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माओ! संस्कृत सीखें !
भाग 2
लेखकः पं. शिवलालभाई नेमचंद शाह
भावानुवाद-संपादकः आचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेन सूरिजी म.
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चैत्यवन्दन सूत्र विवेचना
आवक प्रतिकमाया
कर्मन की गत न्यारी
विपुल
अलोचनासत्रविवेचना
सामाविक-युष विवेचना
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महाभारत
सातJAIP
Rolibd
Rulbar अमृत बेरस
मुनिश्रीरलसेन विजयी
14
यवासंदेश
संस्कृति का अमर संदेश
सस्कृति का नर संदेश
हिन्दी साहित्यकार पू. पन्यासप्रवर श्री रत्नसेन विजयजी म.सा.का अनमोल साहित्य वैभव
आताऔर पानी
-दिव्य संदेश
शत्रुजय-यात्रा
सवाल आपके जवाब हमारे
HOW TO UVE TRUE LIFE
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38
कसैजलम
मत्रा महोत्तमय
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दिव्यासंदेश
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50
52
PANCH PRATIKRAMAN
SOOTRA
मावा का
मिच्छामि दुयकडम्
दिव्य-संदेश
Paryanslatkananmvpradam
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यान नंदघन चौवीसी
मानवता
तबमहक उठग
सब विजयजी म.
मुबिशीरत्व पेना विजयाजीम
महाभारत
समी एका मोदी
दिव्यसंदेश
THE UGHT OF
भाव प्रदर्शन की प्यासी
बात आसुधी मोती बन जाती
चेतना विशपाय
HUMANITY
निश्री रत्नसेन विजयजी म.
19
20
आवक जीवन दर्शन
TE MESSAGE FOR THE YOUTH
दिव्यसंटे
आनन्दमशीय
आताऔरपाना
अक्ति
आओ। प्रतिक्रमण करे
अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेव
आओ श्रावक बने ।
मारलता
नापन पनवन
melan कहानियाँ
पैववंदन तपमाला
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माधान
प्रवचवाल
भगवान महाव
शका
धरती तीरण
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| आओ ! संस्कृत सीखें !!
(हैम-संस्कृत-प्रवेशिका भाग - II)
| -: लेखक :पंडितवर्य श्री शिवलाल नेमचंद शाह
145
-: हिन्दी अनुवादक - संपादक :जैन शासन के महान ज्योतिर्धर, परमशासन प्रभावक, व्याख्यान वाचस्पति पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद्विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के तेजस्वी शिष्यरत्न अध्यात्मयोगी, नि:स्पृह शिरोमणि प्रशांतमूर्ति पूज्यपाद पंन्यासप्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य के कृपापात्र प्रवचन प्रभावक मरुधर रत्न पूज्यपाद पंन्यासप्रवर श्री रत्नसेनविजयजी गणिवर्य
-: प्रकाशक :दिव्य संदेश प्रकाशनः
C/o. सुरेन्द्र जैन 44, कोलभाट लेन, ऑफिस नं. 5,
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आवृत्ति-प्रथम • मूल्य : 95/- रुपये विमोचन: 20-1-2011,गुरुवार थाणा आचार्य पद प्रदान दिन
आजीवन सदस्य योजना
प्राप्ति स्थान आजीवन सदस्यता शुल्क - 2500/-रु. 1. चंदन एजेंसी M. 9820303451 आप जैन धर्म के रहस्य - जैन
607, चीरा बाजार, ग्राउंड फ्लोर, इतिहास - जैन तत्त्वज्ञान - जैन
मुंबई - 400 002.
OR.: 2206 06740.2205 6821 आचार मार्ग, प्रेरणादायी कथाएँ आदि का अध्ययन करना चाहते हों 2.
प्रकाश बडोल्ला तो आज ही आप दिव्य संदेश 3, 3rd Cross, Shankarmart Road, प्रकाशन मुम्बई की आजीवन
Shankarpura, Banglore-560 004.
Karnataka, M.: 9448277435 सदस्यता प्राप्त कर लें । आजीवन 0.:41247472 सदस्यों को अध्यात्मयोगी नि:स्पृह शिरोमणि स्व. पूज्यपाद पंन्यासप्रवर 3. चेतन हसमुखलालजी मेहता श्री भद्रंकर विजयजी गणिवर्यश्री एवं पवनकुंज, 303, A Wing, उन्हीं के चरम शिष्यरत्न प्रवचन
नाकोड़ा हॉस्पिटल के पास, प्रभावक पू. पंन्यासश्री रत्नसेन
भायंदर-401 101.028140706
M. 9867058940 विजयजी म. सा. का उपलब्ध हिन्दी साहित्य, प्रतिमास प्रकाशित अर्हद्
4. राहुल बैद दिव्य संदेश एवं भविष्य में प्रकाशित
Clo. अरिहंत मेटल को., हिन्दी साहित्य घर बैठे
4403, गली लोटन, जारवाडी,सदर बाजार पहुँचाया जाएगा । आप मुंबई या
पहाड़ी-धीरज दिल्ली-110 006. बेंगलोर के पते पर दिव्य संदेश
M. 9810353108 प्रकाशन-मुंबई के नाम से चेक, ड्राफ्ट से रकम भर सकोगे।
5. मुनिसुव्रत स्वामी जैन मित्र मंडल
Shop No.8, सालासर प्लाजा, है आजीवन सदस्यता शुल्क
बावन जिनालय के पीछे, Rs. 2500/- भिजवाने का पता
60 Feet Road, भायंदर, एवं पुस्तक प्राप्ति स्थान जि.ठाणा-401 101.
Clo. धर्मेश रांका M. 98202 01534 दिव्य संदेश प्रकाशन C/o. सुरेन्द्र जैन,
6. श्री आदिनाथ जैन श्वेतांबर संघ 47, कोलभाट लेन, ऑ. नं. 5,
श्री सुरेशगुरुजी M.: 9844104021 डॉ. एम.बी. वेल्कर लेन,
नं.4, Old No. 38, ग्राउंड फ्लोर, मुंबई-400 002. ग्राउन फलोर,रंगराव रोड,शंकरपुरम 0 2203 45 29 Mob.: 98920 69330 बेंगलोर-560004 (र्कनाटक)
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प्रकाशक की कलम से..
जैन शासन के महान ज्योतिर्धर परम शासन प्रभावक सुविशाल गच्छ नायक दीक्षा के दानवीर स्व. पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के तेजस्वी शिष्यरत्न अध्यात्मयोगी, नि:स्पृह शिरोमणि, बीसवीं सदी के महान योगी, नवकार साधक पूज्यपाद पंन्यासप्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य के चरम शिष्यरत्न, प्रवचन-प्रभावक, मरुधररत्न पूज्यपाद पंन्यासप्रवर श्री रत्नसेन विजयजी म.सा. के आचार्य पद प्रदान महोत्सव के पावन प्रसंग पर पंडितवर्य श्री शिवलालभाई द्वारा आलेखित एवं पूज्य पंन्यासजी म.सा. द्वारा हिन्दी भाषा में अनुदित एवं संपादित 'आओ! संस्कृत सीखें' भाग-I एवं भाग-II का प्रकाशन करते हुए हमें अत्यंत ही हर्ष हो रहा है।
पूज्य श्री हिन्दी भाषा के प्रभावक प्रवचनकार एवं हिन्दी साहित्यकार है। आज तक उनके द्वारा आलेखित 143 पुस्तके प्रकाशित हो चूकी है।
प्रस्तुत पुस्तक का भी सरल-सुंदर हिन्दीकरण एवं संपादन पूज्यश्री ने अथक श्रम से किया है।
- स्व. पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.के वर्तमान में विद्यमान ज्येष्ठ पूज्यों के निर्णयानुसार एवं नि:स्पृहमूर्ति पूज्य पंन्यासप्रवर श्री वज्रसेनविजयजी म.सा. के शुभाशीर्वाद से शासन प्रभावक, खिवांदीरत्न पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय कनकशेखरसूरीश्वरजी म.सा. के वरद हस्तों से पूज्य पंन्यासजी म. को पोष कृष्णा एकम् संवत् 2067 दिनांक 20 जनवरी 2011 गुरुवार के शुभ दिन गुरुपुष्यामृत सिद्धियोग की मंगल बेला में वर्तमान में जैन शासन सर्वोच्च पद अर्थात् आचार्यपद पर प्रतिष्ठित किया जा रहा हैं, यह हमारे लिए खूब गर्व और गौरव की बात है।
मुंबई की धन्यधरा, कोंकण शत्रुजय - ‘थाणा' नगर में 58 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद में आचार्य पद प्रदान महोत्सव का सुअवसर हाथ में आया है।
इस महामंगलकारी महोत्सव प्रसंग में पूजा, पूजन, गौतमस्वामी संवेदना, नवकार जाप अनुष्ठान, श्रुतवंदना तथा जिन मंदिर शणगार, महापूजा के साथ में
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ही पूज्यश्री द्वारा आलेखित संपादित एक साथ में पांच पुस्तकों का भव्य विमोचन भी होने जा रहा है। ऐसे पावन-प्रसंग दुर्लभता से ही प्राप्त होते है। वे कुशल प्रवचनकार और अवतरणकार भी हैं। सामायिक सूत्र, चैत्यवंदन सूत्र, आलोचना सूत्र, श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र, आनंदघन चौबीसी, आनंदघनजी के पद, पू. यशोविजयजी म. की चौबीसी आदि के ऊपर उन्होंने खूब सुंदर व सरलशैली में विवेचन भी किया है।
वे कुशल प्रवचनकार और अवतरणकार भी हैं। जैन रामायण और महाभारत पर दिए गए उनके जाहिर प्रवचनों का उन्होंने स्वयं ने आलेखन भी किया है।
वे कुशल भावानुवादक हैं-शांत सुधारस, श्राद्धविधि, गुणस्थानक क्रमारोह, प्रथम कर्मग्रंथ जैसे प्राचीन ग्रंथों का उन्होंने सरस भावानुवाद व विवेचन भी किया है।
5 वे प्रभावक कथा-आलेखक भी हैं-कर्मन् की गत न्यारी (महाबलमलयासुंदरी चरित्र) आग और पानी (समरादित्य चरित्र) कर्म को नहीं शर्म (भीमसेन चरित्र) तब आँसू भी मोती बन जाते हैं। (सागरदत्त चरित्र) कर्म नचाए नाच (तरंगवती चरित्र) जैसे अनेक चरित्र ग्रंथों का धारावाहिक कहानी का उपन्यास शैली में आलेखन भी किया है।
वे प्रसिद्ध चिंतक भी हैं। प्रवचन मोती, प्रवचन रत्न, चिंतन मोती, प्रवचन के बिखरे फूल, अमृत की बूंदें, युवा चेतना जैसे प्रकाशनों में उनके हृदयस्पर्शी चिंतन भी प्रस्तुत हुए हैं। __वे कुशल प्रवचनकार भी हैं-सफलता की सीढ़ियाँ, श्रावक कर्तव्य, नृवपद प्रवचन, प्रवचन-धारा, आनंद की शोध में, उनके प्रवचनों के सुंदर संकलन हैं।
वे प्रसिद्ध कहानीकार भी हैं, प्रिय कहानियाँ, मनोहर कहानियाँ, ऐतिहासिक कहानियाँ, मधुर-कहानियाँ, प्रेरक कहानियाँ आदि में उन्होंने अत्यंत ही सुंदर हृदयस्पर्शी कहानियों का आलेखन किया है।
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जैन शासन के ज्योतिर्धर, महान् ज्योतिर्धर, तेजस्वी सितारे, गौतमस्वामीजंबुस्वामी आदि में उन्होंने जैन शासन के महान् प्रभावक पुरुषों के जीवन चरित्रों का सुंदर आलेखन भी किया है।
वे कुशल संपादक भी है-युवाचेतना विशेषांक, जीवन निर्माण विशेषांक. आहार विज्ञान विशेषांक, श्रावकाचार विशेषांक, श्रमणाचार विशेषांक, सन्नारी विशेषांक, राजस्थान तीर्थ विशेषांक जैसे अनेक विशेषांकों का सफल संपादन भी किया है।
पूज्य श्री द्वारा आलेखित हिन्दी साहित्य अनेकों को सन्मार्ग की राह बता
रहा है।
संस्कृत तो हमारी मातृभाषा थी। जैनो का अधिकांश साहित्य संस्कृत भाषा में ही है।
कलिकाल का प्रभाव समझो या हमारा पापोदय समझो, जिस संस्कृति में माता और मातृभाषा की खूब खूब महिमा थी, आज उसी देश में उनकी ही घोर उपेक्षा हो रही है।
पूज्यश्री के दिल में यह वेदना है। इसीलिए वे प्रवचन और लेखनी के माध्यम से माँ और मातृभाषा की महिमा समझाते है ।
प्रस्तुत पुस्तक उन लोगों के लिए वरदान स्वरुप सिद्ध होगी, जिनके अन्तर्मन में जैन धर्म के गहन रहस्यों को जानने की तीव्र जिज्ञासा है।
संस्कृत भाषा को जानने-समझने वाला व्यक्ति जैन साहित्य का सरलता से बोध प्राप्त कर सकता है।
बस, प्रस्तुत पुस्तक का सदुपयोग कर सभी संस्कृत भाषाविद् बने और उस भाषा में उपलब्ध जैन साहित्य का गहन अध्ययन कर जैन धर्म के मर्म को अपने जीवन में उतारकर अपना आत्म कल्याण करें, इसी शुभ कामनाओं के साथ !
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लेखक की कलम से...
भारतवर्ष की और अपेक्षा से संपूर्ण जगत् की देशभाषा भिन्न भिन्न स्वरूपवाली प्राकृत भाषा रही है । शास्त्रीय रीति से विविध विज्ञानों को प्रस्तुत करने की भाषा, संपूर्ण देश में संस्कृत भाषा रही है, इस कारण यह भाषा विश्व की विशिष्ट भाषा हैं।
भारत देश की महान आर्य प्रजा के आध्यात्मिक महा संस्कृति के आदर्श पर 7 विरचित मानव जीवन के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग संबंधी गंभीर परिभाषाएँ प्राकृत और संस्कृत भाषा के शब्दकोश में संगृहीत हैं ।
जिस प्रकार संस्कृत भाषा का साहित्य विपुल प्रमाण में है, उसी प्रकार मानव हृदय पर उसका प्रभाव भी अत्यंत तेजस्वी है । मानव हृदय की भक्ति का प्रवाह उस ओर सदैव बहता रहा है । ___ मानव बुद्धि को ग्राह्य ऐसा कोई विषय नहीं है, जिससे संबंधित वाङ्मय इस भाषा में न हो ।
+ शिल्प, ज्योतिष, संगीत, वैद्यक, निमित्त, इतिहास, नीति, धर्म, अर्थ, L तत्त्वज्ञान, व्यवहार और अध्यात्म आदि संबंधी विविध कर्तृक अनेक ग्रंथ इस न भाषा में हैं और आज भी विपुल प्रमाण में उपलब्ध हैं।
। दैनिक जीवन से संबंध रखनेवाले विषय, प्राचीन साहित्य-संशोधन, प्राचीन . र शोध, भाषा विज्ञान, तुलनात्मक भाषा शास्त्र आदि के अभ्यास के लिए इस भाषा 0 २. के अभ्यास की आवश्यकता आज भी रही है ।
- प्राकृत और संस्कृत भाषाएँ भारतीय संस्कृति का प्राण ही हैं, इतना ही नहीं,
गहनता से विचार करें तो 'विश्व के सभी मनुष्य-जीवन का भी यह प्राण है' - D* यह कहना अधिक उचित और सत्य है।
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उत्तर और पूर्व भारत में संस्कृत भाषा का प्रभुत्व मध्य भारत और मालव देश में फैलने के बाद पिछले हजार वर्ष में गुजरात प्रदेश में भी खूब समृद्धि को बढ़ाता है।
कलिकालसर्वज्ञ महान् जैनाचार्य श्री हेमचंद्राचार्यजी के समय से तो सागर में आनेवाले ज्वार की तरह संस्कृत के शिष्ट साहित्य की रचना में भी ज्वार आता है, उस समय सोलंकी का राज्यकाल था।
सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन नाम के प्रसिद्ध व्याकरण की रचना भी उसी काल में गुजरेश्वर सिद्धराज जयसिंह की विनंति से गुजरात के प्राचीन पाटनगर । पाटण में हुई थी।
संस्कृत, प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पिशाची, अपभ्रंश इन छह: भाषाओं के नियमों से भरपूर अष्टाध्यायीमय तत्व प्रकाशिका प्रकाश महापर्व न्यास के साथ एक ही वर्ष में अकेले कलिकालसर्वज्ञ प्रभु ने वह महा व्याकरण तैयार किया था ।
विश्व वाङ्मय के अलंकारतुल्य उस महाव्याकरण को सिद्धराज जयसिंह महाराजा ने अपने पाटनगर पाटण (अणहिलपुर) में राज्य के ज्ञान कोशागार में बहुमानपूर्वक स्थापित किया था ।
चालू अभ्यासक्रम में उस महाव्याकरण को प्रवेश कराने के लिए उसकी अनेक नकलें तैयार कराई थीं और अन्य भी अनेक योजनाएँ प्रचार में रखी थीं । काकल और कायस्थ अध्यापक ने उसका अभ्यास कराने में अथक परिश्रम किया था । उस व्याकरण के अभ्यास से गुजरात और दूर दूर की भूमि गर्जना कर रही थी।
काल के प्रवाह के साथ गुजरात ऊपर अनेक आक्रमण हुए । संस्कृतभाषा के अभ्यास में मंदता आने पर भी उसका प्रभाव प्रबल था । उसका वही
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such as
आकर्षण था ।
धीरे धीरे उसके पठन-पाठन में पुनः वेग आया है । वर्तमान में अनेक त्यागी व गृहस्थी, अनेक अभ्यासी उसका अभ्यास कर रहे हैं । 6 संस्कृत भाषा के अभ्यासी विद्यार्थी उस महाव्याकरण में सरलता से प्रवेश कर सकें और अल्प समय में ही संस्कृत भाषा का अच्छा अभ्यास कर सकें, इसके लिए व्याकरण को लक्ष्य में रखकर सरल व रसमय प्रवेशिकाएँ लिखने का विचार मन में आया करता था।
- मैंने अनेक अभ्यासी जैन मुनियों और अन्य विद्वानों के आगे अपनी भावना व्यक्त की, उनकी हार्दिक प्रेरणा और मेरे उत्साह के फलस्वरूप जो फल प्राप्त हुआ है, इसे आप सभी के हाथों में रखते हुए आनंद अनुभव करता हूँ। 50 परम पूज्य परम तपस्वी शांत महात्मा पंन्यासप्रवर श्री श्री 1008 श्री कांतिविजयजी म.सा. की असाधारण कृपादृष्टि, पंडितश्री प्रभुदास बेचरदास . पारेख का संस्कारिक मार्गदर्शन, पंडितजी श्री वर्षानंद धर्मदत्तजी मिश्र की व्याकरण संबंधी स्खलनाओं के आगे लालबत्ती धरने की तत्परता आदि तत्त्वों का मैं ऋणी हूँ।
विद्यार्थी, अध्यापक और विद्वानों की नजर में जहाँ कहीं स्खलनाएँ नजर । में आए, इस संबंधी सूचनाएँ, सहृदय भाव से अवश्य सूचित करेंगे, इसी आशा के साथ विराम लेता हूँ। पाटण (अणहिलपुर)
शिवलाल नेमचंद शाह (उत्तर गुजरात)
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गुरूवंदना
जिनशासन के महान् ज्योतिर्धर स्व पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी म.
।
अध्यात्मयोगी पूज्यपाद पंन्यासप्रवर श्री भद्रकरविजयजीगणिवर्य म.
प्रभावक प्रवचनकार आचार्य श्रीमद् विजयरत्नसेन सूरिजी म.
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पंडित शिवलाल नेमचंद शाह
पाटण ( उ.गु.)
प्रकाशन - सहयोगी - माणेकचंदजी सरेमलजी कोठारी - भिनमाल - एन.बी. शाह जवेरचंदजी नथमलजी - कोसेलाव (भायखला) - श्रीमती धाकुबाई मिश्रीमलजी सुंदेशा मुथा-रोहा (बिजोवा निवासी) - स्व. पारसमलजी जीवराजजी खीचा - थाणा (आउवा-देवली निवासी) - अ.सौ. निशाबेन राजेशभाई शाह - वालकेश्वर
(सोनम-सेल, कुणाल) - शा.रतनचंदजी केसरीमलजी-भायखला (तखतगढ निवासी)
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शुभ कामना लेखक : पूर्वदेश कल्याणकतीर्थोद्धारक पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद्विजय मुक्तिप्रभसूरीश्वरजी म.सा.
कलिकाल सर्वज्ञ आचार्यप्रवर श्री हेमचन्द्रसूरिजी महाराजा ने श्री सिद्धहेम व्याकरण का निर्माण किया। जो महाग्रंथ ६ हजार गाथा प्रमाण है। टीका के साथ अठारह हजार गाथा प्रमाण भी होता है।
कहा जाता है कि चौलुक्य चूडामणि महाराजा कुमारपाल ने छ हजार श्लोक प्रमाण सिद्धहेम व्याकरण को कण्ठस्थ किया था एवं व्याकरण संशुद्ध संस्कृतभाषामय साधारण जिन स्तवन की इतनी सुंदर रचना की थी कि जो रचना आज जैनशासन के बड़े बड़े विद्वान
आचार्य के श्रीमुख से भी सुनने को मिलती है। | व्याकरण सीखे बिना संस्कृत भाषा पर प्रभुत्व पाना मुश्किल है लेकिन सभी की यह ताकत नहीं होती है कि वे व्याकरण कण्ठस्थ कर संस्कृत भाषा में निष्णात बन सके। संस्कृतप्रेमी विद्यार्थियों के लिये अणहिलपुर (पाटण) निवासी विद्वान पंडित श्री शिवलाल नेमचंद शाह ने व्याकरण के अति उपयोगी नियमों को गुजराती भाषा में परावर्तित कर हैम संस्कृत प्रवेशिका नामक अध्ययन बुक बनायी जिस के तीन भाग है प्रथमा, मध्यमा एवं उत्तमा । | संस्कृत भाषा के अध्ययन के लिये पहले भांडारकर की टेक्सबुकों का उपयोग होता था, आज पूरे जैन समाज में साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका एवं मुमुक्षुगण पं. शिवलाल की बुक का उपयोग करते है। __लेकिन जो साधु-साध्वी या मुमुक्षु हिन्दीभाषी होते है उनको गुजराती बुक को पढ़ना बहुत ही मुश्किल होता था । इस बात का अनुभव आज तक बहुत से विद्यार्थियों को बहुत बार हो चुका था फिर भी इस दिशा में निर्णयात्मक कदम उठाने की पहल आज तक किसी
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ने नहीं की थी जो पहल पंन्यासजी श्री रत्नंसेन विजयजी ने की है।
बाते करना आसान है, कार्य करना आसान नही है । परंतु संकल्पित कार्य के प्रति उत्साह उत्स्फूर्त चेतना व अप्रमादभाव पंन्यासजी म. का दूसरा पर्याय है। अतः वे कोई भी कार्य उठाने के बाद पूर्ण कर के ही रहते है ।
अपने पास पढ़ने के लिये आये हुए एक हिन्दीभाषी जिज्ञासु की वेदना को अपनी संवेदना का स्वरुप देकर पंन्यासजी म. ने हैम संस्कृत प्रवेशिका को हिन्दी में रुपान्तरित करने का जो प्रयत्न किया वह अत्यन्त सराहनीय एवं सहज अनुमोदनीय है।
संस्कृत अध्ययन का अभिलाषी अगर हिन्दीभाषी है तो उसके लिये ये हिन्दी है संस्कृत प्रवेशिकाएँ नितान्त आशीर्वाद रुप बन पाएगी ।
संस्कृत भाषा ही एक सर्वांगसुंदर भाषा है। या सरस्वती जिस के उपर प्रसन्न हो, वही यह भाषा सीखने में समर्थ बन पाता है ।
साधु-साध्वी एवं मुमुक्षु आत्माएं इस पुस्तक के माध्यम से संस्कृतज्ञ बनकर अपनी अपनी योग्यता के अनुसार शास्त्र ग्रंथों का ज्ञान प्राप्त कर आत्मविकास की दिशा में आगे बढ़ें यही शुभकामना
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विजयमुक्तिप्रभसूर
मनमोहन पार्श्वनाथ जैन मंदिर टिंबर मार्केट, पूना - ४२
दि. १५-१०-२०१०
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संपादक की कलम से.... संस्कृत भाषा ज्ञान की आवश्यकता
- पूज्य पंन्यास श्री रत्नसेनविजयजी म. तारक तीर्थंकर परमात्मा जगत् के जीवों के कल्याण के लिए धर्मोपदेश देते हैं। वास्तविक मोक्षमार्ग दिखलाकर परमात्मा जगत् के जीवों पर जो महान् उपकार करते हैं, उसकी तुलना अन्य किसी से नहीं की जा सकती है।
भूखे को भोजन देने से, प्यासे को पानी पिलाने से, वस्त्र रहित को वस्त्र देने से उपकार अवश्य होता है, परंतु वह उपकार क्षणिक और अस्थायी है। क्योंकि भूखे को भोजन देने से उसकी भूख अवश्य शांत होती है, परंतु कुछ देर के लिए । १०-१२ घंटे का समय बीतने पर भूख की पीड़ा पुनः जागृत हो जाती है। परंतु तारक परमात्मा जो मोक्षमार्ग बताते हैं, उसकी विशेषता यह है कि वहाँ सभी समस्याओं का सदा के लिए अंत हो जाता है। वहाँ सदा के लिए भूख की पीड़ा शांत हो जाती है।
जहाँ समस्याओं का पार नहीं, उसी का नाम संसार है और जहाँ समस्याओं का नामोनिशान नहीं, उसी का नाम मोक्ष है।
अरिहंत परमात्मा ने जो मोक्षमार्ग बताया उसी मार्ग को गणधर भगवंत सूत्र के रूप में गूंथते हैं, जिसे द्वादशांगी भी कहते हैं। __ इन द्वादशांगी रूप आगमों की मुख्य भाषा अर्धमागधी अर्थात् प्राकृत है और उनके ऊपर जो टीकाएँ-विवेचन लिखे गए, उनकी भाषा मुख्यतया संस्कृत है।
सारांश यह है कि यदि आपको वीतराग परमात्मा कथित मोक्षमार्ग को जाननासमझना है तो आपको संस्कृत-प्राकृत भाषा का ज्ञात होना अनिवार्य है।
विक्रम की 17वीं - 18वीं सदी तक हुए अनेक अनेक महापुरुषों ने मोक्ष-मार्ग की आराधना-साधना हेतु जो भी ग्रंथ रचे, उनकी मुख्य भाषा संस्कृत या प्राकृत ही थी। उसके
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बाद के महापुरुषों ने गुजराती-हिन्दी आदि प्रांतीय भाषाओं में भी काव्य-ग्रंथ आदि रचे
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एक मात्र कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यजी ने संस्कृत-प्राकृत में साढे तीन करोड श्लोक प्रमाण साहित्य का नवसर्जन किया था ।
वाचकवर्य उमास्वातिजी ने 500 ग्रंथ एवं सूरिपुरंदर श्री हरिभद्रसूरिजी म. ने 1444 धर्मग्रंथों का सर्जन किया था । ___ हमारे-अपने दुर्भाग्य से उनमें से अधिकांश ग्रंथ काल-कवलित हो चुके हैं, फिर भी जो भी बचे हैं, वे भी खूब महत्त्वपूर्ण हैं - परंतु दुर्भाग्य है कि आज जैनों में से ही संस्कृत भाषा लुप्त प्राय: हो चुकी है।
मात्र जैन दर्शन ही नहीं, बौद्ध, न्याय, वेदांत, सांख्य आदि दर्शनों का भी बोध प्राप्त करना हो तो उसके लिए संस्कृत भाषा का ज्ञान बहुत जरूरी है परंतु आज संस्कृत भाषा का ज्ञान धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। ___ महापुरुषों का अमूल्य खजाना हमें विरासत में मिला है, परंतु हम उसके लाभ से सर्वथा वंचित हैं।
भोजन पास में होकर भी भूखे मर जाय या पानी पास में होने पर भी प्यासे मर जायें, ऐसी हमारी हालत है। ___ महापुरुषों ने कठोर श्रम करके, रात के उजागरे करके हमारे हित के लिए उन ग्रंथों का सर्जन किया, परंतु भाषा ज्ञान के अभाव के कारण वे सब ग्रंथ हमारे लिए काला अक्षर भैंस बराबर' ही हैं। आज जैन संघ में संस्कृत भाषा का अभ्यास मात्र साधु संस्था तक सीमित रह गया है और उसमें भी धीरे धीरे कटौती होती जा रही है। श्रावक संघ का तो उस भाषाज्ञान की ओर किसी प्रकार का लक्ष्य ही नहीं हैं।
जरा भूतकाल के इतिहास की ओर नजर करें - कुमारपाल महाराजा ने 70 वर्ष की । उम्र में भी संस्कृत व्याकरण सीखा था और संस्कृत भाषा में प्रभु-स्तुतियाँ रची थी।
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मंत्रीश्वर वस्तुपाल-तेजपाल ने भी संस्कृत भाषा सीखकर आदिनाथ आदि के चरित्र संस्कृत भाषा में रचे थे।
अपना दुर्भाग्य है कि पूर्वाचार्यों के द्वारा विरचित ग्रंथ हमारे लिए दुर्बोध होते जा रहे
हैं।
वि.सं. 2064 में मेरा चातुर्मास कल्याण में था। जोधपुर (राज.) से 16 वर्षीय जिज्ञासु अक्षय वंदनार्थ आया।
बात ही बात में मैंने उसे कहा, "जैन दर्शन के मर्म को अच्छी तरह से जाननासमझना हो तो महापुरुषों के द्वारा रचे गए संस्कृत-प्राकृत ग्रंथों का अभ्यास जरूरी है।"
उसने कहा, “मुझे संस्कृत नहीं आती है।'' मैंने कहा- “तुम्हें संस्कृत भाषा सीखनी चाहिए। संस्कृत भाषा सीख लोगे तो उन ग्रंथों का रसास्वाद न कर सकोगे।"
उसने कहा- “संस्कृत भाषा कैसे सीखू?"
मैंने कहा- संस्कृत सीखने के लिए सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासनम् पर आधारित हेम संस्कृत प्रवेशिका भाग-१-२ का अभ्यास करना चाहिए, जो गुजराती में है। उसने
कहा, “मुझे गुजराती आती नहीं है, आप हिन्दी में तैयार करें।" । मैंने कहा- “तुम्हारी भावना ध्यान में रखूगा।" उसकी भावना को ध्यान में रखकर - उन संस्कृत पुस्तकों के हिन्दी अनुवाद का कार्य प्रारंभ किया, जो आज पूर्ण हो रहा है।
_ वि.सं. 1193 में गुजरात के महाराजा सिद्धराज जयसिंह ने कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्राचार्यजी भगवंत को संस्कृत-व्याकरण रचने के लिए विनंती की थी । बुद्धिनिधान हेमचंद्रसूरिजी म. ने एक वर्ष की अल्पावधि में लघुवृत्ति, बृहवृत्ति और बृहन्यास युक्त ‘सिद्धहेम शब्दानुशासनम्' व्याकरण की रचना की थी।
18 देशों के अधिपति सम्राट् कुमारपाल महाराजा ने भी इस व्याकरण का अभ्यास कर संस्कृत भाषा पर प्रभुत्व प्राप्त किया था।
इसी व्याकरण को सरलता से समझने के लिए उपाध्याय श्री मेघविजयजी म. ने
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चंद्रप्रभा हैमकौमुदी की रचना की और पू. उपाध्याय श्री विनयविजयजी म. ने 'हैमलघुप्रक्रिया' की रचना की थी।
गुजराती भाषा समझनेवाला भी धीरे-धीरे प्रयत्न कर संस्कृत भाषा सीख सके, इसी ध्येय को नजर समक्ष रखकर पाटण (गुज.) निवासी पंडितवर्य श्री शिवलालभाई ने हैम संस्कृत प्रवेशिका भाग 1-2 व 3 की रचना की थी।
मैंने अपनी मुमुक्षु अवस्था में प.पू. विद्वद्वर्य मुनिराजश्री धुरंधरविजयजी म.सा. एवं सौजन्यमूर्ति पू.मु.श्री वज्रसेन विजयजी म.सा. के पास सिद्धहैम संस्कृत प्रवेशिका भागI व II का अभ्यास किया था । फिर दीक्षा के बाद वि.सं. 2033-34 में पाटण स्थिरता दरम्यान पंडितजी शिवलालभाई के पास सिद्धहैम शब्दानुशासनम् - लघुवृत्ति का अभ्यास किया था। _ हिन्दीभाषी प्रजा के हित को ध्यान में रखकर उन्हीं दो भागों का हिन्दी अनुवाद संपादन करने का मैंने यह प्रयास किया है। देव-गुरु की असीम कृपा के बल से तैयार हुए इन दो भागों का व्यवस्थित अभ्यास कर हिन्दी भाषी वर्ग भी संस्कृत भाषा को जाने-समझे और उसके फलस्वरूप पूर्वाचार्य विरचित महान् ग्रंथों का स्वाध्याय कर सभी अपना आत्मकल्याण साधे, इसी शुभ-कामना के साथ।
श्रावण पूर्णिमा, 2066 दि. 24-8-2010
ओसवाल भवन, रोहा (रायगढ़), महाराष्ट्र
भवोदधितारक
अध्यात्मयोगी पूज्यपाद पंन्यासप्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य ।
कृपाकांक्षी रत्नसेन विजय
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प्रवचन प्रभावक मरुधररत्न-हिन्दी साहित्यकार पूज्य पंन्यासप्रवर श्री रत्नसेनविजयजी म.सा. का बहुरंगी-वैविध्यपूर्ण साहित्य
तत्त्वज्ञान विषयक S.No. 23 सुखी जीवन की चाबियाँ 137 1.| जैन विज्ञान
24. पाँच प्रवचन 2.| चौदह गुणस्थानक
25 गुणानुवाद
141 3.| आओ ! तत्त्वज्ञान सीखें
79
धारावाहिक कहानी S.No. | कर्म विज्ञान
1. कर्मन् की गत न्यारी 5.| नवतत्त्व विवेचन 6. जीव विचार विवेचन
123
| 2. जिंदगी जिंदादिली का नाम है तीन भाष्य
127
3. आग और पानी भाग-1 | आध्यात्मिक पत्र
146
4. आग और पानी भाग-2 प्रवचन साहित्य
S.No. 5. मनोहर कहानियाँ 1. मानवता तब महक उठेगी
6. ऐतिहासिक कहानियाँ 2.| मानवता के दीप जलाएँ
7. तेजस्वी सितारे | महाभारत और हमारी
8. |जिनशासन के ज्योतिर्धर | संस्कृति-भाग-1
9. प्रेरक कहानियाँ | महाभारत और हमारी
10 मधुर कहानियाँ संस्कृति-भाग-2
11/महासतियों का जीवन संदेश रामायण में संस्कृति का ..
12/आदिनाथ शांतिनाथ चरित्र अमर संदेश-भाग 1
13 सरस कहानियाँ 6.| रामायण में संस्कृति का
14 पारस प्यारो लागे अमर संदेश-भाग 2
15 शीतल नहीं छाया रे 7.| सफलता की सीढ़ियाँ
16 आवो वार्ता कहुं 8.] नवपद प्रवचन
17 महान् चरित्र
129 9. श्रावक कर्तव्य-भाग-1
18. सरस कहानियाँ
142 10. श्रावक कर्तव्य-भाग-2
युवा-युवति प्रेरक
S.No. 11 प्रवचन रत्न 12. प्रवचन मोती
1. युवानो जागो 13. प्रवचन के बिखरे फूल
2. जीवन की मंगल यात्रा 14. प्रवचन धारा
3. तब चमक उठेगी युवा पीढी 15. आनंद की शोध
4. युवा चेतना 16. भाव श्रावक
5. युवा संदेश 17. पर्युषण अष्टाह्निका प्रवचन
6. जीवन निर्माण विशेषांक 18. कल्पसूत्र के हिन्दी प्रवचन
| 7. |The Message for the youth 19. संतोषी नर सदा सुखी
8. | How to Live true life 20. जैन पर्व प्रवचन
| 9. | यौवन सुरक्षा विशेषांक 21. गुणवान् बनो
सन्नारी विशेषांक 22. विखुरलेले प्रवचन मोती
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S.No.
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| 11. माता-पिता 12. आहार क्यों और कैसे ? 13. आहार विज्ञान 14. ब्रह्मचर्य 15. Duties Towards Parents 16. क्रोध आबाद तो
| जीवन बरबाद 17. राग म्हणजे आग 18. आई वडिलांचे उपकार 19. अमृत की बूंदें 20. The Light of Humanity 21. Youth Will shine then
अनुवाद-विवेचनात्मक
सामायिक सूत्र विवेचना 2. चैत्यवंदन सूत्र विवेचना 3. | आलोचना सूत्र विवेचना |श्रातल तिक्रमण
सूत्र विवेचना |चेतन ! मोहनींद अब त्यागो
आनंदघन चौबीसी विवेचन 7. अँखियाँ प्रभुदर्शन की प्यासी 8. श्रावक जीवन दर्शन 9. भाव सामायिक 10. आनंदघनजी पद विवेचन 11. भाव चैत्यवंदन 12. विविध पूजाएँ 13. भाव प्रतिक्रमण भाग-1 14. भाव प्रतिक्रमण भाग-2 15. श्रीपाल-रास और जीवन-चरित्र 16./ दंडक-विवेचन
विधि-विधान उपयोगी 1. | भक्ति से मुक्ति 2. | आओ ! प्रतिक्रमण करें 3. आओ ! श्रावक बनें
हंस श्राद्धवत दीपिका 5. Chaitya Vandan Sootra 6. विविध देववंदन 7. | आओ ! पौषध करें 8. प्रभु दर्शन सुख संपदा
9. आओ ! पूजा पढाएँ 10. Panch Pratikraman Sootra 11. शत्रुजय यात्रा 12. प्रतिक्रमण उपयोगी संग्रह 13. आओ ! उपधान पौषध करें 14. विविध तप माला 15. आओ ! भावयात्रा करें 16. आओ ! पर्युषण प्रतिक्रमण करें | सज्झायों का स्वाध्याय
अन्य प्रेरक साहित्य
वात्सल्य के महासागर 2. रिमझिम रिमझिम अमृत बरसे
अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेव बीसवीं सदी के महान् योगी
महान ज्योतिर्धर S.No.
मिच्छा मि दुक्कडम्
क्षमापना 8. सवाल आपके जवाब हमारे 9. शंका-समाधान-I 10. जैनाचार विशेषांक 11. जीवन ने जीवी तुं जाण 12. धरती तीरथ'री 13. चिंतन रत्न 14. अमरवाणी 15. महावीरवाणी 16. शंका-समाधान-II 16. सुख की खोज 17. आओ संस्कृत सीखें । भाग-I 18. आओ संस्कृत सीखें । भाग-II | 19. |आध्यात्मिक का पत्र 20. शंका समाधान । भाग-III
वैराग्यपोषक साहित्य 1. मृत्यु महोत्सव 2. श्रमणाचार विशेषांक
3. सद्गुरु उपासना S.No.
4. चिंतन मोती
5. मृत्यु की मंगल यात्रा 16. प्रभो ! मन मंदिर पधारो 7. शांत सुधारस भाग-1 8. शांत सुधारस भाग-1 9. भव आलोचना 10. वैराग्य शतक
107
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101 114 118 143 144 145 146 147 S.No.
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प्रवचन प्रभावक पूज्य पंन्यासप्रवर श्री रत्नसेनविजयजी म.सा. द्वारा आलेखित 145 पुस्तकों में से प्राप्य पुस्तकों की सूची पुस्तक का नाम
मूल्य
No.
पुस्तक क्रमांक
36
यात्रा
25/
42
25/
55
97
30/-- 50/300/
1001
ON OMAN
104
150/
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30/30/25/
1191
0
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25/
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40/30/
12
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13
131
30/
आओ प्रतिक्रमण करें विविध-देववंदन पर्युषण-अष्टाह्निक-प्रवचन बीसवीं सदी के महान् योगी कल्पसूत्र के हिन्दी प्रवचन प्रभु दर्शन सुख संपदा विखुरलेले प्रवचन मोती (मराठी) श्रमणशिल्पी प्रेमसूरिजी दादा Youth will Shine then तीन-भाष्य विविध-तपमाला मंगल स्मरण भाव प्रतिक्रमण (भाग-1) भाव प्रतिक्रमण (भाग-2) दंडक विवेचन आओ ! पर्युषण-प्रतिक्रमण करें सुखी जीवन की चाबियाँ पाँच प्रवचन वैराग्य शतक गुणानुवाद सरल कहानियाँ सुख की खोज आओ ! संस्कृत सीखें! भाग-१ आओ ! संस्कृत सीखें! भाग-२
14
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15
1331
16
135/
60/60/25/55/100/
17
136/
18
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19
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35/70/30/
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35/
144 145
55/95/
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पाठ
1.
2.
3.
4.
5.
67
8.
9.
10.
11.
12.
13.
14.
15.
220
क्या ?
पहला गण भ्वादि
पहला गण चालू
दिवादि चौथा गण
तुदादि छठा गण
चुरादि दसवाँ गण
कर्मणि भावे प्रयोग
21.
सु आदि पाँचवा गण
तनादि आठवाँ गण
क्री आदि नौवाँ गण
16.
17. व्यंजनांत क रूप
18.
श्वस्तनी
19.
श्वस्तनी
कद् आदि सातवाँ गण
अदादि दूसरा गण
दूसरा गण
दूसरा गण
ह्वादि तीसरा गण
तीसरा गण चालू
धातु के 10 गण
स्वरांत नाम के रूप
अनुक्रमणिका
20. धातुरूप शब्द
व्यंजनांत धातुरूप शब्द
कहाँ
8
2012 8 8 8 428785
16
19
26
33
38
62
71
91
104
106
113
123
134
141
148
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________________
154 162
24.
168 178
25.
183
27
194 200
28.
29.
210
30.
22. तद्धित शब्द 23. सामासिक संख्यावाचक
परोक्ष भूतकाल
परोक्ष भूतकाल 26. परोक्ष भूतकाल
अद्यतन भूतकाल अनिट् धातुओं का दूसरा भाग अद्यतन भूतकाल आशीर्वाद
बहुव्रीहि समास 32. अव्ययीभाव समास
तत्पुरुष समास इतरेतर द्वंद्व इच्छा दर्शक प्रेरक परिशिष्ट 1 पाठ 1 से 36 तक के संस्कृत वाक्यों का हिन्दी अनुवाद एवं हिन्दी वाक्यों का संस्कृत अनुवाद
218 224 232
33.
237
34.
252
35.
256
36.
263 279
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आओ संस्कृत सीखें
मि (मिव्)±
सि (सिव्)
ति (तिव्)
अम् (अम्व्) स् (सिव्)
द् (दिव्)
याम्
यास्
यात्
आनि (आनिव्)
हि
तु (तुव्)
टिपण्णी :
1.
परस्मैपद
वस्
थस्
तस्
परस्मैपद
व
तम्
ताम्
परस्मैपद
याव
यातम्
याताम्
पाठ
पहला गण
वर्तमान काल
तम्
ताम्
मस्
थ
अन्ति
--
ww
ह्यस्तनी काल
भ्वादि
-
-
म
त
अन्
सप्तमी - विध्यर्थ
प्रत्यय
प्रत्यय
थास्ं
त
आत्मनेपद
वहे
आथे
आते
ईय
ईथास्
-प्रत्यय
परस्मैपद आव(आवव्) आम (आमव्) ऐ (ऐव्)
त
स्व
ताम्
आत्मनेपद
वहि
याम्
यात
युस्
आज्ञार्थ- पंचमी - प्रत्यय
आत्मनेपद
ईवहि
ईयाथाम्
ईयाताम्
महि
आथाम् ध्वम्
आताम् अन्त
आत्मनेपद
महे
ध्वे
अन्ते
आथाम्
आताम्
ईमहि
ईध्वम्
ईरन
आवहै (आवहैव,आमहै (आमहैव्)
ध्वम्
अन्ताम्
अन्तु
धातु पाठ में पहले गण का पहला धातु भू है, अत: पहला गण भ्वादि कहलाता है।
2. यहाँ कोष्ठक में दिए गए प्रत्यय इत् वर्ण सहित हैं। जैसे मि (मिव्) - इसमें व् इत् है। अतः वे प्रत्यय वित् हैं, उसके सिवाय के प्रत्यय अवित् हैं। वित् को विकारक और अवित् को अविकारक भी कहते हैं ।
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आओ संस्कृत सीखें
AL
। 2
1. कर्तरि प्रयोग में शित् प्रत्यय लगने पर धातु से अ (शव) विकरण प्रत्यय लगता
है। दूसरे और तीसरे गण में विकरण प्रत्यय नहीं लगते हैं। चौथे आदि गण में भिन्न भिन्न विकरण प्रत्यय लगते हैं। उदा. नम् + अ (शव्) + ति = नमति वर्तमान कृदन्त = नम् + अ + अत् (शतृ) = नमत्
वन्द् + अ + ते = वन्दते वर्तमान कृदन्त = · वन्द् + अ + म् + आन् (आनश्) = वन्दमानः 2. अ के बाद में रहे हुए आताम् आते और आथाम्-आथे के आ का इ होता
उदा. वन्द् + अ + आते
वन्द् + अ + इते = वन्देते इसी तरह वन्देथे, वन्देताम्, वन्देथाम् होते हैं । 3. अ के बाद में रहे हुए सप्तमी (विध्यर्थ) मे प्रत्ययों के या का इ, याम् का इयम्
और युस् का इयुस् होता है। उदा. नम् + अ + यात्
नम् + अ + इत् = नमेत्, नमेयाम्, नमेयुः 4. अ प्रत्यय के बाद में रहे हुए हि का लोप होता है। उदा.
नम् + अ + हि
नम् + अ = नम 5. वित् सिवाय के शित् प्रत्यय ङित् समझने चाहिए। 6. कित् और ङित् सिवाय के प्रत्ययों पर धातु के अंत्य ह्रस्व या दीर्घ नामि स्वर
तथा उपांत्य हूस्व नामि स्वर का गुण होता है। उदा. 1. नी + अ (शव्) ति
ने + अ + ति = नयति 2. सृ + अ (शव्) + ति = सरति
बुध् + अ (शव्) + ति = बोधति
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आओ संस्कृत सीखें
3
(अ (शव्) विकरण प्रत्यय वित्-शित् होने से ङित् नही है, अत: गुण हुआ है।
नी + तुम् = नेतुम्
नी + तव्य = नेतव्य । (ये प्रत्यय कित् - ङित् नहीं होने से गुण हुआ है।)
नी + त्वा (क्त्वा) = नीत्वा ।
नी + त (क्त) = नीतः, नीतवान् । (ये प्रत्यय कित् होने से गुण नहीं हुआ है।) 7. कर्मणि तथा भावे प्रयोग में शित् प्रत्यय लगने पर धातु को य (क्य) प्रत्यय लगता है।
नी + य (क्य) + ते = नीयते, नीयमानः
भू + य (क्य) + ते = भूयते, भूयमानम् य प्रत्यय कित् होने से गुण नहीं हुआ है। 8. धातु को अन (अनट्) तथा त (क्त) प्रत्यय लगने से भाववाचक नपुंसक नाम बनता है।
गम् + अन = गमनम् पत् + अन = पतनम्
नृत् + त = नृत्तम् (नाच) 9. धातु के अंत में रहे संध्यक्षर का आ होता है।
त्रै + अन = त्राणम् ।
ध्यै + त्वा = ध्यात्वा, ध्यानम्, ध्यायते 10. शित् प्रत्ययों पर धातु के अंत्य संध्यक्षर का आ नहीं होता है।
त्रै + अ (शव) + ते = त्रायते
___ध्यै + अ (शव्) + ति = ध्यायति यहाँ संधि के नियमानुसार ऐ का आय् हुआ है। 11. परा और वि उपसर्ग के बाद जि धातु आत्मनेपदी होता है। उदा.
पराजयते, विजयते ।
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आओ संस्कृत सीखें12. सम्, वि, प्र तथा अव उपसर्ग के बाद स्था धातु आत्मनेपदी है।
उदा. प्र + स्था (तिष्ठ) + अ + ते = प्रतिष्ठते । 13. वि, आ और परि उपसर्ग के बाद रम् धातु परस्पैपदी है।
वि + रम् + अ + ति = विरमति । 14. अय् धातु पर उपसर्ग के र् का ल् होता है।
परा + अयते = पलायते । 15. वर्तमाना, ह्यस्तनी, सप्तमी (विध्यर्थ) और पंचमी (आज्ञार्थ) इन चार विभक्तियों
में धातुओं को अपने-अपने गण का विकरण प्रत्यय लगता है। 16. जिन प्रत्ययों में श् इत् हो वे शित् कहलाते हैं।
जिन प्रत्ययों में व् इत् हो वे वित् कहलाते हैं। जिन प्रत्ययों में ङ् इत् हो वे ङित् कहलाते हैं।
जिन प्रत्ययों में क् इत् हो वे कित् कहलाते हैं। 17. चौथे गण का य (श्य) विकरण प्रत्यय
छठे गण का अ (श) विकरण प्रत्यय पांचवें गण का नु (श्नु) विकरण प्रत्यय नौवें गण का ना (श्ना) विकरण प्रत्यय सातवें गण का न (श्न) विकरण प्रत्यय
ये सभी विकरण प्रत्यय शित् कहलाते हैं। 18. वर्तमाना, शस्तनी, सप्तमी और पंचमी विभक्ति के प्रत्यय शित् कहलाते हैं। 19. वर्तमान कृदन्त के अत् (शत्) तथा आन (आनश्) प्रत्यय भी शित् कहलाते हैं। 20. विकरण प्रत्यय अ (शव), वर्तमाना विभक्ति के मि (मिव्) सि (सिव्) ति
(तिव्), ह्यस्तनी के अम् (अम्व्) स् (सिव्) द (दिव्) प्रत्यय, पंचमी विभक्ति के आनि (आनिव्) आव (आवव्) आम (आमव्), तु (तुव्) तथा आत्मनेपदी के ऐ (ऐव्) आवहै (आवहैव्) तथा आमहै (आमहैव्) ये १३ प्रत्यय वित् हैं।
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आओ संस्कृत सीखें
पहले गण के धातु - अर्थ अर्ज = पाना (परस्मैपदी) | प्र+शंस् = प्रशंसा करना (परस्मैपदी) अह = योग्य होना (परस्मैपदी) | शस् = हिंसा करना (परस्मैपदी) इ = जाना
(परस्मैपदी) | आ+शंस् =आशंसा करना(आत्मनेपदी) उद्+इ = उदय पाना (परस्मैपदी) | ईह् = इच्छा करना (आत्मनेपदी) कृष् = खींचना (परस्मैपदी) | जृम्भ = प्रगट होना (आत्मनेपदी) क्वथ् = उबलना (परस्मैपदी) | त्रै = रक्षण करना (आत्मनेपदी) गम् = जाना (परस्मैपदी)| त्वर् = जल्दबाजी करना (आत्मनेपदी) सम् + गम् = मिलना (परस्मैपदी) | भ्राज् = शोभा देना (आत्मनेपदी) अधि + गम् = जानना (परस्मैपदी)| भ्रास् = शोभा देना (आत्मनेपदी) ज्वल् = जलना (परस्मैपदी) | लम्ब् = लटकना (आत्मनेपदी) . धे = दौड़ना (परस्मैपदी) | लोक् = देखना (आत्मनेपदी) भू = होना
(परस्मैपदी) | शङ् = शंका करना (आत्मनेपदी) प्रादुस्+भू = प्रकट होना (परस्मैपदी) | श्लाघ् = प्रशंसा करना (आत्मनेपदी) आविस्+भू-खुल्ला होना (परस्मैपदी) | सह् = सहन करना (आत्मनेपदी) भ्रम् = भटकना (परस्मैपदी) | स्पन्द् = फरकना (आत्मनेपदी) म्लै = मुरझाना (परस्मैपदी) स्पर्ध = स्पर्धा करना (आत्मनेपदी) लिङ्ग् = आलिंगन करना (परस्मैपदी) | बुध् = बोध करना (उभयपदी) लुण्ट् = लूटना (परस्मैपदी) | लष् = अभिलाषा करना (उभयपदी) शंस् = कहना (परस्मैपदी)।
शब्दार्थ अम्भोधि = समुद्र (पुलिंग) । भव = संसार
(पुलिंग) ज्वलन = आग (पुलिंग) महीप = राजा (पुलिंग) परिषह = कष्ट (पुलिंग) | वत्स = पुत्र
(पुलिंग) पर्यंत = किनारा (पुलिंग) स्तन = स्तन
(पुलिंग) पार्थिव = राजा (पुलिंग) | प्रकृति = स्वभाव (स्त्री लिंग) पुरुषकार = पुरुषार्थ (पुलिंग) | राजधानी = मुख्य नगर (स्त्री लिंग)
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आओ संस्कृत सीखें
वत्सा = पुत्री
( स्त्री लिंग) | कथंचित् = कभी
अनागस् = अपराध रहित (विशेषण) नु = वितर्क अर्थ में
आर्त्त = पीड़ित
व्यवसायिन् = व्यापारी क्षम = समर्थ
अये = हे
इव तरह
=
(अव्यय)
(विशेषण) संप्रति = अभी (विशेषण) आगस् = अपराध (विशेषण) कुमुद = चंद्रविकासी कमल (नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग)
(अव्यय) पूरण = भरना
(अव्यय) मानस = मन
संस्कृत में अनुवाद करो :
1. मुनि परिषह सहन करते हैं । (सह )
2. सूर्य उदय होता है (उद्+इ) और कमल मुर्झाते हैं । (म्लै) 3. व्यवसायी लोग जल्दबाजी करते हैं। (त्वर्)
4.
बाघ भी जलती अग्नि को देख भाग जाते हैं। (परा + अम् )
5.
अपनी प्रशंसा न करें । ( श्लाघ्)
6. सूर्य के ताप द्वारा तालाब का पानी उबलता हैं। (उद् + क्वथ्) तुम्हारा शरीर चमकता हैं। (वि + भ्राज्)
7.
8. कर्म के साथ स्पर्धा करनेवाले (स्पर्धा) वर्धमान स्वामी को नमस्कार हो ।
हिन्दी में अनुवाद करो :
धर्मः त्राणं च शरणं च ।
1.
2.
यमुना गङ्गां सङ्गच्छति' ।
3.
विजयस्व राजन् !
4.
वत्स ! किमीहसे ?
5. विरम त्वमिदानीमकार्यात् ।
(अव्यय)
(अव्यय)
6. वत्से ! अनुगच्छ माम् । बाल: स्तनं धयति ।
7.
8. प्रवर्त्ततां प्रकृति - हिताय पार्थिवः ।
9.
वत्स ! रथमारुह्य ते राजधानीं प्रतिष्ठस्व ।
10. मातः ! एष कोऽपि पुरुषो मां पुत्र इत्यालिङ्गति ।
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आओ संस्कृत सीखें
11. महतां स्वयमेव गुणाः प्रादुर्भवन्ति । 12. अये ! को नु खल्वयं बाल: प्रक्रीडितुं सिंह-शिशुं बलात्कारेण कर्षति? 13. आर्त्त-त्राणाय वः शस्त्रं न प्रहर्तुमनागसि । 14. अर्थानामर्जने दुःखमर्जितानां च रक्षणे । 15. भवाम्भोधौ भ्रमामि चेत् तत्कः पुरुषकारो मे ? 16. शरत्काल इव प्रात:कालोऽयं ज़म्भतेऽधुना । 17. मौनमालम्बसे पुत्रि ! हेतुना येन शंस तम् । 18. मनोरथाय नाशंसे किं बाहो ! स्पन्दसे वृथा ? 19. भव हृदय ! साभिलाषं संप्रति संदेह-निर्णयो जातः । 20. आशङ्कसे यदग्नि तदिदं स्पर्शक्षम रत्नम् ।। 21. भगवन्तः! सहध्वं तत् प्रमादाचरणं मम । 22. 'सर्वंसहा महान्तो हि सदा सर्वंसहोपमा: ।। 23. पर्यन्तो लभ्यते भूमेः, समुद्रस्य गिरेरपि । 24. न कथञ्चिन्महीचस्य चित्तान्तः केनचित् क्वचित् ।। 25. याचमान-जन-मानस-वृत्तेः, पूरणाय बत जन्म न यस्य । 26. तेन भूमिरतिभारवतीयं, न द्रुमै न गिरिभि न समुद्रैः ।।
टिप्पणी: 1. सम् + गच्छ् अकर्मक हो तो आत्मनेपदी होता है, सङ्गच्छते । 2. न विद्यते आग: यस्मिन् स अनागाः तस्मिन् । 3. स्पर्शाय क्षमम् = स्पर्शक्षमम् । 4. सर्वं सहन्ते इति सर्वंसहाः । 5. सर्वं सहाया: उपमा येषां ते = सव सहोपमाः ।
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पाठ - 2 1. गुप् रक्षण करना, धूप, विच्छ् (गण 6) पण और पन् धातु को अपने अपने अर्थ में अपना 'आय' प्रत्यय लगता है। उदा. गुप् + आय + अ (शव्) + ति = गोपायति ।
धूप् + आय् + अ (शव्) + ति = धूपायति । 2. पण और पन् धातु आय प्रत्यय लगने पर परस्मैपदी होते हैं।
उदा. पणायति, पनायति ।
कभी - पणायते, पनायते । 3. गुह् धातु के उपांत्य स्वर का गुण होने पर यदि उसके बाद स्वरादि प्रत्यय हो तो ऊ होता है। उदा. गुह् + अ + ति
गोह् + अ + ति
गूह + अ + ति = गृहति । 4. कृप् धातु के ऋ का ल तथा र् का ल् होता है।
कृप् + य + ते = क्लृपयते कृप् + अ + ते कप् + अ + ते
कल्प् + अ + ते = कल्पते 5. शद् (शीय) धातु, शित् प्रत्ययों पर आत्मनेपदी होता है।
उदा. शीयते । 6. क्रम् धातु के पहले उपसर्ग न हो तो आत्मनेपदी भी होता है- क्रमते । 7. फैलना, उत्साह रखना तथा बढ़ने के अर्थ में क्रम् धातु आत्मनेपदी होता है।
उदा. शास्त्रे अस्य क्रमते बुद्धिः । 8. 'आरंभ करना' इस अर्थ में प्र तथा उप उपसर्ग सहित क्रम् धातु आत्मनेपदी होता
. उदा. प्रक्रमते उपक्रमते रन्तुं ।
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.
