लिखा । तथा तेषामेव कायायां संवन्ध पकिस्थानक जीवस्य योऽध्यवसायो जन्यते तद्वशेन बध्यमानकर्मणाममागो निष्पद्यते । तथाहि इह ताबइनलैः परमाणुभिचिचान् कम्पाद जीवः कर्मतया गृहासिक स्कन्धे यः सर्वजघन्यरसः - परमाणुः सोऽपि के लिप्राया छिद्यमानः किल सर्व जीवेभ्योऽनन्तगुणान् भागान् प्रयच्छ ति. अपरन्तु तानप्येकाधिकार यस्तु तानपि यि कानित्यादिवृद्धया तावज्ञेयं यावदन्त्य उत्कृष्टरसः परमा मलर: शेरनन्तगुणानपि रसभागान् प्रयच्छति । अत्र च ज घन्यरसा ये केचन परमाणमस्तेषु सर्वजीवानन्त गुणरसभाग ययन | समुदायः समानजातीयत्वादेका वर्गणेत्यभिधीयते । अन्येषां कोरतरसभामाना समुदाय द्वितीयाया अपरेषांतरभागयुक्तानामनां समुदाय तीयावर्गणा । अपरेषां तु प्रयुत्तरशन रंस भागयुक्तानामनां स मुदायश्चतुर्थी वर्मणा। एवमनया दिशा पकेकरसभागवृद्धानामणून समुदायरूपा वर्गणा सिद्धानामनन्तभागेमध्येभ्योऽन मतगुणा वाच्याः । एतासां चैतावतीनां वर्गणानां समुदायः रूपर्धकमित्युच्यते, स्पर्धन्त इवायोत्तरोत्तररस वृद्धया परमाणुगणेति कृत्वा । एताश्चानन्त रोक्कानन्तकप्रमाणा अध्यलक्क रुपनया षट्स्थाप्यन्ते इदमेकं स्पर्धकम् । इत ऊर्ध्वमेको सरया निरम्रा वृद्धो रखो न लभ्यते किं तर्हि सीवानगुणैरेव सभ्यत इति तेनैवक्रमेण द्वितीय रुपयेस्तथैव दतीयमित्यादि याताय दुपारपर्यन्त दयां चानुभावस्पर्धकानां सिदागन्तावर्तिनामध्यानां समुदाया प्रथ ममनुभागस्थानकं भवति अम्बेषु त्वधिकरषु कन्धे तेनैष क्रमेण द्वितीयं तावत्प्रमाणमेवानुभागस्थानक मुत्तिष्ठति । अपरेषु व्यधिकरसेषु स्कन्धेषु तेनैव क्रमेण तृतीय 9 Page #1202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९७०) बंध अभिधानराजेन्द्रः। बंध मनुभागस्थानकमुसिष्ठतीस्येवं सर्वेष्वपि कषायकर्मस्कन्धेध. प्रत्ययशवस्य प्रत्येकं संबन्धाचतुःप्रत्यायिका सात लक्षण संक्येयलोकाकासप्रदेशप्रमाणाम्यनुभागस्थानामि भवन्ति । प्रवृत्तिः। मियास्वप्रत्यायिकाः षोडश प्रकृतयः । मि. मानाचरणादिसमस्तकमस्कम्धस्वयत्तावम्त्येषासमिसय ध्यावाधिरतिप्रस्ययिकाः पश्चत्रिंशत्प्रतयः। योग विना त्रिति,परंतावविहकषाया एच कारणबेन पिचपरयितुं मकर- प्रत्यायिका मिथ्यात्वाऽविरतिकषायप्रत्ययिकाहारकद्विकपता,ताच-जघन्याम्पनुभागस्थानान्युत्कृष्टतचतुरा सम जिनवर्जा शेषाः प्रकृतय इति गाथाऽक्षरार्थः । भावाऽर्थः थान् बगबदुदये समागच्छन्ति , मध्यमानि तु कानिचिन् पुनरयम्-सातलक्षणाप्रकृतिश्चत्वारः प्रत्यया-मिथ्यास्याषि. जो समयौ, कानिचित्रीन समयान , अपराणि चतुर सम. रतिकषाययोगा यस्याः सा चतुःप्रत्ययिका । "प्रतोऽनेकस्व यान, अन्यानि पञ्चसमयान्, श्रन्यानि षट् समयान् ,भप- रात्"॥ ७॥२॥६॥ इति इकप्रत्ययः मिथ्यास्वाऽऽविभिश्चतु. राणि सप्त समयान, भम्पान्यो समयान पाषदुत्कृष्टत उ मिरपि प्रत्ययैः सातं बध्यत इत्यर्थः । तथाहि-सातं मिदये समागन्ति । उत्कृष्टानुभागस्थानान्मुत्कृष्टतो द्वौ स. ध्यादृष्टी बध्यत इति मिथ्यात्वप्रत्ययं, शेषा अप्यविरस्यामया यावदुदये समागच्छम्ति, ततः परं.सर्वश्रान्यत् परा- दयनयः प्रत्ययाः सन्ति , केवलं मिथ्यात्वस्यबेह प्राधान्ये. चर्तते । जघन्यतस्तु सर्कण्यपि समयस्थितीन्येव भवन्ति; न विवक्षितत्वात् , तेन तदन्तर्गगत्वेनैव विधक्षिताः, . प्रतस्मजघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदचिन्नोऽध्यवसायोऽप्येतावत्का. वमुत्तरत्रापि । तदेव मिथ्यास्वाभावेऽप्यविरतिमस्सु सावालस्थितिक एव भवति,तेनच जघन्याउदिभेदेनाध्यवसायवै. दनाऽऽदिषु बध्यत इति अविरतिप्रत्ययम् । तदेव कषाययोचियेण बध्यमानकर्मानुभागो जघन्याऽऽदिभेदविचित्रो जन्य गवत्सु प्रमत्ताऽऽदिषु सूक्ष्मसंपरायाऽवसानेषु बध्यत इति से,अतः कषायानुभागजनिताध्यवसायवैचियनिय॑त्वारक- कषायप्रत्ययम् । योगप्रत्ययस्तु पूर्ववत्तदन्तर्गतो विवश्यते । मखानुभागः कषायप्रत्ययः सिखा । मिथ्यात्वाविरतिका- तदेयोपशान्ताऽदिषु केवलयोगवस्तु मिथ्यात्वाऽविरतिक रणदयाभावेऽपि कषायसद्भावेऽपि प्रमत्ताऽऽविषु स्थित्यनु. पायाभावेऽपि बध्यत इति योगप्रत्ययम् । इत्येवं सातक्षणा भागवन्धी भवत, कपायाभावे तूपशान्तमोहऽऽदिषु न प्रकृतिश्चतुःप्रत्ययिका । तथा मिथ्यात्वप्रत्ययिकाः षोडश भवता इतीहाप्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां शायते कषाया एव स्थि. प्रकृतयः । इह यासां कर्मस्त-"नरयतिग जारथावर-बड स्पनुभागवन्धयोः प्रधानं कारणमिति ॥६६ कर्म.५ कर्म०।। हुंडायव षड नपुमिच्छ । सोलतो" इति गापाबयन ना. रकत्रिकाऽऽदिषोडशप्रकृतीनां मिथ्यारावत उक्ला, तामि. अधुना बन्धस्य मूलहेतून गुणस्थानकेषु चिन्तयन्माह ध्यास्वप्रत्यया भवन्तीत्यर्थः। तदावे वध्यन्ते तदभाव तूर" ड्रगचउपणतिगुणेसु " इत्यादि । वं पदघटना रत्र सास्वादनाऽऽदिषुन बभ्यम्त इत्यम्बयव्यतिरेकाभ्यां मि. एकस्मिन्मथ्याष्टिलक्षणे गुणस्थानके चस्वारी मिथ्यात्वा ध्यात्यमेवासां प्रधानं कारणं, शेषप्रत्ययत्रयं तु गौणामि. विरतिकषाययोगमायाः प्रत्यया-हेतषो यस्य स चतुःप्र. ति । तथा मिथ्यात्वाऽविरतिप्रत्ययिकाः पञ्चत्रिंशत्प्रकृतयः। स्ययो बन्धो भवति । अयमर्थः-मिथ्यात्वाऽऽविभिश्चतुर्भिः तथाहि-"सासणि तिरि थीण दहग तिग. असमझागिह प्रत्ययैर्मिध्याटिगुणस्थानकवर्ती जन्तुर्मानाऽम्वरणादिकर्म संघयण चउ निउज्जोय कुखगरस्थि" इति सूत्राऽवयवेबध्नाति । तथा चतुर्यु गुणस्थानकेषु सास्वादनमिश्राऽविर. न तिर्यकृत्रिकप्रतिपञ्चविंशतिप्रकृतीनां सास्वादने बन्ध. तदेशविरक्तिखत्तखेषु त्रयो मिथ्यास्ववर्जिता अविरतिकषाय व्यवच्छेद उक्तः । तथा-" पारनरतियषियकसायाउरलयोगलक्षण प्रस्यया यस्य स त्रिप्रत्ययो बन्धो भवतीति । श्र. दुगतो" इति सूत्रावयवन बर्षभनाराचाऽऽदीनां दशायमर्थ:-सास्थापनाऽऽदयश्चत्वारो मिथ्यास्योदयाभावात्तद्व®. नां प्रकृतीनां देशविरते बन्धव्यवच्छेद उक्तः, एवं च पञ्चसिभिः प्रत्ययैः कर्म बनन्ति देशविरनगुणस्थानके यद्यपि दे. विशतेर्दशानां च मीलने पश्चत्रिंशत् प्रकृतयोमिथ्यात्वाऽविरशता स्थूलप्राणातिपातविषया विरतिरस्ति तथापि साऽल्प तिप्रत्ययिका पताः शेषप्रत्ययद्वयं तु गाणं,तद्भावेऽप्युत्तरत्र त. वाह विवक्षिता,विरतिशब्देनेह सर्वधिरतेरेव विवक्षितस्वा. द्वन्धाभावादिति भावः। मणितशेषा आहारका विकतीर्थकदिति । तथा पश्चसु गुणस्थानकेषु प्रमत्ताऽप्रमत्ता पूर्वकरणा रमामवासी अपि प्रकृतयोयोगवर्जा त्रिप्रत्ययिका भवन्ति, ऽनिवृत्सिवादरसूचमसंपरायलक्षणेषु द्वौ प्रत्ययौ कषाययो मिथ्यारष्ट्यविरतेषु सकषायेषु च सबैषु सूक्षमसंपरायावसा. नाभिण्यौ यस्य स द्विप्रत्ययो बन्धो भवति । इदमुक्तं नेषु यथासंभवं बध्यन्त इति मिथ्यात्वाऽविरतिकपायलक्षणप्रभवति-मिथ्यात्याधिरतिप्रत्यययस्यैतेश्वभाषाच्छेषेण क स्ययत्रयनिबम्धना भवन्तीत्यर्थः उपशाम्तमोहादिषु केवलपाययोगप्रत्ययद्वयेनामी प्रमत्ताऽऽदयःकर्म बस्नन्तीति । यथा | योगषत्सु योगसद्भावेऽप्येतासांबन्धो नास्तीति योगप्रत्ययव. त्रिखूपशान्त मोहक्षीण मोहसयोगिकेवलिलक्षणेषु गुणस्थानके जैनमन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यत्वात्कार्यकारणभावस्येतिद एक एव मिथ्यात्वाऽविरतिकषायाऽभाषाद्योगलक्षणःप्रत्ययो यम्। माहारकशरीराssरकापालक्षणाबारकद्विका यस्य स एकप्रत्ययो भवति । अयोगिकेवली भगवान् सर्व- तीर्थकरनाम्नोस्तु प्रत्ययः 'सम्मत्तगुणनिमित्तं तिस्थवरं सं. थाऽप्यबन्धक इति ॥५२॥ भाविता मूलबन्धहेतबो गुण. जमेण आहार" इति वचनात् संयमः-सम्यक्रवं चाऽभिहित स्थानकेषु। इती तर्जन मिति ॥ ५३॥ उक्तं प्रासनिकम् । संप्रत्येतानेष मूलबन्धहेतून पिनेयवर्गानुग्रहार्थमुसरः । इदानीमुत्तरबन्धभेदान् गुणस्थानकेषु चिन्तयमाहप्रकतीराश्रित्य चिन्तयत्राह पणपत्र पनातिय-छडियक्त्त गुणवत्तछ चाउ दुगवीसा। चउ मिच्छमिच्छमविरइ, पञ्चाया सायसोलपणतीसा। सोलस दस नव नव,सत्तउणोन उ अजोगिम्मि ॥५४|| जोगे विणु तिपच्चइया-हारगजिणवज सेसामो॥५३॥1 मिथ्याष्ठी पञ्चपञ्चाशद्वन्धतः । सासादने पञ्चाशद. Page #1203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध (१९८० बैध अभिधानराजेन्डः। न्धहेतवः। चतुःशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धात्यधिकचत्वा- था प्रत्याख्यानाऽऽवरणोदयस्याऽस्य निषिद्धत्वादित्यप्रत्याख्यारिंशदित्यर्थः, बन्धहेतबो मिश्रगुणस्थानके । षडधिकचत्वा- माबरणचतुष्यं न घटाप्राञ्चति, तत पते सप्त पूर्वोकायाः रिंशबन्धहेतवोऽविरतगुणस्थानके । एकोनचत्वारिंशद् ब. षट्चत्वारिंशतोऽपनीयन्ते, तत एकोनचत्वारिंशदम्धहेतवः म्घहेतवो देशविरतगुणस्थानके । विशति शब्दस्य प्रत्येक शेषा देशविरते । भवन्ति तथा पशितिबन्धहेतवः प्रमत्ते संबन्धात् पविशतिबन्धहेतवः प्रमत्तगुणस्थाने । चतुर्विश. भवन्ति (साहारदुत्ति) सहाऽऽहारद्विकेनाऽहारका35तिबन्धहेतवोऽप्रमत्तगुणस्थानके। द्वाविंशतिबन्ध तथोऽपू. हारकमिश्रलक्षणेन वर्तत इति साऽऽहारकद्विका ५६॥ करणे । षोडशबन्धहतवोऽनिवृत्तिबादरे । दशबन्धहेतवः अविरह इगार तिकसा-यवज अपपत्ति मीसदुगरहिया । सबमसंपराये। नव बन्धहेतब उपशान्तमोहे । नवबन्धहेतवः चवीस अपुग्वे पुण, दुवीस अविउम्बियाहारे ॥ ५७ ॥ क्षीणमोहे। सप्तबन्धहेतवः सयोगिकेवलिगुणस्थाने । न तु नैषाऽयोगिन्येकोऽपि बन्धहेतुरस्ति,बन्धाऽभावादेवेति ॥५४॥ प्रसाविरतेदेशविरते पनयनाच्छेषा एकादशाविरतय र गृअथाऽमूनेव बन्धहेतून् भावयन्नाद शान्ते। तृतीयाः कषाया:त्रिकषायाःप्रत्याख्यानाऽऽधरणास्तव पणपत्र मिच्छि हारग-दुगूण सासाणि पत्र मिच्छ विणा। र्जास्तद्विरहिता साहारकद्विका व सैवैकोनचत्वारिंशत् पट्टि मिस्सदुकम्म प्रण विणु, तिचत्त मीसे अहछ चत्ता ५५॥ शतिर्भवति । इदमत्र हृदयम्-प्रमत्तगुणस्थान एकादशधाs. विरतिः प्रत्याख्यानाबरणचतुष्टयं च न संभवति,पाहारक. মিষাপ্তাষাঙ্কোচামিযৗনাঃ স্বণা द्विकंच संभवति, ततः पूर्वोक्लाया एकोनचत्वारिंशतः प. शद्वन्धहेतवो भवन्ति, "आहारकद्विकवर्जनं तु संयमयतां दशके उपनीते द्विके च तत्र प्रक्षिप्ते षडिशतिबन्धहेतवः तदुदयो नाऽन्यस्य " इति वचनात् । सास्वादने मिथ्यात्वप शकेन विना पश्चाशद्वन्धहेतनो भवन्ति. पूर्वोक्तायाः पञ्च प्रमत्ते भवन्तीति । तथाऽप्रमत्तस्य लब्ध्यनुपजीवनेनाऽऽहा. पञ्चाशतो मिथ्यात्वपञ्चकेऽपनीते पश्चाशद्वन्धहेतवःसासा रकमिश्रवैक्रियमिश्रलक्षणमिश्रद्विकरहिता सैव षड़िशातिश्च. दने व्याः । मिश्रे त्रिचत्वारिंशद्वन्धहेतवो भवन्ति । तुर्विशतिबन्धहेतवोऽप्रमत्ते भवन्ति । अपूर्वे-अपूर्वकरणे पु. नः सैव चतुर्विंशतिवैक्रियाऽऽहारकरहिता द्वाविंशतिबन्धकमिस्याह-मिश्रधिकमौदारिकमिश्रक्रियमिश्रलक्षणम् . तवो भवन्तीति ॥ ५७ ॥ (कम्म सि । कार्मणशरीरम् (अण त्ति) अनन्तानुबन्धिनस्ते. बिना । इयमत्र भाषमा-"म सम्ममिच्छो कुणाकालं" इति अछहास सोल बायरि,सुहुमे दस वेयसंजलणति विणा । वचनात् सम्यग्मिध्याष्टः परलोकगमनाभावादादारिक. खाणुवसंति अलोभा, सजोमि पुन्बुत्त सय जोगा।॥५८।। मिश्रक्रियमिश्चद्विकं कार्मणं च न संभवति, अनन्तानुब एते च पूर्वोक्ता द्वाविंशतिबन्धहेतवः 'छहासा'-हास्यरत्य. मध्युदयस्य चाऽस्य निषिद्धत्वादनम्नानुवन्धिचतुल्यं च ना. रतिशोकभयजुगुप्सालक्षणहास्य षटरहिताः षोडश बन्धस्ति, अत एतेषु सप्तसु पूर्वोक्लाया: पश्चाशतेोऽपनीतेषु शेषानिचवारिंशद्वन्धहेतवो मिथे भवन्ति । अथाऽनन्तरं हेतवः ( बायरि ति ) अनिवृत्तिकादरसंपरायगुणस्थानके षट्चत्वारिंशद्वन्धहेतवो भवन्ति ॥ ५५ ॥ भवन्ति, हास्याऽऽदिषटूस्यापूर्वकरण गुणस्थानक एवं व्यवसद् मिस्सकम्म अजए, अविरइकम्मुरलमीसविकसाए । छिन्नत्वादिति भावः । तथा त एवं षोडशत्रिकशब्दस्य प्र. त्येकं संबन्धाद्वेदत्रिकं स्त्रीपुंनपुंसकलक्षणं संज्वलनत्रिकं सं. मुत्तु गुणवत्त देसे, छवीस महारदु पमत्ते ।। ५६ ॥ ज्वलनकोधमानमायारूपं तेन विना दश बन्धहेतवः सूक्ष्मसंकेस्याह-प्रयते-अविरते, कथमित्याह-(सदु मिस्सकम्म पराये भवन्ति । वेदत्रयस्य संज्वलनक्रोधमानमायात्रिकस्य त्ति)योर्मिधयोः समाहागे द्विमिथ, द्विमिदं च कार्मणं चानिवृत्तियादरसंपरायगुणस्थानक एव व्यवच्छिन्नत्वात् । च द्विमिश्रकामणं, सह द्विमिश्रकामणेन वर्तते या त्रि त एव वश अलोभा:-लोभरहिताः सन्तो नव बन्धहेतवः । चस्वारिंशत । इयमत्र भावना-अविरतसम्यग्दष्टेः परलो. क्षीणमोहे उपशान्तमोहे च भवन्ति, मनोयोगचतुष्कवाग्यो.. कगमनसंभवात् पूर्वाऽपनीतमौदारिकमिश्रक्रियमिश्रलक्षणं गचतुष्कौदारिककाययोगलक्षणा नव बन्धहेतव उपशान्तमो. द्विक कार्मणं च पूर्वोक्तायां त्रिचत्वारिंशति पुनः प्रक्षि हे क्षीणमोहे च प्राप्यन्ते , म तु लोभम्तस्य सूक्ष्मसंपराय प्यते , ततोऽविरते षट्चत्वारिंशबन्धहेतवो भवन्ति । एव व्यवच्छिन्नत्वात्।सयोगिकेवलिनि पूर्वोक्ताः सप्त योगाः। तथा देशे-देशबिरते एकोनचत्वारिंशद्वन्धहेतषो भवन्ति । तथाहि-औदारिकमौदारिकमिश्रं कार्मणं प्रथमान्तिमौ मकथमित्याह-अविरतिनसाऽसंयमरूपा, कार्मणम् , औदा. दोयोगी प्रथमान्तिमौ वाग्योगौ चेति । तत्रौदारिकसंयोग्य रिकमिश्रं, द्वितीयकषायानप्रत्याख्यानाऽऽवरणान् मुक्त्वा शे. वस्थायामौदारिकमिश्रकार्मणकाययोगी समुद्घातावस्थायापा एकोनचत्वारिदिति । अत्रायमाशय-विग्रहगताव. मेव घेदितव्यौ । “मिश्नौदारिकयोक्का, सप्तमषष्ठद्वितीयेषु। पर्याप्तकावस्थायां च देशविरतेरभावात्कार्मणौदारिकमिश्रद्ध- कार्मणशरीरयोगी, चतुर्थ के पञ्चमे तृतीये च ॥१॥" इति यं न संभवति , प्रसासंयमाद्विरतत्वास्त्रसाविरतिर्न जाघ. प्रथमान्तिममनोयोगी भगवतोऽनुत्तरसुराऽऽदिभिर्मनसा पृटीति । ननु प्रसासंयमात् संकल्पजादेवासौ विरतो न एस्य मनसैव देशनात् प्रथमान्तिमवाग्योगी तु देशनाऽऽदि. वारम्भजादपि तत्कथमसौ साविरतिः सर्वाऽप्यपनीयते । काले । भयोगिकेवलिनि न कश्विद्वन्धहेतुर्योगस्यावि व्यव. सत्यं, किंतु गृहिणामशक्यपरिहारत्वेन सत्यप्यारम्भजात्र छिनत्वात् ।।५८।। उक्ला गुणस्थानकेषु बन्धहेतवः । कर्म०५ साविरतिर्न विवक्षितेत्यदोषः, एतच वृहच्छतकबृहन्चूर्णिः कर्म० (बन्धोदयसत्ता संबंधचिन्ता च गुणस्थानकेषु जीमनुसृत्य लिचितमिति न स्वमनीषिका परिमावनीया । तः। वस्थानेषु च 'कम्म' शब्दे तृतीयभागेऽधिका कृता )। Page #1204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध प्रशस्ताध्यवसानयुक्तो भयो देवेपपद्यते जीवे गं पत्थन्नसाणजुते भविए सम्मदिट्ठी तित्थ करनामसहियाओ ग्रामस्त विनमा यती उचरपगडीश्रो निबंधित माणिएसु देवेसु देवताए उववज्जइ । ( ११८१ ) अभिधानराजेन्द्रः । जीव प्रस्तावखानाऽऽदिविशेषेण वैमानिकामी नामकर्मण एकोनात जित २३-४, कार्यणशरीरे ५-६, समचतुरस्रं संस्थानम् ७, वर्णाऽऽदिचतुष्कम् ८-१-१०-११, देवानुपूर्वी १२ अगुरुलघु १३, उपघातम् १४, पराघातम् १५, उच्क्वासम् १६, प्रशस्त विहायोगतिः १७. सम् १८, बादरम् १६, पर्याप्तम् २०, प्रत्येकम् २१, स्थि स्थिरयोरन्यतरत् २२. शुभाशुभयोरन्यतरत् २३, सुभगम् २४, सुस्वरम् २५, प्रदेयानादेययोरन्यतरत् २६, यशःकीर्तिः २७, निर्माणम् २८, तीर्थकरखेति २६ । स० २६ सम० । सूक्ष्मपरायस्य- मुडुमसंपराच भगवं सुमपरागभावे पमाणो सत्तरस कम्पपगदी निबंधति तं जहा आमविहिपायाव रणे, सुयनाणावरणे, महिनाथावरणे, मणपज्जवनाणामरणे, केवलिनायावर, पक्यावरणं, अक्सुदंस यावर मोहिदंसण वरथं केवलदंसयावर सामावेयसिअं, जसोकिचिनामं, उच्चागोयं, दाणंतरायं, लाभंवरायं भोगंतराय उपयोगंतरायं पीरिअंतरावं । · जीवलेश्या पाक्षिकरष्टिशानाSS दिद्वारैर्बन्धवन्यताजीवा य १ लेस २ पवित्राय १, दिट्ठी ४ भा याय ६ सताओ ७ । वेयकसाए ६ जोगे १०, उभोगे ११ एकारस वि डाये || १ || " सेयं कालेयं तेयं समरणं रायगिहे०जाव एवं वयासी । सेश्याद्वारे सलेस्से णं भंते! जीवे पार्व कम्मं किं बंधी, बंध, बंधि - स्वबंधी बंधिस्स पुछा है। गोषमा प्रत्ये गइए बंधी, बंधर, बंधिस्मर, अत्येगइए एवं चउमंगो | " तथा सूक्ष्मसंपराय उपशमकः क्षपको वा सूक्ष्मलोभकषायकिट्टिकाबेदको भगवान् पूज्यत्वात् सूक्ष्मसंपरायभावे वर्त्तमानस्तच गुणस्थानकेऽवस्थिते नातीताऽऽगत सूक्ष्म संप |कएहलेस्से णं भंते ! जीवे पावं कम्पं किं बंधी पुच्छा ? | परिणामः कर्मप्रकृतीन शिगोथमात्येग बंधी, पंप, बंधिस्त अगर कृति अन्यान बनातीत्यर्थः पूर्वतरे स्थानकेषु बप्रतीत्यान्यासां व्यवधित्वानां स सदशानां मध्यादेका लाताप्रकृतिरूपशान्तमोद्दाऽऽदिषु बमानुपातिव्यवन्ते यदाह" नांश्तरायश्सगं दंसण चत्तारी ४ उच्च १५ जलकिही १६ या सोलस पयडी, सुडुमकसायम्मियो ॥१॥ " सूक्ष्म संपरायास्परे न बन्धन्तीत्यर्थः । स० १७ सम० । ( संयतानां बधः संजत' शब्दे बक्ष्यामि ) ( निर्मन्थानां बन्धः ' णिग्गंथ ' शब्दे चतुर्थभागे २०४१ पृष्ठे गतः ) बंधी, बंध या बंधिस्स एवं जान पहले से सत्य पढमवितिया गंगा सुकलेस्से जहा सलेस्से तदेव चउभंगो । अस्ते! जो पाक कंबंधी पुच्छा ? | गोयमा ! बंधी, ण बंध, ण बंधिस्सर । . (जीवा य ति) जीबाः प्रत्युद्देशकं बम्धवलम्पतायाः स्थानं जोलेश्याः, पाक्षिकाः, डष्टयः, अज्ञानं ज्ञानं, संज्ञाः, वेद, कथा २६६ बंध याः, योगः, उपयोगश्च बन्धवक्तव्यतास्थानम् । तदेवमेतान्येकायापि स्थानानीति गायार्थः तत्रागन्तव पचिरहितं जीवमाधिका (०) अभिधातुमाह जीणं भंते! पावं कम्पं किं बंधी, बंधर, बंधिस्स १ । बंधी, बंध, व बंघिस्सह २ बंधी, सबंध बंधिस्व । २बंधी बंधिस्म है। गोषमा बेगइए जीवे बंधी, बंधर, बंधिस्सर १, अत्थेगइए जीवे बंधी, बंध, बंधिस्स २, अत्येगए जीने बंधी, या पंच, बंधिस्स ३। अत्थेगइए जीवे बंधी, ण बंध, ण बंधिस्सा | (जीवे इत्यादि) (पाक) कर्मबन्धी ति बद्धवान्। (बंध ति ) वर्तमाने ( बंधिस्तद्दति ) अनागते इत्येवं चत्वारो भङ्गा बद्धवानित्येतत्पद लब्धाः न बन्धीत्येतत्परम्यास्त्विद न भवतीतकालेऽस्य जीवस्यासंभवात्तत्र च बद्धवान् बध्नाति, संस्स्यति चेत्येप प्रथमः, अभव्यमाश्रित्य बद्धवान् बध्नाति न मत्स्यतीति द्वितीयः प्राप्तव्यक्षपकत्वं भव्यविशेषमाश्रित्य बद्धवान ब जातीय तृतीय मोहमे बर्तमानमव्यधिशेषमाश्रित्य ततः प्रतिपतितस्य तस्य पापकर्मणोऽवश्य बन्धनान् बद्धवान्न बध्नाति न भत्स्यतीति चतुर्थः क्षीणमोमाश्रित्येति । · 1 " सजीवस्य चत्वारोऽपि स्युः यस्माच्छुक्ललेश्यस्य पा कर्मबन्धक स्वमध्यस्तीति कृष्णलेश्वादिपञ्चकयुक्तस्य स्वाद्यमेव भङ्गकद्वयं तस्य हि वर्णनकालको मोहल क्षणपापकर्मण उपशमः कयो वा नास्तीत्येवमन्त्यद्वयाभावः द्वितीयस्तु तस्य सम्भवति, कृष्णाऽऽदिलेश्यायतः कालान्तरे चपरासी रस्थतीत्येतस्य संम्भवादिति अलेश्यो योगिकेवली तस्य च चतुर्थ पत्र लेश्याभावे बन्धकरवाभाषादिति । " पाक्षिकद्वार करापविणं भंते! जीवे पावं कम् पुच्छा है । गोयमा ! अस्थेगइए बंधी पढमवितिया भंगा। सुकपक्खिए णं भंते ! जीवे पुच्छा ।। गोयमा ! चभंगो भा Page #1205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध (१९८२) बंध अभिधानराजेन्द्रः। णियव्यो । सम्मट्ठिोणं चत्तारि भंगा, मिच्छविट्ठीणं षां च चत्वारोऽपि क्षपणोगशमसम्भवादिति । वेदद्वारे-(सं पढमबितिया, सम्मामिच्छादिट्ठीणं एवं चेव । णाणीणं वेयगाणं पढमवीय त्ति) वेदोदये हि क्षणोपशमौ न स्यातामि त्पाघवयम्-(अवेयगाणं चत्तारि ति स्वकीये वेदे उपशा. चत्तारि भंगा । प्राभिणिबोहियणामीणं नाव मणप न्ते बध्नाति, भत्स्यति च मोहलक्षणं पापकर्म यावरसूचमजवणाणीणं चत्तारि भंगा । केवलणाणीणं चरिमो संपरायो न भवति, प्रतिपतितो वा भन्म्यतीत्येवं प्रथमः । भंगो जहा अलेस्सा । प्रमाणीणं पढमबितिया । एवं तथा वेदे क्षीणे बध्नाति, सूक्ष्मसपरायाऽऽसवस्थायां च न. मतिप्रमाणीणं सुभप्रमाणीणं विभंगणामीण वि माहा- भन्स्यतीत्येवं द्वितीयः, तथोपशान्तवेदः सूचमसम्पराया रसम्मोवउत्ताणं जाव परिगहसमोवउत्ताणं पढमचिति ऽऽदौ न बध्नाति, प्रतिपतितस्तु भंस्यतीति तृतीयः । तथा क्षीणे वेदे सूचमसंपरायाऽऽदिषु न बध्नाति, म चोत्तरया, णोसपोवउत्ताणं चत्तारि सवेदगाणं पढमवितिया । काल भत्स्यतीत्येवं चतुर्थः, बद्धवानिति च सर्वत्र प्रतीत. एवं इस्थिवेदगा परिसवेदगा णसगवेदगाण वि । भवे- मेवेति कृत्वा न प्रदर्शितमिति । कषायद्वारे-(सकसाईणं दगाणं चत्तारि । सकसायीयं चत्तारि, कोहकसाईणं वत्तारि ति) तनाऽऽधो भव्यस्य द्वितीयो भव्यस्थ प्राप्त व्यमोहक्षयस्य तृतीय उपशमकसूक्ष्मसम्परायस्य चतुर्थःक्षपपढमवितिया भंगा । एवं माणकसायस्स वि । मायक कसूचमसम्परायस्य । एवं लोभषायियोऽपि वाच्यम् । (कोसायस्स विलोभकसायरस चत्तारि भंगा । भकसाईणं हुकसाईणं पढमषीय सिहभभ्यस्य प्रथमो द्वितीयो भंते ! जीवे पावं कम्म किंबंधी पुण्यागोयमा ! - भव्यविशेषस्य तृतीयचतुर्थी विहन स्तो, वर्तमानेऽबन्ध. त्येगइए बंधी, ण बंधा, बंधिस्सइ । प्रत्येगइए बंधी, ण कत्वस्याभावात् । ( अकसाईणमित्यादि ) तत्र (बंधी बंधा, ण पंपिस्सह, सजोगिस्स च उभंगो, एवं मणजो न धंधा बंधिस्सा सि ) उपशामकमाथित्य (बंधी न बंधान पंधिस्सा ति) आपकमाश्रित्येति । योगवारेगिस्स वि, वइजोगिस्स वि, कायजोगिस्स मि । भजो (सजोगिस्त चउभंगो ति ) अभव्यभव्यविशेषोपशमकगिस्स परिमो । सागारोवउत्ते चत्तारि अणागारोघरते वि दापकाणां कमेण बरवारोऽप्यबसेयाः । (प्रजोगिस्स चत्तारि भंगा। चरिमो ति) बध्यमानभत्स्यमानरषयोस्तस्याभावादिति । दण्डकाकृष्णपाक्षिकस्याऽऽयमेव भाकद्वयं वर्तमाने बधाभाषस्य सोरइए या भंते ! पावं कम्मं किंबंधी, बंधा, पंधितस्याउमावात् , शुनपाक्षिकस्य तु चस्वारोऽपि, स हि बर. स्सइ पुच्छा। गोयमा! अत्थेगइए बंधी पढमवितिया । बाम्बध्नाति, भत्स्यति च, प्रश्नसमयापेक्षयाऽनन्तरे भवि. सलेम्से णं भंते ! हेरइए पावं कम्म एवं चेव । एवं प्यति समये तथा बद्धवान् . बध्नाति, न भत्स्यति क्षपक. कराहलेस्से विणीललेस्से वि काउलेस्से वि । एवं कएह. स्वप्राप्ती, तथा बज्रयान बध्नाति च उपशमे भत्स्यति च तत्प्रतिपाते ३ । तथा बद्धवान्न बध्नाति न च भंस्पति क्ष. पक्खिए वि सुकपक्खिए वि । सम्मदिड्डी मिच्छादिट्ठी पकत्ये इति । अत एवाS5E-(चउभंगो भाणियब्बो सि) ननु मम्मामिच्छादिट्ठी णाणी भाभिणिवोडियणाणी सुअ. यदि कृष्णपाक्षिकस्य न भत्स्यतीत्यस्य सम्भवाद् द्विती. णाणी श्रोहीणाणी अप्माणी मइप्रमाणी सुअप्रमाणी यो भगक इस्तदा शुक्लपाक्षिकस्याऽवश्यं सम्भवात्कथं विभंगणाणी आहारसमोवउत्तेजाव परिग्गहसमोप्रथम इति । अत्रोच्यते-पृच्छानन्तरे भविष्पत्कालेऽ. वउत्ते सवेदए णपुंसगवेदए सकसाईजाव लोभबन्धकत्वस्य भावात् । उक्त च वृद्धेरिह साक्षेपपरिहारम् कसाई सजोगी मणजोगी बइजोगी कायजोमी सा'बंधिलयबीयभंगो, जुज्जह जा कराहपक्खियाईणं। गारोवउत्ते अणामारोवउत्ते एए सव्वेसु पदेसु पढमधितो सुकपक्खियाणं, पढभो भंगो कहि गिज्झो ॥१॥" तिया भंगा भाणि यन्वा । एवं असुरकुमारस्स वि वत्तउच्यते- - ब्वया , णवरं वेउलेस्सा इस्थिवेदगा पुरिसवेदगा य अ" पुच्छाणंतरकालं, पदपदमो सुक्कपक्खियाईणं । भहिया , णपुंसमवेदगा ण भाइ, सेसं तं चेव सइयरेसिं अविसिद्धिं काल पइचीयो भंगो ॥ १ ॥” इति । वत्थ पढमवितिया भंगा । एवंजाव यणि यकुमारस्स । रष्टिद्वारे-सम्यग्दृष्टश्चत्वारोऽपि भङ्गाः शुक्ल गाक्षिकस्पेव भावनीयाः, मिथ्यादृष्टिमिश्रदृष्टीनामाद्यो द्वविव वर्तमान एवं पुढवीकाइयस्स वि । आउक्कायस्स वि०नाव पंकाले मोहलक्षणपापकर्मणो बन्धभावेनान्यद्वयाभावादत ए. चिंदियतिरिक्खजोणि यस्स सम्बत्य पढमवितिया भंगा, वाह-(मिच्छेत्यादि) शानद्वारे-(केवलणाणीणं चरमो में णवरं जस्स जा लेस्सा दिट्ठीणाणं अमागं वेदो जोगोत्ति ) वर्तमाने एयरकाले बन्धाभावात् । (प्रमाणीणं गो जस्स जं अस्थि तं तस्स भाणियचं , सेसं तपढमवीय त्ति) अज्ञाने-मोहलक्षणपापकर्मण: क्षपणोपशम. हेष । मणूसस्स जच्चेव जीवपदे वत्तब्धया सच्चेव नाभावात् , संज्ञाद्वारे-(पढमवीय त्ति) आहाराऽऽदिसंबो। पयोगकाले क्षपकत्यौपशम कस्वाभावात् । (नोसमोव उत्ताणं णिरवसेसा भाणियमा । वाणमंतरस्स जहा असुरकुचत्तारि ति) नोसंशोपयुक्ता माहारादिषु गुद्धिवर्जितास्ते मारस्स । जोइसियस्स वेमाणियस्स एवं चेव. बरं Page #1206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध बंध (१९८३) अभिधानराजेन्डः। लेस्सायो जाणियवाओ, सेसं तहेव भाणियब्वं ।। यस्याऽभावः पूर्वोक्तयुक्तरवसेयः । चतुर्थः पुनरिहाम्युपेतोऽपि (नरहए णमित्यादि) (पढमवीय चिनारकत्वाऽऽदौ श्रे. सम्यनाऽवगम्यते । यतः (बंधी न बंधति, न बंधिस्सर) सीद्वयाभावात्प्रथमद्वितीयावेव । एवं सलेश्याऽऽदिविशेषितं | इत्येतदयोगिन एव संभवति, स च सले श्यों न भवतीति । नारकपदं वाच्यमेवमसुरकुमाराऽऽदिपदमपि। (मणूसस्स- केचित्पुनराहुरत एव वचनादयोगिता प्रथमसमये घण्टास्यादि )। या जीवस्य निर्विशेषणस्य सलेश्याऽऽदिपदविशे। लालाम्यायन परमशुक्ललेश्याऽस्तीति सलेश्यस्य चतुर्थभरका षितस्य च चतुर्भङ्ग्यादिवलव्यतोक्का सा मनुष्यस्य तथैव नि. सम्भवति,तस्वं तु बहुश्रुतगम्पमिति । कृष्णलेश्याऽऽदिपञ्चके रवशेषा वाच्या, जीवमनुध्ययोः समानधर्मवादिति । तदेवं अयोगित्वस्याभावादाचावेव शुक्ललेश्ये जीवे सलेश्यभाविता सर्वेऽपि पञ्चविंशतिर्दण्डकाः पापकर्माऽऽधित्योक्काः। एवं शा. भता चाच्याः। एतदेवाऽऽह-सुक्कलेस्से इत्यादि ) (अलेस्से माऽऽबरणीयमपि पाथित्य पञ्चविंशतिर्दण्डका याच्या इत्यादि) अलेश्य:-शैलेशीगतः सिद्धश्च तस्य च बलवान पतदेवा च बध्नाति न भत्स्यनीत्येक एवेत्येतदेवाऽऽह-(अलेस्से ज्ञानाबरणीयाऽऽदिकर्मवन्धाः-- चरमो त्ति) (करहपक्खिर पढमबीयपय ति) कृष्णपाक्षिा जीवे णं भंते ! णायावरणिज कम्मं किं बंधी, बंधइ, कस्याऽयोगित्वाऽभावात् । (सुक्कपक्खिए तइयविहण त्ति) बंधिस्सइ, एवं जहेव पावकम्मस्स बत्तब्धया भणिया, शुक्लपातिको यस्मादयोग्यपि स्यादतस्तृतीयविहीमाः शेषातहेव णाणावरणिजस्स वि वत्सम्बया भाणियव्वा, स्तस्य स्युरिति । ( एवं सम्मदिटिस्प्त विति) तस्याऽप्य योगित्वसंभवेन बन्धासम्भवात मिथ्याशिमिश्राध्याश्चोपशवरं जीवपदे मणुस्सपदे य सकसायी०जाव लोभक योगिस्वाभावन वेदनीयाऽबन्धकत्वं नाऽस्तीस्यायावेष स्यासायम्मि य पढपचितिया भंगा भवसेसं तं चेव जाव वे तामत पवाऽऽह-(मिच्छदिट्ठीत्यादि) शानिनः केवलिनवाs. माणिए । एवं दरिसणावरगिज्जेण वि दंडगो भाणियव्यो । योगित्वेऽम्तिमोऽस्ति, आभिनिवाधिकाऽऽदिययोगित्वामा. गिरवसेसं । जीवेयं भंते ! वेदणि कम्मं किं बंधी पुच्छा। यामास्तिम इत्यत्र माह-(माणिस्सेत्यादि) एवं सर्वत्र यत्रागोयमा ! प्रत्येगहए बंधी, बंधइ पंधिस्स; अत्यंगइए योगित्वं सम्भवति तत्र चरमो, यत्र तु तत्रास्ति तनाची द्वादेषेति भावनीयमिति । बंधी, बंधइ, ण बंधिस्सहा अत्यंगहए बंधी, ण बंधा, ण मायुःकर्मदण्डकेअंधिबंध | सलेस्से वि एवं चेव ततियविहणा भंगा। जीवे भंते ! भाग्यकम्मं किं बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ। कपहलेसे नाव पम्हलेस्से पढवितिया भंगा । सुक्का गोयमा ! प्रत्येगहए बंधी चउभंगो । सलस्से०जाव लेस्से नतियविहूणा भंगा। अलेस्से चरिमो भंगो । क-1 सुकलेस्से चचारि भंगा । अलेस्से चरिमो भंगो। यहपक्खिर पढमचितिए सुक्कपक्खिया ततियविहणा, एवं करहपक्खिए णं पुच्छा ? | गोयमा! अत्थेगइए बंधी, सम्मदिहिस्समिच्छादिहिस्स सम्मामिच्छादिद्धिस्स पढ बंधइ, बंधिस्सइ । प्रत्येगइए बंधी, ण बंधइ, बंधिस्सइ। . मबितिया। णाणिस्स ततियविदणा, भाभिणिचोहियणाणी सुकपक्खिए सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी चत्तारि भंगा। सम्मा, जाव मणपजवणाणी पढमवितिया । केवलणाणी त मिच्छादिट्ठी पुच्छा। गोयमा! भत्थेगाइए बंधी, या बंधा, तियविडूणा, एवं णो सप्लोबउत्ते अवेदप असायी सा बंधिस्सइ । अत्थेगइए बंधी, ण बंधइ, ण चंधिस्सइ । गारोवईते भणागारावउत्ते, एएसु तलियविहूणा, अजो- णाणी जाव मोहिणाणी चत्वारि मंगा। मणपज्जवगम्मि य चरिमो, सेसेसु पढमबितिया । नेरइए णं भत्ते ! | णाणी पुच्छा । गोयमा! अगइए बंधी, पंधर, बंधिस्सपेटगि कम्य किंबंधी, बंधइ, बंधिस्सइ । एवं नेरइया- प्रत्येगइए बंधी,ण पंधर,बंधिस्सइ । प्रत्येगइए बंधी, दीया जाच वेमाणिय त्ति जस्स जं अस्थि सम्वत्थ वि ण बंधइ, ण बंधिस्सइ । केवलणागी चरिमो भंगो । एवं पदमवितिया, नवरं मणुस्सेसु जहा जीवे । जीये णं | एएणं कमेणं णो सम्मोवउत्ते बितियविहणो 'जहेव ममाभंते ! मोहणिजं कम्मं किं बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ । जहेव पञ्जवणाणे । अत्रेदए अकसाई य ततियच उत्थो जहेव पावं कम्मं तहेव मोहणिजं पिणिवसेसंजाव वेमाहिए। सम्माविच्छते। अजोगिम्मि चरिमो सेसेसु पदेसु चत्तारि पतच्च समस्तमपि पूर्ववदेव भावनीयं, यः पुनरत्र विशेष स्तत्प्रतिपादनार्थमाह-नवरमित्यादि । पापकर्मदराडके जीव भंगा जाव प्रणागारोवउत्ते। णेरइए पं भंते ! भाउय. पदे मनुष्यपदे च यत्सकपायिपदं लोभकषायिपदं च तत्र सू. कम्म किंबंधी पुच्छा। गोयमा! प्रत्येगइए चत्तारि भंगा. बमसम्परायस्य मोहलक्षणपापकर्मा बन्धकस्वेन बस्यारो भक्त एवं सम्बत्थ वि णेरइयाणं चत्तारि भंगा; णवरं कउक्काहत्वाद्यावेव वाच्याववीतरागस्यज्ञानावरणीयब. राब रहलेस्सेसु कएहपक्खिए य पढमततिया भंगा, सम्मामिन्धकस्वादिति,एवं दर्शनाऽऽवरणीय दण्डकाः, वेदनीयदण्डके छत्ते ततियच उत्यो। असुरकुमारे एवं चेव, णवरं कराहलेप्रथमे भनेऽभव्यो द्वितीये भन्यो यो निर्वास्थति, तृतीयो न संभवति वेदनीयमयखा पुनस्तद्वन्धनस्याऽसम्भवात् । चतुर्थे | स्सेसु वि चत्वारि भंगा भाणियधा, सेसं जहा णेरड्यास्वयोमी। (सखेसे वि एवं चेय तहयविद्या मंय चिहती. यं । एवं जाव थणि यकुमारा। पुडवीकाइयाणं सम्वत्थ Page #1207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध बंध अभिधानराजेन्डः। वि चत्तारि भंगा, गवरं करा पक्खियपनमततियभंगानेर- हिन बध्नाति, प्रतिपतितश्च भत्स्यति, क्षपकस्य चतुर्थः। लेस्से पुच्छा। गोयमा ! बंधी, ण बंधद, बंधिस्सइ) सेसेसु एतदेव दर्शयति-(मणपज्जवेत्यादि) ( केवलनाणे चरमो. सि) केवली हि आयुर्न बध्नाति, न च मत्स्यतीति - सव्वस्थ चत्तारि भंगा, एवं भाउकाइयवणस्सइकाइयाय 'वा, नोसंझोपयुक्तस्य भङ्गकत्रयं द्वितीयवर्ड मनःपयंवववि शिरवसेसं तेउकाइयवाउकाइयाणं सम्बत्थ वि पढमत- सावनीयम् । एतदेवाऽऽह-(एवं पएणं इत्यादि) (अवेदए इतिया भंगा बेइंदियतेइदिवचउरिदियाणं पि सम्वत्थ वि त्यादि ) अवेदकोऽपायीच कपक उपशमको चा, तयो. पढमततिया भंगा,णवरं सम्पत्ते प्राभिणियोहियणाणे सुय 1 वर्तमानबन्धो नास्त्यायुष उपशकश्च प्रतिपतितो भं. स्स्यति, क्षपकस्तु नैव भत्स्यतीति कृत्वा, तयोस्तृतीणाणे ततिओ भंगो । पंचिंदियतिरिक्वजोणियाणं कराहप ययुक्त ४ सवेद रस्त्रीवेदाऽऽदि ३ सकषाय १ धा ऽऽदिकषाक्खिए पदमततिका भंगा, सम्मामिच्छत्ते ततियच उत्थो भ- यसयोमिए मनोयोग्यादि३साकारोपयुक्ताग्नाकारोपयुक्त गो, सम्मत्ते गाणे भामिणिकोहियणाले सुश्रणाणे भोहि लक्षणेषु चत्वार पवेति । नारकदराडके-(चत्तारि भंग त्ति) णाणे, एएमु पंचसु वितियविहणा भंगा, सेसेसु चत्ता तत्र नारक आयुर्वद्धवान् ,बध्नाति बन्धकाले भत्स्यति भवारि भंगा ! मणुस्साणं जहा जीवाणं, वरं सम्पत्ते श्रो. न्तरे इत्येकः,प्राप्तव्यसिद्धिकस्य द्वितीयः,बन्धकालाऽभावं भा विबन्धकाल चोपेक्ष्य तृतीयः। बद्धपरभविकाऽभ्युषोऽनन्तरं हियणाणे सुयणाणे प्रोहियणाणे एपसु वितियविदूणा प्राप्तव्यचरमभवस्य चतुर्थः,एवं सर्वत्र विशेषमाह-(नवरमिभंगा, सेसं तं चेव । वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा त्यादि ) लेश्यापदे कृष्णलेश्येषु नारकेषु प्रथमतृतीयौ। तथाअमरकुमारा । खामगोयं अंतराइयं च पयाणि जहा हि-कृष्णलेश्यो नारको बद्धवान्.बध्नाति,भत्स्यति वेति प्रथ मः प्रतीत एव । द्वितीयस्तु नास्ति, यतः कृष्णलेश्यो नार. खाणावरणिशं सेवं भंते ! भंते ! तिजाव विहरइ । कस्तिर्यसूत्पद्यते मनुष्येषु वा चरमशरीरेषु, कृण्मालेल्या हि पञ्चमनरकपृथिव्यादिषु भवति, न च ततः उवृत्तः सिद्धय(व उभंगो ति) तत्र प्रथमोऽभव्यस्य, द्वितीयो यश्चरम- तीति । तदेवमसौ नारकस्तिर्यगाद्यायुर्वया पुनर्भत्स्यति,अच शरीरो भविष्यति तस्य, तृतीयः पुनरुपशमकस्थ, स या. रमशरीरस्वादिति । तथा कृष्णलेश्यो नारक श्रायुष्काबन्ध. युर्वद्धवान् पूर्वमुपशमकाले न बध्नाति, तत्प्रतिपतितस्तु भ- काले तन वनाति , बन्धकाले तु भंस्यतीति तृतीयः। मस्यति, चतुर्थस्तु क्षपकस्य । स वायुर्वेद्धवान बध्नाति, न चतुर्थस्तु तस्य नास्ति, पाडरबन्धकस्यस्या मावादिति । त. च भत्स्यतीति । "सलेसे" यावत्करणाकृष्णलेश्या था कृष्णपाक्षिकनारकस्य प्रथमः प्रतीत एव, द्वितीयो ना. ऽऽविग्रहः । तत्र यो न निर्वास्यति तस्य प्रथमो, यस्तु चर स्ति, यतः कृष्णपाक्षिको नारक अायुर्षा पुनर्न भन्स्य. मशरीरतयोत्पत्स्यते तस्य द्वितीयः, अगन्धकाले तृतीयः, तीत्येतत्रास्ति,तस्य चरमभवाऽभावात् तृतीयस्तु स्यात्, च. चरमशरीरस्य च चतुर्थः, एवमन्यनाऽपि । अलेस्से चरि- तुर्थोऽपि नोकयुक्तरेवेति । (सम्पमिच्छते तइयच उत्थति) मो ति) अलेश्या-शोशीगनः सिद्धश्च, तस्य च वर्तमा. सम्यस्मिथ्याररायुषो बन्धाभानादिति, असुरकुमारदरा नभविष्यकालयोरायुषोऽबन्धकत्वाच्चरमो भगः, कृष्णपा. के-( कण्हलेस्से वि चत्तारि भंग ति) नारकदण्डके कृष्णक्षिकस्य प्रथमस्तृतीयश्च सम्भवति । तत्र च प्रथमः प्रतीत लेश्यनारकस्य किल प्रथमतृतीयावुनावसुरकुमारस्य तु कृ. एव, तृतीयस्त्वायुष्काबन्धकाले न बध्नात्येवोत्तरकाले तु तदू पण लेश्यस्यापि स्वार एव, तस्य हि मनुष्यमत्यवाप्ती भत्स्यतीत्येव स्यात् । द्वितीयच तुर्थी तु तस्य नाभ्युपगम्येते सिद्धिसम्भवेन द्वितीयचतुर्थयोरपि भावादिति , पृथिवीका. कृष्णपाक्षिकत्वे सति सर्वथा तद्भस्थमानताया अभाव यिकदराडके- कराहपक्खिए पढमतझ्या भंग त्ति) इति विवक्षणात् शुक्लपाक्षिकस्य सम्यग्दृष्टश्च चत्वारस्तत्र युक्तिः पूर्वोक्तवानुसरणीया, तेजोलेश्वापदे तृतीयो भाः बद्धवान् पूर्व बध्नाति च बन्धकाले भत्स्यति चाबन्धकाल- कथं ? कश्चिदेवस्तेजोलेश्वः पृथिवीकायिकेषु उत्पन्ना, स. स्योपरि इत्येका, बद्धवान् , बध्नाति, न भंस्यति चरम चाऽपर्याप्तकाऽवस्थायां तेजोलेश्यो भवति, तेजोलेश्याऽद्धाय शरीरत्वे इति द्वितीयः तथा बद्धवान बनात्यबम्धकाले चापगतायामायुर्वध्नाति,तस्मात् । तेजोलेश्यः पृथिवीकायिक उपशमाऽवस्थायां वा भंस्यति च पुनर्बन्धकाले प्रतिपतितो श्रायुर्वद्धवान् देवत्वेन बध्नाति, तेजोलेश्या ऽवस्थायां भंस्थ. वेति तृतीयः, चतुर्थस्तु क्षपकस्येति, मिथ्यादृष्टिस्तु द्विती ति ब, तस्यामपगतायामित्येवं तृतीयः । (एवं श्राउकाइयव. यभङ्गके न भत्स्यति चरमशरीरप्राप्ती तृतीये न बनात्यब- णस्सइकाइयाण वि त्ति । उक्तन्यायन कृष्णपाक्षिकेषु प्रथ. म्धकाले, चतुर्थे न बध्नास्यबन्धकाले न भत्स्यति च चर• मतृतीयभजी, तेजोलेश्यायां च तृनीभङ्गसम्भवस्तेविस्था मशरीरप्राप्तविति । ( सम्मामिच्छेत्यादि) । सम्यग्मिध्या- थोऽन्यत्र तु चत्वारः (तेउकाइएत्यादि) तेजस्कायकवा. दृष्टिरायुर्न बध्नाति, चरमशरीरत्वे च कश्चिन्न भत्स्यत्यपि युकायिकानां सर्वत्र एकादशस्वपि स्थानकेवित्यर्थः, प्रथा इति कृत्वाऽन्त्यावेवेति शानिनां चत्वारः प्राग्वद्भावयितव्याः, मतृतीयभनी भवतस्ततस्तत उद्वृत्तानामनन्तरं मनुष्येष्व मनःपर्यायमानिनो द्वितीयवर्जाः, तत्रासौ पूर्वमायुर्बद्धवानि. नुत्पत्या सिद्धिगमनाऽभावेन द्वितीयचतुर्थासम्भवात् मनु. दानीं तु दे..ऽऽयुबध्नाति,ततो मनुष्याऽऽयुर्भत्स्यतीति प्रथमः । ध्ये वनुत्पत्तिश्चैतेषां-"सत्तममहिनेरदया, तेऊवाऊअस्पतरूबढ़ान भरस्यतीति न सम्भवत्यवश्यं देवस्खे मनुष्याऽऽयुषो बहा । न य पावे माणुस्सं, नहेव संखाउया सब्वे ॥१॥" बन्धनादिति कृत्वा द्वितीयो नास्ति । तृतीय उपशमकस्य, स । इति वचनादिति । । बेईविएत्यादि ) विकलेन्द्रियाणां Page #1208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध अभिधानराजेन्डः। सर्वत्र प्रथमतृतीयभङ्गो, यतस्तत उवृत्तानामानन्तर्येण सत्य एवं आउयरज्जेसुजाव अंतराइए दंडओ । अणंपिमानुषत्वे निर्वाणाऽभावस्तस्मादवश्य पुनस्तेषामायुषो बन्ध तरोववएणए णं भंते ! औरइए आउयं कम्मं किं बंधी इति । यदुक्तम्-विकलेन्द्रियाणां सर्वत्र प्रथमतृतीयभावित पुच्छा ?। गोयमा! बंधी, ण बंधइ, बंधिस्सइ । सलेति, तदपवादमाह-(नवरं संमत्ते इत्यादि) सम्यक्त्वे शान भाभिनियोधिके श्रुते च विकलेन्द्रियाणां तृतीय एव, यतः स्से णं भंते ! अणंतरोववामए णेरइए आउयं कम्मं किं सम्यक्त्वाऽदीनि तेषां सासादनभावेनापर्याप्तकावस्थायामेव पंधी?, एवं चेव ततिओ भंगो । एवंजाव अणागासेषु चापगतेब्वायुषी बन्ध इत्यतः पूर्वभवे बद्धवम्तः स- रोवउत्ते सव्वत्थ वि ततिम्रो भंगो । एवं मणुस्सबज म्यक्त्वाऽऽद्यवस्थायां न बध्नन्ति,तदनन्तर श्च भंस्यतीतित . जाव वेमाणिया। मणुस्साणं सम्वत्थ ततिमो चतीय इति । (पंचिदियतिरिक्खेत्यादि) पश्चेन्द्रियतिरश्चां कृष्णपाक्षिकपदे प्रथमतृतीयौ कृष्ण पाक्षिको हि श्रायुद्धा उत्थो भंगो, णवरं काहपक्खिपसु ततिओ भंगो सअवता घा तदबन्धकोऽनन्तरमेव न भवति तस्य सिद्धिगा। ब्वेसिं णाणताई चेव । सेवं भंते ! भंते !त्ति । मनाऽयोग्यत्वादिति । (सम्मामिच्छत्ते तयच उत्थि त्ति) स: (अखंतरोववाए णमित्यादि) इहाऽऽद्यावेव भजी, अनन्तम्यग्मिध्यादरायुषो बन्धभावात् तृतीयचतुर्थावेव, भावितं | रोत्पन्ननारकस्य मोहलक्षणपापकर्माबन्धकस्वासम्भवात्तद्धि तत् प्रागेवेति । ( संमत्ते इत्यादि ) पश्चेन्दियतिरश्चां सम्यक सूचमसम्परायादिषु भवति, तानि च तस्य न संभवम्तीति स्वादिषु पञ्चसु.द्वितीयवर्जा भङ्गा भवन्ति । कथम् , यदा (सव्वत्थ त्ति) लेश्याऽऽदिपदेषु, एतेषु च लेश्याऽदिपदेषु सा. सम्यगृष्ट्यादिः पश्चेन्द्रियतिर्थायुर्बध्नाति तदा देवेष्वेष, मम्यतोनारकाऽऽवीनां सम्भवन्त्यपि,यानि पदाभ्यनन्तरोत्पन. स च पुनरपि भत्स्यतीति न द्वितीयसम्भवः, प्रथमतृतीयौ तु नारकादीनामपर्याप्तकत्वेन सन्ति, तानि तेषां न प्रच्छनीप्रतीतावेन,चतुर्थः पुनरेवम् यदा मनुष्येषु बद्धाऽऽयुरसौ स. यानीति दर्शपनाह-(नवरमित्यादि) अत्र सम्यमिथ्या. म्यक्त्वाऽदि प्रतिपद्यतेऽनन्तरं च प्राप्तव्यचरमभवस्तदेवेति त्वाऽ शुक्लत्रयं यद्यपि नारकाणामस्ति तथाऽपीहानन्तरोत्पन्न (मगुस्साणं जहा जीवाणं ति) इति विशेषमाद्द-(नवरमित्या. तया तेषां तन्नास्तीति न प्रच्छनीयमेवमुत्तरत्रापि । आयु:दि) सम्यक्त्वसामान्यज्ञानाऽऽदिषु पञ्चसु पदेषु मनुष्या द्वि. कर्मदण्डके-(मणुस्साणं सम्वत्थ तयचउत्थ त्ति ) य. तीयविहीनाः । भावना चेह पञ्चेन्द्रियतिर्यकसूत्रबदवसेयेति ।। तोऽनन्तरोत्पन्नो मनुष्यो नायुबध्नाति, भन्स्यति पुनश्चभ०२६ श.१ उ०। रमशरीरस्त्वसौ न बध्नाति, न च भन्स्यतीति (करहप्रथमोद्देशके जीवाऽऽदिद्वारैकादशकप्रतिबद्धनवभिः पाप- पक्खिएसु ताओ त्ति ) कृष्ण पाक्षिकत्वेन न भत्स्यतीत्येत. कर्माऽदिप्रकर गैर्जीवादीनि पञ्चविंशतिजीवस्थानानि स्य पदस्याऽसम्भवात् तृतीय एव । ( सम्वेसिं नाणत्ताई तानिरूपितानि, द्वितीयेऽपि तथैव तानि चतुर्विंशतिनिरूप्यः | ईचेव त्ति) सर्वेषां नारकाऽऽदिजीवानां यानि पापकर्मद म्ते, इत्येवं संबद्धस्याऽस्येदमादिसूत्रम् एडकेऽभिहितानि नानात्वानि तान्येवाऽऽयुदण्डके ऽपीति । अयंतरोववष्णए ण भंते ! मेरइए पावं कम्मं किं बं भ०२६ २०२ उ०। धी पच्छा तहेव । गोयमा ! अत्थेगाइए बंधी प- परंपरोववणए णं भंते । णरइए पावं वम्मं किंबंधी उमचितिया भंगा । सलेस्से णं भंते अणंतरोववले णेर- पुच्छा । गोयमा ! अत्थेगइए पढमवितिमो एवं जहेव पइए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा ? । गोयमा! पढमवि- ढमओ उद्देसो तहेव परंपरोववमएहिं विइनो उद्देसमो तिया भंगा, एवं खलु सम्बत्य पढमवितिया भंगा, भाणियव्यो । णेरइयादीनो तहेव णवदंडगसंगहियो यावरं सम्मामिच्छत्तं मणजोगो वइजोगो य ण पुच्छि- अट्टराह वि कम्मपगडीणं जा जस्स कम्मरस बत्तम्बया अइ, एवं जान थणि यकुमारा । बेइदियतेइंदियचउ- सा तस्स बहीणमतिरित्ता णेयवा जाव बेमाणिया, रिदियाशं बइजोगो ण भइ । पंचिंदियतिरिक्खजो- अणागारोव उत्ता सेवं भंते ! भंते ! ति। णियाणं पि सम्मामिच्छत ओहिणाणं विभंगणाणं म. ( परंपरोववमए णमित्यादि ) (जहेव पढमो उद्देसी णजोगो वइजोगो एयाणि पंच ण भमंति । मणु त्तिजीवनारकाऽऽदिविषयः केवलं तत्रजीवनारकाऽऽदिपञ्च विंशतिः पदाम्यभिहितानि,इह तु नारकाऽऽदीनि चतुर्विंशतिस्साण अलेस्सासम्मामिच्छत्तमणपजवणाणकेवलणाण रेवेत्येतदेवाऽऽह-(णेरइयानोत्ति) नारकाऽऽदयोऽत्रधाच्या विभंगणाणणोसपोवउत्ते अवेदगअकसायी मणजोगी व. इत्यर्थः । ( तहेव नवदंडगसंगहिरो ति) पापकर्मझानाss. इजोगी अजोगी एयाणि एकारस पयाणि ण भमंति। वरणाऽऽदिप्रतिवद्धा ये नव दण्डकाः प्रागुक्तास्तैः संगृहीयोवाणमंतरजोइसियवेपाणिया जहा मेरइयाणं तहेव ति- युक्तो य उद्देशकः स तथा । भ० २६ श० ३ उ० । wि ण भवंति , सव्वेसिं याणि सेसाणि ठाणाणि स एवं चतुर्याऽऽदय एकादशाऽन्ताःबत्थ पढमवितिया भंगा। एगिदिया सव्वत्य पढमवि- अणतरोवगाढए णं भंते ! णेरइए ण पावं कम्मं किंबंधी तिया जहा पाबे । एवं पाणावरणिज्जेण वि दंडओ, पुच्छा। गोयमा! अत्थेगइए एवं जहेव अणंतरोववमएहिं Jain Education Interational Page #1209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध बंध अभिधानराजेन्छः। शवदंडगसहिओ उद्देसो भणियो तहेच अणतरोवगा- वरं जेसु तत्थ वीससु पदेसु चत्तारि भंगा तेसु इहं द वि अहीणमतिरित्तो भाणियन्यो, णेरइयादीए. आदिल्ला तिमि भंगा भाणियन्वा चरिमभंगवज्जा । जाव वेमाणिए । सेवं भंते ! भंते ! ति । परं- अलेस्सा केवलणाणी अजोगी य एए तिणि वि ण परोवपाढए णं भंते ! औरइए पावं कम्मं किं बंधी, | पुच्छिअंनि, सेसं तहेव । बाणमंतरजोइसियवेमाणिए ज. जहेव परंपरांववमएहिं उद्दसो सो चैव हिरवसेसो भा- हा णरइए । अचरिमे णं भंते ! णेरइए णाणावरणिजं णियब्बो, सेवं भंते ? भंते ! ति । अणंसराऽऽहारए णं भंत! कम्मं किं बंधी पुच्छा ?। गोयमा ! एवं जहेव पावं सावरं परइए पावं कम्मं किंबंधी पुच्छा । गोयमा! एवं जहेव मणुस्सेसु सकसाईमु लोभकसाएमु य पढमवितिया भंअहंतरोववारहिं उसो तहेव हिरवसेसो, सेवं भंते ! भंते! गा, सेसा अट्ठारस चरिमविहणा सेसं तहेव० जाव घेमाति। परंपराऽऽहारए भंते णेरइए पावं कम्मं किंबंधी, णिया। दरिसणावरणिजं पि एवं चेव हिरवसेसं । वेपुच्छा! । गोयमा ! एवं जहेव परंपरोववाएहिं उदेसो यणिजे सव्वस्थ वि पढमवितिया भंगा जाप वेषातहेव शिरवसेसो भाणियन्वो, सेवं भंते ! भंते ! ति। णिया, णवरं मणुस्सम अलेस्स केवली अजोगी य - मांतरपजनए णं भंते ! णेरइए पावं कम्मं किं त्यि । अचरिमे णं भंते ! परइए मोहणिज्ज कम्मं किं बंधी पुरुछा ? । गोयमा ! एवं जहेव अतरोबव बंधी पुच्छा । गोयमा ! जहेव पावं तहेव हिरवसेसं - साहिं उसो तहेव हिरवसेस, सेवं भंते ! भंते ! ति । जाव वेमाणिए । अचरिमे णं भंते । णेरइए भाउयं कम्म परंपरपजनए णं भंते ! मेरइए पावं वम्मं किं किंबंधी पुच्छा । गोयमा पढमततिया भंगा । एवं सबंधी पुच्छा । गोयमा ! एवं जद्देव परंपरोववमाएहिं बपदेसु बिणेरइयाणं पढमततिया भंगा, णवरं सम्माउदेसो तहेव गिरवसेसो भाणियन्वो, सेवं भंते ! मिच्छत्ते ततिम्रो भंगो । एवं जाव थणियकुमारा । भंते ! ति। पुढवीकाइयभाउकाइयवणस्सइकाइयाणं तेजोलेस्साए त तिमो भंगो। सेसेसु पदेसु सम्बत्य पढमततिया भंगा । (भयंतरोषगाढेत्ति) उत्पसिसमयापेक्षया बानन्तराबगाढव. मयसेवम्, अन्यथाऽनम्तरोस्पनानन्तराऽवगाढयोनिर्विशेषता तेउकाइयबाउकाइयाणं सम्वत्थ पढमततिया भंगा। बेईम स्थाबुक्लाबासी-"जहेब पाणमंतरोववाहि" इत्यादिना दियतेइंदियचउरिदियाणं एवं चेव, णावरं सम्मत्तमोहियएवं परम्परावगाढोऽपि (अणंतराऽऽहारए सिमाहारकत्य- | णाणे आभिणिबोहियणाणे सुप्रणाणे एएसु च अमुवि ठाप्रथमसमयवर्ती परम्पराहारकस्वाहारकत्वस्य द्वितीयास ततियो भंगो। पंचिदियतिरिक्ख जोणियाणं सम्मादिसमयवर्ती (मणंतरपज्जत्तए सि) । पर्याप्तकरवप्रथमसमय मिच्छत्ते ततिओ भंगो, सेसपदेसु सम्वत्थ पढपततिया वर्ती। सच पर्याप्तिसिद्धावपि तत उत्तरकालमेव पापकमीऽऽविवन्धलक्षणकारी भवतीत्यसावनन्तरोपपत्रकवद् व्यः भंगा, मणुस्साणं सम्मामिच्छत्ते अवेदए अकसाइम्मि पविश्यते । मत पवाऽऽह-(एवं जहेव अणंतरोववस्मए य ततियभंगो। अलेस्सकेवलणाणप्रजोगी यण पुहीत्यादि) च्छिअंति, सेसपदेसु सम्बत्य पढमततिया भंगा, वाण-- चरमाऽचरमौ मंतरजोइसिया वेमाणिया जहा परइया । णाम गोयं मंतचरिमेयं मं! येरइए पावं कम्मं किंबंधी पुच्छा। राइयं च जव णाणावरणिजं तहेव णिरक्सेसं, सेवं गोयमा! एवं जहेच परंपरोववस्मरहिं उसो तहेव भंते ! भंते ! ति जाव विहरइ ॥ परिमेहिं हिरवसेस, सेवं भंते ! भंते ! ति 10 जान वि. | (सरिमे गं भंते ! नेरइए ति) चरमो यः पुनस्तं हरह। अचरिमे णं मंते ! मेरा कि भवं न प्राप्स्यति । (एवं जहेवेत्यादि)हम यद्यपि अ. बंधी पुच्छा ? । गोयमा । अन्यमय माहव बढमुद्देसए विशेषेणाऽतिदेशः कृतस्तथापि विशेषोऽवगन्तव्यः तथाहि. चरमोद्देशकः परम्परोपपत्रकोद्देशकववाच्य इत्युक्तं परंपरोतदेव पदमवितिम्रो भाणियब्बो सम्बत्य • जाव पचिंदिय देश कश्च प्रथमोद्देशकबत् , तत्र मनुष्यपदे मायुष्कापेक्षया तिरिक्खजोणियाणं । भचरिमे शं भंते ! मणुस्से पानं सामान्यतश्चत्वारो भङ्गा उक्लास्तेषुच चरममनुष्यस्याऽऽ:कम्मं किंबंधी पुच्छा है। गोयमा ! अत्यंगइए बंधी , कर्मबन्धमाश्रित्य चतुर्थ एव घटते, यतो यश्चरमोऽसावा. अंघा घिस्सह, मत्थेगइए बंधी. पंधर, ण बंधिस्सइ ।। युर्वद्धवान बध्नाति, न व भत्स्यतीति , अन्यथा चरमस्व मेष न स्यादित्येवमम्यत्रापि विशेषोऽवगन्तव्य इति । अब अत्यगाए बधी,ण पंधर,ण बंधिस्सइ । सलेस्से णं भंते ! रमो यस्तमेष पुनः प्राप्यस्यति, तत्राचरमोहेशक पञ्चेन्द्रिय. अपरिमे मणुस्से पावं कम्म किंबंधी, एवं चेव तिमि | तिर्यगन्तेषु पदेषु पापकर्माऽऽभित्याssो भाका मनुष्याणां भंगा चरिमविया भाशियम्वा, एंजोव पटमुरेसे, ण-तुचरमभावोसया, यतश्चतुर्थश्चरमसति । एतदेव वर्ग Page #1210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध (११८७) अभिधानराजेन्डः। यति-(अचरिमे भंते! मासे इत्यादि) (वीससु प. याऽसंजए बंधा। गोयमा! संजए सिय बंधइ, सिय नो पसु चि) तानि चैतानि-जीव १ सलेश्य २ शुकलेश्य ३शु. बंधह, असंजए बंधइ, संजयाऽसंजए वि बंधह, नो संजए नो पाक्षिक ४ सस्यराष्टिशानि५-६मतिक्षाम्यादिचतुष्य १० नो. असंजए नो संजयाऽसंजए न बंधइ । एवं आउगवलामो संशोपयुक्ता ११ वेद १२ सकषाय १३ लोभकषायि १४ सयोगि २५मनोयोग्यादित्रय १८साकारोषयुक्ता१नाकारोपयुक्तलक्ष । सत्त विभाउने हेडिल्ला तिखि भयणाए उवारिलो न बंधा। णानि २० । एतेषु च सामान्येन भजकचतुष्कसम्भवेऽप्य भ०६ श०३ उ०।श्वरमस्वाम्मनुष्यपदे चतुर्थो नास्ति, चरमस्यैव तद्भावा दृष्टिसंझादिति । (प्रलेस्से इत्यादि ) अलेश्याऽऽदयनयश्वरमा एव | नाणावरणिजंणं भंते ! कम्पं किं सम्मदिट्टी बंधइ पिभवन्तीति, ते चेहन इष्टव्यामानाऽऽवरणीयदण्डकोऽप्येवं । च्छट्टिी बंधइ, सम्पामिच्छट्टिी । गोयमा ! सम्मद्दिट्ठी मवरं विशेषोऽयम्-पापकर्मदण्डके सकषायलोभकपायिषु मा. सिय बंधइ.सिय नो बंधह, मिच्छविट्ठी बंधइ, सम्मापिच्छचाखयो भाका उक्का, वाद्यौ द्वावेव , यतःपते शा| विद्वी बंधइ । एवं आउगवजामो सत्त वि आउए हेहिया दो मावरणीयमबद्धा पुनर्बन्धका न भवन्ति । कषायिणां सदै. वज्ञानावरण बन्धकत्वाचतुर्थस्वचरमत्वादेवन भवतीति । भयणाए सम्मामिच्छविहीन बंधइ । नाणाऽऽवरणं किं सत्री (घेयणिज्जे सम्वत्थ वि पढमवीय ति) तृतीयचतुर्पयोर- बंधा,अप्सनी बंधइ,नो सन्नी,नो प्रसन्नी बंधइ । गोयमा ! सम्भवादेतयोहि प्रथमः प्रागुक्तयुक्तन सम्भवति , द्वितीय सन्नी सिय बंधइ, सिय न बंधइ, असबी बंधइ, नो सन्नी नो सवयोगित्व एष भवतीति । आयुईण्डके-अचरिमे णं भ. सन्नी न बंधइ, एवं वेयणिज्जाऽऽउगवनाओ छ कम्मपते ! नेहए इत्यादि) (पढमतिया भंग त्ति) तत्र प्रथमः प्रतीत एव , द्वितीयस्त्वचरमत्वान्नास्त्यचरमस्य वायुम्भो. गडीओ वेयणिजं हेहिल्ला दो बंधइ, उचरिला भयणाए ऽवश्यं भविष्यत्यन्यथाऽचरमत्वमेव न स्यादेवं चतुर्थोऽपि आउगं हेदिल्ल। दो भयणाए उवरिल्ले न बंधद ।। तृतीये तु न बध्नात्यायुस्तदबन्धकाले पुनर्भत्स्यत्यचरमस्वादि. (सम्मद्दिट्ठी सिय त्ति। सम्यग्दृष्टिः वीतरागस्तदितरच ति, शेषपदानां तु भावना पूर्वोक्तानुसारेण कर्तव्येति । भ. स्यात्तत्र वीतरागो शानावरण न बध्नात्येकविधबन्धक२६ २०११ उ० (किं कर्मबन्ध कतिकर्मप्रकृतीनाति, कति त्वादितरश्च बनातीति च्यातिय गि वादितरश्च बध्नातीति स्यादित्युक्त, मिथ्यारष्टिमिधरधी वेदयते, इति ' कम्म' शब्ने तृतीयभागे २६१ पृष्ठे उक्लम्) । तु बभनीत पवेति (पाउए हेटिला दो भयणाए चि) शानाऽवरणीयं कर्म किं स्त्री बनाति, पुरुषो सम्यग्दृष्टिमिध्यादृष्टी प्रायुः स्याद्वनीतः स्यान्न बानीत इस्य. वा इत्यादिवलव्यता र्थः। तथाहि-सम्यग्दृष्टिरपूर्वकरणाऽऽदिरायुर्न बध्मातितरनाणावरणिज्ज णं भंते ! कम्मं किं इत्थी बंधइ, पुरिसो। स्तु मायुर्वन्धकाले तद्वध्नाति, अन्यदा तुन बध्नास्येवं मि. बंधा, नपुंसनो बंधड, नो इत्यी नो पुरिसो नो नपुंसमो ध्यादृष्टिरपि, मिष्टिस्त्वायुर्न बध्नास्येव, तद्वन्धाऽध्यवसाय स्थानाभावादिति । संझिद्वारे-(सन्नी सिय बंधा ति) संझी बंध। गोयमा! इत्थी वि बंधइ, पुरिसो वि पंधइ, नपुं मनःपर्याप्तियुक्तः, स च यदि वीतरागस्तदा शानाऽऽधरणं न सो वि बंधइ, नो इत्थी नो पुरिसो,नो नपुंसओ सिय बंधइ, बध्नाति, यदि पुनरितरस्तदा बध्नाति ततः स्यादित्युक्तम् । सिय नो बंधइ । एवं भाउगवजारो सत्त कम्मपगडीओ। (प्रसन्नीबंधात्ति)मनःपर्याप्तिविकलो वनात्येव । (नो आउगं भंते ! कम्मं किं इत्थी बंधइ, पुरिसपुच्छा । सन्नीनोअसन्नित्ति)केवली सिद्धश्च न बध्नाति, हेत्वभावागोयमा! इत्थी सिय बंधइ, सिय नो बंधइ, एवं तिमि वि त्। (बेयणिज हेडिल्ला दो बंधंति ति) संझी असंही च वेदनीयं बनीत, अयोगिसिद्धवांनां तन्धकत्वात् । (उभाणियब्वा । नो इत्थी नो पुरिसो नो नपुंसमोन बंधा। वरिल्ले भयणाएं ति) उपरितनो-नोसंझी नोसंबी, सब (नाणावरणि जे णं भंते ! कम्मं किं इस्थी बंधा) स्या सयोगायोगकेवली सिद्धश्च, तत्र यदि सयोगकेवली तदा दि प्रशस्तभम स्त्री न पुरुषो न नपुसंको वेदोदयरहितः, बेदनीयं बध्नाति, यदि पुनरयोगकेवली सिद्धो वा, सदान स चानिवृत्तिवादरसंपरायप्रभृतिगुणस्थानकवी भवति.तत्र बध्नाति, अतो भजनयेत्युक्तम् । (प्राउगं हेदिखा दो भयथाए थाऽनिवृत्तिबादरसंपरायसूबमसंपरायी ज्ञानावरणीयस्य ति) संझी चाऽऽयुः स्याद्वनीत, अन्तर्मुहूर्तमेव तदधात् । बन्धको सप्तविधषविधबन्धकत्वात् उपशान्तमोहादि ( उवरिल्ले न बंधा त्ति) केवली सिद्धश्चाऽऽयुर्न बनातीति । स्वबन्धक एकविधयन्धकस्वादत उक्तम्-स्यावभ्नाति स्यान्न भवसिद्धिद्वारम्बध्नाति, इति । (भाउगं णं भंते !) इत्यादि प्रश्नस्तत्र नाणावरणिज कम्मं किं भवसिद्धिए बंधइ, भभवसिस्यादित्रयमायुः स्याद्वध्नाति, स्थान बनाति, बम्धकाले बध्नाति, अबन्धकाले न बनात्यायुषः सहदेव का भवे दिए, नो भवसिद्धिए नो प्रभवसिद्धिए बंध। गोयमा ! बन्धात् निवृत्तस्यादिवेदस्तु न बध्नाति, निवृसिवा- भवसिद्धिए भयणाए अभवसिद्धिप धइ, नो भवसिद्धिए बरसंपरायाऽविगुणस्थानकवायुर्वन्धस्य व्यवच्छिन्नत्वात्। नो अभवसिद्धिए न बंधइ, एवं भाउगवला सत्त वि संयतः भाउगं हेडिल्ला दो भयणाए उवरिलो नबंध ॥ खाणावरणिजं णं भंते ! कम्मं किं संजए बंधा, असंजए, (भयसिद्धिए भयणाए त्ति) भवसिद्धिको यो वीतराग। एवं संजयाऽसंजए बंधइ, नो संजए नो असंजए नो संज- सन बध्नाति नानाऽऽवरणं तदन्यस्तु-भब्यो बध्नातीति Page #1211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध बंध (१९८८) अन्निधानराजेन्द्रः। भजनयेत्युक्तम् । (नौ भवसिद्धिए नो अभवसिद्धिए नि) नो अपरित्ते बंधइ ? गोयमा परित्ते भयणाए अपरित्ते बंधइ, सिद्धः स च न बध्नाति । भाउयं दो हेढिला भयणाए] नो परिते नो अपरिने न बंधह, एवं पाउमवजानी त्ति) भव्योऽभव्यश्वाऽऽयुर्वन्धकाले बध्नीतोऽन्यदा तु न ब. नीत इत्यतो भजनयेत्युक्तम्। ( उवरिल्ले न बंधा त्ति ) सत्त कम्मप्पगडीओ आउए परित्तो वि अपरित्तो वि भयसिद्धो न बध्नातीत्यर्थः। णाए नो परित्तो नो अपरित्तो न बंधइ ।। दर्शनद्वारे (परित्ते भयणात्ति) परीतः-प्रत्येकशरीरोऽल्पर्ससारोवा, नाणाऽऽवरणं किं चक्खुदंसणी बंधइ, अचक्खुदंसणी | सच वीतरागोऽपि स्यान्न चासौ ज्ञानाऽऽवरणीयं बध्नाति, बंधइ, मोहिदसणी पंधइ, केवलदसणी बंधह? | गोयमा! समगपरीतस्तु बनातीति भजना । ( अपरित्तपंधर सि) हडिल्ला तिमि भयणाए उवरिने ण बंधइ, एवं वेयणिज्जव. अपरीतः साधारणकायोऽनन्तसंसारः, सच बध्नाति । (नो परित्ते नो अपरित्ते न बंधहत्ति) सिद्धो न बध्नातीत्यर्थः। आमो सत्त वि वेयणिजं देहिला तिमि बंध केवलदसणी (आउयं परित्तो वि अपरित्तो वि भयणाए त्ति) प्रत्येकशरीराभयणाए॥ ऽऽदिः आयुर्वन्धकाल पवाऽऽयुबंधनातीति न तु सर्वदा ततो (हेटिल्ला तिमि भयणाए ति) चक्षुरवधिदर्शनिनो यदि छ- भजनेति, सिद्धस्तु न बध्नात्येवेत्यत श्राह-(ो परिते अस्थीतरागास्तदान शानावरणं बध्नन्ति, वेदनीयस्य च इत्यादि) बन्धकस्वात्तेषां सरागास्तु बध्नन्ति अतो भजनयेत्युक्तम् । शानद्वारे(उबरिल्लन बंधा त्ति) केवलदर्शनी भवस्थः सिद्धो वा न णाणाऽऽवरणं किं आभिणिवोहियनाणी बंधइ सुयनामी बध्नाति. हेत्वभावादित्यर्थः। (वेयणिज देटिल्ला तिन्नि पंधर मोहिनाणी मणपजवनाणी केवलनाणी हेडिल्ला चत्तारि ति) आचाखायो दर्शनिनः छमस्थवीतरागाः सरागाश्च वेदनीयं बघ्नन्त्येव । (केवलदसणी भयणाए त्ति) केवलद भयणाए केवलनाणी न रंधर, एवं वेयणिज्जवजामो शनी-सयोगिकेवली बध्नाति, अयोगिकेवली सिद्धश्व न सत्त विवेयणिज्जं हेढिल्ला चत्तारि बंध केवलनाणी भयणाए बनातीति भजनयेत्युक्तम् । णाणाऽऽवरणं किं मतिप्रमाणी बंधइ, सुमनपाणी, विपर्याप्तद्वारे भंगणाणी गोयमा! आउगवजाओ सत्त वि बंधइ, नाणाऽऽवरणिजं कम्मं किं पजत्तो बंधइ, अपजत्तो पाउग भयणाए। बंधह नो पजत्तो नो अपज्जत्तो बंधही । गोयमा ! पज (देटिल्ला चत्तारि भयणार त्ति) भाभिनिवाधिकहानिप्र. पए भयणाए अपजसए बंधइ, नो पञ्जत्तए नो अपज्जत्तए भृतयश्चत्वारोहानिनो ज्ञानाचरणं वीतरागाऽवस्थायांन ब. म बंधइ, एवं भाउगवज्जाओ पाउगंदेटिल्ला दो भयणाए भनन्ति, सरागावस्थायां तु बनम्तीति भजना। (यणिज्ज उरिल्ले ण बंध०॥ हेविल्ला चत्तारि वि बंधंतीति ) वीतरागाणामपि छमस्थानां (पज्जत्तए भयणाए त्ति) पर्याप्तको वीतरागः सरागश्च वेदनीयस्य बन्धकत्वात् । (केवलणाणी भयणाए ति ) स. स्यात्तत्र वीतरागो शानाऽऽधरणं न बध्नाति, सरागस्तु ब. योगकेवलिनां वेदनीयस्य बन्धनादयोगिनां सिद्धानां चाभनाति, ततो भजनयत्युक्तम् । (नो पज्जत्तए नो अपजसएन | बन्धनाद् भजनेति । बंधा सि) सिद्धोन बध्नातीत्यर्थः। ( पाउगं देटिला दो योगद्वारेभयणाए ति) पर्याप्तकाऽपर्याप्तकावायुस्तद्वन्धकाले बध्नी- णाणाऽऽअरणं किंमणजोगीण बंधइ,वइजोगी कायजोगी तोऽन्यदा नेति भजना । (उवरिल्ले नेति) सिद्धो न बध्ना- जोगी बंधर। गोयसाहिटिला तिति यस तीत्यर्थः। भाषक: गीन बंधइ । एवं वेयणिजबजाओ वेयणिज्ज हडिल्ला नाणाऽऽवरणं किं भासए बंधइ, अभासए । गोयमा दो बंधइ, अजोगी न बंधइ ।। विभयणाए, एवं वेयणिज्जवज्जाओ सत्त वेयणिज्ज, भासए (हेटिल्ला तिन्नि भयणाए त्ति) मनोवाकाययोगिनो ये उपपंधइ, प्रभासए भगणाए । शान्तमोहनीयमोहसयोगिकेवलिनस्ते ज्ञानाचरणं न बध्नभाषको भाषालब्धिमांस्तदम्यस्त्वभाषकस्तत्र भाषको बीत न्ति, तदन्ये तु वध्नन्तीति भजना । ( अजोगी न बंधा ति) अयोगी-योगकेवली सिद्धश्च न बनातीत्यर्थः । (धेय. रागीशानावरणीयं न बध्नाति, सरागस्तु बध्नाति, अभा. णिज्ज हेढिल्ला बंधति त्ति) मनोयोग्यादयो बध्नन्ति, सयो. षकस्त्वयोगी सिद्धश्चन बध्नाति, पृथिव्यादयो विग्रहग गानां वेदनीयस्य बन्धकत्वात् । ( अजोगी ण बंधा ति) त्यापनाच यमनम्तीति । (दोषि भयणाए ति) इत्युक्तम् । प्रयोगिनः सर्वकर्मणामबन्धकत्वादिति । (बेयणिज भासप त्ति)सयोग्यवसानस्याऽपि भाषकस्य सवे उपयोगद्वारेदनीयबम्धकत्वात् । (अभासए भयणाप त्ति) प्रभाषकस्वयोगीसिद्धश्चन बध्नाति, पृथिव्यादिकस्तु बध्नातीति भजना। नाणावरणं किं सागारोवउत्ते बंधइ, अनागारोवउत्ते वंपरीतद्वारे घइ। गोयमा ! अट्ठसु वि भयणाए । याणाऽऽवरणं किं परित्ते बंधइ. अपरित्ते बंधइ, नो परित्ते! (अट्ठसु वि भयणाए ति) साकाराऽनाकारावुपयोगी सयो Page #1212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध बंध अभिधानराजेन्डः। गानामयोगानां च स्यातां तत्रोपयोगद्वयेऽपि सयोगा ज्ञा- नपुंसगवेयगा अणंतगुणा , एएसिं सव्वेसि पयाणं अनाऽऽवरणाऽऽदिप्रकृतीर्यथा योगं बध्नन्ति, अयोगास्तु नेति प्पबहगाई उच्चारियवाई जार सम्बत्योवा जीवा भजनेति । अचरिमा चरिमा अणंतगुणा। सेवं भंते ! भंते ! ति । आहारद्वारेनाणाऽऽवरणं किं पाहारए बंधइ, प्रणाहारए बंधइ ? । (इस्थिवेयगा संखेजगुणे त्ति ) यतो देवनरतिर्यकपुरुः षेभ्यः तस्त्रियः क्रमेण द्वात्रिंशत्सप्तविंशतित्रिगुणा-द्वात्रिं. गोयमा ! दो वि भयणाए, एवं बेयणिजाउगवआणं शत्सप्तविंशतित्रिरूपाधिकाश्च भवन्तीति । (अवेयगा अणंछगह वेयणिज्जं श्राहारए बंधइ, अणाहारए भयणाए तगुण त्ति) अनिवृत्तिबादरसम्परायाऽऽदयःसिद्धाश्चाऽवेदाः, श्राउए आहारए भयणाए प्रणाहारए न बंधइ ॥ अतस्तेऽनन्तत्वात् स्त्रीषदेभ्योऽनन्तगुणा भवन्ति । (नपुंस. (दो घि भयणाए त्ति) आहारको वीतरागोऽपि भव- गवेयगा अणंतगुण त्ति ) अनन्तकायिकानां सिद्धेभ्योऽन. ति, न चासौ ज्ञानाऽऽवरणं बध्नाति, सरगस्तु बध्नाती- न्तगुणानामिह गणनादिति । (परसिं सम्वेसिमित्यादि) ति श्राहाको भजनया बध्नाति, तथा अनाहारका के- एतेषां-पूर्वोक्तानां संयताऽऽदीनां चरमान्तानां चतुर्दशानां द्वा. वली विग्रहगत्यापनश्च स्यात्तत्र केवली न बध्नाति - राणां तद्गतभेदाउपेक्षयाऽल्पबहुत्वमुच्चारयितव्यम् । तद्यथातरस्तु बध्नातीति अनाहारकोऽपि भजनयेति । (वेयणिं- " एएसिणं भंते ! संजयाणं असंजयाणं संजयाऽसंजयाज्जं आहारए पंधर त्ति) अयोगिवर्जानां सर्वेषां वेदनी- णं नोसंजयनोसंजयनोसंजयाऽसंजयाणं कयर कयरेयस्य बन्धकस्यात् । (श्रणाहारए भयणाए ति) अना- हिंतो अप्पा वा बहुया वा थोवा वा विसेलाहिया घा?। हारको विग्रहगत्यापन्नः समुदघातकेवली च बध्नाति, अ- गोयमा ! सव्वत्थोवा संजयाऽसंजया, असंखेज्जगुणाः योगी सिद्धश्च न बध्नानीति भजना । (प्राउए आहारए भ. नोसंजया नोअसंजया नोसंजयाऽसंजया अणंतगुणा, यणाए ति ) आयुर्वन्धकाल एवाऽऽयुषो बन्धनात् , अन्यदा असंजया अणंतगुणा" इत्यादि प्रज्ञापनाऽनुसारेण वाच्यं स्वबन्धनाद्भजनेति। (प्रणाहारए णं बंधा त्ति) विन यावच्चरमाऽऽद्यल्पबहुत्वम् । एतदेवाऽऽह-(जाव स. हगतिगतानामप्यायुष्कस्याऽबन्धकत्वादिति । व्वत्थोवा जीवा अचरिमेत्यादि ) अत्राऽचरमा अभव्याश्वरसूक्ष्मद्वारे माश्च ये भव्याश्चरम भवं प्राप्स्यन्ति , सेत्स्यन्तीत्यर्थः। णाणाऽऽवरणं किं सुहमे बंधइ, बादरे बंधइ, नो ते चाऽचरमेभ्यो ऽनन्तगुणा यस्मादभव्येभ्यः सिद्धा अनन्त. सुहुमे नो बादरे बंधइ ? । गोयमा ! सुहमे बं गुणा भणिता यावन्तश्च सिद्धास्तावन्त एव चरमा यस्मा. द्यावन्तः सिद्धा अतीताद्धामां तावन्त एव सेत्स्यस्यनाग. धर, बादरे भयणाए, नो मुहमे नो बादरे न बंधइ । एवं आउगवजाओ सत्त वि आउए सुहमे बादरे भ ताऽद्धायाम् । भ०६ श० ३ उ०। पं० सं०। यणाए नो सुहमे नो बादरे न बंधा। जीवे णं भंते ! इसमाणे वा उस्सुयमाणे वा कइ क म्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा! सत्तविहबंधए चा, अढवि(बायरे भयणाए त्ति) वीतरागबादराणां ज्ञानाऽऽवरणस्या बन्धकत्वात्सरागबादराणां च बन्धकत्वाद्भजनेति । सिद्ध हबंधए वा, एवं जाव वेमाणिए पोहुत्तिएहिं जीवेगिस्य पुनरबन्धकत्वादाह-( नो सुदुमे इत्यादि) (आउए दियवज्जो तियभंगो। सुहुमे बायरे भयणाप ति) बन्धकाले बन्धनादन्यदा "जीया णं भंते ! हसमाणा या उस्सुयमाणा वा कर क. स्वबन्धनाद्भजनेति। म्मपगडीओ बंधति ? । गोयमा! सत्तविहधधंगावि अट्टविह. चरमद्वारे बंधगा वि " इत्यादिषु (जीवेगिदिएत्यादि ) -जीवपद. गणाणाऽऽवरणं किं चरिमे, अचरिमे बंथइ। गोयमा! मेकेन्द्रियपदानि च पृथिव्यादीनि वर्जयित्वाऽन्येषु एकोनअट्ट वि भयणाए । विशतौ नारकाऽऽदिपदेषु त्रिकभङ्गो-भङ्गकषयं याच्य, यतो (अट्ठ चि भयणाप ति) इह यस्य चरमो भवो भवि- जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च बहुत्वाजीवानां सप्तबिधबन्धध्यति स चरमः, यस्य तु नासौ भविष्यति सोऽचरमः काश्चाऽपविधबन्धकाश्चेत्येकै कभङ्गो लभ्यते, नारकादिसिद्धश्चासाबचरमः, चरमभवाऽभावात.तन चरमो यथायो। षु तु त्रयम् । तथाहि-सर्व एव सप्तविधबन्धकाः स्युरिस्येकः । गमावि बध्नाति, अयोगित्धे तु नेत्येवं भजना, अचरम-' अधवा-सप्तविधयन्धकाश्चाऽष्टविधबन्धकश्चेत्येवमेव द्विती. स्तु संसारी अटाऽपि बध्नाति, सिद्धस्तु नेत्येवमत्राऽपि यः। अधवा-सप्तविधबन्धकाश्चाष्टविधबन्धकाचेत्येवं तृती. भजनेति । य इति । भ.५श. ४ उ० । __ अथाऽपबहुत्वद्वारम् ___निद्रायमाणस्य कर्मबन्धःएएसि णं भंते ! जीवाणं इथिवेयगाणं पुरिसवेय- | जीवे णं भंते ! निदायमाणे वा पचलायमाणे या कइ गाणं नपुंसगवेयगाणं अवेयगाण य कयरे कयरे जा- कम्पपगडीमो बंधइ । गोयमा! सत्तविहबंधए वा अढवि. व विसेसाहिया वा ? | गोयमा ! सबथोवा पुरिस- बंधए वा एवं जाव वेमाणिए पोहत्तिपसु जीवेगिदियगा, इत्थीवेयगा संखेजगुणा, भवेयगा अणंतगुणा, यवज्जो तियभंगो भ० ५ श० ४ उ० । २६८ Page #1213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध बंध अभिधानराजेन्द्रः । - यतमानस्य पापं कर्म न बध्यते किंच-सूत्रम्अजयं चरमाणो य, पाणभूयाइँ हिंसइ । सव्वभूयप्पभूयस्स, सम्मं भूयाइँ पासओ। बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं ॥१॥ पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधइ ॥४॥ अजयं चिट्ठमाणो य, पाणभूयाइँ हिंसइ । सर्वभूतेष्वात्मभूतः सर्वभूतात्मभूतः, य आत्मवत् सर्व.. भूतानि पश्यतीत्यर्थः । तस्यैवं सम्यग्वीतरागोक्नेन विधिना बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं ॥२॥ भूतानि-पृथिव्यादीनि पश्यतः सतः,पिहिताअधस्य स्थगि.. अजय आसमाणो क, पाणभूया. हिंसइ । तप्राणातिपाताऽऽद्याधवस्य दाम्तस्य इन्द्रियत्नोइन्द्रियदमेन बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं ॥३॥ पापं कर्म न बध्यते-तस्य पापकर्मबन्धो न भवतीत्यर्थः॥६॥ अजयं सयमाणो य, पाणभूयाइँ हिंसइ । एवं सति सर्वभूतदयावतः पापकर्मधन्धो न भवतीति । ततश्च सर्वाऽऽस्मना दयायामेव यतितव्यम् अस्सं झानाऽभ्यासे बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं ॥४॥ नाऽपि मा भूत् अव्युत्पन्नबिनेयमतिविभ्रम इति तनणे. अजयं भुंजमाणो य, पाणभूयाइँ हिंसइ । हायाऽऽहबंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं ॥५॥ पढमं नाणं तो दया, एवं चिट्ठइ सम्बसंजए। अजय भासपाणो अ. पाणभूयाइँ हिंसइ । अन्नाणी किं काही, किंवा नाही छेनपावगं ॥१०॥ बंधई पावयं कम्म, ते से होइ कडुयं फलं ॥ ६॥ प्रथमम्-श्रादौशानं - जीवस्वरूपसंरक्षणोपायफलविषयं ततः तथाविधज्ञानसमनम्तरं दया-संयमस्तदेकान्तोपादेयतया भाव भयतं चरनयतम् अनुपदेशेनाऽसूत्राशयेति,क्रियाविशेषणमे. तस्तत्प्रवृत्तः, एवम्-अनेन प्रकारेण ज्ञानपूर्वकक्रियाप्रतिपत्ति. तत् चरन्-गच्छन्, तुरेवकारार्थः, अयतमेव चरत्, ईर्यासमि रूपेण तिष्ठति-भास्ते सर्वसंयता-सर्वःप्रवजितपःपुनरमा तिमुल्लष्य, न त्वन्यथा, किमित्याह-प्राणिभूतानि हिनस्ति नी-साध्योपायफलपरिशानविकलः स किं करिष्यति?,सर्वश्रा. प्राणिनो-डीन्द्रियादयः, भूतानि-एकेन्द्रियास्तानि हिनस्तिप्रमादाऽनाभोगाभ्यां व्यापादयतीति भावः,तानि च हिंसन् ब. Fधतुल्यत्वात् प्रवृत्तिनिवृत्तिनिमित्ताभावात् , किं वा कुर्वन् शास्यति छेकं-निपुणं हितं-कालोचितं पापकं वा अती वि. ध्नाति पापं कर्म अकुशलपरिणामावादत्तेक्लि-शानाssब. परीतमिति, ततश्च तत्करणं भावतोऽकरणमेव, समप्रनिमि. रणीयाऽऽदि तत् (से) भवति कटुकफलं तत्पापं कर्म ताभावादग्धप्रदीप्तपलायनघुणाक्षरकरणवत् । अत पवाऽम्य. (से) तस्य-प्रयतचारिणो भवति,कटुकंफलमित्यनुस्वारोऽ. बाप्युक्तम्-"गायत्थो य विहारो, बीयो गीयस्थमीसिओ भ. लाक्षणिकः अशुभफलं भवति, मोहाऽऽदिहेतुतया विपाकदा णिो।" इत्यादि । अतो शानाभ्यासः कार्य। रुणमित्यर्थः ॥१॥ एवमयतं तिष्ठन्नूईस्थानेनासमाहितो हस्त. तथा चाऽऽह सूत्रम्पादाऽऽदि विक्षिपन् शेषं पूर्ववत् ॥२॥ एवमयतमासीनो-निष सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं । सतया अनुपयुक्त पाकुश्चनाऽऽदिभावेन,शेषं पूर्ववत् ॥३॥ एव. मयतं स्वपनसमाहितो दिवा प्रकामशय्याऽऽदिना वा, शेषं पू. उभयं पि जाणई सोच्चा जंछेयं तं समायरे ॥ ११॥ वत् ॥४॥ एषमयतं भुखानो निःप्रयोजनं प्रणीतं काक शगाल. भुत्या-आकर्य ससाधनस्वरूपविपाक जानाति-धुद्धधते भक्षितादिना बा, शेषं पूर्ववत् ॥ ५॥ एवमयतं भाषमाणो गृ कल्याणं कल्यो-मोक्षस्तमणति नयतीति कल्याणं-दया हस्थभाषया-निष्ठुरमन्तरभाषाऽऽदिना वा,शेषं पूर्ववत् ॥६॥ उडण्यं संयमस्वरूपं, तथा श्रुत्वा जानाति पापक-प्रसंअत्राह-यद्येवं पापकर्मबन्धस्ततः सूत्रम् यमस्वरूपम्, उभयभपि संयमा संयमस्वरूपं धायकोपयोगि कहं चरे कई चिट्टे, कहमासे कई मए । जानाति श्रुत्वा,नाऽश्रुत्वा, यतश्चैवमत इत्थं विज्ञाय यत् छेकं. निपुणं द्वितं-कालोचितं तत्समाचरेत् कुर्यादित्यर्थः। कह तो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ॥ ७॥ उनमेवार्थ स्पष्टय नाह सूत्रम्कध-केन प्रकारेण चरेत् कथं तिष्ठेत् , कथमासीत, कथं जो जीवे विन याणइ, अजीवे वि न जाणइ । स्वपेत् , कथं भुजानो भाषमाणः पापं कर्म न बध्नाति ॥७॥ जीवाजीधे अयाणतो, कह सो नाहीइ संज? ॥१२॥ प्राचार्य आह सूत्रम् जो जीवे वि वियाणेइ, अजीचे वि बियाणइ । जयं चरे जयं चिट्ठे, जयमासे जयं सए । जीवाजीवे बियाणंतो, सो दु नाहीइ संजमं ॥ १३ ॥ जयं भुंजता भासतो, पावं कम्मं न बंधइ ।।८।। यो जीवानपि-पृथिवीकायिकाऽऽविभेदभिन्नान् न जानाति, यतं चरेत्-सूत्रोपदेशेनेर्यासमितः,यतं तिष्ठेत् समाहितो ह. अजीवानपि-संयमोपघातिनो मद्यहिरण्यादीन् न जानाति, स्तपादाऽऽद्यविक्षेपेण यतमासीत- उपयुक्त पाकुचनाऽऽधक जीवाजीवानजानन् कथमसौ शास्यति संयम, तद्विषयं, तरणेन,यतं स्वपेत्-समाहितो रात्रौ प्रकामशय्याऽऽपिरिहारेण द्विषयाशानादिति भावः।।१२।। ततश्च यो जीवानपि आनात्य. यतं भुञ्जान:-सप्रयोजनमप्रणीतं प्रतरसिंहभक्षिताऽऽदिना. जीवानपि जानाति जीवाजीवान्विजानन् स एव शास्थति एवं यतं भापमासाः साधुभाषया मृदु कालप्राप्तं च पापं कर्म संयममिति । प्रतिपादितः पञ्चम उपदेशाऽर्थाधिकारसायश. क्लिष्टम् अकुशलानुवन्धि ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदि न बध्नाति ४०। नाद से, निराध(स्त्र)वत्वाद्विहितानुष्ठानपरत्वादिति ॥॥ बंधग-बन्धक-पु. । बध्नात्यनेकप्रकारं कर्ग प्रदेशः स. Page #1214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंग अभिधानराजेन्डः। बंधा हेति बन्धकः । बन्धकर्तृ जीवेषु जीवस्थानभेदभिनेषु , पं० पाऽऽदिकमपीत्यर्थः । यदि वा-कसनं कसः-परिग्रहप्रहणबु. सं० १ द्वार।( ' जीवट्ठाण' शन्दे चतुर्थभागे तभेदा | द्भया जीवस्य गमनपरिणाम इति यावत् । तदेवं स्वतः परिग्रह दर्शिताः) परिगृह्या उन्यान्या ग्राहयित्वा गृढतो वाऽन्याननुज्ञाय दुःखय. बंधट्ठाण-बन्धस्थान-न०। बन्धरूपे स्थानभेदे, श्राचा०१० तीति दुःखम्-अप्रकारं कर्म तत्फलं वा असातोदयाऽऽदि२०१०। (ठाण' शब्दे चतुर्थभागे १६६६.पृष्ठे विस्तरः)। रूपं तस्मान्न मुच्यत इति, परिग्रहाऽऽग्रह एव परमार्थतोऽन. (बम्धनस्थानेषु बन्धोदयसत्तासंबंधमाधिस्य भा 'कम्म'| थैमूलं भवति । तथा चौकम्शब्द तृतीयभागे २६१ पृष्ठे दर्शिताः) "ममाऽहमिति चैष यावदभिमानदाहज्वर, बंधण-बंधन-न । बध्यन्त इति बन्धनानि । “भुजि पत्यादि. कृतान्तमुखमेव तावदिति न प्रशाम्त्युन्नयः । यशःसुखपिपासितैरयमसावनोत्तरैः,.. भ्यः कर्मापादाने"॥५३. १२८ ॥ इति कर्मएपनद । का म०२ कर्म० । बध्यते-जीवप्रदेशैरन्योन्यानुबेधरूपतया व्य. परैरपसदः कुतोऽपि कथमध्यपाकृष्यते ॥१॥" तथा चबस्थाप्यत इति बन्धनम् । सूत्र०१०१०१३० 1 स. "देपस्यायतन धृतरपचयः क्षान्तेः प्रतीपो विधिः, ग्धाने, प्रश्न प्राथद्वार । बन्धाऽऽदिविरचितैर्मयरब व्याक्षेपस्थ सुहम्मदस्य भवनं ध्यानस्थ को रिपुः। ग्धाऽऽदिभिः (उत्त०१.१०) संयमे, प्रश्न०१भाश्रद्वार। दुखस्य प्रभवः सुखस्य निधनं पापस्य वासो निजा, रज्ज्वादिना यन्त्रणे, औ०। सूत्र०। रज्जुनिगडाऽअदिभिः सं. प्राहस्थापि परिग्रहो ग्रह व क्लेशाय नाशाय च ॥१॥" यमने , भाव०४०। तथा च परिग्रहेष्वप्राप्तनष्टेषु काहाशोको प्राप्तेषु च रक्षण. किं बन्धन किंवा तत्त्रोटनम् मुपभोगेऽतृप्तिरित्येवं परिग्रहे सति दुःखात्मका बन्धनाबुझिज ति तिउहिला, बंश्णं परिजाणिया । नमुच्यते इति ॥२॥ परिग्रहवतश्चावश्यंभाब्यारम्भस्तस्मिश्च प्राणातिपात किमाह पंधर्ष वीरो; किंवा जावं तिउहई ११॥ इति दर्शयितुमाह(ध्ये तेत्यादि)सूत्रमिदं सूत्रकृतामाऽऽदो वर्तते। अस्य था संयं तिवायए पाणे, अदुवा अन्नहिं घायए । चारानेण सहाभ्यं संबन्धः। तद्यथा-प्राचारानेऽभिहितम् हणंतं वाऽणुजाणाइ, वरं बड्डा अप्पण। ॥३॥ "जीयो छकायपरूपणा य तेसि वोण बंधो ति" इत्यादि (सयं तिवाय पाणे इत्यादि) यदि वा-प्रकारान्तरेण व सत्सर्च बुध्येतेस्यादि, यदि वह केषांचिद्वादिनांशानादेवमु न्धनमेवाऽऽह-(सयं तीत्यादि) स-परिग्रहवानसंतुष्टो भूय. पत्यवासिरन्येषां क्रियामाधात् , जैनाना तूभाभ्यां निम्श्रेयसा. स्तवर्जनपरः समर्जितोपद्रवकारिणि च द्वेषमुपगतस्ततः धिगम इस्बेसबनेन का प्रतिपाद्यते । तत्रापि ज्ञानपू स्वयम्-श्रात्मना त्रिभ्यो-मनोवाक्कायेभ्य श्रायुबलशरीरेभ्यो विका किया फलवती भवतीत्यादौ बुध्यत इत्यनेन बानमु वा पातयेत्-ध्यावयेत् प्राणान्-प्राणिनः, अकारलोपाबा कं.'भोटयेत्' इत्यनेन च क्रियोला। तत्रायमर्थो-बुध्येत-अवग अतिपातयेत् प्राणानिति । प्राणाश्चाऽमीकछेद बोधं विदध्यादित्युपदेशः। किं पुनस्तद् बुध्येत सदाह "पञ्चेन्द्रियाणि विविधं बलं च,उछासनिःश्वासमथान्यदायुः। बन्धन-बध्यते जीवप्रवेशैरन्योन्यानुवेधरूपतया व्यवस्थाप्यत। प्राणा दर्शते भगवद्भिरता-स्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा।१।" इति बन्धनं-ज्ञानावरणाऽऽद्यष्टप्रकारं कर्म तदेतयो वा तथा स परिग्रहाऽऽग्रही न केवलं स्वतो व्यापादयति, अपमिथ्यात्वाऽविरस्यादयः, परिग्रहाऽऽरम्भाऽऽदयो बानि च बोधमात्रादभिलषितार्थावाधिर्भवतीत्यतः क्रियां दर्शयति रैरपि घातयति , नतश्चान्यान् समनुजानीते. तदेव कृतका. तब बन्धन परिक्षाय विशिष्टया क्रियया-संयमानुष्ठानरूपया रितानुमतिभिः प्राण्युपमर्दनेन जन्मान्तरशतानुबनयात्मनो बोटये-अपनयेदात्मनःपृथकुर्यात्परित्यजेवाा एवं चाभिहिते बैरं वर्धयति, ततश्च दुःखपरम्परारूपाद् बन्धनान मुख्यते जम्बूस्वाम्यादिको विनेयो बन्धाऽऽदिरूपं विशिष्ट जिज्ञासुः इति । प्राणाऽतिपातस्य चोपलक्षणार्थत्वात् मृषावादाऽऽदयो पप्रच्छ-किमाह-किमुक्तवान् बन्धनं वीरस्तीर्थकृत किया। ऽपि बन्धहेतवो द्रष्टव्या इति ॥ ३॥ जानन्-अवगच्छस्तद्वन्धनं त्रोटयति ततो वा त्रुव्यतीति पुनर्बन्धन मेवाऽऽश्रित्याहश्लोकार्थः॥१॥ जस्सि कुले समुप्पो, जेहिं वा संवमे नरे। बन्धनस्वरूपनिर्वचनायाss ममाइ लुप्पई बाले, अप्ले अमेहि मच्छिए ॥ ४ ॥ चित्ततमचित्तं वा, परिगिज्म किसामवि । (जस्सिमित्यादि) यस्मिन्-राष्ट्रकूटाऽऽदौ कुले जातो,यैर्वा अमंवा अणुजागाइ, एवं दुक्खा ण मुच्चइ ॥ २॥ सहपांसुक्रीडितेयस्यैर्भार्याऽदिमिर्वा सह संबसन्नरस्तेषु मा. (चित्तमंतर्माचत्तं वेत्यादि ) इह बन्धनं-कर्म तद्धतवो वा. तृपितृभ्रातृभगिनीभार्यावयस्याऽऽदिषु ममाऽयमिति-ममत्व. ऽभिधीयन्ते । तत्र न निदानमन्तरेण निदानिनो जन्मेति, वान् स्निह्यन् लुप्यते-विलुप्यते,ममत्वजनितेन कर्मणा ना. निदानमेव दर्शयति-तत्रापि सर्वाssरम्भाः कर्मोपादानरूपा रकतिर्यमनुष्यामरलक्षणे संसारे भ्रम्यमाणो बाध्यते-पी. प्रायश प्रात्मात्मीयग्रहोत्थाना इतिकृत्वाऽऽदो परिग्रहमेव द. ज्यते। कोऽसौ? बाल:-अशः सदसद्विवेकरहितत्वादन्येष्वन्ये. शितवान् । चित्तमुपयोगोशानं तद्विद्यते यस्य सचिसवन्-बि. षु च मूर्छितो-गृद्धोऽध्युपपन्नो, ममत्वबहुल इत्यर्थः । परचतुष्पदाऽऽदिसतोऽन्यदचित्तवत्-कनकर जताऽऽदि.स. पूर्व तावन्मातापित्रोस्तदनु भार्यायां पुनः पुशऽऽदो स्ने. भयरूपमपि परिप्रहं परिगृह्य कृशमपि-स्ताफमपि तणतः! हृयानिति ॥४॥ Page #1215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९९२) बंधण अभिधानराजेन्दः। बंधगा साम्प्रतं यदुक्तं प्राक्-किं वा जानन् बन्धनं त्रोटयतीति परस्परं सम्बन्धविशेषभावात् । तथाहि-एकस्मिन् जीवप्रदे. अस्य निर्वचनमाह श स्वक्षेत्राऽबगाढग्रहणप्रायोग्यद्रव्यग्रहणाय व्याप्रियमाण स. वेऽप्यात्मप्रदेशा अनन्तरपरम्परतया तद्रव्यग्रहणाय व्यावित्तं सोयरिया चेव, सबमेयं न ताणइ । प्रियन्ते । यथा हस्ताग्रेण कस्मिंश्चिद्वाह्ये घटाऽऽदिके गृह्यमाणे संखाए जीविअं चेवं, कम्मुणा उतिउट्टइ ॥ ५॥ मणिबन्धकृपेरांसाऽऽदयोऽपि तद्ग्रहणाय अनन्तरपरम्पर(वित्तमित्यादि) वित्तं-द्रव्य,तश्च सचित्तमचित्तं वा । तथा- तया व्याप्रियम्ते,तथा(सम्वत्थ वा वित्ति)सम्वत्रापि-सर्वेष्व. लोदर्या-भ्रातृभगिन्यादयः, सर्वमपि चैतद्वित्ताऽऽदिकं सं. पि जीवप्रदेशेषु येऽबगाढा-ग्रहणप्रायोग्याः स्कन्धास्तानपि सारान्तर्गतस्या सुमतोऽतिकटुकाः शारीरमानसीर्वेदनास्सम. ग्रहणप्रायोग्यान् स्कन्धान् सर्वान् गृह्णाति जीयः सर्वाऽऽत्म. नुभवतो न त्राणाय-रक्षणाय भवतीत्येतत्संख्याय-झात्या। ना, सवरेवाऽऽरमप्रदेशैः एकैकस्कन्धग्रहणं प्रति सर्वजीवतथा जीवितं च प्राणिनां स्वल्पमपि तत्संख्याय सपरिश. प्रदेशानामनन्तरपरम्परतया व्याप्रियमाणत्वादिति ॥२१॥ या। प्रत्याख्यानपरिक्षया तु सचित्ताऽचित्तपरिग्रहप्राण्युप. इह पुद्गलद्रव्याणां परस्परं संबन्धः मेहतो भवति । ततो. ऽवश्यं स्नेहप्ररूपणा कतेव्या। सा च त्रिधा । तद्यथाघात स्वजनस्नेहाऽऽदीनि बन्धनस्थानानि प्रत्याख्याय कर्मण: सकाशात्रुध्यति-अपगच्छत्यसौ, तुरवधारणे,त्रुट्येदेवेति । स्नेहप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा, नामप्रत्ययस्पर्धकप्ररूणा, प्रयो. यदिवा-कर्मणा-क्रियया संयमानुष्ठानरूपया बन्धनात् त्रुट्य. गप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा च । तत्र स्नेहप्रत्ययस्य-स्नेहनिमिति, कर्मणः पृथग्भवतीत्यर्थः ॥ ५॥ तस्य स्पर्धकस्य प्ररूपणा स्नेहप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा । त. था शरीरबन्धन नामकर्मोदयतः परस्परं बद्धानां शरीरपु. अध्ययनार्थाधिकाराभिहितत्वात् स्वसमयप्रतिपादना. द्रलानां स्नेहमधिकृत्य स्पर्धकप्ररूपणा नामप्रत्ययस्पर्धकनन्तरं परसमयप्रतिपादनाभिधित्सयाऽऽह प्ररूपणा । शब्दार्थश्चायम्-नामप्रत्ययस्य बन्धननामनिमित्त. एए गंथे विउक्कम्म , एगे समणमाहणा। स्य शरीरप्रदेशस्पर्धकस्य प्ररूपणा नामप्रत्ययस्पर्धकप्ररू. अयाणंता विउस्सित्ता, सत्ता कामेहि माणवा ॥६॥ पणा । तथा प्रकृष्टो योगः प्रयोगः, तेन प्रत्ययभूतेन-का. रणभूतेन ये गृहीताः पुद्गलास्तेषां स्नेहमधिकृत्य स्पर्ध. (एप गंथे विउक्कम्मेत्यादि) एतान्-अन्तरोक्लान् ग्रन्थान् कप्ररूपणा प्रयोगप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा । तत्र प्रथमतः स्ने. व्युत्क्रम्य-परित्यज्य स्वरुचिविरचितार्थेषु ग्रन्थेषु सक्ताः सि. हप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणार्थमाहता:-बद्धाः, एकेन सर्व इति सम्बन्धः । प्रन्यातिकमश्चैतेषां तदुक्कार्थानभ्युपगमात् , अनन्तरग्रन्थेषु चायमर्थोऽभिहि नेहप्पच्चयफडग-मेगं अविभामवग्गणा णता । तस्तद्यथा-जीवास्तित्वे सति ज्ञानाऽवरणीयाऽदिकर्मबन्ध हस्सेण बहू बद्धा, असंस्खलोगे दुगुणहीणा ।। २२ ।। नं, तस्य हेतवो मिथ्यात्वाऽविरतिप्रमादाऽऽदयः परिग्रहाss. (नेह त्ति) स्नेहप्रत्ययं-स्नेहनिमित्तम् एकैकस्नेहाऽविभागम्भाऽऽदयश्च तत्त्रोटनं च सम्यक्दर्शनाऽऽधुपायेन,मोक्षस. वृद्धानां पुद्गलवर्गणानां समुदाय रूपं स्पर्धक स्नेहप्रत्ययदावश्वत्येवमादिकः, तदेवमेके श्रमणा:-शाक्याऽऽदयो बाई. स्पर्धकम् , तच्चैकमेव भवति । तस्मैिश्व स्पर्धकेऽविभागवस्पत्यमतानुसारिणश्च माहणा(नाः)एतानह दुकान् ग्रन्थानति. र्गणा एकैकस्नेहाविभागाऽधिकपरमाणुसमुदायरूपा वर्गणा क्रम्य परमार्थमजानाना विविधम्-अनेकप्रकारमुत्प्राबल्येन अनन्ता द्रष्टव्याः । तत्र इस्खेन-अल्पेन स्नेहेन ये बद्धा-युक्ताः सिता-बद्धाः स्वसमयेष्वभिनिविष्टाः। तथा च शाक्या एवं | पुद्गलास्ते बहवः, अर्थाच्च प्रभूतेन स्ने हेन बद्धाः स्तोकाः। प्रतिपादयन्ति तथा-'सुखदुःखच्छाद्वेषज्ञानाऽऽधारभूतो तथा 'असंखलोगे दुगुणहीण त्ति' आदिवर्गणायाः परनास्त्यारमा कश्चित् , किंतु विज्ञानमेवैकं विवर्तत' इति । तोऽसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणा वर्गणा अतिक्रम्य या. 'क्षणिकाः सर्वसंस्कारा' इत्यादि । सूत्र०११० १०१ उनम्तरा वर्गणा तस्यां पुलाः प्रथमवर्गणागतपुरलाऽपेक्ष. उ०। करण्डकाऽऽदिबन्धन रूपे कौतुककर्मणि वृ०१3०२ या द्विगुणहीना भवन्ति । पुनरपि ततोऽसंख्येयलोकाऽऽका. प्रक०। शप्रदेशप्रमाणा वर्गणा अतिक्रम्याऽनन्तरायां वर्गणायां पुद्र. र योगैस्तदनुरूपपुद्गलस्कन्धान गृहीत्वा शरीराऽऽदि. ला द्विगुणहीना भवन्ति । एवं तावद्वाच्यं यावद्वक्ष्यमाणा रूपतया परिणमयतीत्युक्तं, तत्र तान् पुगलान् किं संख्येयभागहानिगता चरमा वर्गणा। इयमत्र भावना-दह जीवो देशेन गृह्णाति, उत सर्वात्मनेत्येव प्रश्ना. यः सर्वोत्कृष्टः स्नेहः स केवलिपक्षाच्छेदन केन विद्यते, वकाशमाशङ्कयोत्तरं वितितीराह छिया छित्त्वा च निर्षिभागा भागाः पृथक् पृथक् व्यवस्थाप्यएगमवि गहणदव्वं, सव्वप्पणयाएँ जीवदेसम्मि। न्ते । तत्र जगति ये केचित् परमाणव एकेन स्नेहस्य निर्वि भागेन भागेन युक्ताः सन्ति, तेषां समुदायः प्रथमा वर्गसबप्पणया सव्व-स्थ वाऽवि सब्वे गहणखंधे ॥२१॥ णा। ये पुनर्वाभ्यां स्नेहाऽविभागाभ्यां युक्ताः परमाणवः स. इह जीवः स्वप्रदेशावगाढमेव दलिकं गृह्णाति, न त्वनन्तर- न्ति, तेषां समुदायो द्वितीया वर्गणा । एवं त्रिभिः स्नेहा. परम्परप्रदेशाऽवगाद, तत्रैकस्मिन् जीवप्रदेश यदवगाढंग्रह- विभागैर्युक्तानां समुदायस्तृतीया वर्गणा । एवं संख्ये यैः स्नेपद्रव्यं-ग्रहणप्रायोम्यं दलिकं तदेकमपि गृह्णाति (सम्बप्प. हाऽविभागैर्युक्तानां संख्येया वर्गणा वाच्याः। असंख्पेयैः स्ने. रणयाए ति ) सर्वाऽऽत्मना गृह्णाति सर्वैरेवाऽऽरमप्रदेशैगुला- हाऽविभागैर्युकानां पुनरसंख्येया वर्गणाः । अनन्तः स्नेहाऽ. तीत्यर्थः । जीवप्रदेशानां सर्वेषामपि शृखलाऽवयवानामिव विभागैर्युतानां त्वनन्ता वर्गणाः । द्विधा चात्र प्ररूपणा, तथा Page #1216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९१३) अभिधान राजेन्द्रः । बंधण था श्रनन्तरोपनिधया, परम्परोपनिधया च । तत्र तावत्प्रथ मतोऽनन्तरोपविधया प्ररूपणा क्रियते प्रथमायां वर्गणायाः मेकस्नेाविभागका पावन्तः पुला [स्तदपेक्षया द्वितीयस्यां पायां स्नेहाविभाग लसमूहरूपायां पुद्गला असंख्येयभागद्दीना भवन्ति । ततोपितृतीयस्यां । यामसंस्थेयभावहीनाः । एवं प्रति वर्गणाम संख्येय भाग हान्या पुलास्तावद्वाच्या यावदनन्ता वर्गणा गता भवन्ति । ततोऽनन्तरायां पुङ्गलाः प्राशनवगणागन पुलापेक्षया संख्येयभाहीना भवन्ति । ततोऽ प्रेतभ्यामपि वर्गखायां पुङ्गलाः संस्थेयभागद्दीनाः । एवं सल्येयभागद्वान्याऽपि वर्गणा अनन्ता वाच्याः । ततोअनन्तरायां वर्गणायां पुङ्गलाः प्राशनवर्गणागत पुलावे. या संस्थेयसीना भवन्ति सतोम्पामपि वर्ग या पुला संवेदना एवं संख्याम्पा चयनन्ता वर्गणा वाच्याः । ततोऽनन्तरायां वर्गणायां पुनलाः मानवागत पुलापेक्षाही भयन्ति । सतोऽब्रेतभ्यामपि वर्गणायां पुङ्गला असंख्येयगुणहीनाः । पधमसंख्येयगुणान्याऽप्यनन्ता वर्गणा वक्तव्याः । ततोऽजरा वर्गवार्या पुलाः प्राऊन वर्गखागत पुलापेक्षा अनन्तगुणहीना भवन्ति । ततोऽप्रेतस्यामपि वर्गशायां पुला अनन्तगुणहीनाः । एवमनन्तगुणद्दान्याऽप्यनन्ता वर्गणा वाच्याः यावत्सर्वोत्कृष्टा वर्गणाः । तदेवं कृताऽनन्तरोपनिधया प्ररूपणा ॥ संप्रति परम्प पनिया क्रियते तत्र प्रथमचणायाः परतो ऽसं क्यलोकाऽऽकाश प्रदेशप्रमाण वर्गणा श्रतिक्रम्य या पराअन्या वगंगा तस्यां पुखाः प्रथमवखागतपुलापेक्षया द्विगुणहीना भवन्ति, अर्धा भवन्ति इत्यर्थः । ततः पुनरप्य. संख्ये यलो का 55काशप्रदेश प्रमाणा वर्गणा अतिक्रम्य या प रा- अनन्तरा वर्गणा तस्यां पुला अर्धा भवन्ति । एवं भूयो भूपस्तावापत यामावद्दानिगता चरण वर्गणा । ततः परं सवभागहानिगता बासख्येया अतिक्रम्यानन्तरायां वर्गणायां पुङ्गला असधेयभागहानिगतचरमवर्गणापुरलाऽपेक्षयाऽर्धा भवन्ति । ततः पुनरपि सा पण अतिक्रम्यनन्तरायांचा पु अभयन्ति। एवं भूयो भूयस्तावद्रयावत्स क्येयभागदानावपि चरमा वर्मा उपरितनीषु चतसृ षु हानिषु इयं परम्परोपनिघा न सम्भवति । यतः प्रथ मायामपि सख्येयगुणहानिवर्गणायां पुङ्गलाः सस्येयभागहाजिकचरमवर्गान्तर्गताऽपेक्षा स खद्दीनाः प्राप्यन्ये। जघन्यतोऽपि त्रि गुनाना वा न तु द्विगुणहीना यतः सङ्घयेवं प्रायः स हाते न तु द्वौ नापि सर्वोत्कृष्टं तदुक्तमनुयोगद्वाराचू 3 1 - " सिद्धंते य जत्थ जस्थ संखेज्जगगाहणं तस्थ तत्थ अजय मरणुकोसयं दट्ठध्वं ति । " तत इस ऊर्ध्वं द्विगुणहीना न प्राप्यन्ते, किंतु त्रिगुणचतुर्गुणाऽऽदिहीना इति नाम्पा परम्परोपनिधा संभवति। - म्मूलत आरम्याम्यथाऽत्र परम्परोपनिधया प्ररूपणा क्रि. बते - प्रसङ्गधेय भागहानौ प्रथमान्तिमबर्गरायोरपान्तराले २६६ बंधगा प्रथमवर्गणाऽपेक्षया काश्चिद्वर्गणा असण्येय भागहीनाः का धिमानाः कासिगुरुहीनाः कालि दमा काचिदगुणहीनाः । एवमम भागहानौ प्रथमवर्गणापेक्षया पञ्चापि दानयः संभवन्ति । संख्येयभागहानौ तु पुनरसङ्घयेयभागद्दानिवर्जाः शेषाश्वत त्रोऽपि दानयः सम्भवन्ति । तद्यथा - संख्येयभागहानिप्रथमान्तिमचरवात प्रथमवापेक्षा काचित्र र्गणाः संस्येय भागहीनाः, काश्चित्य गुणहीनाः । कादिगुणादीना काचिदनन् गुरादीना सदानी पुनरसंस्थेयमागदानिसंयेागाविशेषा स्तिस्रो हानयः संभवन्ति । तद्यथा-संख्येयगुणद्दानौ प्रथ मतमपान्तराने प्रथमवर्गका कार्ग संवगुणहीना काचिदाक्येपगुणहीना का चिनन्तगुणहीनाः । असङ्ख्य गुणहानी पुनद्वे एव हानी, तथाहि असहमति " " प्रथमपणापेक्षा कार्गिला अस कान्छिद्दीनाः अनन्तगुवहानी स्वनन्तगुरुदामिरे वैका तदेवं कृता परम्परोपनिधया प्ररूपणा ॥ साम्प्रतमल्पबहुम्यमुच्यते तथाऽसंख्येपभागहानी वर्गणाः स्लोकाः । साभ्या संख्येयभागहानी वर्गणा अनन्तगुणाः । ताभ्योऽपि संक्ये. गुणहानी वर्मा अनम्यगुणाः । ताभ्य उपसं दानौ वर्गणा अनन्तगुणाः । ताभ्यो ऽप्यनन्तगुणहानी वर्ग अनन्तगुणाः । तथाऽन्तरादानी सर्वतो काः तेभ्योऽवसानी पुखा गु योऽपि गुणानी पुला अनन्तगुणाः । तेम्योऽपि सङ्ख्येयभागहानौ पुतला अनन्तगुणाः । तेभ्योऽप्यसङ्क्येभागहानी पुल अनन्तगुणाः ॥ २२ ॥ देषप स्नेहप्रत्ययं स्पर्धकम् । इदानीं नामप्रत्ययस्पर्धक प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणां चिकीर्षुरिदमाहनामप्पगपञ्चय- गेसु वि नेया अनंतगुणयाए । पणिया देसगुणा सिं नभने समे कट्टु । २३ ॥ (नामत्ति ) इद्द नामप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणायां पडनुयोगद्वाराणि । तद्यथा - अविभागप्रपा १, वर्गणाप्ररूपण २, स्पर्धकप्ररूपणा ३, अनन्तरप्ररूपणा ४ वर्गणापुलस्नेहाऽविभागस कल समुदायप्ररूपणा ५, स्थानप्ररूपणा ६ वेति । तत्र प्रथमतोऽविभागप्ररूपणा क्रियते श्रदारिकाऽऽ. दिशरीरपञ्चकप्रायोग्यानां परमाणूनां यो रसः, स केबलिभागा भागाः क्रियते ते च निर्विभागा भागा गुणपरमाणवो वा भावपरमाणयो या प्रोच्यन्ते । एषा विभागात स्नेहाि भागेन युक्रा शरीरयन्याः पुखा न भवन्ति किमुक्रं श्रीदारिदारिकपना नानामन्यतमस्यापि बन्धनस्य विषया न भवन्तीत्यर्थः । नापि द्वाभ्यां स्नेहाविभागाभ्यां युक्ता । नापि त्रिभिर्नापि सयेयैर्नाव्यसखये ये नव्यनन्तैः किं खनन्तानन्तैरेव सततस्तेषांला समुदायः प्रथ मा वर्गणा, लाच जघन्या । तत एकेन स्नेहाविभागेनाधिकानां पुङ्गलानां समुदायो द्वितीया वर्गणा । द्वा Page #1217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२४ ) अभिधान राजेन्द्रः । बंध स्नेहाचि भागाभ्यामधिकानां समुदायस्तृतीया वर्गणा । ए वृद्ध्या निरन्तरं नावद् वर्गणा वाच्या या गुणाः सिद्धानामनन्तभागान वन्ति । एतासां च समुदाय एकं स्पर्धकम् । तत इत ऊर्वमेकेन स्नेाविभागेनाधिकार परमात्म प्राप्यते नापि द्वाभ्यां नापि त्रिभिः पाप्य ना. प्यनन्तैः कि स्वनन्तानन्तरेव सर्वजीवेय 8. प्राप्यन्ते । ततस्तेषां समुदायो द्वितीयस्य स्पर्धकस्य प्रथमा वर्गणा । तस्यां कियन्तः स्नेहाविभागाः १, इति ने दुष्यते -या. वन्तः प्रथमस्पर्धक प्रथमवर्गणायां स्नेहाविभागास्तावन्तो द्विगुणाः । तत एकेन स्नेहाविभागेनाधिकानां परमानां समुदायो द्वितीया वर्गणा । द्वाभ्यां स्नेहाविभागाभ्याम धिकानां समुदायस्तृतीया वर्गणा । एवमेकैकस्नेहा विभा. गया निरन्तरं वाताहाच्या स गुणाः सिद्धानामनन्तभागकल्पा भवन्ति । ततस्तासां समुदायो द्वितीयं स्पर्धकम् । ततः पुनरप्यत ऊर्ध्वमेकेन स्नेहाविभागेनाथिका परमान प्राप्यन्ते नाना त्रिम पावसापयेयेापयेयैः गायनः किमवानरेव सर्वजीवेयोऽनलः । ततस्तेषां परमान समुदायस्तृतीयस्पर्धकस्य प्रथमा वर्गणा । तस्यां कियन्तः भाइति चेच्यते-पावन्तः प्रथमस्पर्धकसक प्रथमवर्गवायां तावन्तः तत एकेन स्नेहाविना. नाधिकानां परमानां समुदायो द्वितीया वर्मा द्वा म्यां स्नेहाविभागाभ्यामधिकानां समुवस्तृतीया वर्गा एवमेकैकस्नेहाविभागवृद्ध्या निरन्तरं वगणास्तावद्वाच्या यावदमध्ये यो सिद्धानामनन्तभागकरण सबमिस ततस्तासां समुदायस्तृतीयं स्पर्धकम् ततः पुनर यत ऊर्ध्वमेकेन स्नेहाविभागेनाधिकाः परमाण्वो न प्राव्यन्तेनापि द्वाभ्यां नापि त्रिभिः यावन्नापि संवधेयैः, नाप्यनन्तैः किं त्वनन्तानन्तैरेव सर्वजीवेभ्यो ऽनन्त गुणैरधि काः प्राप्यन्ते । ततस्तेषां समुदायश्चतुर्थस्य स्पर्धकस्य प्रथमा. • तांकित स्नेाविभागाः १. इति यतेप्रथमार्थसत्कारापायः स्नेावागा वन्तश्चतुर्गुणाः । एवं यतिसंख्यं यतिसंक्यं स्पर्धकं चिन्तयितुमारभ्यते, तथथा पश्चमं दशमं विंशतितमं सहस्रतमं लक्ष तात्ताः प्रथमस्पर्धक सत्प्रथमवर्ग सागताः स्नेहा विभागास्ततिसंख्यस्य ततिसंरूपस्य स्पर्धकस्पा55दि. वर्गणायां द्रष्टव्याः । तानि च स्पर्धकानि कियमित भवन्तीति ये दुध्यते - अभव्येभ्योऽनन्तगुणानि सिद्धानामनन्तभागक पानि अनम्राणि यस्ति भवन्तीति चेदुच्यते रूपो न स्पर्धक तुल्यानि । तथाहि चतुर्णामन्तराणि त्रीण्येव भव सिमोनाधिकानि विभावनीयम् - नन्सर्वे हे वृद्ध भात एकेका विभाग दि अनन्त विमानविय तत्रैका विभाग वृद्धिः स्पर्थ कगतानां वर्गणानां यथोत्तरमनन्तानन्तविभागवृद्धिः पाश्चा स्वस्पर्धकगतचरमवासपरस्कायाः पारम्पर्येण पुनः प्रथमस्पर्धक सत्कप्रथम वर्गणापेक्षया षडपि वृद्धयोऽधगन्तव्याः । तद्यथा - अनन्तभागवृद्धिः श्रसंख्ये । - बंध भागवृद्धिः, संख्येयभागवृद्धिः, संख्प्रेयगुणवृद्धिः, असंगुणवृद्धिः अनन्तगुण वृद्धिश्चेति । तदेवं कृता वर्गणाप्ररूपणा स्पर्धकप्ररूपणा अनन्तरप्ररूपणा च ॥ सांप्रतं वर्गसागराङ्गलस्नेहा विभागसमुदायरूपात प्रथमस्य शरीरस्थानस्य प्रथमायां वर्गणायां स्नेहा विभागाः लोकततो द्वितीयस्य शरीरस्यागस्य प्रथ मनन्तगुणाः । तेभ्योऽपि तृतीयशरीरस्थानस्य प्रथमवर्गणायामनन्तगुणाः । एवमनन्तगुणया श्रेण्या सर्वाण्यपि स्थानानि नेतव्यानि । शरीरस्थानानि च वक्ष्यमाणस्पर्धका प्रमाणात संप्रति शरीरपरमानाने तन्न नाममधीयते दारोदारको : । ङ्गलाः सर्व स्तोकाः । तेभ्य श्रदारिकतैजसबन्धनयोग्या श्रन गुणाः तेभ्योऽवारिक कार्मबन्धनयोग्य अनन्त दारितैजसकामेाबन्धनयोग्या अनगुणा तथा विविधनपोश्या पुलाः सर्वतो ते भ्योऽपि वैक्रियतैजसबन्धनयोग्या अनन्तगुणाः । तेभ्योऽपि चैकियकार्मणवन्धनयोग्य गुणाः । तेभ्योऽपि वैि तैजसकार्मण बन्धनयोग्या अनन्तगुणाः । तथा आहारकाऽऽद्दाकन्या पुलाः सस्तोका सबन्धनयोग्य अनन्त गुणाः तेभ्यो अध्याहारक योग्यायो योग्य वेयोऽपि तेजस अनन्तगुणाः । तेभ्योऽपि तैजस कार्मणबन्धन योग्या अनन्तगुणाः । तेभ्योऽपि कार्मणकार्मणबन्धनयोग्या अनन्तगुणा इति ॥ सांप्रतं स्थानप्ररूपणावसरः । तत्र प्रथमं स्पर्धकमा दो कृत्यामध्ये सियानन्तर्मान स्पर्धकैरेकं प्रथमं शरीरप्रायोग्यं स्थानं भवति । ततस्ततिमिरेव स्पर्धकेरनन्तभागवैद्वितीयं शरीरस्थानं भवति पुनस्ततिमिरेव स्वरनन्तभागयु स्तृतीयं शरीरस्थान म् वर्ष निरन्तरं पूर्वस्मात् पूर्वस्मादुत्तरोतराव अनन्त भागानि शरीरस्थावान्यमात्राभागगत प्रदेशमा वाक्यानि तानि च समुदितानि एकं कण्डमभिधीयते तस्मादन कराडकारिय satireथानं तत्कण्डकगत चरम शरीरस्थानापेक्षया असङ् भागवृद्धम् । तस्मात्पराणि पुनर्याम्यम्यानि शरीरस्था मानिसमात्रक्षेत्रासयेवमागगत देशराशिमायानि सामि सोयपि योगदान्दवसेयानि । ए तामिव समुदितानि द्वितीयं कण्डकम् । तस्माच्च द्विती या कराडकारि पद्मपरीरस्थानं तत्पुनरपि द्वितीयक एडकगतवरशरीरस्थानापेक्षया सहवे पराणि पुनरप्यभ्यानि यानि शरीरस्थानानि अङ्गुल मात्र क्षेत्रासङ्घयेय भागगत प्रदेशराशिप्रमाणानि तानि सर्वाण्यपि यथो सरमनन्तभागवृदाम्ययसेयानि तानि च समुदितानि द तीर्थ करडकम् ततः पुनरप्येकम् ततः पुनरपि कण्डकमात्राणि शरीरस्थानानि रियनिधन भागवृकण्डकानि तापाच्यानि पापभागा नामपि स्थानानामनन्तरान्तराभाविनां कण्डकं भवति । कएडकं नाम समयपरिभाषया - कुल मात्र दो त्रास येभागग Page #1218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण ( १९६५ ) अभिधानराजेन्रूः | प्रदेशराशिप्रमाणा सख्या अभिधीयते । ततः पराणि चीरमनन्तभागवृद्धानि मात्राणि शरीरस्थानानि याच्यानि । ततः परमेकं संख्येयभागवृद्धं स्थानम् । ततो मूलादारभ्य यावन्ति स्थानानि प्रागतिक्रान्तानि सा चन्ति तथैवाऽवत्रेवा) विधाय पुनरप्येकं पूर्व सामभिधानीयम् । एवं पदमा पदस्था नका शरीरस्थानानि पापानि काऽऽकाश प्रदेश प्रमादानि भवन्ति उहा नामप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा | साम्प्रतं प्रयोगप्रत्ययस्पर्द्धकप्ररूपणा क्रियते तत्र प्रयोगो योगः तत्स्थानवृद्ध्या यो रसः कर्मपरमाणुषु केचलयोगप्रस्थती बन परिवर्ध स्वरूपात योगप्रत्ययस्पर्थको पोगो जोगो. ताविषणाएँ जो उ रसो । परिबदुई जीवे, पयोगफ सवैति ॥ १॥ तस्य पञ्चाऽनुयोगद्वारा विभा गमरूपणा, वर्गणाप्ररूपणार, स्पर्धक प्ररूपणा३, अन्तरप्ररूप४. स्थानप्ररूपणाचरें, इति। एताश्च यथा नामप्रत्ययस्पर्धके प्रागभिहितास्तथैवात्राप्यवगन्तव्याः । तथाऽत्र प्रथमस्थानस प्रथमवणार्या सकलपुत्रस्नेहाविभागाः सर्वलोकाः । तेभ्यो द्वितीयस्थानवत्थमान गुखाः तेभ्यो पितृतीय स्थान सत्कमपणायामनन्तगुणाः पर्वता वयं यावदन्तिमं स्थानम् । तथा च प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक मेवाचियाम्यत्राप्युकम् अविभागाकडुन अंतरा गाईजातगुणायें गच्छति ॥ १॥" अत्राऽऽदिशब्दात्कराडकाऽऽदिपरिग्रहः ॥ इदा नीमश्चयमुच्यते - स्नेहप्रत्ययस्पर्धकस्पा सफलताः स्नेाविभागाः सर्वलोकाः । ततस्तस्यैव स्प्रत्ययस्पर्धकस्यायनन्तेभ्योऽपि नामप्रत्ययस्व न्यायागु तेभ्योऽपि तस्यैवोत्कृष्टामनन्तगुणाः योऽपि प्रयोगप्रत्ययस्पर्धकस्य जयपथर्गणायामनन्तगुण । तेभ्योऽपि तस्यै वोकृष्ट वर्गणायामनन्तगुणाः । उक्तं च-" तिरहं पि फडगाणं जहा उक्कोसगा कमा ठविडं यातगुणा, उ वग्गणा हफड्डु | श्री ॥ १ ॥ " सम्प्रति गाथाऽय वित्रियते नामप्रत्ययेषु प्रयोगप्रत्ययेष्वपि च स्पर्धकेषु अविभा गवर्गurssश्यः प्राग्यनेयाः। तथाहि स्नेह प्रत्ययस्पर्धक दवा जापि अभिमागवणा के कहाऽविभाग परमा खा अनन्ताः । तथा स्वाकेन स्नेहेन बज्राः पुद्रला बहव इतरे स्तोकाः स्तोकतराः । यच्च -" असंखलोगे दुगुया द्वीणा " इति तदवासंभवान सम्बध्यते । कोहप्रत्ययस्प केsपि हि तत् यथासंभवं स्तोकमेव कालं यावत् यो जितम् न पुनः सर्वत्रापि । तथा (सिं ति ) पो प्रत्यय नाम प्रस्थय प्रयोग प्रत्ययस्पर्धकानां प्रत्येकं स्वके-प्रात्मीये जघन्योत्कृष्टे वर्गणे बुद्धधा पृथक कृत्वा ततः क्रमेण तासु । ( धणिया सगुण ति) धणिया-निचिता देश. गुणा निर्विभागभागरूपाः सकलपुद्गलगत स्नेहा विभागा इ· त्यर्थः । ते ऽनन्तगुणनया - अनन्तगुणित तथा ज्ञातव्याः । तदेयं कृता पुलामां परस्परं सम्बन्धदेतुभूतस्य स्नेहस्य प्र रूपणा ॥ सम्प्रति बन्धनकरण सामर्थ्यतो बध्यमान कर्म पुनः खानां प्रकृतिस्थित्यनुभागदेविनायो मन्दमतीनां सुषा 1 बंधण f बोधाय मोदकदष्टान्तेन विभाव्यते यथा किल कधिमोदको बातविनाशि द्रव्यनिष्पक्षः प्रकृत्या वातमुपशमय. वि. पितोयनिष्पक्ष पित्तम् कफापहारि इव्यनिष्पत्रः कफामित्येवंस्वरूपा प्रकृतिमोदकस्य तथा तस्यैव स्थितिः कस्यचिद्दिनमेकम् अपरस्य दिन जयम, अन्यस्य मासाऽऽदिकं कालं यावत् । तथा तस्यैव रसः स्निग्धमधुराऽऽदि। कस्यचिदेकस्थानको परस्य द्विस्था नक इत्यादि । तथा तस्यैव प्रदेशाः कणिकाऽऽदिरूपाः कः स्यचिदेकप्रसृतिप्रमाणाः कस्यचिद्विप्रसृतिप्रमाणा इत्या दि तथा कर्मयोऽपि कामखोति चिंदर्शन कि चित्सुखदुःखे जनयति किञ्चिन्मोहयतीत्येवं स्वरूपा प्र इतिः सथा स्थितिस्तस्यैव कर्मणः कस्यविवित्साग गरोपमकोटी कोटी प्रमाणा, अपरस्य सप्ततिसागरोपमकीटीकोटीप्रमाण इत्यादि । तथा रसः कस्यचिदेकस्थान. कोऽपरस्य द्विस्थानक इत्यादि तथा प्रदेशाः कस्यचि दुतराः कस्यविश्व बहुतमा इति ।। २३ ।। 9 तत्र प्रकृतिमेत एच कर्म लोसरविभागो भवति नान्यथेत्यावेदयत्साहमृतरपगईथं मयुभागविसेस हवभेो । अविसेसियर सप, पराईबंधो मुणेयश्वो ॥ २४ ॥ ( मूलु ति) इह प्रकृतिशब्दो भेदपर्यायोऽप्यस्ति । त था चाssद्द भाष्यकृत् -" अहवा पयडी भेश्रो " इति । त तो सोतरकृतीनां सरमेदा कर्मणः सम्बन्धम भागविशेषतः स्वभावविशेषताना वारकरवा5दिल क्षणात् भेदो भवतिः, नाऽन्यथा । अनुभागशब्दश्चाऽत्र स्थभादयोऽवगन्तयः । पूर्वी" अनुभाग ि सहावो " इति । इह बन्धन करणे प्रकृतिबन्धाऽऽदयः प्रत्येकमुपरि सुप्रपञ्चं वक्तव्याः । प्रकृत्यादयश्च प्रतिकर्म सक्डीर्या इति कचिद व्यामुह्येत, अतस्तम्मोद्दापनोपदाय प्रकृतिबम्बं तुशब्दोपलक्षणद्वारेण अभ्याँच स्थितिबन्धाऽऽदीन् वैविध्येन ( डयेण ) स्पष्ट्रयन्नाह - ( अविलेसियेत्यादि ) रसः स्नेहोsनुभाग इत्येकार्थाः । तस्य प्रकृतिः स्वभावः । अधिशेपिताऽविवक्षिता प्रकृति उपलत्वात्स्याय अपि पस्मिन विवचिततिप्रकृतिः । प्रकृतिबन्धो ज्ञातव्यः, तुशब्दस्याधिकार्थसंसूचनात् अधिपक्षित र समतिप्रदेश स्थितियन्धः अधिपतिप्रकृतिस्थितिप्रदेशो रसबन्धः, अविवक्षितप्रकृतिस्थितिरसः प्रदेशबन्ध इत्यपि द्रष्टव्यम्। प्रकृतिबन्धे च यावन्स्यः प्र. कृतयो बन्धमायान्ति यश्च यासां बन्धं प्रति स्वामी, तदेतत्सर्वे शतकादयम् प्रकृतिको यो भवतः जोगा पयडिपपलं " इति वचनात् । तत्र प्रकृतिबन्ध उक्तः ॥ साम्प्रतं प्रदेशबन्धो वर्तुमवसर प्राप्तः त प्राविधबन्धकेन जन्तुना यदेकेनाध्यवस्तायेन चित्रतागर्भेण गृहीतं दलिकं तस्याऽष्टौ भागा भवन्ति, सप्तविधबन्धस्य तु सप्त भागाः, षड्विधबन्धकस्य षद्भागाः, एकविधयन्धकस्य एको भागः ॥ २४ ॥ 1 प्रत्युत्तरप्रकृतीनां भागविभागोपदर्शनार्थमाहजं सव्वधाइपत्तं, सगकम्मपरसतमो भागो । " - " Page #1219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध अभिधानराजेन्द्रः। बंध भावरणाण चउद्धा,तिहा य अह पंचहा विग्घे ॥२५॥ एतेषामेव एकैकस्याः प्रकृतेर्वध्यमानाया ढोकते , द्विप्रभु(जंति ) यत्-कर्मदलिकं सर्वघातिप्राप्त केवलज्ञानावर तीनाममीषां युगपबन्धाऽभावात् ॥१६॥ खीयाऽऽदिरूपसर्वघातिप्रकृतिषु गतं तत् स्वकर्मप्रदेशानाम- सिपाईसु बज्म-तिगाण वामरसगंधफासाणं । नन्तसमो भागः स्वकीयाया ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिरूपाया मूल. __ सम्मासि संघाए. तणुम्पि य तिमे चउक्के वा ।। २७ ।। प्रकृतयों मौलो भागस्तस्यानन्ततमो भाग इत्यर्थः। काऽत्र (विंडत्ति) पिण्डप्रकृतयो-नामप्रकृतयः। यदाह चूर्णियुक्तिरिति चेदुच्यते-दहाष्टानामपि मूलप्रकृतीनां प्र कृत्-"पिंडपईप्रो नामपगईश्रो ति।"तासु मध्ये यध्यमा स्वेकं ये स्निग्धतराः परमाणवस्ते स्तोकाः ते च स्वस्वमू. मानामन्यतममतिजातिशरीरबन्धनसंघातनसंस्थानाकोपाला. लप्रकृतिपरमाणुनामनन्ततमो भागः । त एव च सर्वघाति नुपूर्वीयां वर्णगन्धरसस्पर्शागुरुलधूपघातपराधातोरासनिप्रकृतियोग्या इति यस्सर्वघातिप्राप्तं तत् स्वस्वमूलप्रकृतिप्रदे. मालतीर्थकराणामातपोद्योतप्रशस्ताऽप्रशंस्तविहायोगतित्र. शानामनन्ततमो भागः। तस्मिंश्वानन्ततमे भागेऽपसारिते सस्थावरबादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्तप्रत्यकसाधारणस्थिराऽस्थि. शेष यह लिकं तत्सर्वघातिप्रकृतिव्यतिरिक्तभ्यः तत्कालबध्य. रशुभाशुभसुस्वरदुःस्वरसुभगदुर्भगाऽऽनेयानादेययश-कीर्य मानेभ्यः स्वस्वमूलप्रकृत्यवान्तरभेदेभ्यो विभज्य विभज्य दी. यश-कीर्त्यग्यतराणांच मूलभागो विभज्य समर्पणीयः शत्रव यते। तथाहि-(प्रावरणेत्यादि)आवरणयोः-शानाऽऽचरणदर्श विशेषमाह-(बइत्यादि) वर्णरसगन्धस्पर्शानां प्रत्येक यद्भाग. नावरणयोःप्रत्येकं सर्वघातिप्रकृतिनिमित्तमनन्ततमे भागे. लब्धदलिकमायाति तत्सर्वेभ्यस्तेषामवान्तरभेदेभ्यो विभज्य उपसारिते सति शेषस्य दलिकस्य यथाक्रमं चतुर्धा त्रिधाच. विभज्य दीयते । तथाहि-वर्णनाम्नो यद्भागलब्धं दलिकं तविभागः क्रियते सत्वा च शेषदेशघातिप्रकृतिभ्यो दीयते। त्पश्चधा कृत्वा शुक्ला दिभ्योऽवान्तरभेदेभ्यो विभज्य प्रदीतथा विघ्नान्तराये यो मूलभागः स समनोऽपि पञ्चधा यते । एवं गन्धरसस्पर्शानामपि यस्य यावन्तो भेदास्तस्य सं. कृत्वा दानान्तराया 5ऽदिभ्यो दीयते । यमत्र भावना-साना. बन्धिनो भागस्य तति भागाः कृत्वा तावड़योऽवान्तरभे35बरणीयस्य स्थित्यनुसारेण यो मूल भाग आभजति, तस्या देभ्यो दातव्या तथा संघाते तनौ च प्रत्येकं यागलब्ध उनन्ततमो भागः केवलज्ञानाऽऽवरणाय दीयते। शेषस्य चत्वा दतिकमायाति तस्त्रिधा चतुर्धा वा कृत्वा त्रिभ्यश्चतुर्यो रो भागाः क्रियन्ते ते च मतिज्ञानावरणश्रुतशानाऽऽचरणा- वा दीयते। तत्रीदारिकतैजसकार्मणानि वैफियतैजसकामवधिज्ञानाचरणमनःपर्यवज्ञानाबरणेभ्यो दीयन्ते। दर्श- णानि वा त्रीणि शरीराणि संघातानि या युगपद् बनता त्रि. नावरणीयस्याऽपि यो मूलभाग आभजति तस्याऽनन्ततम धा क्रियते, वैक्रियाऽऽहारकतैजसकामणरूपाणि चवारि भागं पोदा कृत्वा निद्रापञ्चककेवल दर्शनाऽऽवरणाभ्यां सर्व- शरीराणि संघातानि वा बनता चतुर्धा क्रियते ॥ २७ ॥ घातिभ्यां प्रयच्छति (जीवः) । शेषस्य च प्रयो भागाः क्रिया सत्तेकारविगप्पा, बंधणनामाण मूलपगईणं ।। श्ते. ते च चतुरचरवधिदर्शनाऽऽवरणेभ्यो दीयन्ते । अन्त. उत्तरसगपगईण य, अप्पबहत्ता विसेसो सिं ।। २८ ।। रायस्य पुनः मूलभाग आभजति स समग्रोऽपि सर्व. भास्यवान्तरभेदाऽभावात् पञ्चधा कृत्वा दानाऽन्तरायाऽऽदि. ( ससे ति) बन्धननाम्नां भागलब्धं यहलिकमायाति तस्य बिकल्पाः सप्त भेदा एकादश या विकल्पाः क्रियन्ते। भ्यो दीयते ॥ २५॥ तत्रौदारिकौदारिकरौदारिकतैजससौदारिकार्मखमीदामोहे दुरा चउद्धा, य पंचहा वा वि बउझमाणीणं ।। रिकतैजसकार्मण तैजसतैजसतैजसकामणकामकार्मवेयणियाउयगोए-सु बज्झमाणीण भागो सिं ॥ २६ ।। रण ७ रूपाणि वैक्रियचतुकतैजसत्रिकरूपाणि वा सप्त (मोहे ति) मोहे-मोहनीये स्थित्यनुसारेण यो मूलभा. बन्धनानि बनता सप्त । बैक्रियश्चतुष्काहारकचतुग आभजति तस्याऽनन्ततमो भागः सर्वघातिप्रकृतियोग्यो कतैजसत्रिकलक्षणान्येकादश बन्धनानि बध्नता एकाद. सिधा क्रियते. ध दर्शनमोहनीयस्थ, अर्धे चारित्रमोह. श। अवशेषाणां च प्रकतीनां यद्भागलब्धं दलिकमाया. नीयस्य । तत्राऽध दर्शनमोहनीयस्य सत्कं समग्रमपि मि. ति, तन्न भूयो विभज्यते, तासां युगपदबान्तरद्वियादि. ध्यात्वमोहनीयस्य ढोकते । चारित्रमोहनीयस्य तु सत्क- भेदवन्धाऽभावात् । तेन तासां तदेव परिपूर्ण दलिकं भ. मध द्वादशधा क्रियते, ते च द्वादशभागा प्राधेभ्यो द्वाद वति । इहैकाध्यवसायगृहीतस्य कर्मदखिकस्य परमाणवो शकषायेभ्यो दीयन्ते । सम्प्रति शेषदलिकभागविधिरुच्यते- विभामशः कृत्वा मूलभकृतिभ्य उत्तरप्रकृतिभ्यश्च दत्ताः । (मोहे दुहेत्यादि । शेषस्य च मूलभागस्य द्वौ भागौ कि- तन ज्ञायते जघन्यपदे उत्कृष्पदे वा कस्याः कियान् भा. येते एकः कषायमोहनीयस्य , अपरो नोकषायमोहनीय. गस्ततो विशेष परिमानार्थमाह-( मूलपगईत्यादि ) भासां स्य । तत्र कषायमोहनीयस्य भागः पुनश्चतुर्धा क्रियते, ते मूलप्रकृतीनामुत्तरस्वप्रकृतीनां च परस्परं भागस्य विशेचचत्वारोऽपि भागाः संज्वलनकोधाऽऽदिभ्यो दीयन्ते । नो. पोऽल्पबहुत्वात् शास्त्रान्तरोक्नात् द्रष्टव्यः । तत्र मूलप्रका कषायमोहनीयस्य तु भागः पञ्चधा क्रियते, ते च पञ्चाऽपि तीनामल्पबहुत्वं दयते-इह कर्मणां स्थित्यनुसारतो भा. भागा यथाक्रम प्रयाणां वेदानामन्यतमस्मै धेदाय वध्यमा. ग प्राभजति, यस्य वृहती स्थितिस्तस्य वृद्भागा, यक्ष्य नाय हास्यरतियुगलाऽरतिशोकयुगलयोरम्यतरस्मै युगलाय | स्तोका तस्य स्तोक इति । ताऽऽयुषो भागः सर्वस्तीका। भयजुगुप्साभ्यां च दीयम्ने । नाऽन्येभ्यः, बन्धाऽभावात् । न तस्य सर्वस्या (सर्वेभ्योऽ) प्यन्येभ्यः स्तोकस्थितिकत्याहिनचाऽपि नोकषाया युगपद्वन्धमायान्ति, किंतु यथोक्ताः त् । तस्स्थितेरुत्कर्षतोऽपि यनिशस्सागरोपमप्रमाणस्वा. पवैव । तथा वेदनीयाऽऽयुर्गोत्रेषु यो मूलभाग भाभजति स.। त् । ततो नामगोप्रयोर्भागो पात्तरः। तयोः स्थितेपिंश Page #1220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण अभिधानराजेन्द्रः। बंधण तिसागरोपमकोटीप्रमाणत्वात् । स्वस्थाने तु योरपि औदारिकशरीरनाम्रो विशेषाधिकम् ततस्तैजसशरीरनाम्रो परस्परं तुल्या, समानस्थितिकत्वात् । ततोऽपि सामा55-/ विशेषाधिकम् । ततोऽपि कार्मणशरीरमानो विशेषाधिकम् । बरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणां बृहत्तमः । तेषां स्थिते. एवं संघातननामन्यपि द्रष्टव्यम् । तथा बन्धननानि सिंशत्सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , स्वस्थाने तु| सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशाप्रमाहारकाऽहारकबन्धननाममः। परस्परं तुल्य एष, तुरुपस्थितिकत्वात् । ततोऽपि मो. तत माहारकतैजसनाम्नो विशेषाधिकम् । सत पाहारक. हनीयस्व बहत्तमः, तस्य स्थितेः सप्ततिसागरोपमको कार्मणबम्धनमाम्नो विशेषाधिकम् । तत माहारकरीजस. टीकोटीप्रमाणस्वात् । घेदनीयं यद्यपि ज्ञानावरणीयाss- कार्मणबन्धननाम्नो विशेषाधिकम् । ततो वैक्रियवैक्रियशरी. दिभिः सह समस्थितिकं.तथाऽपि तस्य भागः सर्वोत्कृष्ट एव रबन्धननाम्नो विशेषाधिकम् । ततो क्रियतेजसबम्धनमा वेदितव्यः अन्यथा स्पष्टतरस्वफलसुखदुःखोपदर्शकस्वानुप- म्नो विशेषाधिकम् । ततो वैक्रियकार्मणथम्धननाम्नो विशेपत्तेदानी स्वस्थोसरप्रकृतीनामुत्कृष्टपदे जघन्यपदे वा षाधिकम् । ततो वैक्रियतैजसकार्मणबन्धननाम्नो विशेषा. स्पबम्बमभिधीयते-तत्रोत्कृष्टपदे सर्वस्तोक केवलज्ञानाबर- धिकम् । तत औदारिकौदारिकबन्धननाम्नो विशेषाधिकम् । णस्य प्रदेशाऽप्रम् ततो मनःपर्यवशानाऽऽवरणीयस्याऽनन्तगुणः तत औदारिकतैजसबन्धनाम्नो विशेषाधिकम् । तत प्रौदाम्। ततोऽवधिज्ञानावरणीयस्य विशेषाधिकम् ततः श्रुतक्षा. रिककार्मणबन्धननाम्नो विशेषाधिकम् । ततोऽप्यौदारिकतज मावरणीयस्य विशेषाधिकम् । ततोऽपि मतिज्ञानाऽऽवरणी. सकार्मणबन्धननाम्नो विशेषाधिकम् । ततस्तैजसतैजसब. यस्य विशेषाधिकम् । तथा दर्शनाऽऽधरणीये उत्कृष्टपदे सर्वस्तो ग्धननाम्नो विशेषाधिकम् । ततस्तैजसकार्मणबन्धननाम्नी कंप्रचलायाः प्रदेशाप्रम्। ततो निद्राया विशेषाधिकम् । त. विशेषाधिकम् । ततः कार्मणकार्मणबन्धननाम्नो विशेषातोऽपि प्रचलाप्रचलाया विशेषाधिकम् । तनोऽपि निद्रानि- धिकम् । तथा संस्थाननाम्नि संस्थानानामाद्यन्नवर्जानां च. द्राया विशेषाधिकम् । ततः स्त्यानविशेषाधिकम् । ततः के. तुर्णामुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्रं सर्वस्तोकं , स्वस्थाने तु तेषां प. बलदर्शनावरणीयस्य विशेषाधिकम् । ततोऽवधिदर्शना35/ रस्परं तुल्यम् । ततः समचतुरस्रसंस्थानस्य विशेषाधिबरणीयस्थानम्तगुणम् । ततोऽचतुर्दर्शनाऽऽधरणीयस्य विशे- कम् । ततोऽपि हुण्डमस्थानस्य विशेषाधिकम् । तथाको. पाधिकम् । ततोऽपि चतुर्दर्शनाऽऽचरणीयस्य विशेषाधिकम्। पाङ्गनाम्नि सस्तोकमुत्कृष्पदे प्रदेशाग्रमाहारकापा. तथा सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशाप्रमसातवेदनीयस्य । ततो नाम्नः। ततो वैक्रियाङ्गोपाङ्गनाम्नो विशेषाधिकम । सतो. विशेषाधिकं सातवेदनीयस्य । तथा मोहनीये सर्वस्तोकम- उप्यौदारिकाङ्गोपाङ्गनाम्नो विशेषाधिकम् । तथा संहननना. स्कृष्टपदे प्रदेशाप्रमप्रत्याख्यानाऽऽवरण मानस्य । ततोऽप्रत्या. म्नि सर्वस्तोकमाद्यानां पञ्चानां संहननानामुस्कृष्टपदे प्रदेशा. स्थानावरणक्रोधस्य विशेषाधिकम्। ततोऽप्रत्याख्यानाss. प्रं, स्वस्थाने तु तेषां परस्परं तुल्यम् । ततः सेवार्तसं. बरणमायाया विशेषाधिकम् । ततोऽप्रत्याख्यानाऽऽवरणलो- हननस्य विशेषाधिकम् । तथा वर्णनाम्नि सर्वस्तोकमुत्कभस्य विशेषाधिकम् । ततःप्रत्याख्यानाऽऽवरणमानस्य विशे ष्टपदे प्रदेशाग्रं कृष्णवर्णनाम्नः । ततो नीलवर्णनाम्नी विशे. पाधिकम् । ततःप्रत्याख्यानाऽवरणक्रोधस्य विशेषाधिकम् ।। पाधिकम् । ततो लोहितवर्णनाम्नी विशेषाधिकम् । ततो. ततःप्रत्याख्यानाचरणमायाया विशेषाधिकम् । ततः प्रत्याः | हारिद्रवर्ण नाम्नो विशेषाधिकम् । ततोऽपि शुक्रवर्णनाम्नो क्यानाडावरणलोभस्य विशेषाधिकम्।ततोऽनन्तानुबन्धिमा- विशेषाधिकम् । तथा गन्धनाम्नि सर्वस्तोकं सुरभिगम्ध. नस्य विशेषाधिकम् । ततोऽनन्तानुबन्धिाधस्य विशेषा- नाम्नः । ततो विशेषाधिकं दुरभिगन्धनाम्नः । तथा धिकम् । ततोऽनन्तानुबन्धिमायाया विशेषाधिकम् । ततो- रसनामिन सर्वस्तोकं कटुरसमाम्नः | सतस्तिकरसमाम्नो ऽनन्तानुबन्धिलोभस्य विशेषाधिकम् । ततो मिथ्यात्वस्य विशेषाधिकम् । ततः कषायरसनाम्नो विशेषाधिकम् । त. विशेषाधिकम् । ततो जुगुप्साया अनन्तगुणम् । ततो भय- तः अम्लरसनाम्ना विशेषाधिकम् । ततोऽपि मधुररस. स्य विशेषाधिकम् । नतो हास्यशोकयोर्विशेषाधिकम् , स्व. नाम्नो विशेषाधिकम् । तथा स्पर्शनामिन सस्तोकमुक्का स्थाने तुद्वयोरपि परस्परं तुल्यम् । ततो रत्यरत्योर्षिशे- पपदे कर्कशगुरुस्पर्शनाम्नः प्रदेशाप्रम्, स्वस्थाने तुयोरपि पाधिकम् । तयोः पुनः स्वस्थाने तुल्यम् ततःखीवेदनपुंस. परस्परंतुल्यम् । ततो मृदुलघुस्पर्शनाम्नोर्षिशेषाधिकम् स्व कबेदयोर्विशेषाधिकं, स्वस्थाने तु द्वयोरपि परस्परं तुल्यम्। स्थाने तुयोरपि तयोः परस्परं तुल्यम्। ततो कशाशीतस्पर्श ततः संज्वलनक्रोधस्य विशेषाधिकम् । ततः संज्वलनमानस्य नाम्नार्षिशषाधिकं,स्वस्थाने तु तयोर्वयोरपि परस्परं तुल्यम् । विशेषाधिकम् । ततः पुरुषवेदस्य विशेषाधिकम् । ततः सं- ततः स्निग्धोष्णस्पर्शनाम्नार्विशेषाधिकम् , स्वस्थाने तु न्वलनमायाया विशेषाधिकम् । ततः संज्वलनलोभस्याऽसं- तयोरपि तयोः परस्परं तुल्यम् । तथाऽऽनुपूर्वीनाम्नि सर्वस्येयगुणम् । तथा चतुर्णामप्यायुषामुत्कृष्पदे प्रदेशानं पर. स्तोकं प्रदेशानं देवगतिनरकगत्यानुपथ्यों , स्वस्थाने तु स्परं तुल्यम् । नामकर्मणि उस्कृष्टपदे प्रदेशाग्रं गतौ देव. इयोरपि परस्परं तुल्पम् । ततो मनुजगत्यानुपूर्या विशगतिनरकगस्योः सर्षस्तोकम् । ततो मनुजगतौ विशेषाधि- पाधिकम्। ततस्तिर्यगानुपूर्ध्या विशेषाधिकम् । तथा सर्वस्ती कम् । ततस्तिर्यग्गतौ विशेषाधिकम् । तथा जातौ चतुर्णा कम् उत्कृष्टपदे प्रवेशानं त्रसनाम्नः । ततो विशेषाधिकंस्थादीन्द्रियाऽऽविजातिमामामुस्कृष्टपने प्रदेशानं सस्तोक, स्व. परनाम्न तथा सर्वस्तोकं प्रदेशानं पर्याप्तनाम्नः ततो विशे. स्थाने तु तेषां परस्परं तुल्यम् । तत एकेन्द्रियजातर्विशेषाधि. पाधिकमपर्याप्तनाम्नः। एवं स्थिराऽस्थिरयो यभाऽणुभयो। कम । तथा शरीरनानि सर्वस्तोकमुत्कृष्टपये प्रवेशाप्रमाहार. सुभगदुर्भगयोमादेयानादेययोः समपादयोः प्रत्येकसाधा. कशरीरस्य । ततो बैंक्रियशरीरनामो विशेषाधिकम् । तत रणयोग्यम् । तथा सर्वस्तोकमयश-कीर्तिमानः प्रदे ३०. Page #1221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण अभिधानराजेन्छः। बंधण शाप्रम् । ततो यशाकीर्तिनाम्नः सस्येयगुणम् । शे संक्येयगुणम् । ततोऽप्याहाकाभोपालनाम्नोऽसंख्येयगुणम् । षाणामातपोद्मोतप्रशस्ताऽप्रशस्तविहायोगतिसुस्वर दुःस्वरा. तथा सर्वस्तोकं जघन्यपदे नरकगतिदेवगत्पानुपूर्योः प्रदेशा बां परस्परं तुल्यमुस्कृष्टपदे प्रदेशाप्रम् । निर्माणोडलासपरा- प्रम् । ततो मनुजगत्यानुपूा विशेषाधिकम् । ततोऽपि तिर्यघातोपघातागुरुलघुतीर्थकराणां स्वल्पबहुत्वं नास्ति,यत पद गत्यानुपूा विशेषाधिकम् । तथा सर्वस्तोकंत्रसनाम्नः।त. मल्पबहुत्वं सजातीयप्रकृत्यपेक्षया,यथा कृष्णाऽऽदिवर्णनाम्नः तो विशेषाधिकं स्थावरनाम्नः। एवं बादरसूचमयोः पर्याप्ताशेषवर्णापेक्षं.प्रतिपक्षप्रकृत्यपेक्षया वा यथा सुभगदुर्भगयोः। ऽपर्याप्तयोः प्रत्येकसाधारणयोश्वाशेषाणांतुनामप्रकृतीनाम: न चैताः परस्परं सजातीया अभिनकमूलपिण्डप्रत्यभा- रूपवावं न विद्यते। तथा सातासातवेदनीययोरुगोपनीचे. बात् । नाऽपि विरुद्धा युगपदापि बन्धसम्भवात् । तथा-गोत्र गोत्रयोरपि । अन्तराये पुनर्यथोस्कृष्ठपदे तथैवाऽवगम्तव्यम् । सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशानं नीचेगोत्रस्य। ततो विशेषाधि- हयदा जन्तुरूस्कृष्ट योगस्थाने वर्तते , यदाच मूलप्रकृती, कमुष्चोंत्रस्य । तथाऽन्तराये । स्वस्तीकं दाना ऽन्तरा- नामुत्तरप्रकृतीनां च स्तोकतराणां बन्धकः, तथा यदा सं. यस्य । ततो लाभाऽन्तरायस्य विशेषाधिकम् । ततो भो- क्रमकाले प्रकृत्यन्तरदक्षिकानामुत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो भवति. गाम्तरायस्य विशेषाधिकम् । तत उपभोगान्तरायस्थ वि. तदोत्कृष्टप्रदेशाप्रसंभवः । तथाहि-उत्कृष्ट योगे वर्तमानो शेषाधिकम् । ततो वीर्यान्तरायस्य विशेषाधिकम् । तदेष जीव उत्कर्ष प्रदेशग्रहणं करोति । तथा स्तोकतराणां मूमुक्तमुत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टपदे प्रदेशाऽप्राऽल्पवहुत्वम् ॥ सम्प्रति लप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां च यदा बन्धकस्तदा शेषावध्यजघन्यपदे तदभिधीयते-तत्र सस्तो कं जघन्यपदे प्रदेशाग्रं मानप्रकृतिलभ्योऽपि भागस्तासां बध्यमानानामाभजति । त. केवलज्ञानावरणीयस्य । ततो मनःपर्यवज्ञानाऽऽवरणीयस्या. था प्रकृत्यन्तरदलिकानामुत्कृष्टप्रदेशसंक्रमकाले विवक्षिताऽनन्तगुणम् । ततोऽवधिज्ञानाऽऽवरणीयस्य विशेषाधिकम् । सु प्रकृतिषु बध्यमानासु प्रभूताः कर्मपुद्गलाः प्रविशन्ति । ततः श्रुतशानावरणीयस्य विशेषाधिकम् । ततोऽपि मतिः | तत एतेषु कारणेषु सत्सूत्कृष्टप्रदेशाप्रसंभवो भवति। वि. शानावरणीयस्य विशेषाधिकम् । तथा दर्शनावरणीये स पर्यासे तु जघन्यप्रदेशाग्रसंभवः ॥२८॥ तदेवमुक्ती प्रकर्वलोकं जघन्यपदे प्रदेशाग्रं निद्रायाः। ततः प्रचनाया विशे तिप्रदेशबन्धौ। पाधिकम् । ततो निद्रानिद्राया विशेषाधिकम्। ततः प्रचला सम्प्रति स्थित्यनुभागबन्धप्ररूपणाऽवसरः। तत्र बहु वक्तव्यप्रचलाया विशेषाधिकम् । ततः स्त्यानद्धेर्विशेषाधिकम् । ततः त्वात् प्रथमतोऽनुभागवन्धस्यैव प्ररूपणा क्रियते । तत्र चतु. केवलदर्शमाऽऽधरणस्य विशेषाधिकम् । ततोऽवधिदर्शना. दशानुयोगद्वाराणि । तद्यथा-अविभागप्ररूपणा १, धर्गणाप्र. वरणस्यानन्तगुणम्। ततोऽचक्षुर्दर्शनावरणीयस्य वि. रूपणा २, स्पर्धकारूपणा ३, अन्तरप्ररूपणा ४, स्थानशेषाधिकम् । ततोऽपि चक्षुर्दर्शनावरणीयस्थ विशेषाधि प्ररूपणा५, कण्डकप्ररूपणा ६, पदस्थानप्ररूपणा ७,कम् । तथा मोहनीये सर्वस्तो जघन्यपदे प्रदेशाग्रमप्रत्याख्या धस्तनस्थानप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा, समयप्ररूपणा नावरणमानस्य । ततः अप्रत्याख्यानाऽऽधरणक्रोधस्य १०, यवमध्यमरूपणा ११, मोजोयुग्मप्ररूपणा १२, पर्यविशेषाधिकम् । ततोऽप्रत्याख्यानाऽऽचरणमायाया विशेषाधि घसानप्ररूपणा १३, अल्पबहुत्वप्ररूपणा १४॥ तत्राऽविभाग प्ररूपणाधेमाह- . कम्। ततोऽप्रत्याख्यानाऽऽधरणलाभस्य विशेषाधिकम् । तत गहणसमयम्मि जीवो, उप्पाएई गुणे सपच्चयो । पवमेव प्रत्याख्यानाऽऽवरणमानक्रोधमायालोभाऽनम्तानुब. न्धिमानक्रोधमायालोभानां यथोत्तरं विशेषाधिकं वक्तव्यम्। सबजियाणंतगुणे, कम्मपए मेसु सम्बेसुं ।। २६ ॥ ततो मिथ्यात्वस्य विशेषाधिकम् । ततो जुगुप्साया अनन्त- (गहण ति) इहाऽनुभागस्य कारणं काषायिका अभ्यवसा. गुणम् । ततो भयस्य विशेषाधिकम् । ततो हास्यशो- याः, “ठिअणुमागं कसायश्री कुणा" इति वचनात् । कयोर्विशेषाधिकम् , स्वस्थाने तु तयोः परस्परं तुल्यम् । ते च द्विधा-शुभा, अशुभाश्च । तत्र शुभैः क्षीरस्वण्डरसो. ततो रत्यरत्योर्विशेषाधिकम्। स्वस्थाने तु तयोरपि परस्पर पममाहादजननमनुभागं कर्मपुरलानामाधत्ते, निम्बघोषात. तुल्यम् । ततोऽन्यतरवेदस्य विशेषाधिकम् । ततः संज्वलन कीरसोपमं चाऽशुभैः । तेच शुभा शुभाषा काषायिका मानक्रोधमायालोभानां यथोत्तरं विशेषाधिकम् । तथा55. अध्यवसायाः प्रत्येकम् असङ्ख्येयलोकाऽऽकाशप्रमाणा: । युषि सर्वस्तीकं जघन्यपदे प्रदेशाग्रं तिर्यग्मनुभ्याऽऽयुषोः । केवल शुभा विशेषाधिका द्रष्ष्याः । तथाहि-यानेवानुततो देवनारकाऽऽयुषोरसंख्यगुणम् । तथा नाम्नि गतौ भागबाधाअध्यवसायान् क्रमशः स्थापितान् संक्लिश्यमान: सर्वस्तोकं जघन्यपदे प्रदेशाग्रं तिर्यग्गतेः । ततो विशेषा. क्रमेणाऽधोऽध प्रास्कन्दति, तानेव विशुभ्यमानःक्रमेणो. धिकं मनुजगतेः । ततो देवगतेरसंख्येयगुणम् । ततो नि- ध्वोंचमारोहति । ततो यथा प्रासादाववतरतो यान्ति रयगतेरसंख्येयगुणम् । तथा जातौ सर्वस्तोकं चतुर्णा सोपानस्थानानि भवन्ति तावन्स्येवाऽरोहतोऽपि,तथाऽप्रापि द्वीन्द्रियादिजातिनाम्नाम् । तत एकेन्द्रियजातर्विशेषाधि- यायम्त पय संक्लिश्यमानस्याऽशुभाऽध्यवसायास्तावम्त पत्र कम् । तथा शरीरनाम्नि सर्वस्तोकमौदारिकशरीरनाम्नः । विशुध्यमानस्याऽपि शुभाऽयवसायाः। उकंच-"क्रमशः ततस्तैजसशरीरनाम्नो विशेषाधिकम् । ततः कार्मणशरी- स्थितासु काषा-यिकीषु जीवस्य भाषपरिणतिषुभिवपतमो. रनाम्नो विशेषाधिकम्। ततो क्रियशरीरनाम्नोऽसंख्येयगुण- स्पतनाऽखे, संक्लेशाऽसाविशोम्पये ॥१॥"केवलं क्षपको म्। ततोऽप्याहारकशरीरनाम्नोऽसंक्येयगुणम् । एवं संघात- येयध्यवसायेषु वर्तमानःपकभेणिमारोहति,तेभ्यः पुनः ननाम्नोऽपि वाच्यम् । भनेपासनाम्नि सर्वस्तोकं जघन्यपदे में निवर्तते, तरूप प्रतिपाताभावाद, तस्तेऽधिका प्रदेशाप्रमौदारिकाङ्गोपाङ्गनाम्नः। ततो वैक्रियासोपानाम्नो इति तदपेक्षमा विशेषाधिकार समाजबबलापार Page #1222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११ ) बधा अभिधानराजेन्सः। बंधण तत्र शुभेनाऽशुभेन का एकेन केनचिदम्यवसायेन स्वमस्ययत काः प्राप्यन्ते । ततस्तेषां समुदायो द्वितीयस्य स्पर्धकस्य इति स्वस्य-मात्मनः संबन्धिनानुभागवन्धं प्रति प्रत्यपेन-प्र. प्रथमा वर्गणा । तत एकेन रसाऽविभागेनाऽधिकानां परमान्ययभूतेन-कारणभूतन जीवो ब्रहणसमये योग्यपुनलाऽऽदा. सूनां समुदायो द्वितीया धर्गणा। द्वाभ्यां रसाऽविभागा. जसमय सर्वेषु कर्मप्रदेशेषु कस्मिन् कर्मपरमाणावित्य भ्यामधिकानां परमानां समुदायस्तृतीया वर्गणा। र्थः। गुणान्-रसस्य निर्विभागान-मामाम् उक्लस्वरूपान् सर्व एवमे कैकरसाऽविभागवृद्धधा वर्गणास्तावद्वाच्या यापदमजीवेभ्योऽनन्तगुणानुत्पादयति । इयमत्र भावना-दह पूर्व व्येभ्योऽनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तभागकल्पा भवन्ति ।त. कर्मप्रायोग्यवर्गणाऽन्तःपातिनः सम्तः कर्मपरमाणवो न तस्तामां समुदायो द्वितीयं स्पर्धकम् । ततः पुनरप्यत तथाविश्वविशिष्टरसोपेता भासीरन , किंतु प्रायो नीरसा ऊर्य मेकेन रसाऽविभागेनाभ्याधिकाः परमाणवो न प्राप्यन्ते, एकस्वरूपाम । यदा तु जीवेन एखम्ते, तदानी प्रहणसम नापि द्वाभ्यां नापि त्रिभिः, नापि संख्येयैः नाप्यसंख्येयैः,मा. ये एम ते कापायिकेणाऽध्यवसायेन सर्वजीवेभ्योऽप्यन प्यनन्तैः किं त्वनन्ताऽनन्तैरेव सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणैः। ततन्तगुणारसाऽविभागा मापद्यन्ते, सानाधरणकत्वाऽऽदिवि. स्तेषां समुदायस्तृतीयस्य स्पर्धकस्य प्रथमा वर्गणा । त. चिस्वभावताच । अचिन्स्यत्वात् जीयानां पुगलानां च तः पुनरप्यत ऊर्व यथोत्तरमेकैकरसाऽविभागवृद्धा द्विशक्तः । न चैतदनुपपत्रं, तथादर्शनात् । तथाहि-शुष्कतृ तीयाऽऽदिका वर्गणास्तावद्वाच्या यावदभव्येभ्योऽनन्तगुणाः पाउऽदिपरमाणचोऽत्यन्तनीरसा अपि गवादिभिगृहीत्वा वि. सिद्धानामनन्तभागकल्पा भवन्ति । ततस्तासां समुदायशिष्टक्षीरादिरसरूपतया सप्तधातुरूपतया च परिणम्यन्ते स्तृतीयं स्पर्धकम् । एवं स्पर्धकानि तावद्वाच्यानि याय. इति ॥ २६॥ दभव्येभ्योऽनन्तगुणानि सिद्धानामनन्तभागकल्पानि भवन्ति । अत्राह-जनुतान् रसस्था विभागान् किं सर्वेष्वपि कर्मप. तेषां समुदाय एकमनुभागबन्धस्थानम् । तथा साह-"भ. रमाणुषु तुल्यानुत्पादयति, आहोश्विद्विषमान् । उच्यते. णंत गुणियं सव्यजिएहि पि" इत्यादि । प्रथमस्पर्धकचर. विषमान् । तथाहि-केषुचित्परमाणुष स्तोकान् । तांश्च ज. मवर्गणाया द्वितीयस्पर्धकप्रथमवर्गणायाश्चानन्तरमपि स. घन्यतोऽपि सर्वजीवाऽनन्तगुणान् । केषुचितेभ्योऽपि प्रभूता चजीधेभ्योऽनन्तगुणितं द्रष्टव्यम् । एषाऽन्तरप्ररूपणा । एवं न् । केषुचिच प्रभूतसमान् । तत्र न ज्ञायते केषु कियन्त शेषारयपि स्पर्धकान्यन्तराणि च यथोक्लप्रमाणाम्यवगम्त. इति तनिरूपणार्थ वर्गणाऽऽदिप्ररूपणामाह व्यानि । तानि च स्पर्धकानि एकानि-एकस्पर्धकसत्कष. सबऽप्पगुणा ते पढ-मवग्गणा सेसिया विसेमणा । गणानां समानि अभम्येभ्योऽनन्तगुणानि सिद्धानामनन्तअविभागुत्तरियायो, सिद्धाणमणतभागसमा ॥३०॥ भागकल्पानीत्यर्थः। एकं प्रथम सर्वजघन्यमनुभागबन्धस्था. (सव ति) येषां परमाणूनां समस्ताम्यपरमारवपेक्षया नं भवति । अनुभागबन्धस्थानं नामैकेन कापायिकेणा ध्यवसायेन गृहीतानां कर्मपरमारणूना रसस्पर्धकसमुदायअल्पे गुणाः-स्तोका रसाऽविभागास्ते सर्वाऽल्पगुणाः परमा परिमाणम् ॥ ३१ ॥ कृता स्थानप्ररूपणा। णवः समुदिताः प्रथमा वर्गणा। तस्यां च कर्मपरमाणवो. करडकपरूरणार्थमाहऽतिशयम प्रभूनाः। शेषाश्च वर्गणा विशेषहीनाः कर्मपरमा. एतो अंतरतुल्लं, अंतरमणंतभागुत्तरं बिइयमेवं । रावपेक्षया । तथाहि-प्रथमवर्गणाऽपेक्षया द्वितीयवर्गणायां का मपरमाणवो विशेषहीनाः । ततोऽपि तृतीयस्यां वर्गणायां अंगुलअसंखभागो, अणंतभागुत्तरं कम्मं ।। १२ ।। विशेषहीनाः । एवं तावद्वाच्यं यावत्सर्वोत्कृष्टा वर्गणा । (एत्तोति)इतः-प्रथमस्थानादारभ्य द्वितीयस्थानावर्षाव भ. एताश्च कथंभूता इत्याह-(अविभागुत्तरियाउ त्ति) अवि. न्तरमन्तरतुल्यं प्रागुतप्रमाणान्तरतुल्यं द्रष्टव्यम्।वमुकं भव भागोत्तरा एकैकस्नेहाऽविभागाधिका इत्यर्थः । तथाहि.प्र. ति-यथा प्रथमस्पर्धकचरमवर्गणाया द्वितीयस्पर्धकादिवर्ग थमवर्गणापरमारावपेक्षया ये परमाणव पकेन रसाऽविभा णायाश्चान्तरं सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणं समुदिष्टम् परमिहारि गेनाऽभ्यधिकास्तेषां समुदायो द्वितीया वर्गणा । तेभ्योऽ प्रथमस्थानाम्तिमस्पर्धकचरमवर्गमाया द्वितीयस्थानाऽऽयस्प प्येकेन रसाऽविभागेनाऽधिकानां समुदायस्तृतीया वर्गणा । धकप्रथमवर्गणायाश्चान्तरं सर्वजीधेभ्योऽनन्तगुणमषगन्तव्य. एवमेकैकाऽविभागवृद्ध्या वर्गणास्तावद्धतण्या यावदभव्ये. म्। तच द्वितीयस्थानं स्पर्धकापेक्षयानन्तभागोसरमनन्तभाभ्यो ऽनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तभागकल्पा भवन्ति इति । गवृखम् । यावन्ति प्रथमे स्थाने स्पर्धकानि तावद्भ्योऽ. ३०॥ कृता बगेणाप्ररूपणा। नाभागाधिकानि द्वितीय स्थाने स्पर्धकान्यवसेयानीस्यसम्प्रति स्पर्धकप्ररूपणामाह थैः । एवं यथोत्तरमनन्तभागवृद्धान्युपदर्शितप्रकारेण स्थाफडगमणंतगुणियं, सबजिएहिं पि अंतरं एवं नानि तायदाच्यानि यावदालाऽसंख्येयभागगताकाशप्रदेश राशिप्रमाणानि भवन्ति । एतेषां च समुदाय एकं कराडसेसाणि वग्गणाणं, समाणि ठाणं पढममित्तो ॥३१॥ कम् (भणंतभागुत्तरं ति) मनन्तभागोत्तरमनन्तभगोत्त(फगति) अभव्येभ्योऽनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तभा. रस्थानसमुदायरूपत्वारकण्डकमप्यनन्तभागोत्तरमक्कम । ए. गकल्पा अनन्ता वर्गणा एकं स्पर्धकम् । एषां स्पर्धकप्र. पां कराडकमरूपणा सम्प्रति पदस्थामप्ररूपणा क्रियतेकपणा ॥ संप्रस्यम्तरप्ररूपणा क्रियते-त ऊर्ष मेकेन र तस्मात्-प्रथमात् कराडकात् परं पदम्यवनुभागवग्धस्थानं साऽविभागेमाऽभ्यधिकाः परमाणवो न प्राप्यन्ते, नापिबा. भवति तत्स्पर्धकाऽपेक्षयासंख्येयभागाधिकम्। तस्मात्पराणि भ्यां, नापि त्रिभिः, नापि संख्येयैः, नाप्यसंख्येयैः, नाय. तुकएकमात्राणि स्थानानि यथोत्सरममम्तभागवृद्धामि । नन्दः, कि वनम्ताउनन्तैरेव सर्यजीवेभ्योऽनन्तगुणैरभ्यधिबता परंपुनरप्येकमन्यवनुभागबन्धस्थानमसंबषयमागाऽधि Page #1223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२०० ) अन्निधानराजेन्द्र बंध कम् । ततः पुनरपि कण्डकमात्राणि स्थानानि यथो गान । ततो भूयोऽप्येकम संख्येयभा गाधिकं स्थानम् । एवमनन्तमानाधिकैः कण्डकप्रमाणैः स्थानैर्व्यवहिताम्य संख्येयभागाधिकानि खानानि तावयानि पावसाम्यपि कराहरूमात्राणि भवन्ति । कण्डर्क व समयपरिभाषया कुल मात्रा संक्वेयभागगत प्रदेशराशिसंख्याप्रमाणमभिधीयते । ततश्वरमाद संस्थेयभा गाधिकात् स्थानात् पराणि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि eussमात्राणि स्थानानि वाक्यानि । ततः संख्येयभागा धिकमेकं स्थानं वक्तव्यम् । ततो मूलादारभ्य यावन्ति स्था नानि प्रागतिकान्तानि तावन्ति पुनरपि ययाभाव तथैवाभिधाय पुनरप्येकं संख्येयभागाधिकं स्थानं वक्तव्यम् । अमूनि चैवं संख्येयभागाधिकानि स्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावकण्डकमात्राणि भवन्ति । तत उक्तक्रमेण भूयोऽपि सं येयभागाधिकस्थानप्रसङ्गे संख्येयगुणाधिकमेकं स्थान वक्तव्यम् । ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्त्यनुभागबन्ध स्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति तथैव वाच्यान । ततः पुनरप्येकं संयेषगुणाधिकं स्थानं पयम्तोऽपि मूलादारभ्य यावन्ति स्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्त्य भागवम्यस्थानानि तथैव पव्यानि पुनरप्येकं संख्येयगुणाधिकं स्थानं वक्तव्यम् अमूल्यप्येवं संख्येव गुणाधिकानि स्थानानि तावद्वक्लव्यानि यावत्कण्डकम: • त्राणि भवन्ति । पूर्वपरिपाख्यान संस्थ नप्रसंङ्गेऽसंख्येयगुणाधिकं स्थानं वक्तव्यम् । ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्त्यनुभागबन्धस्थामानि प्रागतिकान्तानि सायन्ति तथैव पुनरपि वाक्यानि ततः पुनरप्येक गुणाऽधिकं स्थानं वक्रव्यम् । ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य तावन्त्यनुभागबन्धस्थानानि वक्तव्यानि । ततः पुनरव्येकमसंस्थेयगुणाधिकं स्थानं वक्रव्यम् अमूनि चैवम संख्येयगुणाधिकानि स्थानानि तावद्वाच्यानि यावत्कएड. कमात्राणि भवन्ति । ततः पूर्वपरिपाट्या पुनरप्यसंख्येय गुणाधिकस्थानप्रसङ्गेऽनन्तगुणाधिकं स्थानं वक्तव्यम् । ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्यनुभागबन्धस्थानानि प्रागभि दिवानि वायति पुनरपि तथेद वापानि ततो भूयोऽपेमाचिकं स्थानं वक्रव्यम्। ततो भूपोऽपि मूलादारभ्य तावन्ति स्थानानि तथैव वक्तव्यानि । ततः पुनरप्येकमनन्तगुणाधिकं स्थानं बलस्यम् । एवमनन्तगुवाधिनस्थानानाम्यानि पाएकमात्राणि भवन्ति इति ॥ ३२ ॥ इदानीमधियते एवं अभागे-मातरं यो फं एवं संभाग - सराणि जा पुत्रतुल्लाणि ॥ ३३ ॥ (पति) ततः प्रथमात् कण्डकादुपरि एकमनुभाग स्थानम् (असंधागे) असंवेग भागेगाऽधिकं इम्यंपूर्वस्थानगत स्पर्धकापेक्षा संकपेयागाचि स्पर्ध कैरधिकं प्रयमित्यर्थः ततः पुनरप्यनन्तभागी कराई पोरन भागवृद्धानां स्थानानां कण्डकम् ततः पुनर येक मसंख्येयभागाधिकं स्थानम् । एवमनन्तभागवृद्ध कण्ड कृव्यवहिताम्यसंयेयभागाधिकानि स्थानानि नि बंध यावत्पूर्वतुल्यानि भवन्ति, कण्डकमात्राणि भवन्तीत्यर्थः । ततः पुनरप्यनन्तभागवृद्धस्थानानां कण्डकमभिधाय ततः परमेकं संक्येयभागोतरं संक्येयभागाधिकमेकं स्थानं द्रव्यम् ॥ ३३ ॥ तथा चाऽऽहू एगं संखेज्जुत्तर - मेलो तीयाण तिच्छिया बीयं ॥ तामा विपदसमाई, संखेजगुगोचरं एकं ||२४|| (पति) ( एसोसि) इतः संयेागाधिकात् स्थानात् परतो मूलादारभ्य वायम्यनुभाग प्रागतिक्रान्तानि तावन्त्यतिक्रम्य गत्वा द्वितीयं संख्येयभागाधिकं स्थानं वक्तव्यम् । ताम्यपि संख्येयभागाधिका निस्थानाम्युपदर्शितप्रकारेणाद्वायानिया मानि भवन्ति प्रथमकस्यानि भवन्तीत्यर्थः । ततः पूर्वपरिपक्या संख्येपभागाचिकस्थान संपेप सरं संयाधिकं स्थानमेकं यम् २४ - तो तीयाणि अागि पदमस्स । तुलाऽसंखगुखियं, एक तीयाय एकस्स ॥ ३५ ॥ ( एसो ति ) इतः - संख्येयगुणोत्तरादनुभागबन्धस्थानात् यावन्ति मूलत आरभ्य प्रागतीनानि श्रतिक्रान्ताम्यनुभागव स्वस्थानानि तायस्यति द्वितीय संस्था नं वक्तव्यम् । ताम्यप्येवं तावद्वक्तव्यानि यावत्प्रथमस्थानन्तभागवृद्धस्थानकण्डकस्य तुल्यानि भवन्ति । ततः पूर्वप रिपाच्या पुन: संख्येयगुणाधिकस्थानप्रसङ्गे असंख्येयगुणाधिकं स्थानमेकं वक्तव्यम् । ततो मूलत आरभ्य यावतानि तावन्ति भूपतिकत्वाद्वितीयकम पाकिस्थानं वयम् । चिताथि समाई, पदमस्तगुखियमेगं तो तीयाच्या तारा वि पढपस्स तुलाई ।। ३६ ।। ( बिइयं ति ) तान्यप्य संख्येयगुणाधिकानि स्थानानि प्र थमस्य मूलभूतस्यानन्तभागवृद्ध कण्डकस्य समानि-तुल्या नि भवन्ति ततः पूर्वपरिपालया पुनरव्यसंयेवाधि कस्थानप्रस्थान व्यम्। ततो मूखत भारभ्य यानि अनुभागबन्धस्थानानि अतीतानि तानि भूपतिकत्वाद्वितीयमा चिकं स्थाने वयम्। एवं ताम्यप्यनन्तगुचाधिकानि स्था नानि तावकव्यानि यावत्प्रथमस्यानन्तभागवृस्थानक एडकस्य तुल्यानि भवन्ति । ततः पूर्वपरिपाट्या पञ्चकनम्रं पुनरप्यनन्त गुणाधिकं स्थानमुत्पद्यते कि या नेति चेदुच्यते - नोत्पद्यते, पदस्थानकस्य परिसमाप्तत्वात् । एतत्प्रथमं षट्स्थानकम् ॥ ३६ ॥ ! " " · अस्मिँश्च षट्स्थानके ऽनन्तभागवृद्धिः असंख्येय भागसिंवेषनाग वृद्धि संयगुण वृद्धिः अनन्तगुणवृद्धिधोका तत्र किन रूपेय संख्येयतमेन भागेन कियन्मात्रेण वाऽनन्ताऽसंक्येयसंगुणकारेण वृद्धि तत्परिज्ञानार्थमाहसव्वजियाणमसंखे-ज्जलोग संखेज्जगस्स जेट्ठस्स । लागोतिसु गुणा तिसु, छट्टा गाम संखिया लोगा ॥ ३७॥ - Page #1224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२ ) बंध अभिधानराजेन्द्रः। बंगल (सध्ये सिमाचासु तिवृषु पजियनम्तास्य-वतीयस्य-स्पर्धकस्य प्रथमवर्गणाचाम् । सतो द्वितीय संयपाला मागो पाकर्म सजीवामामसंख्येयलोकाss| स्यां वर्गणायामहर्षिशतिः। एतीयस्थामे कोनशित् । चतु. काशदेशानमुम्फरस्य च संख्येयस्य एष्यः । उत्तरासु यी त्रिंशत् ।। तुइतीयं स्पर्धकम् । अतः पुनरच्या बतिसषु शिषु गुणना-गुणकारोऽमन्तासंख्येयसंग्येयानां ऊर्वमेकोसरखपा रसाऽविभागान प्राप्यते, किसा यथाक्रममेषामेव सर्वजीषादीनामधगम्तम्या । इदमुक्तं पंजीषानम्तगुणाभ्यधिकाः। ते वकिला सस्कएपनया सप्त. भवति-प्रथमस्याऽनुभागस्वस्थानस्य सर्षजीवसंख्या:- त्रिंशत् । एते चतुर्थस्य स्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायाम्। सतो माणेन राशिमा भागे ते सति याचं सोऽमन्तभाग | द्विसीयस्यां वर्गणायामशशित् । हनीयस्थामेकोलवस्था । प्रायः । तेनामधिकं द्वितीयमनुभागस्थानम् । रिंशत् । चतुर्यो अवारिंशत् । चतुर्थ स्पर्धकम् । तस्याऽपि सर्यजीवसंक्याप्रमायोन राशिना भागेरते सनि तानि च किला साकल्पना प्रथममनुभागबम्धस्थामम । पहलाध तेनाभ्यधिकं तृतीयमनुभागबन्धस्थानम् । एवं | अत्र व रसाऽविभागाः सर्वसंख्यया षट्सप्तस्यधिकानि यद्यदनुभागवन्धस्थानमनन्तभागसमुपलभ्यते तत्तत्पाश्चा त्रीणि शतानि । त ऊर्व स्कोत्तरवृजपा रसाऽविभागा त्यस्य पाश्चास्यस्याऽनुभाबन्ध स्थानस्य सर्वजीवसंख्याप्रमा न प्राप्यन्ते. किं तु सर्वजीवामन्त गुणाभ्यधिकाः । तेच न राशिना भागेरते सति यलभ्यते तेन तेनाऽनम्ततमेन किला ऽसत्कल्पनया सप्तचत्वारिंशत् । एते व द्वितीयस्य भागेनाऽभ्यधिकमवगम्तव्यम् । तथाऽसण्ययभागाधिकं नाम स्थानस्य प्रथमस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायाम् । ततो द्वितीयस्यां पाश्चात्यस्याऽनुभागबन्धस्थानस्याऽसंख्येयलोकाऽऽकाशप्र वर्गणायामष्टचत्वारिंशत् । तृतीयस्यामेकोमपञ्चाशत् । चतु. देशप्रामाणेन राशिना भागे हते सति यल्लभ्यते सोऽसंख्येयत यो पञ्चाशत । इदं द्वितीय स्थाने प्रथम स्पर्धकम् । इत मो भागः । तेनाऽसंख्येयतमेन भागेनाभ्यधिकमसंख्येयभा ऊच त्येकोत्तर वृद्धधा रसाविभागा न प्राप्यन्ते, किंतु सगापिकं द्रष्टव्यम् । तथा संख्येयभागाधिकं नाम पाश्चा जीवानन्तगुणाधिकाः ते च किला सरकल्पनया सप्तपश्चास्यस्पानुभागबम्धस्थानस्य उत्कृष्टेन संख्येयेन भागे इते स. शत्। एते च द्वितीयस्थाने द्वितीयस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणःति यल्लभ्यते स संक्येयतमो भागः। तेन संययेयत मेन भा. याम्। ततो द्वितीयस्यां वर्गणायामएपश्चाशत् । तृतीयस्या मेकोनषष्टिः चतुर्थी षष्टिः । इदं द्वितीयस्थाने द्वितीय गेनाभ्यधिकमवगन्तव्यम्। तथा संख्येथगुणवृद्धं नाम पा. स्पर्धकम् । इत ऊर्ध्वमेकोलरवृद्धया रसाविभागा न प्राप्य श्चात्यमनुभागबन्धस्थानमुत्कृष्टसंख्येयकप्रमाणेन राशिना गु. एयते । गुणिते च सति यावान् राशिर्भवति एतावत्प्रमा. ते, किंतु सर्व जीवामन्तगणाधिकाः। ते च किला सस्क. गमवगन्तव्यम् । तथाऽसंख्येयगुणवृद्धं नाम पाश्चात्यमनुः ल्पनया सप्तषष्टिः। पते च द्वितीय स्थाने तृतीयस्य स्पर्ध भागबम्धस्थानमसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशसंख्याप्रमाणेनरा. कस्य प्रथमवर्गणायाम्। ततो द्वितीयस्यां वर्गणायामष्टप. शिना गुण्यते । गुणिते च सति यावान् राशिर्भवति ताव. टिः । तृतीयस्थामेकोनसप्ततिः। चतुर्यो सप्ततिः। वं द्वि. प्रमाणामबसयम् । एवमनन्तगुणवृद्धमपि भावनीयम् । प्रथ तीये स्थाने तृतीय स्पर्धकम् । तत इत ऊर्व पुनरप्येकोमस्य षट्स्थानकस्य परिसमाप्तौ सत्यामुपरि यदन्यदनुभा. त्तरवृदया रसाऽविभागान प्राप्यम्ते, कि तु सर्वजीचा डन. मतगणाधिकाः । ते च किलाऽसत्कापनया सप्तसप्ततिः। गस्थानमुपजायते ऽनन्तभागवृद्धं तत् द्वितीयस्य षट्स्थानका स्य प्रथममवगन्तव्यम् । तदपि च द्वितीयं षट्स्थानक पूर्वक्रमे (पते च द्वितीय स्थाने चतुर्थस्य स्पर्धकस्य प्रथमवर्ग: ख सकलमपि बक्तव्यम् । एवं शेषाण्यपि षट्स्थानकानि वक्त णायाम् ) ततो द्वितीयस्यां वर्गणायामष्टसप्ततिः तृतीय स्थामकोनाऽशीतिः। चतुर्थ्यामशीतिः इदं च द्वितीयस्थाने व्यानि । तानि च ताबद्वक्तव्यानि यावइसंख्येयलोकाऽऽकाश. चतुर्थ स्पर्धकम् । एतानि च किलाऽसत्कल्पनया द्वितीयं प्रदेशराशिप्रमाणानि भवन्ति। तथा चाऽऽह-"छट्ठाणमसंखिया लोगा।"मत्र कश्चित्प्रश्नयति-ननु प्रथमानभागबन्धस्था स्थानम् । अत्र व रसाऽविभागाः सर्वसंख्यया पोडशाऽधिकं सहस्रम् । तदेवं प्रथमस्थानगतरसाऽविभागापेत्तया द्वितीय. मस्य सर्वजीवप्रमाणेन राशिना भागोऽपहियते कि रसाबिभामापेक्षया, उत-परमारावपेक्षया, यद्वा-स्पर्धकाऽपेक्षया ?। स्थाने रसाविभागाः संख्येयगुणाः प्राप्यन्ते । उत्तरस्मिन्नुत्तसन न ताबद्रसाविभागापेक्षया , प्रथम स्थानात् द्वितीय- रमिस्तु स्थाने पूर्वपूर्वस्थानापेक्षया प्रभूताः प्रभूततमा इति स्थानपि रसाऽविभागानां संख्येयाऽऽदिगुणमया प्राप्यमारण- न कापि रसाविभागाउपेक्कया पूर्वस्थानादुत्तरस्य स्थानस्या. स्वात् । तथादि-प्रथमे स्थाने प्रथमे स्पर्धके प्रथमवर्गणा- उनन्तभागाधिकत्वं प्राप्यते । नाऽपि परमारावपेक्षयाउनम्तभायामनन्ता अपि रसाऽविभागाः किलाऽसत्कल्पनया सप्त । गाधिकस्वसम्भवः, यतो यथा यथाऽनुभागो वर्धते तथा ततो द्वितीयस्यां वर्गणायामी । तृतीयस्यां नव । चतुर्थ्या. तथा पुदलाः स्तोकाः स्तोकतराः प्राप्यन्ते । ततः प्रथम. दश । इदमेकं स्पर्धकम् । इत ऊबै स्बेकोत्तरवृ. स्थानगतपरमारावपेक्षया द्वितीय स्थाने परमाणवः किश्चि. दया रसाऽविभागा न प्राप्यन्ते, किंतु सर्वजीवानन्त. दूना एव भवन्ति नानम्तभागाधिकाः । एवमुत्तरेष्वपि गुणाधिकाः से च किलाऽसत्कल्पनया सप्तदश । पते च द्वि स्थानेषु पूर्वपूर्ण स्थानापेक्षया हीनहीनतरपरमाणुत्वं द्रष्टव्य. सीयस्य स्पर्धकस्य प्रथमवर्यणायाम् । ततो द्वितीयस्यां व. म्। नाऽपि स्पर्धकापेक्षया प्रथमस्थानादीनां सर्वजीवप्रमा. प्रणायामष्टादश। तृतीयस्यामेकोनविंशतिः। चतुर्थी बि. णेन राशिना भागाउपहारः संभवति,प्रथमस्थानाऽऽदिगतस्पशतिः। द्वितीय स्पर्धकम् । ततः पुनरप्यत ऊर्धमेको. र्धकानामभव्याऽनन्तगुणलिद्धानन्तभागकल्पनय तीव स्तोसरवृद्धया रसाऽविभागा न प्राप्यन्ते, कि तु सर्वजीवान कत्वादिति । अत्रोच्यते-इयं हि षट्स्थानकप्ररूपणा संयम. तणाधिकाः। तेन किलाऽसत्कस्पनया सविंशतिः । ए-1 श्रेण्यादिगतसकलपदस्थानकव्यापकलक्षणतया प्राप्यते Page #1225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध ततो वचनात् स्थानादर्याकृतनेषु स्थानेषु स राशिना स्पर्धकापेक्षा भगदान सेभवति तचाप्युत्तरेषु स्थानयम्येष्वपि च द्वितीयाऽऽदि षट्स्थानेषु तथा सर्वेष्वपि संयमधेण्यादिगतेषु संभवतीति न विरोधः बाहुल्येन सर्वत्र " सर्वजीवप्रमाणेन राशिना भागो हियते " इति वच माच अनन्तगुपात स्थानति (१२०१) अभिधानराजेन्द्रः । रामान सर्वलोकानामाना उचिकत्वम् । यद्यपि पूर्वपूर्वखानामेषु चीनी मतराः परमाणवः प्राप्यति तथाऽपि स्तोकस्तोकतरैः परमाभास्वरूपरूपयेकमा नबि | तदेवमुक्ा षट्स्थानकप्ररूपणा ॥ साम्प्रतमधस्तन स्थानप्ररूपणा क्रियते तत्र प्रथमादसंख्येयभागखात् स्था मादा कियभागबन्धस्यानाम्पमा उ ते कडक मात्राणि तथा प्रथमात्संक्येयभागवृद्धास्था माद अपियसंयेषभागवृद्धानि स्थानानि उप कपडकमात्राणि तथा प्रथमात्संवयेयगुणवृद्धास्थानादधः पिन्ति संवयेयभागवृद्धानि स्थामानि ?। उच्यते-कपटक मात्राणि । तथा प्रथमात्र संकपेयगुणवृद्धात् स्थानावधः कि पतिपदास्थामा उपते-कराडका प्राणि तथा प्रथमाइन गुणवृद्धात स्थानात्रधः फियास्यगुणानि स्थानानि ? । उच्यते -करडकमात्राणि इ. सरस्थानादयोऽच आनन्तर्येय मार्गानी कान्तरिता मार्गणा क्रियते तत्र प्रथमारसंख्येय भागवृद्धा गानिस्थानान से- कराडबर्गः कर्क तथा प्रथमार छात्] [earers frयस्य संक्येय भागवृद्धानि स्थानानि ।। कडकवर्ग, कराडकं च तथा प्रथमादसंख्येयगुण वृचात् स्थानादधः कियन्ति संख्येयभागवृद्धानि स्थाना मि १ । उच्यते - कराड कंबर्ग, कराडकं च तथा प्रथमादनगुगाबृद्धात् स्थानादधः कियन्ति संख्येयगुणवृद्धानि स्था मान है। तेरा मुकारे सरिता न्तरिता चतुरन्तरिता व मार्गदा स्व थिया परिभाषमया ॥ ३७ ॥ तदेवं कृताऽधस्तनस्थान प्ररूपणा । " साम्प्रतं वृद्धिस्थानप्ररूपबुड्डी हाथी सम्हा दोयहं पि अंतमिलायं । तोमावलि असंखभागा उ सेसा ॥ ३८ ॥ (डिसिजी परिणतिविशेषतः कर्ममा धनुभागस्य पडियारूप वृद्धि हानि कुर्वन्ति । तस्मात् वृद्धि किय कायात् कुश्का लग्माणामभिधानीयम् । तत्र द्वयोर्वृद्धिहान्योरन्तियोरन. गुणनन्तगुण हा निरूपयोरन्तर्मुहूर्तमवगन्तव्यम् । किमुर्क भवति - अन्तर्मुद्रायायनिरन्तर जीवाप रिमविशेषतः प्रतिसमयमनुभागान् पूर्वस्मात् पूर्वस्मा दनन्तगुणवृद्धाननन्तगुणहीनान् वा बध्नन्ति । तथा शे पायां पञ्चानामायानां वृद्धीनां दानीनां वा आवलिकाया असंख्येयभागमात्रः कालो वेदितव्यः । इदमुकं भवति - अनु भागानामाचा पक्ष वृद्धीदांगी मालिकाया बंधण यभागमात्रं कालं यावनिरन्तरं जीवाः परिणामविशेषतः कुर्वन्ति । एषा व डानि वृद्धि कालप्ररूपणोटक तो ऽवगन्तव्या । जघन्यतस्तु सर्वा अपि वृद्धयो हानयो वा एकं द्वौ वा सम या यादवगन्तव्याः ॥ ३८ ॥ इदानीमेतेष्वनुभाग स्थानेषु बन्धमाश्रित्याऽवस्थाने कालमानमाद चराई जावगमेो जाये दुर्गतिसमा ठाणा उक्केोसो, जहाम्रो सम्बहिं समभो ॥ ३६ ॥ बराह शिवार आदिस्याः सा चतुरादिवृद्धिः । सा च समयानामवस्थितकाल नियामकानां तावत् द्रष्टव्या यावदष्ट समयाः । त ऊ पुनः समयानां हानिर्षया । सा च तावला यावत् द्विकम्। सा च वृद्धिहनिय चतुरारिका स्थानानामनुभागबन्धस्यानानामुत ष्टव्या । जघन्यतस्तु सर्वेषामपि समयः । इयमत्र भावना यानि अनुभागबन्धस्यानानि जीवाः पुनः पुनस्ताम्येच चतुरा समयान् यावत् बनम्ति तानि चतुःसामयिकानि । तानि च मूलादारम्पयेलोका का प्रदेशमा भ ग्मि । तेभ्य उपरितनानि स्थानानि पञ्चसामयिकानि ताम्यध्य लोकाऽऽकाशप्रदेशराशिप्रमाणानि । तेभ्य उपरितनानि स्थानानि षट् सामयिकानि तान्यप्यसंवये पोकाका प्रदेशराशिप्रमाणानि । तेभ्य उपरितनानि स्थानानि सप्तलामयिकानि तान्यप्य संख्ये यलो काऽऽकाश प्रदेशराशिप्रमाणागिने उपाधिका ला रामराममा उपस्थि निमसामयिकानि, ताम्यव्यसंयो शिप्रमाणानि । तेभ्य उपरितनानि षद् सामयिकानि ताभ्य यसंपेल का का 1 यावत् द्विसामयिकानि ॥ ३६ ॥ तदेवं कृता समयप्ररूपणा । हदानी पापभागवस्थानाधिकानि तानि यस्यां वृद्धी हानी वा प्राप्यन्ते तामाहसुयोवाणि अपमाथि दो पासेसु । समऊणियाणि कमसो, असंखगुणियाणि उपि च । ४० । ( सुति) द्वयोर्विकल्पयोरनन्त गुण वृद्धयनन्तगुणानि रूपयेोर्यत्रमध्यं वर्तते । यवस्य मध्यमित्र यवमध्यमष्टलाम यिकाम्यनुभागबन्धस्थानानीत्यर्थः । यथा यवस्य मध्यं पृथुल मुभयतः पार्श्वे च होने हीनतरे, तथाऽत्रापि कालतः नामधिकानि अनुभागबन्स्थानानि उम पार्श्ववर्तीनि च सप्तसामयिकाऽऽदीनि कालतो हीनानि ही नतराणि । ततोऽसामयिकानि यवस्य मध्यमिव यवमध्यम्, तानि च प्रथमादसामयिकात् स्थानादारभ्य सर्वाण्यप्य पेयाऽकाशप्रदेशमा यन्ते । सप्तसामयिकानां हि चरमादनुनागबन्धस्थानात् प्रथममष्टसामयिकं स्थानमनन्तगुणवृद्धम् । ततः शेषाण्यपि तदपेक्षयाऽनन्त गुणवृद्वान्येव भवन्ति । तथाऽष्टसामयिकानां परमादनुनागबन्धस्थानादुपरितनं सप्तखामधिकं स्थानम नन्तगुणवृद्धम् । ततस्तदपेक्षया पाश्चात्यान्यष्टसामयिकाम्यनुभागबन्धस्थानानि सर्वाण्यप्यनन्तगुणद्दीनान्येव भवति । चमसामयिकान्यनन्तगुणवृद्धी अनन्तमुदानो Page #1226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२०३) बंधगा अभिधानराजेन्दः। बंध व प्राप्यन्ते । असामयिकानि चोपलक्षणं, तेनाऽऽद्यानि | स्येयगुणानि ॥४१॥ संप्रत्योजोयुग्मप्ररूपणाऽवसरः-तत्र श्री. चतुःसामयिकानि सन्तिमानि च द्विसामयिकानि वर्ज जः-विषम, समं युग्मं.तत्परूपणा चैवम्-इह कश्चिद्विवक्षितो यित्वा शेषाणि सर्वाण्यपि पश्च सामयिकाऽदीनि प्रत्येक. राशिः स्थाप्यते, तस्य कलिद्वापरताकृतयुगसंश्चतुर्भिः मुक्तप्रकारेणाऽनन्तगुणवृद्धावनम्तगुणहानौ च वेदितव्यानि । र्भागो हियते । भागे चहते सति यद्येकः शेषो भवः माद्यानि पुनः चतुःसामयिकान्यनन्तगुणहानाधेय । तथाहि ति तर्हि स राशिः पूर्वपुरुषपरिभाषया कल्योज उच्यते, पञ्चसामयिकमाघमनुभागबन्धस्थानं चतःसामपिकचरमाड-1 यथा प्रयोदश । अथ द्वौ शेषौ तर्हि द्वापरयुग्मः, यथा नुभागबन्धस्थानापेक्षयाऽनन्तगुणवृद्धम् । ततस्तदपेक्षया चतुर्दश । अथ प्रयः शेषास्ततखेतोजो, यथा पञ्चवश । पाश्चात्यानि चतुःसामयिकानि सर्वाण्यप्यनुभागबन्धस्था. यदा तुन किञ्चिश्वनिष्ठते , किंतु सर्वाऽऽरमना निलेप ए. नाम्यनन्तगुणहानावेष प्रायम्ते, दिसामयिकानि स्वनम्त व भवति, तदा स कृतयुगो, यथा षोडश । उक्तं च-"गुणवृद्धावव । तथाहि-त्रिसामयिकानां परमानुभागबन्ध. उदल वाषाजुम्मा, तेरस कलिनोज तह य काजुम्मा । स्थानावाचं दिसामायिकमनुभागबम्धस्थानमनम्तगुणवृखं. सोलस तेभोजो खलु, पारसे खविनेया॥१॥"॥४१॥ ततस्तदपेक्षया सर्घाण्यप्यमन्तगुणवाम्पेष । कृता पत्रमा तत्राऽविभागाऽऽदयो यारग्राशिरूपा वर्तन्ते ध्यप्ररूपणा ॥ साम्प्रतं चतुःसामयिकाऽऽदीनां स्थानानामरूप. तारग्राशिरूपमाहबस्वमाह-(पोवाणीत्यादि ) सस्तोकानि यषमध्यभूतानि कहजुम्मा अविभागा, ठाणाणि य कंडगाणि अणुभागे। मसामयिकानि स्थानानि । प्रतिचिरयम्धकालयोग्यामिहि पअवसाण मणतगु-णाम्रो उम्पिन (भ)तगुणं ॥४२॥ स्थानानि स्तोकान्येव प्राप्यते इति कृस्था तेभ्योऽसंख्ये. (काजुम्मे सि ) अनुभागे-अनुभागविषयेऽविभागयगुणानि पूर्वोत्तरलक्षणोभयपाश्ववर्तीनि सप्तसामयिकानि स्थानानि कण्डकानि च कृतयुग्मानि कृतयुग्मराशिरूपाणि अल्पतरबन्धकालविषयत्वात् । स्वस्थाने तु यान्यपि पर. द्रष्टव्यानि । कृतीजोयुग्मप्ररूपणा ।। सम्प्रति पर्यवसानद्वा. स्परं तुल्यानि । तेभ्योऽयसंक्येयगुणामि उभयपावती. रमाह-'पज्जवसाणेत्यादि ।'अनन्तगुणाद-अनन्तगुणवृद्धि नि पसामयिकानि स्वस्थाने तु यान्यपि परस्परं कराडकावुपरि पश्चवृद्धधात्मकानि सर्वाणि स्थानानि गत्वा तुल्यानि । तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणानि उभयपार्श्ववर्तीनि पुनरनन्तगुणवृखं स्थानं न प्राप्यते, षट्स्थानकस्य परिस. पञ्चसामयिकानि । स्वस्थाने तु याम्यपि परस्परं तु. माप्तस्वात् । ततस्तदेव सर्वाऽम्तिमं स्थानं षट्स्थानकस्य पल्यानि । तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणानि उभयपायवर्तीनि चतु: र्यषसानमिति ॥४२॥ सामयिकानि । स्वस्थाने तु याम्यपि परस्परं तुल्यानि सम्प्रत्यल्पयत्यमरूपणार्थमाहतेभ्योऽप्यसंख्येय गुणानि त्रिसामयिकानि । तेभ्योऽप्यसंख्ये. अप्पबहुमणंतरमो, असंखगुणियाणऽयंतगुणमाई । यगुणानि दिसामयिकानि ।बोसु पासेसु ति ) अष्टसा तधिवरीयमियरो, संखे जक्खेसु संखगुणं ।। ४३ ।। मयिकेभ्योऽनन्तरं द्वयोः पार्श्वयोः क्रमश:-क्रमेण समयो. (अप्पत्ति)बह द्विधाऽस्पयस्वप्ररूपणा-अनन्तरोपनि. नानि समयोनानि सप्त सामयिकाऽऽदीनि स्थानानि असंख्ये. धया, परम्परोपनिधया च। तत्रैकस्मिन् षट्स्थानकेऽम्ति यगुणामि तापवक्तव्यानि यावच्चतुःसामयिकानि । तेभ्य मस्थानादारभ्य पश्चानुपूर्याऽनन्तरोपनिधया प्ररूपणा क्रियउपरिच त्रिसामयिकानि द्विसामयिकामि च क्रमशोऽसं. ते-अनम्तगुणान्यनन्तगुणवृद्धानि स्थानान्यास कृत्वा शे. ख्य यगुणानि वक्तव्यानीति गाथाऽर्थः ॥ ४०॥ पाण्यसंख्येयगणितानि वक्तव्यानि । तद्यथा-सर्वस्तोकान्य. संप्रति सर्वेषामेवाऽनुभागबन्धस्थानानां समुदायमाधिकृत्य नन्तगुणवृद्धानि स्थानानि , कराडकमात्रस्वात्तेषाम् । ते. विशेषसंख्यानिरूपणार्थमाह- . भ्योऽसंख्येयगुणवृद्धानि । स्थानान्यसंस्येयगुणानि को सुहमगणिपवेसणया, अगणिकाया य तेसि कायठिई। गुणकार:?। भण्यते-कराडकम् , एककएकप्रक्षेपश्च । कुत एतदवसीयत इति चेद् ? उच्यते-इह यस्मादेकैकमसोअसंखगुणिया-ण(अ)झवसाणाणि चऽणुभागे४१ कस्याऽनन्तगुणवृद्धस्य स्थानस्याऽधस्तादसंख्येयगुणवृद्धानि (सुहुम त्ति ) सूक्ष्माऽग्नौ-सूक्ष्माग्निकाये प्रवेशनमुत्पादो स्थानानि कराडकमात्राणि प्राप्यन्ते । तेन कण्डक गुण. घेषां ते सूक्ष्माग्निप्रवेशनकाः। तथाऽग्निकाया-अग्निकायवे. कारः । अनन्तगुणवृद्धस्थानकण्डकाच्चोपरि कराडकमात्रा. नाऽवस्थिताः। तथा तेषामग्निकायानां कायस्थितिः काय. रायसंख्येयगुणवृद्धानि स्थानानि प्राप्यन्ते , न स्वनन्तगुणवृ. स्थितिकालः। एते क्रमशः-क्रमेणाऽसंख्येयगुणिताः। तथा- द्धं स्थानं, तेनोपरितनकण्ड कस्याधिकस्य तत्र प्रक्षेपः । ते. अनुभागे-अनुभागविषयेऽध्यवसानानि, कार्ये कारणोपचारा. भ्योऽप्यसंख्येयगुणवृद्धेभ्यः स्थानेभ्यः संख्येयगुणवृद्धानि दध्यबसायनिवनि यान्यनुभागबन्धस्थानानि , तान्यसं- स्थानानि असंख्येयगुणानि । तेभ्योऽपि संख्येयभागाधिकानि ख्येयगुणानि । उक्तं च-" सुहुमगणि पविसंता, चिटुंता स्थानान्यसंख्येयगुणानि । तेभ्योऽप्यसंख्येयभागाधिकानि स्था. तेसि कायठिइकालो । कमसो असंखगुणिो, तत्तो अणु- नान्यसंख्येयगुणानि । तेभ्योऽप्यनन्तभागवृद्धानि स्थानान्य. भागठाणाई ॥१॥" इयमत्र भावना-ये एकस्मिन् समये सू. संख्येयगुणानि । गुणकारश्च सर्वत्रापि कराडकम् उपरि चै. बमाऽग्निकायेपु मध्ये प्रविशन्ति-उत्पद्यन्ते ते स्तोकाः, ते ककण्डकप्रक्षेपः । तथाहि-पकैकस्याऽसंख्येयगुणवृद्धस्य चाऽसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणाः । तेभ्योऽपि ये ऽग्निः स्थानस्याऽधस्तात् संख्येयगुणवृद्धानि स्थानानि कण्डकमा. कायत्वेनावतिष्ठन्ते ते ऽसंख्येयगुणः तेभ्योऽप्यग्निकायस्थि- त्राणि प्राप्यन्ते । तेन कराडकं-गुणकारः । असंख्येयगुणवृतिकालोऽसंख्येयगुणः । ततोऽप्यनुभागबन्धस्थानान्यसं. कराडकाञ्चोपरि कराडकमात्राणि संख्येयगुणवृद्धानि स्था Page #1227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधाया अमिवानाराजगडः। बाबि प्रान्ते मातरं wwwpagaमेत्र स्थान अध. सरामाबिना संसाधानमा स्थान पाया। ., बोयसायम् - ARTISमतगुणवृद्धात्सानि खानलसमाधीनि मौलानि संसानि स्थाal बायपाबमाबापेक्षया संक्पे यमुण स्थानानि प्रस्तुसचिम्तायामुस्कासंन्यासकतुक्यानि गृहमन्ते । बानिस्पतिविम्यम्सेवन खत विमपि । तनापर्वक केबलं तदेव लम्तिमं संध्यमभापा परित्यज्यते । रस्यापिका का येवमामबाड. सतोऽसंख्येषभागद्धेभ्य: स्यानेभ्या संख्येषभापखानि नामनिसानामसंकोषागुणगुणकारभावमा प्रधान । स्थानानि संख्येयगुणाम्येष भवन्ति । तेभ्योऽवि संबपेय. नयेतातरोपनियाभावप्रसपका संप्रति पाप गुणवानि स्थानानि संखोयगुणानियिमिति उच्यतेरोपनिया -(सारिकालयभिपरीत) स्त. प्रथमासंख्येयभागमात् स्थानात् प्रामं यदनम्तरं स्था. बता परमारोपनियामां तसिपाहीत-पेन कामेगोक- नं तदधिकस्योत्तराणि अम्लरसन्तराधाक्रीमि मौलागि संध्ये. सम्मोपनियावधिपरी पम्। RSSदित भारश्य पभागवानि स्थानामि उत्कृष्टसंख्यानकतुरूपानि गत्या पायमित्यर्थः । तथाहि-सवलोकामिनमनभागवानि बारमं स्थानं विगुणं साधिक मुफ्तब्धम् । ततः पुनरपि स्थानामि पमादाचानुभागवावस्थामादारभ्यामम्तभाग- लायन्मानारयेब स्थानानि गवा करमं स्थानं सातिर खाभिस्थानामि कराधकमात्राण्येव प्राप्यन्ते, नाधिकानि । त्रिगुणम् । एवमेव चतुर्गुणम् । एवं तावदाच्यं यावदुरक तेभ्योऽप्यसंकीयभामवृद्धानि स्थानानि असंख्येयगुणानि । एसंग्येयगुणं भवति । ततः पुनरप्युत्छष्टसंगपातकतुल्यानि कथमिति उच्यते अमन्तभागद्धकएडकावुपरितनं प्रथः स्थानानि गत्वा परमं यदे के न गुणेन वं भवति, तजनममसंक्येयभागवृक्ष स्थानं यदि पाश्चात्यकण्डकसकचर- न्याऽसंख्येयगुणं भवति । तस्मात्संख्येयभागवृवेभ्यः स्थामस्थानापेक्षयाऽसंक्येन भागेमाऽधिकं, तत उपरितनमन. मेभ्यः संस्थेयगुणवृद्धानि स्थानानि संख्येयमणान्येच भवन्ति । तभागषवं स्थानं तदपेक्षया सुतरामसंख्येयभागवृद्ध भ. तथा चाऽSE: (संखज्जक्ने सु संखगुणं ) संख्येयाऽऽख्येषु बत्ति निम्तमागचं हितप्रथमाऽसंख्येयभागवृद्धस्थाना. सख्येयभागवृद्धसंख्येयगुणरूपेषु स्थानेषु संख्ययगुणं सख्येपेक्षया । अनन्तभागवृद्धकएड कसकचरमस्थानापक्षया यशुणता वक्तव्या । तेभ्योऽपि संख्यगुणवृद्धभ्यः स्थाने स्पसंख्येयभागाधिकमेव । तत उपरितनानि स्थानानि वि. भ्योऽसंख्येय गुणवृद्धानि स्थानानि असंख्येयगुणानि । कथ. शेषतो विशेषतरतोऽसंख्येयभागाधिकानि तावद् द्रष्टव्यानि मिति चेद्?उच्यते इह यतःप्रागुक्तादनन्तराद् जयन्याऽसंख्ये. यावरसंख्येयभागाधिकं स्थानं न भवति । तदेवं यतः प्रथ यगुणात् स्थानात् पराणि सर्वाएयप्यनन्तभागवृद्धाऽसंख्येय. मावसंख्येयभागवृद्धात् स्थानादारभ्य प्रथमात् संख्येयभा. गयात् स्थानादर्वागपान्तराले यानि स्थानानि तानि स. भाग वृद्धसंख्येयभागवृद्धसंख्येयगुणवृद्धा संख्ये यगुरुवृद्धानि बोरगप्यसंख्येयभागवृद्धानि प्राप्यन्ते । तस्मादनन्तभागवृद्धे. स्थानान्यसंख्येयगुणानि प्राप्यन्ते, ततः संख्येयमुणवृद्धेभ्यः भ्यः स्थानेभ्योऽसंस्पेयभागवृद्धानि स्थानान्यसंग्येय गुणानि स्थानेभ्योऽसंख्येय गुणवृद्धानि स्थानानि असंख्येयमुणानि भवन्ति, तेभ्योऽपि संख्येयभागवृद्धानि स्थानानि संस्थेयगु. भवन्ति । तेभ्योऽप्यनन्तगुणवृद्धानि स्थानान्यसंख्ययगुणा. पानि। कुत पतासीयत इति चेदुच्यने-प्रथमे संख्येय नि। कथमिति चेदू उच्यते-रह प्रथमादनन्तगुणवृद्धात् स्थानाभागस्थाने पाचात्यमनन्तरस्थानमधिकृत्य संख्येयभा दारभ्य यावत् षट्स्थानकपरिसमाप्तिस्तावत् सर्घाण्यपि स्था. गतिः प्राप्यते । यद्यपि प्रथमेऽपि संख्येयभागवृद्ध स्था नानि अनन्तगुणवृद्धानि । तथाहि-यदि प्रथममनन्तगुणवृद्ध मे संययेयभागवृद्धि प्राप्ता, तहिं ततः प्रथमात् स्थामा स्थानं पाश्चात्यम नन्तरस्थानमधिकन्याऽनन्त गुणाधिकं जा. उत्तरेषामनातभागवृद्धाऽसंख्येयभागद्धानां स्थानानां सुतरां तम्। तत उत्तराणि अनन्तभागवृद्धाऽऽदीनि स्थानानि तदपेक्षा संख्येषभागवृद्धिर्भवति । यतोऽनम्तभागवृद्धिरसंख्येयभाग- या सुतरामनन्तगुणवृद्धानि भवन्ति । यावन्ति च स्थानानि उशिर्षा पूर्वपूर्वा (न) स्तर स्थानापेक्षया । प्रथमसंख्य प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति एकै कस्मिन्ननन्तगुणवृद्धानामन्तभागवारपुनः प्राक्तनमनन्तरं स्थानमधिकृत्य सर्वारयप्य- राऽन्तराभाविनां स्थानानामन्तरे भवन्ति । कराडकमात्राणि. मन्तभावानि । असंख्येयभागवृद्धानि च स्थामानि य- चप्ताम्यन्तराणि । ततः प्रागुक्तभ्योऽसंख्येयगुणवृद्धेभ्यः स्था. बोत्तर सविशेषविशेषतरं संख्येयभाम्वृद्धानि भवन्ति । मेभ्योऽनन्तगुणवृद्धानि स्थानान्यसंख्येयमुणानि भवन्ति सविशेषतरसंस्थेयभागवृद्धि यन्माल । इति॥४३॥ तदेवं कृताऽपयस्यमरूपणा । तत्करणाची द्वितीयं संस्येयभागाधिकं स्थानं न भवति । द्वितीयं मौलं नाम्यनुभागधन्धस्थामानि । संध्येयभागाधिकं स्थान द्वाभ्यां साऽतिरेकाभ्यां संख्येय- साम्प्रतमेतेवनुभागबन्धस्थानेषु निधादकत्वेन यथा जीवा भाषाभ्यामधिकमवमन्तव्यम् । तृतीयं त्रिभिः साऽतिरकैः।। वर्तन्ले तथा प्ररूपणा कर्तव्या। तत्र चाऽष्टावनुत्योगद्वारा. बतुर्थ चतुर्मिः साइतिरेकैः । एवं तावद्वाच्यं यावदुत्कृष्टसं. णि । तद्यथा-पकैकस्मिम् स्थाने जीवप्रमाणप्ररूपणा. पेयतुल्याम्यगतरातराभावीनि मौलानि संगयेयभागवृद्धानि अन्तरस्थानप्ररूपणा २, निरन्तरस्थानप्ररूपणा ३ मानाजीबस्थानानि भवन्ति । एतावन्ति चाऽन्तराले याचन्ति स्थाना कालप्रमाणप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा५, यषमध्यप्ररूपणा६,स्पनि तापन्ति सर्वाश्यपि संस्पभागवृद्धानि स्थानानि, किं शेनामरूपणा७, अल्पबहुत्वप्ररूपणा च ।। तत्र प्रथमत एकैस्वेन सर्षाम्निमेन स्थानेन न्यूनानि द्रष्टव्यानि । यत उ कस्मिन् स्थाने नानाजीवप्रमाणप्ररूपणार्थमाहस्कसंख्यातमसंख्येयभागवृद्धं स्थानं संश्येयगुणं भवति । वि. थावरजीवाणंता, एकक तसजिया असंखेजा। गुणत्वात् ). ततस्तत्परित्यज्यते। तह यावम्ति असंख्यभा मखानि स्थानाम्यनन्तरमुक्तानि तावन्ति पकमिनन्तराज लोगा सिमसंखजा, अंतरमन थावरे नस्थि ।। ४४ ॥ Page #1228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंग (धावंर सि एकैकस्मिन् स्थावराव प्रति प्रायोग्ये नुमागवल्याने नन्ता स्थावरजीया कम्पन प्राप्यते। योग्ये बैंक मनुभागबन्धस्याने जो मालिका संक्वेयभामाचा सजीबाः प्राप्यन्ते ॥ लाम्प्रतमनन्तरस्थानप्ररूपणामाह ( लोगा. सीमा कोका अपयशोका यानि अनुभागबन्धस्यानानि अनन्तरम्। मायासीत्यर्थः इदमुि व्यानि यानि स्थापनायान्ति यानि अम्यपदे एकं द्वे वा उत्कर्षतोऽसंख्येयलोकाऽऽकाश प्रदेश. प्रमाणानि भवन्ति ॥ अथ स्थावरे स्थावर प्रायोग्येषु स्था. मेन विद्यते सर्वादपि स्थावरयायोग्यपण स्था नागि सर्वदेवखावरजीयमानानि प्राप्यन्त इत्यर्थः । कथमेवं गम्यत इति चेदुच्यते इह स्थावरजीवा अनन्ताः स्थावराणां प्रति प्रायोम्यानि च स्थानानि पुनरसं बानि ततोऽन्तरं न प्राप्यन्ते ॥ ४४ ॥ 1 सम्प्रति निरन्तरयानप्ररूपणार्थमाहभावलि संभागो, तसा निरंतर अहेगठायम्मि । नागावा एव कालं एगिंदिया निष्यं ॥ ४५ ॥ ( आवलित्ति ) अत्र तृतीयार्थे प्रथमा । बन्धमाश्रित्य सीनिरन्तराणि किमु भवति सर ध्यमानानि अनुभागबन्धस्थानानि जघन्येन द्वे श्रीणि वा प्राप्यन्ते उत्कर्ष सिकाया असंख्यभागमात्राणि । कथमेतसेयमिति का सजीवा स्थानानि पुन प्रायोग्याणि यानि ततो न सर्वाणि स जीवः क्रमेण निरन्तरं बध्यमानानि प्राप्यते कि क तोऽपि यथोक्तप्रमाणान्येव ॥ सम्प्रति नानाजीवकालप्ररूपपार्थमाह-गावाम्मीत्यादि) एकैकमनुमानं मामाजी वैध्यमानं कियन्तं कालं यावदविरहितं प्राप्त है, इति प्रश्ने सति उत्तरं दीयते प्रायोग्य परिमअनुभागबन्धस्थाने नानारूपास्त्र सा जीवा जघन्येनैकं समयम् उत्कर्षत (एका ति नावन्तं कालं पूर्वोक मालिका असंख्येयभागमात्रं कालं यावदित्यर्थः । निरन्तरं बन्धकवेन प्राप्यते । परतीवश्यं शू भवतीत्यर्थः । इयमत्र भावना योग्यमनुमा गयन्धस्थानसम्म्पे सजीवनिरन्तरं वच्यमानं प समा ( १९०५) अभिधानराजेन्द्रः । सिकाया संख्येपभागमात्रं कालम् (दिया नियंति स्थावरप्रायोग्य एकैकस्मिन्ननुभागबन्धस्थाने नानाविधा एकेन्द्रिया नित्यं सर्वकालमविरहितं बन्धकरपेन प्राप्यन्ते न कदाचनाsपि तद्बन्धनशून्यं भवतीत्यर्थः । श्रश्रापीयं भावनाएकेर्क स्थावरापोग्यमनुभाग बचस्थानभर स्थाय रजी बैर्निरन्तरं बध्यमानं सर्वकालमवाप्यते, न तु कदाच. नाऽपि बन्धरहितं भवतीति ॥ ४५ ॥ तदेवं कृता नानाजीवामाश्रित्य कालप्ररूपणा । संप्रतिरूपाऽवसरः तत्र च द्वे अनुयोगद्वारे। तद्यथा - अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा च । तत्राऽनन्तरोपनिधामाह ठाणे, जा जवमज्भं विसेस अहिया । ३०२ बेधण एतो दीया उको सगं ति जीवा भयंतरभो ॥ ४६ ॥ व (घोष सि) जयतुभास्थाने माना जीवाः सर्वस्वीका। ततो द्वितीयेऽनुभागबन्धस्था ने विशेषाधिकाः । ततोऽपि तृतीयेऽनुभागबन्धस्थाने वि. शेषाधिकार एवं ताद्वाच्या वधम सर्वमयं सर्वमध्यान्य सामयिकामीत्यर्थः । इत ऊर्ध्वं पुनर्जीवा अनन्त रत:-झानन्तर्येय मेयेत्यर्थः विशेषतो होगा विशेषीना वक्तव्याः । ते च तावद् यावदुत्कृष्टं द्विसामयिकं स्था. नमिति ॥ ४६ ॥ गताऽनन्तरोपनिधा । परम्परोपनिधामाह गंतूरामसंखे, लोगे दुगुयाणि जाय जयमम् । तो यदुगुणा एवं उक्कोसगं जान ॥ ४७ ॥ ( तूणमिति । जघन्याऽनुभागबन्ध स्थानबन्धकेभ्यो जीवेभ्यो जघन्यानुभागबन्धस्थानादारभ्याऽसंख्येयलोकाऽऽका प्रदेशप्रमाणान स्थानाम्यतिक्रम्य परं यद्मागबम्बस्थाम तद्बन्धका जीवा द्विगुणा बद्धा भवन्ति । ततः पुनरपि ता वन्ति स्थानाम्यतिक्रम्या परस्यानुभाग बन्धस्थानस्य बन्धका द्विगुणवृद्धा भवन्ति एवं द्विगुवृद्धिस्ताषकन्या याब यमध्यम् । ततोऽसंध्येयलोका 35 का शान स्था नाम्यतिक्रम्या परस्यानुभागबन्धस्थानस्य ये बन्धका जीवा स्तेऽनन्तरमुक्तेभ्यो जीवेभ्यः सकाशात् द्विगुणहीना भवन्ति ततः पुनरपि तावन्ति स्थानान्यतिक्रम्याऽपरस्य नुभागबन्धस्थानस्य बन्धका द्विगुणहीना भवन्ति । एवं द्विगुणानिस्तावद्वकृष्या यावरस्वस्वमायोग्यं सर्वोत्कृनुमा गबन्धस्थानमिति ॥ ४७ ॥ 1 नायंदराणि भावलि-य (अ) संभागो तसेसु इयरें | गंतरा अखिय-गुणाई उतराई तु ॥ ४८ ॥ ( नातराणीति ) नानाऽन्तराणि - नानाप्रकाराणि द्विगुणवृद्धिद्विगुणद्दाम्यपान्तरालरूपाणि यानि तानि त्रसेषुत्र. सकायेषु श्रावलिकाया असंख्येयतमे भागे यावन्तः सम यास्तावत्प्रमाणानि भवन्ति । ननु आंचलिकाया असंख्ये यभागमात्राण्येवानुभागबन्धस्थानानि सजीवैर्निरन्तरं बयमानानि तच्च प्रागेवलम् तर सेषु द्विगुणवृद्धिगुणान्यन्तराचि पथकप्रमादानि भवन्ति । ए. यं काऽपि द्विगुणवृद्धिर्द्विगुणहानिर्वा न प्राप्नोतीति भा यः । नैष दोषः, यतः प्रागावलिकाऽसंख्येयभागमात्राणि सजीवैर्निरन्तरं बध्यमानतया प्राप्यमाणान्युक्तानि । इह तु यद्यप्यावलिकाया असंख्येयभागमात्रेभ्यः स्थानेभ्यः पराणि स्थानानि बध्यमानानि सम्प्रति न प्राप्यते तथाऽपि कदाचितेषु च जीवा उत्कृष्टपदे विशे पाधिका लभ्यन्ते तानि द्विगुणानिस्थानानि न तथा इतरेषु स्थाय रेषु एकस्मादन्तरात्त्र सकाय सत्काद संख्येयगुणानि नानारूपारान्तराति किन ?सका विकाना Page #1229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण मेकस्मिन् पोद्विगुणाम्पोऽपान्तराले पनि स्थानान स्थावराधिकानां विद्विगुण हाम्यन्तमणि इह प्रसजीयेषु द्विगुणवृद्धिद्विगुणदान्यन्तरा णि स्तोकानि एकस्मिन् द्विगुण वृद्धिस्थानयोर्द्विगुणहानिस्थानेषु नयोऽपान्तराले यानि स्थानानि तान्यसंख्येयगुणानि एवं त्रसानाम् । स्थावराणां पुनर्द्वयोर्द्वगुण वृद्ध्योर्द्विगुणहाम्योर्या एकस्मिन्तराले यानि स्थानानि तानि स्तोकानि द्विगु हिम्यन्तराचि पुनर सेक्येयगुणानि ता वृद्धिप्ररूपणा ॥ सम्प्रति यवमध्यप्ररूपणा क्रियते यथमध्य स्थामानि असामधिकानि शेवस्थानांपेक्षया संख्येयभागमात्राणि । तथा यवमध्यस्याऽधस्तनानि स्थानानि स्तोकानि । मत पत्रमध्यस्योपरितमानि अवगुणानि उक् "जयम ठाणा, असंभागो उ सेसठस्याएं । हेइम्मि हाँदि घोषा, रिति अगुणि ॥ १ ॥ " कृता यवमध्यप्ररुणा । ( १९०६ ) अभिधानराजेन्द्रः । - सम्पति स्पर्शनामकपणामाह फास कालोनी, पोषो उकोसमे जहने उ । हो जो फंडगे तिम्रो चैव ॥ ४६ ॥ गोवर, हेट्ठो जबमको प्रसंखगुणो । कमसो जनमबरिं, कंडगट्ठा य तावइभ || ५०|| जनमभुवरि विसेसो, कंडगट्ठा य सम्बर्हि चेव । जीवपामेवं अभवसाये जाये ।। ५१ ।। (फास सि) अती काले एकस्य जीवस्पोट्टे सामयिके इत्यर्थः । अनुभागवन्थस्थाने स्पर्शनाकालः स्तोकः अतीतकाले परिभ्रमन्तु द्विसामान्य भागबन्धस्थानानि स्तोकमेव कालं स्पृष्टानीत्यर्थः । जघन्ये पुनरनुभागबन्धस्थाने प्राथमिकेषु चतुःसामयिकेत्यर्थः अभी काले स्पर्शनाका लोकंड सचि बेथ) कण्डकमुपरितनानि चतुःसामपिकानि स्थानानि तेषु तावन्मात्रः स्पर्शनाकालो यावन्मात्र प्राद्येषु चतुःसामयिकेषु । ततो ववमध्येषु स्थानेषु सामयिकेचित्पर्य स्पर्शनाकालोऽवगुणः । ततः कदकस्यपरिवर्तिचतुःसा मविकस्थानसंघातरुपस्योपरितनेषु शिसामयिकेत्यर्थः । स्पर्शनाकाले संख्येयगुणः । ततो यवमध्यस्याऽधस्तात् पचपद सरसामपि के संयगुणः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः । ततः क्रमशः क्रमेण यवमध्यादुपरितनेषु कण्डकाश्चतुःसामयिकस्थान संघात रूपादधस्तनेषु पश्चष सप्तसामयिकेषु स्थानेषु तावन्मात्र एव स्पर्शनाकाल यावन्मात्रा पाश्वात्येषु पञ्चषट्सप्त सामयिकेषु. ततो यययस्योपरितनेषु सामयिकपर्यन्तेषु सर्वेष्वपि स्थानेषु यः स्पर्शनाकालः स विशेषाधिकः 1 ततोऽपि कण्डकस्य यवमभ्यस्योपरिवर्ति चतुःसामयिक स्थान संघात पस्याप्रस्तात् सर्वेष्वपि स्थानेषु जघन्ययतुः सामविपर्य तेषु स्पर्शनाकालः समुदितो विशेषाऽधिकः । ततोऽपि स सर्वेष्वपि स्थानेषु स्पर्शनका विशेषाचिका कृता स्प शनामरूपणा ॥ सम्प्रत्यल्पबहुत्वमरूपणा माह- जीवपाबहु बंध इत्यादि) यथा स्पशेनाकालस्थापत्यमुक्रम् एवं जीवानामपि अभ्यवखानेषु अनुभागवन्यस्याननिमित्तभूतेषु वर्तमानानामल्पबहुत्वं जानीयात्। तद्यथा उत्कृष्टेष्वभ्यबसा द्विसामयिकानुभागनिबन्धन भूतेषु वर्तमाना जीवाः स्तो. काः। ततो जघन्येषु चतुःसामयिकानुभागबन्धनिबन्धनभूते. संख्येयगुणाः । एतावन्त एक वोपरिवर्तिचतुःसामयिका • भागबन्धस्थाननिबन्धनेष्वध्यवसानेषु । ततोऽपि बच मध्यकस्याग्नुभागवग्धस्थान निवन्धनेष्वसंयगुणाः। ततो ऽपि बिसामविकानुभागबन्धस्थानमिमिक्षाः । ततोऽष्याच पञ्चतनामविकाभागस्यानहेतुसानेषु संकपेयगुणाः । एतावन्त एबोपरितनपश्चाषद्सप्तसामयिकानुभागबन्धस्थाननिबन्धने ध्यध्यवसानेषु ततो पवमध्यपरिबर्तिनिःशेषानुपस्थान " " लानेषु वर्तमाना जीवा विशेषाधिकाः । ततोऽपि सर्वेऽ. पि अनुभागवन्धस्थाननिबन्धनेषु विशेषाधिकाः । इति । २०५१ ॥ तदेवमनुभागवन्थस्थाने " षु वाध्यवसानेषु यथा जीवा वर्तन्ते तथा प्ररूपणा कृता । सम्बत्येकस्मिन् स्थिति थानाध्यवसाये मामाजी बाये. क्षया कियन्तोऽनुभागबन्धाऽध्यवसायाः प्राप्यन्ते इति तनिरूपणार्थमाहएकेमिकलायो - दयम्पि लोगा असंखिया होंति । बिन्धासु वि, अझरसाणारा ठाणाणि ॥ ५२|| ( एकेकमिति ) एकैकस्मिन् कषायोदये स्थितिस्थाननि बन्धनभूते नानाजीवापेचयाऽनुभाग बन्धाऽध्यवसाय स्थानानि "कृष्णाऽऽडिया परिणाम विशेषरूपाणि सकापापोदया हि कृष्णादिलेापरिणामविशेषा अनुभागबन्धहेतवः " इतिवचनात् अया लोका भवन्ति, असंख्य काकाशप्रदेशप्रमाणानि भवन्तीत्यर्थः । तथा जघन्यस्थितरारभ्योरकृष्टां स्थिति यावद्यावन्तः समयास्तावन्ति स्थितिस्थानानि । तथाहि जघन्या स्थितिरेकं स्थितिस्थानम् । से. व समयोत्तरा द्वितीयं स्थितिस्थानम् सिमरा सी स्थितिस्थानम् । एवं समयया ताद्वा पाद दुत्कृष्टा स्थितिः । एवं चाऽसंख्येयानि स्थितिस्थानानि भ चन्ति तेषु चाऽसंश्येयेषु स्थितिबन्धस्थानेषु प्रत्येकमेके कस्मिन् स्थितिबन्धस्थाने ऽध्यवसाय स्थानानि सीम्रतीव्रतर - मन्दमन्दतराविक पायोदयविशेषरूपाणि लोका ssकाशप्रदेश प्रमाणानि भवन्ति ॥ ५२ ॥ सम्प्रत्यनुभावाध्यवसाय स्थानानां वृद्धिमा क यते । सा द्विधा - अनन्तरोपनिधया, परस्परोपनिधया च तथाऽनन्तरोपनिषता वृद्धि मार्गणां चिकीराह थोबा कसाउद, अञ्झवसायाणि सव्वडहरपि । विवाह विसेसरिया थि जान उकासगं ठाणं ।। ५३ ।। ( थोवाणि त्ति ) ( सव्वडहरम्भि ति ) सर्वजधन्ये क पायोदये स्थितियन्बद्देता वतुभागवन्धाऽध्यवसायस्थानानि कृष्णाऽऽदिलेश्वापरिशेषरूपाणि स्तोकानि तोहि तीवादी यथोत्तरं विशेषाधिकानि नानारस्थितिबन्धाऽभ्यरसास्थानम् । एतदुकं नयति-द्वि 1 Page #1230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधगा अभिधानराजेन्द्रः। बंधण तीये कषायोदये विशेषाधिकानि । ततोऽपि तृतीये विशे. गबन्धाभ्यवसायस्थानापेक्षा द्विगुणानि भवन्ति । पुन. पाधिकानि । ततोऽपि चतुर्थे विशेषाधिकानि । एवं ताब- रपि तावन्ति कषायोदयस्थानानि, ततः प्रभृत्य धोभागेनाद्वाच्यं यावतुस्कृई कषायोदयरूपं स्थितिबन्धाऽध्यवसाय- तिक्रम्य यदपरमधाकषायोदयस्थानं तस्मिन् द्विगुणानि स्थानमिति ॥ ५३॥ कृताऽनन्तरोपनिधया वृद्धिमार्गणा। भवन्ति । एवं भूयो भूयस्तावद्वाच्यं यावजघन्यकषायोदयसम्पति परम्परोपनिधया तामभिधिसुराह स्थानम्। यानि चाऽन्तराऽन्तरा नानारूपाणि द्विगुणवृद्धिस्थागंतूणमसंखजे, लोगे दुगुणाणि भाव उकोस । नानि ताम्यावलिकाया असंख्येयभागे यावन्तः समयास्ता. भावलिमसंखभागो, नाणागुणवुद्धिठाणाणि ॥ ५४ ॥ यत्प्रमाणानि भवन्ति । मसूनि चाऽवलिकाया असंख्येयभा. गमात्राणि शुभप्रकृतीनामशुभप्रकृतीनां च प्रत्येकं हिगुण(गंतूणं ति) जघन्यात् कषायोदयादारभ्याऽसंक्येयलोका. वृशिस्थानानि स्तोकानि । एकस्मिन्नपि द्विगुणसपपाम्त. काशप्रदेशप्रमाणानि कषायोदयस्थानामि गत्वा-अतिक्रम्य राले कषायोदयस्थानानि असंख्येयगुणानि । तदेवं स्थि. पर पद्रवति स्थितिबाधाभ्यवसायस्थानं तस्मिन्ननुभाग तिबम्बहतुष्यध्यवसायेषु अनुभागयम्पोतूनामध्यवसायानां बम्भाश्यवसायस्थानानि जघन्यकषायोश्यस्थामसत्कानुभा. प्ररूपणा कता ॥ संपनि स्थितिबन्धस्थानेषनुभागबन्धप्र. गन्धाभ्यवसायस्थानापेक्षया द्विगुणानि भवन्ति । पुनरपि रूपणां चिकीर्षुराह-(ठिबंधेयादि) स्थितियम्यस्थामेय. तावम्ति। कषायोदयस्थानामि गत्वा यदपरं स्थितिब पि मायुर्षजानां सर्वासा प्रतीमा कमायोदयेण्यनुभागवमाध्यवसायस्थान तस्मिन् विगुणानि भवन्ति । एवं भूयो म्माऽभ्यवसायस्थानबदनुभागम्यस्थानानि बलव्यामिति भूयस्तावबाध्य पावरफएं कायोदयस्थानमा यामिषा. पथा-तत्र पूर्वोक्तानामायुर्वजानामशुभप्रकृतीनां जघन्यस्थिस्तरातरा नानारूपाणि द्विगुणवृणिस्थामानि भवम्ति तामि तापनुभागबम्धस्थानाम्यसंख्येयलोकाऽऽकायप्रदेशप्रमाणामि किम्ति, इति बेदुच्यते-मावलिकाया असंख्येयभाग:-मा. तामि च स्तोकानि । ततो द्वितीयस्थिती विशेषाधिकापलिकाया प्रसंस्पेयभागे यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानि नि । ततोऽपि तृतीयस्थिती विशेषाधिकानि । एवं ताब. भवम्तीत्य:॥४॥ बाध्यं यावदुस्कृष्ठा स्थितिः । तथा पूर्वोक्तानामायुर्ष मा. सब्याऽसुभपगईणं, सुभपगईणं विवज्जयं जाण । मशुभप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थिताउनुभागवावस्थामाम्यसंक्वेयलोठिबंधहाणेमु वि, भाउगवजाण पगडीणं ॥ ५५॥ काऽऽकाशप्रदेशप्रमाणानि.तामिव स्तोकामि । तेभ्यः सम. (सब तिसर्थासामशुभप्रकृतीनां शामाssवरणपक्षकनषद योनायामुपस्थितौ विशेषाधिकामि । एवं तावडाध्यं या. शनावरणासातवेदनीयमिथ्यात्वषोडशकषायनयनोकषा- पजघन्या स्थितिः, इति ॥५॥ तदेवं कृताऽनम्तरोप. वनरकायुपशेन्द्रियजातिवर्जजातियतुष्यसमचतुरनपर्जसं. निधया वृद्धिमार्गणा। स्थानपशकवर्षभनारायवर्जसंहननपशककृष्णनीलवर्णदुर. सम्पति परम्परोपनिधया तां चिकीर्षुराहभिगम्धतिकारसकर्कशगुरुरुक्षशीनस्पर्शरूपाशुभकुषर्णा- पताऽसंखियभाग, गंतुं दुगुणाणि भाउगाणं तु। विनषनरकगतिनरकाऽनुपूर्वीतियग्गतितिर्यगानुपूर्व्यप्र योवाणि पढमबंधे, ठिल्याइ भसंखगुणियाणि ।। ५६।। शस्तपिहायोगस्युपघातस्थावरसूखमा पर्याप्तसाधारणास्थि (पति) पूर्वोक्लानामायुर्षर्जानामशुभप्रकृतीनां जघन्य. राशुभर्भगदुःस्वरानादेयाऽयशःकीर्तिनीबैगोत्रातरायप- स्थितेरारभ्य पस्योपमाऽसंक्येयभागमात्राणि स्थितिस्थानाम्यशकलशणानां सप्ताशीतिसंख्यामामेषामनन्तरोनाऽनुभागब. तिक्रम्य यदपरं स्थितिस्थान तस्मिन् अनुभागवन्धस्थानानि धाभ्यबसायस्थानानां वृद्धिमार्गणा द्रव्या । ( सु जघन्यस्थितिसत्कानुभागबन्धस्थानेभ्यो द्विगुणामि भवन्ति । भपर्गाणमित्यादि ) शुभानां प्रकृतीमा-सातवेदनीयति ततः पुनरपि तावन्ति स्थितिस्थानान्पतिक्रम्य यदपरं यंगायुर्मनुष्याऽऽयुर्देवाऽऽयुर्वेषगतिमनुष्यगतिपश्चेन्द्रियजा स्थितिस्थानं तस्मिन् द्विगुणाम्यनुभागबन्धस्थामानि भवन्ति । तिशरीरपञ्चकसंघातपञ्चकबन्धनपशवशकसमचतुरस्रस्था- एवं भूयो भूयस्ताववाच्यं यावदुस्कृष्टश. स्थितिः। तथा . नाङ्गोपाङ्गत्रयषज्रर्षभनाराचसंहननशुभवर्णाचकादशकदे - घोकानामायुर्वर्जानां शुभप्रकृतीनामुस्कृष्टस्थितेरारभ्य पस्यो. बानुपूर्वीमनुष्यानुपूर्वीपराघातागुरुलघूच्छासातपोद्योतप्र- पमाऽसंख्येयभागमात्राणि स्थितिस्थानान्यतिक्रम्य यदपरमा शस्तविहायोगतिप्रसवादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरशुभसुभगसुस्व- धः स्थितिस्थानं तस्मिनुभागबन्धस्थानान्युत्कृष्ठस्थितिराऽऽदेपयश कीर्तिनिर्माणतीर्थकरोथैर्गोत्रलक्षणानामेकोन- स्थानसरकाऽनुभागधन्धस्थानेभ्यो द्विगुणानि भवन्ति । ततः सप्ततिसंख्यानां विपर्ययं जानीहि, तद्यथा-उत्कृष्ट कषा. पुनरपि तावन्ति स्थितिस्थानान्यधोऽवतीर्याऽधस्तनं यदपर योदयेऽनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि सर्वस्तोकानि । द्वि- स्थितिस्थान तस्मिन् द्विगुणानि भवन्ति । एवं तावद्वाच्य चरमे कषायोदये विशेषाधिकानि । त्रिचरमे कषायो. याव जघन्या स्थितिः । एतानि च शुभप्रकृतीनां च प्रत्ये. दये विशेषाधिकानि । चतुश्चरमे कषायोदये विशेषाधि- कद्विगुणवृद्धिस्थानानि प्रावलिकाया असंख्पेयभागे याव. कानि । एवं तावद्वाच्यं यावत्सर्वजघन्यं कषायोदयस्थानम्। न्तःसमयास्तावत्प्रमाणानि भवन्ति । तथा द्विगुणवृद्धिस्था. इयमवन्तरोपनिधया वृद्धिमार्गणा । परम्परोपनिधया तु. नानि स्तोकानि, प्रावलिकाया असंख्येयभागत्वात् । एक. वृद्धिमार्गणेयम् उकृष्टकषायोदयस्थानादारभ्याऽसंख्येयलो- स्मिन् द्विगुणवृद्ध्योरपान्तराले स्थितिस्थानानि असंख्येयकाऽऽकाशात् प्रदेशराशिप्रमाणानि कषायोदयस्थानानि प्र. गुणानि, पल्योपमाऽसंख्येयभागगुणत्वात्। तथा चतुर्णामप्या. धोभागेनाऽतिक्रम्य यदपरमधः कषायोदयस्थानं तस्मिन्ननु युषां जघन्यायां स्थिती सर्वस्तोकान्यनुभागबन्धस्थामानि, शागबन्धा..वसायस्थानानि उत्कृष्टकषायोदयसत्काजुभा-। तता समयाधिकायां जघन्यस्थिती असंख्येयगुणानि । ब. Page #1231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधन बंधण भभिधानराजेन्दः तोऽपि दिसमयाधिकायामसंक्येयगुणानि, एवं तापवाव्य परचाउजओउस्सा-माऽऽयवधुवनामतणुबंगाणं । याबदुत्का स्थितिः, इति ॥५६॥ पहिलोमं सायस्स उ, उकोसे जाणि समऊणे ॥ ५९॥ साम्प्रतमनुभागवग्यस्थानानां तीप्रमवतापरिक्षानार्थमनु । ताणि य प्रमाणे, ठिबंधो जा जामगमसाए। भागवन्धाअभयवसायस्थानानामनुतष्धिमभिधातुकाम प्रार हेहओयसमेवं, परत्तमाणीण उ सुभास ।। ६०॥ पाईणममुभवझर-सगंधफासे जहमठियंधे।। (ঘ বিঘাষাবাসারথালায়মন্বযss जाणाझवसाणाई, तदेगदेसो प प्रमाणि ।। ५७ ॥ कादशकागुरुलघुनिर्माणरूपाणां ध्रुषमाम्नां (तणुउदंगावं पलाऽसखिय भागो, जावं बिइयस्स होइ पिइयम्मि। तिह तनुग्रहणेन शरीरसंघानवम्धमानि गृह्यन्ते । ततश रीरपश्चकर्मघातपश्चकपन्धनपञ्चशकापाप्रयाणां या मा उकस्सा एवं, उवघाए वा वि भणुकडि ॥ ५८३ नुकृष्टिः प्रतिलोममभिधातव्या। तथा-एतासां प्रकती(घाईणमिति) प्रायो प्रन्थिदेशे वर्तमानस्याऽभव्य मामुत्कृष्टस्थितिबन्धाऽऽरम्भे याभ्यनुभागवन्धाध्यवसायस्था. जीवस्य यो जघन्यस्थिनिबन्धस्तस्मात् स्थितिवृद्धी अनु- नामि, तेषामसंख्येयं भागं मुक्वा शेषाणि सीण्यपि ए. ऋष्टिरभिधीयमानानुसतव्या सातवेदनीयमनुजधिकदेवति। कसमयानोरकष्टस्थितिबन्धाऽऽरम्भे प्राण्यम्ते, अन्यामिभ. कतिर्यश्विकपश्चेन्द्रिय जातित्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकसमचतुर-- बन्ति, एकसमयोनोकृष्टस्थितिबन्धाऽऽरम्भे व याम्यनुभाग संस्थानववर्षभनाराच संहननप्रशस्तविहायोगतिस्थिरशुभ | बन्धाध्यक्षमायस्थानानि तेषामसंख्येयतम भागं मुक्पा शे. सुभगसुस्थराऽऽदेययशःकीयुगोपनीचैर्गोताणामभव्यप्रा. पाणि सर्वाएपपि द्विसमयानोत्कृष्टस्थितिबन्धाऽऽम्भे प्रायः योग्यजघन्यबन्धाऽऽक्योऽपि अनुसतध्याः। तत्र घातिना ते, अन्यानि च भवन्ति । एवं तावद्वारुवं यावत्पस्योपथविधानाधरणनवविधदर्शनावरण मिथ्यात्वषोडश. पमासंख्येयभागमात्राः स्थितयोऽधोऽधोऽतिक्रान्ता भवन्ति । कषायनवनोकषायपञ्चविधाऽन्तरायलक्षणानां कर्मणामशुभग. अप्रोस्कृष्टस्थितिबन्धाऽऽरम्भभाविनामनुभागबन्धाभ्यवसास्वर्णरसस्पर्श च । अत्र षष्ठ्यर्थे सप्तमी । अशुभानां वर्णग- यस्थानानां स्थितिस्थाने स्थितिस्थाने संख्येयासंख्येयभाग्धरसस्पर्शानां च कृष्णनील दुरभिगन्धतिककटुकगुरुकर्क- गौचनेनानुकृष्टिः परिसमाप्ता । ततोऽनन्तरमधस्तने स्थिति. शरूशीतरूपाणां जघन्यस्थितिबन्धे यान्यनुभागबन्धाऽध्य- स्थान एकसमयानोत्कृष्स्थितिबन्धाऽऽरम्भभाविनामनुभाग. बसायस्थानानि तेषामेकदेशो द्वितीये स्थितिबन्धेऽनुवर्तते. बन्धाध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिः परिनिष्ठां याति । ततोऽ. अन्यानि च भवन्ति । इदमुक्तं भवति-जघन्यस्थितिबन्धा प्यधस्तनतरे द्विसमयोनाकृष्ठस्थितिबन्धारम्भभाविनामऽऽरम्मे यान्यनुभागबन्धाऽध्यवसायस्थानानि, तेषामसंख्येय. नुभागबन्धाध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिः परिसमाप्तिमियति । समभाग मुक्त्वा शेषाणि सर्वाण्यपि द्वितीयस्थितिबन्धा35. एवं तावद्वाच्यं यावदुक्तप्रकृतीनां सर्वासामपि आत्मीया रम्भे प्राप्यन्ते अन्पानि च भवन्ति । द्वितीयस्थितिबन्धा35- जघन्या स्थिनिर्भवति । (सायस्सेत्यादि) सा तस्योत्कृष्ट रम्भे च याम्यनुभगान्धाऽध्यवसायस्थानानि, तेषामसंख्येय- स्थिति बनतो यान्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि समयो. तमं भागं मुक्त्वा शेषाणि सर्वारयपि तृतीयस्थितिबन्धाss. नोत्कृष्टास्थतिबन्धाsरम्भेऽपि तानि भवन्ति अन्यानि च रम्भेप्राप्यन्ते, मन्यानि च भवन्ति। तृतीयस्थितिबन्धा35र- यानि समयोनोत्कृष्टस्थिति बन्धाऽऽरम्भे भवन्ति द्विसमयोनो. म्भे च यान्यनुभागबन्धाऽयवसायस्थानानि, नेषामसंख्येय- स्कृष्ठस्थितिबन्धारम्भेऽपि तानि भवन्ति अन्यानि च । एवं तमं भागं मुक्त्वा शेषाणि सर्वारयपि चतुर्थस्थितिबन्धा35. ताबद्धाच्यं यावदसातेऽसातस्य अघभ्यः स्थितिबन्धः। किरम्भे प्राप्यम्तै, अन्यानि च भवन्ति । एवं तावद्वाच्यं याष- मुक्तं भवति?-यावत्प्रमाणाः स्थितयोऽसातस्य जघन्यानुभास्पल्योपमासंख्येयभागमात्राः स्थितयो गता भवन्ति । अत्र गबन्धप्रायोग्याः सातेन च सह परावर्य परावर्त्य अभ्यन्ते जघन्यस्थितिबन्धाऽऽरम्भे भाविनामनुभागबन्धाऽध्यवसाय- तावत्प्रमाणासु सा तस्य स्थितिषु तानि चान्यानि चेत्येवं स्थानानामनुकृष्टिः परिसमाप्ता । ततोऽनन्तरमुपरितने स्थि- क्रमोऽनुसरणीयः। (हेढुज्जोयसमं ति) अधस्तादुद्योतसमं तिबन्धे द्वितीयस्थितिबन्धाऽऽरम्भभाधिनामनुभागबन्धाध्य. वक्तव्यं यथा प्रागुयोतस्याभिहितं तथाऽत्रापि वक्तव्यमि. पसायमधानानामनुकृष्टिः परिसमाप्तिमियति । तथा चाडह. त्यर्थः । तद्यथा-सातस्य जघन्यस्थितिबन्धादस्तिने स्थि(विइयस्स होइ बियस्मि)द्वितीयस्य स्थितिबन्धस्य संबन्धि- तिस्थाने यान्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि तानि कामिनामनुभागबन्धाऽभ्यवसायस्थानानामनुष्ठिद्धितीये यत्र ज- चिनुपरितनस्थितिस्थानसत्कानि कानिचिदन्यानि । तस्मा. पन्यस्थितिबन्धाऽऽरम्भमाधिनामनुभागबन्धाऽध्यवसायस्था. दप्यधस्तने स्थितिस्थाने यानि अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानाभनुकृष्टिः परिसमाप्ता ततोऽनन्तरे परिनिष्ठांयाति तृतीय- नामि तानि कानिचित्प्राक्लनस्थितिस्थानसत्कानि, कानि. स्थितिबन्धाऽऽरम्भमाविनां चाऽनुभागबन्धाऽयवसायस्था- चिदन्यानि । अनेन च क्रमेणाधोमुखं तावत्रेयं यावत्प. नानामनुष्ठिः ततोऽप्यनन्तरे परिसमाप्ति याति । एवं तावता- ल्योपमासंख्येयभागमात्रा: स्थितयो गता भवन्ति । तत्र व्यं यावदुक्तप्रकृतीनामात्मीयाऽऽत्मीयोत्कृष्टा स्थितिर्भवति । चासातजघन्यस्थितिबन्धल्यस्थितिस्थामसत्कानामनुभातथा चाऽऽह-(श्रा उकस्सा एवं)पत्रम-नमुना प्रकारेण श्रा- गबन्धाध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिः परिसमाति याति । उत्कर्षादवमन्तव्यम् । तथापघातेऽप्येवमेघाऽनुकृष्टिरभिधात- एतदुक्तं भवति-मसातजघन्यस्थितिबन्धतुल्य स्थितिस्थानस्था, यथा घातिप्रकृतीनामभिहिता अनुकृधिरिति, अनुक- सत्कानामनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानामधोऽध एफैकस्मियाम्-अनुष्ठिरवर्तनमित्यर्थः ॥ ५७ ॥५८ ॥ न स्थितिस्थानेसंख्येये भागे व्यवच्छिद्यमाने पस्योपमाइ Page #1232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंधण भभिधानराजेन्सः। बंधक संख्येयभागमात्रासु स्थितिबतिक्रान्तासु सर्वात्मना परिस- तिरूपाणां सप्तविंशतिसंण्यानां प्रत्येकं नामप्राहमनुकृतिमाप्तिर्भवतीति। ततोऽसातजघन्यवधतुल्यस्थितिस्थानाद- रभिधातव्या हात ॥ ६१॥ भस्तनस्थितिस्थानसत्कानामनभागबन्धाध्यवसायस्थानाना इदानी तिर्यद्विकनीचर्गोत्राणामनुकृष्टिमभिधातुकाम पाह. मनुकृष्टिः पस्योपमाऽसंख्येयभागमात्रादधास्थिती निष्ठा से काले सम्मत्तं, पडिवजंतस्स सत्तमखिईए। मेति । एवं तापदाच्यं यावत्सातस्य जघम्या स्थितिः ।। जो ठिइबंधो हस्सो, इत्तो प्रावरणतुल्लो य ।। ६२ ।। ( एवं परितमाखीण उ सुभाणं ) यथा सातवेदनीयस्योक्तं, जा प्रभवियपाउग्गा, उप्पिमसायसमया उ मा (जानेव।। तथा सर्वासां परावर्तमानप्रकृतीनां शुभानां मनुजद्विकदेअद्विकपशेन्द्रियजातिसमचतुरनसंस्थानवजर्षभनाराचसंह. एसा तिरियगतिदुगे, नीयागोर य अणुकड्डी ।। ६३ ।। जनप्रशस्तविहायोगतिस्थिरशुभसुभगसुस्वराऽऽदेययशाकी.. (सेति ) सप्तमपृथिव्यां वर्तमानस्य नारकस्य (से का. स्र्युर्गोत्ररूपाणां पञ्चदशसंख्यानां नामप्राहमनुकृष्टिरभिधात. ले) अनन्तरसमये सम्यक्त्वं प्रतिपत्तुकामस्य यो इस्वो. ज्या इति ॥२६॥६॥ जघन्यः स्थितिबन्ध इत ऊर्वे स्थितिबन्धोऽनुकृष्टिमधिइदानीमसातस्योच्यते कृत्याऽऽवरणतुल्वो ज्ञातव्यः। स च तायद्याबदभव्यप्रायोग्या जघन्या स्थितिः। तत्र तिर्यग्गतिमधिकृत्य भावना क्रियतेजाणि असायजहन्ने उदहिपुहत्तं ति साणि अम्माणि ।। सप्तमपृथिव्यां वर्तमानस्य नारकस्य सम्यक्त्वं प्रतिपसु. भावरणसमुप्पेत्र, परितमामीणमसुभाणं ।। ६१॥ कामस्य तिर्यपगतेजघन्यां स्थिति बनतो यान्यनुभागबम्धा(जाणिति असातस्य जघन्यस्थितिबन्धादरम्भे यान्यनुभाग- ध्यवसाय स्थानानि, तेषामसंख्येयतमं भागं मुक्त्वाऽन्यानि बधाध्यवसायस्थितिस्थानानि तानि समयाधिकजघन्यस्थि. सर्वारयपि द्वितीयस्थितिबन्धाऽऽरम्भेऽनुवर्तन्ते,अन्यानि च तिबन्धाऽऽरम्भेऽपि भवन्ति, अन्यानि च । यानि समयाधिक. भवन्ति । द्वितीयां च स्थिति बनतो यानि अनुभागबन्धाजघन्य स्थिति बन्धारम्भेऽनुभागवन्धाध्यवसायस्थानानि तानि ध्यवसायस्थानानि, तेषामसंख्येयतमं भागं मुक्त्वा उन्यानि दिसमयाधिक जघन्यस्थितिबन्धाऽऽरम्भपि भवन्ति. अन्यानि सर्वारयपि तृतीयस्थितिबन्धाऽऽरम्भेऽनुवर्सन्ते, अन्यानि च ख । एवं तावद्वाच्यं यावत्सागरोपमशतपृथक्त्वं भवति । भवन्ति । एवं तावद्वाच्यं यावत्पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रा: यावन्मात्रासु सातवेदनीयस्य स्थितिषु तानि चान्यानि चे- स्थितयो गता भवन्ति । अत्र जघन्यस्थितिसत्कानभागव. स्येवं कमोऽनुकृष्टरभिहितस्तावत्प्रमाणावे वा उसातवेदनीय न्धाध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिः परिसमाप्तिमियति। तत उप. स्थितिष्यपि जघन्यस्थितेरारभ्य तानि चाभ्यानि चेस्येवम. रितनस्थितिबन्धाऽऽरम्भे द्वितीयस्थितिस्थानसत्काऽनुभागब. नुकृष्टिरभिधानव्या । एता एव च स्थितयः सर्वजघन्याऽनु. ग्धाध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिः परिसमाप्तिं याति । ततोऽप्यु. भागबन्धप्रायोम्याः । यत एतावत्यः स्थितयः सातापरावृत्य परितनस्थितिबन्धाऽऽरम्भे तृतीयस्थितिसत्काऽनुभागबन्धापरावृत्य वध्यन्ते । परावर्त्तमानश्च प्रायो मन्दपरिणामो भव ध्यवसायस्थानानामनुरुष्टिः परिसमाप्तिमेति । एवं तावद्धा. ति । तत पतासु जघन्यानुभागबन्धसंभवः । इत ऊर्वे च्यं यावदभव्यप्रायोग्यो जघन्यस्थितिबन्धः । (उम्पि असास्वसातमेव केवलं बध्नाति । तदपि च तीव्रतरेण परिणामेन। यसमया उश्रा जेट्टा ) तत उपरिष्टात्-अभव्यप्रायोग्यजघ. ततो, न तत्र जघन्याऽनुभागबन्धसंभव इति । (प्रावरणस. न्यस्थितिबन्धादारभ्येत्यर्थः । असातन समता-तुल्यता क्षामं उपि ति ) तत उपरितनीनां स्थितीनां यथा शानाऽऽवर- तव्या । (आज? त्ति) यावज्जेष्ठोत्कृष्टा स्थितिः। एतदुक्तं भ. पीयाऽऽदेरुनं तदेकदेशोऽन्यानि चेति तथैवाभिधातव्यम् । वति-अभव्यप्रायोग्यां जघन्यां स्थिति बनतो यानि अनु. तद्यथा-सातस्य जघन्याऽनुभागबन्धप्रायोग्यानां स्थितीनां भागबन्धाऽभ्यवसायस्थानानि तानि तत उपरितनस्थिती वाचरमा स्थितिस्तद्वन्धाऽऽरम्भे यान्यनुभागबन्धाऽध्यवसाय सर्वाणि भवन्ति, अन्यानि च । तस्यामपि यानि अनुभास्थानानि,तेषामेकदेशस्तदुपरितनस्थितिबन्धाऽऽरम्भे नुवर्त. गबन्धाऽध्यवसायस्थानानि तानि उपरितनस्थिती सर्वामि ते,अन्यानि च भवन्ति । ततोऽप्युपरितनस्थितिबन्धारम्भ प्रा. भवन्ति, अन्यानि च । एवं तावद्वाच्यं यावत्सागरोपमशतकनस्थितिस्थानसत्काग्नुभागबन्धाऽध्यवसायस्थानानामेकदे पृथक्त्वम् । पताश्व प्रायोऽभयप्रायोग्यजघन्याऽनुभागबन्ध. होऽनुपर्तते, अन्यानि च भवन्ति । एवं तावद्वाच्यं याव- विषयाः स्थितयः । एता हि मनुष्यगतिरूपया प्रतिपक्षस्पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्राः स्थितयो गता भवन्ति । अत्र प्रकृत्या सह परावृत्य परावृत्य बध्यते । परावृत्य बम्धे जघन्यानुभागवन्धप्रायोग्यचरमस्थिति सत्काऽनुभागबन्धाभ्यः च प्रायः परिणामो मन्द उपजायते। तत पता जघन्या बसायस्थानानामनुकृष्टिः परिसमाप्तिमेति । ततोऽप्युपरित- नुभागबन्धविषयाः। पतासां चरमस्थिती यान्यनुभागयनस्थितिबन्धे जघन्यानुभागबन्धप्रायोग्यस्थित्यनन्तरस्थि- धाऽध्यवसायस्थानानि तेषाम संख्ययं भाग मुक्त्वा शेषाणि तितत्काउनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानामनकृष्टः परिसमा.. सर्वारयपि तदुपरितनस्थितिबन्धाऽऽरम्भेऽनुवर्तन्ते अन्यानि हिंयाति । एवं तावद्वाच्यं यावदसातस्योत्कृष्टा स्थिति- च भवन्ति । तत्रापि यानि अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानाभधति (एवं परित्तमाणीएमसुभाणं) यथाऽसातवेदनी नि, तेषामसंख्येयं भार्ग मुक्त्वा शेषाणि सर्वाण्यपि तत यस्थोक्लम् , एवं शेषाणामपि परावर्तमानप्रकृतीनामशुभा- उपरितनस्थितिबन्धाऽऽरम्भेऽनुवर्तन्ते, अन्यानि च भवन्ति । नां नरकद्विकपञ्चेन्द्रियजातिवर्जशेषजातिचतुएयप्रथमवर्ज एवं तावद्वाच्यं याचस्पल्पोपमासंख्येयभागमात्राः स्थितसंस्थानप्रथमबर्जसंहननाऽप्रशस्तविहायोगतिस्थावरसूचमसा- यो गता भवन्ति । भत्र जघन्याऽनुभागबन्धविषयचरमधारणाऽपर्याप्ताऽस्थिराऽशुभदुर्भगदुःखराउनादेयाऽयश-की- स्थितिसत्कानुभागचन्धाऽध्यषसायस्थानानामनुकृष्टिः परिस Page #1233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९१०) बंधा अन्निधानराजेन्धः। बंधाण माता । तत उपरितने स्थितिबन्धे जघन्याऽनुभागबन्धविष- नसत्काऽनुभागवन्धाध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिः परिनिष्ठा. यचरमस्थित्यनन्तरस्थितिसत्काऽनुभागबन्धाध्यवसायस्था- मेति । एवं तावद्वाच्यं यावजघन्या स्थितिः । एवं बादरनानामनुकृष्टिः परिसमाप्तिं याति । एवं तावद्वाच्यं यावदु पर्याप्तप्रत्येकताम्नामपि भावना कार्या ॥१४॥ स्कृष्टा स्थितिः । ( एसा तिरियगतिदुगे, नीयागोए य अणु तणुतुल्ला तित्थयरे, अणुकडी तिव्बमंदया एत्तो। कडी) एषा-अनन्तरोताऽनुकृष्टिः तिर्यग्गतितिके तिर्यगत सव्यपगईण नेया, जहमयाई अणंतगुणा ॥६५॥ तिर्यगानुपूर्वी लक्षणे नीचैर्गोत्रे च द्रष्टव्या । तत्र यथा ति (तणुतुल ति) तीर्थकरनाम्नि अनुकृर्षिया शरीरनार्यग्गतौ भाविता तथा तिर्यगानुपूर्त्यां नीचैर्गोत्रे च स्वयमेव म्नि प्रागभिहिता यथा द्रष्टव्या। इत ऊर्ध्वमनुभागानां तीभावनीयेति ॥ ६२ ॥ ६३ ॥ अमन्दता द्राव्या । तत्र सर्वासा प्रकृतीनामास्मीयाऽऽस्मी. सम्पति प्रसाऽऽदिचतुष्कस्याऽनुकृष्टिमभिधातुकाम माह यजघन्याऽनुभागबन्धादारभ्य याबदुत्कृष्टोऽनुभागवन्धस्ताव. तसबायरपज्जत्तग-पत्तेयगाण परघायतुल्लायो । तस्थितिबन्धे स्थितिबन्धेऽनन्तगुणा तीव्रममता बनण्या य. जावट्ठारसकोडा-कोडी हेटा य साएणं ॥ ६४ ॥ थोत्तरमनम्तगुणोऽनुभागवक्तव्य इत्यथैः । तत्राप्यशुभप्र. (तस ति) प्रसवादरपर्याप्तप्रत्येकनाम्नामनुकृष्टिः पराधा कृतीनां जघन्यस्थितेरारभ्योर्ध्वमुखं क्रमेणानन्तगुणा बलततुल्या पराघातस्येव द्रष्टव्या । सा चोपरितनात् स्थिति व्यः । शुभप्रकृतीनां तूत्कृष्ठस्थितेरारभ्याधोमुखं याबजघन्या स्थानादारभ्याऽधोऽधोऽबतरणेन यावदधस्तादष्टादशकोटी स्थितिः। तदियं सामान्यतस्तीवमन्नताभिहिता ॥ सम्प्रति कोट्या लागरोपमाणां तिष्ठन्ति । ततोऽधस्तात् सातेन विशेषत उच्यते-तत्र घातिकर्मणामप्रशस्तवर्णगन्धरसतुल्याऽनुकृष्टिरभिधातव्या । तत्र असनाम्नो भाव्यते-तत्रत्र. स्पर्शानामुपघातस्य च जघन्यायां स्थिती जघन्योऽनुभासनाम्न उत्कृष्ठस्थितिबन्धाऽऽरम्भे याभ्यनुभागबन्धाध्यवसा गः सर्षस्तोकः । ततो द्वितीयस्यां स्थिती जघन्योऽनुभा. यस्थानानि तेषामसंख्येयं भागं मुक्त्वा शेषाणि सर्वाण्यः गोऽनन्तगुणः । ततोऽपि तृतीयस्यां स्थिती जघन्याऽनु पि समयानोत्कृष्टस्थितिबन्धाऽऽरम्भेऽनुवर्तन्ते, अन्यानि च | भागोऽनन्तगुणः । एवं तापवाव्यं यावनिवर्तनकराहक भवन्ति । समयोनोकृष्टस्थितिबन्धाऽऽरम्भेऽपि च यान्यनु- भवति । निवर्तनकण्डकं नाम-यत्र जघन्यस्थितिबन्धार. भागबन्धाभ्यवसायस्थानानि तेषामसंख्येयं भागं मुक्त्वा म्भभाविनामनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिः परिसशेषाणि सर्धारयपि विसयोनोस्कृष्टस्थितिबन्धातारम्भेऽपि माप्ता । तत्पर्यन्ता मूलत प्रारभ्य स्थितयः पल्पोपमाऽसंश्यअनुवर्तन्ते, अभ्यानि च भवन्ति । एवं तावद्वाच्यं याव- यभागमात्रप्रमाणा उच्यन्ते । इति ॥ ६५ ॥ त्पल्योपमासंख्येयभागमात्राः स्थितयो गता भवन्ति । अ. निव्वत्तणा उ एकि-कस्स हेहोवरिं तु जेटियरे । श्रोस्कृष्ठस्थितिसत्काऽनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानामनुकाएः परिसमाप्ता । ततोऽधस्तने स्थितिस्थाने समयानोत्कृष्टस्थि चरमठिईणुकोसो, परित्तपाणीण उविसेसो ॥६६॥ तिसत्काऽनुभागयन्धाध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिः परिसमा. (निव्वत्तण त्ति) ततो निवर्तनकण्डकस्य चरमस्थिती प्ति याति । ततोऽप्यधस्तने स्थितिस्थाने द्विसमयानोस्कृष्ट जघन्याऽनुमागाजघन्यस्थिती उत्कृष्ठोऽनुभागोऽनन्तगुणः । स्थितिसत्कानुभागबन्धाध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिः परिस. ततः कराडकादुपरि प्रथमस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगु. माप्तिमति । एवमधोऽधोऽवतरणेन ताबद्वाच्यं यावदध णः । ततो द्वितीयस्थिती उत्कृष्टोऽनुमागोऽनन्तगुणः । स्तादष्टादशसागरोपमकोटीकोट्यस्तिष्ठन्ति । ततोऽष्टादश ततः कराडकादुपरि स्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः । सागरोपमकोटीकोटीचरमस्थितौ यान्यनुभागबन्धाध्यवसा. ततोऽधस्तनतृतीयस्थितौ उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः । त. यस्थानानि तान्यधस्तनस्थितिबन्धा35रम्भे सर्घाण्यपि भव. तोऽधस्तनापुपरि तृतीयस्थितौ उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः । स्ति, अन्यानि च । यानि चाऽधस्तनस्थितिबन्धाऽऽरम्भेऽनु. ततः कराडकादुपरितृतीयस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगु. भागबन्धाध्यवसायस्थानानि तानि ततोऽप्यधस्तनस्थिति- णः। एवमेकैकोऽधस्तादुपरि च यथाक्रम ज्येष्ठ उत्कृष्ट - बन्धाऽऽरम्भे सर्वारयपि भवन्ति , अन्यानि च । एवं तरश्च जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणतया तावद्वाच्यो याषदुतापवाव्य याबदभव्यप्रायोग्य जघन्याऽनुभागबन्धविषय- स्कृष्टायां स्थिती जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणाः । कण्डकमा. स्थावरनामसत्कस्थितिप्रमाणाः स्थितयो गता भवन्ति । त्राणां च स्थितीनामुत्कृष्टोऽनुभागोऽद्याप्यनुक्तस्तिष्ठति । ततोऽनम्तरमधस्तने स्थितिस्थाने प्राक्तनानन्तरस्थितिस्था. | शेषः सर्वोऽप्युक्तः । तत सर्वोत्कृष्टायाः स्थित घम्यानुनसत्कानामनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानामसंख्येयं भार्ग मु. भागात् कण्डकमात्राणां स्थितीनां प्रथमस्थितान्कृष्टोऽक्त्वा सर्वाण्यपि तान्य नुवर्तन्ते , अन्यानि च भवन्ति । नुभागोऽनन्तगुणो वक्तव्यः । ततोऽप्यनन्तरायामुपरितन. ततोऽप्यधस्तनतरे स्थितिबन्धे प्राक्तनानन्तरस्थितिस्थान- स्थिताबुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः । ततोऽप्यनम्तरायामुपसत्कानामनुभागबन्धाऽध्यवसायस्थानानामसंख्येयं भागं रितनस्थितावुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः । एवं निरन्तरमुत्कमुक्त्वा शेषाणि तानि सर्वाण्यप्यनुवर्तन्ते , अन्यानि च भ घोऽनुभागोऽनन्तगुणतया तावद्वक्तव्यो यावत्कृदुष्टा स्थितिः। बस्ति । एवं तावद्वाध्यं यावत् पल्योपमा संख्येयभागमा. तथा चाह-(चरमठिाऽणुकोसो) चरमस्थितीनां कण्ड ना स्थितयो गता भवन्ति। अत्र जघन्यानुभागबन्ध- कमात्राणां पल्पोपमा संख्येयमागमात्राणामित्यर्थः । उत्कविषयस्थावरनामसत्कस्थितिप्रमाणतया निहितानां प्रथम. टोऽनुमागो निरन्तरमनम्तगुणतया नेतव्यः॥ वानी शुभ. स्थितर्यान्यनुभागबन्धाध्यबसायस्थानानि तेषामनुकृष्टिः प. प्रकृतीनां तीव्रमन्नाऽभिधानावसरा-तत्र पराघातप्रकृति. रिसमाता । ततोऽधस्तने स्थितिस्थाने द्वितीयस्थितिस्था. मधिकृत्योच्यते-पराघातस्योत्कृष्टायां स्थिती जघम्पपदे Page #1234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२११) बंधा अभिधानराजेन्छः। बंधण जघन्योऽनुभागः सर्वस्तोकः । ततः समयोमायामुकृस्थितौ स्तिष्ठन्ति । शेषाः सर्वा अप्युक्ताः । ततस्तासां यथोत. जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः । ततोऽपि द्विसमयोनायामु- रमुस्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणो वाच्यः । तथा चा55-(जा सहपस्थिती जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः । एवं तावद्वाच्यं | तकंडकोवरि लमत्ती) यावत्तेषां जघन्याऽनुभागानां कयकबावपल्योषमाऽसंक्येयभागमात्राः स्थितयो गता भवन्ति । कस्य चोपरितनस्य परिसमाप्तिः । दमक्तं भवति-प. निवर्तनकराकमतिकान्तं भवतीत्यर्थः । तत उत्कृष्टायां नम्तगुणतयाऽभिहितानां जघन्यानुभागविषयाणां स्थितीस्थितापुस्कृष्टोऽनुभागोऽनम्तगुणः । ततो निवर्तनकरडका. नां कराडकादुपरि एकैकोस्कृष्टानुमागान्तरिता जघन्यानु. वधः प्रथमस्थिती जवन्याऽनुभागोऽनन्तगुणः । ततः सम. भागास्तावद्वक्तव्या यावत्तेषां सर्वेषामपि परिसमाप्तिरुपजा. चौमायामुकष्टस्थिताधुकृष्टोऽनुभागाऽनन्तगुणः । ततो नि. यते । ततो ये कराडकमात्रा उत्कृष्टानुभागाः केवलास्तिबर्तनकराहकावधो द्वितीयस्थिती जघन्योऽनुभागोऽनम्त- ष्ठन्ति . तेऽपि यथोत्तरमनन्तगुणास्तामद्वाच्या यावत्सर्वगुणः । एवं तावद्वानं यावत्पराघातस्य जघम्पस्थिती जघ समाप्तिर्भवतीति गाथार्थः । तत्र सातासाते अधिकृत्य न्यानुभागोऽनन्तगुणः कराडकमात्राणां च स्थितीनामुत्कृष्टो. भावना विधीयते-सातस्योत्कृष्टायां स्थिती जघन्योऽनुअनुभागोऽचाप्यनुकम्तिष्ठति । शेषः सर्वोऽप्यतः । ततो भागः सर्वस्वोकः । ततः समयोनायामुस्कृष्टस्थिती जघ. अचम्यस्थितेरारभ्यो कराडकमात्राः स्थितीरतिक्रम्य ब. म्योऽनुभागस्तावमात्र एव । द्विसमयोनायामध्युत्कृष्टस्थि रमायां स्थिताबुकृष्ठोऽनुभागोऽनन्तगुणो वक्रव्यः । ततोs तो जघन्योऽनुभागस्तावमात्र एव । एवमधोऽधोऽयतीर्य ता. धस्तनस्थितावुत्कृष्टाऽनुभागोऽनन्तगुणः । एवं ताबद्वाच्य बद्वक्तव्यो यावत्सागरोपमशतपृथक्त्वमतिक्रान्तं भवति । त. यावज्जघन्यस्थितात्कयोऽनुभागोऽजन्तगुणः । एवं शरीरप तोऽधस्तनस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः । तमोऽप्यअकसंघातपश्चकबन्धनपञ्चदशकालोपाङ्गत्रयप्रशस्तवर्गाग धस्तनस्थिती जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः । एवं ताबद्वाधरसस्पर्श गुरुलघूच्छासाऽऽतपोद्योतनिर्माणतीर्थकराणा च्यं गवत् कण्डकस्याऽसंस्थयभागा गता भवन्ति, एकोऽव. मपि भावनीयम्। (परित्तमाणीख उ विसेसो)पगवर्तमानप्रक शिष्यते । एताश्च स्थितयः संख्येयभागहीमकराडकमात्राः तीनां विशेषो द्रव्यः। स चैवम् यावतीनां तानि चाऽभ्यानि साकारोपयोगसंझा इति व्यवद्रियन्ते, साकारोपयोगेनै वैतासां बध्यमानत्वात् । नत उत्कृष्टस्थिती उत्कृष्टोऽनुभाचैत्येवमनुकृष्टिरभिहिता, तावतीनां सर्वांसामपि जघन्यो:नुभागम्तावम्मान एव द्रष्टव्यः । तानि चान्यानि चेस्येवम गोऽनन्तगुणो वक्तव्यः । ततः समयोनायामुस्कष्टस्थितानुकृष्टिविषयाभ्यस्तु परतो जघन्यो यचोत्तरमनम्न गुणस्ता. खुत्कुष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः । ततोऽपि विसमयोनायामुस्कअलग्यो यावत् कराडकस्याऽसंख्येया भागा गता भवन्ति, टस्थिताबुकृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः । एवमधोऽधोऽवतर. बकोऽवशिष्यते ॥ ६६॥ णेनोत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणस्ताव वक्तव्यो यावत्कराडकमा पाः स्थितयोऽतिक्रान्ता भवन्ति । ततो यतः स्थितिस्थातथा चाऽऽह नाजघन्यमनुभागमुक्त्वा निवृत्तस्ततोऽधस्तात् स्थितिस्थाने ताणनाणि ति परं, असंखभागाहिकंडगेकाण ।। जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततः पुनरपि प्रागुक्तानामुत्कृष्टाउक्कोसियरा नेया, जा तकंडकोवरि समत्ती ।। ३७ ।। नुभागविषयाणां स्थितीनामधस्तात् कराडकमात्रासु उत्कृष्टो. (ताणि ति) तानि चान्यानि चेत्येवमनुकृष्टेः परं कण्ड- अनुभागः क्रमेणानन्तगुणो वाच्यः। ततो यतः स्थितिस्थाना. कस्याऽसंस्वयेभ्यो भागेभ्य ऊर्च कराडकमात्राणामेकैक- जघन्यमनुभागमुक्त्वा निवृत्तस्ततोऽधस्तने स्थितिस्थाने जा स्याश्च स्थिते यथासंख्यमुत्कृष्टा इतरे च जघन्या अनुभागा घन्योऽनुभागोऽनन्तगुणो वक्तव्यः। ततः पुनरपि फण्डकमाअनन्तगुणात्रेयाः । एतदुक्तं भवति-तामि चान्यानि चेत्ये. पाणां स्थितीनामुत्कष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः । एवमेकस्याः बमनकृष्टः परं जघन्योऽनुभागो यथोत्तरमनन्तगुणस्तावद्वा- स्थितेर्जघन्योऽनुभागः कण्डकमात्राणां च स्थितीनामुच्या यावत् कण्डकमात्राणां स्थितीनामसंख्येया भागा गता स्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणतया तावद्वाच्यो यावज्जघन्याभवन्ति , एकोऽवतिष्ठते । ततो यतः स्थितेरारभ्य तानि नुभागविषयाणामेकैकस्थितीनां बानि चान्यानि चेत्येचान्यानि चेत्येवमनुकृष्टिरारब्धा, तत्प्रभृतीनां स्थितीनां वमनुकृष्टः परं कण्डकं परिपूर्ण भवति । उत्कृष्टानुभागवि. कराडकमात्राणां यथोत्तरमनन्तगुणतयोत्कृष्ठोऽनुभागो वक्त षयाश्च स्थितयः सागरोपमशतपृथक्त्वमात्राः । तत एका व्यः । ततो यतः स्थितिस्थानाजघन्यानुभागमुक्त्वा निः स्याः स्थितेर्जघन्यानुभागोऽनन्तगुणः । ततः सागरोपमश: तस्तत उपरितने स्थितिस्थाने जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणो तपृथक्त्वावधस्तनस्थितास्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततः बाच्यः । एवमेकैकं जघन्यानुभागमुत्कृष्टानुभागानां च कराड- | पुनरपि प्रागुकस्थितिस्थानादधस्तनस्थितौ जघन्योऽनुभागो. कं कराडकं तावदेत् यावजघन्यानुभागविषयाणां स्थितीनां उनम्तगुणः । ततः सागरोपमशत पृथक्वादधस्तनद्वितीय. मानि चान्यानि चेत्येवमनुकृष्टेः परं कण्डकं परिपूर्ण भवः स्थिती उत्कष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः । एवमेकैकं जघन्यमुस्क. ति । उत्कृष्टाश्चानुभागा: सागरोपमशतपृथक्त्वतुल्या भव. चानुभागमनम्तगुणतया वरन् तावत् बजे यावरसर्वजध. न्ति । तत उपरि जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः। पश्चादेक उ. | न्या स्थितिः । कराडकमात्राणां च स्थितीनामुस्कषानुभागा स्कृष्ठोऽनुभागः । ततः पुनरप्येको जधम्योऽनुभागः , पुनर. प्रधाऽप्यनुक्कास्तिष्ठन्ति, शेषाः सर्वेऽप्युक्ताः । ततस्ते ऽव्ययो ज्येक उत्कृष्टोऽनुभागः । एवं तावद्वाच्यं यावज्जघन्यानु-उधः क्रमेणामम्मगुणा बक्तव्या यावत्सर्वजघन्या स्थितिः । भागविषयाः स्थितयः सर्षा अपि परिसमाप्ता भवन्ति । एवं मनुष्यगतिमनुष्यानुपूर्वीदेवगति देवानुपूर्षीपश्चेन्द्रियजा. उत्कृष्ठानुभागविषयाच काण्डकमात्राः स्थितयोऽद्याप्यनुक्का- तिसमचतुरस्रसंस्थानयजर्षभनाराचसंहनमप्रशस्तविहायक Page #1235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमिधानराजेम्पः। चंवड सिरियामसुभगसुस्वराऽऽययशाकीयुगात्रामविष-मोऽमन्तमुक सायादुपरि मिलीयस्थिती जयन्योसम्यम् ॥ संप्रवासातवेदनीयस्थोच्यते-तमामातस्य जयन्य- अनुमोऽनन्तकुणः । ततस्तृतीयस्यां स्थितास्कमो मुजास्थिती जवम्योऽनुभागः सर्वस्तोकः । द्वितीयम्य स्थिती गोल गुम । एमाद्वावं वापसमाप्रायोन्यायायाजघ्रन्योऽनुभागस्तावम्मान एष । तृतीयस्यामणि स्थिती सभागकाधास्याऽधरमस्थिति मण्यप्रायोम्याग्वानुमासधम्योऽनुभागस्तावन्मान एव । एवं तापवाव्यं यावत्ला गमायस्याय: कसकमात्रा स्थितीचानकटाणा - गरोपमशतपृथक्त्वं भवति । तत उपरितनस्थिती जबन्यो भाव्य मुला- सन्ति. शेषास्तूशनः । ततोऽभव्यप्रायोग्मजयअनुभागोऽनन्तगुणः। ततो वितीयस्यां स्थिती जपन्योऽ यानुभाभकामविषये प्रथमस्थिती जम्योऽमुभागोऽनन्त दुभागोऽनन्तगुणः । एवं तावद्वाच्यं यावत्कराहकस्यास सुभावितक्या स्थिती जघन्योऽसभामस्तावन्माचरख। क्येया भागा गता भवन्ति, एकोऽवतिष्ठते । ततोऽमासस्य बतीयस्मपिस्थिती जघन्योऽभाषस्तामात्र पाई अनभ्यस्थिताकष्टपदे उत्कृष्टोऽनुभागोमन्तगुणः । तो सावळ यासारोपमशतप्रथायात्रा स्थितयो:द्वितीयस्यां स्थितान्कृष्टोऽनुभागोऽनम्तगुणः । ततोऽपि शिकान्ता भवन्ति । एता च स्थिती पूर्व पुनः पराय. तुनीयस्यां स्थितानुकृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। एवं तावद्वा संमानजयन्यानुभामबन्धप्रायोम्या इति गाम कसम् । तायं यावत् करडकमात्राः स्थितयो गता भवन्ति । ततो सांचोपरि प्रथमस्थितौ अधानुभानी जातमुखः। सनो. मतः स्थितिस्थानाजघन्यमनुभाग मुक्त्वा निवृत्तस्तत्त उ- ऽपि द्वितीयम्यां स्थिती जयन्योभनमन्तगुण समो. परितने स्थितिस्थान जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः । तसाप्रा. अपि कृतीयस्यां स्थिती जघन्यो भागोमागुलबर्ष गुलादुत्कृष्टानुभागविषयास्कएकानुपरि प्रथमस्थितौ उस्कृ तापहाव्यं यावनिवर्तनकस्टकस्य श्वसकोमामा माम. होउनुभागोऽनम्तगुखः । ततोऽपि द्वितीयस्यां स्थितौ उस्कृ- बन्ति, एकोऽवतिष्ठते । सतो थतःस्थितिस्थानादुरकायममुकापोऽनुभागोऽनन्तगुणः । ततोऽपि तृतीयस्था स्थिती - मम् उक्त्या मिवृत्तस्तत उपरिसने द्वितीये स्थितिस्थाने उक स्करोऽनुभागोऽमन्तगुखः । एवं तावद्वाच्यं यावत्युनरपिक टोऽनुभागोऽनन्त गुणः । ततोऽप्युपग्लिने स्थितिस्थाने उत्कपतकमात्राः स्थितयोगता भवन्ति । ततः पुनरपि पतः टोऽनुभागोऽमन्तगुखः। ततोऽपि तृतीये स्थितिस्थाने उत्कृ स्थितिस्थानाजघन्यानुभाग मुक्त्वा निवृत्तस्तस्योपरितने ष्टोऽभागो ऽनन्तमुणः । एवं तावद्वाच्यं याबदभव्यप्रायोग्य. स्थितिस्थाने जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः । ततो भूयोऽपि जघन्यानुभागवग्यस्याधश्वरमा स्थितिः । ततो यतः स्थितिमागुक्तकण्डकळ्यादुपरिकसडकमात्राणां स्थितीनामुत्कृष्टोऽ. स्थामाजघन्यमनुभागमुक्त्वा निवृत्तस्ततः उपरितने स्थिति दुभागो पथोत्तरमनन्तगुणो वक्तव्यः । एवमेकैकस्याः स्थाने जघन्यो ऽनुभागोऽनन्त गुणः । ततोऽभव्यप्रायोग्यजघ. स्थितेर्जघन्योऽनुभागः कराडकमात्राणां च स्थितीनामुक न्यानुभागबन्धविषये प्रथमस्थितावुत्कष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। टोऽनुभागोऽनन्तगुगणतया तावतव्यो यावाघग्यानुभाग ततोऽपि द्वितीया खितावुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः । विषयाणामे के कस्थितीनां तानि चान्यानि चेत्येवमनुरुः एवं तावद् वाच्यं यावत् कण्डकमात्राः स्थितयोऽतिक्रान्ता परं कराडकं परिपूर्ण भवति । उत्कृष्टानुभागविषयाश्च स्थि. भवन्ति । ततो यतः स्थितिस्थामाजघन्यमनुभागमक्या नि. तयः सागरोपमशतपृथक्त्वमात्राः । तत उपरि एकस्याः वृत्तस्तत उपरितने स्थितिस्थाने जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुस्थितेर्जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणो वाच्यः । ततः सागरोपमः णः । ततोऽप्यभव्यप्रायोग्यजघन्यानुभागबन्धविषये कराडशतपृथक्त्वादुपरितनस्थितावुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततः कादुपरि पुनरपि कराडकमात्राणां स्थितीनामुस्कयोऽनुभापुनरपि प्रागुतात् स्थितिस्थानादुपरितने स्थितिस्थाने जघ गो ग्रथोत्तरमनन्तगुणो वक्तव्यः । एवमेकस्याः स्थितेर्ज. भ्योऽनुभागोऽनन्तगुणः । ततः सागरोपमशतपृथक्त्वादुपरि घन्यमनुभागं कण्डकमात्राणां च स्थितीनामुन्कृष्टमनुभागं बद द्वितीयस्यां स्थितावुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। एवमेकैकं ज. ता तावदन्तव्यं यावदभव्यप्रायोग्य जघन्यानुभागबन्धविषये अन्यमुस्कृष्टं चानुभागमनन्तगुणं वदन् ताक्न् बजेद्यावदसात. धरमस्थितिः । ततो यतः स्थितिस्थानाजघन्य मनुभागबेवनीयस्य सर्वोत्कृष्टा तिर्भवति । कराडकमात्राणां च स्थि. मुक्त्या निवृत्तस्तत उपरिसने जघन्योऽनुभागोऽनन्त गुणः। सीनामुस्कृष्टानुभागा अद्याप्यनुक्का अवतिष्ठन्ते शेषा, सर्वेऽप्यु ततोऽभव्यप्रायोग्यजघन्यानुभागकधस्योपरि प्रथमस्थिताधुकाः । ततस्तेऽपि योत्सरममन्तगुणा वक्तव्या यावत्कृष्टा स्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः । तत उपरि प्रागुता जघन्यानु. स्थितिः। एवं नरकगतिमरकानुपूर्वीपञ्चेन्द्रियजातिवर्जजातिच भागबन्धादुपरि द्वितीयस्थिती जघन्योऽनभागोऽनन्तगुणः। तुष्टयप्रथमवर्जसंस्थानपञ्चकप्रथमवर्जसंहननपञ्चकाऽप्रशस्त- ततः प्रागुक्तादुत्कृष्ट नुभागादुपरितने स्थितिस्थाने उत्कृष्टोऽ. बिहायोगतिस्थावरसूक्ष्मायाप्तसाधारणास्थिराशुभदुर्भनदुः। नुभागोऽनन्तगुणः । एवमेकस्याः स्थितेर्जघन्यमेकस्याश्चोत्कस्वरानादेयायशःकीर्तीनामपि जीवमन्दताऽभिधातव्या ॥सं. एमनभागं वदना तावदन्तव्यं यावत्कृष्टस्थिती जघन्यो। अति तिर्यग्गतेस्तीवमन्दताऽभिधीयते-सप्तमपृथिव्यां वर्तमा. मुभागोऽनन्तगुणः । कराडकमात्राणां च स्थितीनामुत्कृणानस्य नैरगिस्य सर्वजघन्ये स्थितिस्थाने जघन्यपदे जघः | नुभागा अद्याप्यनलाः सन्ति, शेषाश्च सर्वेऽप्यनाः। ततस्ते -याऽनुभागः । सर्वसतोकः । ततो द्वितीयस्थिती जघन्यो यथोत्सरमनन्तगुणास्ताबद्वताच्या यावदस्कृष्टा स्थितिः । एवं नुभागोऽमन्तगुणाः । ततोऽपि तृतीयस्थिती जयन्यो अनुभागो | तिर्यगाना नीचाँधस्य च तीवमन्दताऽभिधातव्या ॥स. उनम्तगुणः । एवं तावद्वाच्यं यावनिवर्तमकराष्टकमतिकान्तं म्पति प्रसनाम्नोऽभिधीयते-प्रसनाम्न उत्कृष्टस्थिती जघन्य. भवति । ततो जघन्यस्थितापुस्कृष्टम्दे उत्कृष्टोऽनुभागोऽ पदे जनम्योऽनुभागः सर्वस्तोकः । ततः समयोनायामुत्कृष्ट बन्तगुणः । ततो निवर्तनकाका दुपरि प्रथमस्थितौ जघ- स्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः । ततोऽपि द्विसमयोश्योऽनुभागोऽनम्तगुणः । ततो द्वितीयस्थिवाघोऽमुभा. सायामुशक्तिी .ज.पस्योनुभागोऽसन्तगणः पवमयोऽनो Page #1236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधा ( १९१३) अभिधान राजेन्द्रः । जघन्योऽनुभागोऽनन्तथा पा वत्कण्डकमात्राः स्थितयोऽतिक्रान्ता भवन्ति । ततः उत्कृष्टायां स्थिती उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः । ततः कण्डकाद्धः प्रथ मस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः । ततः समयोनायामुत्कृ प्रस्थितौ उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः । ततः कण्डकादधस्तस्यां द्वितीय स्थितीजन्य भागोऽनन् मोनास्थिती उत्तगुणः एवं ताव द्वाच्यं यावदष्टादश सागरोपमक टीकोटीनामुपरितनी स्थितिः फोटो फोटो कडकमा स्थितीनामु भागा अद्याप्यनुक्ताः सन्ति । शेषं सर्वमुक्तम् । ततोऽसरकायामुपस्थितमा मोगुणः। ततः समास्थित जम्पोऽनु भागस्तावन्मात्र एव द्विसमयोनायामप्युत्कृष्टस्थितौ ज घन्योऽनुभागस्तावन्मात्र एव । एवमधोऽधोऽवतरणेन ताव यावदभव्यथायोग्य जयम्यस्थितिबन्धा नतोऽच स्तम्यां प्रथमस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः । ततो द्वितीयस्यां स्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः । एवं तावद्वाच्यं यावत्कण्डकस्यासख्येया भागा गता भवन्ति, एकोऽवतिष्ठते । ततोऽष्टादशसागरोपमकोटीकोटीनामुपरि टात् कण्डमा स्थितीनां चरमस्थि भागोऽनन्तगुणः । ततो द्विवरमस्थितावुत्कृष्टोऽनुभागोयन्तगुणः। ततखमस्थित कृष्नुभो। एवमधोऽधोऽवतरणेन तावद्वच्यं यावत्कण्डकमतिक्रान्तं भ वति, अष्टादशकोटीकोटीनामुपरि अनन्तरा स्थितिरतिक्रान्ता भवतीत्यर्थः ततो यतः स्थितिस्थानामनुभागमभिधाय लिने स्थितिस्थाने अघ णः । ततः पुनरप्यष्टादशसागरोपमकोटीकोटीनां सत्कायाश्चमस्थितेभ्याऽथायः फण्डमात्राणां स्थितनामु अनुभागोऽनन्तगुणो वक्तव्यः ततो यतः स्थितिस्थानाज्जनिवृत्तोऽपस्ने स्थितिस्थाज धन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः ततः पुनरपि प्रागुकार कराडका दधः कराहरुमात्रायां स्थितीमागचीचः कर्मणोर अनुभागा अनन्तगुणा वक्तव्याः । एवमेकस्याः स्थितेर्जधन्यमनुभा कराड माशा स्थितीनामुस्काननुकण्डकमात्राणां भागान् वदता तारन्तव्यं यावदभव्यप्रायोग्य जघन्यानुभागबन्धविषये जघन्या स्थितिः ततो यतः स्थितिस्थानापन्यनुभागमुक्त्या निवृत्तस्ततोऽस्ने स्थिति स्थाने जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः । ततोऽभव्य प्रायोग्यजघन्यानुभागबन्धविषयादधः प्रथमस्थितौ उत्कृष्टोऽनुभागोअनन्तगुणः । ततः प्रागुक्ताजघन्यानुभागादधः स्थितौ ज धन्योऽनुनाऽनन्तराः। ततोऽयमव्यायोग्यजन्पानुभागबन्धविवाद धो द्वितीयो ऽनुनागोरसगु णः । एवमेकस्याः स्थिते जघन्यमनुभाग मे कस्याश्च स्थिते रुत्कृष्टं बदलाव उपस्थि तिः । कण्डकमात्राणां च स्थितीनामुत्कृष्टा अनुभागाः अ द्याप्यनुक्काः सन्ति, शेषाः सर्वेऽप्युक्ताः । ततस्तेऽप्यधीऽधः क्रमेणानन्तगुणास्तावद्वक्लया यावजघन्या स्थितिः । एवं बादरपर्यत प्रत्येक नानामपि मन्दताऽभिघात ( विशेषतस्त्वनुकृष्टिस्ती मन्दता व पटस्थापनात बसे. २०४ बंध या ) साद्यनादिप्ररूपणा | स्वामित्वं घातिसंज्ञा स्थानसंज्ञा शुभाशुभप्ररूपणा ( प्रत्यय प्ररूपणा विपाकप्ररूपणा ) च यथा' शतके' तथाऽवगन्तव्या इति ॥ ६७ ॥ तदेवमुक्तोऽनुभागबन्धः । सम्प्रतिस्थितिथाभिधानावसरः। तत्र त्यानु योगद्वाराणि । तद्यथा— स्थितिस्थानप्ररूपणा १, निषेकप्ररू पण २, बाधाकण्डकप्ररूपणारे, अल्पबहुत्वप्ररूपणा ४, च । तत्र स्थितिस्थानप्ररूपणार्थमाह ठिबंधट्ठाणाई, सुहुमअपज्जतगस्स थोवाई | बायरसुहुमेयर चिति- चउरिदिय श्रमणसभी णं ॥ ६८ ॥ संखेज्जगुणाणि कमा, असमत्तियरे य बिंदिया इम्मि || नवरमा संकिलेसाई (प) सम्यस्थ ||६६|| - हूँ (टिइ चि) अपस्थितेरी स्थिति यावत् यावन्तः समयस्तावत्प्रमाणानि स्थितिस्थानानि । तथाहिजघन्यायाः स्थितेरेकं स्थितिस्थानम् । सैव समयाधिका द्वितीय स्थितिस्थानम् द्विसमयाचिका तृतीयं स्थिति स्थानम् । एवं तावद्वाच्यं यावदुत्कृष्टा स्थितिः । तानि स्थानियस्यापर्याप्तस्य सर्वस्कान - पर्याप्तबादरस्य संध्येयगुणानि । तेभ्योऽपि सूक्ष्मपर्याप्तकस्य संवेधानि योऽपि पर्याप्तयादरस्य संय गानि । एतानि च परोपमासंपेपमागगत समय प्रमाणानि यानि ततोऽपर्यासीद्रिस्यासंख्येयमुखानि कथमेवं गम्यते ? इति चेदुच्यते द्वीन्द्रियाणामपर्याप्तानां स्थितिस्थानानि पल्योपमासंख्येय भागगत समयप्रमाणानि, पाश्चा त्यानि च पत्योपमासंख्येयभागगत समय प्रमाणानि । ततः पाश्चात्येभ्योऽमूल्य संकपेोपपद्यते । तेभ्योऽपि द्वीन्द्रियस्य पर्यासस्य स्थितिस्थानि संध्येयवा नि । तेम्योऽपि श्रीयस्पापर्यासस्य संपवा नि । तेभ्योऽपि तस्यैव पर्याप्तस्य संख्येयगुणानि । तेभ्योऽपि चतुरिन्द्रियस्यापर्याप्तस्य सङ्ख्यगुणानि । वेभ्योऽपि तुद्रपानले - उपिस्थापस्य संनियो यसपद्रियस्थ पर्याप्तस्य सवगुणानि तेभ्योऽ. पिद्रियपापयतस्य स पि पिचेन्द्रियस्य पर्याप्तस्य सङ्ख्येयगुणानि मतियरे यत्ति ) असमाप्तानामपर्याप्तानामितरेषां च पर्याप्तानां वादीनां स्थितिस्थादानि क्रमेण सनि नीति नरमे के द्रियाणां स्थितिस्थानाम्पभियापाड नन्तरं द्वीन्द्रियस्य प्रथमे भेदेऽपतरूपे स्थितिवन्यस्था नान्यसङ्ख्यगुणानि वल्पानि तथैव च पूर्वप्र क्लानि ( संकिलेसाइँ (य) सम्वत्थ) संक्लेशाश्च सर्वत्र - सर्वेषु स्थानेष्वसंख्येयगुणा वक्तव्याः श्रास्तां द्वीन्द्रियस्य प्रथ म स्थितिस्थानाम्पत शब्दार्थः । तद्यथा-वस्थापनस्य संस्थानानि सर्व स्तोकानि । तेभ्योऽपर्याप्त बादरस्यासङ्ख्थे यगुणानि । तेभ्यो. ऽपि पर्याप्तस्यायेन तेभ्योऽपि पर्याप्तबाइपास तेयोऽपि स्थापयति 1 Page #1237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण अभिधानराजेन्द्रः। बंधण स्याऽसख्ये यगुणानि । एवं पर्याप्तद्वीन्द्रियपर्याप्ताऽपर्याप्तत्री- दशसागरोपमकोटीकोट्यः स्त्रीवेदाऽऽदीनामुन्धा स्थिति न्द्रियबतुरिन्द्रियाऽसंक्षिसंक्षिपञ्चेन्द्रियाणां यथोत्तरमस: रवगन्तव्येत्यर्थः । पञ्चदशवर्षशतान्यबाधाकालोऽबाधाकाज्येयगुणानि वक्तव्यानि । कथमेवं गम्यते सर्वत्राप्यसं लहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः ॥ ७॥ येयगुणानि संक्लेशस्थानानीति चेद् उच्यते-रह सूदमस्याप. तिविहे मोहे सत्तरि, चत्तालीसा य वीसई य कमा। याप्तस्य जघन्यस्थितिबन्धाऽऽरम्मे यानि संशस्थानानि ते. भ्यः समयाधिकजघन्यस्थितिबन्धादरम्भे सशस्थानानि दस पुरिसे हासरई, देवदुगे खगइचट्ठाए ॥ ७१ ।। विशेषाधिकानि। तेभ्योऽपि द्विसमयाधिकजघन्यस्थितिबा (तिविहे त्ति ) विविधे त्रिप्रकारे मोहे-मोहनीये मिग्वाऽऽरम्मेऽपि विशेषाधिकानि । एवं तावद्वाच्यं यावत्तस्यै ध्यात्वलक्षणे दर्शनमोहनीये , षोडशकवायलक्षणे कषायबोस्कृष्टा स्थितिस्तदुत्कृष्टस्थितिबन्धाऽऽरम्भे च संक्लेशस्था मोहनीये, नपुंसकवेदारतिशोकभयजुगुप्सारूपे च नोकषानानि जघन्यस्थितिसत्कसक्लेशस्थानापेक्षयाऽसंक्रयगुणा. नि लभ्यन्ते । यदेतदेवं तदा सुतरामपर्याप्तबादरस्य संक्लेश. यमोहनीये, यथासंख्यमुत्कृष्टा स्थितिः सागरोपमकोटी कोट्यः सप्ततिः चत्वारिंशत् विंशतिश्च । यथासस्व्यमेष स्थानानि अपर्याप्तसूक्ष्मसत्कसंक्लेशस्थानापेक्षया असंख्ये. यगुणानि भवन्ति । तथाहि-अपर्याप्तसूक्ष्मसत्कस्थितिस्था: च सप्तचत्वारि वे च वर्षसहने प्रवाधाकालः अणधानापेक्षया बादरापर्याप्तस्य स्थितिस्थानान्यसंख्येय गुणानि । कालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः । इह पुरुषवहाम्यरती. स्थितिस्थानवृद्धी व संकलेशस्थानवृद्धिः । ततो यदा सूक्ष्मा नां विशेषतो वक्ष्यमाणत्वात् स्त्रीवेदस्य चोक्लत्वानोकषा. पर्याप्तस्यापि स्थितिस्थानेम्वतिस्तोकेषु जघन्यस्थितिस्थान. यमोहनीयग्रहणेन नपुंसकवेदारतिशोकभयजुगुप्सानामेव प्र. सत्कसंक्लेशस्थानापेक्षया उत्कृष्ठे स्थितिस्थाने संक्लेश हणमवगन्तव्यम् । (वस पुरिसेत्यादि) पुरुष-पुरुषवेदेहास्ये स्थानान्यसंग्वेयगुणानि भवन्ति, तदा बादरापर्याप्तस्थि रतौदेवक्षिके-देषगतिदेषानुपूर्षीरूप सगतौशयां प्रशस्त. बिहायोगती दशसागरोपमकोटीकोव्य उका. स्थितिः तिस्थानेषु सूक्ष्मापर्याप्तस्थितिस्थानापेक्षयाऽसंक्येय गुणेषु दशवर्षशतानि चाडबाधाकालः । भवाधाकालहीनश्च कर्मसुतरां भवन्ति । एवमुत्तरत्रापि असंख्येयगुणवं भावनी. दलिकनिषेकः ॥१॥ पमिति ॥ ६८ ॥ ६॥ एमेव विसोहीभो, विग्याऽऽचरणेसु कोडिकोडीभो।। थिरसुभपंचगउचे, चेवं संठाणसंघयणमूले । उदही तीसमसाते, अद्धं थीमणुयदुगसाए ॥ ७॥ तब्बीयाइ विवुड्डी, भट्ठारस सुहमविगलतिगे ॥ ७२ ॥ एमेष ति-(एमेष बिलोहीमो सि ) यथा संक्लेश- (धिर ति) स्थिरे, शुभपञ्चके-शुभसुभगसुखराऽऽदेययस्थानान्यसंग्येयगुणतया प्राग्रतानि एवमेव-असंख्येयगुण शाकीर्तिरूपे, उचगोत्रे च । तथा (संठाणसंघयणमले तयवेत्यर्थः । विशोधयोऽपि-विशोधिस्थानान्यपि वक्तव्यानि । ति) मूले-प्रथमे संस्थाने समचतुरनलक्षणे, प्रथमे च यतो याम्येव संक्लिश्यमानस्य संक्लेशस्थानानि तान्येव संहनने बजर्षभनाराचसंक्षे । एवं पूर्वोकप्रकारेणोरकष्टा विशुभ्यमानस्य सतो विशुद्धिस्थानानि भवन्ति । एतच स्थितिरबगन्तव्या, दशसागरोपमकोटीकोट्य उत्कृपा स्थि. प्रागेव सप्रपञ्चं भावितं, नेह भूयो भाव्यते । ततो विशो. तिरषगन्तब्येत्यर्थः । दशवर्षशतानि चायाधा । भवाधाकाल. धिस्थानाम्यपि संक्लेशस्थानवत् क्रमेण सर्वत्राप्यसंख्ये- हीनश्च कर्मदलिकनिषेकः (तब्बीयाह विवुड्डी) तेषां संस्था. यगुणानि वक्तव्यानि ॥ साम्पतनुत्कृऐतरस्थितिप्रतिपादना. नानांसंहनानांच मध्ये द्वितीयाऽदिषु द्वितीयतृतीयादिषु HIE-(विग्ध ति) अनन्तरायमावरणशानाऽऽवरण, दशे- संस्थानेषु संहननेषु च द्विवृद्धिा-द्विकवृद्धिःक्रमेणावसेया। त. नाऽऽधरणं च । तत्र पश्चानामनन्तरायप्रकृतीनां पश्चानां शाना. द्यथा-द्वितीययो:-संस्थानसंहननयोर्वादशसागरोपमकोटी. वरणप्रकृतीनांनवानां च दर्शनाऽऽवरणप्रकृतीनामसातवेद- | कोल्प उत्कृष्ट स्थितिर्दादशवर्षशतानि चाबाधाकालःप्रबानीयस्थ चौत्कृष्टा स्थितित्रिंशत्लागरोपमाणां कोटीकोट्यः । धाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः । तृतीययोः संस्थानसंह. पहद्विधा स्थितिः-कर्मरूपतावस्थानलक्षणा, अनुभवयोग्या ननयोश्चतुर्दशसारोपमकोटीकोट्य उत्कृष्टा स्थितिः, चतुच। तत्र कर्मरूपतावस्थानलक्षणामेव स्थितिमधिकृत्य जघ- दशवर्षशताति चाबाधाकालः, अबाधाकालहीनश्च कर्मद. ज्योत्कएप्रमाणाभिधानमिदमवगन्तव्यम् । अनुभवप्रायोग्या लिकनिषेकः । चतुर्थयोः संस्थानसंहननयोः षोडशसागरो. पुनरबाधाकालहीना । येषां च कर्मणां यावत्यः साग- पमकोटीकोट्य उत्कृष्टा स्थितिः, षोडशवर्षशतान्यबाधाका. रोपमकोटीकोट्यस्तेषां तावन्ति वर्षशतानि अबाधाकालः। ल अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः । पञ्चमयोः संस्था. तथाहि-मतिज्ञानाऽऽवरणस्य त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्य नसंहननयोरष्टादशसागरोपमकोटीकोट्य उत्कृष्ठा स्थितिः, उत्कृष्ट स्थितिरतस्तस्याऽबाधाकालोऽप्युत्कृष्टस्त्रिंशद्वर्षशता- अष्टादशवर्षशतानि चाबाधाकालः, अबाधाकालहीनश्व क. ग्यवगन्तव्यः। यतस्तन्मतिज्ञानावरणमुत्कृष्टस्थितिकं बद्धं मदलिकनिषेकः । षष्ठयोः संस्थानसंहनयोधिशतिसागरोसस्त्रिशद्वर्षशतानि यावन्न काश्चिदपि स्वोदयतो जीवस्य बा. पमकोटीकोट्य उत्कृष्टा स्थितिः, द्वे वर्षसहने अबाधाधामुत्पादयति । अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः एवं कालः, अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः । (अट्ठारस. श्रुतमानावरणाऽऽदीनामप्युक्तप्रकृतीनामबाधाकालोऽबा. सुहुमविगलतिगे) सूचमत्रिके-सूक्ष्मापर्याप्तसाधारणरूपे, वि. धाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेको भावनीयः । तथा स्त्रीवेदे कलत्रिके-द्वीन्द्रियात्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजातिलक्षणे, अष्टादमनुयाद्वक मनुष्यगतिमनुष्यानुपूर्वीरूपे सातवेदनीये च पू शसागरोपमकोटीकोट्य उत्कृष्टा स्थितिः, अष्टादशवर्षशता. बोकस्य स्थितिप्रमाणस्यार्धमुस्कृष्टस्थितितया द्रष्टव्यं पच । न्यवाधाकानः, अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः ॥७२॥ Page #1238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२१५) बंधण अभिधानराजेन्दः। बंधक तित्थगराऽऽहारदुग, तो वीसासनिरचनामा । गरोपमकोटीकोटीनां वर्षसहस्रं शतद्वयं चाऽबाधा भवति, तेत्तीसुदही सुरना-रयाउ सेसाउ पल्लतिगं ॥ ७३ ।।। चतुर्दशानां वर्षसहनं शतचतुष्टयं च । एवं सर्वश्राध्यनु. (तित्थगर ति) तीर्थकरे, आहारकहिके आहारकशरी. सर्तव्यम् । (अणुवट्टण गाउसु छम्मासिगुकोलो) अनपषत. राऽऽहारकाऽङ्गोपाङ्गरूपे अन्तःकोटीकोटी उत्कृष्टा स्थितिः। नीयाऽऽयुकेषु देवनारकासंख्येयवर्षाऽऽयुष्कतिर्यक्मनुष्येषु अन्तर्मुहूर्तमबाधाकालः, अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनि. परभवाऽऽयुषकोत्कृष्टस्थितिबन्धकेषु परभवाऽऽयुष उस्कृष्ठा पेकः। (वीसासनिश्चनामा) शेषाणां नामप्रकृतीनां नरक बाधा पाएमासिकी-परमासप्रमाणाद्रष्टव्या। षण्मासावशेष गतिनरकाऽनुपूर्धतिर्यग्द्विकैकेन्द्रिय जातिपञ्चेन्द्रिय जानित. एव तेषां परभवाऽऽयुबन्धकस्वात् । केचित्पुनर्युगलधर्मिणां जसकार्मणौदारिकवैक्रियशरीरौदारिकाङ्गोपाङ्गवैक्रियाङ्गोपा- पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणाभवाधामिच्छन्ति । तदुक्तम्अवर्णगन्धरसस्पर्शागुरुलघूपघातपराघातोच्छासाऽऽतपोद्- | "पलियासंखिज्जऽसं, जुगधम्माणं अयंत" इति ॥ ७॥ चोताप्रशस्तविहायोगतित्रसस्थावरणादरपर्याप्तप्रत्येकास्थि- तदेवमुक्तोत्कृष्टा स्थितिः। राशुभदुर्भगःस्वरानादेयायशःकीर्तिनिर्माण लक्षणानांनीचैगों सम्प्रति जघन्यामभिधातुकाम पाहत्रस्य च विंशतिः सागरोपमकोटीकोट्य उत्कृष्ठा स्थितिः, मिनमुत्तं श्रावरण-विग्धं दंसण चउकलोभते । विशतिर्वर्षशतानि चावाधाकालः, अमाधाकालहीनश्च कर्मद. बारस सायमुहुत्ता, अट्ट य जसकितिउच्चेसु ।। ७६ ॥ लिकनिषेकः। (तेत्तीसवही सुरनारयामो)सुराऽयुषो नारका (भिन्न ति) पञ्चानां शानाऽऽवरणीयानां पञ्चानामन्तरा. ऽयुषश्चोक स्थितिखत्रिशवुदधयः-सागरोपमाणि पूर्व कोटीत्रिभागाभ्यधिकामीति शेषः । पूर्वकोटीविभागवावा, याणां चतुणी दर्शनाऽऽवरणानां बरचरवधिकेवलदर्शना. ऽऽवरणरूपाणां सर्वाम्तिमस्य च लोभस्य संज्वलनसंहस्य धाकालः । प्रवाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः । (सेसाउ भिन्नमुहर्तमम्नमा जघन्या स्थितिः, अन्तर्मुहर्तमवाधापल्लतिगं ) शेषाऽऽयुयोर्मनुष्यतिर्यगायुपीः पल्यविक-श्रीणि काल अवाधाकलहानश्च कर्मवलिकनिषेक: । सातवेद पल्योपमानि पूर्वकोटीत्रिभागाभ्याधिकानीति शेषः । पूर्वकोटीत्रिभागभावाधाकालाभबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनि नीयस्य जघन्या स्थितिवश मुहूर्ता, अन्तर्मुले चावेकः । एतच्च पूर्वकोट्यायुषश्चतुर्गतिगमनयोग्यान् उत्कृष्ट বথাঙ্কা, মাখালীল কমলিলিথ। स्थितिबन्धकान् तिर्यकमनुष्यान प्रतिद्रव्यम् । तानेया55 कापायिया एव स्थितेजघन्यत्वप्रतिपादनमाभिप्रेतम् । मभित्य यथोक्लरूपाया उस्कृशस्थितेः पूर्वकोटित्रिभागरूपाया तोद्वादश मुर्ता युक्तम् । अन्यथा सातवेदनीयस्य ज. धावाधाय..सायमाणस्वात् ॥ ७३ ॥ घन्या स्थितिः समययमात्रामपि सयोगिवत्यादौ प्राप्यते। साम्प्रतमसंक्षिपञ्चेन्द्रियाऽऽदीन् पम्धकानाभिस्याऽऽयु. तथा यशाकीयुच्चर्गोत्रयोरष्टौ मुसा जघन्या स्थितिः,अन्त. पामुस्कृष्ट स्थिति प्रतिपादयवाह मुहूर्तमबाधा, अबाधाकालहीनश्च कर्मालिकनियकः ॥७॥ आउचउकुक्कोसो, पल्लाऽसंखञ्जभागममणेसु । दो मासा अद्धदं, संजलणे पुरिस भट्ट वासाणि । सेसाण पुवकोडी, माउतिभागो प्रवाहा सिं ।। ७४॥ भिन्नमुहुत्तमबाहा, सबासि सम्वहिं हस्से ॥ ७ ॥ (आउ ति ) अमनस्केष्वसंक्षिपञ्चेन्द्रियेषु पर्याप्तेषु श्रायु (दो मास ति ) संज्वलनानां द्वो मासौ। प्रधान रुत्कृष्टस्थितिबन्धकेषु चतुर्णामप्यायुषां परभवसंबन्धिनामु. जघन्या स्थितिः। एतदुक्तं भवति-संज्वलक्रोधस्य ही मा. स्कृष्ट स्थितिः, पल्योपमासंख्येयभागमात्रा पूर्वकोटित्रिभा. सौ जयन्या स्थितिः। संज्वलनमानस्य मासः संज्वलनमाया. गाभ्यधिकेति शेषः। पूर्वकोटित्रिभागवायाधमाल । प्र. या अर्धमासः । तथा पुरुष-पुरुषवेदस्याष्टी वर्षाणि जयन्या बाधाकालहीमश्च कर्मदलिकनिषेकः । शेषाणां चैकेन्द्रिय स्थितिः। सर्वप्राऽप्यन्तर्मुहर्समबाधा। प्रवाधाकालहीनधक. दीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणां पर्याप्तानामसंक्षिपश्चेन्द्रिय मदलिकनिषेकः । अबाधाकालप्रमाणप्रतिपाइनार्थमाह-(भि. संक्षिपञ्चेन्द्रियाणां चापर्याप्तानामायुष्युत्कृष्टस्थितिबन्धकानां | प्रेत्यादि) सर्वासामपि-प्रकृतीनामुक्तानां वषयमाणानां परभवाऽऽयुष उत्कृष्ठस्थितिबन्धः पूर्वकोटीस्वस्वभवत्रिभा सर्वस्मिन्नपि इस्वे जघन्ये स्थितिबन्धे भिनमुहर्तमाया गाभ्यधिको वेदितव्यः। (सिं ति) एप स्वस्वभवत्रिभागो एव्या । तथैव च प्रा प्रतिपादिता पश्यते चेति ॥ ७॥ बाधाकालाभियाधाकालहीनश्वकर्मदलिकनिषेकः॥७४॥ संप्रत्यायुषो जघन्यस्थितिप्रतिपादनार्थमाहइदानीमायुर्च जर्जानां सर्वकर्मणामबाधाकालपरिमाण खुड्डागभवो भाउसु, उववायाउसु सपा दस सहस्सा। प्रतिपादनार्थमाह उक्कोसा संखेजा, गुणहीणाऽऽहारतिस्थयरे ॥ ७८॥ वाससहस्समवाहा, कोडाकोडी दसगस्स सेसाणं । (खुहागभयो सि) तिर्यगायुषो मनुष्याऽऽयुषश्च जपन्याअणुवाओ.अणुवट्टण-गाउसु छम्मासिगुक्कोसो।। ७५ ।।। स्थितिः शुलकभवः । तस्य किं मानमिति चेदुख्यते-मा(बास ति) कोटीकोटीवशकस्य दशानां सागरोपम- बलिकानां वे शते षट् पश्चाशदधिके । भपि कस्मिन्मुकोटीकोटीनां वर्षसहन-दशवर्षशतानि अबाधा भवति । इतें घटिकास्यप्रमाणे सप्तनिशब्छतानि भिसप्तत्यधिकानि शेषाणां-द्वादशचतुर्वशपञ्चवशषोडशाष्टादशर्विशतित्रिंशच्च. प्राणापानाना हा नवकल्पजन्तुसस्कानां भवन्ति। एकस्वारिंशत्सप्ततीनामनुपातोऽनुसारः कर्तव्यः, पैराशिकमनु स्मिश्च प्राणापाने साधिकाः सप्तदश ज्ञकभवा सकते सर्तव्यमित्यर्थः । तथाहि-यदा दशानां सागरोपमको- पमह वषष्टिसहस्राणि पशशतानि पदशिवधिकामि. टीकोटीनां वर्षसहमबाधा प्राप्यते ,तरा द्वादशानां सा. जकमवानां भवन्ति । अत्रापि "ख से" वि Page #1239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैधा वचनादन्तर्मुहूर्तमबाधा, श्रबाधाकालहीनश्च कर्मदलिक निषे. कः तथा उपपाताऽऽयुषो देवानां नाराज स्थितिदेशवर्षसहस्रादि, अन्र्तमा काली कर्मनिषेकः अधुना तीर्थकरा हारक स्थितिमभिधातुकाम आह - ( उक्कोसेत्यादि ) आहारकशराऽऽहाराका पोका स्थितिः प्रा कान्तः खागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा सा संपेषगुणहीना जघन्या स्थितिर्भवति । साऽपि चान्तः सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणैव । ननु तीर्थकरनामकर्म तीर्थकरभवाद तृतीये गये बध्यते । वक्रम्- "बर से तुम भयो (ये) सार्थ" तत्कचं जघन्यतोऽप्यन्तःसागरो यमकोटी कोटीप्रमादा तस्य स्थितिरूपश्यते यु अभिप्रायाऽपरिज्ञानात्। " तु" इत्यादिकं निका नापेक्षा इतरथा तु तृतीयभयादराम ते । उक्तं च विशेषणबत्याम् - "कोडाकोडीनयरो - माणतित्थयर नामकस्मठिई । बज्झर य तं प्रणंतर- भवम्मि त यस्मिनि ॥ १ ॥ " ततः कथमेतत् परस्परं युज्यते । अत्रोत्तरम् - " जं बज्भर ति भणियं तत्थ निकाइज्जर ति नियमोऽयं । तदवंभफलं नियमा, भयणा अनिकाइया बस्थे ॥ १ ॥ " ग्राह-यदि तीर्थकरनाम्नो जघन्याऽपि स्थिति रतः सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणात स्थि ( १२१६) अभिधानराजेन्द्रः । " सेस्सिर्वमभ्रमणमन्तरे पूरयितुमशक्यत्वात् नियंत तावपि तीर्थकर नामसत्कर्मा जन्तुः कियन्तं कालं यावद्भ वेत् । तथा च सत्यागमविरोधः । श्रागमे हि तिर्यग्गतौ तीर्थकर नामकर्मा सन् प्रतिषिध्यते ने दोषा निका चितस्यैव तीर्थकर नामप्रतिषेधात् । उक्तं च • 1 1 बंधण संख्येयभागन्यूनं सदुक्तशेषाणां प्रकृतीनां जघन्य स्थितेः परि णाममवसेयम् । तथादि दर्शन 35 वर वेदनीयक कृश स्थितिखित्यागकोटीकोटी तस्पा मिध्यात्वरित्या सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा भा गे हृते सति शून्यं शून्येन पातयेत्' इति वचनालब्धा' त्रयः सागरोपमा ते पोषमसंख्या निद्रापतवेदन स्थितिः । एवं मिष्या स्वस्य सप्तसप्तभागाः पल्योपमासंध्येयभागहीनाः संज्वलनवजनां द्वादशकषायाणां चत्वारः सप्तभागाः पल्योपमासंख्येयभागहीनाः । तथा नोकषायमोहनीयस्य नामकर्मयो गोत्रस्य च स्वस्वोत्कृष्टायाः स्थिते विंशतिसागरोपमः कोटीकोटीप्रमाणाया मिध्यात्वस्थित्या सतिसागरोपम कोटी कोटी प्रमाणया भावे हृते सति यो धो दोसागरोपमस्य सप्तभागों, तौ पल्योपमासंस्थेयभागहीनौ पु वेदवज्रनामष्टानां नोकषायाणां देवद्विकनरकद्विक वैक्रियद्विकाऽऽहारकजिका पशु-कीर्ति तीर्थकर बर्जनाप्रकृतीन नीचे स्थिति बैंकियस् देवगतिदेवानु पूर्वी नरकगति नरका अनुपूर्वीकयरीकिया गणस्य द्वौ सप्तभागी सहस्रगुणिती पयोपमा संयमाहीती जघन्या स्थितिः । यतस्तस्य वैक्रियषयस्य जघन्य स्थितिबन्धका अशिपञ्चेन्द्रियास्ते च जघन्यां स्थितिमेतावतीमेव बन्धन्ति, न न्यूनाम् । तदुक्तम् वेव्विय ( विब्व ) छक्के तं, सह-रस ताडियं जं असक्षिणो तेसिं । प्रियं हि अाइडियनिलेगो ॥ १॥" अस्या अक्षरगमनिका" वग्गुकोसडि मिस्की सियार " इत्यनेन करन पक्ष तत् सहस्रादितं गु तिम्। ततः परपोपमस्या संख्येयेनांशन मागेन न्यूनं स तू वैपि उक्तस्वरूपे जधम्पस्थितः परिणाममचयम् । कुत इत्यादाकारा किया र्मणा संशिपञ्चेन्द्रिया एवं जघन्यस्थितेर्वन्धकाः । ते च जयस्थितिमेवमेव बध्नन्ति न न्यूनाम् अन्तर्मुह मवाधा अबाधाकालहीना च कर्मस्थितिः कर्म दलिकनिषेक इति ॥ ७६ ॥ सम्प्रत्येकेन्द्रियाणां जयस्थितिपति " जमिह निकाइयतित्थं तिरियभवे तं निसेहियं संतं । इयरस्मि नऽस्थि दोसो, उब्वट्टोवट्टणाऽज्झे ॥ १ ॥ " 1 अस्था अक्षरमनिकाद अश्विनेयसीकरमामकर्म निकाचितमवश्यवेद्यतया स्थापितं तदेव स्वरूपेण स द्विमानं तिथे निषिद्धम् इतरस्मिन् पुनरनिकाविते नानाखाय विद्यमानेऽपि न कोष इति। अत्रापि चान्याथा ततः परं दक्षिकर गाय यं प्रदेशोदयसंभवः ॥ ७८ ॥ उषा प्रकृतीनां जयन्पस्थितिप्ररूपणार्थमाहवग्गुकोसडिई, मिछको नं लद्धं । सेसाणं तु जहन्नो, पल्लासंखेज गेो ॥ ७६ ॥ बोस विकृतिसमुदाय ज्ञाना55वरणीय वर्ग इत्युच्यते । एवं दर्शनाऽऽवरणप्रकृतिसमुदायो दर्शनाssवरणीय वर्गः। वेदनीयप्रकृतिसमुदायो वेदनीयवर्गः । दर्शनमोहनप्रकृतिसमुदायो दर्शनीय चारित्र मोहनकृतदायरिमनी वर्गः नोपायमाद कृतिसमुदाय मोकषायमोहनीय पर्गः नामकृवि मुदाय नामवर्गः गोत्रप्रकृतिसमुदाय गोषवर्गः अन्तरायप्रकृति समुदायो तरायवर्गः। एतेषां वर्गाणानां यामी यास्मीयर स्थितिबिरसागरोपमकोटीको स्वादिलक्षणा, तस्या मिथ्यात्वस्योत्कृष्टया स्थित्या सप्ततिसागरोपमको डीकोटीलक्षणया भागे हृते सति यज्ञभ्यते तत्पल्योपमा ! स्वस्थित्योत्कृष्टया सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणया भा 6 [पादनार्थमाह एसेगिंदियडहरो, सव्वासि ऊणसंजु जेट्टो | वीसा पन्नासा, सयं सहस्सं च गुणकारो ॥ ८० ॥ कमसो विगल सन्नी - पल्लसंखेज्जभागहा इयरो | दिरए देसजइदुगे, सम्म उक्के य संखगुणो ॥ ८१ ॥ (एसे त्ति) सर्वासां प्रकृतीनां वैक्रियषङ्काऽऽहार कतीर्थकरघ जिनानामेष वस्तुको समिक जंतु जो पल्ला७३" इत्ये लक्षणः स्थितिबन्धो इद्दरो - जघन्य एकेन्द्रियाणां द्रष्टव्यः । तथाहि ज्ञानावरणदर्शनावर वेदनीयान्तरायाणामुत्कृष्टा स्थितिस्त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीप्रमासा, तस्था मिथ्या Page #1240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधय गे हते सति लब्धाः सागरोपमस्य त्रयः सप्त भागाः, ते च पदयोपमायभान जपन्यां स्थिति ज्ञानाssवरण पञ्चकदर्शनाssवरणनवकासात वेदनी यान्तरायपञ्चाकानामेकेन्द्रिया बध्नन्ति, न न्यूनाम् । एवं मि. व्यत्वस्य जघन्य स्थितिमे सागरोपमा भागही रूपायमोहनीयस्य चतुरा सागरोपमस्य सप्त जानाम् परोपमा संबभागहीनान् नोकषायाणाम् । तथा बैकियाहारकहि कती करवर्जिता गोत्र प्रकृतिद्वयस्य च द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागी पल्योपमा संस्थेयभागहीनाये केन्द्रियावयति (ऊणजे सि ) स एव अघन्यः स्थितिबन्ध ऊनेनं पल्योपमासंख्येयभागसक्षम संयुक्तः सन्तुस्थितिबन्ध एकेन्द्रियाणां वेदित व्यः । तद्यथा ज्ञानाऽऽवरण पञ्चकदर्शनावरणनवकासात वे दमयान्तरायपञ्चकानां त्रयः सागरोपमस्य सप्तभागाः परिपू र्णा उत्कृष्टः स्थितिबन्धः । एवं सर्वत्रापि भावनीयम् । उक्त केन्द्रियाणां जघन्योत्कृष्टः स्थितिषग्यः ॥ सम्प्रति विकलेन्द्रि याणामाह (पणवीसेत्यादि) एकेन्द्रियाणां सत्क उत्कृष्टः स्थि तिबन्धः पञ्चशत्यादिना गुणकारण गुतिः सन् मा क्रमेण विनां विकलेन्द्रियाणां द्विविचतुरिन्द्रियलक्षणा नामसंशिनां पाशिपचेन्द्रियाणां चोत्कृष्टः स्थितिबन्धो येदि । तद्यथा एकेन्द्रियाणामुत्कृष्टः सन्दिप त्या गुणित इन्द्रियाणामुत्कृष्टः स्थितिबन्धी भव तिसर्वकेन्द्रियाणामुत्कृष्टः स्थितिबन्धः पाता गु णितस्त्रीन्द्रियाणामुत्कृष्टः स्थितिबन्धः । शतेन गुणितश्चतुरि दिवाणाम्। सहखेण गुणतोऽशिपञ्चेन्द्रियाणामिति । ( पलसं खेज भागहा इयरो ) स एव द्वीन्द्रियादीनामात्मीय आरतीय कृति पयोपमासंख्येय भाग हीना सम्हत जधन्यः स्थितिबन्धो वेदितव्यः सर्वेषा मपि अधम्योत्कृष्टस्थिति बन्धानामपबहुत्वमभिधीयते तत्र सूक्ष्मसम्परागस्य जघन्यस्थितिबन्धः सर्वस्तोकः । ततो बादरपर्याप्तकस्य जघन्यः स्थिति बन्यो ऽसंख्येयगुणः। ततोऽपि पर्याप्तस्य जघन्यः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः । शतो पर्याप्तबादरस्य जघन्यः स्थितिबन्धी विशेषाधिकः । ततोऽप्यपर्याप्त सूक्ष्मस्थ जघन्यः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः । ततोऽपि अपर्याप्तसूक्ष्मस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः । ततोऽप्यपसवारस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धविशेषाधिकः। ततोऽपि सूक्ष्मपर्याप्तस्योत्कृष्टः स्थितिको विधे याचिकः । ततोऽपि वादयस्पोषधोप शेषाधिकः । ततो द्वीद्रियस्य पर्याप्तस्य जघन्यः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः । ततस्तस्यैवा पर्याप्तस्य जघन्यः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः। ततोऽपि तस्यैव हीन्द्रियस्या पर्याप्तस्योत्कृ टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः । ततोऽपि द्वीन्द्रियपर्याप्तस्वोत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः । ततोऽपि श्रीन्द्रियपर्याप्तस्य जयन्यः स्थितिबन्धः संख्याः सोऽपि तस्यै यस्यापर्यातस्य जयन्यः स्थितिबन्धविशेषाधिकः। ततोऽपि त्रीन्द्रिया पर्याप्तस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषा चिकः । ततोऽपि पर्याप्तत्रीन्द्रियस्य कृष्टः स्थितिबन्ध विशेषाधिकः । तततुरिन्द्रियस्य पर्यामकस्य जघन्यः स्थितिबन्धः संवगु ततोऽप्यपस चतुरिन्द्रियस्य जघन्यः स्थितिबन्यो विशेषाधिकः । ततोऽप्यपर्याप्तचतु २०५ ( १२१७ ) श्रभिधान राजेन्द्रः । - · बंध - रिन्द्रः खितिबन्यो विशेषाधिकः । ततोऽपि पर्याप्तस्योत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेषाधिकः । ततोऽसंकि पत्रयस्थ पर्याप्तस्य जघन्यः खितिबन्ध संवगुणः । ततोऽपि तस्यैवापर्याप्तस्य जघन्यः स्थितिबन्धो विशेषापिका । ततोऽपि तस्यैवापर्याप्तस्योत विशेषाधिकः। ततोऽपि तस्यैव पर्याप्तस्योत्कृष्ट स्थिति बन्धो विशेषाधिकः । ततः संयतस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धः संस्थेषगुणः (पिर इत्यादि विरतेय, अ जघन्य उत्कृष्टश्च स्थितिबन्ध उक्त एव । ततो देशयतिद्विके देशविरतद्विके जघन्योत्कृष्ट स्थितिबन्धलक्षणे तथा सम्य करके विरतसम्म पर्यासेऽपयांत प्रत्येक अ पम्पोर स्थितिबन्धके स्थितिबन्धी पोरं संपेप वक्तव्यः । तद्यथा - संयतोत्कृष्ट स्थितिबन्धात् देशविरतस्य जघन्यः स्थितिबन्धः संस्थेयगुणः । ततो देशविरतस्यैबोत्कृष्टः स्थितिबन्धः संख्येयमुणः । ततः पर्याप्ताविरतस्य सम्यग्दृष्टेर्जघन्यः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः । ततोऽप्यपर्वा साविरतस्य सम्यग्र स्थितिबन्धः संयेवगुणः, शतोष्यपर्याप्त वित्तसम्पस्थितियन्त्रः संये यगुणततोऽपि पर्याप्ताविरलम्पटे स्थिति संख्येयगुणः ॥ ८१ ॥ सभी पत्तियरे, अमितरओ य ( उ ) कोडिकोडीओो । धोकोसो सभि स्स होइ पजचगस्येव ॥ ८२ ॥ (ति) अविरत सम्यदृष्टेः पर्यातस्य सत्का स्थिति संद्रिस्य पर्याप्तस्य अन्य स्थिति बन्धः संख्येयगुणः । ततोऽपि तस्यैवापर्याप्तस्य जघन्यः स्थितिबन्धः संख्ये यगुणः । ततोऽपि तस्यैवापर्याप्तस्य संपिचेन्द्रिय स्थितिबन्धः संख्यगुण - तरओ य (ड) कोडफोडीड सि) संवतस्वीर स्थितिबन्धादारभ्य यावदपर्यतपन्द्रिय स्पोत्कृष्ट स्थि तिबन्ध एवं सर्वोऽपि सामरोपमकोटी कोट्या अभ्यन्तर एव द्रष्टव्यः । एकेन्द्रियाऽऽदीनां तु सर्वजघन्य सर्वोत्कृष्टस्थितिबन्धपरिमाणं प्रागेव प्रत्येकमुक्तम् । संचिपञ्चेन्द्रियपर्या सकस्य पुनरुत्कृष्टः स्थितिबन्धो य एव प्रागोघेन - सामान्येनोक्त उत्कृष्टः स्थितिबन्धः स एव वेदितव्यः ॥ ८२ ॥ तदेवं कृता स्थितिस्थान (बन्ध ) प्ररूपणा । सम्प्रति निषेकप्ररूपणावसरः । तत्र च द्रे अनुयोगद्वारेपविधा परम्परोपनिधा च तथानन्तरोपनिधा " प्ररूपणार्थमाह मोनू सगमबाहे, पदमाएँ ठिइएँ बहुतरं दवं । तो विसेसही, जावुकोसं ति सव्वसि ।। ८३ ॥ ( मोनू शि ) सर्वकर्मणि य माथाकालं परित्यज्य ऊ दलिकनिक्षेप करोति । तत्र प्रथमायां स्थिती समपलक्षणायां प्रभूततरं यं कर्मलिक निषिद्धति (एससी) इतः प्रथमधिरुपये द्वितीयादिषु स्थितिषु समयस विशेषीनं कर्म निषिति । विशेष - Page #1241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१) बंधण अभिधानाजेन्दः । बंधण तथाहि-प्रथमस्थितेः सकाशात् द्वितीयस्थितौ विशेषही- ख्येयभागलक्षणकराडकवयहीनामेवोत्कृष्टां स्थिति बध्नाति । नम् । ततोऽपि तृतीयस्थिती विशेषहीनम् । ततोऽपि चतुर्थ- तामप्येकसमयहीनां वा यावत्पल्योपमाञ्संख्येयभागहीनां वा। स्थिती विशेषहीनम् । एवं विशेषहीनं विशेषहीनं तावद्वा- एवं यतिभिः समयैरूना बाधा भवति, ततिभिरेव कण्ड व्यं यावत्तत्तत्समयबध्यमानकर्मणामुत्कृष्टा स्थितिः, चरम कैः पल्योपमाऽसंख्येयभागलक्षणैरूना स्थितिद्रष्टव्या । या. समय इत्यर्थः ॥ ८३॥ कृताऽनन्तरोपनिधाप्ररूपणा । चदेकत्र जघन्याऽबाधा भवति, अन्यत्र च जघन्या स्थितिः । तदेवमबाधागतसमयसमयहान्या स्थितेः कराडकहानिप्र. सम्प्रति परम्परोपनिधाप्ररूपणार्थमाह रूयणा कृता । सम्प्रत्यल्पबहुत्वप्ररूपणार्थमाह-(अप्पबहुपन्नासंखियभाग, गंतुं दुगुणूणमेवमुक्कोसा । मेसि ) एषां वक्ष्यमाणानामल्पबछुत्वं वक्तव्यम् ॥ ८५ ॥ नाणंतराणि पश्न-स्स मूलभागो असंखतमो ॥ ८४॥ केषामिति चेत्तानेवाऽऽह(पति) अबाधाकालादूर्व प्रथमस्थितौ यनिषितं क. बंधाऽवाहाणुक्कसि-(सइ) यरं कंडकप्रवाहबंधाणं । । मैदति तदपेक्षया द्वितीयाऽऽदिषु स्थितिषु समयसमयरू. ठाणाणि एकनाणं-तराणि अत्येण कंडं च ॥८६॥ पासु बिशेषहीनं-विशेषहीनतरं दलिकमारभ्यमाणं पल्यो- (बंध त्ति) (बंधाबाहाणुक्कसियरं ति) उत्कृष्टः स्थिति। पमारण्येयभागमात्रासु स्थितिष्यतिक्रान्तासु दलिकं द्वि- बन्धो जघन्यःस्थितिबन्धः उत्कृष्टाऽबाधा जघन्याऽबाधा। गुणोनं भवति, अर्धे भवतीत्यर्थः । ततः पुनरप्यत ऊ. (कंडकबाहबंधाणं ठाणाणि त्ति ) कराडकस्थानानि अ. यमेतदपेक्षया विशेषहीम विशेषहीनतरं दलिकमारभ्यमा. बाधास्थानानि स्थितिबन्धस्थानानि च। (एग (क) नाणं पश्योपमासंख्येयभागमात्रप्रमाणासु स्थितिष्वतिक्रान्ता- णंतराणि ति) एक द्विगुणहान्योरन्तरं नानारूपाणि चा. एम भवति । एवमर्धाऽर्धहान्या तावद्वाच्यं यावदुत्कृ. न्तराणि द्विगुणहानिस्थानरूपाणि । ( अत्यणं कंडं च स्थिति, स्थितेश्वरमसमय इत्यर्थः ॥ कियन्ति पुनरेवं त्ति ) जघन्याऽबाधाहीनया उत्कृष्टाऽबाधया जघन्यस्थि. विगुणहानिस्थानानि भवन्तीत्येतन्निरूपणार्थमाह-( ना. तिहीनाया उत्कृष्टस्थितेर्भागे हृते सति यावान् भागो तराणील्यादि) नानाप्रकाराणि यान्यन्तराणि अन्तरान्त. लभ्यते, तावान् अर्थेन कण्डकमित्युच्यते, इत्याम्नायिका राद्विगुणहानिस्थानानि भवन्ति, तान्युत्कृष्टस्थितिबन्धे प. व्याख्यानयन्ति ।चः समुच्चये । पश्वसनहे पुनरेतस्य योपमध्य सम्बन्धिनः प्रथमवर्गमूलस्याऽसंख्येयतमे भागे स्थाने ऽबाधाकराडकस्थानानीत्युक्तम् । तत्र चैवं मूलटीकापावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानि भवन्ति । उक्तं च-" पलि. कारण व्याख्या कृता-अबाधा च कराडकानि चाऽबाधाकराडभोषमस्त मूला, असंखभागम्मि जत्तिया समया । ताव. कं, समाहारो द्वन्द्वः, तस्य स्थानानि अवाधाकण्डकस्था. याणीमो, ठिबंधुकोसए नेया॥१॥" ननु मिथ्या नानि । तयोयोरपि स्थानसंख्येत्यर्थः । एतेषां दशानां स्थानानामल्पबहुत्वमुच्यते-तत्र संक्षिपञ्चेन्द्रियेषु पर्याप्तेषु अ. बमोहनीयस्पोत्कृष्टस्थितेः सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्र. माणस्वातावत्यो हानयः सम्भवन्तु, प्रायुषस्तूत्कृष्टस्थितेः पर्याप्तकेषु वा बन्धकेषु श्रायुर्वर्जानां सप्तानां कर्मणां सर्वस्तोजयसिशस्लागरोपमसमयमात्रत्वात् कथमेतावत्यो हानयः काजघन्याऽबाधा । सा चाऽन्तर्मुहर्तप्रमाणा । ततोऽबाधा. सम्भवन्तीति', उच्यते-पहासंख्येयतमो भणोऽसंख्येयभे. स्थानानि कण्डकस्थानानि चासंख्येयगुणानि । तानि तु पात्मका, असंख्यातस्याऽसंख्यातभेदभिन्नत्वात् । ततः प. परस्परं तुल्यानि । तथाहि-जघन्यामबाधामादिं कृत्वो. पीपमप्रपमवर्गमूलस्याऽसंख्येयतमो भाग आयुष्यतीवाल्प स्कृष्टाऽबाधाचरमसमयमभिव्याप्य यावन्तः समयाः प्रा. तरी पद्यते इत्पविरोधः । तथा सर्वाणि द्विगुणहानिस्था प्यन्ते, तावन्त्यबाधास्थानानि भवन्ति । तद्यथा-जघन्या. मानि लोकामि । एकस्मिन् द्विगुणहान्योरन्तरे निषेक बाधा एकमबाधास्थानं सैव सामयाधिका द्वितीयम् । द्वि. स्थानानि मसंख्येयगुणानि इति ॥ ४ ॥ कृता निषेकप्र. समयाधिका तृतीयम् । एवं तावद्वाच्यं यावदुत्कृष्टाबाधा. जपणा। चरमसमयः। पतावन्त्येव चावाधाकराडकानि, जघन्याबा. सम्प्रत्यवाधाकण्डकप्ररूपणार्थमाह धात भारभ्य समयं समयं प्रति करंडकस्य प्राप्यमाण त्वात् । पतच्च प्रागेवोकम् । तेभ्य उत्कृष्ठावाधा विशे. मोत्तण भाउगाई, समए समए अबाहहाणीए । षाधिका, जघन्याबाधायास्तत्र प्रवेशात् । ततो दलिकपचासंखियभागं, कंडं कुण अप्पबहुमेसि ॥५॥ निषेकविधी विगुणहानिस्थानानि असंख्येयगुणानि, पल्यो. (मोचूण ति) मायूंषि चत्वार्यपि मुक्त्वा शेषाणां स. पमप्रथमवर्गमूलाऽसंख्येयभागगतसमयप्रमाणत्वात् । तत ए. बनामपि कर्मणामबाधाहानौ समये समये पल्योपमाऽसंख्येय. कस्मिन् द्विगुणहान्योरन्तरे निषेकस्थानान्यसंख्येयगुणानि, भागलक्षणं कपडकमुत्कृष्ठस्थितेः सकाशाद्धीनं करोति । तेषामसंख्येयानि पल्योपमवर्गमूलानि परिमाणमिति कृ. तथाति-उस्कायामबाधायां वर्तमानो जीवः स्थितिमुत्कृष्ठां त्या तेभ्योऽपि अर्थेन कराडकमसंख्येयगुणम् । तस्माजघन्यः बनाति,परिपूर्णामेकसमयहीनां वा । एवं यावत्पल्योपमासं स्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणः, अन्तःसागरोपमकोटीकोटीप्रउपपेयभागहीनांबा।यदि पुनरुत्कृष्टाऽबाधा एकेन समयेन ही. माणत्वात् । संक्षिपञ्चेन्द्रिया हि श्रेणिमनारूढा जघन्यतोनाभषेसतो नियमापल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रेण कण्डकेन ऽपि स्थितिवन्धमन्तःसागरोपमकोटीकोटीप्रमाण मेव कुर्व. हीमामेवोत्करां स्थिति बनाति । तामप्ये कसमयहीनां वा द्वि. न्ति । ततोऽपि स्थितिबन्धस्थानान्यसंख्येयगुणानि । तत्र शा. समपहीनां वा यावरपरपोपमाऽसंख्येयभागहीनां वा । यदि नाऽऽवरणदर्शनाऽऽबरणवेदनीयान्तरायाणामेकोनत्रिंशद्गुपुनर्वाभ्यां हीनोत्कृषाऽबाधा भवेत्ततो नियमापल्योपमाऽसं. पानि समधिकानि मिथ्यात्वमोहनीयस्यै कोनसप्ततिगुणा. Page #1242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधाण. अभिधानराजेन्द्रः। बंधण नि समधिकानि । नामगोत्रयारेकोनविंशतिगुणानि सम- संख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणा अवगन्तव्याः। अत्र च . धिकानि । तेभ्य उत्कृष्टा स्थितिर्विशेषाधिका , जघन्य- धा प्ररूपणा । तद्यथा-अनन्तरोपनिधया, परम्परोपनिधस्थितेरवाधायाश्च तत्र प्रवेशात् । तथा संक्षिपश्चेन्द्रिये- या च । तनानन्तरोयनिधया प्ररूपणामाह-हस्सा वसंक्षिपञ्चेन्द्रियेषु वा पर्याप्तकेषु प्रत्येकमायुषो जघन्या. विसेसवुड्डी ) आयुर्वर्जानां कर्मणां इस्खाजघन्यात् उबाधा सर्वस्तोका । ततो जघन्यः स्थितिबन्धः संख्येय- स्थितिबन्धात् परतो द्वितीयाऽऽदिषु स्थितिस्थानबन्धेषु गुणः, स च जुल्लकभवरूपः । ततोऽबाधास्थानान्यसं। विशेषवृद्धिः-विशेषाधिका वृद्धिरवसेया । तद्यथा-शाना55. ख्येयगुणानि । जघन्याबाधारहितः पूर्वकोटीत्रिभागरहि- वरणीयस्य जघन्यस्थितौ तद्वन्धहेतुभूता अध्यवसाया नाना त इति कृत्वा । ततोऽप्युत्कृष्टाऽबाधा विशेषाधिका । ज. जीवाऽपेक्षयाऽसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणाः। ते चान्याघन्यायाधाया अपि तत्र प्रवेशात् । ततो द्विगुणहानि- पेक्षया सर्वस्तोकाः । ततो द्वितीयस्थितौ विशेषाधिकाः । स्थानान्यसंख्पेयगुणानि , पस्योपमप्रथमवर्गमूलासंख्येयभा. ततोऽपि तृतीयस्थिती विशेषाधिकाः । एवं तावद्वाच्य गगतसमयप्रमाणत्वात् । नेभ्यो ऽप्ये कस्मिन् द्विगुण हान्यो- यावदुत्कृष्टा स्थितिः । एवं सर्वेष्यपि कर्मसु वाच्यम् । रन्तरे निकस्थानान्यसंख्येयगुणानि । तत्र युक्तिः प्रागु- (पाऊणमसंखगुणवुडी ) श्रायुषां जघन्यस्थितेरारभ्य प्र काऽवगन्तव्या । ततः स्थितिबन्धस्थानान्यसंख्येयगृणानि ।। तिस्थितिबन्धमसंख्येयगुणवृद्धिर्वतव्या । तद्यथा-आयुषो नेभ्योऽप्युत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः, जघन्य स्थि. जघन्यस्थिती तद्वन्धहेतुभूता अध्यवसाया असंख्येयलोनेरबाधायाश्च तत्र प्रवेशात् । तथा पञ्चन्द्रियेषु संक्षिा काऽऽकाशप्रदेशप्रमाणाः । ते च सर्वस्तोकाः । ततो द्विती. वसंहिष्वपर्याप्लेषु चतुरिन्द्रियत्रीन्द्रियद्वीन्द्रियबादरसूक्ष्मै- यस्थिती असंख्येयगुणाः । ततोऽपि तृतीयस्थितावसंख्येकेन्द्रियेषु च पर्याप्तापर्याप्तेषु प्रत्येकमायुषः सर्वस्तोका जा यगुणाः । एवं तावद्वाच्यं यावदुत्कृष्टा स्थितिः ॥ ७ ॥ घन्याऽबाधा । ततो जघन्यः स्थिति बन्धः संख्येयगुणः, स तंदवं कृताऽनन्तरोपनिधया प्ररूपणा। च खुज कभवरूपः । ततोऽबाधास्थानानि संख्येयगुणानि । ___संम्प्रति परम्परोपनिधया तां करोतिततोऽप्युत्कृष्टाऽबाधा विशेषाधिका । ततोऽपि स्थितिवः। पल्लासंखियभागं, गंतुं दुगुणाणि जाव ऊक्कोसा। ग्धस्थानानि संख्येयगुणानि । जघन्यस्थितिन्यूनपूर्वकोटि. नाणंतराणि अंगुल-मूलच्छेयणमसंखतमो || G८ ॥ प्रमाणत्वात् । तत उत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिका, जघन्यस्थितेरबाधायाश्च तत्र प्रवेशात् । तथाऽसंक्षिपञ्चेन्द्रियचतुरि. (पल्ल त्ति ) आयुर्वर्जानां सप्तानां कर्मणां जघन्यस्थिती न्द्रियत्रीन्द्रियद्वीन्द्रियसूचमवादरैकेन्द्रियेषु पर्याप्तापर्याप्तेपायु यान्यध्यवसायस्थानानि तेभ्यः पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्राः वर्जानां सप्तानां कर्मणां प्रत्येकमबाधास्थानानि कण्डकानि च स्थितीरतिक्रम्य परस्मिन्नन्तरे स्थितिस्थाने द्विगुणान्यध्यस्तोकानि परस्परं च तुल्यानि , श्रावलिका संख्येयभागग. वसायस्थानानि भवन्ति । तेभ्योऽपि पल्योपमाऽसंख्येयभा. गमात्राः स्थितीरतिक्रम्याऽनन्तरे स्थितिस्थाने द्विगुणान्यतसमयप्रमाणत्वात् । ततो जघन्याऽबाधाऽसंख्येयगुणा, ध्यवसायस्थामानि भवन्ति । एवं द्विगुणवृद्धिस्तावद्वक्तव्या अन्तर्मुहुर्तप्रमाणत्वात् । ततोऽप्युत्कृपाध्वाधा विशेषाधिका, जघन्याबाधाया अपि तत्र प्रवेशात् । ततो द्विगुणहीनानि स्था. यावदुत्कृष्टा स्थितिरिति । एकस्मिन् द्विगुणवृद्धघारम्तरे नाम्यसंख्येयगुणानि । तत एकस्मिन् द्विगणहाम्योरन्तरे स्थितिस्थानानि पस्योप्रमवर्गमूलान्यसंख्येयानि ! नानाद्वि. निकस्थानान्यसंख्येयगुणानि । ततोऽर्थन कराडकमसंख्ये. गुणवृद्धिस्थानानि चाडलवर्गमूलच्छेदनकाऽसंख्येयतमभाग: याणम् । ततोऽपि स्थितिबन्धस्थनान्यसंख्येयगुणानि, प. प्रमाणानि । एतदुक्तं भवति-अङ्गलमात्रक्षेत्रगतप्रदेशराशे. पोपमा संख्येयभागगतसमयप्रमाणत्वात् । ततोऽपि जघ । यत् प्रथम वर्गमूलं तम्मनुष्यप्रमाण हेतुराशिषम इतिच्छेदभ्यस्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणः । ततोऽप्युत्कृष्टस्थितिबन्धो नविधिना तावच्छिद्यते, यावद्भागं न प्रयच्छति। तेषां च छविशेषाधिकः , पल्योपमाऽसंख्येयभागेनाभ्यधिकत्वादिति दनकानामसंख्येयतमे भागे याचन्ति छेदनकानि तावत्सु या. ॥८६॥ तदेवमुक्तमल्पबहुत्वम्। वानाकाशप्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणानि नानाद्विगुणस्थानानि इदानी स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानप्ररूपणा कर्तव्या। तब भवन्तीति ।८८ ॥ तदेवं कृता प्रगणना। च त्रीण्यनुयोमद्वाराणि । तद्यथा-स्थितिसमुदाहारः,प्रकृतिस- साम्प्रतमनुकृष्टिश्चिन्स्यते। सा च न विद्यते । तथाहि-शा. मुदाहारः, जीवसमुदाहारश्च । समुदाहार:-प्रतिपादनम् । तत्र नावरणीयस्य जघपस्थितिबन्ध यान्यध्यवसायस्थानानि, स्थितिसमुदाहारेऽपि त्रीरयनुयोगद्वाराणि । तद्यथा-प्रगण. तेभ्यो द्वितीयस्थितिबन्धेस्यानि, तेभ्योऽपि तृतीय स्थिना,अनुकृष्टिः, तीवमन्दता च। तत्र प्रगणनाप्ररूपणार्थमाह- तिबन्धेऽम्यानि, एवं तावद्वाच्यं यावदुत्कृष्टा स्थितिः । एवं ठिइबंधे ठितिबन्धे, अज्झवसा णाणऽसंखया लोगा। सर्वेषामपि कर्मणां द्रव्यम् । इदानीं तीवमन्दता वक्रमब सरप्राप्ता, सा स्थाप्या, अग्रे वक्ष्यमाणत्वात्। तदेवमभिहस्सा विसेमवुड्डी, आऊणमसंखगुणवुड्डी || ८७ ॥ हितः स्थिनिसमुदाहारः।। सम्प्रति प्रकृतिसमुदाहार उच्य(ठिइबंधे त्ति ) इह सर्वेषामपि कर्मणां जघन्यस्थि': ते-तत्रच द्वे अनुयोगद्वारे। तद्यथा-प्रमाणाऽनुगमः, अल्पपरत उत्कृष्टस्थितेश्वरमसमयमभिव्याप्य यावन्तः समः। बहुत्वं च। तत्र प्रमाणाऽनुगमे ज्ञानावरणीयस्य सप स्थियास्तावन्ति स्थितिस्थानानि जघन्य स्थितिसहितानि प्रत्ये- तिबन्धेषु-कियम्स्यव्यवसाय स्थानानि ? उच्यते असंख्येयलो. कं भवन्ति । एकैकस्मिश्च स्थितिस्थाने बध्यमाने तदा काऽऽकाशप्रदेशप्रमाणानि । एवं सर्वकर्म गामपि द्रष्टव्यम् न्धहेतुभूताः कापायिका अध्यवसाया नानाजीवाऽपेक्षया । इदानीमल्पब हुत्वमभिधातुकाम आह Page #1243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधह (१२२०) अभिधानराजेन्दः। लिपदीहया कमसो, असंखगुशियायलगुणगाए । स्तविहायोगतित्रसाऽदिदशकतीर्थकरनामनरकाऽऽयुर्वर्जशे. पदमजहरगुकोसं, वितियजमाइया चरमा || पायुष्कत्रयोर्गोत्रलक्षणानां चतुर्विंशसंस्थानां त्रिविधं (ठिादीहयाए सि) स्थितिदीर्घतया क्रमश:-क्रमेणाऽध्य- | त्रिप्रकारम्। तद्यथा-चतुःस्थाममतं त्रिस्थानगतं द्विस्थानमतंब रममनुभाग बग्नम्ति । इह शुभप्रकृतीमा रसः क्षीराऽऽदिरसो. बसायस्थानान्यसंख्येयगुणानि वलव्यानि । यस्य यतः क्र. पमः। अशुभप्रकृतीमां तु घोषातकीनिम्बाऽऽदिरसोपमः । उक्त मेण दीर्घा स्थितिस्तस्य ततः क्रमेणाध्यवसायस्था ब-"घोसाइनिंबुषमो,असुमाख सुभाण खीरखंडवमो" इति। नाम्यसंख्येयगुणानि वक्तव्यानीत्यर्थः । तथाहि-सर्वस्तो क्षीराऽऽदिरसश्च स्वाभाविक एकस्थानिक उच्यते । द्वयोकान्यायुषः स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि । तेभ्यो स्तु कर्पयोरायलमे कृते सति योऽवशिष्यते एकः कर्षः स ऽपि नामगोश्यारसंख्येयगुणानि । नन्वायुषः स्थिति विस्थानिकः । त्रयाणां कर्षाणामाचर्तने कृते सति य उद्वरित स्थानेषु यथोत्सरमसंख्येयगुणा वृद्धिः, नामगोत्रयोस्तु पकः कर्षः स त्रिस्थानगतः । चतुर्णा तु कर्षाणामावर्सने विशेषाधिका, तत्कथमायुरपेक्षया, मामगोत्रयोरसलयेयगु कृते सति योऽवशिष्ठः एकः कर्षः स चतुःस्थानगतः । णानि भवन्ति ? । उच्यते-आयुषो जघन्यस्थितावध्यवसा. एकस्थानगतोऽपि रसो जललवबिन्दुचुलुकप्रसृत्यञ्जलिकर. यस्थानान्यतीव स्तोकानि, नामगोत्रयोः पुनर्जघन्यायां स्थि ककुम्भद्रोणाऽदिषु प्रक्षेपात् मन्दमन्वतराऽऽद्यसंख्यभेदत्वं तो अतिप्रभूताति, स्तोकानि चाऽऽयुषः स्थितिस्थानानि, ना. प्रतिपद्यते । एवं द्विस्थानगताऽऽदिष्वपि रसेप्यसंख्येयभेदत्वं मगोत्रयोस्त्वतिप्रभूतानि.ततोन कश्चिद् दोषः नामगोत्रयोः स वाच्यम् । एतदनुसारेण च कर्मणामपि रसेवेक स्थास्कंस्थितिबन्धाभ्यवसायस्थानेभ्योशानाऽऽवरणीयदर्शनाऽऽ. नमसत्वाऽऽवि खधिया परिभावमीयम् । एक स्थानगताच धरणीयवेदनीयान्तरायाणां स्थितिबन्धाऽध्यवसायस्थानान्य रसात् कर्मणां द्विस्थानगताऽऽदयो रसा यथोत्तरमनन्तगु. सङ्ख्येयगुणानि । कथमिति चेदुच्यते-इह पल्योपमासङ्ख्ये या बाख्या। तदृतम्-"अणंतगुपिया कमेणियरे ।" तथा के. यभागमात्रासु स्थितिप्रतिक्रान्तासु द्विगुणवृद्धिरुपलब्धा । वलक्षामावरणवर्जानांचतुर्णा शानाऽऽवरणीयामां,केवलदर्श तथा च सत्येकैकस्यापि पल्योपमस्यान्तेऽसङ्ख्येयगुणानि नावरणवर्जानां त्रयाणां चक्षुरादिदर्शनावरणीयानां लभ्यन्ते । किं पुनदेशसागरोपमकोटीकोट्यन्ते इति तेभ्यो पुरुषवेवसंज्वलनचतुष्टयान्तरायपञ्चकामां च सर्वसंख्यया ऽपि कायमोहनीवस्य स्थितिबन्धाऽध्यबसायस्थानाम्यसङ् सप्तदशप्रकृतीनां बन्धमाश्रित्य चतुर्धाऽपिरसासम्मपत्तिात. मेवगुणामि। तेभ्योऽपि दर्शनमोहनीयस्य स्थितिबन्धाऽध्य द्यथा-एकस्थानगतो द्विस्थानगतस्त्रिस्थानगतश्चतुस्थामगबसावस्थामाग्यसरपयेयगुणानि । उक्त प्रकृतिसमुदाहारः ॥ तश्च । शेषाणां तु शुभप्रकृतीनामशुभप्रकृतीनां वा द्विस्थानलकति स्थितिसमुशहारे या प्रान्तीवमन्दता गोका, साउ' गतः त्रिस्थानगतश्चतु:स्थानगतवान तु कदाचनाऽप्येकभिधीयते-मिणेतल्यादि) प्रथमायां स्थिती अघन्य स्थि. स्थानगत इति वस्तुस्थितिः॥ तत्र शुभप्रकृतीनां चतु:स्थालियम्भाध्यक्स्कायस्थानम् । ततस्तस्यामेवोत्कृष्ठम् । ततो वि. नगताऽविक्रमेण रसस्य त्रैविध्यं प्रतिपाद्य सम्प्रत्यशुभप्रकृ. बीयस्थिती जघन्यम् एकमादि प्रा चरमाल उत्कृष्टस्थितो तीनां रसस्य त्रैविध्यमाह-(विवरीयलिगच असुभाणं) ता घरमं स्थितिवन्धाऽध्यवसायस्थानं वापत् क्रमेणानन्तगुणत. एव ध्रुवप्रकृतीअन्तो यदि परावर्त्तमाना अशुभप्रकृती यावक्रव्यम्। तपथा-सानाऽऽवरणीयस्य जयन्यस्थिती जघ- भनन्ति, तदा तासामनुभागं विपरीतत्रिकं विपरीतं त्रिक व्यस्थितिकधाउध्यवसावस्थानं सर्वमन्दानुभावम्। ततस्त- यस्य स तथा ते बध्नन्ति । तद्यथा-द्विस्थानगतं त्रिस्थानस्थामेक जघन्यस्थिती उत्कृष्टमध्यवसायस्थानमनन्तमुणम् । गतं चतु:स्थानगतं च । इह ध्रुवप्रकृतीनां जघन्यां स्थिति ततोऽपि द्वितीयस्थिती जघन्य स्थितिबन्धाऽध्यवसायस्था. बध्वन् शुभप्रकृतीनां बन्धमागतानां चतु:स्थानगतं रसं क. बममन्तगुणम् । ततोऽपि तस्यामेव द्वितीयस्थिनो उत्कृष्टम- नाति, अशुभप्रकृतीनां तु द्विस्थानगतम् । अजघन्यां धक मातगुणम् । एवं प्रतिस्थिति जघन्य मुत्कृष्टं च स्थितिबन्धा- प्रकृतीनां स्थिति बनन् शुभप्रकृतीनामशुभप्रकृली का यउभयवसायस्थानमनन्तगुणतया ताबवतव्यं यावत्कृष्ायां थायोग बन्धमागतानां त्रिस्थानगतं रसं बध्नाति । उत्कृष्ट स्थितौ चरमं स्थितिबन्धाऽध्यवसायस्थानमनन्तगुणम् ॥ च स्थिति ध्रुवप्रकृतीनां बनन् शुभकृतीनां द्विस्थानगतमा ५६॥ तदेवं स्थितिसमुदाहारोऽपि निरवशेष उक्तः, प्रकृति शुभप्रकृतीनां चतु:स्थानगतं रसं बध्नाति । ततः शुभप्रकृ. समुदाहारश्च । तिगतरसपैविध्य क्रमापेक्षयाऽशुभप्रकृतीनां रसत्रैविध्यक्रम सम्प्रति जीवसमुदाहारमभिधित्सुराह स्य वैपरीत्यमुक्तम् ॥ १०॥ बंधंती धुवपगड़ी, परित्तमाणिमसुभाषा तिविहरसं । । अथ के शुभप्रकृतीनां चतुःस्थानगतं त्रिस्थानमत्तं द्विस्थाचऊनिग विहाणगयं, विवरीयक्तिगं च असुभाणं ।।६।। नगतं वा रसं बध्नन्ति ? । उच्यते(बंचंति सिमानावरणीयपञ्चकदर्शमावरणीयरचकमि- सविसुद्धा बंधं-ति मज्झिमा संकिलिहतरगा य । ध्यारवषोडशकषायभयाजुगुप्सालजसकामावर्णगन्धरसस्प- धुवपगडि जहाठिई, सव्यविमुद्धा उ बंधति ॥ ११ ॥ गुरुलधूपघातनिर्माणासरायपश्चकलक्षणाः सप्लचस्वारि. तिहाणे अजहम, विवाणे जेद्वगं सुभाण कमा । संक्या ध्रुषप्रकृतीबध्नन्तिापरायर्समानशुभप्रकृतीनां सातवेदनीयदेवमतिमनुजगतिपञ्चेन्द्रियजातिवैक्रियाऽऽहारकौदा सट्टाणे उ जहमं, अजहन्नुक्कोसमियरासिं ॥ २ ॥ रिकशरीरसमचतुरुस्त्रसंस्थानवर्षभनारासंहनालोपाल - (सवात्ति,ये सर्वविशुद्धा जन्तबस्ते परावर्तमानशुभप्रकृतीनां नयमनुजानुपूदिवानुपूर्वीपराघातोच्छा साऽऽत्त पोद्योतप्रश चतुःस्थानगतं रसं बध्नन्ति । ये पुनर्मध्यमपरिणामास्ते त्रि. Page #1244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध स्थानगतं रसं बध्नन्ति । संक्लिष्टतरपरिणामास्तु द्विस्थानगतम् । ये पुनस्तद्योग्य भूमिकाअनुसारेण सर्वविशुद्धाः परावर्त्तमा ना अशुभप्रकृती तास स्थानगत र निवर्तय मित्र मध्यमपरिणामख्रिस्थानगतम्। तिरपरामास्तु चतुःस्थानगतम् । ( धुवपगडीत्यादि ) ये सर्वविशुद्धाः शुभप्रकृतीनां चतुःस्थानगतं रसं नन्ति तेज धन्यां स्थिति निवर्तयन्ति ( तिद्वा इति सप्तमी परावर्त्तमान शुभप्रकृतीनां त्रिस्थानगतस्य रसस्य ये बन्धकास्ते ध्रुवप्रकृतीनामजघन्यां मध्यमां स्थिति बध्नन्ति । शिस्थानगतस्य रसस्य ये बन्धकास्ते भुज्ये मुष्ट स्थिति बध्नन्ति तथा इस परा मानाऽशुभमहीनों वे विस्थानगतं रथं बनतेध्रुवप्रकृतीनां जघन्य स्थिति स्याने स्वविशुद्धिभूमिकाउनु सारेणेत्यर्थः, बध्नन्ति परावर्तमानाशुभप्रकृतिसत्कद्विस्था नगतरसन्धदेतुविशुद्धयनुसारेण जघन्यां स्थिति बध्न ति न स्वतिजयम्यमित्यर्थः । जघन्यस्थितिषि प्रकृतीनामेकविशुद्ध सम्मपति न च तदा पराव र्तमानाऽशुभप्रकृतीनां बन्धाः संभवन्ति । ये पुनः परावर्त्त मानाऽनवस्थानगतस्य रसस्य बधकाले भू. प्रकृतीनामजपम्प स्थिति दयति । तथा ये परावर्त्तमा नाचतुःस्थानगत र बध्नन्ति ते तीनामुत्कृष्ठ स्थिति निवर्तयति ।। ६२ । ३२ ॥ इह द्विधा प्ररूपणा - अनन्तरोपनिधया, परम्परोपनिधया च । तत्राऽनन्तरोपनिधया प्ररूपणामाहथोवा जहनियाए, होति. विसेसाहिओदहिसयाई । ( १२२१) अभिधानराजेन्खः । जीवा विसेसहीणा, उदहिसयपुहुत्त मो जाव ॥ ६३॥ (घोष ति) परावर्तमानानां शुभप्रकृतीनां चतुःस्थान गतरसबन्धकाः सन्तो शानाऽऽवरणीयाऽऽदीनां ध्रुवप्रकृतीनां जघन्यस्थिती बन्धकत्वेन वर्तमाना जीवाः स्तोकाः । द्वितीयस्यां स्थितो विशेषाधिकाः । ततोऽपि तृतीयस्प स्थितौ विशेषाधिकाः एवं तावद्विशेषाधिका वक्तव्या यावत्प्रभूतानि सागरोपमाम्यतिक्रान्तानि भवन्ति त राः परं विशेषहीनास्तावद् चल्पा यावद्विशेषानावपि (द. दहिसपुरां ति ) प्रभूतानि सागरोपमशतानि भवन्ति । 'मो ' इति पादपूरणे । पृथक्त्वशब्दोऽत्र बहुत्ववाची । यदाह चूर्णिकृत् - " पुहुतसहो बहुत्तवाचीति । " इ ति ॥ ६३ ॥ एवं तिट्ठाकरा, विद्याणकरा य या सुभुक्कोसा । असुभा विद्वाणे विषउद्वाये य उक्कोसा ॥ ६४ ॥ ( एवं ति) परावर्तमानानां प्रकृती स्थान रसं निवर्तयन्त सन्तोषप्रकृतीनां स्वप्रायोग्यजय न्यस्थितौ बन्धकत्वेन वर्तमाना जीवाः स्तोकाः । ततो द्वितीयस्यां स्थितौ विशेषाधिकाः । ततोऽपि तृतीयस्यां स्थिती विशेषाधिकाः। एवं तावद्वावास्यभूतानि सा गरोपमशतान्यतिक्रामन्ति । ततः परं विशेषहीना विशेषहीमारताना पावविशेषदानावपि प्रभूतानि सागरोपम ति तथा परावर्तमाना शुभप्रकृतीनां द्विस्या ३०६ " बंधण नगर निवर्तयस्तो कृतीनां स्वप्रायोग्यजन्यस्थितौकर वर्तमाना जीवा स्तोकाद्वितीय स्थिती विशेषाधिकाः। ततोऽपि तृतीयस्यां (स्थिती) विशेषधिकाः । एवं तावद्वाक्यं यावत्प्रभूतानि सागरोपमाम्य तिक्रामन्ति । ततः परं विशेषहीनास्तावद्वक्लव्या यावद्विशेषानावपि प्रभूतानि सागरोपमशतानि प्रयान्ति । परावर्तमानाशुभप्रकृतीनां च द्विस्थानगतरसबन्धका एवं या पावसास परावर्तमान शुभाष कृतीनामुरकृष्टा स्थि विः उपस्थितिगत द्विस्थानरसबन्धका इत्यर्थः (असुभायमित्यादि अशुभवर्तमानप्रकृती प्रदर्शितमेण प्र थमतेो द्विस्थानगतरसबन्धका वक्तव्याः । ततस्त्रिस्थानगतरस बन्धका वक्तव्याः । ततश्चतुःस्थानगत रसबन्धकाः। ते च ताव वक्तव्या यावदुत्कृष्टा स्थितिः । इयमत्र भावना अशुभपरावर्त्त मानप्रकृतीनां जघन्यस्थितौ बन्धकत्वेन वर्त्तमाना जीवाः स्तोकाः ततो द्वितीयस्यां स्थितौ विशेषाधिकारासोऽपि तृतीय स्पां स्थित विशेषाधिकाः। एवं विशेषाधिका विशेषाधिका स्तावद्वक्कण्या यावत्प्रभूतानि सागरोपमशतानि गच्छन्ति । ततः परं विशेषद्वीना विशेषहीनास्तावशेष हानावपि प्रभूतानि सागरोपमानि पान्ति अनुभपराव समानानगतरस बन्धका सन्तो भुवतीन स्वप्रायोग्यजघन्यस्थितौ बन्धकत्वेन वर्त्तमाना जीवाः स्तोकाः ततो द्वितीयस्य स्थिती विशेषाधिकार एवं प्रागिव सा चद्रायं पावद्विशेषानावपि प्रभूतानि सागरोपमाम्यविक्रामन्ति तथा शुभपरावर्तनप्रकृतीनां चतुःस्थानतरसबन्धकाः सन्तो ध्रुवप्रकृतीनां स्वप्रायोग्यजघन्यस्थितौ बन्धकत्वेन वर्त्तमाना जीवाः स्तोकाः । ततो द्विती· यस्यां स्थित विशेषाधिकाः। ततोऽपि तृतीय स्थि " विशेषाधिकाः। एवं तावद्वाच्यं यावत् प्रभूतानि सागरोपमशतानि गच्छन्ति । ततः परं विशेषहीना विशेष• दीनास्तावलव्या यावद्विशेषद्वानावपि प्रभूतानि सागरीपमशतान्यतिक्रामन्ति अशुभपरावर्त्तमानमतीन तुःस्थानगतरसबन्धका एवं विशेषहीना विशेषहीनास्ताव कृप्या पावसासामनुमपरावर्त्तमानप्रकृतीनामुत्कृष्टास्थि तिर्भवति उत्कृष्टस्थितिगत तु स्थानकर सबका र्थः ॥ ६४ ॥ तदेवं कृताऽनन्तरोपनिधया प्ररूपणा । सम्प्रति परम्परोपनिधया तामाहपद्मासंखियमूलानि तुदुगुणा व दुगुग्रहीया च नागतराणि पल्ल - स्स मूलभागो असंखतमो ॥ ६५ ॥ (पन सि) परावर्तमाशुमतीनां चतुःस्थानगतरसवयका प्रकृतीनां जयन्तीमा जीवास्तदपेक्षया जघन्य स्थितेः परतः पापमस्यासंख्येया नि वर्गमूलानि पल्योपमस्या संख्येयेषु वर्गमूलेषु यावन्तः स. मयास्तावत्प्रमाणाः स्थितीरतिक्रम्यापरस्मिन् स्थितिस्था वर्तमान जीवा द्विगुवा भवन्ति । ततः पुनरपि प ल्योपमासंख्येय वर्गमूलप्रमाणाः स्थितीरतिक्रम्यानन्तरे स्थि तिस्थाने हिगुवा भवन्ति। एवं द्विगुणास्तावप्यापाप्रभूतानि सागरोपमशताम्यतिक्रामति । ततः परं प पोषमा वर्गमूल स्थितीरतिक्रम्यापरस्मिन् स्थितिस्थाने विशेषवृद्धिगतचरम स्थितौ बन्धकत्वेन वर्ण Page #1245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२२). बंध अनिधानराजेन्डः। बंधण माना ये जीवास्तदपेक्षया द्विगुणहीना भवन्ति, अर्धा भव. ऊर्ध्व स्थितिस्थानानि मिश्राणि साकाराऽनाकारोपयोगयोम्तीत्यर्थः। ततः पुनरपि पल्योपमाऽसंख्येयवर्गमूलप्रमाणाः ग्यानि संख्येयगुणानि । तेभ्योऽपि द्विस्थानकरसयवमध्यस्थितीरतिक्रम्यापरस्मिन् स्थितिस्थानेऽर्धा भवन्ति ।। स्योपरि मिश्राणि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि । तेभ्यो. एवं तावद्वाच्यं यावद् द्विगुणहानावपि प्रभूतानि साग- ऽपि शुभानां परावर्त्तमानप्रकृतीनां जघन्यः स्थिनिबन्धः रोपमशतान्यतिक्रामन्ति । एवं परावर्तमानशुभप्रकृती- संख्येयगुणः । ततोऽप्यशुभपरावर्तमानप्रकृतीनां जघन्य. नां विस्थानकरसबन्धका द्विस्थानगतरसबन्धकाचा स्थितिबन्धः विशेषाधिकः । ततोऽप्यशुभपरावर्तमानप्र. अशुभपरार्तमानप्रकृतीनां तु द्विस्थानरसबन्धकाखिस्था. कृतीनामेव द्विस्थानकरसयवमध्यावध एकान्तसाकारोप. नरसबन्धकाश्चतुःस्थानरसबन्धकाच वक्तव्याः । एक योगयोग्यानि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि । ततस्तास्मिन् द्विगुणवृद्ध्यन्तरे द्विगुणहान्यन्तरे वा स्थितिस्था. सामेव परावर्तमानाशभप्रकृतीनां द्विस्थानकरसयवमध्यानानि पल्योपमस्याऽसंख्येयानि वर्गमूलानि पल्योपमस्यासं. दधः पाश्चात्येभ्य उर्व मिश्राणि स्थितिस्थानानि संख्ये. क्येयेषु वर्गमूलेषु यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानीत्यर्थः । ना. यगुणानि । तेभ्योऽपि तासामेवाशुभपरावर्तमानप्रकृतीनां. नाऽन्तराणि नानारूपद्विगुणवृद्धिद्विगुणहानि (लक्षणानि) द्विस्थानकरसयवमध्यादुपरि स्थितिस्थानानि मिश्राणि सं. स्थानानि पल्योपमस्य सम्बन्धिनःप्रथमवर्गमूलस्यासंख्ये. ख्येयगुणानि । तेभ्योऽप्युपरि एकान्तसाकारोपयोगयोग्यानि यतमे भागे यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानि भवन्ति । ना- स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि । तेभ्योऽपि तासामेव परा. नाविगुणधुद्धिद्विगुणहानिस्थानि स्तोकानि । एकस्मिन् वर्तमानाऽशुभप्रकृतीनां त्रिस्थानकरसयवमध्यावधः स्थिति द्विगुणस्यन्तरे द्विगुणहान्यन्तरे वा स्थितिस्थानानि अ- स्थानानि संख्येयगुणानि । तेभ्योऽपि त्रिस्थानकरसयवम. संख्येयगुणानि ॥५॥ ध्यस्योपरि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि । तेभ्योऽप्यशु. भणगारप्पाउम्गा, बिट्ठाणगया उ दुविहपगडीणं । भपरावर्तमानप्रकृतीनामेव चतुःस्थानकरसयवमध्यावधः स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि । तेभ्योऽपि यवमध्यादुप सागारा सम्बत्थ वि, हिट्ठा थोवाणि जवमझा ॥६६॥ रि डायस्थितिः संख्येयगुणा । यतः स्थितिस्थानादपवर्तना. ठाणाणि चउहाणा, संखेजगुणाणि उपरिमेवं ति। करणवशनोत्कृष्टां स्थितिं याति तावती स्थिति यस्थितितिहाणे बिहाणे, सुभाणि एगतमीसाणि ।। ६७॥ रित्युच्यते । ततोऽपि सागरोपमाणामन्तः कोटीकोटी सं. उरि मिस्साणि जह-नगो मुभाणं तयो विसेसहिओ। ख्येयगुणा । ततोऽपि परावर्तमानशुभप्रकृतीनां द्विस्थानक. रसयवमध्यस्योपरि यानि मिश्राणि स्थितिस्थानानि ते. होइ सुभाण जहणो, संखेजगुणाणि ठाणाणि ॥९॥ षामुपर्येकासाकारोपयोगयोग्यानि स्थितिस्थानानि सं. विट्ठाणे जवमज्झा, हेटा एगंत मीसगाणुचरिं । ख्येयगुणानि । तेभ्योऽपि परावर्तमानशुभप्रकृतीनामत्कृष्टः एवं तिचउहाणे, जवमझाओ य डायठि ई ।। ६६ ।। स्थितिबन्धो विशेषाधिकः । ततोऽप्यशुभपरावर्तमानप्र. अंता कोडाकोडी, सुभविट्ठाण जवमझो उवरि ।। कृतीनां बद्धा डायस्थितिर्विशेषाधिका। यतः स्थितिस्थाएगंतगा विसिट्ठा, सुभजिट्ठा डायठिइजेहा॥ १० ॥ नात् माण्डूकप्लुतिन्यायेन डायां-फालां दवा या स्थिति। ध्यते ततः प्रभृति तदन्ता तावती स्थितिबद्धा डायस्थिति. (अणगार त्ति) द्विविधानामपि-शुभानामशुभानां च प रिहोच्यते । सा चोत्कर्षतोऽन्तःसागरोपमकोटीकोट्यना रावर्तमानप्रकृतीनां रसा अनाकारप्रायोग्याः बन्धं प्रत्यना सकलकर्मस्थितिप्रमाणा घेदितव्या। तथाहि-अन्तःसागरोकारोपयोगयोग्या बसमधिकृत्य तथाविधमन्दपरिणाम पमकोटीकोटीप्रमाणं स्थितिबन्धं कृत्वा पर्याप्तसंक्षिपश्चे. योग्या इत्यर्थः । नियमात् द्विस्थानगता एव नान्ये । तुरे न्द्रिय उत्कृष्ट स्थिति बनातीति नान्यथा। ततोऽपि परा. घकारार्थः। उक्तंच-"तुः स्याद्भेदेऽवधारणे।" सकाराः सा. कारोपयोगयोग्या बन्धमधिकृत्य तीव्रपरिणामयोग्याः। पुनः वर्तमानाशुभप्रकृतीनामुत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिक इति। सर्वत्रापि द्विस्थानाऽऽदौ प्राप्यन्ते द्विस्थानगतात्रिस्थानग. सम्प्रत्यस्मिन् विषये जीवानामल्पबहुत्वमाहताश्चतु:स्थानगताश्व रसाबन्धमाश्रित्य साकारोपयोगयोग्या संखेजगुणा जीवा, कमसो एएसु दुविहपगईणं । भवन्तीत्यर्थः । इदानीं सर्वस्थितिस्थानानामल्पबहुत्वमाह- असुभाणं तिहाणे,सव्वुवरि विसेसओ अहिया ।।२०१॥ (हिहा थोवाणीत्यादि) परावर्त्तमानशुभप्रकृतीनां चतुःस्था (संखेज्ज ति) सर्वस्तोकाः परावर्तमानशुभप्रकृतीनां च. नकरसयवमध्यादधः स्थितिस्थानानि सर्वस्तोकानि । तेभ्यः तु:स्थानकरसबन्धका जीवाः । तेभ्योऽपि त्रिस्थानकरसश्वतुःस्थानकरसयवमध्यस्पैवोपरि स्थितिस्थानानि संख्येय. बन्धकाः संख्येयगुणाः। तेभ्योऽपि द्विस्थानकरसबन्धकाः गुणानि । तेभ्योऽपि परावर्तमानशुभप्रकृतीनां त्रिस्थानकर संख्येयगुणाः। तेभ्योऽपि परावर्तमानाशुभप्रकतीनां द्विस्था. सयवमध्यादधः स्थितिस्थानि संख्येयगणानि । तेभ्योऽपि नकरसबन्धकाः संख्येयगुणाः । नेभ्योऽधी चतु:स्थानकर. त्रिस्थानकरसयवमध्यस्योपरि स्थितिस्थानानि संख्येय गुणा सबन्धकाः संख्येयगुणाः । तेभ्योऽपि त्रिस्थानकरसबन्धका नि।। एवं तिट्ठाणे ति) एवं संख्येय गुणतयाऽध उपरिच त्रि. विशेषाधिकाः । तथा चाऽऽह-(असुभाणमित्यादि) अशुभा. स्थानेऽपि रसे स्थितिस्थानानि वक्तव्यानीत्यर्थः। तेभ्योऽ नामशुभप्रकृतीनां त्रिस्थाने त्रिस्थानकस्य रसस्य बन्धका: पि परावर्त्तमानशुभप्रकृतीनां द्विस्थानकरसयवमध्यावध:स्थितिस्थानानि एकान्तसाकारोपयोगयोग्यानि संण्येयगु. सर्वेषामुपरि विशेषाधिका वक्तव्याः। णानि । तेभ्योऽपि विस्थानकरसयवमध्यादधः पाश्चात्येभ्यः एवं बंधणकरणे, परूविए सह हि बंधसयगेणं । Page #1246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण सूत्र० ११तीयभागे ६० स्था० (१२२३) अभिधानराजेन्धः। बंधा बंधविहाणाहिगमो, सुहमभिगंतुं लहुं होइ ।। १०२॥ यं परमाणुपोग्गला दुपएसिया तिपएसिया. जाव दस( एवं ति ) एवम्-उक्नप्रकारेणाऽस्मिन् बन्धकरणे पएसिया संखेजपएसिया असंखैजपएसिया अणतपएबन्धशतकेन-बन्धशतकाऽऽस्पेन ग्रन्थेन सह प्ररूपिते | सियाणं खंधाणं वेमायनिद्धयाए वेमायलुक्खयाए वेमासति । एतेन किल शतककर्मप्रकृत्योरेककर्तृकता भावे यनिद्धलुक्खयाए एवं बंधणपच्चइएणं बंधे समुप्पजइ । दिता द्रष्टव्या । बन्धविधानस्य पूर्वगतस्य सुखमधिग. म्]-सुखेन चातुमिध्यमाणस्याधिगमोऽवबोधो लघु-शीघ्र जहलेणं एकं समयं, उक्कोसेणं असंखेजं कालं । सेत्तं बंधभवति । क०प्र० २ प्रक० । ( कारुण्यप्रतिशया ब पच्चइए । से किं तं भायण पच्चइए । भायणपच्चइए. जं न्धननिषेधः 'कालुलपडिया ' शब्दे तृतीयभागे ६८० णं जुम्मसुराजुष्पगुलजुष्मतंदुलाणं भायणपच्चइएणं बंधे स. पृष्ठं गतः) स्ववशीकरणे, सूत्र० १ श्रु० ४ ० १ उ० । मुप्पज्जा जहणं अंतोमुहुरा, उक्कोसेणं संखेजं कालं । निर्मापणे, स्था० २ ठा० १ उ० । दुर्वचनैः संयमने, सेत्तं भायणपच्चइए । से किं तं परिणामपच्चइए । परि स्था० ८ ठा० । संयोजने, नि०० १६ उ० । पुद्गलाss. दिविषयसम्बन्धे, भ०। . णामपच्चइए जणं अज्माणं अज्झरुक्खाणं जहा त. प्रयोगविनसायन्धी इयसए जाव अमोहाणं परिणामपच्चइएणं बंधे समुप्पकइविहे गं भंते ! बंधे परमत्ते । गोयमा! दुविहे बंधे जह । जहमेणं एकं समयं उक्कोसेणं छम्मासा । सत्तं परिपपत्ते । तं जहा-पयोगबंधे य, वीससाबंधे य । वीससाबंधे णामपच्चइए । सेत्तं साइए वीससाबंधे ।। ( साइयवीससाबंधे त्ति) सादिको यो बिस्रसाबन्धः स णं भंते ! काविहे पामते । गोयमा! दुविहे पप्पत्ते । तं जहा तथा-( बंधणपच्चहए त्ति) बध्यतेऽनेनेति बन्धनं विवक्षिा साइयवीससाबंधे य, अणाइयवीससावधे य । अणाइयवीस तस्निग्धताऽऽदिको गुणः, स एव प्रत्ययो-हेतुर्यन स तथा । साबंधे णं भंते ! कइविहे पसते ? । गोयमा तिविहे पप्पत्ते । एवं भाजनप्रत्ययः, परिणामप्रत्ययश्च नवरं, भाजनमाधारः, तं जहा-धम्मस्थिकायमममप्रणाइयवीससाचंधे, अधम्म- परिणामो-रूपान्तरगमनम् ।" जंणं परमाणुपोग्गल " स्थिकायमममश्रणाइयवीससाबंधे, आगासत्यिकायअल- इत्यादौ, परमाणुपुद्गलः परमाणुरेव ( वेमायनिद्धयाए त्ति ) विषमा मात्रा यस्याः सा विमात्रा सा चासौ स्निग्धता - मलमणाइयवीससाबंधे । धम्मत्थिकायअममममणाइय ति विमात्रस्निग्धता तया । एवमन्यदपि पदद्वयम् । इदमुवीससाबंधे णं भंते ! कि देसबंधे, सबबंधे । गोयमा ! क्नं भवतिदेसबंधे, नो सव्वबंधे। एवं अधम्मत्थिकायममध्यप्रणा. " समनिद्धयाए बन्धो, न होइ समलुक्खयाएँ विन होड । इयवीससाबंधे वि, भागासस्थिकायअममम प्रणाइयवीस- चेमायनिद्धलुक्ख-तणेण बंधो उ खंधाणं ॥१॥ साबंधे वि । अधम्मस्थिकायअमममणाइयवीससाबंधे णं अयमर्थः-समगुणस्निग्धस्य समगुण स्निग्धेन परमाणु द्वय णुकाऽऽदिना बन्धो न भवति, समगुणरूक्षस्याऽपि समगुणभंते ! कालमो केवचिरं होइ ? । गोयमा ! सम्बद्धं । एवं रूक्षेण यदा पुनर्विषमा मात्रा तदा भवति बन्धः । विषअधम्मत्थिकार्य, एवं आगासधिकायं । ममात्रानिरूपणार्थ चोच्यते-" निद्धस्स निद्धेण दुयाहिएकाबिहे णमित्यादि ) ( बंधे सि ) बन्धः-पुनलाउदि- ण, लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएण । निद्धस्स लुक्छेण उवे. विषयसम्बन्धः । (पभोगबंधे यत्ति) जीवप्रयोगकृतः। (वी. इबंधो, जहरणवज्जो बिसमो समो वा ॥१॥” इति । ससाबंधे य त्ति ) स्वभावसम्पन्नः । यथासत्तिन्यायमाश्रिा | (बंधणपश्चइपणं ति) बन्धनस्य-बन्धस्य प्रत्ययो देतुत्या55-(वीससत्यादि) (धम्मत्थिकायश्रझममाणाइयवी. रुक्तरूपविमात्रस्निग्धताऽदिलक्षणो बन्धनमेव बा, विवक्षिससाबंधे यत्ति ) धर्मास्तिकायस्याऽन्योन्यं प्रदेशानां पर. तस्नेहाऽऽदिप्रत्ययो बन्धनप्रत्ययस्तेन, इह बन्धनप्रत्ययेनेति स्परेण योउनादिको विनसाबन्धः स तथा। एषनुत्तरत्राऽपि । सामान्यं, विमानस्निग्धतयेत्यादयस्तु तद्भेदा इति । (अ. (देसबंधे ति) देशतो देशापेक्षया बन्धो देशबन्धः यथा संखेज्जं कालं ति) असंख्ययोत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपम् । सङ्कलिकाकटिकानाम् । (सवबंधे त्ति) सर्वतः-सर्वाऽऽत्मना (जुन्नसुरेत्यादि ) तन जीर्णसुरायाः स्यानीभधनलक्षणो बन्धः सर्वबन्धो यथा क्षीरनीरयोर्देशबन्धे (नोसब्यबंधे बन्धो जीर्ण गुहस्य जीर्णतन्दुलानां च पिण्डीभवनलक्षणः । त्ति) धर्मास्तिकायस्य प्रदेशानां परस्परसंस्पर्शन व्यवस्थि प्रयोगवन्धःतत्वात् देशवन्ध एव न पुनः सर्वबन्धस्तत्र धेकस्य प्रदेश- से किं तं पमोगबंधे। पयोगबंधे तिविहे पम्पत्ते । तंजस्य प्रदेशान्तरैः सर्वथा बन्धेऽन्योन्यान्तर्भावेन एकप्रदेशत्वमेव स्यान्नासंख्येयप्रदेशत्वमिति । (सव्व त्ति) सर्वाऽद्धाम् हा-प्रणाइए वा अपजवसिए वा , साइए वा अपज. सर्वकालम् । बसिए, साइए वा सपजवसिए । तत्य णं जे से अ. साऽऽदिविस्रसाबन्धः णाइए अपजवसिए से णं अट्टएई जीवमउमप्पएसाइयवीससाबंधे णं भंते ! कइविहे पामते ? । गोयमा! साणं तत्थ वि णं तिएहं तिएहं अगाइए अपजबतिबिहे पणते । तं जहा-बंधणपञ्चइए, भायणपच्चइए, परि- सिए सेसाणं साइए, तत्थ णं जे से साइए अपजणामपञ्चहए । से किं तं बंधणपञ्चइए । बंधणपचइए जं वसिए से णं सिद्धाणं । Page #1247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२४) बंधण अभिधानराजेन्सः। बंधया (पभोगबंधे त्ति) जीवव्यापारबन्धः । स च जीवप्रदे (तत्थ गंजे से साइए इत्यादि ) ( पालावणबंधे शानामौदारिकाऽऽदिपुगलानां वा "अणाईए" वेत्यादयो | ति ) श्रालाप्यते प्रालीनं क्रियते एभिरिति पालापद्वितीयवस्नियो भनास्तत्र प्रथमभङ्गोदाहरणायाऽऽह-(त. नानि रज्ज्वादीनि तैबन्धस्तृणाऽऽदीनामालापनबन्धः। (प्रस्थ णं जे से इत्यादि ) अस्य किल जीवस्याऽसंख्येयप्रदे. ल्लियाबण बंधे त्ति ) अल्लियावणं-द्रव्यस्य द्रव्यान्तरेशकस्याष्टी ये मध्ये प्रदेशास्तेषामनादिरपर्यवसितो बन्धो ण श्लेषाऽऽदिना बालीनस्य करणं तद्रूपो यो बन्धः स यदाऽपि लोकं व्याप्य तिष्ठति जीवस्तदाऽव्यसो तथैवेति तथा (सरीरबन्धे त्ति)। समुद्धाते सति यो विस्तारितसं. अन्येषां पुनर्जीवप्रदेशानां विपरिवर्त्तमानत्वानास्त्यनादिरप- कोचितजीवप्रदेशसंबन्धविशेषवशातैजसाऽदिशरीरप्रदेशायवसितो बन्ध एतेषामुपर्यन्ये चत्वार एवमेतेऽष्टौ एवं ता. नां बन्ध विशेषः, स शरीरिबन्धः, शरीरबन्ध इत्यन्ये । तत्र वत्समुदायतोऽष्टानां बन्ध उक्नोऽथ तेष्वकैकेनाऽऽत्मप्रदेशेन शरीरिणः समुदाते विक्षिप्तजीवप्रदेशानां सङ्कोचने यो सह यावतां परस्परेण बन्धो भवति तदर्शनायाऽऽह-( त. बन्धः स शरीरिबन्ध इति । (सरीरप्पागबंधे ति) शरी स्थ वि णमित्यादि ) तत्रापि तेवष्टासु जीवप्रदेशेषु म रस्यौदारिकाऽऽदेर्यः प्रयोगेण धीर्यान्तरायक्षयोपशमा55ध्ये त्रयाणां त्रयाणामेकैकेन सहानादिरपर्यवसितो बन्धः, दिजनितव्यापारेण बन्धस्तन् पुद्रलोपादानं शरीररूपस्य वा तथा हि-पूर्वोकप्रकारेणावस्थितामामष्टानामुपरितनप्रतरस्य प्रयोगस्य यो बन्धः स शरीरप्रयोगबन्धः । ( तणभाराण यः कश्चिद्विवक्षितस्तस्य द्वौ पार्श्ववर्तिनावेकश्वाधोवर्ती व त्ति ) तृणभारास्तृणभारकास्तेषाम् ( वेत्तत्यादि ) - स्येते त्रयः सम्बध्यन्ते. शेषस्त्वेक उपरितनः, त्रयश्चाधस्तना चलता-जलवंशकम् (वाग त्ति) बल्को-वसाधर्ममयी, न सम्बध्यन्ते व्यवहितत्वादेवमधस्तनप्रतराऽपेक्षयाऽपी. रज्जुः सनादिमयी, वल्ली प्रपुष्पाऽऽदिका,कुशा-निर्मूलवर्भाः, ति चूर्णिकारव्याख्या । टीकाकारव्याख्या तु दुरवगमत्वात्प. दर्भास्तु समूलाः, श्रादिशब्दाच्चीवराऽऽदिग्रहः। (लेसणाबंधे ति) श्लेषणा-श्लथद्रव्येण द्रव्ययोः सम्बन्धन तापो यो रिहतेति । ( सेसाणं साइए त्ति ) शेषाणामध्यमाष्ठा. भ्योऽन्येषां सादिर्विपरिवर्तमानत्वादेतेन प्रथमभङ्ग उदाहृतः। बन्धः स तथा । (उच्चयबंधे त्ति) उच्चय-ऊई चयनं-राशीअनादिः सपर्यवसित इत्ययं तु द्वितीयो भङ्ग इह न सं. करणं तपो बन्ध उच्चयबन्धः । (समुच्चयबंधे ति)। भवत्यनादिसम्बद्धानामष्टानां जीवप्रदेशानामपरिवर्तमान सङ्गत उच्चयापेक्षया विशिष्टतर उच्चयः समुपयः स एष स्वेन बन्धस्य सपर्यवसितत्वानुपपत्तेरिति । अथ तृतीयो म बन्धः समुच्चयबन्धः। (साहणणाबंधे ति) संहननमवयवानां अ उदाहियते-(तस्थ णं जे से साइपत्यादि ) सि सातनं तपो यो चन्धः स संहननबन्धो, दीर्घत्वाऽदि चेह द्धानां सादिरपर्यवसितो जीवप्रदेशबन्धः, शैलेश्यवस्था प्राकृतशैलीप्रभवमिति । ( कुट्टिमाणं ति ) मणिभूमिका. यां संस्थापितप्रदेशानां सिद्धत्वे विचलनाभावादिति । नाम् । ( छुहाचिक्खिल्लेत्यादौ) (सिलेस ति)। श्लेषो वजलेपः। (लक्ख त्ति)। जतु । (महुसिस्थति) मदनम् अथ चतुर्थभङ्गं भेदत आह श्रादिशब्दात्-गुग्गलरालाखल्यादिग्रहः । (अवगररासीण तत्य णं जे से साइए सपज्जवसिए से णं चउबिहे | वत्ति) कचवरराशीनाम् । (उच्चपणं ति) ऊर्द्ध चयनेन । पपत्ते । तं जहा-आलावणबंधे, अल्लियावणवंधे, सरीरबंधे, ( अगडतलावनई इत्यादि ) । प्रायः प्राग्व्याख्यातमेव । सरीरप्पयोगबंधे । से किं तं पालावणबंधे । आलावणबंधे (देससाहणणाबंधे यति) देशेन देशस्य संहननलक्षणो बन्धः सम्बन्धः शकटाङ्गाऽऽदीनामिवेति देशसंहननबन्धः। जंणं तणभाराण वा कटुभाराण वा पत्तभाराण वा पलाल (सवसाहणणाबंधे यत्ति)। सर्वेण सर्वस्य संहननलक्षणो भाराण वा वेल्लभाराण का वेत्तलयावागवरत्तरज्जुबल्लिकुस- बन्धः-सम्बन्धः, क्षीरनीराऽऽदीनामिवेति सर्वसंहनमबन्धः। दम्भमाइएएहिं पालावणबंधे समुप्पजइ, जहमेणं अंतोमुहुः शरीरबन्धःसं. उकोसेणं संखेनं कालं । सेत्तं पालावणबेधे । से किं तं से किं तं समुच्चयबंध। समुच्चयबंधे जणं अगडतडाअल्लियावणबंधे । अल्लियावणबंधे । चउबिहे पसत्ते। तंज गनदीदहवावीपुक्खरिणीदीहियाणं गुंजालियाणं सराणं हा-लेसणाबंधे, उच्चयबंधे, समुच्चयबंधे, साहणणाबंधे । से सरपंतियाणं विलपंतियाणं देवकुलसभापवयथूभखाइकिं तं लेसणाबंधे। लेसणाबंधेजणं कुड्डाणं कुट्टिमाणं ख- याणं परिहाणं पागारट्टालगचरियदारगोपुरतोरणाणं पाभाणं पासायाणं कट्ठाणं चम्माणं घडाणं पडाणं कडाणं छु- सायघरसरणलेणग्रावणाणं सिंघाडगतिगचउकचच्चरहाचिक्खिलसिलेसलक्खमहुसित्थमाइएहिं लेसणएहिं-वंधे चउम्मुहमहापहमाईणं छुहाचिक्खिल्लसिलासमुच्चएणं बंधे समुप्पजइ, जहमेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेजं कालं । से समुप्पञ्जइ, जहलेणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेणं संखेज कालं । सेत्तं तं लेसणाबंधे । से किं तं उच्चयवंधे । उच्चयबंधे ज णं तणरा समुच्चयबंधे । से किं तं साहणणाबंधे। साहणणाबंधे दुविहे सीण वा कट्टरासीणं वा पत्तरासीण वा तुसरासीण वा पपत्ते । तं जहा-देससाहणणाबंधे य,सव्वसाहणणाबंध य । भुसरासीण वा गोमयरासीण वा अवगररासीण उच्च- से कितं देससाहणणाबंधे। देससाहणणाचंधे जंणं सगड. एणं बंधे समुप्पजइ, जहमेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं संख- रहजाण जुग्गगिल्लिथिल्लिसीयसदमाणियलोहीलोहकढाहकजनं कालं । सेत्तं उच्चयबंधे। दुच्छयासणसयणखभभंगपत्तोवगरणमाईणं देससाहरण Page #1248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२५ ) अभिधानराजेन्द्रः । बंध बंधे एवं चैव समुपञ्जर, जहोणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखअं कालं । सेतं देससाइणखाबंधे । से किं तं सव्वसा बंधे १ । सव्वसाहराणाबंधे से गं खीरोदगमाईणं । सेत्तं सब्यसाहणणाबंधे । सेत्तं अलियावणबंधे । से किं तं सरीरबंधे है। सरीरबंधेदुविहे पत्ते । तं जड़ा-पुब्वप्पयोगपश्चइए, पडुप्पमप्पयोग पच्चए य । से किं तं पुञ्चपश्रोrease | पुपयोगपञ्चइए जं गं नेइयाणं संसारत्थाणं सव्वजीवाणं तत्थ तत्थ तेसु तेसु कारणेसु समोइयमाणायं जीवप्पसाणं बंधे समुप्पज्जइ । सेत्तं पुन्वप्पयोगपच्चए || से किं तं पप्पप्प श्रोगपच्चइए ? | पडुपपयोगपच्चइए जं णं केवलनाणिस्स अणगारस्स केबलिसमुग्धा एवं समोहयस्स तो समुग्धायाश्र पढिनि - यमाणस्स अंतरा मंथे वट्टमाणस्स तेयाकम्माणं बंधे समु , किं कारणं ताहे से पएसा एगतीगया भवंति । से तं पदुप्पच पोगपच्चइए । से तं सरीरबंधे ॥ से किं तं स पभोगबंधे ? | सरीरस्ययोगबंधे पंचविहे पत्ते । तं जहाश्रोलिय सरीरप्पभोगबंधे, वेडन्विय सरीरप्पयोग बंधे, श्राहारगसरीरपभोगबंधे, तेयासरीरप्पओगबंधे, कम्मासरीरप्पभोगबंधे । ओरालिय सरीरप्प श्रोगबंधे णं भंते ! कइविहे पण १ । गोयमा ! पंचविहे पत्ते । तं जहा - एगिंदियचोरालियरीरप्प श्रगबंधे ०जाव पंचि - दियो लिय सरीरप्पयोगबंधे । एगिंदियओरालियस - पभोगबंधे णं भंते ! कइविहे पत्ते १ । गोयमा ! पंविहे पाते । तं जहा - पुढविकाइयएगिंदियओरालि यसरी रोगबंधे, एवं एएणं अभिलावेखं भेदो जहा श्रोगा ठाणे श्रोशलिय सरीरस्स तदा भाणियन्बो ०जाव पञ्जसम्भवतिय मणुस्स पंचिदियओरालिय सरीरप्पओ गबंधे य, अपज्जत गगन्भवक्कंतियमणुस्स ०जाव बंधे य ॥ ( जं ं लगडरहेत्यादि ) शकटाऽऽदीनि च पदानि प्रायाख्याताम्यपि शिष्य हिताय पुनर्व्याख्यायन्ते तत्र च ( सगड सि ) गन्त्री । ( रह त्ति ) स्यन्दनः । ( जाण त्ति ) यानं लघुगन्त्री । ( जुग्गा त्ति ) युग्यं - गोलविषयप्र सिद्धं द्विहस्तप्रमाणं वैदिकोपशोभितं जम्पानम् । (गि. लिति ) हस्तिन उपरि कोल्लरं यन्मानुषं गिलतीव । (थिल्लि सि ) अडपल्ला (सीय त्ति ) शिविका - कूटा. कारणाच्छादितजम्पानविशेषः । ( संदमाणियति ) पुरुचप्रमाणजम्पानविशेषः । ( लोहि त्ति ) । मण्डका ऽऽदिपचनभाजनम् । (लोहकडाहे ति ) भाजनविशेष एव । ( कड्डु यत्ति ) परिवेषणभाजनमासनशयनस्तम्भाः प्रती - । ( भंड त्ति ) मृन्मयभाजनम् ( मत्तति ) । श्रमत्रभाजनविशेषः । ( उवगरण त्ति ) । नानाप्रकारं तदस्योप करणमिति । ( पुष्पगपच्चद्दर यत्ति ) । पूर्वः ३०७ बंधण प्राक्कालाऽऽसेवितः प्रयोगो जीवव्यापारो वेदनाकपायाssदिसमुद्धातरूपः प्रत्ययः कारणं यत्र शरीरबन्धे स तथा स एव पूर्वप्रयोगप्रत्ययिकः ( पडुप्पन्नप्पनोगपच्चइए य त्ति ) प्रत्युत्पन्नोऽप्राप्तपूर्वी वर्त्तमान इत्यर्थः, प्रयोगः केव लिसमुद्धातलक्षणव्यापारः प्रत्ययो यत्र स तथा स एत्र प्र त्युत्पन्नप्रयोगप्रत्ययिकः ( नेरइयाणामित्यादि ) ( तत्थ तस्थ त्ति ) अनेन समुद्धातक रणक्षेत्राणां बाहुल्यमाह - ( तेसु ते सुत्ति ) श्रनेन समुद्धात कारणानां वेदनाऽऽदीनां बाहुल्यमु क्लम् । ( समोक्षमाणा त्ति ) समुद्धन्यमानानां - समुद्धातं शरीराद्वद्दिजीवप्रेदशप्रक्षेपलक्षणं गच्छतां ( जीवप्यपसाणं (ति) इह जीवप्रदेशानामित्युक्तावपि शरीरबन्धाऽधिकारात् "तत्स्यात्तद्वयपदेश " इति न्यायेन जीव प्रदेशाऽऽश्रिततैज कार्मणशरीरप्रदेशानामिति द्रष्टव्यं शरीरबन्ध इत्यत्र तु पक्षे समुद्घातेन विक्षिप्य संकोचितानामुपसर्जनी कृत तेजसाऽऽदिशरीर प्रदेशानां जीवप्रदेशानामेवेति । ( बंधे ति) बन्धो-रचनाविशेषः । जं णं केवलेत्यादि ) के लिसमुद्घातेन दण्ड १कपाट मधिकरणा३न्तरपूरण ४लक्षणेन समुपहतस्य विस्तारित जीवप्रदेशस्य ततः समुद्धातात्प्रतिनिवर्तमानस्य प्रदेशान्संहरतः समुद्धात प्रतिनिवर्तमानत्वं च पञ्चमाssदिष्वनेषु समयेषु स्यादित्यतो विशेषमाह - ( अंतरा मंथे माणसन्ति ) निर्वर्तनक्रियाया अन्तरे मध्ये ऽवस्थि तस्य पञ्चमसमय इत्यर्थो, यद्यपि च षष्ठाऽऽदिसमयेषु तैजसाऽऽदिशरीरसङ्घातः समुत्पद्यते तथाऽप्यभूतपूर्वत या पञ्चमसमय एत्राऽसौ भवति शेषेषु तु भूतपूर्वतयैवेति कृत्वा " अंतरामंथे वट्टमाणस्स " इत्युक्तमिति । ( तेयाक• माणं बंधे समुप्पटाइ त्ति ) तैजसकार्मणयोः शरीरयोर्ब न्धः-सङ्घातः समुत्पद्यते । ( किं कारणं ति कुतो देतो. रुच्यते । ( ताहे ति ) तथा समुद्धात निवृत्तिकाले ( सेति ) तस्य केवलिनः प्रदेशा-जीव प्रदेशाः ( एगन्तीगय ति ) एक त्वं गताः सङ्घातमापन्ना भवन्ति, तदनुवृत्या व तैजसाऽऽदि. शरीरप्रदेशानां बन्धः समुत्पद्यत इति प्रकृतं शरीरिबन्ध इत्यत्र तु पक्षे ( तेयाकम्माणं बंधे सवजह ति) तैजस कार्मणाऽऽश्रयभूतत्वात्तैजसकार्मणा शरीरिप्रदेशास्तेषां बधस्समुत्पद्यत इति व्याख्येयमिति । 1 ओरालि यसरी प ओगबंधे गं भंते ! कस्स कम्पस्स उदएणं ? । गोयमा ! वीरियसजोगसद्दव्ययाए पमादपच्चया कम्मं च जोगं च श्राउयं च भवं च पडुच्च श्रोशलियसरपओगनामाए कम्मस्त उदपणं ओरालियसरीरप्पओगबंधे । एगिंदियओरालि यसरी रपयोग बंधे णं भंते १ कस्स कम्मस्स उदरणं १ । एवं चेव । पुढविकाइयए गिंदियोरालि यसरी रपयोग बंधे वि एवं चेत्र, एवं जात्र वराएसइकाइया, एवं बेइंदिया, एवं तेइंदिया, एवं चउरिदिया । तिरिक्खजोणिय पंचिदियओरालि यसरी रपयोग बंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएं । एवं चेव । मणुस्स पंचिंदियओ लिय सरीरप्पयोगबंधे णं भते ! कस्स कम्मस्स उदए ?। गोयमा ! बीरियसजोगसद्दन्ययाए पमादपच्चया • जाब आउयं पडुच्च मणुस्सपंचिदियओरालि यसरी For Private Personal Use Only Page #1249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२६ ) अभिधानराजेन्द्रः । बंधपण पोगनामाए कम्मस्स उदए । मणुस्सपंचिंदियओरालिय सरीरप्पभोगबंधे णं मंते ! किं देसबंधे, सब्बबंधे १ । गोमा ! सबंधे वि, सव्वबंधे वि । एगिंदियचोरालियसरीरप्पोगबंधे णं भंते । किं देसबंधे, सब्बंधे ।। एवं चैव । एवं पुढविकाइया, एवं जाव मणुस्सपंचिंदियओरालियसरीर पगबंधे णं भंते! किं देसबंधे, सब्वबंधे । गोया ! सबंधे वि सव्वबंधे वि । ओरालिय सरीरप्प भोगबंधे णं भंते ! कालओ केवचिरं होई । गोयमा ! सव्वबंधे वि एकं समयं, देसवंधे वि जहोणं एकं समयं, उक्कोस तिमि पलिश्रोत्र माईं समयऊणाई । एगिंदियओरालिय सरीरप्पयोगबंधे गं भंते ! कालओ केचिरं होइ ?। गोयमा ! सव्वबंधे एवं सगयं, देसबंधे जहमेधं एकं समयं उक्कोसेणं वावीसं बास सहरसाई समयऊणाई | पुढवीकाइयए गिंदिपुच्छा ? । गोयमा ! सव्वबंधे एकं समयं देशबंधे जहोणं खुडागभवग्गहयं तिसमयऊणं, उक्को सेणं बावीसं वाससहस्साई समयऊणाई, एवं सन्धेसिं सव्वबंधो एकं समयं देशबंधो जेसि नत्थि वेउब्वियसरीरं तेसिं जहसेणं खुड्डागभवग्गणं तिसमयऊणं उकोसेणं जा जस्स उक्कोसिया ठिई सा समयऊणा कायव्या । जेसिं पुण अस्थि बेब्बियसरीरं तेसिं देसबंधे जहोणं एकं समयं, उकोसे जा जस्स ठिई सा समयऊणा कार्यन्वा० जाव मणुस्साणं देसबंधे जहमेणं एवं समयं उक्कोसेयं तिरिण पलिश्रवमाई समयऊणाई | प्रमादप्र ( वीरियस जोगसव्वयाए ति ) वीर्य वीर्यान्तरायक्षयाऽऽ. दिकृता शक्तिः, योगा, मनःप्रभृतयः, सह योगैर्वर्तत इति सयोगः सन्ति-वि यानि द्रव्याणि तथाविधपुङ्गला यस्य जीवस्यासा सद्रव्यो वीर्यप्रधानः सयोगो वीर्यसयोगः स चासौ सद्भ्यश्चेति विग्रहः । तद्भावस्तता तथा वीर्य सयोग सद्रव्यतया सवीर्यतया सयोग तथा सद्द्रव्यतया च जीवस्य तथा ( पमायपच्चरति ) त्ययात्प्रमादलक्षणकारणात्तथा । ( कम्मं च त्ति ) कर्म चै केन्द्रियजात्यादिकमुदयवर्त्ति । ( जोगं च त्ति ) योगं च काययोगाऽऽदिकम् ( भवं चति) तिर्यग्भवाऽऽदिकमनुभू. यमानम् (श्राउयं चति ) आयुष्कं च तिर्यगायुष्काss. दयवर्त्ति । (पहुच त्ति ) प्रतीत्याऽऽधित्य ) ओरालिए. त्यादि ) औदारिकशरीरप्रयोगसम्पादकं यन्नाम तदारिकशरीरप्रयोगनाम तस्य कर्मण उदयेनौदा रिकशरीरप्रयोगो भवतीति शेषः । एतानि च वीर्य सयोगमद्रव्यतादीनि पदान्यदारिकशरीरप्रयोगनामकर्मोदयस्य विशेष. तया व्याख्येयानि वीर्यसयोग सद्द्रव्यतया हेतुभूततया यो विवक्षित कम्मोदयस्तेनेत्यादिना प्रकारेण स्वतन्त्राणि चैतन्यदारिकशरीरप्रयोगबन्धस्य कारणानि तत्र च पक्षे For Private बंधण दारिकशरीरप्रयेोगबन्धः कस्य कर्म्मण उदयेनेति पृष्टे यदन्यान्यपि कारणाभ्यऽभिधीयन्ते तद्विवक्षितकम्मदियोऽभि हितान्येव सहकारिकारणान्यपेक्षयेद्य कारणतयाऽवसेय इत्य स्यार्थस्य शापनार्थमिति । ( एर्गिदियेत्यादी ) ( एवं - व ति ) अनाधिकृतसूत्रस्य पूर्वसूत्रसमताऽभिधानेऽपि " ओरालियल रीररूपश्रोगनामाए " इत्यत्र पदे " एर्गि दिवओोरा लिय सरीरम्प भोगनामाए " इत्ययं विशेषो दश्य एकेन्द्रियौदारिक शरीरप्रयोग बन्धस्येहाधिकृतत्वादेवमु तत्राऽपि वाच्यमिति । (देल बंधे वि, सव्वबंधे वित्ति ) तत्र यथाऽपूपः स्नेहभृततततापिकायां प्रक्षिप्तः प्रथमसमये घृताSदि गृह्णात्येव शेषेषु तु समयेषु गृह्णाति विसृजति वा । एवमयं जीवो यदा प्राक्तनशरीरकं विहायान्यं गृह्णाति तदा प्रथमलमये उत्पत्तिस्थानगतान् शरीरप्रायोग्यपुङ्गलान् गृहात्येवेत्ययं सर्वबन्धः । ततो द्वितीयाऽऽदिषु समयेषु तान् गृह्णाति विसृ जति वश्येष च देशबन्धस्ततञ्चैवमौदारिकस्य देशबन्ध ऽप्यस्तीति सर्वबन्धोऽप्यस्तीति । (सब्बबंधे एकं समयं ति) अपातेनैव तत्सर्वबन्धस्य एकसमयस्वादिति । ( देसबन्धे इत्यादि ) । तत्र यश वायुर्मनुष्याऽऽदिर्षा वैक्रियं कुस्वा विहाय च पुनरौारिकस्य समयमेकं सर्वबन्धं करवा पुनस्तस्य देश बन्धं कुर्वमेकसमयानन्तरं म्रियते तदा ज घन्यत एकं समयं देशबन्धोऽस्य भवतीति । ( उक्को सेणं तिमि पलिघोषमाई समयूणग ति ) कथं यस्माददारिकशरीरिणां त्रीणि पल्योपमान्युत्कर्षतः स्थितिस्तेषु च प्र थमसमये सर्वबन्धक इति समयम्यूनानि त्रीणि पल्योपमान्युत्कर्षत श्रदारिकशरीरिणां देशबन्धकालो भवति । (एर्गिदियओरालिय इत्यादि) देशबन्धे ( अहणं एकं समयं ति) कथं वायुरौदारिकशरीरी वैकियं गतः पुन रौदारिकप्रतिपत्ती सर्वबन्धको भूत्वा देशबन्धक वैकं सम यं भूत्वा मृत इत्येवमिति । ( उकासेणं बावीसमित्यादि ) केन्द्रियाणामुत्कर्षतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि स्थिति स्तत्रासी प्रथमसमये सर्वबन्धकः शेषकालं देशबन्धक ચ समयोनानि द्वाविंशतिवर्षसहस्राएये केन्द्रियाणामुत्कर्षतो देशबन्धकाल इति । ( पुढविकाइत्यादि) दे शयन्धे ( जहलेगं खुड्डागं भवग्गद्दणं तिसमयूण ति ) कथम् श्रदारिकशरीरिणां क्षुल्लकभवग्रहणं जघन्यता जी. वितम् तच्च गाथाभिर्निरूप्यते 'दोनि सयाई नियमा, छप्पनाई पमान होंति । आवलियपमाणेणं. खुड्डु | गभवग्गद्दण्मयं ॥ १ ॥ पट्टिलहरुलाई, पंत्रेव सयाहूँ तह य छत्तीसा । खुड्डागभवग्गणा, हवंति श्रतो मुहुते ॥ २ ॥ सत्तरसभवग्गणा, खुड्डागा हुंति श्राणुपाणस्मि । तेरस चेव सयाई, पंचाणउमाशंसाएं ॥ ३ ॥ " इद्दोक्तलक्षणस्य ( ६५५३६) मुहूर्त्तगत क्षुल्लक भवग्रहणरा शः सहस्रत्रयशतसप्तकत्रि सप्ततिलक्षणेन ( ३७७३) मुहुर्त्तगतोलासराशिना भागे हृते यल्लभ्यते तदेकत्रोच् से तुल्लकभवप्रहणपरिमाणं भवति तच्च सप्तदशाव शिष्टस्तूक लक्षणोऽशराशिर्भवतीति । श्रयमभिप्रायो येषामंशानां त्रिभिः सहस्रैः सप्तभिश्व त्रिसप्तत्यधिकशतैः जुल्लकमवग्रहणं भवति तेषामंशानां पञ्चनवत्यधिकानि त्रयोद Personal Use Only Page #1250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधा शशाम्याशस्यापि महस्य तत्र भवन्तीति तत्र यः पृथिवीकायिकस्सिमयेन विग्रहेणाऽऽगतः सतृसीयसमये सर्वबन्धकः शेषेषु देशबन्धको भूत्वा श्राक्षु भवग्रहणं मृतो; मृतश्च समविग्रहेणाऽऽगतो यदा सर्वबन्धक एव भवतीति, एवं च ये ते विग्रहसमयास्त्रययस्तै रुनं तुल्लकभवग्रहणमित्युच्यते । ( उक्कोलेणं बावस मित्यादि) भावितमेवेति देवबंधी नित्यादि) अयमर्थः तेज वनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रिया ग्रहणं त्रिसमयोगं जघन्यतो देशो शरीरं नास्ति, वैक्रियशरीरे हि सत्येकसमयो जघन्यत श्रौदारिकदेशबन्धः पूर्वोक्तयुक्त्या स्यादिति । ( उक्कोसेणं जा जस्सेत्यादि ) तत्राऽयं वर्षसहस्राणि सप्तोरकर्पतः स्थितिः, तेजसामहोरात्राणि त्रीणि वनस्पतीन वर्षसहदिश शीन्द्रियाणां द्वादशवर्षाणि त्रीन्द्रियाणामेकोनपञ्चाशद हो रात्राणि चतुरिन्द्रियाणां परमाखास्तत एषां सर्वसयोमा उत्कृष्ठतो देशवस्थितिर्भवतीति (जेसि पुणेत्यादि । ते व वायवः पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चो मनुष्याश्च एषां जघम्पेन देशबन्ध पर्क समर्थ भावना च प्रावि (सेम। स्यादि ) तत्र बायूनां त्रीणि वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः स्थिति पञ्चेन्द्रियतिरक्षां मनुष्याणां च पश्योपमत्रयमियं च स्थितिः सर्वबन्धसमयोना उत्कर्षतो देशबन्धस्थिति रेषां अतीति तदेतो मनुष्याणां देशबन्ध यामध्यन्तिम सूत्रत्वेन साक्षादेव तेषां तामाह - ( जाव मलाणमित्यादि ) उक्त औदारिकशरीर प्रयोगबन्धस्य कालः । - ( १२२७ ) अभिधानराजेन् अथ तस्यैवान्तरं निरूयन्नाह - योरा लिय सरीरपयोगवंतरे येते! कालो केव चिरं होइ ? । गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहसेयं उको से तिसमयऊणं खुट्टागभवम्मद उको ची सागरोवमाई दिई शुम्बकोटिसमपादियाई देसवंधंतरं जहणं एकं समयं उकीसेां तेची सागरीबमाई तिसमाहिपाई । (ओरालिय इत्यादि) सर्वबन्धान्न जघन्यतः तुलकमवणं मियोनं कथं विदारिकश रीरिष्यागतस्तत्र ही समय अनाहारक बंधण मयस्थाने क्षिप्तस्वरा पूर्खा पूर्वकोठी जातै समयोऽतिरिक्ल एवं च सर्वबन्धस्य सर्वबन्धस्य चोत्कृष्टमन्तरं यथोक्तमानं भवतीति । ( देसवंर्धतरमित्यादि) देशयन्धान्तरं जये नैकं समयं कथं देशयन्धको सूतः सनग्रोस्पास्त 3 प्रथम एव समये सर्वबन्धको द्वितीयाऽऽदिषु च समयेषु देशबन्धकः सम्पन्नस्तदेवं देशवरथस्य देशान्तर जघन्यत एकः समयः सर्वबन्धसंबन्धीति । (उक्को सेमिस्वादि) उत्कृत्सागरोपमाणि त्रिसमयाधिकानि देशबन्यस्य देशषन्पस्थातरं भवति कथं देशबन्धको सूत उ पद्म प्रयागरोपमाऽऽयुः सर्वार्थसिद्धादी, ततध युवा त्रिसमयेन विग्रहेणौदारिकशरीरी सम्पन्नस्तत्र च विग्रहस्य समयद्वयेऽनाहारकस्तृतीये च समये सर्वबन्ध कस्ततो देश बन्धकोऽजनि एवं मन्तरा देशयग्धरंग देशबन्धस्य च यथोक्तं भवतीति । एर्गिदियोरा लिया। गोषमा सतरंज गं खुट्टागं भवाहणं तिसमयऊणं उक्कोसेणं बावीसं बाससहस्साई समवाहियाई देसतरंज एवं सम यं उक्को सेणं तोमुहुतं । दिव्यादि) एकेन्द्रिय स्वहारिकसर्वान्तरं ज न्यतः कुलकभवप्रहणं त्रिसमयोनं, कथं त्रिसमयेन विप्रहेण पृथिव्यादिष्वागतस्तत्र च विग्रहस्य समयद्वयमनाहारकस्तृनीय समये अर्धचन्चकरततः झ वह जिसमयोगं स्थिस्यामृत्य प्रि यदोरपच सर्ववन्धक एव भवति तयोर्यथोक्रमन्तरं भवतीति उमादतः सर्वबन्धान्तरं द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि समयाधिकानि न वस्ति, कथमविग्रहेण पृथिवीकायिकेष्वागतः प्रथम एष व समये सर्वदग्धस्ततो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि स्थि समयोगानि विग्रहगल्या त्रिसमययाऽन्येषु पृथिव्यादिषूत्प अस्तत्र च समययमनाहारको भूत्वा तृतीयसमये सर्व धकः सम्पन्नोऽनाहारकसमययोको द्वाविंशतिवर्षसह समयनेषु ततस्तत्पूरणायें तत द्वाविंशतिवर्षसहस्रा समयक केन्द्रियाणां सर्वयन्थयो भ तीति (देखतरमित्यादि) केन्द्रियौदारिकदेशन्धान्तरं जवेनैकं समर्थ कथं देशयग्धको मृतः समस पन्धको भूखा एक मिन् समये पुनर्देशक ए जात एवं च देशबन्धयोर्जघन्यत एकः समयोऽनन्तरं भवती. ति । ( उक्को सेणं अंतोमुडुत्तं ति ) कथं वायुरौक्षरिकशरीर. स्य देशयन्धकः सन् बैकियं गतस्तस्यान्तर्मुखिया पुमारिक शरीरस्य सर्वबन्धको भूत्वा देवम्पक पव जातः एवं च देशयन्ययोस्तो उन्मुंर्तमन्तरमिति । पुढवादिच्छा सतरंज एर्मिदिय स तव भाणियव्वं, देसबंधंतरं जहसेणं एकं समयं, वन्धकः एकभयं च स्थित्वा मृत औदारिकशरीरत्यस्तच प्रथम सर्वम्धक एवं सर्वम्धस्य सर्ववस्वान्तरं सुकमयो विग्रहगतिसमयप्रयोगः क्षुल्लकभवो (उमित्यादि बागरोपमाथि पूर्व कोटिसमयाभ्यधिकानि सर्वान्तरं भवतीति कथं मनु याऽऽदिष्वविग्रहेणाऽऽगतस्तत्र च प्रथमसमय एव सर्वबन्धका भूखा पूर्वकोर्टि व स्थिरया यशिरसागरोपम स्थिति नरकः सर्वार्थसिको वा भूत्वा समयेन विप्रदेोदाउको रिकशरीरी सम्पन्नस्तत्र च विग्रहस्य द्वौ स्तृतीये च समये सर्वबन्धकयोः श्रदारिक शरीरस्यैव तौ द्वावनाहारक समययोरेकः पूर्व कोटी सर्वबन्धल विधि समया जहा पुढवीकाइया एवं जाय चउरिंदियाणं वाउकायवजाणं, णवरं सव्वबंधंतरं उक्कोसे जा जस्स ठिई सा समयाहिया कायन्त्रा, वाउका Page #1251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२८ ) अभिधान राजेन्द्रः । बंधण इयाणं सव्वबंधंतरं जहोणं खुड्डामभवग्गहणं तिसमयऊणं उक्कोसेणं तिष्टि वाससहस्साईं समयाहियाई देसबंधंतरं जहोणं एवं समयं उक्को सेयं श्रतो मुद्दत्तं । पंचिंदियतिरिक्खजोखियओरालियपुच्छा १ । गोयमा ! सबंधंतरं जहां खुड्डागभवग्गणं तिसमयऊणं पुकोडीसमयाहिया | देस बंधतरं जहा एगिंदियाणं तहा पंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं, एवं मणुस्सा त्रिविसेसं भाणियव्वं ०जाव उक्को से तो मुद्दत्तं ॥ ( पुढवीकाइत्यादि ) ( देसबंधंतरं जहसेणं एकं - समयं उक्कोसेणं तिष्टि समय ति ) कथं पृथिविका यिको देशबन्धको मृतः सन्नविग्रहगत्या पृथिवीकाधिकेष्वेघोरपण एकं समयं च सर्वबन्धको भूत्वा पुनर्देशबन्धको जात एवमेकसमययोर्देशबन्धयोर्जघन्येनान्तरम् । तथा पृथिवीकायिको देशबन्धको मृतः संस्त्रिसमयविग्रदेतेष्वेवोत्पन्नस्तत्र च समयद्वयमनाहारकस्तृतीयसमये व सर्वबन्धको भूत्वा पुनर्देशबन्धकोऽभूत् एवं च त्रयः समया उत्कर्षतो देशबन्धयोरन्तरमिति । अथाऽकायाऽऽदीनां बन्धान्तरमतिदेशत श्राह - ( जहा पुढविकाइयामित्यादि ) अत्रैव च सर्वथा समतापरिहारार्थमाह - ( नवर मित्यादि ) एवं चातिदेशतो यज्ञब्धं तद्दर्श्यते श्रकाि कानां जघन्यं सर्वबन्धान्तरं क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोन. मुत्कृष्टं तु सप्तवर्षसहस्राणि समयाधिकानि देशबन्धान्तरं तु जघन्यमेकः समय उत्कृष्टं तु त्रयः समयाः । एवं वायुवजनां तेजःप्रभृतीनामपि नवरमुत्कृष्टं सर्वबन्धान्तरं स्वकीया स्थितिः समयाधिका वाच्या, अथातिदेशे वायुकायिकवजनामित्यनेनातिदिष्टबन्धान्तरेभ्यो वायुबन्धान्तरस्य विलक्षणता सूचितेति वायुबन्धान्तरं भेदेना६ - ( वायुकाइयाणामित्यादि ) तत्र च वायुकायिकानामुत्कर्षेण देश बन्धान्तरमन्तर्मुहूर्त कथं वायुरौदारिकशरीरस्य देश बन्धकः सन् वैक्रियमन्तर्मुहूर्त कृत्वा पुनरौदारिकसर्वबन्धसमयान्तर मौदारिकदेशबन्धुं यदा करोति तदा यथोक्तमन्तरं भवतीति ( पंचेदियेत्यादि ) तत्र सर्वबन्धान्तरं जघन्यं भावितमेव । उत्कृष्टं तु भाव्यते-पश्चेन्द्रियतिर्यगविग्रहेोत्पन्नः प्रथम एव च समये सर्वधन्धकस्ततः समयोनां पूर्वकोटिं जीवित्वा विग्रहगत्या त्रिसमयया तेवेवोत्पन्नस्तत्र च द्वावनाद्दारकसमयौ तृतीये च समये सवैधकः सम्पन्नोऽनाहारकसमय यो कः समयः समयोनायां पूर्व कोट्यां क्षिप्तस्तत्पूरणार्थमे कस्त्वधिक इत्येवं यथो क्रमन्तरं भवतीति, देशवन्धान्तरं तु यथैकेन्द्रियाणां तच्चैवं जघन्यमेकः समयः कथं देशबन्धको मृतः सर्वबन्धसम यानन्तरं देशबन्धको जातः इत्येवमुत्कर्षेण स्वस्तर्मुहूर्त क. थम् श्रदारिकशरीरी देशबन्धकस्सन् वैक्रियं प्रतिपन्नस्तत्रा. तर्मुहूर्त स्थित्वा पुनरीदारिकशरीरी जातस्तत्र च प्रथ मसमये सर्वधन्धको द्वितीयाऽऽदिषु तु देश बन्धक इत्येवं देश बन्धयोरन्तर्मुहूर्त्तमन्तरमपीति एवं मनुष्याणामपीत्ये तदवाऽऽह जहा पंचिदित्यादि ) । For Private बंधगा श्रदारिकबन्धान्तरं प्रकारान्तरेणाऽऽहजीवस्स खं भंते! एगिंदियते नोएगिंदियत्ते पुणरवि एगिंदियते एगिंदिय ओरालिय सरीरप्पओ गबंधंतरं कालओ केवचिरं होइ ?। गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहसेणं दो खुड्डाई भवरगहणाई तिसमयऊणाई, उक्कोसणं दोसागरोवमसहस्साईं संखेजवासमज्झहियाई, देसबंधंतरं अहोणं खुट्टागं भवरगहणं समयाहियं उक्कोसेणं दोसागरोवममहस्साई संखज्जवास मज्झहियाई । जीवस्स गं भंते ! पुढवा काइयते नोपुढवीकाइयते पुणरवि पुढवीकाइयते पुढवीकाइयएगिंदियओरालिय सरीरप्पओ गबंधंतरं कालओ केवचिरं होइ ?। गोयमा ! सम्बबंधंतरं जहसेणं दोखुडागभवग्गहगाई, एवं चेव उक्कोसेणं श्रणंतं कालं अताओ उस्सपिणीसपिणीओ कालओ, खेत्तश्रो णं श्रणंता लोगा असंखेज्जा पुग्गलपरियद्वा ते गं पोग्गल परियट्टा थाबलियाए असंखेज्जइभागो, देसबंधंतरं जहसेणं खुडागं भवरगहणं समयाहियं उक्कोसेणं अतं कालं • जाव अवलियाए असंखेजइभागो जहा पुढविकाइयाणं, एवं वणरसइकाइयत्रजायं ० जाव मणुस्सा वणसइकाइयाणं दो खुड्डाई एवं चेव, उक्कोसेणं असंखेअं कालं असंखेजा श्रसप्पिणीउस्सप्पिणीओ कालो, खेत्तत्र असंखेजा लोगा, एवं देसबंधंतरं पि उक्को सेणं पुदविकालो || > ( जीवस्सेत्यादि ) " एवं चेव त्ति " करणात् " ति समयूणाई ति " दृश्यम् । ( उक्कोसेणं अतं कालं ति ) इ कालानन्तत्वं वनस्पतिकाय स्थितिकालापेक्षयानन्तकालमिस्युक्तं तद्विभजनार्थमाह - ( श्रताश्रो इत्यादि ) श्रयमभिप्रायस्तस्याऽनन्तस्य कालस्य समयेष्ववसर्पिण्युत्सपिण समर पहियमाणेष्वनन्ता श्रसपिएयुत्सर्पियो भवन्तीति ( कालश्री लि ) इदं कालापेक्षया मानम् ( खेत्तओ त्ति ) । क्षेत्रापेक्षया पुनरिदम् - (अंता लोग त्ति) श्रयमर्थस्तस्यानन्तकालस्य समयेषु लोकाऽऽकाश प्रदेशैर पहियमाणेष्वननन्ता लोका भवन्ति । अथ तत्र क्रियन्तः पुद्गलपरावर्ता भवन्तीत्यत आह- ( असंखेज्जेत्यादि ) पुलपरावर्त्तलक्षणं सामान्येन पुनरिदम् - दशभिः कोटीकोटीभिरद्धापल्योपमानामेकं लागरोपमें, दशभिः सागरोपमकोटीकोटीभिरवस पिण्युत्सर्पिण्यप्येवमेव ता अवसर्पिण्युत्सर्पिण्योऽ. नन्ताः पुद्गलपरावर्त्तः एतद्विशेषलक्षणं त्विदैव वदय तीति, पुलपरावर्तानामेवाऽसंख्यातत्वनियमनायाऽऽद्द( श्रावलिपत्यादि ) असंख्यात समयसमुदायश्चावलिकेति । ( देल बंधतरमित्यादि ) भावना खेवम् - पृथिवीकायिको देशबन्धकः सम्मृतः पृथिवीकायिकेषु क्षुल्लकभवप्र. हाँ जीवित्वा मृतः सन् पुनरविग्रहेण पृथिवीकायिके. ध्ववत्पन्नस्तत्र च सर्वबन्धसमयानन्तरं देशबन्धको जातः, एवं च सर्वबन्धः समयेोनाधिकमेकं क्षुल्लक भवग्रहणं देशबन्धयोरन्तरमिति । ( वणस्सइकाइयाणं दोनि खुट्टाई Personal Use Only Page #1252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२६) बंधाण अभिधानराजेन्द्रः। बंधण ति) धनस्पतिकायिकानां जघन्यतः सर्षबन्धान्सरं वे खु. यमा ! वीरियसजोगसम्बयाए . जाव माउंवा पडुच्च सके भवग्रहणे "एवं चेष सि" करणात् त्रिसमयोने इति. रयणप्पभापुढवि जाव बंधे, जाव भहे सत्तमाए । तिश्यम् पतद्भावना च-वनस्पतिकायिकतिसमयेन विग्रहेणो. स्पन्नस्तत्र च विग्रहस्थ समयद्वयमनाहारकस्तृतीयसमये रिक्खजोणि यपंचिंदियवेउब्वियसरीरपुच्छा ? । गोयमा ! च सर्वबन्धको भूत्वा सुलकभधं च जीवित्वा पुनः पृथि वीरिय०जहा वाउकाइयाणं । मणुस्सपंचिंदियवेचियसरीग्यादिषु तुझकभवमेव स्थित्वा पुनर विग्रहेण वनस्पति. रप्पोगपुच्छा ? । एवं चेव असुरकुमारभवणवासिदेवपंचिकायिकेष्वेवोत्पन्नः प्रथमसमये च सर्वबन्धकोऽसाविति स. दियवेउन्चिय जाव बंधे । जहा रयणप्पभापुढविणेरड्याप्रबन्धयोखिसमयोने के क्षुल्लकभवग्रहणे अन्तरं भवत इ णं एवं • जाव थणि यकुमारा, एवं वाणपतरा, एवं ति। ( उकोसेपमित्यादि ) श्रयं च पृथिव्यादिषु काय. स्थितिकाले ( पचं दसबंधंतरं पि ति ) यथा पृथि जोइसिया, एवं सोहम्मकप्पोवगया वेमाणिया, एवं जाव ज्यादीनां देशबम्धान्तरं जघन्यमेवं वनस्पतेरपि । तच छ. अच्चुयगेवेञ्जगकप्पातीयवमाणियाण यन्वा । अणुसरोववा. सकभवग्रहणं समयाधिकम् । भावना चास्य पूर्ववत् । । उ. इयकप्पातीयवेमाणिया एवं चेव । वे उब्वियसरीरप्पभोगधे कोसेणं पुदविकालो ति) उत्कर्षण बनस्पतेदेशबन्धान्तरं णं भंते ! कि देसबंधे,सवबंधे। गोयमा देसबंधे वि सपृथिवीकायस्थितिकालोऽसंख्यातावसर्पिण्यादिरूप इति । व्यबंधे वि । वाउकाइयएगिदिय एवं चेव । रयणप्पभापुढअधौदारिकदेशबन्धकादीनामल्पत्वादिनिरूपणायाऽदएएसिणं भंते ! जीवा णं ओरालियसरीरदेसबंधगाणं विनेरइया एवं जाव अणुत्तरोववाइया । वेउन्चियसरीरसबबंधगाण य भवंधगाण य कयरे कयरे जाव विसे प्पोगबंधे णं भंते ! कालो केवचिरं होइ १ । गोयमा ! साहिया वा । गोयमा ! सव्वत्योवा जीवा पोरालियस सव्वबंधे जहमणं एवं समयं,उक्कोसेण दो समया, देसबंधे रीरस्स सम्बंधगा, प्रबंधगा विसेसाहिया, देसबंधगा अ जहणणं एक समयं, उक्कोसेणं नेत्तीसं सागरोवमाइं समयणासंखेनगुणा ॥ इं। वाउकाइयएगिदियवे उब्धियपुच्छा । गोयमा ! सव्व. । (एएसिमित्यादि) तत्र सर्वस्तोकाः सर्वबन्धकास्तेषामुत्पः | बंधे एकं समयं,देसबंधे जहमेणं एवं समयं,उकोसेणं अंतो शिलमय एष भावादबन्धका विशेषाधिका यतो विग्रहगतो मुहृत्त। सिखत्वाऽऽदौ च ते भवन्ति । ते च सर्वबन्धकापेक्षया विशे | (वीरियेत्यादी) यावत्करणात (पमायपचया कम्मं च जोगं पाधिका,देशबन्धका असंख्यातगुणा देशबन्धकालस्याऽसं. च भवं च त्ति ) द्रष्टव्यम् (लद्धि वत्ति) वैक्रियकरणलब्धि ख्यातगुणत्यादेतस्य सूत्रम्य भावनां विशेषतोऽग्रे वक्ष्याम इति ॥ या प्रतीत्य । एतच्च वायुपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्यानपेक्ष्योल, अथ वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धनिरूपणायाऽह तेन वायुकायाऽऽदिसूत्रेषु लब्धि वैक्रियशरीरबन्धस्य प्रत्ययवे उब्वियसरीरप्पोगबंधे णं भंते ! कइविहे पमत्ते । तया वक्ष्यति, नारकदेवसूत्रेषु पुनस्तान् विहाय वीर्यसयोगगोयमा! दुविहे पसत्ते । तं जहा-एगिदियवेउब्बिय सदव्यताऽऽदीन् प्रत्ययतया वक्ष्यतीति । (सव्वबंधे जार. मेणं एक समयं ति ) कथं वैक्रियशरीरिषत्पद्यमानो सरीरप्पभोगवंधे य, पंचिंदियवेउब्वियसरीरप्प प्रोगबंधे य । लब्धिता वा तत्कुर्वन् समयमेकं सर्वबन्धको भवतीस्येव. जइ एगिदियवेबियसरीरप्पोगबंधे, किं बाउकाइयए मेकं समयं सर्वबन्ध इति । ( उक्कोसेणं दो समय सि)। गिदियवेउब्बियसरीरप्पोगबंधे, अयाउकाइयएगिदियवे- कथमौदारिकशरीरी वैक्रियतां प्रतिपद्यमानः सर्ववन्धको उब्वियसरीरप्पोगबंधे य । एवं एएणं अभिलावणं जहा भूत्वा मृतः पुनारकत्वं देवत्वं वा यदा प्राप्नोति सदा प्रथमसमये क्रियस्य सर्वबन्धक एवेति कृत्वा चैक्रियशरी. ओगाहणसंठाणे वउविसरीरभो तहा भाणियवो. रस्य सर्वबन्ध उस्कृषतः समयस्यमिति । (देसबंधे जहजाव पज्जत्तासबट्टसिद्धअणुत्तरोवाइयकप्पाऽतीयवेमा- मणं एवं समयं ति) कथमौदारिकशरीरी वैक्रियतां प्रतिप. णियदेवपंचिंदियवेउब्धियसरीरप्पोगबंधे य, अपजसा- द्यमानः प्रथमसमये सर्वबन्धको भवति । द्वितीयसमये वेशसबसिद्धश्रणुत्तरोववाइयजाव प्पोगबंधे य । वेउब्बिय- बन्धको भूत्वा मृत इत्येवं देशबन्धको जघन्यत एक समयमि. ति । ( उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई समयूणाई ति) कथं सरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मरस उदएणं । देवेषु नारकेषु चोकृष्टस्थितिषूत्पद्यमानः प्रथमसमये सर्ष. गोगमा ! वीरियसजोगसहव्वयाए०जाव आउयं वा लद्धिं बन्धको वैक्रियशरीरस्य ततः परं देशबन्धकस्तेन सर्वबन्ध. वा पडुच्च वेउब्वियसरीरप्पागनामाए कम्पस्स उदएणं समयेनोनानि प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्युत्कर्षतो देशवन्ध वेउब्वियसरीरप्पोगबंधे । बाउकाइयएगिदियवे उब्धियस- ति । (चाउकायिपत्यादि) । देसबंधं जहमेणं पकं समय रीरप्पभोग पुच्छा । गोयमा ! वीरियसजोगसद्दच्चयाए एवं ति) कथं वायुरौदारिकशरीरी सन् वैक्रियं गतस्ततः चेव जाव लद्धि पहुच्च ० जाव वाउकाइयएगिदियस प्रथमसमये सर्वपन्धको द्वितीयसमये देशबन्धको भूत्वा मृत इत्येवं जघन्यनैको देशबन्धसमयः । ( उक्कोसणं रीरप्पमोगबंधे । रयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियवे उब्धिय अंतीमुहुस ति ) चैक्रियशरीरेण स एष यदाम्तमुत्तमासरीरप्पभोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं । गो- मास्ते तदोत्कर्षतो देशबन्धोऽन्तर्मुहर्स लब्धियक्रियश Page #1253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधय रियो जीवोत्परतो बैंकियस्थानम स्ति पुनरोदा रिकशरीरस्यावश्यं प्रतिपत्तेरिति ॥ रयणप्पभाविनेरच्छा है। गोयमा ! सव्वबंधे एकं समयं देसबंधं जहोणं दमवाससहस्साई तिसमयऊथाई उकोले सागरोवं सम्पूर्ण । एवं ० जाव अहे सतमाए, वरं दंसबंधे जस्स जा जहथिया ठिई सा तिसमयऊणा कायना ०जाब उको सा समय था । पंचिदिपतिरिवलनो खिमाणं पशुसाय जहा वाकाइयाणं असुरकुमारनागकुमार • जाव प्रणुत्तरोबवाइयाणं जहा नेरइया, खवरं जस्स ना ठिईसा भाविपन्या जाव अणुचरोबवाइयाणं सव्यबंधे एकं समयं देशबंचे जहां एकतीस सागरोपमाई तिसमयऊणाई । उक्कोसेणं तेत्तीमं सागरोवमाई समयऊणाई | (रण्यमेत्यादि) (सबंध जडणं सवासहरुला इति ) कथं त्रिसमयविग्रहेण रत्नप्रभायां जघन्यस्थितिर्नारकः समुत्पन्नस्तत्र च समयद्वयमनाहारकस्तृतीये च समये सर्वबन्धकस्ततो देशको वै समयत्रयन्यूनं वर्षसहस्रदशकं जघन्यनो देशबन्ध [कों] सागरीयमं समपूर्ण ति) कथमविप्र रत्न भायामुत्कृष्ट स्थितिर्नारकः समुत्पन्नस्तत्र च प्रथमलमये सर्वबन्धको वैकियशरीरस्य ततः परं धरतेन सर्व बन्धसमयेन सामरोपममुत्पतो देशयन्ध इति एवं सर्वत्र सर्वबन्धः समयं देशबन्धश्च जघन्यो विग्रहसमयत्रयन्यूनो निजनिजजघन्य स्थिति प्रमाणो वाच्यः, सर्वबन्धसमयन्यूनोत्कृष्टस्थितिप्रमाणश्चोत्कृष्ट देशवन्ध इत्येतदेवाऽऽह एवं जावेत्यादि) पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां वैक्रिय सर्वबन्ध एकं समयं देशबन्धस्तु जघन्य एकसमयमुत्कर्वेर्मु मेतदेवातिदेशेनाऽद्द - (पंचिदियेत्यादि) यश्च" अंते। मुडुत्तं नर (१९३०) अभिधानराजेन्कः | 9 दोहरि तिरियमरसु देवे अमाउ क्फोस विवरणकाल १" इति वचनसामर्थ्यादस्तचतुष्टयं देशबन्ध इत्युच्यते तन्मताभतरमित्यवसेयमिति । उक्तो वैक्रिय शरीरप्रयोगबन्धस्य कालः । अथ तस्यैवान्तरं निरूपयन्नाहबेडसरपद्यगबंधंतरे णं भंते 1 कालयो ! केवचिरं होई । गोषमा | सम्वतरंज ए कं समयं उक्कोसेणं अतं कालं श्रणंताओ ०जाव अवलियाए असंखेजइभागो, एवं देसवंधंतरं पि । बाउकाइयवे उब्विय सरीरपुच्छा ? । गोयमा ! सव्वधंतरं जहतो कोसे पलिश्रोषमस्व असंभा । । गं । एवं सबंधंतरं पि । तिरिक्खजोणिय पंचिदियवेडविय सरीरपयोग बंधतरपुच्छा ? । गोयण ! सव्वबंधंतरं जइसे अंतोमुत्तं, उकोमेणं पुन्चको डिपुहुतं । एवं देसतरं पि एवं मयस्स वि ॥ बंधण " ( बेस्यादि ) ( सम्बंधंतरं जहणं एकं समयं ति ) कथमोहारिक शरीरी वैक्रियं गतः प्रथमसमये सर्व बन्धको द्वितीये देशबन्धको भूत्वा मृतो देवेषु नारकेषु या वैशिरीरिष्यविनोत्पद्यमानः प्रथमसमये स बन्धक इत्येवमेकः समयः सर्वबन्धान्तरमिति । ( उक्कोयंका ति ) कथमौदारिकशरीरी वैक्रियं गतो वैक्रियशरीरिषु वा देवाऽऽदिषु समुत्यक्षः, स च प्रथमसमये सर्वबन्धको भूत्वा देशबन्धं च कृत्वा मृतस्ततः परमनन्तका समोदारिकसnifty वनस्पत्यादिषु स्थिरपा वैकिवशरीवत्सूत्पन्नस्तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको जातः, एवं च सर्ववन्धयपोक्रमन्तरं भवतीति । एवं देवंयंत ति) जयम्यकृतोऽनन्तकालमित्यर्थः भावना चास्य पूर्वोक्तानुसारेणेति । ( वाउकाइत्यादि ) ( सन्त्रबंधंतरं जनेणं अंतोमुटुसं ति ) कथं वायुरौदारिक शरीरी वै. क्रियशक्तिमापनस्तत्र च प्रथमसमये सर्व्वबन्धको भूत्वा मृतः पुनर्वायुरेव जातस्तस्य वा पर्याप्तकस्य निर्म नीयन्त मासी पयसको भूत्या पिशरीर मारभते, तत्र चासौ प्रथमसमये सर्वबन्धको जात इत्येषं सर्वबन्धान्तरमन्तर्त्तमिति । उक्कों सेणं पलिओम भार्गति कथं वायुदारिकशरीरी किये ग तस्तत्प्रथमसमये च सर्वबन्ध कस्ततो देश बन्धको भूत्वा मृत. ततः परमोदारिक शरीरिषु वायुषु पश्योपमा भागम तिबाह्यावश्यं वैक्रियं करोति, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्ध पच सर्ववयोर्यपोक्रमस्तरं भवतीति एवं देवं तरं पित्ति ) । श्रस्य भावना प्रागिवेति । ( तिरिक्खेत्यादि ) सतरंज अंतोति ) कथं पचेन्द्रिय तिर्यग्योनिको वैक्रियं गतस्तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धकस्ततः परं देशबन्धको अन्तर्मुहूर्त्तमात्रं तत औदारिकस्य सर्वबन्धको भूत्या समर्थ देशको जातः पुनरपि श्रदेयमुना कि करोमीतिक कुर्वतः प्रथमसमर्थ सर्वम् एवं च सर्वयन्पयोर्यथाक्रमन्तरं भवतीति । उकोसेणं पुग्वको डिपुहुत्तं न्ति ) कथं पूर्वकोट्यायुः पचे. न्द्रियतिर्यग्योनिको वैक्रियं गतस्तत्र च प्रथमसमये सर्वयम्पकस्तो देशवन्धको भूत्वा कालान्तरे मृतः पूर्वकोटा पञ्चेन्द्रियति पूर्वज बारान् ततः सप्तमेऽष्टमे वा भवे वैक्रियं गतस्तत्र च प्रथमलमये सर्वबन्धं कृत्वा देशको सर्वोत्कृ यथाक्रमन्तरं भवतीति । एवं सतरं पिसिना चास्य सर्वबन्धान्तरेकिभावनाऽनुसारेण कर्म > यमा वैक्रिय शरीरबन्धान्तरमेव प्रकान्तरेण चिन्तयन्नाहजीवस्स णं भंते ! वाकाइयत्ते नो वाउकाइयत्ते पुरारवि वाउफाइले बाडाइयगिदियवेत्रियपुच्छा। गो ! सव्वबंधंतरं जहमेणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेणं अ तं कालं वणस्सकालो । एवं देसबंधंतरं पि । (जीवस्स इत्यादि) ( सव्वबंधंतरं जदणं अंतमुत्तं ति ) कथं वायुर्वेपिशरीरं प्रतिपद्मस्तत्र च प्रथमसमये सर्व बन्धको भूत्या सुतस्ततः पृथिवीकाधि के पुरस्तावि कपमार्थ स्थित्वा पुनर्वास्तत्रापि कतिपया Page #1254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध (१२३१) बंधण अभिधानराजेन्द्रः। राजकमवान् स्थित्वा वैक्रियं गतस्ताव प्रथमसमये सर्व पथा रत्नप्रभामारकाणामित्येतदर्शयनाह-भिसुरकुमारस्यावन्धकोजातस्ततम क्रियस्य वैकिपस्य सर्ववन्धयोरम्तरं वित जघन्य स्थितिरसुरकुमारादीनां व्यस्तराण. दश पावा शकभषास्ते च बहवोऽप्यन्तर्मुसमातर्मुहर्ने, वर्षसहखाणि ज्योतिषकाणां पश्योपमाभागा सौधादि. बहूनां पुलकभवानां प्रतिपादितत्वात् । ततश्च सर्वच पुतु (पलियं अहियं दोसारसाहिया सत्तदस यचोहसेस्यादि) धान्तरं यथोकं भवतीति । [उकोसेणं प्रणेतं कालं मानतसूत्रेबस्सरकालो ति ] कथं वायुर्वेक्रियशरीरी भवन जीवस्स मां मंते ! अणायदेवचे नोभाणयदेवचे दु. मृतो बनस्पत्यादिवनम्तं का स्थित्वा कियशरीरं पुन. च्छा १ । गोयमा! सम्वधंतरं जहनेणं अट्ठारससागयंदा लप्स्यते तदा यथोक्तमन्तरं भविष्यतीति । [एवं देसघ. धंतर पिसि)भावमा चास्य प्रागुक्तानुसारेणेति । रोवमाई वासपुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं प्रणतं कालं रत्नप्रभाभूने वणस्सइकालो , देसबंधंतरं जहमेणं वासपुरतं, उक्कोजीवस्स णं भंते ! रयणप्पभापुढपिनेरइयत्ते नोरयणप्प- सेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो, एवं . जाव प्रचु. भापडविपुच्छा? । गोयमा! सम्बबंधंतरं जहसेयं दस-ए, नवरं जस्स जा ठिई सा सध्यबंधंतरं जहमेणं वाबाससहस्साई अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं वणस्सइ सपहसमन्भहिया कायब्बा, सेसं तं चैव । गेविजकप्पा. कालो.देसबंधंतरं जहमेअंतोमहउकोसेमं प्रयतं तीयपुच्छा । गोयमा! सव्वबंधंतरं जहमेणं बावीस कालं बस्सइकालो एवं नाव आहे सतमाए, गबरं सागरोबमाई वासाहुत्तमम्भाहियाई, उक्कोसेणं अणंतं जा जस्स ठिई जहलिया सा सवधंतरं जहमेणं अं. कालं वणस्सइकालो, देसबंधंतरं जहमेणं पासपूर, तोमुत्तमम्भहिया कायब्बा, सेसं तं चेव । पंचिंदियति- उक्कोसेणं वणस्सइकालो ॥ रिक्खजोणियमणुस्साण य जहा बाउकाइयाणं, भसुरकु- (सम्वबंधतरमित्यादि) पतस्य भाषना-मानतकल्पीयो देख मारनागकुमार जाव सहस्सारदेवाणं, एरसिं जहा रय उत्पचौसर्वबन्धकास चाष्टादशसागरोपमाणि तत्र स्थित्या णप्पभापुढविनेरइयाणं, नवरं सम्बबंधंतरं जस्स जा लिई ततश्च्युतो वर्षपृथक्त्वं मनुष्येषु स्थिरवा पुनस्तत्रैवोप प. प्रथमसमये चाऽसौ सर्वबन्धक इत्येवं सर्वबन्धास्तअहमिया सा अंतोमुत्तमम्भाहिया कायबा, सेसं.तं चैव ।। रंजघन्यमष्टादशसागरापमाणि वर्षपृथक्त्वाधिकानीति, उ(सम्वबंधतरमित्यादि) पतद्भाव्यते रक्षप्रभानारको दश. स्कृष्टत्वनन्तं कालम् । कथं स देवस्तस्माच्युतोऽनन्तं का वर्षसहरस्थितिक उत्पत्ती सर्वबन्धकस्तत उवृत्तस्तु गर्भ- घमस्पत्यादिषु स्थित्वा पुनस्तत्रैवोत्पन्नः प्रथमसमये चाsजपञ्चेन्द्रियेष्वन्तर्मुहूर्त स्थित्वा रत्नप्रभायां पुनरप्युत्पन्न- खौ सर्वबन्धक इत्येवमिति । (देसबंधंतरं जहरणेणं वा. स्तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धक इत्येवं सूत्रोक्तं जघन्यमा सपुडत त्ति ) कथं स एव देशबन्धकः संश्च्युतो वर्षन्तनं सर्ववन्धयोरिति, अयं च यदाऽपि प्रथमोत्पत्तौ त्रिसम पृथक्त्वं मनुष्यत्वमनुभूय पुनस्तत्रैव गतस्तस्य च सर्षपयविग्रहेणोत्पद्यते तदाऽपि न दशवर्षसहस्राणि त्रिसमय धामन्तरं देशवन्ध इत्येवं सूत्रोकमन्तरं भवति। रहव यपपि न्यूनानि भवन्ति अन्तर्मुहूर्तस्य मध्यात्समयत्रयस्य तत्र प्र. सर्वबन्धसमयाधिकं वर्षपृथक्त्वं भवति तथाऽपि तस्य वर्ष. क्षेपासच तत्प्रक्षेपेऽप्यन्तर्मुहर्तस्वव्याघातस्तस्यानेकभेदत्वा पृथक्त्वादनम्तरस्वविवक्षया न भेदेन गणनमिति, एवं दिति । (उकोसेणं वणस्सइकालो त्ति ) कथं रत्नप्रभानार. क उत्पत्ती सर्वबन्धकस्तन उदृत्तश्चानन्तं कालं बनस्प प्राणताऽऽरणाच्युतप्रैधेयकसूत्राण्यपि, अथ सनत्कुमाराssस्यादिषु शित्वा पुनस्तत्रैवोत्पद्यमानः सर्ववन्ध इत्येवमु दिखइसाराम्ता देवा जघन्यतो नवदिनाऽऽयुभ्य मानतात. स्कृष्टमन्तरमिति । (देसवंधंतरं जहलेसं अंतोमुहुरा ति) चच्युताम्तास्तु मवमासाऽऽयुकेभ्यः समुत्पद्यन्त इति जीब कथं रत्नप्रमानारको देशबन्धकस्सन् मृतोऽन्तर्मुहर्ताऽऽयु: समासे अभिधीयते । ततश्च जघन्यं तत्सर्वबग्धान्तरं तर. पश्चेन्द्रियतिर्यक्रयोत्पद्य मृस्वारस्नप्रभानारकसयोत्पलस्तत्रच दधिकतजघन्यस्थितिरूपं मामोति । सत्यमेतत् , केवलं मद्वितीयसमये देशबन्ध इत्येवं जघन्य देशवम्धस्यान्तरमि- तान्तरमेवेदमिति । अनुत्तरविमानसूत्रे ( उक्कोसेपमित्या. ति । ( उक्कोसेणमित्यादि ) भावमा प्रागुक्तानुसारेणेति, शर्क. दि) उत्कर्ष सर्षवम्धान्तरं देशबन्धान्तरंच संख्यातामि साग. रप्रभाऽदिनारकबक्रियशरीरबन्धस्यान्तरमतिदेशतः संक्षपा. रोपमामि यतो मानम्तकालमनुसरविमानच्युतः संसरति । र्थमाह-(एवं जावेत्यादि)द्वितीयाऽनिधिषीषु जघन्या स्थित तानि बजीपसमासमतेन द्विसंख्यानीति । तिः क्रमेणैकं त्रीणि सनदश सप्तदश द्वाविंशतिश्च सागरोप अथ क्रियशरीरदेशबन्धकाऽऽदीनामस्पस्थाऽदि. माणीति, पञ्चन्द्रियेत्यादौ (जहा घाउकाइयाण त्ति जघन्ये. निरूपणायाऽऽहनान्तमुहर्समुत्कृष्टतः पुनरनन्तं कालमित्यर्थोऽसुरकुमाराss- जीवस्स णं भंते ! अणुत्तरोववाइयपुच्छा ? गोयमा! यस्तु सहस्त्रारान्ता देवा उत्पत्तिसमये सर्वबन्धं कृत्वा सम्वबंधंतरं जहरेणं एक्कतीसं सागरोवमाई बासपुरस्वकीयां च जघन्यस्थितिमनुपाल्य पशेन्द्रियतिर्य जघन्ये. नान्तर्मुर्सायुक्कत्वेन समुत्पन मृत्वा च तेष्वेव सर्वबन्धका त्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं संखेआई सागरोवमाई, देसजाता एवं च तेषां वैक्रियस्य जघन्यं सर्वबन्धान्तरं जवन्या बंधतरं जहणं वासहुतं, उक्कोसेणं संखेआई सागसरिस्थतिरन्तर्मुहूर्णधिका वक्तव्या; उत्कृष्टं स्वनन्तं काल रोवमाई। एतसि यं भंते । जीवाणं वेउम्बियसरीर Page #1255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२३२) बंधगा अभिधानराजेन्द्रः। बंधण स्स देसबंधगाणं सव्वबंधगाणं प्रबंधगाण यकयरे क- मेव विशेषेणाऽऽह-(अणंतानो उसप्पिणीओ प्रोसप्पिणीयो यरोहितो. जाव विसेसाहिया बा। गोयमा ! मन कालो सेत्तश्री अणंता लोग त्ति)। पतठ्याख्यान प्राग्वत । त्योवा जीवा उम्बियसरीरम्स सबबंगा, देसवधंगा| 'भय सत्र पुरलपरावर्तपरिमाणं किं भवतीत्याह-(अध पोग्गलपरियह देसूर्ण ति) अपार्द्धम्-अपगमार्चमीमात्रमिभसंखअगुणा, अंधगा अतगुखा। त्यथैः , पुवलपरावर्त प्रायुक्तस्वरूपम् , अपार्द्धमप्यतः पू(पएलीत्यादि ) तत्र सर्वस्तीका क्रियसर्वबन्धकास्त- णे स्यादत माह-देशोनमिति । एवं । देसबंधंतरं पि ति) स्कालस्यारपत्वात् देशबन्धका प्रसंक्यातगुणास्तरकालस्य जघन्येनान्तर्मुहुर्तमुत्कर्षतः पुनरपाई पुद्रलपराव देशोनम् । तदपेक्षया संख्येय गुणत्वादवन्धकास्वनन्तगुणाः । सिद्धानां भावना तु पूर्वोक्तानुसारेणेति। वनस्पत्यादीनां च तदपेक्षवा अनन्तगुणत्वादिति। अथाहारकशरीरदेशबन्धकाऽऽदीनामपत्वाऽऽविनिअथाहारकशरीरप्रयोगबन्धमधिकृत्याह रूपणायाहआहारगसरीरप्पभोगबंधे से भंते कइविहे पपत्ते ।गोयमा एएसि णं भंते ! जीवाणं पाहारगसरीरस्स देसबंधगाणं एगागारे पासचे । जइएगागारे षसत्ते किं मणुस्साऽऽहार• | सबबंधगाणं प्रबंधगावं कयरे कयरेहिंतोआव विसेसागसरीरप्पभोगबंधे, अमगुस्साऽऽहारगसरीरप्पोमबंधे। हिया वा गोयमा सव्वत्थोवा जीवाश्राहारगसरीरस्स सगोयमा! मणुस्साऽऽहारगसरीरप्पओगबंधे,नोत्रमणुस्साऽऽ. बबंधगा, देसबंधमा संखेजगुणा, प्रबंधगा अयंतगुणा ।। हारगमरीरप्पोगबंधे,एवं एएणं अभिलावेखं जहा ओगाह ( एएसीत्यादि ) तत्र सर्वस्तोका माहारकस्य सबयासंठामेजाव इडिपत्तपमत्तसंजयसम्मदिट्टीपज्जत्तसंखेजवा. न्धकास्तत्सर्ववन्धकालस्याऽल्पत्वाद्देशबन्धकाः संख्यातगु जास्त द्देशबन्धकालस्य बहुत्वादसंख्यातगुणास्तु ते न भव. साउयकम्मभूमिगन्भवतियमणुस्साऽऽहारगसराप्योग न्ति, यतो मनुष्या अपि सख्याताः किं पुनराहारकशरीरदे. बंधे, नोअस्थि डिपत्तपमत जाव माहारममरीरप्पोमबंधे शबन्धका प्रबन्धकास्त्वनन्तगुणाः, श्राद्वारकशरीरं हि मनु. णं भंते! कस्स कम्मस्स उयए। गोयमा! वीरियसजोगस प्याणां तत्राऽपि संयतानाम् , तेषामपि केषांचिदेव कदाचि देव च भवतीति । शेषकाले ते शेषसत्याश्चाबन्धकास्ततश्व ६च्चयाएजाव लद्धिवो पडच आहारगसरीरप्प प्रोगनामाए सिद्ध वनस्पत्यादीनामनन्तगुणत्वादनन्तगुणास्त इति ॥ कम्मस्स उदएणं । आहारगसरीरप्पोगबंधे माहारगस अथ तेजसशरीरप्रयोगबन्धमधिकृत्याऽऽहरीरप्पओगबंधे णं भंते ! किं देसबंधे, सबबंधे १ गोय- तयासरीरप्पोगबंधे णं भंत ! काबिहे पण्णत्ते ? । गोयमा! देसबंधे वि, सबबंधे वि । आहारगसरीरप्प- यमा! पंचविहे पएणत्ते । तं जहा-एगिदियतेयासरीरप्प. मोगबंधे भंते ! कालो केवचिरं होइ ?। गोयमा ! ओगबंधे य, बेइंदियतेयासरीरप्पोगबंधे य जाव पंचिंसव्वबंधे एक समयं, देसबंधे जहमेणं अंतोमुहुतं, उक्को- दियतेयासरीरप्पोगबंधे य । एगिदियतेयामरीरप्पभोसेणं वि अंतोमुहुत्तं । आहारगसरीरप्पोगबंधतरेणं, भंते ! गवंधे भंते ! कइविहे पएणते । एवं एएणं अ. कालो केवचिंर होइ । गोयमा ! सव्व बंधंतरं जहमेणं भिलावणं भेदो जहा-पोगाणसंठाणे जाव पत्ता अंतोमुहतं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणताओ ओसप्पि- सव्वद्वसिद्धअगुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियबीउस्सपिलीयो कालो, खेतो अणंता लोगा प्रवर्ल्ड तेयासरीरप्पोगबंधे य अपञ्जत्तासचट्ठसिद्धअणुत्तरो. पोग्गलपरियह देसूर्ण । एवं देसबंधंतरं पि॥ ववाइयजाव बंधे य । तेयासरीरप्पोगबंधे णं भंते !कस्स ( सव्वबंधे एक समय ति) आद्यसमय एव सर्वबन्ध- कम्मस्स उदएणं? । गोयमा ? वीरियसजोगसहब्बयाए. भावात् । ( देस बंधे जहमेणं अतोमुहुस, उक्कोसेण वि जाप पाउयं वा पडुच्च तेयासरीरपोयमामाए कअंतीम हुतं ति) कथं जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्महर्समा. अमेथाहार कशरीरी भवति, परत औदारिकशरीरस्याव म्मस्स उदएणं तेयासरीरप्पोगपंधे । तेयासरीरप्पोगश्य ग्रहणात्तत्र वान्तर्मुः श्राद्यसमये सर्वबन्ध उत्तर- बंधे गं भंते ! किं देसबंधे, सब्यबंधे, १ । गोयपा ! कालं च देशबन्ध इति । अथाऽहारकशरीरप्रयोगवन्धस्यै. देसबंधे, पो सबबंधे। तेयासरीरप्पभोगचंधे णं भंते ! बान्तरनिरूपणायाऽऽहु-( आहारेत्यादि ) ( सन्धबंधंतरं कालमो केवचिरं होइ ? । गोयमा! दुविहे पएणत्ते । तं नह मेणं अतोमुहसं ति ) कथं मनुष्य आहारकशरीरं प्र. जहा-प्रणाइए वा अपज्जवसिप,अणाइए वा सपञ्जवसिए । तिपन्नस्तत्प्रथमसमये व सघबन्धकस्ततोऽन्तमुर्त्तमात्र स्थित्वा औदारिकशरीरं गतस्तत्राप्यन्त मुहर्स स्थितः पु तेयासरीरप्पयोगधंतरे शंभंते ! कालो केवचिरं होइ । नरपितस्य संशवाऽऽद्याहारक शरीरकरणकारणमुत्पन्न, ततः | गोयमा ! असाइयस्स अपज्जवसियस नस्थि अंतरं, अपुनरप्याद्वारकशरीरं गृहाति, तरच प्रथमसमये सर्वबन्धक णाइयस्स सपञ्जवसियस नस्थि अंतरं । एएसि गं भंते ! पवत्येवं च सर्वबन्धान्तरमन्तमहर्स द्वयोरप्यन्तर्मुहूर्तयोरे जीवाणं तेयासरीरस्स देसबंधगाणं अबंधगाण य क्यरे कत्वविवक्षणादिति । ( उक्को सेणं णतं कालं ति)। कथं करीत इति कानानन्त्य कयरहितोजाब विसेसाहिया वा। गोयमा! सवयो Page #1256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण अभिधानराजेन्छः। बंधा बा जी तेयासरीरस्स प्रबंधगा देसंबंधगा भयंतगुणा ॥ बयाए सायावेयसिजकम्पासरीरप्पभोगनामाए कम्मरस (तेरेत्यादि) । मोसवबंधे ति ) तेजसशरीरस्यानादि उदएवं सायावेयणिज्ज जाव बंधे । सायावेयणिजस्थान सर्ववन्धोऽस्ति. तस्य प्रथमतः पुबलोपादानरूपत्वा पुरुलागोयमा ! परदुक्खययाए परसोयखयाए जहा दिनि । (प्रणाया अपजयसिएत्यादि ) तत्रायं तेज सत्तमसए दुस्समाउद्देसए जाव परितावणयाए असाया. सशरीरमधोऽमादिरपर्यवसितोऽभव्यामाम, अनादिः सपर्व बसिसस्तु भव्यानामिति । अथ तेजसशरीरप्रयागबन्धस्यै। वेगणिज्जकम्मा जाब पभोगबंधे । मोहणिज्जफम्मासरी. बाम्तरनिरूपणायाss- तेयेत्यादि । ( प्रणाइयस्सेत्यादि) रपुच्छा है। गोयमा ! तिव्बकोहयाए तिनमाख्याए तिब्ब. यस्मात्संसारस्थो जीवस्तै जसशरीरबन्धनद्वयरूपेणाऽपि स- याययाए तिब्बलोहयाए तिब्बदंसथामोहणिज्जयाए तिम. दाऽविमिर्मुक्त एष मवति, तस्मादद्वयरूपस्याप्यस्य नास्त्य चरितमोहणिज्जयाए मोहबिअकम्मासरीरप्पभोग जाव मतरमिति ।मथ तेजसशरीरदेशबन्धकाऽवन्धकानामल्पत्याऽविनिरूपलायाऽऽह-(एएसीत्यादि । तत्र सर्वस्तोकास्तै. पोगबंधे । ओरइयाउयकम्मासरीरप्पभोगबंधे संमंत ! असशरीरस्थाऽबन्धकाः, सिद्धानामेव नबन्धकत्वात् , देश- पुच्छा । गोयमा ! महारंभयाए महापरिम्गहियाए पचिंदि. बन्धकास्वनन्तगुणास्तदेशबन्धकानां सकलसंसारिणां सि. यवहेणं कुणिमाहारेणं णेरइयाउयकम्मासरीरप्पभोगणाद्वेभ्योऽनन्तगुणत्वादिति । __ अथ कार्मणशरीरप्रयोगबन्धमधिकृत्याऽह माए कम्मस्स उदएणं णेरड्याउयकम्मासरीर०जाव पो. कम्मासरीरप्पभोगबंधे णं भंते ! कइविहे पाणते ? गोय. गबधे । तिरिक्ख जोणियाउयकम्मासरीरपुच्छा ? । गोयमा! मा! अट्ठविहे परमत्ते । तं जहा-नाणावरणिजकम्मासरी माइल्लयाए नियडिवयाए अलियनयणेणं कूडतुल्लकूडमाणे रपयोगबंधे जाव अंतगइयकम्मासरीरप्पोगबंधे । ना. गण तिरिक्खजोणियाउयकम्मा जाब पोगबंधे । मणुणावरणिजकम्मासरीरप्पोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्म स्साउयकम्मासरीरपुच्छा। गोयमा! पगइभद्दयाए पगइवि. इस उदएणं । गोयमा नाणपडिणीययाए नाणणिएहव णीययाए साणुकोसणयाए अमच्छरियत्ताए मणुस्साउय. णयाए नाणंतराएणं नाणप्पदोसेणं णाणच्चासायएणं कम्माजाव पोगबंधे । देवाउयकम्मासरीरपुच्छा । गोय. नाणविसंवादणाजोगेणं नाणावरणिनकम्मासरीरप्पो मा! सरागसंजमेणं संजमाऽसंजमेणं चालतबोकम्मेणं अकामगनामाए कम्मस्स उदएणं नाणावरणिज्जकम्मासरीर खिजराए देवाउयकम्मासरीर जाव पोगबंधे । सुभनामपोगबंधे ॥ . कम्मासरीरपुच्छा । गोयमा! काउज्जुययाए भावुज्जुययाए (नाणपडिणीययाए त्ति )झानस्य-श्रुताऽऽदेस्तदभेदाज्ञान भासुज्जुययाए अविसंवादणाजोगेणं सुभणामकम्मासरीर बतां वा या प्रत्यनीकता सामान्येन प्रतिकूलता सा तथा जाव पोगबंधे । असुभणामकम्मासरीरपुच्छा । गोयमा! तया। (नाणनिन्हवणयाए त्ति) ज्ञानस्य-श्रुतस्य श्रुतगुरू- कायप्रण जुययाएजाप विसंवादणाजोगेणं असुभणाणां वा या निवता-अपलपनं सा तथा तया-(नाणंतरा मकम्मासरीर०जाव पोगबंधे । उच्चागोयकम्मासरीरघुयेणं ति)शानस्य श्रुतस्यान्तरायस्तग्रहणादौ विघ्नो यः स तथा तेन । ( नाणप्पोसणं ति )झाने-श्रुताऽऽदौ ज्ञानव च्छा । गोयमा ! जातिप्रमदेणं कुलअमदेणं बलअमदेश सु वा यः प्रद्वेषोऽप्रीतिः स तथा तेन । (नाणच्चासाय: रूवअमदेणं तबअमदेणं लाभअमदेणं सुअअपदणं इस्सरि • ग्णाए त्ति) ज्ञानस्य शानिनां वा याऽत्याशातना-हीलना सा यअमदेणं उच्चागोयकमासरीरजाव पोगबंधे । णायातया तया । ( नाणविसंवायणाजोपणं ति ) ज्ञानस्य शानि. गोयकम्मरीरपुच्छा ?। गोयमा ! जातिमदेणं कुलमदेणं मां वा विसंवादनयोगो व्यभिचारदर्शनाय व्यापारो यः स तथा तेनापतानि च बाह्यानि कारणानि झानाऽऽवरणीयका. बलमदेणं जाव इस्सरियमदेणं णीयागोयकम्मासरीर मणशरीरबन्धे। जाव पोगबंधे। अंतराइयकम्पासरीरपुच्छा ?। गोयमा ! अथान्तरं कारण माह दाणंतरापणं लाभंतराएणं भोगतराएणं उवभागंतरापणं दरिसरणावरणिजम्मासरीरप्पप्रोगबंधे णं भंते ! कस्स बीरियंतरापणं अंतराइयकम्मासरीरप्पओगणामाए कम्मकम्मस्स उदएणं । गोयमा !। दसणपडिणीययाए एवं ज स्स उदएणं अंतराइयकम्मासरीरप्पमोगबंधे। णाणावरगिहा नाणावरणिज्ज, नवरं दसणनामधेयव्वं जाव दंस जकम्मासरीरप्पयोगबधे ण भंते ! किं देसबंधे सव्वबंधे। णविसंवायणाजोगेणं दसणावरणिज्जकम्मासरीरप्पोग गोयमा ! देसबंधे, णो सव्वबंधे, एवं जाव अंतराइयं । णामाए कम्मरस उदएणं जाव पोगबंधे । णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कालो सायावयणिजकम्पासरीरप्पभोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्म केवचिरं होइ । गोयमा! दुविहे पम्मत्ते । तं जहा-अस्माइय स उदएणं । गोयमा ! पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपयाए एवं जहेव तेयगस्स संचिटणा तहेव एवं जाव अंतराइएवं जहा सत्तमसए दुस्समाउद्देसए जाव अपरियाव- यकम्मरस । णाणावरणिनकम्मासरीरप्पभोगधंतरणं Page #1257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (१२१४) बंधण अभिधानराजेन्द्रः। बंधण भंते ! कालमो केवचिरं होई । गोयमा ! प्रणाइयस्स एवं | विशरीरषदिति न सबम्धसम्भव इति । जहा तेयगसरीरस्स अंतरं तहेव •जाव अंतराइयम्स । __प्रकारान्तरेणौदारिकाऽऽदि चिन्तयन्माह जस्सणं भंते ! ओरालियसरीरस्स सम्वबंधे से संभंते.! एएसिणं भंते ! जीवाणं णाणावरणिजस्स कम्मस्म वेउम्बियसरीरस्स किंबंधए, प्रबंधए ? । गोयमा ! खो देसबंधगाणं प्रबंधगाण य कयरे कयरे जाव अप्पाबहुगं बंधए, प्रबंधए। माहारमसरीरस्स किंबंधए, प्रबंधए । जहा सेयगस्स एवं भाउयवअंजाव अंतराइयं । भाउयस्स पुछा। गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा पाउयकम्मम्स देस गोयमा यो बंधए, अबंधए । तेयासरीरस्स किंपगा, प्रबंधगा संखेजगुणा । धए , अबंधए । गोयमा ! बंधए ! णो अबंधए । ज(नाणावरणिमित्यादि) ज्ञानावरणीयहेतुत्वेन शानाss इबंधए कि देसबंधए, सव्वबंधए । गोयमा ! देसबबरणीयलक्षणं यत्कार्मणशरीरप्रयोगनाम तत्तथा तस्य क- धए , णो सध्वबंधए । कम्मासरीरस्स किंबंधए, अबंधए।। र्मण उदयेनेति । ( दसणपडिणीययाए त्ति ) इस दर्श- जहेव तेयगस्स . जाव देसबंधए णो सव्ववंधए । -चतुर्शनाऽऽदि। (तिब्बईसण मोहणिज्जयाए सि) ती. जस्सणं भंते ! ओरालियसरीरस्स देसबंधे से ण मेंप्रमिथ्यात्वतयेस्यर्थः । ( तिव्वचरित्तमोहणिज्जयाए त्ति) ते! वेउब्वियसरीरस्स किं बंधए , प्रबंधए । गोयमा ! कषायव्यतिरिक्तं नोकषायलक्षणमिह चारित्रमोहनीयं प्राचं तीवक्रोधतयेत्यादिना कषायचारित्रमोहनीयस्य प्रागुतत्वा यो बंधए प्रबंधए, एवं जहेव सव्वबंधे णं भणियं विति । ( महारंभयाए ति) अपरिमितकृष्याचारम्भतये तहेव देसबंधेण वि भाणियव्वं . जाव कम्मगस्स । त्यर्थः। ( महापरिग्गयाए ति) अपरिमाणपरिग्रहतया जस्स णं भंते ! उब्वियसरीरस्स सम्वबंधे से णं भंते ! (कुणिमाहारेणं ति ) मांसभोजनेनेति । ( माझयाए भोरालियसरीरस्स किंबंधए अबंधए गोयमाणो बंधए, सि) परषश्चनबुशिवसया ( नियडिल्लयाए त्ति) निकृतिः भए । माहारगसरीरस्स एवं चेव तेयगस्स कम्मगपञ्चना बेष्टा, माया प्रच्छादनार्थ मायान्तरमित्येके, अत्याs वारकरणेन परपश्चनमित्यन्ये । तद्वत्सया (पगइभहयाए स्स य जहेब मोरालिएणं समं भणियं तहेव भाणिसि) स्वभावतः परानुपतापितया । (साणुक्कोलयाए ति) यध्वं जाव देसबंधे णो सवबंधे । जस्स णं भंते! वेसानुकम्पतया। (प्रमच्छरिययाए ति) मत्सरिक:-पर उब्वियसरीरस्स देसबंधे से शं भंते ! भोरालियसरीरस्स गुणानामसोढा, तावनिषेधोऽमत्सरिकता तया [ सुभमामकम्मेत्यादि] ह शुभनाम देवगत्यादिकम् । [काय. किं बंधए , प्रबंधए । गोयमा ! यो बंधए अबंधए, एवं उज्याए ति] कायर्जुकतया परावश्चनपरकायचेष्टया । जहेष सबंधे णं भणियं तहेव देसबंधेण वि माणि[ भावुज्जुययाए ति ] भाषर्जुकतया परवश्वनपरमन:- यव्वं . जाव कम्मगस्स । जस्स मं भंते ! पाहारप्रवृस्येत्यर्थः [ भासुज्जुययाए ति ] भाषर्जुकतया गसरीरस्स सबबंधे से णं भंते ! पोरालियसरीरस्स भाषार्जयनेत्यर्थः । [ अविसंवायणजोगेणं ति ] विसंबादममन्यथाप्रतिपन्नस्यान्यथाकरणं तदुरूपो योगी-व्यापा. किं बंधए , अवंधए । गोयमा ! णो बंधए प्रबंधए, एवं रस्तेनषा योगःसम्बन्धी विसंवादनयोगस्तभिषेधोऽविस- वेउब्वियस्स वितेयगकम्माण जहेव अओरालिएणं समं बनयोगस्तेनेह व कायर्जुकताऽदित्रयं वर्तमानकालाss. भणियं तहेव भाणियव्वं । जस्स ण भंते ! आहायमषिसंवादमयोगस्वतीतवर्तमानलक्षणकालद्वयाऽऽश्रय ह. रंगसरीरस्स देसबंधे से णं भंते ! ओरालियसरीरस्स एवं ति। [असुभनामकम्मेत्यादि] इह चाऽशुभनामनरकगत्या दिकम् । [कम्मासरीरप्पनोगबंधे णमित्यादि ] कार्मणश जहा पाहारगसरीरस्स सव्वबंधे णं भणियं तहा देसबंधे. रीरप्रयोगवन्धप्रकरणं तेजसशरीरप्रयोगबन्धप्रकरणवनेयम्। ण वि भाणि यवं जाव कम्मगस्स। जस्स णं भंते ! यस्तु विशेषोऽसाषच्यते-( सव्वत्थोवा जीना आउयम्स क- तेयासरीरस्स देसबंधे से णं भंते ! ओरालियसरीरस्स म्मस्स देसबंधग ति) सर्वस्नोकत्वमगमायुन्धाद्धायाः किं बंधए, प्रबंधए । गोयमा! बंधए वा अबंधए वा। स्तोकस्वादबन्धाद्धायास्तु प्रत्याशदवन्धकाः संख्या. तगुणाः । नम्वसंख्यातगुणास्तव पन्धकाः कस्मानोक्तास्तदब. जह बंधए कि देसबंधए, सबबंधए ? गोयमा ! देसबंधए भधावाया असंख्यातजीवितानाश्रित्यासंख्यातगुणत्वात् । उ. वा सव्वबंधए वा । वेउनियसरीरस्स किं बंधए ? । एवं व्यते-दमनन्तकाथिकानाश्रित्य सूत्रम् । तत्र चानन्तकायि- चेव । एवं पाहारगस्स वि । कम्मगसरीरस्स किं बंधए , काः संख्यातजीविता एव, ते चाऽऽयुष्कस्याबन्धकास्तद्दे. प्रबंधए । गोयमा! बंधए, णो अवंधए । जइ बंधए किं शबम्धकेभ्यः संख्यातगुणा एव भवन्ति । यद्यबम्धकाः सि देसबंधए, सव्वबंधए । गोयमा! देसबंधए , णो सबसाऽऽयस्तम्मध्ये क्षिप्यन्ते, तथाऽपि तेभ्यः संख्यातगुणा बंधए जसणं भंते ! कम्मासरीरस्स देसबंधे से णं भंते ! एवं ते, सियाऽऽयबन्धकानामनन्तानामप्यनन्तकायिकाss युर्वन्धकाऽपेक्षयानन्तभागत्वादिति । ननु यदायुषोऽबन्धकाः ओरालियसरीरस्स जहा तेयगस्स वत्तव्यया भणिया तहा खम्तो बम्धका भवन्ति, तदा कथं न सर्घवन्धसस्भवम्तेषामु. कम्मगस्स वि भाणियवा जाव तेयासरीरस्स जाव व्यते,महापुःप्रकृतिरसवी सर्वा तैर्निबध्यते । औदारिका/ देसबंधए, यो सबबंध । Page #1258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण कार्मणस्य (१२३४) भन्निधानराजेन्धः । बंधण (जस्लेत्यादि) (नोपंधर ति) कसमये प्रादारिक- विशेषाधिका इति । सेयं स्थापनाबैंक्रिययोर्बन्धी विद्यत इति कृत्वा नोबन्धक इति । एवमाहार मौवारिकस्य | वैक्रियस्य स्थापि,तेजसस्य पुनः सदैवाऽविरहितत्वावन्धको देशवन्धे. सर्वबन्धका सवेबन्धका भ, सर्वबन्धस्तु नास्त्येव तस्येति । एवं कार्मणशरीरस्यापि अनन्तगुणाः ६, असंख्यगुणाः ३, बाध्यमिति । एवमौदारिकसर्वबन्धमाश्रित्य शेषाणां बन्ध. देशबन्धका देशन्धका: चिन्तार्थोऽनन्तरदण्डक उक्तोऽथौदारिकस्यैव देशबन्धमा. असंख्यगुणाः असंख्यगुणाः ४. चित्यान्यमाह-(जस्स पमित्यदि) अथ वैक्रियस्य सर्व भवन्धकाः प्रबन्धका वि विशेषाधिका:७. शेषाधिकाः १०. बम्धमाश्रित्य शेषाणां बन्धचिन्तार्थोऽन्योदएरकस्तत्र च।। (तेयगस्स कम्मगस्स य ज(वेत्यादि)यौवारिकशरीरसर्व प्राहारकस्थ तेजसस्थ बन्धकस्य जसकार्मणयोर्देशबन्धकत्वमुक्तमेवं क्रियशरी सर्वबन्धकाः न सन्ति न सन्ति रसर्षबन्धकस्यापि तयोर्देशबन्धकत्वं वाव्यमिति भावः। वैकि- सर्वस्तोकाः सर्ववन्धका | सर्वबन्धकाः, यदेशबन्धदण्डक माहारकस्य सर्ववम्धदण्डको देशबन्धद- देशबन्धकाः | देशबन्धकाः | देशबन्धकाः एकच सुगम एव, तैजसदेशबम्धदण्डके तु (बंधए वा भ. संख्यगुणाः२, विशेषाधिकाः, विशेषाधिकार प्रबन्धकाः वि- श्रबन्धकाः पंधए पत्ति) तेजसदेशबन्धक औदारिकशरीरस्य बन्ध |अबन्धकाः |शेषाधिकाः ११. अनन्तगुणाः५.| अनन्तगुणाः ५, को पा, स्यादबन्धको वा. तत्र विप्रहे वर्तमानोऽबन्धकोऽ. विग्रहस्थः पुनर्बन्धकः स एवोत्पत्तिक्षेत्रप्राप्तिप्रथमसमये इहाल्पबहुत्वाधिकारं वृद्धाः गाथाभिरेवं प्रपश्चितवन्तःसर्वबन्धको, द्वितीयाऽऽदौ तु देशवन्धक इति । एवं कार्म, "ओरालसव्वबंधा, थोबा प्रबंधया विसेसहिया। सशरीरदेशबन्धदण्डकेऽपि वाच्यमिति । तत्तोय देसबंधा, असंखगुणिया कहं भेया?॥१॥" प्रथौदारिकाऽऽदिशरीरदेशबन्धकाऽऽदीनामरूपत्वाऽऽदि- इहौदारिकसर्वबन्धाऽऽदीनामल्पत्वाऽऽदिभावनार्थ सर्ववन्धानिरूपणायाऽऽह ऽऽदिस्वरूपं तावदुच्यतेएएसिणं भंते ! सव्वजीवाणं पोरालियवेउत्रिय- "पढमम्मि सव्वबंधो, समए सेसेसु देसबंधो उ। आहारगतेयाकम्मासरीरगाणं देशबंधगाणं सवबंधगाणं सिद्धाईण प्रबंधो, विग्गहगड्याण य जियास॥२॥" प्रबंधगाण य कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा। गो- हजुगत्या विग्रहगत्या चोत्पद्यमानानां जीवानामुत्पत्ति यमा ! सम्वत्थोवा पाहारगसरीरस्स सव्वबंधगा, तस्स | क्षेत्रप्राप्तिप्रथमसमये सर्वबन्धो भवति । द्वितीयाऽऽविषु देश बम्धः, सिद्धाऽऽदीनामित्यनाऽऽदिशब्दाद् बैक्रियाऽऽदिवन्ध. घेव देसबंधगा संखे जगुणा २, वेउब्वियसरीरस्स सच कानां च जीवानामौदारिकस्याबन्ध इति । इहब सिवादीनाबंधगा असंखजगुणा ३, तस्स चेव देसबंधगा असंखे मबन्धकत्वेऽपयत्यन्ताल्पत्वेनाविवक्षणाद्विग्रहिकानेव प्रतीस्य अगुणा ४, तेयाकम्मगाणं दोएह वि तुल्ला प्रबंधगा सर्ववन्धकेभ्योऽबन्धका विशेषा उक्ताः । इत्येतदेवाहअणंतगुणा ५, ओरालियसरीरस्स सबबंधगा भणं "हपुण विग्गहिय थिय, पहषभणिया प्रबंधगा अहिया। तगुणा ६, तस्स चेव भबंधगा विसेसाहिया ७. सिखा अणंतभाग-म्मि सब्बबंधाण वि भवंति ॥३॥" तस्स चेव देसबंधगा असंखेजगुणा ८, तेयाकम्मगाणं | साधारणेष्वपि सर्ववन्धभावात्सर्वबन्धकाः सिद्धेभ्योऽ. देसबंधगा विसेसाहिया 8, वेउब्बियसरीरस्स प्रबंधगा नम्तगुणा यत एवं ततः सिद्धास्तेषामनन्तभागे वर्तन्ते । विसेसाहिया १०, माहारगसरीरस्स प्रबंधगा विसेसहिया। यदि च-सिखा भपि तेषामनन्तभागे वर्तन्ते तदा सुतरां पते हि विग्रहगतिकाः सिद्धादयश्च भवन्ति । तत्रच सि. बैंक्रियबन्धकाऽऽदयः प्रतीयन्त एव, ततस्ताविहाय एवं खादीनामत्यन्ताल्पत्वेनेहाऽविवक्षा विग्रहगतिकाश्च वक्ष्य सिखपदमेवेहातिमिति । अथ सर्वबन्धकानामबम्धकानां माणन्यान्येन सर्वबन्धकेम्पो बहुतरा इति । तेभ्यस्तववन्धका च समताऽभिधानपूर्वकमबन्धकानां विशेषाधिकस्वमुपदविशेषाधिका इति । तस्यैव चौदारिकस्य देशबन्धका प्रसं- शयितुमाहस्यातगुणा विग्रहाद्धापेक्षया देशबन्धाखाया असंण्यातगु. " उजुभा व तेगवंका, दुहमी बंका गई भवे तिविहा। णत्वासजसकामणयोर्देशबन्धका विशेषाधिका यस्मात्सs. पढमाइसम्बबंधा, सम्वे धीया य अखं तु॥४॥, पि संसारिणस्तैसकार्मणयोर्देशबन्धका भवन्ति । तत्र ताया तायभागो, लब्भा जीवाण सव्वबंधाण। ये विप्रहगतिका औदारिकसर्ववन्धका वैक्रियादिबन्धका- इह तिनि सम्बबंधा, रासी तिव व प्रबंधा ॥५॥ श्व ते औदारिकदेशबन्धकेभ्योऽतिरिच्यन्त इति । ते वि. रासिप्पमाणो ते, तुल्ला बंधा य सम्बबंधा य। शेषाधिका इति । वैक्रियशरीरस्याबन्धका विशेषाधिका यः | संखापमाषो पुण, प्रबंधगा मुण जहऽभहिया ॥६॥" स्मा=क्रियस्य बन्धकाः प्रायो देवनारका एव, शेषास्तु त- ऋज्वायतायां गतौ सर्वबन्धका एवाऽऽयसमये भवम्त्येष. बन्धकाः सिद्धाश्वतत्र सिद्धास्तैजसाऽऽविदेशबन्धकेभ्योऽ. मेकस्तेषां राशिः, एकवकाया ये उत्पद्यन्ते तेषां ये प्रथमे ल. तिरिच्यन्त इति तैर्विशेषाधिका उक्ताः। आहारकशरीर- मये तेऽबन्धकाः, द्वितीये. तु सर्वबन्धका इत्येवं तेषां द्विस्याऽचम्धका विशेषाधिका यस्माम्मनुष्याणामेवाहारकश तीयो राशिः, स चैकवक्राभिधानद्वितीयगत्योस्पद्यमानाना. रीरं क्रियं तु तदन्येषामपि । ततो क्रियबन्धेभ्य माहारका मीभूतो भवतीति, द्विवक्रया गस्या ये पुनरुत्पद्यन्ते ते बन्धकानां स्तोकत्वेन वैक्रियाम्बन्धकेभ्य माहारकाऽबन्धका प्राधे समयदये प्रबन्धकास्वतीये तु सर्वबन्धकाः। मयं व समा Page #1259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंघय सर्ववन्धकानां तृतीयो राशिः स च द्विवाभिधानंवृती. पगस्पोत्पद्यमानानां त्रिभागभूतो भवति, तृतीयसमयभाषि स्वात्तस्य, एवं च त्रयः सर्वबन्धकानां राशयाय एव थाबन्धकानां समयमेन राशिदादिति वर्ष ते क्षिप्र माणस्तुल्या पद्यपि भवति तथापि याप्रमाधिका अन्धका भवति । ते चैवम्"ते निगम इस पंति । दुलमाया तिपयरिया, तिलमाया सेललो गाओ ॥ ७ ॥ " साधिका जुगस्थोपचमानका इ सिन निगोने साधारण लोकमध्यस्थद या मागच्छन्ति ये पुनर्द्विसमयिका एकवक्रगत्योपद्यमाना इत्यर्थः प्रगति वि. दियां प्रतरावरूपः पुन मधिकाः समयत्रवेनोद्यमान : लोका मतरभयातिरिलोकादागच्छन्तीति प्रतरत्ररूपणा या उद" तिरिया 35वर्ष च चउद्दिसि पपरमसंखलवाड पुरुषावरदा-हिरणुसरा जा य दो पयरा ॥ ८ ॥" 9 लोकमपनिगोदमधिकृत्य तिर्यगायतश्चतसृषु दिचु तर गोदो 1 स्पादकालागाहनाबाहस्य इत्यर्यस्तपादेव (हं ति ) ऊधोलापूरात दक्षिणराति ही प्रतराविति अधिकृत मक्ष्पबहुत्वमुपते" जे तिपयरिया ते छ- दिलिपर्हितो भवंतऽसंखगुणा । ऐसा दिखता ॥ ६॥ " में जीवामितरिका एकवकया गत्योत्पत्तिमन्तस्ते पि गाभ्यो दिग्भ्यागतम्यस्सकाशाद्भय पद्याः, शेषा अपि ये त्रिसमयिकाः शेषलोकादागतास्ते संयगुणा भवति कृतः स्यातगुणितस्याद्यतः तरमसंख्येयगुणं ततोपि इति । ( १२३५) अभिधामराजेन्ः | ततः किमित्याह " एवं विसेस अडिया प्रबंधया सव्व बंधपति । तिल महयषिग्गइं पुरा, पडुच्च सुतं इमं होइ ॥ १० ॥ " मात्सूित्रमित्यर्थः "माग पुरा संबंध होति । पावर बारावी ११ ॥ पहा होह सहस्से, दुसमइया दो वि लक्ल मेकेकं । तिसमयावधि विरासी कोडी वा ॥ १२ ॥ प्रथम जुगायुत्पन्नसंबन्धकराशिः सहस्रं परिकल्पितः थप समान ही राशी कोकानामन्यः सर्वबन्धकानां तौ लक्षमानों, तत् क्षेत्रस्थ पुनखिमि समपद्यन्ते यो रापस्तत्र वाद्ययोः समययोरवन्धकराशी, तृतीयस्तु राशि च योऽपि प्रत्येकं फोडीमाना त त्रस्य बहुगतत्वादिति, तदेवं राशिश्रयेऽपि सर्वबन्धकाः कोटी वेयं सर्वस्तोका अन्धकास्तु स कोडी] [स्थेयं विशेषाधिकारइति- .. " · संयमयोबवणं करज राखीयं । पत्तो असंलगुलिया, वोच्छं जह देसबंधा से ॥ १३ ॥ गो भागो हामि एगनिगोए मिचं एवं सेलेसु विलए वा ॥ १४ ॥ मेदिनिगोषाण जं विश्विदिट्ठा । पतिनियोषा म्१५ " अमेन च माधाइयेनोद्वर्तनाभखनात् विग्रहसमयसंभवोऽतमुहूर्त्तान्त परिवर्त्तनामानाच्च निगोदस्थिति समयमायमुरूम् । ततब्ध " तेलि ठिइसमयाणं विग्गहसमया इवंति जर भावे । एवं तमास विगाहिया सजीवार्थ १६ ॥ eos पिय विगहिया, सेलाएं जं असंबभागस्मि । ॥ १७ ॥ " ते पाहारगयाकमा पढिपसि इषि विसेलो जो जत्थ तत्थ तं तं भणामि ॥ १८ ॥ बंधा घोषा जे पदमसमपदेवा । तस्सेव देवबंधा. असं कई के ११५० बंधा 39 केशब उच्यते"सेस, ते सम्बंध मोनुं । होति अबंधाता, तब्बज्जा सेसजीवा जे ॥ २० ॥ अयमर्थः तेषामेव वैयिकानां सर्वकाम्या वे पाले सर्वेयस्य देशयन्धका भवन्ति मंत्र स थकान मुफ्स्यनेन कथमित्यस्य निर्वाचनमुकं येषा इत्यनेन तु के वेश्यस्येति, अबन्धकास्तु तस्याऽनन्ता भवन्ति, शेषजीवा स्ते चौदारिकादिबन्धका देवाऽऽदय वैदिका इति ॥२०॥ 64 श्राहारसम्वबंधा. थोत्रा दो तिथि पंख वा दस बा । संगुणा देती हु सहस्वानं ॥ ५१ ॥ तजा सम्वजिया, प्रबंधया ते इवंति पंतगुणा । धोवा अबंधया ते यगस्ल संसारमुक्का जे ॥ २२ ॥ तद्वर्जा श्राहारकबन्धवर्जाः सर्वजीवा अबन्धका इत्याहारकालरूप से गुणा पति " सेसा य देशबंधा, तव्वा ते भवंतंतगुणा । एवं कम्मगभैया, वि नवरि नाखसमाकिम ॥ २३ ॥ दयुमत्वमेवम् 35 12 61 'थोवा आउयबंधा संखेज्जगुणा अबंधया होंति । तेयाक माणं सव्वबंधगा मत्थि गाइत्ता ॥ २४ ॥ संख्यातगुणा आयुष्यन्धका इति यदुकं तत्र प्रश्न " आह अस्संखेज्जगुण । उ-गरस कि बंधगा न भांति । जम्दा असंभागो, उ बढ्द्द एगसमपणं ॥ २५ ॥ " अयमभिप्रायः एकोऽसंख्य भागों निगोद जीवानां सर्वद ते स च बद्धायुषामेव तदन्येषामुइर्तनाभावात् यथ ये शेषास्ते बद्धाऽऽयुषस्ते च तदपेक्षयाऽसंख्यातगुणा एवेत्ये वमसंख्यातगुणा आयुष्काबन्धकाः स्युरिति । अत्रोच्यते" मदद समय, कालो उचाई जीबाएं। बंधणकालो पुरा श्र - उगस्स अंतोमुहुत्तो उ ॥ २६ ॥ अपमभिप्रापः- निगोदजीवभवकालापेक्षा तेषामायुर्वन्ध कालः संख्यात भागवृत्तिरित्यबन्धकाः संख्यातगुणा एव । एतदेवमाते 64 39 " जीवाण ठिईकाले, आयबंधभार लवं । एवभागे श्राउ-स्स बंधया से सजीवाणं ॥ २७॥ निगोदजीवानां स्थिति कालः अन्तर्मुहूर्त्तमानः, लञ्च कल्पनया समक्षं तत्राऽऽयुबन्धादाय आयुका लेना मुं मानेनैव कल्पनया समयसहस्रलक्षणेन भाजिते सति य , Page #1260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमिषानराजेन्द्रः । अ पना शतरूपं तावति भने वर्तम् मायुः। योग्यतामन्तरेखाऽपि, भावेऽस्यातिप्रसङ्गता ॥ १६५ ॥ भाषजीबाणां तन्धकानामित्यर्थः, तत्र किलल अनादिमानपि हिमादिभूतबाधकालविकलोऽपि प्रवाहापे जाऽपेक्षया शतं संपेपतमो मागोऽतो बन्धकम्योऽबन्धकाः क्षया किं पुनर्व्यक्तिमपेण्याऽऽदिमानिस्यपिहिशमार्थः । एषसंक्येयगुणा भवन्तीति । एतदेव भाज्यते बन्धो, बन्धत्वं जीवेन गृह्यमाणकार्मणवर्गणापुद्रसरूप"संजामागो ठिहकालस्साउबंधकालोउ । तया कृतकत्वम् , नातिवर्तते-प्रतिकामति । ततो यो यो सम्हा संबगुला से, प्रबंधया बंधपहितो ॥२८॥" बन्धः स स बध्यमानयोग्यतामपेक्षते, यथा बनकम्बलाss. (सेति) बाबुषः। दीनां मजिष्ठालादाऽऽदिरागरूपः, बन्धश्च जीवस्य कर्मणा "जोगऽप्याययं, माहारगसव्वबंधमा थोषा। संयोगस्तस्मादपश्यं तयोर्योग्यतामपेक्षते इति । अत्रैव विष. तस्तेष वेसवंधा, संखगुणा ते य पुखुत्ता ॥ २६ ॥ सेवाधामाह-योग्यतां योग्यकषायपरिणतिरूपामन्तरेणातसो बेडम्बियस बबधगा दरिसिया प्रसंगगुणा । ऽपि विना किं पुनः प्राच्यप्राध्यतराऽऽविबन्धमित्यपिशपा. जनसंखा देवाss, उबषजंतेगसमएवं ॥३०॥ तस्लेव देसबंधा, असंगुणिया हवंति पुखुत्ता। थैः। भावे-सत्तायामस्य बन्धस्याभ्युपगम्यमानेऽतिप्राता शिव्याप्तः सवमिति । तेवनकम्माधा-शंतगुणिया यते सिद्धा॥३१॥ तसो उमणंतगुणा, भोरालियसब्यबंधगा ति। इदमेव भावयतितस्सव तमो पंधा, देसम्बंधा य पुष्खुत्ता ॥ ३२॥ . एवं चानादिमान् मुक्तो, योग्यताविकलोऽपि हि । ततो तेयगकम्मा- देसबंधा भवे बिसेसऽहिया। बध्येत कर्मणा न्याया-त्तदन्यामुक्कवृन्दवत् ।। १६६ ।। ते बेवोरालियदे-सबंधगा होति मेवने ॥ ३३॥ जे तस्स सम्बबंधा, प्रबंधगाजे य नेरदयदेवा । एवं चातिप्रसङ्गे च सति, अनादिमान्मुक्तः सदा शिषरूएपहिसाहिया ते, पुणाह के सम्वसंसारी ॥ ३४॥ पः परपरिकल्पितः। किमित्याह-योग्यताबिकलोऽपि हि-प्र. घेउम्बियस्स तत्सो, अबंधगा साहिया बिसेसण। स्तुतयोम्यतारहितः,किं पुनस्तद्युक्त इत्यपिहिशब्दार्थः। पध्ये. ते चेवा नेण्या-नविरहिया सिद्धसंजुत्ता ॥ ३५ ॥ त पारवश्यमानीयेत, कर्मणाऽदृष्टसंक्षेन, न्यायात् योग्यपाहारगस्स तत्सो, प्रबंधगा साहिया बिसेसेण । तावैकल्याऽऽदिविशेषलक्षणात्। दृष्टान्तमाह-"तदम्यामुक्तते पुण के सम्बजिया, आहारगलद्धिए मोत्तुं ॥ ३६॥" वृन्दवत्" तस्मादनादिमतो मुक्ताचदन्यवमुक्तवृन्दं संसारि जीवलक्षणं तद्वत् । भ०८ श०६ उ01 कविहणं भवे! बंधे परमत्ते । गोयमा! दविहे बंधे अत्र पर:पसत्ते। तं जहा-इरियावहियाचंधे या संपराइयबंधे य।। तदन्यकर्मविरहा-न चेत्तद्वन्ध इष्यते । (काविहेत्यादि) (बंधे ति) द्रव्यतो निगडाऽदिवन्धो, तुल्ये तद्योग्यताभावे,न तु किं तेन चिन्त्यताम् ॥१६७॥ भावतः कर्मबन्धः। इह च प्रक्रमाकर्मबन्धोऽधिकृतः। (हरि तदन्यकर्मविरहात्तस्मात्संप्रतिबन्धुमिष्टाचदन्यत्प्राकालबद्ध यावरियाबंधय सिर्या-गमनं तत्प्रधानः पन्था-मार्गःर्या- कर्म तद्विरहात् . न चेद्यदि, तबन्धस्तस्मादनादिमतो मु. पथस्तत्र भवमर्यापथिकं, केवलयोगप्रत्ययं कर्म, तस्य यो क्तस्य बन्ध इष्यते अभिमन्यते प्राचार्यः । तुल्ये-समाने स. बन्धः, स तथा स चैकस्य वेदनीयस्य । (संपराइयबंधे यत्ति) बैजन्तुषु,तयोग्यताभावे कर्मबन्धयोग्यताया विरहामधि संपरेति-संसारं पर्यटति एभिरिति संपराया:-कषायास्ते ति परपक्षाक्षमायाम् । किं प्रयोजनं तेन प्राच्यकर्मबन्धविरषु भषं सांपरायिकं कर्म, तस्य यो बन्धः स सांपरायिकबन्धः हेणोत्सरतया परिकल्पितेन,चिन्त्यतां-परिभाव्यतामेतत्।म. कषायप्रत्यय इत्यर्थः। स चावीतरागगुणस्थानकेषु सर्वेग्वि- यमभिप्रायः-यदि योग्यतामन्तरेणाऽपि शेषसंसारिणां कर्म. ति । भ०८ श०८3.1('इरियाबहियबंध' शब्दे २ मागे ६२७ बन्धोऽभ्युपगम्यते तदाऽनादिमुक्तऽपि सोऽस्तु, उभयतोऽपि पृष्ठ तवक्तव्यता । 'संपराइयबंध' शब्दे तवक्तव्यता च।) योग्यताविरहाविशेषात् ।। सहज तु मलं विद्या-कर्मसंबन्धयोग्यताम् । अथोपसंहरबाहमात्मनोऽनादिमस्वेऽपि, नायमेनां विना यतः ॥१६४॥ तस्मादवश्यमेष्टव्या, स्वाभाविक्येव योग्यता। सहजं तु सहजं पुनर्मलं विद्याज्-जानीयात् , कामित्याह तस्यानादिमती सा च, मलनान्मल उच्यते ॥ १६ ॥ कर्मसंबन्धयोग्यतां-बानाऽऽवरणाऽऽविकर्मसंश्लेषनिमित्त. तस्माद-अनादियुतकर्मबन्धप्रसङ्गाखेतोरवश्यं नियमेनेष्टव्या भावम् । कस्येत्याह-मात्मनो-जीवस्य। कुत इत्याह-प्र. स्वाभाविक्येव-स्वभावभूतैव योग्यता कर्मबन्धं प्रति । त. मादिमावेऽपि बन्धस्य न-नैवायं बन्धः, एनां योग्यतां जी स्याऽऽत्मनोऽनादिमतीमनादिकालप्रवृत्ता । सा च योग्यता वस्य विनाऽन्तरेण, यतः-यस्मात्कारणात्किलानादिमान् भा. यो गमनाऽऽदिर्म कञ्चन हेतुं स्वस्वभावलाभे अपेक्षते, बन्ध पुनर्मलनात जीवस्वभावविष्कम्भणाम्मल उच्यत इति । प्रवाहापेक्षयवाऽनादिमांस्ततो न जीवयोग्यतामन्तरेणैष एनामेव तन्त्रान्तरमताऽऽविष्करणेन समर्थयमान माहउपपद्यते ऽन्यथाऽनेकदोषप्रसङ्गात् । दिक्षाभावबीजाऽऽदि-शब्दवाच्या तथा तथा । एतदेव दर्शयति इष्टा चान्यैरपि श्रेषा, मुक्रिमार्गावलम्बिभिः ॥ १६६॥ अनादिमानपि श्रेष, बन्धत्वं नातिवर्तते । पुरुषस्य प्रकृतिविकारान् द्रष्टुमिच्छा दिरक्षा सांस्यानां , Page #1261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२३८) बंधण अभिधानराजेन्द्रः। बंधय भषी शेवामां, भ्रान्तिरूपाऽषिया बैवान्तिकानामनादि- कधिनिद्यमशक्या, प्रमोदो-हर्षो. विभृम्भते-समुच्छलति, क्रेशरूपा पासमा सौगतानां, ततो दिक्षाभवीजा ऽऽदिभिः | चेतस्थम्तःकरणेऽस्य सरसाधकस्थ, कुता कस्माता, तेन शनैरुच्यते या सा । तथा तथा तेन तेन दर्शनभेदप्रकारेणे- प्रमोदवितम्भन खेदोऽपि यः प्रागत्यन्तरूपतयोः प्रमो. पा-वाभिमतव, अन्यैरप्यस्मद्विलक्षणैःकि पुनरस्माभिरित्या दस्तावज्जृम्भत एवेत्यपिशब्दार्थः। लभते प्राप्नोत्यातरमपिहिशब्दार्थः । एषा कर्मयन्धयोग्यता । मुक्तिमार्गावलम्बि- वकाश मिति । भिनिर्वृतिपुरपथप्रस्थितरिति । अथ दान्तिकमधिकृत्यैतविशेषमाहएवं सति यत्सिखं तदाह न चेयं महतोऽर्थस्य, सिद्धिरात्यन्तिकी न च । एवं चापगमोऽप्यस्याः, प्रत्यावर्त सुनीतितः । मुक्तिः पुनद्वयोपेता, सत्प्रमोदाऽऽस्पदं ततः॥ १७ ॥ स्थित एव तदल्पत्वे, भावशुद्धिरपि ध्रुवा ।। १७०॥ नच-वेयं विद्याऽदिविषया महतो गरीयसोऽर्थस्य साध्या एवं चास्यां च कर्मबन्धयोग्यतायां सत्याम्, अपगमोऽपि स्य सिद्धिरुतरूपाऽऽत्यन्तिकी अत्यन्तभवा, न च भूत्वाऽपि व्यावृत्तिरूपोऽनपगमस्तावदस्त्येवेत्यपिशब्दार्थोऽस्या-यो- | पुनर्विनाशात् । मुक्तिः पुनर्वयोपेता महत्वाऽत्यन्तिकभावयुक्ता ग्यतायाः प्रत्यावर्त प्रति पुद्रलपरावर्त नैकस्मिन्नेव चरमावर्ते | सत्यमोदाऽऽस्पदं सतः सर्वातिशायिनःप्रमोदस्य स्थानं, ततो इत्यर्थः। सुनीतितो दोषाणां महासलक्षणात्सम्यायात् , द्वयोपेतत्वाद्धेतोरिति । योगिह द्विधा बन्धो-महाबन्धश्च, स्थित एव-प्रतिष्ठित एव , ततस्तल्पत्वे-मलालपत्वे इतरश्च । तत्र मिथ्यादृष्टिर्महाबन्धः, शेषश्चतरश्च। योगवि.। भावशुद्धिरपि परिणतिनिर्मलता, किं पुनः प्रत्यावर्त मला सम्प्रति "संते वा पनरबंधणे तिसयं" इति गाथासूचित बन्धनपश्चदशकं व्याचिख्यासुराहपगम इत्यपिशब्दार्थो, ध्रुवा-निश्चिता स्थिता, अन्यथा मलापगस्यैवाभावादिति । ओरालविउन्नाऽऽहा-रयाण सगतेयकम्मजुत्ताणं । ततः शुभमनुष्ठानं, सर्वमेव हि देहिनाम् । नववंधणाणि इयरदु-सहियाणं तिनि तेसिं च ।।३६ ।। विनिवृत्ताऽऽग्रहत्वेन, तथाबन्धेऽपि तस्वतः॥ १७१॥ औदारिकवक्रियाहारकशरीराणां नव बन्धनानीति योगः। ततो भावशुद्धः सकाशाच्छुभं श्रेयस्कारि अनुष्ठान धर्मा कीदृशानामिस्याह-स्वकतैजसकार्मणयुक्तानां प्रत्येकं स्वक. थोऽऽदिगोचरं सर्वमेव,हि स्फुटं देहिनां शरीरभाजाम् केने. तैजसकार्मणानां मध्यादन्यतरेण युक्तानामित्यर्थः । (नव त्ति) नवसंख्यानि बन्धनानि-बन्धनप्रकृतयो भवन्तीति । औदा. त्याह-विनिवृत्ताऽऽग्रहत्वेन व्यावृत्तात्यन्तवितथाभिनिवेश रिकक्रियाऽहारकाणां त्रयाणामपि प्रत्येकं स्वनाम्ना तैजसेन भावेन, 'तथाबन्धेऽपि तत्प्रकाराल्पाऽल्पतरबन्धसद्भावेऽपि कार्मणेन च योगाद् द्विकसंयोगनिष्पन्नान्ये कैकस्यौदारिका. किं पुनस्तस्याप्यभाव इत्यपिशब्दार्थः । तवतो-निश्चयवृ ऽऽदेस्त्रीणि त्रीणि बन्धनाति भवन्ति तेषां च त्रयाणां त्रिकाणां स्या जायत इति । मीलने नवबन्धनानीति । तथाहि-औदारिकौदारिकबन्धनना. नात एवाणवस्तस्य, प्राग्वत संक्लेशहेतवः। म. औदारिकतैजसबन्धननाम, औदारिककार्मणबन्धननाम। तथाऽन्तस्तत्वसंशुद्धे-रुदग्रशुभभावतः ॥ १७२ ॥ वैक्रियवैक्रियबन्धननाम , वैक्रियतैजसबन्धननाम, वैक्रिय. न-नैवात एव विनिवृत्ताऽऽग्रहत्वादेवाऽणवो-शानाऽऽवर- कार्मण बन्धननाम। श्राहारकाऽऽहारकबन्धननाम,माहारक. णादिकर्माण वस्तस्य चरमपुद्गलपरावर्तवर्तिनो जन्तोः। प्रा. तैजसबन्धननाम , आहारककार्मणबन्धननाम । तत्र पूर्वगृ. ग्वत्माच्यपरावर्तेयिव । संक्लेशहेतवो मालिन्यनियन्धना जा हीतरीदारिकशरीरपुर लैः सह गृह्यमाणादारिकपुरलानांब. यन्ते , तथेति हेत्वन्तरसमुच्चये, अन्तस्तत्वसंशुद्धेरन्त- म्धो येन क्रियते तदौदारिकौदारिकबन्धननाम । येनौदारि• स्तवमात्मा तस्य संशुद्धः स्वभावभूतमलक्षयात् य उदग्र- कपुरलानां तैजसशरीरपुद्गलैः सह सम्बन्धी विधीयते त. उस्कटः शुभो भावस्तस्मात् । दौदारिकौदारिकतैजसबन्धननाम । येनौदारिकपुगलानां का. अयं चास्य तथाविधकर्भबन्धो भवन्नपिन तथा- मणशरीरपुरलैः सह सम्बन्धी विधीयते तदादारिककाविधभयाय संपद्यत इति दर्शयन्नाह मणबन्धननाम। एवमनेन न्यायेनान्यान्यपि बम्धनानि पा. सत्साधकस्य चरमा, समयाऽपि विभीषिका । च्यानि । शेषबन्धननिरूपणायाऽऽह-"इयर दुसहियाणं ति. न खेदाय यथाऽत्यन्तं, तद्वदेतद्विभाव्यताम् ॥ १७३ ।। निति" इतरे स्वकीयनामापेक्षयाऽन्ये तैजसकार्मणशरी. सत्साधकस्य तथाविधां विद्यां सम्यग् साधयितुं प्रवृत्तस्य रे, ततः प्राकृतत्वादन्यथोपन्यासेऽपि द्वे च ते इतरे चद्वी. पुंसबरमा पर्यन्तवर्तिनी समयाऽपि संनिहिताऽपि,किं पुन तरे ताभ्यां सहितानि युक्तानि द्वीतरसहितानि । यद्वा. ईरे इत्यपिशब्दार्थों, विभीषिका घेतालाऽऽदिदर्शनरूपा,न ख. (दुत्ति) द्विकं इतरच्च तद्विकं चेतरद्विकं तेन सहिता. दाय श्रमाय, यथाऽत्यन्तमतीव, तद्वत् साधकबरमविभीषि नि इतरद्विकसहितानि तेषां द्वीतरसहितानामितरद्विकस. कावत् एतत् चरमाऽऽवर्तकर्मवन्धरूपं वस्तु:विभाव्यतां वि हितानांवा। औदारिकक्रियाऽऽहारकाणामत्रापि योज्यम् । मृश्यतां,विवेकवतां प्रधानाऽनागतवस्तुप्रतिबन्धाश्चेतस इति। त्रीणि बन्धनानि भवन्ति । अयमाशय:-प्रत्येकमौदारिक. दृष्टान्तमेवाधिकृत्याऽऽह वैक्रियाऽऽहारकाणां तैजसकार्मणाभ्यां युगपत् संयोगे त्रि. कसंयोगरूपाणि श्रीणि बन्धनानि भवन्ति । तथाहिसिद्धेरासनभावन, यः प्रमोदो विजृम्भते । औदारिकतैजसकार्मणबन्धननाम, वैक्रियतैजसकामणबन्ध. चेतस्यस्य कुतस्तेन, खेदोऽपि लभतेऽन्तरम् ।। १७४॥ ननाम , आहारकतैजसकामणबन्धननाम । अर्थः पूर्वोक्त सिद्धेर्विद्यादिवशीभावस्याऽसन्नभावन-सन्निधितत्वेन, यः । एव। न केवल मेषामौदारिकाऽऽदीनामितरद्विकसहितानामेव Page #1262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९३१) बंधा अभिधानराजेन्डः। बंधणविमोयणगइ बीणि बन्धनानि भवन्ति, किंतु-(तेसिसि )श्री. नामिस्याह-"नियबज्झतयाण ति।" निवडामवध्यमानाम गीति शमो रमहकमणिभ्यायावत्रापि योज्यः । ततोऽय- निबद्धबध्यमानास्तेषां निबद्धबध्यमानानां पूर्वषद्धानां वध्य. मर्थः-तयोऽतरशब्दवाच्ययोस्तैजसकार्मणयोः स्वनाम्ना. मानानां च यत् कर्म संबन्धं परस्परं मीलनं करोमि दाससरेण च योगे त्रीणि बन्धनानि भवन्ति । यथा तैजस- णामिव जतु, अत एव जतुसम तदौदारिकाऽऽदिवन्धनमादिलैजसबम्धननाम, तैजसकासबन्धनमाम, कार्मणकार्मणव. शब्दाद्वैक्रियबन्धनमाहारकबन्धनं तेजसबन्धनं कार्मणय. चननाम । तदेवं नव श्रीणि त्रीणि च मिलितानि पञ्चदश धनं शेयम्-सातव्यमिति गाथाऽक्षरार्थः॥ भाषार्थस्स्वयम्बन्धनानीति । अत्राऽऽह-पञ्चानां शरीराणां द्विकाऽऽदियो- इह पूर्वगृहीतैरौदारिकपुरलैः सह परस्परं गृह्यमाणानौदा. गप्रकारेण शितिः संयोगा भवन्ति । ततुल्यबन्धनानि रिकपुरलानुदितेन येन कर्मणा बध्नात्यात्माऽन्योन्यसंयुक्तान वकस्मास भवन्ति ।। उच्यते-श्रीदारिकचक्रियाऽऽहारकाणां करोति, तदीदारिकशरीरबन्धननाम दारुपापाणाऽऽवीनां ज. परस्परविरुद्धानामन्योऽन्यसंबन्धाभावात् पञ्चदशैव भवन्ति, तुरालाप्रभृतिश्लेषद्रव्यतुल्यम् । पूर्वगृहीतक्रियपुरलैः सह नाधिकानि । माह-यथा पञ्चदश बन्धनानि भवन्ति, ए. परस्परं गृह्यमाणान् वैक्रियपुद्रलानुदितेन येन कर्मणा व. बमनेनैव क्रमेण पञ्चदश साता अपि कस्मामाभिधीय- धनात्यात्माऽन्योन्यसंयुक्तान् करोति, तज्जतसमं वैक्रिय. म्ते , सहातितानामेव पन्धनभावात् । तथाहि-पाषाणयु- शरीरबन्धननाम । पूर्वगृहीतैराहारकशरीरपुरलैः सह परं. ग्मस्य कृतसंघातस्यैवोत्तरकालं बजलपरालाऽऽदिना बन्धनं स्परं गृह्यमाणानाहारकपुद्रलानुदितेन येन कर्मणा बना. क्रियते । तवसत् यतो लोके ये स्वजातौ संयोगा भवन्ति- त्यात्माऽन्योऽन्यसंयुक्तान् करोति, तज्जतुसममाहारकश. त एव शुभाः, एवमिहापि स्वशरीरपुरलानां स्वशरीरपुद्गलैः रीरबन्धननाम । पूर्वगृहीतस्तैजसपुद्गलैः सह परस्परं गृह्यसहये संयोगरूपाः संघातास्ते शुभाइति प्राधान्यख्यापनाय मागाँस्तैजसपुद्गलानुदितेन येन कर्मणा बध्नात्यात्माऽपञ्चैव संघाता अभिहिता इति ॥ ३६॥ कर्म०१ कर्म०। न्योऽन्यसंयुक्तान् करोति तजतुसमं तैजसशरीरबन्धननाम । चंधणच्चुय-बन्धनच्युत-त्रि• । वृन्ताऽऽदिरूपान् बन्धना पूर्वगृहीतः कार्मणपुरलैः सह परस्परं गृह्यमाणान् कार्मणपु. रुच्युते, "ताले जह बंधणन्चुए, एवं आउखयम्मि तुह. दलानुदितेन येन कर्मणा बध्नात्यात्माऽन्योऽन्यसंयुक्तान् क. ति।" तालफलं यथा बन्धनात्-वृन्तारुच्युतः भूमौ पत. रोति तजतुसम कार्मणशरीरबन्धननाम । यदि पुनरिवं शरी. ति एवं जन्तुरपि स्वाऽऽयुःक्षये त्रुट्यति-व्यवते । सूत्र०१ रपञ्चकपुद्गलानामौदारिकाऽऽदिशरीरनाम्नः सामर्थ्याद् गृहीश्रु०२ म०१ उ०। तानामन्योऽन्यसंबन्धकारि बन्धनपश्चकंन स्यात्ततस्तेषां शरी पंधणच्छयणगइ-बन्धनच्छेदनगति-स्त्री० । बन्धनस्य-कर्म रपरिणती सत्यामप्यसंबन्धत्वात् पचनाऽऽहतकुण्डस्थिता. णः सम्बन्धस्य वा छेदनेऽभावे गतिर्जीवस्य शरीरस्य वा स्तीमितसतनामिकत्र स्थैर्य न स्यादिति ॥३४॥ कर्म०१कर्म। जीवात् बन्धनच्छेदनगतिः । गतिभेदे, भ० ८ ० ६ उ०।। बंधणपच्चइय-बन्धनप्रत्ययिक-पु. । बध्यतेऽनेनेति बन्धनं बंधणच्छेयणया-बन्धनच्छेदनता-स्त्री० । एरण्डफलस्येव विवक्षितस्निग्धताऽऽदिको गुणः, स एव प्रत्ययो हेतुर्यत्र स कर्मबन्धनच्छेदने, भ.६ श०७ उ० । तथा । बन्धनजे बन्धे, भ०८ श०६ उ०। बंधणणाम-बन्धननामन्-न । बध्यन्ते-गृह्यमाणाः पुद्गलाःपू. बंधणपरिणाम-बन्धनपरिणाम-पुं०। पुद्रलानां परस्परं संरले. गृहीतपुरलैः सह संश्लिष्टाः क्रियन्ते येन तद्वन्धनं,तदेव नाम पपरिणामे, स्था• १० ठा०। बन्धननाम । कर्म०१कर्म यदुदयादौदारिकाऽऽविपुद्गलानां सर्वत्र बन्धनपरिणामलक्षणं चैतत्पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परमभ्यशरीरपुरलैश्व सह- "समणिबयाएँबंधो, न होइ समलुक्स्वयाए वि नहो। सम्बन्धः । तस्मिन्नामकर्मभेदे, कर्म । तत्पञ्चधा । तद्यथा- वेमायनिद्धलुक्स्व-सणेण बंधो उ खधाणं ॥१॥" औदारिकबन्धनम्, वैक्रियबन्धनम्.आहारकबन्धनम्, तेजस- एतदुक्तं भवति-समगुण स्निग्धस्य समगुणस्निग्धेन परमा. बन्धनम्,कार्मणबन्धनम् । तत्र यदुदयादौदारिकपुरलानां पूर्व एवादिना बन्धो न भवति, समगुणरूक्षस्याऽपि समगुणरू. गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं तेजसाऽऽदिशरीरपुद्रलैश्व क्षेणेति यदा विषमा मात्रा तदा भवति बन्धः । विषममा. सहसंबन्धस्तदौदारिकबन्धनम् । एवं वैक्रिय बन्धनम् , मा. त्रानिरूपणार्थमुच्यते-" निद्धस्स निघण दुयाहियेणं, लुहारकबन्धनं च भावनीयम् । यदुदयात्पुनस्तैजसपुगतानां क्खस्स लुक्खेण दुयाहियेणं। निद्धस्स लुक्नेण उबेर बंधो, पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं कार्मणशरीरपुतलैश्व जमवज्जो बिसमो समो बा ॥१॥" इति । स्था० १० ठा। सह संबन्धस्तरीजसबन्धनम् । यदुदयात् कर्मपुतलानां पूर्व बंधणविमोयणगइ-बन्धनविमोचनगति-स्त्री०। बन्धनषिच्यु. गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं संबन्धस्तत्कार्मणबन्ध. | तानां विस्तरतया निर्व्याघातेन गमने, प्रक्षा । नम् । केचित्पुनर्वन्धनस्य पञ्चदश भेदानाचक्षते, ते च पञ्च से किंतं बंधमविमोयणगती । बंधणविमोयणगती जं संग्रहादिग्रन्थतो वेदितव्याः।कर्म०६ कर्मपं०सं०। प्रवा। साम्प्रतं बन्धननामस्वरूपमाह णं अंवाण वा अंबाडगाण वा मातुलुंगाण वा चिल्लाण वा उरलाइपुग्गलाणं, निवघवतयाण संबंधं । कविट्ठाण वा भयाण वा फणसाण वा दालिमाण वा जं कुणइ जउसमं तं, उरलाईबंधणं नेयं ॥ ३४॥ पारेवताण वा अक्खल्लोवाण वा चाराण वा तंदुलाण वा औदारिकाऽऽदिपुद्रलानामादिशब्दाक्रियपुद्गलानामाहार पक्काणं परियागगताणं बंधणामो विप्पमुक्काणं वा णिकपुद्रलानां तैजसपुगलानां कार्मणपुलानाम् । किंविशिष्ट व्यापारणं आहे वीसाए गती पवत्ताह । प्रज्ञा० १६ पद । Page #1263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मुक बंधक बन्धनोन्मुक्त लि० । स्नेहाश्मकेन कर्माऽश्मकेन या बन्धनेन प्राबल्येम मुक्ते, सूत्र० १ ० ३ ० ४ उ० बंधणोवक्कम - बन्धनोपक्रम - पुं० । बन्धनं कर्मपुङ्गलानां जीवप्रदेशानां च परस्परं सम्बन्धनमिदं सूत्रमा साकासंबन्धोपममवगन्तव्यं तस्योपक्रम उक्तार्थो वनोप क्रमः । शासकलितावस्थस्य वा कर्मणो श्रद्धावस्थीकरणं सं. बन्धनम् । तदेवोपक्रमो वस्तुपरिकर्मरूपो बन्धनोपक्रमः । उपक्रम मे स्था० । inters चन्त्रिहे पत्ते । तं जहा-पगइबंधणोबक्कमे, टिइ बंधणोवक्कमे अणुभावबंध वक्कमे, परसबंधयोवक्कमे ॥ बन्धनोपक्रम धनकर चतुर्दा, रात्र प्रकृतिवन्धनस्योपक्रमो जीव परिणामो योगरूपस्तस्य प्रकृतिबन्धहेतुत्वादि. ति । स्थिति बन्धनस्याऽपि स एव, नवरं कषायरूपः स्थितेः कषाय हेतुकत्वादिति । अनुभागबन्धनोपक्रमोऽपि परिणाम एव, नवरं कषायरूपः, प्रदेशबन्ध नोपक्रमस्तु स एव योगरूप इति । यत उक्तम्- "जोगा पयडिपएसं, अणुभाग कसाव कुणइ " इति प्रकृत्यादिवचनानामान्तमत नान्तःकोटीकोटीरूपाऽऽरम्भा वा उपक्रमा इति । स्था० ४ ठा० २३० । ( १२४० ) अभिधानराजेन्द्रः । बंधदसा-बन्धदशा - स्त्री० । दशाध्ययनप्रतिबद्धे श्रुतभेदे. स्था० । बंधदसाणं दस अन्यथा पछता । तं जहा " बंधे मुक्य देवडी, दसारे मंडले इय 23 | आयरियविप्पड - बसी वायविपविती भावा वित्ती सातोकम्मे । बन्धदशानामपि बन्धाऽऽद्यध्ययनानि श्रौतेनार्थेन व्याख्या. तज्यानि । स्था० १० ठा० । पयन्यपद २० देहिनां कुवासन हेतुत्वात्परसमयपदे प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशलक्षण भेदभिन्नस्य प्रतिपादके, अनु• । -बंधपमोक्ख-बन्धप्रमोक्ष-पुं० । बन्धात्सकाशादात्मनः पृथग्बन्धने, श्राचा० १ श्रु० ५ ० २उ० । बंधभेय - बंन्धभेद - पुं० । मूलप्रकृतिबन्धरूपस्याष्टविधस्योत्तरप्रकृतिबन्धस्वभावस्य च सप्तनवतिप्रमाणस्य प्रज्ञापने, ध० १ अधि० । बंध मोक्खसिद्धि - - बन्धमोक्षसिद्धि - स्त्री० । बन्धमोक्षसिद्धौ, विशे० । मण्डिकगणधरवक्तव्यता किं मने बंधमोक्खा, संति न संति त्ति संसयो तुझ । यस्यासी तेसिमो अस्था || १८०४ || डिस्बिन्धमौली तो न था ? इति। अचानुचितस्तव संशयः विरु धनत्वात्। तथाहि " स एष विगुणो विभुर्न बध्यते संसरति बा. न मुच्यते मोचयति वा न वा एष बाह्यमभ्यन्तरं वा वेद | " इत्यादीनि वेदपदानि तथा-" न ह वै सशरीरस्य प्रियाऽप्रिय योरपद्दतिरस्ति, अशरीरं वा वसन्तं प्रियाऽप्रिये म स्पृशतः" इत्यादीनि च । एतेषां चार्थे स्वं न जानासि - बंधमोक्खाक यतोऽयमेतदर्थस्तच चेतथि बते तद्यथा--अधि कृतो जन्तुः, विगुणः सत्व रजस् तमोगुण - रहितः, विभुःसर्वगतः, न बध्यते पुण्य पापाभ्यां न युज्यत इत्यर्थः सं सरति वान' इत्यनुषसंते, न मुध्यतेन कर्मणा वियुज्य तेषाभावात् मोचयति वा नाम्यम् इत्यनेनाऽकर्तृकस्वमाह नवा एष बाह्यम् श्रात्मभिनं महदहङ्कारादि, अभ्यन्तरं निजस्वरूपमेव वेद-विजानाति, प्रकृतिधर्मा उठानस्य प्रकृते यातयात्ततानि किस बन्ध मोक्षाभावप्रतिपादकानि तथा 'नइ वे'- मेवेत्यर्थः - रूप प्रियाऽभिषयोर पद्दतिरस्तीति वाह्य उच्चात्मिक नादिशरीर सन्तानयुक्तत्वात् सुख-दुःखयोरपद्दतिः संसारिणो नास्तीत्यर्थः, अशरीरं वा वसन्तम्-अमूर्तमित्यर्थः प्रियाप्रिये न स्पृशराः, तत्कारणभूतस्य कर्मणोऽभावादित्यर्थः । अमूनि च बन्धमोक्षाऽभिधायकानीति । अतः संशयः । तत्र स एष विगुणो विभुः " इत्यादीनां नायमर्थः, किन्वयं वक्ष्यमाणलक्षण इति ॥ १८०३ ॥ " अत्र भाष्यम्— तं मसिज बंधो, मोगो जीवस्स कम्मुख समयं पुष्पाजीयो क व समं वं ते होऊ ।। १८०४ ॥ " बेयपयाण य" इत्यत्र चशब्दाद् युक्तिं च त्वं न जानासि। कुतः ? यस्मादायुध्यन् मडिक स्वयं से जी वस्य बन्धो यदि कर्मा सम-सा योग-संयोगोऽमि प्रेतः स खल्वादिमान् आदिरहितो या पद्यादिमान् ततः किं पूर्व जीव प्रसूयेत पश्चात् कर्म पूर्व या कर्म पश्चाजीव प्रसूयेत, समं वा युगपद् वा तौ द्वावपि प्रसूयेयाताम् ? इति पक्ष त्रयमिति ॥ १८०५ ॥ " अत्राऽऽद्यपक्षस्य दूषणमाह न हि पुत्रमहेश्रो, खरसंगं वाऽऽयसंभवो जुत्तो । निकारण जायस्व य, निकारण थिय विद्यासो । १८०६ 'पूर्व जीवः पश्चारकर्म इत्येतदयुकम् यतो न कर्मचः पूर्वे (खरसंग वायसंभवो जुत्तों खरगृङ्गस्येवात्मनः सम्भ यो युक्तः अदेतुकत्वात् इयमेतुकं तद् न आयते यथा खरश्टङ्गम्, यच्च जायते तद् निर्हेतुकमपि न भवति, यथा घटः, निष्कारणस्य च जातस्य निष्कारण एव विनाशः स्वादिति 1 अमुमेव विकल्पं दूषयितुमाह वाणा चिसो, निक्कारणओ न कम्पजोगो से । अनि कारण सो मुस्स वि होडिइ स भुओ १८०७ | अथ चेत् कर्मणः पूर्वमात्माऽनादिकालसिद्ध एव इति कि तस्य का इति " ( निक्कारणओ इत्यादि) यद्येवम् ततः ( से ) तस्थ जीवस्य कर्मयोगः कर्मबन्धो न प्राप्नोति श्रकारणत्वात् नभस इव । अथ निष्कारोऽप्यसो भवति तर्हि मु. स्याऽपि भूयः स भविष्यति निष्कारणत्वाऽविशेषात् स तश्च मुक्तावप्यनाश्वास इति ॥ १८०७ ॥ · S यदि वा दोज मनिच्च मुक्को, बंधाभावम्पि को व से मोक्खो १ । । Page #1264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधमोक्खसिद्धि अमिषानराजेन्द्रः। बंधमोक्खसिकिनहि मुक्कयक्एसो, बंधमारेममो नमसो। १८० शरीर-कर्मयोरनादिः सन्तान इति प्रतिक्षा, परस्परं हेतु. अथवा-कर्मयोगाभाषा नित्यमुक्त वा सो भवेत् । तुमझावात्. बीजापुरचदिति । ततब कि पूर्व जीप: दिपा-माया माये का किस तस्य मोक्षम्यपदेशः | पश्चात् कर्म'' इत्यादि पाबत पक, अनादित्वात् तस्सं. सपबखनमसर कस्यापि मुलम्पपदेडो मतः, पपू। तानस्येति ॥ १८१३॥ कत्वा मोक्षस्थ । तस्माद् पूर्व सीकर पचात् कर्म' पतदेख कर्मसम्तानस्याऽनादित्वं साधयनारइति प्रथमविकल्प इति ॥ १८०८।। अस्थि स देहो जो क-म्पकारखं जो य कामयस्स । अब पूर्व कर्म पश्चाजीया युनपद वा द्वापपि'. कम्मं च देहकारण-मत्वि यजं कसममस्स ॥१८१४॥ ति पक्षद्वयस्थ प्रतिविधानमाह अस्ति स कश्चित् देहो योऽप्रेतनस्य कर्मणः कारणम् , न य कम्मस्स वि पुलं, कतुरवावे समुभवो जुत्तो । पश्चान्यस्याऽतीतस्य कर्मणः कार्यम् । तथा कर्माऽपि निकारणमो सोविय, तहजुगवुप्पषिभावे या १८०६। समस्ति । किं विशिष्टम् ।, इत्यार-पदप्रेतनस्य देहल का. रणम्, यच्चान्यस्थाऽतीतस्य कार्यमिति । एवममादी संसारे न हि कत्ता कजं तिक, जुगबुप्पत्तीऍ जीवकम्माणं । न कसिन् विभाम्यति, मतोऽनादिर-कमेसम्तान इति । जुत्तो गबएसोऽयं, जह लोए मोविसावाणं ।। १८१०॥ आह-जनुबन्धमोक्षाविह साधयितुं प्रस्तुती, ततः कर्मन. जीवात् प्राइ कर्मयोऽपि समुद्भवो युक्तः, कर्तु- सम्तानस्यामादित्वसाधनमसंबडमिव जयते । तदयुतम्, जीवस्य तदानीमभाषा. प्रक्रियमाणस्य च कर्मस्वाऽयो- अभिप्रायापरिज्ञानात् , न यकृतं कर्म सम्भवति किवत गात, निकारणस्थमसौ कर्मसमुद्भवः स्यात् , ततोऽ. इति कर्म 'इति व्युत्पत्ते, यव तस्य करणमसावेवबन्ध कारणजातस्याऽकारलत एव विनाशोऽपि स्यादिति । तथा. इति कथं न तसिद्धिः ॥१८१४॥ युगपदुत्पत्तिभाषेच प्रत्येकपक्षोक्का दोषाः बाच्या'. मनु यदि क्रियत इति को ध्यते, तर्हिकोति शेषः-नितुकत्वात् प्रत्येकवदुभयस्याऽपि समुदित ऽस्य देहस्य च का, इत्यादस्याऽनुत्पत्तिरिस्पादि । न च युगपदुत्पन्नयोर्जीव-कर्मणोः कत्ता जीवो कम्म-स्स करणनो जहघरस्स परकारो। कर्ट-कर्मभावो पुज्यत इत्येतदेवाऽऽह-'न हीत्यादिन हि एवंचिय देहस्स वि, कम्मकरणसंभवाउ ति॥१८॥ युगपदुस्पनयोजीब-कर्मणोः 'अयं जीवः कर्ता' 'दं वा कर्ता चाउन कर्मणो जीवः, करण समेतत्वावू, दण्डाss. शानावरसाऽऽविपुलनिकुरम्बं कर्म' इति व्यपदेशो यु. दिकरणयुक्तकुलालबत् घटस्य, करणं बेह जीवस्थ कर्म ज्पते , पचा लोके सव्येतरगोविषाणयोरिति ॥ १८०६ ॥ निर्वःयतःशरीरमयगन्तव्यम् । एवं देहस्याऽप्यारमैत्र का ॥१८१०॥ ता, कर्मरूपं करणं कर्मकरणं तस्संभवात्-तयुक्तस्वात् , द्वितीय मूलविकल्पमधिकृत्याऽऽह दण्डाऽऽदिकरणसमेतकुलालादिति ॥ १८१५॥ होजाबाईमो वा, संबंधो तह विन घडए मोक्खो। . प्रधान प्रेर्य परिहारं वाऽऽहजोडलाई सोऽणतो, जीवनहाणं व संबंधो ॥ १८११॥ कम्मं करणमसिद्धं, च ते मई को तयं सिदं । स्थादेततअनादिरेव जीवकर्मणोः सम्बन्धः-संयोगः । किरियाफलमोय पुणो,पढिवज तमग्गिभूहब १८१६॥ मनु तथाऽपि मोक्षो न घटते, यस्माद् योऽनादिः संयो. स्थादेतत् , अतीन्द्रियत्नासिवात् कर्मणः करणत्वम. म: सोऽनम्तो दृष्टः, यथा जीवनमसोः । नयाकाशेन सिद्धम् तदयुक्तम् , यतःकार्यतः-कार्यद्वारेण तर सिखमेव, सहजीवस्य काचिदपि संयोगो निवर्यते । एवं कर्मणा तथाहि-विद्यमानकरणं शरीराऽऽदि, कृतकत्वात् , घटादि अपि सहाऽसौ न निवर्तेत , तथा च सति मुक्त्यभाव- पन् , यथास्य करणं तत् कमैव, तस्मादस्त्येव तत् । प्रसाति १८११॥ अथवा-विद्यमानकरणमेवाऽऽस्मशरीरलक्षणद्वयम् , कर्तृउपसंहरमाह कार्यरूपत्वात् , कुलाल-घटादिवत् । यह कर्तुरात्मनः इय जुत्तीएँ न घटइ, सुव्वद य सुईसु बंधमोक्ख ति । शरीरमुत्पादयतः करणं तत् कर्मेति कथं न तरिसखिः । तेण तह संसमोऽयं, न य कोऽयं जहा सुणसु।१०१२।। तथा फलबत्यो दानाऽऽदिक्रिया, चेतनाऽऽरण्धक्रियारूप. इत्येवं युक्तयुक्त्या बन्धो मोक्षच न घटते, भूयते च स्वात् , यच्च तासां फलं तत् कर्म । इत्यग्निभूतिरिव स्व मपि प्रतिपद्यस्वेति ॥ १८.६॥ असिषुवेदवाक्येयसी । ततस्तष संशयोऽयम् । यथा था. ऽयं न कार्यस्तथा ऋण सौम्य ! इति । उत्तर पूर्वपक्षः॥ योक्तम्-'योऽनादिः संयोगः सो: __ मन्तो यः' इत्यादि । तत्राऽऽह॥ १८१२॥ अत्र प्रतिविधीयते-तत्र यत् तावदुक्तम्-कि पूर्व जं संताणोषणाई, तेणाऽणंतोऽवि सायमेगंतो। जीवः पश्चात् कर्म, उत व्यस्यया?'त्या. दीसह संतो वि जो, कल्पइ वीर्यकुराईणं ।।१८१७।। दि । तत् सर्वमयुक्तम् । कुता ? इत्याह • यत्-यस्माजीव-कर्मसंयोगसन्तानोऽनाविस्तेन तस्माद. नन्तोऽपि ' इति नायमेकान्तः, यतोऽनादिरपि संयुक्तयोर्वसंतायोऽणाईओ, परोप्परं हेउ-देउभावाभो। स्तुनःसन्तानसान्तोऽपिकचिदश्यते, यथा बीजा. देहस्स य कम्मस्स य, मंडिय! बायकुराणं व ॥१८१३॥ पुराऽऽदीनां सन्तान इति ॥ ११ ॥ Page #1265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धमक्खसिकि तथाहि अमरमणिव्यत्तिय कर्ज बीयंकुराण में विहथं । तत्थ हो संतायो, कुकुडिमंड |इयाणं च ।। १८१८ ॥ जह बेह कंचोवल संजोगोऽखाइसंग वि वो सोवार्य, तह मोगो जीव-कम्माणं ।। १८१६ ॥ बीजाभ्येऽन्यतरनिर्वसितकार्यमेव यद् विहितं पानपोईतोव्यःसन्तानः एवं कुकु पिता-पुत्रयोरपि च चक्रव्यम्। यथा या का अनोपयोरादिकाल ससम्मानभाषगलोय संयोगः सोपायम् अनितापाऽयुपाबाद् व्यवच्छिद्यते, तथा जीव-कर्मपोरपि संयोगोऽनादिसन्तानगतोऽपि तपः संयमायुपायाद् व्यवच्छिद्यते इति न मोक्षाभाव इति ।। १८१८ ॥ १८१६ ॥ , ( १२४२ ) अभिधानराजेन्द्रः । - अत्र परस्य प्रामुपन्यस्योत्तरमाह- " । तो किं जीवनहाण व ग्रह जोगो कंचयोवला गांव ? | जीवरस य कम्मरस व भगाइ दुबिद्दो चि न विरुद्धो १०२० पदमोडभन्दा चिय, मध्यायं कंचयोवलायं जीवसे सामछे, भन्त्रोऽभव्यो त्ति को मेमो १ ।। १८२१ ॥ आह-जीवस्य कर्मणश्च योऽयं परस्परं योगः सोऽमादिः सन् किं जीव नभसोरिवानन्तः, श्रथ काञ्चनो पलयोरिव सान्तोऽपि स्यात् उभयथापि दर्शनात् किमत्र प्रतिप धामहे । भएयते ऽत्रोतम्-द्विमोनाचतरूपोऽमध्यानां यः । यस्तु काश्चनो पलयो रिवानादि साम्बासी मध्यानां विज्ञेयः नतु जी areerयेऽपि श्रयं मध्यः श्रयं चाऽभव्यः' इति किं कृतोऽयं विशेषः १ । न च वक्तव्यम् - यथा जीवत्वे समानेऽपि नाटक- तिर्यगाइयो विशेषास्तथा मयाऽमन्यविशेषोऽपि भविष्यतीति यतः कर्मजनिता एस नार का 55दिविशेषान तु स्वाभाविकाः, भव्याऽभव्यस्वविशेषोऽपि यदि कर्मजनित. स्तदा भवतु को निवारयिता १, न चैवमिति ॥ १८२० ॥ १८२१ ॥ एतदेवा556 . 36 1 होठ व जड़ कम्पको न विरोहो नारगाइभेट यह य भब्दाशब्दा सभावयो देख संदेशे ।। १८३२॥ भवतु वा यदि कर्मकृतोऽयं भव्याऽभव्यत्वविशेषो जीवानामिष्यते, नाऽत्र कश्चिदू विरोधः, नारकाऽऽविभेदवत् न चैतदस्ति यतो 'भभ्याऽभव्याः स्वभावत एव जीवा न तु कर्मतः इति पूर्व भणथ तेनाऽस्माकं संदेहइति । " ॥ १८२२ ॥ परेणैवमुक्ते सत्याद्ददव्याचे तुझे, जीवनहाणं सभावभो मेमो ये जीवाजी वाइगयो, जह तह भव्येयरविसेसो ॥ १८२३ ॥ यथा जीवनसत्व] सस्य प्रमेयस्वचवादी अपि जीवाजीवस्य बेसनाचेतनरवादिस्वभावतो भेदः तथा जीवानामपि जीवस्वलाम्येऽपि यदि भन्याऽभव्यकृ तो विशेष स्यात् तईि कोष इति ॥ १८५३ ।। संबोधितोभयत्वाऽऽदिविशेषमभ्युपगम्य रहात रमाह एवं पि भवभावो जीवसंप व सभाबजाईयो । पाव नियो त य तद्वत्वे मस्षि दिव्या २८२४ । नन्वेवमपि भव्यभाषां नित्योऽविभासी प्राप्नोति स्वभा जातीयश्वात्-स्वाभाविकत्वाची पायमतिद तब चुक्म् यतस्तस्मिन् भय्यमाचे तपस्ये नित्यावस्थायिनि नास्ति निर्वाणम्" सिद्धो भयो नाप्यभव्यः " इति वचनादिति ॥ १८२४ ॥ 66 नैवं कुत इत्याह मह घपुष्याभावो नाइसहाको वि सनियो एवं जद्द मन्यताभावो भवेन किरिया को दोसो ॥१८२५।। यथा घटस्य प्रागभावो ऽनादिस्वभावजातीयोऽपि घटोत्यो पनि विनश्वरो वर्ष यदि व्यवस्थापि ज्ञानतपः सचिचरक्रियोपायतोऽथाथः स्वास को दो पः संपद्यते, न कश्चिदिति । बंधमोक् आक्षेपपरिहारौ प्राऽऽहअणुदाहरणमभायो, खरसिंग पव मई न तं जम्दा भाव वसविसिडो, कुंभागुपसिमेयां ।। १८२६ ॥ स्यान्मतिः परस्य नन्धनुदाहरणमसी प्रागभावः, अभा वरूपतयेवावस्तुस्वात् खरविपाययत्तन दमानाय पचासी घटप्रागभावः तत्कारणभूनानादिकालप्रवृत पुङ्गलसंघातरूपः केवलं घटानुत्पतिमात्रेण विशिष्ट - ति ॥ १८२६ ॥ भवतु घटप्रागभावयन्द्रव्यत्वस्य विनाशः केवलमि सति दोष जति किमित्याह 1 एवं भव्युच्छे भो, कोट्ठागारस्स वा अवचट । " तं नाणं तत्तणओ-खागयकालंचराणं व ।। १८२७ ॥ गम्येवं सति मयोच्छेदोमयी संसार शून्यः प्राप्नोति अपचयात् । कस्य यथा समुच्छेदः ?, इत्याह- स्तोकस्तोकाऽऽकृष्यमाणधान्यस्य धान्यभृत कोष्ठागारस्य । इदमुक्तं भवतिकालस्याऽऽनन्त्यात्वरमासपर्यन्ते चावश्यमेकस्य भायस्य जी. वस्य सिद्धिगमनात्क्रमेणापचीयमानस्य धान्यकोष्ठागारस्पे व सर्वस्यापि भव्यराशेरुच्छेदः प्राप्नोतीति । रमा इ-तदेतन, अनन्तत्वाद्रव्यराशेः, अनागत कालाऽऽकाश बदि तिनम्तनानन्तं तत् स्तोकस्तोकतया उप श्रीमानमपनयते यथा प्रतिसमयं वर्तमानताप यापचीयमानो ऽप्यनागतकालसमयराशिः प्रतिसमयं बु· था प्रदेशापहारेणापचीयमानः सर्व प्रदेशराशि इ ति न भव्योच्छेदः ॥ १८२७ ॥ " कुतः ?, इत्याह जं चातीनायागय-काला तुला जो य संसिद्धो । को भाग भाईयकाले ।। १८२८ ।। एस्से तसिउ थिय, जुतो जं तो वि सन्भव्वाणं । जुतो न मुच्यो, होअ मई कमियं सिद्धं ॥ १८२६॥ भव्त्राणमयं तत्तण-पणंतभागो व किह व मुकोसिं । Page #1266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधमोक्खसिफि " दो मंडिय, मह बनाओ व पवित्र १०३०। यस्माचातीतानागतकाली देव यतयातीत माऽपि कालेन व निगोदान्तमो भागोऽद्यापि भया मां विद्धः यताऽपि भविष्यत्कालेन तापमान एब अध्यानन्तभागः सिद्धिं गच्छन् युक्तो घटमानको, न ही नधिको यतोऽपि कालस्वातीतात एव मपि सति न सर्वभध्यानामुच्छेदो युक्तः, सर्वेणाऽपि कालेन मदतमानस्यैव सिद्धिगमसंभवोपदर्शनात् । अथ परस्य मतिर्भवत्-तरकथमिदं सिद्धं बहुत - अगस्ता भव्यास्तदन तभागस्य सर्वेणैव कालेन सेत्स्यतीति । अत्रोच्यते-कासाऽऽदय चानन्तास्तावद् भव्याः तद्मन्नभागस्य च मुक्ति मान्का कारायोरिव न सर्वेषामुच्छेद इति प्रति पद्यस्थ, मचनाद्वा मण्डिक ! सर्वमेव श्रद्धेहीति ॥ १८२८ ॥ ( १२४३) अभिधानराजेन्यः | - ॥ १८२६ ॥ १८३० ॥ कथं पुनस्त्वद्वचनात्सर्वमेतत् सत्यतथा प्रतिपद्यामहे १, इत्याह सन्भूयमियं गिरइसु, मह वयथा श्रोऽवसेस वयं व । सम्यगुताइबा, जायय मत्यवयव ।। १८३१ ॥ मासिक सम्म सन्देस सम्बपच्छेया। " दिताभावपि पुच्छउ जो संसओ जस्स ॥१८२॥ सद्भूतमिदमनन्तरोक्तं सर्वमपीति गृहाण त्वं मद्वचनस्वाद्यथावत्यादिविषय म सर्वत्या हेतुभ्यः आदिशब्दात्वाऽऽदि परिग्रहः, शायकमध्यस्थ वचनवदित्ययमत्र दृष्टान्त इति । अचैवं मन्यसे कथमिव सर्वशस्त्वम्? अयोध्यते - सर्वेषां सर्व. संशयात् । अन्यस्य सर्वसंशयच्छेत्तुः कस्याप्यदर्शनास्कोऽत्र दृष्टान्तो ?, न कश्चिदिति । अत्रोच्यते-किमत्र दृष्टातान्वेषणेन ? । तदभावेऽपि हि यो यस्य संशयः स तं सर्वमपि पृच्छतु येन वप्रत्ययसिद्ध एव मयि सर्वशत्वनिश्वयो भवतीति ॥ १८३१ ॥ १८३२ ॥ , अत्र प्रेरकः प्राहभवाबिन सिकिस्सं-ति केइ कालेा जइ वि सव्वेण । न ते विभव्व श्चिय किं वा भव्यत्तणं तेसिं ॥१८३॥ नतु भव्या अपि सन्तो यदि सर्वेणापि कालेन सर्वेऽपि न सेत्स्यन्ति तर्हि येषां सिद्धिर्न भविष्यति, अभव्या एव से किं न व्यपदिश्यन्ते ?, केन वा विशेषेण तेषां भव्यत्व - म् इति निषेद्यतामिति ॥ १३३ ॥ · अत्रोशरमाहभाइ भन्नो जोग्गो, न य जोग्गतेय सिज्झए सन्चो । जह जोगम्म नि दलिए, सम्मम्मि न कीरए पटिमा । १८२४ | , भण्यते अत्रोत्तरम् - किम् ? इत्याहइ-भष्योऽत्र सिद्धिगमनयोभ्योऽभिप्रेत न तु वः सिद्विगति वाक्यपेन च योग्यत्वमस्तीत्येतावतैव सर्वः सिध्यति, किं तु गमनसामप्रीसम्भवे सति । दृष्टान्तमाह-यथा हेममणिपाषाणचन्द काठ53दिके योग्येपि प्रतिमा उद्देऽपि दलिकेनं सर्वस्मि न् प्रतिमा विधीयते किं तु यत्रैव तनिष्पतियोग्या सामग्रीसम्भवति वत्रेवासौ क्रियते नच तदसम्भवमात्रेण - घोसि तिमाविषये अयोग्यता भवति, नियम बहुत- प्रतिमायोच्ये वस्तुनि प्रतिमा भवत्येवेति किंतु दा तदा वा तद्योग्य एव सा भवति नान्यत्रेति । एवमिहापि न मध्यः इत्येतावन्मात्रेव सर्व 1 तु सामग्री संपत्तौ न च तदसम्पत्तावपि तस्याभव्यता यति किं तु यदा तदा या भयस्यैव मुहियस्थति ।। १८३४ ॥ दृष्टान्तान्तरमाह 9 जह वा स एव पासा - कणगजोगो विभोग भोग्गो वि । न सोचिय, स विजु जस्स संपती | १८१४ किं पुरा ना संपक्षी, सा लोग्गस्सेव न उ भमोग्गस्स । सह मी मोक्सो नियमा, सो भय्यायं न इसरसि । १०३६| यथा बास पक्ष पूर्वोः सुवर्णपापाणपोय गोवियोग बितोऽपि सर्यो न वियुज्यते कि तु स च वियुज्यते यस्य वियोगसामग्रीसम्मानिरिति । किं पुनः मुयि मया वियोगसामग्रीस प्राप्तिः सा वियोगयोग्यस्यैव सुवर्णोपलस्य भवति, न तु तदयोग्यस्य, तथा तेनैव प्रकारेण यः सर्वकर्मक्षयज्ञक्षणो मोतः स नियमाभ्यानामेव भवति, 'नेतरेषाममध्यामामिति भव्याऽभव्ययोर्विशेष इति ॥ १८३५ ।। १८३६ ॥ अथ प्रकारान्तरेऽपपरिहारी प्रा६कयगाइमचरणाश्रो, मोक्खो निच्चो न होइ कुंभो । नोपसागाव विम्या विजं निच्चो ||१८३७॥ अनुदाहरणमभावो एसो वि मई न तं जयो नियो । कुंभविण्यास विविझे भावो चिप पोग्गलमयो । १०१८ न मोक्षो मियो न भवति किं त्वनित्यो बिनाशी कृतकत्वादादिशब्दात्प्रयत्नानन्तरीयकरचा उश्परिग्रहः कु भवदिति दातः । अत्रोच्यते अनैकान्तिकता हेतून विपक्षेऽपि गमनाद्यादि पटादिप्रवंसाभावः कृतका55दिखभावोऽपि नित्य एव तत्त्वे बडा पतये वो जनप्रसङ्गादिति । अथैवं परस्य मतिनं केवलं पूर्वोः प्रासमावः किं स्वेयोऽपि प्रध्वंसामायो ऽयायस्वेनावाददाहरणमेव तदेतन, पो- यस्मापितो निश्चितः कुम्भ विनाशविशेषेण विशिष्टः पुरखामको भाव दचापमपि प्र खाभावः । अतो युक्तमेतदुदाहरणमिति । एतच्च मोक्षस् कृतकत्वमभ्युपगम्योक्तम् || १८३७ || १८३८ ॥ " यदि वा न भवत्येव कृतको मोक्ष इति दशेवग्राह किं वेगं कर्म, पोग्गलमेवविलयम्मि जीवस्त | किं निब्बतियमहियं नभसो परमेशविलयम १।१०३६ । किमिह पुलमालिये सति समस्त कम्प समये जीवस्याऽऽत्मनः स्वतथ्ये वृतिमादधत एकाम्लेन तं विदितं न तो मोक्षः भवतिइत्मकम्मैपुत्रवियो] मोक्षो ऽभिप्रेतः। तत्र सपसं प्रभात जीवात्मेति पृथाज्ञायमाने किमात्मनः कि. यते येन कृतकत्वादनित्यत्वं मोजस्य प्रतिपाद्यते । अथ म योगमायाकृतः नित्यततो इ Page #1267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धमक्ख सिद्धि ( १२४४ ) अभिधानराजेन्ः | स्वाशया 9 • कि नियमित्यादि" मुङ्गरा 35 दिना घदमात्रस्य विलये विनाशे सति किं नाम नभसोऽभ्यकिं निर्तित न किचिदित्यर्थः । एवमिहापि कर्ममात्र विनाशे सति किं जीवस्याधिकं कृतं येन तदेकाfearऊपस्य मोक्षस्य कृतकारित्वं स्यात् एव क मेो विनाशे घटविनाशुपतिकयमात्वाकृतस्ततः स लक्षणो मोक्षोऽनित्य इति वेतदयुक्तं यतो यथाऽयमेव घटविनाशो यः केवलाऽऽकाशसद्भावो न पुन ततो विभिन्न सौ न खाऽऽकाशस्य किमप्यधिकं क्रिबते तस्य सदाऽवस्थितस्वेन निश्वाश्वादेवमिहाप्ययमेव क र्मणो विनाशो यः केवलाऽऽत्मसद्भावो न स्वात्मनो विभि मोऽसौ न चाऽऽत्मनः किञ्चिदधिकं विधीयते तस्याऽपि नमो वनस्पत्वात्तस्मान मोक्षस्य कृतकत्वमनित्यत्वं या सायने पर्यायोभयरूपतया सर्वस्याऽपि वस्तुनो नित्याऽनित्यरूपत्वादिति ॥ १८३६ ॥ आह ननु कर्मपुङ्गला ये निर्जीर्य जीवन परित्यक्तास्ते लोकमैत्राभिम्याप्य तिष्ठन्ति न पुनस्तद्बहिः कापि गच्छन्ति, जीवोऽपि च लोकमध्य एव तिष्ठति । ततश्च यथा घटवि. युक्तस्याऽप्याकाशस्य तत्कपालपुल संयोगस्तदवस्थ एव.ए. यं कर्म विस्पाऽप्यात्मनोनितपुलसंयोगः सम इत्येय इति कथं पुनरपि न तस्य तद्वग्ध इस्पा सोनराडो पुयो, न बम्झए बंधकारणाभावा । जोगा य बंधहेऊ, न य सो तस्सांसरीरों ति । १८४०॥ समुह जीवः पुनरपि न बध्यते बन्धकारणाभावा अनपराध पुरुषवत् 1. मनोवाक्काययोगाऽऽदयका बन्धहेतवोऽ भिधीयन्ते न च ते मुक्कस्य सन्ति, शरीरा- उद्यभावान्न व कर्मवागत पुलयमानरूपोऽत्र मिस 15 तस्याद. किं तु मिध्यात्वाऽऽदित सुनिबन्धन इति । १८४० ॥ 3 आह- नन्धयं मुक्तात्मा सौगतानामिव भवतामप्यभिप्रायेण पुनरपि भवे प्रादुर्भवति न वेश्याशक्याऽऽहन पुवो तस्स पसूई, बीयाभावादिरंकुरले व बीयं च तस्स कम्मं, न य तस्स तयं तम्रो निच्चो १८४ १ न तस्य मुक्रस्य पुनरपि प्रतिज्ञायते कारणस्यासत्वाद्यथाऽङ्कुरस्य तदभावान्न प्रसूतिः बीजं चा स्य कर्मै बाघगन्तव्यम्. तरच मुक्तस्य नास्त्येव ततः पुनरा नृत्यभावात्यिोऽसाविति ॥ १०४ ॥ इत्यश्च नित्यो मुक्तः । कुतः ?, इत्याह-दबाओ, नहं व निच्चो मम स दव्बतया । सब्वगयावती, मचितं नामाखाओ || १८४२ ॥ स. मुक्कामा नित्य इति प्रतिक्षा (दव्यास) इयत्वे सति । (यलय चि) यथा नभ इति रतः । अभूता मतिः यत्वे सति 1 परस्य स्यादनेन हेतुना सर्वगतस्थाऽऽपतिरप्यात्मनः सि सासित भारमा इव्यत्वे सत्यमूर्तस्वान्नभीयत्तता धर्मविशेषविपरीतसाधनाद्विकोयम् कुतोऽगमा मानवाधितत्वात् सत्यस्येत्यर्थः तथा मक्खसि हि असर्वगत आत्मा, कर्तुत्वात्, कुलालवत्। न च कर्तुत्वम सिद्धं भोक्तृत्व द्रष्कृत्वाऽऽद्यनुपपतेरिति ॥। १८४२ ॥ यदि वा किमनेनैकान्तिकेन मित्यस्य प्रदेश एकान्तामि स्वत्वयादिनिराकरणार्थमेवमभिडितं परमार्थ तस्तु सर्वमेव वस्तु जैनानांन रमकमेवेति दर्शयन्नाह को वा निच्चरगाहो, सव्वं चिय वि भवभंगट्टिइमइयं । पज्जायंतर मिन - प्पणादनिच्चाइववएसो ।। १८४३ ॥ मतार्था । नव पर्यायान्तरमात्रस्याप्रधानमावेन कि वक्षणं तस्मादनित्याऽऽदिव्यपदेशस्तथाहि घटः पूर्वेण मृत्पि esपर्यायेण विनश्यति, घटपर्यायतया पुनरुत्पद्यते, मृडूपतया स्ववतिष्ठते । तत्तञ्च यो विनष्टरूपताऽऽदिपर्यायो यदा प्रधानभूतो विवश्यते तदा तेनानित्याऽऽदिव्यपदे शः। एवमसावपि मुक्रः संखारतया निष्टः सिद्धयोप जीवत्व सोपयोगत्वाऽऽदिभिषवतिष्ठते, तथा-प्रथमलमसिता निश्पति हिसमयसियोस्पद्यते यत्य जीवस्वाऽऽदिमिवतिष्ठते तपा दिव्यपदेश इति । १८४३ ॥ मुक्तस्यावस्थानक्षेत्र निरूपणार्थमाह चरस कोऽवगासो, सोम्मतिलोमसिहर गई कि से। कम्पलहुया तहागइ परिक्षामादि भक्षियमिदं ॥१८४४| मुक्रस्प क्षीण समस्त कर्म्मणो जीवस्य को अवकाश-का स्थानमिति पृष्ठे सत्वाह-सौम्य जिलोकशिखरं लोकान्त इत्यर्थः ननु कथम् (से) तस्याऽकर्म्मणो जीवस्यैतावत्रमितो गतः प्रवर्तते ? । कर्मनिबन्धना हि जीवानां स पिताऽपि मतिवेशयामतिप्रसङ्गः प्राप्नोति । अत्रोच्यते ( कम्मल हुय ति ) कम्मपगमे सति लाघवात् समयमेकं सद्गतिप्रवृि त्यर्थः तथागतिपदि पूर्वगतिरि सामलामादित्यर्थः यथा हि- समस्तकापूर्व सिद्ध स्वपरिणामं जीवः समासादयति तयोर्द्धगति परिणाममपीति भावः । श्रादिशब्दादपरमपितङ्गतिकार समय भणितमि. दमवगन्तव्यम् । तद्यथा - "लाउय एरंडफले, अग्गी धूमो य इसुधनुविमुखा मध्यपोगेणं, एवं सिद्धारा विगई उ ॥ १ ॥ " ॥ १८४४ ॥ अयान्यत् प्रेर्यमाशय परिहरति किं करियरूवं मंडिय] वियच किमयं । जह से विसेसधम्मो, चेयन्नं वह मया किरिया ।। १८४५ ।। आह-तम्बाकाशकालाऽऽदयोऽमूस निष्क्रिया एव प्रसि वास्तविक नाम स्वया रूपममूर्त सद्धस्तु सक्रियं दृष्टं येन मु. काऽऽत्मनः सक्रियत्वमभ्युपगम्यते ? ननुं निष्क्रिय एव मु. क्रामा प्राप्नोति अदादिति भावः ताकचय-भुवि किमक सचेतनं ते वीक्षितं येन मुहारमा प तन एवायं प्राप्नोति, आकाशवदिति । तस्माद्यथा (से) तस्य जीवस्य रुपेभ्य प्रकाश 53दभ्यस्वयत्वे समानेोपि विशेषधर्मः समति तथा क्रियाऽपि मना सक्रियत्वमपि विशेषस्तु को विशेष भित्र Page #1268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४५) बंधमोक्खसिफि अभिधानराजेन्छः। बंधमोक्खसिधि योतम्-निस्कियो मुक्कामा, अमूर्तस्वात्तदनैकान्तिकमेष, स्तिकायविरहात् । तद्विरहोऽपि कुतः, इत्याह-यपस्माद. प्रतिबन्धाभावादिस्याह । अथवा-मुक्काऽमुक्तविशेषमपहाय सौधम्मास्तिकायो लोक एव समस्ति, भालोके । मा मनः सामान्बेमाऽऽस्मनः सकिरवं साधयमाह सावलोके. किं तेन प्रस्तुतानुपयोगिमा कर्तव्यं, ताहिरहेऽपि कचाइचवमोबा, सकिरिमोऽयं ममो कुलालो । भवतु मुक्तस्य तत्र गतिः, नियमाभावात् । तदपुलं, यतो देहदसमोवा, पखं जसपुरिसो च ॥१८४६॥ जीवानां पुतलामां व गर्गमनस्योपग्रह उपष्टम्भस्तका. अथवा-सकियोऽयमात्मा, कर्तृत्वाकुलालवदादिशब्दा री स एष धमोस्तिकायो माम्यस्ततस्तस्याउकोकेऽमावा. भोपवत्वादित्यादि वाच्यम् । अथवा-सक्रिय मारमा, प्रत्यक्ष. स्कथं लोकास्परतोऽसोकेऽपि मुक्काइस्मनां गतिः प्रवर्तते!, स एव देशपरिस्पन्ददर्शनाद्यन्त्रपुरुषवदिति ॥ १८४६ ॥ इति ॥ १८५०॥ पराऽऽशङ्का प्रतिविधानं वाह कथं पुनरेतदवसीयते यदुत-लोकादयोऽप्यलोकपदार्थः कश्चिदस्तीत्याशस्क्याहदेहप्पंदणहेज, होज पयचो ति सो वि नाकिरिए । लोगस्स स्थि विवक्खो. सुद्धत्तणो घढस्स अघडो च। होजादिवो वसई, तदसवते नणु समाणं ॥१८४७॥ सघडाइ रिचय मई, न निसहामो तदारुवो ॥१८॥१॥ रूवित्तम्मि स देहो, वच्चो तफंदणे पुणो हेऊ । अस्ति लोकस्य विपक्षी, प्युत्पत्तिमम्बुद्धपकाभिधेयत्वादिह पइनिययपरिष्फदस-पचेयणाणं न वि य जु॥१८४०॥ यद् व्युत्पत्तिमत्ता शुद्धपदेनाभिधीयते तस्य विपक्षो रोय. प्रथैवं षे-देहपरिस्पन्दहेतुरारमनः प्रयत्नो न तु क्रिया, था घटस्याघटः, यम लोकस्य विपक्षः सोऽलोकः। प्रथ अती नाफरमनः सक्रियत्वसिद्धिरित्यभिप्रायः। अत्रीसरमाह- स्यान्मतिर्न लोकोऽलोक इति यो लोकस्य विपक्षः स घटा. सोऽपि प्रयत्नो नमसीवाऽक्रिय प्रात्मनि न संभवत्यतः 5ऽदिपदार्थानामन्यतम एव भविष्यति, किमिह पावतरप. सक्रिय एवाऽसौ। अमूर्तस्य च प्रयत्नस्य देहपरिस्पन्दहेतु रिकल्पनया? । तदेतन, पर्युदासनमा निषेधानिषेध्यस्यैवानुस्वे कोऽन्यो हेतुरिति वाच्यम् ? । अन्यहेतुनिरपेक्षा स्वत रूपोऽत्र विपत्तोऽन्वेषणीयः, न लोकोऽलोक इत्पत्र बलो. पवायं परिस्पन्दहेतुरिति चेत्,यद्येवम्, भात्माऽपि तसे तुर्भ को निषध्यः, स चाडकाविशेषः, अतोऽलोकेनाऽपि तदनुविष्यति,कमन्तर्गदुना प्रयत्नेन?। अथारः कोऽपि देहपरिस्प. रूपेण भवितव्यं, यथेहाऽपण्डित इत्युक्त विशिष्टज्ञामषिकल. दहेतुन स्वात्मा, निष्कियत्वात्। ननु सोऽप्यपृष्टः किं मूर्ती श्वतन एव पुरुषविशेषो गम्यते, नाश्चेतनो घटाऽविषमिऽमूनों वा । यद्यमूर्तस्तात्माऽपि देहपरिस्पन्दहेतुः किं हापि लोकानुरूप एवालोको मन्तव्यः । उक्नं च-" मम् नेप्यते,अमूर्तत्वाविशेषात् अथ मूर्तिमानष्टः, िस कार्म युक्नमिवयुक्तं घा, यद्धि कार्य विधीयते । तुल्याधिकरणे. णशरीरलक्षणो देह एव, नान्यः संभवति। तस्यापि च ब न्यस्मि-लोकेऽप्यर्थगतिस्तथा ॥१॥" " नम्इप युक्तमन्यसरः हिश्यदेहपरिस्पन्दहेतुतया व्याप्रियमाणस्य परिस्पन्दो द्र. शाधिकरणे तथा ह्यर्थगतिः । " तस्मालाकविपक्षस्वादएघ्यः तस्य चान्यो हेतुर्वीच्यस्तस्याप्यन्यस्तस्याऽपि चान्य इत्य स्त्यलोक इति ॥ १८५१ ॥ नवस्था। अथ स्वभावादेवाऽदृष्टस्य कार्मण देहस्य परिस्पन्द: अथालोकास्तित्वादेव धर्माधर्मास्तिकायौ साधयवाहप्रवर्तते.तर्हि बहिश्यस्यापि देहस्य तत एव तत्प्रवृतिवि तम्हा धम्माऽधम्मा,लोयपरिच्छेयकारिणो जुत्ता। प्यति,किमष्टकार्मणदेहपरिकल्पनेन । अस्त्वेवमिनि नेत्त क्युक्तम्, अचेतनानामेवंभूतप्रतिनियतविशिष्ट वनस्य इहरागासे तुले, लोगोऽलोगो त्ति को भेश्रोपा९८५२॥ स्वभाविकत्वानुपपसे,"नित्यं सत्त्वमसत्वं वा, देतोरन्या. लोगविभागाऽभावे, पडियायाभावोऽणवत्थामी। मपेक्षणाद।" इत्यादिदोषप्रसंगात्तस्मात्कर्मविशिष्ट आत्मै. संववहाराभावो, संबंधाभावभो होज्जा ॥ १८५३ ॥ व प्रतिनियतवेहपरिस्पन्दनहेतुत्वेन व्याप्रियत इति सकि. योऽसाविति । १८४७॥ १८४८॥ यस्मादुकप्रकारेणास्त्यलोकः, तस्मादलोकास्तिस्वादेवाचभवतु तहि भवस्थस्य सकर्मणो जीवस्य क्रिया, मुक्तस्य श्यं लोकपरिच्छे कारिभ्यां धम्मधिम्मास्तिकायाभ्यां भवि. तु कथमसावित्याशक्य परिहरबाह तव्यम्, अन्यथाऽऽकाशे सामान्ये सत्ययं लोकोऽयं चालोक इति कृतोऽयं विशेषः स्यात् । तस्माद् यत्र क्षेत्रे धर्माध. होउ किरिया भवत्य-स्स कम्मरहितस्स किं नितित्ता सा। म्मास्तिकायौ वर्तेते, तल्लोकः, शेषं त्वलोक इति लोकाउलो. नणु तग्गइपरिणामा, जह सिद्धतंतहा सा वि ॥९८४६॥ कव्यवस्थाकारिणो धम्माऽधर्मास्तिकायौ विद्यते इति । (लो. पूर्वानाक्षेपः, पश्चाईन तु परिहार, प्राग् व्याख्याता गेत्यादि) यदि हि धर्माधर्माभ्यां लोकविभागो न स्यात्ततो र्थ एवेति ॥ १८४६ लोकविभागाभावेऽवशिष्ट एवं सर्वस्मिन्नप्याकाशे गतिपरिअपरस्वाह-- णतानां पुद्रलानां च प्रतिघाताभावेन तद्गत्यवस्थानाभावाकिं सिद्धालपपरो, न गई धम्मत्थिकायविरहाओ। दलोकेऽपि गमनासस्य चानन्तत्वासेषां परस्पर संबन्धी न सो गाउवग्गाकरो, लोगम्मि जमस्थि नालोए॥१८५०॥ स्यात् । ततश्च औदारिकाऽऽदिकार्मणवर्गणापर्यन्तपुडलकययुकन्यायेज मुक्तस्य गतिक्रियया सक्रियत्वमिष्यते , त. तो जीवानां पन्धमोक्षसुखदुःखसंभषसंसरणाऽऽदिव्यबहागे हि सिद्धाऽऽलयात्-लिद्धावस्थितिक्षेत्रात् परतोऽलोकेऽपि न स्याजीवस्य च जीयेन सहान्यो ऽस्यमीलनाभावात् तस्कृती किमिति तस्य तिर्न प्रवर्तते । अनोग्यते-परतो धर्मा ऽनुग्रहोपघाताऽदिव्यवहारोन स्यादिति ॥५२॥ १८५३ ॥ ३१२ Page #1269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधमोक्खसिकि ततः किमित्याह निरमुगाओ, न गई परओ जलादिव फसस्स । जो मग्गहिया, सो धम्मो लोगपरिमाणो । १८५४ | ततो लोकापरतो लोके जीवपुलानां न गतिः, निरनु महत्वात् तत्र मस्यनुग्रहकर्तुरनावादित्यर्थः यथा जला त्परता झपस्य मत्स्यस्य गतिनं भवत्युपमादकाभावादिति । यश्चात्र जीवपुलतेरनुग्रहकर्ता स लोकपरिमाणम स्तिकाय इति ॥ १८५४ ॥ तत्र प्रयोगमा अस्थि परिमाणकारी, लोगस्स पमेयभावोऽवस्सं । नाणं पिव नेयस्सा लोगस्थिते न सोऽवस्सं ॥ १८५५॥ अस्ति लोकस्य परिमाणकारि मेस्त् - स्य । अथवा जीवाः पुङ्गलाश्च लोकोऽभिधीयते, ततोऽस्ति तत्परिमाणकारी, प्रमेयश्वाद्यथाशास्यादीनां प्रस्थ पद परिमाता स धर्मास्तिकायः स चावश्यकस्यास्तित्व एव युज्यते, नान्यथा, श्राकाशस्य सर्वत्राऽविशिष्टत्वात्त स्माल्लोका सिद्धस्यावस्थानमिति प्रस्तुतम् ॥ १८५५ ॥ अथ प्रकारान्तरेणऽऽक्षेपपरिहारी प्राऽऽहपणं पसत्तमेनं, थाणाश्र तं च नो जओ छट्ठी । इद कत्तल करथत्यंतरं था । १८५६ ।। ननु स्थीयते ऽस्मिन्निति स्थानमित्यधिकरणसाधनोऽयं श. दस्ततश्च सिद्धस्य स्थानं सिद्धस्थानमिति समासस्ततः यं सति सदस्य पतसस्थानास्तपादपाय प्रस्थित देवदत्तस्येव, फलस्येव वा । यस्य किल काऽपि पर्वतादयस्थानं तस्य कदाचित् कथाऽपि पतनमपि दृश्यते, अतः सिद्धस्याऽपि तत्कदाचित्प्राप्नोतीति भावः । तच्च न, यतः सिद्धस्य स्थान मितीयं कर्त्तरि षष्ठी । ततश्च सिद्धस्य स्थान. मिलि को सिद्धः स नतु ततरभूतं स्थानम स्तीति ॥ १८५६ ॥ नहनिच्चतओवा, पाखविणासपवणं न जुर्च से । तह कम्माभावाओ, पुणक्कियाभावो वा वि || १८५७॥ श्रर्थान्तरत्वेऽपि स्थानस्य न पतनं सिद्धस्य यतोऽर्था. स्तरं स्थानं नभ एव तस्य च नित्यत्वाद्विनाशो न युक्त. स्तदभावे च कुतः पतनं मुक्तस्य ? | कर्म चाऽऽत्मनः पतनाSS. दिक्रियाकारणं, मुलस्य च कर्माभावात् कुतः पतनक्रिया है। या व समयमेकमा गतिक्रिया तस्याः कारणम्लाउयपरंडफले " इत्यादिना दर्शितमेव । पुनः क्रिया च मुक्तस्य नास्ति, कारणाभावाविजययत्नयेरणा 33 कर्षराधिक 66 yarssesो हि पतनकारणम्, तत्सम्भवश्च मुक्तस्य शक्ति, तोरभावादिति कुतोऽस्य पतनमिति । १८५७ ॥ किं स्थानात् पतनमिनि कान्तिकमेवेति दर्शयतिनिस्थाओवा, योपाई पड पसज्जा | ( १२४६ ) अभिधानराजेन्दः | अथवा अह न मयमतो, थाणा ओवरसपडणं ति ॥१८८५८ || ननु व स्थानात्पतनमिति वमिदम् खानादेव पतनस्य युज्यमानत्वाद् । अथ स्थानादपि पतनमिष्य बंधमोक्खसिकि से, व नित्यमेवस्थाना व्योमादीनां पतनं प्रसज्येत अ न तत्तेषां मतं तर्हि स्थानास्पतनमित्यनैकान्तिकमेवेति ॥ १८५८ ॥ अथान्येन प्रकारेण प्रेर्यमाशङ्कय परिहरन्नाहभवसिद्धो चि मई, तेणाइमसिद्धसंभवो जुत्तो । कालायाइत्तणओ, पढमसरीरं व तदजुत्तं ।। १८५६ ॥ अथ स्याम्मतिः परस्य यतो भवात्सोरात्सवोऽपि मु. काम सिद्धस्तेन ततः सर्वेषामपि सिद्धानामादद वश्यमेव केनाप्यादिसिद्धेन भवितव्यम् । तदयुक्तम् यतो यथा सर्वाण्यपि शरीरागयहोरात्राणि च सर्वात्यादियुक्ता स्व. अथ व कालस्याऽनादित्वाद नाम माया होरा वा किमपि ज्ञायते तथा कालस्यानादिस्वामि खोऽपि नाद्यः प्रतीयत इति ॥ १८५६ ॥ अथान्यदपि प्रेर्य परिहारं चाऽऽहपरिषदेता कि माया विविरहिताओ । नियम व नागाई, दिडीयो वेगरूवम् ।। २८६० ।। आइ-परिमितदेशमेव सिद्धि तथ कथमनादिकालयविनोऽनन्ता सिद्धा मान्ति अमूर्त्तत्वारि दाः परिमितेऽपि नास्ति यथा प्रतिमेव अनन्तानि सम्बन्धीनि केयानकेवलदर्शनान सम्पतन्ति यो वा यचैकस्वामपि न सहस्रशः प्र पतन्ति परिमिते ऽपि पापादिक्षेत्रे योऽपि प्रीभामान्ति एवमिहामूर्त्ताः सिद्धाः कथं परिमितक्षेत्रेन न्तान मास्यन्ति मूर्तीनामपि प्रदीपप्रभादीनां बहुना मेनं दृश्यते किमुतानामिति " भावः ॥ " ॥ १८६० ॥ तदेवं क्रिमी बोली व्यवस्थाप्य वेदनाद्वारेणाऽपि तद्व्यवस्थामाहन इव ससरीरस्स, विवाऽपियावहतिरेमाई । वेपयाणं च तुमं, न सदत्थं मुखसि तो संका || १८६१ ।। तु बंधे मोम्य, सायन कआ जो फुटो चेव । सरेपरभावो न जो मोबंध मोक्खे नि ।। १८६२ ।। व्याख्या - " न हि वै सशरीरस्य प्रियाऽप्रिययोरप सिरस्त्यशरीरं वा वसन्तं प्रियाऽप्रिये न स्पृशंतः " इत्यादीनां च वेदपदानां सदर्थत्वं (न मुसि) न जानासि ततो बन्धे मोक्षे स तव सौम्य ! शङ्का, साचन कार्या, यतो ननु यः सशरीरेतरभावः स स्फुट एव बन्धो मोक्षश्चेति कथं शका युज्यते ? तदुकं भवति सशरीरस्येश्यमेन बाह्याऽऽप्यामि कानादिशरीर सन्तानस्वरूपो बन्धः प्रोक्तः, तथा शरीरं वा बसन्तमित्यनेन स्वशेषशरीरापगमस्वभावो मोक्षः प्रतिपादितः । " तथा स एष विगुणो विभुर्न बध्यते " इत्यादी - म्यपि पदानि संसारजीवस्प बन्धमोक्षाभावप्रतिपादकानि एवं मन्यसे। तचायुक्रम्यत्वाम् मु क्लस्य च वन्धाऽऽयभावेऽविप्रतिपत्तिरेवेति । तदेवं भगवता छिन्नस्तस्य संशयः ॥ १८६१ ।। १८६२ ।। ततः किमित्याह निम्म संसयम्मी, जिथेण जरमरणविषमुक्केणं । Page #1270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४७) बंधमोक्खसिद्धि अभिधानराजेन्डः। बंधसामित्त सो समखोपय्वानो, प्रबुद्विहि सह खफिय सरहि।१८६३। मइआईसुं चुच्छ, समासमो संघसामि ॥१॥ ग्याल्यापूर्ववत् , मवरम् अर्सचतुः शिष्यशतैः सह प्रथमान मतं द्वितीयामाभिधेयं सामावुक.प्र. मनजितोऽयमिति १८६३ ॥ विशेष मा०मा।कर्मः। तत्र योजनसंबन्धौ तु सामर्थ्य गम्यौ । तपः कर्मपरमासूमिथ्यात्वाऽऽदिभिर्वन्धहेतुभिरखनचूर्णपूर्णसमुद्कवनिरन्तरं मां जीवप्रदेशैः सह संबन्धस्तस्य विधानं मिध्यात्वाऽऽदि. निषिते लोके कर्मयोग्यवर्गणापुरलैराश्मनः क्षीरनीव- भिवन्धहेतुमिनिर्वर्तनं बन्धविधानं तेन विमुक्तः स तथा बायपापिण्डद्वाऽम्योम्यानुगमभेदाऽऽत्मकः सम्बन्धो ब. तंबन्धविधानषिमुक्त बम्बिस्वा धीवर्धमानजिनचन्द्रम् पश्ये बःकर्म.५बर्म। पं०सं० । सायं प्रति बग्धसिभिधास्ये समासता-संक्षपतो न विस्तरेख। किमिस्याह-बशिभामाश्रयायाः प्रकृतेरेव वन्धमोक्षौ, संसारश्च, न पु. न्धस्वामित्वं बन्धः कर्माऽणूनां जीवप्रदेशैः सह संबन्धस्त. कृषस्येति, सदयसारम् . अनादिभवपरम्पराऽनुबद्धया प्र. स्थ स्वामित्वमाधिपत्यं जीवानामिति गम्यते । के १.(गई. कृत्या सह यः पुरुषस्य विवेकाऽग्रहणलक्षणोऽविश्यम्भावः याईसुति) गतिरादियेषां तानि गत्यादीनि, प्राविशमादिस एव चेन्न बन्धस्तदा को नामाऽन्यो बन्धः स्यात् ।। प्र. न्द्रियादिपरिग्रहः । तेषु गत्याविषु-मार्गलास्थानेषु । कर्म० कृतिः सर्वोत्पसिमतां निमित्तमिति च प्रतिपद्यमानना35. ३ कर्म० । (तानि 'मग्गणाठाण' शमे वक्ष्यामि) तत्र बांध युष्मता संहाऽन्तरेण कमैव प्रतिपानं, तस्य वैवस्वरूपत्वा ण कमेव प्रतिपन्न, तस्य वैवस्वरूपत्वा च प्रतीत्य विंशत्युत्तरं प्रकृतिशतमधिक्रियते । तथाहि-शाना. इचेतनत्वाच्च। यस्तु प्राकृतिकवैक्रियकारिकदाक्षिण भेदात्रि ऽऽबरण उत्तरप्रकृतयः पञ्च दर्शनाऽऽबरणे नव, वेदनीये , विधो बन्धः । तद्यथा-प्रकृतावारमझाना ये प्रकृतिमुपासते मोहे सम्यक्त्वमिश्रवर्जा पशितिः, आयुषि बतखाः, नामिन तेषां प्राकृतिको बन्धः, ये विकारानेव भूतेन्द्रियाहङ्कारबुद्धीः भेदान्तरसम्भवेऽपि सप्तपष्टिः, गोत्रे वे, अन्तराये पश्च, सर्व. पुरुषबुद्धघोपासते तेषां वैकारिकः । इष्टापर्ने दाक्षिणः। मीलने विंशत्युत्तरशतमित्येतच्च प्राक सविस्तरं कर्मवि. पुरुषतवानभिशा हीष्टापूकारी कामोपहतमना बयते इति पाके भाषितमेव । "इष्टापूर्स मन्यमाना वरिष्ठं, नान्यत् श्रेयो ये ऽभिनन्दन्ति मू. डा। नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेन भूत्वा, इमं लोकं हीनतरं वा वि सम्प्रति विंशत्युत्तरशतमध्यगतानामेय वक्ष्यमाणार्थोपयो. शन्ति ॥१॥"" इतिवचनात् । स विविधोऽपि कल्पनामानं कथ गित्वेन प्रथमं कियतीनामपि प्रकृतीनां संग्रहं पृथक्करोतिशिम्मिध्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगेभ्योऽभिन्नस्वरूपत्वे. जिण सुरविउ वाहारदु,देवाउय नरयसुहमविगलतिगं । न कर्मबन्धहेतुष्वेवान्तर्भावात् । बन्धसिद्धौ व सिद्धस्तस्यै. एगिदि थावरायव, नपु मिच्छं हुंड छेवढं ॥२॥ व निर्वाधः संसारः । बन्धमोक्षयोकाधिकारणस्वाध एव प्रण मज्मागिइसंधयण,कुखगनिय इस्थि दुहगीणतिगं। बद्धः स एव मुच्यते इति । स्या० १५ श्लो०। उजोय तिरियदुर्ग,तिरिनराउ नरउरलद्गरिसह ३(युग्मम्) बंधमोक्खोववत्ति-बन्धमोक्षोपपत्ति-स्त्री. मिथ्यात्वाऽऽदिहे. जिननाम १ सुरतिक-सुरगतिसुरानुपूर्वीरु ३. वैक्रियतुभ्यो जीवस्य कर्म पुगलानां च वह्नययःपिण्डयोरिव वा पर. द्वि-वैक्रियशरीरक्रियाअगोपागलक्षणम् ५। पाहारका स्परमविभागपरिणामैनावस्थान रूपस्य बन्धस्य सम्यदर्शन. द्विकमाहारकशरीरं तदङ्गोपाङ्गं च ७।देवाऽऽयुष्कं च नर शानचारित्रेभ्य कर्मणामत्यन्तोच्छेदलक्षणस्य मोक्षर घर- कत्रिकं नरकगतिनारकानपूर्वीनरकाऽऽयुष्करूपं ११, सूक्ष्म नायाम् , ध०१ अधिक। त्रिकं सूक्ष्मापर्याप्तसाधारणलक्षणम् १४, विकलत्रिकं द्वित्रिच. बंधन-बान्धव-पुं०। मातृपित्रादिषु,उत्त०१८: सूत्राथ. तुरिन्द्रियजातयः१७। एकेन्द्रिय जाति:१८, स्थावरनाम १६, शातिषु भ्रातृपितृव्येषु, "पुत्सदारं च बंधवा।" उत्त. १८ | श्रातपनाम २०, नपुंसकवेदः २१, मिथ्यात्वं २२ गहअ०। आचा० । निकटवर्तिषु स्वजनेषु , उत्त०१३ अ०।। संस्थानं २३ सेवार्तसंहननम् २४ ( अण ति ) अनन्तानु बंधविहा-बन्धविधा-स्त्री० । विधानानि विधा-भेदाः, ब. बम्धिकोधमानमायालोभाः २८मध्याऽऽकृतयो मध्यमसंस्था. न्धस्य विधा बन्धविधाः। बन्धस्य प्रकृतिस्थित्यनुभागमः। नानि न्यग्रोधमण्डलं सादि वामनं कुब्जं चेति ३२ मध्यमसं. देशरूपेषु, प्रकारेषु कर्म०५ कर्म। वृ०। हननानि ऋषभनाराचं नाराचमईनागचं कीलिका चेति ३५ बंधविहि-बन्धविधि-पुं । बन्धस्य विधिन्धविधिः । बन्ध. (कुखग त्ति अशुभविहायोगतिः ३७ नाचैर्गोत्रं, स्त्रीवेदः ३६ दुर्भगत्रिकं-दुर्भगदुःस्वराऽनादेयरूपं ४२ स्त्यानद्धित्रिक-निप्रकारे. पं०सं० १ द्वार। द्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानर्द्धिलक्षणम् ४५ उयोतनाम ४६ बंधसामित्त-बन्धस्वामित्व-ना बन्धकत्वे, (कर्मणां बन्धकत्वः | तिर्य गद्विकं तिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वी रूपम्मतिर्यगाऽऽयुः ४६ म् 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे उक्लम्) ('बन्ध' शब्द च नराऽऽयुः ५० नरद्विकं-नरगतिनरानुपूर्वीलक्षणम् ५२ श्रीगत्यादिद्वारारायश्रित्य सूत्राणि प्रदर्शितानि । इह तु सङ्गृह्य । बारिकद्विकमौदारिकशरीरमौदारिकाङ्गोपाङ्गनाम च ५४ प्रतीते)मार्गणास्थानेषु बन्ध-"सम्यग् बन्धस्वामित्व-देश. बजऋषभनाराचसंहननम् ५५ । इति पञ्चपञ्चाशत्ाकृतिकंबर्द्धमानमानम्य । बन्धस्वामित्वस्य,व्याख्येयं लिख्यते किं- सङ्ग्रहः। चित् ॥१॥" इह स्वपरोपकाराय यथार्थाभिधानं बन्धस्वा । अधैतस्य प्रकृतिसंग्रहस्य यथास्थानमुपयोग दर्शमिस्वप्रकरणमारिप्सुराचार्यो मङ्गलाऽदिप्रतिपादिकां यन्मार्गणास्थानानां प्रथमं गतिमार्गणास्थागाथामाह नमाश्रित्य बन्धः प्रतिपाद्यतेबंधविहाणविमुक्त, वंदिय सिरिवद्धमाखजिषचंदं । । मुरइगुणवीसवजं, इगसर ओहेण बंधहिं निरया। Jain Education Interational | Page #1271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेम्बः। बंधसामिछ तिस्थ विखामिसि,सासणिनपुचत विखाना बन्धो, यदुत-बवायुध्यते सौष मस्यामुयमपि "मिसुरविड वाइरियादि"नाणेकार मेरारिका- तस्यालयकाअपमन्यात् ।मिथ्यावसासादयोस्तुकछपाध्य कामविशतिप्रतीयित्वा शेषकोत्तरशतमोचन गार सायस्वेमनरविम. बध्यते । एवं भरकमती पर मित्वं प्रतिपायाचतिम्गतीबदाह-सत्तर समोर काबनम्तिायनामिनाया-एता एकीनर्षियातिप्रकृती बादि विशत्युत्तर जिननाम माहारकद्धि विनामे धाषिकर्मप्रकृतिविंशत्युत्तरशतमध्यान्मुक्रवाशेषस्यैको सप्तकोत्तरशतमो मिथ्याधिगुणस्थानेजपर्याशास्तिको तरशतस्य मरगती मानाजीवापेक्षया सामान्यतो बन्यः ।। बध्नास्ति । अत्रौ तिर सत्यपि सम्यक्त्वे भवप्रथयादेव सुरविकाऽऽयकोनविंशतिप्रकृतीनां तु भवप्रत्ययायेव नारका तथाविधाभ्यवसायामावातीर्थकरनाम्नःसंपूर्णसंयमाभाषाकामयापकत्वात् । सामान्येन नरकगतौबन्धमभिधाय सम्म दाहारकद्धिकस्य पायो नास्तीति दयम् ॥ ७॥ नि तस्थामेव मिथ्यापादिगुणस्थानचतुष्टय विशिष्ठ तंद. शयति-"तित्व विणेत्यादि" प्रागुतमेकोत्तरशतं तीर्थक- विसुनस्यसोल सासणि,मुराउण एगतीस विणु मीसे। रनाम विना मिथ्याधिगुणस्थामके शतं भवति । एतस्व समुराउ सपरि सम्मे, बीयफसाए विणा देसे ॥८॥ शतं नपुंसकयेदमिश्यावहुण्डसंस्थानसेवार्ससंहननप्रकृति प्रागुतं सप्तदशोत्तरशतं नरकत्रिकाउदिषोडशप्रकृतीषिमा चतुष्कं बिना सासादनगुणस्थानके पसवसिर्मारकाणां एकोत्तरशतं सासादने पर्याप्ततिरबाम् । एतदेवैकोत्तरशतं बन्धे ४॥ सुराऽऽयुरनन्तानुबन्ध्याऽऽयेकर्षिशत्प्रकृतीस विना एकोन विणु अणवीस मीसे, विसरि समम्मि जिणनगउजुया। सप्ततिः, सा मिश्रगुणस्थाने बध्यते । अयं भावार्थ:-"सम्मामि. इय रणाइसु भंगो, पंकाइसु तिस्थयरहीणो ॥ ५ ॥ कहिली,पाउबंधपि न करे।।" इति वचनावत्र सुरमरायु: षोरबन्धः, अनन्तानुबन्ध्यावयश्च पञ्चविंशतिप्रकृतया सासा. प्रागुना पावतिरनन्तानुबन्ध्याविषद्विशतिप्रकृतीविना मिः दन एव व्यवच्छिमबन्धाः, तथा-मनुष्यास्तियश्चश्व मिश्रभगुणस्थाने सप्ततिः । सेब जिननामनराऽयुर्युता सम्यग्दृष्टिः । गुणस्थानकस्था अविरतसम्यग्दृष्टियदेवाईमेष वनन्ति । ते. गुणस्थानके विसप्ततिः। इत्येवं बन्धमाश्रित्य भङ्गो, रनाss. न नरखिकौदारिकद्विकषजऋषभनारायानामपि बम्धाभाव विषु रसप्रभाशर्कराप्रभाषालुकाप्रभाभिधानप्रथमनरकपृथि एषैव एकोनसप्ततिः सुराऽऽयुषा सहिता सप्ततिः सम्यावे. वीत्रये द्रष्टव्यः। पङ्कभाऽविषु पुनरेष एव भङ्गस्तीर्थकरना. ऽविरतगुणस्थानके भवति । सा सप्ततिदितीयकषायैरप्रत्या. महीनो विशेयः । अयमर्थ:- पप्रभाधृमप्रभातमःप्रभासु स. स्थानक्रोधमानमायालोभैर्विना षट्पटिशविरसगुणस्थाने म्यक्त्यसद्भावेऽपि क्षेत्रमाहात्म्येन तथाविधाऽभ्यवसायाऽभा. बध्यते ॥८॥ पाशीर्थकरनामबन्धो नारकाणां नास्तीति । ततस्तत्र सामा अथ तिर्यग्गतिबन्धाधिकार एव ग्रन्थलाघवाथै मनुष्यग. म्यम शतं. मिथ्याशां च शतं.सासादनानां षमवतिः, मिश्रा तावपि बन्धं दर्शयतिणां सप्ततिः,अविरतसम्यग्दृष्टीनामेकसप्ततिः । इह सामान्य पदेऽधिरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थाने च रक्षप्रभाऽऽविस्तीर्थ इय चउगुणेसु वि नरा, परमजपा सजिस मोड़ देसाई। करनाम्ना हीन उक्नो, मिथ्याष्टिसासादनमिशेषु त्रिषु गुण- जिण एकारसहीणं, नवसर अपजततिरियनरा ।। ६ ।। स्थानकेषु पुनस्तस्य प्रागेवाऽपनीतत्वात्तदयस्थ एव ॥ ५ ॥ यथा पर्याप्ततिरश्चां चतुर्यु मिथ्याष्टिसासादनमिश्राविरअजिणमणुभाउ ओहे, सत्तमिए नरदुगुच्चविणुमिच्छे । तिगुण स्थानेषु सप्तदशोत्तरशताऽऽदिको बन्ध उक्त इत्येवं एगनवइ सासाणे, तिरिनाउ नपुंसव उवजं ॥६॥ पर्याप्तनग अपि चतुर्ष मिथ्याप्रिसासादनमिश्राविरति. गुणस्थानेषु सप्तदशोत्तरशताऽऽदिबन्धस्वामिनो मन्तव्याः। रत्नप्रभाऽऽदिनरकत्रयसामान्य बन्धाधिकृतकोत्तरशतमध्या. परमयता अधिरतसम्यग्रहपयः पर्याप्तनगः। (सजिण त्ति) त् जिमनाममनुजायुऽऽषी मुक्त्वा शेषा नवनवतिरोघबन्धेस. अविरतसम्यग्दृष्टिपर्याप्ततिर्यग्बन्धयोग्यसप्ततिर्जिननामसहि. समपृथिव्यां नारकाणां भवति । सैव नवनवतिर्नरगतिनरा. ता एकसप्ततिस्तां बध्नन्ति , जिननामकर्मणोऽपि बन्धका नुपूरूिपनरद्विकोबैगोवैर्विना परमवतिमिथ्याधिगुणस्थाने स्वात्तेपाम् । (ोहु देसात्तिदेशविरताऽऽदिगुणस्थानकेषु भवति । सैव परमवतिस्तिर्यगायुनपुंसक वेदमिथ्यात्वहुण्डसं. गुणस्थानकानाश्रयणे च पर्याप्तनराणां पुनरोघः सामान्यो स्थानसेवार्तसंहनन वर्जिता एकनवतिः सासादने सप्तम्यां पन्धोऽबसेयः । स च कर्मस्तवोक्त एव . यतः कर्मस्तबग्रन्धे नारकाणाम् ॥६॥ सामान्यतो गुणस्थानकेषु बन्धः प्रतिपादितो, न पुनः किअणचउवीसविरहिया, सनरदुगुचा ग परि मीसदुगे। चन गत्यादिमार्गग्णास्थानमश्रित्य । स चात्र बहुषु स्थानसतर सो मोहि मिच्छे,पज्जतिरिया विणु जिणाहारं ।७। पयोगीति मूलतोऽपि दर्शातेप्रागुक्कैकनवतिरनन्तानुबन्ध्यादिचतुर्विंशतिप्रकृतिभिर्विर - "अभिनवकम्मरगहणं, बंधी श्रोहेण तत्य वीससयं । हिता नरद्विकोश्चोत्राभ्यां च सहिता सप्ततिर्भवति । सा तित्थयराहारगदुग-वजं मिच्छम्मि सतरखयं ॥ १॥ च (मीसदुगे त्ति ) मिश्राऽविरतगुणस्थानद्वये द्रष्टव्या । नरयतिग३जाइ३थावर-वउहुंडायवच्छिवटुनपुमिच्छं। इह सातम्यां नराऽऽयुस्तावन बद्ध्य ते पत्र , तद्वन्धाभावेऽपि सोलंतोगहियसय, सामणि तिरि ३यीण ३दुहगति गं ३।२। च मिश्रगुणस्थान के विरनगुणस्थानके च नरद्विकं बध्य. अणमझ गिदसंघ यणच उ नि उसोय कुखगइत्थि त्ति । ते । अयमों-नर द्विकम्य नगऽयुषा सह नाऽवश्यं प्रति. पणवीसेता मासे, च उसयरि दुधाउय प्रबंधा॥३॥ Page #1272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधसामिल अभिधामराजेन्ड सानिया सम्मे सगसरि बिणा उबंधि परामरतिगषियकलापा। बो मनुग्यो वा जिननामकर्म सम्यक्रवार रखकुगंतो देखे, सत्तड्डी तियकसायंतो॥४॥ तथापीह नराणांच्याऽपर्याप्तरोग बिचवा विमतेबद्ध पमते सो-गवरामधिर दुग मजल मस्सायं। नामवन्धः ॥॥ तिर्वग्गतौ मनुष्यगतौ कन्या इब्धिम बच सत्तं व, नेह सुराउं जया मिटुं॥५॥ मित्वमुक्तम्। मुशसहि अप्पमते, सुराउ बंधं तु जागच्छ। साम्प्रतं देषगतिमधिकृत्य तदुच्यतेप्रबह भावना, प्राहारदुगं बंधे ॥६॥ निरय व सुरा नवरं, मोहे मिच्छे इनिदितिगसहिया। भरपत्र अपुखारमि, निहगतो छपन पणभागे। कप्पदुगे वि य एवं, मिणहीखो जोइभवलवणे ॥१०॥ सुरदुग पणिनि सुखगा, तस नव उरन विष्णु नणुवंगा । रामपि नारकपदोघतोऽविशेषतच तम्धस्थानिमोऽय समचार मिमिणजिण, वनगुरुलाबउछलंसि तीसंतो। गन्तब्याः। नयरमयं विशेषः-मोघे मिध्यात्वगुणस्थानके परिने छबीलबंधो. हाससंकुच्छभयमेभो ॥८॥ बन्धमाधिस्य सुरा एकेन्द्रियाऽऽदित्रिकसहिता द्राव्यात. अनियहिभागपणगे, इगेगहीणी दुषीसविहबंधी। तोऽयमर्थ:-यो नारकाणामेकोत्तरशतरूपा भोवदग्धासपणे. पुम संजमणचउराह कमेण क्षेत्रो सतर सुहुमे ॥६॥ केन्द्रियजातिस्थावरनामाऽतपनामप्रकृतित्रयसहितः पुरा. पउसणु च जस ना-पविग्घदसगं ति सोलस च्छेभो। गां सामान्यतो बन्धश्चतुरप्रशतम् १०४, तदेव मिथ्यावे तिसु सायंबंध नो, सजोगि बंधंतुणंतो य ॥ १०॥" जिननामरहितं घ्युत्तरशतम् १०३, एतदेवकेन्द्रियजातिया. इत्येतासां वशानामपि गाथानां व्याख्यानं कर्मस्तषटीका- बराऽऽतपनपुंसकदमिथ्यात्याण्डसेवात लक्षवप्रतिसप्तक तो बोग्यम् । इत्योघबन्धः। इह कर्मस्तवालगुणस्थानक.. हीनं सासादने पावतिः ६६ , परावतिरेवानन्तानुब. चामरतिरयां मिश्राऽविरतगुणस्थानकयोरयं विशेष: यादिशितिप्रकृतिसहिता मिधे सप्ततिः ७०. सैच कर्मस्त मिश्रगुणस्थानके चतुःसप्ततिः, अधिरतसम्यग्रह जिननाममराऽऽयुष्कयुत्ता द्विसप्ततिस्तामविरतसम्यग्रहगुिणस्थानके सप्तसप्ततिः। तिरश्चां पुनर्मनुष्यधिकौवारि एयो देवा बनन्तीति सामान्येन देवगतिबन्धः । सा. कतिकवनभूषभनाराचसंहननरूपप्रकृतिपञ्चकस्य बन्धामा म्प्रतं देषविशेषनामोच्चारणपूर्वकं तमाह-( कप्पदुगे - बाम्मिश्रगुणस्थानके एकोनसप्ततिः,अविरतसम्यग्रह। सुरा. त्यादि) कल्पद्विकेपि सौधर्मशानाउल्यदेवलोके येऽध्यवं ऽऽयुरोपे सप्ततिः । नराणां तु मि एकोनसप्ततिः, मा. सामान्य देववन्धवद्धन्धो द्रष्टव्यः । तथाहि-सामाम्येन घिरतसम्पग्री तीर्थकरमामक्षेपे एकसप्ततिः । अस्यां च चतुरप्रशतम् १०४,मिथ्यारशांत्र्यप्रशतं १०३ सासादनाना एकसप्ततौ यदि मनुष्यधिकौवारिकद्विकप जनभनारायसं. षमपतिः ६६, मिधाणां सप्ततिः ७०,अधिरतानां द्विसप्ततिः हननप्रतिपश्चर्क.नराऽऽयुष्कं च क्षिप्यते तदा कर्मस्तवो ७२, देखौधो जिननामकर्महीनो ज्योतिष्कभयनपत्तिव्यम्बरका सप्तसप्ततिर्भवत्यषिरतगुणस्थानके । तथा कर्मस्त देश- देवेषु तहेवीषु च विझया, जिनकर्मसत्ताकस्य तेषत्पादा. विरतगुणस्थामके या सप्तषष्टिरक्ला सा तिरश्चां जिमनामर• ऽभावेन तत्र तहम्धासंभवात्ततः सामान्यतरूयधिकशतम् हिता पदमधिशविरतगुणस्थाने भवति । प्रमत्ताऽऽदीनि गु. १०३ , मिथ्यापेऽपियधिकशतं १०३, सासादने षनवतिः, पस्थामानि तिरश्चां न संभवन्ति । नराणां तु सर्वगुणस्थान- १६ मि सप्ततिः ७०, अविरते एकसप्ततिः ७१ ॥१०॥ कसंभवेन देशविरताऽऽदिगुणस्थानकेषु कर्मस्तधोक्त एव स. रयणु व्व सणकुमारा-माणयाई उज्जोयचउरहिया। बोऽप्यन्यूनाधिक मोघबन्धो पाख्यः। ततश्च पर्याप्तमराणां सामान्येन बन्धे विंशत्युत्तरशतं प्रकृतीमां प्राप्यते १२० ते. अप्पअतिरिय ब्व नवसय मिगिदिपूढविजलतरूविगले।११। पामेष मिथ्यारशा सप्तशोत्तरशतम् १९७, सासादनाना सनाकुमाराचा सहारान्ता देवा रत्नप्रभाविप्रथमपृथिमेकोत्तरशतं १०१, मिश्राणामेकोनसप्ततिः ६६ , अविरत. धीत्रय नारकवत् बन्धमाश्रित्य द्रष्टव्याः । तद्यथा सामान्येनै. सम्यगासीनामेकसप्ततिः ७१. देशविरतानां सप्तषष्टिः ६७, काप्रशतं १०१, मिथ्यादृशां शतं १००.सासादनाना पक्षपतिः प्रमत्तानां विर्षाष्टः ६३, अप्रमत्तामामेकोनवष्टिरष्टपञ्चाश १३, मिश्राणां सप्ततिः ७०.अविरतानां द्विसप्ततिः७२।भाम. प्रा6.५८, निवृत्तिबावराणां प्रथमे भागेऽष्टपश्चाशत् ५८, ताऽऽद्या प्रैवेयकमयकाम्ता देवा अपि उद्योतनामतिर्यग्ग'भागपञ्चके षट्पश्चाशत् ५६, सप्तमभागे बर्दिशतिः २६, अ. तितिर्यगानुपूर्तीतिर्यगाऽऽयुःप्रकृतिचतुष्करहिता रत्नप्रभा. भिवृत्तिबावराणामाचे भागे द्वाविंशतिः १२, द्वितीये एक- दिनारकवदेव द्रव्याः , ततः सामान्यतः सप्तनवति ते विशतिः २१, तृतीये विंशतिः २०, चतुर्थे एकोनविंशतिः१६. बध्नन्ति १७. मिथ्या हशः षण्णधति ६६, सासाइना द्विपश्चमेऽष्टादश च १८, सूचमसंपरायाणां सप्तदश १७, उ. नवति १२. मिश्रेऽविरते चौद्योता निचतुष्कस्य प्रागेघा पशाम्तमोहक्षीणमोहसयोगिनामेका सातरक्षणा प्रकृति- पनीतत्वासंपूर्ण एव रत्नप्रभाऽऽदिभस्ततो मिश्राः सप्तति धे प्राप्यते, भयोगिनां तु बन्धाभाषः । एवमन्यत्राप्योघब ७०, अविरता द्विसप्ततिं पश्नन्ति ७२, मिथ्यास्थाऽऽदिगुण वः । उक्तस्तिर्यग्नराणां पर्याप्तानां बन्धः। अथ तेषामेव म. स्थानत्रयाभावात्पश्चानुत्तरविमानदेवा पतामेवाऽविरतगुण. पर्याप्तानां समाह-" जिण इकारसहीणं "यादि । यदेव स्थामसरका द्विसप्तति ७२, बध्नन्तीत्यनुक्कमपि शेयम् , मराणामोषाधे विंशत्युत्तरशतं तदेव जिमनामाssोकाद इति । उक्तं देवगतौ बम्धस्वामित्वं, तणनाउन गतिबन्धः सप्रकतिहीनं शेषं नयोत्तरशतसपर्याप्ततियामरा मोपतो | मार्गणा समाता ॥ साम्प्रतमिन्द्रियेषु कायेषु च तदार. मिथ्यात्षेप बन्नति । यपि करणाऽपर्यातोले भ्यते-(अपजेत्यादि) अपर्याप्ततिर्यग्वन्नयोत्तरशतमे के Page #1273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामिस जलत विकल्पेषु द्रष्टव्यम् । अयमर्थः- विंशत्युत्त मध्यात् जिननामाऽऽयेकादश प्रकृतीर्मुक्त्वा शेषं नवो मेन्द्र विकलेन्द्रियाः पृथ्वीजवनस्पतिकायाथ सामान्यपदिनो मिथ्यादृशच बध्नन्ति ॥ ११ ॥ । तेषामेव सासादनगुस्थाने बन्धवादअन साथितिर के पुरा विंति तिरियन बिया पनि तेति ।। २ ।। मानवोतर मचिका 55दितिम याव्ययमिति कृत्तद्विना - सासादने एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय पृथ्बी जलवनस्पतिकायानां भवति। केनराजाय चतुर्वपति नियु कायनद्रद्रयादयः सा माः सन्तस्तनुपयति न वायसरायुबन्धका अ] भाषार्थतिर्यग्नरस्त पर्याप्त्यापर्यासरेव बज्य मानत्वात् पूर्वमतेन शरीरपर्यायुतरकालमपि सासादनमा स्पेटत्वादायुर्वन्धोऽभिप्रेतः । इह तु प्रथममेव तनिवृत्तेर्भेष्ट तिति तिर्यग्नराची बिना मतान्तरेण चतुर्नव तिः ॥ १२ ॥ उक्तः एकेन्द्रियाऽऽदीनां बन्धः । 1 अथ पन्द्रियाणां कामहुदितसे तसे जिविकार नरतिविया । माजोगे आहो, उरले नरभंगु तम्मिस्से ॥ १३ ॥ ( १९५०) अभिधान राजेन्द्रः | · यो विसरता दिवसः कर्मस्त restry arseगन्तव्यः । तद्यथा सामान्यतो विंशत्युतरशतम् १२०, मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम् ११७, सासादने एकोतरतम् १०१ मिश्र चतुःसप्ततिः ७४ अविरते सप्ततिः ७७, देशे सप्तषष्टिः ६७, प्रमत्ते त्रिषष्टिः ६३. अप्रम एकोनषष्टिः ५६ श्रटपञ्चाशद्वा ५८. निवृत्तियादरे प्रथमभागेऽष्टपञ्चाशत् ५८, भागपञ्चके षट्पञ्चाशत् ५६, सप्तमभागे विशतिः २६ अनिवृतिवाद आये भागे द्वाविंशतिः २२ द्वितीये एकविशतिः २१ तृतीये विंशतिः २० चतु एकोनविंशति १६ पक्ष सूक्ष्मे सप्तदश १७, शेषगुणस्थानत्रये सातस्यैकस्य बन्धः १, अयोगिनि बन्धाऽभावः । गतिप्रसास्तेजोवायुकायास्तेषु जि. नानामाऽऽद्येका प्रकृतीनंत्रिकों व विना विश सरशतं शेषं पक्षोत्तरशतं बधे लभ्यते सासादनादि भावस्तु नैषां सम्भवति । यत उक्तम्" न हु किंचि लभिसुमतसा" सूक्ष्मसारजवाकाजीवा ए मुक्त इन्द्रियेषु कार्येषु च बन्धः । संप्रति योगेषु तं प्रतिपा दयाह - (मणवय जोगे इत्यादि ) सूचकत्वात् सूत्रस्य सत्यादिमनोयोग चतुष्के तत्पूर्वके सत्यादिवाग्योगचतुष्के व श्रध. बोरिसराला फर्मावीको शेयः । तत्र विश्वरूपंविदम् सत्यं सदसदेव पापीत्यादिरूपतया यथास्थितस्तत्तपस यम् । विपरीतं स्वसत्यम् । मिश्रस्वभावं सत्यासत्यम्, यथा ध दिलासादमिषु बहुशो मे मिति विकल्पनापरम्। तथा यन्न सस्यं नापि मृषा तदसत्यामृषा हद्दविप्रतिपत्तौ सत्यां यस्तु प्रतिष्ठाऽऽशया सर्वज्ञ मतानुसारे काजी सत्यद बंधसामित्त त्वं परिभाषितम्। यत्पुनर्विनियां वस्तुप्रतिहा या सर्वज्ञमोतीर्ण विकल्पते, यथा नास्ति जीव एकान्तमिरोयादि सत्यम् परपुनर्वस्तुप्रतिमन्तरेच स्व रूपमायोलोधनपरं यथा हे देवसमानगां देहि मह्यमित्यादिविग्नपरं तद्वस्यापा हुई मात्रप लोखनपरत्वाच यथोकलक्षणं सत्यं भवति, नापि मृषेति । इदमपि व्यहारनयमतेन यम् नि प्रतारणा विबुद्धिपूर्वकनसत्वे ऽन्तमेवति, अन्यथा तु सम्ये । उरले मनोयोगपूर्वके सौदारिकाय नम तु 4 इह चगुणेषु वि नरा " इत्यादिना प्रागुक्तस्वरूपः । यथा ओम् १२० मध्य 3 सासादने कोनरशतम् १०१ मि एकोनि अविरते कहतिः ७१ इत्यादि मनोविक लेन्द्रः केवलकाययोगेन्द्र तिमोदारियो । १३ ॥ सम्प्रति बन्ध उच्यत आहारग विछोहे, चन्दसमिति सिपखगी। सचिन बिया, नरतिरियाऊ सुतेर ॥ १४॥ विंशत्युतरश्वमाहारकाऽऽदिप्रकृति बिना पंचशाधिकशतोधबन्धे प्राप्यते । श्रयं भावार्थ:-श्रदारिकमिधं कार्मणेन सह तचापर्याप्तावस्थायां केवलिसमुद्घातावस्थायां या उत्पत्ति हि पूर्वभवान्तरमागतो जीवमये कार्यनिय केवलेनाहारयति । ततः परमदारिका व्यारव्यत्वादीदारिकेणाणि वायरस्य नि पतिः केवलसमुद्रातास्थायां द्वितीय का fore मिश्रमदारिकमिति । पर्याप्तावस्थायां च नाहारकाऽऽदिषट्कं यद्धयते इति तनिषेधः । केवलिसमुद्रातावस्थायां पुनरेकस्य वातस्यैव बन्धोऽभिधास्यते । एतदेव चतुईशोत्तरशत मौदारिकमा क्योकी मिथ्याजिननामादिप्रकृतिपञ्चकद्दीनं शेषं नवोत्तरशतं बध्नाति । स एव सा साइने चतुर्भवति नाति, नोरतन राधिका 55दिन यो परतिगा पोरपर्याप्तत्येन सासादने बन्धाभावात् सूक्ष्मत्रिकाऽऽदित्रयोदशकस्य तु मिथ्यात्व एव व्यवच्छिन्नबन्धतया च ॥ १४ ॥ अणचवीसाइ विद्या, जिणपणजुय सम्मि जोगियो सायं । बिणु तिरिनराड कम्मे, वि एवमाहारदुगि ओहो ॥ १५ ॥ - प्रागुक्ता चतुर्नवतिरनन्तानुबन्ध्यादिचतुर्विंशतिप्रकृतीविना जिननामादिप्रकृतिपना व पतिमोदारि कमिश्रककाययोगी सम्यक्त्वे बध्नाति । तथा सर्यो - मिन औदारिकमिवस्था केवलिसमुयाते द्वितीयक सप्तम समयेषु सातमेवैकं बध्नन्ति । एवं गुणस्थानकचक पारिकमिश्रयोगो लभ्यते नान्यत्र । अथ का योगादिषु बन्धः प्रतिपाद्यते - ( विणु तिरीत्यादि) य चौदारिकमले बन्धविशेषतः एवं का योगे ऽपि निर्यग्नयुषी बिनावाच्या कर्म र्यम्नरायुषो बन्धभावात् । कार्मण काययोगो ह्यपान्तरालगता. बुत्प्रतिप्रथमसमये च जीवस्य मिध्यात्व सासादनाऽविरत Page #1274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधसामित्त अभिधानराजेम्बः। बंधसामित्त एवस्थानकायोपेतस्य लभ्यते। उक्तं च-मिच्छे सासा. विहिः१३, अप्रमत्ते एकोनषष्टिः ५८, मपश्चाशता ५व, बा, अबिरयसंमम्मि महब गहियम्मि । ति जिया प. निवृत्तिवावरे प्रथममागेऽष्टपञ्चाशत् ५८, मागपञ्चके पदप' रखोप.सेसिकारसगुखे मुतं । १" तथा सयोगिनः के शाशत् ५५, सप्तमभागे षडर्षिशतिः २६, अनिवृत्तिबावरे पतिसमुधाते तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु चेति गुणस्था- माचे भागे द्वाविंशतिः २२ । एवमन्यत्रापि गुणस्थानकेषु जकचतुष्य पर कार्मणकाययोगो नाऽन्यत्र । ततो विंशत्यु- यथासम्भवं कर्मस्तवोक्तो बन्धो वाच्यः। कषायद्वारे-मा. दाहारकषटूतिर्यनरायुःप्रकृतीमुक्त्वा शेषस्य चऽनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभरूपे कषायचतुके है. शादोत्तरशतस्य सामान्येन कार्मणकाययोगे बन्धस्तदेव से मिथ्यावसासानाये गण स्थानके.अत्र तीर्थकरव. शादशोत्तरशतं जिनादिपञ्चकं विना शेष सप्तोत्तरशतं का. ग्धस्य सम्यक्त्वप्रत्ययत्वादाहारकद्धिकवचस्य च संयम हेतु. मेणकाययोगे मिथ्याशी बनन्ति तदेव सप्तोत्तरशतं सुषमा स्वादनम्तानुबन्धिषु तदभावारसामाम्येन सप्तदशोत्तरशतम् वित्रयोदश प्रकृतीर्मुक्त्वा शेषां चतुर्नवर्ति कार्मखयोगे सा११७, मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम् .१९७, ससादने एको. साइमा पनग्तिा चतुर्नवतिरेवानन्तानुबयादिचतुर्विंशति-तरशतम् १०१, द्वितीयेऽप्रत्यास्यामाऽये कषायचतुकेच. महतीर्विमा जिननामाऽऽदिप्रकृतिपञ्चकसहिता व पासप्त- स्वारि प्रथमानिमिध्यावसासादमिश्राविरतनामकानि गु. तिस्तां कामखयोगेऽविरता बध्नन्ति । सयोगिनस्तु काम सस्थानकानि, तत्राहारकद्धिकबन्धाभावेन सामाम्येन म. काययोगेसातमेवैकं बध्नन्ति । तथा माहारककाययोग- शवशोत्तरशतम् ११८, मिथ्यास्वे सप्तशोत्तरशतम् ११७, आतुर्दशपूर्वविदः, आहारकमिश्रकाययोगश्च तस्यैवाऽभहारक- सासादने एकोत्तरशतम् १०१,मिश्रे चतुःसप्तत्तिः ७४, - शरीरस्य प्रारम्भसमये परित्यागसमये व औदारिकेण सह | बिरते सप्ततिः ७७, तृतीये प्रत्याख्यानाssवरणाये कमा. द्रष्टव्यः। तत माहारकद्विक आहारकशरीरतम्मिभलक्षणे यो यचतुके पश्च आचानि मिथ्यात्वाऽऽदीनि देशविरतान्तानि गये प्रोषः कर्मस्तवोक्तः प्रमत्तगुणस्थानवर्ती त्रिषष्ठिप्रकृ. गुणस्थानकानि , देशविरते सप्तषष्टिः, शेषाणि तथैव ॥ ६ ॥ तिवन्धरूपः। एतत्काययोगद्वयं हिलायुपजीवनावमत्तस्यैः संजलणतिगे नव दस,लोभेचउ भजइदति अनाणतिगे। बनवप्रमत्तस्य ॥ १५ ॥ वारस अचक्खुचक्खुमु,पढमा अहक्खाय चरमचऊ॥१७॥ सुरमोहो वे उम्चे, तिरियनराउरहिमो य तम्मिस्से । संज्वलनत्रिके-संज्वलनकोधमानमायारूपे नवाऽऽद्यानि गु. यतिगाइम विय तिय-कसायनवदुचर पंच गुणो। १३॥ रणस्थानकानि तत्र सामान्यबन्धानिवृसिवादरयावदत्रिका सुरोधः सामान्यदेवबन्धो वैक्रियकाययोगे द्रवम्यः । सच. न्यायेन विशत्युत्तरशताऽऽदिको बन्धः, अनिवृत्तिबावरे तु प्र. था-सामान्येन चतुरप्रशतम् १०४, मिथ्यात्वे व्युत्तरशतं यमे भागे बाक्शितिः २२, द्वितीये वेदरहिता एकर्षि१०३, सासादने पक्षवतिः १६. मिश्रे सप्ततिः ७., अधिर शतिः २१, तृतीये संज्वलनशोधरहिता विशतिः २०, चते द्विसप्ततिः ७२ तथा तन्मिने वैक्रियमिश्रे स एव सुरी. तुर्थे संज्वलनमानरहिता एकोनविंशतिः १६, पञ्चमे संन्व. पस्तियनराऽऽयुष्करहितोवाच्यः। इह देखनारका निजाऽऽयुः लनमायारहिता अष्टादश १८, संज्वलनलोभस्य तु सूक्ष्मपण्मासावशेषा एषाऽऽयुर्वघ्नन्ति, अतो वैक्रियमिश्रयोगे सम्परायेऽपि भावात्तत्र दश प्रथमानि गुणस्थानानि , तत्र उत्पत्तिप्रथमसमयादनन्तरमपर्याप्तावस्थासमविनि प्रायः नव तथैव, वशमे तु सूचमसम्पराये सप्तदश प्रकृतयः । संयबन्धाऽभावः । तथा वात्रौधे धुत्तरशतं १०२, मिथ्या. मद्वारे प्रयतेऽसंयते चत्वारि आयानि गुणस्थानानि, तत्र स्खे एकोत्तरशतं १.१ , सासादने चतुर्नवतिः १४, अवि. सामान्यतोऽविरतसम्यग्दृष्टेरपि संगृहीतत्वाजिननामोपारते एकसप्ततिः ७१। क्रियमिश्रयोगो मिश्रता चास्यात्र सप्तदशोत्तरशतं जातमष्टादशोत्तरशतम् ११८, मिथ्यात्वे कार्मणकायेनेव सह मन्तव्या । अयमपि च मिथ्यात्वसा. सप्तदशोत्तरशतम् ११७, सासादने पकोत्तरशतम् १०१, सादनाऽधिरतगुणस्थानकाय एव लभ्यते, नान्यत्र । यद्यपि मिश्रे चतुःसप्ततिः ७४,अविरते सप्ततिः ७७शानद्वारे-अक्षादेशविरतस्याम्बडाऽऽदेः प्रमत्तस्य तु विष्णुकुमारादेवैकि. नत्रिके-मत्यशानभुतावानविमरूपे,मिथ्यात्वासासादने पं कुर्षतो क्रियमिश्रक्रियसंभवः श्रूयते, परं स्वभाव श्रीणि वा गुणस्थानकानि मिश्रेण सह अयमाशय:-मिश्रे स्थस्य वैक्रिययोगस्यात्र गृहीतत्वाद् अथवा-स्वल्पत्वादन्यतो कानांशोऽक्षानांशश्वास्ति, तत्र यदाक्षानांशप्राधान्य विषपते बा कुतोऽपि हेतोः पूर्वाऽचार्यः स नोक्तः। एवं योगेषु बन्ध सदा-प्रशानत्रिक गुणस्थात्रकद्वयमेव, हानांशप्राधान्यविस्वामित्वमुक्तम् ॥अथ वेदादिषु तदभिधित्सुः प्रथमं गु पक्षायां तु तृतीय मिश्रमपि, तत्रीधे सप्तदशोत्तरशतम् गुस्थानकानि तेवाह-( यतिगेत्यादि) वेदत्रिके-स्त्रीवे. ११७, मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम् ११७, सासादने एकी. बर्युवेदनपुंसकवेदरूपे नवनवसंख्याकानि ( संजलणेत्यादि) त्तरशतम् १०१, मिश्रे चतुःसप्ततिः ७४ । दर्शनवारे-चाभनेतनगाथास्थ'पढमेति'पदस्याऽत्रापि संबन्धात्प्रथम नि मि. रचक्षुर्दशेनयोः प्रथमानि द्वादश गुणस्थानानि, परतस्तु च. ध्यात्वाऽऽदीनि अनिवृत्तिबादरान्तानि गुणस्थानकानि भव बुरचक्षुषोः सतोरप्यनुपयोगित्वेनाव्यापारात् । तत्रौधे विंशन्ति, ततः परं वेदानामभावात् । एतेषु यः कर्मस्तबोक्ता सा. त्युत्तरशतम् १२०. मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम् ११७... मान्यबन्धः। स द्रष्टव्यः। तद्यथा-सामान्यतो नानाजीवापेक्षया त्यादि यावत् क्षीणमोहे. सातबन्धः १। यथाख्याते चरमविशन्युत्तरं शतम् १२०, मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम् १९७ गुणस्थानकचतुष्कं तत्र सामान्यतः १, उपशान्तमोहे १. सासादने पकोत्तरशतम् १०१, मित्रं चतुःसप्ततिः ७४, क्षीणमोहे १, सयोगिनि १, अयोगिनि,.॥ १७॥ अविरते सप्तसप्ततिः ७७, देशविरते सप्तषष्टिः ६७, प्रमत्ते। मणनामि सग जया, समझ्यच्छेय चउ दुनि परिहारे। Page #1275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावित अभिवानराजेन्द्रः । बंधसामित फेवासिनि यो घरमा-भवाइ नब मासुमोहिदुगेका स्थानानि मिथ्यारवादीनि भयोगिकेवस्यतालिमबारक मनापंचायवाले समयतादीमि-प्रमत्तसंपताम्वीमिचीण जीवे नभ्यन्तेऽयोगी यमाहारकस्तरीयतः १२०, मिथ्या मोहन्तिामिाता सामान्यत माहारकधिकसहिताविषधिर्जा २१७त्यादियाबस्सयोगिनि सातरूपेका प्रतिबन्ध भवति । तापशष्टिः प्रमले ६३, रत्वादि पावत् बीसमोहे , एवं वेदाऽऽदिषु मार्गखास्थानेषु गुणस्थानकाम्युपदर्य संप्रति बर्मसातबन्धसामाविकोपस्थापने बसस्वारि यता तेषुवम्यातिदेशमाह-(नियनियगुणोहोति) निजनिजगुणीमा दीनिशुणस्थानामि तत्र सामान्यता पश्चपछि , पतेषु वेदादिषु यानि स्वसगुणस्थामानि तेम्बोधः कर्मत. मम ॥ निषरिरिस्यादि प्राम्बत् । षमसंपरायगुण बोलो बन्यो द्रव्य इत्यर्थः स च यथास्थानं भाषित एव १५० या प्रागुलमोपशमिकसम्यक्त्वे मुणस्थानानीति स्वामकाजदौ तु सूचमसंपरायाऽऽविचारित्राभावात् । तथा तत्र कश्चिद्विशेषमागुरपालप्रमत्तानमत्सरूपे परिहारविशुद्धिचारित्रे, मोस. राणि, तरिमचारिसे वर्तमानस्य ययारोहणप्रतिषेधात् तत्र परमवसमि महता, माउ न बंधति तेस मजयगुख । सामान्यत: A५ प्रमले ६३, प्रमरी ५६, अपशाशना ।. देवमणुचाउहीणो, देसाइसु पूण सुराउ विणा ।।२०।। बलरिक-लहानबलदर्शनरूप परमे-मन्ति मे सयो. सर्वत्र वेदाऽपि निजनिजगुणोघो बाध्य इत्युक्तम. परमी. विश्पयोगिव्याच्ये गुणवानके भवतः । अत्रीधे एक- पशमिक ऽयं विशेष-ौपशमिके वर्तमामा जीवा मायुक. सारस्य बन्धासयोगिनि च भयोगिनि शून्यं, तथा मति. नन्ति. तेनाऽऽयतगुणस्थानके देषमनुजाऽऽयुभ्यो नमो तयोरखचिदिकेचावधिहानाऽवधिवशनलक्षणेऽयतापीमि घोषाच्यो,नरकतिर्यगाथुषोः प्रागय मिथ्यावसासावर अविरतसम्यग्रव्यादीमिक्षीणमोहपर्यवसानानि नव गुण पनीतवास तीनता तथा देशाऽऽदिषु देशविरतप्रमत्तानमा स्थानकामि भवन्तिासयोग्यादीकेयलोत्पण्या मस्यादेरभाषात् सेषु पुनरोधः सुराऽऽयुधिमाशेयः। प्रोपरमिकसम्यक्त्वे तप. सौषतोऽममतामत्यादिमत माहारकधिकस्यापि बन्ध शमधेपयां प्रथमसम्यकस्थलाभे या भवति जीवस्व । उहं संभवादकोनाशीतिः ७६, विशेषचिन्तायामविरताऽऽदिगण ब-"उपसामगसेटिगय-रस होर उबसामियं तु सम्म। स्थानकेषु कस्तयोक्ता सप्तसप्तस्यादिमितोषधी द्रष्टव्यः॥१८॥ जो या अकयतिपुंजो, अववियमिछोलहा सम्मं ॥१॥" मा उपसमि'चउ व्यगि, खइए इकार मिच्छतिगि देसे। ननु बायोपशमिकोपशमिकसम्यक्त्वयोः का प्रतिविमुहमि सठाणं तेरस, महारगि नियनियगुणोहो ।२६॥ शेषः । उच्यते-पायोपशमिके मिथ्यात्ववलिकवेदनं विपा. बापताजीति पदं सर्वत्र योज्यते । ततोऽयता55 कतो मास्ति. प्रवेशता पुनवेचते । औपथमिकेतु प्रदेशतो. दीनि उपशान्तमोहातान्यष्टौ गुणस्थामान्यौपथमिकस. ऽपि नास्तीति विशेषः । उक्तं बेदाऽऽविषु बन्धलामित्वम् । भ्यकारये भवन्ति,. तत्र सामान्यत भौमिकसम्य . अथ लेश्याद्वारमुच्यतेपापपर्तमानानां देवमनुजाऽऽयुपोईन्धाभावात् ७५, अवि. ओहे अट्ठारसयं, माहारदुगुण भाइलेसतिगे। रतेऽपि ७५, देशे सुराऽऽयुरबन्धात् ६६, प्रमले ६२, अप्र. तं तिच्छोणं मिच्छे, साणाइसु सम्वहिं भोहो॥ २१॥ मते, ५८, इत्यादि याष दुपशान्ते १, वेबके सायोपशमिका भाधलेश्यात्रिके-कृष्णानीलकापोतलेश्या वर्तमाना जी. उपरपयोऽयतादीन्यप्रमत्तान्तानि चत्वारि गुणस्था था भोघे सामान्यन बिशरयुत्तरशतमाहार कतिकोनं नकानि, तीघे ७६ अविरते ७७ देशे ६७, प्रमले ६३ जातमष्टावशाधिकशतं तद्वग्नम्ति, आहारकद्विकस्प शुभअप्रमते ५६-५८वा, अतः परमुपशमशेणावीपशामिकंक्षपक. लेश्याभिर्वध्यमानस्यात् । तदष्टादशाधिकशतं तीर्थकरनाभेषौ पुनः शापिक, क्षायोपशमिकसम्यक्त्वं सूदीर्णमिथ्यात्व. मोनं सप्तपशोत्तरशतं मिथ्यात्वगुणस्थानके मन्ति सा. सयेऽनुवीर्णमिथ्यात्योपशमे च भवतीति । उक्कं च-"मिच्छत्तं सादनाऽदिषु गुणस्थानकेषु पुनः सर्वत्र लेश्याषट्रेऽध्यायः जमुरमं तं खीणं अणुश्यं तु उधसंतं । मीसीभावपरिणयं, सामान्यवन्धी द्रष्टव्यः। ततोऽत्र सासादमिश्राधिरतपोषः पाजंतं समोषसमं ॥१॥" तथा क्षायिकसम्यक्त्रेऽयता. कर्मस्तवोक्तः ॥२१॥ दाम्ययोगिकेलिपर्यवसानान्यकादश गुणस्थानकानि।त. तेऊ नरयनवृणा, उज्जोयचउ नस्यवार विणु सुका। पौधे ७५ भघिरते ७७ देशे ६७ इत्यादि यात्रदयोगिनि मूल्यम् । क्षायिकसम्यक्त्वस्वरूपमिदम्-" खीणे दंसमोहे, ‘विणु नरयवार पम्हा,अजिणाहारा इमा मिच्छे ॥ २२॥ तिविम्मि वि भवनियाणभूयम्मि । निप्पचवायमउलं. संमतं विशत्युत्तरशतं नरकत्रिकाऽऽविप्रकृतिनयकोनं तेजोलेश्या सायं हो ॥" तथा मिथ्यात्वत्रिके-मिथ्यारपिसा. यामोधत एकादशोत्सरं शतं वध्यते , कृष्णाऽऽयशुभलेश्यापावनमिभलक्षणे देसे-देशघिरते सूक्मे-सूचमसम्पराये प्रत्ययत्वाभरकत्रिकाऽऽदिप्रकृतिनवकवन्धस्य । इदमेबैकाद. स्वस्थान-मिजस्थामम्। अयमर्थ:-मिथ्यात्वमार्गास्थाने मि. शोत्तरशतं जिननामाद्वारकद्धिकरहितं शेषमहोतरशतं मि. ग्यारगुिणस्थानं सासादनमार्गणास्थाने सासावन गुण ध्याले बध्यते। सासाबनाऽऽदिषु षट्सु गुणस्थानकेषु भोघः वि. स्थान मिश्रमार्गणास्थाने मिश्रगुणस्थानं देशसंयममार्गणा- शत्युत्तरशतमध्यादुद्योताऽऽविचतुष्कं मरकत्रिकाऽऽविवादज्याने देशषिरतगुणस्थानं सूक्मसंपरासंयमे सूपमसंपरायः | शकंच मुकावा शेष चतुसत्तरशतमोघतः यकले श्यायां वध्यते. गुणस्थानम् । अत्र स्वस्वगुणस्थानीयो बन्धः यथा मि. उन्योताऽऽविप्रकृतीनां तिर्यग्नरकप्रायोग्यस्वेन देवानरमायोग्य ध्यास्ये भोपतो पिशेषतक ११७. एवं सासाइने १०१, मि. बन्धक एकलेश्यावद्विरबध्यमानत्वात् । एतदेव चतुरुत्तर द १७, सूपमे १७,माहारकद्वारे त्रयोदश गुण- शतं जिनमामाधारकद्धिकरहितं शेषमेकातरशतं मिश्या Page #1276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५३) अभिधान राजेन्द्रः । बंधसामित्त बंधहेत स्थे बध्यते । सासादने तदीयैकोत्तरशतरूपौधबन्धादुद्योता. सूइयोस्तेजः पद्मलेश्वयामिध्यात्वादीनि सप्तगुणखाना53दिप्रकृति चतुष्टयापसारेण शेषा सप्तनवति मिश्रा 35 नियम गुणस्थानकान्तमपि पादाबाद। ले दिग्वेकादशगुणस्थानकेषु तदवस्था स्वस्थानी ब धो द्रष्टव्यः । विंशत्युत्तरशत मध्याक्षरकत्रिकाऽऽदिप्रकृतिबिना महोतं पद्मलेश्याम ब सल्लेश्यावतां सनत्कुमाराऽऽदिदेवानां तिर्यक प्रायोग्यं बध्न समुद्यताऽधिकृतिकस्य संभवाचा तपा त्रयोदश मिथ्यात्थाऽऽदीनि गुणस्थानानि तया मिध्यादृ. गुणस्थानात्प्रभृति यावत्सयोगिकेवलिगुणस्थानकं तावषि भावात् प्रयोग वश्यः इद्दश्यानां प्रत्येकम संख्यानिलोफाकाशमरेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि ततो म न्दाध्यवसायस्थानापेक्षया शुक्ललेश्याऽऽदीनामपि मिथ्याहपादौ भयो न विरुध्यते । तथा कृष्ण 55 विलेयार्थ यदिद्दाविरसगुणस्थानकान्तमुक्रं तद् वृहद्वन्दस्वामित्वानुसा रेख, पडशीतिके तु तस्य प्रमत्तगुणस्थानकान्तं यावदभिडि तत्वात् । तथाहि -" लेस्सा तिन्नि पमत्तंता, 'ते पहा उ अप्पमर्त्तता । सुक्का जाव सजोगी, निरुद्धले सो अजोगि लि ॥१॥" तवं तु भुतधरा विदन्ति इति प्रतिपादितं गत्यादिषु बन्धस्वामित्वं तस्प्रतिपादनाच्च समर्थितं बन्ध स्वामित्वप्रकरणम् इतिशब्दः परिसमाप्तीबन्धामित्व मेरो फर्मस्तत्स्थानेषु गुरू यम्चातिदेशद्वारेण भणना कर्म ३ कर्म पंडेउ बन्धहेतु-पुं० कर्मण का कर्म० १ कर्म० । ( बन्धहेतुषु प्रायश्चित्तव्यवस्था 'भय' शब्दे वक्ष्यते ) अथ " कीरह जिपण हेऊ-हिं जेयं तो भन्न कम्मं । " इत्यादी पाण्यानार्थं यस्य कर्मो पतचस्तान् पवचन हेतुद्वारे काऽपि च हेतुमादिद र्शयिषुराद्द भायः एतदेवाजिननामाहारकर पचोत्तरशतं मिथ्यात्वे बध्यते, सासादनाऽऽदिषु षट्सु गुणस्थानकेषु यथास्थित कोरतादिरूपः परवी शयः।'अजिणाद्वारा हम मिथिलेश्याधिक 'अासयं इत्यादिना निर्धारिनेमा अश्या मध्यान्यगुणस्थान के जिननामा उद्दारकद्विकर हिता विज्ञेयाः, तेजोलेश्याऽऽदिषु नरकनवकाऽऽद्यूनो यः सा मान्यबन्धः प्रतिपादितः स मिध्यात्वगुणस्थानके जिनाऽऽदि प्रकृतिरहित विधेष इत्यर्थः तथा च दर्शितमेव ॥ २२ ॥ संप्रति भव्याऽऽदिद्वाराण्यभिधीयन्तेसगुणभव्यसनिहु अभय अस िमिच्समा । सासणि असन्नि सन्नि व, कम्मणभंगो अणाहारे ||२३|| सर्वगुणस्थानको भव्ये संज्ञिनि च मार्गणास्थाने सर्वगुथाना कर्मयेोः या अ स्थानकसमा अयमर्थः यथा विध्या सप्तदशोत्तरशतन्धः कर्मस्तदे उक्तस्तथाऽन्योऽसंगी व सामान्यतो मिध्यात्वे च सप्तदशोत्तरशतं बध्नाति । सासाद मे पुनरसंधी संविदेको सरबन्धक इत्यर्थः अनाहारके तु मार्गाराने कार्म काययोगमा विद्युतिरिभराउ कम्मे वि' इत्यादिना योगमार्गाने प्रतिपादित गन्तब्य का काययोगस्थस्यैव संसारिणो नाहरकत्वात् कार्मणभङ्गयम् वित्तरशतमध्यावाद्दारकद्विकदेवायुर्नरकत्रिक तिर्यग्नरयुकृत्यकं मुक्या शेषस्य द्वादशस्था नाहार के सामान्येन बन्ध तथा जिननाम सुरद्विकं किि कं च द्वादशोत्तरशत मध्यान्मुक्त्वा शेषस्य सप्तोत्तरशतस्थाना द्वारके मियादी बन्छः तथा सुषमा 55हितीपरवा शेषायाश्चतुयते साखर नस्येनाहारके बता द्विचतुर्विंशतिप्रकृतीश्वतु येषायाः सप्ततेजिननामसुर शिकवे किपडिक युक्राः रमाहारके बन्धः तथा योगिनि केयि चतुर्थपञ्चमसमयेनाहारक एकस्याः सः॥२३॥ अथ प्राग्ययुक्तं लेश्याद्वारे साणाइसु सम्यहि ओहो सि खादिषुस्थानेषु सर्वत्र लेश्या घो इति तत्र न ज्ञायत आदिशब्दात्कस्यां लेश्यायां कियन्ति गुस्थानानि गृह्यते इत्तले गुणस्थानकादर्शयन् प्रकरणसमर्थन प्रकरणानोपार्य बा35 तिसु दुमुसकाइ गुणा च समतेर निबंधमा देविंदरलिडियं नेयं कम्पत्ययं सोई ।। २४ । तिपाद्यासु कृष्णनीलालेश्वाइत्यादि ना यथाक्रमं संबन्धाद्यत्वारि मिथ्यात्व लासाइन मिश्राविरयाद्यानि गुणस्थानानि प्राप्यन्ते । एतद्गुणस्थानचन परिणामविशेषतः मानभावा * - पडिग्रीययनिएव उपायपोस अंतरापणं । अवासावणार, आवरणदुर्ग जियो जयः ॥ ५३ ॥ धरणदर्शनावरणरूपं जीवो जयति धातूनामनेकार्थत्वाद्वध्नातीति सम्बन्धः । तत्र ज्ञानस्य म. त्यादेर्ज्ञानिनां साध्वादीनां ज्ञानसाधनस्य पुस्तकाऽऽदेः प्रस्थनोकरथेन तदनिहा33बर चलकयेन निवेन न मया त मादिस्वरूपेण उपघातेन मूलतो विनाश स्वरूपेण प्रद्वेषेण श्रान्तराप्रीतिरूपेण अन्तरायेण भक्तपानवसमोपाश्रय लाभनिवार एलन. त्याच जापान विडीला रूपया कामावरणं कर्म जय तीति सर्वत्र द्रष्टव्यम्। एतच्चोपलक्षणम्, अतो शाम्यव वादेनाऽऽचार्योपाध्यायाऽऽद्य विनये नाकाले स्वाध्यायकर न काले च स्वाध्यायाविधानेन प्राणिवधाऽनृतभाषणस्तै म्या ब्रह्मपरिरात्रिभोजनाविरमण 33विविध हाना पर यद्यपि व्यमिति दर्शनाविवाच्यम्, नवरं दर्शनाभिलाषो वक्तव्यः । तथाहि - दर्शनस्य चतुर्दर्शमाम साध्यादीनां दर्शनसाधनस्य नयना सिका सम्मायने काजयपताकादिपु प्रत्यनीकत्वेन तदनानि न मया तत्समीपे तमिस्वादिरूपेण उपघात विनाशेन प्रान्तराप्रीत्यात्मकेन, अग्नये मपान सनोपाधयामनिवारन प्रत्याशतया च जात्यादिदीलमा दर्शनावरणं कर्म जयतीति सर्वत्र द्रव्यम् । उपलमदम् दर्शनिनां दूषणमयेन कर्त स्पादनमामाच्छेदजिद्वानिकर्तनादिना प्राणिधाभाष - 1 Page #1277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधन [स्तै म्याब्रह्मपरिमात्रिभोजनाविरमखा दिशिव दर्शना ssarणं जयतीत्याद्यपि वक्तव्यम् । यदवादि श्रीहेमचन्द्रसूरिपादै:-''ज्ञानदर्शनयोस्तद्वत्तद्धेतूनां च ये किल । विघ्ननिह पैशुन्या शातनाघातमत्सराः ॥" से शानदर्शना रकर्महेतव आश्रवाः ॥ ५३ ॥ उक्ता ज्ञानावरणदर्शनाऽऽवरणबम्पदेतयः । इदानीं वेदनीयस्य द्विविधस्याऽपि तानाहगुरुभत्तिखंतिकरुणा- बयजोगकसाय विजयदाजुओ | ददधम्माई अज्न, सायमसायं विवज्जयउ ॥ ५४ ॥ इह युतशब्दस्य प्रत्येकं योगस्ततो गुरवो मातापितृधर्माऽऽ चार्याऽऽदयस्तेषां भक्तिरासनाऽऽदिप्रतिपत्तिर्गुरुभक्तिस्तया बुतो गुरुभक्ति गुरुममिति जन्तुः सातं खात वेदनीयमर्जयति - समुपार्जयतीति सम्बन्धः । क्षान्तियुतः क्ष मान्यता, करुणायुतोदयापरीतचेताः प्रतयुतो महामा तादिसमन्वित योगयुती दशविधचक्रवाल सामाचार्या यावरणमगुणः कपायविजय युतः कोऽऽदिकषायपरिभयनशीलः दान-दारुवि धर्माप लधर्मः, आदिशब्दाद्वालवृद्धग्लानाऽऽदि वैयावृत्यकरणशीलो जिन पूजाश्व सातमर्जयति वनात वाच " देवपूजा गुरूपास्ति-पात्रदानद्याक्षमाः । सरागसंयम देश-संयमो ऽकामनिर्जरा ॥१॥ शापश्वेति सद्वेयस्य स्युराधवाः । तथा विपर्ययतः सातबन्धविपर्ययेणा सातमर्जयति तथाहि-गुरुणामवज्ञायकः, क्रोधनो निर्दयो, व्रतयोगविकलः, उत्कटपाचा कार्यवान् सत्यः सम्वद लीवर्दादिनियमन वाहनलाञ्छनास्प परदुःखशोक तापक्रन्दनपरिदेवना 55दिकारकक्षेति यद भ्यधायि "दुःखशोक बधास्ताप क्रन्दने परिदेवनम् । स्वान्यो भयस्थाः स्युरस-द्वेद्यस्यामी इहाऽऽश्रवाः ॥ १ ॥” इति ॥ ५४॥ उका बेदनीयस्य बम्पदेतवः । ( १२५४ ) अभिधानराजेन्द्रः । 1 " साम्प्रतं मोदनीयस्य द्विविधस्थापि तानाद उम्मग्गदे सणाम मनासया देवदहरयेहिं । दंसणमोहं निगामुखि चेहयसंघाइपडिसीओ ॥ ५५ ॥ उम्मार्गश्व भवतोमदेतुत्वेन देशना कचनमुन्यादेशना, मार्गस्य ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणस्य मुक्तिपथस्य नाशनालय मार्गनाशना देवस्व व्यस्य दरणं म क्षणोक्षणप्रज्ञाहीनश्वलक्षणम् । तत उन्मार्गदेशना व मा. नाशना च देवद्रव्यहरणं च तैर्हेतुभिर्जीवो दर्शन मोहं मिथ्या मोहनीपति तथा जननादित्वनीकः तत्र जिनास्तीर्यकराः, मुनयः साधवः, स्पानि यति रूपाणि साधुसाध्वीधावस्थाविकाला आदि शब्दात् सिद्धगुरुताऽऽदिपरिग्रहस्ते पत्नीको दाशातनाऽऽपनि निर्वर्तको दर्शन मोदमयति । यद्भाषि" वीतरागेचे धर्मे सर्वसुरेषु च । "तीमिवास्वपरिणामिता ॥ १ ॥ सर्वसिद्धदेवाप हबो धार्मिकदूषणम् । उन्मार्गदर्शनानर्था - ऽऽग्रहो ऽसंयतपूजनम् ॥ २ ॥ असमीक्षितकारित्वं गुदवाना इत्यादयो दृष्टिमोह-स्वाऽऽअवाः परिकीर्तिताः ॥ २ ॥ ३५५॥ बंधन दुवि पिचरगाम कसायासाइचिसवविवसमयो । बंध नरयाउ महा-रंभपरिग्गहरओ रुद्दो || ५६ ॥ विविधमपि द्विमेदमपि चरणमा चारित्रमोहनीयम् कषायमोहनीयनोकषाय मोहनीयरूपं जीवो बध्नातीति स. पथः किंविशिष्ट इत्याह- कषाय हास्याऽऽदिविषयविम नाः । तत्र कषायाः - क्रोधाऽऽदय उक्तस्वरूपाः षोडश, हा स्वाऽऽदयो हास्यरस्परतिशोकमय जुगुप्सा इति गृह्यन्ते वि पयाः शब्दरूपरसगन्धस्पर्शाऽऽख्याः पञ्च । ततः कषायाच हास्याऽऽदयश्च विषयाश्च कषायहास्याऽऽदिविषयास्तैर्विवशं विसंस्थूलं पराधीनं मनो मानसं यस्य स कषायहास्थाss दिविषयविवशमनाः । इदमत्र हृदयम् - कषायाविवशमनाः कषायमोदन बप्नाति दास्यादिविपशमनास्तु हास्यादिमोहनीयं हास्य मोहनीयरतिमोहनीयाऽरतिमोहनीयशोकमोहनीय भषमदनी जुगुप्सादनीया नोकपा मोमीनातिविषयमनाः पुनर्वेक पायमोहनीयं बध्नाति । सामान्यतः सर्वेऽपि कषायहास्या55दिविषया द्विविधस्थापि चारित्रमोहनीयस्य वग्धदेवयो भवन्ति । यत्प्रत्पादि --- " कषायोदयतस्तीयः, परिणामो य श्रात्मनः । चारित्रमोहनीयस्य स आश्रव उदीरितः ॥ १ ॥ उत्पासनं सकन्दर्पो पदासी दासशीलता । मापदेपास्युिराधाः ॥ २ ॥ देशाऽऽदिदर्शनौत्सुक्यं, चित्रे रमणखेलने । परचित्ताssवर्जना चे-त्याश्रवाः कीर्तिता रतेः ॥ ३ ॥ असूया पापशीलत्वं परेषां रतननाम् । अकुशल प्रोत्सहनं, चारतेराश्रवा श्रमी ॥ ४ ॥ पराविष्करणं स्वीकोत्पादशोचने । रोदनादिप्रसधिशोर रायाः ॥ ५॥ स्वयं भयपरीणामः परेषामथ भापनम् । त्रासनं निर्दयत्वं च भयं प्रत्याश्रवा अमी ॥ ६ ॥ चतुर्थस्य संघस्य परिवादजुगुप्सने । सदाचारजुगुप्सा च, जुगुप्सायां स्युराश्रवाः ॥ ७ ॥ ईर्ष्या विषादमाध्यै च सुपायादोऽतिवक्रता । परदाररसासक्ति, स्त्रीवेदस्याऽऽलया हमे ८ ॥ स्वारमात्र सन्तोषोऽनीय मन्दकषायता । अबका बारशीलत्वं पुंवेदस्याऽऽथवा इति ॥ ६ ॥ स्त्रीपुंसानङ्ग सेवा, कपायास्तीकामता । पाखण्डितमङ्गः, परढवेदाऽऽआया अमी ॥ १ ॥ साधूनां गणा धर्मो मुखानां विवकारिता । मधुमांसविरताना मविरत्यभिवर्णनम् ॥ ११ ॥ पितानातरायकरणं मुहुः । श्रचारित्रगुणssख्यानं तथा चारित्र दूषणम् ॥ २२ ॥ कषायनोकषायायामन्यस्थानामुदीरणम् --- - 9 1 चारित्र मोहनीयस्य, सामान्येनाऽश्रवा श्रमी ।। १३ ।। अनिद्दिता मोहनीयस्य बन्धहेतवः ॥ संप्रति चतुर्वि व्यायुपरतानाह"बंचा नरया" इत्यादिबध्नाति यति नरकायुर्नारका 35वुष्कं जीवः । किंविशिष्ट इत्याह-'महार म्भपरिग्रहरतो' महारम्भरतो महापरित्यर्थः रो रोइपरिणाम गिरिमेदसमानक पायरीपानरूपित तो Page #1278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५५) बंधहेउ अभिधानराजेन्सः । बंधन वृत्तिरित्यर्थः । उपलक्षणत्वात् पश्चेन्द्रियवधाऽदिपरिग्रहः।। अकामस्यानिच्छतो निर्जरा कर्मविचटनलक्षणा यस्यासायन्न्यगादि बकामनिर्जरः। इदमुक्तं भवति-"कामतराहाए अका"पशेन्द्रियप्राणिवधो, बारम्भपरिग्रही। मछुहाए अकामबंभचेरवासेणं अकामसीयायवर्दसमसग. निरनुग्रहता मांस-भोजनं स्थिरवैरता ॥१॥ अरहाणगसेयजल्लमलपंकपरिग्गहेणं दीहरोगवारगनिरोहवं. रौद्रध्यानं मिथ्यात्वान-मतानुबन्धिकषायता। धणयाए गिरितरुसिहरनिवडणयाए जलजलणपवेसणकृष्णनील कपोताच, लेश्या अनृतभाषणम् ॥२॥ सणाईहिं" उदकराजिसमानकषायस्तदुचितशुभपरिणामः परद्रव्यापहरखं, मुहुमैथुनसेवनम् । कश्चिद्व्यम्तराऽऽदिकाऽऽयुर्वधनाति । उपलक्षणस्वात् कल्या. अवशेन्द्रियता चेति, नरकाऽऽयुष प्राश्रवाः ॥ ३॥" णमित्रसंपर्कमानसो धर्मश्रवणशील इत्यादिपरिग्रहायदा:इति ॥ ५६ ॥ उक्का नरकाऽऽयुषो बन्धहेतवः। "सरागसंयमो देश-संयमोऽकामनिर्जरा। इदानी तिर्यगायुषस्तानाह कल्याणमित्रसंपकों, धर्मश्रवणशीलता ॥१॥ तिरियाउ गृढहियो, सदो ससल्लो तहा मणुस्साउ । पात्रे दानं तपः श्रद्धा, रत्नत्रयाविराधना। पयईइ तणुकसामो, दाणरुई मज्झिमगुणो य ॥५७|| मृत्युकाले परीणामो, लेश्ययोः पनपीतयोः॥२॥ तिर्यगायुर्वध्नाति जीवः। किंविशिष्ट इत्याह-गूढहृदय बालं तपोऽग्नितोयाऽऽदि-साधनोझम्बनानि च। उदायिनृपमारकादिवत्तथाऽस्माभिप्रायं सर्वथैव निगृहति अव्यक्तसामायिकता, देवस्याऽऽयुष पाश्रवाः॥३॥" यथा नापरःकश्चिद्वेत्ति । शठो-वचसा मधुरः परिणामे तु उक्ला देवाऽऽयुषो बन्धहेतवः । संप्रति नामकर्म यद्यपि वि. दारुणः सशल्यो-रागाऽऽदिवशाऽऽचीर्णानेकवतनियमाति. चत्वारिंशदादिभेदादनेकधा तथापि शुभाशुभविवक्षया द्वि. चारस्फुरदन्तःशल्योऽनालोचिताप्रतिक्रान्तः । तथाशब्दा- विधमित्यस्य द्विविधस्यापि बन्धहेतूनाह-"सरलो" इत्यादि. दुन्मार्गदेशनाऽऽदिपरिग्रहः उक्तं च सरल:-सर्वत्र मायारहितः। गौरवाणि ऋद्धिरससातलक्षणा. "उन्मार्गदेशना मार्ग-प्रणाशो गूढचित्तता। नि विद्यन्ते यस्य स गौरववान्, न गौरववान् अगौरवधान् आर्तध्यानं सशल्यत्वं, मायारम्भपरिग्रही ॥१॥ "प्राल्विल्लोलालवंतमतेत्तेरमणामतोः"॥८/२१५६ ॥ इति शीलवते सातिचारो, नीलकापोतलेश्यता। प्राकृतसूत्रेण मतोः स्थाने इल्लादेशः। उपलक्षणत्वात् संसार. अप्रत्याख्यानकषाया-स्तिर्यगायुष आश्रवाः॥२॥" भीरुः, क्षमामार्दवाऽऽर्जवाऽऽदिगुणयुक्तः शुभं देवगतियश:उक्तास्तिर्यगायुर्वन्धहेतवः। अथ मनुष्याऽऽयुषस्तानाह-"म. कीर्तिपञ्चेन्द्रियजात्यादिरूपं नामकर्म बध्नाति । अन्यथोक्ता गुस्साउ" इत्यादि । मनुष्याऽऽयुर्जीवो बध्नाति । किविशिष्ट इ. विपरीतस्वभावः । तथाहि-मायावी, गौरववान् , उत्कट स्थाह-प्रकृत्या-स्वभावेनैव तनुकषायोरेणुराजिसमानकषायः, कोधाऽऽदिपरिणामोऽशुभं मरकगत्ययशाकीत्ये केन्द्रियाऽदि. दानरुचिर्यत्रतत्र वादानशीला, मध्यमास्तदुचिताः केचिद् गु. जातिलक्षणं नामकर्मार्जयतीति । उक्तंच. गाः क्षमामार्दवाऽजेवाऽऽदयो यस्य स मध्यमगुणः । अ. "मनोवाकायवक्रत्वं, परेषां विप्रतारणम् । धम गुणस्य हिनरकाऽऽयुःसंभवादुत्तमगुणस्य तु सिद्धेः सु. मायाप्रयोगो मिथ्यात्वं, पैशुभ्यं चलचित्सता ॥१॥ रलोकाऽऽयुषो वा सम्भवादिति भावः। चशब्दादल्पपरिण- सुवर्णाऽऽदिप्रतिच्छन्द-करणं कूटसातिता। हाल्पाऽऽरम्भाऽऽदिपरिप्रहः । उक्ता मनुष्याऽऽयुषो बन्धहे- वर्णगन्धरसस्पर्शा-न्यथोपपादनानि च ॥२॥ तवः। श्राहच अङ्गोपाङ्गच्यावनानि, यन्त्रपारकर्म च । "अल्पौ परिग्रहाऽऽरम्भौ, सहजे मार्दवार्जवे । कूटमानतुलाकर्माऽ-न्यनिन्दाऽऽत्मप्रशंसनम् ॥ ३॥ कापोतपीतलेश्यात्वं, धर्मध्यानाऽनुरागिता ॥१॥ हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्म-महारम्भपरिग्रहाः। प्रत्यास्यानकषायत्वं, परिणामश्च मध्यमः। परुषासभ्यवचनं. शुचिवेषाऽऽदिना मदः॥४॥ संविभागविधायित्वं, देवतागुरुपूजनम् ॥२॥ मौखर्याक्रोशौ सौभाग्यो-पघाताः कार्मणक्रियाः। पूर्वालापप्रियाऽऽलापी, सुखप्रज्ञापनीयता। परकीतूहलोत्पादः, परहास्यविडम्बने ॥५॥ लोकयात्रासु माध्यस्थ्य, मानुषाऽऽयुष माश्रवाः ॥३." बेश्याऽऽदीनामलङ्कार-दाहं दावाग्निदीपनम् । इति ॥ ७॥ देवाऽऽदिव्याजागन्धाऽऽदि-चौर्यतीवकषायता॥६॥ सम्प्रति देवायुऽऽषस्तानाह चैत्यप्रतिश्रयाऽऽराम-प्रतिमानां विनाशनम् । अविरयमाइ सुराउ, चालतवोकामनिज्जरी जयइ । अङ्गाराऽऽदिक्रिया चेस्य-शुभस्य नाम्न पाश्रयाः॥७॥ सरलो अगारविल्लो, सुहनामं अन्नहा असुहं ॥ ५० ॥ पत एवान्यथारूपा-स्तथा संसारभीरता। अविरत:-अविरतसम्यग्दृष्टिः सुराऽऽयुर्देवाऽऽयुष्कं जयति प्रमादहानं सदावा-पंणं ताम्स्यादयोऽपिच॥८॥ बध्नाति । श्रादिशब्दादेशविरतसरागसंयतपरिग्रहः । बीत दर्शने धार्मिकाणांच, संभ्रमः स्वागतक्रिया। रागसंयतस्त्वतिविशुद्धत्वादायुने बध्नाति, घोलणापरिणाम परोपकारसारत्व-माश्रवाःशुभनामनि ॥६॥" पव तस्य वध्यमानत्वात् । बालं तपो यस्य स बालतपा, अन. इति ॥ ५८।। उक्का नाम्नो बन्धहेतवः। धिगतपरमार्थस्वभायो दुःखगर्भमोहगर्भवैराग्योऽशान पूर्व. सम्प्रति गोत्रस्य द्विविधस्याऽपि तानाहकनिर्वतितपःप्रभृतिकष्टविशेषो मिथ्यादृष्टिः, सोऽप्यात्मगु- गुणपेही मयरहिओ, अज्झयणकावणारूई निरचं। णानुरूपं किश्चिदसुराऽऽदिकाऽऽयुर्वध्नाति । यदाह भगवान् पकुणइ जिणाइभत्तो, उच्च नीयं इयरहा उ ॥ ५॥ भाष्यकार:-"बालतवे पडिबद्धा, उकडरोसा तवेण गार- गुणप्रेक्षी-यस्थ यावन्तं गुणं पश्यति, तस्य तमेव प्रेक्षते विया । वरेण य पडिबद्धा, मरि असुरेसु जायंति ॥१॥"] पुरस्करोति, दोषेषु सत्स्वप्युदास्त इत्यर्थः । मदरहितो-वि Page #1279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंन्न बंघहेल अभिधानराजेन्द्रः। शिष्टजातिलामकुलेश्वर्यबलरूपतपावताऽदिसंपन्समन्वितो. बंधाकडठिइ-बन्धोत्कृष्टस्थिति-स्त्री०।बन्धमाश्रित्योत्कृष्टायां अपि निरङ्कारः। नित्यं-सर्वाऽध्ययनाण्यापनारुचिः स्वयं । स्थिती, क०प्र०२ प्रक०। पं०सं०। पठतीतरच पाठयति, अर्थतच स्वयमभीषणं विमृशंति बंधुजीव-बन्धुजीव-पुं०। विप्रहरप्रकाशिपुष्पप्रधाने वृत्तषि. परेषां च व्याख्यानयति, असत्या वा पठनाऽऽदिशक्ती तीन शेषे , प्रहा. १पद। बहुमानः परानध्ययमाध्यापनापरायणाननुमोदते । तथा जि बंधुदत्त-बन्धुदत्त-पुं० । षड्दर्शनप्रवीणस्य विदुरनानासामादिमतो-जिनामां-तीर्थनाथानामादिशब्दात्--सिंद्याऽऽ चार्योपाध्यायसाधुन्यानामन्यषां च गुणगरिष्ठानी भक्को अथाऽऽचार्यस्य वादजयेन प्रव्राजके साधी, घर०३अधि. बहुमान परः । प्रकरोति प्रकर्षेण समपाजेयत्यच्चमुच्चै बंधुमई-बन्धुमती-स्त्री०। वसन्तपुरवसतिकस्य श्रेष्ठिनो महे. गोवम् । नीचं मार्गोत्रमितरथा तु भणितविपरीतस्वभावः । उक्तं - लायां सुन्दयो जातायां स्वनामख्यातायो दारिकायाम् , "परस्य निन्दाऽधोप-हासाः सदगुणलोपनम् । पिं० । चम्पाया नगर्या राजगृहस्य चान्तरा गोसदसदोषकथन-मात्मनस्तु प्रशंसनम् ॥१॥ घरग्रामे गोशालिनः कुटुम्बिनः स्त्रियाम्, प्रा०चू०१०। सदसद्गुणशंसा च, स्वदोषाऽऽच्छादनं तथा। आ०म० । प्रा०क० । राजगृहे नगरेऽर्जुनस्य मालाकारस्य जात्यादिभिर्मदश्चेति, नीचैर्गोत्राश्रवा अमी॥२॥ भार्यायाम् , अन्त०१ श्रु०६ वर्ग ३ अ०। ( बन्धुमतीक्षानींचोप्राऽऽधवविपर्यासो विगतगर्वता। तम् 'अब्भडवेस' शब्ने १ भागे ३६१ पृष्ठे गतम्) बाकायचिसर्विनय, उचगोत्राश्रवा अमी ॥३॥" बंधुर-बन्धुर-त्रि० । सुन्दरे , "सहरं राई रम्म, हिराम इति ॥ ५६ ॥ उक्का गोत्रस्य बन्धहेतवः । बंधुरं मणुश च । लट्ठे कंतं सुहयं , मणोरम चारु रसाम्प्रतमन्तरायस्य ये बन्धहेतवस्तानभिधित्सुः मणिजं.१॥" पाईना० १४ गाथा। शास्त्रमिदं समर्थयन्नाह बंधुविप्पण-बन्धुविहीण-त्रिका विद्यमानबान्धवधिप्रमुक्त, जिणप्याविग्यकरो, हिंसाऽऽइपरायणो जयइ विग्छ । । प्रश्न०१आश्रद्वार। इय कम्मविवागोऽयं, लिहिलो देविंदररिहि ॥६०॥ बंधुसिरी-बन्धुश्री-स्त्री० । मथुगयां नगर्यो श्रीदामस्य रा को भार्यायां नन्दिषेणमातरि, विपा० ११०६ १०। जिनपूजाविघ्नकरः सायद्यदोषोपेतत्वात् गृहिणामप्येषाविधेयेत्यादिकुदेशनादिभिः समयातस्तत्वदूरीकृतो जिन बंधय-बन्धक-पु.। रकपुष्पप्रधाने वृक्षभेदे शा०१७.१ मा पूजामिषेधक इत्यर्थः । हिंसा जीवषध आदिशब्दावनृतमा. बंधयब-बद्धव्य-नि. । बन्धनकर्मीभूते कर्मणि, पं०सं०१ षणस्तैन्याब्रह्मपरिग्रहरात्रिभोजमाविरमणाऽऽविपरिग्रहस्तेषु द्वार । ( बातम्या हि कर्मप्रकृतयः कम्म' शब्द तृतीयभागे परायणस्तस्परः । उपलक्षणस्वास्मोक्षमार्गस्य शानचारित्रा. २५८ पृष्ठे दर्शिताः) देस्तदोषाहणाऽदिना विघ्नं करोति, साधुभ्यो वा भक्तपा बंधोल-देशी। मेलके, दे०मा० ६ वर्ग ८ गाथा। नोपाययोपकरणभेषजाऽऽदिकं दीयमान निवारयति, तेन बंभ-ब्रह्मन्-न । बृहत्त्वाच ब्रह्म । महति , पो०१६ षिवः। चतद्विवधता मोक्षमार्गः सर्वोऽपि विनितो भवति, अप. परमाऽऽस्मनि, वे ब्रह्मणी वेदितव्ये परमपरं च। तत्र-"प. रेषामपि सरवानां दानलाभभोगपरिभोगविप्नं करोति, म. रं सत्यज्ञानमनन्तं ब्रह्म" इति श्रुतिप्रसिद्धम् । कल्प० १ त्रादिप्रयोगेण च परस्य वीर्यमपहरति, हठाच्च बधबन्ध अधि०६क्षण । विपा०। मा०म०। मोक्षे.सूत्र०२४०६ मा निरोधाऽदिभिः परं निश्चेष्टं करोति, छेदनभेदनाऽविभिश्च भुक्ताः श्रियः सकलकामदुधास्ततः कि?, परस्येन्द्रियशक्तिमुपहन्ति । स किमित्याह-जयति धातूनाम. सम्प्रीणिताः प्रणयिनः स्वधनैस्ततः किम्। नेकार्थत्वादर्जयति विघ्नं पञ्चप्रकारमप्यन्तराय। इति दत्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किं?, पूषोंकप्रकारेण कर्मविपाका-कर्मविपाकनामकं शास्त्रमय कल्पं स्थितं तनुभृतां तनुभिस्ततः किम् । ॥१॥ संप्रत्येव- निगदितस्वरूपो लिखितोऽक्षरविन्यासीकृती वेधे. इत्थं न किञ्चिदपि साधनसाध्यजातं, म्द्रसूरिभिः कसलकलिकालपातालतलाथमज्जतिशुद्धधर्म- स्वप्रेन्द्रजालसदृशं परमार्थशून्यम्। धुरोधारणधुरीणश्रीमज्जगच्चन्द्रसरिचरणसरसीपहचारी- अत्यन्त निर्वृतिकरं यदपेतबन्धं, कैरिति । कर्म०१ कर्मः। तद् ब्रह्म वाञ्छत जना यदि चेतनाऽस्ति ॥२॥" विशे०। बंधाइपसाहम-पधादिप्रसाधक-त्रि०। बन्धमोक्षाऽऽदि. अशेषमलकलङ्कविकल्पयोगिशर्मणि, आचा० १ भु० ३ गुणे, पं०व०४द्वार। म. १ उ० । "अतीन्द्रियं परं ब्रह्मा, विशुद्धानुभवं विना ॥ बंधाबंध-बन्धबन्ध-पुं०। कति प्रकृतीबंधन कति प्रकृतील, शानयुक्तिशतेमापि, न गम्यं यद् बुधा जगुः ॥ ३ ॥ अटल २६ मा । या सष्टिह्मणो बाधा, बाधापेक्षाबलतीत्येवं बन्धसमकालिकसत्ताकपन्धे, भ० १६ श०२ उ०। म्बिनी । मुनेः परामपेक्षान्त-गुणस्तितोऽधिका ॥७॥" पंधिऊण-बध्या-अव्य० । मावृत्येश्यर्थे , " बस्थेणं पंधि प्रष्ट०२० अ०। ऊणे, णास महवा जहा समाशीप।" पशा४धिवः। ब्रह्मन-पुं० । जगत्पितामहे कमलयोनी, सूत्र. १४०१ बंधु-बंधु-पुं० । भ्रातरि " पंधू सयको सणाही य । " पा. म. ३ उ० । प्रमाहिचतुर्मुखी विष्णुनाभिकमलादुस्पच सना० १०१ गाया। | कर्ण जगजनयामास । स पञ्चमुख एघोरपक्षः पश्चात् चतु:शि Page #1280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्न (१२५७) बन्न अभिधानराजेन्द्रः। रासम्जात त्यादिपुराणप्रसिद्धम् । हा.१ अष्ट०। अभिजि. इदानी वर्णान्तराणां नवानां नामान्याहनक्षत्रस्य ब्रह्मा देवता । चं०प्र०१० पाहु० १२ पाहुपाहु। अंबग्गनिसाया, य भजोगवं मामहा य सूया य । धनुकाबलोकाऽभिधानपश्चमदेषलोकस्येन्द्र,स०६० समका खत्ता य विदेश वि य, चंडाला नवमगा हुंति ॥ १२॥ भावस्था अम्बष्ठः १,उग्रः २,निषादः ३.अयोग, ४,मागधः ५,सूतः ६, दो पम्हा । स्था० २ ठा०३० स०।ौ। क्षता ७, विदेहः ८, चाण्डालश्चेति ।। जम्मूखीपे भारत वर्षे ऽस्यामवसर्पिण्यां जाते द्वितीयबलदेव. कथमेते भवन्तीस्याहबासुदेवमातरि, स०। स्था० । प्राप० । दशाभुतस्कन्धस्य जनहितानाम्नीवृत्तःकारके स्वनामख्याते सूरी, दशा०१०। एगतरिए इणमो, अंबट्ठो चेव होइ उग्गो य । अहोरात्रस्य नवमे मुहूर्ते, चं०प्र०१० पाहु । स०। कल्प। विड्यंतरिम निसाओ, परासरं तं च पुण वेगे ॥३॥ छा। मैथुनधिरती, जं०२ वक्षस०। उत्त० । कुशलानुष्ठाने, पडिलोमे सुहाई, अजोगवं मागहो य सूमो । "ब्रह्म तस्वं तपो शान, ब्रह्म विप्रः प्रजापतिः। "भाव० ६ ०। एगंतरिए खत्ता, वेदेहा चेव नायबा ॥ २४ ॥ महमिक्षपा- . वितियंतरेय नियमा, चंडालो सोऽवि होइ णायचो । मम्मी य चउकं, ठवणाए होइ बंभणुप्पत्ती । अणुलोमे पडिलोमे, एवं एए भवे भेया ॥२५॥ सत्तएहं वरमाणं, नवएह वमंतराणं च ॥ १८॥ प्रासामर्थों यन्त्रकादवसेयः । तचेदम-ब्रह्मपुरुषः. वैश्या तनहानामाऽऽदि(भेदा)चतुर्दा, तत्र नामब्रह्म-ब्रह्मेत्यभिः स्त्री अम्बष्ठः । क्षत्रियः पुरुषः शूद्री स्त्री उग्रः। ब्राह्मणः पुरु. भानम्, सद्भावस्थापना अक्षाऽऽदौ, सद्भावस्थापना प्रति. पः शूही स्त्री निषादः, पारासरोधा। शूद्रः पुरुषः वैश्या विशिष्टयज्ञोपवीताऽऽद्याकृतिमृल्लेप्याऽऽदी द्रव्ये, अथवा-स्थाप स्त्री अयोगवम् । वैश्यपुरुषः क्षत्रिया खी मागधः । क्षत्रियः मायां व्यागयायमानायां ब्राह्मयोत्पत्तिर्वक्लव्या, तत्मसङ्गेन च सप्तानां वर्णानां नवानां च वर्णान्तराणामुत्पत्तिणनीयेति । पुरुषः ब्रह्मस्त्री सूतः । शूद्रः पुरुषः क्षत्रिया स्त्री क्षत्ता। - यथाप्रतिक्षातमाह श्यपुरुषः ब्राह्मस्त्री वैदेहः । शूद्रपुरुषः ब्राझनी चाण्डाला। पताति नव वर्णान्तराणि । एका मणुस्सजाई, रज्जुप्पत्तीइ दो कया उसमे। इदानी वर्णान्तराणां संयोगोत्पत्तिमाहतिमेव सिप्पणिए, सावगधम्मम्मि चत्तारि ॥१६॥ पावनाभेयो भगवासाचापि राजलक्ष्मीमध्यास्ते, तावदेकै उग्गेणं खत्ताए, सोवागो बेणवो विदेहणं । ष मनुष्यजातिः, तस्यैव राज्योत्पत्तौ भगवन्स मेवाऽऽश्रित्य ये अंबट्ठीए सुदीएँ, चुक्कसो जो निसाएणं ॥ २६॥ स्थितास्ते क्षत्रियाः, शेषाश्च शोचनाद्रोदनाच शूद्राः, पुन. सूपण निसाईए, कुक्करो सो वि होइ णायचो । रन्युस्पत्तावयस्कारादिशिल्पवाणिज्यवृष्या वेशनाद्वैश्याः, एसो बीमो भेो, चउब्विहो होइ णायब्बो ॥ २७ ॥ भगवतोहानोत्पत्ती भरतकाक( किणीलाचनाच्छावका एव अनयोरप्यर्थो यन्त्रकादवसेयः तदम्-उप्रपुरुषःक्षता ब्राह्मणा जहिरे, पते शुद्धात्रयश्चाम्ये गाथान्तरितगाथया प्रद. स्त्री श्वपाकः । विदेहः पुरुषः क्षत्ता श्री बैणवः । निषाद: र्शयिष्यन्ते। पुरुषः अम्बष्ठी स्त्री. शूद्री स्त्री वा बुक्कसः । शूद्रः पुरुषः नि. साम्प्रतं वर्णवर्णान्तरनिष्पन्न संख्यानमाह पादत्री कुकुरकः । गतं स्थापनाब्रह्म । संजोगे सोलसर्ग, सत्त यवमा उ नव य अंतरिणो। इदानी द्रव्यम्रह्मप्रतिपादनायाsssपए दो विविगप्पा, उवणा बंभस्स णायच्या ॥ २०॥ दवं सरीरभविभो, अनाणी वस्थिसंजयो चेव ।। संयोगेन षोडश वर्णाः समुत्पत्राः, तत्र सप्त वर्णा नव भावे उ बस्थिसंजम, णायचो संजमो चेव ॥ २८॥ तु वर्णान्तराणि, पतच वर्णवर्णान्तरविकल्पद्वयं स्थापना. शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं शाक्यपरिबाजकाऽऽदीनामझाब्रह्मेति ज्ञातव्यम् । नानुगतचेतसां वस्तिनिरोधमा विधवाप्रोषितभतकाऽऽदी. साम्प्रतं पूर्वसूचितं वर्णत्रयमाह । यदि वा-प्रागुरिधान नां च कुलव्यवस्थाऽर्थ कारितानुमतियुक्तं द्रव्यब्रह्म, भाषासप्त वर्णानाह हम तु साधूनां वस्तिसंयमः अष्टादशभेदरूपोऽप्ययं संयम पगई चउक्तगाणं-तरे य ते इंति सत्त वमा उ । एब , सप्तदश विधसंयमाभिमरूपत्वादस्येति । अष्टादश भे. माणं तरेसु चरमो, वमो खलु होइ णायव्वो॥१॥ । दास्त्वमी-"दिव्यात्कामरतिसुखात् , त्रिविधं विधिधेन वि. प्रकृतयश्चतस्रः-ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राऽऽख्या आसामेष रतिरिति नवकम् । मौदारिकारपि तथा, तबू ब्रह्माऽधादेशचतसृणामनन्तरयोगेन प्रत्येकं वर्णत्रयोत्पत्तिः। तद्यथा-द्विजेन विकल्पम् ॥१॥" क्षत्रिययोषितो जातः प्रधानक्षत्रियः सङ्करक्षत्रियो वा । एवं चरणनिक्षेपार्थमाहक्षत्रियेण वैश्ययोषितो वैश्येन शूद्रयाः प्रधानसहरभेदी ब. चरणम्मि होइ छर्क गइमाहारो गुणो व चरणं च । कव्यावित्येवं सप्त वर्णा भवम्ति, अनन्तरेषु भवा पान- खित्तम्मि जम्मि खिते, काले कालो जहिं जो उ॥२६॥ स्तरास्तेषु योगेषु चरमवर्णव्यपदेशो भवति ब्राह्मणेन । चरणं नामाऽऽदि षोढा व्यतिरिक्तं द्रव्यचरणं त्रिधा भवति, त्रियायाः क्षत्रियो भवतीत्यादि, स च स्वस्थाने प्रधानो गतिभक्षणगुणभेदाल , तत्र गतिवरणं गमनमेष, आहारच. भवतीति भावः। रणं मोदकाऽदे, गुणचरणं द्विधा- लौकिक, लोकोत्तरंच. Page #1281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९५८) अभिधानराजेन्द्रः। बंगुत्ति लौकिकं यत्यार्थ हस्तिशिक्षादिकं वैद्यकाऽऽदिकंवा शि-लोए।" ब्रह्मणा उप्तो ब्रह्मोप्तो लोक इत्यर्थः । परे एवं व्य. शाम्ते, लोकोत्तरं साधूनामनुपयुक्तचरणमुदायिनृपमारकाऽऽदे. वस्थिताः । तथाहि-तेषामयमभ्युपगमः। ब्रह्मा जगस्पिता. त्रिचरणं यस्मिन् क्षेत्रे गस्याहाराऽऽदि चर्यते-व्याग्याय. महः सचैक एव जगदवासीत् तेन च प्रजापतयः सृष्टास्तेतेवा, शनसामान्यान्तर्भावाद्वा शालिक्षेत्राऽऽदिचरणमिति, श्व क्रमेणैतत्सकलं जगदिति । सूत्र.१६० १०३ उ०। कालेऽप्येवमेव । एषां च मतमयथार्थमीश्वरकृतलोकखण्डनेनास्थ इक्षितत्वाभावचरणमाहु त्। सूत्र०१श्नु. ११०३ उ०! भावे गइमाहारो, गुणो गुणवो पसत्थमपसत्था। भंड-ब्रह्माण्ड-न० । अण्डववृत्ते पौराणिकसंमतलोके, गुणचरणे पस्सत्ये-ण बंभनेरा नव वंति ॥ ३०॥ प्राचा० १ श्रु० ६ ० ३ उ०। भावचरणमपि गत्याहारगुणभेदात् त्रिधा , तत्र गतिच- | भंडपुराण-ब्रह्माण्डपुराण-न० । जगतो ब्रह्मकृतत्वप्रतिपा. रणं साधोरुपयुक्तस्य युगमात्रदत्तदृष्टेर्गच्छतः, भक्षणचर- | दके पुराणे , "भरहो विचम्मरयणे बंधावार ठवेऊण पमपि शुद्ध पिण्डमुपभुआनस्य, गुणवरणमप्रशस्तं मिथ्या- उवरि छत्सरयणं ठावेदमणिरयणं छत्तरयणवधिभाए ठवेद । टीनां सम्यग्दृष्टीनामपि सनिदानं प्रशस्तं, तेषामेव क- ततो पभिर लोगेण अंडसंभवं जगं पणीयं ति ।" तद्प्र. नार्थ मूलोत्सरगुणकलापविषयम् , ह चानेनवाधि- ह्याण्डपुराणम् । (३४४ गा०)प्रा०म०१०। कारो, यतो नवाप्यध्ययनानि मूलोत्तरगुणस्थापकानि निर्जबंभकूट-ब्रह्मकूट-न० । महाविदेहे स्वनामख्याते वक्षस्कार। रार्थमनुशील्यन्ते । आचा०१०१.१०। उत्त०। नि० पर्वते. जं। ईषत्प्राग्भारायां पृथिव्यां तस्याः सकललोकमयत्वात् ।। कहियं भंते !महाविदेहे वासे बंभकूडे णाम वक्खास० १२ सम०। अष्टादश ब्रह्माणि रपबए पाते। गोयमा ! खीलवंतस्स दक्खिणेणं अट्ठारसविहे बंभे पत्ते । तं जहा-पोरालिए कामभोगे सीपाए महाणईए उत्तरेणं महाकच्छस्स पुरस्थिमेणं शेष सयं मणेणं सेवइ, नावि अन्नं पणेणं सेवावेइ, मणेणं कच्छावईए पञ्चच्छिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे बं(भ)म्ह. सेवंत वि अमं न समणुजाणइ । ओरालिए कामभोगे नेव कूडे णामं वक्खारपन्चए पामत्ते। उत्तरदाहिणायप पाईसयं वायाए सेवइ, नेव भन्न वायाए सेवायेह, वायाए सेवंतं | णपडीणवित्थिा सेसं जहा चित्तकूडस्स .जाव भासवि भयं न समणुजाणइ, मोरालिए कामभोगे नेव संयं यंति । बम्हकूडे चत्तारि कूडा पमत्ता । तं जहा-सिद्धाययकारणं सेवइ, नावि अचं कारणं सेवावेइ, कारणं सेवंतं णकूडे १ बम्हकूडे २ महाकच्छकूडे ३ कच्छावइकडे ४ वि अयं न समणुजाणइ, दिब्वे कामभोगे नेक सयं । एवं जाप अट्ठो बम्हकूडे इत्य देवे पलिओवमठिइए मणेणं सेवइ, नावि अन मणेणं सेवावेइ , मणेणं सेवंतं सव, नावि मन मणणसवाव, मणण सवत परिवार से ताटेगा वि भवं न समणुजाणइ,दिव्वे कामभोगे नेव सयं वायाए (कहिणमित्यादि ) सर्व व्यक्तम् । ब्रह्मकूटनामा द्वितीयो सेवा , नावि अन्नं वायाए सेवावेइ , वायाए सेवंतं वि पक्षस्कारः चित्रकूटाऽतिदेशेन यावत्पदादायामसूत्राऽऽदिक अनं न समणुजाणइ दिब्वे कामभोगे नेव सयं कारणं | भूमिरमणीयसूत्रान्तं च सर्व वाच्यम् । अथात्र कूटवक्तव्य. सेवइ, नावि भन्न कारणं सेवावेइ, कारणं सेवंतं कि माह-(बम्हकूडे वत्सारि कूडा) इत्यादि व्यक्तं, नवरम् एवं चित्रकूटवक्षस्कारकूटन्यायेन वाच्यं यावत् " समा उत्त. अनं न समणुजाणइ । स० १८ सम० । रदाहिणेणं परुप्परंति" इत्यादि प्राह्यम् । अर्थों ब्रह्मकूटश. ब्रह्मन-ना वृह मनिन् । "बृहनोंच्च " (उणा०५६५) इति | दार्थः। "से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चा बम्हकूडे इत्या. नकारस्थाकारत्वम् । वेदे, तपसि, सत्ये, तत्वे यथार्थे, तु- लापन उल्लेख्यः । ब्रह्मकुटनामा देवश्चात्र पल्योपमस्थिति। रीये सर्वगुणातीते विशुद्ध चित्स्वरूपे च । हिरण्यगर्भे, का परिवसति, तदेतेनार्थोऽतिसुगमः । जं. ४ वक्षः। विप्रे. ऋत्विग्विशेषे च । पुं० । उज्ज्वलदत्तेन दन्तो- बंभगिरि -ब्रह्मगिरि-पुंगानासिक्यपत्सनसमीपवर्तिस्वनामप्ठ्याऽऽदित्वमेव साधितम् । मेदिनीकारेण प्रोष्ठयाऽऽदि- ख्याते महादुर्गे. ती०२६ कल्प। स्वेन कीर्तनात्तथास्वपि, किंतु तन्मूलं मृग्यम् । वाच० । बंभगत्ति-ब्रह्मगप्ति-स्त्री० । ब्रह्मचर्य गुप्तौ, ग०। आर्यसुहस्तिनः प्रथमशिष्ये, कल्प०२ अधि०८क्षण । "नव बंभचेरगुतीनो पमत्तानो । तं जहा-विवित्ताई सय. ब्राह्म-पुं० । अलंकृत्य कन्यादानरूपे विवाहभेदे, स०। । णाऽऽसणारं सेविसा भवरानो इत्यिसंसत्ताईनो पसुसंसत्ताई षष्ठदेवलोके हि ब्राह्माऽऽदीनि विमानानि नो पंडगसंसत्ताईनो इत्थीणं कहं कहेत्ता हवादा"नो स्त्रीणां ने देवा बंभं सुबंभं बंभावत्तं बंभप्पमं बंभकंतं बंभव केवलानां कथां धर्मदेशनाऽदिलक्षणवाक्यप्रतिवन्धरूपाम् २ । बंभलेसं बभज्झयं बंभसिंग बंभसिद्धं बंभकूडं बंभुत्तर "नो इत्थिठाणाई सेवित्ता भवति" स्थानं निषद्या।३।“नो वडिंसगं विमाणं देवत्साए उववन्ना तसिणं देवाणं एक्का इत्थीणं मणोहराई मणोरमाई इंदिभाई आलोइत्ता निझा रस सागरोवमाई ठिई परमत्ता । स०११ समः। इत्ता भवाणो पणीयरसभाई ५। णो पाणभोयणस्स अइ. मातमाहारए सया भवतो पुन्वरयं पुश्वकीलियं सरित्ता भउत्त-ब्रह्मोल-त्रि०। ब्रह्माऽऽहितबीजोत्पन्ने, "बंभउत्ते अयं भवाणो सहानुवातीणो रूवाणुवाई नो सिलोगाणुवाई Page #1282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५६) बभगुत्ति अभिधानराजेन्द्रः। बंजर सानो सायासोक्स्वपहिबद्ध यावि भवा" इति ब्रह्मगुप्तिः। यत्तत्तथा , ब्रह्मचर्यवान् हि तपःप्रभृतीनुत्तमान प्राप्नोति ग०१माधिस्था०६ ठा। सामा० चू०। नाऽन्यथा । यदाहचमचेर-ब्रह्मचर्य-म० । ब्रह्म व-कुशलानुष्ठानं , तब "जइ ठाणी जद मोणी, जइ माणी बकली तबस्सी वा। तच्चये चाऽसेव्यमिति ब्रह्मवर्यम् । स्था. ठा। पत्धंतो म प्रबंभ, बंभावि न रोयए मज्म ॥१॥ "ब्रह्मचर्यतर्यसौन्दर्यसौएडीये यो र:"C२६३॥इति तो पढियं तो गुणिय. तो मुणियं तो य चेाओ अप्पा । र्यस्य सप्रा०२ पान । " ब्रह्मचर्य चः"1८1५1५६॥ इति। प्रायडियपेल्लियाम-तिनो विन कुणा अकजं ॥२॥" ब्रह्मचर्यशब्दे सकारोत्तरवर्तिनोऽकारस्यैकारः । प्रा०१पाद । यमा-अहिंसाऽऽदया, नियमा-द्रव्याऽऽधभिग्रहाः पिण्डविशुविशुद्धतपोऽनुष्ठाने, दश श्र.१ उ.। संयमे.स्था. ६ ठाण यादयो वा.ते च ते गुणानांमध्ये प्रधानाश्व तैर्युक्तं यत्तत्तथा। अब्रह्माविरमणे, स्था०२ ठा.उ.प्राचावस्तिमिरो। (हिमवंतमहंततैयमंतं ) हिमवतः पर्वतविशेषारसकाशा. धे, सूत्र०१४०३१०१ उ०। मदनपरित्यागे, भाचा० १ महत्-गुरुकं तेजस्वि-प्रभाववद्यत्तत्तथा । यथाहि-पर्वता. श्रु०४०४ उ० । मैथुनव्रते, स्था० ६ ठा० । च्यादिप. नां मध्ये हिमवान् गुरुका प्रभावांश्च, एवं व्रतानामिदमिति रिभोगाभाममात्रे , भ. १ श.१ उ०। मैथुनविरतिरूपं भावः। प्राह चब्रह्मचर्य द्विधा-सर्वतो, देशतश्च । तत्र सर्वथा-सर्वस्त्री "व्रतानां ब्रह्मचर्य हि निर्दिष्ट गुरुकं व्रतम् । णां मनोवाकायैः सत्यागः सर्वतो ब्रह्मचर्यम् । तच्चाष्ट तज्जयपुण्यसम्भार-संयोगाद् गुरुरुच्यते ॥१॥" दशधा"-यतोयोगशाने "दिव्यौदारिककामानां कृतानुमति. तन्त्रान्तरीयरप्युक्तम्कारितैः । मनोबाकायतस्यागो. ब्रह्माष्टादशधा मतम् ॥१॥" " एकतश्चतुरो वेदाम, ब्रह्मचर्य च एकतः। इति । तदितरदेशस्तत्रोपाशकः सर्वतोऽशक्ती देशतस्तरस्वदा | एकतः सर्वपापानि , मद्यं मांसं च एकतः॥१॥" रसन्तोषरूपं परदारवर्जनरूपं वा प्रतिपद्यते । ध०२ अधि०। प्रशस्तं प्रशस्यं गम्भीरमतुच्छ स्तिमितं स्थिरं मध्यं देहिनो. किं ब्रह्मचर्य, कथं कर्तव्यं, के कुर्वन्ति उन्तःकरणं यस्मिन् सति तत्तथा, आर्जवैः-ऋजुतोपेतैः साजंबा एत्तो य बंभचेरं उत्तमनवनियमनाणदंसणचरि- धुजनाचरितमासेवितं मोक्षस्य च मार्ग व मागों यत्त. चसम्मत्तविणयमूलं यमनियमगुणप्पहाणजुत्तं हिमवंतम तथा । वाचनान्तरे-प्रशस्तैःप्रशस्यैः गम्भीरैरलक्यदैम्याssहंततेयमंतं पसत्यगंभीरथिमियमझ मज्जवमाहुजणा दिविकारः स्तिमितः कायवापलादिरहितैमध्यस्थैः राग द्वेषानाकलितैःप्रार्जवसाधुजनैराचरितं मोक्षमार्गस्य यत्सत्तपरिवं मोक्खमग्गं विसुद्धसिद्धिगइनिलयं सासुयमन्या था, विशुद्धा रागाऽऽदिदोषरहितत्वेन निर्मला या सिद्धिः कृ. वाहमपुणम्भर्व पसत्थं सोम्म सुई सिवमचलमक्ख- तकृत्यता सैव गम्यमानत्वादगतिविशुद्धसिद्धिगतिर्जीवस्य यकर अतिवरसारक्खियं सुचरियं सुभासिय नवरि मु- स्वरूपं सेव निलय व निलयः स्वरूपैः सर्वसिद्धानां निलविवरहिं महाधुरिसधारमूरधम्मियधितिमंताण य सया- यनाद्विशुद्धसिद्धिगतिनिलयः शास्वतः साद्यपर्यवसितत्वात् विसुदं भवं भन्यजणाणुचरियं निस्संकियं निभयं नि अव्यायाधः क्षुधादिवाधारहितत्वात् अपुनर्भवस्ततः पुनर्भ बसम्भवाभावात् प्रशस्तः उक्तगुणयोगादेव, सौम्योरागाऽद्य. सुसं निरायासं निरुवले निव्वुइघरं नियमनिप्पकंपं तव भावात् सुखः सुखस्वरूपत्वात् शिवः सकलद्वन्दवजितसंजममूलदलियणेम्मं पंचमहव्वयसुरक्खियं समितिगुत्ति- त्वात् अचलः स्पन्दनाऽऽदिवजितस्वात् अक्षयश्च तत्प. गुत्तं झाण परकवासुकयमज्झप्पदियफलिहं समय- र्यायाणामपि कश्चिदक्षपत्वात् अक्षतो वा पूर्णः पौर्णः द्वोच्छइयदुग्गतिपहं सुगतिपरदेसगं च लोगुत्तमं च मासीचन्द्रवत् तं करोतीत्येवंशीलं यत्तथा , मकारस्विर बयमिणं पउमसरतलागपालिभूयं महासगडअरगतुंबभूयं पाठे आगमिकः, पाठान्तरेण-सिद्धिगसिनिलयं शाश्वतहेतु. स्वात् शाश्वतम् , अध्यावाधहेतुत्वादब्यावाघम् , अपुनर्भवहे. महाविटिमरुक्खक्खंधभूयं महानगरपागारकवाडफलिहभू तुत्वादपुनर्भवम् । अत एव प्रशस्तं सौम्यं च सुखहेतुत्वामिछयं रज्जुपिणद्धो व इंदकेऊ विसुद्धगेणगुणसंपिणदं| वहेतुत्वाच्च सुखशिवम् । प्रचलनहेतुत्वादचलनम् । अक्षय. जम्मि य भग्गम्मि होइ सहसा सव्वं संभग्गमहियचुलिय. करणादक्षयकरणं, ब्रह्मचर्यमिति प्रक्रमा यतिवरैः मुनिप्रधाकुसल्लियपन्नपडियखंडियपरिसडियविणासियं विणयसी. नैःसंरक्षितं-पालितं यत्तत्तथा,सुचरितं शोभनं शोभानानुष्ठान सुचरितत्वेऽपि नाविशेषणोपदिष्टं मुनिभिरिति दर्शयन्नाह-सु. लतबनियमगुणसमूहं । (१)॥ साधितं सुष्टु प्रतिपादितं "नवरि ति"केवलं मुनिवरैमहर्षि (जंबू इत्यादि) तत्र जम्बूरित्यामन्त्रणम् । ( एसोय सि) भिः महापुरुषाश्च ते जात्यायुत्तमाः। धीरायांमध्ये शूराश्चास्व. इसश्चादत्ताऽऽदानविरमणाभिधानसंबरभणनादनम्तरम । (चं. तसाहसघना, ते व ते धार्मिमका धृतिमन्तति कर्मधार. भचेर ति ) ब्रह्मचर्याऽऽभिधानं चतुर्थ संघरद्वारमुच्यते | योग्तस्तेषामेव,चशब्दस्याऽवधारणार्थत्वात्सदा विशुद्ध निदोंइति शेषः । कि स्वरूपं तदित्याह-उत्तमाः-प्रधाना ये तपा-1 पम् । अथवा-सदाऽपि सर्वदैव कुमारावस्थासु सर्षाख. प्रभृतयस्ते तथा, तत्र तपः-अनशनादि नियमाः-पिण्डवि. पीत्यर्थः शुद्धं निदोषमनेन चैतपास्तम् । यदुक्तम्-"अपु. शुखादयः, उत्तरगुणाः-शानं विशेषबोधो, दर्शनं-सामा. प्रस्य गति स्ति, स्वर्गों नैव च नैव च । तस्मात्पुत्रमुखं रहा. भ्यबोधः,चारिखं सावधयोगनिवृत्तिलक्षणं, सम्यक्त्वं मिथ्या- पञ्चायमै चरिष्यसि ॥१॥" इति । अत एवोच्यते "भनेकानि रखमोहनीयायोपशमाऽऽदिसमुत्थो जीवपरिणामः, विनयः सहस्राणि, कुमारब्रह्मचारिणाम् । विवं गतानि विप्राणा-म. अभ्युत्थानाऽऽधुपचार, तत एतेषां मूतमिव मूलम्-कारखं करवा कुलसन्ततिम् ॥१॥" भव्यम् योग्यं कल्याण Jain Education Interational | Page #1283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२.) बंजचेर अभिधानराजेन्दः । बनचेर मित्यर्थः। तथा-भव्यजनानुचरितं निःशक्षितम्-अशनीय कीर्ण दार्विव निस्सत्ताकां गतम् । एषां समाहारद्वन्दक ब्रह्मचारी हि जनानां विषयनिस्पृहत्वादशनीयो भवति।। मधारयो धा । किमेवंविधं भवतीत्याह-विनयशीलतपोनियतथा-निर्भयं ब्रह्मचारी हिमशनीयवानिर्भयो भवति । मगुणसमूहं विनयशीलतपोनियममक्षणानां गुणानां वृन्दम्। निस्तुपमिव निस्तुपं विशुद्धतन्दुलकल्पं, निरायासं-न खेदका. | च समूहशब्दस्य छान्दसत्वानपुंसकनिर्देशन रणं, निरूपलेप-नेहवर्जितं, तथा निवृत्तेः-चिसस्वास्थ्यस्य तंबंभ भगवंतं गहगणक्खत्ततारगाणं वा जहा उगृहमिव गृहं यसत्तथा । प्राह च-"क यामः कनु ति. हुपती मणिमुत्तसेलप्पबालरत्तरयणागराणं च जहा समुठामः, किं कुर्मः किं न कुर्महे ?। रागिणश्चिन्तयन्त्येवं, नी. हो वेरुलियो चेव जहा मणीणं जह मउडो चेव भूरागाः सुखमासते ॥१॥" मीरागाश्च ब्रह्मचारिण एव. ता. था नियमेनाग्यश्यंभावेन निष्प्रकम्पम्-अविचलं निरतिचा. सणाणं वत्थाणं चेव खोमजुयलं अरविंदं चैव पुरं यत्तत्तथा, व्रतान्तरं हि सापवादमपि स्यादिदं च नि. एफजेटुं गोसीसं चेव चंदणाणं हिमवंतो चेव भोसरपयादमेवेत्यर्थः । प्राह च-"ण यि किंचि अणुनायं , प. | हीणं सीतोदा चेव निमगाणं उदहीमु जहा सयंभूरडिसिखं वावि जिणवरिंदेहि। मोतुं मेहुणभावं, ण तं वि. मखो रुयगवरो चेव मंडलिकपव्ययाण पवरे एगवण णा रागदोसे हिं॥१॥"ततः पदयस्य कर्मधारये निवृ. सिगृहनियमनिष्प्र कम्पमिति भवति, तपःसंयमयोर्मूल दलिकं इव कुंजराणं सीहो म जहा मिगाणं पवरे पचगाणं चेमूलदलमादिभूतद्रव्यं तस्य (नेम्म ति) निभं-सरशं य. व वेणुदेवे धरमो जहा परमगईदराया कप्पाणं चेव - सत्तथा, पश्चानां महावतानां मध्ये सुष्टु अत्यन्तं रक्षितं र. भलोए सभासु य जहा भवे सुहम्मा ठिइसु लवसत्त. क्षणं पालनं यस्य तसथा. समितिभिर्यासमित्याभिर्गुप्ति. मम पवरा दाणाणं चेव अभयदाणं किमिराओ चेव कंभिमनोगुप्त्यादिभिर्वसत्यादिभिर्वा नवभिब्रह्मचर्य गुप्तिभिमु. बलाम संघयसे चेय वअरिसभे संठाणे चेव समचतं गुप्तं वा यसत्तथा, ध्यानवरमेष-प्रधामध्यानमेव कपाट उरसे झाणेसु य परमसुक्कज्माणं नाणेसु य परसुकृतं सुविरचितं रक्षणार्थ यस्य अध्यात्मैव च सद्भाव. नारूढ़ चित्तमेव (दियो त्ति) दत्तो ध्यानकपाटहढीकरणार्थ मकेवलं तु सिद्धं लेसासु व परममुक्कलेस्सा तित्थकरे परिघोऽर्गला रक्षणार्थमेव यस्य तत्तथा, सन्नद्ध इव-बचाव चेत्र जहा मुणीणं वासेसु जहा महाविदेहे मिरिराया चेक अवस्थगित इव (ओच्छाइय) आच्छादित व निरुद्ध | मंदरवरे वणेसु जहा पंदणवणं पवरं दुमेसु जहा जंबू सुत्यर्थः, दुर्गतिपथः दुर्गतिमार्गों येन तत्तथा, सुगतिपथस्य - सणा वीसुयजसा जीय नामेण य अयं दीबो. तुरगवती देशकं वर्शकं यत्तथा, तच्च लोकोत्तमं च व्रतमिदं दुष्का गयवती रहवती नरवती जद विस्सुते चेव राया रहिए रत्वात् । यदाह-"देवदाणवगंधवा, जक्खरक्खसकिन्नरा। बंभचारिं नमसंति, दुक्करं जं करिति ते ॥१॥" (पउमा चेव जहा महारहगते एवमणेगा गुणा अहीणा भवंति एक सरतलागपालिभूयं तिसर:-स्वतःसंभवो जलाशयविशेषः म्मि बंभचेरे । (२)। तडागश्च स एव पुरुषाऽऽदिकृत इति समाहारद्वन्द्वः। पमप्र. (तमिति ) तदेवंभूतं ब्रह्मचर्य भगवन्तं भहारकं तथा धानं सरस्तडाग पसरस्तडागमिव मनोहरत्वेनोपादेयत्वात् प्रहगणनक्षत्रतारकाणां वा यथा उडुपतिश्चन्द्रः प्रवर इति पासरस्तडागं धर्मस्तस्य पालिभूतं रक्षकत्वेन पालीकल्प | योगस्तथेदं बतानामिति शेषः । वाशब्दः पूर्वविशेषसापेक्षया यत्तत्तथा,तथा महाशकटारका इव महाशकटारकाक्षात्या- समुच्चये। तधा-मणयश्चन्द्रकान्ताऽऽद्या मुक्का मुक्ताफलानि शिदिगुणास्तेषां तुम्बभूतमाधारसामर्थ्यान्नाभिकल्पं यत्तत्त. लाप्रवालानि विठुमाणि रतरत्नानि पद्मरागादीनि तेषामाथा, महाषिटपवृक्ष इव-प्रतिविस्तारभूरुद्द व महा- करा उत्पत्तिभूमयो येते तथा तेषां बा, यथा समुद्रःप्रविटपसूक्षा आश्रितानां परमोपकारत्वसाधम्योद्धमेस्त- घरस्तथे वतानामिति शेषः सर्वत्र दृश्यः । बैहय चैव रत्न. स्य स्कन्धभूतं तस्मिन् सति सर्वस्य धर्मशाखिन उपपद्यमा विशेषो यथा मणीनां मुकुटं चैवं भूषणानां वस्त्राणामिव नत्वेन नालकल्पं यसत्तथा। (महानगरपागारकवाडफलि- सौमयुगलं कासिकवस्त्रस्य प्रधानत्वात् । इह चेवशब्दो भूयं ति) महानगरमिव महानगरं विविधसुखहेतुत्यसा यथार्थों द्रष्टव्यः (अरविंद चेव त्ति) अरविन्दं पथं यथा धाधर्मः तस्य प्रकार इव कपाटमिव परिघमिव यत् तन्म. पुपज्येष्ठमेवमिदं व्रतानां ( गोसीसं चेव त्ति ) मोशीर्षाहानगरप्राकारकपाटपरिघभूतमिति, रज्जुपिनद्ध इव इन्द्रकेतु भिधानं चन्दनं यथा चन्दनानां हिमवन्तो चेष त्ति) हिमरश्मिनियन्त्रितेवेन्द्रयष्टिर्विशुद्धाऽनेकगुणसंपिनद्धं निर्मल- पानिव औषधीनां यथा हिमवान् गिरिविशेष औषधीनाबहुगुणपरिवृतं यस्मिश्च यत्र च ब्रह्मचर्य भने-विराधिते | मभुतकार्यकारिवनस्पतिविशेषाणामुत्पत्तिस्थानमेवं ब्रह्मभवति सम्पद्यते सहसा अकस्मात् सर्व सर्वथा संभग्नं घट चर्यमौषधीनामामषिध्यादीनामागमप्रसिद्धानामुत्पत्तिस्था. दव मर्दितं मथितं दधीव बिलोडितं-चूर्णितं चणक इव नमिति भावः । (सीतोदा चेव त्ति) शीतोदेव निम्नपिठं कुशलियतमन्तःप्रविष्टतोमराऽऽविशल्यशरीरमिष सजा. गानां नदीनां यथा नदीनां शीतोदा प्रवरा तथेदं त्रतदुष्टशल्यं ( पत्ति )पर्वतशिनराद् गण्डशैल इव स्वाध. तानामित्यर्थः। उदधिषु यथा स्वयंभ्रमणोऽन्तिमसमुद्रो याचालत पतित प्रासादाशखरामद कलशाऽऽदिरियाधी नि. महरवे प्रवर एवमिदं प्रतानां प्रघरमिति (रुयगवरे चेष म. पतितं खण्डितं दण्ड इव विभागेन छिन्न-परिशटितं कुष्ठा- एलिए पव्ययाण पवरे सि) यथा माराडलिकपर्वतानां मा. Sऽशुपहतामिव विध्वस्त-विनाशितं च भस्मीभूतं पवनवि. नुषोत्तरकुण्डलवररुचकराऽभिधानानां मध्य रुचकबरखा Page #1284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भचेर पोदीवर एवमिदं व्रतानां चरमिति भावःत था रावणः शक्रगजो यथा कुञ्जराणां प्रवर एवमिदं व. तानाम्, सिंहो वा यथा मृगाणामाढव्य पशूनां प्रवरः प्रधानः मिदं प्रतानाम् (पथगा वह सि) प्रकाणाम प्रक्रमात् सुपकुमाराणां यथा वेणुदेवः प्रचरस्तथा व्रतानां ब्रह्मचर्यमिति प्रकृतम्। यथा धरण पद्मगेन्द्रायां भुजगव राणां नागकुमाराणां राजा पचगेन्द्रराज पगार 1 मिदं प्रतानामिति प्रक्रमः कल्पानामिव देवलोकानां था मालोकः पञ्चमद्देवलोकः तत् क्षेत्रस्य महावादि स्यातिशुभपरिणामस्वात् प्रवर एवमिदं प्रतानां सभासु च प्रतिभवनविमानभाषिनीषु सुधर्मसभा उत्पादलभा अभिषेकलभा अलङ्कारसभा व्यवसायसभा वेश्येवं लक्षसासु पञ्चसु मध्ये यथा सुधर्मा भवति प्रवरा तथेदं व सानामिति स्थितिषु श्रायुष्केषु मध्ये लव सप्तमाऽनुत्तरभवस्थितिषशब्दां यथाशब्दार्थः । ततो यथा प्रवरा प्रधाना त थेदं व्रतानामिति तत्रैकोनपञ्चाशत् उच्छ्रासानां लवो भ बति । श्रीह्यादिस्तम्बलवनं वा लवस्तत्प्रमाणः कालोऽपि ल. बोनसप्रमाण समको विवक्षिता व्यवसायविशेषस्य मुक्तिसम्पादकस्यापूर्यमय स्थिति बध्यते सा लवसप्तमेत्यभिधीयते । तथा ( दाणा चैव अभयदति ) दानानां मध्ये अभयदानमिव प्रपरमिदं तत्र दानाने ज्ञानधर्मोपग्रहामदानभेदात्रीणि ( किमिरागो व्य ति) का वासविशेषाणां मध्ये कुमिराग इच कुमिरागरककम्बलमय प्ररमित तथा संद जरि ) संहननानां मध्ये भनाराच संहननमिव प्रवरमिदं व्रतानामिति । ( संठाणे चेव बउरसे सि ) शेषसंस्थानानां चतुरस्त्र संस्थानमिवेदं प्रवरं व्रतानां तथा ध्यानेषु च परमशुक्लध्यानं शुक्लध्यान चतुर्थभेदरूपं यथा प्रवरमेवमिदं व्रतेष्विति गम्यम् । ( नाणेसु य परमकेवलं तु सिद्धं तामेष्याभिनियोधिका 55दिषु परमंटन केवलं परिपूर्ण विशुद्धं वा माधिमनःपर्याप रमकेचलं ज्ञादिकज्ञानमित्यर्थः, सुरेवकारार्थः विर या प्रसिद्धं यथा तथेदमपि व्रतेष्विति गमनीयम् । लेश्यासु च कृष्णाचा परमश्या शुन्यानतृतीय या प्रसंगांत गम्यम् तीर्थकर पथा सुमीनां प्रययैवेदं व्रतानां वर्येषु क्षेत्रविशेषेषु यथा महाविदेहस्त थेदं व्रतेषु, (गिरिराया चेव मंदरबरे त्ति ) वेवशब्दस्य यथार्थत्वाद्यथा मन्दर वरो - जम्बूद्वीप मेरुर्गिरिराजस्तथेदं व्रतराजः, बनेषु भद्रशाल नन्दन सौमनस पण्डकाभिधानेषु मे. सम्बन्धिषु यथा नन्दनयनं प्रमेयमिदमिति हुमेषु तरु मध्ये यथा जम्मूः सुदर्शनेति सुदर्शनाभिधाना विश्रुतयशाः , तामिति । किंभूता जम्मू-यस्या माम्माऽयं द्वीपः जम्बूदीप इत्यर्थः तथा तुरंगपतिर्गजपति रथपतिर्न तिर्यथा विश्रुतश्चैव राजा तथेदमपि विश्रुतमिति भावः, रथिकचैव यथा महारथगतः पराभिभाषी भवतीत्येव मिस्थः भाभीति निमा-मुकमे खानेके गुणाः प्रचरत्यवितथाऽऽद‌यो अनेकमिदर्थमभिधेया काहीना प्रकृष्टा श्रधीना वा स्वाऽऽयत्ता भवन्ति । केत्याहतुम ( १२३१) अभिधानराजेन्द्रः । 8 जम्मि य आराहियम्पि राहियं वयंमिणं सव्वं, सी ३१६ बंभचेर लं तवो य विभो म संजयो य खंती गुली मुली सहेब इहलोइयपारलोइयजसे य किसी य पञ्चओ य तम्हा निहुए, बंगरं परियन्स पिसुद्धं नावजीवाद जाग संयडिसंजय सि एवं भणियं वयं भगवया । तं च इ"पंचम, समयमच्या इलसाहुसुचि रविरामपदमा सम्यसमुह महोदद्दितिस्वं ॥ १ ॥ तिस्थ करेहि सुदेसियम, नरगतिश्च्छिविवजियमग्गं । सभ्यपविनिमयसारं, सिद्धिविमाया अवगुपदारं । २ । देवनदिन सियपूर्ण, सम्दगुचममंगलप बुद्धरिमोक्खपस बर्डिग भू।३।।” तथा-परिंग ब्रह्मचर्ये धाराधिते पाखिते भाराधितं पतिं व्रतमिदं निर्मन्थन्याला सर्वम् अखण्डं तथा शीलं समा धानं तपध विनयथ संयमश्व शान्तिर्निलमा सिद्धिय तंथैवेति समुचये तथा पेहडीकिक पारलौकिक यशांसि च कीर्त्तयश्च प्रत्ययश्च श्राराधिता भवन्तीति प्र क्रमः । तत्र यशः पराक्रमकृतं, कीर्तिदनफलभूता । अथ " सर्वदामिनी प्रसिद्धिशः एकदिामिनी की र्तिः प्रत्ययः साधुरयम् इत्यादिरूपा जनप्रतीनिरिति । यत एवंभूतं तस्माधिभूतेन स्तिमितेन ब्रह्मवचरितमा सेवनीयं किंभूत सर्वतो मनःप्रभृतिकरणयोगत्रयेण वि. शुद्धं निरवद्यं यावज्जीवया प्रतिक्षया यावज्जीयतया वा ग्रा. जन्मेत्पर्थः एतदेवाऽ६ यावत् श्वेतास्थिसंयत इति ता स्थिता च साधोमृतस्य क्षीणमांसाऽऽदिभावे सतीति इतिश व्यवस्थितवाक्यार्थसमाप्तौ भयन्तरेण ब्रह्मचर्ये व्रतं स्तोतुं प्रस्तावयति। एवं च लक्षणं भगवता श्रीमहावीरेगा ( तं च इति तच्चे दं वचनं पद्मप्रभृतिकम् - ( पंचमहव्यय मूलं पञ्चमहाब्रतनामकानि यानि सुवतानि तेषां मूलमिव मूलंय. त् । अथवा पश्ञ्च महाव्रताः साधवस्तेषां सम्बन्धिनां शोभननियमानां मूलं यत्, अथवा पञ्चानां महावतानां सुतानां ता मूलं यशत्तथा । अथवा हे पञ्चमहावत ! मूलमिदं ब्रह्मचर्यमिति प्रकृतम् (क्षमणमणाइलसासुविध) (समति) सभायं यथाबिलैरक लुत्रैः शुद्धस्वभावैः साधुभिर्यतिभिः सुष्ठु चरित. मासेवितं यत्तत्तथा । ( वेराबिरमणपज्जवला ) बैरस्य परस्परानुपस्य विरमयं विरामकरणमुपमन पर्यवसानं निशाफ यस्य तत्तथा । (सम्बमुमोदद्वितिरथं सर्वेभ्यः समुद्रेभ्यः सकाशान्मदानुदधिः स्वयं सूरमण इत्यर्थः तच दुर्निस्तरत्वेन तत्सर्वसमुद्रमहोद विस्तथा तीर्थमिच तीर्थे पवित्रता हेतुर्यत्र तत्तथा । श्रथवा सर्वसमुद्रमहोदधिः संसारोऽतिदुस्तरत्वासनिस्तरणे तीर्थमिव तरणोपाय इव तत्तथेति वृत्ताऽर्थः ॥ १ ॥ ( तिरथकहि सुदेसियमग्गं ति ) तीर्थकरे जिनैः सुदेशित मार्गे सुष्ठु दर्शितं गुप्त्यादि तत्पालनोपायें (निरयतिरि०विषयम) नरकतिरक्षां संवन्धी विनिषिद्धमा गति चैन तथा (सध्यपविनिमयसारं सर्वपवित्राणि समस्तपावनानि सुनिर्मितानि सुष्ठु विदितानि साराणि Page #1285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६२) बंभचेर अभिधानराजेन्द्रः। बंभचेर प्रधानानि येन तत्तथा। (सिद्धिविमाणअवंगुयदारं) सिद्धेः रमित्यर्थः, प्रमाद एव दोषो यतः तत्तत्प्रमाददोषं पाश्वस्थानां विमानानां चाप्रावृतमपगताऽऽधरणीकृतमुद्घाटितमित्यर्थः ।। ज्ञानाचाराऽदिबहिर्तिनां साध्वाभासानां शील मनुष्ठानं नि. द्वारं प्रवेशभुखं येन तत्तयेति वृत्तार्थः॥२॥ (देवरिंदनमंसिय कारणं शय्यातरपिण्डपरिभोगाऽऽदिपार्श्वस्थशीलं,ततः पद. पूयं ) देवानां नराणां चेन्नमस्थिता नमस्कृता ये तेषां त्रयस्य कर्मधारयस्तस्य करणमासेवनं यत्तत्तथा । पतदेव प्र. पूज्यमर्चनीयं यत्तत्तथा । (सबजगुत्तममंगलमग्गं ) सर्वज, पञ्च्यते-अभ्यञ्जनानि च घृतवशाम्रक्षणाऽदिना तैलमज्जनागदुत्तमानां मगलानां मार्ग उपायोऽयं वा प्रधानं यत्तत्तथा निच तैलस्नानानि तथा अभीक्षणमनवरतं कक्षाशीर्षकरचर(युद्धरिसं गुणनायकमे ) दुर्द्धर्षमनभिभवनीयं गुणामय. रणवदनानां धावनं च-प्रक्षालनं संचाहनं गात्रकर्म च हस्ता. ति प्रापयतीति गुणनायकमेकमद्वितीयमसदृशं (मोक्खपहस्स 5ऽदिगावचम्पनरूपमङ्गपरिकर्म परिमर्दनं च सर्वतः शरीबडिसगभूयं ) मोक्षपथस्य सम्यग्दर्शनाऽऽदेरवतंसकभूतं शे. रमलनमनुलेपनं च विलेपनं चूर्णैः-गन्धद्रव्यशोदेर्वासश्च स. खरकल्पं, प्रधानमित्यर्थः । इति दोधकाऽर्थः ॥ ३॥ रीराऽऽदिघासनम् धूपन चाऽगुरुधूपाऽऽदिभिः शरीरपरिमजेण सुद्धचरिएणं भवति सुवंभणो सुसमणो सुसाहू स एडनं च तनुभूषणं वकुश कर्बुरं चित्रं प्रयोजनमस्येति बा. इसी स मुखी स संजए स एव भिक्खू जो सुद्धं चरति बं कुशिकं नखकेशवस्नसमारचनाऽदिकं तच हसितं च हास: भणितं च प्रक्रमाद्विकृतं नाट्यं च नृतं व गीतं च गानं भचेरं इमं चरति रागदोसमोहपवणकरं किं मझपमा पादितं च पटहाऽऽदिवादनं नटाश्च नाटयितारो नर्तकाभ बदोसपासत्थसीलकरणं अभंगणाणि य तेलमजणा- ये नृत्यन्ति जल्लाश्च वरपाखेलकाः मल्लाच प्रतीता. णि य अभिक्खणं कक्खसीसकरचरणवयणधोवणसंवाहण- पतेषां प्रेक्षणं च नानाविधवंशवेलकाऽऽविसबन्धि वेलम्ब. गायकम्पपरिमहणाणुलेवणचुसवासवणसरीरपरिमंडण काश्च विडम्बका विदूषका इति वन्दः । छाम्दसत्वाच प्रथमाबहुवचनलोपो दृश्यः । बर्जवितव्या इति योगः। बाउसिकहसियभणियनट्टगीयवाइयनडनगजलमतपेच्छ किंबहुना-यानि च वस्तूनि शृङ्गारागाराणि शृङ्गाररसवेलंबक जाणि य सिंगारागाराणि य प्रमाणि य सगेहानीवान्यानि चोक्तव्यतिरिक्तानि एवमोदिकानि एवं. एवमाइयाणि तवसंजमबंभचेरघातोवघाइयाई अणुचर- प्रकाराणि तपासंयमब्रह्मचर्याणां घातश्च देशतः, उपधा. माणेणं बंभचेरं बज्नेयव्वाइं सबकालं भावेयव्यो तश्च सर्वतो विद्यते येषु तानि तपःसंयमब्रह्मचर्यघातोप. भवति य अंतरप्पा इमेहिं तवनियमसीलजोगेहिं णि घातिकानि । किमत माह-अनुचरता पासेवमानेन ब्रह्मचये बकालं किं ते अण्हाण कदंतधावणसे यमल्लजल्लधा वर्जयितव्यानि सर्वकालम्, अन्यथा ब्रह्मचर्यव्याघातो भन. तीति । तथा भावयितव्यश्च भवत्यन्तरात्मा एभिर्वदयमाणैः रणं मुणवयकसलोए य खमदमअचेलगखुप्पिवासलाघ तपोनियमशीलयोगः-तपःप्रभृतिव्यापारैर्नित्य कालं-सर्वदा वसीतोसिणकट्ठसेजाभूमिनिसे जापरघरपवेसलद्धावलद्धमा- किं ते तद्यथा अस्नानकं चादन्तधावनं च प्रतीते । स्वेदमल. खावमाणनिंदणदंसमसकफासनियमतवगुणविणयमादिए- धारणं च, तत्र स्वेदः-प्रस्वेदः मल:-ककाखडीभूतः याति च हिं जहा से थिरतरक होइ बंभचेरं इमं च अचंभचेरवे लाति चेति जल्लो-मलविशेषः। एवं मौनव्रतं च केशलो. रमणपरिरक्खणट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं पेच्चा चश्व प्रतीती, क्षमा च क्रोधनिग्रहः, दमश्चेन्द्रियनिग्रहः, अचे. लकं च वस्त्राभावः, क्षुत्पिपासे च प्रतीते, लाघवं चाल्पो. भाविक आगमेसिभई सुद्धं नेयाउयं अकुटिलं अणुत्तर पधित्वं, शीतोष्णेच प्रतीते.काष्ठशय्याच फलकाऽऽदिशयमं, सम्बदुक्खपावामा विउसमणं (४) भूमिनिषद्याच भूम्यासनं,तथा परगृहप्रवेशे च शय्याभिक्षा. तथा येन शुद्धचरितेन-सम्यगासेवितेन भवति सुब्राह्मणो उद्यर्थ लब्धे चाभिमताशनाऽऽदावपलब्धे वेषल्लब्धेऽलम्धे यथार्थनामत्वात् सुश्रमणः सुतपाः सुसाधुनिर्वाणसाधक- वायोमानश्चाभिमान अपमानश्च दैन्यं निन्दनं कुत्सनं देशमा योगसाधका तथा,( स इसित्ति) स यथोक्तभूषिर्यथाव- शकस्पर्शश्च नियमश्च द्रव्याऽऽद्यभिप्रहः नपश्चानशनादि दस्तुद्रष्टा यः शुद्धं चरति, ब्रह्मचर्यमिति योगः। (स मुणि- गुणाश्च मूलगुणाऽऽवयः विनयश्चाभ्युत्थानादिभिरिति द. सि) स यथोक्लो मुनिमन्ता स संयतःसंयमवान् स एव भि- नवरातत पते आदियेषां योगानां ते तथा तेर्भावयितव्योभवत्यतुः भिक्षणशीलो यः शुचं चरति ब्रह्मचर्यमिति अब्रह्मचारी स्तरात्मेति प्रकृतम्। भावना चास्नानाऽऽदीनामासेवा मानाप. तु न ब्राह्मणाऽऽदिरिति । श्राह च माननिम्दनदंशाऽऽदिस्पर्शानां चौपेक्षति कथमेभिर्भावयितव्यो "सकलकलाकलापकलितोऽपि कविरपि पण्डितोऽपि हि, भवत्यन्तरात्मेत्याह-यथा (से) तस्य ब्रह्मचारिणः स्थिरतर. प्रकटितसर्वशास्त्रतस्वाऽपि हि वेदविशारदोऽपि हि ॥ कं भवति ब्रह्मचर्यम् "इमंच" इत्यादि प्रवचनस्तवनं पूर्ववत् । मुनिरपि वियति विततनानाद्भुतविभ्रमदर्शकोऽपि हि, प्रश्न०४ संव० द्वार.. स्फुटमिह जगति तदपिन स कोऽपि हि यदि नाक्षाणि रक्षति१." प्रहावरं चउत्थं महत्वयं पञ्चक्खामि सव्वं मेहुणं से तथा इदं च वक्ष्यमाणं पार्श्वस्थशीलकरणमनुचरता ब्रह्मचर्य दिवंबा माणसं वा तिरिक्खजोणियं वा णेव सयं मेहसं वर्जयितव्यानीत्यस्य वक्ष्यमाणपदस्य वचनपरिणामाद्वर्जयि. गच्छेजा तं चेवं अदिमादाणवत्तमया भाणियव्वा० जाव तव्यमिति योगः किंभूतं रतिश्च विषयरागो,रागश्च पित्रादिषु । मेहरागो,द्वेषश्च प्रतीतो, मोइश्चाज्ञानमेषां प्रवर्द्धनं करोति य. बोसिरामि, तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति । तत्थिमा सत्तथा। किंमध्यं यस्य तत्किमध्य किशब्दस्य क्षेपार्थवादसा। पढमा भावणा-यो सिग्गंधे अभिक्खखं २ इत्थीख कई Page #1286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६३) बनचेर अभिधानराजेन्डः। बनचेर कहित्तए सिया । केवली व्या--णिगंथेणं अभिक्खणं २ भवं मनसोऽस्थिरत्वम् । श्राह च." यश्चित्तवृत्तेरनवस्थितइत्थीणं कहं कहेमाणे संति भेदा संति विभंगा संति त्वं लारजं विभ्रम उच्यतेऽसौ।" भङ्गो वा ब्रह्मवतस्थ स. र्वभक्त इत्यर्थः । श्रंशना वा देश तो भक्तः, पार्तम् इविषय. केवलिपात्ताओ धम्माओ भंसेजा, णो णिग्गंथे मं अभि संयोगाऽभिलाषरूपं.रौद्रं वा भवेद्ध्यानं तदुपायभूतहिसानक्खणं अभिक्खणं इत्थीसं कई कहित्तए सिय ति पढमा तादत्तग्रहणाऽनुबन्धरूपं तत्तदनायतनमिति योगः वर्जयेत्, भावमा ॥१॥ कोऽसावित्याह-प्रवद्यभीरुः पापभीरुः वयंभीर्वा वय॑त चतुथैवतप्रथमायां स्त्रीणां संबम्धिनी कयां न कुर्यात् । प्रथ- इति वज्यं पापं, वजभीर्वा वज्रं च वज्रवद् गुरुत्वात्पापमा भावना । प्राचा०२ श्रु•३ चूल। मेवेति, अनायतनं साधूनामनाश्रय इति । किंभूतोऽवद्यभीरः तस्स इमाओ पंचभावणाओ चउत्थन्वयस्स इंति-अचंभचे अन्ते इन्द्रियाननुकूले प्रान्ते तत्रैव प्रकृष्टतरे आश्रये वस्तुं रखरमणपरिरक्खणट्टयाए पढम सयणाऽऽसणघरदुवारअंग. शीलमस्येत्यन्तप्रान्तवासीति निगमयमाह-एवमनन्तरोक्त न्यायेन असंसक्तः स्त्रीभिरसंबद्धो वासो-निवासो यस्याः रामागासगवक्खसालभहिलोयखपच्छवत्थुकपसाहकण्हा सा तथाविधा या वसतिराश्रयस्तद्विषयो यः समितियो. णिकाऽवकासा, अवकासा जे य वेसियाणं अच्छति य गः सत्प्रवृत्तिसम्बन्धः स तथा तेन भावितो भवत्यन्तनत्य इत्यिकामो अभिक्खणं मोहदोसरतिरागवणीयो रात्मा । किंविधा-भारतमभिविधिना पासक्तं ब्रह्मचर्य मनो कहिंति य कहामो बहुविहाओ ते हु वाणिजा यस्य स भारतमनाः विरतो निवृत्तो प्रामस्येन्द्रियवर्गस्य धर्मो लोलुपतया तद्विषयग्रहणस्वभावो यस्य स तथा । त. इस्थिसंसत्तसंकिलिहा असे वि य एषमादी अव तः पदद्वयस्य कर्मधारयः । अत एषा-जितेन्द्रियः प्रमा कासा ते चि हु बज्जणिजा जत्थ मणोविन्भमो वा भंगो चर्यगुप्त इति । प्रश्न०४ संबद्वार । ना भंसगो वा अहूं रुई च होज माणं तं तं च प्रहावरा दोचा भावणा-यो -णिग्गंये इत्थीशं बजेज नजभीरू भणायतणं अंतपंसवासी एवमसं- | मणोहराई मणोहराई इंदियाई आलोइत्तए अभिक्खणं पत्तवासवसहीसमितिजोगेण भाविमो भवति अंतरप्पा २ णिज्माइत्तए सिया। केवली च्या-णिग्गत्थेणं इत्थीयं भारयमणविरयगामधम्मे जितिदिए बंभचेरगुत्ते । (५) मणोहराई मणोहराइं इंदियाई आलोएमाणे णिज्झाएमाणे (तस्सेत्यादि) तस्य चतुर्थस्य व्रतस्येमाः पञ्च भावना भ. मंति भेया संति विभंगाजाव धम्मामो भसजा,णा णिबन्ति प्रब्रह्मचर्यविरमणपरिरक्षणार्थताय , तत्र (पढम ति)। पञ्चानां प्रथमं भावनावस्तु स्त्रीसंसक्लायवर्जनलक्षणम् । गंथे इत्थीणं ममोहराई मोहराई इंदियाई आलोइत्तए सच्चैवम्-शयनं शय्या प्रासनं विष्टरं गृहं गेहद्वारं तस्यैव | णिज्झाइत्तए सिय ति दोच्चा भावणा ॥ मुखम् अङ्गणमजिरम् आकाशमनावतस्थानं गवाक्षो वाता- द्वितीयायां तु तदिन्द्रियाणि मनोहारीणि नाऽऽलोकयेत् । बनःशाला भाण्डशालाऽऽदिका अभिलोक्यते अवलोक्यते माचा० २ श्रु०३ चू०। यत्रस्यैस्तदभिलोकनमुनतस्थानम् । (पच्छ वत्युग त्ति) पश्चा वितियं नारीजस्स मज्मे न कहेयन्चा कहा विचिवास्तुकं पश्चात् गृहक तथा प्रसाधकस्य मण्डनस्य सातिकायाश्च स्नानक्रियाया येऽवकाशा श्राश्रयाः ते तथा ता विव्वोयविलाससंपउत्ता हाससिंगारलोइयकह म सोसन संबिला वनीया मोहजणणी न आवाहविवाहवरकहा विव इत्थीणं वा सु. सम्बन्धः। तथा अवकाशा प्राध्याः (जे य वेसियाणं तियेच भगदुब्भगकहा चउसद्धिं च महिलागुणा ण वनदेसजातिकबेश्यानां तथा भासते च तिष्ठन्ति च यत्र येष्ववकाशेषु च स्त्रि | लरूवणामनेवस्थपरिजणकहामो इस्थियाणं भष्मा वि य यः किंभूताः अभीषण मनवरतं मोहदोषस्याज्ञानस्य रतेः कामरागस्य,रागस्य च-स्नेहरागस्य वर्धना वृद्धिकारिका यास्ता एवयाइयाभो कहानो सिंगारकलुणामओ तवसंजमबंभस्तथा कथयन्ति च प्रतिपादयन्ति कथा बहुविधा बहुप्र. चेरघाओवघाइयामो अणुचरमाणेणं बंभचेरं न कहे. काराः जातिकुलरूपनेपथ्यविषवाः नीसम्बन्धिनीः पुरुषाः यब्बा, न सुणेयव्वा, न चिंतियचा, एवं इत्थीकहविरतिससियो वा योति प्रकृतम् । मोहदोषेत्यादिविशेषणं कथास्वपि पितिजोगेणं भाविमो भवति अंतरप्पा भारतमणविरएगा. सुज्यते, (ते हु बजणिजति)ये च शयनाऽऽदयो ये च वेश्या मधम्मे जितिदिए बंभचेरगुत्ते । (६) नामवकाशा येषु वाऽऽसते स्त्रियः कथयन्ति च कथास्ते वर्जनीयाः। दुर्वाक्यालङ्कारे । किंविधा इत्याह-(इस्थि (बीयं ति) द्वितीयं भावनावस्तु । किं सदित्याह-नारीज संसत्तसंकिलिङ्क ति ) श्रीसंसक्लेन खीसम्बन्धेन सं. नस्य मध्ये श्रीपर्षदोऽन्तः(न) नैव कथयितव्या। केस्याह-क. क्लिष्टा ये ते तथा, न केवलमुक्तरूपा वर्जनीयाः ।। था बचनप्रवन्धरूपा विचित्रा विविधा विविला या शानोअन्येऽपि वैषमादय अवकाशा प्राध्या वर्जनीया इति । पष्टम्भाऽऽदिकारणवर्जा । कीदृशीत्याह-विम्योकविलाससं. किंबहुना-( जत्थेत्यादि) उत्तरत्र वीप्साप्रयोगादि- प्रयुक्ता । तत्र विवोकविलासलक्षणमिदम् वीपसा हश्या, ततो यत्र यत्र जायते मनोविम्रमो वा| "इष्टानामर्धानां, प्राप्तावभिमानगर्वसंभूतः। चितम्रान्तिमचर्वमनुपाखयामि न घेखेवरूपं झाररसप्र. सीसामनादरतो, विश्वोको नाम विशेयः॥१॥" Page #1287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेम्बः। बनचेर विलासलक्षणं पुनरियम् सतियं मारीण इसियभणियं चेट्टियविप्पेक्खियगति“स्थानासनगमनानां इस्तभमेत्रकर्मणां चष। विलासकीलियं विब्बोइयनहगीयवाइयसरीरसंठाणवलकरउत्पयते विशेषो, या सिरः स तु विलासः स्यात् ॥१॥" अन्ये वाहुर-"विलासो नेत्रजोयम" इति तथा नासा. चरणनयणलावारूवजोग्यणपयोधराऽधरवत्थालंकारभसइसिकाभिधानी रसविशेषः। शृङ्गारोपिरसविशेष बात साथिय मुज्झोपकासियाई प्रमाणि य एषमाइयाईत. पोध स्वरूपमिदम् वसंगमभरपामोवपाइयाई अणुचरमाणे भरं न "हास्यो हासमाति-नसो विकतावेषवेधाभ्यः ।। पक्खुसा न ममसा न वयसा पत्थेयम्बाई पावकम्माई, भवति परस्थाभ्यः सच, भूम्ना सीनीववालगत्तमा १॥" एवं इत्थीरूवविरतिसमितिजोगेण भाषितो भवति अंत"व्यवहारर 'नायर्यो-रन्योन्यं रहयो रतिमरुतिः। रप्पा भारतमणविरयगामघम्मे जितिदिए भरगुते। (७) शृङ्गारः स वेधा, सम्भोगो विप्रलम्भश्च ॥१॥" (तपं ति) वृतीय भावनावस्तु स्त्रीरूपनिरीक्षणवर्जनम्। त पतप्रधाना या लौकिकी असंविमलोकसम्बन्धिनी कथा-व वैवम्-नारीणां-स्त्रीणां सितंभणितं हास्य सषिकाएं भखित चनरचना सा तथा सा वा मोहजननी मोहोदीरिका,पाशब्दो च,तथा चष्टितं हस्तन्यासाऽऽदि विप्रेक्षितं निरीक्षितं गतिर्गम विकल्पार्थः। तथा (न) नैव आवाहोऽभिनवपरिणीतस्य वधू. बरस्याऽऽनयनं विवाहश्च पाणिग्रहणं तत्प्रधाना या परक नं विलासः पूर्वोतलक्षणः क्रीडितं धूतादिक्रीडा,एषां समा. था परिणेतकथा आवाहविवाहवरा वा या कथा सा तथा, हारबन्द,विम्वोकितं पूर्वोक्तलक्षणो विन्धोका,नाट्यं नृत्य गी. साऽपिन कथयितव्येति प्रक्रमः । स्त्रीणां वा सुभगदुर्भगकथा तं गान,वादितं वीणावादनं,शरीरसंस्थानं इस्वदीर्घाऽदिक,व सा.साच सुभगा दुर्भगावा ईदशी वा सुभगा दुर्भगा वा भव गो गौरत्वाऽऽदिलक्षणः, करचरणनयनानां लावण्यं स्पृहणी. तीत्येवंरूपान कथयितव्येति प्रक्रमः। चतुःषष्टिश्च महिलागु यता,रूपं च प्राकृतिः,यौवनं तारुण्यं,पयोधरौ स्तनौ, अधरः जाः आलिङ्गनाऽऽदीनामष्टानां कामकर्मणां प्रत्येकमष्टभेदत्वेन अधस्तनौष्ठः,वस्त्राणि वसनानि, अलङ्काराहाराऽदया, भूष. चतुःषष्टिमहिलागुणा वात्स्यायनप्रसिद्धाः, ते वा न कथयि. णं च मण्डनाऽदिना विमूषाकरणमिति द्वन्द्वः। ततस्तानि तव्याः। तथा-(न)नैव देशजातिकुलरूपनामनेपध्यपरिजन चन प्रार्थयितव्यानीतिः सम्बन्धः । तया-गुखाबकाशिकानि कथा वा स्त्रीणां कथयितव्येति प्रक्रमः। तत्र लाटाऽऽदिदेश भूता लज्जनीयत्वात् स्थगनीया अवकाशा देशाःअवयवा इत्यसम्बन्धिनीमांत्रीणां वर्णनं देशकथा,यथा-लाट्यः कोमलव र्थः। अन्यानि च हालाऽऽदिव्यतिरिक्तानि, एवमादिकान्येवं. चना रतिनिपुणा वा भवन्तीत्यादि । जातिकथा । यथा- प्रकाराणि तपासंयमब्रह्मचर्यघातोपधातिकानि अनुचरताना "धिग् ब्राह्मणीवाभावे,या जीवन्ति मृताइव । धन्या मन्ये ह्मचर्य न चक्षुषा न मनसा न वचसा प्रार्थयितव्यानीति पापजने शूद्री, पतिलाऽप्यनिन्दिताः।१"तथा कुलकथा यथा- कानि पापहेतुत्वादिति । एवं स्त्रीरूपविरतिसमितियोगेन मा. महा चौलक्यपुत्रीणां,साहसं जगतोऽधिकम् । पत्युर्मुत्यौ विस वितो भवत्यन्तरास्मेत्यादि निगमनवाक्यं व्यक्तमेवेति । प्रश्न. मस्यौ , याःप्रेमरहिता अपि ॥१॥” इति। रूपकथा यथा-"चन्द्र ४ संवद्वार। वत्रा सरोजाती, सङ्गीः पीनघनस्तनी। किं लाटी नो मतासा स्या-द्देवानामपि दुर्लभा ॥१॥" नामकथा-सा सुन्दरीति अहावग चउस्था भावणा-णाऽतिमत्तपाणभोयणभाई, सत्यं सौन्दर्यातिशयसमन्वितत्वात् । नेपथ्यकथा यथा "धिग्- | से णिग्गंथे न पणीयरसभोयणभोई, से णिग्गंथे केनारीरीदीच्याः,बहुवसनाच्छादिताङ्गलतिकत्वात् । यद्यौवनं वली बूया-अतिमत्तपाणभोयणभोई से णिग्गंथे पन यूनां चक्षुमोदाय भवति सदा ॥१॥" परिजनकथा यथा- णीयरसभोयणभाई संति भेदा जाव भंसेज्जा , साति"चटिकापरिवारोऽपि, तस्याः कान्तो विचक्षणः । भावमः मत्तपाणभोयणभाई से णिग्गये लो पणीयरसभोयणभाइ स्नेहवान् दक्षो,बिनीतः सत्कुलस्तथा॥१॥" किंबहुना? अन्या आप च एवमादिका उक्लप्रकाराः कथाः नीसम्बन्धिः। त्ति चउत्था भावणा । भाचा० २ श्रु० ३ चू० । कथाः शृङ्गारकरुणाः शृङ्गारमृदवः शृङ्गाररसेन करुणाऽऽ पादिका इत्यर्थः। तपासेयमब्रह्मचर्यघातोपघातिका अनुचर. चउत्थं पुष्वरयपुव्यकीलियपुव्वसंगंथगंथसंथुया जे ते पा ता ब्रह्मचर्य न कथयितव्या न श्रोतव्याः, अन्यतः म चिन्त- वाहवीवाहचोलकेसु य तिहिसु जम्मेसु उस्सवेसु य सिंगारायितव्या वा यतिजनेन । द्वितीयभावमानिगमनायाऽऽह- गारचारुवेसाहिं हावभावपललियविक्खेवविलाससालिणीएवं स्वीकथाविरतिसमितियोगेन भावितो भवत्यन्तरा हिं अणुकूलपेम्मिकाहिं सद्धिं अणुभूया सयणसंपयोगा उस्मा भारतमनोविरत ग्रामधर्मा जितेन्द्रियो ब्रह्मचर्यगुप्त इति प्रकटमेव । प्रश्न०४ संवद्वार। उसुहवरकुमुमसुरभिचंदणसुगंधिवरवासधवसुइफरिसवत्थअहावरा तच्चा भावणा-णो णिगंथे इत्थीणं पुन्वरयाई भूसणगुणोववेया रमणिज्जाउजगेयपउरनडनदृयजलमल्लमु. पुबकीलियाई सुमरित्तए सिया, केवली व्या-णिग्गयेणं इ. ट्टियवेलंवगकहगपवगलासगाइक्खगलंखमंखतूणइल्लतुंबस्थीणं पुवरयाई पुव्वकीलियाई सरमाणे संति भेयाजाव बीणियतालायरपकरणाणि य बहूणि महुरसरगीयसुस्सराभंसेजा,णो णिग्गंथे इत्थीणं पुबरयाई पुव्वकीलियाई स- इंप्रमाणि य एषमाइयाणि तवसंजमबंभचेरघामोवघातिरित्तए सिय ति तच्चा भावणा । आचा०२ श्रु०३ चू०।। याई अणुचरमाणेणं बंभचेरं न ताई समणेण लंभा दईन Page #1288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंजर कहे नाऽषि य सुमरिडं जे एवं पुष्वरयपुब्ब की लियविरति समिजोगेण भाविभो भवद्द अंतरष्पा भारयमण विरयमामधम्मे जितिदिए बंभचेरते । (८) (ववत् ति) चतुर्थ भावनावस्तु परकामोदय कारिवस्तुदर्श नमस्मरणवर्जनम्धम् पूर्व गृहस्थाच स्वाभाविनी कामरतिः पूर्वक्रीडितं गृहस्थावस्थाऽऽभयं द्यूताऽऽदिक्रीड मं. तथा पूर्वे - पूर्वकालभाघिनः सप्रम्याः श्वशुर कुलसंबन्धसम्ब खाः शाल कशाखिकाऽऽदयः प्रन्धाश्च शालकाऽऽदिसम्बन्धास्वास्तस्मादयः संताथ दर्शनभाषणाऽऽदिभिः परिचिता येते तथा तत एतेषां द्वन्द्वः । तत एतेन भ्रमणेन लम्पान न कथयितुं नापि समिति सम्बन्धः । तथा - ( जे ते त्ति ) ये पते वक्ष्यमाणाः केष्वित्याहभाषाविवाहबोली-वारदा55+ नयनम् विषाहः पाणिग्रहसम् बोलकेवि" बिडिया चूलाकम्पाला बोलयं नाम " इति वचना बालचूडाकर्म, शिखाधारणमित्यर्थः ततस्तेषु, वशब्दः पूर्ववाक्यापे क्षया समुच्चयार्थः, तिथिषु मदनत्रयोदशीप्रभृतिषु यज्ञेषु ना. गादिपूजादिषु उत्सवेषु इन्द्रोत्सवाऽदिषु ये स्त्रीभिः सार्द्धं शयनसम्प्रयोगास्ते न लम्बा इष्टुमिति योगः किभूताभिः १, शृङ्गारामारचारयेषामिः शृङ्गाररसागारभूताभिः शोभनेप थ्याभिश्चेत्यर्थः, स्त्रीभिरिति गम्यते । किंभूताभिर्द्धावभावप्रल , पिलाशाखिनीभिः तत्र हावाणिम्" द्वावो मुखविकारः स्यात् भावः स्याच्चित्तसम्भवः । सो वियो युगान्तयोः ॥ १॥" श्रथवा विलासलक्षणमिदम्" स्थानाऽऽसनगमनानां स्तनेषकर्म ( १२६५ ) अभिधानराजेन्द्रः । उत्पद्यते विशेषो यः श्लिष्टः स तु विलासः स्यात् ॥ १ ॥ " तं तमेवम्"हस्तपादविन्यास, सूजी (जी) प्रयोजितः । सुकुमारी विधानेन खखितं तत्प्रकीर्तितम् ॥ १ ॥ " विशेष त्विदम् " अप्रयत्नेन रचितो धम्मिलश्लथ बन्धनः । ताम्बूलपसादनः ॥ १ ॥ लातलिखित पत्रलेखकाम् । असमञ्जसविन्यस्त-मज्जनं नयनाब्जयोः ॥ २ ॥ तथाऽनादरवत्वात् प्रधिर्जघन बाससः । वसुधाखतिप्रान्तः स्कन्धात् खस्तं तम् ॥ ३ ॥ जघने हारविन्यासो, रखनावास्तथारथि । · 39 इत्यवाकृतं यत्स्या-दशानादिव मण्डनम् ॥ ४ ॥ बितनोति परां शोभां स विक्षेप इति स्मृतः ॥ एभिर्याः शालन्ते शोभन्ते तास्तथा ताभिः अनुकूलमप्रतिकूलं प्रेम प्रीतिपसां ता अनुप्रेमिकास्ताभिः (सदिति ) साई सह अनुभूता वेदिता शयनानि च थापा सम्प्रयोगाश्च सम्पर्कः शयनसम्प्रयोगाः, कथंभूताः, ऋतुसुखानि शुभानि वा कालोचितानीत्यर्थः, यानि वरकुसुमा सुरभि सुगन्धो वर चूर्णरूपा वास धूपश्व शुभस्पर्शानि वा सुखस्पर्शानि वा वस्त्राणि च भूषणानि चे. ति द्वन्द्वः, तेषां योगुणस्तैदपपेता युक्तास्ते तथा, तथा रमणी ३१७ भर याऽऽसोद्यगेयप्रचुरनटाऽऽविप्रकरणानि च न लभ्यानि, प्रधुमि तियोगः । तत्र नटा नाटकानां नाडयितारः नर्तका ये नृत्यन्ति अल्ला वरत्राखेलका मज्ञाः प्रतीताः, मौष्टिका मला एव ये मु. टिभिः प्रहरन्ति (स) विका विदूषकाः क थकाः प्रतीताः, प्लवका ये उत्प्लवन्ते नद्यादिकं वा तरन्ति, लासका ये रासकान् गायन्ति, जयशब्दप्रयोक्तारो भाण्डा वा इत्यर्थः । श्राख्यायका ये शुभाशुभमाख्यान्ति, लक्ष्खा महावंशाप्रकाः मयाधित्रफल कस्ता मिकाकार, 'इ झा तूजाभिधानवाद्यविशेषयन्तः तुम्बवीक्षिका बीलावादका तालाचराः प्रेक्षाकारिविशेषाः एतेषां द्वन्द्वः, तत एषां यानि प्रकरणानि प्रक्रियास्तानि च तथा बहून्यनेकविध्वानि (महुरस्सर गीयसुसराई ति ) मधुरस्वराणां - कलध्वनीनां गायकानां पानि गीतानि यानि सुस्वराणि शोभना दिश्वरविशेषाणि तानि तथा। किं बहुना अन्यानि उक् व्यतिरिङ्गानि एवमादिकानि एवंप्रकाराणि तपःसंयमत्र घाघातिकानि अनुचरता ब्रह्म मे यानि तानि कामोस्कोचकारीणि भ्रमणेन संयतेन ब्रह्मचारिति भाषा (सिभ्यानि उचितानि प्रेक्षितुं कथयितुं मापि च स्मर्तु 'जे' इति निपातः, निगमयन्नाह एवं पूर्वरतपूर्वकीरितमितियोगेन भाषितो भवत्यन्तरात्मा भारतमनोविरतामधर्मा जितेन्द्रियो ब्रह्मचर्यगुप्त इति । प्रश्न० ४ संबद्वार। - महावरा पंचमा भावना योग्गिंचे त्वीपमुपंडग संसचाई समयासथाई सेवितए सिया, केवली वृषाशिगंध इत्थीपसुपंडनसंसचाई सपथासबाई सेवेमाणे संति भेया जाव भंसेजा यो णिग्गंथे इत्थीपशुपंडगसंसचाई सयवासगाई सेवित्तए सियति पंचमा भावया । एतावया चउत्थे महद सम्म फारसं फासे इ० नाव आराहिते यावि भवति पस् मेरो ! महव्ययं । श्राचा० २ ० ३ चू० । पंचमगं आहारपणीयनिद्धभोयख विवज्जए संजए सुसाहू बनगयखीरदहिसप्पिनवडी पगुडखंड पच्छंटियम हुमनसखकविगइपरिचचकयाहारे न दप्य न बहुसो न निविकंन सायम्पादिकं न खर्द्ध वहा मोग जहा से जाया माया भग्न व भवति विभपोन सया व धम्मस्स, एवं पण याहारविरति समितिजोगेण भाविमो भवति अंतर आरमण विरयगामधम्मे जिईदिए बंभचेरगुत्ते । (६) पञ्चमं भावनावस्तु प्रणीत भोजन वर्जनम् । एतदेवा शा हारोऽशनादिः स एव प्रणीतो- गलत्स्नेह विन्दुः, स च स्नि. ग्धभोजनं चेति द्वन्द्वः । तस्य विवर्जको यस्स तथा संयतः संयमवान् सुसाधुः निर्वाण साधक योगसाधनपरः, व्यपगता अपयता सिर्विनंवनीत मत्स्यविका प तास तथा मत्स्यरिडका बेह खण्डशर्करा म सखाद्यकलत्तणाभिः विकृतिभिः परित्यक्लो यः स तथा ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, स एवंविधः, कृती भुक्त बहारों पेन स Page #1289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बचेर तथा । किमित्याह - (न) नैव दर्पणं दर्पकारकमाहारं भुञ्जीतेति शेषः । तथा न बहुशो दिनमध्ये न बहुकृत्व इत्यर्थः । ( न नियति ) न नैस्यिकं न प्रतिदिनमिति यावत् । न शाक पाधिक, शालन कदालप्रचुरमित्यर्थः । ( न खद्ध) न प्रभूतं यत श्राह" जहा दवग्गी पउरिंधणे वणे, समारुश्रो णोवस मं उदेति । एवैदियणी वि प्रकामभोइयो, न बंभयारिस्स हि याय कस्ल ॥ १ ॥ " इति । किं बहुना ?, तथा तेन प्रकारेण हितमिताऽऽहारित्वाऽऽदिना भोक्तव्यं यथा (से) तस्य ब्रह्म चारिणो यात्रा संयमयात्रा सेव यात्रामात्रं तस्मै यात्रा मात्राय भवति । श्रह च" जह अभंगण १ लेवो २, सग ( १२६६ ) अभिधान राजेन्द्रः । क्खणाण जतिश्रो हो । इय संजमभरवद्दण्डयाएँ साहू आहारो ॥ १ ॥ " न च नैव भवति विभ्रमो घासूपचयेन मोहोदयाम्मनलो धर्म प्रति अस्थिरत्वं भ्रंशनं वा चलनं धर्माद् ब्रह्मचर्यलक्षणात् । निगमनमाद एवं प्रणीताऽऽहारविरतिसमितियोगेन भाषितो भवत्यन्तरात्मा श्र रतमनोविरतप्रामधर्मा जितेन्द्रियो ब्रह्मचर्यगुप्त इति । एवमियं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होइ सुप्पणिहियं इमेहिं पंचहि वि कारणेहिं मणवयणकाय परिरखिरहिं विश्वं श्रमरतं च एसो जोगो णेयब्वो धिमया मतिमया अणासवो अकलुसो अच्छिदो अपरिसावी असं कि लिट्ठो सुद्धो सव्यनियमणुसाओ एवं च अत्थं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं . (धाराहियं) आखाए अणुपालियं भवति, एवं नायमुखिया भगवया पावियं परुवियं पसिद्धं सिद्धवरसासणमिणं आ घवियं सुदे सियं सत्यं ॥ २७॥ (१०) प्रश्न० ४ संव० द्वार । न मुंडिए समयो, न ओंकारेण वंभणो ॥ (३१+)। मुण्डिनेन श्रमणो निर्ग्रन्थो न स्यात् । श्रकारण ॐ भूर्भुवः स्वस्तीत्यादिना ब्राह्मणो न स्यात् । उत०२५ श्र० । समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो ॥ (३२+) ॥ समतया समयत्वेन शत्रु मित्रयोरुपरिसमानभावेन श्रमणो भवति ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणो भवति, ब्रह्म- पूर्वोक्तमहिंसासत्यचो. भाषाऽमैथुननिर्लोभरूपं तस्य ब्रह्मणश्चरणमङ्गीकरणं ब्रह्म कार्य तेन ब्राह्मण उच्यते । उत्त०२५ श्र० । (श्रावकाणां ब्रह्मचर्ये रूपदारसम्तोष एवेति 'परदारगमण' शब्दे ५२६ पृष्ठे व्याख्यातम् ) श्रथ चतुर्थस्यातिवारानाहब्रह्मतेऽतिचारस्तु, करकर्माssदिको मतः । सम्यक् तदीयगुतीनां तथा चाननुपालनम् ॥ ५१ ॥ ब्रह्ममते-मैथुनवते अतिचारस्तुशब्दो विशेषणार्थः, करकमोऽऽदिः तथा च - परिणामवैचित्र्येण तदीयगुप्तीनां तस्य ब्रह्मवतस्येमास्तदीयास्ताश्च ता गुप्तयश्च स्त्र्यादिसंसक्तवसतित्यागाऽऽदिरूपास्तासां सम्यक भावशुद्धयाऽननुपालनम् अनावरणं भवतीति संबन्धः । यतः - "मेहुणस्स श्रद्दधारो, करकम्माई उ होइ णायब्धो | तम्गुत्तीणं च तद्दा, अणुपालणमो अ लम्मं तु ॥१॥” इत्युक्तास्तुर्यवता तिचाराः । ध० ३ अधि० ।। For Private बंजरगुत्ति ब्रह्मचर्यप्रशंसा- "शक्यं ब्रह्मव्रतं घोरं शूरैश्व न तु कातरैः । कपिर्यामुद्वायं करिभिर्नतु रासभैः ॥ १॥" किं च.." देवदाणव गंधब्बा, जक्खरक्खसकिंनरा । यंभयारिं नमसंति, दुकरं जं करिति ते ॥ २ ॥ " संधा० १३ गाथा टी० । ब्रह्मचर्यप्रतिपादकान्यध्ययनान्यपि ब्रह्मचर्याणि । श्राचाराङ्गस्य शस्त्रपरिशाऽध्ययनाऽऽदिष्वध्ययनेषु, ब्रह्मचर्याणि - नव वंभरा पत्ता । तं जहा- सत्थपरिष्मा, लोगविजओ, सीओोसणिजं, सम्पत्तं, आयंती, धुतं विमोहायणं, उवहाण - सुतं, महपरिष्ठा । ६ । (६६२) तथा कुलानुष्ठानं ब्रह्मचर्य तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि ब्रह्मचर्याणि तानि चाऽऽचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धप्रतिबद्धानीति । स० ६ सम० । स्था० । सूत्र० । तेसु चैव बंभचेरं ति बेमि । तेष्वेव परमार्थतो ब्रह्मचर्ये नान्येषु नवविधब्रह्मचर्यगुत्यभावात् । यदि वा ब्रह्मचर्याऽऽख्योऽयं श्रुतस्कन्ध ए तद्वाच्यमपि ब्रह्मचर्य तदेतेष्वेवापरिग्रहवत्सु इतिरधि कारपरिसमाप्तौ ब्रवीम्यहम् । श्राचा० २ ० ५ ० २ उ० । बंभचेरत्रगुति - ब्रह्मचर्या गुप्ति-स्त्री० | ब्रह्मचर्याऽरक्षणे, स० नव बंभचेर अगुचिश्रा पत्ता । तं जहा- इत्थीप सुपंमगसंसत्ताणं सिजासखाणं सेवण्या ०जाव सायासुखपडिबद्धे कावि भवइ ॥ स० ६ सम० । नव वंभर गुत्ती सत्ताओ । तं जहा-नो विवित्ताई सणासणाई सेवित्ता भवइ, इत्थीसंसत्ताई पसुमंसत्ताई पंडगसंसत्ताई १, इत्थी कहं कहेत्ता भवइ, २, इस्थिहागाई सेविता भवइ ३, इत्थी इंदियाई मणेोरमाई •जाब निझाइत्ता भवइ ४, पणीयरसभोई ५, पाणभोयणस्स श्रइमायमाहारए सा भव६, पुत्ररयं पुव्वकीलियं सरिता भवइ७, सदाणुवाई सिलोगाणुबाई ८, ०जाव सायासुक्ख पडिवद्धे या विभव || (६६३) स्था० ए ठा० । वंभचेरगुत्ति-ब्रह्मचर्यगुप्ति-स्त्री' ब्रह्मचर्यस्य-मैथुन व्रतस्य गु· तयोरक्षाप्रकारा ब्रह्मचर्य गुप्तयः । पा० । मैथुनविरति परि रक्षोपाये, स०८ सम० । स्था० । ब्रह्मचर्य गुप्तयः नत्र भरगुती पत्ताश्रो । तं जहा विवित्ताई स यणासणाई सेवित्ता भवइ, नो इत्थी संसत्ताई; नोपसुसंसत्ताई; नो पंडगसंसत्ताई १, नो इत्यीणं कहं कड़े भव २, नो इस्थिद्वाणाई सेवित्ता भवइ ३, नो इत्थी इंदियाई मोहराई मणोरपाई आलोइत्ता निज्झाइता भवइ ४, नो पीयरसभोई भवइ ५, नो पाणभोगणस्स अ Personal Use Only Page #1290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभचेरगुत्ति अभिधानराजेन्डः। बंभचेर समाहिहाण इमायमाहारए सया भवइ ६, नो पुन्वरयं पुबकीलियं तञ्चेदम्सरित्ता भवइ ७, नो सहाणुवाई नो रूवाणुवाई नो सिलो. सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमकावार्य-इह खलु गाणुवाई भवइ ८, नो सायासुक्खपटिबद्ध आवि भवइ । थेरेहिं भगवंतहि दस बंभचेरसमाहिट्ठाणा पन्नत्ता । जे स्था०६ ठा०। स.प्रव०। ध०। प्रा०चू। भाव। सूत्र०। भिक्ख सोच्चा निसम्म संजमबहले संवरबहले समा (अनन्तरमेव 'बंभचेरसमाहिट्ठाण' शब्दे व्याख्यास्यामि) हिबहले गुत्त गुत्तिदिए गुंतवभयारी सया अप्पमत्त गंभचेरपराइय-ब्रह्मचर्यपराजित-त्रि० । ब्रह्मचर्य वस्तिनिरो- विहरेज्जा ॥१॥ धस्तेन पराजितः । उपस्थसंयमपराभग्ने, सूत्र० १ श्रु० ३ श्रुतं मयाऽऽयुष्मन् ! तेन भगवतैवमाख्यातं-कथितम् । अ० १ उ०। कथमित्याह-सोपस्कारत्वात् सूत्रस्य यथेति गम्यते, ततो बंभचेरपोसह-ब्रह्मचर्यपौषध-पुं०। चरणीयं चर्यम् । “अ- यथेह क्षेत्र प्रवचने वा 'खलु' निश्चयेन स्थविरैः गणधरैर्भ. बो यत् ॥ ३ । १ । ६७ ॥" इत्यस्याधिकारात् " गदमद- गद्भिः परमैश्वर्याऽऽदियुक्तर्दश ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि प्र. चरयमचाऽनुपसर्गे ॥ ३।१।१०० ॥ " इति यत् । ब्रह्म कु. शतानि-प्ररूपितानि । कोऽभिप्रायः-नैषा स्वमनीषिका, शलाउनुष्ठानं, तच्च चर्य चेति तत्पौषधः। श्राव० ६अ। किं तु भगवताऽप्येवमाख्यातं मया श्रुतं ततोऽत्र मा अना. पौषधभेदे, स च देशतो दिवैव राधावेव सकृदेव द्विरेव स्थां कृथाः, तान्येव विशिनष्टि-ये इति यानि ब्रह्मचर्यस. वा स्त्रीसवां मुक्त्वा ब्रह्मचर्यकरणम् । सर्वतस्तु अहोरात्रं वा मधिस्थानानि भिक्षुः श्रुत्वाऽऽकर्य शब्दती निशम्याषधा. ब्रह्मचर्यकरणम् । ध०२ अधिक। ोऽर्थतः (संजमबहुले त्ति) संयममाश्रयविरमणाऽऽदिकं व. संभचेरभट्ट-ब्रह्मचर्यभ्रष्ट-पुं० । अपगसब्रह्मचर्य, ब्रह्मचर्यश. हिति बहुसख्यं यथा भवत्येवं लाति गृह्णाति । कोऽभिप्रा. दो मैथुनविरतिवाचकः । तत्रौघतः संयमवाचकश्च । प्राय. यः ?-विशुद्धविशुद्धतरं पुनः पुनः संयमं करोतीति संयम. बहुलो,मयूरव्यसकाऽऽदित्वात्समासः यदि वा-बहुलःप्रभू. ३०। तः संयमोऽस्येति बहुल संयमः। सूत्रे पूर्वापरनिपातस्यातन्त्र. बंभचेररय-ब्रह्मचर्यरत-पुं० । ब्रह्मचर्याऽऽसक्ने, "बंभचेररए स्वाद् अत एव संवर आश्रवद्वारनिरोधः तद्बहुलः बहुल. सया।" उत्त० १६० संबरो वा, तत एव समाधिश्चिसस्वास्थ्यं तदहुलो बहुल. बंभचेरवसाऽऽणयण-ब्रह्मचर्यवशायन-न० । ब्रह्मचर्य समाधिर्वा, गुप्तो मनोवाकाय गुप्तिभिः, गुमत्वादेव गुप्ता. मैथुनविरतिरूपं वशमानयत्यात्माऽऽयत्तं करोति दर्शनाss. नि विषयप्रवृत्तितो रक्षितानि इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि येन क्षेपाऽऽदिनेति ब्रह्मचर्यवशाऽनयनम् । ब्रह्मचर्यभ्रंशके,दश०। स तथा , तत एव गुप्तं नवगुप्तिसेवनात् ब्रह्मेति ब्र. न चरे (ज) वेससामंते, बंभचेरवसाणए । ह्मचर्य चरितुम् श्रासेवितुं शीलमस्येति गुप्तब्रह्मचारी सदा बंभयारिस्स दंतस्स, हुजा तत्य विसोत्तिा सर्वकालम् अप्रमत्तःप्रमादविरहितो विहरेत् अप्रतिबद्धवि॥ ६ ॥ हारितया चरेद्, पतेन संयमबहुलत्वाऽऽदि दशब्रह्मचर्यसन चरेश्यासामन्ते न गच्छेद्गणिकागृहसमीपे । किंविशिष्टे? माधिस्थानफलमुक्कमेतविनामावित्वात्तस्येति सूत्रार्थः । इत्याह-ब्रह्मचर्यवशाऽनये-ब्रह्मचर्य मैथुनविरतिरूपं श. कयरे खलु थेरेहिं भगवंतेहिं दस बंभचेरसपाहिद्वाणा मानयत्यास्माऽऽयत्तं करोति दर्शनाऽऽक्षेपाऽऽदिनेति ब्रह्मच. र्यवशाऽऽनयनं तस्मिन् । दोषमाह-ब्रह्मचारिणः साधो. पमत्ता। इमे खलु तेजाव विहरिजा । तं जहा-विवित्ताई तस्य इन्द्रियनोइन्द्रियदमाभ्यां भवेत् । अत्र वेश्यासामन्ते वि सयणाऽसणाई सेविजा से निग्गंथे णो इत्थीपसुपंडगसं. स्रोतलिका तद्वपसंदर्शनस्मरणापध्यानकचवरनिरोधतः शा. सत्ताई सयणाऽऽसणाई सेवित्ता हवइ से निग्गंथे, तं कई नश्रद्धाजलोज्झनेन संयमशस्यशोषफला दित्तविक्रियति । इति चेदायरियाऽऽह-निग्गंथस्स खलु इत्यापमुपंडगसंससूत्रार्थः । दश०५०१ उ०। साई सयणासणाई सेवमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका बंभचेरवास-ब्रह्मचर्यवास-पुं० । ब्रह्मचर्ये मथुनविरमणे ते. वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पजेजा, भेयं वा लभेन वा वासो ब्रह्मचर्यवासः । स्था०५ ठा० १ उ० । ब्रह्मच जा, उम्मायं वा पाउणिजा, दीडकालियं वा रोगायक येगाब्रह्मविरमणेन वासो-रात्रौ स्वापः तत्रैव वा वासो हविज्जा, केवलिपपत्ताओ धम्माओ वा भसिजा, तम्हा निवासो ब्रह्मचर्यवासः । ब्रह्मचर्येणावस्थाने, स्था० २ ठा० खलु नो निग्गंथे इत्यीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई संभचेरबिम्ब-ब्रह्मचर्यविघ्न-पुं० । मैथुनविरमणब्याघाते , सेवित्ता हवइ से णिग्गंथे॥२॥ कतराणीत्यादि प्रश्नसूत्रमिमानीत्यादि निर्वचनसूत्रं च प्रश्न० ४ श्राप द्वार। प्राग्वत् । तान्येवाऽऽह-(तं जहेत्यादि ) तद्यथेत्युपन्यासे, वि. बंभचेरससाहिवाण-ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान-न। ब्रह्मचर्यस्थैः विक्तानि स्त्रीपशुपएडकाकीर्णत्वविरहितानि शय्यते येषु र्यस्य हेतौ, उत्त० १६ अ.। सामि शयनानि च फलकसंस्तारकाऽऽदीनि प्रास्यते येषु ता. दश ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि । संप्रति सूत्रानुगमे सूत्रमु. म्यासमानि च पादपीठपुछनाऽऽदीनि शयनाऽऽसनानि, उप. उचारमीयम् । लक्षणत्वात् स्थानानि च सेवेत-भजेत यः स निर्ग्रन्थः Page #1291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६८) बनचेरसमाहिहाण अमिधानराजेन्डः। बनचेरसमाहिहाण द्रव्यभावप्रथामिकाम्तो भवतीति शेषः। इत्थमन्बयेना. झण्याऽदिः । कुलम्-उप्राऽऽदि, रूपम्-महाराष्टिकावि मिषायाम्युत्पमधिनेयाऽनुग्रहायाऽमुमेषार्थ व्यतिरेकेबार- संस्थानम्-मेपथ्यम् तत्सदेशप्रसिद्धम्, तां कथयिता भवति । (नो) व नियच दिव्या मानुष्यो वा पशषश्च अटका. (से निग्गंये ति) य एवंविधः स निर्ग्रन्थः। शेषं प्रश्नप्रति उदयः पराडकाच नपुंसकानि स्त्रीपशुपएडकास्तैः संस. पचनाऽभिधायि प्राग्वदिति सूत्रार्थः। लानि-माकीर्णानि स्त्रीपशुपण्डकसंसक्तानि शयनाऽसनाम्यु तृतीयमाहककपाणि खेषिता उपभोक्ता भवति तदित्यनम्तगेलं. कथं नो निग्गये इत्थीहिं सद्धिं संनिसे जागए विहरिता हवह केनोपपत्तिप्रकारेण ति चेदेवं यदि मन्यसे, भत्रोच्यते से निग्गंथे । तं कहमिति चेदायरियाऽऽह-निग्गंधस्स खलु निर्मग्यस्य खलु निश्चितं स्त्रीपशुपण्डकसंसक्कानि शयनाss. सनानि सेषमानस्योपभुनानस्य (भयारिस्स त्ति) अपि. इत्थीहिं सद्धिं संनिसेउजागयस्स विहरमाणस्स भयारिस्स शम्भस्य गम्यमानत्वात् ब्रह्मचारिणोऽपि सतो ब्रह्मचर्य बंभचेरे संका वा कंखा वा जाव भंसेज्जा तम्हा खलु नो शहा बा किमेताः सेये उत नेत्येवंरूपा । यदि वा-हा. निग्गंथे इत्थीहिं सद्धिं संनिसे जागए विहरइ ।। ३ ।। न्येषामिति गम्यते, ततः शका वाऽन्येषामेव यथा किम. सावविधशयमाऽऽसनसषी ब्रह्मचार्युत नेति का नो स्त्रीभिः सार्द्ध सह सम्यक निषीदन्त्युपविशन्स्यस्या वा व्यायभिखापरूपा विचिकित्सा वा धर्म प्रति चित्तविप्लु मिति सनिषद्याः पीठाऽऽद्यासनं तस्यां गतः स्थितः सन्नितिः समुत्पचते जायते । अथवा-शङ्का ख्यादिभिरत्यन्ता पद्यागतः सन् विहर्ताऽवस्थाता भवति । कोऽर्थः १-स्त्रीभिः पहतचित्ततया विस्मृतसकलातोपदेशस्य-"सत्यं वच्मिा सहकाऽऽसने नोपविशस्थितास्वपि हितासु मुहूर्त तत्र नोपहितं वच्मि, सारं बच्मि पुनः पुनः । अस्मिन्नसारे सं. वेधव्यमिति संप्रदायो, य एवंविधः स निर्ग्रन्थो, न त्वन्य सारे, सारं सारङ्गलोचना ॥१॥" इत्यादि कुविकल्पा इत्यभिप्रायः शेषं प्रश्नप्रतिवचनाभिधायि पूर्ववदिति सूत्रार्थः। विकल्पयतो मिथ्यात्योदयतः कदाचिदेतत्परिहार एव न चतुर्थमाहतीर्थकनिकको भविष्यति, एतदासेवने वा यो दोष उक्तः स यो णिगंथे इत्थीणं इंदियाई मगोहराई मणोरमाई दोष एव न भवतीत्येवंरूपः संशय उत्पद्यते काला वा तत मालोइत्ता निज्झाएत्ता हवइ से निगये, तं कई इति एष देती:-" प्रियादर्शनमेवास्तु , किमन्यैर्दर्शनान्तरैः । प्राप्यते येन निर्वाणं, सरागेणाऽपि चेतसा ॥१॥" . चेदायरियाऽऽह-निग्गंथ स्स खलु इत्थीणं इंदियाई पणो. स्याभिधायकान्यान्यनीलपटाऽऽविदर्शनाऽऽग्रहरूपा, विधि | हराई मणोरमाई मणुमाई जाव निझाएमाणस्स बंभकित्सा वा धम्म प्रति किम् एतावतः कष्टाऽनुष्ठानस्य फलं चारिस्स बंभचेरे जाव भंसेजा तम्हा खलु नो निग्गंधे भविष्यति, नवा ?, तवरमेतदासेवनमेवाऽस्वित्येवंरूपा, इत्थीशं इंदियाई निझाएज्जा ॥४॥ मेवं या विनाशं, चारित्रस्येति गम्यते, लभेत प्राप्नुयात् , नो स्त्रीणामिन्द्रियाणि नयननासिकाउदीनि मनश्चिहरउम्मा वा कामप्रहाऽऽत्मकं प्राप्नुयात् खीविषयाऽभिला. पातिरेकतस्तथाविधचित्तविप्लवसंभवात् , दीर्घकालिकं वा न्ति दृष्टमात्राण्यप्याक्षिपन्तीति मनोहराणि, तथा मनो रमया प्रभूतकालभाविरोगश्च दाहज्वराऽऽदिराततश्च आशुधाती न्ति इति दर्शनानन्तरमनुचिन्त्यमानान्याहादयन्तीति मनो. गुलाऽऽदिरोगाऽऽतभवेत् स्यात्, संभवति हि ख्याद्यभि. रमाणि, आलोकिता समन्तात् द्रष्टा निर्याता दर्शनानन्तर. लापाऽतिरेकतोऽरोचकत्वं ततश्च ज्वरादीनि, केवलिपक्ष मतिशयेन चिन्तयिता यथा अहो सलवणत्वं लोचनयोः तात् धर्मात् श्रुतचारित्ररूपात् समस्ता भ्रश्येदधः प्रति ऋजुत्वं नासावंशस्येत्यादि । यद्वा-आङ् ईपद,तत आलो. पतेत्, कस्यविदति क्लिष्टकर्मोदयात् सर्वथा धर्मपरित्याग- किता ईषद् द्रष्टा निर्याता प्रबन्धेन निरीक्षिता भवति या संभवाचत एवं तस्मादित्यादि निगमनवाक्यं प्रकटार्थमेवेति । स निर्ग्रन्थोऽन्यत्प्रतीतमेवेति सूत्रार्थः । सूत्राऽर्थः॥२॥ उक्तं प्रथम समाधिस्थानम् । पञ्चममाहद्वितीयमाह नो निगवे इत्थीयं कुडतरंसि वा संतरंसि का मि. नो इत्थीणं कई कहित्ता हवा से निःगतं कह- त्तियंतरंसि वा कूइयसई वा कइयसई वा गीयसई वा हसिमिति चेदायरिया विषय बुलु इत्याग का क- यस वा थसियसई वा कंदियसई वा विलवियसई वा हेमाणस्स बंभयारियस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा सुशित्ता हवइ से निग्गंथे, तं कई इनि चेदायरियाऽऽदवितिनिछा वा समुप्पअिजा, मेयं वा लभिजा, उ- इत्थीशं कुद्दुतरंसि वा दुसंतरंसि वा वित्तियंतरंसि वा भ्मायं पा पाउथिजा, दीहकालियं वा रोगायकं इवि- जाव विलवियस वा सुणमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे सा,केवलिपष्मत्ताभो वा धम्माश्रो मंसिज्जा,तम्हा खलु नो संका वा कंसा वा जाव धम्माओ भंसजा तम्हा निग्गथे इत्थी कई कहिज्जा ॥२॥ खल सिगये हो इत्थी कुदतरंसि वा. जाव मास्त्रीणाम एकाकिनीनामिति गम्यते ।कथा:-वाक्यप्रबन्ध. सुणेमागे विहरेजा ।।५।। कपा। यदिपा-खीणां कथा-"कर्णाटी सुरतोपचारचतुरा, | नो स्त्रीणां कुजय खटिकाउविरचितं तेनान्तरं व्यवधानं कु. साटी विदग्धप्रिया । " इत्यादिका । अथवा--जाति- ज्यान्तरं तस्मिन् वा, दूष्पं वसं तदन्तरे वा, यवनिकान्तर कलरूपनेपथ्यभेदाचतुर्वा सीकथा । तत्र-जातिः ब्रा. इत्यर्थः । भित्तिः पएकाऽऽविरचिता तदन्तरेषाशब्दः सर्वत्र Page #1292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६९) धनचेरसमाहिहाण अभिधानराजेन्दः। बनचेरसमाहिहाण विकल्पाभिधावी, खित्वेति शेषः । कूजितशा विविध नवममाहविहगभाषया अव्यक्तशब्ई सुरतसमयभाविनं रुदितशय नो विभसागुवाई हवा से निग्गंथ,तंक, इति चेदायरि. पारतिकलहाऽऽदिकं मानिनीकृतं गीतशब्दंषा पश्चमाऽऽदि. | याऽऽह-विभूसावत्तिए विभूसियसरीरे इत्थीजणस्स पत्थहुस्कृतिरूपं हसितशब्दं वा कहकहाऽऽदिकं स्तमितशब्ध णिजे भवइ, तमो णं तस्स इथिजणेणं अभिलसिधारत्तिसमयरुतम्, झम्मित शब्दं या प्रोषितभर्तृकाऽऽविकता. ज्जमाणस्स बंभचारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा 3कन्दरूपं विलपितशब्दं वा प्रलापरूपं श्रोता यो न भवति स निर्ग्रन्थः । शेषं स्पटम् । इति सूत्रार्थः। जाव भंसेजा, तम्हा खल नो निग्गंधे विभूसाणुवाई षष्ठमाह सिया ॥ ॥ नोनिग्गंथे पुन्वरयं पुन्वकीलितं अणुसरिता भवइ तं (मो) नैष विभूषणं विभूषा शरीरोपकरणाऽऽदिषु स्नान धावनाऽदिभिः संस्कारस्तवनुपाती, कोऽर्थः १-तत्कर्ता भ. का?, इति चेदायरियाऽऽह-निग्गंथस्स खलु इत्थीणं पुच. षति यः स निर्ग्रन्थः, ततः कथमिति चेत् !, उच्यते-(विभू. रयं पुष्वकीलियं अनुसरमाणस्स बंभचारिस्स बंभचेरे सायत्तिए ति) घिभूषां वर्तयितुम्-विधातुं शीलमस्येति संका वा जाव भंसेज्जा, तम्हा खलु नो निग्गंथे इत्थीणं विभूषावर्ती, तच्छीलिको णिन् , स एव विभूषावर्तिकः, स पुवरयं पुन्यकीलियं अणुसरेजा ॥ ६ ॥ किमित्याह-विभूषितमलंकृतं स्नानाऽऽदिना संस्कृतमिति नो निर्ग्रन्था पूर्वस्मिन् गृहावस्थालक्षणे काले रतं च्या यावत् , शरीरं-देही यस्य स विभूषितशरीरः । तथा च."उ. ज्ज्वलयेषं पुरुषं दृष्ट्रा स्त्री कामयते" इति वचनात् युषतिज. दिभिः सह विषयानुभवनं पूर्वरतं पूर्वक्रीडितं वा स्यादि भिरेव पूर्वकालभावि दुरोदराऽऽदिरमणाऽऽत्मकं, वाशब्दस्य मप्रार्थनीयो भवति । आह च सूत्रकार:-" इरिथजणस्स गम्यमानत्वात् , अनुस्मरी अनुचिन्तयिता भवति । शेषं मा अहिलसणिज्जे हवा ति" ततः को दोषः, इत्याह-ततः स्त्री. ग्वदिति सूत्रार्थः। जनामिलषणीयत्वतः, णमिति प्राग्वत् , तस्य निर्ग्रन्थस्य स्त्री जनेन युवतिजनेनाभिलयमाणस्य-प्रार्थ्यमानस्य ब्रह्मचा. सप्तममाहनो निग्गंधे पणीयं आहारमाहारित्ता हवइ से निग्गंथे, तं रिणोऽपि ब्रह्मचर्ये शङ्का वा, यथा किमेतास्तावदित्थं प्रार्थय. माना उपभुजे'.आयतौ तु यदावि तद्भवतु, उतश्वित् कष्टाः कहमित्ति चेदायरियाऽऽह-निग्गंथस्स पणीयं पाणभोयः शाल्मलीश्लेषाऽऽवयो नरक एतद्विपाका इति परिहरामीत्ये. णं माहारेमाणस्स बंभचारिस्स बंभचेरे संका व कंखा वंरूपः संशयः शेषं प्राग्वदिति सूत्रार्थः । चा जाब भंसेजा, तम्हा खलु नो निग्गंथे पणीयं आहार दशममाहमाहारेज्जा ॥७॥ नो सहाणुवाई रूवाणुवाई रसाणुवाई गंधाणुवाई फा. (नो) नैव प्रणीतं-गलद्विन्तु, उपवक्षसत्वादन्यमप्यत्यन्तधातू. साणुवाई भवेजा से णिग्गंथे , तं कहं १, इति चेदायद्रेककारिणमाहारमशनाऽऽदिकमाहारयिता-भोक्ता भवति यः | रियाऽऽह-निग्गंथस्स खलु सदरूवरसगंधफासाणुवाइयस्स स निर्ग्रन्थः, शेषं व्याख्यात मेष, नवरं प्रणीतं पानभोजनम् बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा इति पानभोजनयोरेवोपादानम्, एतयोरेव मुख्यतया यतिभिः समुप्पजिज्जा, भेयं वा लमिज्जा, उम्मायं वा पाउणिराहार्यमाणावादन्यथा खाद्यस्वाचे प्रप्येवंविधे धर्जनीये. ए. वैति सूत्रार्थः। जा, दीहकालियं वा रोगायक हविज्जा, केवलिपमत्तानो अष्टममाह धम्माओ भंसिजा, तम्हा खलु नो निग्गंये सहरूनो निग्गंथे प्राइमायाए पाणभोयणं प्राइरित्ता हवह से वरसगंधफासाणुवाई भवेज्जा, से निग्गंथे दसमे संभचेनिग्गंथे, तं कहमिति चेदायरियाऽऽह-भइमायाए पाणभो रसमाहिहाणे भवति । भवंति य इत्थ सिलोगा। यणं आहारेमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखावा (नो)नैव,शब्दो मन्मनभाषिताऽऽदि, रूपं-कटाक्षनिरीक्षणा. ऽऽविचित्राऽऽविगतं वा स्यादिसबम्धि, रसो-मधुरादिरभिवितिगिच्छा वा समुप्पजिजा, भेयं वा लभिजा, उम्मा घंधणीयो, गन्धः सुरभिः, स्पर्शः स्पर्शनानुकूलः कोमलमृणा. सेवा पाउथिजा, दीहकालियं वा रोगायक हविआ, के- लाऽऽदेतानभिष्वातन् अनुपतति मनपातीत्येवं बलिपनत्ताभो वा धम्माओ भंसिज्जा, तम्हा खलु नो परूपरसगन्धस्पर्शानुपाती भवति यः स मिर्ग्रन्थः। तत्कथ. निग्गंथे जाव अइमायमाहारेजा ॥८॥ मिति चेदित्यादि सुगम,दशमं ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानं भवतीति (नो) नैय अतिमात्रया मात्रातिक्रमेण तत्र मात्रा-प. निगमनम् । इहच प्रत्येकं ख्यादिसंसक्लशयनाऽऽदेशका55. रिमाणं, सा च पुरुषस्थ-द्वात्रिंशत्कवला:. स्त्रियाः पुनरष्टा. दिवोषदर्शनं तदत्यन्त दुष्टतादर्शकं प्रत्येकमपायहेतुतां प्रति तु. विशतिः । उक्तं द्वि-" वत्तीसं किर कवला, श्राहारो कुच्छि ल्यबलवख्यापकं चेति सूत्रार्थः। (भवंति य इत्थ सिलग पूरी भणियो। पुरिसस्स महिलियाए, अट्ठावीसंभवे कवला त्ति) भवन्ति-विद्यन्ते अति उक्त एवार्थे, किमुक्तं भव. ॥१॥" अतिक्रमम्तु तदाधिक्यसेवनं, पानभोजनं प्रतीतमेव, ति?-उतार्थाभिधायिनः श्लोकाः पद्यरूपाः । आहारयिता भोक्ता भवति यः स मिर्गन्धः, शेषं तथैवेति तं जहा जं विवित्तमणाइम, रहियं थीजण य। ३९८ Page #1293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७०) बनचेरसमाहिहाण. अभिधानराजेन्द्रः । बनचेरसमाहिहागा भचेरस्स रक्खट्टा, मालयं त निसेवए ॥१॥ कर्तव्यो न तु रागवशगेन पुनः पुनस्तदेव वीक्षणीयमिमणपमहायजणणिं, कामरागविवणिं । ति । उक्त हि-" असक्का रूवमहटुं. चक्खुगोयरमागयं । रा. पंभचेररो भिक्खू, धीकहं तु विवाए ॥ २॥ गदोसे उ जे तत्थ, ते बुहो परिवजए ॥१॥" ॥ ४ ॥ " कुडयं " सूत्रं प्रायो व्याख्यातमेव, नवरं कुज्यान्तरासमं च संथवं थीहिं, संकहं च अभिक्खणं । अदिग्विति शेषः ॥ ५ ॥ हाससूत्रमपि तथैव, नवरं रति बंभचेररमो भिक्खु, निच्चसो परिवज्जए॥३॥ दयिताङ्गसजनितां प्रीति, दर्षे मनस्विनीमानदलनोत्थं अंगपञ्चंगसंठाणं, चारुलवियपहियं । गर्व सहसाऽवत्रासितानि च पराङ्मुखदयिताऽऽदेः सा. बंभचेररमो थीणं, सो अगिझ विवज्जए ॥ ४॥ दि त्रासोत्पादकान्याक्षिस्थगनमर्मघट्टनाऽऽदीनि । पठ्यते च. "हस्सं वप्पं रति किई, सह भुत्ताऽसियाणि य । " अत्र कुइयं रुइयं गीय, हसियं थणिय कंदियं । व (सहति ) स्त्रीभिः साई भुक्तानि च भोजनानि प्राबंभचेररओ थीणं, सो अगेजझ विवज्जए॥५॥ सितानि च स्थितानि भुक्ताऽऽसितानि, शेषं स्पटं. नवरं स. हासं किडं रई दप्पं, सहसाऽवत्तासियाणि य । र्वत्र पूर्वकृतत्वं प्रक्रमादपेक्षणीयम् ॥ ६॥ " पणीयं" सूत्रं बंभचेररमो थीणं, णाणुचिंते कयाइ चि ॥ ६॥ निगदसिद्धमेव, नवरं मदः-कामोद्रेक इह कथ्यते, तस्य वि. पणीयं भत्त पाणं च, खिप्पं मयविवडणं । वर्द्धनमति बृहकतया विशेषतो वृद्धिहेतुं परिवर्जयेत् ॥ ७ ॥ धर्मादनपेतं धर्म्यमेषणीयमित्यर्थः, लब्धं-प्राप्तं गृहस्थेभ्य बंभचेररमो भिक्खू , निच्चसो परिवजए ॥ ७॥ इति गम्यते, न तु स्वयमेवोपस्कृतम् । पठ्यते च-"धम्मलद्धं धम्मलद्धं मियं काले, जत्तत्थं पणिहाणवं । ति"धर्मेण हेतुनोपलक्षणत्वात् धर्मलाभेन वान तु कुण्डला. गाइमत्तं तु जिजा, बंभचेररमो सया ॥८॥ ऽऽविकरणेन लब्धं धर्मलब्धम् । पठ्यते च-(धम्मलद्धं ति) विभूसं परिवजिज्जा, सरीरपरिमंडणं । धर्म उत्तमः क्षमाऽदिरूपः। यथाऽऽह वाचक:-"उत्तमः क्षमा. बंभचेररमो भिक्खू , सिंगारत्यं न धारण ॥६॥ माईवाऽर्जवसत्यशौचसंयमतपस्त्यागाऽकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि सहे स्वेय गंधे य, रसे फासे तहेव य । धर्मः।" (तस्वार्थे अ०६ सू०) इति । तं लब्धं-प्राप्तुं कथं ममायं निरतिचारः स्यादिति । मितम-" अद्धमलणपंचविहे कामगुणे, निच्चसो परिवाए ॥१०॥ स्स" इत्यादि प्रागमोक्लमानान्वितमाहारमिति गम्यते । काले तपयेत्युपदर्शने,यो विविक्तो रहस्यभूतस्तत्रैव वास्तव्यस्च्या. प्रस्तावे यात्राऽर्थ संयमनिर्वाहणार्य, न तु रूपाऽऽद्यर्थं प्रणि यभावादनाकीर्णः-असंकुलस्तत्तत्प्रयोजनागतस्यनाकुल धानधांतिस्वास्थ्योपेतो न तु रागद्वेषवशगो भुञ्जीत, नेति स्वाद्रहितः परित्यक्तोऽकालचारिणा वन्दनश्रवणादिनिमि. निषेधे मात्रामतिक्रान्तोऽतिमात्रः, अतिरिक्त इत्यर्थः, तम् । साऽऽगतेन स्त्रीजनेन,चशब्दापण्डकैः षण्डाऽऽदिपुरुषैश्व.प्र. यदिवा-"ईषदर्थे,क्रियायोगे,मर्यादायां परिच्छेदे।" इत्यादिना क्रमापेक्षया चैवं व्याख्या,अन्यत्रापि चैवं प्रक्रमा द्यपेक्षत्वं भा मात्राशब्दस्य मर्यादार्थस्यापि दर्शनादतिमात्रमतिकान्तमा बनीयम्। उक्तं हि-"अर्थात् प्रकरणालिका-दौचित्याद देशका दिं. तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् व्यवहितसंबन्धत्वाच्च नैव भु. लतः। शब्दार्थाः प्रविभज्यन्ते,न शब्दादेव केवलात् ॥१॥"ब्रह्म जीताभ्यवहरेत् ब्रह्मचर्यरत प्रासको ब्रह्मचर्यरतः सदा सर्व चर्यस्योक्तरूपस्य रक्षार्थ पालननिमित्तमाला प्राश्रयः सर्वत्र काल कदाचित्कारणतोऽतिमात्रस्याप्याहारस्य अदुष्टत्वात्। लिङ्गव्यत्ययः प्राग्वत् ,यत्तदोर्नित्यं संबधात् तं,तुःपूरणे,निषे. ॥८॥ विभूषामुपकरणगतामुत्कृष्टवस्त्राऽद्यात्मिक परिवर्ज. बते-भजते ॥१॥ मनश्चित्तं तस्य प्रहादा-अहो!अभिरूपा पता येत्परिहरेच्छरीरपरिमण्डनं केशश्मश्रुसमारचनाऽदि ब्रह्मच. इत्यादिविकल्पज प्रानन्दस्तं जनयतीति मनःप्रहादजन र्यरतो भिक्षुः शृङ्गारार्थ-विलासार्थ न धारयेश स्थापयेत्र नी, तामत एव कामरांगो विषयाऽभिध्वस्तस्य विधई कुर्यादिति यावत् ।। (सहे त्ति) स्पष्टमेव, नंबरं काम नी विशेषेण वृद्धिहेतुः कामरागविवर्द्धनी, तां, शेषं स्पष्टम् , इच्छामदनरूपस्तस्य द्विविधस्यापि गुणा: साधनभूता उपनवरं स्त्रीकथाम्-"तद्वक्त्रं यदि मुद्रिता शशिकथा ।" इ. कारका इति यावत्। उक्तं हि-"गुणः साधनमुपकारकम् ।" स्यादिरूपाम् ॥२॥ समं च सह संस्तवं परिचयं स्त्रीभिः कामगुणास्तानेवंविधान् शब्दाऽदीन् इति सूत्रदशकार्थः।१।। निषद्याप्रमादेकाऽऽसनभोगेनेति गम्यते,संकथां च ताभिरे. __संप्रति यत्र प्राक् प्रत्येकमुक्तं शङ्का वा स्याव समं सन्ततभाषणाऽऽत्मिकामभीषणं-पुनः पुनः ( णिचसो दिस्यादि तद् दृष्टान्ततः स्पष्टयितुमाहसि) नित्यम् , अन्यत् स्पष्टम् ॥ ३ ॥ अगानि-शिरःप्रभृतीनि, मालवो थीजणाइपो थीकहा य मणोरमा । प्रत्यतानि-कुचवक्त्रादीनि, संस्थानं कटीनिविष्टकराऽऽदि. संथवो चेव नारीणं, तासिं इंदियदरिसणं ॥ ११॥ सनिवेशाऽऽत्मकम् अमीषां समाहारनिर्देश,प्रजप्रत्यङ्गयो कुइयं रुइयं गीयं, हसियं भुत्तासियाणि य । संस्थानम्-नाकारविशेषोऽङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानं, चारु-शोभनमु. पणीयं भत्तपाणं च, अइमायं पाणभोयणं ॥१२॥ लपितं च मन्मनभाषिताऽऽदि तत्सहगतमुखाऽऽदिविका. रोपलक्षणमेतत् , प्रेक्षितं च अर्द्धकटाक्षवीक्षिताऽऽदि, उल्ल गत्तभूसणमिटुं च, कामभोगा य दुञ्जया । पितप्रेक्षितं ब्रह्मचर्यरतः स्त्रीणां संबन्धि चक्षुषा गृह्यत . नरस्सऽत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥ १३ ॥ ति चतुर्दाडं सद्विवर्जयेत् । किमुक्तं भवति?-चक्षुधि हि स. सूत्रत्रयमपि प्रतीतं, नवरं संस्तवः-परिचयः स चेहाप्येकाति रूपग्रहणमवश्यं भावि, परंतदर्शनेऽपि तत्परिहार एव। उसनभोगेनेति प्रक्रमः ॥ ११ ॥ कूजिताऽऽदीनि हसितप Page #1294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भचेरसमा हिद्वाय बंजदत्त येतानि कुयात राज्यवस्थिति निषेधोका सितानिनीति शेषः। भुक्रानि भोगरूपाणि श्र सितानि स्यादिभिरेव सावस्थितानि, हास्याऽऽयुपलक्षणं चैतत् ॥ १२॥ गात्रभूषणमिवेति शब्दोऽपिदार्थ स इष्टमप्यास्तां विद्दितं तथा काम्यन्त इति कामाः, भुज्यन्त इति भोगाः, विशेषणसमासः, ते बेष्टाः शब्दाऽऽदयः, नरस्योपल क्षणत्वात् रूयादेश्च श्रात्म गवेषिणः विषं गरल स्तालपुढं सद्यो घातित्रान्तर्वर्तिनि तालमात्रकालम्बित मृत्युरुष जायते तोऽयमर्थः यचैकदा तथा स्त्रीजनावाद्यपि शङ्कादिकरणतः संयमा55रमभावजीवित स्पेतरस्य नारा देतुस्वादिति वार्थः ॥ १३॥ सम्प्रति निगमयितुमाहदुज्जए कामभोगे य, निचसो परिवजए। काठमाण पत्र पहावं ।। १४ ।। मारामे परे भिक्खु धिमे धम्मसारही । धम्मासमरए दंते भवेरसमादिव ॥ १५ ॥ दुःखेन जीयन्त इति दुर्जयास्तान् कामभोगान् उक्तरूपान् (निश्चलो ति) नित्यं परिवर्जयेत् सर्वप्रकारं त्यज्येत् शङ्कास्थानानि चानन्तरोकानि, पूर्वत्र चस्य मिश्रक्रम स्वारसपण दशापि वर्जयेदन्यथाऽऽज्ञाऽनवस्थामिध्यात्वविराधनादोषसंभवः प्रणिधानान् कामनाका किं कुर्या दिल्या - धर्म भाराम इव पापसम्तापपानी जम्नाय ब्राह्मज्ञान सामान्यग्रह प्रा. निर्वृतिहेतुतया अभिलषितफलप्रदानता धर्माऽऽरामस्त मिरेषु गच्छेति यावत् पद्वा-समता रमत इति धर्म्माऽऽरामः, संचरेत्संयमाध्वनि यायात् मिक्षुः, प्राग्वत् धृतिमान् धृतिः - चित्तस्वास्थ्यं तद्वान् । स चैवं धर्मसारथिरिति । "ठिश्रो उ ठावर परं । " इति वचनादन्येषामपि धर्मे प्रवर्त्तयिता ततः श्रन्यानपि धर्मे व्यव स्थितानुपलभ्य विशेषतो धर्माऽऽरामे रत:-सक्किमान् धर्माऽऽरामरतस्तथा दान्त उपशान्ती वर्षे समाधी - देशी- हालाहले दे०ना० ६ वर्ग ६० गाथा । ब्रह्मचर्ये हितः - समाधानवान् ब्रह्मचर्यसमाहित इति सूत्रद्वयार्थः । ब्रह्मचर्यविशुद्धयोऽयं सर्वोऽप्युपक्रम इति मिल्क अप्रयुतानुत्पन्नरिथरेकस्वनाथो इम्पार्थित शा श्वतः शश्वदन्यान्यरूपतया उत्पन्नः पर्यायार्थितया यद्वानित्या त्रिकालमपि सम्पादाश्वतो कार्थिकानि या नागादेशजविनैवानुग्रहार्थमुक्रानि जिने स्वीकृतिः प्रतिपादितो जिनदेशितः । अस्यैव त्रि. फालगोचरफलमाह - सिद्ध पुरा अनन्त सर्विषय सर्पिणीषु सिद्ध्यन्ति, चः समुच्चये, महाविदेहे, इहाऽपि था तरकाला उपेक्षया अनेनेति ब्रह्मचर्यलक्षणेन धम्ण सेत्स्यन्ति तथा परे अन्येऽनन्तायामनागताखायामि. ति सूत्राऽर्थः ॥ १७॥ इति परिसमाप्ती, प्रवीमि इति पूर्वव त् । उत० १६ अ० बंभण-ब्राह्मण-पुं० खी० ब्रह्मरो उपत्वं ब्राह्मणः । ब्रह्मो मुखजे वर्णे, " बंभणस्स मुद्दातो विष्णा णिग्गया " इति पुराणम् । नि० चू० १. उ० । " अन्नया उउसमय जमदग्ग. या भणिया- श्रहं ते चरुं साहेमि । " श्रीषभस्य ज्ञानो. स्पतौ श्रावका एव ब्राह्मणा जशिरे । श्राचा० १ ० १ ० १ उ० । विशुद्धब्रह्मचारिणि, द्वा० २७ द्वा० दश० । बंभणगाम- ब्राह्मणग्राम - पुं० । नन्दोपनन्द पाटकद्वय भूषिते स्व नामख्याते प्रामे, ग्रा०म० १ अ० । श्राचू० । बंभणय ब्राह्मणक - न० । ब्राह्मणद्दिते शास्त्रे, कल्प० १ अ धि० १ क्षण । वेदव्याख्यानरूपे शास्त्रे, औ० - । ম००। प्रा०चू० 1 , धान्यख्यापनार्थे भेदेनोपादानज्ञापके उदाहरणे यथा ब्रा ह्मणा आयाता वसिष्ठोऽध्यायात इति । दश० ५ ० १ उ० । बंभणा ब्रह्मनाभ - पुं० श्रागमिष्यत्यामुखयां भवि व्यसि तीर्थकरे, सूत्र० १० १५ श्र० । भणियाणका स्त्री० खादले, "बादल - बंभणिश्रा । पाइ०ना० २२६ गाथा । बंमत्थलय-ब्रह्मस्थलक-१० स्वनामख्याते स्थल के पत्र विश्रान्तिर्भास्यता ब्रह्मदत्त चक्रवर्तिना कृता । उत्त० १३ अ० । बंभदत्त - ब्रह्मदत्त - पुं० । " पारिणामिया " शब्दे अत्रैव भागे ६१७ परधनुषामा मोचिते कुमारे, आ० म० १ अ० । श्राचा० । नं० । दश० । काम्पिल्यमगरजाते स्वनामयते सद्विदभरत चक्रवर्तिनि श्रा० क० १ अ० । ती०नि०यू० । ० ति० अथ रिडीमभित् प्रथमं पू. वैभवचरित्रमाह । उत० २ अ० । साएर चंडपु" इत्यादि उस १३ ० (चितसंभूया शब्दे ३ भागे १९८२ पृष्ठे व्याख्यातम् ) जाईपराजिम खलु कासि निवासं तु हत्यिकपुरम्म । चुलगी बंदतो, उदयो नलियाओं ॥ १ ॥ ( १२७१ ) अभिधान राजेन्द्रः । , तम्माद्दात्म्यम् - देवदावगंधा, जक्खरक्खसकिन । बंभवारिं नर्मसंति, दुक्करं मे करंति तं ।। १६ ।। देवा ज्योतिष्कवैमानिका, दानया भुवनपतय गर्य यक्षराक्षस किनारा व्यन्तरविशेषाः समासः सुकर एव । उपलक्षणं चैतद्भूत पिशाच महोरग किंपुरुषाणामेते सर्वेऽपि ब्रह्मचारिणं ब्रह्मचर्यवन्तं पतिमिति शेषः । नमस्यति नमस्कुर्वन्ति दुष्करं कातरजन दुरनुचरम् । ( जे ति ) यः करोत्यनुतिष्ठति, तदिति प्रक्रमाद्ब्रह्मचर्यमिति सूत्राऽर्थः ॥ १६ ॥ सम्प्रति सकलाSध्ययनार्थमुपसंहारमाहएस धम्मे धुए नि (चे) पर, सासए मियदेखिए । सिद्धा सिज्यंति झा, सिज्झिस्संति तहा परे ।। १७॥ चि बेमि । वह नन्तरोक्लो धर्मो ब्रह्मचर्यलक्षणो धुत्रः- स्थिरः परमवादिभिरम कम्प्यतया प्रमापमतिद्वित इति यावत् परमवादिभिरप्रकम्प्यतया । " " जातिपराजित इति जात्या प्रस्तावाचा एडालाऽऽस्यया परा जितोऽभिभूतः स हि वाराणस्यां हस्तिनागपुरे पश्य मायायतो नृपेण नमुचिनाम्ना च द्विजेन डाल ति नगर निष्कासनम्यकारादिना पुरा जन्मन्यपमानित इ. Page #1295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७२ ) अभिधानराजेन्द्रः । बैजदत्त स्येवमुक्तः, यज्ञा-जातिभिसा ऽऽदिनी व स्थानोत्पचिभिरुप र्युपरि जाताभिः पराजित इति पराभवं मन्यमानः अहो ! अ हमचम्यो यदित्थं जीवाश्वेव जातिषु पुनः पुनरप इति । खलुर्बाक्यालङ्कारे स चैवंविधः किमित्याह - (कासि सि ) अका निया नाम भवेद स्पेतुः पूरणे, वेदं कृतवानित्याइ (हरयणपुरमिति ) हस्तिनागपुरे चुलभ्यां ब्रह्मदत्तः ( उबवति ) उत्पन्नः पद्मादिति नलिन विमानात् युग्वेति शेषः इति भादरार्थः ॥ भावार्थस्वयम्-सहित पूर्वज मनिवारा संभूतनामा चाण्डालत्रिए ज्येष्ठ आ सीत्, तत्र व नमुचिनामा ब्राह्मणो ममान्तः पुरमपधर्षितमनेनेत्युत्पन्न कोपेन राज्ञा समर्पितो मारणनिमित्तं मातशाधिपस्य तत्पितुयदि मसुती सकलक लाकुशलो विधत्से नतोऽस्ति ते जीवितमन्यथा नेति, प्रा. धं च तदर्थिनाऽनेन तद्गृह एवातिगुप्त स्थान स्थितेन त दध्यापनं माहितीही व्याकरणाः सकला अपि [कताच भूषापरायां तन्मातरि महोदयाय मुपपतिश्यायाम. ज्ञातस्तजनकेन मारयितुं बा ताभ्यां पितं वासे, उपाध्यायोऽयमाययोस्ततो मा भूदस्याऽऽपदिति, तद्वगमाच्च पज्ञाथितोऽसौ ततः स्थानात्, प्राप्तो हस्तिनागपुरं कृतः सनत्कुमारचक्रवर्तिना मन्त्री । इततो विभूती सातिशयीतकला 35 तिसतरुणीज त्यास त्याजितस्पृश्यास्पृश्यविभाजन रा निवेदितौ यथा विनाशितं नगरमाभ्यां निषिद्धस्तेन नगर. स्यान्तस्तत्प्रचारः कदाचिच्च तावतिकुतूह लतया कौमु दीमहविलोकनार्थमागती जनेन दर्थितावत्यर्थ प्र जतु तत योग्य जातीविन संवेदी प्रसाभ्यां तेजोलेश्यादिखन्धयः समापतित श्वाप्रतोदस्तिमागपुरं प्रविष्टो मासपारके दिखा सम्भूतपतिर्दृश्य नमुचिना, ज्ञातोऽस्य चेतसि पुरय बसायोश्चरितमयं प्रकाशयिष्यतीति निति थिए मुण्ड ! चारडाल ! क्व नगरस्यान्तः प्रोिऽसीत्यादिनि रवचोभिः महत दृष्टिकोपलशकलाऽऽदिभिस्तत्परिजनेन, तद व समस्त सोफेन कुपितश्वासी तेभ्यः समस्तजनदद्दनक्षमामसह्यतेजोलेश्यां मोनुमुपचक्रमे, तत्र च मुखविनिर्यसमपटलान्धकारित विषय वाले व्याकुलितः सान्तःपुरः सतत्कुमारचक्रवर्ती सकलो नगरलोकय स मायातस्तत्पार्श्वे तद्वृत्तान्तश्रवणत श्वित्रश्च प्रारब्धस्तर नेकपा साम्यनवचने परामयितुं तथापि तथामानमस्यरस्पतिको भगवति मा भूदस्माकमकाजमीननमिति खीरश्नसहितो महीपतिस्तं क्षमयांबभूष, यथा-भ गयर 1 शमितव्यमस्माकमिदमिति श्वन्तरे श्री रत्नफोम लालापसमुत्पता त डालजातिरेव मयेयमनेकथा कदर्थनातुरिति चिन्तयेंश्वित्रयतिना निवार्यमाणोऽपि यदि समास्य तपसः फलमस्ति तदन्यजन्मनि पत्यमेव मम भूयात् ये मामध्ये ललितललनाविलासास्पदमजाति स प्रामीति निदानवोननं प्रपेदे ततः स तपोऽनुभाष तो नखिनगुल्म विमाने वैमानिकत्वेनाजनि, ततध इयुतश्लन्यां ब्रह्मदसः समुत्पेदे । क ? इत्याह नद ( कंपिले संभूओ (२+गाथा) काम्पिल्य इति पाञ्चालमण्डलस्य तिलक इव काम्पिल्यनास्नि नगरे संभूत इति पूर्व जन्मनि संभूतनामा । अमुं पादमतिक्रान्त स्त्रोत्तरपादद्वयं चैतदितार्थप्रसङ्गायार्थान्तराभिधानद्वारतः स्पृशन् स्अस्पर्शिक निर्युक्लिमाइ राया व तत्थ मो फडभो तो करुदतो चि । राया य पुष्कचूलो दीहो पुरा होइ कोसलिभो ।। ३३६ ॥ पंच वसा, सब्बे सह दारदरिसयो भोच्या । संच्छरं अणू, वसंत एकेकर अम्मि ।। ३३७ ॥ राया य बंभदत्तो, धणुओ सेावई य वरधणुभो । इंदसिरी इंदजसा, इंदुवसू चुलणिदेवीओ ॥ ३३८ ॥ राजा च तत्र पाञ्चालेषु काम्पिश्ये महा इति ब्रह्मनामा काशी जनपदाधिपः कटकस्तुतीया कुरुषु गजपुराचिपति करे इति राजा च महेषु पम्पास्वामी पुण्यतो वा किल ब्रह्मपत्न्या (ल) लिम्या भ्राता दीर्घ इति दीर्घपृष्ठः पुनर्भपति कीलिकः साकेतपुराधिपतिः ॥३३६॥ तेनन्तरोका पश्च वयस्याः सर्वे समस्ताः सह दारान्पश्यन्तीत्येवंशीलाः सहदारदर्शिनः किमु भवति एतस्वीका राः समानवयस इति यावत् । (भोच्च त्ति) भुक्त्वा संवत्सरं वर्षमन्यूनं परिपूर्ण वसन्त्यासते, तत्कालाऽपेक्षया वर्तमा नता, राज्ये एकेसम्बन्ध द्वयार्थः ॥ ३३७॥ तृतीयगाथा तु तात्पर्यराजश्रीप्रमुखाश्चतस्रो देव्यस्तत्र च सम्याः पुत्रोऽ जमि, धनुनाम्नः सेनापतेरपि तत्रैवाहनि सुतः समुदपाद, कृतानि इयेोरपि मङ्गल कौतुकानि दत्तानि च दीनानाथेभ्यो दानानि विद्दितं स्वसमये राजपुत्रस्य ब्रह्मदत्त इति नाम, इतरस्य तु वरधनुरिति, कालक्रमेण च जातौ कलामइणेोचितौ प्राहितौ खर्या अपि कलाः अस्मिश्चान्तरे मरणप सागतया जीवलोकस्य मृतो ब्रह्मराजः कृतमेकम तिक्रान्तेषु च कतिपय दिनेषु तद्वयस्यैरभिषिको राज्ये ब्रह्मदस्तः, यलोचितं च तैर्यथैष नाद्यापि राज्यधुराधरण• धीरेय इति पाविभूषितः कतिचित्संवत्सराबि निक पतस्तैस्तत्र दीर्घपृष्ठ मताः स्वस्ववंशेषु फटका तश्च सर्वत्राप्रतिद्दत प्रवेशतया दीर्घपृष्ठस्य सह बुलन्याः संस्था तदन्तःपुरपालिया, न्यवेद तथा धनु सेनापतिममितित् वृतं निरूपितस्तेन परधनुधान कदाचित्कुमारवयामोष्य इति । भार तथैातुम् अन्यदाचार्य विदितदीपृष्ठ लनीवृतान्तः केनचिदुपायेनाभू निवारयामीति विजाति• शकुनिकसंग्रहण कमानीय कुमाराय पनिन्ये तवातिनियमि तमादायान्तःपुरस्यान्तः किलान्योऽपि य एवं शीलः सोऽ स्माभिरित्यं नियन्त्रय इति तो स्वयं स्वसहचर डिम्भैद् घोषयन्तौ प्रतिदिनमितश्चेतश्च भ्रमितुमारब्धौ उपलब्धं च ताभ्यामनुष्ठीयमानं दीर्घप्रे कुपितस्यासौ कुमाराय मणितालमी यथायमुपायेन केनापि बिनान वैष उपेक्षितः मंझमाकं भवितेति प्रतिवर्ष तत्तया दुरस्ततया मोहोदयस्य, निरूपितश्च ताभ्यामुपायो यथास्मै पुष्पचूलमातुलेन स्वदुद्दिता पुष्पधूला नामपूर से Page #1296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भदत्त वि तामसी परिणाय्यते कार्यते चैतच्या तब सम्मलितमशेषमपि तथैवान्तःपुरर शिकया निवेदितं धोतेनापि निमेतदिति पर्यालोच्य कुमारसंरक्षणाय प्रयक्षः कर्तुमुपचक्रमे तथाहि । साम यथा वयमानास्तत् किमिदानीमपरेण ?, युष्मा मिरनुज्ञाता धर्ममेवेत कालोचितं कुर्मः तेनाऽऽलोचितम् यसै दुरारमा दूरस्थो न सुन्दर इति उपस्थ तिमखिलमपि राज्यं विनश्यत्यत इहैव स्थितो जपहोमदाना ssदिभिर्धर्ममुपचिनु । तेन चोक्तम्- यदादिशक्ति भवन्तः इत्युक्त्वा गतः कारितं चानेन मागीरच्या डे स्वनिवासस्थानं निरूपितं तत्र सर्व खानिता च तथ प्रत्ययिका सुरक्षा शापितासी रचना, इत गणितं तत्परिसयन लग्नं निष्पन्नं च जतुगृहं प्रे पिता मन्त्रयनतोऽन्यैव कन्यका मातुलेन समागतो लग्नदिनः तं सर्वसमुपमनं शापित जब ज तुगृहे, कुमारः प्रदीपितं च द्वार एव सुप्तजनायां रजभ्यां ज्ञातं चाssसनस्थितेन वरधनुना, उत्थापितः कुमारः, दृष्टं च सर्वतः प्रदीप्तमेतेन, उक्तश्च चरधनुः मित्र ! किमि. दानी क्रियतामिति, तेनोक्तम्- मा भैषीः, यतः प्रतिविद्दितमत्र तातेन, अत्रान्तरे चाऽङ्गतं नागकुमारद्वयानुकारि भुवनमु. यि पुरुषश्यम्, अभ्यधाच्च तत् मा भैष्टाम्, श्रावहिधः मोहजालीदासकी तत् क्रियतां सानिय रामार्गे युगा ( १२७३ ) अभिधानराजेन्ड प्रधानमश्वद्वयम् । उक्तं च ताभ्यां चेटकाभ्यामेतावारुह्य दे शान्तरापक्रमेणादि बसरः शुभो भवति तचनमा कि किमेतत् है, इस्याकुलितसो दस कथितः सर्वोऽपि वरच मालनीवृत्तान्तः, श्रभिहितं चं- यचेदमे वेदानीं प्राप्तकाल मिति, विनिर्गतौ च तत्प्रधानमभ्ययुगलमारुह्येति तृतीयमाघातात्पर्यार्थः एवं च प्राप्तापसरा प्रएिडी ततस्तत्र ये कन्यालाभा ये च तत्पितरस्तदुपदर्श नाय गाथापञ्चकमाह- विशेय विज्जुमाला, विलुमई वित्तसेओ महा । पंथ यागजसा पुण, किन्त्तिमई कित्तिसेो य ॥ ३३६ ॥ देवी व नागदत्ता, जसवर रणगर जवखदरिलो प वच्छी य चारुदत्तो, उमभो कच्चा इसी य सिला ॥ ३४० ॥ धणदेवे वसुमत्ते, सुदंसणे दारुए य नियडिल्ले । पोथी पिंगल पोए, सागरदत्ते य दीवसिहा || ३४१ ॥ कंपिल्ले मलई बराई सिंधुदन सोमाय । वह सिंधुसेपासे वाखीर पइगा व || ३४२|| हरिएसा गोदत्ता, कणेरुदत्ता कणेरुपगा य । कुंजर कसेरुसेवा, इसिवु कुरुमई देवी ।। ३४३ ।। इदं च सोपस्कारतया व्यायते चित्र ज नकस्तदुहितरी विद्युन्माला विद्युम्मती च तथा वित्रसे नकः पिता भद्रा च तद्दुद्दिता । तथा पन्धकः पिता, ना३१६ " बंभदत्त " गयशाः कन्यका । पुनः समुच्चये, तथा कीर्तिमती कन्या, कीर्तिसेनश्च तत्पिता तथा देवी व नागदत्ता यशोमती रत्नवती च पिता व सर्वासामपि यक्षहरिलः । यः समु sa, as a कम्या, चारुदत्तः पिता तथा वृषभो ज नकः, कात्यायनसगोत्रा तत्सुता शिला नाम । तथा धन(ण) देवो नाम वणिक, अपरा वसुमित्रः, अन्या सुद. शेन दायक निकृतिमान् मायापर परवारोऽमी कुकुटयु व्यतिकरे मिलिताः, तत्र च पुस्ती नाम कन्यका, तथा पिला नाम कम्या. पोत तत्पिता, सागरवसावधिक तदङ्गजा च दीपशिखा । तथा काम्पिल्यः पिता. मलयती दुहिता तथा धनराजी नाम कम्या तनका सि. न्धुदत्तः, तथा तस्यैवान्या सोमा व नाम कम्या, तथासिन्धु सेनप्रद्युम्न सेनयोर्यथाक्रमं वानीरनाम्नी प्रतिकाभिघा ना चेति पयते च प्रतिभा बेति दे दुहितरी तथा हरि केशा गोदत्ता करेत्ता करेणुपत्रिका च (कुंजर करणेइसे सि ) सेमाशय प्रत्येकमभिसम्बन्धात्रसेना करेणुसेना वृद्धिः कुरुमती देवी सकलान्तः पुर प्रधाना कुरुमती चीरसमं ब्रह्मसेनायासेति सर्वत्र शेषः प्रतिप्रसिद्धत्वादेतनानामनभिधानमिति गाथापञ्चकाऽर्थः । 1 - अधुना येषु स्थानेषु असौ ( ब्रह्मदत्तः ) भ्रान्तस्ताम्यभिधातुमाह , कंपिल्लं गिरितडगं, चंपा इत्थिणपुरं च साएयं । समकड नंदोसा, बंसीवासाय समकर ॥ २४४ ॥ समकडगाओ अरवी, तर वडपायवम्मि संकेभो । गणं वरअस, पंचकोसणं चैव ॥ २४५ ॥ सोहम्मई मच्चो, देहि कुमारं कहिं तु मे नीओ १ । गुलियो कदम अडियो तेहिं ॥ २४६ ॥ मोऊ कुमारी भी ओो यह उप्परं पलाइस्था काय पेररूवं देवो बासि य कुमारं ।। ३४७ ॥ वडग भथलयं, बडथलगं चेत्र होइ कोसंधी | वाखारसि रायगिहं, गिरिपुर महुरा य अहिछत्ता ॥ ३४८ ॥ वहस्थी कुमारं जगवई आहारण पण गुगलुद्धो । वचतो वडपुर, अहिछत्तं अंतरा गामो || ३४६ ॥ गहणं नई कुटंग महणतरागाणि पुरिसहिययाणि । देहाणि पिखु यो दारओ जाओ ।। ३५० ॥ सुपट्टे कुमकुंड, भिकुंडिविचासियम भिवसच् । महराओ अहिछत्तं, बच्चे तो अंतरा लभइ ।। ३५१ ।। इंदुपूरे रूप (मह) पुरे, निनदनविसायो । लभ काम्रो दोषि च ।। ३५२ ॥ रायगि मिहिलहत्थिण - पुरं च चंपा तहेव सावस्थी । एसा उ नगरहिंडी, बोधव्वा बंभदत्तस्स ।। ३५३ ।। रयणुपया य विजओ, बोधव्वो दोहरोसमुखे य । संघरण नलिगिम्यं नापास ३५४ ।। " 9 - Page #1297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७४) बंभदत्त अभिधानराजेन्डः । बंभदत्त गाथा एकादश । प्रासामपि तथैव व्याख्या, काम्पिल्यं वैकेन तत्रत्यधेष्ठिना, नीतश्च तेन स्वगृहं कृतं चाभ्यागत. पुरं यत्राऽस्य जन्म, ततोऽसौ गतो गिरितटकं सन्निये- कर्तव्यं,परिणायितश्च नैमितिकाऽऽदेशतः स्वदुहितरमुपचारि. शं तस्माच्चम्पां, ततो हस्तिनापुरं चानन्तरं च साकेतं. तश्च भुजगनिम्ोकसहशैर्विविधवसनैर्वजेन्द्रनीलादिप्रधा साकेतासमकटकं , ततश्च मन्दिनामकं सनिवेशं, त- नमाणिभिः, कटककेयूरकुण्डलाऽदिभिश्वाऽऽभरणः, ततस्त. तोऽवस्थानकं नाम स्थान, ततोऽपि चारण्यं परिभ्रमन् | वगुणलुब्धमानसः स्थितस्तत्रैव कियत्कालं. जनयति तदाता बंशीति बंशगहनं तदुपलक्षितं प्रासाद वंशीप्रासाद, ततो दुहितरि कुमारम् ॥३४६॥ इतश्च प्राप्ताः कृतान्तानुकारिणो ऽपि समकटकम् ॥ ३४४ ॥ समकटकादटवीं . तां च प दीर्घपृष्ठप्रहितपुरुषाः, प्रारब्धाः समन्ततस्तमवलोकितुमुप. र्यटतो ब्रह्मदत्तस्य तृडतिशयतः शुष्ककण्ठोष्ठतालुताऽजनि, "लब्धतवृत्तान्तश्च नष्टस्तद्भयात्प्रचलितश्च सुप्रतिष्ठपुराभिमु ततस्तेनोको वरधनु:- भ्रातः! बाधते मां तृट् तदुपहर कु खं गन्तुं, तत्र च मिलितः कश्चिद्विटः कार्पटिको, रष्टुं वाभिमुः मोऽपि जलम् . मनाऽन्तरे दृष्टोऽनेन निकटवर्ती घटपा. समागच्छत् किश्चित्तथाविधं मिथुनकं, रष्ट्रा व तदानादपः, शायितस्तत्र शीतलच्छाये तस्पल्लयोपवितस्तरे मुदाररूपां कुमारमयमवोचत् यदि युष्मत्प्रसादतः कथ. ब्रह्मदत्ता, रुतश्च वरधनुना तेन सह सकेतो यथा यदि श्चिदेनां कामयेय इति, ततस्तदुपरोधात्तनोक्तम्-प्रविश तर्हि मां कविहीपृष्ठप्रहित पुरुषाः प्राप्स्यन्ति ततोऽहमन्यो बंशीकुडप्रंस्थितः पथि कुमारः, प्राप्तं च मिथुमम् , उक्त त्याऽभिज्ञानं करिष्ये, तत इतस्त्वया पलायितव्यमिति । स्तत्पतिर्मदीयं कलत्रमिह गर्भशूलाभ्याहतमास्ते सविसर्ज. गतोऽसौ जलाम्वेषणाय, एं वैकत्र पश्मिनीखण्डमरिडतं सरो,प्रहीतं च पमिनीपप्रपुटके जलम्, प्रत्यावृत्तस्य | यणमेकं स्वकीयपनी, विसर्जिता चासौ तेमानुकम्पा. परेण, दृश्व तयाऽसौ, जातस्तस्था अपि तदनुरागः, प्रवृत्तं बब्रह्मपत्ताऽभिमुखमागन्तुं ग्रहणं तवटा सनदेशे कथः। श्चिदुपलब्धनदपतरणवृत्तान्तैर्धपृष्ठप्रहितपुरुषैः अति च तयोर्मोहनकम् एवं च कियतीमपि बेलामतिक्रम्य विनि. ताऽसौ कुडात् , उक्तं चाssरमानं क्यापयितुं कुमार दोषवद्भिर्वरधनोबन्धनं बल्लवितानेन आक्रोशनं चैव दुष्ट प्रति , यथा-गहनं नदीकुडकं ततोऽपि गहनतराण्येव गहघचसा कृतम् ॥ ३४५ ॥ अन्यच्च-स हन्यते मुष्ठिप्रहाराऽऽदिभिरमात्यो घरधनुः, भएयते च यथा देहीति दौ मतरकाणि पुरुषादयानि भवन्ति । अयं चानेन प्रनितो. धः-यथा षयं जानीमा खीहदयान्यतिगहनानि, भवच्चि. कय कुमारमरे! दुराचार! क पुनरसी नीतः स्वया राजपुत्र इति। अत्र चाऽन्तरे सरकेतमनुसरता पठितमि सेन च तान्यपि जितानीत्युक्त्वा पति प्रत्याययितुमाहदमनेन-" सहकारमअरीमनु, धावति मधुपो विमुख्य (देहाणि ति ) देहदानी पूर्णपात्रम्-अक्षतभृतभाजनं प्रियं. मधु मधुरम् । कमले कलयन् पश्चा-त्संकोचकृतां स्वतनुबा. खलु नोऽस्माकं यहारको जात इति, ते इति वक्तव्ये यम इत्यु. धाम् ॥ १॥ " ( गुलियविरेयणपीओ ति ) प्राकृत- नं सदैक्यं घोतयितुम् , इत्युक्त्वा च तया धूर्या गृहीतं स्वात् पीतविरेचनगुलिका, स हि तैर्ग्रहीतुमपक्रान्तोऽन्य- ब्रह्मदत्तोत्तरीयं , गता च पत्यैव सह, ततश्च निर्गतोऽसौ थाऽस्मनो विमुक्तिमनवगच्छन् पूर्वलब्धां विरेचनगुटिका कुडलात्कृतश्च परिहासः,प्रवृत्तो गन्तुं प्राप्तः सुप्रतिष्ठम् ॥३५॥ प्रथममेव पयसा पीतवान् , विरक्तश्च , तया जाताश्च तत्र च कुसुकुण्डी नाम कन्या( भिकुंडिषित्तालि. मुखे फेनबुबुदाः। पधं च कपटेन मृतः कपटमृतो मृत यम्मि जियसत्तु त्ति) आर्षत्वादुभयत्र सुप्यस्ययः, भि. इति छर्दितस्त्यक्तस्तैः ॥ ३४६ ॥ इतश्च तत्पठितं श्रुत्वा कुण्डिवित्रासिताडिकुण्डिनामनृपतिनिष्कासिताजितशत्री कुमारी भीत इति प्रस्तः । अथाऽनन्तरम् ( उपहं ति)| जितशत्रुनामनृपतेः सकाशाम्मथुरातोऽहिच्छत्रां जन्नन्तरे। उत्पथेन । पलाइथ त्ति) पलायितवान् तथा च तं पलायमा. ऽन्तराले लभते-प्राप्नोति ॥ ३५१ ॥ तथैन्द्रपुरे शिवदत्तो नमवलोक्य कृत्या स्थविररूपं देवः किमस्य सवमस्त्युत नेति नाम (रुद्रपुरे च) भद्रपुरे च विशाखदत्ताऽभिधाना, तड्: परीक्षणार्थम् (वाहेसि यति) वाहितवान् व्यंसितवानित्यर्थः दुहितरी बटुकत्वेन दीर्घपृष्ठपुरुषभीत्या कृतम्राह्मणवेषेण कुमारम्॥३४७॥ ततश्च परिभ्रमतो बटपुरकं तस्माच ब्रह्मस्था लभते कन्ये द्वराज्यं च ॥ ३५२ ॥ ततो राजगृहं मिथिला लकं.बटस्थलकं चैव भवति विश्रामविषयः कौशाम्बी वारा हस्तिनापुरं चम्पां तथैव श्रावस्तीम् , अभ्रमीदिति शेषः। णसी राजगृहं गिरिपुर मथुरा अहिच्छत्राच ॥३४॥ ततोऽपि एषा स्वनन्तरमुपदर्शिता नगरहिण्डिोद्धव्या ब्रह्मदत्तस्ये. गच्छनाऽरण्यानीं प्रविष्टेन दृष्टास्तापसाःप्रत्यभिज्ञातश्च तैर्य. ति ॥ ३५३ ॥ एवं च भ्रमतोऽस्य मिलिताः कटककरेणु. राजस्थास्मनिजकस्य सुत इति धृतश्चातुर्मासी तत्र च दत्ताऽऽदयः पितृवयस्याः,गृहीताः कियन्तोऽपि प्रस्यन्तराजातापसकुमारकैः सह क्रीडतैकस्मिन् दिनेऽवलोकितो बन नः, चक्ररत्नं समुत्पत्रं, प्रारब्धस्तदुपदार्शतमार्गेण दिग्यि. हस्ती समुत्पन्नं च नृपसुतसुलभमस्य कुतूहलं, प्रारब्धश्च जयः, प्राप्तः काम्पिल्ये, निर्गतः तदभिमुखं दीर्घपृष्ठो, लग्नविविधगजशिक्षाभिरमुं नेदयितुमारूढश्च निष्पन्दीकृत्य तत्- मनयोरायोधन विनिपातितोऽसौ ब्रह्मदतेन , एवं च बोT प्रवृत्तश्चासौ कुमारापहरणाय. वीक्षितश्च कियदपि दूरं | व्यस्तस्य दीर्घपृष्ठविषयरोषमोक्षश्च , अत्रान्तरे मिलिता। गतेनैकस्तालग्नश्च तदधो बजति हस्तिनि विटपैकदेशे | परिणीतकन्याः पितरः, समुत्पन्नानि च यथावसरं शेषरकुमार, अपक्रान्ते च करिणि ततस्तरोरुसीर्य विमूढदि- स्नानि , साधितं षट्खण्डमपि भरतं, प्राप्ताश्च नवापि नि. ग्भागो भ्रमितुमारेभे भ्राम्यश्चारण्याद्विनिर्गत्य गतो बटपुरं. धयः परिणतं चक्रवर्तिपदम् , एवं च सुकृतपुण्यफलमुपभु. बटपुराच्त्र प्रस्थितः श्रावस्ती गच्छंश्च प्राप्तस्तथाविधमे | अतोऽतिक्रान्तः कियानपि कालोऽन्यदा चोपनीतं देवतया कमन्तरा प्रामम् उपविष्टश्च तन्निकटविटपिनि विश्नमितुं दृष्टः । मन्दारदाम, समुत्पन्नं तदर्शनादस्य जातिस्मरणमनुभूतानि. Page #1298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनदत्त अभिधानराजेन्द्र बन्नदत्त मयैवंविधकुसुमदामान्य हि नलिनगुल्मविमाने देवोऽभव श्लोकपूरयिताऽऽस्व इति । कथितस्तव्यतिकरो, यथा-के. मिस्येकादशनियुक्तिगाथाऽर्थः ॥ ३५४ ।। नचित् भिक्षुणैतत्पूरितं न स्वमुनेति, पृष्टं च पुनरनेन होकु. इत्थं तावत् काम्पिल्ये संभूतः चक्रवती जातचित्रस्य तु का लनयनयुगलेन-क्व तर्धसाविति, कथितमारघट्टिकेन-दे. वाते त्याह व! मदीपवाटिकायामेतच्चाऽऽकरार्य प्रचलितः सबलवाह. "कंपिल्ले संभूत्रो," चित्तो पुरण जाओं पुरिमतालम्मि । नः सकलान्तःपुरसमन्वितश्च तहर्शनाय , प्राप्तस्तदुधा. सेडिकुलम्मि विसाले, धम्मं सोऊण पब्बइओ ॥२॥ नं दृष्टो मुनिः, वन्दितः सबहुमानम् , उपवेसितश्चैकास. पादत्रयम् । चित्रः पुनर्जातः पुरिमताले, स हि चित्रनामा ने, पप्रच्छतुः परस्परमनामयं, कथयामासतुश्च यथास्थम. महर्षिः, तत्र संभूतिनाम्नि भ्रातरि तथाऽनशनं प्रतिपन्नव. नुभूतसुखदुःखफलविपाक, तत्कथनानन्तरं च धर्मिता निजस्यहो दुरन्तो मोहचित्रा कर्मपरिणतिश्चञ्चलं चित्तमित्यादि समृद्धिश्चक्रवर्तिना, प्ररूपितस्तद्विपाकदर्शनतस्तस्पारत्याग विचिन्स्य चतुर्विधमप्याहारं प्रत्याख्यातवान्, मृत्वा च प. श्चित्रयतिना, पतावानेव प्रस्तुताध्ययनसूत्रस्थाधोऽभिधे. रिडतमरसेन समुत्पन्नस्तव नखिनगुल्मनाम्नि विमाने, य इति सूत्रनियुक्निगाथयोर्भावार्थः। सतस्तत्र स्वस्थितिमनुपाल्योरपन्नः पुरिमतालपुरे, तत्रापि सम्प्रति यदुक्तं-सुख दुःखफलविपाकं तो कथयामासतु. वेत्याह-वेष्ठिकुले षणिकप्रधानान्वये, विशाले विस्तीर्णे पु: रिति, तंत्र-चक्रवर्ती यथा कथयामास तथा अपात्राऽऽदिवृद्धिमति, प्राप्तवयाश्च तथाविधस्थविरसनिधी ___ सम्बन्धपुरसरमाहधर्म-यतिधर्म शास्यादिकं श्रुत्वाऽऽकपर्य प्रबजितः प्रत्र- चक्कवही महिडीओ, बंभदत्तो महानसो । ज्या प्रतिपन्नवानिति सूत्रभावार्थः । भायरं बहुमाणेण, इमं वयणमब्ववी॥४॥ ततः किमित्याह भासि मो भायरो दो वि,प्रामझवसाणुगा । कंपिश्चम्मि य नयरे, समागया दो वि चित्तसंभूया । अममममणूरत्ता, अमममहिपसिणो ॥५॥ सुहदुक्खफलविवागं, कहिंति ते एगमेगस्स ॥३॥ दासा दसम्मए पासी, मिया कालिंजरे णगे। काम्पिल्ये व नगरे ब्रह्मरत्तोत्पत्तिस्थाने समागतौ मिलिती। सा मयंगतीराए, सोबागा कासि भूमिए ।॥ ६॥ द्वाबपि चित्रसंभूतौ जम्मान्तरनामतः सुखदुःखफलवि. देवा य देवलोगम्मि, पासि भम्हे महिडिमा। पाकं सुकृतदुष्कृतकानुभषरूपं ( कहिंति ति) कथयतः | स्मेति शेषः । ततश्च कथितवन्तौ तौ चित्रजीवयतिब्रह्मद. इमा णो छठिया जाई, भएणमण जा विणा ॥ ७॥ सौ ( एगमेगस्स त्ति ) एकैकस्य परस्परमिति यावदिति चक्रवर्ती महर्द्धिको बृहद्विभूतिः ब्रह्मदत्तो महायशा भ्रातरं सूत्रातरार्थः। जन्मान्तरसोदयं बहुमानेन मानसप्रतिबन्धेनेदं वक्ष्यमाभावार्थस्तु नियुक्तिकृतोच्यते-- गलक्षणं वचनं-वाक्यमब्रवीदुक्तवान् , यथा (प्रालिमो जाईए पगास निवे-यणं च जाईपगासणं चित्ते । ति) अभूवाऽवां म्रातरौ द्वावप्यन्योन्यं-परस्परं वशमा. चित्तस्स य भागमणं. इतिपरिचागसुत्तत्थो ॥ ५५ ॥ यत्ततामनुगच्छन्ती यौ तावन्योऽन्यवशानुगौ तथा अन्यो न्यमनुरक्तावतीव हवन्तौ, तथाऽन्योऽभ्यहितैषिणी परस्पतदा हि ब्रह्मदतो जातिस्मरणोपलब्धस्वजातीनां " दा. रशुभाभिलाषिणी, पुनःपुनरम्योऽभ्यग्रहणं च तुल्यचित्तता:सा दसन्नए पासी ।" इत्यादिना सार्द्धश्लोकेन जनाय प्र. तिशयख्यापनार्थम् , मकारच सर्वत्रालाक्षणिका, केषु पुनकाशनं निवेदनं च-य इमं द्वितीयश्लोकं पूरयति तस्मै रा. भवेविस्थमावामभूवेत्याह-दासौ दशाणे-शार्णदेशे (मा. ज्यामहं प्रयच्छामीति विहितवान् , ततस्तदर्थना जनेन उ. सि सि) अभूव, मृगौ कालिअरे कालिजरनाम्नि मंगे, बघुण्यते तनामनगराऽऽकराऽऽविषु पठ्यमानं चाऽऽकर्णितं सौ मतगीरे उतरूपे, श्वपाको चाण्डाली (कासिभूकरयोगकर्या चित्रजीवयतिना, ततस्तथाविधज्ञानातिशयो. मिए ति ) काशीभूम्यां काश्यभिधाने जनपदे, देवी , पयोगतः स्वजातीरुपलभ्य जातोऽस्याभिप्रायो यथा गस्वातं देवलोके सौधर्माऽभिधाने ऽभूव , (अम्हे ति) भाषा जन्मान्तरनिजभ्रातरं संभूतजीवमवबोधयामि इति , प्र. महर्द्धिकौतु किल्विषिको, (इमा को सि) स्थितस्ततः स्थानारप्राप्तःक्रमेण काम्पिल्यं, स्थितस्तदयाहरु. यमावयोः षष्ठयेव षष्टिका जातिः । कीरशी येत्याहथाने, श्रुतश्चारघहिकपरिपच्यमानः सार्द्धश्लोकः, पूरितश्चा. (अण्णमण सि ) अन्योऽन्येन-परस्परेण या विना, नेन द्वितीयम्लोकोऽवधारितश्वारघहिकेन, धावितश्चाऽ. कोऽर्थः १, परस्परसाहित्यरहिता षियुक्तयोर्यकेति भाषः । सौ नृपसकाशं राज्यलोभेन, पठितं चैतेन तत्पुरतः, परिपूर्ण इति सूत्रचतुथ्याऽर्थः। प्रलोकवयं, जातस्तवाकर्णनात्तस्य विसावेशो, निरुद्धश्च त. इत्थं चक्रवर्तिनोक्त मुनिराहअनितमर्छया श्वासमार्गों, निमीलितं लोचनयुगलं.लुठितःस पासनात् निपतितो भुवि किमेतत् किमेतदित्यादिनाऽऽकुलि. कम्मा णिदाणपगडा, तुम्मे रायविचिंतिया। तः सर्वोऽपि तत्परिच्छदो, दृष्टश्च तेनारघट्टिकः, ताडितःपा. तेसिं फलविवागणं, वियोगमुवागया ॥ ॥ रिणप्रहाराऽऽदिभिरारटितमेतेन न मयैतत्पूरितं न मयेति.किं | | कर्माणि हानाऽवरणाऽऽदीनि नितरां दीयन्ते लूयम्त दीयस्वन्यनैष भिक्षुणैतत्कलिकदलिमूलेनेति । अत्रान्तरे लब्धा ते पा खण्ड्यन्ते तथाविधसानुबन्धफलाभाषतस्तपःप्रचेतना, प्राप्तं च स्वास्थ्य चक्रवर्तिना । उहं-क्याऽसौ भृतीम्यनेनेति निदानं साभिवाप्रार्थनारूपंतेम प्रकर्षण Page #1299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बजदत्त कृतानि विहितानि निदानप्रकृतानि निदानवशमिदानी ति योऽर्थः स्वया राजन् ! विश्विन्तितानीति, तद्धेतुभूताऽऽर्त ध्यानाऽऽविध्यानतः कर्माण्यपि तथोच्यन्ते तेषामेवंविधकर्मणां फलं चासौ विपाका शुभाशुभंजन करयलक्षणः फलविपाकस्तेन, यद्वा- कम्मरयनुष्ठानानि (णियाणप ति ) निदानेनैव शेषशुभा ऽनुष्ठानस्याऽऽच्छादितत्वात् प्रा. यत् प्रकटनिदानानि स्वया राजन् ! विविम्तितानि कृतामीति यावत् । तेषां फलं क्रमात् कर्म तद्विपाकेन विप्रयो. गं विरहमुपागती प्राप्तौ । क्रिमुक्तं भवति १- यत्तदा त्वयाऽस्मारितेाऽपि निदानमनुष्ठितं तत्फल मे तद्यदाययोस्त थाभूतयोरपि बियोग इति सूत्राऽर्थः । इत्थमषगत बियोगहेतुश्वकी पुनः प्रश्नयितुमाहसच्च सोयपगडा, कम्मा मए पुरा कडा । ( १२७६) अभिधानराजेन्द्रः । ते अज्ज परिभुंजामो, किं नु चित्तें वि से तहा ॥ ६ ॥ सस्यं - मृषाभासापरिहाररूपं शौचम्-श्रमायमनुष्ठानं, ताभ्यां प्रकटानि प्रक्यातानि कर्माणि प्रक्रमाच्छुभाऽनुठानानि शुभप्रकृतिरूपाणि वा मया पुरा कृतानि यानीति गम्यते । तान्यद्य-अस्मिन्नहनि शेषतद्भव कालोपलक्षणं चैतत् (परिभुंजामो ति ) परिभुजे तद्विपाको पनतीरक्षाऽऽदिपरिभोगद्वारेण वेश्ये, यथेति गम्यते, किमिति प्रश्ने, नु इति वितकें, चित्रोऽपि चित्रनामाऽपि, कोऽथ १--भवानपि ( से इति ) ताति तथा परिभुङ्क्ते नैवभुङ्गे भिक्षुकत्वाद्भवत स्तथा च किमिति भवताऽपि मयैव सहोपार्जितानि शुभकर्माणि विफलानि जातानीत्याशय इति सूत्राऽर्थः । मुनिराह सध्वं सुचिनं सफलं नराणं, कदा कम्माण न सुक्खु अस्थि । अत्येहि कामेहि भ उत्तमेहिं, माया ममं पुष्पफलोवेओ ॥ १० ॥ जाणाहि संभूय ! महाणुभागं, महिडियं फलोववेयं । चित्तं पि जाणाहि तहेव रायं, इडी जुई तस्स षि अपभ्रुया ।। ११ ।। महत्यरूवा वयणष्पभूया, गाहाऽगीया नरसंघ मके । जं भिक्खु सीलगुणोववेया, इह जयंते समणोऽम्हि जाओ || १२ || सब निरवशेषं, सुची शोभनमनुष्ठितं तपःप्रभृतीति मयते । सुचीर्णे प्रोषितव्रतम् इत्यादि रूढितः साधुवं, es फलेन वर्तत इति सफलं नराणामित्युपलक्षणत्वादशे बाणामपि प्राणिनां किमिति ? यतः कृतेभ्योऽर्थादवश्यवेद्य. तयोपरचितेभ्यः कर्मभ्यो न मोक्षो मुक्तिरस्तीति ददति हि तानि निजफलमवश्यमिति भावः । प्राकृतत्वाच्च सुपुण्यत्ययः स्यादेतत् स्वयैष व्यभिचार इत्याह- अर्थेः- द्रव्यैरयैव प्रार्थनीयेः, वस्तुभिरिति गम्यते । कामैश्च मनोशशब्दाऽऽदिभि For Private बदन्त दन्तमैः- प्रधानैः, लक्षणे तृतीया तत एतदुपलक्षितः सन् प्रा. रमा मम पुण्यफलेन शुभ कर्मफले नोपपैोऽन्वितः स पुण्यफलेोपपत इति ॥ १० ॥ यथा त्वं जानासि अवधारयसि संभूत! पूर्वजन्मनि संभूताभिधान ! महानुभागं बृहन्महा रम्यं महर्द्धिकं सातिशयविभूतियुक्तमत एव पुरायफलीपे चित्रमपि जानीहि अवबुध्यस्व तथैषाविशिष्टमेव राजन् ! नृप !, किमित्येवमतश्राह शुद्धिः संपत् युतिर्दीतिस्तस्याऽपीति जन्मान्तरनामतचित्राभिधानस्य, ममापीति भावः । शब्दो यस्मादर्थे ततो यस्मात्प्रभूता वहीत्यर्थः यद्वाआत्मा मम पुण्यफलोपेत इत्यनेन चित्र एषाऽऽत्मानं निर्दिशति, तथा जानीहि संभूत इत्यादावात्मे स्यनुवर्तनेषशाव विभक्तिपरिणामः । ततबैवं योज्यते हे संभूत ! य था स्वमात्मानं महानुभागाऽदिविशेषणविशिष्टं जानासि त था चित्रमपि जानीहि चित्रनाम्नो ममापि गृहस्थभाषे एवंविधत्वादेवेति भावः । शेषं प्राग्वत् ॥ ११ ॥ यदि तवाप्येवंविधा समृद्धिरासीसत्किमिति प्रथजित इत्याहमहान परिमितोऽनन्त द्रव्यपर्यायाऽऽत्मकतया अर्थोऽभिभवं यस्य तन्महार्थे रूपं - स्वरूपं न तु चतुर्ब्राह्यो गुणः, ततो महार्थ रूपं यस्याः सा तथा मद्दतो वाऽर्थान् जीवाऽऽदिसस्वरूपान् रूपयति दर्शयतीति महार्थरूपा, (वय लप्पभूय ति) वचनेनाप्रभूता अल्पभूता वा अल्पत्वं प्राप्ता वचनात्पभूता वचनात् प्रभूता वा स्तोकाक्षरेति यावत्, केयमीडशीत्याहगीयत इति गाथा, ला बेहार्थाभिधायिनी सूत्र पद्धतिः अम्बिति तीर्थकुद्गणधराऽदिभ्यः पञ्चाद्गीता अनुगीता. कोsर्थ, तीर्थकाराऽऽदिभ्यः श्रुत्वा प्रतिपादिता, स्थविरैरिति थे. षः । अनुलोमं वा गीताऽनुगीता अनेन श्रोत्रानुकूलैव देशना क्रियते इति स्थापितं भवति । केत्याह- नराणां पुरुषाणां सङ्घः समूह स्तम्मध्ये, गाथामेव पुनर्विशेषयितुमाह-यां गायां भिक्षवो मुनयः श्रीलं चारित्रं तदेव गुणो, यज्ञा - गुरुः पृथगेव ज्ञानं, ततः शीखसुखेन शीलगुणाभ्यां वा चारित्र. ज्ञानाभ्यामुपेता - युक्ताः श्रीलगुणोपेताः इहास्मिन् जगति (जयंत) अर्जयन्ति पठनश्रवणतदर्थानुष्ठानाऽऽदिमि रावयन्ति । यद्वा-"जं भिक्खुणी " इत्यत्र श्रुत्वेति शेषः । ततीयां श्रुखा (जयंत) हास्मिन् जिनप्रवचने यतम्ले यस्नवन्तो भवन्ति, सोपस्कारत्वाला मया उयाकर्षिता, ततः श्रमणस्तपस्त्री अस्म्यहं जातो, न तु दुःखदग्धत्वादिति भाषः । पठ्यते - ( सुमो ति ) सुमनाः शोभनमन्ना इति सूत्रत्रयार्थः ॥ १२ ॥ इत्थं मुनिनाऽभिहिते ब्रह्मदत्तः स्वसमृधा निमन्त्रयितुमाहचो महु कक्के य बंभे, पवेइया श्रावसहाय रम्मा । इमं गिहं वित्तधणप्पभूयं, साहि पंचाल गुणो वेयं ।। १३ ।। नहेहि गीएडि म बाइएहिं, नारीजणेहिं परिवार येतो । जाहि भोगाइँ इमाइँ भिक्खू, मम रोयई पब्वज्जा हुदुक्खं ॥ १४ ॥ Personal Use Only Page #1300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभदत्त उच्चदयो मधुः कर्कः, चशब्दात् मध्यो, ब्रह्मा च पञ्च प्र धानाः प्रासादाः प्रवेदिताः मम बर्धकिपुरस्सरैः सुरैरुपनीता इत्यर्थः । प्रावसथाच शेषभवनप्रकारा रम्या रमणीयाः । पाठान्तरतश्च आवसथा अतिरस्याः सुरख्यावा, एते तु यत्रैष चक्रिणे रोचते तत्रैव भवन्तीति वृद्धाः । किञ्च-वं प्रत्यक्ष गृहमवस्थितप्रासादरूपं, विसं प्रतीतं तत्र तद्धनं हिरण्याऽऽदि तेनोपेतं युक्तं वित्तधनोपेतम् । पडन्ति च - ( चित्तधणप्पभूयं हि ) तत्र प्रभूतं बहु· चित्रमार्थमनेक प्रकारं पा धनमस्मिन्निति प्रभूतचिप्रधनम् । सूत्रे तु प्रभूतशब्दस्य परनिपातः प्राग्वत्, प्रशाधि प्रतिपालय पञ्चाला नाम जनपदस्तस्मिन् गुणा इन्द्रियो पकारिणो रूपाऽऽदयस्तैरुपेतं पञ्चालगुणोपेतम् । किमुक्तं भवति ? - पञ्चालेषु यानि विशिष्टवस्तूनि तान्यस्मिन् गृहे सर्वा रायपि सन्ति तदा पञ्चालानामत्युत्वात्पञ्चाग्रहणम्. अन्यथा हि भरतेऽपि यद्विशिष्टवस्तु तत् तद्गेद्द पव सदाऽऽसीत् ॥ १३ ॥ किं - ( नहिं ति ) द्वात्रिंशत्पात्रो पलक्षितैर्नात्तैर्वा विविधाङ्गहाराऽऽदिस्वरूपैर्गीत ग्रमस्व. रमूर्च्छनालक्षतैः, चस्य भिन्नक्रमत्वात् । (वाइपछि ति ) बादिजैव मृदङ्गमुकुन्दाऽऽदिभिर्नारीजनान् स्त्रीजनान् परिवारयन् परिवाकुर्वन् । पठ्यते च - ( पवियारयंतो ति । ) प्रविचारयन् सेवमानो. (भुञ्जादि ति भुव भोगानिमान् परिदृश्यमानान्, सूत्रत्वात्सर्व्वत्र लिङ्गव्यत्ययः । भिक्षो ! इह तु यद् गुजतुरङ्गमाऽऽनभिधाय स्त्रीणामेवाभिधानं तत् त्रीलोलुपत्वात्तस्य. सासामेव वाऽत्यन्ताऽऽक्षेपकत्वख्यापनार्थे कदाचिश्वित्रो बदेदिस्थमेव सुखमित्याह-मह्यं रोचते प्रतिभाति प्रव्रज्या, हुरबधारणे, भिन्नक्रमश्च दुःखमेव न मनागपि सुख, दुःख. हेतुत्वादिति भावः । इति सूत्रद्वयार्थः ॥ १४ ॥ इत्थं चक्रिणो मुनिः किं कृतवानित्याहतं पुत्रण कयागुरायं, नराहिवं कामगुणेसु गिद्धं । धम्मस्सियो तस्स हियाऽणुपेही, चिसो इमं वमुदाहरित्या ।। १५ ।। ( १२७७) अभिधानयजेन्द्रः । तं ब्रह्मदत्तं पूर्व स्नेहेन जन्मान्तरप्ररूढप्रणयेन कृतानुरागं वि हिताभिष्य नराधिपं राजानं कामगुणेष्वभिलषमाणशब्दा ssदिषु भिक्षाऽन्वितं धर्म्माऽऽश्रितो धर्मस्थितस्त. स्पेति कणो हितं पथ्यमनुप्रेक्षते पर्यालोचयतीत्येवं• शीलोहितानुप्रेक्षी - कथं नु नामास्य हितं स्यादिति चिन्त परचित्र जीवयतिरिदं वाक्यं, पाठान्तरतो-वचनं वा (उ. दाहरिस्थति) उदाहृतवानुक्तवानिति सूत्रार्थः ॥१५॥ किं तदुदाहृतवानित्याहसन् विलवियं गीयं सव्यं नहं विडंबियं । सच्चे आभरणा भारा, सब्बे कामा दुहावहा ।। १६ ।। बालाभिरामेसु दुहावडेसु, या सं सुई कामगुणेसु रावं ! | वित्तकामाथ तवोधखायं, जं भिक्खुणं सीलगुणे स्यायं ॥ १७ ॥ ३२० Jain Education international For Private बंभदन्त सर्वमशेषं विलपतमित्र विलपितं निरर्थकतया रुदितयोनितया च तत्र निरर्थकतया मतबालकगीतवत् रुदित. योनितया च विरहावस्थमृत प्रोषितभर्तृकागीतवत् कि. मित्याह - गीतं गानं, तथा सबै नृत्यं गात्रविक्षेपणरूपं विड. म्बितमिव विडम्बितं यथा हि यक्षाऽऽविष्टः पीतमचाऽऽदिर्वा यतस्ततो हस्तपादाऽऽदीन् विक्षिपत्येषं नृत्यमपीति तथा सर्वाण्याभरणानि मुकुटाङ्गदाऽऽदीनि भारास्तस्य तो भारस्वरूपत्वाषां, तथाविधवनिताभर्तृकारित सुवर्ण स्थगित शिलापुत्रकारणवत् सर्वे कामा: शब्दाऽऽदयो दुःखाऽऽवहाः मृगाऽऽदीनामिवाऽऽयत्तौ दुःखावाप्तिहेतुत्वात् मत्सरेयवि पादाऽऽदिभिचितव्याकुलत्वोत्पादकत्वा सरकाऽऽदिहेतुत्वाचेति ||१६|| तथा बालानां विवेकरहितानामभिरामाश्चित्ताभिरतिहेतवो ये तेषु, दुःखा ऽऽ बद्देषूतन्यायेन दुःखप्रापकेषु न तत् सुखं कामगुणेषु मनोशशब्दाऽऽदिषु, लेव्यमानेष्विति शेषः । राजन् ! पृथिवीपते ! "विरतकामाणं ति” प्राम्यत्, कामवि. रक्तानां विषयपराकमुखानां तप एव धनं येषां ते तपोधनास्तेषां यत् सुखमिति संबन्धः । भिक्षूणां यतीनां शीलगुणयो र्वा सूत्रत्वाद्रतानामशक्तानामिति सूत्रद्वयार्थः ॥ १७ ॥ बालेत्यादिसूत्रं चूर्णिकृता न व्याख्यातं क्वचित्तु दृश्यत इत्य स्माभिरुन्नीतम् । सम्प्रति धर्मफलोपदर्शनपुरःसरमुपदेशमाह - नरिंद ! जाई श्रहमा नराणं, सोजाई दुःओ गाणं । जहिं वयं सव्वजण सवेसा, वसीय सोवागनिवेस सु ॥ १८ ॥ तसे य जाईइ उ पावियाए, वृच्छा मुसोवागनिवेसणेसुं । सबस लोगस्स दुगुणिज, इदं तु कम्मा पुरेकडाई ॥ १६ ॥ सो दाणि सिं राय महाणुभागो, महिड्डि पुष्पफलोभो । चतु भोगाइँ सासयाई, आया हेड अभिनिक्खमाहि ।। २० ।। नरेन्द्र ! वक्रवर्तिन् !, जायन्ते ऽस्यामिति जातिरमा मि. कृष्टा नराणां मनुष्याणां मध्ये स्वपाकजातिः चाण्डालजातिः (वुड सि) द्वयोरपि गतयोः प्राप्तयोः । किमुक्तं भवति १यदाssवां स्वपाकजातावुत्पतौ तदा सर्वजन गर्हिता जातिशसीत्, कदाचितामवाप्यान्यम्य वैत्रोषितौ स्यातामित्याह-यस्यां वयं प्राग्यच बहुवचनं सर्वजनस्याशेषलोकस्य द्वेष्यायप्रीतिकरौ (वसीय ति ) अवसाब उषितौ केषु स्वपाकानां निवेशनानि गृहाणि स्वपाकनिवेशनानि तेषु कदाबिलत्रापि विज्ञानविशेषाऽऽदिमा अहीलनीयावेव स्वातामित्या• इ-तस्यां व जाती खपाकसंधियां चतुः विशेषणे, ततश्व जात्यन्तरेभ्यः कुत्सितत्वं विशिनष्टि पावैव पापिका तस्यां कुरिलतायां पापहेतुभूतत्वेन वा पापिका, तस्यां पापिकायां वा नरकाऽऽदिकुगतेरिति गम्यते । ( पुच्छे ति) उषितौ, 'सु' इत्यावां केषु ?- श्वपाकनिवेशनेषु, की Personal Use Only Page #1301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७८) बंनदत्त अनिधानराजेन्छः । बभदस रसौ? सर्वस्य लोकस्य जुगुप्सनीयौ होलनायौ.हे त्यम्मिन् । यथेल्यौपम्ये, इद्दति लोके. सिंहो मृगपतिः, वेति पूरणे, यजम्मनि , तुः पुनरर्थस्तत इह पुनः कर्माणि शुभाऽनुः | द्वा-वाशब्दोऽयं विकल्पाऽर्थे, ततो व्याघ्राऽऽदिर्वा मृगं कु. हामानि ( पुरेकडाई इति) पूर्वजन्मोपार्जितानि विशिष्टजा | रङ्गं गृहीत्वोपादाय प्रक्रमात् म्यमुखं परलोकं वा नयती. स्यादिनिबन्धनानीनि शेषः । तत उत्पन्न प्रत्ययैः पुनस्तदुपा | ति सम्बन्धः। एवं मृत्युः कृतान्तो, नरं पुरुषं, नयति, हुर. जन एव यस्तो विधेयो, न तु विषयाऽभिष्वङ्गव्याकुलि. वधारणे,ततोनयत्येव, कदा? अन्तकाले जीवितव्यावसान. तमानसरेवं स्थेयमिति भाव इति । यतश्चयमतः स इनि समये। किमुक्तं भवति?-यथाऽसौ सिंहेन नीयमानो न त. पः पुरा संभूतनामा अनगार श्रासीदिदानीमस्मिन् काले स्मै अलमेवमयमपि जन्तुम॒न्युना, कदाचित् स्वजनस्तत्र " सि सि" पूरणे, यद्वा-दाणिसिं ति) देशीयभाषयेदानी साहाय्यं करिष्यत्यत पाह-न तस्य मृत्युना नीयमानस्य राजा महानुभागो महर्द्धिकः पुण्यफलोपेतश्च सन् एध. माता वा पिता वा (भाय त्ति) वाशब्दस्यह गम्यमानत्व.. मैफलस्वेमाभिनिष्क्रमेति संबन्धः। अयवा सोपस्कारत्वाद्या! त् भ्राता वा काले तस्मिन् जीवितान्तरूपेऽशं प्रक्रमाजी. व स एव स्वमिदानी राजा महानुभागताऽऽद्यन्बित इह वितव्यभागं धारयन्ति मृत्युना नीयमानं रक्षन्तीत्यंशधराः, जातस्तन्कर्माणि पुराकतानीति पूर्वेण संबन्धः । कोऽर्थः?. यथा हिनृपाऽऽदौ स्वजनसर्वस्वमपहरति स्वद्रविणदानपुरातकर्मविम्मितमेतत् , कथमन्यथा तथाभूतस्यैवंवि. तः स्वजनाऽदिभिस्तद्रदयते नैवं स्वजीवितव्यांशदानतः असमयपवाप्तिरिति भाषः । यतवमतोऽभिनिष्क्रमेति संब तज्जीवितं मृत्युना नीयमानम् । उक्तं हि-" न पिता भ्रातरः म्यः । किं त्वेत्या-त्यक्त्वाऽपहाय भुज्यन्त इति भोगा पुत्राः, न भार्या न च बान्धवाः। न शक्ना मरणास्त्रातुं, शक्काः इम्पनियाकामावा तानशाश्यताननित्यानादीयते सद्विवे संसारसागरे ॥२॥" इति । अथवा-अंशो दुःखभागस्तं हर. बते इत्यावानवारित्रधर्मस्ततोरभिनिकमाऽऽभिमुख्ये. त्यपनयन्ति येतेऽशहरा भवन्तीति । इदमेवाभिव्यनक्लि-प्रा. न प्रबजितो भव, गृहस्थतायां हि न सर्वविरतिरूपचारित्रस चव्याख्याने तु स्यादेतत्-जीवितार क्षणेऽपि दुःखांशहारिणो म्भव इति भावः । पठन्ति च- आयाण मेवा अणुचिंतया. भविष्यन्त्यत माह-न तस्य मृत्युना नीयमानस्य तत्काल. हि" इति । स्पमिति सूत्रत्रयाऽर्थः। भाविना दुःखेनाऽत्यन्तपीडितस्य दुःख-शारीरं मानसं वा क एवमकरणे दोष इत्याह विभजन्ति विभागीकुर्वन्ति शातयो दूरवर्तिनः स्वजनाः, न मित्रवर्गाः सुहृत्समूहा न सुताः पुत्राः, न बान्धवाः इह जीविए राय ! प्रसासयम्मि, निकटवर्तिनः स्वजनाः, किंतु एकोऽद्वितीयः स्वयमात्मना धणियं तु पुमाइं अकुबमायो । प्रत्यनुभवति वेदयते दुःखं क्लेशं, किमिांत?, यतः कर्तार. से सोयई माचुमुहोवणीए, मेवोपार्जयितारमेय, अनुयात्यनुगच्छति, किं तत् ?-कर्म, धम्म प्रकाऊण परम्मि लोए ॥२१॥ येन तत्कृतं तस्यैव फलमुपनयतीति भाव इति सूत्रद्वयाऽर्थः। वह जीविते मनुष्यसम्बन्धिन्यायुपि राजमशाश्वतेऽस्थिरे इत्थमशरणस्वभावनामभिधायैकत्वभावनामाह(धणियं तु ति) अतिशयनबन तुघजपटप्रान्ताऽऽद्यन्या. स्थिरवस्तुसाधारणतया पुण्यानि पुण्यहेतुभूतानि शुभाऽनु चिच्चा दुपयं च चउप्पयं च, छानान्यकुर्वाणः स इति पुण्यऽनुपार्जका शोचते दुःखाss खेत्तं गिहं धणधमं च सव्वं । तः पश्चात्तापं विधत्ते मृत्युरायुःपरिक्षयस्तस्य मुखमिव मुखं कम्मपत्रीश्रो अवसो पयाई, मृत्युमखं शिथिलीभवदन्धनाऽऽद्यवस्था तदुपनीतस्तथा परं भवं सुंदरं पावगं वा ॥ २४ ॥ विधकर्मभिरुपढौकितो मृत्युमुखोपनीतः सन् धर्म शुभाऽ. तमिक्कगं तुच्छसरीरगं से, नुष्ठानमकृत्वाऽननुष्ठाय (परम्मिति) चस्य गम्यमानत्वात् परस्मिंश लोके जन्मान्तररूपे गत इति शेषः । मरकाऽऽदिषु ख. चिईगयं दहिउं तु पावगेणं ।। सह्यासातवेदनानिशरीरः शशिनृपतिवत् किं न मया तदेव भजा य पुत्तो वि य णायो य, सदनुष्ठानमनुष्ठितमिति विद्यत एवाधर्मकारीति सूत्राऽर्थः । दायारममं अणुसंकमंति ।। २५ ॥ स्यादेतत्, मृत्युमुखोपनीतस्य परत्र वा दुःखाभिरतस्य त्यक्त्वा-उत्सृज्य, द्विपदं च भापोऽदि, चतुपदं च इस्त्या. स्वजनाऽवयत्राणाय भविष्यन्तिः, ततो न शोबिध्यते दि, क्षेत्रम्-इक्षुक्षेत्राऽऽदि,गृहं धवलगृहाऽऽदि (धण त्तिा धनं इत्याशक्या कनकाऽऽदि, धान्यं शाल्यादि, चशदाद् वस्त्राऽऽदि जह सीहो व मियं गहाय, च, सर्व निरवशेष, ततः किमित्याह-कम्मैवाश्मनो मच्चू गर णेइ हु अंतकाले । द्वितीयमस्येति कर्माऽऽत्मद्वितीयोऽवशोऽस्वतन्त्रः प्रकर्षेन तस्स माया व पिया व भाया, ण याति प्राप्नोति प्रयाति, कं ? परमन्यभवं जन्म ( सुंदर कालम्मि तम्मंसहरा भवंति ॥ २२ ॥ त्ति) विन्दुलोपात् सुन्दरं स्वर्गाऽदि, पापकं वानरकान तस्स दुक्खं विभयंति णायभो, ऽऽदि स्वकृतकानुरूपमिति भावः । तत्र किमन्यदर्शन मित्तवग्गा ण सुया ण बंधवा । निनामिव सशरीर एव भवाऽन्तरं यात्युतान्यथेति ?, उच्यते मौदारिकशरीराऽपेक्षयाऽशरीर एब, तर्हि तत् त्यक्त्वेत्यत्र एगो सयं पञ्चणुहोइ दुक्खं, का वातैस्याह-(तदिति ) यत्तेन व्यक्तम् एकमद्वितीयं तद् कतारमेवं अणुजाइ कम्मं ।। २३ ॥ द्वितीयस्य जन्तोरन्यत्र संक्रमणात् तुच्छमसारमत एव कु. Page #1302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (-१२७१) बंमदत्त अनिधानराजेन्धः। बंभदत्त त्सितं शरीरं शरीरकमनयोस्तु विशेषणसमासः 1 (से) तस्य | हस्तिनागपुरे (चित्ता इति) श्राकारोऽलाक्षणिका, हे चित्र। भवान्तरमतस्य सम्बन्धि चीयन्ते मृतकदइनाय इन्धना. चित्रनामन् मुने! दृष्ट्वा नरपति सनत्कुमारनामानं चतुर्थचक्र न्यस्यामिति चितिः काष्ठरचनाऽऽस्मिका, तस्यां गतं स्थि. वर्तिनं महर्द्धिकं सातिशयसंपदं कामभोगेषूक्तरूपेषु गृद्धेनाs. तं चितियतं दग्भ्वा, तुः पूरणे, पावकेनामिना भार्या च पु- भिकालावता निदानं जन्मान्तरे भोगाइशंसात्मकमशुभम. त्रोऽपि च हातवश्व दातारमभिलषितवस्तुसम्पादयिता. शुभाऽनुवन्धि कृतं निर्वतितमिति ॥२८॥ कदाचित्तत्र कृतेऽपि रमन्यत्.अनुसंझामन्युषसर्पम्ति,ते दिगृहमनेनावरुद्धमास्त ततः प्रतिक्रान्तः स्यादत आह-(तस्स त्ति) सुश्यत्ययेन इति तद्वहिनिष्कास्य जनलज्जाऽऽविना च भस्मसात्क- तस्मानिदानात् (मे) ममाप्रतिक्रान्तस्याप्रतिनिवृसस्य, तदा स्य कृत्वा च खौकिकन्याम्याक्रन्द्य च कतिचिहिनानि | हि स्वया बहुधोच्यमाने ऽपि न मचेतसः प्रत्यावृत्तिरभूदि. पुनः स्वायतत्परतया तथाविधमन्यमेवाऽनुवतन्ते न तु त. तीटमेतारशमनम्तरवक्ष्यमाण रूपं फलं काये। यत् कारागा स्प्रवृत्तिमपि पृच्छन्ति, प्रास्तां तदनुगमनमित्यभिप्राय इति त्याह-(जाणमाणो वि त्ति ) प्राकृतरवाजानन्नप्पवयु. सूत्रद्वयाऽर्थः। किंच ध्यमानोऽपि यदहं धर्म धुनधर्माऽऽदिकं, कामभोगेषु सू. उपणिज्जइ जीवियमप्पभायं, ञ्छितो गृद्धस्तदेतत्कामभोगेषु मुर्छनं मम निदानकर्मणः फलम् , अन्यथा हिशानस्य फलं विरतिरिति कथं न जा. वमं जरा हरइ नरस्स राय।। नतोऽपि धर्माऽनुष्ठानावाप्तिः स्यादिति भावः। इति सूत्र पंचालराया ! वयचं मुणाहि, द्वयाऽर्थः। मा कासि कम्माणि महालयाणि ॥ २६ ॥ पुननिदानफल मेवोदाहरणतो दर्शयितुमाहउपनीयते दौक्यते प्रकमात् मृत्यवे तथाविधकर्मभिर्जी नागो जहा पंकजलाऽवसमो, वितमायुरप्रमादं प्रमादं विनैव, भावीचिमरणतो निरन्तरमि दहें थलं नाभिसमेइ तीरं। स्यभिप्रायः, सत्यपि च जीविते वर्ण सुस्निग्धच्छायाऽऽरमकं जरा विश्रसाहरत्यपनयति नरस्य मनुष्यस्य राजन् ! चक्रव एवं वयं कामगुणेसु गिद्धा, तिन् यतवमतः पञ्चालराज!.पश्चालमण्डलोद्भवनृपते!. व ण भिक्खुणो मग्गमणुव्बयामो ॥३०॥ चनं वाक्यं शृण्वाकर्षय,किं तत्?-मा कार्षीः,कानि?-कर्मा. नागो हस्ती . यथेति दृष्टान्तोपदर्शकः, पप्रधानं जलं प. रायसदारम्भरूपाणि (महालयाणि ति) अतिशयमहान्ति जलं यत्कलमित्युच्यते , तत्रावसनो निमग्नः पङ्कजलामहाम्बाऽऽलयः कोऽऽश्लेषो येषु तानि, उभयत्र पञ्चेन्द्रिय वसन्नः सत् दृष्ट्वाऽवलोक्य स्थलं जलविकलभूतलं (न) ग्यपरोपणकुणिमभक्षणाऽऽदीनीति सूत्राऽर्थः। नैवाभिसमेति प्राप्नोति तीरं पारमपेर्गम्यमानत्वासीरमप्या. एवं मुनिनोक्ने नृपतिराह स्तां स्थलमिति भावः । इत्येवंविधनागवत् , चयमिअहं पि जाणामि जहेह साहू!, त्यात्मनिर्देशे, कामगुणषतरूपेषु गृद्धा मूर्षिता न भिक्षोः जं मे तुमं साहसि वक्कमेयं । साधोर्मागे पन्थानं सदाचारलक्षणम् , अनुबजामोऽनुसरा मः। अमी हि पङ्कजलोपमाः कामभोगा,ततस्तत्परतन्त्रतया भोगा इमे संगकरा भवंति, न तत्परित्यागतो निरपायतया स्थलमिव मुनिमार्गमवगजे दुजया अज्जो! अम्हारिसेहिं ।। २७॥ । च्छन्तोऽपि पङ्कजलावमग्नगजवद्वयमनुगन्तुं शक्नुम इति अहमपि न केवलं भवानित्यपिशब्दाऽर्थः। जानाम्यवबुध्ये, | सूत्राऽर्थः । तयेतिशेषः, यथा येन प्रकारेण इहास्मिन् जगति साधो ! पुनरनित्यतादर्शनाय मुनिराहयत् (मे) मम स्वं साधयसि कथयसि, वाक्यमुपदेशरूपं च | अच्चेइ कालो तुरंति राइनो, चएतत् यदनन्तरं भवतोक्तम्। तत् किन विषयान्परित्यज न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा सि। श्रत पाह-भोगाः शब्दाऽऽदय इमे प्रत्यक्षाः सकराः उवेच्च भोगा पुरिसं चयंती, प्रतिवग्धोत्पादका भवन्ति ये, यत्तदोश्च नित्याभिसम्बन्धात्ते दुःखेन जीयन्ते अभिभूयन्ते इति दुर्जया दुस्यजा इति दुमं जहा वीणफलं व पक्खी ॥ ३१॥ यावत् । (अजोत्ति) आर्य! अस्मारशैर्गुरुकर्मभिर्जन्तुभिरि अत्यति प्रतिकामति, कालो यथाऽऽयुःकाल:, कि. ति गम्यते । पठ्यते च-"अहं पि जाणामि जो पत्थ सा. मित्येवमुच्यते ?, अत आह स्वरन्ति शीघ्रं गच्छन्ति रात्रया रो,।" पादवयं तदेव, अहमपि जानामि योऽत्र सार:-यदि. रजन्यो, दिनोपलक्षणं चैतत् , ततोऽनेन जीवितव्यस्यानि मनुजजन्मनि प्रधानं चारित्रधर्मात्मकं, चस्य गम्यमा. त्यस्वम् । उक्नं हि-"क्षणयामदिवसमास-बलने गछन्ति मत्वाचच्च मे त्वं साधयसि, शेष प्राग्वदिति सूत्राऽर्थः । जीवितवलानि । इति विद्वानपि कथमिह , गच्छसि नि. द्रावशं रात्रौ ॥१॥"अथवा प्रत्येति प्रतीब याति, को. हथिणपुरम्मि चित्ता !, दणं नरवई महिड्डीयं । ऽसौ ?-कालो. कुत एतत् , यतः स्वरम्ति सत्रयो, नचापि कामभोगसु गिद्धग्गं, नियाणममुहं कडं ॥ २८ ॥ भोगाः पुरुषाणां निस्याः शाश्वताः अपेभित्रक्रमस्थान के. पलं जीवितमुनीतितःन नित्यं किंतु भोगा अपि. य. तस्स मे अपडिकंतस्स, इमं एयारिसं फलं । त उपेत्य स्वप्रवृस्था, न पुरुवाभिप्रायेण भोगाः पुरुष बायपासो विधम्म कामभागस मुस्लिमो ॥२६।। स्वजन्ति परिहरन्ति, कमिव कवेत्याह-गुमं वृशं यथा: Page #1303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैमदत पप कीखानि विनानि फलानि श्वास फलस्तं म्ये, उकं हि "मिव पिव विवव व विश्र इवार्थे वा " ॥ ८६ । २ ॥१८२॥ भिन्नक्रमश्चायं ततः पक्षीष विडग इव. फलोपमानि हि पुण्यानि ततस्तदपगमे क्षीणफलं वृक्षमिव पुरुषं पक्षिषद्भोगा विमुञ्चन्तीति सूत्रार्थः । यत एवमतः . असि भोगे च असतो अहँ कमाएँ करेहि राय ! | मेठि सपाकंपी, होहिसदेव विब्दी ।। ३२ ।। यदि तावदसि त्वं भोगान् स्वक्तुम अपद्दातुम्, अशक्तः असमर्थः पश्यत चमच असतं ति) यदि चैव तायत् कः किमिवाद-वि चर्मेतिनिखितादिभ्यो यानानि शिष्टजनोचिता नीति यावत् कर्माण्यनुष्ठानानि कुरु राजन् ! धर्मे प्रमा गृहस्थधर्मे सम्यण्डष्ट्यादिशिष्टाऽऽचरिताऽऽचारलक्षणे स्थि तः सन् सर्वप्रजानुकम्पी समस्त प्राणिदयापरः, ततः किं फल मित्याह तत इत्याकर्मकरणाविष्यसि देवैमानिक तइत्यस्मान्मनुष्पभवादनन्तरम् (विधि) क्रिय शरीरवानित्यर्थ इति वृद्धा गृहस्थस्यापि सम्यक्त्व देशविरतिरूपस्य देवलोक फलश्वन उक्तत्वादिति भावः । इति सूत्रार्थः । मुक्तोऽपि याssसौ न किञ्चित्प्रतिपद्यते तदा तदवि मेयतामवधार्यमुनिराहन तुझ भोए चऊण बुद्धी, गिद्धोऽसि आरंभपरिग्गद्देसु । मोहं कम इति विपलावो, . ( १२८० ) अभिधानराजेन्द्रः । गच्छामि राये | आमंतिमोऽसि ॥ ३३ ॥ मेति प्रतिषेत मोगान् शब्दाऽऽदीपलक्षणस्यादनार्थक मणिबा (ऊस) त्वम् या सोपकारस्या 9 या धर्मो मया विधेय इति बुद्धिरयगतिः, किंतु गु मूर्तितोऽसि भवसि के आरम्भपरिसुतुषु व्यापारेषु चतुष्पदद्विपाऽऽदिस्वीकारेषु च ( मोहं ति ) मोघं निष्फलं यथा भवत्येवं सुव्यत्ययाद्वा मघोनिष्फ लो मोहेन वा पूर्वजन्मनि मम भ्राता ऽऽसीदिति स्नेहलक्षणेन तो विहित एतावान् विलापो विविध प साssस्मकः संप्रति तु गच्छामि व्रजामि राजन्नामन्त्रितः सं भाषितोऽनेकार्थस्यातूनां पृष्टो वाऽसि भवसि । श्रयमाशयः अनेकथा जीवितानित्यत्वाददद्वारेणानुशिष्याणा पिसे न मनागपि विपयविरक्तिरित्यविनेयत्वादुपेक्षेव वस्क री। उक्कं हि मैत्रीप्रमोद का सहयमाध्यस्थ्यानि सम्यगुणाधि कपिलश्यमानाविनेयेषु तथा०-६०७०) इति सूत्रार्थः । P इत्थमुक्त्रा 'गते मुनौ ब्रह्मदत्तस्य यदभूत्तदाहपंचाल या विय बंदसो 9 साहुस्स तस्स वयणं अकाउं अरे जिय कामभोगे, अतरे सो नरए पविट्ठो ॥ १४ ॥ भदन्त (पंचाला यति) अपि पुनरर्थे च पूरणे ततः पञ्चाखराजः पुनासो-ह्मसाभिधानः सापोस्तपस्वि मस्तस्यानन्तरोकस्य वचनं द्वितीयदेशदर्श वाक्यमत्या वज्रतदुलवत् गुरुकर्म तयाऽस्यन्त दुर्भेदत्वादननुष्ठाय अनुस सर्वोत्तमान् भुक्त्वा अनुपास्य कामभोगानुरूपान दुसरे स्थित्वादिमः सकलनरकायेठे अमान इति वा वत् स ब्रह्मदत्तो नरके प्रतीते प्रविष्टः, तदन्तरुत्पन्नः, तदनेन निदानस्य नरकपर्यवसानफलत्वमुपदर्शितं भवतीति इह चास्य शेषवतव्यतासूचिका अपि निर्युक्तिगाथाः पञ्च दृश्यन्ते । तद्यथाइत्रपुरोडियमज्जाणं दुग्गहो विश्वासम्मि | सेया बस्स भेओ, वकमणं चैत्र पुत्ताणं || ३५५ ॥ संगाम अत्थिभेश्रो, मरणं पुण चूयपायउज्जाणे | कडगस्स व निम्मे दंड व पुरोडियकुलम् ॥ ३५६ ॥ जउघरपासायम्मि य, दारे य संबरे य थाले य । तत्तो अ आए ह-स्थिए म तह कुंडए चैव ॥ ३५७ ॥ कुकुरतिपत्ते, सुदंससोदाय नमविले | पत्चच्छिज्जयंवर, कलाओं व आस चेद || ३५८ || कंप, हत्या वकुं कुरुमईय। एकनाला, बोद्धव्या मदचस्स ॥ ३५६ ॥ विशिष्टसंवायाभावाच विशियते । - सम्प्रति प्रत एव पितोयतेपिचो व कामेदि* विरतकामो, उदरिलो मसी । अणुतरं संजय पाला, अणुत्तरं सिद्धिगई गउ ति ।। ३५ ।। ति बेमि ॥ चित्रोऽपि जन्माम्बरनामाभिधानस्तपयपि अ अपि अषिः पुनरर्थे, सचित्र मा कामेध्योऽभिपणीदियो विरक्त परामुखीभूतः कामोऽमिलापोऽस्पेति विरकामा प्राचि सर्वविरतिरूपं सपा द्वादशविधं सदाचारित्रतपाः। पाठान्तरेउद्मकारिता या महेषी महर्षियों, अनुसर्वसंयम स्थानो परिवर्तिनं (संजम सि) संयममाषोपमा 55 पाल विश्वाय अनुतरां सर्वलोकाकाशोपरिवर्तिनीम विभाग वा सिद्धिगतमुनिम्मी गतिं गतः प्राप्तः इ ति सूत्रार्थः इति परमप्रीमीति पूर्ववत् उक्तोऽनुगमः, सम्पति नयास्ते व पूर्ववत् । उत० १३ श्र० । तं० । स्था० । "महाप्राप्ते द्वादशे वर्तन स्त्रीरत्नं तत्सुतोऽबादी- द्भोगान भुङ्क्ष्व मया सह ॥ २ ॥ तयोक्तं न मम स्पर्शः, सह्यते चक्रिणं विना । तं प्रस्थापयितुं बाजी मुखाद्यात्कीं तथा ॥ ३ ॥ स्पृष्टः करेण तत्कालतः । तथाऽप्यप्रत्यये तस्य कृत्षा लोहमयं नरम् ॥ ४ ॥ परि तथा सोऽपि वादा सीयत । Page #1304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२ ) बन्नदत्त अन्निधानराजेन्द्रः। बंभदेवयाग 1 ततोऽभूत्प्रत्ययस्तस्य, को वा न मन्यते ॥२॥" उस्सग्गपयं लीणा दिद्रीय विन नियंति ॥७॥ मा००१म. तं० । स्था०। प्रजितस्वामिनः सुव्रतस्वा. मह मउलियकुमयपमो-यकहरवो बरसामिमाउलभो। मिमा प्रथमभिक्षादायके.प्रा०म०१०नि०चू०। स्था। सिरिजसमियसूरी, सूरु ब्व समागो तत्थ ॥८॥ भदत्ते शं राया चाउरंतचक्कवट्टी सत्तधणूई उई उच सम्धिहीए सब्वे, विसाव्या ते लहुं समागम्म । रोग सनय बाससयाई परमाउं पालइत्ता कालमासे काले भूमिलितमउलिकमला, गुरुपयकमलं नमसंति ॥३॥ किच्चा महे सलमाए पुबीए अपहटाये सरए नेरइय वाहजलुजियनयणा, सुदीणवयणा, य निययतिस्थस्स। ताए उबरचे । स्था०१० अ०।। संसंति तावसकर्य, तामसमसमंजसं सव्वं ॥१०॥ अह भणा गुरू सहा!. अविदङ्कजणं इमो कबडबुद्धी। तथा बर्विकलो ब्रह्मदत्तचकी रात्री विनवतिसमाधि केणाऽवि पायलेव-प्पमुहपयारेण वंचेह ॥ ११ ॥ कलतरूपाणि करोति, तानि किं चक्षुर्विकलानि, स्वाभावि नकाऽवि तबोसत्ती, तवस्सिो ताबसस्स एयस्स। कानि वेति प्रश्ने, उत्तरम्-प्रदत्तचक्री यानि रूपाणि बिकु तं सोउं ते सहा, बंदिय गुरुणो गया सगिह ॥ १२॥ पति तानि प्रायशश्चक्षुर्विकलानीतिप्र०४६० सेम०३ उल्ला। अववायकरणसमयं, नाउं ते सावया विमलमरणो। भदीव-बबाहीप-पुं०।भाभीरविषये कृष्णावेणानयोर्मध्य महतं ताबसमाधा-दरेण भुतुं निमंतंति ॥१३॥ द्वीपे, नि०५० १३ उ.। पि० । सो वि य बहुलोयजुओ, पत्तो एगस्स सावगस्स गिहे। भदीवियसीह-ब्रह्मदीपिकसिंह-पुं० ब्रह्मदीपिकाशाखापला । तं बटुं समयग्नू. सहसा अभुटिए सो वि॥२४॥ क्षिते सिंहनामके प्राचार्य, मं01 उपवेसियभणाम, पक्खालावेसु निययपयपउने । भदीविया-मदीपिका-स्त्री. ब्रह्मद्वीपे आर्यसमितिसूरी नवा गुरुपसु धुवं, अस्थीणं पस्थणा बिहला॥ १५॥ तस्स अणि छतस्स वि, पाए पाऊय उसिनीरेण । णामम्तिके प्रवाजितैः पाइलिप्तप्रमुखैस्तापसपञ्चशतकैःप्र. तह सो धोयइजह त थ लेवगंधो दिन हुठार॥१६॥ बलितापं शाखायाम् , कल्प। गरुयपरिवत्तिपुरवं, तं भुंजाबा न सो पुणो गुण। थेरेहितोपं अञ्जसमिएहिंतो गोयमसगोत्तेहिंतो इत्थ णं भोयणघासायं पिहु, भाविविगोवणभपण भिसं ॥१७॥ बंदीविया साहा णिग्गया। जलयंभकुंडदसण-समुस्सुपणं जणेण परियरियो। भाभीरदेशे प्रचलपुराऽऽसन्ने कना-वेन्नानधोमध्ये ब्रह्मद्वी. सरियानीरं पुणरधि, जिमिडं सो तावसो पत्तो ॥१८॥ पे पश्चशती तापमानामभूत् , तेम्वेकः पादलेपेन भूमाधिव मज चिय लेवअंसो. कोऽधि हविज तिवितिय पविट्रो । मलोपरि गच्छन् जलालिप्तपादो वेनामुत्तीर्य पारणार्थ या. नइतीरे बहु वुडो, पकुण तो बुडबुडारावं ॥१६॥ ति, ततः अहो एतस्य तपःशक्तिः जैनेषु न कोऽपि प्रभा. किश्चिरममुणा माया-विणा वयं वंचिय सि चितता। बीति शुन्धा श्राद्धैः श्रीवजस्वामिमातुला आर्यसमितसू. मिच्छत्तिणोऽधि जाया. तयाऽणुरत्ता जइणधम्म ॥२०॥ रय माहूताः, तैरूचे-स्ताकमिदं पादलेपशक्तिरिति । श्राद्धस्ते तकालं तुमुलकरे, नयरजणे तद्दय दत्ततालम्मि। स्वगृहे पादपादुकाधावनपुरस्सरं भोजिताः ततस्तः सहैव पत्ता समियाऽऽपरिया, फुरतबहुजोगसंजोगा ॥२१॥ श्राद्धा मदीतटमगुः, सच तापसो धार्ध्वमालम्ब्य नद्यां काउमणा जिणसासण-पभाषणं सरिय अंतरालम्मि । प्रविशव बुडितुं लग्नः ततस्तेषामपभ्राजना. इतश्च तत्राss. जोगबिसेसं खिघिउं, लोयसमक्खं इय भणिसु ॥ २२ ॥ र्यसमितपरयोऽभ्येत्य लोकबोधनाय योगपूर्ण तिचा ऊचु- विस! तुह परतीरे, गंतुं वयमिच्छिमो तश्री कत्ति। ने! परम्पारं यास्याम इत्युक्त कूले मिलिते, बभूव बहाश्व. तत्सडदुर्ग पिमिलियं, सायं, चिंचादलजुगं व ॥२३॥ यम् , ततः सूरयस्तापसाऽऽश्रमे गत्वा तान्प्रनियोध्य प्रा- तत्तो अमंदाणं-दपुग्नच उवनसंघपरियरिया। माजयन् , ततस्तेभ्यो ब्रह्मद्वीपिका शाखा निर्गता। कल्प. सिरिअज्जसमियगुरुणो, परतीरभुवं समणुपत्ता ॥२४॥ २ अधि०८क्षण। ते तावसा निएउं, प्रायग्यिपयंसियापभावं तं। अचलपुरभावकसमुदायकथा चेयम् सम्वे गयमिच्छत्ता, तेसिं समीवे पजिसु॥२५॥ "बहुभहसालभाषण पउरसोमणससंगयत्तेण । ते बंभहीवनिवा-सिणु त्ति तेसिं पहाण्यासम्मि । निजिणिय कषयमचलं, अचलपुरं अस्थि बरनयरं ॥१॥ बंभद्दीवगनामा, समणा सुयविस्सुया जाया ॥ २६ ॥ सत्यऽस्थि जाणपवयन-पभावणाकरणपवणमणकरणा। इय समियकुमयतावा, भविजणमएनयमसिहिपमोयक।। उस्सग्गबवायविऊ, बहवे सुमहहिया सहा ॥२॥ नवजलहरसारिच्छा, गुरुणो अन्नत्य विहरिंसु ॥२७॥ कमाविधानानं-तरम्मि तत्येव ताबसा यहये । ते सावया वि सुदरं, सिरिजिणवरपवरणं पभाषिता। नियसिसु तस्थ एगो, विसारो पायलेवम्मि ॥३॥ परिपालिय गिहिधम्मा, सुगईए भायणं जाया ॥ २८॥" सोपयलेवबलेणं, निच्चं संचरा सलिल पूरे वि। "इत्युत्सर्गापवावजयकुशलधियो दाधमिथ्यात्यकक्षाः, थलमग्गे इव धणियं, जणयंतो बिमायं लोए ॥४॥ विस्फूर्जद्धर्मलक्ष्या अचलपुरवरचायकाः सुष्टु रताः। तंबढुं मुखजणो, दुस्सहमिच्छत्ततावसं सतो। श्रीमत्तीर्थेशतीर्थस्वपरहितकरोत्सर्पणायै बभूवुः. महिसो विवऽनसण-पंके निस्संकमणुबुतो ॥५॥ तस्माद्भव्याः विवेकामधनसलिलं कौशलं तत्र धत्त ॥२६॥" जह पचखं अम्हा-ण सासणे दीसए गुरुपहायो। ध०र०२ अधि०६लक्ष०। न तहा तुम्हंय सो, घिटो धरिसेड सङ्कजणं ॥ ६॥ भदेवयाग-ब्रह्मदेवताक-न० । ब्रह्माभिधदेवताके, सू०प्र० मिच्छत्तथिरीकरणं, मा मुखाणं हवेत इय सहा । १० पाहु. १२ पाहु०पाहु । Page #1305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभप्पहाण (१२०२) अभिधानराजेन्द्रः। बंभसेण बंभप्पहागा-ब्रह्मपधान-त्रि० । ब्रह्म ब्रह्मचर्य कुशलानुष्ठानं | विस्फुलिङ्गकल्पः, तेषां च ततः पृथग्भावेन ब्रह्मस. वा, प्रधानमुत्तमं यस्य । ब्रह्मचर्येणोत्तमे, औ०। तात एवं कश्चिदपरो हेतुरिति , सा तल्लयेऽपि तथावि. बंभबंधु-ब्रह्मबन्धु-पुं। जातिमात्रब्राह्मणे, पिं० । निर्गुणे, धैव , तद्वदेव भूयः पृथक्त्वाऽऽअत्तिः, एवं हि भूयो भवः भावेन न सर्वथा जितभयत्वं, सहजभवभावव्यवच्छित्तौ तु त. स्था०५ठा०३ उ०। तत्स्वभावतया भवत्युक्तवत् शक्तिरूपेणापि सर्वथा भयपरि. बंभयारि (ण)-ब्रह्मचारिन-पुं। ब्रह्मणश्चरणं ब्रह्मचार: क्षय इति निरुपचरितमेतत् . न सद्विचटनस्वभावत्व. स विद्यते यस्यासौ ब्रह्मचारी । आतु० । मैथुनविरते सं. कल्पनयाऽद्वैते ऽप्येवमेवादोष इति न्याय्यं वचः, अनेक यते, भाव० ३ ० । नवविधब्रह्मचर्यगुप्तिगुप्ते, प्राचा०२ दोषोपपत्तेः। तथाहि-तद्विचटनं शुद्धादशुद्धाद्वा ब्रह्मण इति भु०१च्०१०६ उ०। सूत्र० । “जहा विरालाऽऽयसह निरूपणीयमेतत्. शुद्धविनटने कुतस्तेषामिहाशुद्धिः, अशुद्ध. स्स मज्झे. न मूसगाणं वसही पसत्था । एमेव इत्याणि-| विचटने तु तत्र लयोऽपार्थका, न चैवमेकमविभागं चत. लयस्स मज्झे, ण बंभयारिस्स खमो णिवासो ॥१॥" उत्त. दिति , अनेकत्वे च परमताङ्गीकरणमेव, तद्विभागानामेव ३२० पार्श्वनाथस्य चतुर्थगणधरे, स्था०८ ठा० ।स। नीत्या श्रान्मत्वादिति । एतेन यदाहप्रश्नाकल्प० । उत्त० । तथा "जो देर कणयकोडी, अह "परमब्रह्मण एते. क्षेत्रविदोऽशा व्यवस्थिता वचनात् । वा कारेर कणयजिणभवणं । तस्स न तत्तिश्र पुग्नं, जत्तिश्र भव्यए धरिए ॥१॥" एतद् ब्रह्मचर्य कि दिवसमस्क, याव वह्निस्फुलिङ्गकल्पाः, समुद्रलवणोपमास्त्वन्ये ॥१॥ सादिपृथक्वममीषा-मनादि वाऽहेतुकाऽऽदि वा चिन्त्यम्। जीपसम्बन्धि वेति प्रश्ने, उत्तरम्-एतब्रह्मचर्य मुख्यवृत्या युक्त्या ह्यतीन्द्रियत्वात् , प्रयोजनाऽभावतश्चैव ॥ ॥ यापजीवसम्बन्धि, मध्यवसायविशेषण दिवसाऽदिसम्ब. कृपे पतिनोत्तारण-कर्तुस्त दुपायमार्गणं न्याय्यम् । रायपीति । ३२ प्र० सेन०४ उल्ला० । ननु पतितः कथममिति, हन्त तथादर्शनादेव ॥ ३ ॥ भलिज्ज-ब्रह्मलीय-म० । सुस्थितसुप्रतिबुद्धाभ्यां निर्गतस्य भवकूपपतितसत्त्वो-त्तारणकर्तुरपि युज्यते घेवम् । कोटिकगणस्य प्रथमकुले, कल्प०२ अधि०८ क्षण। तदुपायमार्गणमलं, वचनाच्छेषव्युवासेन ॥ ४॥ बंमलोय-ब्रह्मलोक-पुंजब्रह्मनाम केन्द्रपालिते. पञ्चमदेवलोके, एवं चाऽद्वैते सति, वर्णविलोपाऽऽधसङ्गतं नीत्या। स्था०१० ठा0प्रक्षालाद०प०। उपा०(तद्वक्तव्यता ब्रह्मणि वर्णाभावात् , क्षेत्रविदां द्वैतभावाच्च॥५॥" 'ठाण' शम्दे चतुर्थभागे १७०७ पृष्ठे गता) इत्यादि । एतदपि प्रतिक्षिप्तम्, श्रद्धामात्रगम्यत्वात् , स्टेटा ऽविरुद्धस्य वचनस्य वचनत्वात्, अन्यथा ततः प्रवृश्यसिद्धे, "बंभलोए णं कप्पे छ विमाणपत्थडा पसत्ता । तं जहा वचनामां बहुत्वात् मिथो विरुद्धोपपत्तेः, विशेषस्य दुर्खभरए, विरए नीरप, निम्भले, वितिमिरे, विसुद्धे।” स्था० क्यत्वात्, एकप्रवृत्तेरपरवाधितत्वात् . तत्यागादितरप्रवृत्ती ६ ठा। प्रव०। विशे० अनु०। यहच्छावचनस्याप्रयोजकत्वात् तदनन्तरनिराकरणादिति. बंभव-ब्रह्मवित-पु०। ब्रह्माऽशेषमलकलङ्कविकल्पयोगिशर्म वे. न ह्यदुषं ब्राह्मणं प्रवजितं वाऽयमन्यमानो दुष्टं वा मन्यमानः तहत इत्युच्यते, न च दुष्टेतरावगमो विचा. सीति ब्रह्मवित् । यदि वा-अष्टादशधा ब्रह्मेति । ब्रह्मवेत्तरि, रणमन्तरण, विचारश्च युक्तिगर्भ इत्यालोचनीयमेतत् . कृप. "धम्म बंभवं ।"प्राचा०१ श्रु. ३०। पतितोदाहरणमप्युदाहरणमात्र, न्यायानुपपत्तेः, तदुद्भूता. बंभवा-ब्रह्मवतिन-पुं० । ब्रह्मणो मोक्षस्य व्रतं ब्रह्मव्रतम् , देरपि तथादर्शनाऽभावात् । तत्र चोत्तारणे दो. तपस्यास्तीति। कुशलानुष्ठायिनि, सूत्र०२ श्रु० ६ १०। षसम्भवात् , तथा कामशक्यत्वात् , प्रयासनैष्कल्पात् , ब्राह्मणजातिभक्ने, सूत्र०२ श्रु०६अ। न चोपायमार्गणमपि न विचाररूपं, तदिहाऽपि विचारो. बंभवज्झा -ब्रह्मवध्या-खी । ब्रह्महत्यायाम् , ब्रह्मबधज उनाश्रयणीय एव. देवाऽऽयत्तं च तत् , अतीन्द्रियं च देवनिते (नि.चू० १२ उ० ) पापे. वृ०१ उ०२ प्रक०।। मिति युक्रेरविषयः, शकुनाऽऽद्यागमयुक्निविषयतायां तु समा. न एव प्रसङ्ग इतरत्रापे इति, तस्माधथाविषयं त्रिकोबंभवडिसय-ब्रह्मावतंसक-न० । ब्रह्म वृद्धत्वात्सकलो लोक टिपरिशुद्धविचारशुद्धितः प्रवर्तितव्यम् । ल। स्तववतंसकं मुकुटरूपम् । सिद्धशिलायाम् , स०१२ सम। भविजा-ब्रह्मविद्या-स्त्री०। परमार्थप्रकारे, प्रा०म०१०। बंभवण-ब्रह्मवन-न। षष्ठदेवलोकीये स्वनामण्याते विमाने. बंभसंति-ब्रह्मशान्ति-पुं० । स्वनामख्याते महर्द्धिकयक्षे, जी. स०११ सम। १ प्रति० । ती। भषय-ब्रह्मवत-न । ब्रह्मचर्ये. निचू०१ उ०।"शक्यं बंभमाहण-ब्रह्मसाधन-पुं०। ब्रह्म शानं साधनं यस्य स ब्रह्मब्रह्मवत घारं, शूरैश्च न तु कातरैः । करिपर्याणमद्वाज़ साधनः। अथवा-ब्रह्म आत्मा, स एव साधने यस्य सः।ब. करिमिन तु रासभैः॥१॥" स०१सम । महा। ज्ञानसाधनके, आत्मसाधनके च । अष्ट०२८ अष्ट। संभवादि (ण)-ब्रह्मवादिन-पुं० । ब्रह्म वदति तच्छीलश्चे. बंभसुत्तय-ब्रह्ममूत्रक-न। यज्ञोपवीते, प्रा.म.१०। नि ब्रह्मगदी । ब्रह्मावतवादिनि,सम्म १ काण्ड । (तद्वादश्च 'एगाबा'शम्दे तृतीयभागे ३५ पृष्ठे दर्शितः। (भाता' शब्दे बंभसेण-ब्रह्मसेन-पुं०। ऋषभदेवस्य पुत्रशतकान्तर्गते द्विचद्वितीयभागे १६६ पृष्ठे च पास्मभेदप्रस्तावे उपदर्शितः) ले. स्वारिंशत्तमे पुत्रे, कल्प० १ अधि०७ क्षण । वाराणसीवाशतस्विह तन्मतं दृष्यते-तत्र हि क्षेत्रवाः परमब्रह्म । स्तव्ये स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, ध००। Page #1306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२८३) बनसणा अभिधानराजेन्डः। बनसेगा "गाविभूषिता नन्दि-कलिना वृषभूषिता । यत्पौषधान्मृतःप्राक तत् , बस्तोऽद्यापि तदाख्यया ॥२४॥ शम्भोर्मूर्ति रिवात्रास्ति, पुरी वाराणसी वरा॥१॥ ब्रह्मसेन इति श्रुत्वा, प्रणिरस्य पुन निम् । दारिद्रय मुद्रितसत्र, ब्रह्मसेनोऽभवद्वणिक । पौषधवतमादाय. धन्यं मन्यो ययौ गृहम् ॥ २६ ॥ यशोमती च तत्पत्नी, सोऽग्यदाभाद् बहिः पुरात् ॥ २॥ ततः प्रभृति स श्रेष्ठी, सुखेन प्राप्तजीविकः। भन्यानां धर्म माख्यान्तं दृष्ट्वोद्यानगतं मुनिम् । कियत्कालमतीयाय, कुर्वाणं पौषधवतम् ॥२७॥ प्रणम्य मुखतः श्रेष्ठी, निषसाद तदन्तिके ॥ ३ ॥ अन्यदा तत्पुराधीशे, मृतेऽकस्मादपुत्रिणि । मुनिराख्यदहो भन्याः, यावजीवोऽयमेजति । पुरेऽरिभिर्भज्यमाने, श्रेष्ठयसौ शस्तमानुषः ॥२८॥ तावदाहारमादत्ते. तावत् कर्माणि चार्जयेत् ॥४॥ गत्वा मगधदेशेषु, ग्रामे प्रत्यन्तवर्तिनि । ततोऽप्यनन्तदुःखानि, सहते दुःसहान्यसौ। कस्मिन्नाजीविकादेतो-रध्युवास विधेर्वशात् ॥ २६॥ तस्मासुखैषिणाऽऽहार-गृद्धिस्त्याज्या मनीषिणा ॥५॥ एकदा स तु संप्राप्त. चतुर्मासकपर्वणि । श्रेष्ठयूचेऽदिशक्योऽय-मुपदेशः प्रभो ! ननु । धर्मानुष्ठानकरणे. लालसो ध्यानवानिति ॥ ३०॥ मुनिः प्रोचे गृहस्थाना-मस्ति भोः! पौषधवनम् ॥६॥ अहो ! मे हीनपुण्यत्व-महो! मे विधिवक्रता । तपाऽहाराणसत्कारा-ब्रह्मव्यापारवर्जनम् । यदई न्यपतं स्थाने, साधुमाधमिकोज्झिते ॥ ३१॥ देशतः सर्वतो वाऽपि, कर्तव्यं द्विविधं त्रिधा ॥ ७॥ अभविष्यदई चैत्य-मत्र चेत्तत्तदा मुदा। यावत्कालमिदं धन्यो, विभर्ति श्रावको व्रतम् । विधिसारमवन्दिप्ये, द्रव्यतो भावतोऽपि च ॥ ३२॥ तावत्कालं स विशेयो, यस्याचारानुपालकः॥८॥ गुरवोऽप्यभविष्यश्चे-दत्र सर्वत्र निःस्पृहाः। श्रुत्वेत्यत्रान्तरे कश्चि-छाद्धःक्षेमङ्कराभिधः। अदास्यं द्वादशावते, वन्दनं तत्तदंहिषु॥३३॥ बभाषे पौषधाऽऽख्येन, व्रतेनानेन म कृतम् ॥६॥ एवं विचिन्त्य स श्रेष्ठी, श्रेष्ठधीहकोणके। श्रेष्ठयूनेऽथ मुनि नत्वा, किं विद्वेषोऽस्य पौषधे?। स्वाऽऽयत्तं पौषधं चक्रे, कर्मव्याधिसदौषधम् ॥ ३४॥ प्रकृत्या भद्रकस्थाऽपि, जातस्य श्रावके कुले ॥१०॥ इतश्च तद्गृहे नित्यं. क्रयविक्रयणच्छलात् । मुनिः स्माऽऽह भवादस्मात् तृतीयेऽयं भवेऽभवत्। चत्वारः पुरुषाः केचि-निषेदुर्दुएबुद्धयः ॥ ३५॥ नगर्यो किल कौशाम्ब्यां, क्षेमदेवाभिधो वणिक । २१॥ ततश्च तैनीता, श्रेष्ठिनः पौषधक्षणः। भ्रातरौ तन चाऽभूतां, महेभ्यो श्रावकोत्तम।। सब्रह्मा ब्रह्मसेनोऽपि, कालेऽस्वाप्सीयथाविधि ॥ ३६॥ जिनदेवाभिधो ज्येष्ठो, धनदेवः कनिष्ठकः ॥ १२॥ निशीथप्रहरादूई, तस्मिन् सुप्तेऽथ ते नराः । कुटुम्बभारमारोष्य, जिनदेवोऽन्यदाऽनुजे । प्रविश्य तत्र खात्रेणाss-रेभिरे मोषितुं गृहम् ॥ ३७॥ पौषधं पौषधागारे, प्रत्यहं विधिना व्यधात् ॥१३॥ प्रवुद्धः श्रेष्ठ्यथो गेहं, मुष्यमाणं विदधपि । अन्यदा पौषधस्थस्य, तस्योत्पेदेऽवधिस्ततः । मनागपि शुभध्याना-नाचालीवालाचलः ॥ ३८॥ मात्या झानोपयोगेन सोऽवादीदनुजं यथा ॥ १४ ॥ संवेगातिशयात्सोऽनु-शिधिमित्यात्मनो ददौ । वत्सावशिष्टमायुस्ते, नूनं जाने दिनान् दश । रे जीव ! धनधान्याऽऽदौ, मा मुहः सर्वथा यतः ॥ ३॥ विधेहि बान्धव स्वार्थ सावधानमना भृशम् ॥१५॥ एतद् माहामनित्यं च, तुच्छं बातुच्छतुःखदम् । धनदेवस्ततः कृत्वा, चैत्ये पूजां गरीयसीम् । एतस्माद्विपरीते तु, धर्मे वित्तं रदं कुरु ॥४॥ दवा दानं च दीनाना-मदीनो निनिदानकम् ॥ १६ ॥ भुत्वत्यारमानुशिष्टिं ते, तस्कराः श्रेष्ठिनो मुखात् । संघं च क्षमयित्वाऽसौ, विधायानशनं सुधीः । • एवं विभावयामासु र्भावनां भवनाशिनीम् ॥४१॥ तृणमस्तारके तस्थौ, स्वाध्यायध्यानतत्परः ॥१७॥ धन्योऽयमेव येनासौ, स्वस्यापि स्वस्य निःस्पृहः । क्षेमदेवोऽथ तत्रैव-मूचे भो भोः! कथं भवेत् । अधम्या वयमेवैके, ये परार्थ जिहीर्षवः ॥ ४२ ॥ गृहस्थस्य ससंगत्वा-दवधिज्ञानमीरशम् ॥ १८॥ ततश्च लघुकर्मत्वा-जातिस्मृतिमवाप्य ते। अथैतदपि चेत् सत्यं, भवेद्भदं ततो भृशम् । सर्वेऽपि देवतादत्त-लिङ्गा प्राददिरे व्रतम् ॥४३॥ ग्रहीये पौषधं शान-भानोः पूर्वाचलोपमम् ॥ १६ ॥ अथोदयमिते सूर्य, श्रेष्ठथकस्माद् विलोक्य तान् । धनदेवोऽथ तत्राह्नि, स्मरन् पञ्चनमस्क्रियाम् । नत्वाऽप्राक्षीरिकमेतद्वः, पूर्वापविरोधकत् ? ॥४४॥ विपद्य द्वादशे कल्पे, इन्द्रसामानिकोऽजनि ॥२०॥ ततः सुपुण्यकारुण्या-वनयो मुनयोऽभ्यधुः। कलेवरस्य तस्थाऽऽशु, यथा संनिहितामरैः। अत्रास्ति वास्तवधीभि-याप्त। तुरुमिणी पुरी॥४५॥ गधाम्बुपुष्पवृष्ट्याद्यैश्चक्रे तुष्टैर्महामहः ॥ २१ ॥ तस्यामश्यामलस्वान्ताः, केशारिद्विजसूनवः । क्षेमदेवोऽपि वीक्ष्यैत-दीषच्छद्धालुतां दधत् । आसन्नाऽऽसन्नकल्याणा-श्चत्वारो विप्रपुङ्गवाः॥४६॥ पौषधं प्रायशश्चक्रे. धर्मकामो यदा तदा ॥२२॥ पितर्युपरते स्तोक-शोकशङ्कनिपीडिताः। कृत्वाऽऽषाढवतुर्मासे, सोऽन्यदा पौषधवतम्। ते निर्ययुर्भवोद्विग्ना-स्तीर्थदर्शनकाम्यया ॥४७॥ तपस्विन्यां तपस्ताप-दुत डानों व्यचिन्तयत् ॥ २३ ॥ अदाशुः पथि गच्छन्तो, मुनिमेकं शुदादिभिः। अहो ! दुःखमहो! दुःखं, सुत्तृधर्माऽदिसंभवम् । मूच्छौं गतं ततो भक्त्या, तं सजीचक्रिरे क्षणात् ।। एवमााऽतिवर्याऽसौ. पौषध हि ततो मृतः ॥ २४ ॥ सकर्णा धर्ममाकरर्य, तत्पावें जगृहुर्वतम् । व्यन्तरेषु सुरो भूत्वा, सोऽभूत् क्षेपङ्करो खयम् । विहरन्तः समं तेन, पेछुः पूर्वगताऽऽद्यपि ॥ ४॥ Page #1307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२८४) यंनसेण मभिधानराजेन्द्रः। बफ कतजाभिमदा निधिव, कन्याऽनशनमुत्तमम्। (भित्ति) माझी प्रादिदेवस्य भगवतो दुहिता, प्रामी हे चत्वारोऽपि पवस्व माध्यागुः प्रथम दिवम् ॥५०॥ पा संस्कृताऽऽदिभेदा वाणी तामाश्रितेनैव या दर्शिताऽक्षरसतरब्युस्वा तेस-ऽप्यत्रैव भरतावनी । लेखनप्रक्रिया साम्राह्मी लिपिरतस्तस्या माझया लिपेण मि. भभवाम वयं जाति-मदनस्तास्करे कुले ॥५१॥ स्यलकारे, लेखो लेखनं तस्या विधानं भेदो लेखाविधान प्राप्तम् मुम्यानचाच ते सन-सनुशिष्टिभुतेस्तव। तथा एतरस्वरूपंगरमिति न दशितम् । तथा यज्ञोके संजातजातिस्मरणाः, भगृहीम व्रतं वयम् ॥५२॥ यथाऽस्ति यथा वा नास्ति, अथषा-स्थाद्वादाभिप्रायस्तत. धर्मलामोऽस्तु सभ्य-मभ्यशिवसंपदे। देवास्ति. नास्ति चेत्येवं प्रवक्तीत्यस्तिनास्तिप्रवाद तक विधिप्रधामधर्मानु-ठाममिचलतसे ॥५३ ।। तुर्थ पूर्व तस्य । स०१८ समा "णमोमीए लिबीर।" इत्युदित्वा महाऽऽनन्द-पुरबजनसत्वराः। लिपिः पुस्तकाऽभावक्षरविन्यासः, साबाटावराणकारापि प्रवरामपि तेऽन्यत्र, बिहतु मुनयो ययुः॥५४॥ श्रीमत्राभेयजिनेन स्वसुनाया ब्राह्मीनामिकाया दर्शिता, सुधिरं ब्रह्मसनोऽपि. प्रतिपालितसहतः। ततो ब्राह्मीत्यभिधीयते। माहब-"नेलिबी विहाण, जि. भाराधनाविधेमृत्वा, पदमव्ययमभ्ययात् ॥ ५५ ॥ रोण भी दाहिणकरेण।" इत्यती प्रामीति स्वरूपविशेष पडास्वा सुखभावप्रभाव णं लिपेरितिभ०१२०१उ०। प्राप्त प्रहसनस्य इत्तम्। "क्षेत्रे माहाविदेहेऽभू-अगरी पुण्डरीकिणी। रसस्वाम्ता विध्यनुस्यूतशर्मा वैरनामाभिधस्तत्र, चक्रवर्ती किलाभवत् ॥१॥ मुहाने तस्संततं सन्तु सन्तः ॥५६॥" बैरसेनाऽभिधानस्य, जिननाथस्य सोऽन्तिके। इति प्रामकथा पर०२ अधि.६ लक्षा चतुर्भिातभिर्युक्तः, प्रषवाज विरागतः॥२॥ मसोय-ब्रमशौच-नकायचिषिचया ब्रह्मचर्याऽऽदिकुशला- प्राप्तपारः भुताम्भोधे-नियुक्नो गच्छपालने। हाइपे शोषभेदे, (इति लोकोतरिकाः) आपोहिष्ठामये विजहार महीं साधं, साधुभिः पञ्चभिः शतः ॥ ३॥ अशीचे, स्था० ५ डा०३ उ०। तदाता बाहुनामा यो, लब्धिमानुपमान्वितः। मार-देशी-कमले, दे०मा०६ वर्ग १ गाथा। वैयावृष्यं चकारासी, साधूनामशनादिभिः॥४॥ सुबाहुनामको यस्तु, स साधूनामसिनधीः । भाणगाछ-माणगाछ-पुं० । गच्छभेदे, " माणगच्छ. स्वाध्यायाऽऽविप्रस्त्रिनानां, सदा विश्रामणां व्यधात् ॥ मंसिरिजसोभरसरिणो संभाइसनयरोवरि विदरता।" अन्यौ पीठमहापीठ-नामानौ तस्य सोदरौ। सी.२५ कल्प। स्वाध्यायाऽऽदिमहारामे, रेमाते रम्यकेऽनिशम् ॥६॥ माणगपुर-प्रमाणाकपुर-न। मकमण्डले स्वनामयाते पुरे कदाचित्सरिराची तौ, श्लाघयामास भावतः । पत्र सत्यपुरस्थवीरस्वामिपित्तलमयप्रतिमाप्रतिष्ठापको ना. अहो धन्याविमौ साधू, साधुनिर्वाहणोती। . बरोबडे। ती०१६ कल्प। एवं भुत्वेतरवेवं , भावयामासतुर्मुनी। मादि-ग्रामचादि-पुंकामादिदेषज्येष्ठपुत्रीप्रभृती, पञ्चा०१६ लौकिकम्यवहारस्था, महो जल्पन्ति सूरयः॥८॥ विष०। करोति यो हि कार्याणि, स एव श्लाध्यते जने । मादिगुणरयण-ब्रह्माऽऽदिगुणरत्न-म०। ब्रह्मचर्यतपासंय सुमहामप्यकुर्वाण-स्तृणायाऽपि न मन्यते ॥६॥ मप्रभूति दौर्गत्यदुःखापहारितया रत्नकल्पेषु साधुगुणेषु, इत्येवं चिन्तया ताभ्यां, स्नीकर्म समुपार्जितम्। ०१उ०३प्रका मृत्वा गता विमाने ते, सर्वार्थसिद्धिनामके॥१०॥ ब्युस्वा ततोऽपि सबातः. एकः श्रीनाभिनन्दनः । मावच-प्रमावर्त- पुंस्वनामच्याते विमाने,स.१९समा अन्ये तु सूनवस्तस्य, तत्रैको भरतोऽभवत् ॥ ११. भिंददेवया ब्रह्मेन्द्रदेवता-सी० । ब्रह्मलोकेन्द्र, अदि. भन्यो बाहुबली ब्राह्मी, सुन्दरी चेति जझिरे । कायां भीमजिनस्वामिशान्तिदेवताऽवसरः। ती०४२ कल्प। सर्वे ते कर्मनिर्मुक्काः, सम्प्राप्ता नितिधियम् ॥ १२ ॥ भी-ग्रामी-सी०ऋषभदेवस्य सुबहला देध्यां, भरतेन पञ्चा०१६ विव०।मर जातायां पुड्याम् , ति । सा व बारबलिने भगवता | बकर-देशी-परिहासे, देना०६ वर्ग ८१ गाथा। बत्ता प्रबजिता प्रवर्तिनी भूस्खा चतुरशीतिपूर्य शतसहस्राणि बम-मध्य-वि०।"साध्वस-ध्य-यांमः" ||२२६. सर्वाऽयु: पालयित्वा सिखा। कल्प०१ अधि०७क्षण।। साध्यसे संयुक्तस्य ध्यायोश्च भः । प्रा. २ पाव प्रव० पक्षाला मामला प्रकाशमान लिपिभेदे, स०। मारणार्थ स्थापिते, अष्ट०१३ अष्टः । व्यापादनीये, दश ७५० मावा प्रश्न । भ० । मामा । हननयोग्ये भीए मं लिपीए भद्वारसविर लेक्खविहाणे पाते। वाचा०२९०१०४०२ उ०॥ महा-भी, जवणालिया, दोसऊरिया, बरोडिया, खर- तेसिंच परिसाणं मझगयं एगं पुरिमं पासइ, अव. माविया, महारााया, उच्चत्तरिया, अक्खरपुस्थिया, भो-| बोट उकिसकामास योहतप्पियगतं बजर गवयत्ता, प्रेषणतिया, शिरडइया. अंकलिवि,गशिभलिबि, रिजयणियंसियं कंठे गुणरत्तमबदाम चुमगुंडियगायं मेषमलिपि, भादस्सलिपि, माहेसरलिबि, दामिलिवि, चुमयं बज्मपाणापीयं तिलं तिलं चेव बिजमाणं का. होलिंतिलिलि। | मणिमसाई खाबियंत पावं कसासप हम्ममागं । Page #1308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसहाय बज्ज ( घोडगधणं ति) अग्रकांडकेन काटिकाया - बम्पाय पियबध्यायप्रिय त्रि०। बध्याश्च हन्तव्याः प्रा समताच उच्तादिप्रागप्रियाः प्राणप्रीता वा मतिमा गाये ते तथा । बध्यतां गतत्वेन प्राणाऽऽदावासक्के, प्रश्न०३ आध० द्वार विपा० । आध० द्वार । धोनयनेन बन्धनं यस्य स तथा तम् । (खिसकना संति) उत्पादित नासिकम् (नेहतु वयगतं ति ) . इति शरीरं (बफरक डिसिति) बवासी कोई (कति देश युक्तं निखित बज्झरिस बध्यपुरुष पुं० [बच्येषु नियुक्रे पुरुष, प्रश्न०३ निवसितश्चेति समासो ऽतस्तम् । अथवा बध्यस्य वत् क एका विपरित था (कंडेरमदामं ) करा गले गुण इस कण्ठसूत्र मित्र रक्तं लोहितं माल्यदाम पुष्पमाला यस्य स तथा तम् । (गैरिको दावगुपित शरीरं ति सन्त्रस्तं ( यज्झपाणिपीयं ति ) बद्धया बाह्या वा प्राणा उसादयः प्रीताः प्रिया यस्य स तथा तं ( तिलं तिलं चेति विमानमश्वर्यः ( कागवि मेसाई वितं ति) कामांसानि सम का ) खण्डानि यमानम् (पार्थ ति पापि अश्वासनाय चर्ममया वस्तुविशेषाः, स्फुटितवंशा वा तैई म्यमानं सायमानम् । बिपा० १ ० २ अ० । | बाह्य विडियो] बाह्यः भा० द० पर्ति नि पञ्चा० १० वि० । 39 वए । सूत्र० १० २ ० १ ३० । बज्यंत - बध्यमान- त्रि । हन्यमाने धा० । कर्म० । बन्धकारणे ज्यागुरा 55दिबन्धे च सूत्र बड़ी-बर्द्धनी स्त्री० [पति प्रमार्जयति इति प १ ४० २ ० १ ० " अहतं पवेज बज्भ, अहे यज्झस्स हुकारिकायाम्, विपा० १ ० १ ० । - बन्ध्यमान- त्रि० । कर्मणि यक् । " बन्धो उः । ८ । ४ । २४७ ॥ " इति बधेर्धातोरन्त्यस्य ज्झः । " तत्संनियोगे च क्यस्य लुक् । प्रणयमाने, प्रा० ४ पाद । ( १२८५ ) श्रभिधान राजेन्थ: । - बटल बटर वि०" श्रीमाऽऽदीनां वदिशाऽऽदयः ॥ ८ ॥४॥ ४२२ ॥ इति बठरस्थाने बढलाऽऽदेशः । मूर्खे, प्रा० ४ पाद। बणिय - बणिज - पुं० | व्यापारोपजीविनि वैश्ये, श्रा०क० १ श्र० । सूत्र । उस० । शा० । बधाऽऽदीनां करणानामन्यतमे, श्रा०यू० १ अ० । स्था० । उत्त० । विशे० । वृ० । सूत्र० । जं० । अ०म० । ये आपणस्थिता व्यवहरन्ति ते वणिजः, ये पुनराप.. येन विनास्थिता वाणिज्यं कुर्वन्ति (वेऽपि पशि वृ० १ ० ३ प्रक० । बमओ दाह्यतम् प्रय० । द्वितीयचतुर्थीपञ्चमी सप्तमीतो बाह्यशब्दार्थे, " किं ते जुद्धेण वज्झश्रो । " श्रचा० १ ० ५ अ० ३ उ० । बज्झकिरिया बाह्य क्रिया स्त्री० । बाह्याऽऽचारप्रतिपत्तौ श्रदणियग्गाम-बणिग्राम-पुं० शिवनन्दापतेरानन्दस्याssघासीभूते नगरे, आ०म० १ ४० । ०६ अष्ट० । बर्गचचागमाह्मग्रन्थत्याग पुं० धनधान्यस्यजनयत्रा मणिधम्मपत्रिधर्म-पुं० [बणिन्याये व्य० २४० । - । । 1 डा. पी १ विष० । बज्झतन बालपन० परती थिंकैरपि सुक्षेये तपोदे, द श० ।" प्रणसमूणोगरिया, वित्तीसंखेव रसयाओ का यकिले सो संली या य बज्झो तयो होइ " ॥ ४७ ॥ दश० १ अ० । ( अनशनाऽऽविशब्देषु व्याख्या एषाम् ) बज्झदिट्टि बाह्यष्टि शि० संसारर अष्ट शाश्र० द्वार । ३२२ - ↑ बाह्य सुपासारघटिता भाति सुन्दरी । ससा साचात् विमुत्रपिठरोदरी ॥ ४ ॥ अष्ट० १६ भ्रष्ट० । बफदूय-बध्यदूत - पुं० । बध्यविहे, प्रश्न० ३ अभ० द्वार झपट्ट बद्धपट्ट पुं० । धर्मविशेषपट्टिकायाम् प्रश्न० ३ - " पण-पाद्यारमन-मनोपनादिषु भ्रात्मस्वमासमकरे सर्वपलप्रवर्तनेषु चात्मनिष्ठेषु आरमस्ययु द्वौ अष्ठ०१५ अष्ट० । बञ्झप्पिय संबंधण संजोग - बाह्मार्पित संबन्धन संयोग- पुं०1"लेसाकवावेषण वेदो मिमी व जावया श्रोदया. लुब्धो सो बाहिरो जोगो ॥ १ ॥ " इति लेश्याऽऽद्यो विकारात्मनः सं० २'संजोग' शब्दां बीचयः ) बज्झपाण- बध्यमान- त्रि० । पीयमाने, उत्त० २३ अ० । "साऽऽमि दिवस परमार्थ निरामिसं " उत० १४ अ० । आचा० । ज्वग्ग - बाह्यवर्ग पुं० । पुत्रकलत्राऽऽदिके, अष्ट०८ अष्ट० । 'लौल्येन किञ्चित् कलया च किश्चित्, पापेन किञ्चिलया च किञ्चित् । किञ्चिच्च किञ्चिच्च समाहरन्तः, प्रत्यक्षचौरा वणिजो भवन्ति ॥ १ ॥ अधीतुं प्राइजन, मृते यज्ञाधि विषशीकर्तुमपरम् । प्र यत् किञ्चिदपि समुपादातुमधिकं, पोऽयं वृतेर गहना कोऽपि दिजा २ ॥ ध० २ अधि० । बचीस द्वात्रिंशत् श्री०धिकारात, "बसी किए. कला पुरसरस माहारो" नि०० १४० बत्तीसइत्रद्धणादय द्वात्रिंशद्वद्नाटक- न० द्वात्रिंशभक्तिनिषढेात्पानिय नाटके, विद्या० २ ० १ बची सद्वारा दात्रिंशदस्यानन० गणि संपदि य० । 66 Page #1309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसट्ठाण अभिधानराजेन्द्रः। बफलक्ख वत्तीसाए ठाणसु, जो होइ अपरिनिहितो । खलानां सादगुण्ये कचिदपि न प्रिनिविशते ॥ ७॥ नऽलमत्थो तारिसो होइ, ववहारं ववहरितए ॥२४०॥ अपि न्यूनं दावाऽभ्यधिकमपि संसील्य सुनयबत्तीसाए ठाणेसु, जो होइ परिणिहितो । वितस्य व्याख्येयं वितथमणि सोप्य विधिना । अपूर्वग्रन्थार्थप्रथनपुरुषार्थाद्विलसतां, अलमत्थो तारिसो होइ, ववहारं ववहरित्तए ॥ २४१॥ सतां दृष्टि सृष्टिः कविकृतिविभूषोदयविधौ ॥८॥ बत्तीसाए ठाणेसु, जो होइ अपतिहितो।। अधीत्य सुगुरोरेना. सुदृढं भावर्यान्त थे। णऽलमत्था तारिसो होइ, ववहारं ववहरित्तए ॥२४२।। ते लभन्ते श्रुतार्थशाः, परमानन्दसम्पदम् ।।६।। बत्तीसाए ठाणंसु. जो होइ सुपतिहितो । प्रत्यक्षरं ससूत्रायाः, अस्या मानमनुष्टुभाम् । शतानि च सहस्राणि, पञ्चपश्चाशदेव च ।।१०॥" अलमत्थो तारिसो होइ, ववहारं ववहरित्तए ।। २४३ ॥ द्वा० ३२द्वा०। श्लोकचतुष्टयमपि पूर्ववत् । संप्रति नान्येव द्वात्रिंशतस्थानान्याह बत्तीसिया-द्वात्रिंशिका-स्त्री० । माणिकाया द्वात्रिंशत्तममा. अट्ठविहा गणिसंपइ, एकंका चउविहा मुणेयव्वा । गवर्तिस्वादष्टपलप्रमाणा द्वात्रिंशिका | रसमानविशेषे, अनु० एसा खलु बत्तीसा, ते पुण ठाण। इमे हुंति ।। २४४॥ बद्ध-बद्ध-त्रि० । वशीकृते, सूत्र०१ श्रु०४ अ.१ उ० । वगणिन आचार्यस्य संपदष्टविधा अष्टप्रकारा, एकैका च भ. धनतो (भ० १३ श०७०।) गाढश्लेषे, स्था० १० ठा० । वति चतुर्विधा सातव्या । एवं खलु द्वात्रिंशत् स्थानानि भव. गाढतरमाश्लिो , विशे। स्था०। यथा तनौ तोयम् । स्था. न्ति । व्य०१० उ०।। २ ठा. ३ उ०। शा०। जीवेन सह संयोगमात्रमापने , विशे। तोयवदात्मप्रदेशरात्मीकृते, आलिङ्गिनानन्तरमात्मा बत्तीसदोस-द्वात्रिंशदोष-पुं०। द्वात्रिंशत्संख्यामिते सूत्रदोषे , प्रदेशरागृहीते. नं। औ• । उदीरणावलिकां प्राप्ते कर्मणि, विशे०। ( 'सुत्ताणुप्रोग' शब्दे वक्ष्यामि ) मा०म०१०। गद्यपद्यरूपतया रचिते, विशे० प्रा०म०। बत्तीसपुरिसोवयार-द्वात्रिंशत्पुरुषोपचार-पुं० । कामशास्त्रप्र बर्ध-न। पुं०। चर्मशकले, सूत्र. १ श्रु.५ १०२ उ०।ब. सिद्धेषु द्वात्रिंशत्संख्याकेषु पुरुषेषु, अनु० । विपा० । धास्त्रुटिततलिकाऽऽदियधनार्थं गृह्यन्ते । ध) ३ अधि०। ६० बत्तीसवत्तीसिया-द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका-स्त्री० । द्वात्रिंशता ३०। संदानिते , " बद्धं संदाणिनं निलिभं च । " पाइ द्वात्रिंशवगाथापरिमितै ग्रन्थैनिबद्धे यशोविजयोपाध्यायरचिते ना० १७ गाथा । बद्धे, “बद्धं संगिल्लं । " पाइना० २२१ अन्यधिशेषे, द्वा०। गाथा । यध्य, "बज्झो बद्धो।" पाइना.२३६ गाथा। "प्रतापार्क येषां स्फुरति विहिताऽकम्बरमन: बद्धअ-देशी-पुपट्टाऽऽख्यकर्णाऽऽभरणविशेषे, देना. ६ सरोजमोलासे भवति कुमतध्वान्तविलयः। वर्ग ८ गाथा। विरेजुः सूरीन्द्रास्त इह जयिनो हीरविजया:, दयावल्लीवृद्धी जलदजलधारायितगिरः॥१॥ बद्धगुय-पद्धगुद-न०। पुरीषोस्सिसृक्षायां सत्यामपि पुरीप्रमोद येषां सद्गुणगणभृतां विभ्रति यशः पावतरणरोधके उदररोगभेदे, प्रात्रा० १२० ६ ० १ उ० । सुधां पायं पायं किमिह निरपायं न विबुधाः। बद्धट्रिय-बद्धास्थिक-न. । सातास्थिके फले, नि चू० अमीषां षट्तोंदधिमथनमन्धानमतया, १५ उ०। सुशिष्योपाध्याया बभुरिह हि कल्पाणविजयाः ॥२॥ बद्धपासपुट्ठ-बद्धपार्श्वस्पृष्ट-त्रि० । पार्बेन स्पृष्टाः देहत्या. चमत्कारं दत्ते त्रिभुवनजनानामपि हृदि, स्थितिमी यस्मिन्नधिकपदसिद्धिप्रणयिनी। च्छुप्ताः रेणुवत् पार्श्वस्पृष्टाः ततो बद्धाः गाढतरं संश्लि. पास्तनी तोयवत् , पार्श्वतः स्पृष्टाश्च ते बद्धाश्चति राज. मुशियास्ते तेषां बभुरधिकविद्याऽर्जितयश: दस्ताऽदित्वात् बद्धपार्श्वस्पृष्टाः । बद्धेषु पार्श्वस्पृशेषु च प्रशस्तीभाजः प्रवरविबुधा लाभविजयाः ॥ ३॥ पुद्गलेषु , स्था०२ ठा० १ उ.। यदीया इग्लीला उभ्युदयजननी माशि जने, जडस्थानेऽप्यतिरिव जवात् पङ्कजवने । बद्धफल-बद्धफल-त्रि०) क्षीरकस्य फलतया बन्धना जा. स्तुमस्तच्छिष्याणां बलमविकलं जीतविजया: तफले, शा०१ श्रु०७०। भिधानां विज्ञानां कनकनिकषस्निग्धवपुषाम् ॥४॥ बद्धमूल-बद्धमूल-त्रि०। यस्य हि मूलं भूम्यादी नद्धम् । प्रकाशार्थ पृथ्व्यास्तरणिरुदयाद्रेरिह यथा, तस्मिन् . "जेणं से तिलथंभए प्रासन्थबीसत्थर पच्छा पाए यथा वा पायोभृत्सकलजगदर्थ जलनिधेः । बद्धमूले तत्थेव पइट्टिए।" भ०१५श। तथा वाराणस्याः सविधमभजन ये मम कृते, बद्धभुक-बद्धभुक्त-त्रि० । द्वन्द्वः । इह जन्मनि जीवनसम्बद्ध, सतीास्ते तेषां नयविजयविक्षा विजयिनः॥५॥ अन्यजन्मनि जीवनोज्झिते, उत्त०१०। यशोविजयनाम्ना त-चरणाम्भोजमेविना । द्वात्रिंशिकानां विवृति-श्चके तत्वार्थदीपिका॥६॥ बद्धरुद्ध-बद्धरुद्ध-त्रिकारज्ज्वादिसंयमिते, धारकादिनिरुद्ध महाथै व्यर्थत्वं वचन सुकुमारे च रचने, च । प्रश्न० ३ ग्राश्रद्वार। बुधत्वं सर्वत्राप्यहह! महतां कुउपसविताम् । बद्धलक्ख-रद्धलक्ष्य-पुं० । अनुष्ठेयं प्रति अविचलितलये, मितान्तं मूर्खायां सदसि करवाः कलयतां | पं०सू०४ सूत्र । Page #1310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२८७) बच्चम्मिय अभिधानराजेन्डः। बद्धवम्पिय-बद्धवर्मिक-पुं० । यद्धं वर्म तनुत्राणविशेषो ये बम्ह-ब्रह्मन्-न.।" पदमश्मध्मस्ममा म्हः।"।८२७४॥ षां ते बद्धवर्माणस्त एव बद्धर्मिकाः। तेषु, विपा.१ भु. इति हकाराकान्तमकारस्य मकागक्रान्ती हकारः । प्रा० २५०। २पाद । महति, वृहति, षो०१५ विव० । कुशलानुष्ठाने, स्था. चद्धसुय-बद्धश्रुत-न० । पचाऽऽत्मके थुते ,विशे०।" पद्धं तु | ठा। प्रजापतौ, पुं० । श्रवण नक्षत्रस्थाधिपतिर्देवता ब्रह्मा । दुबालसंगं गणिणिहिटुं ।" बद्धं तु द्वादशाङ्गमाचाराऽऽदि स्था०२ ठा० ३ उ० । श्रीशीतलस्य जिनस्य यो, सच गणिपिटकं गणिनिर्दिष्टं लोकोत्तरं , लौकिकं तु भारता. चतुर्मुखत्रिनेत्रः सितवर्णः पनाऽऽसनोएभुजे। मातुलित ऽऽदि । प्रा०म० १ ।। मुद्रपाशकाभययुक्तदक्षिणपाणि चतुष्टयो नकुलगदाहशाक्षबद्धियग-बर्द्धितक-पुं०। नपुंसकभेदे, यस्य बालस्यैव छेदयि- सूत्रयुक्तवामपाणिचतुण्यश्च । प्रव० २६ द्वार ।"पुंस्यन प्रा. स्वा वा भ्रातरावपनीतौ । पृ०४ उ० । णो राजयसव" ॥८।३।५६ | इति अनस्थाने आणा55बद्धीसग-बद्धीसक-न० । बाद्यविशेषे , प्रश्न. ५ श्राश्र० देशः । 'बम्हाणो । बम्हा'। प्रा०३ पाद । बल-बल-म । शक्युपचये, प्राचा.१ श्रु०२ • २ उ० । बद्धलग-ब-त्रि० । स्वार्थे इसकप्रत्ययः । नखे, अनु० । शारीरे (शा.१७०१०) सामध्ये, शा० १७० १८ प्राचा०। प्रा० चूछ । स्था० । च०प्र० । विश०। पधग-बधक-त्रि० । स्वयं हन्तरि, जी. ३ प्रति०४म. वृाग्रा० म०। उपा० । जी0। "बलं ति बा, सामत्थं ति धि०। वा, परकमो त्ति वा, थामो त्ति वा पगट्ठा।" नि० चू० १ बप्प-देशी-सुभटे.पितरि चान्ये । दे० ना०६ वर्ग ८८ गाथा। उ०।जी।ौ०। देहप्राणे, भ०७श०७३01 श्री शा० । चप्पभट्टिमूरि-बमभटिसूरि-पुं० । सिद्धसेनसूरिशिष्ये प्रा- उपायलं द्विविध-शारीरं,मानसं च । विश०संहननविशेष. मराजप्रतिबोधके प्राचार्य , विक्रमसम्बत्-८०० मितेऽयं | समुत्थ प्राणे, नि०११०४ वर्ग १ अशा स्था०रा० जातः , ८६५ वर्षे स्वर्गतः । जै०० । ध। पं० चू०। अनु.। सू०प्र० । बप्पीह-शी-चातके, दे० ना.६ वर्ग ६० गाथा । "सारंगो चक्रवर्तिप्रभृतीनां बलातिशयप्रति. चायत्रो य बप्पीहो।" पाइना० १२६ गाथा। पादनार्थमाहबफ-बाप-न० । अक्षुणि, "बर्फवाहोय नयणजलं ।" पार. सोलस रायसहस्सा, सम्बवलणं तु संकलनिबद्धं । ना. १९२ गाथा। अंछते वासुदेवं, अगडतहम्मी ठियं संतं । ७१ ॥ बफाउल-देशी-प्रत्युष्णे, दे० ना.६ वर्ग १२ गाथा। घेतूण संकलं सो. बामगहत्येण अंछमाणाणं । बब्बर-बर्बर- पुं० । अनार्यदेशभेदे बने, अनार्यजातिभेदे च । मुंनिज विलिंपिज्ज व, महुमहणं ते न चाएंति ।। ७२ ।। प्रशा.१ पद । सूत्र०। प्रव० प्रा० चू०प्राचाकल्प ! इह वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमविशेषादलातिशयो वासुदेव स्था०। जी। स्य प्रदीते-षोडशगजसहस्राणि सर्वबलेन इस्त्यश्वरथप. बब्बरिया--बरिका-स्त्री०। बर्बरदेशोत्पन्नायां दास्याम् , ज्ञा० दातिसंकुलेन सह शृङ्खलानिबद्धं. 'अछति ' देशीवचन १ श्रु. १० । औ• । भ०। नि० । स०। आवश्यकवृत्ति. मेनत् । आकर्षन्ति वासुदेवं अवटतट पटत स्थितं सन्तं, ग्रन्थप्रकरणविशेषे, आव. १ मा बरं वृणुतेत्येवमाण्यानं ततश्च गृहीत्वा शृङखलाममा वामहम्तेन (अंछमाणाणं ति) बर्बरिका। हा० २६ भ्रष्ट लोक। आकर्षतां भुञ्जीत, विलिम्पद्वा अवाया दृष्टः सम् पुनस्त बबरी-देशी-केशरचनायाम् , दना०६ वर्ग १० गाथा । मधुमथनं न शक्नुवन्न्याक्रष्टुमिति वाक्यशेषः। बबूल-बबूल--पुं० । वृक्षभेदे, स्था०४ ठा०३ उ०। चक्रवर्निबलप्रतिपादनार्थमाहबब्भ--देशी-बधे, देना० ६ वर्ग ८८ गाथा। दो मोला बत्तीसा, सन्चत्रलेणं तु संकलनिबद्धं । बन्भंत-उापान-त्रिका "भो दुह-लिह-बह-रुधामुच्चातः।" भंछति चक्कट्ठि, अगडतडम्मी ठियं संतं ॥ ७३ ॥ ॥॥४॥२४५ ॥ इत्यन्तस्य कर्मणि बकाराऽऽक्रान्तो भकारः। घेत्तूण संकलं सो, बामगहत्यण मंछमाणाणं । प्राप्यमाणे. प्रा०४ पाद। झुंज विलिंपेज व, चक्कहरं ते न चाएंति ॥ ७४ ॥ बभागप-बहागम-पुं०। बहुश्रुते. वृ०४ उ०। द्वा षोडशको द्वात्रिंशत्. नत् द्वात्रिंदित्येव बाध्य द्वौ पो. बम्मामा-बभासा खी। नदीभेदे . यस्यां हि नयां परा. इशकावित्यभिधानं चक्रवर्तिना वासुदेवात् द्विगुणऋद्धिदतिरिच्यमानायां तत्पूरपानीयभाविताणं क्षेत्रभूमौ धान्या- ख्यापनार्थम् . राजमहस्राणीति गम्यते । सर्वबलन सह निप्रकीर्यन्ते । वृ०१ उ०२ प्रक०।। शृखलानिबद्धमाकर्षन्ति चक्रवर्तिनम् अवटतट स्थितं स. बभिप्राण -बाभ्रव्यायण-पुं० । बभ्रऋषेोत्रापत्ये, ०४ तं गृहीत्वा शृङ्खलामसौ यामहस्तेनाऽऽकर्षतां भुजीत वक्ष । मूलनक्षत्रं बाभ्रव्यायणगोत्रम् । नं0। विनिम्मेद्वा , न पुनस्ते चक्रधरं चक्रवर्तिनं शक्नुवम्त्या. बन्धु-बभ्र-० । नकुल. पश्चा० १४ विव० । स्वनामख्याते क्रष्टुमिति वाक्यशेषः। ऋविभेदे च । पञ्चा०विव०। संप्रति तीर्थकरबल प्रतिपादनार्थमिदमाहबमाल-देशी-कलकले, देना०६ धर्म माथा। जं केसवस्स उ बलं, दुगुणं तं होइ चकवहिस्स। Page #1311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२८८) अभिधानराजेन्द्रः। बसनावगा तत्ती बला बलवगा, अपरिमियबला जिणवरिंदा ॥७९॥ लुक" ११७७॥हान बलका प्रा०१पाद।" डालः" यत् केशवस्य तु बलं तद् द्विगुणं भवति चक्रव ॥८।१।२०२॥ इति इस्य लः । प्रा०१पाद । तिनः, ततः शेषलोकबलाद् बला बलदेवा बलवन्तः, बलकूड-बलकूट-न०। मेरोरुत्तरपूर्वस्यां नन्दनवने बलनाकेशवबलापेक्षया स्पर्धबला इति प्रतिद्वारमवगन्तव्यम् । । म्ना देवेनाधिष्ठिते कूटे, स्थाठास तथा-निरवशेषवीर्याम्तरायक्षयादपरिमितं बलं येषां ते अप | बलकोटबलकोष्ठ-पुं०।गातीरे हरिकंशाधिपे ब्रह्मदपूरिमितबलाः । के ते.इत्या-जिनवरेन्द्रास्तीर्थकतात. वेभवपितरि-चाण्डाले. उत्त०८०। था-ततश्चक्रवर्तिनो बलादलवन्तो जिनधरेन्द्राः । कियता पलक्ख-बजाक्ष-1०।कएठाभरणविशेष, तच्च रूढिग. बलेनस्याह-अपरिमितेन बलेन बलवन्त इति भावः । प्रा. म्यम् । ०। म.१०। विशे०।१०। सू०प्र०। ( द्विविधं बलम्-स. बलगल-पल्कल-न। तरुन्वदिशा.१४०१६अ। म्भवं, सम्भाव्यं चेति “ बीरिय " शम्मे व्ययते ) भा.बलण-बलन- नबलनेन विशिष्टावस्थाप्रापणे, विशे.. रवहनाऽऽदिसामध्ये , स्था• ४ ठा० २ उ० । बलवति, प्रश्न०५ पाश्र द्वार । सारे, व्य. ४ उ० । प्राचा० । बलगणु-बला-पुं० । बलझातरि, प्राचा०१६०८०३ उ० रा. । चतुरङ्गे, स्था० ३ ठा० ४ उ० । सैन्ये, शा. १ बलदेव-पलदेव-पुंगवासुदेवज्येष्ठभ्रातरि,मा००१ मा भु०१ भ० ० । प्रा०म० । हस्यादिवाहने, स्था. मस्तकाती। प्रवातिप्रा. म.सा अनु०वा। ४ ठा०२०।" पलं चउव्यिह-पाकवलं, भासवलं. प्रशाापा.चू० । नि01 (अवसापिण्यां व भरत ऐरखते स्थिवलं. रहबलं । " नि० चू० उ० महाविहे वर्षे सलि. चनव बल देवा: 'दसारमंडल' शदे चतुर्थेमागे ५४०४ लावतीचा विजये बीतशोकाया नगर्या राजनि म. पृष्ठे व्याख्याना) सर्षणाऽऽख्ये कृष्णवासुदेबज्येष्ठम्रातरि, हाबलस्य पितरि.शा०११०१०। स्वनामख्याते हस्ति मा० मा १०।पा। मा०। उत्त। नापुरनगरवास्तव्ये गृहपती, स च स्थविराणामन्ति के प्रत्र. बलदेवपहिमा-बलदेवप्रतिमा-स्त्री०। पाषाणाऽदिमां. ज्य संलेखनया मृत्वा दिसागरोपमाऽयुकतया सौधर्म लदेवमूनों, एका प्रतिमाऽऽवर्तमामे भासीत् , यमदिरे एकरपे बलविमाने देवत्वनोपपत्रः, ततश्व्युत्वा महाविदेहे ह र कदा छपस्थविहारे श्रीचीर-समवस्तः। प्रा०म०१०। सेत्स्यतीति । नि०१ ध्रु०३ वर्ग म० पनामख्याते | बलबलिय-बलबलिक-पुं० । चतरोगविशेषविशिष्टे , महा. हस्तिनापुरराजे, भ० ११ श० ११ उ० । भूषभदेवस्य ३०॥ सप्ताशीतितमे (कल्प. १भधि०७ क्षण) स्वनामख्याते बलबुद्धिविवढण-बलबुद्धिविवर्द्धन-नाशरीरसामर्थ्यस्य मे. कत्रियपरिवाजे, पौ। धायाश्च विवर्धने , ग०२ अधि। दसविहे बले पम्पते । तं महा--सोइंदिवले . जा. बलभद-बलभद्र-पुं० । भरतपौत्रस्य महायशसः पौत्रे, आ. व फासिंदियवले, नाणबले, सणवले, चरित्तवले, तबब | चू०१०। माव० । राजगृहे मौर्यवंशीये स्वनामख्याते राजनि , उत्त० ३ ० । प्रा०म० । यनाऽव्यक्तिकनिहवा: ले, वीरियरले । स्था० १० ठा। प्रतियोधिताः। विश० । स्था०ामा० घू। नि०। सङ्कर्षण ग्रह-धा० । उपादाने, " प्रहो बल-गेरह-हर-पा-निद- बलदवे . स० । स्वनामख्याते सुग्रीवनगरराजे , यस्य भा. वाराहिपचुनाः"॥८॥४॥२०॥ ॥ इति प्रदेः बलादेशः। र्यायां मृगावत्यां मृगापुत्रनाम्ना विश्रुतः पुत्र प्रासीत् । 'बाई'। प्रा०४पाद । उत्त०१८ मामियापुत्त' शम्दे कथा वक्ष्यते) पारुह-धा० । उच्चैर्गमने, आरोहे (पे) बलः॥८।४। बलभाणु-बलभानु-पुं० । बलमित्रराको, भगिनी भानुश्री। तापुत्रे. नि० चू०१० उ० (तत्कथा पज्जुसवणाकप्प' . ४७॥ इति भारहर्यन्तस्य बलादेश। बलइ । पारोवह।' शब्दऽस्मिनंव भागे २४० पृष्ठ गता) प्रा०४ पाद । " धातयोऽर्थान्तरेऽपि "॥८४५५६ || इति बलःप्राणने पठितः। खादनेऽपि वर्तते। 'बल' खा. बलभावणा-बलभावना-खी० । देषवलपोलोचने, प० । अथ बलभावना । तत्र बलं विधा-भाषवलं, शारीरवलं दति, प्राणनं करोति वा । प्रा० ४ पाद । " थामं सारं च | च। तत्र च भावबलमाहब।"पाइना० १६४ गाधा कृष्णनातरि," रामोसी भावो उ अभिस्संगो, सो उ पसत्यां व अप्पसत्यो वा। री मुसला-उदोबलो कामपालो य । " पा० ना० २३ नेहगुणभो उ रागो, अपसत्थ पसत्यमो चेय ॥५२॥ गाथा भावो नाम अभिष्वतः स तु द्विधा-प्रशस्तः,अप्रशस्तन। बलमा-बलाका-स्त्री० । " वाऽव्ययोतूखातावादाता" तर अपस्यकलत्रादिषु स्नेहजनितरागः सोऽप्रशस्तः। यः ५८।१।६७ ॥ इत्यादेराकारस्य इस्वः । पक्षिविशेषे, प्रा० पुनराचार्योपाध्यायाऽविषु गुणबहुमानप्रस्थयो रागःस प्रश. १वाद। स्तः। तस्य विविधस्यापि भावस्य येन मानसावष्टम्भेनाबलमामह-बडवानख-पुं०।"डोलः"॥८।१।२०२॥ इति सौ व्युत्सर्ग करोति तद्भाषचलं मन्तव्यम् । शारीमपि ब. असंयुक्तस्य उस्य लामा०१ पाद । समद्रस्थे कालान- लं शेषजनापेक्षया जिनकल्पाईस्यातिशायिकमिप्यते । से,प्रा०१पाद। पाह-तपोकानप्रभृतिभिःभायनाभिर्भावयतः कृशतरं शरी. परत्रागान-दवानल-पं०1"कागच-जात-पाय वा-प्रायो भवति । ततः कुतोऽस्य शारीरं बलं भवति ।। Jaitl Education International Page #1312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२ ) बसन्नावणा अभिधानराजेन्छः। बसयानुह उच्यते ज्यं च तदेव नएम् । ती० १६ कल्प । यत्र पुस्तकारूढः कामं तु सरीरबलं, हायइ तवनाणभावणजुभस्स । सिद्धान्तो जातः । कल्प०१ अधि०६क्षण । "बलही. देहावचए वि सती, जह होइ घिई तहा जयइ ।।५२४॥ पुरम्मि जयरे।" (मत्र विस्तः 'पोत्थग' शम्नेऽस्मिने कामं तुः-अवधारणे. अनुमतमेवास्माकं यत्तपोशानभाव. भागे १९२२ पृष्ठ गतः।) नायुक्तस्य शरीरवलं हीयते, परं देहापचयेऽपि सति यथा- बलभीसंठिय-पलभीसंस्थित-त्रिका "बलभी चउकोणमीसि. धृतिर्मानसावष्टम्भलक्षणा निश्चला भवति तथाऽसौ यतते, दीहाऊ।" यस्य ग्रामस्य चतुर्वपि कोणषु ईषदीर्घा वृक्षा धृतिबलेन सम्यगात्मानं भावयतीत्यर्थः। व्यवस्थिताः स बलभीसंस्थितः । वृ०१ उ०२ प्रक०। माह-नत्यं धृतिबलेन भावयतः को नाम गुणः स्यात् . उच्यते चलपित्त-बलमित्र-पुं० । वीरमोक्षाच्चतुर्थे शतके जाते कसिणा परीसहचम, जइ उहिला हि सोवसग्मा वि। भारतप्रधानराजे, ती०२० कल्प । ति." जं रयणि सि. दिगो भरहा तित्थंकरो महावीरो तं रवि भवंती. दुदरपहकरवेगा, भयजणणी अप्पसत्ताणं ।। ५२५ ॥ ए अहिसित्तो पालो राया । "पालगराया सद्धि , वयसवं घि धणिय बद्धकच्छो, जो होडमणाउलो तमभहिओ। ठियाण गंदाणं । मरुयाणं अट्ठसयं , तीसं पुण पूसमिसावं बलभावणाएँ धीरो, संपुममणोरहो होइ।। ५२६॥ ॥१॥ बलमित्तभाणुमित्ता" ति। कृत्स्ना संपूर्ण परीषहचमू मार्गात् व्ययते निर्जरार्थ प. बलय-बलय-न । चक्रवाले, स्था०५ ठा० १ उ० । कटक रिषौदव्याः परीषहाः दादयस्त एष तेषां वा चमूः सना विशेष. औलापाचा स्था०।५०। बलयमिव बलयम् । सा यद्युत्तिष्ठत सम्मुखीभूय परिभावनाय प्रगुणा भवेत् सो. धक्रत्वात् । प्रश्न०२ श्राश्रद्वार । एकोनविंशे गौणमृषावा. पसर्गाऽपि दिव्याऽऽद्युपसगैः कृतसहायकाऽपि । तथा दुर्द्धर दे, प्रश्न०२ आश्रद्वार। येन भावेन बलयमिव वकंवदुई पन्थानं सम्यग्दर्शनाऽऽदिरूपं मोक्षमार्ग करोतीति च चटा वा प्रवर्तते । तस्मिन् , भ. १०० ६ उ० । दुर्घरपथकरस्तथाविधो बेगः प्रसरो यस्याः सा दुर्द्धरप. सामायारूपे, सूत्र० १७०१३ ० । वृत्ताऽऽकारनद्याथकरवेगा, भयजननी संत्रासकारिणी अल्पसवानां कापु. दिजल कुटिलगतियुक्तप्रदेशे , सूत्र०२ थु०२० नद्यारुषाणां तामेवंविधामपि स जिनकल्पप्रतिपकामो योधय. दिवेष्टितभूभागे, प्राचा० १ श्रु० २ ० ५ उ० । यत्रोति । कथंभूतो?-धृतिरेव धणियमत्यर्थ बद्धा का येन स दकं बलयाऽऽकारेण व्यवस्थितमदकरहिता था पर्ता तथा अनाकुल औत्सुक्यरहितः अव्यथितो निष्प्रकम्पनः "दुखनिर्गमप्रवेशा। सूत्र. १७०३०३ उ० । तालतमास बलभावनया तां योधयित्वा धीरः सस्वसंपन्नः सन् संपूर्ण लाऽऽदिषु वनस्पतिभेदेषु, भ. १५ श० । जी०। मनोरथो भवति, परीषहोपसर्गान् पराजित्य स्वप्रतिमा पू. रयतीत्यर्थः। से किं तं बलया। बलया अणेगविहा पमत्ता तं जहाअपि च " ताले तमाले तकलि, तेयाली सालि सारकजाणे । घिइबलपुरस्सराओ, हवंति सव्वा वि भावणा एता। सरले जाति केयर, कंदलि तह धम्मरुक्खे य ॥१॥ तं तु न विजइ सजं, जं घिमंतो न साइ॥ ५२७॥ भुयरुख हिंगुरुक्खे, लवंगरुक्खे य होइ बोधम्ने । सर्वा अप्येताः तपःप्रभृतयो भाषना धृतिबलपुरस्सरा भ. पूयफली खज्जूरी, बोधव्वा नालिएरी य ।।२॥" पन्ति, न हि धृतिबलमन्तरेण पाएमासिकतपःकरणाss. जे यावले तहप्पगारा सेत्तं बलया । प्रज्ञा० १ पद । धनुगुणाः तास्तथा भावयितुं शक्यन्ते । किवा-सतत्पु. ना साध्य कार्य जगति न विद्यते, यद् धृतिमान् साविकः पु. प्राचा०।झा रुषो न साधयति'सर्व साये प्रतिष्ठितम् ' इति वचनात् ए. पृथिवीनां वेधनेषु घनोदधिधनवातसनुपातलक्षणेषु.स्था. तेन "प्रबोडिछत्ती मण" इत्याविशारगाथाया उपसर्गसहर २ ठा०४ उ.। ति यत्पदं तावितं, बलभावनया उपसर्गसहत्वभावादि. बलयमयग-बलमृतक-पुं० । बलम्तः संयमावू अश्यन्त:, ति । १०१ उ० २ प्रक० । बलभावनायां बलं द्विविधम् अथवा-बुभुक्षाऽऽदिना बेबन्तो ये मृतास्ते बलस्मृतकाः । शारीरं. मानसं च । तत्र शारीरमपि बलं जिनकल्पाईस्य शेषजनातिशायिक मेवेष्टव्यम्, तपःप्रभृतिभिस्त्वपकृष्यमाण: बलम्मरणेन मृतेषु, औ०। स्य यद्यपि शारीरंबलं तथाविधं न भवति, तथापि धृतिब. बलयमरण-बलन्मरण-न. । बलतां संयमानिवर्तमानानां लेनाऽऽस्मा तथा भावयितव्यो यथा महद्भिरपि परीषहोपस. परीषहाउदिबाधितस्वान्मरणं बलम्मरणम् । मरणभेदे, गर्न बाध्यते। विशे। स्था. २००४ उ०।" बलयं बलयमाणे जो मरणं मरह बलभी-बलभी-खी०। गृहाणामाच्छादने,जी०३ प्रति०४ होणसत्ततया, संजमजोगेसु बलंतोहणसत्ततया जो भकापिछदिराधारे, जं०२षक्ष०।०प्र०। गुर्जरधरियाः मगो मरर, एवं बलयमरणं, गलं वामप्पणी बले।" नि० पश्चिमभागे राजधान्या, तनाम्तिमो राजा शिलाऽऽदित्यो नाम पू. ११७.। राजा गजनीपतिनाहम्मीरेखा संपत ४५ वर्षे पराभग्नः रापलयामह-बडवामुख-पु.। मेरोः पूर्वस्यां दिशि महापाता Page #1313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वलयामुह लकलशे प्रत्र० २ द्वार । स० । श्रा० म० । जी० । श्रघ० । बलयाऽऽपय-बलयाऽऽपत त्रि. वृथाऽऽयते सू० १० · ६ श्र० । बलाविमुकपल चिमुक्त त्रिभाबल रागद्वेषी - भ्यां विप्रमुक्तः । सूत्र० १ ० १३ ० | संसारबलयत्कर्मन्ना या विमुक्रे सूत्र १ ० १० अ प्रायाविमुक्ते सूत्र• १ श्रु० १२ श्र० । बलवडी - देशी सख्याम्, दे० ना० ६ वर्ग० ६१ गाथा । बल-पल पले सामर्थ्य तद्यस्यास्तीति बलवान् रा० । अनु० । अतिशयितबले द्वा० २५ द्वा० । बलं शारीरिक मानसिकं च यस्यास्ति स बलवान् । रा० विद्यामन्त्र चूर्णाऽऽदिबलोपेते, ५०१० । जो जस्सुवरिंतु पभूलियतरो वा वि जस्स जो उवारें । एसो बलवं भणितो, सो गिहपति सामि ते । ऽऽदि । २०६ । यः पुरुषः यस्य पुरुषस्योपरि प्रभुत्वं करोति सो ब लवं भष्ठति । श्रवा - श्रभू वि जो बलवं सो बिब वर्ष भवति सो पूछ गुरुप्रतिक्षाभिगो या गादि वा । नि० चू० १ उ० । समर्थे, आचा० २ श्रु० १ ० ५ अ० २ उ० । सहस्रयोधिनि नि० चू० १ उ० । प्रभूतसैन्ये, औ० निवर्तवितुमको प्र० द्वार अहोरा अस्पष्ट ०१६ पाय जं० पं० प्र० । बलवाडयात पुं० सैन्यव्यपरायणे दशा० १६ अ० । श्री० । 1 - -- ( १२६० ) अभिधानराजेन्द्रः । , - 1 बलवहगा कहा- बलवानकथा-श्री० राजकथामे स्था २ ठा० २३० । ( व्याख्या रायकदा ' शब्दे ) बलवीर बलवीर्य पु० भरतपीवस्य महायशसः प्रपौत्रे श्रा० चू० १ अ० । श्राय० । बलपष्ण बलसंपन्न - पुं० । संदननसमुत्थेन प्राणेन संपन्ने, मौ० । रा० । 1 बलसार- बलसार ० स्वनामा राज तं बलसिरी बलश्री- पुं० : स्वनामख्याते अन्तरञ्जिकानगरीराजे. प्रा० १० पद्मनः राशिका रोगुप्ते वन्दनार्थमागते गोष्ठामाहिलेन पोट्टशालो वादी परा जितः । विशे० । स्था० । बलभद्रम्य मृगापुत्रेति प्रसिद्धे पुत्रे. उत्त० १८ श्र० । ( ' मियापुत ' शब्दे कथा ) बलसोहिया - बलशोधिका - स्त्री० । तथाविधायां स्त्रियाम् तं॰ । “ बललोडिया । " बलं पुरुषवीर्ये प्रसङ्गेऽसङ्गे वा शोचयन्ती मालयन्तीत्येवंशीला पलशोधिका यांन स्वसामर्थ्य लचयेन निशा 55दी ररुषाऽऽदी शोधिका शुद्धिकारिका शोधिका । यहा बलयोः परयात् परशोधिका स्वेच्या पाणिग्रहणकरचत्यात् मित्रीवृन्दवत् । तं । मलहरण-बल हरण - न० धारणयोरुपरिवर्तितिर्यगायतकाष्ठे. " मोभ " इति यत्प्रसिद्धम् । भ० १ ० ५ ३० । बलाबलाश्रीकृम्पोरतापायां शाखनाम् मला प्रव० २७ द्वार | यस्यामवस्थायां पुरुषस्य बलं भवति सानयोगाद बना पुरुषस्य विशनम स्वारिंशत्तम वर्ष पर्यन्तदशाभेदे " उत्थी य बना नाम, जं मेरी पस्यो बलं रिज होन | 1 वो ॥ १ ॥ " स्था० १० ८० । योगदृष्टिभेदे ध० १ अधि० । बलादहिःकाशित भावेनात्र मन स्थितिपीयें अतः पद्माया स्मृतिरिह प्र योगमाया यस्नलेशभावादि ति योग ०१० I सुखस्थगनोपेतं बलायां दर्शनं । 9 परा च तवशुश्रूषा, न क्षेत्रो योगगोचरः ॥ १० ॥ (सुखमिति ) सुखमनुजनी स्थिरं व निष्कम् यदासमं तेनोपेतं सहितम् उक्तविशेषविशिष्टासनस्य योगस्यात् । यत् पतञ्जलिः -- तत्र स्थिरसुखान ति (२४६) नंदासममितिकृया परा हट तस्व 33 जिशालासम्भवात् योगगोचरहनु उप म्यक्षेपाऽभावात् ॥ १० ॥ असन्तृष्णात्त्रराऽभावात्, स्थिरं च सुखमासनम् । प्रयत्नरताऽऽनन्दय समापत्तिबलादिव ।। ११ ।। (अदिति) असतृष्णाया असुन्दरलालसायास्परायाश्वान्यान्य फलैौत्सुक्य लक्षणाया अनावात् स्थिरं सुखं चाss. समं भवति । प्रयत्नस्य श्वचताऽलेरोनेबाबत माघवेन तथा मानवाऽऽकाथाऽऽदिग से समापन मनस्तापादनं दुःखंतु डाङ्काराभावफलं तद्बलादिह बलायां ही भवति । य घोलम्-"प्रयत्नचिषामभ्य ( त ) समापतिभ्याम्। " ( २-४७ ) ॥ ११ ॥ अतोऽन्तरायविजयो, द्वन्द्वा नभितिस्तथा (परा ) | दृष्टदोषपरित्यागः प्रणिधानपुरःसरः ।। १२ । . (अन इनिघतो पोलादासनादन्तरापाणाममेवा3दीनां विजयः। द्वन्द्वे शीतोऽदिमिरन मिहति दुःखाध्याप्तिः पयति ततो (२४) यु ॐ च दोषाणां मनःस्थितिजनितकेशादीनां परित्यागः प्रणिधनपुरस्सरः प्रशस्ताऽवधानपूर्वः ॥ १२ ॥ कान्याजुषो विदग्धस्य दिव्यमेवश्रुतौ यथा । यूगो भवति शुश्रूषा तथास् तवचरा ।। १३ ।। ( कान्तेति ) कान्ताजुषः कामिनीसहितस्य विदग्धस्य के यनीतिनिपुणस्य दिपस्पातिशयितस्य यस्य किखरा33दिन अपने यथा यूनो धौवनगामिनः का मिनो भवति शुश्रूषा तथाऽस्वां बलायां तत्रगोचरा शुश्रूषा ॥ १३ ॥ भावेऽस्याः तं पर्थ बीजम्यान वोपरे । थुनाभावेऽपि भावेऽस्याः पुत्रः कर्मदयः पुनः ॥ १४ ॥ ( अभाव इति ) अस्था उक्तलक्षणशुश्रूषाया अभावे, भु समर्थवं व्यर्थ ऊपर बीजन्यासः सोमावे " Page #1314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बला ( १२६१ ) अभिधान राजेन्द्रः । श्रवणाभावेऽप्यस्या उक्तशुश्रूषाया भावे पुनः ध्रुवो नि श्चितः कर्मक्षयः । अतोऽन्वयव्यतिरेकाभ्यामियमेव प्रधानफलकारण मिति भावः ॥ १४ ॥ इवात् स्यादुपायेषु कौशलम् । उद्यमाने तरौ दृष्टा, पयः सेकेन पीनता ।। १५ । योगा योगेति) बलायामपादम्यत्र चापागा 33स्भे उपायेषु योगसाधनेषु कौशलं दक्षवं भवति उन तरमतिवृद्धियोगादिति भावः । उन्यमाने नरौ पयः से केन पीता रहा, तद्वदिह। ऽप्यछेयमतिपीन लक्षप्रमु पायकौशलं स्वात् अन्यथा पूर्णपय रोरिव प्रकृतानुष्ठानस्य कार्थमेवा कौशलक्ष स्यादि ति भावः ॥ १५ ॥ द्वा० २२ द्वा० । बलायां दृष्ट ढं दर्श स्थिरासनं परमाशुश्रूषायोग स्थिरचिनया योगसाधनोपायकोशलं व भवति । ५० १ अधि० । यो०बि० । बलागा- बलाकाखी विसकण्टिकायाम् प्रश्न० १५० द्वार। अनु० । प्रज्ञा०| "उम्र निच्त्रल शिष्फंदा, भिसिणीमिरेटर बलाया मिलमरगाच-पा 39 संखसुति व्व ॥ १ ॥ प्रा० २ पाद । बलाणग- बलानक- न० । द्वारे, नि०यू०८ उ० । बलामोडी - देशी । हठे, "हृढो य मड्डा बलामोडी । " पाइ० ना० १७४ गाथा । बलात्कारे, दे० ना० ६ वर्ग ६५ नाथा । बलावल विवाग्य-बलाबलविचारण- न०यलं शक्तिः स्व स्य परस्य वायक्षेत्र का समापकृतं सामयमतम तथैव तयोचारणं पर्यालोचनम्। बलाबल परिक्षाने प० ब शक्तिः, स्वस्य परस्य पाद्रयक्षेत्र कालभावकृतं सामर्थ्यम् । अलमपि तयोर्विचार पर्यालोचन बलाबलपरिक्षाने हि सर्वः सफल आरम्भः अभ्यथा तु विपर्ययः । यदाह स्थाने समतां शक्त्या व्यायामे वृद्धिङ्गिनाम्। अयथावल मारम्भो, निदानं क्षयसंपदः ॥ १ ॥ " इति । श्रत एव च पठ्यते कः कालः कानि मित्राणि, को देशः कौ मी बाई का य मे शक्तिरिति विग्यं मुद्द मुँहुः ॥ १ ॥ " इति । ध० १ अधि० । बलाभियोग-बलाभियोग- पुं० । बलं हठप्रयोगस्तेनाभियो. गः । ध० २ अधि० । बलात्कारेण नियोजने, आ०म० १०] राजयतिरिकस्य बलवत्पारण्डवस्य नियोगे संयमयोगेभ्यां मनव्रतपरिणतानां व्रतिनां मरणे, स०१७ सम० । उपा० १ अ० अ०म० । बलायमरण दलवन्पर-म० बलन्मरणमाह संजोगविसमा पति ने तं बार तु (२४ ) संयमयोगाः संयमव्यापारास्तैस्तेषु वा विषण्णाः संयमयो. गविषणाः, अतिदुश्वर तपश्चरणमाचरतुमक्षमा धनं व कुलखिया ममन्तः कथञ्चिदस्माकमितः कष्टानुष्ठानात् मुर्भिवतु इति चिन्तयन्तो म्रियन्ते ये च तद्वः नवतां संयमानुष्ठानान्निवर्तमानानां मरणं बलवन्नरणं. तुशब्दो विशेषणार्थः, भग्नवत परियतीनां वतिनामेवैतदिति विशेषय बलि रूपये - संयमपगानामेवासंभवात् कथं द्विपाद भावे च कथं तदिति ? प्र० १५७ द्वार | बलाइग-बलाहक- पुं० । शरत्कालभाघिनि मेघे, आ० म० १ श्र० । जी० रा० ॥ भ० । ज्ञा० । बलाहगा बलाहका श्री० जम्बूदीपे विद्युत्कारप येते स्वस्तिक फूटवासिन्य दिक्कुमार्याम् स्था० २ ठा० १ उ० । श्रधोलोकवासिन्यां दिक्कुमारी महत्तरिकायाम्, स्थान ८ ठाव ऊर्ध्वलोकवासिन्यां दिक्कुमारी महत्तरिकायाम्, जं० ५ वक्ष० । ० म० ति० प्रा० चू० प्रा० क० । लाइप बलाहक पुं० मेथे "अम्मा जी बला हया जलदरा य जीमूश्रा । " पाइन्ना० २७ गाथा । वलि बलि पुं० "पाचा खियाम् ॥ १३५॥ इति प्राकृते वा स्त्रीत्वम् । प्रा० १ पाद । देवतानामुपहारे. शा० १ श्रु० ६ श्र० । प्रश्न० । पञ्चा० । बलि करेंति ।' नगरबलिपति विपन्तीत्यर्थः यदि कुन्ती ति । सूत्र० १० ५०२ उ० 'बलि किज्जउ सुश्रणस्सु ।" प्रा० ४ पाद । श्रौत्तर हाणामसुर कुमाराणां राजाने, प्रा०] [२] पाइबलिस वायविदस्त सामाणि साहसी पता" पोरीदीच्यामसुर कुमार निकाय, स० ६० सम० | जी० । स्था० । श्रा०म० (अस्योत्पात पर्वतः उपाय' शब्दे द्वितीयभागे ८३७ पृष्ठे उक्तः ) बलिस्सां परोपरखो सोमस्य एवं चैत्र नहा चमरस्स लोपपाला ते मे पलिस व स्था० १० डा० । - F कहि ये मंते ! बलिस बहरोष शिंदस्स बहशेयरो सभा सुम्मा पछता ? गोगमा इव जंबुद्दी वे दी वे मंदरस पव्वस्व उत्तरेण विरिषमसंखेने महेब च मरस्स बजाव बायालीसं जोअणसहस्सा उग्गाहिता, एत्य खं बलिस्स बइरोयदिस्स बइरोयणस्स रुपगंदे णामं उष्पापपब्व पाने सत्तर सए कबीसजोयस एवं परिमाणं जहेव तिगिच्छिकूडगस्स पासायवडिंसगस्स वि तं चैव पमाणं सीहासणं सपरिवारं बलिस्स परिवारेणं अट्ठो तहेव, णवरं रुदिप्पभाई सेवा बलिचंचारायाणी प्र मेसि च ० जात्र णिचे रुयगिंदस्स णं उपायपव्वयस्स उत्तरेणं छोडिसए तहेव जात्र चतालीगं जोधणमस्या उग्गादिचा, एस्य णं बलिस्म बड़रोयदिस्त बइरोयग्सस्स बलिचंचा यामं रायहाणी पछता, एगं जोअ सय सहस्सं पमाणं तदेव० जाव बलिपेटिस उपाओ जान भायरक्सा सम्बं तदेव रिवसेसं, णवरं साइरेगं सागरोवमं ठिई पत्ता, सेसं तं चैत्र ० जा बली बइरोयदेि बली, सेव भंते ! भंते ! ति • जाव विहरद्द ।।... ० Page #1315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२८५) अभिधान राजेन्द्रः । वसि ( कहि यमित्यादि ( जहेव चमरस्त सि ) यथा चमरस्य द्वितीयशताष्टमोदेशकाभिहितस्य सुधर्मसभास्वरूपाभिधायकं सूत्रं तथा बलेरपि वाच्यम्; तच्च तत एवायसेयम् (एवं परिमार्थ हेच चि) (निगडित शि यथा बमरसत्कम्य द्वितीयशताष्टमोद्देशकाभिहिनस्यैव ति गिकुटाभिधानस्पोत्पान पर्वतस्य प्रमाणमभिहितं तथा उस्यापि व्यकेन्द्रस्य वाच्यं तदपि तत एवायम् ( पालाय वडिगस्स वि नं चैव पमाणं ति ) यत्प्रमाणं चमरसम्बन्धिनस्तगिच्छ्टिाभिधानोत्पातपर्वतीपरिवर्ति प्रासादावतंसकस्य तदेव बलिमरकस्यापि दचकेन्द्र मिश्रानोत्पातपर्वनो परिवर्तिनस्तस्य तदन्यदपि द्वितीयकादेवावसेयम् । (सीहालणं सपरिवारं बलिस्ल परिवारें ति) प्रासादावतंसकमध्यभागे सिंहासनं बलिसकं, बलि सत्कपरिवारसिंहासनोपेतं वाकयमित्यर्थः । तदपि द्वितीयशताष्टमोद्देशक विवरणोमर सिंहासनन्यायेन वाच्यं के बलं तत्र चमरस्य सामानिकाऽऽसनानां चतुःषष्टिः सहस्रा SSत्मरक्षाssसनानां तु तान्येव चतुर्गुणान्युक्तानि ब. लेस्तु सामानिकाssसनानां षष्टिः सहस्राश्यात्मरक्षाऽऽसमानां तु तान्येवानीत्येतावान् विशेष (अट्टो लद्देव ) नवरं रुपया इति यथा तिमिष्टिस्य मामार्थाऽभिधायकं वाक्यं तथाऽस्याऽपि वाच्यं केवलं तिगिच्छिकूटाम्यर्थ प्रश्न स्योत्तरे यस्मातिगिरिछप्रभाएयुस्पलाउदीनि सति तेन तिमिष्टि इस्युपते " मिह ० प्रभावितानि सम्मीति वाच्यं रुचस्तुरनवि शेष इति तस्मरयेत सूत्रमेवमध्येयम्-"से के भंते! बुवइ ! एवं मुच इयमिदेरुपगंदे उपायपदी सोचमा व्यकि देउलाई पदमा कुनुवाई जाय दि बाईसा से तेयं यदेि वयगिंदे उपायध्वति । " ( तब जाप सि) यथा चमरशाम्यतिकरे सूत्र मुक्त महापि तथैव वाच्यम्। तदम् "पोडीओ पणाच समस्साई पक्षासं च सहस्लाई बीईयत्ता इमं च स्यणप्पभं पुढर्षिति । " पायथा मायागंज यससहरूं प्रायामधिकसंमेणं तिथि जोयालय सहस्सा. सोलहसाई दोषि बचावले जो तिथिय कोसे अट्टाषी व पशु तेरस अंगुलाई गुल किंचि विसायं परिपतति।" जा बलि पेदस्स मिगरीप्रमाणाभिधानानन्तरं प्राकारतद्वारोपका रिकलयनप्रासादावतंसक सुधर्मसभाचैत्यभयनोपपालसभा इाभिषेक भालङ्कारिकस भाष्यवसायसभाऽऽदीनां प्रमा. णं स्वस्वरूपं च तावद्वाच्यं यावद्वलिपीठस्य, तच्च स्थानान्तरादयसेयम् (उपवास) उपसभायां बले | पातवतव्यता वाड्या सा बैधम्-" तेां काले ते समपणं बली बहरोयशिंदे अणोववरण मेसर समाणे पंचबिहार पजातीय पजतभावं गच्छ । " इत्यादि । ( जाव रक्खसि / इह यावत्करणादभिषेकोऽलङ्कारग्रहणं पु· स्तकचाच सिद्धासनमतिमा चर्चा मनं तत्रस्थस्य च तस्य सामानिका अप्रमहिष्यः पर्षदोमीकामा पार्श्वतो निषीदन्तीति पा बसिया यता प्रतिबद्ध समस्तसूत्रदेयाऽऽह स ध्वं तत्र निरवसेसं ति ) सर्वथा साम्यपरिहारार्थमाह( भयरमित्यादि) अयमर्थः चमव सागरोपमस्थिति लेस्तु सातिरकं सागरोपमस्थितिः प्रति वाच्यमिति । भ० १६० १ उ० । षष्ठवासुदेवस्य पुरुषपुण्डरीकस्य प्रतिरात्री साथ १० ति० प्रती० बलि-लिक पुं० कडिने, " गाढं बाई बलि दढं अहसपण अच्चस्थं । ” पाइοना० ६० गाथा । बलि अब्भत्यण - वन्यभ्यर्थन न० । बलेर्याचने, ममहसूल सहज देहु मम को ॥ ॥ "बलेरर्थ सोऽपि रायणोऽपि लघुकीभूतः अथ " वलिन परं ददत, कोऽपि मा मार्गय इत्यर्थः । प्रा० ४ पाद बलिउड-बलिष्ट पुंका. "बखित रिठ्ठाका बलिउट्ठा ढंकाय कायला काया । " पाह० ना० ४४ गाथा । बलिकडा-बलि कुना स्त्री० । साधुनिमित्तं कूराऽऽदिना विशो धिकोटिं गमितायां वसतौ स्था० ५ ठा० २ उ० । ग० । यत्र संयतनिमित्तं बलिः कृतः । पृ० १ उ० । बलि कम्प-बलिकर्मन्न० देवताऽऽदिनिमिते (सू० १ ० २ ० ) लोककले ( उपा० ७ ० ) उपहारोपढौकने, उपा० ७ ० । । बलिया बलिचत्रा श्री पैरो बनेन्द्रस्य भले राजा " म्याम् भ० ३ श० १३० । - । -! बलिपाडिया-बलिप्राकृतिका श्री० [बलिरूपे प्राकृतिकादोष, बलिपाडुडिया नाम रंग सुम्पति उदिसिं या अवर्णि न करेति, ताहे साहुस्स देति, तंन वकृति ।" आ.खू० ४ अ० | आव• । बलिपडिया-बलिपीठिका श्री प्रतिमापूजनावरे या लोगिरणस्थाने, "तीले सानंदार पोक्ारिणीए उत्तरपुरमेणं महया बलिपेढिया पक्षता । " रा० । बलियादि पन्यादि न० उपहारमा ६ वि० बलिमुह बलिमुख पुं० - 1 " साहामधो बलिमुद्दो, पबंगमो बाणो कई पथओ।" कप, पाइ०ना० ४३ गाथा । बलिय-बलिक ०ि बलवस्यास्तीति कि २०१२ ८० ३३० । बलवति, पृ० ६ उ० । प्राणयति, स्था० ४ ठा० ३ उ० । ० । अत्यर्थे, बृ० ३३० । - - - बलित त्रि० । चलिते, डा० १ ० ८ ० 1 बलयः संजातो. स्य बलितः । जी०३ प्रति०४४० । प्रश्न० । जूते, रा० आ०म० । बलियतर बलिकतर न गाढतरे ०१०३३ ४०० - । । बलियत - बलिकस्व - न० । बलमस्यास्तीति बलिकस्तद्भावो बलित्थम् सबलतायाम् पाि कथं चाचि पापिनां दुर्बलत्वं साध्विति । म० १२ ८० २४० 'जयंती' शब्दे चतुर्थमा १४१७ पृष्ठेतिम्) बलिया बलिका - स्त्री० । बलवत्याम् व्य०४ उ० । उपचितमांसशोणितायाम्, वृ०३७०। शूर्ये, दुर्बनिकया कण्डितानां - • Page #1316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६३) बलिया अन्निधानराजेन्डः। बलिकया छर्दितानाम् , दुबैलिकाबलिके उदृस्खलशूर्पो सम्भा. भेदाःव्येते । प्रा० म०१०। से किं तं बल्लीओ ?। बल्लीओ अणेगविहाओ परमबलिवइसदेव-बलिवैश्वदेव-न० । बलिना वैश्यानरपूजायाम् , म्ताओ। तं जहा" बलिवइसदेवे करे। " बलिना वैश्वानरं पूजयतीत्यर्थः। भ०१२ श०२ उ०। पाव। नि० प्रा०म०। "प्रसफली कालिंगी, तुंबी तपुमी य एल वालुंकी। बलिस-बडिश-न० । डोलः ॥८॥१॥२०२।। इति डस्य लः। घोसातई पडोला, पंचंगुलिया य णाली य ।। २६ ।। 'बडिसं । यलिसं।' मत्स्यबन्धनवंश्याम, प्रा०१पाद । कंगूलया कदुइया, कंकोड कारिएलई सभगा। बलिस्सह-बलिस्सह-पुं० । स्वनामख्याते महागिरिशिष्ये , कुवहा य वागली प-बबल्ली तह देवदाली य ।। २७ ॥ कल्प०२ अधि० क्षण | "तत्तो कोसियगुत्तं, बहुलस्स स- अप्फोडा भइमुत्तय, नागलया कएहसूरबल्ली य। रिब्वयं बंदे।" तत्र महागिरेही प्रधानशिध्यावभूताम् । तद्य संघट्ट मुमिणसा वी, जाइसुमिण कुविंदवल्ली य ॥२८॥ था-बहुलो, बलिस्सहश्च । तौ च द्वावपि यमलभ्रातरौ कौशि. कगोत्री च , तयोरपि च मध्ये बलिस्सहः प्रवचनप्रधान मुदिय अंबाबल्ली, वीराली जियंति गोबाली । पासीत्,अतस्तमेव निनसुराह-ततोमहागिरेरनन्तरं कौशि. घाणी सामाबल्ली, गुंजाबल्ली य वत्थाणी ॥ २६॥ कगोत्रं बहुलस्य सदृशक्यसं समानवयसं, तयोरपि यमल- ससवि दुगोत्तफुसिया, गिरिकामइ मालु या य अंजणई। भ्रातृत्वाद्वन्दे नमस्करोमि । नं.। दहफुल्लइकागणिया, गलोय तह अक्कवोंदी य ॥३०॥" बलीवद-बलीवर्द-पुं० । पुङ्गवे, स्था० ४ ठा०२ उ०। जे यावर तहप्पगारा सेत्तं बल्लीप्रो । प्रज्ञा.१ पद । बलुल्लड-बल-न।"योगजाश्चैषाम्" ॥८।४।४३०॥ अपभ्रं. भ० । आचा० । ज्ञा० । सूत्र । स्था० । जी। शे अडडडलानां योगभेदेभ्यो ये जायन्ते डड इत्यादयः प्रत्ययास्तेऽपि स्वार्थे भवन्ति, अनेन इलडडप्रत्ययः । डिवादका लोमासिय तउसि मुधिय, तंबोलादी य बल्लीतो ।। ४२॥ रलोपः।सामध्ये उदाहरणम्-"सामिपसाउ सलज्जु पिउ, लोमशिका पुपिका नबूलिका इत्येवमादिका बल्ल्यः। सीमासंधिहि वासु। पेषिववि बाहुबलुडा, धण मेझइ नी. व्य०६ उ.1 सासु ॥ १॥" एवं बाहुबलुल्लडउ । अत्र त्रयाणां योगः। प्रा० बवाह-देशी दक्षिणहस्ते , देना०६ वर्ग ८६ गाथा । ४पाद। बह-बध-पुं० । हननं 'बधः । शिरश्छेदाऽऽदिसमुभूतपीबले-श्रव्य० । "बले निर्धारणनिश्चययोः" ॥८।२ । १८५॥ डायाम् , विशे। औ० । कम्बाऽऽविधाते, उत्त०१०। बले इति निर्धारणे निश्चये च प्रयोक्तव्यम् । निर्धारणे, " बले ययादिताडने, शा०१श्रु०२ अ०। स० । उत्त० । श्राव। पुरिसो धणजम्रो नत्तिप्राणं " निश्चये, 'बले सीहो।' सिंह श्रा0। हिंसायाम् , शा०१धु०१७ अकालकुटाऽऽदिप्रहारे एवायम् । प्रा०२पाद। व्य०६उ० भ०। आचा। प्रव०। कृतकारितानुमतिभि. बल्ल-बल्ल-पुं०। निष्पावे, स्था०५ ठा० ३ उ० । प्रव० । गु. रुपमर्दनादिके, प्राचा०१०१०२ उ० । पाणिल. आत्र यपरिमिते प्रतिमानभेदे, "गुञ्जात्रयेण बलः स्यात, ग. त्ताकशाऽऽदिभिस्ताडने , आव० ४ अ० । प्राण्युपमई. द्याणे ते च षोडश।" वाच। सूत्र. २ ध्रु० ६ ० । मारणे, प्रश्न. १ प्रा०द्वार । बल्लई-बल्लकी-स्त्री० । वीणाविशेषे, प्रश्न०५सं८-। रा। विनाशे, प्रश्म० ५ संव. द्वार । जं.। विपदावीबलम-बल्लभ-त्रि० । इष्टे, पश्चा०२ विवः । दयिते, प्राचा० १ नां निर्दयताडने , ध० २ अधि० । प्रश्न० । श० । थु०२१०३ उ० प्रा०म० । "नारीणं होद बझहो।" अनु० । कशाऽऽदिभिहनने , पञ्चा०१ विव०। "क्रयेण क्रायको. "हरे बहुबल्लहो।" प्रा० २ पाद । न्ति , उपभोगेन खादकः । घातको बधनिसेन, इत्येष त्रि. बल्लभराय-बल्लभराज-पुं० । चौलुक्यवंशीये मूलराजादनन्त- विधो बधः॥१॥" दश० १ ०। क्रुधा बधः स्थूलाs. रे अणहि(ल)लपट्टनराजे. ती० २२ कल्प। दत्ताऽऽदानविरतेराद्योऽतिचारः । बधः चतुष्पदादीनां बलर-बलर-न । क्षेत्रविशेषे, प्रश्न०२पाश्रद्वार। हरित- लगुडाऽऽदिना ताडनम् । स च स्वपुत्राऽऽदीनां विनय. स्थाले, उत्त० १६अ। गहने, उत्त० १६०।" बल्लराणि ग्राहणार्थ क्रियते। ध० २ अधि। बधो द्विपदानां पलीवेजा।" प्राच०४०। चतुष्पदानां वा स्यात् , सोऽपि साधेकोऽनर्थको वा। तत्राऽनर्थकस्तावद्विधातुं न युज्यते, सार्थकः पुनरबल्लव-बल्लव-पुं० । गोपे, को। सौ द्विविधा-सापेक्षा, निरपेक्षश्च । तत्र निरपेक्षो निर्दयता. बल्ल-बल्लभ-त्रि.। 'बल्लभ' शब्दार्थ, पश्चा०२ विषः। डनं, स न कर्तव्यः। सापेक्षः पुनः श्रावकणाऽऽदित ए. बल्लहराय-बचभराज-पुं० । 'बल्लभराय ' शब्दार्थे , ती० व भीतपर्षदा भवितव्यं. यदि पुनः कोऽपि न करोति बि. २५ कल्प। नयं. तदा तं मर्माणि मुक्त्वा लत्तया दवरण पा सक बल्ली-बल्ली-स्त्री०। पुषी वालुङ्की-कोशातकी-कालिङ्गी-नाग- द्विर्वा ताडयेत् । ध.२ अधि० । बलदेवस्य रेवतीकुषित बल्ली-गुडूची-कृष्माण्डी-तुम्बी-पुष्पफलीप्रभृतिषु , जं.२ सम्भवे पुत्रे, स चारिष्टने मेरम्तिके प्रवज्य साथै उपपच पक्ष। वनस्पतिभेष, जी०१ प्रति। सेत्स्यतीति । नि०१६०५ वर्ग ४०। Page #1317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३४) अनिधानराजेन्द्रः । बहग • बग बधक पुं० प्रन्तीति बधकाः । प्राण्युपमकर्तृषु द श० १ ० | स्वयं हन्तृषु, जं० २ वक्ष० । " कुर्याद् वर्षसह तु अहन्यहनि मञ्चनम् । सागरेणाऽपि कस्नेन बधको नैव शुध्यति ॥ १ ॥ " उत्त० १२ अ० । बहडाइच्चणयर - बृहदादित्यनगर--न० । सरयूसविधे स्वनामक्या पुरे. "सुरतारास्स मलिकेय देण्यसे नामे णं बहडाइचनगराओ। " ती० ३६ कल्प । 1 बहता - व्यधता - स्त्री । ताडनतायाम् भ० १२ श० ६ उ० । बहपरिणय- बघपरिणत- पुं० । मारणाध्यवसायवति, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार । बहपरीसह - बध ( व्यघ ) परीषह- पुं० । बधो व्यधो वा य पादितानं तत्परियहणं च परेहिं दुरात्मक पाणिपा लत्ताकशाऽऽदिभिः प्रद्वेषाऽऽदितः कोपकलुषितान्तःकरणेन पिमा ताइनस्य (प्रद्वार) सायवन्तः सहने, भ० ८ श०८ उ० ।" इतः सहेतैव मुनिः, प्रतिहन्यान साम्यवित् । जीवानाशात् क्षमायोगात्, गुणाऽऽतेः क्रोधदोषतः ॥१॥ श्राव० १ ० ।" सहेत हन्यमानोऽपि प्रतिहन्याम्मुनिर्नतु जीवनाशापोदोट्यात्मया णार्जनात् ॥ १ ॥ " घ० ३ अधि० । 39 ་ 1 एतदेव सूत्रकृदाहहथो न जले भिक्खु, मयं पिन पद्मोस । तितिक्खं परमं नच्चा, भिक्खुधम्मं विचिन्तए ॥ २६ ॥ कश्चिदाक्रोशमात्रेणातुष्यन्नधमाधमो बधमपि विदध्यादिति बधपरीषद माह-दतो यष्ट्यादिभिस्ताडितो न संज्व लेत् कायतः कम्पनप्रत्याइननाऽऽदिना वचनतश्च प्रत्याक्रोशदानाऽऽदिना भृशं ज्वलन्तमिवाऽऽत्मानं नोपदर्शयेत्, भिक्षुः मनश्चित्तं तदपि न प्रदूषयेत् न कोपतो विकृतं कुर्वीत किंतु विवितां माम् "मेस्य या सून या क्षमावान् दयां समाधत्ते । तस्माद्यः क्षान्तिपरः, स साधयत्पुसमं धम्मेम् ॥१॥ इत्यादिवचनतः परमां धर्मसाधनं प्रति प्रकर्षवर्तीत्याऽवगम्यधिपतिधर्म बहा भिक्षु धर्मे क्षान्त्यादिकं वस्तुस्वरूपं वा चिन्तयेत् यथा क्षमामूल एष मुनिधर्मोऽयं वास्मनिमितं कर्मोपचिनोत्यस्मद्दोष एवायमतो नैनं प्रति कोष उचितः । इति सूत्रार्थः । अमुमेव प्रकारान्तरेणाऽ36समयं संजयं देवं हसिना फोडवि कत्थऽवि । नत्वि जीवस्स नासु चि, या तं पेद्दे असादुवं ॥ २७ ॥ ( लमणं ति ) भ्रमणं सममनसं वा, न तथाविधबधेऽपिघरमै प्रति महतचेतसं अमराध शाक्यादिरपि स्यादित्या संयतं पृथिव्यादिव्यापादननिवृत्तं सोऽपि कदाविज्ञाभाऽऽदिनिमित्तं बाह्यवृत्यैव सम्भवेद्रत आह-'दान्तम्' इन्द्रि यनोइन्द्रियदमेन इन्यात्ताडयेत्, कोऽपीति तथाविधोऽनायः कुत्रापि ग्रामाऽऽदी, तत्र किं विधेयमित्याह - नास्ति जीवाश्मन उपयोगरूपस्य नाशोऽभावः, तत्पर्यायविनाशरूपत्वेन हिंसाया अपि तत्र तत्राऽभिधानादिवत्यरुमा जे. तोर्न तमिति घातकं प्रेक्षेत असाधुमईति यत्प्रेक्षणं भ्रुकुटिभङ्गाऽऽदियुक्तं तदसाधुत्रत् किं तु रिपुजयं । बहसह प्रति सहायोऽयमिति धिया साधुत्रदेव प्रेक्षतेति भावः I अथवा - अपेर्गभ्यमानत्वात् न तं प्रेक्षेताप्यसाधुना तु वर्तत साधुषत् किं पुनरपकारायापति क्रिति या असाधुहिं सत्यां शक्क़ी प्रत्युपकारा योपतिष्ठते असत्यां तु विकृतया दशा पश्यति संक्लेशं वा कुरुत इत्येवमभिधानम् । पठ्यते च "न य पेहे असाहुयं ति" कारस्यापिशब्दार्थस्य मिश्रक्रमत्वात्प्रेक्षेतापि न चिन्तयेदपि न, कामसाधुतां, तदुपरि द्रोहस्वभावताम् । पठन्ति चएवं पेहेज संजश्रो " इति सूत्रार्थः ॥ २७ ॥ 60 अधुना बसि " संज्वलेत्' इत्यादि सुत्रम स्पृशन्नुदाहरणमाहसावस्थी जिवसत्तू, धारणि देवी य खंदओ पुत्तो । घ्या पुरंदरजसा, दत्ता सा दंडईरो ।। ११२ ।। मुणिमुदयंतेवासी, दगपमुहा व कुंभकारकडे । देवी पुरंदरजसा, दंड पालग मरू य ।। ११२ ॥ पंचसया जंते, बहिया व पुरोपिय रुद्वेगं । रागोस लग्गं, समकरणं चिंतयंतेहिं ॥ ११३ ॥ धावस्ती जितशत्रुर्थारणी देवी च स्कन्दकः पुत्रो दुहिता पुरन्दरयशा, दत्ता सा दण्डकिराजाय मुनिसुव्रतान्तेवासिनः स्कन्दकप्रमुखाश्च कुम्भकारकडे देवी पुरन्दरया दकि पालकः मरुकश्च पञ्चशतानि यन्त्रेण घातितानि, तुः पूरणे, पुरोदितेन न पावकेन रागद्वेषयोस्तुलातनमि माध्यत्वेन रागद्वेषा समकरणं माध्यस्थ्यपरिणामं भायद्भिःस्वार्थ साधितमिति शेषः । इति धापारार्थः भावार्थस्तु संप्रदायादवसेयः स बायम्-"सावन जितसत्तू राया, धारि (रणी देवी, तीसे पुत्तो खंदओ नाम कुमारो, तस्स भगिणी पुरन्दरजसा सा कुंभकारकडे नय दंडगी नाम राया तस्स दिवा, तस्स य दंडकिस्स रराणो पालगो नाम मदओ पुरोहिण्या बाबत्थी मुि सुव्वयसामी तित्थयरो समोसरिश्रो, परिसा निग्गया. खंदओ विनिग्गओ, धम्मं सोच्चा सावगो जाओ । अण्ण्या सो पालकमको दूपत्ताद आगतो साचि नयर अत्याणिम मेसा अर्थ वा निविपणिनागरणी को, पद्मोसमाबो. तथ्यहिं बेच संगहिदादि चारपुरिसेहि मम्यात जाओ जि सपदि कुमारो लग्ग समुपयसामिसगाले पन्च इओ, बहुस्सुतो जातो, ताणि वेष से पंच सयाणि सीसन्ताए अरणायादि धरण्यासंद सामि पुच्छति यथामि भगीलगा है। सामिया भणिदं मारतो । भणति राग विरागा था। सामिणा भणियं सम्ये घा राहगा तुमं मोतुं । सो भणति एयं लठ्ठे,जदि पत्तिया आराह गा, गोकुंभकारकडं, मरुपणं जर्दि उज्जाणे ठितो तहिं श्रा. उाणि मियाणि । राया बुग्गाहिओ जहा एस कुमारो परीसह पराजितो पण उपाय तुमारेला . रिडि सि जदि ते पिउनाणं सोहि आउदा णि ओोलइयाणि दिट्ठाखि, ते बंधिऊण तस्स चेत्र पुरोहिय स समपिया, तेरा सब्वे पुरिसजतेण पीलिया तेहिं सम्म श्रद्दियासियं तेलि केवलनाएं उप्पनं सिद्धाय । खंदओ वि · - Page #1318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहपरीसह अभिधानराजेन्द्रः। बहप्फश्दत्त पासे धरित्रो, खोहियचिरिकाहिं भरिजंतो सव्यानो प्रदश्चिन्त्यते यत्र ताशे शास्र, सू०प्र० २० पाहु । पच्छा जंते पीडितो निदाणं काऊण अग्गिकुमारेसु उपवयो।। वहप्फइदत्त-बृहस्पतिदत्त-पुं० । महेश्वरदत्तपुत्रे, स्था० की. तं पिसे रयहरणं रुहिरतितं पुरिसहत्थो त्ति काउं गि। शाम्ब्यां वृहस्पतिदत्तनामा ब्राह्मणः, स चान्तःपुरव्यतिकरे बेहि पुरंदरजसाए पुरनो पाडियं, सा वि तहिवसं अधिई उदायनेन राक्षा तथैव कवयित्वा मारितो. जन्मान्तरे खाकरेति जहा साहू नदीसंति, तं च णाए दिटुं, पच्चभिन्ना. सावासीत् महेश्वरदत्तनामा पुरोहितः, सच जितशोरा ओ य कंबलो. णिसज्जाओ चिरणामो, ताप चेव दिराणो, शत्रुजयार्थ ब्राह्मणाऽऽविभिहोम चकार, तत्र प्रतिदिनमक वारणायं-जहा ते मारिया, ताहे खिसितो राया-पाव! चातुर्वर्यदारकमटम्यादिषु द्वौ चतुर्मास्यां चतुरचतुरः पविणटोऽसि । ताए नितियं-पव्वयामि, देहि मुखिसुब्वयस. एमास्यामाषष्ठी संवत्सरे षोडश षोडश परचक्राऽऽगमे. गासं नीया, तेण वि देवेणं णगरं दहं सजणवयं, अज्ज वि शतमष्टशतं परचक्रं च जीयते, तदेवं मृत्वाऽसौ नरकं जगा. दंडगारमं ति भएणति ।अरमस्सय वणाक्खाया भवति।"तेन मेस्येवं ब्राह्मणवक्तव्यतानिवद्धं पञ्चममिति । स्था० १० ठा। द्वारगाथायां वनमित्युक्तम् । “पत्थ तेहि साहहिं बहपरीसहो वृहस्पतिदत्तवक्तव्यताअहियासितो सम्मं, एवं अहियासेयव्वं । न जहा खंदपण नाहियासियं।" उत्त०२ म०। जंबू! ते णं काले णं ते णं समए णं कोसंबी यामं बधपरीषहमङ्गीकृत्याऽऽह णयरी होत्था रिद्धथमियसमिद्धा, बाहिं चंदोत्तरणे उ. अप्पेगे खुधियं भिक्खुं, मुणी डंसति सुसए। जाणे सेयभद्दे अक्खे, तस्य णं कोसंबीए णयरीए सयातत्थ मंदा विसीयंति, तउ पृट्ठा व पाणियो।। .॥ णीए णाम राया होत्था महयाहिमवंत०, तस्स णं सया(अप्पेगे इत्यादि)अपिः सम्भावने, एकः कश्चिन्लाऽऽदिः | णीयस्स रखो मियावतीए देवीए अत्तए उदयणे हामं लूपयतीति लूषकः प्रकृत्यैव क्रूरो भक्षका, सुधितं बुभुक्षितं कुमारे होत्था महीणजुवराया। तस्स णं उदयणस्स कुभिक्षामटन्तं भिडूं दशति भक्षयति दशरकावय षिलुम्पति। मारस्स पउमावई णाम देवी होत्या .। तत्य णं मयाणीतत्र तस्मिन् श्वाऽऽदिभक्षणे सति मन्दा महा अल्पसरवतया विषादन्ति दैन्यं भजन्ते । यथा तेजसाऽग्निना स्पृष्टा यस्स सोमदत्ते णामं पुरोहिए होत्था रिउवेढे वामानाः प्राणिनो जन्तवो वेदनाऽऽर्ताः सम्तो विषीदन्ति यजुवेदे सामवेए अथव्वणवेए । तस्स शं सोमदत्तस्स गात्रं संकोचयम्स्यार्तध्यानोपहता भवन्ति, एवं साधुरपि पुरोहियस्स वसुदत्ता णामं भारिया होत्था । तस्स णं सोदूरसावैरभित्रुतः संयमाद् भ्रश्यत इति, दु:सहत्वाद् प्रामा मदत्तस्स पुत्ते वसदत्ताअत्तए पहस्सइदत्ते णामं दारए कण्टकानाम् । सूत्र०१ श्रु०४ म०१ उ.। होत्था नहीणसव्वंगे। ते णं काले णं ते णं सपए वं बहपरीसहविजय-वधपरीषहविजय-पुं । निशितकृपाणमुद्र समणे भगवं महावीरे समोसरिए । ते णं काले थे राऽऽदिप्रहरणताडनाऽऽदिभिापाद्यमानशरीरस्य व्यापाद. केषु मनागपि मनोविकारमकुर्वतो मम पुराकृतकर्मणामेव फ. ते णं समए णं भगवं गोयमे तहेव जाव रायमग्गं लं.तन मे किञ्चिदप्यमी वराकाः कुर्वन्ति । अपिच-विशराह- उग्गाढे तहेव पासइ हत्थी मासे पुरिसमझे पुरिसं स्वभावं शरीरमेतैर्बाध्यते, नान्तर्गतानि मम शानदर्शनचारि. चिंता तहेव पुच्छह पुत्वभवं, भगवं बागरे । एवं खलु गो. त्रणीति चिन्तयतो वासीतक्षणचन्दनानुलेपनसमदर्शिनः यमा! ते णं काले णं ते गां समए णं इहेब अंबूदीये दोष यत् सम्यक् बधपीडासहनम् । तस्मिन्, पं०४द्वार। भारहे वासे सम्बोभरे णा पायरे होस्था रिस्थपिबहप्फा-वृहस्पति-पुं० ।" बृहस्पतिवनस्पत्योः सो वा " २६॥भनयोःसंयुक्तस्य सोपा भवति । 'बहस्सा। यसमिद्धे, तत्य णं सबभोभरे गयरे जियसरणा राया बहफ। भयस्सई। भयप्फई।' प्रा०२पाद । "वृहस्पती बहो होस्था । तस्थ णं जियससुस्स रखो महेसरदत्ते या पुरो. भयः"॥।२ । १३७ ॥ वृहस्पतिशब्दे वह इत्यस्यावयष- हिए होस्था रिउवेदे जाब भयमणकुसले यावि होत्था । स्य भय त्यविशो वा भवति। भयस्सई भयप्फर्ड भय- सए णं से महेसरदले पुरोहिए जियसन्तुस्स रखो रज्जब गोगाजे शिम पपई पिले-बहस्सा । बहफई । बहप्पई। प्रा०२पाद । "षा बृहस्पती"।१।१३८॥ इतीकारे उकारे च । " पस्पयो। लविवद्धट्ठयाए कलाकविं एगमेगं माइणदारगं एगमेगं खफः"॥८।२। ५३॥ इति फो भवति । बिहप्फर्ड । बुद्ध सियदारगं एगमेगं वइस्सदारगं एगमेगं सुहदारगं गिराहावेहप्फई । बहो । प्रा० १ पाद । तारकाकारप्रहे ज्योति. गियहावेइत्ता तेसिं जीवंतगाणं चेव हयउडए गिराहावेइ, कदेवभेदे, स्था. ६ ठा० । पुष्य नक्षत्रस्य वृहस्पतिर्देवता । गिएहावेइत्ता जियसत्तुस्स रमो संतिहोमं करेइ, करे। दो बहप्फई । स्था० २ठा०३०। जं. सू०प्र०। | इत्ता तए णं से महेसरदत्ते पुरोहिए अहमीचउसीसु चतुश्चत्वारिंशे महाग्रहे, बं० प्र० २० पा० । सू० दवे दवे माणखत्तियवइस्ससहे चउयह मासायं चत्तारि प्र. । प्रश्न प्रशा० । ज्यो । कल्प० । प्रविश्वासगर्भ चसारि छप मासाणं भट्ट अट्ट संवच्छ रस्स सोलस शास्त्राचार्य, स्वनामख्याते प्राचार्य, "जीणे भोजनमात्रेयः, सोलस जाहे वि य णं जियसत्तू णं राया परवलेणं अभिकपिलःप्राणिनां दयाम् । वृहस्पतिरविश्वासं, पश्चात स्त्रीषु माईवम् ॥१॥"भा० न्यू.१०॥ जुञ्जइ ताहे तर्हि वि य णं से महेसरदचे पुरोहिए भट्टबहफचरिय-बृहस्पतिचरित-न० । वृहस्पतिः शुभाशुभफल- सयं माहादारगाणं अट्ठसयं खत्तियदारगाणं अट्ठसयं Page #1319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६६ ) अभिधानराजेन्द्रः । बह फइदत्त बस्सदार गाणं अट्ठसयं सुदारगाणं पुरिसेडिं गिरहावे, गिहावेइत्ता तेसिं जीवंताणं चेत्र हयउडियाओ गिरहावेइ गिरहावेइत्ता जियसत्तुस्स रो संतिहोमं करेइ, करेइत्ता तर खं से परबले खिप्पामेव विद्धंसइ वा, पडिसेहिजड़ बा; तर गं से महेसरदत्ते पुरोहिए एयकम्मे ४ सुबहुपावं जाव समज्जिणित्ता तीसं वाससयाई पर कालमासे कालं किच्चा पंचमार पुढवीए उकोसेणं सत्तरसागरोवमट्ठिए परपस उनसे से णं तम श्रणंतरं उच्चहित्ता इव कोसंबीए गयरीए सोमदत्तस्स पुरोहियस्स वसुदत्ताए भारियार पुत्तनाए उबव । तए णं तस्स दारगस्स श्रम्मापि णिव्वत्तवारसाइस्स इमं एयारूवं णामधिज्ञ्जं करेइ-जम्दा णं अम्हे इमे दारए सोमदत्तस्स पुते वसुदत्ता अत्तए तम्हा गं होउ अम्हे दारए बहस्स इदत्ते णामेणं । तए णं से बहस्सइदते दारए पंचधाईपरिग्गहिए ०जाव परिवड्डइ । तए णं से बहस्सइदत्ते खामं कुमारे उम्मुकबालभावे जोन्वणविसाए होत्था, उदयणस्स कुमारस्स पियबालत्रयस्सए यावि होत्था सहजायए सहवडियए सह पसुकीलयए । तर गं से सयाणीए राया || या कयाइ कालधम्पुणा संजुते, तए गं से उदय कुमार बहू राईसर ० जान संत्थवाहप्पभिईहिं सद्धिं संपरिवडे रोयमाणे कंदमाणे विलवमाणे सयाणीयस्स छो महया इड्डीसकारसमुद्रणं णीहरणं करेइ, करेइत्ता बहूइं लोयाई मयकिच्चाई करेइ । तर गं से बह राईसर • जाव सस्थवाहे उदय कुमारं महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचः । तए गं से उदय कुमारे राया जाए महया • । तए णं से बहस्सइढते दारए उदयणस्स रो पुरोहिए उदयणस्स रछो अंते उरे बेलासु य अवेलासु काले अकालेसु य राम्रो य विद्यालेय पात्रममाणे असा कयाइ पउमाबाईदेवीए सद्धिं संपलग्गे यावि होत्था | उमावईदेवीए सद्धिं उरालाई भोगभोगाई झुंजमाणे विहरइ । इमं च णं उदयणे राया रहाए • जाव विभूसिए जेणेव पउमाबाई देवी तेणेव उदयणे राया बस्दत्तं पुरोहियं पउमावईए देवीए सद्धिं उरालाई भोगभोगाई भुंजमाणे पासह, पासइत्ता आसुरुत्ते तिबलि भिउडिं खिलाडे साहहु बहस्सइदत्तं पुरो हियं पुरिसेहिं गिराहावेइ, गिरहावेइत्ता ० जाव एएणं विहा येणं व आणव । एवं खलु गोयेमा ! बहस्सइदत्ते पुरोहिए पुरा पोराणाणं ०जाव विहरइ । बहस्सइदत्ते खं भंते! दार इत्र कालगए कहिं गच्छिहिति, कहिं उबव खिहिति ? | गोमा ! बहस्सइद से दारए पुरोहिए चउसट्ठि | For Private हर घासाई परमाउं पालयिना अजेव विभागावसेसे दि वसे सूलीभिर समाणे कालमासे कालं किच्चा इसीसे रणभार पुढवीए संसारो तहेव पुढवी, तंत्र इत्थिणाउरे यरे मियत्ताए पच्चाइस्सर । से णं तत्थ वाउरिएहिं बहिए समाणे तत्थेव इत्थियाउरे रायरे सेहिकुलंसि पुत तार बोहिं सोहम्मे कप्पे महाविदेहे सिज्झिहिति । विपा० १ श्रु० ५ ० । बहल - देशी- पक्ङ्के, दे० ना० ६ वर्ग =६ गाथा । टढे, त्रि० । जं० ३ वक्ष० । बाद्दल्यविशिष्टे, पञ्चा०५ विव । तमिस्रसमूहे, सू० प्र० २० पाहुल | बहलिय- बहलिक - पुं० । म्लेच्छजातिभेदे, तद्देशे च । प्रश्न० १ श्राश्र० द्वार । रा० । बहली - बहली- स्त्री० | बद्दल देशोत्पन्नायां दास्याम्, शा० १ श्रु० १ ० भ० आ० म० । ऋषभपुत्र बाहुबलिराज्ये, वाहुबले हलदेशे तक्षशिलायां राज्यं दत्तम् । कल्प० १ श्र धि० ७ क्षण । श्र०चु० दशा० बहविरइ-बुधविरति-त्री । व्यापार निवृत्ती प्रज्ञा १ पद । बहस्सर- बृहस्पति- पुं० बफर ' शब्दार्थ, प्रा० २ पाद । बहस्सइचरिय- बृहस्पतिचरित-न०।' बहष्फइचरिय ' शब्दा थे, सू० प्र० २० पाहु० । बहस्सइदत्त-वृहस्पतिदत्तं पुं० । 'बइफइदत्त' शब्दार्थे, स्था० १० ठा० बहावह - बाऽऽवह - पुं० । बधं प्राण्युपमर्दमावहतीति बधाऽऽवहः । हिंसके, सूत्र० २ ० ६ श्र० । बहि-बहिस्- अव्य० । वह इसुन् । बाह्ये, वाच० । स० ३४ स· म० स्था० रा० । बहिंविहार - बहिर्विहार - पुं० । वहिः संसाराद् विहारः स्थानं बहिर्विद्वारः । मोक्षे, उत्त० १४ श्र० । बहिणी - भगिनी - स्त्री० । " दुहितृभगिन्योर्धूश्रा- बहि ॥ ८ । २ । १२६ ॥ इति भगिनीस्थाने बहिणी इत्यादेशः । प्रा० २ पाद । स्वसरि, "भल्ला हुवा जु मारिश्रा, बहिरिण ! महारा कंतु । " प्रा० ४ पाद | "बहिणी ससा । पाइ० 39 19 ना० २५२ गाथा । बहिय-बधित त्रि० । इते, ज्ञा० १ श्रु० ६ श्र० । ब्रद्दिया - बहिस्-श्रव्यं० नगराऽऽदेर्बहिस्तादर्थे, स्था० ६ ठा० । भ० चं०प्र० । " चंपार रायरीए बहिया पुलभद्दे बेइए। " चौ० भ० । श्राचा० । स्था० । श्राव । 1 वहियापोग्गलक्खेव - बहिः बुङ्गलक्षेप पुं० । अभिगृहीतदेशाद् बहिः प्रयोजनसद्भावे परेषां प्रबोधनाय लेष्ट्रादिपुङ्गलप्र क्षेपे, उपा०१ श्र० । "बहिया पोग्गल खेवं" (२८ गा०) देशात्रकाशिकवतं द्वि गृह्यते मा भूगमनागमनादिव्यापारजनितः प्राण्युपमर्द इत्यभिप्रायेण । स च स्वयं कृतो ऽन्येन वा का रित इति न कश्चित् फले विशेषः । पञ्चा० १ विव० 1 बहिर-बधिर पुं० "ख घ-थ-ध-भाम् ॥ ८ । १ । १८७ ॥ ६ Personal Use Only Page #1320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुगुण (१२६७) बहिर अभिधानराजेन्द्रः। ति धस्य हः। प्रा०१पाद । श्रोत्रशक्तिविकले, प्रश्न.१ मा "बहुदासीदासमहिसगोलगप्पभूया।"बहवो दासीदासा श्र० द्वार। एवं बधिरत्वमप्यरवशादनेकशः परिसंवेदयते, येषु तानि । ( स्था० ) "बहुधणबहुजायरूपरययाई।" तदावृतश्च सदसद्विवेकविकलवाद पैहिकाऽऽमुधिमकेष्टफल. बहुधनं गणिमधरिमाऽऽदि येषु तानि तथा बहुजातरूपं च क्रियाऽनुष्ठानशून्यतां बिभर्तीति । उक्त च सुवर्ण रजतश्च रूप्यं येषु तानि तथा । पश्चारकर्मधारयः । "धर्मश्रुतिश्रवणमङ्गलवर्जितो हि, स्था० ८ ठा। और। भ. । “बहुदवजुत्तिसंलोकश्रुतिश्रवणसंव्यवहारबाह्यः । भारा । बहुद्द्रव्ययुझिसंभाराः | रा०। सूत्र.। बहूनां कि जीवतीह बधिरो भुवि यस्य शब्दा, द्रव्याणामुपबृंहकाणां युक्तयो मीलनानि तासां संभार: खप्नोपलब्धधननिष्फलतां प्रयान्ति ॥१॥ प्राभूत्यं येषु ते बहुद्रव्ययुक्तिसंभाराः । जी० ३ प्रति०४ उ०। स्वकलत्रवाल पुत्रक-मधुरवच श्रवणबाह्यकर्णस्य । " बहुपहरणाऽऽवरणभरियजुद्धसज्जं।" बहूनां प्रहरणा. अधिरस्य जीवितं किं, जीवन्मृतकाऽऽकृतिधरस्य ? ॥२॥" नामावरणानां च स्फुरकङ्कटाऽऽदीनां भृतो युखसज्जश्व यः प्राचा०१७०२ ३ उ०।"..कहिते कहिते कजं, स तथाऽतस्तम् । भ०७श० उ० । भणाति बहिर व्य न सुयं मे । " कथिते २ कार्य ब. धिर इव भणति ब्रूते-न मया श्रुतमिति स बधिर इव बह-बहक-त्रि०। स्वार्थे कः। “स्वार्थे कश्च बा"॥८॥२॥ बधिरः । दुर्व्यवहारिभेदे, व्य०३ उ० । ( बधिरोलापकथा १६४ ॥ प्रा०२ पाद । अत्यन्ते, रा। 'अणणुप्रोग' शब्दे प्रथमभागे २८६ पृष्ठे गता ) बहुअढिय-बहस्थिक-न० । प्रभूतास्थिके, " बहुट्टियं मंसं बहिरिय-बधिरित-त्रिक बिधिरीकृते, प्रा० म०१०। । परिभाएत्ता।"माचा०२ श्रु०१०१०१०3० । दश। बहिल्लेस्स-बहिर्लेश्य-त्रि०संयमाद बहिर्निर्गताध्यवसायो यः बहभर-बहतर-त्रि०। “कगचज०" ॥८।१।१७७ ॥ इत्या स्य स बहि लेश्यः । असंयमाध्यवसिते, आचा. १ श्रु० ६ | दिना तलुक् । अतिशयिते बहुशब्दार्थे, प्रा० २ पाद । अ०५ उ०। बहुआगम-वहागम-पुं० । बहुरागमोऽर्थपरिक्षानं यस्यासी बहु-बहु-त्रि०। त्रिप्रभृतिषु,व्य०१ उ०। निचू । प्रश्न। वृ०। बवागमः । प्रभूतसूत्राथेशातरि, व्य. ३ उ० । तथा बयावदनन्तेषु, सूत्र०२७०४०। प्रचुरे, सूत्र०२श्रु०२ १०२ हुरागमोऽर्थरूपो यस्य स बवागमः जघन्थेनाऽऽचारप्रकल्प. उ० । सू०प्र० । भूयसि, वृ०२ उ०। स्था०। प्रससे, भ०२ धरो निशीथाध्ययनसूत्रार्थधर इत्यर्थः । जघन्यत प्राचारश०५ उ० । प्रश्नासूत्र । प्रत्यर्थे, स०३० सम०। प्राचा०। प्रकल्पग्रहणादुत्कर्षतो द्वाददशाङ्गविदिति द्रष्टव्यम् । व्य. भिन्नजातीये, स्था०६ ठा। बहुनिक्षपः । नामाऽऽविभेदात् बहुश्चतुर्धा-सच नामाss दिः, तत्र नामस्थापने लुमे, द्रव्यतस्तु बहुभिधातुमाह बहुओघपय-बहोघपद-न । यस्मिन् क्षेत्रे बहन्योघतः सा. मान्येन पदानि क्रूरचौर्याऽऽधुपसर्गस्थानानि भवन्ति । ता. दव्यपहुएण बहुगा, जीवा तह पोग्गला चेव ( ३१०) हशे, सूत्र० १ श्रु० ३०१०।। भावबहुपण बहुगा, चोइस पुवा अणंतगमजुत्ता। बहभोदय-बहोदक-पुं० । ग्रामे एकरात्रिकेषु नगरे पचराभावे खभोषसमिए, खड्यम्मि य केवलं नाणं ॥३१॥ त्रिकेषु (ौ. ) वानप्रस्थभेदेषु, औ०। (वम्बबहुपणं ति) मार्थत्वात् द्रव्यतो बहुत्वं द्रव्यबहु . बहुकंटय-बहुकएटक-पुं० । प्रभूतकण्टके, "बहुकंटयं मच्छ. स्वं तेन बहुकाः प्रभूता जीवा उपयोगलक्षणाः, तथा पुन | यं परिभाएत्ता।" प्राचा० । ला स्पर्शाऽऽदिलक्षणाश्वशब्दः पुलायां जीवापेक्षया बात्वं ख्यापयति, ते धेकै कस्मिन् संसारिजीयप्रदेशेऽनन्ता बहुकम्म ( ण् )-बधृकर्मन्-न० । विवाहे कन्यापाक्षिके क. न्ति , एयोऽवधारणे, जीवपुद्रला एव द्रव्य बहवः , तत्र ध. मणि, मा० म०१०।। मर्माधर्माऽऽकाशानामेकद्रव्यत्वात्, कालस्यापि तत्त्वतः स- बहुकर्मन्-न० । महाकर्मणि, भ० ६ श० ३ उ० । (बहुकर्मणः मयरूपत्वेन बहुत्वाभावादिति गाथाऽर्थः ॥ ३१० ॥(भाव- सर्वतः पुद्रला बध्यन्ते इति 'पोग्गल' शब्देऽस्मिन्नेव भागे पहुएणं ति ) प्राग्वत् । (बहुग सि) बहुकानि | ११०३ पृष्ठे उक्तम् ) चतुईशसंख्यानि ( पुष्प ति ) पूर्षाण्युत्पादपूर्वाऽऽदी- बहकरकम्म-बारकर्मन्-न । बहूनि फराणि दारुणाम्यनुमि (अणंतगमजुस सि ) मनन्ता अपर्यवसिता गम्यते ठानानि यस्य भवन्ति स बहुजूरकर्मा। सूत्र०१७०७०। बस्तुस्परूपमेभिरिति गमा वस्तुपरिच्छेप्रकारा मामा33. जम्मान्तरोपात्तानां क्रूराणां कर्मणामुपभोक्तरि, सूत्र १ दयस्त र्युलाम्यग्विताम्यनम्तगमयुक्तानि पर्यायाऽपलक्षणं भु०५०२ उ०। च गमप्राणम् । उर्फ हि-"भयंता गमा भणंता पजाबा भ बद्धकोह-पक्रोध-पुं। बढ़ः कोधोऽस्येति बहुकोधः । प्रभ. णतातू।" इत्यादि। अनेनैतदात्मकत्वात्पूर्षाणां तेषामप्या. नस्यमुक्तम् । क पुनरमूनि भावे वर्तन्ते येन भावबहून्युध्यन्त तकोपकपाये, प्राचा० १०५०१०। इस्याह-भाषस्यात्मपर्याय क्षयोपशमिकेचतुर्दश पूर्षाणि घर्त. बहुखज-बहुखाद्य-त्रि०। पहुभषये, पृथक्करणयोग्ये, मा० म्त इति प्रक्रमःमाह-किंमज्ञायिके भाषे किशिलाघवहस्ती. बा. २०१०४५.२उ०। स्याइ-क्षायिकेच कर्मक्षया दुस्पले पुनः केवलहानमनम्तप-बहुगुण-बहुगुण-त्रि० । प्रचुरगुने प्रति"बागुणकु यस्वात् तदपि भाषाकमिति माथाऽर्थः । उत्त० ११.म०।सुमनमियो। " बहवो ये गुणा उत्तगुणाः शुभफलरूपा • भायात. श्रु० १० धुरगुहे. प्रातकलरूपा Page #1321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तं (१२४८) बहुगुण अभिधानराजेन्धः। बहुपडिसेवि(ण) स्त कुसुमानि । समृद्धो यः स तथा । प्रश्न०५ नन्तानुबन्धिनमेकं नामयति मोहनीयं बा, तथा खेकोनस. संबधार। सतिभिर्मोहनीयकोटीकाटिभिः क्षयमुपागताभिर्मानाबरबहुगुणाकलिय-बगुणकलित-त्रि० । भनेकविज्ञानाऽऽदि णीयदर्शनावरणीयवेदनीयान्तरायाणामेकोनत्रिशभिर्नामगुणसहिते, ग०२ अधि०। गोत्रयोरेकोनविंशतिभिः शेषकोठीकोट्याऽपि देशोनया मोबहुगुणप्पगप्प-बहुगुणप्रकल्प-नाबायो गुणाः स्वपक्षालिविपरपक्षदोषोभावनाऽऽदयोमाध्यध्याऽऽदयो या प्रकल्प. हनीयक्षपणाहों भवति, नाम्य इत्यतोऽपदिश्यते यो बहुनाम: स एव परमार्थत एकनाम इति, नाम इति आपकोऽभिधि. ग्ते प्रादुर्भवस्यास्मनि पेषनुष्ठानेषु तानि बहुगुणप्रकल्पानि । यते, उपशामको पा उपशमश्रेण्याश्रयेणैकबहूपशमता बह मतिमातुशम्तोपनयनिगमनाऽऽविषु माध्यस्थ्यषचन कोपशमता वा पाच्येति । भाचा.१ श्रु०३१०४ उ० । प्रकारेषु वाऽनुष्ठानेषु, सूत्र.११०३०४ उ०। बहुणिवेस-बहूनिवेश--पुं०बहुरनर्थसम्पादकत्वेनासदभिनि बदुर्मपिर--बहुवावक-पुं०। बहुवतरि, "बाउल्लो जंबुल्लो, मु. वेशो यस्य स बहुनिवेशः । असदाभिनिविष्टे, सूत्र. १श्रु. एलोपाजंपिरो य वायातो।"पादना० ६६ गाथा। १३ अ०। बताये, अोघः । प्राचा। बजय-बामन-पुं०। बहवो जनाः साधवो गवासितपा संयमसहाया यस्य स बहुजनः । सूत्र. १ ध्रु० १३ बहुणियट्टियफल-बहुनिवर्तितफल--त्रिका बहूनि निर्वनितानि म. भि. गछवासिनि साधी, बहुषु जनेषु, प्रभूत. बद्धास्थीनि फलानि येषु ते तथा। सजातप्रभूतफलकेषु, लोकेषु, पशा.२विषा"बहुजणधिकारलजदया।" ब आचा०२ श्रु०१ चू०४ भ०२ उ० । दश०। जनाधिकारशन लजायितः प्राप्ता लज्जा येन तथा प्रश्न बहुतरग-बहुतरक-न। प्रभूततरके, मा०म०१०। भाभण्डार। बहवो जना मालोचनाचार्या यस्मिन्ना- बहुतरगुणसाहण-बहुतरगुणसाधन-म० । अनरूपतरगुणनि. जोबने त पशुजनम् । मालोचमभेदे, स्था"एगस्साऽऽलो. _पादने, पश्चा०१८ विव। पत्ता,जोमालोए पुणो वि भएणस्स । ते चेव य अवराहे, पत्त-प्रभूत-त्रि०।"प्रभूते वः" ॥८।१। २३३ ॥ इति ज णं नामं ॥१॥" इति । स्था. १० ठा०। पस्य वः । वबयोक्यात् बहुत्तं। प्रा०१पाद । तैलाऽऽदित्वाद् बहुजणणामण-बहुजननमन-पुं०। बहुजनैर्नम्यते स्तूयत इति द्वित्वम् । प्रा०२ पाद । बहुजननमनः । प्रभूतलोकप्रणम्ये,सूत्र० १७०३०४०। बहुदुक्ख-बहदुःख-पुं०। यहूनि दुःखानि कर्मविपाकाऊपादि. बामणपाउग्गया-बहुजनप्रायोग्यता-स्त्री०। बहवो जनाब. तानि यस्य जन्तोः स तथा । श्राचा. १ श्रु० ६ ०१ उ० । एजना प्रस्तावात्साधवः । अथवा-बहुसंख्पाको जनो, जा. बहु दुःखं प्राप्तव्यमनेनेति बहुदुःखः । प्राचा०१ श्रु.६ भ०१ सायकवचनं.तत्रापि स एवार्थः। तस्य प्रायोग्यं योग्यमिति । उ०। नारकाऽऽदिदुःखप्राप्तियोग्ये नारकाऽऽदिदुःखकारणतस्य भावो बहुजनप्रायोग्यता । मतिसम्पद्भदे,दशा०४० स्वाद गौरणप्राणबधे, प्रश्न०१ श्राश्र0 द्वार । बहुष्वपि हिंसा बाजणविरुद्धसंग-बहजनविरुद्धसङ्ग-पुं० । बहुजनैः प्रभूत. दिषु सर्वेष्वपि दोषः प्रवृत्तिलक्षणो बहुदोषः। बहुर्वा बहुवि. लोक। सर ये विरुवास्तवपकारकत्वेन विरोधवन्तस्तैः धो हिंसाऽनूताऽऽदिरिति बहुदोषः । रौद्रध्यानस्य द्वितीये साईपास सम्पर्कः स तथा । बहुभिलाकविरुद्धानां स. लक्षणे, स्था०४ ठा० १ उ० । औ०। ग०। प्राचू०।। स्पर्क, ज्यो०१ पाहु०। बहुदेवसिय-बहुदैवसिक-त्रि.बहुदिवसपर्युपिते. "श्रणाहा. बाजासा-बहुजनशब्द-पुं० । बदनां जनानां परस्पराss- राऽऽदि कोण वासं वासिते, पच्छा पगरातिसंवासितं तं लापाऽदिरूपे शब्द भ.श. ३३ उ० । वि बहुदेवसियं भाइ । " नि० चू०१४ उ० । बहुजणसमुइया-बहुजनसमुदिता-खी० । बहूनां जनानां म. बहुदेसिय-बहुदेश्य-त्रि०। ईषद्बहुके, " बहुवेसिएण सिज्ये गीतायां प्रवज्यायाम. "बहणसमत्तियाए, मिक्ख. णाणेण वा जाव पघंलेज्जा।" प्राचा० २श्रु० १ चू०५ मणोति जंबुणामस्स।" पं०भा०१ कल्प । “बहुजणस. अ०१ उ01 मुसियाप अंबूनाम अक्वाणयं।" पं.चू. १ कल्प। चहदोस-बहृदोष-त्रि०।" एक्का पसती दो वा तिमि वापस. गण-देशी-पुं० चौरधूर्तयोः देना० ६ वर्ग ९७ गाथा। तीतो दोसा, तेण परेणं बरोसा भमंति।" इत्युक्त प्रस. तित्रयाधिके, नि० चू० १४ उ०। पाणंदण-बहनन्दन-पुं० । बहुनि चत्वारि मन्दनवनानि य. बहदोसणिवारणत्त-बहुदोषनिवारणत्व-न० अम्योम्यहमनस्प सपनम्बमषनः । मेरी, सूत्र० १६०६०। धनहरणाऽऽधनकविधाननिषेधकतायाम् , पश्चा०७विव०। गणर-बानट-पुं० मिटव योगार्थ बहून्वेषान् विधये इति पानटः।माचा० १(०५०१ उ०। बहधमणी-बहधमनी-स्त्री०। अनेकशिरासु, तं०। बाणाम-बहुनाम-पुं० । बहुकमोपशमके, “जे एगं णामे से बड़पक्खिय-बह पाक्षिक-पुं० । बहुस्वजने, व्य०७ उ०। णामे, जे णामे से एग णामे । " यो हि प्रवर्ध- बहपठिपुण-वह परिपूर्ण-त्रिका प्रतिपरिपूर्णे, स्था०६ ठा। मानयभाग्यवसायाधिरूढकएका एकम्-अनन्तानुबन्धि. बहुपडिविरत-बहुपतिविरत-त्रि० । केषुधियाणातिपातविरमंको नामयतिपपति स बहनपि मानाऽऽदीन् ना. मणाऽऽविव्रतेषु वर्तमाने, दशा०१०म०। मपति तपपत्यप्रत्याख्यानादीन् या स्वभेदातामय. ति, मोहमीयं बैकं यो नामयति स शेषा अपि प्रक-बहुपहिसेवि(ण)-बहुप्रतिसेविन-पुं०।बहुना मासिकस्थाना ती मपति, यो वा बहू स्थितिशेषानामयति सोऽ- नां प्रतिसेविनि, व्य०१०। Page #1322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८६ ) अभिधानराजेन्द्रः । बहुपुत्तिया णं भंते ! देवीए सा दिव्वा देवड्डी पुरत्या ० अभिसमन्नागता । एवं खलु गोयमा । तेणं कालेयं तेणं समएवं वाणारसी नामं नगरी, अंबसालवणे बेइए, तस्थ जान वाणारसीए नगरीए भद्दे नामं सत्यवाहे होत्था अड्डे ० जाव अपरिभूते । तस्स णं भद्दस्स सुभद्दा नामं भारिया उमाला वंझा भर्विपाउरा जाणुको परमाता यानि होस्था । तते णं तीसे सुभद्दाए सत्यवाहीए अन्नया कयाई पुव्वरचावरचकाले कुटुंबजागरियं इमेयारूवे ०जात्र संकष्पे समुपखितथा । एवं खलु अहं भद्देणं सत्यब्राहेणं सद्धिं विउलाई भोग भोगाई नमाणी विहरामि, नो चेत्र अहं दारगं वा दारियं वा पयामि, तं धन्नाभो यं ताम्रो अम्मगाओ ० जाव सुलद्धे णं तासि अम्मगाणं मणुयजस्मजीवितफले, जासि मन्ने नियकुच्छिसंभूयगाणं यदुदलगाई महुरसमुल्ला बगाणि मम्मणजेपियाई थ मूलकक्खदे सभागं अभिसरमा गाणि परति पुयो कोमलकमलोव मेहिं इत्थेहिं गिरिहऊणं उच्छंगनिवेसियाणि देति समुल्लावए सुमहुरे पुलो पुणो मंजुलप्पभणिए अहं णं अधम्मा अपुना प्रकयपुन्ना जं ता एगमवि न पता ओडय० जाव भियाति । तेणं कालेयं ते समएणं सुब्बताओ खं भजाम्रो इरियासमिताओ भासासमिताओ एसयासमिताश्र श्रयाणमंडमत्सगनिक खेवणासमिताओ उच्चारपासवण खेल सिंघाण जल्ल मल्ल पारिहाब यसमिया मगुत्ताओ बड़गुत्ताओ कायगुत्ताओ गुसिंदिया गुत्तभयारिणीश्रो बहुस्याओ बहुपरिवाराम्रो पुत्रापुfor चरपाणीओ गमागामं दूइखमाणीओ जेणेव बायारसी नगरी तेणेव उवागयाओ, उनागच्छित्ता महापडि उग्गहं उग्गहत्ता संजमेणं तत्रसा० जाव विहरति । तते तासि सुब्बयाणं श्रज्जाणं एगे संघाइए वाणारसीए नयसि चउहिं सामाणियसहस्सीहिं चउहिं महचरियाहिं जहा सूरिया जान अंजमाणी विरह । इमं च यं केवल रीए उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्लायरियाए अमाणे भदस्त सत्यवाहस्स गि अप्प बिट्टे । कप्पं जंबुद्दीवं विलेयं मोहिगा आभोरमाणी श्राभो एमाणी पासति समं भगवं महावीरं जहा सूरिया मे तते गं सुभद्दा सत्यवाही ताओ भाभो एजवाणीओ पा०जाब खमंसित्ता सीहासयवरंसि पुरत्याभिमुहा सनि सति, पासइत्ता हट्ठे तुट्ठे खिप्पामेव भासखाओ अब्भुट्टे, प्र सना आभियोगा जहा सूरियाभस्स सुसरा घंटा श्राभि- भुट्ठेता सत्तट्ठपयाई अगच्छर, अयुगच्छता बंदर, नर्मसह, वंदित्ता नर्मसित्ता बिउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं योगियं देवं सहावे जाणविमाणं जोयणसहस्स विस्थिनं, पडिला भित्ता एवं वयासी एवं खलु श्रहं प्रजाभो ! महे जाखविमाणवमप्रो० जाव उत्तरिलेणं निजायमग्गेणं जोययासहस्सेहिं विग्गहाहिं भागता जहा सूरियाभे धम्मकहा सत्यवाहेणं सद्धिं विउलाई भोगभोगाई अंजमाणी सम्पता । तते यं सा बहुपुतिया देवी दाहिणं भुयं विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वाप पसारेति देवकुमाराणं असयं देविकुमारियाणं वामाओ यामि, तं बन्ना ओ गं ताओ अम्मगाभो० जाव एगमविन भुयाभो विउम्बर, सयाणंतरं च णं बहवे दारगा पत्ता, तं तुन्भे भाभो बहुणायाम बहुपंडियाओ दारिया भियाओ य विजब्बर नह- बहूनि गामागरनगर जान सचिवेसाई आहिंडछ, बहू • जाव सत्यवाहष्पभितीयां गिहाई - विहिं जहा सूरियाभो उवदंसिता पढिगता भंते चिराईसरतलवर वयं मोषमं समयं भगवं कूडागारसाला बहुपुत्तिचाए | खुपविसह अस्थि मे ! के वि कहिं वि विजाप काले ते समए बहुपुत्तिया देवी सोहम्मे कप्पे बहुचिया विमा सभाए सुहम्माए बहुपुतियंसि सीहास 1 बहुपमायमूल बहुपमायमूल- बहुप्रमादमूल न० । बहवः प्रमादा मद्यविकथा. sssयस्तेषां मूलं कारणं यत् तत् । बहूनां प्रमादानां कारणे, प्रश्न ० ४ श्र० द्वार । बहुपया - बहुपदा - स्त्री० । कर्णशृगाल्यादिकायां बहुचरणाया म्, अनु० । बहुपर- बहुपर- न० बहुत्वेन परं बहुपरम् । परभेदे, आबा० २ ० १ ० १ ० 1 बहुपसस बहुप्रसन्न त्रि० । अतिस्वस्थीभूते, पिं० । औ० । बहुपाउरण- बहुप्रावरण न० तुङ्गवृती, " बहु पावर णासतुंगेहिं करेति ।" नि० प्यू० ३ उ० । बहुपुक्खल - बहु पुष्कल त्रि० । बहु संपूर्णे, सूत्र ०२ श्रु० २ श्र० । प्रचुरोदक भृते, सूत्र० २ ० २ अ० । बहुपुत्तिया - बहुपुत्रिका - स्त्री० । स्वनामख्यातायां सौधर्मकल्पदेव्याम्, स्था०। बहुपुत्रिका देवी तत्प्रतिवद्धं सेवाध्ययनमुख्यते । तथाहि-राजगृहे महावीरवन्दनार्थ सौधर्मा द्वमुपुत्रिकाऽभि धाना देवी समवततार, वन्दित्वा च प्रतिजगाम । केयम् इति पृष्ठे गौतमेन भगवानवादीत्-वाराणस्यां नगर्यो भद्राभिधानस्य सार्थवाहस्य सुभद्राऽभिधाना भार्येयं बभूव । सा च बन्ध्या पुत्रार्थिनी भिक्षार्थमागतमार्यासंघाटकं पुत्रलाभं प प्रच्छ । स च धर्ममचीकथत्, प्रावाजीच्च सा बहुजनापत्येषु प्रीत्याऽभ्यङ्गोद्वर्तनपरायणा सातिचारा मृत्वा सौधर्ममगमत् । ततश्च्युत्वा च विभेलसंनिवेशे ब्राह्मणीत्वेनोत्पत्स्यते । ततः पितृभागिनेयभार्या भविष्यति, युगलप्रसवा च सा षोडशभिर्वर्वैर्द्वात्रिंशदपत्यानि जनयिष्यति, ततोऽसौ निर्वेदाशयः प्रयति, ताच धर्मे कथयिष्यन्ति, थावकत्वं च सा प्रतिपत्स्यते. कालान्तरे प्रब्रजिष्यति, सौधर्मे चन्द्रसामा निकतयोत्पद्य महाविदेहे सेत्स्यतीति ॥ स्था० १० ठा० । जंबू ! ते काले ते समणं रायगि नाम सगरे गुणसिलए चेइए, सेखिए राया, सामी समोसढे, परिसा निग्गया । For Private Personal Use Only Page #1323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुपुत्तिया अभिधानराजेन्छः । बहुपुत्तिया मा मतपत्राए वा वमणं वा विरेयणं वा पत्थिकम्मे | ति बहुहिं प्राघवणाहि य एवं पत्रवणाहि य विभपा भोसम्झे वा भेसज्जे वा उवलद्धे, जे णं अहं दा- वणाहि य भाषवित्तए वा . जाव विनवित्तए वा, तारंग वा दारियं वा पयाएजा । तते णं तानो अजाओ। हे अकामए चेव सुभद्दाए निक्खमणं अणुमभित्था । सुभई सत्यवाहिं एवं बयासी-अम्हे णं देवाणप्पिए ! समः तते णं से भरे सत्यवाहे विउलं असणं पाणं स्वा. णीभो निम्गंधीमो इरियासमियामो . जाव गुत्तभया- इमं साइमं उववढावेति, मित्तनाति० ततो पच्छा भो. रिणीभो यो खलु कप्पति भई एयमढें करोहिं वि णि- यणवेलाए . जाव मिननातिं सक्कारेति, सक्कातिसामित्तए, किमंग ! पुण उवदेसित्तए बा समायरि- त्ता सुभई सत्यवाहि एहायं . जाव पायच्छित्तं स. तए पा, भम्हे णं देवाणुप्पिए ! णं तवविचित्तं के । बालंकारविभूसियं पुरिसमहस्सवाहिणीयं सीयं दुरूहेनि । बलिपमतं धम्म परिकामो। तते णं सुभदा सत्यवा- ततो सा सुभद्दा सत्यवाही मित्तनाइ० जाव संबंधिसंपरि ही तासिं प्रज्जाणं अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्ठः। बुडा सविडीए . जाव रखेणं वाणारसीए मज्झम. तुहा सामो अाभो तिक्खुत्तो वंदति, नमसति, एवं ब. झणं जेणेव सुब्बयाणं अजाणं उवस्मए तेणेव उ. दासी-सहामि णं भजाभो ! निग्गंध पात्रयणं, पत्तिया- वागच्छइ, उवागच्छइत्ता पुरिससहस्सवाहिगि सीयं ठ. मि, रोएमि णं भज्जाभो ! निग्गंथाओ ! पावयणं एवमेवं वेति, सुभई सत्यवाहिं सीयातो पच्चोरुभति । तते णं भषितामेवं . जाव सावगधम्म पडिवञ्जए । अहासुहं दे. भद्दे सत्यवाहे सुभदं सत्थवाहिं पुरनो काउं जणव मायाप्पिया!मा पहिबंध करे । तते णं सा सुभद्दा तत्थ सुव्वया मजा तेणेव उवागरछा, उवागच्छित्ता सुब्बसासिं प्रज्जाणं अंतिए . जाव पडिवज्जति, पडिवजिन- श्रामो अज्जाबो वंदति, नमंसति, बंदित्ता नमंसित्ता एवं साताभी मज्जामो बंदर, नमसइ बंदित्ता नमंसित्ता प बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सुभद्दा सस्थवाही मर्म विविसउन्नति । तते णं सुभदा सत्थवाही समणोवासि | भारिया इट्ठा कंता . जाय मणामा मा णं वातियपित्तिय. या जाया • जाब विहरति । तते णं तीसे सुभदाए स. सिंभियसंनिवातिया विविहा रोयातका णो फुसंति, एसणं मणोबासियाए अनया कदाइ पुज्वरत्त कुटुंबजागरियं भ- देवाणुपिए ! संसारभविग्गा भीया जम्मणमरणाणं यमेया . जाव समुप्पजित्था । एवं खलु अहं सुभदे णं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ता . जाव पव्वयाति, सस्थवारी विउलाई भोगाभोगाई. जाब विहरति, नो तं एयं महदेवाणुप्पियाणं सीसिगिं भिक्खं दलयाचेषणं मां दारगं वा दारियं, तं सेयं खलु ममं कल्लं मि,पहिच्छे तुम्हं देवाणुप्पिया ! मीसिणीभिक्खं । प्रहामुह • नाव अलंतं . भास्स पापुच्छित्सा सुब्बयाणं अज्जा- देवाणुप्पियामा पडिबंधं करेह । तते णं सा सुभद्दा सुव्बयाणं अंतिए भा भवित्ता प्रण गारा • जाव पब्बइत्तए, हिं अजाहिं एवं बुत्ता समाणी हट्ठा तुट्ठा सयमेव आभरणएवं संपेहति, संपेहेतित्ता कलं जेणेव भहे सत्यवाहे ते. मल्लालंकारं आमुयइ, सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति, शेष उवागते करतल • एवं बयासी-एवं खलु अहं दे कतित्ता जेणेव सुब्धयाओ अजाओ तेणेव उबागच्छा, पाणुपिया ! तुमहिं सद्धिं बहई वासाई विउलाई भो. उबागच्छइत्ता सुव्वयाओ अजामो तिक्खुत्तो आयागभोगाई • जाब बिहरामि , नो चेव णं दारगं वा हिणपयाहिणं करेइ, करेइत्ता बंदर, नमंसइ, वंदित्ता नमदारियं वा पयामि, तं इच्छामि णं देवाणप्पिया ! तु सिता एवं बयासी-प्रालित्ते णं भंते ! जहा देवाणंदा भेति भणुमाया ममाणी शुऽनयाणं भज्जाणं. जाव तहा पब्वइया जाव अज्जा जाया जाव गुत्तबंभयारिणी। पमहत्तए । तते गां से भरे सत्थबारे सुभ एवं बया- तते णं सा सुभदा भनदा कदापि बहुजणस्स चेटरूवे सी-मा णं तुम्हे देवाणुप्पिया ! इदाथि मुंडा • जा. समुत्थिता जाव भज्झोववना अभंगणं च उबट्टणं पम्मयाहि, झुंजाहि ताव देवाणप्पिए !मए सद्धिं वि. च फामुयं पाणं च भलमगं च कंकणाणि य अंजणं च जमाई भोगभोगाई सतो पच्छा भुत्तभोई मुम्बयाणं यमगं च चुन्नगं च खेलगाणि य खअगाणि य खीरं मग्माणं • जाप पबहिसि । तते णं सुभरा सत्यवाही च पुष्पाणि य गोसति, गसित्ता बहुजणस्स दारए वा भास्स सस्थास्स एयमहूं नो माढाति, नो परिया- दारिया वा कुमारे य कुमारिया तेहिं ते डिभए य हिंयाति, पितचं पि भई सस्थधाई एवं पयासी-इच्छामि भियामो मप्पगइयामो अम्भंगेति, अप्पेगइयाभो उबदृति, यो दवाणप्पियामिभिमणुमाया समाणी . जाव एवं अप्पेगण फासुयपाणएणं एहावति, अप्पेगाया पाए पशाचर । तते णं से भरे सत्यवाहे जाहे नो संचाए- रएति, अप्पेगइया उद्वे रपति, अप्पाइया मच्छीण भज. Page #1324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०१) बहुपुत्तिया • अभिधानराजेन्दः । बहुपुत्तिया ति. अप्पेगतिया उसए करेति, अप्पेगइया तिलए करेति, भ. एवं मोसमा कुसीला संसत्ता सससविहारी महाछंदा भ. प्पेगइगा दिगिंदलए करेति, अप्पेगइया पंतियानो फरेति, हाछंद विहारी बहु वासाई सामनपरियागं पाउणति, म. अप्पेगड्या छिजाई करेति, अप्पेगइया बन्नएणं समालभा, मासियाए संलेहखाए भत्ताणं झूसित्ता तीसं भत्ताई अप्पेगइया चुभएणं समाल भइ, अप्पेगड्या खेलणगाई अणसणाए छेदिता छेदित्ता तस्स ठाणस्स प्रणालोइय दलयति, अप्पेगइया खजगाई दलयति, अप्पेगइया पडिकता कालमासे कालं किच्चा सोहम्म कापबदुपु. खीरभोयण भुंजायेति, अप्पेगइया पुप्फाई प्रामुयति, अप्पे. तिदेवित्ताए उववमा । तते णं सा बहुपुत्तिया देवी महुगाया पादेसु ठवेति, अप्पेगइया अंघासु करेइ, एवं गोववनमित्ता समाणी पंचविहाए पञ्जत्तीए .जाव उरूसु उच्छगे कहीए पिटे उरंमि खंधे सीसे भ भासामणपज्जत्तीए, एवं खलु गोयमा ! बदुपुत्तियाए दे. करतलपुढेणं गहाय हलं मोहलेमाणी मोहलेमाणी भागा- बीए सा दिव्या देवड्डी जाव अभिममभागता । से यमाणी भागायमाणी परिहायमाणी पुत्तपिवासं च धृय-- केणद्वेणं भंते ! एवं बुचा-बदुपुत्तिया देवी बहुपुपिवासं च नत्तिपिवासं च पचणुम्भवमाणी विहरति ।। त्तिया देवी गोयमा! बहुपुत्तियाणं देवीणं जाहे जाहे तते ण ताो सुब्बयामो अजामो सुभई अझं एवं बया- सकस्स देविंदस्स देवरमो उवज्झाइयं करेइ ताहे ताहे बहसी-भम्हणं देवाणुप्पिए ! समणीमो निग्गंधीमो इरिया- वेदारए य दारिया य डिभए य डिभियानो य विउव्वइ, समियामो जाव गुत्तभचारिणीभो, नो खलु अम्हं क- जेणेव सके देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छा, उवागच्छिपति जातकम्मं करेत्तए। तुमं च णं देवाणुप्पिए । बहुजः ता सक्कस्स देविंदस्स देवरभो दिव्यं देवष्टि दिव्वं दे. सास्स चेहरूवेसु मुच्छिया . जाव प्रभोववमा भन्भ- बजुई दिव्वं देवाणुभावं उवदंसेति, से तेणडेणं गोयमा ! गणं जाव नतिपिवासं च पचणुम्भवमाणी विहरसि । तं एवं पुश्चति-बहपुसिया देवीप०२। पहपुत्तियाए णं भंते ! यं तुम देवाणुपिया। एयरस ठाणस्स भालोएहि जाव देवीए केवायं कालं हि पत्ता ? । गोयमा ! चत्तापापच्छिन पडियाहि । तते ण सा सुभदा मजा सुब्ब-रि पलिमोवमा ठिी परता । पपुतिया णं भंते ! पाणं भजाणं एयमटुं नो माढाति, नो परिजाणाति, भ. देवी तामो देवलोगाओ भाउक्खरणं भवक्खएणं म. माढायमाणी अपरिजाणमाणी विहरति । तते णं तामीणंतरं चयं चहत्ता कहिं गच्छहिति, कहिं उववाहिति । समणीमो निग्गंथीमो सुभदं भज हीलेंति, निंदंति, खि. गोयमा ! इहेत्र जंबूदीये दीवे मारहे घासे विंझगिरि संति, गरिहंति, अभिक्खणं अभिक्खणं एयमटुं निवारेति। पायमले विभेलसभिवेसे माहणकुलंसि दारियत्ताए पतते खं तीसे सुभदाए मज्जाए समणीहिं निग्गंधीचिायाहिति । तते णं तीसे दारियाए अम्मापियरो एक्कारहीलिजमाणीए . जाव अभिक्खणं भभिक्खणं एयमा समे दिवसे वितिळते समाणे नाव बारसेहिं दिवसेहि निवारिज्जमाणीए अयमेयारूबे मम्भस्थिए० जाव सं- वितिकतेहिं भयमेयारूवं नामधिकं करेहिति-होउ णं भ. कप्पे समुप्पज्जित्या-जया णं मई अगारवासे भावसामि, म्हं इमीसे दारियाए नामधेशं सोमा । तते णं सोमा तते यं मई अप्पवसा, जप्पमिदं च शंभई मुंग भषि-| उम्मुकवालभाषा विमतपरिणयमेयं जोषणगमणुप्प. ना भगारामो मणमारियं पम्मइया तप्पभिई चणं प्र.ना स्वंण य जोमणेण य लावण य उकिट्ठा उकिट परपसा, पुयि च मम सपणीभो निग्गंधीमो माति, सरीरा . जाव भविस्सति । तते णं तं सोमंदारियं भ. परिजाणेति, इयाणिं नो भाढायंति, मो परिजापति, तं से | म्मापियरो उम्मुकपालभावं विधाय जोषणगमणुप्पत्तं प. यं खलु मे कवं • नाव जलते सुबयाणं भजाणं मं. सिविएणं सुकेणं नियगस्स भायणिजस्स रहकूडपस्स तियाभो परिनिक्खमित्ता पाडिएक उषसगं उपसंप- भारिपचाप दसइस्सति । तते णं तस्स भारिया भविजिता शं विहरितए, एवं संपेहेति, संपेहेत्ता कवं जा. स्सति वा कंता जाब भरकरंगसमाणा सिम्लके. व जलंते सुब्बयाणं जाणं अंतियानो पहिनिक्खम-लाइ सुसंगोविता लपेटा इस सुसंपरिहिता रयणति, पाहिएक उबस्सयं उपसंपजिलाणं विहरति । तते | करंडगो विव सुसारक्खिया सुसंगोषिता मा यं सोम सा सुभदा मजा ममोहद्विता भणिवारिता सच्छं- जाव विविहा रोयातका फुसंतु । ततेसा सोमा मा. दमसी बहुमणस्स बेडरूवेसु छिता • जाव सम्भ- हणी रहारेण सविंद विउसाई भोगभोगाई नमाणी गर. नाव नतिपिवासं च पञ्चगुम्भवमाणी वि. संपच्छरे संबच्छरे जुयलगं पयापमाणी सोलसेवि संवरणहरति । ते यं सा मुभरा मज्जा पासस्था पासस्थविहारी, रेवतीसं दारगरूपे पयाति । सतेयं सा सोमामा Page #1325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३०२ ) अभिधान राजेन्द्रः । बहुपुत्तिया ही तेहि बहूहिं दारगेहि य दारियाहि य कुमारेहि य कुमारियाहि य- डिंभ एहि य डिंभियाहि य अप्पेगइएहिं उत्तासेज्जा एहि य अध्येगइएहिं थणयाएहिं अवेगइएहिं पीणगपाए अप्पेगइएहिं परंगण एहिं अप्पेगइए हिं परकममाणेहिं अप्पेगइएहिं पक्खोलणएहिं अप्पेगर एहिं पूर्ण माहिं अप्पेगइएहिं खीरं मग्गमाहि अप्पेगइएहिं तेल्लं मग्गमाणेहिं अप्पे गइएहिं खि लणयं मग्गमाणेहिं अप्पेगइएहिं खअं मग्गमाणेहिं अप्पे गइएहिं कूरं मग्गमाणेहिं पाणियं मग्गमाणेहिं इसमाणेहिं रूसमाणेहिं अक्को सेमाणेहिं अकुम्ममा खेहिं हणमाहिं उम्मगाहिं विपलायमाणेहिं अणुगममाणेहिं शेयमाणेहिं कंदमाणेहिं विलत्रमाणेहिं कूयमाणेहिं उब्लूयमाणेहिं निद्दायमाणेहिं णिग्वायमाणेहिं पलबमाणेहिं इहट्टमाणेहिं बममाणेहिं छदमाणेहिं सुत्तमाणे हिं सुतपुरीसवमियसुलित्ते। वलित्ता मइलवसणपुण्वडा० जाव असुई वीच्छा परमगंधा जो संचाएर रट्ठकूडेणं सद्धिविलाई भोग भोगाई भुंजमाणी विहरित्तए । तते णं तीसे सोमाए माइणीए अभया कयाई पुव्वरत्तावरतकालसमयसि कुटुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारू ० जाव समुपज्जित्था एवं खलु अहं इमेहिं बहूहिं दारंगेहि य ०जाव डिंभयादि य अप्पेगइरहिं उत्ताणिजएहि य ०जाव अप्पेगइएहिं सुत्तमाणेहिं दुज्जाएहिं दुखविभग्गेहिं एगप्पहारपडिएहिं जेणं मुत्तपुसं वमियं सुलित्तोवलित्ता जाव परमदुब्भिगंधा नो संचामि रट्ठकूडेणं सद्धिं जाव विहरित्तए, तं धन्नाश्रोताओ अम्मयाओ ०जाव जीवियफले, जो गं वंझाश्रो णं भवियाश्यो अवियाश्रो राम्रो जाणुकोप्परमायाश्र सुरभिसुगंध गंधियाओ विउलाई माणुस्सगाई भोगाई भुंजमाखीश्रो विहरति अहं णं अधन्ना अपुन्ना नो संचाएमि रटुकुडेणं सद्धिं विजलाई ०जाव विहरित्तए । वे काले ते समएयं सुब्वयाश्रो नाम भजाम्रो इरियासमियाओ •जाव बहुपरिवाराम पुत्राणुपुत्रि जेव विभेले संनिवेसे महापडिरूपं उग्गहं ०जाब बिहरंति । तते णं तासि सुब्बयाणं प्रञ्जाणं एगे संघाडए विभेलसभि बेसे उच्चानीय ०जाव श्रढमाणे रहुकूटस्स गिहं अणुपविद्वे । तते यं सा सोपा माहणी ताम्रो प्रजाश्रो एजमाणीओ पासति, पासइत्ता हट्टतुट्ठ| खिप्पामेव असणा श्रन्धुद्वेति, अन्धुद्वेता सतट्ठपया अणुगच्छति, अयुगछत्ता बंद, नमसइ, वंदित्ता नर्मसित्ता विजलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिला भित्ता एवं वयासी एवं खलु | For Private बहुपुत्तिया अहं अज्जाओ रट्ठकूडेणं सार्द्ध विउलाई० जाव संवच्छरे संवच्छरे जुगलं पयायामि सोलसहिं संच्छरेहिं बत्तीसं दारगरूचे पयाया, तते णं श्रहं तेहिं बहूहिं दारएहि य ० जाव डिभियाहि य अप्पेगइएहिं उत्ता सेज्जा एहिं० जान सुत्तमाणेहिं दुज्जातेहिं ०जाब नो संचामि विहरितए, तमिच्छामि अन्जाओ तुम्हं अंतिए धम्मं निसामित्तए । तते ताओ जाओ सोमाए माइणीए विचित्तं ०जाव केवलिपन्नत्तं धम्मं परिकर्हेति । तते गं सा सोमा माहणी तासिं जाणं अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हड्डा ०जाव यहिया ताओ जाओ बंदर, नमसर, वंदित्ता नर्मसित्ता एवं बयासी - सद्दद्दामि यं अजाओ निग्गंथं पावयणं जान अन्भुट्ठेमणं अज्जाओ निग्गंयं पावयणं, एवमेयं जाओ जाव से जहयं तुम्भे वयह जं नवरं अज्जाओ रट्ठकूडं श्रपुच्छामि तते गं महं देवापियाखं अंतिए मुंडा ०जान पव्वयामि । महासुहं देवाणुप्पिए ! मा परिबंध करेह । तते यं सा सोमा माहणी ताओ अज्जाओ बंदर, नमसह, वंदित्ता नर्मसित्ता पडिविसज्जेति । तते खं सासोमा माइणी जेणेव रट्ठकूडे तेणेव उवागता करतल ० एवं बयासी एवं खलु मए देवापिया । अज्जाणं अंतिए धम्मं निसंते, सेविय गं धम्मे इच्छ्रिते० जाव अभिरूविते, तते गं हं देवाप्पिया ! तुमेहिं अन्भन्नाया सुन्त्रयाणं अज्जायं ० जाव पव्वइत्तए । तते से रक सोमं माह िएवं बायासी मा गं तुमं देवाप्पिए । इदाणिं मुंडा भविता जाव पव्वयाहि, मुंजाहि ताव देवापिए ! मए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई, ततो पच्छा त्तभोई सुब्बयाणं अज्जाणं अंतिए मुंडा ०जाव पव्वयाहि । तसे यं सा सोमा माहणी रटूकूडस्स एयमहं पडिसुखेति । तते सासोमा माइणी रहाया ०जाव सरीरा चेडियाचकवालपरिकिष्णा साओ गिहाओ पडिनिक्खमति, विभेलसन्निवे मज्कं मज्झेणं जेणेव सुब्बयाणं भज्जाणं उवस्सए तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता सुन्याओ जावंदर, नस, पज्जुवासइ । तते गं ताम्रो सुनयाश्रो अजाओ सोमाए विचित्तं केवलिपन्नत्तं धम्मं परि• • कहेति, जहा जीवा बुज्यंति, तते णं सा सोमा माइणी सुब्ब याणं अज्जाणं अंतिए० जाव दुवालसविहं सावगधम्मं परिवज्जइ, पडिवजित्ता सुव्वयाओ अजाओ वंदर, नमंसइ, वंदिता नर्मसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं प डिगता । तते गं सा सोमा माहणी समणोवासिया जाया अभिगत जाव अप्पाणं भावेमाणी विहरति । तते यं ताभ सुव्वयाश्रो अजाओ अदा कयापि त्रिभेलाभो सन्निवेसा Personal Use Only Page #1326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुपुत्तिया अभिधानराजेन्द्रः। बहुमागा भो परिनिक्खमंती पहिया जणवयविहारं विहरति । तते णं जमयं वाडिमटिरहराऽदितचाभश्यतया ध्यवारम्ति । ५. वामो सुव्वयाभो भजो अन्नदा कयाइ पुवाणुजाव वि. २ अधिः । नि० पू०। (षणस्लाई' शब्दे विस्तरः ।) हरति । तते णं सा सोमा माहणी इमीसे कहाए लट्ठा समाणा बहुब्बीहि-बहुव्रीहि-पुं०। भन्यपदार्थप्रधाने समासभेदे, भ नु० । “सर्वत्र लवरामवन्द्र०"॥८।२७॥ इति रलुका हवा तुट्ठा एहाया तहेव निग्गया जाव बंदइ, नमसइ, वंदित्ता से किं तं बहुब्बीहिसमासे । बहुब्बीहिसमासे-फुला नमंसिचा धम्म सोचा जाव नवरं रहकूडं भापुच्छामि, तते इमम्मि गिरिम्म कुत्यकयंबा सो इमो गिरी फुलियाणं पचयामि । महासुहं देवाणुप्पिए ! मा पडिबंध करेह । डयकयंबो । से तं बहुब्वीहिसमासे ॥ तते णं सा सोमा माहणी सुब्बयं अजं वंदइ, नमसइ, अन्यपदार्थप्रधानो बहुव्रीहिः पुष्पिताः कुटजकदम्बा यबंदिचा नमंसित्ता मुम्बयाणं अंतियानो पडिनिक्खमइ, स्मिन् गिरौ सोऽयं गिरिः पुष्पितकुटजकदम्बः । अनु० । जेणेव सए गिहे जेणेव रटुकडे तेणेव उवागच्छद, उबाग-बहुवेला-बहुवेला-श्री०। पहीला पारा अभीषणमित्यर्थः, स्छइत्ता करतलपरिग्गहियं तत्र प्रापुच्छइन्जाव पवइत्तए । यत्कार्यमुन्मेषनिमेषोच्छासाऽदि विधीयते प्रतिवेलं द्रष्टुं न महामुहं देवाणुप्पिए ! मा पडिबंधं करेह । तते णं रटु शक्यते तबाहुबेला अभिधीयते । पशा० १२ विष० । बहुवे. लाभाविनि अक्षिधूचालनाऽऽदिसूधमकायें, ध०३ अधिक। कूडे विउलं असणं तहेव जाव पुथ्वभवे सुभहा . जाव | बहुभंगिय-बहुभडिक-न । रष्टिवादस्थेद्वाविंशतिसूत्रान्तअजा जाता इरियासमिया . जाव गुत्तभयारी। तते णं गलेऽन्यतमसूत्रे, स०१२ प्रत सा सोमा अजा सुब्बयाणं अंतिए सापाइयमाइयाईएका बहभा-बहभद्र-पुं० । 'भदि ' कल्याणे सुखे चेति वचना. रस अंगाई अहिज्जइ, बहहिं छट्टऽटुमदुमालसाव भावे. त् । बहुसुखे, पंचू०१ कल्प। माणी बहूई वासाई सामनपरियागं पाउणित्ता २ मा सियाए संलेहणाए. सद्धिं भत्ताई अणसणाए २ पालोइय | भा०१कम्प । पं०चू० । पडिक्कता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा सक्कस्स बहुमझदसभाग-बहुमध्यदेशभाग-पुं० । मध्यश्चासौ देशदेविंदस्स देवरनो सामाणियदेवताए उववजिहिति । भागश्च देशावयवी मध्यदेशभागः। स चानास्यन्तिक इति बहुमध्यदेशभागः । न प्रवेशाऽऽदिपरिगणनया मिष्टङ्कितोऽपि तत्य णं अत्थेगइया णं दो सागरोवमा ठिई पमत्ता, तु प्राय इति । अथवा-अत्यन्तं मध्यदेशभागः । प्रायोऽत्यतस्थ वं सोमस्स वि देवस्स दो सागरोवमाईठिई न्ते वा मध्यदेशभागे, स्था०४ ठा०२०।। पएणता । से णं भंते ! सोमे देवे तातो देवलोगाओ बहुमय-बहुमत-पुं० । बहु मतो बहुशो बहुभ्यो पाऽन्येभ्यः भाउक्लएणं . जाव चयं चहत्ता कहिं गच्छहिति , सकाशात् बहुरिति वा मतो बहुमतः । भ. २श०१उ०। कहि उववाहिति । गोयमा ! महाविदेहे वासे जाव शा०। बहुष्वपि कार्येषु मते, अनरूपतया प्रस्तोकतया म ते च । शा०१ धु०१० । रा० । श्रा०क.। तं । मो०॥ अंतं काहिति । एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेण कल्प० । अतीवाभीष्टे, जी०१प्रति०। अयमढे पत्ते । नि०१ श्रु० ३ वर्ग. ४ अ० । ग०। रहुमाइ । ण् )-बहुमायिन्-पुं० क्रोधादिकषायमध्यभूतापूर्णभद्रस्य यतेन्द्रस्य स्वनामख्यातायामप्रमहिष्याम् , भ. या मायाया ग्रहणे सर्वेषामेव प्रहणात् । कषायैः कार्ष१०२०५उ.शास्था । कषे,आचा.१७०२ १०५ उ०। कुरुकुचाऽऽदिभिः करक तपसा च बहुनिकृतिपरे, प्राचा० १४०५०१ उ०। बहुप्पकार-बहुपकार-त्रि० । बहवः प्रकारा येषां जातिभेदेन बहमाण-बहमान-पुं० । आम्तरे प्रीतिविशेष, मा०म० १ ते बाप्रकाराः। जी०३ प्रति०४ उ०। प्रश्न । विविधेषु, प्र०।ध० । पञ्चा। षो। हार्दे प्रतिबन्धविशेष, जीता। प्रश्न० ५ संव० द्वार। उत्त० । मान्तरभावप्रतिबन्धे, दशम.१ उ० । बहफासुय-बहुप्रासुक-त्रि० । बहुधा प्रासुकं बहुप्रामुकम् । गुणानुरागे, हा०१ भु० १० रुचिविषयान्तरप्रीति. अचिरकाल कृतत्वात् विस्तीर्णत्वात् दुरावगाढत्वात् प्रसप्रा. विशेष,षो०२विध व्य०। ध० वर्श।दश। ग01 नि०। एबीजरहितस्वाश्चानेकविधेऽचित्ते, भ०८ श० ६ उ०। चू० । जी०। पक्षपाते,पशा०३विष०ा नि००। द्वारा प्रष। बहुमान प्रीतिस्तद्विषये, पतो यहुमानेनैवान्तरचिचप्रमोदख. बहवीयग-बहुचीजक-पुं० । बहूनि बीजानि फलेषु येषां ते क्षणेन पठनाऽऽदि विधेयं,न पुनर्बहुमानाभावेन । प्रब०६वार। तथा । भ०२२ श. १ वर्ग : उ० । उदुम्बरकपित्थास्तिक- अचित्तचिन्तामणिकल्पतीर्थकरप्रतिवन्धे, पं०सू० ४ सूत्र । तिन्दुकविल्यानलकपनसदाडिममातुलिङ्गाऽऽदिषु वृक्षभेदेषु, व्यका भन्तरङ्गप्रीतिविशेषे, यथा-" धन्यास्ते बन्दनीयास्ते, आचा०१७.४०५ उ०। प्रज्ञा । भ०। बहूनि बीजानि तैलोक्यं पवित्रितम् । यैरेष भुषनक्केशी, काममा निरा. बर्तन्ते यस्मिस्त बहुवीजं पम्पोटकाऽऽदिकमभ्यन्तरे पु(प) कृतः॥१॥" पञ्चा० १ विष०। टादित केकलबीजमयं तस्मिन् फले, तच्च प्रतिबीजं जी बटुमानविनययोर्विशेष दर्शयतिछोपमईसम्भवावर्जनीयं, यचाभ्यन्तरपु(पाटादिसहितवी-। तथा भुत ग्रहणोद्यतेन गुरोमानः कार्य बहुमानो ना Page #1327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३०४) श्रभिधान राजेन्द्रः । बहुमाण मात भाषप्रतिबन्धः। एतस्मिन् सत्य क्षेपेणाधिकफलं श्रुतं भवति । " विषयवहुमानेसु चभंगी- एगस्स विणश्रो, - २ ० २ ० ४ ० । म बहुमायो । अवरस्त बहुमाणो ण विणश्रो । अन्नस्ल विडयो । नि० चू० १३० । वि. बहु बहुम बहुमाय-बहुमाय श्रि० कपटप्रधाने ०१०२०२४० इथ दो विविसेसोपसणत्थं इमं उदाहरणं - एगम्मि बहुमिलक्खु - बहुम्लेच्छ-त्रि० । बहुप्रत्यन्तिके, प्राचा गिरिसियो मंच को पुलियो यति भयो उपलेपणसम्म यो परिभिसे सुई अभा बुखति विषयजुत्तो, ण पुण बहुमायेण । पुर्लिंदो पुण तम्मि लिये भावडिवो गशोदपण राहावेति, राहविऊणं उपविट्ठो सियोय तेण समं झालावका अत्यति अन्याय ते सि भयो सुते परिपरिऊण उपलखो परोधक सियो, जो परिसेण उरण समंतेसिस सियो भवति। एसो मे बहुमान पुणो न तथा अन्नया व अच्छीणि उपकाणिऊण अस्थ सियो घणो व भागंतुं रडियमुयतो पुलियों व भागप्रो. लिसन इति राम्रो व्यं मेरा उपखणित्ता सिवस्स लाए । तम्रो सिवेण बंभणों पतियो व पाणमंतेषु विराम्रो हुदो वि कायव्याणि । " दश० ३ ० । मंखितम्रो 1 बहुल वगस्स लापति। बंभणा पतीतो । तस्स बंभणस्स भती पु. दिसमायो एवं नाम भी बहुमा काय तुमं पुखता गया व प्रीणि उपविजण अथ सियो आगो पुलि स भत्ति बहुमानयोर्विशेष इत्थम् - 1 बहुमा मति भई नो भीए वि माये घर लहुया । गिरिकिरे सिव मरुयो, मतीऍ पुलिंदो माये ॥१४॥ बहुहा माणणं बहुमाणो, सो य बहुमाणो णाणाइसंकाय पो भवति भी बहुमा को मतिमा पिसेसोभति महाप्रभु डाउंडपाणाऽऽसम्पदाम्हणाऽऽदीहिं सेवा माला भती भवति । गुणइंसल चरिततषविणय पभावणा तिरंजित जो रस पीतिपधि सो बहुमायो भ बिगो कायाको बहुमायो तत्पदममंगे बासुदेवपाल ि संयो] या शयने गोमो कविला कालोपरि आणि हुमणार्य प्रणीयणा रोचक तिजमा भक्ति गाहा" जन्य बहुबरियारा ००१०२० मोतीये. या भतीय पशुमा भतिम्रो 'बहुकारो का भगतिमा मनमाया पाहुनदिन प्रभूतेविमोचने ०१ मा०द्वार बहुरूव- बहुरूप-1 -जि० । नानारूपे नानारूपधरे साधी, महा 1 बहुराया देशी खगपारायाम् ३० ना० ६ वर्ग २१ गाथा | बहुराना देशी- शिवायाम दे०जा०] [६] वर्ग १ गाथा । ४ ० । (पथज्जा' शब्देऽस्मिन्नेय भागे ७६७ पृष्ठे वक् व्यता गता ) या कति चउलहुया । अवा- भक्ति ण करेंति बहुमाण कति व दोसा अयंति सिरास्वं उदाहरणं भणति मोरगिरी ग्राम पोत मि यो पुतिप्रति बंब बादि कार्य पचय उच्च करोति। पुलि पारवजयंति मो. मिण पंडिलायं च करे। अलया बंभणेण मलाघ सहां सुखी परिवरिक जहा भूनं पातं बहुरूपा स्त्री० भूतेन्द्रस्य भूतराजस्य सुयामहिष्याम् स्था० ४ १००० (पूर कथा 'अगमहिली ' शब्दे प्रथमभागे १७१ पृष्ठे उक्ता । ) बहुरोग (यू ) - बहुरोगिन् पुं० । चिरकालं बहुभिर्वा रोगैरभि सो भूवे. दश० १० अ० । सदर जो परिसे बहुमुल- बहुमूल्य - त्रि० । बहु प्रभूतं धनं द्रव्यं मूल्यं येषां तानि महायेषु श्र० बहु-वधूमुख० दीर्घस्य मिथो वृतौ ॥१४॥ इति दीर्घस्य इयः बधूयमे प्रा० १ पाद ०० ६ वर्ग ६२ गाथा । परिमारू उत्त० १ ० । प्रभूते. तं० । बहुरहुर 'बहू' इति याते वरजस्तुषादिकं यस्ति बहुज २ ० १ ० १ अ०१० । पहु, आचा० २ ० १ चू० १ ० ६४० । प्रभूते कर्मणि प्रश्न हा बहुमानकर्मणि बहुपा बहुप्रभाऽऽदिषु रते आचा १०५०१ उ० बहुसावचाऽऽरम्सले ०२ अधि० बहुषु सम वस्तुत्पत्तिमधिकृत्य रताः सहा बहुरताः। दीर्घकाले द्रव्य प्रसूतिप्ररूपिषु जमालिप्रपतितनिवेषु प्र०म० १० बहुष्वेव समयेषु क्रिया निष्पत्तिरित्येवमसद्भावं प्रतिपन्नेषु, उत० अ० बहुभिरेव समः कार्य किस मयेनेत्येवंविधादिषु जातिमतानुसारिषु औ० विशे०। ( बहुरता जमालेः कशेपपन्नाः अत्र भाषार्थस्तावरक थानकाइवसेयः तच जमालि शब्दे चतुर्थभाग १४०६ पृष्ठे ) " बहुव बहुव-पुं । भूरिशब्दे प्रभूततरयशसि दशा अ० । स० । , हु०या रा० प्रचुरे प्रश्न० १ भा , द्वार रा० संधा। सूत्र० स्था० शा० । अनुपरते, स्था० ४] ठा० १ ७० प्रश्न० । ज्ञा० । बहुराष्यार्थे, रा० प्र० अनेकप्रकारे, प्रा० म० १ ० । घने औ० । Page #1328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०५) बहुल अभिधानराजेन्डः। बहुप्सालग स्थूले, स्था०४ ठा०२ उ० । "क्यचित्प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः, बहुवियप्प-बहुविकल्प-त्रि० । अनेकभेदे, सम्म० १ काण्ड । क्वचिद् विभाषा क्वचिदन्यदेव । विधेर्विधानं बहुधा समी. चय, चतुर्विधं बोहुलकं वदन्ति" ॥१॥ इत्युक्तरूपे व्याकर बहविरय-बहविरत-पुं०। सर्वेष्वपि प्रासातिपातषिरमणाs. णप्रसिद्ध विकल्पे, दश० १ अ० । श्रीवर्द्धमानस्वामिने दिषु प्रवर्त्तमाने, सूत्र०२ श्रु. २ असर्वप्राणिभूतजीवस. प्रथमभिक्षादायके कोल्लागसनिवेशवासिम्राह्मणे, प्रा०म० स्वेभ्यस्तत्स्वरूपापरिवानात्तवधान विरते , सूत्र. २ भु. १० । श्रा०चू० । " कोल्लाए सएिणवेसे बहुले ७०॥ शामं माहणे परिषसर ।" भ०१५ श० । ( 'गोसा-बहुविह-बहुविध-त्रिकायहवो विधा भेदा यस्य स बहुविधः। लग' शब्दे तृतीयभागे १०१५ पृष्ठेऽयमधिकार उक्तः।) | स्था०६ ठा। अनेकप्रकारे, ध०२ अधिक। प्रश्न ।सूत्रः। दृष्टिवादान्तर्गते स्वनामख्याते सूत्रे, स० १२ अङ्ग । कृष्ण विपा । व्य०। वृ.। . पक्षे, पा०म० १०।"बहुलो कसणपक्खो ।" पाइ० बहुवी-बही-स्त्री०। " तन्वीतुल्येषु ॥ ८।२। ११३ ॥” इति ना० २६८ गाथा। मध्ये उकारः । स्त्रीत्व विशेषे बहुशब्दार्थे, प्रा०२पाद । बहुलदोस-बहुलदोष-त्रि० । बहुर्वा बहुविधो हिंसाऽनृताऽऽ बहसंकप्प-बरसंकल्प-त्रि.। यहवः संकल्पाः कर्तव्याध्य विरिति बहुदोष इति । रौद्रध्यानस्य द्वितीयलक्षणे, स्था. ४ठाउ०॥ घसाया यस्य स बहुसंकल्पः । बहुकर्तव्याध्यवसिते, प्राचा. १ श्रु०५०१ उ०। बहलपक्ख-बहुलपक्ष-पुं० । कृष्णपक्ष, उत्त० २६ अ० । यत्र ध्रुवराहुः स्वविमानेन चन्द्रविमानमावृणोति तेन योऽन्धका. बहुसंजय-बहुसंयत-पुं० । सर्वसावधानुष्ठानेभ्यो निवृत्ते रबहुलः पक्षः स बहुलपक्षः । जं०७वक्षः। सू०प्र० । ज्यो। सूत्र०२७०२०। दशा। बहुला-बहुला-स्त्री० । पालभिकापुरीजातचुल्लशतकथम- | बहुसंपत्त-बहुसंप्राप्त--त्रि० । ईषदूने संप्राप्ते,म०२२०१ उ० णोपासकस्य भार्यायाम, उपा०५०। एकवर्णायां गवि बहुसंपुरम-बहुसंपूणे-त्रिका पदपरिसमाप्ते, कल्प०३ अधिः अनु० । बहुलाया गोः सुतो बाहुलेयः। प्रा०म०१ ० । गवि, "नंदी तंबा बहुला, गिट्टी गोला य रोहिणी सुरही।" बहसंभूयफल-बहसंभूतफल-त्रि०। बहूनि संभूतानि पाकापाइना०४५ गाथा। तिशयतः प्रहणकालोचितफलानि येषु ते तथा। तेषु, बहुलावण-बहुलावन-10 | मथुरानगरीस्थे लौकिकवने, प्राचा०२ श्रु०१चू०४०२ उ० । दश०।। ती०८ कल्प। बहुसगड-बहुशकट-त्रि०। बहुरथे, प्राचा० २७. २० बहुलिया-बहलिका-स्त्री० । भानन्दस्य गुहपतेगुहदास्याम् , ४०। मा०चू.१० । प्रा०म० । अग्निकसहजातायां चेटक बहुसच-बहुसत्य-पुं० । अहोरात्रस्य दशमे , ०. २० पुत्र्याम्, प्रा०चू०१०। प्रा० म.। पाहु । जं०। बहुलोह-बहुलोभ-पुं० । सर्वमेतदाहाराऽऽदि लोभारकरोती. | बहुसद-बहुशठ-पुं० । बहुभिः प्रकारैः शठे, माचा० १ भु. त्यतो बहुलोभः । अतिलुब्धे, प्राचा.१ ७० ५.१ उ०।। बहुलोहणिज-बहलोभनीय-त्रि.। यहून लोभयन्ति विमो. बहुसप-बहुसम-त्रि० । प्रभूतसमे , ०प्र०२० पाहु० । मा. हयन्ति बहुलोभनीयाः। उत्तपाई०४०। बहुलोभोत्पा. चा०। सू०प्र० । अत्यन्तसमे, स्था० ठा0। रा०। वृद्धिहादके, उत्त०४०। निवर्जिते , भ०१३ २०४ उ. करप०। बहुवयण-बहुवचन-न० । बहवोऽर्थी उच्यन्तेऽनेनोतिति | बहुसमउल्ल बहुसमतुस्य-म० । समतुल्यशः सरशार्थः । - वचनं, बहूनामर्थानां वचन बहुवचनम् । स्था०३ठा०४ उ.। त्यन्तसमतुल्ये, स्था०२ ठा० ३ उ०। बहुत्वप्रतिपादके वचनभेदे, प्रशा० ११ पद । बहुवचनम्-वृक्षा बहुसमरमणिज-बहुसमरमणीय-त्रिः । अत्यन्तसमे,रम्ये च । ताप्राचा० २ १०१ चू०४ अ०१ उ०। ल.। भ० १४ श०६ उ०। रा०। बहुवाइ (ण)-बहुवादिन-पुं०। मनेकधा ब्याकतरि, प्राचा० बहुसमाइयण-बहुसमाकी-त्रि०। अस्यन्तमाकीणे, भ.५. 'श्रु० अ० २ उ०। श०६ उ०। बहुवावार-बहुव्यापार -पुं०। सामान्य साधुषु, पं०व०२ द्वार। बहुसयण-बहुस्वजन-पुं० । बहुपातिके, वृ० १ उ०२ प्रक० । बाविग्ध-बहविघ्न-न । प्रचुराम्तराये, “श्रेयांसि बहुवि बहसलिलुप्पीलोदया-बहशलिलोत्पीलोदका-खी० । प्रतिमानि, भवन्तिमहतामपि। अश्रेयसि प्रवृत्तानां काऽपि याः | भोतोवाहिताऽपरसरिति, दश ७१०। न्ति विनायकाः॥१॥" मा०म० ११०। बहुसालग-बहुशालक-पुं०। स्वनामख्याते प्रामे, यत्र शा. बहुवित्थर-बहुविस्तर-त्रि. अनेकदे, नि० चू. १३ उ०। लवने उद्याने स्थितस्य धीरस्य पृतनानाम्नी ध्यातरी उपसर्ग कृतवती। भा०चू०१०मा० म०। ३२७ Page #1329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुसुह बहु बहुसुख-म० मोक्षा परमार्थ सूत्र ०३ अ०४ उ० । | बहुशुभ- न० । प्रभूतसुखे, भाव० ३ ० । बहुमेया बहुसेया- श्री. बहुः सीयन्ते अवध्यन्ते यमिसौ । सेयः कर्दमः स यस्यां सा बहुलेया । प्रचुरकर्दमायाम्, सूत्र० २ श्रु० २ श्र० । श्वेता- स्त्री० । बहुश्वेतपद्मसम्भवात् स्वच्छोदकसम्भवाद् बाहुल्येन श्वेतायां पुष्करिण्याम्, सूत्र० २ ० २ श्र० । बहुसो बशम् अव्य० अनेकवारे स्प० १४० । अनेकरा इत्यर्थे पञ्चा० १ विव० क०प्र० । ग० । पृ० । आचा० विशेष "बहुसोसिया, भुखोभुतिया गट्ठा।" नि०० २० उ० । 1 बहुस्सुई कय- बहुश्रुतीकृत - पुं० मत बहुस्सुय - बहुश्रुत - पुं० । आगमवृद्धे, दश० ८ श्र० । अष्ट० बहुभुतमाह भ० १५ श० । पृ० । बहुमुपाये, तर बाहिरं सूर्य बहुदा । होति चसदग्गा चारिप बहुवि ।। २५१ ।। यस्य बहुधा चकारमभ्यन्तरमङ्गमवि श्रुतं भर्यात विद्यते, तथा स विशुद्धिकर इत्यत्र चशब्दग्रहणात् सुबह्रुकं चारित्रमपि यस्य स युगप्रधानो बहुश्रुतः । व्य० १० उ० । शास्त्रार्थपारगे सूत्र• १४० २ श्र० १० धुरं समानः सुत्रतोऽर्थतञ्च यस्य उष्कृतः सम्पूर्ण पूर्वघरे, जयम्यतां नवमस्य पूर्वश्व तृतीय वस्तुवेदिनि स्था० ८ ठा० प्रव० । बहुसूत्रार्थीभयधरे, वृ० । विपि बहु खलु जहओ मझिम य उकोसो । श्रायारपकप्पे कप्पेणवम दसमे य उक्कोसो ||४०४ || त्रिविधः खलु बहुश्रुतः । तद्यथा जघन्यो, मध्यमः, उत्कृष्टः । राजाऽखारको निशी तयारी जघन्य बहुत म ध्यमः (कप्पे ति ) कल्पव्यवहारधरः, उत्कृष्टो नवमदशम , ( १३०६ ) अभिधानराजेन्द्रः । " पूर्वधरः । वृ० १० १ प्रक० । व्य० । आा०क० अ०म० । 1 नि०यू०| बहुबिधे, उस० २ अ० बहुत्रपुं बहु कालोचितं सुषमाचारादिकं यस्य स बहुसूत्रः । तस्मिन् व्य० ३ उ० दशा० । बहुस्पा बहुश्रुतपूजा श्री० बागमस्योतिप्रतिपती, , उत्त० । - ? 9 संप्रति सूत्रानुगमे सूषमुच्चारणीयम् तचेदम्संजोगा विमुकस, असमारस्य भिक्खु । यार पारिस्सामि सुिह मे ॥ १ ॥ संयोगाद्विप्रमुक्तस्थानगारस्य नि आचरणमाचार उचितक्रिया, विनय इति यावत् । तथा च वृद्धा:-" आयारोति वा, विणउति वा एगट्ठति । सचे बहुश्रुतपूजा अश्मकतेतस्मादाधिकृतत्वात् तं क रिष्यामि प्रकटयिष्यामि श्रानुपूर्व्या, भृणुत (मे) मम, क. भवत इति शेषः इति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ 33 1 बदरस्यपूया इह च बहुश्रुतपूजा प्रक्रान्ता सा चत्रस्वरूपपरिज्ञाने एक बहुत पर विशातयत स्वरूपमाह जे यात्रि होइ निव्विजे, थद्धे लुद्धे मणिग्गरे । अभिक्खणं जावई, अविणीऍ अवहुस्सुए ||२|| (जे याविति यः कश्चित् पिकिमी उत्तरत योदयेते, भवति जायते, निर्गतो विद्यायाः सम्यक शास्त्रागमरूपापा निर्विद्यः अशियात् सविद्योऽपि पा स्तब्धोऽहारी दुग्धः रसादिवृद्धिमान् इन्द्रि यनिग्रहः - इन्द्रियनियमनाऽश्म को ऽस्येत्यनिग्रहः अभीक्ष्णं पुनः पुनः उत्प्राबल्येनासंबद्धभाषिताऽऽदिरूपेण लपति वक्ति उ पति अविनीतश्च विनयविरहितः ( अब हुस्सुए ति ) यचदोर्निस्थाभिसम्बन्धात् सोऽतः उच्यत इति शेषः स विद्यस्यापवस्वं बाहुल्यताभावादिति भावनीय म्. द्विपरीतः इति सूत्रार्थः ॥ २ ॥ कुतः पुनरीहशम बहुश्रुतत्वं बहुश्रुतत्वं वा लभ्यते १, इत्याह - " पंचहि ठाणेहिं, जेहि सिक्खा न लब्भई । भाकोडा पनाए, रोगेणाऽऽतस्सेख य ॥ ॥ ठाणे, सिक्खासीति वुच्चई | अस्सिरे सया दंते, ण य मम्ममुदाहरे ॥ ४ ॥ नासीले ग विसीले रासिया भइलोए । अकोदये सचरए सिखासीले चि बुदई ।। ५ । असा पञ्चभिः पञ्चस्तिष्ठयेषु कर्मचरागा जन्तव इति स्थानानि तैर्येरिति शि शिक्षा प्रणारिका न तेरी बहुतस्याप्यत इति शेषः । पुनः सान स भ्यते ? इत्याह-स्तम्भान्मानात् क्रोधात् कोपात् प्रमादेन म विषनिरोगे गलत्कुदिना आलस्येमानुसा हाऽऽत्मना, शिक्षा न लभ्यत इति क्रमः । चः समस्तानां स्तानां चतुश्वमेषां द्योतयति ॥ ३ ॥ इत्थम 1 " नमिचाय देनाहमशिक्षा शीतः स्वभायो यस्य शिक्षा वा शीलव्यभ्यस्यतीति श क्षाशीलः- द्विविध शिक्षाऽभ्यासकृत् इतिशब्दः स्वरूपपरामशंका उच्यते- तीर्थचर153दिभिरिति गम्यते साम्येषा (अरिसरे सि) सुन हर इति प्राकृत लाइसनल असिता न सहेतुकमा साले सदा सर्वकारात इन्द्रक्नो (व परायचजनाकार कुवितं हरे उत्॥ ४ ॥ नमनशील, सर्वधा इत्यर्थः, न विशीलः विरूपार कलुषितव्रत इति यावत् न स्यात् न भवेद् इह पूर्वत्र च सं. भावने लिट्, अतिलोलुपः अतीव रसलपटः, अक्रोधनः अ पराधिन अपराधिनिपान कथाअवितथभाषणं तस्मिन् रतः -भासक्तः सत्परत इति निगम वितुमाह-शिक्षा इत्यनन्तरोपमा • स ? Page #1330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुस्सुयपूया अभिधानराजेन्दः । बहुरमयपूया बहुश्रुत एव भवतीति भावः । इह च स्थान प्रक्रमे ऽप्ये- तो येषां कोपः स च कृतना ॥१॥" इति । कलहश्च बमभिधानं धर्मर्धामणोः कथञ्चिदनन्यवस्थापनार्थ, विशे-1 वाचिको विग्रहः, डमरं च-प्राणिघाताऽऽदिभिस्तबर्जको.बु. पाभिधायित्वाञ्च कश्चित् केपाश्चिदन्तर्भावसम्भवेऽपि पृथ- द्धो बुद्धिमान् , एतच्च सर्वत्रानुगभ्यत पवेति न प्रकृतस. गुपादानं, परिहारद्वयमपीदमुत्तरत्रापि भावनीयम् । इति । याविरोधः । (अभिजातिए ति । अभिजातिः कुखीनता, सूत्रत्रयाऽर्थः॥५॥ (उत्त०)। तां गच्छति उरिक्षप्तभारनिर्वाहणाऽऽदिनेत्यभिजातिगः, इी. किंच-सबहुश्रुतत्वे बहुश्रुतत्वे वाधिनयः, विनयश्च मूल- लज्जा सा विद्यतेऽस्य हीमान् , कश्चित् कलुषाध्यवसा. कारणम्, तवत उक्तदेतूनामप्यनयोरेवान्तर्भावात् । यतायामप्यकामाचरयन् लज्जते, प्रतिसलीनो गुरुसविनीतस्थानान्याह- . काशऽस्यत्र या कार्य विना न यतस्ततचएते । प्रस्तुतमुप. अह पमरसहि ठाणेहि, सुविणीए ति वुच्चइ । संहरबाह-सुविनीतः सुविनीतशब्दवाच्य इतीत्येवंविधनीयावित्ती अचवले, अमाई अकुतूहले ॥ १० ॥ गुणाम्बित उच्यते । इति सूत्राऽष्टकार्थः ॥१३॥ अप्पं च अहिक्खिवह, पबंधं च न कुन्चइ । यश्चैवं विनीतः स कीहक् स्यादिस्याहमित्तिज्जमाणो भयइ, सुयं लद्धं न मज्जइ ॥११॥ वसे गुरुकुले निश्चं, जोगवं उपहाण । न य पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पा । पियंकरे पियंवाई, से सिक्खं लधुमरिहइ ॥ १४ ॥ अप्पियस्सऽवि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासइ ॥ १२॥ यसेत् आसीत् क ?-गुरुणाम्-प्राचार्याऽऽदीनां कुलम् अ. म्चयो- गच्छ इत्यर्थः, गुरुकुलं, तत्र तदाझोपलक्षणं च कु. कलहडमरवज्जए, बुद्धे अभिप्राए । लग्रहणं, नित्यं सदा, किमुक्तं भवति?-यावजीवममपि गु. हिरिमं पडिसंलीयो, सुपिणीए नि बुच्चइ ।। १३॥ वाशायामेव तिष्ठेत् । उक्तं हि-भणाणस्स होइ मागी।" अथ पञ्चदशभिस्स्थानैस्तुष्टु शोभनो विनीतो विनयान्वितस्सु इत्यादि । योजनं योगः-व्यापारस, स चेह प्रकमाविनीत इत्युच्यते, तान्येवाह-(णीयावित्ति त्ति) नीचमनुद्धतं द्धभगत एव तद्वान् , अतिशायने मतुप् । यद्वा-योगः यथा भवत्येवं नीचेषु या शय्याऽऽदिषु वर्तत इत्येवंशीलो नी. समाधिः, सोऽस्यास्तीति योगवान् , प्रशंसायां मतुप् । उपचवी गुरुपु न्यग्वृतिमान् । यथाऽऽह-"नीयं सज गई ठा. धानम्-अहानाध्ययनाऽऽदी यथायोगमाचाम्लाऽऽदितपो. णं णीयं च पासणाणि य । रणीयं च पाएँ चंदिजा, णीअंकु विशेषतवान् यद्यस्योपधानमुक्तं न तत् कृच्छ्भीरुतयोत्स. ज्जा य अंजलि ॥१॥"अचपलः नाऽऽरब्धकार्य प्रत्य स्थिर:, ज्यान्यथा चाऽधीते शृणोति बालियम्-अनुकूलं करोतीति अधधा-अचपलो गतिस्थानभाषाभावभेदतश्चतुर्दा । तत्र ग. प्रियङ्करः, कश्चित् केनचिदपकृतोऽपि न तत्प्रतिकूलमातिचपला-द्रुतचारी, स्थानवपलः-तिष्ठन्नपि चलनवाऽऽस्ते चरति, किं तु ममैव कर्मणामयं दोष इत्यवधारयन्नप्रियहस्ताऽदिभिः, भाषावपलः-असदसभ्यासमीयादेशकाल. कारिगयपि प्रियमेव चेटते . अत एव च ( पियं वाइ त्ति) प्रलापिभेदाचतुर्दा,नत्र असदविद्यमानप्रमभ्यम्-खरपरुषा. केनचिदप्रियमुक्तोऽपि प्रिय भेव बदतीत्येवंशीजः प्रियवादी, ऽऽद्यसमीक्ष्य-अनालोच्य प्रलपन्तीत्येवंशीला असदसभ्यास. यद्वा-प्रिय र प्राचार्या देरभिमताऽऽद्वाराऽऽदिभिरनुकूमीक्ष्यमलापिनत्रयः, श्रदेशकालप्रलापी चतुर्थः अतीते कार्ये | लकारी , एवं प्रियवाद्ययाचार्याभिप्रायानुवर्तितयेव वक्ता. यो वक्ति-यदिदं तत्र देश काले वाकरिष्यत् ततः सुन्दर- तथा चाऽस्य को गुणः ?, इत्याह-स एवंगुणविशिष्टः मभविष्यत्, भावचपन्नः सूत्रेऽर्थे वाऽसमाप्त एवं योऽन्यद् शिक्षा शास्त्रार्थग्रहणाऽऽदिरूपां लधुमयाप्तुमर्हति योग्यो गृह्णाति, अमायी न मनोज्ञमाहाराऽऽदिकमवाप्य गुर्याऽऽदि. भवतीति । अनेनैवाविनीतस्त्वेतद्विपरीतः शिक्षां वधू. बञ्चकः, अकुतूहलः न कुदुक्रेन्द्रजालाऽऽद्यवलोकनपरः, अ. नाईति इत्यर्थादुक्तं भवति, तथा च यः शिक्षा लभते स बहु। संच इति स्तोकमेव अधिक्षिपति तिरस्कुरुते । किमुक्त श्रुतः, इतरस्थबहुश्रुत इति भावः । इति सूत्रार्थः। भवति?-नाधिक्षिपत्येव तावदसौ कश्चन, अधिक्षिपन् वा एवं च सविपक्ष बहुश्रुतं प्रपञ्चतोऽभिधाय प्रतिझातं कश्चन काटुकरूपं धम्म प्रति प्रेरयनल्पमेयाधिक्षिपति, तत्प्रतिपत्तिरूपमाचारं तस्यैव स्तबद्वारेणाऽहअभाववचनो या अल्पशब्दः । तथा च वृद्धाः-"अल्पश जह संखम्मि पयं निहितं, दुहओ वि गिरायई। मोहि स्तोकेऽभावे च । " ततो नैव कश्चनाधिक्षिपति , प्रबन्धं चोक्लरूप न करोति, मित्रीयमाण उक्लन्यायेन एवं बहुमुए भिक्खू, धम्मो कित्ती तहा सुर्य ॥ १५ ॥ भजते मित्रीयितारमुपकुरुते, न तु प्रत्युपकार प्रत्यसमर्थः यथा इति ष्टान्तोपन्यासे। शहखे जल जे पयो दुग्ध कृतघ्नो वा थुतं लब्ध्वा न माद्यति, किंतु मददोषपरिज्ञानतः | निहितं न्यस्तम् ( दुनो वि त्ति ) द्वाभ्यां प्रकाराम्मा द्वि. सुतरामधनमति, न च नैव पापपरिक्षेपी उतरूपः, न च धा, न शुजताऽऽदिना स्वसंबग्धिगुणलक्षणेनैकेनैव प्रकामित्रेभ्यः कृतज्ञतया कथञ्चिदपराधेऽपि कुप्यति , अप्रिय- रेण, कि तु स्वसंवत्स्याश्रयसंबन्धिगुणद्वयलक्षणेन प्रकास्यापि मित्रस्य रहसि (कल्लाण ति) कल्याणं भाषते। रखयेनापीत्पपिशब्दार्थः, विराजते शोभते; तत्र हितक. इदमुक्तं भवति-मित्रमिति यः प्रतिपन्नः स यद्यप्यप- खुषीभवति। न चाम्लतां भजते नापि च परिश्रधति एवकृनिशतानि विधते तथाऽप्येकमपि सुकृतमनुस्मरन्न रह. मनेन प्रकारेण बहुश्रुते ( भिक्ख्नु त्ति) मार्षवाद्भिक्षी हीरयति । तथा चाss-" एकसकतेन दुष्क तपस्विनि; धर्मः यतिधर्मः, कीर्तिः साया तथेति,धर्मत-शतानि ये नाशयन्ति ते धन्याः । न वेकदोपजनि-। कीर्तिवत् श्रुतम् भागमो विराजत इति संबन्धः । किमत Page #1331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३०८ ) अभिधानराजेन्द्रः । बहुरस्यप्या 1 भवति यद्यपि धर्मकीर्तितानि निरुपले पतादिगुणेन स्वयं शोभाभावि तथाऽपि मिध्यात्वादिकालुष्यविगमो निर्मल दिगुणेन पयो बहु स्थितान्याश्रयगुणेन विशेषताोभन्ते तापनि मायिम्-अन्यथा भावं हानि वा कदाचन प्रतिपद्यन्ते अन्यत्र त्वन्यथाभूतभाजनस्थ पयोवदन्यथाऽपि स्युः । वृद्धास्तु व्याचक्षते यथे स्योपस्थे "संभवपथंबीरं निहितं उचितं " यस्तमित्यर्थः "दुओ उमओ संखो खरंच अडवावं तो खरंच संग परिस्वति ण य बीमति पिरा यह सोमति संहारे अमावा बहुत त्यविसारी जानकइत्यर्थः तर एवं मि - " तस्स धम्मो भवति, किसी जसो • तथा सुमारा भवह अपने दिवस्त्र असूयमेव भवति । अषा-इसी परशीद व सोमति पसदाई अडया-वयं गुजार भिक्खु बहुस्सु मयति, धम्मो किसी जसो व तसे ' मारादियं परमोद व विध श्रवा - सीलेण य सुरण य । " इति सूत्रार्थः । पुनर्वश्रुतस्तवमाह जहा से कंबोया आइले कंच सिया । , आज परे एवं इवइ बहुस्सु ।। १६ । यथा येन प्रकारेण स इति प्रतीतः काम्योजानां को अदेशोद्भवानां प्रमादश्वानां निरपट्टी भाकीर्णो म्या सशीलादिगुरिति प्रधान या किल कलभृतकुतुपनिपतनध्वनेर्न संत्रस्यति, स्याद्भवेदश्वस्तुरङ्गमो जयेन वेगेन प्रवः प्रधान एवमित्युपनये, तत ईदो अति बहुजन हितकाम्बोजा जनजाऽऽदिभिरन्यथाि साऽऽदिभिर्व एव अयं स्वाकीर्णकन्यकाश्ययत्यपि प्रवरः । इति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ किंचजहाssसमारूढे, सूरे दढपरकमे । उभो नंदिपोसेणं, एवं इवइ बहुस्सु ॥ १७ ॥ यथा की जात्यादिसाच्या लित आकीर्णसमारूढः सोऽपि कदाचित् कातर एव स्यादत आह-शूरवारभटो दृढो गाढः पराक्रमः शरीरसामर्थ्याssरमको यस्य स तथा (उभओ प्ति) उभयतो- वामतो, दक्षिणश्व । यद्वा श्रग्रतः पृष्ठतश्च । नम्दीघोषेण द्वादश सूर्य निनादाऽऽ स्मकेन, या आशीर्वचनानि नान्दी-जीयास्यमित्यादीनि कोलाहलमनसा ति बहुश्रुतः, किमुक्तं भवति १ - यथैवंविधः शूरो न केनचिदभिभूयते न चान्यस्तदाश्रितस्तथाऽयमपि जिन्प्रचचनतुर इप्परचादिदर्शनेऽपि जि प्रति समर्थः, उभयता दिनरजन्योः स्वाध्याय घोषरूपेण स्व चिरंजीवी येगा तमित्याद्याशीर्वचनाऽऽत्मकेन नान्दी घोषेणोपलक्षितः परतीविमितीय मानतुंना प्रत प्रत्येततोऽन्योऽपि कथयते इति दुषार्थः ॥ १७ ॥ बहुरसुयपूया तथा जहा करेणुपरिफि, कुंजरे सहाय " बलवंते अप्पदिए एवं व बहुस्सु ॥ १८ ॥ यथा करेणुकाभिर्हस्तिनीभिः परिकीः परिवृतो यः सत था, न पुनरेकाक्येव कुञ्जरो हस्ती षष्टियनान्यस्येति षष्टिहायनः षष्टिवर्षप्रमाणः, तस्य तावत्कालं यास्यति वर्ष बलोपचयः ततस्तदपचय इत्येवमुक्तम् अत एव क (स) बलं शरीरसामध्ये मस्यास्तीति बलवान् सन् प्रतितो भवति को नादमुखेरवि ऽर्थः १ नान्यैर्मदमुखैरपि मतः परामुखीक्रियते एवं भवति धुतः सोऽपि द्वि करेभिरिव परासरविरोधिनीभिरौत्पत्तिपादिबुद्धि भिर्विद्यामि विविधाभिर्वृतः परिदानात्यन्तस्थिरमतिः श्रत एव च बलवत्वेनाप्रतिछतो भवति, दर्शनोपभिर्वदुरप्रतिद्वन्तुं शक्यते इति षार्थः ॥ " " अन्यन्त्र जहा से तिक्खसिंगे, जायक्खंधे विराय | बसदे जुहादिवई एवं हुस्सु ॥ १६ ॥ , " , यथा स तीक्षणे निशिताग्रे शृङ्गे विषाणे यस्य स तथा, जातः अत्यन्तोपचितीभूतः स्कन्धः प्रतीत एवास्येति जातस्कन्धः समस्ताङ्गोपाङ्गोपतिरोपलक्षणं चैतत् तदुपये हि शेषाङ्गयुपचितान्येवास्य भवन्ति विराजते विशेषणराज वृषभः प्रतीतो यूथस्य ग मूहस्याधिपतिः स्वामी यूथाधिपतिः सन् एवं भवति बहुश्रुतः सोऽपि हि परपक्षभेतृतया तीक्ष्णाभ्यां स्वशा 1 परशाखाभ्यां गृहाभ्यामिति कार्यधुराधरणधौरेवतया च जातस्कन्ध इव जातस्कन्धः श्रत ए. यं च यूथस्य साध्यस्याधिपतिः तः सन् विराजते । इति सूत्रार्थः ॥ अन्यश्च जहा से तिक्खदाडे, श्रदग्गे दुप्पहंसए । सीमिया परे एवं वह बहुस्सुए ।। २० ।। यथा स तीक्ष्णा निशिता दंष्ट्राः प्रतीता एव यस्य सतीदंष्ट्रः, उदग्र उत्कटः उदप्रवयः स्थितत्वेन वा उदग्रः, अत एव दुपसप त्ति ) दुःप्रधर्ष एव दुःप्रधर्षको 5 रभिभवः सिंहः केसरी, सुगासामाररूपप्राणिनां प्रवरः प्रधानो भवति, एवं भवति बहुश्रुतः। श्रयमपि हि परपक्षभेनृतया तदष्ट्रममा प्रतिभादिगु तया च दुरभिभवः इत्यन्यतीर्थानां मृगस्यानीयानां प्रपर इति सूत्रार्थः ॥ अपरं च - जहा से वासुदेवे, संखचक्रगदाधरे । अप्प हियबले जोहे, एवं दवई वहुस्सुए ॥ २१ ॥ यथा स वासुदेवो विष्णुः शखश्च पाञ्चजन्यः चक्रं च सुदर्शनं गदा व कौमोदकी शङ्खचक्रगदास्ता धारयति बद्दशांतिधरः अप्रतिहतम् अन्यैः क्यं बलं सामर्थमस्येत्यतिबलः। किमुक्रं भवति - एकं सामर्थ्यदानन्यच्च तथाविधायोपान्त इति Page #1332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुस्सुयपूया भनिधानराजेन्द्रः। बहुस्सुयपूया युध्यत इति योधः सुभटो भवति, एवं भवति बहुश्रुता, तथेत्येवं विशेष्यते , यद्वा-उत्थानं प्रथममुद्रमनं, ताचार्य सोऽपि छकं स्वाभाविकप्रतिभाप्रागल्भ्यवान् परशाच | न तीन इतितीवत्वाभाषण्यापकमेतत् अभ्यताहितीयोऽय. कगदाभिरिव सम्बग्दर्शमहानवारित्रहपेत इति, पोध ष मिति न सम्यग् राम्तः स्यात् , चलमिष ज्याला मुत्रयोधः कर्मवरिपराभवं प्रति इति सुत्रार्थः। निष तेजसा महला, एवं भवति बहुभुतः सोऽपि पक्षाअपरंप नरूपतिमिरापहारका संयमस्थानेषु विशुद्धषिखतराध्य जहा से चाउरते, चक्कवट्टी महिथिए । पसायत उपसतपस्तेजसा व ज्वलचिव भयसि । इति चउदसरयणाहिवई , एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २२ ॥ पूत्रार्थः। मम्यच्चयथा स चतसृष्यपि विश्वन्तः पर्यम्त एकत्र हिमावान जहा से उदुबई चंदे, नक्षत्तपरिवारिए । न्यत्रच दिक्त्रये समुद्रः स्वसम्बन्धितया अस्येति च. तुरन्तः, चतुभिर्वा हयगजरथनराऽऽत्मरम्तः शत्रु पडिपुम्मे पुस्लमासीए, एवं हवइ बहुस्सए ॥ २५ ।। विनाशात्मको यस्य स तथा, चक्रवर्ती षट्सएडभ- यथा स उडूना नक्षत्राणां पतिः प्रभुम्रपतिः, कइस्याहरताधिपो , महती ऋद्धिः समृद्धिरस्येति महर्डिका दिव्या चन्द्रः शशी, नक्षत्रैरश्विन्यादिभिरुपलक्षणस्था प्रस्ताराभि. नुकारिसमीकचतुर्दश च तानि रस्नानि चतुर्दशरत्नानि । व परिवार परिकरः सातोऽस्येति परिचारितो नक्षत्रप. तानि चामूनि-"सेणावति गाहषा, पुरोहिय गय तुरंग व. रिवारिता, प्रतिपूर्णः समस्तकलोपेतः, स चेरक कथा भवहा इथी। चकं छत्तं चम्म, मणि कागणि खग्ग दंडोय" स्यत माह-पौर्णमास्याम् । ह च चन्द्र इत्युक्ते मा भूनामच ॥१॥ तेषामधिपतिः चतुईशरत्नाधिपतिः, एवं भवति बहु. भद्राऽऽदाधपि सम्प्रत्यय इत्युहुपतिप्रहणम् , उहपतिरपिच भुतः, सोऽपि शासमुद्रमहीमण्डलल्यातकीर्तिस्तिषु दि- कश्चिदेकाक्येव भवति,मृगपतिवत् अत उक्त मत्रपरिवारि. सुभन्यत्र च धम्दीभूतविद्याधरवृन्द इति दिक्चतुष्टय- ता, सोऽप्यपरिपूर्णोऽपि द्वितीयाऽऽविषुसम्भवतीति परिपूर्णः व्यापिकीर्तितया चतुरन्त उच्यते, चतुर्मिर्धा दानाऽऽदि- पौर्णमास्यामित्युक्तम्, एवं भवति यहश्वतोऽसावपिहिनतमा अमरम्तः कर्मवैरिबिनाशोऽस्येति चतुरन्तः, शुद्धयश्चामाँ, णामिवानेकसाधूनामधिपतिस्तथा तत्परिवारितः सकलकपथ्यावयश्चक्रवर्तिनमपि योधयेदित्येवंविधपुलाकलण्या- लोपेतस्पेन प्रति पूर्णश्च भवति । इति सूत्रार्थः । यच महत्प एवास्य भवन्ति, सम्ति धास्थापि चतुर्दश मपरं चरजोपमामि सकलातिशय निधानानि पूर्वाणीति कथं न चक्रवर्तितुल्यताऽस्थति सूत्रार्थः। महा से सामाइयायं, कोट्ठागारे सुरक्खिए । अन्यथ नाणाधनपडिप्पुम्से, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २६ ॥ जहा से सहस्सक्खे, वनपाणी पुरंदरे । पथा स ( सामाइयाणं ति)समाज समूहस्तं समवयन्ति सके देवाहिवई, एवं हवइ बहस्सुए ।। २३ ॥ सामाजिका।समूहवृत्तयो लोकास्तेषाम् , पठन्ति प-(सा. मायंगाणं ति)तच श्यामा अतसी तबादीनि च ताम्प. यथा स सहन्नमवारपस्यति सहनाका सहस्रलोचन, प्रानि खोपभोगातया श्यामाऽऽयानि धाम्यामि तेषाम्मत्रच संप्रदाया-" सहरसक्य ति पंच मंतिसया (कोटागारे ति)कोष्ठा धाम्यपल्ल्यास्तेषामगारंवाधार. पाणं तस्स , तेलि सहस्सं अच्छीणं, तेसिं मीईप बिक भूतं पृहम् , उपलक्षणस्वादन्यदपि प्रभूतधाम्यस्थान, या प्र. मति, महपा-जं सहस्सेणं अच्छीणं दीसति में कोई बीपनकादिभयाशाग्यकोठाः क्रियते तत् कोष्ठागारमुच्या अच्छीहि भम्भहियतरागं पेव्हा ति" वजं धजाभिधानमा ते, यदि पा-कोष्ठान या समन्तात् कुर्वते तस्मिमिति की. युधं पाणावस्येति घजपाणिलोकोक्या च पूरणात् पुर ठाकार, "अकर्तरिच कारके संज्ञायाम्"॥३ १ ॥ पराकारगिस्याह-शको वेवाधिपतिदेवानांस्वामी, पयं भ. (गणि.)इति घम् । तथा सुप्तु प्राहरिकपुरूपाऽऽविण्यापारण. बति बहुधुतः, सोऽपि हि भुतज्ञानेनाशेषातिशयरत्ननिधा. द्वारेण रक्षितः पालितो दस्युमूषकाऽऽदिभ्यः सुरक्षितः, स. मतुल्येन लोचनसहकोणेव जानीते, यचं तस्यैवंविधत्वोप- चकदाचित्प्रतिनियतधान्य विषयो प्रतिपूर्णश्व स्यादत माहलक्षणं.बजामपि लक्षण पाणी संभवतीति घजपाणिः, पूश्च श. नाना अनेकप्रकाराणि धान्यानि शालिमुद्रादीनि तैः प्रति. रीरमप्युच्यते, तद्विकृष्टतपोऽनुष्ठानतो दारयतीव दारयती- पूणे भूतो नानाधान्यप्रतिपूर्णः, पाद्यपक्षे तु विशेषणे नति पुरन्दरः, शक्रवत् देवैरपि धम्मेऽत्यन्त निश्चलतया पुंसकलिङ्गतया नेये, एवं भवति बहुश्रुतः, असायपि सापूज्यत इति तस्पतिरप्युच्यते । तथा चाह- देवा वि माजिकलोकानामिव गच्छवासिनामुपयोगिभिर्नानाधान्यैसं नमसंति, जस्स धम्म सया मग्यो।" इति सूत्रार्थः । रिवाजोपालप्रकीर्णकाऽऽविभेदैः श्रुतज्ञानविशेषैः प्रतिपूर्ण ए. अपि च व भवति, सुरक्षितश्च प्रवचनाऽऽधारतया, यत उक्तम्-"जे. जहा से तिमिरविदंसे, उसिट्ठति दिवायरे। कुखं प्राय , तं पुरिसं पायरेण रक्नेह।" इत्यादि । नसंते इव तेएणं, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २४ ॥ इति सूत्रार्थः। भवियथा सः तिमिरम् अन्धकारं विध्वंसपत्यपनयति तिमिरविध्वंसः , उत्तिष्ठन्नुगच्छन् दिवाकरः सूर्यः , स हि ऊ। महा सा दुपाहा पवरा, जंबू नाम सुदंसणा। बनभोभागमाकामप्रतितेजस्वितां भजते, अपतरंस्तु न भाणाढियस्स देवस्स, पूर्व वह बहुस्सुए।॥ २७॥ Page #1333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बदुरसुयपूया यथासामध्ये प्रवरा प्रधाना जम्बूर्नाम्ना अ भिधानेन सुदर्शना नाम सुदर्शना न हि यथायममृतोपमफला देवाऽऽद्याश्रयश्च तथा श्रन्यः कश्चिद् दुमोऽस्ति मत्वं ( १३१० ) अभिधानराजेन्रूः । फलव्यहारश्चास्यास्तत्प्रतिरूपतयैव, वस्तुतः पार्थिवत्वेनोक्ल स्वात् वज्रवैदूर्याऽऽदिमयानि हि तन्मूलाऽऽदीनि तत्र तत्रो लानि, सा च कस्येत्याह--अनादृतस्यानाहतनाम्नो देवस्य जम्बूद्वीपाधिपतेर्यन्तर सुरस्य श्राश्रयत्वेन संबन्धिनी, एवं भवति बहुश्रुतः सोऽपि मृतोपमफल कल्पश्रुति देवा ऽऽदीनामपि च यानी शेषोपमा च प्रधानः । इति सूत्रार्थः । श्रन्यच्च जहा सा नई पपरा, सलिला सागरंगमा । 9 सीया नीलवंत पहवा, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २८ ॥ यथा सा नदीनां सरितां प्रवरा प्रधाना सलिलं जलमस्यामस्तीति, अर्श श्रादेराकृतिगणत्वादचि, सलिला नदी, सागरं समुद्र गच्छतीति सागरङ्गमा समुद्रपातिनीत्यर्थः न तु क्षुद्रनदीपदान्तराल एव विशीर्यते, शीता शीतानामी नीयतरस्यां दिशि वर्षचरपर्वतस्ततः प्रभव ति पाठान्तरतः प्रवहति वा नीलवत्प्रभवा नीलवत्प्रववा एवं शीतानदीचद्भवति बहुश्रुतः असावपि सरितमिवाम्यसाधूनामशेषज्ञानिनां वा मध्ये प्रधा मोविमलजल कल्पनावि तथा सागरमित्र मु किमेवासी गच्छति, तदुचितानुष्ठान एवास्य प्रवृत्तत्वातू न ह्यन्यदर्शनिनामिव देवाऽऽदिभव एवास्य विवेकिनो वाञ्छा, तथा च कथमस्य तेषामित्र प्रायोपान्तरालावस्थानाम्नीला महाकुलादेवाय प्रसूतिः, कथमिवान्यथैवंविधयोग्यतासंभवः । इति सूत्रार्थः । किं च जहा से नगाय परे सुमहं मंदरे गिरी । नाणोसहिपलिए, एवं हवइ बहुस्सुए || २६ ॥ यथा स नगानां पर्वतानां मध्ये प्रवरोऽतिप्रधानः सुमहानतिशय गुरुरत्युच्य इति यावत् मन्दरो मन्दराऽमिचानः, कः पुनरसौ ?, इत्याह- गिरिः किमु भवति ? - मेरुपर्वतः मामीपथिभिः अनेकविधविशिमालयवनस्पतिविशेषरू 3 " . " पामिति 9 तिशायिन्यः प्रज्वलस्य एासते इति उद्योगाद सावपि प्र ज्वखित इत्युक्या प्रज्वलिता नानीयोऽस्मिनिति प्रा बिनानी प्रतिदस्य तु परनिपा मिति मन्दर बद्भवति बहुश्रुतः, श्रुतमाहात्म्येन हा सावत्यन्तस्थिर इति शेषगिरिकस्या पर स्थिरसाध्यपेक्षया प्रचर ए भवति तथाऽन्धकारेऽपि प्रकाशन शकरपविता श्रामच बध्यादयः तत्रातिप्रतीता एव । इति सूत्रार्थः ॥ किं बहुना ?जहा से सयंभूरमणे, उदही अक्खदए । खारपणपडिपुत्रे एवं वस्तुएं ॥ ३० ॥ यथा स स्वयम्भूरमणः स्वयम्भूमा भाउ बदुमुड बहुतोऽयमपि यज्ञवखम्यग्ज्ञानोदको नानातिन वांश्च भवति, यदि वा श्रक्षत उदयः- प्रादुर्भावो यस्य सोडचतोदयः । इति सूत्रार्थः । साम्यगुणानुवादः फलादर्शन तस्व गंभीरसमा दुगसथा, चकिया के दुष्पहंसया । सुयस्स पुष्पा त्रिउलस्स ताइयो, खवित्त कम्मं गड़मुत्तमं गया ।। ३१ ।। (समुद्रसमं तिर्थस्वाप्या35त्मकेन गुणेन समा गाम्भीर्यसमाः समुद्रस्य गाम्भीर्यसमाः समुद्रगाम्भसमाः (दुरासदुःखेनाश्रीयन्तेऽनि भययुद्ध्या आसायम्पासम्म केनापीनि दुराशया दुरासदा वा श्रत एव (अचक्किय त्ति) अकिता श्र शालिताः केचिदिति परीषादिना परवाना दुःखेन प्रधन्ते पराभिभूयन्ते केनापीति दुष्प्रधर्षाः त एव दुघर्षका के वाइबा (सुयस्स पुराना पिउन स्सप्ति) सुब्यत्ययात् श्रुतेनाऽऽगमेन पूर्णाः- परिपूर्णा वि. पुलेन अङ्गानाऽऽदितानि वा एवंविधाश्च बहुश्रुता एव तानेव फलतो विशेषपितुमाहाविनाश्यक ज्ञानार इति गतिस्तामुत्तर्मा प्रधान, सुद्धिमिति वापत् गता प्राप्ता उपलक्षणत्वाद्गच्छन्ति गमिष्यन्ति च । चैकव चनप्रक्रमेऽपि बहुवचननिर्देशः पूज्यताख्यापनार्थ व्याप्तिप्रदर्शनार्थे । इति सूत्रार्थः । माहात्म्यमाह नात्मिकां पूजामभिधाय शिष्योपदेशमाह - तम्हा सुयमहिञ्जा, उत्तमट्ठगवेसए । जेउप्पा परं चैव सिद्धि संपाठति ॥१२॥ त्ति वेमि ॥ 9 मादमी मुक्तिगमनावसाना बहुश्रुतगुणास्तस्माच्छ्रुतम् श्रा गममधिनिश्वयन अवचिताऽऽदिनाऽऽयंत उत्तमः प्रधानोऽर्थः जनमुत्तमार्थः स च मोक्ष पतंग पति उसमावेषको न न समानं स्वं परं वान्यं तपख्यादिकम् एपचार ये भित्रमा सम्प्रापयेदित्यस्यानन्तरं ततः सिद्धिं मुक्तिगतिम् ( संपाउणिजसि त्ति ) सम्यक् प्रा. पयेदेव ने सन्देदः इति सूत्रार्थः । इति परिस माती, ब्रवीमीति पूर्ववत् । उक्कोऽनुगमः । सम्प्रति नयास्तेऽ. पि पूर्ववदेव । उत्त० ११ अ० । बहुस्यया- बहुश्रुतता - स्त्री० | युगप्रधानाऽगमतायाम्, उत्त० १ श्र० । श्रुतसम्पद्भेदरूयैषा । स्था० ८ ठा० । बहुहा बहुधा स्त्री० । अनेक वाशब्दार्थे, आवा० १ ० ५ ० १ उ० । पश्चा० । पश्मिन्सतानामानाकारी बहू बघू.श्री० कताऽऽदिभिः प्रति पूर्णो भृतो नानारत्वप्रति पूर्णः, एवं भवति । बहुमुह-- वधूमुख न० " [को०] । । बहुमुह ' शब्दार्थे, प्रा० १ पादः । 4 Page #1334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१३११) बहेडअ अभिघानराजेन्दः । बहेडम-विमीतक-पुं० । वृत्तविशेषे, "मक्खा बहेडमी ।" | शनैशनैस्तदर्पण एव यतते, अन्यथा विश्वासहाम्या पाइ0 ना. २४१ गाथा । यवहारमनप्रसङ्गः। ध०२ अधि० । अन्यत्रापि व्यवहारे बहेडय-विभीतक-पुं०। “पधि-पृथिवी-प्रतिवन्मूषिक-हरि. निजस्वस्थाऽवलने धमार्थमिदमिति चिस्य, धर्माधिनात साधभिरेव सह मुख्यवृत्या व्यवहारो म्याथ्यस्तस्पाय द्वा-विभीतकेचत्" ॥८१॥८॥ इतोऽत् । प्रा० १ पाद । स्थितस्य निजस्वस्य धर्मोपयोगिस्वसंभवात् , तथा-पर. "पत्पीयूषाऽऽपीड-विभीतक-कीरशेरशे" ॥८।१।१०५ ॥ मत्सरमपि न कुर्यात्, कर्माऽऽयसादिभूतयः, कि मुधा मला इतीत पत् । प्रा०१पाद । स्वनामख्याते वृक्षभेदे, "श्रा. मलकानि हरीतक्यो बिभीतकानि च त्रिफखाशम्देन व्यवहि रेण भवद्वयेऽपि दुःखकरेण. तथा-धाभ्योषधवनाऽदिवा यन्ते भिषग्भिः । वाचा स्तुविक्रयावपि दुर्भिक्षव्याधिद्धिवनाऽऽदिवस्तक्षथाs. दि जगदुःखकृत्सर्वथा नाभिलषेत्. नापि दैवात्तवातमनुमो. बाउली-पतली स्त्रीपुत्तलिकायाम् , पारना० ११७ गाथा। देत, मुधा मनोमालिन्यायापत्तेः। तदाहु:बाह-बाट-न। एकधान्यनिष्पन्ने लोकप्रसिद्ध साधभेदे, ध. "उचिअं मुसूण कलं, दव्बाइकमागयं च उकरिसं। २अधि०। निवडियमपि जाणतो, परस्स संतं न गिणिहजा॥१॥" बाह-बाढ-त्रि० । घनीभूते, " गाढं बाढ़ बलियं . धणियं दद उचितं कलाशतं प्रति चतुष्पचकवृद्धधादिरूपा " व्याजे अइसरण अश्वत्थं।" पाइ० ना०६० गाथा। स्याद् द्विगुणं वित्तम्" इत्युक्तदिगुगद्रव्ये त्रिगुणधान्या विरूपा वा तां, तथा-द्रव्यं गणिमधरिमाऽऽदि, आदिशब्दात. बाण-देशी। सुभग-पनसयोः, देना०६ वर्ग १७ गाथा। सद्गतानेकभेदग्रहः, तेषां द्रव्याऽऽदीनां क्रमेण द्रव्यक्षयलक्षबाणिज-बाणिज्य-न०। वणिरजनोचिते, तं० । क्रयविक्रयः | णेनाऽगतः संपन्नो य उत्कर्षोंऽर्थवृद्धिरूपस्तं मुक्त्वा शेषं न स्वरूपे, ( प्रय० ६ द्वार । ध० ) व्यापार, ध० । बणिजां गृणहीयात्, कोऽर्थः?. यदि कथञ्चित्पूगफलाऽऽविद्रव्याण क्ष. बाणिज्यमेव मुख्यवृत्त्याऽर्थार्जनोपायः श्रेयान् । पठ्यतेऽपि याद् विगुणाऽऽदिलाभः स्यात्तदा तमदुष्टाऽऽशयतया गृण्हाति "महमहणस्स य वच्छे, न चेव कमलायरे सिरी वसई। न स्वेतचिन्तयेत्सुन्दरं जातं.यत्पूगफलाऽऽदीनां क्षयोऽभूदि. किंतु पुरिसाण षषसा-यसायरे तीरसुहडाणं ॥१॥" | ति। तथा निपतितमपि परसत्कं जानन गृहीयात् , कलाऽन्तवाणिज्यमपि स्वसहायनीबीबलस्वभाग्योदयकालाऽद्यनुरूपमेव | राऽऽदो क्रयविक्रयाऽऽदी च देशकालाऽऽद्यपेक्षया य उचितः कुर्याद् अन्यथा सहसा त्रुट्याद्यापत्तेः। वाणिज्ये व्यवहारशु । शिष्टजनानिन्दितो लाभः स एव प्राधः। ध०२ अधिक। द्धिश्च द्रव्य क्षेत्रकामभावभेदाचतुर्दो-तत्र द्रव्यता दञ्चदश- (परवञ्चने का हानिरिति । परपंचण 'शोऽस्मिन्नेच कम्र्माऽऽदानाऽऽदि बारम्भाऽऽविनिदानं भाएई सर्वाss. भागे ५४५ पृष्ठे दर्शितम्) स्मना त्याज्यं, स्वल्पाऽऽरम्भ एव वाणिज्ये यतनीयम्, दुर्भिः वाणियकम्पंत-बाणिजकान्त-न०। यत्र वाणिज्याथै वहयो क्षाऽऽदावनिर्वाहे तु यदि बहारम्भ खरकर्माऽऽप्याचर. मिलन्ति लोकास्ताहशे स्थाने, दशा०१०अ०। ति, तदाऽनिच्छुः स्वं निन्दन् सशूकतयैव करोति । बाणियग-बाणिजक-पुं० । पणिजि, प्रश्न. २ मानवार । यदुक्तं भावभावकलक्षणे प्राचा० । वृ• "पिडुडे ववहरंतस्सवाणियो देशध्यरं।" "बजातिवाऽऽरंभ, कुणइ अकामो अनिव्वहंतो। उत्त० २१ अ कल्प० । प्रा०म० । धुणा निरारंभजणं, दयालुश्रो सम्बजीयेसुं ॥ १: वाणियग्गाम-वाणिजग्राम-पुं० । दूतीपलाशकचैत्योपशोभिते धमा य महामुखिणो, मणसा वि करंति जेन परपीडं। मगधदेशीये नगरे, भ०११ श० ३ । निश्चया द्वादशवप्रारंभपापविरया, भुंजप्ति तिकोडिपरिसुद्धं ॥२॥" र्षारात्रान् ( कल्प० १ अधि० ६ क्षण । प्रा०चू०) यत्रोअष्टमपरीक्षितं च परायं न स्वीकार्य, समुदितं शङ्कास्पद ज्झिनकपुत्र आसीत् (स्था० १० ठा० । प्रा० म० विपा०) च समुदितैरेव माद्यं, न स्वेकाकिना, विषमपाते तथैव स. प्रानन्दनामा थमणोपासकश्वासीत् । उपा० १० हायकाऽऽविभावात् । क्षेत्रतः स्वचक्रपरचक्रमान्धव्यसनाss प्रा.चू० युपद्रवरहिते धर्मसामग्रीसहिते च क्षेत्र व्यवहार्य, म त्वम्यत्र वाणियधम्म-बणिगधर्म-पुं० । वणिन्याये, वृ.। ('अबहलाभेऽपि कालतोऽष्टाहिकात्रयपर्वतिथ्यादी ब्यापारस्त्या. | हजाय' शब्दे प्रथमभागे २४१ पृष्ठे एको बणिग्न्याय उदाहता) श्या, तथा वषोऽदिकालविरुद्धोऽपि व्यापारस्त्याज्यः, भावाणी-बाणी-स्त्री० । बचने, दश० ७०। वतस्वनेकधा क्षत्रियाऽऽदिभिः सायुधैः सह व्यवहारः स्व.। बादर-बादर-वि० । अतिवहलतरे, जी०३ प्रति०४ अधिः । रूपोऽपि प्रायोन गुणाय, उद्धार के च नटविटाऽऽदिविरोध. भ० । नि०० बादरनामकर्मोदयाच्चक्ष यतां गते पृथि. कारिभिः सहन व्यवहार्य,कलाऽन्तरव्यवहारोऽपि समधिकप्र. हणकाऽऽदानाऽऽदिनैवोचितोन्यथा तन्मार्गणादिहेतुलेश. बीकायाऽऽदी, प्रज्ञा० १ पद । प्रश्न । पा०। स्थूरे, था। विरोधधर्महान्याधनेकानर्थप्रसमात्, अनिर्वस्तु यदि उद्धा. येषां बादरः परिणामः । स्था०२ ठा०३ उ०। रके व्यवहरति,तवासस्थवादिभिरेव सह कलान्तरमपि देश अधोलोकाऽऽदिषु बादराः । बादरजीयकायान् प्ररूपयन् कालावधपेक्षयकतिकत्रिकचतुष्कपश्चकवृक्षादिरूपं विशि सूत्रनयमाह-जनानिन्दितमेव प्रायं, स्वयं या वृद्ध्या धने गृहीते वदायः . भहेलोगे थे पंच बादरा पसत्ता । तं जहा-पुढधिकाइया, महलागण करस्यायप्रागेन देयं, जातु धनहान्याधिना तथा शोभे भाउकाइया, बाउकाइया, वयस्सइकाइया, उसला तसा Page #1335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३१२) बादर निधानराजेन्द्रः। बारसंगी पाणा । उडालोगे पंच बादरा एए चेव तिरियलोगे पावरनिगोदजीवानामौदारिकतैजसकार्मणेषु शरीरमामकपंच पायरा पमत्ता । तं जहा-एगिदिया जाव पंचिंदिया। मसु प्रत्येकं ये जीकानम्तगुणाः पुद्गला. विसापरिक्षा"भो" स्यादि सुगमम्, नबरमधऊर्वलोकयोस्तैजसा पा. मेनोपचयमायाम्ति । तेषु.पं.सं.५ द्वार।क । दरानसम्तीति पीते उका, अन्यथा षट स्यरिति.पो.पादनादि-बादरबोन्दि-पुं० । बादरा बोदिः शरीरं ये लोकप्रापयेबावरासातपतया विचितार ते पादरबोन्दवः। बादरनामकर्मोदयवर्तिपुजीफेष०१ चोर्सकपाटबये ते उपयुकामस्वेनोत्पत्तिमानास्थितत्वादिति। ३०३ प्रका (उराला तस ति) प्रसत्वं तेजोवायुम्वपि प्रसिद्धमस्ततद बादरबोंदिधर-बादरपोन्दिधर-०। पर्याप्तत्वेन स्थूलाऽऽकार व्यवच्छेदेन द्वीन्द्रियाऽऽदिप्रतिपस्यर्थमोरालग्रहणम्,अोरालाः धरे,यादराऽऽकारधारिणि, भ०१८२०४३०ासू०प्र० स्थान स्थूला एकान्द्रयापत्तयति,एकमिन्द्रिय करण स्पशेनल क्षणमे बादरमंपराय-बादरसम्पराय-पुं०। बादरा प्रकिट्टीकृताः केन्द्रियजातिनामकोश्यासदावरणक्षयोपशमाच्च येषां ते सम्परायाः सज्वलनक्रोधाऽऽदयो यस्मिन् सः । स्था० ८ एकेन्द्रियाः पृथिव्याऽऽदयः एवंद्वीन्द्रियादयोऽपि, नवरमि ठा०। समयेयानि लोभखण्डान्युपशमयति । मा०मा १ न्द्रियविशेषो जातिविशेषश्च वाच्य इति केन्द्रिया इत्युक्तमि प्र० । अनिवृत्तिबायराऽऽक्षयनवमगुणस्थानयर्तिजीधे, स. ति । स्था०५ ठा०३ उ.। (बादराः पृथ्व्यप्तेजोवायुवन १४ सम। उत्त०। स्पतिकायाः पृथिव्यादिशब्देषु ) असारे, शा०१धु०१० बायरअपज्जस-बादराऽपयात पुं०। 'बादरअपजत्त" शप्पा. एयस्स णं भंते ! पुढवीकाइयस्स पाउकाइयस्स तेउ थे , स०१३ समः। काइयस्स बाउकाइयस्स वणम्सइकाइयस्स कयरे काए बायरणाम-बादरनामन्-न० । 'बादरणाम 'शमा, कर्म सुब्वचादरे, कयरे काए सव्ववादरतराए । गोयमा! । वणस्सइकाइप सम्यवादरे, वणस्सइकाइए सन्च- बायरणिगोयदब्यवग्गणा-वारदनिगोदद्रव्यवर्गणा-स्त्री० । बादरतराए १। एयस्स सं भंते ! पुढवीकाइयस्स | 'बादरणिगोयदब्यवग्गणा' शब्दार्थे, पं०सं०५ द्वार । माऊकाइयस्स तेककाइयस्स बाउकाइयस्स कयरे वायरबोंदि-बादरबोन्दि-पुं० । यादरबोधि' शम्बार्थे, वृ० १ सचचादरे, कयरे काए सम्यवादरतराए ? | गोयमा! उ०३ प्रक०। पुतवीकाइए सव्ववादरे, पुढवीकाइए सम्बबादरतगए । बायरबोदिधर-बादरवोन्दिधर-पुं०। बादरबोदिधर 'शमा पयस्स णं भंते ! भाअकाइयरस तेऊकाइयस्स बाउका थे, भ०१८श.४। इयस्स कयो काए सम्ववादरे, कयरे कार सववादरत. पायरसंपगय-बादरसम्पराय-पुं० । 'बावरसंपराय 'शमा स्था राए । गोयमा! भाउकाइए सम्बबादरे, भाउकाइए स बायालीस-द्वाचत्वारिंशत-सी । अधिकायां चत्वारिंशत्स. ज्ववादरतराए एयरस यं भंते ! तेऊकाइयस्स पारफाइ. ख्यायाम् , कल्प०१ अधि०१क्षण। यस्स कपरे काए सम्यवादरे, कयरे काए सम्ववादरतराए। बार-द्वार-न। "सर्वत्र लवरामय (चन्द्रे" ॥ ८॥२७॥ इति गोयमा! तेऊकाए सम्वचादरे, तेऊकाए समयबादरतराए। चित्पर्यायेण (अर्चमधश्च ) वारं। दारं । गृहमुखे, प्रा. २ भ. १६ श०३ उ०। पाद। मादरमपजत्त--बादराऽपर्याप्त--पुं० । वावरत्वषति अपर्या-चारतग-पास्त्रक-पुं । वारत्रकपुरराजस्याभयसेनस्यामारपे, प्तावस्थाऽऽपने जीवे, स. १३ समः। । ०१०१ प्रक। माधुनिघू । पि०। (वारत्र. बादरणाम-बादरनामन्--न० । नामकर्मभेदे, यतुझ्याजीया कामास्यस्य प्रवज्यामहणम् 'छट्टिय' शमे वतीयभाग पादरा भवन्ति,वादस्वं च परिणामविशेषः । कर्म ।म ब. । १३४६ पृष्ठे उक्तम् ) सुखत्यामधं वावरस्याप्ये कैकस्य पृथिव्याविशरीरस्य चतु. वारत्तगपुर-बारकपुर-म । पारत्रकामात्याधिष्ठिते, नगरे प्रत्याभावात्तस्माजीवविपाकित्वेन जीवस्यैव कश्चिद्वादरप. पाव.४०। पाम जनयस्येतन पुजलेषु, किंतु जीवविषाक्यप्येतत् शरी बारवई-द्वारावती-स्त्री०1 सौराष्ट्रदेशराजधान्याम, पत्र - रलेष्वपि काश्चिदप्यभिव्यक्ति दर्शयति। तेन वावराणां व. पणो बासुदेव मासीदरिष्टनेमिश्च । नि०११०३वर्ग १म। तरसमुदितपूधिम्यादीनां चक्षुषा प्रहणं भवति,न सक्माणा. । जीवविपाकिकर्मणः शरीरे स्वशक्तिप्रकटनमयुक्तमिति मा०म. सूत्र.। प्रव०। मा०क। अन्त । मा०५०। चेत । ने.जीवविषाक्यपि क्रोधो धूभङ्गत्रिवलीतरहितालि ('णिसद' शब्द चतुर्थभागे २१३६ पृष्ट वर्णक उक्त) कफर.कक्षरत् स्वेदजलकणनेत्राचाताघ्रत्वपरुषवनबारस-द्वादशन-त्रि०ाधिकेषु दशसु, प्रोत्सा प्रभृतिविकारं कुपितरशरीरऽपि दर्शयति. विचित्रत्वाकर्मःद्वादश-त्रि० । द्वादशसळ्यापूरके , प्रा० । शक्तेरिति । कर्म. १ कर्म पं० सं०। प्रव.। बारसंगी-द्वादशाकी-स्त्री० । द्वादशानामङ्गानां समुदाय रूप वादरणिगोयदन्वयग्गणा-वादरनिगोदद्न्यवर्गणा-खी ।। प्रवचने, विशे० नैषा द्वादशानी कदाचिन्नासीत्, न कदाचिः Page #1336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल (१३१३) बारसंगी अभिधानराजेन्द्रः। न भवति, न कदाचिन भविष्यति, भूता भवति भविष्यति पुण ते वारिता करेति तं केरिसं ?। गाहाच ध्रुवा नित्या शाश्वती। दशा. १०। छिदंतमछिंदता, तिमि वि हरिताऽऽदि वारिता । पारससमजिय-द्वादशसमर्जित-पुं०। एकत्र समय ये समुत्प उकोसा जति छिदति,तणाणि पुण ठाति तोदिहा।।२३०॥ धन्ते तेषां यो राशिः स द्वादशप्रमाणः स्यात् तेषु । उत्पती प्रादिसद्दातो पुढवादिसु भालिंपणसिंचनावणवीयणसंध. द्वादशवृन्दपिण्डितेषु, भ० २० श०१० उ०। हणाऽऽदि दट्ठव्या । उक्कोसो अति तेसु छेदणाऽऽदिसु पयट्टति पारसावत्त-द्वादशावत-नाद्वादशाऽऽवती सूत्राभिधानगर्भाः तो गरुणा अमेण वा दिट्ठमेत्तीचेव प्रवारिओ ठायति।मज्झिकायच्यापारविशेषाः यति जनप्रसिद्धा यस्मिस्तद् द्वादशाऽऽय. | मो पुण यदा वारितो तदा ठायति । जहालवालो जदा हत्थे तम् । स०१२समाद्वादशभिः कायव्यापारैर्युक्त कृतिकर्मणि, घेत्तुं धरितो तदा ठायति , तहा वि वामहत्थेणं छिदति, पा. प्रव. २द्वार । प्रावध०।। देण वा। बारसाह-द्वादशाऽऽख्य-पुंसद्वादशानामां समाहारे, शा०१ इयाणि ते केरिसं बाले मेरं करेंति, तिविहं बालल क्खणं च भमतिश्रु०१०। मंडलगम्मि वि चरितो, एवं वा चिट्ठ चिट्ठति तहेव । वारसाहदिवस-द्वादशा(ख्य)हदिवस-पुं० । द्वादशानां पूरणो मज्झिमओ मा छिंदसु,ठाइति ठाणं ण हिं चिट्टे ॥२३१॥ द्वादशः स एवाऽऽख्यो यस्य स द्वादशाऽस्यः। स चासो दिवसति विग्रहः। अथवा-द्वादशं च तदहश्चेति द्वाद मंडलं मा लिहत्ति मेरं अलंघित्ता एत्थ चिट्ठह त्ति भणितो शाहः । तन्नामको दिवसो द्वादशाहदिवसः । स्था० । ठिया निसन्ना निचिन्ना बा। हरिताऽऽदि वा अछिदंता उ. ठा० । द्वादशाऽऽख्यो दिवसो द्वादशाऽऽख्यदिवसः। अथवा. कोसो जहेव भणितो तहेव ठितो। मज्झिमो वि हरिताss. दि छिदं तो जदा पारितो तदा चिति । मंडले वि निरुतो द्वादशानामहां समाहारः द्वादशाहस्तस्य दिवसो, येन द्वादशाहः पूर्यते । जन्मदिनाद् द्वादशे ऽहि "बारसाहदिवसे अय. मेरं लंधित्तु पासे ण चिट्ठति, इमो जहमो । मेवारूवं गोणं गुणनिप्फ नामधिज करैति ।" स्था०६ गाहा दाहिणकरम्मि गहितो, वापकरणं स छिंदति तणाणि । ठा० भ०। बारसी-द्वादशी-स्त्री०। पक्षस्य द्वादशेऽहोरात्रे, विशे०ज्योत न य ठाति तहिं ठाणे,अह हमति विस्सर रुयति॥२३॥ द०१०। पुराणेषु द्वादशीशब्देनकादशी उच्यते । स्था०पठा। हरिताऽऽदिसु पुन्वद्धं गतार्थ । जहन्नबालो मंडलेणं निरुद्ध. बारह-द्वादशन-त्रि०।"क-ग-च-ज-त-द-प-य-०" ण तम्मि मंडलठाणे ण चिट्ठति, पापण या मंडलं भजेति । .., अह बालो रुज्झति मंडले तो चडफडतो विस्सरं रोयति ॥ १७७॥इत्यादिना दलुक । प्रा०१पाद । "संख्यागद्दे रः", अब ॥८।१।२१६॥ इति दस्य राबधिकेषु दशसु, प्रा०१पाद ।। एसवस्था इमाए गाहाए भमति जह भणितो तह तु द्विय,पढमो वितिएण फेडियं ठाणं । बाल-बाल-पुं० । अभिनव प्रत्यग्रे, सूत्र० १ श्रु० ५ अ० १ ततियोण ठाति ठाणे,एस विही होति तिएडं पि॥२३३॥ १०। अचिरकालजाते, रा० । जन्मत श्रारभ्याटी वाणि कंठा । एस तिराह वि बालाणं सरूवे वि परुवणाविही व. यावद् शिशी, ध०३ अधि० ग० । प्रव०। पि. नि०चू । खाश्राइम तिविहं बालं जो पब्वायेति तस्सं सिखातस्स विशे। पंचू । “श्रा षोडशात् भवेद् बालो, यावत्क्षीर न. असिक्खाविंतस वा इमं पच्छित्तं । वर्तकः।"श्राचा०१श्रु० २०१ उ० / सूत्र। गाहाबालप्रवज्या । बाल त्ति दारस्स इमा धक्खाणगादा अउणतीसा वीसा, एगुणवीसा यतिविह बालम्मि । निविहो य होति बालो, उक्कोसो मज्झिमो जहामो य । पढमे तवो वितिऍ मीसो,ततिए तव एव मूलं च॥२३४॥ एतेसि पत्तेयं, तिएहं पि पावणं वोच्छं ।। २२७॥ उकोसवाले अउणनीसा, मज्झिमे घीसा, जवस एगणवीतिविहबालस्त पत्तेयं इमं वक्खाणं सा । पढमे त्ति उक्कोसे जदा सधे तवाणगता तया तेसु सत्तऽगमुक्कोसो, छ पण मज्झो तु जा चतु जहाले । चेव ठाणेसु छेदो पयट्टेति , वितिए मज्झिमे तबछेदो जुगवं एवं वाणिप्फर्म, भावे उ वयाणुवत्ती वा ॥ २२० । गच्छति, एयं मीसं मलति । ततिए त्ति जहमेण तवा चेव केवलो भवति, पवावेतरस वा मूलं चेव । जम्मणतो सत्तऽवरिसो जो सो उक्कोलो बालो,छपंच चरि. उकोसबालस्स अउणत्तीसं तिजं वुत्तं तस्सिमा चारणविही. सो मज्झिमा, एगाऽऽदि जाव चउबरिसो एस जहमी । एयं या एगुणतीसं दिवसे, सिक्वातस्स मासियं लहुयं । लत्तं वततो निष्पन्नं प्रायसो भाये बताणुवत्ती भवति, वास हो धयो णाणुवत्तति ॥२२८ कई?,जहा बालो सबालभावो। का उकोसगभ्भि वाले,ते चेव असिक्खणे गुरुगा ॥२३५॥ रगनाहा । अहवासहतो रणव भेदो- जहन्नजहन्नो, जहन्नम अमे अउणत्तीसं,गुरुयो सिक्वमसिखे य च उलहगा। ज्झो, जहराणुकोसो। एवं मज्भुकोसेसु वि तिन्नि तिन्नि भेदा पुणरवि अउगातीसं, लहगा सिक्खेतरा गुरुगा ॥२३६॥ वत्तधा इमं तियिह बालकरणं लक्खणं च उक्कोसो गाधा। असे वि अउणतीसं, गुरुगा सिक्खे असिक्ख छल्लहगा। उकोसो दट्टणं, मज्झिमो वा निवारितो संतो। छलहुगा सिक्वम्मी,असिक्ख गुरुगा अउण तीसं।।२३७।। जो पुण जहणवालो, हस्थोवचिनो विण वि ठाति॥२२६॥ पमेव य वेदादी, लहगा गुरुगा य होति मासादी। Page #1337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१४ ) अभिधान राजेन्द्रः । बाल " सिक्खा तपसिले मूलकदुर्ग तोकेकं ||२३८ || पतसि वराणं गाहाणं हमा सवित्थरा बक्खाणभावणाउक्कोसगबालं पवावेत्ता सिक्खावेतस्स एगूणतीस दिवसा मालइ असिवाचेतस्स मालगुरु, अन्नं पडती दि इसे सियायेतर मागुरु, अकिलावतस्स पडल अपनी सिखावेतस्स गुरु बन्ने दिवसे सात बडगुरु असावेत. अने एगूणतीस दिवसे सिखावेतस्स छल्लहू, सात छग्गुरू, अने पगुणीसं दिवसे सिक्खावैतस्स छग्गुरु, असि. क्वावेतस्स मासलहू छेदो, असे एगुणतीस दिवसे सिक्खावे. लस्स मासलाइ देदो, असिफ्लावेतस्स मासगुरु देदी, अ एगुणतीस दिवसे सिक्खावेतस्स मासगुरु छेदो, अलिक्खावैतस्स चउगुरु छेदो । अन्ने एगूणतीस दिवसे सिक्खा तस्स चउलहू छेदो, असिक्खावेंतस्स चउगुरु छेदो, अने ती दिवसे सिखावेंतस्स बउगुरु छेदो, असिक्खातर छह छेदो, अने गूगतीसं दिवसे सिक्खावेतस्स हल्लहू देदोक्त गुरु देदो २ अ सती दिवसे सिक्का हग्गुरु देदी, असिक्ख चैतस्य परिमूलं. पगदिणे मुलं ततो अविस् तो तिस्स पारंबी । अदना से गमो दिखाहि सिक्खेतस्वजितो होति । मासादी तत्र छेदो, पणगादीए दियेकेक || २३६ ॥ तो श्रद्दवा उक्कोसेण बालस्स तबो मासादी चेव छेदो पुरा लहुगुरुगो पणगादी ताव यव्वा जाव छम्मासे सिक्खालि कस्तु मूलादिया रक्क्कदिगं बहु | गाद्दा हवा सेव तवो, छेदो पणगादितो लहू गुरुगा । जान मासेख तथो मूलं दुर्ग चैव ॥ २४० ॥ 3, अथवा उक्कोसं बालं पञ्चावैतस्स प्रती दिवसे मासलढुं तो असे अती दिवसे गुरु तो पी अछतेहिं चडल हुगा चउगुरू बल्लह छुग्गुरू छेदा य नेयव्वा, मूलादी पक्केकं दिणं, एत्थ सिक्खा असिक्खा वा न कायन्त्रा । गाहा किम पी लगो, सिक्ख सिक्खस्स मासियो छेदो। सेबी लहुओ, छेदेतर मासकं चैव ।। २४१ ॥ वीसं सिक्खे, मासं गुरुया व सिक्खे | छेदो वा गुरुच्या सिफ्लम्मी चेव पउलडुगा ||२४२॥ एवं श्रद्धोक्ती, नेयन्त्रा जाव छग्गुरुच्छेदो । लेख परं मूले, दुर्ग एकेक जाय ।। २४३ ।। हवा सिक्खाऽसिक्खे, तबछेदा मासियादि जा लहुगां । एवं जाम्पामा मृदुगं वा तहकिकं ।। २४४ दो लहुया दो गुरुया, तब छेदो जाव होंति गुरुगा । ते परं लेकं, दुगं च एकेकयं जाण ।। २४५ ।। गाणं इमा भाषणामधी दिवसे खिलायेम्स मसल वयो, असिक्खार्धेतरव बाल मासलहू छेदो, अन्न बीसं दिवसे सिक्खावेतस्स मासगुरू यो अतिसमासगुरु देदो भने वीस दिवसे सिकातसमासगुरु मेरो असिक्यावैतस्स डल - ओपी दिवसे सियायेतस्य बल दे असि क्वावैतस्स गुरु तो ॥ एवं ती बद णेयव्वा जाव छग्गुरू छेदो, ततो सिक्खाऽसिक्खासु लालबपारंचिया-मे अनेयीस दिवसे सिक्तात पडल तयो. धरणे बी दिवसे सिखायैतस्स चडलहू तवी असिक्खा वैतस्स चउलहू छेदो, सिक्खावेंतस्ल छल्लहू तवो, अवसे दिवसे सिखायेतस्य सुलहू नयो दिवसे सिवावेतस्स ल दे, अि दिणं मूलं सिफ्यास्स एवं दिवं मूलं अ दिगो, ततो सिद असो अथवा पारंबी तय दिणं पारंची। " जिपी गाहा गुणवीस जसे, सिक्खावेंतम्स मासियो छेदो । सो देव सिक्ख गुरू, अजुकंतीऍ जा चरिमं ॥ २४६॥ पढमे दो दिवा एमेव होइ वितिए, सतिए पुण होइ मूलं तु ॥ २४७ ॥ पाणी दिवसे सिखास मासल देश तस्स मासगुरु से पी दिवसे सिर मागुरु एवं यो अपारं वा - उक्कोसवालं पवावेतस्स छेदो भवति मूलं वा एवं जिद मूलमेव धोका 55- कई छेदो मूलं वा ? । श्राचार्याऽऽह यदि चरणसंभवो ततः छेदो, चरणाभावे मूलं जघन्ये पुरा चरणाभाव एव तेन मूलं । तिविधवा पवार यादया मे दोस्रा उड्डा हाssदी भस्तु चरफलं होत छकाया | राईभ से चारय, अय सँतराए य पडिबंधा ।। २४८ ॥ संवाद अतिसय भतो इ मेसिसमा रनवे बेव भववस्वदसति प्र वासिंका निर किले एवं अवसाय अशिक्ि I रजत जयति ततो ददति एवं सो चालोमा जो जो हिंडत ततो छक्कायवीय भवति स य राम्रो मामासति, जति राम्रो देति तो रातीभोवणं विराधितं श्र ध ण देति तो परियाणा शिष्फलं । भगति य लोगो - इम स्स बालत्तणे चैव बंधणागारो उववनो, इमे य समया चारपालत्तणं करेति, जेण एवं बालं निरंभंति । श्रयसो य अ सिमंति] अपको पासमा ला अंति, अंतरायं भवति, वालपडिबंधेण य ते ण विहरति जे िितयवासे दोखा ते वा भवति । Page #1338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल किंचान्यत् गाहा ऊ सत्थि चरणं, पातो विभस्ते चरणा । मूलायरोहिणी खलु गामती येथे २४६ ऊugaरिसे वाले चरितं न विज्जति, जो वि य पढवावेति सेलियमा चरिता भस्सति । श्रत्र प्रतिषेधद्वारेण दृष्टान्तः जहा लोभीपण जे ति सारि पो किणाति जन्य लाभयं विष्यति तं किति च रिनातो भस्संति ते न पव्वाचेइ, जे ण भस्सति तं पव्वावेति । बालं पवावेतस्स य जम्दा इमं तवोकम्मं भस्लति | तम्हा न पश्वावेति ( १३१५ ) अभिधानराजे - उपायमधायं गाऊन तोकम् । गुणक्खयमे, जिचउदसब्बिसु ॥ २५० ॥ लहू उपार्थ गुरू अहिंदा मेडि तवकम्मं भवति । कहं पुण छवि ? भराणति । गाहा-उपायमग्याचो पासो मास छतयो । एसेव छव्बिो बी, छे सेसाण एकैकं ।। २५१ ।। मासो उद्यानो, श्रणुग्धातो २, एवं चतुमासमासादि धाताग्वातादि एवं तचोक देवि एसो चैव विहो, सेसा मूलादिया एकेका भवंति नमो गुणः, तप एव वा गुणः तपोगुणः, तपोगुणस्य लक्षणं तपोसपनेनेति मानोपलक्षितः मासिक रानः तपः । एवं चतुर्मासाच्यपि एतदेव प पोवाजने भवति न पचादिरित्यर्थः । बितियपदेण बालो पव्वाविजति 'जिएचोइसपु· वीए दिक्खति । ' अस्य व्यागया पव्वाति जिया खलु, चोहसपुत्री य जो य अइसेसी । अन्नवहारी, गच्छगए इस्थियो नाओ ।। २५२ ॥ जिणा बोदलपुत्री श्रुति सेसी वा पढवावेति । शिष्याऽऽहअहं एतेव्ववहारी जहा गच्छुगता पन्यावैति तथा मे अक्खह के वा जिणादीहिं पञ्चाविता ? श्रतो भन्नति । गाड़ा सत्था अमृतो, पण सेवे पन्नाविश्र य चोरो, छम्पासो सीह गिरिणा वि । २५३ | महाकुले यावतरे । मज्जाकारण जाते व पन्ना ॥ २५४ ॥ शास्ताका तिलकुमारोपयादित चोद सव्वविदेष सिजंभवेण श्रत्तणो पुत्तो मणगो पब्बावितो, अविसह णिमित्तं श्रतिसयद्वितेा सीह गिरिणा चोरों पन्यावितो, बालपश्चायणे इमं गच्छ्वासिकार - वसंत वि महाकुले नातीवगे । तेसिंदोह विदाराएं इमं वखाएं। गाहाविपुलकुले प्रत्थि बालो, छातीवर य छेनगादिमते । पादरसा वेति लाई ।। २५५ ।। बाल किंपि विवरिपरि ब तस्थ बालपडिबन्धो, जइ श्रहं एवं बालं पञ्चावेद्द तो ते पाह पुण पब्चग्रह, जति न ठर्वेति णीया वा ण इच्छति तो सह बालेण सब्वे पञ्चाविजंति बहुगुणतरं ति काउं, मात पडिबंधेख सभ्याणि अस्तु । श्रहव कस्सवि साधुस्स सय. एवम् सम्यो असिवादि नवरे बालं जीवति, न य तस्स कोचि घावारवाहओ अस्थि, ताहे सो साधू - यसवादरक्खन देउं तं बालं प्रसन्नं पुत्तं भातियं पञ्चादेता संरक्खति । गाड़ा एवं सन्नितरण वि, अजाप च पडिबंधपडिणीए । क करेमि सचिवो, जदि मे पञ्चावयह बालं ॥ २५६ ॥ सम्मदितियं वापि एवं बेव सारयेति । रोसित स्वयं बाईपा ति । अजा पडिणीपण कामातुरेण वा केण वि बाला परि भुत्ता, तस्स य समावुत्ती, तेरा डिंडिबंधो जातो, गर्भसंभवेत्यर्थः । सा य संजमत्थी न परिचयन्वा जया परस्या तया ariadesi सत्यजिते त्ति कुलगण संघक अनमि वा गच्छादिए कजे सचिवो मंत्री सो भणेज्जा-श्रहं वो तुम्हें इमं कज्जं करोमि, जइ मे इमं बालं अलक्खणं मूल या पदासा खातो ताराऽऽदिवि कोवि परिणामि, जद में हमे अणुराणाता बालपव्वज्जा । याद मादिकारयेदि गच्छवासीणं पव्त्रावियाण य तेसि इमा वडायचही गाहा भन्ते पाणे घोष सारखे वह वारये । कारणभावातो, गायन्त्रा पयत्तेयं ॥ २५७ ॥ सिद्धं महुरं रितुखमं च से भसं देति पापि सेमचुरादिदिजति रातो वि पार्थ उपेति घोष तिम्रभंगा व से फासूपणं कीरति व्यक रमेण च तेपस्सी तानिति पडिलेentssदि goवकहितेसु श्रत्थेसु पुणो सारा कज्जति असमायादिकरणं करतो दरियाई वा दिया वारिज्जति । चरणकरणेसु य णिउज्जति, सज्झायं च माहिति । 0 मिडमधुरभत्तगुणा इमे गाहासिद्धमपुरे आ पुस्सति देहिंदिया व मेहा व । सिङ्गापीडगादीया॥ २५८॥ चोदाssa - कथमायुषः पुष्टिः । श्राचार्याऽऽद्द-यथा देव. कुरकुरा क्षेत्रस्य सम्यगुत्पादयुष द ममा बालस्यग्यित्वात् दीर्घायुषः तथा रामदत्यात् पुरायुषो भवति सान पुद्गलवृद्धेः किं तु युक्तप्रासग्रहणात् क्रमेण भोगेत्यर्थः । देहस्य चाप भवति मेधावी भवति । जस्थय सो बालो णज्जति श्रमुगस्स पुत्तं ति, तत्थ गा मे नगरे देखे रज्जे वा अच्छंति, जाव महछे । जातो, साइ इहापि Page #1339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३१६) अभिधानराजेन्द्रः। बालग्ग .कुले य मंतरपीणगपीठगादी सव्वं से अहाकडं भवति । छा? | गोयमा! रइया बाला ण पंडिया, णो बालप थी विपाली एवं चय । बाले त्ति दारं गयं । नि०चू. ११ दिया। एवं चरिदियाणं । पंचिंदियतिरिक्खपुच्छा । .00 बाल व बालः । प्रश, सूत्र.१७०१० अ०। तदेवमनिभृताऽऽस्मा किंभूतो भवतीत्याह गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजाणिया बाला णो पंडिया, भवि से हासमासज्ज, हंता णंदीति ममति। चालपंडिया वि, मणुस्सा जहा जीवा, वाणमंतरजोइसियभलं बालस्स संगणं, वेरं वति अपणो ॥३॥ वमाणिया जहा परइया ॥ हीमणदिनिमित्तः चेताविप्लवो हासस्तमासाद्य अङ्गीकृत्य (जीवा णमित्यादि) मागुक्तानां संयताऽदीनामिहोनानांच सकामगनुईत्वाऽपि प्राणिनो नन्दीति क्रीडति मन्यते,वदति पण्डिताऽऽदीनां यद्यपि शब्दत एव भेदो, नार्थतस्तथाऽपि सं. च महामोहाऽऽवृतोऽशुभाध्यवमायो यथैते पशवो मृगयार्थ यतत्वाऽऽदिव्यपदेशः क्रियाव्यपेक्षा,पण्डितत्वाऽऽदिव्यपदेश. स्टाः मृगया च सुस्थिनां क्रीडायै भवति, इत्येवं मृपावादा. स्तु बोधविशेषापेक्ष इति । भ०१७ श०२०। ऊरणिका55. दत्ताऽऽवानाऽऽविष्वप्यायोज्यम् , यदि नामैवं ततः किमि दितोमनि, अनु। केशे, प्रश्न० १ श्राश्रद्वार । सूत्र.। स्याह-प्रलमित्यादि, भलं पर्याप्तं बालस्याशस्य यःप्राणा- काश्यपगोत्राम्तर्गतगोत्रविशेषप्रवर्तकों, स्था.७ ठा० । मू. तिपाताऽविरूपः सो विषयकपायाऽदिमयो वा तेनाऽलं, खें, "बाला मूढा मंदा, अयाणया वालिसा जडा मुक्खा।" 'बालस्य हास्याऽऽदिसनेनालं, किमिति चेन्?, उच्यते-(चे पाइ० ना०७१ गाथा । . रमित्यादि) पुरुषादिषधसमुत्थं वैरं तद्वालः सङ्गाऽनुषङ्गी बालश्र-देशी-बणिपुत्रे, देना.६ वर्ग १२ गाथा । . समारममो पर्खयति, तद्यथा-गुणसनेन हास्यानुषतादाग्नि बालक-पुं०। "नादियुज्योरन्येषाम्"।८।४। ३२७ ॥ इति . साणं नानाविधैरुपायउपहसता नवभवानुषति बैरं वीद्ध कस्य गो न पलिकापशाचिके । शिशी, प्रा०४ पाद । . तम्, एबमम्यत्राऽपि विषयसका उदावायोज्यम् । बाल उल्ली-देशी-पश्चालिकायाम्, ३० ना० ६ वर्ग ६२ गाथा । पतषमतः किमित्याह पालकिच-बालकृत्य-०। बालस्येव कृत्यं यस्य स बालकसम्हाऽतिविज्जो परमं ति णच्चा, त्यः । बालबदनालोचितकारिणि, सूत्र०२ ७.६ म०। मायकदंसी ण करेति पावं। पालकीला-बालक्रीडा-स्त्री० । घूताऽऽदिरूपायां, पालिशजपस्मानालसहिनो वैरं बर्द्धते तस्मादतिविद्वान् परमं मो. सपर सर्वसंबररूपं चारित्रं पा सम्यग्ज्ञानं सम्यग्दर्शनं बा, नाऽऽचरितक्रीडायाम, ध००। पतस्परमिति हावा किं करोतीत्याह-(प्रायंक इत्यादि ) सम्प्रति बालक्रीडापरिहाररूपं पश्चमं भेदमभिधिमातको नरकाऽऽदिनुःखं, तद् द्रष्टुं शीलमस्येत्यातकदर्शी, स सुर्गाथापूर्वार्द्धमाहपापं पापानुबग्धि कर्म न करोति, उपलक्षणार्थस्यान्न कारयः बालिमजणकीला वि हु, मूलं मोहस्सऽणत्थदंडाओ। नि नानुमन्यते । आचा०२७० ३ अ. २ उ०। सूत्र०। रा. बालिशजनक्रीडाऽपि बालजनाऽऽचरितक्रीडाऽपि ताss. गद्वेषावयतिनि, सूत्र०१६०५ १०१ उ० गगद्वेषोत्कटे, दिरूपा । उक्तं च-"चउरंग-सारि-पष्ट्रिय -बट्टाईलावयाजुसूत्र.१ ०५.०१ उ०। प्राचा. । रागद्वेषोत्कटचेतसि, द्धाइ। पराहुत्तर-जमगाई,पहेलियाईहिनो रम " इति । सूत्र. १४०३०४ उ०। उत्त.पहिताहितप्राप्तिविवेकर. पासतां सविकारजस्पितानित्यपिशब्दार्थः। हुरलङ्कारे । लि. हिते, सूत्र.१९०५ म०१उ.। हेयोपादेयविकले, उत्त०८ # चिहुं मोहस्यानर्थदण्डत्वात् निष्फलप्रायाऽऽरम्भप्रवृत्तेरि. मासदसविषेकविकले, सूत्र.१ भु०३.१ उ. । हाप्यनर्थजनकत्वेन च जिनदासस्येव । ध०र० २ अधि० २ जी। उत्त०। कषायकलुषितान्तराऽऽत्मनि, सूत्र०१६०१ लक्षः। ध०। म०८ उभाचा. बालिशे, प्रश्न.१ प्राध.द्वार। यथा, बालकुसुपरासि-बालकुसुमराशि-पुंअचिरकालआनानांकु. शिशषः सदसदविवेकवैकल्यायकिश्चनकारिणो भाषिणो षा भवन्ति तथा ये स्वयमज्ञाः सन्तः परानपि मोहयन्ति मुदपत्राणां राशौ, रा. ते बाला उच्यन्ते । सूत्र० १७० १ ० ४ उ० । दर्श० । चालग-बालक-पुं०। शिशी, मूर्ख, कामिनि, तंगबादिमूढे, अष्ट. ३१ अए। सूत्र० । तं० । स० ! उत्त।वि- घालनिष्पन्नबालके सुघरि कागृहके, आचा० २१०१ चू०१ शिएविवेकविकले. "बालः पश्यति लिङ्ग, मध्यमबुद्धिर्विचार ०८ उ०। गवादिचालधिबालनिष्पन्न यालके, ग.२ अधिः। यति सवृत्तम् ।" षो०१ विव०।"तत्र बालो रतो लिने।" बालगउवगृहण-बालकोपगृहन-न०।६२० । बालका मूर्खाः, बालाऽऽविषु मध्ये लिले लिजमाये रतो बालो लिङ्गमात्र प्रा. कामिन इत्यर्थः। तेषामुपगृहनानि प्रच्छन्नरक्षणादीनि ।प. धाम्यापेक्षयाऽसदारम्भश्चात् ।द्वा० १ द्वा० । द्रव्या० । रपुरुषाणां प्रच्छन्नरक्षणेषु, केशकलापानां रचनासु. तं०।। प्रज्ञानाचिरतिरूपविधेकविकले , आतु० । स० । सर्वविरति बालग्ग-बालाग्र-न०। केशानामग्रभागे, अभिः रथरेणुपरिणामाभाषषति, भातुकास्था० प्रा० । अनु० । असंयते, देवकुरुत्तरकुरुमनुष्याणां सम्बन्धि बालाग्रं भवति । तैरष्टभिहरिवर्षरम्यकमनुष्यवालाग्रं, तैरभिहमवतैरण्यएतदेव बालबादिजीवादिषु निरूपयन्नाहा वतमनुष्य वालाग्रं. तैरभिः पूर्वविदेहापरविदेहमनुष्यजीवाणं भंते ! बाला पंडिया बालपंडिया । गोयमा ! बालाग्रं, तैरप्य मिर्भरतरवतमनुष्यबालामम् । इह चैधं जीवा बाला बि पंडिया विपालपंडिया वि । गेरइयाणं पु.। बालासारणां भेदे सत्यपि पालामजानिसामान्य विवच्या Page #1340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालग्ग अभिघानराजेन्मः। . बासपडियमरण बालाप्रमिति सामान्यनैकमेव सूत्रे निर्दिष्टमिति (१४०४ ततो लोगो न जाणइ.कस्स पडिच्छियं ति,ताहे लोगेण जाणगाथा) प्रव. २५४ द्वार । ज्यो। अनु० । स्था। णानिमित्तं भेरी कया. जो देह सो तार ताहे लोगो पवि. बालग्गपोसिया-पालाप्रपोतिका-स्त्री० । देशीशब्दो वाऽयम्।। सह एवं बच्चर कालो, सामी समोसरितो, ताहे साहू सं. आकाशे तडागगतमध्यस्थिते क्रीडास्थाने लघुप्रासादे चं० दिसाता भणिया-मुत्तं अस्थह, अणसणा, तम्मि जिमिप्र० ४ पाहु० । तडागस्योपरि प्रासादे, जी. ३ प्रति० ४ एभणिया-ओयरह, गोयमो भणियो-मम वयणेणं भणिजा. अधि००००। जलमभ्यमन्दिरे, उ.म.ब. सि भो भणेगपिडिया! एगपिंडितो ते दमिच्छ , ताई लभ्याम् , उत्तम। गोयमसामिणा भणितो रुट्ठो, तुम्भे प्रणेगाणि पिंडसयालि बालचंद-बालचन्द्र-पुं० । शुक्लपक्षद्वितीयाचन्द्रे , मा० १ ६० माहारेह, आई एग पिडं भुंजामि, तो महं चेष पगर्पिडियो, १६ अ०। साकेते नगरे चन्द्रावतंसकस्य रामः प्रियदर्श मुहुर्ततरस्स उपसंतो चितेति- एते मुसं बदंति, किर नायां जाते पुत्रे, मा०म०१० । ऐरबते प्रथमवर्तमान होजा, लद्धा सुती. होमि अणेगपिडिनो, जदिवसं मम पार• तीर्थकरे.प्रव०७द्वारा मासकृतविवेकमजा उपदेशक गयं तदिवसं प्रणेगाणि पिंडसताणि करैति, पए पुणभकन्दल्यानोपरि टीकाकारके . अयं च प्रन्थकारः विक्रमसंव. यमकारियं भुजति.तं सर्थ भति, चितंतेण जाई संभरिया, त्-१३२२ वर्षे मासीत् । जैः ।। पत्तेयबुद्धो जातो. अग्झयणं भासद, इंदनागेण अरहया उक्तं बालचंदाणण-बालचन्द्राऽऽनन-पुं०।भरतक्षेत्रजर्षभजिनस सिद्धोया एवं बालतवेण सामाइयं लचं तेण।"भा०म०१० मकालिके ऐरवतजे प्रथमतीर्थकरे, ति०। पालतवस्सि (D)-बालतपस्विन-पुं० । लौकिकतापसे (४६२ गाथा) भा० म०१०। बालचावल-बालचापल-नाएकान्तावानरकस्य स्वरूपा. चालतबोकम्म-बालतपःकर्मन्-नाबालाइव बाला मिथ्या. नपक्षिवचने, मष्ट० १६ अष्टः ।। हशस्तेषां तपःकर्म । मिथ्यादृशं तपःक्रियायाम् , स्था• ४ बालजण-बालजन--पुं०। मूर्खकोके, तं० । सूत्र० । निर्वि ठा०४ उ०। बेकतयाऽसदनुष्ठानप्रवृत्ते, सूत्र० १ ७.२ ० ३ उ० । चालदिवायर-बालदिवाकर-पुं०। प्रथममुद्रच्छति सूर्ये, स मूर्ख, उत्स.२०७० हि उदये रक्तो भवतीति बालपदोपादानेन रक्तवस्तूपमानरखे. चालण्य-बाला-पुं० । वलं जानातीति पलक्षः। छान्नस स्वाहीर्घत्वम् । आत्मबलसामर्थ्य , यथाशक्त्यनुष्ठानवि न धर्यते । जं. १ वक्षः।रा। जी। धायिनि भनिगृहितबलवीये, प्राचा०१७.२००५ उ०। बालपंडिय--वालपण्डित-पुंगा अविरतत्वेन बालत्वात् विरत. चालतव-बालतपस-नबालं तपो यस्य स बालतपाः। स्वेन च परिश्तत्वात् बालपण्डितः । संयतासंयते,स्था० ३ अनधिगतपरमार्थस्थमावे दुःखगर्भमोहगर्भवैराग्याज्ञानपू. ठा०४ उ० । देश विरते, अनु० । सूत्र० । ०। बालपरिड पकनिवर्तिततपःप्रभृतिकष्टविशेषे मिथ्यारष्टौ , कर्म० १ तोभयव्यवहारानुगतत्वात् देशविरतिसामायिके. विश०। सर्वविरतिपरिणामाभावात् वासं स्थूलप्राणातिपातादिवि. कर्म०। बालतपसालाभे दृष्टान्तः-" वसंतपुरं नगरं, रमणाच परिडतं बालं तच्च तत्पण्डितं च बालपण्डितं.तयोतत्थ सेट्रिघरं मारीए उस्साइयं, तस्य इंदनागो नाम दारो, सो गिलाणो पाणियं मग्गइ जाव सब्वाणि मयाणि पे गान्मरणमपि वालपण्डितम् : बालपण्डितमरणे, आतु। छ । दारं पिलोगेण कटियार किय, ताहे सो सण- बालपडियमरण-बालपण्डितमरण-न० श्रावकमरणे,प्रवः। यछिहरण निग्गंतूण तम्मि नगरे कप्परेण भिक्खं हिंडा, जाणीहि वालपंडिय--मरणं पुण देसविरयाणं । लोगो से देश भूयपुग्वे त्ति काउं एवं सो संबहह। इतो जानीहि बालपण्डितमरणं मिश्रमरणं.पुनःशब्दः पूर्वापेक्षया य एगो सत्यवाही रायगिहं जाउकामो घोसणं घोसायेइ ! विशेषद्योतनार्थः। देशात्सर्वविरतविषयापेक्षया स्थूलप्राणिव्या ते सुयं . सत्येण समं पस्थितो, तत्थ तेण सत्ये कूरो लद्धो, परोपणाऽऽदेर्षिरता देशविरतास्तेषां देशविरतानाम् । प्रव. सो जिमितो न जिमो. बितियदिवसे सस्थवाहण दिट्ठोचिंते २३७ द्वार। नणं पस उयवासितो, सोय अध्यत्तलिंगी । विइयदिवसे हिंडं देसिक्कदेसविरो, सम्मदिट्ठी परिज जो जीवो। तस्स सेट्टिग्या बहु नि च विनं, सो तेण दुवे दिवसा मजि- तं होइ बालपंडि-मरणं जिणसासणे भणियं ॥१॥ सण अस्था, सत्यवाही जाण-पस घटुं छटेण स्वमद। (देशविरतव्याख्या ' देसिकदेसविरय ' शब्द चतुर्यतस्स महती आस्था जाता । सो तस्यदिवसे हितो स- भागे २६३४ पृष्ठे गता) सथा सम्यगविपरीता नवस्थवाहेण सहावितो-कीस कसं नागतो? तुरिहको अस्था, श्रद्धानरूपा राष्ट्रदर्शनं यस्याऽसौ सम्यग्दृष्टिक, एवंविजाणा । जहा छटुं कर्य, तहा से दिराणं. तेण ऽवि मा | धो यो जीवः धायकसम्बन्धी म्रियते, तदिह मरणं जि. राणे दो दिवसे प्रस्थावितो. लोको वि परिणतो, अरणस्स वि. नशासने वालपरितमरणमिति भवति भणित, शेषशा. निमिसं कर्य, तस्स विन गेराहर। अझे भणंति-एसो एगर्पि- सनेषु बालमरणाऽऽदिभाषाया एवाभावात् तत्र सर्वविरतिपडिनो तेण तं अट्टामयं लवं, सस्थवाहेण भणितो-मा अन्नस्स रिणामाभावाद्वालं स्थूलप्राणातिपाताअदिविरमणाच परिज करं गेरिहज्जासि, जाव नगरं गमिस्सइ ताव अहं देमि, गया तंबालं च तत्परितं च बालपण्डितं.तयोगात्मरणमपिवानगरं, तेण से पियघरे मढो कतो, ताहे सीसं मुंडावेद का. लपण्डितमित्यर्थः । जिनशासनेच मरणमनेकधा कथितमसायाणि चीवराणि गेराहाताहे विक्खातो, जातो, ताहे जहि प्राचीनिमरणाऽऽदिभेदात् । तथाकविधमपि इह पञ्चधा प. वसं से पारणयं तदिवसं लोगो बाणेर भत्तं, पगस्स पडिच्छा, रिकल्पितम्। तद्यथा-मिथ्यारशां बाल बालमरणमविरतस ३३० Page #1341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३१८) बासपडियमरण अभिधानराजेन्डः। बालमरण म्यग्हानमरणं, देशविरतस्य बालपरिडतमरणं, छमस्थय । पृतोऽच्युतं यावदेव गमनसंभवात् , नियमेन तस्योपपातः । तीनां पारडतमरणं, केवलिनां पण्डितपण्डितमरणं चेति । अथ श्राद्धधर्माऽऽराधकोऽप्रतिपतितधर्मा कतमे भवे सिद्धो मातु। भवतीत्याह-नियमानिश्चयेनोत्कृष्टतः षड्भवानङ्गीकृत्य सकदा पुनरसौ श्रावको बालपण्डितमरणेन म्रियते ?, तमे भवे सिद्धयति। इत्याहप्रासुकारे मरणे, अच्छिन्नाए य जीवियाऽऽसाए। . इय बालपंडियं हो-इ मरण मरिहतसासणे दिह ।। नाएहि वा अमुक्को, पच्छिमसंलेहणमकिच्चा ॥६॥ इत्यमुना पूर्वोक्तप्रकारेण पर्यन्तसमयेऽपि सर्वविरतेरनलीक रणं बालम् , अनशनप्रतिपत्तिश्च पण्डितं च, बालं च तत् आशु-शीघ्र, करणं कार आशुकारः, अतर्कितो मरवाव. पण्डितं च बालपण्डितम् . भवति मरणमहन्छासने जि. सरस्तेन मरणं, तस्मिन् मरणे अचिन्तितोपस्थिते इत्यर्थः, नप्रवचने दृएं भणितम् । प्रातु.। एवं झटिति प्रत्यासन्नीभूते मरणे बालपण्डितमरणं कुर्या बालपंडियवीरिय-बालपण्डितवीर्य-न । देशविरतस्य सं. त् । अथवा-अच्छिन्ना इति न छिन्ना त्रुटिता काये जीवि. यमासंयमविषये वीर्ये, वृ०३ उ० । सूत्रः । ताशा तस्यां तया वा क्रामणे व मरणकाले समागतेऽपि संलेखनाऽऽद्यकृत्वा च यन्म्रियते तद्वालपण्डितमरणम्, स्व. बालपण-बालप्रज्ञ-त्रि० । मूर्खप्राये, सूत्र. १ श्रु० १३ प.। शान, यत्तिर्न मुक्तो नानुमतः , पश्चिमकालकर्तव्यसंलेख. बालभवायणा-बालभ्यवाचना-स्त्री० । बलभीपुरजायां यानां तपाप्रभृतिकाम् अकृत्वा च यम्मरणं करोति तद्वाल- चनायाम्, ( तां च 'वायणा' शब्दे दर्शयिष्यामि ) पगिडतमरणमुक्तमित्यतनगाथावां संबन्धः॥६॥ ज्योतिष्करराडकसूत्रकर्ता बालभ्यः। ज्यो०२ पाहु। सच कथं गृहे म्रियते ?, इत्याह बालममत्त-बालममत्व-न० । लघी शिष्ये ममत्वकरणे, ध० पालोइय निस्सलो, सघरे चेवाऽऽरुहितु संथारं । ३अधि। जइ मरइ देसविरो, तं वुत्तं बालपंडिययं ॥ ७॥ बालमरण-बालपरस-न । बाला इव बाला अविरतास्तेषां (आलोइय ) अालोच्य गीतार्थः सुगुरुसमीपे आलोचना मरणं यालमरणम् । स०१७ सम । मिथ्याहशां मरणे, दवा, निर्गतं शल्यं यस्मात् मूलगुणोत्तरगुणविराधनारूपं, "अविरयमरणं बाल ।” बाला व बाला अविरतास्ते. भावशल्यरहित इत्यर्थः, एवंविधः सन् स्वगृहे निजगृहे एवा. | पां मरणं बालमरणमिति ब्रुवते इति संबन्धः। प्रथ० १५७ 3ऽसह्याङ्गीकृत्य संस्तारकमनशनप्रतिपत्तिकालाई दर्भप्रस्तर द्वार। उत्त०। णरूपं, संस्तारकविधिसाध्यमनशनमप्युपचारासंस्तारकमु. बालमरणानिच्यते, कृतानशनः सन् यदि म्रियते देशविरतः समाधिमान् से किं तं बालमरणे ?। बालमरण नालसविहे परमत्तेतं तदुक्तं बालपण्डितमरणम् ॥ ७॥ जहा-वलयमरणे, वसट्टमरणे, अंतोसल्लमरणे, तब्भवमरणे, उक्नेन विधिना विधेयमित्याह गिरिपडणे, तरुपडणे, जलप्पवेसे जलणप्पवेसे विसभक्खणे जो भत्तपरिनाए, उबक्कमो वित्यरेण निदिहो । सत्थोवादणे, वेहाणसे, गिद्धपिढे । इच्चेएणं खंदया! दुवासो चेव बालपंडिय-मरणे नेमो जहाजुग्गं ।।८! | लसविहेणं बालपरणेणं मरमाणे जीवे अणंतेहिं नेरइयभव. यो भक्तपरिक्षाप्रकीर्णके श्रावस्याऽनशनप्रतिपत्ति कुर्वत ग्गहणेहिं अप्पाणं संजोएइ, तिरियमणुयदेवश्रणाइयं च णं उपक्रमःप्रथमतः सर्वकृत्यविधिरूपो विस्तरेण " अह हुज प्रणवदग्गं दीहद्धं चाउरंतसंमारकंतारं अणुपरियट्टइ, से देसविरो०२६अनियाणो०३०॥ नियव्य०३१" इत्यादिगाथात्रयेणोको, गुरुसङ्घपूजालार्धामकस्वजनवात्सल्यदाना तं बालमरणेणं मरमाणे वड्डइ वड्डइ । से तं बालपरणे । ऽऽदिदानजिनचैत्यकारापणबिम्बनिर्मापयतत्प्रतिष्ठापनसिद्धाः (दुबालसविहे गं बाल मरणेणं ति) उपलक्षणत्वादस्यास्तलेखनतीर्थयात्राविधानजिनशासनप्रभावनाऽदिपुण्यानि । न्येनापि वालमरणान्तःपातिना मरणेन म्रियमाण इति । (वडा कृतपूर्वः श्राद्धोऽन्त्यसमये स्वजनमुत्कलापनचैत्यवन्दनगुरु- 'षड्ढात्ति) संसारवर्द्धनेन भृशं वर्द्धते जीवः । इदं हि द्विवचनं द्वादशावर्त वन्दनदानाऽऽलोचनाग्रहणपुनःसम्यक्त्ववतो. भृशार्थ इति । भ०२ श०१उ० । व्य०। प्राचा.। ('भत्तपचारसर्वजीवक्षामणचतुःशरणप्रतिपश्यादिपुरस्सरमनशनम. वक्वाण' शब्दे तत्प्रकारं वक्ष्यामि) ( 'मरण' शब्दे क्रीकरोतीत्यादिरूपः स एवाऽत्राप्यध्ययने बालपण्डि- काँश्चिद् विधीन् दर्शयिष्यामः) तमरणे वर्णयितव्ये यथायोग्यं ज्ञेयः॥८॥ बालमरणानि प्रशंसतिअथ तस्यैवंविधाऽऽराधनायुक्तस्य क्कोपपातः, इति दर्शयति जे भिक्खू गिरिपडणाणि वा १ मरुपडणाणि वा २ वेपाणिएसु कप्पो-वगेसु नियमेण तस्स उववाभो। . वरुपडणाणि वा ३ भिगुपडणाणि वा ४ मरु ? तरु ५ नियमा सिज्झइ उक्को-सएण सो सत्तमम्मि भवे ॥४॥ गिरि ३ भिगु ४ पक्खंदाणिं वा जलप्पधेसाईणि वाह जलविमाने भवा वैमानिकाः, ते च ज्योतिषका अपि भव. पवेसाणि वा १० जलपक्खंदाणि वा ११ विसभक्खम्तीति तद्वयवच्छेदाय विशेषणमाह-(कप्पोवगेसु) कल्पान् "स्रोहरणा वारणं ति अत्था य" इत्यादिभेदेन प्रक्रमाद् सौ. णाणि वा १२ सत्थुप्पाडणाणि वा १३ बसट्टपरणाणि धर्माऽऽदीन उपगच्छन्तीति कल्पोपगास्ते न तु कल्पान्ते तेषु वा १४ तब्भवमरणााण वा ' वा१४ तब्भवमरणाणि वा १५ अंतोसल्लमरणाणि वा श्रावकस्य पूर्वमबद्धाऽऽयुषो जघन्यतः सौधर्मादारभ्य उत्कृ १६ वेहाणसमरणाणि वा १७ गिद्धपिट्ठमरणाणि वा १८ Page #1342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालमरण मलयमरयाणि वा •जावराणि वा हप्पारासि वाला वापस पसंत या साइ ॥ १६६ ॥ एषां व्याख्या ग्रन्थेनैव । ( १३१६ ) अभिधान राजेन्द्रः । गाद्दा गिरिपवडाssदिमरणा, जेत्तियमेत्ता उ आहिया सुने ! पिसते भागमादीनि ॥ ५०७ ॥ तेसिं सुत्ताभिहियाणं दुबासरहं बालमरणाणं श्रमतराखं संसद्, श्रणादिया दोसा, चरगुरुं च पच्छितं । गिरिमरुतरुभिगूर्ण चउराहं वि इमं कणां । गाहाजपत्रात दसति सो तु गिरी मरु आदिस्समायो तु । नदियादी व भिगू तरूउ अस्सोपनमादी ||५०८ ॥ गिरिमं विसेसो, जत्थ पञ्चर श्रारूढेहिं श्रहो पथापाणंदीसह सो गिरी भन्न असमा मह मि तो विश्वायं अगो वा भन्न, पि. व्यवमादी तक दिन जो अप्पा मुंबई मर वसि तं पवडणं भन्नइ । एते चउरो वि पवडणसामन्ना मरणमेदो मेच बसु पद पड पसंदला इमे भेदा। गाहा " पडणं तु उपपतित्ता, पक्खंदण धाविऊण जं पडति । तं पुण गिरिम्मि जुञ्जति, नदितडपडणं भिगूहिं वा ।। ५०६ ।। थागत्यो उहं उपत्ता जो पडर वाडेवले. डिंडिकबत् परोधाविता पर पसंद अदया-ठियणिन्नशियनस्स अप्पत्ता पचडमाणस्य पत्र उपायपदयं तं गुण पडदया गिरिमि जुज्जर, घडतीत्यर्थः । दितडभिगूहिं वा पडणं पक्खंद च जुइ, तरुसु कहं पक्खंदणं जुज्जइ ? | अश्रो भन्न गाहा भोलंबिऊन संपा पिस्स तस्तो पद होति । पक्खदमणुपतित्ता, अंदोलेऊण वा पडणं ।। ५१० ॥ इत्यहं साहासम्म लंबित पड गओ वा समपादट्टियस्स श्रणुप्पइत्ता पवडमाणस्स पवड जं उप्पइसा पद से इस् वा संविडं जं अंदोलदत्ता पडइ तं वा पक्खंदणं, चउरो विपदमासामर्थविद मरणमेो. जलपत्र सापवेस सामन्नश्रो तहश्रो मरणभेदो, जलजलणपक्खंदणे चउत्थो मरणभेदो, सेसा विसभक्खणाइया श्र पत्तेयभेदो, विसभक्खणं पसिद्धं, सत्थेण अपणा अप्पा वि बावापड | सट्टा इव बलयं बलायमाणे, जो मरणं मरति हीणसत्ततया । सोदियादिविस, जो मरति वसमरणं तु ।। ५११ ।। सञ्जमजोगेसु बलबोद्दीणऽसत्तमाए जो अकामगो मर यो बलेर इंदिवर दोस मरतो सट्टमर मर राग तोसल्लाणं इमं चक्खाणं । गाहा तम्मी चैव मम्मी, मयाण जेसिं पुणो वि उप्पत्ती । तं तव्भवियं मरणं, श्रविगयभावं मसलं च ॥ ५१२ ।। जम्मि भत्रे वट्ट तस्लेव भवस्ल हेउसु वट्टमाणो श्रासुर्यबंधित तत्येव परिकरकामस्य जं मरणं तं तम्भव मरणं । पयं मयतिरिया चेव संभवद्द | अंतोसल्लम रवि भावे यदब्बे-रायाऽऽदिशा मि मावे मुलुराइया पडिणिसोहला बिड चमाणस्स वा भावसलसल्लियस्स एरिसस्स वियडभाव स्स अंतोसल्लमरणं वेद्दाणसं मरेजर अप्पा उद्धं लंबे गिद्धेहिं पु. गृधैर्भक्षितव्यमित्यर्थः । तं गोमाइकलेवरे श्र चाणं पचिविता गप्पा भावे अहवा-पेट्टो दाऽऽदितपुडगं दाप्यार्थमिदेह क्या - बालमूलराय पते बाल बालमरणा पसंसमासस्स हमे दोसामिधिकरणं, मेद परीसस्पराइतेकतरं । fuकिया सत्तेसु य होती जे जत्थ ते पड़ती ।। ५१३ ॥ अहो हम साहू पट्टिया हमे गिरिपार ये सर्व करविजा नरिथ रथ दोसो एवं मि. साइट्टियाएं मिले थिरीको भावो भव पसि बालमर सेहो परीसह पराजित्र्ग्रो बारसएवं एगतरं पडिव जे जे बालमरणे पसंसिए अप्पा सु सत्तेस किया भवर तध्विराणानिष्कर्ष च पच्छितं भवइ, तम्हा णो पसंसेज्जा । 9 इमे य ते कारणा । गाद्दा वितिषपदमप्यके, पसंसि कोविते व प्य जायंते पाच जेतु उप्पारे ।। ते य बहुप्पगारा कज्जा इमे । गाहाकम्म मोहमे सज्जे, अठायंते वहा विउ । जुंग आमएवावि, अस पर्वेति उ ।। ५१५ ।। साहुस्स उदिनमोहस्स विजादिणा मोहभेसचे कप तद्दावि मोहानि से जा अथायमाणे कराहतिना सहसा पादाविजुगिया कुट्टदाहिया वा प्रसभेग गद्दियं मामा'इफ् वा असर पंडियम असते पण इमेण विि या बालमरण पद्मपैति । गाहा 1 १४ ।। तस्थ दस अवाए आदिद्वाणं परय सेना | दोषि पसंति विऊ, बेदाणसगट्टमहं च ॥ ५१६ ।। पवडणादीया तो सल्लपज्जव साये पते दोसा । एतेसिं जीवरोवणाऽऽदि अवाप दंसेत्ता ते पडिसेहित्ता दोरादं वेदा सगमराणं गुणे आगमधिक पसंति, पंडियमरणमसते ते विपत्तव्यं इत्यर्थः । भणियं दुवालसविहं बालमर• णं । नि०चू० ११ उ० । ( अकाममरणम् इति मरण शब्दे विवरिष्यते ) बालमृतराय बालमृतराज पुं० [अ] दिल पट्टजनगरे क्य वंश्ये कुमारपालानन्तरे खनामा राजनिती० २५ कल्प Page #1343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालय बालय- बालज - न० | बालेभ्य ऊरखिकाऽऽदिलोमभ्यो जातं बालजम् । बालनिष्पत्रे सूत्रभेदे, अनु० । बालयं पंचविहं पठतं । तं जहा- उष्मियं वहियं, मियलोमियं, कोतवं किट्टिसं । से तं बालयं । बाल पंचविहमित्यादि) बालेभ्य ऊरक्षिका 55दिलोम भ्यो जातं बाजं तत्पञ्चविधं महतम् । तद्यथा-ऊर्णाचा 3 मोकिम् उष्ट्राद्यामिक पते है अपि प्रये मृगेभ्यो इस्वका मृगाऽऽकृतयो बृहत्तुच्छा आटविकजीवधि | शेषास्तलोम निष्य मृगलनिकम उम्ररोमविष्य की तवम् ऊर्णाऽऽदीनां यदुद्धरितं किट्टिसं तनिष्पर्ण सूत्रमपि फिट्टियम् अथवा कादिसंयोग निष्पक्षं सूत्रं किट्टिसम्। अथवा उक्तशेषपश्वादिजीव लोमनिष्पनं किट्टिसं । से तमित्यादि निगमनम् । अनु० अ० म० पं०मा० ०० ० नि०यू० बालया - बालता - स्त्री० । मूर्खतायाम्, माचा० १ ० ६ ४ उ० । अज्ञानतायाम्, आाचा० १० ५० १० । बालरज्जु-बालरज्जु-श्री० [गवादिवामय्यां रखी ० ०३ श्राश्र०द्वार । - बालव - बालव - नः । कालकरण भेदे, विशे० | ववाऽऽदिष्वन्यतमे, आ०म० १ ० आ०यू० । उत० । सू०प्र० । सूत्र० । बालोभनि बाललोभनीय येतं । बालवा बालपरसा-श्री० [म्योपजीविका याम्, पिं० । बालपणी बालवचनीय चि० प्राकृतपुरुषाणामपि यहाँ, ( १३२० ) अभिधान राजेन्द्रः । श्राचा० १ ० ६ ० ४ उ० । 9 बालविश्वा-बालविधवाखी बाला स्त्रियाम् औ०। बालवीय पाववीजनक १० चामरविशेष०१० ३० स्था० बालेर पिरचिते न सूत्र० १ ० ६ श्र० । बालवीर - बालवीर्य १० मिथ्यामचिरखित सामध्यै तच्च श्रभव्यानामनाद्यपर्यवसितं भग्यानां स्वनादि सपर्य, सितम् ०१०००० (बीरिय शब्दे एत व्याख्यास्यते) बालपीरियल द्वि-बालदीपि पुं० [असंयते घ०० 탕 - २३० । बालहाण बालधान न० पुरुछ, शा० १ ० ३ ० म० । बालाहि - बालधि- पुं० पुरके, आबा० १० २ ० ५३० । बाला - पाला स्त्री० [वालस्येय मवस्था धर्मधर्मिणोरभेदादू बाला १०४० दादा " जायमित्तस्स जंतुस्स जा सा पढमिया दसा | न तत्थ सुहं दुक्खं वा, न हु जाणंति बालया ॥ १ ॥ जातमात्रस्य जन्तोः - जीवस्य या सा प्रथमिका दशा द· पावस्था (तत्) तस्य प्रथमदशा प्रा. बालुयाजस येण सुखं वा नेति बस्ति तथा म परेषां [व] जाति बालका जातिस्मरणादिवानविकला इति । तं० । “ बेडी दिलिदिलिश्रा व दुद्धगंधिअमुद्दी बाला । ' पाइ०ना० ५८ गाथा । 99 बालागणिते गुण पालाश तेजोगुख-त्रि० बालोऽभिनय त्योऽग्निस्तेन तेजोऽभितापः स एव गुणो यस्य स तथा । परेण प्रकर्षेण तप्से, सूत्र० १० ५ श्र० १० । बालावबोहण - बालावबोधन न० । मन्दमतीनां प्रतारेख, द्रव्या० ६ अध्या० । ० बालि ( य्) - बालिन् -त्रि बालप्रधाने, अनु०। सुप्रीषभ्रानरि वानरराजे वाला शास्ते श्याम निश्चित कुश्चागु पेता येषां ते बालिनः । सुकेशेषु वृ० १३०३ प्रक० नामस्याभिदे च येन कृतकायोत्सर्गे पादपपीडनीयापरमुत्तम्भयन् रायसोनीकृतः । ती० ४७ कल्प | बालिखिल्ल - बालिखिल्य पुं० । स्वनामख्यातेषु ऋषिगणेषु, सम्यग्दृष्टिराजभेदे च सम्प्रापुरन शत्रुञ्जये । ती० १ कल्प । बालिस बालिश त्रि० आहे. सू० १.७० पूर्वे बाला मूढा मंदा, अयाणया बालिसा जडा मुक्खा ॥ " पाइ● ना० ७१ गाथा । - ** बाली-राली श्री गविशेषेरा० ० ० बालु पालु पुं०द्वा परमधार्मिकः काकासुजाकारासु वा वैकियानुकाकारा कानिव नारकान् पचति । स० १५ सम० | प्रब० । सूत्र० । ततस्स भजंति, भजणे कलंबुबालुगापट्टे । बालूगा खेरइया, लोती तलम् ॥ ८१ ॥ बालुकाया परमाथामिका मारकाप्राण स्तितवः सुफाभृतभाजने चणकानिय ( तडतड त्ति ) स्फुटतः ( भज्जति ) सृजति पचन्ति । केत्याह-कदम्बपुष्पाऽकृतिबालुका कदम्बबालुका तस्याः पृष्ठमुपरितलं तस्मिन् पातयित्वा अम्बरतले च खोलयन्तीति सूत्र० १० ५० १३० । प्रश्न० आ० चू० । प्राष० । 1 बालुबाङ्गपुं०बिटविशेषरूपे अनाजीवयनस्यतिभेदे, शा० १ ० ६ अ० नि० खू० । श्राचा० भा०क० । बालुट बालुएट पुं० शरीराव बालुयग्गाम-- बालुका ग्राम - पुं० | स्वनामख्याते प्रामे यत्र छाम स्थिक विहारेण भगवान् वीरस्वामी लगोशालः समवसृतः । ०क० १ अ० अ० चू० । अ० म० । • बालुमप्पमा वालुकाममा श्री० बालुकायाः परुषपर रूपायाः प्रभा यस्यां सा वालुकाप्रभा । प्रव० १७४ द्वार तृती नरक पृथिव्याम् भ० १ ० ४ उ० । प्रज्ञा० । अनु० | स्था०| बालुवा बालुका-श्रीसिकतायाम् ०१० प्र० । प्रा० क० जी० रा० रेणुकणेषु तं० । बालुवा कवले चेव, निस्सारे उ य संजमे ॥ " उत्त० १६ श्र० । बालुयाजल - बालुकाजल न० । बालुकाया उपरि वद्दति ज ले, घोघ० । " Page #1344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३२१) बावस्म अभिधानराजेन्डः। बाहिरिया बावल-द्वापश्चाशत्-श्रीका व्यधिकायां पश्चाशति,स०५२समा बाहिसंका--बहिःसंवक्का-खी० । गोचरचर्याभव, पं०१. पावत्तरि-द्वासप्तति-स्त्री० । द्वयधिकायां सप्तती, "बायसरिक २द्वार । लापंडिया।"लेखाऽऽचाः शकुनरुतपर्यम्ता गणितप्रधानाः बाहिज्ज-बाधिर्य-न । बधिरस्वे, विशे । लाः प्रायः पुरुषाणामेवाभ्यासयोग्याः, स्त्रीणां तु विझया एवं बाहि जमाण--माध्यमान-वि० । पीब्यमाने, प्राचा० १६०५ ति । बिपा०१० २० श्री.भ० प्रज्ञा०"वायत्तरि भ०४ उ० । सम्धसुमिणा। " द्विगृद्धिदशानां चतुर्थमध्ययनम् । स्थान बाहिर-बाह्य--त्रि०। बहिर्भवं बाह्यम् । बहिर्जाते, स्था०२ १०ठा। ठा० १ उ० । अप्रत्यासन्ने,स्था० ८ ठा. नगराऽऽदेहि कृते बावल्लि चावल्लि-स्त्री. पल्लिभेदे, प्रशा० १ पद । स्वाऽऽचारपरिभ्रंशा विशिष्टजन बहिर्तिनि विपा०१ श्रु०३ बावीस-द्वाविंशति-स्त्री० । द्वयधिकायां विंशती, याविशति- प्र०।" सम्भितरबाहिरए, तबोकम्मसि उज्जुश्रो।" उ. संख्येषु, उत्त० २५०। त०१६ ०" बहिसो बाहिं बाहिरौ"॥८।२।१४० ।। इति बाहिराऽऽदेशः । प्रा०२ पाद । पासहि-द्वापष्टि-स्त्री० । चधिकायां षष्टिसंख्यायाम्, रा.। बाहिरणियंसिपी--पायनिवसनी--स्त्री०। सायुपकरणभेदे, बाह-बाष्प-पुं० । "बाष्पे होऽश्रुणि" ॥१२॥७॥ वापशब्दे "बाहिरगा जा खलुंगो कडीए दोरण पडिबद्धा।" नि. संयुक्तम्य हो भवति। इति पस्य हः। अवभिधेये नेत्रजले, | चू०५ उ०। बाधा निवसनी यावस्खलस्तावत्कटयां दबर. प्रा०२पाद । अश्रुणि, "बष्फ बाहो य नयणजलं । "पा केण प्रतिबद्या भवतीति । पं०५०३द्वार। ना०११२ गाथा। पाहिरतव-बाबतपस्-न०। बाह्यमित्यालेव्यमानस्य लौकि. बाहगदोस-बाधकदोष-पुं० । यैर्यदोषैरर्थकामरागाऽऽदिभिः कैरपि तपस्तयाज्ञायमानरवास्पायो बहिः शरीरस्य तास धर्माधिकारी पुरुषो बाध्यते कुशलानुष्ठानतश्च्याप्यते । पकत्वात् वा तपसि दुनोति शरीरकर्माणि पत्तत् तप इति । तेषु, पश्चा० १ विष०। स्था० ६ ठा० । पा० । स०। पं०व.भ.। पाहगदोसविचक्रव-पाधकदोषविपक्क-पुं० । बाधकदोषप्रति पाहिरपुक्खरद्ध-बाह्य पुष्कराई- न० । मानुषोत्तरपर्वतात् पतभाषनायाम् , पश्चा० १ विषः। परतः पुष्करीपस्या, सू०प्र० १६ पाहु। पाहप्पमोयण-वाष्पप्रमोचन-न । मधुविमोचने, डा. १ बाहिरप्प-बाबाऽऽत्मन्-० । काये, तस्य स्वाऽऽत्मधिया धु०१८ अ०। प्रतीयमानस्याई स्थूलोऽहं कृश इस्यायुल्लेखेनाधिष्ठायकपाइल-बाइल-पुं०। जनपदभेदे, "बाहलविसए एगो बमगो।" स्वात् । द्वा० २०द्वान मा०म०१५.। चाहिरप्पवहा-बहिःवहा- स्त्री० । शरीराद बहिः पूयाऽऽदि पाहल्ल-बाहम्य-न । बहलस्य भायो पाहल्यम् । पिएडभावे क्षरम्त्यां नाज्याम् , विपा.१७.१म उत्सेधे, जी०३ प्रति०१अधि०२ उ० भ.1 प्रज्ञा पृथुरघे, बाहिरमंडमनोवगरणोपहि-बाह्यभाण्डमात्रोपकरणोपषि-पुंज विस्तारे, स्था०४ ठा०२ उ० । प्रमाणे.शा० १०३०। बाधे कर्मशरीरव्यतिरिक्त ये भाण्डमात्रोपकरणे तपो य उ. बाहा-बाधा-स्त्री०। 'पा' लोडने । बाधते इति बाधा। कर्मण पधिः स तथा । तत्र भाण्डमात्रा भाजनरूपा, परि. उदये, स०७० सम । व्यवधाने, स०५२ समाचा। छछद उपकरणं च बलादीति । उपधिभेदे, भ०१८ श. प्रा०म०। चं०प्र० । माक्रमणे, रा०। पीडायाम् , आव०४ ७ उ०। अ० परस्परं संश्लेषत: पीडने, जं०१ पक्ष । बाहिरबत्ति बाह्यव्याप्ति-स्त्री० पक्षीकृत एष विषये साध. वाह-स्त्री० । "बाहोरात्" ॥८।१।३६ ॥ बाहुशब्दस्य नसाध्यतेरव्याप्तिरस्ताप्तिरम्यत्र तु बहिप्तिरिति । व्या. खियामाकारान्ताऽऽदेशः । याहा । बाढू । प्रा०१पाद । "स्व. प्तिभेदे, रत्ना० ३ परि०।। राणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे"।८४।३२६ ॥ इति बाहुस्थाने बाहा । प्रा०४ पाद । 'बहया धणुपट्टाश्रो ग्रह पगं सो चाहिराबाहिराणुयोग-बाह्याबाह्यानुयोग-पुं० । अनुयोगभेदे, हियाण धणुपटुं। जं तत्थ हवा सेसं, तस्सऽद्धे निहिसे स्था०। "बाहिराबाहिरे । " बाह्याधाचं, तत्र जीवद्रव्यं बाह्य, बाहं ॥१॥" जं.। चैतम्यधर्मेणाऽऽकाशास्तिकायाऽऽदिभ्यो विलक्षणत्वात, तदे वाचाह्यममूर्सत्वाऽऽदिना धर्मेणामूर्सत्याभेयषामपि चैतम्या बाहि-बहिस- अध्यक। "बहिसो बाहि-बाहिरौ"८२१४० ॥ न बाबाचं जीवास्तिकायाच्चैतन्यलक्षणस्वादुभयोरप्यथषा बहिःशब्दस्य वाहि बाहिर इत्यादेशौ भवतः । बाहिं । बा- घटादि द्रव्यं बाह्यं कर्म चैतन्याऽऽदित्वमबाह्यमाध्यात्मिक. हिरं। " अनाभ्यन्तरे, प्रा० १ पाद । मिति यावदित्येवमन्यो द्रव्यानुयोग इति । स्था० १० ठा। वाहिखरियता-बहिःखरिकता..स्त्री० । नगरबहिर्वतिवेश्यात्वे बाहिरिया-बाहिरिका-स्त्री० । यहिर्भवा बाहिरिका । "प्रानजनवेश्यास्ये मा १५ श०। ध्यात्माऽदिभ्य कस्" ॥ ६.३। 3 || इति इकण्प्र. Page #1345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रक०। बाहिरिया अनिधानराजेन्धः। बिंबफल त्ययः । प्राकारबहिर्वतिभ्यां गृहपद्धती, वृ०१ उ०२प्रक०। सन्धिविकल्पः । विहो । बीो । द्वित्वसङ्ख्यापूरणे, श्रीघ | प्रा०१पाद। . पाहु-बाहु-पुं० । स्त्री० । भुजे, स्था० १० ठा० । ऋषभपूर्व विइयंतर-द्वितीयान्तर-न०। प्रतिवृक्षमूलक्षेत्रयोरपान्तराले , भवजीवस्य महाविदेहे पुण्डरीकिरायां नगर्या वैरनाभच. ०१ उ. २ प्रक०। क्रवर्विनो भ्रातरि, श्रा०म० ११०। पश्चा। आ०चू। बिडयदय-द्वितीयद्रय-नाद्वयोः पूरणे द्वये, दश०१०। ऋषभदेवस्य सुमङ्गलायां जाते पुणे. प्रा० म०१०।। विइयपय-द्वितीयपद-न० । उत्सर्गपदापेक्षयाऽपवादपदे, ग. बम्र-पुं०। नकुले.शा.१श्रु०१७ अ०। भुजायाम्, "भु. २अधिका श्रा बाहू।" पाइ० ना०२५१ गाथा। बिइयसमोसरण-द्वितीयसमवसरण-न० ऋतुबद्धकाले, वृ० बाहुजुद्ध-बायुद्ध-न । योधप्रतियोधयोरन्योन्यं सारियाहोरवनि_सया वल्गने, जं०२ वक्षः। शा० ।। बिइया-द्वितीया-स्त्री० । द्वितीय दिवससम्बन्धियां रात्री, बाहुजोहि (ण)-पाहुयोधिन्-पुं० । बाहुभ्यां युध्यत इति चं०प्र० १० पाहु. १४ पाहु०पाहु० । अमौटशसितिबाहुयोधी । बाहुयुद्धकर्त्तरि, शा०१ श्रु०१०। वचनत्रयरूपे विभक्तिभेदे, “विया उपसणे।" उपदेशने बाहुत्तरण--बाहूत्तरण--नाभुजाभ्यां पारगमने, पश्चा०६विवा। कर्मणि द्वितीया । यथा-भण इमं श्लोकं, कुरु वातं, ददा. ति तं, याति ग्रामम् । स्था०८ ठा। बाहु तरणकप्प--बाहूत्तरणकल्प--पुं० । भुजपारगमनतुल्ये, पवा०६ विव०। चियाएस-द्वितीयादेश-: । द्वितीये प्रकारे, वृ० १ उ० ३ बाहुपसिण-बाहुप्रश्न--पुं०। बाहवो भुजास्तद्विषयाः प्रश्नाः बिउण-द्विगुण-त्रि० । द्वौ गुणौ यत्रेति । “सर्वत्र लव. यत्र । प्रश्नव्याकरणानां दशमे अध्ययने, प्रश्न। रामबन्द्रे"मा७६॥ इति दलुक । प्रा०२ पाद । "त. बाइप्पमदि (ण)-बाहप्रमर्दिन-पुं० । बाहुभ्यां प्रमृदनाती- हिवसं बिउणो लाहो।"श्राव०१०। ति बाहुप्रमर्दी । बाहुभ्यां प्रमर्दके, औ०। शा० । विझ-बिन्ध्य-पुं० । “साध्वस- ध्य-ह्यां झः"॥८।२।२६ ॥ बाहुबलि-बाहुबलि- पुं० । सुन्दरीसहजे ऋषभदेवपुत्रे, प्रा. इति ध्यस्य झः । प्रा०२पाद । " उ-प्र-ण-नो व्यजने"॥८ म०१०। कल्प। ।१।२५ ॥ इत्यनुस्वाराऽऽदेशः। प्रा० १ पाद । "न दीर्घानुस्वा. बाहुबली पंचधणुसयाई उड्ढें उच्चत्तेणं पसत्ता । स्था० रात्" ।। २।। ६२ ॥ इति झस्य द्वित्वनिषेधः। ५ठा० उ० । आचा। आ०म० । स्वनामख्याते गङ्गादक्षिणकूलस्थे पर्वतविशेषे, दशपुरनगरे (सच बाहलीदेशे तक्षशिलायामभिषिक्त इति । 'उसह आर्यरक्षितसूरेः स्वनामख्याते गणप्रधाने शिष्ये, यस्य अप. मकर्मप्रवादपाठश्रवणतो गोष्ठामाहिलो निहो जातः। श्रा० शब्दे द्वितीयभागे ११२६ पृष्ठे उक्तम् ) ( 'भरह 'शब्दे क०१०।०चू० । प्रा०म०। भरतयाहुबलियुद्धं वीक्ष्यम् ) विमलाद्रौ, ती० १ कल्प। बिंट-वृन्त-ना बन्धने, "बंधणं विटं।" पाइना०२२६ गाथा। ( वन्दनायागतः प्रभुम् । अदृष्टा धर्मचक्रमकरोदिति कथाशेष च 'उसभ' शब्दे द्वितीयभागे ११३८ पृष्ठे गतम् ।) विंटसुरा-स्त्री० । मद्ये, "बिटसुरा पिटुख उरिश्रा मारा।" पा. बाया-बाहुका--स्त्री०।श्रीन्द्रियजीवभेदे , जी०१ प्रतिः। इना० २११ गाथा। बिंदुइ-बिन्दुकित-त्रि० । बिन्दुयुक्त, " बिंदुराधे कणा क. बाडुलग-बाडु-पुं० । भुजे, तं०। णायन ।" पाइना० १६५ गाथा। . बाटुलेय-बाहुलेय-पुं०। बाहुलाया गारपत्ये , अनु० । बिब-बिम्ब-न । पुं०। प्रतिरूपके, वृ०४ उ० । श्राव० । शा। बाहुवा-बभ्रवर्ण-त्रि० । पिङ्गले ,शा १०१७ अ.। प्रतिमायाम, पञ्चा० ६ विव०। (जिनप्रतिमाकारणाऽऽद्यधिबाहय-बाहक-पुंगास्वानामख्याते शीतोदकपरिभोगेऽपि सिद्ध कारः'चेइय' शब्दे तृतीयभागे १२६६ पृष्ठे दर्शितः) गर्भप्रति. लौकिकमहर्षी ,सूत्र.१ श्रु०३०४ उ०। बिम्ब गर्भाऽऽकृती आर्तवपरिणामे अगर्भे, "अवस्थितं लोहि. तमङ्गनायाः, वातेन गर्भ ब्रुवतेऽनभिज्ञाः। गर्भाऽऽकृतित्वारक.' बिइज-द्वितीय-त्रि।" वोत्तरीयानीय-तीय-कृये जः"॥ ८ टुकोणतीक्ष्णैः, श्रुते पुनः केवल एव रक्त" ॥१॥ स्था० ४ ठा० ।१।२४८ ॥ इति यस्य द्विरुक्को जः। बिहजो । बीओ द्वि- ४उ०। फलविशेषे, "गोल्हफलं बिम्ब।" पाइना०२५५ गाथा। त्वसङ्ख्यापूरणे, प्रा० १पाद। "ज जस्ल हाह सारस,विध्यदेशी-भूषिते,आ०म०१०। तं तस्स बिइजियं देह ॥" प्रा०म०१०।। चिंचपइट्ठा-विम्वप्रतिष्ठा-स्त्री०। सर्वक्ष प्रतिनिधेस्तद्गुणाध्याबिडज-द्वितीय-त्रि० । सहाये, "दुइओ बिइजो अणु-प्र. रोपे, जी. १ प्रति०। रो सहाश्रो सहयरो य।" पार ना० ५६ गाथा । . विवफल-विफल-न । बिम्ख्याः सत्कं फलं बिम्बफलम् । विषय-दितीय-त्रि.।“पदयो। सन्धिों " ॥८॥१॥५॥ इति | प्रशा०२ पद । पक्कगोल्दाफले, जं. २ बक्ष.।जी। तं०। Page #1346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३२३) बिंबनूय अभिधानराजेन्द्रः। बीनच्छ बिंबभूय--बिम्बभूत--न । जलचन्द्रवत्तदर्थशून्ये, कूटकार्षापा | बिल्ल-बिल्व-नः । वृक्षविशेषे, "मालू सिरिफलं बिल्लं।" पाइo रणवद् वाऽसत्ये, सूत्र.१ श्रु०१३ अ०। ना० १४८ गाथा। बहुबीजफल के वृक्षभेदे, पुं० प्रज्ञा०१ पद । विवसल-चिम्नमल्य..न । प्रतिमाघेलने, पश्चा०८विव०।बिस-विस-न। कमलनालसूचमतन्तुषु, "विसं मुणालं ।" बिंबवय-न। भिलावानाम्नि मोषधौ,"विवयं भल्लायं।" पा• पाइना० २५६ गाथा । हना.१४८ गाथा। विसरीर-द्विशरीर-त्रि० । द्वे शरीरे येषां ते द्विशरीराः। द्विती. विंबी--विम्बी-स्त्री।बिम्बफलके गोल्हास्ये लताभेदे,प्रा0 यभवे सेत्स्यमानेषु, " बिसरीरेसु नागेसु उववजेजा।" वे क०१०। शरीरे येषां ते द्विशरीरास्तेषु ये हि नागशरीरं त्यस्ता बिंबोवणव-देशप-क्षोभ-विकागेच्छीर्षकेषु, देना०६ वर्ग मनुष्यशरीरमवाप्य सेत्स्यन्ति ते द्विशरीराः। भ० १२ श. ६७ गाथा। ७ उ० । दश । स्था। बिज्जुप्पभ-विद्युत्प्रभ-पुं० । वक्षस्कारपर्वतभेदे, स्था। उलोए णं चत्तारि बिसरीरा पत्ता । तं जहा-पूढविचिट्टि-पुत्रिका-खो०।"शीघ्राऽऽदीनां वहिल्लाऽऽदयः"।४। काइया, श्राउकाइया, वणस्सइकाइया, पोरालतसपाणा । ४२२ ॥ इति पुत्रिकास्थाने बिट्टि श्रादेशः । प्रा०४ पाद । त (उलेत्यादि) द्वे शरीरे येषां ते द्विशरीराः, एकं पृथिवी. नुजायाम् , "बिट्टीए मह भणि तुहुँ, मा करु वंकी दिट्टि ।" कायिकाऽऽविशरीरमेव,द्वितीयं जन्मान्तरभावि मनुष्यशरीरं, प्रा०४पाद। ततस्तृतीयं केषाञ्चिन्न भवत्यनन्तरमेव सिदिगमनात् । विदल-द्विदल-पुं० । तुबरीफला55देरीभागे,प्रा०म०१०।। (ोरालतस त्ति) उदारा: स्थूला द्वीन्द्रियाऽदयो न तु सूदमास्तेजोवायुलक्षणास्तेषामनन्तरभवे मानुष्यत्वाप्राप्त्या माचा। सिद्धिर्न भवतीति शरीरान्तरसम्भवात्तथोदारप्रसग्रहणेन द्वी. विदलकड-द्विदलकट-पुं० द्विदलं वंशवलं, तन्मयः कटो द्वि न्द्रियाऽऽदिप्रतिपादनेऽपीह द्विशरीरतया पश्चेन्द्रिया एव प्रा. दलकटः । वंशमये कटे, वृ०१ उ०३ प्रक०। प्राचा०। वंश द्यार,विकलेन्द्रियाणामनन्तरभवे सिद्धरभावात् । उक्तं च-"वि. शफलकृते कटे, स्था०४ ठा०४ उ०। गला लभेज विरं, ण हुकिंचि लभेज सुहमतसत्ति।" लो. विदलचडुलगच्छिन्न-द्विदलचटुलकच्छिन्न-त्रि.। मध्यपा कसम्बन्धाऽऽयातेऽधोलोकतिर्यग्लोकयोरतिदेशस्त्रे गतार्थे टिते वण्डशश्छिन्ने, सूत्र०१ श्रु०५१०१ उ० । इति । स्था० ४ ठा० ३ उ० । वियवर-द्विजवर-पुं० । ब्राह्मणमुख्ये, पं०व०४ द्वार बिसरीरि (ण)--द्विशरीरिन् पुं०। द्वयोः शरीरयोः समाहारो विराली-विडाली- स्त्री० । मार्जारजातिविशिष्टायां खियाम्।। द्विशरीरं तक्षेपामस्तीति । शरीरद्वयवत्सु, स्था०२ ठा०२ " मज्जारीश्री बिरालीश्रो।" पाइन्ना० १५० गाथा । उ०। (देवो महर्द्धिको द्विशरीरेषु उपपद्यते , तस्य वक्त. बिल-बिल-न० । रन्ध्र, शा० १७० १६ अ० । भ०। "बिल व्यता' उववाय ' शन्दे द्वितीयभागे ९६% पृष्ठे गता) बीअ--द्वितीय-त्रि.। "सर्वत्र लवरामवन्द्रे"॥८॥२॥७॥ मिव पन्नगभूए । " चिलं बिलमिव असंस्पर्शनात् नागो हि बिलमसंस्पृशन् आत्मानं तत्र प्रवेशयत्येवं भगवानप्याहार. इति दलुका द्वित्वसंख्यापूरके, प्रा०२ पाद । मसंस्पृशन् रसोपलम्भानपेक्षः सम्राहारयतीति । विपा.१ बीअप्र-देशी-असनवृते. देना० ६ वर्ग० ६३ गाथा। श्रु०७ अ०। कूपे, रा०। बीअजमण--देशी-बीजमलनखले, देना०६ वर्ग ६३ गाथा। बिलकोलीकारग-विलकोलीकारक-पुं०ापरव्यामोहनाय वि- अय-बीजक-न० । अशनवृत्ते, " बीअयं असणं।" पाह. स्वरवचनवादिनि, विस्वरवचनकारिणि च । प्रश्न० ३ श्रा- ना० २५८ गाथा। श्रद्वार। बीवाय--बीजवापक-पुं०। विकलेन्द्रियजीवविशेषे, अनु०। बिलस्थगण-बिलस्थगन-न। कोलाऽदिकृतविलेष्विप्रकाश बीभच्छ-बीभत्स-त्रि.। द्रष्टुमयोग्यत्वात्। (शा० श्रु०८ अ०) कलाऽऽदिप्रक्षिप्योपरि गोमयमृत्तिकाऽऽदिना पिधाने, व्य० जुगुप्सोत्पादके, भ० श. ३३ उ० । प्रश्न । दशा। शुक्र. ४ उ०। शोणितोचारप्रश्रवणाद्यनिष्टे उद्वेजनीये वस्तुनि, तदर्शनबिलधम्म-बिलधर्म--पुं० । बिलाऽऽचारे, शा० १७०१०। श्रवणादिप्रभवे जुगुप्साप्रकर्षरूपे रसे, अनु। एकस्यामेव वसती गृहस्थैः सम संवत्यै कषावस्थाने, वृ०१ अथ बीभत्सं हेतुतो लक्षणतश्चाहउ०३ प्रक० । भोघ०। असुइ कुणिम दुइंसण-संजोगमासगंधनिष्फलो। चिलपंति-बिलपति -स्त्री० । बिलानीव बिलानि कृपास्तेषां निव्वेऽविहिंसा ल-क्खणो रसो होइ बीमच्छो ॥१२॥ पक्कयो बिलपतयः । कूपततिषु, जं०१ वक्ष० । रा० । अशुषि-मूत्रपुरीषादि वस्तु कुणपं-शवः अपरमपि यद्छअनु० जी०। बिलमग्न-चिलमार्ग--पुं० । गुहाऽऽद्याकारेण विलेन गम्यमाने ईर्शनं गलल्लालादिकरालं शरीरादि तेषां संयोगाभ्यासाद अभीषणं तदर्शनादिरूपात्तद्धाच्च निष्पन्नो बीभरसो रसो मार्ग, सूत्र.१७० ११ अ०। भवतीति संबन्धः , किंलक्षण इत्याह-निर्वेदग्ध कारस्य बिलवजिय-विलवर्जित-त्रि० वर्षाऽऽदिरहिते,पं०व०२द्वार।। लुप्तस्य दर्शनादषिहिंसा च तलतर्ण यस्य स तथा, तत्र निर्वे. Page #1347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीना बीया उद्वेग असा तुपातादिनिवृत्ति इह च शरीरा श्रीपास बीजम्यास पुं० पुषाऽनुबन्धियुपयस्य सम्य रसारामुपलभ्य हिंसादिपापेभ्यः कश्चि - साऽपि तज्ञक्षणश्नोक्रेति । क्वस्य वा निक्षेपे, "बीजम्यासः सोऽयं मुक्तौ विनिवेशितः परमः । " पो० = विष० । बीयपइट्ठिय- बीजप्रतिष्ठित त्रि० । शास्यादिवीजगते, माहाशयनाऽऽौ, दश० ४ ० | बीयबीय-बीजपी न० सम्यक्त्वाऽक्षेपक शासनप्रशंसाssदिके, पं०सू० ४ सूत्र । बीजबुद्धि - बीजबुद्धि- पुं० । बीजमात्रेणोपलम्भके, आ० खू० १ Wo | बीजमिव विविधार्थाधिगमरूप महातरुजननात् बुद्धिर्य स्वेति (श्री) ब्युपसे एवं रोषमि तथैव प्रभूततरमर्थप०१०२०१ "जो प्रत्थपण, अनुसरह स बीयबुद्धी । "पा०] उत्पा ययौभ्ययुक्तं सदित्यादिवदर्थप्रधानं पद्मर्थपदं तेनैकेना पिबीजभूतेनाधिगतेन योऽभ्यं प्रभूतमप्यर्थमनुसरति सबीअबुद्धिरिति । विशे० । प्रज्ञा० | नं० | प्रब० | आ०म० । बीयभूय- बीजभूत-पुं० । बीजकरुपे हेतौ पश्चा० १ विष० । बीजभोयण - बीजभोजन- न० । शालितिज्ञाऽऽदिभोजने, श्र० भोषणा बीजभोजना स्त्री० बीजानि भोजनेसा बीजभजना | बीजभोजन परिहानायाम् प्रा० अ० बीयमित - बीजमात्र - बीजस्येष मात्रा परिमाणं यस्य सः । असुइमलभरिमनिकर-सभावदुगंधि सम्वकालं पि। घाउ सरीरकलि, बहुमतकविति ॥ १२ ॥ 'असुर'दाहरणाद्दा- ६६ कचिदुपलब्धशरीराय सारतास्वरूपः प्राह - कलिः - जघन्य कालविशेषः कलहो यात सर्वानियासलत्याद्वा शरीरमेव क लिः शरीरक शिस्तं मुमनमुनिकाले सा गया या मुलीः कथंभूतम् - विमलभृतानि निर्भराणि श्रोत्रादिविवराणि यस्य तथा, सर्वतो दुर्गन्धं तथा बहुपमिति, एवं वाचनान्तराण्यपि भावनीयानि । अनु० । तिरखां बीभरसाः, कामाः, जुगुप्सारमका भवन्ति- जुगुप्साप्रकृति बीभत्सो रस' इति । अनु० । बीभच्छदरिण - बीभत्स दर्शन - न० । बीभत्सं मयङ्करं दर्श. नमाकृतिरवलोकनं या रोगादिना कशावस्थायां यस्य ever बीभत्सदर्शनम् । तं । भयानकदर्शने, भयङ्करे, तं० बीदर बीभत्स दर्शनीय त्रिवि ०१ श्रश्रद्वार भयङ्कररूपे तं० । । श्रीमच्छा - बीभत्सा - बी० । निन्दायाम् जी० ३ प्रति० १ अधि० २४० । | बी (बी) व बीज-उपकार सू०२०३० विशे० । स्था० । शौकपुले, शौकाः पुत्रलाः । ते च द्विधा चि झापा तथा महा चिकणाः सस्निग्धा उच्यन्ते । ६० उ० उत्त० । अनङ्कुरितावस्थे ( पृ० ४ उ० ) शाहया दौ, सूत्र० १० ७ ० । स्था [आाचा हा उत्त० प्रश्न । बीजं द्विविधं भवति-योनि भूतम् अयोनिभूर्त च०० बी जोभिम्भू जी. षो वशमा लोप भनो घा" योग्यबस्थे बीजे योनि परिणाममजनीत्यर्थः । बीजस्य हि द्विधाऽपस्था योग्यवस्था 1 - ( १३२४ ) अभिधान राजेन् 1 योग्यवस्था च । यहा योग्यवस्थां न जहाति बीजमु कि जमुना तदा इत्पत्तिस्थानमनिष्टमिति तस्मिन् श्रीजे योनिभूते जीयो ब्युस्कामस्युपद्यते । प्राचा० १० ५ ० १ उ० कुसुमपुरोले बीजे मथुरायां समुद्भवति तस्य बीजं तत्रैवोत्पद्यते प्रसवः ॥ १ ॥ " सूत्र० २ ० ३ ० । नि०यू” वनस्पतीनां ततदूवनस्पतीनां नवोद्भिने किशलये, कल्प० ३ अधि० ६ क्षण । सम्यक्त्वे, पं०सू० ४ सूत्र । सम्पती दर्श०१ बीबीग बीजक पुं० खनामा पक्षिणि २० १३ श० उ० । बीयफाय - बीजकाय पुं० । बीजमेव कायो येशं ते तथा । ०२०३० २०३ मूली बीग बीजक० असे आवा० ""या विषया संमुडमा बीया ।" सूत्र० २ ० ३ ० । बीय संसत्त- बीजसंसक्त - न० | बीजैः संस क्ले श्रोदनाऽऽदिके.बी. जेषु अपरेण संसक्तेषु चाऽऽरनालाऽऽनेिषु, दश० ६ श्र० । बीयसुहुम - बीजसूक्ष्म न० । शाल्यादिवीजस्य मुखमूले कणिकायाम्, लोके तुषमुखमित्युच्यमानायाम्, दश०८ अ० स्था से किं तंबी पंचविप जा किराडे० जाव सुकिल्ले । अस्थि बीमहुहुमे कमियासमासवरागए नाम पत्ते । जे छउमस्थे णं • जाव पहिलेहियन्त्र भव से बीमे प०२ अधि० चग । 1 सुवर्णे. व्य० १० उ० । रा० ॥ जं० । मी० । मदमसुम - पीककुसुमपति रा० बीया द्वितीया स्त्री० प्रतिमन्तरिक्षायां तिथौ, "पा स्वरूपतः स्वल्पे भ० ७ ० ६० । बीeos - बीअरुचि पुं० । बीजमिव बीजम् यदेकमध्यमेकार्थप्रतिबोधोत्पादकं यन्त्रस्तेन रुचिर्यस्य होकेनापि जीवाऽऽदिना पदार्थेषु पैतिस बीजदथि । स्था० १०डा० । प्रज्ञा० । उस० । एकेन पदे मानेक पदतदर्थप्रति संधानद्वारो के तैलबिन्दुत्प्रसरणशीला रुचिर्बीजरुचिः । ध० २ अधि० प्र० । "निस्सग्गुबरेस रुई, आणा सुतवीयह देव अभिगमवधारय किरियामेव धम्म ॥ १ ॥ " प्रज्ञा० १ पद । पीपरुह बीजरुह बीज रो शायाश्विनस्पतिषु वश०४ अ० । स्था० । श्राचा० 1 बीयवकंति- बीजव्युत्क्रान्ति स्त्री० । बीजेभ्यो वनस्पतीनामु. स्पती, "वणस्लइकाइयाण पंचविद्या बीयवती माहि Page #1348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीया डिव पडिवती नस्थिती भतदीया " द०प०। बीयावबीजाप पुं० [दक्षिणापरस्यां दिशि स्वनामध्या शुदविदिग्याते, आ०म० १ श्र० । बीयासव - बीजाऽऽसव - पुं० | बीजैर्निष्पाद्ये मासवे, प्रज्ञा०२पद । बीस - विंशति - स्त्री० । द्विरावृत्तदशसंख्यायाम्, स्था० २ ठा० १ उ० । बीसड़या विंशतिकाखी० इरिभद्रसूरिविरचितविंशति पद्यमपविंशतिडके प्रत्यये प्रति ० बीसा - विंशति - स्त्री० "ईर्जिहा-सिंह- त्रिंशद्-विशते त्या । इतिशब्देकारस्य निशब्देन सह मा श्पाद | "विंशत्यादेर्लुक् " ॥ ८ । १ । २८ ॥ इत्यनुस्वाराऽऽगमः । प्रा० १ पाद । बीहि- श्री हि पुं० । सामान्यशाली, भ० ६ श० ६ उ० । प्रज्ञा० स्था० । षष्ठि (ष्टि) काऽऽदौ धान्ये, ध० ३ अधि० । जं० । बीडियमीत ० "मियो माबीही - " देशः जापा *बुंदिणी - देशी- कुमारीसमूहे, दे०ना० ६ वर्ग ६४ गाथा । बुंदी श्री शरीरे "मुती गवी, संघ 1 काचो । पाइ०ना० ५६ गाथा | चुम्बन- सूकरयोः, दे० ना० ६ वर्ग १८ गाथा । बुंदीर देशी-ममिती ००६ वर्ग १८ गाया। बुध-बुध्न न०|" वाऽऽदावन्तः ॥ ८ । १ । २६ ॥ इत्यनुस्वा राऽऽगमः । मूले, प्रा० १ पाद । ॥ ८ । ४ । बुक-गजे पा० महाशब्दकरणे, "मकः ६८ ॥ इति गर्जते बुक्काऽऽदेशः । बुक्कइ । गर्जति । प्रा० ४ पाद । बुक बुकस पुं०" बलिडर रिट्ठा का ढंकाय काय ला काया । पाइ० ना० ४४ गाथा काके दे०ना० ६ वर्ग ४४ गाथा । ( १३२४) अभिधानराजेन्द्रः बुद्ध बुद्ध० ३३२ बुकम- बुकस [- न० । मुद्गाऽऽदीनां तुषे, उत्त०८ श्र० । वर्णा-स्तरभेदे, उत्त०पाई० ३ श्र० । यस्य शूद्रः पिता भवति माता ब्राह्मणी तत्पुत्रो बुक्कस इत्युच्यते । उत्त० ३ श्र० । बुक्का बुक्का स्त्री० । " बुका मुट्ठी । " पाइ०ना० २२६ गाथा | मुझे श्री इस्पये देना ६ प ६४ गाथा बुक्कासार देशी-मीरी दे००६ वर्ग ६५ गाया। श्रभिमुखं नीयमाने सू० १ , 1 - बुज्झमाण उद्यमान शि० ध्रु० ११ अ० । बुध्यमान विश्वमा चित्" ॥ ८ । २ । १५ ॥ इति ध्यस्थाने झः । प्रा० २ पाद । बुझा बेति वा पञ्चक्खाण त्ति वा एगट्ठा । 35 आ०० १ प्र० । श्रवगच्छति, सूत्र० १ ० १० अ० । बुझबुद्धले कलि विश्यं चियाय अ दिग बुझिशि प०० गाथा । बुत्ती-देशी- ऋतुमत्याम् देवना० ६ वर्ग ६४ गाथा । ० ० ० झाया। " , " बुरू सूत्र० उत्त बुद्धभगवति "सुडोकी सबलोग श्री जिणे बुद्धी । 'पाइ० ना० २० गाथा | बुध्यते स्म केवलज्ञानेनेति बुद्धः केवलज्ञानेन अवगतवस्तुतस्त्वे, उत्त० पाई० १. "" अ० । सूत्र० । श्राचा० । कल्प० । अनु० । ध० पा० । प्रव० । श्रा०म० । विज्ञानवति श्रा०चू० ५ ० जीवाssदिवं बुद्धवति भ० १ ० १ उ० । स० । श्री० । स्था० । सूत्र० केवलज्ञानदर्शनाभ्यां विश्वावगमात् (अ०म० १ श्र० । औ० ) कालत्रय वेदिनि, सूत्र० १ ० १४ श्र० । तवार्थज्ञानवति, कल्प० १ अधि० ६ क्षण । स्था० 1 सर्वतश्वबुद्धं, कल्प० २ अधि० २ क्षण । बोधिसत्वे, द्वा० २६ श्र० । बोधि प्रा० २३ तीर्थकर दी. सूत्र० १ श्रु० १२ श्र० । श्राचा० । स० । श्रज्ञाननिद्राप्रसु जगत्य परोपदेशेन जीवाजीवाऽऽदिरूपं तत्वं बुद्धवान् बुद्धः । स्वसंविदितेन ज्ञानेनान्यथा बोधायोगात् ( क० । श्रा० म० । ) सबै सर्वदर्शि स्वभावबोधरूपे, ल० रा० घ० । महाबुद्धाचे स दुविधा बुद्धा पत्ता बुद्धा चेत्र । द्विविधा बुद्धाः एते च धर्मत एव भिन्ना न धर्मितया ज्ञानदर्शनयोरन्योन्याबिनाभूतत्वादिति । स्था० २ ठा० ४ उ० । तिचिहा बुद्धा पाचा । तं जहा नायबुद्धा, दंसण बुद्धा, चरितबुद्धा | स्था० ३ ठा० २ उ० श्राचायें, उच्च० १ ० | सूत्र० । श्रा० म० । शाक्यानां तीर्थ कृति, सूत्र० १० १०४ उ० । यो हि पार्श्वजिनकाले का. श्या उत्तरस्यां दिशि कपिलवस्तु संनिवेशे दस्रा मायादेव्याममहिष्यां अणि पर्याय परिवा 1 जानेकपुत्रः प्रमाज, पद वर्षाणि धामपं परिपाप स तामवाप्य काशिकमधेषु धर्मपर्क प्रवाशीतिः तमे वर्षे सिद्ध इति ललितविस्तरा दीन बन्धानाम तिसंज्ञयः य०वि० सर्वे सिर्फ पम्म मि. #1 ज्ञानरूपं याति परेश बुद्धस्य सुपातिक वैभाषिकयोगाचारमाध्यमिकसंतुः शिष्यैरभिगृहीतोऽस्माभिः क्षणिकवादानया शून्यपादादिशब्दे निवेशितस्तत्र तत्रैय समस्युतरो वेदितः १ ० १ ० १ ० नास्तीकविमा जनं सव इति सर्वे बुद्धा भविष्यन्तीति तन्मतेऽभव्या न सन्ति सर्वेषां मुफ्त्ययात्। ०२ अधि० । अथ बौद्धमतं निरूप्यते- तब हि पदार्थ द्वादशानानि तद्यथा चुरादीनि प श्च रूपादयश्च विषयाः पश्च शब्दाऽऽयतनं धर्माऽऽयतनं च, धर्माः सुखायो द्वादश परिक्षानुमान द्वे एव प्रमाणे । तत्र चक्षुरादीन्द्रियाण्यजीवग्रह नैवो. पात्तानि, भावेन्द्रियाणि तु जीवग्रहणेनेति रूपाऽऽदयश्च वि या अजीबोपादानेनोपात्ता न पृथगुपादातव्याः, शब्दाऽऽयतनं तु पौगलिकत्वाच्छदस्या जीवग्रहणेन गृहीतं न च प्रतिपक्कि पृथक पदार्थता तिर्मारमसुखं दुःखं च यद्यसारूपं ततो जयजीपेऽन्तर्भावः । श्रथ तत्कारणं कर्म ततः पौगलिकत्वादजीव इति । प्रत्य क्षं च तैर्निर्विकल्पकमिष्यते तचानिश्चयाऽऽत्मकतया प्र त्तिनिवृत्योरनङ्गमित्यप्रमाणमेव तदप्रामाण्ये तत्पूर्वकत्वा दनुमानमपीति, शेषस्त्याक्षेपपरिहारोऽन्यत्र सुविचारित इति - . - Page #1349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधि बुछ भभिधानयजेन्द्रः । नेह प्रतम्यते । सूत्र० १७०१२०(अकिरियावाद' शम्दे माथकारणास्कथमनम्तरं कार्य, येनाऽऽनन्तर्य कार्यकारमप्रथमभागे १२७ पृष्ठेऽप्ययं प्रतिक्षिप्तः) भावनियम्धनस्वेन कल्प्येतन हितकारणं, नापि तत्तस्य का. बुद्धगर-युद्धकर-पुं०। षट्त्रिंशसमे ऋषभदेवपुरे, कल्प. १ ये, तदभाव एव भायात् । न हि यदभावेऽपि यद्भवति ततस्थ अधि०७क्षण। कार्यमितरस्कारणमिति,व्यवस्था,अतिप्रसवात्। घिनश्यववस्थं बुद्धजागरिया-बुद्धजागरिका-स्त्री० । व्यपोढाशाननिद्राणां प्र. कारणमिति चेन्न। सामि विनश्यववस्था यदि ततो भिन्ना, त. बोधे, "बुद्धा बुद्ध जागरियं जागति।" बुद्धाः केवलावबोधेन | हि तया तदभिसंबन्धाभावादनुपकाराद् विनश्यवस्थम् इति मे च बुखानां व्यपोढाज्ञाननिद्राणां जागरिका प्रबोधी बुद्ध- कुतो व्यपदेशोऽतिप्रसलादेव? उपकारेवा-सोऽपि यदि ततो जागरिका, तां जाप्रति कुर्वन्ति । भ० १२ श०१ उ०। व्यतिरिक्तोऽतिप्रसनोमवस्थाकारी। अव्यतिरेकेविनश्यवध. बुद्धतत्त-बुद्धतत्व-पुं० । संयते, स्था० ३ ठा०४ उ.। स्यैव तेन कृता स्यात् , तामपि यद्यविनश्यवस्थमेव का. बुद्धपडिमा-बुद्धपत्तिमा-स्त्री० । शाक्यसिंहाऽऽदिबुद्धमूर्ती, रणमुत्पादयोरिक प्रकृतेऽपि विनश्यवस्थाकल्पनेन:,विनश्य. व्य०१ उ.1 दवस्थं वेत्तां कुर्यातम्या तर्हि ततोऽर्थान्तरभूता विनश्यदव. बुद्धपुत्त-बुद्धपुत्र-मुं०। बुद्धानामाचार्याणां पुत्र इव पुत्रो बुद्ध स्था कल्पनीया। तया तदभिसंबन्धाभावः अनुपकागद उपका. पुत्रः । प्राचार्याणां शिष्ये, उत्त०१०। रेषा तदवस्थाप्रसनोग्नवस्था च । तथा चापरापरविनश्यदध. बुद्धप्पवाय-बुद्धप्रवाद-पुं० । प्राप्तप्रवादे, पं०व०१द्वार। स्थोत्पादनेनोपक्षीणशक्रित्वात्प्रकृतकार्योत्पादनमनपसरं प्रम: तम् घिनश्यवस्थायास्तत्र समयायासविनश्यवस्थमित्यपि. बुद्धवोहिय-बुद्धबोधित-त्रि० । प्राचार्याऽऽदियोधिते, पा०। पार्तम्, घिहितोत्तरस्वात् । अथाऽभिन्ना,तर्हि विनश्यदवस्था बुद्धमोहियसिद्ध-बुद्धबोधितसिद्ध-पुं० । बुद्धबोधिता प्राचा कारणैकसंमयसंगता.एवं च विनश्यवस्थं कारणं कार्य करो. र्याऽऽदिबोधिताः सन्तो ये सिद्धास्ते बुद्धबोधितसिद्धाः। सि. तीति, कोऽर्थः?-स्वोत्पत्तिकाल एव करोतीत्यर्थः। समायातस्त. दभेदे पा । धा। ल । श्रा। नं० । प्रहा। आ० चू० । थाच कार्यकारणयोः सव्येतरगोविषाणववेककालस्यान्न कार्यबुद्धपाणि (ण)-बुद्धमानिन्-पुं० । पण्डितमानिनि, वयमेव | कारणभावः, तथाऽपि तद्भावे सकलकार्यप्रवाहस्यैकक्षणवर्तिप्रतिबद्धा धर्मतत्वमित्येवं मन्यमाने, " तमेव अविश्राणता, स्वम् । अथ न सौगतस्येवाणोरण्वन्तरव्यतिक्रमलक्षणेन क्षणेन अबुद्धा बुद्धमाणिणो । (२५ गाथा) " सूत्र १७० ११५०। क्षणिकत्वं-येनायं दोषः-किंतु पट्समयस्थित्यनन्तरनाशित्वं बुद्धवयण-बुद्धवचन-न०1 अवगततवतीर्यकरगणधरवचने, तत् । ननु कालान्तरस्थायिनि तथा व्यवहारं कुर्वन् सहस्रक्ष. दश. १००।औ० । भगवतामईतां वचने सर्वस्वभाषा स्थायिन्यपि तत्र तं किं न कुर्यात्? अपिच-पूर्वपूर्वक्षणसत्ता. नुगते वचने, रा० । ( बुद्धवचनातिशया: 'पासेस' शब्दे त: उत्तरोत्तरक्षणसत्ताया भेदाभ्युपगमे तदेव सौगतप्रसिद्धं प्रथमभागे ३१ पृष्ठे गताः) क्षणिकत्वमायातम् । अभेदाभ्युपगमे पूर्वक्षणरूत्तायामेवोत्तर क्षणसत्तीयाः प्रवेशादे कक्षणस्थायित्वमेव, न षट्क्षणस्था. बुद्धसासण-बुद्धशासन-ना बौद्धाऽऽगमे, “सूचमयुक्तिशतोपे यित्वं बुद्धेः परपक्षे संभवति , भेदेतरपक्षाभ्युपगमे चाs. नं, सूचमबुद्धिकरं परम् । सूक्ष्मार्थदर्शिभिर्ट, श्रोतव्यं बुद्धशा. नेकान्तसिद्धिः , पटुतणस्थानानन्तरं च निरम्ययविसनम् ॥१॥" स्था०७ ठा०1"गन्ता च नास्ति कश्चिद्, नाशेन ततः किंचित्कार्य सम्भवतीत्युक्तम् । न चैवं बुगतयः षर बौद्धशासने प्रोक्का: । गम्यत इति च गतिः स्या द्धिक्षणिकत्ववादिनः क्वचित्कालान्तरावस्थायित्वं सिद्धयछुतिः कथं शोभना बुद्धिः? ॥१॥" सूत्र०१७० १२ १० । ति, तद्ग्रहणाभावात् । तथाहि-पूर्वकालबुद्धेस्तदैव विनाशा. प्रा०म० । अनु। नोत्तरकालेऽस्तित्वमिति न तेन तया सांगत्यं कस्यचित्प्रती. बद्धाइसेस-बद्धातिशेष-पुंज तीर्थकतामतिशये,स०३४ सम। यते, अतिप्रसङ्गात् । उत्तरबुद्धेश्च पूर्वमसंभवान्न पूर्वकालेन बुद्धि बुद्धि-स्त्री० महत्तवाऽऽख्ये जडानवबोधस्वरूपे,स्याका तत्तगापि प्रतीयते । उभयत्रामन: सद्भावात्सतस्तत्प्रतीति"भेहा मई मणीसा, विनाणं.धी चिई बुद्धी " पाइना. रित्यपि नोत्तरम् , आकाशसद्भायात्तत्प्रतीतिरित्यस्यापि भा. ३१ गाथा । अध्यवसाये, सूत्र० १७० १२ १० । स्या० । चात् । तस्याचेतनत्वानेसि चेत्, स्वयं चेतनत्वे प्रास्मनः स येन मत्यादिपञ्चविधे ज्ञाने, स्या० । उपयोगो ज्ञानमित्येतच्च शा. स्वभावेन पूर्व रूपं प्रतिपद्यते न तेनोत्तरम्, न हि नीलस्य ग्रहनविशेषः। सूत्र. ११० १२ अ.। तथायिघोहरहिते शब्दा. णमेच पीतप्रणं, तयोरभेदप्रसङ्गात् । प्रथाम्येन स्वभावेन पूर्व मयगच्छति,अन्येनोसरमिति मतिस्तथासत्यनेकान्तसिद्धिः। श्रषणमात्र हाने, यवाह-"इन्द्रियार्थाऽऽश्रया बुद्धिः । " स्वयं चात्मनश्चंतनस्ये किमन्यया पुण्या?, यस्याःपा. ज्ञान तथाविधन गृहीतार्थतवपरिच्छेदः । द्वा० २३ द्वा०। णिकत्वं साध्यते। अथ स्वयं न चेतन प्रास्मा, अपितु बुद्धः परप्रकाश्यत्वम् । द्वा० ११५०। बुद्धिसंबन्धात् चेतयत हत्यत्राप्यचेतनस्वभावपरित्यागे बुद्धेः क्षणिकत्यनिराकरणम् नित्यताऽऽत्मनोऽभ्यधुद्धि कल्पनाविफल्यं च, स्वयमपि ततथारये (क्षणिकत्वे) वा तस्याः ( बुद्धेः ) न ततस्सं संबन्धात् प्रागपि तथाविधस्वभावाविरोधात् । तत्संबन्धे. स्कारः, तदभावान स्मरणं, तदभावाच्च न प्रत्यभिज्ञा35. अपि तत्स्वभावापरित्यागे 'शानसंबन्धादात्मा चेतयते' दिपबहार: न हि विनटात्कारणात् कार्यम्, अन्यथा चिरतरविनष्टादपि ततस्तत्प्रसाव, अनन्तरस्य कारणस्वे इत्यपि विरुद्धमेव । श्रथ तत्समयायिकारणत्वात् चेतय. सर्वमनन्तरं तत्कारणमासज्येत । अथैकार्थसमवायिज्ञान- ते, न स्वयं, चेतनस्वभावोपादानादिति तर्हि येन स्वभामनन्तरं तत्कारणं, नः ज्ञानस्याऽऽत्मनो भेदे समवायस्थ वेन पूर्वशानं प्रति समयायिकारणमात्मा तेनैव यद्युत्तरं प्र. माऽतिप्रोता त्रिपिटकामवायी इत्यसिद्धम् वि. ति, तथा सति पूर्वमेव तस्कार्य ज्ञान सकल मवेदनाविक Page #1350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भभिधानराजेन्छः। ले कारणे सति कार्यानुस्पसियुका तस्याऽतत्कार्यस्वप्रसवात् । बनिरम्पयविनाशाऽऽत्मकं प्रसिखंबीयस्य.म तथाविधाअथ पूर्व सहकारिकारणामाधान सत्कार्य, किं पुनः स्वयमस. स्यस्य तयोराविर्भावतिरोभावरूपत्वेन तेनालीकरणात्, यथा मर्थस्याकिञ्चित्करेण सहकारिता किशिकरत्येऽपि पनि च सांस्यस्य ती प्रसिद्धो न तथा बौद्धस्येति कथं नाम्यतरा. सत्ततो भिवं क्रियते प्रतिबन्धासिद्धिरनवस्था पर अभिभस्य सिद्धता। न च शम्ममात्रसिद्धी हेतुसिद्धिः, वस्तुसिजीव करणेऽप्यास्मन एच करणमिति कार्यता । कशिवभिन्नस्य स्तुन एव सिद्धस्य हेतुत्वात् । तदुक्तम्-" तस्यैष व्यभि. करणे तबुद्धिरपि,ततः काशिदभिन्नेति न एकाम्तेन तस्याः चाराऽऽदौ,शब्देऽप्य व्यभिचारिण। दोपवत्साधनं यं,पस्तु. चणिकता (१ गाथा टी०) सम्म०१ काण्ड । नो वस्तुसिद्धितः॥१॥" इति । अथ प्रससाधनमिति प. (१गाचा टी.) बुझेर्गुणस्वम् तः तदा साध्यविपर्यये बाधक प्रमाणाप्रदर्शनावकाग्तिकता, तथाहि-गुणो बुद्धि, प्रतिषिद्धधमानद्रव्य-कर्मभावे सति | नह्यत्र प्रतिबन्धोऽस्ति वेतनस्योत्पाद-माशाभ्यां भविता सत्तासंबन्धिपात्योपःमतिविध्यमानद्रव्य-कर्मभावे सति व्यमिति । यदपि प्रकल्पितम्-"वत्सविवृद्धिनिमित्त क्षीरस्य सत्तासंबन्धी स स मुणः, बथा, रूपाऽऽदिः, तथा च बुद्धि, यथा प्रवृत्तिरहस्य । पुरुषविमोक्षनिमित्तं, तथा प्रतिः प्र. सस्मा गुपयमच प्रतिषियमान ब्य-कर्मस्वमसिद्धं बुद्धः। धानस्य ॥१॥"( साझयकारिका ५७) इति तदपि न सम्पर। सथाहि-बुद्धिव्यं न भवति, एकद्रव्यत्वाद्, यददेकद्रव्यं यतः क्षीरमपि न स्यात येणं वत्सबिवृद्धि तस्याधाय प्रब. सत्तद् द्रव्यं न भवति, यथा रूपाऽऽदि, तथा च बुद्धिः, त. सते. कि तर्हि कादाचित्केभ्यः स्वहेतुभ्यः प्रतिनियाभ्या स्मान द्रव्यमान चायमसिद्धो हेतुः। तथाहि एकद्रव्या युद्धः। समुत्पत्तिमासादयति । तब्च लब्धाऽऽस्मलाभ बस्सविपरित सामान्य-विशेषचस्वे सस्ये केन्द्रिय प्रत्यक्षत्वात,यद्यत्सामाम्य निमित्ततामुपयातीलाचेतनमपि प्रवर्तत इति व्यपदिश्यतेन विशेषवावे सत्येकेन्द्रिय प्रत्यक्षं तत्तदेकद्रव्यं, यथा रूपाऽऽदि. स्वेवं प्रधानन्य कादाचित्की प्रवृत्तिर्युका, निस्थयात्तस्यायो तथा व बुद्धि तस्मादेकद्रव्यानच 'ए केन्द्रिय प्रत्यक्षत्वान्' स्वभावाच्च। तथाहि-न तावत्कादाचिरककारखसभिधानाप. इत्युच्यमाने भात्मना व्यभिचारः, तस्यैकेन्द्रियप्रत्यक्षत्वे वि त्ता कादाचिस्की शक्तिरस्य युक्ता तदभावात् नापि स्था. यादात् ।जापि वायुना, तत्रापि तस्प्रत्यक्षत्वस्य विवादाऽऽw. भाविकी सदा सत्रिहिता, अधिकलकारणत्वेन सर्वस्थाभ्युष. चत्वात् , तथापि रूपत्वाऽऽदिना व्यभिचारस, तन्निवृष्यर्थ यनिःश्रेयसलक्षणस्य पुरुषार्थस्य युगपतुत्पत्तिप्रसाात् ।' 'सामान्य विशेषवश्वे सति' इति विशेषणोपादानम् ।नच रूप. नव बुद्धि-चैतम्ययोरभेदेऽपिचैतम्यस्याऽऽरमस्वमप्रतिषिद्ध स्यान्तःकरणग्राह्यतया द्वीन्द्रियग्राह्यता, चतुरिन्द्रियस्यैव 'च, मेव, यतो नास्माभिः चैतन्ये प्रात्मशनिवेश प्रतिषिष्य. तुषारूपं पश्यामि' इति व्यपदेशहतो,तत्र करणत्वसिद्धि,म. ते, किं ताई यस्तत्र मिस्यरवस्वक्षगो धर्मः समारोपितः स पब मसस्त्वाम्तरार्थप्रतिपत्तावाऽसाधारणकरणस्वाना प्रक निषिध्यते, तनित्यत्वेऽक्षसंहतेफल्यप्रसक्के, तरपस्पर्ष दव्या बुद्धिः, सामान्य विशेषवस्वे भगुणवत्वे च सत्यचासुषप्र. स्वात्तस्यानित्यत्वे चोत्पत्तरसंभवात् । नहिबढः सदाऽस्तिस्ये स्वतत्वात् , शब्दवत् । तथा.नकर्म बुद्धिः, संयोगविभागाका तदर्थ जनतेन्धनमादवीत । तन्न नित्यैकरूपं चैतम्यं युडिस रणत्वात् , यद्यत् संयोगविभागाकारणं तत्तत्कर्म न भवति, तम् । ( ३ गाथा) । सम्म०१ काण्ड । अवप्रहारूपे मति. यथा रूपाऽऽदि, तथा च बुद्धिः तस्मान कर्म । तस्मात्सिद्धः मानवस्ये, नं० । अवग्रहे बुद्धिरपायधारणे मतिः ।। प्रतिषिध्यमानद्रव्य-कर्मभावो बुद्धेन च सत्तासंबन्धित्वमा . अष्टौ बुद्धिगुणाः। ते चामीसिखं बुद्धे,तत्र'सत्' इति प्रत्ययोत्पादात्। न च सत्ता भिमान सुस्मुसइ पढिपुच्छर, सुइ गिएइ यईए पाऽदि। सिद्धा, तद्भेदप्रतिपादकप्रमाण सद्भावात् । तथा हि-यस्मिन् भिद्यमानेऽपि यन्न भिद्यते तत् ततोऽर्थान्तरं, यथाभिधमाने ततो अपोहए वा, धारेइ करेइ वा सम्मं ॥ ५६१ ॥ बनाऽऽदावभिद्यमानो देहा, भिद्यमाने च बुझादौन भिद्यते विनययुक्तो गुरुमुखात् भोतुमिच्छति एभूपते, पुनः र सत्ता, द्रव्यादौ सर्वत्र 'सत्सद्' इति प्राभिधानदर्श-च्छति प्रतिपञ्चति-तरधीतं श्रुतं निहितं करोतीत्य मात्, अन्यथा तदयोगात् । सा च बुद्धिसंबद्धा, ततस्तत्र वि. र्थः। तचाऽधीतं धतमर्थतः शृणोति । भूस्वाऽचप्रहेण ए. शिष्टप्रत्ययप्रप्रतीते। तपाहि-यतो यत्र विशिष्टप्रत्ययास तेन | हानि, गृहीत्वा चाया हिते पोलोचयति-किमिदमिस्थम् । संबद्धः, यथा दण्डो देवदत्तेन, भवति च वृद्धवादी सत्तास तान्यविशE समाचार्यविशार. स्तत्प्रत्ययः ततस्तया संबद्धेति । 'प्रतिषिध्यमानभव्य-कर्म न किञ्चित्स्वबुजाऽप्युस्प्रेक्षते । ततस्तबमातरमपोहते.. स्वाद्' इत्युच्यमाने सामान्याऽऽदिना व्यभिचारः तमिवृष्यर्थे । बमेतयदादिष्टं गुरुभिरेवं निचिनोति। निधितेचा सदैनथे। * सत्ता-संबन्धित्याद्' इति वचनम् । सत्ता-संबन्धिस्वाद इत्युच्यभाने द्रव्य-कर्मभ्यामनेकान्तः, तनिवृष्यथै प्रतिषि तसि धारयति, करोति च सम्यक्तदुक्तानुष्ठानं.भुताऽऽशानुः ष्ठानस्यापि तदाधरणक्षायोपशमगुवचित्ताऽऽर्जनाऽऽदितु. ध्यमानद्रव्य-कर्मभावे सति इति विशेषणं, तदेष भवत्यतोऽ. स्वेन भुतप्राप्युपायस्वादिति । अथवा-यपदाहापयति कार्य. नुमानात बुझेर्गुणत्वलिखि(मस्मदापुपलभ्यमानस्वं च बुद्ध जातं गुरुस्तत् तत् सम्यगनुप्रमभ्यमानः श्रोतुमिच्छति शु. स्लदेकार्थसमवेतानन्तरमानप्रत्यक्षावालासिद्धम् । (१ गाथा भूपति । पूर्वनिरूपितम कार्यकरणकाले पुनः पृष्मृति प्रति टी०) सम्म०१काएड । यदपि चिपस्यानुभवप्रसाधनाय पृच्छति । चाराधितस्य गुरोरम्तिके सूत्रं. तदर्थवा परैरनुमानमुपन्यस्यते यद्यदुत्पत्तिमय-नाशित्वाऽविधर्मयो सम्यग् शृणोति । श्रुतं चापप्रहेण गृहाति, इत्यादि पूर्ववत् । गि तत्तदचेतनं, यथा रसायः तथा चे बुद्धिरिति स्वभावहे. अम्ये तुम्यामक्षते-प्रतिपृऐन गुरुणा पुनरादिषध संल. तुरिति । तत्राऽपि वक्तव्यम्-किमिदं स्वतन्त्रताधनम्, माहो. इचः सम्यक शृणोति, श्रुतं पापग्रहेण सभ्यागुडातीत्यादि श्वित् प्रससाधनमिति तत्र स्वतन्त्रसाधने ऽन्यतरासि तथैव, यावस्करोति च गुरुभणितं सम्पगिति । एवं गुर्षायो हेतुर्यतो यथाविधमुत्पत्तिमत्वमपूर्वोत्पादलक्षणं माशिस्वं राधनविषयत्वेनापि गुणा ग्याल्यायो, सुताबासी Page #1351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०८) अभिधानराजेन्द्रः। बुषिसागर मूलोपायत्वाद् गुराधनायाः । इति नियुक्तिगाथाऽर्थः ।। तसाहियाऽवयधिवागपरिणामा। हियनिस्सेसफलवई, बुद्धी सुस्वसई उ सोङ, सुयमिच्छइ सविलमो गुरुमुहायो। परिणामिया नाम ॥१॥” इति । अभयकुमारादीनामिवेति। परिपुरका तं गहिय, पुखो बि निस्संकिय कुणइ ।५६२ स्था० ४ ठा०४ उ. । नं० । कर्म० । श्रा०क० । दर्श। सामा० म.शा० । (अत्र विस्तर: 'परिणामिया' सुबइ तदत्थमहीउं, गहणेहाऽवायधारणा तस्स । शन्देऽस्मिन्नेव भागे ६१६ पृष्ठे गतः)। परमातिशये, तिम्रो सम्मं कुणइ सुयाऽऽणं, अपि तो मुयं लहइ ॥५६३॥ हि बुद्धयः परमातिशयरूपाः प्रधचने प्रतिपाद्यन्ते । तद्यथाद्वितीयं ब्याख्यानमाह कोष्ठबुद्धिः, पदानुसारिणीबुद्धिः, बीजबुद्धिश्च । नं०। परलो. सुस्सूसइ वा जं जं, गुरवो जंपति पुन्वभणियो य । । कप्रवणायां बुद्धी, उत्त०२ अ०। रुक्मिवर्षधरपर्वते महापौ एडरीकहरदेवतायाम् , स्था०२ ठा०३ उ०। जं० । बुद्धिसाफकुणाद पडिपुग्छिऊणं, सुखइ सुतं तदत्थं वा ॥५६४|| ल्यकारणत्वात् अहिंसीयाम् , यदाह-"याहत्तरिकलकुसला, तिम्रोऽपि व्याख्यातार्था एव, मवरं द्वितीयगाथायां शृणो पंडियपुरिसा य पंडिया चेव । सब्यकलाणपवर जोधम्मकला ति तदर्थ श्रुतार्थम् , पवंच सूत्रतोऽर्थतश्च अधीत्य श्रुतं त- न याति ॥१॥" धर्मचाहिंसेव । प्रश्न०१ संव० द्वार। तस्तस्य श्रुतम्य ग्रहणेहापायधारणाः सम्यकरोतीत्यत्र संब. त्यत्र सब बुद्धिंदिय-बुद्धीन्द्रिय-न । स्पर्शरसनाघ्राणचक्षुःश्रोत्रलक्ष. ज्यते । तथा (सुयारा ति) श्रुताssशां श्रुतगेलाऽनुष्ठानं स णेषु ज्ञानेन्द्रियेषु, सूत्र.१६० १०१ उ०। म्यकरोतीत्यावृष्याऽत्रापि संबध्यते । एवं च कुर्वाणोऽन्यद. पि श्रुतं लभत इति तृतीयगाथायाम-"सस्ससर पि. बुद्धिकूड-बुद्धिकूट-न० । दक्मिवषेधरपवते महापण्डरीछा सुणे ति" एतावाभियुक्तिगाथाऽवयवो व्याख्यातः। कदइसुरीकूटे. जं०४ वक्षः। गृह्णातीमादेरर्थः प्राकथितः स्वयमेव द्रष्टव्य इति ॥ ५६४ ॥ बुद्धिजुत्त-बुद्धियुक्त-प्राबे, पं०व० ४ द्वार । विशे। ध०:नं । बुद्धयतेऽनयेति बुद्धिः। अश्रुतनिश्रुतम- बुद्धिपरिसा-बुद्धिपर्षद-स्त्री०। बुद्धिमत्पुरुषसमन्वितस्य रातिक्षाने, स्था। सः परवादिप्रवादपरीक्षणार्थे पर्षभेदे, वृ० १ उ० १ प्रक० । चाउम्विहा बुद्धी पसत्ता । तं जहा उप्पइया, वेणइया, बुद्धिबोहिय वृद्धिबोधित-त्रिका नन्दीवृत्ती" सित्तो गाहण" कम्मिया, पारिणामिया । गाथाविचारे बुद्धद्वारे सर्वस्तोकाः स्वयं बुद्धसिद्धाः ,तेउत्पत्तिरेव प्रयोजनं यस्याः सा औत्पत्तिकी, न तु क्षयोप- भ्योऽपि प्रत्येकबुद्धसिद्धाः म्वख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि बुद्धि शमकारणमस्याः । सत्यं , किं तु स खल्वन्तरजत्वात् सर्व. बोधितसिद्धाः संख्येयगुणाः, तत्कथम् ?, यतो बुद्धिबोधिबुद्धिसाधारण इति न विक्ष्यते , न चान्यच्छास्त्रकर्माभ्या- तानां केवलश्राद्धसभाऽने व्याख्यामस्य दशवकालिकवृत्यासाऽऽदिकमपेक्षत इति । अपि च-बुध्युत्पादात्पूर्व स्वयम. दौ निषेधदर्शनात्, इति प्रश्ने,उत्तरम् -बुद्धिशब्देन तीर्थकर्यः, दृष्टोऽभ्यतश्चाथुतो मनसाऽपयनालोचितस्तस्मिन्नेव क्षणे यथा- सामान्यसाव्यश्वोच्यन्ते, तत्र तीर्थकरीणामुपदेशे विचार बस्थितोऽर्थों गृह्यते यया सा लोकायाविरुदेकान्तिकफल एवं नास्ति, सामान्यसाध्वीनां तु यद्यपि केवलाद्वानां पर. बती बुद्धिरीत्पत्तिकीति । यदाह-"पुबमाहिट्टमसुयम-वेय स्तादुपदेशनिषेधः, तथाऽपि श्राद्धीमिश्रितानां कारणे केव. तक्खणविसुद्धगहियस्था । अव्याहवफलजोगा, वुदी उपपत्ति. लानां च पुरस्तादुपदेशः संभवत्यपीति न काऽप्यनुपपत्तियाणाम ॥१॥" इति । नटपुत्ररोहकाऽऽदीनामिवेति । (अत्र रिति । २५४ प्र० । सेन०३ उल्ला० । विशेषः 'उत्पत्तिया' शब्दे द्वितीयभागे ८२५ पृष्ठे गतः) । तथा बुद्धिमंत-बुद्धिमत-त्रि० । धीमति, पञ्चा०१ विव० । औत्प. विनयो गुरुशुश्रूषा,स कारणमस्यास्तत्प्रधाना वैनयिकी । अपि त्तिक्यादिचतुर्विधबुद्धयुपेते, सूत्र. २ श्रु. ६ अ । हिताच-"कार्यभरनिस्तरणस-मर्था धर्मार्थकामशास्त्राणाम। गृही. हितविवेकविकले, दर्श०१ तव । पण्डिते, पश्चा० ७ विव० तमूनवार्थमार-लोकद्वयफलवती चेयम् ॥२॥" इति । यदाह- बुद्धिल-बुद्धिल-पुं०। परस्य बुद्धि लात्युपजीवतीति बुद्धिलः। "भरणित्थरण समस्या, तिवग्गलुत्तस्थगहियपेयाला। उभयो परबुद्ध्युपजीविनि स्वयमो,तस्स पंडियमाणिस्स, बुद्धिलस्स लोगफलवती, विणयसमुत्था हबइ बुद्धी ॥ १॥” इति । नै दुरप्पणी। मुद्धं पाएग प्रक्कम्म,बादी वायुरिवागतो ॥१॥"व्य. मित्तिकसिद्धपुत्रशिध्याऽऽदीनामिवेति । (पत्र विस्तारम् १०उणोघा स्वनामख्याते कुकुटपोषके श्रेष्ठिनि,उत्स.१३१०। 'बेणया' शब्दे वक्ष्यामि । अनाचार्यकं कर्म, साऽऽचार्यक बद्धिवद्धण बुद्धिवर्द्धन--न । बाँधो वुद्धिरवगम इत्यर्थः । शिल्पं, कादाचित्कं वा कर्म , नित्यव्यापारस्तु शिल्पमि. ति कर्मणो जाता कर्मजा अपि च कर्माभिनिषेशोपलब्ध बुद्धि वर्धयतीति थुद्धिवर्धनम् । बुद्धिजनके. पं०चू०१कल्प । कर्म परमार्था काभ्यासविचाराभ्यां विस्तीर्मा प्रशंशा फल बुद्धिविणीय-बुद्धिविनीत- त्रिबुद्धिचतुष्कोपेते विनीते,व्य) लवती चेति । यदाह-"उवोगदिट्टसारा, कम्मपसंगप. ३ उ०। (अत्र विस्तरः 'पायरिय' शब्द द्वितीयभागे ३२५ रिघोलनविसाला। साहुक्कारफलवती, कम्मसमुत्था हनइ पृष्ठे गतः) बुद्धी॥१॥" इति । हैरण्यककर्षकाऽऽदीनामिवेति परिणा बुद्धिविल्माण -बुद्धिविज्ञान-न० । मतिविशेषभूतात्पत्तिक्यामस्तीकाल: पर्वावलोकनामिज : दिबुद्धिरूपपरिच्छेदे , भ० ११ श० ११उ० । रू प्रयोजनमस्यास्तत्प्रधाना वेति पारिणामिकी। अपि च-अ बुद्धिमागर-बुद्धिसागर-पुं० । अभयदेवसूरिगुगै, "तस्याचा नुमानकारणमात्र दृष्टान्तः साध्यसाधिका, बयोधिपाके च यजिनेश्वरस्य मदय द्वादिप्रतिस्पर्धिनः, तद्वन्धोरपि बुद्धिपुषीभूनाऽभ्युदयमाक्षाला चेति । यदाद "अणुनाणद्दे उदिटुं सागर इति ख्यातस्य सूगर्भवि । छन्दाबन्धनिबद्ध Page #1352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धिसागर बादि श्रीनिवारित निवेश्चारित्रचूडामणेः ॥ १ ॥ " ० २ ० २ वर्ग १ अ० । पञ्चा० । स्था० । ( १३२६ ) अभिधानराजेन्द्रः । बुद्धिमिद्ध-बुद्धि सिद्ध- पुं० । परिनिष्ठितचतुर्विधबुद्धी सिद्धभेदे आ० म० । " विपुला विमला सुहुमा, जस्स मई जो चउब्बिहाए वा । बुद्धी संपन्न, स बुद्धिसिद्धो इमा साय ॥ विपुला विस्तारवती, एकपदेनानेकपदानुसारिणीति भावः । विमला संशयविपर्ययानध्यवसायमलरहिता, सूक्ष्मा अत्य बोधयहितार्थपरिच्छेदसमर्था यस्य मतिः स बुद्धिः यदि वा पश्चतुर्विधया श्रीपति फ्यादिदमि या बुद्धधा सम्पन्नः स बुद्धिसिद्धः । सा च चतुर्विधा बुद्धिः । अ०म० १ प्र० । (औत्पत्तिक्यादिबुद्धिविचारः स्वस्वस्थाने द्रष्टव्यः ) दोवाइ (ए) बुद्धोपपातिन् पुं० [प्रायार्थस्योपधात कारिणि उत्त०] [१०] युगप्रधानाचार्य कुशियो दाहरणम् 'विजय' शब्दे वदयते ) बुब्बु- देशी-वृन्दे दे० ना०६ वर्ग ६४ गाथा | बुब्बु- बुदबुद - पुं० । पानीयप्रस्फोटके, उत्त० १६ श्र० । तोयशलाकायाम्, यत्र वर्षे निपतति पानीयमध्ये बुदबुदास्तो यशलाका रूपा उत्तिष्ठन्ति तस्मिन्वर्षे च । नि० १६ उ० । चू० विशे० । चं०प्र० । अव० | " पञ्चा०४ विष० । जानाने, सूत्र० १ श्रु० १ ०२ उ० । श्रवग ततस्ये अष्ट० २६ अष्ट० । एकचत्वारिंशन्महाग्रहे स्था० । · 3 दो बुहा | स्था० २ ठा० ३ उ० | सू०प्र० । चन्द्रपुत्रे ज्योतिष्कभेदे, प्रज्ञा० २ पद । स्था० । बुधस्वकार्ययुक्रे, स्था० ।" पठकः पाठकश्चैव ये चान्ये कार्यतत्पराः सर्वे व्यसनिनो राजन् ! यः क्रियावान् स पण्डितः ॥ १ ॥ " स्था०४ ठा०४ उ० "मृगा यथा मृत्युभयस्य भीताः, उद्विग्नबासे नमन्ति निद्रा एवं विशेषबुदाः, संसा रीता न लभन्त निद्राम् ॥ १ ॥ " श्र००३ श्र० । पण्डिते, " चउरा निउणा कुसला, छेना विउसा बुहा य पत्तट्ठा पाइ० ना० ६० गाथा । " अथ वेतन निरुपृच्छति से गां भंते! एवं बेअड्डे पर अड्डे पए है। गोयमा ! अड्डे णं पव्वए भरहं वासं दुहा विभमाभिमाच तं महा-दाहिणभर च उत्तरभर च । बेगिरिकुमारे इत्य देवे महि - से लेाद्वेगं गोथमा एवं मुच बेड् पव्यए बेअड्डे पब्चए। अदु तरं चणं गोअमा ! बेअडस्स पन्चयस्स सासए सामधे पते । जं कपास सि 1 ग " कचाइ अस्थि, कमाइ भविस्सर भ यह मंदिर धुवे खिए सासए अक्लए अ अडिए सिथे। ( से केणमित्यादि ) श्रत्र प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् उत्तरस् त्रे तु वैतान्यः पर्वतः समिति प्राग्वत् भारतं वर्षे भरतक्षेत्रं द्विधा विभजन् द्विधा विभजन् तिष्ठति । तद्यथा दक्षि णार्द्धभरतं च उत्तरार्द्धभरतं च । तेन भरत क्षेत्रस्य द्वे अद्वै करोतीति वैताढ्यः पृषोदराऽऽदित्वाद्रूपसिद्धिः । श्रथ प्रका रान्तरेय नामान्यर्थमादयि बुयाश--बुवा-श्र० [पयाबिगार मनिया-ए जाय पलिए परिवस याणा, रा परे पंचसिहा कुमारा । (१०) " सूत्र ० १ ० ७ ० । बुलं बुआ-देशी- बुदबुदे दे० ना० ६ वर्ग ६५ गाथा । बुम बुष-न० । यवाऽऽदीनां तुषे स्था० ८ ठा । बुद्ध-बुध-पुं० [विशिष्टविधि बुजण बुधजन- पुं० | समयजलोके, पञ्चा० १६ विव० । बुहष्फइ - बृहस्पति- पुं० | "स्पयोः फः " ॥ ८ ॥ २५३ ॥ - "नि स्पस्य कः । सुरगुरौ प्रा० २पाद । . बेभन स्तविशेषेा० १.०१ ० ०० 1 जी० । कल्प० औ० । श० सू० प्र० । जं० नि० भ० वनस्प तिविशेषावयवविशेषे भ० २ श० ५३० । " ग्वालिया-वृनालिका श्री० [दूरभृतायां विद रूपायां नालिकायाम् भ० २०५ उ० । , बुहरू बुरूप पुं० बुध्यते यथास्वस्थितं वस्तुतश्वं सारत, रविवार इति प्रकृष्टबुध बुधपः । नैसर्गिकाऽऽधिगनिकान्य तर सम्यग्दर्शन विशदीकृत ज्ञानशा लिनि प्राणिनि स्था० २ ठा० १३० ॥ बे· ब्रू-- घा० । कथने, "स्वराणां स्वराः” ॥ ८ । ४ । २३८ ॥ इति ऊकारस्थाने एकारः । बेमि । ब्रवीमि । प्रा० ४ पाद | सर्वशापदेशेनाहमिदं सर्वे पूर्वोक्तं प्रतिपादयामि । प्रश्न० २ संव०द्वार । द्वि--त्रि० । " द्वेः दो बे " || ६ | ३ | ११६ ॥ इति द्विशब्दस्य ''देश मेरे दो बेि यं । " प्रा० ३ पाद । बेड्डू - चैताढ्य - पुं० | भरताऽऽदि क्षेत्रस्य द्वे श्रर्दे करोतीति बै ताढ्यः । पृषोदरा ऽऽदित्वाद् रूपसिद्धिः। भरताऽऽदि क्षेत्र विभा गफारिणि ते जं वो महर्द्धिको यावत्करणात् " महज्जुई " इत्यादिपदसंग्रहः पल्योपमस्थितिकः परिपतति । तेन चैनाढ्यः इति नामान्यर्थो विजयद्वारवद् ज्ञेयः सदृशनामकस्वामिकत्वात् । श्रदुत्तरं च णं" इत्यादि प्राग्वत् । जं० ५ पक्ष० । ( श्रयं सव्याख्या ' भरद्द' शब्दे दर्शयष्यते । भरतैरवतयोः क च्छादिषु च प्रत्येकमेकैकः स्था० ६ ठा० ३३० ॥ जंबू ! कच्छेदड्डे नव कूडा पपत्ता । तं ज हा - "सिद्धे सुकच्छ खंडग, पाणी अड्डे पुन तिमिसगुहा । नामाई ॥ १ ॥ 2 59 बुढाहिगय- बुद्धहृदय-पुं० । बुद्धं हृदयं मनो यस्य स बुद्धहृद यः । विवेकमनस्के, कार्येध्य मूढलक्ष्ये, स्था• ४ ४० ४ ० । एवं ०जाब पुक्खलावइम्मि दीड अड्डे, एवं वच्छे दीहवेच. बुभुक्खा बुभुक्षा- स्त्री० । ध, स्था० १० ठा० । एवं जयमंगला दीवे ॥ जंबू विपमे ३५३ Page #1353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोगिल्ल (१३३०) भभिधानराजेन्डः। बक्सारपम्पए नव कूडा पसत्ता । तं जहा-"सिद्धे य वि- म्भवाः अलसा प्रतीताः मातृवाहकाः ये काष्ठशकलानि ज्जुनामे, देवकुरा पम्हकणगसोबत्यो । सीमोदाए सः | समोभयाग्रतया सम्बध्नन्ति, पास्याकारमुम्बा वासीमुखाः "सिप्पिय ति" प्राकृतस्यात् शुक्लयः शङ्वाः प्रतीताः श. बजे, परिकर व बोद्धध्वे ॥१॥" नंबू ! पम्हे दीहवे. बखनका तदाकृतय एवात्यन्तलघषो जीवाः पराटकाः क. भड़े नव कूडा पत्ता । तं जहा-"सिद्ध पम्हे खंडग माणी पर्वकाः जलौकसः दुष्टरकाकर्थिरायः चन्दनका अक्षाः, शे. भए" एवं चेबजाव ससिलाबइम्मि दीहभ, एवं पास्तु यथासम्प्रदाय वाच्याः, वर्षाणि द्वादशैष विति अप्प दीप एवं जाय गंधिलावइम्मि दीहयेयले नव सूत्रनवकार्थः। उत्त०३६ अ. . बेड-देशी-नावि, दे० ना०६ वर्ग १५ गाथा । कूडा पछत्ता। तं जहा-"सिद्धे गंधिल खंडग, माणी बेया एम तिमिसगुहा गंधिलावा बेसमणे, कूडाणं होंति नामाई | बेटा-देशी-श्मश्रुणि, दे० ना० ६ वर्ग ५ गाथा। ॥१॥" एवं सम्बेसुदीहवेयड्डेसु दो फुडा सरिसना बेयगिरिणाह-वैतात्यगिरिनाथ पुंगवताव्यपर्वतदेवे, स्था. | ठा०। मगा, सेसा तेव। अं! मंदरउत्तरेणं नीलवते वासहरप-बेली-देशी-स्थूणायाम, ३. ना०६ वर्ग ६५ गाथा । "थूणा पर बाग पत्ता । जहा-"सिद्धे नीलवएँ विदेहे, दिअली बेली।" पाह• ना० १४३ गाथा। सीया किची पनारिकताय । भवरविदेहे रम्मग-कृडे उ लग-बलीवई-पं० वषभे. "सारणो दिया. तागो वेनगो बसणे ॥१॥" स्या. ६ ठा। सवे वि दोहरे यड्डः तस्स कुंभगारस्त । " मा०म०१ अ.। पम्पया पणवीस गोयमा उच्चत्तेणं पाता । स. २५ बेह-बेध-jor बेधनं बेधः। विशेशकुन्ताऽऽविनाशनेण भेदने, सम० । सम्बे विगं बहषेयपब्वया उधं उच्चचेणं | स.११ मत। कीलिकाऽऽदिभिर्नासिकाऽऽविवेधने, आव. पसत्ता ।.१... सम । दर्श०। भाव ४० रन्धोत्पादने, धर्मानुषेधे, वर्धवेधे घूतविशेषे, सूत्र १श्रु०६०। पेमार-ताब्याट-म० । वैतात्यगिरिनाथदेवनिवासाद् वै. बेहाइय-वेधातीत-म.बेधी धर्मानुबेधस्तस्मादतीतम् । भ. तात्परम् । था. ठा. १ उ. । सर्वेषां बताख्यानां धर्मप्रधाने, "बेहाइयं च णो षए । " बेधो-धर्मानुषेधः, स्वनामपातेहरेस्था० ठा। तस्मादतीतमधर्मप्रधान बचो नो वदेत् । यदि बा-बेध इति बेईदिय-दीन्द्रिय-० । जीपभेदे, उत्तः । वर्धवेदो घूतविशेषः , तद्गतं वचनमपि नो बदेदास्तां ता. ताताब जीन्द्रियवक्तव्यतां प्रतिपिपादयिषुराह- यत्क्रीडनमिति । सूत्र०१४०६०। बेईदिया जीवा, दुबिहा ते पत्तिया। बेहिय-दैषिक-न० । पेशीसंपादनेन द्वैधीभावकरयोग्ये, द. पजत्तयमपमता, तेर्सि मेये सुणेह मे । १२६ । श०७० भाचा। किमियो सोमंगला वेष, अलमा माइवाइया । द्वयाहिक-त्रि० । द्वाभ्यामहोभ्यां जाते, ज्यो०२ पाए। पासीय सिप्पीया, संखा संखणगा तहा ॥ १२७॥ बोह-देशी-चुके.देना०६ वर्ग १६ गाथा . पोषाणुनपा चेव, तहेव य बराडगा। बाद-देशी-मुस्खमित्यर्थे, दे० ना० ६ वर्ग RE गाथा। नलगा जालगाव, चंदणा य तहेव य ।। १२८।। बौदि-बोन्दि-स्त्री० । शरीरे, औ०। स्था० । तं० । बोम्तिः, त. इति दिया एप, गहा एवमायभो । नु, शरीरमिति पर्यायाः । अनु० प्रश्न | हासभा पा० सोएगदेसे ते सम्बे, न सम्बत्थ वियाहिया ॥ १२६ ॥ म०। अव्यक्तावयवशरीरे, भ०१श०६ उ०। पश्चा०। प्रश्न। संतई पप्प ऽणाईया, अपज्जवसियावि य ।। काये, प्राव०५०। बौदिचिय-बोन्दिचित-पुं० । भव्यक्लावयचं शरीरं बोन्दिः , ठिई परच साईया, सपअवसियावि य ॥ १३० ॥ तया चिताः पुनला येते तथा । भ०१ श० उ०। भ. पासाई पारसेष उ, उकोसेण वियाहिया। व्यक्ताऽषयवशरीररूपतया चितेषु,भ० १० १०८ उ०। देईदियमाउठिई, अंतोमहत्तं जहन्नयं ॥ १३१ ॥ बोदिधर-बोन्दिधर-पुं० । प्रधानसुव्यक्कावयवशरीगेपेते, वं० संखिजकालमुकोसा, अंतोमुहुत्तं जहन्मयं ।। प्र०२०पाहु०। ईदियकायनितं कायं तु भमुंचयो ।। १३२ ॥ बोंदी-देशी-रूप-मुख-तनुषु, देना० ६ वर्ग ६६ गाथा। भयंतकाममफोस,भंतोमुहतं जहमयं ।। बोकड-देशी-छागे, दे ना.६ वर्ग ६६ गाथा। बेईदियनीयाणं, अंतरेयं वियाहियं ।। १३३ ।। बोकस-बोकस-पुं० । अनार्य देशभेदे, तत्र जाते म्लेच्छभेदे च । एएसि पसनो चेष, गंपभो रमफासमो। सूत्र०१ श्रु०६०प्रव० । प्रक्षा । संठाणादेसभोषाषि, विहाणाई सहस्सभो ॥ १३४॥ बोकमालिय-बोकसालिक-पुं० । तन्तुवाये, भाषा०२६०१ (रदिया यादि) नवकम् वमपि प्रायस्तथैव. न. ५०१०२ उ०। प्रदीन्द्रिपाभिक्षापाकन्या, तपा-कमयः अशुच्यादिस-बागिन-देशी-भूषिताऽऽटोपयो,०मा०६ वर्ग गाथा। Page #1354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोगिल्ल चित्र "फसलं सारं किम्मी " पाइοना० ६४ गाथा । बोड-देशी- धार्मिके, तरुणे, इत्यन्ये । दे०ना० ६ वर्ग ६६ गाथा | बोडपेर न० बोड" पाना० २५० गाथा । बोटिय-बोटिक पूँ० मतेषु वर्षेषु तेषु रथ बीरपुरे समुत्पत्रे, निवे विशे बोटिकविनमिचित्राह ( १३३१ ) अभिधानराजेन्द्रः । साईचराई तथा सिद्धिं गयस्य वीरस्स । सोबोडिया दिडी, रवीरपुरे समृष्य ।। २५५० ।। २५५० ॥ अथ मेडिकोयलेरेवामा , 2 रवीरपुरं नगरं, दीवगमुज्जापकपदे व । सिवस्सुवहिम्मी, पुच्छा थेराण कहा य || २५५१ ।। बोडियम भूईओ पोडियलिंगस्स हो उत्पती । कोटिनको वीरा, परंपरा फासमुत्पन्ना || २५५२ ॥ एतद्भावार्थः कथानकगम्यः । तचेदम्-रवीरपुरं नाम नगर म् तद्बहिश्च दीपकाभिधानमुद्यानम्, तत्र चाऽऽर्यकृष्णनामानः सूरयः समागताः, तस्मिंश्च नगरे सहस्रमल्लः शिवभूतिर्ना म राजसेवकः समस्ति स च राजप्रसादाद् विलासान् कुवन् नगरमध्ये पर्यटति, रात्रेश्च प्रहरद्वयेऽतिक्रान्ते गृहमाग छति, तत तदीयभार्या तन्मातरं भणति - " निर्वेदिताऽहं त्वत्पुत्रेण न खल्ये रात्री वेलायां कदाचिदत्यागति तन उजागरकेण बुभुक्षया च बाध्यमाना प्रत्यहं तिष्ठामि । ततः स्तया प्रोक्तम् - वत्से ! यद्येवं तर्हि त्वमद्य स्वपिद्दि, स्वय मेवाहं जागरिष्यामि । ततः कृतं वध्वा तथैव इतरस्यास्तु जात्या रात्रिप्रहरद्वयेऽतिकान्ते समागत्य शिवभूतिना प्रो. लम् -' द्वारमुद्घाटयत । ततः प्रकुपितया मात्रा प्रोक्रम- दुर्गयषिधे !' यत्रैतस्यां वेलायां द्वारायुद्धाडितानि भवन्ति तत्र गच्छ, न पुनरेवं तब पृष्ठलग्नः कोऽप्यत्र मरि ध्यति । ततः कोपादङ्काराभ्यां माषोऽसी निर्गतः । पर्यटता चोद्धाटितद्वारः साधूपाश्रयो दृष्टः तत्र च साधयः कालग्रहणं कुर्वन्ति । तेषां च पार्श्वे तेन वन्दित्वा व संयाचितम् तै राजयसभा मात्राऽऽदिभिर मुस्कलित व इति न दत्तम् । ततः खेलमल्लकाद् दीक्षां गृहीत्वा स्वयमेव लोचः कृतः साधुमिलिंङ्गं समर्पितम् । विहतासर्वेऽप्यन्यत्र । कालान्तरेण पुनरपि च तत्राऽऽगताः । ततो राम्रा शिवभूते कम्बलरनं दत्तम् । तत चार्यैः शिवभूतिरुक्लः- किमनेन तव साधूनां मार्गाऽऽदि वानर्थहेतुना गृहीतेन ? । ततस्तेन गुर्वप्रतिभासेनाऽपि सोप्यात विद्युतम् गोचरचर्यामिवाऽऽगतः प्रत्यहं तदसी संभालयति न तु कचिदपि व्यापारयति । ततः गुरुभिर्मूर्चितोऽयमत्र इति ज्ञात्वाऽन्यत्र दिने तमनापृ " 1 : " बहिर्गतस्य परोसे तत् कम्पनं पाटवित्वा साधूनां पानकानि तानि ततव्यतिकरः कषायि तोऽसौ निष्ठति । यदा च सूरयां जिनकल्पान् वय न्ति । तद्यथा (निशीथनियुक्तिद्वितीयो द्देशे ) - "जिया व दुषिदा पाणिपाया पडिहरा प पारनपाउरा इकिका ते भने दुविधा ॥१॥ बोडर दुग तिग चक्क पणगं, नय इस एकारसेव बारसगं । पिण्यादिस्त २ ॥ " जिनानां रजोहरणं मुखपत्रिका निि उचियेषां तु कल्पेन सह विविधः कल्पयेनं तु सदा देव वह पञ्चविधः 3 कारणं तथा-०३०) संपताच पाय व व पायकेसरिया । पटलाई रयताएं, व गोच्छओ पायनिखोगो ॥ १ ॥ " इति सप्तविधः पात्रनिर्योग इति । एवं च नवविधः । कल्पेन तु सद्द दशविधः । कल्पद्वयेन सहैकादशविधः कल्पत्रयेण तु समं द्वादशविध उपधिः केषाञ्चिजिनकपिकानामिति विभूतिना प्रोक्रम्यद्येवं किमिदानीमधिक ओपसहितायनुपधिः परिगृह्यते ?, स एव जिनकल्पः किं न क्रियते । ततो गुरुभिरुक्रम्-जम्बूस्वामिनि व्यवोिऽसौ संहननाऽथ भावात्, सांप्रतं न शक्यते एव कर्तुम् । ततः शिवभूतिना मोहम्मद जीवति स कि मे करोमि परलोकार्पिता स निष्यरिमदो जिनकः कर्तव्यः किं पुनरनेन पायो5दिदोषविनि रिग्रहानर्थेन ? । अत एव श्रुते निष्परिग्रहस्वमुक्तम्, अचेल काय जिनेन्द्र अतोऽलतेव सुरेति । ततो गुरुया प्रोक्रम् इन्यम् देदेऽपि कषाय-मय-55दयो दोषाः कस्यापि संभवन्ति इति सोऽपि वतग्रहणानन्तः रमेव त्यक्तव्यः प्राप्नोति । यच्च भुते निष्परिग्रहत्वमुक्तं तदपि धर्मोपदेष्वपि मून कर्तव्या मूडहोमाच एव निष्परिग्रहत्वमवसेयम् न पुनः सर्वथा धर्मोपकरण. स्यापि स्वागः सर्वकार, " सम्धे वि एगसेनिया विवराय" इत्यादिवचनात् तदेवं गुरुणा स्थविरेश बोकाभिश्य मारा मिश्र युक्तिनिः प्रज्ञायमानोऽपि तथाविधक पायमोह 55दिकमनखाऽऽग्रहा निवृत्तोऽसो, किंतु बी वि परित्यज्य निर्गतः। ततश्च बहिरुद्याने व्यवस्थितस्यास्यो सरा नाम भगिनी बन्दनार्थे गता । सा च त्यक्तचीवरं तं तरमा स्वयमपि चीराणि तमि क्षार्थे नगरमध्ये प्रविष्टा मणिकया दृष्टा । तत इत्थं वि. वस्त्रां बीभत्सामिमां दृष्ट्वा ' मा लोकोऽस्मासु विराङ्गीत् ' इन्स्यनित्यपि तथा वस्त्रं परिधापिताऽसौ । तत एष व्य तिकोना शिवभूतिः। ततोऽनेन विवखा बीविद् नितरां बीभत्ला अतिलज्जनीया च भवति इति वि विग्य प्रावि • म् । देवतया हि तवेदं प्रदत्तमिति । ततः शिवभूतिना कौडिन्य को वीरनामानी ही शिष्पी दीक्षित 'गाथाउक्षरायौऽपि किञ्चिदुच्यते (कोडियादि) कोरिय कोबीरथेति स इन्द्रो विभापयैकवद्भवति, इति वचनात् कौण्डिन्य कोट्टवीरम् तस्मात् कौरिड म्य- कोट्टवीरात् परम्परास्पर्श मात्रार्य - शिष्य सम्बन्धलक्ष. णमधिकृत्योत्पन्ना सखाता बोटिकदृष्टिः इत्यध्याहारः । इत्येवं बोटिकाः समुत्पन्नाः ॥ २५५१ || २५५२ ॥ विशे० । स च शिवभूति हुवा कृतवान् गुरुभिरिति वभूह' शब्दे वक्ष्यामि ) बोरदेखी सि. ००६२५ ● · Page #1355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोडिय बोहि बोडिय· कपर्दिकायाम्, " केसरि न लहर वोडिय, विगयं बोडाणंद परिक्खय-बोधाऽऽनन्द परिचय पुं० । यधो ज्ञानं त लक्खेति । बोदरी ००६ वर्ग ६६ "" प्रा० ४ पाद । क्याऽऽनन्दस्तस्य परिक्षयः । ज्ञानाऽऽनन्दधाराक्षये, अष्ट० ३१ अष्ट० । था बोद्ध बौद्ध ०ि सुगत शिध्ये प्रच० ११६ द्वार सम्म । बोनि आलुमा यो । हो तरुणो । पाइ० ना० ६२ गाथा । देशी-क्षेत्रे, दे० ना० ६ वर्ग ६६ गाथा | बोर--बदर- पुं० ख० "समयमालिका नवफ लिका - पूगफले ॥ ८ । १ । १७० ॥ इत्यादेः स्वरस्य परेण स स्वरध्यञ्जनौत् । बोरं । बोरी । प्रा० १ पाद प्रा० । कर्क बोहारी· देशी - संमार्जन्याम्, दे० ना० ६ वर्ग ६७ गाथा | बोही श्री० बोधि-पुं० [ि प्रत्ययः । प्राकृते स्त्रीत्वम् । परमार्थबोधे, विशे० । सम्यक्त्वा धिगमे, आचू० २ श्र० । श्रतु० | जिनप्रणीतधर्मप्राप्ती, आ । प्रति० | ल० । दश० । पञ्चा० । प्रेत्य जिनधर्मप्राप्ती, घ० २ अधि० । उत्त | सकल दुःखविवेकभूते जिनशासनावबोधे, श्राव० ३ श्र० । सम्यग्दर्शने भ० ७ ० १ उ० । स्था० । सम्य ग्दर्शनावातौ सूत्र०१ ०२ श्र० ३ उ० । ६० । श्री० । उत्त० ॥ दुविधा बोही पाना | वं जहा - खायत्रोही चेव, दंसबोही चेव | स्था० २ ठा० ४ ३० । अ बोरी - बदरी- स्त्री" । "बोरी कक्षंधू ।” पाइ० ना० १५४ गाथा | बोल- गम्घा गती, "गमेः अवखोकु सास-पच-सिम्मी-डी लुक प ( व्याख्या स्वस्थ शब्देऽवसेया ) तिविडा बोही पत्ता । तं जहा - बोही चैत्र, दसखबोही चैत्र, चरितबोडी चेव । ( २३३५) अभिधानराजेन्द्रः | रंभ पर पोल परिचलना-विहायसेावह ३ " ॥ ८ । ४ । १६२ ॥ इति गमधातोर्वोलाऽऽदेशः । बोलः । इति । प्रा० ४ पाद । बील कुं० प्र०२०२२ ७० वर्ष व्यक्तिवर्जिते vent विपा० १ ० ३ अ० ॥ जं० ॥ ० ॥ ० ० ० रनमासनानिकले ०२ पूर्व साके० ३ प्रति० ४ अधि० भ० । श्रव्यक्लाक्षरध्यनिस मूत्रे, भ० ३ २०७ ४० | सुखे हस्ते दया महता शब्देन फूत्करणे, जं० ७ वक्ष० । ० प्र० । कोलाहले, रा० । वृन्दशब्दे, वृ० १ उ० ३ प्रक० । विशेष म्राचपर्याय है बोल दिलिवि-बोल तिलिपि - श्री० । ब्राह्मया लिपेर्भेदे, स० १८ सम० । बोलमा - बोल० विशेषत उती पाये जी०३ प्रति०४ अधि . 1 बोलंत - बोडयत्-त्रि निमज्जयति सूत्र० १०५ श्र० १० उ० बोल-कथपितु किस्थाने देश रनिटि पिलोपः । प्रा०० ४ पाद ।' सुनोऽअः " ॥ ८ ॥ ४४५३ ॥ इत्यपभ्रंशे तृन्प्रत्ययस्य 'अणअ' आदेशः । वात्र के प्रा०४ पाद मोह-बोध संवेदने, धामनिषांचे स्था०५ डा० ३४० श्राय० । आ० । अवगमे, पं०चू० १ कल्प | पञ्चा० । ने, स्था० पी० । प्रशोन्मीलते. घ० ३ अधि० । बोहण बोधन- न० । प्रत्यायने विशे० । मार्गभ्रष्टस्य मार्गसंस्थापने श्रामन्त्रणे च । स० ६ श्रङ्ग । बोहपरियइ-बोधपरियति स्त्रीणसम्यग्ज्ञानस्थिरतायाम् ० बोहय-बोधक - पुं० योद्धरि अन्यांश्च बोधयन्तीति बोधकाः । ध० २ अधि० जी० ल० । अन्येषां बोधके, कल्प० १ अधि० ६ क्षण | जीवाऽऽदितस्वस्य परेषां बोधयितार, भ० १ ० १ ३० । स० । ३ बोडियोपष्टि खी०रास्यापगमस्य दासरादारभ्य वने, पञ्चा० २ विव० । बोदर देशी- मागधे, दे०ना० ६ प ६७ गाथा । विवित्यादि कख्यं सुबोधं किं तु बोधिः सम्बोध इह च चारित्रं बोधिफलत्वाद् मधिरुच्येते । जीवोपयोगरूपत्वाद्वा बोधिविशिष्टाः पुरुषाखिया ज्ञानाऽऽदयः । स्था० ३ डा० २४० । कर्मधिति । "दिय शब्दे चतुर्थभागे २५७७ पृष्ठे गतम् ) सुलभबोधिः से भगवं किं पूछ काऊ परिसा सुलह चोही जाया सा सुगद्दियनामधिज्जा माहणी, जाए एयाबइगाणं भव्वसन्ताणं असंतसंसारघोर दुक्ख संतता सद्धमदेसाइएहिं तु सासयसुहपदा पुत्रमन्युद्धरणं कथंति । गोयमा ! जं पुत्रं पुण्त्रभवे सच्चभावभवतरंतरेहि खीसल्ले जम्माssलोयणं दाऊस सुद्धभावाए जहोत्र पायच्तिं कथं, पायच्छित्तसत्तीमाए य समाहीए य कालं कासोदमडिसी जाया तमभावखं । से भय ! किं से गं माहणीजीवे तब्भवंतरम्मि समासी निगंथी असि, जे खीसल्लमालोइत्ता गं जहोवइ पायचित्तं कथं ति १ । गोयमा ! जे खं से पाहणीजीके से पंतअम्मे बहुलसिए जाए महिडीए व मगलगुगाऽऽहाभू उत्तम सलाहियतरणू महतत्रस्सी जुगप्पहाणे णं सम अणगारे अदेसि यो यं समयी महा० २ ० । लम्भंति सुरसुहाई, लब्धंति नरिंदेपवर रिद्धीओ | नो सुपदिश्य, सम्म मिच्छतमहरणं ॥ ४३ ॥ सङ्घा०१ अधि०९ प्रस्ता० । सम्यग्बांधे, बोधिफले, चारित्रे, ०३०२० असायाम् गौतम परि रात्र बोधः सर्वधर्मप्राप्तिः श्रहिंसारूपत्वाच्च तस्याः, अहि सा बाधिरुक्का । श्रथवा श्रहिंसा साऽनुकम्पा, सा च योधिकारणमिति बांविरेोच्यते । १ सम्ब० द्वारा Page #1356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।१३३३) बोहिण अभिधानराजेन्सः। बोहिसत्त बोहिऊण-बुद्धा-स्त्री० । सात्वेत्यर्थे, " बोहिऊणं पम्वइया।" तत्त्वाऽतत्त्वविवेचनैककुशला , बोधिं न तु प्राप्तवान् । दश•२ अ. . कुत्राप्यक्षयमोक्षसौख्यजननी, श्रीसर्वविदंशिताम् ॥२॥ गोहिंग-योधिक-पुं०। मालवस्तेने, वृ०१ उ० ३ प्रक० माव०। बोधिलब्धा यदि भवे-देकदाऽन्यत्र जन्तुभिः । अनार्यम्लेच्छे, व्य०२ उ० । नि००।१०। इयत्कालं न तेषांत-द्भवे पर्यटनं भवेत् ॥ ३॥ द्रव्यचारित्रमप्ये ते-बहुशः समवाप्यत।। बोहिगतेण-बोधिकस्तेन-पुं०। मानुषहारके. वृ० १ उ०३ प्र. समानकारिणी काऽपि , न तु बोधिः कदाचन ॥४॥ का "जमेस्थ माणुसाणि हरति ते बोहिगतेखा भमंति।" येऽसिध्यन् ये च सिद्धयन्ति, ये सेत्स्यन्ति च केचन । नि०चू०१3०1 ते सर्वे बोधिमाहात्म्या-त्तस्माद्बोधिरुपास्यताम्॥५॥" बोहित्थ-बोहित्य-पुं० । पोते, दश.१० । प्रवहणे, दे० ना० प्रव०६७ द्वार। ६ वर्ग ६६ गाथा। घोहिय-बोधित-त्रि० । विकाशिते , तं० । बोहित-बोधिद-पुं । बोधिर्जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिस्तस्यार्थश्रद्वानलक्षणसम्यग्दर्शनरूपा, तां ददातीति बोधिदः । रा० । बोहिलाभ-बोधिलाभ-पुं० । सम्यग्दर्शनप्राप्ती, पश्चाo t वि. जी० । सम्यक्त्वदायके. कल्प० १ अधि०१क्षण | " बोहि- व० । जिनप्रणीतधर्मलाभप्राप्तौ , ल । प्रेत्य जिनधर्मप्राप्ती , दाणं " ( १६ ) इह बोधिर्जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिः, इयं | प्रति०। आव० । बोधिभेदोऽपि तीर्थकराऽतीर्थकरयोाय्य पुनर्यथाप्रवृत्तापूर्वानिवृत्तिकरणत्रयव्यापाराभिव्ययमभिन्न- एव । विशिष्टेतरफलयोः परम्पराहेत्वोरपि भेदात् एतदभापूर्वग्रन्थिभेदतः पश्चानुपूर्त्या प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पा वे तद्विशिष्टेतरत्वानुपपत्तेः । भगवद्धाधिलाभो हि परम्पर5ऽस्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं तस्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं, या भगवद्भावनिर्वर्तनस्वभावो, न त्वन्तकृत्केवलियाधिविज्ञप्तिरित्यर्थः । ल । बोधि ददतीति बोधिदाः । ल। लाभवदतत्स्वभावः. तद्वत्ततस्तद्भावासिद्धेरिनि: तत्तत्कल्या. चोहिदलहत्तभावणा-बोधिदल भत्वभावना-स्त्री।जिनधर्क- णाऽऽक्षेपकानादितथाभव्यताभावभाज एते इति । जन्मान्त. रेसम्यक्रवाऽदिसधर्मप्राप्ती , पा० । ध। प्रादौल भ्यपर्यालोचने, ध० ३ अधिः । प्रव० । बाहिलाभवत्तिय-बांधिलाभप्रत्यय-पुं०। प्रहरप्रणीतधर्मावा. अथ बोधिदुर्लभस्वभावना प्तिनिमित्ते, ध०२ अधि। "पृथ्वीनीरहुताशवायुतरुषु क्लिनिजैः कर्मकि, भ्र म्यन भीमभवेऽत्र पुद्गल-परावर्साननन्तानहो । बोहिसत्त-बोधिसच्च-पुं० । बोधिः-सम्यग्दर्शनं, तेन प्रधानः जीवः काममकामनिर्जरतया सम्प्राप्य पुरायं शुभं, सत्यो बोधिसत्वः, सम्यग्दर्शनप्रधाने महोदये सद्वाधिस्ती. प्राप्नोति प्रसरूपतां कथमपि द्वित्रीन्द्रियाऽऽद्यामिह ॥१॥ र्थकरपदयोग्यः सत्त्वः, भव्यत्वाद् । भाषितीर्थकरे, द्वा० १५ पार्यक्षेत्रसुजातिसत्कुलवपुर्नीरोगतासम्पदो, द्वा०। (श्रस्य स्वरूपम् ' सम्मदिहि' शब्द विस्तरतो दर्शराज्यं प्राज्यसुखं च कर्मलघुतादेतोरवामोत्ययम् । यिष्यते) GionealeolodsaleaicsaaloriaaiclepisolainaleaisalcolaalonwalkalaimalaMopinarerala netratoaurthiair aistratra - - -- - - 然法象常常杂老老茶空*公克涂:涂浓浓浓论※※※浓浓密密添论论论浓浓密:论次余次涂究杂念流论论你怎 REMisa इति श्रीमसौधर्मबृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वकरूपश्रीमद्भट्टारक-जैन श्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री १००८ श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वर विरचिते 'अन्निधानराजेन्द्रे' बकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् ॥ RRIOR - - FREETTTTTTTTERFARRITTETTERREETTETTE Page #1357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ भ भकारः एका० । 1 भ-भ-पुं० । भाकः । पितरि भ्रातरि पितृव्ये, अतिभीते, ज लदे, अमरे, लिनि, भावे, पितृपितृमोऽतिमी भश्राकुले । 39 'भकारः पुंसि जलदे भ्रमरे भावशूलिनोः । ” इति च । एका० । भ्रान्ती शुक्राऽऽचार्ये, इन्दोग्रन्थोके अन्योपायलघु पत्रिके व पाय नक्षत्रे, मेषाऽऽदिराशौ प्रद्दे, वाच० । भगे, भोगे, गगने, पु· एड्रे यन्त्रे ०" न भगेांगे" एका "नपुं सके नक्षत्रे, गगने पुराचन्द्रयोः ।" इति च । एका० । भत्ता - भक्त्वा - अव्य० संसेव्येत्यर्थे, स्था० ६ ठा० । मध्य-भजित त्रिविकल्पिते ०६० । # 60 - ' " भक्त त्रि० । अपवर्तिते, औ० । सेवनीये, बृ० १३० १ प्रक० । विकल्पिते च । व्य० ६ उ० । 2 भइयन्त्र भव्य त्रिविकल्पनीये विशे अनु० भइरव-भैरव-न भीरोरिदम् श्रय् "अस्था ( १३३४ ) अभिधानराजेन्द्रः । १५१॥ इति प्रकृतकारस्य 'अ' इत्यादेश प्रा० पा द । भये, तद्वति, भयसाधने च । त्रि० । नाट्याऽऽदिप्रसिद्धे भयानके रखे, शङ्करे, तदवतारदे, रागभेदे मेरे च पुं० । भयङ्करे, " घोरा दारुण भासुर भइरब-ललक भीमभीसणया ।" पाइ० ना० ६५ गाथा । | भए भजेत क्रिया सेवेत गृहीयात् इत्यर्थे पृ० १ ०२ प्रक भएज्जा - भजेत - क्रिया गृह्णीयादित्यर्थे वृ० १३०२ प्रक० । मोमियोद्विग्न त्रि० भयाकुले प्रश्न ०१ श्र०द्वार भंग-भङ्ग-पुं० । भञ्ज घम् । पराजये, खण्डे, भेदे, वाच० 1 भ ङ्गः, प्रकारो, भेद इत्यर्थः । अनु०। स्था० । प्रव० नि०चु० । इति भङ्गः वस्तुविक अनु विशे द्वयादिसंयोगभङ्गके, भ० १ ० ३ उ० । अनु० । भङ्गा भङ्गका वस्तुविकल्पाः । ते च द्विधा-स्थानभङ्गकाः, क्रमभङ्गकाश्च । तत्राचा यथा द्रव्यतो नामका हिंसा, न भावतः १ | अन्या भायतो, न द्रव्यतः २। अन्या भावतो, द्रव्यतश्च ३। अन्या-न भा चतः नापि द्रव्यत इति । इतरे तु द्रश्यतो हिंला, भावतश्च १। द्रव्यतोऽन्या न भावतः २ । न द्रव्यतोऽन्य। भावतः ३ । श्रन्या न द्रव्यतो न भावत इति ४। स्था० १० ठा० । क्रमभङ्गा यथाएक एव जीवः, एक एवाजीव इत्यादि स्थापना । स्थानभङ्गास्तु यथा- प्रियधर्मा नामैकः, नो दृढधर्मेत्यादि । श्राव० ४ श्र० । विनाशे, स्था० १० ठा० । नद्यादीनां कल्लोलविशेषे, क २०१० ३ वी कोटि भये प नागमने जलविनिर्वमे वायदेश यत्र पापा नगरी, | " पावा भंगे य।" प्रशा० १ पद प्र० । + नंजण सूत्र | श्र० । ( साधु श्रावकप्रत्याख्यानविषये भङ्गाः पच्च सा' शब्दे दर्शिताः) प्रवेशनमा 'पास'शब्दे विभाग (पोष'पोल' शब्दे भंगय-भङ्गक- पुं० । वस्तुविकल्पे, स्था० १० ठा० । गमे, आ० म० १ अ० । विशे० । ० । मंगमुकित-कीर्तन २० विकल्यन्ते इति कृत्वा विकल्पा भङ्गा उच्यन्ते तेषां समुत्कीर्तनं समु. चारणं भङ्गसमुत्कीर्तनम् । तद्भावो भङ्गसमुत्कीर्तनता । प्र त्येकभङ्गानां द्वयादिसंयोगभङ्गानां च समुच्चारणे, अनु० । भंगमुडुमभङ्गसूचयन भङ्गामा वस्तुविका त पाणं सूक्ष्मं भङ्गसूक्ष्मम् । सूक्ष्मभेदे, सूक्ष्मता चास्य भजनीय दबहुरखे गहन मावेन सूक्ष्मबुद्धिगम्यस्वादिति । स्था०१० ठा० । भंगा-मङ्गा बी० तस्थाम् ०२४० स्थान विजयायाम्, वाच० । ङीप् भङ्गी । तत्रैवार्थे, प्रशा० १ पद । भंगिमङ्गिख पदम् या की। विच्छेदे, भक्तिरिति । व्य०० विम्यासे क मेरे प्याजे च पाच साधारणशरीरावनस्प तिकायिका " , पद भीश्यामधिकृत्य " "भंगिति वा भंगिरप त्ति वा ।" प्रशा० १७ पद । भङ्गी वनस्प विशेषस्तस्या रजो भङ्गीरजः प्रशा० १७ पद ४ उ० । भंगि (ग् ) - भङ्गिन् - पुं० । भगबहुले नं० । मंगिय - भाङ्गिक- न० । भङ्गा-अतसी, तन्मयं भाङ्गिकम स्था २४०३४०० नानामङ्गिकविकलेन्द्रिय भाङ्गिकम् । श्राचा० १ ० १ ० ५० १३० । वस्त्रभेदे. स्था० ३ ठा० ३ उब्ब'भंगिनो श्रदलिमाई " नि०च्० १ उ० । श्रत सी पुण गवि होइ गायव्वा ।" नि० चू० १ उ० । भंगी - भंङ्गी - स्त्री० । भंगि' शब्दार्थे, व्य०८ उ० । भंगुर -भगुर त्रि । मञ्जर कुटिले नदीनां बा च० । भङ्गशीले. आचा० १४० ६ श्र० १० । अष्ट० । चले, स्था० ५ ठा० ३ उ० । भग्ने च । औ० । आ०म० । वक्रे, "कुडिलं वकं भंगुरं । 99 पाइ०ना० १७३/ भंगोत्रदंसण - भङ्गोपदर्शन- न० । भङ्गानां प्रत्येकं स्वाभिधेयेन कार्थेन सोपदर्शनम् भङ्गानां स्वविषयभूतेनार्थेन साँच्चारये अनु भंछा - भस्त्रा- -स्त्री. १०। भस्त्रन् । चर्मप्रसेविकायाम्, अग्निसंधु. क्षणे चर्म्मनिमिते यन्त्रभेदे, गौ० - ङीष् । अत्रैवार्थे कन् । टाप् नइत्यम्मका या पावितिया।" भ० १४ श० ८ उ० । 1 भंज-भञ्ज - घा०|श्रा मर्द्दने, प्रा०४ पाद " भजेर्चे मय-मुसुमूर-मूरसूर-सूड- विर-पविरञ्ज- करञ्ज-नीरञ्जः ॥८४॥ १०६ ॥ भजे रेते या देशा था अम्ति वेमय मुसुमुह मूरख सूरद सूडर | विरह | पविरअर करअ नीरज भंजइ । प्रा०डपाद । भंजग-भञ्जक - पुं० | वृक्षे, "भंजगा इव लखियेलं । " श्राचा० १ ० ६ श्र० १ उ० । भंजण-भञ्जन - न० । भञ्ज ल्युट् । श्रमर्द्दने, प्रश्न० १ ० द्वार। हा० | सूत्र० । मोटने, "भंजति अंगमंगाणि ।" सूत्र १ भु० ५ ० १ उ० । " भंजंति बालस्स बढेग पुड्डी ।" सूत्र० Page #1358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंजय १ श्रु० ५ अ० ३ उ० । भज खिच् ल्युट् टाप् । विनाशे, खी० । अव० ३ अ० । 'बिराहणा खंडणा भंगणा य एगट्ठा ।" नि० घू" १ उ० । भंजणदं भङ्क्तुम् - अव्य०। "तुम एवमाखमण िच ॥ ४ । ४४१ ॥ इति प्राकृतसूत्रेणापभ्रंशे तुमः स्थाने अणहमादेशः । मईयितुमित्यर्थे, प्रा० ४ पार । भंड-मण्ड पुं० महिनापके पा त्रिशिरसि मागचे मडने साम् दौहित्रे व दे० ना० ६] वर्ग १०८ गाथा खासा [अ०] मुखन। १ १ । मनोष्ठकरचरणभूमिकारपूर्तिकाया परिहासाऽऽदिजनिका या विडम्बनक्रियायाः कारक इति । आव० ६ ० । भण्ड न० । भा-अण्डच् । भग-डः । स्वार्थे श्रण्। हिरण्याSsदिके पण्यवस्तुनि शा० १ ० १ ० । भाण्डानि क्रया कामि लवणादीनि । प्रश्न० १ आश्र० द्वार उपा० । भाडं क्रवाकमिति । श्र० । श्राभरणे, औ० ॥ भ० । शा० ति० ॥ गृहवर्तिनि सापूपाश्रयवर्तिनि च वस्त्राकर ०५० नादिपाचे २००५० प्रश्न | अनु० | साधूनां भाजनविशेषे भाण्डमुपकरणम् assपकरणम् । मृण्मयादिपात्रं, साधुभाजनविशेपश्च। स्था० ३ ठा० १४० । "भंडं परिग्गहो खलु ।" भाण्डं उच्यते व्य०१० भाजने स्थाने " जाओ भंड साइरिजमाणा । भाण्डा स्थानात् भापडे भाजनान्तरमिति । जी० ३ प्रति०४ अधि० | जं० शु० । उपा०|| प्रश्न जुरे, कुरेण मुण्डने, पृ०४३० आव० वणिजां मूलधने, अभ्यभूषायाम् फूलमध्ये पाये गईभाडे पुणे पुं० । भगडस्प] भाषा अणु भएडवरित्रे न० बाच वृन्नाके दे०ना० ६ वर्ग १०० गाथा । भंडत भण्डपान - वि० कलहयति व्य० १० उ० । भेटकरंद भाडकर १० सामराजने म० २ श० १ उ० । भंडकरंडगाव-भाकर समान०आभरणं करण्डकं भाजनम्, तत्समानो भाण्डकरण्डकल मानः । आदेये, भ० ६ ० ३३ ३० औ० । तं० भ० । किरिया भण्डकिया श्री कशा वादनादिकेभ 1 व्यापारे, ध० २ अधि० । भंडखाइय भाडखादिक-त्रि० यत्र स्थाप्यते तथाशके ल यदि वस्तुनि मा०सू० ३ ० । डग- भाएक-म० भाण्डमेव माकम् पात्राऽऽधिके उपकरणे, उत्त० २६ श्र० । श्राचा० । ० । सूत्र० । प० । म्लेच्छ जातिभेदे पुं० प्रश्न० १ श्रध०द्वार भंडगुरु-भागगुरु विचाएडेनोपकरखेन गुरुमडगुरुः । - - ( १३३५) अभिधान राजेन्द्रः । , भंडीरवा 33 पृ० आ०म० । सं । निच्चू० ।" युगतो मंडि सुबखा । भण्डित्वाऽपि भण्डनं - कलहस्तमाप कृत्वा । व्य० १७० ।" बुग्गहो ति वा कलहो ति या मंडणं ति वा विवाद सि वा एगट्ठा। " नि० चू० १६ उ० । दण्डाऽऽद्दि भिर्युद्धे च । म १२ श०५ उ० /भंडणाभिलासि (ग् )--भण्डनाभिन्नाषिन् - पुं० । कलहाभिलाषुके, हा० १ ० १६ श्र० । मंडपडह भाएडपट पुं० [पये जं० २० । । । मंदमत्त शिववयास मिय-भाएटमात्रानिवास मित- वि० 1 उपकरणेन गुरुके, नि०चू० १८ उ० । मंडपाला - भाडचालन १० भाडा पर दीनां परायादीनां वा वालनं स्थानान्तरस्थापनं भारडचालनम् । भारडानां स्थानान्तरस्थापने, प्रश्न ३ लम्ब० द्वार । भंडण - भण्डन - न० । वाक्कलहे, विशे० । झा० । प्रश्न० स० । भाण्डमात्राया - वस्त्राऽऽद्युपकरणजातस्य । यद्वा-भाण्डस्य वामयभाजनस्य वा मानस्य च पात्रविशेषस्य पांच समितः प्रत्युपेक्ष्यमा मो चनात् यः स तथा । भाण्ड मात्रा निक्षेपणा समितियुते, कल्प० १ अधि० ६ क्षण । मंडल- देशील. दे० ना० ६ वर्ग १०२ गाया। मंडरान भाडपाल पुं० [माएहानि परकीयकपाणकचस्तु नि भाटकाऽऽदिना पालयतीति भाण्डपालकः । ऋयाणकव स्तूनां भाटकाऽऽदिना पालके, गोवालो भंडवालो या ।” उत्त० २६ अ० | - I मेडवेयालय भाएटचारिक पुं० माढविवार कर्मास्ये ति भाण्डवैचारिक कर्माचार्य अनु० प्रा० । भंडसाला - भाएडशाला- -स्त्री० । घटकरकाऽऽदिभाण्डगृहे, बृ० । भाण्डशाला यत्र घटकरकाऽऽदि भाण्डजातं संगोपितमस्ति । वृ० २३० । नि०यू० । मंडायरिय भाइहागारिक त्रि० भारहारनियुक्फ्रे डा० १६० - " १० रा० । भंडार भाहकार पुं० [फा०प भंडिया - भण्डिका - स्त्री० । गन्डयाम्, पृ० ३३० । स्थाल्यां च । स्था० ८ ठा० नि० चू० । मंडी भएडी श्री०मिच् गौरा मठियाम् शिरीषे च । वाच० गळ्याम् प्रश्न० २ अथद्वार । य० । नि० सू० पृ० । " भंडी लगडी भक्ति ।" नि०यू० ३ ० | "जा मंडि दुब्ला उ. तं तुझे बंधहो गयणं । "डय ६ उ० । " भंडीप जोरचा " प्रा० म०१० | स्वार्थे कन् ई. स्वःताचे पाच शिपयाम् असतीखिया म्याम् ३० ना० ६ वर्ग १०६ गाथा | 1 मंडीरवड- भगडीरबट पुं० मथुरामगरस्थे स्वमाया टे, प्रा०० १० । मंडीरवर्टिस माडीरासन० मथुरानगरस्थे स्व. " नामस्याने चैत्ये, मदुरा पपरी मिं यं । " ० ० १ ० । मथुरानगरस्थे स्वनामस्याने उद्या -. ने च । 46 मधुरापणयरीए भंडीरवडिल उजाणे [झा० १ भु० १ ० । मंदीर-भावटीपन न० मधुरानगरस्थे स्वनामध्या घने, ती कल्प । प्रा०म० । " भएडीरवनयात्रा - Page #1359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंत (१३३६) नंडीरवगा. मभिधानराजेन्द्रः। यांवाहकलिकुतूहली।"मा.क.१ । मथुरानगरस्ये स्त्रणम् । एकागे मागधभाषाप्रभवः । ततश्च भवन्त ! 'स्वनामख्याते चैत्य च।"सस्थभंडीरव चेयं मा०म० सुखकल्याणस्वरूप! 'भदुर' सुखकल्याणयोः इति वचना त्।प्राकृतशैल्या वा भवम्य-संसारस्य भयस्य वा-मतिरन्त. भेड-देशी-मुण्डने, दे० ना०६ वर्ग १०० गाथा। हेतुत्वात् भवान्तो भयान्तो बा। अं० १ वक्षः। "करेमि मंत- भगवन्-पुं० । भग ऐश्वर्याऽऽदिकः षड्विधो विद्यते यः भंते ! सामाझ्यं ।" भवन्तः सुखवान् कल्याणवांच। 'भदुर स्य स भगवान् । गुरौ,विशे० जिनसिद्धाऽऽदिके च। विशे। सुखकल्यणयोः इति वचनात् औणाऽनिकाऽन्तप्रत्ययान्त. स्य निपातने रूपम् । अथवा-भवान्त इत्येतस्याश्चात् म. मजन्त- ०। 'भ' सेवायामिति धातुस्तस्य भजते-सेवते .. ध्यापव्यञ्जनस्य लोपे रूप भंते इति । “अत एत्सौ पुसि प्ति भजन्तः । अथवा-सेवते शिवगतीन-सिद्धगतिप्राप्ता. मागध्याम्" ॥८।४।२८७॥ इत्येकारोऽर्द्धमागधस्वादा. नति भजन्तः । अथवा-दर्शनशानचारित्रलक्षणं शिव. पैस्य । ध०२ अधिक। मार्ग भजते इति भजन्तः। अथवा-सेव्यश्च यस्मादसी मो. अधुना 'भंते । इति द्वितीयद्वारख्याख्यानार्थकार्थिनां तस्माद् भज्यते-सेव्यते इति भजन्तः। विशे०।। माह'भंते ति'नेदं भवन्त इत्यामन्त्रणं, किन्तु भजन्त इति, होइ भयंतो भव-तगो य रयणा भयस्स छम्भया । ... कया ब्युस्पश्या?, इत्याद •भवन्त' इति । 'भाइ' कल्याणे सुखे च। अस्मानणाs महवा 'भय सेवाए, तस्स भयंतो ति सेवए जम्हा। दिकोऽन्तप्रत्ययः, औणाऽदिकत्वादेव नलं पः भदन्तः कल्या. सिवगणो सिवमग्गं, सेव्वो य जो तदत्यीणं ।३४४६। णसुख श्वेत्यर्थः। प्राकृतवादामन्त्रणे 'मंत इति भवनि । प्र. थवा-प्राकृत शल्या भवान्त इति द्रष्टव्यम् । भवान्तभवनात् अथवा 'भज' सेयायामिति भजधातुः, तस्य भजते से भवाम्तो गुरुः । यदिवा-अन्तं करोतीत्यन्तकः, मयस्याषप्त इति भजन्तः, तस्य सम्बोधनं हे भजन्त गुगे !। स न्तको भयान्तका, तस्थ सम्बोधनम् । उभयत्राऽपि प्राकृतचह कस्मात् , उच्यते-यस्मात्सेवते , काम् ?-शिवगतीन् | स्वात् भन्ते!इति भवति। श्रा०म०१० सिद्धिगति प्राप्तान , अथवा-दर्शन-शान-चारित्रलक्षणं शि. एवं सबम्मी व-नियम्मि एत्थं तु होइ अहिगारो। षमार्ग मोक्षमार्गम् । अथवा-सेव्यश्च यस्मादसौ तदथिनां मोक्षमार्गाधिमां तस्माद्भज्यते सेव्यते इति भजन्त इत्युच्यते सत्तभयविष्पमुके, तहा भयंते भवंते य॥ इति॥३४०६। विशे। गुरौ, जिनलिद्धाऽऽदिके च । विशे । एवम्-उक्लन प्रकारेण सर्वस्मिन्ननेकभेदभिन्ने भयादो वर्णिते सति पत्र प्रकृते भवत्यधिकारः । सप्तभपदन्त त्रि० । 'भदि, मच् न लोपः। पूजिते, 'भदूङ्' सुखक. यचिप्रमुक्तो यस्तेन भयान्तो, भवान्तश्च भदन्तस्ताभ्यापायोरिति वचनात् भदेरौणाऽऽदिकान्तप्रत्ययान्तस्य मिति । प्रा०म० १० निपातः । परमकल्याणयोगिनि परमसुखयागिनि च गुरी, भान्त-पुं-'भा' दीप्ता, भाति ज्ञानतमोगुणदीप्त्येति भा. पा०। प्रातु। व्याभ। कल्प० घामा चूछ । जिन म्तः। विशे० । गुरौ, जिनसिद्धाऽऽदके च । विशे। . सिद्धाऽऽदिके च । विशे० । भ्रान्त--०। मिथ्यात्वाऽऽदिवन्धहंतुभ्यो भ्राम्यति अनव. तथा च भदन्तशब्दार्थ व्याचियासुराह'भदि' कल्ला- सुहस्यो, धाऊ तस्स य भदंतसदोऽयं ।। स्थिती भवतीति भ्रातः । गुरी, विशे० । जिनसिद्धाऽऽदिके च । विश०॥ स भदंतो कल्लाणो,सुहो य कल्लं किलाडगं ॥३४३६॥ भ्राजन्त-पुं०1शानतपोगुण दीया भाजते इति भ्राजन्तः। तं तत्थं निवाणं, कारणको यारो वा वि। गुरी, विश० । जिनसिद्धाऽऽदिके च । विशे। तस्साहणमणसहो, सहत्थो भाव गवत्यो ।। ३४४०॥ अथवा-म्रान्तो भ्राजन्ती वा गुरुरुच्यते, कथम्, इत्याह-. कलमणइत्ति गच्छडगमयइ व चुज्झइ व बोहया व ति । अदवा 'भा' 'भाजी' वा, दित्तीए होइ तस्स भंतो ति। 'भाइ भणावइ व ज.तोकल्लाणास चाऽऽयरियो।३४४११ भाजतो चाऽऽयरियो,सो नाणतोगुणजुई ॥४४॥ 'भदि' करपाणे सुख च इति भदिधातुः कल्याणार्थः, सुखा. थैश्च । तस्य भविधातादम्त इत्यौणादिकप्रत्यये भदन्त प्रश्रया भा'धातुः.'भ्राज'धातुर्या-(दित्तीपत्तिदीप्तौ पठ्यते। शब्दोऽयं निष्पद्यते । ततः स्थितमिदं स भदन्तः कल्याण: तस्य भान्तो भ्राजन्त इति वा भवति । स चैवम्भूतः कःसुखश्च । विशे०। स्याह-प्राचार्यः। स च कथं भाति, भ्राजते वा .इस्याहशानमयान्त-पुं० । भयस्यान्तो भयान्तः । मा०म०१०। भ- सपोगुणदीप्त्येति। अथवा-भ्रान्तो भगवान् वा साविति दर्शयत्राहयस्य भीतेरन्तहेतुत्वात् भयान्तः । जं. १ वक्षः । सप्तधि अभयस्यान्तं गता भयाम्तः । गुरौ, जिनसिद्धाऽऽदिके च।। अहवा भंतोऽवेओ, जं मिच्छत्ताइबंधहेऊओ। विशे। भा०चू०। अहवेसरियाइभगो, विजह से तेण भगवंतो ॥३४४८॥ भवान्त-पु.। भवस्य-संसारस्यान्तहेतुत्वान् भवान्तः। जं. अथवा-'भ्रम 'अनवस्थाने, इत्यस्य धातोः भ्रान्त इत्यु१वक्षः। भवस्याम्तं गतो भवान्तः, भवानामन्त इव वर्त च्यते, यस्मादपेतोऽसौ मिथ्यात्वाऽऽदिवन्धहेतुभ्य इति । श्र. हे भवान्त: प्रा०चू०प्र० गुरी, जिन सिद्धाऽऽदिके च।धवा-ऐश्वयाऽऽदिका पविधो भगा विद्यते । से) तस्य तेन विश"कहिणं भंते ! जंबुद्दीये।" (भंते सि) गुरोराम- भगवा गुरुरिति । ३४४८ । Page #1360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्छः। अथवा-भवान्तो भयान्तो वाऽयमित्यादर्शयन्नाह- नाणस्स होइ भागी, थिरतरो दंसणे चरित्ते य । नेरइयाइभवस्म च, अंतोज तेण सो भवतो ति। । धन्ना आवकहाए, गुरुकुलवासं न मुंचति ।। ३४५६ ।। अहवा मयस्स अंतो, होइ भयंतो भयं तासो ॥३४४६।। गीयावासो रई धम्मे, अणाययणवजणं । अथवा-यस्मानारकाऽऽविभवस्यान्तहेतुत्वादन्तोऽसौ तेन निग्गहो य कसायाणं, एयं धीराण सासणं ॥३४६०॥ भवान्त इति। अथवा-भयस्याऽन्तो भयाऽन्तो भवति, भयं रूपकत्रयं पाठसिद्धम् ॥ ३४५८ ॥ ३४५६ ॥ ३४६०॥ व त्रास उच्यत इति । विशे। अपि चअथाऽन्तशब्दव्युत्पादनार्थमाह श्रावस्सयं पि निचं, गुरुपामलम्मि देसि होइ । श्रम गच्चाइसु तस्से-ह अमणसंतोऽवसाण मेगत्थं । वीसुं पिहु संत्रसो, कारणो जदभिसेजाए ॥३४६१॥ अमइ ब ज तेणंडतो, भयस्स अंतो भयंतो ति॥३४५३॥ विशेः । (अत्र विस्तरः 'श्रावस्सय' शब्द द्वितीयभागे ४५५ श्रम रोगे वा अंतो, रोगो भंगो विणासपजाओ । पृष्ठे गतः।) जं भवभयभंगो सो, तो भवंतो भयंतो य ॥३४५४।। अथवा नेदं गुरोरामन्त्रणम् ,किन्त्वात्मन एवेति दर्शयतिश्रम धातुर्गत्यादिषु अर्थेषु पठ्यते,तस्येहान्त इति रूपं भवति, भायामंतणमहवा-बसेसकिरियाविसग्गयो तं च । अमनम्, अन्तः, अवसानमित्येकार्थम् । अमतीति वा यस्मा. सामाइएगकिरिया, नियामगंतवोगाओ ॥३४७०॥ सेनान्त इति कर्तरि साध्यते, भयस्यान्तो भयान्त इति । प्र. अथवा प्रात्मन अात्मजीवस्याऽमन्त्रणमिदं-हे भो जीव! थवा-'अम रोगे' रोगो भने ततश्चान्तो, रोगो, भलो. विनाश सामायिकं करोम्यहम् । कथम् ? , अवशेषक्रियाथिसर्गतः, इति पर्यायशब्दा एत इत्यर्थः। एवं च सति यस्माद्भवस्य सर्वा अपि क्रिया विसृज्यत्यर्थः । तश्चात्माऽऽमन्त्रणं सामा. भयस्य च भङ्गहेतुत्वाद्भङ्गोऽसौ गुरुस्ततो भवान्तो भयान्त. यिकैकक्रियाया नियामक नियमार्थम् तदुपयोगात् तस्यामेव श्वेति । कस्यां सामायिकक्रियायामुपयोगादिति ॥ ३४७० ॥ ननु भवद्भिर्युत्पादितानां भदन्ताऽऽदिशब्दानां स्थाने कथं एवं च सति किमुक्तं भवति ? इत्याह“भंते" इति निष्पद्यत इत्याह एवं च सवकिरिया-संपन्नया तदुवउत्तकरणं च । एत्य भयंताईणं, पागयवागरणलक्खणगईए । वक्खाय होइ निसी-हियामो किरिअोवोगुबा३४७१। संभवमो पत्तेयं, द-य-ग-बगाराऽऽइलोवानो ॥३४५५॥ एवं च सति सर्वासामपि प्रत्युपेक्षणाऽऽदिक्रियाणां परस्पर• इस्सेकारताऽऽदे-सओ य भंते त्ति सव्वसामन्न। मसम्पन्नताऽन्योन्यमनाबाधता, तस्यामेव प्रारम्धैकक्रियायाः गुरुग्रामंतणवयम, विहियं सामाइयाईए ।। ३४५६ ।। मुपयुक्तकरणं चाऽत्माऽमन्त्रणन व्याख्यातं विशेषेण कथितं भवति, यथा नैषेधिक्यानैषेधिकरणेन बाह्यक्रियानिषेधतो वस अत्र भदन्ताऽऽदीनाम्, मादिशब्दाहजन्त-भान्त-भ्रा. त्यभ्यन्तरक्रियोपयोग एव कथितो भवत्येवामहापीति ।३४७१। जन्त-भ्रान्त-भगवन्त-भवान्त-भयान्त-परिग्रहः,प्राकृतव्या. करण लक्षणगत्या यथासंभवं प्रत्येक द-य-ग-यकारा. अथवा जिन सिद्धाऽऽद्यामन्त्रणार्थोऽयं ऽऽक्षरलोपात्तथा इस्वैकारान्ताऽऽदेशतश्च । (भंते ति) ___भदन्तशब्द इति दर्शयतिसर्वसामान्यं पदं . निष्पद्यते इति शेषः । तत्र भदन्त अहवा जहसंभवओ, भदंतसद्दो जिणाइसक्खीणं । इत्यत्र दकारस्य, भयान्त इत्यत्र यकारस्य, भगवन्त इत्यत्र आमतणाभिधाई, तस्सक्खिजे थिरब्वयया ॥ ३४७२ ।। गवकारयोलापः कर्तव्यः । श्रादिशब्दाद् भजन्त इत्यादिषु यकाराऽऽद्यक्षराणां लोपो द्रष्टव्यः । भान्त इत्यादिषु भाऽदी गहियं जिणाइसक्खं, मइ ति तल्लज्जगोरवमयायो । गां इस्वत्वाऽऽदेशः। भन्त इति पदे ऽवस्थित अन्ते एकारा. सामाइयाइयारे, परिहरभो तं थिरं होइ ।। ३४७३ ।। 35देशः कर्तव्य इति । भन्ते ! इत्येतच्च पदं गुमन्त्रणा अथवा यथासम्भवतोये केवनातिशयज्ञानिनो जिनसिद्धा. वचनं सामायिक सूत्रस्याऽऽदौ विहितमिति । दयः सम्भवन्ति तेषां जिनाऽऽदीनां साक्षिणामामन्त्रणाऽभिधा 'भदन्त' इति परस्याऽऽमन्त्रणवचनतामेव भावयति- यो भदन्तशब्दः 'भो भो जिनाऽऽयो भवम्ताः ! युध्मस्सा. भामंतेड करेमी, भंते सामाइयं ति सीसोऽयं । क्षिकं करोऽम्यहं सामायिकम्' इति । तत्साक्षिकरवे च सामा. यिककर्तुः स्थिरवतता भवतीति । कथम्?; इत्याह-जिनाss. आहामंतणवयणं,गुरुणो फि कारणमिणं ति ॥३४५१॥ दिसाक्षिकं गृहीतं मया सामायिकम् , अतः परिपालनीयमेवे. 'करेमि भत्ते ! सामाय' इत्येवं शिष्योऽयमामन्त्रयति दम्इत्यनया वासनया सामायिकातिचारान् परिहरतस्तस्स्य गुरुम् । प्राह पर: ननु गुरोरामन्त्रणवचनमिदमादी विहि तत् सामायिकवतं स्थिरं भवति। कुतः?. इत्याह-(तमजेत्या. तम् , इत्यत्र किं कारणम् ? , इत्येतत् कथ्यतामिति॥३४५७॥ दि) तेषां-जिनाऽदीनां सत्का या लज्जा, तेषु च यद् गौरवं-यो सूरिराह बहुमान: यच्च तदीयं भयं तस्मादिति ॥ ३४७२ ॥ ३४७३. भन्मइ गुरुकुलवासे, वसं गहत्थं जहा गुणत्थीह । विशे०। निच्च गुरुकुलवासी, दविज सीसोजयोऽभिहियं ।३४५०।। भ्रान्त-पि०। भ्रम-क्वः। मिथ्यावानयुक्त, वाच०।"भ्रान्त. Page #1361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत भंभानूय (१३३८) अभिधानराजेन्द्रः प्रान्तपिया।"भ्रात:विषयपाऽभिभूतपूर्वापरप्रन्यतात्पर्या-भंभल-देशी-अप्रिये, दे०मा०६ वर्ग ११० गाथा । मूर्खे, भि. नियात्रा प्रति मिन पचाभेदाभ्यवसायेन प्रवर्तमानस्य सी.द्वारणहेचाना०६बर्ग १९. गाथा । प्रत्ययस्य भारतस्थम् । तथाहि-योऽतस्मिंस्तदिति प्रत्या भंभसार-भम्भसार-jाराजगृहनगरोस्पषस्य चम्पापुरीया. पसभाम्तः। यथा मरीचिकायां जलप्रत्ययः । सम्म० १ स्तब्यस्य कृणिकस्य नृपतेः पितरि श्रेणिकाऽपरनामधेपे कापड भ्रमणयुक्त च । पुस्तूरे, पु. भावे क्तः। भ्रमणे,ना राजगृहमगरस्थे स्वनामयाते नृपे, मा०क.४०। मौ० । दश०४०। वाचा . "ततेणं से कृणिए राया भभसारपुचे।" मी० । भम्मा तु मंतसंमंत-भ्रान्तसंभ्रान्त-10 दिम्ये नाव्यविधिमेये, "म भेणिकं खके भम्भखाराऽभिधोऽथ सः।"मा००४मा। प्पेगड्या भंतसंभंतं णाम दिग्वं चिहिं उबसे।"10। खिति-चण-उसभ कुसग्ग, रायगिह चंप-पाडलीपुतं । मंताभंत-शान्ताभ्रान्त-म० । खनामयाते दिव्ये नाव्यविधी, नंदे सगडाले थू-लभरसिरिए वररुची य॥ १२८४ ॥ भा.म.१०। "पईए वक्वाणं-प्रतीतप्रसाए सिपाइट्टियं गायर, जि. मंतेसामाइय-भदन्तसामायिक-म०। भदन्तं च तस्सामायिक यसत्तू राया. तस्स णयरस्स पत्थणि उस्सवाणि, अक्षण. भदम्ससामायिकम् । कल्याणमापके सुखावहे च भाषसा. यरहाणं बरयुगाड मग्गावे. तेहिं पगं चयगक्स मायिके, विशे०। अतीव पुप्फेहि फलेहि य उवधेयं वटुं, वणगणवरं अथवा-भदन्तशमोऽयं नाऽऽमन्त्रणार्थः, किंतु सामायिक निवेसिये, कालेन तस्स बस्थणि वीणाणि, पुणो वि पत्थु मग्गिजा, तत्थ एगो बसहो मोहिं पारखो एग. स्यैव विशेषणार्थ इति दर्शयन्नाह मि र अंच्छा न तीरह मोहिं वसहहिं पराजिणिउं, महवा भंते च तयं, सामइयं चेइ मंतसामइयं । तत्थ उसभपुरं निषेसियं, पुणरवि कालेण उच्छ, पुणे पत्तमलक्खणमेवं, भंतेसामाइयं तं च ।। ३४७४ ॥ विमग्गति, कुसथंबो विट्ठोअतीव पमाणाकितिविसिट्टो, ४. भदन्तं व तस्सामायिकं च भवन्तसामायिक करोडम्यहंका स्थ कुसम्गपुरं जायं, तमित्र य काले पसेणई राया, तंस्याणप्रापकं सुखाऽऽवहं च यत्सामायिकं तदहं करोमि, एयरं पुणो पुणो अग्गिणा उज्झर ताहे लोगभयजणाणमा.ज्यविस्यर्थः । “भंतेसामाइय। " इत्यत्र तु यदेषमेकार। निमित्त घोसावेह-जस्स घरे भग्गी उद्देश खो गरायो निकुम्भा सस्थ महाणसियाणं पमापण रहो वेव घरा. तस्वं तदेतदलक्षणम्-मलाक्षणिकमतो लुप्यत इति । (तंच भो अग्गी उढिो सि)तय किमर्थमेवं विशिष्यते । ३४७४॥ , ते सवपइया रायाणो-जह प्र. पगंण सासयामि तो कहं मन्नं ति निगमो सयरामो, किमन्यदपि सामायिकं विद्यते ? इत्याह तस्स गाउयमिते ठिनी, ताहे उभडभोरया पाणियमा नामावदासत्थं, नणु सो सावजजोगविहे उ। यतस्थ बच्चति, भणंति-कहिं पचह १, माह-रायगिगम्मइ भाइ न जमो, तत्थ वि नामाइसम्माचो।३४७५॥ इंति, कमो एह, रायगिहाम्रो, एवं रायरं रायगि जा. यं जया य राहणो गिहे अग्नी उदिनो तमो कुमारा मामस्थापनाऽदिसामायिक युवासार्थमिदमेवं विशिष्यते, जं जस्स पियं पासो हत्थी वातं तेणं णीणिए सेपिएण नामाऽदिसामायिकानां करपाणप्रापकरवसुखाऽऽवहस्वाभा. भंभा जीणिया, राया पुरुछ-केण किंणीणियं ति?, भयो पात्, भदम्तविशेषणादावसामायिकमिह गृह्यत इति भावः। भण-मप हस्थी, पासो एवमाइ, सेणिमो पुच्छिमो भंभा, माह-मम्वसो नामाऽदिव्युशसा.."सावजं जोगं पचक्खा. ताहराया भणा सेणियं-पल ते तस्थ सारो भंभ सि', मि।" इत्याविवचनासावधयोगविरतिर्गम्यते। न हि साथ सेणिभो भण-श्राम, सो यसो भश्चत पिभो, तेण से आयोगविरतिरूपाणि नामाऽदिसामायिकानि भवन्तीति । णाम कयं-भंभसारोति।" (१२८४ गाथा) माब०४०। भएयतेऽत्रोत्तरम्-(नतिन स्वदचो युज्यते, तत्राऽपि साव. चयोगविरती नामस्थापनाऽऽदिरूपसम्भषात् । इदमुक्त भ. भभा-भम्भा-स्त्री०। सूर्यभेदे, भा०म०१ भाभी।नं। पति-यदि भावसावद्ययोगविरतिरसौ गृह्यते , तदा भवेत्सा. मा०का निचूला सूर्यविशेषे, देना.६ वर्ग १०० गाथा। ध्यसिद्धिः, न चैतदस्ति, नियामकाभावान्। भवन्त विशेषणे तु "मएशतं भम्भानाम् ।" भम्भा ढक्केति।'रा०। जीभम्भा सामायिकस्येयमपि भाषापा गम्यते, नामाऽविरूपसावध. ढका निस्वनानीति सम्प्रदायः । जं० २ पक्ष.। भम्मा योगविरतेर्भरतसामायिकरूपस्वायोगादिति ॥ ३४७५ ॥ भेरीति । भ०१२०१० । गुजा भम्भेति । प्राचा०१७.१ म०७ उ०। दुःखा55संगवादिभिः 'भा भाँ' इस्यस्य शमस्य प्रथया-' भन्ते ' शब्दात् षष्ठी द्रव्येति दर्शयन्ना करणे च । भ.७ श. ६ उ. भंतस्स व सामइयं,भतेसामाइयं जिणाऽभिहियं । भभाभूय-मम्माभूत-पुं० । 'भा भाँ' इत्यस्य शमस्य दुःया. न परप्पणीयसामा-इयं ति भंतेविसेसणभो ॥३४७६॥ अगवादिभिः करणं भम्भोच्यते, तद्भूतो यः स भम्भाभूता, अथवा-"करेमि भंतेसामाइयं" इत्यत्र भदन्तस्य भ. भम्भा वा मेरी,सा चान्तःशून्या ततो भम्भव यः कालो जनगवतः सम्बन्धि सामायिकम करोमीस्येवं च द्रष्टव्यम् । वयाच्छम्यः स भम्भाभूतः। दुखाऽऽसंगवादिभिः 'भा भाँ" ततश्च भन्ते' इति विशेषणाजिनाभिहितं सामायिकं करो। इत्यस्ल शब्दस्य करणं प्राप्ते, जनच्छयाउछम्ये च कालाss म्यहं. न पुनः परप्रणीतं कुतीथिकप्ररूपितमिति विशे'।। दौ, भ०७२०६०। Page #1362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेभावायग अभिधानराजेन्द्रः। जग्गं अमावायग-भम्भावादक-पुंसक्कावादके, प्ररशतं म-या।"प्राचा०२ १०२४०६०॥"अप्पणो प्रताधिदाणे पतं म्भावादकानाम् । रात एमिजालसंपलं भवति लि।" नि०१० ३३० । विपा०। अभी-मम्मी-सी० नीतिभेदे,व्य. १००। प्रसत्याम् देना० मनदलि (न् )-भगन्दरिन्-पुं०। भगन्दररोगवति, विषा । वर्गगाया। १४०७० मावा अंस-भ्रम-धामधःपतने, “अंशः फिर-फिह-फुड फुह-गवंत-भगवान्त-पुं० । यस्मात्सुरासुरनरोरगतिर्यग्योती बुक-मुजार"८४१७७ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण भंशरेते। जीवलोकः कामभोगरतिवृषितगृधिमूर्थिताभ्युपपनस तेन पादेशाबा भवन्ति । किरदाकिहर।फुरहाफुहराबुक्का।। भगवता बान्त इत्यतो भगवान्तः । त्यक्तकामभोगाऽऽविके भहा। पले-भंसा। प्रा०४पाद। "साहप्रककम्म.धम्मा- जिनाऽदिके, पं०पू०१करूप। भो,जोभंसे उबट्टिय।"भाषम.केवलिपक्षतामोध. भगवत-०। भगः समप्रैश्वर्यादिलक्षणः, स विद्यते यस्य म्मामो भंसेजा।" प्राचा०२४०३० स भगवान्। विशे०।स्था समप्रैश्वाऽदिगुणयुक्ने सर्वो, महस-भक्ष्य-बाभश्यते इति भयम् । प्रष.५५ द्वार। सत्र० भ०२०३००प्र० उत्त० पा०ामाचा०॥ बायलाचाऽऽदिके व्यञ्जनमेदे.चं०प्र०२.पाहु.।प्रबासू० अने।अष्टा जं० । स्था०। रा०ादश010 | दशा० । म०प्रश्नास्था पश्चाताभ० "भक्खगविहिपरिमा औ० । मं0 प्राव०। पं००।" इस्सरियागुणो भगो सो करेह" खरविशदमभ्यवहार्य भवमित्यत्र रूढमिह पका-| से अस्थि ति तो भगवं।" पं०भा० १ कप । उनं . अमात्र तद्विवक्षितम् । उपा.१०ाभरपाणि मोदकानीति।। "इस्सरियरूवसिरिजस . धम्मपयत्तामया भगाभिक्या । प्रश्न.३ बाधवार । भक्षणयोग्ये, त्रि० । वाच । तत्तेसिमसामना, संति जतो तेण भगवंतो" मा०म० १ मक्खग-भचक-त्रि०। भतणकर्तरि. मा०म० १७०। म० । “समग्रे चैश्वर्य भक्तिनम्रतया त्रिदशपतिभिः शुभानुक भक्वजविहि-भक्षणविधि-पुं०। भक्षणविधी, उपा०१०। धिमहापातिहार्यकरणलक्षणं, रूपं पुनः सकलसुरवप्रभाषा विनिम्मिताब्गुष्ठरूपाकारनिदर्शनातिशयसिखं. यशस्तु राग('पाखंद' शब्दे द्वितीयभागे ११० पृष्ठे विधिः) द्वेषपरीषद्वीपसर्गपराक्रमससुरथं त्रैलोक्याऽऽमन्दकार्याकालप्र. मक्खसिज-भक्षणीय-त्रि० । भोक्तव्ये, हा० १७ अष्ट। तिष्ठं, श्रीः पुनर्धातिकम्मोच्छेदविक्रमावाप्तकेयलाशोकनिर. मक्खर-मास्कर-पुं०। भासं करोतीति भास्करः। मा०० तिशयसुखसंपत्समन्विता परा, धर्मस्तु सम्यग्दर्शनाऽदि. १०। भास्क-टन् । कस्का० सः। सूर्ये, आदित्यस्य सः रूपी दानशीलतपोभावनामयः साश्रवानाश्रयो महायोगाविता भास्करो दिनकर इत्यादयः पर्यायाः । माप. ऽऽस्मकः, प्रयत्नः पुनः परमवीर्यसमुत्थ एकराधिक्यादिमहाप्र. १. अग्नी, वीरे, अर्कवृते. सिद्धान्तशिरोमणिप्रन्धकल्प. तिमाभावहेतुः समुद्घातशैलेश्यवस्थाध्यायः समग्र इति । रिडते व । स्वणे, नावाच। अयमेवंभूतो भगो विद्यते येषां ते भगवन्तः। ध०२ अधि० मक्खराम-भास्कराम-पुं०गौतमगोत्रोत्पन्ने गोत्रप्रवर्तके भगवानर्कयोनिर्जितद्वादशभगशब्दार्थवान् । नन्वन्त्योऽस्तु मुनी, “जे गोयमा ते भक्खरामा । " स्था०७ ठा०। बज्य पथ परमर्कः कथं वयः । सत्यम् । सपमानतया भको मा-भग-पुं० । न०। भज्यते इति भगः। भज्-घम् । समग्र भवति परं, वत्प्रत्ययान्तत्वात् धर्कवानित्ययों न लगतीति वादिके गुणे,प्राचा० २७०१०१०१ उ०। प्रा. वर्जितः। कल्प०१ अधि०१क्षण। जिने, "पयरे भगवतवयण•म० ज०रा०ासूत्र विशे० आव०पं० सु० । उक्लं. म्मि।" भगवद्वचने जिनागमे । पञ्चा० विघा प्रश्नापूज्य, ब-"ऐश्वर्यस्य समप्रस्य.रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्यार्थ भगवानिति महारमनः संशति व्य० ३ उ०। भ०। संस्था। स्य यत्नस्य, षमां भग इतीजना ॥१॥" स्था० १ ठा० । पा०। साधौवा प्राचा० २ श्रु० १ ० १०॥ खियां की। "महिलाणं भगवाभो, जियजयगीश्री जयं. मा०चू०।। लाप्रज्ञा । विशे। अणिमाष्टविश्व व्ये, सूबे, बीये, यशसि,श्रियाम्, साने,वैराग्ये, योनी, प्रश्न म्मि, जहा" भगवत्यः पूज्याः । संथाला "सुयदेवया भगवई। ४माश्रद्वार। इच्छायाम् , माहात्म्ये, यत्ने, धम्मै,मोशे,सौ. | पा० प्रा०। प्राचा००। दुर्गायां च बाब०। माग्ये, कान्ती, चन्द्र च । यदाहु:-भगोऽकहानमाहात्म्य-मगलीमज्झयण-भगन्यध्ययन-म० । अन्तकारशाऽध्ययनप्र. पविराग्यमुक्लिषु। रूपवीर्यप्रयलेच्छा-श्रीधम्मैश्वर्ययोनि यमवर्यस्यारमे ऽश्ययने, स्था० १.ठा०। । पु॥१॥"करप०१ अधि०१ क्षण । पूर्वफल्गुनीनक्षत्राधिष्ठातरि भगिणी-भगिनी-खी। मग पस्नः विधादितो न्यायाने देवभेद, सू०प्र०१० पाहु० १२ पार० पाहु० । स्था० । भगो ना. ऽस्स्यस्या इति । सरजातायाम् , अनु। अं० मि०प० । मा देवविशेष इति । जं०७वक्षः। तदधिष्ठादके पूर्वफल्गु मा० म०1 नीनक्षत्रे च । मनु०। गुह्यमुष्कयोमण्यस्थाने व । पुं०। बाबा दशा पृ० । नि० चू। भगीरह- भगीरथ-पुं०। सूर्यवंश्ये दिलीपरामपुरे राजभेदे दो भगा । स्था०२ ठा०३ उ.। येन गला भूमितलमयतारिता। बाबा शत्रुक्षयपर्वते । भगंदल-भगन्दर-भगंधमुकमध्यस्थानवारयति- पतष शत्रुजयपर्वतस्वैकषितिगौशनामस्वम्यतमधाम । ती०१ कल्प। वश्-मुमच। पुतसन्धिमवे प्रयविशेष, वृ० ३ उ०नि०पू० जी०। जविपा०1०1"भगंदलं संवादेज वा पखिमहेज भन्य-भन्न-त्रि०ा मजकः । पराजिते, खरिडते, याचा वि Page #1363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४०) मभिधानराजेन्कः। नज्जिया राधिते, पाब०४ अाखा निघू० । मर्दिते, प्राचा० २ ० लोके हिजगद् ब्रह्मोत्पादयति रजोगुणाश्रितः,विष्णुः स्था. To1 उ० विकृते. उपा०२ बिनाशिते. पाव० पयति सावगुणाश्रितः, ईश्वरः संहरति तामसभावाss. १० असमर्थीभूते च । ०१ श्रु०७०। “रुग्गं भ. थितः। गा०। ग्गं ।" पारना २४३ गाथा। | भग्गोदेव-भर्गोदेव-पुं०।भर्गश्च उश्च तेषामपि देव मारामर्ग-पुं० । भूस्ज घम्-मर्जाऽऽदेशे कुत्वम् । ईश्वरे, गा० ।। ध्यः। परमेश्वरे, गान बचाव्यं न तेषामाराध्य इति, ते पाच । शिवे , ज्योतिःपदार्थे, आदित्यान्तर्गते ऐश्वरे षामपि संध्याऽऽदिश्रवणता । तथाहितेजसि, वाच। "अष्टवर्गान्तगं बीज, कवर्गस्य च पूर्वकम् । "आदित्यान्तर्गतं वों, भर्गाऽ ख्यं तन्मुमुक्षुभिः। वहिनोपरि संयुक्तं, गगनेन विभूषितम् ॥१॥ जन्ममृत्युविनाशाय, दुःखस्य त्रितयस्य च ॥ १॥ पतदेवि! परं तत्वं, योऽभिजानाति तखतः। भ्यामेन पुरुषैर्यश, द्रष्टव्यं सूर्यमण्डले।" संसारबन्धनं विवा. स गछेत्परमां गतिम् ॥२॥" इति याज्ञवल्क्यः । तस्य तेजस ईश्वरत्वम् - "यदादित्यगतं इति वचनप्रामाण्यात् । गा० सजा, जगद्भासयतेऽखिलम् । यश्चन्द्रमसियमाती नालेजभचक-भचक्र--न० । ज्योतिश्चके, "श्राहरन्ये भचक्रस्य विले. विद्धि मामकम् ॥१॥” इति गीतायामुक्तम् । भावे घम् । भर्जने, चारेण या स्थितिः ।" ( १२ श्लोक) द्रव्या० १.अभ्या। भातरिच। त्रि०वाचकालिप्ते.देना०६वर्गहरगाथाभज-भाज्य- निभाज्यते विभाज्यते इति यता भाज-कभग्गह-भाजित-पुं० । क्षत्रियपरिवजिके, औ०।। र्मणि यत् । विभजनीये, वाच । विल्पनीये, विशेअनु। भगकहि-भग्नकटि-मुं। विकृतवक्रष्णो, उपा०२०। प्रव० । दश। भग्गयर-भग्नगृह-न० । विकृते गृहे, व्य०१ उ०। भज्जा --भर्जन-न) । षण काऽऽदीनां पाकविशेषाऽऽपादने, अणु । भ्राष्ट्रपचने, प्रश्न०१ श्राश्र०द्वार विपा० । सूत्र। भग्गजोग-भप्रयोग-पु० । भग्नस्य पुनःसंस्करणे, पं०व० ५ पाके. विपा०१७०३१०।" भट्ठभनणाणि य ।" भ्राटे द्वार। अम्बरीषे भर्जनं पाकविशेषकरणम् । प्रश्न०१आश्रद्वार। भग्गणियप-भग्ननियम-पुं० । नियमभङ्गवति, उपा० ३ ०। भर्जनसाधने पात्रे च । विपा०१ श्रु० ३ ०। भग्गपोसह-मनपौषध-त्रि० । पौषधभङ्गवति, उपा० ३१०।। भजा-भार्या-स्त्री० । ध्रियते पोष्यते भति भार्या । उत्त० भव-भार्गव-पुं० । गुलोकप्रसिद्धऋषिविशेषः, सच्छिष्यो | पाई०१०। भृ-ण्यत् । “घय्यो जः"॥८॥२॥२४॥ भार्गवः । ब्राह्मपरिव्राजकभेदे, औ० । वाच । भृगोरपत्य त. इति प्राकृतसूत्रेण संयुक्तस्य जः । भजा । प्रा०५ पाद चौ. होनापत्यं वा अण् ।शुकाऽऽचार्य, परशुरामे, धन्विनि, गजेच।। सर्यसमत्वात्" स्याद्-भव्य-चैत्य-चौर्य-समेषु यात् " तेन प्रोक्ता तेनाधीताशाता वा अण्। घेदप्रसिद्ध विद्याभेदे, । ॥८॥२॥१०७॥ इति प्राकृतसूत्रेण संयुक्तस्य यारपूर्व इन् पार्वत्या, लवम्या, दुर्वायां च । स्त्री० । जीप । चाच०। भवति । भज्जा । प्रा० २ पाद । विधिनोढायां खियाम् . भगवा-भम्नवत--पि० । स्मूल प्राणातिपातविरत्पादिभाव. वाच०।०२ वक्षसम्म | "भजा पुत्ता य पोरसा।" ति, उपा० ३ ०। भार्या कलत्रम् । सूत्र०१०९ अ०भरणीये,त्रिभवाच। भग्गवणिय-भग्नवणित--त्रिकाबाणितः सन् भग्नो भग्नवाणि- "जाया पत्ती दारा, घरिणी भज्जा पुरंधी य ।" पाइना. तः।राजदम्ताऽऽविदर्शनाभग्नशम्दस्य पूर्वनिपातः। प्रणित- ५७ गाथा। स्वा भग्ने, "भग्गवणिया वि जोहा, जिसति सेनं उदिवं भज्जि उ-भ्रष्ट-त्रि०। भ्रस्ज-तन् । भर्सनकर्तरि, "मय-घडमचि॥"क्य. २३०। जिउ जंति।" पा०४ पाद । भगवेप-भार्गवेश-पुंगोत्रभेदे, "भरणी भागससगोते।" भजिजमाण-भय॑मान-नि० । पच्यमाने, भाचा०२४०१ चं०प्र० १० पाहु०१५ पाहु०पाहु । सू०प्र०।०। चू०१०६ उ०। सग्गसामत्य - भग्नसामर्थ्य--त्रि०ासामर्थ्यरहिते,“णिरणबंधे पणषध भजिम भर्जिम-वि० 1 मर्जनयोग्ये, दश ७ मा पचनयोवा असुहकम्मे भग्गसामत्थे" पं०सू०१ सूत्र। ग्ये च । भाचा०२ शु. १०४ म०२८०। अग्गो-भर्गो--पुं०। भवतीति उः-दाहका, भर्ग ईश्वर उ. वाह. | भञ्जिय-भर्जित-त्रि । मामर्दिते, "अप्सर भजियं दुक्खुत्तो को यस्य स भों। कामे, गा०।। वा भन्जिय तिक्खुत्तो वा भजिय।" आचा०२ श्रु०१०१ भग्गोद-भोद-पुं० । अवतीति उः-दाहकः, भवतेर्धातुपाठे भ०१ उ०। अनिमात्रपके, उपा०८०। माताकया पाठात् । भर्ग ईश्वर उर्दाहको यस्य स भर्गो-का. मः, तं ददात्याराधकेभ्यो भर्गोदः । शिवे, तथा च शिव भ्र (म) --त्रिका अग्निपके, विपा०श्च००। "निरभलि. धर्मोत्तरं सूत्रम्- पूजयाधिपुलं राज्य मग्निकार्येण सम्पदः।। यं ति।" अग्न्यर्द्धपक्क मिति । श्राचा०२७० १५० १.१ तपः पापविशुद्ध्यर्थ, शानं ध्यानं च मुक्तिदम् ॥ ७ ॥" गा। उ०। धानायगम् , स्त्री० । प्रश्न ५ संवार । भर्ग ईश्वरः, उरिति ब्रह्मा, दयति पालयति जगदिति दो भजिया--भर्जिका-खी । वास्तुलाऽदिशाके, स्था०३ विष्णः, भर्गश्च उश्व दश्चेति बन्दः । प्राधिमहेश्वरेषु, डा०००। Page #1364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्र (१३४१) अभिधानराजेन्द्रः। भत्तकहा भट्ट-भट्ट-पुं० । भट-तन् । स्तुतिपाठवृत्तिमति जातिभेदे. भडक्खइता-भटखादिता-स्त्री० । भटस्तथाविधवलोपदर्शन स्वामित्वे, वेदाभिशे पारडते च । वाच । स्वामिन्याम् ।। लब्धभोजनाऽऽदेखादिता तस्येव खादितं भक्षणं यस्यां सा स्त्री०। टाप् । वाचादश०७०। भटखादिता । प्रवज्याभेदे, स्था० ४ ठा. ४ उ० । भट्टारग-मारक-पु. भट-भाषणे क्षिप् तृ-णिच्-एबुल भण-भण-धा०।कथने,भ्वादि० पर० स० सेट । भणतिम नाट्योक्ने नृपे, वाच०। प्राचार्य च। प्राव०४०। भाणीत् । प्रभणीत्। चकिया स्वः। अधीभणत् । अषभाणत् । मा०म०।"भहारपण मम मायरिएगा।" मा० म०१०। वाच.।"व्यजनावदम्ते" ॥८।४।२३६॥ इति प्राकृतस्ः "पम्बयाभधारगरस पायमूले।" प्राप०३ भ० । " से णाकारः। भण। प्रा०४पाद। भणम्ति-प्ररूपयन्ति । किमा() भंते भागमवलिया समणा णिग्गंधा ।" अथ प्रश्न०२माभन्दार । नि००।। कि भदन्त ! भारका मा प्रतिपादयम्तीति । स्था० ५ भण-पुकामगति प्रतिपादयतीति भण।। प्रतिपावके,०। डा०२० भणंत-भणत-त्रिका प्रतिपादयति, उत्स०पाई०६०।। भडि-मई-पुं० । भू-त । "गोणाऽऽयः" ।२।१७४॥ इति प्राकृतसूत्रेण निपातः । प्रा०२ पाद । म्यामिनि, म. भणग--भणक-पुं० । भणति प्रतिपाइयतीति भणः, मण पिपती, राजमि, पोषके, धारणकर्तरि बात्रि० । भूम् एष भणका । " कम । " इति मारुतलक्षणात् स्या धारणपोषणयोरिति वचनातत् । जं०१षका.भामा० का। प्रतिपादके, " भणगं भरगं करगं, पभाषणं गाण. म। स्था। विपा०जी०।प्रहा। मौ० । स० । जी०। सहगुणा ।"0। "भत्तारं जो विहिसा।"माय०४०।हा। स०। भणण-भणन-म० । प्ररूपणे, विशे। भहिम-देशी-विष्णी, ना. ६वर्ग १.. गाथा । भगावस-माणन-म०। भयनाथै प्रेरणे, मि०प० १७०। भट्ट-भ्रष्ट-त्रि० । भ्रश-काव्युते, अधः पतिते च । पाथ। भणि-मणिति-श्रीभिण-क्लिन् । प्रहाऽऽदित्याविद ।कधमे, दश०१० "भट्ठा समाहिजोगेहिं ।" भ्रष्टाः स्खलिताः। वायभाषायाम्, अनु० । "याही बाया भणिई, सरस्सई सूत्र०९४०४०१०।मि । विमरे, ग.१अधि०।। भारी गिरा भासा ।" पार०मा०५१ गाथा। अपते. भाव. ३० । खरिश्ते, ग. २.प्रधिः । दूरतः भशिऊण-भणित्वा-अध्म० । कथयिस्वेत्यर्थे, मि०पू०१०। पलायिते बाजी०३प्रति.४ मधि० । राालिमा. भणिय-भणित-त्रि०। प्रतिपादित, भा० म०१ मा प्रप। त्रोपजीविनि, पुं० । प्रनि। ० । दर्श। प्रश्न नि००। उस । विशे० । सूत्रः । भ्राष्ट-पुं०। अम्बरीषे, प्रश्न. १आश्रद्वार । " भट्ट फि. प्राधा आचा। वचने, औ० । समागते प्रयोजने, डि चुकं।" पाइ० ना० १६१ गाथा। मर्मभणितपरिहारेण विवक्षितार्थमात्रप्रतिपादने, रा० । भट्टचरित-भ्रष्ट चारित्र-त्रि० । खण्डचरित्रे, " भट्टचरित्तस्ल भणनाऽऽरम्भे , विपा. १ श्रु० ७ ० । स्त्रीणां विजिग्गहं विहिणा।" ग०२ अधि। कृतभण ने, प्रश्न०४ संघ द्वार । भणितं भवनं गम्भीर भट्टरय-भ्रष्टरजस्..नि. । भ्रष्टं बातोचूसतया दूरतः पला- मम्मथोहीपि चेति । जी० १ प्रति० ४ अधिः । ६० । यितं रजो यस्मात् तद् भएरजः । रजोरहिते, रा. ! जं० । भणितं-मन्मथोहीपिका विचित्रा भणितिरिति । सू०प्र. मा०म०। २० पाहु० । चं०प्र० । रतकूजिते च । शा०२ शु भ. भट्ठायार: भ्रष्टाचार-त्रि० । भ्रष्टः सर्वथा विनष्ट भाचारो भत्त-भक्क-कान मज' सेषायाम् का श०१भाभ. भानासाराऽऽविर्यस्य सः। विनष्टाचारे, ग०। थे. बाबा मोदमाऽदिके, प्राध०४मा एमुलाऽऽरिक, भट्ठायारो सूरी, भट्ठारायाणुविक्खो मूरी । सूत्र०१७०४ भ०२ उ०। भक्तं-राधाम्यं सुखभक्षिकादि। ध०२ अधि० । भोजनमात्रे च । स्था०२ ठा०४ उ००। उम्मग्गठिो सूरी, तिमि वि मग्गं पणासंति ॥ मनु०। उत्स० स० विपाप्रप० उपा०ा पश्चाशन ग० १ अधिक। औ०।"भत्ताधिगिचियं सुद्धो।" भक्काशनपानखाचरू. भट्रि-भ्रष्टि-खी । पश्विाविवर्जितभूमौ, भ०७० ७ उ० । पम् । जीत । “कंतारभत्तेह वा दुभिक्खभत्ता या पाहुण. भड-भट-धा । पोषणे, स्वादि-पर-सक-सेट् । " टोड" गभसाषा गिलाणभसेवाबद्दलियाभावा।" श्री भक्त प्रत्याख्याने, कल्प०२ अधि०८ क्षण । भक्तियुक्त, तदात्मके ।।१।११५॥ इति प्राकृतसूत्रेण डः । प्रा. १ पाद । विभक्त च । बि०/- चाच०। भटवि। प्रभाटीत् । अभटीत् । भाषणऽयं घटाऽऽदिः। णिचि भत्तकरण-भक्तकरण-न० श्रावनाऽऽदिकरणे, प्राचा०२४० भाटयति । वाच०। भट-पुं० । भट-मन् । पोखरि, बीरे, वाय० । भटाः शौर्य भसकहा-भक्तकथा-स्त्रीभक्तस्य भोजनस्यकथा भक्तकया। बम्त इति । शा० १० १० । स्था। मम्ता1० विकथाभेदे, स्था। भात्रा०म०।महा०ाचारमटे, भटाचारभटा बलात्कारप्र. भत्सकहा च उब्धिहा पमत्ता । तं जहा-भसरस भावापवृत्तयस्तस्करातालामा भयाभावेनाधिचलिते, स्था० ५ ठा०१ उ. म्लेच्छभे, नीचभेदे, रात्रिश्चरे च । कहा, भत्तस्स णिव्यावकहा, भनस्स भारंभकहा, भत्तस्स न्द्रधारुण्याम्. वाच०। णिहाणकहा। Page #1365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्तकहा अभिधानराजेन्डः। भत्तपञ्चक्खागा शाकघृताऽऽदीन्येवावन्ति तस्यां रसवत्यामुपयुज्यन्त इत्येवं भतहि ( ण् )-भक्कार्थिन-. । भक्तप्रयोजनवति, भक्लार्थि. सपा कथा भावापकथा। पतावन्तस्तत्र पक्कापकानभेदा व्य. नो ये तस्मिनहनि भअते । पं.व.२ द्वार । अनभेदा वेति निर्वापकथा इति । तित्तिरादीनामियतां तत्रो भत्तपइमा-भक्तप्रकीर्णक-न० । अन्धभेदे, प्रति० । (सरस्वक पयोग इत्यारम्भकथा । एतावत् द्रविणं तत्रोपयुज्यत इति निष्ठानकथेति । उक्तं च-"सागघपादाबायो. पक्कापक्की य पतः भत्तपरिमा' शब्ने दर्शयिष्यामि)। होड निब्वाभो । प्रारंभ तित्तिराई. णिट्राणं जा मयसहसं ॥ भत्तपञ्चखाण-भक्तमत्याख्यान- न० । अनशनभेदे, कल्प०१ २२३॥" इति । (नि००) इहवामी दोषा:-"श्राहारमंतरेण अधि०६क्षण । उत्त। (मरण' शब्दे विस्तरः) भकप. विगेहीमो जायए सगालं । अजिइंदिय प्रोदरिया. धाश्री रिक्षाऽऽख्ये मरण मेदे. ध। असदोसाय ॥१२४॥" ( नि० चू०१ उ०।) इति । स्था० ४ आहारस्य परित्यागा--सर्वस्य त्रिविधस्य वा । डा०४ उ० श्रावदर्श० । ग०। मा० चू० । १० । स०। भवेद्भक्तपरिज्ञाऽऽख्यं, द्विधा सपरिकर्मणाम् ॥ १५१॥ दाणि भत्तकह त्ति दारं । भत्तम्ल कहा चउब्धिहा इमो- सर्वस्य चतुर्विधन्य वा । अथवा-त्रिविधस्य पानकरहितस्या. मावावं निघावं, प्रारंभ बहविहं च णिहाणं । हारस्य परित्यागाद्वर्जनाद्धेतोभक्तपरिक्षाऽऽस्य-भक्तपरिक्षा. एता कहा कहित्ते, चउ जमला सुकिला चउरो।।१२२॥ नामकमुक्तलक्षणं मरणं भवेत्-स्यादिति क्रियान्वयः। तच्च सउ जमला सुकिल्ला चउरो, वक्खाणं तहेव तवकालवि. केपां भवतीत्याद्द-(सपरिकर्मणाम् ) वैयावृत्त्यमाहितानां परिसेसिमं, बरं सुकिलते पालावो, सुकिल्ला नाम लहुगा। कर्म च स्वकृतमिङ्गिनीलरणेऽपस्तीत्यत पाह-(द्विधेति) द्वाअह गिद्धस्स वक्वाणं भ्यां प्रकाराभ्यां, स्वयं परेभ्योऽपि च परिकर्मकारिणामित्य र्थः । अमायं भावः- यः प्रवज्याकालादारभ्य विकटनां दत्त्या सागघतादावावी, पक्कापक्को य होइ णिधानो। पूर्व शीत लोऽपि परलोकं प्रति पश्चात्काले संजातसंवेगो आरंभ तित्तिरादी, णिहाणं जा सतसहस्सं ।। १२३ ॥ यथोचितां च संलेखनां कृत्वा गच्छमध्यवर्ती समाश्रितसागो-मूलगाऽऽदि, सागो-घयं वा पत्तियं गच्छति, पक्कं मृदुसंस्तारकः समुत्सृष्टशरीरोपकरणममत्यत्रिविधं चतु. अपर्क वा जं परस्स दिजति सो शिव्यायो । प्रारंभो एत्तिः। विध वा श्राहारं प्रत्याख्याय स्वयमेवोद्ग्राहितनमस्कारः या तित्तिरादि मरंति । णिहाणं निप्फत्ती, जा लक्खेणं भ समीपयर्ति लाधुदत्तनमस्कारो चोद्वर्तनापरिवर्तनाऽऽदि कुयति। र्वाणः समाधिना कालं करोति तस्य भक्तपत्याख्यानम् , आहारकहादोसदरिसपत्थं गाहा अन परेभ्यः परिकर्मणां कारयति, यत उत्कर्पतोऽस्या. आहारमंतरेणा- वि गिहिहतो जाइए सइंगालं । ऽवत्वारिंशनिर्यामका भवन्ति ! ध०३ अधिक। 'अजितिंदिय ओयरिया,वाभो व अणुपदोसा तु।१२४॥ भत्तपञ्चखाणे विहे पनते । तं जहा-बीहारिमे चव, अंतरं णाम आहाराभावो, आहाराभावेऽघि अस्थत्यं गेहि अणी हारिम चेव, णि यमं सपडिको। स्था०२।०४ उ०। स सतः जायते सांगालदोसा । किं चान्यत्-लोके परिवा. भत्तपरिणाएँ विहि, बुच्छामि अहाणुपुब्बीए॥३५४॥ दो भवति-जिइंदिया गण एए, जेण भत्तकहाए करेत्ता चिटुंति, सम्प्रति भक्तपरिक्षाया विधिमानुपा पक्ष्यामि । रसपिदियजए य समिदियजत्रो भवति । दरिया णाम. जीविया उं पवाया, जेण आहारकहाए अत्यंति,ण सज्झा. प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतियज्माणजोगेहि । किं चान्यत्-अणुम्मदोसो यत्ति । गहीश्री पवजादी काउं, नेयम् ताव जा अबोच्छित्ती। सातिजणा-जहा अंत दुट्ठरस भाषपाणातिवातो, एवं पत्थ पंच तुलेऊणप्पा,सो भनपरिमं परिणतो उ ।। ३६५॥ वि सातिजणा, सातिजणाओ य छ जीवकायवहागुमा भवः प्रवज्यामादि कृत्वा तावनेतव्यं यावदव्यवच्छित्तिः । किति । यासहाओ भत्तकहापसंगदोसा एसणं ण सोहति । मुक्तं भवति ?-प्रथमतः प्रमगं, तदनन्तरं ग्रहणाऽऽसेवनापाहारकह त्ति दारं गतं । नि०चू. १ उ०। रूपां शिक्षा , ततः परं पश्च महाव्रतानि , तदनन्तरम. भत्तकाल-भक्तकाल-पुं०। भोजनसमय, उत्त०पाई. १२७०। र्थग्रहणं. ततोऽनियतोवासः, ततः परिपूर्णा गच्छस्य निष्पा भत्तकिएहगुलिया--भक्तकृष्णगुलिका-स्त्री० । विद्युम्मालिया त्ति कृत्वा,तदनन्तरं "तवेण सत्तण सुत्तेण,एगलेण बलेण य" चण वणिकनावा बीतभयनगरं प्रापितायाः देवाधिदेवस्य इत्येवंरूपाभिः पञ्चभिस्तुलनाभिरात्मानं तोलयित्वा भक्तप्रतिमायाः , वीतभयनगरनृपतेर्महिष्या प्रभावत्या स्थापिता. परिज्ञा प्रति परिणतो भवति । याः शुश्रूषाकारिण्यां स्वनामख्यातायां दास्याम् , नि० चू) सपरक्कमे य अपर-कपेय वाघाएँ प्राणुपुचीए। १. उ । सुत्तत्थ जाणपण य, समाहिमरणं तु काय ।। ३६६॥ मत्तटु-भक्तार्थ-पुंसभक्लेन-भोजनेनार्थः-प्रयोजनं भक्तार्थः । भक्तपरिज्ञारूपं नाम मरणं द्विधा-सपराक्रमम् , अपराक्र. भोजनेन प्रयोजने, प्रक०४ द्वार । " एगो चिटेज भत्ता।" मं च । तत्र सपगभ द्विविधम्-व्याघातिमम्, निर्याघातं भनार्थम्-आहारार्थम् । उत्तश्रा भक्तार्थमुदरपूरणमात्रमि- च । तत्र सपराक्रमे एकैकस्मिन् व्याघाते कर्मणि घन. ति । श्रीघ । भोजननिमित्त भोजनमएडल्यादौ, त्रि०। उत. त्ययाऽऽनयनात् व्याघातिमे, चशब्दानिर्याघाते च समुपपाई।१०। प्रव०। स्थिते सूत्रार्थशापन समाधिमरणं कर्तव्यम् । Page #1366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपच्चक्खागा ( १३४३ ) अभिधान राजेन्द्रः | तदेवा । मक्खविधारसमत्यो, जो गंतु वा एस सपरक्कम खलु, व्वित्ररीतो भवे इयरो || ३६७ ॥ यः स्वस्य परस्य वा निमित्तं भिक्षायां विचारे च गन्तुं समर्थो, यदिवा-अन्यगणं गत्वा वाचयति, स भक्तप्रत्याख्यानं प्रतिपित्सु परीक्षाऽऽदामों म यति इतरः- अपराक्रमः, तद्वतं मरणमपि यथाक्रममं सपराक्र मम्, अपराक्रमं च । एकेकं तं दुवि, निव्वाघायें तहेव वाघायं । बाघातविय दुनिहो, कालाऽतियरो व इयरो ||| ३६८|| तत् - सपराक्रमम्, अपराक्रमं च मरणमेकैकं द्विविधम्-नि. दर्याघातं व्याघातं च । तत्र व्याघातोनाम-यथा अच्छभन कालादोष्ठौ च खादितौ । श्रथवा श्रवमे व्याघातः, ततो मर प्रतिपद्यते निघतरहितं ध्यातोऽपि द्विविधातारमतिरति प्रतिका मतीति कालाविवा कालसो यतधिरेण मरणं यथा पूर्ति गोनशेन दृष्टस्य तं दृष्टासमतीत्य विशति विन्दिया 35 विषु मरमम् इतरः कालानतिवारी यस दिवसमेव मर्तुकामा म प्रत्याचष्टे इति । तं पुण अगंतव्वं, दारेहि इमेहि आणुपुच्चीए । गनिस्सरणादिरपि विभागं तु बोद्धमि। ३६६ | सेन पुनर्निघातादिभिर्वदयमाणैर्गणनिःसरणाऽऽदिद्वारैरा. पूर्वा क्रमेणानुगन्तव्यं तेषां द्वारा विभा य, . तमेव वक्तुकाम श्राद्दगनिस्सरणे परगणे, सिति संलेद अगीयसंविगो | गाभोगण असे, श्रणापुच्छ परिच्छ प्रालोए | ४०० | ठाय सडीए सत्ये खियादयदा चरिमे । हाणी य अपरियंत, निजर संवारुवत्त यादगि ।।४० १ ॥ सारेच प कवयं निव्यधिकरणं तु । अंतोहि पापा काययो ॥ ४०२ ॥ गणात् स्वगाद् निःसरणा वक्तव्या. तथा पररागमनं तथा (सिति त्ति ) द्रव्यभावरूपण नित्रेणिर्वया, तथा संखेलना, तथा श्रगीतस्य श्रगीतार्थस्य समीपे न भक्तं प्रत्याख्यातव्यं तथा (संवित्ति ) संविग्नस्यापि समीपे न प्रत्याख्यातव्यम् । तथा (एग त्ति ) एको निर्यापको न कर्त्तव्यः, किं तु बहवः, परतो वा भक्तं प्रत्याख्यातुकामस्य विषये श्राभोगनं कर्तव्यम् । यदि यदि निका पूर्यन्ते तदा स प्रतीष्यते, शेषकालं नेति । तथा श्राचार्येण गच्छस्यानापृच्छया ल भक्तप्रत्याख्यानं न प्रतिपादयित तथा तेन भा वितस्य परीक्षा कर्त्तव्या । तथा भक्तपरिशां प्रतिपत्तुकामे न नियमत अलोचना दातव्या ||४००|| तथा प्रशस्ते स्थानेप्रशस्तायां वसतौ भक्तपरिक्षा प्रति उत्तव्या । तथा निर्यापकाः गुणसम्पन्नाः समर्पणीयाः । तथा चरमकाले तस्य भक्तास्था धातुकामस्य द्रव्यदर्शनं प्रधानसमस्ताऽऽद्दारद्रव्योपदर्शनं । भत्तपच्चक्रवाण विधेयम् । (हाणि ति) भक्तं प्रत्याख्यातुकामस्य प्रतिकि समाहारस्य हानिर्विधेया। तथा अपरिश्रान्ताः सर्वकर्मप्रितिचारका वर्तन्ते । (निज्जर सि) निर्जरा वक्लव्या । त था संस्तारको याशो भवति कृतमकप्रत्याक्यानस्य कर्तव्य. स्तादृशो वक्ष्यते । तथा तस्य कृतभक्तप्रत्याक्यानस्योहूर्तनाऽऽदीनि यथासमाधि करणीयानि ॥ ४०१ ॥ तथा प्रथमद्विताभ्यां याजितं स्मारयित्वा स्वं स्वरूपमनयत्या [35] भूतमनं प्रपोजी यता सुनव्य च तस्य विधेयम् एतं नान भक्तपरिशाव्याघाताभावेन प्रतिपत्तव्यम् । अथान्तः- प्रामाSSदिषु वहि: - उद्यानाऽऽदिषु भक्तपरिज्ञाया व्याघातः संजात तो गीतार्थानामुपायो भवति कर्तव्यः एष द्वारगाथाऽर्थः । साम्प्रतमेतदेव विपुः प्रथमतो (१) ययनिस्सरणद्वारमाह गणनिस्सरणम्म विही, जो कप्पे वति समासेणं । सो क्षेत्र निखमेसो, भतपरिणाएँ दसम ||४०३॥ गनिम्खर यो विधा * सप्तप्रकारो वर्णितः स एव व्यवहारे दशमे उद्देशके भ परिशायां भक्तपरिज्ञाधिकारे निरवशेषो वक्तव्यः ( स च विधिः 'उवसंपया' शब्दे द्वितीयभागे १००८ पृष्ठादारभ्य दर्शितः) निस्सरणारं गतम् । इदानीं ( २ ) परगणद्वारम् । परगणे गरवा भक्तप्रत्याख्यानं कर्त्तव्यम् - किं कारणं कम बेराच योकिलंगार्थ । अभुज्जयपि मरणे, कालुखियाकाण बाघातो ॥ ४०४|| किं कारणं स्वगणादपक्रमणं क्रियते ? | सूरिराह स्थविराखाम्बातिम भ्युते भक्तपरिशग्लक्षणमरणे समुपस्थितानां शिष्याणाम् मेरो कन्दनादीनि कुर्युः रोना 33 विके च तेषामाकर्याश्रुतपातं दृष्ट्वा तेषाममुपरि कारुण्यमुपजायते, ततो ध्यानच्याघातः । धन्यच्च सगणे आखाहाणी, अध्पत्ति होइ एवमादीगं । परम गुरुकुलवासो, अपविजितो होड़ ॥४०५॥ यो गणधरः स्थापितः तस्याऽऽहां केचित् न कुर्वन्ति, तथा के पाशिपकरनिमित्तमप्रति आदिशब्दात् गणोबा दीनामुाि करदर्शन मिश्यादिपरिग्रहः प स्वगणे श्राशाद्दानिरप्रीतिर सेवनाऽऽदिकं ध्यानव्याघातकारमुपतिष्ठते, तनः परगणे गत्वा भक्तप्रत्याख्यानं प्रतिपद्यते । यत एवं गुरुकुलवास असेवितो भवति । किंविशिष्ट इत्याह प्री वर्जितोऽप्रीतिश्च समस्ताऽपि परिहृता भवतीति भावः । यदि यथा स्वगत तथा प्रतिअगरवनिमित्तं तु दिसा ग बालादी बेराय व उविवरण बघतो ।।४०६॥ उपकरणनिमिनामाचा प्रत्य दूग्रहः कलहो भवति । अथवा तं गणधरं केचित्र सन्यन्ते, ततः स्वस्वपतपरिग्रहतो गणभेदः तत पशु - Page #1367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४४) जत्तपश्चरखाण भभिधानराजेन्द्रः। भत्तपञ्चक्खा मितं गणभेदं रष्ट्रा उपलभ्य, तथा बालाऽऽदीनां बालवृद्धा- दक्ष्यमाणस्वात् , उत्कृष्टां तावद् वक्ष्यामि, यदित्यव्ययं यथा उसहालानाऽऽदीनां स्थविराणां चात्र विकरणे उचितकर | मुनय आस्मानं संलिख्याऽऽस्मनोऽर्थ साधयन्ति । खाअर्शने प्रीतिरुपजायते, तया चाफ्रीस्या ध्यानध्याघातः। तमेवाहअयं च परगणे प्रतिपने गुण: चत्तारि विचित्ताई, विगईनिज्जहियाई चत्तारि । सिणेहो पेलबो होइ, निग्गते उभयस्स उ । एगंतरपायामे-नातिविगिट्टे विगिटे य ॥ ४१२ ।। भाषावि बाघाते, नो सेहादि विउग्गमे ।। ४०७॥ चत्वारि वर्षाणि विचित्राणि विचित्रतपांसि करोति।किमुलं भवति-बचारि वर्षाणि यावश्कदाचितुर्थे कदाचित् षष्ठं स्वगवानिर्गतस्योभयस्यापि-गणस्य, भाचार्यस्य षा मेह कदाचिदएममेषं दशहादशादीम्यपि करोति , कस्वा व परस्परं पेलवा-प्रतनुर्भवति, अन्य (माहच्च) काचित्पा पारणकं सर्वकामगुणितेनाऽऽहारेण पारयति । ततः परम. पमपरीपत्याजिस्म मतपरिक्षा, तस्यां यो व्याघातो- म्यामि त्वारि वर्षाण्याप्रकारेण विचित्रतपसि करोति बिलोपा स्यात् तसिन म्यामातेम स्वगणावू शक्षकानी विरुतिनिहितामि । किमुक्तं भवति -विधि तपाकनां युद्धमा जापते. मापात परिक्षामाभावात् । अथवा-धि स्वा पारणके निर्षिकृतिकं भुझे उस्कपरसर्जेचततः परिणामोऽपि स्यात् । तथाहि-स्वगणे स्थितं माप्रति परतोऽन्ये वर्षे एकाम्तरमायाम करोति, एकान्तरं चतुर्थ जानन्ति, कात्या सर्वा अपि प्रतिज्ञा पतेषामीरश्य ए. कृत्वा मायामेन पारयति, एवमेतानि दश वर्षाणि गतानि, ति विपरिणामं गत्या संयम नोपयन्ति । एकादशस्य वर्षस्यादेशान् नातिथिकांतपःस्वाभायामेन सम्प्रति (३) 'सिति'द्वारमाह परिमितं भुक्तमातिषिकष्टं नाम तपश्चतुर्थ षष्ठं पाषषदवसिती भावसिती, अणुप्रोगधराण जेसिमुवला । गम्तव्यम् । ततः परमम्यान् विकर तपःस्था माशीप्रमेष मरणं यायासमिति कृत्वा पारण के परिपूर्णे प्राण्या मायाम ना उगमाकडा, हेद्वितपयं पसंसति ॥ ४०८।। करोति, विक नामाष्टमादिकम् । ' संजमठागाणं -उगाण लेसाउितीबिसेसाणं। साम्प्रतमेतदेव व्याधिण्यामुराहउपरितपयकमणं, भावसिती केवलं नाव ॥ ४०६ ।। संबछराणि चउरो, होति विचिसं चउत्थमादीयं । सितिर्नाम- ऊलमधो पा गच्छनः सुखोत्तारावतारहेतुः काऊण सव्वगुणियं, पारेइ उ उम्गमविसुद्धं ॥ ४१३ ॥ काठाsदिमयः पन्थाः। ला द्विधा-द्रव्ये, भाये च। तत्र द्रव्ये । शितिनि:णिः, सा द्विधा-ऊर्द्धगमने, अधोगमने च । तत्र आदिमानि चत्वारि संवत्सराणि विचित्रं तपश्चताऽऽदिकं ययाऽधस्तात् भूमिगृहाऽऽविष्यवतीर्यते सा अधोगमने। भवति, तथ कृत्वा पारयति भुक्ने सर्वगुणितं सर्वगुणेन सं. यया चोर्बपरिमाणे भाकाते सा ऊर्द्धगमने । भावसि. युतमाहारमुद्रमविशुद्धम्।। तिरपि द्विधा-प्रशस्ता, अप्रशस्ता च । तर यहेतुभिस्ते. पुणरवि चउरामे तू , विचित्त काऊण विगतिवजं तु । पामेष संगमस्थानानां-संयमकराडकानां लेश्यापरिणाम पारइ सो महप्पा, णिर्दू पणियं च वजह ॥ ४१४ ।। विशेषाणांबा याऽधस्तनेष्वधस्तनेष्वपि संयमस्थानेषु पुनरप्यम्यामि त्वारि वर्षाणि विचित्रं तपः कृत्वा स म. गमति लाप्रशस्ता भावशितिः । वैः पुन तुभिस्ते. हारमा विकृतिवर्ज पारयति, तत्रापि स्निग्धं प्रणीतं चोक. पामेष संपमाऽऽविस्थामानामुपरित परितनेषु विशेष-- घरसं वर्जयति। सध्यारोहति सा प्रशस्तोम्बोपरितम पत्र क्रमेण भावसितिस्तावर द्राव्यं पावत् केवलज्ञानम् । तत्र अनायो दोशिसमा, चउत्थ काऊण पारि पायामं । घेवामनुयोगधराणामाचार्याणामेयं द्रव्ये भावे च शितिरुप.। जीएणं तु ततो, अस्मेकसम इमं कुणइ ॥ ४१५॥ लाधा भवति ते (नहु) नैव ऊर्ध्वगमने कार्य कर्तव्ये अध. अध्ये २ समे-वर्षे चतुर्धं कृत्वा अायाम पाग्यति एवं दश समपदं प्रशंसन्ति, म तासु सपदि गमनायाशुभाध्यवसायप्र शुभाध्यवसायप्र वर्षाणि गतानि, ततः परमन्यामेकां समां-वर्षमिमां वक्ष्यमा. र वृत्तिमातम्वते, किं तु शुभेष्यभ्यवसायवारोहन्ति । गतं सि. णां कालिकेनायामपारण केन करोति । तिवारम् । संप्रति (५) संलेखनाद्वारमाह कथमित्याहउकोसा यजामा, दुविहा संलेहणा समासेण। तस्थिकं छम्मासं, चउत्थ छटुं तु काउ पारे । आयंबिलेण नियमा, पिइए छम्मासिऍ विगिटुं॥४१६॥ अम्मासा उ जहमा, उकोसाबारससमा उ॥४१॥ संखखमा समासन द्विविधा प्राप्ता । सद्यथा- उस्कृष्धा,जघन्या अट्ठम दसम दुवालस, काऊणाऽऽयंषिलेण पारे। पाचशब्दात-मध्यमा चासत्र जघन्या परमासा, उत्कएर अनेकहायणं तू, कोडीसहियं तु काऊण ।। ४१७ ॥ द्वादशसमा-द्वादशवर्या तष एकादशे वर्षे, पकमाचं, परमासं यावत् चतुर्थ षष्ठं या चिट्ठउ तार जहन्ना, उकोमं तत्य नाव बुच्छामि । कृत्वा नियमादायामेन पारयति द्वितीये परमासे विकृष्टमएम ज़ संलिदिऊण मुणी, साहेती अत्तणो अत्यं ॥ ४१२ ॥ दशमं द्वादशं था कृस्वा आयामाम्लेन पारयति । एवमेकादश तत्र तयोर्जघन्योरक्यामध्ये अनन्या याचत्तिष्ठतु, पश्चा- वर्षाणि गतानि । अन्यमेकं द्वादशं हायन कोटीसहितं कृत्वा । Page #1368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपञ्चक्खाण अभिधानराजेन्द्रः। जत्तपञ्चक्खाप किमित्याह - अधुना (५) अगीतवारमाहभायंबिल उसुणोदे-ण पारि हावेतो प्राणुपुवीए। अमीयसगासम्मी, भत्तपरिमं तु जो करेजाहि। जह दी तेलवत्ति-क्खो समं तह सरीराऽऽयू॥४१८॥ चतुगुरुगा तस्स भवे, कि कारण मेणिमे दोसा॥४२॥ मायामेन उष्णोदकेन पारयति । अयमत्र संप्रदाया-द्वाद. बीतार्थस्य समीपे भक्तं प्रत्यास्यातव्यं, यस्स्वर्गातस्य-अगी. शे वर्षे कोटीसहितं प्रत्याख्यानं चतुर्थविषयं कृत्वा प्रथमं पा. तार्थस्य सकाश-समीपे भक्तपरिहां-मनप्रत्याख्यानं करोति चरणकमायामेन उष्णोदकेन करोति, द्वितीयं पारणनिर्विक तस्य प्रायश्चित्तं चस्वारो गुरुकाः। किं कारणम् ,उच्यत-येन कारखेन इमे वक्ष्यमाणा दोषास्तेन कारशेन । तिकेन, तृतीयं पुनरायामेन यथोक्तरूपेण, चतुर्थ निर्विकृति. फेन । एवमेकान्तरितं पारणकेव्यायामं करोति । कोटीसहितं तत्र तानेव दोषानाहनाम-प्रथमदिवसे पुनरभक्तार्थ कृत्वा पारयति, एतच्चतुर्थे । नासेती अग्गीतो, चउरंगं सबलोयसारंगं । कोटीसहितं प्रत्याख्यानम् । एवं षष्ठाटमाऽऽदिकोटीसहिताः नम्मि य चउरंगे, न ह सुलभं होइ चरिंग ॥४२४|| भ्यपि भावनीयानि । अथवा-अयम् अन्यो-द्वितीयः प्रकार: प्रगीता-प्रगीतार्थों निर्यापकस्तस्य कृतमकमात्याच्यावस्य एकस्मिन् दिने चतुर्थ कृत्वा द्वितीये दिवसे पारयति, तृतीये चतुरबतुमानां समाहारचतुरङ्गं वक्ष्यमासक दिवसे पुनश्चतुर्थे करोति । चतुर्थे दिवसे पारयति । एतच्चतु. थकोटीसहितं. षष्ठकोटीसहितमेवं षष्ठं कृत्वा पारयत्ति, भूतमित्याह-सर्वलोकसाराङ्गम्-अङ्गबरं, प्रधावामित्वमर्था तरम्। सर्वेषामपि-प्रयाणामपि लोकानां यानि मानियेणे पुनः षष्ठं करोति , ततः पारयति । एवमटमाऽऽदिकोटीस. हितान्यपि भावनीयानि । (हावेतो प्राणुपुब्बीए इति) सारमिति विशिष्टमङ्गं प्रधानं सर्वलोकसाराम् । नरकचतु रङ्गेन पुन सुलभ-सुप्रापं भवति चतुर कि काss. तस्मिन् द्वादशे वर्षे पारण केषु यथाक्रममे कैकं कवलं हापयन् पारयति, यावदेकं कवलं. ततः (शेषेषु) शिक्थेषु पारणकेषु दिरशाम्तैरतिशयेन दुष्पाप, ततोऽगीतस्य समीपे मन क्रमश एकेन सिक्थेनोनमेकं कवलमाहारयति, द्वाभ्यां सि प्रत्याख्येयम्। क्याभ्यां त्रिभिः सिक्थेरेवं यावदन्ते एकं सिक्थमाहारयति । किं पुण तं चउरंग, नं नटुं दुखभं पुणो होई। कस्मादेवं करोतीति चेदत आह-यथा दीपे सममेककालं माणुस्सं धम्मसुती, सद्धा तवसंममे विरियं ॥४२॥ तैलवर्ति क्षयं भवति, तथा शरीराऽऽयुषः समकं क्षयुः स्या- किं पुनः तचतुरई यन, सत् पुनर्नुभं भवति । सरिराहा दिति हेतोः। मानुष्य-मानुषत्वं,धर्मश्रुतिः धर्मश्रवणं यदा तपसि संय. पच्छिन्ने हायणे तू ,चउरो धारेत्तु तेलगंडूस । मे च वीर्यमिति। निसिरेज खेल्लमले, किं कारण गल्लधरणं तु ॥ ४१६ ।। किह नासेति गीतो, पढमबितिएहिं अहितो सोउ।. लुक्खत्ता मुहतं, माहु खुभेज त्ति तेण धारेह । । । योभासे कालियाए, ते सिद्धम्मो तिकडेला ॥४२ ।। मा हु नमोकारस्स, अपच्चलो सो हवेजाहि ॥४२०॥ कथं-केन प्रकारेण सोऽगीतार्थः तस्य चतुरङ्गमाशयति । सू. सस्मिन्पश्चिमे द्वादशे हायने ये अन्तिमाश्चत्वारी मासास्ते. रिराह-प्रथमद्वितीयाभ्यां सुत्पिपासालक्षणाभ्यां परीषहा. बेकै कस्मिन् पारणके एकान्तरितं तैलगण्डूषं चिरकालं धार भ्यामर्दित:-पीडितः स भक्प्रत्याख्याता कदाचित् कालि. यति,धारयित्वा खेलमजके-सक्षारे निसृजति-स्यजति ततो व काया रात्री भक्तं च पानं च भवभाषेत-याचेतवतः सोऽ. दनं प्रक्षालयति॥४१६ । किं कारणं गल्ले गण्डषस्य धारणं कि गीतार्थो न कल्पते इति करवा न दद्या, चिन्तयति ब-भक्तं यते । उच्यते-मा मुखयन्त्रं सक्षत्वाद्वातेन तुभ्यते-एकत्र सं प्रत्याध्याय पुनर्याचते भक्तं, तत्रापि राषौ, तत एष नि. पिएडी भूयते, तथा च सति मा स नमस्कारस्य भगने अप्र. धर्मा असंयतीभूत इति कृत्वा तं त्यजेत् त्यकरवा गच्छतु । त्यल:-असमर्थों भवेदिति हेतोगल्ले तैलधारणं करोति । अंतो वा बाहिं वा, दिवा य रातो व सो विवित्तो उ। उक्कोसगा उ एसा, संलेहा मज्झिमा जहन्ना या । अट्टदुट्टबसट्टो, पडिगमग्णाऽऽदीथि कुजाहेि ॥४२७॥ संबच्छर छम्मासा, एमेव य मास पक्खेहिं ॥४२१॥ अन्तरूपाश्रयस्य बहिरूपाश्रयस्य घा, दिवा रात्री वा, तेनाs एषा-अनन्तरोदिता संलेखा-संलेखना उत्कृष्ठा भगिता,मध्य. मीतार्थेन विविक्तः सन् मार्त:-दुःखात बशार्सःसन् प्रनिगा। मा संलेखना संवत्सरप्रमाणा, एवं प्रागुक्केन प्रकारेण द्वादश- मनादीनि प्रतिगमनं नाम प्रतिभअनं, तमोक्षमित्यर्थः । भिर्मासैः परिभावनीया, जघन्या एषा षएमासा द्वादशभिः प्रादिशब्दात्-मृत्वा कुगतिविनिपातान् वा कुर्यात्। । पौः वर्षस्थाने मासान् पक्षाँश्च स्थापयित्वा तपोविधिः प्रा. तांश्च कुगतिविनिपातानेवाऽऽहगिव निरवशेष उभयत्रापि भावनीय इति भावः। मरिऊणऽदृमाणो, गच्छे तिरिएसु वंतरेसुं वा। एत्तो एगतरेणं, संलेहेणं खवेत्तु अप्पाणं । संभरिऊय य रुट्ठो, पडिणीय करेाहि ।।४२८॥ कुज्जा भत्तपरिमं, इंगिणि पाओवगमणं वा ॥४२२॥ सार्तध्याना मृत्वा तिर्य तिर्यग्यानिषु गच्छत्, यदिवापतंषामुत्कृष्टमध्यमजघन्यानां संलेखनानामेकतरेण संलेखने. व्यन्तरेषु-बानमन्तरेषु मध्ये स समुत्पद्यत् तत्र जाति नाऽऽत्मानं क्षपयित्वा कुर्यात् भक्तपरिक्षाम् इङ्गिनीमरणं,पाद स्मृत्वा स्यकोऽहं तस्यामवस्थायामिति रुष्टः सन् विधं पोपगमनं वा । गतं (४) संलेखनाद्वारम् । प्रन्यनीकत्वं कुर्यात् । For Private & Personal-Use Only Page #1369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्तपच्चक्खागा अभिधानराजेन्दः । नत्तपच्चरखाण प्रहवा वि सम्धरीए, मोयं देजाहि जायमाणस्म । गीतार्थो दुर्लभो यस्मिन् काले तं गीतार्थदुर्लभं कालं प्रती. सो दंडिया' इजा, रुट्ठो साहे निवादीणं ।।४२६॥ त्य-श्राश्रित्य एषा-अनन्तरोदिता क्षेत्रतः कालनश्च मार्गणा. भिहिता। ते खलु गीतार्थ गवेषमाणा क्षेत्रविपये कालविषये कुजा कुलादिपत्था-रं सो रुटो व गच्छे मिच्छतं । च परिमाणमुत्कृष्टमेतावत् कुर्वन्ति । तप्पञ्चयं च दीहं, भमेज संसारकतारं ॥४३०॥ तम्हा गीयत्येमा, पवयणगहियत्यसव्यसारणं । अथवा-शचर्या पानीयं याचमानस्य रात्रौ पानीयं नास्ती। निजबगेण समाही, कायया उत्तमम्मि ।। ४३६ ।। ति मोक-प्रश्नवणं सोऽगीतार्थों दद्यात् स च दण्डिकाऽऽदीनां सम्बन्धी निष्क्रान्तः स्यात् ततः स धातुवैषम्येण रुष्टः सन् यस्मात् क्षेत्रतः कालतश्च गीतार्थमार्गणायामेतावानादरः अवधाषेत्, अवधाव्य च नृपाऽऽदीनां कथयत्ततः प्रवच कृतस्तस्मात्तेन गीतार्थन प्रवचनगृहीतार्थसर्वसारेण प्रवचन. नस्य महानुट्टाहः। यदि वा-स राजाऽऽदिस्तत्पक्षपतितः, स्य गृहीतोऽर्थस्य सर्वसारो येन स तथा तेन, निर्यापण उ. सोऽपि या स्वयं रुष्टः कुलाउऽदिप्रस्तारं कुलस्य गणस्य वा समार्थे व्यवस्थिस्यतेन समाधिः कर्तव्यः।गतमगीतार्थद्वारम् । विनाशं कुर्यात् । यद्यपि च एवमादयो दोषा न भवन्ति तथा अथ (६) असंविनद्वारमाहऽपि प्रथमद्वितीयपरीषदाभ्यां परितप्यमानोऽसमाधिना मृ. अस्संविग्गसमीवे, पडिबजंतस्स होइ गुरुगा उ। तो दुष्करमपि कृत्वाऽन्तक्रिया कल्पविमानोपपत्ति वा न किं कारणं तु तहियं, जम्हा दोसा हवंति इमे ॥४३७॥ प्राप्नुयात् , किं तु वाणमन्तराऽऽदिष्पपधेत । यदि वा-क असंविग्नसमीपेऽपि भक्तपरिज्ञा प्रतिपद्यमानस्य भवन्ति पायपीडितो हष्टिविषः सो जायेत । (गच्छे मिच्छत्तमिति) चत्वारो गुरुकाः प्रायश्चित्तम्। किं कारणं तत्र यस्मादिमे बह भवे वा मिथ्यात्वं गच्छेत्, तत्प्रत्ययं च मिथ्यात्वप्रत्ययं वक्ष्यमाणा दोषा भवन्ति । व दीर्घे संसारकान्तारं भ्रमेत् । तानेवाऽऽहसो उ बिगिंचिय दिट्ठो, संविग्गेहिं तु अन्नसाहूहि ।। नासेति असंविग्गो, चउरंग सव्वलोयसारंग। प्रासासियमणुसिट्ठो, अम्भुयमरणं वि पडिवनं ।।४३१।। नम्मि य चउरंगे, न हु सुलभं होति चउरंग ॥ ४३८॥ स प्रत्याख्यातभक्तो भक्तं याचमानोऽगीतार्थः साधुभिर्वि नाशयत्यसंविग्नश्चतुरङ्गं-मानुषत्वाऽदिरूपं सर्व लोकसाराङ्गं विक्ता परित्यक्ता अन्यैः संविग्नः गीतार्थसाधुभिर्दष्टः तत. सर्वलोकप्रधानतराङ्गं चतुरङ्गे नष्टे (न हु) नैव सुलभं-सुमा स्तैराश्वासिता, आश्वास्य च अनुशिष्टः-अतिशयेन दूरमुः भवति चतुरङ्गम् । साहितस्ततो यत् अभ्युद्यतमरणं त्यक्तं; तत्पुनरपि तेन - कथं नाशयतीत्यत आहप्रतिपनं ततः सुगतिभागी जातः। आहाकम्पिय पाणग, पुष्फा सेया बहुजणे णायं । एए अन्ने य तहि, बहवे दोसा य पचवाया य । सेना संस्थारो विय,उवही वि य होइ अविसुद्धो।।४३६।। एएहि कारणे हिं,अगियत्थे न कप्पति परिगणा ॥४३२।। असंविग्नो बहुजनस्य यथा तथा वा ज्ञातं करोति,यथा-एष यस्मादेते-अनन्तरादिता अन्ये च-अनुक्का बहवो दोषाः कृतभक्तप्रत्याख्यानः, ततः स प्राधाकर्मिकं पानमानयति,पु. पाणि च ढोकयति, से चनं च चन्दनाऽऽदिना करोति, तथा -प्रत्यवायाश्च अगीतार्थस्य समीपे भक्तपरिज्ञाप्रतिपत्ती, तस्मादे शय्या-संस्तारक उपधिश्च तेनाऽऽनीतः अविशुद्धो भवति । तैः कारणैरगीतार्थस्य समीपे परिक्षा-मनपरिज्ञा न कल्पते, संघिग्न गीतार्थानां च समीपे बहयो गुणाः तस्मात्तन्मार्गणा पते अन्ने य तहिं, बहवे दोसा य पच्चवाया य । कर्तव्या। सा च द्विधा-क्षेत्रतः, कालतश्च । एतेण कारणेणं, अस्संविग्गे न कप्पा परिन्ना ।।४४०॥ नत्र क्षेत्रतस्तामाह एते-अनन्तरोदिता अन्येऽप्यनुक्ता बहवो दोषाः, प्रत्यवाया. 'पंच छ सत्त संए वा, अहवा एत्तो वि सातिरेगतरे। श्च । तत्र प्रत्यवायाः प्रागिवासमाधिमरणतो वाण मन्तरेषूगीयत्थपायमूलं, परिमग्गजा अपरितंतो ।। ४३३ ।। स्पादितो,नृपाऽऽदिकथनतो वा वेदितव्याः। एतेन कारणेनाs संविग्ने-असंविग्नस्य समीपे परिज्ञा न कल्पते, किंतु संवि. पञ्च षट् सप्त वा योजनशतानि । अथवा-इतोऽपि सातिरेक ग्नस्याऽन्तिके। तराणि योजनशतानि गत्वा संविग्नपादमूलमपरि(त्रा)ता. ततः क्षेत्रतो कालतश्च मार्गणामाहतोऽनिर्विमो मृगयेत । उक्का क्षेत्रतो मार्गणा। कालन पाह पंचे ब छ सत्त सया, अहवा एत्तो वि सातिरेगा य । एग व दो व तिन्नि व, उक्कोसं वारसेव वासाणि । । संविग्गपायमूलं, परिमग्गिजा अपरितंतो ॥ ४४१॥ गीयस्थपायमूलं, परिपग्गेजा अपरितंतो ॥ ४३४ ॥ इयं क्षेत्रतः, कालत आहएको द्वे त्रीणि वा उत्कर्ष तो द्वादश वर्षाणि यावदपरिता. एक व दो व तिमि व, उक्कोसं बारसेव वासाणि । (प्रान्तोऽनिर्बिलो गीतार्थपादमूलं परिमृगयेत। संविग्गपायमूलं, परिमग्गिजा अपरितंतो॥ ४४२ ॥ गीयस्थदल्लभं खलु, पडुच्च कालं तु मग्गणा एसा । संविग्गदुल्लभं खलु, कालं तु पडुच्च मगणा एसा । ते खलु गवेसमाणा, खेते काले य परिमाणं ।। ४३५ ॥ ते खलु गवसमाणा, खेने काले य परिमाणं ॥४४३॥ Page #1370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपञ्चकखागा यस्मादेव क्षेत्रतः कालतश्च मार्गणायामादरः कृतः - सम्हा संविग्गेणं, पत्रयण गहियत्सव्वसारेण । निज्जवगेण समाही, कायन्त्रा उत्तमम्मि || ४४४ ॥ गाथाचमप्रिय गवं संविग्द्वारम्दानी (७) एकद्वारम् । एको निर्यातको न कर्तव्यः । किं तु बहवः अन्यथाविराधनाऽऽदिदोषप्रसङ्गात् । तमेवोपदर्शयति (१३४७ ) अभिधान राजेन्द्रः । स्वतः परतो वा अशियाऽऽनन कम्पनि बिराइया होई कजहामी प सो सेवा निचचा, पायसं चेत्र ठट्टाहो ||४४५ एकस्मिन् विषयके संयमविराजना आमविराधना व भवति । तथाहि कृतभक्त प्रत्याख्याननिमित्तं पानकग्रहणाया उन् यदा कापि न लभते तदा मा भूत्पश्चात् ग्लानस्यासमाधिरित्याधाकर्मिकमतिं पानकं गृह्णीयात् इति संपम विराधना, निरन्तरमेकस्य क्लिश्यमानस्याऽऽत्मविराधना, तथा कार्यहानि भवति तथादि-मरणसमये समायुत्पा दनाय सोऽपेक्षते, स च कदाचित्समये पानकाऽऽदिनिमि तमन्यत्र गतो भवेत्, तथा स भक्तप्रत्याख्याता व्यक्तः, क्षक्षा अपि च त्याक्लाः, प्रवचनं त्यक्तमुड्डाद्दश्चोपजायते । एतद्विभावनार्थमाह तस्सगतो भासण, सेहादि अदाणे सो परिच्चत्तो । दाउं व अदा वा भवति सेात्रि निम्मा ४४६ ॥ तस्य प्रत्यायास्पार्थाीय पान का दीनां माग तो निर्यातस्य समीपे शेक अपरितो वा मुस्तस्य समीपे (ओमा ति भयाचितं तेच शेषाका योन कल्पते एतस्य च भक्तं, कृतप्रत्याख्यानत्वादिति न ददति, अदा ने च सोऽसमाधिना मरणं प्राप्नुयादिति स परित्यक्तः । ते च शैक्षा दवा अदस्या वा निर्धर्माणो भवन्ति । तथाहि ते. पामेवं चित्तमुपजायते, यथा स्थापनामा प्रत्याख्यानं यथा देयमेव दिसा3दिप्रत्याख्यानाम्यपि ततः कद साऽऽयोऽपीति निर्धर्माणो जायन्ते । कूप दिजमाणे, मारेंति बल त्ति पत्रयणं चत्तं । हाय जं पडिगया, जो अवघं पयाति ॥ ४४७ ॥ तैः शकैरेवादीयमाने महेस महताशब्देन जति यथा मामेलम्मारयन्ति वेवमुक्तेन प्रकारेण प्रवचनं त्य तथा शैक्षा ये प्रतिगता:- प्रतिभग्नाः सन्तो जने श्रवशां प्रका शयन्ति, एष उड़ाहः । गतम् (७) एकद्वारम् । श्रथ (=) आभोगनद्वारमाह परतो सर्व वनच्या पारगमिच्छति अपारगे गुरुगा । असती खेमसुभिकखे निव्याधारण परिवती ॥ ४४८ ॥ भक्तं प्रत्याख्यातुकामः कोऽपि समागतस्तत श्राचार्येाऽऽ. भोगः कर्त्तव्यो यावदस्य प्रत्यायानं समाप्तिमुपयाति साथिया नगरादीनां स्थानं भविष्यति कि या नेति तच कथं तत्यमासार्थस्यातिश योऽस्ति तेनापदि वा निमित्तमासोगमीम् अथवास्वयं देवता कथयति यथापुर गाथा (४५० इत्यादि। अथ स्वयोवियनिमिया नास्ति तर्दि येषां ते सुरयः स्वयं " न वा भावमध्य पुनरिदं ज्ञातव्यं किमेष प्रत्याख्यानस्य पारगो भविष्यति किं वा नेति ? तत्र यदि पारगतो ज्ञायते ततस्तं पारगमिच्छन्ति । श्रथ वाऽपारगं नेच्छन्ति तथा अ पारगे इष्यमाणे प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः । श्रथ स्वस्थ परस्य चातिशयाऽऽदिर्न विद्यते ततोऽसति श्रविद्यमाने यदि तदा नियालेप्रतिपति कारयितव्या वर्षाकाले प्रतिपतिः कार्यः । एतदेवाऽऽह्न - सयमेव चिरं वासो वालावासे तबस्तियां । देख तस्स विसेसेण, वासासु पडिवजया ॥ ४४६ ॥ वर्षा पदक कई मारिकारणतः पद्या मासान् ग्रामादीनामुत भावेन वर्त्तते, तपस्विनां च वर्षावासे चिरं वासः स्वयमेव प्रवृत्तः तेन कारणेन तस्य भक्तप्रत्याख्यातुकामस्य विशेषतो भक्तप्रत्याख्यानप्रतिपादन के कर्त्तव्या । पूर्वमिदमुकं स्वयं देवता कथयति तंनिदर्शनमाहकंचखपुर गुरु सप्पा देववरूपाय पृच्छ कहा प पारखगखीररुरिं आमंत संघाऽयसयता ||४५०|| कलिङ्गेषु जनपदेषु कानपुरे नगरे बहुत-बहु परिवाराः केचिदार अदा शिष्य सूत्र पौरुषीम् श्रर्थपौरुषीं च दत्वा संशाभूमौ गताः, ते च गच्छन्तो ऽपान्तराले ऽतिशये महापादपस्याधः काञ्चिद्देवतां स्त्रीरूपेण ददन्ती पतियदपि ततो गुरुमि पृष्टम् करोदिषि कथनम तस्य नगरस्याधिष्ठात्री सर्वे नगरमविराजला 1 मत्तपञ्चकखागा नियति अत्र च बहवः स्वाध्यायन्त वर्तत ततो रोदिमि । कोऽत्र प्रत्यय इति पृष्ठे ला प्राऽऽह अमुकस्य क्ष पकस्य पारण के क्षीरं रुधिरं भविष्यति, तच्च यत्र गतानां स्वभावीभूतं मविष्यति त्रयमिति क्त्वा सा गता । द्वितीयदिने क्षपकस्य पारण के क्षीरं रुधिरीभूर्त ततः समस्तस्यापि समधानपश्यामन्त्रणं पर्या लोचनं च ततोऽनशनं समस्तस्यापि सङ्घस्येति यदि पुन रशियाने विज्ञाते यदि प्रत्याख्यापयति तदा स गच्छः साधव, प्रवचनं च तेन त्यक्तम् । कथमित्याह و सिवादीहि वता, तं उनकरणं च संजया चत्ता । उवहिं विणा य छड्डणे, चत्तो सो पवयणं चैत्र । ४५१ । यदि अशिवाssयुपद्रवं ग्रामाऽऽद्युत्थानं च ज्ञात्वा न प्रत्या ख्यापयति तदा तस्मिशिराने जाते यदि संयतास्तस्यति न निर्गच्छन्ति या यदि तं कृतमप्रत्ययानं तस्योपकरणं च वह संय शिवादिभिः कारवैस्तमुपकर च वहन्तरस्याः प्र थोपधिं विनिर्वहन्ति, त्यक्त्वा वा सर्वथा पलायन्ते तदा सभ प्रत्याख्याता परित्यक्तः, स च त्यक्तः सन् उड्डाहं कुर्यात् मां त्यक्त्वा ते गता इति तदा प्रवचनस्य मद्दती हीलनेति प्रव बनं स्वनं तदशियाऽऽत्याने अपारगे च तस्मिन् जाते स भक्तं न प्रत्याख्यातव्यः तम् (८) आभोगनद्वारम् । । Page #1371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४८) जत्तपञ्चक्वाण अभिधानराजेन्धः। नत्तपञ्चक्खाण इदानीम् (8) भम्यद्वारमाह योग्यपानकाऽऽदेर्याचने-परिमार्गणे परिकेशः ॥ ४५५ ॥ तएगो संथारगतो, वितिम्रो संलेहि तइय पडिसेहो । था असंस्तरे-संस्तरणाभावे यः परिक्लेशोऽयोग्या वा तत्र निर्यापका भवेयुः । योगवाहिनोऽप्येते-तत्र योगवाहिना अपहुचंतऽसमाही, तस्स व तेसिं व असतीए ॥४५२।। समाधिकारकाणि पानकाऽऽदीन्युगमानि शुद्धानि मृगयमा. पवित्रद्वा जनावग्रे स्तः। तद्यथा-एकः संस्तारगतः। सं. णानां यः परिक्लेशा, या वा अयोग्यनिर्यापकसंपर्कतः तस्य स्तारगतो नाम-संलिख्य कृतप्रत्याख्यानः द्वितीयः संसिखति कृतप्रत्याख्यानस्य विराधना-अनागाढाऽऽविपरितापनासंलेखा करोति, तथा तृतीयो यद्यम्य उपतिष्ठति तर्हित. असमाधिमरणादिकं तत्सर्वं तन्निमिसमतो गच्छस्य पृ. स्प-तृतीयस्य प्रतिषेधः कर्तव्यः। किं कारणमिति चेत् ?, च्छा कर्तव्या । गतम् (१०) अनापृच्छाद्वारम् । मत माह (अपगुरुचतेत्यादि) न प्रभवन्ति-न प्राप्यन्ते प्रया. अधुना (११) परीक्षाद्वारमाहणामपि योग्या निर्यापकान च संस्तरन्ति, ततोऽप्रभवः-प्र. अपरिच्छणम्मि गुरुगा,दोएह वि अमोमयं जहाकमसो। प्राप्यमाणेषु तेषु संस्तारणस्यास्य पाऽसति तस्य तृतीयस्थ, तयोर्चा प्रेममयोस्तेषां या नियापकाणाम् असमाधिरूपजाय. होइ विराण दुविहा, एक्को एक्को व जपावे ॥४५७॥ ते, प्रथम सम्ति यदिपायो निर्यापकाः, संस्तरन्ति च तदा यो भक्तं प्रत्याख्यातुकामस्तेन गच्छसाधवः परीक्षितव्या, नकभिवनम्तरोदोषः प्रसजतीति तृतीयमपि प्रतीच्छन्ति । किमेते भाविता इति ? गच्छलाधुभिरपि स परीक्षणीयः, वेज जापाघातो, वितियं तत्थ ठावए । विमेष निस्तारको भवेत् , किंचा नेति । प्राचार्येवापिस परीक्षितव्यः। अन्योन्यं पुनर्यथाक्रमशो वक्ष्यमाण क्रमेणाचिलिमिली अंतरा चेत्र, वहिं वंदावर जणं ॥ ४५३ ।। परीक्षणे योरपि-गच्छस्थ, भक्तप्रस्यास्यातुकामस्य च, पदितस्य कृतभक्तप्रत्याख्यानस्य भवेत् व्याघातः। व्याघानो प्रायश्चितं प्रत्येकं चस्वारो गुरुकाः तथा अपरीक्षणे भवति नाम प्ररयाक्यानेनाऽसंस्तरणं, सच बहिः सर्वत्र मातो, हष्ट- द्विविधा विगधना-आत्मधिराधना, संयमविराधना च । तत्र भूयला लोकेन एष कृतभक्तप्रत्याख्यान इति, तत एषा य- गच्छस्यात्मधिराधना असमाधिमरणतः प्रत्यवायसंभवात् समा कर्तव्या-योऽसौ द्वितीयः संलेखनां कुर्वन् तिष्ठति स भक्तप्रत्ययातुःपात्मधिराधना असमाध्युत्पादात् समयवि. सा स्थाप्यते, तस्यान्तरा चिलिमिली कर्तव्या, ततो यदि राधना गच्छस्याभाषित त्वेन एषणाया असंभवात् (एको ए. पैशातो घम्बकाः समागच्छेयः, तदा स तेषां न दर्श. को वजं पाये सि)एको गच्छे यमनथै प्राप्नोति, एको पा-स पितम्या, कितुते भएयते-बहिः स्थिता पूर्व पदध्वमिति, भक्तप्रत्याख्याता, तनिमित्तमपि तस्य प्रायश्चित्तमापते । सबद:स्थित जम यशापयेत । गतम् (६) अन्यद्वारम् । तम्हा परिच्छणं तू , दवे भावे यहोइ दोगरपि। इदानीम् (१०) अनापृच्छाद्वारमाह संलेह पुछ दायण, दिटुंतोऽमचकोंकणए ॥ ४५८ ।। भणापुच्छाएं गच्छस्स, पडिच्छे तं जती गुरू । यत एवमपरीक्षणे प्रायश्चित्तं, दोषाश्च, तस्माद्ब्योरपि गुरुगा पचारि विनेया, गच्छमणिच्छते तं पावे ।४५४| परस्परं द्रव्ये भावे च भवति परीक्षणम् । तथैधम्-भक्तं गच्छस्यानापूच्छया यदि तं भक्तप्रत्याख्यातुकामं गुरुः प्रत्याख्यातुकामेन परीक्षानिमित्तं गच्छसाधषो भणिताः । प्रतीति-अम्युपन्छति, तदा तस्य-प्रायश्चित्तं चत्वा यथा-श्रानयत मम योग्यं कलमशालिकूर, कथितं क्षीरं, त. रो गुरुका विडेयाः। गच्छे चानिच्छति स भक्तप्रत्याख्या. तो भक्ष्ये । अथवा अन्य भोजनं प्रणीतं यत्स्वभावतो रुचि. ता पत्यापमोति असमाधिप्रभृतिक तन्निमित्तमपि तस्य करं तत् मानयतेति याचते । तत्रैव याचने यदि ते हस. प्रायधिसंततः गच्छ आपृष्टव्यः । किं कारणमिति चेत् ?, न्ति कृष्णमुम्वा वा जायन्ते, तदा शेयम्-प्रभाविता पते . अस्पते स गच्छसाधवः सर्व परिभ्रमन्तो जानते. यथा-एत. ति. तेषां समीपे न प्रत्याख्यातव्यम् । अथ ते ब्रुषते-यण. किम क्षेत्रे एतत् मुलभम् एतत् दुर्लभं ततो मुखः पृच्छति सि तत् कुर्म इति तदा शेयम्-योग्या एते इति । तथा ग. किमेतस्मिन् क्षेत्रे यानि कृतभत्तप्रत्याख्यानस्थ समाधिकार च्छसाधुभिः परीक्षानिमित्तं कलमशालिकूरप्रभृतिकमुत्कर्ष पामि व्याणि तानि सुलभानि, किंवा दुर्लभानि तत्र यदि द्रव्यमानेतव्यं तस्मिन्नानीते यदि स ब्रूते-अहो सुन्दरमानीसलमानि ततः भक्तप्रत्यास्पानं प्रतिपद्यते ! अथ दुर्लभानि तं. भुजेऽहमिति तदा ज्ञातव्यमेष आहारलुब्ध इति न नि. तह प्रतिपिश्यते । अन्यत्र गत्वा प्रतिपद्यस्वेति । स्तरिष्यति,वनव्यश्च सः, एदा-त्वमाहाग्गृद्धि त्यक्ष्यसि तदा अनापृच्छायां दोषानाह ते भक्तपरिक्षायां योग्यता भविष्यति, नान्यदा । अथ स पाणगाऽऽदीणि जोग्गाणि, जाणि तस्स सपाहिय । | तमुपनीतमाहारं जुगुप्सते-किं ममैतेमाऽऽहारितेन, पर्याप्तं, भलंभे तस्म जा हाणी परिकसो य जायणे ॥४५५|| नाहमाहारयामीति तदा ज्ञातव्यमेष निस्तरिष्यति, तस्मिन् वक्तव्यं प्रत्याख्याहि वयं ते निर्यापका इति । इह तु याचित. प्रसंथरे अजोग्गा बा, तत्थ निनावगा भवे । स्य द्रव्यसंपादनमसंपादनं च सा गच्छस्य द्रव्यतः परीक्षा । पसणाए परिके शो, जा वा तस्स विराहणा॥ ४५६ ।। यत्पुनः सकषायित्वमकषायित्वं पा ज्ञायते तद्भावपरीक्षणम् । गणस्यानापृच्छायां यानि तस्य-कृतभनभक्तप्रवणानस्व स- तथा भक्तप्रत्याख्यातुर प्युपनीतं सुन्दरस्य ग्रहणमप्राणं वा माहिते-समाधाननिमित्तानि पानकाऽऽदीनि योग्यानि, प्रा | द्रव्यतः परीक्षणम भावतो गृधद्धिपरिज्ञानमिति । प्राचार्य विग्रहणेन-भकपरिग्रहः। तेषामनामे तस्य-भक्तप्रत्यख्यातुः स्य तत्परीक्षणमाह-(संलेहपुष्कइत्यादि) यदा स श्राचा. माहामिः समाधिपरिवंश उपजायते । यश्च गच्चसाधून र्याणामुपस्थितो भवति भक्तप्रत्याख्यानेनाऽहं तिष्ठामि, तदा For Private & Personal use only Page #1372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्तपश्चवखाण - स श्राचार्येण प्रष्टव्यः -किमत्र संलिखितं स्वया न वेति ततः सविन्तयति पश्यति मे अस्थिचर्मावशेषं शरीरं तथाऽपि प्रश्नयति लिखितं न वेति एवं को दर्शिते क्षिप्रमङ्गुलिभत्वा दर्शयति पश्य यत्र किञ्चिन्मज (संखितं किति मुगुरुन ते इयामि शरीरं प्रत्य एवोपलभ्यमानत्वात् भावसंलेखे, स बाद्याऽपि न किं तु विद्यते इति तं भाषसंलेखं कुरु धूयतां चात्र दृष्टान्तोऽमा कोङ्कणकविषये । साम्यतमेनामेव गाथा व्याख्यातुं परीक्षामा कलमो पक्कढया ssदि दो आह त्ति इति उदिते । ससि समासे यह पडिले ॥ ४५६ ॥ कलमोदनं कलशावरं पयोदुग्यं रूचितम् आदिश दादन्यस्याप्यभीष्टस्य भोजनस्य परिग्रहः । मम योग्यमान यतिरिति हि यदि मामायतःपाति कषायं कुर्वन्ति ततस्तेषां समीपे भक्तपरिक्षां न प्रतिपद्यते, अयोग्यत्वात् । ( १३४६ ) अभिधान राजे: - पुण विरूवरूत्रे, प्राणी दुछिए भतेऽन्नं । धातु कति वचसि पतिते तो पासे ।४६०। पुर्विरूपरूपे अनेकप्रकारे आहारे आनी गु भणन्ते भणम्ति अन्यमाहारमान्यामः, तथैव चाऽऽनेतुं टिति व्यवसितस्ततस्तेषां पार्श्वे यथा स्तुसम्पादकतया तेषां योग्यत्वात् । सम्प्रति गच्छस्य तत्परीक्षामाहकलमोद पता अव सभावमयं जस्व । उनी जो कुछ संतु अपच्ति ।। ४६१ ।। कल मैौदनं- कलम शालिकूरं पयसा सहोपनीतमिति श्रन्य द्वा-यद्यस्य स्वभावतोऽनुमतं तस्य तदुपनीतं सत्यः । कुस्खते निति किं मेन कार्यनिति है, समष्यमिति त्या प्रतीच्छन्ति यस्तु कलमीनादिके उपन सुन्दर महं भुजे इति वदति, स लुब्ध इति न प्रत्येषणीयः । आचार्यस्य तत्परीक्षामाह जो संलेहोते, किंकतो न कबो त्ति एव उदयस्मि । तु अंगुलि दावे पेच्ह किंवा कतो न कतो ||४६२ ॥ आर्य ! त्वया संलेखः किं कृतः, किं वा न कृत इत्येवमुदिते अङ्गुलिं भक्त्वा दर्शयति- प्रेक्षख किं कृतः, किं वा न कृत इति । तत श्राचार्य आइनहु ते दब्व संले, पुच्छे पासामि ते किमं । कीस ते अंगुली भग्गा, भावसंलेहमाउरे ।। ४६३ ।। (डुमे (से) पृच्छामि यम शरीरम् तस्मात्किमिति वा अङ्गलिना है। पृच्छामि भाव संलेखं, माइक्रोधवशादातुरो भव । संप्रति "दितोऽमच्च कोकण" (४५८ गा० ) इत्येतद्भावयति गोच्चो, दो विनिव्विसया कया । दोदिए कंजियं छो, कोंकणे तच्छया गतो ।।४६४॥ = भन्तपञ्चक्खाण " भंडी पराए काए, अजा मरेति । सापुत्रं तु पंचाई लिए गि गी ॥ ४६५ ॥ केनापि शक्षा एक कोपास्त इथिपि कस्मिदिरा समयदि पञ्चायत नि यौन व्रजतस्ततोऽवश्यं वध्याविति । तत्र कोण को दोकेतुके काि गतः । श्रमात्यः पुनर्यायत् भएडीन्थी बेल बर्दान् कायान्कापसापूर्वी पञ्चामिति नलिके शूलिकामा पितो निधनं गतो विनाशं प्राप्तः । यथाऽसौ श्रमात्यः कुटु· म्बोपकरणप्रतिबद्ध विनाशमुपगतः, एवं त्वमपि भावप्रति बद्धो नाऽऽराधनाजीवितं प्राप्स्यसि । तस्मात् - इंदियाणि कसाए य, गारवे य किसे कुरु । न चेयं ते पसंसामो, किसं साहुसरीरगं । ४६६ ॥ इन्द्रियाणि चक्षुरादीनि कपायान् क्रोधप्रभृतीन् गौरवाणि ऋद्विगखानि साधी कुरा शरी र प्रशंसा भाखतिरेकेण द्रव्यस्यापि किञ्चित्तं संलेखनद्वारम् । गतं (११) परीक्षाद्वारम् । इदानीम् (१२) आलोचनाद्वारमादआयरियपायमूलं तू स परक्कमेतां । सब्वे अत्तसोदी, कायव्या एस उबएसो || ४६७ ॥ ततो द्रव्यसंलेखना भावसंलेखनानन्तरं भक्षं प्रत्याख्यातु कामेन सर्वेण स्वयं शोधिं जानता श्रजानता च सति पराक्र पाशोधकर्ता एष तीर्थकृतां ग समृतोपदेशः। तत्र शोधि जानन्तः प्रत्याह जह सुकुसलो विवेज्जो, अन्नस्स कडे अप्पणो चाहिं । बेजरस यसो सोउं तो पकिम् समारभते ॥ ४६८ ॥ जागा वि एवं पापनिविडियो निउ । तह विपाडत आलोय होइ ॥ ४६६ ॥ यथा सुकुशलोऽपि वैद्योऽन्यस्याऽऽत्मनो व्याधि कथयति, सोऽपि वैद्यस्य श्रुत्वा व्याधिकथनं ततः प्रतिकर्म स मारभते । एवं प्रायश्चित्तविधिमात्मनो निपुणं जानताऽपि तथाऽपि प्रकटतरमालोचयितव्य भवतीति कृत्वा श्रन्यस्य समीपे झालोयवितयं ततोऽप्यनेन किं कर्त्तव्यमत आहछलीमगुगममा गए तेरा विभव कायम्या परखिया विसोही सुट्टु वि ववहारकुस लेणं ॥ ४७० ॥ गायनाचार्येशागत पि हुण अवागइत्यादिना प्राचामिति । अपिहारकुशल परपक्षका पशि धिरवश्यं कर्त्तव्या । " " 9 कथं पुनरात्मनः शोधिजातमप्यालोचयेदित्याह - जद पालो नमक उजु भग संत आलोएमा मायापविष्यको ।। ४७९ ।। यथा बालो जल्पन् कार्यमकार्ये च ऋतुकम् श्रमायं भवति, तथा मायामविप्रमुक्तस्तत्कार्यमकार्य वा गुरोः पुरतः श्र खोजयेत् । Page #1373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपञ्चक्खाण अभिधानराजेन्द्रः। भत्तपञ्चक्खागा सम्प्रति मायानिर्यातने उपदेशमाह पने च यत्सचित्तमकल्पिकमयतनया यतनया वा तदालोचय. सप्पत्रा उपमा, माया अणुपग्गतो निहंतना। ति. क्षेत्रतोऽतीचाराऽऽलोचनम्.नथ ऽवमेपि-दुर्भिक्षेऽपि. मालोयणनिंदणगरिन पूणो प्रवितियं तु४७२। तदर्थ ज्ञानार्थे तिष्ठति । तत्र च तिष्ठता यदकस्पिकम् बासे. वितमयतनया यतनया वा सदालोचयति । इदं कालतोऽती. उत्पन्ना उत्पना माया अनुमार्गत:-पृष्ठतो लग्नेन पालोचन. चारालोचनम् । भावत माह-(नाणं चेत्यादि)मानमहमाग निन्दनगई निहन्तव्या । कथमित्याह-न पुनरेवं द्वितीयं पारं मिष्यामि-प्रहीयामीति तोदेहे-शरीरस्य पग्किर्म करोति। करिष्यामीति प्रतिपाया। यथा व्याख्याप्रक्षप्तेः-महाकल्पश्रुतस्य वा योग बोदकामो घृतं । संप्रग्यालोचनाय दत्तायां ये गुणा भवन्ति तानुप. पिवति, प्रणीतं बाहारमुपभुक्ने तत्र या प्रयतना कृता । दर्शयति अथवा-कश्चिद्रोग आसीत् नष्टोऽपि मा सः तत्काले उद्रेक मायारविणयगुण क--पदीवणा अत्तमोहि उजुभावो। यायादिति परिकर्म करोति तश कुर्वताया भयतनाकृतानि. अअवमावलाघव-तुट्ठी पन्हायजणणं च ॥ ४७३ ॥ बिकता विकृतीर्वा नानाप्रकारा निरन्तरं प्रतिसेयते,तत्राऽपि या भयतना कृता मेध्यानि द्रव्याणि नाम यमेंधा उपक्रियते, मालाबनायां दत्तायामाचारः पञ्चविध प्रासेवितो भवति, तानि द्रव्याणि एषयता-परिमार्गयता पिवता या या प्रयतना विनयगुणश्च प्रवर्तितो भवति,कल्पदीपनानाम-अवश्यमालो. व्यधायि । तथा पाचयतो-वाचनाचार्यस्य पञ्चकाss. वयितव्या प्रतीचार इत्यस्य कल्पस्य प्रकाशनम्-अन्वेषामुप. विहान्या क्रिया कृता, अपिशव्दारपञ्चकाऽऽविहाम्याति. दर्शनं, ततस्तेऽप्यन्ये एवं कुर्वन्ति । तथा आत्मनो विशोधिः क्रमेण या या कृता क्रिया, तामप्यालोचयन्ति । तदेवं शा. निःशल्यता कृता भवति, तथा ऋजुसंयमस्तस्य भावो-भव. ननिमित्तं द्रव्याऽऽधतीचा155लोचनमुपदर्शितम्। तत् कृतं भवति, तथा आर्जवभवनमार्यत्वम्, मार्दवम्-अ मानत्वम् , लाघवम्-अलोभस्वमेतानि कृतानि भवन्ति । तथा अधुना दर्शननिमित्तं, चारित्रनिमितं चाहभालोचिते सति निःशल्यीभूतोऽहमिति तुष्टिरुपजायते । तथा एमेव दंसणम्मि कि, सदहणा नवरि तत्थ नाणतं । अनालोचिते प्रतीचारे सशल्योऽहमिति या मनस्पधृतिः- एसण इत्थीदोसे, बते विचरणे सिया सेव ॥ ४७८ ॥ परिवाहस्तस्यापगमात् प्रहादजननं-महादोत्पादः शीतीभ. पवमेव-मनेनैवज्ञानगतेन प्रकारेण दर्शनेऽपि दर्शन निमि. बनं भवति। कः पुनः सोऽतिचारः, कुतो वा प्रभृष्मालोचयितव्यमत तमपि व्याऽऽधतीचारजातमालोचयितव्यं मवरं तत्र नानास्वम्, दर्शनं माम-श्रद्धानं चरणेऽपि-बारिश्रेऽपि माह स्थादियमतीचारता सेविता। तद्यथा-क्षणायाम-एषणावि. पठवजमादी आलो-यणा उतिएई चउक्कगविसोही।। पो-(सी) दोषोरेतवसतिविषये व्रतविषये येति । जह अप्पणो तह परे, कायव्या उत्तमम्मि ॥ ४७४ ॥ सम्प्रति "तिरहं चउकगविसोहि" (४७४) इत्यस्याम्यथा प्रयाणां-शानदर्शनचारित्राणामतीचारेषु प्रवज्याऽऽदेरारभ्य व्याख्यातुमाहयावदुत्तमार्थाऽभ्युपगमस्तावदालोचना दातव्या । कमि प्रहवा तिगमालंने-ण दधभादी च उपाहत । स्याह-चतुष्कविशोध्या-पकैकस्मिन् द्रव्यस क्षेत्रत काल। प्रासेवितं निरालं-धको व मालोपए तं तु ॥ ४७६ ।। भावतश्वातीचारविशुद्धया। पुनः कथमित्याह-यथाऽस्मना स भ्यग्यतया तिष्ठति तथा परस्मिन् आलोचना कर्तव्या।। अथवति प्रकारान्तरे, त्रिकसालम्बनोपतेन द्रव्याऽऽदिचतु. कद्रव्यक्षेत्रकालभावलक्षणमाहत्य कदाचित् अकल्पनीयम. देशतः, सर्वतो वा न किञ्चिदपि गृहितम्यमिति भावः । यतनया यतनया पात्रालेवितम् अथवा-निरालम्बकोशाना उत्समार्थ- उत्तमार्थप्रतिपत्तौ कर्तव्यतायाम् । तत्र ज्ञान ऽऽद्यालम्बनरहितो द्रव्याऽऽदिचतुष्कमकल्पिकमासेवितमा. निमित्तं द्रव्यतोऽतीचाराऽऽलोचनामाह न् । एतेनैतत् स्थापितं यत्प्रतिसेव्यते किञ्चिरकल्पित नाणनिमित्तं प्रास-वियं तु वितह परूवियं वापि । दर्पतः कल्पतः भावतः परमपरप्रकारान्तरमस्तीति। एतत् चेयणमचेयणं वा, दब्बं सेसेसु इमगं तु ।। ४७५॥ । आलोचयेत्। माननिमित्त सचित्तम् अचित्तं द्रव्यमुद्माऽऽद्यशुद्धं, तथा प्रेकर पृच्छतिसचेतनमवेतनं बा बितथं प्ररूपितं भवेत् । तद्यथा-सचित्त- पडिसेवणाऽतिचारा, जइ वीसरिया कहं नि होजा णु । मचित्तम् वा सचिसमिति एतत् द्रव्यतोऽतीचाराss. तेसु कह वट्टियव्यं, सन्लुद्धरणमि समणे ॥४८॥ लोचनम् । शेषेषु तु क्षेत्राऽऽदिप्पिदमतीचाराऽऽलोचनम् । प्रतिसेवनातिचारा यदि कथमपि विस्मृता भवेयुः, तेषु तदेवाह शयोद्धरणे कर्तव्ये कथं श्रमणेन पर्तितव्यम् । नाणनिमित्तं श्रद्धा-णमेति ओमे वि अत्यति तदट्ठा । रिवर्तनप्रकारमाहनाणं व मागमिम्स, ति कुणइ पडिकम्मणं देहे। ४७६ | जे मे जाणंति निणा, प्रवराहा जेमु नेपु ठाणेषु । पडिसेवति विगतीमो, मेन्झे दव्ये व एसता पिरता । तंतह पालोए, उनहितो सबभावणं ॥ ४८१॥ वायंतस्स वि किरिया, कया उ पणगाइहाणीए ॥४७७॥ एवं मालोयंतो, विसुदभावपरिणामसंजुतो। काननिमित्तमध्वानं-पन्यानमेति-तिपचते, अध्वानं प्रति भाराहो वह वि सो, गारवपडिकंपणारहिवो ॥४८२॥ ___ Page #1374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा ११३५१) भत्तपञ्चक्खाण अन्निधानसजेन्धः । भत्तपञ्चक्वाण यान्ममापराधान् येषु येषु स्थानेषु जिना:-केवतिनो-भग. च्यन्ते.ता.कचशालासमीपेवाकाष्ठककचशदवपणनायस्तो जानन्ति तानसर्यभावेन-सर्वात्मना बालोचयि. कारपत्रिकगानशब्दश्रवणतो ध्यान, शोपपनेः ( पुण्फफलसुमुपस्थितः परंन स्मरामीति वचसा प्रकरीकतुं शक्नो. दगसमीवम्मि त्ति) पुणसमीपे फलसमीपे उदकसमीप मि, सस्प्राजिनराम्तमेव प्रमालमित्यालोचयितव्यम् ॥ ययः । या पुष्पाऽऽविदर्शनतः तद्विषयाभिलाषोपपत्तेः । तथा प्रा. पिएवं-संमुग्धाऽकारमाखोचयसि तथापि स गौरवप्रतिकुञ्चः रामे, तत्राप्यनम्तरोदितदोषप्रसङ्गात् यथा विकट नामभारहितो विशुद्धन भावपरिखामेन संयुक्त एषमालोचयेत् प्रा. असंगुप्तद्वारं तत्र पानके-पाने कायिक्यादिपरिस्थापने राधकः, प्रतिकुञ्चनानाम-माया । गतमालोचनाद्वारम् (१२)। च सागारिक.(दोष ) संभवात् । तथा नागगृहे, उपलक्षण मेतत् , यक्षगृहाऽऽदिषु, तत्रापि भूयसां लोकानां नानाअधुना (१३) प्रशस्तस्थानद्वारमाह विधषिकुर्वितवेषाणामागत्यागस्य गाननर्सनकरणात् . तथा ठाणं पुष करिसमं, होति पसत्यं तु तस्स जंजोग्गं ।। च सति ध्याने व्याघातसंभवः । यदि था-नागाऽऽदयो. ममति जत्थन होज्जा, माणस्स उ तस्स बाघातो।४८३। ऽनुकम्पया प्रत्यनीकतया, विमर्शन वा अनुलोमान् प्रति लोमान् वा उपसर्गान् कुर्युः। पूर्वभणिते चप्राक करूपा. तस्थ-भक्तप्रस्याच्यातुः यस्प्रशस्तं-योग्यं स्थानं तत्कीरशं| ध्ययनाभिहिते च भक्तप्रत्याख्यातुकामे । भवति । सूरिराह-मण्यते, यत्र तस्थ कृतभक्तपस्याख्यानस्य तदेव भावयतिध्यानस्थ व्याघातो न भवति । पढम विइएसु कप्पे, उद्देसेसु उबस्सया जे उ। तानुपदर्शयति विहिसुत्ते य निसिद्धा, तबिवरीए गवसेजा।।४८६॥ गंधच नट्ट जह-ऽस्स चक जंतऽगिकम्म फरुसे य ।। कल्प-कल्पाध्ययने द्वितीयतृतीययोरुद्देशयोर्विधिमुत्रेच, निकरयगदेवड-डोम्बपाडहिगरायपहे ।। ४८॥ प्राचाराने शय्याध्ययने अवप्रहप्रतिमास्थान नावनके च ये चारग कोटग कला-ल कारऍपुष्फफलदगसमीवम्मि। उपाध्या निषिद्धाः, तेषु न स्थातव्यम्। किंतु तदि. भारामे अध वियडे, सागघरे पुषभणिए य॥४५॥ परीतान् देशान् गवेषयेत् । गन्धर्यशालायां यत्र गान्धर्विकाः संगीतं कुर्वन्ति तत्र, गन्ध अजाण रुक्खमूले, सुत्रघर अनिसटु हरियमग्गे य। वंशालासमीपे पान स्थातव्यम्, ध्यानव्याघातभावात् । तथा एवंविहे न ठायइ, होज समाहीऍ वाघातो॥४८७॥ वृत्तशालायां.नृत्तशालासमीपे वा तत्राप्युक्तदोषसंभवात्त. उद्याने, वृक्षमूले, शून्यगृहे, भनिसो-अननुज्ञाते, हरिते था जडो-हस्ती,अश्वः-तुरामो, हस्तिशालायां हस्तिशाला. हरिताऽऽकुले, मार्गे च अभ्यस्मिन्नपि च एवंविधे स्थाने समीप वा, अश्वशालायां अश्वशालासमीपे वा, इस्तिका35दिविरूपशब्दश्रवणतो ध्यानयाधातभावात् । तथा चक्रशा. न तिष्ठति भक्तप्रत्याख्याता, यतस्तत्र समाधाघातो भव. ति । गतं (१३) प्रशस्तस्थानद्वारम् । लायां-तिलपीडनशालायां, तिलपीडनशालासमीपे वा। (जंतं ति) यन्त्रशालायाम् , इक्षुपीडनशालासमोपेवा, तिलाss. अधुना (१४) प्रशस्तवमतिद्वारमाहदिवर्शनतः कर्मकरगानशब्दश्रवणतो वा ध्यानभनोपपत्ते. इंदियपटिसंचारो, मण संखोभकरणं जहिं नस्थि । निकर्मलाहकारकर्मतच्छालायाम्,अग्निकर्मशालासमीपे वा। चाउस्सालाइ दुवे, अणुनवेऊण ठायति ॥४८८॥ परुषा-कुम्भकारस्तत्शालायां. कुम्भकारशाखासमीपे वा। अग्निपरितापतो लोहकुट्टनाऽऽदिशब्दश्रवणतो वा ध्यानव्या. यत्र इन्द्रियप्रतिसंचारो न भवति । किमुक्तं भवति ? यत्र अनिया या या शब्दा न भूयन्ते , नापीटाऽनिष्टाकि घातसंभवात् । तथा नतिका:-छिपास्तच्छालायाम् , तस्याः रूपाणि । एवं गन्धाऽऽविध्यपि भावनीयम् । मनःसंहो. समीपे था। रजकशालायाम् , रजकशालासमीपे वा देवर भकरणं च यत्र नास्ति तत्र चतुःशालाऽदि मे वसती शालायां सच्छालासमीपे वा । जुगुप्तादोधात् । डोम्बा-संह कास्ते ऽपि गायन्ति । अथवा-चएडालविशेषगायना डोम्बा. अनुशाप्य प्रतिप्राधे मादिशब्दात्--त्रिशालद्विशालाऽदिपस्तेषां श.लायां तच्छालासमीपे वा. जुगुप्सादोषात् गान रिग्रहः । वसतिद्वयं च गृहीत्वा एकत्र भक्तप्रत्याख्याता स्थाप्यते। अपरत्र च गच्छसाधकः । किं कारणमिति शम्नश्रवणतो पानव्याघातभावाच्च । तथा पाडहिक चेत्, उच्यते-प्रशनाऽऽदीनां मन्धेन भक्क्रप्रस्याच्यातु. शालायां, पाडहिकशालासमीपे वा. बावित्रशब्दश्रवणतो रभिलाषो माभूदिति हेतोः।। ज्यानव्याघातः राजपथ, राजपथसमीपे वा, राशप्रागच्छता गछता वा समृद्धिदर्शने निदानकरणप्रशक्तः॥४४॥ तथा पाणग जोम्गाहारे, ठवेति से तत्थ जत्थ ण उचेति । चारकं गुप्तिगृहं तत्र, तस्य समीपे वा यातनाशब्दभवणतो अपरिणया व सोवा,अप्पश्चयगेहि रक्खडा ॥४८॥ ध्यानव्याघातभावात् । को (ष्ट्र) ठकानाम-बट्टानां शाला, | पानक, योग्यमाहारं च (से) तस्य भकप्रत्याख्यातुः, तत्र कोष्ठ के. कोष्ठकसमीपे वा, बट्टा अपि गायन्ति बिरूपरूपाणि प्रदेश वृषभाः स्थापयन्ति, यत्र (म) नैव परिणता। भाषन्ते, ततो ध्यानव्याघातः । तथा कल्पपाला:-सुरा साधवः, सबा भक्तप्रत्याख्याता समागच्छति । किं कारण अदिविक्रयकारिणो, मद्यपा वा तेषां शालायां, तच्छा- तत्र स्थापयन्तीन्यत आह-अप्रत्ययगृद्धिरक्षाथै, कृतभक्कम खासमीपे वा यतस्तत्र मद्यप्रमचा गायन्ति फरकुर्वरित त स्यास्थानस्य दीयमानं हा मा भूतपरिणतानामप्रत्ययो, भक्त योध्या याचातसंभवः । तथा काय-यत्र काष्ठानि का प्रत्यास्यातुस्तु तत् दृष्टा गृविरिति देतो।। Page #1375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जतपञ्चकखाण अत्राऽऽह-यदि तेन भावतस्त्यक्त श्राहारस्ततः कथं तस्य जाते, त ( १३५२ ) अभिधानगजेन्ड | त्तभोगी पुरा जो वि, गीयत्थो वि य भाविओो । संसाहारपम्मे, सोऽपि खियं तु लुम्भए ॥४६० ॥ योsपि पुरा- पूर्व भुक्तभोगी गीतार्थो भावितोऽपि च सोऽपि सत्सु श्राहारधर्मेषु आहार ग्रहण धर्मेषु क्षिप्रं - शीघ्रमाहारदर्श मतः शुभ्यति स्वंत्रता वाचते। - तथा पडिलोपालोमा वा विसया जत्य दूरतो । ठाता तत्थ से निचं, कहणा जाणगस्स वि ॥४६१ ॥ यत्र प्रतिलोमाऽनुलोमा वा विषया दूरतस्तत्र तं स्थापयि स्वा (से) तस्य जानतोऽपि नित्यं कथना भवति । गतं (१४) बसतिद्वारम् । दाम (१४) निर्यायकारगाह - पासत्थोसन्नकुमी - लठाणपरिवज्जिया उ निजत्रगा । पिपपपभीरू, गुणसंपन्ना अपरिता ||४६२॥ पार्श्वस्थाञ्चकुशी स्थान परिवर्जिताः प्रियचमषोऽय चभीरवो गुणसम्पन्ना अपरि (त्रा ) तान्ता - अपरिश्रान्ता निर्यापकाः । अथ पुनस्ते निर्यापकास्तस्य कृतभक्तप्रत्याख्यानस्य किं कुर्वन्ति, कियो याने इष्यते !उच्चच दार२ संया र३ कहग४ वादी ५ अग्गदारम्मि६ । भत्तं७ पाणG विचारे - १०, कहग ११ दिखा १२ जे समस्या ||४६३ ॥ येतं कृतप्रायानम् उयक्ति पराय स्वारः १, ये अभ्यन्तरमूखे तिष्ठन्ति तेऽपि चत्वारः २, संस्तार कारका अपि चत्वारः ३, येऽपि तस्य धर्मे कथयन्ति तेऽपि दो लोकस्योहुवचनप्रतिकार वि चत्वारः ५, अनद्वारे ये तिष्ठन्ति तेऽपि चत्वारः६, ये योग्यं - भक्तमानयन्ति तेऽपि चत्वारः७, पानकस्यापि तद्योग्यस्याss नेतारश्वत्वारःम, उच्चारपरिष्ठापकाश्चत्वारः प्रश्रवणपरिष्ठापका अपि बस्वारः १०. बहिर्लोकस्य धर्मकथाश्चत्वारः ११, चतसृष्वपि दिक्षु साहस्त्रकमलाश्चत्वारः १२ । एते द्वादश च तुकका स्थायित कीदशाः पुरे निकाह जो जारिओ कालो भरहेरवरतु होइ पासेसु | ते तासिया तथा अदयालीसं तु निजवगा ||४६४ ॥ यो यादृशः कालो भरते ज्वैरव तेषु च वर्षेषु भवति ते ताशा निर्वाका अस्वारिताः। एए उनकोसा, परिहार्यता इति नि । दोगीपस्थाताए, अमुषहरणं ममेयं ॥ ४६५ ।। एते अनन्त रोदितसङ्ख्याकाः खलु उत्कर्षा - उत्कृष्टास्तथैक कृपया परिमाति यावज्जघन्येन भत्तपच्चक्खागा कृतभक्त प्रत्याख्यानेन सह त्रयः । तत्र द्वौ गीतार्थी निर्या पकौ, तृतीयो भक्तप्रत्याख्याता । तत्रायं विधिः- एकस्य गी• नार्थस्य नकपानमार्गणागमनं द्वितीयेन तृतीये तृतीयस्य भक्तप्रत्याख्यातुरशून्यकरणम् एकः तत्पाश्वं तिष्ठति, अपरो भक्तपाने मार्गणाय गच्छतीति भावः । गवं (२४) निर्या रमा व्य० १० उ० । घ० । (भक्तप्रत्याख्यानवक्तव्यता 'परिहार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ६७३ पृष्ठे विरतो गता ) अधुना "दव्वदायणा चरिमे" इत्यस्य (१६) द्वारस्य व्याख्यानार्थमाद " तस् य चरिमाऽऽहारो, इट्ठो दायच्चों तरहछेयट्ठा । मन्दस्तचरिकाले अतीव तपहा समुप्यते ॥ ४६६ ॥ भक्तप्रत्याख्यायकस्य सर्वस्यापि चरमकाले श्रतीव तृष्णा श्रा द्वारकाङ्क्षा समुत्पद्यते तेन तस्य भक्तप्रत्याख्यातुकामस्य तृष्णादर्थम् श्राहारकायचाय रमाउद दातव्यः । 1 नव विगति सत्त श्रोण, श्रद्वारस वंजणुच्च पायं च । अपुविहारी समादिकामास उपरि ॥४७॥ नय विनय नवगाहिमश्रामाः शापादिनः चिच ओदनादनानि विनि तिप्रशस्थं, पानं क्षापानाऽऽमि एतत्सर्वमनुपूर्वीविहारि सामानुपू शनैरादारमोचनेन प्रत्यापन प्राप्त समाधिकामानां समाधिमभिलषतां समाधिकरण निमित्तमुपहृत्य दत्वा तस्य तृष्णाव्यवच्छेदः क्रियते । अथवा कालसोबतो. जुसितो व दिट्टो वा । झोसिजर सो से तह, जयणाएँ चन्विहाहारो || ४६८ ॥ सानुमतः स्वभावानुमतेन पूर्वमाहारो योषितः सेवितः स कथं साधुभिर्थातव्यः ईदृश पतस्य कालस्वभावानुमतः आहारः श्रुतो वाकस्यापि कथनतो, दृष्टो वा कदाचि स्वाक्षादर्शनात्परिहारात इति स चतुर्विधः अशनपानखादिम स्वादिमरूपो यतनया प्रथमत उगमाऽऽदिशुद्धस्याऽलाने पञ्चकपरिहाण्या याचित्वा (से) तस्य भक्तं प्रत्याख्यातुकामस्य जोषिष्यते दीयत इत्यर्थः । अथ को गुणस्तस्य वरमाहारेण दर्शनेश्य ?, तत आह हायम्पिकए, न तस्स तहियं पवत्तए भावो । सिद्धाज दुपवरखे वि ॥४६६|| तेन परमाहारे प्रहसेन तृष्णा छेद:- आहारकाय अच्छे कृते न भूयस्तथाऽऽद्दारविषये तस्य भावः इच्छा प्र वर्त्तते तथा घरमाहारमेष मुश्के इति जननं द्विपक्षेऽपि महत्वाका णां वेत्यर्थः । तथाहि भक्तप्रत्याख्याता इदं चिन्तयति-श्रय समुद्रस्य तीरं माता दुर्गममेतत् मि यात निर्या का अध्येयं निन्तयन्ति वयमध्येमभ्युद्यतमरणस्य तीरे प्राप्ता भविष्यामः । यस्मादेतस्य चरमराने गु स्मादवश्यं स दातव्यः । 1 Page #1376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्तपञ्चक्खाण अभिधानराजेन्दः। भत्तपच्चक्खा अथ तृष्णाव्यवच्छेदः केनाऽऽका अथ चरमाऽऽहारे द्रव्याणां परिमाणतो द्रव्यतश्च परिहानिः रेण तस्य पैराग्यभावना प्रवर्तत इत्याह कथ कर्तव्ये त्यत आहकिं वा तमोवभुत्तं मे, परिणामाऽसुई तहा (सुई )। दविएँ परिमाणतोवा, हाति दिणे दिणे जाव तिमि। दिवसारो सुहं झाति, चोयणेसेत्र सीयति ॥ ५००॥ बेति न लम्भइ दुलभे,सुलभम्मि उ होइमा जयणा ।५०५॥ चरमाऽऽहारे प्रदत्ते तृष्णाव्यवच्छेदे च जाते स एवं वैराग्य- चरमाऽऽहारद्रव्याणि द्रव्यसंख्यया परिमाणतश्च दिने दिने मापनश्चिन्तयति, किंवा तदस्ति भोज्यं, यत्पूर्व गृहवासे, यावत्रीणि दिनानि, तत्र परिमाणतो दिने दिने स्तोकं स्तो. प्रव्रज्यापर्याये षा, मया मोपभुक्तं, परं शुखयति तत् भुक्तं कतरमानयन्ति । द्रव्यपरिहानिः पुनरेवम्-यदि क्षीरं परमा. परिमाणात्-परिणामयशेन मशुचिः सजायते, तथा माहार अहारार्थतया समानीतं ततो द्वितीयविषसे तमामयमित. संखोपयुक्तो जीवः कर्मणां बन्धको भवति, पाहारगृखे- किंतु दध्यादिकम् । अथ घरमाऽऽहारार्थतया ध्यानीतं त. पिता मुखमागी। एवं प्रत्यक्षत पागमतश्च सारा-उप- तो द्वितीयदिने क्षीराऽऽद्यानयन्ति। न तु दधि । एवं द्रव्यप. सम्वतयः सुखं धर्मध्यानं वायते । तथा यदि माहारे रिहामिनीन् विषसान् । ततः परतः किश्चिदानीयते तत्र प्रबसे भूपस्तौबानुबम्धतः प्रसीदति तदेतस्य तदा सीद- दुर्लभद्रग्यविषये एवं पुषते-न लभ्यते, सुलभेतु द्रव्ये इयं व एवाधिकतश्लोकार्थरूपा चोदना-प्रशापना कर्तव्या। वश्यमाणा यतमा भवति। "मोसिजा सो से तह जयणाए बउबि. तामेवाहहाहारो" (४८) इत्यस्य व्यापयानमाह माधरे सब छिदाहि, गेहिं तो णं चइस्ससि । तिषिहं तु बोसिरेहिए, ताहे उकोसगाई दबाई । जंवा भुतं न पुग्वं ते, तीरं पत्तो तमिच्छसि ॥५०६।। मग्गिता अयणाए, चरिमाहरं पदंसंति ॥ ५०१॥ माहार-माहारविषयां तापत् पृद्धि चिम्धि, तत एतत् श. विविध-मनसा वाचा कायेन भक्तं प्रत्यावपातुकाम भासारं रीरं यमपसि.नाम्यथा । यहा पूर्व स्वया नि:स्पृहतयाम भु. व्युत्वषयति, तत उकाणि द्रध्याणि यतनया उद्रमाऽऽदि. तं तदिवानीमभ्युचतमरणसमुद्रस्य तीरं प्राप्त इच्छसि । ए. शुखलामे पश्चकपरिहारया मार्गयित्वा-पाथित्वा चरिममा- घमनुशासनेन तस्याहाराकारक्षा घिमियर्सते । गतम् हारं तस्य प्रदर्शयन्ति । (१७) हानिद्वारम् । पासित्तु ताणि कोइ, तीरप्पत्तम्स किं ममेतेहिं । दानीम् (१८) परितान्तद्वारमाहवेरग्गमणुप्पत्तो, संविग्गपरायणो होई ॥ ५०२॥ बकृति अपरितंता, दिया व रातो व से य पडिकम्मे । तानि उत्कृष्टानि द्रव्याणि दृष्ट्वा कश्चित्तीरप्राप्तस्याभ्युपग- पढियरगा गुणरयणा, कम्हरयं णिञ्जरेमाणा ।।५०७।। तमरणसमुद्रपारमुपागतस्य ममैतैः किं कार्यमित्येवं बैगग्य- प्रतिचरकाः गुणरस्माः कमरजो निर्जरयतस्तस्य कृतभक्त मनुप्राप्तः संवेगपरायणः सर्वथा निवृत्ताहाराभिलाषो भवति ।। प्रत्याख्यानस्य प्रतिकर्मणि दिवा रात्रौ षा अपरि (भा) सम्म भोच्चा कोई, मणुनरसपरिणतो भवेजाहि ! तान्ता (अविश्रान्ता ) वर्तन्ते । तं चेवऽणुबंधतो, देसं सम्वं व गेही य ॥ ५०३ ॥ जो जत्थ होइ कुसलो,सो उ न हावइ तं सइ चलम्मि । कोऽपि पुनः सर्वमुत्कर्ष भुक्त्वा मनोहरसपरिणतः उ. उज्जुत्ता सनियोगे, तस्स वि दीति तं सद्धां ॥५०८।। स्कृष्टरसगृखो भवति, ततो देशं सर्व वा (गेही ति) गृह्यात् यो यत्र प्रतिकर्मणि भवति कुशलः, स तत्प्रतिकर्म सतमेवोत्कृष्टमाहाररसमनुवनन्-अभिलषन् तिष्ठति । तिबले न हापयति , किंतु सर्वेऽपि सखनियोगे उद्युक्तास्त. विगतीकयाणुबंधे, भाहारऽबंधणाएँ वोच्छेदो । था वर्तन्ते, तद्यथा-तस्यापि कृतभक्तप्रत्याश्यानस्य ताम् परिहायमाणे दन्ने, गुणवुद्धिसमाहिमणुकंपा ॥ ५०४ ॥ अभ्युपगतमरणसमुद्रतीरप्राप्तत्वविषयां श्रद्धां दीपयन्ति । विकृतिषुरुतो योग्नुबन्धस्तस्मिन् सति, आहाराऽनुबन्धना देवियोगो खिप्प, ध होज प्रहवा वि कालहरणेणं । यांच सत्यां तस्य विकृत्यनुबन्धस्याहारानुबन्धस्य च "कि दोएई पि निअरा व-इमाण गच्छो उ एयटुं॥५०६॥ व तन्नोवभुतं मे,परिणामाईतहा(५००)"इति प्रकारेण व्य. तस्य- कृतभक्तप्रत्याक्यानस्य देहवियोगः क्षिप्रं वा भवेन् , पच्छेदः कर्तव्यः१६॥ सम्प्रति (१७)हानिद्वारमाह-"परिहायमाये" इत्यादि । यानि चरमाहारद्रव्याण्यानीतानि तानि त. अथवा कालहरणेन , तथाऽपि स्वस्थनियोगोधुक्तस्तै बित. विषयमनुषन्धं कुर्वतः परिमाणतो द्रव्यतश्च परिहीयमानानि व्यम् । एवं च द्वयानामपि प्रतिवरकाणां प्रतिवर्यस्य च कर्तव्यानि । अथ कि कारणं यदाहारे अनुबन्धं कुर्वन्तो भक्तं प्रवर्द्धमाना निर्जरा कर्मनिर्जरा भवति । गच्छो खेतदर्थ-प. पानं च दीयते ।। उच्यते-(गुणवुद्धिसमाहिमणुकंपा इति) रस्परोपकारेणोभयेषां निर्जरा स्याद्-इत्येवमर्थमासेव्यते । स भकं प्रत्याक्यातुकामोऽनुकम्पनीयोऽनुकम्पमानस्यास. गतम् (१८) अपरि (त्रा) तान्तद्वारम् । माधिमरणममके। ततोऽनुकम्पते माहारे प्रदते सति तस्य अधुना (१६) मिर्जराद्वारमाहसमाधिरुपजायते, समाधितश्च प्रज्ञापयितुं शक्यः, प्रज्ञापि कम्ममसंखेजभवं, खबेड अणुसमयमेव माउत्तो। तश्चाहारव्यवच्छेवं करिष्यति, ततोऽम्युचतमरणे गाढं अनतरगम्मि जोए, सम्झायम्मी बिससेणं।। ५१०॥ ध्यानोपगतस्य गुणवृद्धि:-कम्ममिरा भवति । भयतरमिन् योगे प्रतिलेखमाऽऽविरूपे मायुक्त उपयुक्ता Page #1377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५४ ) भत्तपच्चक्खागा अभिधानराजेन्द्रः। भत्तपच्चक्खागा सन् अनुसमयमेव-प्रतिक्षामेव कर्म असंख्येयभवोपार्जितं यो भक्तप्रत्याख्याता सहा-समर्थः सः स्वयमेघाऽऽस्मीयक्षपयति; कर्मणोऽनन्तकालम(न)वस्थानाभावादसंख्येयभव। स्योपकरणस्य प्रत्युक्षणं संस्तारकम्-संस्तारकप्रदानम्, मित्युक्तम् । स्वाध्याये पुनरायुक्तः सन् विशेषेण कर्म क्षयः पान-पानकरणम् , उद्वर्तनादि-उद्वर्तनापवर्त्तने अयति । न्तःप्रदेशात् बहिः,बहिःप्रदेशाइन्तःप्रवेशनं करोति,असहस्य कम्ममसंखेजभवं, खवेइ अणुममयमेव आउत्तो। असमर्थस्य पुनरन्ये सर्व कुर्वन्ति । अन्नतरगम्मि जोगे, काउस्सग्गे विसेसेणं ।। ५११ ॥ कथमित्याहकम्ममसंखेजभवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो । कायोवचितो बलवं, निक्खमणपवेसणं च से कुणइ । अन्नतरगम्मि जोगे, वेयावच्चे बिसेसेणं ॥ ५१२ ॥ तह वि य अविसहमाणं, संथारगयं तु संचारे ॥५१८।। कायेन-शरीरेणोपचितो बलवान् (से)तस्यान्तःप्रदेशाद्वहि. कम्ममसंखे जभवं, खबेइ अणुसमयमेव पाउत्तो। निष्क्रामणं, बहिःप्रदेशादन्तः प्रवेशनं करोति, चशमादन्य. अन्नतरगम्मि जोगे, विसेस प्रो उत्तमम्मि ॥ ५१३ ॥ च्चोवर्तनाऽपवर्तनादिकं सञ्चार्यमाणोऽपि सोऽवष्टम्भतः गाथात्रयमपि प्राग्वत्, नवरम्, उत्तमार्थे-उत्तमार्थ प्रतिपन्न सञ्चार्यते । अथ तथाऽपि स न विषहते-न समाधि प्राप्नोति स्य वैयावृत्ये च विशेषतः कमनिजरा भवतीति विशेषत: तदा तं तथाऽप्यविषहमाणं संस्तारगतं सञ्चारयन्ति । उभयत्रापि यतितव्यम् । गतम् (१६) निर्जराद्वारम् । संथारों मउओ तस्स, समाहिहेतुं तु होइ काययो । अथ (२०) संस्तारकद्वारमाह तह विय अविसहमाणो, समादिहेतुं उदाहरण।। ५१६॥ संथारों उत्तमटे, भूमिसिलाफलगमादि नायव्यो । समाधिहेतोः-समाधेरुत्पादनाय यः तस्य संस्तारको मृ. संथारपध्मादी, दुगवीरातू बडू वा वि ।। ५१४ ॥ दुको भवति कर्तव्यो यावत्पल्ल्याके तूल्या आलिङ्गनपट्टिः उत्तमार्थे व्यवस्थितस्य संस्तारको दातव्यो भूमिः भूमिः कायाश्च समास्तरणमिति । तथाऽपि अविषहमाणे-समाधिरूपा, शिला वा प्रधानशिलातलरूपः, एतौ च. द्वावपि-श्र मलभमाने समाधिहेतोः-समाधिसम्पादनाय इदम्-यक्ष्यमा. स्फुटितावशुषिरी कर्तव्यो। तत्र स्थितो वा निषलो वा य. णमुदाहरणं प्रोत्साह्यतेऽनेनेत्युदाहरणम्,प्रोत्साहनं कर्तव्यम् । थासमाधि तिष्ठतु, फलकं वा संस्तारको ज्ञातव्यः, तच्च तदेवाऽऽहफलकमेकाह्निकमानेतव्यम् तस्याभावे द्वयादिफलकाऽऽत्मकः धीरपुरिसपमते, सप्पुरिसनिसविए परमरम्मे ।। तस्याप्यभाये निरन्तरकम् च्यात्मको ज्ञातव्यः । एतत् श्रादि धमा सिलातले गया, निरवेयक्खा निवअंति ॥५३॥ शब्दस्थ व्याख्यानम् । इदानीमास्तरणमाह-संस्तारकोत्तरपट्ट धन्याः कैचन धीरपुरुषप्रशते-तीर्थकरगणधरनिरूपिते, स. इत्येतत्प्रस्तरणमुत्सर्गतः । अपवादत पाह-(बहू वा वि) त्पुरुषनिषेषिते-तीर्थकराऽऽदिभिरासेविते,परमरम्ये शिलात. यदि सोत्तरपट्टसंस्तारकमाने तस्य असमाधिरुपजायते तदा ले गता-व्यवस्थिता निरपेक्काः-पराऽपेक्षारहिताः (निवज्जति) बहून्यपि प्रस्तार्यन्ते तस्य कल्पप्रभृतीनि निरवाप्यन्ते-नितरामभ्युद्यतमरणं प्रपद्यन्ते । तह वि असंथरमाणे, कुसमादीणि तु अझुसिरतणाई। जति ताव सावयाकुल-गिरिकंदरविसमकडगदुग्गेसु । तेसऽसति असंथरणे,झसिरतणाई ततो पच्छा ॥५१॥ साहति उत्तिमटुं, धितिधणि यसहायगा धीरा ॥ ५२१।। अथ कल्पप्रभृतिसंस्तरणेऽपि तस्यासमाधिरुपजायते तदा किं पुण अणगारसंहा-यगेण अप्लोमसंगहबलेणं । कुशाऽऽदीनि-दर्भाऽदीनि अशुषिराणि तृणानि प्रस्तार्यन्ते, परलोइएन सक्का, साहेउ उत्तिमो अट्ठो ॥ ५२२ ॥ तेषामसति-अमावे असंस्तरणे च सति ततः पश्चात् शुधि यदि तावत् धृतिरेव केवला धणियम् -अत्यर्थ सहायो ये. राण्यपि तृणान्यानीयन्ते । षां ते धृतिधनिकसहायका धीराः स्वापदाऽऽकुलेषु गिरिक. कोदव पावारग णवय-तूली प्रालिंगिणी अभूमीए। न्दरेषु विषमेषु कटकेषु विषमेषु च दुर्गेषु उत्तमार्थ सा. धयन्ति, किं पुनरनगारसहायकेन-परलोकेन-परलोकार्थिना एमेव अणहियासे, संथारगमाइ पल्लंके ॥ ५१६ ॥ अन्योन्यसङ्ग्रहबलेन शक्यः साधयितुमुत्तमार्थ इति । यदि तणेष्वपि प्रस्तारितेषु न समाधिस्तदा कोद्रयाऽऽदेरस्थि प्रस्तार्यते । तत्रापि समाधेरनुत्पादे प्राचारण कः, तत्रा निणवयणमप्पमेयं, महुरं कन्नाऽऽहुतिं सुणेताणं । प्यसमाधौ नवर्त-जीणं (ऊविशेषमयम्) तत्रापि समाध्य- सक्का हु साहुमज्झे, संसारमहोयहि तरिउं ॥ ५२३ ।। लाभे तूली, श्रालिङ्गिनी चोभयतः प्रस्तार्यते । एतत्सर्व भूमौ जिनवचनमप्रमेयं मधुरं, ललितपदविन्यासाऽऽत्मकत्वात् । कर्तव्यम् । अथैवमपि नाध्यास्ते-न समाधि प्राप्नोति, तदा कर्णयोराहुतिमिव कर्णाऽऽहुर्ति-पाचकस्य घृताऽऽहुतिरिव संस्तारकाऽदि पूर्वक्रमेण पल्याङ्के प्रस्तारणीयं, यावत्पर्यन्ते कर्णयोराप्यायकमिति मावः । शृण्वतां साधुमध्ये स्थिता. तूलिका उभयत प्रालिङ्गिनी वा। गतं (२०) संस्तारकद्वारम् । नामक्लेशेन शक्यः संसारमहोदधिस्तरीतुमिति । इदानीम् (२१) उद्वर्तनाऽऽदिद्वारमाह सने सन्नद्धाए, सम्पन्नू सधम्मभूमीमुं। पडिलेहणसंथारं, पाणग उबत्तणाइनिग्गमणं । सव्वगुरु सव्वमहिया, सब्जे मेरुम्मि अहिसित्ता॥५२४॥ सयमेव करेइ सहू, असहुस्स करेंति अन्ने उ ॥१७॥ सवाहि वि लद्धीहि, सव्वे वि परीसहे पराइत्ता । Page #1378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४५) अभिधानराजेन्द्रः । जत्तपच्चक्खाण वि यतित्यरा, पात्रोवगया उसिद्धिगया ।। २५ ।। सर्वेसर्वाः सर्वा कम्र्मभूमिषु सर्वस्थामायामतीताना गतरूपायां सर्वगुवः सर्व महिताः सर्वे मेरावभिषिक्ताः सर्वे आमच्यादिभिर्लब्धमिपेताः सर्वे च की प्रवर्तनशीलाः सर्वान्परीषहान् पराजित्य पादपोपगताः सिद्धिं गताः । वसेसा अणगारातीयपप्पा गया सब्बे । केई पादविगया, पचखायं गिलि के ।। ५२६ । अवशेषाः सर्वेऽपि च अनगाराः श्रतीताः प्रत्युत्पन्ना अना गताश्च केचित्प्रथम संहननोपेताः पादपोपगताः केचित्प्रस्याख्यानं भपरिक्षां केचिदिङ्गिनीं प्रतिपन्नाः । सम्बाओ अजाओ, सवय पढना। बेदेसरिया पथकासव मरेति ।।५२७।। सर्वा अर्टिकाः सर्वेऽपि च प्रथमसंहननवः सर्वेपिच देशविरताः प्रत्याकयानेन परिवापेण पिते। सम्यसुरम्यभवाओ जीवियसारा उ सम्बजयाओ । आहाराओ रयणं, न विज्जर हु उत्तमं लोए || ५२८|| सर्पस्य सुखस्य प्रभवा उत्पादकार सर्वसुखप्रभवस्तस्मात् जीवितसारात् "अन्नं वै प्राणा" इति वचनात्, सर्वस्य यतो जनकः, तस्मात् श्राहारमन्तरेण कस्याप्युत्पत्तेरभायात् इत्थंभूतादाद्वारादन्यतमं रतं लोके न विद्यते कि स्वाहार एव सर्वोत्तमं रत्नम् । + रजत्यमेवभावयति विगहगह सिद्धे व मोतु लोयम्मि जेतिया जीवा । ये सब्दात् आहारे हुंति उनउचा ||२६|| विग्रहगतीन् विग्रहगत्यापन्नान, सिद्धाश्च मुक्त्वा शेषा पावन्तो लोके जीवास्ते सर्वेसर्वा सर्वास्वयस्थास्वा हारे उपयुक्ता भवन्ति वर्त्तन्ते तत श्राहारः परमरत्नम् । तं तरियं रयणं, सारं जं सव्वलोअरयणाणं । सव्वं परिचचा, पादोषगया पविहरति ॥५३०॥ तत्सर्वलोक रत्नानां मध्ये सारं तेषु सत्स्वपि सुप्तेरभावात् । आहाररूपं रमं तसा सर्व परिपम्प चम्याः पादपोष गनाः प्रविहरन्ति । एयं पादोवगमं, निष्पटिकम्मं जियेहि पष्यतं । सो वम वचसायपरक कुराई ।। ५३१ ॥ एस्पाव पोपगमं मरणं जिनैर्निष्यतिकम् प्रप्तं यत् स्वा पको व्यवसायपराक्रमं करोति । गतम् (२१) उद्वर्त्तनाऽऽ. दिद्वारम् । अधुना (२२) " सारे (त) ऊण य कवयं " इति द्वारव्याख्यानार्थमाहकोई परीसहहिं वाउलितो वेययद्दिश्रो वावि । मोहासेज्ज कयाई, पढमं वीनं च श्रसज्ज ॥ ५३२॥ कचित् प्रथमद्वितीयाध्याय पीडामा पीडित भत्तपच्चक्खाण घेत याचेत्कदाचित्प्रथममशनं द्वितीयं वा पानकमासाद्या• धिकृत्य । ततः किं कर्त्तव्यमत श्राह-गीस्थमगीत्थं सारे मतिविषोहणं कार्ड | तं परिचय छ, पढमे पगयं सिया विइए || ५३३।। - ल भक्तप्रत्याख्याता कदाचित्प्रान्तया देवतया अधिष्ठितोऽवभाषेत, ततः परिज्ञाननिमित्तं स्मरणं कारयितव्यः । भण्यते कस्त्वं गीतार्थोऽगीतार्थो वा ? । श्रथवा दिवसो वर्त्तते, रात्रिर्वा । तत्र यदि समस्तमवितथं ब्रूते; तदा ज्ञायते न प्रा. तदेवतयाऽधिष्ठितः, किं तु परीषदत्याजितो याचते, तदेवं गीतार्थमगीता वामानं स्मारवित्वा स्रीपादन प थावस्थितं मतिविबोधनं कृत्वा तं प्रतिबोध्य षष्ठे रात्रिभोजने प्रथमेशने प्रकृतं स्यात्, द्वितीये वा पानके । किमुक्तं भवति ? - श्रशने पानके च याचिते तस्य भलपानात्मकः कवचभूत आहारो दातव्यः । अथ किं कारणं प्रत्याख्याय पुनराहारो दीयते हैं, तत आह हंदी परीसचमू, जोहेवन्या मणेश कारण।' तो परदेसकाले कवयम्भूयो उ आहारो ।। ५३४ ॥ इन्द्रीत सोड़का 53 हे बदक परीपच-परीषद सेना, मनसा कायेन उपलक्षसमेत त्याचाच योधेन योधयि तव्या, ततस्तस्याः पराजयनिमित्तं मरणदेशकाले - मरणस मये योधस्य कवचभूत श्रद्दारो दीयते । देव विभावरिमाद संगामदुर्ग महसिल रहनुसले चैव तप्परूवया । असुरसुरेंदावरणं, चेप एगो गई सरस्स ।। ५३५ ।। चेटकस्य कोणिकस्य च परस्परं विप्रद्दे कोणिकपक्षे संप्रा मद्वषमसुरेन्द्र अकृताचा - महाशिला कण्टके, मुलं तस्य प्ररूपणा, यथा व्याख्याप्रज्ञप्तौ तथा विस्तरतः महाशिला कस्टकसंग्रामस्वरूपम् 'महा शब्देषभागे दर्शविते मुसलसंग्रामख रूपं च रहखशब्दे तस्मिमा उदाहरिष्यते असुरेन्द्रेश व शक्रेण कोणिकस्याऽऽपरणं कृतम्, कठिनप ज्रमयप्रतिरूपके सक्षिप्त इत्यर्थः । ततः बेटकस्य एकः खारथिः कोणिकबधाय शरस्य - कनकप्रहरण विशेषरूपस्य ग्रहं - प्रहणं कृतवान् । सिसाकं मनदेव स्पष्टपतिमहसिलकं तहियं बहने कोशिओ उ रहिए । रुक्खग्गविलग्गेणं, पिट्टे पहओ उ कणगेणं ।। ५३६ ।। उफेडि सोको कपयावरयम्मि तो तभी परियो । तस्त्र पुरा कोणि ए, सी डिमं खुरपेयं ॥ ५३७ ॥ तत्र महाशिलाकण्टके संग्रामे वर्तमाने कोशि रथिकेन निरन्तरं शरमोक्षणत श्राच्छादितः परं ते सर्वेऽपि शरः कठिनप्रतिरूपकेऽभ्यस्य बहिः पतिताः, ततो वृक्षमारुह्य सिनेमा पूढे कनकेन महरविशेष महत सोऽपि कवचाssवरणे कठिनप्रतिरूपके उत्स्फट्य ततः Page #1379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५६ ) अभिधानराजडः | अन्तपच्चक्खाण कवचाssवरणात् पतितः ततः कोणिकेन तं तथाऽध्यवसा यं वृक्षविलग्नमवलोक्य कोपाऽऽवेशात्तस्य शिरः तुरप्रेण छिनम् । दितस्स उपयो, कायस्थाणी इदं वहाऽऽहारो । मत्तू परीसह खलु आराहण रजधाखीया ॥ ५३८ ॥ एषः अनन्तरोदितो दृष्टान्तोऽयं तस्योपनयः - कवचस्था नीय इह तथारूप भाहारः, शत्रवः परीषाः राज्यस्था मीया आराधना यथा शत्रुपराजयाय कवचमारोप्यते स. प्रामे, तथा परीषद्दजयाय चरमकाले दातम्य श्राहारः । अत्रैव दान्तान्तरमाहजवा उंचवावे, पाकाऊ हरियो पुरिसो माहतह परिक्षी, माहारणं तुझा वरं । ५३६ ॥ यथा या कोऽपि पुरुषो हस्तिनमारोमो हस्तिनः पदमावति म्याद भारतीय पा स्वास्तिनमारोहति तथा परिशी भक्तपरिज्ञावान् आहा ध्यानम् इतमं ध्यानमारोहति । बकरहि बिहूयो, जह वा पुरिसोन साइए कर्ज | एवाहार परिवी, दिता तस्थिमे हुंति ।। ५४० ॥ यथा पुरुष उपकरण मिहिनोन साधयति तय मादिकं कार्यम् एवमाहारमन्तरेण परिशी परिक्षाचा म् परीषद्दपराजयम् । तत्रेमे बचयमाणा उड्डान्ता भवन्ति । सानेपा35लाए पाए जो संगाने पंचगे वय । आउरे सिक्खए पेप, दिनो कप चिय ॥ ५४१ ।। दातेयं नापार, आप गोसंदेह च । छत्रकरणेहिं च विणा जहसंखमसाहगा सब्बे || ५४२ ।। यथा प्रथमश्लोकोक्का लावकाऽऽदयः सर्वे यथासङ्ख्यं दात्राविमितीयानिनसाचा तथाहियो श्रेण बिना जवितुं न शक्नोति । लावको नाबा बिना दिन मेधाि - यं पथिका पन्थानं गन्तुम् उपानद्भ्यां बिना मातुरः प्रगुः मोना शिष्यको वादिकर्मादियादिश्रा दिपिक " पाहारेण विया समाहिकायो साह समादि । तम्हा समाहिऊ, दायच्वो तस्स आहारो ।। ५४३ ॥ एवं समाधिकाम श्राधारेण विना समाधि न साधयति तस्मात्समाचितास्तस्थाद्वारा दातव्यः। क्षेपपरिहाराचाह समुन्किर्य जेण, को संगो तस्स भोगणे ? । समाधिसंघानं दिज्जए सो उ अंतर ।। ५४४ ॥ ये शरीर को भोजने संगोप उच्यते न जीविताऽऽशानिमित्तमाहावं याचते, किंतु समा थिमसहमानस्तत एतदस्मामा मालस्य समाधिपाद्या तो भूपादिति समाधिसम्म तोराद्वार अन्तसमये दीयते । जत्तपच्चक्खाण केन विधिनेत्यत श्राह सुद्धं एसित ठावेंति, हाणीतो वा दिये दिये । तु जया तं तु गोवेंति अहिं ॥ २४५ ॥ शुद्धम् उमादिदोषरहित मंरिश-गयेषित्वा स्थापय न्ति हानी वा शुद्धालाभे दिने दिने पूर्वोक्कया पञ्चकपरिहाणिलक्षण्या यतनया गवेषयित्वा तत् अन्यत्र गोपयन्ति गोपयदि प्रतिदिनं संस्था याला चित मपि ततो यथावसरं २ सम्प्रति (२३) बिहकरणद्वारमाहनिश्वाघ एवं कालगऍ विचिणा उ विहिपुष्यं । काय करणं अधिकरयो भने गुरुगा ।। ५४६ ।। एवम् उक्लेम प्रकारेणाभावेन काल विधि विवेचना-परिष्ठापना कर्त्ता तथा कर्तव्यं चिकरणम्, अबिहकर - चिह्नकरणस्याऽभावे प्रायश्वितं त्या गुरुकाः । तथ चिह्नकरणं द्विधा शरीरे उपकरणे च शरीरे प्रत्ययानुकामेोच कम्पो यदि प्रत्याक्ापि भने परं तथाप्यवश्यं सो करोति कारयति वा उपकरणे रजोहरणमस्य समीप मुखपतिका । चिकरणमा दाना सरीरे उबगरणम्मि, अधिकरणम्म सो उ रातिणिभो। मगार, गोमा पाय इव । ५४७ ।। शरीरे, उपकरणे रहते दोषः कालगत राधिका स्यात् संचाि माफर्त हाकेचित् गृहस्थाः विन्तयन्ति केनाप्येष गृहस्थी बलात्कार मारत्यात्प कथितं सोऽपि शिक्षक तेषां वाघानं रितो भवेदिति पञ्चानां कुर्यात् २३ । 1 सम्प्रति (२४ अन्तर्बहिर्व्याघात इति द्वारमाहन पगा सिअ लहुत्तं परीसहउदएण हुज्ज वाघातो | उपने वाघाते, जो गीअस्थाण उववातो || ५४८ ॥ स भक्तप्रत्याख्याता गृहिणां न प्रकाश्यते यतः कदाचित् प रहस्योदयेन प्रत्याख्यानस्य व्याघातो विलोपः स्यात् ततः समस्तस्यापि प्रवचनस्प लघुता जायते, उत्पन्ने च व्याघाते यो गीतार्थानामुपायः स प्रयोव्य इति वाक्यशेषः को गीवाण उवाओ, संलेमतो बिल भो । अच्छा से जोवो, इतरो गिलामापदिकम् ॥ ५४६ ॥ यस पाठाविजति अस्साठी संचारे । कालगतिय काउं संझाकालम्मि यीति ॥ ५५० || भक्तप्रत्याख्याता द्विविधः एको ऽनेकधा । ते द्विविधाः ज्ञाता, अहाताश्व । ज्ञातो नाम-दशिडकाऽऽदीनां प्राकृतजनानां अ विश्तिस्वरूपो यथा यावज्जीवमेव भक्तं प्रत्याख्यातवान् ति परीतोऽज्ञातः । तत्र यदि ज्ञाता भक्तपरिक्षां न निस्तरति तदा को गीतार्थानामुपायः प्रयेोजयनिका Page #1380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जतपचखाण रितःस्थापितो यो वाऽम्य उत्सहते स स्थाप्यते । इतरस्य तु भ. परत ग्लानपरिक क्रियते अथास्य संलेभगत विद्याद भाषा स्थाय रे । ततो जवनिकान्तरितया लोकयन्दापनाऽऽदियतनया सक रोति । यस्तु भक्तपरिशाविलोपवान् सोऽल्पसागारिक एका. ते धियते, मृतस्य च ग्लानपरिकर्म तावत् क्रियते यावत् प्रथमालिकां करोति, ततोऽत्र जनमध्ये रात्रौ स कालग त इति प्रकाशः, स्वयं गमनेन सहायप्रदानतो वा स. न्ध्याकाखे तं निष्काशयन्ति । ( १३५७) अभिधानराजेन्द्रः । एतदेव भावयति - एवं तू नायम्मी, दंडिगमादीहि होइ जयणा उ । वाणि च अधायः॥ ५५१ ।। एवम उक्लेन प्रकारेण दण्डिकाऽऽदिभिर्शाते भवति यतना ज्ञातव्या । प्रथमालिका करणे स्वयं सर्वेषां साधूनां गमनं भ बति । यदि वा ससहायस्य अन्यत्र तस्य प्रेषणम् । यस्तु तं अपरिज्ञायायात प्रस्थानप्रतिभग्न एष इति, तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो मासा अनुद्घातां गुरुकाः यस्तु न ज्ञातः स यदि न निस्तरति तथाऽपि न प्रवचमोडाइ गर्त पराक्रमं श्यानम् । - अपराक्रमयात्रामाह सपरिक मे जो गयो, नियमा अपरमम्मि सो चैव । नवरं पुरा नाम, खीखे घावले गच्छे ॥ ५२ ॥ पराक्रमे भक्तप्रत्याख्याने यो गमोऽभिहितः स एवापरा. क्रमेऽपि नियमात नवरं पुनरिदं नानात्वमपराक्रमे भवति स्वरुप तथाहि वृद्धत्वेन मर्तुकामः स्वच्प्रत्या संप्रति व्याघातिममाह एमेव श्रणुपुत्री, रोगायंकेहिं वरि अभिभूतो । बालमरणं पिपलिया, मरिज इमेद्दि देऊ ।। ५५३ ।। एवमेव अनेनैव प्रकारेणानुपूर्व्या क्रमेण व्यापातिमं प्रति नाभिभूतः सत्प्रतिपद्यते विशेष यदि पुनरेभिर्वश्यमा तुभिर्मृयेत्तात स्वाति बालमरणमपि स्यात् । - सामेव हेतुनाईबालभल्ल विस विस्र-इका य आयंकसन्नि कोसलए । ऊसास गिद्ध रज्जू, श्रमऽसिवे घाऍ संबद्धो ।। ५५४ ।। व्यालो - गोनसाऽऽदिः, अच्छभल्लः ऋतो, विषं विशू (सू ) विका व प्रतीता तचाव्याधिः संधि कोशलके को चाय के प्रत्यनीके जाते उसनरोधे पृष्ठ करणं रज्ज्वा उत्कलम्बनम् । अव मे दुर्भिक्षे अशिवे धातोविद्युssदिभिरभिघातः संबद्धं वा तेन हस्तपादाऽऽदि जा समेत बालमपि भवति । मत्तपञ्चक्खाण या गोसादिना सा भवेतः सरितमारब्धवान् बालमरणमपि कुर्यात् । यदि वा श्रभशेन ऋक्षेण काशिकादीनि विभग्नानि भवेयुः ततो बल माश्रयेत । विषादिहेतुनाह बिसलो होला या विसूया या से उडिया होजा " कोवा कोई खयमादी उट्ठियों होज्जा ।। ५५६ ॥ तिष्ठि उवारा किरिया, तस्स कथा हवेज नो उ उसंतो । बोमे कोसले, सवियया पंच उ सवाई ||५५७॥ साहूणं रुद्धाई, अह यं भत्तं तु तुझ दाहामो । लाभंतरं च नाडं, लुद्धेणं धनं विकीतं ॥ ५५८ ॥ विषेण वा कश्चित् लब्धो भवेत् वि (सू) शूचिका वा (ले) तस्य उपस्थिता आता कोपादिस्तस्योत्थतो भवेत् तस्य च श्रीन् वारान् क्रिया कृता, परं नोपशमते, त हो बालमरणं प्रतिपद्यते । तथा वा श्रयमे दुर्भिक्षे कोश• लेन संशिना श्रावकेण साधूनां पञ्चशतान्यन्यत्र गच्छम्ति निरुद्धानि यथाऽहं हं दुष्माकं दास्यामि तेन च पा पीसा सुम्पेन रामशे क्रीतम् । ततः किमित्याहतो गाउ विचिछेयं, ऊसासनिरोहमादीणि कथाई । ग्रहीयातेहिं पेण साहू ओोमम्मि ।। ५५६ ॥ शात्वा वृत्तिच्छेदं दुर्भिक्षे वेदना मनध्यासितैरसहमानैरुडला. सनिरोधादीनि कृतानि देवासनिरोधकर पृष्ठतोऽयम्बे राहावसविधानतो बालमरणं प्रतिपक्षयन्तः। पाया गिरिमिचीको गाइ वा हुआ। संबद्ध हत्थपाया-दओ व वातेण होज्जाहि ।। ५.६० ॥ प्रतिघात विद्युता गिरिभिः पतया गिरिकका प ततो भवेत्, ततो बालमरणम्। अथवा हस्तपादाऽऽदयो बा ते संबद्धा भवेयुः तत श्राश्रयते बालमरणम् । तथा चाऽऽहू - एहि कारयेदि पंडियमरणं तु कामसमस्यो । ऊसासगिरिज्जुग च कुलादि ॥ ५६१ ।। परमप्रभूतिभिःकारी परिम रापान कर्तुमसमर्थाच्सनि द्धपृष्ठं रज्जुग्रहणं वा कुर्युः । अथ किमिति ते व्यालभक्षिता. ssश्य आत्मानं घातयन्ति ? । उच्यते कथमित्याह बाले गोमादी, खदितो हुज्जा सडिउपारद्धो । मोनासिगादी, विषंगिया वच्झमलेहिं ॥ ५५५ ॥ धितिसाद ३४० अणुपुन्यविहारीणं, उस्सग्गनिवाइयाण जा सोही । हिरंतर न सोडी, भणिया आहारलोवे ।। ४६२ ।। ये व्यासादिकृतम्या पातरहितास्तेषामनु ऋतुमान वामन विहारिणामुत्सर्गनिपातिनामुपमनुयांया बर www.jamhelibrary.org Page #1381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) अभिधानराजेन्द्रः । भत्तपञ्चक्खाण खिता; शोधिर्न भवतीत्यर्थः कस्मान्न भवतीत्याह श्राद्वार खोपेन तेहि दिन परिपू कर्तुं ततो यथार बालमरणमभ्युपगच्छति तस्थापनम् ८० १० उ० । श्रत्र भक्तपरिज्ञायां व विस्तरतो विधिः सामाचारीतोऽवसेयः । स चायम् " गंधा १ संघो २चि ३. सं ति ४ सासणा ५ खित्त ६ भवण ७ सव्वसुरा ६ । सत्य तिता १० राहणदेवी चउज्जोश्रा ११ ॥ १ ॥ सोही १२ खामण १३ सं १४, समय १५ वय १६ तिनि मंगलाऽऽलावा १७ । चउसरण १८ नमो १६ श्रणसण २० । वास २१ र २२ गुसट्ठि २३ उववूहा २४ ॥ २ ॥ " तत्र प्रथमं गुरुरुत्तमाथोऽऽराधनार्थ वासानमिड महान शिरसि क्षिपति, ततः प्रतिमासद्भावचतुर्विस(२) समन्वितो गुरुग्लनेन समम् अधिकृतदेवस्तुतिभिर्देवान् वन्दते ३, ततः शान्तिनाथकायोत्सर्गः४, शासन देवता ५, क्षेत्र देवता ६, मा ७ समस्त वैयावृत्य कराय८ शकस्त पाठ: शान्तिस्तपाठः २०. देवताना का योत्सर्ग 'लोगोरे' चतुष्टयचिन्तनं पारवित्वा" व स्याः सान्निध्यतो भव्याः, वाञ्छितार्थ प्रसाधकाः । श्रीमदा धनादेवी, विद्यातापहाऽस्तु वः ॥ १ ॥ " इति स्तुतिदा. ११, तदनु गुरुर्निषद्यायामुपविश्य बालकालात् ग्लानमालो. चनां दापयति । तनो " जे में जाति जिया, अवराधा जेसु जेसु ठाणेसु । 'द सोए उबडियो सम्बभावे ॥४१॥ १०१०४०) मस्थ मूडमणो, किन्तियमितं पि संभर जीवो जं च न समरामि अहं, मिच्छा मे दुक्कडं तस्स ॥ १ ॥ जं जं मग्रेण बद्धं, जं जं वायाए भासिनं पावं । कारण य जं च कथं, मिच्छा मे दुक्कडं तस्स ॥ २ ॥ कामपा हुई । अंतर दिवाणं ॥ ३ ॥ जं च सरीरं सुविधाएं जीवोपघायजणयं, संजायं तं पि निंदामि ॥ ४ ॥ हिप मुकाई जम्मणमर जाईबाई पावेसु पलत्थाई, वोसिरिश्राएं मए ताई ॥ ५ ॥ " इत्यादि १२ । ततः सङ्घक्षमणासाडू साहुणीण य, सावयसावीण बडविहो संघो । पखामि ॥१॥ आयरिऍ उवज्झाए, सीसे साइम्मिए कुलगणे अ । जे मे केइ कसाया, सव्वे तिविद्देण खामेमि ॥ १ ॥ खास जीवातु मे मिती मे सव्वभूपसु, वेरं मज्झण केण ६ ॥ २ ॥ सव्वस्त समण संघस्ल, भगवओो अंजलि करिअ सीले । सव्वं खमावहता, खमामि सब्बस्स अहयं पि ॥ ३ ॥ " जत्तपच्चक्खाण ततो नमस्काराच्या पूर्वम्" अरिहंतो मद्ददे १. इति वार २, १३-१४, एवं सामायिकं वार ३.१५, ततः पश महामतानि रात्रिभोजमा चारत्रयमुख्याये ते १६, ततो इच्याई' गांधा चउसरणगमण बुक्क ड गरिदा सुदाम सुदभाव " 46 4 पंधनमुक्कारसरणं ॥ १॥" "बसारि मंगल" मिल्या द्यालापकत्रयं च १७ । ततो " समणस्स भगवश्रो महावीर स्स उत्तमट्ठे ठाइमाणो पञ्चकखाइ सव्वं पाणावा १. साम्यं सम्मे सेवं परिग्गहं ५, सव्वं कोहं ६, सव्वं मा ७, सव्वं मान यं ८, लोभं पिज्जं १०, दोसं ११, कलहं १२, अभक्खा१३ र १४, १४. परपरिवार्य १६ मायामो १७ १८ अट्ठारस पायट्टा खाई जावजीवा तिविद्धं तिविहेखं जाव वोसिरामि। तो उणसयणाइसम्मपूर्ण बंदणं दाऊण १८, नमुक्कारव्यं १६, गिलाणो अणसणमुच्चरद्द | "भवचरिमं पञ्चकखामि तिथिपहा असा साथ लामो सद्द सागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाद्दिवत्तिश्रागारेणं वोसि रामि । " अनाकारे तु अन्त्याssकारद्वयरहितं यथा भवचरिमं निराकारं पश्यामि वि पि महास सणं सव्वं पां सव्वं खादमं सव्वं साइमं अन्नत्थामोगेणं सहसागारेणं । द्वयोरपि " अरिहंताइ ५ सक्खिश्रं वोसिरामि " अथवा " जर मे हुज्ज पाओ, इमस्स देइस्सिमर वेलाए । श्राहारमुवहि देहं सव्वं तिविद्देण वोलिरिश्रं ॥१॥ २०, तो नित्थारगपारगा होइ त्ति "भगन् वासान् शान्त्यर्थे तत्सम्मुखं क्षिपति सङ्घः २१, 'अट्ठावयम्मि उसको इत्यादि स्तुतेः "पञ्चानुत्तरसरणा० " इत्यादि स्तोत्रस्य भ णनं २२, 'जम्मजरामरणजले० ' इत्यादिदेशनां च विधत्ते इ. स्यादि २३॥ उपया व कार्या तथा संवेगजनकमुतराज्ययनाऽऽदि प्रतिदिनं तत्समीपे पठ्यते । " एवं सावयस्स वि. नवरं साधी सम्मत पाहाडा सम्मतरंड दुब याई उच्चर, जहासत्तीए सत्तसु खित्तेसु घणन्वयं करे, ती सामग्गी सम्भावे संधारयदिवस पि पडिवा" एवं च मरणेन मृतस्य साधोः शरीरमन्यसाधुभिर्विधिना परिष्ठा व्यमिति २४ घ० ३ अधि० । 33 ग्लानभावोपगतेन भिक्षुणा भक्तपरिशाऽऽख्यं मरणमभ्युपगन्तव्यमित्येतत्प्रतिपाद्यते, तदनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्योद्देशकस्याऽऽदिसूत्रम् " जे म दोहिं बस्येहिं परिबुसिए पापतएहिं तस्स यं नो एवं भवतयं वयं माइस्थामि से स खिजाई वत्थाई जाइआ जाव एवं खु तस्स भिक्खुस्स सामग्गियं । श्रह पुरा एवं जाणिजा - उवाइकंते खलु हेमं ते गिम्हे पडिव, अहापरिजुन्नाई बत्थाई परिद्वविआ, अपरिभाई परिषिता अदुवा संतरुतरे अघो अदुवा मचेले अदुवा एगसाटे अदुवा अवेले सापवियं भागममातवे से अभिभागए भवइ, जमेयं भगवया पत्रेइयं तमे Page #1382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपच्चक्खाण अभिसओ सम्पचार सम्बतमेव समभिजा शिया, जस्स मिक्स एवं भव-पुट्टो भलो मसि भिक्खुस्स नालमहसि गितरसंक्रमणां मिक्वायरियं गमया से ए चं वयंतस्स परो अभिहडं असणं वा पाणं वा खाइमं वासाइमं वा आदलजा, से पुण्यामेव भालोदना-झाउ संतो ! नो खलु मे कप्पर अभिडं असणं वा पार्थ वा साइमं वा साइमं वा न वा पाय वा असे वा एप पगारे (०२१६) तंत्र विकल्पति स्थविरकलिनको जिनकल्यिको बा स्यात्पर्युषितस्तु नियमानिकपिकपरिहारवि शुद्धिकयथादिकप्रतिमामतिपचानामन्यतमः अस्मिन् स् . " यदि यो निकल्पि] कादिभ्यां वस्त्राभ्यां पर्युषि तो राष्ट्रस्य सामान्यविश्वादेकाशीमिको उपर और्थिक इत्याभ्यां कल्पाभ्यां पतिः संयमे व्यवस्थित किम्भू ताभ्यां का पानी पर्युषितइत्या रोदेशकवत्रेयं यावत् ' नाल महमंसि ' ति स्पृष्टोऽहं बातादिभी रोगे। अथ समर्थन समर्थोऽस्मि गृदा गृहान्तरं सक्कम तथा भिक्षामि क्षाचर्या तमनाय नालं ' न समर्थ इति, तदेवम्भूतं मिमुपलभ्य पादस्य एवम्भूतामात्मीयामस्थांबद सारदतोऽपि परो गृहस्थाऽऽविरनुकम्पाभक्तिरसाऽऽ हृदयोऽभिहृतं जीवोपमर्दनिर्वृत्तं किं तद् ?-अशनं पानं खादिमं स्वादिमं वेत्याशय तस्मै साधये ''सि दद्यादिति । तेन चलानेsपि साधुना सूत्रार्थमनुसरता विश्वं मम्यमित्यच्यवसायिना किं विधेयमित्याह- जिनकल्पिकादीनां चतुमप्यन्यतमः पूर्वमेव 'आलोचयेत्' विचारयेत् फलमा दिना दोषेण दुष्टमेतत् ?, तत्राभ्याहृतमिति ज्ञात्वाऽभ्याहतं च प्रतिषेधयेत् तद्यथा - श्रायुष्मन् गृहपते ! न खल्वेता माभिहृतमभ्याहृतं च कल्पले अशनं भोक्तुं पानं तुमन्य है' सरकारमाचादिदोष इत्येवं तं तिं दानायोद्यतमाशापयेदिति पाठान्तरं वा " तं भिक्खु केह गाहावई उवसंकमित्तु बूया - श्राउसंतो समणा ! श्रहनं तव अट्ठा असणं वा पां वा खाइमं वा साइमं वा अभि इड दलामि, से पुब्बामेव जाणेज्जा आउसंतो गाहावई जनं तुमं मम अट्ठार असणं वा पाणं वा साइमं वा साइमं बा अभिहडं वेतेसि, णो य खलु मे कप्पर पयप्यगारं अलवा पां वा खाइमं वा साइमं वा भोत्तर वा पाय वा अन्ने वा तप्पगारे त्ति ।" कण्ठयं तदेवं प्रतिषिद्धोऽपि धावकसंचयकृतिमङ्गकमिध्यादीनामन्यतम एवं चिन्तयेत् तद्यथा - एष तावत् ग्लानो न शक्नोति भि सामदितुं न चापरं कञ्चन प्रपीति तदस्मे प्रतिषियो केनचिष्मा दास्यामीत्येवमभिसम्यावाद्वारादिकं डोकयति, तत्सारनेषणीयमिति वा प्रतिषेधयेत् । किं चबस्स भिक्खुस्स श्रयं पगप्पे--अहं च खलु पडिल ( १३५६ ) अभिधानराजेन्द्रः । . नतपश्चक्खाण अ तो अपटिनटि गिलायां भगिलाहिं अभिकख साईम्मिएहिं फीरमार्थ बेथावदिये साजिस्सामि अवाि खलु अप्पचित्तो पडिशचस्स प्रमिलायो गिलास - भिख साम्यिस्सा बेयावदियं करवाए भइहुपरिनं अमुविखस्सामि ग्राह च साइजियामि १, भा हु परिनं प्रायश्वितापि बाहरं च नो साइजस्ता मि २, आहड्ड परिनं नो प्राणक्खिस्सामि आहडं च साइजिस्सामि ३, श्रहड परिन्नं नो श्रणक्खिस्सामि श्राहडं च नो साइज्जिस्सामि ४, एवं से अहाकिट्टियमेव ध समभिजाना ते विरए सुसमाहिपलेसे तस्य वि तस्य कालपरियार से तस्थ विशंतिकारण, इथे विमो हाय हियं सुखमं निस्से आशुगामिषं तिबेषि । ( सू० २१७ ) , 6 " 'ण' इति वाक्यालङ्कारे यस्य मितोः परिद्वार विश्वविकस्थ यथादिकस्य वा चारो ि तद्यथा अहं च खलु 'च: ' समुच्चये खलुः' वाक्या. लङ्कारे क्रियमाणं वैयावृत्यनपरे स्वादयिष्यामि अभिलपिष्यामि किम्भूतोऽहं ? -प्रतिशप्तो वैयावृत्य करणायापरैरुक्तः प्रभिहितो यथा तब वर्ष वैयावृत्यं यथोचितं कुर्म्म इति किम्भूतैः परैः ? - श्रप्रतिशतैः - अनुक्लैः किम्भू सोनटितपसा कर्त्तव्यता उसको बालाऽऽदि क्षोभेण वा ग्लान इति किम्भूतैरपरैः १- उचित कर्त्तव्य सहि ष्णुभिः । तत्र परिहारविशुधिकस्यानुपाहारिकः करोति कल्पस्थितो या परो यदि पुनस्तेऽपि महानास्ततोऽन्येन कु· र्वन्ति, एवं यथालन्दिकस्यापीति, केवलं तस्य स्थविरा अपि कुर्वन्तीति दर्शयति निर्जराम् अभिकाङ्क्ष्य' उद्दि श्य ' साधम्मिकैः सदृशकल्पिकैरक कल्पस्थैरपरसाधुभिर्वा क्रियमाणं वैयावृत्यमहं स्वादयिष्यामि अभि काङ्क्षयिष्यामि यस्यायं भिक्षोः प्रकल्पः - आचारः स्यात् स समाचारमनुपालयन् परिपाऽपि जीवितं जान पुनराचारखण्डनं कुर्यादिति भावार्थः । तदेवमन्यन साधर्म वैधा क्रियमाणमनुज्ञातं साम्प्रतं स एवा परस्य कुर्यादिति दर्शयितुवादः समुचये, अश पुनः शब्दार्थे स च पूर्वस्माद्विशेषदर्शनार्थः ' खलुः 'बा क्यालङ्कारे अहं च पुनरप्रतिक्षतः धनमितिः प्रतिस्थ वैयावृत्य करणायाभिहितस्य अग्लानो ग्लानस्य निर्जराममिका साधर्मिकस्य चैवाकु किमर्थम् १-क रणाय तदुपकरणाय तदुपकारावेत्यर्थः तदेवं प्रति परिगृह्याऽपि भक्तपरिज्ञया प्राणान् जह्यात् न पुनः प्र तिज्ञामिति सूत्रभावार्थः । इदानीं प्रतिज्ञाविशेषद्वारेण च 'तुर्भङ्गिकामाह - एकः कश्चिदेवम्भूतां प्रतिज्ञां गृह्ण ति तद्यथा-महागस्था परस्य साधनिकस्थाद्वाराऽऽदिकम पविष्यामि अपरं चात्योषितं करिष्यामि तथाऽपरेण च साधर्मिकेाऽऽहमागी समाहारादिकं स्वादयिष्यामि उपभोये एवम्भूतां प्रतिज्ञामान्यगृहीत्वा वैयावृत्यं कुर्यादिति तचापरः- माहत्य " . , • 9 4 6 9 Page #1383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 भत्तपच्चक्खागा तिज्ञां गृहीत्वा यथाऽपरनिमित्तमन्वीक्षिष्ये श्राहाराऽऽदि. कमाहृतं चापरेण न स्वादयिष्यामीति २, तथाऽपर ब्राहृत्य प्रतिज्ञामेवम्भूतां तद्यथा-नापरनिमित्तमन्वीक्षियाभ्याहारादिकमाहृतं चान्येन स्वादयिष्यामीति ३, तथाऽपरः- आहत्य प्रतिज्ञमिवम्भूतां तद्यथा-नान्वीक्षिष्येऽपर निमित्तमाहाराऽऽदिकं नाप्याहृतमभ्येन स्वादयिष्यामीति ४, एवम्भूतां च नानाप्रकारां प्रतिज्ञां गृहीत्वा कुतश्चिद् ग्ला यमानोऽपि जीवितपरित्यागं कुर्यात् न पुनः प्रतिज्ञालोपमिति । श्रमुमेवार्थमुपसंहारद्वारेण दर्शयितुमाह-एवम्उक्तविधिना 'स' भिक्षुरवगततस्त्रः शराऽऽदिनिष्पिपा सुः यथाकीर्तितमेव धर्म्मम्-उक्तस्वरूपं सम्यगभिजानन् श्रासेवनापरिज्ञया श्रासेवमानः तथा लाघविकमागमयनित्यादि यच्चतुर्योदेशकेऽभिहितं तदत्र वाच्यमिति तथा शान्तः कषायोपशमाच्छन्तो वा श्रनादिसंसा पर्यटनाद् विरतः सावधानुष्ठानात् शोभनाः समाहृतागृहीता लेश्याः - अन्तःकरण वृत्त यस्तै जसीप्रभृतयो वा येन स सुसमाहृतलेश्यः एवम्भूतः सन् पूर्वगृहीत प्र तिज्ञापालना समर्थो ग्लानभाबोपगतस्तपसा रोगाऽऽतङ्केन वा प्रतिज्ञालोपमकुर्वन् शरीरपरित्यागाय भक्तप्रत्याख्यानं कुर्यात्, तत्राऽपि ' भक्तपरिज्ञायामपि तस्य ' कापर्यायेणानागतायामपि कालपर्याय पत्र निष्पादितशिष्यस्य संलिखितदेवस्य यः कालपर्यायो-मृत्योरवसरोऽत्रा. ऽपि ग्लानावसरेऽलावेव कालपर्याय इति कर्मनिर्ज राया उभयत्र समानत्वात् स भिक्षुस्तत्र ग्लानतथाऽन. शनविधाने व्यक्तिकारकः- कर्मक्षयविधायीति । उद्देश कार्थमु. पसं जिहीर्षुराऽऽद्द - सर्वे पूर्ववद् । श्राचा० १ श्रु० ८०५३० । भक्तप्रत्याख्यानफलं प्रश्नपूर्वकमाहभत्तपञ्चक्खाणं भंते ! जीवे किं जणय १ । मत्तपच्चक्खाणं जीवे अगाई भवसहस्साई निरंभइ ॥ ४० ॥ हे भदन्त ! भक्तप्रत्याख्यानेन - श्राहारत्यागेन भक्तपारशा. दिना जीवः किं फलं जनयति ? । गुरुराह--हे शिष्य ! भक्त. प्रत्यास्थानेन जीवोऽनेकानि भवसहस्राणि निरुणद्धि । ४० उत्त० २६ श्र० । भक्तपरिशामरणमार्यिकाऽऽदीनामप्य स्ति । यत उक्तम् -" लवाश्री प्रजाओ, सध्धे चि य पढमसंघयणवज्जा | सध्ये वि देखविरया, पच्चक्खाणेण उमरति ॥५२७|| ” (वय०१०३०) अत्र च प्रत्याख्यानशब्देन मक्तपरिक्षेत्र भणिता, तत्र प्राकू पादपोपगमादेरन्यथाभ नात् प्रय० (डी०) १५७ द्वार। (भक्तप्रत्ययावत वक्त इयताविशेषः 'अणगार' शब्दे प्रथमभागे २७१ पृष्ठे गतः । ) उत्त परिष्मा मक्कपरिज्ञा-बी०। भक्रं भोजनं तस्य परिक्षा । सा द्विधा - परिक्षा प्रत्याख्यातपरिक्षा च शपरिक्षया अनेक भेदमस्माभिर्भुक्त पूर्वमतद्धेतुकं च सर्वमवद्यमिति परिज्ञानम् । प्रत्याख्यान परिज्ञया च" सव्वं च अलपाणं विहं जाय बाहिरा उबही । श्रभितरं च उबि जावज्जीवं च बोलिरह ॥ १ ॥ इत्यागमत्रच नाच्चतुर्वि घाऽऽद्वारस्य त्रिविधाऽऽद्दारस्य वा यावजीवमपि परित्यागाऽस्नकं प्रत्याख्यानं भक्तपरिक्षा । उत्त०पाई ५ ( १३६० ) अभिधानराजेन्द्रः । " For Private अ० । श्राचा० भत्तपरिमा | प्र० । स० । अनशनभेदे, प्रव० ६ द्वार | पं०व० । पञ्चा० । श्राचा । तत्कार्यभूते भक्तप्रत्याख्यानाऽऽ मरणभेदे च । घ० ३ अधि० । प्रत्थः भेदे प्रति० भक्तपरिज्ञास्वरूपमिदम् नमिऊण महाइस, माहाऽणुभावं मुणि महावीरं । भणिमो भत्तपरिन्नं, नियसरगट्ठा परट्ठा य ॥ १ ॥ भवगणभमरीणा, लहंति निव्वुडसुहं जमल्लीणा । तं कप्पदुमका- सुइयं जिणसास जयंई ॥ २ ॥ मयतं जिगवणं च दुल्लदं पाचिकण सप्पुरिसा । सासयमुहिकरसिए - हि नागवसिएहि होयव्वं ॥ ३ ॥ जं श्रञ्ज सुदं भविणो, संभरणीयं तयं भवे कल्लं । मग्गति निरुवसग्गं, अपवग्गसुई बुहा लेख || ४ | रवि सुरसुक्खं, दुक्खं परमत्थमो तयं विंति । परिणामदारुणमसा-सयं च जंता अलं तेषं ॥ ५ ॥ जं सासय सुहसाह - माणाभाराहणं निखिँदाणं । ता तीए जइयन्त्र, जिरावययविसुद्धबुद्धीहिं ॥ ६ ॥ तं नागदंसणणं, चारितवाण जिणपणीयाणं | जं श्राराहगामिणमो, आणा आराहणं विंति ॥ ७ ॥ पन्चजाए अब्भु जो वि राम्रो महासुतं । अब्भुज्जय मरणं, अविगलमाराहणं लहइ ॥ ८ ॥ तं भुज्यमरणं, अमरणधम्मेहि वस्त्रियं तिविहं । भत्तपरिन्ना इंगिणि, पाचवगमं च धीरेहिं ॥ ६ ॥ भत्तपरिनामरणं, दुविहं सवियारमो य अत्रियारं । सपरक्कम मुणिणे, संलिहियतगुस्स सवियारं ॥ १० ॥ अपरक्कमस्स काले, पहुत्तम्भी य जं तमवियारं । तमहं भत्तपरिनं, जहापरिनं भणिस्सामि ॥। ११ ॥ भिइबलवियलाणमडका-लम कलियाणमकयकरणाणं । निरवज्जमज्जकालिय- जईण जुग्गं निरूवसग्गं ॥ १२ ॥ परमसुसपिवासो, अ सो हासो सजीवियनिरासो । विससुविगयरागो, धम्मुज्जम जायसंवेगो ॥ १३ ॥ निच्छियमरणावत्थो वाहिग्गत्यो गित्यो वा । भवियो भत्तपरिन्ना - इ नायसंसारनिग्गुनो ॥ १४ ॥ वाजिरमरणमयरो, निरंतरुप्पत्ति नीरनिउरंचो । परिणामदारुण हो, अहो दुरंतो भवसमुद्दो ॥ १५ ॥ पच्छा तावपरडो, पियधम्मो दोसस सय हो । after पासथा वि, दोसे दोसिल्ललिओ वि ॥ १६ ॥ इकलिकण सरिसं गुरुपामूलेऽभिगम्य विषएां । भालयलमिलिगकर कम-लसेहरो वंदिउं भगइ ॥ १७॥ मारुहिय महसुपुरिस-मचपरिन्नापसत्यबोद्दित्थं । Personal Use Only Page #1384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६१ ) अभिधान राजेन्द्रः । भत्तपरिता ॥ निजामरण गुरुणा, इच्छामि भवन्नवं तरिउं कारुणामयनीसं दसुंदरो सो वि से गुरू भगइ । आलोयणवयखामण-पुरस्सरं तं पवजेसु ॥ १६ ॥ इच्छामुत्ति भणित्ता, भत्तीबहुमाणसुद्ध संप्पो । गुरु विगयावा, पाए अभिवंदि विहिणा ||२०|| सलं उद्धरणो, सब्बैगुण्यतिव्वसद्धाश्रो । जं कुणइ सुद्धिहेउं, सो तेयाऽऽराहो होइ ॥ २१ ॥ अह सो आलोणदो-सबज्जियं उज्जुयं जहायरियं । बालु व बालकाला - उ देह आलोचणं सम्मं ||२२|| उवि पायच्छिते, गणिया गणि संपयासमग्गेण । सम्म पनि तयं, अपावभाव पुणो भगः || २३॥ दारुण दुहजलयर भी - मभवजलहितारणसमत्थे | निफन्नायपोए, महत्वए अम्हश्र विवसु ॥ २४ ॥ जइ वि स खंडियचंडो, अक्खडमहन्वओ जई जइ वि । पत्रअन तुद्वावण - मुट्ठावणमरिहर तहावि ॥ २५ ॥ पहुणो मुकाऽखतिं भिच्चा पञ्चप्पियंति जह विहिणा । जावज्जीव पड़ना - गतिं गुरुणो तहा सो वि ॥ २६ ॥ जो साइयारचरणो, आउट्टिय दंड खंडियवओ वा । तह तस्सव सम्ममुत्र- द्वियस्स उट्ठावणा भगियौ ॥ २७॥ ततो तस्स महव्व य-पव्ययभारुन्न मंतसीसस्स । सीसस्स समारोह, सुगुरू वि महत्वए विहिणा ||२८|| अह हुआ देसवर, सम्पत्तरओ रओ व जिणत्रयणे । तस्स वियाई, श्रारोविजंति सुद्धाई ॥ २६ ॥ अनियाणोदारमण, हरिसवसविसप्पकंचुइयराइ | पूएइ गुरुं संघ, साहम्पियमाइ भत्तीए ॥ ३० ॥ नियदव्यपईव जिगि- दभवणजियविववरपइट्ठासु । वियर सत्यपुत्थय - सुतित्यतित्थयरपुत्रासु || ३१ ॥ जड़ से वि सव्ववर-कयारा विसुद्धमणकाओ । छिन्नसणारा, विसयविसाओ विरतो अ ||३२|| संथाएँ पव्वज्जं, पडिवज्जड़ सो वि नियमनिरख । सम्बविरईपहाणं, सामाइयचरितमारुहइ || ३३ || अह सो सामाइयधरो, पडिवन्नमन्बो जो साहू | देसविरओ अ चरिमं, पचक्खामि त्तिनिच्छइओ ||३४|| गुरुगुणगुरुणो गुरुणो, पयपंकयनमियमत्थओ भगइ | भयवं भत्तपरिन्नं, तुम्हाणुमयं पवजामि ।। ३५ ।। श्रागणा इवेमं तस्सेव य अप्पणो अगणिवस हो । दिव्त्रेण निमित्तेणं, पडिलेहइ इहरहा दोसा || ३६ ॥ तत्तो भवचरिमं सो, पञ्चकखाइ तितित्रिमाहारं । उकोसियाणिदव्वाणि तस्स सव्वाणि दंसिजा ||३७|| पासितु ताणि कोई, तीरं पतस्तिमेहि किं मज्झ । श्र २४९ १८ ॥ जत परिक्षा ३८ ॥ देसं च कोइ च्या. संवेगगश्रो विचिते ॥ किं चत्तं नोवसुतं मे, परिणामासुई सुई । दिट्ठसारो सुहं काय, चोश्रण से विसीययो ॥ ३६ ॥ उदरमल सोहट्ठा, समाहिपाणं मणुनं मे । सो वि मरं पञ्जयत्रो, मंदं च विरेयणं खमओ ॥ ४० ॥ एलतयनागकेसर - तमालपत्तं ससकरं दुद्धं । पाऊण कढिय सीयल, समाहिपाणं तत्र पच्छा ॥। ४१ ।। महुरविरेण मेसो, कायन्त्रा फोफलाइदव्येहिं । निव्वावि अग्गी, समाहिमेसो सुहं लहइ ॥ ४२ ॥ जावज्जीवं तिवि, आहारं बोसिरइ इदं खवगो । निजवगो आयरिश्रो. संघस्स निवेयणं कुणइ ॥ ४३ ॥ श्रीराहणपच्चइयं, खमगस्स य निरुवसग्गपच्चइयं । तो उसग्यो संघे - होइ सन्धेय कायन्वो ॥ ४४ ॥ पच्चक्खाविति तम्रो, तं ते खवगं चउव्विहाऽऽहारं । संघसमुदायम, चिइवंदणपुब्वयं विहिणा ।। ४५ ।। हवा समाहिहेडं, सागारं चयइ तिविद्दमाहारं । तो पाणियं पि पच्छा, वोसिरियन्वं जहाकालं ॥४६॥ तो सो नमंतसिरसं घडतकरकमलसेहरो विहिणा । खामेइ सव्वसंघ, संवेगं संजयेमाणो ॥ ४७ ॥ -आयरिऍ उवज्झाए, सीसे साइम्मिए कुलगणे य । जे मे केइ कसाया, सव्वे तिविहेण खामेमि ॥ ४८ ॥ सन् वराहपए, खामेमि अहं खमेर मे भयवं । मखामि सुद्धो, गुणसंघायस्स संघस्स ॥ ४६ ॥ इस वंदणखामण गरिहणेहिं भवसयसमज्जियं कम्पं । उवणेइ खणेण खयं, मिगावईराइपत्ति ॥ ५० ॥ अह तस्स महव्वयसु-द्वियस्स जिणत्रयणभावियमइस्स । पञ्चकखायाहार-स्स तिव्व संवेगसुहयस्स ॥ ५१ ॥ राहणलाभाश्र, कयत्यमध्यायं मुणं तस्स | कलुसकलतरणिलहिं, अणुसट्ठि देइ गणिवसभो ॥५२॥ कुग्गहपरूढमूलं, मूला उच्छिद वच्छ ! मिच्छत्तं । भावेसु परमतत्तं, संमत्तं सुत्तनीईए ॥ ५३ ॥ भत्तिं च कुसु तिब्वं, गुणागुराएण वीयरायाखं । तह पंचनमुकारे, पत्रयणसारे रई कुणसु || ५४ || सुविहिययिनिज्झाए, सज्काए उज्जुओ सया होसु । निचं पंचमहव्यय - रक्खं कुछ आयपच्चक्खं ।। ५५ ।। उज्सु नियाणसलं, मोहमदल्लं सुकम्म निस्तलं । दमसु मुदिसंदो - हनिंदिए इंदियमईदे ॥ ५६ ।। निव्वाणसुहावाए, विइन्ननिरयाइदारुणावाए । इसु कसायपिसाए, विसयतिसाए सयसहाए ॥ ५७ ॥ काले अपहू संते, सामने सावसेमिए इसिंह | For Private Personal Use Only Page #1385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३६२) भत्तपरिमा भनिधानराजेन्मः। भत्तपरिमा मोहमहारिउदारण-असिलहिँ मुणसु अणुसहि ।।एमा कमलदलक्खो जक्खो, जाओ चोरु त्ति लिहियो ७८ संसारमूलबीयं, मिच्छत् सम्बहा विवज्जेह । भावनमुक्कारविव-जियाई जीवेण अकयकरणाई। संमत्ते दहचित्तो, होसु नमुक्कारकुसलो म ॥५६॥ गहियाणि य मुक्काणि य, अशंतसो दवलिंगाई ।।७।। मियतणिहयाहि तोयं, मन्नति नरा जहा सतबहाए । आराहणापडागा-गहणे इत्थो भवे नमुक्कारो । सुक्खाइँ कुहम्माओ, तहेव मिच्छत्तमठमणो ॥ ६॥ तह मुगइमग्गगमणे, रहुन्न जीवस्स अपडिहो। ८०। न वितं करेइ अग्गी, नेव विसं नेव किएहसप्पो वि । अनाणी वि य गोवो, आराहिता मो नमुक्कार । जं कुगाइ महादोस, तिव्वं जीयाण मिच्छत्तं ।। ६१ ॥ चंपाए सिद्विसुओ, सुदंसणो विस्सुओ जाभो ।। ८१॥ पावह इहेब वसणं, तुरुमिणिदत्तु व दारुणं पुरिसो । बिज्जा जहा पिसायं, सुटुवउत्ता करेह पुरिसवसं । मिच्छत्तमोहियमणो, साउपभोसाउ पावाप्रो ।। ६२॥ नाणं हिययपिसायं, सुट्टवउत्तं तह करेइ ।।८२ ॥ मा कासि तं पमार्य, संमत्ते सव्वदुक्खनासणए। उवसमइ किएहसप्पो, जह मंतेण विहिणा पउत्तेणं । जं सम्मतपइवा- नाणतवचिरियचरणाई ॥१३॥ तह हिययकिएहसप्पो, मुट्टवउत्तेण नाणेण ॥७३॥ भावाणुरायपिम्मा-गुरायसुगुणाणुरायरत्तो भ। जह मक्कडोखणमवि, मज्झत्यो अत्यिउंन सक्केइ । धम्माणुरायरत्तो, अ होसु जिणसासणे निचं ॥ ६४ ॥ तह खणभवि मज्झत्थो,विसएहि विणान होइ म।।८४॥ दंसणभट्ठो भट्ठो, न हु भट्ठो होइ चरणपन्भट्ठो। तम्हा उद्विउमाणो, मणमक्कडो जिणोवरसेण । दसणमणुपत्तस्स उ, परियडणं नत्यि संसारे ।। ६५॥ काउं सुत्तनिबद्धो, रामेयव्यो सुहज्झाणे ॥५॥ दसणभट्ठो भट्ठो, दंसणभट्ठस्स नत्थि निव्वाणं । सूइ जहा समुत्ता, न नस्सइ कयवरम्मि पडिया वि। जीवो तहा समुत्तो.न नस्सइ गयो वि संसारे ॥८६॥ सिझंति चरणरहिया, दंसणरहिया न सिझंति ॥६६॥ संडसिलोगेहूँ जवो, जइ ता मरणाउ रक्खिो सुद्धे सम्मत्वे भवि-रो वि, अजेइ तित्थयरनाम । राया। पत्तो असुसामन्न, किं पुण जिणवृत्तसुत्तेणं ॥८७॥ जह भागमेसिभदा, हरिकुलपहुसेणियाऽऽईया ॥६७॥ कलाणपरंपरयं, लहंति जीवा विसुद्धसम्मत्ता । अहवा चिलाइपुत्तो, पत्तो नाणं तहा सुरत्तं च । सम्मईसणरयणं, नग्घइ ससुरासुरे लोए ।। ६८॥ उवसमविवेगसंवर-पयमुमिरण मेत्तसुयनाणो ।। ८८॥ परिहर छज्जीववई, सम्ममणवयणकायजोगेहि। तेन्लुक्कस्स पहुत्तं, लबूण वि परिवहंति कालेणं । जीवविसेसं नाउं, जावजीवं पयत्तेणं ||८|| सम्मत्ते पुण लद्धे, अक्षयसुक्खं लहइ मुक्खं ।। ६६ ॥ जह ते न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सबजीवाग्यं । अरिहंतसिद्धचेइय-पवयणायरियसब्यसाहूसु ।। सवायरमुबउत्तो, इत्तो धम्मेण कुणसु दयं ॥१०॥ तिव्वं करेमु भत्ति, तिगरणसुद्धेण भावेणं ।। ७० ॥ तुंगं न मंदरामओ, आगासाप्रोविसालयं नस्थि । एगा वि सा समत्या, जिणभत्ती दुग्गई निवारेउं । जह तह जयस्मि जाणसु, धम्ममहिंसासमं नस्थि ॥६२|| दुलहाइँ, लहावेउँ, भासिद्धि परंपरसुहाई ॥ ७१॥ सव्वे विय संबंधा; पत्ता जीवेण सवजीवहिं । विजा वि भत्तिमंत-स्स सिद्धि मुवयाइ होइ फलया य ।। तो मारंतो जीवं, मारइ संबंधिणो सब्वे ॥ १२॥ किं पुण निव्वुइविजा, सिम्मिहि अभत्तिमंतस्स ॥७२॥ तेसि भाराहणना-यगाण, न करिज जो नरो भत्ति । जीववहो अप्पन हो, जीवदया अप्पणो दया होइ । धणियं पि उज्जमतो, सालि सो ऊसरे ववइ ।। ७३ ॥ ता सव्वजीवहिंसा, परिचत्ता अत्तकामेहिं ॥३॥ बीएण विणा सस्सं, इच्छइ सो वासमभएण विणा । जावइयाँ दुखाई, हुंति चउगइगयस्स जीवस्स । भाराहणमिच्छतो, पाराहयभत्तिमकरंतो ।। ७४ सवाई ताई हिंसा-फलाइँ निउणं वियाणाहि ॥ ६४ ॥ उत्तमकुलसंपत्ति, सुहनिष्फत्तिं च कुणइ जिणभत्ती। जं किंचि सुहमुयारं, पुहुत्तणं पगइसुंदरं जं च । मणियारसिहिनीव-स्स दडुरस्सेव रायगिहे ।। ७५ ॥ प्रारुगं सोहगं, तं तपहिंसाफलं सव्वं ॥ १५॥ भाराहणापुरस्सर-मणबहियो विसुद्ध लेसाओ। पाणो वि पाडिहेरं. पत्तो बूढो वि मुंमुमारदहे। संसारक्खयकरणं, तं मा मुंची नमुक्कारं ॥७६ ।। एगेण वि एगदिण-जिएण हिंसावयगुणेणं ।।१६॥ परिसंतनमुक्कारो, इकको वि हविज जो मरणकाले।। परिहर असच वयणं, सव्वं पि चउविहं पयत्तेण । सोजिणवरेहि दिट्ठो, संसारुच्छेयणसमत्थो । ७७॥ संजमवंतो वि जमो भासादोसेण लिप्पंति ॥७॥ मिठो किलिट्टकम्मो, नमो निशाणं ति सुकयपणिहाणो। हासेण व कोहेण व, लोहेण भएण वा वि तमसचं । Page #1386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३६३) मतपरिएगा अभिधानराजेन्डः। भत्तपरिएगा पा भखसु भखसु सच्चं, जीवहिपत्यं पसस्थमिमं १८ कयविप्पियं पइंझ-त्ति निति निहणं यासाश्रो ॥११॥ विस्ससणिजो माया, च होइ पुज्जो मुरु ब लोअस्स । रमणीयदंसणाओ, सुउमालंगीनों गुणनिबद्धाओ। सयणु व सच्चवाई, पुरिसो सम्बस्स होइ पिभो ॥ ६६ ॥ नवमालइमालाओ, व हरंति हिययं महिलियानो॥११६।। होउ व जडी सिहंडी, मुंडी वा पक्कली व नग्गो पा। । किंतु महिलाण तासिं, सणसुंदरजणियमोहाणं । लोए असच्चाई, भन्मइ पासंडचंडालो ॥१०॥ आलिंगणमइरादे- इझमालाण व विणासं ॥१२०॥ अंलियं समं पि भणियं, विहणइ बहाई सच्चवयणाई ।। रमणीपादसणं चे-व सुंदर होउ संगमसुहेणं ।। पडिभो नरपम्मि वम्, इक्केण भसच्चरयणेण ॥१०॥ गंधो ब्विय सुरहिमा-लईइ मलणं पुण विणासो ॥१२॥ मा कुणसुधीर ! बुदि, अच्यं व बहुं व परघणं चित्तुं । । साकेयपुराहिबई, देवरई रजसुक्खपन्भट्ठो। दंतंतरसोहणयं, किलिंचमित्तं पि अविदिनं ॥ १०२ ॥ पंगुलहेउं बूढो, बूढो य नईइ देवीए ॥ १२२॥ जो पुण अत्थं अवहरह, तस्स सो जीवियं पि अवहरह। सोयसरी दुरियदरी, कवडकुडी महिलिया किलेसकरी । जं सो प्रत्यकएणं, उज्झइ जीयं न पुण अत्यं ॥१३॥ वइरविरोयणभरणी, दुक्खखणी सुक्खपडिवक्खा ।१२३॥ तो जीवदयापरणं, धम्म गहिऊण गिएह माऽदिनी । अमुणियमाणपरिक्कम्मों, सम्मको नाम नासिङ तरह। जिणगणहरपडिसिद्धं, लोगविरुद्धं महम्मं च ॥१०४॥ वम्महसरपसरोहे, दिद्विच्छोहे मयच्छीणं ॥ १२४ ।। चोरो परलोगम्मि वि, नारयतिरिएसु लहइ दुक्खाई । घणमालाउ व दुरु-नमंतसुपओहराउ वटुंति । मणुयत्तखे वि दीणो, दारिदोवडुओ होइ ।। १०५।। मोहविसं महिलाओ, पालकविसं व पूरिसस्स ॥१२॥ चोरिक्कनिवित्तीए, सावयपुत्तो जहा सुई लहइ। परिहरसु तो तासिं, दिहि दिट्ठीक्सिस्स व अहिस्स । किढिमोरपिच्छचित्तियं-गुद्री चोराण चलणसु॥१०६॥ जं रमणिनयणवाणा, चरिचपाणे विणासंति ॥१२६॥ रक्खाहि बंभचेरं, भगुत्तीहिं नवहिं परिसुद्धं । महिलासंसम्गीए, अग्गी इस जंच अप्पसारस्स। निचं जिणीहि कामं, दोसपकामं वियाणित्ता ।। १०७॥ मीण व मणो मुणियो,विहंत सिग्यं चिय विलाइ ।१२७/ जावइया किर दोसा, इह परलोए दुहावहा हुंति । जइ वि परिचत्तसंगो, तवतणुयंगो तहावि परिवहह। प्रावहइ ते उ सब्बे, मेहुणसनापणुस्सस्स ॥ १०॥ महिलासंसम्गीए, कोसाभवणूसिय बरिसी॥१५८।। रइभरइतरलजीहा-जुएण संकप्पउक्कडफणेण । सिंगारतरंगाए, विज्ञास बेलाऍ जोधणजलाए । विसयविलवासिणा, मदमुहेण विम्बोअरोसेण ॥१०॥ के के जयम्मि पूरिसा, नारिनईए न बुइंति ॥१२६।। कामसुभगेण दहा, लज्जानिम्मोयदप्पदाढण। । विसयजलमोहकलं, विलासबिम्बोयजलयराइप्लं । मयमयर उत्तिन्ना, तारुन्नमहसवं धीरा ॥ १३०॥ भासंति नरा अवसा, दुस्सहदुक्खावहविसेण ॥११॥ ललकनरयचियणा-उ घोरसंसारसायरन्वहणं । अम्भितरवाहिरए, सव्वे संगे तुमं विवजेहि । संगच्छई न पिच्छइ, तुच्छत्तं कामियमुहस्स ॥ १११॥ कयकारियऽणुमईहिं, कायमणोपायजोगेहिं ।। १३१॥ बम्महसरसयविद्धो, गिद्धो वणिउन्म रायपत्तीए। संगनिमितं मारइ, भणइ अलीयं करेइ चोरिकं । पाउक्खालयगेहे, दुग्गंधेणेगसो बसिनो ॥ ११२।। सेवह मेहुणमित्यं, अप्परिमाणं कुणइ जीवो ॥ १३२ ।। कामाऽऽसत्तो न मुणइ,गम्माऽगम्यं पि वेसियाणु ब। सगा महाभा ज, विहाडमा सावएण सभण । सिट्ठी कुवेरदत्तो, निययसुयासुरयरइरत्तो॥ ११३॥ पुत्तेण हिते अत्य-म्मि मुणिवईकुंचिएण जहा ॥१३३॥ पडिपिल्लियकामकलिं, कामग्यस्थासु मुयसु अणुबंधं । __ सबग्गंथविमुक्को, सीईभूओ पसंतचित्तो य। महिलासु दोसविसव-धरीमु पयई नियच्छतो ॥११॥ जंपावद मुचिसुहं, न चकवट्टी वि तं लहइ ॥ १३४ ॥ महिला कुलं सुवंसं, पई सुयं मायरं व पियरं वा। निस्सहस्सेह पह-बयाई अक्खंडनिव्वणगुणाई । विसर्यधा प्रगणंती, दुक्खसमुद्दम्मि पाडेइ ॥ ११५॥ उपहम्मंति य ताई, नियाण सल्लेण मुणिणो वि ॥१३॥ नीयंगमाहिं सुपनो-हराहिं, उप्पिच्छमंथरगईहिं। मह रागदोसगम्भ, च पोहगम्भं च तं भवे तिविहं । महिलाहि निम्नयाहि व,गिरिवरगुरुया विमअंति११६ धम्मत्थं हीणकुला- पत्थणं मोहगम्भं तं ॥ १३६ ॥ सुङ वि जियासु सुट्ट वि, पियासु सुट्ट वि परूढपिम्मासु । रागण गंगदत्तो, दोसेणं विस्सभूइमाईया । महिलासुमसुभगीसु भविस्संभं नाम को कुणह॥११७ मोहेण चंडपिंगल-माईया हुति दिटुंता ॥ १३७॥ विस्संभनिन्भरं पिह, उपयारपरं परूढपिम्मंपि। अगणिय जो मोक्खसुई,कुणइ नियाणं असारसहहे ।। Page #1387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जत्तपरिणा अभिधानराजेन्दः। नत्तपाण पडियाइक्खिय सोकायमणिकरणं, वेरुलियमणिं पणासेइ ।। १३८ । छूढा महापइया, अहयं भागहइस्सामि ॥१५॥ दुक्खखयं कम्मखयं, समाहिमरणं च बोहिलाभो य । भरतसिद्धकेवलि-पञ्चक्खं सबसंघसक्खिस्स । एवं पत्थेयव्वं, न पत्थणिज्जं तो अनं ॥ १३६ ॥ पञ्चक्खाणस्स कय-स्स भंजणं नाम को कुणी ॥१५६।। उज्झिय नियाणसल्लो, निसिभत्तनिवित्तिसमिइगुत्तीहिं। भालुंकीए करुणं, खतोतो घोरवेयणातो वि । पंचमहब्बयरक्खं, कयसिवसुक्खं पसाहेइ ॥१४॥ भाराहणं पहिवनो, माणेण अवंतिसुकुमालो॥१६॥ इंदियविसयपसत्ता, पति संसारसायरे जीवा । मुग्मितगिरिम्मि सुको-सलो वि सिद्धत्थदइयो भवयं । पक्खि मछिनपक्खा,सुसीलगुणपेहुणविणा ।।१४१॥ वग्धीए खज्जतो, पडिवनो उत्तम भटुं ॥ १६१॥ न लहइ जहा लिहतो, सुहिल्लियं भट्टियं रसं सुणो। गोटे पाओवगो, सुवंधुणा गोमए पलिबियम्मि । सोसइ तालुयरसियं, विलिहंतो मभए सोक्खं ॥१४२॥ इज्झतो चाणको,पडिवमो उत्तम अटुं॥१६२।। महिलापसंगसेवी, न लहइ किंचि वि सुई तहा पुरिमो। अवलंबिऊण सत्तं, मुमं पिता धीर ! धीरयं कुणतु । सो मन्मए वराओ, सयकायपरिस्सम सुक्खं ॥ १४३॥ भावेसु य नेगुल्म,संसारमहासमुहस्स ॥ १६३ ।। सुट्ट वि मम्गिजंतो, कत्थ वि केलीइ नत्थि जह सारो। जम्मजरामरणजलो, प्रणाइमं वसणसावयाइयो । इंदियविसएसुतहा, नत्थि सुहं सुद वि गविढे ॥१४४॥ जीवाण दुक्खहेऊ कटुं रुदो भवसमुद्दो ॥ १६४॥ सोएण पचसियपिया, चक्खरापण माहुरो वणिो । धोऽहं जेण मए, अणोरपारम्मि भवसमुदम्मि । घाणेण रायपुत्तो, निहो जीहाइ सोदासो ॥१४॥ भवसयसहस्सदुलहं, लद्धं सद्धम्मज्ञाणमिणं ॥१६५ ॥ फासिदिएण दुट्ठो, नवो सोमालियामहीपालो। एयस्स पभावेणं, पालिज्जंतस्स सइपय नेणं । एकिकेण विनिया,किं पुण जे पंचसु पसत्ता ॥१४६॥ जम्मंतरे वि जीवा, पावंति व दुक्खदोगचं ॥ १६६ ॥ विसयाविक्खो निवडाइ, निरविक्खो तरइ दुत्तरभवोई । चिंतामणी अउव्यो, एयमउन्बो य कप्परुक्ख त्ति । देवीदीवसमागय-भाउअगा दुन्नि दिलुता ॥ १४७॥ एसो परमो मंतो, एयं परमामयं अत्थ ॥ १६७ ।। । छलिया अवयक्खंता, निरावयक्खा गया अविग्घेणं । अहमणिमंदिरसुंदर-फुरंतजिणगुणनिरंजणुओयो।' तम्हा पवयण सारे, निरावयखेण होयव्वं ॥ १४८॥ पंचनमुक्कामसमे, पाणे पणो विसजेइ ॥ १३८ ॥ विसए अवयक्खंता, पडंति संसारसायरे घोरे । परिणामविसुद्धीए, सोहम्मे सुरवरी महिड्डीए । विसएसु निराविक्खा, तरंति संसारकतारं ॥ १४६ ॥ बाराहिऊण जायइ, भत्तपरिमं जहां सो ॥१६॥ ता धीर ! घिडवलेणं, दुईते दमसु इंदियगइंदे । उक्कोसेण गिहत्थो, मच्चुयकप्पम्मि जायए अमरो। तेणुक्खयपडिवक्खो, हराहि पाराहणपडागं ।। १५० ॥ निब्याणमुहं पाबइ, साहू सबट्टसिद्धि वा ॥ १७ ॥ कोहाईण विवागं, नाऊण य तसि निग्गहेण गुणं ।। निग्गियह तेण सुपूरिस!,कसायकलियो पयतेण॥१५॥ इय जोईसरजिणवी-रभद्द भणियाणुसारिणीमिणमो । जे भइतिक्खं दुक्खं, जं च सुई उत्तिमं तिलोईए। भत्तपरिमं धना, पढ़ति भावंति सेवंति ॥ १७ ॥ तं जाण कसायाणं, वुडिक्खयहे उयं सव्वं ।। १५२ ।। सत्तरिसयं जिणाणं, व गाहाण समयक्खित्तपमत्तं । कोहेण नंदमाई, निहया माणेण फरसरामाई। भाराहतो विहिणा,सासयसोक्खं लहइ मोक्खं ॥१७२॥ मायाए पंडरज्जा, लोहेणं लोहणंदाई ॥ १५३ ॥ इति श्री भत्तपरित्रा सम्मत्ता ।। इय उपसामयपा-गरण पहाइयम्मि चित्तम्मि । भत्तपाणपडियाइक्खिय-भक्तपानप्रत्याख्यात-पुं० । भक्तं व जाभो सुनिव्वुश्रो सो, पाऊण व पाणियं तितिओ १५४ पानं च भक्तपाने प्रत्याख्यायेते येन स तथा 1 तान्तस्य परइच्छामो अणुसहि, भंते ! भवपंकतरणदढलटिं। निपातः, सुखाऽऽदिदर्शनात् । भक्तप्रत्याख्यानवति, व्य०१ जंजह उत्तं तं तह,करेमि विणयाऽणओ भणइ ॥१५५॥ उ०म० । वृ० । अनशनिनि, कल्प० ३ अधि०२क्षण। जइ कह वि सुहकम्मो-दएण देहम्मि संभवे वियणा। भत्तपाणपडियाइक्खियं निग्गथिं निग्गथे गिरोहमाणे महवा तयहाईया, परीसहा से उदीरिजा ।। १५६ ॥ नाइक्कमइ ॥ १२ ॥ निर्बु महरं पन्हा-याणिज हिययंगमं प्रण लियं च । अस्य संबन्धमाहतो सेहावयचो, सो खवो पामतेण ॥१५७ ॥ पच्छित्तं इत्तरिमो, होइ तबो वलियो य जो एस । संभरसु सुयण! जे तं, मज्झम्मि चउनिहस्स संघस्स । प्रावकथितो पूण तवो, होति परिमा अणसणं तु ॥२०४॥ "भाउभजुयलं च मणियं च " इति पाठान्तरम्। प्रायश्चित्तरूपं यदेतत् तपोऽनन्तरसूत्रे वर्णितमेतत्तपरत्वरे Page #1388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्तपायपडियाक्खिय भवति यत्पुनः परिकरूपं तपोऽनशनं तत् यावर कधिकम्। तत इत्यतःप्रतिपादनन्तरं यावत्कचिकताप्रतिपादनार्थम धिकृतसूत्रम् । अनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्य (१२ सूत्रस्य ) व्याख्या प्राग्वत्, नवरं भक्तपाने प्रत्याख्यायेते यया सा तथो. का, कान्तस्य परनिपातः सुखाऽऽदिदर्शनात् । ' श्रत्रभाष्यम् श्रवा हेउवा, समणीयं विरहिते कहेमाणे । मुच्छाएऽतिपडिजा, कप्पति गहणं परिमाए || २०५ || श्रमणीनामन्यालां साध्वीनां विरहिते अशिवाऽऽदिभिः का रखैरभावे एकाकिन्या आर्थिकाया भक्तपानप्रत्याख्याताया अर्थ वा हेतुं वा कथयतो निर्ब्रन्थस्य यदि सा मूर्च्छया तिपतेत् ततोऽतिपतितायास्तस्याः ( परिक्षापति ) परिशायामनशने सति कल्पते ग्रहणम् उपलक्षणत्वादवल स्वनं वा कर्तुम् । ( १३६५ ) अभिधानराजेन् • नत्ति सार्थकानर्थकभेदभिश्रो बन्धवत् या नपरं सापेक्ष रोगचिकित्सा स्वात् अपराधकारिणि च वाचैव वदेदय ते भोजनाऽऽदि न दास्यते, शान्तिनिमित्तं चोपवासाऽऽदि कारयेत् । ध० २ अधि० । .. भतपारा संकिलेस भक्तपानसं फ्रेश पुं० [मपानाऽऽचितः । संक्लेशो भक्तपानसंक्लेशः । संक्लेशभेदे, स्था० १० ठा० । भत्तव्वभरण- भर्त्तव्यभरण - न० । भर्त्तव्यानां भते योग्यानां मातृपितृगृहिण्यपत्यसमा बितल जनलोकतथाविधभृत्यप्रभूतीनां मरणं पोषणम्। भर्त्तव्यानां मातृपित्रादीनां पोष तत्र श्री यानि मातापितरी ती भायो - लब्धवलानि चापत्यानि । यत उक्तम् - "वृद्धौ च मातापि तरौ, सतीं भाय्य सुतान् शिशून् । अध्यकर्मशतं कृत्वा, भय्या मनुरवीत् ॥ १०१० भत्तत्रेयण - भक्तवेतन - न० । भक्रूं भोजनलक्षणं बेतनं मूल्यं भक्तवेतनम् । भोजनलक्षणे मूल्ये, उपा० ७ अ 39 भत्ता मर्तृ-पुं० [पोषणकर्त्तरि, "पई मता ।। । । पाइ०ना० - 1 इदमेव व्याचष्टे गीतत्थी असती, सन्वाऽसतिए व कारणे परिष्ठा । पाणगभलसमाधी, करया मालवधीरव || २०६ ॥ गीतानामािणामसत्यभावे दिवा-अशियाका रणतः सर्वासामपि साध्वीनामभावे, एकाकिन्या जाताया परिक्षा-भक्तप्रत्यास्थानं कृतम् । ततस्तस्याः कृतभक्तपान- 1 क्यानायाः सीदन्त्या योग्यपानक प्रदानेन चरमेप्सितुभक्त प्रदानेन च समाधिरुत्पादनीयः, कथनीयम् यथाशक्ति स्वशरीरमनावाचा कश्यम् तथा खोचलो. हाचि कथमपि चिरजीवितेन भयमुत्पद्यते यथा नाथापि पिते, किमपि भविष्यतीति न जानीम इति तस्या धीरापना कर्त्तव्या । जति वाण शिव्वज्जा, असमाही वा वि तम्मि गच्छम्मि करणिअं णत्थ वि, ववहारो पच्छ सुद्धो वा ॥२०७॥ यदि वा प्रमुखादनीयोदयतया कृतमपानप्रत्याक्याना सा न निर्वहेत यावत्कथिकमनशनं प्रतिपालयितुं क्षमा इति यावत् असमाधिर्वा तस्मिन् गच्छे तस्या वर्त्तते ततोऽन्यत्र नीत्वा यदुचितं तत्तस्याः करणीयमित्यर्थः यावदनशनप्रत्याक्यानभङ्गविषयस्तथा व्यवहारः प्रायश्चित्तं दातव्यम् । अथ स्वगच्छा ऽसमाधिमात्रेणाम्यत्र गता ततः सा मिथ्यादुष्कृतप्रदानमात्रेण शुद्धेति । वृ०६ उ० । व्य । प्रब० । भत्तपाणपत्थयण - भक्तपानपश्यदन न० भक्तपानरूपं यस्पध्यदनं तथा । भक्तशनरूपे शंबले, भ० १५ श० । पायविभक्तपानव्युत्सर्ग-पुं० समे , | .. औ० भत्तपाणवेच्छेय. भक्तपानव्यवच्छेद पुं० । भक्तमशनमोदनादि. पाने पेपमुकाऽऽदि यो निषेधोऽप्रदान भक्तपानव्यवच्छेदः । अपवादाने लायके स्थूलप्राणातिपातविरमणस्य प्रथमाऽणुव्रतस्य प्रथमेऽतिचारे, उपा० १ श्र० । श्रा० । पञ्चा० । ध० श्रावण भक्तपानव्यवच्छेदो न कस्यापि कर्तव्ययते स्वमोबा तुरितादीन् बिना नियमत एवाभ्याम् चितान् मोत् स्वयं मुखीत भलपानमिवेोऽपि ३४२ २५३ गाथा | भति - भक्ति स्त्री० । भज क्रिन् । सेवायाम् भक्तिर्विनयः सेवे. ति । पो० ६ विव० | भक्तिरभिमुखगमनाऽऽसनप्रदान पर्युपास्त्य जलबन्धानुवजनादिलक्षणेति । प्रब०१४८ द्वार। " अब्भुट्टा डायासवप्पा मगद्दणादीहि लेया जा सा भती भवइ ।" नि०चू० १३० । आराधनायाम्, वाच० उचि प्रतिपच्या विजयकरणे आ०म० अ० विनया दिरूपा प्रतिपत्तिर्भक्तिरिति । ध०२ अधि० । यथोचितबाह्यप्रतिपत्तौ श्र० म० १ ० ० ० भक्तिरुवितोपचार इति । दश० अ० १३० । अभ्युत्थानाऽऽदिरूपे बहुमाने, उस० पाई० १ अ० । सूत्र० । पाई० १ ० सू० " भती आयरकरणं, जहोचियं सिरसा।" संथा अनुरागे ०१०करचादिप्रणिधाने आय० २ ० दर्श० । भविष्यं विचारामृत संग्रहे "साविकी राजसी भक्ति स्तामसीति त्रिधाऽथवा । जन्तोभिप्राय विशेषादो भवेत् ॥ १ ॥ परिक्षानेकपूर्वकम् । अमुता मनोरङ्गमुपसर्गे ऽपि भूपति ॥ २ ॥ असम्बन्धि कार्यार्थ समपिदिना । मध्याङ्गना महोत्साहा पिते या निरन्तरम् ॥ ३ ॥ मःि शक्त्यनुसारेण निःस्पृहातिना । सा सात्विकी भवेद्भक्ति-लोकद्वय फतावद्दा ॥ ४ ॥ " 1 " त्रिनिर्विशेषकम् - रैडिकफलप्राप्तिहेतवे । लोकरञ्जन वृष्यर्थ, राजसी भक्तिरुच्यते ॥ ५ ॥ पिकारभिदे या कृतमरसरम् । हृदाशयं विधीयेत, सा भक्तिस्तामसी भवेत् ॥ ६ ॥ रजस्तमोमयी भक्ति, सुप्रापा सर्वदेहिनाम्। दुर्लभाक्ति, शिवायधिसुखावदा ॥ ७ ॥ उत्तमा सात्विकी भक्ति मध्यमा राजसी पुनः | तामसी ०२चि० Page #1389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६६) नत्ति अभिधानराजेन्दः। भद्द भत्तीइ जिणवराणं, खिजंती पुन्बसंचिया कम्मा। भत्तोस-भक्तोष-न। भक्तं च तद् भोजनमोषं च-तदाम्लं भ.. आयरिअनमुक्कारेण विज मंता यसिज्झति॥१०६७। लौषम्। रूढितः परिभृष्टचणकगोधूमाऽऽदिके,पश्चा०५ विष०। 'भक्त्या ' अन्तःकरणप्रणिधानलक्षणया - जिनवगणां' | सुखाऽऽदिकायां च । भक्तोषं सुखभक्षिका भक्षयतीति । तीर्थकराणां सम्बन्धिन्या हेतुभूतया, किं , 'क्षीयन्ते' | अयं च जिनगृहान्तर्भवपाशातनाभेद इति। ध०२ अधिः । क्षयं प्रतिपद्यन्ते 'पूर्वसश्चितानि 'अनेकभवोपाप्तानिक भत्थ-भत्र-न। शरीरे, श्राव०५०। माणि'ज्ञानाऽऽवरणादीनि इत्थं स्वभावत्वादेव तद्भक्तरिति । भदत्त-भदत्त-पुं० । स्वनामख्याते योगिभेदे , भगवत्पतञ्ज. अस्मिन्नेवार्ये दृष्टान्तमाह। तथाहि-प्राचार्यनमस्कारेण विद्या लिभदत्तभास्कराऽऽदीनां योगिनाम् । द्वा० २०द्वा०। मन्त्राश्च सिद्धयन्ति, तद्भक्तिमतःसत्वस्य शुभपरिणामत्वात्त. सिद्धिप्रतिबन्धककर्मक्षयादिति भावनीयम् । इति गाथाऽर्थः भह-भद्र-न० । भदि-रक नलोपः । “देरो न वा" ॥ ८॥ २।८०॥ इति प्राकृतसूत्रेण रस्य वा लुक । प्रा० २ पाद । अतःसाध्वी तद्भक्ति, वस्तुतोऽभिलषितार्थप्रसाधकत्वा. कल्याणे, नं० दशा० श्रामलके, देना० ६ वर्ग १०० गा. था। कल्याणे, "भई सिवं।" पाइन्ना० २३६ गाथा । द, आरोग्यबोधिलाभाऽऽदेरपि तनिर्वय॑त्वात् । सुखे, विश०। 'भदि' कल्याणे सुखे चेति वचनात् । विशे०। तथा चाऽऽह मोक्षप्राप्ती, स्था० १० ठा० । “भई सयजगुज्जोय गस्स भत्तीइ जिणवराणं, परमाए खीणपिजदोसाणं । भई जिणस्स वीरस्स । भई सुरासुरनमं-सियस्स भई श्रारूगबोहिलाभ, समाहिमरणं च पावति ॥ १०७८ | धुयरयस्स ॥ ३॥" नं० । ति० । माले, मुस्तके, भक्त्या जिनवराणां किंविशिष्टया ?.' परमया 'प्रधानया स्वर्णे, वाच० । " स्वनामख्याते विमाने, स. १६ भावभक्त्येत्यर्थः । क्षीणप्रेमद्वेषणां' जिनानां, किम् ? , सम० । मूठ इति प्रसिद्ध शरासननामके मालवस्तुनि, आरोग्यबोधिलाभं समाधिमरणं च प्राप्नुवन्ति, प्राणिन इ. शा०१ श्रु०१०। औ० । “अट्ठ भहाई।" भ० ११ श० ति । इयमत्र भावना-जिनभक्त्या कर्मक्षयः, ततः सकलक. ११ उ. । भद्रासने च । पाम १० । स्वनामख्याते ल्याणावाप्तिरिति । अत्र समाधिमरणं च प्राप्नुवन्तीत्येत. तृतीये बलदेवे, स०। श्राव० भारते बर्षे अागामिन्यामुत्सदारोग्यबोधिलाभस्य हेतुत्वेन द्रष्टव्यं, समाधिमरणप्राप्तौ पिण्यां भवे स्वनामख्याते भविष्यति बलदेवे, साति० वा. नियमत एव तत्प्राप्तिः। इति गाथाऽर्थः ॥१६॥श्राव०२० राणसीनगरस्थाऽऽम्रशालवनचैत्यस्थे स्वनामख्याते सार्थतदेकाग्रचित्तवृत्तिभेदे , विभागे , गौरयां वृत्तौ, उपचारे, वाहे, (तद्वक्तव्यता 'बहुपुत्तिया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १२६६ अवयवे, भड्ग्याम् , वाच । विच्छित्ती, विशे० । चं० पृष्ठे गता) निरयावलिकोपाङ्गद्वितीयवर्गस्य कल्पावतंसप्र० । शा० । रा०। औ०। प्रा० म०। जी० । भ०। सू०प्र० । कानां दशानामध्ययनानां तृतीयाध्ययनप्रतिबद्धवक्तव्यताके प्रकारे, "णिप्फत्ती चेव सव्वभत्तीणं।" स्था०९ ठा० । स्वनामख्याते राजदारके, तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धे तृतीयेऽध्ययने रचनायां च । कल्प०१ अधि०३ क्षण । वाच। च । तद्वक्तव्यता महापद्मवत् । नि०१७०३ वर्ग १ अ० । भत्ति (न्)-भक्तिन्-त्रि० । भक्तं भोजनमस्यास्ति । भोजनव. ( सा च 'महापउम' शब्दे) मानुषोत्तरपर्वतस्थे स्वनामति, स्था० ३ ठा०३ उ०। ख्याते नागसुवणे, द्वी०। तुरिमिणीपुरस्थे स्वनामख्याते दि. जे, प्रा०क. १०। (तत्कथा ' सम्मावाय' शब्दे वक्ष्यते) भत्तिअणुट्ठाण-भक्त्यनुष्ठान-न० । " गौरवविशेषयोगाद् , भद्दिल पुरस्थे स्वनामन्याते श्रेष्ठिनि, ध०२०। (भद्रश्रेष्ठिबुद्धिमतो ग्रद्विशुद्धतरयोगम् । कृपयेतरतुल्यमपि , शेयं तद् कथा-'उजुववहार' शब्दे द्वितीयभागे ७४० पृष्ठे गता।) भक्त्यनुष्ठानम् ॥४॥" इत्युक्तलक्षणे अनुष्ठानभेदे, पो०१० कस्मिश्चिन्नगरस्थिते स्वनामख्याते श्रेष्ठिपुत्रे, तं० । स्वनाम. विव०। पञ्चा०। अष्ट। ख्याते |वेयकविमानप्रस्तटानां प्रथमे प्रस्तटे, स्था० ६ ठा। भत्तिचित्त-भक्तिचित्र-त्रि० । भक्कयो चिच्छित्तिविशेषाः, ता. पञ्चशतसाधुपरिवृते स्वनामख्याते आचार्य, "इहेव भाभिश्चित्रो भक्तिचित्रः । विच्छित्तिभिरनेकरूपवति , श्राश्च. रहे वासे भद्दा नाम पायरिश्रा।" महा०६०। कालियवति च । सू०प्र०१८ पाहु० । च०प्र० । शा० । रा०। काऽऽचार्यस्थ शिष्ये स्वनामख्याते गौतमगोत्रोत्पन्ने आचा. स० । जी० भ०। ये, "गोयमगुत्तकुमारं.संपलियं तह य भद्दयं वंदे ।" कल्प. भत्तिचेइय-भक्तिवैत्य-न। भक्त्या क्रियमाणे जिनायाऽऽतने, २अधि०८ क्षण। प्राचार्यशिवभूने शिष्ये काश्यपगोत्रोत्पने जीत । नित्यपूजार्थं गृहे कारिताऽईत्पतिमा चैत्यमिति । स्वनामख्याते आचार्ये, “थेरस्स णं अज्जसिबभूइस्स कुच्छ. ध०२ अधि। सगोत्तस्स प्रजभद्दे थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते" । कल्प. भत्तिणय-भक्तिनत-त्रि०। बहुमाननने, पञ्चा० विव०।। २ अधि० ८ क्षण । " भई बंदामि कासवं गुत्तं । " कल्प० २ अधि० ८ क्षण । श्रावस्तीवास्तव्ये जितभत्तिमंत-भक्तिमत्-त्रि०। बहुमानवति, " अविरहियं भत्ति शत्रुनृपतेः पुत्रे स्वनामख्याते राजकुमारे , उत्त०पाई.५ मंतेहिं । " पञ्चा०६विव० । स्था ।प्रा०। प्र० । ( तवक्तव्यता 'तणफासपरीसह' शब्दे चतुर्थभत्तिराग-भनिराग-पुं०। भक्तिपूर्वकेऽनुरागे, " अप्पेगइया भागे २१७७ पृष्ठे गता) धीरत्वाऽऽदिगुणयुक्ने हस्तिविशेषे, जिणभत्तिरागण ।" रा०। | स्था०४ ठा०२ उ० । (भद्रलक्षणम् 'पुरिसजाय ' शब्देऽ. Page #1390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरदि (ण) नद स्य नृपस्य सुते स्थनामख्याते कुमारे, ध० र० । मनन्दिकुमारचा - " स्मिन्नेव मागे १०२०-१०२१ पृष्ठे गतम्) धीरत्वाऽऽदिगुणयुक्ते भद्दणंद ( ग् ) - भद्रनन्दिन् - पुं० । अभयपुरस्थस्य धनावद्दपुरुषभेदे, स्था० ४ ठा० २ उ० । महादेवे, वृषे, खञ्जने, कदम्बे, बलदेवे, रामचन्द्र सुवृ । पुं० [बाब० । प्रज्ञा० १७ पद ४ उ० । भाति शोभते स्वगुणैर्ददाति च प्रेरयितुश्चिसनिवृत्तिमिति भद्रः उत्तपाई० १ ५० । । भाति भन्दते वा भद्रः । कल्याणाऽऽबहे, उत्तपाई० १ श्र० । कल्याणकारिणि ज्ञा० १ ० १ श्र० | कल्याणयुक्ते श्रा० क० १ ० । प्रशस्ते, स्था० ४ ठा० २३० । जी० । अनुस्कट रागद्वेषे व्य० १ उ० । सुशिक्षिते, " इयं भदं च वाइये ।" उत्त० १ ० । सुन्दरे, पं०भा० १ कल्प । साधौ श्रेष्ठे च । त्रि० । वाच० । भाद्र पुं०मा 9 ( १३६७ ) अभिधानराजेन्द्रः । " पीणमासी भाद्री, सा परिमन् मासे भाद्रः । अण् । चैत्राऽऽदितः षष्ठे चान्द्रे मासे, वाच० । भद्दग - भद्रक - त्रि० । भद्र कन् । सरले, कल्प० १ अधि०५ क्ष ण। विनीते, विशे० । मनोशे, शा० १४० १५. अ० । मनोऽनुकू लवृत्तिके, झा० १०१ श्र० । परानुपतापिनि, स्था० ४ ठा ४०० निरुपमकल्याणमूर्ति के " प्रकृ त्या भद्रकः शान्तः ।" द्वा० २१ द्वा० । दश० | कल्याणभागि नि०२० जी० शाभनमनुष्यमै सम्पदुपेते सद्धर्म्मप्रतिपत्तरि, सूत्र० २ ० २ प्र० । श्रावक भे वे, "अभूदपारे कान्तारे म्लेच्छ एको हिमकः " ० क० १ अ० । 'भहगसद्धे य अवियत्ते । " भद्रकः श्राद्धकः प्रसिद्धः । श्रघ० । " भद्दगवयणे गमणं । इमं भगवयं जं तुम्हे संदिह तं मे सध्यं पडिपावे स्पति " नि०० १६ उ० कालिकाचार्यस्य शिष्ये । स्वनामख्याते गौतम गोत्रोत्पने श्राचाय्यें, गोयमगु सकुमारं संपलियंस दे कल्प० २ 66 - 1 ध क्षण | मुस्ते, न० | देवदारुणि, पुं० । वाच० । मानि शोभते स्वमुचैर्ददाति च प्रेरयितुश्चित्तनिवृत्तिमिति भद्रः, स एव भवकः । अश्वभेदे, उस०पाई० १ श्र० । भद्दगुच भद्रगुप्त पुं अविनीनगरस्ये स्वनामस्या चाटुर्ये, आ०म० १ अ० । प्रा० चू० "वृद्धावासे सत्यवत्यां श्रीभद्रगुप्तसूरयः । " प्रा०क० १ अ० । मद्दगुत्ता तु नामे, सूरिणो जगउत्तमा । ठिया उ थेरवासेणं, जंघा - बलविवज्जिया ॥१॥" दर्श०५ तव । ब्रह्मद्वीपिकायां शाखायां भवे युगप्रधान दशपूर्विणि स्वनामख्याते श्राचार्ये च । कल्प०२ अधि०८ क्षण । " वंदामि श्रज्जधम्मं तत्तो वंदे य भद्दगुत्तं च । " नं० । 66 भद्दगुत्तिय भद्रगुप्तिक - न० । भद्रयशसः स्यविरान्निर्गतस्योरु• पाटिकगणस्य स्वनामख्याते कुलभेदे. कल्प०२ अधि०८ क्षण । भरजस भइपशस् पुं० [पार्श्वजिनस्य स्वनामघरे, स्था० ८ ठा० । श्रार्यसुहस्तिनः शिष्ये भारद्वाजगो aless स्वनामख्याते श्राचार्ये, कल्प० २ अधि० ८ क्षए । भद्दजसिय-भद्रयशस्क- न० भद्रयशसः स्थावरान्निर्गतस्योरु पाटिकगणस्य स्वनामख्याते कुलभेदे, कल्प०२ अधि०८ क्षण । मदन- भद्रजिन पुं० [भारतवर्षनाविनि भद्रतापनामधेये स्वनामख्याते जिने, प्र० ७ द्वार । 66 "सुरस करिसमं समत्रिं ईसादात धूमकरंडे ति उज्जाणं ॥ १० तथाऽसी नामजपखरस । संनिदियपारि सहयं ॥ २ ॥ तं नरं परिपाल, मालइकुसुमं व मालिश्रो अहियं । लहुयकरो पवरगुणो, धणावहो नाम नरनाहो ॥ ३ ॥ सहसंतेडरवारा, अवलियालीस परमारा तस्याऽसि सुंदर-सरस्वई सरसई भजा ॥॥७॥ सानिका परिवर्तन परिबुद्धा नरसमीपमुपगम्म सम्म सुमियं ॥ ५ ॥ घरी तु पुसो, होही भनिए निवेश सा एवं होउ ति भणिय रहभव-मुवगया गमइ निसिसेसं ॥ ६ ॥ गोसेतोपा सीदास रामासी, सहायह सुमिणसत्यपि ॥ ७ ॥ 3 वितो लड़ रहाया, कयकोउयमंगला समागम्म । बाबिन जणं, विजय नियं सुनिसका ॥ ८ ॥ मद्दासम्म परे, देवरियं । राया पुप्फफलकरो, तं सुमिणं श्रक्खए तेसिं ॥ ६ ॥ सत्या दिवारे निधपुर से कहंति ज सत्थे पायासी भूमिणा तीता मासुमा १० ॥ चउदस गवार नियंति समिि मोगली ॥ ११ ॥ देवीए जं दिट्टो. सुमिणे पंचाणणो तो पुन्तो । समयम्मि रजसामी, राया होही मुखी अदवा ॥ १२ ॥ उपललाई दाससु देवी परपु-प्रोहला बहर तं गमे ॥ १३ ॥ समय सब पुतं, कति दिनमा पुग्वदिया। बद्धावण्यं राया. काराव गुरुचिभूईप ॥ १४ ॥ महक मंदिरी, ति से कथं नाम मदनंदिति । पणधाईसंगहिश्रो, वह गिरिगयतरुव्व कमा ॥ १५ ॥ सो समाकुललो कूलपरियो । पत्तो तारुन्नमरणु नपुन्नलायन्ननीरनिहिं ॥ १६ ॥ पासायास पंच उ, कारिय परिणाविश्र इमो पिउणा । लिरिदेवीपमुद्दाओ, पंचसयनरिंदधूयाश्रो ॥ १७ ॥ ताहि समं स विसर विसायविसंवेगविरहि संतो भुंज देषी दो- देवालय दिव्ये ॥ १५ ॥ घूमकरंडा, तत्यन्नदिये समोसढो बीरो। बानिदो पडसिरिसेल गंतुं ॥ १८ ॥ सहदुवालललक्खे, पीईदाणं दलितु तस्स नियो । वीर कामी निमाच्टर कृषि व तो ॥ २० ॥ कुमरो विभनंदी मंदी सीलपरिवारो । पवरं रद्दमारुढो पत्तो सिरिवीरनमणत्थं ॥ २१ ॥ कुमरस्य पीसो राईसरा वि बलिया कलिया परियो । २२ ।। जयंति धम्मं कडे सामी दि Page #1391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६८ ) अभिधानराजेन्द्रः । भददि (ए) जद्द वज्यंति जिया इह, कम्मेद्दि जहा व मुच्वंति ॥ २३ ॥ यसो उ भद्दनंदी, नंदियहियो गहिन्तु जिनपासे । सम्मत्तमूलमणई, गिपि समिती ॥ २४ ॥ अपुच्छ सिरियाधम- सामी सामि महावी पहु ! एस भद्दनंदी, कुमरो श्रमरो इव सुरूवो ॥ २५ ॥ सोमु य सोममुखी, सोग्यनिधी व सनजो सापि विवेसे सम्मओ के कम्मे ॥ २५ ॥ जंपर जिणो विदेहे. आसी पुंडरीगिणीइ नयरीए । जिओ नाम कुमारी, सर्जकुमारो इध सुरूवी ॥ २७ ॥ सो कविसमय गुरुहरूपसोहं । जुगबाहुजियामाई मिलाकर नियतं ॥ २८ ॥ तो झत्ति चलचित्ताऽऽसो गयो समुहं सगटुपए । तिपयाहिसं करिता, बंद तं भूमिमिलियसिरो ॥ २६ ॥ भण्य सामिय ! आहा-रगहणओ मह करेसु सुपसायं । दव्वाइस उवउत्तो, जिणो वि पाणी पसारे ॥ ३० ॥ असी विजयकुमारी हरिहुलमंचो विष्कार ॥ ३१ ॥ आहारण परे पडिलाइ परममति। saroj अप्पा, मनतो मणवइतरहिं ॥ ३२ ॥ पितं तिथि दाई लाई पडिला पासफलमे २३ ॥ पुनारबंध पुनं, उत्तमभोगा य सुलह बोद्दित्तं । मा. को परिसोय संसारो ॥ ३४ ॥ पाउम्भूषा पंचवाई। २५ ॥ पहाडदूडीओ मुक्का हिरनबुडी, बुट्ठी कुसुमाण पंचवन्नाणं । गग अदद ३६ ॥ रायप्पमुद्दो लोओ, मिलिश्रो बहुश्रा य तत्थ तेणावि । सो विजश्रो विजियमणो, पसंसिश्री हरिसियमयेण ॥ ३७ ॥ भुतूण बहुं कालं विजओ भोष समाहिणा मरिउं ॥ लोयपियाइगुणजुओ, जाओ सो भद्दनंदिति ॥ ३८ ॥ दरमुद किसी गिरिदी सम भद्द जियो मिस्सिर समयस्मि समादिश्रो सम्म||३६|| विवर अन्नत्थ पहू, कुमरो वि हु कुणइ सवयं भ्रम्मं । ऋणुकूलविणीयसुध - म्म सीलपरिवारपरियरिश्रो ॥ ४० ॥ श्रह श्रन्नया कयाई, अद्भुमिमाईसु पञ्चदियहेतु | ं पोसहसा पासधारभूमी ॥ ४१ ॥ पडिले हिउं पमज्जिय, रहउं संधारयं च दग्भस्त । तम्मि दुरुढो अट्टम भत्तजयं पोसहं कुरु ॥ ४२ ॥ कुमरो जित अमभपरिणमंत्रि पुस्वारकाले चितिमेवं समादणे ॥ ४३ ॥ धन्ना ते गामपुरा, धन्ना ते खेडकब्बडमडंबा । मिच्छ्ततिमिरसुरो, पीरजियो विहर जन्य ॥ ४४ ॥ नेशिया, रामाणो रायपुमाईया 1 वीर जिणदेसणं निसु णिऊण गिराहति जे चरणं ॥ ४५ ॥ इत्थं पि जइ समिज्जा, वीरो तेल्लुक्कबंधवो अज्ज । सोय पदस्य संजनं रमे ॥ ४६ ॥ तस्स भत्थं नाउं गोले वीरो समोसढो तत्थ । यो दिदि हुनत्थं नियो पत्ती ॥ ४७ ॥ भइदि (णू) नमिष उपविट्ठा, उचिषा नदिमरवरा तो नवजलहर गज्जिय-गहिरसरो भगइ इय सामी ॥ ४८ भव्वा ! भवारहट्टे, कम्मजलं गद्दिय अविरहधडीहिं । चदुद्दविवलि, मा सिंचह जीवमंडवर ॥ ४६ ॥ तं विष निवती, सगिहे कुमरो उप पज्जं गिरिहस्तं पियरो पुच्छिय परं सामि ! ॥ ५० ॥ मा पडिबंधं कुण, ति सामिया सो पर्यदिश्रो तसो । पत्तो पिऊण पाले, नमिऊण कयंजली भ६ ॥ ५१ ॥ वीरसगाले रम्मो, धम्मो अज्जब ! ताय ! निसुओ मे । सद्दहिय, पत्तिनो रो-इनो य सो इलिनो य मए ॥ ५२ ॥ विडिया भवंति तं बच्छ धनकयी। ! पपिए जंपर कुमरो ॥ ५३ ।। तुम्मे । सोम देवी गया मुं ॥ ५७॥ पणीकया च कलुणं, विलवंती भगइ दीणवयणमिणं । जाय ! तुमं मद्द जाओ, बहुओ वाइयसहस्सेहिं ॥ ५५ ॥ ताकद मणाई. पुराय मुकुं गद्देसि साम ! सोयभर भरियद्दियया-६ वचिही मज्झ जीयं पि ॥ ५६ ॥ तथा जाता। पच्छा कालगहिं, अम्देहिं तुमं गद्दिज्ज वयं ॥ ५७ ॥ कुमारःसससमभिभ्रूण, बिजुलपावले सुमिसरिले । मणुयाण जीविए मरणमग्गया पत्थश्रो वा वि ॥ ५८ ॥ को जागइ कस्ल कहं, दोही बोही सुदुलहो एस ? । ता धरिय धीरिमार, अंब ! तपऽहं विमुक्त्तन्वो ॥ ५६ ॥ पितरी जाया तु गमियं नियममिव सोहि । 1 तस्सिरिमऊ, बूदवशी राय पव्यय ६० ॥ कुमारःविविदा 55दिवाहिनेपदे निवडणथम्थमस्सं पियामि ॥ ६१ ॥ हु पितरीसुकुलुग्गयाउ लाघ- नसलिलसरियाज तुज्झ दइयाओ । सामाि कुमारः विसायसमे विस दुपखतरुवीयभूष को सेवा बचे ६३ पितरीपुरिसपरंपरप, वितमिद दाडं भुत्सु पकामं, पच्छा पडिवज पव्वजं ॥ ६४ ॥ कुमारः जलजलणपमुसादा राजनिरिंग ! ममं वित्तम्मिन को इ इत्थ पडिबंधमुग्वद्दर ॥ ६५ ॥ पितरौ विवरणं दुकरं नहा पुरु! बयपालणं बिसेसा, तुद्द सरिसाणं श्रइसुहीणं ॥ ६६ ॥ कुमारः कोवा कायरा विसपतिविषा करें एवं । उज्जमधणाण धणियं सव्वं सभं तु पड़िहाइ ॥ ६७ ॥ Page #1392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३६६) नददि ( ण् ) अभिधानराजेन्डः। भद्दबाहु तमिच्छयमह मुषि, राया सिंचेह एगदेवसिए । आलोइय पडिकंतो, सोहम्मे सुरवरोजाओ ॥१२॥ संरले तह पभणार. संपातुहवच्छ ! कि देमो? ॥१८॥ भुत्तूण तत्थ भोप, तत्तो नाउक्खप ची संतो। भएर कुमारो दिजउ, रयहरणं पडिग्गइंच तो राया। होऊण उत्तमकुले, मणुप्रो पालित्तु गिहिधम्मं ॥३॥ लक्खदुगेणं दुन्नि वि, पाणावह कुत्तियावणी ॥६६॥ पव्वज काऊणं होही देवो सर्णकुमारम्मि । लक्खणं कासवगं. सदाविय भणड कुमर केसग्गे । एबंमे सुके प्राणयकप्पे यारणए ।। ६४॥ निक्खमणप्पामोग्गे, कप्पसु सो बिहुकरे तहा ॥ ७॥ तो सबढे एवं, चउससु भवेसु नरसुरेसु इमो । देवी पडेण गहिरो, न्हविउं तह उचिउंच सियवसणे। उत्तमभोए भोगं, महाविदेहे नरो होही ॥ १५॥ बंधियरयणसमुग, काउं ते ठवइ उस्सीसे ॥७॥ पव्वजं पडिवजिय, खबिडं कम्माइ केवली होउं । राया पुरणो वि कुमरं, कंचणकलसाइएहि रहविऊण । सो भवनंदि कुमरो, लहिही अवही विमुक्खमुहं ॥१६॥" बृहद सयमंगाई, गोसीसेणं विलिपेइ ।। ७२ ॥ "एवं सुपक्षं किल भद्रनन्दी, परिहावा पत्थजयं, कुमरमलं कुणा कप्परुषखु व्य । निर्विघ्नमाराध्य विशुद्धधर्मम् । कारह निवो विसिटुं, सीयं थंभसयसुनिविटुं ॥७३॥ स्वर्गाऽऽदिसौख्यं लभते स्म तस्मात् , सस्थाऽऽरुहिउ कुमारो, निवसर सीहासणम्मि पुध्वमुद्दो । भावस्य युक्तो गुण एष नित्यम् ॥ ७॥" वाहिणपास भद्दा-55सणम्मि कुमरस्स पुण जणणी ॥ ७४ ॥ (इति भद्रनन्दिकुमारोदाहरणं समाप्तम् ) घ००१ अधिक धिनु रयहरणाई, बामे पासे तहंऽबधाई से। १४ गुण। छतं धितुंएगा. घरतरुणी पिट्रो य ठिया । ७५ ।। भहतरपडिमा-भद्रतरपतिमा-स्त्री० । प्रतिमाभेदे, स्था० ५ चामरहत्थाउ दुबे, उभो पासे तहेष पुवाए । ठा.१०(तद्वक्तव्यता 'पडिमा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३३२ बीयणगकरा तहय-वहाएँ भिंगारवग्गकरा॥ ७६ ॥ पृष्ठे गता) समरूवजुब्वरणा, समसिंगाराण हरिसियमणाण । भ६पडिमा-भद्रपतिमा-स्त्री० । यस्यां पूर्वदक्षिणापरोत्तराभिउक्खिता मह सीया, रायसुयाणं सहस्सेण ॥७७॥ अह सुत्थिया संप-त्थियाई सेभट्टमंगलााँ पुरो। मुखा प्रत्येक प्रहरचतुष्यं कायोत्सर्ग करोति । एषा चासमलं कियाण हयगय-रहाण पत्तेयमट्ठसयं ।। ७८ ॥ होरात्रवयमानेत्युक्तलक्षणे प्रतिमाभेदे, औ० । कल्प० । बलिया बहषे प्रसिल-द्विकुंतधचिंधपमुहगाहातो। मा००। "केरिसिया भदा पडिमा?, भरण-पुटबाभिमु. रत्यत्थिया य बहवे, जयजयसई पउंजंता ॥ ७९ ॥ - हो दिवसं प्रत्था, पच्छा रत्ति वाहिणतो, ततो बीए भमग्गणजणस्स वितो, दाणं कप्पदुमु ब्व सो कुमरो। होरसे अवरेण, दिघसं उत्तरेण रसिं" yषस्यामेकम् , अपरदाहिणरत्येण तहा, अंजलिमाला पहिच्छतो ॥५०॥ स्यामेकम् , दक्षिणस्यामेक मुसरस्याम् , " परिमाभह" दासिज्जतो मग्गे, सो अंगुलिमालियासहस्सेहि। (४६६ गा०) प्रतिमा पूर्वे भगवता भद्रा कृता। (भा० म०) पिच्छिज्जतो व तहा, लोयणमालासहस्सेहिं ।१॥ ४६५ गा० टी० प्रा० म०१०। पस्थिजतो महियं, हियथसहस्सेहिं तय थुब्र्वतो। भदवई-भद्रवती-स्त्री०। प्रद्योतनृपपुत्र्या वासवदत्तायादास्या. बयणसहस्साह इमो, संपत्तो जा समोसरणं ॥ २॥ म् , प्राक० ४ अ० सीयानो उत्तरिउं, जिणपयमूलेऽभिगम्म भत्तीए । भवय-भाद्रपद-पुं०। चैत्राऽऽदितः षष्ठे मासे, उत्त० २६ अ. तिपयाहिणी करेउं, वंदा वीरं सपरिवारो॥२३॥ जं०स० अहिवंदिङ जिणि, भणति पियरो इमं जहेस सुभो। भवया-भद्रपदा-स्त्री० । भद्रस्य-वृषस्येव पदं यासाम् अहं पगोटो, भीओ जरजम्ममरणाणं ॥४॥ पूर्वोत्तरभाद्रपदासु, वाचा अनु। . तो तुम्हं पयमूले, निक्वमिङ एस इच्छा तो भे!। देमो सचित्तभिक्खं, पुज्जा पसिऊण गिरहंतु ।। ८५ ॥ दो य होति भद्दवया । स्था०२ ठा०३ उ० । भणा पर पतिबंध, मा कुव्वह तयणु भहनंदी वि। भदवाइ (न्)-भद्रवाजिन्-पुं० । शोभनाश्वे, "भवारणो गंतुं साणदिसिं, मुंचा सयमेवऽलंकारं ॥८६॥ दमए।" पं०व०१द्वार। लुंचा केसकलावं, पंचहि मुट्ठीहिऽतो तहिं देवी। मद्दबाहु-भद्रबाहु-पुं० । प्राचीनगोत्रोत्पने यशोमद्राचातंच पडिच्छह हंसग-पडेण अंसूणि मुंचती ॥८७॥ य॑शिष्ये स्वनामख्याते प्राचार्य, कल्प.१अधि०७ाण। भणय अस्सि अट्टे, जाज मा पुत्त! तं पमाइजा। नि०० भहबाहुं च पाईणं ।" नं० । कल्प०। (भद्रबाहुब. श्य बु सट्टाणे, पत्ता सा ग्रह कुमारो वि ॥८॥ क्लव्यता। 'थविरावली' शब्दे चतुर्थभागे २३६४ पृष्ठे गता) गंतुं भणइ जिणिदं, प्रालित्तपतित्तयम्मि लायम्मि । (वर्णकः 'पंचक्रप्प' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः) (पहीषकभयवं! जराइमरणे-ण देसु तन्नासणि दिक्वं ॥ ८ ॥ व्यता च 'कप्पववहार' शब्दे तृतीयभागे २३५ पृष्ठे उक्ता) तो दिक्मिऊण विहिया, जिणण एसो इमो समणुसिट्रो। भद्रबाहुचरित्रं यथासव्वं पिबच्छ! किरियं, जयणापुवं करिजाहि ॥ १०॥ अस्थि सिरिभरबरिट्टे सयलटुगरिटुमरहट्ठे धम्मियजणागि. "इच्छामु ति" भणंटने, थेराण समप्पियो इमो तेसि । अपुनपरिन्नपवणपाटाणं सिरिपइटाणं नाम नयरं । तत्य यपासे पाषचरणरो, गिराहाकारसंगाई॥ चउड्स बिज्जाठाणपारगो कम्ममम्मविऊ पईए भरणासुचिरं पालिनु पर्य, मासं संलहणं च काऊ। इनाम माहपो हुस्था तस्स परमपिम्मभरसरसी वाराहमि. Page #1393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७० ) अभिधानराजेन्द्रः । भडवाहू हिगे सहोयो । अन्नया तत्थ चउद्दसञ्चरण मद्देसरो यसवरहिणसमादमो सिरिमं जो यही उस ताक अहमहमिया एस नयी कवि संज्ञाययमो बाराहमिहिरेण सद्धि] भदवाहू सूरीणं बंदर गयो, सं दिय कमवि परमार्थदमुच्यतो समुखियभूभागे निवि हो तो दिया निजी देवा" संसारो दुक्खरूवो चउगईविपुलो जोणितक्खपहाणो, इथं जीवाण सुखं वणमपि परं विश्व नेव किंथि। तम्हा तच्छेयणत्थं जिणवरभणिए उज्जया होह धम्मे, ताई मुखीणं गुणगणक लिए सावयाणं च सारे ॥ १ ॥ " तं सुणिय बेरम्यतरंगरंगियो आागमेसिभद्दी पणडुमोहनिद्दामुद्दो भद्दवाहू सहोयरं वराहमिहिरं भएर बच्छाहं संजायभवविरागो पसि गुरूणं चरणमूले सव्वसंगपरिश्वायं करिय अणवज्जं पव्वज्जायरिस्तं भवया पुण घर सजेगा तो वराहमिहिरो प भाय जर तु संसारसारं तरिमिता कदम 1 भग्गपवद्द राजस्णुव्व तत्थ मज्जेमि । जश्री - " सकारसहिया. खीरी, दियाण जह वल्लदा द्रवद्द श्रहिया । ता किं सा इयरा 1 | वि, नराण न हु होइ श्रभिरुइया ॥ १ ॥ " एवं दिवखाभि सं जाणिऊण मा एसो भवावडे निवडउ त्ति भद्दवाहुणा अमनिओ । तो दो विभावरा गुरुपश्चक्खं सावज्जं पच स्वाति तम्रो मया गहियदुचिसियो कमेण गुरु वयणकमलाओं भमरु व्व मयरंदं चरइसपुव्व सुत्तत्थरहरुसं पाऊण दियो सुबिडियमची जाओ। इप सिरिज सभसूरीणं तस्स मां विजाठाणो असमाणचरिते अज्जसं भूविज नाम सीससे सि अम्मिदिये ि पयजुग्गा सुकेवलियो मुणिसंभूयविजयभद्दाहुनामगे मुराषिऊ सयं सरसो करिय सुरपुर सिरीए श्रवयंसभावमुबगया। तो ते ससिसूरु तिमिरं गोविथरेगा महिमंड पुढो पुढो विहरति । अद सो पराहमिहिरमुखी अप्पम बंदसुरपतियमुद्दे केसि गंधे मुनि अहंकारमट्टियों सूरियमहिलवंती ग्य ति गुरुद्दि नागबलेण नाऊण न गणहरपए ठाविओो इय सुब "बूढो गगदरसोगोनाईदि पीरपुरहिं । जो तं व अपत्ते जाएं तो सो महापावो ॥१॥" तो व राहमिहिर जिस परे सिरिया गणरे परमा अपी जाया । जो इमेहिं मह माणखंडणा कया अनो इत्थ ठाउं न जुज्जइ । भणियं च माणि पट्टा जइ न तणु, तो इंस डावइज । मा दुजणकर पल विधि, दंसिज्जंतु भमिज्ज ॥ १ ॥ " पाद अध्यायारूढो नि दोसावडे पाडिया का तिष्यका उ मगुणठाणेहिं तो मिच्छत्तगुणठाणे पडिओ, दुवाल सवरिसे प रिपालियचरितो बहतु जिएमुदं पुणरषि सहावसिद्धं माइण मग वराहमिहिरो । भणियं च - " प्रकृत्या शीतलं नी. र-मुष्णं तद्वह्रियोगतः । पुनः किं न भवेच्छीतं, स्वभाषो दुस्त्यजो यतः ॥ १॥" तभ चंदसूरपन्नत्तिपमुद्दाऽगमयेर्हितो कि पिकिपि र पहिऊन स्वनामेव 'चारादीसदिय सि' नामयं जोइससत्यं स्रवायत खपमाणं करेह । तं व सिद्धं - भद्दबाहु ताश्रो उद्धरियं ति पाएण सच्चं होइ, अश्रो लोपसु पसिद्धं तं जातं । श्रनं च अंगोवंगेद्दितो दव्वाश्रोगाओ मंततंताइं मुखपत्र व जयमदाई रंजर, मिडिय पुरोनियचरियमेवं पवेदुवालसरिये रमंडले ठिलो, भयवया वि भागुणा सगलगह मंडल मुदयत्थमणचक्कायारठिइजोगे विवागाइअं पेसिय मद्द दंसिसि अमहियले, तो मेकजाता किं परिमियं भासिन्जर ि 1 - " मणो धिजाइया वज्रपात सरिसं पितव्त्रयणं तद्देव पडिबतियाएसलाए, खंड बंधित मोयगमिमं ति । धुतेहिं भणिरेहिं, बाला लडु लोलविज्जति ॥ १ ॥ " तयणु भूदेवस्लेव तम्स वनमेवंकुता चिट्ठति जमेल वराहमिहिरो मोहनहगमणाऽइब रुवाई जाहि दितो मयेहि सह दुवाललासाई भमिऊण जोइससत्थं च काऊण महियलमोइन्नो चउदसबि जटापा जाओ यो कुर पाणपुरा हिराओ वि विषयसि तं पर, जो लो पूययगो न परमत्थविऊ, स काचखंडसमो वि इंदनीलमसिसि संगहिऊण रा स पुरोडियो नि यारसारा हवंति रायाणो, तं च रायपसायपत्तं मुणिऊण सिम्मा सिरियलम वणिठाणं वयणामपण सिंचतो पट्ठाण पुरवाहि रुज्जाणे समोसरी तत्यागयं सूरिसरमायनिय राया पोरपगिरायावितीय वराहमिहिरो समय शाम पग पुरिसेस बरामद देव! संप व तुम्ह घरे तो सु तं णिय सया इरिसिश्रो वद्धाविय नरस्त पारिभोसियं दाणं दाऊ पुरोदिवं बाहरे-सा तु स तुम् पुत्तो केरिसविज्जो कियप्यमाणाऊ अहं च पूयणिज्जो होडी. नवति संपद सम्बन्नुपुतो समसमिती सि रिमवारीता जयतु चो हुवे वियादिचूडामणिको विवारिक इस तो वराहमिहिरो सहावचवलमाइणजाइतणेण नियनाणुकरिसं च जाणावयंतो वागरेद्र-महाराय ! मए एयस्स जम्म काललग्गगहाइथं वियारिय एस सिसू वरिससयपमाणाऊ तुद्द पुतपुत्ताणं च पूइओ अट्ठारसविजाठाण पारगामी भविस्सर, एयम्मि समय जिएसमए निमित्तकहणं निसिद्धं पि मुणत नरिदाइलोयाओ जिणमयपभावणत्थं कसपाणं व रोगच्छेयक कीरंतं सुद्धमुबजाय ति विद्यारिऊण गीरथसिरोमणी सिरियामामुखी तस्सदार स दिपाश्री मरखमाइस तं पाप कोवेण पजलिरो वराहमिहिरो नरवई पत्र जंपइ-देव ! जइ एयं या वया होता हमे कोष पर्यो दंडो कायन्वो एवं बाहरऊण रोसारुणन यणो वराह मिहिरो रायसहिओ निषधर गओ तेण भक्ति मंदू सामंदि सरे गुरुडाचेाविओो चदिति च परवादि उम्म सुडा सस्था निषेसिया, भाई पुच भावणारामणीदिया रे देव निविनिषिद्धं कथापुढं संघहिमावा रक् तस्त्राणि दुषा Page #1394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७१ ) अभिधानराजे रूः । बाहु सेयं बरामद विशालसंचारं रक् संपले समे दिये पिडाला महाथूला दुवारग्गला सहसा बालगोवरि पंडिया तग्वारयदारगो मनो । धाई हाइ सि वोलो को जं णं एस ए रक्ती वेब उच्छृंगनिहिओ वि अग्गलेण वाखगो नि तं निवासरसं वयचं सुजिय पुरोहि श्री मुच्छा निमीलियच्छो घल त्ति धरणीतले पडिओ, सिसि पारो पुणरवि पसवेषणो उम्बाडिऊण कवाडसंपुढं सुम पासिक दिययं तो रोपयतो-" हा हा दुरंत दिव्य !, रोषिऊण सुरद्दुमं । समुम्मूलेसि किं पा. मत्तदति ब्व मे सुयं ॥ १ ॥ " एयाओ बिरहाओ अहि ययरं दूमे सल्लु ब्व मे हिययं नाणाऽसचत्तं । एवं सोयं करते जणी विरोधाविमो या वि विज्ञा मागंतू तं पुराणाइभणियसंसराणिश्चयावयणेहिं पडियो. हे सार भो पराइमिहिर दिवसा निवेदयं नागमवितहूं जायं परं विडालाओ जं तस्स मरखमुतं अयं स अ तम्मरणदेवं भाई पुच्छर, धाप विसा अग्ला भाषेऊय रखो इंडिया, ती विभागे किरियं विरालियं संजापवि हो राया राषगुणसमुदमुदअहो ! पिच्छद जाया सेयंवराणं नाणलद्धिलच्छी श्रो, तं सचं चैव सव्वन्नुपुत्तया, जं एवमविसंवायवयणा, एवं चमक्कियो उणि सिरिमद्दवाहुगु पणनिय पु-भयवं 1 के. ईडया पुरोडियमचं जायं तो गुरु भग-महारा ' एस गुरुपडिणीओ वयाई पडिवडिडं चि गट्टमई तुह पुरोडिओ, तेरा देउणा पयस्स वयणं न सघं दोष, जंच सवन्नुणा पणीयं वयणं तं जुगंते वि नन्ना होई तो राया नायपरमत्यो पेडा मिडियम इणा सयलमेव महियलं कण्यमयं मन्त्रमाणेण मए निरत्थं म जम्म निग्गमियं ता भयवं ! परिसियं मद्द सिक्खं देद्द, जेण कयस्थो होमि । तो गुरू दुग्गइगमण पडिवक्खं ध सिष सहामरो र सो वितं से सुधा सिरसा पडिच्छु । जप्यभिइयं मयकलेवरं व पुरोहियमतं वय राया जिणधम्मं पडिवज्जर तप्पभिरं च णं लोश्रो तमुबहसर, सो विनियतणयमरयेष नाणासणं सो यापवादं संजायसंसारनिव्वेश्रो सव्यद्दा विगयसम्मत्तो संगडियम परिस्थायगपन् पवित्रिय जये पद्मोसमाचतो असा कटुवाइ सुरमायरिट्टियपाव सो मरिण अहिवंत जाओ असो वात विनायं निषपुष्यमासा निष् सासणे परमवेरं वहतो चिंतेइ कया णं श्रहं पुग्वभवरसायनं विस्त देवमिका जिस सिरसा साहू सावधानसम्यं काकामी तसे ती सया अप्यमत्ताणं सावज लोगविरयां साहुखीणं अंधु व न किं पि पिच्छ । दूस; तेचि केसमबि स मोडिडमसमत्यो हत्थेण इत्थं उडतोयं नाति मिसीए सीस फडत होत्या तो इंडिया किरियाकला बसिदिशाएं समोवासमाई किस दुझे वाणमं नहबाहु तरो विवि उवसग्गे कुणा । तो सावया सुयसायर सुविद्दिथायरा बुद्धिवियारेण तं वंतरकयमुवसग्गं जाणिय परुप्परं मं तयंति- जहा सिंहं विणा करी न वियारिज, जहा भाणुं विणा तिमिरपडलं न फेडिजर, जहा पवहणं विणा लायरो न संजिद जदा ओसई विणा वाडी न हिज्ज वहा गुरूहिं विणा एस उववो न विद्दविज्जर ति । तत्रो एयरल अस्स संगा सिसिरिमाणं पाले पेसिया विनापि मायेगा वराह मिहिरवंत रस्स बिडियं नाऊण सिरिपाससामिणो उवसग्गद्दरत्थवं संघकप पदियं । सव्येद्दिवितं पढिनं । तत्रो तप्यभावेण वायपिलियनउपयो, कप्पवयि मयिस्थी जाया सत्ती, अओ अज वि तं थवणं सप्पभावं पढिजमाएं सव्वसमीहियत्थं संपाडे । श्रह जुगप्पहाणाऽगमो सिरिभबाहुलामी - आयारंग १ सुयगढंग २ श्रावस्य ३ दसवे. यालिय४ उत्तरज्भयणश्दसा६कप्प ७ ववहार मसूरियपन्नतिउवंग रिसिभासिया १० दस निज्जुती काऊण जिसावणं पभावे पंचमयकेपपियन य समय अविद्या येणं तिदसाऽऽवासं पत्तो चि " ॥ ग० २ अधि० । कल्प० । "समस्त सीखो, जसो तो लिखी। सुंदरकुलतो संभूतो नाम तस्वापि ॥ २ ॥ सत्तमो थिरपाहू. जाणुयसीस सुपडिच्छयसुबा (पा) हू । नामे भद्दवाहू, विदिश्रो सो धम्मभो ति ॥ ६ ॥ सो पुरा चउदसपुब्बी, वारस वासाई जोगपडिबन्नो । सुत्तत्थेण निबंधर अत्थं श्रज्झयणबंधस्स ॥ ७ ॥ पलिया च अणाबुट्ठी, तहया आसी य मज्झदेसस्स । दुभिक्ख विष्पण्डा, अषं विलयं गता साहू ॥ ८ ॥ केडि वि विराणामी अभी कम्मार्थ । समणेहिं संकिलि, पच्चक्वायाइँ भत्ताई ॥ ६ ॥ समुद इहलांगअपाडेबद्धा, य तत्थ जयणाऍ बहंति ॥ १० ॥ ते आगया सुकाले, सग्गमण सेसया ततो साहू । बहुया वासाणं, समणा विसयं श्रगुप्पत्ता ॥ ११ ॥ ते दाइँ एक्कमिक्कं गयसेसा विरस दट्ठूण | पर लोगगमणपच्चा-गयं व मांति अप्पां ॥ १२ ॥ ते बिंति एक्कमिकं सम्भाओ कस्ल कित्तिश्रो घरति । इंति नही हु सम्मायो । १३ ।। जं जस्स घर कंठे, तं तं परियट्टिऊण सच्चेसिं । तो केहि पंडिताई. हि एकारसंगाई ॥ १४ ॥ ते बिंति सव्वसार-स्स दिट्टिवायरस नत्थि पडिसारो । कह पुत्रगए ण विणा पवयणसारं घरेद्दामो ॥ २५ ॥ सम्मस्स भद्दबाहु-स्स नवरि चोद्दलविनो अपरिसेसाई । पुत्रा अन्नत्थ उ, न कहिंचि वि श्रत्थि पडिलारो ॥ १६ ॥ सो वि चउद्दलपुवी, वारस बालाई जोगपडिवन्नो ॥ १७ ॥ *******.... ***********..... ... 1 दिज्ज न वि दिज्ज वा वा यति वाहिप्पो ताव ॥ १८ ॥ संघाण आणि सम सो संघसरपमुद्दे दिहि आमझे ॥ १६ ॥ बिरसंघ तंजावर ये पुण्यं कस्स धार, पुडवाणं वाययं देहि ॥ २१ ॥ · Page #1395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३७२) नदबाहु अभिधानगजेन्द्रः। नयाह सो भणति एव भणिए, प्रसिद्धकिलिट्ठपण वयणाणं। परिमलसिरि वहतो, जोहानियहं ससी चेव ॥ ७३ ॥ नता अहं समत्थो, इम्हि भे वायणं दाउं ॥ २२ ॥ भवणाउ निग्गो सो, सा रंगे परियणेग कहिती। अपट्टे माउस्सा, मज्भ कि बायणा कायब ।। मत्तवरवारणगओ, इह पत्तो राउसं दारं ॥७४।। पवं च भणियमित्ता, रोसस्स वसं गया साह ॥२३॥ अंतेउरं अगइतो, विणीयविषो परित्तसंसारो। अह विभवंति साहू, इंतेवं पसिणपुच्छणे अम्हं। काऊणं सो भद्दो. रक्षो पुरषो ठिो पासि ।। ७५ ॥ एव भणंतस्स तुई, को दंडो होइ तं मुणम् ? ॥२५॥ अह भणानंदराया. मंतिपयं गिराहयलभह !महं। सो भणति एव भणिए, अविसनो वीरवयणनियमेण । पडिबउजसु ते वद्धाई, तिमि नगरागरसया।। ७६ ।। बज्जेयवो सुयनि-राहवो ति अह सब्बसाहू अ॥ २५ ॥ रायकुलसरिसभूप, सगडाल कुलम्मि तं सि संभूत्रो। तं एव जाणमाणे, नेव सि ते पाडिपुंछयं दाउं । सात्थेसु य निम्माओ, गिराहसु पिउसंतियं एयं ।। ७७॥ तं ठाणं संपत्त, कह तं पालेह दाहामो (१) ॥ २६ ॥ अह भणा थूलभद्दो, गणियापरिमलसमषियसरीरो। बारसविहसंभोगे, विझवर ते य समणसंघे वि। सोमीकयसामत्थो, पुणो वि से विराणवेस्सामि ॥ ७ ॥ अह भणति नंदराया, केर समं दाई तुम्भ सामस्य । जते जाइज्जतो, न वि इच्छसि बायणं दाउं ।। २७॥ सो भणा पुरवमणिप, जसभरिश्रो अयंसभीरतो वीरो। को अम। वरतरत्रो, निम्मातो, सम्वसत्थेसु ? ॥७॥ पकेण कारणेणं, इच्छं भे वायणं दाउं ॥ २८ ॥ कंबलरयणेण ततो. अप्पाणं सुट्ठ संवरित्ता । अप्पटे पाउत्तो, परमटे सुटु दाणि उज्जुत्तो। अंसूनि निराहुयंतो, असोगवणियं अह पविट्ठो।।८०॥ नवाहवाहरियडयो, अहं पिन विवाहरिस्सामि ॥२६॥ जित्तियमित्तं दिलं, तेत्तियमित्तं इमं तु भुत्त त्ति। पारियकाउस्सग्गो, भत्तट्रितो बा अहव सज्झाए। इत्तो नवरि पडामो, झसो व मीणाउलघरम्मि ! ८१॥ नितो व अनितो था, एवं मे बायणं दाई ।। ३०॥ प्रागा र भोगा, रमो पासम्मि पासणं परमं । पाढंति समणसंधा, अम्हे अणुयत्तिमो तुई छदं । सुब्वत्थ इमं न खमे, खमं तु अप्पक्खमं काउं ॥ २२ ॥ देहिय धम्मो बाई, तुम्हं छदेण दिच्छामो ॥ ३१ ॥ कोसं परिचितो, रायकुलामो य जे परिकिलेसे । जे मासी मेहावी, उज्जुत्ता वाहणधारणसमस्था। निरयेसु य जे केसे, ता लुंचति अप्पणो केसे ॥३॥ ताणं पंचसया, सिक्खगसाहुणमाहियाई॥ ३२॥ तं चिय परिहियवस्थं, छित्तूणं कुणा अग्गोमारं। घेयाषचगरा से, एकेक से चउब्विहा दो दो। कं.बलरयणो गुष्टुिं-कारं उसाट्ठियं पुरतो ।। ८४ ।। भिक्खम्मि अप्पडिबुद्धा, दिया य रसिंच सिक्खंति ॥३३॥ पयं मे सामधं, भणा अवणेहि मस्थतो गुष्टि। ते एगसए साहू, वायणपरिपुच्छणाएँ परितंता। तो णं केसबिएणं, केसेहि विणा पलोपति ॥५॥ पाहारं अलहंता, तस्थ य जं किंचि अमुणंता ॥ ३४॥ अह भणद नंदराया, बच गणियाघरं जइ कहिचि । उज्जुना मेहावी, सिट्टा उ बायणं अलभमाणा। तोतं असञ्चवादी. तीसे पुरतो विवाएमि ॥ ८६ ॥ अह ते थोबा थोबा, सब्बे समणा वि निस्सरिया ॥ ३५॥" सो कुलघरस्स सिद्धि, गणियावरसंतियं च सामिदि। ति०। (स्थूलभद्रवृत्तम् 'थूलभद्द' शब्दे चतुर्थभागे २४१५ पाएण पुणो वेउं, णातिणगरा अणवयक्खा ।। ८७ ॥ पृष्ठ गतम्) जो एवं पुब्वविऊ, एवं सज्झायमाण उज्जुत्तो। पतेहि नासियचं, मए विणा. विजह सासणे भणियं । गारवकरणेण हिमो, सीलभरब्वहणधारणया ॥८॥ जं पुण मे अबरद्धं, एवं पुण डहति सम्बंग ॥ ६४ ॥ जह जहपही काले, तह तह अप्पावराहसंरखा। पुरुम्मिय मयहरया, अणेगया जे मरह संपती काले । अणगारा पडणीए, निसंसयउ ववहिति ॥ ८ ॥ गोरविय थूलभद्द-म्मि नासनट्ठाइ पुवाई ॥ ६५ ॥ उप्पायणीहि अवरे, केई विज्जाए इत्तरणं । सह विफविति साहू, सगच्छया करिय अंजलि सीसे । चउरुब्विहविज्जाहि, इटाहि काहि उड़ाई॥१०॥ भहस्स तापला इहइमस्ल पक्कावराहस्स ।। ६६॥ मंतेहि य चुम्भेहि य, कुच्छियविज्जाहि तेण निमितेणं । रागेण व दोसेण च, जं व पमाण किंचि प्रवरद्धं । काऊण उवज्झायं, भमिही सोऽणंतसंसारे ॥ ११ ॥ तं भे! सं (तेर्सि) उत्तरगुणं, श्रऊणकारं खमावति ॥६॥ अह भणा थूलभहो. असं रूवं न किंचि काहामो। श्रह सुरकरिकरउषमा-णबाहुणा भहबाहुणा भणिय। इच्छामि जाणिउं जे, अयं चत्तारि पुब्बाई ॥१२॥ मा गच्कह निब्येयं, कारण सेयं निसामेह।। ६८॥ ......................", सुयमेत्ताईच गहादिति । रायकुलसरिसभूते, सगडालकुल स्मि एस संभूतो। दस पुण ते अणु जाणे, जाण पणलाई चत्तारि ॥ १३ ॥ गेहगो चैव पुणो, विसारो सम्वसत्येसु ॥६६॥ पतेण कारणेण उ, पुरिसजुगे अट्टमम्मि बारस्स। कोसानामगगणिया, समिद्धकोसा य विउल कोसा य । सयराहेण परगट्टा, जाण चत्तारि पुवाई॥४॥ जायँ घर उ विहारी, रतिसंवेसम्मि सम्ति ॥ ७॥ प्रणवटुप्पो य तवो, तवपारंची य दोवि विच्छिना। वारस वासा वास, कोसाएँ घरम्मि सिरिघरसमम्मि ।। चउदसपुब्वधरम्मी, धरंति सेसा उ जा तित्थं ॥ ५ ॥ सोऊण य पियमरण, रमो वयणेण निग्गच्छा ।। ७१ ॥ तं एवमंगवंसो, य नंदवंसो मस्यसोय। तेगिच्छसरिसवयर्ण, कोसं पापुच्छए सयं धणिय। सयराहेण पणट्ठा, समयं समायबंसेणं ॥ १६॥ खिप्पं खु पह सामिय!, अहयं बहुवायरासह ॥ ७२ ॥ पढ़मो वसपुब्बीणं, मगहालकुलस्स जसकरो धीरो। भवणाराहावमुक्को, छिज्जा बंदोब्ध सोमगंभीरो। नामेण थूलभद्दो, अविहिं साधम्मभहो त्ति ॥ १७ ॥ Page #1396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्दसालवण गच्छन्त्या पश्चिम खण्डं दक्षिणोत्तरविभागेन द्विधाकृतं ततो लब्धः षष्ठो भागः ६, तथा शीतया महानद्या दक्षिणाभि मुखं गमय। उत्तर पूर्वपश्चिममा लब्धः सप्तमो भागः ७ तथा पूर्व तो गच्छन्त्या पूर्वखण्डं दक्षि त्तरविभागेन द्विधाकृतं ततो लब्धोऽष्टमो भागः । स्थापना मन्दरस्य पूर्वपश्चिद्वाविंशतिद्वाजिसहखारपायामेन कथमिति चेदुपजीवापा नसहस्त्राणि ५३०००, एकैकस्य च वक्षस्कारगिरेर्मूले पृथुत्वं पच योजनशतानि ततो द्वयोः शैला प्रत्यपरिमाणं योजन तस्मिन् पूर्वराशी जातानि चतुःपञ्चा शयोजनसहस्राणि ५४००० तस्मान्मेध्यासे शोषित शेषं चतुश्चत्वारिंशद्योजन सहस्राणि ४४०००, तथा मध्य. द्वाविंशतियोजना २२०००, पूर्वतिथमुपपश्यन्तरशीत २५२२ योजनानि अन्तरनदीषट्कम् ७५० योजनानि, वक्षस्काराष्टकम् ४००० योजनानि शीतोदाषनमुखम् २६२२ योजनानि । एतेषां वि. स्ताराः सर्वाग्रमीलने षट्चत्वारिंसयोजन सहस्राणि । एतच्च लक्षप्रमाणमहाविदेहजीवायाः शोध्यते, शेषं चतुःपञ्चाशयोजन सहस्राणि । एतावद्भद्भशालवनक्षेत्रं तच्च मेरुसहितमिति धरणीतल सरकदशयोजन तुश्चत्वारिंशद्योजन सहस्राणि तस्यार्द्ध एकैकपार्श्वे द्वाविंश तियोंजन सहस्राणि उत्तरती दक्षितश्चार्द्ध तृतीयानि योजन शतानि विष्कम्भेन दक्षिणत उत्तरतश्च तद्भशालचनम तृतीययोजनशतानि कुरुपत्र देवकुरुमे तरकुरुभ्यासासा काश इति प्रश्नो दूरापास्त इति । भसालवनं स्थानतः पृच्छति श्रथात्र सिद्धाऽऽयतनाऽऽदिवक्लव्यतामाहमंदरस्स से परसपुरमेणं महत्सालय म ( प ) धाम जोगाई श्रगाहिता, एत्थ णं महं एगे सिद्धाययणे पस ने, पचासं जोअणाई आयामेण पणवीसं जोश्रणाई वि कहि यो भंते! मंदरे पर मसालय से सायं ये प ते१। गोश्रवा ! धरणिश्रले एत्थ गं मंदरे पर मसालणे पाते। पाईयपडीयापर उदादाविस्थित सोमणसविज्जप्पहगंधमायण मालवंतेहिं वक्खारपप्प५६ सोचासोहि अ महागईहिं अट्ठभागपविभत्ते मंदरस्स पन्चयस्स पुरच्छिमपच्चच्छिमेणं वावीसं जो णमहस्साई श्रायामेण उत्तरदाहिणेणं अड्डा इजाई जोश्रखसवाई वि क्खंभेणं, तीसे गं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य बणसडेणं सव्व समंता संपरिक्खित्ते, दुएह त्रिव afroat fart किएहाभासे० जाव देवा श्रसति । गौतम चरणतलेऽच मेमंद्रावनं प्राचीस्यादि प्राग्वत् । सौमनसविद्युत्प्रभगन्धमादन माल्यवद्भिर्वसरकारपर्वताशीतोदाभ्यां च महान बत्तीस जो अथाई उ उद्यतेषं अगस पिविट्टे । तस्स णं सिद्धाययणस्स तिदिसिं तो दारा पत्ता ते गं दारा भट्ट जोखाई उई उचतेयं च त्तारि जोणाई विक्खंभेण तावइयं चैव पवेसेणं, से-आवश्क राग भूमिभागा० जाय वयमालाओं भूमिभागो अ भाथियो, तस्स वं बहुपदेसभा एवं नई एगा मणिपेडिया पच्छना, अजोवाई आयाम च चार जोगाई बादल्लेगं सव्वश्यायो अच्छा ती गां मणिपेडिया उपरि देवच्छंद भट्ट जोखाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई, अट्ठ जोगाई उड्डुं उच्चत्तेणं ०जापि देवच्छेदगस्स जान क 9 " विक्रमचा कृतम्। तद्यथा एक भागो मेरो पूर्वताद्विभागं मंदरम्स पन्ययस्स दारियां भरमालवणं पानं, तपोवनमध्ये चतुर्थी गन्धमादन माल्यवन्मध्ये उत्तरतः ४ तथा शीतोदाया उत्तरतो गच्छन्त्या दक्षिणखण्डं पूर्व पश्चिमविभागेन द्विधाकृतं ततो लब्धः पञ्चमो भागः ५ तथा पश्चिमतो एवं मिंदरस्य मालवये चत्तारि सिद्धायय मणिव्या मंदरस यो पव्ययस्स उत्तरपुर भदसालवणं पष्ठासं जो अणाई ओगाहित्ता एत्थ सां चत्ता ३४४ ( १३७३ ) प्रभिधान राजेन्द्रः । नहबाहु मामेण सम्यमितो मम ि होकर सारी पोरी १८ ॥ एक्स पुष्यसुयसा-यरस्स उदहि व्ध अपरिमेयस्स । सुणसु जह अत्थकाले परिहाणी दीस पत्थ ॥ ६६ ॥ पुण्यसुलभरि भिजायलायस्मि होडीग मिसिलो १०० " ति० । कल्प० । भद्दवाहुगंडिया - भद्रबाहुगण्डिका - स्त्री० । गरिङकानुयोगमेवे, स० १२ अङ्ग । मद्दमण-भद्रमनस् - त्रि० । भद्रं मनो यस्य सः । श्रथवा भद्रस्यैव मनो यस्य स तथा । धीरे हस्तिभेदे, पुरुषभेदे च । पुं० । स्था० ४ ठा० २ उ० । मदमुद्रिमूर्ति वि० प्रियदर्शने "ममूर्तेरमुष्य च।" द्वा० १२ द्वा० । 1 महसूस्य भद्रमुस्तक-पुं० नागरमुस्तके वाच साधा शरीर बादरवनस्पतिकायिकभेदे, जी० १ प्रति० । भद्दवई - भद्रवती - स्त्री० । भद्राणि पुण्यानि सन्त्यस्याः । मतुप् मस्य वा ङीप् । वाच० । उज्जयिनीनगरस्थाया वासचलाया धायाम् आ० क० ४ श्र० । श्रात्र० । भद्दसालवण- भद्रसालवन - न० । जम्बूद्वीपस्थस्य मेरुतस्य भूमौ स्थिते स्वनामख्याते बने, जं० १ वक्ष० । जी० । ज्यो० । दो भदसालवणा । स्था० २ ठा० ३ उ० । मेटमधिकृत्य भूमी भरमालवणं दो मरसालवथा । इति च । स्था० २ ठा० ३ उ० । Page #1397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्दमालवण (१३७४) अभिधानराजेन्द्रः। भहा रिणदापुक्खरिणीयो पएणत्तानो । तं जहा-पउमा १५3. दि) प्रासादवर्णनं प्राग्वत् । एवमुक्ताभिलापानुसारेण सपरि. मप्पभा २ कुमुदा ३ कुमुदप्पभा ।। ताओ णं पुक्ख वार ईशानेन्द्र योग्यशयनीयसिंहासनाऽऽदिपरिवारयुक्तपासा. रिणीप्रो परणासं जोअणाई आयामेण पणवीस जोन दावतंसको भणितव्यः। अथ प्रादक्षिण्येन शेषविदिग्गतपुष्क रिण्यादिप्ररूपणायाऽऽह - (मंदरस्स इत्यादि) प्राचं नवरं दसाई विक्खंभेणं दस जोमणाई उब्वेहेणं वस्मयो । वेडा- क्षिण पूर्व्यासामिति आग्नेय्यां दिशीत्यर्थः । ताश्चोत्पलगुल्मा. पणसंडाणं भाणिमयो, चउदिसि तोरणा जाव तासि दयः पूर्वक्रमेण तदेव प्रमाणं ईशानेन्द्र योग्यशयनीयसिंहासनेणं पुक्खरिणीणं बहुमज्झदेसभाए एत्य णं महं एगे नेत्यर्थः । दक्षिण पश्चिमायामपि नैर्ऋत्यां विदिशि पुष्करिण्या: शाऽधाः प्रादक्षिण्येन प्रासादावतंसकः शक्रस्य सिंहाईसाण स्स देविंदस्स देवरप्लो पामायवडिसए पल्मने, पं. सनं सपरिवारम् उत्तरपश्चिमायां वायव्यां विदिशि पुष्करिच जोमणसयाई उड्डे उच्चत्तेणं, अट्ठाई जोअणसयाई वि. रायः श्रीकान्ताऽऽद्याः प्रासादावतंसकः ईशानस्य सिंहासक्खंभेणं, अग्गयमुलिन एवं सपरिवारो पासायवर्डिस- नं सपरिवारम् । अत्र उत्तरदिक्सम्बद्धत्वेन ऐशानवायव्यप्रा. ओ भाणिअन्यो । मंदरस्स णं एवं दाहिणपुरच्छिमेणं पु- सादौ ईशानेन्द्रसत्को दक्षिण दिकसम्बद्धत्वेन श्राग्नेयने त्य प्रासादो शकेन्द्रसत्काविति । जं०४ वता क्खरिणीओ-उप्पलगुम्मा ! णलिखा २ उप्पला ३ उप्पलुजला ४ । तं चेत्र पमाण मज्झे पासायवडिसो, स. भदसिरी-देशी-श्रीखण्डे, देना० ६ वर्ग १०२ गाथा। भहसेण--भद्रसेन-पुं० । वाराणसीवास्तव्ये स्वनामख्याने कम्स सपरिवारो तेण चेव पमाणेणं दाहिणपच्चच्छिमेणं जीर्णष्ठिनि, आव० ४ ० । आक) । धरणस्य नागराविपक्वरिणीओ भिंगारभिंगनिभा २ अंजणा ३अंजण जेन्द्रस्य स्वनामख्याते संग्रामानीकाधिपनी, स्था. ५ पपा ४ पायवहिंसओ सकस्स सीहासणं सपरिवारं उत्त- ठा०१०। स्पञ्चच्छिमेणं धुक्खरिणीओ-सिरिकंता १ सिरिचं- भहा- भद्रा--स्त्री० । कल्याणकारिण्याम् , श्री० । पक्षस्य दासिरिमहिना ३ चेत्र सिरिलया ४, पासायवडिंसी द्वितीयासप्तमीद्वादशीतिथिषु , चं०प्र० १० पाहु. १४ पा हु० पाहु०। ६०प० : जं० । सू० प्र० । ज्यो० । प्रथमबलदेवस्थ ईसाणस्स सीहासणं सपरिवारं ति ।। मातरि पोननपुरस्थस्य प्रजापतेर्भाग्यायाम, आव०१ मेरोः पूर्वतः पञ्चाशद्योजनानि भद्रशालवनमवगाह्यातिक पास।" देव्यास्तस्य च भद्रायाः, बलदेवः सुतोऽभभ्यात्रान्तरे महदेकं सिद्धायतनं प्रज्ञाप्त पञ्चाशयोजनान्यायाम वत् । चतुर्भिः सूचितः स्वप्न-रचलोऽचलसौष्ठवः॥१॥"श्रा) न पञ्चविंशतियोजनानि विष्कमेन, पत्रिंशद्योजनानि ऊ क० १ अ० । श्रा०म० । " पुत्तो पयावतिस्स, भद्दा अपलो बाँच्चस्येन, अनेकस्तम्भशतसन्निवेष्टितत्यादिक: सूत्रतोऽर्थ वि कुच्छिसंभूनी ।" ति० । प्रा०चू० । तृतीयचक्रवर्तिनोतश्च वर्णकः प्रागुक्तो ग्राह्यः । अथात्र द्वाराऽऽदिवर्णकसूत्रा मातरि, सं० । आव० । द्वितीयचक्रवर्तिनो भाव्याम, ग्याह-(तस्स णं इत्यादि )प्राग्वत् (नस्स त्ति । तीसे स। छत्रानगरीस्थस्य जितशत्रुनृपते र्यायाम् सप्तमस्य णं इत्यादि) सूत्रद्वयम् । अथोकरीतिमवशिष्टसिद्धा- बलदेवस्य नन्दनस्य जनभ्याम् , श्रा०म०१० । श्रा० यतनेषु दर्शयति-(मंदरस्स इत्यादि) मन्दरस्य पर्वतस्य चू। कौशलिकस्य नृपतेर्दुहितरि, " रम्मो वि ताहे कोदक्षिगातो भद्रशालवनं पश्चाशद्योजनान्यवग्राह्येत्याधालापको सलियस्स धूया , भद्द ति नामेण अणिदियंगी।" उत्त. ग्राह्यः। एवं चतुर्दिवपि मन्दरस्य भद्रशालवने चत्वारि सि. पाई) १२ प्र० । चम्पानगरीस्थस्य माकन्दिसार्थवाहम्य द्धाऽऽयतनानि भणितव्यानि, यश्च त्रिवतिदेष्टव्येषु च. भाायाम् , शा० १६०८अ चम्पानगरीस्थस्य जिनदन. स्मार्यतिदिष्टानि तत्र जम्बूद्वीपद्वारवर्णके च"चत्तारिदारा भा. सार्थवाहस्य जाायाम् , ज्ञा०१ श्रु० १६ श्र.)। चम्पानगशिवा"इत्येतसूत्रव्याख्यानमनुसरणाय । श्रथैतन्तपुष्क- रीस्थस्य सागरदत्तसार्थवाहस्य भाय्यायाम् , ज्ञा० १५० रियो वक्तव्याः 'मंदरम्स'इत्यादि सुगमम् । अथासां प्रमाणा. १६ अ० । राजगृहनगरस्थस्य धनसार्थवाहस्थ भार्यायाम, चाह-(ताओ णमित्यादि) मेरोरीशान्यां दिशि भद्रशालवनं मा० १० १० अ०। प्रति राजगृहनगरस्थस्य धनावह. पश्चाशद्योजनान्यवगाह्यात्रान्तरे चतस्रो नन्दा-नन्दाभिधानाः श्रेष्ठिनो भाायाम् , प्रा० म०१०। क्षितिप्रतिष्ठिने क. शाश्वताः पुष्करिणयः प्राप्ताः । श्रासां च प्रादक्षिण्येन ना- स्मिचिनगरे स्थितस्य धनश्रेष्ठिमो भार्याम्,नि०.१० उ० मानि पमा पचममा कुमुदा कुमुदप्रभा, चैव समुच्चये, ताश्च वसन्तपुरपत्तनस्थस्य धनसार्थवाहस्य भार्यायाम् , प्रा०क. पुष्करिण्यः पञ्चाशद्योजनान्यायामेन पञ्चविंशतियोजनानि च १०। मगधदेशस्थगोवरग्रामस्थस्य पुष्पशाल कौटुम्बिकस्य विष्कम्भेन, दशयोजनान्युद्वेधेनोच्चत्वेन वर्णको वेदिकावनख भाग्योयाम, प्रा०क०१० श्रा०म०1श्रेणिक नृपते: स्व. गडानां भणितव्यः प्राग्वत्, यावच्चतुर्दिशि तोरणानि । अथै नामख्यातायां भाय्योयाम्, तत्कथा नम्दावत । श्रन्त.. तासां मध्ये यदस्ति तदाह-(तासि णमित्यादि) तासां पुराड्रवर्द्धनदेशस्थस्य शतद्वारपरस्थस्य सम्मुदित (सुमति) पुष्करिणीनां बहुमध्यदेशभागे अत्रान्तरे महानेक ईशानस्य नृपतेर्भार्यायाम्, ती०२० कल्प । भ० । ति । शोभाञ्चभ्यां देवेन्द्रस्य देवराक्षः प्रसादावतंसकः प्राप्तः । कोऽर्थः तं प्रा- नगर्या स्थितस्य सुभद्रसार्थवाहस्य भाव्याम् विपा० १श्रु. सादं चतनः पुष्करिण्यः परिक्षिप्य स्थिता इति पश्चयोज- ४१०।(तत्कथा 'सगड' शब्द) चम्पानगरीस्थस्य कामदेव. नशतान्यूबोंबत्वेन अदेतृतीयानि योजनशतानि विष्क- गृहपतेः स्वनामस्यातायां भार्यायाम् उपा० अ० प्रा०म०। म्भेन समचतुरस्त्रत्वादायामेनापि (अम्भुग्गयमूसिमा इत्या- प्रा. सू. । तुरुमिगीन गरीस्थायां कम्याश्चित्स्वनामयाता Page #1398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३७४) भहा अन्निधानराजेन्द्रः । भदा यां धिरजातिभ्याम् , श्रा0 म० १०। काकन्दीनगरीस्थ- खुम्मि कियारे जल-भरियस्मि परोहमणुपत्ता ॥ १७ ॥ स्य धनसार्थवाहस्य जनम्याम्, " काकंदीणयरीए भ- तो सब्वे उस्खणिउं, पुणरवि मारोविया कमेण तो। हा नाम सस्थवाही परिवसा" अणु०। पुरिमतालनगरस्थ जो पढमे बरिसे, पसत्थो पत्थो तेसि । १८ ।। स्य वग्गुरधेष्ठिना पल्याम् , प्रा०म० १० मखलिपुत्रस्य बीयम्मि बच्छरे प्रा-दगो उ तस्याम्मि खारिया जाया। गोशालकस्य जनम्याम् ,भ०१५ श०। पा०चू०। पश्चिम तुरिए कुंभो पंचम-बरिसे पुण कुंभसहसाणि ॥१६॥ उचकवास्तव्यायां स्वनामन्यातायां दिकमार्याम् , प्रा. ग्रह सिटिणा वि भोयण-पुरस्सरं सयमणार पक्वं । क.१०वी० । ०। श्रा०म. । स्था० । मा०चूछ । सहाविय बयाभो, सालिकणा मग्गिया तेउ ॥२०॥ नन्दीश्वावरद्वीपस्य दक्षिणाजनकपर्वतस्योपरिस्थितायां किच्छेण सुमरिय सिरी, जो तो अपए कणे पंच। पुष्करिण्याम् , द्वी० । ती. । स्वनामख्यातायां नगर्याम् , प्रहसबहमाविया भण- उज्झिया ते मए ताय !॥२१॥ मा० चू०१० भन्दते कल्याणीकरोति देहिनमिति भद्रा। एवं लच्छी वि कहे-केवलं भक्खिया मए ते उ। अहिंसायाम् , प्रश्न०१ सम्बद्वार । अहोरात्रद्वयमाने श्राभरणकडामो, ते गहिय धणा समप्पेह ॥ २२॥ प्रतिमाभेदे च । स्था०४ ठा०१ उ०1" पंचपडिमायां ।" अाधना धना वि. मग्गिया सविणयं भणा ताय!" प्रथमा प्रतिमा द्विदिनाभ्यां भवति । स्था० ५ ठा. १०॥ ते एवमेव माभूरि-भावमिरिह समणुपत्ता ॥ २३ ॥ (व्याख्या 'पहिमा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३३२ पृष्ठे गता) एवं भवंति एए, सुरक्खिया ताय! वाविया संता। राजगृहनगरवास्तव्यधनश्रेष्ठिभायाम् , ध०२०। सन्निक्खाया पुण बु-विभावरहियत्तो नेव ॥१४॥ ___ धनधेष्टिज्ञातं त्विदम् संति मम जणयगेहे. बहु कुज्जारेनु संनिखित्ता ते । "अस्थिऽत्थ मगहदेसे, देसियदंसियमहलकोहल्ले। सगडारवाहणेहिं, तो पाणावर लहुं सिट्ठी ॥ १५ ॥ रायगि केलिगिह ब, भुवणकमलाइबरनयरं ॥१॥ तो नियऽभिप्पायं कहि -य सिट्टिणा पुच्छिश्रो सयणवग्यो। तरथाऽऽसि रासिकयवहु-मणिरयणामधणो धणो सिट्टी। कि इत्य उधियमिरिख, साह तुमि चिह मुह ॥ २६ ॥ समुवन्जिय बहुभद्दा, भद्दा नामेण से गिहिणी ॥२॥ जंपा धणो वि उज्झण-सीला पढम त्ति उझिया नाम । धणपालो धणदेवो, धणो धणरक्खिो त्ति सुपसिद्धा। छारछगणाइछहण- वाचारा वसउ मह गेहे ॥ २७ ॥ चउरो चउराणणमा-राणु ब्व तेसि सुया पधरा ॥३॥ रंधण कंडणसोहण-दलणार नियोगिणी इबउ वीथा। कमलो तेसि भज्जा, सिरी य लच्छी घणा य धन्नाय । नियमायरणवसेणं, भोगवई नाम सुपसिखा ॥२८॥ नियमसुंदेरिमसा-लिपीउ चिटुंति सुहियाश्रो ॥४॥ जं सालिकणा जत्ते-ण रक्खिया रक्खियाभिहा तेण । कायावि परिणयवओ, सिट्टी चिता वयं गहिरकामो। मणिकणगरयणमं-डारसामिणी हवउ तयार ॥ २६ ॥ पए विहिया सुहिया, तणया मे इच्चिरं कालं ॥५॥ श्रण इक्कमणिज्जाणा, तुरिया सम्बस्स सामिणी होउ । जह पुण का विहु सुराहा, कुडंबभारं धरिज अविणटुं। सालिकणारोहणवसा, रोहिणिनामा गरुप पुत्रा ॥ ३०॥ तो पच्छा वि अहसुहीम मुणति गयं पि कालमिति ॥६॥ एवं च दोहदंसि-तण काउं कुबसुत्य सो। का पुण इमाण उचिया. गिहचितार त्ति हुं सपुन्ना जा। धणसिट्ठी निम्मलध-म्मकम्माराहगो जामो ॥ ३१ ॥ स उग मईह नेया, पुत्रणुसारेण जं बुद्धी ॥ ७॥ अन्ना वि इहो विणो, छटुंगे रोहिणी नायम्मि । जुजा तो परिक्वा, इमाण सुहिसयणबंधुपचक्खं । भणिो सुहम्मपहुणा, बहुप्प किर वित्थरेणवं ।। ३२ ॥ जं संठविय कुटुंबा, कुडंबिणो हुंति कित्तिपयं ॥ ॥ जह सो धणो तह गुरू.जहनायजणा तहा समासंघो। इय चितिऊणमुई-डमंडवं साडिऊण नियमेह । जहबाया तहभन्या, जह सालिकणा वयातहा ॥३३॥ नियमित्तनाइबग्गं, निमंतए भोयणटाए ॥ जह सा उभियनामा, ते सालिकणे समुज्झिउं पत्ता। भुनुत्तरं च सम्मा-णिऊण तंदोल कुसुम माईहिं। एसणदुक्खं परमं, तह को जिनो कुकम्मघसा ॥ ३४॥ नस्स समक्खं सिट्ठी, हक्काराबेद बहुप्रायो।॥ १० ॥ सयलसमीहियसंसि-विकारए तारए भवसमुदा। पण पण सालिकणे,अपिऊण पभणे रक्खिय ब्यति। उज्झित्त पर मरणा-भाषयाभो उबजे ॥ ३५ ॥ जड्या मग्गेमि तया, पर मे अपियवा य ।। ११ ॥ अन्नो उण बीयबहु, ब वस्थभोयणजसाइलोभेण । एवं ति ताहि भणिए, विसजिजया गउरषेण नियसयणा । भुत्तुं ताई परलो-ययुक्खलक्खक्वणी होह ॥ ३६ ॥ पत्ता य सयं ठाणं, किमित्य तत्तं ति सवियका ॥ १२ ॥ सत्तो वि य जो अन्नो, सो ताई जीवियं व रक्खित्ता। ममिहिर जया ताओ, जमो तो गिविहां समप्पिस् । रक्खियबहुव्ब जाया, सव्वेसि गउरबट्टाणं ॥ ३७॥ इय चितिय पढमाए, बहरते उज्झिया झति॥१३॥ जो पुण तो वि अन्नो , रोहिणियहुय व्व खुड्विमाणेह । बीयाए तुसभावं, अवणेउं भक्खिया लहुंचेव। . पंच विषयास हवासंघपहाणो गणहरू व्य । ३८॥ . तायाए तायसम-विषय त्ति प्रगउरवपराए ॥१४॥ अन्नो वि इस्थ दीसा, पवहारे उवणोनाए । उज्जलवसणणं-धिऊण पक्विविय भूसणकरंडे। जह किल कस्सर गुरुखो, सीसा चत्तारि निष्कमा ॥३६॥ पादिणतिकालपडियर-णजोगयो रक्खिया ते उ॥ १५ ॥ पायरियतणजुग्गा, पज्जाएणं सुरण य समिना। भाधनाप नियपिय-गेहो सहिऊण सयणजणो। मह चिंति पत्तो, गुरू समप्येमि काल गणं ॥४०॥ भणियो जापावरिसं, वुद्धिमिमे जंति नह कुणह।। १६ ॥ तत्तो तेण परिच्छा-हेउं देसंतरे विहाराय । सेख वि वरिखारते, पसे ते वाविया पयसेण । काकस्स सिधि, तिपेसिया उचियपरिवारा ॥१॥ Page #1399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महा उरोऽतिम्रो पत्ता, माइगुणनिसु देसेसु । ओ तस्थ सम्बजिडो, सायाबहुल कडुयवयणो ॥ ४२ ॥ नियतह प्राणीओ। परिवारो ध ओबड कारे सादरं सी-सवग्गमबरं न उण किरियं ॥ ४४ ॥ सारा राइनो रकार पमतभावं, गच्छतं तं परीवारं ॥ ४५ ॥ जो पुरा रिओ सीसो लमही मंडलोयो। जिस समयामयमे हो, बुक्करसामननिरो य ॥ ४६ ॥ इसको भूरिताखपसपनं । विहार ॥ ७७ ॥ सन्नू कालसी देव कालो । जाओ भूपरिवारपरिग विडियो] ४८ ॥ गुरुपले उपल ( १३७६ ) अभिधानराजेन्द्र | पुग्योदय हमारी ४६ ॥ समितिं वा जं गच्छे छडणारडं किंचि । हरिद्वारा मिति संठयियं ॥ ५० ॥ जं भसं पा था. उयगरणं वा गणस्स पाउग्गं । पण उत्प५१ ॥ जो गुरुरमिला सिंहाया मुं राबिया-जुग्गा तयम्मि संठर्षिया ॥ ५२ ॥ पुण सिकणिडो, गुरुमाया तस्स नियगणो लग्यो । बहुपयपरायणमा रामेण गुरुणा समुवीओ ॥ ५३ ॥ एवं जहजुग्गनिजं जणेण आराहणं परं पत्तेो । सोसूरी तो गुणमा जाओ ॥ २४ ॥ फिर दीहद सिगुणसं -गरण धणलिडिया इदं पगयं । भवियमा कोषणत्थं, पयंपिया उवणयविभासा ॥ ५५ ॥ " " इति फलमकलङ्कनलोक मस्तोकमेतदू. गुखिम घनापथेष्ठिनः सनिशम्य । गुणममलमुदारं दीर्घदर्शित्वमेव " 1 , थथत भविकलीकाः किं बहु व्याकृतेन ? ।। ५६ ।। " इति धनश्रेष्ठिवृत्तकं समाप्तम् । ध०२० १ श्रधि० ५ गुण । ज्योतिषीला द्वितीयासप्तमी द्वादशीतिथिषु श्री० । याच ० | काम्पिल्य नगरस्थस्य ब्रह्मदत्तस्य स्वनामयातायां महिष्याम् " चित्तलेणश्री भद्दा | उत० पाई० १३ प्र० । स्वनामख्यातायां प्रथमबलदेवस्य मातारि वि० शाखाखनीनगरस्थस्य सुभद्राऽऽरूपसार्थवाहस्य स्वनामख्यातायां भर्थ्यायाम् स्था० १० ठा० । इस्तिनागपुर वास्तव्यस्य कस्यचित्सार्थवाहस्य स्वनामख्यातायां भार्य्यायाम्, स्था० ६ ठा० (कथा हिल शब्देऽस्मिन्नेव भागे ११२० पृष्ठे गता ) आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां भविश्यस्य प्रथमजिनस्य पद्मनाभस्य जनस्थान पुराजवर्द नदेशस्थस्य शतद्वारनगरस्थस्य सम्मुदितनरपतेः स्वनामयातायाममहिष्याम्" सहारे पुरे समु इयनरवद्दणो भद्दा देवीए " ती० २० कल्प । रुखकवरद्वीप स्थायां शक्रस्य देवराजस्य सामानिकानामुत्पात पर्वतेभ्यश्च स्थिता राजपानीत स्वनामयाताय राजधान्याम् श्रा०क० १ ० ज्योतिषोक्ले ववाऽऽदितः सप्तमे करणे, स्त्री० त० उत्त० । , 1 महाकरी-देशी ००६ वर्ग १०२ गाथा । भद्दा गणा - मद्राऽऽनना- स्त्री० । मगधदेशस्थ गोवर प्रामस्थस्य पुष्पशालामा १० ३ ० १ ४० भद्दानण भद्रापन न० भद्रकरणं द० प० । भद्दासण- भद्राऽऽमन न० । भद्राय लोक क्षेमावास्यतेऽत्र । आस आधारे ल्युट् । नृपाऽऽसने बाच० सिंहासने, शा० १० १ अ० प्रश्न० आसनभेदे, भद्राऽऽसनानि येषामधोभागे पीठिका बन्धः । जी० ३ प्रति० ४ अधि० । जं । मालवस्तु " न्यू० १ ० ० म० । जं० औ० रा० । वाराणसीया. स्तव्ये जीर्णश्रेष्ठिनि च । ती० ३७ कल्प | भद्दालाई सी. हासणाई।" पाइ० ना० ११८ गाथा | भद्दिज्जिया - भद्रेयिका - स्त्री० । भद्रयशनः स्थविरान्निर्गतस्यो. रुपाटिकगणस्य शाखाभेदे, कल्प० २ अधि० ८ क्षण । भद्दिया - भद्रिका - स्त्री० । स्वनामख्यातायां नगम्, "ए वं विहरतो भद्दियं नयरिं गया । " श्र० म० १ ५० । श्र० ० | कल्प० । द्वौ भद्रिकायां वर्षारात्रान् कृतवान् | कल्ल १ अधि० ६ क्षण | महिलपुर महिलपुर न० मलयामि देशस्थे पुरमेदे " महिलपुरमेय मलयाए ।" सूत्र० १ ० ५० १० । अन्त० । श्रष० । श्रा० म० प्रा० चू० | प्रब० । महिला-मद्रिला स्त्री० [कुलादेशस्य पम्मिि स्वभायां सुधस्यामिनो जनम्याम् २० भप्प ८ क्षण । अव० भदुत्तरपद्वमा भद्रोत्तरप्रतिमा स्त्री० । प्रतिज्ञाविशेषे, प्रव भद्रोत्तरतपः प्राहभदुत्तरपटिमाए, पण बग सच नय तह सच नवपंच तहान पण हम सत अद्वेव ॥१५४६ ॥ तह छग सत्तऽट्ठ नत्र, पण छ सत्त सत्तट्ठा । पचहत्तरसंचारखगाणं तु पचवीसा ॥ १५५० ।। प्रतिमानाम- प्रतिज्ञाविशेषः, ततो भद्रोत्तरप्रतिमायां भद्रोत्तरतपसि पञ्च षट् सप्ताष्टौ नवेत्याद्या । तथा सप्ता नव पञ्च षडिति द्वितीया । नव पञ्च षट् सप्ताविति तृतीया । पट् सप्ताष्टौ नव पञ्चेति चतुर्थी । अष्टौ नव पञ्च षद् सप्तेति पञ्चमी । इद्द पञ्चसप्तत्युत्तरं शतमभक्तार्थाना मुपवासानां पञ्चविंशतिस्तु पारणकानाम् । एवं च भद्रोत्तरतपसि शतद्वयं दिनानां भवति । प्रव० २७१ द्वार। (अ. त्राधिकारः पडिमा ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३३२ पृष्ठे गतः ) मदुत्तरवसिगमद्रोतरावतंसक न०मान स०१६ विमानभेदे, 4 - 1 सम० । भप्प-भस्पन्- न० 1 मस-मनिन्- "अस्माऽश्मनोः पो वा।” ८) २।५१॥ इति प्राकृतसूत्रेणानयोः संयुक्तस्य पो वा । प्रा० २ पाद | दवमादिविशतिमाह र्गने ऊनत्रिंशत्तमे महाग्रहे च । पुं० [ स्था० । दो माता स्था०२ डा० २३००प्र०सू०प्र० कम्प० Page #1400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नप्पय प्रन्निधानराजेन्छः। भम्हय भप्पय-भस्मक-न । भस्म करोति । बहुभोजनकारके रोग भमनिउवभूय-भ्रमरनिकुरम्पभूत-बिगभमरमिकरम्बोप. मेवे, याम। भस्मको व्याधिः । स च वातपित्तोत्कट मे. रा०। गया लेष्मन्यूनतयोपजायते । प्राचा. १४०६ म०१ उ०।। भमरपतंगसार-भ्रमरपनाङ्गमार-पुं०। अमरपत्ताम्तर्गते पि. भस्मेवघार्थ कन् । कलधौते. पाच । शिकालिमोपचिते प्रदेशविशेष, रा.। जी० । मा०म० । भपरासि-भस्मराशि-पुं० । माशीतिमहाग्रहास्तर्गते महा | भपरपत्तसार-भ्रमरपत्रसार-पु. । भ्रमरस्य पत्रं पस्तस्य प्रहे. ०प्र० २० पाए। सारो भ्रमरपत्रमारः। भ्रमरपत्रान्तर्गत विशिएश्यामतोप. दोभासरासी । स्था०२ ठा०३० कम्प० । सू०प्र०। बिते प्रदेशे, अं०१यक। भम-भ्रम-बलने, म्यादि पर० सक. सेट " अमेपिरिटिश- भमररुय-भ्रमररुत-पुं० । ग्लच्छजातिभेदे तमिथासभूतेमा दुरादुन-दरदुल-चकम्म-भम्मा -भमड-भमाड-तलभराट नार्य क्षेत्रभेदे च । सूत्र. १७०५०१३० । प्रब० । प्रहा। भएड-झम्प-भुम-गुम-फुम-फुस-दुम-दुस-परी-परा: " भपरावलिया-भ्रमराबलिका-खी। वरपर राजी०। 1८४१६१ ॥ इति प्राकृत सूत्रेण भ्रमरतेऽदशा देशाःया। भमरिया-भ्रमरिका-बी० । उनकस्थे जीयविशेष पू०२ टिरिरिमा । दुराहला । हराढला । चकम्मा । भमः | भु० ३५०। सा भम्माडइ । भमा । तलप्रएटर । भएटर । झम्पह। भमली-भ्रमरी-सी । भ्रम-फरन् गी०-छी । तुकायाम् , भुमह । गुमा । फुमा फुसह । दुमद। दुसरा परी । पर। भ्रमरभार्यायाम, पासायाचविशेष च । भशतं भ्रमरीभमा । प्रा०४पाद । भ्रमति । मभ्रमत् । मभ्रमीत् । षाच०। बारकानाम्। रा. । माकस्मिक्या शरीरभ्रमी, भाष०५ भ्रम घम् । भारती, विपा०१७०३० । माकस्मिकनमा, भ०। पालामा०पू०। . ज्य०४ उ० । अनघस्थाने, विशे० । विपर्यासे, द्वा० १७ भमस-देशी-धमपाले, ना०६ वर्ग १८१ गाथा बा० । मिथ्याशाने, अन्यथाभूतस्य वस्तुनोऽन्यधारूपेण हा. ने, याम । “भ्रमोऽन्तर्षिलवस्त्र ।" भ्रमोऽस्तविधि. भमाड-भ्रामि-स्त्री० । भ्रम-चलने-णिच् । भ्रमस्तालिम. सविपर्ययः, शुक्तिकायां रजतमिमितिष प्रतस्मिस्लमह एट-तमासी"॥८।४ । ३० ॥ इति प्राकलसूण अमेपर्यः इति यावत् । द्वा०१७ द्वा० । " मतस्मिस्तम्मतिभ्रंमा।" तस्य तालिमएट-तमाल' स्यादेशौ पा भषतः । तालिम. भ्रमोऽसस्मिस्तसभाघमति तम्मतिः। यथा विपर्ययो मि एटातमा भामेभमारेभमाय । प्रा०४ पाद। ध्याज्ञानमतबूपप्रतिष्ठमिति । द्वा०१८द्वा० । जलनिर्गमस्थामे, भमास-भ्रमास-पुंगवणविशेष, "पहभो सामुंडमी भमा. कले भ्रमणे.पाम०। पये टने व। सत्र.१४०१०३३०।। सोय। "पा०मा० १४६ गाथा । इबुतुल्यतणे, दे०मा०॥ भमन-भ्रमत-त्रि० । मनवस्थिते, मा० १९०१०। बगे १०१ गाथा। भमण-भ्रमण-न । पर्यटने, सूत्र.१ श्रु.१०३०।। भमि-भ्रमि-श्रीमायत मममुह-देशी-प्रायते, ३० ना० ६ वर्ग १०१ गाथा। भमिन-भ्रमित्वा-मम्य० । "वस्तुमसूण-तुमाणा" | भमर-भ्रमर-पुं०।"भ्रमरे सोपा"॥ १॥२४४॥ इति प्रा. २।१४६ ॥ इति प्राफलसूण स्वास्थाने भदादेशः। प्रमं कस्बेस्पर्धे, प्रा.१पाद । कृतसूत्रेण मस्य सो वा । प्रा०१ पाद । " हरिद्वाऽऽदो लः" अमित-मि० । विस्मययुक्त, " घोलिनक्षमा भमिन॥८।१।२५४ ॥ इति प्राकृतस्त्रमा ससाभियोगे तस्वम् । थे।" पाTOR १८५ गाथा । प्रा०१पाद । भ्रमति रौतीति भ्रमरः माघ०६मा भ्रमति रौति च भ्रमरा । मा०मा १० । विशे० । अनु० । भभिर-भ्रमिन-त्रि• I" शीलाऽपर्थस्येरा"॥ ॥२॥१४४॥ ज्य० । रामायते च । "षिसालपीवरभमरोहपरिपक्ष- इति प्रारुतसूत्रेण शीलाप विहितस्प प्रत्यपस्पेरायः। घिमल संध। "हा०१ ०१०। जी०।" मोऽनुमालिको भ्रमशीले, 1०२पाद । पा"॥४॥२६॥इति प्रारुतसत्रेणापशेडनानीपत. भमभा-देशी-शृगास्याम् देना०६बर्ग १०१ गाथा । मानस्यासंयुक्तस्य मकारस्यानुनासिको षकारो था । भवर । भमुहा-भू-खी। नेत्रावयषधिशेषे,मौ०।"भुममा भमुहा।" भ्रमरप्रा०४पाद।'फुगंधमा रसाऊ. भिगा भसला य । पाइना०२५२ गाथा । धूनेबाईरोमाणीति । कल्प० ३ मभरा अलिषो । दिदिरा रोहा, धुभवाया छप्पया अधिकाण।वी भम "भाबा.२१०२१.. भमरा ॥१॥" पाहना. ११ गाथा । भ्रमन् शै. म. ।" प्राणामियचाबहालकिरहभमराहमणुकमिणणि. तीति भ्रमरः । प्रव०४द्वार । कालपणे सम्पाति प्रव०४बार । कालयण सम्पाति- भमुहे।"भा नि पुरुषतया लोकव्यवहते । प्रश्न. १ माधवार) भम्म-भस्मन्-न० । भण'शम्दा, प्रा०२ पाद । चतुरिन्द्रियजीवषिशेषे, विशे० । " लोगव्यवहारपरो, वषहारो भणाकालमा भमरो। परमस्थपरो भर, नि | भम्मय-भस्मक-न। 'भप्पय 'शम्मायें, प्रा०पाद। छात्री पंचवमोति॥ ३५८६॥"(मस्या व्याख्या 'जय' भम्मरासि-भस्मराशि-पुं० । 'भप्पराशि' याथै, ०. शभे चतुर्धमागे १८१२ पृष्ठे गता) विशे० । भाचा भा० २० पाहु। मा दश प्रशा।भाभी. प्रश्नारा 01 उ. | भमा-भस्मन-म० । 'भप्प 'शब्दाथै, प्रा० २ पार। १०। सूत्र। |भमहम-भस्मक-म01'भप्पय 'शधा प्रा०पाल। Page #1401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३७८) नम्हरासि अभिधानराजेन्डः। भम्हरासि-भस्मराशि-पुं० । 'भप्परासि' शब्दार्थे, चं० प्रायाणत्यो भवति, मा हारिज त्ति तस्स जं बीहे। प्र०२० पाहु० पायाणभयं तं तु, आजीबो मे ण जीयेऽहं॥३॥ भय-भज-धानोगे, सेवायां च । भ्वादि०-उभ० सक०-अ. असिलोगभयं अयसो. होति अकम्हा भयं तु अणिमित्तं । मरियब्यस्त उभीए. मरणभयं होहएयं तु ॥४॥" मिट् । भजति, भजते । प्रभाक्षीत् । भेजे । वाच । विशे०।। उत्स० पाई०६ अ० कल्प० । प्रशा०। दर्शन स्था .. भय-न० । विभेत्यस्मात् 1 भी-अच् । भयहेतो, भाये अच् । जे भिक्खू अप्पाणं बीभावेइ, बीभावंतं वा साइजइ ।१६७ पापा भीती,उत्त०१४मासूत्र । भयं भीतिः परित्रासो । जे सिक्खू परं बीभावंड, बीभावंतं वा साइजइ ॥ १६ ॥ अकस्मात् । शा०१०१०ाप्राचा०.प्रा०प्रश्न । स्था। उभयं धा अनन्यभावे प्रात्मैव प्रात्माऽपृथग्भावे प्रामव्य. कल्प० । "किंभया पाणा।" (भिय' शब्चे तृतीय भागे ५२६ / तिरिकापरः, श्रात्मपरव्यपदेशेन भयं भवति, पैहिकपार. पृष्ठे विपतम् ) स्था०१० ठा० । त्रासे, स्था० ३ ठा०१उ०।। त्रिकं भयोत्पादन बीभावनं च उगुरु पच्छितं, प्राणादिया य भाषा अपायोटेगिस्वे, नि०यू०१ उ.। मोहनीयप्रकृतिस- दोसा भवति । मुस्थेमात्मपरिणामे, स्था०७ ठा० । भयं मोहान्तर्गता नोक दिधमणुयतेरि-च्छयं तु प्राकम्हिकं व णायन । पायरूपा प्रकृतिः। मातुकाभयकारणे दुर्गतिगमनाऽऽदी."ए. एकेकं पि य दुविह, संतमसंतं च णायनं ॥ ३७॥ याभियाहिं पेडिया।"सुत्र.१०२०१०। सनिमि. समनिमित्तं षा यद्विमेति तद्भयम्। प्राभ्यन्तरपन्धिदे..१ भयं चउम्विहं उप्पज्जति-पासायादिपहितो दिव्वं, तेणादी. उ०२१का भयस्य निक्षेपःषविधः-नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्र. एहितो माणुस्सं, आउतेउवाउवणस्सयाइएहिनो य ते. कालभाषभेदात् । तत्रनामस्थापने सुगमे. द्रव्यक्षेत्रकालभया रिच्छ निरयहेतुकं चउत्थं अकस्माद्भयं भवति । एक पु. म्यपि प्रतीतानि। म्याद्यं द्रव्यभयमित्येवं सर्वत्र पञ्चमीत. को दुविहं संतासंतभेषण । पिसायतेणसिंघाइए दिट्टेसु त्पुरुषसमासाऽश्रयणात्। अन्यथा वा यथायोग भावनीयम्।। जं भयं उप्पज्जति तं संतं, अदिडेसु असंतं । अक. भावभयं सप्तधा-नहलोकभयं, परलोकमयम् अन्नदानभयम् ।। स्माद्यं संतं प्रारमसमुन्थं मोहनीयभयप्रकृत्युदयोद्भवमाकस्मिकभयम्, भाजीविकाभयम्, अश्लोकभयम्, मरणभयं ति, असंतं अकस्माद्यं भय कारणसंकल्पिताभिप्रायोत्पन्नम् । चेति । नत्र यत् स्थभावात् प्राप्यते यथा मनुष्यश्च मनुष्यात्ति. चोदकाह-उण बहलोकभयं, परलोगभयं श्रादाण भयं, रचस्तिर्यग्भ्य इत्यादि तत् इहलोकभयम् । यत्परभवानवा- पाजीवणाभयं, अकस्माद्यं, मरणभयं, असिलोकभयं । एवं प्यते यथा मनुष्यस्य तिरश्चस्तिरची मनुध्यात् परलोकभः | सत्तविहं भयसुतं, कहं चउवि भणह।। पम् । माजीषनं जीविका, तस्या उच्छेदेन भयमाजीविकाम. प्राचार्याऽऽहपम् इत्यादि । मा०म०१ १० प्रा० चू०। कामं सत्तविकप्पं, भयं समासेख तं पुणो चउहा। नामावविहं तं, भावभयं सत्तहेहलोगाई ।। तत्थाऽऽदाणं नसणे-ण होज्न महवा वि देहुवहीं ॥३८।। इहलोग सभवभो, परलोयभयं परभवामो ॥३४५०॥ कामं शिष्याभिप्रायानुमतार्थे, तदेव सत्तविहं भयं सं. किंचणमादाणं त-भयं तु नासहरणाइनो नेयं । स्त्रियमाणं चउव्यिधं भवति । कहं पुण संखेप्पति ।। उच्च. बम्झनिमित्ताभावा, जं भयमाकमिहयं तं ति ॥३४५१॥ ते-दहलोगभयं मणुस्सभये समोतरति । परलोगमयं निव्वतिरियभरसु समोतरति । आदाणमाजीवणमरणप्र. प्रसिलोगभयपजसभो, जीवमाजीवियाभयं नाम। सिलोगभयं च ते चउरो वि तिसु दिव्वादीपसु समोत. पाणपरिचायभयं, मरणभयं नाम सत्तमयं ।।३४५२।। रंति । कथम् । ?, उच्यते-जतो आदाणेण हत्यट्टितेण मामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात्तत्वविधं भयम् । तत्रा- दिब्त्रमणुयतेरिच्छयाणं बीभेति, आजीवणं वित्ती, सा य या पथमेवाः सुव्यायपेयाःभावभयं तु रहपरलोयाऽऽयाण दिव्यमणुपतेरिच्छियाऽन्यतमा भीतो, मरग प्राणपरित्या मकम्हा माजीषमरणमसिलोप" इति वचनात् सप्तधा भव. ग असावपि दिव्यमनुष्यनिर्यगन्यतमभावावस्थस्थति ना. ति। तथापाह-(पहलेोगा ति) तहलोकजं भयं स्वभावतः रकाः किल मरणभपमिच्छ येव । अकस्मात् कारणात् सभषापपा-मनुष्यस्य मनुष्यात्तिरश्चस्तिर्यग्भ्य इत्यादि। पर त्रिविधमेव मरणभयम् । असिलोगो वि दिव्यमणुरसु सं. लोकभयं तु परभवाद्यथा-मनुष्या स्तियेगादिभ्यः। किश्चनं भवति, संतीसु य पंचेन्दियतिरिएसु अकस्माद्यं सट्टाणे प्रध्यवानमुच्यते, तद्भयं तु न्यासहरणाऽदिभ्यो क्षेयम् यत्न समोतरति । एवं सत्त भया चउसु भएस समोतारिता । बानिमित्ताभावादकस्मादेव भवति तदाकस्मिकम् । एत्थ समस्त प्रादाणभयं ण होऊज । प्रहया समणे वि प्रश्लोका-प्रश्लाघा तद्रयं त्वयश इति । श्राजीविकाभयं तु देहोवहि चेव भादाणभयं भवति । दुििवकाभयम् । मरणं तु नाम यत्सप्तमं भयं तत्प्राणप चोरकाऽऽह-कहं देवही पादाणभयं ?, उच्यतेरित्यागभयभिति । विशे०। उत्त०। गाहा"परलोयादाणे, माजीवसिलोय तहाकम्हा य । एगेसि जं भणियं, महन्मयं एतदेव विहिसुता। मरणभयं सत्तमयं, विभासमेएसि बोच्छामि ॥१॥ बहलोगभयं परम, जं मायामो सरिसजाईभो। तेगणादाणं देहो, मुच्छासहियं च उपकरणं ।।३।। बीरगंतु परमा-दयाण परलोयभयमेयं ॥२॥ बंभचेरो विधिसुनं, तस्य भणियं, एतदेवेगेसि मरम्भयं Page #1402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३७६) जय अभिधानराजेन्सः । नय भवति । एतदेव सरीरं एगेसि अविरयजीवाणं महतं भयं | पया ते धयागुपालणा. ते खंतिसंपनाए दोण कर, पए भवति, तेण कारणेण देहो आदाणं भन्नति, उचगरणं च गुरुभत्ती. ते एते हिंसातो वेदणिज्जं वज्झति , विवरीय. मुच्छासहियं श्रादाणं भवति नासं । हेऊहिं प्रसाति, मोहणिज्जं दुबिह-दमणमोहं. चरित्तमो. गाहा च। तत्थ दंसणमोहे अरतपडिणीययाए, एवं सि. रक्खसपीसायतणा-इएसु उदयम्मि दुमादी । चेतियतबस्सिसु य धम्मसंघस्स य पडिणीयतं करतो तविवरीयमकम्हा, जो तेण परं च अप्पाणं ॥४०॥ दसणमाहं बंधति , तिब्बकसायत्ताए बहुमोहयातो राग. दोलसंपन्नया, ते चरित्तमोई बंधति । आउयं चउब्धि रक्त्रसपिसायाऽऽदिकं दिवं. तेगाऽऽदिकं माणुसं, उद यग्गिजहमादियं तेरिच्छ , अकस्माद्भयं च । एतेण चउ तत्थ णिरयाउयम्स इमो हेऊ, मिच्छत्तणं महारंभया , बिहेण जो अप्पाणं परं उभयं वा । ते महापरिग्गहा . ते कुणिमाद्दारणं णिस्सीलया , ते रु, गाहा इज्झाणेण य णिस्याउयं निबंधति । तिरियाउयस्स इमो बीहावेती भिक्खू , संते लहुगा गुरू असंतम्मि। हेतू-उम्मग्गदेसणा , ते संतमग्गविप्पणासणेण माइलया, ते सढसीलता , ते ससल्लमरणशं । एवमादिपहिं तिरिआणादी मिच्छतं,विराहणा होति सा दुविहा ।।१।। यात्राउयं निबंधति । इमे मणुयाउयद्दे उपो-विरयतिराहो संते लहुगा, असंतेसु च उगुरुगा इत्यर्थः । दुविहा मा जो जीवो तणुकसातो दाणरते पगतिभयार मणुयाउयं यसंजमविराहणा। बंधति । देवाउयहेतू इमे-देसविरतो सब्यविस्तो वालत. गाहा वेण अकामणिज्जराए सम्मदिट्रियाए य देवाउयं बंधति । नाधिक्खति अप्पाणं, एक परं खेत्तमादिणो दोसा। णाम दुविहं-सुहासुहं । तत्थ सामन्नतो असुभे य इमे भूएहिं घेप्पेज्जा, भेसेज परं च जं चऽयं ॥ ४२ ॥ हेतू-मणवयकायजोगेहि बंको मायावी तिहिं गारवेहि जह मोहप्पगडीणं, कोहाईणं विवजणा सेया।। पडियद्धा , एतेहिं असुभं नाम बज्झति । एतेहि चेव तह चउ कारण मुदयं, भयं पि ण हु सेवितं सेय।४३। विवरीपहिणीयागीयं । सामन्नतो पंचविहंतराए. इमा हेतू-पाणवहेसु सावते अदिनादाणमहणपरिग्गहे य पते. अप्पाणं पर वा बीभावतो अप्पाणं परं च णावेक्वति. सु रबंधगो जिणपुयाए विग्घकरे मोक्खमग्गं पब्वज्जं. बीती सयं परो वा,खित्तचित्तो भवज्जा तत्थ मूलं । गिला. तस्स जो बिग्धं करेति पतेसु अंतराइयं बंधति । विसे. गारोवणा य, भीमो वा संतो तं चेव बीभता पाहा. सहेऊ उवउज्ज बरा गए-तेसु हेउसु सिकारणे बटुंतस्स णज्जा, भीतो घा भूतेण घेप्पेजा प्रहगृहीतो था परं भी. पच्छित्तं भवति । चोदकाह-जाव घायरसं पारेती ताव सिज, तस्थ वि बह पनावणादिया मीमा. जंच अन्यत् । सम्पजीवा आउयधज्जातो सत्त कम्मपगडीतो णिचकालं खेत्तादि अणबज्जो छकायविराहणा करेज्ज तत्थ से का. सप्पभेदा बंधति । कई अपायच्छित्ता भवति , सपाययणिप्फर्म जम्हा भए कज्जमाणे एन्थ दोसा तम्हा भयं च्छिसस्स य सोही णथि सोही । अभावे य मोक्खो ण कायब्वं ॥४२॥ इमं कारण जह मोहणिज्जस्स को. भावो । प्राचार्याऽऽह-काम गाहा तीवेषु प्रवर्ततः प्रा. हादिया उत्तरपगडीणं वज्जणा सेया भवति, तम्हा भयं यश्चित्तं भवति, न मंदेषु शेषं कंठं । चाउम्बिई, मोहस्स उत्तरपगडी विवज्जेउ श्रेयं भवतीत्य. उत्तरप्रकृतीरधिकृत्योच्यते । गाहा-- र्थः ॥ ४३ ॥ अट्ठएहं असुभाओ, उत्तरपगडीउ होति पच्छित्तं । भय उत्तरपगडीओ,सेमा मोहस्स सूतिया मूले। अनियाणेण मुभासुं. न होति सट्टाणपच्छित्तं॥४६॥ पयडीतो तो जेहिं,पगारेहिं वझंतिणाणणिएहवादीहि४४ अट्टराई पगडीण जा असुभात्रो, ताणं हेउसु बटुंतस्स प. णिकारणम्मि तेसु, ब्बट्टते होति पच्छित्तं । च्छितं जहा गाण पदोसादिएसु । जा पुण सुभाओ तासु ण कामं आउयवजा, णिचं वज्झति सत्तपगडीओ। भवति पच्छित्तं, जहा णाणपदोसं करेति तित्थगरादि. जाव पवत्तइ रागो, तिव्वेसुं तेसु पच्छित्तं ॥४॥ पडिणीएसु वा अनिदाणेण वा सुभं बंधंतस्स पायच्छित्तं एयं भयं मोहणिज्जस्स उत्तरपगडी सूचियातो भवति । न भवति जहा तित्थगरनामगोत्तदेउसु । अरहंतसिद्धकार. गगाहा (?)। एवं सब्वा चेव मोहपगडीगहिया मोहमूलपगडीए सेसा सत्त गाइया मूलपगडीतो सूझ्या भवंति । तो जेहिं पग __जम्मि भेदे जे पच्छित्तं तं च इमं भमतिडीतो इति-भट्ठ मूलपगडीओ पंचाणउ वा उत्तरपगडीतो| देसपदोसादीसु विलोभे अ असरिसे फासे चउगुरुगा। सम्यक्तनिश्रयो बंधो नास्तीत्येवं पञ्चनवति एयातो, जेहि लहुओ पच्छित्तं पुण, हासभरतिणिदाचउकम्मि ॥४७॥ बंधहेउप्पगारेहिं बझति तेसु षट्टतस्स पच्छितं भवति ।। णाणस्स जति देसे पदोसं करोति, आदिग्गबणातो णाते य इमे-जाणं जस्स समीवे सिक्खियं तं णिरावति. णस्स चेव जदि देसे पडिणीयत्तं अंतरायं मच्छर निराह नाणिपुरिसस्स पडिणीश्री प्रत्येज्जंतो वा अंतरायं करंति, घणं वा करेति, सायावेयणिज्जस्म निहाणादिपहि अप्पस. जीधस्स वा णाणोबधायं करेति , णागिापुरिसे वा पादोसं स्थभषसाश्री जदि हेतुए बद्दति,लोभ कसायस्स य जर. करेति एवमादिपहि पञ्चविणाणावरणं बज्झा, एतेसु | घहे उप बद्दति, तो मासलहुं असरिसफासबंधस्स जति वेव सविसेसेसु एवधि सणावरणं वज्झति , भूताणुकं उए वहृति, पतेसु सम्बेसु चउलहुगा पच्छि, सासं भ. Page #1403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भय (१३८०) अभिधानराजेन्द्र भय रती निद्रा निहाणिहा पयला पय लापयला एयाण छुराहं पग- हा अपरिषखीण कम्मे य पुनाभावे देघेसु केण हे उणा उप डीणं जति हेउसु बट्टति तो मासलहुं पच्छितं । यजति । गाहा एवं चोदकेणोक्ने प्राचार्याहसम्वे णाणपदोसा-दिए थीणे यहोति चरिमं तु ।। पुचतवसंजमा हों-ति एसिणा पच्छिमो भगारस । निरयातुणिमवज्जे, मिच्छे वेदे य मूलं तु ॥ ४८॥ रागो संगो वुलो, संगो कमसंभवो तेण ॥ ७ ॥ तिरियाउ सुभनाम-स्स चेव हेतूसु मासियं गुरुयं । पूर्वा इति प्रथमा,के ते तपासंयमश्च । यत्र तपः तत्र नियमा सेसासु अप्पसत्था-सु हाँति सध्यासु चउल हुगा ॥४६॥ संयमः, यत्र संयमः तत्रापि नियमात्तपः, उभयोरव्यभिचार. माणस्स जति सम्वस्स पदोसं करेति, पडिणीयादिहे उसु प्रदर्शनार्थ तपासयम ग्रहणम् । यथा यत्रामा तत्रोपयोगा, पावट्टतिथीण गिद्धिणिहाए य जति हेऊर वट्टति.तो पारंचि. यत्रोपयोगस्तारमा इति सामादियं दोषट्ठागीय परिदार. यं पत्तिं णिरयाउयस्त हेऊहिं सवादिणामस्स जा म विसुद्धियं सुहुमसंपरागं च । एते युवतवसंजमा एते णिमुभा पगडीओ ताण य हेउप वकृति, तो मासगुरुं पच्छि यमा रागिणो भवंति. तं च अहा स्यातं चारित्रमित्यर्थः । सं, (सेसासु त्ति) चउरो दंसणभेदा लोभवज्जा, पनरस फ. अहवा अणमाादिया जाय सुझारपस्स भादिमा दो साया, हासादिछक्के य हासभरतिबज्जा चउरो भेदा, नी. भेया पुदत्तचितवं सवियारं, एगत्तवियर्क अधियारं च । पते यागायं पंचविहं च, अनंतयाणं पयाण अप्पसस्थाण बंध. पुव्वतया, सामाइयछेदपरिहारसुहुमं च । पते पुव्वतयसंज. हेउसु यहूंतस्स चउलहुगा पच्छित्तं । जमा णियमा रागिणो भवंति सुहमफिरियानियट्टी पी. चोद काउ छिन्नकिरियमप्पडिवाइंच, पते तच्छिमतवा, अहवखायचा. रित्तं पच्छिमसंजमो', पते पच्छिम तयसंजमा नियमा असका अप्पसत्था-णं तु हेतवो परिहरित्तु पयडीणं ।। रागिणो भवन्ति । एतेहिं पुचतवसंजमेहि देवहिं उपयज्जति, साहादि पसस्थाणं, कह णु हेतू परिहरेजा ॥५०॥ सरागित्वात्। रागो त्ति पा संगो त्ति का एकार्थ, यतो भणितं. अप्रशस्तप्रकृतिहेतवो वर्जितुं शक्यन्ते, अशुभाध्यवसाय रागो संगो खुत्तो, अहया कम्मजणितो जीवभावो रागो, पर्जनात्, कथं नित्यकालशुभाध्यवसितः साधुः शुभप्रकृति- कम्मुणा सह संजोयं पत्तो स पय संगो धुत्तो, संगातो राग हेतून् वर्जयति, तेषां शुभाध्यवसायबम्धान् । इति भदेगा णिषतमाणं कम्म. भवति, सेण कम्मुणा उदिचोदक पवाऽऽह । गाहा ज्जमाणेण भवो भवते संसारेत्यर्थः । ते य सरागसंज. जति वा बज्झति सातं, अणुकंपादीसु तो कह साहू।। जता पल्लामपखबदिटुंतणं बहुसोधगा अप्पबंधा कमेण पच्छिम तवजम पप्प मोक्त्रं गच्छन्ति । एवं सुभगपडि. परमणुकंपाजुत्तो, वजीत मुक्खसुहणुबंधा ।। ५१ । । बंधेतु साधवा जतम्ति जम्हा पगडीतयेसु पवतंतस्स पते जति सातं यज्झति भूयागुकंपया ते, प्राविस हाता वयसंप. दोसा, तम्हा नबीभे, न घा परं बीहाधिज्जा। कसा ते,संजमजीगुज्जमेणं खतिसंपन्नत्ता ते. दाणच्याप गुरु. गाहाभसिरागेण य तो साहू एतहिं अणुकंपाएहि जुत्तो पुन बंधा कहं मोक्खं गच्छति, जातं पुखं मोक्खगमणविग्घाय हवति । वितियप्पदमणपज्झे, बीमे अप्पज्झ हीण सत्ते वा। किश्चान्यत् । गाहा खेत्ताऽऽदिय सं च परं,पवाति पहिणीय तेणं वा ॥५७।। सुहमवि अवेदयंतो, अवस्स असुभं पुणो स सादयते । अणपझो खेत्तादिनी सयं षा बीपति परस्स बीभाइ, एवं तुणस्थि मोक्खो,कई घ जयणा भवति एत्थ ॥५२।। हीण सत्तो पा अप्पाझो बीज खतादियंपा पर सवादि घा पडिणीयं अणुवसमंत सरीरोवगरणतेणं या दुविधा सहं आवेदेतो अवस्सं पावं बंधति , पुमपायोदयाय अब. भातो निहोसस्यर्थः । नि०० ११ उ० । नाटकप्रसिद्ध स्सं संसारो भवति, अतो पचं साहुस्स मोक्खो नत्थि। रसभेदे, पाच । कई वा एरथ साहुणा जतियब्वं घटितव्यमित्यर्थः । भयरहितस्यैव स्थिरत्वमिति निर्भयस्यमाहगाहाहवा ण चेन बज्झति, पुर्ण नावि असुमोदयं पावं । यस्य नास्ति परापेचा, स्वभावाद्वैतगामिनः । सन्न घणिट्ठियकम्मो, उपवनति केण देवेसु ॥ ५३ ॥ तस्य किं न भयभ्रान्ति-क्रान्तिसन्तानतानवम् ॥१॥ यस्येति-स्वभाषाद्वैतगामिनः स्वकीयो भाषः स्वभाधो नि. भमाइ जहा णु कोई, महपल्ले तु सो चयति परछं। जस्वरूपलक्षणस्तस्याद्वैतं-द्विधा इतंभे गतं द्वीतं, तदेव पक्खियति कुंभ तस्स तु, णस्थि खनी होति एवं तु ५४ द्वैतं, न द्वैतमतमभवैक्यं, तत्प्रति गन्तीत्येवंशीलः स्व. अमो पुण पल्लातो, कुंभ मोहयति पक्विवति पच्छ । भावाद्वैतगामी पुनः पुनरभेदस्वभावे प्रवर्तनशीलस्तस्य , तस्स खो भवतेवं, इय जे तू मंजया जीवा ।। ५५ ॥ यस्य वक्ष्यमाणगुण कदम्ब युक्तस्य । परापेक्षा परेभ्य मारमा व्यतिरिक्तपादाभ्यो यापेक्षा देहविषयाऽऽदिभ्यः सुजाउदे. तेसि अप्पा णिञ्जर, वज्झति पाव तेण णस्थि खो। राकासा सा। नास्ति-न विद्यते । तस्य प्रोकरूपस्य । भयभ्रा. अप्पबंधो जया णं. बहुणिजग्णे तेण मोक्खो तु ॥५६॥ | स्तितान्तिसन्तानतानयं भयम् इहलोकभयाऽदिसतविधत्राप्रहवा अणुकंपादिएहि पुनं न पज्झति ण वा पावं सत्र । सः, धान्तिर्वियाऽऽदिषु सुखप्रात्याविभ्रमातान्तिः मांसा Page #1404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०१) प्रय अभिधानराजेन्डः। भय रिकप्रवर्तते थाम्नस्यातिः एतेषां द्वन्द्व कृते, तेषां यः सम्तानः सजागरायां शानदृष्टौ भयभाष एवेस्याहसम्पराप्रयाहस्तस्य तानपं तनोर्भावस्तानवं तनुता, स्वमयूरी ज्ञानदृष्टिश्चे-त्मसर्पनि मनोवने । मातेति यावत् । किं न भवेत् ? अपि तु भवेदेस्यर्थः ॥१॥ बेष्टनं भयसाणा, न तदाऽऽनन्दचन्दने ॥ ५॥ सभयपनिर्भयत्वाभ्यां सांसारिक ज्ञानसुखयोरसारता. ' म ते-हे श्लाघ्यशील! चेद-यदि मनोरने हदयरूपारामे. सारते दर्शयन्नाह ज्ञानरष्टिः शुखचैतभ्य स्वरूपानुपायिनी ज्ञानपरिणनिम्नपूणा. भनसौख्येन किं भूरि-भयज्वलनभस्मना । मयूरी शिखिनी मयूराणां संहतिर्या सा। प्रसपत्यपूर्यापूर्वक्षा सदा भयोज्झितं ज्ञानं, सुखमेव विशिष्यते ॥ २॥ नपरम्पराऽऽविर्भावरूपया स्वेच्छया विलाम करोति, तदा । भयेति-भो भव्य ! भूरिभयज्वलनभस्मना भूगणिच तानि मानम्ममन्दने परमप्रमादरूपे धीखण्डवृत्ते, भयसर्याणां भ. भयानि म भूरिभयानि हलोकपरलोकाऽऽदाना उकसमावजी यानि पूर्वोक्तानि ताम्येव सपा प्रहयस्तषां घेष्टमं स्वशविकाऽपश्लोकमरणरूपाणि, तान्येव वजनाः सुखेन्धनज्वा. रीराभोगेन परिवेष्टनं भयानां स्वोस्पतितया व्यापन, नभ सनसमर्था पहरस्तेभ्यो जातं यदा-रक्षा तेन भयज्य यति । अयं भाषा-शानेन स्वस्यको अबिनाशिस्वाऽऽदिना सनज्यालितमस्मरूपेणेति भावः । भयसौख्येन भवे संसारे निर्धारिते सति भय कारणाभावः स्यादित्यर्थः ॥ ५॥ गतं यत्सुखस्य भावः सौख्यं तेन । (किम्)किं फलं ,न कि. पुनरप्पुक्लार्थमेव विशेषय नाहमपि, भयशोधितानन्दरसत्वेन निःस्वादनीयस्यात् । सदा! कृतमोहात्रवेफन्यं, ज्ञानवर्म निभर्ति यः । सर्यकालम् । भयोज्झितं-भयैः पूर्वोक्कैस्त्यक्तम् । यद्वा-मयान्युः कभीस्तस्यक वा भङ्गः कर्मसङ्गरकेलिषु ॥६॥ ज्झितानि येन तत् । शानं निजस्वरूपाऽऽवेदनम् । एष निश्चितं सुख मानन्दरूपं. विशिष्यते सर्वाधिकसुखत्वेन भियते,केवल कृतेति शास्तचिस ! यो ज्ञानी, कृतमोहाखवैफल्यं सुबत्वेनावधार्धत इत्यर्थः ॥ २ ॥ कृतं-रचितं मोहस्य पूर्वोक्तरूपस्य यान्यस्त्राणि कामक्रोध योगिनां भयाभावे हेतून् दर्शयन्नाह हर्षशीकारत्यशानभय जुगुप्साउदीनि प्रहरणानि सेषां यदि फलस्य भावः कर्म वा वैफल्य विगसशक्तिस्थं येन नत् । न गोप्यं क्वापि नागोप्यं, हेयं देयं च न क्वचित । शानधर्म ज्ञानं स्वपरत्वविवेचनमर्थबोधस्तदेव तद्रूणं या क्व भयेन मुनेः स्थेयं, ज्ञेयं ज्ञानेन पश्यतः ॥ ३ ॥ यद्वर्म तनुत्राणं, कवचमिति यावत् तत्, बिभर्ति स्थाओं मगोप्यमिति मुनेः परमारमभाषप्राप्युपाये प्रवृत्तस्य सा धारयति-यथार्थ शानं प्राप्तः । तस्य पूर्वोक्तगुण विशिष्टस्य, धोः । कापि प्रामे घने दिया रात्रौ च । गोप्यं-गोपनीयं का कर्मसङ्गर केलिघु-कमभिर्धानाऽऽवरणादिभिः सद यः सङ्गरो पाटवस्त्राऽऽविभिः स्थगनीयमिति यावत् । न विद्यते युद्धं तस्मिन् याः केलणे दुःखाऽऽघात रूपाः क्रीडास्तासु, केनाप्पहरणीपधर्मधनत्वात् । आरोप्यमारोपणीयं कचित् भीर्मयं क भवेत् ?, न कापि । वा-अथवा भङ्ग-पराजयः, स्थानाम्सरे म्यासस्पेन स्थापनीयमपि तस्य न विद्यते स्व क?, शानोदयेन निरस्तभय मोहनीयत्वान्न काप्रीत्यर्थः ॥ ६॥ भावधर्मस्याम्यत्र नेतुम शक्यत्वात्। हेयं स्वभावमध्यात्या' ज्यं .देयं परस्मै स्वरूपम्य वातव्यमपि चन कचित् भयकृतपीडा शानिनामेवास्तीत्याहकुत्रचिदपि न विद्यते, अभेदे स्थाऽऽस्मभावे तयोरविषयस्यात् तूनवल्लघवो मूढाः, भूमन्त्य भयानिलेः । देयं ज्ञातुं योग्य वस्तु । ज्ञानेन स्थानुभषबोधस्वभाषेन । नेकं गेमापि सैज्ञान-गरिष्ठानां तु कम्पते ॥ ७ ॥ पश्यता विलोकयतः मुनेः । भयेन प्रोतलक्षणासेन । क तूलवदिति-हे माध्यस्थ्यभाभीरो!, मूढाः-अज्ञातस्वस्व कुत्र । स्थेयं स्थातव्यम् । तस्य समया स्थितिः कास्ति । न रूपाः । तूल वल्लघवः तूलमर्कतहरूतं, तद्वत्तसरशा लघयोकापीत्यर्थः ॥ ३॥ ऽल्पा महत्त्वेन रहिताः। भयानिलैर्मयानि पूर्वानानि तापूर्षोलतुतो मुनिर्निर्भय एयेत्याह न्येवानिमा वायवस्तैः । अभ्रे सकललोकाउकाशाऽऽस्मक पकं ब्रह्मास्त्रमादाय, निघ्नन्मोहच{ मुनिः । गगनमण्डले, भ्रमन्ति नानाजन्मरूपस्थानास्थानान्तरे विमेति नैव संग्राम-शीषस्थ इव नागराट् ॥ ४ ॥ वर्तुलाऽऽकारणाटन्ति तु-पुनः, शानगरिष्ठानां मानेन-पूर्वो एकमिति-मुनिर्धवर्मधारकः साधुः । एक सर्यपरिहारे. क्नेन गरिष्ठा-गुरुतरा:. विशाल बोधिस्वेनातिनहान्त इति या. णाद्वितीय, ब्रह्मास्त्रं ब्रह्म जीयस्य निरअनायस्थाऽनुयायि षत् तेषां । तैयामिलः । एकम् आसतां प्रभूतानि एकमपी शुद्धशानं तदेव तद्रूपं वा अस्त्रम् अप्रतिहत शक्तिमत् यजाऽऽदि त्यपरर्थः। रोम देहजः समः केशः । उपलक्षण तो जीयप्रदे शः, तदपि न कम्पते-जन इति ॥ ७॥ प्रहरणं तम्प्रादाय-गृहीत्या.(मोहवमूम)मोहोजशानं माहनी. यकर्म वा तस्थ उपलक्षणत्वाच्छेपकर्मणामपि या चमू सन्यं अधोपसंहारमो निर्भयताया स्थानं दर्शयवाहता. निघ्नन् नितगं ध्वंसयन् । (न विभति) भयं न गच्छति । चित्ते परिणतं तस्य, चारित्रमतोभयम् । करव, संग्रामशीर्षस्थः संग्रामा युद्धं तस्य यच्छी प्रका। अखएदज्ञानराज्यस्य, तस्य साधोः कुनो भयम् ॥८॥ नारू मस्तकं तत्र स्थितःनागरराट् गजराज इस यथा चित्त इति-हे कल्याणाऽबरण! अकुतोभयं न विद्यते कु म विभेति, तथा मुनिरपि भीमपरीषहोपसर्गसम्पातेऽपि न तोऽपि कस्मादपि भयं भौतियस्मिस्तदकुतोभयं , चारित्रं विभेति । ब्रह्मस्वरूपावेदने संस्लीनधिसत्वेन देहपीस न जा सकलविभावनिवृत्तिपरिणामरूपः संयमः, यस्य भव्य जननातीत्यर्थः॥४॥ | स्थ, चित्ते-मनसि, परिणतं सफलाऽऽरम प्रदेशेष्यकातिमा. ३४६ Page #1405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८२) अभिधानराजेन्द्रः । जय वेन व्याप्तं जातं, तस्य पूर्वोरुपस्थाख एडज्ञानराज्यस्य-न चिपस 135 वाऽऽदिमि राज्याबनदेव राम्रो भाषा कर्म वा राज्यं ते जो ज्ञानप्रकाशो यस्येति यावत् तस्य । सा जयग " प्रकृतिः। श्रातु० । भयं मोहनीय कर्मभेद इति । आव ०५ प्र० । भयकारण भपकारण न भवती भयकारणं तु तिविद्धं । " त्रिविधे बाह्य भयकारणे दिव्यमनुष्य तिर्य्यग्भेदभिन्नं इति । श्रव० ५ श्र० । भीमभय-भूतभू-स्पर्धेपो यदुक्तं प्रशमरतौ" आवाराध्ययनोक्लार्थ -२ -भावनाचरणगुप्त - हृदयस्य । न तदस्ति कालविवरं यत्र क्वचनाभिभवनं स्यात् ॥ १ ॥ " इति ॥ ८ ॥ श्र० १७ श्र० । भयंकर - भयङ्कर त्रि । भयं करोति कृ अच्-मुम् च । भ यजनके, "भयंकरा येह परत्र नैव च । 39 वाच० । सूत्र० २ ० ७ ० । प्रश्न । रसभेदे, डुण्डुलविहगे च । पुं० । वाचo | प्रशस्त मनोविनयभेदे, ग० १ अधि । गौवना ना प्राणबधे च प्रश्न० ९ श्राश्र० द्वार | मयंका गु-भयध्यान- न० । भयं मोद्दान्तर्गता नोकषायरूपा प्रकृतिस्तस्य ध्यानं भयध्यानम् । ध्यानभेदे, कृतगजसुकुमारोपसर्गस्य सोमिलस्येव । श्रातु० । भयंत- भजमान त्रि० ० भज- शानच् । न्यायागतद्रव्यादौ विभाजके सेवके च । वाच० । सेवां कुर्वति च । वृ० ३ उ० । अ०चू" । प्राय० । भदंत - पुं० । भट्टारके, उपा० २ श्र० । परमकल्याण योगिनि "उभियंतेहि । " ०० १३० । भवान्त पुं० [अवस्य मीते रहे तुम्बात् भयान्तः भवान्त हेती, जं० १ बक्ष० । भयंतमत भजमानमित्र पुं० [जगदेव स्याssवार्य्यस्य शिष्ये स्वनामख्याने साधी, श्र० ४ ० । तदव भजमानचन्दनक न० भजमानं मां भजते सेवायां पतितः, श्रग्रे वा मम भजनं करिष्यति श्रतोऽह मपि वन्दनसत्कं निशेरकं निवेशयामीति युद्धया वन्दनं मजमानचन्दनकन्। द्वादशे यन्दनको ०२ अधि आ००। चन्दकमपि द्वारा दोषमाद भवति भवति प म वंदति एटोरगं ति एमेव य मेची, गारवसिक्ख विणीतोऽयं ॥ स्मर्तव्यम् आचार्य भन्दा निष्ठाम निहोरकं निवेशयन् बन्दते । किमित्याह - एष तावद् जने अनुवर्त्तयति मां सेवायां पतितो मे वर्त्तत इत्यर्थः । अत्रे वा मम भजनं करिष्यत्यसैौ ततश्चाहमपि वन्दनकसत्कं निहोरकं निवेशयामीत्यादान यजमान वन्दनकम् | बृ० ३ उ० । श्राव । प्र० । ( उत्तरार्द्धव्याख्या तु' बंदणगदोस' शब्दे ) भयंता - भक्तृ त्रि० । सेवके, उपा० २ श्र० । औ० । भयंतार-भयत्रात्- त्रि० । भयास्त्रातरि उपा० २ श्र० । अनु स्वारस्वलाक्षणिकः । श्र० । सूत्र० । भयकम्प - भयकर्म्मन्न [- न० 1 यदुदयेन भयवर्जितस्यापि जीव. स्लोकाऽऽदिसतप्रकारं भयमुत्पद्यते तद्भयकर्म । नोकषा कर्मभेदे स्था०६ ठा० । भयं मोद्दान्तर्गता नोकपायरूपा भृतः। स एवानुकम्पितो भृतकः । कर्मकरे, स्था० ४ ठा० १ उ० । भृतका मूल्यतः कर्मकरा इति । स्था०४ ठा० १३०१ भूतको निर धृतः । जं० २ वक्ष० । जी० । भृतको वेतनेनोद काऽऽद्यान ध० २ विधायीति । दशा० ६ अ० । भृत्या धनिनां गृहे दिन पाटकादिमात्रेण तदादेश करणाय प्रवृत्तो भृतकः । ग० १ श्रधि० । घ० । " भयगारा त्ति संधारण न कायव्वं । अधि० । प्रति० | पोषिते भ० १२ श० ७ उ० । भृतका श्र बालध्वात् पोषिताः । ज्ञा०१ श्रु०२ श्र० । भृतको भक्तदाना SSदिना पोषितः । प्रश्न०२ श्राश्र० द्वार | दुष्कालादौ निश्रि ते च । जं० २ बक्ष० । स चत्तारि भयगा पाता तं जहा दिवस भयए, जत्ताभयए, उच्चत्तभयए कव्वाडभयए । स्था० ४ ठा० १ उ० 1 (ज्यादा 'पुरिसज्ञाय' शब्देऽस्मि १०२६ पृष्ठगता इयाणि भयगगहदिवसभर य जत्ता, कव्वाले चेत्र होति उच्यत्तो । भयगो चहि खलु न कप्पती तारिसे दिक्ख । ।। ४२५ ।। भयगो चो- दिवसभयो, जनाभयगो, कब्बालभयगो. उच्चज्ञभयगो य । एस ताव संखेवतो चन्ोिविन कप्पति दिखे। पतेसिं चउर विसरूयमि दिवसे दिवसे घेप्पति, जिसे दिवसे देवसियं । जनाएँ होति गम, उमर्थ वा एत्तिणं ॥ ४२६ ।। या दिये तुम मे क दोघेति । सो दिये अ कतिपय माग जोपा मम सहायेण गागिणो वा तवं एसिपण धणेण ततो पग्नो । ते इच्छा । श्रन्ने उभयं भांति गंतव्यं, कम्मं च ले कायच्वं ति । इमो कव्वालभयगोकव्वाल उडपाढ़ी, हत्यभित कम्ममेत्तियधणं । चिरकाला ते काय कम्म न वेति । ४२७ ॥ कालो मादी तस्स कम्पनि दो तिभि वा हत्या खावितव्या छिन्नं अच्छा दादामिति । इम उमे ममं एचिरकालं कम्नं कायव्यं जं अहं भणामि, ए तियं ते धणं दाहामिति । 3 3 इमा जगाम प कतजने गहियपोले, गहिते अम्भि यत्थि पन्वना । पव्वायें गुरुगा, गहिते उड्डाहमादीणि ॥ ४२८ ॥ Page #1406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०३) भयग . अभिधानराजेन्द्रः। भयाण कयार जतार गहिर मोल श्रमहिए या कप्पर पवावे। कप्पति । भयगे ति गतं । नि०चू० ११ उ० । , गहिए मुल्ले अकयाए जत्ताए णो कप्पसि । मेसं कंठं क. भयजणणी-भयजननी-स्त्री० । सन्त्रासकारिएयाम् , वृ०९ व्वालो वि एवं चव । उच्चत्तमयगो वि काले अपुन्ने न दिक्खिज्जति । उ०२प्रक०। इयाणि कम्मे बद्धभयगाण य जे कप्पतिन कप्पति वा भयज्झरसाण-भयाध्यवसान-न. । अध्यवसानभेदे, तव ते भंगविगप्पेण विसेसिता भणति यथा गजसुकुमारमारकस्प सोमिलस्य । श्रा०चू०१०। छिसमछि य धणा, बावारिकाल इस्सरो चेव। भयट्ट-भयात-त्रि० । भीते, प्रश्न०२ सम्बद्वार। सुत्तऽथ जाणएणं, अप्पाबड्यं च णायव्यं ॥४२६॥ भयवाण-भयस्थान-न । भयं मोहनीयप्रकृतिसमुत्थ श्रापुव्यस्स इमा विभासा स्मपरिणामः, तस्य स्थानाम्यश्रया भयस्थानानि । भया. वावारे काले धणे, हिममछिमे य अट्ठ भंगा तु । श्रये, स्था। साविऍ गहिते अकए, मोत्तुं सेसेसु दिक्खंति ॥४३०॥ तच्च सप्तविधम्-. छिमो बाबारो, छिमो कालो, छिमं धणं, छिसं नाम-अमुर्ग सत्त भयद्वाणा पमत्ता। तं जहा-इहलोगभए१,परलोगकम्मं कायध्वं पत्सिगं कालं पत्तिपमा धणेणं ति । एस भए २,आदाणभए ३,अफम्हाभए ४,वेयणाभए ५,परणपढमभंगी। विनियभंगे धणं अच्छिण्णं । एवं अट्ठ भंगा भए ६, असिलोगभए । कायब्वा । एनेसि अट्टराई भंगाण वाबारे छिमे अछिन्ने भयं-मोहनीयप्रकृतिसमुत्थ श्रामपरिणामः तस्य स्थाना. या काले विछियाछिण सखीणं पुरतो साविते धणे न्याश्रया भयस्थानानि, तन मनुष्याऽऽदिकस्य सजातीयाछिमें गहिने अकए य कम्मे ण दिक्खति । सेलसु दन्यस्मान्मनुष्यादेरेव सकाशाद्यद्रयं भवति तदिहलोकदिक्खंति, ते य सेसा विचउत्थछट्टमभंगा, अधव सेस भयम् । इहाधिकृतमीतिमतो जाती लोक रहाकस्ततो भय. ति असु वि भंगेसु सक्खिपुरतो असाथिए धणे छिमे मिति व्युत्पत्तिः । तथा विजातीयादन्यस्मातिर्यग्देवाऽऽदेः अछिस या अगहिते कर अकए वा कम्मे दिक्वात । सकाशान् -मनुप्यादीनां यद्यं तत्परलोकभयं, आदीयते इयाणिं पुणो एयं चेव विसेसे त्ति इत्यादानं धनं तदर्थ चौराऽऽदिभ्यो यद् भयं तदादानभयं गहिते व भगहिते वा, छिम्मघणे मावए ण दिक्वति । अकस्मादेव बाह्यनिमित्तानपेक्षं गृहाऽऽविष्यवस्थितस्य राध्या. मच्छिमधणे कप्पति,गहिते वा अगहिते वा वि।।४३१।। दो भयमकस्माद्भयम् । घना-पीडा तद्यं घेदनाभयम् । पढमततियपंचमससमे य बावारकालेसु छिसाकिसे सु मरणभयं प्रतीतम् । अश्लोकभयमकीर्तिभयम् । एवं हि सक्खिपुरनो सावितेसु गाते अगहिते बा छिमधणे ण क्रियमाणे महदयशो भवतीति तद्भयान प्रवर्तते इति । स्था०७ ठा। विखेति । किं कारणम् ? उच्यते-सो भणेउज-मए सविता पुरती सावितं ति । अन्नं च मए अन्नो वि न गहितों इहपरलोयाऽऽयाणम-कम्हा आजीव मरणमसिलोए । तुज्झ अज्झाएति । अच्छिम पुण धणे कप्पति. किं का रणं ?, जम्हा मोलस्स परिमाणं न कयं, अकते ये परि. सत्तभयद्वाणाई, इमाई सिद्धंतभगियाई ।। १३३४ ॥ माणे ववहारो न लब्भति । भयं मोहनीयप्रकृतिलमुत्थ आत्मपरिणामस्तस्य स्थाना. "इम्सरे त्ति (४२६) " अस्य व्याख्या भ्याश्रया भयस्थानानि , तत्र मनुष्याऽऽदिकस्य सजाती. जत्थ पुण होति छिम, थोत्रो कालो व होति कम्मस्स | यादन्यस्मान्मनुष्याऽऽदेरेव सकाशाद्यद्भयं तदिहलोकभयम् । तस्थ अणिस्सरे दिक्खा, ईसरो बंध विकारेजा ।४३२। इहाविकृतभीतिमतो जन्तोर्जाती यो लोकस्ततो भय मिति व्युत्पत्तेः । तथा परस्माद्विजातीयासिग्देवाः सकाशान् धणं च विसं बहुं च कम्मं कयं च थो सेसं, कालो मनुष्याऽऽदीनां यद्भयं तस्पर लोकभयं २, तथा आदीयते वि थोयो अस्थति । परिसे कम्मे कप्पति, जदि प्रणीसरो. तो विविखजति , ईसरो पुण थोवं कम्मसेसं चपला वं. इत्यादानं तदर्थ मम सकाशादयमिदमादास्यतीति यात्रौ. रादिभ्यो भयं तदादानभयं ३, तथा अकस्मादेव बाह्य. धितुं पि कारावेज्ज । निमित्तानपेक्षं गृहाऽऽदिष्येव स्थितस्य राध्यादौ भयमक. किं कारणं इस्सरे ण कप्पति, प्रणीसरे कप्पर, ततो भन्नति स्माद्भयं ४, तथा धनधान्याऽऽविहीनोऽहं दुःकाले कथं जी. विष्यामीति दुःकालपंतनाऽऽद्याकर्णनाद्भयम् आजीविकाभयं घेत्तुं समयसमत्थो, रायकुले अत्थहाणि कडते । ५, नैमित्तिकादिना मरिष्यसि त्वमधुनेत्यादि कथिते पेल्लस्त तेण कप्पति, रोहोरसपीरिए वा वि ॥ ४३३ ॥ भयं मरणभयम् । ६ अकार्यकरणोन्मुखस्य विवेचनायो तं पब्वाचित सेलो दरिदो सयं अप्पणो घेत्तुमसमत्थो जनापवावमुत्प्रेक्ष्य भयमश्लोकभयमिति ७ । इमानि सप्त अधमो दरिहो गयकुलं गच्छति दूतगेण कति , तत्थ भयस्थानानि सिद्धान्ते भणितानि । प्रय० २३४ द्वार। धणक्यतो भवति, द्रमाभावात्तं न करोति, पल्लो-रि सासंथा। ध०। पा०। माव। . हो तस्स तेण कम्पति, इस्सरो पणकप्रिभिणिवेसा भयगणु-भजन-ना सेवने, सत्र०१६०६०।10। भज्यते उक्कोडं वि दाउं, जो पुण दरिदो रोद्र उरस्सेण वापि सर्वाऽऽरमा प्रवीक्रियते येन स भजनः । लोले, पुं० । सूत्र. घलेण गुतो मा बंधोहवणं करेस्लति ते पैल्लस्स वि| १७०६अ। Page #1407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयगा भयया भजना - स्त्री० । सेवायाम्, हा० १ श्रु० १५ अ० अ० च• । सेवा च परिभोग इति । नि०वृ० १ ० । विशे० । विकल्पे भ० १० ५ उ० । श्राष० नं० । व्य०। पञ्चा० । उस० । भने नि०चू० १६ उ० । तदात्मके प्ररूपण भेदे च । श्राचू० १ अ० । भयणिज्ज भजनीय त्रि०। विकल्पनीये, अ०म० १ अ० । भयणिस्सय-भयनिस्सृत त्रि० मृषाभेदे, स्था० १० डा० । भयदाग- भयदान - न० । भयाद्यद्दानं तद्भयदानम् । भयनिमि सत्यामपिभयमुपचारादिति । "राजपुरोहित म घुसुखमावलदण्डपाशिषु च । यद्दीयते भयार्थ सद्भयदानं व विज्ञेयम् ॥ १॥" इत्युक्तलक्षणे दानमेदे, स्था० १० ठा० । मयपडि सेवा-भयप्रतिषेी 1 भ्यस्तस्याप्रतिषेवणाप्रतिषेषण प्रतिवेमे यथा राजाभियोगामार्गाचे दर्शपति सिहावा वृक्षमारोहति। "भयममिश्रण भीमा" स्था० १० ठा० । बयपरीसह भयपरीष-पुं० उ० २० भयप्पन प्राप्तभय त्रि० मयं प्राप्ते असे मी समायवे -- जा मोसं वय।ए।" आचा० १ ० ३ ० । भयभीरु - भय भीरु.. त्रि० । भयेन भीते, " भयं परिजाह से गिांचे णो भयभीरुर सिया ।" ग्राया० १ श्रु० ३ ० । भवभयभिनत्रिया मित्राना [संज्ञा अन्तःकरण पुत्तिर्यस्य मयेन नान्तः श्र० १० ५ अ० १ ३० । भयभेरव - भयभैरव - त्रि । भयेन भैरवोऽत्यन्तसाध्वसोत्पाद कः । उत्स० १५ अ० । अत्यन्त रौद्रभयजनके 'भयभरवसद्दप हासे ।" दश० १० अ० । " भीमा भय भेरया उराला । " उत्त० १५ अ० । भयमाण- भजत् - त्रि० । सेवमाने, सूत्र० १० २ श्र० २ उ० । स्था० ६० अनुमानेच प्र० - ( १३८४ ) अभिधान राजेन्ः | - २ द्वार । भयमोहणि भयमोहनीय- न० | यदुदयवशात्सनिमित्तमनिमिया तथा जीवन पति ०सं० ३ द्वारकर्म मदभगवदन न० कुलाइ ग निष्काशवियमिति भान भयन्दनम् । एकादशे वन्दनकदोष ध०२ अधि० । प्रय० आ०० "अर्थ" निहत जितेन यत्र ०३ उ० । श्राष० । भयवक भयवाक्य - न० 1 भयोत्पादनार्थमुच्यमाने वाक्ये य नरकगतौ रुधिराssद्यभावेऽपि रुद्धिराऽऽदिदर्शनम् । दर्श० ३ तथ्य | भयवरगाव-देशी०-मोढेरके, दे०ना० ६ वर्ग १०२ गाथा । भयाभयसंज्ञा श्री० भयं मोहनीयोदय भयोभ्रान्त भरणी स्य विकार रोमाञ्च देवाऽऽदिक्रियैव संज्ञायतेऽत्येति भयसंज्ञा । भ० ७ ० ८ ३० स्था० प्रा० भयवेदनीयोश्य जनितत्रापि रूपे संज्ञा मेदे, जी०१ प्रति० । दर्श० स्थान चाि िभयसा समुपजा हीरामच या भवेयस्किम्पस्य उदयं मईए उदद्वोवगणं । समावेन मनि नाजिमा बुद्योगेन लक्षणार्थ पर्यालोचननेति । स्था० ४ ठा० १३० । दर्श० । प्रा० " चू० । प्रज्ञा० । ध० । भयाईय - भयातीत त्रि० । भयादतीतो भयातीतः । भयादू दूरीभूते भयाउल - ०२५० यात्रि० मध्य सू० १०२ ०३४० भाग-मयानक विभत्यात्मी-प्रे राही. पाच भजनामा दिवस्तु दर्शना इसमे से अतर्भवति। अनु मि - ब० । आय० ४ श्र० । |भवासीय भवानीत वि० मा बेन स भवाss नीतः । भयप्रापके, भ० ३ ० २३० । भवानीक व महेतुत्वात् अभवानीकम् भूसम्म ३०२४० भाल-भयाल पुं० एकोनविंशतितमस्य भार पर्ने ग मिष्यस्यामुस्सर्पिस्य भविष्यती यशोधर सीधेकरस्य भवनामधेये, स० । भयावह - भयावह त्रि । भयमावद्दति । भयप्रापके, सूत्र० १ श्रु० १३ अ० । च । गा० । भर-भर पुं० । विभर्तीति भरः । विच् गुणः । धारके, पोषके भर- पुं० ० अप् । श्रतिशये, बाब० । भारे, अनु० । दुर्निवेहत्वा भरभर अतिगुरुकायें, "मरनित्रमथा।" अ०म० १ अ० अ० संघाते, "ओसारिए घणभरो। " श्राव० ४ अ० । " समभन्घडत्ताए बिट्ठर । " भ० १ ० ६ उ० | "बहुसाधुसम्मर्दे च । ध० ३ अधि० । श्रमारे, विशे० । भरणकर्त्तरि, त्रि । यात्र० । "उको श्रीला उपमेरो पहरो गयो पयरो । श्रोहो नित्रहो संघो, संघाओ संहरो निदाओ समूहनामाई | " पाइ० ना० १८-१६ गाथा । भरण-भरा - न० । भृ-ल्युट् । पूरणे. ज्ञा० १० २ श्र० स्था० । वेतने, पोषणे धारणे । श्रश्वम्यवधिके द्वितीये नक्षत्रे, घोषकलतायां च । स्त्री० । ङीप् । वाच० । भरगञ्ज-भरणीय- त्रि० । पोषणीये स्था० १० ठा० । भरणी भरणी - स्त्री० । यमदेवताके अश्वन्यवधिके द्वितीये नक्षत्रे, अनु० । ज्यो० । जं० । दो भरणी (स्था० २०३४० चं० प्र०) भरणीयतितारे ० ३ सम० स्थान | Page #1408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८५ ) अभिधानराजेन्ड भरह मरद्द - भरत पुं० । भरं तनोति तन डः । "त्रित स्ति- वसति-भरत- कातर- मातुलहः ॥ २२१४ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण तस्य इः प्रा० १ पाद 'जडभरत' इति ख्याते मुनिभेदे, नाट्यशा स्त्रस्य अलङ्कारशास्त्रस्य च कर्तरि मुनिभेदे, शवरे तन्तुवाये, क्षेत्रे, केकीसुते रामानुजेचाभारतं ना शास्त्रमधीयते । तस्य लुक् । नटेषु, दुध्यन्तेन शकुन्तलायामुत्पादिते नृपभेदे, पुं० । तस्यापत्यानि इम् । तस्य ब. हुषु लुक । भरतवंश्ये नृपे पुं० । बाच• । नाभिकुलकरस्य पौने भादिजिनस्य ऋषभदेवस्य ज्येष्ठपुत्रे भर तवर्षाधिपे स्वनामख्याते वक्रवर्तिनि स० । स्था० । प्र. च० । ति० अ० म० । कल्प० । पञ्चा० । " भरहो वि भारहं वासं, विश्वा कामाई पर उत्तपाई० २८ श्र० । अयोध्या नगी श्रीषभदेवपुत्रः पूर्वभवकृतम्निजनयेत्याजितवकिभोगः प्रथम भरतनामास्ति तस्य नवनिधानानां चतुर्दशरत्नानां द्वात्रिंशत्सहस्र मरपतीनां महापुरास तिकोरियामा चतुरशीतिसहस्रयगन्धानां भरतस्य ऐश्वर्य कु वर्तः स्वय्यनुसारेण धर्मिक का रिताष्टापदशिरःसंस्थितचतुर्मुखथोजनाऽऽयामजिनाऽऽयतनम 33 यथापित मातादिशितिजिनप्रतिमावन्दनार्चनं समाचरतः श्रीभरतच किणः पञ्चपू पनि महास लङ्कारविभूषितः स भरतत्र श्री आदर्श भवने गतः । तत्र स्व दे प्रेक्षमाणस्य अङ्गुलीयकं पतितं तच्च तेन न ज्ञातं, आदर्श देता तेन पतितमुद्रिका स्व रातो सामुद्रिका मानतः मार निसारितानि तदा स्पशरीरमा माचिन्तितुं प्रवृतः आगन्तुक दं शरीरं न स्वभावसुन्दरम् अपि च-परख मेन सुन्दरमपि वस्तु विनश्यति । उक्रं च "मगुनं असणं पाणं, विविदं खाइम साइमं । सरीरसंगमानं सव्वं पि श्रसुई भवे ॥ १ ॥ वरं वरथं वरं पुष्कं वरं गंधविलेवणं । विस्सए सरीरेण, वरं सयण मासणं ॥ २ ॥ निहाणं सम्यगाणं धरिं । पंचासह भूश्रमयं श्रपक्क परिक्रम्मणं ॥ ३ ॥ " इति । जनतेस नपाकर्मकर मनुष्य जन्महारणम् । यत उक्तम्- "लोहाय नावं जलधौ भिन्न त्ति, सूत्राय वैडूर्यमणि दृणाति । स चन्दनं प्लोषति भस्मरा शे-यों मानुषत्वं नयतीन्द्रियार्थे ॥ १ ॥ " इत्यादिकं चिन्त यतः तस्य भरतस्य प्राप्तभावचारित्रस्य प्रवर्द्धमानशुभा5ध्यवसायस्य क्षपकश्रेणि प्रपश्नस्य केवलज्ञानं समुत्पन्नम् । श क्रस्तत्र समायातः कथयति - द्रव्यलिङ्गं प्रपद्यस्व येन दी क्षाया उत्सवं करोमि । ततो भरत के वलिना स्वमस्तके पञ्चमौ हिको लांच कृतः। शाखमदेवतया व रोहरणोपकरणा नि दत्तानि । दशसहस्रराजभिः समं प्रव्रजितो भरतः शेष चक्रिणस्तु सहस्रपरिवारण प्रब्रजिताः । ततः शक्रेण वन्दि ३४७ भरह तोऽसौ ग्रामाऽऽकरनगरेषु भ्रमन भव्यस्वान् प्रतिबोधयन् एक पूर्वलक्षं यावत् केवलपर्यायं पालयित्वा परिनिर्वृतः । त पट्टे च शक्रेण आदित्ययशा नृपोऽभिषिक्तः । उत्त० १८ प्र० आदित्ययीवृतान्त 'साइजस शब्दे द्वितीयभागे ३ पृष्ठे गतः ) भरदस्त गं रसो चाउरंतकक वहिस्स श्रट्ट पुरिसजुगाई अणुबद्धं सिद्धाइ ० जाव सव्वदुक्खष्प ही गाई | तंजहा - श्राइच्चजसे, महाजसे, अइबले, महाबले, तेयवीरिए कित्तवीरिए दंडवीरिए, जलबीरिए । स्था० ८ ठा० । सरसो, भरदे पडणं च अंगुली अस्स । सेस उम्मुअणं, संवेगो नायँ दिक्खा य ॥ ४३६ ।। अनिगाथा भक निर्वाणं स्वामिनि प्राप्ते, चैत्ये तत्र च कारिते । जगाम भरतोऽयोध्या - मल्यशेोकः क्रमादभूत् ॥ १ ॥ भोगान् भोक्तुं पुनरपि प्रावृतद्भव ईद्दशः । तस्य चैवं पञ्चपूर्व लक्षी याता मुहूर्तवत् ॥ २ ॥ अचान्यदाऽयमची सर्वाश्कारभूषितः । इष्टुं स्वदागारं ३ तत्र स्त्रं पश्यतो राज्ञः, पपाताङ्गुलिमुद्रिका | न सा ज्ञाताऽथ निःशोभा-मङ्गुलीं वीदय दध्यिवान् ॥ ४ ॥ भूषयेोयं सहजा नेवि विन्तया । एकैकं भूषणं मुञ्चन्, सर्वाण्यपि मुमोच सः ॥ ५ ॥ निःश्रीकाम्भोज सर वाखिलम् । पश्यन् स्वाङ्गं विरक्तोऽभू - दङ्गनारवपि तन्मतिः ॥ ६ ॥ एवं च ध्यायतस्तस्य. शुक्नध्यानमजायत । उत्पदे यानं गृहियेषवोऽपि हि ॥ ७ ॥ पिताम् । भरतेन ततो लोचः प्रचक्रे पञ्चमुष्टिकः ॥ ८ ॥ पद्मोत्पचि देवताऽनयत् । प्रवव्राज महाराजः सहसैर्दशभिः सह ॥ ६ ॥ निष्कान्ताकिणो अन्ये च सहस्रैक परिच्छदाः । महिमानं विद्यायाच शको राजर्षिमान १० स्थिरया केवपि पूर्वनिर्वृतः । चक्रेऽष्टौ पुरुषयुगा येषां शक्रोऽभिषेचनम् ॥ ११ ॥ " " श्रा०क० १ ४० । भरदे रामा चाउरी पाई उई उच्चतेगं होत्था स० ५०० सम० । स्था० । (विस्तरेण भरतपर्तिनों वक्रव्यता भरवस रेव निरूपयिष्यते) उज्जयिनी नगरप्रत्यासन्नन ग्रामस्थ स्व. नामख्याते नटे, उज्जयिनीमधिकृत्य- "प्रत्यासन्नो नटग्राम स्त त्राऽऽसीद् भरतो नटः । " श्र० क० १ अ० नं० । श्राव । मूर्च्छनानां स्वरविशेषप्रतिपादकशा कर्तरि स्वनामस्याने श्राचार्य च । स्था० ७ ठा० । जम्बूद्रीस्थे वर्षभेदे, न० । ०७ सम०प्र० कल्प० । प्रश्न० जे० " हिमवंत सागरंतं, वीरा मोत्तूण भारदं वालं " प्रश्न० ४ द्वार । स्था० । भरणं राया चाउरतचकवट्टी छपुव्वसहस्साई महाराया होत्या । स्था० २ ठा० ३ उ० | रा० । Page #1409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह भन्निधानराजेन्द्रः । भरह भरहेसरवरियं किचं अकिच्चं च पुच्छिऊण, "नाभेयनास्ल फु पवितं, पुब्धि जहा मामितहा षयं पि। वत्तस्त्र मेत्थं चरियं विचित । काहामो कि वास्थ वियारिऊण, इप्पसिखं ति विगप्पिऊणं, काऊण लोयं तु वयं पयक्षा ॥ १३ ॥ भवाण निश्वाण सुहावति१॥ नारणतयालोइयकिच्चभावो, मोतूण लेसेण भणामि कि पि. सामी सयं ते वि प्रयाणमाणा। जम्माउसम्ममयं मंपि। पुच्छिति सामि न कहेड किं षि, माणापगारं भरहाहिवस्स, समाउला तरहछुहाभिभूया ॥१४॥ ___सब्वं पिनेयं बरियं इमाउ॥२॥ जिणस्स हिंडि कमाणुलग्गा, पायं तहा विश्थ सुमज्झमाए, केई दिणे मूढमणा उताहे। खित्तस्स पयम्स पुरी विसाला। चितिं वि अम्हं किमियाणि कज्जं. दीहा उ सा वारसजोयणाई, कजं महाकिच्छमिणं भणंति ॥ १५ ॥ वित्थारपणं नवजोयणाई॥३॥ भणंति ते मूढमणा जहा भो. सामिस्स रजस्सऽभिसेयकाले, सामि न पुत्थिकिम पिपुट्ठो। गया मासा जलपाणणस्थं । । तराहाछुद्दाषाहियसब्वगत्ता, सुरेसुरो भासणकंपबुद्धो, गच्छामागेहं भरहाहिवंतो॥१६॥ समागमो मत्ति जिणेसरमि ॥४॥ सामि पमोत्तूण कहं इहाया, किरीडसाईभरणाभिराम, ___ पयमभंगो वि न होह रनो। काऊण कप्पावणिजेच चिटुर । फलासिणी होमो तणेसुसत्थे, सको जिणिइस्स तडोवविट्ठो, पबत्तई जाब जियो सुतित्थं ॥ १७॥ तावाऽऽगया घिन्तु जस्तं घडेहि ॥५॥ एवं विचिंतितु गया उ सम्बे, बटुं जिणं भूसियलित्तगतं, गंगानईए तडसंठिएसु। चिंतंति किं काउचियं याणि । घणेसु ते वक्कलचीरधारी, चिचि चित्तण चिरं विणीया, कंदा मूलाइफलाइ खंति ॥ १८॥ . सिंचंति सामि चलणोवरिस्मि ॥६॥ गया नमी वा विणमी कह पि, साहू विणीया पुरिस त्ति काउं, .जिणस्स दिक्खासमए वि दो वि। विणीयनामेण पुरी पहाणा। समागया तं पियरं भणंति, पुटिव कया जा जिणरज्जकज्जे, करणं महाकथमिणं सुबकं ॥१६॥ तुट्टेण सक्केण तु देवरम्मा ॥ ७॥ रज्जं च रटुं च पुरं च चित्तं, रज्जंतहिं पाला नाहिजामो, काउं विभागी सयणात दिन। नरिंददेखिंदकयच्चयो य । . ताताय अम्हाण वि किं विदेहि सयं च सामी उसमो जिणियो, भणति ते मथि हु किंचि अहं । २०॥ ____ सचिं सजायाएँ सुमंगलाए ॥८॥ देवाण जवाण य किन्नराणं, तहा सुनंदामरहाऽऽपहि, नराण नारीण य खेयराणं। सुऽणेगेयि मुत्तमेहि। सुहाण सव्वाण जिणं पमोच्. सहाइए कामगुणे विसाले, नो अस्थि दाया भुवणेऽखिले वि॥२॥ गमेह कालं उव जमाणो ॥६॥ ता जाह तुम्भे तुरियं जिणस्स, तिसद्विलक्खी सुहं सुहेणं, पासे तिसंझ विणयावनम्मा। पुब्वाण काऊण मणोभिरामं । भत्ती' राहेहऽचिरेण देही, रजिंज सुरियो व बियाणिऊण, रजं च ग्टुं च पहाणलोए ॥ २२ ॥ पन्यज्जकालं अह देह दाणं ॥१०॥ गया तो दो वि जिणस्स पासे, संबच्छरं जाव किमिसिछयंत. पासंति सामि ठियम्रोषविष्टुं । . पंछाए निव्वाण पयाभिलासी। वीरासणारं करणावउत्तं, दाऊण भूमि सयलं सुयाएं, भिक्खाएँ गेहंसु य रीयमाणं ॥२३॥ पहाणरायं भरहंतु काउं॥११॥ सराण प्राणीय घडेहि नीरं, प्रमाण राईण सहस्सएहि', सिंबंति भूमी' तलं तिसंझ। अपकीहि सर्दि मह ले रिक्वं । भाजाणुमाणं कुसुमोक्यारं, गामा गरारामबिहारगेसु, काउं नमसंनि धुणंति एवं ॥ २४ ॥ पवलमोखो विहरो सामी॥ १२॥ माणदाया भुवणेऽखिले वि, Page #1410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह नरह (१२८७) अनिधानराजेन्षः। तं नाहनाहोऽसि प्रणाहयाणं। नागिददिन्नं पडिवजयंति, तं सोक्खदाया य दुट्टियाणं, अपुष्वभत्ती' पसममाणसा ॥ ३७ ॥2 तं कप्परुक्खोऽसि फलस्थियाणं ॥२५॥ गिरिहत्तु सामिस्स कयप्पणामा , तं बंदिनो देव ! सुरासुरेहि नागिंदरायं अभिवंदिऊण । तं वनियो जक्खसु किंनरोहिं। गंतूण सामिम्स कयप्पसायं तं पूरानो दाणव-खयरेहि, चिंतित्तु रोमचियसवगत्ता ॥ ३८ ॥ तं नाह!नाया भुवणायरस ॥२६॥ विज्जाकयं दिव्वविमानरूढा. तं देव! दाया य किभिन्छियस्स, पिऊण पासे उवदंसयंति । तं सामि ! सामी य असामियस्स । रिदिं च सर्व पि कहंति वत्तं, तं देहिं अम्हाण विसालवच्छ!, विणी' गंतुं भरहेसरस्स ॥ ३६॥ रजं च रटुं च सुणिवअच्छा ॥२७॥ कहंति सव्वं पि जणस्समूह, यांपराए उ सिसि इच्छा, नेऽचलो भिक्षु तहा करंति । पच्छा उ जाणूकरउत्तिमंगं । तयप्पमाणे नयरे विसाले, भूमीऍ काउं धरणीयलम्मि, तेसिं महीसुं रिसहस्स विषं । ४०॥ तिक्खुत्तहत्तं अभिवंदिऊण ॥ २८॥ करति भत्तिम्भरनिम्मरंगा , पासेसु चिटुंति सुखग्गवग्गा; नमी महप्पा य सुदक्खिणाए। दिणे दिणे भत्तिसुनिभरंगा। सेढीएँ इच्छापडिपुनभोए, कुणंति जा के विदिणे तिसंझ. अह उत्तराए बिनमी वि राया ॥४१॥ एवं ति तानागपडू पहिट्ठा ॥ २६ ॥ भुंजे भोए जह देवराया , जिणस्स पागच्छा वंदणत्यं, सामी विभिखाएँ गिह गिहे य । ते तम्मि काले कुसुमोवयारं। हिंडेडगामे नगरे य निच्चं, काउंनमंसित्तु पए पहाणे, न पावई भिकुखमणेसणीयं ॥४२॥ भणंति तं सामि ! भवाहि दाया ॥ ३०॥ जो न जाणार जणो किम पि। भोगाण रजस्स जिणायरेण, गिहागयं दिठु जिणं पहिट्ठो। ते जायमाणे धरणो मुणेता। जगोभिमतेइ गयस्सयाहि, मागिदराया पभणा भो सो, पुप्फेहि मुत्ताहलदेवदूसे ॥४३॥ . सामी असंगो परिवत्तवित्ती॥ ३१॥ पहाणअस्सेहि रहेहि निच्चं, ममत्तबुद्धिं न करे। देहे, संवच्छरं जाव उ चीरधारी। संखं व सामी उ अरंगणिज्जो। निरस्सपो हिंडिउ हस्थिणक्ख , कुम्मो व गुत्तो सलिदिएहि, पुरे विसालम्मि गमो महप्पा ।। ४४॥ मुणालपत्तं व निरूवलेवो ॥ ३२॥ सत्यऽस्थि सोमपभनामराया। गउ ब्व निच्चं अनियत्तगामी, सेयसनामो कुमरो वरो वि। दवे य भावे तह खेत्ते काले। तत्थऽस्यि पुत्ती भरहा हिवस्स, प्रसंगबुद्धी समसतुमित्तो, भणंति सो बाहुबलिस्ल अंते ॥ ४५ ॥ न देह वा किंचि न फेडईह॥३३॥ विसालकिसी गुणगामठाणं, सामिस्स सेवा मह लाभदेऊ, ते दो वि सेढी' परोप्परं तु । ता देमि तुम्हाण अहं जिणस्स । कहंति लद्धे सुमिणे पसत्ये। विजासहस्से अडयायलीस, कहे। सेयंस जहा चलंतो॥४६॥ पमत्तिगोरीपमुहेण सग्गा ॥ ३४॥ मेरू सठाणाउ मएहि विट्ठो, तो जाह यहुनगे बिसाले. विधा य ते उम्मयकुंभसिमो। तो दादिणिमाए अहुत्तराए । ठिो सठाणेहि य विप्पमाणे, सेढीएँ गंतूण लहुं करेत्ता, सुगउ दित्ती चलिया उठाणा ॥४७॥ पन्नाससेढी य पुरे पहाणे ॥ ३५ ॥ किया उ ते ठाणठिया अणेण , पाईए काउं रहनेउरं तु. सेट्ठी जहा कोर महामहतो । महा तुरिले गगणंगणटुं। नरो रणे जुझा संतगत्तो, पुरं निवेसिनुतरे विसाले, संयंसनामकयपाडिहेरो ॥४८॥ बहुंजणं विजयलेण ने। ३६ ॥ हिंह इच्छाएँ नहे सुरो व्व, •गिएहति विज्जा सहसा न ऊण , एवं तिते सामिप (क) यप्पसाया। पनास भाया पविगप्पमियो।। ३७ ॥ Jain Education Interational Page #1411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह भभिधानराजेन्मः। भरह हणेइ सिझं सयलं रिऊणं. सुसत्यदेहो सुहपीणियंगो, परोप्परं साहिउ लद्धिो । अहा जहिच्छ विहरे पच्छा। तयस्थयं ते उ प्रयाण माणा, सेमागया तस्थ मराऽसुरा वि, गया सठाणं सुमिणा ते उ ॥४६॥ नरा विनारी हरिसंवहंता॥६॥ सुहं कुमारस्स परंतु अस्थि , अहो अहो दाणामणं भणंति, मेरु ष सामी विहुनिष्पकंपो । मेरुख मुंचति गंधोदयपुष्फमिस्सं। गंभीरमातोलियनीग्नाहो , उकिटुधारं दविणस्स झत्ति , अमुकिनो बसममत्तसंगो ॥ ५० ॥ चेले उखेवं तह चुन्नवासं। १२॥ मेहाणुगेहं प्रहरीयमाणो, सयं च राया य पहाण सिट्टी, समागमो रायपहे विसाल। समागो सेसजणो थि तत्थ । गवक्खचक्खू गयदेहमाहो, भणंति एसो सुमिणस्स अत्यो, निरिक्खिनो सामि कर ति चित्तो ॥५१॥ पाराविभो सामि सवच्छराभो ।। ६३॥ दिट्टो कया वेरिसरूवधारी , तो जणो विम्हियमाणसो उ, अबोहईहा' गवसणाय । पुच्छे नायं कहमेयमेत्थ । एवं करंतस्स सुझाण जोगा, कहेइ सव्वं भवमाइकिश्चं, एयम्मि लोप पुण जाव जाश्रो ॥ ६४॥ जाईए जायं सरणं तहा उ॥५२॥ निमीलिमच्छो अह मुच्छयाए , जाइस्सराओ सयलं पिनायं, धम्म अधम्मं जिणभिक्सदाणं। खणं तहा चिट्ठियमो परित्ता। चितेह देवो जर एज एत्थ, एवं जरणा भत्तिभरावनम्मा, तो देमि भिक्खं प्रहपसणि जं ॥५३॥ दिज्जाहि भिक्खं जिण नायगस्स ॥६५॥ करेह पीढं रययामयं तु. जिणस्स भत्तिभरणिभरंगो, भिखालया जस्थ ठिपण तत्थ । नागिंददेविंदनरिंदचंदं । सेयंसणामो कुमरो महप्पा, सोक्खाण ठाणं सयलाण प्रासी, रम्म जिणाणं गयमोहएणं ॥६६॥ करेमि लोयाण तहा पवित्ति ॥ ५४॥ दंसेमि अन्नाणविमोहियाणं, अंचित्तु तं भत्तिभरो घरेहिं, विगप्पकल्लोलसमाउलस्स। पुप्फेहि गंधेहि य उत्तमेहि। सेयंससुद्धासयलीयमास्स , दिणे दिणे भुंजर काउमेयं, मरो अहिषखूपरसस्स कुभं ॥ ५५ ।। पुच्छेद लोश्रो किमियं कहेह ॥६७॥ जिणो मए जत्थ विश्री रसेण , घे समीपे पगहेर जाब, पारायिनी भत्तिसुनिम्भरेण । तिगुत्तिगुत्तो हरियोवउत्ती। गिहं गिणं प्रहरीयमाणो, मा अक्कमही तु जणो जिणस्स , अमुच्छियप्पा सयणे धणे य॥५६॥ पाए परं पीढमिणं कयं मे ॥६॥ समागश्रो सामि कम कमेण, एवं जिणो पारइ जत्ध जत्थ, - दटुंजिणं किरिहरिसं नरम्मि। लोगो वि पार्ट पगरेइ तत्थ । विवढमाणोसियरोमकृयो, आइश्चपीढं ति परंपराए, माणदपिंदूजलकिन्नदिट्टी ॥ ५७ ॥ खयं गयं कालबसेण पच्छा ॥ ६॥ सग्गं चमत्तं च श्रयाणंमाणे, जहासुहं हिंडउ गामदेसे , वंदितु भूमीकयपंचमंगो। सहस्समेवं वरिसाण पुग्नं । अश्रो परं घाइकम्म खवेद, भणार सामी! रसमेसणीयं, गिहाहि तारेहि भवन्नवारो।। ५८ ॥ पावेद नाणं जिण केवलं तु ॥ ७॥ नरहिं सामिस्स पउत्तिहलं, सभी पसारे जिण सुपाणी, निउत्तएहिं भरद्वाहिवस्स । विसुद्धलेसे सुविसुद्धबुद्धी। नाणं पहाणं कहियं व जायं, पसस्थझाणोऽथ झड त्ति देइ . ...माऊदपालण विचकवत्ती॥ ७१॥ पाणंदसंदोहमुवागमो सो ॥ ५ ॥ उग्घोसमाइलिय इट्ठसिद्धी, धनातिधनं कय किञ्चयं ति , अद्धच्चुयं किं पि हि संतरंतो। जयम्मि अप्पाण वि मन्नमाणो। सामी वि संबच्छरपारणम्मि, * सुदुंदुहीनो गगणंगणम्मि, पारितु तं इक्खुरसं मणुनं ॥ ६॥ समा कुणंती हरिसं बहता ॥ ६१॥ Jain Education Interational Page #1412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३t) मरह अभिधानराजेन्द्रः। जरात अाहतो मयसा विचिंते, लेलिज्जमायामतलावभाऊ ॥४॥ पूजारिदा दो वि ममेश्य अस्थि ॥ २॥ मज्झरहे मज्झरहे व नीहरितु, मनाई कस्स सुणोऽरथ कउजा, रम्मा भउज्झाएँ अहकमेण । पूया जिणिस्स व बदाइणो। जेणेव सामी सयलु जापा, नायं जहा वफलं इहेब, सम्बायरेणं मह जाहराया ॥ दाही जिणो सग्गऽपवग्गदाया ॥ ७॥ छत्ताइछत्तं शिणनायगस्स, एवं विचिंतितु पवित्तगतो, पासि देर्षि भरहो भार। एहानी सुई मम्वविलित्तभंगो। पेच्छाति मम्मो ! नयपुत्चरिविं. बारऽयहारकडयंगयाई. म परिसा कस्स वित्यिसोए॥८॥ किरीडलोलबलकुंडलंगो॥७ एवं सुणित्ता हरिसुपरंतसिंदरपूरारुणकुंडकड-. रोमंचकंपुष्पयचागता । दाणगंडस्थलभिभलस्स। फारेह चाखूजुपमूससिचु. पेशा(घंटाजुयसोहियस्स. ता नीलिमट्ठा तिमिरं व सूरा ॥ भारो कंधे जर वारणस्स।। ७५॥ पुणे सई सुहमागहाणं, दिक्खापवणे जिणणायगम्मि. । भेरीण रावं सुग्तारियाणं । अप देवी महदेविनामा। उकिट्टिनायं निवयं तु जंतरा, सिखेहभाषा भरई भगाइ, सुरासुरं जाणविमाणमूदं . पुत्तो ममं हिंडा वत्तसंगो ॥ ७६ ॥ माणिकहेमज्जुण नारफारसुमं तु राया भरहे नरीसो, निष्फन्त्रमालत्तणचिंधरम्म। सुहं सुरणं पकरेडरजं । विमाणमालाहि नई पकिन, तराहाछुहायो उसहो सहे, निसाएँ शारागणसंकुलंय . दिणे दिणे भूरा एवमेव ॥ ७॥ पासितु देवी मनसा विचिंते, अम्मोजिणो सम्बज (ग) यस्स नेया, अहो अहं मोहवसा उ क्षिता। का पला रिद्धी मह रज्जमेत्ता जिणो सयं परिसरिद्धिमंतो, चक्खूसु तो भूख नीलि जाया, पिहुं पिहुं कम्ममिणं जियाण ॥10॥ न सहई वणं तयस्स ॥ ७ ॥ जतोज्जुसो कुसलो णु धम्मो, सामिस्स रिद्धि पभणेह पहि. एचं सुहज्झावसाणुगासा। सेह अम्मो! जइ कोडिअंसं । अउब्वजीवनिचर उन्लसा उ, भग्घा रिद्धी जह काचखंडं, आरोदु सेटिंखयगं कमेण ॥१॥ अतम्मईया वयरामणिस्स ॥ ७॥ संजायणाणाइसया महप्पा, एवं भणित्ता पुणनो करितु, खविधु कम्म सयलं झरिसि। अउव्व प्राणद मणे यहंति । पत्ता सिव सेयसभोक्मरम्म, देविंदएहि अणुगम्ममाणे, समागया देखऽसुराण संघा ॥ १२॥ __मयप्पबायकोलाई॥८॥ कयं ति पूर्ण पदमी सिकाउं, एहि चियाउले हि, सियो तस्स सरीरगं तु। सुतूरराषभरियंवरे। सकारिउ खीरसमुहमज्झे. घंटाटणकारमणोहरेडि. खिति खिप्पं भरहाहियो पि ॥ सुबकचिकारपरंपरेहिं॥१॥ गंतुं जिथं पूयह भत्तिजुत्तो, सुरक्खुरीखुराणमहीतले सामी विवेवासुरकिंनराणं । बग्गंतबग्गावसकंधरेहि। मराण मारीण य खेयराणं, भाषद्धगम्बसदुखरेहि कर धम्म सिषसंगपाषगं ॥४॥ एहि साभरियंबरेहि।२॥ भषमधे पोयसमाण मेष, पहाणनामावरगिल्लिधिक्षि भनाणघं पावतरूकुठारं। सुहासणासंदगजाणगेहि। मिसम्म धम्म जिणनायगस्स, मयंगतुंगतुरग पहाण पासे पबजिनु सुसाषग। सुमणारूढमणोपुगे भट्टारियं का महायरेण, मंभारमेरीरवपूनियासो, समागमो पलिवरी सहाणे । मंगलगीयजयराबरम्मो। गंतुं सठाणे भरहोऽपि राया, बिधवपाडोषपडायपति, सिंहासणे पुत्रमुहोबबिट्टो ॥१६॥ ३४८ Page #1413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरह अभिधानराजेन्खः । कोविए सहिउ प्राणवेइ . वाइत्तगीयाऽऽरवरियाऽऽसो। सम्वं विणीयं वरायहाणि । एवं समागच्छा चकमे, भो भो ! जहा सिप्पमस्वमेव, जेणेव च ह तेण जाइ ॥१०॥ सबाहिरभंतरमेव विसं १७. तेणेव गंतुं प्रहमायरेण, मासीयसम्मजियोवलितं. मालोयमिते कई पखाम । मंचाइमंचकलियं करेह । पसस्थाहत्येण तु लोमहत्थं, कालागरुयमहम्मघंत परामुसित्ता पमई ॥११॥ सुगंधिगंधप्पवराऽदिभूयं ॥१८ पवित्तपाणी सुधाग्याए, सतोरणं मंगलकुंभजुलै, अम्भुक्तिमो वेव सुखंदणेण । काउं कहेहेह ममे ति कट्ठ। पंचंगुलीचारुतलं वला, तो चकपूयाहिनिविटविट्ठी, दलिनुमग्गेहि घरेपिच्छा ॥ ११ ॥ गंतुं सयं रहाणघरे पयांणे ॥ पुष्फेरिंदीवर उप्पलेहि, सुषक्षमाणिकमर बिसाले, गंधहि चुम्मेहि य उत्तमहि, सुनिद्धिरे तो विसई स पीढे। गंधट्टियाट्टियचंचरीय, सुगंधिसारामललवाय चलंतझंकारमणाहरेहि ॥ ११२॥ सहस्सपाययमुद्देहि बित्ते॥१०॥ अंचिनु भायं पकरेह पच्छा. तिल्लेहि ऽभंगं पढमं तु काउं, विचित्तवीणं सुयवाहुरम्मं । संबाहयंती पुरिसा सुछेया। भारोहणं पुष्फसुमल्लगंध, संवाहिउम्बट्टियसव्वयंगो, धूवाण भूसाभरणप्पहाणं ॥ ११॥ विही रहाणं पकरेइ पच्छा ॥ १०१॥ मायंगदंतपहपबुरेहि, पसत्यवचसु पसत्थबुद्धी, अखंडिएहि वरसालिजेहिं। नियंसए चंदणचचियंगो। सच्छहि तारामयतंदुलहिं दिषित्तनाणामाणभूलियंगो, काउंती दप्पणमाइया ॥ ११५॥ ससि व्व पाणंदकरो जणाणं ॥ १०२।। लिडेर अटुटसुभंगलाई. नारीसरी सूयपहाणपुष्फ. मदाबंदीवरकलिया। सुगंधहस्थी अभिनिक्खमे। भूसोगजायं जवांचगं तु. जेणेव चकरस घरे विसालो, दसवमं कुसुमोहमासु॥ ११५ ।। जेणेव च रयणे पसिद्ध ॥ १०३ ॥ तमो पुरो मुंबा चारुचित्तं, तेणेव गंतुं मणसेति नाउं, सुवसनिप्फनकहुच्छुएण । तस्सेब रक्षो बहवे विसाले। वेडज्जवज्जुम्भडपण, राइस्सराऽऽरक्खियमत्थयंति, दलाइ चूरक्कयधूवधूमं ॥ ११६ ॥ सामि तु पेसाहि व सत्यवाहं ।। १०४॥ तमालतालीदलसम्मलासं, माडविकोडिवियसेट्टिमाई, पयाहणीकाउ तिक्वुत्तपत्तो। मग्गाणुलम्गा तयणुप्पयाया। पच्चोसकित्ताह पयाई सत्त. विचित्तनेवत्थधरा सुबत्था, अट्ठव अन्वे मह वामजाणुं ॥ ११७ ॥ विचितनाणामणिभूसियंगा ॥ १० ॥ भूती' काउं तह दक्खिणं तु, विचित्तछतज्झपचिंधन तिक्खु सहुत्तो अद उत्तिमंग । नहंगणा चितफलप्पसस्था। इलातले मीलिय ईसिनम्मो. तमोऽस्थ खुज्जाउ सुचामराउ, काउंसिरे तो करकोरयं तु ॥ ११८॥ बीजंतपासोभयसंठियाओ ।। १०६॥ नमेह चकं रयणप्पहाणं. भिंगारहत्या कलसज्जुया उ. भत्ताण जंबंछियदायगं परं। केई सतालिटसदीविया उ । एवं करिता अभिनिक्समेह, गंधुदुरपकडुच्छउत्थ चरकाउद्दामारगमंडवानी ॥ ११६ ।। धूमोवयारितदिसंतराम्रो ॥ १.७॥ पहिप्पबुद्धाण बरा सुमाला. दुद्धारविन्दुष्पलसारपुष्फ. तेणेष प्रागंतु बरे बिसाले। मालाउला पाउलमग्गलग्गा। पुग्वंमुहो तो सुहमोवविट्ठो, विचित्तभासाहि मणोहराउ, अट्ठारम स्सेणिपसेणिया उ ॥ १२०॥ विणीयभावाणुगसुंदराउ ।। १०८ ।। सहाविउं प्राणमिणं दलाइ, सव्वा दही' जुई जुत्तो, करेह खिप्पं च परंतु सब्वं । Page #1414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह उस्तुक सुकरं अवेज्जं. अमेज्जसु किट्टमरपवेसं ॥ १२१ ॥ कुड विलासिनरामं । अवेगतालावर तावरम्यं. कहाणपणऽऽखिनजखेहि किनं ॥ १२२ ॥ सुमत्तमालालासो पुनरमं अट्टाहियं महामहेच. महारिहं चक्करस्स सम्मं ॥ १२३ ॥ सम्माणदाणा महामहस्थं. काऊणिमं सब ममं कहेछ । पति काऊ कहंति जाव, स्याउ गेडा अभिनिक्खमाइ. तो तिथू153रियाऽऽसा गंगानद सद वितं ताव महामहंते ॥ १२४ ॥ यस (जुजु ॥१२५ पयाइ पुडवाभिमुहं तु चषकं, राया य पिट्टे भरद्दा हिवोति । सर्व सर्व साहितु. छतं भर इमं ति ॥ १२६ ॥ कयंत्रपुष्प व कंगो, मावि कोडंविनरे भणे । सजेड मा हरिचाणं ( १३२१ ) अभिधानराजेन्द्रः । पाइककचक्कं तुरयावकिनं ।। १२७ ।। परंपरा, आपूरितासेस स मकालु मुद्धालिकंकाररवाभिरामं ॥ १२८ ॥ सिंदूरपू करेह सज्जं अयवारणं पि । दाऊणिमं किंकर माणवाणं, शिवं मज्जणगेहमा १२६ ।। सोजाइ पुत्रइनीऍ जाव, दोष जयंती। यहाणग्गिहातो श्रभिणिक्खमित्तु, मेखाए जुतो चउरंगिणी ॥ १३० ॥ भदि* डीयि सत्यवाद राईसरामच्त्रत लारपाई । उसाला पहिग्भवाय गोरपस ॥ १३१ ॥ तेणेच चाऽऽगम्म रुडे हथि पुण्याच उदरि हारदद्वाराऽऽविभूलियेगी, सुकुंडलुज्जो यचारुभंगो ॥ १३२ ॥ किडग्मवाय महिषाकिरणाभिराम्रो । दी जरह नगाण नेय व त्रिराजमाणो ।। १३३ ।। धणो व चंदो घिव दिव्ययंतो, सुराख के पुरं कुटिमाला उल हसन - नहंगण चामरवाहसोहो ॥ १३४ ॥ मायंगसंघोग सुदिलो, समूऍ जुतो नरंगिणी । तुरंग हे सारहचक्कं चीक्का - तुंगमा यंगघडावण | ॥ १३५ ॥ पाइरुकपुकार][पडला कोडडम्डीसार देवारगामाग रा दोषमुदा निगमागमा १३६ ॥ मडवसंवाइयखेडयां, पुराण लागण व पट्टणां । आधारभूत कर्म कमेणं रणाएँ भग्नं ॥ १३७ ॥ डिब्माण व पमोयदित्तं, जन्मजयपाषा मुसाहुवेवावत्धिपुत्र संपुत्रबीभवभाविसारो ॥ १३८ ॥ फले स गिरिउकाम एव. गंगाएँ तो दाहिणकूल पत्तो । चक्कामग्गं अणुच्छ्रमाणो, अगवाससु सुंण ठाउं ॥ १३६ ॥ जेणेव तित्यं अह मागदं तु. महान काऊण तो जोयण वार दीहं, वित्थारो वी नव जोश्रखाई ॥ १४० ॥ सेतो बहू आ करेड मे गहवरं विसालं । सुपोसई जस्थ करेमि तं पि करिता पकड मज्झ ॥ १४१ ॥ एवं भणित्ता अभिवंदिऊण, करि सम्यं परे पछा तो नरिंदों गयकंधराश्रो, पास सरीरपि ॥ १४२ ॥ करिता पोसहमंदिर गंतु यस कुरा नितिसत्तो वरवंभधारी ॥ १४३ ॥ कुमारगं मागइतित्यसामि, गणे करेसा ग्रह ठाइ तत्थ । मुखि व मुतामणि वाउगा. पसरवितात १४४ ॥ चिया दिये तिमि तम्रो तयंते, यति । निमा प पायपि कट्टु १४२ Page #1415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह (१५१२) अभिधानराजेन्मः। र हिचा बरसेनजत्तो, सम्बाण चकीण नरसग। चक्काणुमग्गे अणुजाइ पच्छा। एवं विचिंतित सरं गहित्ता, पाइकबुकारयसिंहनाय बरं किरीडिएकडे य॥ १५ ॥ सतारघंटारषघोसप॥ि १४॥ सुकुंडले वत्थवरे विचित्ते, बकायुमग्गेण उ नीरनाई, तित्योदगं भाभरणार चि। उग्गाहरसा इह नाहि जाय । माणिवमुत्तामणिभूसियंगो, बीमो तहमागहतित्थमज्झे. सकिंकिणीपत्थनियंसयंगो ॥ १५॥ गिहच पत्तो तुरगं पसरथं ॥ १४७ ॥ जेणेष की भरहो विसालो, पहाणगंडीवसजीवदिब्वं, तेणेव चागम्म नगणरथो। सुरिंदवाचं व मणोभिरामं । करंजलि काउ सिरे पहाणं, मोसंसपुंखं रयणामयं तु, जएण तं वा विजएण भत्ते ॥ १६०॥ नामंऽकियं चारुफलावलीढं । १४८॥ पद्धाहितं भर समस्थं, सजीवकोदंडयजीवमझे, ममऽजिए सिद्धमणी नरीस। परामुसित्ता पकरितु सिज्ज । महंतु तुज्झविसप वसामि, विसालठाणं रह पहाण समुहमाम निलयं करिसा॥१६१॥ माइन्नयाहियचारठाणो ॥ १५ ॥ माणाएँ तुम्भं च ठिो सयाऽवि, भासदेवासुरजाणणा, पुघिल्लो ते महमंतिवासी। उदाहरित्या वयणा इमाई। हासह ते दोयह दोयणीयं, भो मो! सुणतु पथराहिराजे, राया वि तं इच्छा सारवस्थो । १६२॥ देवासुरा किन्नरजक्वसिद्धा॥१५० ।। पच्छा तो तित्थधाई कुमार, तहंऽतलिक्खा धरणी जे उ, सकारि अंजलि काउ सीसे। महारगा भूयपिसायजक्खा। विसज्जियं पा सयं सठाणे, तुज्झ भयत्ताण इमो नमामि, आगंतु पच्चोरुहई रहाभो ॥ १६३ ॥ बाणस्स सिग्धं गमणं तु होउ॥ १५१ ॥ गहाणाऽऽइयं कह तोवयारं, एवं करित्ता अभिनिस्सरेह, पारे तो भोयणमंडसि। सरं पहाणं तु सनामजुत्तं । सुहासणत्यो विहिएऽमंते, गंतण सो वाग्स जोयणाई, उट्ठाणसालाएँ वि हंत गंतु ॥ १६४॥ महानिनायं कवडे कटु । १५२ ॥ पुव्वक्कमेणेव महामहंतु, दळूण वाणं पडियं मुहग्गे, कारावई तस्स सुरस्स राया। विचितई मागहतिस्थनेया। तयंतिए बाउहमंडवाओ, कस्लेह कुद्धो खलु कालमच्च, तो दिव्यचक्के घरवजतुले ॥ १६५ ॥ को वा गिहे अंतग जाउकामो ॥ १५३ ॥ सुलोहियक्खे तह हेमनेमी, दिटुं च कालेण व कस्स मूलं, सुनीलमुलालभूसियंगे। को या सयं मन्बुमुई विगंता । सणंदिघोसे य सखिखिणीए. बिहीण पुसे य सिगविहूणा, केहिगुंजारविमंडलाभे ॥१६॥ मलक्खणे लज्जविजिए य ॥ १५४. नमचंतनाणाममारिरम्मे, दुरंतपते भच उहिसे य, । सुजायहेमामयलिबिपि जो मज्झ गेहे निसिरेर पाणं । सम्बोउयप्पुष्पकमावयारे, किराहा हिवादादि ष णेह कहूं, नहत्थजक्खस्सहसोपाते॥१७॥ सुरिंदचावेण जिण सत्तं ॥ १५५ ॥ सतूरसहभरियंतराले, मा इन्हिया नीरभरेण तिनो, निग्गच्छई तो रयणाण जेट्ठो। वाणेण वो मे बसि सहे। सुईसणे दाहिणपच्छिमिल वणं विमं कहु वसंत को वा, मझण मज्भेग तु मंगलाणं ॥१६॥ उट्टिनु मुंहसरं करेण ॥ १५६ ॥ रायाऽणुगम्मितु पयाणमग्गे, जा वाचियं नाममिण सरत्थं, जेणेव रम्मे वरदामतिस्थे। . ता जाणई जाउ जहेत्थ यकी। सेव पच्छाउ पयार झत्ति, तिकालभायीण वि जीयमयं, चक्की वि चक्काणुपएण गंतुं.१३८ । कुमार तित्थाहियमागहाणं ॥ १५७। कमेण तेणेव उ अद्धमते, अम्भुट्टणं जं पकरंति सव्वं, सविहिए पासवरसि करे। Page #1416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरह (१ ) अभिधानराजेन्दः। गंतुं तभी दाहिने विमाए, पसी विहिपग सम्म । विऊस डापकर्म करे।। १७०॥ बिसवणे हाणामारकर कमेण तेयं परदामनेया. पुम्योदय सम्बमिणं कमेण ॥ १२॥ सपीमा दसयारमा। महादियाबाबमहामते, किरीडमुत्तागायाण जालं. पशासाणविसाप। विवम्मि एमाह सुरेण दाये । ११. पहावयहनगाहिमुस्के विसजयंती परवाममेयं, कमेण तोपुम्वविएिणपण ॥१८॥ सकारसम्माणसुभत्तिपुग्छ । सिकं पमो भगवाहणेणं, सयं सठाणागमणं करे। नहेब याकुमारनेयं । पुम्बोइसेसमहामहा । १७२ ॥ पाराई मासखुकंपवुयो, कियाऽबसाणे प्रवडत्तरेगा, सुरो समागम्म इलाहवायं ॥१४॥ तडेव गंतुं करगति वेस। रहाणोवभोगी सयलं पि भंड, का तहा पोसहप्रमा नाणसमेयं ति तहेव भयं ।। तहेव तो जावsवपत्तो॥१७॥ बिसगाई करणावसाणे. पभासनेया पितहा गमित्ता, बकं तो पुष्वदिसाएँ जाह॥१८ । दलाइ चूडाकरभूसणं तु। तत्यऽस्थिसारानि सह सुहत्थिा उरस्थलालंकरणं कडेय, . तो तीयनेया किरि मालदेवा । दायावसाणे य पभासणे यं ॥ १७ ॥ पुब्बोइयासेसकमेगा सो वि. बिसजि पुनकमेण जाइ. समागश्रादेय पाहदाणं ॥१८६ ॥ ठाणे सयं पारिउ भट्टमंऽते। केऊरमाई तिलगावसाणं. प्राणत्तियं पुवकमेण देइ. पहाण इत्थीरयणस्स भूकं। अडिमुस्संककुदंडियजं । १७५॥ अझ पिसारं तु बहुप्पयारं. करे सेब सयलं पि हिटुं, सुभूमणं जा कहए तुडीए ॥ १७ ॥ सतोरणं चिंधपए यछ। महाबसाणा भग्हेमगया, भाउजागीयणिपूरियामं, सुसेगमेणापानामयं तो।। पभाससामिम्स म बिसालं ॥१७॥ सहित एवं बई महप्पा, तो किंकगनं सिरसा नमिना. गच्छाहिसिंधू नई चरत्थं ॥१८॥ परिच्छियं कहकहंति मत्ति। सुनिक्खुइं सिंधुदहीयमाणं. महावसाणे गयणंगणग्छ, अपि साहे विम समंद। पवाद नकंतु पहामनिया ॥ १७७॥ अम्गातिसारातिपहाणगई. सिंधूप वे मह वाक्खापणं. भग्धाइनाणामणिभूसणार ॥१८ - पुम्बामुडे गेहनदूरदेसे। पहिच्छ इच्छाहि अहिच्छयाए, चकी बचकाणुगमण गंतुं. सुहंसुहणं बसिएणजुत्तो। सबाहगामागरमझमझ॥ १७८॥ खि करिता सयलं कहा, काउंमिमं सिविरस्स पच्छा ममेयमाणसियमेस्थमासु ॥१६॥ कोह पुवंण कमेण सम्बं । तात्ति एवं विणउत्तमंगो. भाऊसयं भट्टममतमत. पजिउं पति स (म) यस्मि सिधे। स सिंधुदेवी चलियासमाउ ॥१७॥ तमो सुसणाहिबई महप्पा, नाणेबनाउं जह चकवडी, महाबले भारहसिसमाए ॥ १११ समागमो एस महामहप्पा। महाजसे लक्खणलक्खियंगे, तो जीपकप्पं सन्डिंग मिलक्खुमास ब्व सुचारभासी। कुंभस्सहस्संरक्षणाभिरामं १८०॥ बियाणप भारहनिक्रनुहाणं, मदासणे दुन्न विवित्तचित्ते, निबाण दुग्गाण दुरासया ॥१२॥ हेमम्मए यस्यविभूसखे य। कलाऽऽलए सत्यपवित्थरं तु. मागम्म मागासतलावलीए, सेणाई तो रयणे पहिडे । , सप्पस्मयं पुष्पकमेण पुर्व १८॥ सहिच माविकुकुंबिलोर, समप्पा अंबरकोसलीयं, प्राणत्तियं देजह सिग्धं ॥१३॥ सजेहसारे जयवारणम्मि महाहियं बार कह बिप्पं. से समत्वं गबदसणाई। मबोहराबंकरणेदियुत्तं ॥ १७६. दाऊण माणतिय किंकरावं, ३४६ Page #1417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरढ़ यंग मज्तणगेइमज्झ ॥ २६४ ॥ रागिहाओ पडिणिक्खमित्ता, सामंतमाई गम्ममाणे । पाणमा यंगसुखं व रूढो, पाइ सिंधु सबलो बलिडो ॥ १६५ ॥ मेण पोर पहाण करे परिसं ॐ नामभूयं सलिले समुद्दे, याविभूसियं तु ॥ १६६ ॥ धन्नाण सव्वाण वि ठाविया, निष्क सिदेऊ व दिवे तो म तं बित्थरे वारस जोयणाई ॥ १६७ ॥ से समारोवियत सुहं सुगं तु नईतरि व्व । गामागरावासविहाररम्मं, मासुको ॥ १६८ ॥ सुद्दिले बदले हि सुनं च लोप परमं च रम्मं । जयदी सुयारवेलोमकएल संडे, विचिनामणिको १८६० दीबासी पनि कलम्मुद्दे ओर पयंडे, अन् य धेयखि उत्तराउ ॥ २०० ॥ मेच्छा जाई वारं सागरं । सव्धं च गच्छं श्र श्रीवेडं मोरे यांऊण बहूस हे भूमणिजभागे । तस्य गइस डिबी पढि ताहे बहुदेसणगारा हिड्डा ॥ २०२ ॥ जयद्वयार्थ वरमंडला, खंडणीसा ( १३१४ ) अभिधानराजेन्द्रः | ॥ २०१ ॥ वाई दिवा वा सुपाडाई ॥ २०३ ॥ वत्थाद नाणारवख इचित्तं, रहाइ मागद्दयाई सारं । रावारि च पि अन्नं च तं से उबणिति तस्स ॥ २०४ ॥ कथंजीयन चिपिति तुम्हेऽत्थ श्रम्हाण सुसामियति । नेया पहू देव व पगिद्धा, तुम्हाण अम्हे विसोपभोगी ॥ २०५ ॥ भावि पहिद्रा नासि सपसु गामेसु गया मुक्का, सांडे सर्व धेतु सपाई ॥ २०६ ॥ श्रीश्राणेऽखलियप्यारा, ठाणे | सुदं सुदेयं नरनाहपाने, पञ्चपिखाई सयलं तु रिद्धिं ॥ २०७ ॥ परतणं मनाइ सेवा- पसार भति बहुप्पयारं भरहाहि वेणं. विसजिलो पूछउ नेहसारं ॥ २०८ ॥ तो सठाणे वरसेननेया, गंगा पासापरिमि बत्तीसबदाइ सुनाउयाई, सीएचसी ॥२०॥ ततो पुणो चक्किसुसे नाम सहि था। माविष्यं निगुदा, चारुक्कवांडेय विहाड रद्द ॥ २९० ॥ सह पिडिजि मंदिर निखित्तु सत्थे सुसंरम्भ, ठाउं तो कासि मुब्बिसंती ॥ २११ ॥ सर्पतिए पोसमंदगो सुरदार इथे बेडी गम्मान ॥ २१२ ॥ कप्पूरधूवागुरुगंधपुष्क महानिरी वक्कस्स वा कट्टु महामहं तु. दंडाभिदं तो ग्यणं पगिरहे ॥ २१३ ॥ वालि विणासणं सत्तुगणाण कंतं । हो गडदपाय पारडी लागसमीकरं व ॥ २१४ ॥ सुखं च संति च हियं मणित्थं, योग कर स पच्चीस किन्नाय पसत्य सत्त श्रीहाड ते य कवाडए उ ॥ २१५ ॥ कुंवाराद्वारे सरसरासाररचं कुते । डे साईट एयं कोई नरहाद्दिवस्स ॥ २१६ ॥ चक्की च हत्थीवर खंधरूढो, मसिंगिगड मुसे। स्वाद्दिए अंगुल तिमि माणं, श्रग्यत्तं सुचलं सयं च ॥ २९७ ॥ असोयमा महिल दिव्यं सया सव्वजियाण कंतं । मुद्धा गयं जं सयलं पि दुक्खं, जरद हरेइ श्रारोगकरं या वि ॥ २९८ ॥ तेरच्या दिव्यमसपा वि Page #1418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह (१२६५) अनिधानराजेन्डः। __न किंचि दुक्खं उबसग्गया वि। सुबट्टई दक्खमई कलतं, करति सव्वं समरे विनूणं, सुसोयबंधं अवलं अकं ॥ २३१ ॥ प्रसस्थमझे हवाई सया वि ॥ २१६॥ अणेगथंभूसिय चारुग्म्म. मणि पहाणं रयणं धरतो, सुहायेर्स सुहनिगम च । अवडियो जोवणकेसरोमो। पाएसो चक्किवरस्स तत्तो, न होइ होई भयवंतगुनो, मिधूर पुग्विजतडेण तेहिं ।। २३२॥ घेतूण हत्थेण नराहिवो तं ॥ २२० । सुसंकमेहि अह उतरेणं, गयस्स कुंभीएँ उ दाहिणाए, कमेण पतस्स अहुत्तरे वि । खिवित सारं भग्हो नरिंदो। कुंचारवं चारुसरं करते, हारऽद्धहारप्पविरायवच्छो, ठिए सठाणे सुवरक्तवाडे ॥ २३३॥ सुराहिरायस्समरिद्धिजुत्तो ॥ २२१।। तत्तो सन्नो परिनीहरेह, उज्जोइयाऽऽसो य मणिप्पहाए, श्रबोडिया उत्तरभारहम्मि । चक्काणुभग्गेण पया दित्तो। चिलाइया नेसु पयंडदंडा, रायासहस्सेहिऽणुजायमग्गो, श्रडा य दित्ता घणधमजता ॥ २३४।। समथलेप्माणुय प्रो विसाभो ॥२२२ ।। सुवरणमाणिकहिरममा, उकिट्ठवंदीजयसिंहनाय चित्थिनपासायधिसाल लेना। झकारभेरीरवरिया:सो। विसालले जासण लावएज्जा, अईइ दारेण उ दक्षिणेणं. उइनजोहा यवाहणटा ॥२३५॥ महज्जुई से तिमिसंगुहाए ॥ २२३ ॥ सुदंसणा सिंधुवारसारा, पमाणो से चउरंगुन जं, गलासोभयसत्तसारा। विसावहारी परमं पगिटुं । सूरा दढा वीरपकमा य, उज्जोयई बारस जोयणाई. श्ररोगसंगामसरसु लद्धा॥२३६॥ चंदो व राई समस्थसेनं ॥ २२४ ॥ माहप्पविक्खायबला दुजोहा, तो य नेसिविसप पविष्टुं । न तत्थ सूरो न ससी न अम्गी, बलं करे चक्कितणं सयाइ, पणासई से तिमिसंधयारं। उबट्टठाण अवलोइऊण ॥२३७॥ तं कामिणी दिवजुई गहाय, झायंति चितोबगया भणति, पुब्बिल पच्छिल्लयसेन्नयस्त ॥ २२५ ॥ क एस अप्पस्थिय पत्थए सो। पगासहेडं तिमिसग्गुहाए, निहीण पुने य दुरंतते, एगूणपणाससुमंडलाई। अलक्खये काल कयंतगामी ॥ २३८ ॥ मायामविक्खभपमाणणेण, एवंविहोपद्दवकारि अम्हं, घणूण पंचस्त य माणयाणि ॥ २२६ ॥ - अनन्ननाणवणता य तत्थ । सुकोसाई चंदसमे य चक्के, सब्वे गश्रा से मिलिया चिलाया, सुचपकनेमिस्समसब्वभावो। पासित्तु एवं रुसिया भणंति ॥ २३६॥ सुभित्तिपजायण अंतरे य. जहा न आगच्छद एस भूओ, देदिप्यमाणे लहुसु पवित्तो॥२२७ ॥ तहा पयत्तं करिमो ससेना। सलाहमाणे लिहेयमाणे, अग्गाणि पंतो पहरंति झत्ति, सुई सुरेणं विसई पहिडे । चापण मेहब्भवयं व सिन्नं ॥ २४०॥ जा चक्कयट्टी वरमंडलाई, दिसे दिसिं चककतणं तु नीयं, तहेष चिटुंति गुहासया वि ॥ २२॥ तो सुसेण रगणे अहस्से। पालोय उजायभुजो गुहा सा, रुहेर खग्ग रया गहिनु, जाया पभाषेण सुमंडलाणं। चिलाइए ता सरासुरुत्ते ॥ २४१ ॥ तीसे गुहाए बहुमज्झदे से, भीया पलाइत्तु पहारभग्गा, जलाइ उम्मग्गनिमग्ग अस्थि ॥२६॥ उध्यिग्गदीणा विमणा अथामा। तिणं व कटुं गयअस्सजोह, गया सइंसिंधुतडे विसाले, पहाणमाई पदमा तलम्मि। मिलिनु सवेगपए पसत्थे ॥ २४२ ॥ पडेड बीयाउ तलम्भि नेह, सुवालुगासंथाए रुइंति, तो दो वि पुब्बिलयनिक्खुडाभो ॥२३०॥ पंगेरिह अटमभत्तियं तु। गया उजा सिंधुनई समुहे. उत्ताणगा अंबरचीरधारी, तेसिंतरिठ्ठो पकरेइ हिट्ठो। मेहामुहाणं कुलदेवयाणं ॥२४३॥ Page #1419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर से सिरा बिसाले माणेच माई ग्रह अंबरस्था ॥ २४४ ॥ भाकरे कि पि जय बाविड दा, हा व सिरंजन केसे ॥ १४५ ॥ देबि स दुरया निवरेह जहा तहा मो दुखिती, पुषो माग एवं कुलश्या ॥ २४६ ॥ सुगर्थ, म एस सत्यस्स विसस्ससम्भो । म एस अग्नी हिमा म एस मंत्राय व तंतगो ॥ २४७ ॥ वे भी पिया ! महा सुट्टी भराया। एसपुर णिधारिडं केला व पाणिस्थ ॥ २४८ ॥ हाम्रो से हरेस्समुद्रसाद महाम वयं भणित्ताय तयंतियाओ गति उकडगस्स झति ॥ २४६ ॥ कुति बासं मुसलप्पमा, सुष्मा जलपारयादि। यजु सुभीसणं कलकनतु ॥ २५० ॥ ते सरसं भच्हो तो से, (१३०५) अभिधानराजडः | परापनि पवित्रे बारह जोयणाई. डिबार किसी पर पडे ॥ २५९ ॥ सातत्य राहितु गया. परामु पवित्रे चम्मच तं पिउ मणी ठवे अह मज्झभागे ॥ २५२ ॥ अहो पचम्म उचरिं इतं. म मणि ओइयसनं । तत्य रांगो न भयं न बाही: समेनजुत्तस्स मीलरक्स ॥ २५३ ॥ वाणि घनाणि वदंति तस्थ, सबवाह लागाइ इति खियं । पुन्हा उयचेति साली, म भन्दाले पषिसंति होया ॥ २५४ ॥ न तस्य राईम दिन दो नक्शतमाला न गद्दा म सूरो । समुचयं सम्जयं पि जायं, भरण ही सुसंति ॥ २५५ ॥ तंत्र पुराण सं. सुम सतरतो । का बिट्टई तो अभिोगदेवा, सिंतिया महाजु ॥ २५६ ॥ दीपारी, सुक्कवहित महामहाए । हा पायेंपायें विष्णुमाया दिदेवम्मा ॥ २५७ ॥ करेति एवं रसरस्स, पेदिषु एवं इस रहस् देवास संबद्धसुबद्धकच्छा ॥ २५८ ॥ मागायचारी, समय मागकारपाये। अहं एवं जह मोन किंवा तुम्भेजिएस चक्की ॥ २५६ ॥ जानी महया भर विसाले, किसी भ आणावा जस्म मरा राखि कथं सदेवं मरहं समस्ये ॥ २६० ॥ सदावं जेण बसेस तुम्मे. न याणा कीस वाली करेसा। एवं ए वी पडिहरेड', एवं भणिजा जब किं न सिहं ॥ २६९ ॥ दियो समेड विप्पं पासह जीवतोयं । अजय बिलं न भवेह पच्छा. तुझेन पनि सम्यं ॥ २६२ ॥ गच्छेति भावाचामगावे, पिजा पविचं । भांति ता गच्छ यहाय गता, अम्गाई अग्वाइँ गहाय लिप्यं ॥ २६३ ॥ पिजं सारतरं हयाइ, माणिक मुकामसिकाई । कथंजली सीसकयप्पामा. उबेड सामि भरहं नरीसं ॥ २६४ ॥ [म] उसमा जयपालु कुति बाई सरणाऽऽगयाण । जहा ऽऽगया तं पि गया भणितु, एवं सुरा तो कुलदेवया ते ॥ २६५ ॥ सहा करिना सलं बिया पासम्म गंतुं भरहरुल रम्रो । समाहि नायमिणं बिराउ, तुमं तु नेया भरहस्स अहो ॥ २६६ ॥ बकाइदप्यमुद्दा सामी, रायणाय दिसो । तुम्हास अम्हे सरणं पवना, भरड कयाम पुछो करिए २६७ ॥ Page #1420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह भभिधानराजेन्द्रः। तभी परिच्छितुनरीक्षण लाबनलीनालसबाहगतं ॥ २७॥ ममाणुभावाम भाइयम् । चंदाणणं नीरयपत्तने सं. लम्माणि संगमेहसार, कामाल सम्बसुदाण। बिसजिया पुरुमिणं सुधकं ॥२६॥ मणोघुगं भागधीपवितं. मेणाहिया पुरुषको कर तमिडिछयं से ममिखेयरिंदो ॥२०॥ मनिष सिंधुममागर। गहाय मागर्माण भंवरल्यो, पच्चिसायं साहिउ पपासे, जएण बद्धाघिउदो वितेय। रमो सयं भुजा भोय लो(भो)ए ॥२६॥ भणति अम्हे म उव्यसम्मि, महनया वरकमाई. मजति भो मह वासराई॥२१॥ पुष्षुम्मुहे घुलहिमाचलस्स। * गया जायं समरं महंतं, नितंबभाए मह दक्खिणम्मि, तयंहिए तो अबलाप्रथामा। जाबहमनस्स कर करेवि ॥ २७०।। केई करे अमभनमतो. तयंसिर सोमदिमाए जाइ, दाणं अलंकारियभंडगस्त ।। २८२॥ उपायगं पब्धयतो ति खुसो। अनं सहाजा महिमं करेमि, फुसेड सीसेण रहस्स पच्छा. मह भयासेणय भयाइ । हए निगिशिह खिबेर उम्पि ।। २७१॥ साहेहगंगापुरनिवखुई सो, सरं वरं गंतु विसत्तरं च, एवं ति सिंधू गमेण सम्वं ॥ २८३ ।। तो जोगणाणं गिरिनायगस्स। पसाहिएइ नरीसरस्स, गेहस्म मेरा पडेड झति, पासे निवेत्तु हिमोवाटुं। पुटवलमालावसपा सिग्धं ॥ २७२॥ पच्छा पलोलाएँ सिहा दित्तो, तंचव सख्यं अह उतरलो, सिहि ब्यवित्ती विराजमाणो॥२४॥ दिसाधिदेवपियाण भते । गंगासमं मुंजा भोधमोए, सयोमाय बंटणं च. तो समेगं वरिसाण पुर्ण । बेवसेसंग्रह को॥२७३। पहिचित्तो भरहो नरीसो, रहम्मि रूढो उसहानलाम्म, सहाए सम्यगुणायवे ॥२५॥ तो तंतिकखुनो फुर्सा रहेण । अहन्नया चकहरो मणाई, र ठवित्ता मह काामणीप, सुसेणनाभं कडगस्स सामि । सनामगं पूज्बतडे लि ॥२७॥ खंडप्पयादारकवाडए उउस्सपिणी नायागरस्स. ग्वाडेह पुयिज्ञकमेण कति २८६ ॥ माएँ भागे हपतिमम्मि। तह त्ति पुश्विलकमेण कडु, स चकयट्टी परमो नरीमो. तहा जहा से तिमिसंगुहाए । नामेण पाथं भरहो मोतु ॥ २७५।। उग्घाडियं तो कहए निषस्स, तोरई वालिय बंधवार, समेनए जो विसई तहेव ॥२७॥ सयं समागम्म तोव सेसा। तहेव सव्यं नवरं विसेसी, ममेति हो गिहनायगस्म, एसो जहा पच्छतडाउहुत्तो। देवच्चा चकवरं पयार ॥२७६ ॥ गया उगंगावासागरम्मि, यहहु मह दक्षिणाए. विसे खेत्ते तदक्विणि ॥ २८८ ॥ दिसाएँ भागंतु महामहेण ॥४॥ ससि व्य मेहम्मवयामि गंतुं. बेयवासी घिमी मणम्मि, ___ गंगानईपश्चिमकूलदेसे। जा मिजाहरलोयनेयं । ठाउं ससेम्रो निहिलाभहे भत्तटुमं पोसहमंदिरम्मि पगिबई पोसहमम पि ॥२॥ तयावसाणे बिनमी नरिंदे ॥ २७७ ॥ सषया तो य नवनिहाणा, तुचाइए दिब्बई पहिडे. माणिक्कमुत्तामणिहेमपुत्रा। जीयं ति काउ नरविरजुत्ते। .. सदेखलोनावश्यावहा जे. सिग्धं समागमछा घेतु अग्धं, उति पुजोषत्रया तयते ॥ २६॥ पाणमाणजयते य गेहं॥२७॥ मामाई तेसाण निहीण एप, स्पाहि लक्षणलक्खियकलं, पुस्वप्प गंधवियत्तियाई। अवट्टियं जोयणजी निर्य। जंजत्य प्रस्थीतहतंय. गारागारसुचारुयेसं, •दिनाम, *जातानि Page #1421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह (१३१८) अभिवानराजेन्द्रः। कहेमि गाहाहि ठियाहि गच्छ ॥ २१॥ वेरुलियमणिकवाडा, तेसिं सरूवं च सृठाणुगाई, कनकमया विविहरयणपडिपुत्रा। तनायमाणं..............."(१)। . ससिसूरचक्क लक्षण सव्वं विश्रावस्सगचुनिमज्झे. अणुसमययणोववत्तीया । ३०४॥ तह ट्ठियाई वजहोवाटुं ॥ २६ ॥ पलिभोवभडिईया, मेसप्पे १. पंदुयए २, निहिसिरिनामा य तेसु खलु देवा । पिंगलए ३,सब्बरयण ४, महपउमे। जेसि ते प्रावासा, काले य ६. महाकाले ७. अच्छेजा प्राहियच्चाय (११)॥३०॥ माणगे ८, महानिही संखे ॥२३॥ एए ते नव निहिरयणा, नेसपम्पि निवसा. पभूयधणरयणसंचयसमिद्धा। ‘गामागरनगरपट्टणाणं च । जे वसमुवगच्छंनी, दोणमुहमईयाणं, भरहा हिवनक्कबहीणं (१२)॥३०६. _संधाधारायणगिहाणं (१) ॥२६॥ तेसि निहाणेण महं तव गणियस्स य उपत्नी. तयंतिए सेनवा भणाद। मागुम्माणस्स जं पमाणं च । गिराहाहि गंगानइनिक्खुडे वि. धनस्सय बीयाण य, पुब्बिलए सिंधुनइक्कमेण ॥ ३०७॥ निप्फत्ती पंदुए भणिया (२) ॥२५॥ तहेव सर्व पकरिनु पर, सध्या श्राभरणविही, जा सम्वभग्धे पडिअपहु। पुरिसागं जा य होह महिलाणं । सक्कारसम्माणकमेण मुक्को, मासाण य इत्थीण य, सयं च जा भुंजा भोयभोए ॥ ३०॥ पिंगलगनिहिम्मि सा भणिया (३) ॥ २९६ ॥ महऽनया दक्षिणपच्छिमिले, যায, मिसाएँ भागम्मि पयाच। चउदस वि परा चक्कवहिस्स। विणीयमामज सरावहाणि, उपजते पगि नहंगणारूढपई पवनं ॥ ३०॥ - दियाई पंचिंदियाई च (४) २६७॥ ... तनाउ राया वि पट्टमित्तो, वस्थाण य उत्पत्ती, कोडुम्मिए सहिउ आणावेद । निष्फत्ती चेव सबभत्तीण। सह भो! वारणरायभूयं, रंगाण य धोव्वाण य, हत्यि ममे सबलं सजोहं। ३१०॥ सव्वा एसा महाप उमे (५)॥२६॥ सो सयं मजणगेहमासु. काले कालपाणं, विसिन्हाउं सुरसुद्धगतो। ___सव्यपुराणं च तिसु वि बसेसु। प्रलंकिनो भूमियमस्वगतो, सुकप्परुक्खं पिसव्वाट्रो॥ ३११॥ सिप्पस कम्माणि य, मनोहरो सम्वजाणंदयारी. तिनि पयाए हियकराणि (६) ॥ २६ ॥ इंदो व परावणमत्थयस्थो। लोहस्स य उप्पत्ती, सम्वाह डीएँ हुई जुत्तो, होइ महाकाले आगराणं च। चक्कागुमग्गं प्रणुजाइ जाय॥३१२॥ रुप्पस्स सुबन्नस्स य, सेट्टीसहस्सेहि पसाहिऊण. मणिमुत्तिसिलपवालाणं (७)। ३००॥ वासाण सवं भई समिरो। जोहाण य उपपत्ती, निहीहि सेणारयणेहि रायभाभरणाणं च पहरणाणं च। सहस्सबत्तीसपमाणपहिं ॥ ३१३॥ सम्बा य जुद्धनीई, तेपण रक्षो पुरनो पबिट्टे, माणवगे दंडनीय ()॥३०१ ॥ अटुट्ठए दप्पणमंगलाई। नदृषिहिनाडगविही, तो कुंभभिंगारमयाइछने. कव्वस्स य च उब्धिहस्स उप्पत्ती। चक्काइए तो निहिणो महंते ॥ ३१४ संखे महानिहिम्मी, तो सोलसे देवसहस्सए य, तुडियंगाणं सध्धेसि (१)३.२ ॥ बत्तीसगयाण सहस्सए य । चक्कटुपट्टाणा, कमेण तो सेमवई पगिटे, अठुस्सहा य नव य विक्खंभा। गाहाव बुहपुरोहियं च ॥ ३१५ ॥ बारसदोहा मंजू - बत्तीसकमाणउदुस्सहस्से, ससंठिया जन्हवीह मुहे (१०)। ३०३ ॥ तोसिंति कजाणिजणबयाणं । Page #1422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १३६) जरह अभिधानराजेन्डः।ते चेय छत्तीसनिबन्नाहा, सस्ने ! सखे ! गिम्हइ केयमेयं, __ तयंतरा तिनि सए ससखे ॥ ३६॥ सख! सचे! पस्म निवं वयंतं । ३२८॥ सूयारयाणं परमाण हिट्ठो, এ জয় আলাওল যা, अट्ठारसं मेणिपसेणईप्रो । मिस चरते य पहे वएसु । लक्खे चुलस्सी हयमाइयाणं, जायं असंचारमिणं सवाहि. तो कोडियो छन्नवाई नराणं ॥ ३१७॥ गेहं गिहाम्रो नयरं समतं ॥ ३२६ ॥ अत्रे य राईसरमत्यवाह पवंविहे तोरणमाल सोहे, माइंबिकोडंबिनरे बटू य । मंचामंचक्कलिए जणहे। भुसंडिखग्गद्धणुदंडहन्थ. पासायमालावणवीहिवच्छ सिंगामकडप्पडलोयसोहे ॥ ३३० ॥ मयासगारे िसवेसराहि ॥३१॥ सचिंधमालाधयधारएहि. सुरिंदपालोपमरिद्धिसार. पविम्समाणस्स पुरस्त रगणो। बहूद्वि लोपहणुगम्ममाणे । चक्राणुमग्गण पया गया, अच्छच्छिा कामुयरूर्णरखी. बिलोयमाणं मुहए थलाया ॥ ३३१. एवं सुरिंदोत्रमरिद्धिसारो। ३१६॥ प्रबास खंधागयबादेहा. घसं मडवाइसु अडदित्तो. अनत्तदायंतभिरामवच्छ । सुहं सुहेणं तु कमेण पत्तो। सुरायहाणी' विणी' बाहि, अन्नसबथुष्टिगमंचलकत्रा, अन्नत्त वायंतमणोभिरामा ॥ ३३२॥ किच्चऽटुमं पोमहमा सवं । ३२०॥ . अहो अहो संदणजोहुजोहा, जा देवनाहोऽथ गइंदरूढो, ससिममा सम्बबलोववेत्रो। अहो गयारूढनरिंदसोहा। भोत्तुं निहीमिच्चचो पहिलो, महो सुवेसो नरनाहु एसो, अहो सुकेसो य इमो नरीसो॥३३३॥ विसह जातं तु सरायहाणि ॥ ३२१ ॥ अहो इमं चिंधवरं अपुष्वं, विणीयनाम अमरा पहिट्ठा. अहो इमं जाणवरं अव्वं । कुणंति ने सवपरसरम्म। - सिनोसिनोसियचिंधमालं, अहो इमा संजाया अपुश्वा, अहो इमा वेसहिया अपुब्बा ॥ ३३४॥ निसम्म रायं भर विसंतं । ३२२ ।। भणति तं राय ! चिरं चियाहि, नारीनराणं वह सहस्मा, भणति तं गय!जयं जिणाहि। सकोउया वझजपा समागया। भवंति तं राय ! सुबी भवाहि, छुट्टतकेसव्वगतुहारा. भणंति तं राय परीणाहि ॥ ३३५ ।। प्राबद्धखग्गाउ गलंतगत्ता ॥ ३२३ ॥ कई भणंती परास माया, चलंतगंडाऽऽहयकुंडलंता, जो जए एस कुलप्पांचो। पीणस्थणंदोलिरतुदृहारा। पुत्तो वरो भारहम्वित्तसामी. सहसंतम्रो सत्तरचारुदेहा, सुरासुगाई बक्षससारो॥ ३३६ ॥ मणुत्तरीया अबला पहना। ३२४॥ मन्नाऽवला रूवधिमोहियप्पा, : अकुंडलाडियगंडदेसा, धमा अए एस सयं सचक्खू । . विलुससुत्ता रसणा निमग्गा। শিক্ষাঙ্কাকিল। अडिंतीणस्थणसियस्स, गुरू गहं कासि करस्स कंतो॥३३७॥ अछूढवाहेगसियंसकंचू ॥ ३५॥ मुखस्तहस्म जुवथुपमालो, सुनू पुरग्गक्कयपायचारु, अग्गंजलीयो य पडिच्छमाणो। चंचचलंतूरविखित्तवच्छा। दायजमाणे सहसंगुलीहि, लसद्धरंती वसणाइ रम्मा, उविजमाण नयणंजलीहिं॥३३८॥ विलोलदिट्टी वमणहारा ॥ ३२६ ॥ सुषिद्धनारीगगाविद्धशिश, चलंति वग्गंति वलंति केई, भासीसरावारवपुत्रको। खलंति उटुंति पडंति केई । चंचच्चलचीयरचारुपंतइसंति भंति भवंति के, उनुस्खमाणो नयणाभिरामो ॥ ३३६॥ मे मुंच मग सर श्रोसराहि ॥ ३२७ ॥ इनो तन्नो चंचलखित्तविट्टी, सखे! सखे! केसवयं दम ते. जयजयाराववरे सुणंतो। सखे! सखे! रोया डिंभमेयं । सुरिंदनाहो व विणीय मज्म, Page #1423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरह अभिधानराजेन्द्रः। भरह मांझण सम्बहिवलोषयेभो ॥ ३४॥ पयाहिणीका पिच्छा एवं महाविपवित्रण, निसीई पुख्यमहो विसालो । कम कमेणं म अंगणम्मि । सिंहासणे नो मरना मध्ये पत्तोसतो परिपूछऊगा, हंति सोपाणि मत्सरेण ॥ ३५३ ॥ विसनिया सेसनरीसमेषा ॥ ३४१॥ सेणाईबासस्थयाह. बीयमुपसुयदेवदूस एमाइया इति नहेब तूणं । उन्होयसोहावियसम्बदेसी। रुति भागेण उदाहिणण. विचित्तविच्छितिसुभत्तिचित्ते. महागि तो अभिभोगदेवा ।। ३५४ ।। खूभिरामे मणसोऽभिकती । ३४२ ॥ रायाभिसेयं पचरं घिसालं. माणिकमुत्तामणिपुष्फपुंजो उब्यचित्ता पकरिति जिंटा । पसत्थनक्खमहत्तयार, बयारजुत्ते धचिंधचित्ते। सुपुनपुग्ने कलसोबसोहे. निहिं निसारे करणे सुजाए ॥ ३५५॥ सुचंदणाभालकनीषयारे । ३४३॥ भाई बत्तीस नरीसगणां, सुरिंदगेहोवमंगहसारे, ___ सहस्सया चार कति रम्म । विसे य पासायवरे बिसाले। तो सेननेयासुरवसाणा, अंतेउरं बंधयनायवग्गं, भनि जादेव ! चिरंजियाहि । ३५६॥ विसजिउं महासाघरं विसि ॥ ३४४ ॥ निव्वतिउं बारसवच्छतो, महार सयं चंदण लिनगन्ने, रायाभिसेयं भरहेमरस्स। पवित्तवच्छंसि पसस्थगत्ते। तो अलंकत्ति सुभूसणेहि चिसोषयार जिणनाथगस्स, सुकप्पयच्छ पि य रम्मदेई। ३५७ ॥ भत्तीप पुप्फाइ फलाइएहिं ।। ३४५॥ महामहे बारसयच्छरीए, भुजे तो बंधवनाइयगा __ गए गईदे कहिउं सत्रो । समन्निो 55हारचऊवधेयं । महाविभूय यहिम्मवाओ, स भोयणं बंजणभक्खभुज बिसे मझ स सुमंडयात्री ॥ ३५ ॥ नाणारसहूं बहुमत्तिचित्तं ॥ ३४६॥ सम्माणियाममनरीसदेयो, भुषा सुहासेज खणं करितु, विसजिओ बंधुजणस्समेनो। बत्तीसबद्धाई सुनाया। सुकम्म जम्मतरुवजिगह, पामायमारोयरिदमिन भुंजा भोए चिउले जहिच्छं ॥ ३५६ ॥ समारबंधूवगएडदरम्मे ॥ ३४७ चकं सृछत्तं श्रसिदंडए य. सुहं सुहेणत्या देहमाणे, गेम्स मवाहसालजाए। लीला जा वासरके वि राया। चम्म मणि कागणियं नमावि, प्रहन्नया देवनरीसराया, सिरी निह णे भरहस्स रसो॥ ३६॥ गयाभिमेयं कुणिमो मणति ॥ ३४॥ सुसेणगाहावाबुहरायसो पोसह काहिस अभंते जाया विणीयाएँ पुरोहियो य । यावसाणम्मि सुराभिप्रोगा। गो य घेयनगरम मूले, तेहिं तमो कासि महामनं. सेपीएँ इत्थीरयणुत्तराए ॥ ३६१ ॥ - सुमंडवं पीढवरं तयंते ॥ ३४६ ।। चउद्दसरायणनिहीणं, पजिवसारामल लोहियक्ष नवरा वायत्तरि सप्पुराणं। : माणिवत्ताहलचित्सरम्म । सहस्सवत्तीस जण व्वयायां, सिंहासणं वरथुरि विशालं , कोडीण गामाण उ छन्नऊए ॥ ३६२ ॥ एमा सम्बं पकारसुदेषा ॥ ३५० नवनऊ दोणमुहासहस्सा, ईसाणभागे तिविसि सुपाण, चालीस अट्टाहिय पट्टणाणं। परंपरागत्य सुखमम्मे । मईबयाणं व उवीसपुत्रा, को तए पोमहगेहमाम , सुकव्वाणं पितहागराणं ॥ ३६३॥ घिणीहरे पुश्वकमेगा जाय ॥ ३४१ । सहस्सवीसं सयसोलसत्ते, महाश्रो सुई सिंधुररायरूढो . खेडाण संबाह चउद्दसत्ते। सो सराईसरमा जुत्तो । सक्खंतरहीवगएहि पुना, विणीहरित्ता परमंसि, पगूणपनाएँ कुरुज्जयाणं ॥ ३६४॥ पुब्बिासोपारापरंपराया ।। ३५२॥ समुहसीम हिमवंतमेरं, Page #1424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरड छक्खंडयं भारह खेत मेयं । पाले पुण्यविषपुत्रभाषा सारे एवं लय स्वबंधवे ॥ ३६५ ॥ दिट्ठा तो सुंदरि पंडुगंडा, भद्र रुट्ठो कि न मज्झ बिजे। अभं च इत्थीगयरूपसोहो, जिरिसा पंडुररूय सोहा ॥ ३६६ ॥ कोदिया भीमा मति, अस्थित्थ सामिस्स पयप्यसाया । तदिशाओ सामिस्सगासम्म वयाहिरूढा ॥ ३६७ ॥ तो मुक्करागो पभणे नरीलो, मुक्काऽसि दिक्खं गह भोयभोए । भुंजाहि वा सुंदरि ! मे समाएं, मिरा पगडे दि३६८ ॥ पेसे दूयं अभागा, आयडिया महर पुच्छामा मदि रज्जं जिणं भवओो अहं पि ॥ ३६६ ॥ सोको परोताओ जं से तम्रो सामि ! कर्म कमे मामागामं विहरि (१४०१) अभिधान राजेन्द्रः । समागन पव्वयपश्वयम्मि ॥ ३६७० ॥ जिलागमं नाउ कुमारगा ते, समागया सामिपयस्तगासे । नागस्स, दिपा कति सव्वं भरोव ॥ ३७१ ॥ अप्पे रज्जं पकरेसु तुम्भं, कह ये ताय ! जमम्ह जोग्गा । नि भुवं सम्यदयगि सामी तो संसयमोपखसीप ३७२ ॥ हिजो कहे. वितगालगागरस ३५१ जहा कोई पुरसो घर, गोउ इंगालक गिरहे ॥ ३७२ ॥ जगभाणं भरिय गद्दाय, तं तेण पीयं ग्रह गिम्हकाला । परिसमाऽऽपाचपन्हि भाषा, अत्तिसालंघियसम्यदेहो ॥ ३७४ ॥ मुच्छायला पीजलो षि गेहे, सचिंत कप्पणाए । समुद्दा नवाबी उघडे तडागे सरमाइए य ॥ ३७६ ॥ जुत्ताऽगडे दूर जले खिषि, तणायण पूलं जलपाषा हे । सतति मे होहि ि जीहाऍ साए पडियाएँ बिंदू ॥ ३७६ ॥ समुद्दतोयेण व जो द तितो, न पापीसरसीसवाएं। सति सिषोषमेऽयुत्तरवासिभोष, किं न हो पहि पोषमा मासुसकामभोगा ॥ ३७७ ॥ गोडी कोषमा तिशी न जाया जा एहि होही ग्रह भो किमेच्छ ? ॥ ३७८ ॥ एए उ भोगा मनुषाण तुच्छा, लहुस्सगा दुक्ख करा असारा । अखिच्चया से त्रिरसावसाणा, पुसा सुई बहुके सहेऊ ॥ ३७६ ॥ एवंविहाधम्मक दाणुवच्चं सामी सयं सादर ब सुपा देखि भरह बेपालिया पार्थ (१) महंत ३०० ॥ संयुकहा कि मो असेसया सारभवे निवद्धा । जणा या तेरा य मोक्खकज्जे, समुज्जया होइहु कजसज्जा ॥ ३८१ ।। एके कोई दुइ वा चऊहिं, कुमारगा जा सयले पबुद्धा । दिसंबर ि पव्वज्ज सावज्जविवज्जति ।। ३८२ ॥ सुया कया रज्अधुराय तेहि, पेसे तो बाहुबलिस दूयं । सो सुरतो भर भाई बाला हु ते तुम्भ कर असमा ३८३ ॥ दूधमा सामि जिसे दिग् तुम्हे कणीयसाश्रो नियभाउगाएं, रखं हरेउं अवलाण तेसि ॥ ३८४ ॥ ते वा वराका अबला अथामा, चितिरजापि किं वा कयं तं पिय गिन्हिऊण, बोडनिडुरं से ॥ २८५ ॥ सति सामिस्स न ते परिि मुंजाहिर तापि आया इमे पनियमेा परं ससी सब्बजयप्पवित्तो ॥ ३६६ ॥ पीऊस निस्संद करोहवासी, सहति देता कमला य दोसा । न तस्स नूगं जइ कोडवराहो. मारतो निसम्म पश्य ॥ २८७ ॥ पज्जाहि सिग्धं अह तं न खिले । स चक्को सम्बबलोव बेनो, तया गया गंगतडे विसा ॥ ३८८ ॥ पाहि खितोऽसि मायातले मया उ । काउं किवं जं कलिश्री पडतो, Page #1425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह अनं कहिज्जहि न एथ खेत्ते ॥ ३८६ ॥ जीनंतर किंपि मए अजीयं, नो एत्थ अन्नोतु कोइ मलो । मो ममं देव! मरीम यस पडियाग ॥ ११०॥ देसी सिदो थि ठिया ससेना सबला सजोहा । जुज्मम्मि तो मलवरं तु गज्झे. ( १४०२ ) अभिधानराजे सणक्खयं बाहुबली भगाइ ॥ ३६१ ॥ वहुँ सयं भो किमिणा जरोण, निराधराडे विद्याविषय जुकामु दोषी समगं तुरंगे, एयं पवसे पढमं तु जायं ॥ ३१२ दिट्ठी जुज्भं तह वायवाह डीदितिय चकी सवस्थ हारेर बलिस्स पासे, चिते तो एस किमेत्थ चक्की ॥ ३६३ ॥ जस्संतिपऽहं तु बल पहीलो, तो दे दंडाउ देवमेगो । तो धाय दंडस इंतं सगव्वं इह पासिऊण ॥ ३६४ ॥ ता चितई बाहुबली सचिन्तो, पइन मुक्कम्स उ वी न रतं । चूरेमि एयं श्रह मे न जुत्तं, धिरत्थु कामेण विसोधमाऐ || ३६५ ॥ जेसिका हस्त मी कवि न पायमतिणीयं । कर रज्जेण रण व भाउगेहिं ॥ ३६६ ॥ मे सुंदरं जं गद्दिया सुदिक्खा, तुगामि अपिसि । तोगदिवसमये विचिते उपपन्ननाणाइया कणिट्ठा ॥ ३६७ ॥ निति सिमावदिट्ठी. कई कहूं गंतु करे पणामं । जेट्ठा भवित्ता नियमउगा वी, चिट्ठामि तापत्थठिश्रो सुझाये || ३६७ ॥ खणं निरुस्सग्गगओ य जाव, उपजई नारावरं विसालं । समत्यवत्थूरामास जं सव्वराणु नावज्भवसायजुत्तं ॥ ३६६ ॥ एवं पद्मागमा स्थि समस्यपस्यो वरि । सीयाssवीरपवाहपात वद्दिजमाणो वि न च प्पर्कपे ॥ ४०० ॥ वार्ड जियो सुंदरिवंभनाम, अजाउ पेलेइ य वोद्दणस्थं । पालख तत, पुगिसम्मं पडियर ७०१० | नगो व वलीलयली ढदे दे, दिट्ठो सुई सतममतगेहे । हरिय रूढा नो होइ हु दिव्वना ॥ ४०२ ॥ विमुच्यस्स सुगयस्स । कहं तु हत्थी कहणं ममऽस्थि, न पत्थ मज्जा अलियं वयंति ॥ ४०३ ॥ लकज्जमेयं वयखं चिराऊ, नायं जहा माणगयंद रूढो । को माग सावरा, वंदामि पाए नियभाउगाणं ॥ ४०४ ॥ एवं विविति महीतलाम्रो, जायेगा यह उस ता घास दलि जाओ लयं केवलनाणधारी ॥ ४०५ ॥ तो आई पणनावग्रस्त, नमि तित्यं परिसाएँ म । सुकेवलणं बिसई महत्या, चकम ४०६ ॥ अभया चितर माणसम्मि मे भाउगा पव्या उ सब्वे । न किंचि याऍ सिरी परिष भरत करेडं भरहे फलति ॥ ४०७ ॥ जो नपेतही पडिडा सत्तू वा जेन जइ दुखं । किं ताऍ रिद्धीप सुपाधराए, तो देमि भोप नियभाउगाएं ॥ ४०८ ॥ जातिवादो सामी त पर सदेवसंधी सीसागुगो चामरछत्तजुत्तो, समायं नाउ जिएं नरीसो ॥ ४०६ ॥ सविट्टिए गंतु जिणं नमित्ता, भोगेदितो नेच्छति ते चत्तममत्तगेद्दा, चिते तो नेच्छुद्दि चत्तसंगा ॥ ४१० ॥ किपाक भोगोवमभोगसंगं, आधारदाय करेमि धम्मं । लयाणि गड्डाण भरितु पंत्र, ISSहारस्स गश्रो नरीसो ॥ ४११ ॥ निमंतिई दिड मि कम्मं तम्रो आदराि न कप्पई सामिमिणं भणे, चिते तो तमहं जिणं ॥ ४१२ ॥ झियायमाणो मणसा खणद्धो, जा चिट्ठाई पुच्छ ताव सको । मो सामी ततो बाहर पंचभेो ॥ ४१३ ॥ इंदस्ल बफीसरमंडलिस्ट, www.jainetibrary.org Page #1426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरह जयराजपरस । सक्का वाद्दिज्जर उत्तरेण, न कपिउं से बसिउं श्रदिने || ४१४ ॥ सक्को तो बंदिउ भत्तिजुत्तो, भणे सामि समणा जिशिंदा | मेदस्ल से चेह दाहिणेणं. सयंभु ! जागिरद्दद्द जं च कप्पं ॥ ४१५ ॥ म मयाऽसुनार्थ चक्की व हिट्ठो नमिडं जिणिदं । मया अन्नाश्रमिणं जद्दित्थं, त्रिति साहूय सुद्धं समत्थं ॥ ४१६ ॥ कहिं करेमो अह भत्त पाणं, ( १४०३ ) अभिधानराजेन्ड जमाणियं साहुकए मएछ । सुरा सुखासु करेमि जस्थ भणाइ तो देद्दि मणुत्तराणं ॥ ४१७ ॥ बिने तो उतरगुदि को नायं जहाड़णुव्वयधारिणो मे, दिश्रो ममेद गुदा फिरेम पूपं ॥ ४२८ ॥ एवं वियारिनु सुसावगाणं, तं भतपाणं दलद्दन्तु पच्छा । सहसा हाथियममा, सुरिंदरूवं श्रवोज मज्भं ? ॥ ४६६ ॥ महानरो का उमपत्थाप दो गोलिय तो सो सचिषं हिमो लोए ॥ ४२० ॥ तो ती कारावइ हिदुषित्तो, मद्दामहं काउ नरोत्तमो थि । तमाकार्ड परंतु. पीई इंसति ॥ ४२१ तं देवदेई इयं नराणं, मेसी वयं होड अवेकम्मा खतरं झाय एवमेवं, एवं तु काले अगच्छमाये ॥ ४२२ ॥ लोभाभिभूषा परे जप, भुंजति भोगा बहुया उयारा । भांति लोग बहुओ नरीलं, भणार तो खाइ न अस्थि मज्भं ॥ ४२३ ॥ अस्थि ति सामिस्स पयप्यसाया, तो देह किं वात्थ वियारिपण । भांति भग्गा वयमेत्थ नूणं, भाइ भो देज्जद्द पुच्छपुव्यं ॥ ४२४ ॥ तर किंवा महव्वया संति न सावगाणं । हवंति ते किं तु अणुध्वयाणि, पंचेव सिक्खाय सत्त होति ॥ ४२५ || देखिति तो ते राहियस्स राया बि लच्छेद य कागिणीए । मासा दर्द तु पु पु प संभालना हो इयराण अन्ना ॥ ४२६ ॥ जच्छति पुत्ताइ जईण ते उ. कमेण जा एस दिश्रोषवती । मध्ययाययसंतिक जिजीपस्थट्टा ॥२७॥ वेया कया सव्वपयत्यगन्धा, सम्माविवि व तेसि मिच्छं पवनाण जितेरे ते, पभूयकाले णुसहस्स पच्छा ॥ ४२८ ॥ श्रणज्जवेया सुलसाइजन्न कलमाईहि कथा उ पच्छा । सामि तुम् तिलोयपुज्जा भरहे अहम्ने ॥ ४२६ ॥ जया कह पिमाणा ममोचमा वा सयलं कद्देहि । जिलाणची व केसवाणं बलाण माणं सययं कद्देह ॥ ४३० ॥ ना गईऍ जा जस्स जिणो निवस्स । जिससहस्वं. पगालणं वास सहस्तऊणं ॥ ४३१ ॥ काऊण सम्भूयपयत्थ सत्था, जीवाइतताण पहीइ कम्म । सिगापयि सुसाइ बहू सभ्वं ४३२ ॥ चक्की व काले चिरा चिसोउं, चित्तेण होऊ लाग जेट्टे । अट्टः वयष्पव्त्रयमत्थय किम, कारे ३३ तिमाउस्रं विसालं, राणामयं तु । सोसिसिहासुगारि ॥ १४॥ सुसेसेजगत्र येसाज विवक्षिपं नेयमि तदेव । पास दीगर भग्द पेच्छामिद्दा तोरणजा झया य ॥ ४३५ ॥ चत्तारि चाउद्दिसि चार तस्स, दारे या मंड से एगेगतित्तिपमुद्दे य रम्मे, तेसि पुरा पेच्छणमंडवे से ॥ ४३६ ॥ एवं में मणिपेडिया व सब्वं च सम्यन्नुयमेव नेयं । तस्सेच णं यमज्झ देखे, रम्मा सुरूवा मणिपेढिया से ॥ ४३७ ॥ सीसोदरि देव से वे सुरुवे विमले विसाले । तेलोवर वन्नपमाणजुत्ता, Page #1427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरह कारनामेषपमीजिया ॥ ४३८ ॥ अइडिया से पडिमा उजुम्मा भष्वाण निव्वाणसुहावा य जहा नहा रोमकया य तालू जीहाद्दरा नेतभुवे तद्देव ॥ ४३६ ॥ कारे हेमरतसारा, मणिमया सब जहारिहं तु । एगेगिए पिटुड तेलि तेसे. पलेययं से पडिमा गहाय ॥ ४४० ॥ छत्ततियं कुंदसुतारद्वार नीहारडिडीरहिपर्छ । कोरिंडमालावरच मुढामासारवडी ४४१ ॥ सुकिंकिणी जुतियजाललीढं, सेयं उपरि घरंती दुवे चामरारिया, पासेसु दोमुं पुरो य दो दो ॥ ४४२ ॥ नागाण जक्खस्स य कुंड (ल) धारी, पत्ते से रामश्र। तरथेव पंडाचतीसरम्मा, सम्मतिया साकुम्भा ४४३ ॥ भिंगार श्रादी लयथालमाई, यं पिप पहुच । तुरंगमाहं गनराइकं वा, गरम पुष्फलवाणं ॥ ४४४ ॥ सुगंधस्थामा मा सव्वाण पर्सि पडिलेय संथा । समास ( १४०४) अभिधानराजेन्थः । सिंहासणे चामरचारुरम्मा ॥ ४५५ ॥ सिद्धत्थय तेलसमुग्ग एवं पमाणया धूयकडच्या य । तं चेयं से सेसमुप गिट्ठ संभूषितमखिलंच ४४१ ॥ कुरंग हामियसिंहभस्लनारीनरकुंजरवर मे । बिजाइरसर जुगोवसीइं बहुभत्तिचित्तं ॥ ४४७ ॥ रगसाहिमकर (?) (म्यो । आरामाचीनइसिंधुरक्ष विचित्तचि घुम्भचित्तरम्मं ॥ ४४८ ॥ विचित्तमाणिक पहापवाह उपासेसनहाय जालासहस्सा विमा सुचिमालि व करावलीढं ॥ ४४६ ॥ एवं करिता उ गिद्दं जणाएं, करे धन्ना उसभाउगाणं । विवाह अ कार से पयसामर्थ ५२० ॥ माकोदले अक्कनिही इमाउ, कारे तो अंतमया नरा उ । सोमालि नराड काले खुड़िया उ ॥ ४५१ ॥ होहिंति तो ओयणमित्तमिटंकी को म काले कासी स गुरुस्सया से, पुष्याण गंगा परियं बिसाल ॥ ४५५ ॥ तो पंचलयस्सहस्सा, सहाय मुंज भोषी अह नया न्हाइ सुवलितो. माणिकमुत्तामणिभूसियंगो ॥ ४५३ ॥ हारखहारप्यविराहो, पलंबपालंय किरीडधारी । मंदार संताय] चारुपुष्क श्राबद्धवीडो कयसव सोहो ॥ ४५४ ॥ पिसे भासगिहे विसाले, सम्बंगिश्रो दीसह जत्थ पाणी । पाय से भवितव्या एगंगुलीए गलिया य मुद्दा ॥ ४५५ ॥ पलीयमाणस्स नियं सरीरं, दिट्ठि गया सा उषिलोह माणा । तं पेच्छिउं रूवधिमुकूक लोई, वणे हारक्कडगार सव्वं ॥ ४५६ ॥ सदेह भूषणजार विसायवं चिंता चित्तम । सहावओ देहमिणं न रकम, सोहा उसे की गंगेहिं ॥ ४५७ । माणिकडेमम्म विमाहपि मेहलेचणा। सड्राइया कामगुणा नराणं ज़र्णेति संगं घिरसे भये वि ॥ ४४८ ॥ सरीरगं ताण निहाणभूयं. तमेरिलं पेच्छ श्रहो छ मोहो । अणि या कामगुणा दुरंता, भरद भयावहा से विरसाबसा ॥ ४५६ ॥ जय माया आवायमित्तम्मडुरावभासा । नरो को, करेज संगं भवउपसु ? ॥ ४६० ॥ अणिव्यसे अवसाण दुक्ख दाणेसु तेसि विए समोहो । एवंविभावसुपागयाओ, आङ व्य लेढी कमपतयस्स ॥ ४६१ ॥ खणेण जायं परमं तु पां. समत्थवत्थूण गणावभासं । सबको सर्व सणकंप, तयंति पर तुरंत गप्तां ॥ ४६२ ॥ गिद्दाहि णं तं मुणिलिंगं, Page #1428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०५) नरह अभिधानराजेन्द्रः । नरह पाराहपहा चवहारजुत्ति। विभयमाणे विभयमाणे चिट्ठइ । तं दाहिणभरहं च, उत्सगिराहाहि सब पि सुरोवणीयं, रडभरहं च । (मूत्र-१०) पायारभंडोषगरं मुणीणं ॥४६३ । प्रच्छकापेक्षया श्रासनत्वेन प्रथमं भरतम्यैव प्रश्नसूत्रम् । क करेह पूर्य तु पुरंदरो तो, भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतं नाम्ना वर्ष प्राप्तम् . भगवाना. अन्नं पि कजं घरकेषलीणं । ह-गौतम ! (चुलहिमवंतेत्यादि ) चुलशब्दो देश्यः शुलपर्या. पहाणराईण सहस्सपहि, यस्तेन जुलो महाहिमवदपेक्षया लघुयाँ हिमवान् वर्षधर देसहि सद्धि अभिनिक्खमार ॥ ४६४ ॥ पर्वतः क्षेत्रसीमाकारी गिरिविशेषः, तस्य दक्षिणन दक्षिण पालि पुवारण सयं सहस्सं, स्यां दिशि दाक्षिणात्यलवण समुद्रस्योत्तरस्यां पौरस्यलब केलिभावं मुरिणयं पसत्थ। समुद्रस्य पश्चिमायां पाश्चात्यलवणसमुद्रस्य पूर्वस्यां विशि कुमारगो उत्सरिएगऊणे, अत्रायकाशे भरतनाम्ना वर्षे प्रशतम् । किं विशिष्टं तदिस्या. सुमंडलीश्रो बरिसलहस्सं ॥४६५॥ ह-स्थाणमः कीलका ये छिन्नावशिष्टवनस्पतीमां शुष्काचनेऊण एयं च कमेण सव्वं, यवाः 'टुण्ठा ' इति लोकप्रसिद्धाः तेहुलं प्रचुरं, व्याप्तमि. आउंचरित्ता चुलसीयलक्खा । त्यर्थः। अथवा-स्थाणघो बहुला यत्र तत्तथा । एवं सर्वत्र पत्तो सिब सम्वकिलसमुक्को, पदयोजना आया । तथा-कण्टका बदर्यादिप्रभवाः, विषम सेसा सहस्सेण नरीसराण ॥४६६॥ निम्नोन्नतं स्थानं, दुर्ग दुर्गम स्थान, पर्वताः सुद्रगिरयः,प्रपासुदक्षिणापब्वरुयाविसाला, ता भृगयो यत्र मुमूर्षयो जना झम्पां ददति । अथवा-प्रपाता एवं पसंगा भणियं मुणेज । रात्रिधाट्यः । श्रवझरा गिरितटादुदकस्याधःपतनानि.तान्येव सरूवमेयं जिणमंदिरस्त, सदाऽवस्थयानि निराः, गर्ताः प्रसिया, दयों -गुहाः, निस्सा अनिस्सा य करल नाउं ॥ ४६७ ॥ नद्यो द्रहाश्च प्रतीता, वृक्षा कक्षा पा सहकाराऽऽदयः। गुगयाणुगामित्तण मुत्नु सम्ब, च्छा वृन्ताकीप्रभृतयः, गुल्मानषमालिकाऽपया लता पाल. जपज्ज एयारणुगमेण भव्या !॥ (४६८+)॥ ताचा बल्लयः कृष्माण्डीप्रमुखाः अत्र नदीद्रहवृक्षाऽऽविषन. भरहेसरचरियं सम्मतं । दर्श० । (इतोऽभ्यधिक जि. स्पतिमामशुभानुभायजनितानामेव बाहुल्यं बोध्यम्, मतुप. सामुना • उसह' शब्नो द्वितीयभागे बीक्ष्यः) कान्तसुषमाऽऽदिकालभाषि, तथाविधशुभानुभाषजमितानां अथ भरतवर्षम्यरूपं जिज्ञासुः पृच्छति तेषां प्रायः प्रज्ञापककालेऽस्पीयस्यात् । अटप्यो दूरतः जनकहिणं भंते ! जंबुद्धीबे दीवे मरहे णामं वासे पाते । निवासस्थाना भूमया,श्वापदा-हिंसजीवा.स्तनाचीरातदेव गोयमा! चुलहिमवंतस्स बासहरपब्वयस्म दाहिणणं कुर्षन्तीति निरुक्तितस्तस्कराः सर्वदा चौर्यकारिणः, शि म्बानि स्वदेशोस्थविलवा, उमराणि परराजफतीपद्रवातुदाहिणलवणसहस्स उत्तरेणं पुरच्छिमलवणसमुहस्स भि भिक्षावराणां भिक्षादुभत्वं, कालो धाग्यमहार्यता. पञ्चच्छिमेणं पछिमलवण समुहस्स पुरच्छिमेणं एत्थ अविना दुधः कालः, पापडं पापण्डिजनोस्थापितमिध्याणं जंबुद्दीवे दीवे भरहे णामं वासे पसत्ते, खाणुबटुले पावः, कृपणा प्रतीता, बनीपका यात्रकार, तिः भाम्या कंटकबहुले विसमबहुले दुग्गबहुले पब्वयबहुले पाय हुपद्रवकारिशलभमूषिकाऽऽदि मारिःमरका कुत्सितात. ष्टिः कुषःकर्षकजनानभिलषणीया वृधिरित्यर्थः अनापति पहले उज्झरबहुले णिज्झरबहुले खडाबहुले दरिबहुले बर्षणाभाव इति। राजान माधिपत्यकारस्तमाख्यं च गणईबहुले दाबहुले रुक्खबहुले गुच्छरले गुम्मबहुले | प्रजानां पीहेतुरिति । रोगाः संशाच व्यक्ताः । अभी. लयाबहुले बल्लीबहुले अडवीबहुले सावयबहुले तेणव- षणं अभीषणं पुनः पुनर्वएउपाध्याऽऽदिना संशोभाडुले तकरबडुले डिंबबहुले डमरबहुले दुम्भिक्खबहुले चित्तानस्थितता, प्रजानामिति शेषः च सबै वि शेषणजातं भरतस्य प्रज्ञापकापेक्षया मध्यमकालीनादुकालबहले पासंडबहुले किवण बहुले वणीमगबहुले ईति. नुभावमेव व्यावर्णितं, तेनोत्तरसूत्रे एकाम्तसुषमाऽऽदावस्य बहुले मारिचहुले कुबुद्धिबहुले अणावृद्धिबहुले राजबहुले बहुसमरमणीयस्वाऽतिस्निग्धत्वाऽऽदिकमेकाम्तदुषमादीरोगबहुले संकिलेसबहुले अभिक्खणं भभिक्खणं सं- निर्बनस्पतिकत्वाऽराजस्वादिकं च वक्ष्यमान विरुष्यत खोहबहुले पाईणपढीणायए उदीणदाहिणविस्थिरले उ इति । प्रागेष प्राचीनं, स्वार्थे ईन्प्रत्ययः, दिपियक्षायां प्रा चीनं पूर्वा इत्यर्थः। एवं प्रतीचीमोदीचीने अपिधारये। तेन पूतरमो पलिभंकसंठाणसंठिए दाहिणो धणुपिट्ठसंठिए परयोर्दिशोरायतम् उदीचीवक्षिणयोर्विशोर्विस्तीर्णम् । म. निषा लवणसमुरं पुढे गंगासिंधूहिं महाणईरि वेअड्डेय थवा-प्राचीनप्रतीचीनावयवयोरायतम्, एबमुत्तरापि । प्रथ य पव्वएण छब्भागपविभत्ते जंबुद्दीवदीषण उयसयभागे तदेव संस्थानतो विशिष्टि-उत्तरतः उत्तरस्यां दिशि पर्यत पंचछब्बीसे जोअणसए छच एगणवीसइभाए जोमणस्स स्येव संस्थितं संस्थानं यस्य तत्तथा दक्षिणतो दक्षिणस्यां दि. शिप्रारोपितज्यस्य धनुषः कोदण्डस्य पृष्ठं पाचात्यभागस्त. विश्वंभेणं । भरहस्स णं वासस्स बहुमझदेसभाए एत्थ स्येव संस्थितं संस्थानं यस्य तत्तथा,अत एवास्य धनुःपृष्ठशरसंशड्डे णाम बनए पश्यत्ते, जे णं भर वासं दुहा जीयाबाबानां सम्भवः, एषां व स्वरूप स्थस्वापसरे निरूपयि ३५२ Page #1429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरद ध्यते, त्रिधा पूर्वकोटिधनुः पृष्ठा पर कोटिभिले व समुद्रं क्रमेण पूर्वदक्षिण-परवा समुद्राचा प्राप्तं, ग्रामप्राप्त इत्यादिवत् कर्तरि कप्रत्ययः । श्रयमर्थःपूर्वपूर्वसमुद्रं धनुःपृष्ठेन दक्षिण राममुद्रम् अपरकोट्या पश्चिमलवणसमुद्र संस्पृश्य स्थितमिति । अथे मेष पचभिजनद्वारा विनिङ्गासिन्धु महा नदीभ्यां वैतायेन च पर्वतेन सङ्ख्या भागाः बभागास्तभिक्रम अयमर्थः अनन्तरोदितैरि प्रत्येकं खराश्रयकरणेन भरतस्य षट् खण्डानि कृतानीति । अथ यदि जम्बूदीपकदेशभूतं भरतं तर्हि विष्कम्भतः त स्य कतितमे भागे तदित्याह - ( जंबुद्दीवेत्यादि ) जम्बूबीपीपस्थ जम्बूद्वीपविष्कम्भस्य यस्यधिकशततमो मा भागस्तस्मिन् इति । अथ नवत्यधिकशततमभागे कियन्ति योजनामा त्यधिकानि योजन पद च योजनस्यैकोनविंशतिभावान कोथे ?-यासमुदयजनं भवति तादशान् षड्भागान् इति विष्कमेन -- विस्तारेण शरापरपर्यायेणेति । अत्राङ्कस्थापना यथा - ५२६ श्रयं भावः -- जम्बूद्वीप विस्तारस्य लक्षयोजनरूपस्य नवत्यविकराल भागे हुने २२६ योजनानिपतावानेव न भरतविस्तारः । ननु भाजकराशिर्नवत्यधिकशतरूपः पदभागास्तु योजनेकोनविंशतिक इति विसर शमिव प्रतिभाति । उच्यते--गतिनानां सर्वान मेव तथाहि जम्बूद्वीपव्यासस्य योजन] १००००० मित्रस्य नवत्यधिकशतमेक्लस्यावशिष्टः षष्टिरूपो शुचिर्भागदा- | नाउसमर्थ इति भाज्यमाजराश्या ईश मे जाता माउप माजराशी १६इति सर्व स्थम् नतु नवस्य चितरूपभापती कि बीजमिति है। उच्यते- एको भागो भरतस्य दो भागी हिमवतः पूर्व द्विगुणस्यात्. चत्वारो नवलक्षेत्रस्य पूर्ववर्षचरतो द्विगु महाहिमवतः पूर्वक्षेत्रतात्पोश दरियपेश्य - पूर्ववर्ष धरतो द्विगुणत्वात् द्वात्रिंशनिषधस्य, पूर्वक्षेत्र तो द्विगुत्यात्सर्वे मिलिताः ६३ पते मेरोति तथासरतो. ऽपि ६३६४ मागास रतो जम्बूदीपयोजन पूरितं भवति तत एतावान् मा काङ्क: १६० नदत्यधिकं शतं भागानामिति । अथ यदुक्तम्"गंगासिंधूहि महाण ईहिं चेयख य पव्वणं भागपविभ इत्यत्र वैतादयस्वरूपप्ररूपणाय सूत्रमाह-" अरइस्ल " इत्यादि। भरतस्य वर्षस्य बहुमध्यदेशजयन्तद्वारात् त्रिकालाधिकद्विशतयोजनातिक्रमे पञ्चाशद्योजन क्षेत्र खराडे श्र बेताढ्यो नाम पर्वतः प्रशप्तः । यः खमिति ' प्राग्वत् । भरतं वर्षे द्विधा विभजन् २ समय चक्रवर्तिका समस्यामि तथा पारमिति । . से" ( १४०६ ) निधानराजेन्द्रः । ― दादान दक्षिवानर कास्तीति प्रश्नपति कहि मे ही दीपे दाहिसडूमर गावा पसे । गोमा वेस्स पव्वयस्स दाहिणेणं दाहिणलवण समुद्रस्स उत्तरेणं पुरच्छिमलवण समुहस्स पच्च भरड च्छिमेणं पञ्चच्छिमलवण मुद्दस्स पुरच्छिमेणं एत्थ गं जीवे दीवेदाभिरामं वाले पाने पाई पडीयायए उदीगदाहिणविच्छिले श्रद्धचंदसंठाणसंठिए तिहा लवणसमुद्दे पुढे गंगासिंधूहिं महाईहिं ति भागपविभत्ते दोणि अतीसे जोश्रणसए तिष्ठि अ एगवीसहभाग जोयशस्त्र विभे ।। सूत्रं पूर्वसूत्रेण मग विद्युतप्रायं नम् चन्द्र संस्थान संस्थितत्यं तु दक्षिणभरतार्द्धस्य जम्बूद्वीपपहाडदाषालेख दर्शनावू व्यक्तमेव । तथा त्रिसंख्या भागात्रिभा गारभित्र पौरस्यो भागो गया पूर्वसमुद्रम लत्या कृतः पाश्चात्यो भागस्तु सिन्ध्या पश्चिमसमुद्रं मिलग्त्या कृतः, मध्यमभागस्तु गङ्गासिन्धूभ्यां कृत इति द्वे अ टत्रिंशदधिके योजनशते, श्रीश्चैकोनविंशतिभागान् योजन स्य विष्कम्भेन किमुपाधिपत्रशतयोजन ५२२ भरतविस्ताराया ५० योजन मिते शोधितेऽवशिष्टं चत्वारि योजनशतानि षट्सप्तत्यधिकानि षट् च कलाः ४७६ । एतदद्वे द्वे योजनानां शते अविशदधिकेतिखापराः कलाः २३ यथोक्तं मानं भवति एतेनास्य शरप्ररूपणा कृता, शरविष्क मेदादिति अथ जीवासूत्रमाद तस्स जीवा उत्तरेणं पाईपमायया दृटा लग्राममुद्दे पुट्ठा पुरच्छिमिल्लाए कोडीए पुरच्छिमिल्लं लवणसपञ्चच्छिमिलाए कोटीएच लगस मुदं बुट्टा नवजोयसलाई समय अवाले जोसर दुपालसए एगुणवीसभाए जोयणस्स आयामे तीसे पट्टेदादि यवजोयसहस्साई सचछाडे जोयसर य इकं च एगूगवीसहभागे जोयणस्स किंचि विसेसाहियं परिवखेवेशं पाने । (तस जीवेत्यादि) तस्य दक्षिणास्य जीव जी या समिप्रदेश उत्तरेण उत्तरस्यां मेकशीत्यर्थः प्राचीने पूर्वस्यां प्रतीषीने अपरस्य चावता] ब्रायामपती द्विधा स्पृशन द्योतयति (पुरात पूर्वपरको भागेन पी रस्त्यं लवण समुद्रावयवं स्पृष्टा पाश्चात्यया कोट्या पाश्चात्यं लवणसमुद्रावयवं च स्पृष्टा नवयोजन सहस्त्राणि अस्वारान अधिकानि पानि द्वादशकोनविंशतिनामान् योजनस्यायामेन ७४ यश्व समवायाङ्गसुत्रेण जीवा पाचपडीका मुर्दा साई पामेतत्सूत्रस्य शेषविधक्षा न कृता वृत्तिकारेण तु श्रयमवशिष्टराशिरूपो विशेपो गृहीत इति । अत्र सूत्रे अनुक्ताऽपि जीवाऽऽनयने करणभाचना दर्श्यते । तथाहि जम्बूद्वीपव्यासाद् विवक्षित क्षेत्रेषु शोयो जाततेनैणा मुगयते ततः पुन , Page #1430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह अभिधानराजेन्डः। ਜ भिर्गुण्यते, इत्थं ससंस्कारो राशिर्विवक्षित क्षेत्रस्य जीवा- पत्मते । से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा० जाव णाणाबर्ग इत्युच्यते। अम्माच्च मूले गृह्यमाणे यलभ्यते तज्जी विहपंचवमेहिं मणीहि तणेहिं उवमोभिए । तं जहा-कित्तिवाकलामानं. तस्य चैकोनविंशत्या भागे योजनराशिः, शेषश्च कलाराशिः। तत्र जीवाऽदिपरिज्ञानं चेषुपरिमाणपरिज्ञाना. मेहि चेव, अकित्तिमेहि चेव । विनाभावि, तच्च न परिपूर्णयोजनसंख्याकं किंतु कलाभिः (दाहिणहेत्यादि ) दक्षिणा भरतस्य भगवन् ! कीरशः कृत्वा सातिरेकमिति विवक्षिततरक्षेत्राऽऽदेरिषुः सवर्णनार्थ प्राकारस्य-स्वरूपस्य भावाः पर्यायास्तेषां प्रत्यवतार: कलीक्रियते, सच करलीकृतादेव जम्बूद्वीपच्यासारसुखेन प्रादुर्भावः प्राप्तः, कीरशः प्रस्तुतक्षेत्रस्य स्वरूपविशेष? इति शोधनीय इति मण्डल क्षेत्रव्यासोऽपि १शून्य ५ रूपः कली. भावः । भगवानाह-गौतम ! भरतस्य बसमरमगीयो भू. करणायैकोनविंशत्या गुण्यते, जातः१६ शून्यः५, ततो द मिभागः प्राप्तः। से जहाणामए मालिंगपुक्षरे घेत्यादि " क्षिणभरताऽषोः साष्टनिंशवृद्विशतयोजनमित्यस्य कलीक. को बहुसमत्ववर्णकः सर्वोऽपि प्रायः याषनानाविधपक्षतस्य प्रक्षिप्तोपरितनकलात्रिकस्य ४५२५ रूपस्प शोधने वण मणिभिस्तृणैश्वोपशोभितः । तथेत्युपदर्शने। किंषिशिरजातः १८६५४७५, ततश्च दक्षिणा षुणा ४५२५ रूपेण गु मणिभिस्तृणध कृत्रिमैः क्रमेण शिल्पिकर्षकाऽऽविप्रयोगनि. रयते, जातः ८५७७०२४३७५, अयं चतुर्गुणः ३४३०८०६७. पन्नः प्रकृत्रिमैः क्रमाद्रस्नखानिसंभूतानुपसंभूतैरुपशोभितो ५०० एप दक्षिणभरताईस्य जीवावर्गः, पतस्य वर्गमूलाss. दक्षिणार्श्वभरतस्य भूमिभागः, अनेनास्य कर्मभूमिश्वमभा. नयनेन लब्धाः कलाः १८५२२४, शेष कलांशाः १६७३२४ छे णि। अन्यथा-हैमवताऽऽद्यकर्मभूमिष्वपि इदं विशेषणमा सराशिरधः ३७०४४८ लम्धकलानां १६ भागे योजन: ७४७ कथयिष्यदिति । चकारी समुचयाएँ । एवकाराषवधारणा कलाः१२ इयं दक्षिणभरतार्द्धजीधा । एवं वैतात्याऽऽदिजीवा. यो । अथवा-चैत्यखण्डमव्ययं समुश्चयाचम् , अपिवेत्यादि. स्वपि भाव्यम् , यावद्दाक्षिणात्यधिदेहार्द्धजीवा. एवमुत्सरैरा. यत् । ननु अनेन सूत्रेण वक्ष्यमाणेनोत्तरभरतार्द्धवर्णकसूत्रेण चतार्द्धजीवा यावदुत्तरार्द्धविदेह जीवाऽपीति । अथ दक्षिण.. च सह 'खाणुबहुले बिसमबहुले कंटगबहुले" इत्यादिसामा. भरतार्द्धस्य धनुः पृष्ठं निरूपयति-(तीखे धणुपुढे इत्यादि)त- न्यभरतवर्णकसूत्र विरुद्धयति । न चैते सूत्रे अरकविशेषापे. स्या अनन्तरालाया जीवाया दक्षिणतो-दक्षिणस्यां दिशि, क्षे, सामान्यभरतसूत्रं तु प्रज्ञापककालापेक्षमिति न विरोध लवणदिशीत्यर्थः । धनुःपृष्ठमधिकारात् दक्षिणभरता - इति पाच्य मणीनां तृणानां च कृत्रिमत्वाकृत्रिमत्वभणनेनास्येति । यद्वा-प्राकृतत्वाल्लिङ्गव्यत्यये (तीसे इति ) तस्य नयोरपि प्रज्ञापककालीनत्वस्यैवौचित्यात् कृत्रिममणितृणानां दक्षिणा भरतस्येति व्याख्येयं, नव योजनसहस्राणि षट्क्ष.. तत्रैव संभवात् ,प्रशापककालवावसर्पिण्यां तृतीयारकप्रान्ता. पृथधिकानि सप्त च योजनशतानि एक कोनविंशतिः- दारभ्य वर्षशतोन दुःषमारकं यावदिति चेत् । उच्यते-पत्र भागं योजनस्य किञ्चिद्विशेषाधिकं परिक्षेपेण-परिधिना "वाणुबहुले विसमबहुले " इत्यादिसूत्रस्य बाहुल्यापेक्षयो. प्रशप्तम् । अत्र करणभावना यथा-विवक्षितेघौ विवक्षिते. क्तत्वेन कचिद्देशविशेषे पुरुषविशेषस्य पुण्यफलभोगार्धमुपषुगुणे पुनः षड्गुणे विवक्षित जीवावर्गयुते च यो राशिः संपद्यमानं भूमे बहुसमरमणीयत्वाऽऽदिकं न विरुद्धपति, स धनुःपृष्ठवर्ग इति व्यपदिश्यते तस्माञ्च वर्गमूलेन लब्धानां भोजकवैचित्र्ये भोग्यवैविध्यस्य नियतत्वात् । कलानाम् १६ भागे लब्धं योजनानि, अवशिष्टं कलाः । अनेनास्यै कान्तशुभैकान्ताशुभमिश्रलक्षणकालत्रयाऽऽधारकतथाहि-दक्षिणभरतार्द्धषुकलाः ४५५५, अस्य वर्गः स्वमसूचि, एकान्तशुभे हि काले सबै क्षेत्रभावाः शुमा २०४७५६२५, अयं षगुणः १२२८५३७५० । अथ दक्षिण एच, एकान्ताशुभे हिसर्वे अशुभा एव, मिश्रे तु कचिच्छुभाः भरतार्द्धस्य जीवावर्गः ३४३०८०६७५०० । अनयोयुतिः कचिदशुभाः, अत एव पञ्चमारका यावत् भूमिभागवर्णकं ३४४३०६५१२५० धनुःपृष्ठवर्गोऽयम् । अस्य वर्गमूले लब्धं बहुसमरमणीयत्वाऽऽदिकमेव सूत्रकारेणाम्यधाथि, षष्ठे. कलाः १५५५५५ शेषकलांशाः २६३२२५ छेदकराशिरध. रके तु एकान्ताशुभेन तथेति सर्वे सुस्थम् ।। स्तात् ३७१२१० कलानां १६ भागे योजनं ६७६६ कला १ अथ तत्रैव मनुष्यस्वरूपं पृच्छतिये च वर्गमूलाशियाः कलांशास्तद्विवक्षया च सूत्रकृता दाहिणभरहे णं भंते ! वासे मणुयाणं केरिसए पायाकलाया विशेषाधिकत्वमभ्यधायि । पाह-एवं जीवाकर- रभावपटोयारे पम्पते । गोयमा ! ते णं मणुप्रा बहुसंघयणा णेऽपि वर्गमूलावशिएकलांशानां सद्भावात् तत्राप्युक्तकलानां साधिकत्वप्रतिपादनं न्यायप्राप्तं कथं नोक्तमिति ? उच्य. बहुसंठाणा वहुउच्चत्तपज्जवा बहुमाउपजवा बहूइं वासाई ते-सूत्रगतेचि यादविवक्षितत्वात् विवक्षाप्रधानानि हि भाउयं पाले ति,पालित्ता अप्पेगड्या णिरयगामी अप्पेगइया सूत्राणीति । एवं वैताब्याऽऽदिधनुःपृष्ठध्वपि भाव्यं यावहा- तिरियगामी अप्पेगड्या मणुयगामी अप्पेगइया देवगामी क्षिणात्यविदेहार्द्धधनुःपृष्ठम् । एवमुत्तरत उतरैररावतार्द्धध अप्पेगइया सिझंति, बुज्झति, मुञ्चति, परिणिवायंति, नु पृष्ठं यावदुत्तरार्द्धविदेहधनुःपृष्ठमपीति, अत्र च दक्षि सुबदुक्खाणमंतं करेंति । (सूत्र-११) णभरता बाहाया असंभवः । अथ दक्षिणभरतार्द्धस्वरूपं पृच्छनिदमाह प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्। निर्वचनसूबे भगवानाह-गौतम येषां स्थ. रूपं भवता जिज्ञासितं ते मनुजा बहूनि वजऋषभनाराचाss. दाहिणभरहस्स णं भंते ! वासस्त केरिसए आयार दीनि संहननामि पुढीकारकारणास्थिनियाsरमकानिये. भावपडोयारे पलत्ते । गोयमा बहसमरमणिजे भूमिभागे षांते तथा तथा बहूनि समचतुरमादीनि संस्थानानि विशि Page #1431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह (१४०८) अन्निधानराजेन्द्रः । भरह एवास्य विष्कम्भः शरो भवति, अन्यथा शरव्यतिरिक्तस्थाने म्यूनाधिकत्वेन प्रयासप्राप्तेरेवानुपपतेरियस प्रसङ्गेन इदमेव शरकरणं शिविदेहाई पायद्वोदयम् । एवमु रतोऽपि राबताइयतः प्रारम्योटरविदेहा पापदि ति । अथास्य बाहे ग्रह - ( तस्स बाह सि) तस्य पै. ताढपस्य बाहा दक्षिणोत्तरायता बका श्राकामा प्रवेश पङ्क्तिः । (पुरमेति समाहाराम् पूर्वपश्चिम रेकेका अटाशीत्यधिकानि चत्वारि योजनशतानि षोडश कोनविंशतिभागान योजनस्य एकस्यैकोनविंशतिमागस्य वार्या योजनस्थाजित मागमित्यर्थः । आयामेन देर्येण प्रशप्ता ऋजुनाहायास्तु पर्वतमध्यवर्ति 1 टावयवत्वनाऽऽत्मकशरीराऽऽकृतयो येषां ते तथा बहवो ना नाविधा उच्च स्वस्थ शरीरोच्छ्रयस्य पर्यषाः पञ्चधनुः शतसप्तइस्तमानाद्दिका विशेषा येषां ते तथा बदय आयुषः पूर्व कोडितादिकाः पादायेषां ते तथा वर्षाणि आयुः पालयन्ति पालयत्या अपि संभावनायाम्। श्रायुः एक केचन निरयगतिगामिनः-नरकगतिगन्तारः एवमध्ये - कके तिर्यग्गतिगामिनः अप्येकके मनुजगतिगामिनः, अप्ये. सफल कर्मक्षयकरणेन निष्ठितार्था भवन्ति बुध्यन्ते केवल वस्तु जानन्ति मुध्यते भयोप्राकमयेभ्यः परिनिर्वान् कर्मकृताविरहाच्छीतीम यति किमु भवति खानामन्तं कुसि f स्वरूपकथनम् अरकविशेषापेक्षया नानाजीवानपेक्ष्य म मतव्यम्, अन्यथा सुषमसुषमाऽऽदायनुपपक्षं स्यात् । अथास्य सीमाकारी बैनागिरिः कास्तीति पृच्छति कहिणं भंते! जंबुद्दीवे दीवे भरडे नासे बेय सामं पद पाने गोयमा ! उत्तरभरश्वासस्य दाहिले जातम् १४७७ सामेोनविंशत्या भागे योजनानि ४८ कलाः १६ कलार्द्धं णं दाहिणभरहवासस्स उत्तरेणं पुरच्छिमलवण- ति एवं पारित पेराव सदस्य पचमे पच्छिमलसमुदस्य पुरछितयेादयवादाबाबतरविदेहाजवाद साथदिदं कर मे एस्थ गं जंबुद्दीत्रे दीवे भरहे वासे बेअड्डे गामं पणते, पाईप डीणायए उदीयदाहिण वितिय से दुरासदं पुरच्छिमिलाए कांडीय पुरथिमि लवणसमुपचच्छिमिल्लाए कोडीए पच्चच्छिमि पूर्वपरायायामानं क्षेत्रविचाराऽऽदिभ्यो ऽय सेयम् । करणं यथा गुरुनु पृष्ठाधनः पृष्ठं विशेभ्य शेषस्वायें कृते बाहा, यथा गुरुधनुःपृष्ठं वैतादयस कलारूपम् २०४१३२ अस्माल्लघुधनुः पृष्ठं कलारूपम् १८५५५५ ते , 1 भाषनीयम् । लस पुढे पणवीस मोभगाई उ उच्चणं छस्सकोलाई जोश्रणाई उच्णं पप्पास ५० जोभणाई विवखंभेयं वस्वाश मे पचारि भट्टासीए जोयस सोलस एगूणवीसइभागे जो णस्स श्रद्धभागं मायामेा कहितेत्यादिप्रापः पूर्वसूत्रेण समग्रकमास्क एम् नरम् उत्तरार्द्ध भरतास्यामित्यादिविरूपं गुरुजनदर्शित जम्बूद्वीपपड्डाऽऽदेः पञ्चविशतियोजनम्त्वेन रुकोशानि योजना भूमि मेदवर्जसमयनिजनजोत्सेधशेन भूम्यगाहस्यो शत्वात्, योजनपञ्चविंशतेश्वतुर्थीशे एतावन पब लाभात् तथा पञ्चाशद्योजनानि विष्कम्मेनेति । श्रत प्रस्तावादस्य शरः प्रदर्श्यते स वाटाशीत्यधिके द्वे शते योजनानां कलात्रयं च अस्य व करं भरता २२८२० नरूपे प्रक्षिप्त यथोक्तं मानं भवति । ग्रह-दक्षिणभर यस्यापि चिकन मेयं बराम चा 9 बक्षेचे निराकृतिः प्रादुर्भवति यामपरिज्ञानाय जीधापरिक्षेपप्रकर्षपरिज्ञानाय धनुःकृष्ट व्यासप्रकर्षपरिज्ञानाय शरः, स च धनुः पृष्ठमध्यत एवारूप भवति प्रस्तुत गरेका केवलस्य धनुराकृतेरभावेन धनुः पृष्ठस्याप्यभावात् शरोऽपि न सम्भवति तेन दक्षिणध पृष्ठेम सदैवास्य अनुपस्वमिति प्रास्परमिश्रित अथाऽस्य जीवामाहनस्ल जीवा उत्तरेण पाईपडीयायया दुडा लवण - समुषं पुट्ठा पुरच्छिमिल्लाए कोडीए पुरच्छिमि लवणसमुद्दे पुट्ठा पचच्छिमिलाए कोडीए पञ्चच्छिपिल्लं लब सहूं पुट्ठा दस शोभण महस्साहं सतः य बीसे जोअणमए दुबालम प गुगवीसहभागे जीमणस्स प्रा. माणं ती ध दाहिणेयं दस जोमय सहरसाई समय तेथाले जांभसए पश्चरस व बबीसहभागे ओषणस्म परिषभ्रेषणं गाठ समा अच्छे सण्डे लट्ठे घट्टे मठ्ठे खीरए गिम्पले णिपंके किंकडच्छाए सप्पमे सस्मिरीए पासाईए दरिस अभिरूपे परूि भयो पास दो पमरोयाहि दोषि संसि समेता संपरिवल सेताओ से पमवरवेश्याओ जो उ उच्च पंच धनुयाई विषभपव्यपसमियाओं आयामे देगा दो नोभ पत्रवश्यमा आयामे कियहा गाई व किहो भासा जानव तस्यादयस्याउरे इत्यादि जाणि विज्ञान-विशुचिकानि जन शनामाशिविभागान जनयति । अत्र करणभावना यथा- पूर्वोक्तकरणक्रमेण जम्बूद्वीपव्यासः कलारूपः १६ शुभ्यः ५ श्रस्माद्वैताख्यशरकलाना ५४७४ शोधने जातम् १८६४५२५ अस्मिन् वैतान्यशरे ५४७५ गुणे जातम् १०३७२५२४३७५ तस्मिन् पुनश्चतुर्गुगे जात Page #1432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०१) भरह अभिधानराजेन्द्रः। भरह ४१४६००६७५०० एष वैतान्यजीवावर्गः अस्य मूले जातं मवघाटिते आच्छादिते, इत्यर्थः । एते च द्वे अपि चक्रवर्तिछेदराशिः ४०७३८२ लब्धं कलाः २०३६६१ शेषं कलांशाः | कालवर्ज दक्षिणपाचे उत्तरपार्श्वे च प्रत्यक सदा संमीलि७४०१६ लब्धकलानामेकोनविंशत्या भागे लब्धानि योज- तबज्रमयकपाटयुगले स्याताम् । अत एव यमलानि समनानि १०७२० कला शेषकलांशानाम् अर्द्धाऽभ्यधिकत्वात् स्थितानि युगलानि द्वयरूपाणि घनानि निश्छिद्राणि अर्द्धाभ्यधिके रूपं देयमिति एककलाक्षपे जाताः कलाः द्वाद- कपाटानि तैः दुष्प्रवेशे, तथा नित्यमन्धकारतमिस्र शति । अथ अस्यधनु पृष्ठमाह-(तोसे धरणुपुटुं दाहिणेणमि- द्वौ तुल्यार्थी प्रकर्षपराविति प्रकृष्टान्धकारं ययोस्ते तथा तिगतार्थमेतत्। नवरं दश योजनसहस्राणि सप्त च त्रिचत्वा- विशेषणद्वारा । अत्रार्थे हेतुमाह-व्यपगतं ग्रहचन्द्रसूर्यनक्षरिंशानि त्रिचत्वारिंशदधिकानि योजनशतानि पञ्चदश चैको त्राणां ज्योतिर्यतः स एतादृशः पन्था ययोस्ते तत्तथा। अनविंशतिभागान् योजनस्येत्यत्र करणं यथा घेतान्येषु कला- थवा-व्यपगता ग्रहाऽऽदीनां ज्योतिषश्चाग्नेः प्रभा ययोस्ते च रूपः ५४७५ अस्य वगैः २६६७५६२५ श्रयं षड्गुणः तथा यावत्प्रतिरूपे । अत्र यावत्करणात् “पासाईया" इत्यादि १७६८५३७५० वैताव्यजीवावर्गश्च ४१४६००६७५०० उभयो- विशेषणत्रयम्-" अच्छाश्रो " इत्यादीनि वा विशेषणानि मीलने जातम् ४१६६६६५१२५० एष वैताट्यधनुःपृष्ठवर्गः यथासंभव ज्ञेयानि । ते गुहे नामतो दर्शयति-तद्यथा-तमिअस्य मूलछदराशिः ४०८२६४ लब्धकलाः २०४१३२ शेषक- स्रा गुहा चेव, खण्डप्रपाता गुहा चेव । चैवशब्दो द्वयोस्तु सांशाः ७७८२६ लब्धकलानामेकोनविंशत्या भागे लब्ध य- ल्यकक्षताद्योतनाौँ, तेन पश्चिमभागवर्तिनी तमिना, पूर्व थोक्नं मानम् १०७४३।३४ अथ किंविशिष्टोऽसौ वैताब्य इ- भागवर्तिनी खण्डप्रपाता, इमे द्वे अपि समस्वरूपे वेदितव्ये त्याह-(रुअगत्यादि ) रुचकं प्रीवाऽऽभरणभेदः तत्संस्था- इति । (तत्थ पमित्यादि) सर्वमेतद्विजयदेवसमगमकमिति नसंस्थितः सर्वाऽऽत्मना रजतमयः ।'अच्छे' त्यादिपद- व्याख्यातप्रायं,नवरं कृतमालकस्तमिस्राधिपतिः, नृत्तमालकः कदम्बकं प्राग्वत्। उभयोः पार्श्वयोदक्षिणतः उत्तरतश्च द्वाभ्यां खण्डप्रपाताधिपतिरित। गावरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनखण्डाभ्यां सर्वतः-समन्तात् अथात्र श्रेणिप्ररूपणायाऽऽहसंपरिक्षिप्तः । अत्र यत्पनवरवेदिकादयं तत्पूर्वापरतो जग- तेसि णं वणसंडाणं बहसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ त्या रुद्धत्वानिरवकाशत्वेनकीभवनासम्भवात् , अन्यथा " सव्य श्री समंता संपरिक्खित्तेति" वचनेनैकैव स्यादिति । वेअड्डस्स पव्ययस्स उभो पासिं दस दस जोअणाई उड्डे (ताश्रो णमिति ) सर्व गतार्थं नवरं पर्वतसमिका आया उप्पइत्ता इत्थ दुवे विज्जाहरसेढीओ पएणत्ताओ,पाईणपडीमेन वैताब्यसमाना आयामेनेत्यर्थः । णाययाओ उदीणदाहिणवित्थिरणाओ दस दस जोअणाई अर्थतन्तगुहाद्वयप्ररूपणायाऽऽह विक्खंभेणं पचयसमियाओ आयामेणं उभो पासिं दोवेयडस्स णं पव्ययस्स पुरच्छिमपञ्चच्छिमेणं दो गुहा- हिं पउमवरवेइयाहिं दोहिं वणसंडेहिं संपरिक्खित्ताओ, श्रो पएणत्ताओ, उत्तरदाहिणाययाओ पाईणपडीणवित्थि- ताओ णं पउमवरवेइयाओ अद्धजोअणं उई उच्चत्तेणं एणाओ परणासं५०जोअणाई आयामेणं दुवालस१२जोअ पंचधणुसयाई विक्खंभेणं पब्वयसमियाश्रो आयामेणं णाई विखंभेणं अंडजोश्रणाई उड्टुं उच्चत्तेणं वइरामयक- | वएणो णेयब्बो वणसंडा वि पउमवरवेझ्यासमगा आवाडोहाडिआओ जमलजुअलकवाडघणदुप्पदेसाओ णिचं यामेणं वएणो । विज्जाहरसेढीणं भंते ! भूमीणं केरिसए धयारतिमिसाओ ववगयगहचंदसूरणक्खत्तजोइसप्पमुहाओ आयारभावपडोयारे पएणते। गोयमा! बहुसमरमणिजे भू जाव पडिरूवाओ।