आओ संस्कृत सीखें 9. सूर्य, चंद्र आदि के उगने के अर्थ में आ पूर्वक क्रम् धातु आत्मनेपदी होता है।
उदा. आक्रमते सूर्यः । 10. विकरण प्रत्यय लगने पर परस्मैपदी में क्रम् आदि का स्वर दीर्घ होता है।
उदा. क्रामति, आत्मनेपद में क्रमते 11. विकरण प्रत्यय लगने पर ष्ठिव्, क्लम् गण ४ तथा आ + चम् दीर्घ होता है।
उदा. ष्ठीवति । क्लाम्यति । आचामति । 12. स्वर के बाद में छ द्वित्व - Double होता है।
उदा. तरु + छाया = तरुच्छाया । 13. वर्ग के तीसरे और चौथे व्यंजन पर पूर्व के धुट् व्यंजन के बदले उसके वर्ग का तीसरा व्यंजन होता है।
उदा. सस्ज्, सज् इस नियम से सज्ज, सज्ज् + अ + ति = सज्जति
पहले गण के धातु ऋ (ऋच्छ्) = जाना (परस्मैपदी)| यम् (यच्छ्) = नियम में रखना (परस्मैपदी) क्रम् = पैदल चलना (परस्मैपदी)| शद् (शीय) = नष्ट होना (परस्मैपदी)
आ+क्रम् = आक्रमण करना(परस्मै.) | ष्ठिव् = थूकना (परस्मैपदी) निस्+क्रम् = निकलना (परस्मैपदी)| सङ्ग् (सज्) = आसक्त होना (परस्मैपदी) गुप् = रक्षण करना (परस्मैपदी)| सस्ज् = सज्ज होना (परस्मैपदी) घ्रा (जिघ्) = सूंघना (परस्मैपदी) कृप् = समर्थ होना _ (आत्मनेपदी) चम् = चाटना (परस्मैपदी)| पण् = व्यापार करना (आत्मनेपदी) दंश् (दश्) = डंक मारना (परस्मैपदी)| पन् = स्तुति करना (आत्मनेपदी) ध्मा (धम्) = फूंकना (परस्मैपदी)| गुह् = छिपाना (उभयपदी) म्ना (मन्) = मानना (परस्मैपदी)। रञ्ज् (रज्) = रागी होना (उभयपदी)
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2103
किजल्क = पराग
खर = गधा घनसार = कपूर दशन = दाँत दन्दशूक = सर्प दस्यु = चोर नियम = व्रत निर्झर = झरना प्रकर = समूह मधुव्रत = भ्रमर रजक = धोबी रूप्यक = रुपया स्मर = काम वल्लि = बेल
शब्दार्थ (पुलिंग)| अगर = अगरचंदन (पुंलिंग) (पुलिंग)| अंभोज = कमल (नपु.) (पुलिंग)| आवरण = ढक्कन (नपु.) (पुंलिंग)| बिल = बिल
(नपुं.) (पुंलिंग)| जाया = पत्नी
(स्त्री लिंग) (पुंलिंग)| तमिस्रा = रात्रि (स्त्री लिंग) (पुंलिंग)| मिथस् = परस्पर (अव्यय) (पुंलिंग)| मुहुस् = बारबार
(अव्यय) (पुंलिंग) | शनैस् = धीरे
(अव्यय) (पुंलिंग)| सधस् = शीघ्र (अव्यय) (पुंलिंग)| भीम = भयंकर (विशेषण) (पुंलिंग)| विविध = अनेक प्रकार का (विशेषण)
(पुंलिंग)| स्वीय = अपना (विशेषण) (स्त्री लिंग)| सान्द्र = गाढ़ (विशेषण)
संस्कृत में अनुवाद करो : 1. भयंकर भी सर्प को चींटियाँ डंक देती है । (दंश्) 2. लताएं पत्तों द्वारा फलों को छिपाती है । (गुह्) 3. कुमारपाल की कीर्ति की साधु भी प्रशंसा करते हैं । (पण्) 4. सिद्धराज ने अपने शत्रुओं को दुःखी किया । (धूम्) 5. हम जिन की स्तुति करते हैं । (पन्) 6. वणिक् लोग करोड़ों रुपयों द्वारा हमेशा व्यापार करते हैं । (पण्) 7. साँप बिल में से निकला और डंक मारा । (दंश्) 8. तुम अकार्य हेतु क्यों तैयार होते हो? (सस्ज्) 9. उसका चित्त पढ़ने में लगा । (सङ्ग्) 10. रंगरेज रानी के वस्त्र रंगता है । (रञ्ज)
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हिन्दी अनुवाद करे : 1. साधवः सदाचारं गोपायन्ति । 2. तृणमपि धेनूनां दुग्धाय कल्पते । 3. खरा मिथो दशनैर्दशन्ति । 4. तां कथामगृहमानां कथय । 5. यो नियमे मनो यच्छति तस्य पापानि खलु शीयन्ते । 6. याचकानामर्थं यच्छन्स परमां ख्यातिमार्च्छत् । 7. अम्भोजस्य किजल्कमाचम्याचम्य मोदन्तां मधुव्रताः । 8. तौ जायापती' मुहुर्मुहुः स्वादूनि निर्झर-जलान्याचामन्तौ,
पदे पदे सान्द्रासु तरुच्छायासु विश्राम्यन्तौ, विविधानि च
कुसुमान्युपजिघ्रन्तौ, शनैः शनैर्गिरिमारोहताम् । 9. ततो दस्यवः सर्वेषामपि जनानामलङ्कारादीन् लुण्टितुमुपाक्रमन्त । 10. सूर्ये तपत्यावरणाय दृष्टः, कल्पेत लोकस्य कथं तमिस्रा ? 11. धमेद् धमेनातिधमेदतिध्मातं न शोभते । 12. चन्दनागरु-कस्तूरी-घनसारादि-गन्धतः ।
आक्रामति नरं सद्यो दन्दशूक इव स्मरः ।।
टिप्पणी : 1. जाया च पतिश्च = जायापती (द्वंद्व) । 2. पंचमी विभक्ति और कभी कभी तृतीया व सप्तमी विभक्ति के अर्थ में नाम को
तस् प्रत्यय लगकर अव्यय बनता है - गन्ध + तस् = गन्धतः ।
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12 | पाठ-3
दिवादि चौथा गण 1. कर्तरि प्रयोग में शित् प्रत्यय लगने पर चौथे गण के धातुओं को य (श्य) विकरण प्रत्यय लगता है। उदा. कुप् + य + ति = कुप्यति
कुप्यत् - वर्तमान कृदन्त 2. धातु के ओ का य (श्य) प्रत्यय पर लोप होता है। उदा. सो + य + ति = स्यति, दो = द्यति, शो = श्यति
छो = छ्यति 3. शम्, दम्, तम्, श्रम्, भ्रम्, क्षम् और मद् इन सात धातुओं का स्वर य (श्य) प्रत्यय पर दीर्घ होता है।
उदा. शाम्यति, दाम्यति आदि भ्रास गण 1, भ्लास् गण 1, भ्रम् गण 1, क्रम् गण 1, लष् गण 1, क्लम् गण 4, त्रस् गण 4, त्रुट गण 6, यस् गण 4 तथा सम् + यस् - इन धातुओं को विकल्प से य (श्य) विकरण प्रत्यय लगता है। उदा. भ्रास्यते = भ्रासते । भ्लास्यते = भ्लासते ।भ्राम्यति = भ्रमति।
क्राम्यति = क्रामति । क्लाम्यति = क्लामति ।
त्रुट्यति = त्रुटति आदि । 5. भू आदि सभी गण के धातुओं के र् और व् के बाद में व्यंजन आए तो र् और व के पहले का नामि स्वर दीर्घ होता है । उदा. दिव् + य + ति = दीव्यति, सिव् + य + ति = सीव्यति ।
ष्ठित् + य + ति = ष्ठीवति । 6. दीर्घ ऋ कारांत धातुओं के ऋ का कित्-ङित् प्रत्यय पर इर् होता है । उदा. जृ+ य + ति
जीर् + य् + ति = जीर्यति
कर्मणि में जीर्यते तृ = तीर्यते 7. कित् - ङित् प्रत्यय पर ज्या गण ९ तथा व्यध् के स्वर सहित अंतस्था य का
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इहोता है।
उदा.
विध्यति, विध्यते । ज्या का जिनाति
8. व्यंजनांत धातु के उपांत्य न् तथा न् के स्थान पर हुए अनुस्वार या अनुनासिक व्यंजन का कित् - ङित् प्रत्ययों पर लोप होता है ।
परंतु आशंस्, कम्प्, क्रन्द्, काङक्ष, खण्ड्, चिन्त्, जृम्भू, नन्द्, निन्द्, मण्ड्, लघु, लम्ब्, लिङ्ग्, वन्द्, वाञ्छ्, शङ्क्, स्पन्द, हिंस् आदि धातुओं में अनुनासिक का लोप नहीं होता है।
उदा.
9.
=
भ्रंश् + य(श्य) + ति भ्रश्यति । कर्मणि में भ्रश्यते । शंस् + य + ते = शस्यते । शंस् + त (क्त) = शस्तः, प्रशस्तः। सज् + य + ते = सज्यते, सक्तः । आसक्तः
चौथे गण के सू, दू, दी, धी, मी, री, ली, डी, वी इन नौ धातुओं से जब त और
त्तवत् प्रत्यय लगता है, तब त का न हो जाता है।
उदा. दूनः, दूनवान् ।
13
क्लम् = थक जाना छो = छेद करना
नृ = वृद्ध होना
तम् =
दुःखी होना
त्रस् = दुःखी होना
दीन, दीनवान् स्त्री लिंग में दीनवती ।
10. र् और द् अंतवाले धातुओं से त तथा तवत् के त का न हो जाता है। उस समय धातु के अंत्य द् का भी न हो जाता है। न् उदा. पूर् + त = पूर्ण:, पूर्णवान् ।
उत् + पद् + त = उत्पन्नः, उत्पन्नवान् । चौथे गण के धातु
( परस्मैपदी) | दम् = दमन करना
(परस्मैपदी) दिव्
अस् = फेंकना
इष् = जाना
अनु+इष् =अन्वेषण करना ( परस्मैपदी)
(परस्मैपदी)
( परस्मैपदी
( परस्मैपदी )
= क्रीड़ा करना
दो = छेद करना
भ्रम् = भटकन
भ्रंश् = भ्रष्ट होना
यस् = प्रयास करना
(परस्मैपदी) व्यध् = बींधना
( परस्मैपदी) श्लिष् = मिलना
(परस्मैपदी)
(परस्मैपदी)
(परस्मैपदी)
(परस्मैपदी)
( परस्मैपदी)
(परस्मैपदी)
(परस्मैपदी)
(परस्मैपदी)
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आओ संस्कृत सीखें
शो = पतला करना (परस्मैपदी) | पद् = होना (आत्मनेपदी) ष्ठिव् = थूकना (परस्मैपदी) | वि + पद् = नाश होना (आत्मनेपदी) सिव् = सीना (परस्मैपदी) | पुर् = बढ़ना (आत्मनेपदी) सो = नाश होना (परस्मैपदी) | ली = लीन होना (आत्मनेपदी) स्निह् = स्नेह करना (परस्मैपदी) | विद् = विद्यमान होना (आत्मनेपदी) क्षम् = क्षमा करना (परस्मैपदी) | सू = जन्म देना (आत्मनेपदी) इ = जाना
(आत्मनेपदी) | रञ् = रागी होना (उभयपदी)
शब्दार्थ काय = शरीर
(पुंलिंग) | चक्षुस् = आँख (नपुं. लिंग) कीट = कीड़ा (पुंलिंग) | चेतस् = मन (नपुं. लिंग) कुलाल = कुम्हार (पुंलिंग) | वर्मन् = कवच (नपुं. लिंग) विधि = भाग्य (पुंलिंग) | श्रोत्र = कान (नपुं. लिंग) गति = शरण (स्त्री लिंग) | आरुढ = चढ़ा हुआ (विशेषण) पुरन्ध्री = स्त्री (स्त्री लिंग) | नृशंस = क्रूर (विशेषण) रक्षा = रक्षण (स्त्री लिंग) | शरीरिन् = प्राणी (विशेषण) कौतुक = कुतूहल
(विशेषण) संस्कृत में अनुवाद करें : 1. बंदर बालकों की ओर दौडा । बालक त्रस्त हुए (त्रस्) अत: रक्षण के लिए
प्रयत्न करने लगे (यस्) और थक गए (क्लम्) । 2. परंतु भीम परेशान नहीं हुआ (त्रस्) । अतः रक्षण के लिए प्रयत्न नहीं करता था,
वह थका भी नहीं था । कुतूहल से बंदर को देखने के लिए प्रयत्न करता था ।
(सम् + यस्) 3. वह साथ में खेलते (दिव) बालकों को फल देता है । 4. युद्ध में योद्धा बाण फेंकते हैं (निर्+अस्) तथा बाण योद्धाओं को बींधते हैं । 5. वृद्ध होनेवाले मनुष्य के केश जीर्ण होते हैं, दाँत जीर्ण होते हैं, चक्षु और कान
जीर्ण होते हैं, परंतु एक तृष्णा जीर्ण नहीं होती है ।
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हिन्दी में
अनुवाद
करें :
1.
कुलालचक्र आरूढमिव मे चेतश्चिरं भ्राम्यति । 2. पुरन्ध्रीसेवायां भ्राम्यन्तो जीवा भवे भ्रमन्ति ।
3.
यो महिलासु न रज्यति तस्य ज्ञानं विवेकश्चाभ्यागच्छति । 4. किं नु खलु बालेऽस्मिन्नौरस इव पुत्रे स्निह्यति मे मनः । 5. उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते खलु जन्तवः ।
6. निर्धनानां मनोरथा हृदयेष्वेव लीयन्ते ।
7. सर्व: प्रार्थितमर्थमधिगम्य सुखी सम्पद्यते जन्तुः । अद्य मे मनो वैराग्ये लीनमस्ति ।
8.
9. त्वमेवैकोऽसि मे बन्धु र्यन्मत्कार्याय' ताम्यसि । 10. वन्द्यते यदवन्द्योऽपि स प्रभावो धनस्य हि । 11. विद्यया शस्यते लोके पूज्यते चोत्तमैः सदा ।
विद्याहीनो नरः प्राज्ञ-सभायां नैव शोभते ।। 12. आदौ चित्ते ततः काये सतां सम्पद्यते जरा । असतां तु पुनः काये नैव चित्ते कदाचन ।। 13. विधौ विध्यति सक्रोधे वर्म धर्मः शरीरिणाम् । स एव केवलं तस्मादस्माकं जायतां गतिः ।। 14. विषयेष्वति - दुःखेषु सुखमानी' मनागपि ।
नाहो विरज्यति जनोऽशुचिकीट इवाशुचौ । 15. न सा दीक्षा न सा भिक्षा न तद्दानं न तत्तपः । न तद् ध्यानं न तन्मौनं दया यत्र न विद्यते ।
टिप्पणी : 1) मम कार्यम् - मत्कार्यम् = तस्मै
2) सुखं मन्यते इति सुखमानिन् = सुख मानने वाला
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+16
पाठ4
तुदादि छठा गण 1. कर्तरि प्रयोग में शित् प्रत्यय लगने पर छठे गण के धातुओं को अ (श) विकरण प्रत्यय लगता है।
उदा. तुद् + अ (श) + ति = तुदति, तुदते 2. श विकरण प्रत्यय अवित् शित् होने से ङित् समान है, अतः गुण नहीं हुआ। 3. धातु के इ वर्ण और उ वर्ण का स्वरादि प्रत्यय पर क्रमश: इय् और उव होता हैं।
उदा. रि + अ + ति । रिय् + अ + ति = रियति
धू + अ + ति । धुव् + अ + ति = धुवति 4. अ (श) तथा य (क्य) प्रत्यय पर, ऋ कारांत धातु के ऋ का रि होता है।
उदा. मृ + अ + ते । म्रि + अ + ते
म्रिय् + अ + ते = म्रियते । कर्मणि में – म्रियते ।
पृ का प्रियते । हृ का हियते । 5. शित् प्रत्यय आने पर मृ धातु आत्मनेपदी होता है।
मृ का म्रियते । 6. ग्रह् गण 9, व्रश्च्, भ्रस्ज् और प्रच्छ् के स्वरसहित अंतस्था र का कित्-ङित् प्रत्यय पर ऋ होता है। उदा. व्रश्च् + अ + ति । वृश्च् + अ + ति = वृश्चति ।
भ्रस्ज का भृज्जति । प्रच्छ का पृच्छति ।
कर्मणि में - वृश्च्यते, भृज्ज्यते, पृच्छ्यते, गृह्यते 7. मुचादि (मुच्, सिच्, विद्, लुप्, लिप्, कृत्, खिद् तथा पिश्) धातुओं को अ (श) विकरण प्रत्यय पर स्वर के बाद न् जोड़ा जाता है।
उदा. विद् + अ + ति । विन्द + अ + ति = विन्दति आदि 8. पद के अंत में न हो, ऐसे म् और न् का वर्गीय धुट व्यंजन पर, बाद में रहे व्यंजन के वर्ग का अंत्य अक्षर ही होता है।
उदा. मुच् + अ + ति
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आओ संस्कृत सीखें
नियम 7 से मुन्च् + अ + ति नियम 8 से मुञ्च् + अ + ति = मुञ्चति, लुम्पति आदि
छठे गण के धातु अभि+सिच्=अभिषेक करना(परस्मै.) । आ + इ = आदर करना (आत्मनेपदी) कृत् = काटना (परस्मैपदी) | पृ = उद्यम करना (आत्मनेपदी) कृ = बिछाना (परस्मैपदी) |वि+आ+पृ =व्यापार करना(आत्मने.) खिद् = खिन्न होना (परस्मैपदी) | आ+प्रच्छ् = अनुमति लेना (आत्मने.) त्रुट् = टूटना (परस्मैपदी) | नि+विश् = प्रवेश करना (आत्मनेपदी) धू = हिलाना (परस्मैपदी) | लस्ज् = शर्माना (आत्मनेपदी) नू = स्तुति करना (परस्मैपदी) |स्वङ् = मिलना ___(आत्मनेपदी) पिश् = पीसना (परस्मैपदी) कृष् = खिंचना (उभयपदी) मस्ज् = स्नान करना ___ (परस्मैपदी) तुद् = दुःखी होना (उभयपदी) मृ = मरना
(परस्मैपदी) | भ्रस्ज् = पकाना (उभयपदी) मृश् = विचार करना (परस्मैपदी) | लिप् = लेप करना (उभयपदी) विच्छ = जाना
(परस्मैपदी) |लुप् = काटना (उभयपदी) व्रश्च् = काटना (परस्मैपदी) | क्षिप् = फेंकना (उभयपदी) रि = जाना
(परस्मैपदी) |विद् = प्राप्त करना (उभयपदी) सू = प्रेरणा करना (परस्मैपदी) |
शब्दार्थ तात = पिता
(पुंलिंग) | अञ्जन = काजल (नपुं. लिंग) मराल = हंस
(पुंलिंग) | तमस् = अंधकार (नपुं. लिंग) शूकर = सुअर
(पुंलिंग) | पद = स्थान, पेर (नपुं. लिंग) सुधा = अमृत (स्त्री लिंग) पाथेय = भाता (नपुं. लिंग) अज्ञ = अज्ञानी (विशेषण) | भवितव्य= अवश्य होनेवाला (नपु. लिंग) अद्भुत = आश्चर्यकारी (विशेषण) | मानस = मानस सरोवर (नपुं. लिंग) अपर = दूसरा (विशेषण) |यवस् = घास (नपुं. लिंग) निखिल = समस्त (विशेषण) | यतस् = क्योंकि (अव्यय) पर = उत्कृष्ट
(विशेषण) |
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आओ संस्कृत सीखें
संस्कृत में अनुवाद करें : 1. वैद्य द्वारा व्याधि से मरते हुए लोगों की व्याधि दूर की जाती है । (ह) 2. घर से जाते हुए पुत्र ने पिता से अनुमति मांगी । (आ + प्रच्छ्) 3. अद्भुत विनय और शौर्य द्वारा वल्लभ ने राजा के चित्त में प्रवेश किया।
(नि + विश्) 4. अमृततुल्य वाणी द्वारा गुरु शिष्य के संदेह काटते हैं, (वृश्च्) अतः शिष्य अपने
मस्तक धुनाते हुए गुरु की स्तुति करते हैं। (धू, नू) 5. अर्जुन ने द्रोणाचार्य के पास धनुर्विद्या ग्रहण की। (विद्) 6. उस जन्मे हुए पुत्र से क्या फायदा और मरे हुए पुत्र से क्या नुकसान, जिसके होते
हुए भी पिता की भूमि दूसरों के द्वारा कब्जे की जाती है। (आ + क्रम्)
हिन्दी में अनुवाद करे : 1. तात ! अभिषिच्यतां राज्ये भरतः परया मुदा । 2. वत्से ! परिष्वजस्व मां सखी-जनं च । 3. एते जना ममेदं रत्नस्वर्णादिकं लुम्पन्ति । 4. लिप्यते निखिलो लोको ज्ञान-सिद्धो न लिप्यते । 5. सर्वथा स्वप्रमादेन लज्जितोऽस्मि प्रसीदत । 6. य एव म्रियते जन्तुः स एवोत्पद्यते पुनः ।
अत्रुट्यत्तत्र सर्वेषां पाथेययवसादिकम् । इदमाश्रम-द्वारं यावत्प्रविशामि - शान्तमिदमाश्रम-पदं, स्फुरति च बाहुः, कुतः फलमिहास्य ?
अथवा भवितव्यानां द्वाराणि भवन्ति सर्वत्र ।। 8. लिम्पतीव तमोऽङ्गानि वर्षतीवाञ्जनं नभः ।
असत्पुरुष-सेवेव, दृष्टि निष्फलतां गता ।। 9. मजत्यज्ञः किलाज्ञाने, विष्ठायामिव शूकरः।
ज्ञानी निमज्जति ज्ञाने, मराल इव मानसे ।
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आओ संस्कृत सीखें
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पाठ 5
चुरादि 10 वाँ गण ___ 1. दसवे गण के धातुओं को अपना इ (णिच्) प्रत्यय लगता है ।
उदा. चुर् + इ (णिच्) । चोरि + अ (शव्) + ति
चोरे + अ + ति = चोरयति 2. जित् तथा णित् प्रत्ययों पर उपांत्य अ तथा अंत्य ह्रस्व या दीर्घ नामि स्वर की वृद्धि होती है। उदा. तड् + इ (णिच्) = ताडि । ताडि + अ + ति = ताडयति ।
पृ + इ = पारि । पारि + अ + ति = पारयति । 3. इ (णि) प्रत्यय पर धू और प्री धातु के साथ न् जुड़ता है ।
उदा. धू + इ + अ + ति । धून + इ + अ + ति ।
धूनि + अ + ति = धूनयति, प्रीणयति 4. कृत् धातु का की आदेश होता है - कीर्तयति 5. दसवें गण के युज् आदि धातुओं को इ (णिच्) प्रत्यय विकल्प से लगता है।
उदा. युज् + इ + अ + ति = योजयति ।
युज् + अ + ति = योजति ।
सह् + इ + अ + ति = साहयति, सहति । 6. कम् गण (1) आत्मनेपदी - अभिलाषा करना, इस धातु को अपना इ (णिङ्) प्रत्यय लगता है। उदा. कम् + इ (णिङ्) = कामि ।
कामि + अ + ते = कामयते । 7. धातु सूचित क्रिया को करनेवाले अर्थ में धातु को अक (णक), तृ (तृच्) तथा अ (अच्) प्रत्यय लगकर विशेषण नाम बनता है। उदा. पचति इति पच् + अक = पाचक
पच् + तृ = पक्ता
हरति (पापानि) इति (ह्र + अ) = हरः । 8. धातु से अ (घञ् या अल्) प्रत्यय लगकर पुंलिंग नाम बनते हैं।
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आओ संस्कृत सीखें
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उदा. पठ् + अ (घञ्) = पाठः
भू + अ (घञ्) = भावः यहां जित् होने से वृद्धि हुई है ।
मद् + अ (अल्) = मदः नी + अ (अल्) = नयः जि + अ (अल्) = जयः
दसवें गण के धातु कृत् = कीर्तन करना (परस्मैपदी) क्षत् = धोना
(परस्मैपदी) छद् = ढकना (परस्मैपदी) लल् = लालन पालन करना(आत्मनेपदी) लोक् = देखना (परस्मैपदी) वञ्च् = ठगना (आत्मनेपदी)
युजादि धातुएँ युज् = जोडना
प्री = खुश करना (उभयपदी) आ + सद् = प्राप्त करना अर्च् = पूजा करना (आत्मनेपदी) सह = सहन करना
तप् = तपाना (आत्मनेपदी) धू = हिलाना (उभयपदी) मृष् = क्षमा रखना (आत्मनेपदी)
शब्दार्थ अद्रि = पर्वत (पुंलिंग) | शाखिन् = वृक्ष (पुंलिंग) क्रम = अनुक्रम (पुंलिंग) | ज्या = धनुष की डोरी ( स्त्री लिंग) गन्धर्व = गानेवाला (पुंलिंग) | तनया = पुत्री (स्त्री लिंग) जीमूत = मेघ (पुंलिंग) | धात्री = धावमाता (स्त्री लिंग) तीर्थंकर = जगत्पूज्य (पुंलिंग) | स्पृहा = लालसा (स्त्री लिंग) पांसु = धूल
(पुंलिंग) | अंहस् = पाप (नपुं. लिंग) विध = प्रकार (पुंलिंग) | आकर्षण = खिंचाव (नपुं. लिंग) टिपण्णी : 1. युजादि धातु परस्मैपदी है, परंतु णिच् प्रत्यय नहीं लगने पर पद
बदलता भी है, वह साथ में दिया है । उदा. योजयति । योजति ।
तापयति । तपते । धूनयति । धवति । धवते ।
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आओ संस्कृत सीखें
21
आतोद्य = वाद्ययंत्र (नपुं. लिंग)| नव = नया
(विशेषण) तूल = रुई (नपुं. लिंग)| अद्यापि = अभी भी _ (अव्यय) धनुस् = धनुष्य (नपुं. लिंग)| कृते = के लिए (अव्यय) भूत = प्राणी (नपुं. लिंग)| तथापि = तो भी (अव्यय) गृहिन् = गृहस्थ (विशेषण)।
संस्कृत में अनुवाद करो : 1. लोक में उद्योत करनेवाले तीर्थंकरो की मैं स्तुति करता हूँ। (कृत्) 2. जो गुरु के दोष छिपाता है, वह छात्र कहलाता है। (छद्) 3. लोगों को खुश करता हुआ (प्री) और डोरी खींचने के द्वारा धनुष को कंपित
करता हुआ (धू) अर्जुन रंगभूमि में आया ।
मनुष्य जो कष्ट धन के लिए सहन करता है, वे कष्ट धर्म के लिए सहन नहीं करता ___ है। (सह्)
हिन्दी में अनुवाद करो : 1. स्पृहावन्तो विलोक्यन्ते लघवस्तृणतूलवत् । 2. संयोजितकरैः के के न प्रार्थ्यन्ते स्पृहावहैः ।
तथाप्यद्याऽपि तान्दृष्ट्वा निजांहः क्षालयाम्यहम् । 4. धर्मेणाऽप्रीणयद्विश्वं जीमूत इव वारिणा । ग्रीष्मे -
पच्यन्त इव भूतानि, ताप्यन्त इव पांसवः ।
क्वथ्यन्त इव तोयानि ध्मायन्त इव चाद्रयः ।। 6. धात्रीभिर्लाल्यमानश्च, पयःपानादिकर्मभिः ।
शाखीवासादयद् वृद्धिं, राजपुत्रः क्रमेण सः ।। 7. अयं चतुर्विधाऽऽतोद्य - चतुरः पुरतस्तव ।
गन्धर्व-वर्गः सङ्गीतकृते सज्जोऽवतिष्ठते ।। 8. पीड्यन्ते गृहिणः कथं न तनया-विश्लेष-दुःखै र्नवैः । टिप्पणी : 1. स्पृहाय आवहन्ति इति स्पृहावहै:, तैः
2. 'चत्वारः विधाः यस्य तत् चतुर्विधम्' ।
चतुर्विधं च तद् आतोद्यञ्च = चतुर्विधातोद्यम्-तस्मिन् चतुरः
लं
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-
पाठ - 6
कर्मणि - भावे प्रयोग 1. य (क्य) प्रत्यय पर धातु का अंत्यस्वर दीर्घ होता है।
उदा. जि + य (क्य) + ते = जीयते । 2. गा, पा (पीना) स्था, सा, दा (दा संज्ञावाले धातु) मा, हा (त्याग करना) इन
धातुओं के अंत्य स्वर आ का व्यंजनादि कित् प्रत्यय पर ई होता है परंतु त्वा का य हो तब ई नहीं होता है। उदा. गा = गीयते, गीतः, गीतवान्, गीत्वा ।
पा = पीयते, पीतः, पीतवान्, पीत्वा ।
परंतु प्रगाय यहाँ त्वा का य नहीं होने से ई नहीं हुआ । 3. खन्, सन् और जन् धातु के न् का धुट् व्यंजनादि कित् प्रत्यय पर आ होता है, परंतु य कित् पर विकल्प से आ होता है। उदा. खन् + त = खातः, सातः, जातः ।
खायते, खन्यते, सायते, सन्यते, जायते, जन्यते । 4. धातु के अंत्य ऋ के पहले संयोग हो तो ऐसे धातु के ऋ का तथा ऋ धातु के ऋ का य (क्य) प्रत्यय पर गुण होता है।
स्मृ = स्मर्यते
ऋ = अर्यते 5. कित् प्रत्यय पर पहले गण के यज् आदि (यज्, व्ये, वे, वे, वप्, वह्, श्वि,
वद्, वस्) तथा वच् (गण 2) धातुओं के स्वर सहित अंतस्था का इ, उ तथा ऋ (ट्वृत्) होता है। य का इ, व का उ तथा र का ऋ होता है, इसे संप्रसारण भी कहते हैं। उदा. यज् = इज्यते
वच् = उच्यते वप् = उप्यते
व्ये = वीयते वह् = उह्यते
वे = ऊयते वद् = उद्यते
। = हूयते वस् = उष्यते
श्वि = शूयते
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आओ संस्कृत सीखें
६. वे
७.
८.
श्वि
धातु को छोड अंत्य य्वृत् (इ, उ, ऋ) दीर्घ होता है।
उदा. हवे
व्ये
= जाना
परंतु वे का उतः, उतवान्, उत्वा । वच् - उप्तः । उप्तवान् । उप्त्वा । धातुको ति ( क्ति) प्रत्यय लगने पर स्त्री लिंग नाम बनते हैं ।
उदा. गै = गीतिः ।
सन् = भजन करना भिक्षूक्ष्
= मांगना
रभ् = आरंभ करना
मुच् = मुक्तिः, वच् उक्तिः । प्री प्रीतिः ।
=
दुह, भिक्षु, रुधू, प्रच्छ्, चि, ब्रू, शास्, याच्, जि, दण्ड्, मथ् आदि तथा नी, ह, कृष् तथा वह् धातु द्विकर्मक हैं ।
कर्मणि प्रयोग में दुहादि धातुओं के गौण कर्म तथा नी आदि धातुओं के कर्म को प्रथमा होती है।
मुख्य
=
उदा. १) याचका नृपं धनं याचन्ते ।
याच्यते नृपो धनं याचकैः । २) किङ्करा भारं ग्रामं वहन्ति । उह्यते भारो ग्रामं किङ्करैः ।
अभ्युदय
तन्तु = तन्तु
यव =
जौ
विलम्ब = देरी
=
उन्नति
23
=
तन्तुवाय = बुनकर इन्द्रिय = इन्द्रिय
हूत:, हूतवान्, हूत्वा
वीत:, वीतवान्, वीत्वा
पहले गण के धातु
(परस्मैपदी) | खन् = खुजलना (परस्मैपदी) | यज् = पूजा करना (आत्मनेपदी) वे = बुनना (आत्मनेपदी) । व्ये
ढकना
=
शब्दार्थ
(पुंलिंग) | उत्तर = जवाब (पुंलिंग) तल = तलभाग (पुंलिंग) शिरस् = मस्तक (पुंलिंग) शिल्प = कला कौशल
स्थैर्य = स्थिरता
(पुंलिंग) ( नपुं. लिंग)
कल = मधुर
(उभयपदी)
(उभयपदी)
(उभयपदी)
(उभवपदी)
(नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग)
(नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग) (विशेषण)
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आओ संस्कृत सीखें
224
गुरुगत = गुरु में रहा (विशेषण) म्लान = मुाया हुआ (विशेषण) निष्प्रयोजन = प्रयोजनरहित (विशेषण)| शुश्रूषु = सेवा करनेवाला (विशेषण) मंगल = मंगलकारी (विशेषण)।
संस्कृत में अनुवाद करो : 1. शूरवीर वही है जिसके द्वारा इन्द्रियाँ जीती जायें । (जि) 2. पंडित वही है जिसके द्वारा धर्म का आचरण हो । (आ+चर्) 3. वक्ता वही है जिसके द्वारा सत्य बोला जाय । (वद्) 4. दाता वही है जिसके द्वारा अभय दान दिया जाय । (दा) 5. परीक्षक द्वारा विद्यार्थियों को प्रश्न पूछे जाते हैं। 6. विद्यार्थी द्वारा याद किया जाता है। (स्मृ) और परीक्षक को जवाब दिया
जाता है। 7. बुनकर सूत बुनता है । (वे) 8. जो खड्डा खोदता है वह उसमें गिरता है । 9. उसके भाई पुष्कर द्वारा नल के पास से सब जीता गया । (जि) 10. इस भार को गांव में ले जाने के लिए मजदूरों द्वारा उठाया जाता है। (वह्) 11. आचार्य द्वारा धर्म कथा प्रारंभ की जाती है । (आ + रम्)
हिन्दी में अनुवाद करो : 1. यदि न कश्चित्कार्यविलम्बस्ततः प्रस्थीयतामभ्युदयाय । 2. समाहूतं वैद्यमण्डलं तेन नरपतिना। 3. न निष्प्रयोजनमधिकारवन्तः प्रभुभिराहूयन्ते । 4. अम्लानपुष्प-मालेव तवाज्ञा नृपतिशतैरुह्यते शिरोभिः । 5. मृगभयेन यवाः किं नोप्यन्ते ?। 6. अगीयत च गन्धर्वैः कल-मङ्गल-गीतिभिः । 7. यथा खात्वा खनित्रेण, भू-तले वारि विन्दति ।
तथा गुरुगतां विद्या, शुश्रूषुरधिगच्छति ।। 8. न सा विद्या न तद्दानं न तच्छिल्पं न सा कला ।
न तत्स्थैर्य हि धनिनां याचकै र्यन्न गीयते ।।
-
लं
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आओ संस्कृत सीखें
- 25
प्र आदि अव्ययों के अर्थ 1. प्र- आरम्भ, संभव, वियोग, ज्यादा, आगे । 2. परा - प्रतिकुल, उल्टा, सामने, ज्यादा । 3. अप - वर्जन, वियोग, छिपाना । 4. सम् - साथ में, प्राधान्य, सम्यग्, चारों ओर, सन्मुख, ज्यादा । 5. अनु - समीप, समान, ज्यादा, अनुकूल, पीछे । 6. अव - विज्ञान, बोध, ज्यादा, कय वियोग, निम्न, खराब । 7. निस्-निर्-वियोग, ज्यादा, उत्पत्ति, निश्चय, बाहर । 8. दुस्-दुर्- अल्प, थोड़ा, खराब, दुःखपूर्वक । 9. वि - दूर, ज्यादा, विशेष, वियोग, विरुद्ध, उल्टा । 10. आ - मर्यादा, अभिविधि, थोड़ा, सन्मुख, सामने, ज्यादा, उत्पत्ति, ऊपर,
ऊँचा । 11. नि - ज्यादा, निम्न, रुकना, दर्शन, अभाव । 12. प्रति - समान, बदले में देना, सन्मुख, उल्टा, निषेध । 13. परि - थोड़ा, व्यापक, ज्यादा, वर्जन, ऊपर, चारों ओर । 14. उप - वर्जन, समान, समीप, पास में, छोटा । 15. अधि - अधिकार, ऊपर, ऊँचा, अधिक । 16. अपि - अपेक्षा, आशीर्वाद, संभावना, ढ़कना, प्रश्न । 17. सु - पूजा, श्रेष्ठता, ज्यादा, सरलता से । 18. उद् - प्रबलता, ऊपर, ऊँचा । 19. अति - पूजा, श्रेष्ठता, ज्यादा, अतिक्रमण, सीमातीत । 20. अभि - अभिमुख, तरफ, पास में, ऊपर, व्यापकता, ज्यादा ।
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आओ संस्कृत सीखें
पाठ - 7
सु आदि पाँचवाँ गण 1. कर्तरि प्रयोग में शित् प्रत्यय लगने पर पाँचवें गण के धातुओं को नु (श्नु)
विकरण प्रत्यय लगता है । उदा. चि + नु (श्नु) + ति 2. नु (श्नु) प्रत्यय के स्वर का ङित् सिवाय के प्रत्यय पर गुण होता है।
उदा. चिनोति 3. नु (श्नु) प्रत्यय अवित् शित् होने से ङित् है अतः धातु के स्वर का गुण नहीं
होता है। उदा. चिनोति में चि के इ का गुण नहीं होगा। 4. पहले संयोग न हो तो प्रत्यय के उ का म् और व् से प्रारंभ होनेवाले अवित् प्रत्ययों पर विकल्प से लोप होता है।
उदा. चि + नु + वस् = चिन्वः, चिनुवः । चिन्मः, चिनुमः । शक् का शक्नुवः शक्नुमः - यहाँ संयोग होने से लोप नहीं हुआ । 5. पहले संयोग न हो तो प्रत्यय के उ के बाद में रहे हि का लोप होता है।
उदा. चिनु + हि = चिनु 'शक्नुहि' में संयोग होने से हि का लोप नहीं हुआ।
परस्मैपदी के रूप चिनोमि चिन्वः, चिनुवः चिन्मः, चिनुमः चिनोषि चिनुथः
चिनुथ चिनोति
चिन्वन्ति
चिनुतः
टिप्पणी : पाँचवाँ, सातवाँ, आठवाँ तथा नौवा गण, ये चार गण अकारात सिवाय
के विकरण प्रत्यय लेनेवाले हैं । यद्यपि 7 वें गण का विकरण प्रत्यय अकारांत हैं, फिर भी वह धातु के स्वर के बाद और अंत्य व्यंजन के पहले आता है, अतः प्रत्ययों में आते का इते आदि नहीं होता है। इसी प्रकार दूसरे और तीसरे गण में भी यही नियम लागू पड़ेगा, क्योंकि उन गणों में तो विकरण प्रत्यय लगता ही नहीं हैं ।
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चिनुयाम्
चिनुयु:
6.
आओ संस्कृत सीखें
1 27
शस्तनी अचिन्वम् अचिन्व, अचिनुव अचिन्म, अचिनुम अचिनोः अचिनुतम्
अचिनुत अचिनोत् अचिनुताम्
अचिन्वन् विध्यर्थ चिनुयाव
चिनुयाम चिनुयाः चिनुयातम्
चिनुयात चिनुयात् चिनुयाताम्
आज्ञार्थ चिनवानि चिनवाव
चिनवाम चिनु चिनुतम्
चिनुत चिनोतु चिनुताम्
चिन्वन्तु अ सिवाय किसी भी वर्ण के बाद में रहे आत्मनेपदी के अन्ते, अन्ताम् और अन्त प्रत्यय के न् का लोप होता है । चिनु + नु + अन्ते = चिन्वते ।
आत्मनेपदी के रूप
वर्तमाना चिन्वे
चिन्वहे, चिनुवहे चिन्महे, चिनुमहे चिनुषे चिन्वाथे
चिनुध्वे चिनुते चिन्वाते
चिन्वते
ह्यस्तनी अचिन्वि
अचिन्वहि, अचिनुवहि अचिन्महि, अचिनुमहि अचिनुथा: अचिन्वाथाम्
अचिनुध्वम् अचिनुत अचिन्वाताम्
अचिन्वत
विध्यर्थ चिन्वीय चिन्वीवहि
चिन्वीमहि चिन्वीथाः चिन्वीयाथाम्
चिन्वीध्वम् चिन्वीत चिन्वीयाताम्
चिन्वीरन्
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आओ संस्कृत सीखें
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चिनुध्वम्
शक्नोमि शक्नोषि
आज्ञार्थ चिनवै चिनवावहे
चिनवामहे चिनुष्व
चिन्वाथाम् चिनुताम् चिन्वाताम्
चिन्वताम् व्यंजनांत धातु के रूप 7. पहले संयोग हो तो नु (श्नु) प्रत्यय के उ का स्वरादि प्रत्ययों पर उव् होता है। शक् + नु + अन्ति = शक्नुवन्ति । अश् - अश्नुवे ।
परस्मैपदी के रूप
वर्तमाना शक्नुवः
शक्नुमः शक्नुथ:
शक्नुथ शक्नोति शक्नुतः
शक्नुवन्ति
ह्यस्तनी अशक्नवम् अशक्नुव
अशक्नुम अशक्नो: अशक्नुतम्
अशक्नुत अशक्नोत् अशक्नुताम्
अशक्नुवन
विध्यर्थ शक्नुयाम् शक्नुयाव
शक्नुयाम शक्नुयाः शक्नुयातम्
शक्नुयात शक्नुयात् शक्नुयाताम्
शक्नुयुः
आज्ञार्थ शक्नवानि शक्नवाव
शक्नवाम शक्नुतम्
शक्नुत शक्नोतु शक्नुताम्
शक्नुवन्तु आत्मनेपदी के रूप
वर्तमाना अश्नुवे अश्नुवहे
अश्नुमहे अश्नुषे अश्नुवाथे
अश्नुध्वे अश्नुते
अश्नुवाते
शक्नुहि
अश्नुवते
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आओ संस्कृत सीखें
8.
आनुव
आश्नुथाः
आश्नुत
अश्नुवीय
अश्नुवीथाः अश्नुवीत
अश्वै
अनुष्व
अश्नुताम्
29
-
ह्यस्तनी
आश्नुवहि
आश्नुवाथाम्
आश्नुवाताम्
विध्यर्थ
अश्नुवीवहि
अश्नुवीयाथाम्
अश्नुवीयाताम्
आज्ञार्थ
अश्नवावहै
अश्नुवाथाम्
अश्नुवाताम्
आनुमहि
आश्नुध्वम्
आश्नुवत
तक्ष गण 1 छीलना, पतला करना अर्थ में हो, अक्षू गण 1 मिलना - अर्थ में हो तो नु (श्नु) प्रत्यय विकल्प से लगता है।
उदा. तक्ष्णोति, तक्षति । अक्ष्णोति, अक्षति ।
1
संतक्षति वाग्भिः शिष्यम् - वाणी द्वारा शिष्य को ठपका देते हैं । यहाँ ठपके अर्थ में नु प्रत्यय नहीं लगेगा ।
अश् का अश्नुवानः शक्यते
अश्नुवीमहि
अश्नुवध्वम्
अश्नुवीरन्
कर्मणि में - चीयते, कृदन्त में - चीयमानः । शक्यमानः ।
अश्नवामहै
अश्नुध्वम्
अश्नुवताम्
वर्तमान कृदन्त :
चि + नु + अत् (शतृ ) = चिन्वत्
शक् का शक्नुवत् - पुंलिंग गच्छत् जैसे रूप होंगे । स्त्रीलिंग में - चिन्वती नदी जैसे रूप होंगे ।
आत्मनेपदी में - चि + नु + आन (आनश् ) = चिन्वानः
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आओ संस्कृत सीखें
1303
5 वें गण के धातु आप = प्राप्त करना (परस्मैपदी) | अश् = मिलना (आत्मनेपदी) दु = दुःखी होना (परस्मैपदी) | कृ = हिंसा करना (उभयपदी) धृष् = हिम्मत करना (परस्मैपदी)| चि = इकट्ठा करना (उभयपदी) शक् = शक्तिमान होना (परस्मैपदी) | धू = हिलाना (उभयेपदी) श्रु (शृ) = सुनना (परस्मैपदी) | वृ = भजना (उभयपदी) साध् = साधना (परस्मैपदी) | सम् + वृ = बंद करना सु = सोमरस निकालना (परस्मैपदी)| अप + आ + वृ = खोलना स्तृ = ढकना (परस्मैपदी)| वि + वृ = विवरण करना हि = भेजना (परस्मैपदी) | आ + वृ = ढकना
शब्दार्थ अहि = साँप
(पुंलिंग) | सज् = माला (स्त्री लिंग) कुथ = दरी
(पुंलिंग) | अभीष्ट = इच्छित (विशेषण) चंद्रगुप्त = मौर्यवंशी राजा (पुंलिंग) | विरहित = बिना (विशेषण) वर = वरदान
(पुंलिंग)। दात्र = दातरडा (नपुं. लिंग) सचिव = प्रधान (पुंलिंग) | द्रम्म = पैसा (नपुं. लिंग) सामन्त = छोटा राजा (पुंलिंग) | बाहुल्य = अत्यंत (नपुं. लिंग) गुहा = गुफा (स्त्री लिंग)| हा = खेद (नपुं. लिंग) सूची = सुई (स्त्री लिंग)।
संस्कृत में अनुवाद करो : 1. हंसा ने फूल चूने (चि) और उनकी माला बनाई। (चि) 2. पर्वत की गुफा में बैठकर उसने विद्या सिद्ध की । (साध्)
विद्यादेवी ने कहा, “तू वरदान मांग । (वृ)
मैं वरदान प्रदान करने में समर्थ हूँ।” (शक्) 3. अच्छे कार्यों से मनुष्य की कीर्ति लोक में फैलती है । (अश्) 4. शत्रु सैन्य को पराजित करने के लिए उन्होंने हिम्मत की । (घृष्)
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आओ संस्कृत सीखें
और जिस प्रकार दातरडे के द्वारा घास काटा जाता है, उस प्रकार तलवारो द्वारा
शत्रु के सैन्य को काट डाला । (कृत् - गण ६) 5. अरे सुशीला ! यहाँ चादर बिछा । (प्र + स्तृ) 6. सभी लोग बड़प्पन पाने के लिए तड़पते हैं, (प्र+स्पन्द्) परंतु बड़प्पन खुले
हाथों से प्राप्त किया जाता है। (प्र + आप्) 7. कई दिनों से उपार्जित धन को खा ।
अरे मूर्ख ! एक भी पैसा इकट्ठा मत कर । (सम् + चि) क्योंकि कोई ऐसा भय आ गिरता है । (आ+पत्) कि जिससे यह जन्म समाप्त हो जाता है । (सम् + आप्)
हिन्दी में अनुवाद करो : 1. कथं य एव मद्विनाशेन' चन्द्रगुप्तं सेवितुमुद्यता: त एव मां परिवृण्वन्ति ? 2. तं संदेशं देवः श्रोतुमर्हति । 3. स्रजमपि शिरस्यन्धः क्षिप्तां धुनोत्यहिशङ्कया । 4. कर्ण-सूची-प्रवेशाभं सुता-जन्म सोऽशृणोत् । 5. आर्यपुत्र ! त्वया विरहिता मुहूर्तमपि स्थातुं न शक्नोमि ।
तदवश्यं मयाऽपि गन्तव्यमरण्यम्, अवमत्य चेद् गच्छसि मां, गच्छ,
सिध्यतु तवाभीष्टम्। अव+मन्+य = अवमत्य 6. महती कथैषा न शक्यते संक्षिप्य कथयितुम् । 7. शृणु वर्ण्यमानमस्य वृत्तान्तम् । .. 8. दशरथो राजा सामन्तान्सचिवानपि राममानेतुं प्राहिणोत् । 9. नित्यमप्येवं वदन्ती हा त्वामपि दुनोम्यहम् । टिपण्णी : 1. मम विनाश: मविनाशः तेन मविनाशेन । 2. सूच्याः प्रवेशः सूचीप्रवेश: कर्णे सूची प्रवेश: कर्ण सूची प्रवेशः
कर्णसूची प्रवेशस्य आभा यस्यतत् - कर्ण सूची प्रवेशाभम् ।
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10. 'कस्मिन्प्रयोजने मयायं प्रहित:' इति प्रयोजनानां बाहुल्यान्न खलु स्मरामि । 11. जितेन्द्रियत्वं विनयस्य साधनं गुणप्रकर्षो विनयादवाप्यते । प्रकर्षेण जनोऽनुरज्यते जनानुरागाच्च भवन्ति सम्पदः ।।
12. मा विषीद महाभाग ! भव स्वस्थोऽधुना ननु । मया मृगयमाणेन, प्राप्तास्ति भवतः प्रिया । 13. अदृष्टाऽर्थेऽनुधावन्तः, शास्त्र - दीपं विना जडाः । प्राप्नुवन्ति परं खेदं प्रस्खलन्तः पदे पदे ।।
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तनुथ
पाठ-8
तनादि आठवाँ गण 1. कर्तरि प्रयोग में शित् प्रत्यय लगने पर आठवें गण के धातुओं को उ विकरण
प्रत्यय लगता है। विकरण प्रत्यय उ का ङित् सिवाय के प्रत्ययों पर गुण होता है । तन् + उ + ति = तनोति यहाँ पाठ 7 के नियम 3, 4 व 5 लागू पडेंगे ।
तन् के रूप परस्मैपदी
वर्तमाना तनोमि तन्वः, तनुवः
तन्म:, तनुमः तनोषि
तनुथ: तनोति तनुतः
तन्वति
स्तनी अतनवम् अतन्व, अतनुव
अतन्म, अतनुम अतनोः अतनुतम्
अतनुत अतनोत् अतनुताम्
अतन्वन्
विध्यर्थ तनुयाम् तनुयाव
तनुयाम तनुया: तनुयातम्
तनुयात तनुयात्
तनुयाताम्
आज्ञार्थ तनवानि तनवाव
तनवाम तनुतम्
तनुत तनुताम्
तन्वन्तु
तनुयुः
तनु
तनोतु
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आओ संस्कृत सीखें
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तन्वे तनुषे
तनुध्वे
आत्मनेपदी
वर्तमाना तन्वहे, तनुवहे तन्महे, तनुमहे तन्वाथे तन्वाते
तन्वते
ह्यस्तनी अतन्वि अतन्वहि, अतनुवहि अतन्महि, अतनुमहि अतनुथाः अतन्वाथाम्
अतनुध्वम् अतनुत अतन्वाताम्
अतन्वत
विध्यर्थ तन्वीय तन्वीवहि
तन्वीमहि तन्वीथाः तन्वीयाथाम्
तन्वीध्वम् तन्वीत तन्वीयाताम्
तन्वीरन् ___ आज्ञार्थ तनवै तनवावहै
तनवामहै तन्वाथाम्
तनुध्वम् तनुताम तन्वाताम्
तन्वताम्
कृ धातु कृ+उ+ति (पाठ 1 नियम से) कट् + उ + ति कर+ओ+ति = करोति ।
कृ+उ+तस् = कर् + उ + तस् । 3. अवित् शित् प्रत्ययों पर कृ धातु के अ का उ होता है।
कुर् + उ + तस् = कुरुतः, कुर्वन्ति, कुरुते 4. व् और म् से प्रारंभ होनेवाले अवित् प्रत्ययों पर तथा य से प्रारंभ होनेवाले
प्रत्ययों पर कृ धातु के विकरण प्रत्यय उ का लोप होता है ।
उदा. कुर्वः, कुर्मः, कुर्यात् । टिप्पणी : आठवें गण में हि का लोप सब जगह होगा ।
तनुष्व
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आओ संस्कृत सीखें
करोमि
करोषि
करोति
अकरवम्
अकरोः
अकरोत्
कुर्याम्
कुर्याः
कुर्यात्
करवाणि
कुरु
करोतु
कुर्वे कुरुषे
कुरुते
अकुर्वि
अकुरुथाः
अकुरुत
कुर्वीय
कुर्वीथा:
कुर्वीत
कृ
के परस्मैपदी रूप
वर्तमाना
कुर्वः
कुरुथ:
कुरुत:
अकुर्व
अकुरुतम्
अकुरुताम्
कुर्याव
कुर्यातम्
कुर्याताम्
कुर्वहे
कुर्वाथे
कुर्वाते
35 ७
विध्यर्थ
नी
आज्ञार्थ
करवाव
कुरुतम्
कुरुताम् आत्मनेपदी के रूप
वर्तमाना
अकुर्वहि
अकुर्वाथाम्
अकुर्वाताम्
ह्यस्तनी
कुर्वीवहि
कुर्वीयाथाम्
कुर्वीयाताम्
विध्यर्थ
कुर्मः
कुरुथ
कुर्वन्ति
अकुर्म
अकुरुत
अकुर्वन्
कुर्याम
कुर्यात
कुर्युः
करवाम
कुरुत
कुर्वन्तु
कुर्महे
कुरुध्वे
कुर्वते
अकुर्महि
अकुरुध्वम्
अकुर्वत
कुर्वीमहि
कुर्वीध्वम्
कुर्वीरन्
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आओ संस्कृत सीखें
कृ
करवै
कुरुष्व
कुरुताम्
= करना
सन्
= दान करना
क्षण् = हिंसा करना
वर्तमान कृदन्त
तन्वत्, कुर्वत् के रूप तीनों काल में चिन्वत् की तरह होते है।
आत्मनेपद में तन्वानः, कुर्वाणः । कर्मणि प्रयोग में तन्यते, तन्यमानः कृ का क्रियते, क्रियमाण: आदि
आटोप = गर्व चक्रिन् = चक्रवर्ती
चाण्डाल = चांडाल
आविस्+कृ= प्रगट करना (उभयपदी) मन् = मानना
सुनु = पुत्र संपर्क = संबंध
36
आज्ञार्थ
करवावहै
कुर्वाथाम्
कुर्वाताम्
निर्बलता = कमजोरी
अभिमत
= इष्ट
आलस्य = आलस्य
तपस् = तप
पार्श्व = पासमें
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
वत्स = बछडा
(पुंलिंग)
सुमति = पांचवे तीर्थंकर (पुंलिंग )
(पुंलिंग)
(पुंलिंग) (स्त्रीलिंग) ( नपुं. लिंग) ( नपुं. लिंग) ( नपुं. लिंग) ( नपुं. लिंग) |
आठवें गण के धातु
(उभयपदी ) | क्षिण् = हिंसा करना
(उभयपदी) वन् = मांगना
(उभयपदी)
करवामहै
कुरुध्वम्
कुर्वताम्
शब्दार्थ
दुष्कृत = पाप
लाम्पट्य = लंपटता
शर्मन् = सुख
सत्त्व = प्राणी
घोर = कठिन
दुर्मद = अतिशय मद
पर = तत्पर
(नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग)
(नपुं. लिंग)
(विशेषण)
(विशेषण)
(विशेषण)
प्रकट = प्रकृत
(विशेषण)
शरीरस्थ शरीर में रहा (विशेषण)
=
(विशेषण)
स्वामिन् शीघ्र = जल्दी
(विशेषण)
समम् = साथमें
(अव्यय)
(उभयपदी) (आत्मनेपदी) (आत्मनेपदी)
= नाथ
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आओ संस्कृत सीखें
4373
संस्कृत में अनुवाद करो : 1. मैंने भरत के पास अच्छी पुस्तक देखी और मांगी (वन्)परंतु उसने मुझे नहीं दी। 2. क्रोध करके मनुष्य अपनी कमजोरी प्रगट करता है । (आविस् + क) 3. घोर तप द्वारा भगवान महावीर ने कर्मों का नाश किया । (क्षिण) 4. जो अपने गुण छिपाता है और दूसरों के गुण प्रगट करता हैं, (आविस् + कृ) उस सज्जन की तुम पूजा करो । (कृ)
हिन्दी में अनुवाद करो : 1. गुणेषु यत्नः क्रियतां किमाटोपैः प्रयोजनम् । 2. 'एतस्य वधं कुर्मः' 'एतस्य भक्तिं कुर्मः' इति मति र्ययोः,
तयो द्वैयोरपि हिता बुद्धिः करणीया। 3. मनागपि विषयलाम्पट्यपरं मनो मा कुरु, दुष्कृत-कर्म च मा कुरु, यदि
किल शर्मेच्छसि। 4. हे मूढ ! पवनवच्छीघ्रमात्मीयं मनः सुस्थिरं निश्चितं च कुर्याः । 5. अहो अमी दुर्मदाः चक्रि-सूनवोऽस्मत्कथितं युक्तमपि न मन्वते धिग्मदम्। 6. भगवान्सुमतिस्वामी तनोत्वभिमतानि वः । 7. न हि सीदन्ति कुर्वन्तो देश-कालोचितां क्रियाम् । 8. आलस्यं हि मनुष्याणां, शरीरस्थो' महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यम-समो बन्धुः, कृत्वा यं नावसीदति ।। 9. यथा धेनु-सहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम् ।
तथा पुरा-कृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ।। 10. निर्गुणेष्वपि सत्त्वेषु, दयां कुर्वन्ति साधवः ।
न हि संहरते ज्योत्स्नां, चन्द्रश्चाण्डालवेश्मनि ।। 11. कुलीनैः सह संपर्क, पण्डितैः सह मित्रताम् ।
ज्ञातिभिश्च समं मेलं, कुर्वाणो न विनश्यति ।। टिप्पणी :1. शरीरे तिष्ठति इति शरीरस्थः ।
2. उद्यमेन समः उद्यमसमः, अथवा उद्यमस्य सम: उद्यमसमः । 3. धेनूनां सहस्राणि-धेनुसहस्राणि, तेषु धेनुसहस्रेषु । 4. निस्, निर् दुस् दुर् बहिस्, आविस्, प्रादुस् और चतुर के र का क, ख,
प और फ पर ष् होता है । उदा. दुष्कृतम्, आविष्कुर्वन्ति ।
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आओ संस्कृत सीखें
38
पाठ - 9
'क्री आदि - नौवाँ गण 1. कर्तरि प्रयोग में शित् प्रत्यय लगने पर नौवें गण के धातुओं को ना (श्ना) विकरण प्रत्यय लगता है । ना (श्ना) प्रत्यय ङित् होने से गुण नहीं होता है ।
उदा. क्री + ना (श्ना) + ति = क्रीणाति 2. व्यंजन से प्रारंभ होनेवाले अविशित् प्रत्ययों पर ना (श्ना) प्रत्यय के आ का ई होता है ।
उदा. क्रीणीतः, क्रीणीते 3. स्वर से प्रारंभ होनेवाले अविशित् प्रत्ययों पर ना (श्ना) प्रत्यय के आ का लोप होता है। उदा. क्री + ना (श्ना) + अन्ति = क्रीणन्ति
क्री के परस्मैपदी रूप
वर्तमाना क्रीणामि क्रीणीवः
क्रीणीमः क्रीणासि क्रीणीथः
क्रीणीथ क्रीणाति क्रीणीत:
क्रीणन्ति
स्तनी अक्रीणाम् अक्रीणीव
अक्रीणीम अक्रीणाः अक्रीणीतम्
अक्रीणीत अक्रीणात् अक्रीणीताम्
अक्रीणन्
विध्यर्थ क्रीणीयाम् क्रीणीयाव
क्रीणीयाम क्रीणीयाः क्रीणीयातम्
क्रीणीयात क्रीणीयात्
क्रीणीयाताम्
आज्ञार्थ क्रीणानि क्रीणाव
क्रीणाम क्रीणीहि क्रीणीतम्
क्रीणीत क्रीणातु क्रीणीताम्
क्रीणन्तु
क्रीणीयुः
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आओ संस्कृत सीखें
39
आत्मनेपद के रूप
वर्तमाना क्रीणे क्रीणीवहे
क्रीणीमहे क्रीणीषे क्रीणाथे
क्रीणीघ्वे क्रीणीते क्रीणाते
क्रीणते
हस्तनी अक्रीणि अक्रीणीवहि
अक्रीणीमहि अक्रीणीथाः अक्रीणाथाम्
अक्रीणीध्वम् अक्रीणीत अक्रीणाताम्
अक्रीणत
विध्यर्थ क्रीणीय क्रीणीवहि
क्रीणीमहि क्रीणीथाः क्रीणीयाथाम्
क्रीणीध्वम् क्रीणीत क्रीणीयाताम्
क्रीणीरन्
आज्ञार्थ क्रीण क्रीणावहै
क्रीणामहै क्रीणीष्व क्रीणाथाम्
क्रीणीध्वम् क्रीणीताम् क्रीणाताम्
क्रीणताम् 4. व्यंजनांत धातु के ना (श्ना) विकरण प्रत्यय सहित हि प्रत्यय का आन होता है।
उदा. पुष् + ना (श्ना) + हि = पुषाण, मुषाण । 5. व्यंजनांत धातु के शेष रूप क्री धातु के अनुसार करें ।
उदा. पुष्णाति, पुष्णीतः, पुष्णन्ति 6. विकरण प्रत्यय पर पू आदि धातुओं का अंत्यस्वर ह्रस्व होता है।
उदा. पुनाति । लुनाति
ज्या का जिनाति आदि___7. 'क्षुभ्नाति' आदि में न् का ण नहीं होता है ।
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आओ संस्कृत सीखें
8. परि, वि तथा अव उपसर्ग के बाद क्री धातु आत्मनेपदी है।
उदा. परिक्रीणीते, विक्रीणीते आदि । 9. ज्ञा (जा) धातु के पहले उपसर्ग न हो तो आत्मनेपदी भी होता है।
उदा. जानीते, जानाति । 10. 'छिपाना' अर्थ में तथा सम् तथा प्रति उपसर्ग पूर्वक स्मृति से भिन्न अर्थ में ज्ञा धातु आत्मनेपदी है। उदा. अपजानीते = छिपाता है ।
संजानीते = जानता है।
प्रतिजानीते = प्रतिज्ञा करता है ।
परंतु संजानाति = स्मरण करता है । 11. 'स्म' अव्यय के योग में ह्यस्तन भूतकाल में भी वर्तमाना प्रत्यय होते हैं।
पृच्छति स्म पितरम् - पिता को पूछा। 12. पृ सिवाय के दीर्घ ऋकारांत और लू आदि धातुओं से ति (क्ति) तथा तवत् (क्तवतु) के त का न होता हैं । उदा. → = जीर्णः, जीर्णवान्
तृ = तीर्णः, तीर्णवान् लू = लूनिः, लूनः, लूनवान्
वर्तमान कृदन्त लुनत्, क्रीणत्, मुष्णत् आदि - रूप चिन्वत् की तरह । आत्मनेपदी में - क्रीणानः, गृह्णानः कर्मणि में - पूयते, मुष्यते
पृ का पूर्यते ।
वृ = वूर्यते । कृदंत - पूयमानः । मुष्यमाणः आदि
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आओ संस्कृत सीखें
अश् = खाना
क्लिश् = क्लेश करना गूंथना
ग्रन्थ् =
पुष् = पोषण करना
बन्ध् = बाँधना
मन्थ्
= मथना
मुष्
चोरी करना
मृद् = मर्दन करना
=
क्षुभ्
= क्षुब्ध होना
ज्ञा (जा) = जानना
अनु + ज्ञा (जा) = अनुज्ञा देना (परस्मैपदी) प्रत्यभि+ज्ञा = पहिचानना (परस्मैपदी )
ली = चाटना
कॄ = हिंसा करना
शृ = हिंसा करना
अङ्क = गोद
अमर = देव
कृतान्त = यम
हाथी
पद्मप्रभ = छठे तीर्थंकर
=
भासुरक एक नाम लेश = थोड़ा
विकल्प = विचार
नाग =
=
फल
विपाक वृत्तांत = चरित्र
41
नौवें गण के धातु
= पालन करना
(परस्मैपदी) | पृ (परस्मैपदी) दृ = फाड़ना (परस्मैपदी) जृ = बूढ़ा होना
( परस्मैपदी) गृ = बोलना
( परस्मैपदी) ज्या (जी) = हीन होना ( परस्मैपदी)
(परस्मैपदी) क्री = खरीदना
(उभयपदी)
( परस्मैपदी )
(उभयपदी)
( परस्मैपदी)
(उभयपदी)
( परस्मैपदी)
(उभयपदी)
( परस्मैपदी)
(उभयपदी)
(उभयपदी)
(उभयपदी)
(उभयपदी)
(उभयपदी)
ग्रह = ग्रहण करना
मी = हिंसा करना
श्री
पू = पवित्र करना
लू = काटना
धू = हिलाना
= पकाना
( परस्मैपदी)
= ढकना
स्तृ (परस्मैपदी) वॄ = पसंद करना
(परस्मैपदी)
शब्दार्थ
(पुंलिंग) | समवाय = संबंध (पुंलिंग) सूत = सारथी
(पुंलिंग) बहिस् = बाहर (पुंलिंग) यावत् = जब तक
(पुंलिंग) अपि = भी
(पुंलिंग) (पुंलिंग) कान्ता = पत्नी (पुंलिंग) तुम्बी = तुंबडी
स्त्री
जाने = जानता हूँ
(परस्मैपदी)
(परस्मैपदी)
(परस्मैपदी)
(परस्मैपदी)
=
(पुंलिंग) अङ्गना (पुंलिंग) रज्जु = डोरी
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
(अव्यय)
(अव्यय)
(अव्यय)
(अव्यय)
(स्त्रीलिंग)
(स्त्रीलिंग)
(स्त्रीलिंग)
(स्त्रीलिंग)
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आओ संस्कृत सीखें
विजया = नाम है उटज = झोपड़ी कलत्र = पत्नी प्रेमन् = प्रेम प्रेषण = भेजना भाण्ड = बर्तन सस्य = घास
(स्त्री लिंग) | अरुण = लाल (नपुं. लिंग) अंतरंग = अंदर का (नपुं. लिंग) | कटु = कडवा (नपुं. लिंग) | निबिड = गाढ (नपुं. लिंग) | परिणत = पका हुआ (नपुं. लिंग) | पुण्य = पवित्र (नपुं. लिंग) | मदीय = मेरा
(विशेषण) (विशेषण) (विशेषण) (विशेषण) (विशेषण) (विशेषण) (विशेषण)
अन्य धातु मथ् = मथना गण 1 (परस्मैपदी) | दृप् = गर्व करना गण 4 (आत्मनेपदी) वेष्ट = बुनना गण 1 (आत्मनेपदी) | गवेष् = शोध करना गण 10 (परस्मैपदी) स्मि = स्मित करना गण1(आत्मनेपदी) | नुद् = प्रेरणा करना गण 10 (परस्मैपदी) धू = धारणा करना 1 (उभयपदी) | वृज् = छोडना गण 10 (परस्मैपदी)
संस्कृत में अनुवाद करो : 1. उस दुरात्मा को गाढ़ बंधनों से बाँधो और कैद में डालो (बन्ध्) । 2. देखो, भ्रमर पुष्प में लीन बना है और शहद पीता है। 3. जब मनुष्य असत्य बोलता है (गृ) तब सज्जन का हृदय दुःखी होता है । 4. तुम पुष्पों की माला गूंथो (ग्रंथ्) व्यर्थ में क्लेश मत करो (क्लिश्) ।
तू फूल की चोरी मत कर (मुष्) ।
तुम तो फूलों को चिमला देते हो (मृद्) । 5. कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्राचार्यजी के व्याकरण को देखकर पंडित अपना मस्तक
धुनाते हैं (धू)। 6. कन्याओं ने अपने घड़े पानी से भरे । (पृ) 7. वृक्ष के पत्तों द्वारा तापस ने अपनी झोपड़ी ढक दी (स्तृ) । 8. मनुष्य वृक्ष पर से फल लेता है और कड़वे पत्ते छोड़ देता है । (वृज् गण १०)
तो भी सज्जन की तरह वह महावृक्ष पत्तों को अपनी गोद में धारण करता है ।
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आओ संस्कृत सीखें
9. समय पर पके हुए धान्य को किसान काटता है, उसी प्रकार कृतांत जन्मे को काट लेता है । (लू)
10. अपने वचन से छोड़े हुए आहार को मैं क्यों ग्रहण करूँ ? (ग्रह) 11. पंडितजन प्रिय के वियोग रूपी विष के वेग को जानते हैं, (ज्ञा) इसीलिए बिल में रहे साँप की तरह प्रेम को छोड़ देते हैं । (परि + ह)
43
12. उसके मुख का बंध और वेणी का बंध शोभा को धारण करता है, मानों चंद्रमा और राहु मल्लयुद्ध करते हैं ।
हिन्दी में अनुवाद करो :
1. अनुजानीत मां यत्र मे बन्धुजनोऽस्ति तत्र गच्छामि । विक्रीणीते स्म भाण्डानि ।
2.
3. सूत ! नोदयाश्वान्, पुण्याश्रमदर्शनेन तावदात्मानं पुनीमहे । कटु-तुम्ब्या: पक्वमपि फलं कोऽश्नाति ?
4.
5. अमूनि फलानि गृह्णीत ।
6.
7.
हुए प्राणी
एषा भवतः कान्ता, त्यज वैनां गृहाण वा ।
‘कस्मात्कर्मणः भवगहने भ्रम्यते, कस्माच्च मोक्षो भवति, इति ज्ञातुं मूढ ! यदि मन्यसे तदा जिनागमान्गवेषय ।
8.
एष जानाति सर्वं भासुरक ! बहिर्नीत्वा तावत्ताड्यतां यावत्कथयति । 9. विजये ! अपि प्रत्यभिजानासि भूषणमिदम् ?
10. अमूं विद्यां भक्तिप्रवणेन चेतसा निर्विकल्पम्' गृहाण ।
11. जानीहि मदीयमपि लेशतो वृत्तान्तम् ।
12. अनुगृहाणेमां मन:- परितोषाय मे नृपंचन्द्र ! |
13. शीलेन महता पुनाति स्वं कुलद्वयम् ।
14. मुषाण रत्नानि हरामराङ्गनाः
15. विपुलधनमत्रास्ति मदीयं तद् गृहाण भोः ! । 16. दुःखं प्राप्य न दीन: स्यात्सुखं प्राप्य न विस्मितः । मुनि: कर्म - विपाकस्य जानन् परवशं जगत् ।।
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आओ संस्कृत सीखें 17. पद्म-प्रभ-प्रभो देह-भासः पुष्णन्तु वः श्रियम् ।
अन्तरङ्गारिमथने, कोपाटोपादिवारुणाः ।। 18. जानीयात्प्रेषणे भृत्यान्बान्धवान्व्यसनागमे ।
मित्रं चापत्ति-काले च भार्यां च विभव-क्षये ।। 19. आत्मानं विषयैः पाशै र्भववास-पराङ्मुखम् ।
इन्द्रियाणि निबध्नन्ति मोहराजस्य किङ्कराः ।। 20. बहूनामप्यसाराणां समवायो हि दुर्जयः ।
तृणैरावेष्ट्यते रज्जु र्येन नागोऽपि बध्यते ।। 21. प्रीणाति यः स्वचरितैः पितरं स पुत्रो,
यद् भर्तुरेव हितमिच्छति तत्कलत्रम् । 22. तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रिय यद,
एतत् त्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते ।।
टिप्पणी : 1. निर्गतो विकल्पो यस्मात् तत् निर्विकल्पम् तत् (द्वितीया) क्रिया विशेषण। 2. समा क्रिया यस्य तत् समक्रियम् । .
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आओ संस्कृत सीखें
1453
पाठ-10
रुध् आदि सातवाँ गण 1. कर्तरि प्रयोग में शित् प्रत्यय लगते समय सातवें गण के धातुओं को स्वर के बाद
न (श्न) प्रत्यय लगता है और विकरण प्रत्यय लगने पर धातु में रहे न् का अथवा न् के स्थान पर हुए अनुस्वार या अनुनासिक व्यंजन का लोप होता है । उदा. रुध् + मि
रूनध् + मि = रुणध्मि
हिस् + ति = हिनस् + ति = हिनस्ति । 2. धा सिवाय के धातु के चौथे अक्षर के बाद प्रत्यय के त् तथा थ् का ध् होता है।
रुनध् + ति = रुनध् + धि रुनद् + धि = रुणद्धि
लभ् + त, लभ् + ध = लब्धः । लब्धवान् । 3. विकरण प्रत्यय न (श्न) के अ का अवित् शित् प्रत्यय पर लोप होता है।
रुनध् + तस् = रून्धः, रुन्धन्ति
रुनध् + थस् = रुन्द्धः । 4. व्यंजनांत धातु से हि प्रत्यय का धि होता है । इस गण में सभी धातु धुट् व्यंजनांत होने से सभी धातुओं में हि का धि होगा ।
रुनध् + धि = रुन्द्धि 5. व्यंजन के बाद में रहे धुट् व्यंजन का स्व धुट् व्यंजन पर विकल्प से लोप होता है।
उदा. रुन्धि, रुन्द्धि । रुन्धः, रुन्द्धः । 6. व्यंजनांत धातु के बाद द् (तृतीय पुरुष एकवचन-ह्यस्तनी) का लोप होता है
और धातु के अंत में स् व्यंजन का द् होता है । रुध् + द् अरुनध् + द् = अरुण अरुणाद्, अरुणात्
हिंस् का अहिनद्, अहिनत् 7. व्यंजनांत धातु के बाद स् (ह्यस्तनी दूसरा पुरुष एक वचन) का लोप होता है - और धातु के अंत में स्, र् या ध् व्यंजन हो तो उसका विकल्प से र् होता है।
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आओ संस्कृत सीखें
रुध् - अरुणः, अरुणत्, द् हिंस् का अहिनः, अहिनत् द् भिद् का अभिनः अभिनत्, द्
रुध धातु के रूप
परस्मैपदी
वर्तमाना रुन्ध्वः
रुन्ध्मः
रुणध्मि रुणत्सि
रुणद्धि
रुद्धः
रुन्धन्ति
अरुन्ध्म
अरुणधम् अरुणः, त्, द् अरुणत्, द्
अरुन्द्ध
अरुन्धन्
रुन्ध्याम
रुन्ध्याम् रुन्ध्या : रुन्ध्यात्
शस्तनी अरुन्ध्व अरुन्द्धम् अरुन्ताम्
विध्यर्थ रुन्ध्याव रुन्ध्यातम् रुन्ध्याताम्
आज्ञार्थ रुणधाव रुन्द्धम् रुन्द्धाम्
रुन्ध्यात
रुन्ध्युः
रुणधाम
रुणधानि रुद्धि रुणधु
रुन्धन्तु
आत्मनेपद के रुप
वर्तमाना रुन्ध्वहे रुन्धाथे रुन्धाते
रुन्ध्महे
FET
रुन्द्ध्वे
रुन्धते
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आओ संस्कृत सीखें
अरुन्ध
अरुन्द्धाः
अरुन्द्ध
9.
रुन्धीय
रुन्धीथा:
रुन्धीत
रुणधै
रुन्त्स्व
रुन्द्धाम
47
ह्यस्तनी
अरुन्ध्वहि
अरुन्धाथाम्
अरुन्धाताम्
भिद् + ति
भिनद् + ति
भिनत्ति ।
विध्यर्थ
रुन्धीह
रुन्धीयाथाम्
रुन्धीयाताम्
रुधावहै
रुन्धाथाम्
रुन्धाताम्
आज्ञार्थ
भिद् के रूप
=
अरुन्धमहि
अरुन्द्ध्वम्
अरुन्धत
वर्तमान
भिन्तः ।
भिन्दन्ति ।
ह्यस्तनी
अभिनदम् (प्रथम पुरुष एक वचन )
B.
ध से प्रारंभ होनेवाले प्रत्यय पर पूर्व का स् विकल्प लुप्त होता है।
उदा. हिन्धि, हिन्दिध
'स्' दंत्य होने से दंत्य का तीसरा व्यंजन स् का द् हुआ ।
पिष् + ति
पिनष् + ति पिनष्टि ।
पिंष्टः ।
स् पर ष् और ढ् का क् होता है ।
उदा. 1) पिष् + सि
पिनष् + सि
पिनक् + सि
रुन्धीमहि
रुन्धीध्वम्
रुन्धीरन्
पिनक्षि ।
रुणधामहै
रुन्ध्वम्
रुन्धताम्
पिंषन्ति ।
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आओ संस्कृत सीखें
48
2) पिष् + थस् --- - -
पिनष् + थस्
पिनष् + थस् = पिंष् + थस् = पिंष्ठः, पिंष्ठ । ह्यस्तनी में अपिनट, इ, अपिंष्टाम् अपिंषन् आज्ञार्थ पिष् + हि - पिन्ष् + धि .
पिण्ड् + धि = पिण्ड् + ढि = पिण्ड्ढि पिष्टम्, पिष्ट ।
रिच् धातु रिच् + ति
रिनच् + ति = रिनक्ति, रिङ्क्तः हस्तनी में- अरिणक्, ग् अरिङ्क्ताम् अरिञ्चन् (तृ.पु.) आज्ञार्थ- रिधि, रिङ्क्तम् रिक्त (द्वि.पु.)
भुज् वर्तमाना - तीसरा पुरुष
भुनक्ति भुक्तः भुञ्जन्ति (परस्मै)
भुङ्क्ते भुञ्जाते भुञ्जते (आत्मने) ह्यस्तनी तीसरा पुरुष
अभुनक्, ग् अभुक्ताम् अभुञ्जन् (प.)
अभुक्त अभुजाताम् अभुञ्जत (आ.) आज्ञार्थ द्वितीय पुरुष
भुङ्ग्धि भुङ्क्तम् भुङ्क्त (प.) भुक्ष्व भुञ्जाथाम् भुङ्ग्ध्व म् (आ.)
अऽ वर्तमाना - तृतीय पुरुष अनक्ति अङ्क्तः अञ्जन्ति ह्यस्तनी - तृतीय पुरुष आनक्, ग् आङ्क्ताम् आञ्जन् आज्ञार्थ - द्वितीय पुरुष अङ्ग्धि अङ्क्तम् अङ्क्त 10. तृह धातु के विकरण प्रत्यय न (श्न) के बाद व्यंजन से प्रारंभ होनेवाले वित्
प्रत्यय पर ई जोड़ते हैं।
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आओ संस्कृत सीखें
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तृह् + ति तृनह् + ति ।
तृनईह + ति = तृनेह् + ति 11. धुट् व्यंजनादि प्रत्ययों पर तथा पद के अंत में रहे ह् का द होता है ।
उदा. तृणेढ् + ति
तृणेद् + धि
तृणेढ् + ढि 12. द के निमित्त से बने हुए द पर पूर्व के ढ् का लोप होता है और पूर्व के अ, इ, उ दीर्घ होते है । तृणेढि । मूढः (भूतकृदंत)
आ + रुह् + त = आरुढः (भू. कृदन्त) तृह = तृह् + तस् + तृन
तृन्ह् + तस्, तृन्ह् + तस् तृन्द + तस्, तृन्द + धस् = तृण्द् + ढस् = तृण्ढः ।
तृह् + अन्ति, तृनह् + अन्ति = तृहन्ति वर्तमाना
तृणेहि तुंह्वः तूंमः
तृणेक्षि तृण्ढः तृण्ड ह्यस्तनी दुसरा पुरुष अतृणेट, इ अतृण्ढम् अतृण्ड तीसरा पुरुष अतृणेट्, ड् अतृण्ढाम् अर्तृहन्
विध्यर्थ प्रथम पुरुष तुंह्याम् तुंह्याव तुह्याम
____ . आज्ञार्थ प्रथम पुरुष तृणहानि . तृणहाव तृणहाम द्वितीय पुरुष तृण्ढि तृण्ढम् तृण्ड वर्तमान कृदन्त - रुध् - का रुन्धत् । भुञ्जत्
रूप चिन्वत् की तरह आत्मनेपद - भुञ्जानः, रुन्धानः ।
कर्मणि - रुध्यते, रुध्यमानः (वर्तमान कृदन्त) हिंस् - हिंस्यते, हिंस्यमानः (वर्तमान कृदन्त) भञ्ज् - भज्यते, भज्यमानः (वर्तमान कृदन्त)
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आओ संस्कृत सीखें
= अंजन करना
अज्
तृह्य = हिंसा करना पिष् :
= दलना
पृच् = संपर्क करना
भुज् = भोग करना
विज् = चलित होना
हिंस् = हिंसा करना
खिद् = खेद करना
गन्ध = गंधयुक्त द्रव्य
पर = शत्रु
प्रशम =
शांति
प्राज्ञ = बुद्धिमान् बुध = पंडित
राशि = ढेर
वारण = हाथी
विशिख = बाण
हृद = द्रह
50
= जलना
सातवें गण के धातु (परस्मैपदी) | इन्ध् (परस्मैपदी) विद् विचार करना (परस्मैपदी) छिद् = छेद करना
( परस्मैपदी) भिद् = भेद करना (परस्मैपदी) युज् = जोड़ना (परस्मैपदी) रिच् = खाली करना
=
( परस्मैपदी) क्षुद् = पीसना
(आत्मनेपदी)
=
(आत्मनेपदी) (आत्मनेपदी)
(पुंलिंग) लवण = नमक (पुंलिंग) साहस = साहस (पुंलिंग) | सौहार्द = मित्रता
(उभयपदी)
(उभयपदी)
(उभयपदी)
(उभयपदी)
(उभयपदी)
शब्दार्थ
(स्त्रीलिंग)
(पुंलिंग) | अवन्ती = नगरी का नाम (स्त्रीलिंग) (पुंलिंग) पिप्पली = पीपर (पुंलिंग) हरिद्रा = हल्दी (पुलिंग) दैन्य = दीनता
(स्त्रीलिंग)
(पुंलिंग) मर्मन् = मर्म (पुंलिंग) मरिच = मिर्च
( नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग)
संस्कृत में अनुवाद करो
1.
किसी भी जीव को मारना नहीं चाहिए । (हिंस् )
2.
पंडित पुरुष अच्छे-बुरे का विवेक करते हैं (वि + विच)
3. तू संत पुरुषों की संगति कर और तत्त्व का विचार कर (विद्)
4.
जिस प्रकार पवन वृक्षों को उखाड़ (भञ्ज्) देता है, उसी प्रकार तुमने मेरे मनोरथ नष्ट कर दिए। (भञ्ज)
5. इष्ट के वियोग और अनिष्ट के संयोग में मूर्ख मनुष्य खेद करता है । (खिद्) परंतु जो बुद्धिशाली है, वह खेद नहीं करता है ( खिद्) वह तो मानता है कि मनुष्य किए हुए कर्मों का फल प्राप्त करता है। (भुज्)
6. मनुष्य को दूसरों के गुण प्रगट करने चाहिए (वि + अञ्ज्)
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4 51
आओ संस्कृत सीखें7. उसने हल्दी, नमक और मिर्च को पीसा (क्षुद्) और मैंने गेहूँ पीसे (पिष्) अब
तू पीपर को पीस । 8. तुमने मुझे अकार्य करने से रोका (रुध्) वह बहुत अच्छा किया।
हिन्दी में अनुवाद करो : 1. अरुणसिद्धराजोऽवन्तीम् । 2. धनं धर्मे नियुञ्जीत । 3. तवोत्सुकं चेतो रुन्ध्यात् । 4. यथा तथा प्राणिषु दयां कुरु, यथा तथा धर्ममनुतिष्ठ,
यथाऽपि तथाऽपि प्रशमं धर, यथा तथा कर्म छिन्द्धि । 5. ये रात्रावपि भुञ्जते ते पापहदे निमज्जन्ति । 6. शुष्ककाष्ठं च मूर्खच भिद्यते न तु नम्यते । 7. मूर्खसहस्रेभ्यः प्राज्ञ एको विशिष्यते । 8. तस्यैव बुद्धि-विशिखेन भिननि मर्म । 9. तेषां कथं नु हृदयं न भिनत्ति लज्जा । 10. रुन्धन्तु वारण-घटा नगरं मदीयाः । 11. मित्रस्नेहाद्विवशमधुना साहसे मां नियुङ्क्ते । 12. वहति जलमियं पिनष्टि गन्धानियम् । 13. पितॄन्पुत्राः पुत्रान्परवदभिहिंसन्ति पितरो -
'यदर्थं सौहार्द सुहृदि च विमुञ्चन्ति सुहृदः । 14. छिन्दन्ति ज्ञान-दात्रेण स्पृहा-विषलतां बुधाः ।
मुखशोषं च मूछौं च दैन्यं यच्छति यत्फलम् ।। 15. तत्राऽपि न विनोपायं प्राप्यन्ते रत्नराशयः । ____ को हि हस्तं विना भुङ्क्ते पुरोवर्त्यपि भोजनम् ।।
टिप्पणी : 1. यदर्थम् = जिसके लिए 2. यस्याः फलम् = यत् फलम् 3. पुरो वर्तते इति पुरोवर्तिन् ।
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आओ संस्कृत सीखें
52
यामः
पाठ- 11
अदादि दूसरा गण 1. द्विष् और आकारांत धातु के अन् ह्यस्तनी (तृतीय पुरुष बहुवचन) का विकल्प
से उस् (पुस्) होता है। ... 2. उस् (पुस्) प्रत्यय पर अंत्य आ का लोप होता है ।
उदा. या + उस्
अ + या + उस् = अयुः, अयान् या = जाना धातु परस्मैपदी के रूप
वर्तमाना यामि
यावः याथ:
याथ यात:
यान्ति
ह्यस्तनी अयाम्
अयाव
अयाम अया:
अयातम् अयाताम्
अयुः, अयान्
विध्यर्थ यायाम्
यायाव याया:
यायातम्
यायात यायाताम्
यासि
याति
अयात
अयात्
___#FREE FE
यायाम
यायात्
यायुः
आज्ञार्थ
याव
याम
यात
याताम्
यानि याहि
यातम् यातु
यान्तु 3. व्यंजन से प्रारंभ होनेवाले वित् प्रत्ययों पर दूसरे गण के धातुओं के अंत्य उ का
औ होता है।
यु + ति = यौति ।
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आओ संस्कृत सीखें
4.
यौमि
यौषि
यौति
अयवम्
अयौः
अयौत्
युयाम्
युया:
युयात्
यवान
यहि
यौतु
53
यु धातु के परस्मैपदी रूप
वर्तमाना
युव:
युथः
युतः
स्वीमि - स्तौमि
स्वीषि - स्तौषि
स्वीति - स्तौति
ह्यस्तनी
अयुव
अयुतम्
अयुताम्
विध्यर्थ
युयाव
युयातम्
युयाताम्
आज्ञार्थ
यवाव
युतम्
युताम्
रु+
रु + ई + ति =
यवाम
युत
युवन्तु
व्यंजन से प्रारंभ होनेवाले वित् प्रत्ययों पर तु, रु, स्तु धातु के बाद विकल्प से ई आता है ।
उदा.
युमः
युथ
युवन्ति
रवीति, रौत
स्तु धातु के परस्मैपदी रूप
वर्तमाना
स्तुवः
स्तुथः
स्तुत:
अयुम
अयुत
अयुवन्
युयाम
युयात
युयुः
स्तुमः
स्तुथ
स्तुवन्ति
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आओ संस्कृत सीखें
54
ह्यस्तनी अस्तुव
अस्तवम्
अस्तुम
अस्तुतम्
अस्तवीः, अस्तौः अस्तवीत्, अस्तीत्
अस्तुत अस्तुवन्
स्तुयाम
स्तुयाम् स्तुयाः स्तुयात्
स्तुयात
स्तुयुः
अस्तुताम् विध्यर्थ स्तुयाव स्तुयातम् स्तुयाताम् आज्ञार्थ स्तवाव स्तुतम्
स्तुताम् आत्मनेपदी के रूप
वर्तमाना
स्तवानि
स्तवाम
स्तुहि
स्तुत
स्तवीतु, स्तौतु
स्तुवन्तु
स्तुवहे स्तुवाथे
स्तुमहे स्तुध्वे स्तुवते
स्तुवाते
अस्तुवि अस्तुथाः अस्तुत
अस्तुमहि अस्तुध्वम् अस्तुवत
शस्तनी अस्तुवहि अस्तुवाथाम् अस्तुवाताम् विध्यर्थ स्तुवीवहि स्तुवीयाथाम् स्तुवीयाताम्
स्तुवीमहि
स्तुवीय स्तुवीथाः स्तुवीत
स्तुवीध्वम् स्तुवीरन्
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आओ संस्कृत सीखें
55
आज्ञार्थ स्तवावहै
ब्रवीमि ब्रवीषि
स्तवै
स्तवामहै स्तुष्व
स्तुवाथाम् स्तुध्वम् स्तुताम्
स्तुवाताम् स्तुवताम् 5. व्यंजन से प्रारंभ होनेवाले वित् प्रत्ययों पर ब्रू धातु के बाद नित्य ई आता है। उदा. ब्रू + ति = ब्रवीति ।
ब्रू के परस्मैपदी रूप
वर्तमाना ब्रूवः
ब्रूमः ब्रूथः
ब्रूथ ब्रवीति
ब्रूतः
ब्रुवन्ति
ह्यस्तनी अब्रवम्
अब्रुव
अब्रूम अब्रवी:
अब्रुतम्
अब्रूत अब्रवीत्
अब्रूताम्
अब्रुवन्
विध्यर्थ ब्रुवीय
ब्रुवीवहि ब्रुवीमहि ब्रुवीथाः
ब्रुवीयाथाम् ब्रुवीध्वम् ब्रुवीत
ब्रुवीयाताम् ब्रुवीरन्
आज्ञार्थ ब्रवै
ब्रवावहै
ब्रवामहै ब्रूष्व
ब्रुवाथाम् ब्रूध्वम् ब्रूताम
ब्रुवाताम् ब्रुवाताम् 6. ब्रू धातु का वर्तमानकाल में द्वितीय पुरुष के एक वचन और द्विवचन में आत्थ
तथा आहथुः तथा तृतीय पुरुष के एकवचन - द्विवचन और बहुवचन में आह, आहतुः, आहुः ये पाँच रूप भी होते हैं ।
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आओ संस्कृत सीखें
1565 7. पंचमी (आज्ञार्थ) के प्रत्ययों पर सू धातु का गुण नहीं होता है ।
सू + ऐ (ऐव्)
सुवै, सुवावहै, सुवामहै। 8. शी धातु के ई का शित् प्रत्ययों पर ए होता हैं।
उदा. शेते,
वर्तमान कृदंत - शे + आन (आनश्) शयान: 9. शी धातु से अन्ते, अन्त और अन्ताम् प्रत्ययों के बदले रते, रत और रताम् प्रत्यय होते हैं। उदा. शेरते, अशेरत, शेरताम् । शी धातु के आत्मनेपदी रूप
वर्तमाना शेवहे
शेमहे शयाथे
शेध्वे शयाते
हस्तनी अशयि अशेवहि
अशेमहि अशेथाः अशयाथाम्
अशेध्वम् अशेत अशयाताम्
अशेरत
विध्यर्थ शयीय शयीवहि
शयीमहि शयीथाः शयीयाथाम्
शयीध्वम् शयीत
शयीयाताम् शयीरन्
आज्ञार्थ शयावहै
शयामहै शेष्व
शयाथाम् शयाताम्
शेरते
शेध्वम् शेरताम्
शेताम्
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आओ संस्कृत सीखें
10. स्वरादि अवित् शित् प्रत्ययों पर इ
यन्ति
एमि
एषि
एति
आम्
ऐ:
ऐत्
इयाम्
इया:
इयात्
अयानि
इहि
एतु
अध
अधीषे
अधीते
अध्यय
अध्यैथाः
अध्येत
इ + अन्ति
इव:
इथ:
इतः
57
=
इ के परस्मैपदी रूप
वर्तमाना
ऐव
ऐतम
ऐताम्
जाना धातु के इ का य् होता है ।
ह्यस्तनी
विध्यर्थ
इयाव
इयातम्
इयाताम्
आज्ञार्थ
अयाव
इतम्
इताम्
अधि + इ = पढ़ना
आत्मनेपदी - वर्तमाना
अधीव
अधीयाथे
अधीयते
ह्यस्तनी
अध्य
अध्येयाथाम्
अध्यैयाताम्
इमः
इथ
यन्ति
ऐम
ऐत
आयन्
इयाम
इयात
इयुः
अयाम
इत
यन्तु
अधीमहे
अधीवे
अधीयते
अध्यैमहि
अध्यध्वम्
अध्यैयत
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आओ संस्कृत सीखें
3583
अध्ययै
विध्यर्थ अधीयीय अधीयीवहि
अधीयीमहि अधीयीथाः
अधीयायाथाम् अधीयीध्वम् अधीयीत अधीयायाताम्
अधीयीरन् .. आज्ञार्थ अध्ययावहै
अध्ययामहै अधीष्व अधीयाथाम्
अधीध्वम् अधीताम् अधीयाताम्
अधीयताम् वर्तमान कृदंत - या - यात् (तीनों लिंग में तुदत् के अनुसार रूप होंगे।) 11. स्त्री लिंग का ई (ङी) प्रत्यय तथा नपुंसक द्विवचन का ई प्रत्यय पर ना (श्ना)
विकरण प्रत्यय को छोड़कर अ वर्ण के बाद में रहे अत् का विकल्प से अन्त् होता है। उदा. यान्ती, याती, तुदन्ती, तुदती
ब्रू का ब्रुवत्
इका यत् - इसके रूप 'चिन्वत्' की तरह होते हैं। आत्मनेपदी में - ब्रुवाण: शयानः, अधीयानः कर्मणि में या का यायते आदि
. इ का ईयते = जाना वर्तमान कृदंत । यायमानः । 12. य से प्रारंभ होनेवाले कित् प्रत्ययों पर शी का शय होता है ।
शी + य (क्य) + ते = शय्यते वर्तमान कृदंत = शय्यमानम्
दसरे गण के धात इ = जाना (परस्मैपदी) । द्रा = सोना
(परस्मैपदी) अप+इ = दूर होना (परस्मैपदी) | नु = स्तुति करना (परस्मैपदी) उद् + इ = उदय होना (परस्मैपदी) | पा = रक्षण करना (परस्मैपदी) उप + इ = पास में जाना (परस्मैपदी) | प्सा = भक्षण करना
(परस्मैपदी) ख्या = कहना (परस्मैपदी) | भा = शोभा देना (परस्मैपदी) तु = भरना
(परस्मैपदी) |मा = रहना (परस्मैपदी)
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आओ संस्कृत सीखें
59
या = जाना यु = जोडना रा = प्रदान करना रु = आवाज करना ला = लेना वा = बोना श्रा = पकाना सु = जन्म देना स्ना = स्नान करना
(परस्मैपदी) | स्नु = झरना _ (परस्मैपदी) (परस्मैपदी) | अधि+इ=अभ्यास करना (आत्मनेपदी) (परस्मैपदी) | शी = सोना (आत्मनेपदी) (परस्मैपदी) | सू = जन्म देना (आत्मनेपदी) (परस्मैपदी) | हनु = छिपाना (आत्मनेपदी) (परस्मैपदी) | ब्रू = बोलना (उभयपदी) (परस्मैपदी) | स्तु = स्तुति करना (उभयपदी) (परस्मैपदी) | अति+शी = उल्लंघन करना (परस्मैपदी)
शब्दार्थ
ऋषभ स्वामिन् ऋषभदेव (पुंलिंग) | बीज = बीज (नपुं. लिंग) जात = पुत्र
(पुंलिंग) | वार्द्धक = वृद्धावस्था (नपुं. लिंग) नीड = पक्षी का घोसला (पुंलिंग) | व्यलीक = झूठ (नपुं. लिंग) मुशलिन् = बलराम (पुंलिंग) | | शैशव = शिशुपना (नपुं. लिंग) याम = प्रहर
(पुंलिंग)
| अखिल = सब (विशेषण) सरीसृप = सर्प (पुंलिंग) आदिम = पहला (विशेषण) तनु = शरीर
(स्त्री लिंग) | तन्द्रिल = आलसी (विशेषण) तनू = शरीर
(स्त्री लिंग) | दुर्भर = दुःखसे भरा जाय ऐसा (विशे.) परतप्ति = निंदा (स्त्री लिंग) | निष्णात = होशियार (विशेषण) सुतनू = स्त्री (स्त्री लिंग) निद्राण = सोया हुआ (विशेषण) अनृत = असत्य (नपुं. लिंग) निष्परिग्रह = परिग्रह रहित (विशेषण) आनन = मुख
(नपुं. लिंग) | सनातन = शाश्वत (विशेषण) निर्वाण = मोक्ष (नपुं. लिंग) | सहसा = अचानक (अव्यय) उपेत (उप+ह+त) = युक्त । रजनीमुख = रात के पहले
संस्कृत में अनुवाद करो : 1. अपना धन देना (दातुं) दुष्कर है । तप करना (कर्तुं) पसंद नहीं है (प्रति +
भा) ऐसे ही सुख भोगने का मन है, परंतु भोगा नहीं जाता है । (भुज्) 2. अनीति करने से पुरुष को आपत्ति आती है। (आ+या)
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आओ संस्कृत सीखें
260
6
3. समस्त पृथ्वी को जीतने में और छोड़ने में, व्रत लेने में और पालन करने में
शांतिनाथ भगवान को छोड़ इस त्रिभुवन में कोई समर्थ नहीं हो । (नु) 4. सिद्ध हैम व्याकरण के आठों अध्याय मैंने पढ़े । (अधि + इ) 5. सिद्ध हैम व्याकरण के कर्ता आचार्य श्री हेमचन्द्र को मैं भक्ति से नमस्कार करता
हूँ। (नु) प्रातः काल में पक्षी मधुर आवाज करते हैं । (रु) छात्र खुशी से पढ़ते हैं । (अधि+इ) पवन मंद मंद बहता है । सभी अपने इष्ट देव की स्तुति करते हैं । (स्तु) अरुण का उदय होता है । (उद् + ह) पक्षी अपने घोसले छोड़कर जंगल में जाते हैं । (इ)
परंतु आलसी लोग सोते रहते हैं । (शी) 7. काम के बोझे के कारण मुझ से पूरी रात सोया नहीं जाता है । (शी)
हिन्दी में अनुवाद करो : 1. सत्यानि वचनानि यो ब्रूते, प्रधानमुपशमं च यो व्रजति, शत्रुमपि मित्रं
यथा यः पश्यति, स निर्वाणं गृह्णाति । 2. स एवं चिन्तयन्नेव गत्वा राजानमब्रवीत् । 3. गच्छ, एवममात्यं ब्रूहि ।। 4. महतस्तेजसो बीजं बालोऽयं प्रतिभाति मे । 5. भवन्त एव 'सुतरां लोकवृत्तान्त-निष्णाताः । 6. . 'सुतनु ! ते हृदयाद्वयलीकमपैतु । 7. पुत्रमेवं-गुणोपेतं चक्रवर्तिनमाप्नुहि । 8. हा पुत्र ! हा जात ! हा जातेति ब्रुवाणो मूर्च्छया राजा भूमौ पतितः
प्राणैश्च विमुक्तः। 9. यः सञ्जातो मनस्तापः स त्वाख्यातुं न पार्यते । 10. कैकेयी भरतं नाम भरतभूषणं सुतमसूत । टिप्पणी : 1. तर तथा तम प्रत्यय जब अव्यय या क्रियापद के बाद आते हैं, तब तराम् और
तमाम् होता है, सु (अव्यय) + तर = सुतराम्, पचतितराम् । 2. सु (सुष्ठ) तनूः यस्याः सा सुतनुः तत्सम्बुद्धौ ।
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आओ संस्कृत सीखें
11. न शक्नुमो वयमार्यस्य मतिमतिशयितुम् ।
12. कृष्णेनाम्ब ! गतेन रन्तुमधुना मृद्भक्षिता स्वेच्छया, सत्यं कृष्ण ? क एवमाह ? मुशली, मिथ्याम्ब ! पश्याननम् । 13. अहो विशालं भूपाल ! भुवन त्रितयोदरम् । माति मातुमशक्योऽपि यशोराशि र्यदत्र ते ।। 14. आदिमं पृथिवीनाथ - मादिमं 'निष्परिग्रहम् । आदिमं तीर्थनाथं च ऋषभस्वामिनं स्तुमः । 15. यात्येकमेव चैतन्यं, जन्मतोऽन्यत्र जन्मनि । शैशवादिव तारुण्ये, तारुण्यादिव वार्द्धके ॥ 16. एहि गच्छ पतोत्तिष्ठ, वद मौनं समाचर । एवमाशाग्रह - ग्रस्तैः क्रीडन्ति धनिनोऽर्थिभिः ।। 17. किं करोमि, क्व गच्छामि, कमुपैमि दुरात्मना । दुर्भरेणोदरेणाहं, प्राणैरपि विडम्बितः ।।
"
61
18. अद्यैष मत्सुतो बालो, निद्राणो रजनीमुखे । सहसैव महाक्रूरैरदश्यत सरीसृपैः ।।
19. 'परतप्तिपरा: प्रायः, क्रुध्यन्तश्च पदे पदे ।
आक्रान्ता जरया वत्स ! केवलं शेरते जनाः ।। 20. सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम् । प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ।।
21. याम इव याति दिवसो दिनमिव मासोऽथ मासवद्वर्षम् । वर्ष इव यौवनमिदं यौवनमिव जीवितं जगतः ।।
टिप्पणी : 1.
2.
निर्गतः परिग्रहो ( ममता ) यस्मात् स निष्परिग्रहः, तम्
परतप्ति: परा (उत्तमा प्रिया) येषां ते परतप्तितरा:
3. आ+क्रम्+त = आक्रान्त भूतकृदन्त इसी प्रकार क्लम् का क्लान्त 'भ्रम् का भ्रान्त'
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आओ संस्कृत सीखें
पाठ-12
दूसरा गण 1. अद् तथा रुद्, स्वप्, अन्, श्वस् और जक्ष् धातुओं के बाद में रहे हुए ह्यस्तन भूतकाल के दूसरे और तीसरे पुरुष के एकवचन के पहले अ होता है । उदा. आदः अद् + द् = आदत् - द्
अद् के रूप
__ वर्तमाना अमि अद्वः
अद्मः अत्सि अत्थः
अत्थ अत्ति अत्तः
अदन्ति
ह्यस्तनी आदम् आद
आग्र
आत्त आत्ताम्
विध्यर्थ अद्याम
अद्याम अद्याः अद्यातम्
अद्यात अद्यात् अद्याताम्
अधुः आज्ञार्थ
अदाम अद्धि अत्तम्
अत्त अत्ताम्
अदन्तु 2. रुद् आदि पाँच धातुओं के बाद में रहे य सिवाय के व्यंजनादि शित् प्रत्ययों के
पहले इ होता है तथा ह्यस्तनी दूसरे-तीसरे पुरुष के एक वचन के प्रत्यय के पहले दीर्घ ई होता है।
आदः
आत्तम्
आदत्
आदन्
अद्याव
अदानि
अदाव
अत्तु
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4633
रुदिवः
रुदितः
अरोदम्
रुद्याव
रुद्याम
रुद्यात्
रुधुः
आओ संस्कृत सीखें
रुद् के रूप
वर्तमाना रोदिमि
रुदिमः रोदिषि रुदिथः
रुदिथ रोदिति
रुदन्ति शस्तनी अरुदिव
अरुदिम अरोदी:, अरोदः अरुदितम्
अरुदित अरोदीत्, अरोदत् अरुदिताम्
अरुदन्
विध्यर्थ रुद्याम् रुद्याः रुद्यातम्
रुद्यात रुद्याताम्
आज्ञार्थ रोदानि रोदाव
रोदाम रुदिहि
रुदितम्
रुदिताम् 3. जस्, दरिद्रा, जागृ, चकास् और शास् इन पाँच धातुओं से अन्ति और अन्तु
के बदले अति और अतु होता है और ह्यस्तन भूतकाल तृतीय पुरुष बहुवचन के अन् के बदले उस् होता है ।
जक्ष् के रूप
वर्तमाना जक्षिमि जक्षिवः
जक्षिमः जक्षिषि जक्षिथः
जक्षिथ जक्षिति
हस्तनी अजक्षम् अजक्षिव
अजक्षिम अजक्षी:, अजक्षः अजक्षितम्
अजक्षित अजक्षीत. अजक्षत अजक्षिताम
अजक्षुः
रुदित रुदन्तु
रोदितु
जक्षितः
जक्षति
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आओ संस्कृत सीखें
164
जक्ष्युः
विध्यर्थ जक्ष्याम् जक्ष्याव
जक्ष्याम जक्ष्याः जक्ष्यातम्
जक्ष्यात जक्ष्यात्
जक्ष्याताम्
" आज्ञार्थ जक्षाणि जक्षाव
जक्षाम जक्षिहि जक्षितम्
जक्षित जक्षितु
जक्षिताम् व्यंजन से प्रारंभ होनेवाले अवित् शित् प्रत्ययों पर दरिद्रा धातु के आ का इ होता है तथा स्वर से प्रारंभ होने वाले अवित् शित् प्रत्ययों पर आ का लोप होता
जक्षतु
दरिद्रासि
दरिद्रिमः दरिद्रिथ दरिद्रति
___ उदा. दरिद्रितः, दरिद्रति ।
दरिद्रा के रूप
वर्तमाना दरिद्रामि
दरिद्रिवः
दरिद्रिथः दरिद्राति
दरिद्रितः
ह्यस्तनी अदरिद्राम्
अदरिद्रिव अदरिद्राः
अदरिद्रितम् अदरिद्रात्
अदरिद्रिताम्
विध्यर्थ दरिद्रियाम्
दरिद्रियाव दरिद्रियाः
दरिद्रियातम् दरिद्रियात्
दरिद्रियाताम्
अदरिद्रिम अदरिद्रित अदरिद्रुः
दरिद्रियाम दरिद्रियात दरिद्रियुः
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आओ संस्कृत सीखें
65
आज्ञार्थ
जागर्मि
जागर्ति
जाग्रति
दरिद्राणि दरिद्राव
दरिद्राम दरिद्रिहि दरिद्रितम्
दरिद्रित दरिद्रातु दरिद्रिताम्
दरिद्रतु 5. उस् (पुस्) प्रत्यय पर धातु के अंत्य नामि स्वर का गुण होता है । उदा. जागृ - अजागरुः ।
जागृ के रूप
वर्तमाना जागृव:
जागृमः जागर्षि जागृथ:
जागृथ जागृतः
शस्तनी अजागरम् अजागृव
अजागृम अजागः अजागृतम्
अजागृत अजाग: अजागृताम्
अजागरुः
विध्यर्थ जागृयाम् जागृयाव
जागृयाम जागृया: जागृयातम्
जागृयात जागृयात्
जागृयाताम्
आज्ञार्थ जागराणि जागराव
जागराम जागृहि जागृतम्
जागृत जागर्तु जागृताम्
जाग्रतु चकास् के रूप
वर्तमाना चकास्मि चकास्व:
चकास्मः चकास्सि चकास्थ:
चकास्थ चकास्ति चकास्त:
चकासति
जागृयुः
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आओ संस्कृत सीखें
6.
7.
अचकासम्
अचका:, अचकात्, द्
अचकात्, द्
चकास्याम्
चकास्याः
चकास्यात्
चकासानि
चकाधि, चकाद्धि
चकास्तु
ह्यस्तनी
अचकास्व
अचकास्तम्
अचकास्ताम्
विध्यर्थ
उदा. शास् + य (क्य) + ते
शास्मि
शास्सि
शास्ति
66
चकास्याव
चकास्यातम्
चकास्याताम्
आज्ञार्थ
अशासम्
अशा:, अशात् द्
अशात्, द्
चकासाव
चकास्तम्
चकास्ताम्
शिस् + य + ते = शिष्यते
शास् धातु के आस् का व्यंजन से प्रारंभ होने वाले कित् ङ्त् िप्रत्ययों पर इस् होता है।
शिष्वः
शिष्ठ:
शिष्टः
भूतकृदंत शिष्ट: । शास्+ तस् = शिष्+तस् = शिष्ट: । वर्तमान तृ. पु.द्वि. व शास्, आस् और हन् धातु के आज्ञार्थ द्वितीय पुरुष एक वचन में क्रमश: शाधि, एधि और जहि रूप होते हैं ।
शास् के रूप
वर्तमाना
अचकास्म
अचकास्त
अचकासुः
ह्यस्तनी
चकास्याम
चकास्यात
चकास्युः
अशिष्व
अशिष्टम्
अशिष्टाम्
चकासाम
चकास्त
चकासतु
शिष्मः
शिष्ठ
शासि
अशिष्म
अशिष्ट
अशासुः
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67
शिष्याम्
शिष्यातम् शिष्याताम्
शिष्युः
शिष्टम् शिष्टाम्
आओ संस्कृत सीखें
विध्यर्थ शिष्याव
शिष्याम शिष्याः
शिष्यात शिष्यात्
आज्ञार्थ शासानि शासाव
शासाम् शाधि
शिष्ट शास्तु
शासतु वर्तमान कृदन्तः- रुदत्, श्वसत् आदि के रूप तीनों लिंगों में चिन्वत् की तरह होते हैं। 8. जक्षत्, दरिद्रत्, जाग्रत्, चकासत् और शासत् इन पाँच धातुओं में घुट् प्रत्यय
(पुंलिंग में पहले पाँच रूप में जोडा न् लुप्त होता है और नपुंसक में प्रथमाद्वितीय बहुवचन) में जोड़ा गया 'न्' विकल्प से लुप्त होता है । उदा. पुं. लिंग में जक्षत् द् जक्षतौ जक्षतः
जक्षत जक्षतौ । नपुंसक लिंग में -
जक्षत् द् जक्षती जक्षति/जक्षन्ति स्त्री लिंग में -
जक्षती जक्षत्यो जक्षत्यः कर्मणि में - अद्यते, प्राण्यते, चकास्यते आदि
कृदंत में - अद्यमानः, प्राण्यमानम् आदि 9. कित् प्रत्ययों पर स्वप् धातु के स्वरसहित व का उ होता है ।
उदा. स्वप् + य + ते = सुप्यते भूतकृदंत में - सुप्तः
संबंधक भूतकृदंत में - सुत्वा 10. कित् प्रत्ययों पर जागृ का गुण होता है ।
उदा. जागर्यते । भावे प्रयोग - जागर्यमाणम् ।
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आओ संस्कृत सीखें
दूसरे गण के धातु अद् = खाना (परस्मैपदी)| रुद् = रोना (परस्मैपदी) अन् = जीना (परस्मैपदी)| शास् = शासन करना (परस्मैपदी) प्र+अन्=प्राण धारण करना (परस्मैपदी)| अनु+शास् = आज्ञा करना (परस्मैपदी) चकास् = प्रकाशित होना (परस्मैपदी) श्वस् = श्वास लेना (परस्मैपदी) जश् = खाना (परस्मैपदी)| वि+श्वस् = विश्वास करना(परस्मैपदी) जागृ = जगना (परस्मैपदी)| आ+श्वस् आश्वासन लेना(परस्मैपदी) दरिद्रा = दरिद्र होना (परस्मैपदी)| स्वप् = सोना (परस्मैपदी) चेष्ट-गण १ चेष्टा करना (आत्मनेपदी)
शब्दार्थ गर्दभ = गधा (पुंलिंग)| वसुमती = पृथ्वी (स्त्री लिंग) चूत = आम
(पुंलिंग)| विश्वसनीयता विश्वास योग्य(स्त्री लिंग) निस्वन = शब्द (पुंलिंग)| शुच् = शोक (स्त्री लिंग) पौरव = पुरु राजा के वंशज (पुंलिंग)| तरल = चंचल (विशेषण) भाग = भाग, भाग्य (पुंलिंग)| दुर्विनीत = अविनयी (विशेषण) लोहकार = लुहार (पुंलिंग)| पत्रल = पत्तों वाला (विशेषण) वर्ग=समान व्यक्तियों का समूह (पुंलिंग)| फलित = फल वाला (विशेषण) शेष = बचा हुआ (पुंलिंग)| मुग्ध = भोला (विशेषण) भस्त्रा = धमन (स्त्री लिंग)| शासितृ = शासन करनेवाला(विशेषण) ज्योतिस् = ज्योति (नपुं. लिंग)
संस्कृत में अनुवाद करो : 1. हे भ्रमर ! उस मार्ग को देख, तू रो मत (रुद्) जिसके वियोग में तू मरता है, वह ___ मालती देशांतर गई है। 2. बंधुओं को करुणता से रोते देख मनुष्य मर जाता है । (रुद्)
जिस तरह आकाश में तारा मंडल के बीच चंद्रमा प्रकाशित होता है, उसी तरह इस पृथ्वीतल के विषय में मुनि मंडल के बीच में आचार्य हेमचन्द्र प्रकाशित होते हैं । (चकास्)
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आओ संस्कृत सीखें
जब तक मनुष्य श्वास लेता है, (श्वस्) तब तक जीता है । ( प्र + अन्)
जैन लोग उपवास के दिन कुछ नहीं खाते हैं । (जक्ष्)
जो लोग पुरुषार्थ नहीं करते हैं, वे दरिद्र बनते हैं । (दरिद्रा)
हिन्दी में अनुवाद करो
अहो दीप्तिमतोऽपि विश्वसनीयताऽस्य वपुषः ।
4.