तं जहा-तमिस्सगुहा चेव, खंडप्पवाय मिभाग पापत्ते । से जहा गणाम ए आलिंगपुक्वरेइ वाजाय गुहा चेव । तत्थ णं दो देवा महिड्डिया महज्जुइया महाबला णाणाविहपंचवमेहि मणीहि तणेहि उपसोभिए । तं जहामहायसा महासुक्खा महाणुभागा पलिओवमट्टिईया प कित्तिपहिं चेव,अकित्तिमेहि चेव । तत्थ णं दाहिणिल्लाए वि. रिवसंति । तं जहा-कयमालए चेव, णट्टमालए चेव । जाहरसेडीए गगणवल्लभपामोक्खा पमासं५०विजाहरणगरा(वेयडस्स णमित्यादि) वैताव्यस्य पर्वतस्य (पुरच्छि वासा पामत्ता । उत्तरिल्लाए विजाहरसेढीए रहने उरचक्कवालमपञ्चच्छिमेणं ति) अत्र सूत्रे पूर्वस्यां दिशः पूज्यत्वात् पामोक्खा सदि६०विजाहरणगरावासा पणत्ता। एवामेव सआर्ष त्वाद्वा पुरच्छिम'इतिशब्दस्य प्राग् निपातेऽपि पश्चिमायां पुव्यावरणं दाहिणिल्लाए उत्तरिल्लाए विजाहरसेहीए एगंदपूर्वस्यामिति व्याख्येयम् , अन ग्रन्थे ग्रन्थान्तरे च पश्चिमायां तमिस्रगुहायाः पूर्वस्यां च खण्डप्रपातगुहाया अभिधाना सुत्तरं विजाहरणगरावाससयं११०भवतीतिमक्खायं । ते वि. त् छ गुहे प्रशप्ते, प्राकृतशेल्या च बहुवचनम् । उत्तरदक्षिण जाहरणगरारिद्धस्थिमित्रसमिद्धा पाइअजण नाणवया जाव योरायते,एतावता य एव वैताव्यस्य विष्कम्भः स एवानयो- पहिरूवा । तेसु णं विज्जाहरण गरेमु विज्जाहररायाणी रायाम इति भावः । प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्ण इत्याद्यर्थतो व्य परिक्सति महयाहिमवंतमलयमंदरमहिंदसारा रायवालो क्नम् । अत्र च उमास्वातिवाचककृतजम्बूद्वीपसमासप्रकरणे गुहाया विजयद्वारप्रमाणद्वारेति विशेषणदर्शनात् चतुर्यो | भाणियो । विजाहरसेढी णं भंते! मणुप्राणं करिसए प्रा. जनविस्तृतद्वारा इत्यपि विशेषणं शेयम् , वज्रमयकपाटाभ्या- यारभावपढायारे पणते? गायमा! ते णं मणमा बहसं Page #1433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१० ) अभिधानराजन्द्रः । भरह पण बहुसंता बहुउपा हुआ उपअवाजाव सन्दुक्खमतं करेंति । तासि णं विजाहरसेढीणं बहुमरमणिजाओ भूमिभागाश्रो वेअड्डुस्स पव्त्रयस्स उभश्रो पासिं दस दस जोखाई उड्ड उप्पडत्ता एत्थ सं दुन आभियोगही पानाओ, पाईप गाययाओ - ददाविपाम्रो दस दस जोगाई विक् पव्ययसमिया श्रायामेणं उभश्रो पासिं दोहिं पउपवरबेहयाई दोहि मंडे परिवित्ताओ दोड विपम्बयसमियाओ थायामेवं । अभियोगसेटी मेने ! फेरिसए आधारभावपटोबारे पते हैं। गोया ! बहुम मरमणि भूमिभागे पत्ते, ०जाव तहिं उवसोभिए वमाइं० जाव तयायं सहो ति । तासि णं अभियोग मेढीणं तस्तस्य देव तहिं जाव वाणमंत देवा य देवीओ अ असयंति संयंति ०जाव फलवित्तिविसेसं पशुम्भवमाथा विहति । तासि यं आभियोगमेडीसु RE देविंदस्स देवरणो सोपजमवरुणवे समसकाइयाणं आभिभोगाणं देवाणं बहवे भवणा पत्ता | ते णं भवणा वाहिं बट्टा तो चउरंसा वष्ओ ० जाव अच्छ रघणसंघकित्रिष्ठा०जात्र पडिख्वा । तत्थ खं सकस्म देविदस्त देवर सोमजनवरुणवेसमणकाइया बहवे श्राभियोगा देवा महिड्डिया महजुरबा जाव महासुक्खा पि ओमवतीया परिवर्तति। तासि आभियोग सेडी बहु समरमणिजाओ भूमिभागाओ वेस्पन्दयस्स उमओ पासिं पंच जोभणाई उड्डुं उप्पइत्ता एत्य णं वेयड्डुस्स पन्त्रयस्स सिहरतले पाचे, पाईपडीवायए उदीदा हियवित्थि से दस जो भाई विक्खंभेणं पव्त्रयसमागे आया में | सें इकाए पउमवरवेश्याए इक्केण य वणसंडेणं सव्वत्र समंता संपरिक्खिते । पमार्थ वरणगो दोयहं पिवेष । स्स ये मंते ! पव्यवस्स सिहरतलस्स के रिसए आगारभावपडोआरे पण्णत्ते ? । गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्यते । से जहा णाम ए आलिंगपुक्खरेइ वा० जाव णायावि ( है ) ह (हिं ) पंचवरणेहिं मणीहिं उवसोभिए जाब बाबीओ पुक्खरिणीओ० जाव वाणमंतरा देवाय देवी अ श्रासति सति जाव भुंजमाणा विहरंति । ( तेसि पारमित्यादि ) तोताोभयपार्श्व बर्तिनो भूमिगतयोर्य नखण्डयोर्बहुसमरमणीयाद्भूमिभागादूर्द्ध बैताख्यगिरेरुभयोः पार्श्वयोवंश दश योजनान्युत्पत्य - गत्वा अत्र विद्याधरथेयौ - विद्याधराणामाश्रयभूते प्रज्ञप्ते । एका मागे एका बोत्तरभागे इत्यर्थः । प्राग्परायते उदगद हितीयें । उभे अपि विष्कम्भेन दश दश योजनानि । -9 भरह अत एव प्रथममेखलायां वैताव्यविष्कम्भखिंशद् योजनानि । पर्वतसमिके आयामेन येताव्यवादिमे अति पूर्वापरोधि स्टे इत्यर्थः । तथा प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां प वरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनखण्डाभ्यां संपरिक्षिप्ते । एवमेकैकस्यां एयां पद्मवत्वेदिक द्वे न वनडे इत्यु भयोः श्रेण्योर्मीलने चतस्रः पद्मवरवेदिकाः, चत्वारि वनखण्डानीति ज्ञेयम् । संवादी चाऽयमर्थः श्रीमलयगिरिकृतवृहत्त्रसमासवृत्या । तथा च तत्रोक्रम्" एर्कका च विभावर्तिभ्यां वैतान्यप्रमाणाऽऽयामाभ्यां द्वाभ्यां द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां द्वाभ्यां वनखण्डाभ्यां समन्ततः परिक्षिप्ता । " इति शेषं सूत्रं गतार्थमिति । श्रथ तयोः त्योः स्वरूपं पृष्ठति ( विज्जाहरेत्यादि) मतार्थम्, नवरम् श्रत्र बहुष्वादशेषु - -" नाणामणिपंचचरणेहिं मणीहि " इति पाठो न दृश्यते परं राजप्रश्नीवसूत्र स्यात् संगतत्याच " नासाविचचणेहिं मीि तहिं" इति पाठो लिखितोऽस्तीति बोध्यम् (जं०२वक्ष०) महीनां वर्णकर्धत्थम्" नानाविहेहिं पंचहि मणीहि उवसोभिए । तं जहा-किरहेहिं गीलेहि, लोडिग हालिदेहि सुकिमेडि प तत्यजेते किरहा मणी तेसि णं मणीग इमेयारूवे वरणावासे परणते । से जहानामए जीमूतेति वा अंजणेति वा खंज ति वा कज्जलेइ वा गवलेइ वा गवलगुलियाइ वा भ मरेर वा भमरावलियाति वा भमरपत्तगयसारेइ वा जंबूफले वा हारिइ वा पुरिपुट्ठारह वा गएति वा गयकलभपति वा किएहसप्पेति वा किराहकेसरेइ वा प्रागावाडा सोड या किरकरी वा किराह जीवान्भवे वारू लिया है। गंधमा सो इराडे सम ये से किरा महत्तरावे पितराय देवराए चैव मणामतराए चेव मणुरागतराप चैव वराणं परणत्ता ॥ जे ते गीला मणी, तेसि णं मणीग इमेयारूचे वरणाचासे पण्णत्ते से जहानामए भिंगति वा भिंगपत्तेइ वा सुपर वा सुवा वा वा वासपिच्छे या नीलाइ वा नीलगु लियाइ वा सामाएति वा उच्चंतपति वा वणरातीति वा हलदरसति वा मोरगीवाद वा पारेययगीयाति वा अवसीममेति या यागसुमेतिया जराकेसियामे या नीसुप्पले या नीला सांगे वा नीलबंद पानीते णीला मणी पत्तो इतरा चैव जाव वरणं पराण लकवीर वा भने पयाम सिया है। सो इस सम उन्ता ॥ तत्थ जे ते लोहिया मणी, तेसि गं इमेयारूवे वरणावासे पर से जहाणामण उरमरुद्धिरेद्र वा सरुहिरेह वा नररुहिरेद्र वा बराहरुहिरे या वाद वा बाल दिवाकरेति वा संभरागेइ वा गुंजद्धरागेइ वा जासुणकुसुमेह या सिमेह या पालियाकसमेति वा जातिहिंगुलेति वा लिप्यप्वालेति वा पवारेति वा लोहि कलमणीति या लक्खारसगेह वा किमिरागवले या श्रीसपिट्ठरासीति वा रतुप्पलेइ वा रत्ताऽसोगेइ वा रक्तकणवीरेति वा रक्तबंधुजीवेद वा भवे एयारूवे सिया ? । गो इट्ठे समट्ठे । ते गं लोहिया मणी पत्तो इट्टयरा चेव ०जाव बरगी परयथा ॥ तत्थ से जे ते डालिहा मी तेखि सं 9 Page #1434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रठर भरह अभिधानराजेन्द्रः। भरह मणीणं इमेयारूवे वराणावासे पराणत्ते, से जहाणामए चपेइ क्षिणश्रेणेः शकाशादस्या अधिकदीर्घत्वात् । ऋषभचारवा चंपगच्छल्लीद वा हालिहाद वा हलिहाभेदेोते वा हलि- त्राऽऽदौ तु दक्षिणश्रेण्यां रथनूपुरचक्रबालम् उत्तरश्रेण्यां हयालयाइ वा हरियालियालेइ वा हरियालभेदेति वा ह. गगनवल्लभमुक्तम् , तत्त्वं तु सातिशयश्रुतधरगम्यम् । अनयोर्मुरियालगुलियाइ वा चिउरेति वा चिउरंगरागेति वा वरक- ख्यता च श्रेण्यधिपराजधानीत्वेनेति । एवमेवेति-उनन्यायेनैव गएति वा घरकणगनिघसेइ वा सुवरणसिप्पिएति वा व- सह पूर्वेण यदपरं तत् सपूर्वापरं संख्यानं तेन दक्षिणस्यामुरपुरिसवसणेति वा सल्लइकु समेति वा चंपाकुसुमेह वा त्तरस्यां च विद्याधरश्रेण्यामेकं दशोत्तर विद्याधरनगरावास कुहंडियाकुसमेइ वा तडउकुसुमेइ वा घोंसाडियाकुसुमेति वा शतं भवतीति आख्यातं मया अन्यैश्च तीर्थकरैरिति । श्रेसुवरणजूहियाकुसुमेह वा कोरिंटवरमल्लदामेति वा सुहि- णिद्वयगतपञ्चाशत्पष्टिसङ्कलने यथोक्नसंख्याभवनादेषां च रएिण्याकुसुमेति वा वीयगकुसुमेति वा पीयासोएति वा दशोत्तरशतसंख्यानगराणां नामानि श्रीहेमाऽऽचार्यकृतश्रीपीयकणवीरे वा पीयबंधुजीवपति वा भवे एयारुवे सिया?|| ऋषभदेवचरित्रादवगन्तव्यानीति। (ते विज्जाहरेत्यादि)तानि णो इणटे समढे । ते णं हालिहा मणी एत्तो इटुतरा चेव विद्याधरनगराणि ऋद्धानि भवनाऽऽदिभिर्वृद्धिमुपगतानि जाव वराणेणं पराणता ॥ तत्थ णं जे ते सुकिला मणी. स्तिभितानि निर्भयत्वेन स्थिराणि समृद्धानिधनधान्याऽऽदितेसि मणीण इमेयारूवे वण्णावासे पराणत्ते, से जहा- युक्तानि। ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः। तथा प्रमुदिता दृशः प्रणामए अंकेइ वा संखेइ वा चंदेइ वा कुंदेइ वा दंतपं- मोदवस्तूनां सद्भावाद् जना नगरीवास्तव्यलोका जानपदाश्च ताइ वा हंसावलीइ वा कोचावलीति वा वलायावलीति जनपदभवास्तत्राऽऽयाताः सन्तो येषु तानि तथा । यावत्करवा हारावलीति वा चंदावलीइ वा सारयवलाहए ति वा धं- णात् सर्वोऽपि प्रथमोपाङ्गगतश्चम्पावर्णको ग्राह्यः (जं०१वक्ष०) तधोयरुप्पपट्टेइ वा सालिपिठुरासीइ वा कुंदपुप्फरासीइ वा स च इत्यम्कुमुयरासीइ वा सुक्कछिवाडीइ वा पिहुणमंजियाइ वा भि मूलम्-“ते णं काले ण ते णं समए रंग चंपा नाम नयरी सेइ वा मुणालीइ वा गयदंतेइ वा लवंगदलए वा पोंडरी होत्था, रिद्धत्थिमियसमिद्धा पमुइयजणजाणवया आइयदलए वा सिंदुवारमल्लदामेति वा सेयाऽसोगेइ वा सय राणजणमणुस्सा हलसयसहस्ससंकिट्टविकिट्ठलट्टपण्णत्तसउकणयरे वा सेयबंधुजीएइ वा भवे एयारूवे सिया। णो सीमा कुक्कुडसंडेअगामपउरा उच्छजवसालिकलिया गोमइण्टे समटे । ते ण सुकिल्ला मणी इत्तो इट्टयरा चेव हिसगवेलगप्पभूता आयारवंतचइयजुवइविविहसरिणविट्ठजाव वरणणं पण्णत्ता ॥ तेसि णं मणीणं इमेयारूपे गंधे बहुला उक्कोडियगायगंठिभेयभडतक्करखंडरक्खरहिया खमा पराणते, से जहाणामए कोट्ठपुट्ठाणं वा तगरपुडाण वा णिरुवद्दवा सुभिक्खा वीसत्थसुहावासा प्रणेगकोडिपलापुडाण वा चोयपुडाण वा दमणगपुडाण वा कुंकु कुटुंबियाइराणणिब्यसुहा गडणट्टगजल्लमल्लमुट्टियवेलमपुडाण वा चंदणपुडाणं वा उसीरपुडाणं वा मरुयगपु बयकहगपवगलासगाइक्खगलखमखतूणइल्लतुंबर्वाणियअणेडाणं वा जाइपुडाण या जूहियापुडाण वा मल्लियपुडाण गतालायराणुचरिया श्रारामुज्जागअगडतलागदीहियवप्पिवा केयइपुडाणं वा पाडलिपुडाण वा णोमालियापुडाण णिगुणोववेया नंदणवणसन्निभप्यगासा।" वा अगरुपुडाणं वा लवंगपुडाणं वा कपूरपुडाणं वा वा अस्य व्याख्या-इह च बहवो वाचनाभेदा दृश्यन्ते,तेषु च यमे सपुडाण वा अणुवायंसि उभिजमाणाण वा कोट्टेजमा वाऽवभोत्स्यामहे तमेव व्याख्यास्यामः,शेषास्तु मतिमता स्वणाण वा निभिदिजमाणाण वा रूविज्जमाणाण वा वि. यमूह्याः। तत्र योऽय 'ण'शब्दः स वाक्यालङ्कारार्थः, 'ते' इत्यत्र किरिज्जमाणाण वा परिभुज्जमाणाण वा भंडातो वा भडं च य एकारः स प्राकृतशैलीप्रभवो,यथा 'करेमि भंते!' इत्यासाहरिज्जमाणाण वा अोराला मणुण्णा मणहरा घाण दिषु, ततोऽयं वाक्यार्थो जातः-तस्मिन् काले तस्मिन् समणोनिग्वितिकरा सव्वतो समंता गंधा अभिनिस्सवंति भवे मये यस्मिन्नसौ नगरी बभूवेति , अधिकरणे चेयं सप्तमी । एयारूवे सिया । णो इण्टे समढे । तेसि णं मणीणं श्रथ कालसमययोः कः प्रतिविशेषः ?, उच्यते-काल - एत्तो इट्टयराए चेव गंधेणं पराणत्ता ॥ तेसि णं मणीणं ति सामान्यकालो वर्तमानावसर्पिण्याश्चतुर्थविभागलक्षणः इमेयारूवे फासे पराणत्ते । से जहानामए आइराणेति वा समयस्तु तद्विशेषो यत्र सा नगरी स राजा वर्द्धमानस्वारुएइ वा बूरेइ वा गवणीपइ वा हंसगम्भतूलीति वा | मी च बभूव । अथवा-तृतीयैवेयं, ततश्च तेन कालेन अवसिरीसकुसुमणिचएति वा बालकुसुमपत्तरासीति वा भवे सर्पिणीचतारकलक्षणेन हेतुभूतेन तेन समयेन तद्विशेषएयारूवे सिया । णो इण्टे समटे । ते ण मणी एत्तो भूतेन हेतुना चम्पा नाम नयरी (होत्थ त्ति) अभवद्,आसीइटुतराए चेव जाव फासेणं पण्णता ॥ (रा.)" अथो- दित्यर्थः । ननु चेदानीमपि साऽस्ति किं पुनरधिकृतग्रन्थभयश्रेण्योनगरसंख्यामाह-(तत्थ णं दाहिणिल्लाए इत्यादि) करणकाले ?, तत्कथमुक्तमासीदिति ?, उच्यत-व्रवसर्पितत्र तयोः श्रेण्योर्मध्ये दक्षिणस्यां विद्याधरश्रेण्यां गगन- णीत्वात्कालस्य वर्णकग्रन्थवर्णितविभूतियुक्ता सा तदानीं वल्लभप्रमुखाः पञ्चाशद्विद्याधरनगरावासाः प्राप्ताः; व्या- नास्तीति । 'रिस्थिमियसमिद्धा' ऋद्धा-भवनाऽऽदिभिर्वृ. ख्यातो विशेषप्रतिपत्तिरिति, तेन नगरावासा राजधानीरूपा द्धिमुपगता , स्तिमिता-भयवर्जितत्वेन स्थिरा, समृद्धाक्षेयाः, स्वस्वदेशप्रतिबद्धाः । यदाह-"ते दसजोयणपिहुलेहि, धनधान्याऽऽदियुक्ना, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः । 'पमुइय सेढिसु जम्मुत्तरासु सजणवया । गिरिवरदीहासु कमा, खय- जगजाणवया' प्रमुदिताः-हृष्टाः प्रमोदकारणवस्तूनां सरपुरा पराण सट्ठी य॥१॥” इति । उत्तरस्यां विद्याधरश्रेण्या रथ- द्भावात्, जनाः-नगरीवास्तव्यलोका जानपदाच-जनपदनूपुरचक्रवालप्रमुखाः पष्टिविद्याधरनगरावासाः प्राप्ताः । द- भवास्तत्रायाताः सन्तो यस्यां सा प्रमुदितजनजानपदा, पा Page #1435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह ठान्तरे - 'पमुइयजगुज्जाणजणवया । तत्र प्रमुदितजनान्युद्यामानि जनपदाश्च यस्यां सा तथा । ' आइराणजणमगुस्सा' म नुष्यजनेनाऽऽकीर्णा-सङ्कीर्णा, मनुष्यजनाकीर्णेति वाच्ये राजदन्तादिदर्शनादाकीजनमनुष्येयुक्रम् आकणों या गु राष्यास मनुष्यजनो यस्यां सा तथा " हलसयसहस्सकिविफिट्ट लपरणतसेउसीमा इलानां सालानां - तैः सहस्रैश्च शतसहस्रैर्वा-लक्षैः संकृष्टा - विलिखिता वि कष्टं दूरं यावद् अविकृष्टा वा श्रासन्ना लष्टा - मनोशा कर्षकाभिमतफलसाधनरुमषात्। "परत सि" योग्यीकृता बीजयपनस्य सेतुसीमा मार्ग सीमा यस्याः सा तथा, अथवासंपादिविशेषणानि सेतूनि कुल्याजता श्रीमासु यस्याः सा तथा, श्रथवा-हलशतसहस्राणां संकृष्टेन संकपणेन विकृष्टाः दूरवर्तिन्यो लष्टाः प्रज्ञपिताः कथिताः (१४१२) अभिधानराजेन्द्रः । 35 सेतुसीमा यस्याः सा तथा, अनेन तज्जनपदस्य लोकया 9 66 । 66 बाल्चोक्रम्"कुक्कुडकु [क्कुटा:- तानवाः परायाः परपुत्रका तेषामासमूहास्ते मथुरा:- प्रभूताः यस्यां सा तथा अनेन लोक प्रमुदितत्व व्यीकृतं प्रमुदितो हि लोक कुक्कु टान पोचयति vair करोतीति । उच्जयसालिकलि उच्छुजवसालिकलिया । " पाठान्तरेण - " उच्छुजवसालिमालिणीया ।” एतद्व्या सेत्यर्थः अनेन च जनप्रमोदकारणमुक्रमन होवंप्रकारसपनायें प्रमोदो जनस्य स्थादिति “गोमहिंसगबेलगप्पभूया । " गवादयः प्रभूताः - प्रचुरा यस्यामिति वाक्यम्.गबेलका:- उरक्षाः । " शायारवंत चेहयजपाविविसरिय बहुला" आकारयन्ति सुन्दरा33काराणि आकारचिवाणि या यानि यानि देवताऽऽयतनानि युवतीनां च तरुणीनां पपयतरुणीनामिति हृदयं पानि विविधानि विविधानि सनिवेशनानि पाटकास्तानि बहुलानि बहूनि यस्यां सातथा, " अरिहंतचेइयजणवयविसरिणविट्टबहुले ति 39 पाठातर ताईचे त्यानां जनानां मतिनां च विविधानि यानि सन्निविष्टानि पाठकालेति विग्रहः । " सुयागधिसहयजूषसरिणविट्टबहुला " इति च पाठान्तरम्, तत्र च सुयागाः- शोभनयज्ञाः विषमेत्यानि प्रतीतानि सुयागाः-शोभनयज्ञाः - यूपचितयो - यज्ञेषु यूपचयनानि, यूतानि वा क्रीडावि शेषाधितयः तेषां सविधान-निवेशास्तेला या सा तथा" उफोडियगायगतिभेयभडतकरखंडरवरहिया । ". उस्कोटा उत्कोचा लम्बेत्यर्थः । तया ये व्यवहरन्ति ते ओस्कोटिकाः गावात् मनुष्धशरीरावयवविशेषात् कपा सकाशाद् ग्रन्थिम् कार्षापणाऽऽदिपुट्टालिकां भिन्दन्ति-श्रीछन्दन्तीति गात्रग्रन्थिभेदकाः । " उक्कोडियगाहगंठिभेय " इति च पाठान्तरं व्यक्तं, भटाः- चारभटाः बलात्कारप्रवृत्त यः तस्रादेवीकुर्वन्तीत्येवंशीला धराडरक्षा:resuाशिकाः ाः शुल्कपाला वा एभी रहिता या सा तथा अ मेन तत्रोपद्रवकारिणाममाषमाह । " खेमा " अशिवाभावात्। " निरुबद्दवा निरुपद्रवा, अविद्यमानराजादिकृतोपयथेः । " सुभिक्खा " सुष्ठु ममोशा प्रचुरा भिक्षा भिक्षु 9 यस्यां सा सुभिक्षा। अत एव पापानां गृहस्थान "बीसत्यसुहायासा "विश्वस्तानां निर्मयानामनुदुकानां या सुख-सुखखरूपः शुभो या आवासो यस्यां सा " भरह तथा । " अगकोडिकुडुम्बिया इण्णनिव्युय सुहा । " अनेकाः कोटयो द्रव्यसङ्ख्यानां स्वरूपपरिमाणे वा येषां ते अने 6 कोटयः तैः कौटुम्बिकैः – कुटुम्बिभिराकीर्णा - सङ्कुला या सा तथा सा चासौ निर्वृता च सन्तुष्टजनयोगात्सन्तोपवतीति कर्म्मधारयः, श्रत एव सा चासौ सुखा च शुभा वेति कर्म्मधारयः । " नडनट्टगजलमल्लमुट्ठियवेलम्बयकहगपवगलासगप्राइफ्खगलं खमंत्र तू गइल्लतुम्पवीणियश्ररोगतालापराचरिया | नटाः- नाटकानां नाटवितारो नर्सका ये नृत्यन्ति अकिला इत्येके, जल्लाः- चरत्राखेलकाः, राशः स्तोत्रपाका इत्यन्ये, मलाः प्रतीताः, मौष्टिका - मला एव ये मुनिभिः प्रहरन्ति विडम्बकाः - विदूषकाः, कथकाः मितीताः सवका ये उत्प्लवन्ते नद्यादिकं वा तरन्ति, लासका:ये रासकान् गायन्ति, जयशब्दप्रयोकारो वा भागडा इत्यर्थः श्राख्यायकाः-ये अल्पावकाः शुभाशुभमाख्यान्ति, लङ्गाः- महावंशाचेसकाः मङ्गाः चित्रफलकडला भिक्षुकाः नृणा तूसाऽभिधानवाद्यविशेषवन्तः तुम्बयीकिः पणवादका अनेके च ये तालाचराः - तालादानेन प्रेक्षाकारिणस्तैरनु रिता - श्रासेविता या सा तथा । 66 श्रारामुज्जाणश्रगडतलायदीहियवप्पिणिगुणोववेया । " श्रारमन्ति येषु माधवीलतागृहाऽऽदिषु दम्पत्यादीनि क्रीडन्ति आरामा उद्याना नि-पुष्पाऽऽदिमवृक्षसकुलान्युत्सवाऽऽदौ बहुजनभोग्या - नि, " अगड त्ति " श्रवटाः- कृपाः, तडागानि, प्रतीतानि दीपिका-सारणी, विि ति "केदाराः तेषां ये गुणा रम्यताssदयस्तैरुपपेता - युक्ता या सा तथा उप प इत इत्येतस्य शब्दत्रयस्य स्थाने शकन्ध्वादिदर्शनादकारलोपे उपपतेति भवति । क्वचित्पठ्यते" नंदणवणसन्निभप्पगानन्दनवनं-- मेरो द्वितीयवनं तत्प्रकाशसन्निभः प्रकाशो यस्यां सा तथा इह चैकस्य प्रकाशशब्दस्य लोपः उष्ट्रमुख इत्यादाविवेति । रनुच “ सा । मूलम् -" उम्बियविलगंभीरखायफलिहा चकगभुसुंडि ओरोहसपधिजम लकवाडपणदुप्यवेसा धकुडिलवेकपागारपरिक्खित्ता कविसी सयवट्टरइय संठियविरायमाणा - हालयचरियदारगोपुरतोरण्उण्यसुविभत्तरायमग्गा छेयायरियरयव्रढफलिहइंदकीला । " अस्य व्याख्या" उब्विद्धविलगंभीरखायफलिहा" उद्विमस्ति गम्भीरम्-उपरि विस्तीर्णम् अधः सङ्कटं परिखा च श्रध उपरि च समखा'तरूपा यस्यां सा । तथा "वज्रगयभुधिरोहि जमलकवाडघणदुप्पवेसा । " चक्राणि - रथाङ्गानि श्ररघट्टाङ्गानि वा, गदाः - प्रहरणविशेषाः, भुसुरढयो ऽप्येवम्, अवरोधः- प्रतोलिहारेवान्तरप्राकारः सम्भाव्यते शतमहायटयो महाशिला या या उपरित्पातिताः सत्यः शतानि पुरुषाणां प्रन्तीति यमलानि समसंस्थितद्वयरूपा यानि कपाठानि धनानि च निशाण पेश सा तथा । “धकुडिलचक पगारपरिखता।" धनु कुटिलं- कुटिलधनुस्ततोऽपि वक्रेण प्राकारेण परिक्षिप्ता य सा तथा । " कविसीसपचरइय संडियचिराया। "क पिशीर्षकेत्तरचितैः पतेः संस्थितः विशिष्ट संस्था Page #1436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४१३) अभिधानराजेन्द्रः । भरह नवद्भिर्विराजमाना - शोभमाना या सा तथा । अट्टालयपरिषदारगोपुरतोरणयसुविभचरायमन्गा" अद्दाल काः प्राकारपरिचययविशेषा परिका-तम्माया नमरप्राकारान्तरालमा द्वाराणि प्राकारद्वारिकाः, गोपुराणि – पुरद्वाराणि, तोरखानि प्रतीतानि, उच्चतानि गुणवन्ति उच्चानि च यस्यां स तथा सुविभक्ताः विधिका राजमार्ग यस्यां सा तथा ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः । ' देयायरियरइयदढफलिहइंदकीला ।' छेकेन - निपुणेनाऽऽ चायें-शिल्पिना रचितो दो-बलवान् परिधा अर्गला इन्द्रकील गोपुराचयाविशेषो यस्यां सा तथा । मूलम् - "विषविहिच्छेत्तसिप्पियाहा सिं. घाडगतियचरचचरपति यावत्परिमंडिया सु रम्मा नरपतिमहचापहा अरोगचरतुरगमकुंजर उपकर सीयसंद्मासी पाइहाग्गा विमललिि सोभियजला एंडरवरभवसरिणमहिया उत्तारायणपेच्हसि जा पासादीया दरिति अभिरुवा पडिया' (-१) अस्य व्याख्या" विपणिवन्तसिपियासि हा " विषणीनां वरिथानां मार्गाणां वणिजांच • वाणिजकानां च, क्षेत्रं स्थानं या सा तथा, शिल्पिभिः -कुनकारादिभिराकीर्णा, अत एव जनप्रयोजनसि जनानां नितत्वेन सुखितत्येन च निर्वृतसुखा च या सा तथा । वाचनान्तरे छेत्तशब्दस्य स्थाने छेयशब्दो ऽधीयते, तत्र च । " कशिल्पिकाकीर्णेति व्याख्येयम् । 'सिंघाडगतिगच कचचरपणियावणविविहवत्थुपरिमंडिया । शृङ्गाटकं-त्रिको स्थानं, पिकं यत्र ध्यायं मिलति चनुष्कं रथ्याचतुष्कमेल, पत्रं बहुरध्यापातस्थानं, पणितानि भारडानि ताम्रधाना आपणा हट्टा, विविधयस्तृनि अनेकविध द्रव्याणि एभिः परिमण्डिता या सा तथा पुस्तकान्तरेऽधीयते सिंघाडगतिगचक्कच श्वरच उम्मुहमा पि यावणविविहवेस परिमंडिया ।' तत्र चतुर्मुखं चतुर्द्वारं देवकुलाऽऽदि, महापथो - राजमार्गः, पन्थाः तदितरः, ततश्च शृङ्गाटकादिषु परितापः विविधविध वेश्याभिर्वा परिमण्डिता या सा तथा । ' सुरम्मा' अतिरमणीया । ' नरवइपविइराणमहिवइपहा । नरपतिना -राशा प्रविकीर्णो—– गमनाऽऽगमनाभ्यां व्याप्तो महीपतिपथो-राजमार्गों यस्यां सा तथा, अथवा नरपतिना प्रविकीर्णा विक्षिसा निरस्ता ऽन्येषां महीपतीनां प्रभा यस्यां सा तथा । श्रथवानरपतिभिः प्रविकीर्णा महीपतेः प्रभा यस्यां सा तथा । 'अगवरतुरगमत्तकुंजररह पहकरसीपसंद्मासीयाजाम्या अनेकैर्वरतुरगेमंतकुअरेः "रपहरति स्थानिक शिविकाभिः स्यन्दमानीभिराकीर्णा व्याप्ता यानैर्युग्यैश्व या सा तथा, अथवा श्रनेके वरतुरगाऽऽदयो यस्याम् श्राकीर्णानि च गुणवन्ति यानादीनि यस्यां सा तथा, तत्र शिबिका:कूटाssकारेणाच्छादिता जम्पानविशेषाः, स्यन्दमानिकाः पुरुश्रप्रमाणजम्पानविशेषाः, यानानि शकटाऽऽदीनि, युग्यानि - गो प्रसिद्धानि द्विहस्तप्रमाणानि बेदिकोपशोभितानि जम्पानान्येवेति । ' विमउलरावणलिणिसोभियजला । 'विमु कुलाभिः विकसितकमलाभिर्नयाभिर्नलिनीभिः पद्मिनीभिः शोभानि जलानि यस्यां सा तथा । पंडुरवरभवएस 6 ३५४ प भरह रिणमहिया।' पाराकुरे सुधाधवः परभवनैः प्रासादैः सम्यक् नितरां महितेच महिता - पूजिता या सा तथाः । "उताणयसिन्जा" सौभाग्यातिशया वृत्तानिक:अनिमिषितः नयन:- लोचनः प्रेक्षणीया या सा तथा । पासा इया' चित्तप्रसत्तिकारिणी । 'दरिसणिज्जा।' यां पश्य'अभिरूचा ' मनोशरूपा । च्चक्षुः श्रमं न गच्छति । डिरुवा' द्रष्टारं २ प्रति रूपं यस्याः सा तथेति ॥ १॥” (श्री०) अथ कियत्पर्यन्तः स ग्राह्य इत्याह-पडिया' इति । प्रतिरूपाणि प्रतिविशियमसाधारणं रूपमाकारो येषां तानि तथा तेषु समिति प्राग्वत्। विद्याधरनगरेषु विद्याधररा जानः परिवसन्ति । अत्र समासान्तविधेरनित्यत्याचादन्तता । कर्मभूतास्ते इत्याह- महाहिमवान मचत क्षेतस्योत्तरः सीमाकारी वर्षधरपर्वतः मलयः पर्वतविशेषः सुप्रत मन्दरो मेरा माहेन्द्रः पर्वतविशेषः शको या ते साग प्रधानाः । " रायवराणश्रो भाणियव्वो त्ति । " श्रत्राऽपि सर्वः प्रथमोपाङ्गगतो राजयको भणितव्य इति ०१० स च इत्थम् - तत्थ गं चंपा गयरीए कृणिए सामं राया परिवसइ महयाहिमवंतमहंत मलय मंदरमहिंदसारे अर्थवि हरायकुलवंससुप्पसूप खिरंतरं रायलक्खणविराइचंगमंगे बहुजणबहुमाणे पूजिए सव्वगुणसमिद्धे खत्तिए मुद्द मुखादिसि मापि यपते सीमेकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे मणुस्सिदे जणवयपिया जणवयपाले ज वयपुरोहिए सेउकरे केउकरे सरपवरे पुरिसपवरे पुरि ससीहे पुरिसवग्धे पुरिसासाविसे पुरिसपुंडरीए पुरिसवरगंधहाथी हे दित्ते पित्ते विधिसम यामागचाडसाइ बहुधरा बहुजावरुवरयते - योगपयोगसंपते विपरभतपासेले बहुदासीदास गोमहिसागवेलगप्पभूते पडिपुराणअंतफोसफोडामाराङडागा मेरे बल दुब्बलपच्चामिते श्रोहयकंटयं निहयकंटयं मलियकंटयं उद्धियकंटयं प्रकटयं श्रोहयसत्तुं निहयसत्तुं मलियसत्तुं उस निजियस पायसं वयय मारि भयविप्पमुक्कं मं सिवं सुभिक्खं पसंतडिबडमरं रज्जं पसासेमाणे विहरह। " (सूम ६ औ०) विज्जाहर डी समिति " सूत्रं गतार्थम्। अथावेव वर्त्तमानामाभियो गधे निरूपयति ( तासि समित्यादि) तयोर्विद्याधरयो समरमणीयाद् भूमिभागा तात्यस्य पर्वतस्योभयोः पार्श्वयोर्दश दश योजना न्यू र्द्धमुत्पत्य अत्र द्वे श्रासमन्तात् अभिमुख्येन युज्यन्ते प्रेष्यकर्मणि व्यापार्यतेत्याभियो ग्याः शकलोकपालप्रेष्यकर्म्मकारिणो व्यन्तरविशेपास्तेषामावासभूते श्रेयी आभियोग्यधेयौ म शेषं गतार्थ, नय रम् - "वरण दोह वित्ति ।" द्वयोरपि जात्यपेक्षया पद्मवरवेदिका - वनखण्डयोर्वर्णको वाच्य इति । ( जै० १ बक्ष० ) 66 66 स चायम् "तीसे जगतीर उपि बहुमज्भदेसमा एन्थ से एगा महई परमपरबेदिया परणता सा पडमचरबेदिया - द्धजोयणं उहुं उच्चतेणं पंच धरणुसयाई विक्खंभेणं सव्वरयणामई जगतीसमिया परिक्खेवेणं सव्वरयणामई० तीसे ं पदमचरचेया अयमेारुचे बटणावासे पर जहा Page #1437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह अभिधानराजेन्द्रः। वारामया नेमा, रिटागया पइट्राणा, वेरुलियामया खंभा.सव- एवं वुवा-सिय सासया, सिय असासया ?। गोयमा ! गणरुप्पमया फलगा, बहरामया संधी, लोहितक्खमईओ सू- दवट्ठयाए सासता, वएणपज्जवहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जईश्रा, णाणामणिमया कलेवरा, नानामाणमया कलेवरसंघा. वेहिं फासपज्जवहिं अलासता , से तेणटेणं गोयमा । डा, हाणामणिमया रूवा, नाणामणिमया रूवसंघाडा, अं- एवं बुचा-सिय सासता, सिय असासता । पउमवरकामया पक्खा, अंकामयाओ पखवाहाओ, जोतिरसामया, घेइया णं भैते ! कालो केवचिर होति । गोयमा ! ख यंसा, जोतिरसामया वसकवेल्लुया य, रयणामईश्रो पट्टि- कया वि णासि, ण कया वि णत्थि, ण कया वि न मविस्सयात्रो, जातरूवमयीश्रो ओहाडणीओ वरामईश्रो उवरि ति, भुवि च भवति य भविस्सति य धुवा नियया पुञ्छणाश्रो सब्बसेए रइयामते साणं छादणे । सा णं पउम- सासता अक्खया अव्वया अवट्टिया णिचा पउमवरवेघरवेइया एगमेगेणं हेमजालेण एगमेगणं गवरखजालेणं एग- दिया । (सू० १२४) मेगण खिखिणिजालेण० जाव मणिजालेणं कणयजालेणं रय वनखएडवर्णकःमजालेणं एगमेगेणं पउमवरजालेणं सव्वरयणामपणं सब्वतो “तीसे णं जगतीए उप्पि बाहिं पउमवरवेश्याए पत्थ समंता संपरिक्खित्ता । ते णं जाला तवणिज्जलंबूसगा सुव- णं एगे महं वणसंडे पएणत्ते, देसणारं दो जोयणाई चराणपयरगमंडिया णाणामणिरयणविविहहारऽद्धहारउवसो- क्वालविक्खंभेण जगतीसमए परिक्खेवेणं किण्हे भितसमुदया इस अण्णमण्णमसंपत्ता पुव्वाऽवरदाहिणउ- किण्होभासे० जाव अणेगसगडरहजाणजुग्गपरिमोयले त्तरागतेहिं वापहिं मंदागं २ एज्जमाणा २ कंपिज्जमाणा २ सुरम्मे पासादीए सरहे लण्हे घट्टे मट्टे नीरए लंबमाणा २ पझंझमाणा २ सद्दायमाणा २ तेणं श्रो- निप्पंके निम्मले निकंकडच्छाए सप्पभे समिरीए सउजोरालण मणुएणणं करणमणणिव्वुतिकरणं सद्देणं सव्वतो ए पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूचे पडिरूवे । तस्स ण संमता आपूरेमाणा सिरीए अतीव उवसोभेमाणा उवसोमे- वणसंडस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पराणत्ते,से जमाणा चिट्ठति । तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे हानामए-आलिंगपुक्खरेति वा मुहंगपुक्खरेति वा सरतहि तहिं बहवे हयसंघाडा गयसंघाडा नरसंघाडा किराण तले वा करतलेइ वा पायंसमंडलेति वा चंदमंडलेति रसंघाडा किंपुरिससंघाडा महोरगसंघाडा गंधब्यसंघाडा वा सूरमंडलेति वा उरम्भचम्मेति वा उसमचम्मेति वा वयसहसंघाडा सव्वरयणामया अच्छा सराहा लण्हा घट्टा मट्ठा राहचम्मेति वा सीहचम्मेति वा बग्घचम्मेति वा विगवीरया जिम्मला णिप्पंका णिक्वंकडच्छाया सप्पभा समिरिया चम्मेति वा दीविचम्मेति वा अणेगसंकुकीलगसहस्ससउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूबा। तीसे वितते श्रावहपञ्चावडसढीपसेढीसोतित्थयसोवत्थियपूरण पउमवरवड्याए तत्थ तत्थ देसे तहि तहि बहवे हयपंती समाणवद्धमाणमच्छंडकमकरंडकजारमारफुल्लावलिपउमपत्तश्रो तहेव. जाव पडिरूवाश्रो, एवं हयवीहीश्रो० जाव सागरतरंगवासंतिलयपउमलयभत्तिचित्तहिं सच्छाएहिं सपडिरूवाओ , एवं हयामिहुणाई० जाव पडिरूवाई । मिरीपहिं सउजापहि नाणाविहपंचवरणेहि तणेहि यमतीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं णीहि य उक्सोहिए । तं जहा-किरहोहिं० जाव सकिलहिं । बहवे पउमलयात्रओ नागलताश्रो , एवं असोगलयाओ तत्थ णं जे ते किराहा तणा य मणी य, तेसिं णे अयमेचंपगलयाश्रो चूयवणलयाश्रो वासंतिलयाओ अतिमुत्तगल तारूवे वरणावासे पएणत्ते, से जहानामए जीमूतेति वा यात्रओ कुंदलयाश्रो सामलयाअोणिश्च कुसुमियाश्रो. जाव सु- अंजणेति वा खंजणेति वा कजलेति चा मसीह वा गुलिविहितपिंडमंजस्विडिसकधरीओ सब्वरयणामईश्रो लण्हा- याइ वा गवलेइ या गवलगुलियाति वा भमरेति वा भओ घट्ठाओ मट्ठाश्रोणीरयात्रो हिम्मलाश्रोणिप्पंकाश्रोणिकं मरावलियाति वा भमरपत्तगयसारेति वा जंबुफलेति वा कडच्छायाश्रो सप्पभाश्रो समिरियानो सउज्जोयायो पा श्रद्दारिटेति वा पुरिपुटपति वा गपति वा गयकलसाइयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरुवाश्रो पडिरूवाओ अति चा कण्हसप्पेइ वा कण्हकेसरेइ वा श्रागासधिग्गसे केणऽट्टेणं भंते ! एवं घुश्चइ-पउमवरवेश्या पउम लेति चा करहासोपति वा किराहकणवीरेइ वा कण्हवंवरवेड्या ?। गोयमा ! पउमवरवेश्याए तत्थ तत्थ देसे धुजीवएति वा भवे एयारूवे सिया ?। गोयमा ! यो इतहि तहिं वेदियासु वेदियाबाहासु वेदियासीसफलगे- णद्वे समतु, तेसि णं कराहाणं तणाणं मणीण य इत्तो इष्टुसु वेदियापुडंतरेसु खंभेसु खंभवाहासु खंभसीसेसु खंभ- यराए चेव कंततराए चेव पियतराए चेव मण्णुराणतराए पुडतरेसु सूहसु सुईमुहेसु सूईफलएसु सूईपुडंतरेसु प- चेव मणामतराए चेव घराणेणं पएणत्ते । तत्थ णं जे ते क्वसु पक्खवाहासु पक्खपेरंतरेसु बहूई उप्पलाई पउ- णीलगा तणा य, मणी य तेसिं सं इमेयारूवे वरणावासे माई० जाव सतसहस्सप ताई सम्वरयणामयाई अच्छाई स- पएणत्ते, से जहानामए भिंगह वा भिंगपत्ते ति वा चासेरहाई लगहाई घटाई मट्ठाई गीरया णिम्मलाई निप्पं ति या चासपिच्छेति वा सुपति वा सुयपिच्छेति वा पी. काई निकंकडच्छायाई सप्पमाई समिरीयाई सउज्जो लौति वा पीलीभपति वा णोलीगुलियाति वा सामाएया पासादीयाई दरिसणिजाई अभिरुवाई पडिरूवाई ति वा उच्चतएति वा वणराईड वा हलहरबसणेह वा मोमहता २ वासिकछत्तसमयाई पराणत्ताई समणाउसो!, रग्गीवाति वा पारेवयगीवाति वा अयसिकुसुमेति वा से तेणष्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चद पउमवरवेदिया । अंजणकेसिगाकुसुमेति वा पीलुप्पलेति वा गीलासोपउमवरवेड्या णं भंते ! किं सासया, असासया ?। गो- एति वा पीलकणवीरेति घाणीलबंधुजीवएति वा, भवे यमा ! सिय सासया, सिय अलासया ॥ से केणष्टेणं भैते! एयारूबे सिया। णो दणद्वे समटे । तेसि णं णीलगावं Page #1438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह अभिधानगजेन्द्रः। तणाणं मणीण य एत्तो इतराए चेव कंततराए वेष० जाव ज्जमाणाण वा उक्किारज्जमाणाण वा विकिरिज्जमाणाण वा घरगेणं परपसे । तच जे ते लोहितगा सखा य मणी य | परिभुज्जमाणाण वा भंडाओ वा भडं साहरिज्जमाणाणं तेसिणं अयमेयारूवे असणावासे परखत्ते । से जहाणामए ओराला मणुराणा घाणमणिब्युतिकरा सव्वतो समंता ससकरुहिरोति वा उरभरूहिरेति वा गररुहिरोति वा व. गंधा अभिणिस्सवंति , भवे एयारूवे सिया ? । णो. राहरुहिरेति वा महिसरुहिरोति वा बालिंदगोमपति वा ण? समटे । तेसि ण तणाण य मणीण य एत्तो उ इटुतराए बालदिवायति वा संझम्भरागेति वा गुंजदराएति वा चेव. जाव मणामतराए चेव गंधे पएणत्ते ॥ तेसि ण भंते ! जातिहिंमुलपति वा सिलप्पवालेति वा पवालंकुरेति वा तणाण य मणीण य केरिसए फासे पहणते ? से जहाणामए, लोहितक्खमणीति वा लक्खारसएति वा किमिरागेइ वा र आईणेति वा रूपति वा वरेति वा णवणातेति वा हंसगम्भसकैबलेइ वा चीणपित्तरासीह वा जासुयणकुसुमेइ वा किं. तृलीति वा सिरीसकुसुमणिचपति वा बालकुमुदपत्तरा सुश्रकुसुमेह वा पाजियाकुसुमेह वा रत्तप्पलेति वा रत्ता सीति वा, भवे एतारुवे सिया?। यो इण्डे समटे । तेसि ण तणाण य मणीण य एत्तो इट्टराए चेव० जाव सोगेति वा रत्तकणयारेति वा रत्तबंधुजीवेह वा, भवे एयारू. फासेण पराणते ॥ तेति णं भंते!तणाण य मणीण य पुवाव. घे सिया? । नो इण्टे समटे । तेसि ण लोहियगाणं तणाण य रदाहिणउत्तरागाहें वाएहिं मंदाय मंदायं एइयाणं मणीण य एत्तो इट्टतराए चेव. जाव वरणणं पएणत्ते । वेश्याणं कंपियाणं खोभियाण चालियाणं फंदियाणं घट्टितत्थ ण जे ते हालिद्दगा तणा य मणी य, तेसि एणं याणं उदीरियाणं केरिसए सद्दे पराणत्ते । से जहा णाम ए. अयमेयारूवे वरणावासे पराणत्ते, से जहा णाम ए-चंपए वा सिवियाए वा संदमाणीयाए वा रहबरस्स वा सछत्तस्स चंपयछलीइ वा चपयमेरइ वा हालिद्दाति वा हालिबभे सज्झयस्स सघंटयस्स सतोरणवरस्स सणंदिघोसस्स पति वा हालिद्दगुलियाति वा हरियालेति वा हरियालभेए ति वा हरियालगुलियाति वा चिउरेति वा चिउरंगरागेति सखिखिणिहेमजालपरंतपरिक्खित्तस्स हेमवयखेत्तचित्तवा वरकणएति वा घरकणगनिघसेति वा सुवरणसिप्पिरति विचित्ततिणिसकणगनिज्जुत्तदारुयागस्स सुपिणिद्धारकर्म डलधुरागस्त कालायससुकयणमिजंतकम्मरस अाइराणवरवा वरपुरिसवसणेति वा सल्लइकुसुमेति वा चंपककुसुमेह तुरगसुसंपउत्तस्त कुसलणरछेयसारहिसुसंपरिगाहतस्स वा कुहुंडियाकुसुमेति वा कोरंटकदामेइ वा तडउडा सरसतववत्तीसतोरणपरिमंडितरल सकंकडवडिसगस्स कुसुमेति वा घोसाडियाकुसुमेति वा सुवरणहियाकुसु सचावसरपहरणावरणहरियस्स जोहजुद्धस्स रायंमेति वा सुहरिन्नयाकुसुमेह वा कोरेंटवरमल्लदामेति गणसि वा अंतेपुरंसि वा रम्मसि वा मणिकोट्टिमतलंसि वा बीयगकुसुमेति वा पीयासोएति वा पीयकरणवीरे श्रभिक्खणं अभिक्खणं अभिघट्टिज्जमाणस्स वा गिट्टिति वा पायबंधुजीपति वा, भवे पयारुवे सिया ?। उजमाणस्स वा परुढवरतुरंगस्स चंडवगाइटुस्स श्रीनो इणटे समढे । ते ण हालिहा तणा य मणी य राला मणुगणा करणमणणिव्युतिकरा सव्वतो समंता सहा पतो इटुश्य चेव ०जाव वराणेणं पण्णत्ता । तत्थ अभिणिस्सचंति, भवे एतारूवे सिया ?। यो इण? समणं जे ते सुकिल्लगा तणा य मणी य , तेसि णं । से जहाणामए-वेयालियाए वीणाए उत्तरमंदामुच्छिअयमेयारूचे वरणावासे पएणत्ते से जहानामए-अंकेति वा ताए अंके सुपइट्टियाए वंदणसारकाणपडिपट्टियाए कुससंखेति वा चंदेति वा कुंदेति वा कुसुमे ति वा लणरणारिसंपग्गहिताए पदोसपच्चसकालसम्यसि मंदं मदयरएति वा दहियणेइ वा खीरेइ वा वीरपूरेइ वा दं एइयाए. वेइयाए खोभियाए उदीरियाए ओराला मणुहसावलीति वा कोंचावलीति वा हारावलीति वा बलाया. राणा कराणमणणिवुतिकरा सव्वतो समंता सहा अभिणिवलीति वा चंदावलीति वा सारदियबलाहपति वा धं- स्सवंति, भवे एयारूवे सिया? । णो इण? सम? । से जधधोयरुप्पपट्टइ वा सालिपिठुरासीति वा कुंदपुप्फरा. हाणामए-किराणराण वा किंपुरिसाण वा महोरगाण वा सीति वा कुमुयरासीति वा सुक्कछिवाडीति वा पेहुणमिजा. गंधब्वाण वा भदसालवणगयाण वा नंदवणगयारण वा ति वा विसेति वा मिणालियाति वा गयदंतति वा लवंगदले सोमणसवणगयाण वा पंडगवणगयाण वा हिमयंतमलय ति वा पौडीयदलेति वा सिंदुवारमल्लदामेति वा सेतासोए- मदरगिरिगुहासमरणागयाण वा एगतो सहिताणं संमुहागति वा सेयकणवीरेति चा सेयबंधुजीएड वा, भवे एयारू याणं समुपविट्ठाणं संनिविट्ठाण पमुदियपक्कीलियाणं गीयरवे सिया ?। णो इण्टे समटे । तेसि णं सुकिल्लाण त- तिगंधब्वहरिसियमणाणं गज्जे पज्जं कत्थं गेयं पयविद्धं गाणं मणीप य एत्तो इट्टरार चेक जाव वरणेणं प- पायविद्धं उक्खित्तयं पवत्तयं मंदायं रोचियावसाणं सत्तराणत्ते । तेसि णे भंते ! तणाण य मणीण य केरिसए सरसमण्णागयं अट्ठारससुसंपउत्तं छद्दोसविप्पमुक्कं एकागंधे पराणते ? । से जहाणामए-कोट्ठपुडाण वा पत्तपु रसगुणालंकारं अट्ठगुणववेयं गुजंतवंसकुहरोवगूढं रत्तं डाण वा चोयपुडास वा तगरपुडाण वा एलापुडाण वा तित्थाणकरणसुद्धं मधुरं समं सुललिय सकुहरगुंजंतवंसतंकिरिमेरिपुडाण वा चंदणडाण वा कुंकुमपुडाण वा तीसुसंपउत्तं तालसुसंपउत्तं तालसमं रयसुसंपउत्तं गहसुउसीरपुडाख वा चंपगपुडाण वा मरुयगपुडाण वा द. संपउत्तं मणोहरे मउयरिभियपयसंचारं सुरभि सुरपति वरमणगपुडाण वा जातिपुडाण वा जूहियापुडाण वा म- चारुरूवं दिव्व नट्टे सज्जं गेयं पगीयाण, भवे एयारूवे सिलियापुडाल वा गोमालियपुडाण वा वासतियपुडाण वा या ? । हंता गोयमा! एवंभूए सिया ॥ ( सूत्र- १२६ ) केयतिपुडाण वा कप्पूरपुडाण वा अणुवायसि उम्भिज्ज- तस्स णे वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बमाणाण य शिभिज्जमाणाण य कोट्टेग्जमाणाण वा रूवि- हवे खुडा खुडियाओ वावीश्रो पुक्खरिणीओ गुजालिया Page #1439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४१६) भरह अभिधानराजेन्द्रः। भरह ओ दीहियाओ सरसीओ सरपंतियाओ सरसरपंतीश्रो | त्थियासणाई सव्वरयणमयाई अच्छाई सरहाई लण्हाई बिलपंतीओ अच्छाओ सरहाओ रयतामयफूलाओ वा- घट्ठाई मट्ठाई णीरयाई णिम्मलाई निप्पकाई निकंकडच्छारामयपासाणाश्रो तवाणिज्जमयतलाओ वेरुलियमणिफालि- याई सप्पभाई सम्मिरीयाई सउज्जोयाई पासादीयाईदयपडलपच्चोयडाओ णवणीयतलाओ सुवरणसुम्भ (ज्झ)। रिसणिज्जाई अभिरुवाई पडिरूवाई। तस्स णं वणसंडरययमणिवालुयाओ सुहोयाराश्रो सुउत्ताराओ णाणामणि- स्स तत्थ तत्थ देसे २ तहि तहिं बहवे आलिघरा मातित्थसुबद्धाओ चारुचउक्कोणाश्रो समतीराओ श्रा- लिघरा कयलिघरा लयाघरा अच्छणघरा पेच्छणघरा मणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजलाओ संचरणापत्तभिसमु- जणघरगा पसाहणघरगा गम्भघरगा मोहणघरगा सालघणालाओ बहुप्पलकुमुयगलिणसुभगसोगंधितपोडरीयसय- रगा जालघरगा कुसुमघरगा चित्तघरगा गंधव्वधरगा पत्तसहस्सपसफुल्लकेसरोवस्याओ छप्पयपरिभुज्जमाणकम- आयसघरगा सम्वरयणामया अच्छा सराहा लण्डा घट्ठा लाओ अच्छविमलसलिलपुरणाश्रो परिहत्थभमतमच्छकच्छ मट्ठा णीरया णिम्मला णिपंका निक्कंकडच्छाया सप्पभा भअणेगसउणमिहुणपरिचरितानो पत्तेयं पसेयं पउमघरधे-। सस्सिरीया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरुवा पदियापरिक्खित्तानो पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्तानो अ- डिरूवा । तेसु णं आलिघरपसु० जाव आयसघरपसु बहुई प्पेगतियाओ प्रासबोदामो अप्पेगतियाश्रो वारुणोदाओ हंसासणाई० जाव दिसासोवत्थियासणारं सव्वरयणामयाई० अप्पेगतियाओ खीरोदाओ अप्पेगतियानो घोदामो जाव पडिरूवाई। तस्स णं वसंडस्स तत्थ तत्थ देसे २ तहिं अप्पेगतियाओ खोदोदाश्रो अमयरससमरसोदाओ अ- तहिं बहवे जाइमंडवगा जूहियामंडवगा मल्लियामंडवगा णवप्पेगतियाश्रो पगतीए उदग ( अमय ) रसेणं मालियामंडवगा वासंतीमंडवगा दधिवासुयामंडवगा सूरिपण्णताओ पासाइयाओ० ४। तासि ण खुड़ियाणं लिमंडवगा तंबोलीमंडवगा मुद्दियामंडवगा णागलयामंडवगा वावीणं० जाव विलपंतियाणं तत्थ तत्थ से तहिं २ अतिमुत्तमंडवगा अप्फोतामंडवगा मालुयामंडवगा सामलजाव बहवे तिसोवाणपडिरुषया पएणत्ता । तेसि णं तिसो यामंडवगा णिचं कुसुमिया० जाव पडिरूवा । तेसु णं... वाणपडिरूवाणं अयमेयारुवे वरणावासे पराणते । तं जहा जातीमंडवएसु बहवे पुढविसिलापट्टगा पराणता । तं जहावरामया नेमा रिटामया पतिढाणा घेलियामया खंभा हंसाऽऽसणसंठिता कोंचासणसंठितागरुलासणसंठिता उराणसुवरणरुप्पामया फलगा पदरामया संधी लोहितक्खमइयो यासणसंठिता पणयासणसंठिता दीहासणसंठिता भहाससूईश्रो-णाणामणिमया अवलंबणा अवलंबणवाहाश्रो । ते णसंठिता पक्खासणसंठिता मगरासणसंठिता उसभाससिणं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरतो पत्तेयं पत्तेयं तोरणा प. णसंठिता सीहासणसंठिता पउमासणसंठिता दिसासोत्थिएणत्ता। तेणं तोरणा णाणामणिमयखंभेसु उवणिविट्ठसरिण यासणसंठिता पण्णत्ता । तत्थ बहवे बरसयणासणविट्ठविविहमुत्तरोवता विविहतारारुवोवचिता ईहामि विसिटसंठाणसंठिया पराणता । समणाउसो ! श्राइयउलभतुरगणरमगरविहगवालगकिरणररुरुसरभचमरकुंज राणगरूयधूरणवणीततूलफासा मउया सब्बरयणामया रषणलयपउमलयभत्तिचित्ता खंभुग्गयवहरवेदियापरिगता अच्छा० जाव पडिरूवा । तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा य भिरामा विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्ता विव अञ्चिसहस्स देवीश्रो य पासयंति. सयंति, चिटुंति. णिसीदति, तुयटृति, मालणीया मिसमाणा भिभिसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा रमंति ललंति, कीलंति, मोहंति, पुरा पोराणाणं सुचिराणाणं सुहफासा सस्सिरीयरुवा पासादीया०४। तेसि णं तोरणा सुपरिकताणं सुभाणं कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणं णं उप्पि बहवे अट्ठ मंगलगा पण्णत्ता-सोस्थियसिरिवच्छ फलवित्तिविसेसं पञ्चणुब्भवमाणा विहरति । तीसे णं जगगदियावत्तवद्धमाणभहासणकलसमच्छदप्पणा सव्वरतणा तीए उप्पि अंतो पउमवरवेदियाए एत्थ णं एगे मह वणसंडे मया अच्छा सराहा० जाव पडिरूवा । तेसि णं तोरणाणं पराणत्ते, देसूणाई दो जोयणाई विक्खंभेणं घेण्यासमएणं परिउप्पि बहवे किराहचामरज्या नीलचामरज्झया लोहिय क्खेवण किराहे किरहोभासे वणसंडवगणो मणितणसदविचामरज्या हारिइचामरज्या सुक्किनचामरज्या अच्छा हुणो णेयव्बो । तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य सराहा रुप्यपट्टा वारदंडा जलयामलगंधीया सुरूवा पासा श्रासयंति. सयंति, चिटुंति. णिसीयंति, तुयदृति, रमति, ईया०४। तेसि णं तोरणाणं उप्पि बहवे छत्ताइछत्ता प ललंति. कीडति, मोहति. पुरा पोराणाणं सुचिराणाणं सुपरिडागाइपडागा घंटाजुयला चामरजुयला उप्पलहत्थया०जाव कंताणं सुभाणं कंताण कम्माणं कल्लाणं फलवित्तिविसेस पश्चसयसहस्सवत्सहत्थगा सव्वरयणामया अच्छा० जाव पडि- गुम्भवमाणा विहरंति ॥ (सूत्र-१२७ । जी०३ प्रति०१ उ०) रूवा । तासि ण खुड़ियाणं वावीण जाव विलपंतियाणं तथा-( पव्वयसमियाश्रो आयामेणं ति ) पर्वतसमितत्थ तत्थ देसे दसे तर्हि तहिं बहवे उपायपव्यया णिय- काश्चतस्रोऽपि पनवरवेदिका श्रायामेन-दैर्येण पत्र इपव्वया जगतिपव्यया दारुपव्वयगा दगड़वगा दगमंच- तत्संबन्धानि वनखण्डान्यपि पर्वतसमान्यायामेनेति बोका दगमालका दगपासायगा ऊसड़ा खुल्ला खडडगा अं. ध्यम् । (आभियोगेत्यादि) प्रागधस्तनसूत्रे जगती पनवरवेदोलगा पक्वंदोलगा सव्वरणामया अच्छा० जाव पडिरू दिकं च येनैव गर्मेन व्यावर्णितं स एवात्र गम इति न पुनवा । तेसु णं उप्पायपव्वतेसु० जाव पक्खंदोलएसु बहवे ाख्यायते । (तासि णमित्यादि) तासु श्राभियोग्यथेणिषु हंसाऽऽसणाई कौचासणा गरुलासणाई उरणयासणारं पण- शकस्याऽऽसनविशेषस्याधिष्ठाता शक्रस्तस्य दक्षिणार्द्धलोयासणाई दीहासणाई भड़ासणाई पक्खासणाई मगरास- काधिपतेरित्यर्थः । देवेन्द्रस्य देवानां मध्ये परमैश्वर्ययुक्तपाई उसभासणारं सीहासणाई पउमासणारं दिसासोव- स्य देवराशः देवेषु कान्त्यादिगुणैरधिकं राजमानस्य सोमः Page #1440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत पश्चिमदिया पूर्वदिक्पालो यमो दक्षिणदिषपाल, लो, श्रमण उत्तरदिकपालः तेषां कायो निकाय आश्रयश्रीयत्वेन येषां ते तथा तेषां शफसम्बन्धिसोमादिविषयासपरिवारभूतानामित्यर्थः । अभियोग्यानां देवानां बहूनि भयनानि तानि तानि सुत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् समिति प्राग्वत् । भवनानि हितानि वािकारागि अन्तश्चतुरस्राणि समचतुरस्राणि ( घराण्ड त्ति ) श्रत्र भवनानां वर्णको वाच्यः, स च किंपर्यन्त इत्याह - ( जाव अच्छरमणसंपविकिरण चि) ततोऽपि कियत्पर्यन्त त्याह1) ( जब पडि सि ) स च प्रज्ञापनास्थानाख्य 55द्वितीय पथा" अहे पुक्खरकनिपासंडाराठिया उक्तिनंतर बिउलगंभीरखायफलिहा पागारहालयकवाडतोरणपडिदुबारदेसभागा जतवषग्धिमुसलमु संढिपरिवारिया उज्मा सदाजया सदागुता अडयालको गरहया अडयालकयचणमाला खेमा सिवा किंकरा मरदंडोवरक्खिया लाउलोइयमहिया गोसीससरसरतचंद इरविन पंचगुलितला उवचितचंदणकलसा चंदणघडसुकयतेrरणपडिदुवारदेसभागा श्रासतोसप्त्तविउ लवट्टवग्धा मामकलावा पंचावन्न सरससुरभिमुक्क पुप्फपुंजोवयारफलिया कालागुरुपवररुपमध गंधुदयाभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधचट्टिभूया श्रच्छुरगणसंघ संविना rिoaतुडियसह संपणादिया सव्वरयणामया अच्छा सराहा लरडा घट्टा मट्ठा हीस्या निम्मला निष्यंका निकंकडच्छाया सप्पभा सस्विरीचा सोपा बासादीया दरिया विरुवा पांडेया (सूष ४६०२) अत्र व्याख्या - अधस्तनभाये पुष्करकर्तिकासंस्थानस्थितानि तथा उत्कमिवोत्कीर्णम् अतीव व्यक्तमित्यर्थः उस्कीर्णमन्तरं यासां सातपरिमाणां ता उत्कीर्णन्तराः । किमुक्तं भवति ? - खातानां च परिवाणां च स्पष्टवेविइत्यग्मीलनामान्तराले महती पाली समस्तीति उ. रकीर्याः विपुला विस्तीर्णा गम्भीरा-तम्धमध्यभागा खातपरिला येषां भवनानां परितस्तानि तथा परिणाम विशेषः परिखा उपरि विशाला अधः सकुचिता, खातं तूभयत्रापि सममिति, तथा प्राकारेषु वमेषु प्रतिभवनं महालका । प्राकारस्योपरियश्रयविशेषा:कपाटानि प्रतोलीद्वारसत्कानि एतेन प्रतोः सर्वन चिता:- अन्यथा कपाटानामसम्भवात्, तोरणानि - प्रतोलीशरेषु प्रसिद्धानि प्रतिद्वाराणि मूलद्वारापान्तरालपर्तिलघुद्वाराणि, एतद्रूपा देशभागा - देशविशेषा येषु तानि तथा । यन्त्राणि नानाविधानि शतच्यो- महावयो माहासिता पा या उपरिष्टात् पातिताः सत्यः पुरुषाणां शतानि झन्ती ति, मुसमानि - प्रतीतानि, मुसण्ठ्यः- शस्त्रविशेषास्तैः परिपारितानि समन्ततो देष्टितानि श्रत अत एवायोध्यानि-परेशानि अयोजयत्वादेव 'सहाजयानि सदा सर्वकाल जयो येषु तानि सदाजयानि सर्वकाले जयवन्तीति भावः । तथा सदा सर्वकालं गुप्तानि प्रहर से पुराने सर्वतो निरन्तरपरिवारिततया परे चामसहमानानां मनागपि प्रवेशासम्भवात् तथा अ चत्वारिंशरभिन्नचिच्छिसिकविता: कोहका अपवरका · " ३५५ ( १४९७ ) अभिधानराजेन्द्र 1 भरह " सु , 9 4 , रचिताः - स्वयमेव रचनां प्राप्ता येषु तानि तथा खाऽऽदर्शनात पाक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातः । तथा अ टचत्वारिंशद्भेदभिन्नविच्छित्तयः कृता वनमाला येषु तानि तथा । अन्ये त्याभिदधति 'अडपाल' इति देशीशब्दः प्रशंसावाची । ततोऽयमर्थः - प्रशस्तकोष्ठकरचितानि प्रशस्तकृतवनमालानीति तथा क्षमाणि - परकृतोपद्रवरहितानि शिवानि सदामतोपेतानि तथा किङ्कराः किङ्करभूता ये मरास्तेः दराडे कृत्योपरक्षितानि सर्वतः समस्ततोऽपि रक्षितानि तथा लाइअमिय ला-गया 55ना भूमेरुपलेपनमय उशोरच उशोश्यमिच उशो सेटिकाऽऽचिना कुन्याऽऽदिषु धचलनमिव ताभ्यां महिलानीव- पूजितानीच तथा गोशी- चन्दनविशेषेण सरसेन -रक्तवन्दनेन च दर्दरे- बहलेन दर्वराभिधानादिजातश्रीखण्डेन वा दत्ताः – न्यस्ताः पञ्चाङ्गुलवस्तला - हस्तका येषु तानि तथा उपचिता- निवेशिता बन्दनकलशामा कल्यघटां येषु तानि तथा, बन्दनघटे:- माङ्गल्य कलशैः सुकृतानि सुष्ठु कृतानि शोभनानीत्यर्थः, यानि तोरणानि तानि प्रतिद्वारदेशमार्ग-शारदेशभागे २ येषु तानि तथा दे शभागाश्च देशा एव तथा आसलो भूमौ लग्न उत्सक्तध-उपरि लग्नो, विपुलः - अतिविस्तीर्णो वृत्तः - प्रतिनि चिततया वर्तुलो (पग्धारि ति ) प्रलम्बितो मास्यदामकलापः पुष्पमालासमूहो येषु तानि तथा पचपः सर साः सुरभवो ये मुक्ताः - करमेरिताः पुष्पपुञ्जास्तैर्य उपचार:पूजा भूमेरतेन कलितानि 'कालागर ' इत्यादि विशेषणत्रयं प्राग्वत्, अप्सरोगणानां सङ्घः समुदायः तेन सम्यग् -रमणीयतया विकीर्णानि - व्याप्तानि तथा विव्यानां त्रुटितानाम्तोचानां वे रामदास्तेः सम्यग-श्रोतृमनोहारितया प्रकर्षेण सर्वकाले नहितानि शब्दयन्ति । सव्वरयामया इत्यादि पदानि प्राग्वत् । ' तत्थ णं ' इत्यादि, गतार्थमेतत् । अथ वेताख्यस्य शिखरतलमाह-' तासि णं' इत्यादि, तयो:अभियोग्यतयोर्यसमरमणीयात् भूमिभागाद्वैताख्यस्य क तस्योभयोः पार्श्वयोः पञ्च पञ्च योजनामुपस्थगत्या अत्रान्तरे येताक्यस्य पर्वतस्य शिखर म पाईण' इत्यादि प्राग्वत्, तच शिखरतलम् एकया पद्मवर वेदिकया तत्परिषेक भूतेन चैकेन वनखराडेन सर्वतः समन्तात् संघरिक्षितम् । अयं भाषः यथा जगतीमध्यभागे पद्मपरबेदिकैकैव जगतीं दि विदितु बेष्टयित्वा स्थिता, तथेयमपि सर्वतः शिखरत पर्यन्ते बेचित्वा स्थिता परमेषा घायलचतुरखाऽऽकारशिखरतलसंस्थितत्वेना 55 वतचतुरखा बोजया अत एकसंख्याका तत्परतो पहि प्येकं न तु ताख्प लगतपदिकाने दोस विभागेन इयरूपे इति श्रीमलयगिरिपादास्त क्षेत्रविचारतन्मध्ये पद्मपरमेत्रिको भयपार्श्वयोनी इत्याहुः । प्रमाणं विष्कम्भाऽऽयामविषयं, वर्णकच द्वयोरपि पद्मपरवेदिकायनखरायो, प्राग्वतिय इत्यध्याहार्यम् अथ शिवरतलस्य स्वरूपं पृथ्छति (बेस गमित्यादि) एतत्सव जगतीगतपावरपेदिकाया यनवडभूमिभागपद् व्याख्येयम् । जं० १ वक्ष० । ( कूटमक्यता तृतीयभागे ६१८ पृष्ठे गता ) 6 कूड शब्दे - 9 C 95 Page #1441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। भरह अथ दक्षिणार्द्धभरतकूटस्वरूपं पृच्छन्नाह हार्ण ओ भाणिव्याओ विजयरायहायीसरिसयामो कहि णं भंते ! वेअड्डे पच्चए दाहिणभरहकूडे णामं (सूत्र १४ ) ज० १ वक्षः। (व्याख्या 'कूड' शन्दे कूडे पएणते ?। गोयमा ! खंडप्पवायकूडस्स पुरच्छिमे- तृतीयभागे ६२१ पृष्ठे द्रष्टव्या) णं सिद्धाययणकूडस्स पच्चच्छिमेणं एत्थ णं वेअड्डपब- अथ वय॑मानस्यैतद्वर्षस्य नाम्नः प्रवृत्तिनि.. - ए दाहिणभरहकूडे णामं कूडे. पएणत्ते, सिद्धाययणकू मित्तं पिपृच्छिषुराहडप्पमाणसरिसे जाव तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भू- से केणऽद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ-भरहे वासे २१ । मिभागस्स बहुमझदेसभाए एत्थ सं महं एगे पासा- गोभमा! भरहे णं वासे वेभहस्स पबयस्य दाहिणणं यवडिंसए पएणत्ते, कोसं उई उच्चत्तेणं, भद्धकोस वि चोइसुत्तरं जोमणसयं एगस्स य एगूणवीसइमाए जोमक्खंभेणं भभुग्गयमूसियपहसिए . जाव पासाईए खस्स प्रवाहाए लवणसमुहस्स उतरेणं चोहसुसरं जोम४। तस्स णं पासायवडिसगस्स बहुमज्झदेसमाए ए- सय एकारस य एगृणवीसइभाए जोमयस्स प्रवाहाए स्थ णं महं एगा मखिपेढिया पएणत्ता , पंच धणुस- गंगाए महालईए फ्ल्यच्छिमेणं सिंधूए महाणईए पुरच्छि याई प्रायामविपखंभेणं अड्राइज्जाई धपुसयाई बाह- मेणं दाहिणभरहमज्झिल्लतिभागस्स बहुमज्झदेसभाए लेणं सबमणिमई, तीसे णं मणिपेढियाए उपि सिं- एत्थ ण विणीमा णाम रायहाणी पएणचा, पाईणपडीघासणं पएणतं, सपरिवारं भाणियव्यं । से केणऽद्वेणं णाऽऽयया उदीणदाहिणवित्थिना दुबालसजोभणाऽऽभंते ! एवं दुइ-दाहिणड्डभरहकूडे २१। गोयमा ! यामा सवजोषणवित्थिरणा धणवइमतिणिम्माया चादाहिणड्डभरहकूडे णं दाहिणभरहे साम देवे महि मीयरपागारा णाणामणिपंचवएणकविसीसगपरिमंडियाडीए • जाव पलिओवमट्टिईए परिवसइ , सेणं तत्थ च भिरामा अलकापुरीसंकासा पमुइयपक्कीलिया पच्चक्खं उपहं सामाणिसाहस्सीणं चउएहं अग्गमहिसीणं सपरि देवलोगभूमा रिद्धिस्थिमिश्रसमिद्धा पमुइभजणजाणवया वाराणं तिरहं परिसाणं सत्तएह अणीयाणं सत्तएहं | • जाव पडिरूवा ॥ (सूत्र०४१) अणीयाहिबईणं सोलसएहं आयरक्खदेवसाहस्सीणं दा अथ सम्पूर्णभरतक्षेत्रस्वरूपकथनानन्तरं केनार्थेन भगवन् ! हिणभरहकूडस्स दाहिणड्डाए रायहाणीए अएणेसिं बहू एवमुच्यते-भरतं वर्षे २१ द्विवचनं प्राग्वत् । भगवाना. णं देवाण य देवीण य . जाव विहरइ । कहि णं ह-गौतम ! भरते वर्षे वैताव्यस्य पर्वतस्य दक्षिणेन चतु: भंते ! दाहिणभरहकूडस्स देवस्स दाहिणड्डा णामं रा- ईशाधिकं योजनशतमेकादश चैकोनविंशतिभागान् योज. यहाणी पएणत्ता । गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स दक्खि नस्याबाधया-अपान्तरालं कृत्वा तथा लवणसमुद्रस्योरेण दक्षिण लवणसमुद्रस्योत्तरेणेत्यर्थः, पूर्वापरसमुद्रयोगवासिन्धुणणं तिरियमसंखेज्जदीवसमुद्दे वीईवइत्ता अयएणं जंबुद्दी भ्यां व्यवहितत्वान्न तद्विवक्षा, गङ्गाया महानद्याः पश्चि वे दीवे दक्खिणेणं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता मायां सिन्ध्वा महानद्याः पूर्वस्या दक्षिणाईभरतस्य मध्यएत्थ णं दाहिणभरहकूडस्स देवस्स दाहिणभरहा णा मतृतीयभागस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र एतादृशे क्षेत्र विनीता-अयोध्यानाम्नी राजधानी-राजनिवासनगरी मं रायहाणी भाणिवा जहा विजयस्स देवस्स , एवं प्रज्ञप्ता मयाऽन्यैश्च तीर्थकाद्भिाति । साधिकचतुर्दशासबकूडा गयव्वा • जाव वेसमणकूडे परोप्परं पुरिच्छम- धिकयोजनशताकोत्पत्तौ त्वियमुत्पत्तिः-भरत क्षेत्र ४०० पच्चच्छिमेणं, इमेसि वरणावासे गाहा-"मज्झे वेअवस्स योजनानि २६ योजनानि पद ६ कला योजनको. नविंशतिभागरूपा विस्तृतम्, अस्मात् ५० योजनानि उ, कणयमया तिरिण होंति कूडा उ । सेसा पचय वैताव्यगिरिव्यासः शोध्यते, जातम् ४७६ कलाःकूडा, सधे रयणामया होंति ॥१॥" माणिभद्दकडे १, दक्षिणोरारभरतार्द्धयोर्विभजनयतस्याः २३८५ कला, वेअडकूडे २, पुराणभद्दकूडे ३, एए तिरिण कूडा कणगा- इयतो दक्षिणार्द्धभरतव्यासात् “ उदीणदाहिलवित्थिरणा"" मया सेसा छप्पि रयणमया दोएहं विसरिसणामया देवा इत्यादिवक्ष्यमाणवचनाद्विनीताया विस्ताररूपाणि नव यो जनानि शोध्यन्ते, जातम् २२६ कला, अस्य च मध्यकयमालए चेव णट्टमालए चेव, सेसाणं छएहं सरिसणा भागेन नगरीत्यर्द्धकरणे ११४ योजनानि अवशिष्ठस्यैकस्य मया-" जगणामया य कूडा, तमामा खलु हवंति ते योजनस्यैकोनविंशतिभागेषु कलायझेपे जाताः २२ सददेवा । पलिमोवमट्टिईया, हवंति पत्ते पत्तेयं ॥१॥" चम् ११ कला इति । तामेव विशेषौर्षिशिनाष्टि-'पाईणरायहाणीयो जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणणं पडीणायया ' इत्यादि पूर्वापरयोर्दिशोरायता, उत्तरदक्षि णयोर्विस्तीर्णा, द्वादशयोजनाऽऽयामा नषयोजनाविस्तीर्णा तिरिभं असंखेज्जदीवसमुद्दे वाईवइला अएणम्मि जंबुद्दीवे | धनपतिमत्या-उत्तरदिक्पालबुज्या निर्माता-निर्मितेत्यर्थ:दीवे वारस जोयणसहस्साई अगाहिचा, एत्थ णं राय- निपुणशिल्पिविरचितस्यातिसुम्वरत्वात् , यथा च धनए Page #1442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह तिना निर्मिता तद् ग्रन्थान्तरानुसारेण किञ्चिद् व्यक्तिपू कमुपदश्ते श्रीविभो राज्यसमये, शक्राऽऽदेशान्नवां पुरीम् । धनदः स्थापयामास, रत्नचामीकरोत्करैः ॥ १ ॥ आयोजनाऽऽयामा, नवयोजनविस्तृता । अष्टद्वार महाशाला, साऽभवन्तोरगोज्ज्वला ॥ २ ॥ धनुषां द्वादशशतात्पुरत्वेऽष्टतं तले। व्यायामे शतमेकं स, व्यधाद्वनं सखातिकम् ॥ ३ ॥ सौवर्णस्य च तस्याद्धं कपिशोषांवालवंभो । मणिजामरशस्थ - नक्षत्रालिरिषोङ्गता ॥ ४ ॥ चतुरस्नाश्च त्र्यनाश्च, वृत्ताश्च स्वस्तिकास्तथा । मन्दाराः सर्वतोभद्रा, एकभूमा द्विभूमिकाः ॥ ५ ॥ त्रिभूमाऽऽद्याः सहभूम, पावत्सामान्यभूभुजाम् । प्रासादाः कोटिशता - भूवन् रत्नसुवणजाः ॥ ६॥ युग्मम् । दिश्यैशान्यां सप्तभूमं चतुरनं हिरण्मयम् । प्रातिकं चक्रे, मासाई नाभिभूपतेः ॥ ७ ॥ दिश्यैन्द्रयां सर्वतोभद्र, सप्तभूमं महोचतम् । वर्तुतं भरतेशस्य प्रासादं धनदोऽकरोत् ॥८॥ आग्नेय्यां भरतस्येय, सीधे बाहुलेरभूत् । शेषाणां च कुमाराणा-मन्तरा द्यभवत् तयोः ॥ ६ ॥ तस्यान्तरादिदेवस्य वैकविंशतिभूमिकम् । त्रैलोक्यविभ्रमं नाम, प्रासादं रत्नराजिभिः ॥ १० ॥ सद्रप्रखातिकं रम्यं सुवर्णकलशाऽऽवृतम् । पञ्चध्वजपटव्याजा नृत्यन्तं निर्ममे हरिः ॥ ११ ॥ युग्मम् । अशरसहखेण मणिजालैरसी बभी नावमुरिमुवामितयः ॥ १२ ॥ कल्पहुमेताः सबै भूषन (से) मरहयौकसः । सप्राकारा वृहद्वासः-पताकामालभारिणः ॥ १३ ॥ सुधर्मसदृशी चार रत्नमयभवत्पुरी | युगादिदेवमासादात् सभा सर्वप्रभाऽभिधा ॥ १४ ॥ तु विराजन्ते मणितोरणमालिका पञ्चवर्णमभास्कर पूरडम्बरिताम्बराः ॥ १५ ॥ अष्टोचरसहस्रेण, मणिविम्वैर्विभूषितम् । गव्यूतिद्वयमुत्तुङ्गं मणिरत्नहिरण्मयम् ॥ १६ ॥ नानाभूभगवाक्षायं विचित्रमतिवेदिकम् । प्रासादं जगदशस्य पधादः पुरान्तरा ॥ १७ ॥ युग्मम् । सामन्तमण्डलीकानां, नन्द्यावतोssदयः शुभाः । प्रासादा निर्मितास्तत्र विचित्रा विश्वकर्मणा ॥ १८ ॥ शेतरसहस्रं तु जनानां भवान्यभूः । उच्चैर्ध्वजा संग्ध-तीदांशुतुरगास्यथ ॥ १६ ॥ चतुष्पथप्रतिबद्धा, चतुरशीतिरुरुत्रकैः । प्रासादाश्चातां रम्याः, हिरएयक शैर्वभुः ॥ २० ॥ सौधानि हिरपरनान्यैः सुमेरुवत् । को सपताकानि च सवारिणाम् ॥ २१ ॥ दक्षिणस्यां क्षत्रियाणां, सौधानि विविधानि च । " , (१४१६) अभिधानराजन्द्र 9 भरह अभूवन् साऽखवाणि तेजस्वनेवासिनाम् ॥ २२ ॥ तद्वप्रान्तश्चतुर्दिक्षु, पौराणां सौधकोटयः । व्यराजन्त सद्यान - समानविशदश्रियः ॥ २३ ॥ सामान्य कारकाणां च वहिः प्राकारतोऽभवत् । कोटिसाधतुरिंदा सर्वधनाऽऽश्रयाः ॥ २४ ॥ अवाच्यां च प्रतीच्यां च कारुकाणां बभुर्गृहाः । एकभूमिमुखास्यस्ना - स्त्रिभूमेिं यावदुच्छ्रिताः ॥ २५ ॥ अहोरात्रेय निर्माय तां पुरीं धनदोऽकिरत्। हिरापरत्नधान्यानि वासांरवाभरणानि च ॥ २६ ॥ सरांसि वापीकूपादीन् दीर्यिका देवताऽऽतयान् । अन्यच्च सर्व तत्राहो-रात्रेण धनदोऽकरोत् ॥ २७ ॥ विपिनानि चतुर्विषु सिदार्थश्रीनिवासके। पुष्पाssकारं नम्वनं चा-भवन् भूयांसि चान्यतः ॥ २८ ॥ प्रत्येकं हेमचैत्यानि जिनानां तत्र रेजिरे। पवनातपुष्पालि पूजितानि हुमैरपि ॥ २८ ॥ मायामापदाच्यां महारी तो महोसतः । खुलस्तु कौबेर्यामुदयाचलः ॥ ३० ॥ तत्रैव शैताः, कल्पवृक्षाऽऽलिमालिताः । महिरत्नाकर प्रजनासपपिडिताः ॥ ३१ ॥ शक्राऽऽज्ञया रत्नमयी - मयोध्यापरनामतः । विनोतां सुरराजस्य, पुरीमिव स निर्ममे ॥ ३२ ॥ यद्वास्तव्यञ्जना देवे, गुरौ धर्मे च साऽऽदराः । स्थैर्योऽऽदिभिर्गुणैर्युक्ताः, सत्यशौचदयाऽन्विताः ॥ ३३ ॥ कलाकलापकुशलाः, सत्सङ्गतिरताः सदा । विशदाः शान्तसद्भावाः, श्रहमिन्द्रा महोदयाः ॥ ३४ ॥ युग्मम् - तत्पूर्यासृषभः स्वामी, सुरासुरनरातिः । जगत्सृष्टिकरो राज्यं, पाति विश्वस्य रञ्जनात् ॥ ३५ ॥ श्रन्ययोध्यमिह क्षेत्र - पुराण्यासन् समन्ततः । विश्वस्रष्टु शिल्पिवृन्द-घटितानि तदुक्तिभिः ॥ ३६ ॥” इति । संक्षेपेय त्वेतत्स्वरूपं सूत्रकारो ऽप्याह- चामांअरपागारे ' त्यादि, चामीकरप्राकारा नानामणिकपिशीर्षपरिमरिश्ता अमिरामा अलकापुरी-लौकिकशास्त्रे धनदपुरी तत्संकाशा - तत्सधिभा प्रमुदितजनयोगाचमपि 'तात्स्थ्या तू सदृष्यपदेशः इति न्यायात् प्रमुदिता तथा प्रकीडिताः - कीडितुमारब्धवन्तः क्रीडावन्तः इत्यर्थः तादृशा ये जनास्तयोगागपि प्रक्रीडिता पचादविशेषसमासः प्रत्यक्षं प्रत्यक्षप्रमायेन तस्यानुमानाद्याधिकेन विशेषप्रकाशकत्वा त् तज्जन्यज्ञानस्य सकलप्रतिपतॄणां विप्रतिपत्यविष' देवलोकभूता-स्वर्गलोकसमाना शुद्धस्तिमि समृद्धेत्यादिविशेषणानि प्राम्यत् इतिः परिसमाप्ती नवरं प्रमुदितजनजानपदेतिविशेषणं प्रमुदितमडि तिविशेषणस्य हेतुतयोपन्यस्तं तेन न पीनरुक्त्यमाशङ्कनीयम् । " " यत्वात् . 9 नन्वेवं प्रस्तुतक्षेत्रस्य नामप्रवृत्तिः कथं जातेत्याहतत्थ सं विशीचाए रामदागीए भरहे वामं रामा चाउरंतचकट्टी समुप्पज्जित्था, महया हिमवंतमहंतमलयमंद Page #1443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२०) भरह अभिधानराजेन्द्रः। र जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ । बिइयो गमो रायव- त्यर्थः, तेषामन्तवलेन-विचालेन , अयमर्थः-प्रवचने हि एणगस्स इमो, तत्थ असंखेज्जकालवासंतरेण उप्पज्जए कालस्यासङ्ख्येयता असंख्येयैरेव च वय॑षहियते, अ. जसंसी उत्तमे अभिजाए सत्तवीरित्रपरकमगुणे पसत्थ न्यथा समयापेक्षयाऽसङ्ख्येयत्वे ऐदयुगीनमनुष्याणामस येयाऽऽयुष्कत्वव्यवहारप्रसार सेनासंख्येयवर्षाऽऽत्मकावएणसरसारसंघयणतणुगबुद्धिधारणमेहासंठाणसीलप्पगई समस्येयकाले गतेएकस्मात् भरतयक्रवर्तिनोऽपरो भरतचक्र पहाणगारवच्छायागइए अणेगवयणप्पहाणे तेअभाउब- वर्ती यतः प्रकृतक्षेत्रस्य भरतेति नाम प्रवर्तते स उत्पचलवीरिअजुत्ते अज्झसिरघणणिचिअलोहसंकलणारायवइर- ते इति क्रियाकारकसम्बन्धः, वर्तमाननिर्देशः प्राग्वत् । उसहसंघयणदेहधारी झस १ जुग २ भिंगार ३ बद्धमा- श्रावश्यकचूर्णी तु, तत्थ य सखिज्जकालवासाउप" .. ग ४ भद्दमाग ५ संख ६ छत्त ७ वीणि ८ पडाग ति पाठः-तत्र च-भरते सङ्ख्यातकालवर्षाणि आयुर्यस्य सः ह चक्क १० णंगल ११ मुसल १२ रह १३ सोत्थि१४ सङ्ख्यातकालवर्षाऽऽयुष्का, तेनास्य युग्मिमनुष्यत्यव्यवहा रो व्यपाकृतो द्रष्टव्यः, तेषामसवख्यातवर्षाऽयुष्करवाअंकुस १५ चंदा १६ इच्च १७ अग्गि १८ जूय १६ दिति । गनु भरतचक्रिणोऽसङ्ख्यातकालेऽतीतायुषि सगरसागर २० इंदज्झय २१ पुहवि २२ पउम २३ चश्यादिभिरिद सूत्र व्यभिचारि, तेषां भरतनामकस्वाभावात् कुंजर २४ सीहासण २५ दंड २६ कुम्म २७, उच्यते-नहीदं सूत्रमसल्स्येयकालवर्षान्तरेण सकलकालपतिगिरिवर २८ तुरगवर २६ बरमउड ३० कुंडल ३१ नि चक्रवर्तिमण्डले नियमेन भरतनामकचक्रवर्तिसम्भवणंदावत्त ३२ घण ३३ कॉत ३४ गागर ३५ भ सूचकं किन्तु कदाचित्तत्सम्भवसूचकं, यथा श्रागामिन्या मुत्सर्पिरायां भरताऽऽख्यः प्रथमचक्री । यत पाह-"भरहे वणविमाण ३६ अगलक्षणपसत्थसुविभत्तचित्तकर दीदवंते, अ गूढईते अ सुखदंते । सिरिअंदे सिरिभू, घरणदेसभागे उद्धामुहलोमजालसुकुमालणिद्धमउआवत्तप लिरिसोमे श्रसत्तमे ॥१॥" इत्यादिसमवायाङ्गतीर्थोद्वारप्रकीसत्थलोमविरहअसिरिवच्छच्छएणविउलवच्छे देसखेत्तसु- र्णकाऽऽदी, सच कीदृश स्याह- 'यशस्वी' ति व्यक्तम् , उ. विभत्तदेहधारी तरुणरविरस्सिघोहिअवरकमलविबुद्धगम्भ- तमः शलाकापुरुषत्वात् , अभिजातः-कुलीनः श्रीऋषमाssपएणे हयपोसणकोससएिणमपसस्थपिटुंतणिरुवलेवे पउ- | दियंश्यत्वात् , सस्वं-साहर्स, वीर्यम् आन्तरं बलं, फरार शधुधिषासनशक्तिरेते मुणा यस्य, एतेन राजन्योचितसर्थामुप्पलकुंदजाइजूाहियवरचंपगणागपुप्फसारंगतुल्लगंधी छ तिशाथिगुणवस्वमाह, प्रशस्ताः-तत्कालीनजमापेक्षया सासीसाअहिपसस्थपस्थिवगुणेहि जुत्ते अव्बोच्छिएणा- घनीयाः वर्णः-शरीरच्छषिः, स्वरो-वनिः, सार:-शुभपुनतपत्ते पागडउभयजोणी विसुद्धणिभगकुलगयणपुरण- लोपचयजन्यो धातुविशेषः शरीरदायहेतुः, संहननम्-प्रचंदे चंदे इव सोमयाए गयणमणणिव्वुइकरे अक्खो स्थिनिचयरूपं तनुकं-शरीरं बुद्धिः-ौत्पत्यादिका,धार णा-अनुभूतार्थवासनाया अधिव्युतिः, मेधा हेयोपादेयभे सागरोब थिमिए धणवह न भोगसमुदयसबब्बया धी, संस्थानं यथास्थानमझोपाङ्गविन्यासः, शीलम्-मा. ए समरे अपराइए परमविकमगुणे अमरवइसमाणस- बारः, प्रकृतिः-सहज, ततो इन्वे, प्रशस्ता वर्णाऽऽश्योऽर्था रिसरूवे मणुभवई भरहचकवड्डी भरहं भुंजइ पणड्ड- यस्य स तथा भवन्ति व विशिष्टाः वर्णस्वराऽऽदयः माये. सत्तू । ( सूत्र ४२) श्वर्याऽऽदिप्रधामफलदाः, प्रधाना-अनम्यवर्तिनो औरषाss दयोऽर्था यस्य स तथा, तत्र गौरवं-महासामन्ताऽऽविकता(तत्थ णमित्यादि ) तत्र विनीतायां राजधाम्या भ भ्युत्थानाऽऽविपतिपत्तिः, छाया-शरीरशोभा,गतिः-सच. रतो नाम राजा, सच सामन्ताऽऽदिरपि स्यादत प्रा. रणमिति, अनेकेषु-विविधप्रकारेषु षचनेषु-वक्तव्येषु प्र. चक्रवर्ती. स च वासुदेवोऽपि स्यावतश्चत्वारोऽन्ताः धामो-मुख्यः, अनेकधावचनप्रकारश्चायं निजशासनप्रवर्णपूर्वापरदक्षिणसमुद्राखायः चतुर्थो हिमवान् इत्येवंस्वरूपा नाऽऽदौस्से वश्यतयाऽस्य सन्तीति चातुरन्तः, पश्चाच्चक्रवर्तिपदेन कर्मधारयः समुदपद्यत . महाहिमषान् हैमवतहरिवर्षक्षेत्र " श्रादौ तावन्मधुरं, मध्ये रूक्षं ततः परं कटुकम् । योविभाजकः कुलगिरिः स इव महान् शेषपृथ्वीपतिपर्वता भोजनविधिमिव विबुधाः स्वकार्यसिद्धथै बदन्ति बचः॥९॥" पेक्षया मलयः-चन्दनहुमोत्पत्तिप्रसिद्धो गिरिः, मन्दरो-मेरुः, अथवा "सत्यं मित्रैः प्रियं स्त्रीमि-रलीकमधुर द्विषा ।। यावत्पदात् प्रथमोपाङ्ग(ग)तः साम्रो राजवर्णको प्राय ,किय. त्पर्यन्त इत्याह-राज्य प्रशासयन् पालयन् विहरताति । नन्वेष अनुकूलं च सत्यं च, पक्कलयं स्वामिना सह ॥ २॥" इति । मपि शाश्वती भरतनामप्रवृत्तिः कथं ?, तदभावे च 'सेस' तेजः-परासहनीयः पुण्यः-प्रतापः अभेदोपचारेण तवाइत्यादि वक्ष्यमाणं निगमनमप्यसम्भवीत्याशङ्कया प्रकरान्त- न्, 'तेजसा हि न वयः समीच्यते' इत्यादिवत् . आयुर्वरेण तत्तत्कालभाषिमरतनामचक्रव[देशेन राजवर्णनमा- ल-पुरुषाऽऽयुषं तद् यावदीयं तेन युक्तः , तेन जरारोगाssह-'विहओ गमो' इत्यादि, द्वितीयो गमः-पाठविशेषोप- दिनोपइतवीर्यत्वं नास्येति भावः, पुरुषाऽऽयुषं च तदानीलक्षितो प्रन्थो राजधर्ण कस्यायं, 'तत्र' तस्यां विनिताथा- न्तनकाले प्राकृतजनानां पूर्वकोटिसमावेऽप्यस्य श्रुटितातमस या कालो यैर्वरतानि वर्षाणि असङ्कयेयानी प्रमाणं योद्धव्यं , नरदेवस्यैतावत पवाऽऽयुषः सिद्धान्ते म Page #1444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह नात्, एतेन भेदः पूर्वविशेषणावस्येति, अशुचिरं - निश्विम् अत एव धननिषितं निर्भर (१४२१) अभिधानराजेन्द्रः । तदिव नाराचवज्रऋषभं प्रसिद्ध्या वज्रऋषभनाराचं संहनवं पत्र से तथाविधं देवं धरन्तीत्येवंशीला भाषणे मीना १. युगं - शकटाविशेषः २ भृङ्गारो-जलभाजनविशेषः ३ मानकं भासने दक्षिणाम्। प्रतीत ७ व्यजनं--पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् ब्याल - व्यजनम् । अथवा-'ते लुग्वा' (श्रीसिद्ध० प्र० ३ पा० २ सू० १०८) इत्यनेन बालपदलोपः, चामरम् । श्रार्षत्वात् स्त्रीत्वं तेन व्यजनीतिनिर्देशः ८ पताका ६ चक्रं १० लाड्गुलं १९ मुशलं १२ रथः १३ स्वस्तिकम् १४ अङ्कुशः १५ चन्द्रः १६ श्रदित्या १७ अग्नयः प्रतीताः १८ यूपो - यज्ञस्तम्भः १६ सागरः - समुद्रः २० इन्द्रध्वज २१ - पृथ्वी २२- पद्म २३-कुखरा २४ कराव्या सिंहाऽऽसनं सिंहाङ्गितं नृपासनं २५ दण्ड २६ - कूर्म २७ - गिरिवर २८-तुरगवर २६-मुकुट ३०कुण्डलानि २१व्यानि नन्यापर्स: प्रतिदिन नयकोणकः ३२ स्वस्तिक- धनुः कुन्ती व्यक्ती ३३ - ३४ गागर स्त्रीप. रिघानविशेषः ३५ भवनं भवनपतिदेवाऽऽवासः विमानं वैमानिकदेवाssवासः ३६ एतेषां द्वन्द्वः तत एतानि प्रशस्तानि मानि सुभानि अतिशयेन विधिनानि या म्यनेकानि अधिकसहस्रप्रमाणानि निविस्मयकरः करचरणयोर्देशभागो यस्य स तथा अत्र पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात् तीर्थकृतामिव चक्रिणामप्यष्टाधिकसहस्रलतानि सिद्धान्तसिद्धानि यदाह निशीच पागयमणुश्राणं बत्तीसं लक्खणानि श्रट्ठसयं बलदेववासुदेया असहस्वं चक्रवतित्थगराणं ति ऊर्ध्वं मुखं भूमेरुद्गच्छतामङ्कराणामिव येषां तानि ऊर्ध्वमुखानि यानि लोमानि तेषां जालं – समूहो यत्र स तथा श्रनेन च श्रीवत्सा3]कारव्यनिदेर्शिता, अन्यथाऽयमुचैः श्रीवत्साका रानुद्भवः स्यात्, सुकुमा सखिग्धानि नयनीतपिण्डा दिव व्याणि तानीव मृदुकानि श्रावर्तैः - चिकुरसंस्थानविशषैः प्रशस्तानि मङ्गल्यानि दक्षिणाऽऽवर्त्तानीत्यर्थः यानि लोयानि तैर्विरचितो यः श्रीवत्सो- महापुरुषाणां वक्षो ऽन्तवेर्ती अभ्यु अतोऽवयवः, ततः पूर्वपदेन कमेधारः, तेन छन्नम् - आच्छा दितं विपुलं वो यस्य न तथा देशे कोश देशानी से 5. - तदेकदेशभूतविनीतानयादी सुविभक्को यथास्थानविनिविष्टावयवो यो देहस्तं धरतीत्येवंशीलः, तत्तरकालावच्छेदेव भरतक्षेत्रे न मरतचकितोऽपरः सुन्दराइत्यर्थः । त रुणस्य – उद्गच्छतो रखे रश्मयः- किरणास्तैर्वोधितं विका सितं यद्वरकमलं-प्रधानसरोजं हेमाम्बुजमित्यर्थः । तस्य विबुधो विकस्वरो यो गभ मध्यभागस्त-शरीर स्पस तथा पोखनं पुस उत्समें' इति धातोरनाट या पालदेव कोश व कोरा सुगुप्तत्वात् तत्सन्निभः प्रशस्तः पृष्ठस्य - पृष्ठभागस्यान्तः चरमभागोऽपाने तब निह पलेपो लेपरहितपुरीषकत्वात्, पद्म प्रतीतम्, उत्पलं कुठं, कुन्जाविधिकाः प्रतीताः परचम्प को राजदम्पका नामपुष्पं नागकेसर सारङ्गानि प्रधानदलानि अथवा प वैकदेशे समुदायग्रहणात् सारङ्गशब्देन सारङ्गमदः-कस्तूरी, द्वन्द्वे कृते एतेषां तुल्यो गन्धः-शरीरपरिमलो यस्य ३५६ " 9 भरह स तथा सतिलक्षणादिप्रत्ययात् रूपसिद्धि, पदशिता अधिक प्रशस्तैः पार्थिवगुणैर्युक्तः। (जं०) - (ते च पार्थिवगुणाः'परिचय' शब्देऽस्मिनेय भागे ४३३ पृष्ठे पदभिः श्लोकशिताः) ते च श्लोकाः पाठसिद्धार्थाः, नवरमौदार्य- दाक्षिण्यं, तेन दानशौरडागुणादस्य मेदः यद्यप्येतेषामेव मध्यवर्तिनः केचन गुणाः सूत्रकृता साक्षात् पूर्वसूत्रे उक्ता उत्तरसूत्रे च वक्ष्यन्ते, तथापि पत्रिंशत्संख्यामेलनार्थमत्र से उक्ता इति न दोषः, उपलणाच्च मानोन्मानाऽऽविवृद्धिकृत्त्व भक्तवत्सलत्वाऽऽदयोऽपि उक्ताऽतिरिक्ता प्राह्या इति, अव्ययम्प्रतिमातपत्र- यस्य स तथा प तेन पितृपितामहागतराज्यभक्रेति सूचितम् अथवा संयमकालादर्वाग् न केनापि बलीयसा रिपुणा तस्य प्रभुत्यमानमिति प्रकटे विरादावदाततथा जगत्प्रतीते उभययोग्यौ मातृपितृरूपे यस्य स तथा अत एव विशुद्धं - निष्कलङ्कं यनिजककुलं तदेव गगनं तत्र पूर्णचन्द्र-चन्द्र व सोमया मृदुस्वभावेन नयनमनसो तिकरः, आहादक इत्यर्थः अक्षोभी- भयरहितः सागरः प्रस्तावात् क्षीरसमुद्राऽऽदिः, स इव स्तिमितः- स्थिरश्चिन्ताकोलोन पुनला व सरवर्द्धिष्णु को ललवणोदास्थिरस्वभावइत्यर्थः धनपतिरिच-कुबेर हम भोगस्य समुदयः सम्यगुदयस्तेन सह सद् विद्यमानं इव्यं यस्य स भोगसमुदयस द्रव्यस्तस्य भावस्तत्ता तया, भोगोप योगभोगाङ्गसमृद्ध इत्यर्थः समरे संग्रामे अपराजितो भङ्गमप्राप्तः परमविक्रमगुणः व्यक्तम्, अमरपतेः समानं सररामत्यर्थस्य रूपं यस्य स तथा मनुजपति:-नरप तिर्भरतचक्रवर्ती, उत्पद्यते इति तु प्रायोजितमेव । अधोत्पन्नः सन् किं कुरुते इत्याह - ( भरहेत्यादि ) अनन्तरसूत्रे एव दर्शितस्वरूप भरतवक्रवर्ती भरतं भुक्रे शास्तीति प्रनष्टशत्रुरिति व्यक्तम् अत इदं भरतक्षेत्रमुच्यते इति निगमनमप्रे वक्ष्यते । " " अथ प्रस्तुत भरतस्य दिग्विजयाऽऽदिपव्यतामाहar णं तस्स भरहस्स रहयो अण्णया कयाह श्राउहघरसालाए दिव्वे चकरयणे समुप्पज्जित्था, तर गं से आउहघरए भरस्स रणो आउहघरसालाए दिव्वं चकरणं समुप्परगं पासह, पासित्ता हट्ठतुट्ठचित्तमासंदिए नंदिए पीइमखे परमसोमस्सिए हरिसबससिप्पमाखहिए जेखामेव दिव्वे चक्करपणे देणामेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेचा करयल •जाव कट्टु चकरयणस्स प्रणामं करे, करेत्ता उहघरसालाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खभित्ता जेसामेव बाहिरिया उपद्वाणसाला जेणामेव भरहे राया तेणामेव उपागच्छह, उवागच्चहत्ता करयल •जाब जएणं चिजएणं वद्धावेश, बद्धावेत्ता एवं बयासी एवं खलु देवाणुपिमा आउरसालाए दिव्ये चकरपये समुप्पथे तं एमएवं देवाप्पाखं पिट्टयाए पिनं विवेएमो पि मे भवउ । तते गं से भरहे राया तस्स भाउहपरिभस्स Page #1445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२२) भरह अभिधानराजेन्द्रः। भरह अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हट्ठ जाव सोमणस्सिए लंबपलबमाणसुकयपडउत्तरिज्जे मुद्दिआपिंगलंगुलीए णाविप्रसिअवरकमलणयणवयणे पयलिअवरकडगतुडिअके- णामणिकणगविमलमहरिहणिउणोअविश्रामिसिमिसिंतविऊरमउडकुंडलहारविरायंतरइअवच्छे पालंबमलंबमाणघो रइअसुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसंठिअपसत्थाविद्धवीरबलए, किं लतभूसणधरे ससंभमं तुरिअं चवलं परिंदे सीहासणाओ बहुणा ? , कप्परुक्खए चव अलंकिअविभूसिए परिंदे अब्भुट्ठइ, अन्भुटेइत्ता पायपीढाओ पचोरुहइ, पच्चोरुहइत्ता सकोरंट जाव चउचामरवालवीइअंगे मंगलजयजयसद्दकपाउप्राओ ओमुअइ अोमुअइत्ता एगसाडिअं उत्तरासंगं करे यालोए अणेगगणणायगदंडणायग०जाव दूअसंधिबालसइ, करेइत्ता अंजलिमउलिअग्गहत्थे चक्करयणाभिमुहे सत्त द्धि संपरिघुडे धवलमहामहणिग्गए इव०जाव ससि च पिद्रुपयाई अणुगच्छह, अणुगच्छद्भत्ता वामं जाणुं अंचेइ, अ यदंसणे गरवई धृवपुप्फगंधमल्लहत्थगए मज्जणघराओपडि चेइत्ता दाहिणं जाणुं धरणितलंसि णिहड करयल जाव णिक्खमइ, पडिणिक्खभित्ता जेणेव पाउहघरसाला जेणेव अंजलि कट्ट चकरयणस्स पणामं करेइ, करेइत्ता तस्स | चक्करयणे तेणामेव पहारेत्थ गमणाए । तए णं तस्स भरआउद्घरिअस्स अहामालिअं मउडवज्जं ओमोनं दलइ, हस्स रएणो बहवे ईसरपभिइयो अप्पगइया पउमहत्थगदलइत्ता विउलं जीविआरिहं पीइदाणं दलइ, दलइत्ता या अप्पेगइया उप्पलहत्थगया० जाव अप्पेगइया सयससकारेइ, सम्माणइ, संमाणेइत्ता पडिविसज्जेइ, पडिविस हस्सपत्तहत्थगया भरहं रायाणं पिट्ठो पिट्ठो अगुगज्जेइत्ता, सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सरिणसरणे । च्छंति | तए णं तस्स भरहस्स रएणो पहुईओतए णं से भरहे राया कोडुंबिअपुरिसे सद्दावेइत्ता एवं ब "खुजा चिलाइ वामणि-वडीओ बब्बरी बउसिपाओ। यासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! विणीयं रायहाणिं जोणिअपल्हवित्राओ,ईसिणिअत्थारुकिणिआओ ॥१॥ सभितरवाहिरिनं आसिअसमाजिअसित्तसुइगरत्थंतरवी लासिअलउसिप्रदमिली-सिंहलि तह आरबी पुलिंदी। हिश्र मंचाइमंचकलियं णाणाविहरागवसणऊसिअझयप पक्कणि बहलि मुरुंडी, सबरीयो पारसीओ अ॥२॥" डागाइपडागमंडिअंलाउल्लोइअमहियं गोसीससरसरत्तचंद अप्पेगइया बंदणकलसहत्थगयाओ चंगेरीपुप्फपडलहणकलसं चंदणधडसुकय जावगंधुद्धाभिरामं सुगंध- त्थगयाओ भिंगारादंसथालपातिमुपइट्ठगवायकरगरयणवरगंधिअं गंधवट्टिभूअं करेह, कारवेह, करेत्ता कारवेत्ता करंडपुप्फचंगेरीमल्लवएणचुराणगंधहत्थगयाओ वत्थाय एप्रमाणत्तिअं पञ्चप्पिणह । तए णं ते कोडुबिअपुरिसा भरणलॉमहत्थयचंगेरीपुष्फपडलहत्थगयाओ० जाव लोभरहेणं रगणा एवं वुत्ता हट्ट० करयल जाव एवं सामि महत्थगयाश्रो अप्पेगइयाओ सीहासणहत्थगयाओ छत्तत्ति प्राणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति, पडिमुणित्ता चामरहत्थगयाओ-तेल्लसमुग्गयहत्थगयाओ, "तेल्ले कोभरहस्स अंतित्रानो पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता दुसमुग्गे, पत्ते चोए अ तगरमेला य । हरिपाले विणीअं रायहाणिं जाव करेता कारवेत्ता य तमाणत्ति हिंगुलए, मणोसिला सासवसमुग्गे ॥१॥" अप्पेपच्चप्पिणंति । तए णं से भरहे राया जेणेव मज्जणघरे गइआओ तालिअंटहत्थगयाओ अप्पेगइयाओ धूतेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ, वकडुच्छुअहत्थगयाओ भरहं रायाणं पिट्ठओ पिट्ठो अणुअणुपविसित्ता समुत्तजालाकुलाभिरामे विचित्तमाणरयण- गच्छति । तए णं से भरहे राया सब्बिड्डीए सबजुईए कुट्टिमतले रमणिज्जे एहाणमंडवासि णाणामणिरयणभत्त- सव्वबलेणं सव्वसमुदयेणं सव्वायरेणं सव्वविभूसाए सचित्तंसि एहाणपीसि सुहणिसएणे सुहोदएहिं गंधोदएहिं ब्बविभूईए सब्बवत्थपुष्फगंधमल्लालंकारविभूमाए सव्वपुष्फोदएहिं सुद्धोदएहिं अपुन्ने कल्लाणगपवरमज्जणवि- तुडिअसद्दसएिणणाएणं महया इड्डीए • जाव महया हीए मज्जिए तत्थ कोउसएहिं बहुविहेहिं कल्लाणगपवरम- वरतुडिअजमगसमगपवाइएणं संखपणवपडहभरिझज्जणावसाणे पम्हलसुकुमालगंधकासाइअलूहिअंगे सरससु- ल्लरिखरमुहिमुरजमुइंगदुंदुहिनिग्घोसणाइएणं जेणेव आरहिगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते अहयमुमहग्घदूसरयणसुसंवु- उहघरसाला तेणेव उवागच्छइ, तेणव उवागच्छिना डे सुइमालावएणगविलेवणे अाविद्धमणिसुवरणे कप्पित्र- आलोए चक्करयणस्स पणामं करेइ, करेता जेणेव चहारऽद्भहारतिसरिअपालंबपलंबमाणकडिसुत्तसुकयसोहे पि- क्करयणे तेणेव उवागच्छइ , उवागच्छित्ता लोमहत्थयं णद्धगेविज्जगअंगुलिज्जगललिअगयललिअकयाभरणे णा- परामुसइ, परामुसित्ता चक्करयणं पमज्जइ , पमजित्ता णामणिकडगतुडिअथंभिअभए अहिअसस्सिरीए कुंडल- दिवाए उदगधाराए अब्भुक्खेइ , अभुक्खित्ता सरसेउज्जोइआणणे मउडदिनसिरए हारोत्थयसुकयवच्छे पा- णं गोसीसचंदणणं. अणुलिंपइ, अणुलिंपित्ता अग्गेहिं Page #1446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह भरह अत्यर्थ तुरं दृष्टं वा-अहो मया इदमपूर्व दृष्टमिति विस्मि ते सु जातं यन्मवैव प्रथममिदपू य दनेन स्वस्वामी प्रीतिपात्रं करिष्यति इति सन्तोषमापनं चित्तं यत्र तद् यथा भवति तथा आनन्दितः - प्रमोदं 3 प्राप्तः । यद्वा हृष्टतुष्टः - श्रतीव तुष्टः तथा चित्तेन श्रानन्दितः, मकारः प्राकृतत्वात् श्रलाक्षणिकः ततः कर्मधारयः, नन्दितो - मुखसोमताऽऽदिभावैः समृद्धिमुपागतःप्रीतिः -- प्रीणनं मनसि यस्य स तथा चक्ररत्ने बहुमानपरायण इत्यर्थः परमं सीमनस्य सीमनस्कत्वं जातमस्ये वरेहिं ग िमलेहि अ अणि पुष्फार मन्त्रगंधवणचुणवत्थाहणं आभरणारुहणं करेइ, करिता अच्छेहिं सण्हेहिं सेएहिं रययामएहिं अच्छरसातंडुलेहिं चक्करयणस्स पुरो अट्ठमंगलए आलिहइ । तं जहासोत्थिय सिरिवच्छ संदिभावन पद्धमाला मदानण मच्छ कलस दप्पण अमंगलए लिहिता काऊण करेह, उपयारंति, किं ते १, पाडलमन्चिचचंपगत्यसोगपुम्यागचूत्र मंजरिणवमालिचत्रकुलतिलगकणवीरकुंदकोजय- |ति परमसौमनस्थितः । एतदेव व्यनक्ति - हर्षवशेन विसकोरंटयप तदमणयवरसुरहिसुगंध गंधिअस्स कयग्गहगहि- पद-उल्लसद् हृदयं यस्य स तथा, प्रमोदप्रकर्षप्रतिपादनाकरयलपन्भट्टविप्पमुकस्स दसद्धवरणस्स कुसुमणिगरस्त र्थत्वान्नतानि विशेषणानि पुनरुक्तया दुष्टानि, यतः 'वक्ला ह तत्थ चितं जाणुस्सेहप्पमाणमित्तं ओहिनिगरं करे ना चंपेंति, "वक्ता हर्षभयाऽऽदिभि - राक्षिप्तमनाः स्तुवन् तथा निन्द्न् । यत् पदमसकृद् ब्रूयात्, तत्पुनरुक्तं न दोषाय ॥१॥ दप्पभवइरवेरुलित्र विमलदंडं कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं यत्रेव तदिव्यं चकर तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च कालागुरुपवरकुंदुरुतुरुक्क धूवगंधुनमाणु विद्धं च धूम- त्रिकृत्यः शीन वारान् आदक्षिणप्रदक्षिणं—दक्षिणहस्ताहिं विशितं वेरुलिअमयं कइच्छुद्धं पग्गहेतु पवदारभ्य प्रदक्षिणं करोति, त्रिप्रदक्षिण्यतीत्यर्थः । तथा कृत्वा च ( करतल त्ति । ) श्रत्र यावत्पदात् करयलपरिते धूवं दह, दहिता सत्तट्ठपयाई पच्चोसक्कर, पच्चीसग्गहिश्रं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि ति किवा वामं जाएं अचेद, जान पणामं करेह, फरेना व्याख्या -करतलाभ्यां परिगृहीतः - अतस्तं दश करद्वयउहघरसाला पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जे सम्बन्धिनो नखाः समुदिता यत्र तं शिरसि - मस्तके आरेणेव बाहिरिया उवद्वाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव वर्त्तः -- आवर्त्तनं प्रादक्षिण्येन परिभ्रमणं यस्य तं शिरसा ऽउबागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे यरूपं कृत्वा चक्ररत्नस्य प्रणामं करोति, कृत्वा च आयुप्राप्तमित्यन्ये । मस्तके अअलि-मुकुलितकमला ऽऽकारकरद्वसरिसीअ, सरि सित्ता अट्ठारस सेणिपसेणीओ सदावे, सदावेता एवं बयासी - खिप्पामेव भो देवा - प्पा ! उस्सुक्कं उक्करं उकि अदिज्जं अभिज्जं अभडप्पवेसं दंडकोदंडिमं अधरिमं गणियावरणाडइज्जकलिगतालायराणुचरियं मुइंगं अभिलागमन्लदामं पशुइअपक्की लिअसपुरजराजायचयं निजयवेजइअं चक्करयणस्स अट्ठाहि महामहिम करेह करेता ममेश्रमाणचित्रं खिप्पामेव पच्चणिह । तए ग ताओ अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ भरहेणं रन्ना एवं वु श्रत्र • , समाणी हवाओ० जाव विणएणं पडिसुर्णेति, पडसुता भरहस्त रणो अंतिओ पडिणिक्खमिंति, पडिणिक्खमिता उस्मुक्कं उक्करं जान करेंति अ कारवेति अ करेगा कारवेता जेणेव भरहे राया तेथेच उवागच्छंति, उवागच्छित्ता जाव तमाणत्तियं पञ्चप्पियंति । ( सूत्र - ४३ ) धगृहशालातः प्रतिनिष्कामति- निर्याति, प्रतिनिष्कम्य व यत्रैव 'बाहिरिका' - श्राभ्यन्तरिकापेक्षया बाह्या उपस्थानशासा-आस्थानमण्डपो, यमेव च भरतो राजा तत्रोपाग च्छति, उपागत्य च ' करतल ०जाव' त्ति पूर्ववत् । जयेनपरानभिभवनीयत्वरूपेण विजयेन परेषामसहमानानामभि भावकत्वरूपेण पयति जयविजयाभ्यां पयस्येत्या शिवं प्रयुक्रे, पवित्वा चैयमवादीत् किं तदित्याह एवं , खलु' इत्यादि, इत्थमेव यदुच्यते मया न च विपर्यया 55दिना यदन्यथा भवति यद्देवानुप्रियाणां - राजपादानाम् आयुधगृहशालायां दिव्ये चकरलं समुत्पन्नं तदेव तत् समिति प्राय देवानुप्रियाणां प्रियार्थतार्थप्रत्यर्थ प्रियम्निवेदयामः पतत् प्रियनिवेदनं प्रियं (से) भवतां भवतु, ततो भरतः किं चक्रे इत्याह-' तते गं' इत्यादि. ततः स भरतो राजा तस्याऽऽयुधगृहिकस्य समीपे एनमर्थ धुरया आकर करणीभ्यां निशम्य अवधार्य हृदयेन तु यावत्सौमनस्थितः प्राग्वत् प्रमोदाऽतिरेकाद्ये ये भावा भ रतस्य संवृत्तास्तान् विशेषणद्वारेणाऽह विकसितकमलवन्नयनवदने यस्य स तथा प्रचलितानि च जनितसम्भ्रमातिरेकात् कम्पितानि वरकडके प्रधानवलय रुदिकेपारक्षकी केयूरे-वारे भूषणांवरोपी मुकु कुण्डले च यस्य स तथा, सिंहावलोकनन्यायेन प्रचलि शब्द तेन प्रचलितद्वारेण बिराजद रति च बो यस्य स तथा पश्चात् पदद्वयस्य कर्मधारयः । प्रलम्वमानः सम्भ्रमादेव प्रालम्बो - झुम्बनकं यस्य स तथा, घोलद्दोलायमानं भूषणम् उक्तातिरिक्तं धरति यः स तथा ततः - ( तप समित्यादि ) ततो माण्डलिकत्तेरनन्तरं त स्प— भरतस्य राम अन्यदा कदाचित् माण्डलिकत्वं मुद्रा नस्य वर्षसहस्रे गते इत्यर्थः श्रायुधगृहशालायां दिव्यं चकरत्नं समुदपद्यत, ' तर गं से ' इत्यादि । ततः ― चक्ररत्नोत्पतेरनन्तरं स आयुधगृहिको यो भरतेन राशा आयुधाध्यक्षः कृतोऽस्तीति गम्यम् । भरतस्य राश श्रायुधगृहशालायां दिव्यं चकानं समुत्पन्नं पश्यति, दृष्ट्वा च दृष्टतुष्टम्— " " " (१४२३) अभिधानराजेन्द्रः । " 6 , - 9 · Page #1447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४१४) अभिधानराजेन्द्रः । भरह सस पदद्वयस्य कर्मधारयः । अत्र पदविपर्यय श्रार्षत्वात् म्भ्रमं - सादरं त्वरितं - मानसीत्सुक्यं यथा स्यात्तथा चपलं कायौत्सुक्यं यथा स्यात् तथा नरेन्द्रो-भरतः सिंहाऽऽसनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय च पादपीठात्-पदाऽऽसनात् प्रत्यबरोइति — अवतरति प्रत्यषरुह्य च - अवतीर्य पादुके - पादत्रारंग श्रवमुञ्चति भक्त्यतिशयात् श्रवमुच्य व एकः शाटो यत्र स तथा ततिलक्षण इकप्रत्ययः । अखण्डशाटकमय इत्यर्थः एतादृशमुत्तरासको वक्षसि तिर्यग्विस्तारितवअविशेषस्तं करोति कृत्वा च सलिना मुकुलितः कु कमलाकारीतामही इस्लाप्रभागी येन स तथा चक्ररत्नाभिमुखः सप्त वा अष्टौ वा पदानि, अनूपसर्गस्य सनिधिवाचकत्वादनुगच्छति - श्रासनो भवति " दृष्टश्वानुशदप्रयोगः सनिधी, यथा-"अनुनाद शुरुषिरे चिरं स्तानि ।” इति, पदानां सङ्ख्याविकल्पदर्शनमेतादृशभाषाव्यवहारस्य लोके दृश्यमानत्वात्, अनुगत्य च वामं जानुम् आकुडच यति ऊर्ध्वं करोतीत्यर्थः दक्षिणं जानुं धरणीतले निहत्यनिवेश्य करतले त्यादि विशेषज्ञातं यत् अि कृत्वा चक्ररत्नस्य प्रणामं करोति, कृत्वा च तस्याऽऽयुधगृहिकस्य यथामालितं यथाधारितं यथापरिहितमित्यर्थः, इदं च विशेषणं दानरसातिशयाद्दानं निर्विलम्बेन देयमिति स्थापनार्थम् बदाद " 6 " 3 " सम्यपानिगतमप्यपसम्य-प्रापणावधि न देयविलम्बः । न रुवत्वनियमः किल लदम्यास्तद्विलम्बनविधी न विवेकः । अविलम्बितदानगुणात्मानो यशो लभते । प्रथमं प्रकाशदाना - द्विशदः पक्षोऽपरः कृष्णः ॥ २ ॥” " " अवमुच्यते परिधीयते यः सोऽवमोचकः- ग्रामर, मुकु टवर्ज-मुकुटमन्तरेणेत्यर्थः, श्रत्र उतोऽ मुकुलाऽऽदिषु ( श्रीसिद्ध० श्र० ८ पा० १ सू० १०७ ) इत्युकारस्याकारः, तस्य राजचिद्वाऽलङ्कारत्वेनादेयत्वात् न कार्पण्याविना न दातीति एतेनान्यमनुष्याणां मौलिवेष्टनस्य राजचिह्नस्वमभ्युपगच्छन्तो ये केचन जिनगृहाऽऽद्यभिगमविधौ मौनिमपाकुर्वन्ति ते अशुभदर्शनत्यादपशकुनमितीयाभ्यु पगच्छता श्रागमोक्तविध्यनुष्ठानजन्यफलेन दूरतो मुक्ता इति योध्यं दच्या वान्यत् किं करोतीत्याह विपुलं जीविताम्-आजीविकायोग्यं प्रीतिदानं ददाति सत्कारयति पखाऽऽदिना सन्मानपति वचनमा सत्कृत्य सन्मान्य व प्रतिविसर्जयति-स्वस्थानगमनतो ज्ञापयति, प्रतिविस व सिहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः सपिण उपविष्ट इति । श्रथ भरतो यत्कृतवान् तदाह - तप गं इत्यादि निगदसिद्धं किमवादीदित्याह -- ( सिप्पामेव सि । ) मिमेव भो देवानुप्रिय विनीत राजानी सहाभ्यन्तरेण नगरमध्यभागेन बाहिरिका- नगरबहिर्भागो यत्र तत्तथाक्रियाविशेषणम्, आसिक्का ईषत्सिक्का गन्धोदकच्छटकदानात् समार्जिताश्वरशोधनात् सिक्का जलेनात एव विका संवृषा-विषमभूमिभन्जनाद रथ्या- राजमार्गों ऽन्तरधीथी व श्रवान्तरमार्गों यस्यां सा तथा इदं च विशेषं योजनाया विचित्रषात् सम्म सम्मार्जितसिनाशविकर ध्यान्तरबीधिकामित्येवं दृश्यं सम्मृाऽऽयनन्तरभावित्वात्स्य मचा-मालकाः प्रेक्षकद्रष्टु जनोपवेशननिमित्तम् अतिमञ्चाः - भरह , तेषामप्युपरि ये तैः कलिता नानाविधो रागो - रज्जनं येषु तान की सुम्भमन्जिलादिरूपाणि वनानि ये पुतारा ऊदीकृत सहगरुडादिरूपकोपलक्षिता बृहत्पट्टरूपाः पताकाश्च तदितररूपा श्रतिपताका:- तदुपरिवर्त्तिन्यस्ताभिर्मण्डिताम्, अत्र च 'लाउ लोइय' इत्यादिको 'गंधवट्टिभू ' इत्यन्तो विनीतासमारचनवर्णकः प्रागभियोग्यदेवभवनवर्ण के उपास्यात इति न व्याख्यायते ईदृशा विशेषणविशिष्टां कुरुत स्वयं कारयत परैः ः कृत्वा कारयित्वा च एतामाशतिम् श्राज्ञां प्रत्यर्पयतततस्ते किं कुर्वन्तीत्याह-' तर गं ' इत्यादि । ततो-भरताऽऽशाऽनन्तरं कौटुम्बिकाः - अधिकारिणः पुरुषाः भरतेन राज्ञा एवमुक्ताः सन्तो दृष्टाः करतलेत्यारभ्य यावत्पदग्रायं पूर्वत् एवं स्वामिन्! यथाऽऽयुष्यापादरा आदिशन्ति तथेत्यर्थ इति कृत्वा - इति प्रतिवचनेनेत्यर्थः श्राज्ञायाः- स्वाभिशासनस्योक्तलक्षणेन नियमेन श्रत्र व ' आणा विणणं 'इति एकदेशग्रहणेन पूर्णोऽभ्युपगमालापको ग्राह्यः अंशेनांशी इति पतति ) वचनं प्रतिरावन्ति श्रङ्गीकुर्वन्तीति ततस्ते किं कुर्वन्तीत्याह-' पडि सुरिता इत्यादि प्रतिश्रुत्य तस्यान्तिकात् प्रतिनिष्का मन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य च विनीतां राजधानी, यावत्पदेनानन्तरोसकलविशेषणविशिष्टां कृत्वा कारयित्वा च तामाशतिं भरतस्य प्रत्यर्पयन्ति । श्रथ भरतः किं चक्रे ?, इत्याह-' तर गं से भरहे' इत्यादि । ततः स भरतोराजा यत्रैव मज्जनघरं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च मज्जनगृहम अनुप्रविशति, श्रनुप्रविश्य च समुक्तेन - मुक्ताफलयुतेन जासेन गया ऐसा 3 कुलो व्यामो ऽभिरामस्थ यस्त स्मिन् विचित्रमणिरत्नमयकुट्टिमतलं- बद्धभूमिका यत्र स तथा तस्मिन् श्रत एव समभूमिकत्वात् रमणीये स्नानमण्डपे, नानाप्रकाराणां मणीनां रत्नानां च भयो य यौचित्येन रचनास्ताभिर्विचित्रैः स्नानपीठे स्वानयोग्ये श्रा सने सुन निषरणः- उपाये एस्सन् शुभोदकैः तीर्थोदकैः सुखोदय मात्मनां तिशीतैरित्यर्थः । गन्धोदकः- बन्दसुखोदकैर्वा नात्युष्णैर्ना नाssदिरसमित्रैः पुष्पोदकैः - कुसुमवासितैः, शुद्धोदकैश्वस्वाभाविकैतीर्थान्यजलाशयेरित्यर्थः । ( मज्जिए ति ) उत्तरसूत्रस्थपदेन सह सम्बन्धः एतेन कान्तिजननाथम. (द) मनाऽऽदिगुणार्थ मज्जनमुकम् अधारिएविघातार्थमाह - पुनः कल्याणकारिप्रवरमज्जनस्य - विरुद्ध ग्रहपीडानि - वृत्यर्यकविहितोपयादिस्नानस्य विधिमा 'इमरुजीत् शु जी इत्यस्य शुत्यर्थकत्वेन स्नानार्थकावान्मतिः-. पितोऽन्तःपुरवृद्धाभिरिति गम्यं कर्मजित इत्याह-रात्र स्नानावसरे कौतुकानां रसादीनां शते पाकी जनैः स्वसेवासम्यक्प्रयोगार्थ दर्श्यमानैः कौतुकशतै:- भा ण्डचेष्टाऽऽदिकुतूहलैर्बहुविधैः - श्रनेकप्रकारैः, अत्र करणे तृतीयेति । श्रथ स्नानोत्तरविधिमाह-' कल्लाराग' इत्यादि । कल्याणकप्रवरमज्जनावसाने स्नानानन्तरमित्यर्थः । पक्ष्मलया पदमवस्या अत एव सुकुमालया गन्धप्रधानया कथापेरा-पीतवर्णाधयरजनी ययस्तुना रक्का काथायिका त या कषायरक्कतया शाटिकयेत्यर्थः । रूक्षितं निर्लेपतामापादितम् अस्य स तथा सरससुरभिगोशीचन्दनलगा 3 " " 6 , " " " Page #1448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२५) भरह अभिधानराजन्द्रः। त्रः, अहतं-मलमूषिकाऽऽदिभिरनुपतं प्रत्यप्रमित्यर्थः, सुम- मालान्ते शोभाथै दीयन्त, मालाय हितानि माल्यानिहार्घ-बहुमूल्यं यद् दृष्यरत्नं-प्रधानयत्र तत्सुसंघृतं-सुष्टु पुष्पाणीत्यर्थः, तेषां दामानि-माला यत्र तत्तथा, एवंविधन परिहितं येन स तथा, अनेनाऽऽदौ वस्त्रालङ्कार उक्तः , अत्र छत्रण ध्रियमाणेन शिरसि, विराजमान इति गम्यं, चतुच वस्त्रसूत्रं पूर्व योजनीयं , चन्दनसूत्र पश्चात् , क्रमप्राधा- म्-अग्रतः पृष्ठतः पार्श्वयोश्च बीज्यमानत्वाच्चतुःसंन्याद् व्याख्यानस्य, न हि स्नानास्थित एव चन्दनेन व ख्याङ्कानां चामराणां बालवीजितमहं यस्येति, मालभूपुर्विलिम्पतीति विधिक्रमः , शुचिनी-पवित्र मालावर्णकवि- तो जयशब्दो जनेन कृत आलोके-दर्शने यस्य स तथा , लेपने पुष्पस्रग्मण्डनकारिकुलमाऽऽदिविलेपने यस्य स तथा अमेन गणनायका-मल्लाऽऽदिगणमुख्याः दण्डनायकाः-तन्त्रअनेन पुष्पालङ्कारमाह , अधस्तनसूत्रे वपुःसौगन्ध्यार्थमे- पालाः । यावत्पदात् 'ईसरतलबरमाडविप्रकोइंविधमंतिव विलेपनमभिहितम् , अत्र तु वर्मण्डनायेति विशेषः श्रा- महामंतिगणगदोबारिश्रश्रमच्चचेडपीढमहणगरणिगमसेट्टिविद्धानि-परिहितानि मणिसुवर्णानि येन स तथा , एते सेणावासस्थवाह।' इति द्रष्टव्यम् । अत्र व्याख्या-तत्र रा. नास्य रजतरीरीमयाऽऽद्यलङ्कारनिषेधः सूचितः, मणिस्वर्णा- जानो-माण्डलिकाः, ईश्वराः-युवराजानो. मतान्तरेण अणिलङ्कारानेव विशेषत आह-कल्पितो-यथास्थानं विन्यस्तो माऽऽद्यैश्वर्ययुक्ताः, तलवराः-परितुष्टनृपदत्तपट्टयन्धविभूषिहार:-अष्टादशसरिकोऽर्द्धहारो-नवसरिकस्त्रिसरिकं च प्र- ता राजस्थानीयाः, माडम्बिकाः-छिनमडम्याधिपाः, कौटुतीतं येन स तथा प्रलम्बमानः प्रालम्बो-भुम्बनकं यस्य स म्बिकाः-कतिपयकुटुम्बप्रभवोऽवलगकाः मन्त्रिणः-प्रतीता:तथा, सूत्रे च पद्व्यत्ययः प्राकृतत्वात् , कटिसूत्रेण-क- महामन्त्रिणो-मन्त्रिमण्डलप्रधानाः, गणका-गणितशा भा. स्याभरणेन सुष्टु कृता शोभा यस्य स तथा , अत्र पदत्र- एडागारिका वा, दौवारिकाः-प्रतीहाराः, अमास्या-राज्यायस्य कर्मधारयः। अथवा-कल्पितहाराऽऽदिभिः सुकृताशो धिष्ठायकाः, चेटाः-पादमूलिका दासा वा, पीठम -श्रा. भा यस्य स तथा. पिनद्धानि-बद्धानि ग्रेवेयकाणि-कण्ठाss स्थाने अासनासन्नसेवकाः; वयस्या इत्यर्थः । येश्याऽऽचार्या भरणानि अङ्गुलीयकानि-अङ्गुल्याभरणानि येन स तथा , वा। नगरं-तास्थ्यात्तव्यपदेशेन नगरनिवासिप्रकृतयः,निगअनेनाऽऽभरणालङ्कार उक्तः, तथा ललिते-सुकुमालेऽङ्गके माः-कारणिका वणिजो वाथेष्टिन:-श्रीदेवताऽध्यासिनसीवमर्डाऽऽदी ललितानि-शोभावन्ति कचानां-केशानाम् आभर- पट्टभूषितोत्तमाकाः। अथवा-नगराणां निगमानां च-यणिगानि-पुष्पाऽऽदीनि यस्य स तथा अनेन केशालङ्कार उक्तः । ग्वासानां श्रेष्ठिनो-महत्तराः, सेनापतयः-चतुरसैन्यनायअथ सिंहावलोकनन्यायेन पुनरप्याभरणालङ्कारं वर्णयन्ना- काः, सार्थवाहाः-सार्थनायकाः , दुता अन्यषां राज्यं ह-नानामणीनां कटकश्रुटिकैः-हस्तबाहाभरणविशेषत्वा. गत्वा राजाऽऽदेशनिवेदकाः,सन्धिपाला-राज्यसन्धिरक्षकाः। त् स्तम्भिताविव स्तम्भिती भुजी यस्य स तथा . अधि- एषां द्वन्द्वस्ततस्तैः, अत्र तृतीयायहुवचनलोपो द्रष्टव्यः , कसश्रीक इति स्पष्टं , कुण्डलाभ्यामुयोतितम् श्राननं मु. सार्द्ध सह न केवल तत्सहितत्वमेय, अपितु-तैः समितिखं अस्य स तथा , मुकुटदीप्तशिरस्कः स्पष्टं , हारेणावस्तृ. समन्तात् परिवृतः-परिकरित इति, नरपतिर्मज्जनगृहात् नम्-पाच्छादितं तेनैव हेतुना प्रेक्षकजनानां सुकृतरतिक प्रतिनिफामतीति सम्बन्धः,किम्भूतः ?-प्रियदर्शनः, क इव ?, वक्षो यस्य स तथा . प्रलम्बन-दीघेण प्रलम्बमानेन-दो- धवलमहामेघः-शरन्मेघस्तस्मानिर्गत इय, अत्र यावत्पदालायमानेन सुकृतेन-सुष्टु निर्मितेन पटेन-वस्त्रेन उत्तरीयम् | त, 'गहगणदिपंतरिक्वतारागणाग मज्झे' इति संग्रहः उत्तराऽऽसको यस्य स तथा , प्राकृतत्वात् पूर्वपदस्य- . तेन शशिपदाग्रस्थ इवशब्दो ग्रहगतिविशपणन योज्यः, दीर्घत्वं , मुद्रिकाभिः-साक्षराङ्गुलीयकैः पिङ्गला अङ्गुल्यो ततोऽयमर्थः सम्पन्न उपमानिर्वाहाय-यथा चन्द्रः शरदभ्रयस्य स तथा , बहुब्रीहिलक्षणः कप्रत्ययः, नानामणि- पटलनिर्गत इव ग्रहगणानां दीप्यमानक्षाणां-शोभमाननमयं विमलं महाघ-बहुमूल्यं निपुणेन शिस्पिना ' श्रोन- क्षत्राणां तारागणस्य च मध्ये वर्तमान व प्रियदर्शनावित्र ति।' परिकर्मितं 'मिसिमिसेत त्ति' दीप्यमानं बि- भवति तथा भरतोऽपि सुधाधवलान्मज्जनगृहानिर्गतोऽनेरचितं निम्मितं सश्लिष्टं-सुसन्धि विशिष्टम् अन्येभ्यो कगणनायकाऽऽदिपरिवारमध्ये वर्तमानः प्रियदर्शनोऽभवत , विशेषवत् लष्टं-मनोहरं संस्थितं संस्थानं यस्य तत् , प. पुनः कीटशो नृपतिः प्रतिनिष्कामतीत्याह-धूपपुष्पगन्धमाश्वात् पूर्वपदैः कर्मधारयः . एवंविधं प्रशस्तम् श्राविद्धं- ल्यानि पूजोपकरणानि हस्तगतानि यस्य स तथा. तत्र धूपरिहितं वीरवलयं येन स तथा. अन्योऽपि यः (दि) पो दशाङ्गाऽऽदिः,पुष्पाणि-प्रकीर्णककुसुमानि.गन्धा-वासा, कश्चिद्वीरव्रतधारी तदाऽसौ मां विजित्य मोचयत्वेतद्वल- माल्यानि-ग्रथितपुष्पाणाति । प्रतिनिष्क्रम्य च किं कृतवायमिति स्पर्द्धयन् ( यत् ) परिदधाति तद्वीरवलयमिति नित्याह-(जेणेव इत्यादि ) यत्रवाऽऽयुधगृहशाला यत्रव च इन्युच्यतेः किं बहुना वर्णितेनेति शेषः , ' कप्परुखए चक्ररत्नं तत्रैव प्रधारितवान् गमनाय-गन्तुं प्रावर्तत इत्यचव त्ति' अत्र चैवशब्द इवार्थे, तेन कल्पवृक्षक इवाल. थः । अथ भरतगमनानन्तरं यथा तदनुचराश्चक्रुस्तथा55इकृतो विभूषितश्च, तत्रालङ्कृतो दलाऽऽदिभिर्विभूषितः फ- ह-(तए णं इत्यादि )ततो-भरताऽऽगमनादनु तस्य-भरतलपुप्पाऽऽदिभिः कल्पवृक्षोराजा तु मुकुटाऽऽदिभिरलङ्कृतो स्य राशो बहव ईश्वरप्रभृतयः-यावत्पदसन्याह्यास्तलवरप्रविभूषितस्तु वस्त्राऽऽदिभिरिति, नरेन्द्रः 'सकोरंट जाव भृतयः पूर्ववत् , अपिाढाथै, एके केचन पद्महस्तगताः. प. नि' अत्र यावत्करणात् ' सकोरंटमजदामेणं छत्तणं धरि- के केचन उत्पलहस्तगताः , एवं सर्वाण्यपि विशेषणानि जमागणं' इति ग्राह्यम् , तत्र सकोरण्टानि-कोरण्टाभि- वाच्यानि, यावत्पदात्-'अप्पेगइश्रा कुमुनहत्थगया अप्पेधानकुममस्तवकवन्ति, कोरण्टपुष्पाणि हि पीतवर्णानि गया नलिणहत्थगया अप्पेगदया मोगधिहत्यगया अगो Page #1449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह - 9 गया पुंडरीयहत्थगया अप्पेगइया सहस्लपसहत्थगया इति संग्रहः । अत्र व्याख्या प्राग्वत् नवरं भरतं राजानं पृष्ठतः पृष्ठतोऽनुगच्छन्ति पृष्ठे पृष्ठे परिपाठ्या चलतीत्यर्थः । सर्वेषामपि सामन्तानामेकैव वैनयिकी गतिरिति ख्यापनार्थ वीप्सायां द्विर्वचनं न केवलं सामन्तनृपा एव भरतमनुजमु, किन्तु नित्यात इत्यादि) त तः सामन्तनृपानुगमनानन्तरं तस्य भरतस्य राशः सम्बन्धिन्यो बढ्यो दास्यो भरतं राजानं पृष्ठतोऽनुगच्छन्तीति सम्बन्धः । कास्ता इत्याह- कुब्जाः- कुब्जिका वक्रजन्धा इत्यर्थः, चिलात्यः- चिलात देशोत्पन्नाः, बामनिका - श्रत्यन्तह्रस्वदेहा स्वोतहृदय कोष्ठा वा, वडभिका-महडकोष्ठा वक्राधःकाया वा इत्यर्थः । पर्व पर्वशोत्पन्नाः कुशिकाः वकु शदेशजाः, जोकियो-जोनकनामकराना, पविका:-पड़ देशजाः (सेविना धारकाचा सि) देशद्रयभवाः ईसिनिकाः थारुकिनिकाः, लासिक्यो - लासकदेशजाः, लकुशिक्यो लकुशदेशजाः, द्राविड्यो द्रविडदेशजाः । सिंहल्पः सिंहलदेशजाः, आरण्यः अरवदेशजाः पुलिमधः पुखिन्द्रदेशजाः, पक्कण्यः - पकणदेशजाः, बस्यो बहलिदेशजाः, मुख्य-मुरुण्डदेशजा, पर्थः-शवर देशजाः, पारसीका:- पारसदेशजाः । अत्र विलात्यादयोऽष्टा दश पूर्वोक्तरीत्या तत्तद्देशोद्भवत्वेन तत्तन्नामिका ज्ञेयाः, कुम्जा स्तुतिस्रो विशेषसभूताः अथ यथाप्रकारेसीप करणेन ता श्रनुययुस्तथा चाऽऽह श्रप्येकिका वन्दनकलशा मङ्गल्यघटा हस्तगता यासां तास्तथा, एवं भृङ्गाराऽऽदिहस्तगता अपि वाच्याः, तद्व्याख्यानं तु प्राग्वत्, नवरं पुव्ययब्रेरीत आरभ्य मालाऽऽदिपदविशेषितास्तच ज्ञातव्याः । लोमहस्तकच तु साचादुपाताऽस्ति अभ्यास्तु लाचार्थकत्वेन सूत्रे साक्षान्नोका बाद्यन्तग्रहणेन मध्यग्रहणस्य स्वयमेव लभ्यमानत्वात्, एवं पुष्पपटलहस्तगता माल्याऽऽदिपटलहस्तगताश्च वाच्याः, अप्येकिकाः सिंहाऽऽसनहस्तगताः, अप्येकिकाः छत्रचामरहस्तगताः, तथा अव्येकिकाः तैलसमुद्राः तैलभाजनविशेषास्तद्धस्तगताः । एवं कोष्ठसमुदस्तगता यावत्सर्पपसमुद्रकहस्तगताः । अत्र समुहक संग्रहमादतेने फोडुलमुग्गे इति सूत्र, पतदर्थस्तु राजप्रश्नीयवृत्तितोऽवगन्तव्यः, अप्यकिकास्तालवन्तहस्तगताः - व्यञ्जनपाणयः, अप्येकिका धूपकच्छुकहस्तगता इति । अथ यया समृद्धया भरत आयुधशालागृहं प्राप तामाह - ( तर गं इत्यादि ) ततः स भरतो राजा पत्रैषाऽऽयुधगृहाला तत्रैयोधागच्छतीति सम्बन्धः किम्भूत इत्याह- सर्वय-समस्तया आभरणादिरुपया लक्ष्म्या युक्त इति गम्यम् । एवमन्यान्यपि पदानि योजनीयानि, नवरं युतिः-मेलः परस्परमुचितपदार्थानां तया बलेन सैम्पेन समुदयेन परिवारा 55 दिसमुदयेन, आद रे प्रयत्नेन आयुधनमा विभूषया उचितनेपथ्याऽऽदिशोभया विभूत्या - विच्छर्हेन एवंविधविस्तारेणउक्लामेव विव्यत्वाऽह सम्वत्यादि, अत्र पुष्पाऽऽदिपदानि प्राग्वत्, नवरम् अलङ्कारो मुकुटाऽऽदिरे | या सर्वेषां त्रुटितानां तूर्याणां यः शब्दो-ध्वनिर्यस " " ( १४२६ ) अभिधानराजेन्द्रः । " भरह 66 13 सङ्गतो निनादः - प्रतिध्वनिस्तेन श्रत्र शब्दसन्निनादयोः समाहारद्वन्द्वः । श्रथ सर्वमनेन भाजनस्थं घृतं पीतम् इति लोकोक्के प्रसिद्धत्वात् सर्वशब्देनाल्पीयोऽपि निर्दिष्टं मंथन तथा विभूतिर्वर्तिता भवतीत्याशङ्कमानं प्र त्याह--' महया डीए' इत्यादि। योजना तु प्राग्वदेव, यावत्शब्दात् महायुत्यादिपरिग्रहः। महता बृहता वरटि तानां निःपादीनां सूर्यायां यमकसमकं युगपत्प्रादितं भावे प्रत्ययाविधानात् प्रचादनं ध्वनितमित्यर्थस्तेन - झुः- प्रतीतः पणवो - भाण्डपटहो लघुपटह इत्यन्ये, पटस्वेतद्विपरीतः मेरी-डका भारी चतुरङ्गनालिः कराट सदृशी वलयाssकारा, खरमुखी - काहला, मुरजो-महामईलः दो लघुमईलः, दुरदुभिः देववायम् एषां नि घोपनादितेन तत्र निषी महाध्वनिनादितं च प्रतिरक्षा-एकवद्भावादेकवचनं पूर्वविशेप पूर्वसामान्यविषयमिदं तुतद्व्यक्तिसूचकमित्यनयोर्भेदः । श्रयुधगृहशालाप्राप्त्यनन्तरं विधिमाह उपागच्छत्ता' इत्यादि तत्रोपागत्य आलो के दर्शनमात्र एव चरत्नस्य प्रणामं करोति, क्षत्रियैरायुधवरस्य प्रत्यक्षदेवतात्वेन सङ्कल्पनात्, यत्रैव चरत्नं तत्रैवोपागच्छति, लोमहस्तक-प्रमार्जनिकां परामृशति-हस्तेन स्पृशति, गृराहातीत्यर्थः, परामृश्य च चक्ररत्नं प्रर्माजयति यद्यपि न तादृशे रने रजः सम्भवस्तथापि भक्तजनस्य विनयप्रक्रियाशापनार्थमयमपन्यासः प्रमा व दि. व्ययोदकधारया अक्षति-सिद्धतिः स्नपयतीत्यर्थः । अभ्युदय च सरसेन गोशीर्षचन्दनेनानुलिम्पति अनुलिप्य च श्रयैः - अपरिभुक्तैरभिनवैर्वरैर्गन्धमाल्यैश्चार्चयति । एतदेव व्यक्त्या दर्शयति पुष्पाऽऽरोप माल्याऽऽरोप 55रोप पऽऽरोप रोप आभरणाऽऽरोप क रोति कृत्वा च श्रच्छैः - अमलैः, लक्ष्णैः - श्रतिप्रतलैः -- श्वेतैः रजतमयैरत एव अच्छी रसो येषां ते असा प्रत्यासन्नवस्तुप्रतिविम्बाऽऽधारभूता इवातिनिर्मला इति भावः एतादृशैस्तण्डुलैः -- अत्र पूर्वपदस्य दीर्घान्तता प्राकृतत्वात्, स्वस्तिकाष्टमङ्गलकानि मत्यवस्तुनि श्रलिखति-विन्यस्यति, अत्र वाऽऽऐति वीप्सावचनात् प्रत्येक माविति ज्ञेयम् यद्वा-अऐति संख्याशब्दः अमल कानीति चाखण्डः संज्ञाशब्दः अष्टानामपि मङ्गलकानाम्, अथोक्लानामेव मङ्गलकानां व्यक्तितो नामानि कथयन् पुनर्वि ध्यन्तरमाह, तद्यथा-स्वस्तिकमित्यादि, व्याख्या तु प्राग्वत्, अत्र द्वितीयालोपः प्राकृतत्वात्, इमान्यष्टमङ्गलकानि श्रालि गय आकारकरणेन कृत्यान्तकादिभरणेन पूर्णनि कृत्वेत्यर्थः करोत उपचारम् उचितसेामिति तमेव व्य नक्ति किन्ते इति तद्यथेत्यर्थे, तेन विवक्षित उपचारः उपन्यस्त इत्यर्थ: पाठ-पाटलपुष्पं मल्लिका विश्चकिलपुष्पं- लोके 'ल' इति प्रसिद्ध चम्पकाशोकपामाः प्रतीताः, तमञ्जरी आश्रम, वकुल:- केसरीया श्रीमुसो विस ति तत्पुष्पं, तिलको यः श्रीकानिरीक्षित तत्पु यम् वीरः कु च प्रतीते पोति नाम्ना वृक्ष विशेषस्तत्पुष्पं, कोरण्टकं प्राग्वत्, पत्राणि - मरुवकपत्रा - दीनि दमनकः- सट: पतंर्वरसुरभिः- वायसुरभिः त " 1 " 9 , " Page #1450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह था सुगन्धाः- शोभनचूर्णास्तेषां गन्धो यत्र स तथा, तद्धितलक्षण इकप्रत्ययः । पश्चाद्विशेषणद्वयस्य कर्मधारयस्तस्य, तथा कच हो - मैथुनसंरम्भे मुखचुम्बनाऽऽद्यर्थं युवत्याः पञ्चातिभिः केशेषु ग्रहणं तन्न्यायेन सुतस्तथा त दनन्तरं करतलाद्विप्रमुक्तः सन् प्रभ्रष्टः, प्राकृतत्वात् पद. व्यत्ययः, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयस्तस्य दशार्धवर्णस्यपञ्चवर्णस्य कुसुमनिकरस्य पुष्पराशेः तत्र चरनपरिकर भूमी विषम् आधर्यकारिणं जानू त्सेधप्रमाणेन जानुं यावदुः चत्वप्रमाणं प्रमाणोपेतपुरुषस्य चतुरङ्गलचरणचतुर्विंशत्य लजङ्घोच्चत्वमलनेनाष्टविंशत्यङ्गुलरूपं तेन समाना मात्रा यस्य स तथा तम् श्रवधिना मर्यादया निकरं विस्तारं कृत्वा चन्द्रप्रभाः चन्द्रकान्ता वज्राणि-हीरका वैडूर्याणि - वालवायजानि तन्मयो विमलो दण्डो यस्य स तथा तं काञ्चनमणिरत्नानां भयो- विच्छित्तयो रचनास्ताभिश्चित्रं कृष्णागुरुः प्रतीतः, कुन्दुरुक्कः -चीडा, तुरुष्कः- सिल्हकः, ते यां यो पो गोतमः सौरभ्योत्कृष्टः अत्र विशेषण परनिपातः प्राकृतत्वात् तेनानुविद्धा मिश्रा व्याप्तेत्यर्थः। तां चरान्दो विशेषसमुये स च व्यवहितसम्बन्धः तेन धूमवर्त्ति च - धूमश्रेणि विनिर्मुञ्चन्तं वैडूर्यमयं - केवलवैडूर्यरत्नपतिं स्थालस्वगनका यचययेषु दण्डवश्चन्द्रकान्ता55दिरत्नमयत्येतु अङ्गारधूमसंसर्गजनिता चिच्छायता प्रा दुर्भवेत् 'क' घृषा धानकं प्रागृहीत्वा प्रयतः - द्विषमाणो भूपति, धूपं याच प्रमार्जनाऽऽदिकारण विशेषेण सन्निधीयमानमपि चक्ररत्नम् श्रत्यासन्नतया मा आशातितं भूपादिति सप्तपदानि प्रत्यपसर्पति पयारपसरति प्रत्यपसर्प्य च वामं जानुम् अञ्चति यावत्करणाद्-दाहिरो जानुं धरणिखि निहट्ट करयलपरिग्गहि दख नई सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु' इति संग्रहः, व्याया च पूर्ववत् प्रणामं करोति समहितार्थसम्पाद कमिदमिति युद्धपा प्रीतः प्रणमति प्रणामं कृत्वा न आयुधशालातः प्रतिनिष्कामति-निर्मच्छतीति पsuratमत्ता' इत्यादि, प्रतिनिष्क्रम्य च यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला यत्रैव सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति उपाग स्य च सिंहासनचर गतः पूर्वाभिमुखः सनिषीदति-उप विशति संनिषद्य च अष्टादश कुम्भकारादिम ती: प्रश्रेणीस्तदवान्तरभेदान् शब्दयति शब्दवित्वा चैवमवादीदिति । श्रष्टादश श्रेणयश्वेमाः " " कुंभार १ पहला २, सुवणारा व ३ सूपकाराय ४ गंधव्वा ५ का सवगा ६, मालाकारा य ७ कच्छुक ८ ॥ १॥ तंबोलिश्रा य एए, नवप्पयारा य नारुआ भणिश्रा । ग्रहणं वप्पयारे, कारुश्रवरणे पवक्खामि ॥ २ ॥ चम्म रु १ जंतपीलग २ गछि ३ छिपाय ४ कंसकारे य ५ । सीवग ६ गुवार ७ भिल्ला ८ धीवर वरणाइ श्रट्ठदस ॥३॥” चित्रकrissary तेयेवान्तर्भवन्ति, अथ पौरान् प्रति किमवादीदेत्याह-(खिष्पामेव त्ति ) क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाचक रत्नस्थापानाम् अहां समाहारोऽष्टा तदस्ति य स्यां महिमायां सा श्रष्टाहिका तां महामहिमां कुरुतेत्यन्वयः कृत्वा च मम एतामाशतिकां क्षिप्रमेव प्रत्यर्पयते ( १४२७ ) अभिधानराजेन्द्रः । 3 3 3 भरह ति । अथ क्रमेण विशेषणानि व्याकरोति-कीटशी - मुक्कं शुल्कं विक्रेतव्यमा प्रति राजदेयं यं यस्यां सा तथा ताम्, एवमुत्कराम् उत्कृष्टां च तत्र करो ग चादीन् प्रति प्रतिवर्ष राजदेय द्रव्ये कुएं तु कर्पण सभ्य हराया 55रुपर्णम् अदेय विक्रयनिषेधेन अविद्यमानदातव्यां, न केनापि कस्यापि देयमित्यर्थः, श्रमेयां क्रयविक्र यनिषेधादेव अविद्यमानमातव्याम् श्रभटप्रवेशाम् अविद्यमा नो भटानां - राजपुरुषाणामाज्ञादायिनां प्रवेशः कुटुम्बिगृहेषु यस्यां सा तथा तां दण्डलभ्यं द्रव्यं दण्डः कुदण्डेन निवृत्तं कुदरिडमं - राजद्रव्यं तन्नास्ति यस्यां सा तथा तांतत्र दण्डो यथापराधं राजग्राह्यं द्रव्यं कुदराजस्तु कारणकानां प्रज्ञाऽऽद्यपराधात् महत्यप्यपराधिनो ऽपराधे अल्प रा जग्राह्यं द्रव्यम्, अधरिमं न विद्यते धरिमम्-ऋणद्रव्यं यस्य सा तथा ताम् उत्तमणी ऽधमर्णाभ्यां परस्परं तदर्थन विवदनीयं किन्तु अस्मत्पार्श्वे द्युम्नं गृहीत्वा ऋणं मुल्कलनीयमित्यर्थः गणिकावरैः - विलासिनी प्रधानैर्नाटकीयैः नाटकप्रतिबद्धपात्रैः कलिता या सा तथा ताम् अनेके ये तालाचराः प्रेाकारिविशेषास्तैरनुवरितान सेविताम 'अनुभूताम्' अनुरूपेण यथा मार्दङ्गिकविधि उद्धृतावादनार्थमुत्क्षिप्ता मृदङ्गा यस्यां सा तथा ताम्, अम्लानानि माल्यदामानि - पुष्पमाला यस्यां सा तथा तां. म्लानाः पुष्पमाला उत्सार्य नवा नवा आरोपणीया इत्यर्थः प्रमुदिताशः प्रकोडिताः प्रक्रीडितुमारब्धाः सपुरजना अयोध्यावा सिजनसहिताः जनपदाः -- कोशलदेशवासिनो जना यत्र सा तथा विज्ञपवैजयिकी अतिशयेन विजयी विजय यः स प्रयोजनं यस्यां सा तथा ताम्, इदमायुधरत्नं सम्यगारा पितं मभित्रेत महाविजयं साधयतीत्यर्थः प्रत्ययेनया' (शांति पा० ३ ० ३१) इति प्राकृतीक एपस्तेन विजयजयमिति पाठः कचिद् विजय जयन्तचफ़रयणस्स त्ति' पाठस्तत्र विजयसूचिका वैजयन्तीति विजयवेजयन्ती, साऽस्यास्तीति विजयजयस्तं किमपि परं न मत्त उत्कृष्टमिति ध्वजवन्धं विधत्ते इत्यर्थः । एतादृशं वचनं यस्याहिकामिति प्राग्वदिति । अथ प्रियो यच्चकुस्तदाह-' तए ' इत्यादि सर्व पाठसिद्धम् । अथाग्राहिकामहामहिमापरिसमाप्त्यनन्तरं किमभूदित्याहतए गं से दिव्वे चक्करयणे अट्ठाहिए महामहिमाए निवत्ता समाणीए आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिसिक्समा लिक्खपडिवरसे जक्खसहस्ससंपरि दि व्वतु डिसदसारणाएवं मापूरते चेव अंबरतलं विणीचा ए रायहाणीए म मज्झेणं णिग्गच्छन्, णिग्गच्छिता गंगाए महाखईए दाहिखिल्ले गं कृले गं पुरच्छि दिसं मागहतित्थाभिमुहे पयाते वि होत्था । तए गं से भरहे राया तं दिव्यं चक्करयणं गंगाए महाराईए दाहिशिल्ले गं कूले गं पुरच्छिमं दिसिं मागहतित्याभिमुहं पयासतं पासइ, पासित्ता हट्टतुङ० जाव हियए कोई विपुरिसे सदावेइ, सहावेत्ता एवं व्यासी- खिप्पामेव भो देवाप्पा! 3 9 7 Page #1451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२८) अभिधान राजेन्द्रः । भरह भरह श्राभिसेकं हत्थिरयणं पडिकप्पेह, हयगयरहपवरजोहक- मागहतित्थकुमरस्स देवस्स अट्ठमभतं पगिरहइ, पगिरिहत्ता पोसहसालए पोसहिए बंभयारी उम्मुकमणि सुवएणे ववगयमालावएणगविलेव शिक्खित्तसत्थमुसले दभसंथारो गए एगे अबीए अट्टमभतं पडिजागरमाणे पडिजागरमाणे विहरइ । तए गं से भरहे राया अट्टमभत्तंसि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता को विपुरिसे सहावेह, सद्दा वित्ता एवं बयासी - विप्पामेव भो देवाप्पिया ! हयगयरहपवरजोहकलिं चाउरंगिग सेणं सरगाह चाउ - टं आसरहं पडिकप्पेह ति कट्टु मज्जणघरं पविस, अणुपविसित्ता समुत्त तहेव जाव धवलमहामेहणिग्गए ०जाव मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमिचा हयगयरहपवरवाहण ० जाव सेणावर पहिचकिची जेणेव वाहिरिया उवद्वाणसाला जेणेव चाउघंटे आसरहे तेरेव उपागच्छइ, उवागच्छित्ता चउम्घटं आसरहं दुरूढे । ( सूत्र - ४४ ) लिभं चाउरंगिणि सेरखं सरणाहेह, एतमाणत्ति पच्चप्हि । तए णं ते कोचिअ ० जाव पच्चप्पियंति । तए से भरहे राया जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छत्ता मज्जणधरं अणुपविसह, अणुपविसित्ता समुतजालाभिरामे तव ० जाव धवलमहामेहणिग्गए इव ससि व्व पियदंसणे सरवई मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता हयगय रहपवरवाहण भडचडगरपहकरसंकुलाए सेणाए पहिअकित्ती जेणेव बाहिरिया उचड्डासाला जेणेव अभिसेके हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छर, वागच्छत्ता अंजणगिरिकडगसणिभं गयवई खरवई दुरूढे | तए णं से भरहाहिवे परिंदे हारोत्थए सुकयरइयवच्छे कुंडलउज्जोइआणणे मउडदित्तसिरए णरसीहे reat गरिंदे णरवसहे मरुचरायवसकप्पे अन्भहिअरायलच्छी दिप्पमाणे पसत्थमंगलस एहिं संधुस्वमाणे जयसद्दकयालोए हत्थिबंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तणं धरिज्जमाणेणं सेवरचामराहिं उद्धवमाणीहिं उधुव्वमाणीहिं जक्खसहस्ससंपरिवुडे वेसमणे अमरवइसणिभाइ इड्डीए पहिअकित्ती गंगाए महाईए दाहिणिले गं कूले गं गामागरणगरखेडकब्बड मडंबदोमुहपट्टणासमसं बाहसहस्समं डि थिमिश्रमेणी वसु अभिजिणमाणे अभिजिणमाणे श्र - गाई बराई राई पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे तं दिव्वं antar अगच्छमाणे अणुगच्छमाणे जोधणंतरिश्रहिं सही बसमाणे वसमाणे जेणेव मागहतित्थे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता मागहतित्थस्स श्रदूरसामंते दुवालसजोयणायामं णवजोअणवित्थिरणं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारनिवेस करेइ, करित्ता बढइरयणं सहावे, वरयणं सदावित्ता एवं बयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पा ! ममं श्रावासं पोसहसालं च करेहि, करेता ममेप्रमाणशियं पञ्चप्पियाहि । तए गं से बडहरयणे भरणं रण्णा एवं बुशे समाणे हट्टदुचिचमादिए पीहमणे ० जाव अंजलिं कट्टु एवं सामी तह चि आणाए auri बयणं पisसुह पडिसुणेचा भरहस्स रणो वसई पोसहसालं च करेइ, करेता एमाणचित्रं खिप्पामैत्र पद्मप्पिति । तए गं से भरहे राया अभिसेकाओ हत्थिर यणाम्रो पच्चोरुहइ, पच्चोरुहिता जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोसहसालं अणुविस विसिता पोसहसालं पमज्जइ, पमञ्जिता दब्भसंथावर्ग संरह, संथरिया दम्भसंधारगं दुरूह, दुरूहित्ता For Private 'तए गं से ' इत्यादि, ततस्तद्दिव्यं चरत्नम् अष्टाहि कायां महामहिमायां निर्वृतायां जातायां सत्याम् श्रायुधगृहशालातः प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य च अन्तरिक्षं प्रतिपन्नं नभःप्राप्तं यक्षसहस्रसम्परिवृतं चक्रधरचतुर्दशरनानां प्रत्येकं देवसहस्राधिष्ठितत्वात्, दिव्यत्रुटितशब्दसनिनादेन पूर्वव्याख्यातेन श्रपूरयदिवाम्बरतलं - शब्दाद्वैतं नमः कुर्वदिवेत्यर्थः, विनीतायाः राजधान्याः मध्यं मध्येन मध्यभागेनेत्यर्थः, निर्गच्छति, निर्गत्य च गङ्गानाम्न्या महानद्या दाक्षिणात्ये फूले, उभयत्र शब्दो वाक्यालङ्कारे, समुद्रपार्श्ववर्तिनि तटे इत्यर्थः । अयं भावः - विनीतासमश्रेणी हि प्राच्यां वहन्ती गङ्गा मागधतीर्थस्थाने पूर्वसमुद्रं प्रविशति, इदमपि मागधतीर्थसिसाधयिषया पूर्वा दिशं यियासुः अनुनदीतटमेव गच्छति, तच्च तटं दक्षिणदिग्बर्त्तित्वेन दा क्षिणात्यमिति व्यवह्रियते श्रत एव दाक्षिणात्येन कलेन पूर्वी दिशं मागधतीर्थाभिमुखं प्रयातं चलितं चाप्यभवत्, एतच्च प्रयाण प्रथमदिने यावत् क्षेत्रमतिक्रम्य स्थितं तावद् योजनमिति व्यवहूरियते तश्च प्रमाणाङ्गुलनिपन्नतया भरतचक्रिणः स्कन्धावारः स्वशक्त्यैव निर्वह ति, अन्येषां तु दिव्यशक्त्या इति वृद्धाः । तदः किं जातमित्याह - ' तर ' इत्यादि, उक्तार्थप्रायं किमवादीदिस्याह - ( खिप्पामेव त्ति ) क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! श्रा भिषेक्यम् - अभिषेक योग्यं हस्तिरत्नं पट्टहस्तिनमिति भावः । प्रतिकल्पयत-सजीकुरुत. हयगजरथप्रवरयोधकलितां तुरणिङ्गीम्, अत्र चतुः शब्दस्याssवं प्राकृतसूत्रेण उक्तैरेवाa. प्रकारां सेनां सन्नाहयत सन्नद्धां कुरुत, शेषं प्राग्वत्, 'तर गं' इत्यादि, अत्र यावत्शब्दात् पुरिसा भरणं ररणा एवं वृत्ता समाणा हट्टतुट्ठचित्तमादिश्रा ' इति ग्राह्यम् दयं चाभ्युपगमसूत्र मिश्रप्राज्ञाकरणसूत्रं स्पष्ट च Personal Use Only Page #1452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२६) भरह अभिधानराजेन्द्रः। मिति । अथ भरतो दिग्यात्रायियासया यं विधिमकार्षीत. मागधतीर्थस्य दूरं च-विप्रकृष्टं सामन्तंच-पासनं दूरसा. तमाह-'तए णं' इत्यादि, स्नानसूत्र पूर्ववत् , 'हये'त्यादि, मन्तं ततोऽन्यत्र, नातिदरे नात्यासन्न इत्याशयः । द्वादशहयगजरथाः प्रवराणि वाहनानि बेसराऽऽदीनि भटा-यो । योजनाऽऽयामं नवयोजनविस्तीर्ण वरनगरसदृशं विजययुद्धारस्तेषां (चडगर पहकर त्ति) विस्तारवृन्दम् , इदं च क्लः स्कन्धावार:-सैन्यं तस्य निवेश स्थापनां करोति.कृत्वा देशीशब्दद्वयं, नेन संकुलया-व्याप्तयां सेनया सामितिः च बर्द्धकिरलं-सूत्रधारमुख्यं शब्दयति. शब्दयित्वा च एशेषः। प्रथितकीर्तिभरतो यत्रैव बाह्योपस्थानशाला यत्रैव यत्रय बायोपस्थानशाला यत्रैव वमवादीदिति, किमवादीदित्याह-'खिप्पामेव त्ति' क्षिप्रमे. चाभिषेक्यं हस्तिरत्नं तत्रैयोपागच्छति, उपागत्य च अज. व भो देवानुप्रिय ! मम कृते आवास पौषधशालां च, नगिरेः कटको-नितम्बभागस्तत्सन्निभमेतावत्प्रमाणमुच्चत्वे. तत्र पौषधं-पर्वदिनानुष्ठेयं तप उपचासाऽऽदिः, तदर्थ नेत्यर्थः । गजपति-राजकुञ्जरं नरपतिर्दुरूढे इति-प्रारूढ शाला गृहविशेषः , तां कुरु, कृत्वा मम एतामाक्षइति । श्रारूढश्च कीदृशया ऋद्धया चक्ररत्नोपदर्शितं स्था प्तिकां प्रत्यर्पयति । ' तए णं' इत्यादि स्पष्टुं, नवरम् नं याति ?, तदाह-'तए णं' इत्यादि , ततः स भरताधिपो 'श्रावसहं' आवासमिति । अथ भरतः किं चके - भरतक्षेत्रपतिः, स च भरताधिपदेवोऽप्यतो नरेन्द्रः प्रस्ता. त्याह-'तपणं ' इत्यादि, ततः स भरतो राजा श्रावाद् वृषभसूनुः , चक्री इत्यर्थः । एतेनास्यैवाऽऽलापकस्यो भिषेक्याद् हस्तिरत्नात् . प्रत्यपरोहति, प्रत्यवाह्य च यत्रैत्तरसूत्रे ' नरिंदे त्ति' पदेन न पौनरुक्त्यमिति । 'हारोत्थये' व पौषधशाला तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च पौषधशालास्थादि, विशेषणत्रयं प्राग्वत् . नरसिंहः सूरत्वात् , नरपति. मनुप्रविशति, अनुप्रविश्य च पौषधशालां प्रमार्जयति, स्वामित्वात् , नरेन्द्रः परमैश्वर्ययोगात् , नरवृषभः स्वीकृत प्रमाय च दर्भसंस्तारकं संस्तृणाति, संस्तीर्य च दकृत्यभरनिर्वाहकत्वात् , ' मरुद्राजवृषभकल्पो' मरुतो-देवा र्भसंस्तारकं दुरूहति-पआरोहति, पारुह्य च मागधव्यन्तराऽऽदयस्तेषां राजानः-सन्निहिताऽऽदय इन्द्रास्तेषां तीर्थकुमारनाम्नो देवस्य साधनायेति शेषः। अथवामध्ये वृषभा-मुख्याः सौधर्मेन्द्राऽऽदयस्तरकल्पः तत्सदृश चतुर्थ्यर्थे षष्ठी, तेन मागधतीर्थकुमाराय देवाय, अष्टमइत्यर्थः , अभ्यधिकराजतेजोलचम्या दीप्यमान इति स्पष्ट , भक्त समयपरिभाषयोपवासत्रयमुच्यते । यद्वा-अष्टमभक्तमि प्रशस्तैमङ्गलशतैः-मङ्गलसूचक बचनैः कृत्वा स्तूयमानो बन्दि. ति सान्वयं नाम, तच्चैवम्-एकैकस्मिन् दिने द्विवारभोभिरिति शेषः, 'जयसहकयालोए' इति प्राग्वत् । हस्तिस्क. जनौचित्येन दिनत्रयस्य षमा भक्तानामुत्तरपारणकदिनयोम्धवरं गतः-प्राप्तः । केन सहेत्याह-सकोरएटमाल्यदाम्ना रेकैकस्य भक्तस्य च त्यागेनाष्टमं भक्तं त्याज्यं यत्र तथा, छत्रेण नियमापन सह'। कोऽर्थः? यदा नृपो हस्तिस्कम्धग. प्रगृह्णाति, अनेनाऽऽद्वारपौषधमुक्त, प्रगृह्य च पौषधशालायां तो भवति तदा छन्नमपि हस्तिस्कन्धगतमेव ध्रियते, अन्यथा 'पौषधिकः' पौषधवान् , पौषधं नामेहाभिमतदेवतासाध. छत्रधरणस्थासङ्गतत्वात् एवं श्वेतवरचामरैरुदयमानः-बी. नार्थकव्रतविशेषोऽभिग्रह इति यावत् , न त्वेकादशवतरूप. ज्यमानैः सह इति । तेन " गयई णरचई दुरूढे ". इति पूर्वसूत्रेण सहास्य भेदः, अधिकार्थप्रस्तावनार्थकत्वा. स्तद्वतः सांसारिककार्यचिन्तनानौचित्यात् । नन्वेबमेकाद. दस्थ यक्षाणां-देवविशेषाणां सहस्राभ्यां संपरिवृतः, चक्र. शघृति कोचितानि तद्वतो ब्रह्मचर्याऽऽधनुष्ठानानि सूत्रे कथवर्निशरीरस्य व्यन्तरदेवसहस्रद्वयाधिष्ठितत्वात् । (वेस. मुपात्तानि ?, उच्यते-ऐहिकार्थसिद्धिरपि संवरानुष्ठानपू. मणे चेष धणवई इति) वैश्रमण इव धनपतिः अमरपतेः बिकैव भवतीत्युपायोपेयभावदर्शनार्थम् , अभयकुमारमन्त्रि सन्निभया ऋद्ध्या प्रथितकीत्तिर्गनाया महानद्या दाक्षिणात्य. श्रीविजयराजधम्मिलाऽऽदीनामिव , अतः परमजागरूक. कूले उभयत्र ‘णं' शब्दो प्राग्वत् । अथवा-सप्तम्यर्थे तृतीया, पुण्यप्रकृतिकाः संकल्पमात्रेण सिसाधयिषितसुरसाधनसिप्रामाऽऽकराऽऽदीनां-प्राक्प्रथमारकवर्णने युग्मिवर्णनाधि. द्विनिश्चयं जानाना जिनचक्रिणोऽतिसातोदयिन: कटानुष्ठा. कारे उक्तस्वरूपाणां सहस्त्रैमण्डितां तदानीं वासवुहुलत्वाद्भ- नान Sप्टमाऽऽदो नोपतिष्ठन्ते, किन्तु मागधतीर्थाधिपाऽऽदि: रतभूमेः स्तिमितमेदिनीकां प्रस्तुतनृपस्य प्रजानियत्वात् सुरः प्रभुणा हृदि चिन्तितः सन् गृहीतप्राभृतकः सहसैव स्तिमिता-निर्भयत्वेन स्थिरा मेदिनी-मेदिन्याश्रितजनो सेवार्थमभ्युपैति । यदाहुः श्रीहेमचन्द्रसूरिपादाः श्रीशान्तिना. यस्यां सा तथा तां. बहुव्रीहिलक्षणः प्रत्ययः , अत्र थचरिलेमेदिनीशब्देन ' तास्थ्यात्तव्यपदेश' इति न्यायात्तनिवासी " ततो मागधतीर्थाभि-मुखं सिंहासनोत्तमे। जनो लक्ष्यते, एवंविधां वसुधाम् अभिजयन् अभिजयन् जिगीषुरप्यनाबद्ध-विकारी न्यषदत् प्रभुः ।। १ ॥ तात्याधिपवशीकरणेन स्व वशे कुर्वन् स्ववशे कुर्वन् इत्यर्थः, ततो द्वादशयोजन्यां, तस्थुषो मागधेशितुः । अग्र्याणि वराणि-अत्यन्तमुत्कृष्टानि रत्नानि-तसजातिप्र. धानवग्तूनि आज्ञावशंवदीकृततत्तहशाधिपाऽऽदिप्राभृतीक सिंहासनं तदा सद्यः, खञ्जपादमियाऽचलत् ॥ २॥" तानि प्रतीच्छन् प्रतीच्छन् गृह्णन् गृह्णन् तहिव्यं, चकर- इत्यादि । यनु श्रामण्य जगद्गुरवो दुर्विषहपरिषहाऽऽदीन, नमनुगच्छन् , चक्ररत्नगत्यङ्कितमार्गेण चलग्नित्यर्थः योजनं- सहन्ते तत्कर्मक्षयार्थमिति । अनेनैव साधम्यण पौषधशब्दप्र. चतुःक्रोशात्मक नदन्तरिताभिसतिभिर्विश्रामैर्वसन व. वृत्तिरपि, यथा चास्य पौषधवतेन साधर्म्य तथा चाऽऽह. सन् । प्रथमर्थः-एकस्मद्विश्रामाद्योजनं गत्वा परं विश्राममु ब्रह्मचारी-मैथुनपरित्यागी, अनेन ब्रह्मचर्यपौषधमुक्तम . उन्मु पादत्त इति, यत्रैव मागधतीर्थ तत्रैवोपागच्छति, तोपागतः लमणिसुवर्णः-त्यक्तमणिस्वर्णमयाऽऽभरणः व्यपगतानि मा. सन किं चकारन्याह-उवागच्छुित्ता' इत्यादि उपागत्य च | लावर्णकविलेपनानि यम्मात् स तथा, वर्णकं चन्दनम् । अनेन Page #1453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह अभिधानराजेन्द्रः। पदद्वयेन शरीरसत्कारपौषधमुक्तं. निक्षिप्त-हस्ततो विमुक्तं तवणिजबद्धचिंधं ददरमलयगिरिसिहरकेसरचामरवालदशस्त्रं-रिकाऽऽदि मुसलं च येन स तथा , अनेनेष्टदेवता. चंदधिं कालहरिप्ररत्तपीअसुकिल्लबहुराहारुणिसंपिणद्धचिन्तनरूपमेकं व्यापार मुक्त्वाऽपरव्यापारत्यागरूगं पीष जीवं जीवितकरणं चलजीवं धणुं गहिऊण से णरवाई धमुक्तं, दर्भसंस्तारोपगत इति व्यक्तम् , एक श्रान्तरव्य. करागादिसहायवियोगात अद्वितीयस्तथाविधपदात्यादिस. उसुं च वरवइरकोडिअं वइरसारतोंड कंचणमणिकणगरयहायविरहात्, अष्टमभक्त प्रतिजाग्रत् प्रति जाग्रत्-पालयन् | णधाइट्टसुकयपुख अणगमाणरयणावावहसुावरइयनामाचध पालय विहरति-ग्रास्ते इति। 'तए णं' इत्यादि , ततः स वइसाह ठाइऊण ठाणं आयतकम्मायतं च काऊण उसुमुभरतो राजाऽष्टमभक्त परिणमति-पूर्यमाणे -परिपूर्णप्राये इत्यर्थः । अत्र वर्तमाननिर्देशः श्रासन्नातीतत्वात् 'सत्सामी. दारं इमाई वयणाई तत्थ भाणिय से णरबईप्ये सद्वद्वा । (श्रीसिद्ध००५ पा०४ सू. १) इत्यनेन, "हंदि मुणतु भवतो, बाहिरओ खलु सरस्स जे देवा । पौषधशालातः प्रतिनिष्कामति पौषधशालातः प्रतिनिष्क म्य च यत्रैव बाह्योपस्थानशाला तत्रैवोपागच्छति, उपा. णागा सुरा सुवमा, तेसिं खु णमो पणिवयामि ॥१॥ गत्य च कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति , शब्दयित्वा हंदि सुणतु भवतो, अभितरो सरस्स जे देवा।। चैवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! हयगजरथ- णागा सुरा सुबमा, सव्वे मे ते विसयवासी ॥२॥" प्रवरयोधकलितां चतुरङ्गिणी सेनां सबाहयत , चतस्रो. तुराङ्गणा सना सन्नाहयत , चतना- इति कह उसुं णिसिरइ तिघण्टाश्छत्रिकै कदिशि तत्सद्भावात अवलम्बिता चात्र स "परिगरणिगरिअमज्झो, वाउडुअसोभमाण कोसेजो। तथा तं , चकारः समुच्चये, स चाश्वरथमित्यत्र योजनी यः , अश्ववहनीयो रथोऽश्वरथो नियुक्तोभयपार्श्वतुरङ्गमो चितेगा सोभाए धणु-वरेण इंदो न पच्चक्खं ॥ ३ ॥ रथ इत्यर्थः , अनेनास्य सांग्रामिकरथस्वमाद , तं प्रतिक तं चंचलायमाणं, पंचमिचंदोवमं पहाचावं। ल्पयत-सजीकुरुत इति कृत्वा कथयित्वा आदिश्येत्यर्थः , छज्जइ वामे हत्थे, णरवइणो तम्मि विजयम्मि ।। ४॥" मज्जनगृहमनुप्रविशतीति , 'अणुपविसित्ता' इत्यादि, अ. नुप्रविश्य च मज्जनगृहं समुक्काजालाऽऽकुलाभिरामे इत्यादि, तए णं से सरे भरहणं रमा णिसट्टे समाणे खिप्पातथैव प्रागुनाऽऽस्थानाधिकारगमवदित्यर्थः. यावद् धवल. मेव दुवालस जोअणाई गंता मागहतित्थाधिपतिस्म देमहामेघनिर्गतो यावन्मजनगृहात्प्रतिनिष्कामति , प्रतिनि. वस्स भवणंसि निवइए । तए णं से मागहतित्यादिवई कम्य च हयगजरथप्रवरवाहनयावत्पदात्- ' भडचडगर- देवे भवणंसि सरं णिवइ पासइ, पासित्ता आसुरुपहगरसंकुल त्ति' ग्राह्य, सेणाए (बई) पहिअकित्ती' इ. त्यादि प्राग्वत् , अत्र निष्ठितपैौषधस्य सतो मागधतीर्थमभिः ते रुटे जंडिक्किए कुविए मिसिमिसेमाणे तिवलिअं यियासोर्भरतस्य यत् स्नानं तदुत्तरकालभाविवलिकर्माऽऽद्य भिउदिणिडाले साहरइ, साहरित्ता एवं बयासी-केस थे, यदाह श्रीहेमचन्द्रसूरिपादा आदिनाथचरित्रे-" राजा। णं भो एस अपस्थिअपत्थर दुरंतपंतलक्खणे हीणसर्वार्थनिष्णात-स्ततो यलिविधि व्यधात् । यथाविधि वि. पुणचाउद्दसे हिरिसिरिपरिवञ्जिए जे णं मम इमाए धिज्ञा हि, विस्मरन्ति विधि नहि ॥१॥” इति, अत्र च | सूत्रेऽनुक्तमपि वलिकर्म " व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्तिः" इति एमाणुरूवाए दिवाए देचिद्धीए दिवाए देवजुई। न्यायेन ग्राह्यमिति। (संक्षेपतस्तद्विधिः 'पृया' शब्देऽ- दिव्वण दिव्वाणुमावण लाए पत्ताए दिव्वेणं दिव्वाणुभावेणं लद्धाए पत्ताए अभिसमामास्मिमेव भागे १०७३ पृष्ठे गतः) गयाए उप्पि अप्पुस्सुए भवणंसि सरं णिसिरह त्ति अथ कृतलानाऽऽदिविधिर्भरतो यच्चके तदाह कटु सीहासणाओ अब्भुढेइ, अभुद्वित्ता जेणेव से तए णं से भरहे राया चाउग्घंटं आसरह दुरूढे समाणे णामाहयंके सरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं हयगयरहपवरजोहकलिआए सद्धिं संपरिबुडे महयाभडच. णामाहयक सर गेएहइ, णामकं अणुव्ववाएइ, णामक डगरपहगरवंदपरिक्खित्ते चक्करयणदेसिसमग्गे अणेगराय अणुप्पवाएमाणस्स इमे एप्रारूवे अभथिए चिंतिए वरसहस्साणुायमग्गे महया उक्किटुसीहणायबोलकलकल पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था-उप्पो खलु भो! खेणं पक्खुभित्रमहासमुहरवभूअं पिव करेमाणे करेमाणे पुरच्छिमदिसाभिमुहे मागहतित्येणं लवणसमुदं भोगाइ, जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे भरहे णाम राया चाउरतचक्कवट्टी नाव से रहवरस्स कुप्परा उल्ला। तए णं से भरहे राया तुरगे तं जीप्रमेयं तीअपचुप्पणमणागयाणं मागहतित्थकुमानिगिएहइ,तुरगे निगिणिहत्ता रहं ठवइ,रई ठवित्ता धणुं परा राणं देवाणं राईणमुवत्थाणीअं करेत्तए, तं गच्छामि णं मुसइ । तए णं तं अइरुग्णयबालचंदइंदधणुसंकासं वरमहिस अहं पि भरहस्स रमो उवत्थाणीअं करेमि त्ति कहु एवं संपेदरिअदप्पिदढयणसिंगरइअसारं उरगवरपचरगवलपवरप- हेइ, संपेहिता हारं मउडं कुंडलागि कडगाणि अतुडिरहुअभमरकुलणीलिणिद्धधंतधोअपट्ट णि उणोविअमिप्ति- आणि अ वत्थाणि अाभरणाणि असरं च णामाहमिसिंतमणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्तं तडितरुणकिरण- यंकं मागहतित्योदगं च गेएहद, गिरिहना ताए उकिट्ठाए Page #1454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह (१४३१) अभिधानराजेन्द्रः। तुरिमाए चवलाए जयणाए सीहार सिग्याए उद्धयाए य सुदंसणे णरवइस्स पढमे चकरयणे मागहतित्थकुमादिचाए देवगईए वीईवयमाणे वीईवयमाणे जेणेच भ स देवस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिवत्ताए समारहे गया तेणेव उवागच्छउवागच्छित्ता अंतलिक्खपडि- णीए पाउडघरमालाओ पडिणिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता वमे सखिखिणीआई पंचवमा बत्थाई पचरपरिहिए क दाहिणपच्चच्छिमंदिसिं वरदामतित्थाऽभिमुहे पयाए याऽस्खलपरिग्गहिअंदसणहं सिर० जाव अंजलि कटु भरह वि होत्था । (सूत्र-४५) रायं जएणं विजएणं बद्धावेइ, बद्धावेत्ता एवं बयासी 'तए गा' इत्यादि , ततः स भरतो राजा चतुर्धएट मश्वरथमारूढः सन् हयगजरथप्रवरयोधकलितया , अ. अभिजिए णं देवाणुप्पिरहिं केवलकप्पे भरहे वासे पुर- र्थात् सेनया इति गम्यं , सार्द्ध संपरिवृतः (महया इति)म. छिमेणं मागहतित्थमेराए तं अहवं देवाणुप्पिाणं विस- हाभटानां (चडगर त्ति) विस्तारवन्तः (पहगर त्ति)समूहास्ते. यवासी अहम देवाणुप्पिाणं आणत्तीकिंकरे अहामं दे षां यद्वन्दं-समूहो विस्तारवत्समूह इत्यर्थः तेन परिक्षिप्तः वाणुप्पियाणं पुरच्छिमिल्ले अंतवाले तं पडिच्छंतु णं दे परिकरितः चक्ररत्नादेशितमार्गः,अनेकेषां राजवराणाम्-श्रा. वाणुप्पिा ! ममं इमेप्रारूवं पीइदाणं ति का हारं मउडं बद्ध-मुकुटराज्ञां सहस्ररनुयातः-अनुगतो मार्गः-पृष्ठं यस्य स तथा, महता तारतरेण उत्कृष्टिः-श्रानन्दध्वनिः सिंहना. कुंडलाणि अकडगाणि अजाव मागहतित्थोदगं च उव. दः प्रतीतः,बोलो-वर्णव्यक्तिरहितोध्वनिः,कलकलव-तदित. णइ । तए णं से भरहे राया मागहतित्थकुमारस्स देवस्स रो ध्वनिस्तलक्षणो यो रवस्तेन प्रक्षुभितो महावायुवशादुत्कइपेयारूवं पीइदाणं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता मागहतित्थकु- लोलो यो महासमुद्रस्तस्य रवं 'भूद्ध प्राप्तों' इति सौत्रो मारं देवं सकारेइ,सम्माणेइ,सम्माणित्ता पडिविसओइ । तए धातुरिति वचनाद् भूत-प्राप्तमिव दिग्मण्डलमिति गम्यते कुर्वनपि,चशब्दोऽत्र हवाऽऽदेशोशातव्यः,पूर्वदिगभिमुखो मा. णं से भरहे राया रहं परावत्तेइ, परावत्तित्ता मागहतित्थेणं गधनाम्ना तीर्थेन-घट्टेन लवणसमुद्रमवगाहते-प्रविशति, लवणसमुद्दामो पच्चुत्तरइ, पच्चुत्तरिता जेणेव विजयखं कियदवगाहते ?,इत्याह-यावत् (से तस्य रथवरस्य कूपरावि. धावारणिवेसे जेणेव बाहिरिपा उवट्ठाणमाला तेणेव उ-| व परौ कृपराऽऽकारत्वात् पिञ्जनके इति प्रसिद्धौ रथावय. वागच्छइ,उवागच्छित्ता तुरए णिगिएहड, णिगिणिहत्ता रह चौपार्टी स्याताम, अत एव सूत्रबलादन्यत्र एतदासम्नभूतो. रथचक्रनाभिरूपोऽवयवो विवक्ष्यते । यदाह-"रथाङ्गनाभि. ठवेइ,ठवेइत्ता रहाओ पच्चोरुहति,पच्चोरुहिता जेणेच मजण द्वयसं. गत्वा जलनिर्जलम् । रथस्तस्थौ रथायस्थ-सारथि. घरे तेणेव उवागच्छति,उवागच्छित्ता मजणघरं अणुपवि- स्खलितैहयैः ॥१॥" इति । 'तए णं' इत्यादि, ततः स भर. सड़,अणुपचिसित्ता०जाव ससिव्व पिपदसणे गरवईमज-- तो गजा तुरगान निगृह्णाति, अत्र तुरगाविति द्विवचनेन ह. णघरानो पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमिचा जेणव भोप- यद्विक व्याख्यायमाने सूत्रार्थसिद्धौ सत्यामपि वरदामसूत्रेणमंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भोअणमंडवंसि हयचतुष्टयस्य वक्ष्यमाणत्वात् बहुवचनेन व्याख्या. निगृह्य च रथं स्थापयति स्थापयित्वा च धनुः परामृशति-स्पृशसुहासणवरगए अट्ठमभत्तं पारेइ, पारत्ता भोषणमंडवानो ति, अथ यादृशं परामर्श तादृशं धनुर्वर्ण यन्नाह -'तए णं' पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठा- इत्यादि, ततो-धनुःपरामशीनन्तरं स नरपतिरिमानि-व. णसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता क्ष्यमाणानि वचनानि (भाणिप्रति प्रभाणीदिति सम्बन्धः, सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे णिसीअइ, णिसीइत्ता अ किं कृत्वेत्याह-धनुर्गृहीत्वा 'किंलक्षणमि' त्याह-तत्-प्रसिद्धं अचिरोद्तो यो बालचन्द्र शुक्लपक्षद्वितीयाचन्द्रस्तेन,यसु उ. द्वारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेइ. सहावेत्ता एवं बयासी तरसूत्रे पंचमिचंदोवममिति' तदारोपितगुणस्यातिवक्रताशा. खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! उस्सुकं उक्करंजाच मागहति पनार्थमिति, इन्द्रधनुषा च वक्रतया सन्निकाशं-सदृशं यत्त. स्थकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिश्र महामहिमं करेह, करेत्ता मम सथा , सप्तः-दपितो द्वयोः समानार्थयोरतिशयवाचकत्वेन एप्रमाणत्तिअंपचप्पिणह । तए णं ताओ अट्ठारस सेणिप्प सातदतिशयो यो बरमहिषः-प्रधानसेरिभो, विशेषणपसेणीओ भरहेणं रस्मा एवं वुनाओ समाणीओ हट्ठजाव क. रनिपातःप्राकृतत्वात् तस्य दृढानि निबिडपुद्गलनिष्पन्नानि अत एव धनानि-निच्छिद्राणि यानि शृङ्गाप्राणि तैरचितं सार ति, करेत्ता एमाणत्ति पञ्चप्पिणंति । तए णं से दिव्वे च यत्तसथा, उरगवरो-भुजगवरः प्रवरगवसं-वरमहिषश्टकं चक्करयणे वइरामयतुंबे लोहिअक्खामयाऽरए जंबूणयणेमिए प्रवरपरभृतो-वरकोकिलो भ्रमरकुलं-मधुकरनिकरी नीली. णाणामणिखुरप्पथालपरिगए मणिमुत्ताजालभूसिए सणं- गुलिका, एतानीव स्निग्ध-कालकान्तिमत् ध्मातमिव ध्मातं दिघोसे सखिखिणीए दिब्वे तरुणरविमंडलणिभे णाणा च तेजसा ज्वलद्धौतमिव धौतं च-निर्मलं पृष्ठं-पृष्ठभागो यस्य मणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्ते सम्बोउअसुरभिकुसुम तत्तथा,निपुणेन शिल्पिना श्रोपितानाम-उज्ज्वालितानां (भिसि मिसिंत सिदेदीप्यमानानां मणिरत्नघण्टिकानां यजालं तेन आसत्तमल्लदामे अंतलिक्खपडिवाणे जक्खसहस्ससंपरिखुडे परिक्षिप्त-वेष्टितं यत्तत्तथा, तडिदिव--विद्युदिव तरुणाः-प्रत्यदिनडिअसहसमिणादेणं पूरेते चेव अंबरतलं पामेण । प्राः-किरणा यस्य तत्तथा,एवंविधस्य तपनीयस्य सम्बन्धीनि Page #1455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४३२) अभिधानराजेन्द्रः। बद्धानि बिहानि-लान्छनानि यत्र तत्तथा, दर्दरमलयाभि- मस्कार्यत्वमनुपपन्नम्? उच्यते-क्षत्रियाणां शस्त्रस्य नमस्काधौ यौ गिरी, तयोर्यानि शिखराणि तत्सम्यधिनो ये केसराः | र्यत्वे व्यवहारदर्शनात् चक्ररत्नस्येव, तेन तदधिष्ठासिंहस्कम्बकेशाः, चामरबाला-चमरपुच्छकेशाः, एव चो- तृणामपि स्वाभिमतकृत्यसाधकत्वन नमस्कायव नानुकगिरिद्वयसकानामतिसुन्दरत्वेनोपादानम् , अर्द्धचन्द्राश्च- पपत्रमिति, इति कृत्वा-निवेद्य इषु निसृजति-मुञ्चखएउचन्द्रप्रतिबिम्बानि चित्ररूपाणि पतादृशानि चिह्नानि | ति । अथ भरतस्यैतत्प्रस्ताववर्णनाय पदद्वयमाहयत्र तत्तथा, यस्य धनुषि सिंहकेसराः वध्यन्ते स महान् | ( परिगर त्ति ) परिकरेण-मल्लकच्छबन्धेन युद्धोचितशूर इति शौर्यातिशयख्यापनार्थ, चमरचालबन्धनम् अर्द्ध। वस्त्रबन्धविशेषेणेत्यर्थः, निगडित-सुबद्धं मध्यं यस्य स चन्द्रप्रतिबिम्बरूपं च शोभातिशयार्थमिति, कालाऽऽदिवर्णा- तथा, वातेन-प्रस्तावात् समुद्रवातेनोद्धृतम्-उत्क्षितं शोभयाः 'एहारुणि ति' नायवः शरीरान्तबास्ताभिः सम्पिन मानं कौशयं-वस्त्रविशेषो यस्य स तथा, चित्रण धनुर्वरेखा खा-बद्धा जीवा-प्रत्यञ्चा यस्य तत्तथा, जीविताम्तकरण,शः। शोभते स भरत इत्यध्याहारः, इन्द्र इव प्रत्यक्ष-साक्षात् त. णामिति गम्यम् , ईशधनुमुको वाणोऽवश्यं रिपुजयीत्यर्थः, प्रागुक्तस्वरूपं महाचापं चञ्चलायमान-सौदामिनीयमानं 'चलजीवमिति' विशेषणं वेतवर्णकवृत्तौ षष्ठाले श्रीअभय. कान्तिझात्कारेणेत्यर्थः, आरोपितगुणत्वेन पञ्चमीचन्द्रोपमं देवमूरिभिर्न व्याख्यातमिति, न व्याख्यायते, यदि च-भू. (छज्जा ति) राजते । ‘राजेरग्घछज्जसहरीररेहाः ' यस्सु जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्राऽऽदर्शषु दृश्यमानत्वात् व्याख्या. ॥८।४।१०० । इति प्राकृतसूत्रेण रूपसिद्धिः, वामहस्ते तं विलोक्यते तदा टनरकरणक्षणे चला-चञ्चला जीवा नरपतरिति, तस्मिन् विजये-मागधतीर्थेशसाधने इति । यस्य तत्तथा, पुनः किंकृत्येत्याह-(उसुं च त्ति ) पुंच 'तए णं' इत्यादि, ततः स शरो भरतेन राक्षा निसृष्टः गृहीत्वा, तमेव विशिनष्टि-वरवज्रमय्या कोट्यौ-उभयप्रा. सन् क्षिप्रमेव द्वादश योजनानि गत्वा मागधतीर्थाधिपतेन्तो यस्य स तथा, बहुव्रीहिलक्षणः कप्रत्ययः, वरखज- देवस्य भवने निपतितः, ततः किं वृत्तमित्याह-'तर ण' बत् सारम्-अभेद्यत्वेनाभङ्गुरं तुण्डं-मुख विभागो भल्ली. इत्यादि, ततः स मागधपतिर्देवो भवने अर्थात्-स्वकीये रूपो यस्य स तथा तं, काञ्चनबद्धा मणयः-चन्द्रकान्ता। शरं निपतितं पश्यति, इष्ठा च प्राशु-शीघ्रं रुप्तः-क्रोधो. अद्याः कनकबद्धानि रत्नानि-कर्केतनाऽऽदीनि प्रदेशविशेषे दयाहिमूढा, रुप लुप च विमोहने' इति वचनात्, स्फुयस्य स धोत इव धोतो निर्मलस्वात ष्टो-धानुष्काणा. रितकोपलिङ्गो वा, रुष्टः-उदितकोधः चाण्डिक्यित:-स. मभिमतः सुकृतो-निपुणशिल्पिना निर्मितः पुख:-पृष्ठभागो आतचाण्डिक्यः, प्रकटितरौद्ररूप इत्यर्थः, कुपितः-प्रवृद्धयस्य स तथा तम्, अनेकर्मणिरत्नविविध नानाप्रकारं सुवि कोपोदयः,(मिसिमिसेमाणे ति) क्रोधाग्निना दीप्यमान इव, रचितं नामचिलं-निजनामवर्णपतिरूपं यत्र स तथा तं, एकार्थिका चैते शब्दाः को पप्रकर्षप्रतिपादनार्थमुक्ताः त्रिवलि. पुनरपि किं कृत्येत्याह-वैशाख-वैशाखनामकं स्थानं पादन्या. कां-तिम्रो वलयः-प्रकोपोत्थललाटरेखारूपा यस्यां सा सविशेषक स्थित्वा कृत्वा, वैशाखस्थानकं चैवम्-'पादौ स. तथा तां भृकुर्टि-कोपविकृतभूरूपां संहरति-निवेशयति, विस्तरी कार्यों, समहस्तप्रमाणतः। वैशाखस्थानके वत्स! संहृत्य च एवमवादीत्, किमवादीदित्याह- केस णं' कूटलक्ष्यस्य बेधने ॥१॥' इति । भूयोऽपि किं कृत्स्याह- इत्यादि. ( केस त्ति) का अक्षातकुलशीलसहजत्वादनिर्दिइषुमुदारम् उद्भटमायातं-प्रयत्नयद् यथा भवत्येवं कर्ण या, टनामका, सकारः प्राकृतशलीभवः' मणसा वयसा काय. बदायातम् आकृष्ट कृत्वा इमानि वचनाम्यभाणीदिति, अ. सा' इत्यादिवत् 'णमिति' प्राग्वत्,भो इति सम्बोधने,देवानाम् न्वययोजनं तु पूर्वमेव कृतं,कानि तानि वचननीत्याह-इंदि' एषः-बाणप्रयोक्ता अप्रार्थितं-केनाप्यमनोरथगोचरीकृतं इति सत्ये, तेन यथाशयं वदामीत्यर्थः. अथवा-हन्दीति स. प्रस्तावात् मरणं तस्य प्रार्थकः-अभिलाषी । अयमर्थःम्बोधने, शृण्वन्तु भवन्तः, शरस्य-मत्प्रयुक्तस्य बहिस्तात् यो मया सह युयुत्सुः स मुमूर्षरेवेति, दुरन्तानि-दुष्टावस्वग्रभागे ये देवा अधिष्ठायकास्तदायाऽऽदिकारिणस्ते इत्य- सानानि प्रान्तानि-तुच्छानि-लक्षणानि-यस्य स तथा, ही. थेः, खलु वाक्यालङ्कारे, ते के इस्याह-नागा असुराः सुपर्णा नायां पुण्यचतुर्दश्यां जातोहीनपुण्यचातुहर्शः, तत्र चतुर्दशी गरुडकुमाराःतेभ्यः 'खुः' निश्चये, नमोऽस्तु विभक्तिपरिणा. किल तिथिजन्माऽऽधिना पुण्या पवित्रा, शुभा इति यावत् । मात् तान् प्रणिपतामि-नमस्करोमि, नम इत्यनेन गतार्थत्वे. भवति, सा च पूर्णाऽत्यन्तभाग्यवतो जन्मनि भवति, प्रत ऽपि प्रणिपतामीति पुनर्वचनं भक्त्यतिशयख्यापनार्थम्, अने. आक्रोशता इस्थमुक्तं, कचिद्-' भिन्नपुमचाउद्दसे त्ति' तत्र न शरप्रयोगाय साहाय्यकर्तृणां बहिर्भागवासिनां देवानां स. भिना परतिथिसलमेन भेदं प्राप्ता या पुण्य चतुर्दशी तस्यां म्योधनमुक्तम् , अथाम्यन्तरभागर्तिदेवानां सम्बोधनायाss जात इति. हिया-लज्जया श्रिया-शोभया च परिवर्जितः ह-हन्दीति प्राग्वत् . नवरमभ्यन्तरतो गर्भभागे शरस्य येऽ. यःणमिति' पूर्ववत, मम अस्या:-प्रत्यक्षानुभूयमानाया एत. धिष्ठायकास्तहााऽऽदिकारिण इत्यर्थः, तेऽत्र सम्बोध्या इत्य दूपाया एतदेव समयान्तरे भरत्वाऽऽदिरूपान्तरभाक् रूपं था, सर्वे ते देवा मम विषयवासिनो-मम देशवासिन इत्यर्थः। स्वरूपं यस्याः सा तथा तस्या दिव्याया:-स्वर्गसम्भवा. सूत्रे चैकवचनं प्राकृतस्यात् . इदं च वचनं सर्वे एते देवा मदा. याः प्रधानाया वा देवानामृद्धि:-श्री धनरत्नाऽऽदिसम्पत् मायशंवदधेन मदिष्टस्य शरप्रयोगस्य साहायकं करिष्यः। तस्याः,एवं सर्वत्र, नवरं द्युतिः-दीप्तिः शरीराऽऽभरणाऽऽदि म्नीस्याशयेनेति , यथाऽत्राऽदिचरित्राऽऽदौ शरस्य पुल सम्पत् तस्याः युतिर्वा-इष्टपरिवाराऽऽदिसंयोगलक्षणा तस्याः मुखरूपं देवाधिष्ठातव्यं स्थानद्वयमधिकमुक्तमस्ति तत्तयोःश | दिव्येन प्रधानन देवानुभावन-भाग्यमहिम्ना, अथवा-दिव्येनप्राधान्यख्यापनार्थ. मनु यद्यते देवा माझावशंवदास्तहिन देवसम्बन्धिमाऽनुभावन अचिन्त्यक्रिया दिकरण महिम्ना Page #1456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह वह पिता पुत्रेण सहायतादित्याया जम्मा प्राताया- इदानीमुपस्थिताया गतायाः- मोग्यतां गताया उपरि आत्मना उत्सुको-मनसकस परसम्पश्यभिलाषी पदव्यत्यया कामा वा भवन निसृजति, इतिकृत्वा सिंहासनादभ्युत्तिष्ठतीति । उत्थानानन्तरं यत्कर्त्तव्यं तदाह- जेणेव से साम इत्यादि यत्रैव स नामरूपोऽतः - अखण्डितः अङ्कः– विहं यत्र स तथा नामाङ्क इत्यर्थः एवंविधः शरस्तत्रैवोपाग च्छति तं नामाहताङ्कं शरं गृह्णाति नामकम् अनुप्रवाच यतिवर्षापूर्वीच पठति नामकमनुप्रपातो. वक्ष्यमाण एतद्रूपो - वक्ष्यमाणस्वरूप आत्मम्यधि अध्यात्म तत्र भव आध्यात्मिकः, श्रात्मविषय इत्यर्थः । स 1 यं " द्वयामा प्रका, चिस्तानका तत्र आद्यः स्थिराध्यवसायलक्षणस्तथाविधदृढसंहननाऽऽदिगुणोपेतानां द्वितीयावाध्यवसायास्तदितरेषामिति तयोर्मध्येऽयं मितिः- चिन्तारूपोतसो नवस्थितत्वात् स यानमि आयामको पिस्यादित्यत आह-प्रार्थितः प्रार्थनाविषयः श्रयं मम मनोरथः फलेग्रहि भूयादित्यभिलाषाऽऽत्मक इत्य र्थः मनोगतो - मनस्येध यो गतो न बहिर्वचनेन प्रका शित इति सङ्कल्पः समुदपद्यत तमेवाऽऽह उत्पन्नः खलुःनिये महामन्त्र विचाराभिमुख्यकरणाय स्वात्मन एव तेनेह मागधकुमारेति योज्यं, जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते " भरतो नाम राजा चातुरन्तचक्रवर्ती तत् तस्माज्जीतमेतत् अतीतप्रत्युत्पश्नानागतानां मागधतीर्थकुमाराणामिति मागचतीर्थस्याधिपतिः कुमारो मागधीकुमार मध्यपदलोपेन समासः कुमारपदवाच्यत्वं चास्य नागकु. मारजातीयत्वात् तन्नामकानां देवानां राज्ञां नरदेवानाम् उ पस्थानिक प्रावृतं कर्तुमि समिति प्रागवत् इमपि भरतस्य राश उपस्थानिकं करोमि, इति कृत्वा इति मनसिकृत्य पदार्थ संच यति ततः किं करोतीत्याह संपेसा' इत्यादि सम्मे हारादीनि प्रतीतानि चकारः सर्वत्र समुच्चय, शरं च भरतस्य प्रत्यर्पणाय नामाऽऽइसे नामाऽऽदामिति निर्देशे कर्त्तव्ये लाघवार्थमित्थमुपन्यासः, यद्वा-नाम श्रद्दतं लक्षणया लिखितं यत्र स तथा तं मागधतीर्थोदकं व राज्याभिषेकपयोगि एतानि गृह्णातीति सम्बन्धः । तदनः किवि इत्याह-निहिताि इ ( १४३३) अभिधानराजेन्द्रः । त्यादि, गृहीत्वा च तया दिव्यया देवगत्या गत्यालापकपायानामाना म इता बलेनाऽऽरब्धत्वात् यच पूर्वम् ऋषभदेवनिर्वाणकल्या. णाधिकारे गत्यालापककथनं यावत्पदेन अत्र च तत्कथ नं विस्तरेण तद्विवित्सूकारसेरिति गत यत्रेय भरत राजा चोपायति उपागस्य चान्तरिक्षप्रतिपनो-नभोगतो देवानामभूमिचारित्वात् किङ्किणीका.. निद्रघण्टिकाभिः सह गतानि पञ्चवर्णानि च वस्त्राणि प्रवरं विधिपूर्वकं यथा स्यात् तथा परिहितः परिद्दितवा न् यथा पश्चवर्णानि वस्त्राणि परिहितवान् तथा किङ्किपीत्यर्थः । किमुक्तं भवति १-किङ्किणीग्रहणेन तस्य न. डायोग्यचारित भरतेन प्रक E 1 " भरह डिना अथवा किङ्किणीसमुत्थशब्देन सर्वजन समर्थ सेव कोऽस्मि न तु मितिमा गत पवासकिीकानि निशां भाविपार्थ करतलपरिगृहीतं दशन शिरसाव मस्त अनि करणा भरतं राजानं जयेन विजयेन पपति विवादीत् अत्र प्राग्य व्याख्यानमिति । किमवादीदित्याह अभिजिए णं इत्यादि, अभिजितम् - श्री. शावशंवदीकृतं देवानुप्रियैः - वन्द्यपादैः केवलकरूपं - सम्पू· परा के पास भरतं वर्ष भर पूर्वस्यांमाग धतीर्थमर्यादया- मागधतीर्थं यावत्, तदहं देवानुप्रियाणां विपयवासी - देशवासी अत एवाई देवानुप्रियाणामाचतिकिङ्करः प्राहाकारी से देवाय पौरस्त्य:पूर्वदिषसम्बन्धी अतं- स्वदेश्वदेशसम्बन्धिनं पालयति रक्षपति उपद्रयादिभ्य इत्यन्यपालः पूर्वदिन्देशीकानां देवाऽऽद्दिकृतसमस्तोपद्रवनिवारक इत्यर्थः ' श्रहणं देवाणपिश्राणं' इत्यादिपदानां भिन्नभिन्नप्रकारेण योजनीयत्वादत्र 9 पौनगृह देयाः मम इदम्अत उपनीतं एत प्रत्यक्षानुभूयमानरूपं प्रीतिदानं सन्तोषदानं प्राभृतरूपमित्यर्थः, इतिकृत्वा - विज्ञप्य द्वारा. ssदिकमुपनयति - प्राभृतीकरोतीति ' तप णं इत्यादि, ततः स भरतो राजा मागधतीर्थकुमारनाम्नो देवस्य इदमेत• पं प्रीतिदानं तत्प्रत्युत्पादनार्थमलुब्यतया प्रतीच्छति गृ द्वाति, प्रतीष्य च मागधतीर्थकुमारं देवं सत्कारयति वना ssदिना, संमानयति तदुचितप्रतिपच्या सत्कार्य संमान्य प्रतिविसर्जयति-वस्थानमनाथानुमन्यते श्रथ तदुसरकर्त्तव्यमादत से भर गया रहे' इत्यादि ततः भरतो राजा र परावर्त्तयति भरतवर्षाभिमुखं करोति, परामानसमुद्रात् त्यतिप्रत्यय तीर्थ विजयस्वारनिवेशो या उप स्थानशाला तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च तुरगान् निगृह्णाति निगृह्य च रथं स्थापयति, स्थापयित्वा च रथात् प्रत्य धरोहति, प्रत्ययरुह्य च यचैव मञ्जनगृदं तत्रैयोपागच्छति उपागत्य च मज्जनगृदमनुप्रविशति, अनुप्रविश्य (जाव ति यावत्करणात् संपूर्णः स्नानाऽऽलापको वाच्यः, 'ससि व्व पिश्रसणे' इति वि शेप यावत् स च प्रायत् नपति मंजनात् प्रतिनिष्का मति प्रतिनिष्क्रम्य च यत्रैव भोजनमपस्तत्रैवोपा च्छति, उपागत्य व भोजनमण्डपे सुखाऽऽसन रगतः सन्नटमभक्तं पारयति, पारयित्वा च भोजनमण्डपात् प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य च यत्रेय बाह्योपस्थानशाला यत्रेय च सिहासनं तत्रैवागत उपागत्य च पाचसहाऽऽसन रगत पूर्वाभिमुख निर्वादति निषद्य अष्टादशश्रेणीः शब्दयति, शब्दयित्वा चैवमवादीदिति । अत्र सूत्रे लिपिमादाऽऽपतित एव दृश्यते. संग्राहकपदाभावात् अन्यत्र तहमाऽऽावदृश्यमानत्वारखेति, अथ किं• मवादीदित्याह (खिप्पामेव सि) सर्व प्रावात् यथा राजाऽऽ. शां पौरा विदधुस्तथा चाऽऽह 'तणं इत्यादि, व्यक्तं ततो मागतीर्थकुमारदेव विजयाधाडि का महा महिमानम्बरखं कीदृशं क च सञ्चारेस्याह-' तप णं' इत्यादि, सत " ● · - " Page #1457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह स्तद्दिव्यं चक्ररत्नं वज्रमयं तुम्बम् अरकनिवेशस्थानं यत्र त तथा, लोहिताक्षररत्नमया अरका यत्र तत्तथा, जाम्बून दं पीतसुवर्ण तन्मयो नेमिः धारा यत्र तत्तथा नानाम णिमयम् अन्तः तुरप्राकारत्वात् क्षुरप्ररूपं स्थालम् अन्तः प रिधिरूपं तेन परिगतं यत्तत्तथा, मणिमुक्ताजालाभ्यां भूषितं विदशविधा नन्दः " V : • षस्तेन सद्दगतं यत्तत्तथा सकिङ्किणीकं - क्षुद्रघण्टिकाभिः स हितं दिव्यमिति विशेषणस्य प्रागुक्तत्वेऽपि प्रशस्तताऽतिपानं तरविमण्डलानि नानामणिर परिक्षा सम्यो इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत्, नाम्ना व सुदर्शनं नरपतेः प्रथमं प्रधानं सर्वनेषु तस्य मुख्यत्वादेरि विजये सर्वत्रमत्वाच्च चक्ररत्नं प्रथमस्य 'पढमे बंदोंगे इत्यादी प्रधानार्थकत्वेन प्रयोगदर्शना दमसङ्गतिभाग व्याख्यानमिति मागधतीर्थकुमारस्य देव रूप अादिका महामहिमायां निवृत्तायां सत्याम् आयुधगृहशालातः प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य च दक्षिणप श्चिमां दिशं नैर्ऋतीं विदिशं प्रतीति शेषः, बरदावती भिमुखं प्रयातं - चलितं चाप्यभवत् । श्रयं भावः-शुद्धपूर्वास्थितस्य शुद्धदक्षिणवर्त्तिवरदामतीर्थे व्रजत आग्नेय्या. विदिशागमने - प्रतीचीदिशागमने वक्रः पन्थाः तेनैवमुकं, यच्च ऋषभचरित्रे - "दक्षिणस्यां वरदाम-तीर्थं प्रति ययौ ततः । चक्रं तच्चक्रवर्ती च धातुं प्रादिरिवान्वगात् ॥ १ ॥” इत्युक्तं तन्मूलजिगमिषितविक्षत् पश्चात्रं यरस्नस्य पूर्वतः दक्षिणदिशि गमनं तत् किमेण दिग्विजयसा धनार्थम् - " तयां से भरडे रावा तं दिव्वं चकरयणं दाणिपचचिमं दिसिं वरदामवित्याभिपापानि पास पा सिता तुकोबारिसे सहावे सहावित्ता एवं बयासी - खिप्पामेव भो देवाशुप्पिया ! हयगय रहपवर चाउरंगिणं साहेद आभिसेक हस्थिरयणं पढिक पेह तिकड मणघरं अणुपविसर, अणुपविसित्ता तेणेव कमेणं जाव० धवल महामेडग्गिए • जाव से वरचामरादि उकुब्वमागीहिं उब्वमागीहिं पाइपवरफलयपवरपरिंगरखेडपवश्वम्मपदीसहस्मक लिए उकडवरमउडतरीडपडागयवेजयतिचामरचलंतछत्तंधयारकलिए असिखेत्रशिखाचावणारायणप्पलिलउड मिडिबालपणुइतोसरपरखेड अ कालयील रुहिरपी अकिल्लमचिंधसय समिविट्टे अष्फोडिअसहाय छेलिश्रह यहे सिग्रहस्थगुलुगुलाबगरहसय सहस्राच तदम्यमाणइति सदसहिए जगसमगर्भ माहोरं भक्किगितखर मुहिमुकुंद विपरिलिगपरिवार शिसवेत्री पंचमतिकण्डम रिगिसिगिश्रफलवाल कंसतालकरधाणुत्थिदेण महता सद्द का एव. चामराणि चलन्ति छत्राणि तेषां सम्बन्धि यदन्धकार - छायारूपं तेन कलितः श्रत्रान्धकारशब्दान्तसमासप दास्यात्कवचनलोपो पर कलितइति पृथगेव तेन वक्ष्यमाणानन्तरसूत्रे कलितशब्दो योजनीयोऽम्यथा तत्स्थचकारस्य नैरथ्यंक्याऽऽपत्तेः, यद्वा श्रत्र सम स्तीऽपि कलितशब्दश्च कारकरणवलादेव तत्रापि योजनीय प्रस्तुविशेषाभावार्थ:-तको मुकु टाऽऽदिका तत्सैन्यस्य व व्यतिरिक्ता सामग्री तथा अस्ति यथाऽध्वनि मनागपि श्रातपक्लेशो नास्तीति, अत्र भरत सैम्यसम्बद्धा छाया भरतस्य विशेषणत्वेन सम्बते तो जयः स्वामिन्येवेति । सष्पिणादेख सयलमवि जीव लोगं पूर्यते बलवाइखसमुद- पुनर्भरतमेव विशिनष्टि - अलयः - खङ्गविशेषाः क्षिप्यन्ते एवं एवं जयस्वसहस्तपरिवुडे बेसमये चैव गवई अमरप सीगुटिका श्रभिरिति पिपादधनातिरि (१४३४) अभिधान राजेन्द्रः । > C · तिथिमाइ इडीए पहियकिसी गावागरखगरब्रेकम्पट वडेव संजय विजयखंधावारशिवेसे करे करिता बद इश्व सहावे सहा वित्ता एवं बयासी खिप्पामेव मो दोवापिश्रा ! मम आवसई पोसहसालं च करेहि, ममेअ. मायत्तित्र्यं पञ्चष्पिणाहि ! ( सूत्र ४६ ) भरह . 1 'तर णं इत्यादि ततः स भरतो राजा तद्दिव्यं चक्र रत्नं क्षिपदिशं प्रति वरदामतीर्थाभिमुखं प्रपातं चापि पश्यति दृष्ट्राच ' हट्टतुटु त्ति' आलापका ऽऽदिपदैकदे महखात् सम्पूर्णाऽऽलापको ग्राह्यः सायम् दचि समादिए' इत्यादिकाः प्रागुक्त एव, कौटुम्बिकपुरुषान् श दयति वेवमादीति । किमवादीदित्याद (लि. प्यामेव स ) प्रामाख्यातार्थम् अत्र सावार्थमतिदेशवा येना- कमेणादिपूर्वोक्रा नाधिकारसूत्र परिपाट्या तावद् वाच्यं यावद् धवलमहामेइत्यादि निगमसूत्रं तदनु पर रैरुद्ध्यमानैरित्यन्तं राजकुञ्जराधिरोहणसूत्रं वाच्यमिति । अथ यथाभूतो भरतो बरदामतीर्थ प्राप्तो यथा च तत्र स्कन्धापारनिये मकरोत्तथाऽऽद अत्र व सूत्रे वाक्यद्वयं तत्र rssदिवाक्ये 'तद्देव सेस' मित्यतिदेशपदेन सूचिने ग्रन्थे 'जे. वरदामतस्ते उदाग इत्यनेन काय साम्भरतोय परामती " ती द्वितीया च विजयस्कन्धावारनिवेश 'क' इत्यनेनेति किलामा हस्ता रफलकं प्रधानखेटकं यैस्ते तथा प्रबरः परिकरः- प्रगाढ गात्रिकाबन्धः खेटकं च येषां ते तथा, फलकं दारुमयं ख. टकं च वंशशलाका नियमिति न पोनस्यं परमेक वत्र माढ्यः सन्नाहविशेषा येषां ते तथा, येषां त्र विशेष कलाकुशलेोयथा वसोदकुतूहलकामयम् इत्यादि ततः पद्मयकर्मधारयः येषां सह वृन्दवृन्देः कतितो यः स तथा राहां ह्नि प्रयाणसमये युद्धाङ्गानां सह सञ्चरणस्याऽऽवश्यकत्वात् उत्कटबराणि उन्नतप्रवरणि मुकुटानि प्रतीतानि किरीटानि - ताम्येव शिखरत्रयोपेतानि पताका लघुपट रूपा, ध्वजा - बृहत्प रुपा वैजयन्यः प " 1 Page #1458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। ति लोकप्रसिद्धा, खता, सामान्यतः चापा:-कोदण्डानारा. प्रथ राजाऽऽक्षप्त्यनन्तरं कीरग वकिरत्नं कीर. चा:-सर्वलोहवाणाः कणका-बाणविशेषाः करूपन्या-कृपा शंच वैनयिकमाचचारेत्याहएयःशूलानि-प्रतीतानि.लकुटा:-प्रतीता:, भिन्दिपाला-इस्त. तए णं से आसमदोणमुहगामपट्टणपुरवरखंधावारगिहाक्षेप्याः महाफला दीर्घा आयुधविशेषाः,धषि-वंशमयबाणा 5ऽसनानि किरातजनग्राह्याणि तूणा:-तूणीराः, शराः-सामा. वणविभागकुसले एगासीतिपदेसु सव्वेसु चेव वत्यूसु णेन्यतो वाणाः इत्यादिभिः प्रहरणैः, अत्र चकारण पूर्वविशेषण गगुणजाणए पंडिए विहिएणू पसयालीसाए देवयाणं स्था समस्तोऽसमस्तो वा कलितशब्दो योज्यः, तेन तैः संयुक्त वत्थुपरिच्छाए गेमिपासेसु भत्तसालासु कोट्टणिसु अवाइति, दिग्विजयोद्यतानां राज्ञां हि शस्त्राणि सेनासहवर्तीनि सघरेसु अविभागकुसले छेजे वेज्मे अदाणकम्मे पहाभवन्तीति ज्ञापितं, कथमुक्तपहरणैः कलित इत्याह-'का. लेत्यादि' अत्र रुधिरशब्दो रक्कार्थः । तेन कालजीलरक्तपी. णबुद्धी जलयाणं भूमियाण य भायणे जलथलगुहासु जंतशुक्लानि जातितः पञ्चवर्णानि, व्यक्तितस्तु तवान्तरभेदा तेसु परिहासु अकालनाणे तहेव सद्दे वत्थुप्पएसे पहाणेदनेकरूपाणि यानि चिह्नशतानि तानि सन्निविष्टानि येषु गम्भिणिकामरुक्खवलिवेडिअगुणदोसविआणए गुणड्डे सो तद्यथा स्यात्तथेति क्रियाविशेषणतया बोध्यं, कोऽर्थः ?- लसपासायकरणकुसले चउसटिविकप्पवित्थियमई मंदाव. राक्षां हि शस्त्राध्यक्षास्तत्तजातीयतत्तद्देशीयशस्त्राणां निर्वि- ते य बद्धपाणे सोथिअरुअग तह सनोभहसम्मिवेसे लम्ब परिशानाय शस्त्रकोशेषु उक्तरूपाणि चिह्नानि निवेश. अबहुविसेसे उइंडियदेवकोदारुगिरिखायवाहणविभागयन्ति शस्त्रेषु च तत्तद्वर्णमयान् केशान् कुर्वन्तीत्यर्थः। अथ कुसलेतूर्यसामग्रीकथनद्वारा भरतमेव विशिनष्टि प्रास्फोटितं. कराऽऽस्फोटरूपं सिंहनादः-सिंहस्येव शब्दकरणं (छेलिश्र " इअ तस्स बहुगुणड्डे, थवई रयणे णरिंदचंदस्त । ति।सेण्टितं हर्षोत्कर्षेण सीत्कारकरणं, हयहेषितं-तुरङ्गमा तवसंजमनिविटे, किं करवाणीतुवट्ठाई ॥१॥ शब्दः,हस्तिगुलुगुलायितं गजगर्जितम् ,अनेकानि यानि रथ. सो देवकम्मविहिणा, खंधावारं णरिंदवयणेणं । शतसहस्राणि तेषां (घणघणेत त्ति) अनुकरणशब्दस्तथा नि. श्रावसहभवणकलिअं, करेइ सव्वं महत्तेणं ॥ ॥" हम्यमानानामश्वानां च तोत्राऽऽदिजशब्दास्तैः सहितेन, तथा यमकसमकं-युगपत् भम्भा-ढक्का होरम्भा-महाढा इत्या, करेत्ता पवरपोसहघरं करेइ, करित्ता जेणेव भरहे राया दि तूर्यपदव्याख्या प्रागुतत्रुटिताङ्गकल्पनुमाधिकारतो शेया जाव एतमाणतिरं खिप्पामेव पञ्चप्पिणइ, सेसं तहेव जा. नवरं कलो मधुरस्तालो धनवाद्यविशेषः, कंसताला-प्रसि- व मज्जणधराम्रो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव द्धा करमान-परस्परं हस्तताडनम् एतेभ्य उस्थितः उत्पन्नो बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे प्रासरहे तेणेव यस्तेन महता शब्दसन्निनादेन सकलमपि जीवलोकं ब्रह्मा. एडं पूरयन् , बलं चतुरङ्गसैन्यं चाहन-शिक्षिकाऽऽदि एत. उवागच्छइ उवागच्छित्ता । (सूत्र-४७) यो क्रमेण समुदयो-वृद्धिर्यस्य स तथा, णमिति वाक्याल. 'तर गं' इत्यादि. ततस्तदूर्द्धकिरत्नम किं करवाणि कारे, अथवा बलवाहनयोः समुदयेन युक्त इति गम्यम् एवमु. आदिशन्तु देवानुप्रिया ! इतिकर्तव्यमित्युदित्योपतिष्ठते, रा. क्लेन प्रकारेण भरतचक्रिविशेषणत्वेनेत्यर्थः, मागधतीर्थप्रकर जानमिति शेषः, राश प्रासनमायातीत्यर्थः, इत्यम्वययोज. णोक्तानि यक्षसहसम्परिवृत इत्यादीनि विशेषणानि ग्राह्या नमतनपदैः सह काये, कीदृशं तद्वर्द्धकिरत्नमित्याहणितत्र सूत्रे साक्षाल्लिखितानीति । अथ प्रथमवाक्ये अत्र प्राश्रमाऽऽदयः प्राग्व्याख्यातार्थाः,नवरं स्कन्धाधारगृहाऽऽप. लिखितानि 'तहेव सेसं' इत्यतिदेशपदेन सूचितानि च वि. णाः प्रतीताः,एतेषां विभागे-विभजने उचितस्थाने तदवयव. निवेशने कुशलम्, अथवा-पुरभवनग्रामाणां, ये कोणाशेषणानि वाचयितणां सौकुमार्यायकीकृत्य लिख्यन्ते, तथा स्तेषु निवसतां दोषाः। श्वपचाऽऽदयोऽन्त्यजाता-स्सेवेव वि, 'जक्खसहस्ससंपरिवुड वेसमणे चेव धणवई अमरवई समि वृद्धिमायान्ति ॥१॥ इत्यादि योग्याऽयोग्यस्थानविभागक्षम, भाए इड्डीए पहिअकित्ती गामागरणगरखेडकब्बडमडंबदोणमु. एकाशीतिः पदानि विभागाः प्रतिदैवतं विभक्तव्यवास्तुक्षे. हपट्टणासमसंवाहसहस्समंडिनं थिमिअमेइणी वसुई अ. अखण्डानीति यावत्,तानि यत्र तानि तथा एवंविधेषु वास्तुभिजिणमाणे अभिजिणमाणे अग्गावराई रयणाई पडिच्छ पु-गृहभूमिषु सर्वेषु चैव-चतुःषष्टिपदशतपदरूपेषु वास्तुष, माणे पडिच्छमाणे तं दिव्यं चक्करयणं अणुगच्छमाणे अणु चैवशब्दः समुश्चये. स च वास्त्वन्तरपरिग्रहार्यः अनेकेषां गु. गच्छमाणे जाणंतरित्राहिं घसहीहि वसमाणे वसमाणे णानामुपलक्षणात् दोषाणां च झायकं, पण्डा जाता अस्येति जेणेव वरदामतित्थे तेणेव उवागच्छद त्ति । ' व्याख्या च तारकाऽऽदित्वादिते पण्डितं सातिशयवुद्धिमत् अथ यदिवाप्राग्वत् । अथ द्वितीयवाक्येऽपि अत्रोक्तविशेषणसहिनो या. स्तुक्षेत्रस्यैकाशीत्याद्या विभागास्तहिं तावतांविभागानां वि. वत्पदसूचितो ग्रन्थो लिख्यते, यथा-'उवागच्छित्ता परदा. भाजकास्तावत्यो देवता भविष्यन्तीत्याशङ्कयाह-विधि मतित्थस्स अदूरसामंते दुवालमजोयणायाम ण वजोश्रणवि. पञ्चचत्वारिंशतो देवतानाम् उचितस्थाननिवेशनाचनाss स्थिरणं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारणिवसं करोति' दिविधिसमित्यर्थः। अथ यथा पञ्चचत्वारिंशतोऽपि देवानाप्राग्वत् । अथ ततः किं चक्रं इत्याह-'करिता' स्यादि, | मेकाशीत्यादिपदवास्तुन्यासस्तथा तच्छिल्पिशास्त्रानुसारेण सर्वमुक्तार्थम् । दश्यते, यथा स्थापना Page #1459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की दि०१ प्रपत्र अपार्यमा ६ २ सविता %3 / पूजा भ०१ (१४३६) भरह अभिधानराजेन्द्रः। भरह एकाशीतिपदवास्तुन्यासः। अग्निः पूषा १० ऽथ वितथो ११, वर ०१ प० ज० १० १० स०अ०न० अ० वि गृहक्षत १२ यमौ १३ ततः॥२॥ सावित्र गन्धर्षी १४ भृगज १५ श्थ, मृगः १६ पितृगण १७ स्तथा। दौवारिकोज्थ १८ सुग्रीव १६वि०१२ पुष्पदन्ती २०जलाधिपः २१॥३॥ सोलर पृथ्वीधर ६ ब्रह्मादेव विषस्था असुरः २२ शोष २३ यक्ष्माणौ २४-- रोगो २५० ऽहि २६ मुख्य २७ एव च। भरबाट २८ सोम २६ गिग्य ३०स्तथा बाह्येऽदिति ३१ दितिः ३२॥४॥ पापो ३३ऽपवत्सा ३४ वीशेऽन्तः, पारो०१ य०१शो० अ० ज०१। पु०१ सुकर पि० सावित्रः३५ सविता ३६ ऽग्निगौ। ६०१ इन्द्र ३७ इन्द्रजयो ३८ उपस्मिन् , बायो रुद्र ३६ श्व रुद्रराट् ४०॥५॥ चतुःषष्टिपदवास्तुन्यासः। मध्ये ब्रह्मा ४१ऽस्य चरवारो, बरसंशा प०१ ज०१/०१०१ सम्भ.न. देवाःप्राच्यादिदिग्गताः। अ॥ वि | सावि श्रर्यमाऽख्यो ४२ विवस्वां ४३ श्व, अर्यमा मैत्र:४४ पृथ्वीधरः ४५क्रमात् ॥६॥ ईशकोणाऽऽदितो बाधे, घरकी १ च विदारिका २। सो०१'पृथ्वीधर ४ ब्रह्मा देव ४ विवस्वा०४ य०१ पूतना ३ पापा ४ राक्षस्यो, हेतुकाऽऽद्याश्च निष्पदाः ॥ ७॥ गं०१ चतुःषष्टिपदैर्वास्तु भृ०१ मध्ये ब्रह्मा चतुष्पदः। अर्यमाऽऽद्याश्चतुर्भागा, रो॥ य०१शो०१ ज०१ पु०१सु०१दौ० १ पि०॥ पृत छियंशा मध्यकोणगाः ॥८॥ बहिः कोणेष्वर्द्धभागः, शेषा एकपदाः सुराः । एकाशीतिपदे ब्रह्मा, नवार्याऽऽद्यास्तु षट्पदाः ॥६॥ . शतपदवास्तुन्यासः। विपदा मध्य कोणेऽष्टा, बाधे द्वात्रिंशदेकशः। शते ब्राह्म-सङ्ख्यांशो, बाह्यकोणेषु सार्द्धगौ ॥ १०॥ वर प०१ | ज०१० सू०२ स.१.१न१ अ.वि का २॥ अर्यमाऽऽचास्तु वस्वंशाः, शेषाः स्युः पूर्ववास्तुवत् । अपष । सावित्र/२॥ हेमरत्नाक्षताऽऽस्तु, वास्तुक्षत्रऽऽकृति लिखेत् ॥ ११ ॥ अर्यमा अभ्यर्च्य पुष्पगन्धाऽऽत्यै बलिदध्याज्यमोदनम् । दद्यात् सुरेभ्यः सोङ्कारै-नमोऽन्तामभिः पृथक् ॥ १२ ॥ वास्वारम्भे प्रवेशे वा,, श्रेयसे वास्तुपूजनम् । पृथ्वीधर ८ ब्रह्मादेवताः विवस्वा०८ अकृते स्वामिनाशः स्यत् , तस्मात्पूज्या हितार्थिभिः १३॥" अत्र च वराहमिहिरोक्त एकाशीतिपदस्य स्थापनाविधिरयम्"-एकाशीतिविभागे,दश दश पूर्वोत्तरायता रेखा अन्त. त्रयोदश सुराः, द्वात्रिंशद्वाह्यकोष्ठस्थाः " इति। ... अथ प्रकृतं प्रस्तूयते-( वत्थुपरिच्छाए सि ।) पत्र पा अ. य०११०१ शोर ज०१ पु० १ सुरंदौ०१ गत चशब्दोऽध्याहार्यस्तेन बास्तुपरीक्षायां च विधिसमिति यो. ४ रो॥ ज्यम्, “ गृहमध्ये हस्तमितं. खात्वा परिपूरितं पुनः श्वभ्रम् । यघूनमनिष्टं तत् , समे समं धन्यमधिकं चेत् ॥१॥" एतत्संवादनाय सूत्रधारमण्डनकृतवास्तुसारोक्तिरपि लि- इत्यादि । अथवा-वास्तूनां परिच्छदे-पाच्छादनं-कटकख्यते, यथा म्बाऽऽदिभिरावरणं तत्र विधि सथाईकटकम्बाऽऽदि विनि"चतुःषष्टया पदैर्वास्तु, पुरेराजगृहेऽर्चयेत् । योजनास् , तथा नेभिपापु-सम्प्रदायगम्येषु भक्तशालासुएकाशीत्या गृहे भागः,शतं प्रासादमण्डपे॥१॥ रसवतीशालासु कोहनीषु-कोर्ट-दुर्ग स्थायिराजसत्कं नय. ईशः १ पर्जन्यो २ जये ३ न्द्रौ ४, म्ति--प्रापयन्ति यायिराक्षामिति व्युत्पत्त्या कोट्टायः याः कोहः सूर्यः५ सत्यो ६ भृतो ७ नमः । ग्रहणाय प्रतिकोहाभसय उत्थाप्यन्ते तासु, चशब्दः समुच्च. म०१ इन्द्रज CAT अ०१ श्राप सविता मेष रुद्रराट्र पा २॥ Page #1460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। ये, तथा वासगृहेषु-शयन ग्रहेषु विभागकुशल-यधौचित्येन अप्रतिषिद्धालिन्द, समन्ततो वास्तु सर्वतोभद्रम् । विभाजकं, चः समुच्चये,तथा छेयं-छदनाई काष्ठाऽऽदि वे. नृपविबुधसमूहाना, कार्य द्वारश्चतुर्भिरपि ॥४॥" भयं-बेधनाई तदेव चः समुच्चये दातकर्म-अनार्थ गि. पुनस्तदेव विशिनष्टि ऊर्व दराडे भव उहण्डिका,भवार्थः. रिकरक्कसूत्रेण रेखादानं तत्र प्रधानंबुद्धिः, तथा जलगानां का, अर्थात् ध्वजः, देवाः-इन्द्राऽऽदिप्रतिमाः, कोषुः उप. जलगतानां भूमिकानां जलोत्तरणार्थकपद्याकरणाय भाजन रितनगृहं धान्यकोष्ठो वा, दारूणि वास्तूचितकाष्ठानि यौचित्येन विभाजक, चः समुच्चये, उन्मन्नानिमग्नान गिरयो दुर्गाऽऽदिकरणार्थ जनावासयोग्पाः पर्वताः, खाताघायुसरे तस्यैतादृशसामर्थ्यस्य सुप्रतीतत्वात् , जलस्थल नि-पुष्करिण्यादिकानि चाहनानि शिविकाऽऽदीनि एतेषां योः सम्बन्धिनीषु गुहास्विव गुहासु-सुरङ्गास्वित्यर्थः । तथा विभाग कुशलं , बजविभागस्त्वेवम्-" दण्डः प्रकाश यन्त्रेषु घटीयन्त्राऽऽदिषु परिखासु प्रतीतासु चःपूर्ववत्.का प्रासादे, प्रासादकरसन्ख्यया । सान्धकारे पुनः कार्यो, खान-विकीर्षितवास्तुप्रशस्ताप्रशस्तलक्षणपरिक्षाने, “वै. मध्यप्रासादमानतः॥१॥"शषं तत्तग्रन्थेभ्योऽवसेयम्, इत्युः शाखे भाव मार्ग, फाल्गुने क्रियते गृहम् । शेषमासेषु न पुनः, पौषो वाराहसम्मतः॥ १ ॥ " इत्यादिके, तथैवे. कप्रकारेण बहुगुणात्यं तस्य नरेन्द्रचन्द्रस्य भरतचक्रिण: तिवाच्यान्तरसंग्रहे शब्द-शब्दशास्त्रे सर्वकलाव्युत्पत्तरेत स्थपतिरत्नं बर्द्धकिरत्नम् । तपःसंयमाभ्यां करणभूताभ्यां न्मूलकत्वात् वास्तुप्रदेशे-गृहक्षेत्रैकदेशे “ऐशान्यां देवऽगृहं. निर्विष्ट लब्धमिति , किं करवामीत्यादि तु प्रायोजितमेव । महानसं चापि कार्यमाग्नेय्याम् । नैऋत्यां भाण्डोप-स्करो अथोपस्थितः सन् बर्द्धकिर्यदकरोत्तदाह-सो देव' इत्या. दि.स:-वकिः देवकमविधिना देवकृत्यप्रकारेण चिन्तितः ऽर्धधान्यानि मारुत्याम् ॥ १ ॥ " इत्यादिगृहावयबविभागे मात्रकार्यकरणरूपेणेत्यर्थः, स्कन्धावारं नरेन्द्रवचनेन श्रावा. शास्त्रोक्तविधिविधाने प्रधान मुख्यं गर्मिण्यो जातगर्भा डो. सा. राक्षां गृहाणि भवनानीतरेषां तैः कलितं करोति सर्व मु. लकिता पल्ल्यः फलाभिमुखघल्ल्य इत्यर्थः, कन्या इव क.. हुसेन निर्विलम्बमित्यर्थः, कृत्वा च प्रवरपौषधगृहं करोति, न्या:-अफला, अथवा-दूरफला वा वल्ल्या वृत्ताश्च वास्तु. कृत्वा च भरतो राजा यावत्पदात् तेणेव उवागच्छदउबाग. क्षेत्रप्ररूढा बलिवेष्टितानि-भावे प्रत्ययविधानात् वलिवे. च्छित्ता'इति ग्राह्यम्,एतामाक्षप्तिकां क्षिप्रमेव प्रत्यर्पयति, सेसं ष्टनानि-बास्तुक्षेत्रोद्तवृक्षवारोहणानि, एतेषां ये गुणदोषा. तहेव' इत्यादि, सर्व प्राग्वत्। 'उवागच्छित्ता' उपागस्य च । स्तेषां विज्ञायक-विशेषज्ञ, ते चेमे-“गर्मिणी बहिर्वास्तुप तते णं तं धरणितलगमणलहुं ततो बहुलक्षणरुढा प्रासन्नफलदा,कन्या च सा तत्रैव नाऽऽसन्नफला, वृ शाच प्रक्षवटाश्वत्थोदुम्बराः प्रशस्ताः आसन्नाः कण्टकि. पसत्थं हिमवंतकंदरंतरणिवायसंवद्धिचित्ततिणि मदलिनो रिपुभयदा" इत्यादि. प्रशस्तद्रुमकाष्ठं वा गृहाऽऽदि प्रश अं जंबूणयकयकूबरं कण यदंडियारं पुलयवरिंदणीस्तं. लिवेष्टितानि प्रशस्तवल्लिसम्बन्धीनि प्रशस्तानि गृह. लसासगपचालफलिहवरस्यणलेटमणिविद्मविभूसिध प्रमहीषु न चाप्रशस्तवल्लिसम्बन्धीनि । एनमेवार्थमाह वराहः- डयालीसाररइयतवणिजपट्टसंगहिअजुत्ततुंवं पघसिमपसि"शस्त्रौषधिद्रुमलतामधुरा सुगन्धा. स्निग्धा समान शुषिरा! अनिम्मिअनवपट्टपुटपरिणिटिअं विसिट्ठलढणवलोहबद्धक. च मही नृपाणाम् । अध्यध्वनि श्रमविनोदमुपागताना, मं हरिपहरणरयणसरिसचकं कक्केयणइंदणीलसासगसुसधत्ते श्रियं किमुत शाश्वतमन्दिरंषु ? ॥१॥" पुनस्तदेव विशेषयन्नाह-गुणाऽढया-प्रज्ञाधारणाबुद्धिहस्तलाघ35. माहिअबद्ध जालकडगं पसत्थविच्छिम्पसमधुरं पुरवरं च गुत्तं दिगुणवान् षोडश प्रासादा:-साम्तनस्वस्तिकाऽदया भू सुकिरणतवाणिजजुत्तकलिअं कंकटयणिजुत्तकप्पणं पहरपतिगृहाणि तेषां करणे कुशलः, चतुःषष्टिविपाः गृहाणां णाणुजायं खेडगकणगधघुमंडलग्गवरसत्तिकोंततोमरसरवास्तुप्रसिद्धाः तत्र विस्तृता-श्रमूढा मतिर्यस्य स तथा, सयबत्तीसतोणपरिमंडिअंकणगरयणचित्तं जुत्तं हलीमुहबविकल्पानां चतुःषष्टिरेवं-प्रमोदविजयाऽऽदीनि षोडश मागगयदंतचंदमात्तिप्रतणसोल्लिअकुंदकुडयवरसिंदुवारकगृहाणि पूर्वद्वाराणि, स्वस्तनाऽऽदीनि षोडश दक्षिण द्वाराणि, धनदादीनि थोडश उत्तरद्वाराणि, दुर्भगाऽऽदीनि षोडश दलवरफेणणिगरहारकासप्पगासधवलेहिं अमरमणपवणपश्चिमद्वाराणि, सर्वमीलने चतुःषष्टिरिति. नन्द्यावर्ते गृहवि. जइणचवलसिग्धगामीहिं च उहिं चामराकणगविभूसिशेषे एवमग्रेतनविशेषणेष्वपि, चः समुच्चये, बर्द्धमाने स्व. अंगहि तुरगेहिं सच्छत्तं सज्झयं सघंटे सपडाग स्तिके रुचके तथा सर्वतोभद्रसनिवेशे च बहुर्विशेषः सुकयसंधिकम्मं सुसमाहिअसमरकणयगंभीरतुल्लघोसं वर. प्रकारो शेयतया कर्तव्यतया र यस्य तत् तथा, सूत्रे व कुप्परं सुचकं वरनेमीमंडलं वरधारातोंडं वरवइरबद्धतुंब कचित् सप्तमीलोपः प्राकृतत्वात् । नन्यावर्ताऽदिगृहधि शेषस्वयं वराहोकः वरकंचणभूसियं वरायरिणिम्मियं वरतुरगसंपउत्तं "नन्यावर्तमलिन्दैः, शालाकुड्यात् प्रदक्षिणान्तगतैः । वरसारहिसुसंपग्गहि वरपुरिसे वरमहारहं दुरूठे प्रारूद्वारं पश्चिममस्मिन् । विहाय शेषाणि कार्याणि ॥१॥ दे पवरस्यणपरिमंडिअंकणयखिखिणीजालसोभिभं श्रद्वारालिन्दोऽन्तगतः, प्रदक्षिणोऽन्यः शुभस्ततश्चान्यः । उज्झ सोनामणिकणगतविभपंकयजासुमणमलण जलितरुच वर्षमाने. द्वारं तुन दक्षिणं कार्यम् ॥ २॥ असुअतोडरागं गुंजबंधुजीवगरत्तहिंगुलगणिगरसिंदूरअपरान्तगतोऽलिन्दः, प्रागन्तगती तदुस्थिती चाम्यो। सवधिविधृतश्चान्या, प्रारद्वारं स्वस्तिकं शुभम् ॥ ३॥ रुइलकुंकुमपारवयचलणणयण कोइलदसणावरणरहताऽति Jain Education Interational Page #1461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४३८) भरह अभिधानराजेन्द्रः। रेगरतासोगफणगक सुप्रयतालुसुरिंदगोवगसमप्पभप्पगासं यप?:-रक्तस्वर्णमय पट्टकै लॊके महलू इति प्रसिद्धैः संगृही. बिफलसिलपवालउदितसूरसरिसं सम्बोउअसुरहिकुसुम ते-दृढीकृते तथा युक्त उचिते नातिलघुनी नातिमहती . त्यर्थः । ततः पत्रयस्य कर्मधारयः । एतारशे तुम्बे यस्य स भासत्तमवदामं ऊसिअसेअझयं महामेहरसिगंभीरणि- तथा तम्, प्रघर्षिता:-प्रकर्षण घृष्टाः प्रसिता:-प्रकर्षण ब. दघोसं सत्तुहिमयकपणं पभाए असस्सिरीधे णामेणं शाः ईशा निर्मिता-निशिता नवा:-अजीर्णाः पट्टाः--पपुहविविजयलंभंति विस्सुतं लोगविस्मुतजसोऽहयं चाउग्घंट | विका यत्र तत्तथाविध यत्पृष्ट परिधिरूपं यझोके पूं. भासरसं पोसहिए णरवई दुरूदे । तए णं से भरहे राया चाउ- | ठी इति प्रसिद्धं, तत्परिनिष्ठितं-सुनिष्पन्न कार्यनिर्वाहकत्वेन यस्य स तम् । अत्र पदव्यत्ययःप्राकृतत्वात् । विशिष्टलष्ट्र-अ. ग्घंटे प्रासर दुरुढे समापे सेसं तहेव जाव दाहिणाभिमुहे तिमनोनवे-सद्यस्के लोहवर्धे-अयश्चर्मरज्जुके तयोः क. वरदामतित्थेणं लवण समुदं ओगाहइ० जाव से रहवरस्स म कार्य यत्र स तम्। अयमर्थः-तत्र रथ येऽवयवास्ते लोहबकुप्परा उल्ला जाव पीइदाणं से,णवरिं चूडामणिं च दिव्वं र्धाभ्यां बद्धा इति, हरिः-वासुदेवस्तस्य प्रहरणरत्नं-चक्रं उरत्थगेविज्जगं सोणिसुत्तगं कडगाणि अजाब दाहिणिल्ले 'चक्कमुसल जोहि त्ति 'वचनात् तस्सदृशे चक्रे यस्य स अंतवालेजाव भट्ठाहिझं महामहिमं करेति करित्ता एप्रमाण तं, कर्केतनेन्द्रनीलशस्यकरूपरत्नत्रयमयं सुष्टु सम्यगाहितं निवेशितं कृतसुन्दरसंस्थानमित्यर्थः । ईदृशं बद्धं जाल कट. त्ति पञ्चप्पिणति । तए मं से दिब्वे चक्करयण वरदाम. कंजालकसमूहो यत्र स तथा तम्, अयं भावा-रथगुप्तौ जाल तित्यकुमारस्स देवस्स अट्टाहिआए महामहिमाए निव्व- कपदवाच्या सच्छिद्ररचनाविशिष्ट अवयबविशेषा बहवस्त ताए समाणीए पाउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ, पडि- प्रशोभा जनयन्तीति, तथा प्रशस्ता विस्तीर्णा समा अवका णिक्खमित्ता अंतलिखपडिवले जाव पूरंते चेव अवरत धूर्य स तं, पुरमिव गुप्तं समन्ततः कृतवरूथं, रथे हि प्रायः सर्वतो लोहाऽदिमयी श्रावृतिर्भवति, पुरवररष्टान्तकथन. लं उत्तरपञ्चत्थिमं दिसिं पभासतित्थाभिमुहे पयात यावि नायमर्थः सम्पन्नः-यथा पुरं गोपुरभागपरित्यागेन समन्ततो होत्था । तए णं से भरहे राया तं दिवं चक्करयणं जाव बप्रगुप्तं भवति तथाऽयमप्यारोहस्थानसारधिस्थाने विहाय उत्तरपञ्चत्यिम दिसिं तहेव. जाव पञ्चत्थिमदिसाभिमुहे प. गुप्त इति, सुकिरणं-शोभमानकान्तिकं यत्तपनीयं-रनं सु. भासतित्थेणं लवणसमुदं ओगाहेइ, ओगाहिता जाव से वर्ण तन्मयं योक्त्रं तेन कलितं, योक्त्रेण हि बोढस्कन्धे युगं रहवरस्स कुप्परा उल्लाजाव पीइदाणं से णवरं मालं मउ. बद्भ्यत इति, अत्र च एतत्सूत्राऽऽदर्शषु 'तबणिज्जजालक लिअंति पाठोऽशुद्ध एव सम्भाव्यते, आवश्यकचूर्णी डि मुत्ताजालं हेमजालं कडगाणि अतुडिआणि अप्रा. अस्यैव पाठस्य दर्शनात् , करकटका:-सन्नाहास्तेषां नियु: भरणाणि असरं च णामाहयक पभासतित्थोदगं च गिः का स्थापिता कल्पना--रचना यत्र स तथा तं, यथाशाभ एहद, गिपिहत्त० जाव पञ्चत्यिपेयं पभासतित्थमेराए अहम तत्र सन्नाहाः स्थापिताः सन्तीति भावः, तथा प्रहरगर. देवाणुप्पिासं विमयवासी० जाव पञ्चस्थिमिल्ले अंतवाले, नुयातं भृतमित्यर्थः, एतदेव व्यक्ति प्राह खटकानि प्रती तानि, कणका-बाणविशेषाः धषि मण्डलामाः-तरवारयः, सेसं तहेव जाव अट्ठाहिया निमत्ता । ( सूत्र ६) वरशक्तयः-त्रिशूलानि, कुन्ता-भल्ला तोमराश्च बाणविशेषाः । तते णं ' इत्यादि , णमिति प्राग्वत् , तं प्रसिद्धं शराणां शतानि येषु तादृशा ये द्वात्रिंशत्तूणा भत्रकास्तैः वरपुरुषो-भरतचक्री वरमहारथम् प्रारूढ इति सम्ब- परिमण्डितं-समन्ततः शोभित कनकरत्नचित्रं, तथा युक्त न्धः । कीडशमित्याह-धरणितलगमने लघुशीघ्रं शी- तुरगैरिस्यनेन सम्बद्ध्यते । किंविशिष्टरित्याह- हलीमुखं रू. घ्रगामिनमित्यर्थः कीदृशो परपुरुष इत्याह-ततः-स- ढिगम्यमिति बलाको बका, गजदन्तचन्द्र प्रतीती, मौक्ति र्वत्र जयसम्भावनाजनितप्रमोदरसपुलकिततया विस्तीर्णः के मुक्ताफलं 'तणसालिपति' मल्लिकापुष्पं कुन्द श्वेतःपु. प्रफुलहदय इत्यर्थः । अथ पुना रथं विशिष्टि-बहुलकणप्र. पविशेषः कुटजपुष्पाणि-वरसिन्दुवाराणि निर्गुण्डीपुष्पाशस्तं हिमवतः-शुद्रहिमवगिरेः निर्वातानि-वातरहितानि णि कन्दलानि कन्दलवृक्षविशेषपुष्पाणि परफेननिकरो हारो यानि कन्दराऽन्तराणि-दरीमध्यानि तत्र संवर्द्धिताश्चित्रा, मुक्ताकलापः काशा:-तृणविशेषास्तेषां प्रकाश:-ौजज्यल्यं विविधास्तिनिशा-रथगुमास्त एव दलिकानि. दारूणि यस्य तद्वदलः अमरा-देवा मनांसि चित्तानि पवनो-पायुस्तान् तं. सूत्रे च पदव्यत्ययः आर्षत्वात् , जाम्बूनदसुवर्णमयं सु. चंगन जयतीति अमरमनः पवनजयिनः, अत एव चपलशी. कृतं सुघटितं कृबरं-युगन्धरं यत्र तं, कनकदण्डिका:- घ्रम-अतिशीघ्र गामिनो-गमनशीलाः, ततः पदद्वयकर्मधार. कनकमय लघुदण्डरूपा, अरा यत्र तं, पुलकानि वरेन्द्रनी यः, तैश्चतुर्भि:-चतुः सङ्ख्याकैः तथाः चामरै कनकैश्च भूषिलानि सासकानि रत्नविशेषाः प्रवालानि स्फटिकवर तम येषां ते तथा तेः, चामरस्य स्त्रीत्वम् आर्षत्वात् । अथ रत्नानि-च प्रतीतानि, लेष्टवा विजातिरत्नानि मणय: पुना रथं विशिनष्टि-सच्छत्र सध्वजं सघरटं सपताकमिति चन्द्रकान्तायाः विद्रुमः-प्रवाल विशेषः, अनयोश्च वर्णाss. प्राग्वत् , सुकृतं-सुष्टु निर्मितं सन्धिकर्म सन्धियोजनं यत्र दितारतम्यकृतो विशेषो बोध्यः तैर्विभूषितं , रचिताः सतं, सुसमाहितः-सम्यग्यथोवितस्थाननिवेशितो यः समर. प्रतिदिशं द्वादश बादश सद्भावात् अष्टाचत्वारिंशदरा कणका-संग्रामवाद्य विशेषस्तस्य वीराणां वीररसोत्पादक. या ते तथा विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् , तपनी- त्वेन तुल्यो गम्भीरो घोषः-चीत्काररूपो ध्वनिर्यस्य स Page #1462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४३६) अभिधानराजेन्द्रः। तं, पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात्, घरे कृपरे पिञ्जनकेति प्र. सहस्लाणु प्रायमग्गे महया उकिट्टसीहणायबोलकलकलर. सिद्धे यस्य स तं, सुचक्रं वरनेमीमण्डल-प्रधानचक्रधा. वेणं पक्खुभित्रमहासमुहरवभूनं पिव करेमाणे करेमाणे' रावृतं बरे-शोभमाने धूम्तुगडे-धू कूर्वरे यस्य स तं, इत्यन्तं सूत्रं दृश्यं, कियद् दूरं लवणसमुद्रमवगाहते इत्याहवरवडे तुम्बे यस्य स तं, बरकाञ्चनभूषितं, घराचार्य:- यावत्तस्य रथवरस्य कूर्पवागी भवतः। अत्र यावन्दी प्रधानशिल्पी तेन निर्मितं धरतुरगैः सम्प्रयुक्तं बरसारथिना न संग्राह्यपदसंग्राहकः किन्तु जलावगाहप्रमाणसूचनार्थः । सुष्ठु संप्रगृहीतं स्वायत्तीकृतमिति । इह च चक्राऽऽदीनां पुन 'जाव पीइदाणं .ति' अत्रापि मागधदेवसाधनाधिकागलं वचनं रथावयवेषु प्रधानताख्यापनार्थः, 'वरपुरिसे' इत्यादि सूत्रं तावद्वक्तव्यं यावत्प्रीतिदानं, ' से 'तस्य तीर्थाधिपपुर. तु पूर्व योजितं, 'दुरूढे पारूढे' इत्यत्र समानार्थकं पद- स्थ प्रीतिदानशब्दनोपचारात् प्रीतिदानार्थकविवक्षिता योपादानं सुखाऽऽरूढताशापनार्थम्, अथवा-दुरुढे इत्यस्य डामण्यादि वस्तूच्यते, अत्र तु 'जाव दाहिणिले अंतवाने' सौत्रशब्दस्य विवरणरूपोऽयमारुदशब्द इति, अथार्धान्त इति सूत्रस्याप्रती न्यासान्यथानुपपाया तस्य प्राणं चं राऽऽरम्भार्थे पुनरुक्तिन दोषायेति । उक्तमेवाथै नामप्रकटनाय न तु दानं, तस्य 'जाव अट्टाहि महामहिम कति थि' रथस्यारोहकालप्रकटनाय चाह-'पवररयणपरिमंडि' सूत्रस्थयावच्छम्देन गृहीतत्वात् तेनायमर्थः-प्रीतिवानमिमि. इत्यादि, प्रवररसपरिमण्डितं कनककिङ्किणीजालशोभितम् सकचूडामण्यादिषस्तुग्रहणप्रतिपादकसूत्रं यावतव्यमिति । अयोध्यमनभिभवनीयमित्यर्थः, सौदामिनी-विद्युत् , तप्तं तत्रायं पिएडार्थः-तुरगनिग्रहणरथस्थापनधनुःपरामर्शशर यत्कनकं तच्चानलोत्तौणे रक्तवर्ण भवतीति तप्तशब्देन मोक्षकोपोत्पादकोपापनोइनिजदिसारसंप्रेक्षणप्रीतिवान - विशेषितं पडूज-कमतं तच्च सामान्यतो रक्तं बरार्यते प्राणि मागमतीर्थसूत्राधिकारवद क्षेयानीति, नबरमपंकि. • जासुमण ति' जपाकुसुमं ज्वलितज्वलनो-दीप्ताग्निः पत्र शेषः-प्रीनिदाने चूडामणि च दिव्यं-मनोहरं सर्वविचाप पदविपर्यासः प्राकृतशैलीभवः, शुकस्य तुराई-मुखम् एतेषा. हारि शिरोभूषणविशेषम् उरस्था-पोभूषणविशेष ग्रेवेय मिव रागो-रक्तता यस्य स तं, गुजार्द्ध-रक्तिकारागभागः कं-प्रीवाभरणं भोणिसूत्रकं कटिमेखलां कटकानि धुधि- . ' बन्धुजीवकं-विप्रहरविकाशिपुर्ण रक्ता-संमर्दितो हिल- कानि, कियर बाव्यमित्याह-यावहारिणिके. लकनिकरः सिन्दूरं-प्रतीतं रुचिरं कुछम-जास्यघुसणं तवाले' इति वावहाशिबास्योऽहमन्तपाल इति, प्रीतिबा. पारापतचलनः प्रतीतः, कोकिलनयने पदव्यत्यय पार्षत्वात् क्यप्राभृतोण्डौकनभरतकृततत्स्वीकरणदेवसम्मानमविसर्जदशनाऽवरणम्-अधरोष्ठं तरुन सामुद्रिके ऽस्यरुणं प्यावयेते नरथपरावृत्तिस्कम्धाचारप्रस्थागमनमशनवगमनमानमोज. इति रतिदो-मनोहरोऽतिरक्क-मधिकारुणोऽशोकतरुः ईशं नकरणश्रेणिप्रश्रेणिशदनादिप्रतिपादकसूनहन्यम्, किमा च कनकं किंशुकं पलाशपुष्पं तथा गजतालुसुरेन्द्रगोपको-ब- स्तमित्याह.. काहाहि महामहिमं करेंति 'महादश भेणिप्र. र्षासु रक्तवर्णः शुद्र जन्तुविशेष पभिः समा-सदृशा प्रभा-छबि. श्रेणयोऽष्टाहिका महामहिमा प्रकुर्वन्ति, एतामाप्तिकां प्र. यस्य तथा एवंविधःप्रकाशास्तेजःप्रसरोयस्य सतं,बिम्बफलं. स्ययन्तीति । अथ प्रभासतीर्थाधिपसाधनायोपकमते-'तप गोलह सिलप्पवालं ति' अत्र अश्लीलशब्द इव श्रियं ला. णं' इत्यादि, सर्व प्राग्वत् , नवरम उत्तरपधिमां-बायीं तीति ऋफिडाऽऽदित्वाल्लत्वे श्लीलम.एवंविधं यत्प्रवालं श्लील- दिशं शुद्धदक्षिणवर्तिनो बरदामतीर्थतः शुद्धपधिमाचतिमि. प्रवाल-परिकभितवितुमः शिलाप्रवालं वा विद्मः उत्तिष्ठः प्रभासे गमनाय इत्यमेव पथ: सरलत्वात् , अन्यथा परामतः सूरः-उद्गच्छत्सूर्यस्तेषां सरशं. सर्वर्तुकानि-पऋतुभवानि पश्चिमाऽऽगमने अनुवारिधिवेखं गमनेन प्रभासतीर्थप्राप्ति सुरभीणि कुसुमानि-अप्रथितपुष्पाणि माल्यदामानि च प्र. रेख स्यादिति, प्रभासनामतीये या सिम्युमदी समुदं म. धितपुष्पाणि यत्र स तम् , उच्छितः-ऊवीकृतः श्वेतध्वजो विशति, मथ तारक चक्ररत्नं रष्टा यम्पमतदाह 'तर यत्र स तं, महामेघस्य यद्रसितं-गर्जितं-तवद् गम्भीरः नि. णं इत्यादि सबै पूर्ववत्, परंप्रीतिदाने विशेष समेवर ग्धो घोषो यस्य स तं, शत्रुहदयकम्पनं, प्रभाते च-भ्रष्ट. सूत्रे दर्शयति- लवरि ति' नवरं माला-रलमा मालि मतपम्पारण कदिनमुखे चतुघण्टमश्वरथं पौषधिका-आसन्न- मुकुट मुहाजा-दिव्यमौलिकराशि मजा कनकराशि. पारितपौषधवतो नरपतिरारूद इति सम्बन्धः, सधीकं ना. मिति, 'सेसं सहेच सि' शेषम्-उकातिरिक्तं प्रीतिदाना• म्ना पृथ्वीविजयलाभमिति विश्रुतम्, अत्राऽऽरूढः पुरुषो भू. पढौकनखीकरणसुरसम्मानमाविसर्जमाऽऽदितथेषमागधसु. विजयं लभते इति साम्बर्थनामकमित्यर्थः, कीडशो नरप. राधिकार सबझयम् ,भावश्यकपूर्णा तुरदामप्रभा. तिरित्याह--लोकविश्रुतयशाः, अहतं--कचिदप्यवयवेऽख- ससरयोः प्रीतिदा व्यस्थाखेनोहमिति । ण्डितं सर्वत्रास्खलितप्रचारं वा रथमित्यर्थः । रथाऽऽरोहान अथ सिन्धुदेवीसाधनाधिकारमाहस्तरं भरतः किं चक्रे इत्याह- तए णं ' इत्यादि, सतः | स भरतो राजा चतुर्घण्टमश्वरथमारूढः सन् शेषं तथैवे | सरकारपोपमासतिस्थकुमारस्स देवस्स ति, कियत्पर्यम्त मित्याह-'जाव दाहिणाभिमुहे' इत्यादि, महाहिनाए महामहिनाए शिवत्ताए समाणीए भाउह. शेषं सूत्रं मागधतीर्थगमानुसारेण शेयम् । अथोक्तं याषदक्षि- घरसालानो परिशिक्खयर, पडिणिक्खमित्ता जाव पूरे ते णाभिमुखो बरवामतीर्थेन बरदामनाम्ना अबतरणमार्गेण चेव अंबरन सिंधर महानईए दाहिणियेणं कूलेणं पुरलषणसमुद्रमषगाहते, 'सेसं तहेव सि'षचनात् । हयगय. रहपपरजोहकलिमार सद्धि संपरिघुरे महया भरवडग च्छिमं दिसि सिंधुदयीभवणाभिमुहे पयाते भावि होत्था । पहगरबंदपरिखिते चकरयणदेसिनमग्गो अणेगरायवर.। तए से भरहे राया दिनकरयणं सिंधए महासईए Page #1463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। दाहिणिलेणं कूलेणं पुरच्छिम दिसिं सिंधुदेवीभवणाभि- नादम्यत्रापि भवनाऽऽदिसम्भवो नानुपपन्नो यथा सौधर्मेन्द्रा मुहं पयातं पासइ, पासित्ता हट्टतुट्टचित्त तहेव. जाव जेणेव चग्रिममहिषीणां साधर्माऽदिदेवलोके विमानसद्भावेऽपि सिंधुए देवीए भवणं तेणेव उवगच्छा, उवागच्छित्ता सिंधुए नन्दीश्वरे कुण्डले वा राजधान्यः, यथा चाऽस्या एव देव्या देवीए भवणस्स भदूरसामंते दुवालसजोषणायाम णवजो असख्येयतमे द्वीपे राजधानी सिध्वावर्तनकूटे च प्रासा. दावतंसक इति । एवं सिम्धुद्वीपे सिन्धुदेवीभवनसद्भावे यणविस्थिमं वरणगरसारिच्छं विजयखंधावारणिवेसं क ऽपि अत एव सूाबलादनापि तदस्तीति ज्ञायते, तथा रेइ. जाव सिंधुदेवीए अट्ठमभत्तं पगिएडइ, पगिरिहत्ता च सति 'सिन्धूर देवीए भवणस्स' अदूरसामंते' इत्यादिकं पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी० जाव दम्भसंथारोवगए | 'खंधावारनियसं करेड' इत्यन्त बच्यमाणसूत्रमप्युपपद्यतेऽ. अट्ठमभत्तिए सिंधुदेत्रि मणसि करेमाणे चिट्ठइ । तर णं न्यथा तदपि विघटतेति । तदनु भरतः किं कृतवानित्याह 'तए णं' इत्यादि, 'सुबोधम्-'oजाव सिंधूप' इत्यादि । अत्रतस्स भरहस्स रमो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि सिंधए यावत्करणात् वर्द्धकिरत्नशब्दापनपौषधशालाविधापनाऽऽदि देवीए पासणं चलइ, तए णं सा सिंधुदेवी आसणं सर्व प्राचं, तेन पौषधशालायां सिंधुदेव्याः साधनायेति शे. चलिभं पासइ,पासित्ता मोहिं पउंजइ,ओहिं पउंजित्ता भरई षः। अष्टमभक्तं प्रगृह्णाति, प्रगृह्य च पौषधिकः-पूर्वव्याख्या. रायं ओहिणा भोएइ, आभोएता इमे एआरूवे तौषधव्रतवान् अत एव ब्रह्मचारी 'जाव दमसंथारोवगए' अब्भस्थिर चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपजि इत्यादि,यावदर्भसंस्तारकोपगतः। अत्र यावत्करणात् उन्मुत्था-उप्पले खलु भो जंबुद्दीचे दीवे भरहे वासे भरहे क्रमणिसुवर्ण इत्यादि सर्व पूर्वोक्तं ग्राह्यम् । अष्टमभक्तिका कृ. ताष्टमतपाः सिन्धुदेवी मनसि कुर्वन्-ध्यायंस्तिष्ठति ।'तए णं' णामं राया चाउरंतचक्कवट्टी, तंजीमेनं तीअपच्चुप्पाम इत्यादि, ततस्तस्य भरतस्य राज्ञोऽष्टमभक्तं परिणमति-प. मणागयाणं सिंधुणं देवीणं भरहाणं राईणं उवत्थाणि रिपूर्णप्राये जायमाने सिन्ध्या देव्या श्रासनं चलति, ततः करतए, तं गच्छामि णं अहं पि भरहस्स रमो उवत्था- ला सिन्धुदेवी श्रासनं चलितं पश्यति, दृष्टा अवधि प्रयुनक्ति णिभं करेमि त्ति कडु कुंभट्टसहस्सं रयणचित्तं णाणाम- प्रयुज्य च भरतं राजानम् अवधिना पाभोगयति-उपयुक्त, णिकणगरयणभत्तिचित्ताणि अदुवे कणगभद्दासणाणि | आभोग्य च स्थितायास्तस्या इत्यध्याहार्यम्,श्रयमेतद्रूपः प्रा. ध्यात्मिकश्चिन्तितः प्रार्थितो मनोगतः संकल्पः समुवपद्यत य कडगाणि अतुडिमाणि अ.जाव भाभरणाणि अगे इत्थमेवान्वयङ्गतिः स्यात् , अन्यथा भित्रकर्तृकयोः क्रिययोः एडा, गेपिहत्ता ताए उकिट्ठाए जाब एवं बयासी-अभि- क्वाप्रत्ययप्रयोगानुपपत्तिः स्यात् भिन्नकर्तृकता चैवम्जिए णं देवाणुप्पिएहिं केवलकप्पे भरहे वासे अहएणं दे- सिन्धुदेवी अम्भोगयित्री सङ्कल्पश्च समुत्पादका, इयं च सि. वाणुप्पिाणं विसयवासिणी अहवं देवाणुप्पियाणं आ. न्धुदेवी आसनकम्पनाहनोपयोगा सती स्मृत जातीया स्वत एवानुकूलाऽऽशया संजज्ञे , तेन न शरप्रमोक्षणाऽऽद्यत्र धक्का णनिकिंकरी, तं पडिच्छंतु ए देवाणुप्पिा ! मम इमं व्यम् , पवं च कर्मचक्रिणां वैतादयसुराऽऽदीनां साधनेऽपि एमआरूवं पीइदाणं ति कडु कुंभऽटुसहस्सं रयणचित्तं णाणा. जिन चक्रिणां तु सर्वत्र दिग्विजययात्रायां शरप्रमोक्षणाऽऽदि. मणिकणगकढगागि अ.जाव सो चेव गमो जाव पडि- कमन्तरेणैव प्रवृत्तिः यतस्तत्र तेषां तथैव साध्यसिद्धिरिति. विसजेइ । तए णं से भरहे राया पोसहसालामो पडिणि सच का सङ्कल्प इत्याह-'उप्पो त्ति' उत्पन्नः खलु:-निश्चये जम्बूदीपनामिन द्वीपे भरतनामनि वर्षे-क्षेत्रे भरतो नाम राजा क्खमइ,पडिणिक्खमित्ता जेणेव मज्जणघरे तेगोव उवागच्छ चतुरन्तचक्रवर्ती तज्जीतमेतत्-प्राचार एषः अतीतवर्तमाना. इ, उवागच्चित्तापहाए कयबलिकम्मे जाव जेणेव भोप्रण नागतानां सिन्धुनाम्नीनां देर्वानां भरतानां राशाम्, अत्र बहु. मंडवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता भोप्रणमंडवंसि वचनं कालत्रयवर्तिनां चस्यर्द्धचक्रिणां परिग्रहार्थम् , उपस्था सुहासणवरगए अट्ठमभत्तं परियादियइ, परियादित्ता. निक-प्राभृतं कर्तुं वर्तते इति, तद् गच्छामि, णमिति प्राग्वजाव सीहासणवरगए पुरस्थाऽभिमुहे णिसीअइ णिसीइत्ता त् अहमपि मरतस्य राक्ष उपस्थानिकं करोमीति, चिन्तित हि कार्य कृतमेव फल भवतीत्याह-'इति कट्ट' इत्यादि.ह. अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेइ, सहावेत्ता जाव अठ्ठाहि तिकृत्वा-चिन्तयित्वा कुम्भानामष्टोत्तरं सहस्रं रत्नचित्रं ना. प्राए महामहिमाए तमाणत्तिअं पञ्चपिणंति । (सूत्र-५०) नामणिकनकरत्नानां भक्तिः-विविधरचना तयाचित्रे च द्वे का 'तए णं' इत्यादि, व्यक्तार्य, नवरं पूर्वी दिशमित्यत्र प नकभद्राऽऽसने ऋषभचरित्रेतु रत्नभद्राऽऽसने उक्ने, कटका. श्चिमविवर्तिनः प्रभासतीर्थत श्रागच्छन् वैतात्यगिरिकुमा. नि च त्रुटिकानि च यावदाभरणानि च गृह्णाति, गृहीत्वा च रदेवसिसाधयिषया तज्ञासकूटाभिमुखं यियासुः प्रथमतः तयोस्कृष्टयेत्यादियावदेवमवादीदिति । अत्र यावत्पदसंग्रहो अनुपूर्वमेव याति, एतच्चदिग्विभागानं जम्बूद्वीपपट्टाऽऽदा व्यक्तः , किमयादीविस्याह- 'अभिजिए णं' इत्यादि प्र. वालेण्यदर्शनाद् गुरुजनसंदर्शितात् सुबोध, सिन्धुदेवीगृहा- भिजितं देवानुप्रियैः-श्रीमद्भिः केवल कल्प-परिपूर्ण भरतं व. भिमुखं च चक्ररत्नं प्रयातम् । ननु सिन्धुदेवीभवनम् अत्रैव सूः प तेनाई देवानुप्रियाणां विषयवासिनी-देशवास्तव्या अहं ने उत्तरभरतामध्यम खराडे सिन्धुकुण्डे सिन्धुद्वीपे वक्ष्यते | देवानप्रियाणामाशप्तिकिरी-माहासेविका तत् प्रतीच्छन्तु. तत्कथमत्र तत्सम्भवः ? , उच्यते महर्द्धिकदेवीनां मूलस्था, गृहन्तु देवानुप्रियाः ! मोदमेतद्रूप प्रीतिदानमिति , अत्र Page #1464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४१) अभिधानराजेन्द्रः । भरह '' सर्वत्र प्राग्वत् इति कृत्वा कुम्माष्टाधिक सहस्रं रत्नचित्र मानामणिकनकरत्नभक्तिचित्रे वा द्वे कनकभद्राऽऽसने कटकानि च यावत् स एव मागधसुरगमो ऽत्रानुसर्त्तव्यः ताव धावत्प्रतिविसर्जयति । तत उत्तरविधिमाह - तप णं ' इत्यादि सर्व प्राग्वत्, नवरं तावद् वक्तव्यं यावताः श्रेणिप्रणष्टाद्दिकाया महामहिमायास्तामासिकां प्रत्यर्पय न्ति यथाऽष्टाहिकोत्सवः कृत इति । अथ वैताढ्य सुरसाधनमाद - तए ण से दिव्वे चक्करयणे सिंधूप देवीए अट्ठाहिश्राए महामहिमाए विव्वत्ताए समाणीए आउघरसालाओ तदेव • जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसिं वेअड्डपन्वयाऽभिमुद्दे पाए आदि होत्या, तर यं से भरहे राया० जाव जेणेव बेडुपए जेणेव वेअडस्स पव्वयस्स दाहिणिल्लेखितंत्रे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छिना वेअड्डूस्स पन्त्रयस्स दा हिणि तिंबे दुवालसजो श्रणायामं णवजो अणवित्थिष्वं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारनिवेस करेइ, करिता०जान वेगिरिकुमारस्त देवस्स अट्ठमत्तं पगिरह, पगिहिसा पोसहसालार जात्र श्रमभत्तिए अड्डगिरिकुमारं देवं मणसि करेमा करेमाणे चिट्ठा, तए गं तस्स भरहस्स रखो श्रट्टमभत्तंसि परिणममाणंसि वेअड्डगिरिकुमारस्स देवरस असणं चलइ, एवं सिंधुगमो अवो, पीइदा अभिसेकं रयणालंकारं कडगाणि अ तुडिआणि अवत्याणि अ आभरणणि अ गेहइ, गेरिहत्ता ताए उक्तिट्टाए जाव अट्ठा हि ०जाब पञ्चप्पियंति। तर यं से दिव् चक्करणे अट्ठाहियाए महामहिमाए णिव्त्रत्ताए समाणीए ०जाव पचच्छि दिसिं तिमिसगुहाभिमुद्दे पयाए आवि होत्या, तर गं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं ०जाव पच्चच्छिम दिसिं तिमिसगुहाभिमु पयातं पास, पामित्ता तुट्टचित ०जावतिमिसगुहाए अदूरसामंते दुबालसजो खायामं णव जोअणवित्थिं० जाव कयमालस्स देवस्स अट्टमभत्तं पगिएछ, पगिरिहन्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी •जाव कयमालगं देवं मखसि करेमाणे करेमाखे चिट्ठा, तर यं तस्स भरहस्त रो श्रट्टपभत्तंसि परिणममाणंसि कयमालस्स देवस्त्र आसणं चला, तहेव० जाव बेअडगिरिकुमारस्स णवरं पीइदाणं इत्थीरयणस्स तिलगचोदनं भंडालंकारं कडगाणि श्र०जाव आभरणाणि अ रहइ हिसा ताए उकट्ठाए ० जाव सकारेइ, सम्माणेइ, सम्मखिता पडिविसज्जेइ ०जाव भोश्रणमंडवे तदेव महामहिमा कयमालस्स पच्चप्पियंति । (सूत्रम् - ५१ ) " ' तर णं ' इत्यादि, प्राख्याख्यातार्थे, नवरम् उत्तरपूर्वो विशमिति - ईशान कोणं चक्ररत्नं वैताख्यपर्वताभिमुखं प्रयातं चाप्यभवत् । अयमर्थः-सिन्धुदेवी भवनतो वैताढ्यसुरः। ३६१ For Private भरह साधनार्थे वैताढ्यसुराबासभूतं वैताढ्यकूटं गच्छत ईशा. नदिश्येव ऋजुः पन्थाः, 'तर ' इत्यादि उक्तप्रायं सर्वे नवरं वैताढ्य पर्वतस्य दाक्षिणात्ये- दक्षिणाभरताश्वनर्तिनि नितम्बे इति, ततस्तस्य भरतस्य राशोऽष्टमभक्ते प रिणमति चैतादयगिरौ कुमार इव क्रीडाकारित्वात् वैता गिरिकुमारस्तस्य देवस्याssसनं चलति, एवं सिन्धुदेव्याः गमः --- सहपाठी नेतव्यः - स्मृतिपथं प्रापणीयः, परं सि मधुदेवीस्थाने वैताढ्य गिरिकुमारदेव इति वाच्यं यच्च सि. न्धुदेव्या श्रतिदेशकथनं तद्वाणव्यापारणमन्तरेणैवायमपि साभ्य इति सादृश्यख्यापनार्थमिति, प्रीतिदानम् श्रभि षेक्यम्-अभिषेक योग्यं राजपरिधेयमित्यर्थः, रत्नालङ्कारंमुकुटमिति आवश्यकचूर्णौ तथैव दर्शनात् शेषं तथैव यावच्छन्दायां ग्राह्यं तत्र प्रथमो यावच्छब्दः उक्तातिरिविशेषणसहितां गतिं प्रीतिवाक्यं प्राभृतोपनयनग्रहणे सुरसम्माननविसर्जने स्नानभोजने श्रेणिप्रधण्यामन्त्रणं सूचयति द्वितीयस्तु अष्टशहिकाऽऽदेशदान करणं इति । तमिस्रागुद्दाऽधिकृतमालसुरसाधनार्थमुपक्रमतेतं इत्यादि ततस्तद्दिव्यं चक्ररत्नं श्रष्टाद्विकायां मद्दामद्दिमायां निवृत्तायां सत्याम् अर्थात् चैता दयगिरिकुमारस्य देवस्य यावत् पश्चिमादिशं तमिस्रागु· हाभिमुखं प्रयातं चाप्यभवत् वैतादयगिरिकुमारसाध नस्थानस्य तमिस्रायाः पश्चिमावर्त्तित्वात् 'तर 'इ त्यादि, सर्व प्राग्यत् प्रीतिदानेऽत्र विशेषः स चायं-स्त्री. रत्नस्य कृते तिलकं ललाटाऽऽभरणं रत्नमयं चतुर्द्दशं यत्र तिलक चतुर्दशम् ईदृशम् भाण्डालङ्कारं प्राकृतत्वादलङ्कारश वस्य परनिपाते श्रलङ्कारभाण्डम् आमरणकरण्डकमित्य र्थः, चतुर्द्दशाऽऽभरणानि चैवम्-" द्वार १ऽद्धहार २ ग ३ कण-य ४ र ५ मुत्तावली ६ उ केऊरे ७ । कडम तु डिए ६ मुद्दा १०, कुंडल १९ उरसुत १२ चूलमणि १३ तिलयं १४ ॥ १ ॥ " इति । कटकानि च श्रत्र कटकाऽऽदीनि स्त्रीपुरुष साधारणानीति न पौनरुक्त्यमित्यादि तावद् व. क्रव्यं यावद् भोजनमण्डपे भोजनं तथैव मागधसुरस्येव मद्दामद्दिमा अष्टाद्दिका कृतमालस्य प्रत्यर्पयन्त्याक्षां श्रेणिप्रणय इति । अथ t तर यं से भरहे राया कयमालस्स अट्ठाहिए म हामहिमाए बिताए सपाणीए सुमेणं सेणावई सहावे, सदावेत्ता एवं वयासी- गच्छाहि णं भो देवापित्रा ! सिंधूर महाराईए पन्चत्थिमिल्लं क्खुिडं ससिंधुभागरगिरिमंरागं समविसमणिक्खुडाणि अओअवेहि, ओअवे अगाई वराई रयणाई पडिच्छाहि अगाई० पडिच्छित्ता ममेश्रमाणत्ति पच्चप्पियाहि । तते गं से सेणाaf बलस या भरहे वासम्म विस्सु जसे महाबलपरकपे महप्पा ओसी ते लक्खणजुत्ते मिलक्खुभासाविसारए चित्तचारुभासी भरहे वासम्म शिक्खुडाणं निमाण य दुग्गमाण य दुपाय विश्राणए अत्थसत्थकुमले रयणं सेणावई सुसेणे भरणं रष्ठा एवं बुजे Personal Use Only Page #1465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४२ ) अभिधान राजेन्द्रः । भरह समाणे तुचित्तमा दिए० जाव करयलपरिग्गहिचं दसयहं सिरसावतं पत्थर अंजलि कट्टु एवं सामी ! तह ति याए विणणं वयणं परिसुइ, पडिणित्ता भरहस्य रामो अंतिमाभो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव सए आ बासे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता को त्रिपुरिसे सद्दाबे, सहावेता एवं बयासी - खिप्पामेव भो देवाप्पा! श्रा भिसे हरियरयणं पडिकप्पेह हयगयरहपवर० जाव चाउरंगियि सेयं समाहति कट्टु जेणेत्र मणघरे तेणेव उवागच्छ, उता गच्छत्ता मज्जणघरं श्रखुपविस, अपविसित्ता रहाए कपपलिकम्मे कयको उग्रमंगलपायंच्छिते सन्नद्धबद्धवम्भिकषण उप्पी लिसराणपट्टिए पिण्डगेविज्जबद्धवि बिमलवर चिंधपट्टे गहिश्र उहपहरणे अगगणनायगदंडनायग०नाव सार्द्ध संपरिवुडे सकोरंटमल्लदामेणं छत्ते परिमाणं मंगलजय सदकयालोए मज्जणघराओ पडिक्खिमा, पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उबद्वाणसाला जेणेव आभिसके हत्थरयणे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छिता श्रभिसेकं हत्यिरयणं दुरूटे | तर यं से सुसे सेणावई हात्थखंधवरगए सकोरंटमलदामेण इसे धरिज्जमाणे हयगय रहपवरजोहकलिभाए चाउरंगिणीए सेखाए सद्धिं संपरिवुडे महयाभचटगरपगरवंद परिक्खित्ते महया उकिट्ठिसीहणायबोलकलकलसदेणं समुद्दरवभूयं पिव करेमाणे करेमाणे सन्धिझीए सब्बज्जुईए सब्वबलेणं०जाव निग्घोसनाइएणं जेशेव सिंधू महाराई तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता मरणं परामुसा, तए णं तं सिरिचच्छसरिसरूवं मुसतार चंदचित्तं भयलमकंप अभेज्जकत्रयं जंतं सलिलासु सागरे उतरणं दिव्वं चम्मरयणं सणसत्तरसाई सsuvari जस्य रोहंति एगदिवसेण वाविश्राई, वासं ऊण चकवा परामुट्ठे दिव्वे चम्मरयणे दुवालस जोभणाई तिरियं पवित्थर, तत्य साहित्र्याई, तए एं से दिव्ये चम्मरयणे सुसेसेणावरणा परामुट्टे समाणे विप्पामेष यावाभूए जाए श्रत्रि होत्या, तर गं से सुसेयो सेणा भई सखंधावारबलवाहणे मानाभूयं चम्मरयणं दुरूह, दुरूहिता सिंधु महाराई विमलजलतुंगवीचिं यामाभूषणं चम्मरयणेणं सबलवाहणे ससेणे समुत्तिसे, तो महाईमुत्तरित्त सिंधु अप्यहियसासणे असेाई कर्हिचि गामागरण गरपव्ययाणि खेडकव्वडमत्रयि पट्टयाणि सिंहलए बब्बरए श्र सव्वं च मंगलो बलापालोमं च परमरम्मं जत्रणदीवं च पवरमणिरयण कोसागार समिद्धं मारब के रोमके अ अलसंडविसयत्रासी पिक्खुरे फालमुहे जोणए अ उत्तरवेअड्डसंसा भरह श्रमेच्छा बहुप्पगारा दाहिण अवरेण जाव सिंधुसागरतोति सव्वपवरकच्छं च ओअवेऊण पडिणित्तो बहुसमरमणिजे श्र भूमिभागे तस्स कच्छस्स हसिमे ता ते जगत्रयाण गगराय पट्टणाय य जे तर्हि सःमिश्रा पभूआ आगरपती अ मंडलपती अ पट्टणपती अ सन्त्रे घेत्तू पाहुडाई श्राभरणाणि भूमणाणि रयणाणि यवत्थाणि महरिहाणि श्रमं च जं वरिहं रायारिहं जं च इच्छिव्वं एवं सेणावइस्स उवर्णेति मत्थयकयंजलिपुडा, पुखरवि काऊ अंजलि मत्ययम्पि पणया तुन्भे अम्हेत्थ सामिश्रा देवयं व सरागया मो तुब्धं विसयत्रासिणोति विजयं जंपमाया सेणावणा जहारिहं उत्रिय अविसजिया चित्ता सगाणि गगराणि पट्टणाणि श्रणुपविट्ठा, ताहे सेणावई सविणश्रो घेत्तू पाहूडाई आभरणाणि भूतणाणि रयाणि य पुणरत्रि तं सिंधुणामधे उत्तिष्ठे अहसासणवले, तदेव भरहस्स रप ि des, वेत्ता अपणित्ता य पाहुडाई सकारियस - माणिए सहरिसे विसजिए सगं पडमंडव मइगए, तते गं सुसेखे सेणावई एहाए कयबलिक कमको अमंगलपायच्छते जिमिश्रनुत्तरागए समाणे ० जाव सरसगोसीसचंदक्खित्तगायसरीरे उपि पासायचरगए फुट्टमाणेहिं - इंगमत्थहिं बत्तीसवदेहिं गाइएहिं वरतरुणी संपत्तहिं उवयच्चित्रमाणे उवणच्चित्रमाणे उवगिजमाणे उबगिमाणे उवल (लभि ) जमाणे उवलालि ( लभि ) जमाये महयाहयणट्टगी अवाइतं तीन लताल तुडिअ घणमुइंगपडुवाइ अरत्रेणं इट्ठे सद्दफरिसर सरूवगंधे पंचविहेमागुस्साए कामभोगे जमाणे विहरइ । (सूत्रम् ५२ ) 'तर णं इत्यादि निगदसिद्धं, नवरं सुषेणनामानं सेनापति-सेनानी रत्नमिति किमवादीदित्याह - गच्छाहि ' इत्यादि, गच्छ भो देवानुप्रिय ! सिम्ध्वा महानद्याः पाश्चात्यं - पश्चिमदिग्वर्त्तिनं निष्कुटं - कोणवर्त्तिभरत क्षेत्र. खण्डरूपम्, एतेन पूर्वदिग्वति भरत क्षेत्रखण्डनिषेधः कृतो बोध्यः, इदं च कैर्विभाज कैर्विभक्तमित्याह - पूर्वस्यां दक्षिणस्यां च सिन्धुर्नदी पश्चिमायां सागर:- पश्चिमसमुद्रः उत्तरस्यां गिरिवैताढ्यः, एतैः कृता मर्यादा - विभागरूपा तया लहितम् एभिः कृतविभागमित्यर्थः श्रनेन द्वितीयपाश्चात्यनि कुटात् विशेषो दर्शितः, तत्रापि समानि च समभूभा गवन्तीनि विषमाणि च दुर्गभूमिकानि निष्कुटानि च - श्र वान्तरक्षेत्र खण्डरूपाणि ततो द्वन्द्वस्तानि च - (श्रोभवेद्दि त्ति ) साधय श्रस्मदाज्ञाप्रत्र तेनेनास्मद्वशान् कुरु, अनेन क थनेन प्रथमसिन्धु निष्कुट साधने ऽल्पीय सोऽपि भूभागस्य साधने न गजनिमीलिका विधेयेति ज्ञापितम् एवमेवाखएडपट्खण्डक्षितिपतित्व प्राप्तेः ( श्रवेत्ता) साधयित्वा अ ग्याणि सद्यस्कानि वराणि - प्रधानानि रत्नानि खस्वजा For Private Personal Use Only Page #1466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह , भूमि प्रतीच्छ गृहाय प्रतीच्य च ममेतामाहतिकां प्रत्ययेति ततः सुषेणो यथा वक्रे तथाऽऽह'तते ' इत्यादि ततो भरताऽऽज्ञानन्तरं स सुषेणः एवं स्वामिस्तथेत्याश्या विनयेन वचनं प्रतिशृणोति इति पर्यग्लपयोजना पारूपा स्वस्थ प्राग्वत् किंभूतः सुषेणासेना इत्यादिपस्तदूपस्य यतस्य नेता प्रभुः स्वये ण प्रवर्तकः भरते वर्षे विश्रुतयशाः महतः - अतुच्छस्य ब. लस्य - सैन्यस्य प्रक्रमात् भरतचक्रवर्त्तिसम्बन्धिनः परा क्रमो यस्मात् तथा दृष्टं हि बलवति प्रभौ बलं बलवद्भ वतीति एतेन 'ओसी ति ' पदे न पौनरुक्त्यं महात्माउदा (र) तस्वभावः, ओजस्वी आत्मना वीर्याधिकः तेजसा शा. रीस लक्ष -साविभिषा पारसीआरबीप्रमुखासु विशारदः परितः सन्देशमाषा शो हि तत्तद्देशीयम्लेच्छान् सामदानाऽऽदिवाक्यै बद्धं सम थों भवति श्रत एव वित्रं विविधं चारु अग्राम्यताऽऽदिगु· गोपेतं भाषत इत्येवंशीलः भरतशेत्रे निष्कुनां 1 1 - 9 -- गम्भीरस्थानानां दुर्गमानां दुःखेन गन्तुं शक्याप्रवेशानां प्रभूभागानवि शायकस्तत्र तासीव प्रचारचतुरः, श्रत एवैनां योग्यतां विधाता शासने नियुक्त, अर्थशास्त्र नीतिशास्त्राऽदि तत्र कुशलः रत्नं सेनापतिः -- सैन्येशेषु मुख्यः, भरतन राशा एवमुक्तः सन् दृष्टतुष्टेत्यादि प्राग्वत्, ततः स किं करोतीत्याह - पडिसुत्ता' इत्यादि सबै चैतत् पाठसि. द्धं, नवरं सुषेणविशेषणं सन्नद्धं शरीराऽऽरोपणात् बद्धं क साधनतः पादमस्येति - मितम् कषायस्य स तथा उत्पीडिता माई गुषारोपणाद्दूरीकृता शरासनपट्टिका धनुडो येन स तथा पिन श्रीवाऽमरणं वा येन स तथा बद्धो - ग्रन्थिदानेन श्रविद्धः परिहितो मू. दिलवर चिडपो वीरातिथीरताप विशेषो येन स तथा पश्चात्पदद्वयस्य कर्मधारयः, गृदीतान्यायुधानि प्रहरणानि च येन स तथा आयुधमह खयोस्तु प्याक्षेप्तो विशेष सत्र प्यानि बाणाऽऽदीनि अक्षेप्यानि खङ्गाऽऽदीनि अथवा - गृहीतानि आयुधानि प्रहरणाय येन स तथेति । ' तप णं इत्यादि. प्रायास्वतार्थ नपरं वाक्ययोजनायां ततः सुधरलं परामृशति स्मृति इत्यन्तं सम्बन्ध इति पतरस्तावाच्वर्म्मरत्नवर्णनमाह – 'तपणं तं' इत्यादि, तच्चरत्नम् उक्तविशेषणविशिष्टं भवता ततो विस्तीर्णो विस्तृ तनामक इत्यर्थः एवंविधः इनः - स्वामी चक्रवर्त्तिरूपो य स्य तत् ततेनं, यस्य हस्तस्पर्शतः इच्छया वा विस्तृणाति स स्वामीत्यर्थः श्रीवत्स सदृशं - श्रीवत्साSSकारं रूपं यस्य तत्तथा, नन्वस्य श्रीवत्साऽऽकारत्वे चत्वारोऽपि प्रान्ताः सः 9 - ५ - ( १४४३ ) अभिधानराजेन्द्रः । --- विषमा भवन्ति तथा चास्य किरातकृतवृष्टयुपद्रवनिवारणार्थ तिर्थविस्तृतेन वृत्ताऽऽकारेण छत्ररत्नेन सह कथं सङ्घटना स्यादिति ?, उच्यते - स्वतः श्रीवत्साऽऽकारमपि स हस्रदेवाधिष्ठितत्वाद्यथावसरं चिन्तिताऽऽकारमेव भवतीति म कायनुपपत्तिः, मुहानमा तरका चन्द्राविवासि - लेपानि यत्र तत्तथा प्रच अकम्पं द्वौ सदार्थको शब्दावतिशयसूचकास्त्विन्तर -- भरह परिणाम किसका सम्पातल्पेऽपि न मनागपि अमेयं कवचमियामेद्यकवचं समाच जरमिष दुर्भेदमित्याशयः सलिलासु- नदीषु सागरेषु चोसरणयन्त्र पारगमनेोपायभूतं दिव्यं देवकृतप्रातिहार्म रत्नं धर्मसु प्रधानं, अनलजलाऽऽदिभिरनुपघात्यवीर्यत्वात्. यत्र शणं - शणधान्यं सप्तदशं - सप्तदशसण्यापूरकं येषु. सामि शणसप्तदशानि सर्वधान्यानि रोइन् जायन्ते एकदिवसेनोप्तानि श्रयं सम्प्रदायः - गृहपतिरत्नेनास्मिश्चणि भाग्यानि सूर्योदय उपन्ते अस्तमनसमये च पन्ते इति सप्तदश धान्यानि त्विमानि" सालि १ जव २ वीहि ३ कु. द्दव ४, रालय ५ तिल ६ मुग्ग ७ मास ८ चपल ६ चिणा १० । अरि ११ मसूरि १३ कुलत्था १३, गोहुम् १४ शिफाव १५ अयसि १६ सणा १७ ॥ १ ॥ " प्रायो बहूपयोगीनीमानीतीयन्त्युक्तानि अन्यत्र चतुर्विंशतिरप्युक्तानि, लोके च क्षुद्रधान्यानि बहून्यपि पुनरस्यैव गुणान्तरमाह-वर्षे जलदृष्टि चक्रवलिंगा परा दिव्यं चर्मरत्नं द्वादशयोजनानि तिर्यक् प्रविस्तृणाति वर्द्धते तनोत्तरमध्यखण्डयति किरातकृत मेघां पद्रवनिवार rssदिकार्ये साधिकानि किञ्चिदधिकानि, ननु द्वादशयो जनावधि तस्थुषश्चक्रिस्कन्धावारस्यावकाशाय द्वादशयोजनप्रमाणमेवेदं विस्तृतं युज्यते किमधिकविस्तारेण उच्यतेयोरन्तरालपूरणायोपपते साधिकविस्तारइति । पहचान प्रकरणाद्यच्छदेनेव विशेषयामासी सूत्रे पुनरपि दिव्वे चम्मरयणे " इति ग्रहणं तदालापकान्तरव्यवधानेन विस्मरणशीलस्य विनेयस्य स्मारणार्थम्, अथ प्रकृतं प्रस्तूयते - ' तर णं इत्यादि ततस्तद्दिव्यं चर्मरत्नं सुषेणसेनापतिमा पराम-स्पून प्रिमेव-निर्मि लम्बमेव नौभूतं - महानद्युत्ताराय नौतुल्यं जातं चाप्य.. भवत् नावाकारेण जातमित्यर्थः, तर णं इत्यादि, ततः बम्मरत्ननीभवनानन्तरं सुषेणः सेनापतिः-सेवा स्कन्धावारस्य - सैन्यस्य ये चलवाहने - हस्त्यादिचतुरङ्गशि बिकाऽऽदिरूपे ताभ्यां सह वर्त्तते यः स लस्कन्धावारबलवाहनः गौभूतं चमेराममारोहति सिन्धुमहानदीं मिलजल स्तुत्यु बीचयः-कोला यांसायां नौ चर्मरस्नेन बलवाहनाभ्यां सह वर्त्तते यः स सबलवाहनः, एवं सशासनो - भरताशासहितः समुत्तीर्ण इति । तो महा ई' तत इति कथान्तरप्रस्तावनायां महानदीं सिन्धुमुत्ती प्रतिदान सेनापतिसेनानी क चिद् श्रामाऽऽकरनगरपर्वतान् सूत्रे क्लीवत्वं प्राकृतत्वात्. 'खेडे त्यादि. सिंहावलोकन न्यायेन क्वचिच्छन्दोऽत्रापि ग्रा. स्टेनचित् पानि यत्पित्तनानि तथा सिंहल कान् सिंहलदेशोद्भवान् वर्षका पर्वशोवान् सर्वे च श्रङ्गलोकं बलावलोकं च परमरम्यम्, इमे च द्वे अपिले. 1 • " 1 जानीयजनाऽऽक्षयभूते स्थाने, बचनद्वीपं द्वीविशेष. अत्र चकाराः समुच्चयार्थाः, एवमग्रेऽपि त्रयाणामध्यमषां साधारण विशेषणमा- प्रवास डिमाराणि ते समृतम् धारकान् अरब देशोद्भवान् रोमकांश्च - रोमकदेशोद्भवान् अलस. एडविषयवासिनश्च पिक्खुरान् कालमुखान् जोनकांच विशेषान्वेति पदेन योगः अर्थः सातिरमपि निष्कुदित-उत्तर दिग्वर्त्ती येताय एवं सिधुनिकुन अ 3 GF " . " Page #1467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००४) अभिधानराजेन्द्र। भरह स्माद्वैतात्य उत्तरस्यां दिशि वर्तते इत्यर्थः, तं संश्रिताः- भोजनोत्तरकाले पागतः सन् उपवेशनस्थाने इति गम्यम् । तदुत्पत्तिकायां स्थिताश्च म्लेच्छजातीबहुप्रकाराः उक्तम्पति. अत्र यावत्पदादिदं दृश्यम्-'आयंते चोक्खे परमसुईभूए' रिला इत्यर्थः, अत्र सूत्रे कचिद् विभक्तिव्यत्ययः प्राकृतत्वात्. इति , अत्र व्याख्या-प्राचान्त:-शुद्धोदकयोगेन कृतहदक्षिणापरेण-नैर्भूतकोणेन यावत् सिन्धुसागरान्त इति- स्तमुखशौच चोक्षा-लेपसिक्थाऽऽद्यपनयनेन अत एव पर. सिन्धुनदीसङ्गतः सागरः सिन्धुसागरः, मध्यपदलोपे साधुः. मशुचीभूतः-अत्यथे पावनीभूतः, वंच पदयं योजनायाः स एवान्त:-पर्यवसानं तावदवधि इत्याशयः, सर्वप्रवरं क. | क्रमप्राधान्येन 'भुत्तुरागए समाणे' इति पदात् पूर्व योज्यम्, छंच-कच्छदेशं 'श्रीअवेऊण त्ति' साधयित्वा स्वाधीनं इत्यमेव शिष्टजनक्रमस्य दृश्यमानत्वात् , अन्यथा भुक्त्युत्ता कृत्वा प्रतिनिवृत्ता-पश्चाद्वलितो बहुसमरमणीये च भूमिभागे रकाले आचमनाऽऽदिकं पामराणामिव जुगुप्सापात्रं स्यात्, सस्य कच्छदेशस्य सुखेन निषण्णः-सुस्थस्तस्थौ, स सुषेण पुनः सेनापति विशिनष्टि-सरसेन गोशीर्षचन्दनेनाक्षिताःइति प्रकरणालभ्यते, ततः किं जातमित्याह-'ताहे ते जण. सिक्ताः गात्रे शरीरे भवा गात्रा:-शरीरावयवा वक्षःप्रभृतयो बयाण' इत्यादि . (तहि) तस्मिन् काले ते इति-तच्छब्दस्यो यत्र तदेवंविधं शरीरं यस्य स तथा, अत्र यच्चन्दनेन से. तरवाक्ये 'सब्वे घेत्तूण' इत्यत्र योजनीयत्वेन व्यवहितः चनमुक्तं तन्मार्गश्रमोत्थवपुस्तापव्य पोहाय , सिक्तं हि च. सम्बन्ध आर्षस्वात्. जनपदानां-देशानां नगराणां पत्तनानां न्दनमलितापविरहितत्वादतिशीतलस्पर्श भवतीति, ( उ. च प्रतीतानां ये च तर्हि' तत्र निष्कुटे स्वामिका:-चक्र. पि) उपरि प्रासादवरस्य सूत्रे च लुप्तविभक्तिकतया नि. पर्तिसुषेण सेनान्योरपेक्षया अल्पर्द्धिकत्वेनाशातस्वामिन देश आर्षत्वात गतः-प्राप्तः स्फटद्भिरिव-अतिरभलाऽऽस्फा. स्यज्ञाता कमत्ययः , ये च प्रभूता-बहर आकराः स्व लनवशाद्विदल द्भिरिव मृदङ्गानां मई लानां मस्तकानीव म. ऽऽद्युत्पत्तिभुवस्तेषां पतयः मण्डलपतयो-देशकार्यनि. स्तकानि-उपरितनभागा उभयपार्थे चोपनद्धपुटानीति तैयुक्ताः पत्तनपतयश्च, ते गृहीत्वा प्राभृतानि-उपायनानि रुपनृत्यमान इत्यादि योज्यं, अत्र करणे तृतीया, तथा द्वात्रि. श्राभरणानि-अङ्गपरिधेयानि भूषणानि-उपानपरिधेयानि शताऽभिनेतन्यप्रकारैः राजप्रश्नीयोपाङ्गसूत्र विवृतेः पात्रैर्वा रत्नानि च वस्त्राणि च महापाणि च-बहुमूल्यानि अन्य बझैः-उपसम्पनैर्नाटकैः प्रतीतैर्वरतरुणीभिः-सुभगाभिःउच यद्वरिष्ठं-प्रधानं वस्तु हस्तिरथाऽऽदिकं राजाह-राजमा. श्रीभिः भूभुजङ्गरागेषु परममोहनत्वेन तासामेषोपयोगात् भृतयोग्यं यच्च पष्टव्यम्-अभिलषणीयम् एतत्सर्व पूर्वोक्तं से. सम्प्रयुक्तः-प्रारब्धैरुपनृत्यमानो-नृत्य विषयीक्रियमाणस्तद. नापतेरुपनयन्ति-उपढीकयन्ति मस्तककृताञ्जलिपुटाः त. भिनयपुरस्सरं नर्तनात्, उपगीयमानस्तद्गुणगानात्, उपलतस्ते किं कृतवन्त इत्याह-'पुणरवि' ते-तत्रत्य स्वामि भ्यमानस्तदीप्सितार्थसम्पादनात् , महता इति विशेषणं भः प्राभृतोपनयनोसरकाले प्रकृताञ्जलिपरित्यागानिवर्त. प्राग्वत् इष्टान्-इच्छाविषयीकृतान् शब्दस्पर्शरसरूपगन्धा. नावसरे पुनरपि मस्तकेजलिं कृत्वा प्रणता-नम्रस्वमुपाग. न् पश्चविधान् मानुष्य कान्-मनुध्यसम्बन्धिनः कामभोगा. ताः यूयमस्माकमत्र स्वामिनः, प्राकृतत्वात् स्वार्थे कप्रत्ययः, नू-कामांश्च भोगांश्च इति प्राप्तसंशकान् , तत्र शब्दरूपे तेन देवतामिव शरणागताः स्मो वयं युष्माकं विषय. कामौ स्पर्शरसगन्धा भोगा इति समयपरिभाषा, भुजानः-. चासिन इति विजयसूचकं वचो जल्पन्तः सेनापतिना या अनुभवन् विहरतीति । थाई-यथौचित्येन स्थापिता:-नगराऽद्याधिपत्यादिपूर्वकायें. अथ तमिस्रागुहाद्वारोद्घाटनायोपक्रमतेबुनियोजिताः पूजिता वस्त्राऽऽदिभिः विसर्जिना:-स्वस्थान गमनायानुभाता:-निवृत्ताः-प्रत्यावृत्ताः सन्तः स्वकानि नि. तए णं से भरहे राया अप्पया कयाई मुसेणं सेणावई जानि नगराणि पत्तनानि चानुपविष्टाः । विसर्जनानन्तरं सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं बयासी--गच्छ णं खिप्पामेत्र सेनापतिर्यच्चकार तदाह-ताहे सेणावई' इत्यादि, तस्मि भो देवाणुपिया ! तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारनकाले सेनापतिः सविनयोऽन्ततस्वामिभक्तिको गृहीत्वा स कबाडे विहाडहि , विहाडेत्ता मम एअमागात्तिभं माभृतानि श्राभरणानि भूषणानि रत्नानि च पुनरपि तां सि पच्चप्पिणाहि त्ति , तए णं से सुसेणे सेणाबई भरहेणं धुनामधेयां महानदीमुत्तीर्णः,'अणहशब्दोऽक्षतपर्यायो देश्यस्तेनाणहम्-अक्षतं कचिदप्यखरिडतं शासनम्-पाशा बलं च | रमा एवं वुले समाणे हतचित्तमाणंदिए . जाव करयस्य स तथा तथैव यथा यथा स्वयं साधयामारा पा तथा रयलपरियहि सिरसावत् मत्थए अंजलि कहा जाव भरतस्य राज्ञो निवेदयति निवेनविना प्राभृतानि अर्पः पडिसणेइ , पडिसुणित्ता भरहस्स रणो अंतियामो यित्वा च अत्र स्थित इति गम्यम् , अन्यथा क्त्वान्तपदेन पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव सए आसहसतिने स्यात् । ततः प्रभुगा सत्कारितो बनाऽऽदिभिः सन्मानितो बहुमान रचनाऽऽदिभिः सहर्षः प्राप्तप्रभुसत्कार. वासे जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता स्वात् विसृष्टः-स्वस्थानगमनार्थमनुशातः स्वकं-निजं प. दम्भसंथारगं संथरइ. जाव कययालस्स देवस्स अट्टमटमण्डपं-दिव्यपटकृतमडपं मध्य पदलोपी समासः, पटमण्ड- भत्तं पगिएहड, पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी • जाव पोपलक्षितं प्रासादं वा अतिगत:-प्राविशत् , अथ स्वका. अट्ठमभत्तसि परिणममाणसि पोसहसालाओ पडिणिपासप्रविरो यथा सुषेणो बिललास तथा चा35-'तते णं' इत्यादि ततः स सुषेणः सेनापतिः । या त्यादि क्खम, पडिमिक्खमित्ता जेणेव मजणघरे तेणेव उमान्यत् , जिमितो-भुक्रवान् राजभोजन विधिना भुक्त्युलर बागच्छइ, उवागच्छित्ता एहाए कयवलिकम्मे कयको Page #1468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४५) भरह अभिधानराजेन्द्र:। उममंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाई मंगलाई वत्थाई प- वाडे विहाडेइ,विहाडेता जेणेव मरहे गया तेणेव उवागच्छवरपरिहिए अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे धृवपुफ्फगंध- इउवागच्छिताजाव भरहं रायं करयलपरिग्महिनं जगणं मलहत्थगए मजणघरानो पडिणिक्खमड, पडिणिक्वमि- | विजएणं बद्धावेइ , बद्धावेत्ता एवं बयासी-बिहाडिमा णं ता जेणेव तिमिसगुहाए दाहिमिलस्स दुवारस कवा- देवाणुप्पिमा! तिमिसगुहाए दाहिणिलस्स दुवारस्स कबाहा तेणेच पहारेस्थ ममणाए, तए णं तस्स सुसेण | डा एमां देवाणुप्पिमाणं पि णिवेएमो, पिमं भे भवउ, स्स सेणावइस्स बहवे राईसरतलवरमादंविधजाव स- तए णं से भरहे राया सुसेणस्स सेणावइस्स अंतिए ए. स्थवाहप्पभियो अप्पेगइमा उप्पलहत्थगया . जाव अमहं सोचा निसम्म हटतुट्ठचित्तमाणदिए जाय हिभए सुसेणं सेणावई पिट्टओ पिटुमो अणुगच्छति , तए णं सुसेण सेणावई सकारेइ, सम्माणेड,सकारिता सम्पाणिसा तस्स सुसणस्स सेणावइस्स बहईओ खुजाओ चिला- कोडुविभपुरिसे सहावेइ, सहावित्ता एवं बयासी-खिप्पामेष इमामो . जाव इंगिमचिंतिअपस्थिप्रविमाणिमाउ णि- भो देवाणुप्पिमा ! भाभिसेक हत्थिरयणं पढिकप्पेह, हयउणकुसलामो विणीपात्रो अपेगमाओ कलसहत्थगया- गयरहपवर तहेव जाव अंजणगिरिकूडसमिभं गयवरं परव. प्रो जाव अणुगच्छंतीति । तए ण से मुसेणे सेणाई ई दुरूढे । (सूत्रम्-५३) सब्बिड्डीए सबजुई • जाव बिग्घोसणाइएणं जेणेव ति- 'तपणं से भरहे राया अमया' इत्यादि , एतच निगद. मिसगुहाए दाहिणि लस्स दुवारस्स कबाडा तेणेव उवा- सिद्ध, सम्बन्धसन्तत्यम्युच्छित्यर्थ संस्कारमात्रेण विवियते, गच्छद, उवागच्छित्ता आलोए पणामं करेइ, करिता लो. ततः स भरतो राजा अन्यदा कदाचित् सुषेणं सेनापति श. ब्दयति-प्राकारयति, शम्नयित्वा चैवमवादीत्-गच्छ क्षि. महत्थगं परामुसइ, परामुसिता तिमिसगुहाए दाहिणि प्रमेव भो देवानुप्रिय! तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य खस्स दुवारस्स कवाडे लोमहत्येणं पमआइ, पमजि- कपाटौ विघाटय-सम्बद्धा वियोजय उद्धाटयेति यावत् , त्ता दिव्वाए उदगधाराए अब्भुक्खेइ, अमुक्खित्ता स ममैतामाक्षप्तिकां प्रत्यर्पय, 'तपणं' इत्यादि, अन भरना. रसेयं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितले चच्चए दलइ, दलि. अशाप्रतिश्रवणाऽऽदिकं मजन गृहप्रतिनिष्क्रमणान्तं प्राग्य व्याख्येयं, नवरं यौव तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वार. ता अग्गेहिं वरेहिं गंधहि म मल्लेहि म अचिणेह, अ स्य कपाटो तत्रैव गमनाय प्रधारितवान् -गमनसङ्कल्पमकचिणेता पुष्फाहणं जाव वत्थारुहणं कब, करेत्ता रोत् 'तपणं' इत्यादि, ततस्तमिस्रागुहागमनसङ्कल्पकरणापासत्तोसत्तविपुलबट्टजाव करेइ, करित्ता अच्छेहि स- नन्तरं तस्य सुषेणस्य बहवो राजेश्वराऽऽदयो जनाः सुषेणं गडहिं रययामरहिं जच्छरसातंडुलेहिं तिमिस्सगुहाए दा- सेनापति पृष्ठतोऽनुगच्छन्ति, सर्व चात्र भरतस्य चक्ररक्षार्थी हिणिजस्स दुवारस्स कवाडाणं पुरमओ अट्ठऽटुमंगलाए चिकीर्षोरिव वाच्यम् , एवं चेटीसूत्रमपि पूर्ववदेव, नवरं किं. लक्षणाश्वेट्यः?-इङ्गितेन-नयनाऽऽदिवेष्टयैव प्रास्तां कथना पालिहर, तं जहा-सोस्थियसिरिवच्छ० जाव कयग्गह दिभिः चिन्तितं-प्रभुणा मनसि संकल्पितं यद्यत्प्रार्थितं तत्तत् गहिसकरयलपभट्टचंदप्पभवइरवेरुलिप्रविमलदंडं • जाव जानन्ति यास्ताः तथा निपुण कुशला:-अस्यम्तकुशलाः तथा धूवं दलयइ , दलयित्ता वामं जाणु अंचेई अचेत्ता बिनीता -प्राशाकारिण्यः अप्येकका बन्दनक मशहस्तगता करयल जाव मत्थए अंजलि कडकवाडाणं पणामं करे, इत्यादि. 'तए णं' इत्यादि, ततस्तमिस्रागुहाभिमुखचलना. नन्तरंस सुषेणः सेनापतिःसर्वद्धर्या सर्वयुक्त्या सर्वात्याचा करित्ता दंढरपणं परामुसइ, तए णं तं दंडरयणं पंचलइअं यावनिर्घोषनादितेन यत्रैव तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वा. वइरसारमइमं विणासणं सम्वसत्तुसेरणाणं खधावारे रस्य कपाटी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य समालोके-दर्शन गारवइस्स गइदरिविसमपन्भारगिरिवरपवायाणं समीकरणं | प्रमाणं करोति , तदनु सर्व चक्ररत्नपूजायामिव वाच्य , यासंतिकरं मुभकरं हितकरं रखो हिमइच्छिभ्रमणोरहपूरगं पदम्ते पुनरपि कपाटयोःप्रणामं करोति, नमनीयवस्तुन उप. दिनमप्पडिहयं दंडरयणं गहाय सत्तऽट पयाइं पञ्चोसक्कर, चारे क्रियमाणे पादावन्ते च प्रणामस्य शिष्टव्यवहारोचिस्यात् प्रणामं कृत्वा च दण्डरत्नं परामृशति.प्रथावसरागतंबण्डा पच्चासक्कित्ता तिमिसगुहाए दाहिणिखस्स दुवारस्स क रत्नस्वरूपं निरूपयन् कथा प्रवध्नाति-'तपणं'इत्यादि, वाडे दंडरयणेशं पहया महया सद्देणं तिक्खुत्तो पाउडे । ततो-दण्डरस्नपरामर्शानन्तरंतहण्डरनं-दण्डेषु दण्डजाती. तए खं तिमिसगुहाए दाहिणिलस्स दुवारस्स कवाडा येषु रत्नम्-उत्कृष्टम् अप्रतिहतं-कश्चिदपि प्रतिषातमनाप सुसेणसेणावइणा दंडरयणेणं महया महया सदेणं तिक्खुत्तो दराडनामक रत्नं गृहीत्वा सप्ताष्टपदानि प्रत्यवश्वकते-अप सतीत्यनेन सम्बन्धः, अथ कीरशं तदित्याह-रस्नमय्य: माउडिभा समाणा महया महया सणं कोंचारवं करेपाणा पश्चलतिकार-कत्तलिकारूपा अवयवा यत्र तत्तथा,वजरस्न. सरसरस्स सगाई मगाइंगणाई पञ्चोसक्कित्था, तए णं से स्य यत्सारं प्रधामद्रव्यं तम्मयं सहलिकमित्यर्थः विनाशनं सुसंगण मेणावई तिमिसगुहाए दाहिणिलस्स दुवारस्स क- सर्वशत्रुसेनानां.नरपतेः स्कन्धाबारे प्रस्तावाद् गन्तुं प्रवृत्ते सति Page #1469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह अभिधानराजेन्द्रः। भरह गादानि प्रारमारान्त पदानि प्राग्वत्, गिरया-पर्वतापत्र निवेदकस्य सेनानीरत्नस्यैकत्वात् क्रियायाम् एकवचनस्यौ. विशेषणानभिधाने ऽपि प्रस्तावाद् गिरिशब्देन तुद्रगिरयो चित्ये यनिवेदयाम इत्यत्र बहुवचनं तरसपरिकरस्याप्या. प्रायाः, ये सचरतः सन्यस्य विधनकराः यात्रोन्नखानां रा. रमनो निवेदकत्वख्यापनार्थ तथ बहूनामेकवाक्यस्येन प्र. शांत एवोच्छेद्याः, महागिरयस्तु तेषामपि संरक्षणीया एव, त्ययोत्पादनार्थम् , एतत् प्रियम्-इएम् (भे)-भवतां भवतु, प्रपाता-गच्छ जनस्खलनहेतवः पाषाणाः भृगयो वा तेषां स. ततो भरतः किं चक्र इत्याह-'तपणं' इत्यादि, व्यक्तम् । मीकरणं समभागाऽऽपादकमित्यर्थः, शान्तिकरम्-उपद्रवो. गजाऽऽरूढः सन् यन्नृपतिश्चके तबाह- . पशामक, ननु यथुपद्रवोपशामकं तर्हि सति दण्डररने तए ण से भरहे राया मणिरयणं परामुसइ, तोतं चउ. सगरसुतानां ज्वखनप्रभनागाधिपकृतोपद्रवो न कथमुप. रंगुलप्पमाणमित्तं च अणग्धं तसिथ छलंसं प्रणोदमजुई शशामेति ? । उच्यते-सोपक्रमोपवविद्रावण एव तस्य सामर्थ्यात् . अनुपक्रमोपद्रवस्तु सर्वधाऽनपासनीय एव, दिवं मणिरयणपतिसमं वेरुलिनं सन्नभूतं जेण य अन्यथा विजयमाने वीरदेवे कुशिध्यमुक्ता तेजोलेश्या मुद्धागएणं दुक्खं ण किंचि जाव हवइ, आरोग्गे भस. सुनक्षत्रसर्वानुभूती अनगारौ कथं भस्मतां निनाय, अत नकालं तेरिच्छित्रदेवमाणुसकया य उवसग्गा सम्बे ण एवावश्यंभाविनो मावा महानुभावैरपि नापनेतुं शक्या इति, शुभकरं कल्याणकरं हितकरम्-उकैरेव गुणैरुपकारि. करेंति तस्स दुक्खं, संगामेऽवि असत्थवज्झो होइ णरो राक्षः-चक्रवर्तिनो हृदयोप्सितमनोरथपूरकं गुहाकपाटोद्घा. मणिवर धरतो ठिप्रजोवण केसप्रवाहि अणहो हवइ प्र टनाऽऽदिकार्यकरणसमर्थत्वात् दिव्यं यक्षसहस्राधिष्ठितमिः । सवभयविष्पमुक्को , तं मणिरयण गहाय से परवई ह. त्यर्थः, अत्र सेनापतेः सप्तापदापसरणं प्रजिहोंर्गजस्येव स्थिरयणस्स दाहिणिल्लाए कुंभीए णिक्खिबइ, तएणं से दृढ़प्रहारदानायाधिकप्रहारकरणामिति, प्रत्यषष्वाकणाद. भरहाहिक परिंदे हागेत्यए सुकयरइभवच्छ जाव अमर नु किं चक्रे इत्याह-' पच्चोसक्कित्ता' इत्यादि, प्रत्यवम्व. क्य च तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटीद. वइसलिभाए इदीए पहियकित्ती मणिरयणकउज्जोए चक्क. एहरस्नेन महता महता शब्देन विकृत्वा-श्रीन् चारान् श्रा. रयणदेसिश्रमग्गे अणेगरायसहस्सासुभायमग्गे मइया उ. कुट्टपति-ताडयति, अत्र इत्थंभावे तृतीया, यथा महान् किमीहणायबोलकलकलरवेणं समुदरवभअंपिव करेमाणे शब्द उत्पद्यते तथाप्रकारेण ताडयतीत्यर्थः, अत्र गुहाक करमाणे जेणेव तिमिसगुहाए दाहिणिले दुवारे तेणेव उका पाटोद्धाटनसमये द्वादशयोजनावधिसेनानीररनतुरगापसर गच्छइ, उवागच्छित्ता तिमिसगुई दाहिणिलेणं दुबारेणं णप्रथावस्तु आवश्यकटिप्पनके निराकृतोऽस्ति, यथा-"यश्वात्र द्वादश योजनानि तुरगाऽऽरूढः सेनापतिः शीघ्रमपस अईइ ससि च मेहंधयारनिवहं । तए णं से भरहे गया रती" त्यादिप्रवादः सोऽनागामिक व लक्ष्यते, क्वचिदच्या छत्तलं दुवालसंसिअं अटकमिदं अहिगरणिसंठिअं अट्ठमुपलभ्यमानत्वादिति, ततः किं जातमित्याह- तर णं' सोवलि कागणिरयणं परामुमइ ति। तए णं तं चउरंगुइत्यादि । ततः-ताडनादनु तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य लप्पमाणमित्तं अट्ठसुवर्ण च विसहरणं अउलं चउद्वारस्थ कपाटौ सुषेण लेनापतिना दराडरत्नेन महता महता रंससंठाण सठियं समतलं माणुम्माणमोगा जतो लोगे च शब्देनाऽऽकुहिती सन्तो महता महता शब्देन दीर्घतरनिनादिनः क्रौचस्येव बहुव्यापित्वाद् बनुनादितत्वाच्च य प्रा. रंति सव्वजणपासवगा, ख इव चंदो ण इव तत्थ पूरे रवः-शब्दस्तं कुर्वाणो 'सरसरस्सत्ति' अनुकरणशब्दस्तेन ण इव अम्गीण इव तत्थ मणिणो तिमिरं णासेंति भंतादृशं शब्दं कुर्वाणी कपाटावित्यर्थः, स्वके स्वके स्व- धयारे जत्य तयं दिव्वं भावजुत्तं दुवालसजोषणाईत. कीये स्वकीये स्थाने ऽवष्टम्भभूततोड़करूपे यत्राऽऽगताब. स्स लेसाउ विवद्धंति तिमिरणिगरपडिसेहिमाश्रो, रसिं च चलतया तिष्ठत इति ते यावत् प्रत्यवावकिपातां-प्रत्यपलसर्पतु, 'तए णं' इत्यादि, इदं च सूत्रमावश्यकचू सम्बकालं खंधावारे करेइ पालोभं दिवसभूभं जस्स प. ौँ वर्द्धमानमूरिकताऽऽदिचरित्रे च न दृश्यते, ततोऽ भावेण चक्कवट्टी, तिमिसगुहं प्रतीति सेससहिए अभि. नन्तरपूर्वसूत्र पव कपाटोद्धाटनमभिहितं, यदि चैतत्सूत्रा जेतुं बितिमद्धभरहं रायवरे कागणिं गहाय तिमिसमु. दर्शानुसारेणेदं सूत्रमवश्यं व्याख्येयं तदा पूर्वसूत्रे "सगाई स. हाए पुरच्छिमिल्वपञ्चच्छिामिल्लेसुं कडएसुं जोमणंतरिगाई ठाणा" इत्यत्राऽऽर्षत्वात् पश्चमी व्याख्येया, तेन स्व. भाई पंचधणुसयविक्खभाई जोप्रोभकराई चक्कणेमी. काभ्यां स्वकाभ्यां स्थानाम्यां कपाटयसंमीलनास्पदाभ्यां प्रत्यवस्तृताविति-किश्चिद्विकसितावित्यर्थः, तेन विधाटना संठियाई चदमंडलपडिणिकासाई एगणपमं मंडलाई प्रा. कमिदं न पुनरुक्तमिति, ततः कपाटप्रत्यपसर्पणादनु स लिहमाणे आलिहमाणे अणुप्पविसइ, तए सा तिमिसुषेणः सेनापतिः तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य सगुहा भरहेणं रमा तेहिं जोधणंतरिएहिं जाव जोमणुकपाटी विघाटयति उद्घाटयति, ततः किं कृतमित्याह ज्जोकरहिं एगणपष्माए मंडेलहिं प्रालिहिजमाणे 'विहाडेता 'इत्यादि. प्रायः प्राग् व्याख्याताथै, नवरं वि. घारिती देवानुप्रियाः ! तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वा आलिहिजमाणेहिं खिप्पामेव भलोगभूमा उज्जोमभूभा रस्य कपाटौ एतद्देवानुप्रियाणां प्रियं निवेदयामः, अत्र दिवसभूमा जाया यावि होत्था । (सूत्रम्--५४) Page #1470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४७) भरह अभिधानराजेन्द्रः। भरह 'तए णं से भग्हे राया मणिरयणं' इत्यादि, ततः स भरतो संस्थितं-संस्थानं यस्य तत्तथा, तत्सहशाऽऽकारं समचतुर. राजा मणिरत्नं परामृशति, किंविशिष्टम् इस्याह-'तोतं'। नत्वात् , प्राकृतिस्वरूपं निरूप्यास्य तौल्यमानमाह-अष्ट. इति सम्प्रदायगम्यं चतुरङ्गलप्रमाणा मात्रा दैर्येण यस्य सुवर्णा मानमस्येत्यष्ट नौर्णिक, तत्र सुवर्णमानमिवंच. तत्तथा. चशब्दाद् धगुल्लपृथुलमिति ग्राह्य, यदाह-'च स्वारि मधुरतण फलाम्येकः श्वेतसर्षपः, षोडश श्वेतसर्पपा तुरंगुलो दुअंगुलपिहलो अ मणी" इति, अनधितम् अमू- एकं धान्यमाषफलम् , दे धान्यमाषफले एका गुञ्जा, पञ्च गु. ल्यं न केनापि तस्याः कर्तुं शक्यते इत्यर्थः, तिस्रोऽ. आ एकः कर्ममापका, षोडश कर्ममापकाः एकः सुवर्ण इति, स्रयः-कोटयो यत्र तत्तथा. ईदृशं सत् पडनं-पट्कोटिक पताहशैरष्टमिः सुवर्णैः काकणीरत्नं निष्पद्यते इति,पत्रचा. लोकेऽपि प्रायो वैडूर्यस्य मृदाऽऽकरत्वेन प्रसिद्धत्वा. धिकारे "एतानि च मधुरतुणफलादीनि भरतचक्रवति। मध्ये उन्नतवृत्तत्वेनान्तरितस्य सहजसिद्धस्योभयान्तवर्ति. कालसम्भवीन्येच गृह्यन्ते, अन्यथा काल भेदेन तद्वैषम्यसम्म नोऽनित्रयस्य सत्वात् । अत्राह-पडनमित्यनेनैव सिद्धे वे काकणारत्नं सर्वचक्रिणां तुल्यं न स्यात् , तुल्यं चेष्यते त. व्यषडम्ममिति किमर्थम् ?, उच्यते-उभयोरतियोर्निरन्तर. त्," इत्येतस्मादनुयोगद्वारवृत्तिवचनात् एतद्देशीयादेव स्थाकोटिषटकभवनेनापि पडता सम्भवति ततस्तव्यवच्छ. नावृत्तिवचनात् , "चउरंगुलो मणी पुण, तस्स ऽद्धं चेय. दार्थ व्यत्रं सत् षडमिन्युक्त, तथा अनुपमद्युति दिव्यं होइ विच्छिलो । चउरंगुलप्पमाणा, सुबमवर कागणी नेया" मगिरत्नेषु पूर्वोक्तेषु पतिसमं सर्वोत्कृष्टत्वात् , बैडूर्य वैडू. ॥१॥ इहाङ्गुलं-प्रमाण गुलमवगन्तव्यं, "सर्वचक्रवर्तिनाम र्यजातीयमित्यर्थः, सर्वेषां भूतानां कान्तं काम्यम् । इदमेव पिकाकण्यादिरत्नानां तुल्यप्रमाणत्वादिति " मलयगिरिगुणान्तरकथनेन वर्ण यन्नाह-- जेण य मुद्धागएणं ' इ. कृतवृहत्संग्रहणीबृहत्वृत्तिववनाच्च केचनास्य प्रमाणात त्यादि, येन मूगतेन-शिरोधृतेन हेतुभूतेन न किञ्चिद् दु:- लनिष्पन्नत्वं, केचिच्च-" एगमेगस्स णं रमा चाउरंतचखं जायते प्रारोग्यं च सर्वकालं भवति , तिर्यदेवमनुः । क्वट्टिणो अटुसोबरिणए कागणिरयणे छत्तले दुवालसंसियकृताः, चशब्दस्य व्यवहितसम्बन्धादुपसर्गाश्च, सर्वे न कु. ए अटुकरिणए अहिगरणि संठाणसंठिए पर प्रत्ते, एगमेगा. र्वन्ति तस्य दुःखं, संग्रामे ऽपि च-बहुविरोधिसमरे श्रा. कोडी उस्सेहंगुलविक्खंभा तं समणस्म भगवो महा. स्तामल्पविरोधिसमरे अशस्त्रवध्यः, अत्र न शस्त्रवयोऽ धीरस्ल अखंगुलं " इत्यनुयोगद्वारसूत्रबलादुत्सेधाङ्गुलनि शस्त्रवध्य इति नसमासो वा ' अः स्वल्पार्थेऽप्यभावे. पन्नत्यं, केऽपि च एतानि सप्तकेन्द्रियरत्नानि सर्वचक्रव. ऽपि ' इत्यनेकार्थवचनात् इति पृथगेव नसमानार्थनि र्तिनामात्माङ्गलेन यानि, शेषाणि तु सप्त पश्चेन्द्रियरत्नानि पातो वा यस्तेन न शर्वध्यो भवति, नरो मणिवरं तत्कालीनपुरुषोचितमानातीति प्रवचनसारोद्धारवृत्तिबला. धरन् स्थितं धिनश्वरभाषमप्राप्त योवनं यस्य स तथा, दात्मानगुलनिष्पत्यमाहुः, अत्रबपक्षत्रये तत्वनिर्णयः स्थायियौवन इत्यर्थः , केशैः सहापस्थिता-प्रवद्धिष्णवो न. सर्वविद्वेद्यः, अत्र तु बहु वक्तव्यं तत्तु ग्रन्धगौरवभिखा यस्य स तथा पश्चात् पदद्वयस्थ कर्मधारयः, भ. या नोच्यते इति । अस्य परामर्शानन्तरं यच्चके तदाहवति च सर्वभयविप्रमुक्तः , 'अत्र सर्व भाजनस्थं जलं पी. 'तए णं' इत्यादि, ततः-परामर्शानन्तरं तत्काकणीरत्नं तम्' इत्यदाविव एकदेशेऽपि सर्वशब्दप्रयोगस्य सुप्रसिद्ध राजयरो गृहीत्वा यावदेकोनपञ्चाशतं मण्डलान्यालिखना. त्वाद्देवमनुष्याऽऽदिप्रतिपक्षोत्थं भयमिह क्षेपम्, अन्यथाऽश्लो लिखन् अनु रविशतीत्युत्तरेण सम्बन्धः, कथम्भूतमित्याहकाऽऽदिभयानि महतामेव भवेयुरिति. अथेतद् गृहीत्वा नृप चतुरगुलप्रमाणमात्रम् अस्येकेका अधिश्चतुरगुलप्रमाणतिर्यच्चकार तदाह-' तं मणि ति' तम्मणिरत्नं गृही. विष्कम्भा द्वादशाप्यश्रयः प्रत्येकं चतुरङ्गलप्रमाणा भवन्ती स्वा स नरपतिर्भरतो हस्तिरत्नस्य दाक्षिणात्ये कुम्भे नि. त्यर्थः, अस्य समचतुरस्रवादायामो विष्कम्भश्च प्र. क्षिपति-निबध्नाति, 'कुंभीए' इत्यत्र स्त्रीत्वं प्राकृतत्वा. त्येकं चतुरगुलप्रमाण इत्युक्तं भवति, यैवाश्रिरूध्वींत्, 'तए णं' इत्यादि, ततः स भरताधिपो नरेन्द्रो हा. कृता आयामं प्रतिपद्यते सव निर्यग्व्यवस्थापिता वि. रावस्तृतस्यादिविशेषण कदम्बकं प्राग्वत् मणिरत्नकृतोद्यो. कम्भभाग् भवतीत्यायामविष्कम्भयोरेकतरनिर्णयेऽप्यपर. तश्चक्ररत्नदेशितमार्गों यावत् समुद्ररवभूतामिव गुहामि निर्णयः स्यादेवेति सूत्रे विष्कम्भस्यैव प्रहणं, तग्रहण ति गम्यं कुर्वन् कुर्वन् यत्नव तमिनागुहाया दाक्षिणात्यं द्वार चायामोऽपि गृहीत एव. समचतुरस्त्यात्तस्येति,तदेवं स. तत्रैवोपागच्छति , उपागत्य च तमिसागुहा दाक्षिणात्येन तश्चतुरङ्गलप्रमाणमिदं सिद्धं यतु 'तस्स णं एगमेगा द्वारेणात्येति-प्रविशति, शशीव मेघान्धकारनिवहम् । प्रवे. कोडी उस्लेहंगुलविक्खंभा तं च समस्त भगवनी म. पानम्तरं यत्कृत्यं तदाह-'तए णं' इत्यादि, ततः भरतो हावीरस्स अद्धं गुलं, ' इत्यनुयोगद्वारसूत्रे उक्तं तन्मतात. राजा काकणीरत्नं परामृशतीत्युत्तरेण सम्बन्धः , किं. रमबसेयं, तथाऽभिः सुवर्णैर्निचन्नमष्टसुवर्णम् , अपसु. विशिष्टमित्याह-चत्वारि चतसृषु दिक्षु द्वे तूर्वमधश्वेत्येवं वर्णमूलद्रव्येण निष्पत्रमित्यर्थः, वकारो विशेषणसमुच्चये षट्सलयाकानि तलानि यत्र तत्तथा, तानि चान मध्य सर्वत्र, तथा विर्ष जगमाऽविभेदभिन्नं तस्य हरमण, स्व. खण्डरूपाणि यैर्भूमावविषमतया तिष्ठन्तीनि, द्वादश अध | र्णाष्टगुणानां मध्ये विषहरणस्य प्रसिद्धत्वात् , अस्य व उपरि तिर्यक चतसुष्वपि दिक्षु प्रत्येकं चतसृणामधी तथाविधस्वर्णमयत्वादिति, अतुलं-तुलारहितमनन्यभावात् अश्रयः-कोटयो यत्र तत्तथा, कर्णिकाः-कोणाः सदृशमित्यर्थः, चतुरस्रसंस्थानसंस्थितमिति तु यियत्र अधित्रयं मिलति तेषां चाध उपरि प्रत्येकं चतुर्णा स | विशेषणं पूर्वोक्ताधिकरणियान्तेन भाव्यमिति, ननु अधिदावादाकर्णिकम्। अधिकरणिः-सुवर्णकारोपकरणं तद्वत् ' करणिदृष्टान्ते भाव्यगाने नास्य पूर्वोका चतुरनुलतोपपत Page #1471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४८) भरह अभिधानराजेन्द्रः। अधिकरणेरधः सङ्कुचितत्वेन विषमचतुरस्रवादित्याह-स. बन्मएडलप्रकाश्यं गुहाभित्तिक्षेत्रमित्यर्थः, चक्रस्य नेमिा-परि मतलमिति, समानि न न्यूनाधिकानि तलानि षडपि यस्य | धिस्तसंस्थानानि वृत्तानीत्यर्थः तथा चन्द्रमण्डलस्य प्रति. तत्तधा, अथैतदेव यच्छन्दगर्मितवाक्यद्वारा विशिनधि-यतः निकाशानि-भास्वरत्वेन सहशानि, एकोनपञ्चाशतं मण्डला. काकणीरत्नात् मानोरमान (प्रमाण) योगा:-एते मानविशे. नि वृत्तहिरण्यरेखारूपाणि, काकणीरत्नस्य सुवर्णमयत्वात् , षव्यवहारा लोके चरन्ति प्रवर्तन्ते इत्यर्थः, तत्रमानं धान्य प्रालिखन् २ विन्यस्यन् २ अनुप्रविशति गुहामिति प्रकरणा. मानं सेतिकाकुडवाऽऽदि. रसमानं चतुःषष्टिकाऽऽदि, उन्मानं दशेयं, वीप्सावचनमाभीएयद्योतनार्थ, मण्डला लिखनक. कर्षपलाउदि स्खण्डगुडाऽऽविद्रव्यमानहेतुः उपलक्षणात् सु. मचायं गुहायां प्रविशन् भरतः पाश्चास्यपान्थजनप्रकाशकरवर्णाऽऽदिमानहेतुः प्रतिमानमपि ग्राह्य गुरुजाऽऽदि. किं- रणाय दक्षिणद्वारे पूर्वदिकपाटे प्रथमं योजन मुक्त्वा प्रथम म. विशिष्टास्ते व्यवहाराः ?-सर्वजनानाम्-अधमर्णोत्तमा एडलमालिस्वति ततो गोमूत्रिकान्यायनोत्तरतःपश्चिमदिकया. पानां प्रज्ञापकाः, मेयद्रव्याणामियत्तानिर्णायकाः, अयमा- टतोहके तृतीययोजनाऽऽदो द्वितीयमण्डलामालिखति,ततस्ते. शयः-यथा सम्प्रति प्राप्तजनकृतनिर्णयाळू कुडवाऽऽदिमा• नैव न्यायेन पूर्वदिकपाटतोडके चतुर्थयोजनाऽदो तृतीयं,ततः नं जनप्रत्याय व्यवहारप्रवर्तकं च भवति तद्वच्चक्रवर्तिः । पश्चिमदिग्भित्तौ पञ्चमयोजनादौ चतुर्थ, ततः पूर्वदिग्भित्तो काले कारणिकपुरुषैः काकणीरत्नाङ्कितं तत्तादृशं भवेदि. षष्ठयोजनादौ पञ्चम,ततः पश्चिमदिभित्तौ सप्तमयोजनादी त्यर्थः, यच्छन्दगर्मेणैव वाक्येन माहात्म्यान्तरमाह-नापि षष्ठंततः पूर्वदिग्भित्तौ अष्टमयोजनादौ सप्तमम् एवं तावद वा. चन्द्रः तत्र तिमिरं नाशयतीति योजनीयं, न वा सूर्यः- व्यं यावदष्टचत्वारिंशत्तममुत्तरदिग्द्वारसत्कपश्चिमदिकपाटे अत्र इक्यालङ्कारे, एवं सर्वत्र, नवाऽग्निर्दीपाऽऽदिगतः न प्रथमयोजनाऽऽदा एकोनपञ्चाशत्तमं चोत्तरदिग्द्वारसत्कपूर्व घा मण्यस्तत्र तिमिरं नाशयन्तिः प्रकाशं कर्तुमलम्भूष्ण- विक्कपाटे द्वितीययोजनाऽऽदाबालिखति, एवमेकस्यां भिसौ व इत्यर्थः, यत्रान्धकारे अन्धकारयुक्तत्वेनाभेदोपचारात् पञ्चविंशतिरपरस्यां चतुर्विंशतिरित्येकोनपश्चाशम्मण्डलानि अन्धकारमत्रास्तीति अम्राऽऽदित्वादप्रत्ययविधानाद्वा अन्ध. भवन्ति, पतानि च किल गुहायां तिर्यग् द्वादश योजकारपति गिरिगुहाऽऽदो तकत्-काकणीरत्नं दिध्य-प्रभावयुक्तं नानि प्रकाशयन्ति, ऊर्वाधोभावेन चाष्टौ योजनानि, गु. तिमिरं नाशयति , अथ यदीदं प्रकाशयति तदा कियत् हाया विस्तरोच्चत्वस्य च क्रमेण एतायत एव भावात, क्षेत्र प्रकाशयतीस्याह-द्वादश योजनाति तस्य लेश्या:-प्र- अग्रतः पृष्ठतश्च योजनं प्रकाशयन्तीति. ननु गोमूत्रिकाविरभा विवन्त, अमन्दाः सत्यः प्रकाशयन्तीत्यर्थः, किंविशि- चनक्रमेण मण्डलाउलिखने कथमेषां योजनान्तरित्वं?,यद्य. हा लश्या? -तिमिरनिकरप्रतिषेधिकास्तमित्राऽदिगुहायाः कभित्तिगतमण्डलापेक्षया तर्हि योजनद्वयान्तरितत्वमापद्येत, पूर्वापरतो द्वादशयोजनविस्तारयोस्तासां प्रसरणात् ' रसिं अन्यथा द्वितीयमण्डलस्यैकभित्तिगतत्वप्रसहमतथा च सति चत्ति'प्रथमान्तयच्छदाध्याहारादर्थवशाद्विभक्तिपरिमाणा. गोमूत्रिकाभङ्गः, अन्य भित्तिगत मण्डलापेक्षया तु तिर्यक् सा. च्च यद्रत्नं रात्रौ 'चो' वाक्यान्तराऽऽरम्भाः सर्वकालं स्क. धिकद्वादशयोजनान्तरितत्वमिति, उच्यते-पूर्वभित्ती प्रथम धावारे दिवससहशं, यथा दिवसे आलोकस्तथा रात्राव- मण्डलमालिखति, ततस्तत्सम्मुख प्रदेशापेक्षया योजनातिको पीत्यर्थः, पालोकं करोति, यस्य प्रभावेण चक्रवर्ती त- द्वितीयमण्डलमालिखति,ततस्तत्समुखप्रदेशापेक्षया योजना. मिखां गुहाम् अत्येति-प्रविशति सैन्यसहितो द्वितीयमर्द्धभ. तिक्रमे पूर्वमित्तौ तृतीयमण्डलमालिखतीत्यादिक्रमेण मराठा रतमभिजेतुम उत्तरभरतं वशीकर्तुमित्यर्थः , चात्रान्तरा. लकरगात् गोमूत्रिकाकारत्वं योजनान्तरित्वं च व्य. बच्छमगर्भितवाक्यावतारेण वाक्यान्तरप्रवेशो नाम सूत्र- कमेवेति संर्य सुस्थम् , अथ पश्चाशयोजनाऽऽयादुषणमिति वाच्यम्.आर्षत्वात् तस्यादुष्टत्वेन शिरव्यवहारा. मायां गुहायामे कोनपञ्चाशता मण्डलैर्यत्प्रकाशकरण मुक्तमि. स्, यथा पार्षे छन्दस्सु वर्णाऽऽद्याधिक्याऽऽदावपि न छन्दो. स्यस्यार्थस्य सुखावबोधाय संक्षपेण मण्डलपञ्चकस्य स्थाभ्रष्टत्वदोषो , महापुरुषोपनत्येनार्यत्वात, तथैव शिष्टव्यव- पना दर्शाते, यथा- ! ! एवं षट्कोष्ठक. हारात, राजवरो-भरतः कागणि ति' पदेकदेशे पदस. परिकल्पितषयोजनक्षेत्रे एकस्मिन् पक्षे त्रीणि अन्यत्र तु मुदायोपचारात् काकणीरत्नं गृहीत्वा-लात्वा तमिस्रागुहा. द्वे इत्युभयमीलने पञ्च मण्डलानि भवन्ति, पवमनेन गो. या पौरस्त्यपाश्चात्ययोः कटकयो:-भिस्योः प्राकृतवाद- मूत्रिकामडएलकविरचनक्रमेण पश्चाशदयोजनायाम ऽऽयां गु. विवचन बहुवचनं, योजनान्तरितानि प्रमाणाङ्गल- हायामेकोनपञ्चाशतोऽपि मण्डलकानां स्थापना स्वयं से. निष्पनयोजनमपान्तराले मुक्या कृतानीस्यर्थः, अवगाह येति, अन्ये तु पूर्वदिक्कपाटे प्रादौ योजनं मुक्या प्रथमापेक्षयोत्सेधाजल निमनपञ्चधनुःशतमानयिष्कम्माणि, वृ. म मण्डलं करोति, ततः पश्चिमदिक्कपाटे तत्सम्मुखं तस्वान् विष्कम्भग्रहणेनाऽऽयामोऽपि ताबानेवावगम्तव्यः,उ. द्वितीयं, ततः पूर्वदिक्पारगतप्रथममण्डलादुत्तरतो यो. स्सेधाकुलप्रमीयमाणावगाहनाकेन चक्रिणा हस्तात्तत्काक- अनं मुक्त्वा पूर्वदिक्कपाटतोहके तृतीयं, ततः पश्चिमदि. णीनेम क्रियमाणत्वान्मण्डलानामयं च मण्डलावगाहाः कपाटतोहके तत्सम्मुखं चतुर्थम् , ततः पूर्वदिक्कपाट. स्वस्वप्रकाश्ययोजनमध्ये एक गएयते, अभ्यथा ४६ मण्डला. तोहके तृतीयान्मण्डलायोजनं मुक्त्वा पञ्चमं ततस्तत्सम्मुख नामबगाहे पिएडीक्रियमाणे गुहाभियोरामाय उक्लप्रमा पश्चिमविकापाटतोहके षष्ठं, पुनस्तावतवाम्तगलेन पूर्वदिगणाधिकप्रमाणः प्रसज्येतेति , अत एव च योजनोद्योतक. भित्ती सप्तमं, ततस्तत्सम्मुखं पश्चिम दिग्मिती अष्टम, ततः राणि-योजनमात्रक्षेत्रप्रकाशकानि, यावन्मण्डलास्तरावंता-! पूर्वदिभित्तो सप्तमान्मएडलायोजनान्तर नवम, ततः पश्चि Page #1472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। मभिती अमात् तावतैवान्तरालेन दशममित्येवं पूर्वभित्तौ स्तमिसापूर्वकटकमबधीकृत्येवेति , उन्मग्नाऽपि पूर्वकटका. पश्चिमभित्तौ च मण्डलान्याक्ति खस्तावद् गच्छति यावञ्चरम निर्गतास्तीत्युभयोरेकस्थानतासूचनार्थकमिदं सूत्रं , यत्रैमष्टनवतितम मण्डलमुत्तरद्वारसत्कपश्चिदिक्कपाटे, एवं चै. बोन्मग्नजला महानदी तत्रैवोपागच्छति, उपागस्य च पद्धकिकैकस्यां भित्ताकोनपञ्चाशत् मण्डलानि उभयमीलने चाट. रत्नं शब्दयति शब्दयित्वा चैवमवादीदिति । यदवादीत् तदा मवतिरिति, अत्र चोभयोः पक्षयोर्मध्ये श्राद्यः श्रावश्यकबृह. ह-खिप्पामेव त्ति' क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिय ! उन्मग्ननि. वृत्तिटिप्पनकप्रवचनलारोद्धारबृहदवृत्त्यादावुक्तो द्वितीयस्तु मग्नजल योर्महानद्योः अनेकानि स्तम्भशतानि तेषु सनि. मलयागरिकृतक्षेत्रविचार वृत्त्यादाविति । अथ प्रकृतं प्रस्तूय. विष्टौ-सुसंस्थिती अत एवाचलौ महाबलाऽऽक्रान्तत्वेपिन ते-'तए णं' इत्यादि, तनो-मण्डलालिखनानन्तरं सात. स्वस्थानाच्चलतः अकम्पो-दृढी 'सकम्पसेतुबन्धे तु ति. मिस्र गुहा भरतेन राज्ञा तैर्योजनान्तरितैर्याचद्योजनोद्योत- तीषूणां सशकं चलनं स्यादिति दृढतरनिर्माणाधिस्यर्थः, करैरे कोनपश्चाशता मण्डलैरालिख्यमानैः क्षिप्रमेवालोक- अथवा--अचलो-गिरिस्तद्वत् अकम्पो, मकारोऽलाक्षणिसौरप्रकाशं भूता-प्राप्ता, एवमुद्योतं-चान्द्रप्रकाशं भूता, कि का, अभेद्यकवचाविवाभेद्यकवचौ अभेद्यसन्नाहाविति, जबहुना ? दिवसभूता-दिनसदृशी जाता चाप्यभवत् , चः लादिभ्यो न भेदं यात इत्यर्थः। नन्वनन्तरोक्तविशेषणाभ्यासमुच्चये, श्रपिः सम्भावनायां तेन नेयं गुहा मण्डलप्रकाश मुत्तरतां तदुपरि पातशङ्का न स्यात्तथापि उभयपार्श्वयोर्जपूर्णा किन्तु सम्भाव्यते श्रालोकभूता, एवमग्रेतनपदद्वयम- लपातशङ्का नापनीता भवतीत्याह-साऽऽलम्बने उपरि गच्छ. पि, क्वचिद् दिवसभूश्र' इत्यस्य स्थाने 'दीवसयभूया' इति तामवलम्बनभूतेन दृढतरभित्तिरूपेणाऽऽलम्बनेन सहिते यापाठस्तत्र दीपशतानि भूतेति व्याख्येयम् । हे-उभयपाश्वौं ययोस्तौ तथा, सर्वाऽऽत्मना रत्नमयो पा. अथान्तर्गुहं वर्तमानयोः परपार जिगमिष्णांप्रतिबन्धकभू- दिदेवचरित्रप्रवचनसारोद्धारवृत्त्योस्तु क्रमेण पाषाणमयकाष्ठ. तयोरुन्मग्नानिमनानामेकनद्योः स्वरूपम् (जं.) 'उम्मग्ग मयो तावुक्तौ स्त इति, तथा सुखेन संक्रमः पादविक्षेपो जला शब्दे ' द्वितीयभागे ८४४ पृष्ठे दर्शितम्। ) अथ यत्र तो तथा, ईशी संक्रमौ-सेतू कुरुष्व कृत्वा च तुरवगाहे नद्या विबुध्य भरतो यच्चकार तदाह मामेतामाक्षप्तिकां क्षिप्रमेव प्रत्यर्पयेति । अथ स किं चकारत्याह-' तए णं ' इत्यादि, अनुवादसूत्रत्वात् तए णं से भरहे राया चक्करयणदे सिमग्गे अणगराय. सर्व प्राग्वत् , ननु उन्मग्नजला जलस्योन्मजकत्वस्वभाव. महया उक्किट्ठसीहणायजाव करेमाणे करमाणे सिंधए महा त्येन कषं तत्र संक्रमार्थकशिलास्तम्भाऽऽदिल्यासः सुस्थितो णईए पुरच्छिमिले णं कूडे यं जेणव उम्मग्गजला महाण ई भवति, स च दीर्घपदृशालाकारो न च जलोपरिकाष्ठा. 5ऽदिमयः सम्भवति, तस्यासारत्वेन भारासहत्वात् , उच्य. तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बद्धइरयणं सहावेइ, सदा ते-बर्द्धकिरत्नकृतत्वेन दिव्यशक्नेरचिन्त्यशक्तिकत्वात् , अ. वेत्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! उम्मग्गणि नेन चाऽऽचक्रिराज्यपरिसमाप्तेः सर्वोऽपि लोक उत्तरति, गु. मग्गजलासु महाण इसु अणे गखभसयसमिविढे अयलमकंपे हा च तावन्तं कालमपावृतैवाऽऽस्ते मण्डलाम्यपि तथैव ति. अभेजकवए सालंबणवाहाए सव्वरयणापर सुहसंकमे करे- ष्ठन्ति, उपरते तु चक्रिणि सर्वमुपस्मत इति प्रवचनसाहि, करेत्ता मम एअमाणत्तिअंखिप्पामेव पच्चप्पिणाहि, तए रोद्धारवृत्तेरभिप्रायः, त्रिषष्ठीयाजितचरित्रे तु-"उद्घाटिणं से बद्धहरयणे भरहेणं रमा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुहचित्तमा. तं गुहाद्वारं गुहान्तमण्डलानि च । तावत्तान्यपि तिष्ठन्ति, यावज्जीवति चक्रभृत् ॥१॥" इत्युक्तमस्ति । 'तए णं' दिए जाच विणएवं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता खिप्पामेव इत्यादि, ततः स भरतो राजा स्कन्धावाररूपबलसहित. उम्मगणि मगजलामु महाणईसु अणेगखंभसयसमिबिढे स्ताम्यां संक्रमाभ्यां उन्मग्ननिमग्नजले महानद्यौ उत्तरति जाव सुहसंकमे करेइ, करिता जेणेव भरहे राया तेणेव परपार गच्छति , एवं उत्तरतो गच्छति राजराजे उत्तर द्वारे यज्जातं तदाह - तए णं ' इत्यादि, ततो-नद्यतिक. उवागच्छइ,उवागच्छित्ता नाव एप्रमाणत्तिनं पच्चप्पिण मणानन्तरं तस्यास्तमिस्रागुहाया उत्तराहस्य द्वारस्य कइतए णं से भरहे राया सखंधावारबले उम्मग्गणिमग्गज पाटी स्वयमेव सेनानीदण्डरनाऽऽघातमन्तरेणेत्यर्थः, 'महया लामो महाणईओ तेहिं अणेगखंभसयसमिविटेहिं जाव महया' इति सूत्रदेशेन पूर्वसूत्रस्मरणं तेन 'महया महया सुहसंकमेहिं उत्तरइ, तए णं तीसे तिमिस्सगुहाए उत्तरिल- सद्देण' मिति बाध्य क्रौञ्चरवं कुर्वाणौ 'सरस्सर सि'कुर्वन्तौ च स्वके स्वके स्थाने प्रत्यवायाकषातां, व्याख्या तु प्रा. स्स दुवारम्स कवाडा सयमेव महया महया कोंचारवं क ग्वत् . ननु यदि दाक्षिणात्यद्वारकपाटौ सेनापतिप्रयोगपूर्व. रंमाणा सरसरस्सग्गाई सरसरस्सगाई ठाणाई पच्चीस कमुटेते तथा इमावपि कथं न तथा? , उच्यते-एकशः कित्था । (मूत्रम्-५५) सेनापतिसत्यापितकपाटोद्धाटनविधिसन्तुषगुहाधिपसुरानु. 'तपणं' इत्यादि, ततः स भरतो राजा चक्ररत्नदेशि. कुलाशयेन द्वितीयपक्षकपारौ स्वयमेवोखटेते इति । तमार्ग: 'अणेगराय' इत्यादि सूत्रं व्याख्या च प्राग्वत् , लि. अधोत्तरभरतार्द्धषिजयं विवास्तत्रत्यविजेतव्यजनध्वा महानद्याः पौरस्त्ये कृते-पूर्वतटे उभयत्रापि णं शब्दो स्वरूपमाहवाक्यालकारे , अयमर्थः-तमिनाया अधो वहन्ती सिन्धुः। तेणं कालेणं तेणं समएणं उत्तरङ्गभरहे वासे यहवे भा. Page #1473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४५०) अभिधानराजेन्द्रः। वाडा णाम चिलाया परिवसंति प्रडा दित्ता वित्ता वित्थि- 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि , तस्मिन् काले एणविउलभवणसयणाऽऽसणजाणवाहणाऽऽइण्णा बहु-| तृतीयारकप्रान्ते तस्मिन् समये-यत्र भरत उत्तरभरता - विजिगीषया तमिरातो निर्याति, उत्तरार्द्धभरतनामिन वधणबहुजायरूवरयया पाश्रोगपभोगसंपत्ता विच्छडिप -क्षेत्रे आपाता इति नाम्ना किराताः परिवसन्ति, आउरभत्तपाणा बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूमा बहुज- ख्या:-धनिनः दृप्ता-दर्पवन्तः चित्ता:-तजातीयेषु प्रसिद्धाः णम्स अपरिभूमा मुरा बीरा विकंता वित्थिामविउल- विस्तीर्णविपुलानि-अतिविपुलानि भवनानि येषां ते तथा बलवाहणा बहुसु समरसंपराएसु लद्धलक्खा यावि हो. शयनाऽऽसनानि प्रतीतानि यानानि-रधाऽऽदीनि वाहनानि स्था, तए णं तेसिमावाडचिलायाणं अण्णया कयाई वि अश्वाऽऽदीनि माकीर्णानि-गुणवन्ति येषां ते तथा,ततः पद वयस्य कर्मधारयः, बहु-प्रभूतं धनं-गणिमधरिममेयपरि. सयंसि बहूई उप्पाइयसयाई पाउन्भवित्था, तं जहा-अ च्छेद्यभेदात् चतुर्विधं येषां तथा. बहु-बहुनी जातरूकाले गज्जिप्रकाले विज्जुमा अकाले पायवा पुष्फं- परजते -स्वर्णरूप्ये येषां ते तथा, ततः पदयस्य फर्मधारयः ति अभिक्खणं अभिक्खणं आगासे देवयानो णचंति, आयोगो-द्विगुणादिवृद्धयर्थ प्रदान प्रयोगश्च कलान्तरं तो तए णं ते आवाडचिलाया विसयंसि बहूई उप्पाइप्रसयाई संप्रयुक्तौ-व्यापारितो यैस्ते तथा, विच्छईिते-त्यक्ते बहुज नभोजनदानेनावशिष्ठोच्छिष्टसम्भवात् सजातविच्छ था पाउन्भूयाई पासंति, पासित्ता अलममं सदावेति, सहा सविस्तारे बहुप्रकारत्वात् प्रचुरे--प्रभूते भक्तपाने अन्नपानी. वेत्ता एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिा ! अम्हं ये येषां ते तथा, बहवो दासीदासाः गोमहिषाश्च प्रतीताः विससि बहूई उप्पाइअसयाई पाउन्भूयाइं । तं जहा गबेलका-उरभ्राः एते प्रभूता येषां ते तथा ततः पदवभकाले गजिभं अकाले विज्जुआ अकाले पाय यस्य कर्मधारयः, बहुजनेनापरिभूताः सूत्रे षष्ठी पार्षवा. त्, सूराः प्रतिक्षातनिर्वहणे दाने वा वीराः संग्रामे वि. वा पुप्फंति अभिक्खणं अभिक्खणं आगासे देवयाओ कान्ता भूमण्डलाऽऽक्रमणसमर्था विस्तीर्ण विपुले-प्रतिषिणच्चंति, तं ण णज्जइ णं देवाणुप्पिया ! अम्हं विसय- पुले बलवाहने-सैन्यगवादिके दुःखानाकुलस्वात् येषां तेत स्स के मने उवदवे भविस्सइ त्ति कह ओहयमणसंकप्पा था, बहुषु समरेषु-सम्पगयेषु. अनेन चातिभयानकत्वं स. चिंतासोगसागरं पविट्ठा करयलपल्हत्यमुहा अट्टज्माणो चितं समररूपेषु सम्परायेषु युद्धेषु लब्धलक्षा-प्रमोघहस्ता. चाप्यभवन् । सामान्यतो युद्धेषु च पक्षानाऽऽदिरूपेषु केच वगया भूमिगयदिहिमा झिआयंति, तए सं से भरहे न लब्धलक्षा भवेयुः परं तव्यवच्छेदाय समरेखित्युक्तम्,मथ राया चक्करयणदेसिश्रमम्गेजाव समुद्दरवभूध पिव करे- यत्तेषां मरडले जातं तदाह-'तपणं' इत्यादि, तत इतिमाणे करमाणे तिमिसगुहामो उत्तरिलेणं दारेणं णीति कथान्तरप्रबन्धे तेषामापातकिरातानाम् अम्यदा कदाचित ससि च मेहंधयारणिवहा, तए णं ते भावाडचिलाया चक्रवागमनकालात्पूर्वम् अत्र तेषामित्येतावतैवोक्तेन प्रक रणात् विशेष्यप्राप्ती यदापातकिरातानामित्युकं तद्विस्मर. भरहस्स रमो अग्गाणी एजमाणं पासंति, पासित्ता णशीलानां विनेयानां व्युत्पादनायेति, विषये-देशे बहूनि आसुरुत्ता रुद्वा चंडिकिया कुविधा मिसिमिसेमाणा अ औत्पातिकशतानि उत्पातसत्कशतानि, अरिष्ठसूच कनिमि. समयं सदाति, सहावेत्ता एवं बयासी-एस णं दे- सशतानीत्यर्थः, प्रादुरभूवन्-प्रकटीवभुषुः, तद्यथा-मका. वाणुप्पिमा ! के अप्पस्थिपत्थए दुरंतपंतलक्खणे ही ले प्रावृट्कालव्यतिरिक्लकाले गर्जितम् अकाले विद्युतः अकाले स्वस्वपुष्पकालव्यतिरिक्तकाले पादपाः पुष्यन्ति णपुष्पचाउबसे हिरिसिरिपरिवज्जिए जे णं अम्हं विसय अभीषणम् अभीदणं-पुनः पुनः आकाशे देवता-भूतविशेषा, स्स उपरि विरिएणं हबमागच्छइ । तं जहा-णं घत्तामो नृत्यन्ति । अथ ते किं चक्रुरित्याह-तए णं इत्यादि, देवाणुप्पिा ! जहा णं एस अम्हं विसयस्स उरि वि- ततः-उत्पातभवनानन्तरं ते आपातकिराता विषये बहुनि रिएणं णो इन्धमागच्छद त्ति कटु अमममस्स अंतिए औत्पातिकशतानि प्रादुर्भूतानि पश्यन्ति, दृष्ट्वा चान्यो:एअमह पहिसुणेति, पडिसुणेत्ता समद्धबद्धवम्मियक- न्यं शब्दयन्ति-आकारयन्ति, शब्दयित्वा चैवमवादिषुः, वा उप्पीलिअसरासणपट्टिा पिणद्धगेविज्जा ब किमवादिषुः किदृशाश्च तेऽभूवन्नित्याह-एवं खलु' इत्यादि. एवं-बच्यमाणप्रकारेण खलुनिश्चये देवानुप्रिया-ऋजुस्वभा. प्राबिविमलवरचिंधपट्टा गहिाउहप्पहरणा जेणेव वा अस्माकं विषये बहूनि औत्पातिकशतानि प्रादुर्भूतानि, भरहस्स रखो अग्गाणीअं तेणेव उवागच्छंति, तद्यथा-अकाले गर्जितम् इत्यादि प्राग्वत् , तनहायते दे. उवागच्छित्ता भरहस्स रगणो अग्गाणीपण सदि वानुप्रिया! अस्माकं विषयस्य को 'मन्ये' इति वितीर्थ मुंपलग्गा याषि होत्था, तए णं ते भावाढचिलाया निपातः, तेन मन्ये इति सम्भावयामः उपद्रवो भविष्यति भरहस्स रपणो अग्गाणी हयमाहिअपवरवीरघाइअवि इति करवा अपहतमनःसङ्कल्पा-विमनस्का: चिन्तया-रा. ज्यभ्रंशधनापहारादिचिन्तनेन यः शोक एव दुधारस्वात् बडिमचिंधद्धयपढागं किच्छप्पाणोवगयं दिसोदिसि प सागरस्तत्र प्रविष्टाः करतले पर्यस्तं-निवेशितं मुखं यैस्ते डिसेहिति । (सूत्रम्-५६) तथा पार्तध्यानोपगताः भूमिगत दृष्टिका ध्यायन्ति, माप Page #1474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४५१) अभिधानराजेन्द्रः। तिते सटे किं कर्तव्यमिति चिन्तयन्तीति , अथ प्रस्तू- अणोवमाणं तं च पुणो वंसरुक्खसिंगदिदंतकालायसवि. यमानं भरतस्य चरितमाह- तए ' इत्यादि, तत- पुललोहदंडकवरवइरभेदकं० जाव सव्वत्थ अप्पडिहयं किं स्तेषामुत्पातचिन्तनानन्तरं स भरतो राजा चक्ररत्ना पुण देहेसु जंगमाणं-"पएणासंगुलदीहो, सोलस से अं. देशितमागों यावत् समुद्ररवभूतामिव गुहां कुर्वन् २ तमि. गुलाई विस्थियो । अद्धंगुलसोणीको, जेट्टपमाणो असी सागुहातः औत्तराहेण द्वारेण निरेति-निर्याति शशीव मेघान्धकारनिषहात् ।' तए णं ' इत्यादि, ततो गुहातो भणिो ॥१॥" असिरयणं परवइस्स हत्थानो तं निर्गमानन्तरं ते आपातकिराता भरतस्य राज्ञः अग्रानीकं सै. गहिऊण जेणेव आवाडचिलाया तेणेव उवागच्छइ, उवाम्याग्रभागम्-'एज्जमाणं ति' इयत् प्रागच्छत् पश्यन्ति,दृष्टा च 'गच्छित्ता आवाचिलाएहिं सद्धिं संपलग्गे श्रावि होत्था । 'मासुरुत्ता' इत्यादि पदपञ्चकं प्राग्बत् अन्योऽन्य शब्दयन्ति, तए णं से सुसेणे सेणावई ते आवाडचिलाए हयमहिपशब्दयित्वा चैवमवादिषुरिति। किमवादिषुरित्याह-'तए णं' इत्यादि, एष देवानुप्रियाः ! कश्चिदशातनामकोऽप्रार्थितप्रा वरवीरघाइअ० जाय दिसो दिसि पढिसेहेह । (सूत्र-५७) र्थकादिविशेषणविशिष्टो वर्तते योऽस्माकं विषयस्य- 'तए णं' इत्यादि, ततः-स्वसन्यप्रतिषेधनादनन्तरं सेनाबल. देशस्योपरि वीर्येणाऽऽत्मशक्त्या 'हव्वं ति'शीघ्रमागच्छति, स्य-सेनारूपस्य बलस्थ नेता-स्वामी वेष्टका-वस्तुविषयवर्णतत्तस्मात्तथा 'पमिति'-इमं भरतराजानमित्यर्थः 'घत्तामो कोऽत्र सेनानीसत्कः संपूर्णः पूर्वोक्लो ग्राश्वः याव भरतत्ति' क्षिपामो दिशो दिशि विकीर्ण सैन्यं कुर्म इत्यर्थः, यथा स्य राक्षोऽग्रानीकम् आपातकिरातर्यावत्प्रतिषेधितं पश्यति, एषोऽस्माकं विषयस्योपरि वीर्येण नो शीघ्रमागच्छेत्, सूत्रे | रहा च पाशुरुप्ताऽदिविशेषणविशिष्टः कमलाऽऽपीडं कमला सप्तम्यर्थे वर्तमानानिर्देशः प्राकृतत्वात् , एतस्मिन् समये मेलं वा नामाश्वरत्नमारोहति । अथ प्रस्तावाऽऽगतं तङ्ककि जातमित्याह-'इति कटु' इत्यादि, इति-अनन्तरो र्णनं (जं. ) द्वितीयभागे ४७३ पृष्ठे गतम् ।) दितं कृत्वा-विचिस्यान्योऽन्यस्यान्ति के पतमर्थ प्रतिशृ. एचन्ति-श्रोमिति प्रतिपद्यन्ते, प्रतिश्रुत्य च सनद्धबद्धेत्या कमलामेलं णामेणं ' इत्यादि प्राग्वद् व्याख्येदिपदानि प्राग्वत् यत्रैव भरतस्य राज्ञोऽग्रामीकं तत्रैवोपा यमिति " । ततः स किं कृतवानित्याह- कुवगच्छन्ति, उपागत्य च भरतस्य रामोऽग्रानीकेन सार्ध लय ' इत्यादि, तदसिरत्नं नरपतेईस्ता गृहीस्वा स संप्रलमाश्चाप्यभूवन् । योधुमिति शेषः, युद्धाय प्रवृत्ता सेनानीर्यत्रैवाऽऽपातकिरातास्तत्रैवोपागच्छति , उपागत्य इत्यर्थः, मथ ते किं कुर्वन्तीस्याह-' तए णं ते आवाड. चाऽऽपातकिरातः सार्श्व सम्प्रलग्नश्चाप्यभूयोबुमिति चिलाया 'इत्यादि, ततो युद्धपवृष्यनन्तरं ते आपातकि शेषः, तच्छब्दवाक्यं यच्छन्दवाक्यमपेक्षत इत्याहियते य. राता भरतस्य राशोऽग्रानीकं हताः केचन प्राणत्या जनेन दिति, यत् किविशिष्टमित्याह-कुवलयदलश्यामलं नीलोमथिताः केचन मानमथनेन घातिताश्च केचन प्रहारदानेन | त्पल दलसमित्यर्थः, चः समुच्चये, रजनिकरमण्डलं चप्रवरवीराः-प्रधानयोधा यत्र तत्तथा, पदव्यत्ययः प्राकृत न्द्रविम्यं तस्य निभ-सदृशं परिभ्राम्यमाणं यद लिततेस्वात्, विपतिताः-स्वस्थानतो भ्रष्टाश्चितप्रधाना ध्वजा ग जस्कत्वेन चन्द्रमण्डलाकारं दृश्यते इत्यर्थः,अथवा-रजरुडध्वजाऽऽदयः पताकाच-तदितरध्वजा यत्र तत्तथा, ततः | निकरमण्डलनिभं मुखे इति शेषः, शत्रुजनविनाशनं , कनपदयस्य कर्मधारयः, कृच्छण-महता कोन प्राणान् उप. करत्नमयो दण्डो-हस्तग्रहणयोग्यो मुर्यिस्य तत्तथा, नव. गतं-प्राप्तं कथमपि धृतप्राणमिति यावत्. दिशः सकाशा. मालिकानामकं यत्पुरुषं तद्वत् सुरभिगन्धो यस्य तत्तथा, दपरदिशि-स्वाभिमतदिक्त्याजनेनापरस्यां दिशि प्रक्षिप्य नानामणिमय्यो लता बल्ल्याकारचित्राणि तासां भक्कयोइति शेषः, प्रतिषेधयन्ति-युद्धान्निवर्तयन्तीत्यर्थः। विविधरचनास्ताभिश्चित्रम्-आश्चर्यकृत् च. विशेषणसमु. इतो भरतसैन्ये किं जातमित्याह उचये , प्रधौता शाणोत्तारेण निधिकट्टीकृता अत एव-'मि. तए णं से सेणाबलस्स णेा वेढो जाव भरहस्स रखो सिमिसेति ति' दीप्यमाना तीक्ष्णा धारा यस्य तत्तथा, अग्गाणीअं आवाडचिलाएहिं हयपहियपवरवीर जाव दिव्यं खद्गरत्नं-खद्गजातिप्रधानं लोकेऽनुपमानम् अन. न्यसहशत्वात् , तश्च पुनर्बहुगुण मस्तीति शेषः, कीरशं?. दिसो दिसं पडिसेहि पासइ, पासित्ता आसुरुत्ते रुटे चं बंशा बेणवः सताः-वृक्षाः शृङ्गाणि महिषाऽश्रीनाम् अस्थी. डिकिए कुविए मिसिमिसेमाणे कमलामेलं पासरयणं नि प्रतीतानि दन्ता हस्त्यादीनां कालायसं लोहं विपुल. दुरूहर, दुरूहित्ता (जं.) (अश्वरन वक्तव्यता 'आसरयण' लोहदण्डकश्च-वरवलं हीरकजातीयं तेषां भेदकम् , अत्र व. जकथनेन दुर्भेयानामपि भेदकत्वं कथितं, किंबहुना ?शब्दे द्वितीयभागे ४७३ पृष्ठे गता ) सुगपत्तसुवाम. यावत्सर्वत्राप्रतिहतं. दुर्भदेऽपि वस्तुनि अमोघशक्तिकमित्य. कोमलं मणाभिरामं कमलामेलं णामेणं आस- र्थः, किं पुनर्जलमानां-चराणां पशुमनुष्याऽऽदीनां देखेषु, पत्र रयणं सेणावई कमेण समभिरूढे कुवलयदलसामलं यावच्छब्दो न संग्राहकः किन्तु भेदकशक्तिप्रकर्षालयेऽय. च रयणिकरमंडलनिमं सत्तुजणविणासणं कणगरयण धिवचनः अथ तस्य मानमाह-पश्चाशदलानि दी? यः षोडशालानि विस्तीर्णः अर्द्धकुलप्रमाणा श्रोणि:-बाहल्यं दंडं खबमालिमपुफ्फसुरहिगंधि णाणामणि लयभत्तिचित्तं पिण्डो यस्य स तथा, ज्येष्ठम्-उत्कृष्ट प्रमाणं यस्य स तथा, च पहोतमिसिमिसिततिक्खधारं दिवं खगरयणं लोके एवंविधः सोऽसिर्भणितः, यदन्यत्रासेर्वात्रिंशदगुलप्रमाणस्वं Page #1475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४५२) अभिधानराजेन्द्रः। श्रूयते तन्मध्यममानापेक्षषा। यदाह बराहः-"अश्गुलशता. अम्हे मेहमुहा णागकुमारा देवा तुम्भं कुलदेवया तुम्हें बमुत्तम, ऊनः स्यात्पश्चविंशतिः खगः।" एतयोः सङ्ख्य अंतिा पाउन्भूत्रा, तं वदह णं देवाणुप्पिया! किं योर्मध्ये मध्यम इति, उत्तरवाक्ययोजना तु प्राक कृता. अथ सम्येशाऽऽयोधनादनन्तरं किं जातमित्याह- तए णं' करेमो, के व भे मणसाइए ?। तए णं ते श्रापाडचिलाया इत्यादि, तत आयोधनादनन्तरं स सुषेणः सेनापतिस्ता. मेहमुहाणं णागकुमाराणं देवाणं अंतिए एअमढे सोचानापातकिरानान् हतमथितेत्यादिविशेषणविशिष्टान् यावत्का णिसम्म हट्टतुचिनमाणंदिग्रा० नाव हिप्रया उढाए उट्टेरणात् " बिहडिअचिंधद्धयपडागे किच्छप्पागोवगए" इति | ति, उढेत्ता जेणेव मेहमुहा णागकुमारा देवा तेणेव उवाग्राह्य, दिशो दिशि प्रतिषेधयति। गच्छति उवागच्छित्ता करयलपरिमाहियंजाब मत्थए ___ अथ ते किं कुर्वन्तीत्याह अंजलिं कहु मेहमुहे णागकुमारे देवे जपणं विजएणं तए णं ते आवाहचिलाया सुमेण मेणावणा इयमहि- बद्धाति, बद्धावत्ता एवं बयासी-एस णं देवाण. प्रा. जाव पडिमेहिया समाणा भीश्रा तथा वहिला उ प्पिए ! केइ अपत्धिअपत्थए दुरंतपंतलक्खणे जाव हिबिगा संजायभया अत्थामा अबला अवीरित्रा अपरि- रिसिरिपरिवजिए जे णं अम्हं विसयस्स उवार चिरिएणं सकारपरकमा अधारणि जमिति कट्ट अणे गाइं जोअणाई। हनमागच्छड, तं तहा णं घत्तेह देवाणुप्पिया! जहा णं श्रवकमंति, अवकमित्ता एगयो मिलायंति, पिलायि- एस अम्हं विसयस्त उरि विरिएणं णो हबमागच्छद ता नेणेव सिंधू महाणई तेणेव उवागच्छति, उबाग- तए णं ते मेहमुहा णागकुमारा दवा ते श्रावाडचिलाच्छित्ता वालुप्रासंथारए संथरेति, संथरेत्ता वालुआ- ए एवं बयासी-एस णं भो देवाणुपिया ! भरहे णाम संयारए दुरूहति. दरूहिता अपभताई पगिएडति. - राया चाउरंतचक्कवट्टी महिदीए महज्जए.जाव महासोगिरिहत्ता बालुप्रासंथारोवगया उत्ताणमा अवसणा अ- क्खे, णो खलु एस सको केणइ देवेण वा दाणवेण वा किद्वमभत्तिा जे तेसिं कुलदेवया मेहमुहा णामं णागकुमारा परेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधब्बेण वा सत्थदेवा ते मणसी करेपाणा करेमाणा चिटुंति । तए णं पोगेण वा अग्गिप्पयोगेण वा मंत्तप्पोगेण वा उदवितेसिमावाढचिलायाणं अषभत्तंसि परिणममाणंसि मेहमु. त्तए पडिमेहित्तए चा, तहावि अ णं तुम्भं पिअट्टयाए भ. हाणं णामकुपाराणं देवाणं आसणाई चलंति, तए णं रहस्सरगणो उपसरगं करेमो त्ति कटु तेसिं आवाडचिलाया ते मेहमुहा णागकुमारा देवा पासणाई चलिआई पास णं अंतियायो अबक्कमति अकमित्ता वे उधिनममुग्धारण ति, पासित्ता ओहिं पति, परंजित्ता आवाडचि सम्मोहणंति, सम्मोहणित्ता मेहाणीअं विउव्यंति, विउ-- लाए ओहिणा आभोएंति, आभाएत्ता अमममं सद्दा वित्ता जेणेव भरहस्स रएणो विजयक्खंधावाराणिवे से तेणेव उवागच्छति उवागछित्ता, उर्षि विजयखंधावावेंति , सद्दावेत्ता एवं बयासी-एवं खलु देवाणु रणि वेसस्स खिप्पामेव पतणुतणायंति खिप्पामेव विज्जुपिया ! अंबुद्दीवे दीवे उत्तरद्धभरहे वासे भावाचि यायति, विज्जुयायित्ता खिप्पामेव जुगमुसलमुट्टिप्पलाया सिंधुए महाणईए वालुप्रासंथारोवगया उत्ताणगा अवसणा अट्टमभत्तिा अम्हे कुलदेवए मेहमुहे णागकु माण मेत्ताहिं धाराहिं मोघमघं सत्तरत्तं वासं वासिउ पव त्ता यावि होत्था। (सूत्रम्-५८) मारे देवे मणसी करेमाणा २ चिट्ठति , तं सेअं खलु दे 'तए णं' इत्यादि ततस्ते आपातकिराताः सुषेणसेनापति वाणुप्पिना ! अम्हं आवाइचिलायाणं अंतिए पाउभ ना हनमथिता यावप्रतिषेधिताः सन्तो भीता भयाकुलाः वित्तए ति कटु अण्णमणगुस्स अंतिए एअम पडिसुणे- प्रस्ता-नाः व्यथिताः प्रहारार्दिताः उद्विग्नाः अथ पुनर्नाति, पडिमुणे सा ताए उकिट्टाए तुरिमाए.जाव बीतीव- नेन साद्ध युद्धधामहे इत्यपुनःकरणाऽऽशयवन्तः , दशा: कत इस्याह-सातभया:-सम्यक प्राप्तभयाः अस्थामान:यमाणा वीतीवयमाणा जेणेच जंबुद्दीवे दीवे उत्तरद्धभरहे सामन्यतः शक्तिविकलाः अबलाः -शारीरशक्तिविकलाः पुरु. बासे जेणेव सिंधू महाणई जेणेव आवाडचिलाया ते पकारः पुरुषाभिमानः स एव निष्पादित स्वप्रयोजनः पराक्र. णेव उवागच्छंति , उवागच्छिता अंतलिक्खपडिवरमा मस्ताभ्यां रहिताः अधारणीयं-धारयितुमशक्यं परबलमिति. सखिखिणिआई पंचवएणाई वत्थाई पचरपरिहिश्रा ते- कृत्वा अनेकानि योजनान्यपक्रामन्ति-अपसरन्ति पलायन्ते सानाडचिलाए एवं चयासी-हं भो आवाडचिलाया ! इत्यर्थः ततः किं कुर्धन्तीत्याह-'अबक्कमित्ता ' इस्यादि , अपक्रम्य ते अपातकिराता एकता-एकस्मिन् स्थाने मेल. अमं तुभ देवाणुप्पिा ! बालुप्रासंथारोवगया उत्ताण यन्ति मेलापकं कुर्वन्तीत्यर्थः, मेलयित्वा च यत्रैव सिन्धुमगा अवसणा अट्ठमभत्तिा अम्हे कुलदेवए मेहमु हे णा हानदी तत्रैवोपागच्छन्ति , उपागत्य च घालुकासंस्तारगहमारे देव मणमी करयाणा करमाणा चिट्ठह, तए णं कान् संस्तृणन्ति-सिकताकणमयान् संस्ताराम् कुर्वन्ति Page #1476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह संस्तीर्य च वालुकास्तारकानारोहन्ति, श्रारुह्य चाष्टमभ प्रगृह्णन्ति प्रगृश्य च वालुका संस्तारोपगता उत्तानकाःऊर्ध्वमुखाचनाः-निर्यखाः एवं च परमापना कष्टमनुभवन्त इत्युक्तम्, अष्टमभक्तिका दिनत्रयमनाहारिणः, ये तेषां कुलदेवताः- कुलवत्सला देवा मेघमुखा नाम्ना नाग कुमारादेवास्ता मनसि कुर्वन्तः २तीति देवाः किमकुर्वजित्याहतः - तेषामापातकिनानाम् अमनले पश्चिमति ति परिमेाकुमाराणां देवानामासनानि चलन्ति ततस्ते मेघमुखा नागकुमारा देवा श्रासनानि चलितानि पश्यन्ति दृष्ट्रा चावधि प्रयुञ्जन्ति, प्रयुश्य चाचिना आपातकिरातानाभोगपति भोग्य चम्पादि दाइत्यादिदम्यमन्ति चतु देवायाः किं तदित्याह जम्बूद्वी उत्तरार्द्धभर वर्षे पान कराता सिमा बालु कासंस्तारकान् उपगताः - प्राप्ताः सन्तः उत्तानका श्रवसना श्रष्टमभक्तिका अस्मान् कुलदेवतान् मेघमुखनामकान् नागयारान् देवान् मनसि कुणाः रतिनीतिः यः खलु मे देव अस्माकमपाकरातानामन्तिकं प्रा दुर्भवितुं - समीपे प्रकटीभवितुमिति कृत्वा पर्यालोच्यान्योपालिके तमर्थम् अनन्तरोक्तमभिधेयं प्रतिपति अभ्युपगच्छति परस्परं सवीकृत्य प्रतिज्ञा क मिति प्रतिसेयश्व (१४५३) अभिधानराजेन्द्रः । कुस्तदाद-पदव्या या स्वरितया गत्या यावदू व्यतिव्रजन्तो २ यत्रैव ज बूद्वीप द्वीपो यत्रैव चोत्तरभरतार्द्ध वर्षे यत्रैव च सिन्धुर्म हानदी यत्रेव चापातकिरानास्तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य चान्तरिक्षतिपदिकानि पाणि पराणि परिहितास्ताः पातकिरानावनादिपुः हा राह भी दी आपतकिराताः यत् '' वाकवालङ्कारे सर्वत्र दे या ! बालुका संस्तारकोपगता यावदष्टमभक्लिका अस्मान् कुलदेवता मेघमुखान् नागकुमारान् देवान् मनसि कुर्यागाः २ विमुखा नागकुमारा देवा युष्माकं कुलदेवताः सम्तोमा तदत देवानुप्रि याः ! किं कुर्मः किं कार्ये विदध्मः किम् श्राचेष्टामहे कां कुर्मः कस्मिन् व्यापारे प्रवत्तीमहे, किं वा ( मे )-भवतां म मवादिनं मनोममिति कुलदेवतानन्तरं ते यद एन्त तदाह- तए णं' इत्यादि, ततस्ते श्रापातकिराता मेघमुखायां नागकुमाराणां देवानामन्तिके एम. शम्य च 'हट्ठतुट्ठ' इत्यादि प्राग्वत् । उत्थानम् उत्था-ऊबे भव नं तथा उभयतस्व उत्थापय मेघमुखा नागकुमारा देवास्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च 'कल' इत्यादि मेघखान्नागकुमारान् देवान जनन्ति वर्षादेरिति प दवादिषुस्तदाह-'एस णं' इत्यादि, देवानुप्रिय ! श्व कश्चिप्रार्थित प्रार्थकाऽऽदिविशेषणविशिष्टो श्रस्मद्देशोपर्यागच्छ तिनेन तथाप्रकारेण समिति एनं घते प्रक्षिपत यथा पुनः ३६४ - , , " " भरह नोखा ऊचुतात इत्यादिप किमस्ते इत्याह इस इत्यादि हे देवानुप्रिया ! एष भरतो नाम राजा चतुरस्तचक्रवर्त्ती मह र्द्धिको महाद्युतिको यावन्महासौख्यः नो खलु एष भरतः श क्यः केनचिद्देवेन वा वैमानिकेन दानवेन वा भवनवासिना चिरेत्यादिचतुष्कं व्यन्तरविशेषवा योगेण वा अभिप्रयोगेण वा मन्त्रप्रयोगेण वा त्रयाणामयु सरोतबलाधिकता पायो चिकइति उपउपायु . देशरूपकमिति सर्वत्र बा समुचयार्थः तथापि एवं दुस्साध्ये कार्ये सत्यि ष्माकं प्रियार्थता प्रीत्यर्थ भरतस्य राज्ञ उपसर्ग कुर्म इ. ति करवातेापातकिरातानामतिक्रामति-पाति निस्सरन्तीत्यर्थः इति प्रतिज्ञातवन्तः ततः किं कृतवन्त इत्याह- अपकमि अ. पक्रम्य च वजित्वा वैक्रियसमुद्धतिन उत्तरबैक्रियार्थकप्र यक्षविशेषेण समवघ्नन्ति-- श्रात्मप्रदेशान् विक्षिपन्ति शरी राहूकरीत्यर्थ समस्य : · पुलैर्मेघानीकम् विकुर्वन्ति विकु प भरतस्य विजयस्कन्धावारनिवेश स्तवै यो पागच्छन्ति, उपागत्य विजयकस्यावारनिवेस्पोपरि प्रिमेवेत्यादि सबै पु· कल संवर्तक मेघाधिकार इव वाच्यं यावद्वर्षितुं प्रवृत्ताचा. यमस्ते देवा इति । इति व्यतिकरे बद्धराधियः करोति ताद तर से भरडे राया उपि विजयवखंपावारस्य जुगमुसलमुट्ठियमाणमेत्ताहिं धाराहिं ओषमेषं सत्तरचं वासं बायपास पासिता चम्मस्य परानुस तर तं सिरिस पेटो भासियो० जाव दुवाल संजोगाई तिरियं पचित्थर तत्थ सारिआई, तर से भरहे राया सखंधावारवले चम्मरयणं दुरूइइ, दुखहित्ता दिव्वं छत्तरयणं परानुस, तर यं वइसहस्सकंचणसलागपरिमंडिश्रं महरिहं अउभं विन्वणसुपसत्यविसिद्धलचय[सुपुर्द मिउरापपबद्दलअरविंद कमियमाणरूत्रं वत्थिपए से अ पंजरविराइअं विविषयचिचिर्च मणिपुणपपाल सतपथि अपंचवधिभरणवरवं रणमरीयाकप्पकार नखुरंजलि रा यद्विविधं मसुदा पंडुरपचरथुपदेस भागं त हेव तवणिजपतपरिगयं हि असस्सिरीचं सारयरविश्रविमल परिपुचेदमंडलसमा गरिंदयामप्प माणगवित्थड कुमुदसंडधवलं रा संचारिमं विमा सूरातनयायबुद्विदोसा ययकरं तवगुणे - "म हयं बहुगुणदाणं, उऊण विवरी असुहकयच्छायं । छत्तर99 पमा राई यणं पहाणं सुदुदं अप्पणं ॥ १ ॥ तत्रगुणाय फलेगदेसभागं विमाणवासे वि दुलहतरं व Page #1477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५५४) अभिधानराजेन्द्रः। ग्यारिममल्लदामकलावं सारयधवलम्भरययणिगरप्पगासं दानि-चन्द्रविकाशीनि तेषां खण्डं-वनं तद्ववलं राज्ञोदिवं छत्तरय महिवइस धरणिअलपुमाइंदो। तए ण भरतस्य संचारिम त्ति' सञ्चरणशीलं जामं विमानम् प्रा. से दिन्वे छत्तरपणे भरहेणं रमा परामुढे समागणे खि श्रयिणां सुखावहत्वात् सूरातपवातवृष्टयः प्रतीतास्ता. सांये दोषास्तेषां क्षयकरं,यद्वा-सूगऽऽतपवातवृष्टीनां दोषा. प्पमेव दुवालस जोषणाई पवित्थरह साहिआई तिरिनं ण व विषादिजन्यानां क्षयकरम् , एतच्छत्रच्छायसमाश्रि. (सूत्रम्-५६) तानां हि विषाविदोषा अपि न प्रभवन्तीति विशेषः,तपोगु. 'तए वं' इत्यादि, ततो-दिव्यवर्षानन्तरं स भरतो राजा णैः-पूर्वजन्माऽऽचीर्णतपोगुणमहिना लम्धं भरतेनेति शेषः । स्वसैम्ये उतप्रकारण-सप्तरानिप्रमाणकालेन वर्ष वर्ष- अथ गाथावन्धेन विशेषणान्याह-विचित्रवारसूत्रकारप्रवृत्ते, तं-मेघवृष्टि जायमानां पश्यति, हा च चर्मरत्नं परामृ. अहतं न केनापि योधमन्येन रणे खण्डितमित्यर्थः,बहूनां गुणा. शति.पत्रावसराऽऽगतं चर्मरलवर्णकसूत्रमतिदिशन्नाह-'त. नाम्-ऐश्वर्याऽऽदीनां दानं यस्य तत्तथा, ऋतूनां-हेमन्ताऽऽ. ए गं' इत्यादि कराव्यम् , अथेदं छत्ररत्न कीरशामिति दीनां विपरीता,अथवा-प्रार्थत्वात् षष्ठवर्षे पश्चमी व्याख्यानेन जिज्ञासूनां तत्स्वरूपप्रकटनाया-'तपणं 'इत्यादि, तत ऋतुभ्यो विपरीता उष्णतौं शीता शीतती उष्णा अत एवं इति प्रस्तावनाबाक्योपन्यासे, छत्ररत्नं महीपते:-भरतस्य कृतसुखा छाया यस्य, सूत्रे कान्तस्य परनिपातो ' जातिका. धरणितकस्य पूर्णचन्द्र इव पूर्णचन्द्रो वर्तते इति योगः, लसुस्वाऽऽदेवा' (श्रीसिद्ध००३ पा०१-सू० १५२) इत्यनेकिंविशिष्टं ?-गवनवतिलहरप्रमाणाभिः काञ्चनमयशलाका. | न विकल्पविधानात् , छत्रेषु रत्नम्-उत्कृष्टं प्रधानं छत्रगुणो. भिः परिमरिहतं महाधं-बहुमूल्यम् अथवा-महान-चक्रवर्ती पेतत्वात् , सुदुर्लभमापपुण्यानामिति, प्रमाणराशा-स्वस्वका सस्य ई-योग्यम् अयोध्यम् अयोधनीयम् अस्मिन् रहेन हि लोचितशरीरप्रमाणोपेतराज्ञाम् अष्टसहस्रलक्षणलक्षितत्वात् प्रतिभटानां शस्नमुत्तिष्ठते इति भावः, निर्बणः-छिद्रग्रन्थ्याs. प्रमाणीभूतराक्षां वा-पद्खण्डाधिपत्वेन सर्वराजसम्मतत्वा. दिदोषरहितः सुप्रशस्तो लक्षणोपेतत्वात् विशिष्टलष्टः अति. त्, एतेन वासुदेवाऽऽदिव्युदासस्तेषां त्रिखण्डभोक्तृत्वात् , मनोशः अथवा-विशिष्ठः-अतिभारतया एकदण्डेन दुर्वहत्वा चक्रवर्तिनां तपोगुणानां-सुचरितविंशवाणां फलानाम् एक त् प्रतिदण्डसहितः शश्व यो लपः काश्चनमयः सुपुष्टोऽ. देशभागरूपं . सूत्रे क्लीवलिङ्गनिर्देशः प्राकृतत्वात् , कोऽर्थः?. तिभारसहत्वात् दण्डो यत्र तत्तथा, मृदु-सुकुमाल घृष्ट चक्राधिपपूर्वार्जिततपसां फलं-सर्वस्वं नवनिधानचतुईशमृष्टत्वात् राजतं-रूप्यसम्बन्धि वृत्तं लटं यदरविन्दं तस्य रत्नाऽऽदिषु विभक्त, तेन तदेकदेशभूतमिदं छत्ररत्नं विमा. कर्णिका-बोजकांशस्तेन समान वतत्वावृतत्वाच्च रूपम् नवासेऽपि-देवत्वेऽपि दुर्लभतरं,तत्र चक्रवर्तित्वस्यासम्भवा. आकारो यस्य तसथा, बस्तिप्रदेशो नाम छत्रमध्यभाग- त् , 'धग्घारित्ति' प्रलम्बितो लम्बनयाऽवलम्बितो माल्य वर्ती दण्डप्रक्षेपस्थानरूपस्तन, 'चः समुच्चये, पञ्जरेण. दाम्नां म्पमालानां कलापः-समूहो यत्र तत्तथा, समन्ततः पाराऽऽकारेण पिराजितं, विविधाभिर्भक्तिभिः-विच्छित्तिभी पुष्पमालावेष्टितमिति भावः, शारदानि-शरत्कालभाषीनि रचनाप्रकारैश्चित्रं-चित्रकर्म यत्र तत्तथा , एतदेव विशि- धवलान्यभ्राणि-वाईलानि शारदश्व रजनिकर:-चन्द्रः तदा प्याऽऽह-मणया-प्राग्व्यावर्णितस्वरूपाः मुक्कामवाले प्रतीते, प्रकाशो---भास्वरत्वजनित उद्योतो यस्य तसथा, दि. तप्तं मूषोत्तीर्ण यत्तपनीयं-रक्कसुवर्ण पञ्चवर्णिकानि , सूत्रे व्यं-सहस्रदेवाधिष्टितं शेषपदयोजना प्राक कृतैवास्ति । मत्यर्थीय इकप्रत्ययः, धौतानि शाणोत्तारेण दीप्तिमन्ति का अथ प्रकृतम्-'तए णं' इत्यादि, ततस्तहिव्यं छत्ररत्नं तानि रत्नानि प्राग्व्यावर्णितस्वरूपाणि तैः रचितानि रू. भरतेन राशा परामृष्टं-स्पृष्ठं सक्षिप्रमेव चर्मरत्नवत् पाणि-पूर्णकलशाऽऽदिमङ्गल्यवस्तूनामाकारा यत्र तत्तथा , द्वादश योजनानि साधिकानि तिर्यक प्रविस्तृणाति, साधिकपदव्यत्ययः प्राकृतत्वात् तथा रत्नानां मरीचिसमर्पणा-स. स्वं चात्र परिपूर्णचर्मरत्नपिधायकत्वेन, अन्यथा किरातकृत. मारचना तस्यां कस्पकरा-विधिकारिणः परिकर्मकारिण वृत्युपद्रवः स्वसैन्यस्थ दुर्वारः स्यादिति । इत्यर्थः, तैरनुसम्प्रदायक्रमं रजिनं, यथोचितस्थानं रणदा. अथ छत्ररत्नप्रबिस्तरणानन्तरं यच्चके तदाहमात् , मकारोऽलाक्षणिकः स्वाथें इलेकौ प्रत्ययौ प्राकृतशै. तएणं से भरहे राया छत्तरयणं खंधावारस्सुवरि ठवइ, लीभवी, राजलक्ष्मीचिह्नम्-अर्जुनाभिधानं यत्पायडरस्वर्ण तन प्रत्यवस्तृता-पाच्छादितः पृष्ठदेशभागो यस्य तत्तथा ठवेत्ता गणिरयणं परामुसइ, वेढो० जाव छत्तरयणस्स पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात् , तथैवेति विशेषणान्तरप्रारम्भे, | वस्थिभागसि ठवेइ, तस्स य अणतिवरं चारुरूवं सिलणि. मायमानं तत्कालमातमित्यर्थः यसपनीयं तस्य पस्तेन. ! हिअस्थमंतमेतसालिनवमोहममुग्गमासतिलकुलत्थसद्विगपरिगतं-परिवेष्टितं. चतुलपि प्रान्तेषु रक्कसुवर्णपट्टा योः । निष्फावचणगकोहलकोत्थुभरिकंगुवरगरालगणेमधम्मावजिताः सन्तीति, पदव्यत्ययः पूर्ववत् । अत एवाधिकसश्री. के शारदः-शरस्कालसत्को रजनिकर:-चन्द्रस्तद्विमलं रणहारिअगअलगमूलगहलिदलाउमत उसतुंवकालिंगकवि. निर्मल प्रतिपूर्णचन्द्रमण्डलसमानरूपं ततो विशेषणसमासः, ढवअंविलिनसम्वणिकायए सुकुसले गाहावइरयणे ति नरेन्द्रर-प्रस्तावा भरतस्तस्य व्यायामः-निर्यक्प्रसारि. । सम्बजणवीसुप्रगुणे । तए णं से गाहावइरयणे भरहतोभयबाहुप्रमाणो मानविशेषस्तेन प्रमाणेन प्रकृया-स्व. भावेन विस्तृतं, यचक्रिपरामृष्ट साधिकद्वादशयोजनानि स रखा तस्विसप्पइएणमिफाइम्रपामाणं सध्यघमाणं विस्तृणाति तदस्य कारणिको विस्तार इति सूचितं, कुमुः। अणेगाई कुंभसहस्साई उवट्ठवेति, तए णं से भरहे Page #1478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४५५) भरह अभिधानराजेन्द्रः। राया चम्मरयणसमारूढे छत्तरयणसमोच्छन मणिरय- ने बीजवपनेन ? , तन्निरपेक्षतयैव तत् निष्पादयतु, तस्य णकउजओए समुग्गयभूएणं सुइंसुहेणं सत्तरतं परिवसइ दिव्यशक्लिकत्वात् । उध्यते-इतरकारणकलापसंघटनपूर्व. कत्वेनैव कारणस्य कार्यजनकत्वनियमात् । अन्यथा-सूर्य"ण वि से खुहा ण विलिअं, खेव भयं णेव विजए. पाकरसवतीकारा नलाऽऽदयः सूर्यविद्यामहिम्ना रसवती प. दुख । भरहाहिवस्स रमा, खंधावारस्स वि तहेव ॥१॥" रिपचन्तोऽपि तन्तुलसूपशाकवेषधाराऽऽदिसामग्रीमविक्षर. (मूत्रम्-६.) निति, अत एव सुकुशलम्-प्रतिनिपुणं निजकार्यविधावति. 'तए णं' इत्यादि,ततःस भरतः छत्ररत्नं स्कन्धावारस्यो निपुणं शेषं प्रायोजितम्-अधोक्तगुणयोगि गृहपंतिरत्नं यदषपरि स्थापयति, स्थापयित्वा च मणिरत्नं परामृशति, 'वेढा सरोचितं चकार तदाह-'तए एं' इत्यादि, ततः बर्म. जावति' अत्र मणिरत्नस्य वेष्टको-वर्णको यावदिति स- रत्नछत्ररत्नसम्पुटसंघटनानन्तरं तद् गृहपतिरत्नं भरतम्पूर्णो वक्तव्यः पूर्वोक्तः, सच तोतं चउरंगुलप्पमाणं' स्य राक्षः स एव दिवसस्तदिवसः-उपस्थानदिवसस्तस्मिइत्यादिकः, परामृश्य च चर्मरस्नछत्ररत्नसम्पुरमिलननिरुद्ध. न प्रकीर्णकानाम्-उप्तानां निष्पादिनानां परिपाकदा प्रापि. सूर्यचन्द्राद्यालोके सैन्येऽहर्निशमुद्योतार्थ छत्ररत्नस्य वस्ति तानां पूतानां -निर्बुसीकृतानां सर्वधान्यानामनेकामि 'कुम्भ भागे मणिरत्नं स्थापयति, ननु एवं सति सकलसैन्याव. सहस्राणि' कुम्भानां राशिरूपमानविशेषाणां सहस्राणि उ. रोधः समजनि, तथा च-तत्र कथं भोजनाऽऽदिविधिरित्याश- पस्थापयति-उपढाकयतिः प्राभृतीकरोतीत्यर्थः , कुम्भमान मानं प्रत्याह-तस्स य अणतिवरं' इस्थादि , तस्य. वेवमनुयोगद्वारसूत्रोक्तं-"दो असईओ पसई, दो पसई. भरतस्य राक्षः, चो वाध्यान्तरद्योतनार्थः, गृहपतिरन- कौन प्रो सेरा, चत्तारि सेइमानो कुडो, चत्तारि कुडया प. टुम्बिकरत्नमस्तीति गम्यते, किंविशिष्टम् ?-इति-प्रमुना प्र. । स्थो, सारि पत्थया माढयं, चनारि ाढया दोणो, साष्टि कारण सर्वजनंषु विश्रुता गुणा यस्य तसथा, इतीति किं? पाढयाई जहरणए कुंभे, असीति ाढयाई मज्झिमए कुंभे, म विद्यते प्रतिवरम्-प्रतिप्रधानं वस्तु अपरं यस्मात्तत्तथा, पाढयसयं उक्कोसए कुंभे त्ति ।" अत्र व्याख्या-त्राशतिः चारुरूपमिति व्यक्तं , तथा शिला व शिला प्रतिस्थि- अवारमुखहस्ततलरूपा मुधिरित्यर्थः, तस्त्रमाणं धाग्यमप्य. रत्वेन चर्मरत्नं तत्र निहितमात्राणाम्-उप्तमात्राणां न तु लौ. शतिरेवोध्यते, तद्वत्प्रसूतिः-नाबाकारतया व्यवस्थापिता किकप्रसिद्धभूमिखेटनप्रभूतिकर्मसापेक्षाणाम् 'अत्धमंत त्ति' प्राञ्जलकरतलरूपोच्यते , द्वे प्रसृती सेतिका-मगधदेशमा अर्थवतां प्रयोजनवतां भक्षणाऽऽधर्हाणामित्यर्थः शाल्यादीनां सिद्धो मानविशेषो, न तु इह प्रसिद्धा , तस्याः प्रस्थच. निष्पादक, यद्वा-शिलानिहितानां प्रात इति गम्य, शाल्यादी तुर्गणत्वात् , चतनः सेतिकाः कुडवा-पलिकासमानो मा. नाम् 'अत्यमंतमेत्तत्ति'-अस्तमयति मिने-सूर्ये सायमित्यर्थः प्यविशेषः, चत्वारः कुडवाः प्रस्थो माण कसमानं माया, निष्पादक संवादी चायमप्यर्थः, यदुक्तं श्रीहेमाऽऽचार्यकृते चत्वारः प्रस्था प्राढका--सेतिकाप्रमाण, चत्वार माढका ऋषभचरित्रे-" चर्मरत्ने च सुक्षेत्र , इवोप्तानि दिवामुग्ने । द्रोण:-चतुः सेतिकाप्रमाणः, षष्टया श्रादकैः पश्चरशभितो. सायं धान्यान्यजायन्त , गृहिरत्नप्रभावतः ॥१॥" इत्या. । रित्यर्थः, जघन्यः अशीत्या प्रादकैर्विशत्या द्रोणरित्यर्थः, दि , उभयत्र व्याख्याने पदानां व्यत्ययेन निर्देशः प्राकृत. मध्यमः कुम्भः, तथा बाढकानां शतेन पञ्चविंशत्या छोणस्वात् , तत्र शालया-कलमाऽऽद्याः यवा-हयप्रिया गोधूमा रित्यर्थः, उत्कृष्टः कुम्भ इति , अत्रच सम्बधराणाणं ति' मुद्रा माषास्तिलाः कुलत्थाः प्रतीताः, षष्टिकाः पश्यहो. सूत्रमुपलक्षणपर तेनान्यदपि यत्सम्यस्य भोजनोपयोगि तत् रात्रैः परिपच्यमानास्तन्दुलाः निष्पाबा-बह: काः को । सर्वमुपनयति , एवं सति तत्र भरतः कथं कियरकालं. द्रवाः प्रतीताः, 'कोत्धुंभरि त्ति' कुस्तुम्भयो-धान्यककणाः स्थितवानित्याह- तर गं' इत्यादि ततो गृहपतिरला. कङ्गवो-वृहच्छिरस्काः 'वरग त्ति' वरट्टाः रालका-प्र. तधाम्योपस्थापनानन्तरंस भरतः चर्मरतारूढचत्ररत्न पशिरस्काः, उपलक्षणात् मसूरादयोऽन्ये ऽपि धान्यभेदा समवच्छन्नः-आच्छादितो मणिरत्नकृतोद्योतः समुद्रकल. प्रायाः, अनेकानि धान्या इति-धान्यापत्राणि बरणो-वन कानि धान्या हात-धाम्यापत्राणि धरणा-वन- म्पुटं भृत इव-प्राप्त व सुखसुखनत्यर्थः, सप्तरा-सात दि. स्पतिविशेषस्तत्पत्राणि एतत्प्रभृतीनि यानि हरितकानि प- नानि यावत्परिवसति, पतदेव व्यक्तीकुर्वनाह-' विम शाकानि मेघनादवास्तुलकाऽऽदीनि, पूर्व व कुस्तुंबरीश. खुहा ण' इत्यादि, न (स)-तस्य भरताधिपस्य राज्ञः सुद-बु. म्देन धान्यभेदः संगृहीतः, इदानी तत्पत्राणां भक्ष्यत्वेन पत्र भुक्षा, अपिशब्दः पद्यबम्धत्वेन पादपूरणार्थम्, एयकारार्थों या शाकेषु संग्रह इति न पोनरुक्त्यम् , 'अल्लगमूलगहलिद नव्यली-वैलक्ष्यं दैन्यमित्यर्थः, नैव भयं नैव विद्यत दु:त्ति'पाईकहरि प्रतीते, एते च सूरणकन्दाऽऽयुपलक्षणभूते, खम् , इयमेव गाथा श्रीवर्धमानसूरिकृत ऋषभचरित्रे तु ए. मूल कं-हस्तिदन्तकम् . इदं च गृजनाऽऽदिमूलकोपलक्ष गाम्, | वं-'ण वि से खुहा सा वि तिसा, पेष भयं०' शेष प्राग्वत, पतेन कन्दमुलशाके कथिते, अथ फलशाकाम्याह-अला. 1 संध' इत्यादि . स्कन्धावारस्यापि तथैव , यथा भरतस्य याaruaam mm दुतुम्थं त्रुपुष-चिर्भटजातीयं तुम्बकलिङ्गकपित्थामाम्लिकाः न जुदादि तथा सैन्यस्यापि नेत्यर्थः। प्रतीताः इवमपि फलशाकोपलक्षणं तेन जीवस्यादिप. ततः किं जातमिस्याहरिग्रहः अलावु-तुम्बयोलम्बस्वमरवकतो भेदः, सब सं. तए णं तस्स भरहस्स रमा सत्तरतसि परिणममाणसि जातीयबीजकृत इति जनप्रसिद्धिः, सर्वशन बोलाति... रिक्तशाकालीमा प्रसननु यदि गृपतिरत्नमबिरक्रिपया। ममारूप अब्भस्थिए चितिए पस्थिप मणगए संकप्प मन्त्रसक्रियया धान्याऽऽदिकं निष्पादयति तहि किचर्मर- समुप्पअिस्था-केस ण भो ! अपस्थिभपस्थए संतपंतन Page #1479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह अभिधानराजेन्द्रः। भरह क्खण जाव परिवजिए जेणं ममं इमाए एमाणुरूवाए. इयवइ गयवइ णस्वड, णवणिहिया भरहवासपढमवई । जाव अभिसमयागयाए उणि विजयखंघाचारस्स जुगमु- बत्तीसजणवयसह-स्सरायसामी चिरं जीव ॥ २ ॥ सलमुट्ठि० जाव वासं वासइ । तए णं तस्सं भरहस्स रमो पढमणरीमर ईसर, हिअईमर पहिलियासहस्माणं । इमारूत्रं भन्भत्थिमं चिंतियं पत्थि मणोगयं संकप्पं देवसयसाहसीसर, चौदसरयणीसर जसमी ।। ३ ।। समप्पा जाणित्ता सोलस देवसहस्सा समज्झिउं पवत्ता सागरगिरिमेरागं, उत्तरवाईण मभिजिअं तुमए । यावि होत्था, तए ण ते देवा सम्मबद्धवम्पिकवया जाव ता अम्हं देवाणु-प्पिअस्स विमए परिवसामो ॥ ४॥" गहिसाउहप्पहरणा जेणेव ते मेहमुहाणागकुमागदेवा तेणेव | ___ अहो णं देवाणुप्पियाणं इड्डी जुई जमे बले वीरिए पु. उवागच्छति, उवागच्छित्ता मेहमहणागकुमारे देव एवं वया- रिसक्कारपरक्कमे दिव्या देवजुई दिने देवाणुभावे लद्धं पच सी-ह भी ! मेहमुहा णागकुमारा! देवा अपस्थिअपत्यगा० अभिसमामागए, तं दिवा णं देवाणुप्पिप्राणं इद्धी एवं जाव परिवञ्जिमा किम तुभि ण याणह भर राय चाउ- चेव जाप अभिसमाम्म गए, तं खामेनु ण देवाणणिया! रंतचकवहिं महिदिअंजाव उद्दवित्तए वा पडिसेहित्तए वा खमंतु णं देवाणुप्पिा ! खंतुमरुहंतु ण देवाणु. तहाऽवि तुम्मे भरहस्स रमो विजयखंथावारम्स उधि पिया ! गाइ भुजो भुजो एवंकरण याए तिकड पंजजुगमुसलमुट्टिप्पमाणमित्ताहि धाराहि ओघमेषं सत्तरनं anta शाति प्राधमत्तानं लिउडा पायवडिया भर रायं सरणं उविति । तर वासं वासह , तं एवपवि गते इत्तो खिप्पामेव अबक्कमह , णं से भरहे राया तेसिं अबाडचिलायाणं अग्गाई अवह गं अज पासह चित्तं जीवलगं, तए णं ते मेहमुहा वराई रयणाई पडिच्छंनि, पडिच्छित्ता ते आवादचिलाए णागमारा दवा तेहिं देवहिं एवं वुत्ता समाणा भीश्रा एवं बयासी-गच्छह णं भो तुम्भे ममं बहुन्छायापरितत्था वहिआ उनिगा संजायभया मेघानीकं पडिसाहति | ग्गहिया णिब्भया णिनिग्गा सुहंसुहणं पग्विसह, णस्थि परिसाहरिता जेणेव पावाढचिलाया तेणेव उवागच्छति , भकत्तो वि भयमस्थिति सकारद, सम्माणे इ, सकारत्ता सम्माणेत्ता पडिविसर्जद । तए णं से भरहे राया सुसणं सेउवागच्छित्ता भावाडचिलाए एवं वयासी-एस ण देवा णावई सदावइ, सहावेत्ता एवं वयासी-गच्छाहि णं भो णुप्पिा ! भरहे राया महिद्धीए जाव णो खलु एस स देवाणुप्पिया ! दोच्चं पि सिंधूए महाणईए पञ्चच्छिमं णि. का केणइ देवेण वाजाव अग्गिप्पागेण वाजाव उबह क्खुडं ससिंधुसागरगिरिमरागं समविसमणिक्खुडाणि म वित्तए वा पटिसहितए वा तहा विपण ते अम्हहिं दे. प्रोवहि,प्रोप्रवे(हि)त्ता अग्गाईवराई रयणाई पटिच्छाहि, वाणुप्पिमा! तुम्भं पिभट्ठयाए भरहस्स रणो उवसग्गे पविच्छित्ता मम पश्रमाणत्ति खिप्पामेव पञ्चप्पिणादि कए, तं गच्छह ण तुम्भे देवाणुप्पिा ! यहाया कयब. जहा दाहिणि लस्स ओयवणं तहा सव्वं भाणि भव्वं जाव लिकम्मा कयकोउअमंगलपायच्चित्ता उल्लपडसादगा ओं. पच्चणुभवमाणा विहरंति । ( सूत्रम्-६१) चूलगणिअच्छा अग्गाइं वराई रयणाई गहाय पंजलिउड़ा ___ 'तपणं तत्स भरहस्स रो सत्तरत्तं ' इत्यादि, ततः पायवडिमा भरहं रायाणं सरणं उवह , पणिवहन-1 समुद्रक भूततयाऽवस्थानानन्तरं तस्य भरतस्य राक्षः सप्त वच्छ ला खलु उत्तमपुरिसा णत्यि भे भरहस्स रमो अं. राने परिणमति सति अयमेतद्रूणे यावत्सङ्कल्पः समुदप तिमामो भयभिति का , एवं बदित्ता.जामेव दिसिं पाउ. चत. तमेव प्रादुर्भावयन्नाद-केस णं' इत्यादि, क एष भोः सैनिका अप्रार्थितप्रार्थकाऽऽदिविशेषणविशिष्टो यो मम म्भूमा तामेव दिसिं पडिगया । तए णं ते आवादचि अस्यामेतदूपायां यावदिव्यायां देवानामिव ऋद्धिर्देवस्य बा. लाया महमुहेहिं खागकुमारहिं देवेहिं एवं वुत्ता समाणा | राझऋद्धिदेवर्द्धिस्तस्यां सत्याम् एवं दिव्यायां देवद्युतौ दि. उठाए उडेति, उद्देत्ता एहाया कयबलिकम्मा कयकोउमं-| व्येन देवानुभावन देवानुभागेन वा देवानामिव योऽनुभागो. गलपायच्छित्ता उल्लपडसाडगा मोचलगणिअच्छा अ- ऽनुभावो वा-प्रभावस्तेन सह लब्धायां प्राप्तायामभिसम. ग्गाई पराई रयणाई गहाय जेणेव भरहे राया तेणेव उ. म्वागतायां सत्याम् उपरि स्कन्धावारस्य 'जुगमुसलमुट्ठि जाव त्ति' युगमुसलमुष्टिप्रमाणमात्राभिर्धाराभिर्वर्षे वर्षतिबागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गाहअंजाव मत्थए वृष्टिं करोति, अत्र किरातगृह्याणामेव केषाश्चिदयमुपद्रवो. अंनल का भरहं रायं जएणं विजएणं बद्धाविति बद्धावि- पक्रम इति सामान्यतो जाने ऽपि मानधनानां प्रभूणां ग. सा अम्गाई बराई रयणाई उवणेति, उवर्णत्ता एवं बयासी गर्मिता गिरस्वकाररेकारबहुला एव भवेयुः, इति क. प इत्यादिक प्राक्रोशम्तत्र एकवचन निर्देशः यथा उपस्थि. "वसुडर गुणहर जयार, हिरिसिरिधीकित्तिधारकणरिंद । तेष्वपि बहुषु वैरिषु स को वर्तते यो मामुपतिष्ठते इत्यादी, सक्खणसहस्सपारक, रायमिदं थे चिरं धारे ॥१॥ इति भूपतिमा परिभा परिमान्य यज्ञा यचक्रुस्तदाह-सए Page #1480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह अभिधानराजेन्द्रः। भरह ण' इत्यादि, ततश्च उक्नचिन्तासमुत्पत्यनन्तरं भरतस्य ममेता- इति । अथ भग्नेच्छा म्लेच्छा यच्च क्रुस्तदाह-'तए णं' इत्या. रशं यावत्सङ्कल्प समुत्पन्नं ज्ञात्वा चतुर्दशरत्नाधिष्ठायकदेव | दि, सर्व गतार्थ, नवरं रत्नान्युपनयन्ति-प्राभृनीकुर्वन्ती. सहस्राणि चतुर्दश द्वे सहस्र स्वाङ्गाधिष्ठातृदेवभूते इत्येवं षो. त्यर्थः, अथ यदुक्तम्-'एवं वयासि ति। ' तत्र किमवादिषुः डशदेवसहस्राः यद्यपि स्त्रीरत्नस्य वैताव्यसाधने सम्प. रित्याह--'वसुहर' इत्यादि, हे वसुधर ! द्रव्यधर षट्ख. स्स्यमानत्वेन रत्नानां त्रयोदशसहस्रा एव सम्भवेयुस्तथापि एडवर्तिद्रव्यपते इति यावत्, अथवा तेजोधर गुणधर-गुः सामान्यत एतद्वचनमिति सन्नद्धं प्रवृत्ताश्चाप्यभवन् -यु णवान् जयधर-विद्वेषिभिरधर्षणीय ! हो:-लजा श्री-ल. द्वायोद्यता अभूवन्निन्यर्थः, कथमित्याह-'तए णं' इत्यादि. क्ष्मी,तिः सन्तोषः कीर्तिः-वर्णवादः, एतेषां धारक नरे. अनुवादसूत्रत्वात्प्राग्वत् , किमबोचुस्ते भरतस्य सन्नि न्द्रलक्षणसहस्राणाम् , अनेकलक्षणानां धारक(गो) अस्माकं हिता देवा इत्याह-ई भो ! मेघमखा- इत्यादि प्राग्वत् , राज्यमिदं चिरं धारय पालय इत्यर्थः, अस्माद्देशाधिपतिर्भव चिरकालं यावदिति प्रथमगाथार्थः॥१॥' हयवद गगवाई" किमिति प्रश्ने न जानीथेत्यत्र काकुपाठेन व्याख्येयं, तेन न जानीथ कि यूयम् ?, अपि तु जानीथ, भरतं राजानं इत्यादि, हे हयपत ! गजपते ! हे नरपते ! नवनिधिपते ! हे चतुरनन्तचक्रवर्तिनं यदेष न कैश्चिदपि देवदानवाऽऽदिभिः भरतवर्षप्रथमपते ! द्वात्रिशजनपदसहस्राणां-देशसहस्राणां ये राजानस्तेषां स्वामिन् ! चिरं जीव चिरं जीव इति द्विती. शस्त्रप्रयोगाऽऽदिभिरुपद्रवयितुं वा प्रतिषेधयितुं वा शक्यते इति, अज्ञानपूर्विका हि प्रवृत्तिमहतेऽनाय प्रवर्तकस्य च यगाथार्थः ॥२॥ ' पढमणरीसर ईसर' इत्यादि,हे प्रथमनरे. श्वर! हे ऐश्वर्यधर ! महिलिकासहस्राणां-चतुःपशिखीस. बाढं बालिशभावोद्भावनाय च भवेदिति भापयन्तस्ते य. हस्राणां हृदयश्वर-प्राणवल्लभ देवशतसहस्राणां-रत्नाधिष्ठा. था उत्तरवाक्यमाहुस्तथाऽऽह-नथापि-जागस्यजय्यं जान नोऽपीत्यर्थः, यूयं भरतस्य राज्ञो विजयस्कन्धावारस्यो. तृमागधतीर्थाधिपाऽऽदिदेवलक्षणमीश्वर! चतुईशरत्नेश्वर! परि यावद्वर्ष वर्षत तत्-तस्मादेवमविमृष्टकारितायां स. यशस्विन् इति तृतीयगाथार्थः ॥ ३॥ तथा 'सागर' इत्यादि, स्यामपि गते प्रतीते कार्ये किं बहु अधिक्षिपामः ?. तस्य सागरः- पूर्वापरदक्षिणाऽऽख्यः समुद्रः गिरिः क्षुद्रहिमाचल. मतयोमर्यादा अवधिर्यत्र तत्तथा,उक्कदिक्त्रये समुद्रावधिकमु. क्रियाSABSऽपादनेन संस्कारानईत्वात् इतः क्षिप्रमेवापकामत-मत्कुणा इवापयानः, अथवेति विकल्पान्तर यदि नाप त्तरतो हिमाचलावधिकम् , उत्तरापावीनम-उत्तरार्द्धदक्षिणाकामत तर्हि अद्य साम्प्रतमेव पश्यत चित्रं जीवलोकं. चभरतं परिपूर्ण भरतमित्यर्थः, त्वयाऽभिजित,यदत्र भरतस्य वर्तमानभवादन्यं भवं पृथिवीकायिकाऽऽदिकम, अपमृत्यु हिमवद्विरिपर्यन्तता व्याख्याता तदवश्य साधयिष्यमाणस्वेन प्राप्नुतेभ्यर्थः, क्रियादेशेऽत्र पञ्चमीप्रयोगः, ना निरुपक 'भाविनि भूतवदुपचारः' इति न्यायात् । अन्यथा नवनिधि मायुऽऽषां देवानामपमृत्योरसम्भवात सवाधमिदं वचनम् , पते! चतुर्दशरत्नेश्वर इत्यादिविशेषणानामप्यनुपपत्तिः, नव. उच्यते-सूत्राणां विचित्रत्वेन भयसूत्रत्वेन विवक्षणान्न दो निधीनां तथा सम्पूर्ण चर्तुदशरत्नानामथैव सम्पत्स्यमान. पः । ' तए णं ' इत्यादि, सर्व प्राग्वत् . नवरं मेघानीक स्वात्, (ता)-तस्माद् वयं देवानुप्रियस्य विषये परिवसामः, प्रतिसंहरान्ति-घनघटामपहरन्ति, वृष्टयपरमे च ततः स. युष्माकं प्रजारूपाः स्म इत्यर्थः , इति चतुर्थगाथाऽर्थः ॥ ४॥ म्पुटाचक्रिसैन्यं निर्गच्छदुपलभ्य लोकिकैरुक्तं ब्रह्मणा सृष्ट तथा अहो इति श्राश्चर्ये, देवानुप्रियाणाम् ऋद्धितियशो ब. मिदमा डकं तत इयं जगतः प्रसूतिरित्येचं सर्वत्र प्रवादोऽ लं वीर्य पुरुषकारः पराक्रम एतषां व्याख्यानं प्राग्वत् , भूत्तताऽपि च ब्रह्माण्डपुराणं नाम शास्त्रमभूदिति प्रसङ्गादो ऋद्धयादीन्याश्चर्यकारीणि कृत इत्याह-दिव्या-सर्वोत्कृष्टा दे. ध्यमिति । अथ यदुक्नम् 'एवं वयासि त्ति' तत्र कि- वस्येव द्युतिः , एवं दिव्यो देवानुभावो देवानुभागो वा मवादिषुरित्याह-'तए णं' इत्यादि, हे देवानुप्रिया! एष भर- लब्धः-प्राप्तः अभिसमन्वागतो देवपादेरित्यध्याहार्य , परतः तो राजा महर्द्धिको यावन्नो खलु एष शक्यते देवादिभिरत्र श्रुतेऽपि गुणातिशये आश्चर्योत्पत्तिः स्यात् , दृष्ले तु सुतराप्रयोगाऽऽदिभिर्यावन्निषेधयितुं तथाऽपिअस्माभिर्देवानुप्रि. भित्याशयेनाऽऽह-तद् दृष्टा देवानुप्रियाणां ऋद्धिः-सम्पत् । या! युष्माकं प्रीत्यर्थ भरतस्य राज्ञ उपसर्गः कृतः, तद्गच्छत चक्षुःप्रत्यक्षणानुभूतेत्यर्थः , श्रवणतो दर्शनस्थातिसंवादकदेवानुप्रिया! यूयं स्नानाऽऽदिविशेषणाः पाद्री-सद्यःस्नानव. त्वात् . एवं चैवेति उक्त-यायेन हा देवानुप्रियाणां द्युतिः, शाजलक्किन्नौ पटश टकौ- उत्तरीयपरिधाने येषां ते तथा एवं यशाबलाऽऽदिकमपि पमित्यादि वाच्य, यावदभिसम. एतेन सेवाविधाबविलम्बः सूचितः, अवचूलकम् अधोमु. न्वागत इति पदं, यावत्पदसंग्रहस्तु-'इड्डी जसे बले वी. खाचलं मुस्कलाञ्चलं यथा भवत्येवं नियत्,' येषां ते तथा, रिए' इत्यादिकोऽनन्तरोत एव, तन्क्षमयामो देवानुप्रिया पतेन परिहितवस्त्रवन्धनकालावध्यपि न बिलम्बो विधेय वय. सानुशयाऽऽशयत्वात् म्बबालबेपित क्षमन्तां देवानुप्रिइनि सूचितम्, अथवाऽनेनाबद्धकच्छत्वं सूचित, तदुपद- याः!. क्षन्तुमर्हन्ति -क्षमा कर्त योग्या भवन्ति देवानुप्रियाः शनेन स्वदैन्यं दर्शितभिात, बद्धकच्छत्वदर्शने हि उत्कटत्व- महाशयत्वात् , प्राकृतत्वाद्वर्तमानार्थे पञ्चमी, 'गाइ त्ति' सम्भाषनाया जनप्रसिद्धत्वात्. अश्याणि वराणि रत्नानि नैव 'आई' इति निपातोऽवधारणे भूय एवंकरणतायै स. गृहीत्वा प्रालिकृता:-कृतप्राञ्जलयःपादपतिताः-चरणग्य- म्पत्स्यामह इति शेषः, अत्र ताकारः प्राकृतशैलीभवः , इ. स्तमौलयो भरतं राजाने शरणमुपेत-यात प्रणिपतितव- ति कृत्वा प्राञ्जलिकृताः पादपतिता भरतं राजानं शरण - सला:-प्रगानजनहितकारिणः खलु उत्तमपुरुषाः, नास्ति मुपयान्ति, अथ प्रसादाभिमुखभरतक-यमाह-'तए णं से (भे)-भवतां भरतस्य राशोऽन्तिकाद्भयमिति कृत्वा इति उ भरहे राया तेसिं आवाडचिलायाणं' इत्यादि, ततः स दिवेत्यर्थः, यस्या दिशः प्रादुर्भूतास्तामेव दिशं प्रति गता भरतो राजा तेपामापातकिरातानामग्याणि वराणि रत्ना www.jamelibrary.org Page #1481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४५८) भरह अभिधानराजेन्द्रः। भरह जिप्रतीकांत-गृहांत प्रतीय च तानापानांकरानाने- 'तए णं विम्बे चक्करयणे इत्यादि,ततः-प्रोत्सराहसिाधुनिष्कु बमबादीत-गछन भो ! देवानुप्रियाः यूप, स्वस्थानमिति | टसाधनानन्तरं दिव्यं भरत्नम् अम्यदा कदाचित आयुध शेषः मम बावापया परिगृहीताः स्वीकृताःमया शिर । गृहशालातःप्रतिनिफामति,प्रतिनिष्क्रम्प व अम्नरिक्षपति. सितास्ता निर्भया निरुद्धिनाः-उद्रेगरहिताः सुखं सुख. पन्नं, यात्रपदात् 'जक्वसहस्ससपरिधुढे दिचतुडिअसहस नपरिषसत, प्रत्र 'छायायां हो कान्ती बा' इत्यनेन (श्री मिणाएणं पूरेग्ते व अंबरनलं' इति. उसरपूर्वस्यां दिसि ईशालि००८पा०१ सू० २४६) सूत्रेण वैकलिएकधि ने कोणे खुद्राहिमवत्पर्वताभिमुखं प्रयातं चायभवत् , ततः. विस्वासकारत्वं, नास्ति (मे)-भवतां कुतोऽपि भयमि शिबिरनिवशात् शुद्राहिमवद्विारमध पियासाः उत्तरपूर्वा तिचा सत्कारयति, सम्मानयति, सकृत्य सम्मास्य च चलनमेव अजुमार्गः . ततो नरेन्दुर्यकृतास्तदाह-तप प्रतिषियति-स्वस्थानगमनायातिविशति । अथ किरात णं से भरहे राया तं नि चारयणं' इत्यादि , ततः स सायनोसरकालं मरेतु किचके स्याह-'तपणं से भ भरतस्ताहव्यं चक्ररत्नम् अभिमुहिमवद्विरि प्रयास्ट्रा कोसेराया सुलेण' इत्यादि, ततः-किरातसाधनानन्तरं भरतषणं सेनापति शब्दयति, शदयित्वा च एकमवा. टम्बिकपुरुषाशापनं हस्तिरत्नप्रति कलानं सनासन्नाहनं स्नाबीर-गध भी देवानुप्रिय! द्वितीयम् अपिः समुपये, पूर्व नविधान हस्तिरत्नारोहणं मार्गाऽगतपुरनगरदशाधिपव. माधिमनिरपेक्षया सिम्या महानद्याः पश्चिमं पश्चिमभाग शीकरणं तत्प्राभृतस्वीकरणं चक्ररत्नानुगमनं योजनान्तरित. अतिमिर-मायावर्णितस्वरूप लिम्धुः नदी सागरः. वसतियसनं च करोतीत्यादिपिण्डार्थः प्रथमयावत्पदग्राह्यः, अप यावत्पदसंग्राह्यसूत्रलिखने सविस्तरः स्यादिति तदुप. पनिमाविमा उत्तरतः तुमहिमाद्वरिवक्षिणतो वैताम्यगि. क्षा.ततः तुझदिमवद्विरिममीपेद्वादशयोजनायामम् अत्र याव. रिखमर्यादा यस्य तत्तथा पतः कृतविभागमित्यर्थः, शेष छब्दामधयोजनविस्तीर्णादिविशेषणविशिएं स्कन्धाषामाम्बत् , लापार्थमतिदेशसूत्रमाह-'जहा दाहिणिल'.. निवेशयति, वर्द्धकिरन शायति पौषधशाला विधापयति, स्पादि, पणा दाक्षिणात्यस्य सिम्धुनिष्कुटस्य 'प्रोप्रवणं-ला. पौषचं बकरोनित्यादिशेयं, क्षदहिमवद्विरिकुमारस्य देवस्य अनंतपाल भणितव्यं, तापक्रव्यं यावरसेनानीभरत साधनायेति शेषः, कियत्पर्यन्त इत्याह-यावसमद्रषभूत.. विवर: पविभान कामभोगान् प्रत्यनुभवन् विहरति । भिव कुर्वाणः कुर्वाण इति. अत्र तदेव ति' पश्वाच्यमएम. अथ तदनन्तरं किं जातमिस्याहतए दिगं चकरयणे असया कयाइमाउघरसाला भक्तप्रति जागरणं तस्लमापन कौटुम्ब का ज्ञापन सेनासना. हनम् अश्वरयप्रतिकल्पनं स्नानविधानम् अश्वस्थाsऽरोहण यो परिणिपसमा पडिणिक्खमिता अंतलिवपडिवी चरत्नमार्गानुगमनं च करांतीत्यादि ज्ञवं, सैन्यसमुत्थकल. नावतरपुरछि दिसि चुलाहिम-बंतपम्पयाभिमुळे पयाते कलरवेण समुद्ररवभूतमिव पृथिवीमण्डलं कुधन २ उत्तर. पापिहोत्था तर णं से भरहे राया तं दिवं चकरयणं. विगनिमुखो यत्रे व हिमबर्षधरपर्वतवापागच्छजाप महिमतवासदरपमयस्म अदरसामंते दुवालसजो- नि, उपागस्य च शुजहिमवर्षयरपर्वत विकृत्य:-श्रीन् बारा मणायाम जाब चुहिमवंतागरिकुमारम्स देवस्म भट्टम न् रथशिरसा-रथाप्रभागेन काकमुखेनत्यर्थः स्पृशति, अभई पगिया,तोव जहा मागहतित्यस्सजाय समुदस्व तिवेगप्रवृत्तस्य धेगिवस्तुनः पुरस्थप्रतिबन्धकभिस्थाविसंघट नेविस्ताडनेन धेगातदर्शना त्रिरित्युत,स्पृष्ट्राच तुरगा. . विवकरमाणे करमाणे उत्तरदिसाभिमुहे जेणव चन न निमानि-गप्रवृसान वाजिनो रक्षति , तनु वृत्तं यत्तहिरासहरपमए तेणेव उनागच्छा, उपागच्छत्ता दाह-'विनिरिहत्ता' इत्यादि,तुरगांश्चतुरोऽपि निगृह्य च तथै कुलहिमवंत बासहरपनयं ति-खुत्तो रहमिरणं फुसइ, व मागधतीधिकारवक्तव्यं, कियद दूरं यावदित्याह-यावकसित्ता तुरए णिगिया, णिगिरिहत्ता तब जाव पाय दायतकणांडयनं च कृत्वा पुमुहारमिति अत्र तहेवत्ति' य. कमायतं च काऊण उसुमुदार इमाणि वयणाणि तत्थ चनात् रथस्थापनं धनुर्ग्रहणं शरग्रहणं न वक्तव्यं, ततस्तं शरं तथाविधं कृत्वा तत्र इमानि वचनान्यभागीत् स नरपतिपत्र भाणीम से गरबई० जाव समे मे ते विसयवासित्ति कह यावस्पन-इंदि सुगंतु भवंतो" इत्यादि गाथाद्वयं वाच्यम् पहास उसु शिसिर, परिगरणिगरिश्रमज्के जाव तए सर्वे मे ते विसयवासीनिपर्यन्तम् इनि कृत्वा-इत्युचाय ऊधम् से संरे भरहेणं रमा उ8 वेहासं णिसटे समाणे खिप्पा उपरि, एतच शुभपर्यायं स्यात् यथो_लोकः शुभलोक इत्यामेव पावर जोमणाई गंता चुहिमवंतगिरिकुमारस्म दे दिअत उतम्-बिहायलि अाकाशे तु इहिमवद्विरिकुमारस्य तत्राऽऽयाससम्भवात् युं निसृजति , परिगरणिगरिश्रम. पस्म मेराए बिमार, तए णं से चुलहिमवनगिरिकुमारे ज्को जाव ति' अत्रावसर घाण मोक्षप्रकरणाधीतं परिग. देर मेराए मर बिपा पामर, पासित्ता प्रासुरुते रुदु. रखिरिश्रमझो' इत्यादिपदोपलक्षितं यावच्छब्रेन परिपूर्ण जापनीका सभासींच मालं गोसीसचंदणं कडगाणि गाचा यामिति । ततः किं जातमित्याह-'तप • भाव वहीद व गेएडा, गेपिता तार उकिट्ठाए. जात्र से' इत्यादि, तत स शो भरतेन राशा ऊध विहायसत्तरंग जहमतगिरिमेराए प्रहमं देवाणुप्पिाणं घि सि निसृए' सन् विप्रमेव द्विसप्तति योजनानि यावत् ग. सयवासी-नापमहलं देवाणुषिमाणं उत्तरिले भनघाले स्या दहिमवद्विरिकुमारस्य देवस्य मर्यादायामुवितस्थाने निस्तान, नर णं' यादि, तरः स शुहिमगिरिकु. •जार पडिविसी। सूत्रम्-६२) मारो देवो निजपर्यावायां शरं निपतितं पश्यति, इष्टा व Page #1482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४५१) अभिधान राजेन्द्रः | भरह कटके नामैव नामकं स्वार्थे कप्रत्ययः । 'आउडेर त्ति'आजुडति सम्बद्धं करोनि लिखनीन्य यैः । कथं लिखनीत्याह श्रांस• 'मणि' इत्यादि । अवसर्पिण्याः अत्र पष्ठीलोपः प्राकृतवात्. अस्यास्तृतीयायाः समायाः - तृतीयारकस्य पश्चिमभागे तु तीये भागे इत्यर्थः श्रहमस्मि चक्रवर्ती भरत इति नाम धेयेन नाम्ना ॥ १ ॥ श्रहमस्मि प्रथम राजा - प्रधानराजा, प्रथमशब्दस्य प्रधानपरत्वाद्यथा पढने चंदजोगे 'हत्या' दौ, एनवव्याख्यानेन ऋषभ प्रथमराजस्वं नागमेन सह विरुध्यते श्रहं भरताधिपः - भरत क्षेत्राधिपः, नरवरा:सामन्तादयस्तेषामिन्द्रः नास्ति मम प्रतिशत्रुः प्रतिपक्षः जिनं मया भारतं वर्षमिति कृत्वा नाम 'आउडेर ि लिखति अस्य सूत्रस्य निगमार्थकत्वान्न पौनरुकथम् . अथ कृतकृत्यो यद् व्यवस्यति तदाह – वामगं ब्राउडिसा ' इत्यादि नामकं लिखित्वा रथं परावर्तयति. परावर्त्य व यत्रैव विजयस्कन्धावारनिवेशो यत्रत्र च बाह्योपस्थानशाला तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य व अत्र यावत्पदात् तुरगानिगृद्वाति, रथं स्थापयति, तनः प्रत्यवरोहनि मज्जनगृहं प्र विशति, स्वाति, ततः प्रनिनिष्कामति, भुकेापस्था नशाला सिंहासने उपविशति श्रेणीप्रश्रेणीः शब्दापयति. तुल्लहिमवद्विरिकुमारदेवस्याष्टाहिका करणं सन्दिशति, ताच कुर्वन्ति, अशांच प्रत्यर्पयन्तीति प्राह्यं ततस्तद्दिव्यं चक्ररत्नं हिमगिरिकुमारस्य देवस्याष्टादिकायां महाम हिमायां निवृत्तायां सत्यामायुधगृहशालातः प्रतिनिष्क्रामति प्रतिनिष्क्रम्य च यायच्छग्दादन्तरिक्षप्रतिपन्नाऽऽदिविशेषण. ग्रहः, दक्षिणां दिशमुद्दिश्य वैताख्य पर्वताभिमुखं प्रयातं चाप्यभवत् । तर से भरडे राया तं दिव्वं चक्करयणं० जाव वेभस्म पव्ययरूप उतरिल्लेखितंचे तेणेव उवागच्छछ, उनागच्छिता वेद्धस्स पत्रयस्म उत्तरिल्ले खितंत्र दुत्रालमजोयणायामं • जान पोसहसा अणुविसइ जात्र गमिवामी वि आहरराई अपभतं परिएड, पणिहित्ता पोसहसालाए ० जाव णमिनियमवखाहररायाणो मणसी करेमाणे २ चिट्ठा, तर णं तस्स भरदस्त रो अट्ठपभसंसि परि उसाला व उबागच्छध, उवागच्छित्ता ०जाव चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स श्रद्धाभिए महामहिमाए णिन्त्रलाइ समाणीए भाउघरमालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमिला •जाब दाहिणि दिसि वेअड्डुपन्ययाभि या यात्रोत्था । [ सूत्रम् - ६३ ] 'तप' इत्यादि । ततो- हिमवत्साधनानन्तरं स भरती राजा तुरगान् निगृह्णाति - दक्षिण स्थद्दयावाकर्षनि बा पार्श्वस्थ पुरस्करोति, निगृह्य च रथं परावर्त्तयति, परावर्त्य यत्रैवर्षमकूटं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य ऋ ममाखिमवियमविज्ञाहररायाणो दिखाए मईए चोईस अंति पाउन्भवंति पाउन्भविता एवं बयामी - उप्पले खलु भो देवा ! बुद्दीवे दीव भरहे वासे भरहे राया चाउरतचक्कबट्टी, तं जीतीअपच्चुष्पसपणागयाणं विजाहरराई चक्कत्रट्टीणं उन त्याणिअं करेचए, तं गच्छामो गं देवाखुनिया ! अम्हे विरहरूम रखो उत्रत्याश्रिं करेमा इति कड्ड विणमी खाऊ चक्कत्रद्धिं दिव्वाए चोइ अपई मासुम्प्राणप्यमाणजुवं ते सिरूवलक्वणजुतं विश्रजुब्बण केसवद्विमण - दं सव्वरोगणास िबलकरिं इच्छिअसीउएहफामजु कूट पर्वतं त्रित्वो रथशीर्षेय स्पृराति स्पृष्ट्वा च रथं स्थापयति, स्थापयित्वा च बनलं द्वादशास्त्रिकम् अष्टक किम् अधिकरणसंस्थितं सौवर्णिकं स्वर्णमय मष्टसुवर्णमयत्वात् काकणीरत्नं परामृशति एतेषां पानां व्याख्यामं प्रात् परामृश्य च बभकूटस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये | तिसु कालं विसु सेयं, तिम्रायतं विसु वित्थिष्वं ॥ १॥" 66 तिसु तर तिसु तंबं तिवलीगतिउष्मयं तिगंभीरं । भरह आसुतो रूट इत्यादावशेष विशेो यावत्करणात भुकुटिं करोति अधिक्षिपति, शरं गृह्णाति नाम च वाचयतीस्यादि प्राखं प्रीतिदानं सर्वोषधीः फलपातनस्पतिविशेषान् राज्याभिषेकादिकार्योपयोगिनः मालां कल्य मालां गोशीचन्दनं च हिमवत्कुखमयं कटकानि यावत्पदात् त्रुटिपनि वस्त्रानि श्राभरणानि शरं च मामाङ्कमिति प्रां द्रडोदकं च पद्मोदकं गृह्णाति गृहीत्वा च तयोरकष्टयाऽत्र यावत्पदात् देवगत्या व्यति जति मरतामितकमुपसर्पति विज्ञपयति चेति ज्ञेयम्, उरस्यां गिरेर्मर्यादायाम् अहं देवानुप्रियाणां विषयसीत्पात् 'श्रद्धं देवासी किरे' इति प्राह्मम्. अहं देवानुप्रयाणाम् औतराहो लोकपालः अत्र यावत्पदात् प्रीतिदानमुनयति तद् भरतः प्रतीच्छति देवं सत्कारयति सम्मानयतीति प्राह्यं तथा कृत्वा च प्रतिविसर्जयति । अथाधिकोत्लाद्दा इष्टमभक्तं तपस्तीरवित्वा कृतपारणक एववधिप्राप्तदिग्विजयाङ्कं कर्तु कामः श्रीमभूः भकूटगमनायोपक्रमते तर गं से भरदे राया तुम्ए बिल्डि, बिगिरिहत्ता रहूं परावर, परावतिता जेणेव उसड़कूडे व उपागच्छ, जवागच्छित्ता उसहकूडं पव्त्रयं तिक्खुतो रहसरे फुपई, कुनिचा तुरए निगिया, निगिरिश्ता रहे उनेइ, उचिता छतलं दुबालसंसि श्रट्ट कपि अहिगरसिंडि सोवसि कागणिरयणं परानुसार परापुसित्ता उस भकूडस्स पन्यस्त पुरच्छिमिसि कडगंसि खामगं भाउडेइ .. 'ओपिणी इमीसे, तमाएँ समाइ पच्छिने भाए । ग्रहमंसि चकटी, भरहो इन नामधिज्जेयं ॥ १ ॥ अहमंसि पढपराया, अयं भरहादिवो खरवरिंदो यत्थि महं पडिसन, जिथं मए भारहं वासं ॥ २ ॥" इति ऋङ्गुणामगं भाउडेड्,णामगं श्राउडिसा रहे परावले, परावतिना जेणेव विजय खंधावारणिवं से जेणेत्र बाहिरि Page #1483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६०) अभिधानराजन्द्रः। मरह समसरीरं भरहे वासम्मि सधमहिलप्पहाणं मुंदरथणजघ- प्रविचारिदेवानां कामानुषक्तमनोशानमिव दिव्यानुभावादव. गन्तव्यम्.अन्यथा तासामपि स्वविमानचालकाध्वजादिमा. णवरकरचलणणयणसिरसिजदसणजणहिअयरमण मणहीरे विषयकावधिमतीनां तद्विरसाज्ञानासम्भवन सुरतानुकृल. सिंगारागार. जाव जुत्तोवयारकुसलं अमरबहूणं सु चेष्मान्मुखत्वं न सम्भवेदिति . एतादृशावन्यो ऽन्यस्यास्तिक रूवं रूबेणं अणुहरंति सुभदं सुभम्मि जोवणे बट्टमाणि प्रादुर्भवतः , प्रादुर्भूय च एवमयादिपानां, किम वादिषाना. इत्थीरयणं णमी अग्यणाणि य कडगाणि य तुडि आणि मित्याह-'उप्पराण खल' इत्यादि. उत्पन्नः खलु:-अवधारण भी देवानुप्रिया! जम्बूद्वीपे द्वीपे भरत वर्षे भरतनामा राजा अगेगहइ,गरिहत्ता ताए उक्किट्ठाए तुरिआए. जाव उद्भ. चतुरन्तचक्रवर्ती तस्माजीतमेतत् कल्प एपोनीनवर्तमाना. आए विजाहरगईए जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छंति, नागतानां विद्याधरराज्ञा चक्रवर्तिनामुपस्थानिक-प्राभृतं उवागच्छित्ता अंतलिक्खपडिवएणा सखिखिणीयाई० जाव कर्तु , तद् गच्छामा देवानुप्रिया ! वयमपि भरतस्य राज्ञ उ पस्थानिकं कुर्म ‘इति कट्ट' इत्यादि इति कृत्वा-इति अन्योऽ जएणं विजएणं वद्धाति बद्धावत्ता एवं बयासी-अभि न्यं भगित्वा विनमिरुत्तर)एगाधपतिः सुभद्रां नाम्ना स्त्रीर. जिए णं देवाणुपिया!जाव अम्हे देवाणुप्पिाणं आण- नं नमिश्च दक्षिणश्रेण्यधिपतिः रत्नानि कटकानि त्रुटिकात्तिकिंकरा इति का तं पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिा ! अम्हं नि च गृह्णातीस्यन्वयः । श्रथ कीदृशः सम् चिनमिः किं कृ. इमं जाब विणमी इत्थीरयणं णमी रयणाणि समप्पेइ ।। स्वा सुभद्रा कन्यारत्नं गृहणातीत्याह-दिव्यया मत्या ना दिनमतिः सन् चक्रवर्तिनं ज्ञात्वा , अत्रानन्नरोक्कसूत्रतश्चक. तए ण भरहे राया. जाव पडिविसजेइ,पडिविसजित्ता पा वर्तित्वे लब्धऽपि यत् 'गाऊण चक्रवदि' इत्याद्युक्तं तत् सुभसहसालामो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खपित्ता मञ्जणघरं द्रा स्त्रीरत्नमस्यैवोपयोगीति योग्यताख्यापनार्थ, किंलक्ष. अणुपविसह , अणुपविसित्ता भोअणमंडवे. जाव न- णां सुभद्रामित्याह-'मानोन्मानप्रमाणयुक्तां', तप मानं ज. लद्रोणप्रमाणना,उन्मानं-तुलारोपितस्याभारप्रमाणता य. मिविनमीणं विजाहरराईणं अट्ठाहिमहामहिमा , तर श्च स्वमुखानि नव समुच्छितः स प्रमाणोपेतः स्यात् । अय. णं से दिव्ये चक्करयणे आउघरसालाप्रो पडिणि मर्थ:-जलपूर्णायां पुरुषप्रमाणादीषदतिरिक्तायां महत्यां कु. क्ख पड़ जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसि गंगादेवीभवणा- रिडकायां प्रवेशि तो यः पुरुषः सारपुद्गलोपचितो जभिमुहे पयाए भावि होत्था, सच्चेव सधा सिंधुवत्तव्यया. लस्य द्रोणं विटङ्कसौवर्णिकगणनापक्षया द्वात्रिंशरलेजाव नवरं कुंभट्ठसहस्सं स्यणचित्तं णाणामणिकणगरयण रप्रमाणं निष्काशयति , जलद्रोणोनां वा तां पूरय--- नि स मानोपेतः , तथा सारपुद्गलोपचितत्वादेव भत्तिचित्ताणि अदुवे कणगसीहासणाई सेसं तं चवजा- यस्तुलायामारोपितः सन्नद्धभारं पलसहस्राऽऽस्मकं तुलयति व महिम त्ति । (मूत्रम्-६४) स उन्मानोपेतः, तथा यद्यस्याऽऽस्मीयमङ्गल तेनाङ्गालन द्वा. 'तए' इत्यादि ततः स भरतो राजा तद्दिव्यं चक्ररतां दशाङ्गुलानि मुखं प्रमाण युक् अनेन च मुखप्रमाणेन नव दक्षिणादिशि घेताव्यपर्वताभिमुखं प्रयानं पश्यति, या चप्र. मुखानि पुरुषः प्रमाणयुक्तः स्यात् । प्रत्येक द्वादशाङ्गलेनव. मावादिताय वक्तव्यं यावत् भरतो यत्रैव वैतादयस्य पर्वतम्यो भिर्मुखैरप्टोत्तरशतमङ्गलानां सम्पद्यते, ततश्चतावदुच्छूयः सरपार्श्ववर्ती नितम्बः-कटकस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य त्र पुरुषः प्रमाण युक्तः स्यात् , एवं सुभद्राऽपि मानन्मिानप्र. वैताम्यस्य पर्वतस्योत्तरभागर्तिनि नितम्ब द्वादश योजनाऽऽ. माणयुक्ता, तथा तेजस्विनी व्यक्त रूप-सुन्दराऽऽकारो लक्षयाम,यावत्पदकरणात् नवयोजनविस्तीर्णमित्यादिकं स्कन्धा णानि च-छत्रादीनि तैर्युक्तां, स्थितमविनाशित्वाद्यौवनं य. वारनिवेशाऽऽदि वाच्यं, पौषधशालामनुपविशति भरतः अत्र स्याः सा तथा , केशवदवस्थिता-श्रवद्धिष्णवो नखा य. यावत्पदात् पौषधविशेषणानि सर्वाणि वाच्यानि, नमिविन स्याः सा तथा, ततः पदद्वय कर्मधारये ताम् । अयं भावः-भु. जमूलाऽऽदिरोमाण्य जहद्रामस्वभावान्येय तस्याः स्युरिति, म्यो:-श्रीऋषभस्वामिमहासामन्तकच्छमहाकच्छसुतयोबिद्या. धरराज्ञःसाधनायाष्टमभक्तंप्रगृह्णाति,प्रगृह्य न पौषधशालायां अन्यथा तत्केशपाशस्य प्रलम्बतया व्याख्यानम् उत्तरसूत्र क. रिष्यमाणं नोपपद्यते, सर्वरोगनाशनी, तदीयस्पर्शमहिम्ना यावच्छब्धात् पौषधिकादिविशेषणविशिष्टो नमिविन मिधि सर्व रोगा नश्यन्तीति , तथा बलकरी सम्भोगतो बलवृचाधरराजानी मनसि कुर्वाणो मनलि कुर्वाणस्तिष्ठति,पते खगाअनुकम्प्याः एतेषामुपरि बाणमोक्षणेन प्राणदर्शनं न क्षत्रि. द्धिकरीनापरपुरन्ध्रीणामिवास्याः परिभोगे परिभाक्र्बलयधर्म इति सिन्ध्वादिसुरीणामिवानयोर्मनसि करणमात्ररूपे क्षय इति भावः । ननु यदि श्रूयते समये हस्तस्पृष्टाध्वग्ला. निदर्शनेन स्त्रीरत्नस्य स्वकामुकपुरुषविभीषिकोत्पादनं त. साधनोपाय प्रवृत्तः, तेन न द्वादशवार्षिकयुद्धमप्यत्राभिहितं, यतु हेमचन्द्रसूरिभिरादिनाथ चरित्रे शरमोबनाऽऽदि चूणि हि कथमेतदुपपद्यते ? । उच्यते-चक्रवर्तिनमेवाक्ष्यैतद्वि.. कृतातु युद्धमा द्वादशवर्शावधि 'श्रमे भणति' इत्युक्त्वा उक्तं शेषणद्वयस्थ व्याख्यानात् , यत्तु सत्यपि स्त्रीरत्न ब्रह्मदत्तच. भृतो दाहानुपशमः तत्र समाधान मधस्तन ग्रन्थे दराडकव. तन्मतान्तरमवसेयमिति, अत्रान्तरे यज्जातं तदाह- 'तए गं' इत्यादि , तस्य भरतस्याष्टमभत्त परिणमति सति नमिधि र्णनव्याख्यातोऽवसेयम् . ईप्सिताऋतुविपरीतस्ये नेच्छागोच. नमी विचाधरराजानी दिव्यया दिव्यानुभावजनितस्वात् म. १ तस्या: स्पर्श: चक्रवर्तिनः सर्वदोषनाशक इत्यर्थः , न चैवमन्तरामये स्या-शानेन चोक्तिमती प्रेरितमतिको अवधिज्ञानाऽद्यभाये. दाघज्वरोपगते ब्रह्मदत्तचक्रवतिनि व्यभिचारः , प्रत्यासन्नमृत्योस्तदानी त - अपि यत्तयोर्भरतमनोविषयकशानं तत्सौधर्मेशानदेवीना मन:- स्पर्शस हने सामथ्या भावात् अवश्य भाविवस्तुत्वाञ्च ( ही . वृत्ती) Page #1484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भरह रीकृता ये शीतोष्णस्पर्शास्तैर्युक्लाम् उष्णत शीतस्पर्शी शी. नहीं उष्णस्पर्शो मध्यम मध्यमस्पशमिति भावः । त्रिषु स्थानेषु मध्योतनुलक्षयेषु तदुकां शांतनुमध्य तनूदरी तीतिविप्रस तु सामुन्द्रि के इन्यान्यपि दन्तस्वगादीनि तनि कथितानि च सति कथं त सिपाहता ते इति । उच्यते-विचित् कविपाविशिणसमासुरं बनवता ग्रन्थकारेण श्रीपुंससाधारणानि यानि विकरूपाणि लक्ष खानि तानि तथैव निबद्धानि यानि तु यधिक सख्याका नि तेभ्योऽत्र रत्नाप्रस्तावात् केवलं स्त्रीजात्युचितानि लक्ष. यानि समुच्चित्यानुप्रासाभङ्गार्थे त्रिकरूपत्वेन निबद्धानि रोम मेदापरप्रन्यविरोधः अत एव दस्तस्यगादीनि तनूपपि [[]]] विवक्षितानीति एवमुत्तरचापि गन्तारयनिलक्षणेषु स्थानेषु ताम्र म्यने पुरुषस्यासीय मनोहरं भ नीति, यो बलयो मध्यवर्तिरूपा यस्याः सा तथा ताम् अत्र द्वितीयैकवलोपावलीणाम शस्यं पुंसां तु तथाविनाशात्रीभोगिनमा चायद्यासम् डिभिर्विद्या हगन्त त्वं हि 1 " स्वस्त्रिम् ॥ १ ॥ " तथा त्रि-स्तनयन ऐषु उन्नतां त्रिषु नाभिसत्यस्वररूपेषु गम्भीरां त्रिषु-रोम• रात्रीच्चु ककनीनिकारूपेध्यवयषु कृष्णविषु-दक्षि भावनेषु आपत प्रचि जघन थलीनितम्बवम् विस्ती श्री समरी समचतुरख संस्थानत्वात् भरते सम हिलाप्रधानां सुन्दरं स्तनजघनवरकरचलननयनं यस्याः सा तथा तां शिरसिजाइन मी लोकसीडाहेतुकम् अत पत्र मनोहरी पश्चात् पदद्वयस्य कर्मधारयः, ' सिङ्गारागारा ' इत्यत्र यावत्पदात् "सिङ्गारागार चाइये संगयगयइसिश्रमविद्धिश्रवा सलिनसंलाबनिउण इति " संग्रहः । शृङ्गारस्य प्रथमरसस्यागारं - गृहमिव चारुवेंपो यस्याः सा तथा तां सङ्गता उचिता गतद्दसितभणितचेष्टितबिलासा यस्याः सा तथा, रात्र गतं गमनं इखितं मतं महितं ि अपुरुषचष्टविलासो - नेत्रचेष्टा तथा सह ललितेन - प्रसन्न सपा ये संखापा परस्परापास्तेषु निपुणा या सा तथा, तथा युक्ताः - सङ्गता ये उपचारा - लोकव्यवहारा स्तेषु कुशला या सा तथा ततः पदत्रय कर्मधारयः तां. अमरवधूनां सुरूपं सौन्दर्य रूपेणानुहरन्तीम् अनुकुर्वतीं भ " द्रे शेषं - काणकारिणि थोपने वर्तमान तुजाव अट्टारिया महाम० त 3 • (eune) अभिधानराजेन्द्रः । -- " • साथै, गिरिडत्ता इत्यादि गृहीयातयात्र तया यावदुद्धृतया विद्याधरगत्या यंत्रैव भरतो राजा तत्रै. वो पागच्छतः उपागत्य चान्तरिक्षप्रतिपन्नो सकङ्किणी. कानि यावत्पदात् पञ्चवर्णानि वस्त्राणि प्रवरपरिहितौ इ स्वादिजयेन विजयेन वा वित्वा देवमवदिषा वर्द्धतः वर्द्धयित्वा ताम् अभिजितं देवानुप्रियैः यावत्शब्दात् सर्वे मागधगमः ज्ञानरमुत्तरेणं सममेरा इति 4 देवासुणिमा सियासी भाषां देवानुप्रियाणां ति' प्रतिकितिकृत्या तरतीन्तु देवानुप्रिया अ ३६६ स्माकमिदं भरह देव प्रीतिदानकृत्या निमि स्त्रीरत्नं नमिव रत्नानि समर्पयति । अथ भरतो यदका तदाह-' तए ' इत्यादि, ततः स भरनो राजा या वच्छब्दात् प्रीतिदानग्रहणसत्कारणाऽऽदि प्राह्मं प्रतिविस यति प्रतिविश्व पषतः प्रतिप्र तिमिष्क्रम्य च मानमनुप्रविशति अनुप्रविश्य व स्ना नविधिः वाच्यत भोजनमा यावच्छन्दादन] विप्रश्रेणिशब्दनम् अष्टाहि काकराशापन मिति, ततस्ता नमिविनम्योर्विद्याधरराशोरष्टाहिकां महा महिमां कुर्वन्तीति शेषपति प्रस 1 योग्यमिति श्रथ दिग्विजय परमाभूतस्य चकरन स्य को व्यतिकर इत्याह तप णं इत्यादि ततो-न मिचिनमिखवरेन्द्रसाधनानन्तरं तद्दिव्यं चक्र रत्नमायुधगृहशालातः प्रतिनिष्कामतीत्यादिकं प्राग्वत् नवरसर यां दिशम्यानदिशं ततो गङ्गादेवीभवनाभिमु गच्छता ईशानकोणमस्य ऋजुमार्ग नि तुकामेन जम्बूदीपाले गङ्गादेवीभवनाभिमु संप्रयातं भवत्वसम् काभिलापेन या यावत्प्रीतिदानमिति गम्यं, नवरं तत्रायं विशेषः - रत्नविचित्रं कुम्भाष्ट्राचिकसहस्रं नानामकिनकरश्ममयी भवितस्ता विचित्रे कनक सिंहासने शेर्पा सम्मान दाना 55दिकं तचैव वाच दष्टाहिका महिमेति यश्च ऋषभकूटतः प्रत्यावृत्तो न ग ङ्गां साधयामास तद्वैताढ्य वर्त्तिविद्याधराणामनात्मसात्करन परिपूर्णोत्तरखण्डस्यासाधितत्वात् कथं गङ्गाष्टि सानोपमेयसे यचास्य महादेव भोगे न वर्षसहस्रातिवाद सूत्रेपूर्वीचा मपि ऋषभचरित्रादव सेयम् । . अधोदियात्रामाह • तए गं से दिव्वे चक्करयणे गंगाए देवीए अट्ठा हियाए महामहिमाए निव्वत्ताए समाखीए आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता०जाब गंगाए महाराईए पचच्छिमिले ज्ञेयं दाखिदिसि खंडप्पवाय गुहाभिमु पया आदि होत्था, तते गं से भरहे राया०जान जेणेव खंडप्पायगुहा तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता सव्वा कपालकतन्त्रया अव्वा, वरि गहमालगे देवे पीतिदा से आलंकारिअमंड कडगाणि अ सेसं सव्वं से भर गया । तए गं मालगस्स देवस्स अट्ठा हिआए म० शिव्त्रत्ताए समाखीर से सेणा महावे, सविता जाव सिंधुगमो अव्त्रो, ०जाब गंगाए महाणईए पुरच्छिमिल्लं शिक्खुडं सगंगासागर गिरिमेरागं समविसमविदासि अश्रोs, श्रवत्ता अग्गाणि वराणि रयाणि पडिन्छई, तेणेव परिचित नेणेव गंगा महाराई गाउ वागच्छत्ता दोचं पिसक्खंधावारवले गंगा महाराई वि Page #1485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। भरह मलजलतंगबीईणावाभएणं चम्मरपणेणं उत्तरइ, उत्तर- भरतो राजा नाटयमाल कस्य देवस्याष्टाहिकायां पूर्णायां सा जेणव भरहस्स रमो विजयखंधावारणिवेसे जेणेव । सुषेणं सेनापनि शब्दयति, शब्दयित्वा च 'जाय सिन्धुगमो त्ति 'यावत्परिपूर्णः 'एवं चयासी-गच्छाहि णं भो देवाणुप्तिबाहिरिया उबट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छि श्रा सिन्धुप ' इत्यादिकः सिन्धुगमः-सिन्धुनदीनिकुट. ता आमिसेक्कामो हत्थिरयणाश्रो पच्चोरुहइ, पच्चोरुहि- साधनपाठो गङ्गाऽभिलापेन नेतव्यः यावद् गङ्गाया महानद्याः ता अग्गाई बराई रयणाई गहाय जेणेव भरहे राया तेणेव पौरस्त्यं निष्कुट-गङ्गायाः पश्चिमतो बहन्त्याः मागरेण पूर्वतः ज्वागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल परिग्गहिअं० जाव अं परिक्षेपकारिणा गिरिभ्यां दक्षिणतो वैतादोन उत्तरता लघु. हिमवता कृना या मर्यादा-व्यवस्था तय सह वर्तते यत्सजलिं का भरहं रायं जएणं विजएणं बद्धावेइ बद्धवावे. सथा, अन्यत्सवे प्राग्वत् सूत्रता व्याख्यातश्च गङ्गागमन त्ता भग्गाई बराई रयणाई उवणेइ । नए णं से भरहे रा- परिभावनीयम्, अथ नाटधमालदेवस्य वीकरणप्रयोजन या सुसेणस्स सेणावइस्स अग्गाई वसई रयणाई पडि माह-'तए णं' इत्यादि , ततो-गङ्गानिष्कुट साधनानन्तरं च्छइ, पडिच्छित्ता सुसेणं सेणावई सक्कारेइ , सम्माणेइ, स भरतः सुषेणं सेनापतिरत्नं शब्दयति, शब्दयित्वा चै. वमवादीदिन्यादिकम् अत्र गुहाकपाटोद्धाटनाबापनादिकम् पडिविसजेइ , तए णं से सुमणे सेणाई भरहस्स एकोनपश्चाशन्मएडलाऽऽलेखनान्तं सर्वे तमिस्रागुहायां मिव रलो सेसं पि तहेव. जाव विहरइ, तए णं से भरहे राया शेयम् , अत्र यो विशपस्तनिरूपणार्थमाह-'तीसे णं '. श्रम या कयाइ सुसेणं सेणावहरयणं सदावेइ , सदावेत्ता त्यादि, तस्याः-खएडप्रपातगुहायाः बहुमध्यदेशभागे या. एवं बयासी-गच्छ गंभो देवाणुप्पिा घरपदात् ' तत्थ णं' इति पदमात्रमयसेयम , उन्मनज. ! खंडप्पवायगु लानिमग्नजले नाम्ना द्वे महानद्यौ स्तः, तथैव-तमिना. हाए उत्तरिलस्स दुवारस्स कवाडे विहाडेहि, विहाहेत्ता गुहागतोन्मग्नानिमग्नानदीपमेन ज्ञातव्ये, नवरं खगडप्र. जहा तिमिसगुहाए तहा भाणिश्रव्वंजाब पि भे भवउ, । पातगुहायाः पाश्चात्यकटकात् प्रव्यूढे सत्यो पूर्वण गङ्गा सेसं तहेव०जाव भरहो उत्तरिलेणं दुवारेणं अईइ, ससि. महानदी समाप्नुतः-प्रविशतः,शेषं विस्ताराऽऽयामोद्वेधा. व्य मेहंधयारनिवहं तहेव पविसंतो मंडलाई प्रालिहइ, ती. स्तराऽऽदिकं तथैव-तमिम्रागतनदीद्वयप्रकारेणावलेयं, नयाँ गङ्गायाः पाश्चात्यकूले संक्रमवक्तव्यतासेतुकरणाशादानन· से णं खडगप्पवायगुहाए बहुमज्झदेसभाए.जाव उम्मग्ग- द्विधानोत्तरणाऽऽदिक क्षेयं, तथैव-प्राग्य क्षेयमिति, अथैन. णिमग्गजलामो णाम दुवे महाणईओ तहेव,णवरं पञ्चच्छि- स्मिन्नवसरे दक्षिणतो यजातं तदाह-तए णं' इत्यादि. मिल्लायो कडगामो पढाओ समाणीप्रो पुरच्छिमेणं गंगं प्राग्व्याख्यातार्थम्, अथोद्घाटितयोर्मुहादक्षिणद्वारकपाटयोः महाणई समति, सेसं तहेव, णवरि पञ्चच्छिपिझेणं कूलेणं प्रयोजनमाह-'तए णं' इत्यादि, ततः कपाटोघाटनानन्तरं स भरनो राज्ञा चकरलदेशितमार्गः, यावत्करणात् 'अणेगंगाए संकमवत्तव्बया तहेव त्ति, तए णं खंडगप्पवायगुहाए गरायवरसहस्ताणुप्रायमग्गे महया उकिसीहणाययोलकदाहिणिलस्स दुवारस्स कबाडा सयमेव महया महया कों. लकलरवेणं पक्खुभित्रमहासमुहरबभू पिच करेमाणे'. चारवं करेमाणा करेमाणा सरससरस्सगाई ठाणाई पच्चोस- ति पदानां परिग्रहः, खण्डपपातगुहातो दक्षिाद्वारेण नि. कित्या, तए णं से भरहे राया चकरयगादेसियमग्गे जाव रेति शशीव मेहान्धकारनिवहात् , प्राग्व्याख्यातं, ननु च.. क्रिणां तमिस्रया प्रवेशः खण्डमपातया निर्गमः किनारणिखंडगप्पवायगुहाओ दक्खिणिलेणं दारेणं गीणेइ ससि कः?, खण्डमपातया प्रवेशस्तमिन्नया निर्गमोऽस्तु, प्रवेश. ब्व मेहंधयारनिवहानो । ( सूत्रम्-६५) . निर्गमरूपस्य कार्यस्योभयत्र तुल्यत्वात् ?, उच्यते-तमिनाया • तप पं' इत्यादि, ततो गङ्गादेवीसाधनानन्तरं तद्दिव्यं | प्रवेशे खण्डपपातानिर्गमे च सृष्टिः, तया च क्रियमाणस्य चक्ररत्नं गाया देव्या अष्टाहिकायां महिमायां निवृत्ता- तस्य प्रशस्तोर्कत्वात्, अन्यत्र स्खएडप्रपानया प्रवेश यां सत्यामायुधगृहशालातः प्रतिनिष्कामति, यावत्पदादासोपस्थीयमान ऋषभकटे चतुर्दिकपर्यम्तसाधनमम्तरे. न्तरिक्षप्रतिपन्नपदाऽऽविपरिग्रहः, गङ्गाया महानद्याः पश्चिमे ण नामन्यासोऽपिन स्यादिति। कले दक्षिणदिशि स्वराप्रपातगुहाभिमुखं प्रयातं चाप्यभव. अथ दक्षिणभरतागतो भरतो यश्चके तदाहत्, ततः स भरतो राजा चक्ररत्नं पश्यतीत्यादिकं तावः तए णं से भरहे राया गंगाए महाइए पञ्चच्छिमिले कूल वक्तव्यं यावत्खण्डप्रपातगुहायामागच्छतीति पिण्डार्थः सर्या | दुवालसनोअणायाम णकनोअणविच्छिम जाव विजयकृतमालवाव्यता-तमिस्रागुहाधिपसुरख्यमव्यता नेतन्या खंधावारणिवसं करेइ, अवसिटुं तं चेत्र. नाव निहिरयसातव्येत्यर्थः, नवरं नाटयमालको नृत्तमालको वा देषो गुहाधिपः प्रीतिदान से' तस्य पालङ्कारिकभारतम्-श्रा. खाणं अहमभत्तं पगिएहइ , तए णं से भरहे राया पास. भरणभृतभाजन कटकानि शेषम्-उक्तविशेषातिरिक्तं सर्व त. हसालाए० जाव णिहिरयणे मणमि करेमाणं करेमाणे थैर-सत्कारसन्मानादिकं कृतमालदेवतावद्वक्तव्यं याक्दष्टा चिट्ठ ति, तस्स य अपरिभिरत्तरयणा धुमक्खयमब. हिका, अथ दाक्षिणात्यगानिष्फुटसाधनाधिकारमा-'त या सदेवा लोकोपवयंकरा उवगया णव णिहिमो लोग 'त्यादि , ततः-स्वराप्रपातगुदापतिसाधनानन्तरं स! विस्सुमजसा । तं जहा Page #1486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६३) अभिधान राजेन्द्रः । भरह ' ने सप्पे १पंडुए २, पिंगलए सब्बर ४ महमे ५ । काले महाकाले ७, माणव महानिहीसंखे || १ | " "सम्म वेिसा, गामागरण गरपट्टणाखं च दो मुहमबाणं, खंधावारावणगिहाणं ॥ १ ॥ गणिस्स य उप्पत्ती, माणुम्माणस्स जं पमाणं च । धमरस य बीचण य, उपत्ती पंडुए भणिश्रा ॥ २॥ सव्वा श्राभरणविही, पुरिसाणं जा य होइ महिलाएं । साथी, पिंगलगाणद्दिम्पि सा भणिश्रा ॥ ३ ॥ राई सम्वरणे, चउदस वि वराई चक्कवहिस्स । उप्पनं ते एमिं दिखाई पंचिदिआई च ॥ ४ ॥ बत्थाय य उत्पत्ती, खिष्फती चैव सव्वभत्तीणं । रंगाण य धोव्वाण य, सव्वा एसा महापउमे ॥ ५ ॥ काले कालपाणं सव्त्रपुराणं चतिसु वि वंसेसु । सिप्स कम्पाणि श्र, तिष्ठि पयाए हियकराणि ॥ ६ ॥ लोहस्स य उप्पत्ती, होइ महाकालि आगराणं च । रुपस्स सुवास्स य, मणिमुत्तसिलप्पवालाणं ॥ ७ ॥ जोहाण य उप्पत्ती, आवस्थाणं च पहरणाय च । सव्वा य जुद्धई, माणव दंडणोई अ ॥ ८ ॥ वाडवी, कव्वस्त य चउव्विहस्स उप्पत्ती । संखे महामहिम्मी, तुडि अंगाणं च सव्वेसिं ॥६॥ पाणा, असेहा य णव य विक्खंभा । बारसदीहा मंजू - ससंठिया अहवीइ मुहे ।। १० । वेरुलिमणिकवाडा, कणगमया विविहरयण पडिपुला । ससिसूरचक्कलक्खण, अणुसमत्रयणोववत्ती या ॥ ११ ॥ पलिओडिया, णिहिसिरिणामा य तत्थ खलु देवा | जेसिं ते श्रवासा, किजा आदिवच्चा य ।। १२ ॥ एए व विहिरयणा, पभूयधणरयण संचयसमिद्धा । जे समुपगच्छंती, भरहाविव चकवडणं ।। १३ ॥ " तर गं से भरहे राया श्रट्टमभत्तंसि परिणममायंसि पोसहसा लाभ पडिणिक्खमइ, एवं मखणघरपत्रे सो० जाब सेपिसेखि सावया० जाव विहिरयणाणं भट्ठा हि महामहिमं करेइ, तए गं से भरडे राया हिग्यणाणं श्राहिश्रए महामहिपाए विव्वत्ताए समाणीए सुसेणं णावरयणं सदावे सहावेत्ता एवं बयासी- गच्छ गं भो देवाखुपिया ! गंगामदाखईए पुरच्छिमिल्लं शिक्खुडं दुच्चं पि संगंगासागरगिरिमेरागं समत्रिसमणिक्खुडाणि अ श्रवेहि, योभवेत्ता एश्रमाणचित्रं पच्चपिहिि तर गां से सुसेणे तं चेत्र पुव्ववपि भारिणश्रव्वं जाव श्रोत्रवित्ता तपातिनं पच्चप्पियर, पडिविसज्जेइ ०जात्र भोगोई जो विहरह | शापनादिकं तदेव यम्मागधदेव साधनावसरे उक्तमिति, यावच्छब्दात्पौषधशालादर्भ संस्तारक संस्तरणाऽऽदि शेयं, निधिरज्ञानामप्रमभक्तं प्रगृह्णाति ततः स भरतो राजा पौधशालायां यावत्पदात् पोसहि' इत्यादिकम् 'एंगे अधी इत्यन्तं पदकदम्बकं प्राह्यं निधिरत्नानि मनसि कुर्वन् तिष्ठति, इत्थमनुतिष्ठतस्तस्य किं जातमित्याह - 'तस्स य' इत्यादि. तस्य- भरतस्य चशब्दोऽर्थान्तराऽऽरम्भे नव निधयः उपाग ता-उपस्थिता इत्यन्वयः किंभूताः ? - अपरिमितानि रक्ताभि उपलक्षणादनेकवर्णानि ज्ञानि येषु ते तथा इदं च विशेषणं त ममतापेक्षा बोध्यं यन्मते निधिष्वनन्तरमेव वक्ष्यमाणाः पदार्थाः साक्षादेवोत्पद्यन्ते इति श्रयमर्थः एतेषां मते नवसु निधिषु कल्पपुस्तकानि शाश्वतानि सन्ति तेषु च विश्वस्थितिरा ख्यायते, केषाञ्चित्तु मते कल्पपुस्तकप्रतिपाद्या अर्थाः सातादेव तत्रोत्पद्यन्ते इति, एनयोरपरमतापेक्षया 'अपरिमित ' इत्यादि विशेषणमिति, तथा ध्रुवास्तथाविधपुस्तक वैशिष्टय रूप स्वरूपस्या परिहाणेः अक्षयाः श्रवयविद्रव्यस्यापरिहाणेः श्रव्ययास्तदारम्भकप्रदेशापरिहाणेः अत्र प्रदेशापरिहाणियु क्तिः समय संवादिनी पद्म वरवेदिकाव्याख्यासमये निरूपितेति ततोऽवसेया अत्र पदद्वये मकारोऽलाकणिकः, ततः पदत्रयकर्मधारयः सदेवा अधिष्ठायकदेवकृत सानिध्या इति भावः । लोकोपचयङ्कराः अत्र "नवा खित्कदन्ते रात्रेः " ( श्रीसि० अ० ३ पा० २ सू० १२६ ) इति सूत्रे योगविभागेन व्याख्याने तीर्थकराऽऽदिशब्दवत् सा धुत्वं ज्ञेयं, यद्वा - देवनाग सुबह किंनरगणस्सम्भूश्रभावश्चिय, इत्यादिवदास्वादनुस्वारे लोकोपचयकराः-वृत्तिकल्पककपपुस्तकप्रतिपादनेन लोकानां पुष्टिकारकाः लोकविख्या तयशस्का इति अथ नामतस्तानुपदर्शयति - तद्यथेत्यु " | पदर्शने नैसर्वस्य देवविशेवस्यायं नैसः एवमग्रेऽपि भाव्यम् अथ यत्र निधी यहाख्यायते तदाह- सध्ये' इस्यादि, सर्वनामनि निधौ निवेशा: -- स्थापनामि स्थापन विधयो ग्रामाऽऽदीनां गृहपर्यन्तानां व्याख्यायन्ते तत्र प्रामां वृष्यामृतः श्राकरो यत्र लवणाऽऽद्युत्पद्यते नगरं राजधानीपतनं रत्नयोनिद्रणमुखं जलस्थलनिर्गमप्रवेशं मडम्बम् - अ. नागान्त ग्रमरद्दितं स्कन्धावारः कटकम् भावो | भरह तर से दिव्ये चकरणे अन्नया कयाइ आउहघरसालश्रो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता अंत लिक्ख पडिवो जक्खसहस संपरिवुडे दिव्वतुडित्र जात्र अपूरेंते चेत्र विजयकखं धावारणित्रेसं मज्यंमज्झेणं गिगच्छ, दाहिणपञ्चच्छि दिसं वि रायहाणि अभिपुढे पयाए आदि होत्था । तर यं से भरडे राया जाव पासइ, पासिता हट्ट •जाव कोपुरिसे सदा सदावेता एवं बयासी खिप्यमेत्र ओ देवाणुविद्या ! श्रभिसेक्कं ०जाब पच्चप्पियंति । (सूत्रम् – ६६ ) 'तपणं इत्यादि ततो-गुहानिर्गमानन्तरं स भरतो राजा गङ्गाया महानद्याः पश्चिमे कूले द्वादशयोजनाऽऽयामं न. वयोजनविस्तीर्णे, यावत्पदात् 'वरणगर सरिच्छं' इति ग्राह्यं. विजयस्कन्धावारनिवेशं करोति श्रवशिष्टं वर्द्धकिरत्नशब्दा For Private Personal Use Only Page #1487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। भरह हहः, गृहं-भवनम् उपलक्षणात् खेटकर्बटादिग्रहः ॥१॥ अथ धर्मार्थकाममोक्ष लक्षण पुरुषार्थनिबद्धस्य, अथवा सं. द्वितीयनिधानवकव्यतामाह- गणिअस्स' इत्यादि, गणि. स्कृतप्राकृतारपभ्रंशसंकीर्णभाषानिबद्धस्य गद्यपद्यतस्य-सण्याप्रधानतया व्यवहर्तव्यस्य दीनाराऽऽदेनालि. रंगेय३चौर्णपदबद्धस्य वा उत्पत्तिः-निष्पत्तिस्तद्विकेराऽऽदेर्वाचशब्दात् परिच्छेद्यधनस्य मौक्तिकाऽऽदेरु पत्तिप्र. धिः , तत्राऽऽयं काव्यचतुष्क प्रतीतं , द्वितीयचतुष्के कारः,तथा मान-सेतिकाऽऽदि तद्विषयं यत्तदपि मानमेव धा- संस्कृतप्राकृते सुबोधे, अपभ्रंशः-तत्तद्देशेषु शुद्ध भाषितं, न्याऽऽदि मेयमिति भावः,तथा उन्मानं-तुलाकर्षाऽऽदि तद्विषयं सङ्कीर्णभाषा-शौरसेन्यादिः , तृतीय चतुकं गद्यम्-अच्छयत्तदप्युन्मानं खण्डगुडादि धरिमजातीयं धनमित्यर्थः,ततः दाबद्धं शस्त्रपरिक्षाऽध्ययनवत् , पा-छन्दोबद्धं विमुक्त्य. समाहारद्वन्धस्तस्य च यत्प्रमाणं लिङ्गविपरिणामेन तत्पा- ध्ययनयत् , गेयं-गन्धा रीत्या बद्धं गानयोग्य, चौर्ण-बा. गडुके भणितमिति सम्बन्धः, धान्यस्थ-शाल्याऽऽदे/जानां हुलकविधिबहुलं गमपाठबहुलं निपातबहुलं निपाताव्यय. च-बापयोग्यधान्यानामुत्पत्तिः प.एडु के निधी भणिता ॥२॥ बहुलं ब्रह्मवर्याध्ययनपदबत् . अत्र चेतरयोगद्यपद्यान्तभावे. अथ तृतीयनिधिस्वरूपं निरूप्यते-सव्वा पाभरण' इत्यादि, ऽपि यत्पृथगुपादानं तदानधर्माऽऽधेयधर्मविशिष्टतया विशे. सर्व प्राभरणविधिर्यः पुरुषाणां यश्च महिलानां तथाऽश्वानां पणविवक्षणार्थ , शो महानिधी , तथा त्रुटिताङ्गानां च हस्तिनां च स यौचित्येन पिङ्गलकनिधौ भणितः लिङ्गवि. तूर्याकाणां सर्वेषां वा तथातथावाद्यभेदभिन्नानामुत्पत्ति परिणामः प्राकृतशैलीभवः ॥ ३॥ अथ चतुर्थनिधिः-'रयणा. शङ्ख महानिधाविति ॥६॥ अथ नवनामपि निधीनां साधा. ' इत्यादि । रखानि चतुर्दशापि वराणि चक्रवर्तिनश्चक्राऽऽ. रणं स्वरूपमाह-'चक्क?' इत्यादि, प्रत्येकमटसु चक्रेषु दीनि सप्तैकेन्द्रियाणि सेनापत्यादीनि च सप्त पञ्चेन्द्रियाणि प्रतिष्ठान-अवस्थानम् येषां ते तथा, यत्र यत्र बाह्यन्ते तत्र सर्वरत्नाऽस्ये महानिधाबुत्पश्चन्ते, तदुत्पत्तिः तत्र व्यावर्यत तत्राटचक्रप्रतिष्ठिता एव वहन्ति , प्राकृतत्वादष्टशब्दस्य प. इत्यर्थः, अन्ये स्वेवमाहुः-उत्पद्यन्ते एतत्प्रभावात् स्फाति- रनिपातः , अष्टौ योजनानि उत्सेधः- उच्चैस्त्वं येषां ते त. मद्भवन्तीत्यर्थः॥४॥अथ पञ्चमो निधिः-' वत्थाण य' था, नव च योजनानीति गम्यते, विष्कम्भण-विस्तारेण न. इत्यादि, सर्वेषां वस्त्राणां च या उत्पत्तिस्तथा सर्वविभक्तीना। वयोजनविस्तारा इत्यर्थः, द्वादशयोजनदीर्घाः मंजूषावत्सं. वस्त्रगतसर्वरचनानां रङ्गानां च-मञ्जिष्ठाकृमिरागकुसुम्भा55. | स्थिताः , जाह्नव्या-गङ्गाया मुख यन समुद्रं गङ्गां प्रविश. दीनां 'धोव्याण य सि' सर्वेषां प्रकालनविधीनां च या नि. ति तत्र सन्तीत्यर्थः . " इत्यूचुस्ते वयं गङ्गा-मुखमागध. पत्तिः सर्वा एषा महापननिधौ ॥ ५॥ अथ षष्ठो निधिः- वासिनः । श्रागतास्त्वां महाभाग!, स्वद्भाग्येन वशीकृताः 'काले कालमाण' इत्यादि, कालनामनि निधौ कालज्ञानं. ॥१॥” इति त्रिषष्टीयचरित्रोक्तः, चक्रघुत्पत्तिकाले च भ. सकलज्योतिःशास्त्रानुबन्धि ज्ञान तथा जगति त्रयो वंशाः रतविजयानन्तरं चक्रिणा सह पातालमार्गेण भाग्यवत्पुरु. बंशः, प्रवाहः, पावलिका इत्येकार्थाः, तद्यथा-तीर्थङ्करवं. षाणां हि पदाधःस्थितयो निधय इति चक्रिपुरमनुयान्ति, शश्चक्रवर्तिवंशो बलदेववासुदेववंशश्च, तेषु विष्वपि बंशेषु तथा बडूर्यमणिमयानि कपटानि येषां ते तथा , मयप्र. यद्भाव्यं यच्च पुराणमतीतमुपलक्षणमेनद्वर्तमानं शुभाशुभं त्ययस्य वृत्या उतार्थता, कनकमयाः-सौवर्णाः विधिधर. तत्सर्वमत्रास्ति, तो महानिधितो नायत इत्यर्थः, शिल्प. नप्रतिपूर्णाः शशिसूरचक्राकाराणि लक्षणानि-चिहानिशतं-विज्ञानशतं घटलोहचित्रवस्त्रनापितशिल्यानां पश्चाना. येषां ते तथा, प्रथमाबहुवचन लोपः प्राकृतत्वात् , अनुरूपा मपि प्रत्येकं विंशतिभेदत्वात् कर्माणि च-कृषिवाणिज्याss. समा--प्रविषमा बदनोपपतिः-द्वारघटना येषां ते तथा, प. दीनि जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेद भिन्नानि श्रीण्येतानि प्रजाया स्पोपमस्थितिका निधिसहरनामानः खलु , तत्र च निधि. हितकराणि निर्वाहाभ्युदय हेतुत्वात् एतत्सर्वमत्राभिधीयते पुते देवा येषां देवानां त एव निधयः प्रामासा-प्राथ. ॥६॥ अथ सप्तमी निधिः-'लोहस्स य' इत्यादि, लोहस्य याः, किंभूता:-अक्रया:-अक्रयणीयाः, किमर्थमित्याहच नानाविधस्योत्पत्तिर्भवति महाकाले निधौ, तत्र तदुत्प. आधिपत्याय प्राधिपत्यनिमित्तं , कोऽर्थः ?-तेषामाधिप तिराण्यायते इत्यर्थः, तथा रूप्यस्य सुवर्णस्य च मणीनां । त्यार्थी कश्चित्क्रयेण-मूल्यदानादिरूपेण तान् न लभते चन्द्रकान्ताजीनां मुक्तानां-मुक्काफलानां शिलानां-स्फाटि इति . किन्तु पूर्वसुचरितमहिम्न वेत्यर्थः । एते मब निधयः काऽऽदीनां प्रबालानां च सम्बन्धिनाम् पाकराणामुत्पत्तिर्भव प्रभूनधनरत्नसंचयसमृद्धाः ये भरताधिपानां-पट्खण्डमा ति,महाकाले निधाविति योगः॥७॥ अथाष्टमः-'जोहाण रतक्षेत्राधिपानां चक्रवर्तिनां वशमुपगच्छन्ति-वश्यतां या. य' इत्यादि योधानां-शूरपुरुषाणां, चशब्दात् कातराणा. न्ति पतेन वासुदेवानां चक्रवर्तित्वेऽप्येतद्विशेषणव्युदासः, मुत्पत्तिरभिधीयते, यथा योधत्वं कातरत्वं च जायते त. निधिप्रकरणे चात्रस्थानाङ्गप्रवचनसारोद्धारादिवृत्तिगता. थाऽत्राभिधीयते इत्यर्थः, तथा श्रावरणानां च-खेटका. नि बहूनि पाठान्तराणि अविस्तरभयादुपेक्ष्यैतत्सूत्राद. नां समाहानां वा प्रहरणानाम्-अस्यादीनां च सर्वा च यु. शप एव पाठो व्याख्यातः। अथ सिद्धनिधानो भरते. नीतिः-व्यूहरचनाऽऽदिलक्षणा सर्वाऽपि च दराडेनोपलक्षि यच्चके तदाह- तए णं ' इत्यादि व्यक्तम् . तानीतिर्दण्डनीतिः-सामादिश्चतुर्विधा माणवकनाम्नि नि. अथ षट्खण्डदत्तदृष्टिभरतो यथोत्सहने तथाऽऽहधावभिधीयते, ततः प्रवर्तत इति भावः॥८॥ अथ नवमः- ' तए णं ' इत्यादि, इदमपि प्रायो व्यवं. नवरं 'पट्टविही णाडगविही' इत्यादि, सर्वोऽपि नृस्यविधिः- गङ्गाया महानद्याः पौरस्त्यं निषकुटमित्युक्ते उदीची. नाट्यकरणप्रकारः सर्वोऽपि च नाटकविधिः-अभिनेयप्र. नमपि स्यादिति द्वितीयमित्युक्तम , अवशिष्टन अस्यैव प्रा. बन्धप्रपञ्चनप्रकारः तथा चतुर्विधस्य काव्यस्य ग्रन्थस्थ. तापसाररवात् , गङ्गायाः पश्चिमतो बद्दन्त्याः सागराभ्यां Jain Education Interational Page #1488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। प्राच्यापाच्याभ्यां गिरिणा-बैनाढयेनोत्तरवर्तिना कृता या हाणुपुब्बीए संपट्टिा , तयणंतरं च बत्तीस रायबरसमर्यादा-क्षेत्रविभागस्तया सह वर्तते यत्तत्तथा. अथ सुषेणा इस्मा अहाणुपुबीए संपट्टिा , तयणंतरं च णं सेणावइ. यच्चके तदाह-'तए णं' इत्यादि , तत:-स्वाम्याशपत्य नन्तरं सुषेणस्तं निष्कुटं साधयतीत्यादि, तदेव पूर्ववर्णित रयणे पुरो अहाणुपुबीए संपट्टिए, एवं गाहावास्यमे दाक्षिणात्यसिन्धुनिष्कुटवर्णितं भणितव्यम् , कियत्पर्यन्त | बद्धाग्यणे पुरोहिअरयणे , तयणंतरं च णं इस्थिरयणे मित्याह-यावनिकुटं साधयित्वा तामाप्तिका प्रत्यर्पयति. पुरो प्रहाणुपुबीएजाव तयणं नरं च णं बचीसं उमुकल्लाप्रतिविमृशे यावद् भोगभोगान् भुजानो विहरति । अथ णिया सहस्सा पुरो प्रहाणुपुब्बीए.जाव तयणंतरं च णं साधिनाखरडपट्खण्डे भरते सति यच्चक्रमुपचक्रमे तदा. बत्तीस जणवयकल्लाणियासहस्सा पुरो प्रहाणुपुवीए -'तपणं' इत्यादि, ततो-गङ्गादक्षिणनिष्कुटविजयानन्तरं तद् दिव्यं चक्ररत्नम् अन्यदा कदाचिदायुधगृहात् प्रतिनि तयणतरं च णं बत्तीसं बत्तीसइबद्धा णाडगसहस्सा पुरा कामति, विशेषणेकदेशा अत्राशेषविशेषणस्मारणार्थ, तेना. अहाणुपुबीए जाव तयणंतरं च णं तिमि सट्टा मूत्रसया न्तरिक्षप्रतिपन्नं यक्षसहस्रसम्पग्वृितं दिव्यत्रुटितसनिनादे पुरो प्रहाणुपुबीए जाव तयणंतरं च णं अट्ठारस सेखिनाऽऽपूरयदि वाम्बरतलं विजयस्कन्धावारनिवेशं मामध्ये न-विजयस्कन्धावारस्य मध्य भागेन निर्गच्छति, दक्षिणप. प्पणीयो पुरमोजाव तयणंतरं च णं चउरासीई प्राससश्चिमां दिशि-नैऋती विदिशं प्रति विनितां राजधानी यसहसा पुरोनाव तयणं तरं च णं चउरासीई हत्यिसयलक्षाकृत्याभिमुखं प्रयातं चाप्यभवत् । अयं भावः-खराड. सहस्सा पुरमओ अहाणुपुन्नीए जाव तयणंतरं च णं छपउई प्रपातगुहाऽऽसनस्कन्धावारनिवेशा विनीतां जिगमिषो३. मणुस्सकोडीओ पुरो प्रहाणुपुबीए संपट्टिा, तयणं. यभिमुखगमनं लाघवायेति भावः, अथाभिविनीतं प्रस्थिते चक्रे भरतः किं चक्रे इत्याह-'तए णं' इत्यादि , ततः तरं च णं बहवे राईसरतलवर जाव सत्यवाहप्पभिईओ चक्रप्रस्थानादनन्तरं स भरतो राजा नदिव्यं चक्ररत्नमिन्या- पुरो प्रहाणुपुत्रीए संपट्टिा तयणतरं च णं वह अदि यावत्पश्यति. दृष्ट्वा च हतुष्टाऽऽदिविशेषणः कौटुम्बिक सिग्गाहा लडिग्गाहा कुंतग्गाहा चावग्गाहा चामरपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा चैवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो ग्गाहा पासग्गाहा फलगरगाहा परसुग्गाहा पात्य. देवानुप्रिया! भाभिषेक्यं, यावत्करणात् हस्तिरनं प्रतिक यग्गाहा बीणग्गाहा कूअग्गाहा हडप्फग्गाहा दीविस्पयत, सेना सन्नायत, ते च सर्व कुर्वन्ति, प्राज्ञां च प्रत्यर्पयन्ति । अगाहा सहि सरहिं रूबेहि, एवं वेसेहिं चिंधहि निश्राप्रयोक्लमेवाथै दिग्विजयकालाऽऽद्यधिकार्थविवक्षया एहि सएहिं २ वत्येहिं पुरओ अहाणुपुबीए संपत्थिा , विस्तरवाचनया चाऽऽह तयणंतरं च णं बहवे दंडिओ मुंडिणो सिंहडिणो जडिणो तरण से भरहे राया अजिअरजो णिज्जि असत्तू उप्प पिच्छिणो हासकारगा खेडकारगा. दवकारगा चाडुकारगा लसमत्तरयणे चक्करयणप्पहाणे णवणिहिबई समिद्धकोसे । कंदप्पिा कुकुइया मोहरिया गायंताय दीवंता य(वायंता) बत्तीसरायवरसहस्साणुायपग्गे सट्ठीए वरिससहस्सहिं नञ्चता य हसंता य रमंता य कीलंता य सासेंता य साकेवलकप्प भरहं वासं भोयवेइ, प्रोप्रवेत्ता कोमुंबियपुरिसे बता य जावेंता य रावेता य सोमेंता य सोभावेंता यासदावइ, सदाविता एवं बयासी-खियामेव भो देवाणप्पिा ! भाभिसकं हस्थिरयणं हयगयरह तहेव अंजण लोअंता य जयजयसई च पउंजमाणा पुरओ अहाणुपुगिरिकूडसमिभं गयवई णरवई दुरुढे । तए णं तस्स भ बीए संपढिना एवं उपचाइअगमेणं जाव तस्स रसो रहस्स राठो आभिसेकं हस्थिरयणं दुरूढस्स समाणस्स पुरी महासा पासधारा उभो पासिं णागाणागधरा इमे अट्ठमंगलगा पुरो प्रहाणुपुवीए संपट्टिा, तंज- पिट्टओ रहा रहसंगेल्ली अहाणुपुब्बीए संपट्टिा इति । हा-सात्थि असिरिवच्छ जाव दप्पणे, तयणंतरं च णं तए णं से भरहाहिवे णरिंदे हारोत्यए सुकयरइअवच्छे० पुल कलसभिंगार दिना य छत्तपहागा जाव संपट्टिा, जाव अमरवइममिभाए इद्धीए पहिकित्ती चक्करयाणतयणंतर च वेरुलिअभिसंतविमलदंड जाव अहाणपुचीदेसिश्रमग्गे अणेगरायवरसहस्साणुायमग्गे जाव समुए संपट्टि, तयणं तरं च णं सत्त एगिदिश्रयणा पुरो एरवभूअं पिव करेमाणे २ सन्धिद्धीए सम्बज्जुईए. जाव अहाणुपुत्रीए संपत्थिया, तं जहा-चक्करयणे १ छत्तरयणे णिग्योसणाइयरवेणं गामागरणगरखेडकबडमडंब जाव २ चम्मर यगणे ३ दंढरयणे ४ असिरयणे ५ मणिरयणे ६ | जो अणंतरित्राहिं सहीहिं बसपाणे २ जेणेव विणीमा कागणिरयणे ७ तयणंतरं च णं णव महाणि हिश्रो पुर. रायहाणी तेणेव उवागच्छा, उवागच्छित्ता विखीपाए श्रो प्रहाणपुच्चीए संपटिया । तं जहा-णेसप्पे पंड्डयएक- रायहाणीए अदूरसामंते दुवालसजोअणायाम णवजोयण. जाव संखे, तयखंतरं च यं सोजस देवसहस्सा पुरो - वित्थिमं . जाव खंधावारणिवेसं करेइ, करेता Page #1489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह (१४६६) अभिधानराजेन्द्रः। बद्धइरयणं सद्दावेइ, सहावेत्ता. जाव पोसहसालं णे २ तिरूवसोहग्गगुणेहिं पिच्छिजमाणे पिच्छिजमाणे अणुपविसइ , अणुपविसित्ता विणीपाए रायहाणीए अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइजमाणे दाइजमाणे दाहियाअट्टममतं पगिराहा, पगिरिहत्ता. जाव अट्ठमभत्तं स्थेणं बहुणं णरणारीसहस्साणं अंजलिमालासहस्साईपपडिजागरपाणे २ विहरइ । तए णं से भरहे राया अट्ट डिच्छमाणे पहिच्छेमाणे भवणपतीसहस्साई समइच्छमामभत्तंसि परिणममाणंसि पोसहसालारो पडिणिक्खमइ, णे समइच्छमाणे तंतीतलतुडिअगीभवाइमरवेणं मधुरेणं पडिणिक्खमित्ता कोडुबिअपूरिसे सहावेर, सहावेत्ता तहेव मणहरेणं मंजुमंजुणा घोसेणं अपडिबुज्झमाणे भपटियु-. जाव अंजणगिरि कूडसमिभं गयवई खरवई तं चेव ज्झमाणे जेणेव सए गिहे जेणेव सए भवणवरवींसयदुसव्वं जहा हेटा, गावरि णव महाणिहिलो चत्तारि सेणा- वार तणव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भाभिसेकं हत्यिरप्रो ण पविसंति, मेसो सो चेव गमो नाव णिग्घोसणा यणं ठवेइ, ठवेत्ता अभिसेक्कामो हस्थिरयणाओ पचोकइएणं विणीपाए रायहाणीए मज्झमझ जेणेव सर, हइ पच्चारुहिता सोलस देवसहस्से सकारेइ, सम्माणेड गिहे जेगव भवणवरवडिंसगपडिदवारे नेणेव पहारेत्थ सम्माखेत्ता बत्तीसं रायसहस्से सकारेइ, सम्माणेइ, सगमणाए, तए णं तस्स भरहस्स रमो विणीअं रायहाणं | माणेत्ता सेणावइरयणं सक्कारेइ , सम्माणेइ , सम्मा णेता एवं गाहावइरयणं सकारेइ , सम्माणेइ , स. मज्झमज्मेणं अणुपविसमाणस्म अप्पेगइमादेवा विणीनं माणेत्ता तिमि सटे सूत्रसए सकारेइ, सम्मारायहाणिं सम्भंतरबाहिरिनं आसिसम्मजिमोवलितं करेंति, अप्पेगइया मंचाइमंचकलिमं करेंति,एवं सेसेसु वि. णेइ, सम्माणेत्ता अट्ठारस सेणिप्पसेणीमो सकारेइ, पएमु अप्पेगइया णाणाविहरागवसणस्सियधयपडागाम सम्माणेइ सम्माणेत्ता भले वि बहरे राईसर जाव सत्य वाहप्पभिईओ सकारेइ , सम्माणेइ, सम्माणेत्ता पहिविसडितभूमिश्र, अप्पेगइमा लाउलोइअमहि करेंति, अप्पेगहमा० जाव गंधवट्टिभूभं करेंति, अप्पेगमा हिरमवासं जेइ , इत्थीरयणेणं बत्तीसाए उडुकल्लाणिभासहस्सेहिं ब त्तीसाए जाणवयकल्लागिणासहस्सेहिं बत्तीसाए बत्तीसइव. वासिति,सुबमारयणवहरमाभरणवासं वासेंति,तपणं तस्स भरहस्स रमो विणीअं रायहाणि मज्म ज्झेणं अणुपवि. द्धेहिं पाढयसहस्सेहिं सदि संपरिबुडे भवणवरवर्टिसगं समाणस सिंघाडग. जाव मह पहेसु बहवे अत्यत्थिना भईई जहा कुवेरोब देवराया कैलासमिहरिसिंगभूमंति, कामस्यिया भोगस्थिमा लाभत्थिा इद्धिसिमा किनिसि तएणं से भरहे राया मित्तणाइणिभगसयणसंबंधिपरिमा मा कारोदिमा कारवाहिमा संखिया चकिमा संगलिभा शं पच्चुवेक्खड़, परचुवेक्खिता जेणेव मज्जणघरे तेणेव मुहमंगलिया पूसमाणया बद्धमाणका लंखमखमाइमा ताहिं उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव मज्जणघराभो पडिणिपोरालाहिं इवाहि कंताहि पित्राहि मणबाहिं मणामाहिं क्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव भोमणमंडवे तेणेव उसिवाहिं घमाहिं मंगवाहि सस्सिरीमाहिं हिअयगपणिजा- बागच्छइ, उवागच्छित्ता भोश्रणपंडसि मुहासणवरगए हिं हिमयपन्दायणि जाहिं वग्गूहिं अणुवरयं अभिणंदता य अदममत्तं पारेइ, पारेत्ता उप्पि पासायवरगए फुटमाणेअभियुणंता य एवं बयासी-जय जय गंदा! जय जय हिं मुइंगमस्थएहिं बत्तीसइबद्धेहिं णाडएहिं उबलालिजमाभदा भई ते अजिमंजिणाहि जिमं पालयाहि जिमझे णे उवलालिजमाणे उवणचिज्जमाणे उवणचिजमागो साहि इंदो विव देवाणं चंदो विव ताराणं चमरो विव अ. उवगिज्जमाणे उवगिज्जमाणे महया जाव भुंनमाणे विहसरा धरणे विव नागाणं पहुई पुवसयसहस्साई बहईओ रह । (सूत्रम्-६७) 'तपणे' इत्यादि, ततः स भरतो राजा अर्जितरा. पुवकोटिभो बहूईमो पुवकोडाकोडीओ विणीआए राय ज्यो-लब्धराज्यो निर्जितशत्रुरुत्पनसमस्तरत्नस्तत्रापि चहाणीए चुनहिमवंतगिरिसागरमेरागस्स य केवलकपस्स करत्नप्रधानो नव निधिपतिः समृद्धकोशः-सम्पनभाण्डा. भरहस्स बासस्स गामागरणगरखेडकबडमबहोणमाप गारः द्वात्रिंशद्राजवरसहस्रैरनुयातमार्गः षटया वर्षसहर पूणासमसामवेसेसु सम्मं पयापालखोजिमालद्धजसे म- केबलकल्प-परिपूर्ण भरतवर्ष साधयित्वा कौटुम्बिकपुरु. हयाजाव भाडेवकं पोरेवर्ष० जाब विहरादिति का जय. पान् शम्पपति, शमयित्वा चैवमयादीत्-क्षिप्रमेव मोरे. अयसरं पति,तए सं से भरे राया सयणमालासहस्से पानुप्रिया ! प्राभिषेयं हरिथ सि' हस्तिवर्षकस्मारणं पिच्छिग्जमाणे पिच्छिज्जमाणे बयणमालासहस्सेहिं अभि 'यगयर सि' सेमासचाहमस्मारणं तथैव पूर्ववत्, स्ना. नविधिभूषणविधिसम्योपस्थितिहस्तिरमोपागममानि वा. धुबमाणे अभियुष्यमाणे हिमयमालासहस्सेहिं उमंदिज च्यानि, मानगिरियासरशंगजपति नरपतिराकदवान् । माणे उमंदिजमाणे अयोरहमालासहस्से विच्छिप्पमा-! अथ मस्थिते भरपतीपुरतः के पछतः के पार्श्वन Page #1490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह " 1 3 प्रस्थितयन्त इत्याह- तप णं इत्यादि, ततस्तस्य भरतस्य राश श्रभिषेकयं हस्तिरत्नमारूढस्य सत इमान्य मलकानि पुरतो धानुयथाक्रमं संस्थिता निता तिला पूर्वी कमङ्गलकानि प्राधानि यद्यप्येकाधिकारप्रतिबद्धनाथयस्याधिकारस्य सिपादिसूत्रनवृतिरता यावतॄिणां सम्मोहाय स्यादिति प्रत्येक 35लापकं वृत्तिर्लिक्यते इति, 'तवणंतरं च ' इत्यादि तदनन्तरं च पूर्णजलभृतं कलशभृङ्गारं कलशः - प्रतीतः भृङ्गारः - कनकालुका, ततः समाहारादेकवद्भावः इदं व अपूर्ण मूर्तिमयं तेनारूपामङ्गलान्तर्गत कालो मिचः दिव्येव दिव्या-प्रधाना मुच्चये. स च व्यवहितसम्बन्धः छत्रविशिष्टा पताका च यावत्पदात् सामरा दंसणरश्र आलो श्रइरिसणिजा वामविजयजयंती अम्मुखिया गगरातलमहिंती पुरश्रों अहाणुपुब्वीप इति प्राह्यम् अत्र व्याख्यासवामरा - बामरयुक्ता दर्शने प्रस्थातु रचिता मङ्गल्पश्वात् अत एवाऽऽलोके - बहिः प्रस्थानभावि नि शकुनानुकूल्या लोकने दर्शनीया-द्रष्टुं योग्या तो विशेषणसमासः काऽसावित्याह-वातोद्धूता विजय सूचिका वैजयन्ती पार्श्वतो लघुपताकाद्वययुक्तः पताकाविशेष अत्युसे लथाऽदयः पदार्थाः पुरतीयानुपू संप्रस्थिता इति ' तर ' इत्यादि ततो वैडूर्यमयो 'भि संतति दीप्यमानो विमलो दण्डो यस्मिंस्ततथा या यत्पदात्पलम् फोरस्टमसमोसोदियं चन्दमंडलनिर्भ समूसिनं विमलं प्रायवतं पवरं सिंहासणं च मणिरयणपायपीट सपाउना जोगसमाउस बहुकंकरकम्मकरपुरिसपायपरिविण पुरो महावीर संपति • त. 1 1 1 व्यायामेन कोरण्टाभिधानवृक्षस्य माया पुष्पमालपोपशोभितं वन्द्रमण्डलनिमं समुत प्रवास मणिरत्नमयं पा दपीठंपदासनं परिस्तथा स्वः स्वकीयो राजसरक इत्यर्थः पादुकायोगः तेन समायु बहवः किङ्कराः - प्रतिकर्म पृच्छाकारिणः कर्मकराः- ततोऽन्यथा. विधारते व ते पुरुषाश्चेति समासः । पादातं - पातिसमूह. परिसर्पतिं स्यादेपुरतो यचानुपू संप्रस्थितं तप णं इत्यादि, ततः सप्त एकेन्द्रियरस्मानि पृथिवीपरिणामरूपाणि पुरतः संप्रस्थितानि तद्यथारत्नाऽऽदीनि प्रागभिहितस्वरूपाणि, चरत्नस्य व ए. केन्द्रियरस्न खएड सूत्रपाठादेवात्र भएनं तस्य मार्गदर्शकन] सर्वतः पुरः संवरणीयत्वात् अत्र च गत्यानन्तर्यस्य प कुमुपक्रान्तत्वादिति, तयणंतरं च णं णव महाणिहिश्रो पुरो' इत्यादि ततो नय महानिधयोऽग्रतः प्रस्थिता। पातालमा गम्यम्, अन्यथा तेषां निधिव्यवहार एव म सङ्गच्छते तचथा - नैसर्धः पाण्डको यावच्छङ्गखः सर्वे प्राम्बत् वा स्थावरायां पुरतो गतिः किन 5 " • न दिव्यानुभावेन था। अथ जङ्गमानां गतेरवसर इति तय पतरं च सोशल देव इत्यादि ततः पोड देवसहस्राः 9 " - " " 1 (१४१७) अभिधान राजेन्द्रः । " , भरह पुरतो यथानुपूय संस्थितांतरं च बत्ती इत्यादि, व्यक्तं तप गं' इत्यादि व्यक्तं, नवरं पुरोहितरत्नंशान्तिकरणे महाराद्दितानां मि 1 3 या वेदनशामक हस्त्यश्वरगमनं तु हयश्वसेनया सहैव विवक्ष्यते तेन नात्र कथनं, 'तर णं इत्यादि, त तो द्वात्रिंशत् ऋतुकल्याणिकाः - ऋतुषु पदस्वपि कल्याणि - काऋतुविपरीत पत्वेन सुखस्थानका स्पेन सदा कल्याणकारिण्यः न तु चन्द्रगुप्तसहाय पर्वत भूप पिडीतमा हारिनन्दनृपनीद्विपकम्याक पास्तासां सहस्राः पुरतः प्रथिताः समर्थविशेषणाद्विशेयं लभ्यते इति लक्षण गुणयोगाद्राजकन्या अत्र शेयास्तासामेवजन्मान्तरोपचितप्रकृष्टपुण्य प्रकृतिमहिम्ना राजकुलोत्पनिषद् यथोक्तलक्षण गुणसम्भवात् जनपदाप्रणीकन्यानामप्रेत नसूत्रेशामियानाय तासां सहस्राः पुरतो यथानुपूर्व्वा यथाज्ये लघुपर्यायं संस्थिता तथा द्वात्रिंशत्यति जनपदाप्रणीनां देशमुख्यानां कल्याणिकानां सहस्राः तथैवत्र परेकदेशे पदसमुदायोपचाराननजन दानरायो शेयाः, न चैवं स्वमतिकल्पितमिति वाच्यं, 'तावतीभिर्जनपदा प्रणीकन्याभिरावृतः । ' इति श्री ऋषभचरित्रे सा म्मत्यदर्शनात् तदनन्तरं द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशता पा त्रैः अभिनेतव्यप्रकाराः संयुक्त नाटकहस्राः पुरतो प धनुष्य प्रथमं प्रथमंदा पितृप्रतीकृतनाटकं ततस्तदनन्त रोहानाटक मिति सम्मस्थिताः तेषां चाक ता ता राजपरसह स्वस्थकम्याप किरणे प्रत्येकं करमोचनसमय समर्पित के कनाकसद्भावात् तथ णंतरं तिष्टि सट्टा स्यलया' इत्यादि । ततः त्रीणि सूपानां पूर्ववदुपचारात् सूपकाराणां शतानि षष्टानि षष्टय• धिकानि वर्षदिवसेषु प्रत्येकमेकैकस्य रसवतीवारकदानात् ततः कुम्भकाराऽऽद्या अष्टादश श्रेणयः तदवान्तरभेदाः प्रत्रे. यः ततः चतुरशीतिरश्वशतसहस्राः ततचतुरशीतिईस्ति शतसहस्राः ततः पचतिमनुष्यायां पदाती कोया पुरतः स्थिताः तत इत्यादि ततो बह राजेश्वर तलवराः यावत्पदात् 'माडंबिग्रको डुंबिय' इत्यादिपरिग्रहः। सार्थवाहतयः पुरतः सम्प्रस्थिताः अर्थः प्राग्वद रायांत दिसतो बहवोऽसि स एयष्टि दराडोसियस्तिमाहाः समाहितः अथवा असि पतिता इति एवमपि यथासम्भवमक्षरयोजना कार्या, नगरं कुम्ताचामराणि च प्रती तानि पाशा तोपकरणानि उत्स्तादिनानि या फलकानि सम्पुटिकानि यानि या धूतोपकरणानि वा पुस्तकानि शुभाशुभपरिज्ञानहेतुसमुदायरूपाणि तैलादिभाजनं हडको इम्मा दियाजनं ताम्बूलाथै पूगफला 3 दि भाजनं वा 'पोडग्गाहा दीविअगाहा' इति पदद्वयं सूत्रे दृश्यमानमपि संग्रहाचावायत्वेन न लिखि स्वयम् पीडनविशेषः दीपिका च स्वकीयैः२-- कारर्थयेा 6 1 स्वकैः २ कास्की 9 1 -- Page #1491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६८) अभिधानराजेन्द्रः। ध्यैः-पाभरणैः सहिता इति, अबद्धसूत्रे च पदानि न्यूना- यिनी--गत्यन्तरजनशीला गतिश्च येषां ते तथा तेषां प. धिकान्यपि लिपिप्रमादात् सम्भवेयुरिति तनियमार्थ संप्र. दव्यत्ययः प्राकृत्वात् . लालना--दोलायमानानि लाम सि' हगाथा सूत्रबद्धा कचिदादर्श उश्यते । यथा “ असिलट्ठिकुं- आर्षवादग्भ्याणि गललातानि--कण्ठे म्यस्तानि बरभूषा तचावे. चामरपासे अफलगपोत्थे । वीणाकूवग्गाहे. तत्तो णानि येषां ते तथा तेषां, तथा मूखभाण्डकं मुखाभर यहडप्फगाहे ॥१॥"'तय णं' इत्यादि, तो वहयो णम अवचूलाः-प्रलम्बगुच्छाः स्थासका-वर्णणाऽऽकारा अ. दण्डिनो दण्डधारिणः मुण्डिनः-अपनीतशिरोजाः, शिख. श्वालङ्काराः, अहिलाणं मुखसंयमनम् एताम्येषां सम्तीति रिडना-शिस्त्राधारिणः, जटिनो-जटाधारिणः, पिच्छिनो. मुखभाण्डकावचूलस्थासकाहिलाणाःमत्वर्थीयलोपदर्शनादेव मयूरादिपिच्छवाहिनः, हास्यकारका इति व्यक्त,खई-चूत. प्रयोगः, तथा चमरीगण्डैः-चामरदण्डैः परिमण्डिता क. विशेषस्तस्कारकाः, द्रवकारकाः-केलिकराः, चाटुकारकाः टियेषां ते तथा, ततः कर्मधारयस्तेषां. किरभूता ये बरत. प्रियवादिनः, कादपिका:-कामाधानकेलिकारिणः, 'कुछ: रुणा--वरयुवपुरुषास्तैः परिगृहीतानां दवरकितानामि. इमा' इति-कौकुच्यकारिणो भाण्डाः, 'मोहरिमा' इति-मु. त्यर्थः, अष्टोत्तरं सतं वरतुरगाणां पुरतो यथा पूा साखरा वाचाला असम्बद्धमलापिन इति यावत्, गायन्तश्च प्रस्थितम् । अथेभाः- तयणंतरं च णं इसिदंताणं सिमा गेयानि वादयन्तश्च वादित्राणि नृत्यन्तश्च हसन्तश्च रममा ताणं ईसितुंगाणं इसिउच्छंग उन्नयविसालघव लवंतागणं कं. माश्च भक्षादिभिः क्रीडयन्तश्च कामक्रीडया शासयन्तश्व. चणकोसीपविटनाणं कंवणमणिरयणभूसिनाणं बरपुरिपरेषां गानाऽऽदीनि शिक्षयन्तः श्रावयन्तश्च-इदं चेदं च परत् सारोहगसंपउत्ताणं गयाणं असयं पुरो प्रहारणुपुब्धीए परारि भविष्यतीत्येवंभूतषचासि श्रवणविषयीकारयन्तः संस्थिभं' ति, पिहान्तानां-मनारग्राहिनशिक्षाणां गजाना. जल्पतश्व-शुभवाक्यानि रावयन्तश्च शब्दान् कारयन्तः मिति योगाईपन्मत्तानां यौवनाऽऽरम्भवतित्वात् पितुमानाम् स्वजल्पिताम्यनुवादयन्त इत्यर्थः, शोभमानाश्च स्वयं शोभ. उच्चानां तस्मादेव उत्सत इयोन्सत-पृष्ठदेशः, षदुसरे यन्तः परान् पालोकमानाश्व-राजराजस्यावलोकनं कुर्वन्तः उन्नता विशालाच यौवनाऽऽरम्भवतियादेव तेच ते धवलजयजयशब्दं च प्रयुआनाः पुरतो यथानुपूर्ध्या पूर्वोक्तपाठ. दन्ताधेति समासोऽतस्तेषां, काश्चनकोशी-मुवर्णखोला त. क्रमेण सम्प्रस्थिताः, इह गमे कचिदाद” न्यूनाधिकान्यपि स्यां प्रविष्टा दन्ताः, अर्थ विषाणाऽऽख्या येषां ते तथा ते. पदानि रश्यन्ते इति,एवमुक्तक्रमेण औपपातिकगमेन--प्रथमो. पां, काञ्चनमणिरत्नभूषितानामिति व्यक्तं . वर पुरुषा-ये पारगतपाठन तावद् वक्तव्यं यावत्तस्य राज्ञः पुरतो महाश्वा:- भागेहका निषादिनस्तैः सम्प्रयुक्तानां सजिजतानां गजानागृह तुरा प्रश्वधरा अश्वधारकपुरुषाश्च उभयतो भरतोप. गजकलभानामहोत्तरं शतं पुरतो यथानुपू सम्प्रस्थितम् , बाह्यगजरत्नस्य द्वयोःपायो गा:-गजा नागधरा गज अथ रथाः-' तयणंतरं च णं सच्छत्ताणं सझयाणं सघं. धारकपुरुषाश्च , पृष्ठतो रथाः रथसजी:-रथसमुदायः , टाणं सण्डागाणं सतोरणवराणं सनंदिघोसाणं सखिखिदेश्योऽयं शब्दः, चः समुच्यये, भानुपा सम्पस्थिताः, णीजालपरिक्वित्ताणं हेमवयवित्ततिणिसकणगणिजुत्तदाअत्र यावत्पदसंग्रहश्चायं सवर्ण कसे नानानि, तत्राश्वाः - त. रुगाणं कालायससुकयणेमिजंतकम्माणं सुसिलिटुवत्तमयणंतरं च णं तरमल्लिहायणाणं हरिमेलामउल मलिअच्छाणं एडलधुरागां प्राइसवरतुरगसुसंपउत्ताणं कुसलगरच्छेचंचुचिमललिमपुलिसचखचवलचंचबगईणं संघणवग्गा असारहिमुसंपग्महिमाणं बतीसतोणपरिमंडिमाणं सणधावणधोरणतिवाजइणसिक्खियगईणं ललंत लामगलला. कंकडबसगाणं सचावसरपहरणावरणभरिश्रजुद्धसज्जाणं यवरभूसणाणं मुहभंडगोचूलगथासगमहिलाणचामरग- अटुसयं रहाणं पुरो अहाणुपुखीए संपट्टि अं " एडपरिमण्डिकडीणं किंकरवरतरुण परिग्गदिमा अट्टसयं इति , उतार्थ चेदं प्राक पनयरवेदिकाधिकारगतरर्थवर्णने , घरतुरगाणं पुरो प्रहाणुपुब्धीप संपट्टिनं ति, 'तदनन्तरं नघरमत्र विशेषणानां बहुवचननिर्देशः कार्यः, तत उक्तविशे*तरमणिहायणाणं ति ' तरोन्गो बलं वा तथा' मन षणानां रथानामष्टशतं पुरतो यथानुपूा सम्प्रस्थितम् । अ. मल्लि धारणे' ततश्च तरोमल्ली-तरोधारको बेगाऽऽविकृत् हा. थ पदातयः-'तयणंतरं च णं असिसत्तिकुंततोमरसूललउड यनः-संवत्सरो वर्तते येषां ते तथा, यौवनवन्त इत्यर्थः , भिंडमालधणुपाणिसर्ज पाइत्ताणीअं पुरो प्रहाणुपुब्बीए अतस्तेषां वरतुराणामिति योगः, 'वरमल्लिभासणाणं ति' संपत्थिअंति,' ततः पदास्यनीकं पुरतः सम्प्रस्थितं, कीश. कचित्पाठः। तत्र प्रधानमास्यवतामत एव दीप्तिमतां चेत्यर्थः, मित्याह-अस्यस्यादिनि पाणौ हस्ते यस्य तत्तथा. सज्जन हरिमेला वनस्पतिविशेषस्तस्था मुकुलं-कुमलं मलिका साप्रामादिस्वामिकायें, तत्रास्यादीनि प्रसिद्धानि , नवरं च विवकिलस्तद्वदक्षिणी येषां तथा तेषां ते शुक्लाक्षाणा- शक्तिर-त्रिशूलं शूलं तु एकशूलं 'लउड त्ति' लकुटो भिन्दिमित्यर्थः, 'चंचुचियंति'प्राकृतत्वेन चञ्चुरितं कुदिलगमनम्, पालः प्रागुक्लस्वरूप इति । अथ भरतः प्रस्थितः सन् पथि अथवा चञ्चु-शुकचचुस्तद्वद्धकतयेत्यर्थः, उचितम् उधि- यद्यत् कुर्वन् यत्रागच्छति तदाह-'तए णं' इत्यादि, नतः करण पादस्योत्पाटनं चम्चुश्चित्तं च तचलितं च विलास- स भरताधिपो नरेन्द्रो हारावस्तृतसुकृतरतिदक्षा यावद. धगतिः पुलितंच. गतिविशेषः प्रसिद्ध एव, पवंरूपा चलो' मरपतिसन्निभया ऋखा प्रथितकीर्तिश्चक्ररत्नोपदिष्टमार्गोंs. पायुराशुगस्वात् तच्चपलचश्चला-अतीव चपला गतिये। नेकराजधरसहनानुयातमार्गों यावरसमुद्रवभूतामिव मेदि. पांते तथा तेषां शिक्षितम् अभ्यस्तं लानं-गर्ताऽऽदेरतिक नी कुर्वन् २ सर्वर्ण सर्वद्युत्या यावनिर्घोषनादितेन युक्त इति मणं वल्गनं-उत्बाईनं धावन-शीघ्रगमनं धोरणं-गतिचा- गम्यं, प्रामाइडकरनगरखेटकर्वटमडम्बयावस्पतात द्रोणमुख. तुर्य, तथा विपरी-भूमौ पदत्रयन्यासा, पदत्रयस्योगमनं या पत्तनाऽऽश्रमसम्बाधसहसमरिहतां स्तिमितमेदिनीकां व. Page #1492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। भरह सुधामभिजयन् २ अग्र्याणि-बराणि रत्नामि प्रनीच्छन् २त. वाहिकाः, कारबाधिता वा शाखिकादयः शब्दाः श्रीऋष. हिव्यं चक्ररममनुगच्छन योजनान्तरिताभिर्चसतिभिर्वसन्२/ भनिष्क्रमणमहाधिकारे व्याख्याता इति ततो ध्याख्येया इ. यत्रैच बिनीता राजधानी तत्रैवोपागच्छती, तत्रागतःसन् ति। अथ ते किमवादिषुरित्याह-जय जय नन्दा!'. यवकरोत्तदाह-' उवागच्चित्ता' इत्यादि , व्यक्तं, नवरं वि. स्यादि पदद्वयं प्राग्वत्, भद्रं ते-तुभ्यं भूयादिति शेषः , मीताया राजधान्या अष्टमभक्तमित्यत्र चिनीताधिष्ठायकदेव अजितं प्रतिरिपुंजय जिनम-आझावशंवदं पालय. जितम. साधनाय विनीतां राजधानी मनसि कुर्वन २ अष्टमं परिस ध्ये प्रामावशवदमध्ये वस-तिष्ठ विनीतपरिजनपरिवृती मापयतीत्यर्थः मन्विदमष्टमानुष्ठानमनर्थक. बासनगर्याश्चक- भूया इत्यर्थः, इन्द्र इव देवानां-वैमानिकानां मध्ये ऐश्व. पतिनां पूर्वमेष वयस्वात् , उच्यते-निरुपसर्गेण वास. यभृत् , चन्द्रव ताराणां-ज्योनिष्काणां चमर पासुराणां स्थैर्यामिति । यदाह-निरुवसम्गपच्चयस्थं विणी राय. दाक्षिणात्यानामित्यर्थः, एवं धरण व नागानामित्यत्रापि हाणि मणसी करेमाणे २ अट्टमभत्तं पगिराहा 'इति प्राकृत शेयम् , अन्यथा सामान्यतोऽसुराणामित्युक्ने बलीन्द्रम्य माऋषभचरित्रे, प्रथाएमभक्कसमाप्त्यनन्तरं भरतो यच्चकेत. गानामित्युक्ते च भूताऽऽनन्दस्योपमानस्वेनोपन्यासो युक्तिमा. बाह-तएणं'इत्यादि, स्पष्टं , 'तहेव त्ति'पदसंग्रहश्वा. न् स्यात् . दाक्षिणात्येभ्य उदीच्यानामधिकनेजस्कत्वात् ,ब. ऽऽभिषेक्यगजसजनमज्जनगृहमजनाऽऽदिरूप:प्रथ विनीता हुनि शतसहस्राणि यावद् वढीः कोटीः वही पूर्वकोटाकोटी प्रवेशवर्षके लाघवायातिदेशमाह-तं चेव सब्ब 'इस्या. विनीताया राजधान्याः तुल्लाहमवगिरिसागरमर्यादाकस्य दितदेव सर्व वाच्यं यथा 'हेट्ठा'-अधस्तनसूत्रे विनीतां प्रत्या. केवलकल्पस्य भरतवर्षस्य ग्रामाऽऽकरनगरखेटकटमडम्ब. गमने वर्णनं तथा उत्रापि प्रवेशे वाच्यमित्यर्थः, मत्र विशेष. द्रोणमुखपत्तनाऽऽश्रमसन्निवेशेषु सम्यक् प्रजापालनेनोपार्जिमाह नवरं महानिधयो नत्र न प्रविशन्ति , तेषां मध्ये एकै कस्य विनीताप्रमाणस्वात् कुतस्तेषां तत्रावकाशः१, चतस्रः तं सलब्धं निजभुजवीर्यार्जितं, न तु नमुचिनेव सेवाऽधुपाय. लग्धं यशो येन स तथा ,' महया जाव ति' यावत्पदात् सेना अपि न प्रविशन्ति, शेषः स एव गमा-पाठी पक्रव्यः, कियत्पर्यन्तमित्याह-यावनिर्घोषनादितेन युक्तो विनीताया 'यणगीप्रचारतंतीतलतालतुडिअघणमुरंगपडप्पचारमा रघेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे ' इति संग्रहः । प्रा. राजधाम्या मध्यंमध्येन-मध्यभागेन यत्रेव स्वकं गृहं यत्रैव च भवनवराषतंसकस्य-प्रधानतरगृहस्य प्रतिद्वारं-बाह्यद्वारं धिपत्यं पौरपत्यम् । अत्रापि यावत्पदात्-'सामित्तं भट्टितं मतत्रैव गमनाय प्रधारितवान् चिन्तितवान्,प्रवृत्तवानित्यर्थः हत्तरगतंत्राणाईसरसणावचं कारमाणे पालेमायो त्ति'प्रा. प्रविशति चक्रिण्याभियोगिकसुरा यथा २ वासभवनं परिः ह्यम् , अत्र व्याख्या प्राग्वत् , विचर इति कृत्वा जयजयशकुर्वन्ति तथाऽऽह-तए णं' इत्यादि, ततस्तस्य भरत. नं प्रयुञ्जन्ति । अथ विनीतां प्रविष्टः सन् भरतः कि कु. स्य राशो बिनीतां राजधानी मध्यभागेन प्रविशतः अपि-- चन काजगामेस्याहतपणं से भरहे राया सायणामाला. बाढम् पके केचन देवा विनीता साभ्यन्तरवाहिरिकाम् भा. | महम्सेहिं पिच्छिजमाणे पिच्छिजमाणे 'इत्यादि, ततः ससिलसम्मार्जितोलिप्तां कुर्वन्ति , अध्यकके त मश्चाति भरतो राजा नयनमालासहस्त्रैः प्रेक्ष्यमाणः प्रेक्ष्यमाणः इत्या. मञ्चकलितां कुर्वन्ति , अप्येकके नानाविधगगवसनोमिछ दिविशेषणपदानि श्रीषभनिष्क्रमणमहाधिकारे व्याण्या. नवजपताकमण्डिताम् , अप्येकके ' लाउल्लोइश्रमहितां' तानीति ततो यानि, नवरम्-'अंगुलिमालासहस्सेहि दा. कुर्वन्ति, अप्येकके गौशीर्षसरसरक्तचन्दन दर्दरदत्तपश्चाङ्गलि. इजमाणे दाइजमाणे' इत्यत्र जनपदाऽगतानां जमानां पौर. तस्यादिविशेषणां कुर्वन्ति, कियधावदित्याह-यावद् ग. जनेगलिमालासहस्रर्दयमान इत्यपि, यत्रय स्वकं गृहंधवर्तिभूतां कुर्वन्ति , अमीषां विशेषणानामर्थः प्राग्व पिच्यः प्रसादः यत्रैव च भवनवरावतंसकं-जगद्वतिघासत्, अप्येकके हिरण्यवर्षे वर्षन्ति-रूप्यस्याघटितसुव. गृहशेखरभूतं राजयोग्यं घासगृहमित्यथैः, तस्य प्रतिद्वार र्णस्य वा वर्ष वर्षन्ति, एवं सुवर्णवर्षे रत्नवर्ष बजवर्षम् तत्रैवोपागच्छति, ततः किं करोतीत्याह-'उबागच्छत्ता-' प्राभरण वर्षन्ति , बजाणि-हीरकाणि, पुनः प्रविशतो इत्यादि, उपागत्य प्राभिषेक्यं हस्तिररनं स्थापयति, स्थापयि. राक्षो यदभूत्तदाह-'तपणं' इत्यादि, ततस्तस्य भरत स्वा च तस्मात्प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य च विसर्जनीयजनो हि स्य राज्ञो विनीता राजधानी मध्यंमध्येनानुप्रविशतः श्रृङ्गाट विसर्जनावासरेऽवश्य सत्कार्य इति विधिको भरतः षोडश काऽऽविषु. यावच्छन्दादत्र त्रिकचतुष्काऽऽदिग्रहः, महापथ देवसहस्रान् सत्कारयति समानयति , ततो द्वात्रिंशत पर्यन्तेषु स्थानेषु बहवोऑर्थिप्रभृतयस्ताभिरुदारादिविशेष राजसहस्नान, ततः सेनापतिरत्नगृहपतिरत्नाऽऽदीनि त्रीणि विशिष्टाभिर्वाम्भिरभिनन्दयन्तश्चाभिष्टुवन्तश्च एवमेवादि. सत्कारयति समानयति, ततःत्रीणि षष्टानि-पष्टयधिकानि धुरिति सम्बन्धः । तत्र नाटकाऽदिव्याख्या प्राग्वत् अ. सूपशतानि-रसवतीकारशतानि ततः-अष्टादश श्रेणिप्रश्रेणी. ततः-अन्यानपि बहून् राजेश्वरतलवराऽऽदीन सत्कारयति, यार्थिनो-द्रव्यार्थिनः कामार्थिनो-मनोज्ञशम्मरूपार्थिनः भो. समानयति , सत्कार्य संमान्य च पूर्णे उत्सवेऽतिथीनिव गार्थिनो-मनोक्षगन्धरसस्पर्शार्थिनः लाभार्थिनी-भोजन- प्रतिधिसर्जयति, अथ यावत्परिच्छदो राजा यथा धासगृहं मात्राऽविप्रापयर्थिनः ऋधि-गधाविसम्पदम् इच्छन्त्येषयन्ति प्रविषेश तथाऽ5-इत्थीरयणेणं' इत्यादि, खीरखेनथा ऋद्धयेषाः, स्वार्थिककप्रत्ययविधानात् ऋद्ध्येषिकाः कि. सुभद्रया द्वात्रिंशता ऋतुकल्याणिकालात्रिंशता जनख्यिपिका-परविदूषकत्वेन पापव्यवहारिणो भाण्डाऽऽदय: पदकल्याणिकासहौः द्वात्रिंशता द्वात्रिंशनर्नाटकसाः कारोटिका-कापालिकाः ताम्बूलस्थगीयाहका घा, करं- साई संपरिवृतो भवनवरावतंसकमतीति-प्रविशति, प्राक. राजदेयं द्रव्यं षान्तीत्येवंशीला कारवाहिनस्त पर कार- रणिकस्वादनुक्कोऽपि भरतः कर्ता गम्यतेऽत्र चाक्ये, पथा ३६८ Page #1493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४७०) भरह अभिधानराजेन्द्रः। भरह कुबेरो-देवराजा धनदो-लोकपालः कैलासं-स्फटिकाचलं, भिसेत्रमंडवं विउव्वंति , प्रणेगखंभसयसमिविटुं जाव किंलक्षणं ?-भवनवरावतंसकं शिखरिहं गिरिशिखरं तद्भः गंधवट्टिभूध पेच्छाघरमंडववनगो सि, तस्स णं अभिसेमतंतस्सरशमुश्चत्वेनेस्यर्थः,लौकिव्यवहारानुसारेणायंरशान्तः, अन्यथाकुबेरस्य सौधर्मावतंसकनाम्न इन्द्र कविमानादुत्तरतो मंडवस्स बहुमज्मदेसभाए एत्थ णं मई एग अभिसे अपदं पक्गुधिमाने वासस्य धूयमाणत्वादागमेन सह विरुद्भयते। । विउम्बंति अच्छे सएई, तस्स णं अभिसअपेढस्स ति. प्रविश्य यश्चके तदाह दिसि तो तिसोवाणपडिरूवए विउबंति, तेसि ण ति. तए णं तस्स भरहस्स रमा अमया कयाइ रअधुरं चिते-| सोवाणपडिरूवगाणं अयमेप्रारूवे वसावासे पसते .जाव माणस्स इमेमारूचे जाव समुप्पअिस्था, अभिजिएणं मए तोरणा, तस्स णं अभिसेअपेढस्स बहुसमरमणिज्जे भू. णिगबलवीरिअरिसकारपरकमेण चुल्लहिमवंतगिरिसा मिभागे पामते , तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिगरमेराए केवलकप्पे भरहे वासे, तं सेअं खलु मे अप्पाणं भागस्स बहुपज्झदेसभाए एत्य णं महं एग सीहामहया रायाभिसरणं भभिसेरणं अभिसिंचावित्तए त्ति कटु सणं विउध्वंति, तस्स णं सीहासणस्स अयमेारूवे एवं संपेहेति, संहिता कल्लं पाउप्पभाए. जाव जलंते जेणेव वामावासे पलते जाव दामवमगं समत्तं ति । तए मजणघरे जाव पडिणिक्खमइ,पडिणिक्खमित्ता जेणेव बा. णं ते देवा अभिसेनमंढवं विउव्वंति, विउन्वित्ता हिरिभा उचट्ठाणसाला जेणेव साहासणे तेणेव उवागच्छद. जेणेव भरहे राया जाव पच्चप्पिणंति, तए णं से उवागच्छित्तासीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे णिसीप्रति,नि- भरहे राया प्राधिोगाणं देवाणं अतिए एअमटुं सोसीइत्ता सोलस देवसहस्से बत्तीसं रायवरसहस्से सेणावहर चा णिसम्म हतुह जाव पोसहसालानो पडिणिक्खयणेजाव पुरोहियरयणे तिमि सट्ठ सूअसए अट्ठारस सेणि- Bइ. पडिणिक्खमित्ता कोडंविमपुरिसे सहावेइ, सहाप्पसेणीमो मम्मे अ बहवे राईसरतलवर जाव सत्यवाहप्प वेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिमा ! भिभो सदावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी-अभिजिए णं देवा आभिसेक हत्थिरयणं पदिकप्पेह, पडिकप्पेता हयगणुप्पिया!मए णिभगवलवीरित्र जाव केवलकप्पे भरहे वा य नाव समाहेत्ता एप्रमाणत्तिभं पचप्पिणहजाब पसे तं तुम्भेणं देवाणुप्पिया! ममं महयारायाभिसभं विभरह, रचप्पिणंति . तए णं से भरहे राया मजणघरं अणुपतएणं से सोलस देवमहस्सा जावप्पभिइओ भरहेणं रमा विसह जाव अंजणगिरिकूडमलिभं गयवई णरवई दुरुएवं बुत्ता समाणा हद्वतुडकरयलमत्थए अंजलि कहु भरह. दे. तए णं तस्स भरहस्स रमो भाभिसेक हस्थिरयणं स्स रमो एमटुं सम्मं विणएणं परिसुणेति,तए णं से भरहे दुरूढस्स समाणस्स इमे अट्ठमंगलगा, जो चेव गमो राया जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता विणीअं पविसमाणस्स सो चेव णिक्खममाणस्स वि०जाव जाव अट्ठमभत्तिए पडिजागरमाणे विहरइ। तएणं से भरहे अप्पडिबुज्झमाणे विणीअं रायहाणि मज्झमज्झेणं णिराया भट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि अभियोगिए देवे सदाबेइ, गच्छदणिग्गच्छत्ता जेणेव विणीमाए रायहाणीए सदावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुपिया! विणी.| उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए अमिसेमंडवे तेणेव उवागआए रायहाणीए उत्तरपुरच्छिपे दिसीभाए एग महं अभि- गच्छइ , उवागच्छित्ता अभिसेअमंडबद्वारे प्राभिसकं सेप्रमण्डवं विउव्वेह, विउवित्ता मम एप्रमाणत्तिण पच्च- हत्थिरयणं ठावेइ, ठावेत्ता भाभिसेक्कामो हस्थिरयणापिणह, तए णं ते भोभियोगा देवा भरहेणं रया एवं वृत्ता। श्रो पच्चोरुहाइ, पच्चोरुहिता इत्थीरयणेणं बत्तीसाए उड्डुकसमाणा हतुहा जाव एवं सामि तिप्राणाए विणएणं व. लाणिमासहस्सेहिं बत्तीसाए जणवयकल्लाणियासहयणं पडिसुऐति, पडिसुमित्ता विणीपाए रायहाणीए उत्तर- स्सेहिं बत्तीसाए बत्तीसइबद्धेहिं णाडगसहस्सेहिं सद्धिं संपुरच्छिम दिसीभागं अवकमंति, प्रवक्कमित्ता देउधिनसमु. परिबुडे अभिसभामंडवं अणुपविसह, अणुपविसित्ता जेग्याएणं समोहणंति, समोहाणत्ता संखिआई जोभणाई दंड व अभिसेअपेढे तेणेव उवागच्छइ , उवागच्छित्ता भणिसिरति, तं जहा-रयणाण जाव रिद्वाणं अहाबायरे पुग्ग- मिसअपेढे अणुप्पदाहिणीकरेमाणे अणुप्पदाहिणीकरेमाले परिसाउँति, पडिसाडित्ता प्रहामुहुमे पुग्गले परिमादिनं- णे पुरच्छिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूबएणं दुरूहइ, दुरूहित्ता ति,परिश्रादिइत्ता दुचं पि वेउब्बियसमुग्घायेणंजाव समो. जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छा , उवागच्छित्ता हणात्त समाहाणत्ता बहुसमरमणि भूमिभाग विउब्धति,से | पुरस्थाभिमुहे समिसम ति । तए ण तस्स भरहस्स जहाणामए मालिंगपुक्खरेइ वा तस्स णं बहुसपरमणि- | रमो बत्तीसं रायसहस्सा जेणेव अभिसे अमंढवे तेअस्स भूमिभागस्स बहुमज्मदेसभाए एत्थ णं महं एग म- येव उवागच्छति, उबागछित्ता अभिसेसमंडवं म Page #1494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। पविसंति , भयुपविसित्ता अभिप्रद भणप्प- सहावित्ता एवं वयासी-खिप्पापेव भो देवाणुप्पिमा ! माहिणीकरेमाणा अणुप्पयाहिणीकरमैया उत्तरिल्लणं हस्थिखधवरगया विणीयाए रायहाणीए मिंघाडगतिगतिमोवाणपढिरूवएणं जेणेव भरहे राया तेणेव 'उवाग- चउक्कचचर जाव महापहपहेसु महया महया सदणं उग्योच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव अंजलि का भ- सेमांणा उग्धोसेमाणा-उस्मुकं उकरं उकिट्ठ अदिजंभमिज्ज रहं रायाणं जएणं विजएणं वद्धाति , वद्धावेत्ता भर- अभडपवेसं अर्दडकुदंडिम जाव सपुरजणवयं दुवालस. हस्स रखो बच्चासले पाइरे सुस्सूसमाणाजाव प- संवच्छरिनं पमोभं घोसेह घोसेह, ममेप्रमाणत्तिभं परच. 1, तए णं तस्स भरहस्स रखो सेणावइस्य- पिणह त्ति । तए णं ते कोथुविभपुरिसा भरहेणं रमा णे नाव सस्थवाहप्पभिईओ तेऽवि तह चेव णवरं दा- एवं वुत्ता समाणा हद्वतुट्ठचित्रमाणंदिया पीइमणा • हिणिलेणं तिमोवाणपडिरूवएणं नाव पज्जुवासंति, तए रिसबसविसप्पमाणहियया विणएणं वयणं पदिसुणे ति, णं से भरहे राया भाभियोगे देवे सद्दावेद, सदावता एवं पहिसुणेचा खिप्पामेव हस्थिखंधवरगया जाव घोसंति, वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! ममं महत्थं म- घोसित्ता पत्रमाणत्तिभं पच्चप्पिणंति । तए णं से भरो. इग्यं महरिहं महारायाअभिसे में उबट्टवेह , तए ण ते | राया महया महया रायाभिसेएणं अभिसित्ते समाणे भाभियोगिमा देवा भरहेणं रमा एनं बुला समाणा सीहासणामों भम्भुढेइ, अन्भुद्वित्ता इस्थिरयणेणं भाव हद्वतुचिचा जाब उत्तरपुरच्छिमं दिमीभागं अवकमंति, णाडगसहस्सेहिं साई संपग्खुिडे अमिसेअपेढामो पुरस्थिप्रवक्कमित्ता वेउन्चिमसमुग्धारणं समोहणंति, एवं ज- मिलेणं तिसोवाणपीडरूबएणं पचोरुहइ, पच्चोरुहिनामा हा विजयस्स तहा इत्थं पि० जाव पंडगवणे एगो मि- भिसेप्रमंडवानो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव. लायंति, एगो पिलाइता जेणेव दाहिणभरहे वामे | आभिसेक हस्थिरयणे तेणेव उवागच्छद, उवागरिछत्ता जणेव विणीमा रायहाणी तेणेव उवागच्छति, उबाग- अंजणगिरिकूडसलिभं गयवई जाव दूरूढे । तए णं तम्स कित्ता विणीमं रायहाणिं अणुप्पयाहिणीकरेमाणा भरहस्स रमो बत्तीसं रायसहस्सा भभिसेभपेटामो उ. मणुप्पयाहिणीकरमाणा जेणेव भभिसे अपंढवे जेणेव | तरिलेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पचोरुहति । तए णं तस्स भरो राया तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तं म. भरहस्स रमो सेणावइरयणे जाव सत्यवाहप्पभिईनो भ. इत्थं महग्यं महरिहं महारायाभिसेभ उवट्ठति , तए णं भिसेअपेढायो दाहिणिलेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पचोरां. तं भर गयाणं बत्तीसं रायसहस्सा सोभणसि ति- ति। तएणं तस्स भरहस्स रखो भाभिसेकंहत्थिरयणं वह हिकरणदिवसणखत्तमुहुरासि उत्तरपोढवयाविनयंसि ते- स्म समाणस्स इमे अट्ठमंगलगा पुरभो जाव संपस्थिमा, हिं साभाविएहि भ उत्तरवे उचिएहि अवरकमलपइट्ठा- जोऽवि अ अइगच्छमाणस्स गमो पढमो कुवेरावसायो येहि सुरभिवरवारिपडिपुओहिजाब महया महया रा- सो चेव हंपिकमो सकारजढो अव्वो जाप कुषेरो. याभिसेपणं अभिसिंचंति , अभिसेस्रो जहा विजयस्स, व देवराया केनासं सिहरि सिंगभ ति । तए णं से अभिसिचित्ता पत्तेनं पत्तेअंजाव अंजलिं कहु ताहिं भरहे राया मजणघरं अणुपविसइ , अणुपविसिता . इटाहि जहा पविसंतस्स भणिआजाब विहराहि त्ति कहुज- जाव भोषणमंडवंसि सुहासणवरगए अटुमभत्तं पाण्इ, यजयसई पउंजंति । तए णं तं भरहं रायाणं सेणावइरय- पारित्ता भोषणमंडवानो पदिगिक्खमा, पडिणिक्वपिशेजाव पुरोहियरयणे तिरिण अ सट्टा सूमसया भट्ठा- चा उप्पिं पासायवरगए फुडमाणेहिं मुइंगमस्थएहिं . रस सेहिप्पसेणीमो भरणे भबहवेजाव सस्थवाहप्प- जाव झुंजमाणे विहरइ । तए णं से भरहे राया दुवालसभिइमो एवं चेव अभिसिंचंति, तेहिं बरकमलपहाणेहि संवच्छरिमंसि पमोसि णिवत्तसि समाणंसि जेणेष तवजाव अभिथुणंतिम सोलस देवसहस्सा एवं चे- मजणघरे तेणेव उवागच्छद, उवागच्छिता जाव मज वरं पम्हमुकुमालाएजाव पउडं पिणद्धेति , तय- घराभो परिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव पाहियंतरं च णं ददरमलयसुगंधिएहिं गंधेहिं गायाई रिमा उबट्ठाणसाला जाव सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे अम्भुक्खेंति, दिव्वं च सुमणोदामं पिणदेंति , किं णिसीमा, णिसीमहत्ता सोलस देवसहस्से सकारेइ, स. बहुणा, गंठिपवेदिम जाब विभूसिभ करेंति, म्माणेइ, सम्माणिना पडिविसओइ, पडिविसजिता बत्ती. पए णं से भरहे राया महया महया रायाभि- सं रायवरसहस्सा सकारेइ, सम्माइ, सम्माणिचा सेसेएणं अभिसिंचिए समाणे कोडंविभपुरिसे सहावे, यावइरयणं सकारेइ, सम्मायेइ, सम्माणिचा जाब पुरो। Page #1495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह हिपरययं सकारे सम्म सम्मा एवं तिथि समू आरसए अट्ठारस सेखि प्प सेखीओ सक्कारेह, सम्माखेड, सम्माशिला अछे अ बढने राईसरतलवर जावसत्यवाइप्पभिभो सकारे, सम्मा सम्मादिता पडिविसजेति पडिबिस जेवा उपिपासायचरगर जाव विरह (सूत्रम् - ६८ 'त' इत्यादि ततः स भरतो राजा मित्रासि - सुह दः सजातीयाः निजकाः मातापि नाः पितृपाऽऽदय सम्बन्धिनःरा परिजनो दासादि बजाये कृते द्वितीया दिभिरापृष्य आपृष्य सम्भाषत इत्यर्थः, अथवा बि. रमत्वेन मित्रादीनुत्कण्डुलतया पश्यति स्नेहा बि. शोकपति, आयुश्य च बजे मज्जन साति उपागत्य च यावच्छब्दात् स्नानविधिः सर्वोऽपि वाच्यः, मज्जनगृहात् प्रतिनिष्क्रामतीत्यादि प्राग्वत्। अत्र च बाहुबल्यादिनवनवति भ्रातुराज्यानामात्मसात्करणपूर्वकं चर तस्याऽबुधशालायां प्रवेशन सम्बत्र प्रसिद्धमपि सूत्रकारस मोमिन इति । एवं विहरतस्तस्प दाहतं इत्यादि, ततः तस्य भरतस्य राज्यधुरं वितयतोऽम्पदा का विशेषणविशि सङ्कल्पः समुद्रपचत, स च कः सङ्कल्प इत्याह-' अभिजिद इत्यादि अभिजितं मया निजरुपलवीर्य पुरुष कारण बुजदिमवद्विरिसागर मर्यादा केवलकल्प भवतु मामानं महाराज्याभिषे पेवितुम् अभिषेकं कारयितुम् इति कृत्वा भरतं जितमिति विचार्य एवं राज्य विचारयति बासर कालीन कार्यमा संहिता इत्यादि व्यक्रम्' सिंहासने निषद्य यचक्रे तदाह- निसीइत्ता' इत्यादि क यं किमवादीदित्याह अनिष्ट संहायादि अ मिजितं मया देवानुप्रिया ! निजक बलवीर्य पुरुषकारपरा मेरा दिमागरमर्यादया केवलक " 1 देवानुप्रिया ! मम महाराज्याभिषेकं वितरत कु त्यर्थ आवश्यक त्या सुरमतं महाराज्याभिषेकाय विज्ञपयामासुर्भरता तदनुमेने अस्ति अयं विधेयञ्जनव्यवहारो परप्रभू समयावधी स्वय मेयोपति सत्यप्येवंविधे करने यरतस्यानुचर दीनामभिषेकज्ञापनमुक्तं तद् गम्भीरार्थकत्वादस्मा मन्दमेधसामनाकलनीयमिति । अथ यथा ते अङ्गीचकुस्तथाऽऽह तप णं' इत्यादि, ततस्ते षोडश देवसहस्राः यावत्सहसाऽऽदिपरिग्रहः परादिसार्धपाइनइतिभयुक्तो " (१४७२) अभिधान राजेन्द्रः । - " 'चिदर्शनमपि पूर्णतदधिकारसूत्रदर्शक, तेन इदयानि करत परिगृहीतं दशनखं शिरस्यावर्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा भरतस्य राइ एतम् अनन्तरोदितमर्थ सम्यग् - विनयेन प्रति यति कुर्वन्ति अलामलामा कृषिललिताला राज् चितवन भरतो यदुपचक्रमे तीति ' 1 भरह इत्यादि प्राग्वत् 'तर णं से भरहे ' इत्यादि ततः भरतो परिणमति पनि अभियोग्यान दे शब्दयति, शब्दयित्वा च एवमवादीत् किमवादीदित्याहप्रमेय मी देवानुप्रिया माया रा जधान्या उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे ईशानकोणे इत्यर्थ, तस्या त्यतास्तस्थात्, अभिषेकाय मण्डपः अभिषेकमण्डपस्तं विकुर्यत विकुनामा प्रत्ययत " दि. या देवा भने राम्रा मुसतो. पदमावत् एवं स्वामित्वमादि शत माइया स्वामिपादानामनुसारेण कुम् इत्येवंरूपेण वि. भयेन वचनं प्रतिशृण्वन्ति अभ्युपगच्छन्ति, 'पडिसुनित्ता' इत्यादि प्रतिभुत्य च विनीता या राजधान्या उत्तरार दिग्नागमप कामन्ति गच्छन्ति, अपक्रम्य व तेन- उत्तर वैक्रियकरणार्थक प्रयत्नविशेषेण समवनन्ति - श्रा देशान् दूरी विपिति स्वरूपमेव • , • यानि योजनानि दद:-ऊचचापतः शरीरखा यो जीवप्रदेशस्तं निजन्ति शरीरा बहिष्काति नित्य च तथाविधान् इति दे पनि नानांनादीनां राणं बेरुलिचाणं लोहियक्लाणं मसारगहाणं हंसगभां बोगन्धा राजा आपका का फलिदा इति संग्रडः सा पतिषां सम्बन्धिना यथावादश प्रसाद बापरिक्षातयति तारा - लान् पर्याददते- गृहणत्ति, पर्यादाय च चिकीर्षित निर्माणार्थे द्वितीयमपि वा पिसमुद्घातेन समवन्ति स मवइत्य च बहुसमरमणीयं भूमिभागं विकुर्वन्ति । तयथा-' से जहां सामद मालिंगपुक्खरे बा इत्यादि. सूत्रोऽर्थत प्राग्यत् नतु र पुला झदारिकास्ते च वैक्रिय समुद्घाते कथं ग्रहणा:, महान सारतापादान तुला तो वेति अथवा औदारिका अपि ते गृहीताः सन्तो वैक्रियतया परिणमन्ते, पुलामां तत्तत्सामग्रीवशात्तथातथापरिणमन भावादतो न कश्चिद्दोष इति पूर्ववैक्रियसमुद्घातस्य जी. प्रयत्नरूपत्वेन कमभावेनक्रिस्वात्कार्यास उच्य· · दाइ तर इस्पादितस्य बहुसमरमणीय भूमिभागस्य बहुमध्यदेशमागे अत्र सदान्तमेकमभिषेकमण्डप विकुर्वन्ति, अनेकस्तम्भवि यावत्पाद राजप्रश्री योपाङ्गगतसूर्याभदेवयानविमानवर्णको ग्राह्यः स च किय पर्यन्तमित्याह यावद् पर्तिभूतमिति विशेषणम् शत एव सूत्रकृदेव साक्षादाह-प्रेक्षागृहमराज पवर्णको ग्राह्य इति, एतत्सूत्रव्यास सिद्धाऽऽयतनाऽऽदिवर्ण के प्राग्दर्शिते इति ने. होच्येते । ' तस्स णं' इत्यादि तस्याभिषेकमण्डपस्य बहुम 1 देशमा अस्मिन् देशे महान्तमेकमभिषेकपीठं वि. कुर्वन्ति अच्छम् अस्तरजस्कत्वात् द्ां सूक्ष्म पुगलनिर्मित. स्वात्, ' तस्स णं ' इत्यादि, वापीत्रिलोपानप्रतिरूपक व क. पद वर्णग्या शेप पावतोयवर्णनम्। अथाभिषेकी Page #1496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह भूमिपर्णनादि प्रतिपादयचा तस्स इत्यादि स्वाभिषेकपीस्य परमयो भूमिभागः प्रमतय समभूभागस्य मध्ये एकं महत् सिंहासनं विकुर्वन्ति तस्य पासी विजयसिंहासन . " . को यक्ष तमाम सम्पूर्ण समसूयमिति शेषः पनमेवार्थ निगमयन्नाह तर गुं' इत्यादि ततोभरताऽऽज्ञानन्तरं ते देवा उक्तविशेषणविशिष्टमभिषेकमण्ड विकुर्वन्ति विकुष्यं भरतो राजा यावत्पदात् उद्यागस्कृति उनाग पंचायत इति ग्राह्यं तप णं इत्यादि, व्यक्तम, अथैतत्समयोचितं भ रतकृत्यमाद्द–' तए णं ' इत्यादि प्राग्वत् 'ल' इति, ततस्तस्य भरतस्य गत श्राभिषेक्यं हस्ति रत्न मारूढस्य सत मामलकानि पुरतः सम्यस्थित नीतिशेषः अथ अन्यलाधनार्थमतिदिशति एवं गोनां प्रतिशतः स एव तस्य निष्कामतोऽपि भरतस्य कियदन्तमित्याहयावर प्रतिबुद्धयन् २ विनीतां राजधानी मध्येमध्येन निर्गच्छति, शेषं व्यक्त, ततः किं चक्रे इत्याह-पत्रोरुद्दित्ता इत्थीरयणं इत्यादिकृतः स भरतो राजा स्त्रीरत्नेन सुभद्रया द्वात्रिंशा " ( १४७३ ) अभिधानराजेन्द्रः। 4 पदकल्याणिकासद्वानिटक सामपविशति अनुप्रविश्व पत्राभिषेक उपागत्य चाभिषेक पीठमनुप्रकुर्वन १ स्पाभिजनः शम् इति अभियोगिक सुमनस्तु युत्पादन तोशियमेष सृष्टिक्रमाच्च पौरस्त्येन त्रिसोपानकप्रतिरूपकेण श्ररोहति आरुह्य च यत्रेव सिंहासनं तयाग उपास्य पूर्वाभिमुखः क्षिषः सम्पम् वयेनोपमः अथानुचरा राजाइयो यधपस्तथाऽऽतइत्यादि ततस्तस्य भरतस्य राशो द्वात्रिंशद्राजसहस्राणि यत्रैवा भिषेकमण्डपः तत्यादिकं नमभिषेकपीड अनुप्रदक्षिणीकुर्वन्तः २] उच्चरत आरो " नव सृष्टिक्रमस्य जायमानत्वात् तपणं इत्यादिवाउसिद्धं, ' तप णं' इत्यादि, ततः स भरतो राजा अभियो ग्यान् देवान शब्दविवादमेो देवातुझिया ! महान् अर्थो मणिनाऽऽदिक उपयुक् मानो यस्मिन् स तथा तं महान् अर्धः - पूजा यत्र स तथा संमति महास्तं महाराज्याभिषेकमुपया पयत--सम्पादयत आशप्तास्ते यच्त्र क्रुस्तदाह-तपणं इत्यादि तत श्राज्ञप्त्यनन्तरं ते श्रभियोग्या देवा भरतेन राहा एवमुकाः सम्तो एचितेत्यादिरानन्दाऽऽलापको ग्राह्यः यावत्पदात्- करयल परिहि श्रं दसरा सिरसाबतं मत्थर अंजलि कट्टु एवं देवो तह ति आणाए वि. वय पडिसुति पडिसुता' इति ग्राह्यं व्याख्या प्राग्वत् श्रश्रातिदेशसूत्र माह एवम् इत्थंपकारमभिषेक सूत्रं यथा विजयस्य जम्बूद्वीपविजयद्वाराधिदेवस्तु पाने तथापि मितित्र सर्वाभिषेक. सामग्री वक्तव्या, सा बोत्तरत्र जिनजन्माधिकारे वक्ष्यते तस्मात्तथाचि स्थानापायें ३६६ " ་ " · शब्दचित प्रदर्शनार्थे कपिल या संस्कृतरूपमेव युक्रमिति तद सौवकिलानां तथा रूप्यमय कलशानां तथा मणिमयकलानामित्याद्यजातीयानाम् एवं भृङ्गाणामादशीनां स्थानानां पाषीणां सुप्रतिष्ठानां मनोगुलिकानात करकायां चित्ररत्नकरण्डकानां पुष्परीणां यावलीम स्तकां पुष्पपटलकानां यावज्ञो महस्तपटलकानां सिं. दासनानां त्राणां चामरायां समुद्रकानां ध्वजानां धूपकडुच्छुकानां प्रत्येकमसहस्रं विकुर्वन्ति विकुर्व्य च स्वाभवान् कितान पदार्थान या उदकमुकता भरतरा तयोर्मागचा ऽऽद्वितीयंत्र उदकं ततस्तयोर्महानदी · " ततः शमसादीनि तः पद्मपुङ्गवो रुकमुत्पलानि एवं प्रति वर्षे महानयो प्रतिवर्ष व सर्वत्र सर्व पुष्पाssदीनि च द्रहेषु च उदकोत्पलाऽऽदीनि वृत्तवैतात्यंषु च सर्वत्रादीनि विजयेषु तीर्थोदकं मृदं च वक्षस्कार गिरिषु सर्वत्रादीन् तथा अन्तरनदीषु उदकं सूत मे मशाल बने सर्ववराऽऽदीन् ततो नन्दनवने सर्वत्रा दीन सर व गीत सीमने सत्वरा दीन सरद सोमप डकवने सर्वत्र पुष्पदी ताकत एकत्र मिलन्ति पत्र मिलित्वा यत्रेव दक्षि 1 विनीता राजधानी पागच्छति उपागत्य विनीत राजपामा मण्डपो यंत्र व मरतो राजा पागच्छति उपागस्य च तत् पूर्वोकं महाथै महार्घे महाई महाराज्याभिषेकोपयोगास्करमुपस्थापयति-उपपति अथोत्तर कृत्यमाह-' तर ' इत्यादि, ततस्तं भरतं राजानं द्वाणि शोभने निर्दोषगुणपोष • fafùकरण दिवस नक्षत्रमुहनें तिथ्यादिपदानां समाहारद्वततसम्यकवचनं तत्र तिषारा , " यसो क्षत्रं - राज्याभिषेकोपयोगि श्रुत्यादि त्रयोदशनक्षत्राणामन्यतरत्, यदाह" श्रभिषिको महीपालः श्रुतिज्येलघु मृगानुरारिंशत भरह " यो मिश्रा तिथिः करणं विविदि 1 , मु सिविशेषमाह उत्तरपद उत्तरभाद्रपदा नक्ष तस्य विजयो नाम मुहूर्त्तः श्रभिजिदादयः क्षणस्तस्मिन . भावः-135 के शिवसे5टमक्षणः तल्लक्षणं वेदं ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धं" । यामी घ टिकादीनो याम घटिकाधिको विजयो नाम योगोऽ यं सर्वकार्यप्रसाधकः॥१॥" ततस्तैः पूर्वोः स्वाभाविकै इतरकियेध बरकमले आधारभूत प्रतिद्वास्थितिषां ते तथा तैः सुरभिषरवारिप्रति पूर्वैः, अत्र चंदकयवच पाकि · · हिरहिं अट्ठसहस्सेणं सोवशिश्रकल साव्जाव अस हस्से भोज्जाणं' इत्यादिको ग्रन्धो यावत्पदसंग्राह्य उत्तरत्र पिन Page #1497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४७४) मरह अभिधानराजेन्द्रः। जम्माभिषेकप्रकरणे व्याख्यास्यते तत्रास्य साक्षाद्दर्शितत्वात् , दसमुद्दिपाणंतगं कडिसुत्तगं वेअच्छगसुत्तगं मुरावं कंट बाक्यसकत्यर्थ च करणक्रियाविभागो दयते , उक्तविशेषण मुरवि कुडलाई चूडामणि चित्तरयणुकडं ति ।' अत्र व्या. विशिषैः कलशैः सर्वोदकसर्वमृत्सर्वोपधिप्रभृतिवस्तुभिर्मह. ख्या-गन्धकाषायिक्या सुरभिगन्धकषायद्रव्यपरिकर्मितया ता २-गरीयसी २ राज्याभिषेकेणाभिषिञ्चन्ति, अभिषेको लघुशाटिकया इति गम्यं, गात्राणि-भरतशरीरावयवान पचा विजयस्य जीवाभिगमोपाने उक्तस्तथाऽत्र बोद्धव्या , रुक्षयन्ति . रूक्षयित्वा च सरसेन गोशीर्षचन्दनेन गात्रा. अभिविख्य च प्रत्येकं २ प्रतिनृपं, यावत्पदात 'करयल परि- ण्यनुलिम्पन्ति, अनुलिप्य च देवष्ययुगलं निवासयन्ति. ग्गहिनं सिरसावतं मस्थए ' इति ग्राह्य. अञ्जलिं कृत्वा ता. परिधापयन्तीति योगः, कथम्भूतमित्याह-नासिकानिःश्वाभिरिशभिः पत्रापि 'कंताहिं जाव वग्गूहिं अभियंता य सवातेन बाह्य-दूरापनेयं श्लणतरमित्यर्थः, अयमर्थ:-श्रा. अभिधुणंता य एवं वयासी-जय जय गंदा जय जय भद्दा ! स्तां महावातः नासावातोऽपि स्वबलेन तनयुगलम् अ. भरते अजिभं जिणाहि' इत्यादिको प्रन्थस्तथा प्रायो यथा न्यत्र प्रापयति, बहरं रूपातिशयत्वात् , अथवा चतुर्द्धर बिनीता प्रमिशतो भरतस्यार्थिप्रमुखयाचकजनैराशीरित्या चक्षुरोधकं घनत्वात् , अतिशायिना वर्णेन स्पर्शन च युक्त यां गम्यं भणिता कियत्पर्यन्तमित्याह-यावद्विहरेति-कृत्वा हयलाला-अश्वमुखजलं तस्मादपि पेलवं-कोमलमतिरेकेण जप २रा प्रयुजम्ति, नन्वत्र सूत्रेऽभिषेकसूत्रं जीवाभिग. अतिशयेन अतिविशिष्मृदुत्वलघुत्वगुणोपेतमिति भाषा, मगतविजयदेषाभिषेकसूत्रातिदेशेनोक्तं, साम्प्रतीनतदीयाs. धवलं प्रतीतं, कनकेन चितानि विन्दुरितानि अन्तकर्मा. बशेषुब'भट्ठसपणं सोवक्षिप्रकलसाणं' इत्यादिश्यते , णि-मश्चलयोर्चानलक्षणानि यस्य तत् तथा प्राकाशस्फ. टिको नाम अतिस्वच्छस्फटिकविशेषस्तत्सरशप्रभम् महतं प्रत्रवृत्ती-'अटुसहस्सेणं सावसिकलसाणं'इस्यादि पर्शितं तत्कथमनयोर्न विरोधः?. उच्यते-जीवाभिगमवृत्ती दिव्यं निवास्य व हारं पिनह्यन्ति-ते देवाश्चक्रिणः कण्ठ. सामेष विभागतो दर्शयति, मासहस्रेण सौर्णिकानां कल. पीठे बनन्ति , 'एवं' इति पतेनाभिलापेनाईहाराऽधानि शानामासारण सप्यमयानां कल शामाम् मासहस्रेण म. चाच्यानि यावन्मुकुटमिति , तत्र हारार्द्धहारौ प्रतीतौ . ए. हिमयानामिस्यादिपाठाऽऽशयमात्र लिखितवान्न दोषः, यदि कावली प्राग्वत् , मुक्तावली-मुक्ताफलमयी कनकावली-कबाप कलशानामहोत्तरशतसत्यया स्यात्सदा तत्रैव सर्वस. नकमणिमयी रत्नावली--रत्नमयी प्रासम्बः-तपनीयमयो एण्या मरभिः सारित्युत्तरप्रन्योऽपि नोपपत, किंच. विचित्रमणिरतभक्तिचित्र प्रात्मप्रमाण प्राभरणविशेषः,अङ्गदे रएपमानतसूत्रे विकर्षणाधिकारे 'अटुसहस्सं सोवमिश्रक त्रुटिके च प्राग्वत् , कटके प्रसिद्ध दशमुद्रिकानन्तरकं-हं. जसाणंजाब भोमेजाणं' इत्यादि,अभिषेकक्षणे तु'भट्टसरणं स्तालिमुद्रादशकं कटिसूत्र-पुरुषकराव्याभरणं वैकश्यसोपविभकलसाणं 'इत्यादीग्यपि विचार्यम् । अथ शेषपरि. सूत्रकम्-उत्तरासर परिधानीयं-श्रृालकं मुरवी-मृदङ्गाऽऽ. दाभिषेकपकण्यतामाह-'सए णं' इत्यादि, ततो-वार्षिश. कारमाभरणं कण्ठमुरबी-कण्ठाऽऽसनं तदेव कुण्डले व्यक्त द्वाजसाक्षाभिषेकानन्तरं भरतं राजान सेनापतिरत्नं, याव. चूडामणिः प्राग्वत् , चित्ररत्नोत्कटं-विचित्ररत्नोपेतं मुकुट पदात् 'गाहापारयणे वडारयणे' इति प्राय,गृहपतिवद्धकि. व्यक्तम् । तयणंतरं च णं दहरमलय' इत्यादि, तदनन्तरं पुरोहितरममि त्रीणि च षष्टानि-पध्यधिकानि सूपशता. दरमलयसम्बन्धिनो ये सुगन्धा:--शोभनवासास्तेषां निप्राश श्रेणिप्रभ्रेणयः , अन्ये च बहवो यावच्छमात् गन्धः-शुभपरिमलो येषु ते तथा तैर्गन्धैः-काश्मीरकपुर राजेश्वरादिपरिग्रहः, ततो राजेश्वरतलबरमाडम्बियको. कस्तूरीप्रभृतिगन्धवद्रव्यैः प्रकरणाद्रसभावमापादितैरभ्युः इम्बिकेभ्यः भेष्ठिसेनापतिसार्थवाहप्रभृतय एवमेव-राजान क्षन्ति-सिञ्चन्ति ते देवा भरतं, कोऽर्थः ?--अनेकसुरभिः शामिषिधम्ति, तैर्वरकमलप्रतिष्ठानैस्तथैव कलशविशेषणा. द्रव्यमिश्रघुसणरसच्छटकान् कुर्वन्ति, भरतवाससीति भा. ऽदिक शेयं, यावदभिनन्दन्ति अभिष्टुवन्ति च, ततः षोडश- वः । कचित् , 'सुगंधगंधिपहिं गंधेहिं भुकुडं ति' इति पा. देवसरमा एवमेव-उक्लन्यायेनाभिषिञ्चन्ति , यनु आभियो. ठस्तत्र भूकडन्तीति-उधूलयन्ति , गन्धैः सुरभिचूर्णैः-सुर• गिकसुराणों परमोभिषेक: तरतस्य मनुष्यन्द्रखेन भिचूर्ण भरतोपरि क्षिपन्ति दिव्यं, चः समुच्चये, सुमनोदामनुष्याधिकाराम्मनुष्यकृताभिषेकानन्तरभाविश्वेनेति बोध्यं, म-कुसुममाला पिनह्यन्ति, किंबहुना ? , उक्लेनेति गम्यं , पहा-देवानां चिन्तितमात्रतदात्वसिद्धिकारकत्वेन पर्यन्ते 'गदिमवेढिम' यावत्पदात् परिमसंघाइमेणं चउब्विहणं तथाविधोत्कष्टाभिषेकविधानार्थमिति, ऋषभचरित्रादौ तु मल्लेणं कप्परुक्खयं पिय समखकिय त्ति' ग्राह्यम् , अत्र पूर्वमपि देवानामभिषकोऽभिहित इति । अत्र यो विशेषस्त- व्याख्या-प्रन्धनं प्रन्थस्तेन निर्वृत्तं प्रन्धिर्म, भाषाविमप्रस्य. माह-वरं' इति , अयं विशेषः-पाभियोगिकसुराणा यः, यत् सूत्राऽऽदिना प्रध्यते तत्प्रधिममिति भावः । मपरेभ्यो मिषेषकेभ्यः पवमलया-पचमवत्या सुकुमारया च, प्रथितं सष्यते यत्तत् वेष्टिम, यथा पुष्पलम्बूसको गन्दुक प्रत्रयापपरमाहामिदं 'गंधकासारसाए गाया लूति, स. इत्यर्थः, परिमं येन बंशशलाकाऽऽदिमयपजरादि पूर्यते रसगौलीसबंदणेणं गायाई अणुलिपति, अणुलिपित्ता ना- संघातिमं यत्परस्परतो नालं संघात्यते, एवंविधेन चतु: णीसासमायबोझ बक्खुहरं वसफरिसजुत्तं हयलालागेल- विधेन माल्येन कल्पवृक्षमिवालस्कृतषिभूषितं भरत. पारगं धवतं कणगखातकम्मं ागासफलिहसरिसप्प- चक्रिणं कुर्वन्ति ते देवाः । अथ कृताभिषको यच्चके तदाह. भं प्रायं वि देवदूसजुमलं णि अंसाति, णिसावेत्ता | 'तए णं' इत्यादि , ततः स भरतो राजा महता महता हारं पिणति , पिणवेत्ता एवं अद्धहारं पगावलि अतिशायिना राज्याभिषेकेणाभिषिक्तः सन् कौटुम्बिकपुरु. मुत्तावलि रयणावलि पालम्ब गयाई तुडिआई कया पान् शब्दयति,शम्पयित्वा चैवमवादीत् , तदेवाऽऽ-क्षिप्रमेव Page #1498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह भो देवानुप्रिया ! यूयं हस्तिस्कन्धवरगताः विनीताया राजयाम्याः शृङ्गाटकचतुष्कस्वरा 55दिषु प्रयातेषु आस्पदेषु मदता महता शोषयन्नोजस्तो ज ल्पन्नः अत्र शत्रन्तस्थापि अविवक्षणाक्ष कर्मनिर्देशः, श्र मी चिनम् उच्छुकंपा द्वादश संवत्सराः कालो मानं यस्यास्तीति द्वादशसंवत्सरिक प्रमोद प्रमो ब-यत घोषयित्वा च ममेतामाहसिक प्र स्वतादिपव्याच्या प्राग्वत्थ (१४७) अभिधान राजेन्द्रः । वथा प्रवृतवन्तस्तथाऽऽह ' तर खं' इति ततस्ते कौटु स्विकपुरुषा भरतेन राज्ञा एवमुक्ताः सन्तो दृष्टतुष्टचित्ताऽऽन. न्दिताः' हरिसबसति' हर्षवशविसहृदयाः विनयेन व प्रतियन्ति प्रतित्य च क्षिप्रमेव इनिकंचपरम ताः यावत्पदात् 'विर्णआए रायद्दाणीए सिंघाडगतिग इत्यादि कियदमिया-पाव घोषयन्ति घोषयि स्वा च एतामाशतिकां प्रत्यर्पयन्ति । अथ भरतः किं चक्रे इत्याह-' तर गं' इति, ततः स भरतो राजा महता महता राज्याभिषेके ग्राम सन् सिंहासनादभ्युतिष्ठति अभ्युत्थाय च श्रीरत्वेन यावत् पतीसार उकास इस्पे बसवाए जणवयकज्ञाधिसहरसेहि बसीसाए बस इति प्रा द्वात्रिंशता क सहस्रैः सार्ड संपरित पोरसवेन त्रिपा नप्रतिरूपके प्रत्यरोहति प्रत्यचरुह्याभिषे प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य च वास्तिर उपगत्य चानविरिकूटनिभं गजपति यावच्छब्दात् 'नरवर ति' ग्राह्यं नरपतिरारूढः, तदनु अनु चरजनो यथाऽनुवृतवांस्तथाऽऽह तप खं' इत्यादि, व्यलम्, अथ क्या युक्त्या चक्री विनितां प्रतिवेश तामाह 'तर 1 1 ' इत्यादि ततस्तस्य भरतस्य राम्र अभिषेक्यं हस्तिरत्नमारूढस्य सत इमान्यष्टाष्टमङ्गलकानि पुरतो यावच्छब्दाद्यथानुपूर्व्या संप्रस्थितानि, अत्र ग्रन्थविस्तरभयादतिदेशमाहयोऽपि चाप्रक्रमः परिपाटी प्रथमोऽधस्तनको भरतविनीताप्रवेशः कुबेर मानिस एव कम इद्दापि सरकारविरहितो मेलः। अयं भावः- पूर्व प्रवेशे षोडशदेवसनद्वात्रिंशद्वाज सहस्रादीनां सत्कारो यथा विहितस्तथा मात्रेति ग्रस्य च द्वादशवार्षिक प्रमोद निर्वर्त्तनोत्तरकाल एवावसर प्राप्तत्वात् । अथागमनानन्तरं पाहत से भर यो विधिस्तमाह-' गं राया मज्जणधरं इत्यादि, निगदसिद्धं प्राग् बहुशो निगदिसत्यात्वं प्रतिदिनं नवं नवं राज्याभिषेक महोत्सवं कारयतस्तस्य द्वादश वर्षाण्यतिक्रान्तानि शत्रुञ्जयमाहाम्याऽऽदौ तु राज्याभिषेकोत्सवस्थाने राज्याभिषेक एव द्वादशवार्षिकोऽभिहित इति अथ तदुसरकाले यत्कृत्यं तदाह-तरहस्यादि प्राग्वत् नतु भूमकर्स: पर्शुराम त्रिपादस्थानमेव चक तितेकरत्नानामनिपतत्पत्तिस्थानकत्वं तेन तु तप्रकरणे तेषां कौत्पत्तिरित्याशक्याऽऽह अथ चतुर्दशस्ना धिपतेर्भरतस्य यानि रत्नानि यत्रोदपद्यन्त तत्तथाऽऽद्दभरस्सरणोपकरमये १ दंडरग २ असिरपणे ३ 9 भरह , छत्तरयणे ४ । एते गं चचारि एगिंदियरयणे - उपरसाला समुप्पण्या चम्मरयये १ मणिरपये २ कागणिरवर्ग ३ व य महागिरियो । एए सिरिषरंसि समुप्पण्या सेणावरपणे १ गाहाबदस्यो २ बद्धरणे ३ पुरोहिअरयणे ४ । एए यं चतारि मधुरा विसीए राहाणी समुप्पा असरयये १ इत्थिर २, एए णं दुवे पंचिंदिवरयणा वेअड्डूगिरिपायमूले समुप्पच्छा, सुभद्दा इत्थीरयणे उत्तरिद्वार विजाहरसेढी समुप्पसे । (सूत्रम् - ६८ ) ' भरइस्स रराणो' इत्यादि, भरतस्य राशश्चाऽऽदीनि चरवार एकेन्द्रियत्नानि श्रायुधशालायां समुत्पन्नानि-ल ताकानि जातानि एवमुतरसूत्रेऽपि तेन रत्नादीनि नव महानिधयश्च एतानि - श्री गृहे-भाण्डागा· रेसमुत्पन्नानि यसताकानि जातानी 1 धयः शाश्वतभावरूपाः कथमुत्पद्यन्ते इत्याशङ्का निरस्ता । मनुपादाय स्थितस्तस्य नापि निचयोनि शम्मानीय परिभवन् ॥१॥ इति ऋषभचरित्रचनेन अत्रे पूर्वसूत्रेण च सन विरुध्य ते ? । उच्यते-- राज्ञां यत्र तत्र स्थितमपि कोशद्रव्यं कोश कथ्यत इति लौकिकव्यवहारस्य सुप्रसिद्धत्वात् न द चः सेनापत्यादिमनुजरत्नानि चत्वारि विनीतायां समुत्यचानि श्रश्वरत्ने हस्तिरत्ने पते द्वे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्रत्ने वैतायगिरेः पादमूले मूलभूमौ समुत्पन्ने, सुभद्रा नाम स्त्रीरत्नम् उत्तरस्यां विद्याधर श्रेण्यां समुत्पन्नम् । " अथ षट्खण्डं पालयंश्चक्री यथा प्रववृते तथाऽऽद्दतए गं से भरहे राया चउदसरहं रयणाणं यवराहं महाविद्दीयं सोलस एवं देवसाहस्तीयं बलीसाए रायसहस्साणं बत्तीसार उडुकल्लाणिसहस्सा बत्तीसाए जणवय कल्लागिआसहस्सायं बत्तीसाए बत्तीसहबद्धा बागसहस्यं नियहं सट्टीचं सूबारसवाणं अट्ठारसय सेपिसेगी चउरासीइए आसससदस्याणं चउरा सीइए दंतिसय सदस्साये चउरासीइए रहसयसहस्सा , उ९ मधुस्सकोडीवं बावचरीए पुरवरसहस्वार्ण बत्तीमाए जसवयसहस्सा बताउए गायकोडी - बाउए दोषमुहस्सा भटवालीसा पहा चब्बीसा सरस्सायं पउब्बीसाए मदसहस्सा बसाए मगर सहस्ताणं सोलसण्डं खेडसहस्सा पत्रदसएहं संवाहसहस्साणं छप्पछार अंतरोदगाणं एगूणपरजायं विशी आए रामदासीए चुम्लदिमवंतगिरिसागरमेरागस्स केवलकप्पस्स भरहस्स वासस्स अ • जान सत्याप्यभि ऐसिं च बहूणं राईसरतलवर देवचं पोरेव महितं सामि महनरगर्त भागाईसरमेयायचं कारेमा पालेमा ओहपथिन * Page #1499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७६ ) अभिधानराजेन्द्रः । भरह मिलिएसु सव्वसत्तुसु खिञ्जिएसु मरहादिवे परिंदे वरचंदचच्चिशंगे वरहाररश्रवच्छे वरमउडविसिडए व रवत्थभूसणघरे सव्वोउअसुर हिकु सुमन रमल्ल सोभित्र सिरे बराडगनाइजरइत्थिगुम्म सद्धिं संपरिवुडे सन्चोसहिसम्बरणसन्वसपिइसमग्गे संपुरणमणोरहे हयामित्तमा महणे पुष्त्रकयतवप्पभाव निविद्वसंचित्रफले झुंज मागुस्सए सुहे भरहे यामधे ति । (सूत्रम् - ६६ ) 'तर णं' इति, ततः - षट्खण्डभरतसाधनानन्तरं स भरतो राजा चतुर्दशरसाऽऽदीनां सार्थवाहप्रभृत्यन्तानामाधिपत्याऽऽद्दिकं कारयन् पालयन् मानुष्यकानि सुखानि भुङ्क्ते इत्यभ्यः, सबै प्राग्वत् व्याख्यातार्थे नवरं षट्पञ्चाशतोअन्तरोदकामां जलान्तर्वति स निवेश विशेषाणं न तु सम युग्ममनुजाऽऽश्रयभूतानां षटपञ्चाशदन्तरद्वीपानां तेषु कस्याप्याधिपत्यस्यासम्भवात् एकोनपञ्चाशतः कुरा क्यानां भिज्ञाऽऽदिराज्यानामिति, केषु सत्सु सुखानि भुङ्क्ते इत्याह-उपहतेषु विनाशितेषु निहतेषु च - अपहृतसर्वसमृ सिषु कण्ठकेषु - गोत्रजवैरिषु उद्धृतेषु - देशान्निर्वासितेषु मर्दि तेषु च मानहानि प्रापितेषु सर्वशत्रुषु श्रगोत्र अवैरिषु एत. सर्वे कुतो भवतीत्याह निर्जितेषु भग्नबलेषु सर्वशत्रुषु उक्त fiery अत्र सर्वशत्रुविति पदं देहलीप्रदीपभ्यायेनो भयत्र योज्यं, कीडशो भरत इत्याह- भरताधिपो नरेन्द्रः चन्द मेन बखितं समण्डनं कृतमङ्गं यस्य स तथा, वरधारेण रतिदं द्रष्टां नयनसुखकारि वक्षो यस्य स तथा, बरमुकुटविशि एकः, चूर्णे तु वरमउडाविहर' इति, तत्र आषिद्धए इति प्राषिद्धं परिहितं वरमुकुटम् श्रनेन स तथा प्राकृतत्वात् पदव्यत्ययः, वरवस्त्रभूषणः सर्वर्तुक सुरभि कुसुमानां मा स्यैः- मालाभिः शोभितशिरस्कः, बरनकानि पात्रादिसमुशः रूपाणि नाटकीयानि च नाटकप्रतिवदपात्राणि वरस्त्रीणां प्रधानत्रीणां गुश्मम् अव्यक्तावयवविभागवृन्दं तेन तृतीया लोप श्रार्षस्वात् सार्द्धं सम्परिवृतः सर्वोषध्यः पुनर्नवाऽऽद्याः सर्वरक्षा कर्केतनादीनि सर्वसमितयः श्रभ्यन्तराऽऽदिप दस्ताभिः समग्रः- सम्पूर्णः अत एव सम्पूर्णमनोरथः हतानां पुमर्थत्रयत्वेन जीवन्मुनानाम् श्रमित्राणां शत्रूणां मानम थनः, कीडशानि सुखानि भुक्के इत्याद· पूर्वकृत तपःप्रभावस्य निविष्टसंचितस्य - निकाचिततया संचितस्य तस्यैव भूव फलत्वात्, परनिपातः परस्याऽऽरवात् फलानि फलभूतानि, की भरत -भरते-अस्मिन् क्षेत्रे प्रथमभरताधिपत्वेन प्रसिद्धं नामधेयं नाम यत्र स तथा विशेष्यपदं तु तप ां से भरा इत्यत्रैवोक्तम्, अनेनैकवाक्ये द्विविशेष्यपदं कथमित्याशङ्का निरस्ता । अथास्य नरदेवस्य धर्मदेवत्वप्राप्तिमूल माहतर गं से भरहे राया अक्षया कयाइ जेणेव मञ्जण घरे सेवेव उवागच्छह, उवागाि०जाव ससि का पिदंसणे ree मजघरानो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेव आसघरे जेणेव सीहासणे तेणेत्र जत्रागच्छ, उबा For Private भरह गच्छिता सीहामणवरगए पुरत्थाभिमुद्दे णिसी, हिंसीइत्ता आदसघरंसि श्रत्ताणं देहमाणे २ चिट्ठर । तए सं तस्स भरहरूस रणो सुभेणं परिणामेणं पसत्येहिं अज्झ बसाणेहिं लेसाहिं विमुज्झमाणीहिं २ ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स तयावरिज्जाणं कम्माणं खएवं कम्परfarani gosकरणं पविट्ठस्स अणते अणुत्तरे निव्वाघाण निरावरणे कसिये पडिपूले केवलवरनाथदं सणं समुप्यसे । तए गं से भरहे केवली सयमेवाऽऽभरणालंकारं श्रमुइ, ओमुहत्ता सयमेव पंचमुट्टियं लोकरेइ, करेत्ता आयंसघ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता अंतरमज्मणं खिग्गच्छर, गिच्छित्ता दसहि रायवरसहस्सेहिं सद्धिं संपरिवुडे विणीचं रायहाणि मज्मज्भ्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता मन्मदेसे सुहंसुहे विहर, विहरित्ता जेणेव अट्ठावए पव्वते तेणेव उवागच्छ, वागच्छत्ता अद्वावयं पव्वयं सखि २ दुरूह, दुरूहित्ता मेघघसपिकासं देवसशिवायं पुढबिसिलावढ्यं पडिले - पडिले हित्ता संणा भूपणाभूसिए भत्तपाणपडियाsitae पाचगए कालं श्रणवखमाणे २ विहरइ । तए खं से भरहे केवली सत्चत्तरिं पुन्नसयसहस्साई कुमारवा समझे वसिता एगं बाससहस्सं मंडलियम व सिता छ पुव्वस सहस्साई वाससहस्वगगाई महाराय - म वसित्ता तेसी पुण्यस्यसहस्साई अगारवा समझे सत्ता एवं पुत्रसय सहस्सं देसूरागं केवलिपरिभायं पाउणित्ता तमेव बहुपडिपुलं सामापरिश्रायं पाउलित्ता चरासी पुत्रसय सहस्साई सव्वाउ पाउखित्ता मासि एवं भत्तेणं अपाण एवं सबसेणं णक्खते जोगमुत्रागणं खीणे वेणिजे श्राउए ।मे गोए कालगए वीइकंते समुझाए छिप जाइ जरामरणबन्धणे, सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिणिबुडे तगडे सन्चदुक्ख प्पहीये । इति भरतच किचरितं । (सूत्रम् - ७० ) ' तर ' इत्यादि ततो-वर्षसहस्रीनषट्पूर्वलक्षावधिसाम्राज्यानुभवनानन्तरं स भरतो राजा अभ्यदा कदाचिद्यत्रैव मज्जनगृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च यावच्छशीव प्रियदर्शनो नरपतिर्मज्जनगृहात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य स्ववेष सौन्दय दर्शनार्थे यत्रैवाऽऽदर्शगृहं यत्रैव च सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागस्य च सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखो निषीदति निषद्य बाऽऽदर्शगृहे श्रात्मानं प्रेक्षमाणः २-तत्र प्र. तिबिम्बितं सर्वाङ्गस्वरूपं पश्यन् पश्यंस्तिष्ठति शास्ते. अत्र च 'व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्तिः ' इत्यये सम्प्रदायो बोध्यः । तद्यथा ' तत्र च प्रेक्षमाणस्य स्वं वपुर्भरतेशितुः । अपा एकतमस्याः, निपपातकुलीयकम् ॥ १ Personal Use Only Page #1500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भैरह सल्यानि महीपतिः। नालासोपारामिवैकरूम ॥ २ ॥ धपुः पश्यन् क्रमेणेक्षां चक्रे तां च मूर्मिकाम् । अङ्गुलीं गलितज्योत्स्नां दिवा शशिकलामिव ॥ ३ ॥ विमा कमला लीति विचिन्तयन् । ददर्श पतितं भूमापनः ॥ ७ ॥ मियाम्यपि विशेोभयामरवीविंग इति मोक्तुं स आरंभे, भूषणान्यपराण्यपि ॥ ५ ॥ ' इति एवं प्रवृत्तस्य तस्य किमजनीत्याह-तप णं स्थापित वनभूषण मोचनानन्तरं तस्य भरतस्य राशः शुभेन परिणामेन - इ· "अन्तःस्पिपिडि मध्यस्य शरीरस्य न शोभनम् ॥ १ ॥ वंश तुरीप्रभूतम्यपि । दूषयत्येव पादपर्यायूपरभूरिव ॥ २ ॥ यत्प्रातः संस्कृतं धान्यं तन्मध्याह्ने विनश्यति । तदीयरसनिष्पन्ने कार्य का नाम सारता ? ॥ ३ ॥ " इति शरीरासारस्यभावनारूपया जीवपरित्या प्रशस्तेर रूपैः पश्यामः शुदि स्योपनि परिवृतिरूपासिद्धिवन्तीमि-उत्तरोत्तरव शुद्धिपद्यमानाधिगपद्यमानाभिर्निचरपुरुष - स्याः ( १४७७ ) अभिधानराजेन्द्रः । ● जी कमीहोमागायच कुर्यतस्तदावरीयानां केवल नदर्शनघातिकर्मणां ययदेशेभ्यः सदीयपुलपरिशाइने प्रावास्यातानु विशेषणविशिएं केवल ज्ञानदर्शन मुख्यसमिति कीदृशमित्या कर्म विकिविशेषस्य भरत पूर्वकम् अनादी संसारप्राप्तपूर्व ध्यानं शुक्रानं प्रविस्य प्राप्तस्येत्यर्थः श्रादिपदेषु समाहारद्वन्द्वः तत्राग्रहपूर्वक स्वाद । ऽऽदीनां प्रथमं तदुल्लेखः तथाहि श्रये ! इह निरलङ्कारे वपुषि शोभा न दृश्यते इत्यवग्रहः, यथा दूर पुरोवर्त्तिन वस्तुनि किमिदमिति भावः अथ सा होना औपाधिकी या नैसर्गिकी वा इत्यवगृहीतार्थाभिमुखा मतिये पर्यालोचनरूपा हा यथा तच स्था नम्वियं संशय । ऽऽकारतया संशय एच, स च कथमुत्तरकालभादिसम्पप्रिययापर्यायस्यापोदस्य हेतुर्भवति विकट वगाहित्यादिति । उच्यते - उत्कटकोटिक संशयरूपत्वेना. सम्भावनारूपाया निश्चयकारणत्वस्याविरुद्धत्वात् मोपाधिकवेदन नैसर्गिक वस्तुजस्य प्र त्यक्षसिद्धत्वात् इति ईहित विशेष निर्णय रूपोऽपोहः, यथा वासुन पुरुष इति अस्याः प्रकर्षापकर्षी बाह्यव स्तुप्रकोपक पशुविधायिनावित्यन्यय धर्माऽलोचनं मार्गणा यथा स्थायी निर्धतद वस्रसर्पाःसम्भ उसान भारभूतस्यास्य व पिरस्थिति गधेयं यथा तथैव शरा कण्डूयनाऽऽदयः पुरुषधर्मा न दृश्यते इति बेहादीनस्तरेषामोपादानयुदिनं स्यादिति तद्यम्य 1 केवलः किं करोतीत्याह - 'तर ' इत्यादि ततःकेवलज्ञानानन्तरं स भरतः शासनप्रकम्पावधिना शक्रेण केवलिन ! द्रव्यलिङ्गं प्रपद्यस्व यथाऽहं वन्दे विदधे च नि ३७० भरह 3 · फमोन्सपमित्युक्रः सन् स्वयंमेवारभूतसङ्कारं व माल्यरूपमवमुञ्चति-त्यजति अत्र भूषणाऽलङ्कारस्य पूर्व स्पकरपात् केालङ्कारस्य चत्विक्ष्यमाणत् परिशेषात् मालङ्कारयोः स्वयमेव प मुष्टिकं लोचं करोति कृत्वा व उपलक्षणात् सन्निहिदेवताऽर्पितम् साधुलियातितः श कन्दितः सन् ददात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क स्य च अन्तःपुरमध्ये निर्गत्य व दशमी राजसहस्रैः सार्द्ध संपरिवृतो विनीताथा राजधान्या म ध्यंमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य मध्यदेशे - कोशलदेशस्य मध्ये सुखसुखेन विहरति । तदनु किं विधत्ते इत्याह-विह रिता जे अट्टापइत्यादि विइत्य च प पर्वतस्तत्रैवागत उपाय पापः २ सुविद्दितगत्या दवदवस्स न गच्छिज्जा ' इति वचनात् आरोहति, आरा व घनमेघसन्निकाशं सान्द्रजलदश्यामं, पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात् देवानां सनिपातः- आगमनं रम्य स्वात् यत्र स तथा तं पृथिवीशिलापट्टकः-शासन विशेषतं प्रतिलेखपति, केपलरखे सत्यपि व्यवहारम णीकरणार्थ दृष्टया निभालयति प्रतिलिख्य च सिंहाय लोकन्यायेनात्रापि रोतीति शी क्रियते शरीरकषाऽऽयाद्यनयेति संलेखना - तपेोविशेषणलक्षया तथा जोपासेचना तथा जुष्टः सेवितो भूषितो वा-क्षपितः यः स तथा प्रत्याख्याते भक्तपाने येन स तथा, क्लान्तस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् 'पादोपगतः पादो-वृक्ष. स्य भूमतो मूलभागस्त स्वेवाप्रकम्पत थेोपगतम् अपस्थानं य स्य स तथा कालं मरणमनवकाङ्क्षन् श्रवाञ्छन् उपलक्षणज्जीवितमप्यवाञ्छन्, अरद्विष्टवाद विहरति । अथ स भरती यस्मिन् पर्याये पावन्तं कालमतिवाह्य निर्ववृते तथाऽऽह 'तप णं इत्यादि ततः स भरतः केवली सप्तसप्तति पूर्वशतः सहस्रावि कुमारवाकुमारमा उत्रि वानन्तरमेतावन्तं कालम् ऋषभस्वामिनो राज्यपरिपालनात् पकं वर्षसहस्रं मालिकराजा एकदेशाधिपतिः भाव धानत्वानिदेशस्य मालिक सम्मध्ये उपपद पूर्व सहस्राणि वर्षसहस्रीमानि महाराजमध्ये पि पित्याशीति पूर्वशतसहस्राणि भगारामध्ये ि इत्यर्थः उषित्वा वर्क पूर्वशतसहखन्न लिपर्यायं प्राप्य - पूरयित्वा गृहित्वे एव भावचारित्रप्रति पश्यनन्तरम् तदेव पूर्वशतसह सम्पूर्ण नाधिकमस्वर्थ भावचा रित्रस्यात्र विवक्षा न तु द्रव्यचारित्रस्य तस्य केवलानस्तरं प्रति आमश्वपय-पतित्वं प्राप्य चतुरशीति पूर्वाणि सर्वाऽऽयु परिपूर्व मासिके मास पवासेरित्यर्थः, अपानकेन-पानका ऽऽहारवर्जितेन श्रवणेन नक्षत्रेण योगमुपागतेन चन्द्रेण सहेति गम्यं, की वेदनीये आयुषि नानि गोत्रे च भवोपग्राहि कर्मचतुष्टयक्षये इत्यर्थः, काल इत्यादि इतिशब्दोऽधिकार परिसमामिद्योतकः ः । स चायम् -'से केण भंते ! एवं मरवा रहे वाले' इति सूत्रेण पृष् *"देवराया ओरपरिग्गदादि उवगरणमुवीयं मा० म० १ ० । 1 1 " " 1 , . , " - Page #1501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह गौतमस्य प्रतियन्त्रनाय ' तत्थ णं विणीआर रायहाणीए भ रहे या राया चारंतचकनही समुपस्थिइत्यादि सूत्रैर्भरत चरित्रं प्रपञ्चितं तच परिलमाप्तमित्यर्थः तेन भ रतः स्वामिश्येनास्यास्तीत्यादिवादइति निव शाद् भरतं क्षेत्रमिति तात्पर्यार्थः । (१४७८) अभिधान राजेन्द्रः । - अथ प्रकारान्तरेण नान्वर्धा भरडे इत्व देवे महिङ्गी पहजुर •जाब प लिए परिसर से एट्टेणं गोधमा ! एवं goat भरहे वासे भरहे वासे इति । अदुत्तरं च गं गोषमा ! भरइस्स वासम्म साससामपि प कयाइ आसि, कयाइ खत्यि, ण कयाइ ण भविस्सर, . च भव अ, मस्ति पुर्व विम्र सासर अक्खए अन्वर अडिए सिच्चे भरहे वासे । (सूत्रम् - ७१ ) भरतश्चात्र देवो महर्द्धिको महाद्युतिको, यावत्पदात् 'महायसे' इत्यादि पदकदम्बकं ग्राह्यं, पल्पोपमस्थितिकः पवसति तद् भरतेति नाम, एतेनार्थेन गौतम ! एवमुयते भरतं वर्ष भर वर्षे तु माम्यत् । उक्तं यौगि क्या नाम अथ तदेव रूढ्या दर्शयति-' अदुत्तरं इति चापरं चः समुचये से बाफपालङ्कारे मीतम ! भरतस्य वर्षस्य नाम निर्निमितकमनारिसि खराद्देवो फा5दिवस प्रसंशाम्यतरयमेव पादर्श यति--यन कदाचिन्नासीदित्यादि प्राम्यत् एतेन भरतनानश्यकिय देवाय भरतवर्षनाम प्र भरतवर्षात नीम भरतं स्वकीयेनास्यास्तीति निष्क्रवशेन प्रा ऽन्याऽऽश्रय दोषो दुर्निवार इति वचनीयता निरस्ता ॥ जं० ३ वा०]] (कालपव्यता उद्विता १६० गता) उत्तर भरतार्द्धविषयको महोपाध्याय श्री सुमतिविजयगख्रिशिष्यपण्डित गुणविजय गणिकृत प्रश्नो यथा दक्षिणभरता श्रीषभच उत्तरमरता कोऽपि सफलाहारकर्ता स मस्ति न पाये व नाममहं प्रसाद्यः भचक ताति इति प्र उत्तरम् - दक्षता यथाऽऽदौ नीनिप्रणेता ऋषभदेवस्तथोत्तर भरताद्वैऽपि नीति प्रणेताऽस्ति अत्रोसरभरवावेऽपि जातिस्मराऽऽदिमा क्षेत्राधिष्ठायक देवो वा कश्चित्तत्र भीतिप्रणेता, कालानुभावतः स्वतोऽपि वाकियनै यं जायते इति ॥ १ ॥ ई०३ प्रका० । भर तक्षेत्र सरफपखण्डनामाविषये परिविष्वर्थिविकृत श्नो यथा-भरत क्षेत्रसत्कषट्खण्डनामानि प्रसाद्यानीति ? त था- "जना य होइ पुच्छा, जिगाण मग्गम्मि उत्तरं तवा । इक्कस्ल निगोअस्स य, अनंतभागो उसिद्धिगओ ॥ ७ ॥ अ श्रीरम् भरतस्य दतिया गङ्गाि देशस्य गट्टानिष्टमित्यभिधानं २ङ्गः पूर्वद र्त्तिनो देशस्य गङ्गा निष्कुट खण्डमित्यभिधानं सिन्धुनीतः पश्चिमदिग्वर्त्तिनो देशस्य सिन्धु निष्कुटखण्डमित्यभि - धानम् ३ एवम् उत्तरार्द्धे चैतान्येव श्रीणि नामानि ज्ञातव्यानि इति । ७ प्र० । ही० ३ प्रका रतकूटस्थे स्वनामपाते देवे, पुं० । स्था० ६ ठा दो भरहाहिं । स्या० २ ठा०३३० । ब्राह्मी सुन्दरीभ्यां पाणिग्रहणं कृतं न वा १, केचन कथयन्ति । प्रज्ञा० । 147 । जं० भरतेन सुवाल परि कालाभ्यां भ्रतगंज क दिवाभ्यां श्ने, उत्तरम् - भरत बाहुबलिभ्यां विपरीततया पाणिग्रहणं कृत. मित्यक्षराणि आवश्यगिरिसन्ति भ्रातरेात्स नात्पतितया युक्ति ७२० से. न० ३ उल्ला० | चतुरशीतिलक्षपूर्वायुषां श्री ऋषभदेवेन सा मोक्षं गतानां भरतस्यान पनि गामयुपप मिति प्रश्ने उसरम् - बाहुवलेरिव यदि तेषामायुश्चतुरशीतिलक्ष पूर्वप्रमाणं कापि प्रत्ये प्रोक्तं स्यान्दा त स्कुलोपना दिव दाश्चर्यान्तर्भावान्न दोष इति । १२२ प्र० । सेन० ३ उल्ला० । सार्द्धत्रिकोट्यः पुत्रपैात्राः कृष्णस्य, भरतस्य तु सदादा को टिः, तत्र कालस्तु पतनशीलेोऽस्ति तत्कथमाधिक्यं सं जाघटीति प्रश्ने उत्तरम् - द्वारकानगर्यो सार्द्धत्रिकोटः कुमाराः प्रोक्लास्सन्ति ते पुत्रान स्वेकस्यैव कृष्णस्य भरतस्य तु सपादकांटिः पुत्रा इति न काव्यघटमानतेति । ३७६ प्र० । सेन० ३ उल्ला० । भरःकूड- भरतकूट न० । भरतदेवप्रासादावतंसकोपलक्षितं कूटं भरतकूटम् । जम्बूमन्दर दक्षिणभरत स्थदीर्घ चैताढ्यप तस्थे स्वनामख्याते कूटे, स्था० ठा० । जम्बूद्वीपस्थ पिकूडे जंबूद्वीप स्थहिमवद्वर्षधर पर्वतस्थे स्त्रनामख्याते कूट च। स्थान २ ठा० ३ उ० । • 1 भरवास - भरतवर्ष-न। भारते वर्षे वाच० । स्था० १० डा० रा० " हिमवंत सागरंतं धीरा मोल भरवाएं। " प्रश्न० ४ श्र० द्वार । भरडाहिवड़ - भरताधिपति पुं० । भरताऽऽदिके चक्रवर्तिनि प्रव० २०८ द्वार । भरदेसर- भरतेश्वर पुं० वैरस्यामिरी शालिभद्र शि जै० इ० । भरिश्र भूत त्रि० । स्मृते, " भरिश्रं लढिनं सुमरिनं । " भरिली पाइ० ना० १६४ गाथा भरिउल्लट्ट त्रि० । विकसिते "भरिउलटं च बोसङ्कं । " पाइ ना० १८५ गाथा | भरिम-भरिम त्रि० । भरणक्रियया निष्पादिते पूरिमे पिसलाSSयप्रतिमाऽऽदि के अनु० पृथ्याम् । भरिय भृत- त्रि० । व्याप्ते, " निरंतरं जतियं भरिवंसु । " वि. शे० । पूरिने, परिपूर्णे, रा० । प्रश्न० जी० । औ० न० । भाव० । घ० । भरखेन पिरिडते, श्र० 1 भरियकलस-भृतक कलश-पुं० जलपूर्णे घटे, "भरियो क सुंदरा पुरा । " २ ० भरियमेवणभृतवर्ग ५० - 1 जनपूर्णमेवमान ( कालवर्णे) तद्वति, श्रि० । उपा०२ अ० । भरिली - भरिली - स्त्री । चतुरिन्द्रियजीव मंदे, जी० १ प्रति० । Page #1502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव अभिधानराजेन्द्रः। भरुयच्छ-भरुकच्छ-न । जलस्थलनिर्गमप्रवेशे पत्तनभेदे , वा, द्रव्यभवः भव भ्रपणे हेतुरूपधनस्वजनाऽऽदिः, भावभव. आचा०१ श्रु०८० उ० | "भरुकच्छपुरेऽत्राऽसीदू . भूप श्चतुर्गतिरूपः जम्ममरगणादिलक्षणः,नयस्वरूपं च-द्रव्यनितिनेरवाहनः।"श्रा.क.४० आवश्रा०म०। क्षेपे यावत् नयचतुष्टयं. भावनिक्षेपे शब्दाऽऽदिनयत्रयं शेयम् । भरोच्छय-देशी-तालफले, दे० ना०६ वर्ग । १०२ गाथा। अत्र च भवमग्नानां जीवानां न धर्मेच्छा , इन्द्रियसुखाभल-स्म-धा० । चिन्तायाम् . " स्मरेझरझूर-भर-भल-ल. स्वादलीना मत्ता व निर्षिका भ्रमन्ति, दुःखोद्विग्ना. द-विम्हर-सुमर-पयापम्हुहाः" ॥८।४।७४॥ इत्यादि तस्ततः दुःखापनौदार्थम् अनेकोपार्यावन्तमव्याकुला भ्र. प्राकृतसूत्रेण स्मरतेर्भलादेशः। भलइ। 'प्रा. ४ पाद । मन्ति शूकरा इन, इति महामोघभवाम्भोधी किमन्यत् स. भलत-देशी-प्रस्खलति, दे० ना०६ वर्ग १०२ गाथा। बसिद्धिकरं श्रीमद्वीतरागबन्दनाऽऽदिकं कुर्वन्ति, इन्द्रियसु. खार्थ च नपउपवासनादिकानुष्ठानमाजन्मकृतं हारयन्ति भलुका-भलुवा-स्त्री०। जन्तुविशेषे, "भलुंका उठ्ठिया | निदानदोषेण,गणयन्ति मोह हेतुरूपजैनशासनदेवादि सुख विक्कडंति ।" संथा। हेतुरूपं व्यामुह्यन्ति ऐश्वर्याऽऽदिषु भवाब्धिमत्स्थाव मि. भल्ल-भल-धा। दाने , वधे. निरूपणे च । भ्वादि०-पर- ध्यावासिता जीवाः, तेन भवोद्वेग एवं करणीयः। सक०-सेट मिलति। श्रमजीत बावनक वाचा यत्रास्मसुखहानिः तस्य कोऽभिलाषः सतामिति ? "चोरोत्तिकाऊग भल्लएणाऽऽहया।" प्रा. म.१० । इत्येवोपदिशतिस्वार्थे कन् । मनके . jo।वा गौरा-सीए । तत्रैव स्वार्थ यस्य गम्भीरमध्यस्या-ज्ञानवजमयं तलम् । कन् । भन्नकाऽप्यत्र ।। रुदा व्यसनशैलौघैः, पन्यानो यत्र दुर्गमाः ॥ १॥ भल्वाड-भल्लात-पु० भलं भल्लालमिवातति स्पर्शिनम् । अत पातालकलशा यत्र, भृताः तृष्णामहानिलैः। अच् । एकास्थिके वृक्षभेदे , स्वार्थ कन् । वाचा मनातको यस्य भिल्लातकाभिधानानि फलानि लोकप्रमिद्धानि । कषायश्चित्तसङ्कल्प-वेलावृदि वितन्वते ॥२॥ प्रशा०१पद । गौ•जी । भल्लातकाऽप्यत्र । पाच स्मरौग्निज्वलत्यन्त-यंत्र स्नेहेन्धनः सदा । भखाय-भलात-न0 भिलावानामिन औषधे, " बिंबवयं भ. यो घोररोगशोकाऽऽदि-पत्स्यकच्छपसंकुलः॥३॥ माय । " पा० ना०१४८ गाथा। दुर्बुद्धिमत्सग्द्रोहै-विद्युदुर्भातगर्जितैः । भली-मल्ली-स्त्री० । कुन्ताऽस्य शस्त्रविशेषे, त्रिशूलाऽऽस्ये यत्र सांयात्रिका लोकाः, एतन्त्युत्पातसंकटे ॥ ४॥ शस्त्रविशेषे च । उत्त०१६ पाराशनिका यू०॥"अप्पणो ज्ञानी तस्माद्भवाम्भोधे-नित्योद्विग्नोऽतिदा गात्। अच्छी भलीए उक्त्रणिऊण।" नि.चू०१ उ०। मनकी-देशी-शिवायाम् . दे. ना०६ वर्ग १०१ गाथा। तस्य सन्तरणोपायं, सर्वयत्नेन काचति ॥ ५॥ . भव-भव-पुं०। भवनं भवः । भू-भावे अ । उत्पत्ती, स्था०४ यस्येति १ पातालेति २ स्मरौति ३ दुर्बुद्वीति ४ ज्ञानीति ठा०२ उ०। प्रश्न । ख्यापनायाम्, प्राप्त च । वाच.। ५ लोकपञ्चकं व्याख्यायते । ज्ञानी तस्य भवसमुद्रस्य स. भवन्ति कर्मवशवर्तिनःप्राणिनोऽस्मिचिति । भवः। "तुदादि- न्तरणोपायं पारगमनोपायं सर्वयत्नेन ' काकति 'इच्छति भ्यो णक"-इस्यधिकारे "अचित्तो वा " इति अप्रत्ययः। इत्यर्थः, तस्य कस्य ?, यस्य गम्भीरं मध्यं यस्य स गम्भीर. प्रा०म० अ०। मारकादिजन्म "पुनामिन-" ॥२३॥१३०॥ मध्वस्तस्य अप्राप्त मध्यस्य भवार्णवस्य अशानं जीवाजी. इत्यधिकरणे घः। नानारकाऽऽदिजन्मनि, मा० म०१०। वविवेकरहितं तवांधशून्यं मिथ्याशानं, तदेव घजमयं त. का । स्था। संथा।पंवा लं दुर्भदं यत्र भवाम्भोधौ, व्यसनशैलौषैः कष्टपर्वतसमूः चउबिहे भवे परमत्ते । तं नहा--णेरइयभवेजाव दे- रुद्धाः पन्थान:-मार्गाः सतिगमनप्रचाराः दुर्गमा-गन्तुमा बभवे । स्था०४ ठा० २० । शक्या भवन्ति , इत्यनेन अज्ञानतलातिगम्भीरमध्यस्थ सं. भवसूत्र कराव्यं, केवलं भवन भव उत्पत्तिरिये भयो मनुः सारपारावारेस्य रोगशोकवियोगाऽऽदिकपर्वतद्धमार्गस्य ज्येषु मनुष्याणां वा भयो मनुष्यभव पवमभ्यावपि । स्था० जन्तो सहगमनमशक्यं भवति । पुनः यत्र भवसमुद्रे क. ४ ठा० ३ उ. । भवन्स्यस्मिन् कर्मयशवर्तिनः पाया:-क्रोधमानमायालोभरूपाः पातालकलशाः तृष्णा कि प्राणिनः इति भवः। संसारे पं० सू०१ सूत्र" भवभाव भोय पपिपासा तपः महानिलैः भृताः, चितं-मनः तस्य स. सार।" भव संसारस्तत्र भवनं भावस्तस्मादिस्पर्थः। ल्पा अनेकजलसमूहाः नपा बेला-जलप्रवादरूश त. विश· । उत। स्था०। दर्श० प्र० । स्या० । प्रश्नादश। स्याः वृद्धि वेलागमनं • वितन्वते, ' बिम्तारयन्ति, स्य. पं. १०। प्राप० । पा० चू० । प्रातु। स्था० । द्वा० । नेन कषायोदयात् तृष्णावातपरपा विकल्पवेलां पय. "भवनिक्षपो यथा-"भवो चउब्धिहो नामादि, दब्बभयो। न्ति, भवजलधौ संसागम्बुधौ इति ॥ २॥ यत्र जन्ममरएगभधियादी भावभवो चउम्विहो संसारो।"प्रा०पू०१० समुद्रे स्मर:-कन्दर्पः तपः अन्तर्मध्ये और्वाग्निा-बाडभवोद्वेगवावश्यं मुमुसुणा विधेयः । अय भवौद्धगाष्टकम् धानलः उबलति, यत्राग्नीः स्नेहन्धनः स्नेहो-रागः स एव कर्मविपाकोद्विमभावात् संसारात् उद्विजनि. अतः भवोद्ध- इन्धनं-ज्वलनयोग्यकाष्ठसमूहः यस्मिन् अन्यत्र षड्याग्नी गाएकं लिख्यते , तत्र भामभवः रुद्राऽऽदिः, अथवा-त- जलन्धनम् इति, किंभूनः रागः पारागः घोररोगशोका ग्राम सालापरू स्थापनामवः खोकाकाशः तदाकारी उदयो मत्स्यकलपा ः साल व्यास इत्यनेन रागारिन. Page #1503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव , 9 लोकतापितागि पर्वको भना यत्र सांयात्रिकाः - प्रवहणस्था लोकाः अत्रापि व्रतनिय मादिपाता जीवा उत्पानकडे कड़े पति के दुप्रा बुद्धिः मत्सरः असहनसंयुक्ताहङ्कारः द्रोहः कापटपम् इत्यादय एव विद्युदुर्गातगर्जितानि तैः दुर्बुद्धिविना मरसर दुर्बलेन गर्जितेन बताऽदिताः प्रवर्तमाना अपि पवनात्पातान् समन्ते यमेन महाभारते मायापाता सम्मार्गमा तस्मात् प्रतिवादात् महा भयात् नित्योद्विग्नः सदोदासीनः तस्य सम्तरणोपाय स यादर्शचारिका (१४८०) अभिधानराजेन्द्रः । " भयभीत इव तिष्ठति चिन्तयति च मम शुद्धज्ञानमयस्य. परमतस्वरमण चारित्र पवित्रस्य रागद्वेषचयसमुत्यपरमरामशीतलस्य अनन्तानन्द सुखमग्नस्य सर्वस्य परमदक्षस्य, शरीराऽऽहारसमुक्तस्यामूर्त्तस्य कथं शरीराऽऽदिव्यसनसमूहमारभुता मुझ स्वचक्रियस्वं युज्यते नाईस शसला लकर्मा सजम्ममरणा चेतना मम कथमयं मद्दा मोहाऽवर्त्तः ? इत्युद्विग्नाः स्वरूपभासनरम रौ कत्वमनोहरं. स. म्यग्दर्शनप्रतिष्ठानं क्षान्त्यादिधर्माष्टादशशीला सहस्र विचि फलकमविघटनाविराजितं सम्यग्रहामनियम कान्ति सुखाधुसंसर्ग काय सूत्र निविडम्बनव. संघर की लगभग्न निःशेषाद्वारे सुत्रतामाधिकच्छेदोपखानमे अरम्यभूमिकाद्वयं पश्यतसाधुसमाचारकर मण्ड समन्ततोगुप्तित्रयप्रस्तरगुप्तम्, असंख्यशुभाध्यवसाय सन्नद्धः दुर्योधं योधसहस्रतुरखलोकं, सर्वतो निवेशितल दूगुरूपदेशव शनिकुरुमध्यमवस्थापित स्थित रानिशोधकूपस्तमस्तिष्माध्यवसायसितपदं वेददुपयोगपञ्जरदौवारिकं तदवाप्रमादनगरनिकरसमायु सर्वाङ्गसंपूर्णतया प्रवहणं चारित्रयानपात्रं तेन चारित्रम हायानपात्रेण संतरणोपायं कुर्वन्ति ॥ ५ ॥ तैलपात्रपरो यत् राचावेोधता यथा । क्रियास्वनन्यचित्तः स्याद्, भवभीतस्तथा मुनिः ॥ ६ ॥ तैलपात्रधर इति-यथा तैलपात्रधरः मरणभयभीतः अ प्रमत्तः तिष्ठति तथा मुनि स्वाभयभीतः संसारे अ प्रमस्तिष्ठति । प्रथा केनचित् राशा कञ्चन पुरुषं लक्ष गोपेतं बधाय अनुज्ञापितं तदा सभाजनैः विशप्तः स्वामिन् ? क्षमध्यमपराधं, मा मारय एनं तेन सभ्योक्तेन राज्ञा निवे दिसं यदा महास्थाखं तैलपूर्ण सर्वनगर अनेकन कषायसूर्याऽकुले तेलबिन्दुम पतन्तं सर्वतो भ्रामयित्वा श्रायातिला मारयामि यदिसतायतस्मि अवसरे प्राणापहारः करणीयः इत्युक्तोऽपि स पुरुषस्तरकार्य स्वीकार तथैवानेकजन संकुले मार्गे तैलस्थानं शिरसि , त्या सापेक्षयोगः पतितैलविन्दुः समागतः। सः अनेक सुखदुःखव्याकुले भवेऽपि स्वसिध्यर्थे प्रमादरहितः पुनःपति पथा स्वयंवरे कन्यापरिणयनार्थ राधाघोद्यतः स्थिरोपयोगतया लघुतालाघविकः स्थि.. भति तथा मुनि भीतः संसारसखरगणा धरणादिमहादुःखाद् भीतः क्रियासु समितिगुप्तिकरण सप्त तिकरणरूपासु अनन्य वित्तः भवति न अन्यत्र अपरभावे 1 भव चितं मनो यस्य स अनम्यचित्तः स्यात् एकाग्रमानसः भवति । उक्तं च 9 " गाइति सुरसुंदरीहि" पाहता समाईहिं । तह बिहु समसत्ता वा, चिट्ठति मुखी महाभागा ॥ १३ पयसिलायला. भावसिहि फाि उज्जलवेयण पत्ता, समचित्ता हुंति निग्गंधा ॥ २ ॥ आमिसलुद्वेण श्रणे, सीहेग् य दाढवक्कसंग हिश्रा । तहविहु समाहिपत्ता, संघरजुत्ता मुणिवरिदा ॥ ३ ॥ १६ ॥ कथमविपाके निर्भया निर्ब्रन्थाः ? इत्युपदिशन्नाह वि विषय पढेरेव यदीयम् । तत्सत्यं भवभीताना - मुपसर्गेऽपि यम भीः ॥ ७ ॥ " विषं विषस्य इति यथा-तिविपथाः विषस्य श्री. षधं विषमेव करोति, यथा- सर्पदष्टः निम्बाऽऽदिवन विभ सति, अथवा कचिद अग्निदग्धः पुनरपि अग्निदाहड वारणाय पुनः अग्नितापम् अङ्गीकरोति, इति तत्सत्यं यत् यस्मात्कारणात् भयभीतानां मुनीनाम् उपसर्वेऽपि भयं न कर्मक्षपणोधनस्य उपसर्गे बहुकर्मपत्यं मयान साधु सदुपचयं विदन् न भयवान् भवति, साध्य कार्यस्य निष्पद्यमानत्वात् इति ॥ ७ ॥ स्थैर्य भवभयादेव व्यवहारे निजे स्वाऽऽत्माऽऽरामसमाधौ तु, तदप्यन्तर्निमञ्जति ॥ ८ ॥ स्थैर्य भवेति- मुनिः तवज्ञानी ' भवभयात् ' नरकनिगोददुःखोद्वेगात् पत्र व्यवहारे एषणाऽऽदिक्रियाप्रवृत्तौ स्थैर्य वजेत् गच्छेत्, लभेत स्वाऽऽत्माऽऽरामसमाधौ स्वकीयाऽऽ. स्माऽऽरामः स्वचेतनः, तस्य समाधी ज्ञानाऽऽनन्दाऽऽदिषु तव्भवभयम् अन्तर्मध्ये निमज्जति लयीभवती, स्व एव विनश्य ति आत्मध्यानलीला लीनानां सुखदुःखे समानावस्थानां भयाभाव एव भवति इत्यनेन संसादर्शनरियासतो डीकृतयोगोपयोगः स्वरूपानस्या द्वादतस्यैकत्वसमाधिस्थः सर्वत्र समावस्थो भवति, " मो. दो मुनिस" इति पर्व स्वरू निर्भयश्वम् इति वस्तुस्वरूपावधारणेन विभावोत्यक्ष कमल संसारे परसंयोगसंभवे आम 'सत्ताभिने निर्वेदः कार्यः ॥ ८ ॥ इति व्याख्यातं भवोद्वेगाष्टकम् ॥ २२ ॥ अ० २२ अष्ट० । भवत्यस्मात् अपादाने अजमूर्तिधरे महादेवे जलस्य - थिवीत्वेन तपस्य शिवस्य जम्मतम् । पा ज्यो०] । पुष्करवरद्वीपस्थ मानुषोत्तर पर्वतस्य कूटस्थे स्वनामकयाते नागसुवर्णे, द्वी० । कर्त्तरि अच् । भव्ये, वाच० । विशे० । वृक्षविशेषे, मङ्गले च । वाच० । शिषे, “सूली लियो पिलाई, धासु गिरिलो भयो संभू । " पाइ० ना० २१ गाथा । भवं (त) भवतु सर्वनामा चा स्थ । भवान् भवत्याः पुत्रो भवत्पुत्रः । वाख० प्रा० शा०| "कहिं भवं वसति ।" अनु०|" भवद्भगवतोः ॥ ८६ । ४ । २६२॥ 3 मातुः - Page #1504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४e१) अभिधान राजेन्द्रः । भट्ठि " इति सूत्रेण शौरसेभ्यामनयोः सौ परे नस्य मः 1 " किं एत्थ भवं हिरण चिंतेदि । प्रा० ४ पाद । भूशत्रुः । वर्त्तमानकालार्थे, भवनकर्तरि च । स्त्रियामुभपत्र ङीप् । वाच० । शत्रस्तस्य नुम् । वाच ● | भवंत-भवान्त पुं० । भवस्य संसारस्यान्तो भवान्तः । भव नाशे, जं० १ बक्ष० । भवस्व संसारस्यान्तहेतुत्वाद् भवान्तः । भिक्षौ, 'भवक्षयाद् भवन्तिच 'भवक्षयात्संसारनाशात् । द्वा०२७ द्वा०| “नेरद्र्याइभधस्स वि घंतो जं तेणं सो भवतो” भट्टिइणिरूवण--भवस्थितिनिरूपण - न० । संसारस्थितिपस्था० ३ ठा० १३० । ( भयं खिवंतो भवंतो य ) भयं संसारं क्षपयन् भवान्तो भवति । दश०१० अ० नि० चू० । भवेतर भवान्तर- न० | जन्मान्तरे, सूत्र० १ ० १ ० १ उ० । कल्प० । "पच्छित्तं भवतरकडाएं | जन्मान्तरोपासानामिति । पञ्चा० ६ विष० । "घेएह भवंतरे जीवो " पं० ६० ४ द्वार । 13 भवंतिय- भवान्तिक न० । मरणे, " श्रहवा उक्कसिते भवं लिए। " सूत्र० १० २ श्र० ३ उ० । भवसार--भवकान्तार-न संसारारये " भवतारं ह कगीतो । " पञ्चा० ११ विव० । दर्श० । [..न० । संसारहेतौ द्वा० १४ द्वा० । भवकारण-भवकारण भ्रवक्खय- भवचय- पुं० । भवनिबन्धनभूतानां कर्मणां गयादीनां निर्जर, नि० १ ० ५ धर्म १ ० ॥ भ० औ०। विपा० । स्था० । कल्प० । भत्रगहण - भवगहन - पुं०। जम्मनाऽतिदुस्तरे संसारे, तुरशी तियोनिलक्षप्रमाणत्वात् । सूत्र० १० १२ अ० । भवगुण-भवगुपुं० तेषु तेषु स्थाने ति वारकाऽऽदिर्भवः, तत्र तस्य वा गुण। भवगुणः । गुणभेदे, स च जीवविषयः । तद्यथा-नारकास्तीयतरवेदनास हिष्वस्तिशसिन्धानिनोऽवधिमन्ता भवगुणादे भवन्ति तिषेध सदसद्विवेक विकला अपि सन्तो ग गनगमनलब्धिमन्तो गवादीनां च तृणाऽऽदिकमप्यशनं भाप मनुनाऽशेषकर्मक्षयो देवानां च सर्वशुभानुभावो भवगुणादेव । श्राचा० १० २ श्र०१ उ० । भवग्गहण - भवग्रहण - न० । भवस्य जन्मनो ग्रहणमुपादानं भवग्रहणम् । स० १ सम० । जन्मोपादाने भ० २५ श० ६ उ० । क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण कालः 'बन्धण 'शब्देऽस्मिन्नेत्र भांगे १२२६ पृष्ठे गाथाभिर्निरूपितः ) ? " भवचक्कपुर- भवचक्रपुर - न० । भवचतुर्गतिरूपचक्राऽऽत्मिका यामादिस्वकृतकर्मपरिणामनृपस्य राजधान्याम् " । , चक्रपुरस्थोऽपि न मूढः प्रतिविद्यते "अनादिस्वकृत कर्मपरिणामनृपराजधानी रूपभववतुर्गतिरूपचक्रोडगतः । अष्ट० ४ अष्ट० 1 भजल हि भवजलधि-- पुं० । संसारसमुद्रे, “भवजल हिपोयभूर्य" संसारसमुद्रस्थिकद्वार भव भवार्थ- पुं० [अब एवार्थो भयार्थः। भवरूपे प्रयोजने भ० १३ श० ४ उ० । भवद्वि-भवस्थिति स्त्री० भने वा स्थितिर्भव स्थितिः । भवकाला 53मके स्थितिभेदे. जी. २ प्रति० । ३७१ भवण '' दो भवट्टिई पत्ता, तं जहा- देवाणं चैव । नेशयेयाणं चैव ॥ देवनारकाणां भवस्थितिरेव देवाऽऽदेः पुनर्देवाऽऽदित् नानुत्पत्तिरिति । स्था० २ ठा० ३ उ० | भवट्टिइकाल- भवस्थितिकाल - पुं० । भवे एकस्मिन् स्थितिमेवस्थितिस्तस्था कालो भवस्थितिक सं० २ द्वार । लोचना"चा वि 39 ० भवख भवन- न० । भू भावे ल्युट् । भावे, जन्मनि वाच० । भवनं जन्मोत्पादः । श्रने० ३ अधि० । सत्तायाम्, विशेष | श्रावासे, " भवणं घरमावासो निलो बसही निदेलखं श्रगारं । पाइ० ना० ४६ गाथा | आधारे ल्युट् । गृह, श्रा चा० २ ० ३ ० तं । रा० । स्था० । शास्यादिविशेषिते चतुःशालाऽऽदिके गृह विशेष प्रश्न १० द्वार 1 स्था० भवनप्रासादयोः को विशेषः ? उपते. भवनमायामापेक्षया किञ्चिन्न्यूनोच्छायमानं भवति । प्रासादस्तु श्रायामद्विगुणोच्छाय इति । शा० १ ० १ ० 1 असु रादीनां दशानां भवन पतिदेव विशेषायां भवनभूमिकारूपे आवासविशेषे, श्राव० ४ श्र० । भवनानामावासानां वायं विशेषः - भवनानि बहिर्वृत्तान्यन्तः समचतुरस्राणि अधः कर्णिकासंस्थानानि । श्रावासास्तु कायमानस्थानीया महा मण्डप विचित्रमरप्रभाभासिता प्रव० १६४ द्वार । भवनान्यसुराऽऽवीनां विमानानीति । स० ३ श्रङ्ग । म० । प्रज्ञा० | दर्श० | जं० । भवनवासिनां भवनसंख्यामाह । सत्तेव य कोडीओ, हवंति बावत्तरी सयसहस्सा । एसो भवसमासो भव विषाणिजा | ११६१। 'भवनवासिनां देवानां दशस्वपि निकायेषु सपिण्ड्य चि. न्त्यमानानि सर्वाण्यपि भवनानि सप्त कोटयो द्वासप्ततिश्च शतसहस्राणि लक्षाः । एष भवनपतिनां भवनसमासो भवनसङ्ख्या इति विजानीयात् पतनि तिसहस्राधिकलक्षयोजनबाहल्याया रत्नप्रभायाश्चाध उपरि च प्रत्येकं योजन सहस्रमेकं मुक्त्या सर्वत्रापि यथासम्भ वमावासा इति । शेषेऽष्टसप्ततिसहस्राधिक लक्षयोजनप्रमाणे भागेऽवगम्यानि अन्य स्याडुर्नययोजन सहस्राणामधस्ताद् भवनानि । श्रन्यत्र च उपरितनमधस्तनं च । योजन सहस्रं मुक्त्वा सर्वत्रापि यथासम्भवमावासा इति । सम्प्रति भवनवासिनामेव प्रतिनिकायं भवनसख्यामाद 1 चट्टी असुराणं, नागकुमाराण होड़ चुलसीई । बावचार कणगाणं, वाउकुमाराय उई ।। ११६२ || दीवदिसाउदही, बिज्जुकुमारिंदथणियश्रग्गीणं । छपि जुमला, रिमो रस्सा ११६३। असुराणामसुर कुमाराऽऽदीनां दक्षिणोतरदिग्भाविन सङ्घस्यया भवनानि चतुःषष्टिशतसहस्राणि लक्षा भवन्ति । एवं नागकुमाराणां चतुरशीतिलक्ष | कनकानां सुवर्ण Page #1505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवणवइ । कुमाराणां द्विसप्ततिलक्षाः, वायुकुमाराणां पराणवनिर्लक्षाः, दीपकुमारामार कुमारस्तमितकुमारा कुमाराणां पामपि दक्षितर दिग्ववियुग्मरुपयां प्रत्येक पद सततिः भवन्ति भवनानाम्। पांच सर्वेषामप्येकत्र मीलने प्रागुक्ताः सइया भवन्ति । प्रस० १६५ द्वार । उक्तं चजोभयसहरसमेगं भोगाहिया भवनगराई | रणभाइ सन्चे, इक्कारस जोश्रखसहस्सा || ३२ ॥ तो चउरंसा खलु, श्रहियपखोहरसभावरमखिज्जा । बाहिरओ कि य वट्टा, निम्मलबहरामंधा सब्बे ॥ ३३ ॥ उकिमनगरफलिदा अतिरो भवयवासी । भवनगरा विरायं-ति कणगसुसिक्किलिट्ठपागारा |३४|| बरमझियामं दिवादि हिट्टा सहायलद्वेहिं । सोदिति पाये-दि विविधमभित्तिचिचेहि ||३५|| चंदापट्टि िय आसोसचमलवासेहिं । दारेहि पुरवरा क्लु, पडागमल्लाउरा रम्मा ॥ ३६ ॥ भोसाई, उमिद्धा इति ते दुपारस धूपघटियाउलाई गदामो३षिद्धासि ॥ ३७ ॥ जहि देवा भववई, वरतरूणीगीयवाइयरवेणं । निम्बडिया मुइया, गयंपि कालं न जायंति |३८| ६०५० . निवासिनि देवविशेषे, पुं० । आय० ४ श्र० । भवयगिद्दभवनगृह न० कुटुम्बियनगृहे २०३८० ७ उ० । भाखा० । भवनगृहं यत्र । कुटुम्बिनो वास्तव्या भव म्ति स्था० ५ ठा० १ उ० । भवच्छिद भवनच्छिद्र - न० | भवनानामवकाशान्तरे, प्रशा० २ पद । ( १२ ) अभिधान राजेन्द्रः । 9 भवणवासि (ण्) - भवनवासिन् पुं० । भवनेषु अधोलोकदेवा ssवासविशेषेषु वस्तुं शीलमस्येति भवनवासी । असुराSSदिके देवभेदे. स्था० २ ठा० ३ उ० । (ते व 'भवणवा' शब्देऽनन्तरमेव दर्शिताः) (पतेषां भवनाऽऽदिवक्तव्यता 'ठाण' शब्देव भागे १७०२ पृष्ठे गतः (द्वीपकुमार उदयः सबै समाहारा इत्यादिवव्यता' दीपकुमार' शब्दे चतुर्थभागे २५४२ पृष्ठे उक्का) भवयावास भवनावास पुं० भवनेषु भवनवास्यादिदेवाना मायासस्थानेषु प्रवासी भवनाऽवास भवनवास्वादिमननान्तर्वर्तिन्यावाले, स० ३४ सम० प्रा० । (भवनाऽऽवाल• योर्विशेषो भवण ' शब्देऽत्रैव भागे १४७६ पृष्ठे उक्तः ) मनभवननिष्ट पुंगवादिकये करिं भवशिब्वेय-भवनिर्वेद- पुं० संसारविरागे पञ्च०४ वि चिद् भवनप्रदेशे प्रचा० २ पद । 0 , 1 भवणपत्थड - भवनमस्नट- पुं० भवनपति निकायाऽऽवासस्था पान्तराले, प्रशा०२ पद् । भवयवमवनपति-पत ल० । न हि भवादनिर्विष्ठो मोक्षाय यतते श्रनिर्विशस्य तत्प्रतिबन्धात् । " भयवं भवणिव्वेश्रो ।" ध० २ अधि० । भवाव भवाय पुं० संसारसागरे, “भद्यतरंज्ञाणि शियमेण ।" पंचा० १ विघ० । भवतु भवन्तु पुं० तम्यते भयोऽनेनेति भवतः । भवतृष्णायाम् उत्त० १३ प्र० । भवत्थ-भवस्थ- त्रि० । भवन्ति कर्मवशवर्तिनः प्राणिनोऽस्मि' fafe भवः areersऽदिजन्म । भवे तिष्ठतीति भवस्थः "स्थाऽऽदिभ्यः०-"||५३८२ ॥ इति कः संसारस्थे, नं० । उत्त० । भवस्य केवलमायभवस्य केवलज्ञान-पति निः प्रतिमोमनिति भयो नाराजित भयो मनुष्यभव एव प्राह्यः, अम्यत्र केवलोत्पादाभावात् । भवेतिपुतीति भवस्थः। "स्थादिभ्यः कः ॥ ३८२॥ इति कः प्रत्ययः । तस्य केवलज्ञानं अवश्य केवलज्ञान केवल स्वमेषादि केवलाय दुतीयभावे६४७ पृष्ठे गतम्) मनो०१६४ द्वारा असुराऽविकेषु देवाख विशेषाधेषु देवाि०२ विष० । स्था ते च दश, तानेवाऽऽद्द असुरा १ नागा २ त्रिज्जू ३, सुवा ४ अग्गी अ५ बाउ ६ पथिया व ७ । उदद्दी ८ दीव है दिसा वि य १०, दस भेया ११ भवा ॥ ४३ ॥ ति तथा मदनवासिनामवान्तरजातिभेदमधिकृत्य मे असुरा इति परको वारा असुरकुमाराः । एवं नागकुमारा इत्याद्यपि भाव भवत्थकेवलनात नीयम् अथ करमा कुमारा इति व्यपदिश्यन्ते । उच्यते - कुमारवच्चेष्टनात् । तथाहि - सर्वे एवैते कुमाराङ्गाराभिप्राय कृतविशिष्ट सरीररूपक्रियासमुखतरूपवेष भाषाऽऽभरणप्रहरणावरण्यानवाहना अत्युपरागाः क्रीडनपराश्च ततः कुमारा इव कुमारा इति । गाथानुबन्धाऽऽनुलोम्या 55दिकारणाच्च कुलप ठिताः। प्रज्ञापनादयन्ते तथादि सुरा नागसुवा, विज्जू अग्गी श्र दोष उदही । दिलिपवण पणिश्रनामा. दसहा एए भवनवासी ॥१॥" प्रव० १६४ द्वारा । "एएस दसविहाणं भवणवासी देवाणं दसचेइयरुक्खा पत्ता । तं जहा - अस्सुसत्तिवमे, सामलिउंबर सिरीसदहिवसे | वंजुल पलासवप्पा-यए य कणियाररुक्खे य ॥ १ ॥” स्था० १० ठा० । मेवास्थाय सिद्धाना दिद्वारेषु श्रूयन्ते इति । स्था० १० ठा० । भवववर-भवनवर "प दुबारे । " भवनवरेषु भवनश्रेष्ठेषु अवतंसक इव मुकुट व भवनवरावतंसकस्तस्य प्रतिद्वारम् । कल्प० १ अधि० ३ क्षण। उत्त० । Page #1506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८३) भवभंग अभिधानराजेन्द्रः। भवविभत्ति "भवत्थकेवलनाणे दुविहे पामते । तं जहा-सजोगिभवत्थ- भवभमण-भवभ्रमण-न । संसारभ्रमणे, दर्श०४ तव । केवलणाणे नेव,अजोगिभवत्येकवलणारी चेव "स्था०२ भवभय-भवभय-न । संसारभीती, "णो विम्हनो ण भवठा. १ उ०। (व्याख्या स्वस्वस्थाने) भयं ।" पश्चा० ३ विव० । अष्ट। भवत्थजीव-भवस्थनीव-पुं० । भवन्ति कर्मवशवर्तिनः प्रा.भवभयहर-भवभयहर-पुं० । स्तम्भनकतीर्थस्थे जिने, ती० णिनोऽस्मिमिति भवस्तत्र तिष्ठतीति भवस्था, स चासो । ४३ कल्प। जीवधेति विशेषणसमासः । उसका संसारिजीवे. भवभव विगमणिबंधण-भवभवविगमनिबन्धन-न० । संसा. "पायं बंधो भवत्यजीवाणं ।" पत्रा०१६ विवः। रमोक्षयोः करणे, " भवभवविगमनिबन्धन-मालोच्यं शा. भवदंड-भवदएड-पुं० । संसारभ्रमणे, जी० २०। अधि०।। तचेतोभिः।" षो०१६ विव० । परभवे हस्तच्छेदनाऽऽदिके दराडे, यस्तीर्थकरगणधराऽऽदी. भवभवविगमविभेय-भवभवविगपविभेद-पुं० । संसारमोक्ष. नामाज्ञां भनक्ति तस्य परभवे हस्तच्छेदनाऽऽदीनि भवन्ती. | योदे, " भवभवविगमविभेद-स्तदा कथं युज्यते मुख्यः?" ति । व्य०६०। षो० १६ विव०॥ भवदिम-भवदत्त--पुं० । स्वनामख्याते साधौ, स्था०१० ठाभवमंडल-भवमएडल-न० । संसारमण्डले, "भवमंडलममभवदेव--भवदेव-पुं० । जम्बूस्वामिनः पूर्वभवनामधेये, दर्श०३ | ण दुक्खपारमुक्क।. | ण दुक्खपरिमुक्कं । " मण्ड। तव । ५० र० । स्वनामख्याते प्राचार्य, (तत्कथा 'पुरिसो. भवमग्ग-भवमार्ग-पुंग। संसारपथे, "तिनि हुँति भवमग्गा।" त्तम' शम्देऽस्मिन्नेव भागे १०५२ पृष्ठे गता दर्श० ३ तत्व। भवरोग--भवरोग-पुं० । संसारामये , "भवरोगसदोषधं भवधारणिज-भवधारणीय-नि। भवे धार्यते तदिति तं वा यदन पायम् ।" षो०६ विव०। भवं धारयतीति भवधारणीयम् । स्था० ४ ठा. ४ उ० । भ. भवलोय-भवलोक--पुं० । भव एव लोकः । लोकभेदे , पार पधारण निजजम्मातिवाहनं प्रयोजनं यस्य तद्भवधारणीयम्। म. २01 भाजन्मधरणीये, भ०१श०५ उ० । जन्मतो मरणा. वधि धारणीये, स्था०४ ठा० ४ उ० । भवे नारकाऽऽदिपर्या. अधुना ( भाष्य ) भवमभिधित्सुराहयलक्षणे प्रायुःसमाप्तिं यावत् ध्रियते या सा भधारणीया नेरइयदेवमणुया, तिरिक्ख जोणीगया य जे सत्ता । सहशरीरगता। अनु। यया भवो धार्यते सा भवधारणी तम्मि भवे बटुंता, भवलोगं तं वियाणाहि ।। २०१॥ या बहुलवचनात् करणेनीयप्रत्ययः । शरीरावगाहनाभेदे। नैरयिकदेवमनुष्यास्तिर्यग्योनिगताश्च ये सवाः प्राणिनस्त्री० । डीप् । जी०१ प्रति० । स्तस्मिन् भवे वर्तमाना यदनुभावमनुभवन्ति तं भवलोकं भवधाराणज्ज सरीर-भवधारणीयशरीर-न० । भवं जन्मापि जानीहि । प्रा० म०२० । याबद्धार्यते भवं वा धारयतीति भवधारणीयं, तच्च तच्छ. भववक्कंति-भवव्युत्क्रान्ति-स्त्री० । जन्मत्यागे, कल्प० १ अ. रीरं च भवधारणीयशरीरम् । शरीरभेदे, स्था०३ ठा०१०॥ धि०१क्षण। भवपञ्चइय-भवप्रत्ययिक-न० । भवन्ति कर्मवशवर्तिनः प्रा. भववारि-भववारि-न० । संसारसमुद्रे, "भववारि तर्जुमपणिनोऽस्मिनिति भवो नारकादिजन्म। "पुनाम्नि"-॥५॥३- टुः।" प्रति०। १३० ॥ इति अधिकरणे घप्रत्ययः। भव एव प्रत्ययः कारणं भववाहि-भवव्याधि-पुं० । संसाराऽऽमये, “यस्मादेते महा यस्य तद्भवप्रत्ययम् अवधिज्ञानभेदे, नंगा भवपच्चइप ति।' त्मानो, भवव्याधिभिषग्वराः॥"द्वा०२३ द्वा०।। क्षयोपशमस्यापि भवप्रत्ययस्वेन तत्वाधान्येन भवे प्रत्ययो पस्थ तप्रत्ययमिति व्यपदिश्यते । स्था०२ ठा०१उ०। भवविजय-भवविचय-पुं० । प्रेत्य स्वकृतकर्मफलोपभोगार्थ भवपाय-भवपर्याय-पुं० । भवः संसारस्तस्य पर्यायो पुनः पुनः प्रार्दुभावो भवः स चारघट्टघटीयन्त्रवत् मूत्रपुरीभवपर्यायः। संसारभावे, "भवपर्यायतां विना।" द्रव्या० पान्त्रतन्त्रनिबद्धदुर्गन्धजठरपुटकोटराऽदिवजनमावर्तनम्, तस्य विचयः पर्यालोचनम्भवविचयः। न चात्र किञ्चिजन्तोः ५ अध्या । स्वकृतकर्मफलमनुभवतश्चेतनमचेतनं पा सहायभूतं शरण: भवपतिबद्ध--भवमतिबद्ध-त्रि संसारानुषते. पश्चा०४ विष तां प्रतिपद्यते । इत्यादिभवसंक्रान्तिदोषपर्यालोचने, सम्मा भवपरंपरा-भवपरम्परा--स्त्री०। संसारपरिपाटयाम् , “ भई ३काए। भवपरंपरा।"ग०१ अधिक। भवविञ्ज-भववैद्य-पुं। संसाररोगभिषग्वरे, "चित्रागी. भवपक्षी- भवपक्षी-खी। भयः संसारः बहुप्राण्युपमर्दो यत्र बवद्यानाम् ।"०२३ वा। सा पक्षी भवपल्ली। संसारपल्ल्याम् , नि.चू.१ उ०। भवविडवि ()-भवविटापिन-पुं०। संसारवृक्ष" भवधि. भवन्मंति-भवभ्रान्ति-स्त्री० । दीर्घसंसारभ्रमणे, "भषभ्रान्तो डविनिबंधनेसु विसपसु ।" पं००१द्वार। म बाधकम् ।" द्वा० १४.द्वा। भवविभत्ति-भवविभक्ति-स्त्री० । विभक्तिभेके, सा नारकत्तिभवभंग-भवभा-पुं० । भवविलोपे, स्या। र्यकमनुष्यामरभेदाचतुर्धा । सूत्र०१०म०१ उ० । Page #1507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८४) भवसिद्धिय अभिधानराजेन्द्रः। भवसिद्धिय. भवविरतचित्त-भवविरक्तचित्त-त्रि० । संसारविरक्तचित्ते, "सब्बे विणं भंते ! भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति" "पवजा भवविरत्तचित्ताणं । " पं० २०१द्वार । इत्यांवि-('जयंती' शब्दे चतुर्थभागे १४१६ पृष्ठ विस्तरतो भवविरय-भवविरजम्-न । नरकाऽऽविभवरूपे बिरजसि, गतम्) "भवविरयं अग्गीतो।" व्य०३ उ०। भवसिद्धिए णं भंते ! नेरइए,नेरइए भवसिद्धिए । गोय. भवविरह-भवविरह-पुं० । संसारवियोगे मोक्षे, "भाषा भ. योगे मोक्षे."भावा; भ मा! भवसिद्धिए सिय नेरइए, सिय अनेरइए , नेरइए वविरहसिद्धिफलाः। "पो०१६ बिया पक्षा।"भववि. वि य सिय भवसिद्धिए, सिय प्रभवसिद्धिए, एवं दंडो रहफलं जहा होह ।" पञ्चा० ६ विव० । " भवविर. | जाव वेमाणियाणं | भ.६ श० १.उ.1 हवीयभूत्रो जाया चारित्तपरिणामो।" पञ्चा.१ विव० संतेगडया भवसिद्धिया जे जीवा ते एगेणं भवग्गहणेसं "भवविरहरच्छमाणस्स।" पश्चा०५ विव० । सिभिस्संति,बुझिस्संति, सम्वदुक्खाणमंतं करिस्सति । भवविवाग-भवविपाक-पुं० । भवे नारकाऽऽदिरूपे स्वस्थयो सन्ति विद्यन्ते ' एगइया 'पके केचन (भवसिद्धिय सि) ग् विपाकः फलदानाभिमुखता भवविपाकः। आयुष्कर्मणो भवा भाषिनी सिद्धिर्मुक्तिर्येषां ते भवसिद्धिका भव्याः (भ. मारकाऽऽविभवे फलदानाभिमुखतायाम् , कर्म०६ कर्म। वग्गहणेणं ति ) मवस्य मनुष्यजन्मनो प्रहणमुपादानं भव. पं०सं०। प्रहणं तेन सेत्स्यन्ति अविधमहर्थिप्राप्स्या भोत्स्यम्ते भवविवागि (ए)-भवविपाकिन-निका भवे नारकाऽऽदिरूपे केवलशानेन तवं मोक्षं ते कर्मराशेः परिनिर्वास्यन्ति स्वस्थयोग्य विपाकः स विद्यते यस्य तत् भवषिपाकि । प्रा. कर्मकृतविकाराच्छीतीभविष्यन्ति। किमुक्तं भवति -सर्वदुःयुष्कर्मप्रकृती, निबद्धमप्यायुर्यावन्नाद्यापि सर्वभवक्षयेण स्व. खानामन्तं करिष्यन्तीति ।स.१ सम। योग्यो भवः प्रत्यासमो भवति तावोदयमायाति ह्यतो भव. एवं क्रमश प्राहविपाकीति । पं० सं०३ द्वार। (यथाऽऽयुष्कर्मप्रकृतीनामेव भवविपाकित्वं नान्यास तथा विपाकतः कर्मप्रकृतीनां भे. अत्थगइया भवसिद्धिया जीवा जे दोहिं भवम्गहणेहि ददर्शनावसरे 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे २६७ पृष्ठे निरूपितम्) | सिज्झिस्संति, मुश्चिस्संति,बुज्झिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, भववीय-भवचीज-न । संसारकारणे , “दिखता भववीज सम्बदक्खाणमंतं करिस्संति ॥२॥ ( स० २ सम०) था।" द्वार० १२ द्वार। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तिहिं भवग्गहणेहि सि- भवचीरिय-भववीर्य-न० । वीर्यभेदे , नि० चू० १ उ० । जिमस्संति, बुज्झिस्संति, मुञ्चिसंति, परिनिम्बाइसति, ( स्वरूपं 'बीरिय' शब्दे वदयते) सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥३॥ (स.३ सम० ) भवबुद्धि-भवद्धि-स्त्री० । संसारवर्द्धने, पश्चा० १७ विव० । प्रत्येगइया भवसिद्धिया जीवा जे चउहि भवग्गहणेडि भवसंकड--भवसंकट-न० । भवगहने, प्रश्न. ३ आश्र० सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाण अंतं करिस्संति ॥४॥ ( स० ४ सम ) संतगइया भवसिद्धिया जीवा जे भवसंसरण-भवसंसरण-न। संसारसंसृती, "जह भव. पंचहिं भवम्गहणेहिं सिज्झिस्संति .जाव अंतं करिस्संसंसरणामो, निम्विन्नो रे तुम जीव।" जी०१ अधि। ति ॥५॥ ( स०५ सम० ) संतेगड्या भवसिद्धिया भवसमुह-भवसमद्र--पुं० । संसारार्णवे , दर्श०५ तव । “दु. जीवा जे छहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्सति जाप सम्बदसहमणुमत्तम् भवसमुदे।" पं००१द्वार। क्खाणमंतं करिस्संति ॥ ६॥ (स.६ सम.) संतेगभवसम्म-भवशर्मन्-न। विषयसुखे, "भवाभिनन्दिन सा इया भवसिद्धिया जीवा जे सत्तहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्सं. स, भवशम्मोत्कटेच्छया ॥"भवशर्मरगो विषयसुखस्योरका रेच्छया । द्वा० ति, बुज्झिस्संति • जाब सम्बदुक्खाणमंतं करिस्संति भवसागर--भवसागर-पुं० । संसारसमुद्र, "परीतिभवसाग ॥७॥ ( स० ७ सम०) संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे रमणतं।" पं०प०२ द्वार । " भीमे भयसायरम्मि दुक्ख. अदहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिरसंति ० जाव अंतं करिस्संति नं।" दर्श० ५ तव। ॥८॥ ( स०८ सम. ) संतगइया भवसिद्धिया भवसिद्धिय-भवसिद्धिक-पुं० । भवे भवैर्वा सिद्धिर्यस्यासो जीवा जे नहिं भवग्गहणेहि सिम्झिस्संति आव सम्बभवत्तिद्धिकः । प्रा०म० ११० । रा। भविष्यतीति भवा दुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ ६ ॥ (स.६ सम.) संभाषिनी सा सिविनिवृत्तिर्यस्य स भवसिसिका स्था०९ठा। तेगड्या भवसिद्धिया जीवा जे दमहिं भवग्गहणेहि सिमा०। विशे० । भव्ये . नं0स." सम्मसणलंभ । भव. सिखिया विन लहंति । "पाह-सबैषामेव भये सति सिद्धि. ज्झिस्संति, बुझिसति, मुचिस्संति, परिनिवाइसंति, भवति, ततः किं भवग्रहणेन ?, सत्यमेतत, केवलं भवप्रहरणा सम्बदुक्खाणमंतं करिस्सति ॥ १०॥ (स०१० सप० ) दिह तद्भवो गृह्यते इति । प्रा० मा स्थाभ।। संतेगा भवसिद्धिया जीवा एकारसहिं भवग्गहणेहि सि बार। Page #1508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८५) अभिधान राजेन्द्रः । भवसिद्धिय भवातिस दुक्खाणमंत करिस्संति ||२४|| (म०२४ सम०) संनेगइया भवसिद्धिया जीवा जे पणवीसाए भवग्गडणेहिं सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति, परिनिव्वाइस्संति सन्वदु ज्झिस्संति, बुज्झिस्पति, मुच्चिस्संति, परिनिव्वाइस्मंति, सन्दुक्खागमं करिस्सति ॥ ११ ॥ ( स० ११ सम० संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे बारसहि भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति, बुझिसति, मुविस्संति, परिनिव्वाइस्संक्खाणमंतं करिस्संति ||२५|| (सम०२५ सम०) संतेगइया ति, सन्दुक्खाणमंतं करिस्वति || १२|| (स० १२ सम० ) संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तेरसहिं भवग्गह रोहिं सिज्झिस्संति, बुज्झिस्पंति, मुच्चिसंति, परिनिव्वाइस्संति, सन्दुकखाणमंतं करिति ॥ १३ ॥ (स०१३ सम० ) संतगड़ा भवसिद्धिया जीवा जे चउदसहिं भवग्ग हगो हिं, सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संनि मुच्चिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सति ॥ १४ ॥ (स० १४ सम० ) संग भवसिद्धया जीवा जे पनरसहिं भवरगहणेहिं सिक्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति, परिनिच्वाइस्संति, सब्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ।। १५ ।। (स०१५ सम० ) संगइया भवसिद्धिया जीवा जे सोलसहि भवरगहणेहिं सिज्झिमति बुज्भिस्मंति, मुच्चिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, मन्दुकखाणमंतं करिस्संति ।। १६ ।। (स० १६ सम० ) संतगइया भवसिद्धिया जीवा जे सत्तरसहिं भवग्गहडि मिभिसंति, बुज्झिस्संति, सुविस्संति, परिनिष्यास्नंति, सन्चदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥। १७ (स० १७ सम० ) सं. तेगडया भवसिद्धिया जीवा जे अट्ठारसहिं भवग्गहहिं सि. ज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति, परिनव्वाइस्संति, सन्दुक्खमतं करिम्सति ||१८|| (स०१८ सम०) संतग भवसिद्धिया जीवा जे एगूणवीसाए भवग्गणेहिं सि झिस्पति, बुज्झिस्संति मुञ्चिस्संति, परिनिव्वाही सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सति ॥ १६ ॥ ( स० १६ सम० ) संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे वीसाए हासि ज्झिस्संति, बुज्झिस्वंति, मुच्चिस्संति, परिनिव्वाइस्पंति, सन्वदुक्खागणुमंतं करिस्संति ||२०|| (स० २० सप० ) सं तेगइया भवसिद्धिया जीव जे एकत्रीसाए भवग्गह हिं सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुद्दिवस्संति, परिनिव्वाइस्संति, सन्दुकखाणमंतं करिस्संति ||२१|| (सम० २१ सम० ) संतगड्या भवसिद्धिया जीवा जे बावीसं भवग्गहणेहिं सिकिस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति, परिनिच्वाइस्संति, सन्दुक्खाणमंतं करिस्संति || २२ | (स०२२ सम०) संतेग इया भवसिद्धिया जीवा जे तेवीसाए भवग्गहहिं सिज्झिसंति, बुज्झिस्संति, सुविस्मंति, परिनिच्वाइस्संति, सच्चदुक्खाणमंतं करिस्संति ||२३|| (सम०२३ सम० ) संतगइया भवसिद्धिया जीवा जे चउबीसाए भवग्गह येहिं सिज्झि स्संति, बुज्झिस्पति, मुस्त्रिस्संति, परिनिव्वइस्संति, सच्च ३७२ भवसिद्धिया जीवा जे छब्बीसहिं भवगडहि सिम्फिस्संति, बुज्झिस्संति, मुबिस्संति, परिनिब्वाइस्संति, सब्बदुक्वाणमंत करिस्सति ||२६|| (स० २६ सप०) संतगइया. भवसिद्धिया जीवा जे सत्तावीसार भवमाहिं सिज्झिस्मंति, बुज्झिस्संति, मुश्चिस्संति, परिनिब्वाइस्संति, सब्युकखाणमंतं करिस्पंति ॥ २७ ॥ ( स० २७ सम० ) संतगइया भवसिद्धिया जीवा जे अट्ठावीस भव सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुश्चिस्संति, परिनिच्वाइस्संति, सन्चदुक्खाणमंतं करिस्सति |२८| (स० २= सम०) संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एगूणतीसं भवग्गह रोहिं सिज्झिमति, बुज्झिस्संति, मुबिस्संति, परिनिच्वाइस्संति, सञ्चदुक्खाणमनं करिस्संति | २६ | (०२६ सप० ) संतगइया भवसिद्धिया जीवा जे तीमाए भग्गहहिं मिज्झिस्पति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्मंति, परिनिव्वाइस्पति सव्यदुदुक्खाणमंतं करिस्मति ॥ ३० ॥ स० ३० स० ) संतगइया भवसिद्धिया जीवा जे एकतीसंहिं भवग्गहणं हिं सिस्सिंति, बुज्झिस्संति, मुचिस्मंति, परिनिष्या• इस्संति, सव्त्रदुकखाणमंतं करिस्सति ॥ ३१ ॥ ( स० ३१ सम० ) संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे बत्तीसाए भव गखेहिं सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुश्चिस्संति, परिनि व्वाइस्संति, सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ ३२ ॥ (स० ३२ सम० ) संतेगइया भवसिद्धिया जीवा के तेत्तीस भवगाहणेर्हि सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, चिरतिं, सन्वदुक्खाणमंतं करिस्सति ||३३|| (स० ३३ सम० ) । भवाउय भवाधुष्- न० साष्टममात्र काल मु त इति, तथा भवप्रधानमा धुर्म वायुर्यद्भुत्रात्ययेऽपए भवान्तरमनुयाति यथा देवाऽऽयुरिति । स्था० २ ठा० ३ ० 'भवा उथा। दुबिहा पन्नत्ता । तं जहा- देवाणं चैव नारयाणं चेव । भषायुर्भवस्थितिः । प्रायुष्कर्ममेत्रे, स्था० २ ० ४४० । भवाणी भवानी - बी० । भवस्य पत्नी भब जीए अनुकू च । चाय० । शिषपभ्याम्, " दक्खायणी भवाणी, सेलचा प उई उमा गोरी | अजा दुग्गा काली, सिधा य कथ्या यणी खंडी ॥ ३ ॥ " पाइ० ना० ३ गाथा | भवातिस भवादृश- त्रि० । भवतस्तयेव संस्थानमस्य । भवत् श - किप् ठक् क्तः वा । " यादृशाऽस्तिः " ॥ ८ । ४ । ३२७॥ इति प्राकृतसूत्रेण पैशाच्यां पाहसाऽऽरेर्ड पश्य Page #1509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भविय 1 स्थाने तिरादेशः । प्रा० ४ पाद "शेः किष्टक् मकः " ॥ १। १४२ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण फिप्टक्स इत्येतदन्तस्य दो रिरादेशः । प्रा० १ पाद। भवतु जने, बास० । भवास भवादेश पुं० प्रकारे, “सवादी भव हलाई । " भ० २३ श० १ ० । भाभिखंदि) मत्राभिनन्दिन्- पुं० असारोऽशेष संसा र, सरवानिय लक्ष्य दधिदुग्धाम्बुना पुरापाङ्ग मादि ॥१॥ यादनशीले इ० । तथ ाशिक दो लोभरविना पसरी भगवान् शठः । अभाभिनन्दी स्यारम्भमंगतः ||५|| पुत्रः कृपणे, लोभरतिर्याचाशीलः दीनः सदैवादृटकल्या. णां मत्सरी पत्करासदुःस्थितो भगवानित्यं भीतः राठो मायावी, अहो भाष सारः, सारवामित्र लक्ष्यते । दधिदुग्ध स्नाम्बून-पुरापरा गनादिभिः। इत्यादिवचसामिननशीलःया . (१) अभिधान राजेन्द्रः । अफिसमिति , बालकाः। द्वा०१० द्वा) । पं०सु० । यो०वि० पं००। दर्श भाभिरय भवामि वास, "कांडांत धम्मं मत्राभिरया । "जीवा० । २४ अधि० । भाभियमभिसंसाराला ० १३ ३० । भवारिय मात्र 'मानव'मा प्रा० ४ पाद भावभासङ्ग नही यते ।" इा० १४ द्वा० .. भवाम भवाधम - पुं० । भवानां मध्येऽधमो भवाधमः । म लुग्धकानां भंव सूत्र० १० ५ ० १ ३० । भरिवाभूत्राशय भूत्वाचे स्था०या० भत्रिय-भव्यत्रि "स्वाध्ययमेषु वात्॥२ २०७२ संयुक्रस्य पापूर्व म ति । प्रा० २पाइ। भविष्यतीति भावः । भाविनि वाय० । "जो जीव भविम्रो खलु ।" यः कश्चित् प्राणधारणलक्षणो जीव भविष्यतीति भव्यम् । भावकर्मणोः प्राप्तयोः "भव्य मे ०५१ मानकाल भाविनि करा० १ अधि०२ क्षण। विवक्षितपर्यायभविष्यतीतिभयः विनाअनु स्था। पञ्चा। विशेन परमासादयती तिभयः सिनियर 10 मया ॥५.१७ ॥ इनिक तीरे वस्त्रस्ययः । कर्म० ४ कर्म० । तथा. कामादिपरिणामिका सिडिगमनम् पं० [सं० १ ० द्वार। ०० ० प्रज्ञा । घ० । "वित्रोहन कुंडरीयाएं । सुखिनाम् । जीवा० २० विश ० भराडरीकाणां भव्यस्वरूपमाह जोगाउ भगा नियदि मणिया इख तु मे सिद्धि भाइरिणाममा म ति नायव्या ॥ ६६ ॥ भषिय भय्या जितिरह बलु ये सिगमनयोग्यणस्तद्द लांके एसिनियाम्या चलुशब्दस्याचाणार्थस्वात् इहःशाष्यकारार्थः योग्या एव न तुम सिद्धिगामिन एव ।" भव्त्रा वि न सिज्झिम्संनि केह ।" इत्यादि । भव्यत्वे निबन्धनमाह-ते पुनरनादिपरिणामभावतो भवन्ति ज्ञातव्याः । अनादिपारिणामिक भव्य भाव योगाव्या हांत । विवरीया अन्याय कपाई भववस्त्र से पारं गच्छंसु जंति व तहा, तत्तां वि य भावतो वरं ॥ ६७॥ विपरीतास्वमव्यास्तदेव विपरीतत्वमाह-न कदाचिद्भ वायस्थ संसारसमुद्रस्वा वाशब्दस्य विकल्पार्थत्वात् यास्यस्ति वा तथैवेति । कुतो निमित्तादित्याह तन पत्र भवात् तस्मादव अनादिपरियामिकादयश्वमावादिनिभावः । नचरमिनिसाभिप्रायकम अभिप्रायश्च नवमेनावता वैपरीत्यमिति । धा० । विशे० । ननु राम शेचा जीव समानेऽपि नरकि यो विशेषास्तथा भध्यायन्यविशेषोऽपि भविष्यतीति य तारकादिविशेषाः नतु स्वाभाविक मध्यमव्यत्ययाः, तथा भध्यायन्यन्यदि कम्मैजनितस्तदा भवतु को निवारवितान विशे० सिद्धि मा १२४२ पृष्ठे वलभ्यता गता ) अवस्थित रूपा सदा अन्य भाव-१२ः स्वः ॥ ६४ ॥ अवस्थिताभावस्य कार्यकारण इयं तस्यानमिवामिका विर्भावात् कालं परं भावं परानुगमित्वं श्रयन् परस्वभावेन परिणम न् यः स्यात् तत्स्वतः स्वभावतः इतरः अभव्यस्वभाष इति कथ्यते । गाथा-" अनोशं पविसंता दिना श्रोगाम - श्रमस्स । मेलंना वि यच्विं सगसगभावं ण विज ति ॥ १ ॥ " इति भव्यस्वभावार्थो यः ॥ २४ ॥ शून्यत्वं कुटकामा बिना भवेत् । अभय बिनाया न्तापयोगतः ॥ २५ ॥ भव्यभावं बिना भव्यस्वभावमन्तरेण कूटकार्येण सत्का योग भवेत्तु विभा भवेत्तदा भव्यस्वं स्यात् इति । अथ पुनः अभव्यत्वं विना अस्थमा पानीकारयोगःयस्यसंयोगात् इयान्तरता द्रव्याम्ययं जायते यस्मात् धर्मा जी एकावगाहना उपगाढ] कारणेन कार्यक अयः स्वमानयनमधेदिति तदा तरका हेतुता कलानमध्य मध्यस्य स्वभाव गर्भितमेवाऽऽस्ते आमाऽऽ. देः स्वध्यनन्तकार्यजननशक्या भव्य सत्सहकारिसमव धानेन तमस्कार्योपधायकताशक्तिश्च तथाभन्तेति तथाभ पवनसिंग इनि तु हरिमायाः २५० ११ अध्या० " भविज करेण । भव्य जनस्य नि. सूतिकरो जननि मध्यम • Page #1510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ গৰিয়ে अभिधानराजेन्द्रः। भवियदब्बराय व्यव्यवच्छेदार्थमगया तस्य नैरयंक्यप्रमात् , सत समा| जे भविए तिरिक्खजोगिए ना मस्से वा पंनिदियतिपतितं-भयानामेव सम्यग्दर्शनादिकं करोति नामव्यानां. - रिक्वजोखियाणं जे भविए थेग्इए वा तिरिक्खमो .. न चैतदुमपत्रम् , भगवतोबीनरागस्वेन पक्षपातासम्भवात. मेनस्सारम, सम्पम्बस्तुतस्थापरिहानात्, भगवान हिनविते. थिए वा मणुस्से वा देवेना पंचिंदियतिव प्रकाशमविशेषेण प्रक्चनार्थमातनोति, केबलममन्यानां रिक्खजोणिसु उवजित्तए , एवं मस्सा लि । तथास्थामायादेव तामसखगकुलानामिव सूर्यप्रकाशो न वाणमंतरजोइसियवेपाणियाणं जहा शेरयाणं । भषिप्रवचनार्थ उपदिश्यमानोऽपि उपकाराय प्रभवति । तथा | यदवणे रइयस्त यं भंते ! केवायं काल ठिई पक्षवा।। चारवादिमुख्या-सवर्मबीजवपमानधकौशलभ्य, य. शोकमान्धव! सवापि शिलान्यभूमा माद्धतं खगकुलेषु। गोयमा जहमेशं अंतोमुहतं.उकोसेणं पुमकौडी । भविहि तामसेषु, सूर्याशवो मधुकरीचरणावदाताः ॥१॥" यदलममरकुमारस्सणं भते ! केवायं कालं दिई पत्ता ततो भन्यानामेव भगवचनादुपकारो जायते इति भ. गोयमा! जहमेणं अंतोमुहसं, उक्कोसणं तिमि पलिमोव्यजननिवृनिकरणेत्युक्तम् । प्रवा० १ पद । स्थान(भव्यानां वमाई एवं. जाव पणियकुमारस्म । भविपदमपुढवीकार करणानि 'करण' शब्दे वृतीयभागे ३७१ पृष्ठे गतानि) प्र. यस्स पुच्छा। गोयमा जहालेणं अंतोमहत्तं,उकोसेमं नेकगुणसंभावनाये च ।"अजेण भवेण विजागरण।" सातिरंगाई दो सागरोबमाई। एवं बाउकाइयम्स बितेव्य० उ०१।"भग्वं भव्यजणाणुबरियं । "प्रश्न०४ संव० द्वार। शुभे, सस्यफलवे, मबखे च ।नातहति.लि. ऊवाऊ जहाणेरयस्स । वणस्सइकाइयरस जहा पुटवीकर्मर, गजपिप्पल्याम.वाच०। रुचकबरद्वीपस्थरुचक- काइयस्म । बेइंदियतेइंदियचउरिदियस्स जहा गेरइयस्स । परपर्वतस्य पश्चिमदिशि स्थिते कटे वर्तमानायां स्वनामग्या पंचेंदियतिरिक्खनोणियस्स जहलेणं अंतोमुहतं, उकोसे सायं विकमार्यो बास्त्री aron तेत्तीसं सागरावमा एवं मस्सा वि । वाणमंतरजोइसिभवियाग (प )-भव्याङ्गिन-पुं० पासप्रसिद्धि प्राणिनि, यवेमाणियस्स जहा भसुरकुमारम्स । " भन्याङ्गिनेत्रामृतम्।" प्रति। भवियजण-भव्यजन-पु. । भव्यस्तथाविधामादिपरिणामि- (भविपदबनेररयस्सेत्यादि ) भंतोमुनि ति) सी. कस्वभावात् सिद्धिगमनयोग्या, सयासी जन भव्यजना नममहिनं वानरकगामिनमन्तर्मुहर्ताऽऽयुषमपेक्षयाम्तमुंह. तथाविधानादिपरिणामिकत्वभावात् । सिद्धिगमनयोग्ये जने, स्थितिकता। पुखकोडिसि) मनुष्पन्द्रिपतिशा . अभिस्येनि भम्पद्रव्यासुराजीनामपि जघन्या स्थितिथिमे. प्रमा०१ पद । प्रश्न । “भवियजणपहिययाभिनंदियाणं।" भव्यजमानां भव्यप्राणिनां प्रजा लोको भव्यजनप्रजा, भव्य. वोत्कृष्टातु-(तिथि पलिभोषमा ति) उत्तरकुर्वादिमि. शुनकनरादीनाभियोक्ता यतस्ते मृता देवेपस्पचन्ते इति अनपदो बा, तस्यास्तस्य वा दधिरभिनम्मितानाम । द्रव्यपृथ्वीकारिकस्य ( साइरेगा दो सागरोचमाई ति) स०५4.1 ईशानदेवमाधियोका द्रव्यतेजसो व्यवायोश्चा(जहा. भवियदलणेरड्य-भव्यद्रव्यनरयिक-पुं० भाविनारकपर्क यस्स सि अन्तर्मुहूर्तमेकाम्या व पूर्वकोटीबादीमा बयोग्ये नैरयिकभेदे, भ०। मिथुनकानांव समानुत्पादादिति.पछन्द्रियतिरबाउकोसे. अस्थि णं भंते ! भवियदवणेरड्या भवियदमणेरड्या ? णं तेतीसं सागरोवमा सि) सप्तमनरकपृथिवीनारकापेक्षा योलम् । भ०१८श उ०। भव्यद्रव्यानरविकाऽऽदीनां स्थि. ता अस्थि । से केणदेणं भंते ! एवं वुच्चह-भवियदन सौ, पण्डितनगर्षिगणिकृवप्रश्नो यथा-"भवियम्बरस्यस्स णेरड्या भवियदबणेरइया । गोयमा! जे भविएपंधि णं भंते ! केवतियं का ठिपक्षता गोयमा! जहणं . दियतिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा शेरहपसु उपवजिनए तोमुरतं, उकोसेषं पुष्बकोडिसि।" तथा "भचिमदम्बमसु. से तेणद्वेणं एवं नाव थणियकुमारा ।। रकुमारस संभंते ! केवतियं कालं हि पत्ता । गोयमा। जह अंतोमुरतं,उकोसणं पलिवमा ति।" तरकथं ( भवियदग्धनेराय ति) द्रव्यभूता नारका द्रव्यमारका. जीवो जन्मभवनामस्तरमेवा युवनाति,किं वाऽन्यभवान्तार. ते च भूतनारकपर्यायतयाऽपि भवन्तीति भव्यशब्देन वि। तः, प्रायुपन्धेतु त्रिभागाऽऽविशाखप्रतिपादितं रश्यते इति शेषिता भन्या ते द्रव्यमारकाधेति विग्रहः। ते चैकभवि निर्णयः प्रसाध इति प्रश्ने, उत्सरम "भवियदबनेरहयस्स कवायुकाभिमुखनामगोत्रभेदा भवन्ति । भंते ! केवतिनं कालं ठिी पत्ता गोयमा!जहलेणं अंतोमु. अस्थि मा भंते ! भवियदक्षतविकाइया भवियदन- संउकोसणं पुश्वकोहिति"पत्र एमविए भद्धा उपम पदविकाइया ना अस्थि । सेकेणदेणं भंते ! गोयमा ! अभिमुहिमनामगोपमा पए तिधिवि देसाबलि पुंज. में भरिए तिरिक्सजोणिए वा पणुस्से वा देवे वा पुढची रीस्स ॥ १४६॥" इति श्रीस्वसाझद्वितीयभूतस्कम्बनि ऐकिवचनात् योऽनन्तरे भागामिभवेमारको भाषी.समयकाइएमु उपजितए से तेसाढे। भाउकाइयवस्सहका खाऽऽयुरपि पूर्वभवे द्रव्यनारकोऽभिधीयते तथा पूर्वको. इया सं एवं चेव । तेऊवाऊवेइंदियवेइंदियचाउरिदियाण य टिरुरकर्षतः सुतरां संभवतीति न कधिच्छाहाबकाशः। एक. Page #1511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवियसरीरव्य अभिधानराजेन्द्रः। भव्व म् -"भवियदयसुरकुमारम्स णं भंते ! केवतिनं कालं | (हयाख्या 'श्रावस्मय' शब्दे द्वितीयभागे ४४६ पृष्ठे गता) ठिई पनत्ता। गोयमा! जहनेणं अतोमुहुत्तं उक्रोसणं तिनि भनियहिय-भव्यहित- पिजीयविशेषपथ्ये, "भव्याहियट्ठा पलिओवमा।" इत्यत्रापि भावनीयम् ॥ १८। ही. ३ य पयडत्या" जीवविशेषपध्यप्रयोजनार्थम् । पश्चा०१८ वि. प्रका०। घ.।"भवहियट्टाय लेसणं।" भव्यानां मुक्तिगमनयोग्या. भविपदवदेव-भव्यद्रव्यदेव-पुं० । भन्यो भाविदेवपर्याय | नां हितं श्रेयः स एवार्थः प्रयोजनम् भव्यहितार्थस्तस्मै । योग्योऽत एव द्रव्यभूतः , स चासो देवश्च भव्यद्रव्यदेवः । पञ्चा० २ वियः। बैमानिकाऽऽदिके देवभेदे, स्था० ५ ठा०१ उ० ।। भवियालि-भव्यालि-पुं० ।भवायाहों भव्यः, स एवालिभ्रम से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-भवियदव्वदेवा, भवियद- रो भव्यालिः । भरभ्रमरे, द्रव्या० । ध्वदेवा । गोयमा! जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिए वा ज्ञानाऽख्यमेतन्मकरन्दमिष्टं, मणुस्से का देवेसु उववञ्जितए से तेणटेणं गोयमा ! एवं भव्यालयो वीतमया निपीय । बुच्चइ-भवियदबदेवा भविपदबदेवा। अईक्रमाम्भोजभवं सुगन्ध, ( भवियादवदेव त्ति ) द्रव्यभूता देवा द्रव्यदेवाः, द्रव्यता स्वभावसाहित्यमवाप्नुवन्ति ॥ २० ॥ चाप्राधान्याद् भूतभाविवाद् भाविभावत्वाद्वा । तत्राप्राधा- भव्यालय भवाय अभिव्यास्त एवालयो भ्रमरा एतदु. न्याहेवगुणशून्या देवा द्रव्यदेवा यथा साध्वाभासा द्रव्यला- स्कृष्टं मानाऽऽयं मकरन्दं मरन्दं निपीय पीत्या स्वभावसाहि. धवः, भूतभावपते तु भूतस्य देवत्वपर्यायस्थ प्रतिपत्र स्यं स्वस्थ प्रारमनो भाषः परमभावस्तद्रूपं साहित्यं तृप्तिस्त. कारणा भावादेयत्वात् च्युता द्रव्यदेवाः भाविभावपक्षे तु | दवाप्नुवन्ति प्राप्नुवन्ति । कीरशा भव्यालयः वीतभया वीतं भाविनी देवत्वपर्यायस्य योग्या देवतयोत्पत्स्यमाना द्रव्य- गतं भयं येषां ते वीतभया विवानिशमाकस्मिकसाध्वसर. देवास्तव भाविभावपक्षपरिग्रहार्थमाह-भयाश्च ते द्रव्यदेवा. हिताः कीरामकरन्दमिष्ट बल्लभ भवाविपाकस्बेन परमह. चेति । भ० १२ श. ६ उ० (जे भविए इत्यादि) हह जाता। चिप्रदम् । पुनः कीद मकरन्दमहकमाम्भोजभवमहतां श्री. कवचनमतो बहुवचनार्य व्याख्येयं, ततश्च ये भच्या योग्याः | तीर्थराग क्रमाश्चरणास्त एवाम्भोजानि कमलानि तेभ्यो पञ्चन्द्रियनिग्योनिका या मनुष्या वा देये पूत्पनुं ते यस्मा- भव उत्पत्तिर्यस्य तदहत्क्रमाम्भोजभवं जिनेश्वरचरणद्भाविदेवभावा इति गम्यम् । अथ तेनार्थेन तेन कारणेन हे जसम्भवम् । पुनः कीदक् सुगन्धं शोभनो गन्ध आमोदो गौतम ! तान् प्रत्येवमुच्यते भव्य द्रव्यदेवा इति । भ० १२ यस्य नासुगन्धमिनि पद्यार्थः । यथाऽलयोऽम्भोजभवं सुग. श) ६ उ० । धमिष्टं मकरन्दं निवीय साहित्यमवाप्नुवन्ति । तथा भव्या भवियपुखरावट्टग-भव्यपुष्करावर्तक -पुं० । वाराणस्यां द. एतदशानाऽऽख्यं परमभावमिए निपीय स्वभावमवाप्नुवन्ति । एडखाततीर्थस्थे देवे, वाराणास्यां दण्डखाते भव्य पुष्करावा अन्य द्विशषणैस्तुल्यत्वं शेयम । भव्यानामलिसादृश्य ज्ञानस्य तकः । ती ४३ करप । च मकरन्दसादृश्यं च युक्तोमात्वं, जिनक्रमे कमलापमानश्च साधर्म्यतया चेत्यपि बोध्यम् । आसन्नसिद्धिकाः परम - भवियसत्त-भव्यसख-पुं० । भव्यप्राणिनि , पं० २०५द्वार । रुनिपरा इहामुत्रफलविरागा इन्द्रियमात्रविषयावशा नि"स एव भवसत्ताणं।" मोक्षगमनयोग्यजन्तूनाम् । ग०१ त्यसंवेगशान हृदया विषाकलब्धनिसर्गयोधोदयन परमभाअधि० । पं0 वा बेन साननाशेषकलुषकर्मसन्ताननि शनप्रकटितशुद्धशुक्लभवियसरीरदब्व- भव्यशरीरद्रव्य-न। विवक्षितपर्यायेण भ. ध्याननैर्मल्यविधून शेषशुभकर्मप्रकृतितयाऽकर्माणो , निजभा. विष्यतीति भन्यो विवक्षित पर्यायाहस्त योग्य इत्यर्थः । वमनन्तचतुष्टयाऽऽत्मक सौहित्यसंपूरितमनन्तं शिवाउडवातस्य शरीरम । अनु० । भट्यो योग्यो यः शम्दार्थ शा समासादयन्तीति भावः ॥ २० ॥ द्रव्या०५ अध्या। स्यति न तावद्विजानाति तस्य शरीरं भव्यशरीरम् , त. देव द्रव्यं शरीरद्रव्यम् । स्था० ३ ठा० उ० । यो भघिस्स-भविष्यात).पुं० । भू"ल्टटः सद्या "॥३॥४॥१४॥शत. जीवः शब्दार्थमागामिनि काले शिक्षिष्यते न तावच्छिदाते । स्थ इट् च पृ० था। सलोपः। भाविनि काले, वाचा "एज्यं श्व सजीवाधिष्ठित शरीर द्रव्ये, अनु० । नाम स भवति,यः प्राप्स्यति वर्तमानत्यम्।" पं०सू०५ सूत्र । अथ कि तद्भग्यशरीरव्याऽऽयश्य कमिति प्रश्ने सत्याह- तत्काल वर्तिनि पदार्थे, त्रि० । चाच. । भविष्य आगामि. कालभावी । कल्प०१ अधि० २ क्षण। अनागते. विशे०। से कि तं भविसरीरदव्यावस्सयं भविसरीरदवाव खियां की . नुम् च । " अव्याक्षेपो भविष्यस्याः।" इति स्सयं , जे जीव जोणिजम्मणनिखते इमेणं चेव प्रात्तपणं! रघुः । सलोपपक्षे कलावता। भविष्यमधिकृत्य कृते पुराणसरीरसमस्सएणं जिणाव दिट्टेणं भायेणं भावस्स एत्तिपयं से. अकाले सिक्खिस्सति न ताव सिक्खा, जहा को दिटुंतो?, भवोदहि-भवादधि-पुं । संसारसमुद्र, “ योगचित्तं भवोद. श्रयं महुकुंभे भविस्सइ, अयं घयकुंभे भविस्सह, सेतं भधि- धौ।" द्वा० २१ द्वा० । असगरदब्यवास्सयं । अनु०॥ | भव्य-भाव्य-त्रि० । भू-एयत् । भावनाविषये, द्वा० २० द्वा०॥ Page #1512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। भाउ भविष्यति, विशे•ा०म०। भाषिकालभषे, कल्प०१. भान-भाग-पुं० । अंशे, "मंसो भानो।" पार ना० २३३ धि०६क्षण। गाथा । ज्येष्ठभागिनीपती, दे० ना०६ वर्ग १०२ गाथा। भव्य-त्रि.। भविय' शब्दायें, मा० ४ पाद । भागिनेये, दे. भाइ-भ्रातृ-पुं० । भ्राज-तच् । पृ० " उहत्वादी" ॥ ८1१। मा०६ वर्ग १०० गाथा। १३१॥ इतिप्राकृतसूत्रेण उत्वम् । प्रा०१ पाद । एकपितृजाते। भध्वंगि-(ण)-भव्याङ्गिन-पुं०। भघियंगि (न)'शम्दा खम्रा सहोको भ्रातृभगिन्योरिष । वाच।ध० २ अधिः । थें, प्रति०। " सहोदरा, सहाध्यायी, मित्रं या रोगपालका। मार्गे भब्वजण-भव्यजन-पुं० । 'भधियजण' शब्दार्थे,प्रशा० १ पद ।। वाक्यसहायस्तु, पञ्चैते मातरः स्मृताः ॥३॥" भ्रातृभिश्व मिथो धर्मकार्यविषये स्मारणाऽऽदि सम्यक्कार्यम् । यताभवपुक्खरावट्टग-भव्यपुष्करावर्तक-पुं० ।' भषियपुक " भवगिहमज्झम्मिपमा--यजलबजलिअम्मि मोहनिहाए । खरावट्टग' शब्दार्थे, ती० ४३ कल्प। उद्धवह जो सुमंतं, सो तस्स जो परमबंधू ॥१॥"ध०२ भवसरीरदन्व-भव्यशरीरद्रव्य--न० । 'भवियसरीरदब्ध अधिक। जं०। प्रश्न उत्स०। औ०। सूत्र। शब्दार्थे, अनु। भाइ (न्)--भाजिन्-पुं०। शोभमाने, अष्ट० २६ अgo। भन्नालि-भव्यालि-पुं। 'भवियालि'शब्दार्थे द्रव्या०५अध्या। भाइजाया-भ्रातृजाया-स्त्री०। भ्रातुः पम्याम् , भ० १२ श२ भस-भुक-धा० । कुक्कुरशव्ये , भ्वादि.-पर-सक सेट उ० प्रा० म० "भषे(कः" ॥८॥१६॥ इति प्राकृतसूत्रेण भषे(क्का दे | भाइणिज-भागिनेय-पुं०। भागन्या अपत्यं ढक । स्वसपुते , शम भुक्का । भसइ । प्रा०४ पाद । भषति । अभषीत । अ तत्कन्यायाम् , स्त्री की । वाचा नि० चू. १ उ० । मा. भाषीत् । वाचा म०।दश। भसग-भसक-पुं० । वनवासिनगरवास्तव्ये वासुदेवज्येष्ठभ्रा. भाइणेज-भागिनेय-पुंगा 'भाइणिज' शब्दार्थ,नि०यू०१ उ.। तुर्जरत्कुमारस्य पौत्रे जितशत्रोः पुत्रे स्वनामख्याते कुमा भाइय-भातृक-पुं० । सहजे, प्रा० म०१०। आव० । रे, यस्य भगिनी सुकुमारिका ताभ्यां सह प्रवजिता । नि० भाजित-त्रि० । अर्पिते , "भाइयपुणाणियाणं " भाजिता चू० उ०। (तत्कथा • पलिस्सयण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ईश्वराऽऽदिगृहेषु चीननार्थमपिताः । प्रा०म०१ मा० । पृष्ठे ७२७ गता) भाइयवीयापव्व-भ्रातृद्वितीयापर्व-कार्तिक शुक्ल द्वितीयायाम् , 'नंदिवखणनरिंदो सामिणो जिट्रभाया भयवंतं सिभसण-भषण-न०। कुक्कुरस्य शब्दकरणे, प्रा०४ पाद । शुनि, पुं। तं० । प्रा० ॥ " साणा भसणा इंदमहकामुमा द्धिगयं सुश्रो अईयासोगं कुणतो पाडिवए य कचाववासी मंडला कविला।"पाइना०४१ गाथा | कत्तिप्रसुद्धबीयाए संबोहिता निघरे आमंतित्ता सुदंस णाए भगिणीए भोइओ तंबोलवत्थाऽदिर एणं, तप्पभिर भसणय-भषणक-पुं० । शुनके, प्रा०४ पाद। भाइयबीयापव्वं रुढं।" ती०२० कल्प। भसल भ्रमर--पुं०। भ्रमरे, "फुलंधुत्रा रसाऊ, भिंगा भस भाइल-भागवत-पुं० । भागो विद्यते यस्य स भागवान् , ला य महुअरा अलिणो । इंदिदिरा दुरेहा, धुअगाया छप्पया शुद्धचातुर्थिकाऽऽदिके पुरुषभेदे, स्था० ३ ठा०२ उ०। (व्या. भमरा ॥१॥" पाइ.ना. ११ गाथा। ख्या "पुरिस" शब्देऽस्मिन्नेव भागे १०१५ पृष्ठे गता) हाभसुश्रा--भाषिका--स्त्री० । शृगाल्याम्, "भुल्लुंकि य भसुत्रा | लिके, दे०मा०६ वर्ग १०४ गाथा। महासहा ।"पाइo ना० १२७ गाथा । भाइलग-भागिक-त्रि० । प्रशंपाहिणि, जं०२ वक्षाका भसोल-भसोल-न० । नाट्यविधिभेदे, जं०५ पक्ष । रा। भागिको यः षष्ठांशाऽऽदिलाभेन कृष्यादौ न्याप्रियते । दशा. भस्टालिया-भट्टारिका-स्त्री० । " दृष्टयोः स्टः" HEIR६०॥ ६ अ० भागिका ये लाभस्य चतुर्भागाऽऽदिकं लभन्ते । प्रश्न २आश्रद्वार। भागिको नाम द्वितीयांशस्य तृतीयांशस्य इतिप्राकृतसूत्रेण द्विरुक्तस्य टकारस्य मागध्यां सकाराऽऽफ्रा चतुर्थाशस्य ग्राहकः । जी०३ प्रति० भ० ज०। प्रा०। म्तः टकारः। प्रा०४पाद । भट्टिन्याम, प्रा०४ पाद । भाइसमाण-भ्रातृसमान-पुं० अपतरप्रेमत्वात् तत्वविचारा. भस्टिणी-भ्रष्टिनि-स्त्री० । " दृष्टयोः स्टः " ॥ २६॥ | 5ऽदी निष्ठुरवचमादप्रीतेः तथाविधप्रयोजनम्वत्यन्तवत्सल. इतिप्राकृतसूत्रेण मागध्यां सकाराऽऽक्रान्तः टकारः। प्रा०४ त्वाच्च भ्रातृसमानः। श्रमणोपासकमेदे, स्था०४ ठा०३ उ०॥ पाद । भ्रष्टायाम्, प्रा०४पाद। भाईरही-भागीरथी-स्त्री० । भगीरथेन निवृता मानीता त. भस्स-भस्मन्-न । 'भप्प' शब्दार्थे, प्रा०२ पाद । संबन्धिनी वा अण् । गङ्गायाम् , वाच० "गंगा भागारही भा-भा--धा। दीप्ती, अदापरक-अनिट् । भाति । अ- य जगहुसुया ।" पाइ० ना० ३१ गाथा । "तस्थ भागीरही भासीत् । चाच.। "भा भाजो वा दित्ती।" विशे। स्था० । महाणई पवित्तवारिपूरा परिवहइ" ती०१५ कल्प । भी-धा०ा भये, जु० पर०मक अनिट। "भियो भाबीही भाउ-भ्रात-पुं० । 'भाइ'शब्दाथे प्रा०१पाद । ४॥५३॥ इति प्राकृतसूत्रेण विभेतेरेतापादेशौ वा । भाइ भाउअ-देशी-न । प्राषाढीयगौर्युत्सवविशेषे, दे. ना. बीहर। प्रा०४पाद। , वर्ग १०३ गाथा। Page #1513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष भाउज्जा - देशी- भ्रातृजायायाम्, दे० ना० ६ वर्ग १०३ गाथा । भाबीपापण्य भ्रातृद्वितीयापन माहीचापयश ब्दार्थे, ती० २० कल्प । 1 ( १४६०) अभिधानराजेन्द्रः । भाडय - भ्रातृक पुं०।' भाइय' शब्दार्थे, प्रा० म० १ ० । भाग - भाग - पुं० । भज-भावे घम् । भजने, वाच० । भज्यते भुज्यते सेव्यते इति भागः । भाज्ये भ० ११ ० १२ उ० । कप० । लेखनीये, स्था० ६ ठा० । अंशे, आ० चू० १ ० । औ० । अनु० | शा० । विभागे डा० १ ० १६ अ० । भागा विमागपतिच्छेद इति वाचम्वरम्। कर्म्म० ५ कर्म० 1 । वस्तुनो एकदेशे, वाच० " अहालयचरियदारगो डरबाडतो पडबारदेखभागा। "देशो भागस्यानेकार्थ ततोऽम्पोम्यमनयोर्विशेष्यविशेषणभाषो दृश्यते । स० । आ. काशे, खू० प्र० १० पाहु० ३ पाहु० पाहु० । अवसरे, वि शे० । पूज्ये सूत्र० १ श्रु० ८ अ० । प्रभावे " वंदामि महाभागं । " भागः किलाचिन्त्या शक्तिः प्रभाव इति यावत् । विशे० । भाग्ये वास० । प्रकारे, भागो भङ्गो विकल्पः प्रकार अशांस्तथा राम इत्यभिधीयते। इति ज्योतिषीरासिंग व वा। जम्बूदस्यो सरस्यां दिशि स्थितायां वस्य महानयां सम्मिलितार्या महानद्याम् श्री० । डाप् । स्था० १० ठा० । भागवय - भागवत - त्रि० । भगवतो भगवत्या हृदम् सोऽस्य देवता अण । भगबतो भगवत्या वा भक्ते परतीर्थिकमेवे, सूत्र १ ० ७ ० । श्राचा० । भगवतो वा भक्तिगृहोपाख्या नात् । भाषा० १ ० २ श्र० ६ उ० । भगवन्तो ब्रुवते पञ्चविंशतितरमपरिहानामसाध्यात्मा निष्क्रियी निर्गुणसम्यक्षाणो निर्विशेषं सामाम्यं तस्वमिति श्राचा० १ 1 2 ० ४ अ० २ ० | तत्सम्बन्धिनि च तयोः संबन्धिनि गुणवर्णने पु राणे, उपपुराणे च । " म यैः श्रुतं भागवतं पुराणम्। " वाच० । भाग-भागधेय न० भाग्ये "पुर्व सुरुषं च भागहेयं च" 66 पाइ० ना० १६७ गाथा । । भागीरही भागीरथी स्त्री० पङ्गायाम्, "मंदाची सुरई, गंगा भागीरही य जराहुसुआ ||" पाइ० ना० ३१ गाथा । भाडी-भाटी श्री० भाडके "सोऽब गुणांमा - ब्रूहि यथातथम् । अ० क० १ अ. भाटीकम्प भाटीक मशकवृष्करमपिखरवेख | राज्यमनिमि भारवाहकटोच गुलाबरावतराजिनाम् भारस्य पादना वृत्ति - मजीविका ॥१॥" कम्दान मेरे ०१० भाटकक चाखकीयगादिना पर कीमा भाटकेन पद्दति अन्येषां वा वली शकटा 33दी आटकेचापति बदाडुः" निपग पर कीयं भाजण जो बहद्द । तं भाडकम्ममहवा, वसहाइलम पणेऽसि ॥ १ ॥ " प्रब० ६ द्वार। आ० चू० । उपा० । भाग- भाजन - न० | भाज्यतेऽनेन भाजनम् | भाज- ल्युट् । "लुग् भाजनवनुजराजकुले जः सस्बरस्य न वा " ॥ ८ । १ । २६७ ॥ भायल इति प्राकृतसूत्रेषु सस्वरजकारस्य लुग् वा । प्रा० १ पाद । पात्रे, पं० ० २ द्वार । भ० पिं० । आचा० । घ० प्रश्न० । प्रव० । श्राव०। भाजनान्यमत्राणि सैौवर्णाऽऽदीनि । प्रश्न० १ श्राश्र० द्वार। भाजनमिव भाजनम् । आधारे, विशे० । ध० | प्रब० भ० | योग्ये, वाच० । “जो जन्तिश्चस्स अत्थस्व भाषणं तस्स तचि हो। हे वि दोन गरे पाणिश्रं ठाई ॥४३॥ " संघा० १ अधि०१ प्रस्ता० । भजनाद्विश्वस्याऽऽश्रयणाद भाजनम् । आकाश, भ० २० शु० २ उ० । दाने च । श्र० म० १ श्र० । भागदेस भाजनदेश-पुं० [माजना उधारभूते दे । यस्मिन् देशे भाजनानि सन्ति । व्य०८ उ० । भाणवरण-भाजनघरण-न धारणे, , बृ० १ उ । सपानभोजनानां भाजनान भाणियव्व- भणितव्य - त्रि० । कथनीये, स्था० २ ठा० १७० । भाणिया-भाणिका - स्त्री अनन्तकायाऽऽत्मके वनस्पतिका यभेदे आचा० १ ० १ ० ५४० । " - भाणु- भानु पुं० भातुः सूरिनि, वाच० । धर्मनाथजिनस्य पितरि प्रव० ११ द्वार । स० । सी० भगवत ऋषभस्येकीनामे पुत्रे ०१धि० ७ क्षणं । अयोध्यानगरीस्थस्य धवल श्रावकस्य मित्रे स्वनामख्याते भावके, दर्श० ३ तस्व । भाणुमित्त - भानुमित्र - न० । मलिजिनेन सार्द्धं प्रवजिते - क्ष्वाकुर्वशोद्भवे स्वनामख्याते राजकुमारे ति० । महावीरनिर्वाणानन्तरं विक्रमाऽऽदित्यात् प्रागुत्पन्ने स्वनामख्याते भारतवर्षस्य महाराजे ०२०। भानुमई- मनुिमती स्त्री० विक्रमाऽऽदित्यनृपतेः परम्याम बाच० । सिंहपुरस्थस्य ऋषभश्रेष्ठिनः सुतायाम्, उसभसेडिया भाई।"दर्श०३ " भाणुसिरी भानुश्री श्री० बलभिमन्याम् नि० चू० १० उ० । (पज्जुसा' शब्दे २४ पृष्ठे कथा ) भाम-भ्रम-पा० अनवस्थान माडौ " [ ६ ४ ३० ॥ इति प्राकृतसूत्रेय धमेरेतायदेशी वा पक्ष ' भामे । 'प्रा० ४ पाद । " भ्रमेस्तालिस्ट त भामर - भ्रामर त्रि० । मधुभेदे, न० । भाव० ६ ० । । मामा-मामाश्री० एकदेशेन समुदायावगमात् सत्यभामायाम्, प्रव० १ द्वार आचा० प्रा० म० । भामिणी भागिनी खी०।" पुषागमाभियोगमा १ - ॥ | | १२० ॥ इत्यनयोर्गस्य मः । भागवत्याम् प्रा० १ पाद । भागा-भामुण्डना श्री चारित्र शनायाम् ०३ । प्रक० १३० । > भाय भाजधा० पृथक्करणे, भाजयति । वाच• लब्धद्रव्यविभागान् । कल्प० १ अधि० ५ क्षण । भायण भाजन - न० । पात्रे " पत्ताई भायणा । ना० २१८ गाथा । · भायल - भ्राजल - पुं० । जात्ये अश्वविशेषे पाइ० 9 डा० १ ० १ Page #1514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८१ ) अभिधान राजेन्द्रः। भारत 39 अ० । " जच्च तुरगं भायलं । पाइ० ना० २०५ गाथा । जास्यतुरङ्गमे, दे० ना० ६ वर्ग १०४ गाथा । मायलसा मिगढ-भ्राजलस्वामिन एकाशीतिजी म्यतमे तीर्थे यत्र देवाधिदेवो जिनः । " भायल स्वामि गढे देवाधिदेवः । " ती० ४३ कल्प। भागा भातृ पुं० [भावरि, " सोभरो भाषा - | ना० २५३ गाथा । " पाइο भार-मार पुं० [परिमापाच० गुरुता कारणत्वात्परिग्रहे प्रश्न०५ श्र० द्वार। कर्म्मणि, "जहा कडं कम्म तहाऽसि भारे" तथाविधं कर्म तारधर्मविपाकादितो भारः प्रा विशे० । चये, हा० १ ० १ प्र० । भरणं भारः । पूगफलाउध्यारोपणे आप०६०।" मि दशभिस्ताभिरेको भारः प्रकीर्तितः इत्युक्तलक्षणे उम्मानविशेषे [सं० ज्योलिनेर्भारो भवतीति । स्था• १ ठा० । नि० चू० । अनु । भारक इति प्रसिद्धं पुरुचोत्क्षेपणीये च । स्था० ६ ठा० । भारो भारकः पुरुषाद्वहनीयो विश्वतिपलशत प्रमाणो वा । भ० १५ श० । भाई-भारती - स्वार्थे प्रहाऽऽद्यन् वाक्ये, वाच० । अव • ५ प्र० । तदधिष्ठातृदेवतायां सरस्वत्याम्, चाच० | "वक्कं वयणं च गिरा । सरस्लई भारई य गो वाणी ।" दश०७ अ० । द्वा० । पेन्द्रवृन्दविनतांडियामलं, यामलं जिनपर समाधिताम्। योगिनोऽपि विनमन्ति भारती, भारती मम ददातु सा सदा ॥ १ ॥ " पक्षिभेदे, " भारती संस्कृतप्रायो, वाग्व्यापारो नराश्रयः " इति। अलङ्कारो वृत्तिभेदे च । वाच० ।" पाणी बाया भणिई, सरस्सई भारई गिरा 66 भासा । " पाइ० ना० ५१ गाथा । । 1 भारंट-मार (रु) पढ-पुं० [धर्मपक्षिभेदे प्रश्न १ सं०] द्वार प्रशा० औ० आ० म० जी० । " भारंडपक्खी व बरेऽपमशो। " भार (रु) एडवासौ पक्षी व भार (रु) ण्डपक्षी । उस० पाई०४ अ० | भारण्डपक्षिणोः किलेकं शरीरं पृथग्ग्रीवं त्रिपादं च भवति, तौ चात्यन्तमप्रमत्ततयैव निर्वाहं लभेत इति । स्था० ६ ठा० । इा० । “ एकोदराः पृथम्प्रीषाः, अन्योन्य पलभक्षिणः । प्रमत्ता इव नश्यन्ति यथा भारुण्डपक्षिणः ॥ १ ॥ " शा० १ ० ५ प्र० । जीवद्वयरूपा भवन्ति, ते बसवंदा चित्ता भवन्तीति" दकोदराः पृथग्ग्रीवात्रिपदा मर्त्यभाषिणः । मादण्डपक्षिणस्तेषां मृतिर्भिनफलेच्छ. या १ ॥ " कल्प० १ अधि० ६ क्षण । 66 गतस्य तव शैलो. र्बे, भारुण्डाः पञ्चशैलतः । द्विजीवाख्यंहयो ह्यास्याः, प ध्यम्त्यकोदराः खगाः ॥ १४ ॥ " आ० क० १ ० । भारकाय - भारकाय पुं० । भारवासी काया भारकायः । का पोत्याम् भारकायचात्र क्षीरभृतकुम्भद्वयपिता कापोती भ रायते अन्ये तु भारकायः कापोत्येवोच्यते इति भाव० ५ अ० प्रा० चू० । भारत-भाराऽऽकान्त त्रि० मारण कुटुम्बादिमारेण पो लिकाऽऽदिमारेण वाऽऽक्रान्तः पराभनो भाराऽऽकान्तः । कुटुम्बाऽऽहमारे सूत्र० २ ० २ अ० । मार-मारक पुं० सारे खा डा० आ० ० भारग्ग-भाराग्र न० विंशत्या पलशतैर्भारो भवति । अथवा पुरुषोत्क्षेपणी मारो भारक इति या प्रसिद्ध परिमा भार एवानं भाराप्रम् । भारपरिमाणे, स्था० १ डा० भ० । भारयमिय भारनमित भि० भाराकान्ते भा०५० भारद्दाय भारद्वाज भरद्वाजस्य गोत्रापत्यम् अम्मीतममूलगोत्रान्तर्गतस्य गोत्रभेदस्य प्रवर्त्तके मुनिभेदे, स्था० ७ ठा० चं० प्र० । सू० प्र० । ति० । कल्प० । सोनोस्पो २०] १५ श० | आ० म० । द्रोणाचार्ये, अगस्त्य मुनी, व्याघ्रा• विहंगे, बृहस्पतिपुत्रे वाचतायां मु स्वनामख्याते ब्राह्मणे, आ० म० १ अ० प्रा० ० । स व प्रथमभवे मरीचिनामा भरतपुत्रः, द्वाद गारजनामा ब्राह्मणो भूत्वाऽष्टादशे भवे पोतनपुरे त्रिपृष्ठनामा वासुदेव भूयाभिषेकायां राजथा म्यां प्रियमित्रनामा त्यस भये मान स्तीर्थकरोऽभूदिति । कल्प० १ अधि० ८ क्षण । वनकार्पाश्याम्, स्त्री० । ङीप् । पुं० । भारद्वाजीत्यप्यत्र । बाब० । भारपण्योरुया भारमत्यवरोहयता-श्री भारो नाम च्भारस्तस्य प्रत्यारोहणता भारप्रत्यरोहणता शिष्याचामा चास्य कर्तव्ये विनयप्रतिपतिमेदे दशा० । \ - भारोरुहचपा परामग्ने "भारत अनलगा। - साम्प्रतं भारप्रत्यारोपणमाहसे किं तं भारचोदता है। भारवच्चोरुहाता च ब्विहा पाता । तं जहा - असंगहियं परिजय संगाहिता भवति, सेहं आयारगोचरं संगाहिता भवति, साइम्मियस्स गिलायमाणस्स अहाथामं बेयावचे अद्विता भवति, साइम्मि याणं अधिकरणंसि उप्पांसि तत्थ अमिस्सितो सितो अपलम्गाही मन्झत्वभावभूते सम्म बबहरमाये तस्स अधिकरणस्स खामयबिउसमणताए सया समियं अन् द्वेषा भवति, कहं नु साहम्पिया अप्पसद्दा अप्परंडा अप्प कलदा अप्पतुमतुमा संजयबहुला संवरबहुला समाहिषहु का अप्पमता संजमेणं तवसा अप्पायं भावेमाया यं एवं चणं विहरेजा, सेचं भारपरूचोरुहयता । से किं तं इत्यादि) भारत्यारो चतुर्विधा प्राप्ता । तद्यथा असंगृहीतं परिजनं संग्राहयिता भवति १ समाचारगोचरं संग्राहषिता २ साथर्मिस्य ग्लायमानस्य यथास्थानं देवावृत्ये अभ्युत्याता भवति ३, साधर्मिकाणां परस्परं कलहे उत्पन्ने उपशामकतया अ भ्युत्याता भवति ४, अदी नाम कोधाऽऽदिना गणाssदेहिर्गतं परिजनं शिष्याऽऽदिकं संप्रादविता मृदु चनादिना पुनः शृङ्गाटके रचयिता भवति १. शिष्यमष्युत्पन्नमभिनवदीक्षितं वा (आयार चि) प्राचारः श्रुतज्ञानाविषमनुष्ठानं कालाध्ययनादि पोचरो मिचानम् । Page #1515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४९२) भारह अभिधानराजेन्द्रः। भाष एतयोः समहारतः। तं संग्राहिता भवति । साधर्मिकस्य पर्यये दोषदर्शनात् । भरतेन चिह्नितं तस्येदं वा अण् । समामभयानसामाचारीकस्य ग्लायमानस्य गाढागाढकारणे "हिमा दक्षिणं वर्षे भरताय ददौ पिता । तस्माच भारत समुत्पने माहारीविना विना सीवता यथास्थाम यथाश- वर्षम्" इत्युक्ते जम्बूद्वीपान्तर्गते वर्षभेदे, वाच. । झया यापत्ये उवर्शनभक्तपानाऽऽनयनदानवद्योतीषधकर. भारत भरतक्षेत्रम् । दश• । अ० १ उ० । ०प्र०। पसंस्तारकास्तरणप्रतिलेखनरूपे अभ्युत्थाताभादरपरो भ. उत्त। विशे० भिरतेन मुनिना प्रोक्तम् । अणु० । भरतवति३, समानधार्मिकाणां साधूनाम् (अहिगरणंसित्ति)वि. कृते नाटकशास्त्रादौ च। तदधीते भण् । नटे, अग्नी, रोधे उत्पने, तत्र साधर्मिकेषु निश्रितं रागा, उपाश्रितं द्वेषः। भरतस्य गोत्रापत्यम् । भरतनृपस्य श्य, चाच०। भरअथवा-मिश्रितमाहारादिलिप्सा उपाश्रितं शिष्यकुलाऽऽद्य. तक्षेत्र प्रकाशकत्वाद् भारतः भरतवर्षस्थे सूर्ये च। पुं०। पैक्षा, तार्जितो यः सोऽनिधितोपथितः, न पर्व शास्त्रबोधित चं०प्र०१पारा भरते जातः, भरतेवाऽस्य निवासः" तब प्रहातीत्यपक्षमाही । अत एव मध्यस्थभावभूतः प्रयोज्यस्य जातः सोऽस्य निवास" इति वाऽण् । भरतवर्षात्पने, तमि. तथा स भवेदिति शेषः। (सम्म ति) सम्यक व्यवहारं श्रुः वासिनीच । त्रि०। भनु० स्था। ताऽऽदिकं तत्र पवाहरन् प्रवृति विदधन् न्यायान् व्यवहरन् भारहर-भारघर-पु०। भारं धरतीति भारधरः भारधारपापम्पबहारे पा व्यषहरन् तस्योत्पन्नस्याधिकरणस्य | के. उत्त०१२ अ०। विरोधस्य मर्षणव्युपशमनार्थतया सदा सर्वकालमभ्युत्थाताभारिय-भारिक-पुं० । भारं वहति । भार ठक् । भारवाहभवतिक केन प्रकारेण, नु वितर्के सार्मिकाःसाधवी. के, वाच. । भारवति, शा० १ भु. ५० । दुर्निवाहे, अपशब्दा विगतरागाऽऽदिकाः, अत्राल्पशब्दो भाववचन,प्र. प्रश्न०२आश्रद्वार। पदमा विगतदण्डा तथाविधाशुभवचनाः , अल्पतुमतुमाः भाल-भाल-नाललाटे, “ भासं प्रति निहालं।" पार अविचमानवमन्तः स्वल्पापराधिनि अपित्वमेवं पुरा - समान स्वमेवं सदाऽपि करोषीत्यादि न पुनः पुनः प्रलपनं ना० ११२ गाथा। पेषा ते तथा पा, विगतऋधिकृतमनोविकारविशेषाः, भवि- | भाव-भाव-पुं० सत्तास्वभावाभिप्रायवेटाऽऽत्मजन्मसुक्रिया. पन्तीति शेषः। इति भावयन्तो महामुनयः संयमयाहुल्या: | लीलापदार्थेषु विभूतिबन्धजन्तुषु, १०(१) भावयति वि. सपमाऽभवषिरमणादिकं बहिति बहुसंख्यं यथा भवत्ये- न्तयति पदाथोन् । भू अन् । मायोक्की, पंजाम्ति पम्ति स्वाभिप्रायो विशुद्धशुद्धतरं पुनः पुनः संय. चिन्तके पण्डिते, भावयति शापयति वयगतम् । भू-णि मं कुर्वन्तीति संयमबाला, मयूरव्यंसकाऽऽदित्वात्समासः।। अच् । हन्नतावस्थाऽऽवेदके मानस विकारे स्वेदकम्पाऽऽदौ पदिपा-बहुल: प्रभूता संयमी येषां ते बालसंयमाः, सूत्रे व्याभिचारिभाषे, षाचा अभिप्राये, सूत्र० १० १२०। पूर्वीपरमिपातस्यातस्त्रत्वादत एष संबर माधवनिरोधस्तेन | भावश्चित्ताभिप्रायः भाचा०१ श्रु०२५०५ उदासं०। पगुनारालसंबरापा, तत एव समाधिश्चित्तस्वास्थ्य, त. अनु०।" भावो पत्थु पयत्यो।" पार० ना० १५५ गाबहुला, बगुलसमाधयो षा, प्रमत्ता मदाऽऽदिप्रमादयुक्ताः, था। मानसिके परिणामे, पि० । भाषोऽन्तःकरणस्य पमप्रमत्ता अप्रमत्ता (संजमेणं ति) संवरेण ( तवस ति)। रिणतिविशेषः । सूत्र०१७. १५ अ० । प्रश्न । तपसा अनशनाऽऽदिना, पशब्दः समुपयार्थों लुप्तोऽत्र | ध० । भावस्य मोक्षहेतुत्वेन मोक्षे व्यवस्थितम् । मावद्रव्यः । संयमतपोग्रहणं चानयोःप्रधानमोक्षाजवण्यापना. स्यान्तःपरिणामस्येति । द्वा० १०द्वा० अन्तःकरणे, जी०१ य, प्रधान व संयमस्य नवकर्मानुपादानहेतुस्वेन , तपस. अधि.। हृदये, पो०१६ विव० । आत्मनि, योनी, भावाभिभ पुराणकर्ममिर्जरणहेतुत्वेन भवति वाऽभिनवकर्मानुपादा- ख्याः पश्चस्वभावसत्ताऽऽत्मयोन्यभिप्रायाः । अनु० । सहळू. मात् पुराणकर्मक्षपणात् सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्ष इति । द्वानाभ्यवसाये, पञ्चा० ४ घिव । धर्मश्रवणतच्छवानचा. "अप्पाणं भाषमाणा| "मात्मानं वासयन्तः, एवं पूर्वोक्तप्र- रित्राऽऽचरणकर्मक्षयोपशमाऽऽहितविरतिप्रतिपत्युत्साह - कारण, विहरेयुरिति (सेत्तमित्यादि ) व्यक्तम् । दशा लक्षणो भाव इति । सूत्र १९०२ मा स्त्रीणां चेष्टाविशे. भा षे, भावचित्तसमुनयः । मा० १ ० ० । प्रश्न । भारवा-मारवह-नि० । भारं बहतीति भारषदः । पोट्ठलिका रा० द्रव्यादशघटपदाऽऽदिके वस्तुनि, विशेषामा बाहके, उच० १२ १०नि०यू०पू० वाभारा०प्रा०म०पी०मेका भावानां सिचिं प्रतिपिपादयिषुर्यक्रगणधरेण जिनस्य स. मारवादग-भारवाहक-पुंगभारंवहति एवुल्ल । भारवाद्विनि," "रिमा भारवाहगा । (२)" अनु०। म्बावमुपदर्शयन् प्रथमं सर्वशल्यतालिमतमाह जह किरन सी परमो, नोभयनो नावि अनमो सिद्धी। भारत-भारत-१० । भरतान भरतर्षश्यामधिकृत्य कृती प्राथः] अय् । भारा बाउ विशात्रेभ्योऽतिसारांशा सस्स्यस्य भावाणमवेक्खायो, वियत्त ! जहदीहहस्साये । १६६२ । तेवावाचावल्यासप्रणीते लक्षश्लोकात्मकनन्धरूपे __ व्यक्ती भवतोऽयमभिनायो यथा किलन स्वतः न परतो, लौकिकधुतविशेषे. स्था० । ठा। भारताऽऽविधिदानींतन. नचोभयतो, नाप्यम्यतो भाषामां सिजि सम्भाव्यते । कु. पुरुषायामशतावपि कस्यचितू पुरुषस्य व्यासाऽऽदे शक्तिः तः, इत्याह-अपेक्षाता-कार्यकारणाऽविभावस्थापेक्षिकत्वान भूयते । ०।"पुण्यपी भाभषररहे रामायणं । " भा-1 दित्यर्थः हस्वदीर्घव्यपवेशपत् । तथाहि-यस्किमपि भावजातस्वरामायणयोर्षाचन भषणंषा पूर्वाहापरावयोरेव रूढ, वि.] मस्ति तेन सर्वेखापि कार्येण षा भवितव्यं, कारणेन था। Page #1516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव अभिधानराजेन्द्रः। भाव सत्र कार्य कारणेन क्रियत इति कारणाऽऽयत्त एव तस्य | कल्पयुक्तिभिरुत्पादो न घटते,इति शून्यतैव युक्ता इति।१६६३ कार्यस्वव्यपदेशो, न तु कार्यस्य कार्यत्वं स्वतः सिद्धं कि एतदेऽऽवाहमप्यस्ति । एवं कारणमपि कार्य करोतीति कार्याऽऽयत्त एव जायाजापोभयो, न जायमाणं व जायए जम्हा । सस्य कारणत्वव्यपदेशो, न तु तस्य कारणत्वं स्वतः सिद्धं अणवत्थाऽभावोभय--दोसाओ सुनया तम्हा ॥१६६४॥ किश्चिदस्ति । तदेवं कार्याऽऽविभावः स्वतो न सिध्यति । इह तावन्न जातं जायते, जातत्वादेव, निप्पनघटवत् । अथ यच स्वतो सिखें तस्य परतोपि सिग्निोस्ति, यथा जातमपि जायते, तीनवस्था, जातत्वाविशेषेण पुनःपुनखरविषाणस्य । ततश्च न स्वतः कार्यादिभावो, नापि पर. जन्मप्रसङ्गात् । अथाजातं जायते। तत्रोत्तरमाह-(प्राभव तः।स्वपरोभयतस्तर्हि तस्य सिद्धिरिति चेत् । तदयुक्तम्. व्य. त्ति) सूचकत्वात्सूत्रस्य , तीभावोऽपि खरविषाणलक्षणा स्तादुभयतस्तत्सिद्धेरभावात्तत्समुदायेऽपि तदयोगात्। न हि आयताम्-अजातत्त्वाविशेषात् अथ जाताजातरूपं जायते । सिकताकणेषु प्रत्येकमसत्तलं तत्समुदाये प्रादुर्भवति। अपि तदप्ययुक्तम् । कुत इत्याह-उभयदोषात्प्रत्ये कोभयपक्षोक्तदो. च-उभयतः सिद्धिपक्ष इतरेतराऽऽश्रयदोषःप्राप्नोति । यावद्धि षाऽऽपत्तेरित्यर्थः। किञ्च एतजाताजातलक्षणमुभयमस्ति वा, कार्य न सिद्ध्यति न तावत्कारणसिद्धिरस्ति, यावच का. नवा?, यद्यस्ति तर्हि जातमेव तन्त्र पुनरुभयं तत्र चोक्लो दोषः। रणं न सिध्यति न तावत्कार्य सिद्धिमासादयति । अत इतरे. अथ नास्ति तथापि नोभयं तस्विजातमेव, तत्राप्यभिहितराश्रयदोषः । तस्मान्नोभयतोऽपि कार्याऽऽदिभावसि- तमेव दृषणम । नापि जायमानं जायते, सर्वोक्लविकल्पद्वया. द्धि। नाप्यन्यतः-अनुभयत इत्यर्थः स्वपरोभयव्यतिरेकेणा- नतिवृत्तेः। तथाहि-तदपि जायमानमस्ति, न वा । यद्यस्ति, म्यस्य वस्तुनोऽसत्वेन निर्हेतुकत्वप्रसाङ्गात् एवं इस्वदीर्घल- तर्हि जातेमव तत् , नास्ति चेत् तर्हि जावमेव । पक्षद्वयेऽपि क्षणे इयान्तेऽपि अपेक्षात इत्यस्य इस्वदीर्घत्वासिद्धिलक्षणन चास्मिन्नभिहित एव दोषः। उक्तंच;"गतं न गम्यते ताव-मगतं साध्येनान्धयो भावनीयः । तथाहि-प्रदेशिन्या अष्ठमपे. नैव गम्यते । गतागतविनिर्मुक्त, गम्यमानं न गम्यते ॥१॥" क्ष्य दीर्घत्वं प्रतीयते, मध्यमांत्वपेक्ष्य इस्वत्वं, परमार्थेन इत्यादि । यस्मादेवं, तस्मादनवस्थाऽऽदिदोषप्रसङ्गेन वस्तूनास्वियं स्वतो न इस्वा, नापि दीर्घा । तदेवं न स्वतो इस्वदी. मुत्पादायोगाजगतः शून्यतैव युक्तति ॥१६६४॥ घंत्वयोः सिद्धिः ततः स्वतः परतः उभयत, अनुभयतश्च प्रकारान्तरेणापि वस्तूत्पाययोगतः तत्सिद्धधभावो यथोक्तवद्रावनीयः तदुक्तम् शून्यतासाधनार्थमाह"न दीर्धेस्तीह दीर्घत्वं, न इस्वे नापि च द्वये। हेऊपञ्चयसाम-ग्गिवीसु भावेसु नो व जंकजं । तस्मादसिद्ध शून्यत्वा-सदित्याख्यायते व हि ॥१॥ हस्वं प्रतीत्य सिखं, दीर्घ दीर्घ प्रतीत्य हस्वमपि । दीसह सामाग्गिमयं, सम्वाभावण सामग्गी॥१६६५॥ न किश्चिदस्ति सिखं, व्यवहारवशावदन्त्येवम् ॥२॥"॥१६६२॥ हेतव उपादानकारणानि, प्रत्ययास्तु निमित्तकारणानि,तेषां इनश्च सर्व जगच्छून्यता, कुत्तः १ , इत्याह हेतुप्रत्ययानां या सामग्री तस्याविश्वम्भावेषु पृथगवस्थासु अस्थित्तघडेआणे-गया व सने गयाइदोसाओ। यनार्य न दृश्यते,दृश्यते च सामग्रीमयं संपूर्ण सामयवस्थायां सम्वेऽणभिलप्पा वा, सुष्मा वा सव्वहा भावा।।१६६३॥ पुनदृश्यत इत्यर्थः । एवं च सति कार्यस्य सर्वाभाव एव युक्त इति शेषः। सर्वाभावे च न सामग्री, नैव नन्वस्तिवघटयोरेकत्वम. अनेकत्वं वा ? । यद्येकत्वं, सामग्रीसद्भावः प्रामातीत्यर्थः। ततः सर्वशून्यतेवेति भावः तर्हि सर्वंकता प्रानोतिन्यो योऽस्ति स स घट इत्यस्ति.. इदमत्र हदयम् -हेतषश्च प्रत्ययाश्च स्वजन्यमर्थ किमेकैकशः स्वे घटस्य प्रवेशात्सर्वस्य घटत्वप्रसङ्गः स्यात् । न पटाऽऽदि. कुर्वन्ति संभूय वा? न तावदैकैकशस्तथाऽनुपलब्धेः । तत पदार्थान्तरम् । घटी वा सर्वसत्वाव्यतिरेकात्सर्वाऽऽश्मकः पकैकस्मानार्यस्याभावारसामयामीप तदभाव एवं स्या. स्याद् । अधवा-यो घटः स एवास्तीति घटमात्रेऽस्ति सिकताकणतेलवदिति । इत्थं च सर्वस्यापि कार्यस्योत्पस्य. स्वं प्रविष्टं, ततोऽन्यत्र सस्वाभावात् घटस्य सर्वस्याप्यभा भाव सामग्रीसद्भावो न प्रामाति, अनुत्पनायाः सामया वप्रसङ्गतो घट एवैकः स्यात् । सोऽपि वा न भवेद्, अघट अप्ययोगात् । ततश्च सर्वशून्यतैव जगतः । उक्तं चव्यावृत्ती हि घटो भवति, यदा च तत्प्रतिपक्ष भूतोऽघट " हेतुप्रत्ययसामग्री, पृथग्भावेवदर्शनात् । एव नास्ति, तदा किमपेक्षोऽसौ घटः स्यात् ?. इति सर्बश. तेन तेनाभिलप्या हि, भावाः सर्वे स्वभावतः॥१॥ भ्यत्वमिति अथ घटसत्वयोरन्यत्वमिति द्वितीयो विकल्पः। खोके यावत्संज्ञा, सामघ्यामेव दृश्यते यस्मात् । तर्हि सस्वरहितत्वाइसन् घटः, खरविषाणवदिति । अपि व तस्मान्न सन्ति भावाः, भावे सति नास्ति सामग्री ॥२॥" सतो भावः सत्वमुच्यते, तस्य च स्वाऽऽधारभूतेभ्यो घटाss. इस्यादि। दिभ्यः सद्भ्योऽन्यत्वेऽसत्वमेव स्याद्, प्राधारादम्यत्वे प्रा. अस्य च व्याख्या-पृथग्भावेघदर्शनाक्कार्यस्येति शेषः। तेन धेयस्याप्यनुपपत्तेः तदेवमस्तित्वेन सह घटाऽऽदीनामेकत्वा ते घटाऽऽदयो भाषाः सर्वेऽपि स्वभावतः स्वरूपतो नाभिलान्यत्वविकल्पाभ्यामुतन्यायेन सर्वकताऽऽदिदोषप्रसङ्गात्सर्वे- | प्याः पृथगेकै कावस्थायां कार्यस्यानुत्पादात् उत्पत्तिमन्तरेण ऽपि भावा अनभिलप्या वा भवेयुः,सर्वथा शून्या वास्युः,सर्व. च घटाऽऽदिसंशा प्रवृत्तेः संज्ञाऽभाव थाभिलप्तुमशक्यत्या. थैव तेषामभावो वा भवेदित्यर्थः । अपि च-यन्नोत्पद्यते तत्ता. दिति कुतः पुनः पृथगवस्थायां संहाऽप्रवृत्तिः१.स्याह लोके वनिर्विवाद खरविषाणबदसदेव, इति निवृत्ता तरकथा य. यावदिस्यादि । लोके यावत् संशा घटोऽयमित्यादिसंशाप्रवृत्तिदप्युत्पत्तिमलाके उभ्युपगम्यते, तस्यापि जाताजाताऽऽदिघि स्तावासंपूर्ण कार्य सम्पूर्णसामध्यामेय यस्मार श्यते पृथग १४ Page #1517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६४) अभिधानराजेन्द्रः। भाव भावे च सामग्यामप्यभावासिकतातैलवन सन्त्येव भावा:, __ यस्मात्संशयविपर्ययानध्यवसायनिर्णया विज्ञानपर्यया, भावसावे व कुतः सामग्रीसभाव इति ॥ १६६५ ॥ तच शेयनिबन्धनमेव, सर्वशून्यतायां न यमस्ति, तस्मान प्रकारान्तरेणापि शून्यतासिद्धयर्थमाह तब संशयो युक्तः। सति च संशये ऽनुमानसिद्धा एवं भापरभागादरिसणो, सब्बाराभागसुहमयाओ य । वाः॥१७००॥ उभयाणुवलंभाओ, सव्वाणुवलद्धिओ सुमं ॥१६६६॥ कमित्याहइह यत् तावदहश्य,तदसदेव,अनुपलम्भात् खरविषाणवदि. संति च्चिय ते भाषा, संसयो सोम्म ! थाणुपुरिसु व्य । ति निवृत्ता तद्वार्ता । दृश्यस्यापि च स्तम्मकुम्भकुड्याऽऽदे: अहदिटुंतमसिद्धं, मम्मसि नणु संसयाभावो ॥१७०१॥ परमध्यभागयोरसत्वमेव अर्वाग्भागान्तरितत्वेन तयोरप्यद- सौम्य ! सन्ति भवतोऽपि भावाः, संशयसमुत्थानाद, इह शनात्, पाराद्भागस्यापि च सावयवत्वात्पुनरन्यः खल्वारा. यत्प्रंशय्यते तदस्ति,यथा स्थाणुपुरुषा; यच्चासन्न तत्संशद्भागस्तस्याप्यन्यः पुनस्तस्याप्यम्य इत्येवं तावद्यावत्सरा. प्यते , यथा खपुष्णस्वरविषाणे । अथ स्थाणुपुरुषलक्षणं र. सीयभागस्य, परमाणुप्रतरमात्रत्वेनातिसौम्यात्पूर्वेषां चा. टान्तमसिद्धं मन्यसे त्वं, सर्वेषामपि स्थाणु पुरुषाऽऽदिभावा. रादागानामन्यस्यान्यनान्तरितत्वेनानुपलब्धेः। ततश्चोक्लम्या- | नामविशेषणवासवाभ्युपगमात् , तदयुक्तं, यतो ननु सर्वयेन परभागसरातीयभागलक्षणोभयभागानुपलम्भात्सर्व- भावासवे सशयाभावं एव स्याद् , इत्युक्तमेवेति ॥ १७०१॥ स्यापि वस्तुजातस्यानपलब्धेः शून्यं जगदिति । उक्तं च অথ মনমায় যাই"यावरश्यं परस्ताव-द्भागः स च न दृश्यते । तेन तेना. भिलाध्या हि, भावाः सबै स्वभावतः॥१॥" तदेवमुक्तयु. सन्धाभावे वि मई, संदेहो सिपिणए न नो तं च । त्या सर्वस्यापि भूताऽऽदेरभावः प्राप्नोति, श्रूयते च धुती जं सरणाइनिमित्तो,सिमिणो न उ सम्बहा भावो।१७०२। भूताऽऽदिसद्भावोऽपीति संशय इति पूर्वपक्षः। स्यान्मतिः परस्य सर्वाभावेऽपि स्वप्ने रटः संशया, य(३) अथ भगवान् प्रतिविधानमाह था किल कश्चित्पामरो निजगृहाङ्गणे किमयं द्विपेन्द्रोममा कुरु वियत्त ! संसय-मसइन संसयसमुभवो जुत्तो। हांधो वेति संशेते, न च तस्तत्र किश्चिदप्यस्ति, एवमन्यत्र सर्वभावाभावेऽपि संशयो भविष्यति । तच न, यद्यस्मात्स्व. खकुसुमखरसिंगेसु व, जुत्तो सो थाणुपूरिसेसु ।१६६७ मेऽपि पूर्वष्टानुभूतस्मरणादिनिमित्तःसंदेहो, न तु सर्वथा आयुष्मन् व्यक्त मा कृथाः संशयं मा भूताभावं बुध्यस्व, भावाभावेऽसौ कापि प्रवर्तते । अन्यथा हियरषष्ठभूताऽऽदिक यतोऽसति भूतकदम्बके संशयः खकुसुमखरविषाणयोरिव कचिदपि नास्ति तत्रापि संशयः स्याद्विशेषाभाषाविति । न युक्ता, अपि स्वभावनिश्चय पव स्यात् , संत्स्वेव च भूतेषु ननु किं स्वोऽपि निमित्तमन्तरेण न प्रवसते, एवमेतत् । स्थाणुपुरुषाऽदिष्विव संशयो युक्तः । यदि पुनरसत्यपि व. ॥१७०२॥ स्तुनि सन्देहः स्यात्तदाऽविशेषेण खरविषाणाऽदिष्यपि • कानि पुनस्तनिमित्तानीत्याहस्यादिति भावः। एतदेव भावयति अणुभूयदिवचितिय-सुयपयइवियारदेवयाऽणूया । को वा विसेसहेऊ, सन्चाभावे वि थाणुपुरिसेसु। सिमिणस्स निमित्ताई, पुर्ण पावं च नाभावो ॥१७०३॥ बानभोजनविलेपनादिकमन्यदानुभूतं स्वरश्यते,इत्य:संका न खपुष्पाइसु,विवजश्रो वा कह न भवे ।। १६६८। नुभूतोऽर्थःस्वप्जस्य निमित्तम् । अथवा-करितुरगाउदिको को घाऽत्र विशेषहेतुरुच्यतां यत्सर्धाभावे सर्वशून्यताया. भ्यदा स्टोर्धस्तबिमितं विचिन्तितम्भ प्रियतमालाभाऽदिः। मविशिष्टायामपि स्थाएवादिषु संशयो भवति , न खपुष्पा. श्रुतश्च स्वर्गनरकाऽऽदितथा.वातपिसाऽदिजनितःप्रकृति. ऽऽदिषु । ननु विशेषहेत्वभावादविशेषेण सर्वत्र संशयोऽस्तु, विकारस्वमस्य निमित्तम्।तधा, अनुकुला प्रतिकूला बा देव. नियामकाभावात् । विपर्ययो वा भवेत् , खपुष्पाऽऽदिषु सं. ता तनिमित्तम् । तथाऽनृपःसजलप्रदेश तथा पुण्यमि. शयः स्याद् न स्थाएवादिषु इति भावः। स्वप्नस्य निमित्तं, पापं वानिटस्य तस्य निमितं, न पुनअपि च बेस्वभावः। किच-स्वप्नोऽपि तावद्भाव पवा ततस्तस्या. पच्चक्खोऽणुमाणा-दागमो वा पसिद्धिरत्यागं ।। पिसावे कथं शून्यं जगदिति भवता प्रतिज्ञायते ॥१७०३॥ सब्बप्पमाणविसया-भावे किह संसो जुत्तो।।१६६६। कथं पुनः स्वप्नस्य भावत्वम् ?' इत्याहयदा हि प्रमाणैरर्थानां प्रसिद्धिर्जाता भवेत्तदा कश्चित्क. विमाणमयत्तणो, घडविष्ठाणं व सुमिणमो भावो । "चिवस्तुनि संशयो युज्येत । यदाच सर्वेषां प्रमाणानां सर्वे भहवा विहियनिमित्तो,घडो व नेमित्तियत्चानो।२७.४॥ षां च विषयाणामभावस्तदा कथं संशयोऽस्तु, संशयस्य मातृशेयाऽऽधर्थसामग्रीजन्यत्वात् । सर्वशून्यत्वे च तदभाषा. भावः स्वप्न इति प्रतिक्षा, विज्ञानमयत्वादिति हेतुः, घरषिसंशयोद्भूतिः, निर्मूलत्वादिति भावः ॥ १६६६॥ ज्ञानवदिति दृष्टान्तः । अथवा-भावःस्वप्नो, नैमित्तिकत्वात्, एतदेव समर्थयति निमित्तनिष्पनो नैमित्तिकस्तश्रावस्तस्वं, तस्मादिस्यर्थः घट. वदिति।कथं पुनः स्वमा नैमित्तिकः? इत्याहयतो विहितनि. जं संसयादो ना-णपजया तं च नेयसंबद्धं । मितः विहितानि "अणुयविचितिय" इत्यादिना प्रतिपा. सम्बनेयाभावे, न संसो तेण ते जुत्तो ॥ १७००॥ पितानि निमित्तानि यस्यासौ विहितनिमित्त इति ॥१७०४॥ Page #1518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव अभिधानराजेन्द्रः। भाव सर्वशून्यतायां चेष्यमाणायां स्वप्नास्वप्नाऽदिव्यबहा- अयमन भावार्थ:-न खल्वापेक्षिकमेव वस्तूनां सवं, किंतु राभावप्रसङ्ग एवेति दर्शयत्राह स्वविषयमानजननाऽऽद्यक्रियाकारित्वमपि । ततश्च स्व. सवाभावे च को,सुमिणोऽसुमिणो ति सच्चमलियं ति।। दी?भयाभ्यात्मविषयं चेज्मानं जनयन्ति तदा सन्स्येव तानि, गंधवपुरं पाहलि-पुत्तं तत्थोपयारो ति॥ १७०५॥ कथं तेषामसिद्धिः। यदप्युक्तम्-मध्यमाञ्जलिमपेचय प्रदेशिकजं ति कारणं ति य, सज्झमिण साहणं ति कत्त ति ।। न्यां स्वत्वमसदेवोच्यते इति । तदप्ययुक्तम्,यतो यदि मध्य बचा बयणं वच्चं, परपक्खोऽयं सपक्खोऽयं ॥१७०६।। मामपेक्ष्य प्रदेशिन्यां स्वतः सर्वथाऽसल्यामपिस्वत्वं भवति, तदा विशेषाभावात् स्वरविषाणेऽपि तद्भवेदतिदीश्चिन्द्रयकिचेह विरदवोसिखचलया-अरुवित्तणाइँ निययाई । धादिष्वपि च तत्स्यात् । अथ वा प्रदेशिन्या:स्वापेक्षया स्वा. सदादो य गज्मा, सोत्ताईयाइँ महणाई ?॥१७०७॥ त्मन्यपिस्वत्वं स्यात्.सर्वत्रासरवाविशेषात् । न चैवम् । तस्मा समया विवजओ वा, सन्चागहणं व किं न सुम्मम्मि || स्वतः सत्यामेव,प्रदेशिन्यां वस्तुतोग्नन्तधर्मात्मकत्वात् त. किं सुन्नया व सम्मं, सग्गहो किं व मिच्छत्त॥१७०८।। त् सहकारिसन्निधौ तत्तद्रूपाभिव्यक्तस्तत्तज्ञानमुत्पद्यते,न पु. नरसत्यामेव तस्यामपेक्षामात्रत एव स्वज्ञानमुपजायते । एवं किह सपरोभयबुद्धी, कहं च तेसिं परोप्परमसिद्धी ।। दी|भयाऽऽदिष्वपि वाच्यम्। अथेदंहस्थमिदं दीर्घमेतमोभय. अह परमईऍ भन्मइ, सपरमइविसेसणं कत्तो ॥१७०६।। मित्यादि स्वपरोभयबुद्धिः परमत्या पराभ्युपगमेनोच्यते, न सर्वाभावे च सर्वशून्यतायों चाभ्युपगम्यमानायां स्वप्नो. पुनः स्वतः सिद्धं स्वविषयज्ञानजनक हस्वाऽऽदिकं किश्चिदउयम अस्वप्नोऽयमिति कुतः किंकृतोऽयं विशेषः१, इत्यर्थः। स्त्यतो न कश्चित् पूर्वापरविरोध इत्यत्राह-ननु सर्वशून्यत्वे सथा सस्यमिदम् अलीकं पा; तथा गन्धर्वपुरमेतत् पाट इदं स्वमतम्, एतच्च परमतमित्येतदपि स्वपरभावेन विशेषणं लीपुत्राऽऽदि चेदं तथा-" तत्थोवयारो ति" अयं कुतो?,न कुतश्चिदित्यर्थः,स्वपरभावेऽपि"समयाविजओ वा" तथ्यो निरूपचरितो मुख्यश्चतुष्पदविशेषः सिंहा, अयं इत्याद्येवावर्तत इति भावः । स्वपरभावाऽऽद्यभ्युपगमे च शूः स्वीपाचारिके मनुष्य विशेषो माणवकः । तथा कार्यमिदं न्यत्वाभ्युपगमहानिरिति ॥ १७०५ ॥ १७०६ ॥ १७०७ ॥ १७०८ घटादि, कारणं चेदं मृत्पिण्डाऽऽदि, तथा साध्यामिदम- ॥१७०६॥ नित्यावाऽदि. साधनं कृतकवादि, कर्ता घटाऽऽदे कु अपि चखालाऽऽदितथा अयं वक्ता बादी, बचनं चदं व्यवयव पश्चा- जुगवं कमेण वा ते, विमाणं होज दीहहस्सेसु । वयवं पारदं च वाच्यमभिधेयमस्य शब्दसन्दर्भस्य तथाऽयं | जह जुगवं काऽवेक्खा,कमेण पुन्वम्मि काऽवेक्खा? १७१० स्वपक्षा, अयं च परंपक्ष इति सर्वशून्यत्वे कुतोऽसौ विशेषो गम्यते । कि वेह थिरेत्यादि।' पृथिव्याः स्थिरत्वम्, अ. प्राइमविष्मामं वा, जं बालस्सेह तस्स काऽवेक्खा। पांद्रवत्वं, बरुष्णत्वं, बायोश्चलत्वम्, आकाशस्यारूपित्व- तुल्लेसु व काऽवेक्खा ,परोप्परं लोयणदुगेन ॥१७११॥ मित्यादयो नियताः सर्वदेवैकस्वभावा विशेषाः सर्वशून्यता- ननु मध्यमा प्रदेशिन्यादिहस्वदीर्घयोस्तवाभिप्रायेण स्वा. यां कुतो गम्यन्ते ? । तथा शब्दाऽऽदयो ग्राह्या एव इन्द्रियाणि कारप्रतिभासि शानं किं युगपदेव भवेत्, क्रमेण वा ।य. च श्रोत्रादीनि प्राहकाण्येवेति कुतो नियमसिद्धिः। (समये- दि युगपत्तर्हि परानपेक्षं द्वयोरपि युगपदेव स्वप्रतिभासि. त्यादि) ननु सर्वशून्यतायां स्वप्नास्वनसत्यालीकादीनां विशे- निशाने प्रतिभासाकस्य किल काऽपेक्षा । अथ क्रमेण, पनिबन्धनाभावात् समतैव कस्मान्न भवति यादृशः स्वप्नः, तदापि पूर्वमेव स्वप्रतिभासिना मानेन परानपेक्षमेव इअस्वप्नोऽपि तारश एव, यादृशश्चास्वप्नः स्वमोऽपि तारश स्वस्य प्रदेशिन्यादेहीतत्वादुत्तरस्मिन् मध्यमाऽदीके: दी|. पवेत्यादि । अथवा-विपर्ययः कुतो न भवति-यः स्वतः सो. काउपेक्षा ? । तस्माच्चक्षुरादिसामग्रीसद्भावे परानपेक्षमेष उस्वनो, यस्त्वस्वमः स स्वप्नः इत्यादि । यदि वा सर्वेषामपि स्वकीयविविक्तरूपेण सर्वभावानां स्वक्षाने प्रतिभासारस्वस्वप्नास्वप्नाऽऽदीनां सर्वथा शून्यत्वेऽग्रहणमेव कस्मान्न भव- त एव सिद्धिः। अथवा-बालस्य तत्क्षणमेव जातस्य शितिम्रान्तिवशादेव स्वप्नाऽस्वप्नाऽऽदिग्रहणमिति चेत् । शोर्य दिह नयनोन्मेषानन्तरमेवाऽऽदो विज्ञान, तन्किमपेक्ष्य तदयुक्त देशकालस्वभावाऽऽदिनयत्येन तनाहकशानोत्पत्तेः। प्रादुरस्ति ?। यदि वा-ये नस्वे नापि दी, किंतु परस्पर कि व-इयं भ्रान्तिः कि विद्यते, न वा ?। यदि विद्यते तीभ्यु- तुल्ये एव वस्तुनी, तयोयुगपदेव स्वप्रतिभासिना ज्ञानेने. पगमविरोधः । अथ न विद्यते, तर्हि भ्रान्तेरसस्वाभावग्रा-| व गृह्यमाणयोःका अन्योन्यापेक्षा, न काचित्, यथा तुल्या हकमानस्य निर्धान्तत्वात् सन्त्येव सर्वे भावाः, न पुनः श. स्य लोचनयुग्मस्य । तस्मादल्यादिपदार्थानां नान्यापेक्षमे. न्यतेति । अथवा अन्यत्पृच्छामो भवन्तं ननु सर्वशून्यत्वे शून्य. वरूपं, किंतु स्वप्रतिभासवता मानेनान्यनिरपेक्षा एव ते तैव सम्यक्त्वं सतां भावानां ग्रहणं सग्रहो, भावसत्वग्र. | स्वरूपतोऽपि गृह्यन्ते । उत्तरकालं तु तत्तपजिज्ञासायां त. हणं पूनर्मिथ्यात्वमित्यत्र कस्ते विशेषहेतुः । यदुक्तं न स्वतो | तत्प्रतिपक्षस्मरणाऽऽदिसहकारिकारणान्तरवशाहीर्घहस्थाभावानां सिद्धिरित्यादि तत्प्रतिविधानार्थमाह-(किह स. ऽऽदिव्यपदेशाः प्रवर्तन्ते.इति स्वतः सिद्धा एव सन्ति भावा परोभयेत्यादि ) ननु कथं हस्वदीर्घोभयविषये इदं हस्वमिदं । इति ॥ १७१० ॥ १७११ ॥ अपि चदीर्घम, पतनु तदुभयमित्येवंभूता स्वपरोभयबुधियुगपदा. किं हस्सानो दीहे, दीहाओ चेव किं न दीहम्पि । धीयते भवता, कथं च तेषां स्वी|भयानां परस्परम सिद्धिरुघुष्यते ?-पूर्वापरविष्यत्वातद्वक्त युज्यत इत्यर्थः।। कीस व न खपुप्फाओ,किन पुखप्फेखपुफानो ११७१२ Page #1519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव 35 इन्त यदि सर्वशून्यता, ततः किमिति ह्रस्यादेव प्रदेशिनो प्रभृतिद्रव्याद्दीर्घे मध्यमाऽऽदिद्रव्ये दीर्घज्ञानाभिधानव्यवहा ते एवं दीर्घेन ज्ञानाभिधानेन व्यवहारा किं न प्रयाविशेषादिति भावः । एवं "कि दीडाओ हस्से, हस्लाश्रो वेव किं न इस्लम्मि ॥ इत्येतदपि द्र यम् । तथा किमिति वा न खपुष्पाद् दीर्घे ह्रस्वे वा तज्ज्ञा नाभिधानव्यवहृतिर्विधीयते ! तथाऽसत्वाविशेषत एव किमिति खात् एव दानादिव्यवहारो म प्रवर्त्तते । न चैवं, तस्मात्सन्त्येव भावाः, न तु शून्यता जगत इति ॥ १७१२ ॥ (१४६६) अभिधान राजेन्द्रः । अपि चकिंवावेवखार चिय, दो मई वा सभाव एवायं । सो भावोति सभावो, बंझाने न सो जुत्ता।। १७१३ ॥ अथवा सर्वस्यापि असवे हस्वाऽऽदेर्दीर्घाऽऽयपेक्षयाऽपि किं कर्तव्यम्, शून्यताप्रतिकूलत्वा तस्याः घटाऽऽद्यर्थसत्ववत् ? । अथ परस्य मनिर्भवेत् खभावादेवाचैव वदीर्घाऽऽदि व्यवहारः प्रवर्तते। न च स्वभावः पर्यनुयोगमईति तथा बोक्रम्-अशिति नाऽऽकाशं, कोऽत्र पर्यनुयुज्यताम् " इति । इन्त इत्थमपि इतोऽसि यत्तः स्वो भावः स्वभावस्ततः स्वपरमावाभ्युपगमात् शून्यताऽभ्युपयमानः न मध्यापुत्र कल्पानामर्थानां स्वभावपरिकल्पना युक्तेति । भवतु वापेक्षा तथापि शून्यतासिद्धिः ॥ १७१३ ॥ कुतः ! इत्याह- ? etararara वा, विमाणं वाऽभिहाणमेतं वा । दीनि वस् त वन उ सच्चा सम्मा ॥ १७१४ ।। अथवा स्वतः सिद्धेस्तुयात् किम् १, इ. त्याह - विज्ञानमभिधानमात्रं वा । केनोल्लेखेन ?, इत्याहदीर्घमिति वा हस्वमिति वेति । किं पुनर्न भवेदित्याह-न स्वन्यापेक्षया वस्तूनां सत्ता भवति, नाप्यापेक्षिकन्छस्वदीर्घस्याऽऽदिभ्यः शेषाः रूपरसादयो धर्माम्यापेक्षया सिध्यन्ति । उत्पद्यन्ते च वस्तुसत्ताग्राहकाणि, रू. पाऽऽदिधर्मग्राहकाणि च ज्ञानानि । अतोऽन्यापेक्षा भावतः क थं स्वतः सिद्धस्य वस्तुसत्ताऽऽदेरभावः ? तत्सद्भावे च कथं शून्यता जगत० १, इति ॥ १७१४ ॥ कथं पुनः ससाऽऽदयोऽन्यापेक्षा ? इत्याहइहग हस्साभावे, सच्चविणासो हवेज दीहस्स | न यसो तम्हा सचादयोऽणाि पडाईं । १७१५। इतरथा यदि घटादीनां साऽन्योऽप्यन्यापेक्षा भवेयुः तदा स्वाभावे स्वस्य सर्वविना वस्तु सर्वविनाशः स्यात् सापेक्षित्वात् न वैयमसी दीर्घस्य सर्वविना दृश्यते सन्त्यभ्यानपेक्षा एव घटाऽऽदीनां सत्तारूपाऽऽदयो धर्माः तत्सत्वे वापास्ता शून्यतेति ।। १७९५ ॥ " यदुक्तं न स्वतो नापि परतो नापि चोभयतो भावानां सि. अपेक्षस्यादित्रापेक्षा इति विरुद्ध हेतु विपत्त सादिति पा जावि अविवि-मक्खिगोलवि 1 भाव सान मया सव्वे सुवि, संतेसु न सुनया नाम ॥ १७१६ ॥ याऽपीयं स्वाऽऽदेवघरापेक्षा साम्यदेवं क्रियारूप, तथा अपेक्षकं कर्त्तारमपेक्षणीयं च कर्मानपेचय न मता न वि दुषां सम्मता । ततः किमित्याह - एतेषु चापेक्षणापेक्षा क्षणीयेषु सर्वेषु वस्तुषु सानुन कविता नाम अतोपेशका विपक्ष स्तोत स्वाद्विरुद्धमिति ॥ १७१६ ॥ . तस्मात्स्वतः, परत उभयतश्च भावानां सिद्धिरस्त्येव व्यवहारतो, निश्चयतस्तु स्वतः सिद्धा एष सर्वे भावा इति दर्शयति किंचि सतह परओ, तदुभयच किंचि नियसिद्धं पि जलओ घडओ पुरिसो, तह ववहारभो नेयं ॥ १७१७ ॥ निच्छयो पुरा बाहिर निमित्तमेत्तोवओोगओ सं । होइ सश्रो जमभावो न सिज्झइ निमित्तभावे वि । १७१८। इह किञ्चित्स्वत एव सिद्धयति, यथा कनिरपेक्षस्तत्का रणसंघातविपदः किं वितु परती यथा कुलालको घटः किं विदुभयतो यथा मातापितृभ्यां स्वकृतकर्म्मतश्च पुरुषः । किं चिभित्यसिद्धमेव यथा भा काशम् । एतश्च व्यवहारनयापेक्षया द्रष्टव्यम् निश्चयतस्तु वानिमात्रमेवासि वस्तु स्वत एव सिद्धयति. यद्यस्मात् वाह्यनिमित्तसद्भावेऽपि खरविषाणाऽऽदिरूपोऽभा वः कदाचिदपि न सिद्धयति । उभयनयमतं च सम्यक्त्वमि ति ।। १७१७ ॥ १७१८ ॥ अथ यदुक्तम् - " अत्थित्तघडेगा गया व " इत्यादि, त प्रतिविचानुमा अस्थिन्त घडेगाणे - गया य पञ्जायमेत्तर्चितेयं । अस्थि घडे पडिव इहरा सा किन खरसिंगे ? । १७१६। ददास्ति घठो न तु नास्तीत्येवं प्रतिपन्ने सति तदनन्तरमे वास्तित्वघटयोः फिमेकता अनेकता बेत्यादिना घटारितत्व. धीरेकानेक पर्यायाने भवता कृता भ ति न तु तयोरभावः सिद्धयति । अन्यथा हाभावरूपा वि. शेपात् यथा घटास्तित्व एवं बरवा ध्याये करवानेकत्वचिस्ता भवतः किं न प्रवर्तते इति ॥ १७१६ ॥ किन? यथा घटास्तिश्वयोरेकायामेकस्यविकल्प एवं घर तथा घटशून्य ते कथम् इत्याह घडसुन्नयन्नगाए, वि सुन्नया का घडाहिया सोम्म ! | एग पढयो विष, न सुझया नाम पदधम्मो १७२० । ननु घटशून्य तयोरप्यन्यताऽनन्यता वा ? | यद्यन्यता, तर्हि ( सुन्नया का घडाहिया सोम्म त्ति ) सौम्य व्यक्त ! शून्यता का घटrssदिका नाम ? ननु घटमात्रमेव पश्यामो, न पुनः कचिच्छून्यता घटादधिका समीक्ष्यते । अथाऽनभ्यता, तथा पिसोरेका घट वासी प्र बोपलभ्यमानत्वात् न तु शून्य नाम सि प्रमादेरनुपलम्पेरिति ॥ १७२० ॥ अपि - विमानाई गया तो या सिद्धा । Page #1520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६७) भाव अभिधानराजेन्द्रः। भाव अमते प्रमाणी, निव्वयणो वा कई वाई १॥ १७२१ ॥ प्रष्टव्योऽत्र देवानांप्रियः कथय किं तद्वस्तुजातमिति प्रतिपद्य. शून्यं सर्वमेव-विश्वत्रयमित्येवंभूतं यद्विज्ञानं वचनं च तेन ते तब मतिः, यज्जाताऽजातोभयादिप्रकारैमजातं साध्यते। सह शून्यवादिनोभवत एकत्वममेकत्वं वायधेकत्वं ततस्त. यस्य जाताजातादिप्रकारैर्जन्म त्वया निषिध्यते इत्यर्थः । दस्तिता वस्त्वस्तिता मिद्धेति कुतः शून्यता, वृत्तवशिशपा. यदि हि जातं किमपि वस्तु तव सिद्धं, तर्हि तत्सत्वेनैव त्वयोरिवैकत्वस्य वस्तुत्वात् । अन्यत्वे तु विज्ञानयचनयोर प्रतिहता शून्यता, अतः " किंतजातं जायते ?,किं तदजातं शानी निर्वचनश्व वादी कथं शून्यतां साधयेत् । शिलासंघात जायते, कि तज्जाताजातं वा जायते ?", इत्यादयः शून्य 'तासिद्धयर्थमुपन्यस्यमाना निरर्थका एव विकल्पा इति प्रच्छ. वदिति ॥ १७२१ ॥ यच घटसवयोरेकत्वधिकल्पेऽभ्यधायि, यो घटः स एवा काभिप्रायः । अथ तदपि जातं जाताऽजातादिविल्कपाऽs. स्तीति घटमात्रेऽस्तित्वस्य प्रवेशाद घट एवास्ति । यदि वा. श्रयभूतं जातत्वेन भवतो न सिद्धं, किं त्वजातमेव तत्। ननु प्रतिपक्षाभावात्सोऽपि नास्तीति तत्राऽऽह स्ववचनविरुद्धमिदं-जातमप्पजातमिति । किं च-जातस्या. सत्त्वे निराश्रयत्वाज्जाताजातादिविकल्पा निरर्थका एव । घडसत्ता घडधम्मो, तत्तोऽणामो, पडाइनो भिलो। । थतदाश्रयभूतं जाताऽख्ये वस्तुन्यसिद्धेऽपि 'न जातं जा. अस्थि ति तेण भगिए,को घड एवेति नियमोऽयं १७२२ यते , इत्यादिविकल्पविचारः प्रवर्तते तर्हि खपुष्पेऽप्यसौ किं घटास्तित्वलक्षणा घटसत्ता घटस्य धर्मः स च ततो घ. न विधीयते, असत्वाविशेषेण "समया विवज्जो वा" इत्याटादनन्योऽभिन्नः पटाऽऽदिभ्यस्तु सर्वेभ्योऽपि भिन्नः । तेन दिव्यक्तदोषप्रसङ्गात् ? । न च वक्तव्यं परेषां सिद्धं जातमुररी. ततो घटोऽस्तीति भणिते घट एवेति घट एवास्ति इति कोऽयं कृत्य विकल्पा विधीयन्ते, स्वपरभावाभ्युपगमे शून्यताहानि. नियमः, निजनिजसत्तायाः पटाऽऽदिवऽपि भावात् , तेऽपि प्राप्तरिति ॥ १७२५ ॥ सन्त्येवेति भाव॥ १७२२॥ अपि चतथाऽस्मिन्नेव घटास्तित्वयोरेकत्वविकल्पे यदुक्तं-यो योऽ. जइ सव्वहा न जायं, किं जम्माणतरं तबलंभो। स्ति स स घट इति सर्वस्य घटत्वप्रसङ्गः, घटस्य वा सर्वव. स्वात्मकत्वमिति । तदपि सर्व घटसत्ता घटधर्मः, इत्यादि. पुव्वं वाऽणुवलंभो, पुणो वि कालंतरहयस्स ||१७२६।। नैव परिहतम् , अत पवाऽऽह यदि सर्वैरपि प्रकारैर्घटाऽऽदि कार्य न जातमिति शून्यवा. दिना प्रतिपाद्यते, तर्हि मृत्पिण्डाऽऽद्यवस्थायामनुपलब्ध कु. जं वा जदस्थि तं तं-घडो त्ति सव्वघडयापसंगो को । लालाऽऽदिसामग्रीनिर्वीततजन्मान्तरं किमिति तस्मात्तदुपभणिए घडांत्थि व कह,सवस्थित्तावरोहो त्ति।२७२३॥ लभ्यते । पूर्व वा जन्मतः किमिति तस्यानुपलम्भः ? पुनरपि यद्वा प्रोक्तं यद्यदस्ति तत्तत्सर्वे घटः' इति,तत्र कोऽयं सर्वध. कालान्तरे लगुडाऽऽदिना हतस्य किमिति तस्यानुगलम्भः।। टताप्रसनः। तथा यो घटः स एवास्तीत्यप्युक्ने कथं सर्वा. अजातस्य गगननलिनस्येव सर्वदैव घटाऽऽदेरनुपलम्भ एव स्तित्वावरोधः-कथं घटस्य सर्वात्मकत्वम् ?, इत्यर्थः । यदा स्यात् , यस्तु कदाचिदुपलम्भ, कदाचित्तु नोपलम्भोऽसा हि घटसत्ता घट एवास्ति नान्यत्र,तदा यत्र यत्र घटास्तित्वं जातस्यैवोपपद्यते इति भाषः॥ १७२६ ॥ तत्र तत्र घट इति न कश्चित्सर्वेषां घटताप्रसङ्गः, तथा घटस. किंचस्वेन घट एवास्ति' इत्येतस्मिन्नप्युक्ते न किश्चिद् घटस्थ सर्वा- जह सव्वहा न जायं, जायं सुमवयणं तहा भावा । त्मकत्वं प्रतीयत इति भावः ॥ १७२३ ॥ अह जायं पिन जायं,पयासिया सुम्नया केण ॥१७२७॥ तदेवं प्रस्तुतं परपक्षमपाकृत्य स्वपक्षस्य भावा शन्यं सर्व जगदित्येवंभूतं यच्छ्न्य ताविषयं विज्ञानं वचनं व थेमाह तद्यथा जाताऽजाताऽदिप्रकारः सर्वथा जातमप्यजातमपि अस्थि ति तेण भणिए, घडोघडो वा घडो उ अत्थेव।। सत्केनापि प्रकारेण तावज्जातं, तथा भावा अपि घटपटा. चूनो चुनो व दुमा,चूनो उ जहा दुयो नियमा ।१७२४॥ ऽऽदयो जाता एएव्याः , इत्यतो न शून्यं जगद् । अथ शून्य. यन कारणेन घटसत्ता घटधर्मस्वाद घट एवास्ति पटाऽदि. ताविज्ञानवचनद्वयं जातमप्यजातमिष्यते, तर्हि तद्विशानवभ्यस्तु भिना, तेन तस्मादस्तीयुक्त घटोऽघटो वा पटाऽऽदि. चनाभ्यां विना केनाऽसौ शून्यता प्रकाशिता ?-न केनचिगम्यते,निजनिजमत्वस्य सर्वेषु पटाऽऽदिष्वपि भावात् (घडी दिति शून्यताऽनुपपत्तिरिति ॥ १७२७॥ उअत्यव सि)-घट इति तु प्रोक्ने प्रस्त्येवेति गम्यते,निजसरव. यदप्युक्तं-'न जातं जायते नाप्यजातम्।' इत्यादि तदप्ययनं. स्य नियमेन घटे सद्भावात् । अत्र यथासंख्यमुदाहरणद्वयम् । यतो विषक्षया सधैरपि प्रकारर्यथासम्भवं वस्तु ज्ञायते, कि यथा ठुमः इत्युक्ते चूनोऽचूतावा निम्बाऽऽदिर्गम्यते, लुमवस्य चित्तु सर्वथा न जायते, इति दर्शयतिसर्वत्र भावात् । चूत इति तु निगदिते हुम एव गम्यते, अट्ठम- जाया जायमजायं, जायाजायमह जायमाणं च।। स्य चूतत्वायोगादिति ॥ १७२४॥ कजमिह विवक्खाए, न जायए सचहा किंचि । १७२८। यदुक्तं-यदेसज्जातंन जायते, नाप्यजातं, न च जाताजातं, रूवि त्ति जाइ जाओ, कुंभो संठाणो पुणरजाओ । नापि जायमानमित्यादि । तत्रौत्तरमाह जायाजाओ दोहि वि, तस्समयं जायमाणो त्तिा१७२६। किं तं जायं ति मई, जायाऽजायोभयं पि जदजाय । पुवकमो उ घडतया, परपज्जाएहि तदुभएहिं च । श्रह जायं पि न जायं,किं न खपुप्फे वियारोऽयं ।।१७२५ जायंतो य पडतया, न जायए सबहा कुभो ॥१७३०॥ ३७५ Page #1521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव अभिधानराजेन्द्रः। भाव वोमाइ निच्चजायं. न नायए तेण सम्बहा सोम्म ! मिति प्रत्यक्षत एवं नोपलभ्यते ! . समताविपर्ययो वा कथ इय दन्वतया सवं, भयणिजं पजवगईए ॥ १७३१ ॥ न स्यादिति वाच्यमिति ॥ १७३२ ॥ इस कार्य घटाऽऽदिकं विवक्षया किमपि जातं जायते, किश्चिदजातं, किश्चिजाताजातं, किञ्चिजायमानं, किञ्चिन्नु सर्व सामग्गिमभो वत्ता, वयणं चस्थि जइ तो कत्रो मुखं । था न जायत इति । अथ यथाक्रममदाहरणानि-1 रुवी अह नत्यि केण भणियं,बयणाभावे सुयं केण १।१७३३॥ स्वादि) रूपितया घटो जातो जायते, मृपतायाः प्रागपि भा. सामग्री उशिराकण्ठोष्ठतालुजिकाऽऽदिसमुदायाऽस्मिका वात्, तद्रूपतया जात एव घटो जायत इत्यर्थः । संस्थानतया तन्मयः सामन्यात्मको वक्ता, तद्वचनं चास्ति न वा?। यआकारविशेषेण पुनः स एवाजातो, जायते, मृत्पिण्डा55 द्यस्ति, तर्हि कुतो जगच्छून्यत्वं, तद्वक्तृवचनसावेनैव व्यभि. घवस्थायामाकारस्यासम्भवातू, मृदूपतया, प्राकारविशे- चारात् ? । अथ तद्वक्तृवचने न स्तस्तहि वक्तृवचनाभावे षेण चेति द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां जाताजातो जायते । तदन- केन भणितं शून्यं जगत् १. न केनचित् । सर्वशून्यत्वे च प्रतिपार्थान्तरभूतत्वाव घटस्य । तथा अतीतानागतकालयोर्षिना घस्याध्यभावात् केन तत् शून्यवचः क्षुतमिति ॥ १७३३ ॥ नुत्पन्नत्वात् क्रियाऽनुपपत्तेर्वर्तमानसमय एव क्रियास अत्र परभिप्रावमाशङ्कय परिहरनाहद्भावात्तत्समयं वर्तमानसमयं जायमानो जायते । किञ्चित जेणं चेव न वत्ता, क्यणं वा तो न संति वयणिजा। सर्वथा जाताऽजाताऽऽविप्रकारेन जायते । किं पुनस्तदित्या भावा तो सुष्पमिदं, वयणमिदं सबमलियं वा ॥१७३४॥ ह-(पुखको उ इत्यादि) पूर्वकृतस्तु पूर्वनिप्पो घटो घटतया जाताजाताऽऽदिविकल्पानां मध्यादेकेनापि प्रका. जइ सच्चं नाभावो, अहालियं न पमाणमेयं ति। रेण न जायते, पूर्वमेव जातत्वात, किं घटतयैव न जायते । अभुवयं ति व मई, नाभावे जुत्तमेयं ति ॥१७३५ ॥ नेस्याह-(परपज्जापहि ति) तथा पटाऽऽदिगतैः परपर्याय. येनैव न वक्ता, नापि च वचनं. ततस्तेनैव न सन्ति वचः श्व घटो न जायते, स्वपर्यायाणां पूर्वमेव जातत्वात्, परप नीया भावा इत्यतः शून्यमिदं जगदिति । अनोच्यते-यदेयायैश्च कदाचित कस्याप्यभवनात् । स्वपरपर्यायैः पूर्वकृ. तक्तृवचनवचनीयानां भावानामभावप्रतिपादकं पचन तघटो न आयते, जाताजातपटवरविषाणदिति भाषः।त. तस्लत्यमलोकं चा?। यदि सत्यं, सद्यस्यैव सस्यवचनस्य स. था जायमानोऽपि वर्तमान क्रियाक्षणसमये पटतया घटो बाबानाभाषः सर्वभाषानाम् । अथालीकमिदं वचनं, तईन जायते, पररूपतया कस्याऽप्यभवनात् । कि पूर्वकतो घ. प्रमाण मेतत् मतो नाताशून्यतासिद्धिमय यथा तथा पाडट एवेत्थं न जायते, आहोस्विदम्यदपि किश्चिम जायते । भ्युपगतमस्माभिःशून्यताप्रतिपावकं वचनम् मतोऽस्मदचन त्या-(बोमाईत्यादि) न केवलं पूर्वकृतो घटी घटतयान प्रामाण्यात शून्यतासिद्धिरिति तष मतिः नवं यतः "सत्यम् , जायते, तथा प्योमाऽऽदि च तेन कारणे सौम्य सर्वथा जाता अदिभिः सबैरपि प्रकारैर्न जायते, येन किमित्याह-येन नित्य अलीकं कषयेदमभ्युपगतम्?"इस्यादि पुनस्तदेवाऽऽवर्तते। किं च-अभ्युपगन्ताऽभ्युपगमोऽभ्युपमनीयं वेत्येतत्त्रयस्य जातं सर्वदाऽवस्थितं हेतुबारेणं विशेषणमिदं नित्यजातत्यान्न सद्भावेऽभ्युपगमोऽप्येष भवतो युज्यते, न च सर्वभावानामा जायत इत्यर्थः । उक्तस्यैवार्थस्योपसंहारव्याजेन तात्पर्यमुपद भावे एतत्त्रयं युक्तमिति ॥ १७३४ ॥ १७३५॥ शयमाह-(इयेत्यादि) इत्युक्तप्रकारेण सर्वमपि घटपटव्योमा. अपिचऽऽदिकं वस्तु द्रव्यतया द्रव्यरूपेण 'न जायते' इतीहापि संघ. ध्यते,तद्रूपतया सदाऽवस्थितस्वादिति भावःपर्यायगस्या पर्या सिकयासु किन तेलं.सापग्गीभो तिलेसु वि किमथि। यचिन्तया पुनः सर्व भजनीयं विकल्पनीयम् । पूर्वजातं घटा. किंवन सव्वं सिज्झइ,सामग्गीयो खपुष्फा॥१७३६॥ उऽदिक रूपाऽऽदिभिः स्वपर्यायैरपिन जायते, पूर्वजातत्यादेव, सर्वभावानामसखे सर्वोऽपि प्रतिनियतो लोकम्यवहारः स. अजातं तु तत्स्वपर्यायैर्जायते,परपर्यायैस्तु किञ्चिदपि न जाया मन्छियते तथाहि-भाषाभावस्य सर्वत्राविशिष्टत्वात्किमिति ते, इत्येवं पर्यायचिन्तायां भजना। एतश्च प्रायोवर्शितमेवेति ।। सिकताकणसामग्रीतस्तैतं न भवति. तिलाऽदिसामध्यां वा ॥ १७२८ ॥ १७२६ ॥ १७३० ॥ १७३१ ॥ तकिमस्ति । किंवा खपुष्पसामग्रीतः सर्वमपि कार्यजातं अथ यदुक्तं- 'सर्व सामग्रीमयं दृश्यते, सर्वाभावे च कुतःसा. नसिध्यति। न चैवं,तस्मात्प्रतिनियतकार्यकारणभावदर्शना. मग्री!,' तत्र प्रतिविधानमाह भाभावसामग्रीतः किमप्युत्पद्यते, किं तु यथास्वभावसादीसइ सामग्गिमय, सम्वमिह स्थि न य सा नणु विरुद्धं । मग्रीतः तथा च सति न शून्यं जगदिति ॥ १७३६ ॥ किंचघेप्पइव न पच्चक्खं, किं. कच्छपरोमसामग्गी । १७३२॥ सव्वं सामग्गिमयं, नेगतोऽयं जमोऽणुरपएसो । इह यदुक्तं-"सर्वमपि कार्य सामग्यात्मकं श्यते, सर्वाभावे मजास्ति सामग्री ।" इति। तदेतद्विरुखमेव, प्रस्तुतार्थप्रति. श्रह सो वि सप्पएसो,जस्थावत्था स परमाणू।।१७३७।। पादकत्वात् , बचोजनककण्ठष्ठिताल्वादिसामग्या:प्रत्यक्षत सबै सामग्रीमयं सामग्रीजन्यं वसिषस्ययमपि नैकान्तः , एवोपनम्धेः। अथ बूषे-अधिोपप्लवादविद्यमानमपि श्य- यतो द्वषणुकाऽऽदया स्कन्धाः सप्रदेशत्वावधादिपरमाणुज. है। यत् उक्तम्-"कामस्वप्नभयोन्माद-रविद्यापपलवात्तथा। स्यत्वावन्तु सामग्रीजन्याः परमाणुःपुनरप्रदेश इति न केन. पश्यन्त्यसम्तमप्यर्थे, जनाः केशन्दुकाऽऽदिवत् ॥ १॥ इति ॥ चिजन्यते,इति कथमसौसामग्रीजन्यः स्यात् । अस्ति चासौ. यवं, तीसत्वे सामान्येऽपि कच्छपरोमजमकसामग्री कि कार्यलिङ्गगम्यत्वात् । उक्तं च-"मूरगुरप्रदेश, कारणमन्त्यं. Page #1522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६६), भाव अभिधानराजेन्द्रः। भाव भवेत्तथा नित्यः। एकरसवर्णगन्धो. विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्चा" | स्यादि ताबत् यावत्सर्वाऽऽरातीयभागः । " इति । अत्रापि अथायमपि सप्रदेशः, तबैतत्प्रदेशोऽणुभविष्यति , तस्यापि | परभागस्यासत्वे सर्वाऽऽरातीयभागपरिकल्पनमनुपपन्नमेवसप्रदेशत्वे तरप्रदेशोऽणुरित्येवं तावद्यावद्यत्र कचिनिःप्रवेश स्यात् । तस्मादस्ति परभाग इति ॥ १७४०॥ तया भवबुदेरवस्थानं भविष्यति, स एव परमाणुः, तेनापि अपि चच सामग्रीजन्यत्वस्य व्यभिचार इति ॥ १७३७ ॥ सव्वाभावे वि कमओ, आरापरमज्झभागनाणतं । न सम्त्येव ते परमाणवः, सामग्रीजन्य. अह परमईए भाइ, सपरमइविसेसणं कत्ती ॥१७४१॥ स्वाभावादित्याशङ्कयाऽऽह पारपरमज्झभागा, पडिवमा जइ न सुष्मया नाम । दीसह सामग्गिमयं, न यागावो संति नणु विरुद्धमिदं । अप्पडिवरमेसु विका, निगप्पणा खरविसाणस्स।१७४२॥ किं वाणूणमभावे, निष्फलमिणं खपुप्फेहि ॥१७३८।। सवाभावे वाऽऽराभागो, किं दीसए न परभागो। "सामग्रीमयं सर्व दृश्यते"इति भवतैव प्रागुक्तम् । 'अणवश्व सवागहणं व न किं, किंवा न विवञ्जओ होइ॥१७४३।। न सन्ति ' इत्यधुना ब्रूपे, ननु विरुद्धमिदं, यथा सर्वमप्यनृतं तिम्रोऽपि प्रतीतार्था एवेति ॥ १७४१ ॥१७४२॥ १७४३॥ वचन मिति खुवतः स्ववचनविरोधः,तथाऽत्रापीत्यर्थः। यदेव हि सामग्रीमयं किमपि दृश्यते भवता, तदेवाणुसातास्मक किं च पदि परभागादर्शनाद्भावानाम सत्वं प्रतिपाद्यते, तर्हि म्, अतः स्ववचनेनैव प्रतिपादितत्वात्कथमणवो न सन्तीति स्फटिकाऽऽदीनां तन्न स्यादिति दर्शयबाहभावः किं च अणुनामभाव इदं सर्वमपि घटाऽऽदिकार्यजातं परभागदरिसणं वा, फलिहाईणं ति ते धुवं संति । किंखपुष्पैनिष्पन,परमाएवभावे तज्जनकमृस्पिण्डाऽऽदिसाम- जइवा ते विन संता, परभागादरिसणमहेज ॥१७४४॥ ग्यभावात् ,हीत भावः तस्माद्यस्मात्सामग्रीमयं दृश्यत इति सव्वादरिसणो चिय, न भस्मए कीस भणइ तन्नाम । प्रतिपद्यते भवता, तद्वदेव परमाणव इति ॥ १७३८ ॥ पुन्वन्भुवगयहाणी, पच्चक्खविरोहमो चेव ॥१७४५|| यदुक्तम्-"परभागादरिसणो, सम्वाराभागसुङमयानो. य" यादि । तत्र प्रतिविधानमाइ ननु येषां स्फटिकाभ्रपटलादीनां भावानां परभागदर्शन मस्ति ते तावद् ध्रवं सन्त्येवेति 'परभागादर्शनात्' इत्यनेन हे. देसस्साराभागो, घेप्पा न य सो त्ति नणु विरुद्धमिणं । तुना सर्वभावानामसत्वं न सिस्थति। अथ स्फटिकाऽऽदयो. सच्चाभावेऽपि न सो,पप्पड किं खरविसाणस्स ११७३९। ऽपि न सन्ति तर्हि ' परभागादर्शनात् ' इत्ययमहेतुः, यदुक्तम्-श्यस्यापि वस्तुनः परभागस्तावन्न श्यते, प्रा. स्वदभिप्रेतस्य सर्वभावासस्वस्यालाधकरवात् । अतोरानागस्तु गृह्यते, परं सोऽप्यन्याम्यपरभागकल्पनया प्रागु व्यापकममुं हेतुं परित्यज्य ' सर्वादर्शनान्न सन्ति भाषा:' क्युक्लितो नास्तीति । ननु विरुखमिदं-गृह्यते असौ , न च इत्ययमेव व्यापको हेतुः कस्मान भएयते ?। (भार सन्नाम. समस्तीति । सर्वाभावाद्धान्त्याऽसौ गृह्यत इति चेत। तदयु त्ति ) अत्र पर उत्सरं भणति । किमित्याह-तत्रामास्तु सर्वा. नम् । यतः-सर्वाभाव तुल्येऽपि किमिति खरविषाणस्य सं. दर्शनादित्ययं हेतुस्तहि भवत्वित्यर्थः, यथा तथा शून्यतैवाबन्धी पाराद्भागो न गृह्यते ?। समता विपर्ययो वा कथं न स्माभिः साधयिव्या, सा च सर्वादर्शनादित्यनेनापि हेतुना भवतीति ॥ १७३६. सिभ्यतु, किमनेनाऽऽग्रहेणाऽस्माकम् ?, इति भावः। अथ सू. रिराह-(पुवेत्यादि)नम्बिदानीं सर्वादर्शनादिति बुवती भवत: परभागादरिसण ओ, नाराभागो वि किमणुमायां ति ।। "परभागादरिसणो" इति पूर्वाभ्युपगतस्य हानिः प्राप्नोति । आराभागग्गहणे, किं व न परमागसंसिद्धि ॥१७४०॥ किं च-ग्रामनगरसरित्समुद्रघटपटाऽऽदीनां प्रत्यक्षेणैव दर्श "परभागमात्रादर्शनादारागागोऽपि नास्ति"इत्यत्र किमनुमा. नात् सर्वादर्शनलक्षणस्य हेतोः प्रत्यक्षविरोधः। ततः प्रत्यक्ष. नं भवत एतदुक्तं भवति यत्प्रत्यक्षण सकललोकप्रसिद्धं तद. विरोधतश्च सर्वादर्शनादित्येतदयुक्तमिति। अत्र कश्चिदाह-ननु मेरोष्ण्यमिव कथमनमानेन बाध्यते ?|श्राराङ्गागस्य हि भापे. सपतस्य सर्वस्याव्यापकोऽपि विपक्षात्सर्वथा निवृत्तो हेतुरिः प्यत एष.यथा"अनित्याशब्दः प्रयत्नानम्तरीयकत्वात् ।" इति क्षिकत्वात् तदम्यथाऽनुपपत्तेः परभागानुमानं तावदद्यापियु नबनिस्योऽर्थः सर्वोऽपि प्रयत्नानन्तरीयक:विद्युद्धनकुसुमाज्यते । यस्तु परभागादर्शनमात्रेणैव तन्निहवा,सोऽसंबद्ध एव, अदिभिर्व्यभिचारात् तद्वदिहापि यद्यपि सर्वेष्वपि भावेषु पर. सत्स्वपि देशाऽऽदिविप्रकृष्टेषु मेरुपिशाचा अदिष्वदर्शनसंभ भागादर्शनं नास्ति, यथाऽपि बहुषु तावदस्ति,अतस्तेषु शून्य. वात् । तस्मान्न परभागादर्शनमात्रेणारागागोऽपहोतव्याकिश्च. तां साधयन्नसौ सम्यग् हेतुर्भविष्यति । तदयुक्तम् । यतस्तत्र पाराद्भागग्रहणे परभागानुमानं युज्येतापीति भाष्यकारो 'यदनित्यं न भवति तत्प्रयत्नान्तरीयकमपिन भवति' यथा उप्याह-(साराभागेत्यादि) बाराद्भागग्रहणे कथं न परभा- "प्राकाशम्।" इत्येवं व्यतिरेकःसिध्यति । बहतु पत्र शून्यता गसंसिद्धिरिति १, अपि तु तत्संसिद्धिरेव । तथाहि-दृश्यस्य नास्ति, किंतहि?,वस्तुनःसावं.परभागादर्शनमपि तत्र नास्ति, बस्तुमापरभागोऽस्ति, तत्संबन्धिभूतस्याऽऽराागस्य प्रह किं तु परभागदर्शनं यथा क.इति भवतःसर्वासादिनी व्य. णाद् इह यत्संबन्धिभूतो भागो गृह्यते तत्समस्ति, यथा न. तिरेकः कचिदपि न सिध्यति अतोऽहेतुरेवावमिति॥ १७४४॥ भसः पूर्वभागे प्रहीते तत्संबन्ध्यपरभागः, गृह्यते च घटाss. ॥१७४५॥ देरारादागोऽतस्तत्संबन्धिभूतः परभागोऽप्यस्ति । यथोक्लम् অল্প বলিমহমাগজুৰুত্ব ঘবিহুরূহ"पाराद्भागस्याप्यन्य पाराद्भागः कल्पनीयः, तस्याप्यन्य नत्थि परमज्मभागा, अप्पचक्वत्तो मई होला। Page #1523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५००) भाव अभिधानराजेन्द्रः। भाव नणु अक्खऽस्थावत्ती, अप्पचक्खत्तहाणी वा।।१७४६॥ इह किल पडावा भवन्ति । विशिष्टहेतुभिः स्वतो वा अथ स्याम्मतिः-परमध्यभागौ न स्तः, अप्रत्यक्षत्वात् ,खर. जीवानां सत्तद्रूपतया भवनानि भवन्त्येभिरुपमशमाऽऽदिभिः विषाणषत् । तदसवे च तदपेक्षया निर्दिश्यमान आराद्भागो. पर्यायैरिति वा भावाः । किनामानः पुनस्ते?, इत्याह ( उ. ऽपि नास्यतःसर्वशून्यतेस्यभिप्रायः। तदयुक्तम् । यतोऽक्षमक्ष- बसमन्वयमीसादयेत्यादि ) अत्र सूचकत्वात् सूत्रस्यैवं प्र. मिन्द्रियमिन्द्रियं प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षोऽर्थः, न प्रत्यक्षोऽ- योगः । (उवसमित्ति) औपमशमिको भावः। (वय तिक्षाप्रत्यक्षः, तद्भावोऽप्रत्यक्षत्वं, तस्मादप्रत्यक्षवादित्युच्यमाने यिको भावः। ( मीस ति) क्षायौपशमिको भावः । ( उ. नन्वक्षाणामर्थस्य चाऽऽपत्तिःसत्ता प्राप्नोति,तदापत्तौ च शून्य दय त्ति) औदयिको भावः। (परिणाम त्ति ) पारिणामिताऽभ्युपगमहानिः। शून्यतायां वा अप्रत्यक्षवलक्षणस्य हेतो. को भावः । (६४ गाथा) (कर्म० ४ कर्म०) द्विभेद औपशनिः, अक्षार्थानामभावे प्रत्यक्षाप्रत्यक्षव्यपदेशानुपपत्तेरिति मिको भावः, नव-भेदः क्षायिकः, अष्टादशभेदः क्षायोपशभावः॥ १७४६ ॥ मिकः, एकविंशतिभेद औदयिका, त्रिभेदः पारिणामिकः । अपि च-अप्रत्यक्षवादित्यनकान्तिको हेतुरिति दर्शयत्राह सर्वेऽपि भावपञ्चकभदात्रिपञ्चाशदिति ॥६६॥ अस्थि अपच्चक्खं पि हु, जह भवनो संसयाइविन्नाणं । प्ररूपितं समभेदं भावपञ्चकम् । अधुना सांनिपातिकाऽऽण्यप. अहनस्थि मुम्पया का, कास व केणोवलद्धा वा ! १७४७) ष्ठभावभेवप्ररूपलायोपक्रम्यते तत्र च यधप्यौपशमिकाऽऽदि. नवप्रत्यक्षमप्यस्ति किश्चिद्वस्तु, यथा भवतः संशयाऽऽदि- भावानां पञ्चानामिति द्विकाऽऽदिसंयोगभङ्गाः पविशतिर्भवविज्ञानमन्येषामप्रत्यक्षमप्यस्ति, ततो यथैतत्तथा परमभ्य - म्ति । तद्यथा-प्रौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकौदयिकपा. भागाचप्रत्यक्षो भविष्यत इत्यनैकान्तिको हेतुः। अथ भवत्सं- रिणामिक इति भावपञ्चकं पट्टकाऽऽदावालिख्यते. ततो दशशयादिविज्ञानमपि नास्ति तर्हि का नाम भ्यता, कस्य द्विकसंयोगा वक्षसञ्चारणया लभ्यन्ते-दशैव त्रिकसंयोगाः, वाऽसौ ?, केन घोपलब्धाभिवत एवेह तपकिल संशयः,स- पञ्च चतुष्कसंयोगाः, एकः पञ्चकसंयोग इति; तथापि षड़ेचेनास्ति, तहि कस्यान्यस्य ग्रामनगराउदिसखे विप्रतिप- व संयोगा जीवेध्वविरुद्धाः सम्भधान्त, शेषास्तु विंशतिः त्तिः, इति भावः ॥ १७४७॥ विशे०। संयोगभङ्गाःप्ररूपणामात्रभावित्वेनासम्भविन एव, अतः स(४)भवति भविष्यति भूतवांश्चेति भावः। अथवा-भवन्स्य- म्भविषभेदद्वारेण गत्याश्रिता यावन्तः सानिपातिकभावस्मिन् स्वागता उत्पादविगमध्रौव्याऽऽस्याः परिणामवि- भेदाःसम्भवन्ति यावन्तश्च न सम्भवन्ति तदेतत्प्रकटयन्नाहशेषा इति भावः । अस्तिकाये, दश. १०। वस्तुधर्म, चउ चउगईसु मीसग-परिणामुदाहि चउ सखइएहि । विशा० । भावप्रत्ययश्च यस्य गुणस्य हि भावाद उवसमजुएहि वा चउ-कवलिपरिणामुदयखइए॥६७।। द्रव्ये शब्दनिवेशस्तदभिधाने स्वतलाविति । सूत्र० १७० १२ अ० । शुक्लाऽऽदिके वस्तुपीये , दर्श० १ तव । चत्वारो भङ्गाश्चतसृषु गतिषु चिन्यमानासु भवन्ति । कैः कृत्वेत्या?--मिश्नकपारिणामिकौदायिकौयिकैर्भावैर्ध्यावर्णिविशे० । पाव०। अनु०। उत्त०। कर्म । स्था०। श्रा०म० ।। तस्वभावैः । इयमत्र भावना-गतिचतुष्टयद्वारेण चिनि० ० । सम्म० । द्रब्यस्य विशिष्टावस्था भाव इति।। म्त्यमानः क्षयोपशमिकपारिणामिकौदयिकलक्षण एकोऽप्यश्राचा०२७०१०४ अ०१ उ• भवन्ति विशिएहेतुभिः य त्रिकसंयोगरूपः सांमिपातिको भावश्चतुर्दा भवति । स्वतो वा जीवानां तत्तद्रूपतया भवनं भावः । भवन्त्येभिरूपशमादिभिः पर्यायरिति भावः । कर्म० ४ कर्म० । प्रवक। सथाहि-क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि पारिणामिक जीतेन रूपेण भवनं भावः । अथवा-तेन तेन रूपेण भवतीति बत्वाऽऽदि, औदायकी नरकगतिः, इत्येको नरकगत्या. भिस्त्रिकसंयोगः । एवं तिर्यङ्ममुष्यदेवगत्यभिलापेन प्रयो. भावः। पद्वा-भवति तेभ्यः, तेषु वा भवतीति भावः । यद्वा-भवन्ति तेभ्यस्तेषु वा सत्सु प्राणिनस्तेन तेन रूपेणे. भलका अन्यऽपि बाच्याः । इत्येचं चतुर्विधां गात प्रतीस्य ति भावः । औदयिकाऽऽदिके वस्तुपरिणामविशेष, अनु। त्रिकसंयोगेन चत्वारो भेदा निरूपिताः । संप्रति चतुःसंयो. दशाभावशब्दो बर्थः । क्वचिद् द्रव्यवाचकः। तद्यथा-"णा. गेन चतुरो भेदानाह-(चउ सस्थइपहिं ति ) चत्वारो भेना सो भुवि भावस्ल, सद्दो हवति केवलो।"भाषस्य द्रव्यस्य भवन्ति कैरिस्याह-सह क्षायिके रण वर्तन्ते ये क्षायोपशमिकपा. वस्तुन इति गम्यते । कचिच्छुका नियपि वर्तते । रिणामिकौदयिक लक्षणा भावास्ते सक्षायिकास्तैः सहायिकैः। "जं जंज जे भाव परिण महः" इत्यादि । यान् यान् शुक्लाss. अयमर्थ:-गतिचतुएयद्वारेण चिम्त्यमानः क्षायोपशमिकपादीन भावानिति गम्यते, कचिदौदयिकाउदिष्वपि वर्तते या रिणामिकौदायकक्षायिकल क्षण एकोऽप्ययं चतुष्कसंयोगथा-"श्रोदयिए उवसमिए।"इत्यायुक्त्वा ।"छब्धिहो भावलो- रूपः सानिपातिको भावश्चता भवति । तद्यथा-क्षायो। गो उ।" औदयिकाऽऽदय पव भाषा लोक्यमानत्वादावलोक पशमिकानीन्द्रियाणि पारिणामिक जीवत्वाऽऽदि, प्रौदयिकी इति तदेवमनेकार्थवृत्तिः सन्नौदयिकाउदिवेव वर्तमान रह नरकगतिः, क्षायिकं सम्यक्त्वमित्येको नरकगत्याश्रितःचत. गृहीत इनि, भवन भावः,भवन्त्यस्मिन्निति बा भावः । दश. कसंयोगः। एवं तिर्यमनुष्यदेवगन्यभिलापेन त्रयो भाका : (भावानां पड्डिधत्वम् 'प्राणुपुब्बी' शब्दे द्वितीय. अन्येऽपि वाच्याः । इत्येवं चतुर्विधां गति प्रतीत्यैकप्रकारेण भागे १५३ पृष्ठे गतम्) चतुष्कसयोगेन चत्वारो भेदा निरूपिताः। (५) भावद्वारं व्याधिख्यासुराह अधुना प्रकारान्तरण चतुष्कसंयोग एव चतुरो भेदानाउवसमखयमीमोदय-परिणामा दुनवऽठार इगवीमा। ह- उबसमजुपाई वा चउ ति ) वाशब्दोऽथवाशब्दार्थः । तियभेय संनिवाइय, सम्म चरणं पढमभावे ।। ६४ ॥ । अथवा क्षायिकभावाभाव औपशमिकेन प्रदर्शितस्वरूपेण Page #1524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव अभिधानराजेन्द्रः।। भाव भावेन युतैः कलितः पूर्वोक्तः क्षायोपशमिकपारिणामिकौद- नाऽऽवरणदर्शनाऽवरणमोहनीयान्तरायलक्षणानांघातिकर्म. विकैरेव निष्पन्नस्य सांनिपातिकभावस्य गतिखतुष्कं प्रती. णामेव क्षयोपशमो भवति, न स्वाघातिकर्मणामिति । भएकस्य चत्वारचतुःसंख्या भेदा भवन्तीति शेषः । तद्यथा-क्षा मसुशानाऽवरणऽऽचन्तरायावसानेषु चः पुनरर्थे । अरसु. योपशमिकानीन्द्रियाणि, पारिणामिकं जीवत्वम् , औदयिकी कर्मसु पुनः शेषा औदायिकक्षायिकपारिणामिकभाषा भवनरकगतिः, औपशमिकं सम्यक्त्वमित्येको नरकगत्याश्रितः न्ति । तत्रोदयो विपाकानुभवनं. क्षयोऽत्यन्ताभाषः, परिणाचतकसंयोगः । एवं तिर्यड्मनुष्यदेवगत्यभिलापेन यो मस्तेन तेन रूपेण परिणमनमित्यक्षरार्थः । भावार्थस्वयमभाा अन्येऽपि वाच्याः । तदेवमभिहिता गतिचतुष्टयमा | मोहनीयकर्मणः पञ्चापि भावाः प्राप्यन्ते, मोहनीयवर्जितश्रित्य केन त्रिकसंयोगेन द्वाभ्यां चतुष्कसंयोगाभ्यां द्वादश शानाऽऽधरणदर्शनाधरणान्तरायलक्षणानां तु त्रयाणांघाति. विकल्पाः । संप्रति शुद्धसंयोगत्रयस्वरूपं शेष भेदत्रयं निरूप- कर्मणामुदयक्षयक्षयोपश्चमपरिणामस्वभावाश्चत्वार एष भाषा यिषुराद-(केलिपरिणामुदय स्खइप ति) केवली केवलशानी | भवन्ति न पुनरुपशमः । शेषाणां वेदनीयाऽऽयुर्नामगोत्रस्वरू. पारिणामिकौदयिकक्षायिके सांनिपातिकभेदे त्रिकसंयोगरूपे | पाणां चतुर्णामप्यघातिकर्मणामुदयक्षयपरिणामलक्षणात्य वर्तते । यतस्तस्य पारिणामिकं जीवत्वाऽऽदि मौदयिकी | एव भावा भवन्ति, न तु क्षयोपशमोपशमाविति । प्रतिपादिता मनुजगतिः, क्षायिकाणि शानदर्शनचारित्राणि , तदेवमेक- जीधेषु तदानितकर्मसु च पश्चापि भावाः। अधुना तामजीवेषु त्रिकसंयोगः केवलिषु संभवतीति । विभणिषुराह-(धम्माइ इत्यादि) इह पदैकदेशे पदसमुदायोखयपरिणामिसिद्धा, नराण पण जोगुवसमसेदीए । पचारादू धर्मस्तिकायः,अधर्मास्तिकायः,माकाशास्तिकाया, पुद्रलास्तिकायः, कालद्रव्यं चेति परिग्रहः । (कर्म०४कर्म०) त्य पर संनिवाइय-भेया वीसं असंभविणो ॥६॥ (धर्मास्तिकायव्याख्या धम्मस्थिकाय' शब्द चतुर्थभागे १७२८ सिद्धा निर्दिग्धसालकमेन्धनाः क्षायिकपारिणामिके सां. पृष्ठे गता) (अधर्मास्तिकायव्याख्या 'अधम्मस्थिकाय' शब्द निपातिकमेवे शिकसयोगरूपे घर्तते । तथाहि-सिद्धानां प्रथम भागे ५६७ पृष्ठे गता)(आकाशास्तिफायः 'भागासस्थि. क्षायिकं शानदर्शनाऽऽदि, पारणामिकं जीवत्वमिति द्विकसं. काय' शब्ने द्वितीय भागे ६८ पृष्ठे गतः)(पुनलास्तिकायापी. योगो भवति । नराणां मनुष्याणां पञ्चकसंयोगः सांनिपाति. गलत्थिकाय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १९०६ पृष्ठे गतः) (काल. कभेद उपशमश्रेण्यामेष प्राप्यते, यतो यः क्षायिकसम्यग्- द्रव्यम्-'कालदव्य' शब्दे तृतीय भागे ४६१ पृष्ठे निरूपितम् ) रधिमनुष्य उपशमणि प्रतिपद्यते तस्योपशमिकं चारि- ततो धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायाऽऽकाशास्तिकायपुरलास्ति. नायिकं सम्यक्त्व, शायोपशमिकानीन्द्रियाणि औदया कायकालद्रव्याणि पारिणामिक तेम सेन रूपेण परिणमनस. की मनुजगतिः, पारिणामिकं जीवत्वं, भव्यत्वं चेति । भाष पर्यायविशेषे,वर्तन्त इति शेषः। तथाहि-धर्माधर्माका . स्यमुना दर्शितप्रकारेण गस्यादिषु संयोगषटूचिन्तनलक्षणे- शास्तिकायानामनादिकालादारभ्य जीवानां पुरलानां च गति नपरस्परविरोधाभावेन संभषिनः पञ्चदश सांनिपातिक- स्थित्युपएम्भावकाशदान परिणामेन परिणतत्वादमादिपार. भेवाः षभावविकल्पाः प्ररूपिता इति शेषः । ( वीस णामिकभाववर्तित्व, कालरूपसमयस्याप्यपरापरसमयोस्पति असंभषिलो ति ) विशतिसंख्याः संयोगाः असंभविनः । तयाऽवलिकाऽऽविपरिणामपरिणतत्वादनादिपारिणामिकभा. प्ररूपणामात्रभाषित्वेन न जीवेषु तेषां संभवोऽस्तीति । वर्तित्वमेव, घणुकाऽऽदिस्कन्धानां सादिकालासन रोग ननु पविशतिभवाः प्राक प्रदर्शिताः, इह तु पञ्चदशानां स्वभाषन परिणामाद सादिपारिणामिकत्वमेनादिस्कन्धानां. विशतेच मीलने पञ्चत्रिंशत्संख्या भेदाः प्राप्नुवन्तीति त्वनादिकालात्तेन तेन रूपेण परिणामादनादिपारिणामिकमा कथं न विरोधः । अत्रोच्यते-ननु विस्मरशाला देवानां- ववर्तित्वं ति। पाह-कि सर्वेऽप्य जीवापारिणामिक एष भावे प्रियो यतोऽनन्तरमेवोदितं गत्यादिद्वारेणैव ते चिन्त्यमानाः वर्तन्ते, पाहोस्वित् केचिदन्यस्मिन्नपीत्याह-(संधा उपवेवि 'पञ्चदश भवन्ति , मौला व्यादिसंयोगास्तु पडेप तथा को ति) स्कन्धा भमन्तपरमाएवात्मका न तु केवलाणषा, तेषां विकसंयोगः द्वौ त्रिंकसंयोगी, द्वौ चतुष्कसंयोगौ,एकः पञ्च जीवेनाग्रहणात् । मौदयिकेऽप्योदयिकभावेऽपि न केवलं पा. कसंयोग इति षसां विंशस्या मीलने बिंशतिसंख्यधोपजायते रिणामिक इत्यपिशब्दार्थः। तपाहि-शरीरादिनामोदयजमित इति नात्र कचन बिरोध इति ॥ ६८ ॥ अभिहिताः सप्रमेदा भौदारिकाऽऽविशरीरतयौदारिकाऽऽदीनां स्कन्धानामेषो जीवानामौपशमिकाऽऽदयो भावाः। दय इति भाषः। उदय एकादयिक इति व्युत्पत्तिपक्षे तुकर्म. (६) साम्प्रतमतानेव कर्मविषये चिन्तयत्राह- स्कन्धलक्षणेष्वजीवेश्वौदयिकभाषो भवतीति भाषः । तथामोहे व समो पीसो, चउघाइसु भट्टकम्मसु य सेसा। हि-क्रोधाऽऽयुदये जीवस्य कर्मस्कन्धानामुदयस्तेषामेधौद. धम्माइपारिणामिय-भावे खंधा उदाए वि ।। ६६ ।। यिकस्वमिति । नम्बेवं कर्मस्कन्धाऽऽश्रिता औपशमिकाऽऽद. मोहे एव षष्ठीसप्तम्योरथै प्रत्यभेदाद् यथा वृक्षे शाखा योऽपि भावाअजीवानां संभवन्त्यतः तेषामपि भणनं प्राप्नोतिवृक्षस्य शाखा, मोहनीयस्पैष कर्मणः शम उपशमोऽनुदया. सत्यं तेषामविवक्षितत्वात् , अत पर कैश्चिदजीवानां पारिवस्था भस्मच्छभाग्नेरिख न तु समस्तानां कर्मणां ( मीसो णामिक व भावोऽभ्युपगम्यत इति ॥ व्याश्याता मजीवाबउधारसु सि मिश्रः पयोपसमस्तत्र क्षय उदयावस्थ. ऽभिता अपि भावाः । कर्म०४ कर्म०। प्रब०। स्यात्यन्ताभाषस्तेन सहोपशमोऽनुश्यावस्था परविध्यातय (७) द्विविधभावमाहहिवत् क्षयोपशमः, अतुषु चतुःसंरपेषु धातिपुहानाऽदिगु. दुविहो य होइ भावो, लोइय लोउत्तरो सपासे। माघात केषु कर्मखित्युसरोक्लममापि संबन्धनीयम्। ततःका- एक्केको बिय दुविहो, पसस्थभो अप्पसस्थो या४६४॥ Page #1525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०२) भाव अभिधानराजेन्द्रः। भावकप्प द्विविधोभवति भावः-लौकिको लोकोत्तरश्चेति।समासतःपु. यथासा गृहस्थाहिरण्याऽऽदिपरिहीनासजाता,दुःखभागिनि नः एकैको द्विविधः-प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च । लौकिकः प्रशस्तोऽ. च जाता, एवं साधुरपि त्रिकेण शानदर्शनचारित्रलक्षणेन प्रशस्तश्च, एवं लोकोत्तरोऽपि । तत्रोदाहरणमुच्यते-"एग हीनो दुःस्वस्य भागी भवति । उक्नो लोकोत्सरोऽप्रशस्तः । म्मि सविसे दो भाउया वाणिया. ते य परोप्परं विरिका । इदानीं लोकोत्तरप्रशस्तभावप्रदर्शनायातत्थ पगो गामे गंतूण करिसणं करेइ. अशी वि तहेव । तस्थ पायरियगिलाणट्ठा, गिएडइ ण महंति एव जो साह। एकस्स सुमहिला,अन्नस्स य दुम्महिला । या सा दुम्महिला यो वारूवहे, आहारे एस उ पसत्थो ।। ५.१॥ सागोसे उट्टिया मुहोदगतपक्खालणप्रहागफलिहमाईहिम प्राचार्यादीनामय गृह्णाति न ममेदं योग्य कित्वाचार्या संती अस्थत कम्मारगाईणं ण किश्चि विजोगक्खेम बहति, कल्लेउयं च करेइ । अन्नस्स य जा सा सुमहिला कम्मारमाई ऽऽदेः,एवं यः साधुर्गद्वाति, शेषं सुगमम् । उक्लो लोकोत्तर शंजोगक्खेमं वहइ. अप्पणो य सकजं मंडणादि करेह । | प्रशस्तो भावः। ग्रोध० । स्था। सूत्र० । अनु० । विशे। पा०म०। (भावप्ररूपणाय दृष्टान्ताऽदिसूत्रद्वयम् 'पुतत्थ जा सा अप्पणो चेव मंडणे लग्गा अत्थर, तीए अधिरे रिसजाय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १०२४ पृष्ठे गतम्) (गुणणं कालेणं घरं परिक्खीणं. इयरीए घरं धणधनेणं समिद्धं जायं एवं च जो साहू बन्नहेउं रुवहउँ वा आहारं पाहारेइ. स्थानकेषु भावाः · गुणट्ठाण ' शब्दे तृतीयमागे १२३ ण वि प्रायरिए णवि बालबुडगिलाणदुव्वले पडियग्गति। पृष्ठे गताः ) ( जीवस्थान केषु भावाः • जीवट्ठाण ' अप्पणो य गहाय पजत्तं णियत्तति, एवं सो अप्पपोसो, शब्दे चतुर्थभागे १५५२ पृष्ठे गताः ) भवनं भाषः, सहा सा चुक्का हिरण्णाईणं, एवं सो वि निजरालाभो त. भवन्स्यस्मिन्निति चा भावः । कर्मविपाके, दश०११०। स चुक्किहिति, पसत्थो इमो-जो णो वन्नहेउं रूवहे परमार्थे, सूत्र० १ थु० १२ प्र० । " सुहषुहि भावो पापाहारं पाहारेह, बालादाणं दाउ पच्छा आहारह, सो गणंतेणं । " भावतः परमार्थतः । पञ्चा०८ विव० । स्वरूपे, णाणदंसणचरित्ताणं आभागी भवति । एवं पसत्येण भावेण प्रा० म०१०।नं। आव० । स्वभाव, अनु० । सत्ताया आहारेयवो सो पिंडो।” म्, विशे०। सूत्र० स०।नं० पश्वासअने० । प्रा०म०। (E) इदानीमेनमेवार्थ गाथाभिरुपसंहरबाह सम्म० । विधौ, "भावाभावमणता, पसत्ता पत्थमंगसि ।" सज्झिलगा दो वणिया, गामं गंतण करिसणाऽऽरंभो।। भावा विधयोऽभावा निषेधाः। भ०४१ श० १६६ उ.वि शाने, सम्म०३ काण्ड । “णाणं ति वा संवेयर्ण ति वा अहि एगस्स देहमंडण-बाउसिमा मारिया अलसा ।।४६५॥ गमो शिवा वेयणि त्ति वा भावो त्ति वा एगट्ठा। "प्रा०० मुहधोवण दंतवणं, अदागाईण कल्लावासं । १०ाशानात्मके निक्षेपभेदे च । उपयोगो भावनिक्षेप पुन्चएकरणमप्पण, उक्कोसयरं च मज्झरहे ॥ ४६६॥ इति वचनात् । पिं०। तणकट्ठहारगाणं, न देइ न य दासपेसवग्गस्स । "भावो विवक्षितक्रियाऽनुभूतियुक्तो हि समास्यातः। न य पेसणे निउंजइ,पलाणि हिय हाणि गेहस्स ॥४६७|| सर्वरिन्द्राऽऽदिव-दिहेन्दनाऽऽदिक्रियाऽनुभावात्॥१॥"इति। बिइयस्स पेसवग्गं, वावारे अन्नपेसणे कम्मे ।। अत्रायमर्य:-भवनं विवक्षितरूपेण परिणामनं भावः।काले देहाऽऽहारं, सयं च उवजीवई इडी॥ ४६॥ थवा-भवति विवक्षितरूपेण संपद्यत इति भावः। कः पुन. सुगमा, नवरं 'वाउसिया''विहूसणसीला' ॥ ४६५॥ मु. रयम् ? ,इत्याह-वनुर्विवक्षिता इन्दनज्वलनजीवनाऽऽदिका. खधावनं करोति, तथा ( कल त्ति) कल्यपूपकम् प्राव. या क्रिया तस्या अनुभूतिरनुभवनं तया युक्तो विवक्षितकिश्यक पूर्वारहे करोत्यात्मना वोत्कृष्टतरं च घृतपूर्णाऽऽदि म. याऽनुभूतियुक्तः,सर्वः समाख्यातः।क इवेत्याह-इन्द्रादि. ध्या भक्षयत्येकाकिनी ॥४६॥ तृणकाष्ठहारकाणां न कि. वत्स्वर्गाधिपाऽऽदिवत् । श्रादिशब्दात् ज्वलनजीवाऽऽदिपरिश्चिददाति दासबर्गस्य तथा प्रेष्यो यः कश्विस्प्रेष्यते तद- प्रहः। सोऽपि कथं भाव इत्याह-इन्दनाऽऽदिक्रियाऽनुभवादि. र्गस्य च न किञ्चिद्ददाति, न च प्रेषणे कार्ये नियडके क. ति,पादिशब्देन ज्वलनजीवनाऽदिक्रियास्वीकारः विवक्षिते. मकरान् , ततश्च भोजनाऽऽदिना विना (पलाणा) नष्टाः, हतं म्दनाऽदिक्रियाऽन्वितो लोके प्रसिद्धः पारमार्थिकपदार्थों च यत्किञ्चिद् गृहे रिक्थमासित, एवं हानिर्जाता गेहस्य, भाव उच्यते । विशाअनु०। प्रा० म०। (द्रव्याऽधारत्वं तत्राऽयं लौकिकोऽप्रशस्तो भावः ॥ ४६७ ॥ इदानी लौकि. भावस्य ' अणुयोग' शब्दे प्रथमभागे ३४३ पृष्ठे गतम्) कप्रशस्तभावप्रतिपादनायाऽऽह-द्वितीयस्य या भार्या सा प्रे. भावविषयसूचीध्यवर्ग व्यापारयित्वा प्रेषणाकार्ये कर्मणि च विविध काले (१) भावनिर्वचनम्। च तेषामाहारं ददाति,स्वयं व काले आहारमुपजीवति । प्र. (२) भावानां सिद्धिप्रतिपादने सर्वशून्यताशमितम्। । यं च लौकिको प्रशस्तो भाव उक्तः॥४६॥ (३) तत्प्रतिविधानम्। इदानी लोकोसराप्रशस्तभावप्रतिपादनायाऽऽह (४) प्रकारान्तरेण भावान्याख्यानम् । वक्षवलरूबहे, आहारे जो उ लाभि लभंते । (५) भावद्वारम्। भइरेगंण उ गिराहर, पाउम्गगिलाणमादीणं ॥४६8 । (६) औपशमिकभावानामेव कर्मविषये चिमनम्। वर्णवलरूपहेतुमाहारयति यश्च लाभे क्षीराऽऽदौसभ्यमाने (७) लौकिकलोकोत्तरयोरपि प्रशस्ताप्रशस्तवर्णनम् । सति प्रायोग्यं ग्लानाऽऽदीनामतिरिक्तं न गृह्णाति ॥ ४६॥ | (८) तत्र वणिद्वयदृष्टान्तः। जह सा हिरमपाइसु, परिहीणा होइ दुक्खाभागी। | भावइया-देशी। धर्मपरम्याम् , दे० ना०६ वर्ग १०४ गाथा । एवं तिगपरिहीयो, साहू दुक्खस्स भाभागी ।। ५००।। भावकप्प-भावकल्प-पुं० । "दंसपणाणचरिते,तषपषयम Page #1526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०३) भावकाल अभिधानराजेन्द्रः। भावकाल वसमितिहिं गुत्तो । हतरागदोसणिम्मम-समदमणियमट्टिः अथ भावकालमाहतो णिच्च ॥१॥"इत्युक्तलक्षणे कल्पभेदे. पं०भा०1 पं० ०। साई सपज्जवसिमो, चउभंगविभागभावणा एत्थं । ..........................भावे कप्पं अतो वोच्छं। . श्रोदयाईयाणं, तं जाणसु भावकालं तु ॥ २०७५ ।। दंसणणाणचरित्ते, तवपवयणपंचसमितिहिं गुनों। इहौदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभाषाइसरागदोसनिम्मम-समदमणियमट्टियो नि । नां या स्थितिरसौ भावकालः । अत एषाऽऽह-सादिः भणगृहियबलविरिओ, परकमति जो जहुत्त साउत्तो ।। सपर्यवसित इत्यादीनां वक्ष्यमाणस्वरूपाणां चतुर्णा भाका. प्रचढकरणजुत्तो, गुणभावणभावणिकंपो ।। नांयाऽसौ विभागभावना क भावे को भतः संभवति, को पयानो दारगाहारो। चान संभवति', इत्येवं विषयविभागेन स्थापना । केषामि स्याह-प्रौदयिकाऽदिभावानाम् । तं चतुर्मविभागभावना. रिद्धीहि कुलिंगाणं. ण य देववतीहि जस्स तू भावो । विषयं पुनर्भावकालं जानीहीति नियुक्किगाथाऽर्थः ॥२०७५।। दंसणविगले जायति, दंसणमाराहियं तेण ।। भय के ते औदयिकाऽऽदिभावानां प्रत्येकं चत्वारो भना। णाणं दुवालसंगं, तं चेव य परयणं तु संघो वा । काच तेषां विभागभावना ?, इत्याह भाष्यकार:गहणम्मि उजतो पा-रतो व तह वच्छलो यावि ।। साई संतोऽणतो, एवमणाई वि एस चउभंगो। चरणे णिज्जुत्तो मू-लगुणेसुं सउत्तरगुणेसुं। प्रोदश्याईयाणं, होइ जहाजोगमाउज्जो ।। २०७६ ।। ण य अतियारं कुणती, पच्छित्तेणं व सोहिकतं ॥ सादिर्भावः सान्तः, तथा सादिरनन्तः । एवमनादिरपि तववारसंगजुत्तो, समितीसहितो तिगुत्तिगुत्तो य । सान्तोऽनन्तश्च पाच्य इति । एवमेते चत्वारो भा औद. रागदोसनिहता, णिममो णियए सरीरे ति ।। यिकाऽऽदिभावानां यथायोगं यथासंभवमायोजनीयाः । कोहं जिणति खमाए, पदवमादीहि सेसकलुसो वि । यो यत्र भावो नरकाऽऽदिगतिमाश्रित्य संभवति स तत्र घाच्यः, शेषस्तु निषेधनीय इति ॥ २०७६ ॥ दमणियमा दो वेकं इंदिय णोइंदिया होति ॥ प्रत पवैतेषां भड़कानामौदयिकाऽऽदिभावेषु विभागभाषाणाणाऽऽदिएहि प्रणगू-हितो तु कम्मरस निजरद्वाए। नां विषयविभागस्थापनां चिकीर्षुराहउज्जमति परक्कमती, घडइ ति य होति एगट्ठा ।। जो नारगाइभावो, तह मिच्छत्ताऽऽदो वि भन्वाणं । जह सुते णिहिट्ठो, तह कुव्वति. जो तु अप्पसाएंतो। ते चेवाभन्वाणं, मोदइयो वितियवज्जोऽयं ॥२०७७।। सो तु जहुत्ताऽऽउत्तो, एवं मतिमं वियाणेजा ।। (दारं)। औदयिको भावः सादिरपर्यवसितो न कचित्संभवत्यत ए. अत्तहा मोक्खट्टा, ण तु इहलोगाऽऽदिहेतुगं कुणति । व द्वितीयभनकवोऽयं द्रष्टव्यः। तत्र यो नारकाऽऽविभावो करणं जोगतिएणं, जयणाजुत्तो ति अववादे ॥ नारकतिर्यनरामरगतिलक्षणो य औदायको भाव इत्यर्थः, स गुणमूल उत्तरे जा, भावणा पणुवीस णिच्चयादी य । सादिः सपर्यवसान इति द्रष्टव्यम् । नारफाऽऽदीनां प्रत्येक मेत्तीपमोदकारुण-ममत्थादीहि निकंपो ।। (दाएं) सर्वेषामपि सादित्वासान्तत्वाथेति सादिरपर्यवसान इति एसो तु भावकप्पो, अहवाणाणादितो पुणो तिनिहो।। द्वितीयो भक्तः शून्यः । तथा मिथ्यात्वाऽऽदयोऽपि भव्याना तृतीयः, इदमुक्तं भवति-मिथ्यात्वं, कषायाः वेदत्रयम् प्रक्षा. दंसणपढमं भमति, णाणचरित्ता तदायत्ता ।। पं०भा० नासंयतत्वासिद्धत्वानि, लेश्याश्चेत्येवं यः सप्तदशविध औद. ? कल्प । नि० चू०। यिको भावः स भन्यानाश्रित्य अनादिसपर्यवसानः अभव्याभावकम्म-भावकर्मन्-न अवाधामुन्नध्य स्वोदयेनोदी नाश्रित्य पुनः स एवानादिरपर्यवसानधेति ।। २०७७॥ रणाकरणेन चोदीः पुद्गलाः प्रदेशविपाकेभ्यो भवक्षेत्र औपशमिकाऽऽदीनाश्रित्याहपुगलजीवेष्वनुभावं ददतो भावकर्मशब्देनोच्यन्ते, इत्युक्तल सम्मत्तचरित्ताई, साई संतो य ओवसमिभोऽयं । क्षणे कर्मभेदे, प्राचा०१७०२ १०१ उ०। भावकाय-भावकाय-पुंगभावानां कायो भावकायः। कायभेदे, दाणाइलद्धिपणगं,चरणं पि य खाइयो भावो ॥२०७८॥ माव सम्मत्तनाणदंसण-सिद्धत्ताई तु साईओऽणतो। __ भावकायप्रतिपादनायाऽऽह नागां केवलवज, साई संतो खोवसमा ॥ २०७६ ॥ दुग तिग चउरो पंचव, भावा बहुअा व जत्य विति। महअनाणाईया, भवाभवाण तइयचरमोऽयं । सो होइ भावकाओ, जीवमजीवे विभासायो॥१४४६।। सो पोग्गलधम्मो, पढमो परिणामिभो होडा२००॥ द्वौत्रयश्चत्वारः पञ्च वा भाषा औदायिकाऽऽदयः प्रभूता भवत्तं पुण तइयो, जीवाऽभवाई चरमभंगो उ। घाऽम्येऽपि यत्र सचेतनाचेतने वस्तुनि विद्यन्ते स भवति भावाणमयं कालो, भावावस्थाणमोऽणको ॥२०८१॥ मायकायः । भावानां कायो भावकाय इति । (जीवमजीवे सम्बकृत्यचारित्रेसमाथित्य सादिःसपर्यवसान इति प्रथममा विभासाप्रो) जीवाजीवयोर्विभाषा खल्वागमानुसारेण का पवौपशमिको भावः संभवति,प्रथमसम्यकस्यलाभकाले उपशयेति गाथाऽर्थः॥१४४६ ॥ श्राव.५१०। मधेरायां चौपशमिकसम्यक्त्वस्योपशमयां तु चारित्रस्यो. भावकाल-भावकाल-पुं० । भावानामौदयिकाऽऽदीनां स्थि- पशमिकस्य लाभात् तयोग्यावश्यं सादिसपर्यवसितत्वात् । तिःकालो भावकाला काल भेदे, विशे। | ततः शेषाखयो भा रहशून्या एव । न केवलमपशामिकतथा, Page #1527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावगुण अभिधानराजेन्द्रः। भावणय सायिकोऽपि भाषाक्षीणमोहभवस्यकेवलावस्थायां दानलाभ भावग्ग-भावान-म० भाव एवाग्रं भावाग्रम् । अग्रभेदे, त. भोगोपभोगवीर्यलब्धिपश्चक, चारित्रं चाऽश्रित्य साविसपर्य स्त्रिविधम्-प्रधानानं, भूताग्रं, उपकाराप्रश्च। (तानि च यसितत्वलक्षणे प्रथमभवर्तत इति । ननुचारित्रसिद्धस्याप्य 'अम्ग' शब्दे प्रथमभागे १६४ पृष्ठे गतानि) शब्द, नि० चू०१ स्तीति तदाधित्यापर्यवसान एवार्य किमिति न भवति', इति उ०। आचा० । भावयुतमनं भावाप्रम् । क्रमानभेदे , चेत् , तदयुक्तम् , “सिधे नो वरिप्ती नों अचरिती" इति नि० चू०१ उ०। वचनादिति । कायिकसम्यक्त्व केवलझान केवलदर्शनसिगुरषानि पुनः सिद्धाऽवस्थायामपि भवन्स्यतस्तान्या- कित्य-भावडा स्वियमेव क्षायोपशमिकभाववर्तिवात् । भावचूला-भवाचूडा-स्त्री० घूटामेदे, प्राचाराङ्गलिकाम. श्रित्य तायिको भावः सादिरपर्यवसान इति द्विती श्राचा०२ श्रु०१०१०१ उ०नि० चू०। येऽपिभने वर्तते । शेषौ तु वाविह शून्यावेव । अन्ये तु वाना. उऽदिलब्धिपञ्चकंचारित्रं च सिद्धस्यापीच्छन्ति, तदावरणस्य भावचंचल-भावचश्चल-पुं० । भावतश्चञ्चले. चञ्चलभेदे , पृ. तत्राप्यभावात् , श्रावरणाभावेऽपि च तदसत्वे क्षीणमोहा. १ उ० । ('चंचल' शब्दे तृतीयभागे १०६१ पृष्ठे व्या ख्या गता) इदिष्वपि तदसवप्रसङ्गात् । ततस्तन्मतेन चारित्राउदीनां सिद्ध्यवस्थायामपिसद्भावेनापर्यवसितवादेकस्मिन् द्वितीय भावनाम-भावयज्ञ-पुं० । परमार्थयागे, पश्चा० - विव० । भङ्ग एव क्षायिको भावो,न शेषेषु त्रिश्चिति । केवलयर्जामि शे. प्रति० । पाणि चत्वारि ज्ञानान्याश्रित्यक्षायोपशमिको भावप्रथमे भो इत्यं चेषोऽधिकत्यागा-त्सदारम्भः फलान्वितः । वर्तते । सादिरनन्त इति द्वितीयभङ्गोऽत्रापि शून्यः । मति- प्रत्यहं भाववृद्धयाऽऽप्-र्भावयज्ञः प्रकीर्तितः॥४॥ भुताशाने समाश्रित्य भव्यानामनादिः सान्सश्चेति तृती- (इस्थमिति) इत्थं च यतनावस्वे च , एष प्रकृत भारम्भः, यभगः । अभव्यानां तु ते पवाङ्गीकृत्यानादिरनम्त इति अधिकत्यागानिष्फलाधिकाऽऽरम्भनिवृत्तेः । फलान्वितः चरमश्चतुथों भङ्ग इति । सर्वोऽपि पुलधम्मों द्वषणुका55-1 श्रेयाफलयुक्तः सदारम्मः, प्रत्यहं प्रतिदिवस, भाववृ. दिपरिणामः सादिः सातश्चति प्रयमः परिणामिकमावभ- शया कृताकृतप्रत्युपेक्षणाऽऽदिशुभाशयानुबन्धरूपया आप्तः जो भवति । सादिरनन्त इतीहापि द्वितीयो भाः शून्यः । साधुभिः , भावयज्ञो भावपूजारूपः प्रकीर्तितः । तदाहभव्यत्वमाश्रित्य पुनरनादिः सान्त इति तृतीयो भाः। "ति. "एतदिह भाषयः" इति । न चैवं द्रव्यस्तवन्यपदेशावे नो भब्वे नो अभब्वे" इति बचनास्सिद्धावस्थायां भव्या- नुपपत्तिः , व्यभावयोरन्योऽग्य समनुवेधेऽपि द्रव्यप्राधाभव्यत्वनिवृत्तेः । जीवत्वमभन्यत्वं चानादिरनन्त इति चर• म्येन तदुपपादनादिति द्रष्टव्यम् ॥॥1०५द्वा मश्चतुथों भातदेवं वणितोऽयं भावानामौदयिकादीनां भानजोगिया)-भावागिम-पुं० तस्विकगुमशालान, कालः। ननु सादिसपर्यवसानादिकमवस्थानाऽविकमेवेवं "विशुद्धं भावयोगिषु ।" द्वा० २१ द्वा० । भावानां, कथं पुनरय कालः?, इत्याह-भावावस्थानतोऽनन्यो. इभिन्नः । यदेव हि जीवाजीवाऽऽदिभावानामवस्थानमयमेष भावण-भावन-न०। भू-णिच्-त्यु । फलभेदे, भावे स्युट् । कालो नान्य इत्यतस्तगणनेऽभिहित एवं भाव काल इति चिन्ताभेदे युच् । चिन्तायाम् , अधिवासने , ध्याने, पर्यालो. ॥ २०७८ ॥२०७६ ॥ २०८० ॥ २० ॥ विशे० प्रा० म०। चनायाम् , वाच० । अभ्यासे, द्वा० २५६० वैद्यकोक्न श्री. भावकुसल-भावकुशल-पुंभावबुद्धिमति,दर्शनभावकुशलो षधसंस्करभेद, स्त्री०।वाच । बाह्यचेष्टया मनोभावमुपलभ्य तथा प्रवर्तते यथा अभिन. भावणज्झयण-भावनाऽध्ययन-न । बन्धदशानां सप्तमेsवधर्मश्रद्धावतो भावबुद्धिरुपजायते । दर्श०३ तस्व । तीर्थ ध्ययने , स्था० १० ठा०। पञ्चमहावतभावमानां प्रतिपादके करे च । नि० चू०१ उ०। भाचाराङ्गस्य द्वितीयाग्रथुतस्कन्धस्य पञ्चदशेऽध्ययने,साचा. भाव केउ-भावकेतु-पुं०। अष्टाशीतितमे महाग्रहे, "दो भाव २ श्रु०३ चू०। श्राव०। केऊ।" स्था०२ठा०३ उ० । चं०प्र० । सू०प्र०। भावण य-भावनय-पुं०। नयभेदे , उत्त० १० । भावनय भावग-भावक-पुं० । भावः स्वार्थेकन् । मानस विकारे, पदार्थ. पाह-" सम्यग्विवच्यमानोऽत्र, भाव एवावशिष्यते। पूर्षाप. चिन्तके च, उरणदके, त्रि.। वाच । पाटलाऽऽदिके गन्ध रविविक्तस्य , यतस्तस्यैव दर्शनम् ॥ १॥" तथाहि-भावः द्रव्ये, प्रा० चू०३ अ.।। पर्यायः । तदात्मकमेव च द्रव्यं, तदतिरिक्रमूर्तिकं हि तत् भावगइ-भावगति-स्त्री०। भवन्ति भविष्यन्ति भूवन्तश्चेति दृश्यम दृश्य वा १, यदि दृश्य,नास्ति तव्यतिरेकेणानुपलभ्यः भावाः अथवा-भवन्त्येतेषु स्वागता उत्पादविगमध्रौव्याss. मानत्वात्. खरविषाणवत्. न हि चलितमीलितपटीकृतत्रुटि. ख्या:परिणामविशेषा इति भावा अस्तिकायास्तेषां गति. तसंघटिताऽऽदिविचित्रभवनबहिर्भूतमिह सूत्राऽऽदिद्रव्यमु. तथापरिणामवृत्तिभावगतिः । अस्तिकायानां गतिपरि पलभ्यमस्ति अदृश्यमपि नास्ति, तत्साधकप्रमाणाभावात् ष. णामवृत्तौ , दश०१ । ठभूतवत् , ततः प्रतिसमयमुदयव्ययाऽऽत्मकं स्वयं भवनमेव भावाऽऽख्यमस्ति । उत्त०१०। भावगुण-भावगुण-पुंभावा औयिकाऽऽदयस्तेषां गुणो भावनयः प्राऽऽहभावगुणः । गुणभेदे, स च द्विविधो जीवाजीवविषयभेदात् । भावत्थंतरभूअं, फिदव्यं नाम भाव एवायं । प्राचा० १ श्रु०२१०१ उ०। (ते च 'गुण' शब्दे तृतीयभागे ६०६ पृष्ठे दर्शिताः) भवनं पइक्खणं चिय, भावावती विवत्तीय ॥६६॥ Page #1528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावणय " 1 भावेयः पर्यायेोऽर्थान्तरभूतं मिथे कि नाम द्रव्यम् नोच्यते-' परिणाममितमित्यादि । नतु भाव एवायं यदिदं दृश्यते भुवनेऽपि वस्तुनिकुरम्यमिति । यदि हि किञ्चिदनादिकालीनमवस्थितं सद् वस्तु वस्त्वन्तराऽऽरम्भे व्यप्रियेत तदा न्याय्या स्यादियं कल्पना यावता प्रतिक्षणं मनमेषाऽनुभूयते । किमुक्तं भवति इत्याह- भावस्यैकस्य पर्यायस्याssपत्तिरुत्तिः, अपरस्य तु विपत्तिर्विनाशः । “न माणगया भग्गा, पुजो नस्थि अणागए। निव्वया नेय चिट्ठेति, भारगे सरसवोवमा ॥१॥ इति वचनात् पूर्वस्य क्षणस्य निवृत्तिः, अपरस्य तुत्पत्तिरित्यर्थः॥ इति गाथाऽर्थः ॥ ६६ ॥ भाइ- ननु ये भावस्याऽऽपत्ति-विपसी प्रोच्यते, ते तावदे. स्वन्तरमपेक्ष्य भवतः यच्च यन्तरमपेक्षते ( १५०५ ) अभिधान राजेन्द्रः । , , 1 , , कारणं तदेव द्रम्यम् अतोभावस्थंतरभूयं किं दग्यम् इत्यादिनाऽयुक्रमेष इव्यमपा क्रियते इत्याशुयाऽह न य भावो भावंतर - मवेक्खए किंतु हेउनिरवेक्खं । उपजड़ तयांतर - मवेइ तमहेउ चेव ॥ ७० ॥ म भावो घटाऽऽदिरुत्पद्यमानो भाषान्तरं मृत्पिण्डाऽऽदि. कमपेक्षते, किन्तु निरपेक्ष एवोत्पद्यते । अपेक्षा हि विद्यमानस्यैव भवति । न च मूत्पिण्डाऽऽदिकारणकाले घटाऽऽदि का मस्ति अविद्यमानस्य चापेक्षायां खरविषाणस्यापि स. थाभावप्रसङ्गात् । यदि चोत्पत्तिणात् प्रागपि घटाऽऽदिरस्ति किं परादाद्यपेक्षया तस्य स्वतएवद्यमान स्वात् । अथोत्पन्नः सन् घटादिः पश्चाद् मृत्पिण्डाऽऽदिकम. तदिदं सुतिशिरसो दिनचर्या चनम् यदि हि स्वत एव कथमपि निष्पश्नो घटाऽऽदिः, किं तस्य पश्चाद् मृत्पिण्डाद्यपेक्षया मानवस्थायामसी तम पेक्षते केयं नामोत्पद्यमानता ? न तावद् निष्पद्यावयवता रूपमनिष्यन्नस्य वर विषाणस्येवा उपेक्षा प्रयोगात् नापि निष्पक्षता, स्वयं निश्वयपरापेक्षा वैयर्थ्यात् नाप्य निष्पक्षता पात्तत्राि कल्पनाऽऽदाने कोषोपनिपातसम्भवात् । किञ्च -सांश सायामपि किमनिष्यः कारणमपेक्षते वा उभ पानयम् निष्प्रभाऽनिष्ययोरायाः प्रति वित्तोऽपि न यान् उभयपक्षोदङ्गात् समा पिडा सरकालं भवनमेव घटाऽऽदेस्तदपेक्षा पिण्डादेरपि कार्यस्थाभिमता घटाऽऽदेाभाषि स्वमेव कारयत्यम्न पुनर्घटादिजन्मनि स्यात्रियमाणत्वम् । व्यापारो दिवो मित्रः श्रभिश्रो वा । यदि मिश्रः सर्दि तस्य निर्व्यापारताप्रसङ्गः । अथाऽभिनः व्यापाराभावः । कारणव्यापारजन्यं जन्माऽपि जन्मवतो भिन्नम् अभिनं वा ? । भेदे जम्मवतोऽजम्मप्रसङ्गः । अभेदे तु ज। तस्मात् पूर्वोत्तरकालाविवाचैवायं कार्यकारणभावी वस्तूनां लोके प्रसिद्धः, न अन्यजनकभावेन | यदपि मृत्पिण्डघटाऽऽदीनां पूर्वात्तर कालभावित्वम् तदप्यनादिकालात् तथाप्रवृत्तक्षणपरम्परारूढम् न पुनः कस्यचित् केनचिद् निर्वर्तितम् इति न कस्यचितु भावस्य कस्यापि सम्बन्धिम्यपेक्षा । ततो देखन्तरनिर पेक्ष एव सर्वो भाषः समुत्पद्यत इति स्थितम् । विनश्यति सा कथम् इत्यादयतरमित्यादि । तदनन्तरमुत्पत्तिसमनन्तरमेत्रापैति विनश्यति भावः । तदपि च वि ३७७ न्माभावः " , - + • भावण्य नामदेव रेपिनिपाताऽऽदिसम्यपेक्षा घटाssयो विनाशमाविशन्तो दृश्यन्ते, न निर्हेतुकाः, इति चेत् । विभागात्। तथाहि मुरा5दिना विनाशकाले किं घटादिदेव क्रियते आहोस्वित् कपालाऽऽदय उत तुच्छ पोऽभावः इति त्रयी गतिः । तत्र न ताब्द् घटास्याला दिसामग्रीत एवोत्पतेः । नापि कपालादयः, तस्कर घटाऽऽदेस्तदवस्थत्वप्रसङ्गात्. नान्यस्य करणेऽन्यस्य निवृत्तिर्युक्रिमती, एक निवृत्तौ शेषभुषन्त्रयस्यापि प्रिङ्गादनापि तुच्छरूपोऽभाषः खरहस्य भीतस्य कर्तुमशक्यत्वात् करणे वा घटाऽऽदेवदास करणेऽभ्यनिवृत्यसम्भवात् । घटा ऽऽदिलायो विहितस्तेन घटाऽऽदेर्निवृ त्तिः इति बेन वाऽनुपपत्तेः तथाहि कि पूर्व घटः पञ्चदभावः, पचात् वा घटः पूर्वमभावः, समकालं वा घटाभावौ ? इति विकल्पभयम् । तत्राऽऽद्यधिकल्प द्वय पक्ष सम्बन्धानुपपतेरिय सम्बन्धस्य द्विष्ठत्वेन भिन्नकालयोस्तद सम्भवात् अन्यथा मरियमर्थ्यादीनामतीतेः सगराऽऽदिमिरसम्बन्धले दीयविकल्पपप घटा भावयोर्यदिशमात्रमपि सङ्घावस्थितिरभ्युपगम्यते सामप्यसी स्वात् विशेषाभावात् तथाच सति स एष घटाल घडाऽऽयुपमना ते तो पानिवृति, इति । ननु को यमुपमद नाम न ताव घटाऽऽदिः, तस्य स्वहेतुत एवोत्पतेः । नापि कपालादयः तद्भावे पटारेरसाद वस्थ्यप्रसङ्गात् नापि 9 ; , रूपा हि सति घटाउन पटाप भावो जायत इत्युक्तं स्यात्, न चैतदुच्यमानं हास्यं न जनयति श्रात्मनेारमभवनानुपपते। तखावू मुराद इकारिकारणात् बिखरा कपालादिक्षण उत्प " ते घटक निर्हेतुकः स्वरसर्ति इत्येताभ्यामेव शोमनम्। अतो हेतुव्यापार निरपेक्ष एव समुत्पन्ना भावाः क्षणिकत्वेन स्वरसत एव विनश्यन्ति नहेतुव्यापारात् इति स्थितम् । तस्माजम्म किञ्चित्ते अपेक्षणीयाभावाच्न स्वचित् कारणम्। तथा च सति न किञ्चित् इयम् किन्तु पूर्वापरीभूताऽपरापरक्षणुरूपाः पर्याया एव सन्त इति । अत्र बहु वक्तव्यम्, ततु नोच्यते, प्रन्थगहनता भयात् सुगतशास्त्रिषु विस्तरेणोक्तत्वाच इति गाथाऽर्थः ॥ ७० ॥ . 9 यद्रयवादिनापि कारण पर्षद परिणाम श्रस्यायुक्तम् तथाऽस्माभिरप्येतद् वकुं शक्यत एवेति किम् ?, इत्याह पिंडो की पइसम - यभावाज जह दहिं तहा सव्वं । काभावाड नत्थि, कारणं खरविसाणं व ॥ ७१ ॥ मृदादिकार्यमेव न तु कारणम् । कुतः या इत्या इ - प्रति समयमपरापरक्षण रूपेण भावात् दध्यादिवदिति । प्रति समयमपरापरक्षण भवनमसिद्धमिति चेत् । न वस्तू. नां पुराणादिभावाभ्धाऽनुपपत्तेः । उच , " प्रतिसमयं यदि न भवेदपरापररूपतेद्द वस्तूनाम् । न स्यात् पुराणभावो न युवत्वं नापि वृद्धत्वम् ॥ १ ॥ अन्मानन्तरसमये न स्यात् यद्यपररूपताऽर्थानाम् । तर्हि विशेषाभावादू न शेषकालेऽपि सा युक्ता ॥ २ ॥ " किं पिएड एव कार्यम् ? । न इत्याह तथा सर्वे यथा प्रतिसमयं भावात् पिण्डः कार्ये तथा सर्वमपि घटपटा Page #1529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। भावणा दिकं बस्तुनिकुरम्बम् , तत एव देतोः कार्यत्वमपि द्रष्टः तृतीयं निम्शको विगतघृणमन्यत् प्रकुरुते, ध्यमित्यर्थः । अनभिमतप्रतिषेधमाह- कजाभावाउ'...ततः पापाभ्यासास्सततमशुभेषु प्ररमते ॥१॥ स्यादि पराभ्युपगतं कारणं कारणाऽऽस्यं वस्तु नास्ति । कु. प्रशस्तभाषनामाहता इत्याह-कार्याभावात् तत्र कार्यत्वाऽभ्युपगमाभावा. दंसणणाणचरिते, तववरग्गे य होइ उ पसस्था। त् प्रतिसमयभवनानभ्युपगमादित्यर्थः । इह यत् प्रतिसमय. जाय जहा ता य तहा,लक्खण वोच्छंसलक्खणो।३२६ मपरापररूपेण न भवति तद वस्तु नास्ति, यथा खरविषाणम्. प्रतिसमयमभवन्तश्चाऽभ्युपगम्यन्ते परैर्मृरिपएडाऽदयः, दर्शनशानचारित्रतपोवैराग्याऽऽदिषु या यथा व प्रशस्तभातस्मात् न सन्तीति भावः । इति गाथाऽर्थः ॥ ७१ ॥ विशे०। बना भवति तां प्रत्येकं लक्षणतो बच्ये इति । . दर्शनभावनार्थमाहभावणा-भावना-स्त्री. । परिकर्मणि, वृका परिकर्मेति या भावनेति वा एकार्यमिति । १.१ उ०२ प्रक० । विशे० तित्थगराण भगवनो, पवयणपावयणिबईसठ्ठीणं । . पासनायाम् , नि० १७०१ वर्ग १० । भावना वास. अहिगमणनमणदरिसण-कित्तणसंपूयणाथुणणा।३३०॥ मेस्पनन्तरमिति । भाष०४०। विशे० प्राचा० । तीर्थकृतां भगवतां प्रवचनस्य च द्वादशाङ्गस्य गणिपिट कस्य, तथा प्राषचनिनामाचार्यादीनां युगप्रधानानां, तथाअध्यवसाये,माचा०१०-०६ उ.मा. माषो० । (Oभाव्यतेऽनयेति भावना । परिच्छेदे,आव०४०भाव्यत तिशायिनामृद्धिमतां केवलिमनःपर्यायावधिमचतुर्दशपूर्व-- इति भावना । अभ्यासक्रियायाम् , आव०४ ०। सम्य. विदां तथाऽमर्पोषध्यादिप्राप्तऋद्धीनां यदभिगमनं गत्वा च दर्शन तथा गुणोत्कीर्तनं सम्पूजनं गन्धाऽऽदिना स्तोत्रःस्तव. क्रियाऽभ्यासे, उत्त०१४ ०1 द्वारा पुनः पुनश्चिन्तने, स. बा.अधि.१ प्रस्ता०1०प०अव्यवच्छिभपूर्वपूर्वतर. नमित्यादिका दर्शनभावना, अनया हि दर्शनभाषनयाऽनव. संस्कारस्य पुनःपुनस्तदनुष्ठानरूपा भावनेति । अनु० श्रा रतं भाव्यमानया दर्शनशुद्धिर्भवतीति। बोबमायाम् , प्रश्न०५ संव. द्वार । अनुप्रेक्षायाम, ध० ३ किंचअधिक भास्मगुणभेदे,सम्म भावनासंशः पुनरात्मगुणोशा जम्माभिसेयणिक्खम-णचरणणाणुप्पया य णिबाणे । मजोशानहेतुबष्टानुभूतश्रुतेश्वर्येषु स्मृतिप्रत्यभिज्ञानकार्यों. दिअलोअभवणमंदिर-णंदीसरभोमणगरेसं ॥३३१।। श्रीयमानसनावः । सम्म ३ काण्ड । अन्तःकरणवृत्तिभेदे अट्ठावयमुजिते,गयग्गपयए य धम्मचके य ।। बासूत्र१९०३ म०१ उ० । अध्यात्मानुवर्तने,द्वा. पासरहावत्तणगं, चमरुप्पायं च वंदामि ॥३३२॥ भ्यासी विमानस्य, भावना बुद्धिसंगतः । निवृत्तिरशुभाभ्यासा-झाषवृद्धिश्च तत्फलम् ॥६॥द्वा०१८ द्वा०। पौनः तीर्थकृतां जन्मभूमिषु तथा निष्क्रमणचरणशानोत्पत्तिनि. पुम्येनामित्यस्वाऽऽदिप्रकारतो भावनेर्गुण्यपरिभाषनायाम् । र्वाणभूमिषु तथा देवलोकभवनेषु तथा मन्दिरेषु तथा न. विशे०। भाग्यन्ते मुमुक्षुभिरभ्यस्यन्ते इति भावनाः । अनि न्दीश्वरद्वापाऽऽदौ भौमेषु च पातालभवनेषु यानि शाश्वता. त्यस्वाऽऽदिके, मोघ०। प्रव०i०। ग०। प्राव। सूत्र०। नि चैत्यानि तानि वन्देऽहमिति द्वितीयगाथायामन्ते क्रि. येति। एवमष्टापदे,तथा श्रीमदुजयन्तगिरौ 'गजानपदे' दशा. भाषा। (२) भाषनायां नामाऽदिचतुर्विधो निक्षेपः, तत्र नामस्थापने णकटवर्तिनि तथा तक्षशिलायां धर्मचक्रे तथा अहिच्छचुलत्वावनारस्य द्रव्याऽऽदिनिक्षेपार्थ नियुक्तिकदाह पायां पार्श्वनाथस्य धरणेन्द्रमहिमास्थाने, एवं रथावर्ते प. बते वैरस्वामिना यत्र पादपोपगमनं कृतं यत्र च श्रीमव्वर्य दख्खं गंधंगतिला-इएसु सीउएहविसहणाईसु। मानमाश्रित्य चमरेन्द्रेणोत्पतनं कृतम् । एतेषु च स्थानेषु यभावम्मि होइ दुविहा,पसत्थ तह अप्पसत्था य ॥३२७ ॥ थासम्भवमभिगमनवन्दनपूजनगुणोत्कीर्तनाऽऽदिकाः क्रियाः ता व्यमिति द्रव्यभाधना नोनागमतो व्यतिरिका गन्धा कुर्वतो दर्शनशुद्धिर्वतीति । है:-जातिकुसुमाऽदिभिव्यक्तिलाऽऽदिषु द्रव्येषु या वास. मा सा द्रव्यभावनेति । तथा शीतेन भावितः शीतसहिष्णु गणियं णिमित्त जुत्ती,संदिट्ठी अवितहं इमं णाणं । रुष्णेन वा उष्णसहिष्णुर्भवतीति । आदिग्रहणाद् व्यायामशु. भदेही व्यायामसहिष्णुरित्याधन्येनापि द्रव्येण द्रव्यस्य या इय एगंतमुवगया, गुणपच्चइया इमे अत्था ॥३३३।। भाषना सा द्रव्यभावनेति । भावे तु--भावविषया-प्रशस्ता. गुणमाइप्पं इसिणा-मकित्तणं सुरणरिंदपूया य । प्रशस्तभेदेन द्विरूपा भावनेति । . पोराणचेइयाणि य, इइ एसा दंसणे होइ ॥३३४॥ तत्राप्रशस्तां भावभावनामधिकृत्याऽऽह प्रवचनविदाममी गुणप्रत्ययिका अर्था भवन्ति । तद्यथापाणिवहसुसावाए, अदत्त मेहुण परिग्गहे चेव । गणितविषये वीजगणिताऽऽदौ परं पारमुपगतोऽयं, तथा प्र. कोहे माणे माया, लोभे य हवंति अपसत्था ॥ ३२८॥ तस्य निमित्तस्य पारगोऽयं, तथा दृष्टिपातोक्ला नानावि. प्राणिषधाऽऽधकार्येषु प्रथम प्रवर्तमानः साशकः प्रवर्तते प. धा युक्तीदव्यसंयोगान् हेतून्वा बेत्ति, तथा सम्यगविपरी. मात्पौनःपुन्यकरणतया निःशङ्कः प्रवर्तते । तदुक्तम् ता दृष्टिदर्शनमस्य त्रिदशैरपि चालयितुमशक्या तथा अवि. कारोत्यादौ तावत्सघृणादयः किश्चिदशुभं, तथमस्येदंशानं यथैवायमाह तत्तथैवस्येवं प्रावधानिकस्याss द्वितीयं सापेको विमृशति च कार्य च कुरुते। चार्याऽऽदेः प्रशंसां कुर्चतो दर्शनविशुद्धिर्भवतीति, एवमन्यद. Page #1530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावणा अभिधानराजेन्द्रः। भावणा पि गुलमाहात्म्यमाचार्याऽऽदेवर्णयतस्तथा पूर्वमहर्षीणां च द्वितीयवतस्य, तथा प्रदत्तविरतिमात्रैव साध्वीति तृतीयनामोत्कीर्तनं कुर्वतस्तेषामेव च सुरनरेन्द्रपूजाऽऽदिकं कथ. स्य, एवं ब्रह्मचर्यमप्यत्रैव नवगुप्तिगुप्तं धार्यत इति । तथा यतस्तथा चिरंतनचैत्यानि पूजयत इत्येवमादिकां क्रियां परिग्रहविरतिवेदेव साध्वीति, एवं द्वादशाहं तप व शो. कुर्वतस्तवासनावासितस्य दर्शनविशुद्धिर्भवतीत्येषाप्रशस्ता भनं नान्यति, तथा वैराग्यभाषना सांसारिकसुखजुगुप्सादर्शनविषयां भावनेति। रूपा, एवमप्रमादभावना मद्याऽऽदिप्रमादानां कर्मबन्धोपामानभावनामधिकृत्याऽऽह दानरूपाणामनासषनरूपा, तथैकाग्रभावना-"एको मे खा. तसं जीवाऽजीवा, णायचा जायणा इई दिट्ठा । सो अप्पा, णाणसणसंजुभो । सेसा मे बाहिरा भाषा, इह कज्जकरणकारग-सिद्धी इह बंधमोक्खो य॥३३॥ सव्वे संजोगलक्खणा॥१॥" इत्यादिका भावनाश्चरणमुप. गताभरणाश्रिताः इतक्रर्व तपोभावनां वक्ष्ये अमिधास्य बदो य बंधहेऊ, बंधणबंधष्फलं सुकहियं तु। इति । संसारपवंचो वि य, इहयं कहिओ जिणवरेहिं ॥३३६॥ किह मे हविजऽवंझो, दिवसो किंवा पहू तवं काउं। खाणं भविस्सईए-वमाइया वायणाइयायो य । को इह दव्वे जोगो, खेत्ते काले समयभावे ।। ३४०॥ सम्झाए माउत्तो, गुरुकुलवासो य इय णाणे ॥३३७॥ | कथं केन निर्षिकत्यादिना तपसा मम दिवसोऽबन्ध्यो भवे. तत्रज्ञानस्य भावना शानभावना-पवंभूतं मौनीन्द्रंशानं त्, कतरद्वा तपोऽहं विधातुं प्रभुःशक्तः १, तब कतरसपाक. प्रवचनं यथाऽवस्थिताशेषपदार्थाऽऽविर्भावकमित्येवंरूपति , | स्मिन् द्रव्याऽऽदी मम निर्वहतीति भावनीयम । तत्र द्रव्ये उ. अनयाच प्रधानमोक्षाचं सम्यक्त्वमाधिगमिकमाविर्भवति।। त्सर्गतो वल्लचणकाऽऽदिके क्षेत्रे स्निग्धकक्षादौ काले शी. यतस्तवार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं, तवं च जीवाजीवाऽऽदयोन तोष्णाऽऽदौ भावेऽग्लानोऽहमेवंभूतं तपः कर्तुमलमित्येवं द्रव पदार्थ,ते च तत्त्वज्ञानार्थिना सम्यग्नातव्याः, तत्परिक्षान व्याऽऽदिकं पर्यालोच्य यथाशक्ति तपो विधेयम् । “ शक्लित. मिहवाऽऽहतेप्रवचने रष्टम् उपलब्धमिति,तथेहैवाऽऽहते प्रध चने कार्य परमार्यरूपं मोक्षाऽऽख्यं तथा करणं क्रियासिद्धो प्रः स्त्यागस्तपसी" (तत्वार्थे-६ अ०२३ सूत्र. दर्शन• इति कृष्टोपकारकं सम्यग्दर्शनशानचरित्राणि,कारकःसाधुःसम्य वचनादिति। ग्दर्शनाऽऽधनुष्ठाता,क्रियासिद्धिश्चेहैव मोक्षावाप्तिलक्षणा.ता. मेव दर्शयति-बन्धःकर्मबन्धनं तस्मान्मोक्षः कर्मविचटनलक्ष उच्छाहपालणाए, इति तवे संजमे य संघयो । णोऽसावपीहैव,नान्यत्र शाक्याऽऽदिकप्रवचने भवतीति,इत्येवं वेग्गेऽणिच्चादि, होइ चरित्ते इहं पगयं ॥ ३४१ ।। कानं भावयतो शानभावना भवतीति । तथा बद्धोऽष्टप्रकारका तथा अनशनाऽऽदिके तपस्यनिगृहितबलवीर्येणोत्साहक. मपुतलः प्रतिप्रदेशमवन्धो जीवः, तथा बन्धहेतवो मिथ्या र्तव्यो, गृहीतस्य च प्रतिपालनं कर्तव्यमिति । उक्तं चत्वाविरतिप्रमादकपाययोगाः, तथा बन्धनमटप्रकारकर्मवर्ग: "तित्थयरो चउनाणी, सुरमहियो सिझियब्वयधुवम्मि । णारूपं तत्फल चतुर्गतिसंसारपर्यटनसातासाताऽखनुभवन. अणिमूहियबलविरिओ, सवस्थामेसु उज्जमा॥१॥ अपमिति,एतत्सर्वमत्रैव सुकथितम् अन्यद्वा यत्किञ्चित् सुभा. किं पुण अवसेसहि. दुक्खक्खयकारणा सुविहिपहि। षितं तदिहैव प्रवचने अभिहितमिति शानभावना । तथा वि. होइन उज्जमियब्वं, सपञ्चवायम्मि माणुस्से"॥२॥ चित्रसंसारप्रपञ्चोऽत्रैव जिनेन्द्रैः कथित इति ॥ तथा शान मम इत्येवं तपसि भावना विधेया । एवं संयमे इन्द्रियनोइन्द्रिय. विशिष्टतरंभविष्यतीति शानभावना विधेया,मानमभ्यसनी. निग्रहरूपे,तथा संहनने वर्षेभाऽऽदिके तपोनिर्वाहनासमर्थे ययमित्यर्थः। श्रादिग्रहणादेकाग्रचित्तताऽऽदयो गुणा भवन्ती भावना विधेयेति । वैराग्यभावना त्वनित्यत्वाऽऽदिभावनामति,तथैतदपिशाने भावनीयं,यथा-"जं अन्नाणी कम्मं खवेइ" पा तदुक्रमइस्यादि, तथैभिश्च कारणैनिमभ्यसनीय , तद्यथा-मानसं- " भावयितव्यमनित्य-त्वमशरणत्वं तथैकताऽन्यत्वे । ग्रहार्थ निर्जरार्थम् अव्यवच्छित्त्यर्थ स्वाध्यायामित्यादि , अशुचित्वं संसारः, कर्माऽऽश्रवसंघरविधिश्च ॥१॥ तथा शानभावनया नित्यं गुरुकुलवासो भवति । तथा चोक्तम् निर्जरणलोकविस्तर-धर्मस्खाख्याततवचिन्ता च । "णाणस्स होइ भागी, थिरयरो दंसणे चरित्ते य । धन्ना बोधेः सुदुर्लभत्वं, च भावना द्वादश विशुद्धाः"॥२॥ श्रावकहाए, बुरुकुलवासं न मुंचंति ॥१॥" इत्यादिका शा. इत्यादिका अनेकप्रकारा भावना भवन्तीति । भाचा. २ रविषया भावना भवतीति । • श्रु० ३ ०। चारित्रभावनामधिकृत्याह- . (३) भावनापरिसंख्यानम्साहुमहिंसाधम्मो, सच्चमदत्तबिरंई य बंभं च । पढममणिच १ मसरणं २, साहुपरिग्गहविरई, साहु तवो वारसंगो य ॥ ३३८ ।। संसारो ३ एगया य ४ अमचं ५। वेगमप्पमायो, एगत्ता भावणा य परिसंगं । असुइत्तं ६ पासव ७संइय चरणमणुगताओ, भणिया एत्तो तवो वोच्छं ।३३६। वरोंय तह निजरा ६ नवमा ।। ७६ ।। साधुशोभनोऽहिंसाऽऽदिलक्षणो धर्म इति प्रथमवतभावना। लोगसहावो १० घोहियतथा सत्यमास्मिन्नवाईते प्रवचने साधु शोभनं नान्यति । दुल्लहा ११ धम्मसाहो अरहा १२ । Page #1531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०८) अभिधानराजेन्द्रः। भावणा एया इंति बारस, सुतनुरतनुः स्वाम्यस्वामी प्रियः स्फुटमप्रियः। जाकम्पं.भारतीयाभो ॥३०॥ नृपतिरनुपः स्वर्गी तिर्यग्नरोऽपि बनारका, तमप्रथममसित्यभावना १. द्वितीया मशरणभावना २, ह. तदिति बहुधा नृत्यत्यस्मिन् भवी भवनाटके ॥१॥ तीया संसारभावना ३, चतुर्थी एकत्वभावना ४, पश्चमी बदा पापमनेककल्मषमहारम्भाऽऽविभिः कारण, अन्यत्वभावना ५, षष्ठी अशुचित्वभावना ६, सप्तमी पाथ. मस्या नारकभूमिपूटतमासघट्टनष्टाध्वसु। बभावना ७, मधमी संवरभाषना ८, तथा नवमी निर्जरा. माच्छेदनभेदनप्रदानशाऽऽदिदुःखं मह ज्जीवो यज्ञभते तदत्र गदितुं ब्रह्मापि जिलाऽऽनम ॥२॥ भावना, वशमी लोकस्वभावभाषना १०, एकादशी बोबिदुलभस्वभाषमा ११, द्वादशी धर्मकथकोऽहमिति १२ ए. मायाऽादिनियन्धनैर्वहुविधैः प्राप्तस्तिरमा गति, सिंहग्यानमतङ्गणवृषभच्छागाऽऽविरूपस्पृशाम् । तास्तु भावना द्वादश भवन्ति, यथाक्रमं भणितक्रमेण भावनीथा महर्निशमभ्यसनीया इति, पतासां च स्वरूपं किञ्चि पुतृष्णाषधबधताइनरुजा पाहाऽऽविदुखं सदा । चिरूपयामा यज्जीवः सहतेन तस्कथियितुं केनाप्यहो शक्यते ॥३॥ तवमनित्यभावना खाचाखाचविवेकशून्यमनसो निहीकताऽऽलिहिताः, "प्रस्पते पजसाराक्षा-स्तेऽप्यनित्यस्वरक्षसा। सेव्यासेव्यविधी समीकृतधियो निःशूकतावाभा। किं पुन: कवनीगर्भ, निःसारा नेह देहिनः॥१॥ तत्राऽऽनार्यनरा निरन्तरमहाऽऽरम्भाऽऽदिमिर्दुस्सहं, विषयपुर्ण दुग्धमिव, स्वादयति जनो विडाल इव मुदितः। केशं सरलयन्ति कर्म च महादुःखप्रदं चिम्बते ॥४॥ मोपारितलकुरमियो-पश्यति यनमहर कि कुर्मः ॥२॥ | माः क्षवियपाडवप्रभृतयो येऽप्यायदेशोयाभराभरपुनीनीर-पूरपारिप्लवं वपुः । स्तेऽव्यज्ञानदरिद्रताव्यसनितादर्भाग्यरोगाऽऽविभिः। जन्तूनां जीवितं पात-धूतध्वजपटोपमम् ॥३॥ अन्यप्रेषणमानमानजनावाऽऽविभिश्वानिशं , सापप जसनानोक-लोचनाशलचञ्चलम् । दुःखं तद्विषहन्ति यत्कथयितुं शक्यं न कल्परपि ॥५॥ पौष मत्तमाता-कर्णतालवलाचलम् ॥४॥ रम्भागर्भसमः सुखी शिखिशिखावर्णाभिरुच्चैरयं, स्वाम्य पावतीसाम्य, चपलाचपलाः थियः । सूचीभिः प्रतिरोमभेदितवस्तारुण्यपुण्यः पुमान् । प्रेम रिमिक्षस्थेम, स्थिरत्वविमुखं सुखम् ॥ ५॥ यत् दुःखं लभते तदष्टगुणितं स्त्रीकुतिमध्यस्थिती, सचामलि भाषामा भाषयनित्यनित्यताम् । सम्पद्येत तदप्यनन्तगुणितं जन्मक्षणे प्राणिनाम् ॥६॥ माणप्रियेऽगि पुमाssो. विपन्नेऽपिन शोचति ॥ ६ ॥ पाल्ये मूत्रपुरीषधूलि लुठनाऽऽशानाऽऽदिभिर्निन्धिता, लवस्तु नियस्व-प्रामस्तस्तु मूढधीः । तारुण्ये विभवार्जनेष्टविरहानियाऽगमाऽऽदिव्यथा। जीताणे हीरेऽपि, भग्ने रोदित्यहनिशम् ॥७॥ वृद्धत्वे तनुकम्पायपटुता श्वासाऽऽद्यसुस्थात्मता, . ततस्तष्णाधिमाशेन निर्ममत्वविधायिनीम्। तस्का नाम शास्ति सा सुखनिह प्राप्नोति यस्यां जन?॥७॥ एखचीर्भावयेभित्य-मित्यनित्यत्वभावनाम् ॥८॥"॥१॥ सम्यग्दर्शनपालनाऽऽदिभिरथ प्राप्त भये त्रैदशे। प्रथाशरणभावना जीवाः शोकविषादमत्सरभयस्वल्पर्धिकत्वाऽऽदिभिः । "पितुर्मातुओतुस्तनययिताऽऽदेश्च पुरतः, ईयाकाममदजुधाप्रभृतिभिश्चात्यन्तपीडाऽर्दिताः, प्रभूनाधिव्याधिवजनिगडिताः कर्मचरटैः। क्लेशेन क्षपयन्ति दीनमनसो दीर्धे निजं जीवितम् ॥८॥ सन्तः क्षिप्यन्ते यममुखगुहाम्तस्तनुभृतो, इत्थं शिवफलाधायि-भववैराग्यवीरुधः । बाकर्षलोका शरणरहितः स्थास्यति कथम् ॥१॥ सुधावृष्टि सुधीः कुर्या-देनां संसारभावनाम् ॥६॥" ॥३॥ पे जामम्ति विचित्रशास्त्रविसरं ये मन्त्रतन्त्रक्रिया अथैकत्वभावनाप्राचीपयं प्रथयम्ति येच दधति ज्योतिःकलाकौशलम् । "उत्पद्यते जन्तुरिक एव, विपद्यते चैकक एव दुःखी। तेऽपि प्रेतपतेरमुण्य सकल त्रैलोक्यविद्धंसन कर्मार्जयत्येकक एप चित्र मासेवते तत्फलमेक एव ॥१॥ पाप प्रतिकारकर्मणि न हि प्रागल्भ्यमाबिभ्रति ॥२॥ यजीवेन धनं स्वयं बहुविधैः कष्टैरिहोपार्जीते , भामाशनपरिश्रमोटभटेरापिताः सर्वतो, तत्संभूय कलत्रमिनतनयभ्रात्रादिभिर्भुज्यते । गत्युदाममदान्धसिन्धुरशतैः केनास म्या कविता तत्तत्कर्मवशाच्च नारकनरस्वासितिर्यग्भवेकधीपतिक्रिणोऽपि सहसा कीनासदासयला ध्वेक सेष सुदुःसहानि सहते दुःखान्यसख्यान्यहो ।॥ २॥ दाकटा पमधेशम याम्ति इह हा निस्त्राणता प्राणिनाम् ॥३॥ जीवो यस्य कृते भ्रमत्यनुदिशं दैन्यं समालम्बते, गगनुपएसासुरगिरि पृथ्वी पृथुच्छत्रसात् , धर्माद् भ्रस्यति पञ्चयत्यतिहितात् न्यायादपक्रामति । घेक प्रभविष्णाषः कशमपि क्लेशं विनवाऽऽत्मनः। देहः सोऽपि सहाऽऽत्मना न पदमप्येकं परस्मिन् भवेनिलामाम्पबलप्रपञ्चचतुरास्तीर्थरास्तेऽप्यहो, गच्छत्यस्य ततः कथं बदत भोः साहाय्यमाधास्यति । वाशेषजमौयस्मरमपाक कृताम्तं क्षमाः॥४॥ स्वायकनिष्ठं स्वजनस्वदेह-मुख्यं ततः सर्पमवेत्य सम्यग् । कलप्रमिपुत्रादि-खेहप्रहनिवृत्तये। सर्वत्र कल्याणनिमित्तमेकंधर्भ सहायं विदधीत धीमान् ।' इति शुखमतिः कुर्या-दशरएयत्वभावनाम् ॥४॥॥" ॥२॥ अथाम्यस्वभावनाअथ संसारभाषा "जीवः कायमपि व्यपास्य यदहो लोकान्तरे पाति यसमतिरमतिः श्रीमानश्री सुखी सुखयर्जिता, झिनोऽसौ वपुषााप कैव हि कथा द्रव्याऽऽदिवस्तुबजे । Page #1532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०६) भावणा अभिधानराजेन्द्रः। भावणा तस्मालम्पति यस्तनुं मलयजैयों हन्ति दण्डादिभि- यत्कर्म पुद्रलाऽऽदान-मात्मन्यास्रवतो भवेत् ॥३॥ यः पुष्णाति धनाऽऽदि यश्च हरते तनाऽपि साम्यं श्रयेत् ।। पतस्य सर्वदेशाभ्यां, छेदनं द्रव्यसंवरः। अन्यत्वभवनामेवं, यः करोति महामतिः।। भवतुक्रियायास्तु, त्यागोऽसौ भावसंबरः ॥ ४॥ तस्य सर्वस्वनाशेऽपि न शोकांऽशोऽपि जायते ॥२॥" ॥५॥ मिथ्यात्वकषायाऽऽदीना-मानवाणां मनीषिभिः । अथाशुचित्वभावना निरोधाय प्रयोक्तव्या, उपायाः प्रतिपन्थिनः ॥ ५॥ "लवणाऽऽकरे पदार्थाः, पतिता लवणं यथा भवन्तीह । यथाकाये तथा मलाः स्यु-स्तदसावशुचिः सदा कायः॥१॥ मिथ्यात्वमातरौद्राऽऽख्य-कुच्याने व सुधीर्जयेत् । कायः शोणितशुक्रमीलनभवो गर्भे जरावेष्टितो, दर्शनेनाकलङ्केन, शुभध्यानेन च क्रमात् ॥ ६॥ मानाऽऽस्वादितखाद्यपेयरसकैर्वृद्धिं कमात्प्रापितः । क्षाम्त्या क्रोधं मृदुत्वेन, मान मायामृजुत्वतः। क्लिद्यद्धातुसमाकुलः कृमिरुजागराडूपदाऽऽद्यास्पदं. सन्तोषेण तथा लोभ, निन्धीत महामतिः ॥७॥ कैर्मन्येत सुबुद्धिभिः शुचितया सर्वैर्मलः कश्मतः ? ॥२॥ शब्दाऽऽदिविषयानिष्टा-निष्टांश्चापि विषोपमान् । सुस्वादं शुभगन्धिमोदकदधिक्षीरेक्षुशाल्योदन रागद्वेषप्रहाणेन, निराकुति कोविदः ॥ ८॥ द्राक्षापर्पटिकाऽमृताघृतपुरस्वर्गच्युताम्राऽऽदिकम् । य एतद्भावनासङ्गी, सौभाग्यं भजते नरः। . भुक्तं सत्सहसेव यत्र मलसात्सम्पद्यते सर्वत एति स्वर्गापवर्गश्री-रवश्यं तस्य पश्यताम् ॥ ॥" ॥८॥ स्तं कायं सकलाशुचिं शुचिमहो मोहान्धिता मन्यते ॥ ३॥ अम्माकुम्भशतैर्वपुर्ननु बहिर्मुग्धाः शुचित्वं कियत् अथ निर्जराभावनाकालं लम्भयथोत्तम परिमलं कस्तूरिकाऽद्यैस्तथा । " संसारहेतुभूतायाः, यः क्षयः कर्मसन्ततेः । विष्ठाकोष्ठ कमेतदतकमहो मध्ये तु शौचं कथं निर्जरा सा पुनधा, सकामाकामभेदतः ॥१॥ कार नेष्यथ सूत्रयिच्यथ कथंकारं च तत्सौरभम् ॥४॥ श्रमणेषु सकामा स्या-दकामा शेषजन्तुषु । दिव्याडमोदसमृद्धिबासितदिशः श्रीखण्डकस्तूरिका- पाकः स्वत उपायाच, कर्मणां स्याद्यथाऽवत् ॥२॥ कर्पूरागुरुकुमप्रभृतयो भावा यदाश्लेषतः । कमेगन क्षयो भूया-दित्याशयवतां सताम् । दौर्गन्ध्यं दधति क्षणेन मलतां चाऽऽविभ्रते सोऽप्यहो. वितम्बतां तपस्याऽऽदि, सकामा शमिनां मता ॥३॥ देहः कैश्चन मन्यते शुचितया वैधेयतां पश्यत ॥५॥ एकेन्द्रियाऽऽदिजन्तूनां, सज्ञानरहिताऽऽत्मनाम् । इत्यशौचं शरीरस्य, विभाव्य परमार्थतः। शीतोष्पवृष्टिदइन-फछेदभेदाऽऽदिभिः सदा ॥ ४ ॥ सुमतिर्ममतां तत्र, न कुर्वीत कदाचन" ॥६॥ कष्टं चेदयमानानां यः शाटः कर्मणां भवेत् । अथाऽनघभावना अकामनिर्जरामना-मामनन्ति मनीषिणः ॥५॥ "मनोपयोषपुर्योगः, कर्म येनाशुभं शुभम् । तपःप्रभृतिभिर्वृद्धि, अजन्ती निर्जरा यतः। भधिनामानवेन्स्येते , प्रोक्तास्तेनासधा जिनः॥१॥ ममत्वं कर्म संसारं, हल्यात्तां भावयेत्ततः॥६॥" ॥6॥ मैव्या सर्वेषु सरवेषु , प्रमोदेन गुणाधिके । अथ लोकस्वभावभावनामाध्यस्थ्येनाविनीतेषु , कृपया दुःखितेषु च ॥२॥ "शाखस्थानस्थित-कटिस्थकरयुगनराकृतिखोकः । सततं वासितं स्वान्तं , कस्यचित्पुण्यशालिनः। भवति द्रव्यैः पूर्णः, स्थित्युत्पत्तिव्ययाऽऽकान्तः ॥१॥ वितनोति शुभं कर्म; द्विचत्वारिंशदात्मकम् ॥ ३॥ अर्द्धतिर्यगोभेदैः, स त्रेधा जगदे जिनैः । रौद्राऽऽसध्यानमिथ्यात्व-कषायविषयैर्मनः । रुचकादष्टप्रदेशा-मेरुमध्यव्यवस्थितात् ॥ २॥ आक्रान्तमशुभं कर्म, विदधाति घशीतिधा ॥४॥ नवयोजन शस्य -मधोभागेऽपि सा तथा। सर्वगुरुसिद्धान्त, सासदगुणवर्णकम् । पतत्प्रमाण कस्तिर्य-ग्लोकश्चित्रपदार्थभृत् ।। ३॥ तं हितं च वचनं, कर्म सश्चिनुते शुभम् ॥५॥ श्रीसागुरुसर्वश-धर्मधार्मिकदूषकम् । ऊर्गलोकस्त दुपरि, सप्तरज्जुप्रमाणकः। पतरप्रमाणसंयुक्त-श्वाधोलोकोऽपि कीर्तितः ॥४॥ उन्मार्गदेशिषचन-मशुभं कर्म पुष्पति ॥६॥ रत्नप्रभाप्रभृतयः, पृथिव्या सात वेधिताः। देवार्चनगुरूपास्ति-साधुविश्रामणाऽऽदिकम् ।। घनोदधिधनवात-तनुवातस्तमोधनाः ॥५॥ वितन्वती सुगुप्ता च, तनुर्वितनुते शुभम् ॥७॥ तृष्णानुधावधाऽऽघात-भेश्नच्छेदमाऽऽदिभिः । मांसाशनसुरापान-जन्तुघातनचौरिकाः। दुःखानिः नारकास्तत्र, वेदयन्ते निरन्तरम् ॥ ६॥ पारदार्याऽऽदि कुर्वाण-मशुभं कुरुते वपुः ॥ ॥ प्रथमा पृथिवी पिण्डे,योजनानां सहनकाः। पनामावभावनामविरतं यो भावयेदावत-.. स्तस्यानर्थपरम्परेकजनकाद् दुष्टाऽनवीघा ऽश्मनः। अशीतिले क्षमेकं च, तत्रोपरि सहनकम् ॥७॥ व्यावृष्याऽखिलदुःखदावजलदे निःशेषशर्माबली अधश्च मुक्त्वा पिण्डस्य, शेषस्याभ्यन्तरे पुनः । निर्माणप्रवणे शुभाशुभगणे नित्यं रति पुष्यति ॥"॥७॥ भवनाधिपदेवामां भवनानि जगुर्जिनाः ॥८॥ अथ संघरभावना असुरा नागास्तडितः, सुपी अग्नयोऽनिला। प्रानषाणां निरोधो यः, संवरः स प्रकीर्तितः। स्तमिताधिद्विपदिशः,कुमारान्ता दशेति ते ॥६॥ सर्वतो देशतश्चेति, द्विधा स तु विभज्यते ॥१॥ व्यवस्थिता पुनः सर्वे, दक्षिणोत्तरयोर्दिशोः। अयोगिकेवलिध्वेव, सर्वतः संवरो मतः । सत्रासुराणां चमरो, दक्षिणावासिनां विभुः ॥ १०॥ देशतः पुनरेकद्वि-प्रभृत्यानपरोधिषु ॥२॥ उदीच्यानां बलिर्नाग-कुमाराऽऽदेर्यथाक्रमम् । प्रत्यकमपि स द्वेधा, द्रव्यभावविभेदतः। धरण भूतानन्दश्च, हरिहरिसहस्तथा ।। ११ ।। ३७५ Page #1533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावणा अभिधानराजेन्द्रः। भावणा वेणुदेवो वेणुदाली, चाग्निशिखाग्निमाणवी। जम्बूद्वीपे भ्रमन्तौ च द्वी चन्द्रौ द्वौ च भास्करी। वेलम्बा प्रभजनश्व, सुधौषमहाघोषकी ॥ १२ ॥ चत्वारो लवणाम्भोधा, चन्द्राः सूर्याश्व कीर्तिताः ॥ ३७॥ जलकान्तो जलप्रभ-स्ततः पूर्णो विशिष्टकर। धातकीखण्डके चन्द्राः, सूर्याश्च द्वादशैव हि। अमितो मितवाहन. इन्द्राऽऽनेया द्वयोर्दिशोः ॥१३॥ फालोदे द्विचत्वारिंश चन्द्राः सूर्याश्व कीर्तिताः ॥ ३८॥ अस्या एव पृथिव्या, उपरितने मुनयोजनसहस्रम् । पुष्कराचे द्विसप्तति-श्चन्द्राः सूर्याश्च मानुषे । योजनशतमध उपरिच, मुक्त्वाऽष्टसु योजनशतेषु ॥ १४॥ क्षेत्र द्वत्रिशमिन्दूनां, सूर्याणां च शतं भवेत् ॥ ३८ ॥ पिशाचाऽऽद्यष्टभेदानां, व्यन्तराणां तरस्विनाम् । मानुषोत्तरतः पञ्चा-शद्योजनसहरकैः। नगराणि भवन्त्यत्र, दक्षिणोत्तरयोर्दिशोः॥१५॥ चन्द्रग्न्तरिताः सूर्याः. सूर्यैरन्तरिताश्च ते ॥४०॥ पिशाचा भूता यक्षाच, राक्षसाः किन्नरास्तथा। मानुषक्षेत्रचन्द्रार्क-प्रमाणार्धप्रमाणकाः।। किंपुरुषा महोरगा, गन्धर्वा इति तेऽधा ॥१६॥ तत्क्षेत्रपरिधवृद्धधो, वृद्धिमन्तश्च सत्यया ॥४१॥ दक्षिणोत्तरभागेन, तेषामपि च तस्थुषाम् । स्वयम्भूरमणं व्याप्य, घण्टाकारा असंख्यकाः। द्वा द्वाविन्द्रो समानाती, यथासङ्ख्यं सुबुद्धिभिः ॥ १७ ॥ शुभलेश्या मन्दलेश्या-स्तिष्ठन्ति सततं स्थिराः॥ ४२ ॥ कालस्ततो महाकालः, सुरूपः प्रतिरूपकः। समभूमितलाई. सार्धरजी व्यवस्थिता। पूर्णभद्रो माणिभद्रो, भीमो भीमो महाऽऽदिकः ॥ १८॥ कल्पावनल्पसम्पत्ती, सौधर्मेशाननामकौ ॥ ४॥ किन्नर किंपुरुषो सत्पुरुषमहापुरुषनामको तदनु। सार्धरज्जुद्वये स्यातां, समानी दक्षिणोत्तरी। अतिकायमहाकायौ, गीतरतिश्चैव गीतयशाः॥१६॥ सनत्कुमारमाहेन्द्रौ, देवलोकी मनोहरौ॥४४॥ अस्या एव पृथिव्या, उपरि च योजनशतं हि यन्मुक्तम् । ऊर्द्धलोकस्य मध्ये च , ब्रह्मलोकः प्रकीर्तितः । तन्मध्यादध उपरि च, योजनदशकं परित्यज्य ॥ २० ॥ तदुई लान्तकः कल्पो, महाशुक्रस्ततः परम् ॥ ४५ ॥ मध्ये ऽशीताविह यो-जनेषु तिष्ठन्ति वनचरनिकायाः। देवलोकः सहस्रारो-ऽथाष्टमो रज्जुपञ्चके। अप्राप्तिकमुख्या अष्टावल्पर्धिकाः किश्चित् ॥ २१ ॥ एकेन्द्रौ चन्द्रववृत्ता-वानतप्राणतो ततः॥४६॥ अत्र प्रतिनिकायं च, द्वौ द्वाविन्द्रौ महाद्युती। रज्जुषट्के ततः स्याता-मेकेन्द्रावारणाच्युतौ। दक्षिणोत्तरभागेन, विज्ञातव्यौ मनीषिभिः ॥ २२ ॥ चन्द्रवर्तुलावेवं, कल्पा द्वादश कीर्तिताः॥४७॥ योजनल क्षोतिना, स्थितेन मध्ये सुवर्णमयवपुषा । प्रैवेयकास्त्रयोऽधस्त्या-त्रयो मध्यमकास्तथा । मेरुगिरिणा विशिष्ट. जम्बूद्वीपे भवन्त्यत्र ॥२३॥ प्रयचोपरितनाः स्यु-रिति प्रैवेयका नव ॥४८॥ वर्षाणि भारताऽऽदीनि, सप्त वर्षधरास्तथा । अनुत्तरविमानानि, तदुई पञ्च तत्र च । पर्वता हिमवम्मुख्याः, षट् शाश्वतजिनाऽऽलयाः ॥ २४ ॥ प्राच्यां विजयमपाच्यां, वैजयन्तं प्रचक्षते ॥४॥ योजनल क्षमिता-जम्बूद्वीपात्परो द्विगुणमानः। प्रतीच्यां तु जयन्ताऽऽख्य-मुदीच्यामपराजितम् । लवणसमुद्र परत-स्तद्विगुणद्विगुणविस्ताराः ॥२५॥ सर्वार्थसिद्धं तन्मध्ये, सर्वोत्तममुदीरितम् ॥ ५० ॥ बोधव्या धातकीखण्ड-कालोदाऽऽद्या असङ्ख्यकाः। स्थितिप्रभावलेश्याभि-विशुद्धधवधिदीप्तिभिः। स्वयम्भूरमणान्ताच,द्वीपवारिधयः कमात् ॥२६॥ सुखाऽऽदिभिश्च सौधर्मा- द्यावत्सर्वार्थसिद्धिदम् ॥५१॥ प्रत्येकरससम्पूर्णा श्वत्वारस्तोयराशयः। पूर्वपूर्वत्रिदशेभ्य स्तेऽधिका उत्तरोत्तरे। त्रयो जलरसा अन्ये, सर्वेऽपीसुरसाः स्मृताः॥२७॥ होनहीनतरा देह-गतिगर्वपरिग्रहः ॥ ५२ ॥ सुजातपरमद्रव्य-हृद्यमद्यसमोदकः। घनोदधिप्रतिष्ठानाः, विमानाः कल्पयोर्वयोः। वारुणीवरवाधिः स्यात् , क्षीरोदजलधिः पुनः ।। २८ ।। त्रिषु वायुप्रतिष्ठाना-स्त्रिषु वायूदधिस्थिताः॥ ५३ ॥ सम्यकथितखण्डाऽऽदि-मुग्धदुग्धसमोदकः। ते व्योमविहितस्थानाः, सर्वेऽप्युपरिवर्तिनः। घृतवरः सुतापित-नव्यगव्यघृतोदकः ॥ २६ ॥ इत्यूर्द्धलोकविमान-प्रतिष्ठानविधिः स्मृतः॥ ५४॥ लवणाब्धिस्तु लवणा-Sऽस्वादपानीयपूरितः। सर्वार्थसिद्धाद् द्वादश, योजनेषु हिमोज्वला। कालोदः पुष्करवरः, स्वयम्भरमणस्तथा ॥३०॥ योजनपश्चचत्वारिं-शक्षाऽऽयामविस्तरा ॥ ५५ ॥ मेघौदकरसाः किन्तु, कालोदजलधेर्जलम् । मध्येऽष्टयोजनपिण्डाश्च, शुद्धस्फटिकनिर्मिताः। कालं गुरुपरिणाम, पुष्करोदजलं पुनः ॥ ३१ ॥ सिद्धशिलेषत्प्रारभारा, प्रसिद्धा जिनशासने ॥५६॥ हितं लघुपरिणाम, स्वच्छस्फटिकनिर्मलम् । तस्या उपरि गव्यूत-त्रितयेऽतिगते सति ।. स्वयम्भरमणस्यापि, जलजलमीदृशम् ॥ ३२॥ तुर्यगव्यूतिषभागे, स्थिताः सिद्धा निरामयाः ॥ ५७ ॥ त्रिभागाऽऽवर्तसुचतु-र्जातकेचुरसोपमम् । अनन्तसुखविज्ञान-चीर्यसद्दर्शनाः सदा । शेषाऽसख्यसमुद्राणां, नीरं निगदितं जिनैः ॥ ३३ ॥ लोकान्तस्पर्धिनोऽन्योन्या-वगाढाः शाश्वताश्च ते ॥ ५८ ॥ समभूमितलाई, योजनशतसप्तके। एनां भव्यजनस्य लोकविषयामभ्यस्यतो भावना. गते नवतिसंयुक्ने, ज्योतिषां स्यादधस्तलः ॥ ३४॥ संसारकनिबन्धने न विषयग्रामे मनो धावति । तस्योपरि च दशसु, योजनेषु दिवाकरः। किन्त्वन्यान्यपदार्थभावनसमुन्मीलस्प्रबोधोजुरं, तदुपर्यशीतिसख्य योजनेषु निशाकरः ॥ ३५ ॥ धर्मध्यानविधाविह स्थिरतरं तज्जायते सन्ततम् ॥ ५६॥" तस्योपरि च विशत्यां. योजनेषु प्रहाऽऽदयः। (बोधिदुर्लभत्वभावना बोहिदुल्लदत्तभावणा ' शब्बेऽस्मि. स्यादेवं योजनशतं, ज्योतिलोको दशोचरम् ॥ ३६ ॥ | व भागे १३३३ पृष्ठे गता) Page #1534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावणा अभिधानराजेन्द्रः। भावणा अथ धर्मकथकोऽहनिति भावना ता एवाह"अहन्त केवलाऽऽलोका-लोकिताऽऽलोकलोककाः । दुविहा उ भावणाओ, असंकिलिट्ठा य संकिलिट्ठा य । यथार्थ धर्ममाण्यातुं. पटिष्ठा न पुनः परे ॥१॥ मुत्तण संकिलिट्ठा, असंकिलिट्टाएँ भारेति ।। ४६३ ॥ वीतरागा हि सर्वत्र, परार्थकरणोधताः। द्विविधा भावतो भावना:-असंक्लिष्टाः शुभाः, संक्लिटान कुत्राप्यनृतं घूयु-स्ततस्तद्धर्मेसत्यता ॥२॥ क्षान्त्यादिभेदैर्धर्म च. दशधा जगदुर्जिना।। श्वाशुभाः। तत्र मुक्त्वा संक्लिष्टभावनाः असंक्लिष्टाभिर्भावयं कुर्वन् विधिना जन्तु-भवाब्धौ न निमजति ॥ ३॥ नाभिर्भावयति जिनकल्पं प्रतिपित्सुरिति ॥ ४६३ ॥ पूर्वापरविरुद्धानि, हिंसाऽऽदे कारकाणि च । अथ कास्ताः संक्लिष्टभावना इत्याशङ्का उपनोदाय तत्वचांसि चित्ररूपाणि, व्याकुर्वद्भिर्निजेच्छया ॥४॥ स्वरूपमभिधित्सुराहकुतीधिकः प्रणीतस्य. सदतिप्रतिपन्थिनः । संखा य परूवणया, होइ विवेगो य अप्पसत्थासु । धर्मस्य सकलस्यापि, कथं स्वाख्यातता भवेत् ? ॥५॥ एपेव पसत्थासु वि, जत्थ विवेगो गुणा तत्थ ।। ४६४॥ यच्च तत्समये क्वापि, दयासत्याऽऽदिपोषणम् । अप्रशस्तभावनानां संख्या पश्चेतिलक्षणा निरूपणीया , दृश्यते तद्वचोमानं, बुधैःयं न तस्वतः॥६॥ प्ररूपणा च तासां कर्तव्या, तासां चाऽप्रशस्तानां विवेकः यत्प्रोदाममदान्धसिन्धुरघटं साम्राज्यमासाद्यते, परिहारो भवति । एवमेव प्रशस्तास्वपि तपःप्रभृतिभावनायनिःशेषजनप्रमोदजनकं सम्पद्यते वैभवम् । सु संख्या प्ररूपणा च वक्तव्या; नवरं (जस्थ विवेगो ति ) यत्पूर्णेन्दुसमद्युतिर्गुणगणः सम्प्राप्यते यत् परं. यत्र विवेक इति पदं तत्राप्रशस्ता एव भावना द्रव्यासौभाग्यं च विज़म्मते तदखिलं धर्मस्य लीलायितम् ॥७॥ स्ता विवेकव्याः परित्याज्या इति भाव्याः (गुणा तस्थि त्ति) यन्न प्लावयति क्षितिं जलनिधिः कल्लोलमालाऽऽकुलो, यासु प्रशस्ता भावनाः तासु भाग्यमानासु गुणाः खदविनो. यत्पृथ्वीमखिलां धिनोति सलिलाऽऽसारेण धाराधरः। दाऽऽदयः प्रागुक्ता भवन्तीति चूर्यभिप्रायेण व्याख्यानम् । यच्चन्द्रोष्णरुची जगत्युदयतः सर्वान्धकारच्छिदे. विशेषचूर्यभिप्रायःपुनरयम्-यत्र च प्रशस्तेऽपि वस्तुनि तं निःशेषमपि ध्रुवं विजयते धर्मस्य विस्फूर्जितम् ॥ ८॥ विवेकपरित्यागोऽस्य घटते तत्र गुणा भवन्ति, यथाऽचार्याअबन्धूनां बन्धुः सुहृदसुहृदां सम्यगगदो, ऽऽदीनामवर्णभाषणश्रावणे औदासीन्यमवलम्बमानस्याप्य. गदात्तिक्लान्तानां धनमधनभावार्तमनसाम् ।। स्य गुण एव भवति , न पुनः स्थविरकल्पिकस्येव यथाशक्ति अनाथानां नाथो गुणविरहितानां गुणनिधिः,* तन्निवारणमकुर्वतो दोष इति ॥ ४६४॥ जयत्येको धर्मः परमिह हितवातजनकः ॥ ६ ॥ अथाप्रशस्तभावनानां नामग्राहं गृहीत्वा सङ्ख्यामाहअर्हता कथितो धर्मः, सत्योऽयमिति भावयन् । कंदप्पदेवकिनिस-अभिप्रोगा पासुरा य संमोहा। सर्वसम्पत्करे धर्मे, धीमान् दृढतरो भवेत् ॥ १०॥" ॥१२॥ " एकामध्यमलामिमासु (१) सततं यो भावयेद्भावनां, एसा य संकिलिट्ठा, पंचविहा-भावणा भणिया ॥बृ०॥ भव्यः सोऽपि निहन्त्यशेषकलुषं दत्तासुखं देहिनाम् । एषा प्रशस्ता पञ्चविधा भावना तत्स्वभावाभ्यासरूपा भ. यस्वभ्यस्तसमस्तजैनसमयस्ता द्वादशाप्यादरा णिता ॥ ४६॥ दभ्यस्येलभते स सौख्यमतुलं किं तत्र कौतूदलम् ? ॥१॥" (५) अथासामेव फलमाह प्रव०६७ द्वार । जो संजो वि एआ-सु अप्पसत्थासु भावणं कुणइ । (४) आत्मभावना द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च । तत्र द्रव्य ___ सो तबिहेसु गच्छइ, सुरेसु भइयो चरणहीणो ॥४६६।। तस्तावदाह यः संयतोऽपि व्यवहारतः साधुरप्येताभिरप्रशस्तासरवहनासहत्थी-पवगाईया उ भावणा दग्वे । भिर्भावनाभिः , गाथायां तृतीयाऽर्थे सप्तमी । भावनमा. स्मनो वसनं करोति , स तद्विषयेषु तादृशेषु काम्दअब्भास भावण त्ति य, एगटुं तत्थिमा भावे ।। ४१२॥ पिकाऽऽदिषु सुरेषु गच्छति, यस्तु चरणरहितः सर्वथा इह धानुको यदभ्यासविशेषात्प्रथम स्थूलद्रव्यं, ततो बाल. चारित्रसत्ताविकलो द्रव्यचरण हीनो वा स भाज्यः तबद्धांकपर्दिकां. ततः सुनिमां, ततः स्वरेणाऽपि लक्ष्यस्य ये. द्विधेषु वा देवेषूत्पद्यते , नरकतिर्यग्मनुष्येषु वा ॥ ४६६ ॥ धं करोति । यथाश्वः शीघ्र शीघ्रतरं धायमानः शिक्षावि. वृ०१ उ०२प्रक०। शेषाद् महदपि गर्ताऽऽदिकं लयति हस्ती वा शिष्यमाण: अथाऽऽसां भावनानां सामान्यतः फलमाहप्रथमं काष्ठानि , ततः क्षुल्लकान् पाषाणान् , ततो गोलिका, एआओ भावणाओ, भाविता देवदुग्गई जति । तदनु बादराणि, तदनन्तरं सिद्धार्थानप्यभ्यासातिशयाद् गृ हाति । प्लवको वा प्रथम वंशे बिलग्नः सन् प्लवते, ततः प. तत्तो वि चुया संता, पयरिंति भवसागरमणतं ।। ५२६ ।। श्वादभ्यस्थनाकाशेऽपि तानि तामि कारणानि करोति । प्रा. एता भावना भावयित्वा अभ्यस्य देवदुर्गति कान्दर्षिकाss. विशनाच्चित्रकराऽऽदिपरिग्रहः, एताः सर्वा अपि द्रव्यभा. दिदेवगतिरूपणं यान्ति संयता अपि, ततोऽपि देवदुर्गतेश्चुबनाः। अभ्यास इति वा भावनेति वा एकार्थम् । तत्रता ताः सन्तः पर्यटन्ति भवसागरं संसारसमुद्रमनन्तमिति । वश्वनाएतक्षणा भावना भावे मन्तव्याः॥४६२ ॥ उक्ता अप्रशस्ता भावना। Page #1535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावणा ( १५१२) अभिधानराजेन्द्रः । सम्प्रति प्रशस्त भावना अभिधित्सुरा- तवे सुलेख, एगनेयं बल य तुला पंचहा बुता, जिसकष्पं पडिवन्न। ॥५३० ॥ ० १० २ प्रक० विशे० । व्य०। पं० य० । ध० (व्याख्या 'जिकव्य' शब्दे ४ भागे १४६६ पृष्ठे गता ) (६) मैत्र्यादिकाश्चतुर्विधा श्रपि भावना:इति चेष्टावत उच्चे विशुद्धभावस्य सद्यतेः चित्रम् | मैत्री करुण मुदतीपेक्षाः किल सिद्धिमुपयान्ति॥७॥ इत्येवमुक्तप्रकारेण चेष्टावतः साधुचेष्टायुक्तस्य उच्चैस्वये विशुद्धभावस्य विशुद्धाध्यवसायस्य सद्यतेः सत्साधोः क्षिम मरिय मैत्रीदामुदितीपेक्षा पूर्वोक्ती भावना किल सिद्धिमुपयान्ति किलेत्याप्ताऽऽगमवादो, निष्पति प्रतिलभन्ते ॥ ७ ॥ पो० १३ विव० । 1 (७) अथ भवानः पञ्चविंशतिः । तद्यथा-इरियासमिए १ सया जए य, उहि मुंजे व पायो २ । आयायनिवदुर्ग ३ संजय, समाहिर ४ संजय भयो बहुं ।। ५ ।। ।। ४३ ।। अहस्स सच्चे ६ अणुवीय भासए ७, जे कोह-लोह भयमेव १० बुझए । - से दीहरायं समुपहिया सया, मुखी हु मोसं परिवजए सिया || ११ || || ४४ ॥ सयमेव श्रोग्गदजायणे घडे , महा सम्मा १२ सभा १३ अणुभाषिय भुंजीय पाणभोगणं १४, जाइतु साहम्मियाण भोयणं ।। १५ ।। || ४५ ॥ आहारगुतो १६ अविभूसिपप्पा १७, इथिन निकाएँ] १८ न स १६ । बुद्धे सुइकडे न कुजा २०, धम्मादी संघ ॥ ४६ ॥ जे २१ व २२ व २३ माग २४, फासे व संयमपावर २५ । गेहिप्पो न करेज्ज पंडिए, से होइ देतं विरए व्यषि ॥ ४७ ॥ प्राणातिपाताऽदिनिवृतिमाता दायाद नार्थे भाव्यन्ते ऽस्यते इति भावनाः, अनभ्यस्य मानाभिर्भा वनाभिरभ्यस्यमानविद्या मलीमसी भय महाजनी ति । ताश्च प्रतिमहावतं पञ्च पश्च भवन्ति । तत्र प्रथमम हाव्रतस्य ताः कयन्ते ई ई गमनं तत्र समित उपयु कः असमिती हि प्राणिनो हिस्यादिति प्रथमा भावना । तथा सदा सर्वकालं यतः सम्यगुपयुक्तः सन् उहि ति अवलोक्य जीव ही पानभोजनम् । अयमर्थः प्रतिगृहं पात्रमध्यपतितः पितुयुक्रेन तत्समुत्थाऽऽगन्तुकसश्वरक्षणार्थ प्रत्यवेक्षणीयः श्रागत्य च पुनः प्रातिप्रदेशे स्थित्वा प्रत्यवेक्षितं पान भोजनं विधाय प्रकाशप्रदेशावस्थितेन भोक्तव्यम्, अनवलोक्य मुखावस्य हि प्राणिहिंसा सम्भवतीति द्वितीया । तथा आदाननिपी पाचाऽऽदेह मोक्षायागमप्रतिबद्ध जुगुप्सततमनिक्षेपगुप्सका श्रागमानुसारेण प्रत्यवेक्षण प्रमार्जनपूर्वमुपयुक्तः सन्नुपधेरादाननिक्षेपौ जुगुको हि सव्यापादनं विदध्यादिति तृतीया । तथा संयतः साधुः समाहितः समाधानपरः सन् खलीनताऽऽदिकेऽपि सति कर्मबन्धाय सम्पद्यते । श्रूयते हि दुष्मनो हि मनः क्रियमाणं कायराजमिगु भाषिताऽदिसतो, हिसामकुर्वपि सप्तमनरक पृथ्वीयोग्यं कर्म निर्मितवानिति चतुर्थी । एवं वाचमप्यदुष्टां प्रवर्तयेत् दुष्टां प्रवर्तयन् जीवान् विनाशयेदिति पञ्चमी । तत्त्वार्थे तु अस्याः स्थाने एषणासमितिलक्षणा भावना मंखिता । इति प्रथमव्रतभाषनाः पञ्च । अथ द्वितीय महावताना ते दास्यं परिहरति सः सवास्येन धनुतमपि ब्रूयादिति प्रथमा । तथा अनुचिचिय सम्मानपूर्वकं पर्यालोच्य भाषको वक्ता, अनालोचित भाषी हि कदाचिन्मृषाऽप्यभिदधीत, तत भावणा मनोर पीडाऽऽदयः सस्व ।पघातश्च भवेदिति द्वितीया । तथाया को लोमं भयमेव वा वर्जयेत् परिहरेत्सव मुनि मोक्षं समुपेक्षिता सामीप्येन म . " लः सन् सदा सर्वकाले 'हु' निश्चयेन मोलं 'ति अनुस्वा राकापरिवर्तक सिया स्वात् दिवा स्वपरमिरको परिन भाषी पापाततः कोधस्य निवृतिरनुत्पादया. यानिति दुवा] ३ तथा लोभाभिभू उपयत्ययंका या फूटसाचित्वादिना वितयभाषी भवति सत्य व्रतमनुपालयता जो प्रत्याख्येय इति चतुर्थी तथा भयातेः प्राणाऽऽदिराच्या सत्यवादितांन तो निर्भयत्रासनाऽऽधानमात्मनि विधेयमिति पञ्चमी ५ । इति द्वितीय अथ तुतीयमाभावनाः प्रोच्य -रात्र स्वयमेवानेव नतु परमुन साधुः प्रभुं प्रभुसद या सम्यक्परिज्ञाय अवग्रहस्य देवेन्द्रराज पतिशय्यातरसाधर्मिकभेदभिन्नस्य याचने याञ्चायां प्रवर्तते, परमुखेन हि याचनेऽस्वामियाचने व परस्य विरोधेन व अ काण्ड घटनाबस परिभोगाय दोषा इति प्रथ मातापितायडे 135 विषणार्थं मतिमा सकिएमाऽऽयनुखाबचनम्, अन्यथा तददत्तं स्यादिति द्वितीया २ । तथा सदा सर्वकारिग्रहस्पष्टमया यावेत् । श्रयमर्थ-सह- इसेऽपि स्वामिनाऽवग्रहे भूयो भूयोऽबप्रयाचनं कर्त्तव्यम् । पूर्वमाऽऽद्यबस्था मूत्रपुरी पोसपात्र क चरण प्रक्षालनस्थानानि दायक चिसपीडापरिहारार्थ याच नीयामीति तृतीया ३ । तथा ऽनुज्ञाप्य गुरुमन्यं वा भुञ्जीत पानभोजनम् अयमर्थ:-सुविधा प्राप धमानीपालोचनापूर्व गुरवे निवेद्य गुरुणानुशा म , Page #1536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्र:। भावणा स्यामेकको वाऽश्मीयात् , उपलक्षणमेतत् , अन्यदपि यहिका बाश्वते किल्विषाच ते देवा. किल्विषदेवास्तेषामियं कि. शिदौधिकोपप्रहिकमेवमुपकरणं धर्मसाधनं तत्सबै गुरुणा. स्विषी। श्रा- समन्तात् आमिमुख्येन युज्यन्ते प्रेष्यकर्मणि ऽनुसातमेष मोक्नग्यम् , अन्यथा दत्तमेव परिभुक्तं स्यादिति व्यापार्यन्ते इत्याभियोग्याः किरस्थानीया देवषिशेषास्ते. चतुर्थी तथा समानो धर्मः सधर्मस्तेन बरस्तीति साधर्मि- षामियमाभियोगी । असुरा भवनवासिदेवविशेषास्तेषामि. का प्रतिपकशासनाः संविग्ना साधवः, तेषां पूर्वपरिगृही. यमासुरी। सम्मुखन्तीति सम्मोहा मूढाऽऽत्मानी देषविशेषासक्षेत्राणामयप्रहमासादिकालमाने पञ्चक्रोशाऽऽदिक्षेत्ररूपं स्तेषामियं सम्मोही । एषा हु स्फुटं पञ्चविधा पञ्चप्रकारा पाधित्वा स्थानाऽऽदि भोजनं वा कार्य,तनुज्ञातं हि तत्र उ. अप्रशस्ता सक्लिष्टा भावना तत्तत्स्वभाषाभ्यासरूपा . भ. पायाऽऽदि समस्तं गृहीयात् , अन्यथा चौर्य स्यादिति प. णितेति शेषः । आसां च मध्ये संयतोऽपि सन् यो यस्यां शमी पतास्तृतीयवतभावनाः पश्चादानी चतुर्थवतभा. भाषनायां वर्तते कश्चित्तद्भावमान्धात् स तद्विधेष्वेव बनाः प्रतिपचते-तत्र पाहारे गुप्तः स्यात् , न पुनः स्नि कन्दाऽऽदिप्रकारेषु देवेषु गच्छति, चारित्रलेशमभावात् । ग्धमतिमात्रं भुजीत, यतो निरन्तरहन्धस्निग्धमधुररसप्री. उक्तं च "जो संजनो वि एया--सु अप्पसस्थासु बहा कहिं णित:प्रधानधातुपरिपोषणेन वेदोदयादब्रह्मापि सेवते, प्र. चि । सो तबिहेसु गच्छा, सुरेसु भात्रो चरणहीणो ॥ तिमात्राऽऽहारस्य तुन केवलं ब्रह्मव्रतविलोपविधायित्वा. १॥" इति । यः पुनः सर्वथाऽपि बारिधरहितः सं मा. हर्जन, कायक्लेशकारित्वादपीति प्रथमा १। तथा अविभूषि ज्यो विकल्पनीयः, कदाचित्तद्विधेश्वष्य सुरेपूत्पचते.कदाचि. तात्मा विभूषाधिरहितः , देहस्नानविलेपनाऽऽदिविवि बनारकतिर्यक्त्वमानुषेविति। एताच पश्चापि भावना प्रत्ये. धषिभूपानिरतो हि नित्यमुद्रितचित्ततया ब्रह्मविराधका कं पञ्चविधाः। स्यादिति द्वितीया २ तथा नियम निरीक्षेत , तदय्य तिरेकात्सवशाम्यपि बदनातनप्रभृतीनि सस्पृहं न प्रेक्षेत, कंदप्पे ? कुक्कुइए २, निरन्तरमनुपमबनिताऽययवापिलोकने हि ब्रह्मवाधासम्भव दुस्सीलत्ते य ३ हासकरणे ४ य । इति तृतीया ३ । तथा खियं न संस्तुबीत, स्त्रीभिः सह परि. परविम्हियजणणे वि य ५, चयं न कुर्यात् , तसंसलवसतितदुपभुक्तशयनाऽऽसमाss. दिसेवनेन, अन्यथा ब्रह्ममतभहस्यादिति चतुर्थी ४। तथा कंदप्पोऽणेगहा तह य ॥४६।। युद्धोधगततस्वो मुनिः शुद्रामप्रशस्थां ब्रह्मचर्य प्रस्तावात् (प्रव.) (अस्या गाधायाः व्याख्या 'कंदप्प-भाषणा'श. सीविषयांकन कुर्यात,तस्कथाssसस्य मानसो देतृतीयभागे १७७ पृष्ठे गता।) मा सम्पपत इति पञ्चमी ५ । एताभिः पञ्चभिर्भावना (८) अथ देवकिल्विर्षी भावना पञ्चविधामाह. भिर्भाषिताम्ताकरणो धर्मानुप्रेक्षी धर्मसघनतत्पर। साधु: सुयनाण-१ फेवलीणं २, सम्धसे सम्यक्पुटिनयति ब्रह्मचर्यमिति चतुर्थवतभावना ४। धम्मायरियाण ३ संघ ४ साहणं । अथ पश्चमतभाषना निगद्यन्ते-तत्र यः साधुः शब्दरूप माई अवसवाई, रसगम्धान् मागतान् इन्द्रिय विषयाभूतान्, मकारोऽयमलाक्षणिका, स्पीश्च सम्प्राप्य समासाद्य मनोहान् मनो. किब्धिसिणं भावणं कुणइ ॥ ५० ॥ । हारिणः पापकान् विरूपान् इष्टानिष्टांधेत्यर्थः, गृद्धिमभि. क्षुतज्ञानस्य द्वादशाङ्गीरूपस्य, केवलिनां केवलज्ञानवता, ध. बालक्षणं, प्रवेषं चाप्रीतिलक्षणं यथाक्रमं न कुर्यात् प. र्माऽऽचार्याणां धर्मोपदेषणां. सास्य साधुसाध्वीभाषकथा. विडती विदिततषः सन्, स हाम्तो जितेन्द्रियो घिरतः । विकासमुदायरूपस्य, साधूनां यतीमाम . अवर्णवादी मायी सर्वसापचयोगेभ्यो भवस्थाकञ्चनः किञ्चनबाह्याभ्यन्तरप. च स्वशक्लिनिगृहनाऽदिना मायावान् , देवकिस्विी भावना रिग्रहभूतं नास्यास्तीति व्युत्पत्त्या परिग्रहघिरतियतवानि. करोति । तत्र अवर्णः- अश्लाघा, असहोषोघनमिति या. त्यर्थः । अन्यथा शब्दादिषु मुर्धाऽदिसद्भावात् पञ्चम वत् । स चैवं भूतज्ञानस्थ-पृथिव्यावयः कायाः पजीवनिअधिराधना स्यादिति पञ्चसु विषयेव्यभिष्यामद्वेषवर्जनात् कायामपि व्यावण्यन्ते , शास्त्रपरिक्षाऽध्ययनाऽऽवियपि ब. पञ्चमवतस्य पञ्च भावनाः, मिलितास्तु पञ्चविंशतिरिति । हुशस्त एव । एवं बतान्यपि प्राणातिपातनिवृष्यादीनि ता. पताध समवायागतवार्थाऽऽदिषु किश्चिदन्यथाऽपि दृश्यन्ते न्येव पुनः पुनस्तेषु सूत्रेषु प्रतिपाद्यम्ते । तथा त एष प्रमादा इति ॥४७॥ प्रव०७२ द्वार। मद्याऽऽदयः, अप्रमादाश्च तद्विपक्षभूता भूयो भूयश्च तत्र तत्र इदानीम् 'मसुदामो पणवीसं ति ' त्रिसप्ततं द्वारमाह- कथ्यन्ते, न पुनरधिकं किञ्चिपीति पुनरुक्तदोषान् । यच्च कंदप्पदेव १ किब्बिस २, मोक्षार्थ घटयितव्यमिति कृत्या किं सूत्रे सूर्यप्राप्त्यादिना अमिभोगा ३ भासुरी४य सम्मोह ५ ज्योतिःशारण ?, तथा मोक्षार्थमभ्युपतानां यतीनां कि. योनिप्राभृतोपनिबन्धेन ?, भवतुल्याज्ज्योतिषयोनिप्राभृतः एसा हुपप्पसत्था, प्रभृतीनामिति । उक्त ब-"काया षषा य तस्चिय, ते वेव पंचविहा भावणा तस्थ ॥४८॥ पमाय अपमाया य । मोक्वाहिगारियाणं, जोसजोणीहि कन्दर्पः कामस्तस्प्रधाना निरन्तरं निर्मर्यादतिरन्तरतया वि. किं कर्ज ? ॥१॥"केवलिनामवर्णवादो यथा-किगेषां का. टप्राया देवविशेष कन्दस्तेिषामियं काम्दी । एवं देवा नदर्शनोपयोगी क्रमेण भवतः । उत युगपत् तत्र यदि क. मां मध्ये किरिषषाः पापा मत पचास्पृश्याऽविधर्मका दे- मेणेति पक्षः कक्षीकियते, तदा हानकाले न दर्शन, पर्शन. Page #1537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावणा कास्ले ख न ज्ञानमिति परस्पराऽऽवरण तैव प्राप्ता । अथ युगपदिति द्वितीय पक्षः सोऽप्ययुक्तः, यत एककालत्वाद् द्वयेारव्यकताऽऽपत्तिः प्राप्नोति । उक्तं च " एगतरसमुप्पाए, अन्नान्नाऽऽवरणया दुवेरादं पि । केवलदंसणणाणा-ण मेगका ले य एगसं ॥ २ ॥ " धर्माऽऽचार्याणामवर्णवादो यथा- न शो जातिव्यवहारकुशलान यंत्यादि विविधं गुरून् प्रतिभाषते न तेषां वि नयावर्त्तते । तथा अहितािरायम्वेषयत् सर्वसमक्षं गुरूणामेवसतोऽपि दोषान् वदति, सर्वदैव च तेषां प्रतिकूलतामाचरतीति । वक्रं च "वाईदि से विभास वट्ट न वावि उबवाद । श्रहिश्रो छिद्दप्पेदी, पगासवाई श्रकूलो ॥ १ ॥ " घस्यावर्णवादो यथा - बहवश्च पशुशृगालादीनां सङ्घाः, तत्कोऽयमिह सङ्घघो भवतामा राज्य इत्यादि वदति साधूनामवर्णवादी यथा-नामी साधवः परस्परमपि सहन्ते श्रत एव देशान्तरं परस्परस्पर्धा परिभ्रमति अन्यथा एकमेव संहत्याः मायावितया सर्वदेव लोकाऽऽवर्जनाय मन्दगामिनः महतोअपि च वेनिसदेवास्तदेव तुशन तथा गृहिभ्यस्तैस्तैश्च दुवचनैरात्मानं रोचयन्ति, सर्वदा सर्ववस्तु , सञ्चय पराश्च । उक्तं च"अविसरिगई. अशावित्तीय अधि गुरु पि एमपीइरोसा, महिला व संजयथा ॥ १॥" अम्यैरयुक्रम् ( १५१४) श्रभिधान राजेन्द्रः । " श्रनित्यताशब्द मुदाहरन्ति, भन्नां च तुम्बी परिशोचयन्ति । यथा तथाऽन्यं च विकत्थयन्ति हरीतकीं नैव परित्यजन्ति ॥ १ ॥ 6 अन्यत्र तु सध्वसाहूणं ति पठित्वा मायीती ' भित्रैव पञ्चमी भावना प्रतिपादिता । यथा-" गूहइ श्राइल हावं, छाय य गुणे परस्स संते वि । चोरो व्व सव्वसंकी, गूढायारो हवर माई ॥ १ ॥ " अथ अभियोगी भावनां पक्षमेदामादफोडऍ १ मे २ परिहिं ३ तह य परिणपणि ४ । तह य निमित्ते ५ चिय, पंचविणा भये साय ।। ५१ ।। 4 अत्र सप्तमी तृतीयाऽर्थे ततः कौतुकेन १ भूतिकर्मणा २' प्रश्नेन ३, प्रश्नाप्रश्नेन ४ निमित्तेन ५ च पञ्चविकल्पा प श्चमेवा भवेत् सा च श्रभियोगिकी भावना । तत्र बालाss. दीनां राऽऽदिकरण निमितं स्नपन करमणाऽभिमन्त्रराचरणधूपदानादियिते तत्की उ"वि म्हवणद्दोमसिरपरि-रया य खारडद्दणाइँ धूवेद । श्रसरिसअवतास उभमणबंधो ॥ १ ॥ " तथा च सति शरीरमा एकराचे भस्मसूत्रा3उदिना यत्परिवेष्टनक र त भूतिकर्म उई महिया, इस वो भूकम्मं तु । वसीसरीरमंडय - रक्खाभि श्रोगमाईया ॥ १ ॥ " तथा यत्परस्य पार्श्वे लाभालाभाऽऽदि पृच्छयते, स्वयं वा अङ्गुष्ठदर्पणखङ्गतोयाऽऽदिषु दृश्यते स 1 भावणा प्रश्नः । उक्तं च परदो य होइ पसिणं, जं पासह बा सर्व पक्षिणं अंगुउपय तु डाई ॥ १ ॥ " तथा स्वप्ने स्वयं विद्यया कथितं घण्टिकायवीदेवता या कथितं सत् यदन्यस्मै शुभाशुभ जीवितमरणाऽऽदि परिकथयति स प्रश्नाप्रश्नः । उक्कं च" परिणापसिं सुमिणे, विजासिद्धं कद्देइ श्रन्नस्स । श्र दवा श्रखणिया- घंटियसिद्धं परिकद्देव ॥ १ ॥ " तथा नि मिरामतीतानागतवर्तमान स्तुपरिज्ञानहेतुनविशेषः उ. क्रं च - " तिविहं होइ निमित्तं तीय पहुपसनायगं चेव । तेण विणा वि न नेयं, नजइ तेणं निमित्तं तु ॥ १ ॥ " एता नि कौतुकभूतिकमऽऽदीनि गौरवाऽऽदिनिमित्तं कुर्वाणः साधुभियोगनिवृतं कमवतात अपवादपदेन तु गो रवरहितः सन्नतिशयज्ञाने सति निःस्पृद्दवृत्या यदाऽसौ क रोति तदाऽसौ श्राराधक एव, उच्चं च - गोत्रं बध्नातीति सीरिया उक्वाणि गारवा कुमायो अभिश्रोगियं बंधे। बीयं गारवरद्दिश्री कुब्बइ धाराइगुश्चं च ॥ १ ॥ " , " अथ असुरों भावनां पञ्चभेदामाहसहविग्गहसीलत्तं १, संगतको २ निमिचकर च ३ । निक्किविया विय ४ अवरा, पंचम निरप५ ।। ५२ । , सदा विग्रहशीलत्वं १ संसकृतपः २ निमित्तकथनं च ३ निष्ठपतापे चापरा, पचमं च निरनुकम्पत्वमिति । तत्र सदा सर्वकाले विग्रहशीलत्वं पश्चाननुतापिता भ्रम णाऽऽदावपि प्रसत्यप्राप्त्या च विरोधानुबन्धः । यदाद्द - "नि विग्गहसीलो काऊण य नातप्पई पच्छा न य खा मिश्र पसीय सपक्ख परपक्खिश्रो वावि ॥ १ ॥ " तथा संसक्तस्य आहारोपधिशय्याऽऽदिषु सदा प्रतिबद्धभावस्य आहाराऽऽद्यर्थमेव च तपोऽनशनादेश पर संतपः । यदाह - " श्राहारउवहिसेजा, जस्स य भावओो उ निच्च संखसो भावोषधी कुरा तयोपदार्थ तु विट्ठी १ " तथा कालिकस्य लाभावानसुखदुःखजीवित मरविषय निमित्तस्य कथनमभिमानामिविवेशाद् व्याकरणम्। यद"तिविद्दनिमित्तं एक्केकं- छव्विदं जं तु वश्नियं पुष्वं । श्रभिमा · भिनिवेसा, वागरियं श्रसुरं कुणइ ॥ १ ॥ " तथा स्थाव राऽऽदिसण्येष्वजीवप्रतिपत्या गतघृणः कार्यान्तरन्यासः सन् गमनाऽऽसनाऽऽादे यः करोति, कृत्वा च नानुतप्यते केन चिदुक्तः सन् स निष्कृपः सद्भावो निष्कृपया याहुःकमाईजु सुनिकियो धाराले कार्ड ना तप्प, परिसश्रो निक्कियो होइ ॥ १ ॥” तथा यः कृपापात्रं कुतश्चिद्धेतोः कम्पमानमपि परं दा क्रूरतया कठिनभावः सन् नानुकम्पामग्भवति स निरनुकम्प, तस्य भावो निरनुकम्प स्वम् यदा" जो परं कंपकगिनाす यो सोय निरोपण तो बीरा ॥ १ ।। " अथ सांमोही भावनां पञ्चविधामाहउम्मदेसया ? - इस २ मग्गविपडिवती व३ । 1 , Page #1538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावणा मोहो य ४ मोहजणां ५, एवं साचा ।। ५३ ।। उम्मदेशना मार्ग २ मार्गविप्रतिपत्तिः ३ मोहम इजननं च ५ । एवं सा साम्मोही भावनां भवति पञ्चविधा । स पारमार्थिकानि ज्ञानाम्यपयय तद्विपरीतं धर्म मार्ग यदुद्दिशति वा उम्मदेशना नखादि देख ( १५१५ ) अभिधानराजेन्द्रः । " अतित तु उपदिवस एस श्रयश्रहिश्र परेसि च ॥ १ ॥ " तथा पारमार्थिकं ज्ञा नदर्शनचारित्रं माधमात् साधुन पर तमानी स्वमनीषानिर्मितैजतिदूषणैर्यद् दूषयति तन्मार्गदूष णम् । श्रद्द च--" नाणाइतिहामगं, दूलह जो जे य मग्गपविन्ना | अखुदो जाईए खलु भइ सो मग्गदूसति ॥ १ ।। " तथा तमेव ज्ञानाऽऽदिमार्गमसद्दूपयित्वा ज मालिश मास मार्गविप्रतिपतिः । श्राह च - जो पुण तदेव मग्गं दुसित्ता पंडिओ . तकाए । उम्मग्गं पडिवजह, विश्वडिवसेस मग्गस्स ॥ १ ॥ " तथा निकाममुपहतमतिः सन्नतिगद्दनेषु ज्ञानाऽऽदिविचारेषु यन्मुह्यति तच परीधिक नानाविध स द्विमालोक्य मुह्यति स मोहः । श्राद च-" तह तह उव मुरझानातले डीओ व दुवि डा. दयुं जश्न तो मोहो ॥ १ ॥ " तथा स्वभावेन क पटेन वा दर्शनान्तरेषु परस्य मोहमुत्पादयति तन्मोहजमनम् । श्राह च - " जो पुरा मोद्देइ परं सम्भावणं कदतणं वा । संमोहभावणं सो, पकरेइ बोद्दिलाभाय ॥ १ ॥ " पताश्च पञ्चविंशतिरपि भावनाः सम्यक् चारित्रविघ्नाविधायि स्वादशुभा इति यतिभिः परिहर्तव्याः । यदुक्तम् - "याउ वि. सेसे परिहर र भूयाओ यानि उ सम्मं चरणं पि पार्वति ||१|| " इति । प्रव० ७३ द्वार । भावगाहिय सुद्धाहिं, सम्मं भावित्तु अप्पयं ॥ भावनाभिर्मदानसम्बन्धिनीभिः पञ्चविंशति संख्याभिः अथवा अनित्यस्वाऽऽदिभिदशप्रकाराभिरिति । उत०] १६ अ० । श्राचा० । श्रा० चू० । स० । प्रश्न० । घ० । अव० । (६) सद्भावनाभावितस्य यद् भवति तद्दर्शयितुमाह भावणा जोगसुद्धप्पा, जले गावा व श्राहिया | नावा व तीरसंपन्ना, सव्वदुक्खा तिउट्टई || ५ ॥ भावनाभियोगः सम्यप्रधानलक्षणो भावनायांगस्तेन शुद्ध आत्मा अन्तरात्मा यस्य स तथा, स च भावनायोगशुद्धाऽऽ. मासन् परिव्यसंसारस्यमा नीरिव जलोप संसारादन्यत इति मथि जलेनीरजनन प्र ख्याता एवम सावपि संसारोदम्बति न निमज्जतीति । यथा यासो नियमकारितामा , सं माशीरमास्कन्दत्यमायतवारिवान जीवोतः सदागम कर्मभागस्तपोमाहान् सर्वदुःखामा सारात्नुपत्यपगच्छति मोक्षाऽऽण्यं तीरं सर्वद्वन्द्वोपरमरू प्रमवाप्नोतीति ॥ ५ ॥ श्रपि च तिउई पानी, जागं लोगंसि पावनं । तुर्हति पावकम्पाणि नये मम ॥ ६ ॥ भावत्थव स हि भावना योगशुद्धाऽऽत्मा नौरिव जले संसारे परिवर्तमा नभ्यायो पतिपदिवासी यति मुरुप अतित संसारात तातिः सदसद्विवेकी वा चतुवा भूतप्रामलोके या परिक्रमपि पापकर्म सावधानुष्ठानरूपं तत्कार्य वा श्रष्टप्रकारं कर्म तत् शपरिशया जानन् प्रत्यारूपानपरिया च तदुपादानं पति कर्म वा जानतो नवानि क निविष्टतपश्चरणयतः पूर्वनिक मणिपुटयन्ति नियानकर्मकुर्वती शेषकर्म क्षयो भवतीति ॥ ६ ॥ सूत्र० १ ० १५ श्र० । तत्प्रतिपाद के श्राचाराद्वितीय स्कन्धस्य पञ्चदशेने वाचा १ ० १ ० १ ३० । स० प्र० । भावनाविषयसूची (१) वायनानिर्वचनम् । (२) भावनानिपत्रातुर्विध्यम् । (३) भावनापरिख्यानम् । ( ४ ) श्रात्मभावनाया द्रव्यतो भावतश्च द्वैविध्यम् । ( ५ ) भावनानां नामग्राई फलप्ररूपणम् । (६) मैत्र्यादिचातुर्विध्येन भावनानां निरूपणम् । (७) पा शिवचा वियोगिक-33मोडी. दतो भावनापञ्चविधत्वम् । (२) नास्ति निम् भावणाजोग- भावना योग- पुं० । योगंभेदे. यो० वि० । अप्र० । भावणाखाण-भावनाज्ञान- न० । भावनामयं ज्ञानं भावना नम | ज्ञानभेदे. पो० ११ विव० ( तदूवक्तव्यता' गाण' शब्दे मागे १६८१ पृष्ठे गता ) भाववामाचिय-भावनाभावित नायना या भावितो वासितः । प्रश्न० ५ सम्ब० द्वार । श्रालोचनया वासिते, भावनयाऽभ्यासरूपया भावितो वासितः । श्रभ्या सेन वासिते, "साम विगयमोहाणं, पुर्विच भावणभावि या । अचिरेणैव कालेख, दुक्खस्संतमुवागया ॥ ५२ ॥ " उत्त० १४ अ० । भातिभावन भाविता भावना नाथभावितभाव नः । पूर्वोत्तरनिपातस्यातन्त्रत्वात् । वासिताभ्यासे, उत्त० १४ अ० | प्रब० । अनु० । भावविसी भावनिशी ० नवनं भावः निशीथमप्रकार्य भाव एव निशीथं भावनिशीथम्। निशीथभेदे, नि० चू०१ उ० । भावसु-भावज्ञ - पुं० । भावश्चित्ताभिप्रायस्तं जानातीति भावशः । चित्ताभिप्रायज्ञातरि आचा० १ श्रु० २ ० ५५० । भावतस्य भावतीर्थ न० संधे विशे० (तस्य यथा तीर्थ तथा 'तित्थ ' शब्दे चतुर्थभागे २२४३ पृष्ठे उक्कम ) भावत्थ - भावार्थ- पुं । श्रभिप्रेतार्थे श्रा० । भावत्थव - भावस्तव पुं० । भावः शुभपरिणामः प्रधानं यत्र स्तवे स भावस्तवः । यद्वा-भावेनान्तरप्रीत्या तथाविधक र्मक्षयोपशमापेक्षया सर्वविरतिदेशविरतिप्रतिपत्तिस्वभावेन स्तवो भावस्तवः । दर्श० ३ तत्व । शुभाध्यवसायेन स्तु Page #1539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१६ ) अभिधानराजेन्द्रः । भावच्यमाण सौ । । ००२० संयमे, प्रति परमार्थपूजायाम् भावष्यमाणानामभावमानामन् ज०भयो . अध्यात्मपूजायाम्, चरण प्रतिपत्तौ च ।। " भावत्थवो चरणपडिवती ।" पञ्चा० ६ विष० । " भावस्यवाणुभाषं, असेसभवभयखकरं नाउं । " मद्दा० ३ अ० । तद्रूपे स्तवभेदे च । प्रति० | दर्श० | पं० ६० । भावत्य संगय- भावार्थसंगत त्रि० । भावस्तस्वपन पार्थोऽभिषेषो भाषार्थः तेन संगतो युक्तः । भाषाथोपेते, पञ्चा० १ विव० । भावस्थिरकरण - मावस्करण न० वितरित सम्पाद मे, घ० । भावेन वा आशीर्वचनहेतुभूतेन प्रतिष्ठा स्थैर्य करणम् । भावदेकप्रतिष्ठायाम् ६०२ अधि भास्कर-भावस्थैर्यकरण न० भावस्थिरकरण श हार्थे, ध० २ अधि० । - भावदेव भावदेव पुं०] [भावेन देवगत्यादिकम्मों जप येा देवो भवः वेदे २०१२०६४० भाषदेवास153शुष्कमनुभवन्तमानिकाय स्था०५४०१४०चरित्रकालकाचार्यकथानकयोः कर्तरिचायें जै००। भावपणिहि भावमशिधि पुं० भावरूपप्रणिधी ८० ( विस्तरः 'पणिहि' शब्देऽस्मि श्लेष भागे ३८१ पृष्ठे गतः ) भावपणचि भावमसि ००१० ( . दे, प्र० १६२ द्वार० पं० सं० । कर्म० । (सद्वकस्यता 'पो परिष' शब्देमागे ११३ पृष्ठे गता मायलोग युक्तार्थकत्वा. ssदिको गुणः, स एव तद्वारेण वस्तुनः परिच्छिद्यमानत्वा त् प्रमाणम् तेन निष्पन्नं तदाश्रषेण निवृतं नाम भावप्रमानाम | नामभेदे, अनु० । . से किं तं भावप्यकमाये ? । भावप्यमाणे चडब्बिहे पासे । तं जहा - सामासिए, तद्धियए, घाउए, निरुलिए । भाषाथैवादिको गुः सहावस्तुमा रिद्यिमानत्वात् प्रमाणं तेन निष्पनं तदाश्रयेण निर्वृत्तं नाम सामासिकाऽऽदि चतुर्विधं भवतीति परमार्थः । अनु० । भाविति भावप्रतिपत्ति- श्री० । भावेनान्तःकरणेन प्रति पतिरनुबन्धः भाषा भावप्यमाण - भावप्रमाण - न० । भवनं भावो वस्तुनः परिणाप्रतिप्रमीयतेने प्रतिय प्रमाणम्। भाव एव प्रमाणं भाषप्रमाणम्, भावसाधनपक्षे प्र मिति पतितुल्या मापस्य प्रमा दे. मनु से कम्पमाथ देस्मिन्नेव भागे ४७२ पृष्ठे व्याख्यातम् ) भावरहियभावरहित० भाषा शे० । भावप्र 1 यता पतिरामागे २४ पृष्ठे गता ) भावपय भावपद पुं० भावरूपे पदे दश० २ ० ( मेदाः ' पथ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५०२ पृष्ठे गताः ) भाववति भावप्रवृत्ति-बी०सार क्रियायाम्, पश्च०१८विष० । | भावलेस्सा-भावलेश्या स्त्री० । अन्तरपरिणामे भ० १२ शु० भाववहाय भावमपानभि० परमार्थसारे, "बुधस्य भावघानं तु०वि० मुभाभ्यबसायकारे पञ्च०१४० संवेगसारे पञ्चा० १५ विष० । भाव आत्मपरिणामः प्रधानः साधकतमो यस्मिन् सः । शुभभाषसाध्ये, पा० ४ विष० । भावपाण- भावप्राण- पुं० ज्ञानाऽऽदिषु, प्रशा० १ पद (अत्र विस्तरशब्देऽमिव मागे पृष्ठे गतः ) भावपिंड - भावपिएड- पुं० । भावरूपे विविध पिण्डे, पि० । (व्याक्या 'पिंड ' शब्देऽस्मि शेष भागे ११८ पृष्ठे गता ) भावपुरिस भावपुरुष पुं० पूः शरीरम् पुरि शरीरे इति पुरुषः प्रातः पुरुषो भावपुरुष पारमार्थिकः पुरुषा भिलाषपुरुषादिसर्वोपरि जीये. विशेणाम। भावपूया भावपूजा-स्त्री० पूजाभेदे, घ० २ अधि० । ( भाव. पूजाष्टकम् 'पूया' शब्देऽस्मिनेव भागे २०७३ पृष्ठे व्यापातम् ) भावयोग्गल परियह भावपुद्रलपप पुं० पुलपरावर्त - भावबंध - भावबन्ध-पुं० । भावेन मिध्यात्वाऽऽदिना भावस्य. चोपगायतिरेकाजीवस्य बन्यो भन्ने भ० १८ ० ३ उ० ( भावबन्धः 'बंध ' शब्देऽस्मि भागे ११६५ पृष्ठे गतः ) भावम्भासमावाभ्यासं पुं० भावानां सम्यग्दर्शनादीनां भोगेन भूयो भूयः परिशीलनम् । सम्यदर्शना भूपो भूषः परिशीलने ०१० भावमेय भावमेद० परिणामविशेषे पश्चा०३० । । भावमल - भावमल - न० । कर्मसम्बन्धयोग्यतायाम्, द्वा० १३ ० । ५ उ० । भावलोग भागलोक पुं० औकाद एव भावा सोब मानश्वाद् भावलोकः । औदपिकाऽऽदिके, दश० १ अ० । स० । भावलेोकमुपपतिमोद उपसमिए खड़ व तहा खोवसमिप । परिणामे सनिवाए, य छव्विहो भावलोगो उ ॥ कर्मय उदगम श्री तथा उपशमेन कर्म. 1 इति गम्यते नित श्रीरामकः कः तथापि कर्माशय क्षायेण निज्ञाि अनुदितमेन नि. क्षयोपशमिका परिणाम एव पारिणामिका पि तो द्वित्रिभाषानां संयोगः सन्निपाते भवः सान्निपातिक ओषतोऽनेक भेदोऽवसेयः । श्रवरुद्धास्तु पञ्चदश भेदाः । उक्तं च"समे परिणामे केको गतिवि खयजोगेण वि चउरो, तदभावो उसमें ति ॥ १ ॥ उद्यमी एक केवलिखो विय सहेच सिद्धस्स अविरुद्ध निवाइएँ, भेदा एमेव पनरस ॥ २ ॥ " मनेनप्रकारे पधिः पद्मकारो माइलोक भाव एव लोकभाषा तिब्बो रागो य दोसो, य उदितो जस्स जेतुयो । जागृहि भावलोगंत जिरादेखि सम्यं ॥ सीमको रामो भयो स्य जन्तोः प्राणिन उदीर्णस्तं प्राणिनं तेन भावेन लोक्य . 1 • " - Page #1540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषसध अभिधानराजेन्द्रः। भावसावग स्वात् जानीहि भावलोकमनन्तजिनदेशितमेकवाक्यतया भावसचणं भंते ! जीवे किंजणयइ ? भावसच्चणं भाअनन्तजिनकथितं सम्यक अवैपरीत्येन । पा० म. २१०।। भाववण-भावव्रण-पुं०।चरणातिचाररूपेक्षते, "भाववण वविसोहिं जणयइ, भावविसोहीए घमाणे अरहंतपसत्त. तिगिच्छाए।" पञ्चा०१६ विषः। स्स धम्मस्स पाराहणयाए अन्भुढेइ, अरिहंतपमत्तस्स भावविजय-भावविजय-पुं०। विमलहर्षवाचकस्य वंशपर- धम्मस्स भाराहणयाए भन्भुद्वित्ता परलोगधम्मस्स भाम्परायां भवे स्वनामण्याते प्राचार्य , कल्प० । तथा व राहए भव॥५०॥ कल्पसूत्रवृत्ती भाषसत्येन शुखाम्तराऽऽस्मतारूपेण पारमार्थिकाषितथा "समशोधयंस्तथैनां परिडतसंधिग्नसाइदयवतंसाः। न भावविविविशुद्धाभ्यवसायाऽऽस्मिकांजनयति,भाषषिशु' श्रीविमलहर्षवाचक-वंशे मुक्कामणिसमानाः ॥ १३॥ चौ वर्तमानो जीवोऽहत्प्राप्तस्य धर्मस्याऽऽराधमयाऽनुष्ठा. धिषणानिर्जितधिषणाः सर्वत्र प्रसृतकीर्तिकर्पूराः। नेनाभ्युत्तिष्ठते मुक्त्यर्थमुत्सहते । यदि था भाराधनायै-मा. श्रीभावविजयवाचक-कोटीराः शास्त्रबसुनिकषाः ॥१४॥" | घर्जनार्थमभ्युत्तिष्ठते. प्रत्यक्षप्तस्य धर्मस्याराधनयाऽराध. कल्प. ३अधि० ६ क्षण । नायै वाऽभ्युत्थाय परलोके भवान्तररूपे धर्म:परलोकधर्म. भावविञ्ज-भाववैद्य-पुं० । तारिखकवैधे, " तह वि पुण भाव स्तस्य, पाठान्तरत:-परलोके वाऽऽराधको भवति, प्रेस्य जिनविजा, तेसि अवधिति तं पाहिं।" पं००४ द्वार। धर्मावाप्त्या विशिष्टभवान्तरप्राप्स्यायेति भावः ५01 उत्त.२६ भावविणि वेस-भावविनिवेश-पुं०। सदन्तःकरणविनिवेशे, साभावभूयिष्ठेशुक्काइदिप-यमाश्रित्य सत्यं भावसत्यम् । षो०८विव०॥ सत्यभेदे, यथा सत्यपि पश्चवर्णसंभवेशुक्लवर्णस्योत्कटत्वाच्छु. भावविपत्ति-भावविज्ञप्ति-स्त्री० । भावः सत्ता तल्लक्षणं स्वं क्ला बलाकेति । स्था०१० ठा० । भावतो वोऽऽदिरूपात स्वमसाधारणं स्वरूप तस्य विशेषेण झापना विज्ञप्तिर्विज्ञानं सत्या भावसत्या, यत्र यो भावो वर्णादिरुत्कटस्तेन सस्येति परिच्छेदः । भाषपरिच्छेदे, "भावविएणसिकारणमनंतं ।" | यावत् । भाषाभेदे, स्त्री०। यथा सत्यपि पञ्चवर्णसम्भवेशुकनं०माम. . वर्णस्योत्कटत्वाच्छङ्खः शुक्ल इत्यादि । ध०३ अधि। भावविभत्ति-भावविभक्ति-स्त्री.। विभक्तिभेदे, सूत्र.१९०१ भावसम्मत्त-भावसम्यक्त्व-न। जीवाऽऽदिसकतवपरि. 'अ०१०। (तनेदान् विभक्ति' शब्दे पश्ये) शोधनरूपहानात्मकं भावसम्यक्त्वम् । सम्यक्त्वभेरे, प० २मधि०। पं०प०। भावविसोहि-भावविशोधि-स्त्री०। भरतहिबुद्धी, (भाष. शुरुया प्रवर्तमानस्य न कर्मबन्ध इत्यस्य निराकरणं'कम्म' भावसमोसरण-भावसमवसरण-म० भाषानामौदयिकाऽदी. मां समवसरण मेकत्र मेलको भावसमवसरणम् । औदयिका. शब्दे तृतीयभागे ३३१ पृष्ठे द्रष्टव्यम्)" एवं भावविसाहीए, दिभावनामेकत्र मेलके, " भावसंमोसरणे पुण, वायग्वं मिब्याणमभिगच्छह।" सुत्र०१U०१३ उ० परिणाम छविहम्मि भावम्मि।" सूत्र० १ ० १२ १०। विशुद्धौ," भावविसुद्धिसमेया।" पश्चा० १२ विव० । मा. बस्याऽऽत्मपरिणामस्थ जल मिव घनस्य विशोधिकारणत्या. भावसल्ल-भावशल्य-न० । “सम्म दुरुचरिमस्सा-परस. भावविशोधिः। महावतोचारण, ध. ३ अधिक। पा०॥ खिश्रमप्पगासणं जंतु एवं च भावसझं, पणतंबीयरागे. प्रत्याख्यानशुबिभेदे च । पाष०६०। (तत्स्वरूप 'भावसु- हिं॥१॥" इत्युक्तलक्षणे स्वकृतदुश्चरितस्य सम्यक परसाखि 'शब्दे यक्ष्यते) क्षिकाप्रकाशनरूपे शल्यभेदे, ध०२ अधिक। भावसंथव-भावसंस्तव-पुं०। संस्तषभेदे, नि०यू० ५ उ० । भावसागर-भावसागर-पुं० । स्वनामख्याते प्राचार्य, "त. (वक्तव्यता 'संथव' शब्द) इच्छपुष्करदिवाकरभीषु तुल्याः श्रीभावसागग्धप्रथिता. भिधानाः।" द्रव्या० ११ अध्या०। प्रचलगच्छे श्रीसिखाम्त. भावसंधय-भावसंघक-पुं० । भावो मोक्षस्तत्संधकः । श्रा•| सूरिशिष्ये . अयं वैक्रमीये १५१० वर्षे जातः, १५८३ वर्षे व स्मनो मोक्षासनकारिणि दश० अ०४ उ०। स्वर्गतः। जे०१० भाव संवर-भावसम्बर-पुं०। भावन तश्ववृत्त्या सम्बरो भाष भावसार-भावसार-पुं० । भावगमें, पश्चाoविव०।६००। सम्बरतिरववृपया सम्बरे, वृ०।। अथ भावसम्बरमाह भावसावग-भावश्रावक-पुं० । यथार्थाभिधानश्राद्ध, ध००। नाणेण सवभावा, नअंते जे जहिं जिणक्खाया। कयवयकम्मो तह सी-लवं च गुणवं च उज्जुववहारी। नाणी चरित्तगुत्तो, भावेण उ संवरो होइ॥ गुरुसुस्सूसो पवयण-कुसलो खलु सावगो भावे ।। ३३ ।। ज्ञानेन सर्वेऽप्यशषा हिताहितरूपा भाषा सायन्ते ये य. कृतमनुष्ठितं व्रतविषयं कर्म कृत्यं वक्ष्यमाणं येन स कृत. भोपगिनो जिनराख्याताः, अत एव हानीचारित्रगुप्तो भा- व्रतकर्मा १, तथा शीलवानपि व्याख्यास्यमानस्वरूपः२,गुण. घेन तस्ववृष्या संघरो भवति,गुणगुणिनोरभेदविवक्षणादेवं वान् विवक्षितगुणोपेतः ३, चकारः समुच्चये, भिक्षक्रमश्च । निर्देशः । ०१ उ०२प्रक०। तत ऋजुब्यबहारी च सरलमनाच४, गुरुशुश्रूषो गुरुसेषाभावसञ्च-भावसत्य-न०। शुद्धान्तरात्मतारूपे पारमार्थि- कारी ५, प्रवचन कुशलो जिनमततत्ववित्। खलुरवधारणे. कावितथर, भ०१७ श०३३०। प्रश्न उत्ताभावलिक- भीषुरिति चिन्त्यम्: अभीपुराम्दस्य किरणार्थकत्वात् , शुद्धिरूपे अनगारंगुणमेदे. भाव.४० । भामुरिमतेऽवाप्योरेवोपसर्गयो रल्लोपविधानाच । ३८. Page #1541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावसाग अभिधानराजेन्द्रः। भावसुद्ध एवंविधः श्रावको भवति भावे भावविषये भावश्रावक इति दोष इति। सत्यम । देशविरचित्ररूपम्वाटेकसिपि विषये गाथाऽक्षरार्थः ॥ ३३ ॥ ध०र०२ अधि०१लक्ष०। परिणामनानात्वमेकस्यापि परिणामस्य विषयभेदोऽपि संभ. एसो पबयण कुसलो, छन्भेषो मुणिवरेहि निहिट्ठो।। पतीति सर्वभेदनिषेधार्थत्वात्प्रपश्चस्व न पौनरुक्त्यमिति व्याख्यानगाथाभिः प्रकाशितमेवातः सूदमधियाऽऽलोच्य स. किरियागयाइँ छ चिय, लिंगाइं भावसङ्कस्स ।। ५५ ।। माधानान्तरमपि विधेयमिति ॥ ध०र०२ अधि०६ लक्ष०। पष उक्लस्वरूपाप्रवचनकुशलः षड्भेदः पदप्रकारो मुनिवरः भावसाहु-भावसाधु-पुं० । परमार्थिकयती, पञ्चा. ६ वि. पूर्वाऽऽचायः निर्दिष्टस्ततश्चावसितं भावभावकलिङ्गपटूप्रकरणमित्येतद्दर्शयन्नाह-क्रियागतानि क्रियोपलक्षणानि 'चिय' व०। पं० व० । शब्दस्थावधारणार्थत्वात् पडेव, लिङ्गानि लक्षणान्यग्नेधूमव. तथा च भावभावकान् प्रतिपादयतिबावधाद्धस्य यथार्थाभिधानश्रावकस्येति ।। इय सतरसगुणजुत्तो, जिणाऽऽगमे भावसावगो भणियो। ननु किमन्याम्यपि लिङ्गानि, सन्ति, येनैवमुच्यते एस उण कुसलजोगा, लहइ लहुं भावसाहुत्तं ॥ ७७ ।। क्रियागतानि, सत्यं सन्त्येव । यत पाह इत्युक्तप्रकारेण सप्तदशगुणयुक्नो जिना 5ऽगमे भावभावको भावगया सतरस, मुणिणो पयस्स बिति लिंगाई। भणित इति प्रकटार्थम् । एष एवंविधः,पुनःशब्दो विशेषणार्थ: किं विशिष्टि द्रव्यसाधुस्तावदेष भरिणत एवागमे । यदु. जाणियजिणमयसारा, पुवायरिया जो माहु॥५६॥ कम्-"मिउपिंडो दव्यघडो, सुसायो तह य दवसाहुति। भावगतानि भावविषयाणि सप्तदश मुनयः सूरय एतस्य साडू य दव्यदेवो, सुद्धनयाणं तु सम्बेसि ॥१॥" एवंविधपरि. प्रकृतभाषकस्य पुरते प्रतिपादयन्ति लिङ्गानि चिहानिशात. णामोपार्जितकुशलयोगात्पुनर्लभतेऽवानोति लघु श्रीनं भाव. जिनमतसारा इति व्यकं, पूर्वाचार्या यतो यस्मदाहुः पुयते साधुत्वं यथास्थितयतिस्वमिति । ध०र०२ अधि०६ लक्षा त्यनेम स्वमनीषिकापरिहारमाह। कीरशः पुनर्भावसाधुर्भवतीति', उच्यतेकिं तदाहुरित्याह "निर्वाणसाधकान् योगान् , यस्मात्साधयतेऽनिशम् । इस्थिदियस्थ संसार बिसय प्रारंभ गेहदसणभो। समश्च सर्वभूतेषु, तस्मात्साधुरुदारतः॥१॥ गइरिगाइपवाहे, पुरस्सरं भागमपवित्ती ॥ ७ ॥ क्षाम्स्यादिगुणसंपन्नो, मैञ्यादिगुणभूषितः॥ दाणाई जासत्ती, पवतणं निहिर रसदुढे य ।। अप्रमादी समाचार, भावसाधुः प्रकीर्ततः ॥२॥" इति । कथं पुनश्चमस्थैरयं ज्ञायते ।, लिखा, कानि पुनस्तानी. मन्मथमसंबढे, परत्यकामावभागीय ॥ ५८ ॥ स्याहबेसा इव गिहबास, पालइ सत्सरसपयनिवदं तु ।। एयस्स उ लिंगाइ, सयला मग्गाणुसारिणी किरिया । भावगय भावसापग-लक्खण मेयं समासेणं ।। ५६॥ सद्धाभवरा धम्मे, पनवणिज्जत्तमुजुभावा ॥ ७८॥ श्री चेन्द्रियाणि चार्थश्चत्यादि द्वन्द्वः , ततः स्लीन्द्रि- किरियासु अप्पमाओ, प्रारंभो सकणिजऽणुट्ठाणे । पार्थसंसारविषयाऽऽम्भिगेहदर्शनानि, तेविति, प्राधादिभ्य गुरुप्रो गुणाणुरामो, गुरुवागाऽऽराहणं परमं ।। ७६ ॥ इत्यारुतिगणवात्तसि कृते स्त्रीन्द्रियार्थसंसारविषायारभ्भ. एतस्य पुनर्भावसाधोलिङ्गानि चिह्नानि सकला समस्ता गेहदर्शनत इति भवति । ततधैतेषु मावगतं भावभावकल. मार्गानुसारिणी मोक्षाध्वानुपातिनी क्रिया प्रत्युपेक्षणा55क्षणं भवतीति तृतीयगाथायां संबन्धः। तथा गहरिकाऽऽदि. विका चेष्टा १, तथा श्रद्धा करणेच्छा प्रवरा प्रधाना प्रवाहविषये तथा पुरस्सरमागमप्रवृत्तिरिति, प्राकृतत्वाच्छ- धर्म संयमविषये २, तथा प्रज्ञापनीयत्वमसदविनिवेसोयाब पूर्वापरनिपात। ततश्चाऽऽगमपुरस्सर प्रवृत्ति. शख्यागित्वमृजभावादकौटिस्येन ३, तथा क्रियासु बिहिबर्तन,धर्मकार्यविति गम्यते । प्रस्तुतं लिमिति । तथावाना- तानुष्ठानेऽप्यप्रमादोऽशैथिल्यं ४, तथाऽऽरम्भः प्रवृत्ति दियथाशक्तिप्रवर्तन मिति स्पई,प्रांतवाडच दीर्घत्वं, तथा| शकनीये शक्त्यनुरूपे अनुष्ठाने तपश्चरणाऽऽदौ ५ तथा गुरु तीये यो निहीको धर्मानुष्ठानं कुर्वन लज्जते, तथाऽरक्तद्विपश्व सांसा. महान् गुणानुरागो गुणपक्षपातः ६ तथा गुर्याशाsराधनं रिकभावेषु भवति, मध्यस्थो धर्मविचारे न रागद्वेषाभ्यां धर्माचार्यादेशवर्तिस्वं, परमं सर्वगुणप्रधानमिति सप्तजायतेसंबद्धोधनस्वजनाऽऽदिभावप्रतिवन्धराहता,परा लक्षणानि भावसाधो। ध०र० ३अधि० १लक्ष। कामोपभोगी परार्थ परोपरोधादेव कामाः शब्दरूपस्वरूपा भावसिणाण-भावस्नान-न० "भयानाम्भसातु बीजस्य, सदा उपभोगा गम्वरसस्पर्शलक्षणा विद्यन्ते प्रवृत्तितया यस्य स यच्छुद्धिकारणम् । मलं कर्म समाश्रित्य, भावनानं तदुच्यपरार्थकामोपभोगी,समासः प्राकृतत्वात् । वेश्येव पण्याङ्गनेव, ते॥१॥" इत्युक्तलक्षणे शुभध्यानरूपेनानमेदे,ध०२अधि०। कामिनमिति गम्यते, गृहवासं पालयत्यद्य श्वो वा परित्य भावसुण-भावशून्य-न। बहुमानशून्ये, पञ्चा०६ विव०। जाम्यनमिति भावयनिति सप्तरशविधपदनियचं, तुःपरणे, भायगतं परिणामजनितरूपमिति, जातावेकवचनमनुस्वा. भावसुद्ध-भावशुद्ध-त्रि०। भावेन सदम्तःकरणलक्षणेन शवं रलोप प्राकृतत्वात् भावधावफलक्षणमेतत्समासेन सूचा- |भावशुखम् । अन्तःकरणेन शुद्ध, षो०७विव० । प्रत्याख्यानमानेणेति गाथात्रयाक्षरार्थः। ध०र०२ अधि. ६ लक्षाभेदेन०। भावशुद्धमाहपाह-स्त्रीन्द्रियविषयाणामरक्तद्विष्टमध्यस्थासंबद्धानां गेहगे. । रागेण व दोसेण व, परिणामेण व न इसिमंजं तु । वासयोश्चैकविषयाणां भेदो नोपलभ्यते, तक्कथं न पुनरुक्त Page #1542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावसुद्धि अभिधानराजेन्द्र:। भावसुद्धि तं खलु पञ्चक्खाणं, भावविसुद्धं मुणेअब्ध ॥ १॥" प्रमाणापरतन्त्रया मत्या कल्पना क्रिप्तिः,सव शिल्पं चित्राss श्राव.६०। दिकौशलं, तेन निम्मितं विरचितं, स्वबुरिकल्पनाशिल्पनि. ('पञ्चखाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १.१ पृष्ठे गता व्याख्या ) मितं यच्छन्नरूपं तदिति गम्यं, न नैव , अर्थवत्साभिधेयं, भावसुद्धि-भावशुद्धि-स्त्री० । भावस्तदावरणक्षयोपशमसमु- भवेजायेतेति ॥३॥ स्थ प्रात्मपरिणामधिशेषस्तस्य शुद्धिः स्वच्छता प्रकर्षों, अथ स्वाऽग्रहस्य भावमालिन्यरूपतां स्पएयनारभावशुद्धिः। ध०३अधिकाचित्तप्रसादे.श्राव०४ पासूत्र०। न मोहोद्रिक्तताऽभावे, स्वाऽऽग्रहो जायते क्वचित् । पञ्चा० । यमनियमाऽऽदिषु मनसोऽसंक्तिश्यमानतायाम् , गुणवतपारतन्त्र्यं हि, तदनुत्कर्षसाधनम् ॥४॥ द्वा०६ द्वारा ननेव मोहस्यावानस्य उपलक्षणत्वात्रागद्वेषयोश्चौद्रिकता अथ विरुखवानाऽऽदावपि भावशुद्धधर्म एव, म तु तद्वधा- उद्रेकस्तस्या अभावः अविद्यमानता मोहोद्रितता भावघात इत्यत माह स्तत्र मोहोद्रिक्तताभावे, स्वाऽऽग्रहो नाऽऽगमिकाभिनिभावशुद्धिरपि ज्ञेया. यैषा मार्गानुमारिणी। धेशो भावशुद्धिविपर्ययलक्षणो, जायते भवति, कचित् कुत्र. प्रज्ञापनाप्रियाऽत्यर्थ,न पुन: स्वाऽऽग्रहाऽऽत्मिका ।। | चिदपि वस्तुनि । इदमुक्तं भवति-मोहोत्कर्षजन्यत्वात् स्वा. भाषशुद्धिर्मनसोऽसंक्तिश्यमानता या परैविरुवदानाची 5ऽग्रहो भावमालिन्यं, मोहोत्कर्षजन्यरवं चास्य रागो वेषधे. धर्मव्याघातपरिहारनिबन्धनतया कहिणता, साऽपि न केवल त्यादिषचनप्रामाण्यात् , तदेवं स्वामहस्य भाषमालिम्प. धर्मभ्यागास एष शेयम् , इत्यपिशवार्थः । या ज्ञातव्या, या रूपत्वाद्भाबशुशिन तदात्मिकेति स्थितम् । अथ मोबासस्य एषा बस्यमाणा स्वरूपा, नम्म्या । तामेवा--मार्ग जिनोतं स्वाऽऽग्रहाभावहेतोः क उपायः? . शानाऽऽदिकं मोक्षपथमनुसरत्यनुगच्छतीस्येवंशीला मार्गा- इत्याह-गुणवतां विद्यमानसम्यम्बानाक्रियागुणानां पारतम्य. नुसारिणी । अथ परो बूयात् सैषा ममेत्यत्रा प्रज्ञापना मधीमर गुणवत् पारतन्यमधीनत्वं गुणवस्पारतम्डपम् , हि. मागमार्थोपदेशनं सा प्रिया पाभा यस्यां भाषशुद्धा सा प्रशा. शब्दः पुनरर्थः, गुणवत्पारतन्ध्यं पुनस्तस्य मोहस्यानुत्कर्षों पनाप्रिया, अत्यर्थमतिशयेन । उक्लन्यैवार्थस्य व्यतिरेकमाह हासस्तस्य साधनं कारणं तदनुरकर्षसाधनम् ।रश्यतेवागमन नैव, पुनःशब्दः पूर्वोक्लार्थापेक्षया प्रकृतार्थविलक्षणताप्र- स्यागमविदांपा पारतम्याम्मोहानुस्कर्ष इति ॥४॥ तिपावनार्थः, स्वः स्वकीयो न तु शास्त्रीयः, स चासावाग्रह- गुणवत्पारतन्ध्यस्य मोहानुत्कर्षसाधकत्वभार्थाभिनिवेशः स्वाऽग्रह पवाउमा स्वभावो यस्याः सा मागमहावसितेन समर्थयबाहस्वाऽऽग्रहाऽऽस्मिकेति ॥१॥ श्रत एवाऽऽगमज्ञोऽपि, दीक्षादानाऽऽदिषु ध्रुवम् । अथ कस्मात् स्थाऽऽहाऽऽमिकाऽपि भावशुद्धिर्न भवतीति। क्षमाश्रमण हस्तेने- त्याह सर्वेषु कर्मसु ॥५॥ अत्राच्यते-भावशुद्धिविपर्ययभूतभावमालिन्यरूप. थत एव कारणात् गुणवतपारतन्ऽयं मोहानुत्कर्षस्य स्वात् स्वाग्रहस्येत्येतत्श्लोकत्रयेण दर्शयन्नाह साधकमत एष एतस्मादेव कारणादागमशोऽपि भारमयरागो दूषश्च मोहश्च, भावमालिन्यहेतवः। चनवेद्यपि समास्तामनागमक्षादीक्षादानादिषु प्रवज्यावि. .एतदुत्कषेतो शेयो, हन्तोत्कर्षोऽस्य तत्वतः ॥२॥ तरणप्रभृतिषु, मादिशब्दादुहेश समुहशाऽऽदिषु, कर्मस्थिति रागोऽभिवंशलक्षणोंषोऽप्रीतिरूपो, मोहवाशानलक्षणः योगः। ध्रुवं निश्चितं क्षमाश्रमणहस्तेन सगुरुकरण, स्वाचशब्दौ समुपयायों,ते प्रयोऽपि भात्रमालिन्यतयः प्रात्मप. तन्मयेण,इत्येवंरूपमभिलापमाह ते दीक्षा दिदाता मोहानुः रिणामाशुशिनिबन्धनानि स्वाऽऽग्रहाऽऽदिभावकारणानीति स्कर्षार्थमेव सर्वेषु समस्तेषु कर्मसु व्यापारेष्विति तस्मात् गर्भः। एतेषां रागाऽऽदीनामुत्कर्ष उपचय एतदुत्कर्षः, तत गुणवत् पारतम्यादेव मोहानुत्कर्षलक्षणा भाषशुद्धिर्नाम्या एतदुत्कर्षतो, यो हातब्यो , हन्तेति प्रत्यवधारणार्थः, को. येति ॥५॥ एतदेवाहमलाऽऽमन्त्रणार्थो वा, उत्कर्ष उपचयः, अस्य भाषमालिन्य. इदं तु यस्य नास्त्येव , स नोपायेऽपि वर्तते ।। स्य स्वाग्रहाऽऽदिरूपस्य तस्वतः परमार्थवृत्त्येति ॥२॥ ततः किमित्याह भावशुद्धः स्वपरयो-गुणाऽऽद्यज्ञस्य सा कुतः ॥६॥ तथोत्कृष्ट च सत्यस्मिन, शुद्धिबै शब्दमात्रकम् । इदमनन्तरोदितं गुणवत्पारतन्यं, तुशब्दः पुनरर्थः, यस्य प्राणिनो, नास्त्येव न विद्यत एव, स प्राणी, न नैव, उपाये. स्वबुद्धिकल्पनाशिल्प-निम्मितं नार्थवद्भवेत् ।।३॥ ऽपि हेतावपि, आस्तां भावशुद्धौ, गुणवत्पारतम्यस्यैव तदु. तथा तेन प्रकारेण रागाऽऽद्युत्कर्षलक्षणेन उत्कृष्ट उत्कटे, पायत्वात्, कस्या नोपायेऽपि वर्तत इत्याह-भाषशुद्धःपरिणा. पशब्दः पुनरर्थः, सति भवति, अस्मिन् रागाऽऽदिहेतुके स्वा. मशुद्धः, कुत पतदित्याह-यस्मात् स्वपरयोरारमेतरयोर्विऽग्रहाऽऽविरूपे भाषमालिन्ये, शुद्धिःशुद्धत्वं,भावस्येति गम्य. षये,गुणाऽऽद्यक्षस्य गुणदोषानभिज्ञस्य, साभावशुद्धिः, कुतो. ते। वैशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः शब्द एवाभिधानमेव शब्दमात्र, न कुतोऽप्यस्तीत्यर्थः । अयमभिप्राया-यो हि गुणवतदेव कुत्सितं शब्दमा, निरभिधेयमित्यर्थः । मालिन्यो- स्पारतम्ये न वर्तते स गुणवद्गुणान् स्वगतगुणदोषांस्कर्ष सति नास्ति भाषशुद्धिर्मालिन्यस्य, तद्विरुद्धरूपत्वाद. च जानाति, कथमन्यथा गुणवत्पारतन्त्रो न भवति, य. मिसद्भावे शीतवनिति भावना। अथ मालिन्ये सस्यपि शु. श्च तास जानाति तस्य मोहोपहतबुद्धिस्वान्नास्ति भावशु. द्विरिष्यते,ततः कथं शब्दमात्रत्वमस्य इत्यत्राह स्वबुद्धथा दिः, तस्या मोहानुत्कर्षरूपत्वादिति ॥६॥ Page #1543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२०) भाविय अभिधानराजेन्द्रः। भावुग अथ याश्यां भाषशुद्धौ धर्मव्याघातो न भवति तां लक्षः ता द्विविधाः-सुरभिपाटलाकुसुमपटवासाऽऽदिप्रशस्तवस्तु. यितुमाह भिर्भाविताः प्रशस्तभाविताः,सुरातैलाऽऽद्यप्रशस्तवस्तुभावितस्मादासनभव्यस्य , प्रकृत्या शुद्धचेतसः। तास्वप्रशस्तभाविताः। प्रशस्तभाविताः पुनरपि द्विविधाः-त. स्थानमानान्तरज्ञस्य, गुणवबहुमानिनः ॥७॥ दावं बमयितुं शक्या बाम्याः,तद्विपरीतास्त्ववाम्याः। एवमे. भौचित्येन प्रवृत्तस्य, कुग्रहत्यागतो भृशम् । वाप्रशस्तभाविता अपि वाम्याऽवाम्यभेदव्यादेव विविधाः। सर्वत्राऽऽगमनिष्ठस्य, भावशद्धियथोदिता ॥८॥ विशेक रञ्जिते, "पुत्रं भावणभाविया ।" उत्त.१४४०। प. रिणतजिनवचने,१०१३०३ प्रक०। प्रस, वश०१०म०) यस्मात गुणदोषानमिशस्य स्वभावशुधिन भवति तस्मा. प्राप्ते, शुद्ध, चिन्तिते मिथिते, च । वाच। कारणात् अथवा-तस्माद् गुणवत्तारतम्यादासमो मुक्तर्निकटवर्ती, स चासो भव्य मुक्लिगमनयोग्य भासमभव्यस्त. भाविक-न । विमानभेदे, स. १७ सम० । स्य, भाषशुद्धिरिति संबन्धः । तथा प्रकृत्या सद्भावनैष शु भावियकुल-भावितकुल-माशाऽऽविदोषरहिते कुले, वृ० १उ०२ प्रक०। सुचेतसोऽसक्लिषमानसस्य रागाऽऽदानामपचीयमानस्यात्, तथा स्थान वाचार्योपाध्यायाऽऽदिकंगुणाऽस्पवं, मान. भावियतर-भाविततर-त्रि०। चरित्रधर्मे प्रसन्नतरे, दश १००। तस्यैव पूजा, स्थानमानौ,तयोः स्वजास्यपेक्षया अन्तरं विशेषस्तं जानातीति तज्ज्ञस्तस्य स्थानमानान्तरक्षस्य । इदमुक्तं भाषियस्था-भावितस्ता-स्त्री० । जम्बूमन्दरदक्षिणस्यां दिशि भवति-प्राचार्योपाध्यायाऽऽदिकस्य स्थानस्य च तथा तद्वि स्थितायां सिम्धुमहानयां समिलिताय स्वनामख्यातायां म. पये मानस्य च यो विशेष उत्तमोत्तमतरमहाफलमहाफ. हानद्याम् , स्था०५ठा०३ उ०। लतराऽऽदिलक्षण इदमस्यौचितमिदं चास्येत्येवंरूपस्य त भाषियप्पा-भाविताऽऽत्मन-पुंग भाविता धर्मवासनया वसिमास्य, अत एव गुण बहुमानिनः सद्गुणपक्षपातिनः, त- त आत्मा यस्यासौ भाविताऽऽत्मा । सूत्र.१७०१३० सदा था स्थानमानान्तरस्य गुणवद्वहुमानिनोऽपि सत भौचित्ये. भावनाभावितचित्ते, पश्चा०१८ विव० संयमभावनयापासि. नयथागुणं यथायोग्यमिति यावत्, प्रवृत्तस्य व्यापृतस्य,धि. तान्तःकरण इति । भ०१४श० उ० (अनगारस्य भाषिताss. धेयानुष्ठानेषु कुमहत्यागतो मिथ्यावासनाध्यपोहेन , भृश- स्मनःकर्मलश्यावच्छरीरशानाऽऽदिषलव्यता 'अणगार'शब्दे मस्यर्थ, सर्व समस्तेषु द्रव्य क्षेत्रकालभाषेषु विधिषु, भा- प्रथमभागे २७१ पृष्ठे गता ) अहोरात्रभवे प्रयोदशे खनागमनिष्ठस्थ प्राप्तवचनप्रमाणस्य, किमिस्याह-भाषशुद्धिःपरि। मण्याते मुहूते, चं० प्र०१० पाहु०१४ पाहु० पाहु० । ज्यो । णाममुखता, यथोदिता पारमार्थिकी भवति , यथा धर्मव्या. स० । अावशमे मुहर्ने, स. ३० सम० । अष्टादशमघातो न भवति , उनविशेषणाभावे तु या सा पुनरयचो. जिनस्य रक्षितापरनामधेयाय स्वनामख्यातायां जनम्याम्, वितेति ॥७॥८॥हा०२२ अष्ट। "भावियप्पा य रक्खी य।" स० । भावाएस-भावाऽऽदेश-पुंज एकगुणकालकत्वाऽदिके भाव. भावियमा-भावितमांत-त्रि० । सदागमवासितमनसि, पश्चा १. वि। प्रकारे, भ०५ श०८ उ०। भावाभिग्गहचरय-भावाभिग्रहचरक-पुंगभावाभिग्रहस्तु गा. भाषियाभावियाणुप्रोग-भाषिताभावितानुयोग-पुं० भावित नहसनाऽऽनिप्रवृत्तपुरुषाऽऽदिविषयः, तेन चरति भिक्षामट. धासितं द्रव्यान्तरसंसर्गतोऽभावितमन्यथैव यद्यथा जीवद्रव्यं ति, भावाभिप्रहं वा चरत्यासेवते भावाभिप्रहचरकः । भिशु. भावितं किश्चित्तश्च प्रशस्तभावितमितरभाषितञ्च तत्र भेदे, औ रा० । प्रशस्तभाषितं संविग्नभावितमप्रशस्तभावितं चेतरभाषितं, भावारोग्ग-भावाऽऽरोग्य--न• भावरूपमारोग्यं भावाऽऽरो. तद्विविधमपि धामनीयमधामनीयं च । तत्र वामनीयं यत्सं. सर्गजं गुणं दोषं वा संसर्गान्तरेण वमति, अवामनीयं त्वन्य. ग्यम् । सम्यक्त्वे, पो.४ विवः। था, प्रभावितं त्वसंसर्गप्राप्त प्राप्तसंसर्ग वा बातम्वुलकल्पं न भावावस्मय-भावावश्यक-पुं० । आवश्यकभेदे, अनु०। (व्या. घासयितुं शक्यमिति । एवं घटाऽऽविद्रव्यमपि,ततश्च भावितं क्या 'मावस्सय' शब्दे द्वितीयभागे ४५१ पृष्ठे गता) चाभाषितं च भाविताभावितम् । भाविताभावितस्यानुयागो भावि (न् । भाविन्-त्रि० । भू-णिनिः । भविष्यकालपर्तिनि, भाविताभावितानुयोगः । द्रव्यानुयोगभेदे , स्था० १० ठा० । खियां की । वाचा प्रघ०४द्वारा महाभावी भाग-भावुक-त्रि० । वासके, विशे०। भाव्यते प्रतियोगिना हवयचेटाभेदोऽस्त्यस्या इति। खीभेवे.खीमात्रेचावाच।। स्वगुणरात्मभावमापाद्यते इति भावुकम् । अथवा-प्रतियोभावि-देशी-गृहीते, दे. ना.६ वर्ग०१.३ गाथा। गिनि सति तद्गुणापक्षया तथा भवनशीलं भावुकम् । “लष. भावित-भाग्यमान-त्रिका पालोच्यमाने, पञ्चा०२ विधा पतपद०-" ॥३॥२॥१५४॥ इत्यादिना उक-ताछीखिकत्वात् । भाविजिण-भाविजिन-पुं० । भविष्यजिने, ती०२ कल्प। बेल्लुकाऽऽदिके द्रव्यभेदे, पं०५०।। भाविय-भावित-त्रि.। भू-णिच् -क्तः । वासिते , " किं पुण भावुग अभावुगाणि अलोए दुविहाणि होति दयाणि। निषतिलोहिं, भाविययाणं भवे खजं।" व्य०१ उमावितोद्र बेरुलियो तत्थ मणी, अभावुगो अन्नदव्बेहिं ।। ३४ ।। क्यान्तरसंसगतो वासित इति । स्था० १० ठा०। प्रा० चू० । भाव्यन्ते प्रतियोगिना स्वगुणैरात्मभावमापाद्यन्त इति भाविपा० । प्रश्न भाषा उत्तसूत्रः। अनुवाभावि. व्यानि वैस्तुकाउनि,प्राकृत शैल्या भावुकान्युच्यन्ते । प्रथा Page #1544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासग अभिधानराजेन्द्रः। भासग वाप्रतियोगिनि सति तद्गुणापेक्षया तथाभवनशीलानि भावु साम्प्रतं प्रागुपन्यस्तभाषाऽऽदिप्रतिपादनार्थ नियुक्तिवदाहकानि "लषपतपदस्थाभूवृष०-" ॥३॥२१५४॥ (पा०) इत्यादि- कट्ठे पोत्थे चित्ते, सिरिघरिए वोंड देसिए चेव । ना उकञ्-ताच्छीलिकत्वादिति । तद्विपरीतानि अभाव्यानि भासग विभासए वा, बत्तीकरए य आहरणा ॥१३॥ चलनाऽऽदानि लोके द्विप्रकाराणि भवन्ति द्रव्याणि वस्तूनि, काष्ठ इति काष्ठविषयो दृष्टान्तः, यथा काष्ठे कश्चित् तबैडर्यस्तत्र मणिः अभाव्योऽन्यद्रव्यैः काचाऽऽदिभिरिति दूपकारस खल्वाकारमानं करोति, कश्चित् स्थूलाषयवनिगाथार्थः । पं०व०३ द्वार। श्राव. । मङ्गले, न० । तद्वति, पत्ति,कश्चित्पुनरवशेषालोपालाऽऽद्यवयवनिष्पतिम.एवं कात्रि०। " मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः।" इति । वाच०। ठकल्पं सामायिकाऽऽदिसूत्रम्, तत्र भाषकः परिम्थरमथैमा. भावुज्जुयया-भावर्जुकता-स्त्री० । भावस्य मनस ऋजुकता प्रमभिधत्ते, यथा समभावः सामायिकमिति, विभाषकस्तु तस्यैवानकधा अर्थमभिधत्ते, यथा समभावः सामायिकं, भावणुकता मनसो। यथास्थितार्थप्रत्यायनार्थायां प्रवृत्तौ , समानां वा शानदर्शनचारिखाणां य प्रायः स समायः स. तद्रूप सत्यभेदे च । स्था०४ ठा०१ उ० । भ० । माय एव सामायिकं , स्वार्थकण प्रत्यय इत्यादि । तथा व्य. भावेकण-भावयित्वा-श्रव्य० । वासयित्वेत्यर्थे, पश्चा० १० क्रीकरणशीलो व्यक्तिकरः, यः खलु निरवशेषव्युत्पत्तिरति. विव०। चारानतिचारफलाऽऽदिभेदभित्रमर्थ भाषते स व्यक्तिकर इति भाषेमाण-भावयत--त्रि० । वासयति, स्था० १ ठा। भावः । स च निश्चयतः चतुर्दशपूर्वधर एव इह भाषका55. भावोवक्कम-भावोपक्रम-पुं०। भावस्थ परकीयाभिप्रायस्यो- विस्वरूपात व्याख्यानात भाषाऽऽदय एवं प्रतिपादिता द्रष्टपक्रमणं परिज्ञानं भावोपक्रमः। उपक्रमभेदे,अनु । नि० चू। व्याः, भाषा ऽदीनां तत्प्रभवत्वात् । उक्तं च विशेषावश्यके( तद्भेदाऽऽदिवक्तव्यता 'उबकम' शब्द द्वितीयभागे ८७१ "पढमो रूवाऽगारं, थूलावययोपदेसणं बीओ। पृष्ठे गता) तइनो सव्वावयचो, निहोसो सधहा कुणइ ॥ १४२६ ॥ भावोवयार-भावोपकार-पुंगा सम्यक्त्वाऽऽदिके,ध०२ अधिक। कटुसमाणं सुतं, तदत्थरूवेगभासणं भासा । फलट्ठाण विभासा, सब्वेसि वत्तिय नेयं ॥ १४२७॥" भावोवयमइ-भावोपहतमति-त्रि०ा भावेन शङ्काऽऽदिपरिणा संप्रति पुस्तविषयो दृष्टान्तः-यथा पुस्ते कश्चिदाकारमात्रं मेन हता दूषिता मतिर्यस्य स भावोपहतमतिकः । शङ्काऽऽ करोति , कश्चित्परिस्थूलावयवनिष्पत्ति, दाष्टान्तिकयोजना दिकलुषिताध्यवसाये, वृ०१ उ०२प्रक०। पूर्ववत् । इदानी चिनविषयो दृष्टान्तः यथा चित्रकर्मणि क. भास-भिस-धा०। दीप्ता, भ्वादि०-आत्मा अक०।"भासे चितिकाभिराकारमात्रं करोति, कश्चित् हरितालाऽऽदिव. भिसः"॥॥४॥२.३ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण भासर्भिसाss. गोद्भदं, कश्चित्त्वशेषपर्यायनिष्पादयति । दान्तिकयोजना देशः। भिसह । भासह । प्रा०४ पाद । भासते, अभासिष्ट। पूर्ववत् । श्रीगृहिकोदाहरणम्-श्रीगृहं भाण्डागारं तदस्यास्ती. चडिवाइस्वः अवीभसत् । अवभासत् । वाच। ति"अतोऽनेक स्वरा॥७२॥६॥” इति इप्रत्ययः । तदृष्टाभास--पुं० भास-घम् अच् वा । प्रकाशे, स० । गोष्ठे, न्तभावना इयम्-कश्चिद रत्नानां भाजनमेव वेत्ति, ह भाजकुक्कुरे, शुके, बाच० । पतिविशेषे, शा० १७० १७ ।। ने रत्नानि सन्तीति, कश्चिजातिमात्रमेव अपि , कश्चित्पुनभासः शकुन्त इति। प्रश्न०१प्राध०द्वार। गुणानपि, एवं प्रथमद्वितीयतृतीयकल्पभाषकाऽऽदयो द्रष्टभस्मन--न।'भप्प' शम्दार्थे, प्रा०२पाद । व्याः। तथा-बोडमिति पद्म, तद्यथा-ईषद्भिन्नमभिन्नं, भाष-धा० । बचने , भ्वादि०-आत्म-द्विक०-सेद । भा विकसितरूपमिति त्रिधा भवति, एवं भाषकाऽपि पते । प्रभाषिष्ट । चङि इस्वः । वाच० । भाषते तु व्यक्तव. क्रमण योजनीयम् । इदानी देशिकविषयमुदाहरणम्-देशनं चनैरिति। विपा०२ श्रु०१० । एकोनत्रिंशत्तमे महाग्रहे, देशः, कथनमित्यर्थः, सोऽस्यास्तीति देशिका-यथा कश्चिह"दो भासा।" स्था०२ ठा०३ उ०। शकः पन्थानं पृष्टः सन् दिग्मात्रमेव कथयति, कश्चित्तव्य वस्थितनामनगराऽऽदिभेदेन, कश्चित्पुनस्तदुत्थगुणदोषभेदेन भाध्यन्न । गाथानिवद्धे, सूत्रव्याख्यानरूपे वृहद्भाध्यव्यव कथयति । एवं भाषकाऽऽदयोऽपि क्रमेण योजनीयाः । हारभाष्याऽदिके ग्रन्थविशेषे,सघा१ अधि०१ प्रस्ता०। तदेवं तावद्विभाग उक्तः ॥ १३५ ॥ प्रा. म. १०। विशे० । स्था० । परैः श्रुयमाणे जपभेदे, यस्तु परैः श्रूयते अनुयोगाऽऽचार्येण यद् भणितं तस्मादूनं योऽन्यस्थ भा. स भाष्य इति । ध०२ अधिः । कथनीये, त्रिः । वाच । पते स भाषक उच्यते । विशे० । “एगपगारं अत्थं बुवाभासंत-भाषमाण-त्रि०। व्यक्तं कथयति,व्य० १ उ०। सूत्र। णो भासगो ति। " श्रा० चू०१० । वृ० । भाषकः परिविपा। औ० । दश स्था। स्थूरमर्थमात्रमभिधत्त इति । श्रा०म०१०। भासमान-त्रि०। शोभमाने, भ०८ श०८ उ०।०। नैरयिकाऽऽदिजीवानां भाषकाभाषकत्वं दण्डकेन निरूप यत्राहभास्वत-पुं० । महोरगभेदे, प्रज्ञा० १ पद । भासग-भाषक-पुं० । भाषत इति भाषकः। भाषणक्रियाविशि दुविहा नेरइया पन्नत्ता, तं जहा--भासगा चेत्र । ट, श्रा०म०१०। वक्करि, प्रव० ७२ द्वार । सूत्र० । भा अभासगा चेव एवं, एगिदियवजा सम्वे ।।१०।। पालब्धिसम्पन्ने , प्रा०म०१०। स्था० । विज्ञातविशेषरू. भाषादराडके भाषका भाषापर्यापत्युदये , प्रभाष कास्तदपपस्य सव्युत्पत्तिविशेषकनाममात्रकयनेन व्यक्तिमात्रकारके प्तिकावस्थायामिति । एकेन्द्रियाणां भापापर्याप्तिनास्तीत्य. व्याख्यातृभेदे विशे। त श्राद्द-एवमित्यादि । स्था०२ ठा०२ उ०॥ ३८१ Page #1545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासज्जाय मासा यश्रुतस्कन्धस्य चतुर्थे श्रध्ययने, अस्य च भाषाजाताध्ययनस्य त्यानुयोगद्वाराणि भवन्ति तत्र निपनिका भा बाजारादयोर्निपार्थ निक्रिकृदाह जीवाणं भंते! किं भासगा, अभागा १ । गोयमा ! | भासज्जायज्झयण - भाषा जाताध्ययन - न० | आचाराङ्गद्विती fter भागावि, अमासगा वि । से केणद्वेगं भंते ! एवं बुच्च - जीवा भासगा वि, श्रमासगा वि १ । गोयमा ! जीवा दुबिहा पछता । तं जहा संसारसमानाय प्र संसारसमापगा व तत्थ सां जे ते असारसमागा ते सिद्धा, सिद्धा णं श्रभासगा । तत्थ णं जे ते संसारसमावागा ते दुविधा पत्ता तं जहा सेलेसीपडिगाय, सेलेसीपविनगा य । तत्थ णं जे ते सेलेसीपवित्रा ते अभासमा । तस्य णं ते असी पवित्रगते विहा पाखा तं जहा एर्मिदिया य, अ गिंदिया य । तत्थ णं जे ते एगिंदिया ते गं श्रभासगा । तस्थयां मे से गिंदिया ते दुविधा पछचा वं जहा पजत्तगा य, अपजत्तगा थ । तत्थ णं जे ते अपजत्तगा ते अभागा | तत्थ णं जे ते पचगा ते गं भासगा । से द्वेणं गोयमा ! एवं वृच्चइ जीवा भासगा वि, अभासमा वि नेरइया यं भंते किं भागा, अभासमा । गोयमा ! नेरइया भागा वि श्रभासमा वि। सेके भंते! एवं तिनेया भागावि, अभासा वि गोयमा ! नेरख्या दुविदा पाता । तं जापानगाय, अपअत्तगा य । तत्थ खं जे ते अपअत्तगा ते गं अभागा । तत्थ णं जे ते पञ्जतगा ते णं भासगा । से तेरायं गोयमा एवं चनेरहया भागावि, अ भागा वि । एवं एनिंदियां निरंतरं भावितं (१६६ - सूत्र ) मशा० ११ पद मासगरमाथाकर सिकार के, सं० । ( १५२२ ) अभिधान राजेन्द्रः | -- भासआय भाषाजात न जातमुपधिकं तच व्यक्ति बस्तु, अतो भाषाया जातम् । न० । व्यक्तिवस्तु भेदः प्रकारो भाषाजातम् । स्था० ४ ठा० १उ० । बनारि भासाया पता। तं जदासमेगं भासआर्य, बीयं मोर्स, सहसच्चमो चउ अस मोसं ॥२२८॥ तत्र सन्तो मुनयो गुणाः पदार्था वा तेभ्यो हितं सत्यमेकं प्रथमं सूत्रमापेक्षया माध्यते सा तया वा भाषणं या भाषा काययोगायोग निति स्तस्या जातं प्रकारो भाषाजात मस्त्यात्मेत्यादेिवत् । द्वितीयं सूत्रक्रमादेव (मोसं ति ) प्राकृतत्वात् मृषा श्रनृतं नास्त्यारमेत्यादिवत् । तृतीयं सत्यमृषा तदुभयस्वभावमात्माऽस्त्यकस्यात् चतुर्थमसत्यामृषा अनुभवस्था पदिति । भवतश्चात्र गाथे द " सच्चा हिया सतामिह संतो मुए श्री गुणा पयस्था वा । या मोसा, मीसा जा तदुभयसहावा ॥ १ ॥ अहिगया जातीसु वि. सद्दो च्चिय केवलो असचमुसा । या सभेयलक्खण, सोदाहरणा जहा सुत्ते ॥ २ ॥ " इति । स्था० ४ ठा० उ० प्रा० । श्राचा० । जह वर्क तह मासा, जाए क च होइ नायव्वं । (३१३) यथा वाक्य शुद्धयध्ययने वाक्यस्य निक्षेपः कृतस्तथा भा पाया अपि कर्त्तव्यः, जातशब्दस्य तु षट्कनिक्षेपोऽयं ज्ञा तव्यो नामस्थापनाद्रव्य क्षेत्र काल भावरूपः । श्रावा० २ श्र० १ चू० ४ ० १ ० । इह त्वधिकारो द्रव्यभाषाजातेन. द्रव्यस्य प्राधान्यविवक्षया. द्रव्यस्य तु विशिष्टावस्था भाष इति कृत्या भावभावाजातेनाप्यधिकार इति । उद्देशाधिकारार्थमाहसम्यगाविस-द्विकारगा तह विनिम विभी पहने उपनी बजा वीए ॥ ३१४ ।। यद्यपि द्वावप्युदेशक वचनविशुद्धिकारको तथाप्यस्ति कि शेषः, स चायम् - प्रथमोद्देशके वचनस्य विभक्तिर्वचनविभ किचन15 दिसंविधपवनविभागस्येवंभूतं भाष तमिति व्यातिदेश के को चाssधुत्पत्तिर्यथा न भवति तथा भाषितव्यम् । श्राचा० २ श्रु० १ ० ४ श्र० १ उ० । भासज्यगण - भाषाध्ययन-न० | आचाराङ्गद्वितीय तस्क धस्य चतुर्थोऽध्ययने, स० १ अङ्ग । श्राचा० । श्राव०। (त द्वक्तव्यता' भासजायज्झयण ' शब्देऽनुपदमेव गता ) भासव - भाषण - न० । वाग्यांगेन व्यक्तवचने, स्था० ४ ४० स० १ उ० । आचा० । शा० सूत्र० प्रा० म० । कल्प० । प्ररूपणे, सूत्र० १० १४ प्र० । प्रतिपादने, सूत्र० १ ० १४ श्र० । भासरामिमामराशि-पुं० भावानां प्रकाशानां शि राशिः । आदित्ये " भासरासिवणाभा । 33 भस्मराशि - पुं० | महाग्रहभेदे, कल्प० १ अधि० ६ क्षण । "भासराखिनाममहादेस दोवालसहस्ई "मस्मराशिनावा शिलको महायोग जन्मनाव किभूतो ऽसौ द्विसहस्रवर्षस्थितिः । स्था० २ ठा० ३ उ० । भासल देशी दीस देना० ६ १०३ गाथा भासनं भाषा त्रिभाषा ०१ २०१३ भासवा भस्मवर्ण त्रि० । भस्माऽऽमे शा० १४० १७ श्र० । भासवर्ण त्रि० । मासः पक्षिविशेषः, तद्वर्णो यस्य सः । भा साऽऽभ, शा० १४० १७ अ० । भामा-भाषा- स्त्री० । भाषणं भाषा । वृ० १३०१ प्रक० ] दर्श० । कर्म० । उत० । स्था० । भाष्यते प्रोच्यते इति भाषा । वचने, - . 19 'भाष ' व्यक्तायां याचि इति वचनात् । भ० १३ २०४ उ० ॥ औ० । स्था० | प्रब० । श्राः । वाण्याम्, "वाणी वाया भखिई सरस्सई भारई गिरा मासा । पाइ० ना० ५१ गाथा । ( दो भासा । स्था० २ ठा० ३ उ० । (१) तथा च वाक्यस्यैकार्थिकान्यधिकृत्यवकं वयणं च गिरा, सरस्सई भारही य गो वाणी।। भासा पनवणी दे - सखी य षयजोग जोगे य ।। २७० ॥ - - Page #1546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा अभिधानराजेन्द्रः। भासा वाक्यं वचनं च गीः सरस्वती भारतीच गोर्वाक पक्ष्या यदेकार्थप्रत्यायनव्यवहारसममिति, योदकार्थे भाषा प्रज्ञापनी देशनी च वाग्योगी योगश्च , एतानि | कोणकाऽऽविषु पयः पिचं नीरमुदकमित्याद्यदुविवक्षानिगदसिद्धान्ये घेति गाथार्थः । दश० ७० २उ० ।। हेतुस्वात् नानाजनपदेष्विष्टार्थप्रतिपत्तिजनकत्वात् व्यवहासंस्कृतप्राकृताऽऽदिके वाक्ये , उत्त०७०।" न चित्ता रप्रवृत्तेः सत्यामेतदिति, एवं शेषेष्यपि भावना कार्या । सतायए भासा।" चित्राः प्राकृतसंस्कृताऽऽचाः षट्भापाः। म्मतसत्यं नाम कुमुदकुबल योत्पलतामरसानां समाने पसं. अथवा-मन्या अपि देशविशेषात् नानारूपा भाषा इति ।। भवे गोपाऽऽदीनामपि सम्मतमरविन्दमेव पजामति । स्था. उस०६ अावशम्दतयोत्सृज्यमानायां द्रव्यसंतती, नं०।। पनासत्यं नाम-अक्षरमुद्राविम्यासादिषु यथा मासकोऽय विशेorभाषानिक्षेपो वाक्यनिक्षेपवतू। प्राचाराङ्गनिर्युको 'जह कार्षापणोऽयं शतमिदं सहस्रमिदमिति । नामसत्य नाम-कु. चकं तह भासा (३१३)"यथा वाक्यशुद्धयध्ययने वाक्यस्य लमवर्द्धयन्नपि कुलवर्द्धन इत्युच्यते,धनमवद्धयन्नपिधनवर्द्धन निक्षेपःकृतस्तथा भाषाया अपि कर्तव्यः। प्राचा० २ ०१ इत्युच्यते, अयक्षश्च यक्ष इति । रूपसत्य नाम-श्रनहुणस्य चू०४०१ उ.1 तथारूपधारसं रूपसत्यं, यथा प्रपञ्जयते: प्रवजितरूपधा(२) व्याऽऽदिभाषामाह रणमिति । प्रतीत्यसत्यं नाम-यथा अनामिकाया दीर्घत्वं दच्चे तिविहा गहणे, य निसिरणे तह भवे पराघाए।। स्वत्वं चेति । तथाहि-अस्यानन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य भाव दवे य सुए, चरित्तमाराहणी चेव ।। २७१ ॥ तत्सत्सहकारितारणसबिधानन तत्तपमभिव्यज्यत इति सत्यता । व्यवहारसत्यं नाम-दह्यते गिरिलति भाजनमनुद्रव्य इति द्वारपरामर्शः, द्रव्यभाषा त्रिविधा-ग्रहणे त्र दरा कन्या अलोमा एडकेति गिरिगततृणादिवाहे व्यवहा निसर्गे तथा भवेत् पराघाते । तत्र प्रहर्ष भाषाद्रव्यागा रःप्रवर्तते तथोदके च गलति सति तथा सम्भोगजबीजकाययोगेन यत् सा प्रहणाव्यभाषा, निसर्गस्तेषामेव भाषा प्रभवोदराभावे च सति तथा लवनयोग्यलामाभावे सति । द्रव्याणां धाग्योगेनोत्सर्गक्रिया, पराघातस्तु निसृष्टभा भावसत्यं नाम-शुक्ला बलाका, सत्यपि पश्चवर्णसम्भवे शुपाद्रव्यैस्तदन्येषां तथापरिणामाऽऽपादनक्रियावत्प्रेरणम् एषा क्लवणेत्कटत्वात् । शुक्ला इति । योगसत्यं नाम-छत्रयोगात् त्रिप्रकाराऽपि किया द्रव्ययोगस्य प्राधान्येन विवक्षितस्यात् द्रव्यभाषेति । भाव इति द्वारपरामर्शः, भावभाषा त्रिविधैव, छत्री, दण्डयोगात् दण्डी इत्येवमादि । दशममौपम्यसत्यं च, तत्रौपम्यसत्यं नाम-समुद्रवत्तडाग इति गाथाऽर्थः । द्रव्ये च श्रुते चारित्र इति; द्रव्यभावभाषा, श्रुतभावभाषा, उक्ता सत्या। चारित्रभावभाषा च, तत्र द्रव्यं प्रतीत्योपयुक्नो भाष्यते अधुना मृषामाहसा द्रव्यभावभाषा । एवं श्रुताऽऽदिष्वपि वाच्यम् इयं कोहे माणे माया, लोभे पेजे तहेव दोसे य । विप्रकाराऽपि वक्त्रभिप्रायत्तद्रव्यभावप्राधान्यापेक्षया भाचभाषा. इयं चौघत एवाऽऽराधनी चैवेति, व्याऽऽद्यारा. हासभए अक्खाइय, उवघाए निस्भिया दसमा ।।२७४॥ धनात्, चशब्दाद्विराधना चौभयंत्रानुभयं च भवति, द्रव्या. क्रोध इति क्रोधानिःसृता, यथा क्रोधाभिभूतः पिता पुत्र महा-नवं मम पुत्रः, यद्वा क्रोधाभिभूतो वक्ति तदाशयऽऽद्याराधनाऽऽदिभ्य इति। श्राह-इह द्रव्यभाववाक्पस्वरूप विपत्तितः सर्वमेवासत्यमिति। एवं माननिःस्ता मानाध्मामभिधातव्यं, तस्य प्रस्तुतत्वात् तत् किमनया भाषयेति ?। तःकचित्नचिदल्पधनोऽपि पृष्ट पाह-महाधनोऽहमिति । उच्यते-वाक्यपर्यायस्वाद्भाषाया न दोषः, तस्वतस्तस्यैवाभि मायानिःसृता-मायाऽऽकारप्रभृतय पाहु:-नष्ठो गोलकाति, धानादिति गाथासमुदायार्थः । अवयवार्थ तु वक्ष्यति । लोभनिःसूता-बणिकप्रभृतीनामन्यथाक्रीतमेवस्थमिदं क्रीतम् (३) तत्र द्रव्यभावभाषामधिकृत्याउराधम्यादिभेदयो इत्यादि। प्रेमनिःस्ता अतिरक्तानां दासोऽहं तवेत्यादि । जनामाह द्वेपनिःसृता-मत्सरिणां गुणवत्यपि निर्गुणोऽयमित्यादि।हा. बाराहणी उ दवे, सच्चा मोसा विराहणी होई। स्यनिःसृता कान्दर्पिकानां किञ्चित् कस्यचित्संबन्धि गृहीसञ्चामोसा मीसा, असच्चमोसा य पडिसेहा ।। २७२ ।। स्वा पृष्टानां न दृष्टमित्यादि । भयनिःस्ता तस्कराऽऽदिगृही. आराध्यते परलोकाऽऽपीडया यथावदभिधीयते वस्त्वनये- तानां तथा तथा असमञ्जसाभिधानम्, पाख्यायिकानिःसृता स्याराधनी तु 'द्रव्य' इति-द्रव्यविषयाभावभाषा सत्या, तुश- तत्प्रतिबद्धोऽसत्प्रलापः। उपघातनिःसता अचौरेचौरब्दात द्रव्यतो विराधन्यपि काचित् सत्या, परपीडासंरक्षण- स्वभ्याख्यानवचनमिति गाथार्थः । उक्का मृषा। फलभाचाराधनादिति,मृषा विराधनी भवति, तद्रव्यान्य साम्यतं सत्यामृषामाहथाभिधानेन तद्विराधनादिति भाषः। सत्यामृषा मिश्रा,मिश्रे. उप्पन विगयपीसग, जीवमजीवे य जीवजीवे । स्याराधनी विराधनी च,असत्यामृषा च प्रतिषेध इति न पा. तहणतमीसगा खलु, परित्त अद्धा य अद्धद्धा॥२७॥ राधनी नापि विराधनी, तद्वाच्यद्रव्ये तथोभयाभावादिति । उत्पन्नविगतमिश्रकेति-उत्पन्नविषया सत्यामृषा यधैक प्रासां च स्वरूपमुदाहरणैः स्पष्टीभविष्यतीति गाथाऽर्थः । नगरमधिकृत्यास्मिन्नध दश दारका उत्पन्ना इत्यभिदधतस्त. तत्र सत्यामाह दून्यूनाधिकभावे, व्यवहारतोऽस्या: सस्यामृषास्वात्, श्वस्ते. जणवयसम्मयठवणा, नामे रुवे पडुच्च सच्चे । शतं दास्यामीत्यभिधा पञ्चाशत्स्वपि दत्तेषु लोके मृषास्वादवहारभावजोगे, दसमे ओवम्मसच्चे य॥ २७३ ।। र्शनात्, अनुत्पन्नेष्वेवादत्तेष्वेव च मृषात्वसिद्धे, सर्वथा कि. सत्यं तावद्वाक्यं दशप्रकारं भवति , जनपदसत्यादिभे- याभावेन सर्वथा व्यत्ययादित्येवं विगताऽऽदिष्वपि भावनीदात् तत्र जनपदसत्यं नाम नानादेशभाषारूपमप्यधिप्रति- यमिति । Page #1547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२४ ) भासा अभिधानराजेन्द्रः। भासा तथा विगतविषया सत्यामृषा यथैकं प्राममधिकृत्या. सत्या वा मृषा येति तद्यवहारसाधनी, तद्विपरीता पुनस्मिनचयश वृद्धा बिगता इत्यभिधतस्तन्न्यनाधिकभाषे। रपर्याप्ता,अत एवाड-प्रथम वे भाषे सत्यामृषे प्रर्याप्त तथा एवं मिश्रका सत्यामृषा उत्पविगतोभयसत्यामृषा, यथैकं स्वविषयव्यवहारसाधनात् , तथा उपरितने द्वे सत्यामृषापत्तनमधिकृत्याहास्मिनच दश दारका जाता दश च वृद्धा ऽसत्यामृषाभाष अपर्याप्ते, तथा स्वविषयव्यवहारासाधविगता इत्याभिदधतस्तन्यूनाधिकभावे,जीवामिभा जीवधिः । नादिति गाथार्थः। उक्ला द्रव्यभावभाषा। पया सत्यामृषा यथा जीवन्मृतकृमिराशी जीवराशिरिति । (५) साम्प्रतं श्रुतमाखभाषामाअजीवमिश्रा ब-अजीवविषया; सत्यामृषा यथा तस्मि सुयधम्मे पुण तिविहा, सचा मोसा असञ्चमोसा य । पप्रभूतसूतमिराशाषजीवराशिरिति। जीवाजीवमितिजीवाजीवविषया सत्यामृषा यथा तस्मिन्नेव जीवामृतक सम्मद्दिट्ठी उसुमो-उत्तु मो भासई सच ।। २७६ ॥ मिराशी प्रमाण नियमेनैतावतो जीवस्येतावन्तश्च मृता भुतधर्म इति भुतधर्मविषया पुस्त्रिविधा भावभाषा इत्यभिवतस्तदन्यूनाधिकभावे । तथाऽनम्तमिश्रा सस्थिति भवति । तद्यथा-सत्या, मृषा, असत्यामृषा चेति । तत्र सम्यभनम्तविषया सत्यामुषायथा मूलकन्दाऽदो परीतपत्राऽऽवि. हष्टिस्तु सम्यग्दृष्टिरेष,श्रुतोश्यक इत्यागमे यथावदुपयुक्तो मत्यनम्तकायोऽयमित्यभिवधता, परीतमिश्रा-परीतविषया यः स भाषते, सत्यम् भागमानुसारेण यतीति गाथार्थः । सस्यामपायथान्तकायलेशषति परीतम्मानमूलाग्दो परी सम्पट्ठिी उ सुयम्मि, अणुवउत्तो अहेउगं चेव । तोऽयमभिवतःप्रवामिभा-कालविषया सत्यामृषा यथा| जं भासह सा मोसा, मिच्छादिट्टी वि अ तहेव ॥२८॥ कश्चित्कस्मिभित्प्रयोजनेसहायाँस्स्वरयन् परिणतप्राये वासर सम्यगृष्टिरेव सामान्येन श्रुते पागमे अनुपयुक्ता प्रमादात् रजनी वर्तत इति प्रवीति । अद्धद्धमिधा च दिवसर- यत्किश्चित् अहेतुकं चैव युक्तिविकलं वैष यापते तन्तुभ्यः जम्येकदेशाबखोच्यते, तद्विषया सत्यामृषा यथा कस्मि पट एव भवतीत्येवमादि सा मृषा, विज्ञानाऽऽदेरपि तत एव चित्प्रयोजने स्वरवम् प्रहरमात्र एवं मध्याह इस्याह । एवं भावादिति । मिथ्यारष्टिरपि तथैवेत्युपयुक्तोऽनुपयुक्तो वा मिभशया प्रत्येकमभिसंबध्यते इति गाथार्थः । उक्ता सत्या. यद्भाषते सा मृषेष, घुणाक्षरन्यायसंबादेऽपि सदसतोर. सूषा। विशेषायहच्छोपलब्धेन्मत्तवदिति गाथार्थः। साम्प्रतमसत्यामृषामाह हवइ उ असञ्चपोसा, सुम्मि उपरिलए तिनाणम्मि । मामंतथिमाणपणी, जायणि तह पुच्छगीय पनवणी।। जं उबउत्तो भासइ, उत्तो वोच्छं चरित्तम्मि ॥ ३८१॥ पवक्खाणी भासा, भासा इच्छाणुलोमा य ।। २७६ ॥ भवति तु असत्यामृषा श्रुते पागम एव परावर्तनाऽऽदि कु. प्राममणी या देवदत्त! इत्यादि.पषा किलाप्रवर्तकत्वात् | तस्तस्याऽऽमन्त्रण्याविभाषारूपत्वात् तथा उपरितने अब. सत्याविभाषात्रयलक्षणषियोगतस्तथाविधदनोस्पत्तरसत्या-- धिमनःपर्यायकेवल लक्षणे , त्रिज्ञान इति भावप्रये यदुपयुक्तो मति एवमाहापनीययेदं कुरु,डयमपि तस्य करणाकरणभा. भाषते सा असत्यामृषा, आमन्त्रण्यादिवत् तथाविधाभ्यपता परमार्थनकत्राप्यनियमात्तथाप्रतीतेः भदुविवक्षाप्रसू घसायप्रवृत्तेः, इत्युक्ता श्रुतभावभाषा । अत ऊर्द्ध बच्ये चा. सस्वावसत्यामुषेति । एवं स्वबुद्धयाऽन्यत्रापि भावना कार्येति रित इति-चारित्रविषयां भावभाषामिति गाथार्थः । यापनी यथा-मिक्षा प्रयच्छति,तथा प्रच्छनी यथा कथमेतदि. ति,महापनी यथाहिंसाप्रवृत्तो दुःखिताऽदिर्भवति,प्रत्याख्या. पढमविइमा चरित्ते, भासा दो चेव होति नायव्वा । भीभाषा यथा अदित्सेति भाषा। इच्छानुलोमा च यथा केन- सचरित्तस्स उभासा, सच्चामोसा उ इमरस्स ॥२८२॥ बित् कश्चिदुका साधुसकाशं गच्छाम इति । स भाइ शो. प्रथमद्वितीये सत्यामृषे, चारित्र इति चारित्रविषये भाष दे भममिदमिति गाथाऽर्थः। एव भवतोशातव्ये ; स्थरूपमाह-सचरित्रस्य चारित्रपरिणा. भयभिग्गहिनाभासा,भासाय अभिग्गहम्मि बोधव्वा । मवतःतुशब्दाद् तवृद्धिनिबन्धनभूता च भाषा द्रव्यतस्तथा. संसयकरणी भासा, वायड अन्वायडा चेव ।। २७७॥ उभ्यथाभावेऽपि सत्या. सतां हितत्वादिति । मृषातु इतरस्य प्रचारित्रस्य तद्वृद्धिनिबन्धनभूता चेति गाथार्थः । वश ७ भनभिग्रहीता भाषा अर्थमनभिगृह्य योच्यते डित्थाऽऽदि. अ०२ उ० भ० । प्रव० । संथा. । स० । वृ० । आप० । वत् , भाषा वाभिप्रहबोधण्या-अर्थमभिगृह्य योपते घटा दशेनं०। दिवत्.तथा व संशयकरणी च भाषा-अनेकार्थसाधारणा प्रतिविभागोपदर्शनं भाषाविशेषान् भाषणीयत्वेन योच्यते सम्धीमत्यादिवत् । व्याकृता-स्पटशा प्रकटार्था प्रदर्शयितुमाहदेवात्तस्यैष भातेत्यादिवत्। अभ्याकृता चैव-अस्पषा अप्र मह भंते ! आसइस्सामो सइस्सामो चिहिस्सामो निकरा बालकादीनां थपनिकस्यादिधदिति गाथार्थः। उक्ता । भलत्यामषा। सीइस्मामो तुहिस्सामो। (४)साम्प्रतमाघत एवास्याः प्रविभागमाह "श्रामंतणि पाणवणी,जायणि तापुच्छणी य पम्पवणी। सवा विभ सा दुबिहा, पजत्ता खलु तहा अपज्जत्ता।। पञ्चक्रवाणी भासा, भासाइच्छाणुलोमा य ॥ १॥ पढमा दो पज्जता, उरिता दो भपज्जत्ता ॥२७॥ प्रणभिमहिया भासा, भासा य अभिग्गहम्मि बोद्धव्वा । सर्वाऽपिला ' सस्याऽऽविभेदभिन्ना भाषा द्विविधा संसयकरणी भामा, पोयटमनोयडा चेव ॥२॥" पर्याप्ता खलु, तथा अपर्याप्ता । पर्याप्ता या एकपक्षे निक्षिप्यते । पनवणी यं एसान एसा भासामोसा ता! गोयमा Page #1548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२५) भासा अभिधानराजेन्द्रः। भासा मा! भासइस्सामोतं चेच जाव न एसा भासा मोसा।। ति श्रोहारिणी भासा, अह ममामीति श्रोहारिणी भासा (सूत्रम्-४०३) मह चिंतमीति ओहारिणी भासा तह मम्मामीति भोहा. 'मह भंते ! 'इस्यादि , अथेति परिप्रश्नार्थः · भंते ! रिणी भासा तह चिंतेपीति श्रोहारिणी भासा । ता ! त्ति भदन्त !' इत्येवं भगवन्ते महावीरमामन्त्र्य गौतमः पृ. गोयमा! मम्मामीति मोहारिणी भासा चिंतमीति ओहा. छति-पासरस्सामी ति) प्राधयिष्यामो षयमाश्रयणीयं रिणी भासा अह मम्मामीति श्रोहारिणी भासा अह चिते. धनु (सहस्सामो ति) शयिष्यामः 'चिटिस्सामो ति' ऊसंस्थानेन स्थास्यामः, 'निसीइस्सामो ति' निषेत्स्याम | मीति मोहारिणी भासा तह ममामीति श्रोधारिणी भासा उपवेषयाम इत्यर्थः। 'तुयहिस्सामो त्ति' संस्तारके भवि.] तह चिंतमीति अोधारणी भासा।। ष्याम इत्यादिका भाषा किं प्रज्ञापनी? इति योगः॥ भने से गुणं भंते ! ममामि इति ओहारणी भासा' इत्यादि, न बोपलक्षणपरवचनेन भाषाविशेषाणामेवंजातीयानां प्र- 'से' शब्दोऽथशब्दार्थः, सच वाक्योपन्यासे, नूनमुपमानाष. सापनीयत्वं पृष्टमय भाषाजातीनां तत्पृच्छति-'भामंताण धारणतर्कप्रश्नहेतुषु इहावधारणे, भदन्त ! स्यामात्रणे, म. गाहा'-तत्र भामन्त्रणी-हे देवदत्ता इत्यादिका, एषाच कि. म्ये-अवबुध्ये इति-एवं, यदुत अवधारणी भाषा अवधालवस्तुनोऽविधायकत्वादनिषेधकरवाच्च सत्याऽऽदिभाषा येते-अवगम्यतेऽर्थोऽनयेत्यवधारणी-अवबोधबीजभता. जयलक्षणषियोगतश्चासत्यामृषेति प्रज्ञापनाऽऽदावुक्ता, एव. त्यर्थः, भाष्यते इति भाषा, तद्योग्यतया परिणामितनिमाशापयादिकामपि, 'प्राणवणि ति'आज्ञापनी कार्ये पर- सृज्यमानद्रव्यसंहतिः, एष पदार्थः, वाक्यार्थः पुनरयम् स्य प्रवर्सनी यथा घटं कुरु 'जायसि सि' याचनी-वस्तु. अथ भदन्त ! एवमहं मन्ये, यदुतावश्यमवधारिणी भाषेति, विशेषस्य देहीत्येवं मार्गणरूपा, तथेति समुच्चये 'पुच्च- न चैतत् सकृदनालोच्यैव मन्ये , किंतु चिन्तयामि युणी य सि' प्रच्छनी-अविज्ञातस्य संदिग्धस्य वाऽर्थस्य क्लिद्वारेणाऽपि परिभावयामीति-एवं यदुत अवधारणीयं बानार्थ तदभियुक्तप्रेरणरूपा, 'परणवणि ति' प्रज्ञापनी भाषेति, एवमात्मीयमभिप्रायं भगवते निवेद्याधिकृतार्थविविनेयस्योपदेशवानरूपा यथा-" पाणवहाउ नियसा, निश्चयनिमित्तमेवं भगवन्तं पृच्छति-(अहमयामी इरोहा भति दीहाउया आरोगा य । एमाई पनवणी, पत्ता रिणी भासा इति) 'अथशब्दः प्रक्रियाप्रश्नाऽऽनन्तर्यमालोबीयरागीह ॥१॥" पच्चक्खाणीभास ति 'प्रत्याख्या पन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेषु,'इह प्रश्ने, काका चास्य सूत्रस्य मी याबमानस्याऽदित्सा मे अतो मां मा याचुस्वेत्याविप्र- पाठस्ततोऽयमर्थः-अथ भगवनेबमहं मन्ये एवमहं मननकुर्या, स्थाग्यानरूपा भाषा इच्छाणुलोम त्ति' प्रतिपादयितुर्या यथा अवधारिणी भाषेति द्वितीयाभिप्रायनिवेदनमधिकृत्य इच्छा तपनुलोमा-तदनुकूला इच्छानुलोमा यथा कार्य प्रे. प्रश्नमाह-(अह चिंतेमि ओहारिणीभासा इति)अथ भगवन् ! रितस्य एवमस्तु ममाप्यभिप्रेतमेतदिति वचः। अणभि एवमहं चिन्तयामि पवमहं चिन्तनं कुर्यो, यदुतावधारिणी ग्गहिया भासा गाहा', अनभिगृहीता-अर्थानभिप्रहेण | भाषेति निरवद्यमेतदित्यभिप्रायः , सम्प्रति पृच्छासमयात् योच्यते डिस्थाऽऽदिवत् 'भासा य अभिग्गम्मि बोद्धब्बा' यथा पूर्व मनन चिन्तनं वा कृतघानिदानीमपि पृच्छासमये भाषा वाभिप्रहे बोलण्या-अर्थमभिगृह्य योच्यते घटाऽऽदि. तधव मननं चिन्तनं वा करोमि नान्यथेति भगवतो ज्ञानेन बत् , 'संसयकरणीभास ति। ' याऽनेकार्थप्रतिपत्तिकरी सा संवादयितुकामः पृच्छति-(मह मन्नामी इति ओहारिणी संशयकरणी यथा सम्धवशब्दःपुरुषलवणवाजिषु वर्तमान भासा तह चितेमीति मोहारिणी भासा इति) 'तथेति इति चोयड तिव्याकृता लोकप्रतीतशब्दार्था, 'अव्वोयड ति' समुच्चयनिर्देशावधारणसारश्यप्रश्नेषु'ह निशे , काका अव्याकृता-गम्भीरशब्दार्था मन्मनाक्षरंप्रयुक्ता वाऽनाविर्भा- चास्यापि पाठः, ततःप्रश्नार्थत्वावगतिः, भगवन् ! यथा पू. बितार्था, ' पनपणी णं ति' प्रज्ञाप्यतेोऽनयेति प्रज्ञापनी वै मतवानिदानीमप्य तथा मन्ये इति-एवं यदुत अवधामर्थकथनी बक्तब्येत्यर्थः, 'न एसा मोस त्ति' नैषा मृषा. रिणी भाषेति । किमुक्तं भवति? नेदानीन्तनमननस्य पूर्वमनन· मानभिधायिनी नाषक्तव्येत्यर्थः , पृच्छतोऽयमभिप्राय:- स्य च मदीयस्य कश्चिद्विशेषोऽस्त्येतत् भगवयिति । तथा प्राधयिष्याम इत्यादिका भाषा भविष्यकालविषया सा यथा पूर्व भगवन् ! चिन्तितवान् इदानीमप्यहं तथा चिन्तखातरायसम्भषेन व्यभिचारिण्यपि स्यात्, तथैकाऽर्थेविष. यामि इति-एवं यदुत अवधारणी भाषेति, प्रस्त्येतदिति ?, थाऽपि बहुवचनान्ततयोक्तिस्येवमयथार्था, तथा आमन्त्रणी. एवं गौतमेनाभिप्रायनिवेदने प्रश्ने च कृते भगवामाह-हंता प्रभूतिका विधिप्रतिषेधाभ्यां न सत्यभाषाववस्तुनि नियते- गोयमा! मनामीति पोहारिणी भासा'ति.' स्यतः किमियं वक्तव्या स्यात् ? इति, उत्तरं तु 'हंता'- म्प्रेषणप्रत्यवधारणविवादेषु' इह प्रत्यवधारणे, मन्नामी इत्या. त्यादि । इदमत्र हृदयम्-भाश्रयिष्याम इत्यादिकाउनवधार- दीनि क्रियापदानि प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच युष्मदर्थेऽपि प्र. जत्वाद्वर्तमानयोगेनेत्येतद्विकल्पगर्भवादात्मनि गुरौ चैका- युज्यन्ते,ततोऽयमर्थ:-हन्त गौतम! मन्यसे त्वं यदुत अवधा. र्थत्वेऽपि बहुवचनस्याऽनुमतत्वात्प्रज्ञापन्येव तथाऽमन्त्र - रणी भाषेती जानाम्यहं केवलशाने नेदमित्यभिप्राया,तथा चि. एयादिकापि वस्तुनो विधिप्रतिषेधाविधायकत्वेऽपि या स्तयसि स्वमित्येवं यदुतावधारिणी भाषेति इदमय वेधि के. निरवचपुरुषार्थसाधनीला प्रज्ञापन्येवेति । भ०१००० ३ उ० | बलिस्यात्, (अह मनामी इति ओहारिणी भासा इति)अयेत्या. सत्याऽऽदिभाषा मन्तर्ये मत्संमतत्वात् ऊर्दै निःशङ्कं मन्यस्व, इति एवं यदुते नणं भंते ! मपणामीति मोहारिणी भासा चिंतमी- सावधारिणी भाषेति । अधत ऊई निःशवंचिन्तय इति एवं ३८२ Page #1549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२६) भासा अभिधानराजेन्द्रः। भासा यदुतावधारिणी भाषेति,प्रतीचे साध्वनवद्यमित्यभिप्रायः, नित्याऽऽद्यनेकधर्मकलापाऽऽलिङ्गित इत्यादि सा यथावस्थि: तथा तथा अविकलं परिपूर्ण मन्यस्व इत्येवं यदुतावधारणी तवस्त्वभिधायिनी पाराध्यते मोक्षमार्गोऽनयेत्याराधिनी,प्रा. भाषेति यथा पूर्व मतवान् । किमुक्तं भवति ?, यथा त्वया राधिनीत्वात् सत्येति. विराधिनी मति, बिराध्यते मुक्तिमा. पूर्व मननं कृतमिदानीमपि मत्संमतत्वात् सर्व तथैव मन्य. गोऽनयेति बिराधिनी,विप्रतिपत्ती सत्यां वस्तुप्रतिष्ठाऽऽशया स्वमा मनागपि शङ्कां कार्षीरिति । तथा तथा अविकलं | सर्वक्षमतप्रातिकूल्येन या भाष्यते यथा नास्त्यारमा एकान्त. परिपूर्ण चिन्तय इति एवं यदुतावधारिणी भाषेति, यथा नित्यो वेत्यादि तथा सस्याऽपि परपीडोत्पादिका सा विपरीपूर्व चिन्तितवान् , मा मनागपि शतिष्ठा इति, तदेवं भाषा तवस्त्वभिधानात् परपीडाहेतुत्वाद्वा मुक्तिविराधानाद्विराधि. अवधारिणीति निर्णीतम् । नी विराधिनीत्वाच्च मृषेति,या तु किचन नगरं पत्तनं वाऽ. इदानीमियमवधारिणी भाषा सत्या उत धिकृत्य पञ्चसु दारकेषु जातेवेवमभिधीयते, यथाऽस्मिन् मृषेत्यादिनिर्णयार्थ पृच्छति अद्य दश दारका जाता इति सा परिस्थूरव्यवहारनयमतेन माराधनाधिराधिनी, इयं हि पञ्चानां दारकायां यजन्म ता. ओहारिणी णं भंते ! भासा किं सच्चा मोसा सच्चा वतांऽशेन संवादनसम्भवादाराधिनी, दश न पर्यन्ते इत्ये. मोसा असच्चामोसा ? | गोयमा । सिय सच्चा , सिय तावतांशेन विसंवादसम्भवात् बिराधिनी,पाराधिनीचासौ मोसा, सिय सच्चामोसा, सिय असच्चामोसा । से केगडे पिराधिनी चाराधनबिराधिनी,कर्मधारयत्वात् पुम्बभा. वा, आराधनविराधिनीत्वाच्च सत्यामृषा, या तु नैवारा. णं भंते ! एवं बुच्चइ-ओहारिणी ण भासा सिय सच्चा , धनी तल्लक्षणविगमात् नापि विरोधिनी विपरीतवस्त्वभिधा. सिय मोसा, सिय सच्चामोसा , सिय असच्चामोसा। नाभावात् परपीडाहेतुत्वाभावाच्च नाप्याराधनधिराधिनी गोयपा! पाराहिणी सच्चा विराहिणी मोसा आराहण- एकदेशसंवादविसंबादाभावात् ,हे साधो ! प्रतिक्रमणं कुरु स्थण्डिलानि प्रत्युपेक्षस्वेत्यादिव्यवहारपतिता आमन्त्रिण्या. विराहिणी सच्चामोसा जाणेव भाराहणी णेव विराहिणी दिभेदभिन्ना सा असत्यामृषा नाम चतुर्थी भाषा, ‘से पए. गोवाऽऽराहाणविराहिणीसा असच्चामोसा नाम सा चउत्थी ण्टेणं' इत्याद्युपसंहारवाक्यम् ॥ भासा , से तेणटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-ओहारिणी णं इह यथावस्थितवस्तुतवाभिधायिनी भाषा पाराधिनीत्वात भासा सिय सच्चा , सिय मोसा, सिय सच्चामोसा, सिय सत्येत्युक्तं, ततः संशयाऽऽपनस्तदपनोदाय पृच्छतिअसच्चामोसा। (सूत्रम्-१६१) अह भंते ! गानो मिया पस पक्खी पालवणी णं. 'आहारिणी णं भंते !' इत्यादि , अवधारिणी अव सा भासा ण एसा भासा मोसा। हंता गोयमा! जा. बोधबीजभूता, णमिति प्राग्वत् , भदन्त ! भाषा य गाओ मिया पसू पक्खी पालवणी णं एसा भासा,[पकिं सत्या, मृषा, सत्यामृषा, असत्यामृषा? इति । तत्र सन्तो प्रवणी] स एसा भासा मोसा । अह भंते ! जा य इत्थीवऊ मुनयस्तेषामेव भगवदाहासम्यगाराधकतया परमशिष्टत्वात् जा य पुरिसवऊ जा य णपुंसगवऊ पालवणी णं एसा सयो हिता-इहपरलोकाऽऽराधकत्वेन मुक्तिप्रापिका सत्या, भासा ण एसा भासा मोसा ! इंता गोयमा ! जाय इ. युगाऽऽदिपाठाभ्युपगमात् यः प्रत्ययः , यद्वा-यो यस्मै हितः स तत्र साधुरिति सत्सु साध्वी सत्या । 'तत्र साधौ' ॥७१ स्थीवऊ जा य पुमवऊ जा य नपुंसगवऊ पालवणी णं १५॥ इति या प्रत्ययः, यदि वा-सन्तो मूलोत्तरगुणास्तेषामेष एसा भासा न एसा भासा मोसा । अह भंते ! जा य इजगति मुक्तिपदप्रापकतया परमशोभनत्वात् , अथवा सन्तो। स्थीप्राणमणी जाय पुममाणमणी जा य नपुसगाणमणी विद्यमानास्ते च भगवदुपदिष्टा एव जीवाऽऽदयः पदार्थाः, परमवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा ? । हता अन्येषां कल्पनामावरचितसत्ताकतया सवतोऽसवात् तेभ्यो हिता तेषु साध्वी वा यथावस्थितवस्तुतावप्रक गोयमा! जा य इत्थीप्राणवणी जा य पुमाणवणी जा पणन सत्या, विपरीतस्वरूपा मृषा, उभयस्वभावा सत्या. य नपुंसगाणवणी पालवणी णं एसा भासा न पसा मृपा, या पुनस्तिसप्वपि भाषास्वनधिकृता-तलक्षणायोग- भासा मोसा । अह भंते ! जाय इत्थिपरमवणी जा य पुमतस्तत्रानन्तर्भाविनी सा आमन्त्रणाऽऽज्ञापनाऽऽदिविषया. पप्लवणी जा य नपुंसगपसवणी पसवणी णं एसा सत्यामृषा । उक्तं च-"सचा हिया सयामिह, संतो मुणयो भासा ण एसा भासा मोसा ? । हंता गोयमा ! गुणा पयत्था वा । तग्विवरीया मोसा, मीसा जा तदुभयसहा. पा ॥२॥ अणहिगया जा तीसु वि, सहो च्चिय केवलो प्रस. जा य इत्थिपलवणी जा य पुमपलवणी जा य नपुं. सचमुसा ॥" इति । भगवानाह- गौतम ! सिय सच्चा' सगपरमवणी , पखवणी णं एसा भासा ण एसा इत्यादि स्यात् सत्या सत्याऽपि भगवतीत्यर्थः, पवं स्यादसा भासा मोसा । अह भंते ! जा जायीति इत्यिवक त्या स्यात्सत्यामृषा स्यावसत्यामृषेति । अत्रैवार्थे प्रश्नमाह'सेकेण्डेणं भंते!' इत्यादि, सुगमम् । भगवानाह-गौतम! जातीइ पुमवऊ जातीति पसगवऊ पणवणी णं एसा पाराधनी सत्या, इह विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठापनबु. भासा ण एसा भासा मोसा । इंता! गोयमा! या यासर्वक्षमतानुसारेण भाष्यते अस्त्यात्मा सदसभित्या जातीति इत्यिवऊ जाईति पुमवऊ जातीति णपुंसगवऊ Page #1550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२७) भासा अभिधानराजेन्द्रः। भासा पावणी णं एसा भासा न एसा भासा मोसा । श्रह मेहनं खरता दाय, शौएडीर्य श्मश्रु धृष्टता। भंते ! जा जातीइ इत्थियाणवणी जाइत्ति पुमप्राणवणी स्त्रीकामितेति लिङ्गानि, सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षते ॥२॥ स्तनाऽऽदिश्मश्रुकेशाऽदि-भावाभावसमन्वितम् । जातीति गपुंसगाणवणी परणवणी णं एसा भासा न नपुंसकं बुधाः प्राहु-मोहानलसुदीपितम् ॥ ३॥" एसा भासा मोसा ? । हता! गोयमा ! जातीति इत्थिा तथाऽन्यत्राप्युक्तम्णमणी जातीति पुमभाणवणी जातीति णपुंसगाणम- "स्तनकेशवती स्त्री स्या-लोमशः पुरुषः स्मृतः। णी परणवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा । उभयोरन्तरं यच, तत्र भावे नपुंसकम् ॥१॥" न चैवंरूपाणि सपादिलक्षणानि खट्वाऽऽदिपूपलभ्यन्ते । अह भंते ! जातीति इत्थिपएणवणी जातीति पुमपलवणी तथाहि-योकैकावयवपृथकरपन सम्वग् निभालनं क्रियते जातीति गपुंसगपसवणी पासवणी णं एसा भासा ण एसा तथापि न तेषां ख्यादिलक्षणानां तत्रोपलम्भोऽस्ति, ततः भासा मोसा । हता! गोयमा ! जातीति इत्थिपालवणी | प्रसापनीयं भाषान वेति जातसंशयः तदपनोदाय पृच्छति । जाईति पुमपालवणी जाईति सगपमवणी परमवणी यं अत्र भगवानाह-'हंतागोयमेत्यादि'अक्षरगमनिका प्राग्वत् । भावार्थस्वयम्-नेह शनप्रवृत्तिचिन्तायां यथोक्तानि रुया. एसा भासा ण एसा भासा पोसा । (सूत्रम्-१६२) दिलक्षणानि स्त्रीलिङ्गाऽऽदिशब्दाभिधेयानि, किन्त्यभिधेय'अह भंते ! गामो मिया' इत्यादि, अथ भदन्त ! गावः धर्मा इयमयमिदंशब्दव्यवस्थाहेतवः गुरूपदेशपारम्पर्यगम्याः प्रतीताः, मृगा अपि प्रतिताः, पशवः-अजाः, पक्षिणोऽपि स्त्रीलिङ्गाऽऽदिशब्दाभिधेयाः, नचैते कल्पनामात्र, वस्तुतस्त. प्रतीताः, प्रज्ञापनी प्रज्ञाप्यतेऽर्थोऽनयेति प्रज्ञापनी, किम् अ. तच्छन्दाभिधेयतया परिणमनभावात् , तेषामभिधयधर्मा. प्रतिपादनी, प्ररूपणीयेति यावत् , णमिति वाक्यालङ्कारे, णां तवतस्ताविकत्वात् । आह च शकटसूनुरपि-". एषा भाषा सत्या नेषा भाषा मृषेति । इयमन भावना-गाव यमियमिदमितिशन्दव्यवस्थाहेतुरभिधेयधर्म उपदेशगम्यः इति भाषा गोजाति प्रतिपादयति,जातौ च त्रिलिजा अप्यर्या श्रीपुंनपुंसकत्वानीति" । व्यवस्थापितधायमों विस्तरअभिधेयाः, लिङ्गत्रयस्यापि जातौ सम्भवात् ,एवं मृगपशुप. केण स्वोपनशब्दानुशासनविवरण इति, ततम्शाम्दन्यवहारा. क्षिष्यपि भावनीयम् , न चैते शब्दानिलिङ्गाभिधायिनस्तथा. पेक्षया यथावस्थितार्थप्रतिपादनात् प्रशापनीयं भाषा, दुष्टवि. प्रतीतेरभावात् किन्तु पुंलिङ्गगर्भास्ततःसंशयः किमियं प्रक्षा. पक्षातः समुत्पत्तेरभावात् परपीडाहेतुस्वाभावाच न पनी, किंषा नेति? । भगवामाह-'हंता गोयमा!'हन्तेस्यवधा. मृषेति । 'बह भंते !' इत्यादि । अथ भदन्त ! या च स्यारणे गौतम ! इस्थामन्त्रणे,गाव इत्यादिका भाषा प्रसापनी, त. झापनी प्राक्षाप्यते-माहासम्पादने प्रयुज्यतेऽऽनया सा पर्थकथनाय प्ररूपणीया, यथावस्थितार्थप्रतिपादकतयास. प्रासापनी खिया श्रासापनी ख्याशापनी, स्त्रिया आदेशदा. स्वस्थात् , तथापि जात्यभिधायिनीयं भाषा, जातिश्च त्रि. यिनीत्यर्थः। या च पुमाशापनी नपुंसकामापनी, प्रज्ञापनीयं लिनार्थसमवायिनी, ततो जात्यभिधानेन प्रिमिला अपि भाषा नैषा भाषा मृषेति । अत्रेदं संशयकारणम्-किल यथासम्भवं विशेषा अभिहिता भवन्तीति भवति यथाव. सत्या भाषा प्रज्ञापनी भवति , इयं च पाषा प्राशासम्पास्थितार्थाभिधानादियं प्रज्ञापनी भाषेति । यदप्युक्तम्-किन्तु वनक्रियायुक्ताभिधायिनी, आशाप्यमान यादि तथा कु. पुंलिङगी इति, तत्र शब्द लिङ्गव्यवस्था लक्षणवशात्, निवा, ततःसंशयमापनो विनिश्चयाप पृच्छति । अत्र लक्षणं च- स्त्रीपुंनपुंसकसहोली परं' तथा 'प्राम्याशि| भगवानाह-'इंता गोयमा!' इत्यादि , अक्षरगमनिका सुग. शुद्विखुरसो स्त्री प्रायः' इत्यादि। ततो भवेत् कचित् श. मा। भावार्थस्त्वयम्-प्राज्ञापनी भाषा द्विधा-परलोका. म्दे लक्षणवशात स्त्रीत्वं, कचि पस्त्वं, कचित नपंसकत्वं बाधिनी, इतरा च । तत्र या स्वपरानुग्रहबुद्धया शाख्यमन्त. था। परमार्थतः पुनः सोंप जातिशदस्त्रिीलकानप्यर्थाः रेण आमुष्मिकफलसाधनाय प्रतिपाहिकाऽऽलम्बनप्रयोजना न् तत्तदेशकालप्रस्तावाऽऽदिसामर्थ्यवशादभिधत्ते इति न विवक्षितकार्यप्रसाधनसामर्थ्य युक्ता विनीतस्यादिपिनेयजनकश्चिद्दोषः न चेयं परपीडाजनिका, नाऽपि विप्रतारणा. विषया सा परलोकावधिनी, पषैव च साधूनां प्रशापनी, दिदुष्टविषक्षासमुत्था ततो न मृषेति प्रज्ञापनी । 'मह भं. परलोकाबाधनात् , इतरा वितरविषया, सा च स्वपरस ते! जा य इस्थिवऊ' इत्यादि अथेति प्रश्ने भदन्त ! - ल्केशजननात् मृषेत्यप्रसापनीसाधुवर्गस्य । उक्तंच."अविणी पमाणवंतो, किलिस्सई भासई मुसं तहय। घंटालोहं ना. त्यान्त्रणे, या च श्रीवाक् स्त्रीलिङ्गप्रतिपादिका भाषा ख. उं, को कडकरण पवतेजा ?॥१॥" क्रिया हि द्रव्यं द्वा लतेत्यादिलक्षणा, या पुरुषवाक् घटः पट इत्यादिरूपा, विनमयति नाद्रब्यमित्यभिप्रायः। अह भंते ! जाय इस्थि या च नपुंसकवाक् कुज्यं काण्डमित्यादिलक्षणा प्रज्ञापनी. पनवणी' इत्यादि । अथ भदन्त ! या च भाषा श्रीप्रक्षायं भाषा नैषा भाषा मृषेति ? , किमत्र संशयकारणं येने पना-नीलक्षणप्रतिपादिका, ' योनिमृदुत्वमस्थैर्य, मुग्धता' रथं पृच्छति'. इति चेत् , उच्यते-इह खटाघटकुडपाऽऽदयः इत्यादिरूपा । या च पुंप्रज्ञापनी-पुरुषलक्षणप्रतिपादि. शब्दाः यथाक्रमं स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गाभिधायिनः । स्त्रीपुंनपुंस. का- मेहनं स्वरता दाय' इत्यादिरूपा । या च नपुं. कानां च लक्षणमिदम् सकप्रशापनी-नपुंसकलक्षणाभिधायिनी 'स्तनाऽऽदिश्मश्रु" योनिमृदुत्वमस्थैर्य, मुग्धता क्लीयता स्तनौ । सकप्रज्ञापनी-नपुंसकलक्षणभिधायिनी 'स्तनाऽदिश्मश्रु. पुंस्कामितेति लिङ्गानि, सप्त स्त्रीस्वे प्रचक्षते ॥१॥ केशादि भावाभावसमन्वितम्।' इत्यादि लक्षणा,प्रसापनीयं Page #1551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४२०) अभिधानराजेन्द्रः । भासी भाषा नेपा भाषा मृषेति । कोऽश्राभिप्राय इति चेत्, उच्यते - इह स्त्रीलिङ्गाऽऽदयः शब्दाः शाब्दव्यवहारबलादम्य त्रापि प्रवर्त्तन्ते, यथा खट्वाघटकुट्याऽऽदयः खट्वाऽऽदिष्व चेषु न खलु तत्र यधोकानि रूपादिलक्षणानि सन्ति यचो प्राक्, ततः किमियमव्यापकत्वात् स्यादिलक्षणप्रतिपादिका भाषा न वक्तव्या, आहोस्थित् वक्तव्येति संशयाऽऽपन्नः पृष्टवा न् । अत्र भगवानाह - हंता गोयमेत्यादि । अक्षरगमनिका प्रतीता वादार्थस्वयम्-इह रपादिलक्षणं द्विधा शाब्दव्यवहारानुगतं, वेदानुगतं च । तत्र यदा शाब्दव्यवहाराऽऽश्रितं प्रतिपादयितुमिष्यते तदैवं न वक्तव्यमव्यापक त्वात्, यथा चाव्यापकता तथा प्रागेव लेशतो दर्शिता, विस्त रतस्तु स्वोपक्षशब्दानुशासनविवरणे । तत इयं तदधिकृत्य प्र ज्ञापनी, यदा तु वेदानुगतं प्रतिपादयितुमिष्यते तदा यथाऽव. स्थितार्थाभिधानात् प्रज्ञापन्येव न मृषेति । अह भंते ! जा जातीति इत्थिवऊ' इत्यादि । अथ भदन्त ! या जातिः स्त्रीवाक् जातौ स्त्रीवचनं सत्तेति या जाती वाक् पुंवचनं भावइति पा जाती नपुंसका सामान्यमिति, प्रज्ञापन एषा भाषा नैषा भाषा मृषेति । कोऽनाभिप्रायः १. इति चेत्, उच्यते-जातिरिह सामान्यमुच्यते, सामान्यस्य च न लिङ्गसंख्याभ्यां योगो, वस्तूनामेव लिङ्गसण्याभ्यां योगस्य तीर्था. › 9 वैरभ्युपगमात् ततो यदि परं जातापीत्सर्गिकमेकवनपुंसकलिङ्गं चोपपद्येत न विलिङ्गता अि नाभिधायिनोऽपि शब्दाः प्रवर्त्तन्ते यथोक्तमनन्तरं ततः संशयः किम् एषा भाषा प्रज्ञापनी, उत नेति । श्रथ भगवानाह - हंता गोयमा !' इत्यादि । अक्षरार्थः सुगमः । भावार्थ स्वयम्-जातिर्नाम सामान्यमुच्यते सामान्य परिक पितमेकमनयदमक्रियं तस्य प्रमाणवाचितत्वात् यथा प्रमाणबाधितत्वं तथा तत्वार्थटीकायां भावितमिति ततोऽ. वधार्यम्, किन्तु समानः परिणामो "वस्तुन एव समानः प रिणामो यः स एव सामान्यम् ।" इति वचनात्, समानपरिणामचानेकधर्मात्मा, धर्माणां परस्परं धर्मिणोऽपि च सहाम्योऽम्यानुवेधाभ्युपगमात् तथा प्रमाणेनेोपलब्धेः, ततो घटते जातेरपि त्रिलिङ्गतेति प्रज्ञापन्येषा भाषा, नैषा भाषा मृपेति । 'अह भंते !' इत्यादि । श्रथ भदन्त ! या जातिस्व्याशापनी. जातिमधिकृत्य स्त्रिया श्राज्ञापनी यथा श्रमुका ब्राह्मणी क्षत्रि या वा एवं कुर्यादिति व जातिमधिकृत्य माशापनी न काशापन, प्रशापनी एषा भाषा नैषा भाषा मृषेति । अत्रापि संशयकारणमिदम् श्राशापनी हि नाम श्राज्ञासम्पादनक्रिया युक्तत्रयाचभिधायिनी, स्त्र्यादिश्चाऽऽज्ञाध्यमानस्तथा कुर्यान्नचैति संशयः, किमियं प्रज्ञापनी, किं वाऽभ्येति । अत्र निर्वचन माह - हंता गोयमा !' इत्यादि, अक्षरार्थः सुगमः, भावार्थस्त्वयम्-आशापनी हि नाम परलोकावाधिनी सा प्रोव्यते या स्वपरानुप्रबुद्धया विवक्षितार्थसम्पादनसामर्थ्यापेतविनीतादिविनेयजनविषया यथा अमुक सा शुभंयमुक भूतस्कन्धं चत्वादिसा प्रज्ञापन्येव, दोषाभावात्, शेषा तु स्वपरपीडाजननान्मृषे त्यापनीति | अह भंते !' इत्यादि । अथ भदन्त | या जातिमधिकृत्य खिया श्रीलक्षणस्य प्र तिपादिका, यथा स्त्रीः स्वभावात् तुच्छा भवति गौरव | भासा - बहुला बनेद्रिया दुर्बला च भूयेति । व "तुच्छा गारबबहुला, चलिदिया दुब्बला य धीईए। " इत्यादि । या च जातिमधिकृत्य पुम्मापनी पुरुषलक्षणस्य स्वरूपनि रूपिका, यथा पुरुषः स्वभाषात् गम्भीराऽऽशयो भवति म इत्यामपि चाऽऽपदि न क्लीवतां भजते इत्यादि । या च जातिमधिकृत्य नपुंसकप्रज्ञापनी नाम नपुंसक जातिप्ररूपिका, यथा नपुंसकः स्वभावात् क्लीवो भवति, प्रबलमोहानखज्वालाक लापज्वलितश्चेत्यादि प्रापन्येषा भाषा नैषा भासा मृषेति अत्रापि संशयकारणं पराते बलु जातिया पर्वका परं कचित् कदाचित् व्यभिचारोऽपि दृश्यते । तथाहिरामाडापे काचित् गम्भीराऽऽशया भवति धृत्या पातीच पुरुष कधिकृतरूपा सभ्यते तोकायामपि चापदि क्लीयतां भजते नपुंसकोडापे कधिन्मन्दमोहानलो दृढसत्त्वश्च ततः संशयः - किमेषा प्रज्ञाप नी, किं वा नेति ? । अत्र भगवानाह - हंता ! गोयमा ! इत्यादि अक्षरार्थः सुगमः परं भावार्थस्वयम् जा तिगुणप्ररूपणं बाहुल्यमधिकृत्य भवति न समस्त व्यक्त्यादेवेशात पत्र जातिगुचान्प्ररूपमिधियः प्रायः शब्दं समुच्चारयन्ति प्रायेणेदं पुण्यं यत्रापि न प्रायः, शब्दश्रवणं तत्रापि स दृष्टव्यः प्रस्तावात् ततः कचिकदाचित् व्यभिचारेऽपि दोषाभावान् प्रज्ञापा भाषा नसू ति । इह भाषा द्विधा दृश्यते-एका सम्यगुपयुक्तस्य द्वितीया वितरस्य तत्र यः पूर्वापरानुसन्धानपाटवोपेतः श्रुतज्ञानेन पर्यायान् भापते स सम्ययुः स वै जानाति श्रहमेतद्भाषे इति यस्तु करणापटिष्ठतया वाताऽऽदिनोपह नया या पूर्वापरानुसन्धानविपत्ि मनसा विकल्प्य भाषते स इतरः स चैवमपि न जानाति यथा धमेतत् इति । बालाऽऽदयोऽपि च भाषमाणा दृश्यन्ते, ततः संशयः- कि. मेते जानन्ति यद्वयमेतत् भाषामहे इति कि पान जानन्तीति पृष्कृति " " 3 - अह भंते ! मंदकुमार या मंदकुमारिया या जागावि बुयमाणा सहमे से बुयामीति । गोयमा ! नो इखट्ठे समट्ठे, 21 सथियो। अह भंते! बंदकुमारए वा मंदकुमारया वा जाण आहारं श्राहारेमाणे अहमेसे श्राहारमाहामि त्ति १ । गोयमा ! नो इट्ठे समट्ठे, पत्थं सठियो । मे अम्मापियरो १। गोयमा ! यो इणट्ठे समट्ठेत्थ स अह भंते! मंदकुमार वा मंदकुमारिया वा जायति अर्थ लियो । अह मंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जायति भयं मे भतिराउलो अयं मे अइराउले ति १। गोयमा ! यो इण समट्टे सत्थ सक्षियो । मह भंते ! मंदकुमामे भट्टिदारिय सि १ । गोयमा ! यो इणडे समड़े पत्थ रए वा मंदकुमारिया वा जायति श्रयं मे भट्ठिदारए अयं थियो मंते उट्टे गोखे खरे घांडर भए एलए जागति बुयमाणे श्रहमे से बुयामि । गोयमा ! यो इ Page #1552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२६) भासा अभिधानराजेन्द्रः। भासा समटे, णऽस्मत्थ समिणो । अह भंते ! उट्टे जाव एलए अच्छी तरच्छी परस्सरा रासभी सियाली विराली सुणिजाणति माहारं आहोरमाणे अहमेसे आहारमि १ । या कोलसुणिया कोकंतिया ससिया चित्तिया चिल्ललिया, गोयमा ! णो इणहे समझे जाव णऽसत्य समिणो । अह जे यावन्ने तहप्पगारा सब्बा सा इत्थिवऊ । हंता गोयमा! भंते ! उट्टे मोणे खरे घोडए ए एलए जाणति अयं पणुस्सो जाव चिल्ललिगा, जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वा मे अम्मापियरो । गोयमा! जो इणढे समढे जाव ण. सा इत्थिवऊ । प्रह भंते ! मणुस्से ! जाव चिखलए जे मत्थ समिणो । मह भंते ! उट्टे जाव एलए जाणति यावझे तहप्पगारा सव्वा सा पुमवऊ । हंता गोयमा ! भयं मे अतिराउले त्ति । मोयमा ! खो इण? सम४० मणुस्से महिसे जाव चिखलए, जे यावखे तहप्पणारा जाव मत्थ समिणो | अह. भंते ! उट्टे जाव एलए | सव्वा सा पुमवऊ अह भंते ! कंसं कंसोयं परिमंडलं जाणति भयं मे भट्टिदारए भट्टिदारिया ?। गोयमा! णो | सेलं शुभं नाल थालं तारं रूवं अच्छिपव्वं कुंदं पउम इस समडेजाव णमत्थ समिणो। ( सूत्रम्-१६३ ) | दुद्धं दहिं णवणीतं असणं' सयणं भवणं विमा'अह भंते! मंदकुमारए वा' इत्यादि । अथ भदन्त ! म. णं छत्तं चामरं भिंगारं अंगणं णिरंगणं प्राभरणं रयणं, दकुमारकः-उत्तानशयों बालको, मन्दकुमारिका-त्तान. जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वं तं णपसगवऊ । ता गोयमा! शया बालिका, भाषमाणा-भाषायोग्यान पुद्गलानादाय भापात्वेन परिणमय्य विसृजती एवं जानाति-यथाऽहमेतद् कंसं जाव रयणं जे यावन्ने तहप्पगारा तं सव्वं णपुंब्रवीमि इति? भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थ:- सगवऊ । अह भंते ! पुढवी इत्थिवऊ, पाउ ति पुमवऊ, बुक्क्युपपनो, यद्यपि मनःपर्याप्त्या पर्याप्तस्तथापि तस्याया धमित्ति नपुसगवउ, पनवणी णं एसा भासा गा एसा भासा पिमनःकरणमपटु अपटुत्वाच्च मनःकरणस्थ क्षयोपशमोऽपि मोसा ? । हंता गोयमा ! पुढवि त्ति इस्थिवऊ । भाउ त्ति मन्दः, भुतहानाबरणस्य हिक्षयोपशमः प्रायो मनः करपरिष्ठतामवलम्योपजायते , तथा लोके दर्शनात् । ततो पुमवऊ, धमिति नपुंसगवऊ, पामवणी ण एसा मासा ण न जानाति मम्मकुमारी मन्दकुमारिका वा भाषमाणा एसा भासा मोसा । मह भंते ! पुढवाति इथिभाणयथाऽमेतत् अधीमीति । किं सर्वोऽपि न जानातीयत प्रा. मणी, भाउत्ति पुममाणमणी, धरणेति नपुंसगाणमणी,प. इ-माणस्थ समिणो ' इति ; अन्यत्रशब्दोऽत्र परिवर्ज. एणवणी णं एसा भासा ण एसा भामा मोसा । इंता नार्थः, चाम्यत्रापि परिवर्जनाओं यथा-'अन्यत्र द्रो. णभीष्माभ्यां, सर्वे योधाः पराकमुखाः' इति, द्रोणभीष्मौ गोयमा! पुढवित्ति इत्थिाणमणी,भाउ ति पुममाणमणी, बर्जयित्वा इत्यर्थः। संझी-अवधिज्ञानी जातिस्मरः सामान्यतो धणे ति नपुंसगाणमणी पलवणी णं एसा भासा ण एसा विशिष्टमनःपाटवोपेतो वा तस्मादम्यो न जानाति, संझी भासा मोसा । अह भंते ! पुढवीति इस्थिपरमवणी, भाउ तु यथोक्लस्वरूपो जानीते । एवमाहाराऽविविषयाण्यपि च. त्ति पुमपालवणी , धमेत्ति णपुंसगपसवणी . भाराहणी त्वारि सूत्राणि भावनीयानि , नवरमतिराउले इति देशीपदं, णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा । हंता ! गोयमा! एतत् स्वामिकुलमित्यर्थः । 'भट्टिदारए' इति भर्ता स्वामी तस्य दारका-पुत्रो भट्टेदारकः। एवमुष्ट्राऽऽदिविषयाण्यपि पुढवीति इत्यिपसवणी, आउ ति पुमपम्मवणी,धमिति नपुं. पश्च सूत्राणि भावयितव्यानि, नवरमुष्ट्राऽऽदयोऽप्यतिबाला- सगपरमवणी,आराहणीण एसाभासा,न एसा भासा मोसा। वस्थाः परिग्रायाः न जरठाः , जरठावस्थायां हि परिक्षान- इच्चेवं भंते ! इस्थिवयणं वा पुमवयणं वा नपुंसगवयणं वा स्य सम्भवात् । वयमाणे पालवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा । सम्प्रत्येकवचनादिभाषाविषयसंशयापनोदार्थ पृच्छति-नागोरमा शिवम वा व हता गोयमा ! इत्थिवयणं वा प्रमवयणं वा पसगवयणं अह भंते ! मणुस्से महिसे पासे हत्थी सीहे बग्ये | वा वयमाणे पणवणी णं एसा भासाण एसा भासा मोसा ।। विगे दीविए अच्छे तरच्छे परस्सरे सियाले विराले सु- [सूत्रम्-१६४] णए कोलसुणए कोकतिए ससए चित्तए चिल्ललए, अथ भदन्त ! मनुष्यो महिपोऽश्वो हस्ती सिंहो व्याघ्रो जे यावन्ने तहप्पगारा सन्या सा एमवऊ । हंता गोयमा ! वृक एते प्रतीताः । द्वीपी-चित्रकविशेषः , ऋक्षः मगुस्सेजाव चिल्ललए, जे यावन्ने तहप्पगारा सब्वा सा अच्छभल्ल, तरक्षो-व्याघ्रजातिविशेषः, परस्सरो-गराडा, . एगवऊ । अह भंते ! मगुस्सा जाव चिल्ललगा, जे यावने गालो-गोमायुः, विडालो-मार्जारः, शुनको-मृगदंशः , कोल. लहप्पगारा सव्वा सा बहुवऊ ?। हंता गोयमा ! मणुस्सा. शुनको-मृगयाकुशलः श्वा. शशक:-प्रतीतः, कोकेतिया लु. कूडी, चित्रका-प्रतीतः, चिल्ललकः श्रारण्यः पशुविशेषः। जाव चिल्ललगा सवा सा बहुवऊ । अह भंते ! मणुस्सी 'जे यावन्ने तहप्पगारा' इति । ये ऽपि चाये तथा प्रकारा मरिसी चलवा हस्थिणिया सीही वरची विगी दीविया एकवचनान्ता इत्यर्थः, सर्वा सा एकवाक-एकत्वप्रतिपा ३८३ Page #1553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३०) भासा अभिधानराजेन्द्रः। भासा दिका वाणी,अबमत्र प्रश्नहेतुरभिप्राया-इह वस्तु धर्ममिः | पृच्छति 'सव्वा सा इत्थिवउ' इति । सर्वा सा एवं प्रकारा समुदायाऽऽत्मकं. धर्माश्च प्रतिवस्त्वनन्ताः. मनुष्य इत्याधु- स्त्रीवाक-स्त्रीलिङ्गविशिष्टार्थप्रतिपादिका वाक् भवति । तौ च सकलं वस्तु धर्मर्धामसमुदायाऽऽत्मकं परिपूर्ण प्रती. काका पाठात् प्रश्नार्थत्वावगतिः। भगवानाह-'हंता! गोतये, तथा व्यवहारदर्शनात् . एकमिश्चार्थे एकवचनं, बहुषु यमा!'इत्यादि, अक्षरार्थ सुगमः, भावार्थस्त्वयम्-यद्यपि बहुवचनम् । अत्र बद्दयो धर्मा अभिधेयाः, ततः कथमेकय. नाम शबलरूपं वस्तु तथाऽप्येष शादो न्यायः-येन धर्मेण चनम् ? । अथ च दृश्यते लोके एकवचनेनापि व्यवहार इति विशिष्टः प्रतिपादयितुमिष्यते स तं प्रधानीकृत्य तेन विशिष्टं पृच्छति-सर्वा सा एकत्वप्रतिपादिका पाग् भवति । काका न्यग्भूतशेषधर्माणं मिण प्रतिपादयति, यथा पुरुषत्वे शाचेदं पठ्यते ततः प्रश्नार्थत्वावगतिः । भगवानाह-' इंता खासत्वे दातृत्वे भोक्तृत्वे जनकत्वेऽभ्यापयितृत्वे च युगपद् गोयया!' इत्यादि, अक्षरार्थः सुगमः, भावार्थस्त्वयम्-शन व्यवस्थितेऽपि पुत्र: समागच्छन्तमवलोक्य पिता मागच्छप्रवृत्तिरिह विवक्षाधीना, विवक्षा च तत्तत्प्रयोजनवशात् तीति छूते,शिष्यस्तु उपाध्याय इति,एवमिहापि यद्यपि मानुवक्तु क्वचित् कदाचित् कथञ्चित् भवतीत्यनियता । तथाहि षीप्रभृतिकं सर्व त्रिलिङ्गाऽऽत्मकं तथापि योनिमृदुत्वमस्थैस एवैका पुरुषो यदाऽयं मे जनक इति पुत्रेण विषयते र्यादिलक्षणं स्त्रीत्वमत्र प्रतिपादयितुमिष्टमिति ततःप्रधानी. तदा जनक इत्यभिधीयते, स एव यदा तेनैव मामध्याप कृत्य तेन विशिष्ट न्यग्भूतशेषधाणं धमिणं प्रतिपादयती. यतीति विक्ष्यते तदा तूपाध्याय इति, तत्र यदा उपसर्जनी. ति भवति सर्वा सा स्त्रीवाक्, एवं पुंषागनपुंसकवाचावपि भूतधर्मा धर्मी प्राधाम्येन विवक्ष्यते तदा धमिण एकत्वात् भावनीये । 'अह भंते ! पुढषी' इत्यादि, सुगम, नवरं 'भाउ' एकवचनं, धर्माश्च धर्मिमण्यतर्गता इति परिपूर्ण वस्तुप्रती. इति पुंलिङ्गता प्राकृतलक्षणवशात् , संस्कृते तु स्त्रीत्यमेष । तिर्यथा त्वमिति , यदा तूपसर्जनीभूतधर्मिणो धर्माः पाण्डि. 'मह भंते ! पुढवीति इत्थीमाणषणी' इत्यादि, अथ भदत्यपरोपकारित्वमहादानदातृत्वाऽऽदयः प्राधान्येन विवश्यन्ते त! पृथिवीं कुरु पृथ्वीमामयेत्येवं त्रियां-श्रीलिङ्ग पृथितदा धर्माणां बहुस्वादेकस्मिन्नपि बहुवचनं यथा यूयमिति, व्या माशापनी, पवमाऊ इति पुमाशापनी, धाम्यमिति नपुंस. तत हापि मनुष्य इस्याबाबुपसर्जनीकृतधर्मा धर्मी प्रा. काशापनी, प्रज्ञापन्येषा भाषा, नैषा भाषा मृषेति । भगवा. धान्येन विवक्षित इति भपति, सर्वाऽप्येवंजातीया एकत्वमा नाह-'हंता गोयमा 'इत्यादि, सुगमम् । 'मह भंते इत्या. तिपादिका वाक् । 'मह भंते ! मणुस्सा' इत्यादि, अक्षर. दि, अथ भदन्त ? पृथिवी इति श्रीमहापनी-सीत्वस्वरूपगमनिका प्राग्वत् , अत्रापीदं संशयकारणं-मनुष्याऽऽदयः स्य प्रकपणी, एवं भाऊ इति पुंप्रज्ञापनी,धान्यमिति नपुंसकशब्दा जातिवाचका,जातिश्च सामान्यं, सामान्यं चकम् 'एकं प्रज्ञापनी, आराधनी-मुक्तिमार्गाप्रतिपन्थिनी एषा भाषा, मैंनित्यं निरवयवमक्रियं सर्वगं च सामान्यम् ' इतिवचनात् , षा भाषा सषेति । किमुक्तं भवति ?-नैवं बदतो मिथ्या भाषित्वप्रसङ्गः। भगवानाह-आराधनी एषा भाषा, मैषा ततः कथमत्र बहुवचनम् ? | अथ च दृश्यते बहुवचनेनाऽपि व्यवहार इति पृच्छति--सर्वा सा बहुत्वप्रतिपादिका वाक् भाषा मृषेति, शाम्यव्यवहारापेक्षया यथावस्थितवस्तुतखभवति?. काका पाठात् प्रश्नार्थत्वावगतिः। भन्न भगवानाह. प्ररूपणात् , इह कियत् प्रतिपदं प्रष्टुं शक्यते. ततोऽतिदेशे. 'इंता गोयमा!' इत्यादि । अक्षरार्थः सुगमः, भाषार्थस्त्वयम्. न पृच्छति-'इच्चे भंते " इत्यादि इति:-उपदर्शने, ए. बंशब्दः प्रकारे, उपदर्शितेन प्रकारेणान्यदपि नीवचनं पुंबच. यद्यपि नामैते जातिवाचकाः शब्दाः तथाऽपि जातिरभिधी. यते समानपरिणामः, समानपरिणामश्वासमानपरिणामा नं नपुंसकवचनं वा बदति साधुस्तदा तस्मिन्नेवं वदति या भाषा सा प्रज्ञापनी भाषा, नैषा भाषा मषेति? । भगवानाहविनाभावी, अन्यथैकत्वाऽऽपत्तितः समानस्बयोगात् , ततो प्रज्ञापनी एषा भाषा, शाब्दब्यवहारानुसरणतो दोषाभावात् , यदा समानपरिणामोऽसमानपरिणामसंलुलितः प्राधान्येन अन्यथा स्थिते हि वस्तुन्यन्यथा भाषणं दोषः,यदा तु यदस्तु विषच्यते तदाऽसमानपरिणामस्य प्रतिव्यक्ति भिन्नत्वात् यथावस्थितं तत् तथा भाषते, सदा को दोष इति । तदेवं तदभिधाने बहुवचनं, यथा घटा इति, यदा तु स एष एका भाषाप्रतिपादनविषया ये केचन सम्देहास्ते सर्वेऽप्यपनीता। समानपरिणामः प्राधान्येन विवक्ष्यते इतरस्त्वसमानपरि (६) सम्प्रति सामान्यतोभाषायाकारणाऽदि पिपृच्छिषुराहणाम उपसर्जनीभूतस्तदा सर्वत्रापि समानपरिणामस्य एक. स्वात् तदभिधाने एकवचनं, यद्वा-सर्वोऽपि घटः पृथबुध्नो, भासा णं भंते ! किमादीया किंपबहा किंसठिया किंदराऽऽद्याकार इति. अत्रापि मनुष्या इत्यादौ समानपरिणा- पजवसिया | गोयमा? भासा णं जीवादीया सरीरप्पभमोऽसमानपरिणामसंलुलितः प्राधान्येन विवक्षित इति, वा वजसंठिया लोगंतपत्रज्जसिया परमत्ता तं जहाबस्यानेकत्वभावात् बहुवचनम् । 'बह भंते ! मणुस्सी' इत्यादि । अत्र संशय कारणं-इह सर्व वस्तु त्रिलिज, तथा "भासा कोय पभवति,कतिहिं व समरहिं भासती भासं। हि महपोऽयमिति पुंलिङ्गता मृत्परिगा तिरियं घटाउकारा- भासा कतिष्पगारा,कति वा भासा अणुमया उ॥१॥ परिणतिरियमिति स्त्रीलिङ्गता, इदं वस्त्विति नपुंसका सरीरप्पभवा भासा, दोहि य समएहि भासती भासं । लिङ्गता, तत्र शवलरूप वस्तुनि व्यवस्थिते कथमे. कलिङ्गमात्राभिधायी शब्दस्तदभिधायी भवति , न खलु न भासा चउप्पगारा, दोषिय भासा भणुमता उ ॥२॥" रसिंह सिंहशब्दो नरशब्दो या केवलस्तदभिधायी भवति , कतिविहा णं भंते ! भासा पसत्ता । गोयमा ! दुबिहा अथ च दृश्यते तदाभिधायितयाऽपि लोके व्यवहारस्ततः भासा पत्ता । तं जहा--पज्जत्तिया य, अपज्जति Page #1554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३१). भासा अभिधानराजेन्द्रः। भासा या य । पत्तिया णं भंते ! भासा कतिविहा | पर्यवसिता-निष्ठां गता किम्पर्यवसिता? | भगवानाहपसत्ता । गोयमा ! दुविहा पमत्ता । तं ज गौतम!'जीवाऽऽदिका' जीव श्रादि:-मौलं कारणं यस्याः सा हा-सच्चा, मोसा य । सच्चा भंते ! भासा पजत्तिया जीवाऽदिका जीवगततयाविधप्रयत्नमन्तरेणावबोधबीजभू. तभाषाया असम्भवात् , प्राह च भगवान् भद्रबाहुस्वामीकतिविहा पमत्ता । गोयमा ! दसविहा पएणत्ता । तं "तिविहम्मि सरीरम्मी, जीवपएसा हवंति जीवस्स । जेहि बहा-जणवयसच्चा १ सम्मयसच्चा २ ठवणसच्चा ३ उ गेराहह गहणं, तो भासह भासमो भावं॥१॥" ' किंप. नामसचा ४ ख्वसच्चा ५ पडुच्चसच्चा ६ववहार- भवा' इत्यस्य निर्वचनमाह-'शरीरप्रभवा ' औदारिकवैकिसच्चा ७ भावसचा ८ जोगसच्चा 8 ओवम्मसच्चा याऽऽहारकान्यतमशरीरसामर्थ्यादेवभाषाद्रव्यविनिर्गसे,त. था कि संस्थिता इत्यस्य निर्वचन-वजसंस्थिता' वजस्येक १०1" जणवय १ संमत २ ठक्णा ३, नामे ४ रूवे ५ संस्थानं यस्याः सा वज्रसंस्थिता, भाषाद्रव्याणि हि तथापडुच्चसच्चे ६य । ववहार ७ भाव ८ जोगे , दस- विधप्रयत्ननिसृष्टानि सन्ति सकलमपि लोकमभिव्याप्नुवन्ति मे भोवम्मसच्चे य १० ॥१॥" मोसा ण भंते ! भा. लोकश्च वजाऽकारसंस्थित इति साऽपि वज्रसीस्थता, किं सा पजत्तिया कतिविहा पएणता ? । गोयमा! दसवि पर्यवसिता, इत्यत्र निर्वचनं खोकान्तपर्यवसिता,परतो भाषा, द्रष्याणां गत्युपएम्भकधर्मास्तिकायाभाषतो गमनासम्भषाहा पराणचा । तं जहा--कोहणिस्सिया १ माणनिस्सि १. प्राप्ता मया शेषश्च तीर्थकृतिः॥ पुनरपि प्रश्नमाहपा २ मायानिस्सिया ३ लोहनिस्सिया ४ पेजणिस्सिया 'भासा कतो य पवा' इत्यादि, भाषा कुतो-योगात प्रभव५दोसनिस्सिया ६हासमिस्सिया७भयणिस्सिया - ति-उत्पद्यते काययोगाद्वाग्योगा। तथा कतिभिः सम. क्खाइयाणिस्सिया ह उवधाइयणिस्सिया १०-"कोहे माणे यैर्भाषा भाषते । किमुक्तं भवति ? कतिभिः समनिसज्य मानद्रव्यसहस्यास्मिका भाषा भवति, तथा भाषा कतिप्रका. माया, लोभे पिजे तहेव दोसे या हास भए भक्खाइय, उव. रा-कतिप्रभेदा कति या भाषाः साधूनां वामनुघाइयपिस्सिया दसमा ॥१॥"अपत्तिया भंते ! का. मता-अनुशाताःमत्र निर्वचनं-'सरीरप्पभषा'त्यादि, बिहा भासा पल्लत्ता । गोयमा ! दुविहा पएणता । पत्र शरीरग्रहणेन शरीरयोगः परिग्रह्यते , शरीरमात्र प्रभवत्वस्य प्रागेव निर्णीतत्वात् , शरीरप्रभवा इति कोs. से जहा-सच्चामोसा असच्चामोसा य । सच्चस्मोसा णं 2:-काययोगप्रभवा । तथाहि-काययोगेन भाषायोग्यान् भंते ! भासा अपजत्तिया कतिविहा परगना ? । गोयमा ! पुनलान् गृहीत्वा भाषास्वेन परिणामय्य पाग्योगेन निस्जदसबिहा परणसा। तं जहा-उप्पएपमिस्सिया १ विगतमि- ति, ततः काययोगबलाद्भाषा उत्पद्यते इति काययोगप्र. स्सिया २ उप्पणविगतमिस्सिया ३ जीवपिस्सिया ४ भवेत्युक्तम् । माहच भगवान् भद्रबाहुस्वामी-" गिराहाय कारपणं, निसरह तह वाइएण जोगेण ।" इति । 'काहि व अजीवमिस्सिया ५जीवाजीवमिस्सिया ६ प्रणंतमिस्सि समपाहि भासई भासं' इत्यस्य निर्वचनं द्वाभ्यां समयाया ७ परित्तमिस्सिया ८ भद्धामिस्सिया ६ अद्धद्धा- भ्यां भाषते भाषां , जथाहि एकेन समयेन भाषायोग्यान् मिस्सिया १० । असच्चामोसा णं भंते ! भासा - पुद्रलान् गृहाति, द्वितीये समये भाषात्वेन परिणमय्य विस. पजचिया काविहा पएणता?| गोयमा! दुवालसविहा जतीति । 'भासा करप्पगारा' इत्यस्य निर्वचनं भाषा स. स्याऽऽविभेदाचतुःप्रकारा, ते च सत्याऽऽदयो भेदाः प्रागेव पएणता । तं जहा भाविता इति, 'काषाभासा भणुमया य' इत्यस्य निर्वचनं "आमतणि १माणमणी २", रत्याऽऽदी वे भाषे साधूनां वमनुमते, तद्यथा- सस्या, भसजायणि ३ तह पुच्छणी य ४ पएणवणी । स्यामृषा च , अर्थात् ये मृषासत्यामृषे ते नानुहाते, तयो. पच्चक्खाणी ६ भासा, इच्छाणुलोमा ७ य ॥१॥ रयधावस्थितार्थप्रतिपादनपरतया मुक्तिप्रतिपन्धित्वात् । भणभिग्गहिया भासा,भासा य अभिग्गहम्मि बोद्धव्वाद। पुनः प्रश्नयति'काविहा णं' इत्यादि, 'पजसिया अपज. तिया' इति, पर्याप्ता नाम या प्रतिनियतरूपतया अवधारसंसयकरणी भासा १० बोगड ११ अन्वोगडा चेव १२ । यितुं शक्यते सा पर्याप्ता , सा च सत्या मृषा या दृष्टव्या, २" ( सूत्रम्-१६५) उभयोरपि प्रतिनियतरूपतयाऽवधारयितुं शक्यत्वात् , या 'भासा णं भंते ! किमाइया' इत्यादि । भासा अवयो तु मियतया उभयप्रतिषेधात्मकतया वा न प्रतिनियत. धबीजभूता, णमिति वाक्यालङ्कारे, किमादिका-उपादा. रूपतयाऽवधारयितुं शक्यते सा अपर्याप्ता, सा च सत्यामृषा नकारणव्यतिरेकेण किमादिः-मौलं कारणं यस्याः सा | असत्यामृषा वा अपव्या , उभयोरपि प्रतिनियतेन रूपेकिमादिका । तथा किंप्रभवा-कस्मात् प्रभव-उत्पादो य. णावधारयितुमशक्यत्वात् । 'पज्जत्तिया णं भंते !'इत्यादि, स्याः सा किम्प्रभवा, सत्यपि मौले कारणे पुनः कस्मात् भावितं, नवरं सत्या मृषा चेत्युक्तमतः सत्याभेदावगमाय कारणान्तरात्पद्यते इति भाषः। तथा किंसंस्थितेति. प्रश्नमाह-'सच्चा णं भंते ! भासा पजत्तिया कहविहा. केनाकारेण संस्थिता किंसंस्थिता, कस्येव संस्थानमस्या | पसत्ता।' इति पाठसिद्धम् । भगवानाह - गोयमा!' इत्यादि इति भावः। तथा फिम्पर्यवसिता इति-कस्मिन् स्थाने , 'अणवयसञ्चा' इति तं तं जनपदमधिकृत्येष्टार्थप्रतिपत्तिज. Page #1555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३२) भासा अभिधानराजेन्द्रः। भासा मकतया व्यवहारहेतुस्वात् सत्या जनपदसस्था तथा कोट घुणातरम्बायेन सत्यमापतति शाठ्यबुद्धधा वोपेत्य सत्यं भा. णाऽऽविषु पयः पिवमित्यादि १, सम्मतसत्या या सकललो. षते तदाऽप्याशयदोषदुष्टमिति मृषेति,माननिःसृता यत्पू: कलाम्मस्येन सत्यतया प्रसिद्धा कुमुदकुवलयोत्पलतामरसा. वमननुभूतमप्यैश्वर्यमास्मोकर्षस्थापनायानुभूतमस्माभिस्तमां समानेऽपि पसंभवत्वे गोपालजना अरविन्दमेव पङ्कजं दानीमैश्वमित्यादि वदता२,मायानिःसृता यत् परवश्वानाss. मन्यन्ते,न शेषमित्यरबिन्दे पङ्कजमिति सम्मतसत्या २, स्थाप- घभिप्रायेण सत्यमसत्यं वा भाषते३,लोभनिःसृता यशोभाभि नासत्या या तथाविधमकाऽऽदिविन्यासं मुद्राविन्यासं चोपन- भूताकूटतुलादि कस्वा यथोक्तप्रमाणमिदं तुलाऽऽदीति बदतः म्य प्रयुज्यते तथा एककं पुरतो बिलुपसहितमुपलभ्या प्रेमनिस्तापतिप्रेमवशाहासोतवेत्यादि पदसावेष. शतमिदमिति, विन्दुश्यसहितं सहस्रमिदमिति, तथा तथा निामृता यत्प्रतिनिषिधातीर्थकरादीनामध्यवर्ण भावते.हा. विधं मुद्राविम्यासमुपलभ्य मृत्तिकाऽऽदियुमाषोऽयं कार्षाप स्यनिःसृता यत्केलिवशतोऽनुतभाषणं ७, भयनिःमता तस्क. णोऽयमिति, तथा नामवः सत्या नामसत्या पथा कुलमव. राऽऽविभयेनासमखसभाषणम् ८.माख्यायिकामिासृतायकयपि कुलबर्खन इति, तथा रूपतः सत्या पसत्या, यथा थास्वसम्भाव्याभिधानम्, उपघातनिःसृताचौरस्त्वमित्याच दम्भतो गृहीतप्रवजितरूपः प्रवजितोऽयमिति, तथा प्रती. भ्याख्यानम् १० ।मत्रापि समहणिगाथामाह-कोरेमाणे' स्य-माश्रित्य वस्त्वन्तरं सत्या प्रतीत्यसत्या तथा अना. इत्यादि भाषिता । सत्यामृषा दशविधा। तयथा-' उप्पलमिकाया कनिष्ठामधिकृत्य दीर्घत्वं मध्यमामधिकृत्य स्व. मिस्सिया' इत्यादि, उत्पना मिश्रिता अनुत्पः सहसरल्या. स्वंमचाध्य कधमेकस्यां इस्वत्वं दीर्घत्वं च तास्विकं', पूरणार्थ यत्र साउत्पन्नमिश्रिता.पवमन्यत्रापि यथायोगं भावपरस्परविरोधादिति, मिनानिमित्तत्वेन परस्परविरोधास. नीयं, तत्रोत्पमिश्रिता यथा कस्मिाश्चित् प्रामे नगरे या ऊने. म्भवात् । तथाहि-तामेव यदि कनिष्ठां मध्वमा वा एका प्रवाधिकेषु वा दारकेषु जातेषु दश दारका अस्मिथप जामलिमीसत्य हस्वस्वं दीपवंच प्रतिपात तो विरो| सा इत्यादि १. एवमेव मरण कथने विगतमिथिता २, तथा घसम्भवेत, एकनिमित्तपरस्परविरुखकायदयासम्भवात् । जन्मतो मर रास्य च तपरिमाणस्याभिधाने विसंबादेन बो. यदा कामधिकृत्व स्वत्वमपरामधिकृत्य दीघरवं तदा स. स्पनधिगतमिथिता ३, तथा प्रभूतानां जीवतां स्तोकामांब वासखयोरिव मित्रनिमित्तस्थान परस्पर विरोधः, अथ या मृतामां शश्वशक्खनकाउदीमामेकत्र राशौ हेयवाक. विताविके इस्वस्वदीर्घस्वे तत ऋजुत्ववक्रत्व कमाने बिदेवं वदति-महो महान् जीषराशिरयमिति तदा साजीच. परनिरपेक्षेन प्रतिभासते, तस्मात् परोपाधिकत्वात् का मिभिता, सस्थामृषा चास्या जीवस्सु सस्यश्वात् मतेषु स्पनिक हमे इति, तवयुक्त, द्विविधा हि वस्तुनो धमौक मृषास्यात् ५, तथा यदामभूतेषु मतेषु स्तोकेषु जीवत्सु एकत्र सरकारिख्यमयरूपा इतरे ब, तत्र ये सहकारिण्यश्यक राशीकृतेषु शस्खाऽऽदिप्येवं वदति-महो महानयं मृता. पास्ते सहकारिसम्पर्कवशात् प्रतीतिपथमायान्ति , यथा - जीवराशिरिति तदा सामजीवमिश्रिता, अस्यापि सत्या. थिव्यां जलसम्पर्कतो गन्धः, इतरेत्येवमेवापि यथा कर्पूराss मृषात्वं सतेषु सत्यस्वात् जीवत्सु मृषात्वात् ५, तथा तदिगम्बा, स्वत्वदीर्घत्वे अपि च सहकारिव्ययरूपे, त स्मितेवराशी एताबम्तोऽत्र जीवम्त एतावन्तश्च मृता इति सस्ते तं सहकारिणमासायाभिव्यक्तिमायात इत्यदोषः। तथा मियमेनाबधारणतो विसंवावेजीवाजीवमिश्रिता,तथा मूतव्यवहारो-लोकविवक्षा, व्यवहारतः सत्या व्यवहारसत्या, काऽऽदिकमान्तकायं तस्यैव सत्कैःपरिपारानुपरम्येनपाके. यथा गिरिवंधते. गलतिभाजनम् अनुदरा कम्या, मलेमिका नचित्प्रत्येकवनस्पतिना मिश्रमवलोक्य सर्वोऽध्येषोऽनन्तका यिकति बदतोऽनम्तमिश्रिताः७,तथा प्रत्येकवनस्पतिसका पका,लोका दिगिरिगत तृणदाहेतृणादिम सह गिरेरभे. दं विवक्षित्वागिरिर्वद्यते इति ब्रुवन्ति,भाजनादुदके श्रवत्ति उद. तमनन्तकाविकेन सह राशीकृतमवलोक्य प्रत्यकवनस्पतिरयं सर्वोऽपीतिबदतम्प्रत्येकमिश्रिताः,तथाऽद्धा, काल:-सबेह कभाजमयोरभेवं विवक्षित्वा गलति भाजनमिति,संभोगवाजमा प्रस्तावात् विषसो, रात्रिर्वा परिगृह्यते,स मिश्रितो यया सा. भवोदराभाव अनुदरा इति, लवनयोग्यलोमाभावे अलोमिके. सामिश्रिता, पथा कश्चित् कश्चन स्वरधन दिषसे वर्तमान ति। ततो लोकव्यवहारमपेक्ष्य साधोरपि तथा युवती भाषाव्य. एव वदति-उतिष्ठ रात्रिर्जातेति, रात्रौ वा वर्तमानायामुत्तिबहारसस्था भवति, तथा भावी वर्णाऽऽदिर्भावतः सत्या भा. छोदतः सूर्य इति तथा दिवसस्य रात्रेर्वा एकदेशोवाडा, बसत्या, किमुहं भवति १-यो भाषो वर्णाऽऽदियस्मिन्नुरकटो सा मिथिता यया सा अद्यावा मिश्रिता यथा प्रथमपौरुध्याभवति तेन वा सत्या भाषा (सा) भावसत्या, यथा सस्थपि मेव वर्तमानायां कश्चित्कञ्चन स्वरयन् एवं वदति-चल म. पञ्चवर्षसम्भवे पलाका शुक्लेत्ति, तथा योग:-सम्ब- ध्याहीभूतमिति । असत्यामृषा द्वादशविधा, तद्यथा-(प्रामन्धः तस्मात् सत्या योगसत्या, तत्र छत्रयोगात् विवक्षित- तणि इति) तमामन्त्रणी देवदत्त! प्रयाहि स्यादि एषा शप्रयोगकाले छत्राभावेऽपि छत्रयोगस्य सम्भवात् छत्री, प्रागुक्तसस्याऽऽदिभाषानयलक्षणविकलवान सत्या नापि एवं दण्डयोगात् दण्डी, औपम्पसत्या यथा समुद्रवत्तडागः। मृषा नापि सत्यामुषा,केवलं व्यवहारमा प्रवृचिहेतुरित्यस. अत्रैवार्थे विनेयजनानुग्रहाय सङ्ग्रहणिगाथामाह-'जणवा स्वामृषा १, एवं सर्वत्र भावना कार्या प्राज्ञापनी कार्येषु परस्य यसम्मयठवणा, 'इत्यादिभाषितार्था । मृषाभाषा दशविधा। प्रवर्तनम् ययेवं कुर्षिति २, याचनी कस्यापि वस्तुविशेषस्य तपथा-'कोहनिस्सिया'स्वादि। क्रोधानिःसृता कोधा- देखीतिमार्गणम् ३, पृच्छनी अविज्ञातस्य संदिग्धस्य कस्य. विनिर्गता इत्यर्थः, एवं सर्वघापि भावनीयं सत्र क्रोधाभिभूः चिवस्व परिहानाय तद्विदः पावें चोदना४,प्रज्ञापनी विनीतोषिसंवादनबुध्या परप्रत्यायनाय यत्सत्यमसत्यं वा भाष. सविनयस्य बिनेयजमस्योपदेशदानं यथा प्राणिवधानिवृत्ता ते तसबै मृषा, सस्य हि भाशयोऽतीव दुधस्ततो यदपि! भवन्ति भवान्तरे प्राणिनोदीर्धाऽऽयुष इत्यादि । उक्तं च Page #1556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा भासा अभिधानराजेन्द्रः। "पाणिवहाउ नियत्ता , हवंति दीहोउया अरोगा य । पसमा तीत्य सत्याऽऽदिकां चतुर्विधामपि भाषां भाषन्ते शेषं। सुग. पन्नत्ता, पनवणीबीयराहि॥१॥"५, याचमानस्य प्र- मम् । प्रशा० ११ पद। तिषेधवचनं प्रत्याख्यानी ६.इच्छानुलोमा नाम यथा कश्चिः (७) भाषाऽऽत्मस्वरूपाऽनात्मस्वरूपाचेतिनिरूपणम्किंचित् कार्यमारभमाणः कश्चन पृच्छति, स प्राह-करोतु भ. आया भंते ? भासा, अप्पा भासा?, गोयमा ! णो मावान् ममाप्येतदभिप्रेतमिति ७। अनभिग्रहा यत्र न प्रतिनिय. तार्थावधारणं, या बाषु कार्येष्यवस्थितेषु कश्चित्कच. या भासा, असा भासा । (आया भंते ! भास त्ति ) पत्येकाकाऽध्येयम् । प्रात्मा जीयो न.पृच्छति-किमिदानीं करोमि , स प्राह-यत्प्रतिभाषते त. कुर्विति, अमिगृहीता प्रतिनियता ऽवधारणं, यथा इद. भाषा, जीवस्वभावा भाषेत्यर्थः । यतो जीवन व्यापार्यते मिदानी कर्तव्यमिदं नेति है, संशयकरणी या वाक् प्र. जीवस्य च बन्धमोक्षार्था भवीत, ततो जीवधर्मत्वाजी. मेकार्थाऽभिधायितया परस्य संशयमुत्पादयति यथा सैन्ध. व इति व्यपदेशार्दा शानवदिति, अथान्या भाषा न जीव. वमानीयतामित्यत्र सैन्धवशब्दोऽलवणवत्रपुरुषवाजिषु १०, स्वरूपा श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यत्वेन मूततयाऽऽस्मनो विलक्षणस्था. म्याकृता या प्रगटार्थी ११, अव्याकृता प्रतिगम्भीरशब्दार्धा दिति शङ्का अतः प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-(नो आया भास ति।) अव्यक्ताक्षरप्रयुक्ता वा प्रभावितार्थत्वात् १२। शेष सुगमम्। आत्मरूपा नासा भवात, पुद्रलमयत्वादात्मना च निसृज्य. प्रशा. ११ पद। (नैरयिकादीनां भाषकत्वाभाषकसूत्रम् मानत्वात्तथाविधलोष्ठाऽऽदिवत् अचेतनत्वाच्चाऽकाशवत् । १६६, 'भासग' शब्देऽस्मिनेष भागे गतम्) यथोक्तम्-जीवन व्यापार्यमाणत्वाज्जीवः स्याउझानवत्तद. जीवानां सत्यादिभाषा निरूपयन्नाह नैकान्तिकं. जीवव्यापारस्य जीवादत्यन्तं भिन्नस्यरूपेऽपि ' जीवाणं भंते ! किं सच्चं भासं भासंति मोसं भासं| तत्रादौ दर्शनादिति। भासंति सचामोसं भासं भासंति असच्चामोसं भासं | रूवि भंते ! भासा, अरूवि भासा। गोयमा ! रूविं भासंति !, गोयमा ! जीवा सच्च पि भासं भासंति. जाव भासा, णो अरूवि भासा ।। असच्चा मोसं पि भासं भासंति । नेराया णं भंते १ किं (रूविं भंते ! भास त्ति ) रूपिणी भदन्त ! भाषा श्रोत्रस्यानुसरुचं भासंतिक जाव असच्चामोसं भासं भासंति ? ।। ग्रहोपघातकारित्वात् तथाविधकर्णाऽभरणाऽऽदिवत् , म.. गोयमा ! नेह्याणं सच्च पि भासं भासंति जाव असच्चा थाऽरूपिणी भाषा बनुषाऽनुपलभ्यमानस्वाचास्तिकाया. ऽऽवियदिति शङ्काऽतः प्रश्नः, उत्सरंतु कपिणी भाषा । य." मोसं पि भासं भासंति । एवं भसुरकुमारा. जाव थणिय का चक्षुरग्राह्यत्वमपित्यसाधनायोक्तं तदनकाम्तिकं. परकुमारा, इंदिय-तइंदिय-च उरिदिया य नो सच्चं नो मोसं माणुषायुपिशाचाऽऽदीनां रूपषतामपि चतुरप्राह्यस्माभिमनो सचामोसं भासं भासंति, भसचामोस भासं भासंति ।। तत्वादिति । पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! कि सचं भासं भा- (0) अनास्मरूपाऽपि सचित्ताऽसौ भविष्यति संति जाब किं असच्चामासं भासं भासंति ?, गोयमा ! . जीवरुधीरवरिति पृच्छमाहपंचिंदियतिरिक्वजोणिया णो सच्चं भासं भासंति, नो। सचित्ता भंते ! भासा, चित्ता भासा!। गोयमा। यो मोसं भासं भासंति नो सच्चामोसं भासं भासंति ए सचित्ता भासा, प्रचित्ता भासा ।। (सचित्तस्यादि ) उत्तरं तु नो सचित्ता जीवनिसपुतलसं. गं असच्चा मोसं भासं भासंति णमत्य सिक्खापुन- इतिरूपस्यात्तथाविधलेष्ठुवत् । गं उत्सरगुणद्धिं वा पहुच सच्चं पि भासं भासंति मो तथासं पि भासं भासंति, सच्चामोसं पि भासं भांति - जीवा भंते ! भासा, अजीवा भासा | गोयमा ! यो सच्चा मोस पि भासं भासति । मणुस्सा जाव वेमाणि- जीवा भासा, अजीवा भासा ॥ या, एते जहा जीवा तहा भाणियव्वा । ( सूत्रम्-१६७)।। (जीवा भंते ! इत्यादि) जीवतीति जीया प्राणधारण'जीवाणं भंते ! कि सच्चं भासभासं ति' इत्यादि, सुगम स्वरूपा भाषा, उतैतद्विलक्षणेति प्रश्नः। अत्रात्तरम्-'मोजीविधिवतरिन्द्रियेष सत्यादिभाषायप्रतिषेधः तेषाम वा' उच्छ्रासादिप्राणानां तस्या अभावादिति । म्यक् परिज्ञानपरवञ्चनाद्यभिप्रायासम्भवात् तिर्यकपशेन्द्रिः (E) इह कैश्विदभ्युपगम्यते, अपौरुषेयी वेदया अपि न सम्यक् यथावस्थितवस्तुप्रतिपादनाभिप्रायेण - भाषा, तम्मतं मनस्याधायाऽऽहभाषन्ते नापि परविप्रतारणबुद्धया किं तु यदा भाषन्ते । जीवाणं भंते ! भासा, अजीवाणं भासा । गोयमा ! तदा कुपिता अपि परं मारयितुकामा अप्येवमेव भाषन्ते जीवाणं भासा, णो अजीवाणं भासा ।। ततस्तेषामपि भाषा असत्यामृषा, किं सर्वेषामपि तेषामः | (जीवाणमित्यादि ) उत्सरं तु जीवानां भाषा, वर्णानां सत्यामुघा, नेस्याह-"नम्रत्येत्यादि " सत्पादिकां भाषां ताल्चादिव्यापारजन्यस्यात्तास्वादिव्यापारस्य च जीयाss. न भाषन्ते शिक्षादरम्यान, शिक्षापूर्वकं पुनः शुकसारिकाद- श्रितत्वात , यद्यपि चाजीवेभ्यः शब्द उत्पद्यते, तथापि नाs. यः संस्कारविशेषास्तथा कुतश्चित्तथाविधक्षयोपशमविशेषा- सी भाषा , भाषापर्याप्तिजन्यस्यैष शब्दस्य भावास्येनाभिः जातिस्मरणरूपां विशिष्टध्यपहारकौशनरूपां वा लब्धिप्र. मतत्वादिति । Page #1557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३४) भासा अभिधानराजेन्द्रः । भासा तथा इति न्यायाद्विश्रेणिव्यवस्थितः श्रोताऽपि विश्रेणिरच्यते, स. पुब्धि भंते ! भासा भासिञ्जमाणी भासा,भासासमयषीइ-| विश्रेणिः पुनः श्रोता शब्दं नियमानियमेन पराघाते वासनाकंता भासा ? । गोयमा ! णो पुचि पासा भासिञ्जमाणी यां सत्यां शृणोति । इदमुक्त भवति-यानि भाषकोत्स्ष्टानि, मेर्यादिशब्दद्रव्याणि बा तैः पराघाते वासनाविशेष सति भासा, णो भासासमयवीइकता भासा । यानि वासितानि समुत्पन्नशब्दपरिणामानि द्रव्याणि तान्येव (पुग्विमित्यादि ) अत्रोत्तरम्-नो पूर्व भाषणाबाबा भ. विणिस्थःश्रृणोति, न तु भाषकाऽऽद्युत्सृष्टानि, तेषामनुश्रे. पति. मृत्पिण्डावस्थायां घट इव, भाष्यमाणा निसर्गावस्था- गिगामिस्वेन विदिग्गमनासंभवात् । नच कुख्या-दिप्रतिय यां वर्तमाना भाषा घटावस्थायां घटस्वरूपमिष, 'नो' तस्तेषां विदिग्गतिनिमितं संभवति, नेपादिवारद्रव्याणा. नेष भाषासमयष्यतिकान्ता--भाषासमयो-निरुज्यमानाब. मेष तरसंभवात् , एषां च सूचमत्वात् । न च बकव्यं-द्वितीया. स्थातो यावद्वाषापरिणामसमयस्तं व्यतिकाम्ता या सा ऽऽदिसमयेषु तेषां स्वयमपि विविशु गमनसंभवात्सतस्थस्या. तथा भाषा भवति, घटसमयातिक्रान्तघटवत् कपालाव- पिमिश्रशम्दभवणसंभवादति, निसर्गसमयानन्तरं समयान्तस्थ इत्यर्थः। रेषु तेषां भाषापरियामेनानवस्थानात् “भाध्यमाणैध भाषा, पुचि भंते ! भासा भिजइ, भासिजमाखी भासा मि- भाषासमयानन्तरं भाषा प्रभाव" इति वचनात् । यदपि "-उहि समएहि लोगो भासाएँ निरंतरं तु होइ फुडो।" ज्जति, भासासमयवीइकंता भासा भिजाइ। गोयमा! यो इति वक्ष्यति, तत्रापि द्वितीयाऽऽदिसमयेषु भाषाद्रव्यैर्वासि पुचि भासा भिजइ, भासिज्जमाणी भासा भिआइणो तत्वातेषां भाषावं इष्टव्यम् । अत्राऽऽह-ननु यदि वक्तृनि. भासासमयवीइकता भासा भिजइ। सानि भाषाद्रव्याणि प्रथमसमये दिवेव गच्छन्ति, समया(पुचि भंते ! इत्यादि ) भत्रोत्तरम्-नो नैव पूर्व निसर्गस. नन्तरं च नावतिष्ठन्ते, तर्हि तद्वासितद्रयाणि द्वितीयस. मयाद्भाषाद्रव्यभेदेन भाषा भिद्यते, भाष्यमाणा भाषा भि. मये विदिशु गच्छन्ति । ततश्च दिग्विदिगव्यवस्थितयोः चते। अयमत्राभिप्रायः-दह कश्चिन्मन्दप्रयत्नो पक्का भवति, समयभेदेन शब्दश्रवणं प्राप्नोति , अविशेषणव सर्वोऽपि स चाभिनान्येव शब्दद्रव्याणि निसृजति, तानि च निसृष्टा शब्दं शृण्वन्नुपलभ्यते । नैष दोषः, समयाऽऽदिकालन्यत्तस्याऽऽस्मकत्वात्परिस्थूरत्वाच्च विभिद्यन्ते,विभिद्य. भेदस्याऽतिसूक्ष्मत्वेनालक्षणादिति । भवत्येवं , तथाऽपि मानानि च सद्स्येयानि योजनानि गत्वा शब्दपरिणामत्या. "भाष्यमाणैव भाषा" इति वचना मिसर्गसमयवर्तिन्येव. भाषा, ततो विभेणिस्थो द्वितीयसमयेऽभाषां शृणोतीत्यायागमेव कुर्वन्ति, कश्चित् तु महाप्रयनो भवति, स खल्वादान तम् । नैतदेवं, भाषाद्रव्यैर्वासितानामपि द्रव्याणां तद्विशेष. विसर्गप्रयत्नाभ्यां भित्त्वैव निसृजति , तानि च सूक्ष्मत्वाद- स्वाषात्वं न विरुध्यते । अत एव-"वीसेढी पुण सई" हुत्वाच्च अनन्तगुणवृद्धया वर्द्धमानानि षट्सु दिक्षु लोका. इत्यत्र पुनरपि यच्छब्दग्रहणं तत्पराघातवासितद्रव्याणामपि म्तमाप्नुवन्ति प्रवे च यस्यामवस्थायां शब्दपरिणामस्तस्यां । तथाविधशब्दपरिणामख्यापनार्थ कृतमिति तावद्वयमवगभाष्यमाणताऽवसेया इति । (नो भासासमयबीहकते ति)। च्छामः, तत्वं तु बहुश्रुतादयो विदन्तीति । घ्राणाऽऽदीन्यपी. परित्यक्तभाषापरिणामेत्यर्थः, उत्कृष्टप्रयत्नस्य तदानी निवृ. न्द्रियाणि गन्धाऽऽदिद्रव्याणि मिश्राण्याददते, तेषां चानुधे. सत्वादिति भावः । भ०१३ श०७ उ०। णिगमननियमो नास्ति, बावरत्वात, वातायनोपलभ्यमानरे(१०) आह-ननु"पुटुं सुणा सई" इत्युक्तं भवदितत्र व कि गुवदिति वृद्धटीकाकारः । इति नियुक्निगाथाऽर्थः ॥ ३५१ ॥ शब्दप्रयोगोत्सृष्टाम्येव केबलानि शब्दद्रव्याणि शृणोति, उ. अत्र भाष्यम्तान्यान्येव तहासितान्याहोस्विम्मिश्राणि इति। अत्रोच्यते. सेढी पएसपती, वदतो सबस्स छदिसिं ताम्रो । केषलानि तापन शृणोति, पासकस्वभावस्वाच्छन्नद्रव्याणां. तद्योग्यद्रव्याकुलत्वाच लोकस्य , मिश्राणि तु श्रूयेरन् जासु विमुक्का धावा, भासा समयम्मि पढमम्मि ॥३५२॥ वासितानि वाऽन्यानि । यत आह इह श्रेणिराकाशप्रदेशपक्तिरभिधीयते,लोकमध्ये च बदतो भासासमसेढीओ, सईज सुबइ मीसिधे मुणइ । भाषमाणस्य सर्वस्य वक्तः ताः पूर्वापरदक्षिणोत्तरोर्वाधो रूपासु षट्स्वपि दिसु सन्त्येव । भाषकेण विमुक्ता निसृष्टा बीसदी पुण सद, सुइ नियमा पराघाए ॥ ३५१ ॥ सती भाषा यासु प्रथमसमयेऽपि लोकान्तमनुधावति ॥३५२॥ भाष्यत इति भाषा, बत्रा शश्वमोत्सृज्यमाना द्रव्यसं. ततः किम् ?, इत्याइइतिरिन्यर्थः, तस्याः समाः प्राञ्जलाः श्रेणयः प्राकामप्रदेश, भासासमसेढि * ठिो, तब्भासामीसियं सुणइ सई ! पक्कयो भाषासमश्रेणया, समग्रहणं विश्रेणिव्यवच्छेदार्थ, भाषालमणिषु इतो गतः स्थित इत्यनान्तरं, भाषा सहब्वभाविआई अमाई सुणइ विदिसत्यो ॥ ३५३ ।। समणितः । इदमुक्तं भवति-भाषकस्य, अन्यस्य वा भेर्यादेः भाषासमभेणीत इति, किमुक्तं भवति?, इत्याह-भाषासम. समश्रेणिव्यवस्थित श्रोता यं शब्दं पुरुषश्च भेर्यादिसंबन्धिनं श्रेणिस्थितः। स किमित्याह-तस्य भाषकस्य शशभर्यादेर्वा ध्वनिशणोति, तं मिश्रकं शृणोतीत्यवगन्तव्यं भाषकादुत्स्. भाषा तद्भाषा तद्रूपेणोत्सृष्टः पुद्रलसमूहस्तमिश्रितं शब्द शब्दद्रव्याणि, तवासिताऽपान्तरालस्थद्रव्याणि च, इत्येवं शृणोति विदिग्व्यवस्थितः पुनः श्रोता तद्व्यभाविताम्यप. मिथं शन्नद्रव्यराशिं शृणोति, न तु वासकमेव, वास्यमेव राण्येव द्रव्याणि शृणोति, न पुनस्तानि ।। ३५३ ॥ वा केवलमित्यर्थः। (वीसेढी पुणेत्यादि)"भचा क्रोशन्ति"। * 'दीओ ' ( ३५३ ) इदमपि युक्तं प्रतिभाति । Page #1558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा कुतः १, इत्याहअणुसेढीगमणाश्रो, परिघायाभावो निमित्ताओ । समयंतयवस्थाओ व सुकाई न सुरोह ॥ २५४ ॥ तेषामनुश्रेणिगमनात्, अनुधेखिगमने प्रवृत्तानामपि प्रतिघा ताद्विश्रेणिगमनं भविष्यतीति चेदित्याह - प्रतिघातस्य स्खल स्यामा कुरा निमिसास्कृपा 35 स्तनिमित्तस्पासंभवात् बाहरयाणामेतत्संवाद चश्मावादिति भान-द्वितीयासमयेषु स्वमपि विदि गमनात्स्यस्यापि संभव इति कुतः इत्याह- समर्थयादि ) निसर्गसम १. यानन्तरं द्वितीयाऽदी समयान्तरे संस्कारअनकशक्ति संपतया तेषां भाषका 35 ध्यानावादिति प्रागुक्रमेव इति मुक्तानि नायकाहानि इत्यादि क दिग्व्यवस्थितो न शृणोतीति गाथाश्रयार्थः ॥ ३५४ ॥ आह-- केन पुनयोगेनाऽमीषां वागूद्रव्याणामादानमुत्सर्गो बा कथम् ?, इत्याह गिरह य काइएवं निसिरह वह बाइय जोएयं । गतरं च गियर, निरिह एवरं देव ।। २५५ । ( १५३५ ) अभिधान राजेन्द्रः । 9 कायेन निर्वृतः कायिका योजने पोगो व्यापारः कर्म कि येस्यनर्थान्तरम् । तत्र सर्व एव वक्ता कायिक्रेन योगेन शब्दद्रव्यापि महाति । चरत्येवकारार्थः तस्य च व्यति बधाई कायिकेनैवेति इम् विसृजति उत्तमुखसीति पर्यायाः। तथेति प्रथानन्तरमित्यर्थः निसाचिकस्तेनाधिकेन योगेन निजतिः किमसमय मेव गृह्णाति निसृजति वा; उताऽन्यथेत्याशङ्कया ऽह - एका तरमेव गृह्णाति, निसृजत्येकान्तरंचैव । श्रयमत्र भावार्थः प्रतिसमयं गृह्णाति मुञ्चति च । कथम् ? यथा ग्रामादन्यो ग्रामो ग्रामान्तरं पुरुषाद्वाऽन्यः पुरुषो निरन्तरो सन् पुरुषान्तरमेवमेकैकस्मात् समयादेपवेकान्तरीनन्तरस मय एवेत्यर्थइति निगियाचा विस्तरार्थस्तु माध्यादय सेयः ॥ २५५ ॥ · 3 9 तचेदम्गिरिहल काइए, किं निसिरह बाइए जोएयं । को वाऽयं जोगो किं, बाया कायस्त संरम्भो ॥। ३५६ ।। बाया न जीवजोगो, पोग्गल परिणाम रसाइ छ । न यता निसिरिज, सचिन निसिरिजए जम्हा || ३५७ ।। सो संरंभ, निसिर तो काइएण वसव्वं । जोगविसेस थिय मावजोग चि जमदोसो ॥ ३५८ ॥ अत्र पर प्राऽऽहमनु"विरह व काइरणं" इति बहुत मन्यामहे यतो पडीयात् कायिकेन योगेन पाणि भाषक, युक्रम् काव्यापारमरि समायो मासा गात् । यत्पुनरुक्रम्-"सिरहा जो "हत बड़े तागामो यतः कथं नाम निसृजति याचिकेन योगेन धमाखाय वाचो जीवस्यापाररूपयोगामा या पट इति संक्षेपयो] कृत्वा विस्तरा मिधित्सयात्राको बा यमित्यादिना किमनेन विस्तरेापि पृच्छामः कोऽयं नाम बायोगो येन निजी का ति" बागेच नियुज्यमानभाषासमूहरूपो बायोगः कि चाकापसंरम्भः काव्यापारस्त मिस हेतु योगः इति बि कल्पद्वयम् । तत्र प्रथमविकल्पपचं निराकुर्वाबा गोहद योगी शरीरजी बाझ भवति, पुलपरिणामस्वातस्याः सगन्धादिवत् वस्तु जीवव्यापाररूपी योगः स पुलपरिणामपि न भवति यथा जीवाऽधिष्ठित काय व्यापारः अपि च, "न यता सिम च तथा वाचा पिता नियमात् न कर्मे करणं भवति अतो वागेव वायोग इति प्रथम विक ल्पो न घटते । अथ द्वितीयमधिकृत्याऽऽह (अहेत्यादि) अथासौ वाग्योग स्तनुसंरम्भः काय व्यापारस्ततः "कायिकेन मिस जति" इत्येवमेव वक्लव्यं स्यात्, अतः किमुक्तम् ? " निलिरह तह वाइएण जोएं " इति ? । अत्रोत्तरमाह-"तणु इत्यादि " मनु द्वितीयविकल्प एवात्राङ्गीक्रियते, केवलमविशिष्टः काययोगो थायोगता भास्माभिरिष्यते कि तु तनुयोगविशेषावेक काव्यापारविशेषाच मायावियेले मात्ः ततोऽयमदोषः न हि कायिको योगः कस्याशिवाय शरी रिणां जन्तूनां निवर्तते, अशरीरिणां सिद्धानामेव रिति, अतो वागूनिसर्गऽऽदिकालेऽपि सो ऽस्त्येवेति भावः । ॥ ३५६ ॥ ३५७ ॥ ३५८ ॥ विशे० । " अथ "तरंगिएर " इत्यादि व्याधियाराह जद्द गामा गामो, गामंतरमेवमेग एगाओ । एगंतरं ति भाइ, समयाऽयंतरो सपओ || ३६५ ।। यथा कस्मात् प्रामादयो ग्रामोऽनन्तरितोऽपि लोक प्रामान्तरमुच्यते पुरुषाद्वाऽन्यः पुरुषोऽनन्तरोपि पुरुषास्तरमभिधीयते, एवमिहापि एकस्मात् समयात् योऽय मम्यः समयः सोऽयमनन्तरोऽपि लोकान्तरमित्यभिधीयते । ततः किमुक्कं भवति ?, इत्याह-एकस्मात्समयादनन्तरः समय एकान्तरमिति एवं चानुसमय एव गृह्णाति, मुञ्चति बेलि पर्यवसितं भवति ॥ ३६५ ॥ · अन्ये त्वेकान्तरमित्येकेन समयेनान्तरितं प्रहणं, निसर्ग बेच्छन्तीति दर्शयति केई एगंदरियं गंवरं ति तेर्सि च । विच्मिावलियो, होइ घणी सुपविरोधो व || ३६६ ।। इड केलिए व्याक्यातारो मम्यते मनिस बेकेन समयेनान्तरितमेकान्तरमुच्यते । एतचाऽयुक्तम्, यतस्तेषामेवं व्यायामन्तरान्तरविचिनावलीको ध्या तितरान्तरसमयेषु सर्वेष्यात्तथा विरोधध बते उलं भूते"समयमरियं निरंतरंगि यह " इति तथाहि इदं सूत्रं प्रतिसमयप्रतिपा - · Page #1559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३६) अभिधानराजेन्द्रः। भासा स्वात् प्रतिसमयनिसर्गप्रतिपादकमपि दृष्टव्यं, गृहीतस्य द्वि. णपरतन्त्रत्वात् । कुतः? , इत्याहतीयसमयेऽवश्यं निसर्गादिति । निसिरिजइ नागहियं, अत्र परः प्राह गहणतरियं ति संतरं तेणं । श्राह सुए चित्र निसिरइ,संतरियं न उ निरंतरं भाणधे । म निरन्तरं न समगं, एगेगा जो गिएहइ, समपणेगेण सो मुयह ।। ३६७ ॥ न जुगवमिह होति पाया ॥ ३७० ॥ ननु यथा स्वपक्षसमर्थकं सूत्रं त्वया दर्शितं,तथा श्रुत एवा. स्मस्पक्षसमर्थकमपि तद्भणितमेव । किं तत् १, इत्याह नागृहीतं कदापि निसृज्यत इति नियम एवायम् ।( सं. (निमित्यादि) इदं प्रज्ञापनोलसूत्रं गाथायामुपनिबद्धम् । तरं तेरा ति) तेन कारणेन निसर्जनं प्रज्ञापनायां सान्ततच्चेदम्-"संतरं निसिरह नो निरन्तरं निसिर, ए रमुक्तम् । कुत इत्याह-(ग्रहणंतरियं ति ) ग्रहणान्तरितमिगेणं समपणं गेराहा.पगेणं समएणं निसिरह।" इत्यादि। त. ति कृत्वा । 'नानिसृष्टं गृह्यते' इत्ययं तु नियमो नास्ति, प्रथमदनेन सूत्रेण निसर्गस्य सान्तरस्योकत्वात् मव्याख्यानमुपप. समये निसर्गमन्तरेणापि ग्रहणसद्भावाद्; अतः स्वतन्त्रं प्र. अमेवेति परस्याऽभिप्रायः॥ ३६७॥ हणं, परतन्त्रस्तु निलगः , इत्ययमेव सान्तर उक्त इति भा. अनोत्तरमाह यः। तदेवम्-"संतर निसिरह ।" इति प्रज्ञापनायाः सूत्रा वयवो विषयविभागे व्यवस्थापितः। अथ "नो निरन्तरं नि. अणुसमयमणंतरियं, सिरह" इति तदवयवस्यैव भावार्थमाह-"न निरंतर ति।" गहणं भणियं जो विमोक्खो वि।" इत्यादि । किमुक्तं भवति?-न निरन्तरं निसृजति, न सम. जुत्तो निरन्तरो चिय. कं. न युगपदिति पर्यायाः। ततश्च किमिह तात्पर्यमिति । भन्मइ का संतरो भणियो? ॥६८॥ उच्यते-न प्रहणसमकालं निस्जति । किं तह, पूर्व प्राचार्यः प्राह-दन्त ! तावत् प्रणमनुसमयमनन्तरित पूर्व गृहीतमुत्तरोत्तरसमयेषु निसृजतीति ।" ननु पगेणं स. मव्यवहितं प्रावनसूत्रेण भणितं प्रतिपादितमिति भवतो. मपणं गिराहा, एगेणं समएणं निसिरह ।" इत्येतस्य भाऽपि प्रतीतम् । यत एवम्. मतो घिमोक्षोऽपि निसर्गोऽपि नि: वार्थो नाचाप्युक्तः। सत्यं किं तूनानुसारेण स्वयमप्ययमवगरस्तर पर युक्तः, गृहीतस्याऽवश्य मेवानन्तरसमये मिस स्तव्या-तत्राऽऽयेनेकैन समयेन गृहात्येव, न निसृजति, द्विती. विति । प्रेरकः पुनरपि भणति । किम् ? इत्याह-(कह याऽऽदिसमयादारभ्यैव निसर्गस्य प्रवृत्तेपर्यन्तवर्तिनास्थेकेन मंतरो भणिभो ति ) वमुक्तं भवति-अहमपि जाना समयेन निसृजत्येव, न तु गृहाति, भाषाऽभिप्रायोपरमादिति मि यतः सूत्रे प्रहणं निरन्तरमुक्तं परं यस्तव निसर्गःसान्त. मध्यमसमयेषु तु ग्रहण निसर्गाविति। अथवा-पकेन पूर्वपूर उक्तः स कथं नीयते इति भावानपि निवेदयतु । सत्यं किं समयनं गृह्णाति , एकेनोत्तरोत्तरसमयेन निसृजति , इत्यादि तु विषयविभागोऽव्यः ॥ ३६॥ स्वधिया भावनीयम् । तदेवं समस्तमपि सूत्रं व्यषस्थाका पुनरयम् . इति गुरुराह पितं विषये ॥ ३७०॥ गहणावेक्खाएँ तभो, (११) अथ प्रहणाऽर्जघन्यमुस्कएं कालमानमारनिरंतर जम्मि जाई गहिमाई । गहणं मोक्खो भासा, समयं गहनिसिरांच दो समया। न वि तम्मि व निसिरह, होति जहनंतरभो, तं तस्स च बीयसयम्मि ॥ ३७१ ॥ जह पढमे निसिरणं नस्थि ॥ ३६६ ॥ गहणं मोक्खो भासा, गहणविसग्गा य हाँति उक्कोसं । तकोऽसौ निसगर्ने प्रहणाऽपक्षया भाषाद्रव्योपादानापेक्षया भंतोमुटुत्तमित्तं , पयत्तभेदेण भेभो सिं ॥ ३७२ ॥ पूर्व पूर्व ग्रहणमपेदयेत्यर्थः, सान्तर उक्तः, इति शेषः । ननु इह वागद्रव्याणां ग्रहणं तथा तेषामेव गृहीतानां मोक्षो समयाऽपेक्षया तस्य नैरन्तर्येणैव प्रवृत्तेः कथं पुनर्ग्रहरणापेक्षा निसर्ग एवोच्यते. भाष्यत इति भाषा, एतानि त्रीण्यपि ज. या सान्तरत्वम् ?, इत्याह-'निरन्तरमित्यादि'यतो यस्मिन् प्र. घन्यतः प्रत्येकमेव समयं भवन्ति , ग्रहणनिसर्जनलक्षणं तूभ. थमाऽऽदिसमये यानि भाषाव्याणि गृहीतानि,न तानि तस्मि यमनन्तरदर्शितन्यायेन प्रहणसमयात् द्वितीयसमये निसर्ग न् एव ग्रहणसमये नैरन्तर्येण निःसृजति किं तु ग्रहणसमया. कृत्वा नियमाणस्य , तिष्ठतो वा वचनव्यापारादुपरतम्य दनन्तरसमय निसृजति, यथा प्रथमसमयगृहीतानां न तम्मि. जघन्यतो द्वौ समयौ भवतः । पाह-ननु मोक्षा निसर्ग पवा. व समये निसर्जन निसर्गः किं तु द्वितीयसमये; एवं द्वितीय. च्यते, भाष्यत इति भाषाऽपि निसर्ग पवाऽभिधीयते, तप्तः समयगृहीतानां तृतीयसमय,तृतीयसमयगृहीतानां चतुर्थसम' किमिति मोक्षात् पृथक भाषायाः कालमानाभिधानार्थमये निसर्ग इत्यादि सर्वसमयेष्वपि भावनीयम् । तदेवं ग्रहणार्ड' पादानम् । सत्यं. किं त्वनैनव भाषायाः पृथग्रहणेन झापपक्षया निसर्गः साम्तर एव, अगृहीतानां निसर्गायोगात् । स. यति, यदुत भाष्यमाणैव भाषा निसर्गमात्रमेव भाषेत्यर्थः मयाऽपेक्षया स्वसौ निरन्तर एवं द्वितीयाऽऽदिषु सर्येध्वपि तस्यैव जघन्यतः समयमानत्वाद्, न तूभयं भाषा, तस्य जध. समयेषु निरन्तरं सद्भावादिति ॥ ३६६॥ न्यता द्विसमयमानत्वात् , ग्रह रण मात्रं तु केवलं भाष्यत इति पाह-वधवं, ग्रहणमपि निसर्गापेक्षया सान्तरमेवाड- भाषा, इति व्युत्पत्यर्थस्यैवाघटनाद्भाषा न भवत्येवेति । यदि. स्तु, नेवं ग्रहणस्य स्वतन्त्रत्वात् , निसर्गस्य तु ग्रह. चेह भाषा पृथक् न गृहीता स्यात् , तदोभयस्यापि कश्चिद्र Page #1560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा प्रतिपद्येत प्रवेऽपि योग्यतया भावात् तत" भासिखमाणा भासा" इत्यागमविरोधः स्यात् त हिं गोपनीय तत्स्थाने भाव पोपादीयतां भाषामो. योरेकार्थत्यादिति वेत्। सत्यं किंतु निसर्गस्य कालमाने नोक्रम इति मन्दधीःप्रतिपद्येत इति तदनुग्रहार्थमिह मोक्ष भाषयेोः पृथक्ग्रहणम् । इत्यलं विस्तरेण । इति ग्रहणं, मोतो. भाषा इत्येतानि ब्रीणि तथा प्रहसनिसमये च सर्वाय प्युक्तः प्रत्येकमन्तकालं भवन्ति परमा तरमुपगच्छति, नियते वा इति भावः । एतेषां च ग्रहणादीनामन्तर्मुहूर्तस्य प्रयत्नभेदेन भेदो भवतीति महाप्रयत्नस्य देवा लघु भवति अपप्रयत्नस्थ तु तदेव प्रमाणं भवतीति ॥ ३७१ ॥ ॥ ३७२ ॥ तदत्र प्रथमसमये यक्लेवलं प्रहणमेव, पर्यन्तवर्त्तिनि तु समये यः केवलो निसर्गः पूर्वमुक्तः, स भवतु, मध्यमसमयेषु यो न तयोरयुकत्वमुत्पश्यवाद पर गाविसग्गपयता, परोप्परविरोहियो कई सम 1 सपए दो उपभोगान होऊ किरिया को दोसो १ । ३७३ । निरन्तरग्रहणे, विसर्गे वेष्यमा द्वितीयसमपादारभ्योपामलसमर्थ यावत् ग्रहण विसर्गप्रयत्न प्रतिसमयं युगपड़ापततः। एतौ च परस्परविरोधिनौ कथमेकस्मिन्समये युक्तौ ?, नैव युद्धावित्यर्थः प्रत्रोच्यते प्रहविसर्गयविरोध एवात्र 1 99 सिद्धः। यदि हि येषामेव इव्याणं प्रहणम् तेषामेव विशेष प्रसित तदा स्वास एतच्च नास्ति, प्रा समयगृहीतानामेवाग्रेतनखमये निसर्गात् तथ चार्याणामेव ग्रहणात्। अथाविशेष्यपि युगपदेकत्र सम उपयोगद्वयवत् क्रियाद्वयं नेष्यते। तदाह-" समये दो इत्यादि । एकस्मिन् समये ही उपयोगी न भवेतामिति यु· क्रम्। "जुग दोन उपभोगा" इति वचनात् तयोराग निषेधात् क्रियाणां बहीनामप्येकस्मिन् समये को दोषः १. न कश्चिदित्यर्थः । तथा हि आगमे - " भंगियसुयं ग जतो, बहद्द तिषिहे वि झाणम्मि । इत्यादिवचनात् वाङ्मनः यक्रियाणामेकत समये प्रवृत्तिरभ्युपगतैव । तथा श्वादिसंयोगविभागले सातपरियो उत्पादकत्र समयेऽनेकस्थानेषु तत्राऽनुज्ञाविहितैवेति को दोषः ? । तथा वामहस्तेन रिटकां चलयति दक्षिन धूपमुपाहयति दशा तीर्थंकरतिमादिव नंगी मुखेन वृत्तं पठति इत्यादि बह्नीनामपि क्रियाणां युगपत् प्रवृत्तिरध्यक्षताऽपि श्रीपते । इति गाथानवकार्थः ॥ ३७३ ॥ 39 , , ( १५३७) अभिधानराजेन्द्रः । 1 (१२) गृहातिकानि तत्र यद्यप्यौदारिकाद शरीरपञ्चकमेवाक्कायः पञ्चविधा तथाऽपि विविधेनैव कान वाण्यग्रहणमनसेयम् इति दर्शया तिविम्मि सरीरम्मी जीवा हवंति जीवस्य । जेहि उ गिess गहणं, तो भासइ भासओ भासं ॥ ३७४ || औदारिकादिशरीराणां मध्यास्त्रिविधे त्रिप्रकारे शरीरे जीवस्थाSSत्मनः प्रदेशा जीवप्रदेशा भवन्ति नान्यत्र । एता तिन पात्रम्" इत्यादी पठवा भेदेऽपि दर्शनाम्मा भूज्जीवात्प्रदेशानां भेदसंप्रत्यय इत्यत आह-जी३८५ भासा यस्येति त्रिविधेऽपि शरीरे जीवप्रदेशा जीवस्था अमभूता नितु दिन इत्यर्थः । तदनेन निष्यनि राकरणमाह-निष्यदेशत्वस्य युक्त्यनुपपत्तेः तथाहि पा दलसंपदानां जीवप्रदेशानां शिरा संदेह मे दोऽभेदो वा ? इति वक्तव्यम् । यदि भेदस्तर्हि कथं न स प्रदेशो जीवः । अधामेदस्तहिं सर्वेषामपि शरीरावयवा नामेकत्वप्रसङ्गः, अभिनैर्जीव प्रदेशैः संबन्धेनैकत्र कोडीतत्वादित्यादि तर्कशास्त्रेभ्योऽनुसरणीयम् । यैर्जीवप्रदेशः किं करोति इत्याह-वैस्तु गृहाति विशेषणार्थः । किं निसर्वदेव गृद्धाति किं तु भाषामिया दि सामग्रीपरिणामे सति । किं पुनर्गृह्णाति ?, इत्याह- गृह्यत - ति कर्मणि प्रत्यये प्राद्रव्यनिकुरम्यमित्यर्थः । ततो भाषको भाषां भाषतेन स्वभाको उपसावस्थाया इच्छाद्यभावतो बेति भाषको भाषते इत्यनेने तार्थस्यात् "माध्यमाचैव भाषा न पूर्वे, नापि पश्चाद्" इति शापनार्थमेव भाषाग्रहणमिति ॥ ३७२ ॥ ३७४ ॥ 9 श्राह - ननु कतमन्तस्त्रिविधं शरीरं, यद्गतैर्जीव प्रदेशद्र व्याणि गृहीत्वा भाषको भाषते ? इत्याहओरालियवेउच्चिय- आहारओ गिरहइ मुयइ भासं । सर्व सचामोस, मोसं च असध्यमो च ।। ३७५ ।। दारिदेन शरीरद्वतोरमेदोपचारात् मत्वर्थीयो पाद्वा श्रदारिकशरीरवान् जीव एव गृह्यते, एवं वैक्रियवान् वैक्रियः, माहारकयानाहारकः तदयमेवीदारिकवैकिया35हारकशरीरी जीवो गृह्णाति मुखति च भाषां पुलसंतिक पामू भाषां कर्मभूताम् हस्वाद-सत्यां सत्यानृषाम् असत्यमृषां च । इति निर्युक्तिगाथाद्वयार्थः ॥ ३७५ ॥ अत्र विषमपस्याकयानाय माध्यम् 9 सच्चा हिया सयामिह, संतो मुखओ गुणा पयत्था वा । सविरीया मोसा मीसा जा तदुभयसहावा ।। २७६ ।। हिगया जातीपि, सो थिय केवल सच्चसा । एया सभेयलक्खण- सोदाहरणा जहा सुत्ते || ३७७ ॥ इद्द सद्भ्यो हिता श्राराधिका यथावस्थित वस्तु प्रत्यायनफ ला च सत्या भाषा प्रोच्यते । तत्र के सम्त उच्यते येषां सा हिता? इत्याह-सम्त इद्द मुनयः साधव उच्यन्ते, तेभ्यो हिता इहपरलोकाऽऽराधकर मुक्रिप्राचिकेत्यर्थः । अथवा सम्तो मूलोत्तरगुणरूपा गुणाः पदार्थ वा जीवाः प्रोच्य पसी हिता अविपरीतयथावस्थित स्वरूपमरूपणेन सस्था विपरीतस्वरूपाचा भाषा अभिधीयते मिश्रा तु सत्यामृषा का ? इत्याह-या तदुभयस्वभावा सत्यामृषाऽऽ. रिमकेति । या पुनः सत्यामृषोभयाऽऽत्मकासु उक्तलक्षणासुतिसृष्वपि भाषास्वऽनधिकृता तल्लक्षणानन्तर्भाविनी, श्रम ऽथापनादिविषयवहारपतितःशब्द केवल सा सत्यमृषा चतुर्थी भाषा । एताश्चतस्रोऽपि भाषाः सभे दाःसलक्षणाः सोदाहरणाथ यथा कालिका दिकसूत्रे श्रागमे भणित स्तथा तत्रैव बोद्धव्याः । इह तु भा पाद्रव्यग्रहण निसर्गाऽऽदिविचारस्यैव प्रस्तुतत्वादिति गाथाद्वयार्थः || ३७६ || ३७७ ॥ Page #1561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा (१३) औदारिकाऽऽदिशरीरवान् भाषां गृह्णाति, मुञ्चति बेत्युक्तम्। सा पुनर्मुक्का सती किवत् स्यानोति है, इति वक्तव्यम् । उच्यते- समस्तमपि लोकम् । आह यद्येवम्काहि समर्थ लोगो, मासाएँ निरन्तरं तु होइ फुटो । लोकस्य कइभाए, कइभाओ होइ भासाए ||३७८|| योजनेभ्यः परती न तिम परिणामन्वाद द्रव्याणामित्युक्तम् । तंत्र किं परतोऽपि शब्दद्र व्यायामागतिरस्ति ?, यथा च विषयाभ्यन्तरे नैरन्तर्येण तद्वासमासामर्थ्य एवं परिय्यस्ति उत न इति अस्ति [केात्रिस्नमा कहहिं० इत्येवं संवद्रयसमाषातेयं गाथा यात इति लोकतुरचात्मक पलोको परिते । समयः समय भाषाव्येनिरन्तरमेव भवति, स्पृष्टो व्याप्तः १ तस्य च लोकस्य कतिभागे कतिभागो भवति भाषायायामिति ॥ ३७८ ॥ , श्रनोच्यते Edit समहि लोगो, भासाऍ निरन्तरं तु होइ फुडो । लोगस्स व चरित परिमंतो होइ भाखाए ॥ ३७६ ॥ ( १५३८) अभिधानराजेन्द्रः । - सिमको भाषा कस्यचित्संनिरन्तर मेव पूर्वी भवति लोकस्वच खरमान्तः पर्यवभासे. वेयभाग इत्यर्थः तस्मिंश्वरमान्ते असंख्येयभागे भाषाया अपि समस्त लोकव्यापिन्याश्चरमान्तोऽसंख्येयभागो भवती. तिनिधिद्वयार्थः ॥ ३७६ ॥ " आह-किं सर्वस्या अपि भाषा लोकं व्याप्नोति १, नैतदेवमिति दर्शयन्नाह भाष्यकार:कोई मंदपयचो, निसिरह सपलाई सम्बदाई | अतितो, सो मुंबई मिंदिरं ताई ॥ ३८० ॥ कोर: वायुपेतत्वेन मन्दरो पक्का सर्वाधि भाषायाणि प्रथमं सकलानि संपूर्णानि अखण्डान्यभि नानीति यावत्, निसृजति मुञ्चति अन्यस्तु नीरोगताऽऽदिगु· युतीप्रयत्नो भवति, स पुनस्तान्यादाननिसर्गप्रयत्ना*यां भिवैव खण्डशः कृत्वा सूक्ष्मखण्डीकृत्य मुञ्चति । येषामप्यग्रतोति तदाहगंतुमसंखे लाओ, अवगाहा अभिभाई भिते धंसंति य, संखिजे जोयणे गंतुं ।। ३८१ ॥ भाई सुमपार, अगुवाई लोगतं । पार्वति पूरयेति य, भासाएँ निरंतरं लोगं ॥ २८२ ॥ अवगाहोऽवगाहना एकैकस्य भाषाद्रव्यस्कन्धस्याऽधारभू प्रदेशामक क्षेत्र विभागरूपा तासामयमानाना मनन्तभाषाद्रव्य स्कन्धाऽऽश्रयभूत क्षेत्र विशेषरूपाणां वर्गणासमुदायः ता अवगाहनावर्गणाः खल्ब संख्येया गत्वा ततो म प्रयत्नमाम्य मिश्रानि भाषा 1 ण्डीभवन्ति । सव्येयानि च योजनानि गत्वा ध्वंसन्ते शब्दप रिणामं विजइतीत्यर्थः । उकं वा भाषा" जा । प्रज्ञापनायां भाषापदे" अभिमसिईओ श्रीगाणा ग जगता विसमागच्छे ति । " यानि तु महाप्रयत्नो वक्ता प्रथमत एव भिन्नानि निस्सृ भासा जति तानि सूक्ष्मत्वाद्वदुत्वा चानन्तगुरुवृथा वर्द्धमानानि षट्सु दिक्षु लोकान्तमाप्नुवन्ति, शेषं तु तत्पराधातवासनाविशेषाद्वासितया भाषया उत्पन्न भाषापरिणामह पया सर्व लोकंनिरन्तरमापूरयन्ति पदमा म्यादनादि मिः समः" इति षः उईईरद्द, ताई अतगुणपरिवहीए परिवडमारणारं लोयंतं फुलंति ॥ ३८३८२ ॥ (केवल समुग्धाय 'शब्दे तृतीयभागे ६६३ पृष्ठेऽत्र विशेषः । ) यद्येवम् अचित्तमद्दास्कन्धि जीवयोगस्वाभावेऽपि कथं द्वितीये पारमात्रस्थय भाषात् प्रज्ञापनादिषु चतुः समयता प्रोक्ला, इत्याशङ्कयाऽऽह 9 " संघो वि बीससाए, न पराघाओ य तेरा चउसमभो । अह होज्ज पराघाओ, हविज्ज तो सो वि तिसमइओ । ३६४| स्कंधो महारथः सोऽपि विया केवलेनविश्रसापरिणामेव भवति, न तु जवप्रयोगेण । विश्वसापरिणामश्च विचित्रत्वान्न पर्यनुयोगमईति । किं च-तत्र पराघातोऽस्ति - नान्यद्रव्याणामात्मपरिणाममसौ जनयतीस्वर्थः किं तु स निपुङ्गव के पूरयति । ततोऽसी चतुःसमयो भवति । पिपराघातो भवेत् ततः सोडपित्रिसामायिको भवेत् त्रिभिरेव समयैर्लोकमापूरयेदित्यर्थः। न वैषम्, सिद्धान्ते चतुःसमवायेन तस्यो , स्ति तत्र पराघातः श्रत्र त्वस्त्यसौ, इति वैषम्यमिति ॥ ३६४ ॥ अथानादेशप्रस्तावादपरमपि मतमुपन्यस्य पयतिएदिसमाइसमये दंड काऊ चहि पूरेड । तिपय नागमचिक्ख होइ ॥ ३६५॥ अन्ये विज्ञापन्ते दिये एकदाच र्भिः समये लोकमापूरयति । एतदुक्तं भवति प्रथमसमये ताब दिशिवराई करोति द्वितीय सत्र मन्थानम् अधी दिशि पुनई: तृतीयसमये अदिश्यम् रामपूरमध तु मन्धानं करोति चतुर्थसमये तु तत्राप्यन्तरालपूरणात्समस्तमपि लोकं भाषाद्रव्यैः पूरयति । तदेतदपि नागमक्षमं, कमियागम पचनश्रवणात् नापि युमिका युक्तिः वदनुगमनस्वभावानां पुलानामकया दिशागमनं भवति नान्यया ? वक्तुमुखाश्चादिप्रयप्रेरण मंत्र युक्तिरिति चेत् । नैवं यतो वक्ता कदाचिद्विश्रेण्याऽभिमु खस्तदा भाषापुलान् प्रेरयेत् विदिश्यपि तेषां गमनप्रसङ्गः । किं चैवं सति पटद्दाऽऽदिशब्दपुद्र लानां चतुःसमयानियम एव स्याद्वकतृप्रयत्नस्य तेष्वभावात् । तस्माद्युक्त्यागमविरुद्धत्वादुपेक्षणीयमेवेदमिति ॥ २६५ ॥ विशे० आ० म० । नं० । सम्प्रति भाषाय्यग्रह। 55दिविषयसंवादनोदार्थमाह जीवे णं भंते ! जाई दव्बाई भासत्ताए गिरहति, ताई किंठियाई मेदति भट्टियाई राहत है। गोयमा डिबाई गिरइति जो अडिवाई गिरइति जाई ते डिबाई गि । ! एहति, ताई किं दव्बतो गिरइति खेचतो गिएहति, कालतो गिएइति, भावतो गिएहति ?। गोयमा ! दव्त्रम्रो विगिएइति, - 66 1 1 Page #1562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५३६ ) अभिधान राजेन्द्रः । भासा desi farmer वि भावओो वि गिरहति । जाई भंते ! दव्य एहति, ताई किं एगपदेसियाई गिएहति, दुपदेसि या गिराइ० जाव अयंत पदेसियाई गेहति ।। गोयमा! नो एगपदेसियाई एहति०जान नो भसंखिअपदेसिया इंगिएहइ, तपदेसियाई गेहति । जाई खेतओ गेराइति, ताई किं एगपएसोगाढाई एडति, दुपएसोगाढाई गेएहति ०जाव असंखेज्जपए सो गाढाई गेएहति ।। गोयमा ! नो एगपएसो. गाढाई एहति० जाव नो संखेअपएसोगाढाई गेयइति, असंस्बेअपएसोगाढाई गेएहति । जाई कालतो गेयहति, ताई किं एमसमयडिया गेहति दुसमपट्टिईयाएं नियहति, • जान असंखिञ्जसमबट्टिईयाई गेयइति १ । गोयमा ! एमसमयद्वितीयाई पि गेणइति, दुसमयद्वितीयाई पि गएहति०जाब असंबज्ञसमयद्वितीयाई गेएहति जाई । भावतो एहति, ताई किं बताई गएहति, गंधमंताई रसमंताई फासमंताई गेण्हति १ । गोयमा ! वस्समंताई गिएहडू० जाव फासताई एहति । जाई भावओो वममंताई गेवहति, ताई एवलाई एहति ०जाव पंचवाई गेएहति १ । गोमा ! गणदव्बाई पडुच्च एगवलाई पि गेरहति वजाब पंचवापि गेहति सव्वग्गहणं पडुच्च शियमा पंचबछाई गेएहति । तं जहा-कालाई नीलाई लोहियाई हालि हाई सुकिल्लाई । जाई बसतो कालाई गएहति, ताई किं गगुणकालाई एहति ०जाव मतगुणकालाई गिएह"ति । गोयमा ! एगगुणकालाई पि गिएहति ०जाब भयं तगुखकालाईपि गेएहति । एवं० जाव सुकिल्लाई पि । जाई भाबतो गंधमताई गिएहति, ताई किं एगंगंधाई गिएहति, दुगंधाइंगिएहुई। गोयमा ! गहणदव्वाई पडुच्चए गगंधाई पिगिएहइ दुर्गधाई पिगिएहति । सब्बगहां पहुच्च नियमा दुगंधाई गिएहति । जाई गंधतो सुब्भिगंधाई गिरइति, ताई किं एगगुसुज्भिगंधाई गिएहति०जाब अतगुण सुब्भिगधाई गिएहति ? गोयमा ! एगगुणसुभिगंधाई पि ०जाव भतगुसुभिगंधाई पि गेहइ । एवं दुब्भिगंधाई पि एहइ । जाई भावतो रसमंताइ गएहति, ताई किं एगरसाई गेयइति० जाव किं पंचरसाई गेएहति । गोयमा ! गहणदव्वाई पड़ुच्च एगरसाई पि एहति० जाव पंचरसाई पि एहति । सव्वमहणं पडुच्च नियमा पंचरसाई गेएहति । जाई रसओ तित्तरसाई इति ताईकिंगगुणतित्तरसाई गिएहति०जाब भयं गुणतिलाई गिएहति ? । गोयमा ! एगगुणतिलाई पि गिएइ जान अतगुणतिलाई पि गिएहति । एवं ० जाब मधुरो रसो । जाई भावतो फासमंताई गेएइति, ताइं किं एगफामाई यहइ० जाव भट्टका समंताई गियइति । मो| भासा चमा ! गहणदव्वाइं पडुच्च यो एगफासाई गेएहति, दुफासाई गिएर ०जाब चउफासाई गएहति, यो पंचफासाई मेएहति० जाव नो अट्ठफासाई पि गएहति । सब्बगहां पहुच्च नियमा उफासाई गेयहति । तं जहा सीतफासाई गेयइति, उसियफासाई निद्धफासाई लुक्खफासाई गेयहबि । जाई फासतो सीताई गियइति, ताई किं एगगुणसीताई गेयइति० जाव असंतगुण सीताई गेमहति ।। गोया ! गुणसीताई पिगेयइति जान भतगुण सीताई पि गेएहति । एवं उसिय खिद्धलुक्खाई जाव भयंत गुणाई पि गियहति । आई मंते ! •जाब असंतगुखलुक्खाई गेयइति, ताई पुट्ठाई एहति, अडाइ गएहति १ । गोयमा ! बुट्ठाई एहति, नो अट्ठाई गेएहति । जाई मंते ! पुट्ठाई गेएहति, ताई कि प्रोगाढाई गेएहति, अयोग ढाई गेहति । गोयमा ! ओगाढाई गेएहति, नो अयोगाढाई गेएइति । जाई भंते ! परोगाढाई गेयइति ।। गोयमा ! अयंतरोगाढाई गिराहति, गाढाई एहति, ताई किं श्रयं तरोगाढाई गेएहति, परंनो परंपरोगाढाई गेएहति । जाई भंते ! अणंतरोगाढाई गेहति, ताई भंते! किं अणूई एहति, वायराई गेएहति । । गोयमा ! अपि गेयइति, बायराई पि एहति । जाई भंते! अपि एहति, वायराई पि गिएहइ ताई किं उडुं मेएहति, अधे गेयहति, तिरियं मेहति १ । गोयमा ! उड्ड पि गएहति, अधेवि गेयइति, तिरियं पि यहति । जाई भंते ! उडुं पि गेयइति, अधेवि गेहति, तिरियं पि गेयइति, ताई कि आदि गेएहति, मज्झे गेएहति, पज्जवसाखे गेएहति १ । गोयमा ! आदिं पि एहति, मज्झे बि गेएहति, पज्जवसाये वि गेण्ड्रति । जाई भंते 1 आदि पगएहति, मज्झे वि गेयइति, पज्जवसाखे वि गिएहति, ताई किं सविसए गिएहति अनिस गिरहति । गोयमा ! सविसए गेराहति, नो अविसए गएहति । जाई भंते! सविसए गए हति, ताई किं पुवि गेराहति, श्रणापुवि गेयइति १ । गोयमा ! आणुपुत्रि एहति, नो अापुवि गेहति । जाई तापुवि एहति, ताई किं तिदिसि गेहति ०जाब airfi rहति १ । गोयमा ! नियमा छद्दिसिं गेयहति । " पुट्ठोगाढ अणंतर, अणू य तह वायरे य उड्डमहे । आ दिविसया पुत्रि, शियमा तह छद्दिसिं चैव ॥ १ ॥ ( सूत्रम् १६८ ) जीवे णं भंते ! जाई दबाई भासताए गेएइति, ताई किं संतरं गेयहति, निरंतरं गेहति ? । गोया ! संतरं पि यहति, निरंतरं पि गेयइति, संतरं गियहमासे जहमेवं एवं समयं उक्को सेयं संस्वेज्जं समर्थ अंतरं कट्टु एहति, निरंतरं नेयहमाये जहां दो समए, "9 Page #1563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा कोसेणं असंज्जसमए, अणुसमयं अविरहियं निरंतरं गेयइति । जीवे णं भंते ! जाई दव्बाई भासताए गहियाई शिसिरइ, ताई किं संतरं निसरइ, निरंतरं निसरइ १ । गोयमा ! संतरं निसरड, नो निरंतरं निसरड़, संतरं निसरमाणे एमेणं समयं मेहति पगेणं समय निसरह, एतेयं गहणनिसरथोवारणं जमे दुसमइयं उकोसे, खज्जम तोचिगं गहरा निसरखोवार्य फ रोवे । भीये णं भंते । जाई दव्वाई भासता ग हियाई सिसिरति, ताई किं भिलाई खिसरति, श्रभिलाई विसरति । गोयमा ! भिन्नाई पि निसरइ, अभिन्नाई पनिसर, जाई मिश्रा विसरति, ताई असंतगुणपरिबुडीए परिमाणाई २ लोपंत फुसन्ति; जाई अभिलाई निस रद्द, ताई अज्जाओ भोगाय बम्गणाओ गंवा भेदमाअंति संखेझाई जोगाई गंगा विद्धंसमागच्छेति । (सूत्रम् - १६६ ) 7 जीये पंजाई दबाई वाससाद गिगहर इत्यादि, सुगमं नबरडिया स्थितानिन गमनक्रियान्ति, इष्य सचितायामनन्तप्रादेशिका नि-अनन्तपरमाण्वात्मकानि गृ द्वाति, नैकपरमाण्वाद्यात्मकानि तेषां स्वभावत एव जीवा. मां महणायोग्यत्वात् क्षेत्रचिन्तयामप्रदेशमा ढानि एक प्रदेशाद्यवगाढानां तथा स्वभावतया प्रणायोग्य स्वास्, कालतचितायामेक समयस्थितिकान्यपि यावदस ; ये समय स्थिति काम्यपि गृह्णाति पुगजानामसङ्ख्यमपि कालं यावदषस्थानसम्भवात् । तथा चोक्तं व्याख्या महती सेजनिजपुङ्गलास्थानचिन्तायाम् अतपसि णं भंते ! संधे केवहकालं सेट १ । गोयमा ! जहत्रेणं एकं समर्थ उर्फ आायलियार असंखेज्जहभागं निरंद जहमे पक्कं समयं उक्कणं श्रसंखे कालं ' इति । तेषां गृहीतानां ग्रहणानन्तरसमये अपश्यं निसर्ग इति स्वभा बस्थानम्तरसमये प्रणं प्रतिपत्तव्यम् । अन्ये तु व्याचक्षतेएक समय स्थितिकान्यपीति श्रादिभाषापरिणामापेक्षया - यं विचित्र हि पुलानां परिणामः, ततः एक प्रयत्नगृही मुक्का अपि ते केचिदेकं समयं भाषायेनावति, फेवि समयी यावत् के समयानिति । तथा हवाई इति निच • 1 सामि द्रव्याणि च ग्रहणद्रव्याणि । किमुक्तं भवति ?यामि ग्रहणयोग्यानि द्रव्याणि तानि कानिचित् वर्णपरिणामेन एकेन चर्चेमोपेतानि कानिचित् कानिचित जिमिः कानिचित् कानिचित्पञ्चभिः यहा पुनरेकप्रधान गृहीतानामपि सर्वेषां प्रयाणामपि समुदायो विश्य तदा नियमात् पञ्चवर्णानि गृह्णाति एवं गम्बरण्यपि भावनी स्पर्शतः सिम्तायामेकस्पर्शप्रति बेधः एकस्यापि परमाणौरवश्यं स्पर्श तथा बो क्रम्--" कारणमेव तदस्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमासुः । करसगन्ध द्विस्पर्शः कार्यनि ॥ १ ॥ " शि " ( १५४० ) अभिधानराजेन्द्र ! | " " भासा स्पर्शानि मृदुशीतानि दृष्यामीत्यादि ० जाव उफासा इति यावदकरणात् पिपरिय " , " 3 निचित् द्रव्याणि किल मृदुशीतस्पर्शांनि कानिचित् मृदुखिग्धस्पर्शानित मृदुस्पर्शो मुदुस्पर्श एवान्तर्भूत इत्ये कस्पर्शः शीतखग्धरूपी तु द्वावम्यौ स्पर्शाचिति समुदायम धिकृत्य विपर्णानि एवं स्पर्शान्तरयोगे ऽपि विस्पर्शानि मा रूपी दो स्पस्थिती रा वनयानि कानिचिचतुःस्पर्शीनि तत्र चतुःस्मृ द्वौ सूक्ष्मस्कन्धेषु तयोरसम्भवात् श्र यो तु द्वौ स्पर्थी खिग्धोष्टी स्निग्धशीतोष्णीशीत, सर्वमुदायमपेश्व नियमात्तानि चतुःस्पर्शनि गृहाति । तत्र यो द्वौ मृदुलघुरूपी स्पर्शावयस्थिती तावस्थित स्वादेव व्यभिचाराभावाच गरायेते, ये खम्पेनिया स्वारस्ते किल वैकल्पिका इति तानधिकृत्य सूत्रमाह । तद्यथा' सीयफासाई रहर' इत्यादि सुगमं यावत् ' जा इं भंते ! अंतगुणलुक्खाई गेराहर इह किल चरमं सू· श्रममन्तरमिदमुक्रम्-खाप हि ततः सूत्रसम्बन्धवादिदमुक्तम्-जाई तेजाब गुणक्खाई गेराहर' इति । यावता जाई भंते! पगगुणकालबणाई' इत्याद्यपि द्रष्टव्यम्, ताई भंते! किं पुट्ठाई इ. त्यादि, तानि भदन्त । किं स्पृष्टानि श्रात्मप्रदेश संस्पृष्टानि गृह्णाति, उतास्पृशनि है। भगवान गीतम स्पृशनिआत्मप्रवेशः सह संस्पर्शमागतानि गृह्णाति वास्पृष्टानि वात्मप्रदेश: संस्पर्शनमात्मप्रदेशावगात्रा बढिरपे सम्भवति ततः प्रश्नयति-' जाई भंते !' इत्यादि । श्रवगाढा नि- श्रात्मप्रदेशैः सह एक क्षेत्रावस्थितानि गृह्णाति नानवगादानि ।' जाई भंते ! इत्यादि, अनन्तरावगाढानि अव्यवधानेनावस्थितानि गृह्णाति, न परस्परावगाढानि । किं. मुक्तं भवति ? - येष्वात्मप्रदेशेषु यानि भाषाद्रव्याण्यवगादानि तैरात्मप्रस्ताव गृहाति न वेद्वियात्मप्रदेश व्यवहितानि जाई मंगाई इत्यादि । अ शून्यपि -- स्तोकप्रदेशान्यपि गृह्णाति बादराण्यपि - प्रभूतप्रदेशोपचिताम्यपि, हा रणुत्ववादरत्वे तेषामेव भाषायोग्यानां स्कन्धानां प्रदेश स्तोक बाहुल्यापेक्षया ख्याख्याते, मूलटीकाकारेण तथा व्याख्यानात् । 'जाई भंते ! अणू पि गेरह ' इत्यादि, अर्तुमपि अधोऽपि नियंगपीति, इह जीवस्य या पति क्षेत्रे प्रायोम्यानि भाषाव्याश्वस्थतानि तात्येव क्षेत्रे ऊर्ध्वाधस्तिर्यक्त्वं द्रष्टव्यम् । जाई भंते ! उ हूं पि गेरह ।' इत्यादि, यानि भाषाद्रव्याण्यन्तर्मुहूर्त्त याव त् प्रयोचितानि तानि प्रयोचितकालस्य उत्कर्षतोऽ मुहूर्त्त प्रमाणस्याऽऽदावपि प्रथम समये युद्धातिमध्ये द्वितीयादिष्वपि समात पानेऽपि पर्यवसा नसमयेऽपि वृद्धाति , , • स्वविषयान् स्वगोचरान् स्पृष्टावगाढानन्तरावगाढाऽऽख्यान् गृह्णाति न स्वविषयान् स्पृष्टाऽऽदिव्यतिरिक्तान् । 'जाई भंते! विसर गेरहद्द इत्यादि । भानुपूर्वीनामप्रहरणापेक्षया यथासनत्वं तद्विपरीता श्रनानुपूर्वी तनानुपूर्या गृह्णाति, न त्वनानुपूर्व्या ।' जाई भंते ! श्राणु - पुदि इत्यादि निविखिति । विदिशि गृहाति, तिम्रभ्यो दिग्भ्य आगतानि गृहाति " 9 · Page #1564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा अभिधानराजेन्द्रः। भासा पदिशि च । एवमुक्त भगवानाह-गौतम ! नियमात् षद्- चानन्तरसूत्रम् ' अयुसमयमविरहियं निरंतरं मेण्डर' दिशि गृढाति-पद्भ्यो दिग्भ्य मागतानि गृह्णाति , भाषको इति, ततो निसर्गोऽपि प्रथमवर्जेषु शेषेषु समयेषु निरन्तर हिनियमात् त्रसनाड्यामन्यत्र त्रसकायासम्भवात् , त्रस- प्रतिपत्तव्यो गृहीतस्यावश्यमनन्तरसमये निसर्गात् । ततो माड्यां च व्यवस्थितस्य नियमात् षड्दिगागतपुद्रलसम्भवा- यदुक्तम्-'सान्तरं निसृजति नो निरन्तरमिति', तत्र ग्रह त्। एतेषामेवार्थानां सङ्ग्रहरिणगाथामाह-'पुट्ठोगाढणंतरं।' णापेक्षया पुख्यम् । तथाहि-यस्मिन् समये यानि भाषाद. इत्यादि प्रथमतः स्पृष्टविषयं सूत्र, तदनन्तरमवगाढसूत्रम्, त. व्याणि गृह्णाति न तानि तस्मिन्नेव समय मुश्चति , यथा तोऽनन्तराबगाढसूत्रम्,ततोऽणुबादरविषयं सूत्रम्.तदनन्तर• प्रथमसमये गृहीतानि न तस्मिन्नेव प्रथमसमये मुञ्चति,किन्तु मूधिःप्रभृतिविषयं मूत्र, तत 'प्राई' इति । उपलक्षणमेतत् पूर्वस्मिन् २ समये गृहीतानि उत्तरस्मिन् २ समये. ततो ग्रह आदिमध्यावसानसूत्रततो विषयसूत्रं , तदनन्तरमानुपूर्वीसू णा निसगो ऽगृहीतस्य निसर्गायोगात् इति सान्तरं निस अंततो नियमात् पदिशीतिसूत्रम् । (१६८) 'जीवाणं भंते ! र्ग उक्त प्राह च भाष्यकृत्जाई दब्वाई' इत्यादि । जीवो ' ण ' मिति वाक्यालङ्कारे, "अणुसमयमणंतरियं, गहणं भणियं ततो विमोक्खोऽवि । भदन्त! यानि द्रव्याणि भाषात्वेन गृह्णाति तानि कि सा. जुत्तो निरन्तरो विय, भणइ कहं संतरो भणिो ? ॥१॥ तरं-सव्यवधानं गृह्णाति, किंवा निरन्तरं-निर्व्यवधानम् ? गहणावेक्खाएँ तो, निरंतरं जम्मि जाँइ गहियाई । भगवानाह-सान्तरमपि गृहाति, निरन्तरमपि । उभयथाऽपि न उ तम्मि व निसरह, जह पढमे निसिरण नस्थि ॥२॥ प्रहणसम्भवात् । तत्र सान्तरनिरन्तरप्रहखयोः प्रत्येक का. निसिरिजा नागहिय, गहणतरिय ति संतरं तेण।" इति । समानं प्रतिपादयति-'संतरं गिराहमाझे ' इत्यादि । सा. एतदेव सूत्रकृदपि स्पष्टयति-' संतरं निसरमाणो एगणं न्तरं गृह्यन् जघन्यत एकं समयमन्तरं कृत्वा गृहाति, समएणं गेराहद, एगेणं समएणं निसर' इति । एकेन-पूर्वपतच जघन्यत एक समयमन्तरं सततं भाषाप्रवृत्तस्य पूर्वरूपेण समयेन गृह्णाति, एकेन-उत्तरोत्तररूपेण समयेन भाषमाणस्यावसेयम्। तचैवम् कश्चिदेकस्मिन् समये भाषा- निसृजति । अथवा-ग्रहणापेक्ष निसर्गाभावात् एकेन श्राद्येपुनलान् गृहीत्वा तदनन्तरं मोक्षसमये अनुपादानं कृत्वा. न समयेन गृह्णाल्येव न निसृजत्यगृहीतस्य निसर्गाभावात् , पुनस्तृतीय समये गृहास्येव, न मुञ्चति, द्वितीये समये प्रथ- तथा एकेन-पर्यवसानसमयेन निसृजत्येव, न गृह्णाति,भाषामसमयगृहीतान् पुद्रलान् मुञ्चति , अन्यानादत्ते, अथाम्येन ऽभिप्रायोपरमतो ग्रहणासम्भवात् , शेषेषु तु द्वितीयाऽऽदिप्रयत्नविशेषण ग्रहणमन्येन च प्रयत्नविशेषेण + निसर्गः, पुसमयेषु युगपद् ग्रहणनिसर्गों करोति , तौ च निरन्तर तौ च परस्पर विरुद्धौ , परस्पराविरुद्धकार्यकरणात् , ततः जघन्यतो द्वौ समया, उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयान् समयान् । एतदे. कथमकस्मिन् समये तो स्यातां , तदयुक्त. जीवस्य हि वाऽऽ- एतेणं गहणनिसरणोवाएणं जहमेणं दुसमइ, उ. तथास्वाभाव्यात् द्वावुपयोगावेकस्मिन् समय न स्यातां, ये कोसणं असंखजसमइयं अंतोमुहुत्तं गहाणसिरणं करे।' तु क्रियाविशेषास्ते बहवोऽप्ये कस्मिन् समये घटन्त एव , इति। जीवे णं जाई दब्वाई' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमं ' भ. तथादर्शनात्। तथाहि-एकाऽपि नर्तकी भ्रमणाऽऽदि नृत्तं वि. गवानाह-गौतम ! भिन्नान्यपि निसृजति, अभिन्नान्यपि । इय. दधाना एकस्मिन्नपि समये हस्तपादाऽऽदिगता विचिनाःक्रि. मत्र भावना-इह द्विविधो-वक्ता-मन्दप्रयत्नस्तीवप्रयत्नश्च । त. या कुर्वती दृश्यते,सर्वस्यापि वस्तुनः प्रत्येकमेकस्मिन् समये त्रयो व्याधिविशेषतोऽनादरतो वा मन्दप्रयत्नः स भाषाव्या. उत्पादव्ययावुपजायेते.एकस्मिन्नेव च समये सघातपरिशा- णि तथाभूतान्येव स्थूलखण्डाऽऽत्मकानि निसृजति यस्तु मी. टायपि, ततो न कश्चिदोषः । श्राह च भाष्यकृत्-"महण- रोगताऽऽदिगुणयुक्तस्तथाविधाऽऽदरभावतस्तीवप्रयत्नः स निसम्मपयत्ता, परोप्परविरोहिणो कह समये ? । समए दो भाषाद्रव्याणि मादाननिसर्गप्रयत्नाभ्यां खण्डशः कृत्वा निस उवोगा, न होज किरियाण को दोसो ?॥१॥" इति । जति । प्राह च भाष्यकृत्-"कोई मंदपयत्तो,निसिरह सकलाई तृतीये पुनः समये तानव द्वितीयसमयोपात्तान् पुद्गलान् सम्बदब्वाई । अन्नो तिवपयत्तो,सो मुंह भिंदिउं ताई ॥१॥" मुश्चति , न पुनरन्यानादत्ते, उक्कर्षेण स्वस-ख्येयान् याव. तत उक्तम्-'भिन्नाई पि निसिरह,अभिनाई पि निसिरहजाई निरन्तरं गृह्णाति । तथा चाऽऽह-उत्कर्षेणासाख्येयान् सम. भिनाई निसिरह' इत्यादि। यानि तीवप्रयत्नो वक्ता प्रथमत यान् गृह्णाति इति योगः, कदाचित्परोऽसङ्ख्येयैः समयैः एव भिन्नानि निसृजति तानि सूदमत्वात् बहुत्वाच्च प्रभूता. रेक ग्रहपं मन्येत, तत पाह-'अनुसमय' प्रति समयं गृ न्यम्यानि द्रव्याणि वासयन्ति, तदन्यद्रव्यवासकत्वादेव वा. हाति। तदपि कदाचिद्विरहितमपि व्यवहारतोऽऽनुसमयमिः नम्तगुणवृद्धया परिबर्धमानानि षट्सु दिक्षु लोकान्तं स्पृशत्युच्येत, ततस्तदाशक्य व्यवच्छेदार्थमाह-अविहितम, न्ति , लोकान्तं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । उक्तं च-" भिन्ना सुहु. एवं निरन्तरं गृह्णाति, तत्राऽऽद्य समये ग्रहणमेव, न निसर्गः, मयाए, अर्णतगुणवड्डियाई लोगंतं । पापंति पूरयति य, भा. अगृहीतस्य निसर्गाभावात्, पर्यन्तसमये च मोक्ष एव.भाषा, साएँ निरंतरं लोग ॥१॥" यानि पुनर्मन्दप्रयत्नो वक्ता य. "ऽभिप्रायोपरमतो ग्रहणासम्भवात् शेषेषु द्वितीयाऽऽदिषु थाभूतान्येव प्राक भाषाद्रव्याण्यासीरन् तथाभूतान्येव सक. समयेषु ग्रहण निसर्गों युगपत्करोति । ' जीवा णं भंते ! लान्यभिन्नानि भाषात्धेन परिण मय्य निसृजत्ति, तान्यसंख्येया जाई दब्बाई भासत्ताए गहियाइं निसरइ ' इत्यादि प्रश्नसूत्र अवगाहनावर्गणा गत्वा,अवगाहनाः-एकैकस्य भाषाव्यसुगमम्, निर्वचनमाह-सान्तर निसृजति . नो निरन्तरम् , स्याऽऽधारभूता असंख्येयप्रदेशात्मक क्षेत्र विभागापास्ता. इयपत्र भावना-इह तावत् ग्रहण निरन्तर मुक्त , तथा सामवगाहनानां वर्गणाः-समुदायास्ता असंख्ये या प्रतिकम्य ३८६ Page #1565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४२ ) अभिधानराजेन्द्रः । माला भेदमापद्यन्ते, विशरारुभावं विभ्रति इत्यर्थः । विशरारुभावं विभ्राणानि च संख्येयानि योजनानि गत्वा विध्वंसमागच्छन्ति, शब्दपरिणामं विजहतीत्यर्थः । उक्तं च-" गं. तुमसंखेज्जाश्रो, श्रवगाहणवग्गणा अभिन्नाई । भिजंति धंसमेति य, संखिज्ज़ जोयणे गंतुं ॥ १ ॥ " भिन्नान्यपि निसृजतीत्युक्तम् । (१४) तत्र कतिविधः शब्दद्रव्याणां भेद इति पृच्छति -- एसि णं भंते! दव्वाणं कतिविहे भए पष्मत्ते । गोयमा ! पञ्चविधे भेदे पष्ठत्ते । तं जहा-खंडाभेदे, पयरभेदे, चुम्सियाभेदे,अणुतढियाभेदे,उक्करियाभेदे । से किं तं खंडाभेदे ?। खंडाभेदे जहां अखंडाण वा तउखंडाण वा तवखंडाण वा सीसखंडाण वा रययखंडाण वा जातरूवखंडाण वा खंडएग भेदे भवति से तं खंडाभेदे |१| से किं तं पयराभेदे । पयराभेदे जलं वंसाण वा' वेताण वा नलाय वा कदलीयंभाग वा श्रब्भपडलाय वा पयरे भेदे भवति, से तं पयराभेदे|२| से किं तं चुलियाभेदे १। चुनियाभेदे जणं तिलचुमाण वा मुरंगचुमाण वा मासचुसाय वा पिप्पलीचुमा वा मरियमाण वा सिंगवेरचुमाण वा चुलियाए भेदे भवति से तं चुलियाभेदे | ३| से किं तं अणुतडियाभेदे | अणुतडियाभेदे जसं श्रगडाग वा तडागाण वा दहाण वा नदी वा नावीण वा पुक्खरिणीय वा दीहियाण वा गुंजालियाण बासराय वा सरसराय वा सरपंतियाय वा सरसरपंतिया वा अणुतडियाभेदे भवति, से तं अणुतडियाभेदे | ४ | से किं तं उक्करियाभेदे ? । उक्करियाभेदे जहां मूसाण वा मंडूसाग वा तिलसिंगारा वा मुग्गसिंगाण वा माससिंगाण वा पंडवाण वा फुडिता उक्करियाभेदे भवति, से तं उक्करयादे |५| एएसि णं भंते । दव्वाणं खंडाभेएणं पयराभेदेणं चुटियाभेदेणं अणुतडियाभेदेणं उकरियाभेदेण य भिज्जमाणाणं करे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा १ । गोयमा ! सव्वत्थोवाई दव्बाई करियाभेदेणं भिज्ञमाण । अणुतडियाभेएणं भिजवाणाई अयंतगुणाई, चुलियाभेदेणं भिज्जमाणाई अंतगुणाई, पयराभेदेणं भिमाणाई असंतगुणाई, खंडामेदेणं भिज्जमाणाई अतगुणाई || सूत्रम् - १७० ) नेरइए णं भंते ! जाई दव्बाई भासताए गंएहति ताई किं ठियाई गेएहति, अट्टियाई गेहति १ । गोमा ! एवं चेव, जहा जीवे वत्तन्वया भणिया, तहा नेरइयस्स वि०जाव अप्पाबहुयं । एवं एगिंदियवओो दंडओ ● जाव वैमाखिया || जीवा-यां भंते ! जाई दब्वाई भासत्ताए गेयहति, ताई किंठियाई गेयइति, अट्टियाई गेवहति १ । गोय | भासा एवं चैव पुहुत्ते वि तच्वं० जाव बेमाणिया । जीवे णं भंते ! जाई दव्बाई सबभासत्ताए गएहति ताई किं ठियाई गेहति अट्टियाई गेण्डति । गोयमा ! जहा मोहियदंडओ तहा एसोऽवि, वरं विगलिंदिया स पुच्छिज्जंति, एवं मोसाभासाए वि, सच्चामोसामासार वि, असबाबोसाभासाए वि एवं चैव, नवरं असच्चामोसा भासाए विगलिंदिया पुच्छिज्जंति इमेणं अभिलावेगं - विगलिदिए गं भंते ! जाई दब्बाई असच्चामोसा भासाए गिएइ, ताई कि ठियाई गेएइ, अट्ठियाई गेएइइ ?। गोयमा ! जहा ओहियदंड, एवं एएए दस दंडगा भाणियन्त्रा । [ सूत्रम् - १७१] । जीवे णं भंते ! जाई दव्बाई सबभासत्ताए गिएहति, ताई किं सच्चभासचाए निसिरइ, मोसभासचाए निसिरइ सच्चामोसभासत्ताए निसिरति, श्रसच्चामोसभा सत्ताए निसिर १ । गोयमा ! सच्चभासत्ताए निसिरइ, नो मोसभासचाए निसिरति, नो सच्चामोसभासचाए निसिरति, नो असच्चापोसभासत्ताए निसिर । एवं एगिंदियविगलिंदियवज्जो दंड • जाव बेमाणिया, एवं पुहुत्ते वि । जीवे णं भंते ! जाई दव्वाई मोसभासत्ताए गिएहति, ताई किं सच्चभासत्ताए निसिरति , मोसमासत्ताए सच्चामोसभा-सचार असच्चामोसभासनाए निसिरइ १, गोयमा ! नो सच्चभसित्ताए निसिरति, मोसभासत्ताए निसिरति, खो च्चामोसभासत्ताए निसिरति, यो असच्चामोसभासचाए निसिरति । एवं सच्चामोसभासत्तार वि, असच्चामोस - भासत्ताए वि एवं चेव, नवरं असच्चामोसभासत्ताए बिगलिंदिया तब पुच्छि जति, जाए चेव गिएहति ताए चेब निसिरति, एवं एते एगतपुहुत्तिया श्रट्ठ दंडगा भाणियन्वा ।। (सूत्रम् - १७२ ) । कतिविहे णं भंते ! वयणे पसचे १, गोमा ! सोलसविहे वय पछते । तं जहा- एगवय दुवय बहुवणे इत्थिवयणे पुमवयणे खपुंगव - वणीयावणीयवणे अवणीयोवणीयवयणे श्रतीतवयखे पडुयणे अज्झत्थवयणे उवणीयवयणे अवणीयवय उव्यन्नवयणे अणागयवयणे पच्चक्खवयणे परोक्खवयणे । इच्चेयं भंते ! एगवणं वा • जाव परोकखवणं वा वदमाणे पष्ावणी गं एसा भासा य एसा भासा मोसा ? | हंता ! गोयमा ! इच्चेयं एगवयणं वा परोकखवणं वा वदमाणे पत्रणी गं एसा भासा स एसा भासा मोसा || (सूत्रम् - १७३ ) ।। ० जाव For Private 'एतेसिं भंते ! दव्वाणं ' इत्यादि, तत्र खण्डभेदो लोह खण्डाऽऽदिवत् प्रतरभेदोऽभ्रपटल सूर्यपत्राऽऽदिवत् चूर्णि कामेशः क्षिप्तपिष्टवत् अनुतटिकाभेद इक्षुस्वगादिवत् उटकटि Personal Use Only Page #1566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५४३) मासा अभिधानराजेन्द्रः। भासा काभेदः स्तुत्याधर्षवत् । एतानेव भेदान् व्याख्यातुकामः प्रश्न एवन प्रतिहतं-मिथ्यावुकतदानप्रायश्चित्तप्रतिपस्यादिना निर्वचनसूत्राण्या-से किं तं खंडभेदे ?' इत्यादि पाठ- न नाशितमतीतं तथा न प्रत्याख्यातं भूयोऽकरणतया निषि. सिखं, नवरमनुतटिकाभेदे अषटा:-कृपाः, तडागानि-प्रती. खमनागतं पापकर्म येनासावप्रतिहताप्रत्याख्यातपापकर्मा, तानिइदा भपि प्रतीताः, नद्यो-गिरिनद्यादयः, वाप्या- शेष पाठसिद्धम् । प्रशा० ११ पद।। चतुरस्त्राकारा,ता एव वृत्ताऽऽकाराः पुष्करिण्यः दीर्घिका ___ गमो वा ठिो वा केगाइ पुट्ठो निउणं महरं थोवंकज्यो नयः बक्रा नद्यो गुजालिकाः बहूनि केवल केवला ज्जावडियं भगब्वियमतुच्छ निहोस सयलजणमणाणंनि पुष्पप्रकरबत् विप्रकीर्णानि सगंसि ताम्येष एकैकपकृत्या व्यवस्थितानि सरम्पतयः येषु सरस्सु पस्कत्या व्य. दकारयं इहपरलोगसुहावहं वयणं ण भासेज्जा, अवंबस्थितेषु कृपोदकं प्रणालिकया सञ्चरति सा सरासर-प. दे जइ णं नाभिग्गदिमो सोलसदोसविरहियं पि स सासक्ति, अप्रतीता भेदा लोकतःप्रत्येतव्याः,अल्पबहुत्वं सूत्रप्रा. वज भासेज्जा, उबट्ठावणं बहु भासे उवट्ठावणं कसाए माण्यात् तथेति प्रतिपत्तव्यं युक्तरविषयत्वात् , शेष सूत्रं सर्वमपि पाठसिखं, 'जाब कतिविहे णं भंते ! बयणे पसत्ते' हिंसिज्जा, अवंदे कसाएहिं समुइत्तेहिं मुंजे रयणि वा इति । तत्रैकवचनं पुरुष इति, द्विवचनं पुरुषाविति, बहु- परिवसेज्जा मासं . जाव मुणवए, भवंदे य उवट्ठावणं वचनं पुरुषा इति, स्त्रीवचनमियं स्त्री, पुरुषवचनमयं पुमान् , च परस्स वा कस्सइ कसारसु मुइरेज्जा, भकसायस्स वा नपुंसकवचनमिदं कुण्डम् , अध्यात्मवचनं यदन्यच्चेतसि निधाय विप्रतारकबुद्धयाऽन्यद् विभणिषुरपि सहसा यथे. कसायबुद्धिं करेग्जा, मम्मं वा किंचि वालज्जा, एतेसु गतसि तदेव ब्रूते । उपनीतवचनं-प्रशंसावचनं यथा रूपव- च्छबज्मो फरुसं भासे दुवालसं कक्कसं भासे दुवालतीयं श्री, अपनीतवचनं-निन्दावचनं यथेयं कुरूपा स्त्री, सं खरफरुसक्कसनिठुरमणिठुरं भासे उक्ट्ठावणं दुउपनीतापनीतवचनं यत्प्रशस्य निन्दति , यथा रूपवतीयं स्त्री परं दुशीला, अपनीतोपनीतवचनं-यनिन्दित्वा प्रशं. ब्बोल देइ स्वामणं कलिकिंचं कलह झझदमरं वा सति यधेयं कुरूपा परं सुशीलेति , अतीतवचनमकरोदि. करेज्जा गच्छवज्झो, मगारं जगारं वा बोले खमणं स्यादि प्रत्युत्पन्नवचनं-वर्तमानकालवचनं करोतीस्यादि.म. बीयवाराए मबंदे वहंते संघवज्झो,हणतो संघबजमो । एवं नागतकालवचन-करिष्यतीत्यादि प्रत्यक्षवचनम् अयमित्या. दि. परोक्षवचनं-स इत्यादि । एतानि च षोडशापुि बचना. खणंतो भंजंतो इसंतो लडितो जलिंतो जालावंतो नि यथायस्थितवस्तुविषयाणि, न काल्पनिकानि ततो यदै. पयंतो पेयावतो, एतेसु सम्बेसु पत्तेगं संघवज्झो । पहा. तानि सम्यगुपयुज्य वदति तदा सा भाषा प्रशापनी द. १ चू०। gण्या। तथा चाऽऽह-इलचेयं भंते ! एगवयणं वयणं' (१५) शिष्यस्य वाग्विनयमाहस्यादि भावितार्थम्, अक्षरार्थः प्रतीत एव । मुसं परिहरे भिक्खू , न य ओहारिणिं वए । सम्प्रति प्रागुक्तमेव सूत्रं सूत्रान्तरसम्बन्धनार्थ भूयः पठति- भासादोसं परिहरे, मायं च बज्जए सया।। २४ ॥ कति ण भंते ! भासजाया पसत्ता । गोयमा ! च मृषेत्यसत्यं भूतनिवाऽऽदि परिहरेत् सर्वप्रकारमपि त्यजे. सारि भासजाया पपत्ता । तं जहा-सच्चमेगं भास- त् , भिक्षुर्न च नैव, अवधारणी गम्यमानत्वाद्वाचं गमिष्याम जायं वितिय मोसं भासजातं तइयं सच्चामोसं भा-- एष वयाम पवेत्येवमादि अवधारणाऽऽस्मिक बदेाषेत, किंबहुना ?,भाषादोषमशेषमपि वाग्दृषणं सावधानुमोदना. सज्जातं चउत्थं असच्चामोसं भास जातं, इच्छेइ-- ऽऽदिकं परिहरेत् न च कारणोच्छेदं विना-कार्योच्छेद इस्यायाई भंते ! चत्तारि भासजायाइ भाममाणे किं भा- | ह-मायां, चशब्दात् क्रोधाऽऽदींध तखेतून वर्जयेत् सदा राहते विराहते । । गोयमा ! इचेहयाई चत्तारि भास-- सर्वकालम् , इति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ आयाई भाउत्तं भासमाणे पाराहते, नो विराहते, तेण परं असंजतमविरयमपडिहतप्रपच्चक्खायपावकम्मे सच्चं | न लविज पुट्ठो सावजं, न निरदं न मम्मयं । भासं भासंतो मोसं वा सच्चामोस वा असञ्चामोसं वा अप्पणट्ठा परट्ठा वा, उभयस्संतरेण वा ॥२५॥ भासं भासमाणे नो पाराइते,विराहते । (सूत्रम्-१७४)। नलपेठ वदेत् , पृष्ठ इति पर्यनुयुक्तः, सावधं सपान नि. रर्थम् अर्थविरहितं दशदाडिमाऽऽदि, एष बध्यासुतो याती. 'करणं भंते ! भासजाया पराणत्ता' इत्यादि सुगम, नवरं स्यादिपा, न नैव, प्रियते मनेन राजाऽऽदिविरुखेनोचारिते 'माउत्तं भासमाणे'इति सम्यक प्रवचनमालिन्याऽऽदिरक्षण. नेति मर्म तच्छति बाचकतयेति मर्मग,बचनमिति सर्वत्र शे. परतया भाषमाणः । तथाहि-प्रवचनोडाहरक्षणादिनिमित्तं षः।प्रतिसक्लेशोत्पादकत्वात्तस्याः। अत्राऽऽह व (दश०७०) गुरुलाघवपालोचनेन मृषाऽपि भाषमाणः साधराराधकप "तहेव काणं काण ति, पंडगं पंष्टग तिवा। घेति । तेण परं' इत्यादि, तत आयुक्त भाषमाणात्परोऽसं. बाहियं वावि रोगि सि, तेणं चोरो तिनो वए ॥ १२ ॥ यतो-मनोवाकायसंयमविकलोऽविरतो विरमति स्म विरतो। एएणऽमेण अद्वेणं, परो जेणुषहम्मई । न विरतोऽधिरतः सावधव्यापारादनिवृत्तमना इत्यर्थः, अत। . मायारभावदोसरा, नतं भासेज पप ॥ १३॥" Page #1567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५४४ ) भासा अभिधानराजेन्द्रः। भासा आत्मार्थमात्मप्रयोजनं, परार्थ वा परप्रयोजनम् ( उभय- माह-सत्यामृषाभाषाया अोधत एव प्रतिषेधात्तथाविधस्स तिमात्मनः परस्य च,प्रयोजनमिति गम्यते । (अंतरेण सत्यायाम सावंद्यस्वेन गतार्थ सूत्रमिति | उच्यते-मोक्षपीडाबसि) विना वा प्रयोजनमित्युपस्कारः,भाषावोष परिहरेदि. करं सूक्ष्ममप्यर्थमङ्गीकृत्याम्यतरभाषाभाषणमपि न कर्तव्य. स्यनेनेष गते पृष्टविषयस्वादस्याः पौनरुक्त्यं, यद्वा-भाषा-1 मित्यतिशयप्रदर्शनपरमेतददुएमेवेति सूत्रार्थः ॥४॥ दोषो जकारमकाराऽऽदिरेष तत्र गृह्यते इति न दोषः, सूत्र. साम्प्रतं मृषाभाषासंरक्षणार्थमाहबयेन चानेन वाग्गुप्त्यभिधानतश्चारित्रविनय उक्त इति सू. वितहं पि तहामुत्ति, जंमिरं मासए नरो। पार्थः। उत्त० पाई०१०। (अन्यर्भाषमाणोऽपि न कटुकां | तम्हा सो पुट्ठो पावेणं, किं पुणं जो मुसंपए ॥५॥ भाषां वदेदिति 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे २७०४ पृष्ठे गतम्) तम्हा गच्छामो वक्खामो, प्रमुगं वा से भविस्सइ । चउपई खलु भासाणं, परिसंवाय पनवं । अहं वा णं करिस्सामि, एसो वा णं करिस्सइ॥६॥ दुण्डं तु विणयं सिक्खे, दोन भासिज्ज सब्यसो ॥१॥ एवमाइ उजा भासा, एस कालम्मि संकिया। चतसृणां खलु भाषाणां, खलुशब्दोऽवधारणे, चतसृगामेष, नातोऽन्या भाषा विद्यत इति,भाषाणां सत्याऽऽदीनां परिसं. संपयाइभमढे वा, तं पि धीरो विवाए ॥७॥ रुणाय सर्वेः प्रकारःशावा,स्वरूपमिति वाफ्यशेषः । प्रशावा. 'वितह पित्ति' सूत्रं, 'वितथम् ' अतथ्यं तथायपि' म् प्राज्ञो बुद्धिमान साधुः, किमित्याह-द्वाभ्यां सत्याऽसत्या. कश्चित्तस्वरूपमपि वस्तु, अपिशब्दस्य व्यवहितः संबन्धःमृषाभ्यां तुरषधारणेद्वाभ्यामवाभ्यांविनयं शुद्धप्रयोग.धिनी- एतदुक्तं भवति-पुरुषनेपथ्यस्थितवनिताऽऽद्यध्यङ्गीकृत्य यां यतेऽनेन कर्मेति कृत्या, शिक्षेत् जानीयात् , दे असत्यास. गिरं भाषते नरः, इयं स्त्री प्रागच्छति गायति वेत्यादिरूपां, स्यामृषे न भाषेत, सर्वशः सर्वैः प्रकारैरिति सूत्रार्थः ॥१॥ • तस्मात् ' भाषणादेवंभूतात्पूर्वमेवासौ वक्ता भाषणाबिनयमेवाह भिसंधिकाले ' स्पृष्टः पापेन' पद्धः कर्मणा, किं पुनर्यो जा य सच्चा अवतव्वा,सच्चामोसा य जा मुसा। मृषा बक्ति भूतोपघातिनी बाचं ? , स सुतरां बचपत इति सूत्रार्थः॥५॥' सम्हसि' सूत्रं, यस्माद्वितथं तथाजा य बुद्धहणाइमा, नतं. भासेज पब ।।२।। मूपि वस्वीकृत्य भाषमाणो बथते, तस्मादमिष्याम या च सत्या पदार्थतस्वमङ्गीकृत्य प्रवक्तव्या अनुचारणीया | एव श्व इतोऽन्यत्र , सच्याम एव श्वस्तत्तदोषधनिमिससावद्यत्वेन, अमुत्र स्थिता पल्लीति कौशिकभाषावत्, सत्या. मिति, अमुकं वा नः कार्य बसत्यादि भविष्यत्येष, अहं मृषा वा यथा-दश दारका जाता इत्येवंलक्षणा,मृषाच संपूर्ण चेदंलोचाऽदि करिष्यामि नियमेन , एष वा साधुरप, चशब्दस्य व्यवहितः संबन्धा,या व बुस्तीर्थकरगणध. स्माकं विश्रामणाऽऽदि करिष्यत्येवेति सूत्रार्थः॥६॥'एक. रैरनाचरिता असत्यामुषा आमन्त्रण्याशापन्यादिलक्षणा भ. मा ति ' सूत्रम् , पवमाया तु या भाषा प्राविशनात् विधिपूर्वकं स्वराऽऽदिना प्रकारेण,नैना भाषेत नेत्थंभूतांपा. पुस्तकं ते दास्याम्यवेत्येवमादिपरिग्रहः,' एयरकाले' भ. चमुदाहरेत् , प्रज्ञावान् बुद्धिमान साधुरिति सूत्रार्थः ॥२॥ विष्यकालविषया, बहुविघ्नत्वात् मुहूर्ताऽऽदीनां शरिता' यथाभूता अवाच्या भाषा तथाभूतोका।। किमिदमित्यमेव भविष्यत्युतान्यथेत्यनिश्चितगोचरा, तथा साम्प्रतं यथाभूता वाख्या तथाभूतामाह साम्प्रतातीतार्थयोरपि या शकिता, साम्प्रतायें स्त्रीपुरुषाअसश्चमोसं सचं च, प्रणवजमककस । विनिश्चये एव पुरुष इति, प्रतीतार्थेऽध्येवमेव बलीवर्दत. मामुप्पेहमसंदिद्धं, गिरं भासिज्ज पनवं ॥३॥ स्स्यायनिश्चये तदाऽत्र गौरस्माभिर्दष्ट इति । याऽप्येवंभूता असत्यामृषाम् उक्तलक्षण, सत्यां चोक्कलक्षणामेव, इयं| भाषा शङ्किता तामपि धीरो विवर्जयेत् , तत्तथाभावनिश्च. च सावद्यापि कर्कशापि भवत्यत पाह-असावद्यामपापाम्, याभाबन व्यभिचारतो मृषास्वोपपत्ते, विनतोऽगमनाऽऽदी अकर्कशामतिशयोक्त्या ह्यमस्तरपूर्वी संप्रेक्ष्य स्वपरोपकारि•| रहस्यमध्ये लाघवाऽऽदिप्रसङ्गात् , सर्वमेष साबसरं वक्तव्य. णीति बुद्धधाऽऽलोच्य असंदिग्द्धां स्पृष्टामतेपेण प्रतिपत्ति । म् , इति सूवार्यः ॥ ७॥ हेतुं गिरं वाचं भाषेत् ब्रूयात् , प्रज्ञावान् बुद्धिमान साधुरिति सूत्रार्थः ॥३॥ आईअम्मि अकालम्मि, पच्चुप्पामपणागए। साम्प्रतं सत्यासत्यामृषाप्रतिषेधार्थमाह जमटुं तु न जाणिज्जा, एवमेनं ति नो वए ॥८॥ एभं च अहमळवा, जंतु नामेइ सास । . भईअम्मि कालम्मि, पच्चुप्पाममणागए। सभासं सचमोसं पि, तं पिधीरा विवजए॥४॥ जस्य संका भवे तंतु, एवमेअंति नो वए ॥६॥ 'पअंच ति' खूत्रम् । एतं चार्थम् ' अनन्तरप्रतिषिखं सावद्यार्कशविषयम् 'अन्यं वा' एवंजातीयं, प्राकृत मईयम्मिश्रकालम्मि, परचुप्पलमणागए। शैल्या ' यस्तु नामयति शाश्वतं ' य एव कश्चिदर्थो नाम- | निस्संकिभं भवे जंतु, एवमेनं तु निदिसे ॥ १०॥. यति-अननुगुणं करोति शाश्वतं-मोक्षं तमाश्रित्य 'सा' 'अईयाम्मिति' सूत्रम् , अतीते च काले तथा 'प्रत्युत्पन्ने' साधुः पूर्वोकभाषाभाषकत्वेनाधिकृतो भाषां · सत्यामृषा | वर्तमानेऽनागते च यमर्थ तु न जानीयात् सम्यगेषमयमिति, मपि' पूर्वोक्काम् , अपिशब्दात्सस्याऽपि या तथाभूता ताम | समीकृत्य एवमेतदिति न ब्रूयादिति सूत्रार्थः । अयमातपि' धीरो' बुद्धिमान् ' विवर्जयेत् ' न ब्रूयादिति भावः। भाषणप्रतिषेधः॥८॥ तथा-'अईयाम्म त्ति' सूत्रम्, अतीते Page #1568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा अभिधानराजेन्द्रः । भासा वकाले प्रत्युत्पन्ने नागते यत्रार्थे शङ्का भवेदिति तमप्य म्यामन्त्रणवचनानि वर्तन्ते,तत्र मातुः पितुर्वा माताऽऽपिका, थेमाधिस्यैवमेतदिति न ब्यादिति सूत्रार्थः, अयमपि विशे- तस्या अपि याऽन्या माता सा प्राधिका , शेषाभिधानानि षतः शहितभाषणप्रतिषेधः ॥ ६॥ तथा-मईयम्मि सि' प्रकटार्थान्येवेति सूत्रार्थः॥१५॥किंव-हले हलेस' सूत्रम् , सूत्रम्, प्रतीते व काले प्रत्युत्पनेऽनागते निम्याङ्कतं भवेत् , हले हले इत्येवमन्ने इत्येवं तथा मट्ट, स्वामिनि, गोमिनि । यदर्थजातं तुशब्दादनवचं, तदेवमेतदिति निर्दिशेत् । अन्ये तथा होले, गोले, वसुले इति , एतान्यपि नानादेशापेक्षया पठन्ति-स्तोकस्तोकमिति, ' तत्र परिमितया वाचा आमन्त्रणवचनानि गौरवकुत्लाऽऽदिगर्भाणिवर्तन्ते,यतचिवनिर्दिशेदिति सूत्रार्थः ॥ १०॥ दश. ७५०२ उ० । मतानिय नैवं हलाऽऽदिशम्दैरालंपेदिति दोषाश्चैवमालपनं (परुषवचनविषयकम्-'तहेव फरसा भासा ' (११) कुर्वतासङ्गगहतित्प्रवेषप्रवचनलाघवाऽऽदय इति सूत्रार्थ:११॥ इत्यादिसूत्रम्-'फरुसवयण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ११४३ पृष्ठे यदि नैवमालपेत्, कथं तालपेदित्याह-' नामधिजेणं ति' गतम्) सूत्रं , 'नामधेयेनेति' नाम्नैव एनां यात्रियं कचित्का. (१६) अवाच्याभाषामाह रणे यथा देवदत्ते!इत्येवमादि । नामास्मरणादौ गोत्रेण या पुन—यात् खियं यथा काश्यपगोत्रे!इत्येवमादि , 'यथाई' तहेव कार्य काण ति, पंडगं पंढग त्ति वा। यथायथं वयोदेशैश्वर्याऽऽधपेक्षया 'अभिगृह्य' गुणदोषानालो. वाहिनं वावि रोगि ति, तेणं चोर ति नो वए ॥१२॥ च्य'मालपेल्लपेद्धा'पत्सकृद्वालपनमालपनमतोऽन्यथा ल. एएणमेण अटेणं, परो जेणुवहम्मद । पनं , तत्र षयोवृद्धा मध्यदेशे ईश्वरा धर्मप्रियाऽन्यत्रोच्यते भायारभावदोसन्नू, न तं मासिज्ज पनवं ॥१३॥ धर्मशीले इत्यदिना , अन्यथा च यथा न लोकोपघात इति सूत्रार्थः ॥१७॥ उक्तः खियमधिकृत्याऽऽस्लपनप्रतिषेध विधि तहेव होले गोलि ति, साणे वा वसुलि तिम। ध। साम्प्रतं पुरुषमाश्रित्याह-'मजपत्ति'सूत्रम् ।"भार्यक: दमए दुआए वावि, नेवं भासिज पनवं ॥१४ ।। प्रार्यकश्चापि, बप्पश्चुलपितेति च । तथा मातुल भागिनेयेति अजिए पञ्जिए वावि, मम्मो माउसिभ सिभ। पुत्र नप्त इति च . ह भावार्थः नियामिव द्रष्टव्यः , मवई पिउस्सिए भायणिजसि, धूए मणिम तिम॥१५॥ खुल्लबप्पः पितृव्योऽभिधीयत इति सूत्रार्थः ॥ १८॥ किच. 'हेभौति' सूत्रं हे भौहले ति। अत्ति' भर्तः स्वामिन् गोमि. इले हलि चिमिचि, भड़े सामिणि गोपिणि । न होल गोल वसुल इति पुरुष नैवमालपेविति। अत्रापि भा. होले गोले पसुलि सि, इस्थिभं नेवमालवे ।। १६ ॥ वार्थः पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ यदि वमालपेत् । कथं नामपि ण णं यूमा, इत्यीगुत्तेण वा पुणो। तालपेविस्याह-'नामधिजेण ति' सूत्रं , व्याख्या पूर्वयो। जहारिदमभिगिम्भ, मालविज लविज्ज वा ॥ १७ ॥ पानवरं पुरुषाभिलापेन योजना कार्येति ॥ २०॥ अमए पज्जए पावि, बप्पो चुनपिउतिभा पंचिंदिमाण पाणाणं , एस इत्थी भयं पुमं । माउलो भाइणिजति, पुत्त पणिमति भ॥ १८ ॥ जावणं न विजाणिना, ताव माइ सिमालवे ॥२१॥ भी इलि तिमभिति,महे सामिप्र गोमिश्र। तहेव माणुसं पसुं, पक्खि वावि सरीस। होल गोल बसुलि चि, पुरिसं नेवमालवे ॥ १६ ॥ धूले पमेइले बज्झ, पायमिति भनो वए ॥ २२ ॥ नामधिजेण णं पूमा, परिसगुत्तेण वा पुणो। परिवून ति णं बूमा, बूमा उपचिमति ।। जहारिहमभिगिम्झ, मालविज लविज वा ॥२०॥ संजाए पीणिए वावि, महकाय ति पालवे ॥ २३ ।। 'तोवति' सूत्र, तथैवेति पूर्ववत्, 'काणं ति' भि- तोव गामो दुज्झाम्रो, दम्मा गोरहग ति । साक्ष काण इति, तथा' पर 'नपुंसकं पण्डक इति वा। वाहिमा रहजोगि त्ति, नेवं भासिज पनवं ॥ २४ ।। व्याधिमन्तं वापि रोगीति , स्तेन चौर इति नो वदेत् , श्र जुवं गवि त्ति णं बूमा, घेणुं रसदय त्ति । प्रीतिल जानाशस्थिररोगबुद्धिविराधनाऽऽदिदोषप्रसङ्गादिति रहस्से पहल्लए वावि, वए संवहाणि तिअ॥ २५।। गाथाऽर्थः॥१२॥'एपपत्ति' सूत्रम् , एतेनान्येन वाऽर्थेनोनेन सता परोयेनोपहन्यते,येन केनचित्प्रकारेण । आचारभाः | उक्तःपुरुषमप्याश्रित्याऽऽलपनप्रतिषेधो विधिश्च श्रधुना प. चदोषको यतिनं तं भाषेत प्रशावांस्तथैमिति सूत्रार्थः ॥१३॥ श्वेन्द्रियतिर्यग्गतं वाग्विधिमाह-पंचिदित्राण तिसूत्र, पञ्च'तहेव सि' सूत्र,तथैवेति पूर्ववत् होलो गोल इति वा वा न्द्रियाणां गवादीनां प्राणिनां क्वचिद' विप्रकृष्टदेशावमिथ. वसुल इति वा द्रमको वा दुर्भगश्चापि नैवं भाषेत प्रशावान् । तानामेषा स्त्री गौरयं पुमान् बलीवर्दयाबदेतविशेषण न वि. इह होलाऽऽविशदास्तत्तद्देशप्रसिद्धितोनष्ठुर्याऽऽदिवाचका जानीयात् तावन्मार्गप्रश्नादौ प्रयोजन उत्पन्ने सति जातिमिअतस्तस्प्रतिषेध इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ एवं स्त्रीपुरुषयोः ति जातिमाश्रित्याऽऽलपेत् , अस्मादोरूपजातात्कियरेणस्ये. सामान्येन भाषणप्रतिषेधं कृस्वाऽधुना स्त्रियमधिकृत्याऽऽह. वमावि.अन्यथा लिङ्गव्यत्ययसंभवाम्मृषावादाऽऽपत्तिः,गोपा'अजिपति'सूत्रम्, माजिक प्रार्जिक वाऽपि अम्ब,मातृष्यसा लाउदीनामपि विपरिणाम इस्येवमादयो दोषाः, आक्षेपपरि. इति च . पितृष्वसः, भागिनेयीति,दुहितः, नत्रीति च । एता. हारी तु पृवधिवरणादवसेयौ। तच्चेदम्-"जा लिंगवश्वए ३८७ Page #1569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मासा 4 दोसो ता कीस पुढबादि नपुंसगते वि पुरिसिस्थिनिलो पयट्टर जहा पत्थरो मट्टिश्रा करओ उस्सा मुम्मुरो जाला वाचो वाउली अंबओ अंबिलिमा किमिश्री जया मकोडो कीडिशा भमरो मष्टा देवमादि । परियोजन चारसय प एमसिएच दोस्रो पंचिदिवसापयमंत्री कीर, गोवालाऽऽदीयविव सुहिधम्म सि चिपरिणामसंभवाओ, पुसामाधारिकहये या गुणसंभवादिति । इति सूत्राऽर्थः ॥ २१ ॥ किं तब सि सूत चैव चोप्रा मनुष्यम् आर्याऽऽदिकम् पशुम अजाऽऽदिकम् 'पक्षिणं वादि' हंसाऽऽदिकम् 'सरीसृपम्' अ जगरा55दिकं 'स्थूलः प्रयन्तमांसलोऽयं मनुष्याऽऽदिः तथा प्रमेर: प्रकर्षेण मेदःसम्पन्नः, तथा बन्यो 'व्यापादमीय पाक्य इति च नो वदेत् । पाक्य: ' पाकप्रायोग्यः, कालप्राप्त इत्यन्ये 'नो वनेत्' न ब्रूयात्, तदप्रीतितव्यापस्याशङ्काऽऽदिदोषप्रसङ्गादिति सूत्राऽर्थः ॥ २२ ॥ कारणे पु· नस्पक्ष एवं वदेदित्याह परिवूढ ति ' सूत्रं परिवृद्धइस्पेनं स्थूतं मनुष्यादि वात् तथा वादुपचित तिच संयातः प्रीणितथापि महाकाय इति बालपेत् परिवृद्धं पशोपचितं परिहरेदित्यादाविति सूत्राऽर्थः ॥ २३ ॥ किं बसबसि सूत्रं तथैव वायो 'दोधा दो ' हा दोहसमय आसां वर्त्तत इत्यर्थ, दम्या दमनीयाः, गोरथका इति च, गोरथकाः कल्होडा:, तथा बाह्या सामान्येन ये क्यचितामाश्रित्य रथयोग्यात इति नैवं भाषेत प्रज्ञावान् साधु अधिकरणलाघवाऽऽदिदोपादिति ॥ २४ ॥ प्रयोजने तु क्वचिदेवं भाषेतेत्याह'gi fa' as, युवा गौरिति - दभ्यो गौर्युवेति ब्रूयात्, धेनुं गां रसदेति ब्रूयात्, रसदा गौरिति, तथा इस्वं महलकं वा पि गोरथकं ह्रस्वं बाह्यं महलकं वदेत्, संबद्दनमिति रथयो. ग्यं संवहनं वदेत् कचिद्दिगुपलक्षणाऽऽदौ प्रयोजन इति सूत्रा र्थः ॥ २५ ॥ 1 " 1 · , (१२४६) अभिधान राजेन्द्रः । . वहेव तुसुजाणं, पन्त्रयाणि वयाणि च । रुखा महल पेहाए, नेवं भासिन पद्मवं ।। २६ ।। अलं पासावसंभा, तोरणाय गिहाण अ फलिग्गल नावाणं, श्रलं उदगदोषिणं ॥ २७ ॥ पीड गवेरे [1] म नंगले मइयं सिया । जंतली व नाभी था, गंडिया व अलं सिधा ॥ २८ ॥ भासयं सपणं जाणं, हुआ या फिस्सए । भूमोवाइल भार्स, नेवं भासि पद्मनं ||२६|| तदेव गंतुमुआणं, पन्द्रयाणि वयाणि च । रुपा म हार एवं मासिज पद्म ॥ ३० ॥ जाइमंता इमे रुक्खा, दीहवट्टा महालया । पयायसाला विडिमा, वए दरिसणि ति भ ॥ ३१ ॥ सदाफलाई पकाई पाखा नो बर लोपाटालाई हाइ चि नो बए ।। ३२ ।। संथा हमे बहुनिव्यडिमाफला । वइज्ज बहुसंभूत्रा, भूरूवति वा पुयो || ३३ ॥ तबोसहिश्रो पक्काओ, नीलिश्राम्रो छवी अ | लाइमा भनिमाउ त्ति, पिहुखज्ञ ति नो वए ॥ ३४ ॥ रूढा बहुसंभूया, घिरा भोसडा विभ गाओ पाओ, संसाराउ चि आलवे ॥ २५ ॥ ' तद्देव सि' सूत्रं तथैवेति पूर्ववत्, गरबा' उद्यानं ' जनक्रीडास्थानं तथा पर्वतान् प्रतीतान् गत्वा तथा बनानि च तत्र वृक्षान्महतो महाप्रमाणान् ' प्रेश्य ' इंस्टा भाषेत प्रज्ञावान् साधुरिति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ किमिस्याह 'अलं ति ' सूत्रम्, 'अलं ' पर्याप्ता एते वृक्षाः प्रासा दस्तम्भयः, अत्रैकस्तम्भः प्रासादः, स्तम्भस्तु स्तम्भ एष, तयोरस तथा तोरणानां नगररणादीना च' कुटीरकादीनाम् समिति योगः तथा परिधाऽर्य लामायां बात नगरद्वारे परिधा, गोपुरकपाटा दिया · " , 9 प्रतीतेति मासामलमेते. वृक्षाः तथा उदकद्रोबीनाम् अलम् उदकद्रोण्येोऽरहट्टजलधारिका इति सूत्रार्थः ॥ २७ ॥ तथापी सिसू, पीडकापालने वृक्षाः पीठ प्रतीम सूप सुपो भवन्तीति चतुचे प्रथमा एवं सर्वत्र योजनीयं तथा 'बङ्गवेरायेति' बङ्गवेश-काष्ठपानी, तथा 'नंगले सि' लाङ्गलं-इलं, तथा अलं मयिकाय स्यात्, मधिकम् उतीजानं तथा यन्त्रये मात्र प्रतीता तथा नाम था नामः शकटस्थानं गण्डिकायै युरेते वृक्ष इति महावानिति वर्तते afeser सुवर्णकाराणामधिकरणी ( अहिगरणी) स्थापनी भवतीति सूत्रार्थः ॥ २८ ॥ तथा 'असणं ति' सूत्रम्, 'आस' नम् आसम्बुकाऽऽदि शयनं' पर्यङ्गादि यानं युग्या 33 दि भवेद्वा किञ्चिदुपाश्रये वसतावभ्यद्-द्वारपालाऽऽद्येतेषु वृक्षेस्थिति 'भूतोपपातिम सरवपीडाकारिणी भाषां नैव भा पेत प्रावान् साधुरिति सूत्रार्थः । दोषाचा स्वामी व्यन्तरादिकुप्येत् सलक्षण या पुरात्यमिडीयात् अनियमितभाषिणो लाघवं वेत्येवमादयो योग्याः ॥ २६ ॥ अवधिमा पूर्वदेव नवरमेवं भाषेत ॥ ३० ॥ जाइमंत ति सूत्रं, ' जातिमन्त ' उत्तमजातयोऽशोकाऽऽश्यः अनेकप्रकाराः 'पते' उपलभ्यमा नस्वरूपा वृक्षा 'दीर्घवृत्ता महालयाः दीर्घा नालिकेरी. प्रभृतयः वृत्ता नन्दिवृक्षादयः महालया वटादयः प्रजात. शाखा विपिनः प्रशाखयन्तो वदेदउत्पन्नडाला शनीया । इति च । एतदपि प्रयोजन उत्पने विश्रमतदासन्नमार्गकथनादौ चदेवान्यदेति सूत्रार्थः ॥ ३१ ॥ , 9 . 2 · • 3 · भासा " 1 6 . " तहा फलाणि ' ति सूत्र, तथा फलानि आम्रफलादीनि पक्कानि पाकप्राप्तानि तथा, पाकवाद्यानि ' बद्धास्थीनीति गर्तप्रक्षेपकोद्रवपलालादिना विपाsय भक्षयोग्यानीति तो वदेत् । तथा • बेलोखितानि ' पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि अतः परं कालं न विष इन्तीत्यर्थः ढालानि प्रवद्धास्थीनि कोमलानीति स दुकं भवति तथाधिकामीति पेशीसम्पादक है. . 6 , Page #1570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा अभिधानराजेन्द्रः। भासा धीभावकरणयोग्यानीति नो बवेत् । दोषाः पुनरत्रात ऊ. वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदमाहव नाश एवामीषां न शोभनानि वा प्रकारान्तरभोगेने. तहा नईओ पुस्माओ, कायतिञ्जत्ति नो पए। त्यवधाय गृहिप्रवृत्तावधिकरणादय इति सूत्राऽर्थः ॥ ३२ ॥ नावाहिं तारिमाउ ति, पाणिपिज चिनो वए ॥३०॥ प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनादावेवं बदित्याह-'असंथड' ति सूत्रम् , असमर्था । एते' मानाः ' अतिभारेण न श बहुवाहडा अगाहा, बहुसलिलुप्पिलोदगा। अनुबम्ति फलान्ति धारयितुमित्यर्थः , भाम्रग्रहणं प्रधान बहवित्थडोदगा भावि, एवं भासिज्ज पनवं ॥ ३६ ।। पक्षोपलक्षणम् । एतेन पक्वार्थ उक्तः , तथा ' बहुनिर्ष- तहेब सावज्ज जोगं, परस्सट्ठा अनिटिभं। तितफताः' पनि निर्तितानि-पदास्थीनि फलानि कीरमाणं ति वा नचा, सावर्जन लवे मुणी ॥ ४० ॥ येते तथा , अनेन पाकखाचार्थ उक्तः , बदेह बहु. सम्भूतानि 'तहाईउत्ति'सुत्र तथा नय"पूर्णा'भृता इति मोषदेत्मवृत्त सम्भूतानि-पाकातिशयतो प्राणकालोचितानि फलानियेषुते तथा, अनेन बेलोबिता (च) भवणमिवर्तनाऽऽविदोषात, 'तथा कायतरणीया' शरीरतर. उक्तः, (पशटी०) तथा भूतरूपा इति वा पुनर्वदेत् भूतानि योग्या इति मो षदेत् , साधुवचनतोऽविनमिति प्रसना. रूपाणि-अबवास्थीनि कोमलफलरूपाणि येषु ते तथा । विप्रसङ्गात् तथा नौभिः द्रोणाभिस्तरणीयाः तरणयोग्याअनेन टालार्थ उपलक्षिताति सूत्राऽर्थः ॥३३॥ (दशदी०) इत्येवं नो धदेत् अन्यथा घिनशया तत्प्रवर्तनात् . तथा 'प्रा. 'तहेव' ति सूत्रं, तथा' मोषधयः ' शाल्यादिलक्षणाः, णिपेयाः' तटस्थप्राणिपया नो घदेविति, तथैव प्रबत्तनाssपक्वा इति, तथा नीलाश्छषय इति वा वाचवलकादि दिदोषादिति सूत्रार्थः॥ ३८ ॥ प्रयोजमे तु साधुमार्गकथ. फललक्षणाः तथा 'लंबनवत्यो'लवनयोग्याः ‘भर्जनव- नाऽऽदावे भाषेतेस्याह-बहुषाहर ति' सूत्रं , बहुभृता. स्थ' इति भर्जनयोग्याः तथा 'पृथुकभक्ष्या ' इति पृथु- प्रायशो भृता इत्यर्थः, तथा । अगाधा इति' बडगाधा: कभक्षणयोग्याः नो वदेदिति सर्वत्राभिसम्बध्यते, प्र- प्रायोगम्भीरा, तथा 'बहुसलिलोपालोदका प्रतिस्रोतोया. शुका अर्धपकशास्यादिषु क्रियम्ते, अभिधानदोषाः पूर्वव- हितापरसरित इत्यर्थः, तथा विस्तीर्णोदकाच 'स्वतीरमा. दिति सूत्राऽर्थः ॥ ३४ ॥ प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनावावेबमा- वनप्रवृत्तजलाच, एवं भाषेत प्रज्ञावान् साधुः, न तु तदालपेदिस्या-रूढ' सि सूत्रं, 'रूढाः' प्रादुर्भूताः 'बहु- ऽऽगतपृष्ठो न दम्याहमिति श्रूयात् , प्रत्यक्षमृषाषादिस्वेन सम्भूता' निष्पन्नप्रायाः स्थिरा' निष्पन्नाः उत्सृता' इति तत्प्रवेषाऽऽविदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥३६॥ वाग्विधिप्रति. उपघातेभ्यो निर्गता इति वा, तथा 'गर्मिता' भनिर्गतशीर्ष. घेधाधिकार पवेदमाह-'तहेव ति' सूत्र, तथैव । सावा' काः प्रसूता' निर्गलशीर्षक: 'संसारा' साततन्दुला- सपापं 'योग' व्यापारमधिकरणं सभाऽऽदिविषयं 'परस्यादिसारा इत्येवमालपेत्, पकाद्यर्थयोजना स्वधिया कार्येति र्थाय ' परनिमित्तं निष्ठितं 'निष्पन्न तथा क्रियमाणं वा ' सूत्राऽर्थः॥ ३५॥ वर्तमानं . वाशब्दादविष्यरकालभाविनं पावावा' सावध वाग्विधिप्रतिषेधाधिकारेऽनुवर्तमान इदमपरमाह नाऽऽसपेत्', सपापं न ब्रूयात् 'मुनिः' साधुरिति सूत्रार्थः ॥४०॥ तत्र निष्ठितं नैवं ब्रूयादित्याहतहेव संखहिं नच्चा, किच्च कज्जति नो वए । सुकडि ति सुपकित्ति, सुच्छिन्ने सुहढे महे । तेणगं वावि वज्झि त्ति, सुतिथि त्ति भावगा।॥३६॥ सुनिट्ठिए सुलवित्ति, सावज वजए मुणी ।। ४१ ॥ संखविं संखडिं बूमा, पशिअष्टि ति तेणगं । पयत्तपक त्ति व पकमालवे, पयत्तमित्ति व छिनमालये। बहुसमाणि नित्थाणि, भावगाणं विभागरे ॥ ३७॥ पयत्सल द्वितिय कम्महे उध, पहारगाह तिवगावमालवे४२ 'तष'सि सूत्रं, तथैव ' संखडिजावा' सक्खराज्यन्ते, प्राणिनामायूंषि यस्यां प्रकरणक्रियायां सा सखडी तां 'सुकरित्ति' सूत्र, 'सुकृत मिति सुष्टु कृतं समादि 'सुपक' मात्वा , 'करणीये ' ति पित्रादिनिमित्तं कृत्यैवैषेति नो | मिति सुष्टु पकं सहस्रपाकादि, 'सुच्छिन्न मिति सुष्टु छि घदेत् , मिथ्यात्वोपबृंहणदोषात् , तथा स्तेन वापि ब तनाऽऽदि 'सुहत' मिति सुष्टुतं जुद्रस्य वित्तं 'सुमृत' इति भय इति नो वदेत् , तदनुमतस्वेन निश्वयाऽऽदिदोषप्रसता सुष्टु मृतः प्रत्यनीक इति, अत्रापि सुशब्दोऽनुवर्तते, 'सु. त्, सुतीर्था इति च, चशब्दाद दुस्तीर्था इति वा ' आप. निष्ठित ' मिति सुष्टु निष्ठितं वित्ताभिमानिनो वितं . सु. गा'नघः केनचित्पृष्टः सन्नो घदेत , अधिकरणविधा लट्टि त्ति' सुष्टु सुन्दरा कन्या इत्येवं सावद्यमालपनं बर्ज ये मुनिः, अनुमत्यादिदोषप्रसङ्गात् , निरवधं तु न बर्ज. ताऽऽविदोषप्रसङ्गादिति सूत्राऽर्थः ॥ ३६॥ प्रयोजन पुनरेवं येत, यथा-'सुकत' मिति सुष्टु कृतं बैयावृस्यमनेम 'सु. घदेदित्याह-संखर्षि ति 'सूत्रम् , सम्बडि साखहिं . पक' मिति सुष्टु पकं ब्रह्मचर्य साधोः 'सुध्छिन' मिति यात्.साधुकथनाऽऽदौ सङ्कीर्णा साखडीत्येवमादि,पणितार्थ सुष्टु छिमेहबन्धनमनेन . ' सुरत ' मिति सुष्टु इति स्तेनकं वदेत्, शैक्षकाऽऽविकर्मविपाकदर्शनाऽदी. पणिते. कृतं शिक्षकोपकरणमुपसर्ग 'सुमृत' इति सुन्दु मृतः माथोऽस्येति पणितार्थः, प्राणघूनप्रयोजन इत्यर्थः, तथा बहुः पण्डितमरणम साधुरिति, अत्रापि सुशब्दोऽनुवर्तते, समानि तीर्थानि 'श्रापमानां'नदीनां व्यागुणीयात् साध्या- 'सुनिष्ठित' मिति सुष्टु निष्ठितं कर्माप्रमहसंयनस्य विविषय इति सूत्राऽर्थः॥३७॥ | 'सुलह 'ति सुष्टु सुन्दरा साधुक्रियेत्येवमादीति सूत्रा. . Page #1571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा अभिधानराजेन्द्रः। भासा र्थः ॥४१॥ उक्नानुक्कापवादविधिमाह-पयत्त ति' चिस्याह-क्रये या विक्रयेऽपि वा' पणितार्थे ' पण्यवस्तु. सूत्र, 'प्रयत्नपक' मिति वा प्रयत्नपकमेतत् 'पर्क' सह- नि समुत्पन्ने केनचित् पृष्टः सन् 'अमषधम् 'अपापं प्यासपाकाऽऽदि ग्लामप्रयोजन एवमालपेत् तथा प्रयत्नच्छि- गृणीयात् यथा नाधिकारोऽत्र तपखिनां व्यापाराभाषादिति ब' मिति वा प्रयत्नच्छिन्नमेतत् 'छिन' बनाऽऽदि साधुनि सूत्रार्थः ॥ ४६॥ वेदनाऽऽदी एचमालपेत्, तथा 'प्रयत्नलष्टे' तिचा प्रयत्नसु. किंचन्दरा कन्या दीक्षिता सती सम्यक्पाललीयेति 'कर्महेतु- तहेवासंजयं धीरो, पास एहि करेहि वा । क' मिति सर्वमेव वा कृताऽऽदि कर्मनिमित्तमालपेदिति यो सय चिट्ठ वयाहि त्ति, नेवं भासिज पनवं ।। ४७॥ गः, तथा 'गाढप्रहार' मिति वा कञ्चन गाढमालपेत् गाढप्रहारं ब्रूयात् क्वचित्प्रयोजने, एवं हितवनीत्यादयो बहवे इमे असाहू, लोए वुच्चंति साहुणो । दोषाः परिहता भवन्तीति सूत्रार्थः॥४२॥ न लवेभसाहुसाहुत्ति, साई साहुत्ति भालवे॥४८॥ (१७)कचिद् व्यवहारे प्रक्रान्ते पृष्टोऽपृष्टो वा नैवं भूयादित्याह- नाणदंसणसंपन्न , संजमे अ तवे रयं । सम्वुक्कसं परग्धं वा, अउलं नऽस्थि एरिस । एवंगुणसमाउत्त, संजय साहुमालवे ॥ ४६॥ अविक्किममवत्तव्यं, प्रचित्तं चेव नो वए॥४३॥ 'तहेव ति' सूत्रम् , तथैव · असंयतं ' गृहस्थम् सव्वमेध वइस्सामि, सव्वमेधे ति नो वए । 'धीर' संयतः प्रास्वेहैव, पहीतोऽत्र, कुरु वेद-सञ्चया35 दि, तथा शेष्व निद्रया, तिष्ठोलस्थानेन, बज प्राममिति अणुवीइ सव्वं सव्वस्थ, एवं भासिज पनवं ॥४४।। नैवं भाषेत प्रक्षावान् साधुरिति सूत्राऽर्थः ॥४७॥ किमुक्की वा सुविक्की, भकिज किजमेव था। अ-बहवे ति 'सूत्रम्, बहवः 'एते' उपलभ्यमानस्व. इमं गिराह इमं मुंच, पणीभं नो विभागरे ॥ ४५ ॥ रूपा माजीयकाऽऽदयःभसाधवः निर्वाणसाधकयोगापेक्षया 'लोके तु' प्राणिसाते उच्यते साधवः सामाम्येन, त. अप्पग्धे वा महग्घे वा, कए रा विकए विवा। अनाऽऽलपेबसाधुंसाधु, मृषावादप्रसनात् , अपितु साधु पणि? समुप्पो, प्रणवजं विभागरे ॥४६॥ साधुमित्यालपेत् न तु तमपि नाऽऽनपेत् , उपरणातिचा. 'सम्पुकसं' ति सूत्रम्, एतम्मभ्य वं 'सर्वोत्कर। रदोषप्रसाविति सूत्राऽर्थः॥४८॥ किंषिशिर्ष साधु साधु. स्वभाषण सुन्दरमित्यर्थः, 'पराधं पा' उत्तमा वा मित्यालपेदित्यत माह-नापति' सूत्रम् , हामदर्शनसंप. महा क्रीतमिति भावः। अतुलं जास्तीरशमन्यत्रापि --समृवं संयमे तपसि बरतं यथाशकि पर्ष--गुणस. क्वाचित, 'अषिकि ति 'भसंस्कृतं बुलभमीरशमम्य- मायुक्तं संयतं साधुमालपेत्, न तु दम्पलिङ्गधारिणम्पीति प्रापि, 'भवलम्य 'मित्यमन्तगुणमेतत् प्रषिमतंबा'-4. सूत्रार्थः । प्रीतिकरं चैतदिति नो बवेत् , अधिकरणातरायाऽऽदि. दोषप्रसादिति सूत्रार्थः ॥ ३॥ किंच-सम्पति ' देवाणं मणुभाणं च, तिरिमाणंच बुग्गहे। . सूत्रं, 'सर्वमेतल्यामी' ति केचित् कस्यचित् संदिरे भमुगाणं जमी होउ, माया हो तिनो पए ॥५०॥ सर्वमेतप्पया बक्तव्यमिति समेतवण्यामीति को बदेत् , सर्वस्य तथास्परम्यानाऽऽगुपेतस्थ पकुमशक्यत्वात् , तथा बामो बुटुं च सीउपा, खेमं घायं सिचं तिवा। सर्वमेतदिति मोबदेत् , कस्यचित्संदेशं प्रयन सर्वमेत. कया णु हुआ एमाणि,मा वा होउ ति नो वए ॥५१॥ दिस्य वं वक्तव्य इति को वदेत् , सर्वस्य तथा स्वरव्यख- तहेव मेहवन व माण, न देवदेव त्तिगिरं अपजा। । माऽऽगुपेतस्य बनुमशक्यत्वात् असंभवाभिधामे मृषापावा, समुच्छिए उनए वा पोए,पइज वा बुट्टबलाहयत्ति ।५२। यतचषमता-'अनुचिस्य 'मालाच्य सबै बाध्य 'सर्वत्र' कार्येषु यथा असंभषाऽऽयभिधानाऽदिना मृषायादो न भव अंतलिक्व तिथे घूमा, गुज्माणुचरिपति भ। त्येवं भाषत प्रज्ञावान साधुरिति सूत्रार्थः। ॥४४॥ किं रिद्धिमंतं नरं दिस्स, रिद्धिमंतं ति पालवे ॥५३॥ . च-'सुकीनं वसि' सूत्रं, · सुक्रीतं वेति' किश्चित् के तहेव सावञ्जऽणुमोमणी गिरा, नचित् कीतं दर्शितं सत्सुकीतमिति न व्यागृणीयात् इति ओहारिणी जा य परोवघाइणी। योगः, तथा 'सुविक्रीत' मिति किञ्चितनचिद्विक्रीतं - से कोह लोह भय हास मागवी, रष्टा पृष्टः सन् सुविक्रीतमिति न व्याराणीयात्, तथा के. मचित् क्रीते पृष्टः · अकेयं ' ऋयाईमेव न भवतीति न न हासमाणोऽवि गिरं वइज्जा ।। ५४ ।। व्यागृणीयात् , तथैवमेव 'केयमेव बा' याहमयेति, तथा 'देवाणं ति' सूत्रम् . 'देवानां ' देवासुराण · मनुजा'इदं 'गुहाइदिएहाणाऽऽगामिनि काले महाधैं भविष्यति, मां'नरेन्द्रादीनां 'तिरश्चां' महिषादीनां च विद्महे' तथा ''मुचघृताऽऽद्यागामिनि काले समर्घ भविष्यती. संग्रामे सति 'अमुकानां 'देवाऽऽदीनां जयो भवतु मा वा तिकस्वा 'पणितं 'पण्यं नैव व्यागृणीयान, प्रीत्यधिक- भवस्थिति मोबदेत् , अधिकरणतत्स्वाम्यादिद्वेषदोषमत. रणाऽऽविदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ अत्रैव विधिमाह- लादिति सूत्राऽर्थः॥ ५० ॥ किच-बाउत्ति' सूत्रम्, 'वा अप्पग्धे वत्ति' सूत्रम् , अल्पार्धे षा महापा , कस्मि- तो' मलयमारुताऽऽदिः, 'वृष्टं या 'वर्षणं, शीतोष्णं प्रती. Page #1572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५४१) भासा अभिधानराजेन्द्रः। भासा तं 'क्षेम' राजविवरशून्यं मातं' सुभिक्ष, 'शिव' | बदस्य तस्याम दुशया:भाषायाः परिबर्जकः सदा, एवंभू. मिति बोपसर्गरहितं कदा नु भवेयु एतानि , पातादी- तासन् परजीवनिकायेषु संशतः, तथा 'भामण्ये' भमण. नि.मा वा भवेयुरिति धर्माऽऽधभिभूतोनो पवेत् । अधिक- भाव परणपरिणामगर्भ बेरिते सदा यता ' सर्वकालमुरणाऽऽदिदोषप्रसवात्, वातादिषु सत्सु सवपीडाऽऽपतेः पुतः सन् वदेव बुरोहितानुलोम' हितं-परिणामसुन्दतवनतस्तथाभवने यार्सम्यानभावादिति सूत्राऽर्थः ॥१॥ रम् मनुलोम-मनोहारीति सूत्रार्थः।। ५६ ॥ उपसहरबाह'तोष सि' सूत्रं , तथैव मेघ वा नभो वा मानवं 'परिक्स सि' सूत्रं, 'परीक्षपभाषी 'मालोचितबला - बाऽऽश्रित्य मी 'देवदेवत्ति'गिरंबदेव, मेघमुमतं या उ- था 'सुसमाहितेन्द्रियः' सुप्रणिहितेन्द्रिय इत्यर्थः, 'अपमतो देव इति नो वदेत् , एवं 'नभ' भाकाशं मानवं' गतचतुष्कषायः'क्रोधाऽऽदिनिरोधकतेति भावः, 'अनिभिराजानं वा देवमिति नो वदेत् , मिथ्यावादलाघवाऽदिप्रस. तो'ग्यभाषनिभारहितः, प्रतिबन्धषिमुक्त इति पयम्। अात् । कथं तर्हि बदेविस्याह-उन्नतं हष्ट्रा संमूर्छित उन्नतो स इत्थंभूतो 'निर्धूय' प्रस्फोट्य 'धूनमतं ' पापमहं 'पु. षा पयोद इति , परेवा पृष्ठो बलाहक इति पूनार्थः ॥ ५२ ॥ राकृतं 'जम्मान्तरकृतं,किमिति'-माराधयति ' प्रगुमम माश्रित्याऽऽह-'अंतलिखति' सूत्रम्, बहनभोऽन्तरि. णीकरोति लोकम् ' एनं' मनुष्यलोकं बाक्संयतस्पेन .. समिति ध्याहयानुचरितमिति वा , सुरसेवितमिस्या, था 'पर' मिति परलोकमाराधयति निर्माणलोकं , यथा.. एवं किस मेघोऽप्येतदुभयशब्दवाच्य एव । तथा ऋद्धि- संभषमनन्तरं पारम्पर्येण घेति गर्भः। प्रवीमीति पूर्ववत् । मन्तं 'संपदुपेतं नरं रष्ट्रा, किमित्याह- रिद्धिमंत ' मिति नयाः पूर्ववदेष ।। ५७ ॥ ०७०२ उ०। ऋद्धिमानयमित्येवमालपेतू , क्यवहारतो मृषावादाऽऽदिपरि. वाकप्रणिधिमाहहारार्थमिति सूत्रार्थः॥५३॥ किंच-'तहेव सि' सूत्रं, तथैपसायद्यानुमोदिनी गीः 'वाग् यथा सुष्ठ तो ग्राम .. अपुच्छिमोन भासिज्जा, भासमाणस्स अंतरा। ति, तथा 'अवधारिणी' इदमित्यमेवेति , संशयकारिणी पिढिमंसं न खाइज्जा, मायामोसं विवज्जए ॥ ४७ ॥ वा , या च परोपघातिनी यथा-मांसमदोषाय 'से' इति ता- अप्पत्तिभं जेण सिपा, पासु कुपिज्ज वा परो। मेवंभूतां कोधाल्लोभायावासाद्वा , मानप्रेमाऽऽदीनामुपल सब्यसो तं न भासिजा, भासं अहिअगामिणि ॥४८॥ क्षणमेतत् , 'मानवः'पुमान् साधुने इसमपि गिरं वदेत् ।। दिड मिमं असंदिदं, पढिएवं विभं जिनं। प्रभूतकर्मबन्धहेतुत्वादिति सूत्रार्थः॥५४॥ . (१८) वाक्यशुद्धिफलमाह अयंपिरमणुबिग्गं, भासं निसिर अत्तवं ॥ ४६॥ सवक्कसुद्धिं समुपेहिया मुखी, आयारबत्तिधरं, दिहिवायमहिजगं । गिरं च दुटुं परिवाए सया। वायविक्खलि नचा, न तं उवहसे मुणी ॥ ५० ॥ मिधे अदुवे (ई) अणुवीइ भासए, 'अपुग्छिनो सि' सूत्रम् , अपृटो निष्कारणं - भा. सयाण मज्मे लहई पसंसणं ॥ ५५ ॥ षेत, भाषमाणस्य चान्तरेण न भाषेत, दमित्थं कि. तथैवमिति , तथा 'पृष्ठिमांसं ' परोक्षदोषकीर्तनरूपं म भासाइ दोसे अगुणे अजाणिश्रा, खादेत् 'न भाषेत , ' मायामृषां' मायाप्रधाना मृषा. तीसे अदु? परिजए सया । वाचं विवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ४७ ॥ किं - अप्पछसु संजए सामणिए सया जए, तिभं' ति सूत्रम् , अप्रीतियन स्यादिति प्राकृतशेल्या वाज बुद्धे हिममाणुलोमिश्रं ॥ ५६ ।। येनेति-यया भाषया भाषितया अप्रीतिरित्यप्रीतिमा भये. त् तथा प्राशु' शीघ्र कुप्येवा परो' रोषकार्य दर्शयेत् , परिक्खभासी सुसमाहिइंदिए, 'सर्वशः' सर्वावस्थासु 'ताम् 'इत्थंभूतान भाषेत भाषा. चउकसायावगए अणिस्सिए । म् 'अहितगामिनीम् ' उभयलोकषिरुवामिति सूत्रार्थः ।।४।। से निधुणे धुनमलं पुरेकडं, भाषणोपायमाह-'विट्ठति,' सूत्र, 'रष्ट' रष्टार्थविषयां मिता' पाराइए लोगमिण तहा परं ।। ५७ ॥ ति बेमि। स्वरूपप्रयोजनाभ्याम् ' असंदिग्धाम्' निःशङ्किता 'प्रतिपूर्णा' स्वरादिभिः 'व्यक्ताम्' मलला 'जितां' परिचिताम् ' मजा 'सबक ति 'सूत्रं, सद्वाक्यशुचिं, स्ववाक्यशुदि था... ल्पनशीलां'नोधर्मग्नबिलमाम् 'अनुद्धिनां' मोद्वेगकारी. सवाक्यशुद्धिं वा , सती शोभनां, स्वामात्मीयां , स| णीमेवंभूतां भाषां निसृजेन् 'या' आत्मवान् ' सचेइति वक्ता , वाक्यशुद्धिं " संप्रेक्ष्य ' सम्यग् रष्ट्वा 'मुनिः' | तन इति सूत्रार्थः ॥ ४६॥ प्रस्तुतोपदेशाधिकार एवेदमाह. साधुः गिरं तु ' दुध 'यथोक्तलक्षणां परिवर्जयेत् सदा. 'मायार सि' सूत्रम् , प्राचारप्राप्तिधरमित्याचारथरा किं तु ' मितं । स्वरतः परिमाणतश्च, 'अदुष्टं' देश- स्त्रीलिादीनि जानाति प्राप्तिधरस्ताम्येव सविशेषाणी. कालोपपनाऽऽदि 'अनुविचिन्त्य 'पर्यालोच्य भाषमाणस. त्येवंभूतम् । तथा राष्टिवादमधीयानं प्रकृतिप्रत्ययलोपाss. न् 'सतां' साधूनां मध्ये 'लभते प्रशंसन' प्राप्नोति प्रशंसा मवर्णषिकारकालकारकाऽऽविधीदे'बाविस्वलितंजावा' मिति सूत्रार्थः ॥ ५५ ॥ यतचैवमत:-' भासार ति' सूत्रं,। विषिधम्-अनेक प्रकारैलिंगभेदाऽऽविभिः स्खलितं विधाय 'भाषाया' उक्तलक्षणाया दोषांश्च गुणांश्च शास्वा ' यथा- नतम् ' प्राचाराऽऽविधरमुपहसेग्मुनिः, महो नु पस्था. ३८८ Page #1573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा अभिधानराजेन्द्रः। भासा पाराऽविधरस्थ वानिकौशलमित्येवम् बाबरपिवादमा मोसं शेष सच्चामोसं प्रसच्चामोसं णाम तं चउत्थं भास. धीपाममित्पुकमत गम्यते--माधीतरशिवावं, तस्य जातं ॥था सेमि जे प्रतीताजे य पदुप्पामा जे प्रणागता पानाप्रमावातिशयतः स्थलमाऽसंभवा, यभूतस्यापि स्वासितं संभवति ननमुणसेदिस्युपदेशः, ततोऽम्यस्य भरता भगवंतो सब्वे ते एयाणि वेब पत्तारि भासजासुसरा संभवति, मासी हसितम्य इति सूत्रार्थः॥ ५० ॥ पाई मासिंह वा, मासति वा, मासिस्संति या, पमानिसुवा, परमादिति वा, पएणविस्संति वा, सम्बाईपणं एयागि नक्सचं सुमिथं मोग, निर्मित्र मंतभेस । अचिचाणि बक्षमताणि गंधमंताणि रसमंताणि फासमंगिरियो तन माइक्ले, भूमाहिगरणं पयं ॥५१॥ साथि चमोवचायाई विप्परिणामधम्माई भवंतीति सम'मनसि 'सूध, पहिणा पूरा साक्षत्रम्--अश्वि- क्खायाई । (स्त्रम्-१३२) म्यादि 'स्व'मुभाशुभफलमनुभूतादि 'योग'बशीका सभापभिरिमानित्यम्तःकरण निष्पन्नान्, नमः प्रत्यक्षा. रणाऽऽदि निमित्तम् ' प्रतीताऽऽदि 'म'भिकमन्त्रा Sऽसवाचिस्वादसमनन्तरंवषयमाणान् बाबिमाचारा था. ऽऽदि भेषजम्' प्रतीसाराऽऽधौष 'पहिलाम्' असंयतामां गाचारावागण्यापारास्तान भुत्वा, तथा निशम्य हास्वाभा. सनाचीत, किंविशिष्टमित्याह-भूताधिकरणं पदमिति पासमित्या भाषां भाषेतीसरेण संबन्ध इति । तायाभूता भूतानि--एकेन्द्रियाऽऽदीनि संघहनादिनाऽधिक्रियते - भाषा न भाषितम्येति तत्तापदर्शयति-इमाम्बश्यमाणान् स्मिमिति, ततस तदप्रीतिपरिहारार्थमित्यं व्याव-मनधि. भनाबारान् साधूनामभाषणयोग्यान् पूर्वसाधुभिरनाचीर्ण. कारोऽत्रतपस्विनामिति सूत्रार्थः॥ ५५ ॥ वश०८० २उ। पूर्वान् साधुर्जानीयात् । तद्यथा-ये केचन क्रोधाद्वावाचं वियु. अन्ति विविधं व्यापारयन्ति भाषन्ते यथा चौरस्त्वं दासस्त्व. (१६) भाषावक्लव्यता मित्यादि, तथा मामेन भाषन्ते यथोत्तमजातिरहीनस्त्वमि. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा इमाई बयायागई सोचा स्यादि, तथा मायया यथा म्लानोऽहमपरसंदेशकंवा साय. णिसम्म इमाई प्रणायाराइं अणायरियपुम्बाईजाणेज्जा चकं केनचिदुपायेन कवयिस्वा मिथ्यादुष्कृतं करोति, सासा जे कोहा वा वायं विउंति जे माणा वा जे मायाए वा० ममतदायातमिति, तथा लोभेनाहमनेनोक्नेनातः किञ्चिलप्स्य इति, तथा कस्यचिदोषं जानानास्तहोषोद्घटनेन पुरुषं बद. जे लोभा वा वायं विउंति जाणो वा फरसं वयंति नत्यजानाना बा, सर्व चैतत्क्रोधाऽदिवचनं सहावयेन पान अजाणो वा फरुसं वयंति सबमेतं सावजं वज्जेज्जा गयेण वा वर्तते इतिसावयं तवजय द्विवेकमादाय विकिनाविवेगमायाए, धुवं चेदं जाणेज्जा मधुवं चेदं जाणिज्जा भत्वा सविधं वचनं वर्जनीयमित्यर्थः । तथा केनचिस्सा असखं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा लभिय णो लभिय साधुना जल्पता नैव सावधारणं वचो वक्तव्यं, यथा-भूवमेत. निश्चितं वृष्टयादिकं भविष्यतीत्येवं जानीयादव वा जानीभंजिय णो भुंजीय अदुवा भागतो अदुवा णो भागतो यादिति । तथा कथाचित्साधुं भिक्षार्थ प्रविष्टं शातिकुलं वा अदुवा पति अदुवा शो एति अदुवा एहिति अदुवा णो गतं चिरयन्तमुदिश्यापरे साधव एवं बुवीरन्, यथा-भुजमहे एहिति इत्थ वि भागते इत्थ विणो भागते इत्थ वि ए. वयं स तत्राऽऽसनाऽऽदिकं लब्धैव समागमिष्यति, यदि वा. प्रियते तदये किचिन्नवासी तस्माल्लब्धलाभः समागमिष्यति, ति इस्थ वि णो एति इत्थ वि एहिति इत्थ वि णो ए एवं तत्रैव भुक्त्वा भभुक्त्वावा समागमिष्यतीति सावधारहिति । अणुवीइ णिहाभासी समियाए संजयए मासं भासे. णं नवनव्यम् । अथ वैवभूतां सावधारणां पान यात्, ज्जा । तं जहा-एगवयणं?, दुवयणं २,बडुवयणं ३, इस्थि यथा-भागतः कश्चिद्राजाऽऽदिनों बा समागतः, तथा भाग. वयणं ४, पुरिसवयणं ५, णपुसगवयणं ६, प्रज्झत्थवयणं छति न वा समागच्छति, एवं समागमिष्यति न वेति एवम प्रपत्तनमठाऽऽदावपि भूतादिकालत्रयं योज्य,यमर्थ सम्य. ७, उवणीतवयणं ८, प्रवणीयवयणं है, उवणीयप्रवणीय ग्न जानीयात् तदेवमेवैतदिति नब्यादिति भावार्थः। सामावयणं १०, प्रवणीयउवणीयवयणं ११, तीयवयणं १२, म्येन सर्वत्रगःसाधारयमुपदेशो, यथा-अनुविचिन्त्य विचार्य पडप्पासवयणं १३, अणागतवयणं १४, पञ्चक्खवयणं १५, सम्यनिश्चित्यातिशयेन धुतोपदेशेन वा प्रयोजने सति निष्ठापरोक्खवयणं १६: से एगवयणं वदिस्सामीति एगवयणं भाषी सावधारणभाषी सन् समित्या भाषासमित्या समतया बएजा जाव परोक्खवयणं वइस्सामीति परोक्खवयणं व वा रागद्वेषाकरख लक्षणया षोडशवचनविधिशो भाषा भाषे त । याहाभूता च भाषा भाषितव्या तां षोडशवचनविधिदेजा, इत्थी वेस पुरिसो वेस णसगं वेस एयं वा चयं श्रम गतां दर्शयति-तद्यथेत्ययमुपप्रदर्शनार्थः, एकवचनम्-वृक्षः, वा चेयं अणुवीइ निट्ठाभासी समियाए संजए भासं भासे. द्विवचनम्-वृक्षी, बहुवचनम्-वृक्षा इति, स्त्रीवचनम्ज्जा, इच्छयाई प्रायतणाई उवातिकम्म ।। अह भिक्खू जा. वीणा कन्या इत्यादि , पुवचनम्-घटः पट इत्यादि। जा चत्तारि भासआयाई । तं नहा-सच्चमेगं पढम भास नपुसकवचनम्-पीठं देवकुलमित्यादि, अध्यात्मवचनम आत्मन्याधि अध्यात्म हृदयगतं तत्परिहारेणान्यणि ध्यतस्त जायं १, वीयं मोसं २,तइयं सच्चामोसं ३, णेव सचं णेव | देव सहसा पतितम् । उपनीतवचनं शंसावचनं यथा-- Page #1574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा पती श्री, तद्विपर्ययेापनीत वचनम् - यथेयं रूपहीने ति उपनीतानीनम् कचिद् गुणः प्रशस्यः कचि जिम्यो यथा रूपवतीयं श्री किं वसति अपनीलोपननम्-पती श्री कि तु सति अतीतवचनम् - कृतवान् वर्तमानयनम् करोति नागत वचनम् -- - करिष्यति . प्रत्यक्षवचनम् -- एष देव सः परोक्षवचनम् - स देवदतः । इत्येतानि षोडA wearin waisi स भिक्षुरेकार्थविवक्षायामेकवचनमेव या पावत्यां परोक्षवात् इति तथा वादिके रहे सति सयेदेपा पुरुषो पास था. एवमेवैतनत्वम् अनुविचिन्त्य निश्चित्य निष्ठाभाषी सन् समिश्या समतया संयत एव भाषां भाषेत तथा इत्येतानि पूर्वोक्तानि भाषागतानि ष माना आयतनानि दोषस्थानाम्युपातिकम्पाति लक्ष्य भाषां भाषेत अथ समजांनीयारयत्वारि भाषाजातानि चतस्रो भाषाः । तद्यथा-सत्यमेकं प्रथमं भाषाअवितथम् तथा गोगवाश्वोऽय . 1 , 3 (१८४१ ) अभिधान राजेन्द्रः । - तु मृषा द्वितीया थारो मौरिति २ दुतीया भाषा सस्यामृषेति यत्र किग्युिषेति यथा-अभ्यान्तं देवमुष्ट्रे पाती त्यभिदधाति ३ | चतुर्थी तु भाषा योग्य माना न सत्या, नापि मृषा, नापि सस्यामृषा श्रामन्त्रणाऽऽज्ञापनाऽऽदिका साङत्यति स्वीकापरिहारार्थमाही 9 " ति सोऽपीतिरेव तीर्थहरितीतानाग वर्तमानैर्भाषितं माध्यते भाषिष्यते च ।। अपि चैतानि सर्वाण्यप्येतानि भाषाद्रव्याण्यचित्तानि च वर्णगन्धरस.. स्पर्शयन्ति योपयविकानि विविधपरिणामर्माणि भव वीर्यकृद्भिरिति । अत्र च यदि स्वाविष्करणेन शब्दस्य मावेदितं न मूर्तस्याका शादेवः संभवन्ति तथा चयोपचयत्यनेन तु शब्दस्यानित्यत्वमाविष्कृतं विचित्र परिणामत्वाच्या णामिति । - (२०) सशस्य कृतकत्वाविष्करणाया 5सेभिया भिक्खुपा से पूरा नागिजा पूि भासा प्रभासा भासिज्जपाणी भासा भासा भासासमयवितिकता च भासिया मासा प्रभासा | 9 " भाध्यमा , स भिक्षुरेवंभूतं शब्दं जानीयात् तद्यथा-- भाषाद्रव्यवर्गशानां वाग्योगनिस्सरणात् ' पूर्व ' प्राग् भाषा सेवायोगेन नियमानेव भाषा भाषाद्रव्याणि भा बा भवति तदनेन तात्योष्ठाऽऽदिव्यापारेण प्रागसतः शब्द रूप निष्पादनात्स्फुटमेव कृतकस्वमावेदितं मृत्पिण्डे द चाय घटस्थति सा पोचरितमसिराहान मापसेोत्तरकालमप्यभावैव यथा कपालावस्था घो घटइति, तदनेन प्रागभावप्रध्वंसाभावौ शब्दस्याऽऽवेदिता. विति ॥ , अ इदानों चतसृणां भाषायाममापणीयामाह - सेभिक्खू वा भिक्खुपा से जं पुरा जाणि‍वा - ना भासा य भासा सच्चा १, जा य भासा मोसा २, जा य भासा सच्चामोसा ३, जाय भासा असवापोसा ४, तहप्पगारं भासा सकिरियं कफ निट्ट फराकरि छेदणकर मेयणकरिं परिताषयकरि उपकर भूतापघाइयं अभिख यो भांजा ॥ समिषु पुनरेवं जानीयात्तथा " सूर्याखत्या षाम् असत्यामुषाम् । तत्र मृषा सत्यामृषा च साधूनां नाथयाच्या सत्यापि या कर्मादिगुणांच्या तां च दर्शयति-सहाषचेन वर्तत इति साबधा, तां सत्या मपि न भाषेत तथा सह क्रिपया - दयावर्त्तत इति सहिया तामिति तथा कर्क चर्षिता ए तथा कको विकारिणी तथा निष्का धानां पदमघाटनपराम् मध्यकाि अबकरीम् एवं छेदनमेदनकरी पादपद्माकरोमित्येव मादिकां भूतोपधातिनी प्रतापकारिणमनिकायम नसा पर्यालोच्य सत्यामपि न भाषेतेति ! भाषणीयां स्वाहसेभिक्खु वा भिक्खुणी वा से जं पुरा जाखिज्जा जा भासा सच्चा सुडुमा जा य भासा असच्चायोसा, तहप्यारंभा असा जाब अभूतोपायं अभिकं भासं भासेज || (सूत्रम् - १३३ ) 9 भिक्षु पुनरेवं जानीयात् तद्यथा-या व भाषा सस्यामेति कुशाषया बुदधा पर्यालोच्यमाना वृषापि सत्या भवति यथा सत्यपि मृगदर्शने लुब्धकाऽऽदेरपला. प इति । उक्तञ्च - " अस्लियं न भासियन्वं श्रत्थि हु स पिजं न वक्तव्वं । सच्चं पि होइ अस्लियं, जं परपीडाकरं वयणं ॥ १ ॥ " या चालत्यामृषा श्रामन्त्रणी आशापनादिकात तथाप्रकारां भाषामसावद्यामक्रियां यावद् भूतोपघा. तिमी मनसा पूर्वम् अभिकाच पर्यालोच्य साधुषां भाषेतेति ॥ १३३ ॥ 1 किश्वसेभिक्खु वा भिक्खु वा पुपं श्रातेमा आमंति ते वा अपडिमा गो एवं वदेज्जा- हॉलति वा गोलेति वा वसुलेति वा कृपक्खेति वा घटदासेति वा साथेविवातेति वा चारिति वा माईति वा मुसावादीति वाइयाई तुमं ते जगगा वा, एतप्पगारं भासं सावज्जं सकिरियं जाव भूषायं अभिख यो भासेज्जा ॥ समदुः पुमांसमामन्त्रयामन्त्रि वा अयन्तं नैवं माहोल इति वा गोल इति वा पती देशान्त रेपी तथा पति नृपः पक्षः कुरिता वयः घटदास इति वा श्वेति वा स्तेन इति वा चारिक इ. ति वा मायीति वा मृषावादीति वा इत्येतानि अनन्तरोकानित्वमसि तव जनको वा मातापितरावेतानीति, एवंप्रकारां भाषां यावन भाषेतेति । Page #1575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५२ ) अभिधानराजेन्द्रः । मासा पतद्विपर्ययेण च भाषितव्यमाह से भिक्खु वा भिक्खुणी वा पुमं आमंतेमाणे प्रामंतिए बाप्पडिसुमाणे एवं वदेज्जा - अमुगे त्ति वा भाउसो सिवा उतारो सिवा साबको सिवा उपासगे सिवा for त्ति वा धम्मपिए सि वा एयपगारं भासं असावज्जं • जाव अभिकख भासेज्जा | से भिक्खू भिक्खुणी वा इथि श्रमंतेमाणे आमंतिते य अपि सुमा यो एवं वदेज्जा-- होलीति वा गोलीति वा इस्थीगमेण तव्वं ॥ से भिक्खु वा भिक्खुणी वा इथि आमंतेमाणे आमंतिए य अप्पडिसुमाणे एवं वदेज्जा उसो त्ति वा मणीति वा भोईति वा भगवतीति वा साविगेति वा उवासिए त्ति वा धम्मिए त्ति वा धम्मप्पिएत्ति वा, एतप्पारं भासं असावअं०जाव अभिकख भासेजा ।। ( सूत्रम् - १३४ ) भिक्षुः पुमांसमामन्त्रयन्नामन्त्रितं वा श्रृण्वन्तमेवं ब्रूयात् । तद्यथा श्रमुक इति वा, आयुष्मन्निति वा, आयुष्मन्त इति वा तथा धावक धर्म्मप्रिय इति एवमादिकां भाषां भाषेति । ए वं स्त्रियमधिकृत्य सूत्रद्वयमपि प्रतिषेधविधिभ्यां नेयमिति ॥ १३४ ॥ मासा पगाराहिं भासाहिं बुझ्या २ कुष्पंति मायवा ते यात्रि त हप्पगाराहिं मासाहि अभिकख यो भासेजाः । स भिक्षुर्यद्यपि ( एगइयाई ति ) कानिचित् रूपाणि गestaकुठपादीनि पश्येत्तथाऽप्येतानि स्वनामग्राहं तद्वि शेषणविशिष्टानि नोच्चारयेदिति । तद्यथेत्युदाहरणोपप्रदशेनार्थः, गराडी गएडमस्यास्तीति गण्डी, यदि बोलून गुल. फपादः स गएडीत्येवं न व्याहर्त्तव्यः तथा कुष्ठयपि न कुष्ठी ति व्याहर्त्तव्यः एवमपरव्याधिविशिष्टो न व्याहर्त्तव्यो यावन् मधुमेहीति मधुवर्ण मूत्रानवरत प्रभाषीति । अत्र च धूळाध्ययने व्याधिविशेषाः प्रतिपादिताः तदपेक्षया सूत्रे यावदित्युक्तम्, एवं छिन्नहस्तपादनासिका कर्णौष्ठाऽऽश्यस्तथाऽन्ये च तथाप्रकाराः काण कुण्टाऽऽदयस्तद्विशेषणविशि टाभिर्वाग्भिरुक्का उक्ताः कुप्यन्ति मानवास्तांस्तथाप्रकारांस्तथा प्रकाराभिर्वाग्भिरभिकाहृदय नो भाषेतेति । यथा च भाषेत तथाऽऽह सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा जहा वेगइयाई रुवाई पासेजा तावि ताई एवं वदेज्जा । तं जहा - श्रोयंसी श्रोयंसीति वा तेयंसी तेयंसीति वा जसंसी जसंसीति वा वच्चसी वच्चसी वा अभियंसि अभिरूयंसीइ वा पडिरूवंसी पडिरूवंसीति वा पासादियं पासादिएइ वा दरिसणिअं दरिणीति वा, जे यावसे तहप्पगारा तहप्पगाराहि भासाहिं बुझ्या वुझ्या णो कुप्पंति मात्रा ते यावि तहपगारा एयपगाराहिं भासाहिं अभिकख भासेज्जा । पुनरप्यभाषणीयामाह से भिक्खु वा भिक्खुणी वा यो एवं बदेज्जा – भो देवेति वा गञ्जदेवेति वा विज्जुदेवेति वा पत्रुट्ठदेवेति वा निबुदेवेति वा पडउवा वासं मावा पडउ प्फिञ्जड वा सस्सं मा वा फिज विभाज वा रयणी मा वा विभाउ देउवा सूरिएमा वा उदेउ सो वा राया जयउ वा मा जयउवा, यो एतपगारं भासं भासेज्जा । पर्व से भि क्खू वा भिक्खुणी वा अंतलिक्खेति वा गुज्झाणुचरिएत्ति वा समुच्छि वा विइए वा पत्र वदेज्जावुट्ठबलाहगेति वा, एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सा मग्गियं ।। (सूत्रम् - १३५ ) स भिक्षुरेवंभूतामसंयत भाषां न वदेत्। तद्यथा-नभोदेव इति वा,गर्जति देव इति वा तथा विद्युदेवः प्रवृष्टो देवः, निवृष्टो दे वः एवं पततु वर्षा मा वा निष्पद्यतां शस्यं मेति वा, विभातु रजनी मेति वा, उदेतु सूर्यो मा वाजयत्वसौ राजा मा वेति. ए सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा जहा वेगइयाई रुवाई पा सिजा । तं जहा वप्पाणि वा जाब गिहाणि वा, तहा वि ताई नो एवं बहुजा । तं जहा -- सुकडेइ वा सुट्टुकडेह वा साहुकडेइ वा कल्लाइ वा करणिज्जेइ वा एयप्यगारं भासं सावज्जं • जाव नो मासिया || से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जहा वेगइयाई रुवाई पासिज्जा । तं जहावष्पाणि वा०जाव गिहाणि वा तहा वि ताई एवं वइज्जा । तं जहा - श्रारंभकडे वा सावजकडेइ वा पयत्चकडे वा पासाइयं पासाइए वा दरिसणीयं दरिसणीयं ति वा अभिरूवं अभिवंति वा पढिरूवं पडिरूवं ति वा एयप्पगारं भासं असावज्जं ०जाब भासिज्जा ।। (सूत्रम् - १३६ ) सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवक्खडियं पेहाए तहाचि तं यो एवं वदेजा । तं जहाकडेति वा सुकडेति वा साहुकडेति वा कल्लाणेति वा क प्रकारां देवादिकां भाषां न भाषेत् । कारणजाते तु प्रशावान् संयतभाषया अन्तरिक्षमित्यादिकया भाषेत एतत्तस्य भि. क्षोः सामथ्र्यमिति । श्राचा० २ ० १ चू० ४ अ० १ उ० । सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा जहा वेगइयाई रुवाई पासेञ्जा हा विताई नो एवं वदेजा । तं जहा-गंडी गंडीति वा, कुट्टी कुट्ठीति वा • जाब महुमेदुखिति वा इत्यच्छिं इत्थच्छति वा, एवं पादचिणेति वा एक छिमेत्ति वा कामछिति वा उट्ठद्विसेत्ति वा, जे यावसे तहपगारा एयरणिजेति वा एयप्पगारं भासं सावज्ज०जाब यो भासेज्जा ।। भिक्षुर्यद्यपि गराडीपाऽऽदिव्याधिग्रस्तं पश्येत्तथाऽपि त स्य यः कश्विद्विशिष्ट गुण प्रोजस्तेज इत्यादिकस्तमुद्दिश्य सति कारणे वदेदिति केशववत् कृष्णश्वशुक्लदन्तगुणेोद्घाट नवत् गुणग्राही भवेदित्यर्थः । For Private Personal Use Only Page #1576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५५३) भासा अभिधानराजेन्द्रः। भासा से भिक्ख वा भिक्खुणी वा असणं वा पाणं वा ०२ जाव | एवं वदेज्जा । तं जहा-जुवंगवे त्ति वा घेणु त्ति वा रसव त्ति उपक्वडियं पेहाए एवं वदेजा। तं जहा-प्रारंभकडेति वा वा हस्सेति वा महल्लएति वा महब्वए ति वा संवह तिवा, सावज कडेति वा पयत्तकडेति वा भद्दयं भदएति वा ऊसदं एयप्पगारं भासं असावजं. जाव अभिकंख भासेजा। २ रसिय २ मणुम २ एयप्पगारं भासं असावजंजाव सभितुर्मानाप्रकारागाः प्रेक्ष्य प्रयोजने सत्येवं घूयात् । तद्य. मासेजा ॥ (सूत्रम् १३७) था-'जुबंगवे त्ति।' युवाऽयं गौः धेनुरिति वा रसवतीति था। स भिक्षुर्यद्यप्येतानि रूपाणि पश्येत् । तद्यथा-वप्राः हस्वः, महान् , महाव्ययो वा, एवं संवहन इति,पवं. प्राकारा यावद् गृहाणि , तथाऽप्येतानि नैवं वदेत् । प्रकारामसावधां भाषां भाषेतेति । नद्यथा-सुकृतमेतत्सुष्ठु कृतमेतत्साधु शोभनं कल्या किञ्चरहम् एतत् , कर्तव्यमेवैतदेवंविधं भवद्विधानामिति, एवं- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा तहेच गंतुमज्जाणाई पव्वप्रकारामन्यामपि भाषामधिकरणानुमोदनानो भाषेतेति ॥ याई वणाणि वा रुक्खा महल्ले हाए खो एवं वदेजा । पुनर्भाषणीयामाह-स भिक्षुर्वप्राऽऽदिकं दृष्ट्वाऽपि तदुद्देशेन न तं जहा-पासायजोग्गा ति वा तोरणजोग्गा ति वा गिहजोकिश्चिद्न्यात, प्रयोजने सत्येवं संयतभाषया स्यात् । तद्यथा-महारम्भकृतमेतत्सावधकृतमेत्तथा प्रयत्न कृतमेतत् . एवं ग्गा ति वा फलिहजोग्गा ति वा अग्गलाजोग्गाइ वा णावा. प्रसादनीयदर्शनाऽऽदिकां भाषामसावद्यां भाषतेति ॥ एवमश. जोग्गाइ वा उदगजोग्गाइ वा दोणजोग्गाइ वा पीढचंगवे. नाऽऽदिगतप्रतिषेधसूत्रद्वयमपि नेयमिति,नवरं ( ऊसदं ति) रणंगल कुलियतलट्ठीणाभिगडीपासणजोग्गाइ वा सयउच्छ्रितं वर्णगन्धाऽऽधुपेतमिति । णजाण उवस्सयजोग्गाइवा, एयप्पगारं भासं णो भासेजा। पुनरभाषणीयामाह स भिक्षुरुद्यानाऽऽदिकं गत्वा महतो वृक्षान् प्रेक्ष्य नैवं वदेत् । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा मणुस्सं वा गोणं वा महिसं तद्यथा-प्रासादाऽऽदियोग्या अमी वृक्षा इति । एवमादिकां वा मिगं वा पसुं वा पक्खि वा सरीसिवं वा जलयरं वा सावद्यां भाषां नो भाषेतेति ।। से तं परिवूढकार्य पेहाए णो एवं वदेजा-थुल्लेति वा, पमे यत्तु वदेत्तदाहतिलति चा, बट्टेति वा वज्झेति वा,पादिमेति वा,एयप्पगारं से भिक्खू वा भिक्खुणी वा तहेव गंतुमुज्जाणाई वा प. भासं सावज जाव णो भासिज्जा ।। . बयाणि वा वणाणि वा रुक्खा महल्ला पहाए एवं वदेजा। म भिक्षुर्गवादिकं परिवृद्धकायं पुष्ट कार्य प्रेक्ष्य नैतद्वदेत् । त. तं जहाजातिमंताति वा दीहवट्टाति वा महालयाति वा पथा-स्थूलोऽयं प्रमे दुरोऽयं,तथा वृत्तस्तथा वध्यो वहनयोग्यों पयायलासाति वा विडिपसालाइ वा पासाईयाइ वा जाब वा, एवं पचनयोग्यः देवताऽऽदेः पातनयोग्यो वेत्येवमादि- पडिरूवाति वा. एयप्पगा पडिरूवाति वा, एयप्पगारं भासं असावजंजाव भाभिककामन्यामप्येप्रकारां सावधां भाषां नो भाषेतेति । ख भासेज्जा ।। (२१) भाषणविधिमाह स भिक्षुस्तथैवोद्यानाऽदिकं गत्वैवं वदेत् । तद्यथा-जातिसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा मणुस्सं वा जाव जलयरं| मन्तः सुजातय इत्येवमादिकां भाषामसावद्यां संयत पव भा. वा से परिवूढकायं पेहाए एवं वदेज्जा-परिवूढकाए त्ति तेति । वा उवचितकाए त्ति वा थिरसंघयणे ति वा चियमंससो. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुसंभूता वणफला पेहाए हिए ति वा बहुपडिपुमईदिए त्ति वा , एयप्पगारं भास असावजं जाव भासेज्जा । तहावि ते णो एवं वदेजा.। तं जहा-पक्काति वा पायखस भिक्षुर्गवादिकं परिवृद्ध कार्य प्रेक्ष्यवं वदेत् । तद्यथा-प. जाति वा वेलोचिताति वा टालाति वा बेहियाति का , रिवृद्धकायोऽयमित्यादि सुगममिति। एयप्पगारं भासं सावज्ज.जावणो भासेज्जा । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा विरूबरूवायो गाओ पहा. स भिक्षुः बहुसंभूतानि वृक्षफलानि प्रेक्ष्य नै वदेत् । तच. ए यो एवं वदेजा । तं जहा-गानो दोज्झाओ ति वा था एतानि फलानि पक्कानि पाक प्राप्तानि तथा पाक खाचा. नि बद्धास्थीनि गर्ताप्रक्षेपकोद्रवपलालाऽऽदिना विपच्य भ. दम्मे त्ति वा गोरह ति वा वाहिम ति वा रहजोम्ग त्ति क्षणयोग्यानीति, तथा बेलोचितानि पाकातिशयतो ग्रहण. चा पयप्पगारं भासं सावज्जं जाव णो भासेज्जा। कालोचितानि, अतः परं कालं न विषहन्तीत्यर्थः । टालाय. स भिक्षुर्विरूपरूपा नानाप्रकारा गाः समीक्ष्य नैतबदेत्। नवबद्धास्थीनि कोमलास्थीनीति । यदुक्तं भवति-तथा द्वै. नयथा-दोहनयोग्या एता गावः दोहमकालो चा वर्तते, तथा धिकानीति पेशीसंपादनेन द्वैधीभावकरणयोग्यानि चेति , दम्यो दमनयोग्योऽयं गौरहकः कलहोटका, एवं वाहनयोः। एवमादिकां भाषां फलगतां सावधां नो भाषेत् । भ्यो रथयोग्यो वेति,एवंप्रकारां सायद्यां भाषां नो भाषतेति । यदभिधानीयं तदाह(२२) सति कारणे भाषणविधिमाह से भिक्खू वा भिक्षुणी वा बहुमभूया वणफला अवा से भिक्खू वा भिक्खुणी वा विरूवरूवाओ गाओ पेहाए पेहाए एवं वइजा । तं जहा--असंथडाइ वा बहुनिवट्टिम ३८६ Page #1577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (twice) अभिधानराजेन्द्रः । भासा फलाइ वा बहुवा वा भूवरुचि चि वा एयप्यगारं मार्स नो मासिज्जा असाव भिक्षु भूतफलानाम्रान् प्रेक्ष्येवं वदेत् । तद्यथा असमप्रतिभाक्नुवन्ति फलानि धारयमित्यर्थः एतेन पार्थ उक्त तथा बहुबर्तन फ सानि येषु ते तथा तेन पाकाचार्थ उक्त तथा बहुसंभूता निसंभूतानि पाकातियतः प्रहण का खोचितानि फलानि येषु ते तथा अनेन बेलोचितार्थ उक्तः, तथा भूतरूपा इति बा भूतानि रूपाण्यनस्थीनि कोमल फलरूपाणि येषु ते तथा अनेन टालाऽऽयर्थ उपलक्षितः, एवंभूता एते श्राघ्राः, आम प्रधानीयम् एवं भूतानां भाि किस सेभिक्खू या भिक्खुणी वा बहुसंभूयाश्रो श्रसही श्रो पेहा तहाबि ताम्रो यो एवं बदेआ । तं जहा पक्काइ वा नीलीमाति वा बीइवाइ वा लाइमाइ वा भक्जिमा बा बहुआ बा, एयप्पगारं भासं सावअं० जाव यो भासेजा । निर्वभूतापाने तथा कामी विमत्यः खायिमाः जायोग्याः रोपयोग्याबा, तथा (भजिमाउ ति ) पचन योग्या भजनयोग्याचा (बहुखअति) बहुभक्ष्याः पृथक्करणयोग्या बेति एका सावध भाषां नो भाषेत । यथा च भाषेत तदाइ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुसंभूयानो ओसहीश्रो पेदा हानि एवं वदेज्जा तं जहा रूढा ति वा बहुसंभूता विमा थिरा वि या ऊसातवा गतिबा बता ति वा ससारा ति वा, एयप्पगारं भासं असाव ● जाव नो भासेला ॥ १३८ ॥ मिथुनद्यात्तथा-कदा इत्यादिकामा भाषा भाषेत चित्र सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा तहप्पगाराई सहाई सुना सहा दिएमा यो एवं वदेज्जा । तं जहा-सुसद्दे तिवा दुसरे चि प्यारे मासे साप यो भासेज्जा | से भिक्खू वा भिक्खुणी वा तहा वि ताई एवं वदेज्जा । तं जहा सई सुसरे तिचा दुसरं दुसरे नि वा एप्पनारं • असाव • जाव भासेजा, एवं रुवाइ किएहे ति वा ५, सुमति वा २, रमाई विचाणि या ५, फासाई कमला िा८ ॥ ११६ ॥ समिद्यप्येतान् शब्दानामापि नेवं वदेत्त यशोमनः शब्दोऽशोभना मालको माङ्गलिको स्वयं व्याध्यविपरीतंापचास्थितापनाविषये पतत्। तद्यथा - ( सुलई ति ) शाभनशब्द शोभनमेव यात् अशोभनं त्वशोभनमिति । एवं पा किञ्च सेवा भिक्खुसी वा बंता कोईच मार्ग चा यं च लोभं च अणुवीयि गिट्टामासी निसम्मभासी ऋतुरियासी विवेगभासी समियाए संजते मासं भासेखा एयं खलु त भिक्खुस्स भिक्खुगी वा सामम्मियं ।। १४० ।। + सोचादिकं पायेवंभूतो भवेत्। तद्यथा अनुषि चिन्त्य निष्टाभाषी निशस्यभाषी अस्वरितभाषी विवेकभाषी भाषासमित्युपेतो माषां भाषेत एतत्तस्य भिक्षोः सामध्यम् । श्राचा० २ ० १ ० ४ अ० २ उ० । ( बचनगुप्तिमाश्रित्य साध्वाचारः अजा' शब्दे प्रथमभागे १२१-१२२ पृष्ठे गतः अलोकाऽऽद्यवचनमापनिषेधः अवयव शब्दे प्रथमभागे ७१५ पृष्ठे गतः ) अनुयेोगस्यैकार्थिकाम्यधिकृत्य अयोग नियोगो भास विमासाचिये देव' इति भाषापयःस्वरूपक थनम् । श्रा० म० १ श्र० । श्र० धू० । (२३) सम्प्रति प्रतिश्रुतदृष्टान्तोपेतं भाषाद्वारमाहपढिसद्दगस्स सरिसं, जो भासइ अत्थमेगु सुत्तस्स । सामइयबाल पंदिय साहु जईमाइया भाषा || मासा , यथा गिरिकुहरकन्दराऽऽदिषु यादृशः शब्दः क्रियते तादृशः प्रतिशत यो याद स्था मर्थमेकं भाषते तस्य तद्भाषणं भाषा, यथा समभाषः सामायिक, द्वाभ्यां बुभुक्षया तृषा वा लगियो बालः पापातू डीनः पलायितः पण्डितः । अथवा - पण्डा बुद्धिः सा पिडित साधयति मोक्षमार्गमिति साधुः यते सर्वात्मना संयमनुतिति तपन इत्यादिपरिग्रहः । वृ० १ ० १ प्रक० व्यवहार प्रति शासूचकसचाये "स्वमिधीयते।" इति स्मृतिः। वाच" सश्रोषा पयरो भाषा, विसं वा परिमतओ भास बाहिया भाला, पारिया ॥१॥" प्रकाशे, " श्रालोओ उज्जोओ, दित्ती भाला पहा पयासो य। " पाइ० ना० ४८ गाथा । विषयसूची(१) वाक्यस्यैकार्थिकानि । (२) द्रव्यादिभाषा । (३) द्रव्यभावभाषामधिकृत्वाऽऽराथम्यादिदयोजना | (४) लाम्प्रतमोघतो भाषायाः प्रविभागनिरूपणम् । ( ५ ) श्रुतभावभाषा । (६) सामान्यतो भाषायाः कारणाऽऽदिनिर्देशः । (७) भाषाऽऽत्मस्वरूपाऽनात्मस्वरूपा बेति निरूपणम् । (८) अनात्मरूपाऽपि सचिताऽसौ भविष्यति जीवच्छयदिति प्रतिपादनम् । (E) इह के भ्युपगम्यते वेदभाषेति तम्म निराकरणम्। ( १० ) वासकस्वभावत्वा च्छन्द द्रव्याणां तद्योग्य व्याऽऽकु लम्बाच्च लोकस्य मिश्राणि वासितानि वाऽन्यानि धूयेग्न् इत्याण्यानम् । > 6 1 Page #1578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासापय अभिधानराजेन्द्रः। भासासमिइ (११) अथ ग्रहणाऽऽदेजेघन्यमुत्करबकालमानम्। भासागरम्स-भापारहस्य- भाषाकाम्यताप्रतिवये प्रथ. (१२) यचथ्यौदारिकाऽऽविशरीरपचकमेदालायः पञ्चविघर तथाऽपि त्रिविधेनव कायेन वागद्रव्यग्रहणमिति भेदे, प्रति० । । समर्थनम् । भासारिय-भाषाऽऽर्य-पुं०। भाषाओं, प्रमा० १ पद । (तेषां (१३) औदारिकाऽऽविशरीरवता भाषां गृढता मुशता वा भेदाः 'मायरिय' शचे द्वितीयभागे ३३६ पृष्ठे गताः) मुक्ता सती भाषरा कियत् क्षेत्र व्यानोति ?, इति भासालदिय-भाषालविधक-पुं०। भाषासन्धिमति,विशे। प्रकपनम् । भासाबग्गबा-मायावर्गवा-सी० भाषामायोग्यवर्गणायाम, (१४) ताशपद्रग्बाणां मेदः। पं० सं०५शार। (१५) शिष्यस्य बाविनयविधानम् । भासाविजय-भाषाविचय-पुं० । भाषा सस्थाऽऽदिका तस्या (१६) प्रवाष्पा भाषा । (१७) कचिद् व्यवहारे प्रशान्ते पृष्टोऽपृष्टो वा कथं ब्रूयात् | विषयो निर्णयो भाषाविषयः । भाषानिर्णये, भाषानिर्णयोपे. कथं या नेति निरूपणम् । ते दृष्टिवादे च । स्था०१. ठा०।(१८) बाक्यशुद्धिफलम् । भाषाविजय-पुं० । भाषाया वाचो विजयः समृद्धिर्यस्मिन् ख (१६) भाषायव्यता पोखशवनविधिगताच भाषा। । भाषाविजयः। रष्टियादे, स्था० १० ठा। (२०) शबस्य कलकत्वाऽऽविष्करणम् । मासाविसारय-भाषाविशारद-पुं०। संस्कृतप्राकृतादिभा(२१) माषणविधिनिरूपणम् । पानिपुणे, "अटारसदेसीभासाविसारए।" औ०। (२२) सति कारणे भाषणविधिः। (२३) प्रतिश्रुतरष्टान्तोपेतं भाषाद्वारम् । भासासर-भाषाशब्द-पुं०। भाषापर्याप्तिमामकम्मोदयाss पादितो जीवाशदाभाषाशब्दः। तसिन् ,स्था.२ठा०३ ३०। भासागुण-भाषामा-पुं० । हितमिसदेशकालासंदिग्धभाषखाऽऽविके, सूब० २०६अ। "भासासहे दुविहे पम्पते। तं जहा-प्रवरसंबढे चेव, भासाचंचल-भाषाचञ्चल-पुं० । भाषातश्चञ्चले चञ्चलभेदे, नोअक्खरसंबद्ध चेव ।" स्था० २ ठा० ३ उ०। वृ०१ उ०१ प्रक०। (चश्चलव्याच्या 'चंचल' शब्द तृती- (स्वस्थस्थाने व्याख्या) "मितमहरगीताऽऽदिभासासरे यभागे १०३२ पृष्ठे गता) विखवियं ति भरणति ।" नि००१301 भासाजइ-भाषाजह-पुं० । भाषारहिते जडभेदे , " भासा भासासमय-भाषासमय-पुं०1भाषाया निसृज्यमानावस्थात: जहो तिविहो जल मम्मण एलमूत्रओ य।"भाव०४अाधा परिणामावस्थापर्यन्ते समये, “भासासमयविता । " भासाणुगामि (ए)-भाषाऽनुगामिन्-त्रिका भाषा पाऱ्यांना. भ० १३ श०७ उ०। Uमरवाचः, अनुगच्छत्यनुकरोति तद्भाषाभाषित्वात् स्व. भासासमिइ-भाषासमिति--सी०। भाषणं भाषा तद्विषया स. भाषायेव वा लब्धिविशेषात्तथाविधप्रत्ययजननात् मा-- मिति षासमितिः। भाव.४० भाषणं भाषा तस्यां नाऱ्याऽऽविद्यागनुकरणशीले भाषाः संस्कृतप्राकृतमागधाss. 'सम्यगितिर्भाषासमितिः। ध० ३अधिo | पा० । निरखपष. चाः अनुगमयति व्याख्यातीति एवं शीलः। संस्कृतप्राकृता. बनप्रवृत्तिरूपे समितिभेदे, स० सम । स्थानि०पू०। ऽऽदिभाषाव्याल्यातरि, औ.। मासाणिबत्ति-भाषानिवृत्ति-श्री०। भाषानिष्पत्ती, भ०। सम्प्रति भाषासमितिमाह-. काविहा से भंते ! भासाणिवती पत्ता । गोयमा ! कोहे माणे य माया य, लोभे य उपउत्तया । चउबिहा भासाणिव्बती परमत्ता । तं जहा-सच्चभासाणि हासे भय मोहरिए, विगहासु तहेव य ॥ ६ ! ध्वनी, मोसमासाणिवत्ती, सच्चामोसमासाणिवत्ती, अ. एयाई भट्ठ ठाणाई, परिवज्जितु संजभो। सच्चामोसमासाणिवत्ती,एवं एगिदियवजं जस्स जा भासा असावजं मितं काले, भासं भासेज पम ॥ १०॥ जाव बेमाणियाणं । भ० १६श.८ उ०। को माने व मायायां लोभे चोपयुक्तता क्रोधाधुपयोगप. भासादोस-भाषादोष-पुं०। सायद्यानुमोदनाऽऽदिके,उत्त०१ रता,तदेकाऽऽथतनेति यावत् , हास (भय ति) भये मोल. माअसत्यसत्यमृषाकर्कशासभ्यशब्दोचारणाऽऽदिके च । ये विकथासु तथैवोपयुक्ततेति संबन्धः । तत्र क्रोधे यथा "भासादोसं च तारिसं।"सूत्र०१७०८०। कश्चिदतिकुपितःपिता प्राह-"न त्वं मम पुत्रा, पार्शतिनो भासापज्जत्ति-भाषापयोति-खी० । यया भाषाप्रायोग्यवर्ग वा प्रति प्राह-पनीत बध्नीत पनमित्यादि, माने यथा कश्चिदभिमानामातचेता न कश्चिद् मम जास्यादिभिस्तु. णादलिकानादाय भाषात्वेन परिणामय्याऽऽलम्म्य च मुश्च ल्य इति षक्तिमायायां यथा-परव्यसनार्थमपरिचितस्थानव तिसा भाषापाप्तिरित्युक्तलक्षणे पर्याप्तिभेदे, नं० । प्रव०। ती सुताऽऽदी भणति-नायं मम पुत्रो,न चाहमस्य पितेत्यादि। प्रक्षाकर्म 14. सं०। लोभे यथा कश्चिणि परकीयमपि भाण्डाऽऽदिकमारमी. भासापय-भाषापद-ना भाषावक्तव्यताप्रतिबद्ध प्रशापनाया यमभिधतेहास्ये यथा-केलीकिलतया कञ्चन तथाविधं कु. एकादशे पदे, प्रमा० १ पद०। खीनमप्यकुलीनमित्युलपति । भये यथा-वधाषिधमकार्य Page #1579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिउर भिड अभिधानराजेन्द्रः। माचर्य स त्वं येन तसदाचरितमिति पृष्टः प्राह-नाई च । वाचा स्था० । करणे क्लिन् । वेतने,मूल्ये च । बाचा सदाऽस्मिन् देशे एवाभूवमित्यादि. मौखये यथा-मुखरतया | भृतिः पदात्यादीनां वृत्तिरिति । अनु०। यत्तत्परपरिबादादि वदन्नास्त। धिकथासु ख्यादिकथासु-अभिउ-भग-पुं०। भ्रस्ज-कु० पृ०। लोकप्रसिद्ध स्वनामख्याते हो कटाक्षविक्षेपास्तस्या इत्यादिकमाह । पठ्यते च-" कोहे | ऋषिविशेष , औ०। शिवे, शुकग्रहे, पर्वतसानी , जमदग्नी, य माण य माया, य लोभे य तहेव य । हासभयमोहरीए वि. उथप्रदेशे च । भृगुःप्रणतस्थानम् । जी०३प्रति०४ अधि०। कहा य तहेव य ॥१॥" गतार्थमेव । एतान्यनन्तरमुक्तरूपाण्य भगोगोंत्रापत्यम् अण। "बहुषु लुक"||1| भगोवेश्ये च । स्थानामि परिषj परिहत्य संयतः, किमित्याह-असाव. वाचा लक्षणायां राजौ, वृ०१ उ०१ प्रकः । शलदणभूरेचां निर्दोषां तामपि मितां स्तोकां यावत्युपयुज्यते तावतीमे. स्था जलशोषानन्तरं जल केदाराऽऽदिषु स्फुटितायां दालो, बकाले प्रस्ताव भाषां वाचं भाषेत बदेत प्रशा बुद्धिस्तद्वा कल्प० ३ अधि० ६ क्षण। न इति सूत्रद्वयार्थः॥ १-१०॥ उत्त०२४ १०॥ | भिउकच्छ-भृगुकच्छ-पुं० । लाटदेशस्थे स्वनामख्याते पुरे, भत्राप्युदाहरणम् ती० ४५ कल्प । विशे० प्रा०क० । कोई लाइ भिक्खडा नगरे रोहए निग्गंतुं बाहिरकरए हिं. रंतो केणड पुडो, जहा भिउच्च-भार्गव-पुं०। भृगुलोकप्रसिद्ध ऋषिविशेषस्तस्य शि. प्यो भार्गवः। परिवाजकभेदे, औ०। "केवइय मासहस्थी, तह मिचो दारुधनमाईणं। निम्वियाऽभिषिक्षा, नागरगा बेहि मं समिश्रो ॥१॥ भिडि-६ (5)(भृ) कुटि-स्त्री। धूवः कुटिर्भलिः-पृ० बेहमजाचामोत्ती, सज्झायज्माण जोगवक्खिता। वा इस्वः संप्रसारण वा उनी । वाच०।" इर्धकुटी" ॥८॥ पिता न विपेच्छा, न वि सुण य किह णु तो बेह॥२॥ १।११०॥ इति इति प्राकृतसूत्रण भ्रुकुटावादेरुत प्रा०१ पहुंमुणेहि कोहि पहुंअच्छीहि पेच्छई। पाद । भ्रविकारे , सा०१७० ८०। भ्रकुटिः कोपकृतमय बिटु सुपं सव्वं, भिक्खू अक्खाउमरिहई ॥३॥" पा० । भ्रविकारः । शा०१७०८० "करेति भिडि मुहे।" भ्रभासासमिय-भाषासमित-पुं० । भाषासमितिमति, सूत्र०२ कुटिराधेशवशकृत भूविक्षेपः । उत्त. २७ प० । लो१०२०। मौ०। चनविकारविशेषे , नि०१ श्रु०१ वर्ग १ अ । विपा० । भासिजमाण-माष्यमाण-त्रि० । अभिधीयमाने , स० ३४ आव०। त्रिवलीतरङ्गिते ललाटे च। " भिउडीविडंधियासमावागयोगेन मिरज्यमाने , प्राचा०२ श्रु० १ ० ४ हा।" त्रिवलीतरङ्गितललाटरूपया भ्रकुटपा विडम्बितं चि. अ०१०। कृतं मुखं यस्य सः । अनु० । भ्रकुटिनयनललाटविकारवि. भासिण-देशी-दते, . ना०६ वर्ग १०४ गाथा। शेषः । प्रश्न.४ आश्र द्वार । श्रीचन्द्रप्रभजिनस्य स्वनामभासित्तए-भाषितम्-मव्य० । वनुमित्यर्थे,भ०१६ श०५ उ० । ख्यातायां देव्याम् , प्रव० । श्रीचन्द्रप्रभस्थ ज्वाला, मता न्तरेण-भृकुटिदेवी पीतवर्णा वरालकाऽऽख्यजीवविशे. मासित्ता-माषिस्था-मन्य० । भाषणं कृत्वेत्यर्थे, स्था० ३ ठा० षवाहना चतुर्भुजा स्वमुद्रभूषितदक्षिण करद्वया फल. २ उ०। कपरशुयुतवामपाणिद्वया च । प्रव०२७ द्वारा श्रीनमिजिभासिय-माषित-त्रि० । भाष-क्तः। प्रतिपादिते, स०१० अ. नस्य स्वनामन्याते यो, पुं० । प्रव. श्रीनमिजिनस्थFOL पातु भासूत्र०। प्रज्ञापिते , प्राचा० ११० ५ भृकुटियत्तश्चतुर्मुखस्त्रिनेत्रः सुवर्णवर्णों वृषभवाहनोऽष्टभुजो म०३ उ०। भाषाभाषणे, म०प्रा०म०१०। बीजपूरकशक्तिमुद्राभययुक्तदक्षिणकरचतुष्टयो नकुलपरशुभासियव्व-भाषितव्य-त्रि०। प्रतिपादनीये,भ०१२ श०६ उ०। वज्राक्षसूत्रयुक्तवामकरचतुष्टयश्च । प्रव०२६ द्वार। भासही-देशी-निःसरण , दे० ना०६ वर्ग १०३ गाथा। भिउडिदोस-भ्र (भ्र भटिदोष-पुं०। कायोत्सर्गदोषभेदे, भासुज्जुयया-भाष कता-स्त्री० । भाषार्जबे , भ०८ श०६ व्यापारान्तरनिरूपणार्थ भ्रवा चालयन् कायोत्सर्गे तिष्ठति उ.पाचो यथावस्थितार्थप्रत्यायनार्थाय प्रवृत्ती, स्था० ४ भृकुटिदोषः । प्रव०४ द्वार । ठा०१3०। भिडिय-भृकुटित-त्रि० । कृतभ्रुकुटिके,शा० ३ श्रु० ८ ०। भासुर-भासुर-त्रिका भास्वरे, दीप्तिमति, " भासुरवरबोंदि. धरो, देखो वेमाणिमो जाओ"प्राक०४०। स्था। रा०। भिउपक्खंदण- भृगुणस्कन्दन-न । भृगुप्रपतने, नि० घ.४ मा०म० मि०पू० । उपा० । जी० । घोरे, "घोरा दारुणभासुर-भारष-लक-भीम-भीसणया। " पाइ० मा० | भिउपुर-भृगुपुर-न । लाटदेशस्थे स्वनामख्याते पुरे, "मा ६५ गाथा । " भासुरखौदीपलंबवणमालधरा " प्रशा. २ स्ते भृगुपुरं तत्र, लाटदेशललाटिका।" मा0 क० १ ० । पर । स्फटिकेचा धीरे, पुंकुष्ठौषधी , न०। वाच । स्वः | | भिउर-भिदूर--त्रि० । भिद-कुरन् । बजे, वाच । स्वयमेव नामयाते विमाने च । १०७ सम० । कल्प। भिद्यते इति भिदुरम् । प्रतिक्षण विशरारी, आचा० १ ० भिइ भृति-स्त्री० । भृ-क्लिन् । " उहत्वादी " ॥ ८ ॥१| ८.६ उ० । "भिदुरसुण रजेजा।" भेदनशीला मिदुराः। ॥१५॥ इति प्राकृतसूत्रणेस्वम् । प्रा०१पाद । भरण, पोषणे | प्राचा०१७०८१०८ उ० । Page #1580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिउरधम्म - भिरभिदुरधर्म पुं०] स्वत पर भिद्यते इति भिदुरम् स एव धर्मः स्वभावो यस्य स भिदुरधर्मः । श्राचा० १ श्रु० २ ० ४ उ० । प्रतिक्षणं विशराहशीले, श्राचा० १ श्रु० ८ श्र० ६ उ० | "भिउरधम्मं विद्धंलणधम्मं ।" श्राचा० १० भिक्ला १ श्र० । श्र० । जं० जी० । रा० । अप्पेगइया भिंगारकल सहत्थगया।" जी० ३ प्रति० ४ श्रधि० । पक्षिविशेषे च । जी० ३ प्रति० ४ अधि० । ज्ञा० प्रश्न० औ० । भृङ्ग इव ऋच्छति ऋ-अच् । भृङ्गराजे, लवङ्गे, सुवर्णे च । न० ।" भिल्लीनाम के कीटे, स्त्री० । गौरा०ङीष् । स्वार्थे कन् । तत्रैवार्थे, वाच० । ५ अ०२० । स्था० । .. भिंग-भृङ्ग-पुं० धृन् कि तु चतुरिन्द्रिये मील भिंगारी भृङ्गारी स्त्रीण भिंगारी किया बरीच ना० १२४ गाथा | चर्यायाम्, मशक इत्यन्ये, दे० ना० ६ वर्ग १०५ गाथा । भिंगुलेण भृगुलयन वर्णे पक्षमले पक्षिविशेषे, प्रज्ञा० १७ पद । श्रा० म० जी० । तं० रा० प्रश्न० । श्रष्ट० । ज्ञा० । अङ्कारविशेषे, श्र० । भृङ्गो भृङ्गाभिधानः कीटविशेषः, विदलिताङ्गारो वा । शा० १ ० १ ० कल्पवृक्षात् भृङ्गारा दिविविधभाजनसम्पादका भृङ्गाः । स्था० ७ ठा० । कलिङ्गहिगे भृङ्गराजे, जारे, अक्ष, गुडत्वधि न० । घाच० । भ्रमरे, "फुल्लंघुआ रसाऊ, भिंगा भसक्षा य महुअरा अलि इंदिरा रेडा गया कृपया म रा ॥ ११ ॥ पाइ० ना० ११ गाथा । (१५५७) अभिधानराजेन्द्रः । , भृताङ्ग--पुं० । भृतं भरणं तत्राङ्कं कारणं भृताङ्गम् भाजने, तत्सम्पादके कल्पवृक्षभेदे, "मतंगया य भिंगा।" भृतं भर पूरणं तथाङ्गानि कारणानि भूताङ्गानि भाजनानि न हि भरणक्रिया भरणीयं भाजनं बिना भवतीति तत्सम्पादकत्वात् वृत्ता अपि भृताङ्गाः, प्राकृतत्वाच्च 'भिंगा उच्यन्ते । स्था० १० ठा० | प्रब० । जं० प्रा० म० । कृष्णे, दे० ना० ६ वर्ग १०४ गाथा । भिंगगय-भृताङ्गक पुं० । स्वनामध्याते हुमे, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । भिंगणिमाभृङ्गनिभा श्री० जम्बूसुदर्शनाय अपक्ष स्यां दिशि स्थितायां स्वनामख्यातायां नन्दापुष्करिण्याम्, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । मिंगप्पा भृङ्गमा श्री० जम्बूसुदर्शनाया अपक्षस्यां दिशि स्थितायां स्वनामख्यातायां नन्दपुष्करियाम् जं० ४ पक्ष० । ढक्कायाम्, स्था० ६ ठा० । । भिंगपच भृङ्गपत्र न भृङ्गस्य पक्षिविशेषस्य पत्रं पदमभूमिमासार- भिम्मासार - ङ्गपत्रम् । भृङ्गपक्ष्मणि प्रज्ञा० १७ पद ४ उ० । श्राष० । स० । जी० । रा० । .. भिंगा--भृङ्गा--स्त्री० । जम्बूसुदर्शनाया अपरदक्षिणस्यां दिशि स्थितायां स्वनामख्यातायां पुष्करिण्याम्, जं० ४ वक्ष० जी० । मिंगाइजीव-मृगादिजीव पुं० जीवविशेषे राजप्रश्रये सूर्यमनेकपा तथा भूदिजीवा उक्का, स्था नपदे व ते निषिद्धाः, तत्र किं तत्वमिति प्रश्नं, उत्तरम् - रा· जमश्नीया गादिजीवाः पृथ्वीपरिणामरूपा देवा ये तु स्थानपदे निषिद्धास्ते त्ररूपा इति ॥ १२१ ॥ प्र० । सेन० १ उल्ला० । भिंगार भृङ्गगार पुं०] विभर्ति जसं भृ-र इस्पान्दी" ॥ ८ । १ । १२८ ॥ इतीत्वम् । प्रा० १ पाद । स्वर्णमयजलपात्रे, भृङ्गारः कनकालुका | जं०२ बक्ष० । जलमाजनविशेषे, आ०म० ३९० .. , रेखा जलशोषानन्तरं जलकेदाराऽऽदिषु स्फुटिता दातिरित्यर्थः । तदेव लय भृगुलयनम् । लयनभेदे, कल्प० ३ अधि० ६ क्षण । मिडिमाल भिन्दिपाल पुं०निदि बिदार छन्। मिि भेदनं पालयति, पाल अण् । हस्तक्षेप्ये नालिका, हस्तप्र माणेऽत्रे च । वाच० । भिन्दिमाल जातिविशेषे जी०मिन्दिमालः शख जातिविशेषः । जी० ३ प्रति० १ अधि० २ उ० । प्रश्न० । भिण्डिमाल - पुं । प्रहरणविशेषे जी० । भिण्डिमाल: प्रहरणविशेषः। जी० ३ प्रति० १ अधि०२ उ० । प्रश्न० । मिडमा गम्यम् । भिंडया- भिएिडका - स्त्री० । पोरकारे, " भिंडिया उक्कोडिनो पोक्कानो ति बुतं भवति । " नि० चू० १३० । भिंदरता भिक्षा अध्य० ऊर्जुपाटमेन शाटकादिकमिव विदारयत्यचे " भिदिय मिडिया च पाप" भ० १४ श० ८ उ० । प्रश्न ० । 1 मंदिव-अव्य० स्फो०१५ ८० विपा०रा० भिंभा - भिम्भा ( भी ) - स्त्री० । भेर्य्याम्, दशा० १० अ० । - " राजगृहनगरस्थे श्रेणिकराजे, पुं० । भिम्मा मेरी सैव सारा प्रधाना यस्यासौ भिम्भासारः। दशा० १० अ० । "भिभित्ति ढक्का" सा सारो यस्य स भिम्भीसारः । राजगृहनगरस्थे श्रेणिके राजनि, स्था०। तेन किल कुमारस्व प्रदीपनके जयढक्का गेहान्निष्काशिता ततः पित्रा भिभिसार उक्त इति । स्था० ६ ठा० आव० "जया य रायगिद्दे अग्गी तितो कुमारा जस्त पिपं-सोपी णीयं, लेणियेगा भिभा गीता राया पुच्छर-केण कंणी. णियं ति, अन्नो भाइ-मए हत्थी श्रासो एवमादी । सेणिश्री भणति भिभा । ताहे राया भराइ सेणियं, एस तव सारो मिंमिति सोमं सोयर नाम कयं मिमिलारो। " आव० ४ अ० । दशा० । भिक्ख भिक्ष- घा० । भिक्षाया लाभेऽलाभे च । स्वादि० । श्रात्म० । सेट् । भिक्षते । अभिक्षिष्ट । वाच० । भैन०मिष समूहो या भय् भिक्षायाम्, विश्वास. मूहे च । वाच० । प्रश्न ० ५ संव० द्वार | भिक्खगदामिकाग्रहय न० उपविष्टस्य सतः भिक्षापा श्रानयने, बृ० १ उ० २ प्रक० । भिक्खा - भिक्षा स्त्री० । भिक्षणं भिक्षा | भिक्ष-मः | बाय 1 । Page #1581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५८) अभिधानराजेन्द्रः । भिक्खा नायाम् । वाच० । कवले, पञ्चा० १६ विव० । विधिना पि. एडाऽऽनयने, ग० २ अधि० । भिक्षाशब्दार्थमुपदर्शयन्नाह - भिखास येवं अगिताभविस चि एमादी । सचिव किरियावंतम् उ अतिथि ।। ३३ ।। भिक्षाशब्देोऽपि भिक्षेति ध्वनिरपि । एवमिति पिण्डशब्द इस विशेषविषय इत्यर्थः । विशेषविषयत्वमे वाऽऽह-अनियतलाभ. विषयोऽप्रतिनियत भक्ताऽऽदिप्राप्तिगोचरः । यतो गुणवद्यतेरेवा. नियतो लाभः स्यात् । इतिरुपप्रदर्शने । एवमादि एवंप्रभृतिकं (ख) "संपले भालम" इत्यादि यो भिक्षाशोऽनियनलामार्थी व्याक्यातः श्रादिशब्दाचाम्यध्ये प्रायमुकं तत्सर्वमेव समस्तमेव उपप केल्या क्रियावति सुसाधुक्रियायुक्त एव यतो साधी, तदन्यत्र हा नियम लाभाssदेरर्थस्यानवश्यंभावित्वादिति गाथाऽर्थः ॥ ३३ ॥ पञ्च०१० ( विद्यायाः सर्वसम्पत्र्याचा मेाः 'गोयरचरिया ' शब्दे तृतीयभागे १००६ पृष्ठे गताः ) ( भि• छाया: सर्वोऽधिकारागीपरवरिया शब्दतीय-भा २६७ पृष्ठादारभ्यावलोकनीया ) भिक्षा व नवकोटिपरिशुद्धा प्राह्मा । स्था० । ! भिक्लाग वाच । भिक्षणशीलो भिक्षणधर्मा भिक्षणे साधुर्वा भिक्षाकः । स्था०] [४] ठा०] १ उ० । श्राचा० । भिक्षणवृत्ति के साधौ, स्था० । - चत्तारि घुणा पछत्ता । तं जहा - तयक्खाए, लिखाए. कटुक्खाए, सारक्खाए। एवामेव चत्तारि भिक्खागा प ताजा-तयखायसमा० जाव सारखामसमाये । तयक्खायसमाणस्स णं भिक्खागस्स सारखायसमाणे तवे पद्मते। सारवायसमास्स यं भिक्लागस्स वयक्खायसमा तवे पाते । छल्लिक्खाय समाखस्स भिक्खागस्स कटुक्खायसमाणे तवे पष्यते । कट्ठक्खायसमारसगं भिक्खागस्स छम्लिक्खायसमाणे तवे पाचे (सूत्रम् - २४३ ) 1 स्वयं ह्यतिः एवं अनि वरम् (छति ति ) अभ्यन्तरं वल्क, काष्ठं प्रतीतं सारः का मध्यमिति दृष्टान्तः एवमेवापनय निका सिके साथी वा मिक्षाका ला देन घुणेन समानोऽत्यन्तं सन्तोषितया आायामाम्लाऽऽदिप्रा. न्ताऽऽहारभक्षकत्वात् त्वक्लादसमानः । एवं कुलीखादसमामोनो निर्विकृतिका उदा रतया सारखादसमाना सर्वकामगुणाद्वार यां चतुर्णामपि भिक्षाकायां तपोविशेषाभिधानम्-"त यक्लाप " इत्यादि सुगमं, केवलमयं भावार्थ:- त्वक्क ल्पासाराभ्यवहर्तुर्निरभिष्वङ्गस्यात्कर्मभेदमङ्गीकृत्य वज्रसारं तपो भवतीत्यतोऽपदिश्यते - ( सारक्खायसमाणे तवेति ) सारखा घुस्य सारखादयादेव समर्थत्वात् वज्रतुण्डस्वाति सारसमानस्योलस्य तथा च समणेयं भगवया महावीरेणं समणानां निग्गंथाणं नपरिशुद्धे भिक्खे पद्मने। तं महा-याबे, हतं नानुजाण, न पय, ण पयावे, पर्यतं नाशुजायाः न किन न किया कि नाजाय | नवभिः कोटिभिः बिमा परिशुद्धं निर्दोष नवकोटिपरि शुद्धं, भिक्षाणां समूहे। भैक्षं प्रशप्तम् । तद्यथा- न इन्ति सा स्वयमेव गोधूमाऽऽदिलनेन न घातयति परे गृहस्था ssदिना, नन्तं नानुजानाति अनुमोदनेन तस्य वा दीयमानस्याप्रतिषेधनेन 'अप्रतिषिद्धमनुमतम् ।' इति वचनात् ह. मनङ्गजननाचेति । श्राह च कामं लयं न कुब्बर, जाणंतो पुरातावि सादी पर तयसंग अगिरहमा उ बारेद्द || १ || ” इति । तथा हृतं पिष्टं सत् गोधूमाऽऽदि मुद्राऽऽदि वा अहतमपि सन्न पचति स्वयं, शेषं प्राम्बत् सु गर्म च । इह चाऽऽद्याः षट् कोट्योऽविशोधिकोट्यामवतर लि. आधाकर्मादिरूपत्वात् । अभ्यस्तुतिविधिको ज्यामिति । उक्रं च " सा नवदा दुद्द कीर, उग्गमकोडी वि. सोहिकोडी य । छसु पढमा ओयर, कयतीयम्मी बिलो. धीओ ॥ १ ॥ " इति । स्था० ६ ठा । भिक्षा पमस्यामिसमय एव प्रवृत्तादर्शि व दास, दिनं ददुहुँ जलम्मि वि पयत्तं । नियमवादापि य द भिक्खा पयता उ ॥ अथवा दत्तिर्नाम दानं तच्च भगवन्तम् ऋषभस्वामिनं सां वत्सरिकं दानं ददतं दृङ्का लोके अपि प्रवृत्तम्। यदि वादतिर्नाम भिक्षादानं, तब जिनस्य भिक्षादानं प्रपख तं दृष्ट्वा लोकेऽपि भिक्षा प्रवृत्ता, लोका अपि भिक्षां दातुं प्रवृ ता इति भावः । अ०म० १ अ० भिकखाग - भिक्षाक- त्रि० । भिक्ष- षाकन् । भिक्षाकारके । एवामेव चत्तारि भिक्खागा पाता । तं जड़ा-- विइत्ता वाइसमानं कर्मसारभेदं प्रत्यसमधे तपः स्यात् स्वदकघुणस्य हि त्यासारमेदमं प्रत्ययमर्थवादिवि तथा पुणसमानस्य मिखाकस्य त्यचाद घुणसमानापेक्षया किञ्चिविशिष्ट मोजित्वेन किञ्चित्साभिव्यङ्गत्वात् सारखाद काष्ठखाद घुणसमानापेक्षया श्वसारभोजित्येन निरमित्याच्च कर्ममेदं प्रति कारण समानं तपः प्रशतं नातितीवं, सारखादधुण्याप्यतिमन्दा 5.दिति भावः तथा का समानस्य साधोः सारखादसमानापेचया स्वसारमीजि स्वेन निरभिष्वङ्गत्वात् त्वक्छ लिखाद घुण समानापेक्षया सारतरभाजिखेन साभिष्वङ्गत्वाच्च इल्लीखादघुणसमानं तपः प्रशतं कर्मभेदं प्रति न सारखाइकाष्ठखादघुणवदति समर्था55दिनाऽपि भवतिमन्दमिति भावः प्रथमधिकप्रधान द्वितीयेीधानं अप्रधानमिति । स्था० ४ ठा० १७० । चत्तारि पक्खी पात्रता । तं जहा - विइसा खाममेगे यो परिवत्ता, परिवइत्ता खाममेगे यो शिवइत्ता, एगे वित्ता वि परिवत्ता व एगे यो वित्ता यो परिवहता ३७ । Page #1582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्रवाग अभिधानराजेन्द्रः। भिक्खायरिया याममेगे णो परिवइत्ता, परिवइत्ता णाममेगे णो णिवत्ता, स्था०६ठा तपे अनशनभेदे. भिक्षाचर्या तपो निर्जराङ्गत्वा. एगे शिवइत्ता वि परिवइत्ता वि, एगे सो णिवत्ता णो दनशनषत् । स्था०६ ठा। विपा०। परिवइत्ता । ३८ । (सूत्रम् ३५१) तभेदा:निपातिता नीहादवतरीता अवतरीतुं शक्नो नामकः पक्षी से किं तं भिक्खायरिया । भिक्खायरिया अणेगविहा धृष्टत्वादावाद्वा, न तु परिवाजिता न परिवजितुं शक्को बा. पणता । तं जहा- दब्वाभिग्गहचरए, खत्ताभिग्गहचरए, लस्वादिस्येका, एवमम्यः परिवजितुं शक्ता पुष्टस्वातु निपति कालाभिग्गहचरए, भावाभिग्गहचरए, उक्खित्तचरए, णितुंभीरत्वादम्यस्तूभयथा चतुर्थस्तुभयप्रतिषेधवानतिषाला. स्वादिति ।३७ निपतिता भिक्षाचर्यायामवतरीता भोजनाss. क्खिसचरए, उक्खित्तणिक्खिसचरए, मिक्खिनउक्खिधर्थित्वा तु परिवजिता परिभ्रमको ग्लानत्वादलसवाल तचरए, वहिजमाणचरप , साहरिजमाणचरए, उवणी. ज्जालस्वावत्येका, भन्यः परिवजिता परिभ्रमणशील प्राश्रया. अचरए, श्रवणीचरए, उवणीमभवणीचरए, अवणी. निर्गतः स तु निपतिता भिक्षार्थमवतरीतुमशक्तः सूत्रार्थाः यउवणीचरए, संसहचरए, प्रसंसहचरए तजातसंसहशक्लत्वाऽऽदिना, शेषो स्पष्टी।३८४ (३५१)। स्था०४ ठा०४ उ० चरए, अमायचरए, मोणचरए, दिहलाभिए, भदिहलाभिचत्वारि भिक्खागा पमत्ता । तं जहा-मणुसोयचारी, ए.पुढलाभिए,अपुट्ठलाभिए, मिक्खालाभिए,अभिक्खालापढिसोयचारी, अंतचारी, मज्झचारी ॥ २३॥ भिक्षाका साधुर्यो घभिग्रहविशेषादुपाश्रयसमीपात् क्रमेण भिए, अगिलायए, मोवणिहिए,परिमितपिंडवाइए, सुद्धेकुलेषु भिक्षते सोऽनुश्रोतवारी मत्स्यवदनुथोतवारी प्रथमः, सणिए,संखायतिए । से तंभिक्खाय(द)रिया। (सूत्र-१६) यस्तूतुक्रमेण गृहेषु भिक्षमाण उपाश्रयमायाति स द्वितीयः, (दव्याभिग्गहचरपति) द्रव्याऽऽश्रिताभिप्रहेण चरति भि यस्तु क्षेत्रान्तरेषु भिक्षते स तृतीया, क्षेत्रमध्ये चतुर्थः ॥२३॥ क्षामटति द्रव्याऽऽधिताभिग्रह वा घरम्यासेवते यास द्रव्या. स्था०४ ठा०४ उ०। भिप्रहचर.का पहचभिक्षाचर्यायां प्रक्रान्तायां यद द्रव्या पंच मच्छा पसत्ता । तं जहा--अणुसोयचारी पढिसो. भिग्रहचरक इत्युक्तं तवमेधमिणोरभेइविषक्षणात् । द्रव्या. यचारी अंतचारी मज्मचारी समचारी। एवमेव पंच मि. भिप्रहश्च लेपकताऽऽविद्रव्यविषयः। क्षेत्राभिप्रहःस्वप्रामपर। प्रामाऽऽदिविषयाकालाभिग्रहः पूर्वाहाऽऽदिविषयः भावामिक्खागा पाना । तं जहा अणुसोयचारी जाव सम्वचारी।। प्रहस्तु गानहसनाऽऽविप्रवृत्तपुरुषादिविषयः(उक्खिसचरतत्र मत्स्यः प्राग्वत् भिक्षाकस्तु अनुश्रोतवारी प्रतिथया. पत्ति) उरिक्षप्तं स्वप्रयोजनाय पाकभाजनादुघृतं तदर्थमदारभ्य भिक्षाचारी स च प्रथमः प्रतिधेोतवारी दादार भिग्रहतश्चरति तद्वेषणाय गच्छतीत्युस्क्षिप्तचरकः । एवभ्य प्रतिभयाभिमुखचारीत्यर्थः, सच द्वितीयः अम्तचारी. मुत्तरत्रापि । (निक्खित्तचरए त्ति) निक्षिप्तं पाकभाजनादपार्थचारीति तृतीयः, शेषा प्रतीतौ । स्था०५ठा०३ उ०। नुद्धृतम् (उक्वित्तनिक्खित्तचरए ति) पाकभाजनादुत्क्षिमिक्खागकुल-भिक्षाककुल-न० । भिक्षणवृत्तिके कुले, स्था० प्य निक्षिप्तं तत्रैवान्यत्र वा स्थाने यत्तदुरिक्षतनिक्षिप्तम् । ठा।" भिक्खागकुलेसुवा।" भिक्षाकास्तालचाराः। अथवोरिक्षप्तं च निक्षिप्तं च यश्चरति स तथोच्यते ( निक्खितेषु, कल्प०१ अधि०२क्षण। तउक्खिसचरए सि) निक्षिप्तं भोजनपाच्यामुरिक्षतं च स्वार्थ भिक्खाड-भिचाट-पुं० । भिक्षामटतीति भिक्षाटः भिक्षण- तत एव निक्षिप्तोरिक्षप्तम् (वहिज्जमाणचरए सि) परिवेष्य. शीले साधी, भाचा०२७०१०१०११ उभिक्षाटो. माणचरकः (साहरिज्जमाणचरए त्ति) यत् कराऽऽदिकं शीभिक्षाभोजीति । शा०१० १४ अ० । तलीकरणाथै पटाऽऽदिषु विस्तारितं तत्पुनर्भाजने क्षिप्यमाणं भिक्खादोस-भिवादोष-पुं०। प्राधाकर्मादिके. ते च षोड. संहियमाणमुच्यते. (उवणीयचरए ति) उपनीतं केनचि. स्कस्यचिदुपढौकित प्रदेणकाऽदि, (प्रवणीयचरए ति) शोहमदोषाः षोडशोत्पादनादोषाः दशैषणादोषाः । भाचा अपनीतं देय द्रव्यमध्यादपसारितमन्यत्र स्थापितमित्यर्थः । १ ०२ १०५ उ०। (उवणीयाषणीयचरपति) उपनीतं विनीतं ढाकितं सत् पहे. भिक्खाभायण-भिक्षाभाजन-नाभिक्षापात्रे भिक्षामाजनमि. णकाऽऽद्यपनीतं स्थानान्तरस्थापितम् अथवोपनीतं खापनीनं व भिक्षाभाजनम् । भिक्षोनिर्वाहकरणे च । "जोव्यणगमणुप्प. चयश्चरति स तथा ।अथवा-उपनीतं दायकेन वर्णितगुणम; ते, तब मम मिक्खा भायणे भविस्सा"शा०१श्रु०१४०। अपनीतं निराकृतगुणम्, उपनीतापनीतं यदेकेन गुणेन वर्णितं भिक्खामत्तवित्ति-भिक्कामात्रवृत्ति-नि० भिक्षामात्रेण सर्वोपा. गुणान्तरापेक्षया तु दृषितं यथाऽहो शीतलं असं केवल धिशुखेन वृत्तिरस्य । भिक्षामात्रेण वृत्ति कुर्वति, दश०१० म०। क्षारमिति , यतु क्षारं, किं तु-शीतलं तदपनीतोपनीतभिक्खायर-भिचाचार--पुं०। भिक्षुके, प्राचा. २ श्रु०१० मुच्यते इति । प्रत पाह-(प्रवणीयउषणीयचरपति) १०३ उ०। द. ५० (संसट्टचरप त्ति) संसृष्टन सररिटतेन हस्तादिना दीयभिक्खायरिया--भिवाचा--स्त्री०। भिक्षार्थ चर्या बरण. मानं संसमुच्यते, तश्चरति यः स तथा (असंसटुबरपति) मटनं भिक्षाचर्या । स्था०६ ठा. भावा० । भावाभि उक्नविपरीतः (तज्जायसंसट्टयरपति) तज्जातेन देयद्रव्याक्षाटने सूब०१७०३०१उ• भिक्षायो भिक्षानिमित्तं विरोधिना यत् संसष्टं हस्ताऽदि तेन दीयमानं यश्चरति स विचरणाम विशा०१७० १४० । गतिसंक्षेपे, तथा । (अयायचरपति) प्रातः अनुपशिससौजन्याऽऽदि. Page #1583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिक्लायरिया भावः संश्चरति यः स तथा (मोणचरए सि ) व्यक्तम् (दि. लाभियति ) दृष्टस्यैव भक्ताऽऽदेईटद्वा पूर्वोपलब्धाद् दा कालाभो यस्यास्ति सलाभिका अदिखामि ति सारस्यापि अपवारकादिमध्यादि भिः कृतोपयोगस्य भक्ताऽऽदेष्टा पूर्वमनुपलम्भाद् दाय कालाभो यस्यास्ति स तथा (लाभिए ति पृष्टस्यैव हे सा किं इत्यादि प्रक्षितस्य यो लामः स पस्यास्ति स तथा अट्टलाभिए ति) उक्तविपर्ययादिति ( भिलालाभिएस निक्षेप भिक्षामा वा सामा या ययाति समिक्षालाधिकः । (अभिषवालाभिरभि ) उक्तविपर्ययात् (असगिलायर ति) अनं भोजनं विना ग्ला यति अग्लायकः, स वाभिप्रहविशेषात् प्रातरेव दोषाप्रभुगिति । (ओषणिहिए सि) उपनिहितं यथाकथञ्चित् प्रत्या भूतं तेन चरति यः स श्रोपनिहितिका उपा परतीत्योपनिधिकः परिमियदिवाह सि) परिमित पिण्डपातः श्रर्द्धपोषाऽऽदिलाभो यस्यास्ति स तथा । (सुद्धेस पिपाश55दिदोषरहितता शुद्धस्य या नि जनस्य कूराऽऽदेरेपणा पस्वास्ति स तथा संखायशि सि) सख्याप्रधाना दत्तयो यस्य स तथा दत्तिश्च एकक्षेप. भिक्षालक्षणा । श्र० भ० । मिक्षाययमाह विहं गोरगं तु, तहा सत्तेव एसया | अभिग्गहाय जे भने, भिक्खायरियमाहिया ॥ २५ ॥ भिक्षाचर्या वृत्तिसंक्षेणपरनामिका बाह्या तपस्या श्राख्या. गोवरायः प्राकृतस्यादविगोबर इतिपाठः गोचरः अविश्वास गोवरश्य विधागोवरः अटी अगोचरना मेरा इत्यर्थः वेदा १. २का वीथिका ४, अभ्यन्तरम् कार्त्ता ५, बाह्यशम्बूकावर्त्ता ६ च श्रायत गन्तु प्रत्यागमा ७, ऋजुगतिः ८ एवमष्टौ भेद। ऋजुगनिवक्रगति क्षेपणात् ज्ञेयाः । सप्तषषणाः संसृष्टाऽसड्डा १, २ . अप्यसेविका ४ उमगीता ५ पाहता ६ I मा ८" ( १५६०) अभिधानराजेन्द्रः । 1 सप्तविधाता देवा, चःपुनरम्ये ये असत श्रभिग्रहा यथा द्रव्य क्षेत्र कालभावाऽऽदिचिन्तनेन भिक्षाग्रहण रूपाः यतो मण्डका 55दिकं क्षेत्र तो मुद्दाऽदी निकालो मध्ये पहिलो मारेषु निर्वर्त्तितेषु भावतदन् हसन् वा दास्यति तदाद्दारो ग्राह्य इति चिन्तनेन भिक्षाग्रहणम् । पर्व भिक्षाचर्यया मेदास्तीर्थकरे राख्याताः कथिता इत्यर्थः ॥ २५ ॥ उत्त० ३० अ० । " जिगसासणक्स मूलं भिक्खायरिया जियेहि पक्षता इत्यपरितप्यमाणं तं जासु मंदसी ॥ १ ॥ " ध०र० ३ अधि० ७ लक्ष० । भिक्खालस्सिय भिक्षाऽऽलस्थिक- पुं० । मिक्षायामालस्थिक. आलस्यवान् भिक्षाऽऽलश्चिकः । उत्त० २७ अ० । भिक्षायामास्पयुक्त, "भिवास्सिर पगे "उत्त० २७ ४० । भिखालाभिय- मित्रालामिक पुं० वि भिक्षा म वज्ञातं वा तल्लाभो ग्राह्यतया यस्यास्ति स भिक्षालाभिकः । भिक्षाचरकभेदे, श्र० । मिस्वावित्तिय भिक्षाचिका पर । - भिक्खु याचनेन वृतिर्वर्तनं धर्मसाधककायपालनं भिक्षा प्तिकः भिक्षया कायपालके, ध० ३ अधि० । पा०| भिक्खाविसोहि भिक्षाविशोधि श्री भिक्षाविधि क्षाविशोधिः । भिक्षासम्बन्धि सावद्यपरिहारे, दश० १ श्र० । भिक्खु भिक्षु पुं० [भिक्ष-उः भिक्षया याचायाम् । यमनियमव्यवस्थितः कृतकारितानुमोदित परिहारेणमित्येवंशी लो भिक्षुः। " सन् भिक्षाशंसे " || ५|२|३३ ॥ इत्युप्रत्ययः । यदि या नैरुक्का च शब्दस्युत्पत्तिः सुमुखायाम यांत भुते भोकुमिच्छति चतुर्गतिकमपि संसारमस्यादिति सम्पदादि स्वात् अष्टप्रकारं कर्म तद् ज्ञानदर्शनचारित्रतया भिनन्तीति भिक्षुः पृषोदराऽऽदयः || ३।२।१५५ ॥ इति रूपनिष्पत्तिः । व्य०१७०। श्राचा०। सूत्र० नि० प्यू० दश० । भिक्षणं शीलं ध. १७. तत्साधुकारिता वा यस्य स भिक्षुर्भिनति वा क्षुधमिति भि तुः । स्था०३ ठा०३० भिक्षाभोगी वा भिक्षुः । नि० चू० २० उ० । आरम्भत्यागाद्धर्मकायपरिपालनाथ भिक्षण भिक्षुः । द श० ४५० पा०| पचन पाचन सावद्यानुष्ठान तथा निर्दो बाऽऽहारभोजिनि साधी, सूत्र० २ ० १ अ० । उस०] श्राव० । साम्प्रतं मिथुशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तमधिकृत्याहएत्थ विभिक्खू नए विणीए नामए दंते सुद्धप्पा सुदविए बोसका संविपुगीय विरूवरूवे परसहोस - त " ' , अप्पमागमुद्धाऽऽदा समुद्रास उचट्ठिए टिथप्पा संखाए परदचभोई भिखुति बचे ।। ३ ।। 'पतिते पूर्वमुक्ताः पापकर्मविरत्यादयो माह वृतिदेवोऽयापि भिक्षुशब्दस्य प्रवृतिनिमित पाया अभी वाग्येतद्यथान सोनु द्रव्योतः शरीरे भायो स्वभिमानप्रदप्रस्त तत्प्रतिषेधा सपोनि जमविले विनिताऽऽत्मतया प्रधान्यतः एतदेवाविनपाल गुदा दानोद्यतेऽन्यदा वाऽऽत्मानं नामयतीति नामकः- सदा गुर्वा दो भवति येन चाकारं कर्म नामयति दयालूश्योपतोऽशेषं पापमपमयतीत्यर्थः तथा दान्तरद्रय मोइन्द्रियाभ्यां तथा 'शुद्धात्मा शुद्धद्रव्यभूतो निष्यति कर्मतायुकावा परित्यक्तवेदा यत्करोति तद्द र्शयति - सम्यक् ' विधूय ' अपनीय' विरूपरूपान्' नानारूपाननुकूलपतिकूलान् उचावचान् द्वाविंशतिपरीषदान्तया दिव्याऽऽदिकानुपसर्गश्चेति, तद्विधूननं तु यशेषां सम्यक् सहनं- तैरपराजितता परीषहोपसर्गश्च विधूयाध्यात्मयोगेम-प्रणिहितान्तःकरणतया धर्मध्यानेन शुद्धमभवदामादानं चारित्रं यस्य स शुद्धादानो भवति तथा सम्प स्थानेन सच्चारित्रोद्यमेनोत्थितः तथा स्थितो मोक्षायनि व्यवस्थितः परीप पसरव्ययात्मा यस्य स स्थित रमा तथा संख्याय' परिशायासारतां संसारस्य दुष्प्रापत कर्मभूमेः सुदुर्लभत्वं बाबा व सकल संसारोत्तरसामग्री, सत्संयमकरोद्यतः परैः- गृहस्थैरात्मार्थे निर्वर्तित माहारजातं, तैर्दत्तं भोक्तुं शीलमस्य परदत्तभोजी, स एवंगुकलित भिक्षुरिति वाच्यः ॥ ३ ॥ सूत्र०१ श्रु० १६ श्र० । इदानीं भिक्षुमभिधातुकाम ग्रहभिक्खुस्सय निक्लेवो, निरुत्त एगद्विआणि लिंगाई । 1 Page #1584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खु अभिधानराजेन्द्रः। भिक्खु अगुणटिमो न भिक्खु, अवयवा पंच दाराई॥३३२॥ भिनत्तीति कृत्वा,तथा अन्येऽपि द्रव्यभिक्षवः-अपारमार्थिकाः। भिक्षोनिक्षपो नामाऽऽदिलक्षणः कार्यः, तथा निरुकं वक्तव्य क इत्याह-ये याचनका भिक्षणशीला अधिरता भनिभिखारेष, तथा एकाधिकानि पर्यायशब्दरूपाणि वक्तव्यानि, ताब पापस्थानेभ्य इति गाथाऽर्थः॥३३॥ तथा लिङ्गामि संबेगाऽऽश्रीनि, तथा भगुणस्थितो न भिरपि पते व द्विविधाः-गृहस्थाः, लिङ्गिनश्चेति, तदाहतु गुणस्थित एवेत्येतदपि वाध्यम् , अत्र चावयवाः पश्च गिहिणो ऽवि सयारंभग-उज्जुप्प जणं विमग्नता। प्रतिक्षाऽऽदयो बश्यमाणा इति, द्वाराएयेतानीति गाथासमासार्थः ॥ ३३ ॥ दश०१०५०। जीवणिम दीणकिविणा,ते विजा दबभिकम्बु त्ति ।३३६॥ यथाक्रम (भाष्य-५ गाथां) व्यासार्थमाह गृहिणोऽपि सकलना भपि सदारम्भकाः नित्यमारम्भकाः नामठपणाभिक्ख, दबभिक्खू य भावभिक्खू. य । षमां जीवनिकायानामृजुप्रशं जनमनालोचकं विमृगयन्तः दब्वे सरीर भवितो, भावेणय संजतो भिक्ख ॥५॥ अनेकप्रकारं द्विपदाऽदि भूमिदेवा वयं लोकहितायावतीर्णा भिक्षुशवस्य निक्षेपश्चतुष्का(नाम ति)भिक्षुशम्नस्यात्रापि सं इस्यभिधाय याचमाना द्रव्यभिक्षणशीलत्वाद् द्रव्यभिक्षवः । पते च धिग्वःतथा ये च 'जीवनिकायै' जीवनिकामि. बन्धात् नामभिःस्थापनाभिः द्रव्यभिः भावभिश्च च. मिदीनरुपणाः काटिकाऽदयो भिक्षामटन्ति ताम्विधात् शब्दौ स्वस्वगतानेकभेदसूचकी, तत्र यस्य पुरुषस्य भिक्षुरि. विजानीयात् द्रव्यभिजूनिति , द्रव्याथै भिक्षणशीलत्वादिति ति नाम सनाम्ना भिकुर्नामभिक्षा,यदि वा-'नामनामवतोरभे गाथाऽर्थः॥३३६॥ उक्ला गृहस्थद्रव्यभिक्षवः। दोपचारात्'नाम चासो भिक्षुश्च नामभिक्षुरिति व्युत्पत्तर्नाम लिझिनोऽधिकृत्याहमितुः, स्थापनया प्राकारमात्रेण असत्कल्पनया भिक्षुः स्था. पनाभितुः चित्रकर्माऽऽदिलिखितो बुद्धिकल्पितो वाऽक्षाऽs. मिच्छट्ठिी तसथा-वराण पुढवाइविंदिभाई। दिः। द्रव्यभिमुविधा-बागमतो, नोग्रागमतश्च । तत्रागमतो निचं वहकरणरया, अभयारी असंचइया ॥ ३३७ ।। शाता,तत्र च"अनुपयुक्तोऽनुपयोगो द्रव्यमिति"वचनात् ।नो. शाक्यभिचुप्रभृतयो हि मिथ्यादृष्टयः-प्रतस्वाभिनिवेशिनः मागमतच त्रिविधः तद्यथा-शरीरं,भव्यशरीरंतद्व्यतिरि. प्रशमाऽदिलिङ्गशून्याः,त्रसस्थावराणांप्राणिनां पृथिव्यादीनां तथा तत्र भिक्षुपदार्थस्य यत् शरीरं व्यपगतजीवितं तत् द्वन्द्रियादीनां च । अत्र पृथिव्यादयः स्थावरा द्वीन्द्रिया। शरारं द्रव्यभिचुभूतभावत्वात् । यस्तु बालको नेदानी भि ऽऽदयः प्रसाः, नित्यं वधकरणरताः सदा एतदतिपाते सक्का खुशब्दार्थमवबुध्यते, अथवा प्रायत्या अन्तेनैव शरीरेण भो. कथमित्यत्राऽऽह-अब्रह्मचारिणः सञ्चयिनश्च यता, अतोऽ. स्स्यते, तस्य यत् शरीरं तत् भव्यशरीरं द्रव्यभितुः, भाविभा- प्रधानत्वाद् द्रव्यभिक्षवः, चशब्दस्य व्यवहित उपन्यास इति वन्वात् । तद्व्यतिरिक्रसिधा । तद्यथा एकमविक, बद्धा. गाथाऽर्थः ॥ ३३७ ॥ ऽयुष्का, अभिमुखनामागोत्रश्च । तत्र-एकभविको नाम-यो पते चाऽब्रह्मचारिणः संचयादेवेति । सञ्जयमाहनैरयिकस्तियमनुष्यो, देवो वा अनन्तरभवे भिक्षुर्भाधी दुपयचउप्पयधणध-अकृषिअतिप्रतिअपरिग्गहे निरया । पदाऽऽयुको नाम-येन भिक्षपर्यायनिमित्तमायुर्वद्धम् । सचित्तभोइ पयमा-गगा य उद्दिभोई अ॥ ३३८ ॥ अभिमुखनामगोत्रो-यस्य भिक्षुपर्यायप्रवर्तनाभिमुखे नामगो. द्विपदं वास्यादि, चतुष्पद पवादि, धन हिरण्याऽऽवि, धाम्यं अकर्मणी, स बाऽऽर्यक्षेत्रे मनुष्यभवेभाविभिलपर्याये स शाल्याऽदि,कुप्यमलिडरादि.पतेषु द्विपदाऽऽदिषुक्रमेण मुत्पचमानः। यदि वा-स्वजनधनाऽऽदि परित्यज्य गुरुस मनोजक्षणाऽऽदिना करणत्रिकेण त्रिकपरिग्रहे कृतकारितानु. मीपे प्रवज्याप्रतिपश्यर्थ स्वगृहात बहिर्गच्छन् । तथा चाss मतपरिप्रहे निरताःसक्का,न चैतदनार्षम् -"विहारान् कारये. -(दखे सरीरभवितो ति) द्रव्ये इति द्वारपरामर्शः, द्रम्यान, वासयेष बहुश्रुतान् ।" इति वचनात् । सद्भूतगुणा. व्यभिचुनौमायमतो इति गम्यते इति । (सरीर ति) नुष्ठायिनो नेत्थंभूता इत्याशङ्कयाऽऽह-सचित्तभोजिना शरीरप्रहणेन-मशरीरं, 'भव्यशरीरं च परिगृहीतम् । (भषिय तेऽपि मांसाप्कायादिभोजिनः तदप्रतिषेधात्, पचन्तश्च स्वयं सि) भन्यो, भावीस्वनन्तरं, भावी च त्रिविधपर्याय इति पचास्तापसाऽऽदयः उद्दिष्टभोजिनश्च सर्व एव शाक्या 55. सग्रहणे एकभषिकादित्रिभेदपरिप्रहः । व्य०१ उ.। दया, तत्प्रसिद्धया तपस्विनः अपि पिण्डविशुद्धधपरिज्ञाना. भेयमो मेयणं चेव, भिदिभवं तहेव य । दू । इति गाथाऽर्थः॥ ३३८॥ एपसि तिराहं पिम, पत्तेयपख्वणं वोच्छं ॥ ३३४ ॥ त्रिकनिकपरिग्रहे निरता इत्येतद् व्याचिभेदकः पुरुषः,भेदनं चैव परश्वादि, भेत्तव्यं तथैव च काष्ठा ख्यासुराहऽऽदीति भावः। एतेषां त्रयाणामपि भेदकाऽऽदीनां प्रत्येक करणतिए जोतिए, सावजे पायउपरउभये । पृथक पृथक प्ररूपणां वक्ष्ये इति गाथाऽर्थः ॥३३४॥ अट्ठागदपवत्ते, ते विजा दवभिक्खु ति ॥ ३३६ ।। एतदेवाऽऽह करणत्रिक इति-"सुपां सुपो भवन्तीति" करणत्रिकेष जहदारुकम्मगारो, मेमणभित्तव्यसंजुमो भिक्ख । मनोवाकायलक्षणेन , योगत्रितय इति-कृतकारितानुम. भने वि दबभिक्ख, जे जायणगा अविरया य ॥३३॥ तिरूपे, सावधे सपापे, भास्मदेतो:-मात्मनिमितं-देयथा दारुकर्मकरो बर्द्धक्यादिः भेदनभेत्तव्यसंयुक्तः सन् धुपचयाय , एवं परनिमित-मित्राऽद्युपभोगसाधनाय एव. क्रियाविशिएविदारणाऽऽविवारुसमन्वितो द्रव्यभिचाः, द्रव्यं । मुभयनिमित्तमुभयसाधनार्थम् , एवमर्थाय श्रात्माधम्, अ. Page #1585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५१२) अभिधानराजेन्द्रः । भिक्खु मय या बिना प्रयोजनेनाऽऽच्या नविन खरादिभाष वचनादिभिः प्राणातिपाताऽदो प्रवृत्तान्तत्परान् सायंभूतान् विद्याद्विजानीयात् इयमिन्हूर इति प्रवृतायति इति गाथार्थः ॥ ३३६ ॥ एवं स्यादिसंयोगात् विशुद्धतपोनुष्ठानभावाच्या ब्रह्मचारिए पते इत्याह इस्थीपरिम्गदाओ भाखादावाभावसंगायो । सुद्धतवाभावाच कृतिस्थियाऽवंभचारि च ॥ ३४० ॥ परिग्रहादिति दास्यादिपरिग्रहात् महादानाऽऽदिनाथ सङ्गाच्च परिणामाशुखेरित्यर्थः न च शाक्या भिक्षयः, शुद्धतपोऽमाचादिति शुद्धस्य तपसेोऽभावात् स थिंका अग्रावारिणइति महाराष्धेन तपोनि तदचारिण इति गाथा ऽर्थः । उक्तो द्रव्यभिक्षुः। दश० १० अ० । भावभिक्षुर्द्विधा श्रागमतो, नोआगमतश्च । आगमतो भि सुराब्दार्थस्य ज्ञाता तत्र बोषयुक्तः, “उपयोगो भा 19 इति वचनात् । नोश्रागमतः संयतः । तथा बाऽऽछ- "भाषेण उ संतो भव" भावेन भिक्षुः तुरादो विशेषणार्थः स चामुं विशेषं द्योतयति नोभागप्रतः संयतः सम्यक त्रिविधं त्रिविधेन समस्तसाद्या परतः । (२ मा० टी० ) मो. भागमतो भावभिक्षुः भिक्षणशील भिक्षुरिति कृत्याक्षेपपरिहाराभिधित्सुराह भाष्ययकारःभिक्खसीलो भिक्खु, अविन ते विचिता । निष्पिसिएयं नायं, पिसियालंभेण सेसाओ || ६॥ मनु त्यो भिक्षु इति तदसमीची नमः,श्रतिव्याप्तिदोषप्रसङ्गात्। तथाहि भिक्षणशीलो भिक्षुरि यूयमाने म्येऽपि रक्तपटाऽऽदयो, नोश्रागमतो भावभिक्षवः प्राप्नुवन्ति तेषामपि भिक्षाजीवितया भिक्षणशीलत्वात् न त्र दियते तस्मादतिभावस्य दोष सूरिराइन ते शेष रक्पतयो भिचयः कुतः १ इत्याहअनय वृत्तित्वात्, न विद्यते अन्या भिक्षामात्रत्वात् व्यतिरिक्ता सिनं येषां ते अनम्यत्तवस्तद्भावस्तस्वं तस्मात् नगरवादित्यर्थः किमुकं भवति-यदा आधाकर्मि मौदेशिका वा न लभन्ते तदा अनन्यगतिकता भिक्षापरिभ्रमणशीलास्ततो न ते भिक्षवः । इयमत्र भावना श्र शब्दस्य निर्मिते । तद्यथा-व्युत्पत्तिनिमित्तं, प्रवृत्तिनिमित्तं [च यथा शब्दस्य तथाहि गोशनस्य व्युत्पत्तिनिमित्तं गमनकया. तीति गौरितिपादनात् तेन गमने कामिवादिता यदुपलचितं सखादिमयंतिनि मिच्छति वागच्छति या गोपिराडे गोशः प्र वर्तते, उभय्यामव्यवस्थायां प्रवृत्तिनिमित्तभावात् श्रश्वा तुन थोकरूपस्य प्रवृतिनिमित्तस्य तामा वात् चत्रापि भिक्षु निमित्पत्तिनिमित्तं प्रवृतिनिमित्तं तत्र समिममिते इत्येयं तसे ते समातिया पल तिमिपरकासाविप्रमुतपा यमनियमेषु व्यवस्थितत्वं तस्यवृत्तिनिमित्तं तेन मि या भिक्षौ भिक्षुशब्दः प्रवर्त्तते, उभय्यामपि अवस्थायां प्रवृत्ति. मित्रातुन ते नवव्य रोजिता तेषु योगस्य प्रवृत्तिनिमित्तस्था भावात् अत्रार्थे ज्ञातम् उदाहरणं कर्त्तव्यं, पिशिताऽलाभेन भिक्खु यो निष्पतिस्तेन यथा कोऽपि पात्या मन निष्विति। असि भयारी पोसहिय अमज्जमंसिया चोरा । सति संभे परिचाई, हुति तदवखा न सेसा ॥ ७ ॥ कोऽपि भाषेत अहमहिंसावृत्तिः यावत् मृगा दीक्षपश्यामि । अभ्यः कोऽप्येवं ब्रूयात् अहं ब्रह्मचारी यावन्म्मम स्त्री न संप कोषमा माहारपोषी पाया हारो न संपद्यते । यथा वा कोऽपि बस्-अहमद्यमांसवृत्तिः याम्यद्यमनसमे यथा या कोऽपि नियमं प्रति वात् परस्य हि न पश्यामीति पशि निःपिनिविशिताः तं सति असति वारयागत वृि निपिशितादीनां तु पिचिताऽऽदिि 1 ततो न ते पिशितवत्यादयः प्रतिशब्दप्रवृत्तिनिमित्तभावात् त था बाह (सतिलं इत्यादि) सति विवक्षितस्य पिचिताऽदे. वस्तुनो लाभेऽपि तस्परिस्यागिनस्ते तदाक्या- पिशितवत्था क्या भवन्ति सत्यपि वस्तुनो खामे तत्परित्यागतः सति असतिया तु तद्विषयेच्छापरित्यागात् शेषान युत्पत्तिमधिरोनिशियन तदाक्या विशिनाथला मे ऽपि तद्विषयेानिष्यभावात् एवं कपडा योऽपि न मि क्षषः पचनपाचनाऽऽदिन व कोटी विषयेच्छानिवृत्यभावासद भावाचायिकादिष्वपि प्रवृते तदेयं निष्यथिताऽऽदि तो पटादिषु यथोरूपमति निमित्ताभावतो भिक्षु शब्दप्रवृत्यभाष उक्तः । अथवा किमत रुपम्यस्तै ईष्टान्तनुवृत्तेः जगत्प्रसिद्धायास्तेषु साक्षादभावः दर्शनत एमिष्यभावस्य - तथा चाऽऽह हवा सासु जहा गएहति साहुयो । - भिक्खं नेव कुलिंगस्था, भिक्खश्रीविपि ते भदि ॥ ८ ॥ अथवेति प्रकारान्तरद्योतने, तच्च प्रकारान्तरं पातनिकायामेव भाषितं यद्यपि ते पादयो मानिस्था पि यथासाचा पणदोषः शक्ताऽऽदिमि उपलक्षणमेतत् उद्गम दोषैः श्रधाकर्मादिभिः उत्पादनादोचैः धात्री दूत्यादिभिः परिशुद्धां भिक्षां गृह्णन्ति नैवम् प्रमुना प्रकारेण कुलिङ्गस्थाः - कुत्सितलिङ्गधारिणो रक्तपटाऽऽश्यः ततो भिक्षुवृत्तेर्जगत्प्रसिद्धायास्तेष्वभावतो न ते भिक्षवः । तथा चाऽऽह दगमुदेसि चेद कंदमूलफलागि प सयं गाड़ा परतो य, गेरहंता कहं भिक्खुणो ॥ ६ ॥ दकम् उदकं चित्तं तडागाऽऽदिगतम्, उद्देशिकम् - उद्दिष्ट. कृतकम्मेदम् उपलक्षणमेतत् श्राचकम्मोदि तथा क न्दमूलफलानि च स्वयम् श्रात्मना गृहन्तीति स्वयं प्राहाः । "वा खादिनीभूग्रहास्रो ॥ ४ ॥ १ ॥ ६२ ॥ इति कल्पिक णप्रत्ययः । स्वयं गृह्णन्त इत्यर्थः । परतश्च गृह्वन्तः कथं भिक्षवः, भिक्षावृत्तेरभावात् । अथ का सा जगत्यसिद्धादिमाते इति भिक्षुवृत्तिमुपदर्शयति श्रचित्ता एसणिजा य, मिया काले परिक्खिया । Page #1586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खु जाला विसुद्धा एसा बिसी य भिक्खुयो ||१०॥ विप्रानतु सविता मिश्रा वा पपडीया आ धाकर्मादिशेषरहिता, मिता एकत्रिंशादिक बल प्रमाणतः परिमिता का दिया था-तीयस्यां परयां परी. चकादिदोषविशुद्धा यथा तच्या योजनादिष परिोगकाले रागद्वेषाकरणारा. दिदोषरहिता, एवं रूपा या सहा भिक्षा एषा भिक्षूणां वृतिः, सावरपाऽऽषि सानास्तीति तेषु यो भिशीको भिरिति म्युत्पती पादपरे कृतं तद् अपाकृतम् नहित भिकुरिति निषेधने तु परस्या नवकाश एच के पिमस्तीति । भि 1 9 तडिवचुराह दस्वभावभेष भय भेतव्ययं चतिविद्धं तु । नाथाss भावमेयय-कम्मसुग मे ॥ ११ ॥ क्षुभितीतिभिरिति व्युत्पत्याभिचुर्भेदक उक्को भेद कोनाम मिदि क्रियाकर्ता मिडिक्रिया च सकमिका, सक मिकाया किवाया। कर्तृ करणकर्मव्यतिरेकेन भय तीति तद्वहणेन भेदनं भेतव्यमिति च द्वयं सूचितम् । एतच भेदकमेवममेतम्यरूपं वस्तुनिकुरम्यं विविधमपि तुमोपिशब्दार्थ विभेदमपि प्रत्येकं द्विधा तथा य मा) शब्द मिश्रक्रमः इयतो भावतश्चेत्यर्थः शाहि भेदको द्विधा द्रव्यस्य भावस्य च । भेदनमपि द्विधाद्रव्यस्य भावस्य च भेत्तव्यमपि द्विधाद्रव्यरूपं, भावरूपं च तत्र भेदको रथकारादि मेदनं परश्यादिव्यं काष्ठम् भावस्य मंत्रको भिक्षुर्भावस्य भेदनानि शानाऽऽदीनि भावमेव कर्म तथा बा६- (नाणादीत्यादि) ज्ञानाऽऽदि आदिशब्दादर्शनारित्रपरग्रहः भायभेदनं भवतइति च संबध्यते कर्मकर्मक्षुध् इत्येकार्थम् । तथा चोक्तम्- "कम्मं ति वा खुति वा । कलुषं ति वा वज्रंति वा वेरंति वा पंको ति चामलोसिए एगडिया" इति । व्य०१३० । नि० चू० |उत्त० । सव्यं जो निंदे खु खलु सो भिक्खू भावतो होइ ॥ ३७५ ॥ यो 'भिनत्ति' विदारयति सुधं खलुः श्रवधारणे, भिन्नमश्च ततः स एव भिक्षुर्भावतो भवतीति । 'इव नियुक्रमतः कर्तृकरणकाभिः प्रयोजनं सकर्मकत्वाद्भिदेः श्रत श्राह - ताय भेयणं वा, नायव्वं मिंदियव्वयं चैव । एकिकं पि यदुविहं दबे भावे य नायन्त्रं ॥ ३७६ ॥ रहगारपरसुमाइ, दारुगमाई य दव्बओ हुति । साहू कम्पट्ठवितोय भावम्मि नायन्त्रो ।। ३७७ ॥ रागदोसा दंडा, जोगा तह गारवा य सल्ला य । facts सन्नाओ, खुहं कसाया पमाया य || ३७८ ॥ मेसा कभी न करणां येन भिनत्ति या समुहाबो मेम्यमेव सम्यकं कर्म द्वियते वा मुष्यये एवेति पूरणे एकेकमपि खेति मे भेदनं सम्पर्क व द्विविद्विदं इध्ये भावे चषिचार्यमाणे ज्ञातव्यम्-अनगन्तव्यम् । तत्र दृश्ये (रहकारपरसु - 1 ( १५६३ ) अभिधानराजेन्द्रः । , भिक्खु " माह सि) आदिशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धाद्राकारः तक्षकस्तदादिव्यतो भेसा आदिशब्दादयस्कारादिपरिग्रहः पर शुः कुठारस्तदादिव्यतो भवनम् आदिशब्दाद्- घनाऽऽदयो गृह्यन्ते । (दारुगमाई यति ) दारुकं काष्ठं तदादि द्रव्यतो मेचमादिशोहाऽऽदिपरिग्रह यतीति व पचनम् साधु-तपस्वी कामावरणाचविधम् अहम कारं सपदि भावे दिखायें मेला क्रमेण ज्ञातव्यम् । " इत्थं जो भिदई सुद्धं खलु" इति ग्रहणकथाक्यं गतं भिनलीति व्याख्याय सुधं व्याख्यातुमाह-रागद्वेषी उदा-मनोरकरणानुमति रूपाः पठति "रामोसा हुई दंडा" खुई ति सुध बुभुक्षा उच्यते, तथा गौरवाणि च ऋद्धिगौरवानि पानि च मापाशस्याऽऽदीनि विरूधाः कथाऽऽदयः संज्ञाः- आहारसंज्ञाऽऽदय (खुद्धं ति) पतद्भावभावित्वादष्टविध. कर्मरूपायाः एताम्यदित्युच्यते प्राकृतत्वाच्च तथा निर्देशः कषायाः - क्रोधाऽऽश्यः प्रमादाश्चः-भद्याऽऽदयः, सुदिति सम्बन्धनीयमिति गाथाश्रयार्थः । उपसंहर्तुमाह 1 एयाई तु खुडाई, जे खलु भिंदंति सुब्वया रिसश्रो । ते भिकम्मगंडी, उति अपराम डाई ।। ३७६ ॥ तारागादीनि खुदाईति यानि ये खलु मिन्दन्ति, विदारयन्ति, अनुशब्द एवकारार्थो भिन्दन्ये घेति शोभनाम्पतिवान प्रातिपातविरस्यादीनि येषां ते सुता मुनयः ते किमित्याह-क वातिदुर्वेदतथा ग्रन्थिः कर्मग्रन्थिस्ते तथाविधा उपयान्ति प्राप्नुवन्ति अजरामरं स्थानं मुक्रिपदमिति गाथार्थः । उत्त० पाई० १५ श्र० । स भावभिवादागमस्योपयोगतः । भेदनेोसा, स्वाशुभकर्मणः ॥ १७ ॥ इति समाते उग्रतपसा भेदनेनाऽशुभक मेण मेद्यस्थगमगतो नेतृत्वात्क्रम् गमोत्तो, दुहितको भेश्रणं च भेतव्यं । अठ्ठविहं कम्म खुर्द, तेरा निरुतं स भिक्खुति ॥ १ ॥ " ॥ १७ ॥ “ भिक्षामात्रण वा भिक्षुः । " ( १८ ) भिक्षामात्रेण वा सर्वोपधिशुद्धभिक्षावृत्तिलक्षणेन भिक्षुः । द्वा० २७ द्वा० । तागमोडतो, दुवि तवो मेणं च सव्वं । विह कम्मखु, तेण निरुत्तं स भिक्खु ति ।। ३४२ ॥ भेसा भेदको त्राऽऽगमोपयुक्तः साधुः। तथा द्विविधं बाह्याउन्तरमेदेन तप-मेयं विदारणीय पाटविधं कर्म प्रकार ज्ञानाबरणीयांदि कर्म. त तुदादिदुःखहेतुत्वात् क्षुधूशब्दवाच्यं यतश्चैवं तेन निरुक्तं यः शास्त्रानीत्या तपसा कर्म भिनक्ति स भिक्षुरिति गाथाऽर्थः ३४२ किं च भिदेतोय जह खुरं, भिक्खू जयमाश्रो जई होइ । संजमचरो चरो, भवं खिवंतो भवतो उ ॥ ३४३ ॥ भिन्दश्च विदारयश्च यथा जुधं कर्म भिक्षुर्भवति भावतः यतमानस्तथा तथा गुणेषु स एव यतिर्भवति नान्यथा, Page #1587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खु एवं संयमचरकः सप्तदश प्रकार संयमानुष्ठायी चरकः एवं भवं संसारं क्षपयन् परीतं कुर्वन् स एव भवान्तो भवति, नाम्यथेति गाथा ऽर्थः ॥ ३४३ प्रकारान्तरेण निरुक्त मे वाऽऽह जं भिक्खमसवित्ती, तेख व भिक्खु खवेति जं व अणं । तवसंजमे तवस्,ि ति वावि श्रनो वि पजाओ || ३४४ || यद्यस्माद्विद्यामा वृत्तिनियामा सम्पन रस्येति समासः तेन वा मिमिक्षुरिति कृत्या न समेषामपि सत्यनिरुक्रमा इ क्षपयति यद्यस्मात् वा ऋणं कर्म तस्मात् क्षपणः क्षपयतीति क्षपण इति कृत्या, तथा संयमतपसीति संयमप्रधानं तपः संयमतः तस्मिन् विद्यमाने तपस्थीति वाऽपि भवति । तपोऽस्यास्तीति कृत्वा अन्योऽपि पर्यायः इत्यभ्योऽपि भेदोऽ तो भिक्षुशब्दनिरुक्तस्येति गाथाऽर्थः । ३४४ | उक्लं निरुक्तद्वारम् । अधुनैकार्थिकद्वारमाद (१५६४) अभिधानराजेन्द्रः । तिथे ताई दविए, पई व खेतेय दंतविर‍ म । सुखिताबसपा गुजु भिक्खु बुन विक्रय ॥३४५|| तीर्णवतीर्णः विशुद्ध सम्यग्दर्शनादिलाभाद्भवार्णवमितिगम्यते तस्यास्तीति तादी, तामा, सुपरिक्षासंदेशनया विनेयपालयितेत्यर्थः । इयं रागद्वेपरहित बनी हिंसादिविरत साता साम्यति क्षां करोतीति दान्तः बहुलवचनात् कर्तरि निष्ठा एवं दाम्पतयाऽऽदिदमं करोतीति दान्तः, विरतश्च विषयसुखनिवृत्त मुनि मम्यते जगतत्रिकालावस्थामिति मुनिः तपःप्रधानःतापसः, प्रज्ञापकः अपवर्गमार्गस्य प्ररूपकः, ऋजुर्मायारहितः संयमधान् वा, भिक्षुः पूर्ववत्, बुद्धोऽवगत तथ्यो, यतिरुत्तमाऽऽश्रमी प्रयत्नवान् वा, विद्वाँश्च पण्डितम्श्वेति गाथाऽर्थः ॥ ३४५ ॥ · तथा- पव्वइए अणगारे, पाखंडी चरग बंभ वेब | 9 परिवाय व समये निचे संजय मुचे ।। ३४६ ।। प्रजितः पापाखिष्कान्तः, अनगारो इयभाषागारशून्यः पाखण्डी पाशाड़ीनः चरकः पूर्ववत् ब्राह्मणश्चैव विशुद्धब झचारी, बेष परिवाजकश्यपापयजे अमणः पूर्ववत् नियतो मुहत्येपूर्वदेव गाथार्थः ०२४६॥ • 3 तथा- साहू लूहे अता, तीरट्ठी होइ चैत्र नायो । नामाथि एमा-गि होति तपसंगमरवाणं ॥ २४७ ॥ साधुः रूक्षश्च तथेति निर्वाणसाधक योगसाधनात्साधुः, नादिषु विरहादूः तीरार्थी वैभवति य इति वीरार्थी भवार्णवस्य नामान्धकाधिकानि पर्याया भिधानान्येवमादीनि यथोभवन्ति केषामित्या पापानां मावसानामिति गाथाऽर्थः ॥ ३७७ ॥ दश० १० प्रतिपादितमे कार्थिकद्वारम् । विशेोरपिकपुरम्परार्थिकानिभिपतिः इति तथा मिदेोपादि भिक्खु नयमासगो जई हो। तवसेज मे तबस्सी, भवं खिवंतो भवतोय ।। १२ ॥ भिक्खु धम्-अष्टप्रकारं कर्मभिहामो भिक्षु यते प्रयत्ने सं योगेषु यतमानः प्रयत्नवान् यतिः तपः संयमे तपःप्रधान संयमे वर्तमानस्तपस्वी तपाऽस्यास्तीति तपस्वीति यु सेः । भवं नारकाऽऽदिभवं क्षपयन् भवान्तः, भवमन्तयति भवस्यान्तं करोतीती इति व्युत्पत्तेः । व्य० १ उ० । इदानीं लिङ्गद्वारं व्याविक्यासुराहसंवेगो निब्बेगो, विसय विवेगो सुसील संसग्गो । आराहणा तो ना दसरा चरितवियां अ || ३४८॥ संवेगो मोक्षसुखाभिलाषः, निर्वेदः संसारविषयः, विषयविवेको विषयपरित्यागः, सुशील संसर्गः शीलवद्भिः सम्बग्धः, तथा-आराधना वरमकाले निर्यापणरूपा, तपो यथाशक्त्यननाद्यानं ज्ञानं यथास्थितपदार्थविषयमित्यादि, दर्शनं नैसग्गिकाऽऽदि, चारित्रं सामायिकाऽऽदि, विनयश्च शानाऽऽदिविनय इति गाथाऽर्थः ॥ ३४८ ॥ तथा खंती य मद्दवsञ्जव, विमुत्तया तह अदीय तितिक्खा । वस्गपरिसुद्धी, यहाँति भिक्खुस्स लिंगाई ॥ २४६॥ शान्तिधाऽक्रोशा विश्रवणेऽपि को धत्यागध माईचाऽऽर्जयविमुक्तेति जात्यादिभावेऽपि मानत्यागाम्मादेवं पर स्मिन्निकृतिपरेऽपि मायापरित्याग आर्जवं धर्मोपकरणेष्वप्य मच्छी विमुक्ता तथा अरानाऽऽऽचलाऽपि अधीनता सु दादिपरीषद्दोपनिपातेऽपि तितिक्षा तथा आवश्यकपरिशु वश्यक करणीय योगनिरतिचारताच भवति भिसोमवसाशिन्यनन्तदितानि संवेगादीनीति गायाअर्थः ॥ २४८ ॥ पापा द्वारम् । - श्रवयवद्वारमाह अवगुणी भिक्खु, न सेस इइ खो पइन को हेऊ ?। अगुणचा दर देऊ को दितो सुमिव ॥ ३५० ॥ 'अध्ययन गुणी' प्रक्रान्ताभ्ययनोक्त गुणवान् 'भिक्षुः भावसाधुर्भवतीति तत्स्वरूपं शेषः तिनः प्रतिज्ञा' अस्माकं पक्ष को हेतु, को पक्षधर्म इत्याश133६ अगुणत्वादिति हेतुषि द्यमान गुणोऽनन्तद्भावस्तस्वं तस्मादित्यवं हेतुः अध्यय नगुराशून्यस्यमित्यप्रतिषेधः साध्यइति को हटान्तः १,' किं पुनरत्र निदर्शनमिवापदपथा सुप स्वगुणरहितं सुवन गाथाऽर्थः ॥ सुवर्णगुणानाद " विसघाइ रसायण मं-गलत्थ विणिऍ पयाहिसाबले । गुरुए अज्झsकुत्थे, अट्ठ सुत्र गुणा भणि ॥३५१ ।। 'विपद्यातिविषपान समर्थ ' रसायनं ' वयस्तम्भनकर्तृ 'मलार्थ मलप्रयोजनं विनयचेएकटका दिय कारसम्पादनेन प्रदक्षिणाऽऽत्र तै तप्यमानं / प्रादक्षिण्येनाऽऽ. वर्त्तते, 'गुरु' सापेतम् मानाग्निना दह्यते, अ थनीयं' न कदाचिदपि कुथतीत्येते ऽष्टावनन्तरोहिताः ' सुवपिया गुणामणितास्तत्स्वरूपचैरिति गाथाऽर्थः । उक्ताः सुवर्णगुणाः साम्प्रतमुपन्यमाहचकारयपरिमुद्ध कमावतालगाए भ 6 • Page #1588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खु अभिधानराजेन्द्रः। जंतं विसघाइरसा-यणाइगुणसंजअं होई ।।३५२॥ यत्र कचन पृथिव्याधुपमईकः, गृहं करोति संभवत्येवैषणी. 'चतुष्कारणपरिशुद्ध 'चतुःपरीक्षायुक्तमित्यर्थः, कथमि. यालये मूर्छया वसति भाटकगृहं वा, तथा 'प्रत्यक्ष'च स्याह-कपच्छेदतापताडनया चेति कषेण छेदेन तापेन उपलभ्यमान एव 'जलगतान् 'अकायाऽऽदीन् यः पियति ताडनया च, यदेवंविधं तद्विषघातिरसायनाऽऽदिगुणसंयुक्त तरवतो विनाऽऽलम्बनेन, कथं त्वसौ भिक्षुः, नैव भावभिन. भवति, भावसुवर्ण स्वकार्यसाधकमिति गाथाऽर्थः॥ रिति गाथाऽर्थः॥ उक्त उपनयः,साम्प्रतं निगमनमाहपतदेव स्पष्टयनाह तम्हा जे भज्झयणे,भिक्खुगुणा ते हि होइ सो भिक्खू तं कसिणगुणावे, होइ सुवयं न सेसयं जुची। तेहि असउत्तरगुणे-हि होइ सो भाविभतरो उ॥३५८। नहि नामरूवमेत्ते-ण एवमगुणो इव भिक्खू ॥३५३।। यस्मादेतदेवं यदनन्तरमुक्तं तस्मादू येऽध्ययने प्रस्तुत एवं 'त' अनन्तरोदितं ' कृत्स्नगुणोपेतं' सम्पूर्णगुणसम. •भिजुगुणा' मूलगुणरूपा उक्लास्तैः करणभूतैः सर्भिवस्य न्वितं भवति सुवर्ण यथोक्तं , न 'शेष' कषाऽऽधशुद्धं , युः सौ भिक्षुः, तैव' सोसरगुणैः' पिण्डविशुद्धधायुत्तरगुणस. क्लिरिति वर्णाऽऽदिगुणसाम्येऽपि युक्तिंसुवर्णमित्यर्थः, प्रकृते | मन्वितैर्भवत्यसौ 'भाविततरः'चारित्रधर्मे तु प्रसन्नतरह. योजयति-यथैतत्सुवसे न भवति, एवं न हि नाम ति गाथाऽर्थः ॥ उक्नो नामनिष्पन्नो निक्षेपः। रूपमात्रेण-रजोहरणाऽऽदिसन्धारणाऽऽदिना 'प्रगुणः' - साम्प्रतं सूत्राऽऽलापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्च: विद्यमानप्रस्तुताध्ययनोकगुणो भवति भिक्षुः भिक्षामटन्नपि पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलिताऽऽदिगुणोपेतं न भवतीति गाथाऽर्थः। सूत्रमुचारणीयं, तश्चेदम्एतदेव स्पष्टयनाह निक्खम्ममाणाइ अबुद्धव यणे, जुत्तीमुवधगं पुण, सुवमवमं तु जइ विकीरिजा। निच्चं चित्तसमाहियो हविजा । नहु होइ त सुवर्ण, सेसेहि गुणेहि संतेहिं ॥ ३५४ ॥ इत्थीण वसं न प्रावि गच्छे, युक्तिसुवर्ण कृत्रिमसुवर्णमिह लोके 'सुवर्णवर्ण तु'जास्य वंतं नो पडिप्रायइ जे स भिक्खू ॥१॥ सुवर्णवर्णमपि यद्यपि क्रियेत पुरुषनैपुण्येन तथाऽपि नैव भ. वति तत् सुवर्ण परमार्थेन शेषैर्गुणैः कषाऽऽदिभिः 'मस पुढविं न खणे न खणावए, द्भिः' अविचमानरिति गाथाऽर्थः। सीमोदगं न पिए न पिआवए । एवमेव किमित्याह अगणिसत्थं जहा सुनिसि, जे अज्झयणे भणिमा,भिक्खुगुणा तेहि होइ सो भिक्खू । तं न जले न जलावए जे स भिक्ख ॥ २॥ वालेण जच्चसुवरण-ग व संते गुणनिहिम्मि ॥ ५५॥ अनिलेण न वीए न वीयावए, येऽध्ययने भणिता भिक्षुगुणा अस्मिन्नेव प्रक्रान्ते जिनवच- हरियाणि न छिदे न छिंदावए । ने चित्तसमाध्यादयः तःकरणभूतैः सद्भिर्भवत्यसौ भिजुर्नाम- बीमाणि सया विवजयंतो, स्थापनाद्रव्यभिब्यपोहेन भावभिक्षुः, परिशुद्धभिक्षावृतत्वा. सञ्चित्तं नाहारए जे स भिक्खू ॥ ३ ॥ त् । किमिवेत्याह-वर्णेन' पीतलक्षणेन 'जात्यसुवर्णमिव' परमार्थसुवर्णमिव । सति गुणनिधौ ' विद्यमानेभ्यस्मिन् वहणं तसथावराण होइ, कषाऽदौ गुणसंघाते, एतदुक्तं भवति-यथाऽन्यगुणयुक्त शो. पुढवीतणकट्ठनिस्सिाणं । भनवर्ण सुवर्ण भवति तथा चित्तसमाध्यादिगुणयुक्तो भिक्ष. तम्हा उद्देसि न भुजे, णशीलो भिक्षुर्भवतीति गाथाऽर्थः॥ नोऽवि पए न पयावए जे स भिक्खू ॥४॥ व्यतिरेकतः स्पष्टयति रोइन नायपुत्तवयणे, जो भिक्खू गुणरहिमओ, भिक्खं गिणहइ न होइ सो भिक्खू। अत्तसमे मनिज छप्पि काए । घमेण जुत्तिसुवा-ग व असई गुणनिहिम्मि ।। ३५६ ॥ पंच य फासे महब्बयाई, यो भिक्षुः 'गुणरहितः 'चित्तसमाध्यादिशून्यः सन् भिक्षा. पंचाऽऽसवसंवरे जे स भिक्खू ॥५॥ मटति न भवत्यसौ भिक्षुर्भिक्षाटनमात्रेणैव, अपरिशुद्धभिक्षा. 'निष्क्रम्य' द्रव्यभावगृहात् प्रवज्यां गृहीत्वेत्यर्थः 'पावृत्तित्वात् । किमिवेत्याह-वर्णेन युक्तिसुर्णमिव, यथा तद्व झया' तीर्थकरगणधरोपदेशेन योग्यतायां सत्यां, मिकर्णमात्रेण सुवर्ण न भवस्यसति 'गुणनिधौ' कषाऽऽदिक इति म्य किमित्याह-'बुद्धवचने' अवगततस्वतीर्थकरगणधर. गाथाऽर्थः॥ वचने 'नित्यं' सर्वकालं' चित्तसमाहितः ' बिमाति प्रसनो भषेत्, प्रवचन एवाभियुक्त इति गर्भः । व्यतिरेउद्दिढकयं भुजा, छकायपमद्दनो घरं कुणइ। कतः समाधानोपायमाह-स्त्रीणां ' सर्षासत्कार्यनिवपञ्चक्खं च जलगए, जो पियह कहनु सोभिक्खु ३५७/ धनभूतानां । वशं ' तवायत्ततारूपं मचापि गच्छेत् । अहिश्य कृतं भुक्क त्यौदेशिकमित्यर्थः, षट्कायप्रमका- तशगो हि मियमतो थाम्न प्रस्थापिबति, मतो दुख यमाहाणात गर्भः । - 'दकायममक-धनभूतानां Page #1589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६६) भिक्खु अभिधानराजेन्द्रः। बचनचित्तसमाधानतः सर्वथा श्रीवशत्यागाव. अनेनवोपा. विविहं खाइमसाइमं लभित्ता । थेनान्योपायासंभवात् , 'धान्तं' परित्यक्त्रं सद्विषयजम्बा. छंदिन साहम्मिमाण भुंजे , सं न प्रत्यापिबति'न मनागप्याभोगतोऽनाभोगतश्व त. सेवते यः स 'भिक्षुः'-भावभिक्षुरिति सूत्रार्थः॥ १॥ त भुच्चा सज्झायरए जे स भिक्खू ।।४।। था-'पृथिवीं' सचेतनाऽऽदिरूपां न खनति खयं, न खान- न य दुग्गहिनं कहं कहिज्जा, पति परैः , एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणमिति स्वनन्त- ___ न य कुप्पे निहुइंदिए पसंते । मप्यन्यं न समनुजानाति , एवं सर्वत्र वेदितव्यम् । 'शी संजमे धुवं जोगेण जुत्ते , तोदक' सचित्तं पानीयं न पिबति स्वयं, न पाययति परानिति, अग्निः षड्जीवघातका, किंवदित्याह-शस्त्रं' उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू ॥१०॥ खद्गाऽदि यथा 'सुनिशितम् ' उज्ज्वालितं तद्वत् , तं न किंच-चतुरः क्रोधाऽऽदीन वमति तत्प्रतिपक्षाभ्यासेन 'स. ज्वालयति स्वयं , न ज्वालयति परैः, य इत्थंभूतः स भिक्षुः । दा' सर्वकालं कषायान् , ध्रुवयोगी च उचितनित्ययो. पाह-पजीवनिकायाऽऽदिषु सर्वाध्ययनेष्वयमोंऽभि गवांश्च भवति, बुद्धवचन इति तृतीयार्थ सप्तमी, तीर्थकर. हितः किमर्थ पुनरुक्त इति ? , उच्यते, तदुक्तार्थानुष्ठानपर वचनेन करणभूतेन, धुवयोगी भवति यथागममेवेति भाषः, एव भिक्षुरिति शापनार्थ, ततश्च न दोष इति सूत्रार्थः॥२॥ 'अधनः' चतुष्पदाऽऽदिरहितः 'निर्जातरूपरजतो' निर्गत. सुवर्णरुप्य इति भावः , ' गृहियोग ' मूर्च्छया गृहस्थसं. तथा अनिलेन' अनिलहेतुना चेलकर्णाऽऽदिना न वीजय बन्धं परिवर्जयति' सर्वैः प्रकारैः परित्यजति यः स भित्यात्माऽऽदि स्वयं, न वीजयति परैः । 'हरितानि' शस्याss. बुरिति सूत्रार्थः ॥६॥ तथा- सम्यग्दृष्टि ' भावसम्यदीनि न छिनत्ति स्वयं, न छेदयति परैः बीजानि' हरितफ ग्दर्शनी सदा 'अमूढः 'अविप्लुतः सन्नेवं मन्यते-अस्त्येव लरूपाणि ब्रीह्यादीनि, 'सदा' सर्वकालं विवर्जयन संघटना. शानं हेयोपादेयविषयमतीन्द्रियेष्वपि तपश्च बाह्याऽऽभ्यन्तरअदिक्रियया, सचित्तं नाऽऽहारयति यः कदाचिदप्यपुष्टा- कर्ममलापनयनजलकल्पं संयमश्व नवकर्मानुपादानरूपः, उलम्बनः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥३॥ौद्देशिकाऽऽदिपरि- इत्थं च दृढभावस्तपसा धुनोति पुराणपापं भावसारया हारेण नसस्थावरपरिहारमाह-'वधनं' हननं 'प्रसस्थाव. प्रवृत्त्या ' मनोवाकायसंवृतः ' तिसृभिगुप्तिभिर्गुप्तो यः स राणां' द्वीन्द्रियाऽऽदिपृथिव्यादीनां भवति कृतोद्देशिके, किं. | भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥' तथैवे ति ' पूर्वर्षिविधानेन विशिष्टानाम् ?-'पृथिवीतृण काष्ठनिधितानां' तथासमा- 'अशनं पानं च ' प्रागुतस्वरूपं तथा विविधम् ' अनेकरम्भात् , यस्मादेवं तस्मादौहशिकं कृताऽऽधन्यञ्च सावयं प्रकारं ' खाद्यं स्वायं च ' प्रागुक्तस्वरूपमेव । लब्ध्वा' न भुक्ने, न केवमेतत् , किंतु ? नापि पचति स्वयं, न प्राप्य, किमित्याह-भविष्यति 'अर्थः' प्रयोजनमनेन श्वः पाच यति अन्यैर्न पचन्तमनुजानाति यः स भिक्षुरिति सूत्रा परश्वो वेति 'तत् 'अशनाऽदिन निधत्ते 'न स्थापयति थः॥४॥ किंच-'रोचयित्वा' विधिग्रहणभावनाभ्यां प्रियं स्वयं, तथा 'न निधापयति'न स्थापयत्यन्यैः , स्थापयन्तकृत्वा किं तदित्याह-शातपुत्रवचनं ' भगवन्महा मन्यं नानुजानाति, यः सर्वथा संनिधिपरित्यागवान् स भिधीरवर्धमानवचनम् ' आत्मसमान् ' भारमतुल्यान् मन्यते बुरिति सूत्रार्थः ॥८॥ किं च-तवाशनं पानं च विविध 'षडपि कायान् ' पृथिव्यादीन् , 'पञ्चवे ति' चशब्दो: खायं स्वाधं च लभ्वेति पूर्ववत् , लब्ध्वा किमित्याहप्यर्थः पश्चापि, 'स्पृशति ' सेवते महावतानि 'पश्चाऽऽश्र 'छन्दिस्वा' निमन्व्य समानधार्मिकान् ' साधून् भूक्ते, बसंवृतश्व' द्रव्यतोऽपि पञ्चेन्द्रियसंवृतश्च यः स भिक्षु. स्वाऽऽत्मतुल्यतया तद्वात्सल्यसिद्धेः, तथा भुक्त्वा स्वाध्यारिति सूत्रार्थः॥५॥ यरतश्च यः, चशब्दाच्छषानुष्ठानपरश्च यः स भिक्षुरिति चत्तारि वमे सया कसाए , सूत्रार्थः ॥६॥ भिक्षुलक्षणाधिकार एवाहनच 'वैप्रहिधुवजोगी हविज बुद्धवयणे । की' कलहप्रतिबद्धां कथां कथयति, सद्वादकथाऽऽदिष्वपिन अहणे निजायरूवरयए, च कुप्यति परस्य, अपि तु 'निभृतेन्द्रियः' अनुद्धतेन्द्रियः गिहिजोगं परिवजए जे स भिक्खू ।। ६॥ 'प्रशान्तो' रागाऽऽदिरहित पवाऽऽस्ते, तथा 'संयमे' पूर्वोक्त 'ध्रवं' सर्वकालं योगेन' कायवाङ्मनःकर्मलक्षणेन युक्त सम्मदिट्टी सया अमूढे, योगयुक्तः, प्रतिभेदमौचित्येन प्रवृत्तेः , तथा • उपशान्तः' अस्थि हुनाणे तवे संजमे । अनाकुलः कायचापलादिरहितः 'अविहेठकः 'न क्वचिवसा धुणइ पुराणपावर्ग, दुचिते ऽनादरवान्, क्रोधादीनां विश्लेषक इत्यन्ये, य रथमणवयकायसुसंवुढे जे स भिक्ख ॥७॥ भूतः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ १०॥ तहव असणं पाणगं वा, जो सहइ हु गामकंटए, अक्कोसपहारतजणाओ । विविहं खाइमसाइमं लभित्ता । भयभेरवसहसप.हासे,समसुहृदखसहे अजेस भिक्खू११ होही अट्ठो सुए परे वा,. एतदेव स्पटयतितंन निहे न निहावए जे स भिक्खू ।। ८ ।। पडिम पडिवजिया मसाणे, तहेव असणं पाणगं वा, नो भीयर भयभेरवाइंदिस्स । Page #1590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खु विविधगुणतवार अनियं, न सरीरं चाभिकखए जे स भिक्खु ॥ १२ ॥ असई बोसट्टचतदेहे, अकुट्टे व हए लूसिए वा । विसमे मुहविज्जा, अनि अकोउहल्ले जे स भिक्खु ।। १३ ।। अभिभू कारण परीसहाई, समुद्धरे जाइपहाड अप्पयं । वित्तु जाई मरणं महभयं, तवे रए सामणिए जे स भिक्खु ॥ १४ ॥ हत्थसंजए पायसंजर, वायसंजर संजईदिए । अप्पर सुसमाहिप्पा, ( १५६७) अभिधान राजेन्द्रः । सुत्तस्थं च विभाग जे स भिक्खू ।। १५ ।। ' प्रतिमां ' मासाऽऽदिरूपां ' प्रतिपद्य ' विधिनाऽङ्गीकृत्य ' श्मशाने पितृवने न विभेति न भयं याति 'भैरवभयानि दृष्ट्रा ' रौद्रभयहेतुनुपलभ्य बैतालाऽऽदिरूपशब्दाऽऽदीनि ' विविधगुणतपोरतश्च नित्यं ' मूलगुणाss. धनशनाऽऽदिसक्लश्च सर्वकालं न शरीरमभिकाङ्क्षते निःस्पृहता वार्त्तमानिकं भावि च य इस्थम्भूतः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥१२॥ न लकूद सकृत्सर्वदेत्यर्थः किमित्याह 'व्युत्सृ नृत्यदेहः 'व्युत्सृशे भावप्रतिबन्धाभावेन त्यक्तो विभूषाकर पेन देहः- 'शरीरं येन स तथाविधः, अकृष्टो वा यकाराऽऽदिना इतो वा दण्डादिना लूषितो वा खङ्गाऽऽदिना भक्षितो वा भ्व शृङ्गाजाऽऽदिना' पृथिवीसमः सर्वसहो मुनिर्भवति, न च रागाऽऽदिना पीड्यते, तथा 'अनिदानो' भाचिफला ऽऽशंसारहितः, अकुतूहलश्च नटाऽऽदिषु य एवम्भूतः स भिक्षुरिति सूत्राऽर्थः ||१३|| भिक्षुस्वरूपाभिधानाधिकार एवाऽ६ 'अभिभूय' परा जित्य ' कायेन ' शरीरेणापि न भिक्षु सिद्धान्तनीत्या मनोवा ग्यामेष, कायेनानभिभवे तस्वतस्तदनभिभवात् 'परीषहान्' जुदादीन्, 'समुद्धरति ' उत्तारयति ' जातिपथात् ' संसार मार्गादात्मानं कथमित्याह -' विदित्वा ' विज्ञाय जातिमरणं संसारमूलं ' मद्दामयं ' महाभयकारणं, ' तपसि रतः ' तपसि सक्तः, किम्भूत इत्याह- 'भ्रामण्ये ' भ्रमणानां सम्बन्धिनि, शुद्ध इति भावः, य एवम्भूतः स भिक्षुरिति सूत्राऽर्थः ॥ १४॥ तथा हस्तसंयतः पादसंयत इति कारणं विना कूर्मवलीन श्रास्ते, कारणे च सम्यग्गच्छति, तथा वाक्संयतः प्रकु· खवाग्निरोधकुशल वागुदीरणेन संयतेन्द्रियो ' निवृत्त. विषयप्रसरः, 'अध्यात्मरतः ' प्रशस्तध्यानाऽऽलकः, सुल. माहिताऽऽत्मा ध्यानाऽऽपादक गुणेषु, तथा सूत्रार्थ व यथावस्थितं विधिप्रणशुद्धं विजानाति यः सम्यग्यथाविषयं स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ तथा- उबहिम्मि अच्छिए अगिद्धे, माउं पुलनिप्पुलाए । For Private safariनिहिश्रो बिरए " • सव्वगाव गए अ जे स भिक्खू ॥ १६ ॥ लाल भिक्खू न रसेसु गिभे छं चरे जीवित्र नाभिकं । इड्डि च सकारण भां च, भिक्खु ठिप्पा आणि जे स भिक्खू ।। १७ ।। न परं वइासि अयं कुसीले, जेणं च कुष्पिज्ज न तं वइआ । जाणि पत्ते पुण्गपावं, अत्ताणं न समुकसे जे स भिक्खु ।। १८ ।। न जाइमते न य रूवमते , न लाभमत न सुए मत्ते । मयाणि सव्वाणि विवजइत्ता, धम्माणरए जे स भिक्खू ॥ १६ ॥ पर अज्जपयं महामुखी, धम्मेठि ठावयई परं पि । निक्खम्म वज्जिज कुर्सी ललिंगं । न विहासंकुए जे स भिक्खु ॥ २० ॥ तं देवा असुरं असासयं । सया चए निश्चद्दिट्टिश्रप्पा | छिंदि जाईमरणस्स बंधणं : , " उवे भिक्खू अगम गई ।। २१ ।। ति बेमि ॥ 'उपधौ' वाऽऽदिलक्षणे 'अमूच्छित ' तद्विषय मोहत्या - गेन' अगृद्धः प्रतिबन्धाभावेन, अम्हातोऽयं चरति भाषपरिशुद्धं, स्तोकं स्तोकमित्यर्थः, 'पुलाक निष्पुलाक' इति संय मासारताssपादक शेषरहितः, क्रयविक्रयसन्निधिभ्यो विरतः ' द्रवभावभेदभिन्नक्रय विक्रय पर्युषितस्थापनेभ्यो निवृत्तः 'सर्वसङ्गापगतश्चयः, अपगतद्रव्यभावसङ्गश्व यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ किंच - अलोलो नाम नाप्राप्तप्रार्थनप रो' भिक्षुः ' साधुः न रसेषु गृद्धः, प्राप्तेष्वप्य प्रतिबद्ध इति भावः, उद्धं चरति भावोऽयमेवेति पूर्ववत्, नवरं तत्रोपधिमाश्रित्येोक्तमिह स्वाहारमित्यपौनरुक्त्यं तथा जीवितं नाभिकाङ्क्षते, असंयमजीषितं तथा 'सि' श्रमषैषध्या दिरूपां सत्कारं वस्त्राऽऽदिभिः पूजनं च स्तवाऽऽदिना त्यजति, नैतदर्थमेव यतते, स्थिताऽऽत्मा ज्ञानाऽऽदिषु, 'अनिभ ' इत्यमायो यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ तथा न ' परं ' स्वपक्षविनेयव्यतिरिक्तं वदति श्रयं कुशीलः, तदप्रीत्यादिदी प्रसङ्गात्, स्वपक्षविनेयं तु शिक्षाग्रहणबुद्धया वदस्यपि, सर्वथा येनान्यः कश्चित् कुप्यति न तद् ब्रवीति दोषावे. पि, किमित्यत आह-ज्ञात्वा प्रत्येकं पुण्यपापं, नाम्यसंबन्ध्य म्यस्य भवति अग्निदाहवेदनावत्, एवं सत्स्वपि गुणेषु ना. Ssस्मानं समुत्कर्षति न स्वगुणैर्वमायाति यः स भिचुरिति सूत्रार्थः ॥ १८ ॥ मदप्रतिषेधार्थमाह-न जातिमन्तो यथाऽहं ब्राह्मण, क्षत्रियो वा न च रूपमतेो यथाऽहं रूपवानादेया, म लाभमन्तो यथाऽहं लाभवान्, न श्रुतमसो यथाऽहं पण्डितः Personal Use Only Page #1591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६८) भिक्खु अभिधानराजेन्द्रः। भिक्खु अनेन कुखमदाऽऽविपरिग्रहः, अत पवाऽऽद--मदान् सर्वान् पने अभिभूय सम्वदंसी, कुलादिविषयानपि ' परिवर्य' परित्यज्य ' धर्मध्यानर. जे कम्हि विन मुछिए स भिक्खू ॥२॥ तो' यो यथाऽगमं तत्र सक्नः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥१६॥ किंच-प्रवेदयति' कथयति 'आर्यपदं 'शुद्धधर्मपदं प रागः-अभिष्वङ्गः, उपरतो-निवृत्तो यस्मिस्तद्रागोपरतं रोपकाराय 'महामुनिः' शीलवान् शाता एवंभूत एव व यथा भवत्येवं ' चरेद् ' विहरेत् , क्लान्तस्य परनिपातः स्तुतो नान्यः , किमित्येतदेवमित्यत आह-धर्मे स्थितः प्राग्वत् , अनेन मैथुननिवृत्तिरुक्ताः, रागाविनाभावित्वाम्मै. स्थापयति परमपि श्रोतारं, तत्राऽऽदेयभावप्रवृत्तेः, तथा नि थुनस्य, यद्वाऽऽवृत्तिन्यायेन 'रातोवरयं ति' राज्युपरतं कम्य वर्जयति कुशीललिङ्गम् प्रारम्भाऽऽदि कुशीलचेष्टितं, 'चरेत् 'भक्षयेदित्यनेनैव रात्रिभोजननिवृत्तिरप्युक्ता, 'लाढे तथा 'न चापि हास्यकुहको' न हास्यकारिकुहकयुक्तो यः त्ति' सदनुष्ठानतया प्रधानो विरत:-असंयमानिवृत्तः, स मिथुरिति सूत्रार्थः ॥ २० ॥ भिक्षुभावफलमाह-' तं अनेन च संयमस्याऽऽक्षेपात्प्राणातिपातनिवृत्तिः सावधवचन. देहवासं' इत्येवं प्रत्यक्षोपलभ्यमानं चारकरूपं शरीराss. निवृत्तिरूपत्वाद् वासंयमस्य मृषावादनिवृत्तिश्चाभिहितावे. पासम् अशुचिं शुक्रशोणितोद्भवत्वाऽऽदिना अशाश्वतं प्रति. दितव्या, वेद्यतेऽनेन तस्वमिति वेदः-सिद्धान्तस्सस्य वेदनं क्षणपरिणस्था सदा त्यजति ममत्वानुबम्धत्यागेन, क इत्याह. वित्तया आस्मा रक्षितो-दुर्गतिपतनास्त्रातोऽनेनेति वेद'नित्यहिते' मोक्षसाधने सम्यग्दर्शनाऽऽदी स्थिताऽऽत्मा' | विदारमरक्षितः, यद्वा-वेदं वेतीति वेदवित् , तथा रक्षिता अत्यन्तसुस्थितः, स चैवभूतश्छित्त्वा 'जातिमरणस्य ' माया:-सम्यग्दर्शनाऽऽदिलाभा येनेति रक्षिताऽऽयः, रक्षि. संसारस्य 'बन्धन' कारणम् ' उपैति 'सामीप्येन गच्छति तशब्दस्य परनिपातः प्राग्वत्, 'प्राज्ञः ' हेयोपादेयबुद्धि'भिक्षुः' यतिः 'अपुनरागमा 'पुनर्जन्माऽऽदिरहितामित्यर्थः, मान् 'अभिभूय' पराजित्य परीषदोपसर्गानिति गम्यते, 'सर्वे' गतिमिति-सिद्धितिं ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ २१ ॥ समस्तं गम्यमानत्वात्प्राणिगणं पश्यति-प्रात्मवत्प्रेक्षत इत्ये. उक्तोऽनुगमो नयाः पूर्ववत् इति । दश०१००। वंशीलः, अथवा-अभिभूय रागद्वेषी सर्व वस्तु समतया मोणं चरिस्सामि समिच्च धम्म, पश्यतीत्येवंशीलः सर्वदर्शी, यदि वा-सर्व दशति-भक्षय. ___ सहिए उज्जुकडे नियाणछिन्ने । तीत्येवंशीलः सर्वदशी । उक्तं हि-" पडिरगहं संलिहित्ता संथवं जहिज अकामकामे, ण, लेवमायाएँ संजए । दुग्गंधं वा सुगंधं वा, सव्वं भुजे प्रभायएसी परिचए स भिक्खू ॥१॥ ण छहए ॥१॥"अत एव याकस्मिश्चित्सचित्ताऽऽदिवस्तुनि मुनेः कर्म मौनं, तच सम्यक चारित्रं, 'चरिस्सामो ति' | न मूञ्छितः-प्रतिबद्धः, पतेन परिग्रहे निवृत्तेरभिधानमप्र. सूत्रत्वात् चरिष्यामि मासेविष्ये इत्यभिप्रायेणत्युपस्कार, तिबद्धश्च कथमदत्तमावदीत?, इत्यदत्ताऽऽदाननिवृत्तेश्व,तथा • समेत्य ' प्राप्य 'धर्म' भुतचारित्रभेनं दीक्षामित्युक्तं भव. चय पर्व मूलगुणान्वितः स भिक्षुरित्युक्तं भवतीति सूत्रार्थः। अन्यच. ति, सहितः' सम्यग्दर्शनाऽऽदिभिरण्यसाधुभिर्वेति गम्यते, स्वस्मै हितः स्वहितो वा सदनुष्ठानकरणतः, कचवम् ? अकोसबह विदित्तु धीरे, जुः-संयमस्तत्प्रधानं ऋजुवा-मायात्यागतः कृतम्-अ. मुणी चरे लाढे निश्चमायगुत्ते । नुष्ठानं यस्येति जुकृता, ईहक इस्याह-निदानं-विष. याभिष्वात्मकं, यदि बा-'निदान बन्धने' ततश्च करणे अव्वग्गमणे असंपहिढे, ल्यद, निदानं प्राणातिपाताऽऽदिकर्मबन्धकारणं छिन्नम्-अ. जो कसिणं अहियासए स भिक्खू ।। ३॥ पनीतं येन स तथा , क्लान्तस्य परनिपातः प्राग्वत्प्राकृत. आक्रोशनमाकोश:--असम्याउलापो वधो--घातस्ताउनं स्वात् , छिन्ननिदानो वा अप्रमत्तसंयत इत्यर्थः, ' संस्तवं' वा, अनयोः समाहारद्वन्द्वे आक्रोशवधं,तद्विदित्वा स्वकृतक. पूर्वसंस्तुतैर्मात्रादिभिः पश्चात्संस्तुतैश्च श्वश्वादिभिः परि- मैफलमेतदिति मत्वा' धीर' अक्षोभ्यः सम्यक् सोदेति. चयं 'जह्यात् 'त्यजेत् , 'शकिच लिक' (शकि लिच- यावत् ' मुनिः' यतिः 'चरेत् ' पर्यटे, अनियतिवहारतः पा-३-३-१७३ ) इत्यनेन शक्याथै लिक, ततः संस्तवं येति गम्यते, ततश्चानेनाऽऽक्रोशवधचर्यापरीषहसहनमुक्त, हातुं शक्नो य इति, एवं लिखर्थभावना सर्वत्र कार्या, तथा 'लाढे त्ति' प्राग्वत् नित्यम् ' इति सदा 'आत्मा' शरीरम्, कामान्-इच्छाकाममदनकामभेदान् कामयते-प्रार्थयते यः प्रात्मशब्दस्य शरीरवचनस्यापि दर्शनात् , उक्नं हि-"धर्मस कामकामो न तथा अकामकामः, यद्वाऽकामो-मोक्ष धृत्यग्निधीतर्क स्वक्तवस्वार्थदेहिषु । शीलानिलमनोयत्न. स्तत्र सकलाभिलाषनिवृत्तेस्तं कामयते यः स तथा, अत कवीर्यवात्मनः स्मृतिः॥१॥” इति । तेन गुप्त आत्म. एव अज्ञातः-तपस्विताऽऽदिभिर्गुणैरनवगतः, एषयते प्रा. साऽऽदिकं गवेषयतीत्येवंशीलोऽशातैषी 'परिवजेत् ' अनि गुप्तो-न यतस्ततः करणवरणाऽऽदिविक्षेपकृत् , यशा-गुप्तो रक्षितोऽसेयमस्थानेभ्य मात्मा येन स तथा, अव्यग्रम्-अनायतविहारितया विहरेत् ‘स भिक्खुत्ति' यत्तदोनित्याभिस. म्बन्धाद्य एवंविधः स भिक्षुः , अनेन सिंहतयैव विहरणं कुलमसमजसचिन्तोपरमतो मन:-चित्तमस्येत्यव्यग्रमना भिकुत्वनिबन्धनमुक्तमिति सूत्रार्थः। न संप्रहः असम्प्रहष्टः-आकाशाऽऽदिषु न प्रहर्षवान् , यथा तच्च सिंहतया बिहरणं यथा स्या तथा विशेषत आह कश्चिदाह-"कश्चित् पुमान् क्षिपति मां परिक्षवाक्यैः श्री. राम्रोवरयं परिज लादे, मरक्षमाऽऽभरणमेस्य मुदं प्रजामि।" इत्यादि । प्रकृतोपसंहार. माह-यः कृत्स्नम् ' उत्कृष्टाऽऽदिभेदतः समस्तमाकोशषधम् विरए वेद वियाऽऽय रक्खिए। 'मण्यास्ते' सहत समतयेति गम्यते , स भितरिति सूत्रार्थः । Page #1592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६६) भिक्खु अभिधानराजेन्द्रः। भिक्खु किच क्षणत्वाद्भुक्रभोगतायाः स्मृति च, · उपैति' गच्छति स पंतं सयणाऽऽसणं भइत्ता, भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ सीउएह विविहं च दंसमसगं । इत्थं परीषहसहनेन भिक्षुत्वसमर्थनात् सिंहविहा रित्वमुक्त्वा तदेव पिण्डविशुद्धिद्वारेणाऽऽहमन्वग्गमणे अपहिढे, जो कसिणं अहिनासए स भिक्खू ॥ ४ ॥ छिन्नं सरं भोमं अंतलिक्खं , 'प्रान्तम्'अषमं शयनंच संस्तारकाऽऽदिपासनं च पीठका. - सुविणं लक्खणं दंड वत्थुविजं । ऽऽदि शयनाऽऽसनम्, उपलक्षणत्वादोजनाऽऽच्छादनाऽऽदि अंगविगार सरस्सविजयं ,. च'भुक्त्या ' सेषित्वा शीतं चोष्णं च शीतोष्णम्-उक्तरूपं, जो विजाहिं न जीवई स भिक्खू ॥७॥ चस्य गम्यमानत्वात्तच्च सेषित्वा' विविधं च' मानाप्रकार छेदनं छिन्नं वसनदशनदादीनां , तद्विषयशुभाशुभनिस वंशाश्व मशकाश्च दंशमशकं,प्राग् व्याख्यातमेव,प्राप्येति शेषः, पिका विद्याऽपि लिनमित्युक्ता एवं सर्वत्र । “देवेसु उत्समो मत्कुणाऽऽधुपलक्षणं चैतत् , अव्यप्रमना असंप्रष्टो यः कृ. लाभो" इत्यादि , तथा 'सरं ति' स्वरस्वरूपाभिधानं, स्त्रमध्यास्त स भिक्षुरिति प्राग्वत् । इह च प्रान्तं शयनाऽऽसनं "खजं रबर मयूरो, कुक्कुडो रिसभं सरं । हंसो रवति गंभुक्त्वेति प्रतिसात्त्विकतादर्शनार्थ, प्रान्तशयमाऽऽदितायां धारं, मज्झिमं तु गवेलए॥१॥" इत्यादि । तथा-"खजेण हि सुदुःसहाम्शीताऽऽदयः, अनेन शीतोष्णदंशमशकपरीषह. लहा वित्ति, कय च न विणस्सई । गावो पुत्ता य मित्ता य, सहनमुक्तमिति सूत्रार्थः ॥ नारीणं होह पल्लाहो ॥१॥ रिसहेण उईसरियं, सेणावर्ष अपरं च धणाणि य ।" इत्यादि । तथा भूमिः-पृथ्वी भूमी भवं नो सक्किीमच्छई न पूनं, भौम-भूकम्पाऽऽदिलक्षणं, यथा-"शब्देन महता भूमिर्यदा नो वि य वंदणगं कुमो पसंसं रसीत कम्पते । सेनापतिरमात्यश्च , राजा राष्ट्रं च पीच्यते से संजए सुपए तवस्सी, ॥१॥" इत्यादि । तथा अन्तरिक्षम्-आकाशं तत्र भवम् आन्तरिक्ष-गन्धर्वनगराऽऽदिलक्षणं , यथासहिए प्रायगवेसए स भिक्खू ॥ ५॥ "कपिलं शस्य घाताय माञ्जिष्टे हरणं गवाम् । 'नो' निषेधे 'सत्कृतं' सस्कारमम्युत्थानानुगमाऽऽदिरूपम् अव्यक्लवणे कुरुते, बलक्षोभ न संशयः॥१॥ 'इच्छति ' अभिलषति, प्राकृतत्वाच्च सूत्रे दीर्घनिर्देशः, गन्धर्वनगरं स्निग्धं, सप्राकारं सतोरणम् । न 'पूजां' वस्नपात्राऽऽदिभिः सपर्या, 'नो अपि च ' इति नैव | सौम्यां दिशं समाश्रित्य,राज्ञस्तद्विजयङ्करम् ॥२॥" इत्यादिच 'वन्दन'द्वादशाऽऽवर्ताऽऽदिरूपं, कुतः 'प्रशंसां निजगु- तथा- स्वमं ' स्वप्नगतं शुभाशुभकथनं , यथागोत्कीर्तनरूपां?, नैवेच्छतीत्यभिप्रायः, - सः ' एवंविधः "गायने रोदनं या-प्रतने वधबन्धनम् । हसने शोचनं श्रूया. सम्यग् यतते सदनुष्ठानं प्रतीति संयतोऽत एव च सुत्र- स्पठने कलहं तथा ॥१॥"इन्यादि । तथा ' लक्षणं 'स्त्री. ता, सुवतत्वाच्च तपस्वी' प्रशस्यतपाः, तथा च स. पुरुषयोर्यथा-"चक्खुसिणेहे सुहितो, दंतसिणेहे य भोयणं हितः सम्यग्नानक्रियाभ्यां, यद्वा-सह हितेन-मायतिप- मिटुं । तयणेहेण य सोक्खं , णहणे हे होर परमधणं ॥१॥" ध्यन अर्थादनुष्ठानेन वर्त्तत इति सदितः, तत एव चाऽऽस्मा. इत्यादि । गजाऽऽदीनां च यथायथं बालुकाप्यादिविहितम् । नम्-कर्मविगमाच्छुद्धस्वरूपं गवेषयति-कथमयमित्थ- तथा 'दंड त्ति'' दण्डः' यष्टिस्तत्स्वरूपकथनम् . "एकपच्वं म्भूतो भवेदित्यन्वेषयते यः स आत्मगवेषका, यद्वा-प्रा. पसंसति' दुपवा कलहकारिया " इति , इत्यादि । तथा यः-सम्यग्दर्शनाऽऽदिलाभः सूत्रत्वादायतोवा-मोक्षस्तं ग. 'वास्तुविद्या प्रासादाऽऽदिलक्षणाभिधायिशास्त्राऽऽत्मिका. वेषयतीत्यायगवेषकः, आयतगवेषको वा यः स भिक्षुरिति, "कुटिला भूमिजाश्चैव, वैनीका द्वन्द्वजास्तथा। सूत्रार्थः॥ लतिनो नागराश्चव,प्रासादाः क्षितिमण्डनाः ॥१॥ अनेन सरकारपुरस्कारपरीषहसहनमुक्त, सम्प्रति स्त्रीप सक्काः पदविभागेन, कर्ममार्गेण सुन्दराः। रीषहसहनमाह फलावाप्तिकरा लोके,भङ्गभेदयुता विभोः॥२॥ जेण पुणो जहाइ जीवियं, अण्डकैस्तु विविक्तास्ते, निर्गमैश्चारुरूपकैः। __ मोह वा कसिणं नियरछई। मित्रपत्रर्विचित्रैश्च विविधाऽऽकाररूपकैः ॥३३॥"इत्यादि। तथा । अङ्गविकारः ' शिरःस्फुरणाऽदिस्तच्छुभानरनारिं पयहे सया तबस्सी, शुभसूचकं शास्त्रमप्यङ्गविकारो यथा-'दक्षिणाक्षिस्पन्दने नय कोऊहलं उवेइ स भिक्खू ॥६॥ प्रियं भविष्यति' इत्यादि । तथा रबर: पोदकीशिवाऽऽदिरू. येन हेतुना, पुनः शब्दोऽऽस्य सर्वथा संयमघातित्वविशेष तरूपस्तस्य विषयः-तत्सम्बन्धी शुभाशुभनिरूपणाभ्यासः, धोतका, 'जहाति' त्यजति • जीवितं ' संयमजीवितं यथा-"गतिस्तारा स्वरो वामा, पोदक्या: शुभदः स्मृतः। • मोबा' मोहनीयं वा कषायनोकषायाऽदिरूपं कृत्व' विपरीतः प्रवेशे तु, स एवाभीष्टदायकः ॥१॥" तथा-"दु. समस्तं कृष्णं वा शुद्धाऽऽशयविनाशकतया' नियच्छति' ब. स्विरत्रयं स्याजज्ञातव्यं शाकुनेन नैपुण्यात् । चिलिचिलिश. ध्नाति तदेवंविधं नरश्च नारी च नरनारि 'प्रजह्यात्' ब्दः सफलः, सुसुमध्यश्चलचलो विफलः १॥"इस्यादि । प्रकर्षण त्यजेत् यः सदा 'सर्वकालं तपस्वी, न च 'कु- ततो य पताभिर्विद्याभिन जीवति नेता एवं जीविका शुभाचूहलम् ' अभुक्तभोगतायां स्यादिविषयं कौतुकम् , उपल-। शुभाः प्रकल्प्य प्राणान् धारयति स भिरिति सूत्रार्थः ॥ ३ STI. Page #1593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्ख अनेन निमोत्पादनादेषपरिहार उ सम्मति मन्त्रादिरूपत है। परिहाराया 55मं मूलं विविहं विज्जचितं, बम विरेधूमनिसियायं । आउरे सरणं तिगिच्छियं च, तं परित्राय परिव्वए स भिक्खू ॥ ८ ॥ 'मन्त्रम् ' ॐकाराऽऽदिस्वाहापर्यन्तो हङ्काराऽऽदिवर्णविन्यासात्मक मूलं सहदेवीमूलिका करवादित स्वविहितं मूल कर्म वा 'विविध' नानाप्रकारं 'वैद्यचिन्तयेद्यसम्बन्धि नानाविधीषचवच्या 35 दिव्यापाराऽस्मि वि. विधामित्यत्रापि डमरुकमणिन्यायेन योज्यते, चमनम्-इष्टिरखं विरेचनं को धूमं मनःशिलादिसम्बन्धि 'नेति' नेत्रशब्देन संस्कारकमिह समीराजनादि परिगृह्यते, खानम् अपत्यार्थमन्त्रीषधिसंस्कृत जलाभिषेचनं मना नामावसानानामिह कृतसमाहाराणां निर्देशः 'आउ सरणं ति.मयत्या' आतुरस्य रोगाऽऽदिपीडितस्व शरणं स्मरणं हा तात ! हा मातः ! इत्यादिरूपं 'चिकित्सितं च भ्रात्मनो रोगप्रतीकाररूपं तद् इति यदनन्तरमुपरिचय परिज्ञाय प्रस्था क्यामपरिक्षाच प्रत्याश्याय परित्रजेत् सर्वप्रकारं सं माध्वनि यायाद्यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः । अपरं च - . 6 " स्वगिया उरायता, माहाभोई य विविहाय सिप्पियो । जो बिच सिलोग मं, माइन तं परिभाय परिव्यय स भिक्खू ॥ ६ ॥ त्रियाद्यम्य गणा:-महाऽऽदिसमूदा आरक्षकाऽऽदयः राजपुत्राः नृपसुताः, एषां द्वन्द्वः, भोगिकाः तत्र माहना ब्राह्मणाः, तथा भोगेन-विशिष्टने. पथ्यादिमाचरति मोगिका नृपतिमाम्याः प्रधानपुरुषाः 'विविधाश्च' नानाप्रकाराः शिल्पिनः स्थपतिप्रभृतयः पडलि सिति चान्ये इति शिल्पिविशेपरामुभयत्र च व इतिप्रतिपादयति के १-पूजे " 9 शोभना इति पूजां च यचैतान् पूजयतेति उभयत्र पापानुमत्यादिमहादोपसम्भवात् किंतु दि तिलोकपूजाऽऽदिकं द्विविधयाऽपि परिक्षया परिक्षाय परि सभरित सुषार्थः । अनेन धनीपकत्वस्य परिहार उक्तः, साम्प्रतं संस्तपरिहारमाह • - 3 2 ( १५७० ) अभिधानराजेन्द्रः । " गिड़ियों ने पम्पमा दिट्ठा, अपव्यय व संवादविजा । तेर्सिइडलोयफलडाए, जो संच न करेइस मिक्लू ।। १० ।। 'गृहिण 'गृहस्था थे' प्रमजितेन उपत्यविशामनिवा गृहीतदक्षेण दृष्टा गृहस्थात्र भिक्खु 6 स्पेन सह संस्तुताः परिचिता दियो इति सम्बन्धति मयावस्थयोः परिचितै हिभिः कफलार्थ वाऽऽदिलमनिमिषं या 'संत' परिचयं न करोति स भिरिति सूत्रार्थः । तथा " सयणासणपाय भोष, विवि खाइमसाइमं परेसिं । अदए परिसेडिए नियंडे, जे तस्थ व पओसई स भिक्खू ॥ ११ ॥ शयनासनपानयोजनमिति शयनाऽऽदीनि प्रतीतानि पिण्डखजे । ऽऽदि, स्वादिमम्-पलालबङ्गाऽऽदि, उभयत्र स 'विविधम् अनेकप्रकारं खादिनस्यादिममिति निर्म ' 26 6 अवइ 6 माहारः, 'परेसिं ति परेभ्यः ' गृहस्थाऽऽदिभ्यः तिः प्रतिषिद्धः कचित् कारणान्तरे वाचमानो निराकृतः सः ' निग्रन्थः ' मुक्तद्रव्यभावग्रन्थो यः तत्र ' 'इस्यदाने 'न प्रदुष्यति 'न प्रद्वेषं याति पुनर्दास्यतीत्यभि. धायकशपकावरस मिरिति सूत्रार्थः । + अनंग को पपिए परिद्वार उक्त उपलक्षणं चैतदशेषभिक्षादशेषपरिहारस्य इदानीं प्रविषादोषपरिहारमादजं किंचाऽऽहारपाण विवि खाइमसाइमं परेसिं लखुं । जो तं तिविहे नाणुकंप, मवावु जे स भिक्खू ॥ १२ ॥ , च 'यत् किञ्चित् ' अल्पमपि आहारपानम् अशनपानीयं विविधं 'खाइमसाइमं ति ' चस्य गम्यमानत्वात् खादिमोदि उक्त परेखिति परेभ्यः गृहस्थेभ्यः 'लधुंति " लब्ध्वा ' प्राप्य यः तं ति ' सुध्यत्ययासेनाssहाराऽऽदिना त्रिविधेन' मनोवाक्कायलक्षणेन प्रकारत्रयेण नानुकने को ? खानवाला कुरुतेन समि रिति शेषः स्तुमः सुसंवृत यांविधाऽऽद्य या मा ति सुसंवृतमनोवाक्कायः, तत एव ग्लानाऽऽदीननुकम्पत इति गम्यते स भिक्षुः, यदि वा 'नानुकम्पते' इत्यत्र 'ना' पुरुषो अनुकम्पते नानुपन कम्पन] मनोबाका सन् स भिरिति सूत्राऽर्थः ॥ अनेनाचतो गुजयमायाभिधानादङ्गारदोषपरिहार उ सम्प्रति धूमपरिहारमाह • 4 . 36 आयाम देव जोद च सीयं सोवीरजवोदगं च । नो हीलए पिंडं नीरसं तु, पंतकुलागि परिव्यय स भिक्खू ॥ १३ ॥ आषाममेव प्रायामकम्-अवश्रावण बरा उत्तरापेक्षा समुच्चये स्वगतानेक्रमेदख्यापको वा पत्र' इति प्राग्वत् ' ' यवोदनं च ' यत्रभक्तं ' लीयं ति शीतं शीतलमन्तप्रान्तोपलक्षणं चैतत्, लोवीरम् श्रात्राम्लं यवेोदकं च यवप्रक्षा सनं पानीयं सोवीरयबोदकं तच " नो दीजयेत्' धिगिद Page #1594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५७१) भिक्खु अभिधानराजेन्द्र:। भिक्खुपडिमा किमनेनामनोजेनेति न निम्मेत् पिपज्यते सनात्यते, कोs. स्येति मल्पनघुभक्षी, सूत्रे तिब्ब्यस्ययः प्राग्बत् । धः१ गृहिभ्य उपलभ्य सम्मील्यत इति पिएस्तमायामका. 'स्यकषा'अपहाय गृहं द्रव्यभावभवभिन्नम, एको--रा येव नीरसं,विगताऽऽस्वाद'तुः'भप्यर्थः, ततो नीरसम- गद्वेषविरहितः तथाविधयोग्यतावाप्तावसहायो वा परति पि. मत एव'प्रान्तकुलानि'तुच्छाशयगृहाणि दरिद्रकुला विहरत्येकचरो यः स भिक्षुः अनेनकाकिविहार उपलनिषा यः परिब रस भिक्षुरिति सूत्राऽर्थः॥ क्षित इति सूत्रार्थः।।' इति' परिसमाप्ती, अधीमीति पूर्ववहे. अन्यच्च व, नया अपि पूर्ववदेव ।। उत्त० पाई०१५ १० । सहा विविहा मवेति लोए, भिक्खुंड-भिक्षोएड-पुं०। परतीर्थिके श्रवणभेदे. सुगतशादिवा माणुसया तहा तिरिच्छा। सनस्थे भ्रमणे च। ये भिक्षामेव भुजते न तु स्वपरिप्रभीमा भयभरवा उराला, हीतगोदुग्धाऽऽदिकं ते भिक्षोएडाः, सुगतशासनस्था इत्यजो सुच्चा विहिआई स भिक्खू ॥१४॥ न्ये । ग०२ अधिः । अनु। 'शब्दाः' ध्यनयः - विविधा' विमर्शप्रद्वेषाऽऽदिना विधीयः | मिक्खुग-भिनुक-पुं०। भिक्ष-उक् । भिक्षोपजीविनि , मानतया मानाप्रकाराः भवन्ति 'जायन्ते 'लोके'जगति वाच । सूत्रः । मा० म० । परतीथिके भ्रमणभेदे च । 'दिव्याः 'देवसम्बन्धिनः 'मानुष्यकाः' मनुष्यसम्बन्धिन- प्रा०क०१०। विपा०। भिक्षुका रनपटा इति । नि. स्तथा 'सैरखाः' तिर्यकसम्बन्धिनः ' भीमाः' रौद्राः भयेन चू.१०। भिक्षुकाः शौद्धोदनीया इति । व्य० १ उ० । भैरवा:-अत्यन्तसाध्वसोत्पादका भयभैरवा: 'उदाराः'म. भिक्षुकः सौगत इति । पृ० १०३ प्रक०। दान्तो यः श्रुत्वा' पाकर्य प्रक्रमादुक्तविशेषणविशिष्टानेव शब्दान् 'नव्यथते'न बिभेति धर्मध्यानता न चलति पास भिक्खुचरिया-भिक्षुचा-स्त्री० । भिक्षणां साधूनां चर्या भिक्षुरिति सूत्रार्थः॥ सामाचारी भिक्षुचा । साधुसामाचार्याम् , सूत्र०१६० अनेनोपसर्गसहिष्णुत्वं सिंहविहारितायां निमित्तमुक्तं ३०२ उ०। सम्प्रति समस्तधर्माचारमूलं सम्यक्त्वस्थैर्यमाह- भिक्खुणी-भिक्षुकी-स्त्री०। साव्याम् , दश०४० । माबायं विविहं समिच्च लोए , चा०। पा०। सहिए खेयाणुगए अकोवियप्पा । | भिक्खुधम्म-भिक्षुधर्म-पुं०। क्षान्त्यादिके साधुधौ , उत्त. पन्ने अभिभूय सचदंसी, २५.।" भिक्खुधम्म विचितए ।" उस. २.। | (भिक्षुधर्माः 'भिक्खु-पडिमा' शम्नेऽग्रे रष्टव्याः) उवसंते अविहेडए स भिक्खू ॥१५॥ भिक्खुपडिमज्झयण-भिवप्रतिमाध्ययन-न०। द्वादश भित्र 'वाद' च स्वस्वदर्शनाभिप्रायवचनधिज्ञानात्मकं 'विवि. णांप्रतिमाः अभिग्रहाः मासिकी-द्विमासिकीप्रभृतयो यत्राऽ. धम् ' भनेकप्रकार, धर्मविषयेऽपि ह्यनेकधा विवदन्ते । यथो. कम्-"सेतुकरणऽपि धर्मों, भवत्यसेतुकरणे ऽपि किल धर्मः। भिधीयन्ते तसथा। प्राचारदशानां सप्तमाऽध्ययने,स्था०१०ठा। गृहवासेऽपिच धमो, बनेऽपि वसतां भवति धर्मः॥१॥" | भिक्खुपडिमा-भिक्षुपतिमा-खी० । भिसूणां प्रतिमा अभिः भवति धमे--स्तथा जटाभिः सवासला धर्मः ॥" ग्रहविशेषा भिक्षुप्रतिमाः। साधुप्रतिक्षाविशेषे,प्राव०४०। इत्यादिरूपं 'सामेत्य' ज्ञात्वा लोके सहितः स्वहितोषा प्राग्वत् स्था । शा० । अन्त। ध० प्रा०चू०। भ० । स० । औ० । खेदयत्यनेन कर्मेति खदः-संयमस्तेनानुगतो-युक्तः खेदानु सुयं मे भाउसंतेणं भगवया महावीरण एवमक्खायं-इस गतः-'चः' पूरणे, कोविदः-लब्धशास्त्रपरमार्थ प्रात्माऽस्येति कोविदाऽऽत्मा, पले अभिभूय सम्वदंसी उवसंतेत्ति' प्राग्वत्. खलु थेरेहिं भगवंतेहिं बारस भिक्खुपडिमाओ परम'भविहेठक' न कस्यचिद्विवाधको यः स भिक्षुरिति सूत्रार्यः॥ चाओ । कतरातो खलु ताभो । इमातो ताओ। तं जहातथा मासिया भिक्खुपडिमा १,दोमासिया भिक्खपडिपा २, भसिप्पजीवी अगिहे अमिते, तेमासिया भिक्खुपडिमा ३, चउमासियां भिक्खुपडिमा ४, जिइंदिनो सन्चो विप्पमुक्के । पंचमासिया भिक्खुपडिमा ५, छम्मासिया भिक्खुपडिमा६, अणुक्कसाई लहु अप्पभक्खी, सत्तमासिया भिक्खुपडिमा७,पढमा सत्तरातिदिया भिक्खुचिच्चा गिहं एमचर स भिक्ख ॥ १६ ॥ तिमि ॥ पडिमा८, दोच्चा सत्तरातिदिया भिक्खुपडिमा हतचा सत्तशिल्पेन-चित्रपत्रच्छेदाऽऽदिविज्ञानन जीवितुं शालमस्येति शिल्पजीवी न तथाऽशिल्पजीवी, 'अगृहः' गृहविरहितः नातिदिया भिक्खुपडिमा १०, महोरातिदिया भिक्खुपतिमा तथा अविद्यमानानि मित्राणि-अभिष्वाहतवा वयस्या य. ११, एगरातिदिया भिक्खुपडिमा १२ । स्यासावमित्रः, जिलानि-वशीकृतानि ' इन्द्रियाणि ' (बारस भिख्खुपडिमाओ त्ति) द्वादशसङ्ख्या उद्मोत्पा. श्रोत्राऽऽदीनि येन स तथा, 'सर्वतः 'बाह्यादभ्यस्तराव दनैषणाऽऽदिशुद्धभिक्षाशिनो भिक्षवः साधवः, तेषां प्रतिमाः ग्रन्थादिति गम्यते, विविधैः प्रकारैः प्रकर्षण मुक्रो विप्रः । प्रतिक्षा भिनुप्रतिमा तामाः। तद्यथा-मासिकी भिचुप्रमुक्ता, तथा अणव:- स्वल्पाः सज्वलननामान इतियावत्, तिमा १, एवं द्विरवि३चतु:४पञ्चषट्सप्तमासिकीः भिचु. कषायाः-क्रोधादयो यस्येति सर्वधनाऽदित्वाद् इति प्रत्यः | येऽणुकषायी, प्राकृतत्वात्सूत्र ककारस्य द्वित्वं, यद्वा-उत्क. प्रतिमाः। प्रथमा सप्तराविन्दिवा सप्ताऽहोरात्रमाना १, एवं पायी-प्रबलकषायी न तथाऽनुस्कषायी अल्पानि-स्तोकानि द्वितिया २, तृतीया ३, पतासां चाष्टमाऽऽदिसण्यात्वे प्र. लघूनि-निःसाराणि निष्पावादीनि भक्षयितुं शीलम. सिद्धेऽपि प्रथमात्वं तिसृणां सप्तदिवससहयात्वेनोलत्वं तेन Page #1595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५७२) अभिधानराजेन्द्रः । सुपडिमा पूर्वाविरोधः १०,कादशी अहोरात्रप्रमाणा अहोरात्री १२ एकरात्रिन्दिवा एकरात्रिप्रमाणा अत्र रात्रि. रात्रिदेव ब्राह्मा, अन्यथा एकरात्रिकी इत्यस्या विरोधात् पूर्व महोरात्रिका इत्यस्याऽभिधानात् । १२/ तु इति संपतो रामपतिमाणां स्वरूपमाचायसम्प्रति प्रत्येकमाचारविधिमभिधित्सुराह मासिगं भिक्खुपडिमं पडिवस अणगारस्स, निचं बोसटुकाए चियतदेहे, जे केई उवसग्गा उप्पअंति । तं जहादिव्या वा माणुसा वा तिरिक्खजोलिया वा ते उप्पम्से सम्म सहति, खमति, तितिक्खति, महिया सेति । मासिक प्रतिमां प्रतिपक्षस्य भिक्षोः अमाचारो भवति इति शेषः तद्यथा-बिसका ति ) नियमनवर म्युकाः परिकर्म वर्जनात् प्रीतः प्रीतिकारीति, उक्काउनेक परहसनादि येन स तदेदयत्ययः प्रकृतत्वात्। ये केचन उपसर्ग उत्पद्यन्ते । तद्यथा - देवा देवकृताः, मानुष्या मनुष्यताः ' तिर्यग्योनिकास्तिर्यक्कृताः । ( ते इति ) तान् परीषदान् उत्पन्नान् सम्यग् यथा भवति मुखाssधविकारकरणेन सहते सभयाभावेन, ( खमति ति) क्षमति क्रोधा. तितिक्षते देयानलम्बन अलकायतया । मासियां भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्त कप्पति एगा दत्ती भोगणस्स पडिम्गाहित्तए एगा पायरस, अमाउस्सुद्धं वह विजूहिचा परवे दुपयच उपयसमणमा अतिहिविवणीमए कप्पति से एगस्स जमाणस्स पो-दो, यो उ यो पंचनो गुम्ब बीए नोबाला यो दारगं पेमाणी, खो तो लु यस्स दो वि पाए साइड दलमाणीए, यो वाहिं एलुयस्स दोषि पाए साइड दलमाणी, एवं पादं तो किच्चा एवं पादं बाहि किच्चा एलुयं त्रिक्खंभइत्ता एवं दलयति एवं से कप्पति पडिग्गाहित्तए, एवं से नो दलयति, यो कति पडिग्गाहित्तए । • (अणगारहसति ) द्रव्यभावभेदभिन्नागारद्वयवर्जितस्य कछपते युज्यते एका इत्तिर्भोजनस्याशनस्य प्रतिग्रहीतुं केवलं कामतथा अत्र पानीयस्य दक्षिप्रमाणम् इति शब्दे १७७८ ( १०२.