5.
6.
1.
2. अनुशास्तु मां भवान् ।
3.
4. किं रोदिषि किन्ते रोदनकारणम् ?
7.
69
5. हृदयेऽमान्त्या शुचा सा भृशमरोदीद् ।
6.
निःश्वस्य शनैरवदन्महाभाग ! किं कथयामि मन्दभाग्या ?
प्रतापेन द्योतमानो दशरथो महीमन्वशात् ।
न प्रयोजनमन्तरा चाणक्यः स्वप्नेऽपि चेष्टते ।
8.
हृदय ! आश्वसिहि आश्वसिहि आर्यपुत्रः खल्वेषः ।
9.
'विश्वास्येष्वपि विश्वसन्ति मतयो न स्वेषु वर्गेषु नः ।
10. दमयन्ती निशाशेषे एवं स्वप्नमुदैक्षत- यदहं फलिते फुल्ले पत्रले चूत - पादपे-आरुह्य तत्फलान्यादं शृण्वती भृङ्ग- निस्वनान् ।।
11. एकेनाऽपि सुपुत्रेण, सिंही' स्वपिति निर्भयम् ।
सहैव दशभिः पुत्रै, र्भारं वहति गर्दभी ।।
2.
टिप्पणी :
1.
ऋ वर्णान्त धातु तथा व्यंजनांत धातु को य (घ्यण्) प्रत्यय लगकर विध्यर्थ कृदन्त बनता है ।
कृ + य (घ्यण्) = कार्य
विश्वास करने योग्य । णित् प्रत्यय होने से वृद्धि हुई है ।
अकारांत जातिवाचक नाम को स्त्री लिंग में ई (ङी) प्रत्यय लगता है, ई प्रत्यय लगने पर अ का लोप होता है ।
उदा. सिंह + ई = सिंही, गर्दभी ।
। वि + श्वस् + य (घ्यण् ) 1
=
विश्वास्य ।
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आओ संस्कृत सीखें
12. यस्य 'त्रिवर्ग - शून्यानि दिनान्यायान्ति यान्ति च ।
स लोहकारभस्त्रैव, श्वसन्नपि न जीवति ।।
13. या निशा सर्व भूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
-
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥
14. शकुन्तलां दृष्ट्वा दुष्यन्तः प्राह- मानुषीषु कथं वा स्यादस्य रूपस्य संभवः । न प्रभा-तरलं ज्योतिरुदेति वसुधा-तलात् ।
15. परोपकार - करणं, येषां जागर्ति हृदये सताम् ।
टिप्पणी :
,
नश्यन्ति विपदस्तेषां सम्पदः स्युः पदे पदे ।
16. कः पौरवे वसुमतीं शासति शासितरि दुर्विनीतानाम् । अयमाचरत्यविनयं मुग्धासु तपस्वि - कन्यासु ।
1.
2
70
त्रयाणां वर्गः = त्रिवर्ग: ।
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आओ संस्कृत सीखें
1.
2.
3
3.
पाठ- 13
दूसरा गण
मृज् धातु का गुण होने पर अ की वृद्धि होती है । उदा. मृज् + ति
मर्ज् + ति = मार्ज् + ति
71
यज्, सृज्, मृज, राज्, भ्राज्, भ्रस्ज्, व्रश्च्, परिव्राज् इन धातुओं के च् और ज् का तथा श् अंत वाले धातुओं के श् का व्यंजनादि धुट् प्रत्ययों पर तथा पदांत में ष् होता है ।
उदा.
1.
मार्ष्टि
2.
3.
4.
5.
6.
7.
8.
मार्मि
मार्क्ष
मार्ष्टि
मृज् धातु के ऋ की स्वरादि प्रत्ययों पर विकल्प से वृद्धि होती है ।
उदा. मृज् + अति = मार्जन्ति, मृजन्ति
मृज् धातु के रूप
वर्तमाना
अमार्जम्
अमार्ट, ई
अमृष्टाम्
यज् + तुम् = यष्टुम्
यज् + त्वा = इष्ट्वा
सृज् + तुम् = स्त्रष्टुम्
भ्रस्ज् + तुम् = भ्रष्टुम्
व्रश्च् + तुम = व्रष्टुम्
यज् + तृ = यष्ट
स्पृश् + त = स्पृष्टः
पदान्त में - परिव्राट्
मृज्व:
मृष्ठ:
मृष्ट:
ह्यस्तनी
अमृज्व
अमृष्टम्
अमार्जन्
मृज्म:
मृष्ठ
मार्जन्ति, मृजन्ति
अमृज्म
अमृष्ट
अमृजन्
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आओ संस्कृत सीखें
मृज्याम्
मृज्या:
मृज्यात्
मार्जा मृढि
साधना
1.
वेद्मि
वेत्सि
वेत्ति
72
3.
विध्यर्थ
मृज्याव
मृज्यातम्
मृज्याताम्
आज्ञार्थ
मार्जाव
मृष्टम्
मृष्टाम्
मृज् + सि
मार्ज् + सि
मार्ष् + सि
मार्क्
+ सि
मार्क् + षि = मार्क्षि |
2. मृज् + अम् (अम्व्)
अमर्ज् + अम् = अमार्जम् ।
मृज् + स्
अ + मर्ज् + स्
अमार्ज् + स्
अमार्ष् + त = अमार्ट्, अमाई
4. मृज् + हि
मृज् + धि
मृष् + ढि = मृड्ढि ।
4) विद् धातु से ह्यस्तनी तृतीय पुरुष बहुवचन के अन् के बदले उस् (पुस्)
होता है।
विद् के रूप
वर्तमाना
मृज्याम
मृज्यात
मृज्यु:
विवः
वित्थः
वित्तः
मार्जाम
मृष्ट मार्जन्तु, मृजन्तु
विद्मः
वित्थ
विदन्ति
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आओ संस्कृत सीखें
173
अवेदम् अवेत् द् अवः अवेत् द्
अविद्म अवित्त
अविदुः
स्तनी अविद्व अवित्तम् अवित्ताम
विध्यर्थ विद्याव विद्यातम् विद्याताम्
आज्ञार्थ वेदाव
विद्याम् विद्याः विद्यात्
विद्याम
विद्यात
विद्युः
वेदानि
वेदाम
विद्धि
वित्तम्
वित्त
वेत्तु वित्ताम्
विदन्तु 5) विद् धातु के वर्तमान काल में परीक्षा के प्रत्यय लगकर भी रूप बनते हैं ।
उदा. वेद विद्व विद्य
वेत्थ विदथुः विद
वेद विदतुः विदुः 6) विद् धातु के आज्ञार्थ के रूप, विद् धातु को आम् (किदाम्) लगाकर कृ धातु के आज्ञार्थ के रूप लगाने से भी बनते हैं।
विदाङ्करवाणि विदाङ्करवाव विदाङ्करवाम विदाङकुरु
विदाङ्कुरुतम् . विदाङ्कुरुत विदाड्करोतु विदाङ्कुरुताम् विदाङ्कुर्वन्तु 7) यम् रम् नम् गम् हन् मन् (गण 4) वन् (गण 1) और तनादि (आठवे गण के
धातु) इन धातुओं के अंत्य व्यंजन का धुट व्यंजन से प्रारंभ होनेवाले कित् - ङ्ति प्रत्ययों पर लोप होता है । उदा. हन् + तस् = हतः ___ गम् + त (क्त) = गतः, गतवान्, गत्वा
हन् + त (क्त) = हतः, हतवान्, हत्वा
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आओ संस्कृत सीखें
74
तन् + त (क्त) = ततः, ततवान्
क्षण् + त (क्त) = क्षतः, क्षतवान् 8. हन् धातु के उपांत्य अ का स्वरादि ङित् प्रत्ययों पर लोप होता है ।
उदा. हन् + अन्ति
ह्न + अन्ति
9.
हन् धातु के न् का घ्न होता है । उदा. ह्न + अन्ति = घ्नन्ति
हन के रूप वर्तमाना
हन्वः
हन्मः
हथ
अहन्म
अहन् अहन्
हथ: हतः
घ्नन्ति
स्तनी अहनम्
अहन्व अहतम्
अहत अहताम्
अघ्नन्
विध्यर्थ हन्याम् हन्याव
हन्याम हन्याः हन्यातम
हन्यात हन्यात् हन्याताम्
हन्युः
आज्ञार्थ हनानि हनाव
हनाम जहि हतम्
हत
घ्नन्तु 10. कित् ङित् प्रत्ययों पर वश् धातु के स्वर सहित व का उ होता है ।
1. वश् + तस्
उश् + तस् = उष् + तस् = उष्टः
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हन्तु
हताम्
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आओ संस्कृत सीखें
175
वश्मि
944 i
औश्म
औशन्
कर्मणि में - 2. वश् + य(क्य) + ते = उश्यते
वश् के रूप
वर्तमाना उश्वः
उश्मः वक्षि उष्ठः
उष्ठ वष्टि उष्टः
उशन्ति
हस्तनी अवशम्
औश्व अवट, ड् औष्टम्
औष्ट अवट, ड्
औष्टाम्
विध्यर्थ उश्याम् उश्याव
उश्याम उश्या : उश्यातम्
उश्यात उश्यात्
उश्याताम्
आज्ञार्थ वशानि उड्ढि उष्टम्
उष्ट उष्टाम्
उशन्तु 11. ईश् और ईड् धातु से वर्तमाना के से तथा ध्वे तथा पंचमी के स्व तथा ध्वम् प्रत्यय के पहले इ होता है।
ईश् धातु के रूप
वर्तमाना
ईश्वहे ईशिषे ईशाथे
ईशिध्वे ईशाते
ईशते
उश्युः
वशाव
वशाम
वष्ट
ईश्महे
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आओ संस्कृत सीखें
476
हस्तनी ऐश्वहि ऐशाथाम् ऐशाताम्
.. विध्यर्थ ईशीवहि ईशीयाथाम् ईशीयाताम्
ऐश्महि ऐड्व म ऐशत
ईशीय
ईशीथाः
ईशीमहि ईशीध्वम्
ईशीत
ईशीरन्
आज्ञार्थ
ईशामहै
ईशै ईशिष्व ईष्टाम्
ईशावहै ईशाथाम्
ईशिध्वम्
ईशताम्
ईशाताम् ईड् धातु के रूप
वर्तमाना ईड्वहे ईडाथे
ईड्महे ईडिध्वे ईडते
ईडाते
ऐड्महि ऐड्ढ्व म्
ऐट्ठाः
ऐडत
हस्तनी ऐड्वहि ऐडाथाम् ऐडाताम्
विध्यर्थ ईडीवहि ईडीयाथाम् ईडीयाताम्
ईडीय
ईडीमहि ईडीध्वम्
ईडीथाः ईडीत
ईडीरन्
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आओ संस्कृत सीखें
ईडै
ईडिष्व
ईट्टाम्
उदा. 1)
2)
3)
चक्षे
चक्षे
चष्टे
अचक्षि
अचष्ठाः
अचष्ट
12. संयुक्त व्यंजन का पहला अक्षर स् या क् हो तो उसका धुट् व्यंजनादि प्रत्यय पर
अथवा पदांत में लोप होता है ।
चक्षीय
चक्षीथा:
चक्ष
चक्षै
चक्ष्व
चष्टाम्
ईडाव है
ईडाथाम्
ईडाताम्
आज्ञार्थ
77
भ्रस्ज् + तुम् = भ्रष्टुम्
चक्ष् (क् + ष् = क्ष ) + ते
चक्ष्व
चक्षा
चक्षाते
चष् + ते = चष्टे
चक्ष् + से = चष् + से = चक् + षे = चक्षे
चक्षू के रूप
वर्तमाना
ह्यस्तनी
अचक्ष्वहि
अचक्षाथाम्
अचक्षाताम्
विध्यर्थ
चक्षीवहि
चक्षयाथाम्
चक्षीयताम्
आज्ञार्थ
चक्षावहै
चक्षाथाम्
चक्षाताम्
ईडाम है
ईडिध्वम्
ईडताम्
=
चक्ष्म
चड्वे
चक्ष
अचक्ष्महि
अचड्वम्
अचक्षत
चक्षीमहि
चक्षीध्वम्
चक्षीरन्
चक्षामहै
चड्वम्
चक्षताम्
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आओ संस्कृत सीखें
13. द् आदि में हो ऐसे भू आदि प्रत्येक गण के ह् का धुट् व्यंजनादि प्रत्यय पर तथा
पदांत में होता है
।
उदा. 1)
दह् + त
दध् + त् = दध् + ध = दग्धः, दग्धवान् दुह् + ति, दुध् + ति दुध् + धि = दोग्धि
2)
14. ग् ड् द् ब् आदि में हो और चौथा अक्षर अंत में हो ऐसे एक स्वर वाले धातु रूप अवयव के आदि (तीसरे) अक्षर का पद के अंत में अथवा स् या ध्व से प्रारंभ होनेवाले प्रत्यय पर चौथा अक्षर होता है ।
उदा.
दोि
धोक्षि
दोग्धि
अदोहम्
अधोक्, ग्
अधोक्, ग्
दुह्याम्
दुह्या:
दुह्यात्
दोहा
दुग्ध
दोग्धु
दुह् + सि = दुघ् + सि
दुघ् + सि = धोघ् + सि = धोक् + षि = धोक्षि
दुह धातु के रूप
वर्तमाना
दुह्वः
दुग्ध:
दुग्धः
अदु
अदुग्धम्
अदुग्धाम्
78
दुह्याव
दुह्याम्
दुह्याम्
दोहाव
दुग्धम्
दुग्धाम्
ती
विध्यर्थ
आज्ञार्थ
दुमः
दुग्ध
दुहन्ति
अदुम
अदुग्ध
अदुहन्
दुह्याम
दुह्यात
दुह्युः
दोहाम
दुग्ध
दुहन्तु
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आओ संस्कृत सीखें
दुहे धुक्षे
दुग्धे
अदुहि
अदुग्धाः
अदुग्ध
दुहीय
दुहीथा:
दुहीत
दोह
धुव
दुग्धाम्
वर्तमाना - तृतीय पुरुष ह्यस्तनी - तृतीय पुरुष आज्ञार्थ द्वितीय पुरुष
-
आशासे
आशास्
आशास्ते
-
दुहे
दुह
दुहा
आत्मनेपदी
वर्तमाना
ह्यस्तनी
अदुवहि
अदुहाथाम्
अदुहाम्
-
79
दुहीवहि
दुहीयाथाम्
दुहीयाताम्
विध्यर्थ
दोहाव है
दुहाथाम्
दुहाताम्
आज्ञार्थ
वच् धातु के रूप
वक्त
अवक्, ग् वग्धि
आशास्व
आशासा
आशासा
वक्तः
अवक्ताम्
वक्तम्
आ + शास् = इच्छा करना
वर्तमाना
दुहे
दुग्ध्वे
दुहते
अदुमहि
अधुग्ध्वम्
अदुहत
दुहीमहि
दुहीध्वम्
दुहीरन्
दोहाम है
धुग्ध्वम्
दुहताम्
वचन्ति
अवचन्
वक्त
आशास्महे आशाध्वे, दूध्वे
आशास
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आओ संस्कृत सीखें
आशासि
आशास्थाः
आशास्त
आशासीय
आशासीथाः
आशासीत
आशासै
आशास्सव
आशास्ताम्
वर्तमाना - द्वितीय पुरुष ह्यस्तनी - तृतीय पुरुष आज्ञार्थ - द्वितीय पुरुष
वर्तमाना - द्वितीय पुरुष
ह्यस्तनी तृतीय पुरुष आज्ञार्थ - द्वितीय पुरुष -
-
-
-
-
-
वर्तमाना - तृतीय पुरुष
द्वितीय पुरुष ह्यस्तनी - द्वितीय पुरुष आज्ञार्थ - द्वितीय पुरुष
आशास्वहि
आशासाथाम्
आशासाताम्
-
ह्यस्तनी
-
80
आशासहि
आशासीयाथाम्
आशासीयाताम्
विध्यर्थ
आशासावहै
आशासाथाम्
आशासाताम्
द्वेक्षि
आज्ञार्थ
द्विष् धातु के रूप
परस्मैपदी
अद्वेट्, ड्
द्विड्ढ
द्विक्षे
अद्विष्ट
द्विक्ष्व
आत्मनेपदी
द्विष्ठः
अद्विष्टाम्
द्विष्टम्
लेक्षि
अलेट्, ड्
लीढि
लिह् धातु के रुप
परस्मैपदी
लीढः
लीढः
आशास्मह
आशाध्वम्, दूध्वम्
आशासत
अलीढम्
लीढम्
आशासी महि
आशासीध्वम्
आशासीन्
द्विषा
द्विवे
अद्विषाताम् अद्विषत
द्विषाथाम्
द्विड्वम्
आशासामहै
आशाध्वम्, दूध्वम्
आशासताम्
द्विष्ठ अद्विषुः अद्विषन्
द्विष्ट
लिहन्ति
लढ
अलीढ
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आओ संस्कृत सीखें
81.
आत्मनेपदी वर्तमाना - तृतीय पुरुष - लीढे लिहाते लिहते
द्वितीय पुरुष - लिक्षे लिहाथे लीढ्वे शस्तनी - द्वितीय पुरुष - अलीढा: अलिहाथाम् अलीदवम् आज्ञार्थ - द्वितीय पुरुष - लिक्ष्व लिहाथाम् लीढ्वम् 15. अस् धातु के अ का अविशित् प्रत्यय पर तथा स् का सकारादि प्रत्यय पर लोप होता है। उदा. अस् + तस् = स्तः । सत्
वर्तमान कृदंत - स्यात् । असि 16. अस् धातु से द् और स् प्रत्यय के पहले ई होता है ।
उदा. आसीत्, आसी: वर्तमान कृदंत - मृजत्, मार्जत्, विदत्, घनत्, उशत्, द्विषत्
लिहत्, दुहत् आदि
सभी के रूप चिन्वत् की तरह होंगे। आत्मनेपद में = चक्षाणः, वसान: आदि आस् का आसीनः होता है। कर्मणि में = मृज्यते, हन्यते, वस्यते, आशास्यते आदि
वश् का उश्यते
वच् का उच्यते वर्तमान कृदंत - मृज्यमानः, हन्यमानः, उश्यमानः
दूसरे गण के धातु अस् = होना (परस्मैपदी) |उद्+आस् उदासीन रहना (आत्मनेपदी) मृज् = साफ करना (परस्मैपदी) | ईड् = प्रशंसा करना (आत्मनेपदी) वच् = बोलना (परस्मैपदी) | ईश् = राज्य करना (आत्मनेपदी) वश् = इच्छा करना (परस्मैपदी) |चक्ष् = बोलना (आत्मनेपदी) विद् = जानना (परस्मैपदी) | वस् = पहिनना (आत्मनेपदी) आ+शास्=आशीर्वाद देना (आत्मनेपदी) दिह् = लेप करना (उभयपदी) आस् = बैठना (आत्मनेपदी) | द्विष् = द्वेष करना (उभयपदी)
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आओ संस्कृत सीखें
282
दुह् = दूध देना (उभयपदी) | सृप् = जाना (गण १ परस्मैपदी) लिह् = चाटना (उभयपदी) | उप + पास में जाना प्र+पद् = पाना (गण ४ आत्मनेपदी) |
शब्दार्थ आयुष्यमत् = आप _ (पुं.लिंग) | आस्ताम् = रहने दो (अव्यय) दिनपति = सूर्य (पुं.लिंग) | त्वतः = तेरे से (अव्यय) गृद्धि = आसक्ति (स्त्री लिंग) | सामम् = संध्या (अव्यय) गृहिणी = स्त्री (स्त्री लिंग) | भीरु = डरपोक (विशेषण) संसद् = सभा (स्त्री लिंग) | वत्सल = वात्सल्यवाला (विशेषण) क्षिति = पृथ्वी (स्त्री लिंग) | स्फारित = खुला (विशेषण) गुर्जरराष्ट्र = गुजरात देश (नपुं. लिंग) ।
संस्कृत में अनुवाद करो : 1. दिनेश ! तू अपना मुँह साफ कर (मृज्) और ये नए कपड़े पहिन ! (वस्) 2. ग्वाला सुबह-शाम गायों को दोहता है । (दुह्) 3. अभी अखिल भारत देश में प्रजा, प्रजा का राज्य करती है । (ईश्) 4. तुम गुणीजनों की प्रशंसा करते हो । (ईड्) 5. अणहिलपुर पाटण गुजरात की राजधानी थी, उसका हमें पता नहीं है । (विद्) 6. ग्वाला जब गाय दोह रहा था, तब हम व्याकरण पढ़ रहे थे । (अधि+ई) 7. भ्रमर पुष्प में से शहद चाटता है । (लिह्) 8. सुबह-शाम ठंडे पानी से आँखें धोनी चाहिए । (मृज्) 9. किसी के ऊपर द्वेष न करें (द्विष्) और किसी को न मारें । (हन्) 10. जो प्राणियों की हिंसा करता है, वह अपनी आत्मा को पाप से लिप्त करता है।
(विह्) 11. तुम यह बात जानते थे, फिर भी तुमने मुझे कहा नहीं । (विद्) 12. उसने तलवार द्वारा उसके मस्तक पर प्रहार किया । (हन्)
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आओ संस्कृत सीखें
83
हिन्दी में अनुवाद
करो
आसतामिहैव मुहूर्त्तमेकं भवन्तः ।
हत हत उपसर्पतोपसर्पत गृह्णीत गृह्णीत । अध्यास्त' रथमेकोऽपि तृणवद्गणयन्परान् ।
:
1.
2.
3.
4. किमु वत्स ! न वेत्सि वत्सलां जननीम् ।
5. तृष्णां छिन्धि क्षमां भज मदं जहि सत्यं ब्रूहि । 6. अयशः प्रमार्धुमिच्छामि ।
7. श्रेष्ठिन् ! स्वागतमिदमासनमास्यताम् ।
8. मूर्ख द्वेष्टि न पण्डितम् ।
9. गृहिणी गृहमुच्यते ।
10. किं वा नास्ति परिश्रमो दिनपतेरास्ते न यन्निश्चलः ।
11. शत्रौ मित्रे च समभावः समस्तलोकमार्द्र-दृष्ट्या प्रेक्षमाणो मितं प्रियं चाचक्षाणो मोक्षस्य मार्गे तिष्ठति ।
टिप्पणी :
12. यथा दावाग्निना तरुगणा दह्यन्ते तथा विषयासक्त्या मानुषो विनश्यति, यथा विषं तथा विषयान्दूरेण प्रमुच्य समाधिलीनेन चित्तेनाध्वम् ।
13. तं तपस्तेजसा दुस्सहं गुरुजनं प्रणमेति वयं भवन्तमाचक्ष्महे ।
14. भो भो राजन्नाश्रममृगोऽयं न हन्तव्यो न हन्तव्यः ।
15. अस्मिन्नशोक - वृक्षमूले तावदास्तामायुष्यमान् यावदहमागच्छामि ।
16. पूर्वं भवनेषु क्षितिरक्षार्थं ये निवासमुशन्ति तेषां पश्चात्तरुमूलानि गृहाणि
भवन्ति।
17. भगवता कृतसंस्कारे सर्वमस्मिन्वयमाशास्महे ।
1. द्वितीया - एक मुहूर्त पर्यंत
2. अधि उपसर्ग से जुड़े शी, स्था तथा आस् धातु का आधार कर्म होता है, अतः यहाँ द्वितीया विभक्ति हुई है। खमध्यास्त
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आओ संस्कृत सीखें
18. धर्मार्थ रस - गृद्धया वा मांसं खादन्ति ये नराः । निघ्नन्ति प्राणिनो वा ते पच्यन्ते नरकाग्निना ।। 19. अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति च । कर्म चारभते दुष्टं तमाहु र्मूढ - चेतसम् ।। 20. असौ मुनि महायोगी पुण्यराशिरिवाङ्गवान् ।
या हतो 'हताशेन क्व यामि करवाणि किम् ।। 21. त्वां प्रपद्यामहे नाथं त्वां स्तुमस्त्वामुपास्महे । त्वत्तो हि न परस्त्राता किं ब्रूमः किमु कुर्महे || 22. उक्तो भवति यः पूर्वं गुणवानिति संसदि ।
न तस्य दोषो वक्तव्यः प्रतिज्ञा भङ्ग - भीरुणा ।। 23. आशास्यमानः सकलै र्लोकैः स्फारित - लोचनैः । दिने दिने रविरिव प्रयाणमकरोद्धनः ।।
24. धर्मार्थ-काम-मोक्षाणां प्राणाः संस्थिति-हेतव: । तान्निघ्नता किं न हतं, रक्षता किं न रक्षितम् ॥
टिप्पणी :
84
1. धर्मः अर्थः (प्रयोजनम्) यस्मिन् (कर्मणि) तत् तथा । (क्रिया विशेषण).
तेन ।
2. हता आशा यस्य स हताश:
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आओ संस्कृत सीखें
85
पाठ - 14
ह्वादि तीसरा गण 1. शित् प्रत्ययों पर तीसरे गण के धातु द्वित्व होते हैं इसे द्विरुक्ति, द्विर्भाव व अभ्यास
भी कहते हैं। 2. द्वित्व होने के बाद पूर्व के ग् और ह का ज् होता है।
उदा. जु + हु + ति = जुहोति 3. व्युक्त धातुओं से अन्ति और अन्तु के बदले अति और अतु होता है ।
जुहु + अति 4. हु धातु के उ का स्वर से प्रारंभ होनेवाले अपित् अवित् प्रत्यय पर व् होता है।
उदा. जुह्वति 5. हु धातु के बाद हि प्रत्यय का धि होता है। 6. व्युक्त धातुओं से अन् के बदले उस् (पुस्) होता है । उदा. अ + जुहु + उस् = अजुहवु:
हु धातु के रूप
वर्तमाना जुहुवः
जुहुमः जुहुथः
जुहुथ जुहुतः
हस्तनी अजुहवम् अजुहुव
अजुहम् अजुहोः अजुहतम्
अजुहुत अजुहोत् अजुहुताम्
अजुहवुः
विध्यर्थ जुहुयाम् जुहुयाव
जुहुयाम जुह्याः
जुहुयातम् जुहुयात्
जुहुयाताम्
जुहोमि जुहोषि
जुहोति
जुह्वति
जुहुयात
जुहुयुः
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आओ संस्कृत सीखें
186
..आज्ञार्थ जुहवानि जुहवाव
जुहवाम जुहुधि जुहुतम्
जुहुत जुहोतु जुहताम्
जुह्वतु 7. द्वित्व होने के बाद पूर्व का स्वर ह्रस्व होता है ।
उदा. हा + ति
हाहा + ति, हहाति, जहाति 8. अवित् शित् प्रत्ययों पर व्युक्त धातुओं के आ का लोप होता है ।
उदा. जहा + अति = जहति 9. व्यंजन से प्रारंभ होने वाले अवित् शित् प्रत्ययों पर व्युक्त धातुओं के आ का ई होता हैं । परंतु दा संज्ञावाले धातुओं के आ का ई नहीं होता है ।
उदा. जहा + तस् = जहीत: 10. 'हा'-त्याग करना, धातु के आ का व्यंजन से प्रारंभ होनेवाले अवित् शित् प्रत्ययों पर ह्रस्व इ भी होता है ।
उदा. जहितः, जहीतः । 11. हि प्रत्यय पर हा-त्याग करना धातु के आ का आ और इ विकल्प से होता है। उदा. जहाहि, जहिहि, जहीहि ।
हा धातु के रुप
वर्तमाना जहामि
जहिवः, जहीवः जहिमः, जहीमः
जहिथः, जहीथः जहिथ, जहीथ जहाति
जहितः, जहीतः जहति
_ ह्यस्तनी अजहाम्
अजहिव-अजहीव अजहिम-अजहीम अजहा:
अजहितम्-अजहीतम् अजहित-अजहीत अजहात्
अजहिताम्-अजहीताम्
जहासि
अजहुः
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आओ संस्कृत सीखें
87
विध्यर्थ जह्याम्
जह्याव
जह्याम जह्या:
जह्यातम्
जह्यात जह्यात्
जह्याताम्
जाः
आज्ञार्थ जहानि
जहाव
जहाम जहाहि, जहिहि, जहीहि जहितम्, जहीतम् जहित, जहीत जहातु
जहिताम्, जहीताम् जहतु 13. द्वित्व होने के बाद पूर्व के दूसरे अक्षर का पहला अक्षर और चौथे अक्षर का तीसरा अक्षर होता है । उदा. भी + ति
भीभी + ति
बि / भी = ति = बिभेति । 14. व्यंजन से प्रारंभ होनेवाले अविशित् प्रत्ययों पर भी धातु के ई का विकल्प से
ह्रस्व इ होता है।
___ उदा. बिभितः, बिभीतः । 15. स्वरादि प्रत्ययों पर अनेक स्वरी धातु के इ वर्ण का य होता है।
उदा. भी + अति, बिभी + अति = बिभ्यति । ___ भी धातु के रूप
वर्तमाना बिभेमि
बिभिवः, बिभीवः बिभिमः, बिभीमः बिभेषि बिभिथः, बिभीथः बिभिथ, बिभीथ बिभेति बिभितः बिभीत: बिभ्यति
ह्यस्तनी अबिभयम् अबिभिव, अबिभीव अबिभिम, अबिभीम अबिभेः
अबिभितम्, अबिभीतम् अबिभित, अबिभीत अबिभेत् अबिभिताम्, अबिभीताम् अबिभयुः
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88
आओ संस्कृत सीखें
विध्यर्थ बिभियाम्, बिभीयाम् बिभियाव, बिभीयाव बिभियाम, बिभीयाम बिभिया; बिभीयाः बिभियातम्, बिभीयातम् बिभियात, बिभीयात बिभियात्, बिभीयात् बिभियाताम्, बिभीयाताम् बिभियुः, बिभीयुः
. आज्ञार्थ बिभयानि बिभयाव
बिभयाम बिभिहि, बिभीहि बिभितम्, बिभीतम् बिभित, बिभीत
बिभेतु बिभिताम्, बिभीताम् बिभ्यतु 16. द्वित्व होने के बाद जो पूर्व धातु है, उसके अनादि व्यंजन का लोप होता है ।
उदा. ही + ति
ही ही + ति = हीही + ति = जिहेति 17. संयुक्त व्यंजन के बाद आए धातु के इ वर्ण और उ वर्ण का स्वरादि प्रत्ययों पर क्रमश: इय् तथा उव् होता है । उदा. ही + अति जिही + अति = जिहियति (नियम 15 का अपवाद)
ही धातु के रूप
वर्तमाना जिहेमि जिहीवः
जिहीमः जिहेषि जिहीथः
जिहीथ जिहति जिहीत:
जिहियति __ हस्तनी अजिहूयम् अजिहीव
अजिहीम अजिहेः अजिहीतम्
अजिहीत अजिहेत्
अजिहीताम्
विध्यर्थ जिहीयाम् जिहीयाव
जिहीयाम जिहीयाः जिहीयातम्
जिहीयात जिहीयाताम्
अजिहूयुः
जिहीयात्
जिहीयुः
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आओ संस्कृत सीखें
89
जिहियतु
आज्ञार्थ जिह्याणि
जियाव
जियाम जिहीहि
जिहीतम
जिहीत जिहेतु
जिहीताम् वर्तमान कृदंत - जुह्वत्, जिहियत्, बिभ्यत्, जहत् के रूप तीनों लिंगों में जक्षत् की तरह होंगे। कर्मणि में - हा - हीयते, हीयमानः ।
हू - हूयते, हूयमानः ।
भी - भीयते, भीयमानम् । हीयते । 18. त्वा प्रत्यय पर हा छोडना धातु का हि होता है । उदा. हि + त्वा = हित्वा
तीसरे गण के धातु भी = डरना (परस्मैपदी) | हु = होम करना (परस्मैपदी) हा = त्याग करना (परस्मैपदी) | ही = शर्मिंदा होना (परस्मैपदी)
शब्दार्थ आर्यपुत्र = पति (पुंलिंग)| अम्बक = आँख (नपुं. लिंग) कलाप = समूह (पुंलिंग) अक्ष = नेत्र (नपुं. लिंग) जुह्वान = घी आदिको होमनेवाला (पु.) कुंद = मचकुंद का फूल (नपुं. लिंग) तुषार = बर्फ
(पुंलिंग)| तुण्ड = मुख (नपुं. लिंग) पावक = अग्नि (पुंलिंग) | मुण्ड = मस्तक (नपुं. लिंग) होतृ = हवन करनेवाला ब्राह्मण (पुं.) लक्ष्मन् = चिह्न (नपुं. लिंग) चण्ड = प्रचंड (विशेषण) विभात = प्रभात (नपुं. लिंग) पलित = सफेद बालवाला (विशेषण) समिध् = काष्ठ (स्त्री लिंग) अन्तरिक्ष = आकाश (नपुं. लिंग) | अन्तर् = अंदर (अव्यय)
संस्कृत में अनुवाद करो 1. मैं मौत से डरता नहीं हूँ (भी), क्यों कि अमृततुल्य जिनेश्वर के वचन का पान
किया है।
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आओ संस्कृत सीखें
1905
2. तप रूपी अग्नि में कर्म रूपी ईंधन का होम करो (हु) । 3. वे भय से डरते नहीं हैं (भी) और धैर्य को छोड़ते नहीं हैं । (हा) 4. हमने मदिरापान छोड दिया है । (हा) 5. वे असत्य बोलते हुए शरमाते नहीं हैं । (ही)
हिन्दी में अनुवाद करो मिथ्याधर्ममपहाय सद्धर्ममाचर । 2. जिहेम्यार्यपुत्रेण सह गुरुसमीपे गन्तुम् । 3. पूज्यैरभक्तोऽपि शिशुः शिष्यते न तु हीयते । 4. तारुण्ये गते सति, अक्षेषु हानि प्राप्नुवत्सु सत्सु, हा वृद्धोऽपि विषयाभिलाषं
न जहाति। 5. न हि त्र्यम्बक-जटा-कलापमन्तरिक्षं वा विहाय क्षीणोऽपि हरिणलक्ष्मा'
क्षितौ पदं बध्नाति । 6. त्वयाऽपि यदि हीयेत, दुर्दशा-पतितः पतिः ।
उदयेत तदा नूनं, पश्चिमायां विभाकरः ।। 7. न कश्चिच्चण्डकोपानामात्मीयो नाम भूभुजाम् ।
होतारमपि जुह्वानं स्पृष्टो दहति पावकः ।। 8. अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम् ।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम् ।। 9. भ्रमर इव विभाते कुन्दमन्तस्तुषारम्
न च खलु परिभोक्तुं नैव शक्नोमि हातुम् ।
टिप्पणी : 1. त्रीणि अम्बकानि यस्य स त्र्यम्बकः महादेव
2. क्षि (परस्मैपदी गण-पहला) + त = क्षीणः 3. हरिण: लक्ष्म यस्य स हरिणलक्ष्मा = चन्द्रः 4. विभा (प्रभां) करोति इति विभाकरः = सूर्यः 5. अन्त: तुषारः यस्य तत् 6. तप एव अग्निः तपोग्निः, तस्मिन्, तपोऽग्नौ ।
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आओ संस्कृत सीखें
पाठ-15
पिपृमः
अपिपरम्
तीसरा गण चालू 1. पृ, ऋ, भृ, मा, हा (जाना) और दीर्घ पृ इन धातुओं को शित् प्रत्यय पर द्वित्व होने के बाद पूर्व के स्वर का इ होता है । उदा. पृ + ति पृपृ + ति = पिपर्ति
पृ धातु के रुप
वर्तमाना पिपर्मि
पिपृवः पिपर्षि पिपृथः
पिपृथ पिपर्ति पिपृतः
पिप्रति हस्तनी अपिपृव
अपिपृम अपिपः अपिपृतम्
अपिपृत अपिपः अपिपृताम्
अपिपरुः
विध्यर्थ . पिपृयाम् पिपृयाव
पिपृयाम पिपृया: पिपृयातम्
पिपृयात पिपृयात्
पिपृयाताम्
आज्ञार्थ पिपराणि पिपराव
पिपराम पिपृहि पिपृतम्
पिपृत पिपर्तु पिपृताम्
पिप्रतु 2. द्वित्व होने के बाद पूर्व के इ वर्ण और उ वर्ण के ह्रस्व स्वर पर क्रमश: इय् तथा उव् होता है। उदा. कृ + ति
कृ कृ + ति इ कृ + ति इय् = कृ + ति = इयर्ति
पिपृयुः
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आओ संस्कृत सीखें
392
इयर्मि इयर्षि
ऋ के रूप
वर्तमाना . इय॒वः इय॒थः इयतः
स्तनी
इय॒मः इयूथ
इयति
इग्रति
ऐयरम्
ऐयम
ऐयूव ऐवृतम्
ऐयत
ऐयरुः
इयूयाम्
इयत
ऐयः ऐयः
ऐवृताम्
विध्यर्थ इय्याव
इयृयाम इयूया: इय्यातम्
इयूयात इय्यात् इयूयाताम्
इय॒युः
आज्ञार्थ इयराणि इयराव
इयराम इयहि इय॒तम्
इयतु भृ धातु के परस्मैपद रूप वर्तमाना (तृतीय पु.) बिभर्ति बिभृतः बिभ्रति इत्यादि ह्यस्तनी (तृतीय पु.) अबिभः अबिभृताम् अबिभरुः इत्यादि
आत्मनेपदी के रूप
वर्तमाना बिभ्रे बिभृवहे
बिभृमहे बिभृषे बिभ्राथे
बिभृध्वे बिभृते बिभ्राते
बिभ्रते
इयतु
इयताम्
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आओ संस्कृत सीखें
93
अबिभ्रि अबिभृथाः अबिभृत
अबिभृमहि अबिभृध्वम् अबिभ्रत
बिभ्रीय बिभ्रीथाः बिभ्रीत
बिभ्रीमहि बिभ्रीध्वम्
बिधीरन्
बिभरै बिभृष्व बिभृताम्
बिभरामहै बिभृध्वम् बिभ्रताम्
मिमे मिमीषे मिमीते
ह्यस्तनी अबिभृवहि अबिभ्राथाम् अबिभ्राताम्
विध्यर्थ बिभ्रीवहि बिभ्रीयाथाम् बिभ्रीयाताम्
आज्ञार्थ बिभरावहै बिभ्राथाम् बिभ्राताम् मा धातु के रूप
वर्तमाना मिमीवहे मिमाथे मिमाते
हस्तनी अमिमीवहि अमिमाथाम् अमिमाताम्
विध्यर्थ मिमीवहि मिमीयाथाम् मिमीयाताम्
आज्ञार्थ मिमावहै मिमाथाम् मिमाताम्
मिमीमहे मिमीध्वे मिमते
अमिमि अमिमीथाः अमिमीत
अमिमीमहि अमिमीध्वम् अमिमत
मिमीय
मिमीमहि मिमीध्वम्
मिमीथाः मिमीत
मिमीरन्
मिमै मिमीष्व
मिमामहै मिमीध्वम् मिमताम्
मिमीताम्
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आओ संस्कृत सीखें
194
हा धातु के रूप -
पिपूर्मः
पिपूर्थ
अपिपरम्
जिहे जिहीवहे जिहीमहे आदि ‘मा' की तरह । 3. ओष्ठ्य व्यंजन के बाद रहे दीर्घ कृ का कित् ङित् प्रत्यय पर उर् होता है ।
उदा. पिपुर् + तस् = पिपूर्तः, पिपुरति । कर्मणि में - पूर्यते । पृ + त = पूर्तः, पूर्तवान् (भूतकृदन्त) पूर्तिः
पृ के रूप
वर्तमाना पिपर्मि
पिपूर्वः पिपर्षि
पिपूर्थः पिपर्ति पिपूर्तः
पिपुरति ह्यस्तनी अपिपूर्व
अपिपूर्म अपिपः अपिपूर्तम्
अपिपूर्त अपिपः अपिपूर्ताम्
अपिपरुः
विध्यर्थ पिपूर्याम् पिपूर्याव
पिपूर्याम पिपूर्याः पिपूर्यातम्
पिपूर्यात पिपूर्यात्
पिपूर्याताम्
आज्ञार्थ पिपराणि पिपराव
पिपराम पिपूर्हि
पिपूर्तम्
पिपूर्ताम् 4. दा या था ऐसा स्वरूप जिसका हो, उसे दा संज्ञा वाले कहते हैं ।
दा (गण 2) काटना तथा दै (गण 1 परस्मैपदी) शुद्ध करना - ये धातु दा संज्ञावाले नहीं हैं। दा + तस् = ददा + तस् (यहाँ पाठ 14 नियम 9 नहीं लगेगा क्योंकि वहाँ दा संज्ञावाले धातुओं का निषेध किया है। परंतु पाठ 14 नियम 8 लगेगा - दद् + तस् = दत्तः, ददा + अति = ददति ।
पिपूर्युः
पिपूर्त
पिपर्तु
पिपृतु
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95
आओ संस्कृत सीखें 5. दा संज्ञावाले धातुओं के आ का हि प्रत्यय पर ए होता है और द्वित्व नहीं होता है। उदा. देहि, धेहि ।
दा के रूप
परस्मैपदी - वर्तमाना ददामि दद्वः
दमः दत्थ:
दत्थ दत्तः
ह्यस्तनी अददाम् अदद्व
अदद्म अददाः अदत्तम्
अदत्त अददात्
अदत्ताम्
विध्यर्थ दद्याम् दद्याव
दद्याम दद्याः दद्यातम्
दद्यात दद्यात्
दद्याताम्
ददासि ददाति
ददति
अददुः
दधुः
आज्ञार्थ
ददानि
ददाम
ददाव दत्तम् दत्ताम्
दत्त
आत्मनेपदी वर्तमाना
दद्वहे
दद्महे
दद्ध्वे ददते
15
ददाथे ददाते
ह्यस्तनी अदद्वहि अददाथाम् अददाताम्
अददि अदत्था: अदत्त
अदद्महि अदद्ध्वम् अददत
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आओ संस्कृत सीखें
965
ददीत
ददीरन्
विध्यर्थ ददीय ददीवहि
ददीमहि ददीथाः ददीयाथाम्
ददीध्वम् ददीयाताम्
आज्ञार्थ ददावहै
ददामहै दत्स्व ददाथाम्
दद्ध्वम् दत्ताम् ददाताम
ददताम् 6. धा धातु के अंत में चौथा अक्षर हो तो त् थ् स् ध्व से प्रारंभ होनेवाले प्रत्ययों पर द का ध होता है। उदा. धा + तस्
दधा + तस् दध् + तस् = धत्तः, धत्थः, धत्से, धद्ध्वे
धा के रूप परस्मैपदी - वर्तमाना दध्वः
दध्मः धत्थः दधाति धत्तः
दधति
हस्तनी अदधाम् अदध्व
अदध्म अदधाः अधत्तम्
अधत्त अदधात् अधत्ताम्
अदधुः
विध्यर्थ दध्याम् दध्याव
दध्याम दध्या दध्यातम्
दध्यात दध्यात्
दध्याताम्
दधामि दधासि
धत्थ
दध्युयुः
आज्ञार्थ
दधानि धेहि दधातु
दधाव धत्तम् धत्ताम्
दधाम धत्त
दधतु
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आओ संस्कृत सीखें
197
दध्महे
दधाथे दधाते
दधै
आत्मनेपदी - वर्तमाना दध्वहे
धद्ध्वे
दधते
ह्यस्तनी अदधि अदध्वहि
अदध्महि अधत्था: अदधाथाम्
अधद्ध्वम् अधत्त अदधाताम्
अदधत
विध्यर्थ दधीय दधीवहि
दधीमहि दधीथाः दधीयाथाम्
दधीध्वम् दधीत दधीयाताम्
दधीरन् आज्ञार्थ दधावहै
दधामहै धत्स्व दधाथाम्
धद्ध्वम् धत्ताम् दधाताम्
दधताम् 7. तकारादि कित् प्रत्ययों पर धा स्वरूप सिवाय के दा संज्ञक धातुओं का दत् और धा धातु का हि आदेश होता है ।
दत्तः, दत्तवान्, दत्तिः, दत्त्वा । धा धातु का विहितः, विहितवान्, हित्वा । तकारादि न हो तो
संबंधक भूतकृदंत में प्रदाय, विधाय 8. निज् विज् और विष् धातु का शित् प्रत्ययों पर द्वित्व होने के बाद पूर्व के स्वर का ए होता है।
निज् + ति निग्निज् + ति निनिज् + ति = नेनेक्ति
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आओ संस्कृत सीखें
स्वरादि शित् प्रत्ययों पर द्विरुक्त धातु के उपांत्य नामि स्वर का गुण नहीं होता
है।
9.
उदा. नेनिजानि, अनेनिजम्
निज् धातु
परस्मैपदी - वर्तमाना
नेनिज्वः
नेनिक्थ:
नेनिक्तः
नेनेज्म
नेक्षि
नेक्ति
अनेनिजम्
अनेनेक्, ग्
अनेनेक्, ग्
नेनिज्याम्
नेनिज्याः
नेनिज्यात्
जानि
नेनिग्धि
नेक्तु
निजे
निक्षे
नेनिक्ते
अनिजि
अनेनिक्थाः
अनेनिक्त
98
अनेनिज्व
अनेनिक्तम्
अनेनिक्ताम्
विध्यर्थ
निज्याव
नेनिज्यातम्
नेनिज्याताम्
के रूप
निजाव
नेनिक्तम्
नेनिक्ताम्
आज्ञार्थ
आत्मनेपदी - वर्तमाना
निज्व
निजाथे
निजाते
ह्यस्तनी
अनेनिज्वहि
अनेनिजाथाम्
अनेनिजाताम्
नेनिज्म:
नेनिक्थः
निजति
अनेनिज्म
अनेनिक्त
अनेनिजुः
निज्याम
ज्यात
नेनिज्युः
निजाम
निक्त
नेनिजतु
नेनिज्महे
नेनिग्ध्वे
निजते
अनेनिज्महि
अनेनिग्ध्वम्
अनेनिजत
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आओ संस्कृत सीखें
299
नेनिजीमहि
नेनिजीय नेनिजीथाः नेनिजीत
नेनिजीध्वम् नेनिजीरन्
नेनिजै नेनिक्ष्व
विध्यर्थ नेनिजीवहि नेनिजीयाथाम् नेनिजीयाताम्
आज्ञार्थ नेनिजावहै नेनिजाथाम् नेनिजाताम् विष् धातु के रूप
वर्तमाना वेविष्वः
नेनिजामहै नेनिग्ध्वम् नेनिजताम्
नेनिक्ताम्
वेविष्मः
वेवेष्मि वेवेक्षि वेवेष्टि
वेविष्ठः
वेविष्ठ
वेविषति
अवेविषम् अवेवेट्, ड् अवेवेट्, ड्
अवेविष्म अवेविष्ट अवेविषुः
वेविष्याम् वेविष्या: वेविष्यात्
वेविष्याम वेविष्यात
वेविष्युः
वेविष्टः
ह्यस्तनी अवेविष्व अवेविष्टम् अवेविष्टाम्
विध्यर्थ वेविष्याव वेविष्यातम् वेविष्याताम्
आज्ञार्थ वेविषाव वेविष्टम् वेविष्टाम्
आत्मनेपदी
वर्तमाना वेविष्वहे वेविषाथे वेविषाते
वेविषाणि वेविड्ढि
वेविषाम् वेविष्ट वेविषतु
वेवेष्ट
वेविष्महे
वेविषे वेविक्षे
वेविड्ढ्वे वेविषते
वेविष्टे
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आओ संस्कृत सीखें
1100,
हस्तनी अवेविषि अवेविष्वहि
अवेविष्महि अवविष्ठाः अवेविषाथाम्
अवेविड्ढ्वम् अवेविष्ट अवेविषाताम्
अवेविषत . विध्यर्थ वेविषीय वेविषीवहि
वेविषीमहि वेविषीथाः वेविषीयाथाम्
वेविषीध्वम् वेविषीत वेविषीयाताम्
वेविषीरन्
आज्ञार्थ वेविषै वेविषावहै
वेविषामहै वेविश्व वेविषाथाम्
वेविड्ढ्वम् वेविष्टाम् वेविषाताम्
वेविषताम् वर्तमान कृदन्त : पिप्रत् इयत्, बिभ्रत् ददत् दधत् नेनिजत् आदि के तीनों लिंगों के रूप जक्षत् की तरह होंगे। आत्मनेपद में : बिभ्राणः, जिहानः ददानः दधानः नेनिजानः । कर्मणि में रूप : पृ - प्रियते
हा - जाना - हायते ऋ - अर्यते (पाठ 6, नियम-4) मा - मीयते, दा - दीयते
धा - धीयते निज-निज्यते कृदन्त : प्रियमाणः, हायमानः 10. तकारादि कित् प्रत्ययों पर दो, सो, मा और स्था धातु के अंत्य स्वर का इ नित्य होता हैं तथा छो और शो धातु के अंत्य स्वर का इ विकल्प से होता है। उदा. दितः। अवसितः। सित्वा। मितः। मितिः ।
स्थितः। स्थित्वा। छितः। छातः।
निशितः। निशातः। विरुद्ध उदा. अवसाय । निर्माय । 11. स्वरांत धातु को य प्रत्यय लगाने पर विध्यर्थ कृदन्त बनता है, तब आकारांत धातु
के आ का ए होता हैं।
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आओ संस्कृत सीखें
101
उदा. चि + य = चेयम् ।
ने + य = नेयम् । दा + य = देयम् । मा + य = मेयम् ।
तीसरे गण के धातु ऋ = जाना
(परस्मैपदी) | दा = देना (उभयपदी) पृ = पालन करना (परस्मैपदी) | धा = धारण करना (उभयपदी) पृ = पालन करना (परस्मैपदी) | वि+धा = विधान करना (उभयपदी) मा = मापना (परस्मैपदी) | निज् = धोना (उभयपदी) नि+मा = निर्माण करना (आत्मनेपदी)| भृ = पोषण करना (उभयपदी) हा = जाना (आत्मनेपदी) विज् = अलग करना (उभयपदी) उद्+विज् = उद्वेग करना (उभयपदी) | विष = फैलाना (उभयपदी)
शब्दार्थ अगस्ति=क्षत्रिय का नाम (पुंलिंग) । अन्तर = अंतर (नपुं. लिंग) अर्णव = समुद्र (पुंलिंग) | अभ्र = बादल (नपुं. लिंग) आश्लेष = आलिंगन (पुंलिंग) | छल = कपट (नपुं. लिंग) कुक्षि = पेट
(पुंलिंग) | यान = वाहन द्रव = रस
(पुंलिंग) | यूथ = टोला (नपुं. लिंग) धर्मात्मज = युधिष्ठिर (पुंलिंग) | वसन = वस्त्र (नपुं. लिंग) नहुष = एक राजा (पुंलिंग) | विवर = जगह लिंग) बठर = मूर्ख
(पुंलिंग) | शोणित = खून (नपुं. लिंग) मख = यज्ञ
(पुंलिंग)/स्व = धन (नपुं. लिंग) उर्वी = पृथ्वी (स्त्री लिंग) | हेमन् = सुवर्ण (नपुं. लिंग) काश्यपी = पृथ्वी (स्त्री लिंग) | धूसर = मैला (विशेषण) धरणी = पृथ्वी (स्त्री लिंग)| प्रणयिन् = प्रेमी (विशेषण) बदरी = बोर वृक्ष (स्त्री लिंग) प्राकृत = सामान्य (विशेषण) मुक्ता = मोती (स्त्री लिंग) प्राज्य = विस्तृत (विशेषण) शुभ्र = उज्ज्वल (विशेषण) | क्षाम = दुर्बल
(विशेषण)
लिंग)
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आओ संस्कृत सीखें
21022
संस्कृत में अनुवाद करो : 1. यदि प्रतिष्ठा (इज्जत) चाहते हो तो दो (दा) लेकिन मांगो मत ! (मार्ग) 2. जीव को जब तक विषम कर्म बीच में आते हैं, तब अन्य लोग तो दूर रहे
(आस्ताम्) स्वजन भी दूर हो जाते हैं । 3. वास्तव में वह खाता नहीं, पीता नहीं, और धर्म में भी व्यय नहीं करता है।
(वि+इ. गण 1 परस्मै) परंतु उस कृपण को पता नहीं है कि क्षण भर में ही यम
का दूत आ जाता है । (प्र + भू) 4. देहावास को अशाश्वत, असार और मरणांत जानने वाला कौन मनुष्य मृत्यु से
उद्वेग पाता है ! (उद् + विज्) 5. कई लोग प्रियजनों के मनोरथ पूर्ण करते हैं (पृ) तो कई लोग अपना पेट भी नहीं
भर पाते हैं । (भृ) 6. सांप का जहर उसके खून में फैल गया । (विष्) 7. धोबी तालाव में कपडे धोता है । (निज्) 8. राजा के अधिकारी जमीन को मापते हैं । (मा) 9. मैंने इस ग्रंथ की रचना कर (नि+मा) अपनी शक्ति को मापा । (मा) 10. भगवान हेमचन्द्रसूरिजी ने अणहिलपुर पाटण में सिद्धहेम व्याकरण की रचना की।
(निर् + मा) 11. कर्म से मुक्त हुआ जीव ऊपर जाता है (उद्+हा) और लोक के अग्रभाग में जाकर रहता है। (अधि + स्था)
हिन्दी में अनुवाद करो विस्मय-स्मेरदृष्टिभिः पोरैरनेकप्रकारमभिनन्द्यमानः स राजा परांमुदमधत्त। 2. विधेहि सर्वशक्त्या महात्मनात्मनो रक्षाम् । 3. केनापि सार्धं मेधावी विरोधं विदधीत न । 4. अदत्तं नाऽऽददीत स्वं तृणमात्रमपि क्वचित् । 5. यो हि मितं भुङ्क्ते स बहु भुङ्क्ते । 6. यो हि दद्यादपात्राय संज्ञानममृतोपमम् ।
स हास्यः स्यात्सतां मध्ये, भवेच्चानर्थभाजनम् ।।
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आओ संस्कृत सीखें
2103
7. गच्छतः स्खलनं क्वापि, भवत्येव प्रमादतः ।
हसन्ति दुर्जनास्तत्र, समादधति सज्जनाः ।। 8. हत्वा गुरूनपि लघून्वञ्चयित्वा छलेन च ।
यदुपादीयते राज्यं, तत्प्राज्यमपि मास्तु मे ।। 9. प्रसीद विवरं देहि, स्फुटित्वा देवि ! काश्यपि !।
अभ्रादपि पतितानां, शरणं धरणी खलु ।। 10. यथा चिन्तामणिं दत्ते, बठरो बदरी-फलैः ।
ह हा जहाति सद्धर्मं तथैव जन-रजनैः ।। 11. ज्ञान-मग्नस्य यच्छर्म, तद्वक्तुं नैव शक्यते ।
नोपमेयं प्रियाश्लेषै र्नापि तच्चन्दन-द्रवैः ।। 12. दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गति भवति ।। 13. कोऽलङ्कारः सतां ! शीलं, न तु काञ्जन-निर्मितम् ।
किमादेयं प्रयत्नेन ? धर्मो, न तु धनादिकम् ।। 14. अजित्वा सार्णवामुर्वीमनिष्ट्वा वा विविधै मखैः ।
अदत्त्वा चार्थिभ्यो दानं, भवेयं पार्थिवः कथम् ।। 15. सद्यः क्रीडा-रसच्छेदं, प्राकृतोऽपि न मर्षयेत् ।
किं नु लोकाधिकं तेजो, बिभ्राणः पृथिवी-पतिः ।। 16. सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ।
वृणते हि विमृश्य कारिणं, गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ।। 17. उपानयन्ती कलहंसयूथमगस्ति-दृष्ट्या पुनती पयांसि ।
मुक्तासु शुभ्रं दधती च गर्ने शरद्विचित्रैश्चरितैश्चकास्ति ।। 18. वसने परिधूसरे वसाना नियम-क्षापमुखी धृतैकवेणिः ।
अतिनिष्करुणस्य शुद्ध-शीला मम दीर्घं विरहव्रतं बिभर्ति । 19. रामो हेम-मृगं न वेत्ति नहुषो याने न्ययुक्त द्विजान्,
विप्रस्याऽपि सवत्सधेनु-हरणे जाता मतिश्चार्जुने । द्यूते भ्रातृ-चतुष्टयं च महिषीं धर्मात्मजो दत्तवान्, प्रायः सत्पुरुषो विनाश-समये बुद्ध्या: परिभ्रश्यते ।।
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आओ संस्कृत सीखें
2104
धातु के 10 गणों का पृथक्करण 1. सातवें गण में प्रत्येक धातु से 'हि' का 'धि' होता है - उदा. रुन्द्धि। दूसरे-तीसरे
गण में व्यंजनांत धातु से 'हि' का 'धि' होता है, सिर्फ हन् का जहि और रुदादि पाँच में रुदिहि आदि । • स्वरांत धातु से 'हि' अवश्य होता है - जिहिहि (हु को छोड़कर-जुहुधि)। • पाँचवें गण में स्वरांत धातुओं से 'हि' का लोप होता हैं-उदा. चिनु। परंतु
व्यंजनांत धातुओं से 'हि' का लोप नहीं होता है। उदा. शक्नुहि। • आठवें गण में प्रत्येक धातु से 'हि' का लोप होता है । उदा. - तनु । • पहले, चौथे, छठे और दसवें गण में प्रत्येक धातु से 'हि' का लोप होता है। • नौवें गण में 'हि' कायम रहता हैं । उदा. - क्रीणीहि, परंतु व्यंजनांत धातुओ
में विकरण सहित 'हि' का आन होता है। उदा. पुषाण । 2. व्युक्त तीसरे गण के धातुओं से तथा जश् आदि पाँच धातुओं से अन्ति और अन्तु
के बदले अति और अतु होता है। 3. द्विष् धातु से, दूसरे गण के आकारांत धातुओं से अन् का उस् (पुस्) विकल्प से होता है और विद् धातु, जश् आदि पाँच धातु तथा तीसरे गण के धातुओं से उस्
नित्य होता है। 4. पहले, चौथे, छठे और दसवें गण के अकारांत धातुओं से विध्यर्थ प्रत्ययों में 'या'
का 'ई' तथा माम् का इयम्, युस् का इयुस् होता है तथा आथाम्, आथे,
आताम्, आते प्रत्ययों के आ का इ होता है। 5. पाँचवें, आठवें, नौवें, सातवें, दूसरे और तीसरे गण में अन्ते, अन्त और अन्ताम् के बदले अते, अत और अताम् होता है। शी धातु से रते, रत और रताम् होता है।
पहला गण विभाग : पहले, चौथे, छठे और दसवें गण में स्वरांत और व्यंजनांत दोनों प्रकार के धातु हैं। प्रत्येक गण में अ (शव्) य (श्य) अ (श) तथा अ (शव्) विकरण प्रत्यय लगने के बाद धातु अकारांत बनते हैं। क्योंकि प्रत्येक के प्रत्यय अकारांत हैं। इस कारण इन सभी के रूप एक समान हैं, दसवें गण के धातु स्वरांत हैं, क्योंकि उन्हें इ (णिच्) प्रत्यय लगता है।
दूसरा गण विभाग : (पाँचवाँ, आठवाँ, नौवाँ और सातवाँ गण)
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आओ संस्कृत सीखें
• पाँचवें गण में स्वरांत और व्यंजनांत दोनों प्रकार के धातु हैं। • आठवें गण में व्यंजनांत ही हैं। पाँचवें और आठवें गण में विकरण प्रत्यय नु, उ अर्थात् उकारांत हैं। पाँचवें गुण के स्वरांत और आठवें गण के व्यंजनांत धातु के रूप समान ही होते हैं ।
• नौवें गण में स्वरांत और व्यंजनांत दोनों प्रकार के धातु हैं। उन दोनों के रूप समान होते हैं, सिर्फ व्यंजनांत धातु के आत्मनेपदी द्वितीय पुरुष एकवचन का रूप भिन्न होता है - उदा. पुषाण । इस गण का विकरण प्रत्यय ना (श्ना) हैं।
• सातवें गण के सभी धातु व्यंजनांत हैं, इस गण का विकरण प्रत्यय स्वर और व्यंजन बीच में आता है। इस कारण इस गण का स्वरूप व्यंजनांत रहता है। पुरुष बोधक प्रत्यय लगने पर अनेक प्रकार की व्यंजन संधियाँ होती हैं। शेष प्रत्ययों में परिवर्तन सभी धातुओं में एक समान होता है। विकरण प्रत्यय ना (श्ना) है।
तीसरा गण विभाग : ( दूसरा - तीसरा गण ) इनमें विकरण प्रत्यय नहीं है, स्वरांत व व्यंजनांत दोनों प्रकार के धातु हैं।
व्यंजनांत धातु के रूप बनाते समय अनेक प्रकार की व्यंजन संधियाँ होती हैं तथा स्वरांत धातु के रूप भिन्न-भिन्न होते हैं।
व्यंजनादि वित् प्रत्ययों पर ब्रू धातु से नित्य और तु, रु और स्तु धातु विकल्प सेई होती है।
105
ह्यस्तन भूतकाल के द्-स् प्रत्यय पर अस् धातु से नित्य इ होती है ईश् तथा ईड् धातु से, से ध्वे तथा आज्ञार्थ स्व ध्वम् पर, रुद् आदि पाँच धातु से विध्यर्थ को छोड़ व्यंजनादि शित् प्रत्ययों पर इ होती है।
ह्यस्तनी द् - स् प्रत्यय पर रुदादि पाँच धातु से ई तथा अ होता है तथा अद् धातु अ होता है।
तीसरे गण में द्विरुक्ति होती है।
वर्तमान कृदन्त के रूप : पुंलिंग और नपुसंक लिंग में धुट् प्रत्ययों पर उपान्त्य में ‘न्’ जुड़ता है, परंतु द्वयुक्त (गण तीसरा ) धातुओं में और जक्ष् आदि पाँच धातुओं में पुंलिंग में न् का लोप होता है, नपुंसक लिंग में विकल्प से लोप होता है।
नपुंसक लिंग द्विवचन और स्त्रीलिंग का ई प्रत्यय लगने पर छठे और दूसरे गण के आकारांत धातुओं में अत् का अन्त् विकल्प से होता है। पहले, चौथे, दसवें गण में अत का अन्त् नित्य होता है शेष गणों में अत् का अत् रहता है।
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आओ संस्कृत सीखें
2106
प्रथमा
अम्
भ्याम् भ्याम्
चतुर्थी
ओस्
ओस्
प्रकरण - 2
पाठ- 16 स्वरांत नाम के रूप
विभक्ति के प्रत्यय स् (सि)
अस् (जस्) द्वितीया
औ
अस् (शस्) तृतीया आ (टा)
भिस् ए (D)
भ्यस पंचमी अस् (ङसि) भ्याम् भ्यस् षष्ठी अस् (ङस्)
आम् सप्तमी इ (ङि)
सु (सुप्)
सर्वनाम 1. पूर्व, पर, अवर, दक्षिण, उत्तर, अपर, अधर, स्व और अन्तर इन नौ
सर्वनामों से इ. स्मात् और स्मिन् विकल्प से होता है । . उदा. पूर्वे,
पूर्वाः पूर्वस्मात्, पूर्वात् पूर्वस्मिन्
हस्व इकारांत नाम 2. सखि शब्द से स (प्रथमा एक वचन) का आ (डा) होता है । उदा. सखा 3. सखि शब्द से संबोधन एक वचन छोडकर शेष धुट् प्रत्ययों पर ऐ होता है ।
उदा. सखायौ, सखायौ, सखायः। सखायम् 4. सखि और पति शब्द स्वतंत्र हो तब सप्तमी एक वचन में इ का औ होता हैं ।
उदा. सख्यौ । पत्यौ । 5. तृतीया एक वचन आ का ना नहीं होता है ।
उदा. सख्या । पत्या । चतुर्थी एक वचन ए तथा पंचमी-षष्ठी एक वचन अस् प्रत्यय पर सखि-पति के इ का ए नहीं होता है।
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आओ संस्कृत सीखें
6.
उदा. सख्ये । पत्ये ।
पंचमी-षष्ठी एक वचन अस् का उर् हो जाता हैं ।
उदा. सखि + अस्
1
2
3
4
5
6
7
संबोधन
1
2
3
4
5
6
7
संबोधन
सखि + उर् = सख्युः । पत्युः ।
सखा
सखायम्
सख्या
सख्ये
सख्युः
सख्युः
सख्यौ
सखे
पति:
पतिम्
107
पत्या
पत्ये
पत्युः
पत्युः
पत्यौ
पते
सखि के रूप
सखायौ
सखायौ
सखिभ्याम्
सखिभ्याम्
सखिभ्याम्
सख्योः
सख्योः
सखायौ
पति के रूप
पती
पती
पतिभ्याम्
पतिभ्याम्
पतिभ्याम्
पत्योः
पत्योः
पती
सखायः
सखीन्
सखिभिः
सखिभ्यः
सखिभ्यः
सखीनाम्
सखिषु
सखायः
दधन् + आ = दध्ना
पतयः
पतीन्
पतिभिः
पतिभ्यः
पतिभ्यः
पतीनाम्
पतिषु
पतयः
दधि, अस्थि, सक्थि तथा अक्षि इन नपुंसक लिंग के नामों के अंत्य स्वर का तृतीया एक वचन से लेकर स्वर से प्रारंभ होने वाले प्रत्ययों पर अन् होता हैं।
उदा. दधि + आ
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आओ संस्कृत सीखें
6.
1
2
3
4
5
6
7
संबोधन
1
2
3
4
5
6
7
संबोधन
दधि
दध्ना
दने
दध्नः
दध्नः
दनि, दधनि
दधे, द
1
2
3
4
अक्षि
अक्षि
108
दधि के रूप
दधिनी
दधिनी
दधिभ्याम्
दधिभ्याम्
दधिभ्याम्
अक्ष्णा
अक्ष्णे
अक्ष्णः
अक्ष्णः
अक्ष्ण अक्षणि
अक्षे, अक्षि
अक्षि के रूप
अक्षिणी
अक्षिणी
स्त्री
स्त्रियम्, स्त्रीम्
स्त्रिया
स्त्रियै
दध्नोः
दध्नोः
धन
अक्षिभ्याम्
अक्षिभ्याम्
अक्षिभ्याम्
अक्ष्णोः
अक्ष्णोः
अक्षिणी
स्त्रियौ
स्त्रियौ
दधीन
दधीनि
दधिभिः
दधिभ्यः
दधिभ्यः
दीर्घ ईकारांत स्त्री लिंग
स्त्री शब्द के ई का स्वरादि प्रत्ययों पर इय् होता है तथा अम् एवं द्वितीया बहुवचन के अस् प्रत्यय पर विकल्प से इय् होता है ।
स्त्री के रूप
स्त्रीभ्याम्
स्त्रीभ्याम्
दध्नाम्
दधिषु
दधीनि
अक्षीणि
अक्षीणि
अक्षिभिः
अक्षिभ्यः
अक्षिभ्यः
अक्ष्णाम्
अक्षिषु
अक्षीणि
स्त्रियः
स्त्रियः,
स्त्रीभिः
स्त्रीभ्यः
स्त्री:
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आओ संस्कृत सीखें
1095
स्त्रियः
5 स्त्रियाः
स्त्रीभ्याम्
स्त्रीभ्यः 6. स्त्रियाः
स्त्रियोः
स्त्रीणाम् 7 स्त्रियाम्
स्त्रियोः
स्त्रीषु संबोधन हे स्त्रि
स्त्रियौ 7. कई नाम ई (डी) प्रत्यय लगे बिना भी स्वाभाविक रूप से दीर्घ ईकारांत स्त्री लिंग नाम हैं। उन नामों में प्रथमा एकवचन के स् का लोप नहीं होता है ।
उदा. अवी:, तरी:, लक्ष्मीः , तन्त्री : इनके शेष रूप नदी समान होते हैं ।
उकारांत नाम शेष घुट् प्रत्ययों पर क्रोष्टु के बदले कोष्ट अवश्य होता है तथा तृतीया एक वचन से स्वरादि प्रत्ययों पर विकल्प से कोष्ट होता है तथा स्त्री लिंग में क्रोष्ट्री होता
क्रोष्टु के रूप 1 क्रोष्टा
क्रोष्टारौ 2 क्रोष्टारम् क्रोष्टारौ 3 क्रोष्ट्रा, क्रोष्टना क्रोष्टुभ्याम् 4 क्रोष्ट्र, क्रोष्टवे क्रोष्टुभ्याम् 5 क्रोष्टुः क्रोष्टोः क्रोष्टुभ्याम्
6 क्रोष्टुः क्रोष्टोः क्रोष्ट्रोः, क्रोष्ट्वोः ____ 7 क्रोष्टरि, क्रोष्टौ क्रोष्ट्रोः, क्रोष्ट्वोः संबोधन क्रोष्टो
क्रोष्टारौ
क्रोष्टारः क्रोष्टून क्रोष्टुभिः क्रोष्टुभ्यः क्रोष्टुभ्यः क्रोष्टूनाम् क्रोष्टषु क्रोष्टार
8.
ओकारांत नाम ओकारांत नामों के ओ का धुट् प्रत्ययों पर औ होता है तथा अम् और द्वितीया बहुवचन के अस् के साथ आ होता है ।
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आओ संस्कृत सीखें
9.
1
गौः
2 गाम्
3
गवा
4
गवे
5
6
7
संबोधन
1
2
3
4
5
6
7
संबोधन
1
2
3
गोः
गोः
गवि
4
5
6
7
संबोधन
गौः
द्यौः
द्याम्
द्यवा
द्या:
द्यो:
द्यवि
द्यौः
राः
रायम्
राया
110
रायः
रायः
राय
राः
गो के रूप
गावौ
गावौ
गोभ्याम्
गोभ्याम्
गोभ्याम्
गवोः
गवोः
गावौ
घो के रूप
द्यावौ
द्यावौ
द्योभ्याम्
द्योभ्याम्
द्योभ्याम्
द्यवो:
द्यवोः
द्यावौ ऐकारांत नाम
व्यंजनादि प्रत्ययों पर रै शब्द के अंत्य ऐ का आ होता हैं ।
रै के रूप
रायौ
रायौ
राभ्याम्
राभ्याम्
गाव:
गाः
गोभिः
गोभ्यः
गोभ्यः
राभ्याम्
रायोः
रायोः
यौ
गवाम्
गोषु
गाव:
द्यावः
द्या:
द्योभिः
द्योभ्यः
द्योभ्यः
द्यवाम्
द्योषु
द्यावः
रायः
रायः
राभिः
राभ्यः
राभ्यः
रायाम्
रासु
रायः
Page #137
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आओ संस्कृत सीखें
111
सर्वनाम पूर्व = पूर्व दिशा, पूर्व काल अपर = पश्चिम, दूसरा अधम पर = बाद का
अधर = नीचे का, हल्का अवर = छोटा, अंतिम
स्व = स्वयं का दक्षिण = दक्षिण दिशा, देश अन्तर = अंदर का उत्तर = उत्तर देश, काल
शब्दार्थ आपात = प्रारंभ (पुंलिंग)। अक्षि = आँख (नपुं. लिंग) क्रोष्ट = सियार (पुंलिंग) | अभ्र = बादल (नपुं. लिंग) गो = बैल
(पुंलिंग)| अस्थि = हड्डी (नपुं. लिंग) गो = गाय, वाणी, पृथ्वी (स्त्री लिंग) | आधिपत्य = आधिपत्य (नपुं. लिंग) पति = स्वामी
(पुंलिंग) | कुञ्ज = झाड़ी (नपुं. लिंग) रै = पैसा
(पुंलिंग) | मात्र = अवधारण (नपुं. लिंग) विभ्रम = विलास (पुंलिंग) | विलोचन = आँख (नपुं. लिंग) सखि = मित्र
(पुंलिंग) | सक्थि = जंघा (नपुं. लिंग) अवी=मासिक धर्म वाली स्त्री (स्त्री लिं) | काण = काणा (विशेषण) त्वच् = चमड़ी (स्त्री लिंग) | बधिर = बहरा (विशेषण) द्यो = स्वर्ग
(स्त्री लिंग) | सखी = सखी (स्त्री लिंग) स्त्री = स्त्री
(स्त्री लिंग)| तरी = नाव (स्त्री लिंग) तन्त्री = वीणा (स्त्री लिंग)।
__संस्कृत में अनुवाद करो : 1. तू दही के साथ चावल खा परंतु उड़द मत खा । 2. वह आँख से काना और कान से बहरा है । (अक्षि) 3. प्रात:काल में अंधेरे की तरह सियार भी झाड़ियों में घुस जाते हैं । 4. गाय का दूध स्वभाव से ही अति मधुर और बुद्धि को बढ़ाता है । (पुष गण 9) 5. स्त्रियाँ वदन द्वारा कमल को और गति द्वारा हंस को जीत लेती हैं । 6. सती स्त्रियाँ पति की आज्ञा को प्रभु की आज्ञा अनुसार मानती हैं ।
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आओ संस्कृत सीखें
112
.
0
7. हे वत्स ! धन को प्राप्त कर! धन बिना कुछ नही है । लोग कहते हैं - 'धन बिना का नर पशु हैं ।' (रे)
हिन्दी में अनुवाद करो : 1. सखे ! न परिहार्ये वस्तुनि पौरवाणां मनः प्रवर्त्तते । 2. पाणि-स्पर्श-सुखमपि यत्पत्यु हमाप्नवम् । 3. दुर्दशापतितानां हि स्त्रीणां धैर्य-गुणः कुतः ? 4. पूर्वे न्याये तथा धर्मे पूर्वस्मिन्नेष तत्परः । 5. महीं शासता रामेण राज्ञा गौ धौरिव कृता । 6. न कोऽपि प्राज्ञः स्त्री: सस्पृहं द्रष्टुमुद्यच्छते । 7. अस्थिष्वर्थाः सुखं मांसे त्वचि भोगाः स्त्रियोऽक्षिषु ।
गतौ यानं स्वरे चाज्ञा सर्वं सत्त्वे प्रतिष्ठितम् ।। 8. यावन्नरो निरारम्भस्तावल्लक्ष्मी: पराङ्मुखा ।
सारम्भे तु नरे लक्ष्मीः स्निग्ध-लोल-विलोचना ।। 9. 'वाताभ्रविभ्रममिदं वसुधाऽऽधिपत्य-मापात-मात्रमधुरो विषयोपभोगः।
प्राणास्तृणाग्रजलबिन्दुसमा नराणां धर्मः सखा परमहो पर-लोक-याने। 10. परोपकाराय वहन्ति नद्यः परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः ।
परोपकाराय दुहन्ति गाव: परोपकाराय सतां विभूतयः ।। टीप्पणी : 1. वातेन युक्तम् अभ्रम्: वाताभ्रम्, वाताभ्रस्येव विभ्रमो यस्य तत् ।
2. आपात एव मधुरः = आपातमात्रमधुरः ।
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आओ संस्कृत सीखें
2113
श्वानः
श्वभिः
पाठ- 17
व्यंजनांत रूप
नकारांत नाम (अन् अंतवाले) 1. श्वन्, युवन् और मघवन् शब्दों के व का स्त्री लिंग के ई (ङी) प्रत्यय पर तथा अघुट् स्वरादि प्रत्ययों पर उ होता है । उदा. श्वन् + ई = शुनी, अतियूनी, मघोनी शुनः, यूनः, मघोनः
श्वन के रूप 1 श्वा
श्वानौ श्वानम् श्वानौ
शूनः शुना श्वभ्याम् 4 शुने
श्वभ्याम्
श्वभ्यः 5 शुनः
श्वभ्याम्
श्वभ्यः 6 शुनः शुनोः
शुनाम् 8 शुनि शुनोः
श्वसु संबोधन श्वन्
श्वानौ
युवन् के रूप युवा युवानौ
युवानः युवानम् युवानौ
यूनः 3 यूना
युवभ्याम् 4 यूने
युवभ्याम् युवभ्यः 5 यूनः युवभ्याम् युवभ्यः 6 यून:
यूनोः
यूनाम् ___7 यूनि
यूनोः .. युवसु संबोधन युवन् मघवा - प्रथमा एकवचन मघोनः - द्वितीया बहुवचन, पंचमी-षष्ठी एकवचन
श्वानः
युवभिः
...........
युवानौ
युवानः
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आओ संस्कृत सीखें
४ 174
अहः
अहानि
2. अहन् शब्द के न् का पद के अंत में र् होता है । 3. स् के र् को जो नियम लगता है, वह इस र् को भी लागू पड़ता है ।
अहन् + भ्याम्
अहर् + भ्याम् = अहोभ्याम् । 4. प्रत्यय का लोप होने के बाद पद के अंत में रहे अहन् शब्द के न् का होता हैं।
उदा. अहन् + भ्याम्
अहर् + भ्याम् = अहोभ्याम् उदा. अहरेति, अहर्गच्छति
र् पर यह नियम नहीं लगता है ।। उदा. गतमहो रात्रिरागता
अहन के रूप 1. अहः अही, अहनी अहानि
अह्री, अहनी अह्ना अहोभ्याम् अहोभिः
अहोभ्याम् अहोभ्यः अह्नः अहोभ्याम् अहोभ्यः 6. अह्नः अह्नोः अह्नाम्
7. अह्नि, अहनि अह्नोः अहःसु, अहस्सु 7. पूषन् और अर्यमन् का स्वर प्रथमा एकवचन में ही दीर्घ होता है ।
उदा. पूषा पूषणौ पूषणः
अर्यमा अर्यमणौ अर्यमणः Note: अहश्च रात्रिश्च अनयोः समाहारः अहोरात्रः (नियम 2 से र) परंतु अहश्च निशा च अनयो: समाहार: अहर्निशम् (नियम 3 से र्)
इन् अंतवाले नाम 5. पथिन् मथिन् और ऋभुक्षिन् शब्दों के न् का स् (सि) प्रत्यय पर आ होता है। 6. धुट् प्रत्ययों पर पथिन्, मथिन् और ऋभुक्षिन् के इ का आ और थ् का न्थ्
होता हैं।
अहे
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आओ संस्कृत सीखें
1115
पन्थाः
पथिषु
7. ई (ङी) और स्वरादि अधुट् प्रत्ययों पर पथिन् मथिन् और ऋभुक्षिन् के इन् का
लोप होता है । उदा. शोभनः पन्था यस्याः सा
सुपथिन् + ई = सुपथी स्त्री । पथः। मथः। ऋभुक्षः ।
पथिन के रूप पन्थानौ
पन्थान: पन्थानम् पन्थानौ
पथ: 3 पथा
पथिभ्याम्
पथिभिः पथे पथिभ्याम्
पथिभ्यः पथः पथिभ्याम्
पथिभ्यः पथ: पथोः
पथाम् पथि
पथो: संबोधन पन्थाः पन्थानौ
पन्थानः ऋभुक्षिन् के रूप ऋभुक्षाः ऋभुक्षाणौ ऋभुक्षाण: ऋभुक्षाणम् ऋभुक्षाणौ ऋभुक्षः
ऋभुक्षा ऋभुक्षिभ्याम् ऋभुक्षिभिः 4 ऋभुक्षे ऋभुक्षिभ्याम् ऋभुक्षिभ्यः 5 ऋभुक्षः ऋभुक्षिभ्याम् ऋभुक्षिभ्यः 6 ऋभुक्षः
ऋभुक्षोः
ऋभुक्षाम् 7 ऋभुक्षि
ऋभुक्षोः
ऋभुक्षिषु संबोधन ऋभुक्षाः
ऋभुक्षाणौ
ऋभुक्षाण:
प् कारांत नाम 8. धुट् प्रत्ययों पर अप् का स्वर दीर्घ होता है । 9. भ् से प्रारंभ होनेवाले प्रत्ययों पर अप् का अद् होता है । 10. अप् का प्रयोग बहुवचन में होता है ।
.
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आओ संस्कृत सीखें
2116
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1 2
आपः अपः अद्भिः अद्भ्यः अद्भ्यः अपाम्
अप्सु
वकारांत नाम 11. स् प्रत्यय पर दिव् के व् का औ होता है और पद के अंत में उ होता हैं।
संबोधन द्यौः दिवौ दिवः
1
दिवम्
दिवा
स् कारांत नाम उशनस् पुरुदंशस् तथा अनेहस् से स् का आ (डा) होता है ।
उदा. उशना, पुरुदंशा, अनेहा । 12. संबोधन एकवचन के स् प्रत्यय पर उशनस् के स् का न् और विकल्प से लोप
होता है।
हे उशनन् ! हे उशन ! हे उशन: ! 13. धुट् प्रत्ययों पर पुंस् शब्द का पुमन्स् आदेश होता है।
उदा. पुमन्स् + स्
पुमन्स् + 0 पुमान्स् + ० = पुमान्
पुंस् के रूप 1 पुमान्
पुमांसः पुमांसम्
पुंभ्याम् पुंभिः
पुमांसौ पुमांसौ
पुंसः
पुसा
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आओ संस्कृत सीखें
1117
पुंभ्यः
पुंसि
. पुंसोः
पुमांस
पुभ्याम् 5 पुंसः पुभ्याम् 'भ्यः 6 पुंस: पुंसोः
पुंसाम्
पुसु संबोधन पुमन्
पुमांसौ
ह्कारांत नाम 14. स् प्रत्यय पर अनडु शब्द के ह के पहले न् जोडा जाता है।
उदा. अनडुह् + स्
अनडुन्ह् + स् 15. संबोधन एकवचन के स् प्रत्यय पर अनडु के उ का व होता है ।
अनड्वन्ह् + स् = अनड्वन् । 16. संबोधन एकवचन को छोड़ शेष धुट् प्रत्ययों पर अनडु के उ का वा होता है।
अनड्वान्ह् + स् = अनड्वान् । 17. अनडुह् के ह का पद के अंत मे द् होता है । उदा. अनडुद्भ्याम् ।।
अनडुह के रूप अनड्वान् अनड्वाही
अनड्वाहः अनड्वाहम् अनड्वाही अनडुहः अनडुहा अनडुद्भ्याम् अनडुद्भिः अनडुहे अनडुद्भ्याम्
अनडुद्भ्यः अनडुहः अनडुद्भ्याम् अनडुद्भ्यः अनडुहः अनडुहोः
अनडुहाम् 7 अनडुहि अनडुहोः
अनडुत्सु संबोधन अनड्वन् __अनड्वाही अनड्वाह:
आदेश 18. स्वरादि प्रत्ययों पर जरा का विकल्प से जरस् आदेश होता हैं।
उदा. जरसौ, जरे ।
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आओ संस्कृत सीखें
118
जरा के रूप 1 जरा
जरसौ, जरे जरस: जरा: 2 जरसम्, जराम् जरसौ, जरे जरसः, जराः 3 जरसा, जरया जराभ्याम् जराभिः 4 जरसे, जरायै जराभ्याम् जराभ्यः 5 जरस: जरायाः जराभ्याम् जराभ्यः 6 जरस: जरायाः जरसोः, जरयोः जरसाम्, जराणाम्
7 जरसि, जरायाम् जरसोः, जरयोः जरासु संबोधन जरे
जरसौ, जरे जरसः, जराः जराम् अतिक्रान्तः - अतिजरः ।
अतिजरसौ, अतिजरौ, अतिजरसाम् अतिजराणाम् 19. मास, निशा और आसन शब्दों के द्वितीय बहुवचन के अस् (शस्) आदि
प्रत्ययों पर विकल्प से मास् निश् और आसन् आदेश होता हैं । उदा. मास: मासान् माभ्याम्, मासाभ्याम। मा:सु । मास्सु मासेषु ।
निशः, निशाः। निज्भ्याम्, निशाभ्याम्। निच्छु। निच्शु, निशासु ।
आसानि, आसनानि। आसभ्याम् आसनाभ्याम्। आस्न: आसनस्य। 20. दन्त आदि शब्दों के द्वितीया बहुवचन के अस् आदि प्रत्ययों पर दत् आदि आदेश विकल्प से होते हैं।
दन्त का दत् । पाद का पाद् । यूष का यूषन् ।
दोस् का दोषन् । स्त्री लिंग नासिका का नस् ।
हृदय का हृद् । असृज् का असन् । उदक का उदन् ।
पुंलिंग
नपुं. लिंग
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आओ संस्कृत सीखें
99
नसः
हृन्दि
99
असानि
आदेश के रूप
द्विती. बहुवचन तृती. एकवचन तृ. द्विवचन सप्तमी एकवचन स.
दतः
दता
दति
दत्सु
नसा
नसि
नःसु, नस्सु
हृदा
हृदि
हृत्सु
अस्ना
अस्नि-अस
अससु
यूष्णा
यूष्णि यूषणि
यूषसु
दोष्णा
दोष्णि, दोषणि दोषसु
यूष्णः
दोष्णः
Note : 1.
2.
अनडुह् = बैल
अनेहस् = काल
=
अम्बुधि : अर्यमन् = सूर्य
समुद्र
निश् + भ्याम = निज्भ्याम् (प्रथमा पाठ)
निश् + सु = निज्+सु, निच् + सु निच्+शु, निच्छु निच्शु ।
शब्दार्थ
(पुंलिंग) | पूषन् = सूर्य
(पुंलिंग) मघवन् = इन्द्र
मथिन् = रवैया
मरु = मारवाड देश
उशनस् = शुक्र
ऋभुक्षिन् = इन्द्र
कलि
119
= कलह
यकृत् का यकन् ।
शकृत् का शकन् ।
द्वीप = द्वीप
दोस् = हाथ
पथिन् = मार्ग
पदाति = पैदल सैन्य
पुरुदंशस् = इन्द्र पुंस् = पुरुष
दद्भ्याम्
नोभ्याम्
हृद्भ्याम्
असभ्याम्
यूषभ्याम्
दोषभ्याम्
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
(पुंलिंग) युवन् = युवक
यूष
(पुंलिंग) (पुंलिंग)
विपर्यय = विपरीत
(पुंलिंग) शिखिन् = अग्नि
(पुंलिंग) श्वापक = चांडाल
= उकाला
बहुवचन
(पुंलिंग) श्वन् = कुत्ता (पुंलिंग) सहाय = सहायक (पुंलिंग) स्कंध = कंधा
(पुंलिंग) अनडुही = गाय
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
(स्त्रीलिंग)
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आओ संस्कृत सीखें
3-1205 अप् = पानी (स्त्री लिंग) रजस् = धूल (नपुं. लिंग अवनि = पृथ्वी (स्त्री लिंग) शकृत् = विष्ठा (नपुं. लिंग) गोपी = गोपी (स्त्री लिंग) शिव = मंगल (नपुं. लिंग) दिव् = स्वर्ग (स्त्री लिंग) हिम = बर्फ (नपुं. लिंग) मघोनी = इन्द्राणी (स्त्री लिंग) दैव = भाग्य (नपुं. लिंग). युवति = युवति (स्त्री लिंग) आर्य = पूज्य (विशेषण) योषा = स्त्री (स्त्री लिंग) दृढ = मजबूत (विशेषण) अब्ज = कमल (स्त्री लिंग) न्याय्य = न्याययुक्त (विशेषण) असृज् = खून (स्त्री लिंग) सम्पन्न = युक्त (विशेषण) आसन = आसन (स्त्री लिंग) स्वप्य = सोना (विशेषण) यकृत् = कलेजा (नपुं. लिंग)
संस्कृत में अनुवाद करो 1. उस राजा ने दुश्मनों के रक्त द्वारा राक्षसों को संतुष्ट किया । (असृज्) 2. गोपियाँ रवैये द्वारा दही का बिलोना करती हैं, उसी प्रकार देवों ने मेरु का रवैया
कर समुद्र का मंथन किया । (मथिन्) जब भगवान का जन्म होता है तब इन्द्र (मघवन) सभी इन्द्रों के साथ आकर
और विनयपूर्वक भगवान को ग्रहण कर मेरु शिखर पर ले जाकर भगवान का जन्माभिषेक करते हैं।
वृद्धावस्था (जरा) में भी लोग भोग-तृष्णा का त्याग नहीं करते हैं। 5. इस आसन पर आप बैठे और इस आसन पर मैं बहूँ। 6. इस युवक की बुद्धि कुत्ते की पूंछ की तरह वक्र है । (श्वन्) 7. जल से स्नान कर राजा ब्राह्मणों को धन देते हैं। 8. इस पुरुष के स्कंध मजबूत हैं। भुजाएँ प्रशस्य हैं अत: यह पुरुष वृषभ जैसा लगता
9. सूर्य अंधकार का नाश करता है ।
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आओ संस्कृत सीखें
हिन्दी में अनुवाद करो 1. सखे ! इदमासनमास्यताम् । 2. पथि पथि वृणुयाद्राजलोकः कुमारम् । 3. गच्छ सर्वथा शिवास्ते पन्थानः सन्तु । 4. स एकः पुमान् यः कुटुम्बं बिभर्ति । 5. हंसो हि क्षीरमादत्ते तन्मिश्रा' वर्जयत्यपः । 6. अर्पितानल्पपदातिसैन्यं पुण्येऽहनि प्रधानैरवनिपतिभिरमात्यैः सामन्तैश्च
कृत्वा मामसहायं प्राहिणोत् । 7. यथाऽसंख्येया दिवि देवा नभसि च तारकाः तथा परमात्मनि गुणाः । 8. धनसाधनी सामग्री प्राप्य योषाऽपि धनमर्जयति किमु युवा नरः ? 9. त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांसम् । 10. यथा यथा समारम्भो दैवात्सिद्धिं न गच्छति ।
तथा तथाऽधिकोत्साहो धीराणां हृदि वर्तते ॥ 11. मासि मासि समा ज्योत्स्ना पक्षयोः कृष्णशुक्लयोः ।
तत्रैकः शुक्लतां यातो यशः पुण्यैरवाप्यते ।। 12. विद्या-विनय-सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ।। 13. निशि दीपोऽम्बुधौ द्वीपो मरौ शाखी हिमे शिखी ।
कलौ दुरापः प्राप्तोऽयं त्वत्पा-दाब्जरजःकणः ।।
Note: 1. तेन मिश्रा: तन्मिश्राः ।
2. दुःखेन आच्यते दुरापः । 3. तव पादाब्जयोः रज कणः ।
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आओ संस्कृत सीखें
2122
14. आपदां कथितः पन्था इन्द्रियाणामसंयमः ।
तज्जयः सम्पदां मार्गो येनेष्टं तेन गम्यताम् ।। 15. अग्निरापः स्त्रियो मूर्खाः सर्पा राजकुलानि च ।
नित्यं यत्नेन सेव्यानि सद्यः प्राणहराणि षट् ॥ 16. सुस्वप्नं प्रेक्ष्य न स्वप्यं कथ्यमह्नि च सद्गुरोः ।
दुःस्वप्नं पुनरालोक्य कार्यः प्रोक्तविपर्ययः ।। 17. निन्दन्तु नीति-निपुणा यदि वा स्तुवन्तु,
लक्ष्मी: समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्। अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा, न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ।।
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आओ संस्कृत सीखें
1123
तासि
तास्थ
तारस्
प्रकरण तीसरा
पाठ - 18 श्वस्तनी - भविष्यन्ती - क्रियातिपत्ति 1. श्वस्तनी, भविष्यन्ती, क्रियातिपति, परोक्षा, अद्यतनी और आशी: इन छ
विभक्तियों में धातुओं को अपने अपने गण का कोई भी विकरण प्रत्यय नहीं
लगता है। 2. श्वस्तनी आदि छ के प्रत्यय अशित् हैं ।
श्वस्तनी के प्रत्यय
परस्मैपदी प्रथम पु. तास्मि
तास्वस्
तास्मस् द्वितीय पु.
तास्थस् तृतीय पु.
तारौ
आत्मनेपदी प्रथम पु. ताहे
तास्वहे
तास्महे द्वितीय पु. तासे तासाथे ताध्वे तृतीय पु. ता
तारौ भविष्यन्ती के प्रत्यय
परस्मैपदी प्रथम पु.
स्यामि स्यावस् स्यामस् द्वितीय पु. स्यसि स्यथस् तृतीय पु.
स्यति स्यतस् स्यन्ति
आत्मनेपदी प्रथम पु. स्ये स्यावहे स्यामहे द्वितीय पु. स्यसे स्येथे स्यध्वे तृतीय पु.
स्येते स्यन्ते
..
litt it ift it
तारस्
स्यथ
___
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आओ संस्कृत सीखें
1.
2.
प्रथम पु.
द्वितीय पु.
तृतीय पु.
लवितास्मि
लवितासि
लविता
क्रियातिपत्ति के प्रत्यय
परस्मैपदी
स्यम्
स्यस्
स्यत्
लविताहे
लवितासे
लविता
124
स्ये
स्यथास्
स्यत
स्याव
स्यतम्
स्यताम्
आत्मनेपदी
स्यावहि
येथाम्
स्येताम्
प्रथम पु.
द्वितीय पु.
तृतीय पु.
धातु से स् कारादि और त् कारादि अशित् प्रत्ययों के पहले इ ( इट् ) होता है । जिन धातुओं से इ (इट्) होता है, वे धातु सेट् कहलाते हैं । इटा सह वर्तते यः सः सेट् ।
उदा.
_लू + ता
लू + इ + ता
1
लविता, लवितुम्, लवितव्यम्, लविता, तृ ( तृच्) लविष्यति, ते । याच् = याचिता, याचितुम्, याचितव्यम्, याचिता, याचिष्यति, ते चुर् = चोरि, चोरयिता, चोरयिष्यति
रुद् = रोदिता, रोदिष्यति
अनु + इष् = अन्वेषिता, अन्वेषिष्यति
लू धातु के रूप
श्वस्तनी - परस्मैपदी
स्याम
स्यत
स्यन्
लवितास्वः
लवितास्थः
लवितारौ
श्वस्तनी आत्मनेपदी
स्यामहि
स्यध्वम्
स्यन्त
लवितास्वहे
लवितासा
लवितारौ
लवितास्मः
लवितास्थ
लवितारः
लवितास्महे
लविताध्वे
लवितारः
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आओ संस्कृत सीखें
2.
विष्यामि
लविष्यसि
लविष्यति
लविषये
लविष्यसे
लविष्यते
अविष्यम्
अलविष्यः
अलविष्यत्
125
अलविषये
अलविष्यथाः
अलविष्यत
भविष्यन्ती - परस्मैपदी
लविष्यावः
लविष्यथः
लविष्यतः
आत्मनेपदी
विषयाव
विष्
लविषयेते
क्रियातिपत्ति के प्रत्ययों पर धातु के पहले अ (अट्) आता है, परंतु स्वर से प्रारंभ होनेवाला धातु हो तो अ न आकर धातु के आदि स्वर की वृद्धि होती है। उदा. अलविष्यत्, अलविष्यत ।
अयाचिष्यत्, अयाचिष्यत । अनु + इष् = अन्वैषिष्यत्
अरोदिष्यत्, अचोरयिष्यत् ।
लू धातु क्रियातिपत्ती
लविष्यामः
लविष्यथ
लविष्यन्ति
परस्मैपदी
अलविषयाव
अविष्यतम्
अलविष्यताम्
आत्मनेपदी
अलविषयावहि
अविष्येथाम्
अलविष्येताम्
विष्यामहे
लविष्यध्वे
लविष्यन्ते
अलविष्याम
अलविषयत
अलविष्यन्
अलविष्यामहि
अलविष्यध्वम्
अलविष्यन्त
3. अनिट् धातुओं से सकारादि और त्कारादि अशित् प्रत्ययों के पहले इ ( इट्) नहीं होता है। जिन धातुओं से इ (इ) नहीं होता है, वे अनिट् कहलाते हैं ।
उदा.
नी = नेता, नेतुम्, नेतव्यम्, नेष्यति, ते अनेष्यत्, त । पाता, पातुम्, पातव्यम्, पास्यति, अपास्यत् ।
पा =
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आओ संस्कृत सीखें
1126
लभ् = लब्धा, लब्धुम्, लब्धव्यम्, लप्स्यते, अलप्स्यत् । शद् = शत्ता, शत्तुम्, शत्तव्यम्, शत्स्यति, अशत्स्यत् । शक् = शक्ता, शक्तुम्, शक्तव्यम्, शक्ष्यति, अशक्ष्यत् । पच् = पक्ता, पक्तुम्, पक्तव्यम्, पक्ष्यति-ते, अपक्ष्यत् त । बुध् गण ४ = बोद्धा, बोद्धुम्:, बोद्धव्यम्, भोत्स्यते, अभोत्स्यत । लिङ् = लेढा, लेढुम्, लेढव्यम्, लेक्ष्यति, ते, अलेक्ष्यत् त । दुह् = दोग्धा, दोग्धुम्, दोग्धव्यम्, धोक्ष्यति, ते, अधोक्ष्यत् त । दिश् = देष्टा, देष्टम्, देष्टव्यम्, देक्ष्यति, ते, अदेक्ष्यत्, त । पिष् = पेष्टा, पेष्टुम्, पेष्टव्यम्, पेक्ष्यति ते, अपेक्ष्यत् । यज् = यष्टा, यष्टुम्, यष्टव्यम्, यक्ष्यति, ते, अयक्ष्यत् त । रम् = रन्ता, रन्तुम्, रन्तव्यम्, रंस्यते, अरंस्यत । रज् = रङ्क्ता, रक्तुम्, रक्तव्यम्, रक्ष्यति, ते, अरक्ष्यत् त । रुह = रोढा, रोढुम्, रोढव्यम्, रोक्ष्यति, ते, अरोक्ष्यत् त ।
नी - ले जाना
श्वस्तनी - परस्मैपदी नेतास्मि
नेतास्मः नेतासि नेतास्थ:
नेतास्थ
नेतास्वः
नेता
नेतारौ
नेतारः
नेताहे
आत्मनेपदी नेतास्वहे नेतासाथे
नेतासे
नेतास्महे नेताध्वे नेतारः
नेता
नेतारौ
भविष्यन्ती - परस्मैपदी
नेष्याव:
नेष्यामः
नेष्यामि नेष्यसि नेष्यति
नेष्यथ:
नेष्यथ
नेष्यतः
नेष्यन्ति
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आओ संस्कृत सीखें
1127
नेष्यसे
नेष्यथे
अनेष्यम्
आत्मनेपदी नेष्ये नेष्यावहे
नेष्यामहे
नेष्यध्वे नेष्यते नेष्येते
नेष्यन्ते क्रियातिपत्ति - परस्मैपदी अनेष्याव
अनेष्याम अनेष्यः अनेष्यतम्
अनेष्यत अनेष्यत् अनेष्याताम्
अनेष्यन् आत्मनेपदी अनेष्ये
अनेष्यावहि अनेष्यामहि अनेष्यथाः
अनेष्येथाम् अनेष्यध्वम् अनेष्यत अनेष्येताम्
अनेष्यन्त सेट् - अनिट् की व्यवस्था सभी अनेकस्वरी धातु सेट् हैं । दसवें गण के धातुओं में इ (णिच्) जुड़ता है, अत: अनेकस्वरी हैं, वे सभी सेट हैं । __ एकस्वरी धातु
सेट् स्वरांत कारिका श्वि-श्रि-डी-शी-यु-रु-क्षु-क्ष्णु-णु-स्नुभ्यश्च वृगो वृङ्ः उदृदन्त युजादिभ्यः स्वरान्ता धातवोऽपरे श्वि, श्रि, डी गण1, 4, यु गण, रु गण, क्षु क्ष्णु नु (णु) स्नु, वृ (वृग्) वृ (वृङ् आत्मनेपदी) दीर्घ ऊकारांत (ऊदन्त) दीर्घ ऋकारांत (कृदन्त) और युजादि धातु सेट् हैं, इसके सिवाय दूसरे स्वरांत एकस्वरी धातु अनिट् हैं।
धातुपाठ (कोश) में निम्नलिखित एकस्वरी व्यंजनांत धातुएँ अनिट् हैं। उ- क् शक् गण, गण च- वच्, विच रिच पच् सिञ्च् मुच् छ- प्रच्छ ज- भ्रस्ज मस्ज भुज् युज् भज् स्वञ् रङ् रज् जिन धातुओं को इ (इट्) नहीं होती है उन्हें अनिट् कहते हैं। न विद्यते इट् यस्य सः - अनिट् ।
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निज् विज् (गण 3) सज् भञ्ज् सृज् त्यज्
द- स्कन्द् विद् (गण 4) विद् (गण 6 ) विद् (गण 7 ) नुद् स्विद् (गण 4 ) शद् सद् भिद् छिद् तुद् अद् पद् हद् खिद् क्षुद्
ध- राध् साध् शुध् युध् व्यध् बन्ध् बुध् (गण 4) रुध् = (अनु+रुध्) क्रुध् क्षुध् सिध् (गण 4)
न्- हन् मन्
प - आप् तप् शप् क्षिप् छुप् लुप् (गण) सृप् लिप् वप् स्वप्
भ- यभ् रभ् लभ्
म- यम् रम् नम् गम्
श - क्रुश् लिश् रुश् रिश् दिश् दश् स्पृश् मृश् विश् द्दश्
ष - शिष् (गण 7) शुष् त्विष् पिष् विष् गण 3
कृष् तुष् दुष् पुष् (गण 4 ) श्लिष् (गण 4) द्विष्
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स- घस् वस् ( गण 1 )
ह - रुह् लुह् रिह् दिह् दुह् लिह् मिह् वह् नह् दह्
ये 100 धातुएँ अनिट् हैं, इसके सिवाय के दूसरे एकस्वरी व्यंजनांत धातु सेट् हैं। वेट् धातुओं से सकारादि और तकारादि अशित् प्रत्ययों के पहले इ (इट्) विकल्प से होता है ।
धू
=
रध् =
मृज् =
धोता, धोतुम् धोतव्यम् धोष्यति, ते, अधोष्यत्, त
धविता धवितुम्, धवितव्यम् धविष्यति, ते अधविष्यत्, त
रद्धा रद्धुम् रद्धव्यम्, रत्स्यति अरत्स्यत् रधिता रधितुम् रधितव्यम् रधिष्यति अरधिष्यत्
मा मार्टुम् मार्टव्यम् मार्क्ष्यति अमार्क्ष्यत् मार्जिता मार्जितुम् मार्जितव्यम् मार्जिष्यति अमार्जिष्यत्
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वेट् धातु धू गण 5, 9, 10 (युजादि) सू गण 2, 4, स्वृ व्रश्च मृज् गण 2, 10 (युजादि) अङ्ग्, तज्ञ, स्यन्द, क्लिद् रध्, सिध् गण 1 (परस्मैपदी) शास्त्राज्ञा करना व मंगल कार्य करना,
इन दो अर्थों में) तृप् दृप् त्रप् कृप् गुप् क्षम् नश् अश् गण 5 क्लिश् अक्ष् तक्ष् त्वक्ष् मुह द्रुह् स्नु स्निह् गुह् गाह् ग्ला तृह् तुंह वृह स्तृह् स्तूंह
भविष्यकृदन्त परस्मैपदी धातु से स्यत् (स्य + अत् (शत) और आत्मनेपदी धातु से स्यमान (स्य + म् + आन (आनश्) प्रत्यय लगकर भविष्यकृदन्त बनता है । उदा. या का यास्यत् - तीनों लिंग में विशत् की तरह रूप होंगे। आत्मनेपद - शी का शयिष्यमाण: कर्मणि व भावे प्रयोग : किसी भी धातु को आत्मनेपद के प्रत्यय लगने से कर्मणि और भावे रूप बनते हैं । उदा. लप्स्यते, नेष्यते, जेष्यते, अजेष्यत
लविता, लविष्यते, भविष्यते कृदन्त :- यास्यमानः। लप्स्यमानः। नेष्यमाणः। भविष्यमाणम् । 6. ग्रह धातु से आया इ (इट्) दीर्घ होता है, परंतु परोक्षा में दीर्घ नहीं होता है।
उदा. ग्रहीता, ग्रहीष्यति, अग्रहीष्यत् ग्रहीतुम् गृहीत्वा, गृहीतः 7. भविष्यकाल में धातु से भविष्यन्ती प्रत्यय होते हैं ।
उदा. भोक्ष्यते । 8. आज सिवाय के भविष्य में श्वस्तनी के प्रत्यय होते हैं ।
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आओ संस्कृत सीखें
उदा. कर्ता श्वः । कर्ता । अद्य श्वो वा गमिष्यति । श्वस्तनी नहीं होता । क्रियातिपत्ति अर्थात् किसी कारणवश क्रिया का न होना, ऐसे संयोगों में धातु से विध्यर्थ के प्रसंग में क्रियातिपत्ति के प्रत्यय लगते हैं ।
उदा. स यदि गुरुनुपासिष्यत शास्त्रान्तमगमिष्यत् ।
यदि वह गुरु की उपासना करता तो शास्त्र के पार को पा जाता । यद्ययं दानं अदास्यत् ततो विश्वेऽपि यशः प्रासरिष्यत् यदि उसने दान दिया होता तो विश्व में यश फैलाया होता । शब्दार्थ
9.