११०) गाथाभ्यां निरूपितः ) त्यति अहातीत्यं परिययाकरताहात सन् [[]] इयस्थम महोद्वरितं भाषताऽभ्यनिरुवाचादिधप्रतिपति बिना दशं न तु ज्ञातं तद् बहुमतमिति, एतदपि उमादिदोषरहितं न तु तद्विपरीतम् अथवा शुद्ध माप उपसमिति ) अन्यस्य मौलुकामस्य कृते पीतं, मिताचरस्य वा कृते उपनीतं तेन च नेप्सितं दसइति नि बहुद पिच भ्रमणब्राह्मणातिधिपायनीवकान् यथैतेषामन्यदोष न अति परिसंस्था तत्र द्विपदा मनुष्यपक्षिणः, चतुष्पदा गोमहिष्यादयः, भ्रमणाः निर्मन्थशाक्य तापसगि: रिकाऽऽजीविका इति ब्राह्मण भोजन कालोपस्थायिनः, अति | भिक्खुपडिमा वयस्यम् (अहि शब्दे प्रथमभागे ३३ पृठे दर्शिताः) कृपणा दरिद्राः, (ते च ' किवण ' शब्दे तृतीयभागे ५६१ पृष्ठे दर्शिताः) बभीयका वन्दिमाया एकस्य भुञ्जानश्योप नयनतुन प खानाम्। उपलक्षणं बहुनामेतेषामतिर्भवति विया गर्भवत्याः यतस्तस्या हस्ते माहारग्रहणे गर्भस्थ पीडा भवति, जिनकल्पप्रतिमाप्रतिपक्षास्तु गर्भवती परि रति गडवासिनस्तु ममनवममा सयोः परिहरन्ति नो बा लयस्साया हस्ते प्रहारो प्रतुं कल्पते, गोदारकं बालकं पाययन्त्याः, क्षीरमिति गम्यम् । (यो अंतोति ) नो ऽन्तर्मध्ये पलुकस्यापवरकस्य द्वापि पादौ संहत्य ददत्याः । एवं बहिरेलुकस्य । कथं तर्हि कल्पते ?, इत्याह- (पगमित्यादि) एक पात्रम्, अन्तर्मध्ये च बहिरपवरकस्य (विकविता)विष्क भ्य ददाति एवं अनेव विधिना (से) तस्य साथ करते प्रतिग्रहीतुं एवं चैव ददाति तदा न कल्पते । मासियां भिक्खुपडिमं परिवचस्त्र अणगारस्स तपो गोयरकाला पाता। तं जहा आदि मझे, चरिये आदि चरेज्जा यो मझे यो चरिमे चरेजा, मज्झे चरेजा नो आदि परेजा यो परिमे परेजा, चरिमं परेजा यो भादिं चरेजा यो मज्झे चरेजा ।। ( मासि हमित्यादि) मासिक मिप्रतिमां प्रतिपक्षस्था नगारस्य त्रयस्त्रिसङ्ख्या गोचरकालाः गोरिव चरस्तस्य का लाः प्रस्तावाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-प्राद्यो, मध्यः, चरमः । तेषु एव म् अनन्तरोक्तविभागेन चरेत् यथावत् स क ?, रूपवत्याः स्त्रियो रूपादिषु अमूच्छितो विचरति. किंतु तदानीताऽऽहाराडादिष्वेव निष्ठिताः तथाभ्यमपि भगवान् धादिष्यम् तृतीयरुपमदति पूर्वमाचमरूपं यथा-पत्र मियां मिक्षारानायान्ति भिक्षार्थ तत्र साधुः पूर्वमेव परमार्थम् प्रथमा द्वितीयस्तु वर्ष श्रादायान्ति भिक्षुका पूर्वमध्यायान्ति तत्र साधुना मध्यकाले गन्तव्यं यत्र च पूर्वकाले मध्ये च भिक्षवो यान्ति भिक्षायै तत्र साधुना चरमकाले गन्तव्यम् । तथा चोक्तम् पुण्यं व चरति तेसिं, निययवारेसु वा भडति पच्छा । जत्थ दोसि भवे काला, चरता तस्थ अतिस्थिर ॥ १ ॥ " अमरति संजयो। गाणं तु यं ॥ २३॥ "भिनायरा माझे अति तो सो पु अडति संणियसु मिक्लायरे पच्छा प्रति जत्थोत्पदम ते दिडति "एवं (दो मासि यं ति ) इत्यादि व्यक्तम् | मासिगं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स छव्विधा गोपरचरिया पाता। जहा पेला.पेला, गोमुखिया, पर्वगविधिया, कावहा गंतुं पयागता मासि यं भिक्खु परियं पश्विमरस अणगारम्स अस्थ थे के जगह क पति से तत्थेगराइयं वसित्तए, एत्थ मं केइ न जागति कप्पति से तस्थ एगरातियं वा कप्पति से तस्थ एगरातियं वा दुराइये वा पत्थर, यो Page #1596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्पति त्ति) कियाला भिक्खुपडिमा अभिधानराजेन्द्रः। भिक्षुपडिमा स कप्पति एगरातो वा रातो वा परं वत्थए, जं तत्थ नकोऽपि प्रत्यभिजानीते तत्रैकरात्रि या द्विरात्रि वा उषितं ततः एगरातातो वा परिवसति से संतरा छेदे वा परिहारे वा । पर न ( से) तस्य कल्पत, शेष व्यक्तम् । (सेलतरा छेदे व मासियं भिक्खुपडिम पडिवनस्स अणगारस्स कप्पति त्ति) कियत्कालान्तरे पुनस्तत्रोषितुं कल्पते । (परिहारे व त्ति ) यत्र स्थितास्तत्स्थानिपरिहारे वा त्यागे तत्र कल्पते(च चत्तारि भासाओ भासित्तए, तं जहां-जायणी, पुच्छणी, तारि भासाउ त्ति)चतम्रो भाषा भाषयितुं कल्पन्ते । तद्य. अणुममणी, पुटुस्स वागरणी । मासियं णं भिक्खुपडिम था-याचनी-कस्यापि वस्तुविशेषस्य देहीतिमार्गणं पृच्छनी. पडिवनस्स अणगारस्स कप्पंति तो उवस्सया पडिले- अविज्ञातस्य संदिग्धस्य कस्यचिदर्थस्य परिक्षानाय तद्विदः हित्तए । तं जहा-अहे आरामगिहंसि वा, अधे वियडगि- पावें । अनुज्ञापनी-उच्चारपरिष्ठापनतृणडगलभश्नप्रभृतीना. हंसि वा, अहे रुक्खमूलगिहंसि वा । मासियं णं भिः । म् । पृष्टस्य व्याकरणी-यथा कस्त्वं कौतस्कुस्यः,किमर्थमा. गमः, प्रतिमाप्रतिपन्नोऽन्यो वा इत्यादिपृष्टस्य व्याकरणी प्र. खुपडिम पडिवनस्स अणगारस्स कप्पंति तो उवस्सया त्युत्तरप्रदानरूपा इति । ( उवस्सया इति) उपाश्रया बसतय अणुप्मवित्तए । तं जहा-अधे अारामंसि वा अधे वियड इत्यर्थः। प्रतिलेखयितुमारामस्याध इति अध पारामम् , प्रा. गिहंसि वा अधे रुक्खमूलगिहसि वा । मासियं यं भिक्खु. रामं च तद् गृहं चेति कर्मधारयः, तस्मिन् तथा एवं विका पडिम पडिवनस्स अणगारस्स कप्पंति तो उवस्सया टगृहं, विकटगृहं नाम-प्रामादहिवृक्षानामधो , वृक्षस्वाइणावित्तए, सेसं तं चेव । मासियं णं भिक्खुपडिम मूले इति वृक्षनिकटतरप्रदेशे इति । (अणुसावित्सर इति) अनुशापयितुं प्रतिलेखनानन्तरमनुशां मार्गयितुं ( उबायणा पडिवनस्स अणगारस्स कप्पति तो संथारगा पढिलेहि वित्तए त्ति) उपग्रहीतुं स्थायित्वेनाङ्गीकर्तुम् इति । संस्तारक: चए-पुढविसिलं वा, कट्ठसिलं वा,अधे संवुडमेव । मासियं प्राण्याख्यातस्वरूपः, पृथिवीशिलां शिलारूपं काष्ठशिलेति वृ. खंभिक्रवपडिम पडिवनस्स अणगारस्स कप्पंति, तो सं. हत्तरकाष्ठपिण्डरूपां यथा संस्कृतं चतुष्किकाऽऽदि , एतदू थारगा भणुपावित्तए, सेसं तं चेव । मासियं णं भिक्खप. ढे शेषं प्राग्वत् । (इस्थि त्ति) स्त्री वा पुरुषो वा परिचारणा. डिमं पडिनबस्स अणगारस्स कप्पति तो संथारगा उवा थै घसत्यन्तरं वोद्दिश्योपाश्रयं प्रति (हवं ति) शीघ्रम् उपा. गच्छत् (तं पदुच्च त्ति) तं स्त्रीपुंयुगलं प्रतीत्य इणावित्तए, सेसं तं चेव । मासियं णं भिक्खुपडिमं पहि प्राश्रित्य नैव कल्पते निष्क्रमितुं वसतेबहिः, प्रवेष्टुं बहिर्भूवअस्स भणगारस्स इस्थि उवरसयं हवं उबागच्छेजा,से तप्रदेशादन्तरमिति । (केत्ति) कोऽपि उपाश्रयमग्निका. इथिए व पुरिसे णो कप्पति तं पडुच्च निक्खमित्तए वा येनाग्निना ध्मायेत् तथापि (नो से कप्पा त्ति) व्यक्तम् । इति पपिसित्तए वा । मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स अण. स्थानविधिरुतः। साम्प्रतं गमनस्थानविधिमाहगारस्स उपस्सयं अगणिकाएण झामेज्जा, णो से कप्पति तं पडुच्च निक्खमेत्तए वा पविसित्तर वा। तत्थ णं केइ बधाए गहाय आगच्छेजाव णो से कप्प. (गोचरचर्यायाः प्रकार: ' गोयरभूमि 'शब्दे तृतीयभागे ति । तं जहा-अवलंबित्तए वा पडिलंबित्तए वा, कप्पति से १०१०पृष्ठे गतः) (जत्थ ण केहजाण इत्यादि)यत्र णमिति घा आहारियं रीयत्ता मीसियं वा कप्पति से आहारियं रियत्तए। कमालङ्कारे. कोऽपि गृहस्थाऽदिको जानाति प्रत्यभिजानाति मासियं णं भिक्खुपडिम पडिवनं भिक्खायरियं पायसि यथाऽयं प्रतिमा प्रतिपन्नः। क्वेत्याह-(गामंसि वा) असति खाणुं वा कंटए वा हीरए वा सकराए वा अणुप्पवेबुद्धयादीन गुणानिति ग्रामः । यदि वा-गभ्यः शास्त्रप्रसिद्धा. सेजा, णो से कप्पति नीहरित्तए वा विसोहित्तए वा, नामष्टादशानां कराणामिति तस्मिन् । यावत्करणात् नकरा. ऽऽदिपदकदम्बकपरिग्रहः । नात्र करोऽष्टादशप्रकारोऽस्तीति कप्पति से आहरियं रीयत्तए । मासियं णं भिक्खुपडि. नकर, तस्मिन् , निगमः प्रभूततरवणिग्वावासः तस्मिन् , म पडिवन भिक्खायरियं अञ्छिसि पाणाणि वा वीयाणि तथा पांशुप्राकारवेष्टितं खेटं दुल्लमाकारवेष्टितं फर्वट कुत्सि- वा रए वा परियावजेजा , णो से कप्पति नीहारतनगरं वा । पट्टन,पत्तनं वा,उभयत्रापि प्राकृतत्वेन निर्देशस्य समानत्वात् । तत्र यन्नौभिरेव गम्यं तत्पत्तनं, यथा सिंहला। तए वा विसोहित्तए वा , कप्पति से पाहारियं रीइत्तए । यत्पुनः शकटैटिकैनौमिर्वा गम्यते तत पट्टनं, यथा भरका मासिय भिक्खुपडिम पडिवन भिक्खायरियं जत्थेव मूरिए च्छम् । उक्तं च-" पट्टनं शर्कटैगम्यं, घोटकैनौभिरेव च । नौ. अस्थमजा तत्थेव जलंसि वा थलंसि वा दुग्गसि वा णिभिरेव नु यद्गम्यं,पत्तनं तत्प्रचक्षते ॥१॥" द्रोणमुखं बाहूल्ये। मंसि वा विसमंसि वा पव्वतंसि वा पव्वतदुग्गसि वा गड्डा न जलनिर्गमप्रवेशम् , आकरो हिरण्याऽऽकराऽऽदिः । श्रा वारी पति से तं स्यणिं तत्धेव उवातिण। श्रमस्तापसावसथोपलक्षित श्राश्रयः, संवाधो यात्रागत. प्रभूतजननिवेशः, राजानो धीयन्तेऽस्याम् इति राजधानी.रा. नो से कप्पति पदमवि गमित्तए, कप्पति से कल्लं पाउप्पभा. शः पीठिकास्थानमित्यर्थः । अर्द्धतृतीयगच्यूतान्तीमान्तरर याए० जाव तेजसा जलंते पाईणाभिमुहस्स वा पडीणाभिमु. हिरडा, तस्मिन् इति सर्वत्र योज्यम् । (तत्थ त्ति ) तन | हस्स वा दाहिणाभिमुहस्स वा उत्तराभिमुहस्स वा पाहारि. (एगराइ त्ति) राभिप्रहणात दिवसमपि उषितं (जातियत्र यं रीइत्तए । मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिव भिक्खाय ३६४ Page #1597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खुपडिमा अभिधानराजेन्द्रः। भिक्खुपडिमा रियं णो से कप्पति भणंतरिहिताए पुढवीए निदाइत्तए एवकारोऽवधारणे, नान्यत्रेत्यर्थः । वसतिप्रदेशे भरण्याऽऽदी वा सूर्योऽस्त मेति अस्तं प्राप्नोति (तस्येव ति) तत्रैव बसेदि. वा पयलाइत्तए वा, केवलीया-भादाण पेयं, से तत्थ नि. त्याह- (जलंलि वा इत्यादि ) जले जलविषये, न तु जले हायमाणे वा पयलायमाणे वा हत्थेहिं भूमि परामुसेजा भ. पब, कथमस्तसमये (कप्पति ) उपयोगवश्वासेषाम् , उध्य धाविधिमेव ठाणं ठाइत्तए वा निक्खमित्तए वा उच्चारपास- ते अन जलशम्नेन नद्यादिजसं न गृखते, किंतु वत्र तृतीयो वणेणं उव्वाहिज्जा, णो से कप्पति ओगिएिहत्तए वा परि- यामो दिवसस्य संपूर्णो भवति तत्र तेषां जलमेबोच्यते इति समयरीतिः, विशिष्टाभिग्रहवयात्तेषाम् । स्थविरकरिपकानां द्वावित्तए वा कप्पति से पुब्वपडिलेहिते थंडिले उच्चारं पा. तुन तथेति, अत्रावकासिक स्थलंजलमेव भवति यत्रावश्यायः सवणं वा परिढवित्तए,तं से उवस्मयं पागम्म ठाणं ठाइत्तए, पतति । तथा चोक्तं पञ्चमाझे अस्थि णं भंते ! सदासमितं मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवत्रं भिक्खायरियं गो कप्पति सुहमे सिणेहकार पघडति ?। हता! अस्थि । से भंते ! कि ससरक्खेण कारणं गाहावतिकुलं भत्ताए वा पाणाए वा उद्धे पबडति, अहे पवडति, तिरिए पवहति । गोयमा! उहे वि पवडति, अहे वि पवति, तिरिए वि पवडति, निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा,अध पुणरेवं जाणिजा सस. जहा से बादरतेभाउमाए अमजणसमाउत्ते चिरं पिदीहरक्खे सेमनाए वा जलताए वा मल्लत्ताए वा पंकत्ताए वा कालं चिट्ठा तहा णं से वि । णो दण? समटे से गं खिप्पा. विद्धुत्थे,से कप्पति गाहावतिकुलं भत्ताए वा पाणाए वा नि- मेव विलुसमागच्छह।" सूक्ष्मस्नेहकाय इति अप्काविशेषः, क्खमित्तए वा पविसित्तए वा,मासिय भिक्खुपडिमं पडिवयं | तत्रापि चाल्पस्य स्निग्धेतरभागमपेक्ष्य बहुत्वमापरवं चाव. भिक्खायरियं नो कप्पति सीओदगषियडेण वा उसिणोद सेयम् । यदाह-"पढमचरिमाउ सिसिरे, गिम्हे अखं तु तासि बजेत्ता,पायं वा वि सिणेहा-हरक्खण्टा पवेसे वा ॥१॥"लेपिगवियडेण वा हत्थाणि वा पादाणि वा दंताणि वा अच्छी तपानमपि न बहिः स्थापयेत् , तत्नेहाऽऽदिरक्षणायेति । प्रत णि वा मुहं वा अच्छोलित्तए वा,पधोवित्तए वा, णामस्थ ले. उक्तम्-"जलंसि"न तु नद्यादिपानीये, वाशब्दोऽपरापरवालेवेण वा भत्तामासेण वा । मासिय भिक्खुपडिमं पडिव भेदसंग्रहार्थम् । (थलंसि ति) स्थलं नाम अटवी,तत्र (दुग्गंसि मंभिक्खायरियं णो कप्पति पासस्स वा हथिस्स वा महि. त्ति) दुर्गशब्देन ग्रहणं, निम्नं गाऽऽदिकं विषमं निम्नोसतं, पर्वतः प्रसिद्धः , पर्वतदुर्गः पर्वतनिकटगहनं नितम्बा वा, सस्स वा कोलसुणगस्स दुट्ठस्त आपदमाणस्स पदमवि प.| गर्ता खड़ा, दरी गुहा, पर्वतकन्दरेति यावत् । तत्र कल्पते बोसकित्तए भदुद्रुस्स भावदमाणस्स कप्पति जुगमित्तं प. तां रजनीम्-( उवातिणावित्तपति) तत्रैवातिक्रमितुं, परं चोसकित्तए। मासियं भिक्खुपडिमं पडिवनं भिक्खारियंणो (ना) नव (स) तस्य (नो) नैव (ले) तस्य प्रतिमावतः साधोः, कल्पते पदमपिग कप्पति छायातो सीयं ति नो उएहं एत्तए उपहातो उएह तुं, ततः अग्रे इत्यध्याहारस, अपिग्रहणात् अर्द्धपदमपि । (क पति सेति) तस्य (कल्लं पाउप्पभायाए ति ) श्वः ति नो छायं एत्तए, जत्थ जयासि वा तं तत्थ अधियासए। प्रादुः प्राकाश्ये सतः प्रकाशप्रभातायां रजन्यां यावत्करएवं खलु एसा मासिया भिक्खुपडिमा, अधासुतं अधाकप्पं णात् "फुल्लुप्पल कमलकोमल" इत्याविपदकदम्बकं संग्रहा. अधामग्गं अधातचं अधासमं कारण फासिता पालिता त् द्रष्टव्यम् । तत्र फुल्लोत्पलकमलकोमलोन्मीलिते. फुलं विक. . साहिता तीरिता पूरिता किट्टिवा भाराधिता प्राणाए भ. सितं, तच्च तदुत्पलं. च फुल्लोत्पलं, तब कमलव हरिणवि. गुपालेता भवति । शेषः, फुल्लोत्पल कमली, तयोः कोमलकठोरमुन्मीलितदलानां नयनयोचोन्मीलनं यस्मिस्तत्तथा तस्मिन् , अथेति रजनीवि. (तस्थ णं ति) तत्र मागे बसत्यादौ वा कश्चिद्वधार्थ वध. भातानन्तरं पाराहुरे प्रभाते रक्ताशोकप्रकाशन किंसुकमु. निमितं (गहाय त्ति) गृहीत्वा,खङ्गाऽऽदिकमिति शेषः। श्राग. कछत् (अवलंबित्सए बा) अवलम्बचितम् आकर्षयितुं . प्रत्य. खस्य गुजार्द्धस्य रागेण सदृशयोःस तथा तस्मिन् , तथा क. वलम्बयितुं पुनः पुनरवलम्बयितुं, यर्याम् ईर्यामनतिक्रम्य मलाकरा हृदाऽऽयस्तेषु स्वण्डानि नलिनीखण्डानि तेषां वो. धको यःस कमलाकरखण्डबोधकस्तस्मिन् , उत्थिते अभ्युदगणेत्, पतायता छिद्यमानोऽपि यं नातिशीघ्रं प्रयायादिति । ते,कस्मिन्नित्याह-सूरे । पुनः कथंभूते, इत्याह-(सहस्सर. ( पायंसि सि ) पावे,उपलक्षणत्वादुपधिहस्ताउदीवा,स्था। लणत्वादुपाधहस्ताऽऽदा वा.स्था स्सिम्मि दिग्णयरे सहस्ररश्मी दिनकरे,तेजसा ज्वलति देदी. णु म ठुण्ठ उच्यते, कण्टका प्रतीता.हीरको नाम सकोणः, प्यमाने (पायीणेत्यादि प्राची नाम पूर्वा,तदभिमुखस्य,प्रतीचि कर्करिकाविशेषः, शर्करा पा न प्रषिशेयुः (नीहरिनए त्ति)। नाम पश्चिमा तस्यां पश्चिमायामित्यर्थः,निद्रायितुं शयनं कर्तु, निष्कासयितुं विशोधयितुं शेषावयवाऽयपने तुं शेषं प्राग्वत् ।। प्रचला, निद्रा, ता कर्तुम् , उलयितुं वा यतःकेवली यात्, (मच्छिसि बसि) अणोर्नेत्रयोः ( पाणाणिव सि) केवल्येव तदोषान् पातुं वक्तं वा,समर्थः, पादानं दोषाणाम् । प्राणा लघुतरका मशकाऽऽदयः, नपुंसकत्वं प्राकृतत्वात् । अथवा कर्मबन्धहेतुत्वावादानमेतत्कर्मोपादानमेतदिति । कर्थ बीजानि तिलादीनि रजःसूक्ष्मं धूलीरूपम् । (परियावज्जेज | कोपादानमिति दर्शयति-स प्रतिमाधारकः साधुस्तत्र नि. ति) पर्यापतेत् लगेस् , तथापीत्यध्याहार्यम् ( णो सिसि) द्रां कुर्वाणः प्रचलायमानो वा हस्ताभ्यां भूमि परामृशेत् त. प्राग्वत्, (नीहरिसए सिनिष्कासयितुमुख,विशोधयितंज- हि किं कुर्य दित्याह-(प्रधाविधिमिति) यथाविधिमेव स्थान लादिधापनेनापनेतुं,शेष प्राग्वत्। (जस्थेवरिपति)यत्रैव विधिमनतिक्रम्य यथाविधि, निष्क्रमितुम् उच्चारप्रसवणा Page #1598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खुपरिमा अभिधानराजेन्द्रः। भिक्खुपरिमा भ्यामुताम्यते कदाचित्तथा ( से ) तस्य यस तत्रा- द्वकार्य चेव जाब दो दचीमो, तिमासियं तिमि दचीमो, पग्रहीतुं परिष्ठापयितुंग प्रस्रवणादिकं, किंतु कल्पते चउमासियं चत्वारि दत्तीभो. पंचमासियं पंच दत्तीभो, (से) तस्य पूर्वानुमाते पूर्वप्रतिलिखिते स्थगिडले उब्बारं प्रवणं या परिष्ठापयितुं, रजः स्वेदतथा जलतया मरलतया छम्मासियं छ दत्तीमो, जति मासिया तति दत्तीयो । पढमा पकूतया (बिखत्थे ति) विश्वस्तो विनाशं प्राप्तोऽपि परिणतो. सत्तरातिदियाणि भिक्खुपडिमं पमिवयस्स अणगारस्स उचितीजात इति यावत् , तदा (से) तस्य कल्पते गृहपति निचं वोसट्टकाए जाव अघियासति, कप्पति से चउत्थेणं कुलं भकाय वा पानाय या निमितुं प्रवेशयितुमिति । तत्र स्वेदो नाम प्रस्वेदः,जझोनाम मला कठिनीभूतः, मशाहस्ता भत्तेणं अपाणएणं बहिया गामसि वा जाव राजहाणीए वा ऽऽविधर्षितः स एव मलो यदा स्वेदेनाऽऽद्रो भवति तदा पत्र उत्ताणगस्स वा पासेल्लगस्स वानेसञ्जियस्स वा ठाणं ठाइत्तइत्युच्यते इति । (सीओदगवियडेणं ति) शीतं च तदुदकं प, तत्थ ण दिव्वमाणुस्सतिरिक्खजोणिया उवसग्गा उप्प. च शीतोदकं तदेव विकटं विगतजीवमेवमुष्णोदकविकटं, ज्जेजा, ते णं उबस्सगा पयलिज वा पवजिज वा, णो से वाशब्दो विकल्पसूचकः । हत्थाणि च ति) हस्ती च, बहुस्वं नपुसंकत्वं च प्राकृतत्वात् , एवं पादौ, दम्ताः, अक्षि कप्पति पयलित्तए वा, पवत्तिए वा. तत्थ से उच्चारणी, मुख वा उच्छोलनया प्रयतमया धावयितुं प्रकर्षेण यत. पासवणं भोघाविजा,णो से कप्पति उच्चारपासवणं नयाऽपि धावयितुंमधावयितुंनाऽन्यत्र पक्ष्यमाणादन्यवेत्यर्थः। भोगिरिहत्तए वा , कप्पति से पुवपडिलेाहियसि पंडि"लेषालेवेखवा" लेपस्य उदकेन पात्राविधावनरूपस्य भासमा लसि उच्चारपासवणं परिदृविनर , अधावि धम्मेजवाणं न्तात् लेपन भाईतालक्षणेन शरीरे षाशुच्यादिपेन। अथवा शकुनकाऽऽदिना मुखनचा नयनेन वा(१)हस्ताऽऽदिस्पर्श कृते ठाइत्तए, एवं खलु पढपा सत्तराईदिया भिक्खुपडिमा हस्ताऽऽदिव्याघाते, पतस्मादन्यत्र तथाविधकारण मन्तरान महासुतं. जाव प्राणाए अणुपालिचा भवति । एवं धापये)दाहारादिकम्(मासस्सेत्यादि)सुबोधं.दुष्टस्याss. दोचा सत्तरातिदिया वि, नवरं दंडातियस्स वा लगडपतत पागच्छतोवधाऽऽद्यर्थ न कल्पते पदमपि प्रत्यवसर्पितु. म, अपिग्रहणादलपदीप, इति अदुष्टस्याश्वाऽऽदेः स्वभावत साइयरस वा उक्कुत्यस्स वा ठाणं ठाइत्तए, सेसं तं चेव पयागच्छतः कल्पते युगमा प्रत्युपसपितुं.माध्यमुन्मार्गों जाव प्रणुपालिता भवति । एवं तच्चा सत्तरातिदिया गस्या हरिताऽदिमर्दनं करिष्यतीति कृत्वा स्वयमेव प्रत्ययस. वि भवति,नवरं गोदोहियाए वा वीरासणियस्स वा अंबखु. पते । (छायातो सिछायातःशीतकाले शीतमिति कृत्वा,उष्णे अस्स वा ठाणं ठाइत्तए, सेसं तं चेव. जाव अणुपालित्ता शीतपे स्थाने गन्तुम् भागन्तुम् , एवमुष्णकाले उष्णमिति कृ. भवति, एवं अहोरातिया वि, वरं छटेण भत्तेगा अपाणवाशीतमिति । यद्येवं न करोति तदाकिं कुर्यादित्याह'जंजस्थ' इत्यादि। यद्यत्र यदा शीतादितत्ततःशीतादिकं तत्र त. एणं पहिया गामस्स वा. जाव रायहाणिस्स वा इसिं दो स्मिय स्थाने तदा तस्मिनव शीताऽऽधवसरे अभ्यासते।ए. वि पाए साह वग्धारियपाणिस्स ठाणं ठावित्तए, सेसं तं वमित्यादि पवमनन्तरोक्लप्रकारेण, खुरवधारणे, सा एषाऽन्त. चेव.जाव अणुपालिता यावि भवति । एगरातियं णं भिरोक्तामासिकी भितुप्रतिमा।(महासुतं ति) सामान्य सूत्रानतिक्रमेण (महाकप्पं ति)प्रतिमाकल्पानतिक्रमेण तस्कल्पष क्खुपटिम पडिवनस्स अणगाररस निच्चं वोसट्टकाएवं स्वनतिक्रमेणवा (महामगं ति) बानाऽऽविमोक्षमार्गानतिक जाव अधियामेति, कप्पति से अट्टमेणं भत्तेणं अप्पाणमेण क्षयोपशमकभावानतिक्रमेण वा (अहात ति) यथातवं एणं बहिया गामस्स वा • जाव रायहाणी ईसिपम्भारतस्वानतिक्रमेण मासिकी मिथुप्रतिमेति शब्दार्थानतिलाने- गतेणं कारणं एगपोग्गलहिताए दिट्ठीए भणिमिसनयणे नेत्यर्थः। ( जहासम्म ति) यथासमं समभावानतिक्रमण महापणिहितहि गातेहि सविहिएहिं गुत्ते दो विपाए (कापणं फासियत्ति) कायेन शरीरेण न पुनमनोरथमात्रेण साहड वग्धारियपाणिस्स ठाणं ठाइसए. जाव भस्पृष्ट उचितकाले विधिना ग्रहणात् , (पास्त्रिय ति) पालितः, असदुपयोगेन प्रतिजागरणात् (सोहिया इति) पारणकदिने धाविधिमेव ठाइतु एगरातियं सं भिक्खुपडिमं अणुगुर्यादिवत्सशेषभोजनकरणात, शोधिता पा प्रतीचारपक्षा. पालेमाणस्स प्रणगारस्स इमे तो ठाणा महियाए असुलनात् (तीरिय इति) तीरिता पूर्णेऽपि तवधौ स्तोकका- हाए अक्खमाए अणिस्सेसाए प्रणाणुगामियचाए भवंति, लाषस्थानात् (पूरिय त्ति ) सम्पूर्णेऽपि तववधातत् कृत्यप. उम्मायं वा लभिजादीहकालियं वा रोगाय पाउणेजा, रिमाणपूरणात् (किट्टिय त्ति)कीर्तिता पारणकदिने दंपदिने कृत्यं तव मया कृतमित्येवं कीर्तनात् (अणुपालेत्तत्ति) तत्स. केवीलपमत्तामो धम्मातो भसिजा, एगरातिदियं णं भिमाप्ती तपनुमोदनात् । किमुक्नं भवतीत्याहाक्षया पाराधि- क्खुपडिमं सम्म अणुपालेमाणस भणगारस्स इमे तभो ताप्राशया अनुपालिता भवति । इत्युकं प्रथमप्रतिमाखरूपम्। ठाणा हिताए.जाव प्राणुगामियत्ताए भवति। तं जहा-मो. साम्प्रतं क्रमप्राप्तं द्वितीयाऽऽविप्रतिमास्वरूपमुच्यते- । हिनाणे वा से समुप्पोमा,मणपञ्जवनाणे वा से समुप्पजे. दोपासियं भिक्खुपडिमं पहिवनस्सानगारम्स निच्चं बोस. जा,केवलनाणे वा से असमुप्पमपुव्वे समुप्पजेजा,एवं ख Page #1599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिक्खपडिमा अभिधानराजेन्द्रः। भिक्खुपडिमा लु एसा एगराइया भिक्खपडिमा अहासुत्तं अहाकप्पं दव्याख्या प्रग्वात् । अवधिज्ञानं वा [ से ] तस्य समुत्पद्यने एवं मन:पर्याय केवले अपि, शेष व्यक्तम् । दश० ७ १०। अहापग्गं अहातचं अहासमं कारणं फासिता सोहिता ती. "चउभत्तेहिं जाउं, छटेहि अट्टमेहि दसमेहि । रिता किट्टिता आराहिता आणाए अणुपालिता यावि भ बारस चौइसमेहि य, धीरा वि इमं तुलितप्पं ॥१॥ वति,एताप्रो खलु तातो थेरेहिं भगवंतेहिं बारस भिक्खु- एक्ककं ताव तवं, करेइ जह तेण कीरमाणेणं । पडिमाओ पमनायो। हाणी न होई जड्या, वि होइ छम्मामुवस्सग्गे ॥२॥" (दोमासियमित्यादि) शेषं प्राग्वत्, नवरं द्वे दत्ती भोजनः | सवतुलना तु पञ्चभिः प्रतिमाभिर्भवति, कायोत्सर्गरित्यर्थः। ताश्चैवमस्य, द्वे पानकस्य, .एवमकैकदत्तिवृद्धद्या यावत्सप्तमासिकी सप्तभोजनपानरूपा प्रत्येकम ( पढमा सत्तराईदिय त्ति ) पढमा उवस्सयम्मी. बीया बाहिं तस्य चउक्कम्मि । प्रथमा सप्तरात्रिन्दिवानि अहोरात्राणि यस्यां सा सप्तरात्रि सुमहरम्मि च उत्थी, तह पंचमिया मसाणम्मि ॥१॥ दिवा, शेषं पूर्ववत् । ( से चउत्थणं भत्तणमित्यादि ) चतुर्थ. पासु थावं थोवं; पुधपत्र जिणे सो निहं । भक्नेन अपानकेन पानीयपरिवर्जनेन बहिः प्रामस्येत्यादि, या. मूसगफासाइतहा, भयं च सद्दसुम्भवं अजियं ॥२॥" वक्तरणान्नगराऽऽदिपदकदम्बकपरिग्रहः । (उत्ताणयस्ल त्ति) सूत्रतुलना तु यत्सूत्राण्यतिपरिचितानि करोति। उकंचउत्तानिकस्योत्तानशायिनः (पासल्लयस्स ) पार्श्वशायिनः , "अह सत्तभावणं सो, एगम्गमणो प्रणाउलो भयवं । (सजियस्स त्ति) विष्ठाविकलस्य स्थान स्थातुं (तत्थे. कालपरिमाणदेउं, सम्वत्थं सवहा कुणा ॥१॥ त्यादि ) प्राग्वत् (ते णं ति) ते णमितिवाक्यालङ्कारे (पया. मेहारच्छन्नेसुं. उभो कालमहब उवसग्गे। लेज ति)प्रचलेयुः,स्थानात् प्रपतेयुरधः पातनेन एवं पूर्ववत्, पेहाइ भिक्खपंथे, जाणइ कालं विणा छायं ॥२॥ याबदाराधिता भवति एवं द्वितीया सप्तराविन्दिवा, नवरं ष. एकस्वतुलना खेवमठन तपसापानकेन दण्डायति कस्य लगण्डशायिन उक्टुः । "एगत्तभावणं तह, गुरुमाइसु दिट्ठिमाइपरिहारा । कस्य संस्थातुं,शेषं तथैव । एवं तृतीयाऽपि नवरमष्टमेन तपसा भावह छिराण ममत्तो, तत्तं हिययाम्मि काऊणं ।१॥ पानकेन गोदोहिकाऽऽसनिकस्य वीराऽऽसनिकस्य मान्नकु. एगो पाया संजो-गियं तु सेसं हमस्स पाएणं । म्जस्य स्थान स्थातुम् , एवमहोरात्रिन्दिवाऽपि भवति,नवरंप. दुक्खनिमित्तं सवं, दिओ य मज्झन्थभावो सो॥२॥" छैन भक्तेन, अपानकेन(इसिमिति)ईषत् द्वावपि पादौ साह बलतुलना तु द्विविधा-शरीरमानसबलभेदात् । तत्र तिसंहत्य संहृतौ कृत्वा, जिनमुद्रयेत्यर्थः (बग्घारितपाणिस्स शारीरबलं कायोत्सर्गकरणसामर्थ्य, मानसवलं तु धृ. ति)प्रलम्बितभुजस्य स्थान कायोत्सर्गलक्षणं स्थातुम (एगरा. तिरिति । आह च-" इह एगत्तसमेत्रो , सारीरं मानसंच इयं ति एकरात्रिकी भिनुप्रतिमामित्यादि.शेष कराव्यम् (इसि | दुवि पि । भावइ बल महप्पा , उस्सग्गठिइसरूवं तु पब्भारगएणं कापणं ति)ईपप्राग्भारः अग्रतो मुखमबनतत्व ॥१॥" इदं चाभ्यामाद्भवति । आह -" एमेव य म (एगपोग्गलेत्यादि) एक एव पुद्गल एक पुगलस्तत्र स्थिता देहबलं, अभिक्खासेवणाएँ त होइ। लंखगमल्ल उवमा श्रा. रष्टियस्यासाधकपुद्गलस्थितदृष्टिः, तस्यैकपुद्गलस्थितदृष्टेः (अ. साकिसोरे व जोगविए ॥१॥” इति । कथं भावितात्मे हापणिहितेहिं गातेहिं ति ) यथाप्रणिहितैयथास्थितैर्गात्रैः स. त्याह-सम्यग्यथाऽऽगमम् , अनुज्ञात इत्येतस्य चेदं विशेष. बेन्द्रियगुप्तः, शेष कराठ्यम् । (अणुपालेमाणस्स त्ति) अनुपा. णम् । तथा गुरुणाऽऽचार्यण, अनुशातीऽनुमतः,अथ गुरुरेव लयतः अनगारस्याऽगाररहितस्य इमानि त्रीणि स्थानानि . प्रतिपत्ता तदा व्यवस्थापिताऽऽचार्येण गच्छेन वेति ॥४॥ पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् । (अदियाए त्ति) अहिताय , भावप्रधा. गच्छे रिचय णिम्माओ, जा पुब्बा दस भवे असंपूप्मा । नोऽयं निर्देशः,अहितत्वाय परिणामासुन्दरताय,असुखायाश- णवमस्स तइयवत्थू , होइ जहम्मो सुयाहिगमो ॥ ५ ॥ मणे, अक्षमाय भावप्रधानो निर्देशः असङ्गतत्वाय अनिः-श्रे- गच्छ एव साधुसमुदायमध्य एव तिष्ठन् , निर्मातः प्रति. यसाय अनिश्चितकल्याणाय , अनानुगामिकतायै परम्परा. माकल्पपरिकर्मणि आहाराऽऽदिविषये परिनिष्ठितः। श्रा. शुभानुबन्धासुखाय भवन्ति । तद्यथा-उन्मादं वाऽनुयात् । इच-"पडिमाकप्पियतुल्ला , गच्छे चिचय कुणइ दुबिह माहारविषयाऽऽद्यभिल्लापातिरेकतस्तथाविधचित्तविप्लवसं परिकम्मं । आहारोवहिमाइसु , तहेव पड़िवजए कां भवात् . वाशब्दाः अपरापरमेदसूचकाः। (दीहकालियं ति) ॥१॥" श्राहाराऽऽदिप्रतिकर्म दर्शयिष्यते । परिकर्मपरिमाणं दीर्घकालिकं स्यात् सामर्थात् अन्यथा ब्रह्मणा मनसैव प्रज- | चैवम्-मासामाद्यासु सप्तसु या यावत्परिमाणा तस्यास्तत्प्र. नने निषेकाऽऽदिकमपि कल्पेत स्मृतिरपि केवलेन हि गायों माणमेव प्रतिकर्म । तथा-वासु नेताः प्रतिपद्यते । न च प्र. गावः खगा मृगाः,अन्ये वा दीर्घकालं प्रभूतकालभावि रोगश्च तिकर्म करोति । तथा-श्राद्यद्वयमेकत्रैव वर्षे, तृतीयचतुथ्यों दाहज्वराऽऽदिः श्रातश्चाशुधातिशूलाऽऽदिरोगान्तः भव। चैककस्मिन् वर्षे, अन्यासां-तु तिसृणामन्यत्र वर्षे प्रस्यात् संभवति हि अतिबाधया अशनाऽऽदिरूपया श्राहार- तिकर्म, अन्यत्र च प्रतिपत्तिः । तदेवं नभिर्वराद्या: सप्त विषयाऽऽद्यभिलापाऽतिरेकतो रोचकत्वं ततश्च ज्वराऽऽदी. समाप्यन्ते इति । अथ तस्य कियान् श्रुताधिगमो भवतीति केवलि प्रज्ञप्ताद्वा धर्मात् श्रुतचारित्ररूपात्समास्तात् भ्रस्ये स्याह-यावत्पूर्वाणि दशेति प्रतिम् । अम्पूर्णानि किश्चि. दधः प्रतिपतेत् . कस्यचिनिति निकृष्टकर्मोदयात्सर्वथा धर्म- दूनानि । संपूर्ण दशपूर्वधरो हि अमोधवचनत्वाद्धर्मदेशनया परित्यागसंभवादिति ! एवं वीणि स्थानानि हितायेत्यादि प. भव्योपकारित्वेन तीर्थवृद्धिकारित्वात् प्रतिमाऽऽदिकल्प न Jain Education Interational Page #1600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५७७) भिक्खुपडिमा अभिधानराजेन्द्रः। भिक्खुपडिमा प्रतिपद्यते, भवेत्स्यात् धुताधिगम इति योगः। उत्कृष्टश्चार्य, खस्मारणकल्पा । अथवा-स्वाध्यायसारणा स्थाध्यायनिर्वाजघन्यस्य वक्ष्यमाणत्वात् । अथ जघन्यमेवाऽऽह-नवमस्य । हणत्येकमेव । चैवेति समुरुचये। तथा वैयावृत्यं व्यावृत्तभावपूर्वस्य प्रत्याख्याननामधेयस्य, तृतीयवस्तु प्राचाराऽऽख्यं, स्तत्कर्म वा भक्कादिभिरुपष्टम्भनं तीर्थकरस्वाऽऽदि सत्फसद्भागविशेष यावदिति वर्तते । भवति स्यात् , जघन्योऽल्पी. लनिमित्तविशिष्टपुर यमहातरुनिरुपहतबीजकल्पम् । तथा गु. यान , श्रुताधिगमः श्रुतक्षानं, सूत्र तोऽर्थतश्च, एवच्छ्तविक- णवृद्धिः स्वगतज्ञानाऽऽदिगुणवर्द्धनमनुपमानन्दरसदान दक्षे. लो हि निरतिशयमानस्वाक्कालाऽऽदि न जानातीति ॥ ५ ॥ यष्टिपुष्टिप्रायम् । तथा चेति समुच्चये। निष्पत्तिः सहुण. स्वेन शिष्यसीसद्धिःफलसन्तानसाधनसमर्थधाम्यनिष्पत्तितु. वोसहचत्तदेहो, उवसम्गसहो जद्देव जिणकप्पी। ल्यः । ततः सन्तानः शिष्यप्रशिप्याऽऽदिशःसंसारगर्तगता. एसण अभिग्गहीया, भत्तं च अलेवढं तस्स ॥ ६॥ निवर्गस्य निर्गमनसोपानपरम्परारूपः । न चैते गुणा गच्छव्युत्सृष्टः परिकर्माभावेन, त्यतो ममत्वत्यांगन, देहः कायो निर्गम इति ॥ २२॥ येन स तथा। यतः दत्तेगाइगहोवि हु, तह सज्मायावभाव ओ ण सुहो। "अम्मा देहाउ अई. नाणत्तं जस्स एवमुबलद्धं । सो किचि आहिरिकं, न कुणइ देहस्स भङ्गे वि ॥१॥" अंताइणो विपीडा, ण धम्मकायस्स सुसिलिटुं॥२३॥ 'आहिरिकं ति' प्रतीकारम् । उपसर्गसहो दिव्याऽऽद्युपद्रव (दत्तेगाइ त्ति ) प्राकृते पूर्वापरनिपातोऽतन्त्रमिति कृत्वा एसोढा। यथैव यदेव । जिनकल्पी जिनकल्पिकः, तद्व. काऽऽदिदत्तिग्रहोऽपि पकनादिभिक्षाविशेषग्रहणमपि उक्त. दुपसर्गसह इत्यर्थः । (पश्चा०१८ विव० । ) भक्तं चानं न्यायेनाभिग्रहं रूपम् । न शुभ इति योगः | अपिः समुचये । पुनः, अलेपकृतमलेपकारकं बल्लवणकाऽऽदि, तस्य प्रतिमा- हुर्वाक्यालङ्कारे। कुत इत्याह-तथा स्वाध्यायाऽऽद्यभावतस्त. प्रतिपत्तुकामस्य परिकर्म कुर्वतः , चशब्दादुपधिश्व अस्य थाप्रकारस्य निरन्तरस्य स्वाध्यायध्यानादेरसद्भावात् । स्वकीय पणाद्वयलब्ध एव, तदभावे यथाकृतोऽप्युचित- स्वाध्यायाऽऽदयश्च निराबाधा गच्छावास एव अनेकदष्यादि प्राप्तिं यावत् स्यात्, जाते तूचिते तं व्युत्सृजति । उक्तं च- ग्रहणेन सावष्टम्भकायतया सम्यग्भवन्तीति हृदयम् नि शुभा "उवगरणं सुद्धेसण-माण जुयं जमुचियं सकप्पस्स। न श्रेयान् , तथाऽन्ते भवमन्स्यं जघन्यं वल्लवणकाऽदि, तदत्तुं तं गिराहा तयभावे, अहागडं जाव उचियं तु ॥१॥ भोक्तं शीलमस्येत्यन्त्यादी तस्यान्स्यादिनोऽपि सतःप्रतिमास्थ. जोए उचिए य तयं, वोसिरह अहागडं विहागण ।। स्य , पीडा बाधा धर्मकायस्य धर्मसाधनशरीरस्य, भवतीइय आणाविरयस्सिह, विमेयं तं पि तण सम॥ २॥" ति शेषः। धर्मकायपीडाभवनं भवनं न च नैव , सुश्लिए कल्पोचितं चोपधिमुत्पादयति स्वकीयनैषणाद्वयेन । एत सङ्गतं, वर्जनीयत्वात् । यदाह-" भावियजिण वयणाणं, चिषणाचतुएयेऽन्तिममेषणाचतुष्टयं पुनरिदं कार्पासिकाऽऽद्यु ममत्तरहियाण णस्थि उ विसेसो । अप्पाणम्मि परम्मि य, हिष्टमेव पत्रं ग्रहीयामि, प्रेक्षितमेव, परिभुक्तप्रायमेवोत्तरी तो बजे पीउ मुभो वि॥१॥" इति ॥ २३ ॥ याऽऽदि, तदप्युज्झितधर्मकमेव । इति गाथात्रयार्थः । पञ्चा० ततश्च१८ विव०। एवं पडिमाकप्पो, चिंतितो उनिउणदिट्टीए। इहैव प्रतिमाकल्पे परमतमुपदर्शयन् गाथाचतुष्टयमाह अंतरभावविहूणो, कह होइ विसिद्वगुणदेऊ? ॥ २४ ॥ आह ण पडिमांकप्पे, सम्म गुरुलाघवाइचिंत त्ति । एवमुक्तस्यायेन , प्रतिमाकल्पोऽनन्तरोक्तः, चिन्त्यमानो गच्छाउ विणिक्खमणा-इण खलु उवगारगं जेणा२१| विचार्यमाणः, तुशब्दोऽवधारणे भिन्नक्रमश्च, निपुण दृष्टया पाह-बूते परः । किं तदित्याह-(न ) नैव । प्रतिमाकल्पे तु सूक्ष्मवुद्धथैव , बान्तरभावविहीनः परमार्थवियुक्त एव , प्रागुतरूपे सम्यग्यथावत् , गुरुलाघवाऽऽदिचिन्ता " गच्छ- कथन कथचिदित्यर्थः । भवति स्यात् , विशिष्टगुणहेतु: वासो गुरुः, स्वपरोपकारहेतुत्वात् , निर्गमस्तु लघुः, स्वोप- पारमार्थिकोपकारनिमित्तम् । प्रयोगश्चात्र-यदान्तरभाववि. कारमात्रहेतुत्वात्" इत्यादि विचारः । श्रादिशब्दात्तपः युक्तं तद्विशिष्टगुण देतुर्न भवति, यथा पश्चाग्नितपःप्रभृति , प्रभृत्युभयत्राऽपि तुल्यमित्येतद्गृहः, अस्तीति गम्यते । इतिः अान्तरभाववियुक्तश्वायम्। इति गाथाचतुष्कार्थः ॥ २४ ॥ प्रतिज्ञार्थसमाप्तौ। अत्रोपपत्तिमाह-गच्छात्साधुसमूहात्, अत्रोत्तरमाहविनिष्क्रमणाऽऽदिनिर्गमप्रभृति , अादिशब्दाद्धर्मानुपदेश- भाइ विसेसविसओ, एसोण उ ओहो मणेयन्यो । नाऽऽदिग्रहः, न खलु नैव , उपकारकं गुणावहम् , येन दसपुवधराईणं, जम्हा एयस्स पडिसेहो ।। २५ ।। यस्माद्धतारिति ॥ २१ ॥ भण्यते अभिधीयते, समाधिः विशेषविषयः पुरुषविशेषगो. __ कंध नोपकारकमित्याह चरः, एष प्रतिमाकल्पः, न तु न पुनः, , प्रोषतः सामान्यतः तत्थ गुरुपारतंतं, विणओ सज्झाय सारणा चेव ।। (मुणयब्यो त्ति) शातव्यः । कुत एतदेवमित्याह-दशपूर्वधवेयावच्चं गुणवु-डि तह य णिप्पत्ति संताणो ॥ २२ ॥ राऽदीनां दशैकादशाऽऽदिपूर्वधराणाम , यस्माद्यतः, पतस्य तत्र गच्छे. गुरुपारतम्य माचार्याऽऽयत्तत्ता निखिलानर्थनि. प्रतिमाकल्पस्य , प्रतिषेधोऽस्ति । तनिषेधश्व-" गच्छे चिबन्धनस्वरताप्रतिपन्थिनी , विनयस्त दुचितविषये विनी- य निम्माश्रो, जा पुव्वा दस भवे असंपुरमा" इति पचनात् । तस्वं मानगिरि-कुलकुलिशकरूपम् । तथा स्वाध्यायो वाचना. दशपूर्वधराऽऽदयो हिगच्छ एव वसन्तः उपकारकारकाः, दिपश्चप्रकारो मतिनयननिर्मलताअनोपमानः , स्मारणा | अतः प्रतिमाकल्पे गुरुलाघवाऽऽविचिन्ता नास्तीत्ययुक्तम् । विस्मृतार्थाऽनुस्मारणं,विस्मृतशत्रशत्रुप्रारब्धपुरुषामोघश- इति गाथाऽर्थः ॥ २५॥ ३६५ Page #1601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५७८) भिक्खुपडिमा अभिधानराजेन्द्रः। भिक्खुपडिमा पतदेव स्पष्टयनाह इय कम्मवाहिकिरियं, पव्यजं भावो पबमस्स । पत्धुयरोगचिगिच्छा-वत्थंतरतबिसेससमतुलो।। सइ कुणमाणस्स तहा, एयमवत्यंतरं यं ।। २8 ।। तह गुरुलाघवचिंता-सहिओ तक्कालवेक्खाए ॥ २६ ॥ । इत्येवं लूठाऽऽदिक्रियावत् . कर्मव्याधिक्रियां कर्मरोगचिकिप्रस्तुताऽधिकृता या रोगचिकित्सा व्याधिप्रतिक्रिया, तस्यां स, कामित्याह-प्रवज्यां दीक्षां लूताऽऽदिक्रियाकल्पाम्, भाव. यदवस्थान्तरं रोगिणो रोगान्तरकृतः कष्टतरपर्यायविशेषः, तो भावेन, प्रपन्नस्याभ्युपगतवतः, सकृत् सदा , कुर्वाणस्य तत्र यस्तद्विशेषश्चिकित्सान्तरं, तेन समतुल्योऽत्यन्तस- तामेव विदधतः, तथेति समुच्चये, तेन वा प्रकारेण स्थ. शो यः प्रस्तुतरोगचिकित्सावस्थान्तरतद्विशेषसमतुल्या, विरकल्पोचितत्वलक्षणेन. एतदिदम् , अवस्थाम्तरं पर्याया. अथवा-तुल्यशब्दपर्यायो वा समतुल्यशब्दोऽस्ति , यथा तरं मन्त्रापमार्जनाऽऽदिकल्पस्थावरकल्पासाध्यमहिदष्टाऽs. "समतुल्यं पराक्रमैः।" इति । अथवा-प्रस्तुतरोगचिकित्साया दिकल्पं तीव्रतरकर्मविपाकरूपं छेददाहाऽऽदिचिकित्सावि. यवस्थातरमधिकृतरोगस्येषच्छमरूपं,तत्र यस्तद्विशेषो रो. शेषतुल्यप्रतिमाकल्पस्यैव साध्यम् , शेयं ज्ञातव्यम् । इति गान्तरं यस्यः सा, तस्य यः शमः शमनोपायश्चिकित्सेत्यर्थः। गाथाऽर्थः ॥ २६॥ तत्तुल्यो यः स तथा । प्रतिमाकरूप इति प्रकृतम् । तथा पुनरपि गुरुलाघवचिन्तासहितत्वमस्य दर्शयन्नाहतेन कारण उक्तदृष्टान्तसाधर्म्यरूपेण, गुरुलाघवचिन्ता सा. तह सुत्तबुडिभावे, गच्छे सुत्थम्मि दिक्खभावे य । रेतराऽऽलोचनं, तया सहितो युक्तो यः स धा । कथमि. स्याह-तत्काला उपेक्षया प्रतिपयवसरमालम्ब्य , विहित पडिवजह एयं खलु, ण अमहा कप्पमवि एवं ॥ ३०॥ समस्तस्थविरकल्पकार्यस्य हि समाश्रयणीयतर एवं प्रति तथेति युक्त्यन्तरसमुच्चये , सूत्रवृद्धिभावे सूत्रार्थवृद्धौ माकल्पोऽतस्तदा गुरुकोऽसौ, इतरस्त लघुः। श्रन्यदा तु सत्याम्, व ?, गच्छे साधुगणे बहुश्रुतसाध्वधिष्ठितस्थविरकल्प एव गुरुतर इति सुष्टूक्तं तत्कालापेक्षया गुरु त्वात् । अथवा-प्रकारप्रश्लेषात् सूत्रावृद्धिभाषे किञ्चिलाघवचिन्तासहित इति गाथाऽर्थः ॥ २६ ॥ दूनदशपूर्वाधिकतरश्रुतग्रहणशक्त्यभावे इत्यर्थः । तथा-ग. उक्तमेवार्थ स्पष्टयन्नाह च्छे साधुगणे, सुस्थे ऽनाबाधे सति बालवृद्धग्लानाऽऽद्यभागिवकरलूयाकिरिया-जयणाए हंदि जुत्तरूवाए। वात्तत्प्रतिचारकभावादच्छपालनोद्यताऽऽचार्याऽदिसद्भावा. उच, तथा दीदयस्य प्रवाज्यस्याभावी दीक्ष्याभावस्तन्न । अहिदट्ठाइसु छेया-इ वजयंतीह तह सेसं ॥ २७॥ चशब्दः समुच्चये । प्रतिपद्यतेऽभ्युपगच्छति , पतं प्रनृपकरे राजहस्ते लूतावातिको रोगविशेषो नृपकरलूता, तिमाकल्पम् , खलुरवधारणे, ततश्च न नैव , अन्यथोतस्या उपशमाय क्रिया चिकित्सा मन्त्रापमार्जनाऽदिका, क्लवस्तुत्रयाभावे . कल्पमप्युचितमपि । कथमित्याह-एवं तस्यां या यतना प्रयतः सा तथा तस्यां नृपकरलूताक्रिया. प्रागुक्तसंहननवृत्यादियोगेन । अथवा-कल्पमपि जिनकल्प यतनायाम् । हन्दीत्युपप्रदर्शने । किंविधायामित्याह-युक्त मपि. एवं पूर्वोक्लवस्तुत्रयसद्भावे प्रतिपद्यते, नान्यथेत्यर्थः । रुपायां सहतायां, प्रस्तुतायामिति शेषः । अहिदष्टाऽऽदिषु अतः कथमयं गुरुलाघवचिन्तारहितः । इति गाथाऽर्थः ॥३०॥ सर्पदशनप्रभृतिषु अधिकृतक्रियाया असाध्यषु सद्योघा विपर्यये दोषमाहतिषु सत्सु , आदिशब्दाद्विशूचिकाऽऽदिग्रह, नृपस्येति इहरा ण सुत्तगुरुया, तयभावे ण दसपुब्धिपडिसेहो । गम्यम् । छेदाऽऽदि भहिदंशप्रदेशे कर्तनदहनप्रभृति तज्ज्य. न्यानर्थनिवर्तनक्षम विचिकित्साविशेषम् , कुर्वन्तीति शेषः। एत्थं सुजुत्तिजुत्तो, गुरुलाघवचिंतवज्झम्मि ।। ३१॥ इतरथा गच्छस्य सूत्रवृद्धयभावे स्वस्य वा श्रुतवृद्धिवर्जयन्ति परिहरन्ति वैद्याः। इह सर्पदष्टाऽऽदौ । तथेति समु. सम्भवे सति प्रतिमाप्रतिपत्तावित्यर्थः । (न) नैव , चये, शेषां मन्त्रनमार्जनादिकां लूताक्रियामधिकृतामपीति सगरुता श्रुतगारवं कृतं स्यात् । अथवा-गौरव्यमेव गाथाऽर्थः॥२७॥ तदित्यत्राऽऽह-तदभावे श्रुतगौरव्यत्वावाभावे, (न) नैव, कुतस्तामधिकृतां वर्जयन्तीत्याह दशपूर्विप्रतिषेधो दशाऽऽदिपूर्वधरस्य प्रतिषेधो निषेधः । एवं चिय कल्लाणं, जायइ एयस्स इहरहा ण भवे ।। अत्र प्रतिमाकल्पे प्रतिपत्तव्ये , सुयुक्तियुक्तः सम्यायसव्वत्थावत्थोचिय-मिह कुसलं होइडणुद्वाणं ॥ २८ ॥ सततः । तस्य हि धुत निर्ग्रहणाऽऽदिसमर्थतया प्रवएवमेवाधिकृतक्रियावर्जनेनैव छेदाऽऽविक्रियाविशेषकरणे. चनोपकारित्वात्प्रतिमाकल्पप्रतिपत्तिनिषेधोऽस्तीति । किं. विधे तत्रेत्याह-गुरुलाघवचिन्ताबाह्ये परमतेन सारेतनैव च , कल्याणं श्रेय आरोग्यमित्यर्थः, जायते स्यात् , एत. तरविभागाऽऽलोचनविरहिते , ततोऽसौ न गुरुलाघवचि. स्य नृपस्य , छेदाऽऽधकरणे मन्त्रापमार्जनामात्रात् , न तारहितः । इति गाथाऽर्थः ॥ ३१ ॥ भवेन्न स्यात् कल्याणम् , अहिदष्टतया मरणप्राप्तेः। अथाअधिकतक्रियात पव कस्मात्कल्याणं न स्यादित्यत माह अप्पपरिचाएणं, बहुतरगुण साहणं जहिं होइ । सर्वत्र देशे काले पुरुषे वा, अवस्थोचितं भूमिकाऽनुरूप, सा गुरुलाघवचिंता, जम्हा णाअोववम त्ति ॥ ३२ ॥ बह लोके, कुशल कल्याणहेतुः, भवति स्यात् , अनु- अल्पपरित्यागेन स्वल्पतरगुणपरिहारेण, बहुतरगुणसाधष्ठानं कर्तव्यम् , अतः सर्पदष्टाऽऽदौ छेदाऽऽदिविधानमेव नमनपसरगुणनिष्पादनम् , यत्र चिन्तायाम् भवति स्यात्, कल्याणहेतुः । इति गाथाऽर्थः ॥ २८॥ सा चिन्ता, गुरुलाघवचिन्ता सारेतरपर्या लोचना, यस्माद्धे. अथ " अहिगयरोगचिगिच्छ” इत्यादिप्रथमव्याख्यानु. तोः, न्यायोपपन्ना नीतिसङ्गता, तस्मात्तत्सहितोऽयं कल्प सारेण वास्तिक योजनायाऽऽद्द इति प्रकृतम् । इतिशब्दः समाप्ती, इति गाथाऽर्थः ॥ ३२ ॥ Page #1602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५७६ ) अभिधानराजेन्द्रः । भिक्खुपडिमा सूत्रवृद्धिमावे एवायं कल्पः कृत्य इत्युक्रमथ गच्छे सुख पपेति दर्शयचाह " बेगावच्या करमंतरायं ति । तं पितु परिहरियणं सुदुम होउ एसो चि ॥३३॥ वैयावृत्योचितानां भक्ताऽऽयुपष्टम्भयेोग्यानां गच्छाऽऽश्रित बालग्लानाऽऽदीनाम्, अन्तराय इति योगः । कथं ?, करणनि बेधेन वैयावृत्यकरणसमर्थसाधूनां प्रतिमाकल्पप्रतिपत्तितो वैयावृत्यकरणप्रतिषेधेन प्रतिपादिवैवाश्वं न कुर्वन्ति, अन्तरायो वैयावृत्ययाघातः स्यात् । प्राकृतत्वाच्च नपुंसकनिर्देशइति बालादिस्पेन सुस्व एवासी विधेयः स्यादिति प्रकृतम् । श्रथ भवत्वन्तराय इति चेन्न यतः तं पिसि) सोऽपि वालाऽऽदिवैया वृध्यान्तरायः अपि दादम्योऽपि परिसंव्यः परिहरणीयः कुत एतदेवमित्या - अतिसूक्ष्मो ऽति निपुणो ऽतिसूक्ष्मदोष परिहारात् भवतु जायताम् एष प्रतिमाकल्प इति कृत्वा अतिसूक्ष्म एव मस्तरादोषो मनोदोषरहितत्वात् प्रतिमाप्रतिपन्तु इति गाथाऽर्थः ॥ ३३ ॥ ता ती किरियार, जोमयं उबगवास हो गच्छे हंदि उविक्खा या अहिगयरगुणे संतपि ॥ ३४ ॥ यस्मान् गच्गतम्बानाऽऽद्यन्तरायः परिहर्त्तव्यत्तस्मात् । तस्याः सूत्रदानार्थदानग्लानप्रतिचरणाऽऽदिकायाः क्रियाया तोरनुष्ठानस्य योग्यतां सम्पादनसमर्थताम् । 'गति' पहुचाः सप्तम्यर्थत्वादुपगतेषु गच्छसाधुषु सरो) ने साधुविषादीयु उपेक्षावधीरणा या ज्ञातय्या प्रतिमाप्रतिपसाधोः । अनुपेक्षक दासावित्यर्थः किं सर्वदेव, नेरवाद-अधि कतर प्रकरगुवे असत्यविद्यमाने साधना यदि दिवश सुखाये सम्मपति सति तं ) ग स्वासम्पाद्यप्रतिमा प्रतिपद्यते - स्वात्तरपरिहाराय कश्यप्रतिपती गुरुलाचिन्ता सहित एव कल्पः । इति गाथा ऽर्थः ॥ ३४ ॥ · अथ दीदीयाभाव एक प्रतिपद्यत इति दर्शयन्नाह 3 परमो दिक्रयारो, जम्दा कप्पोचियाय वि सिसेहो । सम्म उ भणिश्रो, पयडो च्चिय पुत्रसूरीहिं ॥ ३५ ॥ परमः प्रकृष्टः उपकारान्तरापेक्षया । दीक्षोपकारो भव्य सध्वस्य दीक्षादानेनानुप्रहो, निर्वाणसुखहेतुत्वात् तस्य तदन्यस्य पु. नरम्यथाभूतत्वादपि कस्मादेयमित्याह यस्माद्यतः कल्पो चितानामपि संहननश्रुताऽऽदिसंपदुपेतत्वेन प्रतिमाकल्पप्रतियोग्यानामपि, आस्तामितरेषाम् निषेधो निवारणा प्रतिमापपत्तेरिति गम्यते सति विद्यमाने एत स्मिन् दीपकारादपूरणे मणित उह प्रकट एव स्फुटएव तदभिधायकगाथायाः प्रकटत्वात् पूर्वसू रिभिःपूयेंद्रस्वाम्यादिभिःकित प्रतिपक्ष कल्पे. दीक्षा न दीयते, ततः कल्पप्रतिपत्यवसरे समुपस्थितस्य तां विमुच्याऽपि दीक्षा दीयते, कल्पप्रतिपत्तेः सकाशाद्दीक्षादानस्य गुरुतरस्यात् परमोपकारकं दिवदिवि नावेन । इति गाथार्थः ॥ ३५ ॥ 1 " 3 भिक्खुपडिमा कथं प्रकट इत्याह 1 3 अम्भुजियमेगपरं पडिवजिउकामो सो वि पवावे | गणिगुणलद्धि खलु, एमेन अलद्धिजुचो वि ।। ३६॥ अभ्युद्यतं प्रयतम् एकतरं द्वयोरन्यतरत् मरणं वा बिहारं वा तथाभ्युद्यतमरणं पादपोपगमनादिकम् अभ्युद्यतविद्वारा प्रतिमाकल्पजनकल्पाऽऽदिरिति प्रति पशुकामोऽभ्युपगन्तुमना यः साधुः सोऽप्यसावधि, आस्ता मितर प्रथाजयति दोदायति कल्याऽऽदिप्रतिपश्वपसरे दोपस्थित योग्यम् किंभूतः सचित्याह-गणिनो गुणा यस्य, स्वा च स्वकीया च लब्धिर्यस्य स गणिगुणस्वलब्धिकः यः प्रब्राजितुमुपग्रहीतुं शक्नोतीत्यर्थः । खलुर्वाक्यालङ्कारे, इतरस्य का वार्त्तेत्याद - एवमेवेत्थमेव प्रवाजयत्येवेत्यर्थः । अलब्धियुक्तोऽपि स्वकीयलाभविहीनोडापे लब्धिमदा चार्यनिश्रितो यः । इति गाथार्थः ॥ ३६ ॥ 3 तदेवं गुरुलाघवचिन्तासहितोऽसाविति समर्थितम् अथ चक्रर्मव्यचिकियां प्रतिपस्पायस्थान्तरक्तस्कुतः स्वादितितं चावत्थंतरमिह, जायइ तह संकिलिट्ठकम्पाओो । पशुवनिवादि दट्ठाइ जद्द वहा सम्ममवसेयं ॥ २७ ॥ ( तं चति ) यस्यावस्थान्तरस्य चिकित्सा विशेष तुल्यः उक्रस्तत्पुनरवस्थान्तरमवस्थाविशेषः साचोरित्रउपायामधिकृतायां जायते स्यात् तथेति तथाप्रकारात् प्र तिमाकल्पलक्षणविशिष्टक्रियात एव क्षपणीयस्वभावात् संक्रिएको मुनकर्मतः सकाशात् विदित्वादप्रस्तु पिताप्रामाथायां ततो यो नृपाऽऽदि नरपत्यमात्य प्रभृतिस्तस्य यद्दष्टाऽऽदि सर्पदंशामिदाप्रभृतितपादिदष्टाऽवि पाठारे प्रस्तुतस्य यद्दि दाssरि तत्तथा । यथा यद्वत् तथा तद्वत् सम्यग्यथावत् . अवसेयं देवम् इति गाथार्थः ॥ ३७ ॥ अथास्थान्तरस्य तनककर्मों या स्वरूपदर्श नद्वारे तस्यैव प्रतिमाकश्पक्षपणीयताम्राद्दहिगय सुंदरभाव - स्स विग्वजय गं (गम ) ति संकिलिट्ठे च । तह चैव तं खविज, एत्तो चिय गम्पए एवं ॥ ३८ ॥ अधिकृत सुन्दर भावस्य प्रस्तुतशोभनपरिणामस्य सामान्यप्रव्रज्यानुपालनस्येत्यर्थः । विघ्नजनकं व्याघातकारकम् . इतिशब्दों हेत्वर्थो भिन्नक्रमश्च, संक्लिष्टमशुभं सुन्दरभावण्याघातकस्यात् । श्रतिसंक्लिष्टमिति पाठान्तरम् । चशब्दः समुये इति कृत्वा तथैव प्रतिमाकल्पप्रतिपस्यैव तद्द्द्वयस्थान्तरं जनकं वा कर्म क्षप्यते निरायते प्रतिमापस्य महावीयशासत्वात् क्षपणीयत्याच्च सद्य स्येति । अथ कथमिदमवगम्यते यदुत प्रवज्यां परिपालयतोऽवस्थान्तरं भवति या किमस्ति तचप्रतिमाकल्पादेव क्षप्यत इत्यत श्राह - ( पत्तो थिय सि ) पदप्रतिमाश्यात् गम्पय 1 · दिवमवस्थान्तरं तज्जनकक्लिष्टकर्म वा कल्पाच्च तत्क्षपणम् । ह्याप्ता निरर्थकं किञ्चिदुपदिशन्ति, आप्तताहानिप्रसङ्गात् । इति गाथार्थः ॥ ३८ ॥ S Page #1603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८०) भिक्खुपडिमा अभिधानराजेन्द्रः। भिक्खुपडिमा तदेवं गच्छविनिष्क्रमाऽऽदि नोपकारकमित्यादि यदुक्तं दूष इतरथा त्वन्यथा पुनरधिकृतकल्पं विनैव विचित्रकर्मक्षपणे णं तत्सर्व परिहतमवगन्तव्यम् । यच्चोक्तम्-श्राअन्त्यादि सतीत्यर्थः । (न) नैव , अभिधानं भणनम् , युज्यते सं. नोऽपि धर्मकायपीडान सुश्लिष्टेति तत्परिहरनाह गच्छते , सूत्रे प्रवचने , हदीत्युपप्रदर्शने । एतस्य प्रति माकल्पस्य , एतस्मिन्ननन्तरोक्नेऽवसरे स्थविरकल्पानुष्ठान. एत्तो अईव णेया, सुसिलिट्ठा धम्मकायपीडा वि। निष्ठाप्राप्तिरूपप्रस्तावे , अतोऽत्रावसरे प्राप्तोपदिष्टत्वादस्य अंताइणो सकामा, तह तस्स अदीणचित्तस्स ।। ३६ ।। कर्मक्षपणहेतुस्वमवासितमिति । एषाऽनन्तरोना , खलुरल. ( पत्तो ति ) यतोऽयमवस्थान्तरहेतोः क्लिष्कर्मणः क्ष. कारे , तन्त्र युक्तिः शास्त्रीयोपपत्तिः प्रतिमाकल्पानवद्यतानिपणहेतुः प्रतिमाकल्पोऽतो हेतोः, अतीवातिशयन , था| र्णय इति । अत आन्तरभावविहीनप्रतिमाकल्प इत्यपि पश्रवसेया, सुश्लिष्टाऽत्यन्तसङ्गता । कासावित्याह-धर्म- रिहतम् । इति गाथाऽर्थः॥४२॥ कायपीडाऽपि धर्मसाधनशरीरवेदनाऽपि, अपीडा ताब- मतान्तरेणप्रतिमाकल्पस्याऽऽन्तरभावविहीनतां परिहरनाहसङ्गतैवेत्यभिधानार्थोऽपिशब्दः । किंभूतस्य सतो या स्या असे भणंति एसो, विहियाणुट्ठाणमागमे भणिो । दित्याह-अन्ते भवमान्तं भुक्तावशेषम् , उपलक्षणत्वाच्चास्य प्रान्ताऽऽदिग्रहः । तत्र प्रान्तं तदेव पर्युषितादि । तदाऽन्तमा पडिमाकप्पो सिट्ठो, दुक्करकरणण विठोओ ।। ४३ ॥ त्तीत्येवंशील प्रान्ताऽऽदि तस्य, कुतः सा सुश्लिष्रेत्याह-स. अन्ये ऽपरे सूरयः , भणन्ति अभिदधति प्रतिमाकल्पदृषकामा समनोरथा, यतः स्वकामाद्वा स्वाभिलाषात् , त. णपरिहारम् । यदुत एषोऽनन्तरोनो विहितानुष्ठानमुचित थेति हेत्वन्तरसमुच्चये, तस्य प्रतिमाप्रतिपन्नस्य , अदी- क्रिया, पागमे सिद्धान्ते, भणित उक्तः, प्रतिमाकल्पः प्रनचित्तस्यादैन्यवन्मानसस्य, अदीनमानसत्वादित्यर्थः । इति तीतः। श्रेष्ठोऽतिशयेन प्रशस्यः । कथं ?, दुष्करकरणेन स्थ. गाथार्थः॥ ३६॥ विरकल्पापेक्षया दुष्कराऽऽसेवनेन हेतुना । विज्ञयो ज्ञातव्यः। अथ कथमदीनचित्ततेत्याह इति गाथाऽर्थः ॥४३॥ न हु पढइ तस्स भावो, संजमठाणाउ अवि य वड्डे । अनेनोत्तरेणारञ्जितः सूरिराहण य कायपायो वि हु,तयभावे कोई दोसो त्ति ॥४०॥ विहियाणुढाणं पि य, सदागमा एस जुजई एवं । 'नहु' नैव, पतति भ्रस्यति , तस्य प्रतिमाप्रतिपन्नस्य जम्हा ण जुत्तिवाहिय-विसो वि सदागमो होई ॥४४॥ साधोः, भावोऽध्यवसायः, संयमस्थानावाश्रितचरणशु विहितानुष्ठानमपि चोचितकृत्यरूपोऽपि च । अपि चेत्यदिविशेषात् पीडासद्भावे, अपि चेत्यभ्युच्चये, वर्धते वृ. भ्युपगमार्थः, कुत इत्याह-सदागमादाप्तोपदेशात् , एष. द्धिं याति । ननु यद्यपि भावपातो न पीडासद्भाचे भवति प्रतिमाकल्पो, युज्यते घटते । एवमस्मदुकन्यायेन " पत्थुः तस्य , तथापि कायपातो भविष्यतीत्यत आह-न व यरोगचिगिच्छा-बत्यंतरतबिसेससमतुल्लो " इत्यादिना । नैव, कायपाततोऽपि शरीरपातादपि, हुर्वाक्यालङ्कारे । त. कस्मादेवमित्याह-यस्माद्यतो, न चैव, युक्तिवाधितविषदभावे भावपाताभावे, कोऽपि कश्चिदपि, दोषो दूषणम् , योऽपि उपपत्तिनिराकृतगोचरोऽपि सन् । युक्त्यबाधितार्थ इतिशब्दः समाप्तौ । इति गाथार्थः । एव सदागमो भवतीति प्रदर्शनार्थोऽपिशब्दः । सदागमः अथोपायान्तरेणापि कर्मक्षपणसंभवे किं कायपीडाबहप्रति. शोभनसिद्धान्तः, भवति स्यात् । युक्तिबाधितार्थस्य दुरागमाकल्पेनेत्यत प्राह मत्वात् । युक्त्युपपन्नता स्वस्माभिरागमालस्य कस्यानुष्ठाचित्ताणं कम्माण, चित्तो चिय होइ खवणुवायो वि।। नस्याऽऽवेदिता नागमोक्तत्वमात्रमेवेति सुन्दरतरः प्राक्तन: अणुबंधछेयणाई, सो उण एवं ति णाययो॥४१॥ परिहारः । इति गाथार्थः ॥ ४४ ॥ चित्राणामक्लिएक्लिष्टतरक्लिष्टतमतया विचित्ररूपाणां, क- नाऽऽगममात्रमेवार्थप्रतिपत्तिहतुर्भवतीति दर्शयन्नादमणां ज्ञानाचरणाऽऽदीनाम् । चित्र एव स्थविरकल्प जुत्तीए अविरुद्धो, सदागमो सा वि तयविरुद्ध त्ति । प्रतिमाकल्पाऽऽदिरूपतया विचित्र पव, भवति स्यात् । तपणोपायोऽपि निर्जरणहेतुरपि, कर्माणि तावचित्रारये इय अम्मोगणाणुगय, उभयं पडिवत्तिहेउ ति ॥ ४५ ॥ वत्यपिशब्दार्थः । कथमित्याह-अनुबन्धच्छेदनाऽऽदेर्निरनु. युक्त्योपपत्या , अविरुद्धोऽबाधितः , सदागमः सत्सि. बन्धताऽऽपादनाऽऽदे,आदिशब्दात् क्रियतोऽपि सर्वथा क्षप. द्वान्तो भवति , साऽपि युक्तिपि , तदविरुद्धासिद्धान्तावि. साग्रहः । लुप्तपञ्चम्येकवचनं चैतत् । अथवाऽनुबन्ध छिन. रुद्धा, स्यात्तदन्या स्वयुतिरेव । इति क्याधसमाप्ती । इत्येनीत्यनुबन्धछेदनस्तदादिः । स पुनर्विचित्रकर्मक्षपणोपाय वम् , अायोऽन्यानुगतं परस्परानुयायि , उभयं युक्तिसदा. पकायपीडाऽऽदिसहनरूपप्रतिमाकल्पाऽऽदिविधानेन भ- गमरूपं वयम् , प्रतिपत्तिहेतुरर्थप्रतिपत्तिकारणम् , इतिवति । इतिःसमाप्तौ भिन्नक्रमश्च । ज्ञातव्योऽवसेय इति । अतः | शब्दः समाप्त।। इति गाथार्थः ॥ ४५ ॥ कायपीडा सुश्लिष्टा । इति गाथाऽर्थः ॥ ४ ॥ अथ प्रतिमाकल्पशषप्रतिपादनायाऽऽहअथ कथमिवमवसितमिति चेदत पाह कयमेत्थ पसंगणं, माणं पुण णिश्चमेव एयस्स । इहरा उणाभिहाणं, जुज्जइ सुत्तम्मि हंदि एयस्स । सुत्तस्थाणुसरणमो, रागाइविणासणं परमं ।। ४६ ॥ एयम्मि भवसरम्मी, एसा खलु तंतजुत्ति ति ॥४२॥ कृतं पर्याप्तम् , अत्र प्रतिमाकल्पदुषणपरिहारे , प्रसङ्गे . Page #1604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खुपडिमा अभिधानराजेन्द्रः। भिखमाण नानुषझिकभणनेन , भ्यानमेकाप्रचित्ततालक्षणम् , पुनरिति अशक्त्यनुसारेण । (मार ति) शीघ्रम् , ( काहिति ति) विशेषणार्थः। नित्यमेव सर्वदैव, एतस्य प्रतिमाप्रतिपक्षस्य विधास्यन्ति .(भवविरईति) संसारक्षयम्। इति गाथा. साधोः, सूत्रार्थानुस्मरणं सूत्रार्थयोरनुचिन्तनम् । प्रोकारः | थैः॥५०॥ पशा. १८ विवस्था ।(सप्तसप्तमिक्या पूरणार्थः । सूत्रार्थानुस्मरणत इति कचित् पाठः, सब टाष्टमिकीनयनमिकीदशदशमिक्यादीनाम् भद्रासुभद्रामहा. व्यक्त एव । रागाऽऽदिविनाशनं रागद्वेषमोहापहम् । परमं भद्रासर्वतोभद्राभोत्तराणां च भिशुपतिमाणां पलभ्यता त. प्रधानं मोक्षहेतुत्वात् । तर धम्य शुकं वा । कचिद्रम्यमिति | तच्छन्ने।) पाठो व्यक्तमा इति गाथार्थः ॥४६॥ भिक्खुपडिया-भिक्षुमतिज्ञा-स्त्री० । साधुमुद्दिश्येत्यर्थे , माअथ प्रतिमागतमेवोपदिशनाss चा०१ श्रु०१०५०१ उ०। एया पवञ्जियब्वा, एयासिं जोग्गयं उवगएणं । भिक्खुप्पिय-भिनुप्रिय-न० 1 पलाएडनि, वृ०५०। ('पु. सेसेण विकायब्बा, केइ पदमाविसेस ति ॥ ४७॥ लागमत'शब्देऽस्मिन्नेव भागे १०६१ पृष्ठे विस्तरो गतः) [पय सि] अनन्तरोनभिप्रतिमाः [पजियब्ध सि] भिक्खभाव-भितभाव-पुं० । भिक्षोयथावस्थितस्य भावो प्रतिपत्तव्याः। [पयासि ति] एतासां प्रतिमानाम् , [जो. भिक्षुभावः शानदर्शनचारित्रेषु, तृतीयव्रताऽदिकेच। मि. ग्गय ति] योग्यताम् । [उवगएणं ति ] प्राप्तेन साधुना, जुभावो शानदर्शनचारित्राणि तृतीयवताऽऽदिकं वा, तत्रैव तदन्यस्य को विधिरित्याह-[सेसण विति] तदन्येनापि भिजुशब्दस्य परमार्थत्वेन बढत्वात् । वृ० ३ उ० । व्य। [कायष ति] विधेयाः [केहसि] केचित् [पासाविसेस "चरण तु भिक्खुभावो।" व्य०६ उ० । सारणावारणासि ] अभिग्रहविशेषाः । इतिः समाप्तौ । इति प्रतिचोदनासु, न्य। गाथार्थः॥४७॥ भिक्खुभावो सारणवारणपरिचोयणा जहा पुचि । तानवाह भिक्षुभावो नाम सारणावारणाप्रतिचोदनाः, पताभिर्यथा. जे जम्मि जम्मि काल-भिम बहुमया परययुप्पाइकरा य ।। पस्थितो भितुभाष उपजायते, ततः कारणे कार्योपचारादे. उभयो जोगविसुद्धा, मायावणठाणमाईया ॥४८॥ | ता एव भितुभावः । व्य०४ उ०प्रवज्यायां च । सूत्र. १ [जे ति]ये प्रतिक्षाविशेषाः। [जम्मि जम्मि सियस्मिन् | ७०३१०२ उ०। यस्मिन् [ कालम्मि सि] अवसरे। [बहुमय ति] बहुमता भिक्खवासन-भिक्षपासक-नारष्टान्तभेदे, पिं०। गीतार्थानाम् । ( पवयणुनइकरा य ति) शासनप्रभावना भिक्खसमय-भिसमय-पु० । शाक्याऽऽगमे, सूत्र०२ धु० देतवोऽद्भुतभूतत्वेन श्लाघानिबन्धनत्वात् । [ उभो ति] / २०। उभाभ्यां प्रकाराभ्यां, क्रियाया भावतश्चेत्यर्थः । [जोगविसुद्ध त्ति] विशुद्धयोगा निरवधव्यापाराः। [पायावठाणमा भिक्खसणासुद्धि-भिक्षषणाशुद्धि-खी। उद्गमाऽऽदिके,दशक सि] भातापना शीताऽऽदिसहनं, स्थानमुक्तटुकाऽऽदिकम् । ५०२ उ०। मादिशब्दाद विविधद्रव्याऽऽधभिप्रहः । इति गाथार्थः ॥४॥ भिच-मृत्य-पुं०। भू-क्यप् तुकच । दासे, वाच० । भूएतदकरणे दोषमाह त्यः सेवक इति । ग०१अधिकापञ्चा०। प्रेष्ये , "भृत्यानुएएसि सइ विरिए, जमकरणं मयप्पमायो सो उ । परोधतो महादानम्।" पो.५विव० । दर्श० । " तुल्याई तुल्यसबन्धं, मर्मजं व्यवसायिनम् । अर्द्धराज्यहरं भृस्य हो भइयारो सो पुण, भालोएयव्यो गुरुणो ॥४६॥ यो न हन्यात्स हन्यते ॥१॥" दर्श०५ तस्व ।" अणुजी[एपसिं ति ] एतेषां प्रतिज्ञाविशेषाणाम् । [साति] घी सेवभो भिच्चो। " पाहना० १०२ गाथा । विद्यमाने [विरिए सि] वीर्य [जमकरणं ति] यदविधानम् । कथम् ? [मयप्पमायनो ति]गर्वाऽऽलस्याभ्याम् । [सो उति] भर्तव्य-त्रि०प्रश्न०२ माघद्वारभृतौ पोषणे साधुर्मुत्यः। सपुनः [होयइयारो सि] जायतेऽतिकमवरणस्थ । [सो पुण पोपणे, साधौ च । विपा० १७० ७०ाभावे क्यपू । भरणे, ति] सोऽतिचारः पुनः। [पालोएयब्वनी ति] निवेदनीयः | सीजीए "कुमारभृत्याकुशलैः।" इति रघुः । वाच। शुद्धयर्थम् । [गुरुणा सि] पालोचनाऽऽचार्यस्य । भिच्चोवयार-भृत्योपचार-पुं० । स्त्रीणां चतुष्पष्टिकलाऽन्तर्गइति गाथार्थः ॥ ४६॥ ते कलाभदे, कल्प०१ अधि० ७ क्षण । उतार्थफलभणनेन प्रकरणमुपसंहरबाह भिज-भेद्य-सि । भिव-एयत् । विदाये, विशेष्ये च।" त्रि. इय सबमेवमवितह-माणाए भगवनो पकुबन्ता। वेषां मेवगामि यत् ।" वाच । प्रश्न २ पाश्र० द्वार । सयसामस्थणुरूचं, अइरा काहिंति भवविरहं ॥१०॥ पुरुषमारणाऽऽपराधमाधिस्य कौटुम्बिकान् प्रति भेदेनो[श्य सि] एतदभिग्रहजासम्, [सव्वं ति] समस्तम, प्राधमाणे प्रामादिषु निपतिते दण्डद्रव्ये च । यानि पुरु[एवं ति] एवमुकन्यायेन , [अषित ति] अविपरीतम् । षमारणाऽऽचपराधनाऽऽदिषु दण्डद्रव्याणि निपतम्ति कौटुकथम् १, [माणाए ति ] आदेशेन न समस्या, क- म्बिकान् प्रति च भेदेनोग्राह्यन्ते तानि भेयानि । बिपा. १ स्येत्याह-[भगवमो सि] प्राप्तस्य [पकुठवन्त सि 1 शु०१० प्रकुवाणाः कथमित्याह-(सयसामथारुवं तिनि-भिज्जमाण-भिद्यमान-विवियुज्यमाने, स्था०२ ठा०३ उ.। Page #1605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिएलगंठि अभिधानराजेन्द्रः। भित्तिय भिआ-भिध्या-स्त्री० । अभिध्यानमभिध्या , अभिव्याप्त्या | भेदोऽपि च न केवलं भेद आनन्द इत्यपिचशब्दार्थः । अस्य विषयाणां ध्यानं तदेकाग्रत्वमभिध्या, पिधानाऽऽदिवदकार भिन्नग्रन्थविज्ञेयः । किमित्याह-न भूयः पुनर्भवनं भावस्तथा लोपः । लोभे,स० ५२ सम । स्था। भ० । यथा प्राक, कुतः १, इत्याह-तीवसंक्लेशविगमात् अतिदकभिजानियाणकरण-मिध्यानिदानकरण-न। भिध्या लोभो षायोदयविरहात्, सदा सर्वकालं, निश्रेयसावहो निर्वाणहे. गृद्धिस्तन निदानकरणमेतस्मात्तपःप्रभतेश्चकवादित्वं मे| तुः ।। २८२ ॥ यो०वि०। भूयादिति निकाचनकरणे, स्था०४ ठा०४ उ०। भिष्मदेह-भिन्नदेह-पु०। भिन्नो देहो यस्य सः। चूर्णितालो. "भिजाणिदाण करणे, मोक्खमग्गस्स पलिमथू।"[भिज- पाङ्गे, सूत्र.१ श्रु०५०२ उ०।। ति] लोभस्तेन यन्निदानकरणं चक्रवर्तीन्द्राऽऽदिऋद्धिप्रार्थ- भिमापिंडवाइय-भिन्नपिएडपातिक-पुं० । भिन्नस्य स्फोटि. नम् । स्था० ६ ठा। तस्य पिण्डस्य सक्तकाऽऽदिसंबन्धिनः पातो लाभो यस्याभिजिय-भिध्यित-त्रिका भिध्या लोभः संजाता यत्र स भि स्ति स भिन्नपिण्डपातिकः । स्फोटितपिण्डलाभवति , ध्यितः । लोभवति, भ०६ श०३ उ०।। स्था. ५ ठा० १ उ०। भिणिभिणिभणंतकायकलि-भिणिभिणिभणक्काककलि- भिममास-भिन्नमास-पुं०। मासभेदे, इह समयभाषया दित्रि० भिणिमिणि त्ति शब्दं भियंत ति भणनं भृशं कथयन् नपञ्चविंशतिरूपो भिन्नमासोभिधीयते । जीता काककलिायसग्रामो यत्र सः। भिणिमिणि त्ति शब्दं भणता भिषमहत्त-भिन्नमहत-न० । अन्तर्मुहूते, श्राव० ४ ० । काकसमूहेनोपेते , तं०। "भिसमुहुत्तो नाम-ऊणो मुहुत्तोत्ति वुतं भवति ।" प्रा. भिणिभिणिभयंतसह-भिणिभिणिभणच्छब्द-त्रि० । भिणि- चू० १०। भिणित्ति [भणंत ति] भातूनामनेकार्थत्वात् उत्पद्यमानः श. भिमरहस्स-भिन्नरहस्य-त्रि०। भिनं रहस्य येन सः। रह. ब्दो यत्र स भिणिभिणिभणच्छब्दः। मक्षिकाऽऽदिभिर्गणग- स्यभेदके, "भिन्नरहस्सो रहस्सं न धारयति ।" नि० चू. णायमाने, तं०। १उ०। व्य। भिल-भिन्न-त्रि भिद्-क्कः विदारिते, उत्त० ३२ अ संथा। भिमसाम-भिमसंज्ञ-त्रि० । भिन्ना नष्टा संज्ञाऽऽन्तःकरण अन्ये, वाचा परस्परासकीणे, विशे। [क्रमकालभेदाऽऽदि- वृत्तिर्यस्य सःनिष्टसंक्षे, सूत्र.१श्रु०५०१०। नि००। भिर्विसदृशोऽनुयोगः अणुश्रोग'शब्दे प्र०भा०३४३पृष्ठे दर्शितः] भिमसह-भिन्नशब्द-पुं० शब्दविशेषे, स च ऋष्टाऽऽद्युपहतविसदृशे,स्था०१०ठा खण्डिते, शा०१श्रु०८अ चूणित, शब्दवत । स्था०१० ठा। सूत्र०१ श्रु०५१०१ उ० । स्फुटिते, स्था० ४ ठा० ४ उ०। स्फोटिते, स्था०५ठा १ उ० । नष्टे, सूत्र०१ श्रु.५ अ०१० | भिमागार-भिन्नामार-न। देशतः पतितशटिते गृहे, निक उज्झिते , “भिन्नत्ति वा जज्झिय त्ति वा एगई।"श्राव०४ । चू०८ उ० । अ । निचू। प्रा० चू० । प्रश्न । - भिएणत्तमंग-भिन्नोतमाङ्ग--त्रि।चूर्णिताशरसि , सूत्र.१ अथ भिन्नपदनिक्षेपव्याचिण्यासयाऽऽह ध्रु०५१०१ उ०। नाम ठवणा भिन्न, दवे भावे य होड नायव्वं । भित्तभित्त--न0 । भिद-क्नः । खरडे, वाच) । " अंब भित्तगंवा।" आम्राद्धम् । प्राचा. २ श्रु०१ चू० ७ ० दवम्मि घडपडाई, जीवजढं भावतो भिमं ॥५१॥ २उ० । नामभिन्नं, स्थापनाभिन्न व्यभिनं, भावभिन्नं च भवति भित्तर--देशी-द्वारे, दे०मा०६ वर्ग १०५ गाथा। बोसव्यं, नामस्थापने सुमे द्रव्यभिन्नं घटपटाऽऽदिकं वस्तु भित्ति-भित्ति-स्त्री०। भिद-क्लिन् । गृहाऽऽदीनांकुड्ये, पाच यद्भिनं विदारितं, भावतो भिन्नं तु यजीवेन [जदंपरित्यक्तं तन्मन्तव्यम् । बृ०१ उ०२ प्रक। नि० चू० । दर्श०३ तव । विशे। उत्त। अनुशनद्यादितटयाम् , दर्श. भिमकहा-भिन्नकथा-स्त्री०। रहस्यालापे, "आणवति ८०। कुज्यभिषयोः का प्रतिविशेषः?, उच्यते-इष्टका35. दिरचिता भित्तिः, मृत्पिण्डाऽदिरचित्तं कुड्यम् । वृ० २ भिन्नकहादि। " भिन्नकथाभी रहस्याऽऽलांपैमथुनसंबद्ध उ०। उत्त०। वचोभिः। सूत्र. १ श्रु०४०१ उ०। भित्तिकड-भित्तिकृत--त्रिका भित्तिसंधिते,सच भित्तिनिश्रया भिमगंठि-भिन्नग्रन्धि-पुं० । सम्यग्दी , द्वा०६ द्वा० । | स्थापित इति । बृ०२ उ० । मोक्षे, “ भिन्नग्रन्थेस्तु भावतः । " भिन्नग्रन्थेविदारिता. तितीवरागद्वेषपरिणामस्य । द्वा० १४ द्वा० । यो० वि० । भित्तिगुलिया-भित्तिगलिका-स्त्री० । भित्तिसम्बद्धा गुलिका भिन्नग्रन्थेः अपूर्वकरणबलेन कृतग्रन्धिभेदस्य । पो० पीठीका भित्तिगुलिका। भित्तिसम्बद्धगुलिकायाम् , जी० ३ ३ विव० । प्रति ४ अधिकारा। अथ प्रन्धिभेदमेव व्याचष्टे भित्तिमूल-भित्तिमूल-न । कुड्यकदेशे, दर्श०३ तत्त्व । भेदोऽपि चास्य विज्ञेयो, न भूयो भवनं तथा । भित्तिय-भित्तिक--पुं० । म्लेच्छजातिभेदे, प्रश्न १ आभ. तीव्रसंशविगमात, सदा निःश्रेयसाऽऽवहः॥ २८२॥ द्वार । Page #1606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८३) भिलिंगावंत अभिधानराजेन्द्रः। भिसोल भित्तिरूव-देशी-टङ्कच्छिन्ने, दे० ना०६ वर्ग १०५ गाथा। भिलिंजण-अभ्यजन-न० । उद्वर्तने, आचा० २ श्रु० २५० भित्तिल-भित्तिमत-न० । विमानविशेषे, स०२ सम। ६०।" तेल्लं मुहभिलिंजाए भिलिंजए ति ।" अभ्यता तय दौकयस्व । सूत्र०१७०४०२ उ०। भित्त-भेत्तम-श्रव्य । द्विधा कर्तुमित्यर्थे, कल्प०१ अधि०३| भिलुगा-भिलुका-स्त्री० । स्फुटितकृष्णभूराज्याम्, भाचा०२ क्षण । “जो पब्वयं सिरसा भिन्नुमिच्छे।" दश.अ.१ उ०। श्रु०१ चू०१ १०५ उ० । सुषिरभूमिराज्याम् , दश० भिन्द-भिद-धाद्विधाकरणे,विशेषकरणे च। रुधा०-उभ० अ.२ उ०। भिलुगाणि श्लक्ष्णभूमिराजय इति । भाचा.. सक०-अनिट् । “छिदिभिदोन्दः"।। ४ । २१६॥ इति निटा छादाभदा न्दा ॥८।४ १५॥ इति । ध्रु०२चू०३०।। प्राकृतसूत्रेण भिदेरन्त्यस्य नकाराऽऽक्रान्ती दकारः । भि. भिल्ल-भिल्ल-पुं० । भिल-लक । म्लेच्छदेशभेदे, तनिवासिमि न्दा।'प्रा०४ पाद । भिनत्ति भिन्ते । अभिदत् । अभै म्लेच्छजातिभेदे च । वाच। सूत्र०२श्रु०१०। प्रषः । सीत् । मभित्त । वाच। भिस-विस (श)-न । पभिनीकन्दे, आव०६०।०। भिन्दंत-भिन्दत-त्रि0) भेदनं कुर्वति, " भिंदतो जो वि रा। जी० । आचा।प्रा० म० । " एगो जीयो भिसमुखुहं।" व्य०१ उ०। णाले।" प्रशा० १ पद । विसानि पशिनीमूलानि । हा. १ भिन्न-भिन्न-त्रि० । पृथकृते, "सीरिभो भिन्नो।" पाइ० ना० थु० ४ ०। विशं पद्मकन्दमूलमिति । प्राचा०२ शु० १ २६२ गाथा। चू०१०८ उ०। भिष्फ-भीम-पुं०1" भीष्मे मः " ॥ ८ । २ । ५४ ॥ भास-दीप्ता, भ्वादि०-प्रात्म-अक०-सेट् । वाच "भा इति प्राकृतसूत्रेण मस्य फः । प्रा० २ पाद । भ- | सेभिसः" ॥८।४।२०३॥ इति प्राकृतसूत्रेण भासेभिसः यानकरसे , भयहेतौ, त्रि० । गङ्गागर्भज शन्तनुसुते स्वना- इत्यादेशो वा।" भिसा, भासह।" प्रा०४ पाद । भासते मख्याते कुरुवंशीये क्षत्रिये, पुं०। वाच०। अभासिष्ट । चङि-वा इस्वः । अवीभसत् । भवभासत् । भिप्फय-भीष्मक-पुं० । कौण्डिन्यपुरस्थे रुक्मिणः पितरि वाच०। भश. स्वनामण्याते नृपे, "कोडिएणणगरे तत्थ णं तरुमिणि भि. भृश-न०। भृश-का अतिशये तद्वति, त्रि.. वाचा प्फयसुयं करयल।"शा०१७०१६ अ०। . मत्यर्थमिति । विशे। सूत्र०। भिन्भल-विहल-त्रि. विठ्ठल-अच् । “वा विहले बी भिसश्र-भिषज्-पुं० । भिषति चिकित्सते । भिष-अजिक । वश्व "॥ ८।२। ५८ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण विकले हस्य | "शरदादेरत्"।८।१।१८ ॥ इति प्राकृत सूत्रेणास्यव्यज. भो वा, तत्सन्नियोगेन च विशब्दे वा वस्य भः । प्रा०२पाद । नस्याऽत् ॥ प्रा०१पाद । वैद्य, रोगप्रतीकारे च। बाबा भयाऽऽदिना व्याकुले, विलीने च। वाचः। नि० चू० । मल्लिजिनेन्द्रस्य प्रथमे गणधरे च । प्रब०८ भिब्भिसमाण-विभासमान-त्रिका अतिशयन दीप्यमाने,भ. द्वार । शा० । ति। श० ३३ उ० । जं० । रा। भिसंत-भासमान-त्रिका दीप्यमाने, प्रा. म०१ अ०भ०। भिमोर-हिमोरस-न । हिमस्योरो मध्यं विमोरः । ॥ गो. औः।राशाजा अनघे,दे ना०६ वर्ग १०५ गाथा। भिसयाण-भासमान-त्रि०। दीप्यमाने, मा० म०१०। णाऽऽदयः " ॥८।२।१७४ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण निपातनाद् हस्य भः। हिममध्यभागे, प्रा०२ पाद । भिसर-अभिसर-पुं०। मत्स्यबन्धनविशेषे, विपा०१७०८०) भिय-भूत-त्रि०। पूरणे, श्राव०४०। सूत्र० । भावे क्तः। भिसिधा-देशी-वृष्याम्, दे० ना०६ वर्ग १०५ गाथा। पूरणे, न० । स्था०१० ठा। भिसिणी-विसिनी-बी०।"बिसिन्यांमा"॥१॥२३॥ भियग-भूतक-त्रि०। भृ-क्तः। स्वाथै कन् । चेतनेन कर्मकरे | इति प्राकृतसूत्रेण बस्य भः। प्रा०१पाद । पत्रिभ्याम् , "भि. वाच० "भियगाणसंधाणं।" दर्श०१ तस्व। पञ्चा०ा अनु०॥ सिणीपत्ते हियरे। "प्रा०म०१०। भिसिणीपुक्खलपला. ससरिसो वा।" वृ०१3०२प्रक.।" भिसिणीपत्तम्मि रेहा भिलिंग-भिलिङ्ग-पु.। मसूरे, पञ्चा० १. विवः । कल्प० । वलाया।" प्रा०२ पाद । "भिसिणी नलिणी कमलिणीय।" भिलिंगत-अभ्यञ्जत-त्रि०अभ्यङ्गं कुर्वति, " भिलिङ्गेज वा पाह• ना० १४६ गाथा। भिलिंगंतं वा साइजह"सूत्रर)नि००१७ उ० "मंखेज वा | भिमी-(बी)मी-स्त्री०। आसनविशेष, स्वाथै का भिलिंगेजवाणोतं सातिए आयं जयंतं पा" तथा लोधाऽऽदिनोवसनाऽऽदि कुर्वन्तमिति । आचा०२ श्रु०२ चू०६ अ01 यां टाप, प्रत इत्वम् । वृ (पि) सिका। भ० २.१०। बापाचा० । “भिसिगं बा।" वृषीमासनमिति । सूत्र०२ भिलिंगमव-भिलिङ्गसूप-पुं। मसूराऽऽस्यविदल धान्यपाक- श्रु०२०। (भिसियानो ति)षिका उपदेशमपहिति। विशेष, पश्चा० १० विव० । मिलिङ्गस्पो मसूरदासिरिति औ०।" भट्टसोवक्षिप्रानो मिसिमानो।"(भिसिमानो कल्प० ३ अधि०६क्षण। त्ति) आसनविशेषान् । भ० ११ श०११ उ.।"मिसी सारी।" भिलिंगावंत-अभ्यज्जयत-त्रि०ा अभ्यङ्गं कारयति, "भिलि. पा. ना० २१५ गाथा। गावेज षा, मिलिंगावंतंबा साइजा "नि००१७उ०। भिसोल-भिसोल-नसनाटपभेदे, स्था०४ठा. ४०। Page #1607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमकुमार मी - मी घा० भये, जु०प०प्र० अनिट् विमेति । अ मीत्। विमषामास विभाग बाच" मियोमा बी" ४२३ इति प्राकृतसूत्रे विमेतेरेतावादेशौ वा भाइबीहर बाहुतकाधिकारात्यवचित्र मीतः प्रा० ४ पाद भी - स्त्री० । भी - सम्प० क्विप् । भये, वाच० । भीतौ, स्त्री० । एका० । भीम भीत-त्रि० अस्वस्थे, "भीओ हिरो ( १५८४) अभिधानराजेन्द्रः । 19 २६० गाथा । मी भीति - श्री० भी - हिन् । भये, कम्पे व आचा० १ ॐ० ३ अ० ४ उ० | स्था० । भयं भीतिर्नृपचौराऽऽदिभ्य इति । स्था० १० ठा । मीइयव्य- भेतव्य-न विधेये, भये, प्रश्न० २ सम्बद्वार । भीम - भीम त्रि० । बिभेत्वस्मात् । भीमक भयहेतो पाइ ना० वाच० । रौद्रे, नि० १ ० १ वर्ग ३ अ० । प्रश्न | "भीमे उत्तासगए।" भ० ६ श०५ उ० । संथा० । शा० । श्राव० । " मसोदान मीमाथि जम्मा मरणाणि य" श्रीमानि भयदानि । उस० १६ अ० । “भीमगम्भीरलोमहरिसह रिसणेसु ।” प्रश्न १ ० द्वारा मयानकरले महादेवे भीमसेने " 1 आचा० १ भु०४ अ० १३० । आ० म० । नि० चू० । राक्षसभेदे, प्रज्ञा० १ पद । स्वनामख्याते राक्षसाणामिन्द्रे | स्था दो खसिन्दा पचा- भीमे चेन, महाभीमे चेव २ ठा० ३ उ० । प्रज्ञा० । “ भीमे तहा महाभीमे । मा० २ पद । भ० । तत्कथा- हस्तिनागपुररस्थे स्वनामस्थाते कूटप्राहे, (तद्वक्तयता 'गोमास शब्दे तृतीयभागे १२४ पृष्ठे गता) अयोध्यानग रस्थे धवलश्रावस्य मित्रे स्वनामख्याते श्रावके, दर्श०३ तस्य । तक्रम्यता हेच मारहे वासे कार के नाम राया। सत्य व नयी तिथि मायरो चलभीमभानामाणो अपरोपरं बद्धाराया समायन्यया सदसंपदारियो परिवसंति वयधम्मं परिवार्तिति । अन्नया साहुविहारेण विहरता समाया बजियसेवनाम सुरिण समा जाणे, जाओ नयरीप पवाओ एयारिसा सूरिणी समागया, निराया सद नायरसोय बंदरापडिया व भीमभानामा विनिमाया दिय निविडा सा सच्चे वि. पत्य देखणा " दर्श०२ तस्व भाविनि स्वनामस्याने प्रतिवासुदेवे वि० सी० अम्लवेतसे च पुं० दुर्गायाम् श्री "भीमादेवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति । " घोरा दारुण - भासुर-भद्दरव ललक - भीम - भीसणया ।" पाइ० ना० ६५ गाथा । . " " वाच० । भीमकम्म- भीमकर्मन् पुं० भीमं कर्म क्रिया यस्य क 1 क्रियाका रञ्जिताः सर्वे सक्ष्यामे भीमकर्मणा ।" इति वचनात् । रौद्रक्रियाकर्तरि आव० ३ श्र० । भीमकुमार - भीमकुमार - पुं० । कमलपुर वास्तव्यस्य हरिवाहनस्य राहः सुते स्वनामख्याते राजकुमारे, ध० २० । ܕܕ "कपिशीर्षक ललितं जिनकेशरं शिया सम् संधि कमलं व कमलपुरं ॥ १ ॥ भीमकुमार तत्राभयदरिपार्थिव करयाविघटनकटवीर्यः । ण्यकाणणकयवासो, हरिव्य हरिवाहणो राया ॥ २ ॥ प्राणेा तस्य बभूव मालती मालतीसुरभिशीला । निस्सीम भीमपरो-पारसारो मुझे भीमो ३ ॥ अतिबुद्धिबुद्धि-मन्त्रितः प्रेमदारिवारिनिधिः । भीमकुमरस जाओ, परमिलो बुद्धिमपरहरो ४ ॥ अन्येस वयस्यः प्रशस्थनियो नयोज्ज्व कुमरो पमायसम, संपतो रायपथमूले ॥ ५ ॥ अनमन्नुपपदकमलं तेन निजाके इयं परिष्वज्य । संविधोपच्छा पुरा, उबविट्टो चिप डायम्मि ॥ ६ ॥ नरनाथ चरणयुगलं समयं निजकमकमारोप्य । संवाद गवाई नीलुप्पलको मलकरेहिं ॥ ७ ॥ भमिर निर्भराज्ञयोति जनकस्य शासनं यावत् । उज्जाण पालगेणं, ता विश्वसो निवो एवं ॥ ८ ॥ देव! नृपदे पदारविन्दोऽरविन्द मुनिराजः । भूरिविदेवसमे पत्तो कुसुमाकरु " " तत्या भूभर्त्ता दच्या दानं महन मुदा तस्मै । बहुमंतकुमारी पत्तो गुरुवरनमत्यं ॥ १० ॥ विधिना प्रतितितिं पतिपतिमभिवन्द्य नृपतिरासीनः । दुंदुभिउद्दामसरं, गुरु वि एवं कद्दद्द धम्मं ॥ ११ ॥ विफलं पथोरिवाssयु-र्नरस्य नित्यं त्रिवर्गशून्यस्य । तत्रापि परो धर्मे समृते तो न कामार्थी ॥ १२ ॥ रजापति कुरुते तेन पदशीम् । गृहाति काशकलं, चिन्तारत्नं स विक्रीय ॥ १३ ॥ वाहयति जम्भशुम्भन- कुम्भिनमिन्धनभरं स मूढात्मा । स्थूलामलमुक्ताफल-मालांषिदलयति सूत्रार्थम् ॥ १४ ॥ उन्मूल्य स कल्पतरं पति निजरूपमतिः । नावं स जलधिमध्ये, भिनत्ति किल लोडकीलाय ॥ १५ ॥ भस्मकृते सति चारुसन्दमं यो मनुष्यजन्मेदम् । कामार्थाचे नयते सततं सद्धर्मपरिमुः ॥ १६ ॥ 9 C " - ( चतुर्भिः कलापकम् ) सत्संगत्या जिनपति-नत्या गुरुसेवया सदा दयया । तपसा दानेन तथा तत् सफलं तद् बुधैः कार्यम् ॥ १७ ॥ यतः- पुष्पातिगुणं मुष्णाति दूप सम्मतं प्रवोधपति । शोधयते पापरजः, सत्सङ्गतिरङ्गिनां सततम् ॥ १८ ॥ सद्यः फलन्ति कामाः, वामाः कामा भयाय न यतन्ते । न भवति भीतितति जिनपतिनतिमतिमतः पुंसः ॥१६० गुरुसेवाकरणपरो, नरोन रोगेरमो भवति। ज्ञानसुदर्शनचर राद्रियते सद्गुणगुरोश्च २० ॥ प्रौढस्फूर्तिर्निरुपम मूर्त्तिः शरदिन्दुकुन्द समीि भवति शिवसौख्यभागी. सदा दयाऽलस्कृतः पुरुषः ॥२१॥ जलमयद स्थलीय जलधिमृग इस मृगाधिपस्तस्य । इह भवति येन सततं निजशक्त्या तथ्यते सुतपः ॥ २२ ॥ तं परिहरति भयार्त्तः स्पृहयति सुगतिर्विमुञ्चते कुगतिः । यः पात्रशाश्च कुरुते, निजकं न्यायार्जितं वित्तम् ॥ २३ ॥ इति गुरुचा नरनाथः प्रमुदितः सुखाऽऽदियुतः । गिरहद्द गित्य सम्मं संम ॥ २४ ॥ " Page #1608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमकुमार अभिधानराजेन्द्रः। भीमकुमार शमिनां स्वामिनमान-म्य मेदिनीशो जगाम निजधाम । चंडाल दुबचिट्रिय-निट्रियकल्लाण! अन्नाण!॥ ४६॥ भवियजणबोहणत्थं, गुरू वि अन्नत्थ विहरेड ॥ २५ ॥ विश्वसितानां येषा, त्वया कपालैर्विनिर्ममे माला। मासन्नाऽऽसीनसखं, निजभवनस्थं कुमारमन्येधुः । ताण वि वहरं वाले-मि अज गहिउं तुह कवाल ॥५०॥ सूरिगुणे वनंतं, नमिउं विवाद इय वित्ती॥ २६ ॥ मुक्तोऽथ कर्तिकायाः , घातः कुपितेन तेन भीमोऽपि । देव ! नररुण्डमाला-कलितः कापालिको बलिष्ठातः । तं वलिय खग्गदंडे-ण खिप्पमारुहद तक्खंधं । ५१ ॥ तुह दसणं समाहा, तो कुमरेणं मुंच इय भणिए ॥ २७ ॥ दध्यौ च कमललावं, लुनामि किं मौलिमस्य खड्गन । सेवमिम पडिवन, हणेमि कह कइयवेणऽहवा ? ॥ ५२॥ तेनासौ परिमुक्को, दत्वाऽऽशीर्वादमुचितमासीनः । पत्थावं लहिय भणे-६ देहि मह कुमर ! झ त्ति रहं ॥२८॥ यदि कथमपि जिनधर्म, बहुशक्तियुतः प्रपद्यते चायम् । त नु भ्रूक्षेपवशाद, दूरस्थे परिजने जगौ योगी। तो पधयणं पभावह, इय हणइ सिरांस मुट्ठीहिं ॥५३॥ यावत्तं हन्तुमना, दोर्दण्डाभ्यां प्रहीयते योगी। भुवनक्खोहिणीनामा, कुमार ! मह अस्थि वरविजा ॥२६॥ तस्याश्च पूर्वसेवां, द्वादश वर्षाण्यकार्षमधुना तु । तावऽस्स वणस्संतो, पविसइ करकलियकरवालो ॥ ५४ ॥ तं कसिणचउदसिदिणे, साहिउमिच्छामि पेयवणे ॥ ३०॥ तं प्रजहार कुमारः, खरनखरैः पौत्रवन् महीपीठम् । उत्तरसाधकभावं, त्वं देहि विधेहि मे श्रम सफलम् । सो सुंडादंडपवि-सरडकरडि व करडा ॥ ५५ ॥ श्राम ति भणा कुमरो, परोक्यारिकरसियमणो ॥ ३१॥ कृच्छेण कर्णकुहरात् , करेण निःसार्थ नृपसुतं योगी। अद्यदिनाशमदिने, सा रजनी भाविनी ततो भद्र !। धरिउ चरणे कंदु । व्व दूरमुच्छालए गयणे ॥ ५६ ॥ गच्छु तुम संठाणं, इय भणिो सो कुमारेण ॥ ३२॥ स तु निपतन् गगनतलाद् , दैववशात् प्रापि यक्षिणीदव्या। करसररूहसंपुडए, काउं नीनो य नियभवणे ॥ ५७ ॥ योग्यचे तब पावं, स्थास्यामि कुमार! आख्यदित्यस्तु । वीक्ष्य च तत्रात्मानं, मणिमयासिंहासने समासीनम् । तो अणुदिणं स कुमर-स्स अंतिए कुणइ सयणाई॥३३॥ अहियं विमिहयहियो, जाव किमेयं ति चिंतेह ॥ ५८ ॥ तद्वीक्ष्य सचिवसूनुः,प्रोचे पाषण्डिसंस्तववशेन । तावद्योजितहस्ता, तस्य पुरोभूय यक्षिणी प्राऽऽह । मित!नियं संमत्त्रं. करेसि किं साइयार ति?॥ ३४॥ तत प्राह नृपतितनय-स्त्वयेदमावेदि सत्यमेव सखे!। भद्द! इमो विझगिरी, तन्नामेणं इमा अडवी ॥ ५६ ॥ विन्ध्याद्रिकन्दराऽन्त, गतमतिसंगतमिदं त्रिदशसन । किं तु मए दक्खिन्ना, परिसमेयस्स पडियन्नं ॥ ३५ ॥ अहमित्थ सामिणी ज-क्खिणी य नामेण कमलक्खा ॥६॥ प्रतिपने निर्वहणं, सत्पुरुषाणां महावतं ह्येतत् ।। अद्याष्टापदवलिता, कपालिनोत्क्षिप्तमन्तरिक्षतलात् । किं मुयह ससी ससयं, नियदेह कलङ्ककारि पि ॥३६॥ तं निवडतं पिक्खि-सु घिनु पत्ता इह हिट्ठा ॥ ६१॥ किं कुरुतेहि कुसङ्गो, नरस्य निजधर्मकर्मसुदृढस्य ?। संप्रति दुर्मथमन्मथ-शितशरनिकरप्रहारविधुराङ्गी। विसहरसिरे वि वसिप्रोकिं न मणी हरइविसमविसं॥३७॥ तुह सरणमहं पत्ता, सुपुरिस ! मं रक्ख रक्स्व तो ॥२॥ इतरः स्माऽऽह यदि भवान् , प्रतिपनं सत्यमेव निर्घहति । तदनु विहस्य स ऊचे, हे विबुधे! विबुधनिन्दितानेतान् । निस्वहउ तो पुव्वं-गीकयसुविसुद्धसंमत्तं ॥ ३८ ॥ बंतासवे य पित्ता-सवे य तुच्छे अणिच्चे य ॥ १३॥ अहिमणिरभावुकं द्रव्यमत्र जीवस्तु भावुकं तस्मात् । नरकपुरसरलसरणि-प्रायानायासनिवहसंसाध्यान् । चितिजंतो संम, दिटुंतो एस जं किंचि ॥ ३६॥ अंते कयरणरणए, जणए बहुदुक्खलक्खाणं ॥ ६४ ॥ एवं सुयुक्तयुक्निभि-रुकोऽपि च तेन नृपतितनुजन्मा। पापातमात्रमधुरान् , विषवत् परिणामदारुणान् विषयान् । तं लिहिं प्रालिङ्गिय-हियो माणेण न चएर ॥४०॥ भवतरुमूलसमाणे , माणेइ सचेयणो को णु ? ॥ ६५ ॥ प्राप्त च तत्र दिवसे, वञ्चित्वा परिजनं गृहीताऽसिः। शाम्यन्ति नैव विषयाः, हि लेण्या प्रत्युत प्रवर्द्धन्ते । काबालिएण सह निसि, पत्तो कुमरो सुसाणम्मि ॥४१॥ आलिख्य मण्डलमसा-वर्चित्वा मन्त्रदेवतां सम्यक । कररुहकंडयणेणं , पामा इव पामरजियाणं ॥ ६६ ॥ अह काउंसिहबंध, कुमरस्स समुट्टिो जाव ॥४२॥ उक्तं चताव दुवाच कुमार, स त्वं निजमेव मे शिखाबन्धः। न जातु कामः कामाना-मुपभोगेन शाभ्यति । नियकजं चिय पकुणसुमा धरसु मणे भयं ति तो॥४३॥ हविषा कृष्णवमेव, भूय एवाभिवर्द्धते ।। ६७ ॥ तस्थावुद्यतखा-स्तत्पावे ऽसौ कपाल्यथो दध्यो। तद् दःखलाहतुं, गृद्धिं विषयेषु मुश्च भवभीरु । कुमरसिरगहणसिहब-न्धबहुलिया विहलिया ताव ॥४४॥ सिरिजिणनाहे तद्दे-लयम्मि भत्ति सया कुणसु ॥ ६८॥ तदमुष्य शिरो ग्राह्य, स्वविक्रमेणैव मनसि कृत्वैवम् । इति तद्वचनामृतमा प्य यक्षिणी शान्तविषयसंतापा। गरुयगिरिसिहरलंघण-पवणं काउं नियं सर्व ॥ ४५ ॥ संजोडियकरकमला, कम लक्खा जंगए कुमरं ॥ ६६ ॥ कूपसमकर्ण कुहर-स्तमालदलकालकर्तिकाहस्तः। स्वामिस्तष प्रसादात् , सुलभं खलु में परत्र विशदपदम् । दिकरडिरडियपडिम, लग्गो धडहडिउमइवियर्ड ॥४६॥ नीससदुहाभोए , भोए संमं चयंतीए ॥ ७० ॥ तद् दुर्बिलसितमिति वी-दय नृपसुतः केसरीव करियूथम् । स्वयि सुदृढो भक्तिभरो , राग इव सुपाशिते ऽशुके मेऽस्तु । अक्खुहियमणो जा मं-डलग्गमुगं स पउणे ॥४७॥ जो पुजो तुह वि सया, सो मह देवो जिणो होउ ॥ ७१ ॥ ताबवाच स पापी, रे बालक! तव शिरःसरोजेन ।। इति यावद् गुरुभक्तिः,साऽन्यदीप भणियति स्फुट किश्चित् । पूर अग्जनियगु-त्तदेवयं होमि सुकयत्थो॥४८॥ ता सुणिउं महुरझणि, कुमरो पुच्छह तयं देवि ॥ ७२ ॥ तत प्रास्यत् क्षितिपसुतो, रे रे पापरिहपाश! पापिष्ठ ! अतिवन्धुरबन्धसमृ-दशुद्धसिद्धान्तसारवचनेन । ३६७ Page #1609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमकुमार अभिधानराजेन्द्रः। भीमकुमार के कुणंति सज्झा-यमसरिसं सातओ भणः ॥ ७३ ॥ हढजिनधर्मधुरीणो, भीमाऽऽख्यो निजसखः कुलस्वामी । लम्तीह गिरौ मुनयो, मालचतुष्काच पारयन्ति विभो । केण वि कत्थ विनीओ, कुलिङ्गिणा सो उ मे सरणं ॥६॥ तेसि सिज्झायपरा-ण एस सुब्वा महुरसहे। ॥ ७४ ॥ योग्यूचे रे पूर्व, स तव स्वामी भयेन मे नष्टः । भय नृपतिसूनुरुचे, हिमे शिखी शेषतमसि मणिदीपः। अब सिरेण तस्से-व कालियं देविमचितो अंहस्थ वि पुन्नेहि. सुसाहुसंगो महं जाओ ॥ ७५ ॥ तभावे तत्पूजा, तव शिरसाऽपि हि मयाऽद्य कर्तव्या। सदहमिदानी रजनी-शेषममीषां समीपमुपगम्य । ता तुज्झ कह सरणं, सो होही मृढ!कापुरिसो?॥१०॥ गमिहि ति तमो नीमो, सो देवीए मुणीगते ॥ ७६ ॥ रेरे स तव स्वाभी. ममाधुनाऽशसि कालिकादेण्या। मातः सपरिजनाऽहं, मुनीन् प्रशंस्यामि सेति जल्पित्वा । विझगुहामासने, पासे फिर सेयभिक्खूणं ॥ १०१॥ सटाणं संपत्ता, सुमरती कुमरउपपसं ॥ ७॥ करवालोऽयं तस्यै-ब निशित भानायितो मया पश्य । इसरोऽपि गुहाद्वार-प्रत्यासनस्थितं ननाम गुरुम्। इमिण थिय तुह सीसं, छिजिहिई इरिह निभंतं ॥१०॥ उपलवधम्मलाहो, उवषिसए सुखमहिपाढे ॥ ७ ॥ उभयाऽऽलापान् श्रुत्वा, दध्यौ भीमः सुदुःखसामर्षम् । विस्मितादयोऽपृच्छत्, भगवन् ! कथमिह सुभीषणे देशे। हा कह पायो वि नडर, मह मित्तं बुद्धिमयरहरं ॥ १०३ ॥ तुम्भे चिट्ठामभया, मसहाया निरसणा तिसिया ॥ ७॥ हकयति स्म ततस्तं, रे योगि छुव ! भवाधुना पुरुषः। एवं कुमारपृष्ठो, यावत् प्रतिभणति किश्चन मुनीशः। गिरिहनु तुज्झ मउलि,मिउलेमि जयस्स वि दुहाई॥१०४॥ तानिया निवातणमो, गयणे इतं भुयं एग ॥20॥ तं नरमपास्य योगी, कुमारमभिधावितस्ततस्तेन । दीर्घतरा गवलरुविः, साऽवतरन्ती नभोगणाच्छुशुभे । दारकवाडपहारेण पाडिनो से कराउ असी ॥ १०५ ॥ महलच्छीए वेणि-व्य संबिरा लाडहलावना ॥८१ ॥ धृत्वा कचेषु भूमी, निपात्य दवारसि क्रम भीमः। तरलतरभीषणाऽऽकृति-रतिकठिना रक्तचन्दनोल्लिप्ता । जा लुणिही से सीसं, ता काली अंतरे होउं ॥ १०६॥ भूमीप परिसग्गा,जमस्स जीह व्व सा सहर॥२॥ प्रीताऽऽहबार ! मैनं, बधीहि मम बत्सलं छलितलोकम् । मथ विस्मयभयजननी, समागता झगिति तत्प्रदेशे सा। जो नरसिरकमलेहि करेइ मह पूयमइभत्तो ॥१०७॥ भयरहिया ताणं, मुणिकुमराणं नियंताणं ॥३॥ भो भएशतं पूर्ण, मौलीनां मोलिनाऽमुनाऽच स्यात् । पायरियनिययरूवा, अहंच एयस्स सिज्झती॥१०॥ मागम्य तदनु सहसा, क्षितिपतितनयस्य मण्डलानं सा। तावत् त्वमसमकरुणा-पण्याऽऽपणागम क्षितिपतनय!" मुट्ठी गहिय सुदिलं, बलिया पच्छामुई झत्ति ॥४॥ तुहपउरपउरिसेणं, तुट्टा मग्गस वरं कायं ॥१६॥ कस्य भुजेयं किं षा, करिष्यतेऽनेन मम कृपाणेन । परहितमतिः स ऊचे, तुष्टा यदि मम ददासि परमिष्टम् । पिच्छामि सयं गंतुं य कुमरो उटिनो सहसा ॥ ८५॥ तो तिगरण परिसुद्धं, जीववहं लहु विवजेहि । ११०॥ प्रणिपत्य सूरिचरणे, पञ्चास्य इगतिकौतुकवशेन । तव सुतपशीलाभ्यां, विकलायाः का हि धर्मसंप्राप्तिः। उच्छलिउंछयबरो, प्रारुढो तीर बाहाए ॥८६॥ एसेव तुज्झ धम्मो, चपसु तसजीववहमेयं ॥ १११॥ हरगलगलसुनीलिम-भुजाधिरूढो वजन् गगनमार्गे।। यद्वदिह नाऽऽत्मलाभ, लभते किल पादपो विना मुलम् । कालियपुट्ठाऽऽरूढो बिरहु व्य विरायए कुमरो॥८॥ तह धम्मो चि जियाणं, न हो। नूर्ण दयार विणा ॥ १२ ॥ स्थूस्थिरभुजफलको-परि स्थितो विपुलगगनजलराशिम् । मा भद्रे! स्वस्थ पुरो, जीववधमचीकरः कदाचिदपि । वणिमो व भिनपोत्रो, तरमाणो सहा निवासुत्रो ॥८॥ तह मा तूससु भवदुह-पयाणसजेण मजेण ॥ ११३॥ बतरतरुपरगिरिगण-गिरिसरितो याति यावदभिपश्यन् । कारुण्यमयं सम्यक्, यद्यकरिष्यः पुरा हि जिनधर्मम् । भीमो प्रासयभीम, ता पिच्छा कालियाभवणं ॥ ६ ॥ तो नेवं पार्वती, कुदेवजोणीई देवत्तं ॥ ११४ ॥ तगर्भगृहाऽऽसीना, प्रहरणयुक् महिषवाहनाऽऽसीना। तस्यज जीववधं त्वं, स्व भक्ता अपि भवंतु करुणााः । तेणं दिवा नरकं-डमंडिया कालियापडिमा ॥१०॥ पूयसु जिणपडिमाओ, धरसु जिणुत्तं च सम्मत्तं ॥ ११५ ॥ तस्याश्चाग्रे शे. स पूर्यकापालिकस्तथा तेन । जिनमार्गसंस्थितानां कुरु सानिध्यं च सर्वकार्येषु । बामकरेणं एगो, पुरिसो केसेसु परिगहिओ ॥१॥ जं लहिउं नरजम्म, तं भद्दे ! लहिसि लहु सिद्धि ॥ १६ ॥ पस्यां किल बाहाया-मागच्छति नृपसुतः समारूढः । अद्यप्रभृति समस्तान् , जीवानिजजीववद् निरीक्षिष्ये । सा तरल बुट्टजोगि-स्स संतिया दाहिणी वाहा ॥ १२ ॥ अहयं ति भणिय काली, सहसेव असणं पत्ता॥ ११७॥ केशेषु गृहीतं. रष्टा परिचिन्तितं कुमारेण । अथ मन्त्रिस्तो भीमं प्रणनामाऽऽलिङ्गय सोऽपि तं प्राह । कि एल कुपासंडी, काही एयरस पुरिसस्स ? ॥ ६॥ कह मित्त! मुणतो वि हु,गो वसमिमस्स पाबस्स ॥११८॥ तत् प्रच्छन्नो भूत्वा, तावत् पश्यामि चेषितममुष्य । सचिवतनूजोऽप्यूचे, मित्र! प्रथमेऽद्य यामिनीयामे। पच्छा अंकायब्वं, तं काय विचितेउं । १४॥ पासगिहे तुह भज्जा, पत्ता अनिएवि तं तत्थ ॥ ११ ॥ तस्थावुत्तीर्य भुजा-निभृतस्तस्यैव योगिनः पश्चात् । संभ्रान्तनयनयुगला, साऽपृच्छन् यामिकांस्ततस्तेऽपि । अयि कुमरखमा, सटाणं सा भुया लग्गा ।। १५ ॥ पभणति हो छलिया,जग्गंतो बिहु कहं अम्हे ॥ १२०॥ तं मरमथ योग्यूवे, स्मरेटदेवं कुरुष्व भोः शरणम् । सर्वत्र मार्गितोऽपि च, यदा न दृष्टोऽसि तदनु भूभर्तुः। तुह सिरमिमिण। अलिणा, अंछिर्नु पूरहं देविं ॥२६॥ कहियं केण वि हरिओ,कुमरो निसि पढमजामम्मि ॥११॥ स प्राह परमकरुणा-रसनीरनिधिर्जिनेश्वरो देवः। श्रुत्वेदं व जनको, जननी लोकश्च विलपितुं लग्नः । सब्यावस्थगएण वि, सरियम्बो मज्झन ॥ ६॥ अहोयरिउं पत्ते, जंपर कुलदेवया एवं ॥ १२२ ॥ Jain Education Interational Page #1610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमकुमार अभिधानराजेन्द्रः। भीमकुमार नृप! सुस्थो भव तव सू नुरपहृतो योगिनाऽधमेन निशि ।। । सयलपुरिसत्थहणए, जणए नीसेसदुक्खाणं ॥ १४७ । उत्तरसाहगमिसनो, कुमरस्स सिरं गहिस्सत्ति ॥ १२३॥ तम्मुश्व दीन मेनं, करुणारसकारणं कुरु सुधर्मम् । यक्षिण्या निजगेहे, नीतश्चेत्यादि सस्फुटं प्रोच्य। मुक्खं दुक्खविमुक्खं, लहेसि जं अनजम्मे वि ॥ १४८॥ भणिय थोपदिणेहिं , इह एही गुरुविभूईए ॥ १२४ ॥ इति बहु भणितोऽपि यदा. न मुञ्चते तं नरं स दुष्टात्मा । अथ सा स्वस्थानमगात् , संवादयितुं वचस्त्वहं तस्याः। चितेह कुमारवरो, न सामसज्मो इमुत्ति तो ॥ १४६ ॥ श्रवसो इ जोयणत्थं, विणिग्गो निययभवरणाश्रो ॥ १२५ ॥ कोपाऽऽविष्टं धृष्टं तं सहसा प्रेर्य नृपतितनुजन्मा। तावत् सहसा केनाऽ-प्युक्तं पुरुषेण मुदितचिसेन । नियपट्टीए ठावर, तं पुरिसं सो तभी कुवित्री ॥ १५० ।। मचितियत्थसिद्धी, तुह भद्द !इमा हवउ सिग्धं ॥१२६॥ भीमं स भीममूर्ति-निगरीतुमधावत प्रसृतवदनः । इत्येवं शुभशब्द-न रञ्जितो यावदस्मि चलितमनाः । तं धारय खुरे कुमरो, लम्गो भामेउ सिर उरि ॥१५१॥ तो गयणगएणिमिणा, उक्विविभो इत्थ प्राणीश्री १२७॥ तबनु स सूक्ष्मो भूत्वा, निर्गत्य कुमारहस्तमभ्यतलात्। पुण्यभरप्राप्याणां, भवताममुनैव मेलितोऽस्मि ततः। कुमरगुणरंजियमणो, अहिस्सो ठाइ तत्थेव ॥ १५२ ॥ परमुवयारिस्सम-स्स धम्ममुवाससु बरमिस ॥१२८॥ तस्मिन्त्रहश्यमाने. नृपतनयस्तस्य नागरनरस्य। प्रीतः प्राहस योग्यपि, यः काल्या शिधिये प्रवरधर्मः। बाहुविलग्गो कोउग-भरेण पविसर नियभवणे ॥ १५३ ॥ सो मह सरणं तहे-सभी य देवो तह जिणु त्ति ॥ १२६ ॥ तत्र च सप्तमभूमि-स्तम्भाऽऽश्रितसालभञ्जिकाभिारदम् । जोडियकराहि भणियं, सागयमिह भीमकुमरस्स ॥ १५४ । अपकार्युपकारपर-स्य बुद्धिमकरगृह! तव नतोऽस्मि पदौ । स्वरितं त्वरितं च ततः, स्तम्भोपरिभागतः समवतीर्य । गुणरयणरोहणगिरि, सामि! कुमारं च पडिवन्नो ॥ १३० ॥ ताहिं बहुमाणेणं. दिलं कणगाऽऽसणं तस्स ॥ १५५ ॥ इति यावसे मुदिता, जल्पन्ति हि तावदुत्ते सूर्ये।। तेन पुरुषेण सार्द्ध नृपाऽऽत्मजस्तत्र यावदासीनः। पत्तो तत्थ जवक्खा, हत्थी अथोरथिरहत्थो ॥१३१॥ सा मजणसामग्गी, सव्वा पत्ता नहाउ तहिं ॥ १५६ ॥ कृत्वा करेण भीम, सचिवं चाऽऽस्थाप्य निजक पृष्ठेऽसौ। पञ्चालिकाः प्रमुदिताः, प्रोचुः परिधाय पोतिकामेनाम् । कालीभवणाउ तो, लहुनहमग्गे समुप्पडओ ॥ १३२ ॥ अम्होवरि पीसऊण, करेउ न्हाणं कुमारवरो॥ १५७ ॥ अथ विस्मितः कुमारः, प्रोवे हे मित्र ! मनुजलोकेऽत्र । धरणीधवभव उत्रे, मम मित्रं नगरपरिसरोद्यामे। करिरयण मेरिसं किं, दीसह किंवा समुप्पा य? ॥१३॥ चिट्ठा तं हकारह. आणीश्रो ताहि लहु सो वि ॥ १५८ ॥ जिनवचनभावितमतिः, स्पष्टमभाषिष्ट मन्त्रिसूमित्रम् । ताभिर्मित्रसमेतो, भीमः संस्नाप्य भोजितो भक्त्या। तं नस्थि संविहाणं, संसारे जं न संभवह ॥ १३॥ जा पल्लंके पल्ल-कविम्हनो चिट्ठा सुहेण ॥ १५६ ॥ किन्तु तव पुण्यभार-प्रणोदितः कोऽपि सुर घरो धेषः । ताव दुवाच समक्ष , कृताञ्जलिर्निरः कुमारवरम् । ता जाउ जत्थ तत्थ व, हत्तो न मणंऽपि भयमस्थि ॥१३॥ तुह असमविक्कमेणं, परितुट्ठोऽहं वरेसु बरं ॥ १६०॥ इति जल्पतोस्तयोः स, क्षणेन नभसोऽवतीर्य शून्यपुरे । जगदे जगतीशभुवा, यदि तुष्टस्त्वमसि मम ततः कथय । पकम्मि मउलिदारे, ते मुत्तु करी काहि वि गो ॥१३६॥ को तं को उबयारो, किं पुरमिणमुव्वसंजायं? ॥१६१॥ भीमो मित्रं मुक्त्वा, नगरस्य बहिः स्वयं विषेशकः। प्रोचे सुरः पुरमिदं, कनकपुरं कनकरथनृपोऽत्राभूत् । पुरमझे ता पिच्छर, नरसिंहसमागिई जीवं ॥१३७॥ तेन च मुखे गृहीत. सुरूप एको नरो रसन् विरसम्। जो रक्खिो तए सो, प्रहमासि पुरोहियो चंडो ।। १६२ ।। मा मम हरेसु पाणे, पुणो पुणो इय पयंपतो ॥ १३८ ॥ सर्वस्य जनस्योपरि, सदाऽपि चास्थात् क्रुधा ज्वलस्तदनु । तं दृष्ट्वा क्षितिपतिभू-रहो इदं किमपि दारुणं कर्म । सम्यो वि जणो जाओ,मह वहरीकोऽविन हुसुयो॥१६३।। इय चितिय तं सविणय-मिय पत्थइ मुंच पुरिसमिमं ॥१३६॥ अयमपि नृपःप्रकृत्या, क्रूरमनाः कर्णदुबलः प्रायः । उन्मीलिताक्षियुगले-न तेन संवीक्ष्य नृपतिसुतवदनम् । संकार वि प्रवराह-स्स कारए दंडमाचंडं ॥१६४ ॥ स नरो मुहाउ मुत्तुं, संठविप्रो मुटु पहिढे ॥ १४० ॥ केनचिदपरेधुर्मयि , मत्सरभरपूरितेन नृपपुरतः। स्मित्वेति वाचमूचे, मुश्चे कथमेतकं प्रसन्नमुख!। अलियं कहियमिणं जह, सह डुबीए इमो वुत्थो ॥ १६५ ।। जं अजमए एसो, लद्धो छुहिएण भक्खं ति ॥ १४१ ।। कालंच मार्गयन-प्यविचार्य शणेन वेष्टयित्वाऽहम् । आह कुमारस्त्वं कृत-वैक्रियरूप इव लक्ष्यसे भद्र !। छंटावेउं तिल्ले-ण जालिमोऽणेण विरसंतो।। १६६ ॥ तो कहतुद्द भाखमिणं, जमकवलाहारिणो अमरा ॥१४२॥ तदनुस दुःखं मृत्वा, जातोऽहमकामनिर्जरावशतः। अबुधो यद्वा तवा, करोति युक्तं हि न पुनरेतत् ते । नामेणं सब्बगिलु, त्ति रक्ख सो सरिय अहवरं ॥ १६७ ॥ सदुई पलवंताणं, सत्ताणं घायणं विबुह !॥१४३॥ सच समेस्य मया भोः, सर्वोऽपि तिरोहितो नगरलोकः । यः खलु यथा तथा वा, देहभृतो हन्ति विरसमारसतः। एम निवो संगहिश्रो, निम्मियनरसिंघस्वेण ॥ १६८॥ सो दुक्खलक्खरिंछोलि-कवलियो भमइ भीमभवे ॥१४४॥ करुणाऽलाकृतपौरुष-गुणमणिरत्नाऽऽकरेण मोचयता । स प्राह सत्यमेतत् , किं त्वमुनाऽदर्शि मम पुरा दुःखम् । एवं तुमए सुमए, चमक्किय मह मणं गादं॥ १६६ ॥ तह जह सयसोहणिप,विमम्मि नहु समा महकोहो ।१४५॥ एष समग्रोऽपि मया, तवोपचारो ह्यदृश्यरूपेण । अत एव बहुकदर्थन- पूर्वमिमं पूर्वशत्रुमतिदुःखम्। मजणमाई विहिरो, भत्तीए दिब्बसत्तीए ॥ ९७० ॥ मारिस्सामि अहं अह, निवतणो भणइ भो भद! ॥१४६॥ तव चरितमुविमनसा, प्रकटीचके मयैष पुरलोकः । अपकारिणि यदि कोपः, कोपं कोपे ततो न किं कुरुषे । अह नियह वलियदिट्ठी, कुमरो सयलं नयरलोयं ॥ १७१। Page #1611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमकुमार अभिधानराजेन्द्रः। भीमकुमार अत्रान्तरे कुमारः, प्रैक्षिष्ट विशिष्टविबुधपरिवारम् । तह संपयाऽऽवयानो, य के इहं हेउणो अनो॥ १६६ ॥ इतं गयणपहेणं, मोयरिउं चारणमुणिदं । १७२॥ एष पुनापारो, भव्यानां सुकुलसम्भवानां वः । या किल मन्त्रिपुनः, कुमारमुक्तः स्थितोऽभवत्तत्र । जिणधम्मे अदुलहे. न हु कायव्यो पमानो त्ति ॥ १७॥ सुररायकणगकमले, ठिमो गुरू कहाधम्मकहं ॥१७३ ॥ सोदरभावः साध-मिकेषु सेवा सुसाधुषर्गस्य । अथ भीमप्रेरणया, सर्वगिलो मन्त्रिसूनुनकरथी। परहियकरणे जत्तो, तुमेहि सया विहेयम्बो ॥ १६८॥ सम्बो विनयरलोश्रो. पत्तो गुरुपायनमणथं ॥१७४॥ अथ विहिताजलस्ते,बभाषिरे नाथ! कतिपयान् दिवसान। क्षितितलविनिहितशिरसा, प्रमुदितमनसः प्रनष्टहत्तमसः। रह चिट्ठसु जेण मह वि, जिणधम्मे होरकोसमं ॥१६॥ पणमे मुणिमाई, सुणंति ते देसणं एयं ।। १७५ ।। इति तद्वचनं श्रुत्वा, यावत् प्रतिवक्ति किश्चिदपि भीमः । कोपा सुगतरुपरयुः, क्रोधो वैरानुबन्धकन्दधनः । ता डमडमंतहमरुय-सहसमुत्तसियनियलोया ॥ २० ॥ संतापकरो कोहो, कोहो तवनियमवणदहणो ।। १७६ ॥ विशतिवाहा काली, सा कापालिकयुताऽगमत्तत्र । कोपाटीपषिसंस्थुल-देहो देही करोति विविधानि । रायसुयं नमिऊणं. उवविठ्ठा कुमरनिद्दिट्टा ॥ २०१।। पामारणथम्भक्खा-पदाणमाईणि पावाणि ॥१७७॥ अभणच कुमार! तदा त्वयि करिणा नीयमान इह ससस्ने। तत ऊर्जस्वलमतिबा, सुदारुणं कर्मजालमर्जित्वा । मोहीद नाउ तुह हिय-मिमं न चलिया य एयं पि ॥२०२॥ भमा भयभीमरसे , निस्सामने दुहकतो ॥१७॥ तव जनकः पुरलोकः, स्मृत्वा तव गुणगणं रुदन्नधुना। तद् भो भण्या भव्यं, पदमिच्छन्तो विहाय कोपभरम् । कजवसेण तहियं , गयाइ मे कह वि संठविउं ॥२०३॥ पपरियसिषपयसम्मे, जिणधम्मे उज्जम कुणह।। १७६॥ विदधे पुरतस्तेषां, मया प्रतिक्षा यथा दिनयुगान्ते। भूपे सर्वगिलो, मत्वा मुनिपतिपदोजगादेति । इह मे बाणेयन्वो, भीमकुमारोस मित्तजुओ । २०४ ॥ काबो कणगरहनिवे, मनप्पर्सि मप मुक्को ॥ १८०॥ कथितं च यथा भीमो , ह्यतिष्ठिपद् बहुजनं जिनेन्द्रमते । अत्र व भीमकुमारे, धर्मगुराषिव ममास्तु दृढभक्तिः । रविनत्था बहुलोयं, मारिजंतं च गुरुकरुणो ॥ २०५ ॥ मातत्य गागतो, समागमो करिबरो एगो ॥ २०१॥ अतिहितनिजसखसहित स्तिष्ठति कुशलेन कनकपुरनगरे । तदर्शने सहसा, सा पर्षद भृशमुपागमत् क्षोभम् । ताभो पमोयठाणे, मा हु विसायं कुणह तुम्भे ॥२०६ ॥ तोमरो करिणं पप्पुकारेउ धीरविश्रो ॥१२॥ श्रुत्वैवमुत्सुकमना. यावत् प्रस्थास्यते वरकुमारः। अस्तिो मिजहस्तं हस्ती संकोच्य तदनु शान्तमनाः। ता गयणयले भेरी-भंभाइरबो समुच्छलियो । २०७॥ कार्ड पयाहिए-रिसस्स गुरुणो तो नमः ॥ १८३।। चञ्चद्विमानमाला-मध्यविमानस्थिता कमलवदना । मथ पतिपतिमा जग, मसाजो स्माबहो महायक्ष । विट्ठा पगा देवी, वसदिसि निन्नासियतमोहा । २०८ ॥ भीमं मासरिय र तमागो करिवरो होउं ॥ १८४ ॥ अथ किमिति भणन् रजनी-चरर करे मुद्रं दधद् यक्षः। काली भवनाअषता, पूर्वमसौ क्षितिपतनय मानिन्थे । करकवियवित्तकत्ती, झत्ति समुढेइ काली वि ॥ २०६॥ वयं मियपरिपुत्तय-कणगरहनारिंदरक्लाए ॥ १५ ॥ भीमा भीमवदभयो, यावत्तिष्ठति च ताववियुच्चैः। संप्रति मिजनगरं प्रति, नेतुं भीमं भृशं स्वमुत्सहसे। जय जीव नंद नंदण, हरिवाहणनिवाणो कुमर 1 ॥२१॥ प्रायषियकरिषर-रूपं तो मति संहरर ।। १८६ ।। इति जल्पम्तो देवा, देव्यश्वायुः कुमारवरपावें। भास्वदलरुतियुक्त. प्रत्यक्ष यक्षरूपमाधाय । साइंति जक्खिणीए, कमलक्खाए य आगमणं ॥ २११ ॥ पभणानाशमहादहि! मुर्णिद ! एवं चिय इमं ति ॥१८७॥ अथ साऽपि वरविमानं, मुक्त्वा मुदिता कुमारपदकमलम् । विधाप्यं कि वेतत् , पूर्व कक्षीकृतेऽपि सम्यक्त्वे । नमिऊण उचियठाणे, उविट्ठा विनवर एवं ॥ २१२।। महामणभवणे लग्गा, कुलिंगिसंसरगमो भग्गी ॥ १८८ ॥ सम्यक्त्वं मम दवा, विन्ध्यगुहायां तदा सुमुनिसविधे। तमाशदादा, सादाहि विशुखदर्शनसमृशिः। तं सि ठिो निसि गोसे,सपरियणा तत्थऽहं पत्ता ॥२१३॥ तोडी अधिपती-वणेसु जक्खो अहं जाना ॥ १६ ॥ प्रणता मुनयो यूयं, न तत्र दृष्टास्ततो मयाऽवधिना। तस्मात् प्रसच भगव-सारोपय मम विशुद्धसम्यवस्वम् । कारिता मजण-विहिमिह दिट्ठा मुहिट्ठाए ॥ २१४ ॥ कणगरहरक्वलाई-हि भणियम पिय होउ ॥१०॥ अथ बलिताऽहं स्खलिता , स्तोकं कालं च गुरुककार्येण । अथ गुरुणा सम्यक्त्व, दत्तं नृपयक्षराक्षसाऽऽदीनाम्। संपा तुम महायस!, विट्ठोऽसि सुपुषजोएण ॥ २१५ ॥ कुमरो कुलिगिसंगा-यारमालोयए गुरुश्री ॥ १९॥ यक्षण विमानमयो, विरचय्य क्षितिपसूनुरित्युक्तः। प्रतिनिर्मलसम्यवस्वो, भीमो मुमिपुङ्गवं नमस्कृत्य । भारुहह नाह! सिरघं, गंतवं कमल परनयरे ।। २१६ ॥ कपागहरावभषणे, रक्खसमाईहि सह पत्तो ॥१९२॥ तत उत्तस्था भीमः, प्रीतं संबोध्य कनकरथराजम् । कनकरणोऽपि मरेन्द्र, प्रभूतसामन्तमन्त्रिपरिकलितः। आरूढो य विमाणं, सह बुद्धिलमंतिपुतेण ॥ २१७ ॥ ममि भणेशकुमरं, सम्वमिणं तुह पसाउ ति ॥ १६३॥ सस्य ब्रजतो देवा, गायन्तः केपि केऽपि नृत्यन्तः । यशीव्यते यदेतत् , राज्यं प्राज्यं यदेष पुरलोकः । गयगजि यहाँस, तप्पुरो केऽवि कुव्वता ॥ २१८॥ जं एपस्स मतुष्छा. लच्छी किरजं च संमतं ॥ १४॥ भेरीभम्भाऽऽदिरवैः, समस्तमस्बरतलं बधिरयन्तः। तदयं लोकस्तव ना-! किरः समुचिते ततः कार्ये । कुमरेण समं पत्ता, कमलपुरासनगामम्मि ॥ २१६ ।। तावाबारेयम्बो, जाबोरभिसं माणुग्गहिरो॥ १६५॥ तत्र च भीमश्चैत्ये-गमत् सतो यक्षराक्षसप्रमुखः। स प्राइजमममरणे, अन्योन्यमिवन्धने यथाऽसुमताम् ।। पणमेवि जिणवरिदं. ट्ठिो दांव स महत्थं । २२० । Jain Education Interational Page #1612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८६ ) अभिधान राजेन्द्रः । भीमकुमार । , अथ पटदरभङ्गार-साल मुख्य सूर्यदीयः । कमलपुरे अस्थाण-नि सुनिरिण | २२१ ॥ तदनु नृपो मन्त्रिजनं पप्रच्छ किमद्य कस्य जिनसुमुनेः । वरनाणं उपपन्नं, जं सुब्बइ अमरतूररवो ॥ २२२ ॥ यावत् विमृश्य सम्यक्, मन्त्रिजनः प्रतिवचः किमपि दते । तग्गामसामिणेवं, राया वद्धाविश्र ताव ॥ २२३ ॥ बहुदेवीदेवतः प्राप कुमार प्रभो मम प्रां जिमिव महसदो एस पारदो ॥ २२४ ॥ दवा निजामति पर्जितां तस्मै । बुत्तो वित्ती रक्षा, भयेसु सामंतमाइजणं ॥ २२५ ॥ संवदति येन सर्व प्रगे कुमारस्य सम्मुखं तुम् कारे सोच सवित कारण सम्यं ॥ २२६ ॥ प्रातश्च प्रीतमनाः सपरिजनः सम्मुखं यय। राजा । श्रागच्छंतो कुमरो, दिट्ठो गणयम्मि इंदु व्व ॥ २२७ ॥ उत्तीर्य वरविमाना- अनाम भीमो नृपस्य पदकमलम् । जीप मुहस्त्र या विकुर जहां ॥२२८|| जनकाऽऽदेशात् करियर मध्याऽऽरूढोऽय बुद्धिलतोऽपि । नियनियभि जदोषियं कुरा सम्वैखि ॥ २२६ ॥ हृष्टेन सचिवसूनुर्भीमोऽश्वस्य पृष्ठतोऽध्यासि । अह सह पिला पत्तो लहरे भीमबरकुमरी ॥ २३० भुक्लोत्तरं च राजा, भीमस्याप्रच्छि चरितमतिरुचिरम् । जं जद वित्तं तं तह, साहइ सव्यं पि मंतिसुनो ॥ १३१ ॥ अत्रान्तरेच कथितं हरिवाहननरपतेः कृताबखिभिः । उणपाल, अरविंद ॥ २३९ ॥ अथ सपरिकरो राजा तभी प्रमुदितो गुरुत्वा निसिय विषये तो धम्मं परिकर सूरी ॥ २३३ ॥ भी भव्या एष भवः, श्मशानतुल्यः सदाऽप्यशुचिरूपः । सिरमोद पाओ, परिभमिरकसादिउल ॥२३४॥ दुर्जयविभवपिपासापरिशाकिनीसंघः । अम्गरागपायग- तपभूषणदेहो ॥ २३५ ॥ दुवैरमारविकार ज्यालामा लाकराल विश्वकः पहसमयपसपिरगुरु-पश्शोसधूमेष दु॥ि२३६॥ मिथ्यास्वभुजग संस्थिति-रशुभाध्यवसायभीषणकरङ्कः । नियिब हुने भो, भ्रमंत सुमहंत भूयगणो ॥ २३७ ॥ फुच्चे स्थानिकासमूदख सुन्यंत विविध उब्बे-यजण गकारुन्नरुन्नसरो ॥ २३८ ॥ स्थानस्थाननिशित धनसंचयभस्मकूटः । किडाइलेसी सुदविद्धिसियालि विकरालो ॥ २३६ ॥ अतिदुस्सहविविधाऽऽप पितहुशकुनिकानिक रौद्रः । निजकरगरं रिद्धो माग ॥ २४० ॥ विषयविषपङ्कमग्नः, प्राणिगणस्तद् भवश्मशाने ऽत्र । पडिया जीवाणं, कत्तो सुमिल वि श्रत्थि सुहं ॥ २४९ ॥ यदि तु ज्ञानसुदर्शनमहाभयतुरः । उत्तरसाइगरूत्रेणादिकमसी ॥ २४२ ॥ धृत्या सुखामु जिनशासन मण्डले समुपविश्य । दाउ पयतेण दर्द, दुभेयसिक्खासिहाबंधं ॥ २४३ ॥ मोहवशात्रवृती-नवास्य सर्वाभीष्टविष्कृतः । क्यादि २४४ ॥ सत्यः सामाचारीविचित्र कुसुममरैः । ३६८ भीष सितमंत जावो कीर विहिणा तदेव तो २४५ ॥ मतिमतां संयन्ते समस्तानि । परिसपत्ते य जसे, सा लम्भइ निब्बुई परमा || २४६ ॥ इति हरिवाहनृपतिभवा विबुध्य गुरुवचनम् । भीसण संसार मुसा वासश्रो सुबहु वीतो ॥ २४७ ॥ साम्राज्यं भीमसुते विन्यस्यानेकलोकसंयुक्तः । भवयव लंघण पवणं दिवखं पवजे ॥ २४८ ॥ एकादशाङ्गचारी सुचिरं परिपालितास परिषः । सोरायरिसी पत्तो, तिहुणसिद्दरट्टियं ठाणं ॥ २४६ ॥ भीमनरेन्द्रेऽपि चिरं कुर्वन् जिनशासनप्रतीः शतशः । परदियकरकिरई, नीद पसाह र २५० ।। अन्वकारागारमानसः पुत्रम् । रवि दिख भीगो गो मुख ।। २५१ " " इति हि भीमकुमार सुवृत्तकं, मनसिकृत्य चमत्कृतिकारकम् । परहितार्थकृतः कृतिनो मुद्दा, भवत भावित जैन मताः सदा ।। २५२ ।। " ध०२०१ अधि० २० गुण । भीमट्टहास - मी माट्टहास पुं० रौद्रे अट्टहासे, घ००१० भीमदरिस णिज्ज - भीमदर्शनीय त्रि० । भीमं यथा भवतीत्येवंदश्यते यः स भीमदर्शनीयः। रौद्रं यथा भवति तथा एबे, शा० १ ० १ श्र० . , भीमदेव - भीमदेव - पुं० । चालुक्यवंशोद्भवे श्रद्दिल पाटनप नये स्वनामस्यति गुर्जरीना सायकाल एव मालवराजेन पार्श्वनाथप्रतिमा भग्ना ततो रामदेव पुनस्मृत्य स्थापिता कोकापार्श्वनाथ इति प्रसिद्धि गता । ती० ३६ कल्प | भीममुहास भीमक्राहा पुं० भयावह वाट्टहासे, उपा० २ ० । भीमरुव - भीमरूप - त्रि० । रौद्राऽऽकारे, " भीमरुचेर्हि अक्क मित्ता । " प्रश्न० १ आश्र० द्वार । भीमसेण - भीमसेन - पुं० । युधिष्ठिरानुजे पाण्डुसुते, आचा० १ श्रु० ४ ० १ उ० आ० म० । अतीतायामुत्सर्पिण्यां जम्बूद्वीपभारतवर्षभवे स्वनामख्याते कुलकरे, स्था० १० ठा० । स० । भाविनि स्वनामयति प्रतिवासुदेवे, स० । वैयाकरणमेच कल्प ० १ अधि० १ क्षण । कर्पूरभेदे च । वाच० | भीमसोम - भीमसोम पुं० । द्विब० । मणिमन्दिरनगरस्थयोः नामश्यात कुमारयोः ५०२०। 3 (भीमसोम कथा 'अखुद शब्दे प्रथममागे १५० पृष्ठे गता । ) भीमागार - भीमाकार जि० भवनाकृतौ ०३८०२४० भीमासुर - भीमासुर - न० | लौकिकश्रुतभेदे, अनु० भीय-भीत- त्रि० । भी क्लः । जातभये, भ० ३ श० १७० | प्रब० । जं० प्रश्न० । भीतो भयाऽऽर्त्तः । प्रश्न ०२ सम्ब० द्वार। "नि यं भीषण तत्थे । उत्त० १६.४० । ० । जं० । Page #1613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीय अभिधानराजेन्द्रः। भुकुंडण भीतस्य च यद्भवति तश्चतुर्थभावनामधिकृत्याऽऽह- पायान् नरकगमनाऽऽदीन् संभावयन् भाषिनो मन्यन भाइयव्वं, भीयं खु भया अइंति लयं, भीओ अवि- मानो वर्तते न प्रवर्तते, पापे हिंसाऽनृताऽऽदौ, ततिजो मणूसो, भीओ भूतेहिं वि घेप्पेजा, भीओ अमं पि था विभेत्युत्त्रस्यत्ययशःकलकान्निजकुलमालिन्यहतारतोऽपि कारणात् पापेन वर्तते,ततस्तस्मात्कारणात्, खलुरवधारणेह भेसेजा,भीओ तवसंजम पि हु मुएन्जा.भीओ य भरं न नि: स चोपरिष्टासंभत्स्यते,ततो धर्माहों धर्मयोग्यो भीरुरेव, वि. त्थरेजा,सप्पुरिस निसेवियं च मग्गं भीतो न समत्थो अणुच मलवत् । ध०र० । (तत्कथा 'विमल' शब्दे) शतावर्याम्, शरिलं, तम्हा न भातियवं, भयस्स वा वाहिस्स वा रोगस्स पतदिकायाम् , छायायाम् , योषिति च । स्त्री० । भययुक्तायां वा जराए वा मच्चुस्स वा अन्नम्स वा एवमादियस्स एवं धे. योषिति, वाच०। जण भावितो भवति अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो | भीरुय-भीरुक-त्री० । भयशीले, "एगे ओमाणभीरुए । " सूरो सच्चजवसंपामो ॥ ४ ॥ उत्त० २७ अ०"संगामाम्म व भीरुया।" सूत्र.१७०३ . म भेत्तव्यं न भयं विधेयमिति, यतः भीतं भयार्त प्राणिनं खुरिति वाक्यालङ्कारे, भयानि विविधा भीतयः ( ईति भीसणय-भीषणक-त्रि०। भयकारके वस्तुनि, “घोरा दारुति) पागच्छन्ति , किंभूतं भीतम् ? , (लहुयं ति) लघु ण-भासुर-भइरव-भीलुक्क-भीम-भीसणया। " पार. कं सत्यसारवजित्वेन तुच्छ, क्रियाविशेषणं चेदं, तेन ल. ना० ६५ गाथा। घुकं शीघ्रं, तथा भीतोऽद्वितीयः, सहायो न भवतीत्यर्थः। म-भीसय-भीष्मक--jo।' भिष्फय' शब्दार्थे, मा०१ श्रु० १६ नुष्यो नरः, तथा भीतो भूतैर्वा प्रेतैर्गृह्यते अधिष्ठीयते, तथा अ०। भीतोऽन्यमपि भेषयेत्,तथा भीतःतपःप्रधानः संयमस्तपस्सं. यमस्तमपि, हुरलङ्कारे,मुञ्चत् त्यजेत् , अलीकमपि ब्रूयादिति मुंजण-भोजन-न । समुद्देशने, वृ० १ उ०३ प्रक०। हृदयम् । अहिंसाऽऽदिरूपत्वात् संयमस्थ, तथा भीतश्च भरं न झुंजमाण-भुजान-त्रिका भोजनं कुर्वति, प्रा०४ पाद । आनिस्तरेत् , तथा सत्पुरुषनिषेवितं च मार्ग धर्मादिपुरुषार्थों- चा। सूत्र। पिं० । प्रशा०। अनुभवति च । जं. १ पायं भीतो न समर्थोऽनुचरितुमासेवितुं, यत एवं तस्मात् , वक्षः। स्था। (न भाइयवं तिन भेत्तव्यं (भयस्स वत्ति) भयहेतो ह्यात् | भुञ्जत-त्रि०। पालयति, दश०५०१ उ०। दुष्पतिर्यन्मनुष्यदेवाऽऽदे,तथा आत्मोद्भवादपि.नेत्याह (वाहि. स्सवत्ति) व्याधे क्रमेण प्राणापहारिणः कुष्ठाऽऽदे: रोगाद्वा भुजिऊण-भुक्त्वा-अव्य० । भोजनं कृत्वेत्यर्थे, प्रश्न०५ पाश्र० शीघ्रतरप्राणापहारकाच, ज्वराऽऽदेजराया वा मृत्योर्वा श्र. | द्वार । "ससागरं भुंजिऊण वसुहं।" प्रश्न० ४ आश्रद्वार । न्यस्माद्वा तादृशाद्योत्पादकत्वेन व्याध्यादिसदृशादिष्टवि-भंजित्ता-मुक्का-अव्य० । भुत्केत्यर्थ, स्था०३ ठा०२ उ०। योगादेकस्मादिति। वाचनान्तरे इदमधीतम्-अन्यस्माद्वा।। " जित्ता खलु तहा अभुजित्ता।"स्था०३ ठा०२ उ० । एवमादीति । एतनिगमनायाऽऽह एवं धैर्येण सत्त्वेन भावितो भजिय-भुक्त्वा-अव्य० । भोजनं कृत्वेत्यर्थे , स्था०३ ठा० २ भवत्यन्तरात्मा जीवः। किम्विध इत्याह-(संययेत्यादि)पूर्ववत् उ०। ॥४॥ प्रश्न० २ संव० द्वार । भीतमुत्त्रस्तमानसं यद् गीयते त भीतम् । गेयदोषभेदे,अनु०। किमुक्तं भवति-यदुतस्ते भुजियव्व-भोक्तव्य-त्रि० । भोजनीये वस्तुनि, “एवं भुजिय. न मनसा गीयते तद्भीतपुरुषनिबन्धनात् तद्धर्मानुवृत्तस्वाद | व्वं" भ०२ श० १ उ०। भीतमिन्युच्यते । जी० ३ प्रति०४ अधि० । जं० । भुंड--देशी-धूकरे, दे० ना०६ वर्ग १०६ गाथा । भीयपरिस-भीतपर्षत-त्रि०। भीता चकिता पर्षद् यस्य स अंडीर-देशी-शूकरे, दे० ना०६ वर्ग १०६ गाथा। भीतपर्षद् । वृ० १ उ०२प्रक० । उपदण्डे, व्य० १ उ० । भल-भाभल-न । मद्यस्थाने, कर्म०१ कर्म। आकसारतया यस्य भृकुटिमात्रमपि दृष्टा परिवार: स. घोऽपि भयेन कम्पमानस्तिष्ठति, न च क्वचिदन्याये प्र. भुंभलय-मुम्भलक-पुं०। शेखरके, उपा०२०। वृत्ति करोति । बृ० १ उ०२ प्रक०। भु-भुज-पुंगा बाहा, "भुत्रा बाहू।" पाइ०ना० २५१ गाथा। भीरु-भीरु-त्रि० । भी-क्रुः। भयशीले, स्था.४ ठा०२ उ० । भुअंग-भुजङ्ग-पुं० । सप्, पाइ० ना० ३१ गाथा। आचा। ध०। वृ० । दर्शक। सूत्र०पेहिकाऽऽमुष्मिकापाये- भुगम-भुजङ्गम-पुं० । नागे, पाहना० ३१ गाथा । भ्यस्त्रसनशीले च, स हि कारणेऽपि सति न निश्शकमध. मुअमूल-भुजमूल-न०। हस्तमूले, "कक्खा भुत्रमूलं।" पाई. में प्रवर्तते । प्रव०२३६ द्वार । ध० । ना०२५१ गाथा। भीरुगुणा धर्मरत्ने यथा भुभय-भुजग-पुं० । नागे,"उरो अही भुअंगो, भुअंगमो इहपरलोयावाए, संभावंतो न वट्टए पावे । पक्षो फणी भुभयो।" पाइ० ना० ३१ गाथा। बीहइ अजसकलंका-तो खलु धम्मारिहो भीरू ॥१३॥ भुईंडण-भृकुण्डन-नउबूलने, "गाया भुकुंडेति ।" उबू. इह लोकापायान् राजनि-गृहप्रभृतीन् , परलोका- लयति । भ०६ श० ३३ उ०। Page #1614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्।भु- गोकारामत्कण्ड्यवातूले अभिधानराजेन्द्रः। भुयगा शकण-देशी-मद्यादिमानयोः, दे० ना०६ वर्ग ११० गाथा। "जेइस्थिभोगा भुजिउं पब्वइया ते भुत्तभोगा।"नि००१०। मुक्किम-बुकित-न० । श्वाऽऽदिशब्दे, " उन्नुइनं भुक्ति जा. भुत्तसेस-भुक्तशेष-त्रि० । भुक्तोद्धृते, "भुत्तसेसं पडिच्छए।" ण।" पाइ० ना० १८२ गाथा । दश०५ अ. १उ० । सुक्खा-देशी-शुधि, दे० ना०६ वर्ग १०६ गाथा। भुत्ति-भुक्ति-स्त्रीभुज-क्लिन् । भोजने, भोगे च । "बागमो निष्फलस्तत्र, भुक्तिः स्तोकाऽपि यत्र नो।" इति स्मृतिः । भुक्खिअ-बुभुक्षित-त्रि० । बुभुक्षा संजाता प्रस्थ तार इतन्। वाच० । ध०१अधि। द्वा०। सुधायुक्त, " बुभुक्षितः किं द्विकरेण भुक्क्त ।" इत्युद्भटः।। वाच । विपा० १६०२० । नि० । शा० । "" भुत्तुनर भुक्नोत्तर--त्रि० भोजनानन्तरे, विपा० १६० १०॥ बभुताऽऽत-त्रि० । शुधा पीडिते,नि चू० ११ उ० । सुधाss. | रा०ा "भुत्तुत्तरागप वियण" भुक्तोत्तरं भोजनोत्तरकालम् । भ० ३१०१ उ०। कल्प। विपा०। ते, " बुहाइ भुक्खिनं कायं।" पाइ० ना० १८३ गाथा।। भुत्तुण-देशी-भृत्ये दे० ना०६ वर्ग १०६ गाथा। भुग्ग-मुग्न-त्रि० । भुज-मोटने,क्तः। रोगाऽऽदिना कुटिली भुमया-भ्र-स्त्री० । भ्रमतीति-भ्रः । भ्रम-डः । प्रकारमकाकते, याचा प्रश्न०१ प्राथद्वार । बके उपा०२०ाभ रयोलोपः। अनु । "धूवो मयाडमया"।८।२।१६७॥इति प्राकुने च । शा०१७०८.। तसूत्रेण भूशब्दात्स्वार्थे मयाडमया इत्येतौ प्रत्ययौ । प्रा०२ अग्गभग्ग-भुग्नभग्न-त्रि०अतीव बके.सा.१०००। पाद ।" उर्दूहनूमरकण्ड्य वातूले"॥-१।१२१॥इतिप्राकृतसूत्रे. भुज-भोज्य-वि• । भुज-एयत् । भक्षणार्थवान कुत्वम् ।भु णोकारस्योत्वम् । प्रा.१पाद । नेत्रयोरूर्द्धस्थायां रोमराठी, ज्यत इति भोज्यम् । शाल्योदनाऽऽदिके, प्रव०१द्वार । ख. वाच. उपा०।"भुमया भमुहा" पाईना० २५१ गाथा। एडखाद्याऽऽदिके.सा. १ श्रु०१मा भक्षणीये द्रव्यमाने,वा. भुय-भुज-पुं० । स्त्री० । भुज्यतेऽनेन । भुज-घषर्थे कः। च० । संखज्याम्, प्राह चूर्णिकृत-"भुज त्ति वा संखडि त्ति बाहौ, उपा०२०। प्रशा० । “भुयाहिं तिथं।" भुजाभ्यां वा एगटुं।" वृ० १ उ०३ प्रकला स्त्रीणां चतुःषष्टिकलान्तर्गते | बाहुभ्याम् । स्था०१० ठा0। रा० । करे, त्रिकोणचतुष्कोकलाभेदे, कल्प०१ अधि०७ क्षण। णाऽऽविक्षेत्रस्य लीलावत्यादी प्रसिद्ध रेखाविशेषे, वाच० । मुज्जयर-भूयस्तर-त्रि०। प्रभूततरे, "अप्पतरो भुज्जतरोवा अयंग-भुजङ्ग-पुं०। भुग्नः सन् गच्छति । गम-खच्-हि1" आचा०२ श्रु.१० ३ ० १ उ० । सूत्र० । च्च । सर्प,प्राचा०२ श्रु०४०। शा० । स०। उत्त० । अजरुक्ख-भूर्जवक्ष-पुं० । भूर्जतरी, भ०८ श०३ उ०। "भुजा "जहा पमोई तणुयं भयंगो।" भुजाः सर्पः । उत्त० १४ पसे लेहो लिहिऊण छुढो।"प्रा०म०१०। श्राव। अ०।"उरो ग्रही भुयको।" पाइना०२६ गाथा । जारे, अज्जविहि-भोज्यविधि-पुं० । भोज्यप्रकारे, पाव०६अ। वाच० । विशे० श्लेषानक्षत्रे च । वाच । भुज्जाभज्ज-भोज्याभोज्य-त्रि० । द्वि०प० । भक्षणीयाभक्ष- भुयंगम-भुजङ्गम-पुं० । भुजः कुटिलीभवन् सन् गच्छति । सीययोग, सं. नि। गम-खच्-मुम् । सर्प, वाच०। " भुयंगमो पन्नो फणी भुयगी।"पाइ० ना०२६ गाथा। "भुयंगमो जुमतयं जहा यथा च संसक्तनियुक्ती जहे।" आचा। तं। समणाए संजमट्ठा, णाणादेसेसु विहरमाणाणं । भयग-भुजग-पुं० । भुजः कुटिलीभवन् सन् गच्छति सर्प, भुज्जाभुजं निच्चं, नायव्वं सब्बदेसेसु ॥ ३॥ प्रशा.२ पद ।। षो। प्रा. म० । औ० । हा० । पाइo असणाणि य चउसट्ठी, कूरे जाणेह एगतीसं तु। ना। महोरगभेदे , प्रज्ञा० १ पद । औ० । श्वेषानक्षत्रे तह चेव पाणगाई,तीसं पुण खज्जगा हुंति ॥४॥ सं०नि०।। च । वाच । ('अकप्पिय' शब्दे प्रथमभागे ११८ पृष्ठे विस्तरः) भोजक-पुं० । अर्चके, मा०१७०१०। भुज्जो-भय-अव्य । भुवे भावाय वा यस्यति । यस्-भावे भुयगकंचुय-भुजगकञ्चुक-नाभुजगत्वचि, पो०१ विष०। कि । पुनरथे,वाचा सूत्र.१७.३ अ०३ उ०। श्रा० मा भुयगवई-भुजगपति-पुं० । महोरगाधिपे, मौ०।जी। अन्त०। प्राचा० । कल्प०। प्रश्न । स्था।" भुज्जो भुज्जो भूयगई-भुजगवती-स्त्री० । अतिकायस्य व्यन्तरेन्द्रस्य स्व. त्ति वा पुणो पुणो त्ति वा एगटुं ।" नि० चू० २० उ० नामख्यातायामग्रमहिष्याम् , भ.१.श०५ उ०। ( भवास्था। सूत्र स्तरकथा 'ग्गमहिसी' शब्द प्रथमभागे १७१ पृष्ठे गता ) भूत-भुक-त्रि । भुजेः कर्मणि क्तः। भक्षिते,वाचा सेविते. भुयगवर-अजगवर-पुं०। स्वनामख्याते द्वीपे, स्था० ३४० उत्त०१४ अ० । प्रा० । कल्प० । भागे, उत्त० १६ 40 ! "भुः ४ उ०। स च रुचकवराद् द्वीपादसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् सासिपाणिय । " भुक्तभोग इति । उत्त) १६ अ० । गत्वा भुजगवरो नाम द्वीपः । अनु०। भोजने व । उत्त० १६ अायच्च भुक्तं सत् पीडयति तद् भयगा-भजगा-स्त्री। अतिकायस्य व्यस्तरेन्द्रस्य स्वनाम. भुक्तम् । स्थावरे विषभेदे, स्था०६ ठा। ख्यातायामग्रमहियाम् , भ. १० श०५ उ०। (भवान्तर. भोग-पुं० । भोगान् भुक्रवा प्रवजिते। | कथा 'भगमहिसी 'शब्दे प्रथममागे १७१ पृष्ठे गता) Page #1615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुयग भुयगावई अभिधानराजेन्द्रः। भुवणतिलय -अजगवती--स्त्री० । ' भुयगवई' शब्दार्थे, भ०१० भुल्लुंकी-भस्लुकी-स्त्री. । शृगाल्याम् , " भुल्लुकी य भसुत्रा श०५ उ०। महासहा ।" पाइ. ना० १२७ गाथा। भुयगीसर-भुजगेश्वर-पुं०। नागराजे, तं० । “भुयगीसरवि-भुव-भुवर-अव्य० । भू-अरु वुन् कि । भुवल्लोंके, तिर्यगलो. पुलभोगादाणफलिहउच्छूढीहवाह ।" औ० । जी०। के, गावाच०। भुयगेसर-भुजगेश्वर-पुं० । 'भुयगीसर' शब्दार्थे, औ०। भुवण-भुवन-न० । भवत्यत्र । भू-क्युन् । जगति. जने, प्रा. भुयपरिसप्प-भुजपरिसर्प-पुं०।भुजाभ्यां परिसर्पन्तीति भुजा काशे, चतुर्दशसंख्यायां च । वाच. जलतरवे, गा। परिसर्पाः । अहिनकुलाऽऽदिके,अनु० । स्था। जी० । प्रज्ञा भुवणगुरु-भुवनगुरु-पुं० । त्रिभुवननायके, पश्चा० २ वि. अधुना भुजपरिसानभिधित्सुराह व०। त्रिभुवनबान्धवे, पञ्चा०२ विव० । जगज्ज्येष्ठे, पञ्चा० से किं तं भुयपरिसप्पा । शुयपरिसप्पा अणगविहा परम. विव०। त्रिभुवनानुशासके, दर्श० ३ तत्त्व । “भुवणगुरूता । तं जहा-ण उला, सेहा, सरडा, सल्ला, सरंट्ठा, सारा, ण जिणाणं, विसेसओ एयमेव दट्टब्वं । "पश्चा०४ विव० । खोरा, घरोइला, विस्संभरा, मुसा, मंगुसा, पइलाइया, तीर्थकरे, "भुवणगुरुणोवगारा,पमाययं नावगच्छति ।" पंव. ५द्वार । "भुवणगुरुजिणि दगुणापरिणाए।" पञ्चा० ७विव० । छीरविरालिया, जहा चउप्पाइया, जे यावन्ने तहप्पगारा, | भुवणचंद-भुवनचन्द्र-पुं० । चैत्रगच्छभवे स्वनामख्याते प्रा. ते समासो दुविहा परमत्ता । तं जहा-समुच्छिमा य, चाये , "श्रीभुवनचन्द्रसूरि-गुरुरुदियाय प्रवरतेजाः।" ध. गम्भवतिया य । तत्थ णं जे ते संमुच्छिमा ते सव्वे न- र० ३ अधि०७ लक्ष०। पुंसगा, तत्थ पंजे ते गम्भवतिया, ते णं तिविहा प- भुवणच्छरग-भुवनाऽऽश्चय्ये-त्रि० । भुवनाद्भुते, "भुवणच्छे. सत्ता । तं जहा-इत्थी, पुरिसा, नपुंसगा । एएसि णं ए. त्यभूया, "भुवनाऽऽश्वर्य्यभूता भुवनाद्भुतभूतः । पञ्चा० विव०। बमाइयाणं पअत्तापज्जत्ताणं भयपरिसप्पाणं नव जाइकु भुवणणाण-भुवनज्ञान--न । सप्तलोकशाने, "सूर्वे च भुषलकोहिजोणिप्पाहसयसहस्सा हवंतीति मक्खायं । सेत्तं नशानम।" सूर्ये च प्रकाशमये संयमाद् भुवनानां सप्तानां भुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया । (सूत्र-३५) लोकानां शानम् । तदुक्तम्-"भुवनशानं सूर्य संयमात् । " प्रज्ञा० १ पद । जी। द्वा०२६ द्वा०॥ भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिय-भुजपरिसर्प-- भुवणणाह-भुवननाथ--पुं० । त्रिजगत्त्रातरि, दर्श०१ तस्य । स्थलचरपवेन्द्रियतिर्यगयोनिक-पुं० । भुजाभ्यां परिसर्प-भुवणतिलय-भुवनतिलक-पुं० । कुसुमपुरस्थस्य धनदनतीति भुजपरिसर्पः, स चासौ स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्यो• पतेः पुत्रे स्पनामख्याते राजकुमारे, ध०र०। निकश्च भुजपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः । भुज तस्कथानकम्परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकभेदे, प्रशा० १ पद । सत्र । जी०। "सुश्वाणियं सुपत्तं, कुसुमं व समस्थि इत्य कुसुमपुर । भुयपरिसप्पिणी-भुजपरिसर्पिणी-स्त्री० । गोधिकान कुल्या धणभी विव भूरिधणो, धणी नामेण तत्थ नियो॥१॥ पासि पउमेसयस्स ब, पउमा पउमाई पिया तस्स । दिके, जी०। पुत्तोय भुषणतिलश्री, तिलमोइव सेसपुरिसाणं ॥२॥ से किं तं भुयपरिसप्पिणीभो । भुयपरिसप्पिर्णाश्रो श्र तस्स य रूबाइगुणा-ण जाबि उवमापयं इमे हुज्जा। गविधामो पसत्ताभो । तं जहा-गोहीमो, ण उल्लीओ,से- मयणाहरणो पसिद्धा, घिणयगुणो अगुवमो तह थि ॥३॥ धामो, सेलामो, सेरडीमो,सेरिंधीओ, सावाओ, खाराओ, सो कालम्मि सुहेणं, उवज्झायमहनवाउ गिरहे। पंचलोइयामो, चतुष्पइयामओ, मूसियाओ,सुसुसियानो, घ. विणो णी कलाओ, जलपडलीश्रो जलहरु ब्व ॥४॥ तेण य विणयगुणेणं, जणिो बिजागुणो उ सो तस्स । रोलियाभो, गोव्हियात्रो, जेव्हियामो, विरचिरालियाप्रो। जो अमरसुंदरीण वि, मुहार मुहलाई कासी य॥५॥ सेत्तं जुयपरिसप्पिणीभो । जी २ प्रतिः। अन्नविणे सो राया, अत्थाणसभाइ जाव पासीयो । भुयमोयग-भुजमोचक- । नीलवर्णे रक्षा विशेषे, भ. १श चिट्ठइ ताव हिट्टे, ण वित्तिणा एव विनतो। ६॥ १3०।" भुयमोयगांदनीले या" प्रक्षा०१ पदक जीता सामिय ! रयणस्थलपुर-पहुणो सिरिअमरचंदनरवरणो। औ० । प्रश्न। चिट्ठा पहाणपुरिसो, बाह को तस्स मापसो ? ७॥ भुरुकुडिय-देशी-उलिते, दे० ना० ६ वर्ग १०६ गाथा। लहु मुंचसुइय रखा, वुत्तो सो वित्तिणा समाणीयो। भुरुदीड-देशी-उलिते, देना.६ वर्ग १०६ गाथा। नमिय निर्व उपविट्ठो, समए इय भणि उमारखो।।८।। देव! सिरिघणय! नरपर!,तुम्हं पह जंपए अमरचंदो। भुल्ल-भ्रंश-धा । अधः पतने,प्रा. । “भ्रंशः फिडफिट्टफुरफुड अम्ह पहू! अस्थि महं, वरधूया जसमई नाम ॥ ६ ॥ फुचुक्क भुल्लाः" ॥८४१७७॥ इति प्राकृतसूत्रेण भ्रंशे | सा तुह सुयस्स विमलं, गुणनिवहं खयरीहि गिज्जतं । भुल्ला 5ऽदेशः । भुल्लर । भंसर । मा०४ पाद । प्रायभिऊण सुरं, अच्चंतं तम्मि अणुरत्ता॥१०॥ For Private-& Personal Use Only Page #1616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६३) भुवणतिलय अभिधानराजेन्द्रः। भुवणतिलय किं च तयं चिय मित्तं, व कमलिणी निच्चमेव झायंती । साहप्पसाहा वि रहंति पत्ता, परिचत्तकुसुमतंवो-लमाइ कह कह वि गमइ दिणे ॥ ११ ॥ तो सि पृष्फंच फलं रसोय ॥३३॥ जा अज्ज वि सा बाला, तणं व न हु चयइ जीवियं निययं । एवं धम्मस्स विणी , मूलं से परमं सुखं । ता तुम्भेहि नरवर!, पुवसिणेहाभिवुहिकए ॥ १२॥ जेण किर्ति सुयं सिग्धं, नीसेस चाभिगच्छह ॥ ३४॥ सहला किज्जउ अम्हा-ण पत्थणा पेसिउं नियं तयणं । इय गुरुवयण पवणं, व वणदवो पप्प सप्प व कूरो। तीए गिराहाधिउजउ, वरलक्षणलक्विनो पाणी ॥१३॥ कोवण धगधगतो, सो अहिययरं समुज्जलिश्रो ॥ ३५॥ अहमइबिलासवरम-तिवदणमवलोयए निवो सो वि। सो अन्नया अकज्ज-म्मि कत्थई चोईओ मुणिहिं पि । विणएण भणह सामिय! जुत्तमिणं कीरउ पमाण ॥ १४ ॥ जाओ भिसं पउट्ठो, इह परलोए य निरविक्खो ॥ ३६ ॥ जं भणह तयं कुणिमु, त्ति निवाणा जंपिए पहाणनरो । सम्वेसि घायणत्य, तालउडविसं खिवित्तु-जलमज्झे। सो पत्तो निवदिन्ने, आवासे फुरियगुरुहरिसो ॥ १५ ॥ सो एगदिसाहुत्तो, सयं पणट्ठो उभयभीओ ॥ ३७॥ तो रनाऽणुनाश्रो, अणेयसामंतमंतिमाइजुनो। गच्छाणुकंपियाए, य देवयाए तयं कहेऊण । सो कुमरो संचलिश्रो, अखीलयचउरङ्गबलकलिओ ॥ १६ ॥ तप्परिभोगपवत्ता, निवारिया साहुखो सब्वे ॥ ३८॥ संपत्तो महदरं, पहम्मि सिद्ध उरनयरबाहिम्मि । सो बच्चतोऽरने, कत्थ वि वणवपलिससघंगो । मुच्छामीलीयनयणो, सो पडिपो रहवरुच्छंगे ॥१७॥ मरिऊण समुप्पनो, परमाऊ अप्पइट्ठाणे ॥ ३६॥ अह मज्झिमखंधारे, सहसा कोलाहले समुच्छलिए । तो मच्छेसुं पुणरवि, नरए तिरिए पुणो वि नरयम्मि ! मिलिश्री अग्गिमपच्छिम-खंधारजणो तहि सव्वो ॥ १८॥ सव्वत्थ दहणछिदण-भिंदणत्रियणादि संतत्तो॥४०॥ तो मंतिमाइणोतं, महुरालावेहि पालवंति भिसं। भमिश्रो भूरि भवेसुं, अनाणतवं करितु किं पि पुरा । कटुंब विगयचिट्ठो, न कि पि पडिजपप कुमरो॥१६॥ जाश्री धणयनरिंद-स्स एस अइवल्लहो पुती ।। ४१॥ पादना ते सव्वे, विविहोसहमंततंतमणिपमुहे। रिसिघायपरिणएणं,जंच तया अज्जियं प्रसुहकम्मं । पकुणंति बहुवयारे, न य से जायइ गुणो को वि ॥२०॥ तस्सेस वसा इण्हि, एयमवत्थं गो कुमरो॥ ४२ ॥ किं तु पवट्टर अहियं, वियणा विलयंति सयलअंगाई। तो भीपणं कंठी-रवेण पणमित्तु पणियं नाह!। तो मंतिमाइलोश्रो, करुणसरं पलधए एवं ॥२१॥ कह होइ पुणो एसो ?, पउणो पडिभणइ मुणिनाहो ॥४३॥ हा गुणरयणमहोदहि, हा निरुवमविणयकणय कणयगिरे। खीणप्पायं कम्म, इमस्स संपइ विमुच्चमाणा य , द्वा पणयकप्पपायव!, कुमार! पत्तोऽसि किमवस्थ ? ॥२२॥ चिट्ठ वियणाहि इहा-ऽऽगो विमुच्चिाहर सम्वत्तो ॥४४॥ सुयवच्छलस्स देव-स्स किं तु गंतुं वयं कहिस्सामो? । इय सोउ मंतिपमुद्दा, लाया हरिसियमणा कुमरपासं । इय जा पलवेइ जणो, सिद्धपुरवहिट्टिउजाणे ॥२३॥ संपत्ता प्रहदिट्ठो, पउणप्पाश्रो तो तेहिं ॥ ४५ ॥ ता सुरकिन्नरसेवि-ज्जमाणचरणो अणेगसमजुत्रो। कहिश्रा केबलिकहियो, पुब्वभवाई य वइयरो तस्स । नामेण सरयभाए, वरनाणी आगो तस्थ ॥ २४५ तो सो भीश्रो पमुइय-मणो य पत्तो सुगुरुपासे॥४६ ।। अमरकयकणयकमला-55सीणो धम्मं कहेड अह तस्थ । नमिउं सूरि कंठीरवाइबहुलोय संजुश्री कुमरो। सो मंतिप्पमुद्दजणो, गो गुरु नमिय उबविट्ठो ॥ २५ ॥ निस मिभीमभवभय-भीनो दिक्त्रं पवज्जे ॥४७॥ श्रह कंठीरवसामं-तपुच्छिश्रो कुमरदुक्खवुतंतं । इय सुणिय जसमई विहु, तत्थाऽऽगंतूण गिराहए दिक्खं । तेसिं पाउलभावा, समासी कहइ इय सूरी ॥२६॥ सेसजणो पुण बलिउं, धणपनिवस्साह तं चरियं ॥ ४ ॥ धायसंडे दीवे, भरहे भवणागरम्मि नयराम्मि । पुब्बकयअविणयफलं, सुमिरन्तो माणस कुमरसाहू। विदरंतो संपत्तो, इको गच्छो सुगुरुकलिश्रो ॥ २७ ॥ अइसयविणयपहाणा, जाओ अचिरेण गीयस्थो ॥ ४६॥ तत्थ य एगी साहू, वासवनामा सुवासणारहियो। विणए वेरावच्चे, सो तह दढऽभिग्गहो समुप्पन्नो। गुरुगच्छपश्चणीओ, अइअविणिो किलिट्रमणो ॥ २८॥ जद्द तग्गुणतुट्टेहि, अमरेहि वि संथुप्रो बहुसो ॥ ५० ॥ सो काया वि गुरूहि, भणिो भो भद्द ! होसु घिणयपरो। तं उबवूहति गुरू, अभिक्खणं महुरनिउणवयणहिं। जम्हा विणएणं चिय, कल्लाणपरंपरा होइ ॥२६॥" धन्नोऽसि भो महायस!, तुह सहलं जम्म जीयं च ॥५१॥ उक्त च परिचत्तरायरिमिणा, दमगमुणीसु वि षउत्तविणपणं । "विनयफलं शुश्रूषा, गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतशानम् । वेयावच्चपरेण य, सच्चवियं ते इमं वयणं ।। ५२।। ज्ञानस्य कलं विरति-विरतिफलं चाऽऽश्रयनिरोधः ॥ ३०॥ पणमंति य पुब्बयरं, कुलया न नमंति अकुलया पुरिसा । संघरफलं तपोबल-मथ तपसो निर्जरा फलं दृष्टम् । पणो पुम्बि इहजई-जस्ल जह चक्कट्टिमुणी ॥ ५३ ।। तस्मात् क्रियानिवृत्तिः, क्रियानिवृत्तरयोगित्वम् ॥ ३१॥ इय उवहिज्जतो, सो केवलिणा वि फुरियमझत्थो । योगनिरोधाद्भवस-स्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोतः। पालइ वयमकलंक, बावत्तरिपुव्वलक्खा ॥ ५४ ॥ तस्मात् कल्याणानां, सर्वेषां भाजनं विनयः॥ ३२॥" सवाउ पुब्बलक्खे, असि परिपालिऊण पजते । तथा पडिवनपायवगमो , अज्झीणज्माणलीणमणो ॥ ५५ ॥ मूलाउ संधप्पभवो दुमस्स, उप्पन्नविमलनायो, विलीणनीसेसकम्मसंताणो । खंधाउ पच्छा समुर्विति साहा । सो भुवणतिलयसाह, भवणोवरिमं पयं पत्तो ॥५६॥" Page #1617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६४) भुवणतिलय अभिधानराजेन्द्रः। भूगोल " इति विनयगुणेन प्राप्तनिःशेषसिद्धे भूकम्म-भूतिकर्मन्-न । भूत्या भस्मनोपलक्षणत्वान्मृदा धनदनृपातसूनोवृत्तमुच्चै निशम्य । सूत्रेण कर्म रक्षार्थ वसत्यादिपरिवेष्टनं भूतिकम : ग. २ सकलगुणगरिष्ठे लब्धविश्वप्रतिष्ठे, अधिः। वसतिशरीरभाएडकरक्षार्थ भस्मसूत्राऽऽदिना प. सुगुण इह विधत्त स्वान्तमश्रान्तभावाः ॥ ५७॥" रिवेष्टनकरणे, प्रव०७३ द्वार। तद्रूपे आभियोगिकभावनाध० २० १ अधि०१८ गुण । भेदे च । घ०३ अधिशा० । भूतिकर्म नाम यत् ज्वजुवणत्तियवंधु-भुवनत्रिकबन्धु-पुं०। जगत्प्रयबान्धवे, जीवा० रिताऽऽदीनामभिमन्त्रितेन क्षारेण रक्षाकरणम् ।" जरिया१ अधि। भूइदाणं, भूईकम्म विणिहिटुं।" इति वचनात् । व्य०१ उ.। भुवणमल्ल-भुवनमल-पुं०। कुसुमपुरनूपस्य हेमप्रभस्य सुते श्राव० । स्था। स्वनामख्याते राजकुमारे, सखा। (भुवनमल्लनरेन्द्रकथा 'चे. अथ भूतिकर्म व्याचष्टेइयबंदण' शमे तृतीयभागे १२६९ पृष्ठे गता।) भुषणवइ-भुवनपति-पुं० । भुवनाधिपे, सेन० । सौधर्मसुर भूईएँ मट्टियाए, सुत्तेण व होइ भूइकम्मं तु । त्यपदव्यपेक्षया यथा ईशानसुरवपदवी अधिका, तथा भुव. वसहीसरीरभंडग-रक्खा अभियोगमाईया ॥ १२॥ नपतिज्योतिषकव्यन्तराणामप्यन्योन्यं का पदवी न्यूना, का भूत्या भस्मभूतया विद्याभिमन्त्रितया मृदा वा पांशुलक्षणया व अधिकेति प्रश्ने, उत्तरम्-ध्यन्तरज्योतिष्कभवनपानां सूत्रेण वा तन्तुना यत्परिवेष्टनं तद्भूतिकर्मोच्यते । किमर्थमेवं यथोत्तरं बाहुल्येन महर्षिकत्वमिति पदव्यधिकताऽपि तथै. करोतीत्याह-वसतिशरीरभाण्डकानां स्तेनाऽऽद्युपद्रवेभ्यो र. बेति । २६३ प्र० सेन० ३ उल्ला। भुवनपतीनां भवनानिकुत्र क्षा तनिमित्तम् । अभियोगो वशीकरणम् , अादिशब्दात सन्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-रत्नप्रभाया उपरिअधश्चैकं योजन ज्वराऽऽदिस्तम्भनपरिग्रहः। बृ०१ उ० २प्रक०। तत्र प्रा. सहस्रं मुक्त्वा विचाले सर्वत्र भवनानि सन्तीतिज्ञायते, यश्चित्तं यथा-"भूतीकम्मे लहुओ (२६१ गाथा)।" भूतिकयतोऽनुयोगद्वारसूत्रवृत्तिमध्ये भुवनपतिभवनानि नरकावा मकरे प्रायश्चित्तं मासलघु । व्य०१०। ज्वराऽऽदिरक्षानिसकपाश्वे कथितानीति बोध्यम् । १४३ प्र० । सेन०४ उल्ला, मितं भूतिदानं भूतिकर्म तत्रनिपुणस्तथा। निपुणपुरुषभदे, पुं० । स्था०९ ठा। भुवणसुंदर-भुवनसुन्दर-पुं०। तपागच्छभवे सोमसुन्दरसूरेः भूकम्पिय-भूतिकम्मिक-पुं०।भूतिकर्म ज्वीरतानामुपद्रशिष्ये स्वनामख्याते प्राचार्य, ग.३ अधि। . बरक्षार्थमस्ति यस्य सः। भूतिकर्मकारके, औ०। . भुवणिंदमूरि-भुवनेन्द्रसूरि-पुं०। चैत्रगच्छभवे स्वनामण्याते भूइग्गहण-भूतिग्रहण-न० । विभूतिलाभे, भस्माऽऽदाने च । प्राचार्य, “तत्र श्रीभुवनेन्द्रसूरिसुगुरुः।" वृ० ६ उ० । संथा। भुस-बुष (स)-न० । बुस्यते उत्सृज्यते 'बुस' उत्सर्गे; भूइपल-भूतिप्रज्ञ-त्रि० । भूतिः सर्वजीवरक्षा, तत्र प्रशा यकः। पृ० वा षत्वम् । तुच्छधान्ये , फलरहितधान्ये, वाच०। स्य । सर्वजीवरक्षाक्षे, उत्त० १२ १०। प्रवृद्धम, अनन्तशानप्रा०म०२० पति, मङ्गलप्रक्षे,भूतिशब्दो वृद्धी मङ्गले. रक्षायां व वर्तते ।भूभुसगर-बुसकर-पुं०। करभेदे. प्रा०म०२०। तिप्रशःप्रवृद्धप्रशः अनन्त ज्ञानवान् । तथा भूतिप्रशो जगद्रभुसडाहद्वाण-बुसदाहस्थान-न०। बुसदाहाऽऽधारे गृहे, "ज- क्षाभूतिशः । एवं सर्वमङ्गलभूतिप्रज्ञः। सूत्र०१ श्रु०६ ० । स्थ भुसं इति तं भुखडाहट्ठाणं ।" नि० चू०३ उन "नाणेण सीलेण य भूइपरणे।" सूत्र०१ श्रु०६ अ० । प्र. भुसुंढ-भुशुण्ड-न० शस्त्रभेदे, श्राचा० १९०११०५ उ० । शया श्रेष्ठे च । सूत्र०१७०६अ। खियां डीप् । भुशुण्डी। तत्रैवार्थे, शा०१७०१०। भूल-भूतिल-पुं०। तोसलिग्रामस्थे स्वनामग्याते इन्द्रजाभू-भू-खीभू सम्प०-क्विम् । पृथिव्याम् । गा० । कल्प। लिके, येन तत्रस्थदेवेन सुद्रकरूपं विकुळ संधिच्छेदे कृते गृहीतेन देवेन निवेदितः स्वामी बद्धो मोचितः । "मोपा अष्ट । कर्म। दश । एकसख्यायाम् , वाच । इंदजालिय, तत्थ महाभूतिलो नाम । " श्रा०० १० । भूम-भूत-पुं० । पिशाचे, "ढयरा पुणाइणो पि-प्पया परेया भूउत्तम-भूतोत्तम-पुं० । भूतभेदे, प्रज्ञा०१ पद।। पिसल्लया भूत्रा ।" पाइ० ना० ३० गाथा । जन्तुसामान्ये, भूगोल-भूगोल-पुं० । भूर्गोल इव । गोलाऽऽकारे भूमण्डले, "जन्तू सत्ता भूपा य" पाइ० ना०१५२ गाथा । यन्त्रवाहे, "मध्ये समन्तादण्डस्य, भूगोलो ब्योम्नि तिष्ठति। विभ्रादेना०६ वर्ग १०७ गाथा। णः परमां शक्ति, ब्रह्मणो धारणाऽऽस्मिकाम् ॥१॥” इति भअम-देशी-कृष्टखलयशे, देना०६ वर्ग १०७ गाथा। सूर्यसिद्धान्तः । वाच०। भूइ--भूति-खी• भू-क्लिन् । भवने , भस्मनि, वृ०४ उ०।। भूगोलस्य चलाचलत्वमाचाराने यथाविभूती, संथा। पं०व०। रा० । वृद्धौ, मङ्गले , रक्षायाम् . सूत्र०१०६अ।अणिमाऽद्यष्टाधिश्वय्ये, शिवाभस्म- इहमंगसि पायारगोयर नो सुनिसते भवति, ते इह श्रानि, भूतण, सम्पत्ती, जात्याम् , वृद्धिनामोषधे च । बाच० ।। रंभट्ठी अणुवयमाणा हण पाणे घायमाणा हणो यावि भूइंद-भूतेन्द्र-पुं० । सुरूपाऽऽख्ये भूतानामिन्द्रे, स्था० ४ ठा० सपणुजाणमाणा, अदुवा अदिनमाययंति, अदुवा वायाउ विउज्नंति तं जहा-अस्थि लोए१, नस्थि लोए२, धुवे लोए Page #1618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूगोल ३, धुवे लोए४, साइए लोए५, अगाइए लोए ६, सपअबसि लो, अजबसिए लोएट, सुकडे चि वा बुकडे ति वा कल्ला त्ति वा पावेत्ति वा साहुत्ति वा असाहु त्ति वा सिद्धि त्ति वा असिद्धित्ति वा निरए त्ति वा अनिरतिया जमियं विपश्विमा मामगं धम्मं पचमाणा इत्य वि जागृह अकस्मात् ॥ " 'इ' अस्मिन्मनुष्यलोके एकेषां पुरस्कृताशुकविपाकानामाचरणमा चारो मोक्षार्थमनुष्ठानविशेषस्तस्य गोचरो विषयः, नो सुष्ठु निशान्तः परिचितो भवति ते चाप• रिणताऽऽचारगोचरा यथाभूताः स्युः तथा दर्शयितुमाह- 'ते' श्रनधीताऽऽचार गोचरा भिक्षावरिया स्नानस्वेदमलपरिपवजिताः सुखविहारिभिः शाक्पाऽऽदिभिरामापरि गामिताः इह मनुष्यलोके प्रारम्भार्थियो नयन्ति ते पा कुशीलाः सावधानम्मार्थिनः तथा बि हारामागपकरी देशिमोजनाऽऽदिदि तथाहि प्राणिन इत्येवमपरांतयन्तो प्रतापि समनुजानन्तः, अथवा अदतं परकीयं प्रयमगणितविषाकास्तिरोहितशुभाध्यवसायाः प्रददति गृहन्तीति । कि -तत्र प्रथमतृतीयमते अल्पवन्यस्यात् पूर्व प्रतिपाद्य ततो बहुतरवव्यत्वात् द्वितीय व्रतोपन्यास इति अथ बेति पूर्वस्मात् पक्षान्तरोपक्षेपकः, तद्यथा श्रदन्तं गृहति अथवा पाय विविधं नानामकारा युञ्जन्ति तद्यथेत्युप क्षेपार्थः । अस्ति 'लोकः ' स्थावरजङ्गमाऽऽत्मकः, तत्र नवखण्डा पृथ्वी सप्तद्वीपा वसुन्धरेति वा । अपरेषां तु ब्रह्मापरेषां तु प्रभूतान्येवम्भूतानि ब्रह्मादायुद कमध्ये मानानि संतिष्ठन्ते तथा सन्ति जीवाः स्वकृत फलभुज, प्रति परलोक स्तो बन्चमोली, सन्ति पक्षमहाभूतानि इत्यादि । तथाऽपरे चार्याः नास्ति लोको मायेन्द्र जालस्कपमेवेतत्सर्व तथा विचारितरमणीयतया भूताभ्युपगमोऽपि तेषामतो नास्ति परलोकानुयायी जीवो, नस्ता शुभाशुभे, किण्वादिभ्यो मदशक्रिय भूतेभ्यसम्यमित्यादिना सबै माथाऽऽकारगम्बर्धन गरतुल्यम् उपपश्यत्वादिति उ , 1 5 ( १५६५ ) अभिधान राजेन्द्रः । 4 > • 1 " यथा यथाऽर्थाश्विन्त्यन्ते, विविच्यन्ते तथा तथा । यद्येतत्स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् ॥ १ ॥ भौतिकानि शरीराणि विषयाः करणानि च । तथापि मन्देरन्यस्य तस्वं समुपदिश्यते ॥ २ ॥ श्र इत्यादि २ तथा सापाऽऽदय आयो' निल्यो लोकः, आधिमवतिरोभावमात्यापादविनाशी असता दात्ताविनाशात् यदि निश्चलः सरित्स मुद्रभूभूराणां निवात्। शाक्यादयस्त्वाद्दुः- अभु यो लोकोऽनित्यः, प्रतिक्षणं विशरादस्वभावत्वात् विनाशतोरभावात् नित्यस्य च क्रमयौगपद्याभ्याम् अर्थक्रिया. यामसामर्थ्यात् । यदि वा "अयः चः तथाहि भूगोल: के पाश्चिम्मलेन निस्वं चलनेवाऽऽस्ते आदित्यस्तु व्यव स्थित एव तत्राऽऽदित्यम एवं दूरस्याचे पूर्वतः पश्यन्ति तेषामादित्योदय, आदित्य मण्डपस्थितानां मध्याह 9 1 भूगोल ये तु दूरातिक्रान्तत्वान्न पश्यन्ति तेषामस्तमित इति । (दिसा शब्द तुम २५१३ दि saसरे " जस्स जो आइचो उदेइ ला भवति तस्स पुण्वः दिस्सा " (४७) इत्यादिगाथाभिः भचाखामिभिरपत्यं सिद्धान्त तस्वात् ५। अन्ये पुनः सादिको लोक इति प्रति पन्नाः; तथा चाऽऽडुः 46 1 आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्। अप्रतमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥ १ ॥ तस्माभूते नटस्थावरजङ्गमे । नामरमरे चैव प्रनष्टशेरमराक्षसे ॥ २ ॥ केवलं गहरीभूते, महाभूतविवर्जिते । श्रचिन्त्यामा विभुस्तत्र, शयानस्तप्यते तपः ॥ ३ ॥ तस्य तत्र शयानस्य, नाभेः पद्मं विनिर्गतम् । तरुणरविमण्डलनिर्भयं किम् ॥ ७ ॥ तस्मिन् पद्मे तु भगवान् दण्डी यज्ञोपवीत संयुक्तः । ब्रह्मा तत्रोत्पन्नस्तेन जगन्मातरः सृष्टशः ॥ ५ ॥ अदिति सुखानां दितिरसुरायां मनुर्मनुष्याणाम् । विनता विहङ्गमानां माता विश्वप्रकाराणाम् ॥ ६ ॥ कः सरीसृपाणां सुखसा माता तु नागजातीनाम् । सुरभिश्वतुष्पादना मिला पुनस्सर्वबीजानाम् ॥७॥ इत्यादि ६। श्रपरे तु पुनरनादिको लोक इत्येवं प्रतिपन्नाः, यथा शा क्यामाहुः अनवद्योऽयं भिक्षया 1 संतरा, पूर्वाव कोटी न प्रज्ञायते, अविद्या निरावरणानां सध्वानां न विद्यते न च सपाद इति तथा सपयति लोको, जगप्रलये सर्वस्य विनाशसद्भावात् ७ तथाऽपर्यावसितो लोकः सतः श्रात्यन्तिकविनाशासंभवात् "न कदाचिदनीदृशं जगद्” इति वचनात् तत्र येर्पा सादिकस्तेषां सपवितो येषां ना दिकस्तेषामपर्यवखित इति केषाञ्चित्यमपीति तथा घोक्तम्" द्वावेव पुरुष लोके, राक्ष 9 " 1 1 सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥१॥ " इत्यादि । त देवं परमार्थमा अस्तीत्याधभ्युपगमेन लोकं विषदमामा मामाभूतापाची नियुञ्जन्ति तथाऽऽत्मानमपि प्रति विषदन्ते तथा तमिति वा दुष्कृतमिति के येवं क्रियावादिनः सम्प्रतिपद्यन्ते, तथा सुष्ठु कृतं यत् सर्वपरित्यागतो महावत नाहि तथाऽपरे दुष्कृतं भवता यदसौम्यमृगलोचना पुत्रमनुत्पाद्यतेति तथा प कश्योद्यतः इत्येवमभिहितः सारे पा खण्डिकविप्रलम्धः कोऽयं पालनासमर्थोऽनपत्यः पाप इत्येवमभिधीयते, तथा साधुरिति वा असाधुरिति वा स्वमतिविकल्पितरुचिभिरभिधीयते तथा सिद्धिरिति वा श्रसिद्धिरिति वा नरक इति वा, अनरक इति वा, एवमन्यदप्याधित्य स्वाग्रहियों विषदन्त इति दर्शयति यदिदं विप्रतिपन्ना यत्पूर्वानं लोकाऽऽदिकं तदिदमाश्रित्य विविधं प्रतिपक्षा विप्रतिपन्नाः तथा चोकम् 1 " इच्छन्ति कृत्रिमं सृष्टिवादिनः सर्वमेवमितिलिङ्गम् । कस्नं लोकं माहेश्वराऽऽश्यः सादिपर्यन्तम् ॥ १ ॥ मारीश्वरजं केचित् केचित्सोमाग्निसम्भवं लोकम् । द्रव्याऽऽदिवाकल्प, जगदेत क्लेचिदिच्छन्ति ॥ २ ॥ , " Page #1619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूगोल ईश्वरप्रेरितं केचि - क्लेचिद् ब्रह्मकृतं जगत् । 1 1 । प्रभवं सर्व विश्वमिच्छन्ति कापिलाः ॥ ३ ॥ कमि सबै केलिए भूतविकारजम् । विश्वानेकरूपं तु बहुधा संप्रधावितः ॥ ४ ॥ " इत्यादि । तदेवमनथमाहितस्याद्वादोग्यतामेकांशापखम्यनां मति भेदाः प्रादुष्यन्ति तदुक्तम्- "लोकक्रियात्म तस्ये विवदन्तेवादिन विभिन्नार्थम् अतिपूर्वे येषां स्वाद्वाविनिधितम् ॥ १॥ येषां तु तं तेषामस्तित्व नास्तित्वाऽऽदेरर्थस्य नयाभिप्रायेण कथा दाश्रयणात् विवादाभाव एवेति श्रत्र च बहु वक्तव्यं तन्तु नो. रूपते प्रत्यविस्तरभया अन्यत्र च सूत्रकृताऽदी विस्तरे " 1 सुविहितत्वादिति । ते च विवदन्तः परस्परतो विप्रतिपन्नाः 'मामकम्' इस्थात्मीयं च प्रापयन्तः स्वतो नाः परामपि नाशयन्ति । तथाहि केचित्सुखेन धर्ममिच्छन्ति, अपरे दुः खेन, अन्ये मानाऽऽदिनेति तथा मामक पर्वको धम्म मोक्षायानिर्वाच्यश्च नापर इत्येवं वदन्तोऽपुष्टधम्मणोऽविदितपरमार्थान् प्रतारपाति तेषामुत्तरं दर्शयतित्रापि अस्ति लोको नास्ति बेत्यादौ जानीत यूयम्, • अकस्मादिति ' मागधदेशे आगोपालानाऽऽदिना संस्कृतस्यैयो धारणादिहापि तथैवोच्चारित इति • कस्मादिति हेतुर्न कस्मादकमा तोरभावादित्यर्थः तत्रास्ति लोक इत्युक्तेऽवाप्येवं जानति यथा न भवत्येवमक स्मारादिति तथाहि यद्येकान्तेनेव को उता सह समानाधिकरण्याचदस्ति लोका स्यात् एवं च तत्प्रतिपक्षोऽप्यलोको ऽस्तीति कृत्वा लोकवालोका स्पा व्याप्यसभाये व्यापकस्यापि सद्भावा दलोकाभावः तत्प्रतिपक्षभूतस्य लोकस्य प्रागेबाभावः सर्वगत्वा सोकस्व स्वादिति अथवा लोको ऽस्ति । न च लोको भवति, लोकोऽपि नामास्ति, न च लोकोलोकाभाव इत्येवं स्यादू, अनि चैतत् किब-अस्ते offपकत्वे लोकस्य घटपटाऽऽदेरपि लोकत्वप्राप्तिः, व्याप्यस्य व्यापक सद्भावनान्तरीयकत्वात् किं व अस्ति लोक इवाचित लोक इति कृत्या तरस्तित्वात् प्र तिशास्वीकराशि देकर भाया कि केन सिध्यतीति ? उतास्तित्वादन्यो लोक इत्येवं प्रतिशाहानिः स्यात् सदेवमेकान्तेनैव लोकादितत्वेऽभ्युपग माने भाषा प्रदर्शितः एवं नास्तित्यप्रतिज्ञायामपि वाच्यम्, तथाहि - नास्ति लोक इति ब्रुवन् वाच्यः - :-किं मस्त नेति है, यद्यस्ति कि जोन्सन यदि जो कान्तर्गतः कथं नास्ति लोक इति प्रवीषि ? अथ यदिर्भूत स्वतः खरविषायवसद्भूत एवेति कस्य मयोत्तरं दातव्यम् 1 , · भवा · 1 - ( १५६६ ) श्रभिधानराजेन्द्रः । 9 भूमिपर , को मेच्छेत् परूपाऽऽदि चतुष्यात् । सदेव विपर्यासा नवेन व्यवतिष्ठते ॥ १ ॥ " इत्यादि, अलमतिप्रसङ्गेनाक्षरगमनकार्थत्वात् प्रयासस्य एवं भुवाभ्र्वाऽऽदिष्वपि पञ्चा वयवेन दशावयवेन वाऽन्यथा वैकान्तपक्षं विक्षिप्य स्या द्वादपक्षोभ्यूयाऽऽयोज्य इति । श्राचा० १० ८० १ उ० । ( चन्द्रादिगोलविमानानां व्याख्या स्वस्वस्थाने) (अत्र विस्तरः 'शिगोय' चतुर्थभागतः।) 'लोय' शब्दे च तं निधिक गाथाभिविध्यते भू-धू पु० खीणां गर्भे, बालके च वाच० ० १ नया दिशेकान्तवादिनः स्वयमभ्यूह्य प्रतिक्षेप्तव्या इति एयमिति यथाऽस्ति रचनास्तित्ववादस्तेषामाकस्मिकोनिर्युफ्रिका, एवं वायोऽपि यादा निर्गुलिका एवेति । श्रस्माकं तु स्याद्वादवादिनां कथञ्चिदभ्युपगमान्न यथो. क्तदोषानुषङ्गः, यतः स्वपरलत्ताव्युदासोपादानाऽऽपाद्यं हि वस्तुनो वस्तुतः स्वद्रव्यक्षेत्रकालस्वभावती स्ति परद्रव्याऽऽदिचतुष्टयानास्तीति । उक्तं च- "सदेव सर्व उ० ३ प्रक० । भूम्य भूगर्भ इन्ति इन्का गर्भधातके, बालघातके च । वाच० । वृ० १ उ० ३ प्रक० । भूतमभूत्याक १० विशे० इरिते बनस्प तिभेदे, प्रशा० १ पद । भूदाय भूदान १० भूमिदाने, आखा० १ ० १ ०२४० । - । (भूदानस्य शुभफलोदयजनकत्वनिराकरणम्' पुढवीकाइय' शब्देमागे ७८ पृष्ठ गतः) भूवाल- भूपाल- पुं० । भुवं पालयति । पाल अण् । भूपतौ वा च० । स्था० ६ ठा० । - । भूभिय-भूभृद् पुं० भुवं विभर्ति धारयति पापति था। भू- क्विपू । पर्वते; भूपाले च । वाच० आ० क० १ ० । भूभूय भूभृत्र-पुं०। भुवं भुक्के भुनक्कि पालयति वा भुज किप् । भूपाले, वाच० । ० ० १ ० । भ्रमराया देशी स्थगन "भूमराया पनि । भूमण• 9 - ति देशीपमेतत् स्थनमित्यर्थः ०१ ४० । भूमह-भूमह पुं० [अहोरात्रयेषु विंशम्मुहर्तेषु स्वनामध्याते सप्तविंशतितमे मुहूर्ते, स०३० सम० । भूमि भूमि- स्त्री० । भवन्त्यस्मिन् भूतानि भूमि या ङीप् । - पृथिव्याम् वाच० रा० क्षेत्रे, घ० २ अधि० । पञ्चा० । स्थरिडले, उपा० १ श्र० । पदव्याम् स्था० ३ ठा० २ उ० । काले, स्था० ३ ठा० ४ उ० | स्थानमात्रे " जिह्वायाम्, योगशास्त्रोक्के योगिनां वित्तस्यावस्थाभेदे प कसङ्ख्यायां च । वाच० ।" धुलिं भूमिं । पाइ० ना० 33 , २६४ गाथा | भूमिउदय भूम्युदकन० भूम्या उदकं भूम्युदकम्। नद्यादिजले, नि० चू. १ उ० । भूमिकंप भूमिकम्प पुं० " शब्देन महता भूमि-दारति - कम्पते। सेनापतिरमात्यश्च राजा राज्यं च पीड्यते ॥ १॥ " इत्युक्तलक्षणे मद्दानिभित्तभेदे, स्था०८ ठा० । ( भूमिकम्पन हेतुः ' पुढवी ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ६७२ पृष्ठे गतः ) भूमिकम् भूमिकन न समविषमाया भूमेः - कर्म्मणे, बृ० १० २ प्रक० । ग० । व्य० । आव० । " भूमीए समविसमा परिकम्म भूमीकम् " नि ०५४० । भूमिपर भूमिगृह न० भ० ६० प्रश्न० । स्था० । Page #1620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६७) भूमिट्ट अभिधानराजेन्द्रः। भूमिट्ट-भूमिष्ठ-त्रि० । भूमौ तिष्ठति । स्था-कः। अम्ब-पस्वम्।। का, एतेषां प्रत्येकं चर्म भनेकैः शङ्कप्रमाणैः कीलकसान. भूपृष्ठस्थे, वाच० । नि० चू० १ उ०। यतो महभिा कीलकैस्ताडितं प्रायो मध्ये क्षामं भवति न भूमितुंडय-भूमितुण्डक--पुं० । वैताव्यपर्वतस्थे विद्याधरभेदे | समतलं , तथारूपताडासम्भवात् , प्रतः शङ्कग्रहणं, विततं. विततीकृतं ताडितमिति भावः , यथाऽत्यन्तं बहुसमं भवति भूमितुंडगविजाहिपतयो भूमितुण्ड काः । प्रा० चू०१०। तथा तस्यापि बनखण्डस्यान्तबहुसमो भूमिभागः । पुन: भूमित्थ- भूमिष्ठ-त्रि० । 'भूमिट्ठ' शब्दार्थ, नि० चू०१ उ० । कथंभूत इत्याह-'णाणाविहपंचवहिं मणीहि त(िम. भूमिदेव-भूमिदेव-पुं० । ब्राह्मणे, पिं० । " लोयाणुग्गहका णितणेहिं ) उपसोभिए' इति योगः। नामाविधा-जातिभेदा नानाप्रकारा ये पञ्चवर्णा मणयस्तृणानि च तैपशोभितः, रिसु. भूमीदेवेसु बहुफलं दाणं । भवि नाम बंभबंधुसु, किं कथंभूतैर्मणिभिरित्याह-आवाऽऽदीनि-मणीनां लक्षणामि पुण कम्मनिरयाणं ॥१॥"स्था०५ ठा०३ उ० । तन पावतः प्रतीतः, एकस्याऽवर्तस्य प्रत्यभिमुखः प्रापर्स: भूमिपिसाअ-भूमिपिशाच-पुं०। भूमौ पिशाच इव । तालवृक्ष, प्रत्यावर्तः श्रेणिः तथाविधबिन्दुजाताऽऽदेः पक्तिः तस्याथ वाच० दे० ना०६ बर्ग १०७ गाथा। श्रेणर्या विनिर्गताऽन्या श्रेणिःसा प्रश्रेणिः,स्वस्तिका-प्रतीत भूमिपहण-भूमिप्रेक्षण-न । भूमेर्भुवः प्रेक्षणं चक्षुषा नि. सौवस्तिकपुष्पमाणवी च लक्षणविशेषौ लोकात् प्रस्येतब्यौ, रीक्षणम् । भुवश्चक्षुषा निरीक्षणे, पञ्चा०४ विव० । वर्द्धमानकं शरावसंपुटं, मत्स्याण्डकमकराण्डके जलबरषिभूमिभाग-भूमिभाग-पुं० । भूमिदेशे, प्रश्न. ३ प्राश्र० द्वार। शेषाण्डके प्रसिद्धे, 'जारमारे ति' लक्षणविशेषौ सम्यग्मणि. लक्षण वेदिनो लोकादेदितव्यौ , पुष्पावलिपनपत्रसागरतरा. जी० । दश। 'वासन्तीलतापमलताःप्रतीता,तासां भक्त्या-विच्छिस्था चि. तस्स णं वणसंडस्स अंतो बहसमरमणिजे भूमिभागे त्रम्-श्राले खो येषु ते तथा, किमुक्तं भवति ?-मावर्ताऽऽदिल. पमत्ते । से जहा णाम ए प्रालिंगपुक्खेरइ वा जाव णा. क्षणोपेतैः, तथा सती शोभनाछाया-शोभा येषां ते तथा तर, णाविहपंचवहिं मणीहिं तणेहिं उबसोभिए । 'सप्पभेहिं' इत्यादि विशेषणत्रयं प्राग्वत् । एवं भूतैः नानावणे। तस्य, णमिति पूर्ववत् बनखण्डस्याम्ता-मध्ये बहुभन्स्यन्तं पञ्चषणैः मणिभिस्तृणैचोपशोभितः।०१ वक्षः। समो यसमास चासौरमणीयश्चस तथा भूमिभागाप्रसप्तः। भूमियर-भूमिचर--पु.। सरीसपाऽऽदिके तिरबि, सूप.१ कीरशस्याह- से' इति तत् सकललोकप्रसिबम् यतिरक्ष०२०१उ०। हाम्तोपदर्शने, नामेति शिष्याऽऽमन्त्रणे, 'ए' इति पाक्याल. भूमिकह--भूमिरुह- पुं०। भूम्यां भूमौ या रोहति । कर-का। कारे, पालिङ्गो-मुरजी वाचविशेषा, तस्य पुष्करं धर्मपुट. कं, तरिकलास्यम्तसममिति, तेनोपमा क्रियते, इतिशब्दाः वृत्त, चाप छत्राके, भूमीकहाणि बाकाणि काल सर्वेऽपि स्वस्त्रोपमाभूतवस्तुसमाप्तिधोतकाः । वा शब्दाः भावीनि भूमिस्फोटकानीति प्रसिद्धानि । प. २ अधिः। समुपये, यावच्छब्देन बासमत्ववर्णको मणिलक्षणवर्णक- प्रव० । भूकहाऽऽदयोऽप्यत्र । बाब। प्राय इति । स वायम्-"मुरंगपुक्खरेइ वा सरतले या भूमिलिइण-भूमिलिखन--1०। भूमी पाऽऽविनाहरविले. करतलेर वा बंदमंडलेह वा सूरमंडलेषा भायंसमंडले हवा खने"भमिलिहणविलिहणेहिं।"२०। घरम्भवम्मेरवा बसहखम्मेहषा घराहसम्मेह था सीख. म्मेवा बग्घचम्मेहका छगलचम्मेषा दीषियमा था भूमिसिरि-भमिश्री-पुंश भारतवर्षभषे भाषिमिस्वनामपात मणेगसंकुकीलगलहस्सषितते भाषत्तपथावरसेविपति- चक्रवर्तिमितिका सोरिथयसोपस्थियपूसमागणुषमाणगमध्इंशकमगरंडकजार- भूमिसेजा-भूमिशय्या-श्री श्रमणधर्मभेदे, स्याड मारफुल्लावलिपउमपत्तसागरतरंगवासंतीपउमलयभत्तिचि-. भूमउड-भूमुकूट-न० स्वनामख्याते नगरे, "पुरंभमफटनाम, तेहिं सच्छापहि सप्पभेहिं समरीइएहि सउज्जोएहि" इति । अत्र व्याख्या-मृदङ्गो लोकप्रतीतो मर्दल,तस्य पुष्करं मृद भूदेव्याः मुकुटोपम्" मा००१०। अपुष्करं तथा परिपूर्ण-पानीयेन भृतं तडागं-सरस्तस्य त भय-भत-नाम्याय्ये , उचिते, वाचा प्रभूषन् भवम्ति लम्-उपरितनो भागः सरस्तलम्, 'अत्र व्याख्यानतो विशेष भविष्यन्तीति भूतानि । पृथिव्यायेकेन्द्रियेषु, " जम्हा भुवं प्रतिपत्तिः' इति निर्वातं जलपूर्ण सरो प्राह्यम् , अन्यथा वा- भवंति भविस्संति य तम्हा भूतेति वसब्बा।" प्रा००४ तीयमानतयोचावचजलत्वेन विवक्षितः समभावो न स्या- अ० सर्वदा भवनाद्भूतः । सूत्र.१६० ८.माचा। दिस्यर्थःकरतलं प्रतीतं.चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलं व यद्यपि व. भूतानि पृथिवीजलज्वलनपयनवनस्पतयः। पा० भाषा स्तुगत्या उत्सानीकृताधकपिरथाऽऽकारपीटपालादापेक्षया - सूत्र० । विशे । दश। जालेल्यमिति तगतो रश्यमानो भागो न समतलस्तथापि किमने पंच भूया, अस्थी नस्थिति संसमो तुम। प्रतिभासते समतल इति तदुपादानम् , आदर्शमएडलं सुप्रसिद्धम् ' उरभचम्मेर या' इत्यादि । अत्र सर्वत्रापि, 'प्रणेग बेयपयाण य प्रस्थं,न याणसी तेसिमो प्रस्थो ।१६८९ संकुकीलगसहस्सवितते ' इति पदं योजनीयम् । उरभ्रः किं पश्च भूतानि पृथिव्यावीगि सम्ति, किंवा सम्तीति ऊरणः, वृषभयराहनिहव्याघ्रछगलाः प्रतीताः, द्वीपी-चित्रः मन्यसे, व्याययान्तरं पूर्ववत् । अयं बसंशयः तष विजये. ४०० Page #1621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६८) अभिधानराजेन्द्रः। भूय दपदश्रुतिनिबन्धनः , तानि चाऽमूनि वेदपदानि-" स्वप्नोपमं घस्स्वन्तरधर्मवत् । प्रथाभित्री, ततःसमवाय एष तौ, तद. बै सकसमित्येष प्राविधिरअसा विशेय" इत्यादि । तथा व्यतिरिकत्वात् , तत्स्वरूपवत्, ततः कुतः स्वभावद्वयकल्प "पावापृथिवी" इत्यादि । तथा "पृथिवी देवता आपो | नेति भूतविषयप्रमाणाभावः। एवं विभ्रमे स्फुटीकृते भगवा. देषता" इत्यादि । तेषां च घेदपदानामयमर्थः तव प्रतिभा- नुत्तरमाह-वेदपदानामर्थ न जानासि, चशब्दात् युक्तिभासते-खानापमं स्वप्नरशं, निपातोऽवधारणे, सकल. पार्थ च । तत्र तव संशयनिबन्धनानां वेदपदानामयमर्थःमशेष जगदित्येष ब्रह्मविधिः परमार्थप्रकारः, असा प्रगु- "स्वप्नोपमं वै सकलम्" इत्यादीनि अध्यात्मचिन्तायां मणि. णेन म्यायेन विशेयो सातव्यः, एचमादीनि वेदपदानि भूतनि. कनकामनाऽदिसंयोगस्यानियतत्वात्मस्थिरत्वात् विपा. इवपराणि । "चावापृथिवी" इत्यादीनि तु सत्ताप्रतिपादका- ककटुकत्वात् प्रास्थानिवृतिपराणि, न तु तदत्यम्ताभावप्रनि । ततः संशयः । तथा एवं ते चित्तविभ्रमो यथा भूताभाव तिपादकानि द्यावापृथिवीम्यादीनितु भृतसत्ताप्रतिपादका. एक समीचीनः तेषां प्रमाणेनाग्रहणात् । तथाहि-चक्षुरादि. नि भवतोऽपि प्रतीतानि ,ततो वेदसिद्धा भूतानां सत्ता। विज्ञानस्याऽऽलम्बन परमाणवो वा स्युः, परमाणुसमूहोवा, यदयुक्तम्-भूताभाव एव समीचीन:, तेषां प्रमाणेनाग्रहणादि. अषयवी वा । तत्र न तावत्परमाणवः, तेषामिन्द्रियविज्ञाने स्यादि।तदप्यसम्यक। भूतानां प्रत्यक्षाऽऽदिप्रमाणसिद्धत्वात्। तथाहि-द्विविधं परमाणूनां रूपं-साधारणमसाधारणं च । प्रतिभासाभावात् न खलु चाक्षुषे विज्ञाने परस्परविशकालि. ताः परमाणवः प्रतिभासम्तेनापि समूहः . समूहो हिनाम तत्र यदसाधारणं रूपं, तेन (न) चाशुषे विज्ञाने प्रतिभासन्ते, द्विाऽऽदिपरमाणूनां संयोगः, सचानुपपन एव, विकल्प साधारण तुरूपेण प्रतिभासन्ते एव । नचबाच्यं साधर. यानतिकमात् । तथाहि-परमाणूनां संयोगो देशतो वा स्यात्, णं रूपं नास्त्येव, तदभाव खल्वेकपरमाणुव्यतिरेकेणाम्येषामसर्वाऽऽत्मनाया। तत्र न तावद्देशेन,परमाणोद्देशाभावावन्य. परमाणुत्वप्रसङ्गात्। परमाणुत्वेनापि तुल्यरूपस्वाभावात्।म. न्यथाऽस्मदभ्युपगमप्रसक्तेः अथ यदेतत्परमाणुत्वेन तुल्यरूथा परमाणुत्वक्षतेः, परमोऽणुः परमाणुरिति व्युत्पतेः । अथ पत्वम् । तत्तदन्यव्यावृत्तिमात्रपरिकल्पितसत्ताकं, यथाऽपमा सर्वात्मनेति पक्षः, तर्हि परमाणी प्रवेशादणुमात्रप्रसक्तिः । पिपरमाणुरपरमाणोावृत्तोऽयमथ परमाणोावृत्त इति। नतु तथा च पठन्ति-"संजोगो विय तेसिं, देसणं सब्बहा व पारमार्थिकम् । तदेतदयुक्तम् ।स्वतस्तुल्यरूपत्वाभावे तदन्य. होजाहि । देसेण कहमणुतं, अणु मिसं सम्वहाभवणे ॥" थावृत्तरपि साधारणाया असंभवात् । न खलु यथा घटात् व्याअथ षे-परस्परं प्रत्यासन्नत्वमात्रमेवात्र संयोगः समूहो, न वृत्तिस्तथा पटस्थापि घटेन सह, पटस्य तुल्यरूपत्वाभावात्। देशेन, न सर्वाऽऽस्मना वा, ततोन कश्चिद्दोषः। तथा च सम्य- अथ सबै स्वलक्षण सकलसजातीयविजातीयव्यावृत्तिस्वभा. क प्रत्येकमिव समुदितानामा तेषामग्रहणप्रसङ्गात् स्वस्वरू- वं, ततः समानरूपत्वाभाषेऽपि विजातीयव्यावृतेः समानता। पावस्थितानां तेषामिन्द्रियगम्यस्वाभावात् न च परस्परप्र. तदपिन युक्तिक्षमम्। विजातीयेभ्यो ब्यावृत्तौ परमाणुत्वस्येव स्यासन्नत्वमप्युपपत्रम् , तद्भववश्यं दिग्भेदतो भवति, दिग्भे सजातीयेभ्योव्यावृत्तापरमाणुत्वासनात्,न्यायस्यसमानत्वादे च देशभेदसंभवादणुत्वव्यावातः । श्राह च-"हाणी अणु त्भवम्मतेन सजातीयव्यावृत्तताऽपि वस्तुन उपपद्यते, अनेकयस्ल उ, दिसिभेदातो न अन्नहा चेव । तेसिमहो पञ्चास स्वभावेन सर्वेभ्यो व्यावृत्तिः तेषां सर्वेषामपि व्यावृत्तिविषया. भय ति परिफग्गुमेयं ति ॥१॥" अथवाऽवयवीति पक्षः,सोऽ. णामेकरूपताप्रसक्नेः । तथाहि-घटाद्वधावर्तते पटो, घटव्या. प्ययुक्तः, अवयविन एवासंभवात् , तस्यावयवेषु व्यत्यययो. वृसिस्वभावतयैव व्यावर्तते, ताई बलात् स्तम्भस्थ घटरूगात् । तथाहि-सोऽवयवी देशेन वा प्रत्येकमवयवेषु वर्तते, पतानुपातिः, अन्यथा ततस्तत्स्वभावतया व्यावृष्यायोगात्, सर्वात्मना वान तत्र तावद्देशेन , अवयविनो देशाभावात् , तस्मादयश्यं परमाणूनां द्वे रूपे प्रतिपत्तव्य-तुल्यमतुल्यं च । अन्यथा तेवपि देशेषु देशेन वर्तते, तत्रापि स एव प्रसाइत्य तत्र तुल्यरूपेण चाjष विज्ञाने समुदिताः परमारणवः प्रनवस्था। अथ सर्वात्मना, तर्हि यावन्तोऽवयवास्तावन्तोऽव. तिभासन्त इति भूतानां प्रत्यक्षविषयता यदपि। समूहपयविन इत्यवयविष हुत्वप्रसङ्गः। अथ न बमो देशेन वर्तते,सर्वा. भिहितम्-परमाणूनां संयोगो देशतो वा स्यात् , सर्वात्मना. स्मना पा, किन्तु वर्तते इत्येवम् , तत उक्नदोषाप्रस। तदप्य- वा इत्यादि।तत्र पक्षद्वयेऽप्यदोषः। परमाणूनां विचितपरिण श्लीलम् , उक्तरूपप्रकारद्वयव्यतिरेकेणान्यस्य वृत्तिप्रकारस्या मनशक्तिसमन्धिततया कदाचिद्देशतः, कदाचित्सर्वात्मना स. सम्भवात् । अथ समवायलक्षणेन सम्बन्धेन वर्तते इति म- म्बन्धभावात् । न च वाच्यम्-देशाभ्युपगमे परमाणोरपरमाभ्येथाःतदप्य युक्तम्,समवायस्य बासिद्धत्वात् ,न खलु वस्तु णुप्रसाःपरमाणुहि स उच्यते,यतो नान्यदल्पतरं.परमोऽणुः द्वयापान्तरालवती तत्सम्बन्धनिबन्धनभूतो जन्तुकल्पः क- | परमाणुरिति व्युत्पत्तेः । न च विवक्षितात् परमाणोरन्यदश्चित् समवायो नाम पदार्थः प्रत्यक्षाऽऽदिप्रमाणविषयोऽस्ति, ल्पतरमस्तिनापरमाणुत्वाव्याघात तथा च सति देशकालाततः कथं तमस्तित्वेन मन्यामहे ? । अन्यश्च-सोऽपि समवा. दिसामग्रीविशेषसंपादितपरिणामाविशेषपरिकल्पितानां यिषु कथं वर्तते इति वाच्यं , तदन्यसमवायबलादिति चेत् । परमाणूनां परस्परं यत् प्रत्यासमत्वमेव परमाणुसमूह पषतत्तु तत्रापि स एव प्रसङ्ग इत्यनवस्थाप्रसक्तिः। अथ स्वप. एव च देशतः परमाणुनां सम्बन्धः। रोमयसम्बन्धनस्वभाधः समवायो, यथा स्वपरप्रकाशधर्मा. प्रदीपः, तेनाऽस्मानं स्वसमवायिभिः सह सम्बन्धयति, स्व. तथा चोक्तम्समायिनश्च परस्परमिति । तदप्यमनोरमम्,विकल्पयुगला. "जंचेव खलु अणूण, पच्चासन्नत्तणं मिहो पत्थ । मतिमात् । तौ हि स्वभायौ समवायाद्भिनौ वा स्यातामभि तं चेव उ संबंधी, विसिट्रपरिणामभावेणं॥ औ वायद्यायः पक्षा,ततोन समवायस्य तौ,सम्बन्धाभावात् । देसेण तु संबंधो, इह देसे सति करमणुतं पि । Page #1622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६) अभिधानराजेन्द्रः। भूयग्गाम प्रपतराभावातो, न अप्पतरायं ततो प्रस्थि॥" तादयें, प्रकृत्यर्थे, स्था० ५ ठा०१ उ.। " उम्मत्तगभूए।" अथ दिग्भेदतो यो भेदः, स एवास्यदल्पतरमस्तीति कथं न | उन्मत्तक इवोन्मत्तकभूतो, भूतशब्दस्योपमानार्थत्वात् । उम्म. परमाणुषव्याघातः। तदप्ययुक्तम् । सम्यक्तस्वापरिक्षामात् । तक एव वा उन्मत्तकभूतः भूतशमस्य प्रकृत्यर्थत्वात् । स्था० परमोऽणी स उच्यते, यो म्यतोऽशक्यभेदः । न च विष- ५ ठा०५०।"प्रोवम्मे तादत्थे व होज पसिस्थ भूयसो क्षितस्य परमाणोद्रव्येण शस्त्रादिना भेव आपादयितुं ति।" (१२५) भा०। “ोषम्मे देसी खलु,एसो सुरलोपभूय शक्यते । तथा चोकम्-"सत्येण सुतिक्खेण वि, छे मो पत्थ" (१२५) भौपम्ये, उपमानार्थभूतशयप्रयोगो पथा. भेतुंबजकिर न सका । तं पररमाणु सिखं, वयंति देशः खरषेष लाटदेशाऽऽदिकृष्णाऽदिगुणोपेतस्वास्सुरलोको. माइप्पमाणाणं ॥ " ततोऽभ्यस्य पृथगद्रव्यरूपस्यापतर- पमः श्रा० "तावत्ये पुण एसो, सीयीभूयमुदगं ति निहिटो।" स्याभावाव्यातं षड्दाभेदेऽपि परमाणुत्वम् । उनं च- (१२७) तादयें पुनस्तदर्थभावे पुनरेष भूतशब्दप्रयोगः,शीती. "दिसि भेदातो चिय, सव्यभेदतो कहन अप्पतरगं ति । भूतमुदकमुष्णं सत्पर्यायान्तरमापत्रमिति निर्दियः । भा० । बचण सम्वमेयं, विवक्खियं ता कुतो तमिह ॥१॥" योऽपि | सूत्रा म्याग्ये, उचिते. वृत्ते, सत्ये, यथार्थे , वास्तविके। सर्थात्मपक्षे दोष उनको यथा परमाणुस्वमात्रप्रसाइति । सोऽ- त्रिका "भूतमप्यनुपम्यस्तं, हीयते व्यवहारतः।" इति स्मृतिः। प्य युक्तः । यतो न परमाणोः परमाणुर्विनाशकः, सतः सर्वथा वाचा भाव० ४१०। सूत्र० । स्था। बिनाशायोगात् , ततो द्वावपि परमाणू तथाविधपरिणामवि. भूयकार-भूयस्कार-पुंग प्रकृतीनां बन्धभेदे.तकविधाऽऽध. शेषतः सामना सम्बन्धमापधमानौ सतापचयविशेषा. ल्पतरबन्धको भूत्वा यत्र पुनरपि षविधाऽऽदिनबन्धको स्थूलपणुकरूपतामेव प्राप्नुतो,न परमाणुमात्रमित्यदोषः। भवति स प्रथमसमये भूयस्कारबन्धः । कर्म० ५ कर्म० । उक्लंब-"नपभणुमेतं जसं, सत्तातो सब्बहा वि संभागे। "एगादहिगे भूत्रो।" एकाऽऽदिभिरेकाद्वियादिभिः प्रकृति थायरनुत्तत्ताणा, सभावतो उपवयविसेसो ॥१॥" अषयविप. भिरधिके बन्धे (भूय त्ति) भूयस्कारनामबन्धो भवति, यथैका क्षोकदृषणमनवकाशपृथग्द्रव्याम्तररूपस्यावयविनोऽस्माभिः बचा पर बध्नाति, षट् वध्वा सप्त बध्नाति, सप्त वध्या रनभ्युपगमात् । य एष हि परमारणूनां तथाविधदेशकालाउदि. अष्टौ बानातीति । कर्म० ५ कर्म०। क० प्र०।०सं०। सामग्रीविशेषसापेक्षाणां विवक्षित जलधारणाऽदिक्रियासमा थैः समानः परिणामविशेषः सोऽवयवी.तताकतो देशकाल- भूयगवई-भूजगवती-स्त्री०। स्था०४ ठा० १ उ01(व्याख्या वृत्तिविकल्पदोषावकाशः, शेषं तु समवायपक्षोक्लमनम्युपर 'भुजगा' शोऽन्तरंष्टव्या।) माम ततःपातिमावहति । मा० म. १० । बनस्प- भूयगा-भूजगा-खी० । अतिकायस्थ महोरगेन्द्रस्याप्रमहितो, उत्त०१०मी०।"भूतास्तु तरषः स्मृताः।" प्राचा०] प्याम् , स्था० ४ ठा०१०। १९०१०६ उहा० स्था०1 जी0प्राणिनि,माचा०१ भूयगुह-भूतगृह-न। अन्तरञ्जिकानगरीस्थे स्वनामयाते भु०२१०३ उ०माव । प्रश्न। उत्त। सूत्र० । जीधे, व्यन्तरत्ये, "अंतरंजिया नयरी, तत्थ भूतगुईनाम बेश्या" मातु। उ०पाषा सूत्र०। जन्तुषु, सूत्र०२१०६म०। एकाथिकानि चैतानि-"पाणाणं भूया णं जीवा गं सत्ताणं" उत्त० ३ अा कल्पका स्थान प्रा० म०। प्रा०पू० । एकार्थिकानि चेतानि ।माचा०१७०६०५ उ० । जी. भूयगुहा-भूतगुहा-खी। मथुरानगरीस्थे स्वनामख्याते ज्यवो जन्तुरसुमान् प्राणी सखो भूत इति पर्यायाः । विशे। तरगृहे, विशे० प्रा० म०। भाषा सासूत्र । स्था०। चतुईशभूतप्रामाबा. १ श्रु० भयग्रहोजाण-भूतगृहोद्यान-न। अन्तरखिकानगरीस्थे उ३७०२ उ.।"भूतानां जगई ठाणं।" भूतानां स्थावरजङ्ग चाने ," तत्र भूतगुहोद्याने, तस्थुः श्रीगुप्तसूरयः ।" मा. मानाम् । सूत्र.१७०११०तस्वानुसंधाने, "छलं निर क.१मा स्य भूतेन ।" इति स्मृतिः। बाबा अवस्थायां च । "जोणिम्भूए बीए।" योन्यवस्थे बीज इति । आचा०१ श्रु०१० | भूयग्गह-भूतग्रह-पुं०। प्रहभेदे, जी. ३ प्रति०४ अधिक। ५ उ०। व्यस्तरभेदे मौका जं०। स्था० । अनु. । शा०। प्रव०। भूयग्गाम-भूतग्राम-पुं० । भूतानि जीवास्तेषां प्रामः समूह जी० । भूता नवविधाः। तद्यथा-सुरूपाः १ । प्रतिरूपाः भूतप्रामः । जीवसमूहे. स०। २. अतिरूपाः३, भूतोत्तमाः ४, स्कन्धाः, महास्कन्धाः ६. चउद्दस भूयग्गामा पसत्ता । तं जहा-सुहुमा अपजत्तया, महावेगा:७, प्रतिच्छन्ना, आकाशगा: प्रा०१ पद ।। सुहमा पजत्तया , बादरा अपज्जत्तया , बादरा पजत्तया, प्रेते, प्रश्न० २ खम्ब० द्वार। पिशाचे, स्या० । (ते च। वेइंदिया अपजत्तया, वेइंदिया पञ्जत्तया, तेइंदिया अपज्ज. 'पिसान' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ६३६ पृष्ठे दर्शिताः )। कुमारे, योगीन्द्र, कृष्णपक्ष, पाच०। यक्षसमुद्रानन्तरभवे तया, तेइंदिया पञ्जनया , चउरिदिया अपजत्तया, च3. स्वनामख्याते हीपे, भूतबीपानम्तरभवे स्वनामयाते समुः। रिदिया पअत्तया, पंचिंदिया असभि अपजत्तया, पंचिंदेव। पुं० प्रा० १५ पद । यत्र भूतवरमहाभूतवरी देवी, दिमा असभि पज्जनया, पंचिंदिया सभि अपज्जतया , सू०प्र०१६ पाहुका प्रतीते, पश्चात्कृते, विशे। प्रा. म.। कल्प० । जाते. विपा० १७०० । उत्पन्ने, मा०म०१ पंचिंदिया सभि पञ्जत्तया । ० विद्यमाने , विशे०। प्राप्ते , नि० १०३ वर्ग । तत्र चतुर्दश भूतनामा:-भूतानि जीवाः तेषां प्रामा: - सूत्रस्थाहा । उपमा, पातु.रा० शास्था०। महाः भूतप्रामाः, तत्र सूचमा: सुषमनामकमोदयवतिस्वाद. Page #1623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६००) अभिधानराजेन्द्रः। भूयहिय पृथिव्यादय एकेन्द्रियाः। किंभूता । अपर्याप्तकाः तत्कर्मोदया- भूयमंडलपविभत्ति-भूतमण्डलपविभक्ति- नानाटयविधिभे. वपरिषस्वकीयपयाप्तय इत्यको ग्रामः । एवमेते एव | 101 पर्याप्तकास्तथैव परिपूर्णस्वकीयपर्याप्तय इति द्वितीयः । एवं भूयरूव-भूतरूप-त्रि०कोमलरूपे, "भूयरूवित्ति वा पुणो।" बादरावादरनामकर्मोदयात् पृथिव्यादय एव , तेऽपि पर्याप्ते. भूतानि रूपाण्यबद्धास्थीनि फोमलफलरूपाणि येषु ते तथा। तरभेदाद् द्विधा, एवं द्वीन्द्रियाऽऽदयोऽपि, नवरं पञ्चेन्द्रियाः संक्षिनो मनःपर्याप्न्युपता इतरे स्वसंक्षिन इति । स. १४ | दर्श०४ तव ।" भूतरूवाणि वा।" प्राचा०२ श्रु० १चू० ४०२ उ०। सम० । ध। सूत्र०। अथवा चतुर्दशभूतग्रामाः चतुर्दश गुण. स्थानकानि । श्रा० चू०४ अ.। भूयलया-भूतलता-स्त्री० । लताभेदे, रा०। भूयणियहव-भूतनिव-पुं०। असत्यभेदे.भूतनिह्नवो यथाना भयवडिंसिया-भतावतंसिका-स्त्री० । रतिकरपर्वतर स्त्यात्मा , नास्ति पुण्यं, नास्ति पापमित्यादि । धo णस्यां दिशि स्थितायां शक्रस्य देवेन्द्रस्याग्रमहिप्याम् , अ२ अधि० । प्सरसः स्वनामख्यातायां राजधान्याम् , जी० ३ प्रति० ४ भूयदिएण- भूतदत्त--पुं०। नागार्जुनमहर्षेः शिष्ये स्वनाम- अधि०।"भूया भूयवडिंसा,पया,पुव्वण दक्षिणेण भवा" ख्याते प्राचार्य, नं। द्वी। भूयवर- भूतवर-पुं० । भूतोदसमुद्रस्थे देवे , चं० प्र० २० भूयहियप्पगम्भे, वंदेऽहं भूयदिनमायरिए । .. पाहु । सूत्र। भवभय वुच्छ्यकरे, सीसे नागज्जुणरिसीणं ॥ ३६॥ भयवाडय-भतवादिक-पुं० । व्यन्तरनिकायभेदे , तनिवासि. भूतहितप्रगल्भान् अनेकधा सकलसवहितोपदेशदानसम नि व्यन्तरजातिभेदे च । प्रव० १६४ द्वार । गन्धर्वभेदे , धान् भवभयव्यवच्छेदकरान् सदुपदेशाऽऽदिना संसारभय प्रमा०१ पद । प्रश्न । औ० । बार्हस्पत्यमतानुसारिणि चावीव्यवच्छेदकरणशीलान् नागार्जुन ऋषीणां नागार्जुनमहर्षिसूरी. के , तैहि भूतव्यतिरिक्त नाऽऽस्माऽऽदि किञ्चिन्मन्यत इति । णां शिष्यान् भूतदिन्ननामकानाचार्यान् अहं वन्दे । सूत्रे च | सूत्र० २१०१०१ उ०। भूतदिनशब्दान्मकारोऽलाक्षणिकः ॥ ३६॥ नं। भूयदिएणा-भूतदत्ता-खी। आचार्यसंभूतविजयस्य शिष्या भूयवाय - भूतवाद-पुं०। भूताः सवभूताः पदार्थास्तेषां वादो यां नवमनन्दस्य महापप्रपतेरमात्यस्य शकटालस्य दुहितरि भूतवादः । स्था० १० ठा० । अशेषविशेषाम्वितस्य समप्रव. स्थूलभद्रस्थ भगिन्यां स्वनामख्यातायां प्राधिकायाम् , मा. स्तुस्तोमस्य भूतस्य सद्भूतस्य वादा भणनं यत्राऽसौ भूतचू०४० । श्राव० कल्प०। ('थूलभद' शब्दे चतुर्थभागे बाद.अथषा-मनुगतव्यावृत्तापरिशेषधर्मकलापाम्बिसा२४१५ पृष्ठे कथोक्का) राजगृहनगरस्थस्य श्रेणिकस्य राक्ष: नां सभेवप्रभदानां भूतानां प्राणिनां पादो यत्राऽसौ भूतबादः । स्वनामग्यातायां भार्यायाम् , तवक्तव्यता नन्दाबत् । विशेलारष्टिवादे, कम्म• ६ कर्मः । मन्त। भूयविंगम-भूतविगम-पु.। भूतानां पृथिव्यावीमा विगम मा भूयपडिपा-भूतप्रतिमा-स्त्री० । भूतप्रतिकृती, जी०३ प्रति. स्यन्तिको बियोगो भूतधिगमः । पृथिव्यादीनामात्यन्तिके वि. ४अधिक। योगे. पो०१६ विषः। भूयपुख-भूतपूर्व-त्रि० । वृत्तपूर्व, पा० म०१०।। भूयमिजा-भूतविद्या-स्त्री० । भूताऽवीनां निग्रहाथै विधाता भूयवलि-भूतबलि-पुं० । पत्रपुष्पफलाक्षताऽन्येसुरभिगम्धी भूतविया । मायुदभेदे. साहिदेवासुरगम्य क्षराक्षसपि, कोम्मिधे सिद्धाभप्रक्षेपरूपे प्रेतोपहारे, ध० २ अधिः।। तृपिशाचमागग्रहाऽऽपसष्टचेतसा शान्तिकर्मवलिकरणा. पश्वास ऽऽविग्रहोपसमनार्थमिति । स्था०८ ठा। विपा। भूयभद-भूतभद्र-पुं० । भूतद्वीपस्थे देवे, चं० प्र० २० पाहु। भूयसग्ग-भूतसर्ग- पुं०। भूतानां सृष्टी, स्या: । ब्राह्मप्राजापत्य. भूयभाव-भूतभाव-त्रिका पश्चात्कृतो भावः पर्यायो यस्य। सौम्येन्द्रगान्धर्वयक्षराक्षसपिशाचभेदादष्टीवधो देवः सर्गःप'अनुभूतपर्याये द्रव्ये, भूतभावं द्रव्यम् । अनुभूतताऽधार. शुमृगपक्षिसरीसृपस्थावरभेदात्पश्चविधस्तर्यग्योनः। ब्राह्मण. स्वपर्यायातिरिक्तघृतघटवत् । विशे। त्वाऽद्यवान्तरभेदाविवक्षया वैकविधो मानुषः । इति चतुई. भूयभावण-भूतभावण-त्रि० । भूतं सत्यं भाव्यते ऽनेनेति। शधा भूतसर्गः । स्था। सत्यसाधने , श्राव०४अादर्श । भूतानि पृथिव्यादीनि भूगसिरी- भूनश्री. खी• । चम्पानगरीस्थस्य सौमद साह्मणभावति जनयति भणिय ब ना पा स्य भार्यायाम् , बा०१ श्रु०१५ मा (तवक्तव्यता 'दुई' भावना यस्य वा । विष्णी . बटुकभैरवे च । पुं०। वाचा शब्द चतुथभाग २५७७ पृष्ठ गत भूयभावणा- भूतभावना-स्त्री० । भूतस्य यथास्थितवस्तुमो भूयसिहा- भूतशिखा-स्त्री० विराटविषयम्पसिंहपुरनगर स्थ. भावनाऽनेकान्तपरिचयाशियोका स्य धर्मनामकामयकस्य भार्यायाम , दर्श०२ तव । रिच्छदे प्राव०४ प्रदर्शन भूतानां सवानां भावना वासना भूयहिय-भूसहित-त्रि० । भूताः प्राणिनस्तेषां हितः पथ्यो भूतभावना । सवानां वासनायाम् , दर्श०४ लत्व । प्रायः। भूतहितः। प्राणिनां पथ्ये, दर्श०४ तश्व । Page #1624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भग भूया अभिधानराजेन्द्रः। भूया-भूता-खी। भार्यसंभूतविजयस्य शिष्यायां महाप- भरणे, औ० जी०।"ाहरणं भूसणं अलंकारो। " पाइ. अपनवमनन्दस्य मन्त्रिणः शकटालस्य दुहितरि स्थूलभ. ना०९१६ गाथा । प्रज्ञानू पुराऽऽदिके,स्था०२ ठा०३ उ०। द्रस्य भगिन्याम्, प्रा० चू०४ ० । प्रा० क० । ति० । आभरणान्यतपरिधेयानि भूषणान्युपातपरिधेयानीति । क. आव० । कल्प०। रतिकरपर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि स्थितायां ल्प०१अधि०२ क्षण । भाव ल्युद् । शोभाकरण, उत्त०१६ शक्रस्य देवेन्द्रस्यामलाया अप्रमहिष्याः स्वनामख्यातायां रा प्रामएडनाऽऽदिना विभूषाकरणे, प्रश्न ४ सम्ब० द्वार। जधान्याम्, जी.३ प्रति०४अधि०ाद्वी० । राजगृहनगर भूसिय-भूषित-त्रि.। भूष-कः। अलकते, वाच । अन्त १ स्थस्य सुदर्शनस्य गृहपतेः प्रियायां भाव्यामुत्पन्नायां | श्रु०३ वर्ग ८०। स्वनामख्यातायां दारिकायाम् , नि०। (तवक्तव्यता 'सि- मे-युष्मत-त्रि.। भवति , "भे तुब्भे।" पाह. ना. २३१ रिदेवी' शब्देऽन्तिमभागे भाविष्यति) गाथा।"भे तुम्भे तुज्झ तुम्ह तुरहे उव्हे जसा"॥८।३ । भूयाणंद-भूतानन्द-० । स्वनामख्याते नागकुमारेन्द्रे, ६१ ॥ प्रा० ३ पाद । स्था०६ठा०1 सामा० स०ाजीबा०1 प्रा० भ० भइल-भेदवत- त्रिमत्त्वर्थ इलप्रत्ययः प्राकृतलक्षणवशाता राजगृहनगरस्थस्य कृणिकराजस्य स्वनामख्याते स्ति- भिन्न, पं० सं०४द्वार। नि, भ०१७श०१।। | भेग-भेक-पुं० । भी-कन्, कस्य नेत्वम् । जन्तुभेदे,मेघे। स्त्रियां भयाणंदे संभंते! हस्थिराया कोहितो भगतरं उव्व- की । “भेकी पादेन घातिता।" प्रा.क.१० । मण्डद्वित्ता, भूयाणंदे एव जव उदायी. जाव अंतं का कपरयो च। वाच। हिति । भ. १७ श०१ उ०। भेज-देशी-भीरी, दे० ना०६ वर्ग १०७ गाथा । अयाणंदप्पह-भूतानन्दप्रभ-पुं०। अरुणोदसमुद्रस्थे स्वना भेजलअ-देशी-भीरी, दे० ना० ६ वर्ग १०७ गाथा। मख्याते भूतानन्दस्योत्पातपर्वते , स्था० १० ठा। भेंडी-भिएडी-स्त्री० । गुच्छभेदे, प्रशा० १ पद । भूयाभिसंक-भूताभिशङ्क-त्रि० । भूताम्यभिशङ्कन्ते बिभ्यति भेडियालिंग-भिण्डिकालिङ्ग-म० । अनेराथविशषे, जी. यस्मात्स तथा । भूनानां भयङ्करे , स्था०७ ठा० । ३ प्रति०१ अधि०२ उ० । भूयाभिसंका-भूताभिशका-स्त्री०। भूतेषु जन्तुषूपमईशङ्का भेड-भेर-पुं०।“किरिभेरे रो डा"॥८।१। २५१ ॥ इति भूताभिशा । सूत्र.१७०१४ प० । जीवोपा)ऽत्र भ. प्राकृतसूत्रेणास्य डा। प्रा० १ पाद । मिश्रीकरणे, स्था० विष्यतीत्येवं बुद्धी. सूत्र.२७.६१०। . ६ठा। भीरौ, दे० न.० ६ वर्ग १०७ गाथा। भयावाय-भूतावाद-पुं०। भूयवाय' शब्दार्थे, विशे। भेत्तन-भेत्तव्य-त्रि० । भेदनीये, नि० चू० २० उ०। भूयोवघाय-भूतोपघात-नि०। भूतानां सत्त्वानामुपघातो य. भेत्ता-भेत्त-त्रि०। शूलाऽऽदिना भेदनकर्तरि, सूत्र०१ श्रु. ६ स्मिन् सः सत्त्वोपघातके, "भूयोषघायाधयणपणिहाणं।" | प्राचा भूतोपघातं-चिन्धि, भिन्धि, व्यापादयेत्यादि । श्राव०४०। -भिवा-अव्य.। भेदनं कृत्वेत्यर्थे , व्य० । प्रा०२ पाद । भूयोवघाइय-भूतोपघातिक-त्रि. भूतान्य केन्द्रियाः, तान-भेत्तयाण-भिवा--प्रव्या भेनु'शब्दार्थे,व्य०। प्रा०२ पाद। नर्थत उपहन्तीति भूतोपघातिकः । स०२० सम० । भू म० । भू- भेय-भेद-पुं० । भिव-घम् । पृथक्करणे, " भेदो वियोजनतानामुपहन्तरि, मा० चू० ४ ० । प्राचा० । भूतोप. मिति ।" प्रश्न० ३ आश्र द्वार । नि.चूला भेदो विघटनघातिका प्रयोजनमन्तरेण ऋद्धिरससातागौरवैर्वा भूषा नि. मिति । श्रा. म.१०। विशे० सम्म०। छेदे, रा० शा। मिसंवा प्राधाकर्माऽऽदिकंवा पुष्टाऽऽलम्बनेऽपि समाददा. विदारणे, आव० ४० अनु० । द्वैधीभावोत्पादने , दर्श नः प्रम्यद्वा तादृशं किञ्चित् भाषते पा करोति येन भू वत् भाषत पा करोति येन भू- ४ तव । स्फोटने, स्था०५ ठा० १ उ० । चूर्णने, सूत्र तोपघातो भवति । दशा०१०। १७०५०२ उ० नाशे,प्रश्न०४ श्राश्रद्वार स० मि. भयोवरोह-भूतोपरोध-पुं० । भूतानि पृथिव्यादीनि तेषामु. द्यते परस्परमिति भेदः । विशेाधा। विशेषो भेदो व्यपरोधस्तत्साहनाऽऽदिलक्षणो भूतोपरोधः। पृथिव्यादीनां क्रिरित्यनान्तरम । स्था०२ ठा०१ उ० । विशे. । प्रा० सट्टनाऽऽदिके, "भूयोवरोहरहिओ, सो देसो झायमा म। विशेषाः भेदाः पर्यायाः। विशे। भने, भ० २ श० एस्स।" भाव०४०।। १ उ०। भङ्गः प्रकारो भेद इति । अनु।" भेदो त्ति था, वि. भूर-भूर-अव्य० । भूलोके, गा०। कप्पो त्ति वा, पगारोत्ति वा पगट्ठा।" प्रा०चू.१०॥भेदा भूरि-भूरि-पुं०। भू-क्लिन् । विष्णौ , शिवे , इन्द्रे च । स्वर्णे विकल्पा अंशा इति । नं। प्रकृतिरंशो भेद इति पर्यायाः। न। प्रचुरे, त्रि०ावाचा अष्ट०१७ अष्ट। ध०। सूत्र। आव०४ अ०।"पयडीओ तिवा, पज्जाओ तिवा, भेद तिवा भूरुडिया-देशी-शृगाल्याम् , दे० ना०६ वर्ग० १०१ गाथा । एगट्ठा।" आ चू०१० । दर्श । श्राव। सूत्र० । स्था। उत्तर प्रव०। विजिगीषितशत्रपरिवारस्य स्वाम्यादिस्नेहा. भारवम-भूरिवर्ण-त्रि० । अनेकवणे, सूत्र १ श्रु०६०। पनयनादिके नीतिभेदे, शा०१थु०१०। प्रा० म०। भूसण-भूषण-न । भूप्यते ऽनेन भूषःकरणे, ल्युट् । प्रा- नायकलेवकयोश्चित्तभेदकरणं भेद इति । विपा० १५०४ ४०१ Page #1625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेय अ० । स्वामिनः पदातिषु पदातीनां च स्वामिम्यविश्वासोत्पादनं मेव इति विपा १ ० ३ ० अर्थ योनिभेदे च । स्था० ३ ठा० ३ उ० । उक्तं च-" स्नेहरागापनयनं घत्पादन तथा विधः स्मृतः ॥ ४ ॥ " संघर्षः स्पर्धा, संतर्जन चास्या. स्मन्मित्रविप्रस्य परित्राणं मतो भविष्यतीत्यादिरूप - मिति | स्था० ३ ठा० ३ उ० । न्यायमतोक्ने अन्योन्याभावे च। यथा घटात् पटस्य भेदः तादात्म्येनाभाषः । वाच० । मेदानामापादिका रात्री च जीवहिंसादिपरा विशेषाः । विशे० । भेयता - भेदयित्वा - अव्य० भेदं कारयित्वेत्यर्थः । स्था० । ६ ठा० । (१६००) अभिधान राजेन्द्रः । [झा० म० । कल्प० । अत्रा० । प्रा० चू० । महाढक्कायाम् भ० ५० ४ उ० । ढक्काऽऽकृतिके वाद्यविशेष, ro | महाकालायाम्, श्री० दुन्दुभ्याम् दर्श० १ तस्व । प्रश्न० पटहे, " रवः प्रगल्भा ऽऽह त मेरिलम्भवः ।" ततः शखाश्च भेर्यश्च । " वाच० । " 6 66 भेरी-मेरी स्त्री० । 'भेरि ' शब्दार्थे, जं० ३ वक्ष० । भेरुंड - भेरुण्ड- पुं० । निर्विषे सर्पभेदे, उत्त० । भद्दय नेव होय, पाया महाणि मद्दओ सविसो इम्पो तस्थ मुम्बई ॥ १ ॥ " उत्त० १२ अ० । चित्रके, दे० ना० ६ वर्ग १०८ गाथा । भारुण्डपक्षिणि, दे० ना० ६ वर्ग १०६ गाथा । रके, विशेषणे च । वाख० । व्य० १ उ० नि० चू० । ('मिशब्देऽस्मिमेव मागे १५६४ पृष्ठे व्याचच्या मता ) भेषण-भेदन जि मेदयति । भिक्षू-शिष्युः । विरे बने विशेषचडिही, तसेच पुं०म० भि भेरुताल भैरुताल पुं० वृक्षविशेष, "तत्य तत्थ बहुवे भेभाषेद विदारणे, वाच० व्य० १ ३० द्वैधीभाषइतालवणाई ।” जं० २ बक्ष० । पाइने ८० नि० ० प्रश्न० अनु० । । । । " एगे भेयणे।" भेदनं कुन्ताऽऽदिना, अथवा भेदनं रसघात इस्येकता च विशेषाऽविषक्षणादिति । स्था० १ ठा० । हा० ॥ स्फोटने, स्था० ५ डा० १० । कुषणयमादी भेदो । 'मेकादिनिय घटा 35दिभेदनम्। ०४० न० सू० १ ०५ ० २७० । भेलता-मेलित्वा अध्य० स्वपातिमिर्मियात् कारणिकान् फत्त्यर्थे स्था० ६ ठा० । कु भेली - देशी - आशाबेडाबेटी, दे० ना० ६ वर्ग ११० गाथा । मेसज भैश्य-म० भेषजमेच, भिषजः कर्म वा व्यम् । व्या पध्ये, आहारविशेषेा० २० ०२ ८ अ० श० । उपा० । " ओोसह मेसज मत्तपाणपण पडियारं करेमाणो विहरह। " ० १ ० १३० । औषधमेकस्यरूपं मेप द्रव्यसंयोगरूपम् । अथवा शोषचमे कानेकद्रव्यरूपं भेषजं तु पथ्यम् । ज्ञा० १४० १३ प्र० । प्रा० प्र० औपचमेकाऽयं नैषज्यं तु समुदाय पम् । अथवा - औषधं तुफलाऽऽदि, भैषज्यं पथ्यम् । औ० । दशाविपा० भीषधानि केवलद्रव्यरूपाणि परुिपयो गीनि वा भैषज्यानि सांयोगिकानि श्रन्तभौग्यानि वा । ग० १ अधि० । ज्ञा० ॥ भेसजग- भैषज्यगण - पुं० । घौषधसमूहे किं पुरा भे सजगणो, घेतब्बो गिला रक्खट्टा ।" व्य० ५३० । मेसजदाय भैषज्यदान १० पथ्यविधाण - - । च। पञ्चा० ४ विव० । औषधदाने भेसण - भीषण - न० । वित्रासने, पृ० ३ उ० । " तुरियं से मेसराद्वाट" भीषणार्थम् आ०म० १० भेसाग-भीषणक — त्रि । भयजनके प्रश्न० ३ ० | मेकर - मेदकर- त्रि० । भेदनकारिणि, औ० । प्राया० । घेन कृतेन गह्रस्य मेदा भवति ततदातिष्ठत इति । दशा० १ अ० । भेयग-भेदक- त्रि० । भिक्षू एवुल् । रेचके, बिदारके, भेदका " " भेषपरिणाम मेदपरिया । पुं० परिणामभेदेष मे परिणामः जण्डप्रतरचूर्णका अनुसडिको करिकाभेदेन पञ्चचैव सू० १ ० १ ० १ ० । स्था० । ( खण्डाSSदिरूपप्रतिपादकं गाथाद्वयम् पासपरिचाम' शब्देऽस्मिमेव भागे ११०८६ पृष्ठे गतम्) मेवितिकार - मेदविमूर्तिकारक- पुं० मेि विमूर्ति विकृतनयनादि वितराऽऽकृतिः, ये कारक चारित्रभेद विकृतरीत्य प्रश्न० २ सम्ब० द्वार । भेदविमुक्तिकारक- त्रि० । विमुक्ते मोक्षमार्गस्य भेदकारकः । मुमेहकारक इति वाच्ये राजदन्तादिषु दर्शना भेद विमुहिकारकः । मोक्षमार्गस्य भेदकारके. प्रश्न०२ सम्बद्वार | भेषसमावय-भेद समापन - त्रि० । मते द्वैधीभाषं प्राप्ते, डा० १ ० १ ० । स्था० उपा० । भेरंड - भेरड - पुं० | देशभेदे, जी० ३ प्रति०४ अधि० । भेरंडिक्खु - भेरडेतु-पुं० । भेरडदेशोद्भवे तुभेदे, जी० ३ प्रति०४ अधि० । भैरव-भैरव-म० । भीरोरिदम् अय् । सिंहाऽऽदिसमुत्थे भये, 66 भेसय जं०] २ पक्ष० । कल्प० । भयानके, आाखा० १ ० ६ ० २ उ० | आ० म० । सूत्र० । ज्ञा० । भैरवा अत्यन्त साध्यलोस्पादकाः । उत०] १५ अ० भयानकं तं विजीवि आम्रो, वारिताओ वा ववशेवे।" नि०यू०१६ उ० । भयसाधादिसिद्धं भयानके रसे श तारभेदे, रागभेदे च । वाख० । मेरि-मेरि-स्त्री० । ढक्कायाम्, जं० ३ वक्ष० । रा० । जी० । - - - 66 द्वार । भेसय भेषज - न० । भेष-भक्ष भेषं रोगभयं जनयति । औषधे, वाच० । नि० चू० १३० । विशे० । - Page #1626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेसिय अभिधानराजेन्द्रः। भोग भेसिय-भेषित-त्रि० । भयं प्रापिते, भाष०६अ। पालने , ज्योतिषोक्ने प्रहाणां तत्तद्राशिस्थिती भूम्याविषपभो-भोम्-अव्य० । सम्बोधने , बाच०।" इति भो :- भद्रव्यविनियोगे, यथेष्टविनियोगे च ।" बन्धूनामविभकानां, ति भो सिते अमममस्स किया करणिजाई पच्चणुभ भोग नैव प्रदापयेत्।" इति स्मृतिः। वाय० । योगशास्त्रोक्ने सत्यपुरुषयोरभेदाभ्यवसाये च । तदुक्तम्-"सवपुरुषयोषमाणा विहर।" इत्येतत्कार्यमस्ति । भोशनश्वाऽऽमन्त्रण रत्यम्तासङ्कीर्णयोःप्रत्ययाधिशेषो भोगः परार्थः स्वार्थसंयमा. इति । भोति भोति ति परम्पराऽऽलापानुकरणम् । भ० ३ त्पुरुषहानमिति ।"द्वा०२६ द्वा० । भुज्यते इति भोगः। इन्द्रिश०१उ.माचा० प्रा० चू०। व्य० । सूत्र० । ल० । यमनोऽनुकूले शब्दाऽऽदिके विषये, यो०वि०। सूत्र। उत्त०। दश। रा० । ध. । उत्त० । शा० । भोरित्या पश्चा०।०प्र० । स्था० ध०। जं०। विपा।दशा प्रक्षा। मन्त्रण इति । भाचा.१९०६.१उ. । प्रश्ने । वि. कल्पका भामा० मा सस्पर्शाऽदिके विषये, उन.. पादचापाचा ५० प्रावजी० कामी शब्दरूपे, भोगा गम्धरसभोश-भोग-पुं०। सर्पफणायाम, "भोश्रो फणा फणस्थे।" | स्पर्शाः। स्था०४ ठा० १3० । श्राव.। भी०। तं०।"भोगेपाइना० १५१ गाथा। भाटी, दे० ना.६ वर्ग १०६ गाथा हि संखुडे।"भोगा गन्धरसस्पर्शातेषु मध्ये संवृद्धा वृद्धि भोड-धोगिक-पु. ग्रामप्रधाने, " गामणी भोइनो य मुपगतः।भ०१श ३३ उ० । भातुकापासून गामवई।" पाइना० १०४ गाथा। देना। काविहा णं भंते ! भोगा पमत्ता । गोयमा ! तिविहा भोर(स)-भोगिन-पुं०। भोग अस्त्यर्थे इनिः । सर्प, नृपे, भोगा पपत्ता । तं जहा-गंधा, रसा, फासा। प्रामाध्यक्ष, नापिते च । भोगयुक्त, त्रिभोगवदहयः । सर्पे, भुज्यते सकृदुपयुज्यत इति भोगः । सकृदुपभोग्ये पुष्पाss. भोगयुक्त, त्रिकाबाचाकामिनि, द्वा०१५ वायो.बि०।। हाराऽऽदिके विषये, भ०७ श०७ उ०। भोजिन-पुं० । भुक्त, इत्येवंशीलो भोजी । भ०२ श०१ उ०। रूवी भंते ! भोगा अरुवी भोगा। गोयमा!रूवी भोगा नो भोक्तरि, माव०४ अ० । राजनि , व्य० ५ उ० । ग्रामस्वामि- अरूवी भोगा। सचित्ता भंते ! भोगा,प्रचित्ता भोगा । गोनि, व्य०७ उ०। यमा सचित्ता वि भोगा,अचित्ता वि भोगा। जीवाणं भंते ! भोइकुल-भोजिकुल-न। राजकुले, व्य०५०। भोगा पुच्छा?।गोयमा! जीवा वि भोगा,मजीवा वि भोगा। भोडग-मौगिक-पुं० । भोगेन विशिष्टनेपथ्याऽऽदिना परति जीवाणं भंते ! भोगा, अजीवाणं भोगा । गोयमा ! भोगिकः । नृपतिमान्ये प्रधानपुरुषे, उत्त०१५५० ग्रामस्वा. जीवाणं भोगा, नो अजीवाणं भोगा। मिनि, वृ०१ उ०२ प्रक० । निचू । भोग इन् कः । भोगवं (कविमित्यादि ) भुज्यन्ते शरीरेण उपभुज्यन्ते इति भोशोवे च । विषयभोक्तरि, त्रि०। उत्त०१५म०। १०। भोइणी-भोगिनी--स्त्री० स्वामिन्याम् , नि० चू० १० उ० । गाः विशिष्टगन्धरसस्पेशद्रव्याणि , (रूर्षि भोग ति ) रूणि णो भोगा नो अरूपिणः, पुद्रलधर्मत्वेन तेषां मूसस्वादिति । भोइत्ता-भोजयित्वा-अन्य। भोजनं कारयित्वेत्यर्थे, उत्त (सचितेत्यादि)सचित्तामपि भोगा भवन्ति गम्धादिप्रधान अ० स्था। जीवशरीराणां केषाश्चित्समनस्कत्वात्। तथा प्रचित्ता अपि भोइया-भोजिका-स्त्री० । भोजयति भारमिति भोजिका। भागा भवन्ति,केषाश्चिद्रन्धाऽऽदिविशिष्टजीवशरीराणाममन. पृ०१ उ०२प्रक० । भाायाम् . ग०२ अधिक। व्या वृ० । स्कत्वात्. (जीया विभोग ति) जीवशरीराणां विशिष्टगन्धा. महिलायां च । बृ०१उ०३ प्रक अदिगुणयुक्तस्वात्. (अजीवा वि भोग ति) भजीवद्रव्याभोज्या स्त्री० । वेश्यायाम् , व्य० ७ उ०। णां विशिष्टगम्धाऽदिगुणोपेतत्वादिति । भ०७ श०७ उ०। भोई-भवती-स्त्री० ।भा-स्वतुः। कीप् । युष्मदर्थे , " जहा| उक्तं हि-"सति भुज्जति सि भोगो,सो पुण माहारपुष्फमाय भोई तणुयं भुयंगो।" उत्स०१४ म० । मिओ।" उस०३३ मा कर्म०पं०सं० श्रा०प्रहा। भो गाःसचन्दनवादित्राऽपयः। सूत्र.२धु०१५. भोगोऽत्र भोऊण-भुक्त्वा -अव्य० । मोजनं कृत्वस्यर्थे, "स्व-व-- माल्यताम्बूलविलेपनोद्वर्तनस्नानपानाऽऽदिः । ध०२ अधिक। भ्यां चछजझाः कश्चित्"।८।२।१५॥रति प्राकृतसूत्रेण भुज्यन्ते शरीरेणोपभुज्यते इति भोगा। विशिष्टगन्धरसस्पर्श तस्य पाचप्रा०२पाद । हरभुजमुचां तोऽस्यस्य"॥८। द्रव्येषु,भ०७२.७ ३० । माधारे घम् । भोगाऽऽधारभूते ४।२१२॥ इति प्राकृतसूत्रेणैषामन्स्यस्य ना स्क्वातुम्तव्येषु । वस्तुनि, स्त्री० । शरीराऽऽदी, सा. १९०१०। जं०। प्रा०४पाद । उत्त-सत्रापश्चा०।। भोग-भोग-पु. भावे-घम् । भोजने,स्था०३ ठा०३ उ० । बि छउमस्थे सं भंते ! मणुस्से से भविए अपयरेसु देवलोपाके, पञ्चा० विषयेषु भोगकियायाम, स्था० १० ठा० । भोग- एसु देवत्साए उववजिसए, सेणू भंते ! से खीणभोगी णो स्तदुपयोगेन सफलीकरणमिति । सूत्र० १६०३ १०२ उ०। पभूउहागणं कम्मेणं बलेणं वीरिएणं पुरिसकारपरकमेणं भोग इन्द्रियार्थसम्बन्ध इति । द्वा.२४ द्वा० । मदनकामे, का. विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए । से पूर्ण मा इरुकारूपा मदनकामास्तु भोगाः । सूत्र०२ श्रु०१०।। शब्दाऽऽदिविषयाभिलाषे,माचा०१श्रु०२५०४ उ.मुखे, मंते एयपटुं एवं बयह? । गोयमा ! नो इणडे समढे, सुखदुःखाउनुभवे, पण्यत्रीणां भाटकाऽऽदिरूपे तने, पभू णं उहाणेण वि कम्मण वि बलेण वि वीरिएण Page #1627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा (१६०४) भोग अभिधानराजेन्द्रः। भोगपुर वि परिसकारपरक्कमेण वि अमायराई विउलाई भोगभो-हाय विनिवर्तेत भोगेम्यो बन्धैकहेतुभ्यः, तथा धुवमप्यायुः गाई जमाणे विहरित्तए, तम्हा भोगी भोगे परिश्च पमाणे | परिमितं संवच्छरशताऽऽदिमानेन विज्ञायात्मनो विनिमहानिअरे महापअवसाणे भवइ । आहेाहिए णं भंते ! मण वर्तेत भोगेभ्य इति सूत्रार्थः। दश०८०२ उ० । धने , देहे. स्से जे भषिए अप्लयरेसु देवलोएम एवं चेव जहा छउम बाच०। भोगः शरीरमिति । जं० २ वक्षः। तं०। ०। झा। सर्पफणे, शा०१ श्रु०८ अ० अर्श प्राधच् । सप्पे, वाच । स्थे०जाब महापञ्जवसाणे भवइ । परमाहोहिए णं भंते ! भोगाईत्वाद् भोगः । कल्प० १ अधि० ७क्षण । आदिराजेन मणुस्से जे भविए तेगव भवग्गहणेणं सिजिझसए. ऋषभदेवेन गुरुत्वेन व्यवस्थापिते कुलाऽऽर्यभेदे , तद्वंजाव अंत करित्तए । से गुण भंते ! से खीणभोगी सेस शजे च । अनु० । स्था० । भोगा भगवतो नाभयस्य राज्यजहा बउमस्थस्स वि । केवली णं भंते ! मणुस्से जे भविए काले ये गुरव प्रासन् तवंशजा अपि तदव्यपदेश्याः । स्था० ३ ठा० १ उ० । “भोगकुलाणि वा।" भोगा राशः पूज्यस्था. तेणेष भवगहणणं एवं जहा परमाहोहिए. जाव महा नीया इति । श्राचा०२६०१चू. १०२०।शा० प्रा० पजवसाखे भवइ । (सूत्र-२६१) मा प्रश्ना भ०। प्रशााकल्प०००। उपयोगे, वृ० "बउमस्येणं"इत्यादिसूत्रचतुष्कं.ताच-(से एवं भंते से उ०२ प्रक। जीजभोगि सि) (सेसि)मसी मनुष्यो नूनं निश्चितं भद-भोगअरियत्ता-भोगातिरिक्रता-स्त्री० भोगाऽऽधिक्ये, ध० त!(सेसि)अयमः, अथशब्दश्व परिप्रश्नार्थ:। (खीणभो- २ प्रधि० । गिति) भोगा जीवस्य यत्रास्ति तद्भोगि शरीरं तत्क्षीणं त. शरार तताण त भोगंकरा-भोगकरा-स्त्री० । अधोलोकवास्तव्यायां स्वनामपारोगाऽऽविभिः यस्य सक्षीणमोगी क्षीणतनुर्दुबेल इति या ख्यातायां दिक्कुमार्याम् , प्रा० म०१ अातिका जं०। बत् ।। णो पभुसिन समर्थः ( उट्ठाणणं ति ) ऊभिष श्रा०क०स्थाका प्रा० चू०। मेन (कम्मेण ति) गमनाऽऽदिना (घलेणं ति ) देहप्रमाणेन (बारिएणं ति) जीवघलेन पुरिसकारपरकम ति) पुरुषा. भोगंग-भोगान-न० 1 रूपाऽऽदिके, "अङ्गाभावे यथा भौगोडभिमानेन, तेमेष पसाधितस्वप्रयोजनेनेत्यर्थः । (भोगभोगाई तात्विको मानहामिता" प्रजानां भोगानां रूपषयोवित्ताss. ति)मनामशधाउदीन ( से पूर्ण भंते ! पयमटुं एवं वयह) व्यत्वाऽऽदीनां वात्स्यायनोक्लानामभावे सति यथो भोगोऽताअथ निधितं भवम्त पतमनन्तरोक्कमर्थम् एवममुनैव प्र स्विकोऽपारमार्थिकः। द्वा० १४ द्वा०। यथोक्तम्-"रूपवयोवै. कारण पदय यूपमिति प्रश्नः। पृच्छतोऽयमभिप्रायः-यच चक्षण्यसौभाग्यमाधुय्यैश्वाणि भोगसाधनम्।" यो०बि० सौम प्रभुस्तदास भोगमोजनासमर्थवान भोगी, अत ए. पं० सं०। नो भागस्यागीयताक निर्जरावान् । कथं या देवलोकगः भोगतराय--भोगान्तराय-न० । यदुदयवशारसस्यपि विशिष्टा• मनपर्यषसानोऽस्तु उत्तरंतु-(नोण? समढेसिकस्मात् हाराऽदिसंभवे असति च प्रत्याख्यानपरिणामे वैराग्ये वा पत्ता (पभू से सिसक्षीणभोगी मनुष्यः ( अन्नतराई | केवलकार्पण्यानोत्साहते भोक्त सभोगान्तरायमित्युक्तलक्षणे ति) एकतरान् कोभिक्षीणशरीरसाधूचितान् , एवं चोचित- अन्तरायकर्मभेदे, प्रशा. २३ पद । कर्मपं० सं० स०। मोगमुक्तिसमर्थवानोगित्वं तत्प्रत्याख्यानाच्च तस्यागित्वंभोगकामि-भोगकामिन--पुं० । भोगाभिलाषिणि , सूत्र० १ ततो निर्जरा, ततोऽपि च देवलोकगतिरिति । (पाहोहिपणं ति)माधोऽअधिक: नियतक्षेत्रविषयावधिज्ञानी ( परमाहो. | श्रु०४ अ०२ उ०। भोगकिरिया-भोगक्रिया-स्त्रीका भोगकरणे, "भोगकिरियासु हिएणं ति) परमाधोवधिकहानी, अयं च चरमशरीर एव । भवतीत्यतमाह-(तेणेष भवग्गाणेणं सिभित्तय स्याति रूवाइकप्पं।" पं० सू०४मत्र० । भ०७०७ उ०। भोगकुल-भोगकुल-न० । राक्षः पूज्यस्थानीये कुल , प्राचा. भोगापेक्षा दुःखाय भवति । तथा चोक्तम् २ श्रु० १० १०२ उ०। "भोगे भषयवंता, पति संसारसागरे घोरे । भोगत्थ--भोगार्थ-ना भोगते, "भोगत्याए जेऽभियावना।" भोगीह निरषयक्सा , तरति संसारकतारं ॥१॥" इति । सूत्र०१ श्रु०२५.३ उ०।। सूत्र०१०म०। भोगट्टि (न)-भोगार्थिन-त्रि०। मनोशगन्धरसस्पर्शार्थिनि, "धर्मादपि भवन भोगा, प्रायोऽनीय देहिनाम् । नि० चू० १६ उ०।ौकाशा बन्दनादपि संभूतो, दहत्येव हुताशनः ॥६॥"द्वा० २३ द्वा०। भोगपब्वइय-भोगपत्राजित-पुं०। भोगो य मादिदेवेन गुरुत्वेन. (व्यापया 'थिरा' शब्दे चतुर्थभागे २४११ पृष्ठे गता) व्यवहतस्तवंशजश्य भोगः, भोगः सन् प्रत्रजितो भोगप्रवभोगेभ्यो निवृत्तिबावश्यं कार्या। तथा च सूत्रम् जितः । भोगवंशजे प्रवजिते, औ०। भोगपाय-भोगपात-पुं० । भोगनाशे, स्था०५ ठा०२ उ०। मधुवं जीवियं नवा, सिद्धिमगं पियाणिया। भोगपुत्त-भोगपुत्र-पुं०। मादिदेवस्थापितगुरुवंशजे कुमारे, विणियट्टिज भोगेसु, पाउं परिमियऽप्पणो ॥ ३४ ॥ अभवम् अनिस्पं मरणाशकिजीवितं सर्वभावनिबन्धनं ! ओ०। हावा, तथा सिद्धिमार्ग सम्यग् दर्शनशानबारिवलक्षणं वि. भोगपुर-भोगपुर-न० । स्वनामयाते पुरे, पत्रस्पेन महेन्द्रण Page #1628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६०५ ) अभिधान राजेन्द्रः । भोग भोग भोगपुर क्षत्रियेण महावीरस्वामिन उपद्रवे कृते सनत्कुमारो देवेन्द्रः । के तहा ईसा वि निरवसेसं, एवं सकुमारेवि नवरं प्रादुर्भूय तं निर्धाटितवानिति । श्र० म० १ श्र० । श्र० चू० । ध०र० । भोगपुरिस - भोगपुरुष - पुं० । भोगप्रधानः पुरुषो भोगपुरुषः । सूत्र० १ श्रु० ४ श्र० १ उ० ( 'पुरिस' शब्देऽस्मिन्नेव भागे१०१२ पृष्ठे व्याख्या) भोगपुरुषः संप्राप्त समग्र विषयसुखभोगोपभोसमर्थश्चक्रवर्तियत् । श्रा० म० १ अ० । अन्यैरुपार्जितानामर्थानां भोगकारिणि नरे भ० १२ श० ७ उ० । भोगभूमि - भोगभूमि- स्त्री० । भोगस्यैव भूमिः स्थानम् । देवकुर्वादिकायाम कर्मभूमौ स्था० ३ ठा० १३० । श्राचा० । भोग भूरिया - भोगभूरिता स्त्री० । स्नानपानभोजन चन्दनकुङ्कुमकस्तूरीकावस्त्राऽऽभरणाऽऽदेः स्वकीय कुटुम्बव्यापारणापेक्षयाऽधिकत्वे. ध० २ अधि० । पासायवडेंसओ छ जोयणसयाई उड्डुं उच्चत्तेणं तिन्नि जोयसयाई विक्खंभेणं मणिपेढिया तव अजोय - णिया, तीसे गं मणिपेढियाए उबरिं एत्थ णं महेगं सीझसणं विउच्चइ सपरिवारं भाणियन्वं, तस्थ संकुमारे देविंदे देवराया बाबत्तरीए सामाणियसाहस्सीहिं ०जाव चउहिं बाबत्तरीहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहि य बहूहिं सकुमारकप्पवासीहिं वेमाणिएहि देवेहि देवीसिद्धिं संपरिवुडे महया ० जाव विहरड़ | एवं जहा सकुमारे तहा जाब पाणओ अच्चुत्रो, नवरं जो जस परिवारो सो तस्स भाणियन्यो, पासायउच्चतं जं ससु ससु कप्पेसु विमायाणं उच्चत्तं अ दुद्धं वित्थारो ० जाव अच्चुयस्स नव जोयणसयाई उड्ड उच्चत्खं श्रद्धपंचमाई जोयसयाई विक्खंभेणं, तत्थ गं गोमा ! अच्चु देविंदे देवराया दसहिं सामाणि यसाहस्सीदि ० जाव विरइ | ( मूत्र - ५२० ) भोगभोग भोग भोग- पुं० भुज्यन्त इति भोगाः स्पर्शाऽऽदयः, भोगा भोगा भोगभोगाः । भ० २५ श० ७ उ० । विपाο। प्रशा० । जी० । श्रा० म० । रा० । स्था० । कल्प० । मनोशेषु शब्दाऽऽदिविषयेषु स०३० सम० भ० चं० प्र० । जं० ॥ श्रथवा भोगेभ्य श्रारिककायभावेभ्योऽऽतिशायिनो भोगा भोग भोगाः । जं० १ बक्ष० । अतिशयवत्सु शब्दाऽऽदि. विषयेषु, नि० १ ० १ वर्ग १ श्र० । सूत्र० । स्त्रीभोगे सत्यव श्यं शब्दाऽऽदयो भोगा भोगभोगाः । स्त्रीभोगाऽऽद्युपयोगिषु शब्दाऽऽदिविषयेषु सूत्र० २ ० २ श्र० । जाहे णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया दिव्वाई भोगभोगाई जिउकामे भवति से कहमियाणि पकरेति १ । गोयमा ! ताहे चैव गं से सके देविंदे देवराया एवं महं नेमिपरूिवगं विव्वति, एगं जोयणसय सहस्सं आग्रामविक्खंभेणं तिन्नि जोगणसय सहस्साई • जाव अर्द्धगुलं च किंचि विसेसाहियं परिक्वेवेणं, तस्स गं नेमिपडिरू ( जाहे एमित्यादि ) ( जाद्देत्ति ) यदा भोग भोगाई ति " भुज्यन्त इति भोगाः - स्पर्शाऽऽदयः भोगार्दा भोगा भो गभोगाः मनोचस्पर्शाऽऽदय इत्यर्थः, तान् " से कह मियाणि प करेइति, " अथ कथं ' केन प्रकारेण तदानीं प्रकरोति ? प्रवर्त्तत इत्यर्थः ' नेमिपडिरूवंग ति ' नेमिः चक्रधारा, तद्योगाश्चक्रमपि नेमिः -- तत्प्रतिरूपकं - वृत्ततया तरलहशं, स्थानमिति शेषः । ' तिन्नि जोयणेत्यादौ यावत्करणादिदं दृश्यम् -' सोलस य जोयणसहस्साई दो य सयाई सत्तावीसाहियाई कोसतियं श्रट्ठावीसाहियं धणुरायं ते रस य अंगुलाई ति ।'' उवरि ति ' उपरिष्टात् ' बहुसमर मणिजे ति श्रत्यन्तसमो रम्यश्चेत्यर्थः । ' जाव मणी फालो त्ति' भूमिभागवर्णकस्तावद्वाच्यो यावन्मणीनां स्प शेवर्णक इत्यर्थः स चायम्-" से जहा नाम ए लिंगपोक्ख रेवा, मुहंगपोखरेइ वा ।" इत्यादि श्रालिङ्गपुष्करं मुरजमुखपुढं मद्दल मुखपुढं तद्वत्लम इत्यर्थः । तथा " सच्छाप हिं सम्प्रमेहिं समरीईहिं सउजापहि नाणाविद्दपंत्र वन्ने म णीहिं उबसोहिए तं जहा किएदेहिं ५।" इत्यादि, वर्णगन्धरस• स्पर्शवको मणीनां वाच्य इति । " अब्भुग्गयमूसियवन्नश्रो ति । " अभ्युद्गतोच्छ्रिताऽऽदिः प्रासादवर्णको वाच्य इत्यर्थः, स पूर्ववत्, ' उल्लोपत्ति ' उल्लोकः उल्लोचो वा-उप रितलं उमलयाभत्तिचित्ते त्ति' पद्मानि लताश्च पद्मलताः, तद्रूपाभिर्भक्तिभिः विच्छित्तिभिश्चित्रो यः स तथा, यान वत्करणादिदं दृश्यम्- 'पासाइप दरिस णिजे अभिरूत्रे त्ति ' 'मणिपेढिया अजयगिया जहा बेमाणियाति' मणिपीठि का वाकया । सा चाऽऽयामविष्कम्भाभ्यामष्टयोजनिका यथा वैमानिकानां सम्बन्धिनी, न तु व्यन्तराऽऽदिसत्केव तस्यान्यथा स्वरूपत्वात् । सा पुनरेवम्-" तस्स णं बहुसमरम णिञ्जस्स भूमिमागस्स बहुमज्झसभाए पत्थ णं महं एगं मणिपेढियं विब्बइ सा गं मणिपेढिया अट्ठ जोयणाई 1 , बरं बहुसमरमणि भूमिभागे पन्नत्ते ०जाव मणीयं फासे, तस्स णं नेमिपडिरूवगस्स बहुपज्झदेस भागे तत्य णं महं एगं पासायवडेंसगं विव्वति पंच जोयसयाई उड्डुं उच्चतेयं थड्डाइजाइं जोयणसयाई विक्खभेणं श्रब्भुग्गयमुसियवन्नो बजाव पडिरूवं, तस्स पासायवर्डिसगस्स उल्लोए पउमलयभत्तिचित्ते ० जाव पडिवे तस्स पासायचšसगस्स तो बहुसमरमणि जे भूमिभागे जाव मणीयं फासो मणिपेढिया अजोगिया जहा वैमाणियाणं, तीसे गं मणिपेढिया उवरिं महं एगे देवस्यणिजे विउब्वइ सयजिवन ० जाव पडिरूवे, तत्य गं से सके देविंदे देवराया अहिं अग्गमहिसीहि सपरिवाराहिं दोहि य आणिएहिं नट्टाणिएणं य गंधव्वाणिए यसद्धिं महया हयनदृ ०जाव दिव्वाई भोग भोगाई भुंजमाणे हिरइ || जाहे ईसा देविंदे देवराया दिव्वाई जहा स ४०२ , For Private Personal Use Only 9 Page #1629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगसुह पसत, तस्स / भोगराया ( १६०६) भोगभोग अभिधामराजेन्द्रः। पायामविक्खंभेणं पनत्ता चत्तारि जोयणाई बाहलणं स- भोगरत-न० । भोगानुरागे, भ०६ श०१३ उ०। व्वरयणामई अच्छा . जाव पडिरूव त्ति ।" ( सयणिज्जव-भोगगय-भोगराज-पुं० भोगवंश्ये नृपे,“प्रहं च भोगरायस्स, अमोति) शयनीयवर्णको वाच्यः । स चैवम्-' तस्स तंच अंधगवरिहणो।" दश०२ मा उत्त। णं देवसयणिज्जस्स इमेयारूवे वन्नावासे पाते ।' वर्णकव्यासः-वर्णकविस्तरः, 'तं जहा-नाणामणिमया पडिपा भोगलक्खण-भोगलवण-ना भोगसूचकं लक्षणं भोगलक्षण. या सोयनिया पाया णाणामणिमयाई पायसीसगाई।' इत्या. म् । भोगसूचके स्वस्तिकाऽऽदिके लक्षणे, "भोगुत्तना भोगल. दिरिति । 'दोहिय प्रणिपहिति'अनाक सैन्यं नहाणीए क्खणधरा।" भोगसूचकानि लक्षणानि स्वस्तिकाऽऽदीनि ण यत्ति' नाट्यम्-नृत्यं तत्कारकमनीकं-जनसमूहो ना धारयन्तीति भोगलक्षणधराः। प्रश्न.४ाभ० द्वार । तं०। टयानीकम् , एवं गन्धर्वानीकं, नवरं गन्धर्ष-गीतं, ' मह भोगवइ-भोगवती-खा० । भोगः सर्पशरीरं भूम्नाऽस्त्यस्यां येत्यादि ।' यावरकरणादेवं दृश्यम्-'महया हयनगीयवा मतुप् । मस्य वः। पातालगायाम्, वाच० । अधोलोकवा. इयतंतीतलतालतुडियघणमुरंगपटुप्पवाइयरवेणं ति।' व्या स्तब्यायां स्वनामख्यातायां विकुमार्याम् ,जं.५वक्षामाo ख्या चास्य प्राग्वत् , इह च यत् शक्रस्य सुधर्मसभाल कातिका मा०म० । स्था। मा०चून दक्षिणचकवास्त. क्षणभोगस्थानसद्भावेऽपि भोगार्थनमिप्रतिरूपकाऽऽविविकु. व्यायां स्वनामख्यातायां विकुमार्याम् , चं० प्र. १८पाहु। घेणं तज्जिनास्थनामाशातनापरिहारार्थ, सुधर्मसभायां हि तिकाभावश्यकचूर्णिस्थानागावश्यककथादौ तु शेषवतीति माणवके स्तम्भे जिनाऽऽस्थीनि समुद्र केषु सन्ति,तत्प्रत्यास. दृश्यते । राजगृहनगरस्थधनसार्थवाहसुतस्य धनदेवस्य सौ च भोगानुभवने तयहुमानः कृतः स्यात् , स चाऽऽशा खनामस्यातायां भाव्याम् , शा० १ ध्रु०७०।पक्षभवतनेति । 'सिंहासणं विउठवह ति।' सनत्कुमारदेवेन्द्र सिं. स्य पञ्चदशसु रात्रिषु द्वितीयायां सप्तम्यां द्वादश्यां च राहासनं विकुरुते, न तु शकेशानाविध देवशयनीयं , स्पर्शमा. श्री. भोगवती भद्रातिथिरात्रिरिति । जं०७वक्ष०।०प्र०। श्रेण तस्य परिचारकत्वान्न शयनीयेन प्रयोजनमिति भावः। सू०प्र० । ज्यो। 'सपरिवार ति।' स्वकीयपरिवारयोग्याऽऽसनपरिकरित- भोगवदया-भोगवतिका-स्त्री० । ब्राहम्यालिपेलेण्यविधानभेमित्यर्थः, 'नवरं जो जस्स परिवारो सो तस्स भाणियब्बो | दे, प्रज्ञा०१ पद । स०।सि।' तत्र सनत्कुमारस्य परिवार उक्तः , एवं माहेन्द्रस्य | भोगविगम-भोगविगम-पुं०। भोगवियोगे, पश्चा०५विव०। तु सप्ततिः सामानिकसहस्राणि चतनश्वानरक्षसहस्राणां | भोगविस-भोगविष-j । भोगःशरीरं तत्र विषं यस्य सः। सप्ततया, ब्रह्मणः षष्टिः सामानिकसहस्राणां, लान्तकस्य पढ । भोगः शरीरं स एव विर्ष यस्य सः।हा०१ पश्चाशत् शुक्रस्य चत्वारिंशत्, सहकारस्य निशत्, प्राण श्रु. ६अ। सर्पभेदे, वाच। तस्य विशतिः, अच्युतस्य तु दश सामानिकसहस्राणि । स. | भोगसमत्थ-भोगसमर्थ-०। भोगाः शम्दाऽऽदयस्तेषु समर्थों त्रापि च सामानिकचतुर्गुणा मात्मरक्षा इति । ' पासायउचत जं' इत्यादि । तत्र सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः षन्यो भोगसमर्थः । मा० म०१०। भोगानुसमर्थे, औ०। जनशतानि प्रासादस्योच्चत्वं, ब्रह्मलान्तकयोः सप्त, शुक्रस-भोगसस्सिरीय-भोगसश्रीक-त्रि०। भोगैः सश्रीकः। भौगैः इनारयोरष्टौ, प्राणतेन्द्रस्याच्युतेन्द्रस्य च नवेति । वसनत्कुमाराऽऽदयः सामानिकाऽऽदिपरिवारसहितास्तव नेमिप्रतिरूपके गच्छन्ति, तरसमक्षमपि स्पर्शाउदिप्रतिचारणा भोगसालि (ण)-भोगशालिन-पुं० । महोरगभेदे , प्रशा. या अविरुद्धत्वात् , शक्रेशानौ तु न तथा सामानिकाss १ पद। दिपरिवारसमकं कायप्रतिचारणाया ललनीयस्वेन विरुद्ध-भोगसाहण-भोगसाधन-न०। रूपाऽऽदिके भोगा, पं. सू० स्वादिति ॥ भ० १४ श० ६ उ० । ४ सूत्रः। यो• वि० । भोग्यभोग-पुं० । भोग्या ये भोगास्ते भोग्यभौगा। भोगा-भोगसह-भोगसख-ना शब्दाऽऽदिविषयसेवायाम् . द्वा०१४ पुशब्दाऽऽदिविषयेषु, उत्त०१४ ०। द्वा० । यो० वि०। भोगमालिणी-भोगमालिनी- स्त्री० । अधोलोकवास्तव्यायां । तमो से एगया रोगसमुपाया समुप्पजति , जेहिं वा स्वनामध्यातायां दिकुमार्याम्, प्रा. ०१०।। सदि संवसति तेवणं पगया णियगा पुचि परिवयंति, मा०म०। ति० प्रा० चू० । सा च जम्बूद्वीपमाल्यवरपर्वत. रजनकूटस्थादेवी । स्था०६ ठा। जम्बूद्वीपमाल्यवत्पर्वत सो वा ते णियगे पच्छा परिवएजा, णालं ते तव ताणाए स्थकटानधिकृस्य रजतकूटं षष्ठम्, अत्र भोगमालिनी विकुमा वा सरणाए वा, तुमं पि तेसिं णालं ताणाए वा सरणाए री सुरी। ज०४ वक्षः। वा, जाणि दुक्खं पत्तेयं सायं , भोगा मेव अणुसोयंति भोगाइ--भोगरति-श्री० । भोगाः शनाऽऽदयस्तेषु रतिराश-इहमेगेसिं माणवाणं ॥ (सूत्र-८२) लिः। शब्दाऽऽदिविषयाउऽशक्ती, प्रश्न०४ आश्र द्वार । तत इति-कामानुषाकर्मोपचयस्ततोऽपि पञ्चत्वं, तस्मा. भोगरय--भोगरजस..ना भोगलक्षणं रजो भोगरजः । भोगा. मो . मालिलावपेसीव्यगर्भप्रसऽऽस्मके रजसि,"भोगरपणं नोऽवलिप्पहित्ति।" मौकाभ। वाऽऽदिर्जातस्य व रोगाः प्रादुपन्ति । (से) तस्य कामानु Page #1630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगसुह अभिधानराजेन्द्रः। भोगसुह पकमनस एकदेत्यसाताषेवनीयविपाकोदये रोगसमुत्पादा' | गया दायादा विभयंति, प्रदत्तहारो वा से हरति, रायाणो इति-रोगाणां शिरोऽर्तिशूलाऽऽदीनां समुत्पादाः प्रादुर्भावाः वा से विलुपंति,णस्सइ वा से विणस्सह वा से,प्रगारबाहेण समुत्पचन्ते प्राषिभेवन्ति, तस्यां च रोगावस्थायां किभूतोवा से ज्झति इति, से परस्स अट्टाए कूराणि कम्माणि भवस्यसाबिस्यत माह-(जेहि स्यादि) यैर्वा साचमसौ संबसति, त एष एकदा निजाः पूर्व परिवदन्ति, स वाता वाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विपरियासमवेति (सूत्र-८३) भिजान् पश्चात्परिषदेमालं (ते) तव त्राणाय वा शरणाय था, स्वमपि तेषां नावं प्राणाय वा शरणाय वा इति (तिषिहणेत्यादि) त्रिविधेन याऽपि तस्य तथार्थमात्रा पात्वा दुःख प्रत्येकं सातं च स्वकृतकर्मफलभुजः सर्वे: भवति भल्या वा बढी वा , ( से ) तस्यामर्थमात्रायां वि प्राणिन इति मत्वा रोगोत्पत्तौन दौर्मनस्यं भावनीयम् , गृद्धस्तिष्ठति , सा च भोजनाय किल भविष्यति, ततस्त. न भोगाः शोचनीया इति । माह च-(भोगा मे इत्यादि) स्यैकदा विपरिशिष्टं सम्भूतं महोपकरणं भवति , तदपि भोयाः शमरूपरसगन्धस्पर्शविषवाभिलाषास्तानेवानुशोच-| तस्यैकदा दायादा विभजन्ते , अदत्तहारो वा तस्य पर. यम्ति-कथमस्यामप्यषस्थायाम् वयं भोगान् भुड्चमहे , एवं ति, राजानो वा विलुम्पम्ति , नश्यति वा विनश्यति वा, भूतान् घाऽस्माकं दशाभूपेन मनोहा अपि विषया उपन- अगारदाहेन वा दद्यते इति, स परस्मै अर्थाय फराणि क. ता नोपभोगायेति । रितवाध्यवसायः केषाश्चिदेव भवती- | माणि बालः प्रकुर्वाणस्तेन दुःखेन मुढो विपर्यासमुपैति , स्याह-हैव संसारे एकषामनवगतविषयविपाकानां ब्रह्म- एतच्च प्रागेव व्याख्यातीमति, नेह प्रतायते । दत्तादीनां मानवानामेवंभूतोऽध्यवसायो भवति, न सर्वे तदेवं दुःखविपाकान् भोगान् प्रतिपाय यत्कर्तव्यं तदुप. षां,सनत्कुमाराऽऽदिना व्यभिचारात् । तथाहि-ब्रह्मदत्तो मा- दिशतीस्याहरणान्तिकरोगवेदनाऽभिभूतः सन्तापातिशयात् स्पृशन्ती प्र. | भासं च छंदं च विगिंच धीरे !, तमं चेव तं सम्खमाणयिनीमिव विश्वासभूमि मूी बहु मन्यमानः तथा हस्ती- हा, जेण सिया तेण यो सिया, इयमेव णावबुझिति कता विहस्ततया विषयीकृतो वैषम्येण गोचरीकृतो ग्लाम्या हो दुःखासिकया कोडीकृतः कालेन पीडितः पी जे जणा मोहपाउहा, थीभि लोए पचहिए, ते भो! वयंअभिनिरूपिती नियत्या भादित्सितो देवेन मन्तिके अन्यो- ति एयाई भायतणाई से दुक्खाए मोहाए माराए णमासस्य मुखे महाप्रषासस्य शारि दधिनिद्राया जिलाने रगाए णरगतिरिक्खाए, सततं मूढे धम्म णाभिजाणति, जीवितेशस्य वर्तमान विरलो बाचि विलो वपुषि उदाहु वीरे,अप्पमादो महामोहे, प्रलं कुस लस्स पमाएणं, प्रचुर: प्रलापे जितो जृम्भिकाभिरिस्येवंभूतामवस्थामनुभषामपि महामोहोदयागोगांश्चिकारक्षिषुः पार्योपविष्ट संविमरणं संपेहाए भेउरधम्म संपेहाए, णालं पास भलं भार्यामनवरतषेदनाशषिगलवधुरतनयनां कुरुमति! कुरु ते एएहि । (सूत्र०-८४) मतीयपं ना ज्यादरमधस्सप्तमी नरकपृथिवीमगमत्तत्राऽपि प्राथां भोगाकाङ्क्षा, चः समुच्चये, छम्दनं छन्दः परानुतीतरपेदनाऽऽभिभूतोऽप्यविगणय्य घेदनां तामेव कुरुमती वृस्या भोगाभिप्रायस्तं च, चशब्दः पूर्वापेक्षया समुच्चयार्थः, व्याहरतीत्येवंभूतो भोगाभिष्यतो तुस्त्यजो भवति केषां ताबाशाछन्दो, 'विश्व'पृथकुरु त्यज धीर!धीर्बुद्धिस्तया रा. वित्न पुनरम्येषां महापुरुषाणामुवारसखानाम्,मात्मनो जत इति. भोगाशाबन्दापरित्यागेच दुःखमेव केवलं, न त. उन्यारीरमित्येवमवगततवानां सनरकुमाराऽऽदीनामिष त्प्राप्तिरिति । प्राह च-(तुमं चेव इत्यादि) विनेय उपदेशगोयथोक्लरोगवेदनासद्भावे सत्यपि मयैवैतत् कृतं सोढव्यमपि चराऽऽपन मारमा पा उपदिश्यते-त्वमेव तद्भोगाऽशाऽदिक मयैवस्येचं जातनिश्चयानां कर्मक्षपणोचतानां न मनसः शल्यमाहत्य स्वीकृत्य परमशुभमादत्से, न तु पुनरूपभोग, पीडास्पद्यते इति । उकंच यतो भौगोपभोगो यैरेवार्थाssgपायैर्भवति, तेरेव न भवती " उप्तो यः स्वत एव मोहसलिलो जन्माउलवालोऽशुभो, स्याह-"जेण सिया तेण णो सिया।" येनैवार्थोपार्जनाऽऽदिना रागद्वेषकषायसन्ततिमहानिर्विघ्नवीजस्त्वया। भौगोपभोगः स्यात् , तेनैव विचित्रत्वात् कर्मपरिणतेःनरोगरकुरिती विपत्कुसुमितः कर्मgमः साम्प्रतं, स्थामथ वा येन केनचिद्धेतुना कर्मबन्धः स्यात्तम कु. सोढा नो यदि सम्यगेष फलितो दुःखैरधोगामिभिः ॥ १॥ त्तित्र न वर्ततेत्ययः, यदि या-येनैव राज्योपभोगाऽऽदिना पुनरपि सहनीयो दुःखपाकस्वयाऽयं, कर्मबन्धो येन वा निर्ग्रन्थत्वाऽऽदिना मोक्षः स्याद्भवेत्ते. नैव तथाभूतपरिणामवशात्र स्यादिति । एतच्चानुभवाबम खलु भवति माशः कर्मणां सचितानाम् । इति सह गणयित्वा यद्यदायाति सम्यग् , धारितमपि मोहाभिभूता नावगच्छन्तीत्याह-( इणमेव सदसविति विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्त्यः ? ॥२॥" इत्यादि ) इदमेव हेतुवैचित्र्यं न बुध्यन्ते न संजानते , मपिथ-भोगानां प्रधानं कारणमर्थोऽतस्तत् के ?, ये जना मौनीन्द्रोपदेशविकला मोहेनाऽक्षानेन मिस्वरूपमेव निर्दिविशुराह ध्यात्योदयेन वा प्रावृताः छादितास्तत्वविपर्यस्तमततिविहेण जाबि से तत्थ मत्ता भवति, अप्पा वा बहुगा यो मोहनीयोदयाद् भवन्ति । मोहनीयस्य च त - दकामानां च लियो गरीयः कारणमिति दर्शयति-(थीभि पा, से तत्थ गहिए चिट्ठति , भोयणाए, तमो से ए इत्यादि) स्त्रीभिरङ्गनाभिः भूक्षेपाऽऽविषिभ्रमरसौ लोक गया विपरिसिह संभूयं महोवगरणं भवति , तं पि से ए. भवात, ते पि से ए. भाशाछन्दाभिभूताऽऽरमा फरकम्र्मविधायी नरकविपाकफलं Page #1631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगसुह अभिधानराजेन्द्रः। भोगाभिस्संग शल्यमाहृत्य तत्फलमबुध्यमानो मोहाच्छादितान्तरा35. तदेवं भोगलिप्सूनां तत् प्राप्तावप्राप्तीच दुःखमेवेति दर्शयति. त्मा प्रकर्षेण व्यथितःप्रव्यथितः पराजितो वशीकृत इति या एयं पस्स मणी ! महाभयं, नाइवाइज कंचणं , एस वत् । न केवलं स्वतो विनष्टा अपरानपि असकृदुपदेशदानेन वीरे पसंसिए, जे न निविजइ आयाणाए, न मे देइ न विनाशयन्तीत्याह--(ते भो इत्यादि ) ते स्त्रीभिः प्रव्यथिता'भो'इत्यामन्त्रणे, पतद्वदन्ति-यथैतानियादीन्यायतनानि कुपिज्जा थोवं लद्धं न खिसए , पडिसहिओ परिण मिजा, उपभोगाऽऽस्पदभूतानि वर्तन्ते, पतश्च विनाशरीरस्थितिरेव एवं मोणं समगुवासिज्जासि (सूत्र-८५)त्ति बमि ॥ न भवतीति । एतच्च प्रव्यथनमुपदेशदानं वा तेषामणयाय (एवं पस्सेत्यादि)एतत्प्रत्यक्षमेव भोगाऽऽशामहाज्वरगृहीता. स्यादित्याह-(से इत्यादि ) तेषां 'से' इत्येतत् स्त्रीप्रव्यथन. नां कामदशाऽवस्थाऽऽत्मकं महद्भयं भयहेतुत्वाद् दुःखमेव म. मायतनभणनं वा दुःखाय भवति-शारीरमानसाउसात- हाभयं तच मरणकारणमिति महादिन्युच्यते , एतन्मुनेः पश्य वेदनीयोदयाय जायते। किंच-(मोहाए ) मोहनीयकर्मबन्ध. सम्यगैहिकाऽमुष्मिकापायाऽपादकत्वेन जानीहात्युक्तं भवति नाय, अज्ञानाय चेति । तथा-(माराए ) मरणाय,ततोऽपि. यद्येवं तक्किं कुर्यादित्याह-(णाइवाएज इत्यादि ) यतो भो(नरगाए ) नरकाय नरकगमनार्थम् , पुनरपि-( नरगति- गाभिलषणं महद्भयमतस्तदर्थ नातिपातयेन व्यथयेत् कश्चन रिक्खाए ) ततोऽपि नरकादुनृत्य तिरश्चेतत्प्रभवति तिर्यः कमपि जीवमिति, अस्य च शेषव्रतोपलक्षणार्थत्वान प्रतारग्योन्यर्थ तत्स्त्रीप्रव्यथन भोगाऽऽयतनवदनं वा सर्वत्र सम्ब । येत् कञ्चनेत्याद्यप्यायोज्यम्, भोगनिरीहः प्राणातिपाताऽदि. न्धनीयम् । स एवमङ्गनाऽपाङ्गविलोकनाऽऽक्षिप्तस्तासु तासु वताऽऽरूढश्च कं गुणमवाप्नोतीत्याह-(पस इत्यादि) एष इति योनिषु पर्यटनात्महितं न जानातीत्याह-(सययमित्यादि) भोगाऽऽशाछन्दविवेचकोप्रमादी पञ्चमहावतभारारोहणो. सततमनवरतं दुःखाभिभूतो मूढो धर्म क्षान्त्यादिलक्षणं नामितस्कन्धो वीरः कर्मविदारणात् प्रशंसितः स्तुतो देव. दुर्गतिप्रसृतनिषेधकं न जानाति न वेत्ति । एतच्च तीर्थकृदा- राजाऽऽदिभिः, क एष वीरो नाम योऽभिष्ट्रयत इत्यत श्राह-(जे हेति दर्शयति-( उदाहु इत्यादि) उत्प्रावल्येनाऽऽह उदाह इत्यादि) यो न निर्विद्यते न खाद्यते न जुगुप्सते,कस्म?,प्रादा. उक्तवान्, कोऽसौ?, वीरः अपगतसंसारभयस्तीर्थकृदित्यर्थः। नाय श्रादीयते गृह्यतेऽवाप्यते आत्मस्वतस्वमशेषाऽवारक. किमुक्तवान् ?, तदेव पूर्वोक्तं वाचा दर्शयति-अप्रमाद: क- मतयाऽऽविर्भूतसमस्तवस्तुग्राहिशानावाधसुखरूपं येन तदा. तव्यः, क?-महामोहे अङ्गनाभिवत एव, महामोहकारण- दानं संयमानुष्ठानं तस्मै न जुगुप्सते,तद्वा कुर्वन् सिकताकेवल. स्वान्महामोहः, तत्र प्रमादवता न भाव्यम् । श्राह च-- चर्वणदेशीयं क्वचिदलाभाऽऽदौ न खेदमुपयातीति,माह-(न में (अलमित्यादि ) अलं पर्याप्तं, कस्य ?, कुशलस्य निपुणस्य इत्यादि)ममायं गृहस्थासंभृतसंभारोऽप्युपस्थिते अपि दाना. सूदक्षिणः, केनाल , मद्यविषयकषायनिद्राविकथारूपेण प. घसरे न ददातीति कृत्वा न कुप्यन्न क्रोधवशगो भूयाद्भावनीयं शविधेनापि प्रमादेन , यतः प्रमादो दुःखाऽऽद्यभिगमनायोक्त चममैवैषा कर्मपरिणतिरित्य लाभोदयोऽयम,अनेन चालाभेन इति । स्यात् किमालम्ब्य प्रमादेनालमिति !, उच्यते-'सन्ति' कर्मक्षयाचोद्यतस्य मे तत् क्षपणसमर्थ तपो भावीति न किइत्यादि, शमनं शान्तिरशेषकर्मापगमोऽतो मोक्ष एव शा. श्चित् क्षूयते । अथाऽपि कथञ्चित् स्तोकं प्रान्तं वा लभेत, तद. न्तिरिति, नियन्ते प्राणिनः पानापुम्येन यत्र चतुर्गति के सं- गि नै निन्देविस्याह-(थोवं इत्यादि) स्तोकम् , अपर्याप्त, ल. सारे स मरणः संसारः, शान्तिश्च मरणं च शान्तिमरणं, स. ध्वा न निन्देत् दातारं दत्तं वा, तथाहि-कतिचित् शिक्थाss. माहारद्वन्द्वः तत्संप्रेक्ष्य पालोच्य, प्रमादयतः संसारानुपर- नयने ब्रवीति सिद्धोदनो भिक्षामानय लवणाऽऽहारोषा अ. मस्तत्परित्यागाच्च मोक्ष इस्येतद्विचायति हदयम् , स या स्माकं नास्तीत्यन्नं ददस्वेत्येवम् अत्युद्वृत्तछात्रवन्न विध्यात् कुशलः प्रेक्ष्य विषयकषायप्रमादं न विदध्याद् , अथ वा किं च-(पडिसहिश्री इत्यादि)प्रतिषिद्धोऽदित्सितस्तस्मादेव शान्त्या उपशमेन मरणं मरणावधि यावत्तिष्ठतो यत् कलं प्रदेशात्परिणमेनिवर्तेत, क्षणमपि नतिष्ठेन्न दौर्मनस्य विदभ्या. भवति तत्पर्यालोच्य प्रमावं न कुर्यादिति । किं च-( भिउर न रुण्टन्नपगच्छेन्न तां सीमन्तनीमपवदेत् धिक्ने गृहवासमिति। इत्यादि) प्रमादो हि विषयकषायाभिष्वङ्गरूपः शरीराधिष्ठानः उक्तं च"दिट्ठासि कसेरुमति,अणुभूयासि कसेरुमहीपीयंचिय. तच्च शरीरं भिदुरधर्म, स्वत एव भिद्यत इति भिदुरं, स ते पाणियय,वार तुहनाम नसणं॥२॥" इत्यादि । पक्ष्यते च(प. एव धर्मः स्वभावो यस्य तद्भिदुरधर्मम् । एतत्समीक्ष्य डिलाभित्रो परिणामेजा )प्रतिलाभितःप्राप्तभिक्षाऽऽदिलाभ: पर्यालोच्य प्रमादं न कुर्यादिति सम्बन्धः । एते च भोगा भु सन् परिणमेत् , नोच्चावचाऽलापैस्तत्रैव संस्तवं विदध्यात्, ज्यमाना अपि न तृप्तये भवन्तीस्याह-(णालमिस्यादि ) वैतालिकबहातारं नोत्प्रासयेदिति । उपसंहरन्नाह-(एयं इत्या. नालं न समर्था अभिलाषोच्छित्तये यथेष्टावाप्तावपि भो- दि) पतत्प्रवज्यानिर्वेदरूपम्-अदानाकोपनं स्तोकाऽजुगु: गा पतत्पश्य जानीहि, अतोऽलं तव कुशल ! पभिः प्रमाद. प्सनं प्रतिषिद्धनिवर्तनं मुनेरिदं मौनं मुमिभिमुमुक्षुभिराचमयैर्दुःखकारणस्वभावैर्विषयैरुपभोगैरिति , न चैते बहुशोऽ. रितं स्वमप्यवाप्तानेक भवकोटि दुरापसंयमः सन् समनुवासप्युपभुज्यमाना उपशमं विदधतीति । उक्तं च येः सम्यग् विधत्स्वानुपालयेति विनेयोपदेश आत्मानुशास. " यल्लोके व्रीहियर्व, हिरण्यं पशवः स्त्रियः। नं वा। प्राचा० १७०२ ० ४ ० । मालमेकस्य तत्सर्व-मिति मत्वा शमं कुरु ॥१॥" भोगा-भोगा-स्त्री० । जम्बूद्वीपमाल्यवपर्वतसिद्ध कूटस्थायां तथा स्वनामख्यातायां देव्याम् , स्था० ६ ठा। "उपभोगोपायपरो, बाग्छति यः शमयितुं विषयतृष्णाम् । । धावत्याक्रमितुमसौ, पुरोऽपराह्ने निजच्छायाम् ॥२॥" | भोगाभिस्संग-भोगाभिष्वङ्ग-पुं० । भोगाऽऽसतो, आचा०१ Page #1632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगाभिस्संग अभिधानराजेन्द्रः। भोत्ता भु०२०४ उ० । | भोगोपभोगपरिमाण-योगोपभोगपरिमाण-न । सकृद् भुभोगामिस-भोगाssमिष-10 1 भुज्यन्ते इति भोगा:मनोशश ज्यत इति भोगः-अन्नमाल्यताम्बूलविलेपनोद्वर्तनस्नानग्दाऽऽयः,ते व ते प्रामिषं चात्यन्तगृद्धिहेतुतया भोगाऽऽमि. पानाऽऽदि । मुहुर्मुहुर्भुज्यत इत्युपभोगः-वनितावस्त्रालङ्कार. पम् । शब्दाऽऽदिविषयाऽऽस्मके आमिषे, उत्त। गृहशयनासनवाहनादि । भोगचीपभोगश्च भोगोपभोगी, भोगामिसदोसविस-वे हिअणिस्सेयमबुद्धिवोच्चस्थे । तयोभौगोपभोगयोः परिमाणं संख्याविधानं यत्तथा । द्वितीये वाले य मंदिए मू-टे बज्झइ मच्छिया व खेलम्मि ॥५॥ गुणवते, ध० । भुज्यत इति भोगा मनोहाः शब्दादयःतेच ते आमिषं च। भोगोपभोगयोः संख्या-ऽभिधानं यत्स्वशक्तिः। त्यन्तगृद्धिहेतुतया भोगामिषं तदेव क्षयत्यात्मानं दुःखलक्ष. भोगोपभोगमानाऽऽख्यं, तद् द्वितीयं गुणव्रतम् ॥३१॥ राविकारकरणेन भोगामिषदोषस्तस्मिन् विशेषेण सनोनि सकढुज्यत इति भोगः-अन्नमाल्यताम्बूलविलेपनोद्वर्तनमग्नो भोगाऽऽमिषदोपविषयः, यद्वा-भोगाऽभिषस्य दोषा भोगाऽमिषदोषास्ते च तदासक्तस्य विचित्रक्लेशा अपत्यो. स्नानपानाऽऽदि,पुनः पुनर्भुज्यत इति उपभोगः-वनितावस्त्रास्पत्तौ च तत्पालनोपायपरतया व्याकुलत्वाऽऽदयस्तैर्विषयो लङ्कारगृहशयनाSSसनवाहनाऽऽदि , (ध) भोगचोपभोगश्च भोगोपभोगौ, तयोभौगोपभोगयोः यत् संख्याविधानं परिविषादं गतो भोगाऽऽमिषदोषविषमः । श्राह च माण करणं भवति, कुतः, स्वशक्तितः निजशक्त्यनुसारेण "जया य कुकुटुंबस्सा, कुतत्तीहि विहम्मद। हत्थीव बंधणे बद्धो, स पच्छा परितप्पति ॥१॥ तद्भोगोपभोगमानाऽऽयं भोगोपभोगपरिमाणनामकं द्वितीयं पुसदारपरिकियो, मोहसंताणसंतो। गुणवतं शेयम् । आवश्यके स्वेतवतस्थोपभोगपरिभोगवतपंकोसनो जहा नागो, स पच्छा परितप्पा ॥२॥" मिति नामोच्यते । तथा च सूत्रम्-" उपभोगपरिभोगवए (हीअनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्थ ति ) हित एकान्तपथ्यो दुविहे पाते । तं जहा-भोप्रणतो कमाओ अति।" एतनिःश्रेयसो मोक्षोऽनयोः कर्मधारये हितनि:श्रेयसः । यद्वा. वृत्तियथा-उपभुज्यत इत्युपभोगः , उपशब्दः सकृदर्थे व. हितो यथाभिलषितविषयावाप्स्याऽभ्युदयो निभ्रेयसः स एव सते, सकृद्रोग उपभोगः, अशनपानाऽऽदे, अथवा-अन्ततयोर्द्वन्त तश्च तत्र तयोर्वा बुद्धिस्तत्प्राप्युपायविषया म. भौग उपभोगः माहाराऽऽदे, उपशमोऽत्रान्तर्षचनः । परितिस्तस्यां विपर्यस्तो विपर्ययवान् सा वा विपर्यस्ता यस्य स भुज्यत इति परिभोगः। परिशब्दोऽसतगृत्तौ वर्तते, पुनः हितनिःश्रेयसबुद्धिविपर्यस्तः विपर्यस्तहितनिःश्रेयसबुद्धिर्वा. पुनोगः परिभोगी बनाउथे , बहि गो वा परिभोगी वविपर्यस्तशम्मस्य तु परनिपातः प्राग्वत् । पा-विपर्यस्ता सनालङ्काराऽऽत्र परिशब्दो बहिर्वाचक इति। एतद्विषयं हिते निम्मेषा बुद्धिर्यस्य स तथा, बालवाहः (मंदिर सि)| व्रतम् उपभोगपरिभागवत व्रतम् उपभोगपरिभोगवतम् । तथा च प्रकृते निपातासूत्रस्वाम्मम्दो धर्मकार्यकरणं प्रत्यनुपतो मूटो मोहाकुलि. मामनेकार्थत्वात् उपभोगशब्दः परिभोगार्थस्तरसमभिव्यासमानसः स एवंविधः। किमिस्याह-बध्यते श्लिष्यतेऽर्थात् हारेण च भोगशब्दस्योपभोगे निरूढलक्षणेति न कश्चिविरोध नानाऽऽबरणाऽऽदिकर्मणा मक्षिकेच खेले श्लेष्मणि रजसेति इति ध्येयम् । बद्विविध-भोजमता, कर्मतश्च । उपभोगम्यते,इमरभवति-यथाऽसौ तस्निग्धतागन्धाऽऽदिभिः गपरिभोगयोरासेवा विषययोस्तुविशेषयोरुपार्जनोपायभूराकम्पमाणा त मज्जति मग्ना बरेएषादिना बध्यते,एवं ज. तकर्मणां बोपचारातुपभोगादिशब्दवाच्यानां व्रतमुपभो. तुरपि भोगाऽऽमिषे मग्नः कर्मणति सूत्रार्थः। उत्त०८ ०। गपरिभौगवतमिति व्युत्पत्तेः । ध०२ अधिक। भोगासंसप्पभोग-भोगाऽऽशंसामयोग-०।भोगागन्धरस. (ततिचारा 'उपभोगपरिभोग' शम्दे द्वितीयभागे ६०२ स्पर्शाहलेषु मनोहा मे भूयासुरिति भोगाऽऽशंसाप्रयोगः । पृष्ठे गताः।) प्रथ तान्येव नामतः श्लोकमयेनास्थाot. ठा०।जन्मान्तरे चक्रवर्ती स्याबासुदेवो महामायड वृत्तयोऽजारविपिना-नोभाटीस्फोटकर्मभिः। लिकस्सुभगो रूपधानित्यादि भोगाऽशंसाप्रयोगः। प्राशंसा. प्रयोगभेदे, श्राव०६अ। बणिज्याका दन्तलाक्षा-रसकेशविषाऽऽश्रिताः ॥५२॥ भोगासा-भोगाssशा-स्त्री०।गन्धाऽऽदिप्राप्तिसंभावनायाम, यन्त्रपीडन निर्ला-छनं दानं दवस्य च । भ०१२ श०५ उ० स०। सरःशोषोऽमतीपोष-श्चेति पञ्चदश त्यजेत् ।। ५३ ॥ भोगिद्धि-भोगड़ि-स्त्री०। “सा भोगिड्डी गिझा,शरीरभोग. कर्मशनःप्रत्येक संबध्यते प्रकारकर्म विपिनकर्म अनःम्मि जाइ उवभागो।" इत्युक्तलक्षणे ऋद्धिभेद,ध०२ अधिः । कर्म भाटीकर्म स्फोटकर्मेति, तैर्वृसय आजीविका अङ्गारकभोगत्तम-भोगोचम-पुं०। भोगैरुत्तमो भोगोत्तमः । प्रश्न०४ माऽऽदिवृत्तयः, तत्र कर्मक्रिया करणमिति यावत् । ध० २ आश्रद्वार। सर्वोत्तमभोगभोक्तरि, तं०। अधि। भोगुत्तमगरलक्खण-उत्तमभोगगतलक्षण-न । उत्तमाश्च ते भोशा-भक्त्वा-प्रव्य० । 'भोऊगा' शब्दार्थे, प्रा०२ पाद । भोगावोसमभोगाः उत्तमशनस्य विशेषणस्याऽपि परनि. भोसए-भोकम-अन्य० । भोजनं कर्तुमित्यर्थे, प्रा०४ पाद । पातः प्राकृतत्वात्। तद्गतं तस्संसूचकं लक्षणं तथा । उस- प- विभोजनीये, प्रा०४पाद । मभोगसूखके स्वास्तिकाऽऽदिके लक्षणे, उसमभोगसूचकस्थस्तिकाऽऽविलक्षणोपेते च । त्रि० जी०३प्रति०४अधिoभोता.भोक्त-त्रि भोजनकरि, भाव०४०। १०३ Page #1633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६१०) भोत्तूण अभिधानराजेन्द्रः। भोयण भोत्तूण-मुक्त्वा-प्रव्य.।' भोऊण 'शब्दार्थ, प्रा०२ पाद। गाहा पच्छवं तदेव , अग्गवस्स इमा बक्खाभोदा-भुक्त्वा-अव्य० । 'भोऊण' शब्दार्थे, प्रा०२पाद । छंदो गम्माऽगंमा, विधि रयणा भुञ्जते यजं पुब्धि । भोम-भौम-न। भूमौ भवं भौमम् । भूमिसंबन्धिनि विशि. सारणिकवविकप्पो, णेवत्थं भोयडादीयं ॥ १२६ ॥ हे स्थाने, जी० ३ प्रति० ४ अधिकारानगराऽऽकारे छंदो पायारो गम्मा-जहा लाडाणं माउलदुहिया, माउसस्स विशिष्ट स्थाने, स. ३३ सम। भौमानि विशिष्टस्थाना. धूया अगम्मा विही नाम विश्थरो,रयणाणाम जहा कोसलावि. नि नगराउकाराणीत्यन्ये, भ०२१०८ उ० । पातालभय. सप आहारभूमीहरितोवलित्ता कजति, पउमिणिपसाइएहि मे, प्राचा.२९० ३० । निर्घातभूकर्माऽऽदिके, सूत्र.२ भूमी अछरिजति ततो पुणोवयारो कजति, तो पती ठवि. भु०२०। उस भूमिकम्पाऽऽदिविज्ञाने,कल्प०१ अधि०३ ति,ततो पासेहिकरोडगा कट्टारगाम कुयासिप्पीश्रो य . क्षण | भूमि कम्पाऽऽदिभिर्विकारैः शुभाशुभं यद ज्ञायते सन् बिज्जति, 'भुज्जते य जं पुब्ब' जहा कोकणे पेया, उत्तराबहे भौमम् । निमित्तभेदे. प्रव०२५७ द्वार । कल्प० । उत्त० ।। सनुया, अनेसु वा विसपसु जं दारुण पच्छा अणेगभक्खभौम भूमिविकारदर्शनादेव स्थादिदमित्यादिविषयमिति । पगारा दिजति । सारण कृवाइओ विकप्पो भवति । णवत्थं आव० ४ ० । भौम भूमिविकारफलाभिधानप्रधानम् । भू. भोयडादीयं भवति । भोयडा णाम-जा लाडाणं कच्छा, सा मिविकारफलप्रतिपादकनिमित्तशास्त्रात्मके पापश्रुतभेदे, मरहट्टाणं भोयडा भमति,तं च बालप्पभिति इस्थिया तावस्था८८ ठा० । सासूत्र। धंति जाव परिणीया जाव य आवमसत्ता जाया तो भोयणं भोमे तिविहे पामते। सुत्ते.वित्ती,वत्तिए । स. २६सम० । कजति सयणं मेलेऊण पडओ दिज्जा तप्पभि फिर भो यडा । नि० चू०१उ०। अहोरात्रभवे सप्तविंशतितमे मुहूर्ते, ज्यो०२पाहु । कल्प। भोयण-भोजन-न । भुज-त्युत् । अभ्यवहारे, दर्श०१ चं०प्र०ाजं । भूमेरपत्यं तस्या इदं वा अण । (न) भरकासुरे, "स्वयि भौम गते जेतुम्।" इति माघः । मङ्गलग्रहेन । पुं० । सत्व ।कठिनद्रव्यस्य गलबिलाधःसंयोजने, वाच । भूमिभवेत्रि०।पाच भूमिविकारे घटाऽऽदौ च । "स. उपभोगे, प्राचा० १ श्रु०२ १०५ उ० । भुज्यत इति भोजयं भोमेजाणं कलसाणं ।"भ० श. ३३ उ०। भौमानां नम् " कृद्धहुलम्" इति वचनात् कर्मण्यनट् । वृ०४ उ०। पार्थिवानामित्यर्थः । शा० १ थु०१०।"अंगारो य भो प्रोदनाऽऽदिके माहारविशेषे, श्राव. ४ म० । स्था० । मो।" पा० ना०६ गाथा । औला भौमानां मृयमयानामि. प्रश्नः । उत्त०। भोजनं तन्दुलहाल्यादि । उत्त०१५ म०। ति । भ० श. ३३ उ०। प्रशा। रा०। भूमिसम्बन्धिनि स्था०। सूत्र. 1 उपा०। च। त्रि०। भौम इव भूदेश इव । सूत्र०१ श्रु०६०। जी। श्रावकस्य कृतप्रत्याख्यानिनो भोजनम्भोमालीय-भौमालीक-न।भूमिसम्बन्ध्यालीकाऽऽस्मके स्थू. विहिणा पडिपुष्पम्मी, भोगो विगए य थेवकाले उ । लमृपावादभेदे , स्थूलमृषावादविरमणवतस्य तृतीयेऽतिचा. सुहधाउजोगभावे, चित्तेणमणाकुलेण तहा ।। ३६ ॥ रेच । प्रश्न० २ माथा द्वार । भूम्यलीकं परसत्कामप्या. विधिना-विधानेन-प्रतिपत्तिसमनन्तरं सततमुपयोगतःप्र. स्मसरकामारमादिसत्कामपि परसत्काम् , ऊपरं या क्षेत्रमन. तिथरणलक्षणेन । प्रतिपूर्णपौरुध्यावधिके प्रत्याख्यान इति परम, अनूपरं चोपरमित्यादि बदतः । इदं नाशेषाऽपद्रव्यविः । प्रक्रमो, भोगो भोजनं भवति कार्यः । अनेनाऽस्य पालितस्व. षयालोकस्योपलक्षणम् । ध० २ अधिः । एतदेव प्रमा- मुक्तम् । उपलक्षणत्वाचास्य स्पृष्टत्वमप्यस्योक्तमवगन्तव्यम् । बसहसाकारानाभोगैरभिधीयमानमतिचार पाकुट्या च लक्षणं चेदमनयो:-"उचिते काले विहिणा, तंजं फासियंत. भक्तः। उपा०१०। ध०) यं भणिय तह पालियं तु असई,सम्म उवोगपड्डियरिय॥१॥" भोमेञ्ज-भौम-न0 । 'भोम' शब्दार्थे, जी० ३ प्रति० ४ अधिः । इति । किं पूर्णमात्र एव ?.नेत्याह-विगते वातिक्रान्ते च पौरु. भोय-भोज-पुं० । भुज-अच् । स्वनामख्याते देशभेदे, धारा- च्यायवधेरुपरि । स्तोककाले तु अल्पवेलायामेव । अनेन च पुरस्य नृपभेदे च । " धन्यः श्रीभोजराजस्त्रिभुवनविज. तीरितत्वमस्योपदिष्टम् । तल्लक्षणं चेदम्-"पुले विधेयकायी।" इत्युद्भटः । वाच । द्रव्यानुयोगतर्कणारचयितरि ला-वस्थाणा तीरियं हाहा" तथा शुभाना सुन्दराणां धातू. नां वातपित्तकफानां योगानां कायाऽऽदिव्यापाराणां भावः स. स्वनामण्याने प्राचार्य, द्रव्या० ११ अध्या० । योगसूत्रवृत्ति त्ता शुभधातुयोगमावस्तस्मिन् । धातूनां च शुभत्वं स्तोककाकारफे प्राचार्ये च । द्वाद्वा। लातिक्रमेण भिक्षाऽटनाऽऽदिजन्यश्रमविनोदनेन समत्वमत भौत-०। परतीर्षिकभेदे, " अरणउस्थियपरिग्गहियाणि एव योगानामपीति । तथा-चितेन मनसा अनाकुलेनाव्या. वा वेश्याणि वंदित्ता।" यथा भौनपरिगृहीतानि वीरभद्र क्षिप्तन । व्याकुलचित्तेन हि भोजने दोषसंभवात् । यदाह-"ई. महाकाल्यादीनि बोटिकपरिगृहीतानि धा। पाव०६०।। भियोधपरिष्कृतेन, लुब्धेन तृड्दैन्यविपीडितेन । प्रवेष. भोयग-भोजक-त्रिका भर्तरि, वृ० १३०३ प्रक। युक्नेन च सेव्यमान-मझ न सम्यक परिणाममेति ॥१॥" भोयडा मोयडा-स्त्री० । नेपथ्यभेदे, “णवत्थं भोयडादीयं ।" | तथेति समुचये । इति गाथाऽर्थः॥ ३६॥ रणेवत्थ भोयडादीयं भवति । भोयडा णाम-जा लाडाणं भोगविधिमेव विशेषणायाकच्छा सा मरहट्टाणं भोयड़ा भणति । नि० ० १ उ० । काऊण कुसलजोगं, उचियं तकालगोयरं णियमा । याणिं देसकहा गुरुपढिवत्तिप्पमुहं, मंगलपाठाइयं चेव ।। ३७ ।। छंदं विधी निकप्पं, णेवत्थं बहुविहं जणवयाणं । कृत्वा-विधाय कुशलयोगं शोभनव्यापारम्, भुजते धर्मर. एता कथा कधिंते, चत जमला सुकिला चउरो ॥१०॥ ता इति योगः । उचितं स्वभूमिकाईम्, तत्कालगोचरं भो. Page #1634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण जनावसरविषयम्। नियमावश्यतया किंभूतमित्याहगुरूणां मातापितृधर्म्माऽऽचार्यदेवता लक्षणानां प्रतिपत्तिरुचितपूजाप्रमुखाचा यस्य परिवारम्लानप्रतिचारणा स तथा तम् । अनेन च शोभितस्त्वं प्रत्याख्यानस्योक्तम् । यदाह-गुरुदासेसभोवण- सेवणयाए सोडियं जा न ।" तथा-मङ्गलपाठाऽऽदिकं चैव पञ्चनमस्कारपठनप्रभृ तिकमेव व आदिशब्दासम्म लाऽऽदिप्रशस्तत परिप्र हः । इति गाथा ऽर्थः ॥ ३७ ॥ तथा सरिऊण बिसेसे पच्चकवायं इसे मए । 3 वह संदिसाविक, विहिया जति धम्मरया ॥ ३८ ॥ स्मृत्वा अनुभव विशेषे भोजनकालाचीनसामान्य मापेक्षा विशेषतः किं तदित्याह-प्रत्याख्यातम पगतम् इदं नमस्कारसहिताऽऽदिकम् मयेत्यरमनिर्देशे । कदा प्रत्याख्यातमित्याह पश्चात्पूर्वकाले भोजनकालापेक्ष या अनेन चास्य कीर्तिमुक्रम् -" भोपणकाले अगं, पचखायंति भुंज किड्डिययं । " तथेति क्रि यान्तरसमुच्चये । संदेश्य संदिशन्तमनुजानन्तमाचार्यमनुप्रयुज्य संदिशत सूर्य मां येन पारयामीत्येवमनुज्ञायेत्यर्थः । विधिनाऽनेनैवोरुपेण भोजनविधिना पाना श्रवणाऽऽदिना । तद्यथा-" ठारा दिसिं पगासण्या, भाय "" पकलेपणा व शुद भावे सविहो आलोयाबिज या विडिवा धर्मचारि मोचित इति गाथा ऽर्थः ॥३८॥ उक्कं भोगवाम्। पञ्चा० ५० तथा काले बुभुदयावर साम्यात् "पा नाऽऽहाराऽऽदेया यस्था ऽविरुद्धाः प्रकृतेरपि । सुखित्याय च कल्प्यन्ते तत्साम्यमिति गीयते ॥ १ ॥ " इत्येयं चादली. स्तब्ध चकारो गम्यः भाषातिरेकाधिकमोजनल सोल्यत्यागात् भुक्तिर्भोजनम् । अयमभिप्रायः - श्राजन्मसात्म्येन भुक्तं विषमपि पथ्यं भवति मपि पच्यं सेवेत न पुनः सात्म्यातमप्यप, सर्व बलषतः पथ्यमिति मन्वानः कालकूटं खादन् सुशिलितो हि विषन् म्रियत एव कदाचिद्विपात् सात्म्यमपि च लोपपरिहारेण यथाग्निबलमेव भुञ्जीत अतिरिक्रमो जनं हि वमनविरेचनमरणादिना न साधु भवति, " यो हि मितं भुक् स बहु भुक्के "मपि भुकं भवति विषं तथा कालातिक्रमाद्वेषी वि. परमासात्स्य 9 (१९१९) अभिधानराजेन्द्रः । " - " 3 कामं कुर्यादिति ॥१७॥ (१०० १ अधि० । ( आहारग्रहणस्य संपूर्णोऽधिकारः 'गोयरपरिया शब्दे तृतीया २००३ मतः ) , इह तत श्रागतस्य भोजनविधिः । इदानीं स्थानविशोधि व्याख्यानयत्राह उचरिं हेडा व पम-जिऊ लहि उवेन सहाये । पट्टे उवहिस्सुवरिं भाययवस्थाएँ भागे ।। २६४ ॥ ।। उपरि खाने अस्ताब भुवं प्रमृज्य पुनस्थाने पि खापयेत् पुन पर्फ बोलपट्टकम् उपधेर मु अति भाजनयखख च पटलानि भाजनेषु पात्रोपरि स्थापयति " भोषण जर पुण पासवणं से, हवेज तो उग्गहं सपच्छागं । दाउ अस्स सपो-लपट्टओ काइयं खिसिरे ||२३५|| यदि पुनस्तस्य साधोः प्रश्रवणं कायिकाऽऽदिर्भवति ततश्च अग्रतग्रहं संपदा सपट दातुं समर्प्य अभ्यस्य साधोः पुन सह बोलपट्टकेन बोलपट्टकद्वितीयः कायिकां ब्युजति कायिकां म्युत्सृज्य कायोत्सर्ग करांति । तत्र च को विधिरित्यत श्राह - रंगुलपोशी, उज्जुपए वामदस्थिरपहरणं । बोस चचदेहो, फाउंस करेज्जादि ।। ५१० । चतुर्भिर लैजानुनोरुपरि बोलपट्टकं करोति नाभेव अ. चतुर्भिः पादयोान्तरं चतुरङ्गलं कर्त्तव्यं तथामुखवत्रिकामुज्जुगे दक्षिणहस्तेन गृह्णाति वामहस्तेन च रजोहरणं गृह्णाति पुनरसौ व्युत्सृष्टदेहः प्रलम्बितबाहुदेहः सर्पाद्युपद्रवेऽपि गोरसारयति कायोत्सर्गम् . थवा- व्युत्सृष्टदेहः दिव्योपसर्गेष्वपि न कायोत्सर्गभङ्गं करोति वदेड अक्षिमल दूषिकामपि नाउपनयति स एवंविधः कायोत्सर्गे कुर्यात् । " इदानीमेनामेव गाथां भाध्यकारी व्याख्यानयन्नाहपरंगुलमप्यचं, नागडा खिदोवरं खामि । उभश्रो कोप्परधरियं, करेज पहुं च पडलं वा ॥ २६६ ॥ चतुर्भिरकुलैरधोजानुनी अप्राप्तः बोलपट्टको यथा भवति तथा नाभिच उपरि चतुरिया न स्पृशति उभयतो बाहुकूर्पराभ्यां धृतं करोति, पट्टकं - बोलपट्टकं पडलं वा उभयकूर्परधृतं करोति, यदा चौलपट्टकः सच्छिद्रो भवति तदा पटलं गृह्णाति । पृथ् िठाणे ठाउं चउरंगुलंतरं फाउं । मुहपोति उज्जुहत्थे, वामम्मि य पादपुंणयं ॥ ५११ ॥ पूर्वोद्दिष्टमेष कायोत्सर्गस्थानं तस्मिन् स्थित्वा तथा पा [दस्य चान्तरं चतुरकुलं कृत्वा मुखपत्रिकां दक्षि स्तं कृत्वा वामहस्ते पादपुछनक - रजोद्दरणं कृत्वा कायोस्वर्गेण तिष्ठति । काउसम्म डिम्रो, चिंतेमुवा अईयारे । जामिप्यत्रेसो तत्थ उ दोसे मणे कुजा ।। ५१२ ।। पुनश्च कायोत्सर्गेण व्यवस्थितः चिन्तयेत् ' सामुदानिका नतीचारान् भिक्षातित्रारानित्यर्थः । कस्मादारभ्य चितयत्यतिचारान् ?-- निर्गमादारभ्य या जा तः अस्मिन्नन्तराले तत्र दोषा ये जातास्तान् मनसि क रोति स्थापयति चेतसि । , ते उ परिसेवणार, अनुलोमा होति पिटवाए य पडिसेबवियाए एस्य तु चउरो भये भेगा ।।५१३॥ सांधाविचारान् प्रतिसेपनाउनुलोम्येन यचैव प्रतिसेविता स्वानुक्रमे कदाचिन्तिन तथा विपडणार ति) विकटना लो ना तस्य चानुलोमा चिन्तयति तदुकं भवति" पढमं लडुम्रो दोस्री पडिसेवि पुष बडो वहुतरो, चिंते एवमेवं ततश्च प्रतिसेवनाया अ कृतम्, आलोचनायामपि धनुकूलमेव यतः प्रथमं घुको दोषा आलोच्यते नईहर नदत्तम इति प " 39 Page #1635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण प्रथमो भङ्गकः । " अनो पडिसेबजाए अनुकूलो न उण वि. पडणार" भवति" आलेवियं पढमंबई, पु· यो लहुयं पुणो व पुणो वडुयरं चिते । " एवमेष, ततश्च प्रतिसेवनाया अनुकूलम्, न त्वालोचनायाः, यतस्तत्र प्रथमं लघुतर, पुनईसर समः इति द्वितीय महः।" पडिलेवावालो आलोयापु फूलो।" एतदुकं भवति" अधियड्डा पडिसेषिया विद पु लोयणाले, यस तो भंगो, असे उन पडि सेवणार विणणुकूलो आलोयणाय वि भण्कूलो।" ए तदुकं भवति" पढमं बड़ो पहिलेविधो पुढो सहुधी पुणो वडो वयरो, चितेति पुख जं जहा संभर, पदमं यो पुणो लओ पुणो बड़ो पुणेो बङ्गपरो अि यतिस्स व पडिलेवालो साल एचडो एसी व " इदानीममेवार्थे गावा नोपसंहरणाद" पडिलेववियडणार, होति पस्थं पि चभङ्गा । " इदं व्याख्यातमेवेति । " I इदानीं सामुदानिकानती चारानालोचयति यदि व्याचेपाहतो तिथव्यादिति तदामालोचयति तदेवाऽऽहपराते, पपमा कमाइ मालोए। आहारं च करेंतो, बीहार या जह करे ।। ५१४ ।। व्याक्षितो धर्मकथाsदिनाच्या (परास मुखः अम्पतोऽभिमुखः प्रमत इति विकथयति, एवंविधे गुरौ न कदाचिदालोचयेत, तथा आहारं कुर्वति सति, तथा नीहारं या यदि करोति तमालोचयति । इदानीमेतामेव गाथ भाग्यकारो व्याख्यानयाहवाई, बिगद्दाइ मत अमभो । अंतरमकार वा, बीहारे संक मरणं वा ।। २६७ ।। धर्मourssदिना या व्याक्षितः कदाचिदर्भपति, विकथाऽऽ. दिना वा प्रमीयतोऽभिमुखो वा भवति, भुखतोऽपि नाऽऽ. मी किं कारणम् १- ( अंतरं ति) अंतराय वा भवति यावदालोचनां शृणोति प्रकारकं वा शीततं भवति यालोचनां शृणोति तथा नीहारमपि कुतो माऽऽलोबनी कि फारच पत या साधुजनान काधिकादिर्मिति, अथ धारयति ततो मयं वा भवति। यस्मादेते दोषास्तस्मात् - 1 1 ( १६१२ ) अभिधानराजेन्द्रः । खा, उसंतमुत्रद्वयं च नाऊ । अणुमेहावी, आलोएजा सुमंजए ।। ५१५ ॥ धादिना पाहिले गुरी आलोयत आयुक्तपयोगतत्परम् उपशान्तम्-अनाकुलं गुरुं दृष्ट्रा उपस्थितम् उ तं वशात्वा एवंविधं गुरुमनुज्ञाप्य मेघावी आलोखयेत् | सुसंयतः - साधुः । 3 इदानीमेनामेव गाथां व्याख्यानयन् भाष्यकृदाहकहा अखिले, कोडाई गाउले दुबले । दिसह चि अणु का दिपाली ।। २६८ ।। धर्मादिमातेचादिमिराले युक्रे भिक्षा लोगो व (संदिसह सि) का सं दिसत " झालोयामीत्येवम कृत्य मार्गपिवेत्यर्थः । 1 भोयण (विदित) आचार्येण विदिश्रायामनुज्ञायां भवत इत्येवं वायां तत झालोचयेत्। तेन च साधुना लोचयता पतानि वर्जनीयानि । दारणाथा 9 9 " गाई बलं चलं भासं सूत बजेला । आलए सुनिदियो, इत्थं मतं च वावारं ।। ५१६ ।। नृत्यन्नालोचयति बलन्नालोचयति अङ्गानि वलयमालोच यति तथा भाषमाणो गृहस्वभाषया मालोचयति किं तर्हि ? संयतभाषया श्रालोचयति तद्यथा-" सुयारि याओं" इत्येवमादि तथा झालोचयन् केन खरेण नालोचयति मिणमिणतं तथा दरेण च स्वरेण उच्चैश्रलोच यति एवंविधं वरं वर्जयेत्। किं पुनरसावासोती स्येतदाह-प्रालोपयेत् सुविहितः हस्तमुदकस्तिम्यं तथा मात्रकं गृहस्थसत्कंकडच्छुकाऽऽदि उदकाऽऽऽऽदि, तथागृहस्थया कतमं व्यापारं कुर्वत्या भिक्षा दत्तेत्यालोचयति । इदानीमेतामेव गाथां व्याख्यानयन्नाह 1 " करपाय मुसीस-माईहि सहियं याम | वलणं इत्थसरीरे चलणं काए य भावे य ॥ २६६ ॥ करस्य तथा पादस्य भुवः शिरसः अदणः श्रोष्ठस्य च एवमादीनामङ्गानां सविकारं चलनं नर्त्तनं नाम, पतत् कुर्वन्नालोचयति, बसनं इस्तस्य शरीरस्य कुर्वभालोचयति तथा चलनं कायस्थ करोति, मोडनं सालो वि. तथा भावतयनमन्यथा पीतमन्यथाऽलोचयति "विय" प्रालीन । • गारस्थिय भासायो, म वजय दरं च सरं झालोए बावारं, संसद्वियरे व करमते ॥ २७० ॥ गृहस्थभाषया न सोचयति यथायोग लामो मण्डया तथा "इत्येवमादि किंतु-संतभा या लोचनी सुधारियाओं" इत्येवमादिस्वरे म लाहुरे महा स्वरं वर्जयित्वा भातोचपति, किमा लोचयति-व्यापारं गृहस्थयोः संबन्धिनं, तथा-सं एम् उदकादि, इतरम् असंसृष्टं किं तत् -करं सं मन तथा काऽऽवि उदकसंमसंखष्टं चेति एतदालोचयेत् । होसनमुकं, गुरुणा गुरुसम्मयस्स वाऽऽलोए । जं जह गहियं तु भवे, पदमाओ जा भत्रे चरिमा || ५१७|| पनिर्दोषैर्विप्रमुक्रमनन्तरोक्नै समालोचयेत् गुरोः समीपे बायो गुरोः संमतो बहुमतस्तस्य समीपे " थमालोचनीयं ?, यद्यथा गृहीतं भवेत् येन क्रमेण यत् गृहीतं प्रथमभिक्षाया चारभ्य यावश्चरमा पश्चिमा भिक्षा तावदा लोचयेदिति । एष तावदुत्सर्गेणाऽऽलोचनविधिः । यंदा तु पुनरेतानि कारणानि भवन्ति तदा भोघत आलो. जयतीत्येतदेवाह " " काले म पते उचचाओबादि मोहमाए। बेला मिलायागसव, अच्छा गुरू व उद्याओ ।।५१८|| या तु पुनः काल एव न पर्याप्यते यावदनेन क्रमेणाऽऽलोचयति तादगादियदा तस्मिन् काले घो मालोकयति यदि वा साचितितापि शोधत Page #1636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोषण जयति बेला वा ग्लानस्यातिक्रामति यावत्क्रमसालोचयति न शोधत प्रालोचयति अथवा गुरुडघातो' भ्रान्तः, कुलाऽऽदिकार्येण केनचित् तत शोधत प्रा लोचयत्येवं कारसैरिति । का वामावोधा 55लोचना : ( १६१३) श्रभिधान राजेन्द्रः । पुरकम्मपच्छकम्मे अप्पे ओहमालोए । सुरियकरमिजं से, न सुझई तचिषं कहए ॥ ५१६ ।। श्राकुलत्वे आपने सत्येवमोघा ऽऽलोचनयाऽऽलोचयतिपुरःकर्म पश्चात्कर्म च भयं नास्ति किञ्चिदित्यर्थः सुद्धे यति अशुद्ध चाल्पम् श्रशुद्धमा धाकर्माऽऽद्यभिधीयते तदल्पं - नास्तीति एवमाघतः सङ्क्षेपेणाऽऽलोचयेत्। तुरयकरणम् ति त्वरिते कायें जाते सति यन शुद्धयति उद प्रकारेण तावन्मात्रमेव कथयति एषा ओषाऽऽलोचनेति । , 7 " 6 - आलोइत्ता सव्वं, सीसं सपडिग्गहं पमजित्ता । उङ्गमहो तिरियम्मि पडिलेहे सच्चओ सच्यं ।। ५२० ॥ एवमेषा मानसी आलोचना वाचिकी वालोचनाका इदानी काफी आलोचना भने आचार्यस्य भिक्षा - येते, एवं मनसा वाचा वाऽऽलोचयित्वा सर्व निरवशेपं, तथा मुखवस्त्रिकया शिरः प्रमृज्य पतद्रहं व सपडले प्रत्यऊ पीठी: अथो भुवि तिर्यक तिर श्रीनं ' प्रत्युपेक्षेत ' निरूपयेत् सर्वतः " समन्ताच्चतसृव्यापदि सर्ववैरन्तर्येव ततः पतग्रहं हस्ते त्या भाद गुरोर्दर्शयतीति वच्यति भाष्यकृत् । • , . . इदानीमेतामेव गाथां भाष्यकृदाह, तत्र गुरुदोषत्वात्प्रथमादीनि भीणि पदानि व्याख्यानयवाद भाग्यकार उ पुण्फफलाई, तिरियं मारिसायडिंभाई । खीलगदारुगवड - खरक्खणट्ठा हो पेहे ॥। २७९ ।। उद्यानाssai आवासितानां सतां पुष्पफलादिपातमूर्द्ध निरूप्य ततो गुरोर्दर्शयति तिर्यङ् मार्जारश्वडिम्भानालोक्यालोचयत मा भूते आगच्छन्तस्तत्पात्रमुत्पाता frष्यन्ति श्रादिशब्दात्कारडं वा केनचिद्विक्षिप्तमायाति, अ तस्तिगविरुष्यंत तथा निरूपयति किमर्थ क दाचित्कलको भवति, तत्राऽऽपतनम् - श्रास्खलनं मा भूदिति श्रतोऽधा निरूप्य ततो भक्काऽऽदि दर्शयति । इदानी 'सीसं सपा डग्गहं पमजेत ति व्याख्यानयतिओणम पवडेजा, सिरओ पाणा सिरं पमओजा । एमेव उग्गहम्मि वि मा संकुडले तसविखासो ॥ २७२ ॥ हस्तस्थपतयनमतः शिरसः प्रपतेयुः प्राणिनः क दादितः शिरः प्रथममेव प्रमार्जयेत् एवमेव पतद्ग्रहे प्रमार्जनं कृत्वा प्रदर्शयेद्राऽवि किं कारणं :-'मा संकु जसे तसविणासो ति । मा भूत्सङ्कोचने सति पटलानां स्वाऽऽदिविनाशा भविष्यत्यतः प्रमृज्य पतद्यहं भक्तं प्रदर्शयतीति । " काउं पडिग्गहं कर यलम्म, ऋ च श्रगमित्ताएं | ४०४ भोयण भत्तं वा पाणं वा पडिसिजा गुरुसग || २७३ ।। कृत्वा पतमहं करतले अर्थ न शरीरस्थानम्य पुनभकं वा प्रदर्शयेत् गुरुसकासे इति । ताय दुरालोइय, भत्तपाण एसएमसणाए उ । अस्सा हवा, अग्गहादी उ झाएखा || २७४ ॥ ततः कदाचिद् डुरालोचित भक्तपानं भवति न ब चलं इत्येवमादिना प्रकारेण तथैषादपः कदाचित - दमः कृतो भवति श्रवणदोषो वा कश्चिदजानता, तत चैतेषां विशुद्ध्यर्थमोच्छ्रासं नमस्कारं ध्यायेत्, अथवा - अनुग्रहादीति ' अथवाऽनुग्रहाऽऽदि ध्यायेत्, " जइ अहं कुजा, साह हुआमि सारियो। " इत्येवमादि गाथाद्वये कायोत्सगैरथो विशुद्धयर्थं ध्यायेत् उत्सार्य च कार्यात् ततः स्वाध्यायं प्रस्थापयेत् । देवा556- विगण पट्टवित्ता, सञ्झार्य कुरा तो हुतागं । भशिया व दोसा, परिस्सगाई जडा एवं ।। ५२१ ।। विनयेन प्रस्थाप्य स्वाध्यायं योगयधाविय ततः स्वाध्याय मुहमा कति जधन्यतो गाधात्रयं पठति, उत्कृष्टत अतुर्दशापि सूक्ष्माप्राणसधिसंपन्नोऽस्तमुंहसेंन परायर्सयति एवं कुर्वता पूर्वभासिता दोषा धातुलो मर मित्येवमादयः तथा परिश्रमाऽऽदयश्च दोषाः ' जढाः त्यक्का भवन्तीति । दुविहो य होइ साहू, मंडलिउवजीवो य इयरो य । मंडलिमुवजीवतो, अच्छा जा पिंडिया सव्वे ।। ५२२ ।। स च साधुर्द्विप्रकारो मण्डल्युपजीवकः, इतरश्च अमण्डल्युपजीवकः, तत्र यो मण्डल्युपजीवकः साधुः सो हिरडया भिक्षां तावत् प्रतिपालयति यावत् पिडिताः एकीभूताः सर्वेऽपि साधवो भवन्ति, पुनश्च स तैः सह भुङ्क । इयरोऽवि गुरुसगासं, गंतूरण भरणइ संदिसह भंते ! । पाहुलगबग अंतरं तबालबुङ्गासेहाय ।। ५२३ ॥ इतरोऽपि श्रमण्डल्युपजीवकः, तत्र यो मण्डल्युपजीवकः स साधुः गुरुसकाशं गत्वा तमेव-गुरुं भणति - यदुत हे श्रा चार्याः संशित ददत यूयमिदं भोजनं प्राघूर्णकापातरन्यासवृद्ध शिक्षकेभ्यः साधुभ्य इति । पुनश्च दिने गुरुर्हि तेसिं, सेसं भुंजेज गुरुप्रणुभायं । गुरुणा संदिट्ठो वा, दाउं सेसं तो भुंजे || ५२४ ॥ एवमुक्रेन सता गुरुणा दसे सति तेभ्यः प्राचूर्णिका 55दि यतीत गुरुणा अनुशांत सति यदि वा गुरुला मसौ साधुर्भणितः सन् दत्त्वा प्राघूर्णकाऽऽदिभ्यः ततः शेषं संदिष्ट उक्तः, यदुत त्वमेव प्राघूर्णकाऽऽदिभ्यः प्रयच्छ एवयद् तद् भुवं न केवलमसी प्राणका 55दिभ्यो ददाति अन्यानपि साधिमन्त्रयति त याद से जैराथन तथापि विशुद्धपरिणामस्य निति। एतदेवाऽऽहइन इम व, तह यि य पयश्रो निमंत साहू | Page #1637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१४ ) अभिधान राजेन्द्रः । भोयण परिणामविसुद्धीए, अ निजरा हो गइहिए वि ।। ५२५ || इच्छेत् कश्चित् साधुच्छेद् वा तथाऽपि प्रयत्नेन सद्भावेन निमन्त्रयेत् साधून एवं सद्भावेन निमन्त्रयतः परिणामविशुद्ध्या वितनैर्मल्याद् निर्जरा भवति कर्मक्षयलक्षणा अगृहीते श्रपि भने । अथावज्ञया निमन्त्रयति ततश्चायं दोषःभररवयविदेहे, पारस वि कम्मभूमिगा साहू | इकम्मि हीलियम्म य, सव्वे ते हीलिया होंति ॥ ५२६ ॥ सुगमम् । यदा पुनरादरेण निमन्त्रयति तदाऽयं महान् गुणःभररवयविदेहे, पारस वि कम्मभूभिया साहू । इकम्मि पूयम्मिय, सव्वे ते पूइया हुंति ।। ५२७ ॥ सुगमा । अत्राऽऽह परः श्रह को पुणाइ नियमो, एक्कम्मि विहीलियम्म ते सव्वे | होंति अवमाणया पू-ए य संपूइया सव्वे ॥ ५२८ ॥ _ अथ कः पुनरयं नियमः ?, यदुत एकस्मिन्नवमानिते सति सर्व एवापमानिता भवन्ति, तथा एकस्मिन् संपूजिते सति सर्व एव संपूजिता भवन्ति, न चकस्मिन् संपूजिते सर्वे संपूजिता भवन्ति, न हि यशद से भुक्ते देवदत्तो भुक्तो भवतीति । श्राचार्य श्राहनाणं व दंसणं वा तवो य तह संयमो य साहुगुणा । इके सब्बे व ही लिएसु ते हीलिया हुंति ।। ५२६ ॥ ज्ञानं दर्शनं च तपः तथा संयमश्च. एते साधुगुणा वर्तन्ते, एते च गुणा यथैकस्मिन् साधौ व्यवस्थिता एवं सर्वेष्वपि, एकरूपत्वा तेषां यतश्चैवमत एकस्मिन् साधी हीलिते-श्र पमानिते सर्वेषु वा साधुषु हीलितेषु ते ज्ञानाऽऽदयो गुणा हीलिता श्रपमानिता भवन्ति । एवमेव पूयम्मि वि, एकम्मि वि पूईया जइगुणा उ । थो बहूनिबेसं इति गच्चा पूयए मइमं ।। ५३० ॥ एवमेकस्मिन् पूजिते पूजिता यतिगुणाः सब्बै भवन्ति, यस्मादेवं तस्मात् स्तोकमेतद्भलपानाऽऽदि बहुनिवेसं बहायमित्यर्थः, निर्जरा हेतुरिति, तस्मादेवं ज्ञात्वा पूजयेत् साधूम्मतिमामिति, यतश्चैवमत एवमेव कर्तव्यम | एतदेवाऽऽह तम्हा जइ एस गुणो, एक्कम्मि वि पूइयम्मि ते सव्वे । भत्तं वा पाणं वा, सव्त्रपयतेण दायव्वं ।। ५३१ ।। सुगमा । बेयावचं निययं, करेह उत्तरगुणे धरिताणं । सव्वं किल पडिवाई, बेयावश्चं अपडिवाई ।। ५३२ ॥ वैयावृत्यं नियतं सततं कुरुत, केषाम् ? - उत्तर गुलान् धार यतां साधूनां कुरुत, शेषं सुगमम् । किं च डिभग्गस्स मयस्स व, नासह चरणं सुयं अगुणलाए । नहु वेयावच्चचियं, सुहोदयं नासए कम्मं ।। ५३३ ॥ प्रतिभग्नस्य उभिएकान्तस्य मृतस्य वा नश्यति चरणं श्रु For Private भोगण तमगुणनया न तु वैयावृत्यचित्तं वद्धं शुभोदयं नश्यति कर्म । किंचलाभण जोजयंतो, जइयो लाभंतराइयं हराइ | कुणमाणो य समाहिं, सव्त्रसमाहिं लहर साहू || ५३४ || लाभेन प्राप्या घृताऽऽदेः योजयन् घृताऽऽदिलाभेन योजयन् कान् ?, यतीन् लाभान्तरायं कर्म्म हन्ति । तथा पादप्रक्षालनाssदिना कुर्वन् समाधिं सर्वसमाधि मनसः स्वस्थतां वचो माधुर्याऽऽदिकं कायस्य निरुपद्रवताम् एवं कुर्वन् त्रिरूपमपि सर्वसमाधिं लभते । 1 भरो बाहुबली विय, दसारकुलनंदणो य बसुदेवो । Sharanरणा, तम्हा पंडितप्पह जईं || ५३५ ॥ सुगमा, नवरम् (पडितप्पह ति) वैयावृत्यं कुरुत । किंच हो व ग होऊ लंभो, फासुयश्राहारउवहिमाईणं । भो य निजराए, नियमेण श्रश्र उ कायव्यं ॥ ५३६ ॥ भवेद् वा न वा लाभः केषां प्रासुकानाम् श्राहारोपध्यादीनां तथाऽपि तस्य वैयावृत्त्यर्थमभ्युद्यतस्य साधोर्विशुद्धपरिणामस्य लाभ एव निर्जराया अवश्यम् अलाभेऽपि सति निर्जरा भवति यस्मादेवं तस्मात्कर्त्तव्यं वैयावृ त्यम् । वेयावच्चे अभुट्टियम्स सद्धाऍ काउकामस्स | लाभो चैव तत्रसि-स्स होइ अद्दीरामणसस्स || ५३७|| सुगमा, नवरं वैयावृत्ये अभ्युत्थितस्य उद्यतस्य श्रद्धया कर्तुकामस्य लाभ एव । श्रघ० । (ग्रासैषणा 'एसा शब्दे तृतीयभांग ७० पृष्ठे प्रतिपादिता ) उपजीवि श्रणुवजीवि, मंडलि पुव्ववस साहू | मंडल समुद्दिसगा - ताण इरामो विहिं बोच्छं | ५४७ | तत्र मण्डल्युपजीवी साधुरनुपजीवी च पूर्वमेव द्विविधा व्यावर्णितः साधुरेकः, इदानीं बहूनां मण्डल्यामसमुद्दिशकानां या विधिः भवति तं वक्ष्ये । ते च कथं मण्डल्यामसमुद्देशका भवन्ति ?, अत आह— " प्रगाढजोगवाही, णिज्जृढत्तट्ठिया व पाहुणगा । सेहा सपायवित्ता, बाला बुडेवमादीया || ५४८ ॥ श्रगाढयोगां गणियोगः तत्स्था ये ते मण्डलीं नोपजीवम्ति, (निज्जूढ सि ) श्रमनोशाः कारणान्तरेण तिष्ठन्ति ते पृथक् भुञ्जते तथा आत्मार्थिकाध पृथक भुञ्जते प्राघूकाश्च यतस्तेषां प्रथममेव प्रायोग्यं पर्याप्त्या दीयते ततस्तेऽपि एकाकिनो भवन्ति, शिक्षका श्रपि सागारि-कत्वात् पृथक् भोज्यन्ते, सप्रायश्चित्ताश्च पृथक भोज्यन्ते, यतस्तेषां शवलं चारित्रं, शवलचरित्रैः सह न भुज्यते, बालवृद्धा अप्यसहिष्णुत्वात् प्रथममेव भुञ्जते, अतस्तेऽप्येकाकिन इति, एवमाद्या मण्डल्यामसमुद्दिशका भवन्ति, आदिग्रहणात् कुष्ठव्याध्याद्युपद्रुता इति । Personal Use Only Page #1638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१५ ) अभिधानराजेन्द्रः । भोषण ते च भुञ्जानाः सन्त आलोके भुञ्जते । स चाऽऽलोको द्विविधो भवतीत्याह दुबो खलु लोगो, दव्वे भावे य दव्वि दीवाई । सचविहो पुण भावे - मालोगं तं परिकहेह ५४६ ॥ द्विविध लोकः- द्रव्याऽऽलोको भाषाऽऽलोकश्च । तत्र द्रव्याssere: प्रदीपाssदि, भाषे भावविषयः पुनरालोकः सप्तविधः, ख कथयाम्यहम्, तत्र भावाऽऽलोकस्येयं व्युत्पत्तिः -- झालोक्यत इत्यालोकः स्थानदिगादिनिरूपणमित्यर्थः । तं च सप्तविधमपि प्रतिपादयश्वाहठाणदिसिपगासण्या, भायणपक्खेवणे य गुरुभावे । सत्तविहो भालोमो, सया विजयणा सुविहियाणं । । ५५० ।। तैश्च श्रमण्डलसमुद्दिशकैः निष्क्रमणप्रवेशषर्जिते स्थाने भोग्यं तथा कस्यां दिशि आचार्यस्योपवेष्टव्यमित्येतद्वक्ष्यति, तथा सप्रकाशे स्थाने भोक्तव्यम् भाजने च विस्तीर्णमुखे भोक्तव्यं, प्रक्षेपणं च कवलानां कुकुटयरडकमात्राणां कर्त्तव्यं, तथा गुरोश्चक्षुः पथे भोक्तव्यं, तथा भावो ज्ञानाऽऽदिः तन संबद्दनार्थे भोक्तव्यमित्येतद्वक्ष्यति, एवमयं सप्तविध श्रालोकः, सदाऽपि च यतना तस्मिन् सप्तविधेऽप्यालोके यतना सुविहितानाम् । इदानीं भाष्यकारः प्रतिपदं व्याख्यानयति, तत्राऽऽद्यावयवव्याचिख्यासुराह निक्खमपवेसमंडलि- सागारियठाणपरिहियट्ठाइ । माहकासणभंगो, अहिगरणं अंतरायं वा ।। २७५ ॥ निष्क्रमप्रवेशौ वर्जयित्वा भोजनार्थमुपविशन्ति तथा मण्डलीप्रवेशं च वर्जयन्ति तथा सागारिकस्थानं च परिहृत्य भुञ्जते माभूत्लागारिके प्राप्ते सति एकाशनभङ्गः स्थादिति, अधिकरणं राटिर्वा भवति श्रन्येन प्रब्रजितेन सह अस्थाने उपविष्टस्य भुञ्जतोऽन्तरायं च भवति, कथं, ससा - धुरम्यस्य सत्के स्थान भुङ्क्ते उपविष्टः, सो साधुरागतः प्रतीक्षमाण आस्ते, एवं च अन्तरायं कर्म बध्यते । इदानीं दिशाद्वारप्रतिपादनायाऽऽहपच्चुरसि परंमुहप - द्विपक्खि एया दिसा विवजित्ता । ईसाग्गेय व, ठाएज गुरुस्स गुणकलियो || २७६ ॥ उरसोऽभिमुखं प्रत्युरसं गुरोरभिमुखं वर्जयित्वेत्यर्थः । पराङ्मुखश्च नोपविशति गुरोः, तथा पृष्ठतश्च गुरोनप-विशति पक्षके व नोपविशति, एवमेता दिशो वर्जयित्वा ईशान्यां दिशि गुरोः आग्नेय्यां दिशि वा तिष्ठेत् उपविशेद् भोजनार्थ गुणकलितः साधुर्यः । इदानी " पगासण्य त्ति " व्याख्यायते-मक्खियकंटगठाई - ण जाणणट्ठा पगासभुंजणया । अडियलग्गणदोसा, वग्गुलिदोसा जहा एवं ॥ २७७ ॥ कथं नु नाम मक्षिका शायते दृश्यते तथा कण्टको वा कथं तु नाम दृश्येत, अस्थि वा उपलभ्येत ?, एवमर्थ ' प्रकाशे' सोद्यातस्थाने भुज्यते, आदिग्रहणाद्वालाऽऽविपरिग्रहः, तच दृश्यते, एवं च प्रकाशे भुञ्जनेन योऽसौ गलकाऽऽदौ अस्थिलगनदोष:, तथा कण्टकलग्नदोषश्च गलकाऽऽदौ सप For Private भोषण रिहृतो भवति, तथा अन्धकारे मक्षिका भक्षणजनितो यो वल्गुलिव्याधिदोषः स परिहृतो भवति । इदानीं “ भायणं ति " द्वारमुध्यते जे चेव अंधयारे, दोसा ते चैव संकहम्मि । परिसाडी बहुलेवा- उणं च तम्हा पगासमुहे ।। २७८ ॥ tree अधकारे भुञ्जानस्य 'दोषाः ' मक्षिकाऽऽदिजनिता भवन्ति त एव दोषाः सङ्कटमुळे भाजने कमठाऽऽदौ भुखतः, अयमपरोऽधिको दोषः ( परिसाडी ) परिसाडी भवति पार्श्वे निपतति, तथा ( बहुलेवाडगं च ) " वकुं विषं नरडिज्जति इत्थस्स उचरिं पि भुंजंतस्स संकडे " तस्मात् प्रकाशमुखे ' विपुलमुझे भाजने भुज्यत इति । पक्वणाविही भरणा कुकुडिअंडगमित्तं, अविगियवयणो उ पक्खिवे कवलं । अइखद्धकारगं वा, जंच अणालोइयं होजा ।। २७६ ।। कुक्कुटा अण्डकं कुकुटधण्डकं तत्प्रमाणं कवलं प्रक्षिपेत् वदने, मुखे, किंविशिष्टः सन् ?, अविकृतवदनः नात्यन्तमिघटितमुखः प्रक्षिपेत् कवलम् । दारम्- 'गुरु सि' व्याख्यायते - (अतिखद्ध सि) गुरोरालोके भोक्तव्यं, यदि पुनर्गुरोर्दर्शनपथे न भुङ्क्ते, ततः कदाचित्साधुः अतिबद्ध अतिप्रचुरं भक्षयेत् निःशङ्कः सन् ससव्याजशरीरः कदाचिद् गुरोरदर्शनपथे अकारम् अपथ्यमपि भुञ्जीत निशङ्कः सन् कदाचिद्वा भिक्षामटताऽनेन स्निग्धद्रव्यं लब्धं भवेत्, तच्चाऽनालोच्यैव भक्षयेदेकाते मा भूनामाssचार्यो निवारयिष्यति । अतः एएस जाणगड्डा, गुरु आलोए तो उ मुंजेआ । नाणा संघट्टा, बमबलरूवविसयड्डा ॥ २८० ॥ तेषां प्ररभक्षिताऽऽदीनां दोषाणां ज्ञानार्थे गुरोरालोके चुर्वशनपथे भुञ्जीत, येन गुरुः समीपस्थः भुञ्जानं दृष्ट्रा मधुरं भक्षयन्तं निवारयति, तथा अकारकं भक्षयन्तं निवारयति, तथा अनालोचितं चोरितं खादन्तं निवारयति, मा भूषवारणे अपाटवजनिताः दोषाः स्युः । इदानीं “आवेति " व्याख्यायते - ( णाणाऽऽवि ) ज्ञानाऽऽविर्भावः ज्ञानं दर्शनं चारिश्रं च एतदज्ञानाऽऽदिभावत्रयमभुज्यमाने मुख्यति व्युच्चि - ते, अत एतेषां ज्ञानाऽऽदीनां त्रुटयतां संधानार्थम् अविि वाहार्थं भुज्यते, न वर्णार्थं भुज्यते, न वर्णो मम गौरः स्यादित्येवमर्थ " तथा बलं मम भूयादित्येवमर्थमपि न भुज्यते, रूपं मम भूयात् बुभुक्षया क्षीरोक्षणगण्डपार्श्वः सन् मांसोपचयेन पूरितगण्डपार्श्वः रूपवान् भविष्यामीति, नैवमर्थ भुङ्क्ते, नापि विषयार्थ मैथुनाऽऽद्यासेवनार्थ भुक्ङ्क्ते । सो लोइयभोई, जो एए जुजए पए सब्बे । गवसणगहणम्घासे-सणार तिबिहाइ बि बिसुद्ध ।। ५५१ ।। स साधुर्गुरोरालोचितं भुङ्क्ते, य पतानि पदान्यनम्सरोषितानि ' युनक्ति ' प्रयुङ्क्ते करोति स्थानाऽऽदीनि सगPeryaणया ग्रहणैषणया प्रासैषण्या, अनया त्रिविधयाऽ Personal Use Only Page #1639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण अभिधानराजेन्द्रः। भोयण प्येषण्या शुद्धं भुङ्क्ते य एतानि पदानि प्रायुत इति । पक्खिविय पडिग्गहगं, तत्थऽच्छदवं तुगालेजा। ५५५॥ एवं एनस्स विही, भोत्तब्वे वनिो समासेणं । अथ तत्र र रापालः समर्थो नास्ति यः पात्रमुग्राहयति, मथएमेव अणेगाण वि, जं नाणतं तयं वोच्छं ॥ ५५२ ।। वा-(असती यत्ति) यदि नन्दीपात्रं नास्ति यत्रोदकमानीत स्वएवमेकस्य साधोः भोक्तव्ये विधिर्वर्णितः समासेन सं च्छीकरणार्थ क्रियते , ततः असति तस्मिन् नन्दीपात्रे तंदकं क्षेपेण , एवमेव अनेकेषामपि साधूनां भोजने विधिः, यत्तु पतग्रहं प्रक्षिप्य, क?,अत आह-(चउरंगुलूणभारणसुं)चतुर्भिपुनर्नानात्वं भवति यो भेदो यदतिरिक्तं भवति त रगुल्लैरूनानि यानि भाजनानि,तेषुप्रक्षिप्य पतग्रहं पुनस्तस्मिदहं वक्ष्ये। न क्षणीभूते स्वच्छ द्रवं गालयेत्. अत्र चायं नियमो द्रष्टव्यःपाह-किं पुनः कारणं मण्डली क्रियते ?, उच्यते यदुत भिक्षां तावत् साधवः पर्यटन्ति यावत्पात्रकं चतुभिरङ्ग लैरूनमास्ते, इति। अतरंतबालवुड्डा, सेहाएसा गुरू असहुवग्गो । पाह-किं पुनः कारणं तद्वगलनं क्रियते', उच्यतेसाहारणोग्गहाल-द्विकारणा मण्डली होइ॥ ५५३ ॥ आयरियप्रभावियपा-गट्ठया पायपोसधुवणट्ठा । अतरन्तः अतिग्लानः तत्कारणात्सग्निमित्तं मण्डली भव- होइ य सुहं विवेगो, सुहायमणं च सागरिए॥५५६।। ति, यतस्तस्य ग्लानस्य यद्येकः साधुः वैयावृत्यं करोति प्राचार्यपानार्थमभावितसेहाऽऽदिपानार्थ व गलनं क्रियते । ततस्तस्य तत्रैवाक्षणिकस्य सूत्रार्थहानिर्भवति, मण्डलीब- तथा पादधावनार्थ (पोस त्ति) अधिष्ठानं , तत्प्रक्षालनार्थ, घेतु कश्चित्किञ्चित्करोति, एतदर्थ मण्डली क्रियते येन तथा भवति च सुखेन विवेकः त्यागोऽतिरिक्तस्य तस्य पाचबहवः प्रतिजागरका भवन्तीति । बालोऽपि भिक्षामटितु- कस्य, तथा सुखेन वा आचमनं सागारिकस्याप्रतः क्रियते, मसमर्थः, सच बदनां मध्ये सुखेनैव कथं नु नाम वर्तेत ?, एवमर्थ गलनं क्रियत इति । ततो मण्डली भवति , वृद्धोऽप्येवमेव , सेहः शैक्षकः , स कियन्ति पुनः पात्रकाणि गलितद्रवचैकः सन् भिक्षाविशुद्धिं न जानाति, ततस्तस्याऽऽनीय स्य भ्रियन्ते ?, इत्यत श्राहदीयते , 'आएसो' प्राघूर्णकस्तस्य चाऽऽगतस्य सर्व एवोप- एकं व दो व तिमि व, पाए गच्छप्पमाणमासज्ज । कुर्वन्ति , स चोपकारः सर्वेरेव मिलितैः कर्तुं शक्यते न अच्छदवस्स भरेजा, कसदृवीए विगिचिजा ॥ ५५७॥ त्वेकेन, गुरोश्व सवरेवोपकर्तुं शक्यते, न त्वेकेन, सूत्रार्थपरि एकं त्रीणि वा पात्रकाणि भ्रियन्ते, गच्छप्रमाणं शात्वाचहानेः तथा (असहुवग्ग त्ति) असमर्थो राजपुत्रादिः , सच तुष्प्रभृतीभ्यपि भ्रियन्ते स्वच्छद्रवस्य , तत्र च गलिते सति भिक्षामटितुं सुकुमारत्वान्न शक्नोति, ततश्च सर्व एव मिलि कसट्ट कचवरं बीजानि च गोधूमाऽऽदीनि विगिश्चेत् परित्यता उपकुर्वन्ति, तस्मात् 'साबारणोग्गहो' साधारणश्वासा जेत् , एवं तावत्पात्रकणेनापि उदकमपवृत्य पानकगलन पग्रहश्च साधारणोपग्रहः, तस्मात्साधारणोपग्रहात्कारणात् । क्रियते। मण्डली कर्तव्या, अथवा-मण्डलीविशेषणमेतद् , उपगृहा अथ पुनस्तत्र कीटिकामर्कोटिकाऽऽदयः पवमाना ति इति उपग्रहः भक्ताऽऽदिस्स साधारणस्तुल्यो यस्यां सा दृश्यन्ते, ततस्तत्र गलिते को विधिरित्यत पाहसाधारणोपग्रहा मण्डली भवति (अलद्धिकारणा मण्डली हो महंगाईमको-डयेहि संसत्तगं च नाऊणं । इत्ति) कदाचित्कश्चित्साधुरलभिमान् भवति, ततश्च ते अन्य साधवः तस्मै श्रानीय प्रयच्छन्ति , अत एतत्कार गालेज छव्वएणं, सउणीघएण व दवं तु ॥ ५५८ ॥ णात् मण्डली भवति । मुरझा कीटिका मर्कोटकाश्च तैः संसल शात्वा गालयेत् इदानी भिक्षागताना साधूनां यो वसतिरक्षपालस्तेन कि (छब्बएणं) बंशपिटकन शकुनिगृहकेण वा गालयेत् तद् द्रकर्तव्यमित्यत आह वम् । इय आलोइयपट्टवि-यगालिए मंडलीइ सट्ठाणे । णाउ णियट्टणकालं, वसहीपालो उ भायणुग्गाहे ।। सज्झायमंगलं कुण-इ जाव सब्बे पडिनियत्ता ॥५५६।। परिसंठिअच्छदवगे-एहणद्रया गच्छमासजा॥५५४ ॥ (यत्ति) पूर्वोक्नविधिना आलोचिते सति प्रस्थापिते स्वाध्या झात्वा भिक्षागतानां निवर्सनकालं वसतिपालःभाजन नन्दी- ये गालते च पानके पुनश्च मण्डल्यां स्वस्वस्थाने उपविश्य पात्रं तत्प्रत्युपेक्ष्योद्ग्राहयति, संघट्टितेन प्रास्ते इत्यर्थः, किम स्वध्यायमङ्गलं करोति, स्वाध्याय एव मजलं स्वाध्यायमङ्गलं र्थः?, परिसंस्थिताऽच्छद्रवग्रहणार्थम् ,एतदुक्तं भवति-तत्रा55- तत्करोति यावत्सर्वे साधवः प्रतिनिवृत्ता भवन्तीति । नीयसाधवः पानके पक्षिपन्ति, पुनश्च तत्र परिसंस्थितं-स्व एवं यदि सहिष्णवः ततो योगपद्येन भुञ्जते , च्छीभूतं सत् तस्मादन्यत्र पात्रक क्रियते येन तत् स्वच्छमा अथासहिष्णवस्तत्र केचिद्भवन्ति त. र्यादीनां योग्यं भवति,पात्रकाऽऽदिप्रक्षालनं च क्रियते, (गच्छ तः को विधिरित्यत आहमासजत्ति) गच्छमासृत्य गच्छस्य प्रमाणं शात्वा पात्रकमुग्राहयन्ति, एतदुक्तं भवति यदि महान् गच्छस्ततः पानकग कालपुरिसे व आस-ज्ज मत्तए पक्खिवित्तु तो पढमा । लनार्थ महाप्रमाणं पात्रकमुग्राहयति, तथा द्वं त्रीणि चत्वारि- अहवा वि पडिग्गहगं, मुयंति गच्छं समासज्ज । ५६०॥ पञ्चाऽऽदीनि यावत् । म चासहिष्णुः ग्रीष्मकालाऽऽद्यङ्गीकृत्य भवति, तत पव असई य सियत्तेसुं, एक चउरंगूलूणभाणेसुं । वा पुरुषः कदाचित् क्षुधाऽऽती भवति, तमाश्रित्य मात्रके Page #1640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वाभिमु साधुगु किं भवान भोयण अभिधानराजेन्द्रः। भोयण प्रक्षिप्य भक्तं प्रथमालिका तापदीयते, अथ बहवो जुधा- न्ति ततः पूर्वोक्तानां स्वाध्यायपरिहाणिर्भवति, तथा भावाss लवः ततः पतहकं मुच्यते, तेभ्यो रक्षणार्थ गच्छं (स- समस्य संशाऽऽदिवेगधारणाऽसहिष्णोः पीडा भवति । एवमासज्ज त्ति) गच्छमल्पं बहुं वा हात्वा तदनुरूपं पतनहं मादयोऽन्येऽपि दोषाः। मुञ्चति । पुनश्च मिलितेषु साधुषु मण्डलीस्थविरः प्रविशति। दिग्द्वारप्रतिपादनायाऽऽह भाष्यकार:किं कृत्वेत्यत आह पुवमुहो राइणिो , एको य गुरुस्स अभिमुहो ठाइ । चित्तं बासाह्मणं, गहाय आपुच्छिऊण आयरियं । गिएहइ व पणामेई, व अभिमुहो इहरहाऽऽवना ॥२८२॥ पूर्वाभिमुखो रत्नाधिक उपविशति मण्डल्या, तस्यां च जमलजखणीसरिच्छो, निवेसई मंडलीथेरो ॥ ५६१ ।। मएडल्यामेकः साधुर्गुरोरभिमुख उपविशति , किमर्थ ?, चिसं वालाऽऽदीनां गृहीत्वा पृष्ट्वा प्राचार्य मण्डलीस्थ- कदाचित्किञ्चिद् गुरोरतिरिकं भवति तद् गृह्णाति, दातव्यं बिरः प्रविशति,किंविशिष्टः?,इत्यत आह-(जमलजणणीसरि- वा किश्चिद्भवति तद्ददाति मण्डलीस्थविरेणार्पितम् , एवकछो णिवेसह ति) उपविशति मण्डलीस्थविर इति, स च | मर्थमभिमुख उपविशति, इतरथा-यद्यभिमुखो नोपविशति मण्डलीस्थविरः गीतार्थः रत्नाधिकः अलुग्धश्च भवति । ततोऽवज्ञा-परिभवः कृतो भवति, पृष्ठयादि दत्त्वोपविश अनेन च पदत्रयेण अष्टौ भकाः सूचिता भवन्ति, तत्र तेषां ति ततोऽप्यवक्षाऽऽदिकृता दोषा भवन्ति । मध्ये ये शुद्धा अशुद्धाश्च तान् प्रदर्शयन्नाह नियुक्तिःजा लुद्धो राइणिभो,होइ अलुद्धो वि जो वि गीयत्थो। जो पुण हवेज खममओ,अतिउच्चाओ व सो बहिं ठाइ । भोमो वि हु गीयत्यो, मंडलिराइणि अलद्धो उ ।५६२। पढमसमुद्दिट्टो वा, सागारियरक्खणट्ठाए।। ५६४॥ यद्यसौ मण्डलीस्थविरः लुग्धः रत्नाधिकश्च ततस्तिष्ठति | यस्तु पुनः क्षपकोऽर्द्धमासाऽऽदिना भवेद् अतिश्रान्तो वा न प्रविशति, अनेन च लुब्धपदेन द्वितीयचतुर्थषष्ठाटमा भङ्ग प्राघूर्णकादिः स बहिर्मण्डल्यास्तिष्ठति, प्रथमसमुदिष्टो का अशुद्धाः प्रदर्शिता भवन्ति (अलुब्धो वि जो वि गीय-- वा साधुः- शीघ्रतरेण येन भुकं स सागारिकरक्षणार्थ बहिस्थो प्रोमो विहु सि) अलुब्धोऽपि यदि गीतार्थ ओमः स्तावन्मएडल्यास्तिष्ठति। लघुपर्यायः स मण्डल्यां परिविशति, अनेन च ग्रन्थेन तृ- एकेकस्स य पास-म्मि मलयं तत्थ खेलमुग्गाले। तीयभाकः कथितो भवति । अयश्च प्रथमभङ्गकाभावे भबति, अत्र च भाके गीतार्थपदग्रहणेन यत्र यत्र भनके अ कट्ठहिए व छुब्भइ, मा लेवकडा भवे वसही ॥ ५६५॥ गीतार्थपदं स सर्यो दुष्टो सातव्यः । (गीयस्थो मंडलिराइणि तत्र च साधूनां भुजानानामेकैकस्य साधोः पार्थे मन भवति, तत्र खेलश्लेष्म उहालयेत्-तस्मिन् मनके श्लेअलुखो ति) यस्तु पुनः गीतार्थों रत्नाधिकोऽस्लुब्धश्च स मनिष्ठीवनं कुर्वन्ति, तथा तत्र भुजतः कदाचित्कराटमएडल्यामुपविशति,अनेन प्रन्थेन च प्रथमो भाकः शुद्धःप्र. कोऽस्थिखण्डं वा भवति स तत्र क्षिप्यते, अथ तु भुदर्शितो भवति, सर्वथा यत्र यत्र लुग्धपदमगीतार्थपदं च स विक्षिप्यतेऽस्थिकण्टकाऽऽदि ततो वसतिलेपकृता-अनायुपरिहार्यः, “ोमराइणिो" पदं च यदि अगीतार्थः लुब्ध क्ला भवति, अतस्तत्परिहारार्थ मल्लकेषु क्षिप्यते । पदं च न भवति ततःअपवादे शुद्धं भवति, प्रथमं तु शुजमेव । इदानी त मिलिताः सन्त आलोके भुञ्जते, स चाऽऽलोको तथाऽमुमपरं भुजानानां विधि प्रतिपादयन्नाहद्विविधः-द्रव्यतो, भावतश्च । तत्र द्रव्यतः प्रदीपाऽऽदिः ।। मंडलिभायणभोयण, गहणं सोही य कारणुब्बरिते। भावतः सप्तप्रकारः, तं दर्शयन्नाह भोयणविही उ एसो, भणियो तेल्लुक्कदंसीहिं ।। ५६६॥ ठाणदिसिपगासणया, भायणपक्खेवणा य भावगुरू । मण्डली यथारनाधिकतया कर्तव्या, भाजनानि च पू वम् 'अहाकडाई भुजति' भोजनं च स्निग्धमधुरं पूर्व भोसो चेव य आलोगो, नाणत्तं तद्दिसा ठाणे ॥ ५६३ ॥ क्लव्यं, ग्रहणं च पात्रकात् कुक्कुट्यण्डकमात्र कवलं गृस्थानं वक्तव्यम् उपविशने दिग् वनव्या । प्रकाशमुखे भाज- ह्वाति, तथा ग्रहणस्यैव शुद्धिर्वक्तव्या, अथवा-शुचिर्भुने भोक्तव्यं, भाजनक्रमा वक्ष्यमाणः, प्रक्षेपणं वदने वक्तव्य आनस्य यथा भवति तथा वक्तव्यं , कारणे भोक्तव्यं, त. भावाऽऽलोको वक्तव्यः, गुरुयक्तव्यः,स एवाऽऽलोकः पूर्वोक्तो था ' उव्वरिप त्ति' अतिरिक्ने विधिर्वक्तव्यः । अयं भोजमानात्वं त्वत्र यदि परं दिशः स्थानस्य च, अत्र दिकपदमन्य- नविधिः सुगमः । इदानीं माष्यकारः प्रतिपदं व्याख्यानयति। था वक्ष्यति स्थानं च। तत्राऽऽद्यावयवव्याचिख्यासयाऽऽह भाष्यकार:इदानी (भाष्यकारः )स्थाननानात्वं दर्शयति,तत्र स्थानव्या- | मंडलि अह राइणिमा, सामायारीय एस जा भणिमा। स्यानायाऽऽह पुवं तु अहाकडगा, मुच्चंति तो कमेणियरे॥२८३॥ निक्खमपवेस मोत्तुं, पढमसमुद्दिस्सगाण ठायति । मण्डली कथमुपविशति ?, अत आह-यथारत्नाधिकतया सज्झाए परिहाणी, भावासभेवमाईया ॥ २८१॥ सामाचारी चात्र कार्या, एषा योका भणिता । कतमा, प्रथमसमुद्दिष्टानां ग्लानाऽऽदीनां निर्गमप्रवेशौ मुक्त्वा उप- "ठाणदिसिपगासण्या" इत्येवमादिका, साऽत्रापि तथैव विशन्ति, किमर्थम् !, तत्र यदि ते मार्ग रखा मराडल्यां तिष्ठ- | द्रष्टव्या । उक्तं मण्डलीद्वारम् । इदानीं भाजनद्वारप्रतिपादना Page #1641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण पाSSE - पुष्वं तु श्रहाकडगा पूर्वं प्रथमं ' यथाकृतामि' प्रतिकर्मरहितानि लब्धानि यानि तानि समुद्देशनार्थे मुध्यन्ते, एतदुकं भवति - प्रथममप्रतिकर्मा प्रतिग्रहको भ्राभ्यते, ततः क्रमेण इतरे अल्पपरिकर्मबहुपरिकर्माणि च मुच्यते ।' भायण त्ति ' गयम् । इदानीं ' भोयण त्ति' व्याख्यायतेनिमडुराणि पुव्वं, पित्ताईपसमाया भुंजे । बुद्धिबलबड्डड्डा, दुक्खं खु विगिचिरं निद्धं ॥ २८४ ॥ प्रथमा सुगमं किमर्थं स्निग्धमधुराणि पूर्व भक्ष्यन्ते ?, यतो दुर्बलस्य च बर्तन भवति, तथा वाऽऽह-" घृतेम वर्धते मेधा " इत्यादि, बलवर्द्धनं व प्रसिद्धमेव, बलेंग व इंजेन मैयावृत्याऽऽदि शक्यते कर्मु, दुःखं परिस्था पयितुं स्निग्ध घृताऽऽदि भवति यतोऽसंयमो भवतीति ॥ अह होज निमहरा - अप्पपरिकम्मसपरिकम्मेहिं । भोग निद्धमहुरे, फुसिय करे चहागडए ।। २८५ ॥ अथ भवेत् विग्धानि मधुराणि च द्रव्याणि श्रल्पपरिकमै बहुपरिकर्म जनितेषु च पावकेषु ततः को विधिरित्यत श्राह तान्येव भुक्त्वा स्निग्धमधुराणि ततः कराम प्रोडपति. प्रयित्वा व करान (मुंच अहागड‍ सि) यथाकृतानि - अपरिकर्माणि पाकाणि समुद्दिशमार्थ मुख्यन्ते । भायण सिं' गयं । वामी प्रज्ञाप्रतिपादनायाऽऽह्नकुक्कुडिअडगमेलं, अहवा खुट्टागलंवणासिस्स । ( १६१८) अभिधानराजेन्द्रः । संवतुझे गेयहर, अविगियवयणो य राइणिश्रो । २८६ | ततः पतकास्कले गृहन् कुकुट्पराडंकमात्रं गृह्णाति । अर्थ- (खुशगवणा सिस्से) लुल्लकन लम्बनकेन हस्तन अतुिं शीलं यस्थ शुलक लम्बनाशां तत्तुल्यान् कवलान् युद्धानि । स्वभाषेनेव लघुकबलाशिनस्तुल्यान् कबलान् गृह्णाति । ( अधिगियययणो य राणिश्रो ) श्राविकृतष - दनौ रत्नाधिकः, न भावदोषेण मुखमत्यर्थ बृहत्कवल प्रक्षेपार्थम् निर्वाश्थति, किं तर्हि ?, स्वभावस्थेनैव मुखेनेति । अथवाऽयं ग्रहणविधिः गहणे पक्वम्मिश्र, सामायारी पुणेो भवे दुविहा । गणं पायमि भवे, वयणे पक्खेवणा होइ ॥ २८७ ॥ महणे' कलाऽऽशने प्रक्षेपे च सामाचारी पुनरिय भवति द्विविधा, तत्र प्रहणं पात्रकविषये भवेत् पात्रकात्कवलोरक्षेपः पदमविषयं च प्रक्षेपण कवलस्य भवति । तत्र पा कार्य भक्षया? | इत्येतत्प्रदर्शयन्नाह- " उपरणं, भोतव्यं अहव सीहखइरणं । एगेहि अगेहि वि, वज्जेया धूमइंगालं ॥ २८८ ॥ तत्र कंटक छेदेन भोक्तव्यं यथा कलिञ्जस्य खण्डलकं छिearsपनीयते, एवमसावपि भुके, तथा प्रतरच्छेदेन वा भव्य तरिकादेनेत्यर्थः अथवा - सिंहमक्षितेन, सिंहो। हि किस पवेशादारभ्य तायडे यावत्स भोजन मि For Private भोयण तच्चैकेन बहुभिर्वा भोक्तव्यं वर्जयित्वा धूमाङ्गारकं, द्वेषरागौ वर्जयित्वेत्यर्थः । इदानीं वन्दनप्रक्षेपणशोधिं दर्शयन्नाहअसुरसुरं अचवचवं, अदुयमविलंबिधं अपरिसार्डिं । मणवयणकायगुत्तो, भुंजइ श्रह पक्खिवणसोहिं | २८६ | असुरसुरं भुङ्क्ते 'सरडसरड अकरितो' 'श्रववचवं' वल्कलमिव चर्वयन् न चयचवावेद, तथा ' अद्भुतम् ' अत्वरितं तथा ' अविलम्बितम् ' श्रमन्थरम् अपरिशाटि मनोवाक्कायगुप्तों मुजति, न मनसा विरूपमिति चिन्तयति, वाचा नैवं वक्ति, यदुत - " को इमं भक्लेइ ?, जो अम्हारिसी न होर, कारण उज्रोसह मुहे स देइ ।" एवं त्रिगुप्तस्य मुखानस्य प्रक्षेपणशोधिर्भवति । नियुक्ति:उग्गम उप्पायलासुद्ध, एसणादोसवज्जियं । साहारणं अजाणतो, साहू होई असार ।। ५६७ ॥ उद्गमशुद्धम् उत्पादनाशुद्धम् पचणादेोषवर्जित ' साधारणं सामान्यं गुडाऽऽदि श्रजानान:-अतिमात्रं दुष्टेन भावेन श्राददानः योऽसौ पत हो भ्रमति तस्मात् साधुः 'असारकः ' अप्रधानज्ञानदर्शनचारिवाण्या कृत्यासारः स भवति । तथा उग्गमउपायणासुद्धं, हसणा दोसवजयं । साहारणं वियाणंतो, साहू होइ ससारओ ।। ५६८ ॥ •उद्गमोत्पादनाशुद्धमेषणादोषवर्जितं साधारसमेत द्रव्यमित्येवं जामानोऽदुष्टेनान्तराऽऽत्मना कवलं गुडाऽऽदेराददानः साधुर्भवति संसार: ज्ञानदर्शनचारित्रसारवान् भवति । कथं पुनरसारः साधुर्भवति ? अत आह— उग्गमउपायणासुद्ध, एसणादोसवज्जियं । साहारणं श्रयाणंतो, साहू कुराइ तेखिये || ५६६ ॥ उद्गमोत्पादनाशुद्धमेषणादोषवर्जितम्, साधारणमेतद् गुडाऽऽदिद्रव्यमित्येवमजानानो दुष्टेन भावेनाऽऽददानः साधुस्तन्यं करोति ततोऽसारोऽसौ । स कथं पुनः संसारी भवति ?उग्गमउपायणामुद्धं, एसलाद सवज्जियं । साहारणं वियागतो, साहू पावइ निज्जरं ॥ ५७० ॥ उद्गमोत्पादनाशुद्धम् एषणा दोषवर्जितं साधारणं तुल्यमेतत्सर्वेषां गुडाऽऽदीत्येवं जानानोऽदुष्टान्तराऽऽत्मा स्वल्पमाददानः साधुर्निर्जरां करोति श्रतः ससारः ज्ञानदर्शनचारित्रैरि ति । इदानीं ससारः कद चित् भोजनार्थमुपविशन भवति कदाचिदुपविष्टः कदाचिदुत्थितः, एतत्प्रदर्शनायाऽऽह तंतं भोक्खामि ति वेसए भुंजए य तह चैत्र । एस ससारनिविट्ठो, ससार उट्ठियो साहू || ५७१ ॥ अन्त्यं प्रत्यवरं वल्लचणकाऽऽाद तदपि अन्त्यं पर्युषितं चmissदि अन्त्य मध्यन्त्यमन्त्यान्त्यं भक्षयिष्यामि । एवंविधेन प रिणामेनोपविष्टो मण्डल्यामुपभुङ्क्ते यस्तथैवैष साधुः शुभपरिणामत्वात् ससार उपविष्टः संसारवोत्थितः, तस्य शुभपरिणामस्याप्रतिपनिस्वात् । Personal Use Only Page #1642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१६ ) अभिधानराजेन्द्रः । भोया एमेव य भंगतियं, जोएयब्धं तु सारखालाई । ते सहिओ ससारो, समुद्दवसिएरा दिट्टंतो ।। ५७२ ॥ एवमेव भङ्गत्रितयं योजनीयं तत्र प्रथभो भङ्गः “ ससारो fire सारो उ १, ससारो शिविट्ठो असारो उट्ठो fare भो २ । सारो सिविट्ठो ससारो उडिओ तरओ३, असारो निषिट्ठो असारो उट्ठश्रो एस चत्थो ४ ।” सारचात्र ज्ञानादिः आदिग्रहणाद्-दर्शनं चारित्रं वेति, तेन शानादिना सहितो यः साधुः स ससारो भण्यते, अत्र च समुद्रवखिजा दृष्टान्तः । “एगो समुद्दवणिश्रो वोहित्थं भंडस्स भरिउं ससारो गयो, ससारो य परं हिरणार विढवेऊण आगो। अनो पुरा ससारो भंड गहेऊण गनो हिस्सारो श्रागओ क वडिया विरहितं पि पुण्वेशयं हारेऊण नागश्रो । अन्नो असारो अंगवितिश्रो सिंहिरो गयो ससारो श्रागश्री बहुयं विढयेऊण । अनो पुरा असारो हिस्सरहिओ गो असारोवेव श्रागओ कथंडियाए वि रहिओ ।" एवं साधोरपि सारासारयोजना कर्त्तव्या वणिग्न्यायेन । एवं तेषां भुञ्जानानां यदि पतग्रहको भ्रम नेवार्द्धपथे निष्ठां याति तदा को विधिरित्यत आहजत्थ पुण पडिग्गहगो, होअ कडो तत्थ छुम्भए अनं । मत्तगगहिउब्वरियं, पडिग्गहे जं असंसङ्कं ।। ५७३ ॥ यत्र पुनः भुञ्जतां पतद्ग्रहकः भवेत् ( कडो ति ) निष्ठितभनो जातः साधुपर्यन्तमप्राप्त एव तत्र किं कर्त्तव्यमित्यत श्राह - तंत्र तस्मिन्नितिभते पतद्ग्रहके अन्यत् भक्तं प्रक्षिप्यते, ततश्च यस्मिन् साधौ स निष्ठितः पतत्ग्रहः तस्मादारभ्य तेनैव क्रमेण पुनः भ्राम्यते, मात्रके या यद्वालादीनां प्रायोग्यं गृहीतमासीत् तदिदानीमुद्वरितं तदसंसृष्टं तद्महे हिप्त्वा पतद्द्महो यस्मिन् साधी निष्ठितः तस्मादारभ्य पुनर्भ्राम्यते । जं पुण गुरुस्स सेसं, तं कुम्भ मंडली डिग्गहगे । बालाई व दिजड़, छुब्भई सेसगाणहियं ॥ ५७४ ।। यत् पुनः गुरोः शेषं भुञ्जानस्य जातं तत्संसृष्टमपि प्रक्षिप्यते मण्डलीत ग्रहके, बालाऽऽदीनां वा दीयते तदाचार्योंद्वरितं यत्पुनराचार्यव्यतिरिक्तानामुद्वरितम्-अधिकं जातं तन प्र क्षिप्यते मण्डली पतग्रहे संसृष्टं सत् । किंचकोलडिग्गहगे, विजाणिया पक्खिवे दवं सुक्के । अभट्ठियाण अट्ठा, बहुलंभे जं असंसङ्कं ।। ५७५ ।। (सुक्क ति ) एकः शुष्केण भक्तेन पतद्ग्रहकः, श्रपरः (उल्ल ति) आई भक्तेन पतद्ग्रहः एवं विज्ञाय ततः प्रक्षिपेद् द्रवं शुष्कभक्तपत, येन तोयप्रक्षेपेण सञ्जातबन्धं तद्भकं सुस्वनैव कवलैर्गृह्यते, अथ बहुलाभः सञ्जातः प्रचुरं लब्धं गुडाssदि ततोऽसंसृष्टमेव भियते, किमर्थम् ?, श्रभक्तार्थिकानामधे येन मनोशं भवेत् । उक्ता ग्रहणशोधिः । इदानीं भुञ्जानस्य शोधिरुच्यते सा च चतुर्द्धा । एतदेवाऽऽहमोही उभात्रे, विगांगालं च विगयधूमं च । For Private भोयण तत्र " रागेण सइंगाल, दोसेण सधूमगं होइ ।। ५७६ ।। शुद्धौ चतुष्ककं भवति नामस्थापनाद्रव्यभावरूपम्, नामस्थापने सुगमे, द्रव्यशोधिः पूर्ववत् भावविषया पुनः शोधिः विगताङ्गारं विगतधूमं व भुञ्जानस्य भावशोधिभवति, कथं सागारं कथं वा सधूमं भवतीत्येतदेवाऽऽहरागेण " इत्यादि सुगमम् । 66 जतासाहमहेउं, श्राहरेंति जमणट्टया जइयो । छायालीसं दोसे-हि सुपरिसुद्धं विगयरागा ॥ ५७७ ॥ 'चारित्रयातासाधनार्थ धर्म्म साधननिमिसमाहारयन्ति याप नार्थ शरीरसंधारणार्थे मुनयः षट्चत्वारिंशहोत्रैः सुपरिशुद्ध'माहारयन्ति, के च ते ?, षोडशोद्रमदोषाः, षोडशोत्पादना दोषाः, दशैषणादोषाः, “संजोयणापमाणं सांगालं सधूमगं च " इत्येते षट्चत्वारिंशद्, एभिर्विशुद्धं सद् विगतरागा आहारयन्ति । हियाssहारा मियाssहारा, अप्पाऽऽहारा य जे नरा । गते विजा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिमिच्छगा । ५७८ । लोकः सुगमः । उक्लो भुञ्जनविधिः । श्रोघ० । पं० व० । दश० । व्य०। ६० । भोजनसमये हनुसंचालं न कुर्यात् सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा श्रहारेमाणे णो वामाओ हणुयाश्रो दाहि हणुयं संचारेजा आसाएमाणे, दाहिणाओ हणुयाओ वामं हणुयं यो संचारेजा आसाएमाणे, से असायमाणे लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ, जमेयं भगवया पवेइयं तमेवं अभिसमिच्चा सव्वतो सव्वत्ताए सम्मत्तमेव समभिजाणिया ।। २२० ।। 'स' पूर्वव्यावर्णितो 'भिक्षुः साधुः साध्वी वा अशनाऽऽदिकमाहारमुद्मोत्पादनैषणाशुद्धं प्रत्युत्पन्नं ग्रहणैषणाशुद्धं च गृहीतं सदाङ्गारिताभिधूमितवर्द्धमाहारयेत्, तयोश्चाङ्गारिताभिधूमितयो रामद्वेषौ निमित्तं तयोरपि सरसनीरसोपलब्धिः करणाभावे च कार्याभाव इति कृत्वा रसोपलब्धिनिमितपरिहारं दर्शयति-स भिक्षुराहारमाहारयक्षो वामतो ह तो दक्षिणां हनुं रसोपलब्धये सञ्चारयेदास्वादयश्नशनाSSदि, नापि दक्षिणतो बामां सञ्चारयेदास्वादयन् तत्सञ्चारास्वादनेन हि रसोपलब्धौ रागद्वेषनिमित्ते अङ्गारितत्वाभिधूमितत्वं स्यातामतो यत्किञ्चिदप्यास्वादनीयं नाऽऽस्वादयेत्, पाठान्तरं वा-' आढायमाणे ' आदरवानाहारे मूच्छितो गृखो न सञ्चारयेदिति हन्वन्तरसङ्क्रमवदन्यत्रापि नाऽस्वादयदि ति दर्शयति-स ह्याहारं चतुर्विधमप्याहारयन् रागद्वेषौ परिहरन्नास्वादयेदिति तथा कुतश्चिनिमित्ताद्धन्वन्तरं सञ्चार नयनास्वादयन् सञ्चारयेदिति । किमिति ?, यत श्राह - श्राहारलाघवमागयमयन् श्रपादयन् नो श्रास्वादयेदित्यास्वादनिषेधेन चान्तप्रान्ताऽऽहाराभ्युपगमो ऽभिहितो भवति, एवं च तपः ' से ' तस्य भिक्षोरभिसमन्यागतं भवतीत्यादितार्थ यावत् ' से' सम्मत्तमेव समभिजाणिय सि' । श्राचा० १ ० ० १ ० १ Personal Use Only Page #1643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोषण पाहुडियं आलोहता सज्झायं पट्टावित्तु तिसरहं धम्मो मंगलाई कट्ठे चत्थधम्मो मंगलगेहिं च णं अपयट्टएहिं चेयं साहूहिं अदिएहिं पारावेजा पुरिमडुं । महा० १ चू० । (तत्र विधिः 'उग्गाल' शब्दे द्वितीयभागे ७३० पृष्ठे उक्तः ) (संसक्तग्रहणं, संसक्तभोजनं च 'संसत' शब्दे ) ( पात्रे उदकविन्दुः पतेरुत्र भोजनं 'परिवणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५७२ पृष्ठे उक्तम्) (पर्युषितान्न भोजननिषेधो 'गोयरचरिया' शब्दे तृतीयभागे ६६७ पृष्ठे गतः) (उदकतीरे भोजननिषेधः 'दगतीर' शब्दे चतुर्थभागे २४४२ पृष्ठे गतः ) ( कालातिक्रान्तक्षेत्रातिक्रान्तपानभोजने 'गोयरचरिया' शब्दे तृतीयभागे ६७७ पृष्ठे गते ) भोजनगृद्धो न चरेत् न य भोयणम्मि गिद्धे, चरे उंछ अयंपिरो । ( १६२० ) अभिधानराजेन्द्रः । फासुयं न भुंजिजा, कीयमुद्देसियाऽऽहडं ॥ २३ ॥ न च भोजने गृद्धः सन् विशिष्टवस्तु लाभायेश्वराऽऽविकुलेषु मुखमङ्गलिकया चरेत्, अपि तु उच्छं भावतो ज्ञाताज्ञातमजल्पनशीलो धर्मलाभमात्राभिधायी चरेत्, तत्राप्यमासुकं सचितं सम्मिश्रा ऽऽदि कथञ्चिद् गृहीतमपि न भुञ्जीत, तथा क्रीतमीदेशिका SSवितं प्राशुकमपि न भुञ्जीत, एतद्विशोध्य विशोधिकोटgपलक्षणमिति सूत्रार्थः । दश० ८ श्र० २० । ( भोजना भोजनकारणानि ' आहार ' शब्दे द्वितीयभागे ५१६ पृष्ठे उक्तानि ) ( भोजनप्रमाणं तदोषाश्चापि ' आहार ' शब्दे द्वितीयभागे ५२१ पृष्ठे उक्ताः ) ( रात्रिभोजनं 'राइभोयण ' शब्दे वक्ष्यते ) ( दुरभिं परिस्थाप्य सुरभिं भुङ्क्ते इति ' परिदृषणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५८४ पृष्ठ गतम् ) ( उपभोगपरिभोगः ' वय' शब्दे वक्ष्यते ) श्रावकस्याभोज्यानि द्वाविंशतिः-चतुर्विकृतयो निन्द्या, उदुम्बरकपञ्चकम् । हिमं विषं च करका, मृजाती रात्रिभोजनम् || ३२ ॥ बहुबीजाज्ञातफले, संधानानन्तकायिके । वृन्ताकं चलितरसं, तुच्छं पुष्पफलाऽऽदि च ॥ ३३ ॥ श्रमगोरससंपृक्त-द्विदलं च विवर्जयेत् । द्वाविंशतिमभक्ष्याणि, जैनधर्माधिवासितः ॥ ३४ ॥ त्रिभिः विशेषकम् | जैनधर्मेणाऽऽर्हतधर्मेणाऽधिवासितो भविताऽऽत्मा पुमान् । ध० २ अधि० । ( उदुम्बरपञ्चकाssदीनि च स्वस्वस्थाने व्याख्यातानि ) अशनाऽऽदिगुणसंपदुपेतः पिण्डो विशुद्धः शुद्धिकारक इत्युक्तम् स च शुद्धिकारकः प्रकटभोजने न संभवतीति eg भोजनं यतिना विधेयमित्युपदिशन्नाह - सर्वाssरम्भनिवृत्तस्य, मुमुक्षोर्भावितात्मनः । पुण्याऽऽदिपरिहाराय मतं प्रच्छन्नभोजनम् ॥ १ ॥ मुमुक्षोर्मतं प्रच्छन्नभोजनम् इति क्रिया, किंविधस्येत्याह-सर्वे निर्विशेषा मनोवाक्कायकृतकारितानुमतिभेदा ये श्रा रम्भाः पृथिव्यादिजीव संघट्टपरितापातिपातरूपास्तेभ्यो निवृत्तो यः स तथा तस्य एतस्य कि प्रजातस्य दीना For Private भायण ssदिकाय याचमानाय तद्दाने तत्पोषणत श्रारम्भप्रवृत्तिहेतुत्वेन सर्वारम्भनिवृत्तिक्षतिर्भवतीति तत्परिहारार्थमेतेन प्रनमेव भोक्तव्यमित्युपदेष्टुं सर्वाऽरम्भनिवृत्तस्येत्युक्तम्, श्रनेन चेह तदन्यस्य व्यवच्छेदः, तस्य हि प्रकटभोजनेऽपि न सर्वारम्भनिवृतेः क्षतिः, तदभावादिति । कस्यैवंभूतस्येत्याहभोक्तुं न मोचयितुं कर्म्मबन्धनादात्मानमिच्छतीति मुमुक्षुर्दीक्षितस्तस्य, श्रनेन चामुमुक्षोर्व्यवच्छेदः, तस्य हि पुरायबन्धस्यानुज्ञातत्वादिति । पुनः किंभूतस्य ? भावितो वासितः स्वपरोपकारकरणधर्मया प्रशमवाहितया जिनाऽऽशया वा श्रारमा अन्तःकरणं येन स तथा तस्य, एतेन हि साधुसामाचार्यो यस् प्रकटभोजनं तज्जन्यो यः प्रवचनोपघातः स्वपराननिबन्धनभूतोऽप्रशमाऽऽवहो जिनाऽऽशाभङ्गरूपः सोऽवश्यं परिहार्य इत्यावेदितं भवति, निषिद्धं च जिनाऽऽगमे प्रकटभोजनम् । यदाह - "छक्कायदयावंतो विसंजश्रो दुल्लहं कुराह बोहिं । श्राहारे नीहारे, दुगुछिए पिंडगह य ॥ १ ॥ किमर्थमि स्याह- पुण्यं शुभकर्म, श्रादिशब्दाद्याच काप्रीत्यादिदोषः, पादमसंयत पोषण द्वाराऽऽयाताऽऽरम्भप्रवर्तनं, प्रवचनोपघातश्च परिगृह्यते, अतः पुण्याऽऽदीनां परिहारो वर्जनं पुण्याऽऽदिपरिहारस्तस्मै पुण्याऽऽदिपरिहाराय मतं सम्मतं विदुषां प्रsowभोजनम् श्रप्रकटजेमनमिति ॥ १ ॥ कथमप्रच्छन्नभोजने पुण्यबन्ध इत्याहजानं वीक्ष्य दीनाऽऽदि-र्याचते, क्षुत्प्रपीडितः । तस्यानुकम्पया दाने, पुण्यबन्धः प्रकीर्त्तितः ॥ २ ॥ भुञ्जानमभ्यवहरन्तं मुमुक्षुमिति गम्यते । वीच्य दृष्ट्रा क इत्याह- दीनाऽऽदिनो दैन्यवान्, आदिशब्दाद नाथवनीपकाऽऽदिपरिग्रहः। याचते मृगयते, किंविधः सन्?, क्षुत्प्रपीडितः बुभुक्षाऽत्यन्तवाधितः, अपीडितस्य हि याचनेन तथाविधानुकम्पोत्पाद इत्यसौ विशेषितः तस्येत्थंभूतस्य दीनाऽऽदेरिह च संप्रदानेऽपि षष्ठी, संबन्धस्यैव विवक्षितत्वादिति । श्रनुकम्पया करुणया दाने भोजनस्य वितरणे पुण्यबन्धः शुभकम्मपादानं प्रकीर्त्तित श्रागमेऽभिहितः, यदाह - " भूया - शुकंपवयजो- गउज्जश्र खंतिदाणगुरुभत्तो । बंधह भूश्रो सायं, विवरीयं बंध इयरो ॥ १ ॥ " इति कथं प्रकटं मुमुशुर्भुञ्जतेति ॥ २ ॥ भवतु पुण्यबन्धः, का नो हानिरिति खेदत श्राहभवहेतुत्वतश्वाऽयं नेष्यते मुक्तिवादिनाम् । पुण्यापुण्यक्षयान्मुक्ति- रिति शास्त्रव्यवस्थितेः ॥ ३ ॥ भवहेतुत्वतः संसारकारणत्वात्, चशब्दः पुनरर्थः श्रयमनतरोद्दिष्टः पुण्यबन्धो नेष्यते श्राश्रयणीयतया नानुमन्यते, प्रवचनप्रणेतृभिः केषामित्याह-मुक्तिं सकलकर्मनिर्मोक्षं स्वकीयस्यानुष्ठानविशेषस्य फलतया वदितुं शीलं येषां ते मुक्तिवानस्तेषां मोक्षार्थिनामिति हृदयम् । अथवा मुक्तिवादिनामित्येतत्पदं शास्त्रव्यवस्थितेरित्यनेन संबन्धनीयं नेष्यते इति कुतो वसितमिति चेदत श्राह पुण्यापुण्यक्षयात् शुभा शुभकर्माऽऽत्यन्तिक प्रलयादेव मुक्तिर्मोक्षो जीवस्य स्वरूपेऽवस्थानं, भवतीति गम्यते, इत्येवंप्रकारायाः शास्त्रव्यवस्थितेरामप्रीताऽऽगमव्यवस्थाया हतार्थिन ॥ ३ ॥ Personal Use Only Page #1644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोषण अथ दनाऽऽदेयमानस्याऽपि न दास्यत इति कुतः पुरापबन्धो भविष्यतीत्याशङ्कषाऽऽहप्रायो न चानुकम्नावांस्तस्यादच्या कदाचन । तथाविधस्वभावत्वा क्नोति सुखमासितुम् ॥ ४ ॥ ( १६२१ ) अभिधानराजेन्द्रः । यदि न ददाति तदा न भवति पुरुषबन्धो न स न पुनरनुकम्पाचान् करुणापरायणान्तःकरणः प्रायो बाहुल्येन तस्य याचमानस्य दीनाssदेरदत्त्वा दानमकृत्वा कदाचन कस्मिंश्चिदपि काले शक्नोति समर्थो भवति सुषममनःपीडं यथा भवतीत्ये एतदेवमित्याह तथाविधस्तत्कारोयाचमानदीनदाननिबन्धनभूतः स्वभावः स्वरूपं यस्यानुकम्पावतः स तथा, तस्य भाषस्तत्वं तस्मात्तथाविधस्वभावत्वादिति । हेतुप्रयोगश्चैवम् - यद्वस्तु यत्करणस्वभावं ततदकृत्वा नाऽऽसितुं शक्नोति, यथा मद्यं पुरुषस्य वृत्ताऽऽदिकं विकारं, दीनदानस्वभावश्चानुकम्पावांस्तस्माददत्वा सुखमासितुं न शक्नोतीति ॥ ४ ॥ अथ पुरुषबन्धभीरुतया दलितां विधाय न दास्यसीति कथं पुण्यबन्धः ?, इत्याशङ्कयाऽऽह । अथवा पुरुषादिपरिहारार्थमिहाऽऽदिशन्दोपाला याचका ऽप्रीत्यादिदोषप्रतिपादना याऽऽह अदानेऽपि च दीनाऽऽदे रप्रीतिर्जायते भुवम् । ततोऽपि शासनद्वेष- स्ततः कुगतिसंततिः ॥ ५ ॥ । पति पुनः शब्दार्थः, ततो दाने पुण्यबन्धो भवत्यदाने श्रोदनाऽऽद्यवितरणे पुनर्दीनाऽऽदेर्दीनानाथाऽऽदेर्थिनोऽप्रीतिब्धिलोगो जायते भवति, तस्यैव भुवमवश्यंभावेन भवतु सा को दोष इति वेदल आह-खतोऽपि अपिशब्दः पुनःश म्दार्थः, ततस्तस्याः पुनरप्रीतेः सकाशाच्छासमद्वेषः आसवचनं प्रतिमत्सरःस्तस्यैव ततोऽपि किमित्याह ततः शासनप्रद्वेषात् कुगतीनां नारकतिर्यक्कुनरकुदेवत्वलक्षणदुर्गतीनां संततिः सन्तानः प्रवाहः कुमतिसम्तविजयते दीनादेरिति प्रकम इति । यदि नाम मिथ्यात्वोपहतबुद्धेस्तस्य स्वदोषादप्रीत्यादयः सञ्जयन्ते ततः किमस्माकमसंज्ञेशवन्मानसानामित्याशङ्कयाऽऽह । अथवा पुरुषाऽऽदिपरिहारार्थमिहाऽऽदिशब्दोपालपापवन्धप्रदर्शनाया 35 निमिचभावतस्तस्य सत्युपाये प्रमादतः । शास्त्रार्थबाधनेनेह, पापबन्ध उदाहृतः ।। ६ ।। शाखार्थबाधनेन पापबन्धस्तस्योदाहृत इति संबन्धः । शास्वार्थवाधमेव कुतः इत्याह-निमित्तभावतो दीनाऽऽमीति शासनद्वेषकुगतिसन्ततीनां कारयत्वेन परेषामप्रीत्यादिवजैनं हि शाखार्थस्तस्येति प्रकटयोजकयतेः । नन्वेवं महामुनीनामपि पापयन्धप्रसङ्गः तेषामपि महामिध्यात्वोपहतेष्यप्रीत्यादिनिमित्तत्वादित्याशङ्क्याऽऽह-सति विद्यमाने उपाये भोजनलक्षणे दीनाऽऽद्यप्रीत्याद्युत्पत्तिपरिहारस्य हेतौ महामुनीनां तु पराप्रीतिपरिहारोपायाभावे तत्परिहारार्थं च प्रयत्ने सति परिणामविशुद्धेः पापबन्धाभाव इति । नन्वेवं हाईीनाऽऽदिना भुज्जानस्य साधोर्दर्शने उक्तदोषप्रसङ्ग इत्यत आह-प्रमादतः प्रमादेनाऽऽलस्पोपहततषा, श्रम४०६ " भोयण तस्य पुनरप्रीत्यादिहेतुत्वेऽपि शास्त्रार्थायाधनानास्ति पापबन्धोऽहिंसकस्येव । यदाह" आया वेब अहिंसा आया हिंसति निओ एस जो होइ अप्पम - सो इयरो ॥१॥" शास्त्रार्थस्यासागमार्थस्य बाधनमयथाकरण शास्त्रार्थबाधनं तेन हेतुना महानर्धनिबन्धनं हि शाखार्थबाधनम् । पाह" यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य - सेते कामचारतः । न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥ १ ॥ " शास्त्रं च पराप्रीतिपरिहार प्रयत्नप्रतिपादनपरमेव व्यवस्थितम् । तद्यथा 'अमिलो दिन कस्सा, बंधो परवत्युपचया भणियो । तह विहु जयंति जलो, परिणामपिसोहिमिता ॥१॥ 66 तथा "इय सम्मेण वि सव्यं, सर्व अप्पत्तियं जजस्स । नियमा परिहरिय, इयरम्मि सततचिताओ ॥२॥" इति प्रकटभोजने पापबन्धो अशुभकमपादानमुदाहृतोऽभिहितस्तत्त्ववेदिभिरिति ॥ ६ ॥ भवतु शास्त्रार्थबाधेति चेनेत्याहशास्त्रार्थ प्रयत्नेन यथाशक्ति मुमुचुणा । अन्यव्यापारशून्येन कर्त्तव्यः सर्वदैव हि ॥ ७ ॥ शास्त्रस्य दृष्टेष्टाभ्यामविरुद्धाऽऽगमस्यार्थोऽभिधेयं शास्त्राथेः शब्दः पुनरर्थ एवकारार्थी या तेन शाखार्थः पुनः कर्मयः शास्त्रार्थ एव वा कर्त्तव्यः । कथं प्रयत्नेन महता प्रादरेण अनादरकरणे हि विवक्षितफलासिद्धेः कृषीवलानामिव । ननु शास्त्रार्थस्य संहननाऽदिहीनेन स्वमग्रस्य दुष्करत्वादशक्यानुष्ठानोऽयमुपदेश इत्याह-यथाशक्ति शक्तेः शरीरबलस्थानतिक्रमो यथाशक्ति तेन एवं ह्याराधना । यदाह "अनिहितो चिरियं न विराहेर चरणं तबसुरसु जइ संजमे वि बिरियं न निगूहिजा न हाविया ॥ १ ॥" सरन हापयेदि त्यर्थः केनेत्याह-मुमुखा मोना, अनन्योपायत्यान्मोत स्य । यदाह - " जम्हा न मोक्खमग्गे, मुत्तूयं आगमं हद्द पमां । बिजर छउमत्थाएं, तम्हा तत्थेव जइयव्वं ॥ १ ॥ " किंभूतेनान्यव्यापारशून्येन शास्त्रार्थकरणव्यतिरिक्तलोकयात्राऽऽदिकर्त्तव्यविरहितेन, व्यापारान्तरेण हि शास्त्रार्थकरणबाधा भवतीति कर्तव्यो विधेयः, किं प्रतिनियतं कालं नेत्याहसर्वदेव सदैया53जन्मापीत्यर्थ हिशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः यस्मादर्थो वा ततश्च यस्माच्छास्त्रार्थ एव कर्त्तव्यस्तस्मात् प्रशमेव भोजनं विधेयमिति प्रक्रम इति ॥ ७ ॥ 9 , प्रकरणार्थमुपसंहरन्नाह एवं शुभयथाऽप्येतद् दुष्टं प्रकटभोजनम् । , यस्मान्निदर्शितं शास्त्रे, ततस्त्यागोऽस्य युक्तिमान् ||८|| एवं हि अनेनैवानन्तरोक्रेन प्रकारेण उभयथा दीनाऽऽदेर्दानादानलक्षणाभ्यां वर्णितस्वरूपाभ्यां प्रकाराभ्यां न केव लमेकेनैव प्रकारेण अपि भवथाऽपीत्यपिशब्दार्थः । अथवा - इहलोकापेक्षया, तत्र परलोकापेक्षया प्रकटभोजनस्य दुष्टत्वमुपदर्शितमनन्तरमेव । इहलोकापेक्षया त्वमुतो नीतिश्लोकादवगन्तव्यम् - " प्रच्छन्नं किल भोक्तव्यं, दरिद्रेणविशेषतः । पश्य भोजगदीस्यात् परः सिंहेन नाशितः १ ॥" Page #1645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२२ ) अभिधानराजेन्द्रः । भोयण एतदनन्तरोक्तं प्रकटभोजनं दुष्टं दोषवत् यस्माद्यतो हेतोर्निदर्शितं - प्रतिपादितं शास्त्रे - श्रागमे ततस्तस्मात्यागः परिहारोऽस्य प्रकटभोजनस्य युक्तिमान् उपपत्तियुक्तः, अतो हे कुतीर्थिका यदि यूयं मुमुक्षवस्तदा भवतामपि प्रनमेव भोजनं कर्त्तुं युज्यत इति गतार्थ इति । हा०७ अष्ट० । उपस्थापिताय भोजनं दत्वा भुञ्जीतनिग्गंथेण य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुष्पविट्ठेयं श्रनय अचिते असणिजे पाणभोयणे पडिग्गाहिए सिया, अत्थि आई व केह सेहतराए अणुवट्ठावियए, कप्पर से तस्स दाउं वा अणुप्पदाउं वा, नऽत्थि आई इत्थ केइ सेहतराए अणुवट्ठावियए, ता नो अप्पणा भुंजेज, नो अन्नेसिं दावए, एते बहुफासु पसे पडिलेहिता पमजित्ता परिट्ठावियव्वे सिया ।। १३ ।। अस्य सूत्रस्य संबन्धमाहआहार एव पगतो, तस्स उ गहम्मि वलिया सोही । श्राह पुण असुद्धे, अचित्तगहिए इमं सुत्तं ॥ ४३० ॥ आहार एवानन्तरसूत्रे प्रकृतस्तस्य चाऽऽहारस्य ग्रहणे शोधिर्षर्शिता, यथा शुद्ध श्राहारो ग्रहीतव्यस्तथा भणितमिति भावः । 'श्रहश्च' कदाचित्पुनरशुद्धोऽचित्ताऽहारो गृहीतो भवेत्, तत्र को विधिरित्यस्यां जिज्ञासायामिदं सूत्रमारभ्यते । हवण सचित्तदव्वं, पडिसिद्धं दव्वमादिपडिसेहा । इह पुण सचित्तदव्वं, वारेति श्रणेसियं एसो ।। ४३१ ॥ अथवा पूर्वतरसूत्रेषु तत्र "नो कप्पति पव्वावित्तए ।" इत्यादि तु सचित्तद्रव्यं द्रव्याऽऽदिप्रतिषेधेन - द्रव्यं मण्डलाSSदिकं तदाश्रित्य प्रतिषेधो द्रव्यप्रतिषेधस्तेन श्रादिशब्दात् "बुट्टे मूढे" इत्यादिषु च भावाप्रतिषेधेन प्रतिषिद्धम् । इह पुनः प्रकृतसूत्रे सचित्तद्रव्यमनेषणीयं वारयति एषः ॥ ४३१ ॥ अनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्य ( सूत्रस्य - १३ ) व्याक्या - निर्ग्रन्थेन गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिशया अनुप्र विष्टेन ( अनतरे सि ) उन्नमोत्पादनैषणा दोषाणामम्यतरेण दोषेणादुष्टमनेषणीयमशुद्धमन्चित्तं निर्जीवं पानभोजनमनाभोगेन प्रतिगृहीतं स्यात्, तश्चोत्कृष्टं नयतस्ततः परित्यक्तं न शक्यते श्रस्ति चात्र कश्चित् शैक्षतरको लघुतरोऽनुपस्थापितकः अनारोपितमहाव्रतः, कल्पते, (से) तस्य निर्ग्रन्थस्य तस्मै शैक्षाय दातुमनुप्रदातुं वा, तत्र दातुं प्रथमतः, अनुप्रदातुं तेनान्यस्मिन्नेषणीये इसे सति पश्चात्प्रदातुम् । श्रथ नास्त्यत्र कोऽपि शैक्षतरको ऽनुपस्थापितकस्ततो मैवाऽऽत्मना भुञ्जीत न वा श्रन्येषां दद्यात्, किं का बहुप्राशुके प्रदेशे प्रत्युपेक्ष्य प्रसृज्य च परिष्ठापवितव्यं स्यादिति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ तु अथ निर्युक्तिविस्तरःअनतरणेसणिअं, आउट्टिय गिरहणे तु जं जत्थ । भोगगहिते जयणा, अजतणदोसा इमे होंति ।४३२ ॥ teri garerssaratमेकतर दोष दुष्टमनेषणीयमाकुट्टिकया यो गृह्णाति श्राकुट्टिका नाम-स्वयमेव भोक्ष्ये, शैक्षस्य वा दास्यामि, यमुपेत्य ग्रहणे येन दोषेणाशुद्धं तमापद्यते । य For Private भोयण च यत्र दोषे प्रायश्चित्तं तत्तस्य भवति, अथानाभोगेन गृहीतं ततो यतनया शैक्षस्य दातव्यम् । यद्यतनया ददाति तत इमे दोषा भवन्तिमा सब्वमेयं मम देह-मलं, उक्कोसरणं च अलाहि मज्भं । किं वा ममं दिजति सब्वमेयं, इश्चैव वृत्ते तु भणाति कोइ ॥ ४३३ ॥ तेनानेषणीयमिति कृत्वा शैक्षो ब्रूयात्मा सर्वमेतदनं भभक्क्रेन ममालं, किं वा सर्वमेतत् मम दीयते इति । एवं क्रं मम दत्त, अथोत्कृष्टमिति कृत्वा मे दीयते, तत्र उत्कृष्टेन शैक्षेणोक्ते कश्चिद्भणति - एयं तुब्भं अहं ण कप्पती चउगुरुं च अणादी संका व अभिउग्गे, एगेण व इच्छियं होजा ।। ४३४ ॥ एतत्तव कल्पते, अस्माकं तु न कल्पते, एवं भगतश्चतुर्गुरुकम्, आशाऽऽदयश्च दोषाः, शङ्का वा, तस्य शैक्षस्याभियोगः कार्मणः, तद्विषया भवति, एकेन वा केनचिद् दी - यमानमीप्सितं भवेत्, तस्य च ग्लानत्वे यथाभावेन ज्ञाते सति द्वितीयशैक्ष उड्डाहं कुर्यात् । इदमेव भावयति कम्मोदऍ गेलो, दट्ठूण गतो करेज उड्डाहं । एगस्स वाऽवि दिले, गिलाण वमिऊण उड्डाहो ||४३५ ॥ कर्मोदयाद्यथाभावेनैव ग्लानत्वे जाते सति स चिन्तयेत् — एतै व्रतदेयं प्रतिभुञ्जतामिति कृत्वा ममाभियोग्यं दत्तम् एवं दृष्ट्रा ज्ञात्वा स भूयो गृहवासं गत उड्डाहं कुर्यादेतैः कार्मणं मम दत्तमिति, एकस्य वा दत्ते सति यदा ग्लानत्वं जातं तदा द्वितीयशैक्षः व्रतं वमित्वा प्रभूतजनसमक्षमुड्डाहं कुर्यात् । किं नश्चिन्तयित्वा स व्रतं वमतीत्याह मा पडिगच्छति दिष्ां, से कम्मण तेण एस आगल्ले । ४३६ । जाव ण दिजति अम्हा, वि हु दाणि पलामि ता तुरियं ॥ मा प्रतिगमिष्यतीति बुद्धधा कार्मणमस्य दत्तं, तेनायमागलो ग्लानः सञ्जातः श्रतो यावदस्माकमपि कार्मणं न दीयते तावस्वरितमिदानीमहमपि पलाये । अथवा कश्चिदिदं ब्रूयात् भत्ते मे ण कर्ज, कल्लं भिक्खं गतो व भोक्खामि । व देह-ममं इय अजते उज्झिमगदोसा ॥ ४३७|| भक्तेन [ मे ] मम न कार्य, कल्यं वा भिक्षां गतो या भोदयेअन्यद्वा भक्तं मां प्रयच्छत ( इय) एवमयतनया दीयमाने उज्झनिका पारिष्ठापनिका भवेत्, तस्यां च दोषाः कीटिकामक्षिकाऽऽदिविराधनारूपा मन्तव्याः । अथवा एकस्य ग्लानत्वे जाते अपरचिन्तयेत्ह णु ताव असंदेह, एस मोऽहं तु ताव जीवामि । बग्घा हु चरंति इमे, मिगचम्मगसंवुता पावा ।। ४३८ ॥ Personal Use Only Page #1646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण अभिधानराजेन्द्रः। भोयण (हणु ति) ह इति खेदे, नुरिति वितर्के, एष तावदसन्देहं यथा तस्य चेतसि समाधानं भवति उहाहो न स्यात् । मृतोऽहं तु तावदिवानी जीवामि, इमे च पापाः श्रमणका मृ. प्रज्ञापनाविधिश्वायम्गचर्मसंवृता व्याघ्राश्चरन्ति, बहिः साधुवेषच्छमा हिंसका अभिनवधम्मोऽसि अभा-वितोऽसि बालोऽसि तं अणूकंपो अमी इति भावः । अतो यावदेते संजीवितान्न व्यपरोपयन्ति, तावत्प्रतिगच्छामीति। तव चवट्ठा गहितं, मुंजेज्जा तो परं छंदा ॥ ४४३ ।। कप्पो चिय सेहाणं,पुच्छतु अमे वि एस हु जिणाऽऽणा। अभियोगपरज्मस्सह, कोधम्मोकिंच तेण नियमेणं ।। सामाइयकप्पठिती, एसा सुत्तं चिमं वेति ॥ ४४४ ॥ अधियकरग्गाहीख व,अभिजोयंताण को धम्मो॥४३॥ अभिनवधर्मा अधुनैव गृहीतप्रवज्योऽसि,अतएवाभावितोअभियोगेन कार्मणेन (परज्झस्स त्ति) परवशीकृतस्य ऽसि, माद्यापि भैच्यभोजनेन भाषितः, बालश्च त्वमसि, अत मम को नाम धर्मो भविष्यति, किंवा तेन नियमेन-मम का. एवानुकम्प्योऽनुकम्पनीयः, तत इदमुत्कृष्टद्रव्यमशुद्धमपि य, तथा अधिककरप्राहिणामिवामीषामप्येवमभियोजयतां सवैवार्थाय गृहीतम् , अतः परं छन्दात् स्वच्छन्देन भुञ्जीथाः ॥ धो, न कश्चिदित्यर्थः। अपि च-कल्प एवैष शैक्षाणां यदनेषणीयमपि भोक्नु कल्पते, एवं विचिन्त्य ग्रहवासं भूयोऽपि कुर्यात् , यो ग्लानीभूय । यदि भवतो न प्रत्ययस्ततः पृच्छान्यानपि गीतार्थसाधून , प्रवजितः स प्रव्रजन्तमित्थं विपरिणमयेत् तेऽपि तेन पृष्टाः सन्तो त्रुवते-एषा, हुनिश्चितं, जिनाऽऽक्षा किच्छा हि जीवितोऽहं, जति मरणं इच्छसी तहिं वञ्च । । तीर्थकतामुपदेशः, सामायिककल्पस्य चैषैव स्थितिः, सूत्र एस तु भणामि भाउगः,विसकुंभाते महुपिहाणा॥४४०॥ च ते साधव इदं प्रस्तुतम्-"अत्थियाई च के सेहतराए" कृच्छादतिदुःखनाहं तावजीवितः, तो यदि त्वमपि म इत्यादिरूपं त्रुवते इत्यादीति भावः। तुमिच्छसि तदा तत्र तेषां साधूनामन्तिकं ब्रज, येन भवतोऽ- कदाचन कुट्टिकयाऽपि दद्यास्कथमित्याहप्येवं संपद्यत इति भावः । अपि च-हे भ्रातरेषोऽहमेकान्त- परतित्थियपूयाओ, पासिय विविहाउ संखडीमो य । हितो भूत्या भवन्तं भणामि, ते साधवो विषकुम्भा मधुपिधानाः सन्ति, मुखेन जीवयाऽऽधुपदेशकं मधुरं च जल्प विप्परिणमेज सेहे, कक्खडचरियापरिस्संतो।। ४४५ ॥ न्ति, चेतसा तु विषवत् परव्यपरोपकारिदारुणपस्णिामा इति कापि क्षेत्रे परतीथिकानां पूजाः सादरस्निग्धमधुरभोजहृदयम् । एवं विपरिणामितोऽसौ प्रवज्यामप्यनिष्पद्यमानः नाऽऽदिरूपास्तदुपासकैर्विधीयमाना दृष्टा, विविधाश्च सङ्ग षद्कायविराधनाऽऽदिकं करोति, तनिष्पन्नमयतनादायिनः डीरवलोक्य शैक्षः कर्कशचर्यापरिश्रान्तः सन् विपरिणमेत । प्रायश्चित्तम् । नाऊण तस्स भावं, कप्पति जतणाएँ ताहे दाउं जे । संथरमाणा देंती, लग्गइ सट्ठाणपच्छित्तं ॥ ४४६ ॥ वातादीणं खोभे, जहम्मकालुत्थिए विसाऽऽसंका। झात्वा तस्य शैक्षस्य भावं स्निग्धमधुरभोजनविषयमभिअवि हुअति अन्नविसे,णव य संकाविसे किरिया॥४४१॥ प्रायमेषणीयालामे यतनया तस्याऽनेषणीयमपि दातु कल्पते, तस्याऽशुद्धाऽऽहारदानानन्तरं वाताऽऽदीनां क्षोभे जघन्य अथ संस्तरन्तोऽपि ददति ततः स्वस्थानप्रायश्चित्तं लगति, कालात्तत्क्षणादेवोत्थित विषाऽऽशङ्का भवति-किं विषममी येन दोषेणाशुद्धं तनिष्पनं प्रायश्चित्तमापद्यत इति भावः । भिर्मम वन्तं येनैवं सहसैव धातुक्षोभः समजनि , एवं चिन्तयतस्तस्याचिरादेव मरणं भवेत्। कुत इत्याह सेहस्स व संबंधी, तारिसमिच्छते वारणा णस्थि । (अवि इत्यादि ) अपिः संभावनायां , संभाव्यतेऽयम- कक्खडे व महिडीए, वितियं श्रद्धाणमादीसु ॥४४७॥ र्थः-यवन्यस्य सर्वस्यापि विषमन्त्राऽऽदिक्रिया युज्य- शैक्षस्य पा संबन्धिनः केऽपि स्नेहातिरेकत उत्कृष्ट भतेः शङ्का, विषस्य तु क्रिया चिकित्सा नैष भवति , मान कमानीय दयुः, तस्य च तादृशं भोक्तुमिच्छतो धारणा प्रसिकत्वेन तस्य प्रतिकर्तुमशक्यत्वात् । यत एते दोषा अतो तिषेधो नास्ति, (कक्खडे व ति) कर्कशो मदस्योदयः, तत्रानायतनया दातव्यम्। संस्तरणा, अशुद्धं शैक्षस्य दातम्यं, शुद्धमात्मनो भोक्रव्यम् , अत्र परमतमुपन्यस्य दूषयति (महिहीए सि) महर्डिको राजाऽऽदिः प्रवजितः स यावन्नाकेइ पुण साहियव्वं, अस्समणोऽहं ति पडिगमोहोआ। चापि भाषितस्तत्रैतत्प्रायोग्यमनेषणीयं दीयते, (विश्यं श्रद्धादायव्वं जतणाए, अणुलोभणाण उड्डाहो ॥ ४४२॥ एमादीसु त्ति ) अध्वादिकारणेषु द्वितीपद भवति, केचित्पुनराचार्या युवते-स्फुटमेव तस्य कथयितव्यं भवत | स्वयमप्यनेषणीय भुलानः शुद्ध इति भावः । एषा पुरातनी एवेदं कल्पते, एतच्च न युज्यते, यत एवमुक्ते कदाचिदसौ | गाथा। अयात्-यत् श्रमणानां न कल्पते तन्मम यदि कल्पते तत साम्प्रतमेनामेव विवृणोतिएघमहमलमणो--न श्रमणो भवामि, अश्रमणस्य च निरर्थक नीया व केई तु विरूवरूवं, तुण्डमुण्डनमिति यिचिन्स्य प्रतिगमनं कुर्यात् , यत एवमतो यानया दात पम् , यतनया च दीयमानं यदिशातं भवति प्राणेज भत्तं अणुवट्ठियस्स । तदा वक्ष्यमाणैव वा तैरनुलोममा प्रहापना तथा कर्तव्या सेहाऽऽदि पुच्छेज जदा तु थेरे, Page #1647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६२४) भोयण अभिधानराजेन्द्रः। भोयण तदा ण वारेंति णमा-गुरूगा ।। ४४०॥ इदानीमेनामेव गाथां भाष्यकृत्प्रतिपदं व्याख्यानयति, बिरूपं मोदकशाकवर्तिशाल्योदनप्रभृतिकमुत्कृष्टं भक्रमनु तत्राऽऽधावयवं व्याचिस्यासुराह-- पस्थितस्य शैक्षस्यायाऽऽनयेयुः, स च तैर्निमन्त्रितो यदा पत्थि कुहाऍ सरिसया, वियणा भुजेज तप्पसमबट्ठा। स्थविरानाचार्यान् पृच्छत्-गृहाम्यहमिदं, न वेति, तदा छाओ वेयावच्चं, ण तरइ काउं अमओ भुंजे ॥ ५७६ ।। गुरवो (णमिति) तं शैक्षं न वारयन्ति । कुत इत्याहचत्वारो गुरुकाः प्रायश्चितं भवेत् । नास्ति बुधः सरशी वेदना, अतो भुञ्जीत तत्पशमनार्थ, किमर्थं पुनर्भवायान्त इत्याह भुक्षितः वैयावृत्यं कर्तुं न शक्नोत्यतः भुक्ने । लोलुव सिणेहतो वा, अमहमावो व तस्स वा तेसिं । इरियं ण वि सोहेई, पेहाईयं च संजमं काउं । गिएहह तुज्झवि बहुं,पुरिमडी णिबिगितिए मो।४४६। थामो वा परिहायह, गुणणुप्पहासु य असत्तो ॥६८०॥ लोलुपतया, स्वशातिस्नेहतो वा तद् भक्तं भोक्नुमभिलषेत्, पथिकां बुभुक्षितो न शोधयति यतोऽतस्तच्छोधसतो यदि वार्यते तदा तस्य शैक्षस्य तेषां च स्वशातिकानाम- नार्थ भुक्ने, तथा (पहाईयं वत्ति) 'पेहपमजण' इत्यादिकं न्यथाभावो विपरिणमनं भवेत् । प्रज्ञातकश्च यदि साधूनां म- संयम बुभुक्षितः कर्तुं न शक्नोति यतोऽतो भुरके, थामो वा' स्त्रयते बहेतमतमतो यूयमपि गृहीत, ततो वक्तव्यम्-(मो प्राणस्तस्य परिहाणिर्भवति, यदि न भुक्ने अतस्तदर्थ भुइति ) वयं पूर्वार्द्धप्रत्याख्यायिनो निर्विकृतिकाश्च । .. छक्के । तथा गुणनं पूर्वपठितस्य , अनुपेक्षा चिन्तनं प्रअथ ते स्वज्ञातिका प्रवीरन् थार्थयोः, एतदसौ कत्तुमसमर्थः सन् भुक्त। मंदखेण ण इच्छति, तुज्झे से देह वेह वा तुज्झे। अहव ण कुजाऽऽहारं, छहिं ठाणेहि संजए । किंवा वारेमु वयं, गिराहतु छदेण तो विति ।। ४५० ।। पच्छा पच्छिमकालम्भि, काउ अप्पक्खमं खमं ॥४८॥ एष युष्माभिरननुक्षातो मन्दाक्षेण लज्जया न ग्रहीतुमिच्छ. अथवा न कुर्यादेवाऽऽहारमेभिः षडभिः स्थानैर्वक्ष्यमाणलति,ततो यूयं तस्य प्रयच्छत,ब्रूत वा यूयं गृहाणेति । तत्र बुव- क्षणैः । तत्र नियुक्तिकार एव षष्ठं पदं व्याख्यानयनाह-(पवे-किं वयं वारयामो, गृह्णातु स्वयमेव छन्देन यदि रोचते। च्छा पच्छिमकालम्मि) पश्चिमकाले संलेखनाकाले आत्मअथ 'ककखडे व महड्डीए त्ति' पदद्वयं व्याख्याति- क्षमाम्-आत्महिता, क्षमा शान्तिमुपशमं कृत्वा ततः पश्चात् शरीरपरिकानन्तरं सर्वाऽऽहारं मुश्चति । वीसु वोमे घेत्तुं, दिति व से संथरे व उज्झति । इदानीं भाष्यकार एवैतानि षट् स्थानानि प्रदर्शयमाहभावितो विद्धिमंतो, दलंति जा भावितोऽसि ॥४५१॥ अवमे दुर्भिक्षे यदन्नकाऽऽदिकमनेषणीयं विष्वक् पृथग् गृ आर्यके उवसग्गे, तितिक्खया बंभचेरगुत्तीए । हीत्या शैक्षस्यार्थाय नीतं तत् तस्यैव प्रयच्छन्ति, संस्तरन्तो पाणिदया तवहउं, सरीरवोच्छेयणढाए ॥ २८२॥ वा उज्झन्ति वा, ऋद्धिमान् प्रवजितः, तं भावयन्तो भैक्षभो- पातको ज्वराऽऽदिर्वक्ष्यते,तथा उपसर्गः राजाऽऽदिजनितः, जनभावनां प्राहयन्तो यावद्भावितो न भवति तावदायेन, एतेषां तितिक्षार्थ सहनार्थ न भोक्तव्यं, तथा ब्रह्मचर्यगुप्स्यर्थ तेन वा दोषेणानेषणीयं प्रायोग्यं लब्ध्वा ददति, यद्येवं गृद्धि- चन भोक्तव्यं, तथा प्राणिदयार्थ, तपोऽर्थ शरीरव्यवच्छेदार्थ स्तत्प्रवजितं नानुवर्तयति सतश्चतुर्गुरुकम्। च न भोक्तव्यमिति । कुतः नानुवर्तयति, ततश्चतुर्गुरुकं च कुत इति चेदुच्यते- इदानी भाष्यकृत् प्रतिपदं व्याख्यानयति । तत्राऽऽद्यावयवतित्थविवड्डी य पभा-वणा य ओभावण कुलिंगीणं । ज्याचिख्यासयाऽऽहएमादी तत्थ गुणा, अकुब्बतो भारिया चतुरो ॥४५२॥ आयको जरमाई, राया समायगा व उवसग्गा। ऋद्धिमति प्रवजिते तीर्थविवृद्धिर्भवति-यदीशा श्रध्यतेषां बंभवयपालणडा, पाणदया वासमहियाई ।। २६३ ॥ सकाशे प्रवजन्ति, सतो वयं द्रमकप्रायाः किम् ?, एवं भूयांसः प्रातको ज्वराऽदिः, आदिग्रहणादन्यो व्याधिर्यत्र भोजनं न प्रवजन्ति.ततो वयं द्रमकप्रायाः किमेघ गृहवासमधिवसाम पथ्य, तदर्थ न भुलक्के । दारं । राज्ञा राजकुलधारणाऽदिरूइति बुद्ध्या भूयांसः प्रवजन्तीति भावः। प्रभावना च प्रवचनस्य पो यद्युपसर्गः कृतः, (सराणायगा वा) स्वजनो यदि उन्निभवति कुलिङ्गिनां चापभ्राजना भवति, तेषां मध्ये ईदशामृद्धि- क्रमणार्थमुपसर्ग करोति ततो भुक्त। दार। प्रावतपालमतामभावात्, एवमादयस्तत्र राजाऽऽदिप्रवजिते यतो गु- नार्थ न भुक्ने, यतो बुभुक्षितस्योन्मादो न भवति।दारं । तणा भवन्ति अतस्तस्यानुवर्तनं कुर्वतश्चत्वारो भारिका था प्राणदयाथ न भुक्त, यदि वर्षति महिका वा निमासाः प्रायश्चित्तम् । पतति । अथ द्वितीयपदमाह तवहेउ चउत्थाई, जाव छम्मासिनो तवो होइ । अद्धाणासिवनोमे, रायडुढे असंथरता उ । छटुं सरीरवोच्छे-यणदया होइ अणहारो ॥ २६४ ॥ सयमवि भ जमाणा, विसुद्धभावा अपच्छित्ता।।४५३|| | तपोऽर्थ न भुलक्के, तपश्चतुर्थाऽऽवि यावत् षण्मासाः ताअभ्याशिवावमे राजद्विष्टेऽप्यसंस्तरन्तः स्वयमप्यनेषणीय वत्तपो भवति, तदर्थ न भुरक्त । दारं। षष्ठं शरीरस्य व्यविशुद्धभावाद् भुजाना अप्रायश्चित्ता मन्तव्याः। ६०४ उ०।। बच्छेदार्थमनाहारः साधुभवतीति । Page #1648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण अभिधानराजेन्द्रः। भोयण एएहि छहि ठाणेहि, प्रणाहारो उ जो भवे । यदा तु पुनरुद्वरितं भक्तं तदा को विधिरित्यत आहधम्मं नाइक्कमे भिक्खू, झाणजोगरओ भवे ॥ ५८२॥ होज सिया उव्वरियं, तत्थ य आयंबिलाइणो होजा । एभिः पूर्वोक्तैः षभिः स्थानरनाहारो यो भवति स ध- पडिदसि य संदिट्ठो, वाहरइ तो चउत्थाई ।। ५८७ ।। में नातिकामति भिक्षुरतो ध्यानयोगरतेन भवितव्यमिति ।। भवेत् स्यात् कदाचिदुद्वरितं तत्र च साधूनां मध्ये कअथेदमत पदभिः कारणराहार आहारयितव्यः, षडभिश्च नाचिरचिटाचारला त्यो भवन्ति। प्राटिगद्गाटभकार्थिकारणैर्नाहारयितव्यः, ततः किमेतत् भोजनमपवादपदम् ? , को वा कश्चिद्भवेत्ततस्तदुद्वरितं भक्तं रत्नाधिक प्राचार्याय उच्यते-अपवादपदमेवैतत् । दर्शयति, पुनश्च प्रदर्शिते भक्ने गुरुणा च सदिष्ट उक्नः यदुतयतः आह्वयाचाम्लाऽऽदीन् साधून येन तेभ्यो दीयते, पुनश्चाऽसौ भुर्जतो आहारं, गुणोवयारं सरीरसाहारं । रत्नाधिकः सन्दिएः सन् चतुर्थाऽऽदीन् साधून व्याहरति । विहिणा जहोवइ8, संजमजोगाण वहणट्ठा ॥ ५८३ ॥ सच व्याहरनेतान्न ब्याहरतिभुजन् पाहारं , किंविशिष्टं ?-गुणोपकारं शानदर्शनचा- मोहचिगिच्छ विगिढ़, गिलाण अत्तट्ठियं च मोत्तूण । रित्रगुणानामुपकारकं , तथा शरीरस्य साधारकमाहारं भु- सेसे गंतुं भणई, पायरिया वाहरंति तुमं ।। ५८८॥ अन् विधिना प्रासैषणाविशुद्धं ' यथोपदिष्टम् ' आधाकर्माऽऽदिरहितं संयमयोगानां संयमव्यापाराणां वहनार्थ मोहचिकित्सार्थ य उपवासिकः स्थितस्तं न व्याहरति , भुगन् अपवादपदस्थ एव भुते, नान्यथा । इदानी स तथा विकृष्टतपसं साधुं न व्याहरति, विकृष्टतपश्च अष्टम इंटे सति संलि(ख)हनकल्पः कर्त्तव्यः भिक्षाभक्नविलिप्तानां मादारभ्य भवति, तस्य च कदाचिद्देवता प्रातिहार्य कपात्रकाणां संलि(ख)हनं कर्त्तव्यमित्यर्थः । रोति , अतस्तस्य न दीयते, ग्लानस्य ज्वराऽऽदिना तं च न ध्याहरति, आत्मलब्धिकं च न व्याहरति , एताननन्ततथा चाऽऽह रोदितान् साधून मुक्त्वा शेषान् गत्वा भणति, यदुत-आभत्तट्ठियावसेसो, तिलंबणा होइ संलिहणकप्पो।। चार्या ब्याहरन्ति युष्मान् । अपहुप्पत्ते अनं, छोटुं ता लंबणे ठवए ॥ ५८४ ।। तेषां च मध्ये यश्चतुर्थादिक श्राकारितः, स भुक्तानामवशेषो यः स संलिखनकल्पः कर्त्तव्यः, स चावशेषो आकएर्ग किं करोति !, इत्याहनशायते कियत्प्रमाणः?, अत श्राह-त्रिलम्बनः त्रिकबलः अपडिहणंतो आगं-तु वंदिउं भणइ सो उ आयरिए । कवलत्रयप्रमाणो भुक्नावशेषः संलिखनकल्पः कर्त्तव्यः, यदा संदिसह मुंज जं सर-इ तत्तियं सेस तस्सेव ।। ५८६ ।। तु त्रिकवलप्रमाणः संलिखनकल्पो न भवति, तदा अपर्या अनतिलक्यन गुरोराज्ञाम् आगत्य वन्दित्वा भणति तमाप्यमाणे अन्यदपि तस्मिन् पात्रके भक्त प्रक्षिप्य ततः श्रीन् चार्य, यदुत-सन्दिशत यूयम् । प्राचार्योऽपि भणति, भुञ्जीत, कवलान् स्थापयति। सोऽपि भणति-"जं सरइ तत्तियं भुंजामि" शषं यदुवरितं संदिद्दा संलिहिउं, पढम कप्पं करेति कलुसेणं । तत्तस्यैव यस्य सत्कः प्रतिग्रहकः, पुनश्च स एव परिष्ठातं पाउं मुहमासे, विइअच्छदवस्स गिएहति ॥५८शा पयतीति। संविष्टाः भुक्ताः सन्तः संलिह्य पात्रकाणि पुनश्च प्रथम अभणंतस्स उ तस्से-व सेसो होइ सो विवेगो उ। कल्पं ददति कलुषोदकेन, पुनश्च तत्पीत्वा (मुहमासो ति ) भणियो तस्स उ गुरुणा, एसुवएसो पवयणस्स ।५१०॥ मुखस्य परामर्शः प्रमार्जनं कुर्वन्तीति, पुनश्च द्वितीयकल्पा अथाऽसौ साधुरेवं न भणति-यदुत "जं सरति तत्तियं" थेमच्छस्य द्रवस्य ग्रहणं कुर्वन्तीति । गृहीत्वा च क ततस्तस्य एवमभणतः तस्यैव यत् शेषं भक्तमुद्वरितं तद्भवल्पार्थमच्छद्रवं मण्डल्या उत्थाय बहिः पात्रकप्रक्षालनार्थ ति, स एव विवेचकः परिष्ठापक इत्यर्थः, भणिते तु एवं "यागच्छन्ति । वयं सह तावइयं सरामि त्ति ।" ततस्तस्यैव साधोर्यस्य दाऊण बितियकप्पं, बहिया मज्झट्रिो उदवहारी। सत्कः पतदग्रहकस्तस्यैव गुरुणा पतग्रहकः समर्पयि तव्यः पुनः स एव कल्पं ददाति । अयं प्रवचनस्य पूर्वोक्त तो देइ तइयकप्पं, दोण्हं दोण्हं तु आयमणं।। ५८६ ॥ उपदेशः। तत्र दत्त्वा द्वितीयकल्पं बाह्यतः पात्रकप्रक्षालनभूमी, ते भुत्तम्मि पढमकप्प, करेमि तस्सव देंति तं पायं । च मण्डल्याकारेण तत्रापविशन्ति, तेषां मध्ये स्थिती जावतियंतिय भणिए, तस्सेव विगिचणे सेसं ।।५६१॥ द्रवधारी भवति, स च पात्रकप्रक्षालनं सर्वेषामेव प्रयच्छ-- तीति, ततो ददति ते साधवः पात्रकाणां तृतीयं कल्पं . अथ यदुद्वरितं तत्सर्वे भुत, ततस्तस्मिन् भुक्ते सति तस्य पुनश्च पात्रकप्रक्षालनानन्तरम्-(दोण्हं दोराहं तु आयमणं ति) पात्रकस्य प्रथमकल्पं ददाति । कृते च तस्मिन् प्रथमकल्पे द्वयोर्द्वयोः साध्वोः मात्रकेषु आचमनार्थ निलेपनार्थम् ,उदकं तस्यैव साधार्यस्य सत्कः पतग्रहकस्यैव तत्पात्रक प्रयन्तीति । पप तावदनदग्नेि भने विधिमकः । नहानि, समर्पयतीत्यर्थः । अथैनन्न व्रत, यदुन-"जावइयं Page #1649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण अभिधानराजेन्द्रः। भोयण सरा तावायं सारेमि ति।" ततः “जापतियं ति" जे भइया गिही ते पुब्बं चैव संजयट्ठा धोवेत्तु ठएज्जा, अभणिते सति तस्यैव साधोर्यः परिष्ठापनिकभोक्ता त- पंतो पच्छाकम्मं करोति, जाव संजयाण ण भोयणवेस्यैव यदुरितं शेषं तत्परित्याज्यं भवति । इदं व पू. लाताव न भुंजामो ति ओसरणा, भुतेसु संजएसु भुंबोकस्यैव व्याख्यानं द्रष्टव्यं, न तु पुनरुक्तमिति । जीहामो ति पुणो णिमजणाणिमज्जणोषणायमाणसु छकायधिराहणा , आणितं णिजंतं वा भिजेजा , किंविधं पुनः चतुर्थोपवासिकाऽऽदेः परिष्ठापनिक कल्पते ?, प्रवतं अनं पबहावेजा , साधूण था दरभुत्ते मज्जति । मत प्राह--- तत्थ अदेतस्स अंतरायदोसा, देतस्स सकजहाणी, साधूटिं विहिगहियं विहिभुत्तं, भाइरेग भत्तपाण भोसव्वं ।। घा पाणीतं होरेज, पच्छा जा तणफलपसु प्रबहडेसु घिराविहिगहिए विहिभुत्ते, एत्थ य चउरो भवे भंगा॥५१२॥ धणा वुत्ता सा इह गेहिमसे भाणियब्वा । सकजहाणीए विधिना उगमदोषाऽऽविरहितं सारासारविभागेम च यन्त्र रुट्रो भरोज-मा पुणो संजयाणं देह ति घोच्छेदो, जम्हा कृतं पात्रके तद्विधिगृहीतं , तथा विधिभुक्तं करकच्छेवे पए दोसा तम्हा गिहिमते ण भुंजियव्यं । न प्रतरच्छेदाऽऽदिना वा यदुक्तं तद्विधिभुक्तमुच्यते,तदेवंधि कारणे भुंजति । गाहाधं विधिगृहीतं विधिभुक्तं च यद्यदतिरिकं सजातं भक्त पा- वितियपदं गेलो, मसती य प्रभाविते व खेत्तम्मि । नकं वा तद्भोक्तव्यं परिष्ठापनकं कल्पते । अत आह-प्रका- असिवादी परलिंगे, परिक्खणड्डा व जतणाए॥८॥ रान्तरेण-पत्र च विधिगृहीते विधिभुक्ने च अस्मिन् पक्रये सुषेज्जट्टा गिलाणट्ठा वा गिहिमत्ता घेप्पंति, भायणस्स वा चत्वारो भगका भवन्ति । तद्यथा-"विहिगहियं विहिभुतं असती राया दिक्खितो, अभावियस्सट्ठा वा सगच्छे वा उएगो भंगयो , विहिगहियं अविहिभुत्तं धीओ भंगो , अ- घग्गहट्ठा, असिवे वा सपक्खपंताए, परलिंगकरणे घेप्पति, विहिगहियं विहिभुत्तं तहो भंगो , अविहिगहियं प्र- सेहो सहहति ण व नि तप्परिक्खणट्टा घेप्पति, जयणाए विहिभुतं चउत्थो भंगो। त्ति जहा पुव्वभणिया पच्छाकम्मादिया दोसा ण भवति इदानी भाष्यकृतिधिगृहीताविधिगृहीतयोः स्वरूपं प्रति- तहा घेप्पति । नि० चू० १२ उ० । तथोद्वाहाऽऽदिपादयन्नाह जेमनधारगृहे यथा यतीनां विहर्तुं न कल्पते, तथैव पौषधिकसत्कजेमनवारगृहे, अन्यथा घेति प्रश्ने, उत्तउग्गमदोसाइजई, अहवा बीयं जहिं जहापडियं ।। रम्-विवाहजेमनवारवत्पौषधिकजेमनवारगृहेऽपि मुनीनां इह एसो गहणविही, असुद्धपच्छायणे अविही ॥२६॥ बिहर्नु न कल्पते इति ॥ २०४॥ तथा-राविराद्धं पूपिकाऽदि उद्गमदोषाऽविभिः (ज)त्यक्तं यत् तद् विधिगृहीतम् , अथवा केषाश्चिद्रमत्रिभोजनविरतिमतां गृहिणामत्तुं न कल्पते, तथा यवस्तु मण्डकाऽऽदि यथैव यस्मिन् स्थाने पतितं भवति त- यतिजनानां तदत्तुं कल्पते, न वेति, प्रश्ने, उत्तरम्-तेषां रातथैवाऽऽस्ते, न तु स मारयति, इत्येष ग्रहणविधिः । ओघ०, बिराद्धामाऽऽद्यग्रहणं तु बहुजीविराधनासम्भवादाविप्रथगृह्यमत्रे भोजनं न कर्तव्यम् ममहरयराद्धपूपलिकाद्विदलाउदिषु पर्युषितत्वशकासम्भजे भिक्खू गिहिमते भुंजइ, मुंजंतं वा साइजइ ॥१४॥ षाच्च, न तु राविराज्ञानग्रहणे रात्रिभोजनविरतिभा - गिहिमत्तो घंटिकरगादि, तत्थ जो असणादी भुजति त. ति, यतिभिस्तु पर्युषितत्वसम्भावनायां तत्र प्राह्यम्, अन्यस्स चउलहूं। था तु यथाषसरं प्रहणीयं, तेषां परार्थकतानमाहित्येन घिगाहा-- राधनाया अभावाविति ॥ २०५॥ प्र० । सेन० २ उल्ला० । जे भिक्खू गिहिमत्ते, तसथावरजीवदेहणिप्फामे । भोयणमो-भोजनतस्-अव्य० । भोजनीयवस्वाभिस्येत्यर्थे , भुजेजा असणादी, सो पावति प्राणमादीणि || ७७॥ उक्त० १ ० । सो गिहमतो दुविधो-थावरजीवदेहनिप्फनो वा, तस- भाजणकहा-भाजनकथा-खा० । भक्तकथायाम् , जीवदेहनिफनो वा। सेसं कंटं। तत्कथाते य इमे “अहो क्षीरस्यानं मधुरमधुरमावण्यखण्डान्धितं वेत् सव्वे वि लोहपाया, दंते सिंगे य पकभोमे य । रसः श्रेष्ठो दम्रो मुखसुखकरं व्यअनेभ्यः किमन्यत् । न पक्वान्नादन्यद्रमयति मनः स्वादुताम्बूलमेकंएते तसणिप्फमा, दारुगतुंवाइया इतरे ।। ७८ ॥ परित्याज्याः प्राहरशनविषयाः सर्वदेवेति वार्सा ॥ ३४॥" सुषन्नरयततंबकंसादिया सव्वे लोहपाया हस्थिदंतमया म. ध०र०१ अधि० १३ गुण । हिसाविसिंगहि पा कयं कवेल्लियादि वा पकभोमं, एतं भोयणपडिकूलया-भोजनप्रतिकलता-स्त्री० । प्रकृस्यनुचितंसव्वं तसणिप्फरणे, (इतर त्ति) थावरणिप्फरणं तं दारुय भोजनतायाम् , स्था० ६ ठा० । तुबडिय भन्नड, मणिमयं या, एतेहिं जो भुजति तस्स चउलहूं, प्राणादिया इमे दोसा। भोयणपरिणाम-भोजनपरिणाम-पुं०। बुभुक्षायाम् , स्था० गाहा ५ ठा० २ उ० । माहारविशेषस्य स्वभावे, स्था० । पुब्बि पच्छा कम्मे, भोसक हिसकणे य उक्काया। छबिहे भोयणपरिणामे परमत्ते । तं जहा-मणुने, रसिए, आगाणणयापवाहण, दरभत्ते इरिय वोच्छेदो ॥ ७॥ पीणणिजे, विहणिजे, दीवणिजे, दप्पणिजे ।। Page #1650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण (१६२७). भोयण अभिधानराजेन्द्रः। भोजनस्येत्याहारविशेषस्य परिणामः पर्यायः स्वमावो भोयणबिहि-भोजनविधि-पुं०। भोजनप्रकारे, उपा०१०। धर्म इति यावत् । तत्र [मणुसे त्ति मनोशमभिलषणीयं भोज- ('आणंद ' शब्दे द्वितीयभागे १०६ पृष्ठे सूत्रम्) नमित्येकस्तत्परिणामः, परिणामवता सहाभेदोपचारात्, तथा-रसिकं माधुर्याऽऽयुपेतं, तथा प्रीणनीयं रसाऽऽविधात- भोयय-भोजक-पुं० । भोक्तरि, भर्तरि च । १० १३०३. समताकारि, हणीयं धातूपचयकारि, दीपनीयम् अग्निबल- प्रक०। जनकम् । पाठान्तरे तु-मदनीयं मदनोदयकारि, दर्पणीयं भोल-देशी-सरलचित्ते, “वासुपुजस्स यतित्थे, भोला काबलकरमुत्साहवृद्धिकरमिस्यन्य इति । अथवा-भोजनस्य परिणामो विपाका, स च मनोशः शुभत्वाम्मनोक्षमोजनस लगलुच्छषी । मेघमालिजिया प्रासी, गोयमा ! मणदुव्यला म्बन्धित्वावत्येवमन्येऽपि । स्था० ६ ठा० । ॥१॥" महा०६०। REATREEEEEEEEEEEEEEEEEEEECREEEE 4 ARTY इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पश्रीमद्भट्टारक-जैन श्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री १००७ श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'श्रनिधानराजेन्द्रे' भकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् ॥ तत्समाप्तौ च॥ समाप्तश्चायं पञ्चमो नागः ॥ 888888888888888888888888 FORP999999922NMARRIORPORN94888888888984-82%A9R89%9888888 8888888%ERENCES SAR REACS au NA Page #1651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #1652 -------------------------------------------------------------------------- ________________