अंशु = किरण
अञ्चल =
किनारा
अतिक्रम = उल्लंघन
इभ = हाथी
उत्पथ = उल्टा रास्ता
उपद्रव = उपद्रव
काम = इच्छा
गौतम = गौतम गणधर
भेद = षड्यंत्र
मण्डल = कुत्ता
मृगारि = सिंह
मौर्य = चंद्रगुप्त मौर्य
मौलि
(स्त्रीलिंग)
( नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग)
(विशेषण)
(विशेषण)
(पुंलिंग) (पुंलिंग)
(विशेषण)
(विशेषण)
(पुंलिंग) (पुंलिंग)
(विशेषण)
(पुंलिंग) प्रत्यग्र = नया
(विशेषण)
(पुंलिंग) भाव्य = अवश्य होनेवाला (विशेषण)
(पुंलिंग) मंद = बीमार
(विशेषण)
(पुंलिंग)
नो = नहीं
(अव्यय)
(पुंलिंग)
परम् = परंतु
(अव्यय)
(पुंलिंग)
श्वस् = कल
(अव्यय)
कौशल्या = राम की माता ( स्त्री लिंग)
शम = शांति
(पुं. लिंग)
(पुं. लिंग)
( नपुं. लिंग) (स्त्रीलिंग)
(पुं. लिंग)
= मुकुट
लुण्टाक = लुटेरा
वयस्य = मित्र
विषय = देश
द्वार् = दरवाजा पौर्णमासी =
130
पूर्णिमा
(पुंलिंग) रसवती = रसोई अग्र = आगे
(पुंलिंग)
(पुंलिंग) केवलज्ञान = पूर्णज्ञान
(पुंलिंग)
दुर्भिक्ष = अकाल
(पुंलिंग) लोष्ट = मिट्टी का ढेर
(पुंलिंग)
अन्तिक
=
नजदीक का
आकुल = व्याप्त
गन्तृ = जानेवाला
दीर्ण = फटा हुआ
प्रतिपन्न = स्वीकृत
शर = बाण
हुतभुज् : = अग्नि
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आओ संस्कृत सीखें
131
___ धातु
ईक्ष् = देखना (गण 1 आत्मनेपदी) प्रति + राह देखना, उप+ उपेक्षा करना । गद् = बोलना (गण 1 परस्मैपदी) लग = लगना (गण 1 परस्मैपदी) बुध् = बोध पाना (गण 1 उभयपदी) मंत्र = मंत्रणा करना (गण 10 आत्मनेपदी) आ + आमंत्रण देना । मार्ग = मांगना (गण 10) ल = पार करना (गण 10 परस्मैपदी)
संस्कृत में अनुवाद करो 1. मैं कल अहमदाबाद जानेवाला हूँ, परंतु बरसात बरसेगी तो मेरे से जाया नहीं
जाएगा (शक्) । 2. यदि तुमने मेरे कहे हित वचन को माना होता तो तुम इस दःख के खड्डे में नहीं
गिरते । 3. जो यह पूर्णिमा आनेवाली है, उस समय चैत्य में महोत्सव होगा (प्र+वृत्) । 4. हम जीवन पर्यंत पढ़ेंगे और तत्त्वों को जानेंगे (बुध्)। 5. आज अथवा कल हम उन लुटेरों को अवश्य पकड़ लेंगे (ग्रह) । 6. राम वन में जाएगा (इ) तो मैं उसके पीछे जाऊंगा (अनु+इ) वास्तव में राम के
बिना लक्ष्मण रहने के लिए समर्थ नहीं है । 7. जिस प्रकार खिला हुआ फूल कुछ समय बाद मुझ जाता है, उसी प्रकार यह
यौवन भी थोड़े समय में मुझ जाएगा (म्लै)। 8. जिस प्रकार उदित सूर्य अस्त हो जाता है उसी प्रकार यह जीवन भी एक दिन
अस्त हो जाएगा। 9. इस मार्ग में बहत काँटे हैं, अत: वे इस मार्ग से जाने का प्रयत्न नहीं करेंगे । 10. मेरे बिना राम कैसे जीएंगे और उनके बिना मैं कैसे जीऊंगी। 11. यदि उसने समरादित्य कथा सुनी होती तो उसका मन अवश्य ही वैराग्यवाला
बनता। 12. शिशुपाल को वरनेवाली (वृ-भविष्यकृदन्त) रुक्मिणी कन्या कृष्ण वासुदेव के
द्वारा वरी गई। 13. बंदर को ठंडी से कंपते हुए देखकर सुगरी ने कहा, 'हे बंदर, यदि तुमने मेरी तरह
घर बनाया होता तो तुं इस तरह ठंडी से नहीं कंपता ।
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आओ संस्कृत सीखें
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हिन्दी में अनुवाद करो 1. किं भावि? यद्भाव्यं तद्भविष्यति, न कोऽपि जानाति श्वः किं भविता । 2. मा त्वरस्व, सेत्स्यति तवैष कामः । 3. वयस्य ! वसुदत्त ! किमुत्तरं दास्यामि । 4. प्रत्यग्रेण पश्चाताप-हुतभुजा दह्यमान-देहो दिवसमपि न स्वस्थ-चित्तः
स्थास्यामि। तीव्र तपस्तप्यमानो'ऽपि अरण्य आस्ते शैलेऽपि आस्ते परं तावन्न मोक्षं
लप्स्यते यावद्विषयेभ्यो न दूरात् ।। 6. इभा-ऽश्व-रथाऽऽकुलं पुरद्वारं वीक्ष्य सोऽचिन्तयत् 'चेत् अनयैव पुर
द्वारा प्रवेशाय प्रतीक्षिष्ये तत्कालातिक्रमो भविष्यति'। 7. मम शोकः कथं शममेष्यति । 8. सत्यं वस्त्वाख्याहि नो चेच्छेत्स्यामि ते मौलिं, न हत्या दुष्ट-निग्रहे । 9. भविष्यदुर्भिक्षं ज्ञात्वा सर्वे देशान्तरं गताः, स देशो यत्र जीव्यते । 10. समित्रोऽद्य भोक्ष्येऽहं तद्दिव्यां रसवतीं कुरु । 11. परलोक-सुखं धर्म नोपेक्षिष्ये मनागपि। 12. न मां कोप्युत्पथं नेतुमीश्वरः, तत्परलोक-सुखावहं पन्थानं न हास्यामि । 13. मलयकेतुः-आर्य ! अस्ति कश्चिद्यः कुसुमपुरंप्रति गच्छति, तत आगच्छति
वा।
14. राक्षस:- अवसितमिदानीं गतागत - प्रयोजनम्, अल्पैरहोभि वयमेव
तत्र गन्तारः। 15. हा ! हा ! हा ! वीर ! किं कृतम् ! यदस्मिन्नवसरेऽहं दूरे कृतः, किं
बालवत्तवाञ्चलेऽलगिष्यम्? किं वा केवलभागममार्गषिष्यम् ? किं मुक्तौ सङ्कीर्णमभविष्यत् ? किं वा तव भारोऽभविष्यत् ? यदेवं मां विमुच्य गतः, एवं च वीर ! इति कुर्वतो 'वी' इति मुखे लग्नं गौतमस्य ।
Note : 1. तप् (गण-1 परस्मैपदी) धातु का अर्थ तप करना है। तब आत्मनेपदी होता है और
कर्तरि प्रयोग में य (य) प्रत्यय होता है। 2. नाम के विशेषण रुप में न हो तो दूर अथवा नजदीक अर्थवाले शब्द से द्वितीया,
तृतीया, पंचमी या सप्तमी एकवचन होता हैं। दूरं.दूरेण दूराद् दूरे वा ग्रामाद्, ग्रामस्य वा वसति ।
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1332 16. चाणक्यतश्चलितभक्तिमहं सुखेन जेष्यामि मौर्यमिति संप्रति यः प्रयुक्तः ।
भेदः किलैष भवता सकलः स एव सम्पत्स्यते शठ ! तवैव हि दूषणाय ।। 17. अनुरूपो वरः कोऽस्या भवितेति दिवानिशम ।
अचिन्तयत्तज्जनको जनकः पृथिवी-पतिः॥ 18. तूलं तृणादपि लघु तूलादपि हि याचकः ।
वायुना किं न नीतोऽसौ? मामपि प्रार्थयिष्यते ।। 19. वनं व्रजिष्यति सुतः पतिश्च प्रव्रजिष्यति ।
श्रुत्वाऽप्येतन्न यद्दीर्णा कौशल्ये ! वज्रमय्यसि ।। 20. प्रतिपन्नाद्भवन्तोऽपि चलन्ति यदि तत्प्रभो ।
मर्यादां लवयिष्यन्ति निश्चितं जलराशयः ॥ 21. अम्लान-केवल-ज्ञान-प्रकाशेन विना त्वया ।
तमसीव ऋते दीपं स्थास्यामोऽत्र कथं भवे ॥ 22. कुतो धर्म-क्रिया-विघ्नः सतां रक्षितरि त्वयि ।
तमस्तपति घर्माशौ कथमाविर्भविष्यति ।। 23. दस्युभ्यस्त्रास्यते मार्गे श्वापदोपद्रवादपि ।
पालयिष्यत्यसौ मन्दान् सहगान्बान्धवानिव ।। 24. उपेक्ष्य लोष्ट-क्षेप्तारं लोष्टं दशति मण्डलः ।
मृगारिः शरमुत्प्रेक्ष्य शर-क्षेप्तारमृच्छति ।। Note : 1. दिवा च निशा च अन यो: समाहार: दिवानिशम्
2. ऋते अव्यय के योग में द्वितीया या पंचमी विभक्ति होता है । 3. धर्मा अंशव: यस्य स धर्मांशुः (सूर्यः) ।
4. सह गच्छन्ति इति सहगाः क्षु-गण 2 (परस्मै) छींक खाना | लुह और रिह ये दो धातु सौत्र है। क्ष्णु-गण 2 (परस्मै)= धारदार होना | लुह-गण 1 (परस्मै) = लोभ करना स्कन्द्-गण 1 (आत्मने)= जाना | रिह-गण 1 (परस्मै) = हणना शुध-गण 4 (परस्मै)= शुद्ध होना | मिह-गण 1 (परस्मै)= भींजवना यभ-गण 1 (परस्मै)= मैथुन सेवना | स्व-गण 1 (परस्मै)= आवाज करना हद्-गण 1 (आत्मने)= शौच करना | तरज्-गण 7 (परस्मै) = संकुचित होना वृह-गण 6 (परस्मै)= उद्यम करना | गाह-गण 1 (आत्मने) = प्रवेश करना स्तृह-स्तूंह् = पीडना, मारना | तुंह - गण 6 (परस्मै) = मारना
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आओ संस्कृत सीखें
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पाठ-19/ श्वस्तनी, भविष्यन्ती और क्रियातिपत्ति 1. सह लुभ् इष् (इच्छ) रुष् और रिष् धातुओं से तकारादि अशित् प्रत्ययों पर
विकल्प से इ होता है। उदा. लोब्धा = लोभिता।
एष्टा = एषिता । 2. सह् और वह धातु के ढ् का ढ के निमित्त से हुए ढ पर लोप होता है और पूर्व
के अ वर्ण का ओ होता है। सह् + ता, सद् + ता सद् + धा = सत् + ढा = सोढा, सहिता सोढुम सहितुम्, सोढव्यम् - सहितव्यम् ।
वह् का वोढा, वोढुम् वोढव्यम् । 3. हन् धातु और ऋकारान्त धातुओं से स्य के पहले इ होता है । उदा. हनिष्यति, अहनिष्यत् ।
करिष्यति, अकरिष्यत् । स्वृ = स्वरिष्यति, अस्वरिष्यत् ।
मृ = मरिष्यति, अमरिष्यत् । 4. कृत् चुत् नृत् छद् और तृद् के अद्यतनी स् (सिच्) प्रत्यय को छोड़कर अन्य
सकारादि अशित् प्रत्ययों के पहले विकल्प से इ होता है । उदा. कर्व्यति, कतिष्यति ।
__ अकय॑त्, अकर्तिष्यत् । 5. गम् धातु से सकारादि अशित् प्रत्ययों के पहले इ होता हैं । परंतु आत्मनेपदी
में नहीं होता है।
उदा. गमिष्यति, अगमिष्यत्, संगस्यते । 6. स्नु तथा क्रम् धातु से सकारादि और त्कारादि अशित् प्रत्ययों के पहले इ होता
है, परंतु आत्मनेपदी में नहीं होता है । उदा. प्रस्नविष्यति, प्रस्नविता, प्रस्नवितुम् ।
क्रमिष्यति, क्रमिता, प्रक्रमितव्यम् ।
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आओ संस्कृत सीखें
135 आत्मने - प्रस्नोष्यते, प्रस्नोता, प्रकंस्यते, प्रक्रन्ता । 7. वृत् स्यन्द् वृध् शृध् और कृप् ये पांच धातु स्य आदिवाले प्रत्यय तथा इच्छादर्शक
(सन्नत) में उभयपदी हैं। वृत् आदि पाँच धातुओं से परस्मैपद में स्कारादि और त्कारादि अशित् प्रत्ययों के पहले इ नहीं होती है। परस्मैपदी
वृत् या वृथ् = वय॑ति, अवय॑त् । स्यन्द् = स्यन्त्स्यति, अस्यन्त्स्यति। . शृथ् = शय॑ति, अशय॑त् ।
कृप् = कल्प्स्यति, अकल्प्स्यत् । आत्मनेपदी में
वृत् = वर्तिष्यते, अवर्तिष्यत । वृध = वर्धिष्यते, अवर्धिष्यत । शृध् = शर्धिष्यते, अशर्धिष्यत । स्यन्द्-वेट् = स्यन्त्स्यते, स्यन्दिष्यते, अस्यन्त्स्यत, अस्यन्दिष्यत ।
कृप-वेट् = कल्प्स्यते, कल्पिष्यते, अकल्प्स्य त् अकल्पिष्यत । श्वस्तनी
वर्तिताहे, वर्धिताहे, शर्धिताहे, स्यन्ताहे, स्यन्दिताहे । 9. कृप धातु श्वस्तनी में भी उभयपदी हैं -
कल्सास्मि, कल्ताहे, कल्पिताहे 10. अधि+इ = पढ़ना, धातु का क्रियातिपत्ति और अद्यतनी में विकल्प से गी
आदेश होता है।
उदा. अध्यगीष्यत, अध्यैष्यत (गी आदेश का गुण नहीं होता है) 11. अशित् प्रत्ययों पर अस् गण 2 और ब्रू धातु का क्रमशः भू और वच् आदेश
होता है तथा भ्रस्ज् का विकल्प से भर्ख आदेश होता है । उदा. अस् का
भविता, भवितुम्, भविष्यति, अभविष्यत्, भवितव्यम्, भव्यम् । वच् का वक्ता, वक्तुम्, वक्ष्यति-वक्ष्यते, अवक्ष्यत्,त, वक्तव्यम्, वाच्यम्।
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भ्रस्ज् का भी, भ्रष्टा, भष्टुम् भ्रष्टुम्, भय॑ति भ्रक्ष्यति अभय॑त् अभ्रक्ष्यत्। 12. धुट् प्रत्ययों पर और पद के अंत में मुह द्रुह् स्नु और स्निह् धातु के ह का
विकल्प से ध् होता है तथा नह धातु के ह् का ध् नित्य होता है । उदा. मोग्धा = मोढा, द्रोग्धा-द्रोढा, स्नोग्धा-स्नोढा । ___ स्नग्धा = स्नेढा, नद्धा ।
मोक्ष्यति। ध्रोक्ष्यति। स्नोक्ष्यति। स्नेक्ष्यति । नत्स्यति । 13. धुट् व्यंजनादि प्रत्यय पर नश् धातु में स्वर के बाद न जुड़ता हैं । उदा. नंष्टा, नंष्टुम्, नक्ष्यति, अनङ्ख्यत् ।
नशिता, नशितुम्, नशिष्यति, अनशिष्यत् । नश् वट 14. धुट् व्यंजनादि प्रत्यय पर मस्ज् धातु के स् का न् होता है ।
उदा. मक्ता, मङ्क्तुम्, मक्ष्यति, अमङ्ख्यत् 15. धुट् व्यंजनादि प्रत्ययों पर सृज् और दृश् धातु को नित्य और स्पृश् मृश् कृष्, तृप्
दृप् और सृप् धातु से विकल्प से स्वर के बाद अ जुड़ता है, परंतु धुट् प्रत्यय कित् नहीं होना चाहिए। उदा. सृज् = स्रष्टा, स्रष्टुम्, स्रष्टव्यम्, स्रक्ष्यति, अस्रक्ष्यत् ।
दृश् = द्रष्टा, द्रष्टम्, द्रष्टव्यम्, द्रक्ष्यति, अद्रक्ष्यत् । क्त = कित् प्रत्यय हो तो - सृष्टः दृष्टः सृष्ट्वा, दृष्ट्वा । स्पर्श = स्प्रष्टा, स्पा, स्प्रष्टुम् स्पष्टुंम्, स्प्रष्टव्यम्, स्पष्टव्यम् ।
स्प्रक्ष्यति, स्पर्क्ष्यति, अस्प्रक्ष्यत्, अस्पऱ्यात् । कित् प्रत्यय पर
स्पृष्टः, मृष्टः, कृष्टः, सृप्तः, स्पृष्ट्वा तृप् = त्रप्ता, ता, दप्ता, दर्ता, त्रप्स्यति, तय॑ति ।
तृप् और दृप् धातु वेट् हैं, अतः इ आने पर तर्पिता, दर्पिता, तर्पिष्यति आदि होंगे । वेट् धातु को क्त-क्तवलु के पहले इ नहीं आती है।
उदा. तृप्तः, दृप्तः प्रत्यय कित् है । 16. धातु के स् का स्कारादि अशित् प्रत्ययों पर त् होता है ।
वस् = वत्स्यति, अवत्स्यत् । 17. धुट् व्यंजनादि प्रत्यय पर धातु के च्छ का श् और व् का ऊ (ऊट) होता है ।
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आओ संस्कृत सीखें
उदा. प्रच्छ् = प्रष्टा, प्रक्ष्यति, अप्रक्ष्यत् ।
प्रच्छ् + त = पृष्ट:
दिव् का द्यूतः, धाव् + त = धौतः, धौतवान् । कर्मणि और भावे प्रयोग
18. स्वरांत धातु तथा ग्रह दृश् और हन् धातु से कर्मणि और भावे प्रयोग में श्वस्तनी, भविष्यन्ती, क्रियातिपत्ति, अद्यतती स् (सिच्) और आशी: के प्रत्यय लगाते समय इ (ञिट्) विकल्प से होती है ।
उदा. लू + इ (ञिट्) + स्यते = लाविष्यते न हो तब = लविष्यते
इसी प्रकार - अलाविष्यत, अलविष्यत लाविता, लविता लाविष्यमाणः, लविष्यमाणः ।
नी का नेष्यते । अनायिष्यत, अनेष्यत । नायिता - नेता । ह्र का - हारिष्यते - हरिष्यत । अहारिष्यत अहरिष्यत । हारिता - हर्ता
1
137
-
ग्रह् का - ग्राहिष्यते-ग्रहिष्यते । अग्राहिष्यत, अग्रहिष्यत, ग्राहिता -ग्रहीता ।
दृश् का - दर्शिष्यते, द्रक्ष्यते, अदर्शिष्यत अद्रक्ष्यत, दर्शिता, द्रष्टा ।
19. आकारांत धातु के आ का ञित् णित् कृत् प्रत्यय तथा इ (ञिट्- ञिच्) पर ऐ
होता है ।
उदा. दा + अ (घञ्) = दायः ।
दा + अक (णक) = दायक: ।
दा + इ (ञिट्) + स्यते = दायिष्यते, दास्यते । अदायिष्यत । अदास्यत । दायिता । दाता ।
20. इ (ञिट् या ञिच्) पर हन् का घन् होता है । उदा. घानिष्यते । हनिष्यते
अघानिष्यत । - अहनिष्यत
घानिता । हन्ता ।
धाव = गण 1 (उभयपदी) = धोना, जाना
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आओ संस्कृत सीखें
निग्रह = बंधन
उपसर्ग = उपद्रव
क्रम = पैर
=
नारकिक = नरक का जीव नैषधि = निषेध देश का राजा (पुंलिंग)
प्रबोध = जगना
वंश = वंश
गवेषणा = शोध
गोणी = गुणी
प्रवृत्ति = खबर मृगाक्षी
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शब्दार्थ (पुंलिंग) | मुधा = व्यर्थ
(पुंलिंग) | ज्ञानपंचमी = कार्तिक (पुंलिंग)
(पुंलिंग) अनुशासन = शिक्षा तेजस् = तेज
(पुंलिंग) भाण्डागार = भंडार
(पुंलिंग) अभिराम = सुंदर
(स्त्रीलिंग) आम = कच्चा
(स्त्रीलिंग) एकाकिन् = अकेला
(स्त्रीलिंग) कुशलिन् = सुखी
अस्तु = निषेध सूचक
परस्परम् = परस्पर
मृग समान नेत्रवाली
(अव्यय)
चाटु = मधुर वचन ( स्त्री लिं.) नव = नवीन (अव्यय) प्रौढ : गंभीर
=
शुक्लापंचमी
(स्त्रीलिंग)
( नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग)
(विशेषण)
(विशेषण)
(विशेषण)
(विशेषण)
(विशेषण)
(अव्यय) | हत्याकृत् = हत्या करनेवाला (विशेषण)
(विशेषण)
(विशेषण)
संस्कृत में अनुवाद करो
1. हम कल ज्ञानपंचमी के दिन शुभ मुहूर्त में व्याकरण पढ़ने (अध्येतुम् ) का प्रारंभ करेंगे । (प्र+आ+रभू) व्याकरण पढ़कर सिद्धांत पढ़ेंगे ।
2.
यदि तुम सदाचार में रहोगे (वृत्) तो सरस्वती और लक्ष्मी से बढ़ोगे । (वृध्
3. ये मुनि अपने तप तेज द्वारा कर्मों को जला देंगे (भ्रस्ज्) और शाश्वत सुख में मग्न
बनेंगे (मस्ज्)।
4. तुम्हारे राजकुमारों के द्वारा थोड़े समय में ज्यादा विद्याएँ ग्रहण की जाएंगी, क्योंकि वे विनीत हैं। (ग्रह)
5.
ये बोए हुए धान्य पक जाएंगे तब किसानों द्वारा काटे जाएंगे (लू) ।
6.
अभी यह करता हूँ, बाद में यह करूंगा और यह करके (विधाय) फिर वह करूंगा स्वप्नतुल्य इस जीवलोक में कौन मानेगा ?
7. यदि राम वन में नहीं गए होते और रावण द्वारा सीता का हरण नहीं हुआ होता तो रामायण में क्या लिखा जाता ?
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आओ संस्कृत सीखें
11393 8. कल मजदर अनाज की बोरियाँ उठायेंगे । 9. तुम यदि अणहिलपुर पाटण जाओगे (गम्) तो वहाँ रहे हुए अति प्राचीन पुस्तक
. भंडार और ऐतिहासिक प्राचीन अवशेषों को देख सकोगे (दृश्) । 10. रुक्मिणी ने नारदजी को कहा, हे आर्य ! मुझे आशा थी कि आप मेरे पुत्र के
समाचार लाओगे ! (आ+नी) नारदजी ने कहा, 'रुक्मिणी शोक छोड दे' तेरे पुत्र की शोध किए बिना मैं तुझे
देखूगा नहीं, यह निश्चय है' - इतना कहकर नारद आकाश मार्ग से उड़े। 11. इन फलों को छूना भी हमें नहीं कल्पता है तो फिर खाने की तो बात ही क्या?
(कृप) 12. जिस प्रकार सिंह को देखकर हिरण जंगल में से भाग जाते हैं, उसी प्रकार भीम को देखकर सभी योद्धा रणांगण में से भाग जाएंगे (नश्) ।
हिन्दी में अनुवाद करो 1. हस्तिभि हस्ति-भारो हि वोढुं शक्येत नापरैः । 2. प्रक्ष्यामि तत्सर्वमेनं कृत्वा चाटु-शतान्यपि । 3. कवलः शक्यते क्षेप्तुं नाक्रष्टुं हस्तिनो मुखात् । 4. मरिष्यामो मरिष्याम इत्येवं भावनापराः ।
मुधैव जीवितं हित्वा म्रियन्ते सत्त्व-वर्जिताः ।। 5. तत्राहमभविष्यं चेत्तदा तेषां दुरात्मनाम् ।
अकरिष्यं नव-नवैर्निग्रहैरनुशासनम् ।। 6. भवं तरिष्याम्यज्ञोऽपि भवत्पादावलम्ब्यहम् ।
गोपुच्छ-लग्नो हि तरेनदी गोपाल-बालकः ।। दीक्षां सह त्वयाऽऽदास्ये विहरिष्ये सह त्वया । दुःसहांश्च सहिष्येऽहं त्वया सह परिषहान् ।। त्वया सहोपसर्गाश्च सहिष्ये त्रिजगद्गुरो ! ।
कथंचिदपि न स्थास्याम्यहमत्र प्रसीद मे ।। 9. युष्मानष्टान् विनष्टान्वा हित्वा गतवतां मुखम् ।
कथं द्रक्ष्यति नः स्वामी ऋषि-हत्याकृतामिव ।।
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आओ संस्कृत सीखें 1214035 10. युष्मान्विना गतान्नोऽद्य लोकोप्युपहसिष्यति ।
हृदय ! स्फुट रे सद्यः पयःसिक्ताऽऽमकुम्भवत् ।। 11. मयैकाकिन्यसौ मुक्ता प्रबुद्धा मुग्धलोचना ।
मोक्ष्यते जीवितेनाऽपि स्पर्द्धयेव मया सह ।। 12. भक्तां तदेनां वञ्चित्वा नान्यतो गन्तुमुत्सहे ।
जीवितं मरणं वाऽपि मम स्तादनया सह ।। 13. अथवाऽनेक-दुःखानामरण्ये नरकोपमे । ___पात्रं नारकिक इव भवाम्येकोऽहमस्त्वसौ ।। 14. मया तु वस्त्र-लिखितामाज्ञां कृत्वा मृगाक्ष्यसौ ।
स्वयं गत्वा कुशलिनी वत्स्यति स्वजनौकसि ॥ 15. इति निश्चित्य तां रात्रिमतिक्रम्य च नैषधिः ।
प्रबोध-समये पत्न्याः प्राचलत्त्वरितक्रमम् ।। 16. पूर्णोऽहमथैरिति मा प्रसीद रिक्तोऽहमथैरिति मा विषीद ।
रिक्तं च पूर्णं भरितं च रिक्तं करिष्यतो नास्ति विधे विलम्बः ।। 17. त्वया विना वीर ! कथं व्रजामो ! गृहेऽधुना शून्यवनोपमाने ।
गोष्ठी-सुखं केन सहाचरामो ! भोक्ष्यामहे केन सहाथ बन्धो ! ।। 18. अतिप्रियं बान्धव ! दर्शनं ते सुधाञ्जनं भावि कदास्मदक्ष्णोः
नीरागचित्तोऽपि कदाचिदस्मान्स्मरिष्यसि प्रौढगुणाभिराम ! ।
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आओ संस्कृत सीखें
1141
पाठ-20
5.
धातुरूप शब्द 1. 'धातु सूचित क्रिया को करनेवाला' इस अर्थ में धातु को क्विप्प्रत्यय लगता है। उदा. 1. विश्वं पाति इति क्विप् = विश्वपाः ।
2. तत्त्वं वेत्ति इति क्विप् तत्त्वविद् । 2. विप् प्रत्यय के सभी वर्ण इत् हैं अर्थात् सभी प्रत्यय उड़ जाते हैं, अत: क्विप्
प्रत्ययांत शब्द, धातु जैसे होने से धातुरुप कहलाते हैं । 3. ह्रस्व स्वरांत धातु को पित्कृत् प्रत्यय पर त् जुड़ता है । उदा. 1. शत्रु जयति क्विप् = शत्रुजित् ।
अनु + सृ + क्त्वा = अनुसृत्य । क्रुध् आदि और सं-पद् आदि धातुओं को नित्य और भी आदि धातुओं के विकल्प से क्विप् प्रत्यय लगकर स्त्रीलिंग शब्द बनते हैं। उदा. क्रुध्, मुद्, संपद् विपद् आदि
भी:, भीतिः, ही:, हीति: आदि आकारांत शब्द धुट् सिवाय के स्वरादि प्रत्ययों पर आ (आप) प्रत्यय को छोड़कर आकारांत नामों से आ का लोप होता है । उदा. विश्वपः
पुंलिंग - स्त्री लिंग के रूप विश्वपाः विश्वपौ
विश्वपा: विश्वपाम् विश्वपौ
विश्वपः विश्वपा विश्वपाभ्याम् विश्वपाभिः विश्वपे विश्वपाभ्याम् विश्वपाभ्यः विश्वपः विश्वपाभ्याम् विश्वपाभ्यः
विश्वपः 7. विश्वपि विश्वपोः संबोधन विश्वपाः विश्वपौ नोट : 1. सं+पद् आदि धातुओं में से कई धातुओं को ति प्रत्यय भी लगता है -
संपत्तिः, विपत्तिः ।
विश्वपोः
विश्वपाम् विश्वपासु विश्वपाः
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खलपू:
आओ संस्कृत सीखें
2142 8. नपुंसक लिंग नामों का अंत्य स्वर हस्व होता है। उदा. विश्वप - वन के समान रूप होंगे।
ईकारांत - ऊकारांत शब्द 9. विप् प्रत्ययांत नाम के साथ समास हुआ हो, उस समास संबंधी धातु के इ वर्ण
और उ वर्ण का स्वरादि प्रत्ययों पर क्रमश: य् और व् होता है । परंतु सुधी शब्द में नहीं होता है। उदा. खलं पुनाति इति खलपूः । सुष्ठु ध्यायति दधाति वा सुधीः ।
पुंलिंग - स्त्री लिंग में
खलपू के रूप 1.
खलप्वौ
खलप्वः खलप्वम् खलप्वौ
खलप्वः खलप्वा खलपूभ्याम्
खलपूभिः खलवे खलपूभ्याम् खलपूभ्यः खलप्वः खलपूभ्याम्
खलपूभ्यः खलप्वः खलप्वोः
खलप्वाम् खलप्वि खलप्वोः
खलपूषु नपुंसक लिंग खल्पुनी
खलपूनि खल्पुनी
खलपूनि खलपुना खलपुभ्याम् खलपुभिः खलपुने खलपुभ्याम्
खलपुभ्यः खलपुनः खलपुभ्याम् खलपुभ्यः 6. खलपुनः खलपुनोः
खलपूनाम् खलपुनि खलपुनोः
खलपुषु संबोधन खलपो, पु खलपुनी
खलपूनि
ch & Foo
-
खलपु खलपु
लं
सं
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आओ संस्कृत सीखें
143
- c & Foo
सुधी - पुंलिंग - स्त्री लिंग 1. सुधी: सुधियौ
सुधियः सुधियम् सुधियौ
सुधियः सुधिया सुधीभ्याम्
सुधीभिः सुधिये सुधीभ्याम्
सुधीभ्यः सुधियः सुधीभ्याम् सुधीभ्यः 6. सुधियः सुधियोः
सुधियाम् 7. सुधियि सुधियोः
सुधीषु संबोधन सुधीः सुधियौ
सुधियः नपुंसक लिंग में सुधि के रूप खलपु समान हैं । 7. नी शब्द से सप्तमी एकवचन इ का आम होता है ।
ग्रामं नयति इति ग्रामणीः । सप्तमी एकवचन में ग्रामण्याम् । शेष रूप खलपू की तरह होंगे। नयति इति नीः, सप्तमी में नियाम् ।
शेष रूप सुधी की तरह होंगे । नी:, नियौ नियः । 8. दृन्भू, पुनर्भू वर्षाभू और कारभू संबंधी भू धातु के ऊ का स्वरादि प्रत्यय पर व् होता है।
पुनर्भू - स्त्री लिंग 1. पुनर्भूः
पुनवौं
पुनर्वः पुनर्ध्वम् पुनभ्वों
पुनर्वः पुनर्वा पुनर्भूभ्याम् पुनर्भूभिः
पुनर्भूभ्याम् पुनर्भूभ्यः पुनर्वाः पुनर्भूभ्याम् पुनर्भूभ्यः 6. पुनर्वाः पुनभ्वौं :
पुनर्भूणाम् 7. पुनर्वाम् . पुनभ्वौं:
पुनर्भूषु संबोधन पुनर्भू
पुनौं
पुनर्वः दृन्भू स्त्री लिंग एवं वर्षाभू स्त्री लिंग के रूप पूनर्भू के समान होते हैं । वर्षाभू और कारभू - पुंलिंग के रूप खलपू की तरह होते हैं ।
२ लं
+
पुनवें
o
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आओ संस्कृत सीखें
9.
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
स्वयंभूः
स्वयंभुवम्
स्वयंभुवा
स्वयंभुवे
स्वयंभुवः
स्वयंभुवः
स्वयंभुवि
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
स्वयंभू - पुंलिंग के रुप
स्वयंभुवौ
स्वयभुवी
स्वयंभूभ्याम्
स्वयंभूभ्याम्
यवक्रीः
कटप्रूः
यवान् क्रीणाति इति - यवक्रीः ।
कटं प्रवते कटप्रूः नदीतीरः ।
कटेन प्रवते इति कटप्रूः । कट से तैरने वाला
श्रीः
श्रियम्
श्रिया
144
संयोगान्त धातु रूप शब्द
रूप
यवक्रियौ
कटप्रुवौ
ईकारांत - ऊकारांत स्त्री लिंग शब्द
इय् और उव् जिसमें हों ऐसे ईकारांत और ऊकारांत स्त्री लिंग नामों से चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी और सप्तमी एकवचन में क्रमश: ऐ, आस् आस् और आम् विकल्प से होता है तथा षष्ठी बहुवचन में विकल्प से आम का नाम् होता है। दधाति, ध्यायति वाः धीः । श्रयति इति श्रीः । भवति इति भूः ।
श्री - स्त्रीलिंग रूप
श्रियौ
श्रियौ
स्वयंभूभ्याम्
स्वयंभुवोः
स्वयंभुवोः
श्रियै, ये
श्रियाः यः
श्रियाः,
यः
श्रियाम् यि
स्वयंभुवः
स्वयंभुवः
स्वयंभूभिः
स्वयंभूभ्यः
स्वयंभूभ्यः
स्वयंभुवाम्
स्वयंभूषु
श्रीभ्याम्
श्रीभ्याम्
श्रीभ्याम्
श्रियोः
श्रियोः
यवक्रियः आदि
कटप्रुवः आदि
श्रियः
श्रियः
श्रीभिः
श्रीभ्यः
श्रीभ्यः
श्रियाम् श्रीणाम्
श्रीषु
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आओ संस्कृत सीखें
12. भ्रू शब्द के ऊ का स्वरादि प्रत्ययों पर उव् होता है ।
उदा. भ्रूः भ्रुवौ भ्रुवः आदि
1. भूः
2. भुवम्
3.
भुवा
4. भुवै, वे
5.
6.
7.
भुवाः, वः
भुवा:, वः
भुवाम्, भुवि
आकर = खान
कट =
चटाई
कमठ = एक तापस
कर = हाथ
कार = निश्चय
145
धरणेन्द्र = इन्द्र का नाम
निर्वेद = कंटाला
भू स्त्रीलिंग के रूप
भुवौ
भुवौ
भूभ्याम्
भूभ्याम्
भूभ्याम्
भुवोः
भुवोः
भुवः
भुवः
भूभिः
भूभ्यः
भूभ्यः
भुवाम्, भूनाम्
भूषु
शब्दार्थ (पुंलिंग) | सोम = चंद्र
(पुंलिंग) सोमपा = याज्ञिक
(पुंलिंग) संगर = युद्ध (पुंलिंग) स्वयंभू = ब्रह्मा (पुंलिंग) केलि = क्रीडा
(पुंलिंग) छिद् = छेद, नाश धी = बुद्धि
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
(स्त्रीलिंग)
कारभू = दलाल
(स्त्रीलिंग)
खलपू=कचरा साफ करनेवाला (पुंलिंग)
(स्त्रीलिंग)
पुनर्भू = दूसरी बार विवाहिता स्त्री (स्त्रीलिंग)
(पुंलिंग) (पुंलिंग)
भी = भय
(स्त्रीलिंग)
पार्श्वनाथ = तेबीसवे तीर्थंकर (पुंलिंग) भू = पृथ्वी
(स्त्रीलिंग)
प्रतिभू = साक्षी
(पुंलिंग) भ्रू = भ्रमर
(स्त्रीलिंग)
भङ्ग = नाश
भोग = साप की फणा भोगिन् = सांप
(पुंलिंग) सहचरी = साथ में रहनेवाली (स्त्रीलिंग) (पुंलिंग) अस्त्र = बाण
(पुंलिंग) खल = कचरा
मनोभू = काम
(पुंलिंग) उपज्ञ = पहले कहा हुआ (विशेषण)
विश्वपा=विश्वका रक्षण करनेवाला (पुं.) खलपू = कचरा निकालनेवाला (विशेषण) वर्षाभू = मेंढक (पुंलिंग) ग्रामणी = गांव का नायक (विशेषण)
( नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग)
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आओ संस्कृत सीखें
2146 निभ = समान (विशेषण) निर्विण्ण = कंटाला हुआ (विशेषण) सुधी = विद्वान् (विशेषण) संनिभ = समान (विशेषण)
धातु ईर्घ्य = ईर्ष्या करना गण १ (परस्मैपदी) _= जाना गण १ (आत्मनेपदी) लस् = आसक्त होना गण १ (परस्मैपदी) उद् + लस् = उल्लास पाना, (परस्मैपदी)
संस्कृत में अनुवाद करो 1. दरिद्र लोगों (खलपू) की स्त्रियाँ जौ खरीदनेवाली होती हैं । (यव क्री) 2. राजा की रानियाँ अपने महल को छोडकर अन्य मार्ग या उन्मार्ग को नहीं जानती
है, अत: कूपमंडूकी (कूपवर्षाभू) होती हैं । 3. सौंदर्य द्वारा जिसने काम को हल्का किया है, ऐसे (सौन्दर्य तर्जितस्मरम्) उसे
देखकर स्त्रियों की भौएं उल्लसित हो जाती हैं (उल्लस्) । 4. दास की तरह (खलपू - चतुर्थ विभक्ति) बडी ऋद्धिवालों के ऊपर (ग्रामणी)
यह राजा नि:स्पृही है और ईर्ष्या नहीं करता है (ईj)। 5. जैसे धन की इच्छा से कोई दरिद्र (खलपू) को नहीं चाहता है, उसी प्रकार यह
राजा धन की इच्छा से गाँव के नेता (ग्रामणी) को भी नहीं चाहता है । 6. सेना का नायक, गाँव के नायक में स्नेह रखता है (स्नेह) । 7. लक्ष्मी पाने के लिए (श्री) मनुष्य दौड़ते हैं, परंतु बुद्धि पाने के लिए नहीं दौड़ते
हैं (प्र+यत्)। 8. 'लक्ष्मी (श्री) या स्त्री कोई अपना नहीं है' - ऐसा, तत्त्व को जाननेवाले (तत्त्वविद्) कहते हैं।
हिन्दी में अनुवाद करो 1. शरत्कालवशादिन्दुकराः स्युरधिकश्रियः । 2. बलिनो यद्दलिभ्योऽपि बहुरत्ना भूरियम् । 3. किं हि दुःसाध्यं सुधियां धियः ।
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आओ संस्कृत सीखें
147,
4. पुण्यपुंसां विदेशेऽपि सहचर्यो ननु श्रियः । 5. प्रायेण हि दरिद्राणां शीघ्रं गर्भभृतः स्त्रियः । 6. श्री छिदेऽञ्जनलेशोऽपि धौतस्य श्वेतवाससः । 7. कमठे धरणेन्द्रे च स्वोचितं कर्म कुर्वति ।
प्रभुस्तुल्यमनोवृत्तिः पार्श्वनाथः श्रियेऽस्तु वः ।। 8. धेहि धर्मे धनधियं मा धनेषु कदाचन ।
सेवस्व सद्गुरूपज्ञां शिक्षा मा तु नितम्बिनीम् ।। 9. कृतमोहास्त्रवैफल्यं ज्ञानवर्म बिभर्ति यः ।
क्व भीस्तस्य क्व वा भङ्गः कर्मसंगरकेलिषु ।। 10. आयुः पताकाचपलं तरङ्ग-तरलाः श्रियः ।
भोगि-भोग-निभा भोगाः संगमाः स्वप्नसंनिभाः ॥ 11. याचकानां महतीनामाशानामेष पूरकः ।
ग्रामण्यां सोमपां नित्यं तद्वधूनां च पूजकः ।। 12. सृजति तावदशेषगुणाकरं पुरुषरत्नमलंकरणं भुवः ।
तदपि तत्क्षणभङ्गि करोति चेद् अहह कष्टमपण्डितता विधेः ।। 13. निर्द्रव्यो ह्रियमेति हिपरिगतः प्रभ्रश्यते तेजसो ।
निस्तेजा: परिभूयते परिभवानिर्वेदमागच्छति ।। 14. निर्विण्णः शुचमेति शोकविवशो बुद्ध्या परित्यज्यते ।
निर्बुद्धिः क्षयमेत्यहो निर्धनता सर्वाऽऽपदामास्पदम् ।।
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आओ संस्कृत सीखें
2148
पाठ- 21 व्यंजनांत धातुरूप शब्द
चकारांत प्राञ्चति इति क्विप् प्राच् । प्रत्यञ्चति इति क्विप् प्रत्यच् । उदञ्चति इति क्विप् उदच् ।
अवाञ्चति इति क्विप अवाच् । 1. गत्यर्थक अञ्च् धातु के उपांत्य ञ् का कित् प्रत्ययों पर लोप होता है । पूजार्थ
में नहीं, अञ्चिता गुरवः। 2. धुट् प्रत्ययों पर अच् धातु को धुट् व्यंजन से पहले न् जोड़ते हैं।
उदा. प्राच् + स् = प्रान्च् + स् = प्रान् 3. अञ्च् धातु के न् का पद के अंत में होता है।
उदा. प्राङ् धुट् सिवाय के स्वरादि प्रत्ययों पर अच् का च होता है और पहले का स्वर दीर्घ होता है और उदच् का उदीच् होता है । द्वितीया बहुवचन - प्राचः, प्रतीचः, उदीचः
प्राच् के रूप 1. प्राङ्
प्राञ्चौ प्राञ्चम्
प्राचः प्राचा
प्राग्भ्याम् प्राचे प्राग्भ्याम्
प्राग्भ्यः 5. प्राच:
प्राग्भ्याम्
प्राग्भ्यः प्राचः
प्राचोः प्राचि
प्राक्षु प्रत्यय के रूप प्रत्यङ्
प्रत्यच्यौ 2. प्रत्यञ्चम् प्रत्यच्यौ
प्रतीचः
प्राञ्चः
प्राञ्चौ
प्राग्भिः
प्राचाम्
प्राचोः
प्रत्यञ्चः
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आओ संस्कृत सीखें
4.
5.
6.
7.
उदच् के रूप
उदञ्चौ
उदञ्चौ
नपुंसक लिंग में
प्राक्, प्राग्
प्राची
उदक् ग्
उदीची
अकारादि अञ्च् उत्तरपद में हो तो तिरस् का तिरि आदेश होता है ।
तिरः अञ्चति - तिर्यच्
रूप
तिर्यञ्चौ
तिर्यङ्, च् तिर्यञ्चम्
तिर्यञ्चौ
नपुं. लिंग
तिर्यक् ग्
तिरश्ची
अञ्च् जिसके अंत में हो ऐसे नाम से स्त्री लिंग में ई (ङी) प्रत्यय होता है प्राची । प्रतीची । उदीची । अवाची । तिरश्ची ।
जकारांत - शकारांत शब्द
1.
2.
149
उदङ्
उदञ्चम्
प्राञ्चि
उदञ्चि
उदञ्चः
उदीचः
देवं यजते इति देवेट् ड् ।
उदा. देवेजौ, देवेड्भ्याम् देवेट्सु, देवेड्त्सु ।
सम् (सम्यक्) राजते इति - सम्राट् ड् । सम्राड्त्सु । सम्राट्सु ।
परि व्रजति - परिव्राट् ड्, परिव्राजः ।
विशति इति विट् ड्, विशौ, विशः, विड्भ्याम् ।
हन्
उदा. वृत्रं हतवान् - वृत्रहा
रुप
वृत्रहा
वृत्रहणम्
वृत्रघ्ना
वृत्रहभ्याम्
भ्रूणं हतवान् - भ्रूणहा । स्त्री लिंग में भ्रूणघ्नी ।
वृत्रहणौ
वृत्रहणौ
तिर्यञ्चः
तिरश्चः
तिर्यञ्च
नकारांत शब्द
अंतवाले नामों का स्वर प्रथमा एकवचन में ही दीर्घ होता है ।
वृत्रहण:
वृत्रघ्नः
वृत्रहभिः
र कारान्त शब्द
भू आदि प्रत्येक गण के धातुओं के ऊपर से बने शब्दों के पदांत र्, के पूर्व का
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आओ संस्कृत सीखें
8.
नामि स्वर दीर्घ होता है । उदा. गीर्यते इति क्विप् गीः
रूप गी: गिरौ गिरः
150
पिपर्ति इति पूः, पूरौ, पुरः । पूर्भ्याम् । धूर्वति इति धूः, धुरौ, धुरः, धूर्भ्याम् ।
आशास्यते इति आशी:, आशिषौ, आशिषः । आशीर्भ्याम्
र् अंतवाले नाम के र् का सु प्रत्यय पर र् ही रहता है । उदा. गीर्षु, पूर्षु, द्वार्षु
आशीस्, पयस् आदि शब्द सकारांत होने से वहाँ पर नहीं होगा आशीष्षु, आशीःषु । पयःसु, पयस्सु ।
हकारांत शब्द
मधुलिहौ । मधुलिभ्याम् मधुलिट्सु ।
मधु लेढि - मधुलिट्, इ, मधुलिइत्सु ।
गां दोग्धि - गोधुक्, ग्
गोदुहौ । गोधुग्भ्याम् । गोधुक्षु ।
धर्मं बुध्यते इति धर्मभुत्, द् धर्मबुधौ, धर्मभुद्भ्याम्, धर्मभुत्सु ।
मित्राय दुह्यति - मित्रध्रुक्, ग्, ट्, ड् ।
मित्रध्रुग्भ्याम् – ड्भ्याम् । मित्रद्द्रुहः ।
I
-
मित्रध्रुक्षु मित्रध्रुइत्सु, मित्रधुट्सु
उपनह्यति पादम् – उपानत्, द् उपानद्भिः । उपानहि । उपानत्सु
अपवाद
9. ऋत्विज् दिश, दृश्, स्पृश्, स्रज्, दधृष् और उष्णिह् इन शब्दों के अंत्य व्यंजन के पद के अंत में होता हैं ।
ऋत्विक्, ग् । ऋत्विजौ, ऋत्विक्षु ।
दिक्, ग्, दिशौ, दिग्भ्याम्, दिक्षु आदि
10. उपमा प्रदान करने में उपयोगी तद् आदि सर्वनाम से तथा अन्य और समान शब्द से दृश धातु को कर्मणि प्रयोग में अ (टक् ) स (सक्) तथा क्विप् प्रत्यय होता है ।
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आओ संस्कृत सीखें
1515
अन्य और तद् आदि शब्दों के अंत्य अक्षर का आ होता है । इदम् का ई तथा किम् का की होता हैं, समान का स होता है । उदा. स इव दृश्यते तादृशः-तादृक्षः तादृक्, ग् उसके जैसा अयम् इव दृश्यते ईदृशः, ईदृक्षः ईदृक्, ग् इसके जैसा क इव दृश्यते कीदृशः, कीदृक्षः कीदृक्, ग् किसके जैसा वयम् इव दृश्यते अस्मादृशः अस्मादृक्, ग् हमारे जैसा अन्य इव दृश्यते अन्यादृशः . अन्यादृक्, ग् अन्य जैसा समान इव दृश्यते सदृश:-सदृक्षः सदृक्, ग् समान जैसा
शब्दार्थ अक्षत = चावल (पुंलिंग) | सवितृ = सूर्य (पुंलिंग) अरुण = सूर्य का सारथि (पुंलिंग) | सहस्रकिरण = सूर्य (पुंलिंग) आयुध = हथियार (पुंलिंग) | अवाची = दक्षिण दिशा (स्त्री लिंग) उद्गार = उद्गार (पुंलिंग) | आशिस् = आशीर्वाद (स्त्री लिंग) ऋत्विक् = याज्ञिक (पुंलिंग) | उदीची = उत्तर दिशा (स्त्री लिंग) जनक = सीता के पिता (पुंलिंग) | उपानह = जूते (स्त्री लिंग) जाल = समूह
(पुंलिंग) | उष्णिह् = छंद का नाम (स्त्री लिंग) तुराषाह् = इंद्र (पुंलिंग) | दिश् = दिशा (स्त्री लिंग) दधृष् = होशियार (पुंलिंग) | धुर् = अग्रणी (स्त्री लिंग) देवेज् = देव को पूजनेवाला (पुंलिंग) | प्रतीची = पश्चिम दिशा (स्त्री लिंग) परिव्राज् = साधु (पुंलिंग) | प्राची = पूर्व दिशा (स्त्री लिंग) भ्रूण = गर्भ
(पुंलिंग) | पुर् = नगरी (स्त्री लिंग) मधुलिह् = भ्रमर (पुंलिंग) | शर्वरी = रात्रि (स्त्री लिंग) वरिवस्यक = सेवक (पुंलिंग) | अवाच् = बाद का देश काल (विशेषण) विश् = व्यापारी (पुंलिंग) | इच्छु = इच्छा करनेवाला (विशेषण) वृत्र = दानव
(पुंलिंग) | उचित = योग्य (विशेषण) शूद्र = हल्की जाति (पुंलिंग) | तिर्यच् = तिर्यंच (विशेषण) सम्राज् = बड़ा राजा (पुंलिंग) | प्रत्यच् = पश्चिम देशकाल (विशेषण)
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आओ संस्कृत सीखें
प्राच् = पूर्व देशकाल (विशेषण)
= सत्य (विशेषण)
धातु-अञ्च्-गण 1 (परस्मै ) = जाना, धूर्व् - गण 1 ( परस्मै )
पूजा करना
सुनृत
152
स्पृश् स्पर्श करनेवाला (विशेषण)
हन्त = खेद अर्थ में (अव्यय)
4.
5.
6.
7.
8.
9.
=
= हिंसा करना,
धूर्वति संस्कृत में अनुवाद करो
1. सूर्य (अर्यमन्) पूर्व दिशा में उगता है (उद् + इ ) और पश्चिम (प्रत्यच् ) दिशा में अस्त होता है (अस्तम् + इ ) ।
2. उत्तर दिशा (उदच्) में मेरु है, और दक्षिण दिशा (अवाच्) में लवण समुद्र है । 3. पुष्पों को छोडकर प्रौढ़ स्त्रियों के मुख को सूंघने के लिए भ्रमर (मधुलिह) बार बार आते हैं ।
इन महाराजाओं से (सम्राज्) इन्द्र ( तुराषाह्) लज्जा पाता है ।
इस नगरी के लोग शास्त्र शम, समाधि और सत्य में आगे हैं (प्राच्)
धर्म के ज्ञाता (धर्मबुध) साधुओं (परिव्राज्) द्वारा धर्म का उपदेश दिया जाता है।
काव्य कवि की कीर्ति को सभी दिशाओं में फैलाता है (तन्) ।
इन्द्र (वृत्रहन्) के आयुध को वज्र कहते हैं ।
जयसिंह के राज्याभिषेक के बाद मंत्र का उच्चारण करते हुए याज्ञिक पुरोहित ने मंत्र से पवित्र किए हुए ( मन्त्रपूत) पानी, अक्षत आदि द्वारा मंगल किया । 10. जैन साधु पाँव में जूते ( उपानह) नही पहिनते है ।
11. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं ।
हिन्दी में अनुवाद करो
1.
किं वाऽभविष्यदरुणस्तमसां विभेत्ता तं चेत्सहस्रकिरणो धुरि नाकरिष्यत् ।
2. भवतीनां सूनृतयैव गिरा कृतमातिथ्यम् ।
3.
आहार इवोद्वारै गिरा भावोऽनुमीयते ।
4. उपादेया शास्त्र - लोकव्यवहारानुगा' गीः । 5. तिर्यञ्चोऽपि रक्षन्ति पुत्रान्प्राणानिवात्मनः । 6. त्वमपि सम्राजं सुतमवाप्स्यसि ।
7. यस्य यादृशी भावना सिद्धि र्भवति तादृशी ।
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आओ संस्कृत सीखें
8. राज्येच्छुः स मृत्वा मिथिलायां महापुरि जनक - भार्याया गर्भे सुतोऽभवत् ।
9. जडानामुदये हन्त ! विवेक: कीदृशो भवेत् । 10. इन्द्रियार्थेषु धावन्ति त्यक्त्वा ज्ञानामृतं जडा: ।
इन्द्रियै र्न जितो योऽसौ धीराणां धुरि गण्यते ।। 11. भास्वन्तं सवितारं तं विनाऽहरपि शर्वरी ।
153
जाता यन्मे तमोजालैः किलान्धाः सकला दिशः ।। 12. गीर्षु चेतःसु च स्वच्छा महत्सु वरिवस्यकाः । धूषूचितासु च दृढा राजद्वार्षु नरा इह ।।
नोट : 1. अनुगच्छति इति अनुगः ।
2.
अ (टक्) प्रत्यय टित् है ।
3. टित् प्रत्ययांत नामों को स्त्री लिंग में ई (ङी) प्रत्यय होता है ।
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पाठ- 22
तद्धित शब्द
1. दो में निश्चय करना हो तब एक, यत् तद्, किम् और अन्य सर्वनामों को अतर (इतर) प्रत्यय विकल्प से होता है ।
2.
154
उदा. एकतरो भवतोः पटुः, एको भवतोः पटुः
आप दो में एक होशियार है ।
यतरो भवतोः पटुः ततर आगच्छतु । यो भवतोः पटुः स आगच्छतु । कतरो भवतोः पटुः ? को भवतोः पटुः ? ।
अन्यतरः अन्यः पटुः ।
बहुत
में से निश्चय करना हो तब यत्, तद्, किम् और अन्य सर्वनामों को अतर (डतर) और अतम (डतम) और एक को अतम (डतम) प्रत्यय विकल्प से होता
है ।
यतमो यतरो वा भवतां पटुः ततमस्ततरो वा आगच्छतु ।
यो भवतां पटुः स आगच्छतु ।
कतमः कतरो वा भवतां पटुः ? को भवतां पटुः ? |
अन्यतमः अन्यतरः, अन्यः पटुः ।
एकतमो भवतां पटुः, एको भवतां पटुः ।
3. नपुंसक लिंग में अन्य, अन्यतर, इतर एवं डतर - डतम प्रत्यय जिसके अंत में हो ऐसे सर्वनामों में (एकतर शब्द छोडकर) प्रथमा और द्वितीया एकवचन का
प्रत्यय द् है ।
प्रथमा -द्वितीया
प्रथमा-द्वितीया
उदा.
अन्ये
इतरे
कतरे
एकतरे
अन्यत्, द्
अन्यानि
इतरत्, द्
इतराणि
कतरत्, द्
कतराणि
एकतरम्
एकतराणि
4. 'उसके भेद' (प्रकार) इस अर्थ में संख्यावाचक शब्दों से तय ( तयट्) प्रत्यय
होता है ।
नोट : अतर (इतर) अतम (डतम) प्रत्ययांत नाम सर्वनाम है, अत: उनके रूप 'सर्व' जैसे होंगे ।
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आओ संस्कृत सीखें
1558
द्वि - त्रि शब्द से अय (अयट) प्रत्यय भी होता है । उदा.
पञ्च अवयवा अस्य पञ्चतयो यमः। - पाँच प्रकार का यम है प्रयोऽवयवा यस्य त्रयं त्रितयं जगत् ।
द्वौ अवयवौ अस्य द्वयं द्वितयं तपः । 5. नेम (सर्वनाम) अर्ध, प्रथम, चरम, अल्प, कतिपय तथा तय-अय जिसके अंत
में हो ऐसे नामों से प्रथमा बहुवचन में अस् का विकल्प से इ होता है । उदा. नेमे - नेमाः।
अर्धे - अर्धाः । प्रथमे - प्रथमाः। द्वितये - द्वितयाः ।
त्रये - त्रयाः । 6. 'उसका प्रमाण' इस अर्थ में इदम् और किम् शब्द से अत् (अतु) प्रत्यय होता
है । इदम् का इय् और किम् का किय आदेश होता है । उदा. इदं मानं अस्य - इयत् जलं - इतना पानी
किं मानं अस्य - कियत् जलं - कितना पानी ! 7. 'उतना प्रमाण' इस अर्थ में यद्, तद् और एतद् शब्द से आवत् (डावतु) प्रत्यय
होता है। उदा. यावत्, तावत्, एतावत् । इन शब्दों के रूप भवत् (भवतु) सर्वनाम के अनुसार होते हैं । पुं. लिंग में इयान् । स्त्री लिंग में इयती, कियती । नपुं. लिंग में कियत्, कियती, कियन्ति । आदि 'उसका संख्या प्रमाण' इस अर्थ में यद् तद् और किम् से अति (डति) प्रत्यय भी होता है। डति प्रत्ययांत शब्द अलिंग अर्थात् तीनों लिंगों में समान होते हैं। उदा. या संख्या मानं एषां ते यति, यावन्तः ।
तति, तावन्तः । कति, कियन्तः ।
कति = कितना । नोट : तद्धित पर, अपद में रहे अ वर्ण और इ वर्ण का लोप होता है, त्रि+अयट्-इ का लोप-त्रयम्
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आओ संस्कृत सीखें
11561
तति = उतने ।
यति = जितने । कति, यति, तति शब्द से प्रथमा-द्वितीया बहुवचन का प्रत्यय 0 है।
कति, कति, कतिभिः आदि । 9. 'पहले उस रूप में नहीं था, उसका उस रूप में होना'-इस अर्थ में कृ धातु
के योग में कर्म से तथा भू एवं अस् धातु के योग में कर्ता से च्चि प्रत्यय होता
है। च्चि प्रत्यय के सभी वर्ण (अक्षर) इत् हैं, अत: पूरा प्रत्यय उड़ जाता है । 10. च्वि प्रत्यय लगने पर स्वर दीर्घ होता है, ऋकारी होता है तथा अव्यय सिवाय
के अ वर्ण का ई होता है।
उदा.
1. प्राग् अशुक्लं शुक्लं करोति इति शुक्लीकरोति पटम् । 2. प्रागशुक्ल: पट इदानीं शुक्लो भवति इति शुक्लीभवति पटः । 3. प्रागशुक्ल: पट इदानीं शुक्ल: स्यादिति शुक्लीस्यात् पटः ।
माला - मालीकरोति, मालीभवति, मालीस्यात् । दिवाभूता रात्रिः दोषाभूतं अहः । शुचि - शुचीकरोति, शुचीभवति, शुचीस्यात् । पितृ-पित्रीकरोति ।
पित्री भवति । पित्री स्यात् 11. शिखा आदि शब्दों से मत् (मतु) प्रत्यय के अर्थ में इन् और मत् होता है । उदा. शिखी, शिखावान् ।
माली, मालावान् । 12. ऊर्मि आदि शब्दों से मत् के म का व नहीं होता है।
उदा. ऊर्मिमान् । भूमिमान् । यवमान् । द्राक्षामान् । ककुमान् । 13. अस् अंतवाले शब्द तथा माया, मेधा और स्रज् शब्द से मतु के अर्थ में विन् और
मत् होता है। उदा. यशस्वी, यशस्वान् । तपस्वी, तपस्वान् मायावी, मायावान् । मेधावी - मेधावान् ।
स्रग्वी, स्रग्वान् । 14. मत्वर्थ प्रत्यय पर स् या त् अंतवाला नाम पद नहीं होता है ।
उदा. यशस्वी, तडित्वान् ।
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आओ संस्कृत सीखें
21573 15. इष्ठ और ईयस् (ईयसु) प्रत्यय पर विन् और मत् प्रत्यय का लोप होता है।
स्रग्विन्, स्रजिष्ठः, स्रजीयान् ।
बलवत्, बलिष्ठः । बलीयान् । बलीयसी । स्त्री । 16. अल्प और युवन् का विकल्प से कन् होता है - अल्प - कनिष्ठः । कनीयान् ।
अल्पिष्ठः । अल्पीयान् । युवन् - कनिष्ठः । कनीयान् ।
यविष्ठः । यवीयान् । 17. प्रशस्य का श्र आदेश होता है ।
श्रेष्ठः । श्रेयान् । 18. वृद्ध और प्रशस्य का ज्य आदेश होता है
ज्येष्ठः । ज्यायान्, । ज्यायसी (स्त्री लिंग) 19. बाढ और अन्तिक का साध और नेद आदेश होता है ।
साधिष्ठः । साधीयान्, नेदिष्ठः । नेदीयान् । 20. 'पना' भाव अर्थ में पृथु आदि शब्दों से इमन्, त्व तथा ता (तल्) प्रत्यय होते
इमन् प्रत्ययांत शब्द पुंलिंग है
पृथोर्भावः प्रथिमा, प्रथिमानौ, । प्रथिमानः ।
पृथुत्वम् । पृथुता । 21. इमन्, इष्ठ और ईयस् प्रत्यय लगने पर __1) अंत्य स्वर और उसके बाद में रहे व्यंजनों का लोप होता है -
पटु - पटिमा, पटिष्ठः । पटीयान् ।
महत् - महिमा, महिष्ठः । महीयान् । 2) पृथु, मृदु, भृश, कृश, दृढ, परिवृढ के ऋ का र होता है। उदा. प्रथिमा, प्रथिष्ठः, प्रथीयान् ।
म्रदिमा, म्रदिष्ठः, प्रदीयान् 3) स्थूल आदि में स्वर सहित अंतस्था और उसके बाद में रहे व्यंजन का लोप
होता है एवं नामि स्वर का गुण होता है। उदा.
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आओ संस्कृत सीखें
1.
2.
3.
4.
5.
6.
स्थूल - मोटा
दूर - दूर
युवन् - युवान
हस्व - छोटा
क्षिप्र - जल्दी
क्षुद्र - हल्का
प्रिय - प्यारा
स्थिर - निश्चल
स्फिर- बहुत
उरु - मोटा
गुरु - भारी
4) प्रिय आदि का प्रा आदि आदेश होता है -
-
1.
प्रेमा
प्रेष्ठः
2.
स्थेमा
3.
4.
5.
6.
7.
8.
9.
वृद्ध-बूढ़ा
10. वृन्दारक- प्रशस्य
बहुल- ज्यादा
तृप्र - दुःखी
दीर्घ - लंबा
इष्ठ पर भूय् होता है
।
उदा. बहु - ज्यादा
अहिमरुचि = सूर्य
आयुष्यमत् = आप
158
-
हूसिमा ।
ह्रसिष्ठः ।
क्षेपिमा ।
क्षेपिष्ठः ।
क्षोदिमा । क्षोदिष्ठः ।
ककुद्मत् = बैल कलापिन् = मोर कुमुदचन्द्र = दिगंबर आचार्य जीमूतमालिन् = वर्षाऋतु
स्थविष्ठः ।
दविष्ठः
यविष्ठः ।
वरमा
गरिमा
हिमा
पिमा
द्राघिमा
वर्षमा
वृन्दिमा
स्थेष्ठ:
स्फेष्ठः
वरिष्ठः
गरिष्ठः
बंहिष्ठः
त्रपिष्ठः
द्राघिष्ठः
वर्षिष्ठः
वृन्दिष्ठः
15. बहु का इमन् और ईयस् प्रत्यय पर भू आदेश होता है और प्रत्यय के इ वर्ण
का लोप होता है।
भूमा । भूयिष्ठः । भूयान् । शब्दार्थ
स्थवीयान् ।
दवीयान् ।
यवीयान् ।
हूसीयान् ।
क्षेपीयान् ।
क्षोदीयान् ।
प्रेयान्
स्थेयान्
स्फेयान्
वरीयान्
गरीयान्
बंहीयान्
पीयान्
द्राघीयान्
वर्षीयान्
वृन्दीयान्
(पुंलिंग)
(पुंलिंग) | तडित्वत् = मेघ (पुंलिंग) देवसूरि = श्वेतांबर आचार्य (पुंलिंग)
(पुंलिंग) द्रुम = वृक्ष
(पुंलिंग)
(पुंलिंग) द्विप = हाथी (पुंलिंग) वाज = वेग (पुंलिंग) | वाजिन् = घोड़ा
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
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आओ संस्कृत सीखें
शतक्रतु = इंद्र
सन्निधि = पास में
स्तबक = गुच्छा घोडा
हय =
अगुली = अंगुली
159
कटि = कमर कदली = केल का वृक्ष भूयस् = फिर से
तडित् = बिजली
भागीरथी = गंगा
अलंकरण = अलंकार ऊर्जस् ककुद् = बैल का स्कंध ( नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग) (नपुं. लिंग)
= बल
परिधान
= वस्त्र
( नपुं. लिंग) ( नपुं. लिंग)
पीयूष = अमृत
बर्ह = पिंछ
लाङ्गूल = पूंछ शकट = गाड़ी
( नपुं. लिंग) ( नपुं. लिंग) ( नपुं. लिंग)
1.
2.
3.
4.
5.
कतिपय = थोड़ा
चरम = अंतिम
(पुंलिंग) (पुंलिंग) (पुंलिंग)
तनु = पतला
(पुंलिंग) परिवृढ = समर्थ
(स्त्रीलिंग) प्रथम = पहला
(स्त्रीलिंग) बाढ = अच्छा (स्त्रीलिंग) विपन्न
= मरा हुआ
(अव्यय) | सहाध्यायिन् = साथ में पढ़नेवाला (स्त्रीलिंग)
(स्त्रीलिंग) | सन्नद्ध = : तैयार
(विशेषण)
(विशेषण)
(विशेषण)
(विशेषण)
(विशेषण)
(विशेषण)
(विशेषण)
(विशे.) (विशेषण)
नेम = आधा (सर्वनाम) धातु गल् = गलना गण1 परस्मैपदी
संस्कृत में अनुवाद करो
खण्ड् = खंडित करना गण 1 आत्मनेपदी नह् = बाँधना गण 4 उभयपदी सम् + नह् = तैयार होना
परि + छिद् = जानना गण 7 उभयपदी लक्ष् = देखना गण 10 उभयपदी
हमारे सैन्य में इतने शत्रु कितने हैं ? ( कति)
थोड़े भी देव (कतिपय ) और थोड़े भी नाग, इसके समान ( संनिभ) नहीं है। पर्वतों में मेरु सबसे बड़ा (महत्) और सबसे चौड़ा (पृथु ) है।
अन्न
में उड़द सबसे अधिक भारी (गुरु) और बहुत चिकने (स्निग्धतम) हैं। पांडवों में भीमसेन सबसे अधिक मोटा, बहुत मजबूत (दृढ़ ) और अतिशय बलवान (बलवत्) था।
6. हाथ में पाँच अंगुलियाँ हैं, उनमें सबसे छोटी (अल्प) अंगुली (कतर या कतम) कौनसी ?
7. बहुतसा काल (अनेहस्) गया तो भी तदपि रामराज्य की महिमा - महिमन् को
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आओ संस्कृत सीखें
160
लोग आज भी याद करते हैं।
इस बैलगाड़ी में दो बैल जुड़े (संयोजित) हैं, उसमें एक (एकतर ) मोटा (गुरु) है और दूसरा छोटा (युवन्) है।
9.
कृष्ण को आठ अग्रमहिषियाँ थीं उनमें कृष्ण को अधिक प्रिय (प्रिय) कौन थी ? 10. बंदर की पूंछ ज्यादा लंबी (दीर्घ) और ऊंट की पूंछ बहुत छोटी होती हैं ( ह्रस्व ) |
11. हिंदुस्तान के शहरों में सबसे बड़ा (उरु) शहर कौन सा है ? (कतर) और जैनों के तीर्थस्थानों में सबसे बड़ा तीर्थ कौन सा ? ( कतम)
8.
12. चाणक्य की बुद्धि अत्यंत स्थिर और परिपक्व थी (वृद्ध) ।
13. सभी नदियों की अपेक्षा गंगा नदी की चौडाई ( पृथु ) और लंबाई ज्यादा है। 14. ये सात विद्यार्थी हैं उनमें पहले तीन ज्यादा होंशियार (पटु ) हैं और अंतिम तीन अतिमंद (मन्दतम) हैं।
15. मेरे पास व्याकरण की दो पुस्तकें थीं, उसमें से एक मैंने मेरे सहाध्यायी को दी। हिन्दी में अनुवाद करो
1. कतरस्मिन् पथि वर्तामहे ।
2.
3.
अहो ! कामावस्था बलीयसी ।
4.
दविष्ठं हि वाजिनां मरुतां च किम् ।
5.
विपन्ने पितरि प्रायो ज्यायान्पुत्रो धुरन्धरः । बलीयसाऽवरुद्धानां त्राणं नान्य पलायनात् ।
6.
7. बुद्धिसाध्येषु कार्येषु कुर्युरूर्जस्विनोऽपि किम् ।
स्वकार्यादधिको यत्नः परकार्ये महीयसाम् ।
8.
कुमार ! गहन : सचिव - वृत्तान्तः, नैतावता परिच्छेत्तुं शक्यते । 9. यत्तदलंकरणत्रयं क्रीतं तन्मध्यादेकं दीयताम् ।
10. देवोयमेवं स्वकुल- प्रशंसां कुरुतेतमाम् । 11. एतावानेव शतक्रतोरायुष्यमतश्च विशेषः । 12. प्रगलिततारका तनिमानमभजत रजनिः ।
13. अस्मिन्नलक्षित - नतोन्नत - भूमिभागे मार्गे पदानि खलु ते विषमीभवन्ति ।
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आओ संस्कृत सीखें
14. कुसुम - स्तबकस्येव द्वयी वृत्ति मनस्विनः । मूर्ध्नि वा सर्वलोकस्य शीर्यते वन एव वा । 15. 'नैर्गुण्यमेव साधीयो धिगस्तु गुणगौरवम् । शाखिनोऽन्ये विराजन्ते खण्ड्यन्ते चन्दन - द्रुमाः ॥ 16. मण्डलीकृत्य बर्हाणि कण्ठै र्मधुरगीतिभिः । कलापिन: प्रनृत्यन्ति काले जीमूतमालिनि ।। 17. यदि नाम कुमुदचन्द्रं नाऽजेष्यद् देवसूरिरहिमरुचिः । कटि-परिधानमधास्यत कतमः श्वेताम्बरो जगति ।। 18. कुसंसर्गात्कुलीनानां भवेदभ्युदयः कुतः ।
161
कदली नन्दति कियद् बदरी - तरु - सन्निधौ । 19. नेमे दासीकृता नेमा हताश्चानेन भूभुजः ।
अर्धे द्विपा हयाश्चार्धाः सन्नद्धाः सर्व एव न ।
20. मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा- स्त्रिभुवनमुपकार- श्रेणिभिः
प्रीणयन्तः ।
परगुणपरमाणून्पर्वतीकृत्य नित्यं, निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ॥
नोट : 1. 'पना' अर्थ में य (ट्यण) और अण् प्रत्यय भी लगता हैं। निर्गुण - नैर्गुण्यम्, विषम - वैषम्यम् इत्यादि । गुरु, गौरवम् ।
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आओ संस्कृत सीखें
एकश्च दश च
चत्वारश्च दश च
पञ्च च दश च
षट् च दश च
नव च दश च
एकोना च असौ विंशतिश्च एकश्च विंशतिश्च
चत्वारश्च विंशतिश्च
चत्वारश्च त्रिंशश्च
एकोना पञ्चाशत् चत्वारश्च षष्टिश्च
त्रयश्च अशीतिश्च
षट् च अशीतिश्च
नव च अशीतिश्च
षट् च नवतिश्च
नव च नवतिश्च
एकश्च शतं च
162
पाठ 23
सामासिक संख्यावाचक शब्द
एकादश
चतुर्दश
पञ्चदश
षोडश
नवदश
एकोनविंशतिः
एकविंशति:
चतुर्विंशतिः
चतुस्त्रिंशत् एकोनपञ्चाशत्
चतुष्षष्टिः, चतुःषष्टिः
त्र्यशीतिः
षडशीतिः
नवाशीतिः
षण्णवतिः
नवनवतिः
एकशतम्
द्विशतम्
11
14
15
16
19
19
21
24
34
49
64
83
86
89
96
99
101
102
108
121
द्वौ चशतं च
अष्ट च शतं च
एकविंशतिश्च शतं च
अष्टशतम् एकविंशतिशतम्
एकादशन् और षोडशन् ये दो शब्द स्वयंसिद्ध हैं ।
1.
शत पहले की संख्या उत्तर पद में हो तो द्वि, त्रि और अष्टन् के बदले द्वा, त्रयस् तथा अष्टा होता है, परंतु अशीति उत्तरपद में हो और बहुव्रीहि समास हो तो ऐसा नहीं होता है ।
उदा. द्वौ च दश च द्वादशन्, त्रयोदशन्, अष्टादशन् । द्वाविंशति, त्रयोविंशति, अष्टाविंशति ।
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आओ संस्कृत सीखेंपरंतु
द्वात्रिंशत्, त्रयस्त्रिंशत्, अष्टात्रिंशत् । 2. चत्वारिंशत्, पञ्चाशत्, षष्टि, सप्तति और नवति उत्तरपद में हो तो द्वा, त्रयस् और अष्टा विकल्प से होता है ।
द्वाचत्वारिंशत्, द्विचत्वारिंशत् । त्रयश्चत्वारिंशत्, त्रिचत्वारिंशत् । अष्टाचत्वारिंशत्, अष्टचत्वारिंशत् । द्वापञ्चाशत्, द्विपञ्चाशत् । त्रयः पञ्चाशत्, त्रि पञ्चाशत् । अष्टा पञ्चाशत्, अष्ट पञ्चाशत् । द्वाषष्टि, द्विषष्टि । त्रयष्षष्टि, त्रयःषष्टि, त्रिषष्टि । अष्टाषष्टि, अष्टषष्टि । द्वा सप्तति, द्विसप्तति । त्रयस्सप्तति, त्रयःसप्तति, त्रिसप्तति । अष्टा सप्तति, अष्ट सप्तति । द्वानवति, द्विनवति । त्रयोनवति, त्रिनवति । अष्टानवति, अष्टनवति ।
आवृत्ति दर्शक संख्यावाची शब्द 3. 'बार' अर्थ में संख्यावाचक शब्दों से कृत्वस् प्रत्यय होता है। द्वि त्रि और चतुर
से स् (सुच्) प्रत्यय होता है। ये नाम अव्यय रूप हैं। उदा. पञ्चकृत्वो भुङ्क्ते - पाँच बार खाता है
षट्कृत्वः, विंशतिकृत्वः, शतकृत्वः, कतिकृत्व: आदि । द्वि = दो बार त्रिः = तीन बार
चतुः = चार बार एक शब्द से 'बार' अर्थ में सकृत आदेश होता है । सकृत् = एक बार
संख्या पूरक शब्द 5. संख्यापूरण अर्थ में 1. संख्यावाचक शब्दों से अ (डट्) प्रत्यय होता है।
उदा. एकादश: ग्यारहवाँ, एकादशी-ग्यारहवीं
इसी प्रकार - द्वादशः द्वादशी । 2. विंशति आदि (नवनवति तम) शब्दों से विकल्प से तम (तमट्) होता है।
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आओ संस्कृत सीखें
2164 विंशते:पूरणः विंशतितमः, विकल्प से विंशः । (नियम १ से अ (डट्)
हुआ।
स्त्री लिंग में - विंशतितमी विंशी । एकविंशतितमः, एकविंशः
त्रिंशत्तमः, त्रिंशः, त्रिंशत्तमी-त्रिंशी आदि । 3. शत आदि सभी संख्यावाचक शब्दों से तथा मास, अर्धमास संवत्सर शब्दों
से तम (तम) ही होता है। उदा. शततमः, शततमी, एकशततमः, द्विशततमः, सहस्रतमः, सहस्रतमी आदि।
मासस्य पूरणः - मासतमोदिनः = महीने का अंतिम दिन। 4. प्रारंभ में संख्यावाचक शब्द न हो तो षष्टि, सप्तति, अशीति और नवति
शब्दों से तम (तमट्) ही होता है। उदा. षष्टितमः । ।सप्ततितमः । अशीतितमः । नवतितमः । नवतितमी
विपरीत उदा. : एकषष्टितमः। एकषष्टः। एकसप्ततितमः । एकसप्ततः । 5. आदि में संख्यावाचक शब्द जुड़े न हों ऐसे पञ्चन्, सप्तन्, अष्टन्, नवन्
और दशन् से म (मट्) प्रत्यय होता है । उदा. पञ्चमः, सप्तमः, अष्टमी, नवमी, दशमी परंतु एकादशः द्वादशः आदि । षष्, कति, कतिपय से थ (थट्) प्रत्यय होता है ।
उदा. षष्ठः, षष्ठी, कतिथः, कतिपयथी । 7. चतुर् से थ (थट्) तथा य व ईय भी होता है।
उदा. चतुर्थः, चतुर्थी । तुर्यः, तुरीयः । यहाँ चतुर के च का लोप होता है। 8. द्वि तथा त्रि से नीय होता है
द्वितीयः, तृतीय : । द्वितीया, तृतीया । यहां त्रि का तृ होता है । 9. तीय प्रत्ययांत नाम के रूप चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी व सप्तमी एक वचन में
विकल्प से सर्वनाम की तरह होते हैं। टिप्पणी : विंशति के ति का डित् प्रत्यय पर लोप होता है - विंशः ।
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आओ संस्कृत सीखें
पुं. लिंग
द्वितीयस्मै द्वितीयाय
अमर =
द्वितीयस्मात्, द्वितीयात्
द्वितीयस्य द्वितीयस्मिन् द्वितीये
अब्द =
अंश = भाग
देव
गच्छ = समुदाय जिनवर = जिनेश्वर
वर्ष
तीर्थंकर = तीर्थस्थापक
परिमल = सुगंध
1.
2.
3.
पुष्य = पुष्यनक्षत्र
मर्त्य = मनुष्य वास = निवास
4.
5.
(पुंलिंग)
अवसर्पिणी=उतरता काल (स्त्रीलिंग)
जल्प् गण - 1 (परस्मै ) = कहेना
165
स्त्रीलिंग
द्वितीयस्यै, द्वितीयोग द्वितीयस्याः, द्वितीयायाः
द्वितीयस्याः, द्वितीयायाः
द्वितीयस्याम्, द्वितीयायाम् शब्दार्थ
(पुंलिंग) धृति = धैर्य
(स्त्रीलिंग) ( नपुं. लिंग)
(पुंलिंग) पर्वन् = पर्व
(पुंलिंग) भवन = घर
( नपुं. लिंग)
(पुंलिंग) युग्म = जुड़ा हुआ, जोड़ा (नपुं. लिंग) (पुंलिंग) अतुल = बहुत ज्यादा (विशेषण) (पुंलिंग) अमर्षण = सहन नहीं करनेवाला (विशे.)
(पुंलिंग) ऋजु = सरल
(विशेषण)
(पुंलिंग) धवल = सफेद
(पुंलिंग)
युत = सहित
विश्रुत = प्रसिद्ध स्वाहा = मंत्राक्षर
(विशेषण)
(विशेषण)
(विशेषण)
(अव्यय)
संस्कृत में अनुवाद करो
इस राजा का सैन्य उस राजा के बीसवें भाग जितना भी नहीं है ।
इस दिन से छठे या सातवें दिन वह तुम्हारे नगर में आएगा ।
एक बार - दो बार नहीं किंतु सौ बार सीधी की गई (ऋजुकृतम्) कुत्ते की पूंछ सीधी नहीं रहती है । (स्था)
त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित के दश पर्व हैं, उनमें से चार पर्व मैं पढ़ा हूँ । (अधि + इ)
चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव और नौ प्रतिवासुदेव ये सब मिलकर तिरसठ शलाकापुरुष एक अवसर्पिणी और एक उत्सर्पिणी में होते हैं।
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10.
आओ संस्कृत सीखें
1166 6. स्त्रियों की चौसठ कलाएँ और पुरुषों की बहोत्तर कलाएँ हैं । 7. चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के दिन भगवान महावीर का जन्म हुआ। 8. यह पाठ कितने नंबर का है ! यह पाठ तुम कितनी बार पढ़े हो? 9. इस आचार्य के गच्छ में एक सौ आठ साधु हैं।
सत्तावीसवें वर्ष में मैं उसे अलग करूंगा । (मुच्) 11. प्रायः करके वह बयासी दिन यहाँ रहेगा। 12. भगवान महावीर बहोतरवें वर्ष में मोक्ष में गए ।
हिन्दी में अनुवाद करो 1. विनयेन विद्या ग्राह्या, पुष्कलेन धनेन वा ।
अथवा विद्यया विद्या, चतुर्थं नैव कारणम् ।। 2. प्रथमे वयसि ग्राह्या, विद्या सर्वात्मना बुधैः ।
धनार्जनं द्वितीये, तृतीये धर्मसङ्ग्रहः ।। 3. सकृज्जल्पन्ति राजानः, सकृज्जल्पन्ति साधवः ।
सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते, त्रीण्येतानि सकृत्सकृत् ।। 4. द्वात्रिंशल्लक्षणो मर्यो, विनायु नैव शस्यते ।
सरोवरं विना नीरं, पुष्पं परिमलं विना ॥ 5. द्वितीयस्यास्तृतीयाया नृपकीर्तेरमर्षणः ।
जगत्यस्मिन् द्वितीयस्मिंस्तृतीये चैष विश्रुतः ।। 6. देहीति वचनं श्रुत्वा, देहस्थाः पञ्च देवताः ।
नश्यन्ति तत्क्षणादेव श्रीहीधीधृतिकीर्तयः ॥ 7. सकृद् द्विस्त्रिचतुः पञ्चकृत्वो वागः सहेन्महान् ।
आरोग्यं प्रथमं द्वितीयकमिदं लक्ष्मीस्तृतीयं यशः, तुर्यं स्त्री पतिचित्तगा च विनयी पुत्रस्तथा पञ्चमम् । । षष्ठं भूपतिसौम्यदृष्टिरतुला वासोऽभयः सप्तमं,
सप्तैतानि सुखानि यस्य भवने धर्मप्रभावः स्फुटम् ।। .. 9. पालयेत्पञ्चवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत् ।
प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रमिवाचरेत् ।। 10. · षोडश विद्यादेव्यो रक्षन्तु वो नित्यं स्वाहा ।
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आओ संस्कृत सीखें
11. अपि द्वादशे चन्द्रे पुष्यः सर्वार्थसाधकः । 12. चतुर्विंशतिरपि जिनवरा: तीर्थंकरा मे प्रसीदन्तु । 13. सप्ततिशतं जिनानां सर्वामरपूजितं वन्दे । 14. इतो दिनाद् द्वाषष्टितमे दिने नृपो नूनं समेष्यति ।
15. इच्छति शती सहस्रं ससहस्रः कोटिमीहते कर्तुम् ।
167
कोटियुतोऽपि नृपत्वं नृपोऽपि बत चक्रवर्तित्वम् ।।
16. निर्वाणंगतस्य भगवतो महावीरस्याऽस्मिन्सप्ताधिकद्वि-सहस्त्रतमे (2007 तमे) वैक्रमेऽब्दे सप्तसप्तत्युत्तरैश्चतुश्शतै- रधिके द्वे सहस्रे संवत्सराणां संजाते।
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आओ संस्कृत सीखें
1168
ल FB
आथे
आते
पाँचवा प्रकरण | पाठ - 24
परोक्ष भूतकाल
परोक्ष भूतकाल परस्मैपदी के प्रत्यय प्रथम पुरुष अ (णव्) व द्वितीय पुरुष थ (थव्) अथुस् तृतीय पुरुष अ (ण) अतुस्
आत्मनेपदी प्रत्यय प्रथम पुरुष ए
वहे द्वितीय पुरुष तृतीय पुरुष परोक्षा के प्रत्यय लगने पर धातु द्वित्व होता है, परंतु स्वरादि प्रत्यय हो तो पहले द्वित्व करे, फिर स्वर संबंधी कार्य करे । उदा. भण् + अ (ण)
भण भण् + अ भभण् + अ
बभण् + अ = बभाण । 2. इन्ध् धातु से तथा जिसके अंत में संयोग न हो ऐसे धातुओं से वित् सिवाय के
परोक्षा के प्रत्यय कित् जैसे होते है, परंतु स्वञ् धातु से विकल्प से कित् होते हैं। उदा.
सम् + इन्ध् + ए = समीधे ।
परिषस्वजे, परिषस्वजे । कित् होने से न् का लोप हुआ । भिद् का बिभिदतुः (कित् होने से गुण नहीं हुआ)
बिभेद (यहाँ प्रत्यय कित् नहीं वित् होने से गुण हुआ) 3. प्रथम पुरुष एकवचन का अ (णव्) प्रत्यय विकल्प से णित् होता है। णित् होने पर वृद्धि होगी।
श्रि - शिश्राय ।
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आओ संस्कृत सीखें
1691
बिभिदथुः बिभिदतुः
बिभिदुः
रुरुध
4. कृ, सृ, वृ, भृ, स्तृ, श्रु तथा सु इन आठ धातुओं को छोडकर प्रत्येक धातु से परोक्षा के व्यंजनादि प्रत्यय के पहले इ (इट्) होता है ।
भण के रूप प्रथम पुरुष बभण, बभाण बभणिव बभणिम द्वितीय पुरुष बभणिथ बभणथुः बभण तृतीय पुरुष बभाण
बभणतुः
बभणुः भिद् के रूप प्रथम पुरुष बिभेद बिभिदिव
बिभिदिम द्वितीय पुरुष बिभेदिथ
बिभिद तृतीय पुरुष बिभेद
रुध् धातु के रूप प्रथम पुरुष रुरोध
रुरधिव
रुरधिम द्वितीय पुरुष रुरोधिथ - रुरुधथु: तृतीय पुरुष रुरोध रुरुधतुः रुरुधुः
रुध् धातु के रूप प्रथम पुरुष रुरुधे ।
रुरुधिवहे रुरुधिमहे द्वितीय पुरुष रुरुधिषे रुरुधाथे
रुरुधिध्वे तृतीय पुरुष रुरुधे
रुरुधाते
सम् + इन्ध् के रूप प्रथम पुरुष समीधे समीधिवहे समीधिमहे द्वितीय पुरुष समीधिषे समीधाथे
समीधिध्वे तृतीय पुरुष समीधे समीधाते समीधिरे
संस् के रूप प्रथम पुरुष सञसे सम्रंसिवहे
सस्रंसिमहे द्वितीय पुरुष सम्रंसिषे ससंसाथे सस्रसिध्वे
तृतीय पुरुष सस्रुषे सलंसाते सस्रंसिरे टिप्पणी : कृ धातु के पहले स् आए तब इ होती है । उदा. सञ्चस्करिव
रुरुधिरे
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आओ संस्कृत सीखें
170
5. द्वित्व होने के बाद पहले के ऋ का अ होता है । उदा. सृ + अ (णव्) सृसृ + अ
स सृ + अ = ससार । 6. द्वित्व होने के.बाद पूर्व के शिट् का अघोष व्यंजन पर लोप होता है। उदा. स्पृश् + अ .
स्पृश् स्पृश् + अ
पृश् स्पृश् + अ + पृस्पृश् + अ = पस्पर्श । 7. द्वित्व होने के बाद पूर्व के क का च होता है । उदा. कृ - कृ + अ कृकृ + अ - ककृ + अ = चकृ + अ = चकार
इष् के रूप इयेष
ईषिम इयेषिथ इयेष
सृ के रूप ससर, ससार
ससृव ससर्थ
सस्रथुः ससार
सस्रतुः
सस्रुः 8. रकारांत धातु तथा नाम्यंत धातु परोक्षा, अद्यतनी और आशीर्वाद के प्रत्यय के ध् का द होता है।
कृ के रूप - परस्मैपदी चकर, चकार चकृव
चकृम चकर्थ
चक्रथुः
चक्र
ईषिव ईषथुः ईषतुः
सन
चकार
चक्रतुः
चक्रुः
चक्रे चकृषे
कृ - आत्मनेपदी
चकृवहे चक्राथे
चकृमहे चकृढ्वे चक्रिरे
चक्रे
चक्राते
* *
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आओ संस्कृत सीखें
1171
तुष्टम
तुष्टव तुष्टाव तुष्टोथ तुष्टाव
स्तु - परस्मैपदी
तुष्टुव तुष्टुवथुः
तुष्टुवतुः स्तु - आत्मनेपदी
तुष्टुवहे
तुष्टुव तुष्टवुः
तुष्टुवे
तुष्टुमहे तुष्टवे
तुष्टुषे
तुष्टुवाथे
जगृहतुः
जगृहुः
तुष्टुवाते तुष्टुविरे 9. ह्कारांत और अंतस्था अंतवाले धातु के बाद इ (बिट्) या इ (इट्) हो तो उसके
बाद रहे परोक्षा, अद्यतनी और आशीर्वाद के प्रत्यय के ध् का द् विकल्प से होता है।
ग्रह के रूप - परस्मैपदी (पाठ 4 नियम 5) जग्रह, जग्राह जगृहिव जगृहिम जग्रहिथ
जगृहथुः जगृह जग्राह
आत्मनेपदी जगृहिवहे
जगृहिमहे जगृहिषे जगृहाथे जगृहिवे, ध्वे जगृहे
जगृहाते जगृहिरे त्वर के रूप - आत्मनेपदी तत्वरे
तत्वरिवहे तत्वरिमहे तत्वरिषे
तत्वराथे तत्वरिध्वे, वे
तत्वराते तत्वरिरे शी - आत्मनेपदी (पाठ 14, नियम 15) शिश्ये
शिश्यिवहे . शिश्यिमहे शिश्यिषे शिश्याथे
शिश्यित्वे, ध्वे शिश्य शिश्याते
शिश्यिरे
जगृहे
तत्वरे
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आओ संस्कृत सीखें
21723
श्रि - परस्मैपदी (पाठ 14, नियम 17) शिश्रय, शिश्राय शिश्रियिव शिश्रियिम शिश्रियिथ शिश्रियथुः शिश्रिय शिश्राय शिश्रियतुः
शिश्रियुः श्रि - आत्मनेपदी शिश्रिये
शिश्रियिवहे शिश्रियिमहे शिश्रियिषे शिश्रियाथे शिश्रियिढ्वे, ध्वे शिश्रिये
शिश्रियाते शिश्रियिरे
लू - परस्मैपदी लुलव, लुलाव लुलुविव लुलुविम लुलविथ लुलुवथुः लुलुव लुलाव
लुलुवतुः लुलुवुः लू - आत्मनेपदी
लुलुविवहे लुलुविमहे
लुलुवाथे लुलुविवे, ध्वे लुलुवे लुलुवाते
लुलुविरे 10. सृज, दृश्, स्कृ धातु से, स्वरांत अनिट् धातुओं से तथा जिसमें अ हो ऐसे
अनिट् धातुओं से थ के पहले विकल्प से इ (इट) होता हैं। उदा. सृज् - सस्रष्ठ, ससर्जिथ ।
दृश् - दद्रष्ठ, ददर्शिथ । स्कृ - सञ्चस्कर्थ, सञ्चस्करिथ । नी - निनेथ, निनयिथ । त्यज् - तत्यक्थ, तत्यजिथ ।
सञ्ज - ससङ्क्थ, ससञ्जिथ । 11. ह्रस्व ऋकारांत अनिट् धातुओं से थ के पहले इ नहीं होती है।
उदा. ह्र = जहर्थ । 12. क्र, वृ, व्ये और अद् धातु से थ के पहले इ होती है ।
उदा. आरिथ, ववरिथ, संविव्ययिथ, आदिथ ।
लुलुवे लुलुविषे
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आओ संस्कृत सीखें
11733
नी के रूप परस्मैपदी
निन्यिव
निनय, निनाय निनेथ, निनयिथ निनाय
निन्यिम निन्य
निन्यथुः निन्यतुः
निन्युः
निन्ये निन्यिषे
निन्यिमहे निन्यिदवे, ध्वे निन्यिरे
निन्ये
आत्मनेपदी निन्यिवहे निन्याथे
निन्याते सृज् - परस्मैपदी
ससृजिव ससृजथुः ससृजतुः
ससर्ज
सस्रष्ठ, ससर्जिथ ससर्ज
ससृजिम ससृज ससृजुः
ददृशिम
ददर्श दद्रष्ठ, ददर्शिथ ददर्श
ददृशिव ददृशथुः
ददृश ददशुः
ददृशतुः
प्रच्छ
पप्रच्छ पप्रष्ठ, पप्रच्छिथ
पप्रच्छिम पप्रच्छ पप्रच्छुः
पप्रच्छ
ममज्ज ममक्थ, ममज्जिथ ममज्ज
पप्रच्छिव पप्रच्छथः पप्रच्छतुः मस्ज् ममज्जिव ममज्जथुः
ममज्जतुः भ्रस्ज् - परस्मैपदी
बभ्रज्जिव बभ्रज्जथुः बभ्रज्जतु:
ममज्जिम ममज्ज ममज्जुः
बभ्रज्ज बभ्रष्ठ, बभ्रज्जिथ बभ्रज्ज
बभ्रज्जिम बभ्रज्ज बभ्रज्जुः
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आओ संस्कृत सीखें
*174
बभर्ज
बभर्छ, बभर्जिथ बभर्ज
बभर्ज
आत्मनेपदी बभर्जिव
बभर्जिम बभर्जथुः बभर्जतुः बभर्तुः आत्मनेपदी बभ्रज्जिवहे, बभर्जिवहे बभ्रज्जिमहे, बभर्जिमहे
बबन्धिव, बबन्धिम बबन्धिथ, बबन्ध्ध
बभ्रज्जे, बभर्जे बन्ध्, बबन्ध
मुमोह मुमोहिथ मुमोह
मुमुहिव
मुमुहिम मुमुहथुः
मुमुह मुमुहतुः
मुमुहुः
व्रश्च वव्रश्च
वव्रश्चिव
ववश्चिम वव्रश्चिथ
वव्रश्चथुः
वतश्च वव्रश्च
वव्रश्चतुः
वव्रश्चुः
तृप् ततर्प
ततृपिव
ततृपिम ततर्पिथ
ततृपथुः
ततृप ततृपतुः
- ततृपुः मृज्
ममार्जिव, ममृजिव ममार्जिम, ममृजिम ममार्जिथ ममार्जथुः, ममृजथुः ममार्ज, ममृज
ममार्जतुः, ममृजतुः ममार्जुः, ममृजुः टिप्पणी : वेट् धातुओं को अन्य व्याकरण के मत से विकल्प से इट् होती है।
उदा. वव्रश्चिव, वव्रश्च्व । वव्रश्चिम, वव्रश्च्म । वव्रश्चिथ, वव्रष्ठ मुमुहिव, मुमुह्व, मुमुहिम, मुमुहू । मुमोहिथ, मुमोग्ध, मुमोढ । इसी तरह द्रुह, स्नुह् और स्निह् । ततृपिव, ततृप्व, ततर्यिथ, ततर्थ, तत्रस्थ इसी तरह दृप् । मृज् - मृजिव, ममृज्व, ममार्जिथ, ममार्छ
ततर्प
ममार्ज
ममार्ज
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आओ संस्कृत सीखें
175
कर्मणि-भावे प्रयोग : कर्मणि व भावे प्रयोग में धातु से आत्मनेपद के प्रत्यय लगते हैं । उदा. सृ - सस्रे ।
रुध् - रुरुधे ।
संस् = सस्रंसे । 11. चित्तविक्षेप आदि कारण से क्रिया का स्मरण न हो अथवा की हुई क्रिया को
छिपाना हो तो अद्यतनी (आज) सिवाय के भूतकाल में धातु से परोक्षा प्रत्यय लगते हैं । उदा. 1) सुप्तोऽहं किल विललाप ।
वास्तव में सोते हुए मैंने विलाप किया । 2) मत्तोऽहं किल विचचार ।
वास्तव में उन्मत्त होकर मैं भटका हूँ।
(दूसरों के कहने से विश्वास में आकर कर्ता यह प्रयोग करता है) 3) कलिङ्गेषु ब्राह्मणो हतस्त्वया
कलिंग देश में तुमने ब्राह्मण को मारा हैं 4) नाहं कलिङान्जगाम
__ मैं कलिंग देशमें नही गया। 14. अद्यतन (आज) सिवाय के परोक्ष (स्वयं ने नहीं देखे) भूतकाल में धातु से
परोक्षा के प्रत्यय लगते हैं। उदा. धर्मं दिदेश तीर्थंकरः - तीर्थंकर ने धर्म का उपदेश दिया ।
कंसं जघान कृष्णः - कृष्ण ने कंस को मारा । 15. परोक्ष भूतकाल में परीक्षा की विवक्षा न करे तो ह्यस्तनी होता है । . अभवत् सगरो राजा - सगर राजा हुए
शब्दार्थ इषुधि = बाण (पुंलिंग-स्त्री) | दारक = पुत्र
(पुंलिंग) चाप = धनुष (पुंलिंग-नपुं.) | पक्ष = पंख (पुंलिंग) झंझावात = प्रचंड पवन (पुंलिंग) | प्रलम्बघ्न = कृष्ण
(पुंलिंग)
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आओ संस्कृत सीखें
1176
भास्कर = सूर्य (पुंलिंग) | पङ्कज = कमल (नपुं. लिंग) समर = युद्ध
(पुंलिंग)| हर्म्य = हवेली (नपुं. लिंग) हाहाकार = हाहाकार (पुंलिंग)| उत्तरीय = खेश (नपुं. लिंग) रुच् = कांति (स्त्री लिंग)| चारु = सुंदर (विशेषण) वर्तनी = मार्ग (स्त्री लिंग)| सित = सफेद (विशेषण) अन्तःपुर = अंतपुर (नपुं. लिंग)| हाहा = हाहाकार (अव्यय)
धातु अर्थ क्रन्द् = पुकार करना गण १ परस्मैपदी सम् + क्रम् = गिरना गण १ परस्मैपदी गुञ् = गुंजन करना गण १ परस्मैपदी निर् + नी = निर्णय करना गण १ परस्मैपदी नाथ् = प्रार्थना करना गण १ परस्मैपदी
संस्कृत में अनुवाद करो 1. स्वयंवर में भीमराज की पुत्री दमयंती ने नल का वरण किया (वृ) 2. अनुरागी (अनुरक्त) लोग हाहाकार करने लगे । उस हाहाकार को सुनकर वहाँ
आकर दमयंती बोली (गद्), ‘नाथ ! आपको प्रार्थना करती हूँ कि आप मुझ पर
प्रसन्न बनो और द्यूत को छोड़ो । 3. नल ने उसकी बात नहीं सुनी (श्रु) और उसे देखा भी नहीं । (दृश्) 4. नल ने अपने भाई पुष्कर के साथ जुआ खेला । (दिव्) 5. सीता ने सोने का मृग देखा (दृश) और राम उसे पकड़ने के लिए दौड़ा । (धाव) 6. रावण सीता का हरण कर लंका में ले आया । (आ + नी) 7. राम ने रावण के साथ युद्ध किया और बहुत से योद्धा मारे गए । (मृ) 8. लक्ष्मण को मरा हुआ जानकर अंत:पुर की स्त्रियाँ क्रंदन करने लगी ! (क्रन्द) 9. सीता को असती जानकर राम ने उसका त्याग किया था ! (त्यज्) 10. पके हुए धान्य को किसानों ने काट लिया । (लू) 11. भगवान का जन्म जानकर इन्द्र ने अपने सिंहासन से सात-आठ कदम दूर जाकर
भगवान की स्तुति की (स्तु) । 12. प्रचंड पवन ने बगीचे के सभी वृक्ष नष्ट कर दिए (भञ्) ।
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आओ संस्कृत सीखें
4.
हिन्दी में अनुवाद करो
1. न तज्जलं यन्न सुचारुपङ्कजम्, न पङ्कजं तद् यदलीनषट्पदम् । न षट्पदोऽसौ कलगुञ्जितो न यो न गुञ्जितं तन्न जहार यन्मनः ।। 2. हिरण्यकशिपु दैत्यो यां यां स्मित्वाऽप्युदैक्षत । भयभ्रान्तैः सुरैश्चक्रे तस्यै तस्यै दिशे नमः ।।
3. ददृशाते जनैस्तत्र यात्रायां सकुतूहलैः ।
बलभद्रप्रलम्बघ्नौ पक्षाविव सिताऽसितौ ॥ प्रणमन्तं च राजानं ऋषि: पस्पर्श पाणिना । मार्जन्निव तदङ्गेषु संक्रान्त - वर्तनीरज: ।। 5. तत्राऽऽश्रमे विविशतु भ्रातरौ तावुभावपि । तातं चाऽग्रे ददृशतु र्नयनाम्भोजभास्करम् ।। ततश्च नवभिर्मासैः सार्ध - सप्तदिनाधिकैः । धारिणी सुषुवे सूनुं न्यूनीकृतरविं रुचा ।। तं सार्थं लुटितुं तत्र चौरव्याघ्रा दधाविरे । मृगवच्च, पलायन्त सर्वे सार्थनिवासिनः ।। 8. विवाहलग्नं निर्णिन्ये तद्दिनात्सप्तमे दिने ।
7.
9.
177
6.
उपजात - विस्मयो नरपति र्निरीक्ष्य चक्षुषा निश्चलेन तं हारमुत्तरीयाञ्चलैकदेशे बबन्ध ।
10. क्षितिपालदारकैः सह क्रीडासुखमनेकप्रकारमनुभवतो निरङ्कुशप्रचारस्य पञ्चवर्षाणि तस्य बालस्यान्तःपुरेऽतिचक्रमुः ।
11. समरेष्वस्य वैरिभिश्चारु चापेषुधी त्यक्त्वा गुरु अबलता - भीती शिश्रियाते ।
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आओ संस्कृत सीखें
1.
2.
3.
4.
5.
178
पाठ
25
परोक्ष भूतकाल
परोक्षा प्रत्यय पर द्वित्व होने के बाद पहले के अ का आ होता है । अ) उदा. अट् + अ (णव)
-
अ । अट् + अ = आ अट् + अ = आट । आटतुः, आटुः ब) ऋकारादि धातु, अश् धातु तथा संयोगांत धातु के पूर्व के अ का आ होता है और फिर न् जुड़ता है। परंतु आ के स्थान पर रहे अ का आ नहीं होता है।
ऋध् + अ (णव्)
अ ऋध् + अ = आन् ऋध् + अ = आनर्ध । आनृधतुः। आनृधुः । अनार्धिथ अश् का आनशे ।
अञ्ज् - आनञ्ज, आनञ्जिथ । परंतु आञ्छ् का आच्छ ।
क) भू और स्वप् धातु के पूर्व के स्वर का क्रमश: अ और उ होता है । भू + अ (णव्) । ब भू + अ = ब भाव् + अ = बभाव
परोक्षा और अद्यतनी में व् अंतवाले भू धातु के उपांत्य स्वर का दीर्घ ऊ होता है। उदा. बभूव। बभूवतुः। बभूवुः । बभुविथ ।
अ (ङ) सिवाय के प्रत्ययों पर द्वित्व के बाद, हि और हन् धातु के पूर्व से पर रहे ह् का घ होता है ।
उदा. हि का जिघाय ।
हन् का जघन्थ,
घनिथ ।
अ (णव्) प्रत्यय पर हन् का घन् आदेश होता है ।
उदा. जघान
स (सन्) तथा परोक्षा में, द्वित्व होने के बाद
अ) जि धातु के पूर्व से पर रहे जि का गि होता है । उदा. विजिग्ये । जिगाय ।
ब) चि
धातु के पूर्व से पर रहे चि का कि विकल्प से होता हैं । उदा. चिकाय, चिचाय ।
चिकयिथ चिकेथ ।
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आओ संस्कृत सीखें
11791
..
चिचयिथ, चिचेथ । .
चिक्ये, चिच्ये । 6. गम्, हन्, जन्, खन् और घस् धातु के उपांत्य स्वर का अ (अङ्) सिवाय के
स्वरादि किंत् ङित् प्रत्ययों पर लोप होता है। उदा. गम् + उस्
जगम् + उस् = जग्मुः। जग्मिव । हन् - जघ्नुः - घ्नन्ति । जन् - जज्ञे । खन् - चख्नुः ।
घस् - जक्षुः । परंतु जगमिथ, जगन्थ । जघनिथ - जघन्थ। चखनिथ। जघसिथ-जधस्थ। जगम, जगाम यहाँ कित् ङित् प्रत्यय नहीं होने से उपांत्य स्वर का लोप नहीं होगा । अद् धातु का परीक्षा में विकल्प से घस् होता है -
उदा. जघसिथ, जक्षथुः । विकल्प में - आदिथ, आदथुः । 8. इ (जाना) धातु के इ का स्वरादि प्रत्ययों पर इय् होता है । उदा. इ + अतुस्
इ इ + अतुस् इइय् + अतुस् = ईयतुः ।
इयय, इयाय, ईयिव, इययिथ, इयेथ । 9. शित् सिवाय के कित् ङित् स्वरादि प्रत्यय तथा इ (इट्) और उस् (पुस्) प्रत्ययों
पर आकारांत धातु के आ का लोप होता है ।
उदा. पपिव, पपिथ, पपुः । 10. आ कार के बाद अ (णव्) प्रत्यय का औ होता हैं ।
पा - कर्तरि में पपौ पपिव
पपिम पपिथ, पपाथ
पप पपौ
पपतुः
पपथुः
पपु:
Page #206
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पपे
पा - कर्मणि में पपिवहे
पपिमहे पपिषे पपाथे
पपिध्वे पपाते
पपिरे ध्यै का ध्या - दध्यौ आदि रूप होंगे । 11. इ - (पढ़ना) धातु का परीक्षा में गा आदेश होता हैं ।
उदा. अधिजगे, अधिजगिवहे, अधिजगिमहे । 12. वस् (क्वसु) तथा आन (कान) इन दो कृत् प्रत्ययों को छोड़कर परोक्षा में अ) स्कृ, कृच्छ् और दीर्घ ऋकारांत धातु के नामि स्वर का गुण होता है । उदा. सञ्चस्करिव, आनर्च्छिव ।
वि + कृ = विचकरिव । ब) संयोग के बाद ह्रस्व ऋ अंत में हो ऐसे धातु तथा ऋ धातु का गुण होता है।
उदा. सस्मरथुः, आरथुः । स्कृ - सञ्चस्कर, सञ्चस्कार, सञ्चस्करिव सञ्चस्करिथ आदि ऋच्छ् - आनछे, आनर्च्छिव, आनर्च्छिथ । वि + कृ - विचकर, विचकार, विचकरिव, विचकरिथ । स्मृ - सस्मर, सस्मार, सस्मरिव, सस्मर्थ ।
कृ - आर, आरतुः, आरिथ आदि 13. शू, दृ व पृ धातु का दीर्घ ऋ परोक्षा में विकल्प से ह्रस्व होता है । उदा. ह्रस्व हो तब विशश्रुः अन्यथा विशशरुः
शृ के रूप शशर, शशार शश्रिव, शशरिव शश्रिम, शशरिम शशरिथ शश्रथुः, शशरथुः মা, মামা शशार.
शश्रतुः शशरतुः शश्रुः, शशरुः 14. कुट्, स्फुट्, त्रुट्, स्फुर्, नू और धू आदि कुटादि छठे गंण के धातुओं से जित् और
णित् सिवाय के सभी प्रत्यय ङित् समान होते हैं । उदा. कुटिता, कुटितुम्, कुटितव्यम्, कुटित्वा । नुविता, नुवितुम् आदि परोक्षा में प्रथम पुरुष एकवचन का प्रत्यय विकल्प से णित् है अतः विकल्प से
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ङित् होगा। अत: विकल्प से गुण-वृद्धि होगी । उदा. उच्चुकुट, उच्चुकोट । नुनुव, नुनाव । उच्चुकुटिव, उच्चुकुटिथ । नुनुविव, नुनुविथ ।
शब्दार्थ अर्भक = बालक (पुंलिंग)। पारण = तप पूर्ण करना (नपुं. लिंग) द्विज् = ब्राह्मण, दाँत (पुंलिंग)| माल्य = माला (नपुं. लिंग) राशि = मेष आदि (पुंलिंग)| वाचिक = संदेश (नपुं. लिंग) सेनानी = सेनापति (पुंलिंग)| शश्वत् = हमेशा (नपुं. लिंग)
धातुएँ घस् = खाना (गण 1 परस्मैपदी) प्र + क्रम् = प्रारंभ करना
आ + छिद् = छीन लेना (गण 1) वि + अति + इ = बिताना गण 2 . नि+कृ= पराभव करना (गण 8 उभय.)| वि + कृ = बिखरना (गण 6 परस्मैपदी)
संस्कृत में अनुवाद करो 1. नल और दमयंती वन में भटके । (अ) 2. कृष्ण ने कंस को मारा । (हन्) 3. राम ने रावण को जीता । (जि) . 4. द्रोणाचार्य के पास अर्जुन ने धनुर्विद्या सीखी । (अधि + इ)
जिस प्रकार संप्रति महान् जैन राजा बना, उसी प्रकार कुमारपाल भी महान् जैन
राजा हुआ । (भू) 6. चाणक्य ने नंद का राज्य लेने का (आच्छेतुम्) निश्चय किया । (निस् + चि) 7. अपने आसन के कंपन से इन्द्र ने प्रभु के जन्म को जाना । (ज्ञा) 8. भगवान के जन्म महोत्सव के प्रसंग पर स्वर्ग में से आते हए असंख्य देवों से
आकाश व्याप्त हो गया । (वि + अश्) (ग.5.आ.) 9. इन्द्र ने अपनी सभा में महावीर की वीरता की प्रशंसा की (नू) और देवों ने अपने
मस्तक धुनाए । (धू) 10. सीता ने सेनापति के मुख से राम को संदेश भेजा । (प्र + हि) 11. राम के राज्य को किसने याद नहीं किया? (स्मृ)
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182
. हिन्दी में अनुवाद करो . 1. अहो द्विज ! त्वया कलिङ्गेषु द्विजो हतः ? हे विभो ! नाहं कलिङ्गान्जगाम,
'ननु प्रया कलिङ्गेषु ब्राह्मणो हतः' इति त्वया सुप्तेन प्रलपितं
तत्कथमिदमुच्यते, सुप्तोऽहं यद्विललाप तदनृतम् । 2. तथा किं न विवेदिथै नं यथा स लवणो नाम दानवो विप्रानिचकार जघान
शश्वद् बुभुजे च । । 3. 'अतिवरीयसे वराय वयं प्रदत्ताः स्म' इति जज्ञिरे ता: कन्या मुदममन्दां
च दधुः। 4. त्वचं कर्णः शिबि सं जीवं जीमूत-वाहनः ।
ददौ दधिचिरस्थीनि, नास्त्यदेयं महात्मनाम् ।। 5. तत्राश्रमे दम्पती तौ, लालयन्तौ मृगार्भकान् ।
तपःकष्टमजानन्तौ, कश्चित्कालं व्यतीयतुः ।। बुभुजे न भोज्यानि, पेयान्यपि पपौ न सः।
अवतस्थे च मौनेन, योगीव ध्यान-तत्परः ।। 7. तस्य रत्नाभरणानि, निस्तेजस्कानि जज्ञिरे ।
मम्लुश्च मौलिमाल्यानि तद्वियोगभयादिव ।। 8. ते विजहुः पुरि पुरो, ग्रामे ग्रामाद्वने वनात् ।
तिष्ठन्तो नियतं कालं, राशौ राशेरिव ग्रहाः ।। 9. अपीडयन्तो दातारं, प्राणधारणकारणात् ।
पारणे जगृहु भिक्षां, ते मधुव्रतवृत्तयः ॥ . 10. सेनाङ्गानीव चत्वारि, मोहराजस्य सर्वतः ।
चतुरोऽपि कषायांस्ते, जिग्युरस्त्रैः क्षमादिभिः ॥ .
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पाठ
26
परोक्ष भूतकाल
1. अवित् परोक्षा तथा सेट् थ (थव्) पर प्रारंभ में रहे व्यंजन का आदेश न होता हो ऐसे धातु के दो असंयुक्त व्यंजन के मध्य में रहे स्वर अ का ए होता है तथा द्विरुक्ति नहीं होती है।
2.
उदा. पेचुः । पेचिथ । नेमुः । नेमिथ ।
पपाच
पपच, पेचिथ, पपक्थ
पपाच
183
विपरीत दृष्टांत : बभणतुः । ततक्षिथ । दिदिवतुः । पपक्थ ।
उदा. लृ + उस्
-
ततर, ततार
तेरिथ
ततार
बभज,
बभाज
भेजिथ, बभक्थ
बभाज
यच् के रूप
पेचिव
पेचथुः
पेचतुः
रूप
शिव
नेशथुः
शतुः
ननश, ननाश
शिथ
ननाश
शुः
तॄ, त्रप्, फल् तथा भज् धातुओं के स्वर का ए होता है तथा द्विरूक्ति नहीं
होती है।
तर् + उस् = तेर् + उस् = तेरुः । तेरिथ ।
त्रेपे । फेलुः। फेलिथ । भेजुः । भेजिथ ।
तृ के रूप
तेरिव
पेचिम
पेच
पेचुः
तेरथुः
तेरतुः
भज् के रूप
भेजिव
भेजथुः
भेजतुः
शिम
नेश
तेरिम
तेर
तेरु:
भेजिम
भेज
भेजुः
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.
3. ज, भ्रम्, वम्, त्रस्, फण, स्यम्, स्वन्, राज्, भ्राज्, भ्रास्, और भ्लास् - इन
धातुओं के स्वर का विकल्प से ए होता है। ए होने पर द्विरुक्ति नहीं होती है । उदा. जेरु: जजरु: । जेरिथ, जजरिथ ।
भ्रेमुः, बभ्रमुः । भ्रमिथ, बभ्रमिथ । वेमुः, ववमुः, वेमिथ-ववमिथ । त्रेसुः, तत्रसुः। त्रेसिथ, तत्रसिथ । फेणिथ, पफणिथ । स्येमुः, सस्यमुः । फेणुः, पफणुः, स्वेनुः सस्वनुः । स्वेनिथ-सस्वनिथ। स्येमिथ, सस्यमिथ। रेजुः, रराजुः, रेजिथ, रराजिथ । भ्रेजे, बभ्राजे, भ्रसे, बभ्रासे ।
भ्लेसे - बभ्लासे । 4. श्रन्थ् और ग्रन्थ् धातु के स्वर का विकल्प से ए होता है, ए होने पर न् का लोप
होता है और द्विरुक्ति नहीं होती है। उदा. श्रेथुः शश्रन्थुः, श्रेथिथ शश्रन्थिथ ।
ग्रेथुः जग्रन्थुः, ग्रेथिथ, जग्रन्थिथ । 5. शस्, दद् तथा व से प्रारंभ होनेवाले धातु तथा गुणवाले धातुओं के स्वर अ का
ए नहीं होता है। उदा. विशशसुः, विशशसिथ । दददे ।
वल् - ववले । शृ - विशशरुः, विशशरिथ ।
य्वृत् विधान 6. यज् आदि (यजादि) धातु, वश् तथा वच् धातु का परीक्षा में द्वित्व होने के बाद
पूर्व के स्वर सहित अंतस्था इ. उ तथा ऋ (यवृत्) होता है। उदा. 1) यज् + अ
यज्यज् + अ .
ययज् + अ = इयाज । 2) यज् + उस् - कित् प्रत्यय पर य्वृत् होता है ।
यज् + उस् इज् + उस् इज् इज् + उस् = ईजुः ।
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आओ संस्कृत सीखें
4.
5.
इयज, इयाज
इयजिथ,
इयाज
ईजे
ईजिषे
ईजे
इयष्ठ
185
विव्यय,
विव्ययिथ
विव्याय
यज् - परस्मैपदी
ईजिव
ईजथुः
ईजतुः
विव्ये
विव्यिषे
विव्ये
यज् – आत्मनेपदी
जव
विव्याय
जाते.
ऊपे ।
वप् उवप, उवाप । ऊपिव । उवपिथ, उवप्थ, वह् उवह, उवाह । ऊहिव । उवहिथ, उवोढ, ऊहे । वद् उवद, उवाद । ऊदिव । उवदिथ, ऊदथुः ।
वस् उवस, उवास । ऊषिव । उवसिथ, उवस्थ, ऊषथुः । 1 वश् उवश, उवाश । ऊशिव । उवशिथ ।
वच् उवच, उवाच । ऊचिव । उवचिथ, उवक्थ, ऊचथुः व्ये धातु
परोक्षा में द्वित्व होने पर ज्या, व्ये, व्यधू, व्यच् और व्यथ् धातुओं के पूर्व के स्वर काइ होता है । उदा. संविव्याय ।
ईजिम
ईज
ईजु:
ईजिम
धातु के संध्यक्षर का थ (थव्) तथा अ (णव्) प्रत्यय पर आ नहीं होता है । उदा. संविव्ययिथ, संविव्याय ।
जिवे
व्ये + अतुस्, वि + अतुस् वि वि + अतुस् = विव्यतुः ।
व्ये के रूप - परस्मैपदी
विव्यिव
विव्यथुः
विव्यतुः
आत्मनेपदी
विव्यिव
विव्याथे
विव्याते
ईजिरे
विव्यिम
विव्य
विव्युः
विव्यिमहे
विव्यिदवे, ध्वे
विव्यिरे
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वे धातु 6. वे धातु का परीक्षा में विकल्प से वय होता है -
___उवाय, उवयिथ । वय् + अतुस् - उय् + अतुस् 7. वय के य् का स्वृत् नहीं होता है। . उय् उय् + अतुस् ।
उउय् + अतुस् = ऊयतुः । ऊयुः । 8. 1) वय का य्वृत् होता है, परंतु वे का नहीं होता है - ववौ । 2) अवित् प्रत्ययों पर वे का विकल्प से य्वृत् होता है। उदा. वे + अतुस् । उ + अतुस् ।
उउ + अतुस् = उउव् + अतुस् = ऊवतुः । ऊवुः । अथवा वे + अतुस् । वा + अतुस् ।
वावा + अतुस् । ववा + अतुस् । वव् + अतुस् = ववतुः, ववुः ।
वे के रूप वे - ववौ । वविव, ऊविव । ववाथ, वविथ
उवय, उवाय । ऊयिव, उवयिथ ऊवे, वविवहे - ऊविवहे
ऊये, ऊयिवहे । 9. ह्वे धातु का द्वित्व के प्रसंग में य्वृत् होता है।
ढे के रूप जुहव, जुहाव
जुहुविवं जुहविथ, जुहोथ
जुहुव जुहाव
जुहुवतुः जुहुवुः आत्मनेपदी जुहुविवहे
जुहुविमहे जुहुविषे
जुहुवाथे
जुहुविध्वे, वे जुहुवे
जुहुविम
जुहुवथुः
जुहुवे
जुहुवाते
जुहुविरे
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शुशुव
शुशुवुः
आओ संस्कृत सीखें- +1873, 10. श्वि धातु का परीक्षा में विकल्प से य्वत् होता है।
श्वि के रूप शुशव, शुशाव
शुशुविव
शुशुविम शुशविथ
शुशुवथु: शुशाव
शुशुवतुः
विकल्प से रूप शिश्वय, शिश्वाय
शिश्वियिव शिश्वियिम शिश्वयिथ
शिश्वियथुः
शिश्विय शिश्वाय
शिश्वियतुः .. शिश्वियुः ज्या + अ (ण) ज्याज्या + अ जज्या + अ जिज्या + अ = जिज्यौ, जिज्यिव, जिज्यिम, जिज्यिथ, जिज्याथ । व्यध् का - विव्यध, विव्याध, विविधिव, विव्यधिथ, विव्यद्ध । व्यच् - विव्यच, विव्याच, विविचिव, विव्यचिथ । व्यथ् - विव्यथे, विव्यथिवहे, विव्यथिमहे ।
स्वप् के रूप सुष्वप, सुष्वाप
सुषुपिव
सुषुपिम सुष्वपिथ, सुष्वप्थ
सुषुपथुः
सुषुप सुष्वाप
सुषुपतुः
आम् विधान 11. अनेकस्वरी धातुओं का परीक्षा के प्रत्यय के बदले आम् लगता है और उसके
बाद कृ, भू और अस् में से किसी एक के परोक्षा के रूप जुड़ते हैं। 12. आम् के पहले धातु परस्मैपदी हो तो परस्मैपदी कृ आदि के और आत्मनेपदी हो
तो आत्मनेपदी कृ आदि के रूप जुड़ते हैं। उदा. चकासाञ्चकार, चकासाम्बभूव ।
चकासामास, चकासामासिव, चकासामासिम । चकासामासिथ, चोरयाञ्चकार आदि
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आओ संस्कृत सीखें
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13. दय, अय्, आस् और कास् धातु से परोक्षा के प्रत्ययों के बदले आम् होता है। उदा. दयाञ्चके । पलायाञ्चक्रे । आसाञ्चके । कासाञ्चके
दयाम्बभूव । दयामास आदि । 14. कृच्छ् और ऊर्गु सिवाय जिन धातुओं का आदि स्वर गुरु नामि हो तो उन
धातुओं से परोक्षा के प्रत्यय के बदले आम् होता है । (दीर्घ स्वर गुरु कहलाता है तथा संयुक्त व्यंजन के पूर्व का स्वर ह्रस्व हो तो भी गुरु कहलाता है।)
उदा. ईहाञ्चक्रे, ईहाम्बभूव, ईहामास, उक्षाञ्चकार । 15.. जागृ, उष्, सम्+इन्ध् धातु से परोक्षा के प्रत्यय के बदले आम विकल्प से होता
उदा. जागराञ्चकार । जागराम्बभूव । जागरामास विकल्प से - जजागार
ओषाञ्चकार - उवोष ।
समिन्धाञ्चक्रे - समीधे । 16. अनेक स्वरी धातुओं का एक स्वरी प्रथम अंश द्विरुक्त होता है । उदा. जागृ = जजागृ + अ ।
जजा + अ = जजागार । जजागरतुः । 1) भी, ह्री, भृ और हु धातुओं से परोक्षा के स्थान पर आम विकल्प से होता
है और वह 'तिव्' जैसा होता है। ('तिव् जैसा' अर्थात् इन धातुओं का तिव् प्रत्यय पर जो रूप बनता है वह आम् पर भी करे अर्थात् द्वित्व होगा
और भृ धातु में इ भी होगा। उदा. बिभयाञ्चकार, बिभयाम्बभूव, बिभयामास पक्षे बिभाय ।
जिह्याञ्चकार, पक्षे जिहाय । बिभराञ्चकार, पक्षे बभार ।
जुहवाञ्चकार, पक्षे जुहाव । 18. विद् धातु से परोक्षा के स्थान पर आम् विकल्प से होता है और वह कित्
होता है। . उदा. विदाञ्चकार । पक्षे विवेद ।
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परोक्ष भूतकृदन्त
19. परस्मैपदी धातुओं से 'वस् (क्वसु) तथा आत्मनेपदी धातुओं से आन (कान) कृत्, प्रत्यय लगकर परोक्ष भूतकृदन्त बनता है।
आन (कान) प्रत्यय आत्मनेपदी होने से कर्मणि व भावे प्रयोग में भी यह प्रत्यय
लगेगा |
वस् (क्वसु) तथा आन (कान) प्रत्ययों में भी परोक्षा की तरह द्विरुक्ति आदि होगी । उदा. पच् - पेचानः ।
कृ = चक्राण: । स्वज् = सस्वजानः ।
कर्मणि में - पृ = पपुराणः ।
20. घस् धातु एक स्वरी धातु तथा आकारांत धातुओं से ही वस् (क्वसु) प्रत्यय के पहले इ (इट्) होता है ।
उदा. घस् – जक्षिवस् ।
आकारांत में एक स्वरी में
अद् - आदिवस् । अश् - गण - ९ आशिवस् । अञ्ज् - आजिवस्
वच् - ऊचिवस् । शक् - शेकिवस् । इ - ईयिवस् । ऋ आरिवस् परंतु भिका बिभिद्वस् ।
तृ - तितीर्वस् । भू - बभूवस् । श्रु - शुश्रुवस् । दरिद्रा - दरिद्राञ्चकृवस् ।
21. गम्, हन्, विद् गण ६, विश् और दृश् धातु से वस् (क्वसु) के पहले विकल्प
सेइ (इट्) होती है ।
उदा. जग्मिवस् - जगन्वस् ।
जघ्निवस् – जघन्वस् ।
विविदिवस् - विविद्वस् ।
विविशिवस् - विविश्वस् । म् का न् होता है ।
-
पा - पपिवस् । स्था - तस्थिव
-
टिप्पणी : 1) वस् (क्वसु) प्रत्यय परस्मैपदी है, अतः कर्त्तरि में होगा आन (कान) प्रत्यय आत्मनेपदी है, अतः भावे व कर्मणि में भी होगा ।
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आओ संस्कृत सीखें 22. विद् गण धातु से वर्तमानकाल में वस् (क्वसु) प्रत्यय होता है ।
वेत्ति इति विद्वस् 23. धुट् को छोड स्वरादि प्रत्ययों पर वस् का उष् होता है, यदि वस् के पहले इ हो
तो इ सहित उष् करे । उदा. विद्वस् + अस् - विदुषः ।
तस्थिवस्, तस्थुषः, बभूवुषः । स्त्री लिंग में - विदुषी, तस्थुषी, जग्मुषी, बभूवुषी । 24. वस् (क्वसु) के स् का पद के अंत में न होता है। उदा. विद्वद्भ्याम्, विद्वत्सु ।
तस्थिवद्भ्याम् । नपुंसक में - तस्थिवत् द, तस्थुषी, तस्थिवांसि । शेष धुट् प्रत्ययों में पटीयस् की तरह रूप करें
विद्वस के रूप 1. विद्वान्
विद्वांसौ विद्वांसः 2. विद्वांसम्
विद्वांसौ विदुषः 3. विदषा
विद्वद्भ्याम्
विद्वदिभः विदुषे
विद्वद्भ्याम् विद्वद्भ्यः 5. विदुषः
विदुषोः 6. विदुषः
विदुषोः
विदुषाम् 7. विदुषि
विदुषोः विद्वत्सु संबोधनः हे विद्वन्
विद्वांसौ
विद्वांसः
शब्दार्थ अधीश = राजा (पुंलिंग) | खेचर = विद्याधर (पुंलिंग) अध्वन् = मार्ग (पुंलिंग) | गीर्वाण = देव (पुंलिंग) अनुज = छोटा भाई (पुंलिंग) नाद = आवाज (पुंलिंग) अहंयु = अहंकारी (पुंलिंग) मणक = मणक मुनि (पुंलिंग) ईश्वर = राजा
(पुंलिंग) |
मनुज = मनुष्य (पुंलिंग) उदन्वत् = समुद्र (पुंलिंग) | महीधर = पर्वत (पुंलिंग)
विद्वद्भ्यः
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आओ संस्कृत सीखें
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राघव = राम
(पुंलिंग)| अम्बर = आकाश (नपुं. लिंग) विद्याधर = विद्याधर (पुंलिंग)| ख = आकाश (नपुं. लिंग) विप्लव = नाश (पुंलिंग)| तूर्य = वाद्ययंत्र (नपुं. लिंग) व्याध = शिकारी (पुंलिंग)| सारथ्य = सारथीपना (नपुं. लिंग) सौमित्रि = लक्ष्मण (पुंलिंग)| आहत = मरा हुआ (विशेषण) स्यन्दन = रथ
(पुंलिंग)| आहत = लाया हुआ (विशेषण) उपविद्या =नजदीक की विद्या(स्त्रीलिंग) कष्ट = कष्टकारी (विशेषण) चेटी = दासी (स्त्री लिंग)| दुर्धर = कठिनाई से अधीन हो ऐसा (विशे.) दशा = हालत (स्त्री लिंग)| निरवशेष = संपूर्ण (विशेषण) सन्धा = प्रतिज्ञा (स्त्री लिंग)| भूरि = ज्यादा (विशेषण) अंशुक = कपड़ा (नपुं. लिंग) | शारद = शरद ऋतु संबंधी अधीन = आधीन (नपुं. लिंग)।
संस्कृत में अनुवाद करो 1. दीक्षा ग्रहण करने के लिए राजा दशरथ ने रानी पुत्र और अमात्यों को पूछा
(आ+प्रच्छ्) 2. नमस्कार करके भरत बोला (भाष्), 'हे प्रभो ! मैं आपके साथ दीक्षा लूंगा ।
(उप+आ+दा) उसे सुनकर कैकेयी ने 'मेरे पति और पुत्र निश्चितरूप से नहीं रहेंगे - इस प्रकार विचार किया (ध्यै) और बोली (वच्) हे स्वामी ! आप को याद है? (स्मरसि) आपने स्वेच्छा से मुझे वरदान दिया था।' (दा) - वह वरदान मुझे दो' । दशरथ ने कहा, (कथ्) 'मुझे याद है (स्मरामि) व्रतनिषेध को छोडकर जो मेरे हाथों में है, वह मांगो'। कैकेयी ने मांगा यदि आप दीक्षा लेते हो तो यह पृथ्वी (राज्य) भरत को प्रदान करो।' 'आज ही यह भूमि (राज्य) भरत द्वारा ग्रहण की जाय' - इस प्रकार उसे कहकर (अभिधाय) राजा दशरथ ने लक्ष्मण सहित राम को बुलाया (आ + ।) और कहा (अभि+धा) इसके सारथीपने से संतुष्ट होकर पहले मैंने इसे वरदान दिया था (अ) । वह वरदान कैकेयी द्वारा आज मांगा गया कि यह पृथ्वी भरत को दो।'
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आओ संस्कृत सीखें
192 यह सुनकर राम खुश हुए और बोले, ‘माता ने मेरे भाई भरत के लिए राज्य मांगा, (मार्ग) वह अच्छा किया है । (कृ) राम के इस वचन को सुनकर दशरथ ने जैसे ही मंत्रियों को आदेश (आ+दिश्) दिया, उसी समय भरत बोला, हे स्वामी! मैंने तो पहले से ही आपके साथ दीक्षा लेने की प्रार्थना (प्रार्थितुम्) की है, अतः हे तात ! किसी के वचन से विपरीत करना योग्य नहीं हैं। (नार्हति) राजा ने कहा (वच्) हे वत्स ! 'मेरी प्रतिज्ञा को तू मिथ्या मत कर ।' राम ने राजा को कहा 'मेरे होते हुए भरत राज्य ग्रहण नहीं करेगा । अतः मैं वनवास में जाता हूँ।' इस प्रकार राजा को कहकर (आपृच्छ्य) और नमस्कार करके भरत द्वारा जोर से रोने पर भी राम वनवास की ओर जाने के लिए निकल पड़े। (निर्+या)
हिन्दी में अनुवाद करो 1. अथ रामः ससौमित्रिः सुग्रीवाद्यै वृतो भटैः । .
लङ्काविजय-यात्रायै प्रतस्थे गगनाध्वना । 2. महाविद्याधराधीशाः कोटिशोऽन्येपि तत्क्षणम् ।
चेलू रामं समावृत्य स्वसैन्यैश्छन्नदिङ्मुखाः ।। 3. विद्याधरैराहतानि यात्रातुर्याण्यनेकशः ।
नादैरत्यन्तगम्भीरै र्बिभराञ्चक्रुरम्बरम् ।। 4. विमानैः स्यन्दनैरश्वैर्गजैरन्यैश्च वाहनेः ।
खे जग्मुः खेचराः स्वामिकार्यसिद्धावहंयवः ।। 5. उपर्युदन्वतो गच्छन् ससैन्यो राघवः क्षणात् ।
वेलन्धरपुरं प्राप वेलन्धर-महीधरे ।। 6. समुद्र-सेतू राजानौ समुद्राविव दुर्धरौ ।
तत्र रामाग्रसैन्येनारेभाते योद्धमुद्धतौ ।। 7. तेषां चतुर्णां चतस्रः पुत्र्यो यूयं भविष्यथ ।
मर्त्यत्वमीयुषा भावी तत्र वोऽनेन सङ्गमः ।।
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आओ संस्कृत सीखें
193, 8. विपेदाने तु मणके श्रीशय्यम्भवसूरयः ।
अवर्षन् नयनैरश्रुजलं शारदमेघवत् ।। 9. चत्वारो वणिजस्तस्मिन्पुरे 'सवयसोऽभवन् ।
उद्यानद्रुमवद् वृद्धिं जग्मिवांसः सहैव हि ।। 10. ततश्च सेवावसरे, मन्त्रिणः समुपेयुषः ।
प्रणामं कुर्वतो राजा, कोपात्तस्थौ पराङ्मुखः ।। 11. किमत्र यामि याम्यत्र, किं वेति सकले पुरे ।
उत्प्रेक्षमाणो हाणि, बभ्राम मुनिपुङ्गवः ।। 12. उवाच स फलान्येतान्याहृतानि मया वनात् ।
यूयमश्नीत पक्वानि, मधुराणि महर्षयः ! ॥ 13. रत्नै महाब्धेस्तुतुषु न देवाः, न भेजिरे भीमविषेण भीतिम् ।
सुधां विना न प्रययु विरामं, न निश्चितार्थाद् विरमन्ति धीराः ॥ 14. स गृहीतमहाभाण्ड, उत्साह इव मूर्तिमान् ।
ईहाञ्चक्रेऽन्यदा गन्तुं, वसन्तपुरपत्तनम् ॥ 15. प्रतिस्थानं च चैत्यानि, बभञ्जुस्ते दुराशयाः।
तेषां हाजन्म संपद्भ्योऽप्यभीष्टो धर्मविप्लवः ॥ 16. रामोऽथोचे दशरथं, म्लेच्छोच्छेदाय चेत्स्वयम् ।
तातो यास्यति तद्रामः, सानुजः किं करिष्यति । 17. भ्रूभङ्गमप्यकुर्वाणो, गीर्वाण इव भूगतः ।
रामस्तान्कोटिशोप्यस्त्रै, विव्याध व्याधवन्मृगान् । 18. विद्वत्त्वं च नृपत्वं च, नैव तुल्यं कदाचन ।
स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान्सर्वत्र पूज्यते ।। 19. सामान्यमनुजेश्वरगृहदुर्लभैः पुष्पैः फलैः पत्रैरंशुकै रत्नाभरणैश्च भूरिभिः
परमया भक्त्या रोमाञ्चिततनू राजा मुनिमर्चयाञ्चकार। 20. दशभिरब्दैश्चतुर्दशाऽपि विद्यास्थानानि सह सर्वाभिरुपविद्याभिर्विदाञ्चकार,
कलाः शास्त्रं च निरवशेषं विवेद, विशेषतचित्रकर्मणि वीणावाद्ये च प्रवीणतां प्राप स कुमारः।
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आओ संस्कृत सीखें
2194
पाठ -27
अम्
स (सि) द् (दि)
अद्यतन भूतकाल
परस्मैपदी व . तम् ताम् आत्मनेपदी
वहि
थास् आथाम्
ध्वम् आताम्
अन्त 1. अद्यतनी के प्रत्यय ह्यस्तनी जैसे हैं, सिर्फ द् (दि) स् (सि) व अम् - वित्
नहीं हैं। 2. अद्यतनी में धातु के पहले अ आता है, परंतु मा (माङ्) के योग में नही
आता है। 3. स्वर से धातु का प्रारंभ हो तो अन आकर आदि स्वर की वृद्धि होती हैं, परंतु
मा के योग में वृद्धि नहीं होती है। 4. अद्यतनी प्रत्ययों पर धातु से स् (सिच्) प्रत्यय होता है। 5. स् (सिच्) अंतवाले स्कारांत धातु से द् (दि), स् (सि) प्रत्यय पर ई (ईत्)
होता है।
स् + द् । स् + ई + द् = सीद् स् + स् - स् + ई + स् = सीस् । 6. भू धातु को छोड़ स् (सिच्) प्रत्यय के बाद अन् का उस् (पुस्) होता है।
. पहला प्रकार (सेट् धातु) 1. इसमें स् (सिच्) प्रत्यय के पहले इ (इट्) होता है । 2. इ (इट्) पर के बाद स् का ई (ईत्) पर लोप होता है । उदा. इस् + ई = ईद् । ..
इस् + ईस् = ईस् ।
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आओ संस्कृत सीखें
इषम्
ईस्
ईद
इषि
इष्ठास्
इष्ट
अक्रीडिषम्
अक्रीडी:
अक्रीडित्
आर्चिषम्
आर्चीः
आर्चीत्
अबोधिषम्
अबोधीः
अबोधीत्
अबोधिषि
अबोधिष्ठाः
अबोधिष्ट
195
उपर्युक्त नियम के बाद बने प्रत्यय परस्मैपदी प्रत्यय
इष्व
इष्टम्
इष्टाम्
आत्मनेपदी प्रत्यय
इष्वहि
इषाथाम्
इषाताम्
परस्मैपदी - क्रीड्
अक्रीडिष्व
अक्रीडिष्टम्
अक्रीडिष्टाम्
आत्मनेपदी
आर्चिष्व
आर्चिष्टम्
आर्चिष्टाम्
बुध् - गण 1 परस्मैपद
अबोधिष्व
अबोधष्ट
अबोधिष्टाम्
बुध् गण 1 आत्मनेपद
अबोधिष्वहि
अबोधिषाथाम्
अबोधिषाताम्
इष्म
इष्ट
इषुस्
इष्महि
इध्वम्, इड्ढ्वम्
इषत
अक्रीडिष्म
अक्रीडिष्ट
अक्रीडिषुः
आर्चिष्म
आर्चिष्ट
आर्चिषुः
अबोधिष्म
अबोधिष्ट
अबोधिषुः
अबोधिष्महि
अबोधिध्वम्,
अबोधित
ड्वम्
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आओ संस्कृत सीखें
1196
ऐषिष्टाम्
ऐषिष्ट ऐषिषुः
ऐक्षिष्महि
इष् - आत्मनेपद ऐषिषम् ऐषिष्व
ऐषिष्म ऐषी:
ऐषिष्टम् ऐषीत्
ईक्ष् - आत्मनेपद ऐक्षिषि
ऐक्षिष्वहि ऐक्षिष्ठाः
ऐक्षिषाथाम् ऐक्षिध्वम्, ड्ढ्वम् ऐक्षिष्ट
ऐक्षिषाताम् ऐक्षिषत
परस्मैपद में वृद्धि 6. परस्मैपद में स् (सिच्) प्रत्यय पर धातु के अंत में रहे समान स्वर की वृद्धि होती
है परंतु स् (सिच्) प्रत्यय ङित् है। (पाठ 25 नियम 14 से कुटादि) तब वृद्धि नहीं होती है । अलावीत् ।
लू के रूप - परस्मैपद अलाविषम् अलाविष्व
अलाविष्म अलावी: अलाविष्टम्
अलाविष्ट अलावीत् अलाविष्टाम् अलाविषुः
. . आत्मनेपद अलविषि अलविष्वहि अलविष्महि अलविष्ठाः अलविषाथाम् अलविड्ढ्वम्, ध्वम्, ढ्वम्
अलविष्ट अलविषाताम् अलविषत 7. परस्मैपद में सेट् स् (सिच्) पर 1) व्यंजनादि धातु के उपांत्य अ की विकल्प से वृद्धि होती है। . उदा. अगादीत्, अगदीत् ।
अनादीत्, अनदीत् परंतु - अनन्दीत् । 2) वद्, व्रज् तथा ल् और र् अंतवाले धातुओं के उपांत्य अ की नित्य वृद्धि
होती है। उदा. अवादीत् । अव्राजीत्। अज्वालीत्। अस्खालीत्। अक्षारीत् ।
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आओ संस्कृत सीखें
3 1972
8. श्वि, जागृ, शस्, क्षण तथा ह्, म् और य अंतवाले धातु तथा कग, रग, लग,
करु, हस् आदि धातुओं की सेट् स् (सिच्) पर वृद्धि नहीं होती है। उदा. अश्वयीत् । अजागरीत् । अशसीत् । अक्षणीत् ।
___ अग्रहीत् । अवमीत् । अहयीत् । अहसीत् आदि 9. तनादि (तनादि 8वाँ गण) धातुओं से स् (सिच्) का आत्मनेपद के त तथा थास्
प्रत्यय पर विकल्प से लोप होता है। लोप होने पर धातु के अंत्य न् या ण् का लोप होता है और इ (इट्) नहीं होता है। तन् - अतत, अतनिष्ट । अतथाः - अतनिष्ठाः ।
क्षण् - अक्षत, अक्षणिष्ट । अक्षथाः - अक्षणिष्ठाः । 10. आत्मनेपद तृतीय पुरुष एक वचन के त प्रत्यय पर दीप, जन्, बुध् (गण 4) पुर्
ताय और प्याय् धातुओं से स् (सिच्) के बदले इ (चिंच्) विकल्प से होता है
और त का लोप होता है । दीप् अदीपि अदीपिष्ट अदीपिषाताम् अदीपिषत जन अजनि अजनिष्ट अजनिषाताम् अजनिषत पूर अपूरि अपूरिष्ट अपूरिषाताम् अपूरिषत ताय् अतायि अतायिष्ट अतायिषाताम् अतायिषत प्याय् अप्यायि अप्यायिष्ट अप्यायिषाताम् अप्यायिषत अबोधि, बुध (गण 4) धातु अनिट् है, उसके रूप दूसरे प्रकार में आएंगे । कर्मणि प्रयोग : धातु को आत्मनेपद के प्रत्यय लगने से कर्मणि या भावे रूप
बनते हैं। 11. सभी धातु से भावे और कर्मणि में तृतीय पुरुष एक वचन के त प्रत्यय पर स्
(सिच्) के बदले इ (जिच्) होता है और त का लोप होता है । उदा. आसि त्वया, ऐक्षि कटः।
ईक्ष के रूप ऐक्षिषि
ऐक्षिष्वहि ऐक्षिष्ठाः
ऐक्षिषाथाम् ऐक्षिध्वम्, ड्ढ्वम् ऐक्षि
ऐक्षिषाताम् ऐक्षिषत
ऐक्षिष्महि
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आओ संस्कृत सीखें
८1983
अलावि
वद् के रूप अवदिषि
अवदिष्वहि अवदिष्महि अवदिष्ठाः
अवदिषाथाम् अवदिध्वम् इढ्वम् अवादि
अवदिषाताम् अवदिषत पाठ 19 नियम 18 से
अलाविषाताम् अलाविषत
अलविषातम् अलविषत अग्राहि
अग्राहिषाताम् अग्राहिषत
अग्रहीषाताम् अग्रहीषत 12. आज के भूतकाल में अद्यतनी विभक्ति होती है । व्याघ्रमैक्षिष्ट - उसने आज
बाघ देखा। 13. किसी भी विशेष भूतकाल की विवक्षा न करे तो भूतकाल में अद्यतनी विभक्ति
होती है। ऐक्षिष्ट मृगं सीता । ऐक्षिष्महि मृगम् । विवक्षा करे तो
ईक्षाञ्चक्रे मृगं सीता ! ऐक्षामहि मृगम् । 14. दो भूतकाल इकट्ठे हों तो अद्यतनी होता है । उदा. अद्य ह्यो वा ऐक्षिष्महि मृगम् ।
आज अथवा कल हमने मृग को देखा । 15. निषेध करना हो तब मा (माङ्) के योग मे अद्यतनी होती है । ___मा वादीदधर्मम् - वे अधर्म न कहे ।
शब्दार्थ अश्वतर = खच्चर (पुंलिंग)। सख्य = मित्रता (नपुं. लिंग) कर्णधार = कप्तान (पुंलिंग) | ओजस् = तेज (नपुं. लिंग) बाहुबली = ऋषभदेव के पुत्र (पुलिंग) | ऊर्ध्व = ऊंचा (नपुं. लिंग) भरत = ऋषभदेव के पुत्र (पुंलिंग)| प्रेषित = भेजा हुआ (नपुं. लिंग) वजिन् = इन्द्र
(पुंलिंग)| सार्धम् = साथ में (अव्यय) वेला = बार
(पुंलिंग)।
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आओ संस्कृत सीखें
21993
संस्कृत में अनुवाद करो 1. आज हम उद्यान में गए (व्रज्) वहाँ हम वृक्ष की छाया में बैठे । (आस्) 2. पक्षी मधुर मधुर बोल रहे थे (रु)। हमने नजदीक में आम के वृक्ष देखे । (ईक्ष) 3. हमने आम के फल ग्रहण किए (ग्रह-कर्मणि) और खाए । (खाद्-कर्मणि) 4. फल खाकर हम उद्यान का सौंदर्य देखते हुए घूम रहे थे (भ्रम्) इसी बीच एक
वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ महामुनि को हमने देखा (ईक्ष)। 5. वे मुनि सूर्य की तरह देदीप्यमान (दीप) थे, चंद्र की तरह प्रकाशमान थे ।
(प्र + काश्) 6. हमने मुनि को वंदन (वन्द्) किया और फिर घर की ओर चले। (चल्) 7. मनु ! तू पूरी रात भटक नहीं । (मा अट्) 8. मंगल पाठकों की स्तुति सुनकर राजा जग गया ! (जागृ) 9. मनुष्यभव में जन्म लेकर तुमने क्या ग्रहण किया (ग्रह) पुण्य या पाप? 10. भरत के द्वारा प्रेषित दूत के वचन को सुनकर बाहुबली हँसे । (हस्)
. हिन्दी में अनुवाद करो 1. तस्य कर्णधारेण सार्धं सख्यमजनि । 2. न तावदेनां पश्यसि येनैवमवादीः । 3. ईदृशानि वन-फलान्यहमग्रेऽप्यखादिषम् । 4. सरोवराणि तान्येतान्यक्रीडं यत्र हंसवत् ।
तेऽमी द्रुमाः कपिरिवाऽखादिषं यत्फलान्यहम् ।। 5. विदधानस्य वसुधामेकछत्रां महौजसः ।
तस्याऽऽज्ञा वज्रिणो वज्रमिव नाऽस्खालि केनचित् ।। 6. अश्वैरश्वतरैरुष्ट्रहिनैरपरैरपि ।
तस्य वेश्म व्यराजिष्ट यादोभिरिव सागरः ।। 7. तीर्थेऽतत स किं दानमतनिष्ट तपः स किम् ।
अतनिष्ठा रतिं यस्मिन्नुत्कण्ठामतथास्तथा ।
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आओ संस्कृत सीखें
पाठ- 28
अनिट् धातुओं का दूसरा प्रकार
1. दूसरे प्रकार में स् (सिच्) प्रत्यय के पहले इ (इट्) नहीं होती है। परस्मैपद के प्रत्यय
स्व
सम्
सीस्
सीत्
3.
सि
स्थास्
स्त
अनैषम्
अनैषीः
अनैषीत्
200
अनेषि
अनेष्ठाः
अनेख
स्तम्
स्ताम्
आत्मनेपद के प्रत्यय
स्वहि
साथाम्
साताम्
नी के रूप - परस्मैपदी
अनैष्व
अनैष्टम्
अनैष्टाम्
आत्मनेपदी
अनेष्वहि
अनेषाथाम्
अनेषाताम्
मागण 3 आत्मनेपद
अमास्वहि
स्म
स्त
सुस्
स्महि
ध्वम्, स्ध्वम् .
सत
अनैष्म
अष्ट
अनैषुः
अष्महि अनेवम्, ड्ढ्वम् .
अनेषत
अमासि
अमास्थाः
अमासाथाम्
अमास्त
अमासाताम्
अमासत
2. परस्मैपद में अनिट् स् (सिच्) पर व्यंजनांत धातु के समान स्वर की वृद्धि
होती है।
अमास्महि
अमाध्वम्-ध्वम्
भिद् = अभैत्सीत् ।
रञ्ज् = अराङ्क्षीत् ।
धुट् व्यंजन अंत में हो तथा ह्रस्व स्वर अंत में हो ऐसे धातु के बाद में रहे अनिट्
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आओ संस्कृत सीखें
4.
स् (सिच्) का तादि और थादि प्रत्यय पर लोप होता है।
उदा. अभैत्ताम् । अकृत । अकृथाः ।
नामि स्वर उपांत्य में हो ऐसे धातुओं से आत्मनेपदी अनिट् स् (सिच्) प्रत्यय कित् जैसा होता है।
उदा. अभित्त ।
अभैत्सम्
अभैत्सीः
अभैत्सीत्
अभित्सि
अभित्थाः
अभित्त
अकार्षम्
अकार्षीः
अकार्षीत्
201
अकृषि
अकृथाः
अकृत
अमृषि
अमृथाः
अमृत
भिद् के रूप परस्मैपद
अभैत्स्व
अभैत्तम्
अभैत्ताम्
आत्मनेपद
अभित्स्वहि
अभित्साथाम्
अभित्साताम्
5.
ऋ वर्ण अंत में हो ऐसे धातुओं से आत्मनेपदी अनिट् स् (सिच्) कित् जैसा होता हैं । अकृत । आस्तीर्ष्ट ।
कृ - परस्मैपदी
अका
अकार्ष्टम्
अकाम
आत्मनेपदी
अकृष्वहि
अकृषाथाम्
अकृषाताम्
मृ के रूप
अमृष्वहि
अभैत्स्म
अभैत्त
अभैत्सुः
अमृषाथाम्
अमृषाताम्
अभित्स्महि
अभिध्वम्, अभिद्द्द्ध्वम्
अभित्सत
अकार्ष्म
अकार्ष्ट
अकार्षुः
अकृष्महि
अकृवम्, अकृड्वम्
अकृषत
अमृष्महि
अमृवम्, अमृड्वम्
अमृषत
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आओ संस्कृत सीखें
- 2022
6. गम् धातु से आत्मनेपदी स् (सिच्) विकल्प से कित् जैसा होता है। कित् होने
से म् का लोप होता है और स् (सिच्) का लोप होगा ।
उदा. समगत, समगस्त । 7. हन् धातु से आत्मनेपदी स् (सिच्) कित् होता है।
उदा. आहत, आहसाताम् । कित् होने से न् का लोप होता है । 8. स्वीकार करना और लग्न करना - इस अर्थ में यम् धातु से स् (सिच्) विकल्प
से कित् है।
उदा. उपायत, उपायंस्त कन्याम् । 9. उप् + यम् - स्वीकार और लग्न करना अर्थ में आत्मनेपदी है ।
उदा. कन्यामुपयच्छते ! 10. स्था धातु और दा संज्ञावाले धातुओं से आत्मनेपदी स् (सिच्) कित् होता है,
उस प्रसंग पर धातु के अंत्य स्वर का इ होता है ।
उदा. उपास्थित, उपास्थिषाताम्, उपास्थिषत । . - आदित, आदिषाताम् ।
व्यधित, व्यधिषाताम्, व्यधिषत । 11. अद्यतनी में हन् का वध् आदेश होता है। आत्मनेपद में विकल्प से वध् होता
है। (वध् आदेश सेट् है, अत:वृद्धि नहीं होती है) उदा. अवधीत्-परस्मैपद में आत्मनेपद में - आवधिष्ट, आहत ।
आवधिषाताम्, आहसाताम् । अधि+इ - पढना - अध्यगीष्ट, अध्यैष्ट ।
अध्यगीषाताम्, अध्यैषाताम् । यहाँ गी का गुण नही होता है।
विशिष्ट धातुओं के उदाहरण प्रच्छ अप्राक्षीत् अप्राष्टाम् अप्राक्षुः । त्यज
अत्याक्षीत् अत्याक्ताम् अत्याक्षुः । पच् परस्मै. अपाक्षीत् अपाक्ताम्
अपाक्षुः । आत्मने. अपक्त
अपक्षाताम् अपक्षत । अधाक्षीत् अदाग्धाम् अधाक्षुः । अवात्सीत् अवात्ताम्
अवात्सुः
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आओ संस्कृत सीखें
1 203
मन्
वह् परस्मै. अवाक्षीत् । अवोढाम् अवाक्षुः । आत्मने अवोढ . अवक्षाताम् अवक्षत ।
अवोवम् अवगड्ढ्व म् अवग्व म् । रुध् परस्मै. अरौत्सीत्
अरौद्धाम्
अरौत्सुः। आत्मने. अरुद्ध
अरुत्साताम् अरुत्सत । अमस्त
अमसाताम् अमंसत । रम् अरस्त अरंसाताम्
अरंसत । लभ्... अलब्ध
अलप्साताम् अलप्सत । मस्ज् - (पाठ 19 नियम 14 से)
अमाङ्क्षीत् अमाङ्क्ताम् अमाक्षुः । अमाझ्व, अमाझ्म । अस्राक्षीत् अम्राष्टाम्
अस्राक्षुः । अद्राक्षीत् अद्राष्टाम् अद्राक्षुः । 11. त प्रत्यय पर पद् धातु से स् (सिच्) के बदले इ (चिंच्) होता है और त का लोप होता है। उदा. उद् + पद् = उदपादि
बुध् - आत्मनेपद अभुत्सि अभुत्स्वहि
अभुत्स्महि अबुद्धाः
अभुत्साथाम् अभुद्ध्वम्, द्ध्वम् अबोधि, अबुद्ध अभुत्साताम्
अभुत्सत वेट् धातुओं के दोनों प्रकार
मृज् धातु - पहला प्रकार अमार्जिषम्
अमार्जिष्व अमार्जिष्म अमार्जी:
अमार्जिष्टम् अमार्जिष्ट अमार्जीत्
अमार्जिष्टाम् अमार्जिषुः
दूसरा प्रकार अमार्क्षम्
अमाव
अमार्म अमाीः अमार्टम्
अमार्ट अमाीत् अमार्टाम्
अमा ः
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आओ संस्कृत सीखें
2204
अस्यन्त्त
स्यन्द् - पहला प्रकार आत्मनेपद अस्यन्दिषि अस्यन्दिष्वहि अस्यन्दिष्महि अस्यन्दिष्ठाः अस्यन्दिषाथाम् अस्यन्दिध्वम्, अस्मन्दिड्ढ्वम् अस्यन्दिष्ट अस्यन्दिषाताम् अस्यन्दिषत
दूसरा प्रकार अस्यन्त्सि
अस्यन्त्स्वहि अस्यन्त्स्महि अस्यन्त्थाः अस्यन्त्साथाम् अस्यन्द्ध्वम्, अस्यन्ध्वम्
अस्यन्द्ध्व म् अस्यन्त्साताम् अस्यन्त्सत
इ (इ) का अपवाद 12. वृ (वृ गण 5 उभयपदी, वृ गण 9 आत्मनेपदी) धातु से, दीर्घ ऋकारांत जिसके
अंत मे हो ऐसे पर रहे धातुओं से आत्मनेपदी स् (सिच्) और आशी: के पहले इ (इट्) विकल्प से होती है।
वृ अवृषि
अवृष्वहि अवृष्महि अवृथाः अवृषाथाम् अवृवम्, अवृड्ढ्वम् अवृत
अवृषाताम् अवृषत
वृ - इट् होने पर अवरिषि अवरिष्वहि अवरिष्महि अवरिष्ठाः अवरिषाथाम् अवरिध्वम्, ढ्वम्, ड्ढ्वम् अवरिष्ट अवरिषाताम् अवरिषत
आस्तृ आस्तीर्षि आस्तीहि आस्तीमहि आस्ती :
आस्तीर्षाथाम् आस्तीवम् ड्ढ्वम् आस्तीट
आस्तीर्षाताम् आस्तीर्षत
आ+स्तृ - इट् होने पर आस्तरिषि आस्तरिष्वहि आस्तरिष्महि आस्तरिष्ठाः आस्तरिषाथाम् आस्तरिध्वम्, वम्, ड्ढ्वम् आस्तरिष्ट आस्तरिषाताम् आस्तरिषत
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आओ संस्कृत सीखें
1 2055
परस्मैपद में - अवारिषम्, अवारिष्व, अवारिष्म । इस प्रकार स्तृ धातु के रूप
करे। 13. अञ् धातु से स् (सिच्) के पहले नित्य इ होता है ।
आञ्जिषम् आञ्जिष्व आञ्जिष्म आजीः आञ्जिष्टम् आञ्जिष्ट
आजीत् आञ्जिष्टाम् आञ्जिषुः 14. धू (धूम्) सु और स्तु धातु से परस्मैपद में स् (सिच्) के पहले इ (इट्) होता है।
धू - परस्मैपदी अधाविषम् अधाविष्व अधाविष्म अधावी:
अधाविष्टम् अधाविष्ट अधावीत् अधाविष्टाम् अधाविषुः
आत्मनेपद (1) अधविषि अधविष्वहि अधविष्महि अधविष्ठाः अधविषाथाम् अधविध्वम् वम् ड्वम् अधविष्ट अधविषाताम् अधविषत
अधोषि अधोष्ठाः अधोष्ट
अधोष्वहि अधोषाथाम् अधोषाताम्
अधोष्महि अधोवम्, ड्वम् अधोषत
असाविषम् असाविष्व असाविष्म असावी: असाविष्टम् असाविष्ट असावीत् असाविष्टाम् असाविषुः
आत्मनेपद में - असोषि आदि
. स्तु अस्ताविषम् अस्ताविष्व अस्ताविष्म अस्तावी: अस्ताविष्टम् अस्ताविष्ट अस्तावीत् अस्ताविष्टाम् अस्ताविषुः
. आत्मनेपद में - अस्तोषि आदि
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आओ संस्कृत सीखें
1 2065
क्रम
स्नु का परस्मैपद --प्रास्नावीत्
आत्मने - प्रास्नोषाताम् (कर्मणि) परस्मै - अक्रमीत् आत्मने - अक्रस्त
कर्मणि में रूप भिद् अभेदि अभित्साताम्
अभित्सत नी अनायि अनेषाताम्
अनेषत अकारि अकृषाताम्
अकृषत अमायि अमासाताम्
अमासत अदायि अदिषाताम्
अदिषत अघानि अहसाताम्
अहसत कृ अकारि - अकारिषाताम्, अकृषाताम् - अकारिषत, अकृषत दा अदायि - अदायिषाताम्, अदिषाताम् - अदायिषत, अदिषत
अदर्शि अदर्शिषाताम्, अदृक्षाताम् । हन् अघानि, अवधि । अघानिषाताम्, अवधिषाताम्, अहसाताम् आदि
तीसरा प्रकार (अनिट् धातुओं का) . 1. तीसरे प्रकार में स् (सिच्) के बदले स (सक्) होता है । 2. ह् और शिट् (श्, ष् और स्) व्यंजन अंत में हो ऐसे उपांत्य नामि स्वरवाले अनिट्
धातुओं से स (सक्) प्रत्यय होता है (दृश् धातु को छोड़कर) स्प्रत्यय कित् होने से गुण नहीं होगा।
परस्मैपद के प्रत्यय
साव
साम
सत सन्
सतम्
सताम् आत्मनेपद के प्रत्यय
सावहि साथाम् साताम्
सथास्
सामहि सध्वम् सन्त
सत
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आओ संस्कृत सीखें
16. स्वरादि प्रत्यय पर स (सक्) के अ का लोप होता है । उदा. स्पृश् - अस्पृक्षत् । दुह-अधुक्षत् । दिश्-अदिक्षत्। कृष्-अकृक्षत् ।
दिश् के रूप अदिक्षम् अदिक्षाव
अदिक्षाम अदिक्षः अदिक्षतम्
अदिक्षत अदिक्षत्
अदिक्षताम्
अदिक्षन्
आत्मनेपद अदिक्षि
अदिक्षावहि अदिक्षामहि अदिक्षथाः
अदिक्षाथाम् अदिक्षध्वम् अदिक्षत
अदिक्षाताम् अदिक्षन्त 17. स्पृश्, मृश् और कृष् धातु से दूसरे प्रकार के प्रत्यय विकल्प से होते हैं। उदा. अस्पाक्षीत् - अस्पार्षीत् ।
अस्प्राष्टाम्, अस्पार्टाम् ।
अस्प्राक्षुः, अस्पाक्षुः । 18. दुह, दिह, लिह, गुह् धातुओ से स (सक्) का आत्मनेपद के दन्त्यादि प्रत्ययों
पर विकल्प से लोप होता है । दुह् + स + त = दुह् + त = अदुग्ध । पक्षे अधुक्षत । लिह् + स + थास् = अलीढा: पक्षे अलिक्षथाः । गुह् - न्यगुह्वहि, न्यधुक्षावहि ।
दह के रूप अधुक्षि
अदुह्वहि, अधुक्षावहि अधुक्षामहि अदुग्धाः अधुक्षथाः अधुक्षाथाम्
अधुग्ध्वम्, अधुक्षध्वम् अदुग्ध, अधुक्षत अधुक्षाताम्
अधुक्षन्त
लिह अलिक्षि
अलिह्वहि अलिक्षावहि अलिक्षामहि अलीढा: अलिक्षाः अलिक्षाथाम् अलीढ्वम, अलिक्षध्वम् अलीढ, अलिक्षत अलिक्षाताम्
अलिक्षन्त कर्मणि में - अदोहि, अधुक्षाताम्, अधुक्षन्त ।
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आओ संस्कृत सीखें
5208
शब्दार्थअश्ववार = घुड़सवार (पुंलिंग)। वारण = हाथी (पुंलिंग) असु = प्राण (पुंलिंग) | संमद = हर्ष
(पुंलिंग) खल = दुर्जन (पुंलिंग) क्षोभ = खलभलाहट (पुंलिंग) गण्ड = गाल (पुंलिंग) | रेखा = रेखा (स्त्री लिंग) दर्प = अभिमान (पुंलिंग) कटक = सैन्य (नपुं. लिंग) जयकेशिन् = एक राजा (पुंलिंग) | बिस = कमल का दंड (नपुं. लिंग) न्यास = न्यास (पुंलिंग) | ध्रुव = निश्चय (विशेषण)
धातु अव+मन् = अपमान करना नि+गुह् = आच्छादित करना आ+विश् = आवेश करना प्रति+पद् = स्वीकार करना उप+यम् = लग्न करना (आत्मनेपद) व्या+हन = व्याघात करना उप+रुध् = आग्रह करना
शप् = शाप देना गण १ परस्मैपदी कुष् = खींचना गण ९ परस्मैपदी
संस्कृत में अनुवाद करो 1. जिसने समुद्र को दुहा (दुह्) (परस्मै) और पृथ्वी को दुहा (दुह् आ) उस
जयकेशी राजा की यह पुत्री है। 2. राजा भोजन आदि में राग नहीं करता था (रज्) जलक्रीड़ा आदि क्रीड़ाओं से
खेलता नहीं था (दिव्) और कामविकार की चेष्टा को रोकता नहीं था (रुध्)। 3. उस कन्या ने मेरा पति कर्ण ही हैं' - ऐसा जाना (बुध् ग.4) अत: तू भी उस
कन्या को वैसा मान (बुध्)। 4. हे राजन् ! इस कन्या के विषय में आप अंतराय व्याघात न करो!
(मा व्या+हन्)। 5. वचन द्वारा किसी के मर्म को तुम मत भेदो (मा भिद्) 6. मैंने तुम को अभी याद किया (स्मृ) और तुम अभी दिखाई दीये । (दृश्) 7. दमयंती ने हंस से प्रशंसा सुनी (श्रु) और मन से नल को वरी । (वृ)
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आओ संस्कृत सीखें
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8. हे स्वामी! खलपुरुषों के वचन से आपने मेरा त्याग किया (त्यज्) उस तरह जिन
भक्ति धर्म का त्याग मत करना। (मा त्यज्) 9. हमने हमारे खेत की भूमि को मापा । (मा) 10. ग्वाला शाम के समय गायों को अपने घर ले गया । (नी) 11. उसने प्राण छोड़े (मृ) परंतु प्रतिज्ञा नहीं छोड़ी । (त्यज्)
हिन्दी में अनुवाद करो 1. अधिगतपरमार्थान्पण्डितान्मावमंस्थास्तृणमिव लघुलक्ष्मी नैव
तान्संरुणद्धि । अभिनव-मदरेखा-श्यामगण्डस्थलानां न भवति बिसतन्तुर्वारणं
वारणानाम् ।। 2. दध्यौ चैवं स राजर्षिरहो तेषां कुमन्त्रिणाम् ।
सन्मानो यो मयाऽकारि स भस्मनि-हुतं ध्रुवम् ।। 3. मा शाप्सीदेष इति तास्तस्मात्भीता द्रुतद्रुतम् ।
नेशु मंग्य इव व्याधादमिलन्त्यः परस्परम् ।। 4. ये आविक्षस्तमद्विक्षस्तमद्राक्षुश्च दर्पतः ।
तान्न्यघुक्षच्छरैरेष न्यकोषीत्तदसूनपि ।। 5. उपायत नृपो रत्नान्युपायंस्त काञ्चनम् ।
अदिताऽस्मै गृहीत्वाऽसौ प्रास्थिताधित संमदम् ।। 6. याचिष्ये समये स्वामिन्न्यासीभूतोऽस्तु मे वरः ।
इत्यभाषत कैकेयी राजाऽपि प्रत्यपादि तत् ।। 7. अयमस्मद्वचोऽश्रौषीत् । 8. दुष्यन्तः शकुन्तला उपायंस्त । 9. विद्यागुरवोऽशेषाण्यपि शास्त्राणि तस्मै क्रमेणोपादिक्षन् । 10. अश्ववारावद्राक्षीदऽप्राक्षीच्च अरे ! किमेष कटकक्षोभः । 11. मय्यप्रसादं मा कृथा मयि च मा विरुद्धा इति सोऽवादीत् सा च ह्रियमकृत
सखीं च वक्तुमुपारुद्ध ।
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आओ संस्कृत सीखें
1.
2.
3.
210
सिषम्
सीस्
सीत्
पाठ
अद्यतन भूतकाल
चौथा प्रकार – परस्मैपद का ही
-
-
29
चौथे प्रकार के अद्यतनी में धातु के अंत में स् जुडता है ।
यम्, रम्, नम् और आकारांत धातुओं से परस्मैपद में स् (सिच्) के पहले इ (इट्) होता है और धातुओं के अंत में स् जुड़ता है ।
प्रत्यय
सिष्व
सिष्टम्
सिष्टाम्
यम् के रूप
अयंसिष्व
अयंसिष्टम्
अयंसिष्टाम्
अयंसिषम्
अयंसीः
अयंसत्
इसी तरह वि+रम् = व्यरंषिषम्
या - अयासिषम्, अयासिष्व, अयासिष्म, अयासी:
पाँचवाँ प्रकार – परस्मैपद का ही
पाँचवें प्रकार में स् (सिच्) का लोप होता है ।
प्रत्यय
सिष्म
सिष्ट
सिषुः
अयंसिष्म
असिष्ट
अयंसिषुः
अम्
व
स्
तम्
द्
ताम्
उस्
पा (पिब्), अधि + इ ( स्मरण करना गण 2 परस्मैपद) इ (जाना गण 2 परस्मैपदी), दा संज्ञक धातु, भू तथा स्था धातु के बाद आए स् (सिच्) का परस्मैपदी में लोप होता है और लोप होने पर इ ( इट् ) नहीं होता है।
4.
इ (जाना गण 2) तथा इ ( स्मरण करना गण 2 का अद्यतनी में गा आदेश होता है।
म
त
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आओ संस्कृत सीखें
211
अपात्
अपुः
अभूम
अभूत्
पा के रुप अपाम्
अपाव
अपाम अपाः
अपातम्
अपात अपाताम्
भू के रूप अभूवम्
अभूव अभूः
अभूतम्
अभूत अभूताम्
अभूवन् 5. भू धातु को सिच् का लोप होने के बाद गुण नहीं होता है । 6. धे, घ्रा, शा, छा, और सा धातु से स् (सिच्) प्रत्यय का परस्मैपद में विकल्प से
लोप होता है। उदा. धे - अधात् पक्षे चौथा प्रकार अधासीत्
अघ्रात् पक्षे चौथा प्रकार अघ्रासीत्
अशात् पक्षे चौथा प्रकार अशासीत् छा - अच्छात् पक्षे चौथा प्रकार अच्छासीत् सा - असात् पक्षे चौथा प्रकार असासीत्
छठा प्रकार - (कर्तरि का ही) 7. छठे प्रकार में धातुओं से अ (अङ्) प्रत्यय होता है । 8. अ (अङ्) पर ऋ वर्णांत धातु तथा दृश् धातु के स्वर का गुण होता है ।
नश् का विकल्प से नेश् होता है । श्वि का श्व, अस् (गण 4) का अस्थ, वच् का वोच और पत् का पप्त आदेश होता है। शास् के आस् का इस् होता है।
निम्नलिखित धातु छठे प्रकार में हैं 1. शास्, अस् (गण 4) वच् और ख्या 2. विकल्प से सृ और ऋ 3. द्वे; लिप् और सिच् 4. आत्मनेपदी ढे, लिप् और सिच् विकल्प से .
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आओ संस्कृत सीखें
212
-
5. गम् आदि (गम्, पत्, सृप, शक्, मुच, आप् इत्यादि) 6. द्युत् आदि (द्युत्, रुच्, शुभ, भ्रंश्, स्वस्, ध्वंस्, वृत्, स्यन्द्, वृध्, शृध्, कृप) 7. पुष्य आदि (पुष, उच्, लुट्, स्विद्, क्लिद्, मिद्, क्षुध्, शुध्, क्रुध्, सिध्, गृध्,
तृप्, दृप्, कृप, लुप, लुभ, क्षुभ्, नश्, भ्रंश, शुष्, दुष्, श्लिष्, प्लुष्, तृष्, तुष्, हृष्, रुष्, अस्, शम्, दम्, तम्, श्रम्, भ्रम्, क्षम्, मद्, क्लम्, मुह, द्रुह्, स्नुह,
स्निह् इत्यादि ये सभी धातु परस्मैपदी हों तब । 8. रुध आदि - रुध्, भिद्, दृश्, बुध् (गण 1 उभयपदी) 9. श्वि, स्तम्भ, मृच्, म्लुच, ग्रुच्, ग्लुच्, ग्लुञ्च्, जृ आदि परस्मैपद में हों तो विकल्प से ।
शास् के रूप अशिषम्
अशिषाव अशिषाम अशिषः
अशिषतम्
अशिषत अशिषत्
अशिषताम् अशिषन् अप + अस् (उभयपदी) आत्मनेपद में अपास्थे
अपास्थावहि अपास्थामहि अपास्थथा:
अपास्थेथाम् अपास्थध्वम् अपास्थत
अपास्थेताम् अपास्थन्त
आ+ह्वे आह्वे
आह्वावहि आह्वामहि आह्वथा:
आह्वेथाम् . आह्वध्वम् आह्वत
आह्वेताम् आह्वन्त
पक्षे - दूसरा प्रकार आह्वासि
आह्वास्वहि आह्वास्महि आह्वास्थाः
आह्वासाथाम्
आह्वाध्वम्, द्ध्वम् आह्वास्त
आह्वासाताम् आह्वासत - वच् - अवोचत् आदि 'ख्या - आख्यत् आदि
सृ - असरत् - पक्षे - असार्षीत, असा म्, असाघुः ।
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आओ संस्कृत सीखें
हे
लिप्
सिच्
गम्
पत्
द्युत्
रुच्
ध्वंस्
पुष्
तृप
उच्
दृप्
नश्
अस्
रुध्
बुध्
दृश्
भिद्
श्वि
स्तम्भ्
म्रुच्
म्लुच्
ग्रुच्
ग्लुच्
ग्लुश्च
ला हो
ज़
-
-
-
-
-
-
-
-
आरत् पक्षे (आर्षीत्, आम, आर्षुः)
आह्वत्, आह्वत
उभयपदी
अलिपत्, अलिपत ।
असिचत्, असिचत ।
अगमत्
अपप्तत्
पर - अद्युतत् - आत्मनेपद में पहला प्रकार - अद्योतिष्ट । अरुचत् - आत्मनेपद में पहला प्रकार - अरोचिष्ट
परस्मैपदी
अध्वसत् आत्मनेपद - अध्वंसिष्ट
अपुषत्
अतृपत्
औचत्
अदृपत्
अनेशत, अनशत् ।
213
आस्थत्, अपास्थत् ।
अरुधत्
पक्षे
अबुधत्
पक्षे
अदर्शत्
पक्षे
अभिदत्
पक्षे
पक्षे
पक्षे
पक्षे
पक्षे
पक्षे
पक्षे
पक्षे
पक्षे
अश्वत्
अस्तभत्
अम्रुचत्
अम्लुचत्
अनुचत्
अग्लुचत्
अग्लुचत्
अजरत्
अरौत्सीत्
अबोधीत्
अद्राक्षीत्
अभैत्सीत्
अश्वयीत्
अस्तम्भीत्
अम्रोचीत्
अम्लोचीत्
अग्रोचीत्
अग्लोचीत्
अग्लुचत
अजात्
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आओ संस्कृत सीखें
आत्मनेपद में रुध् अरुद्ध अरुत्साताम् अरुत्सत । अभित्त । अबोधिष्ट । 7. तृप् और दृप् धातु से पहले व दूसरे प्रकार के प्रत्यय होते हैं ये दोनों धातु वेट
पहला प्रकार अतीत् .. अतर्पिष्टाम् अतर्पिषुः दूसरा प्रकार अत्राप्सीत् अत्राप्ताम् अत्राप्सुः
__ अतासीत् अताप्तम् अताप्र्मुः दृप पहला प्रकार अदीत् अदर्पिष्टाम् अदर्पिषुः दूसरा प्रकार अद्राप्सीत्
अदासीत् अतृपत् । अदृपत् आदि
सातवाँ प्रकार - कर्तरि प्रयोग में सातवें प्रकार में धातु से अ (ङ) प्रत्यय होता है । ङ प्रत्यय पर धातु की द्विरुक्ति होती है।
निम्नलिखित धातएँ 7वें प्रकार में हैं 1. इ (णिच् या णिग्) प्रत्यय जिसके अंत में हो (दसवें गण और प्रेरक भेद के धातु) 2. श्रि, दु, सु और कम् 3. धे, (ट्धे) और श्वि विकल्प से हैं उदा. श्रि - अशिश्रियत् ।
द्व - अदुद्रुवत् । सु - असुस्रुवत् । कम् - अचकमत । धे (ट्धे) अदधत् पक्षे अधात् अधासीत् (5वाँ प्रकार) श्वि - अशिश्वियत् पक्षे - अश्वत् । अश्वयीत्
श्रि के रूप अशिश्रियम् अशिश्रियाव
अशिश्रियाम अशिश्रियः अशिश्रियतम्
अशिश्रियत अशिश्रियत् अशिश्रियताम्
अशिश्रियन्
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आओ संस्कृत सीखें
2155
कम् के रूप अचकमे अचकमावहि
अचकमामहि अचकमथाः अचकमेथाम्
अचकमध्वम् अचकमत अचकमेताम्
अचकमन्त
शब्दार्थ आन्ध्र = आंध्र देश के राजा (पुंलिंग)| भुजा = बाहु
(स्त्री लिंग) ईश = प्रभु
(पुंलिंग) श्रुति = श्रवण (स्त्री लिंग) गण = समूह
(पुंलिंग)|क्ष्मा = पृथ्वी (स्त्री लिंग) गोचर = विषय (पुंलिंग)| कैतव = कपट (नपुं. लिंग). ज्वर = बुखार
(पुंलिंग)| वार् = पानी (नपुं. लिंग) पलाश = पलाश वृक्ष (पुंलिंग)| शून्य = शून्य
(नपुं. लिंग) पात = गिरना
(पुंलिंग)| श्मश्रु = मूछ, दाढ़ी (नपुं. लिंग) पाप = पापी
(पुंलिंग)| | सुभ्रू = स्त्री
(स्त्री लिंग) प्रत्युपकार = बदला (पुंलिंग)| अद्भुत = आश्चर्यकारक (विशेषण) फुत्कार = फुत्कार (पुंलिंग)| अध्वग = मुसाफिर . (विशेषण) बन्दिन् = मंगलपाठक
आतुर = रोगी (विशेषण) रसज्वर = रस जन्य ताव (पुंलिंग)| घोर = भयंकर (विशेषण) वश = आधीन
(पुंलिंग)| दुःखित = दुःखी (विशेषण) कुटी = झोपडी (स्त्री लिंग)| निवृत्त = शांत (विशेषण) धमनी = धमण (स्त्री लिंग)| संपृक्त = सहित (विशेषण) मैत्री = मैत्री भावना (स्त्री लिंग)| स्वैर = स्वतंत्र (विशेषण) प्रपा = परब
(स्त्री लिंग)| हास्यकार = हंसी करनेवाला (विशेषण)
धातु अव + इ = जानना गण 2 पर । 2 = जाना गण 1 पर. वश्श् = ठगना गण 10 आत्मने वि + नि + अस् = स्थापना करना गण 4
____संस्कृत में अनुवाद करो 1. मुनि को देख राजा खुश हुआ (मुद्) और उनके अद्भुत तप सामर्थ्य का विचार
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आओ संस्कृत सीखें
करता हुआ सभा में गया (इ)
2.
वे वृक्ष हैं, जिनके ऊपर हम दोनों, बंदर की तरह स्वतंत्र रूप से खेलते थे । (रम्) 3. तुमने किस सुभग को दृष्टि से पीया है, (पा) जिसके कारण तुम्हारी यह दशा हुई
है ? (भू)
4.
हे सुभ्रु ! क्या तूने किंपाक का फल तोड़ा (छो) और सूंघा या सप्तछद पुष्प तोड़ा और सूंघा जिस कारण तू इस प्रकार दु:खी हुई है । (आर्ती भवसि )
वह बहुत देशों में घूमा है (भ्रम्) ( गण 4) और उसने बहुत ही आश्चर्यकारी वस्तुएँ देखी है। (दृश्)
5.
6.
9.
216
7.
मैंने पाप किया नहीं (कृ) तो फिर मैं दुःख के गर्त में क्यों गिरा ? (पत्) 8. उसने हाथ द्वारा मूछ का स्पर्श किया (स्पृश् ) और उसके बाद धनुष का स्पर्श
युद्ध में जो भाग गए (नश्) उन्हें मैंने मारा नहीं (हन्) तथा मैं भी युद्ध में से भागा नहीं (नश्) ।
1.
10. सिंह के भय से हाथी भाग गए (दु) । रहने के लिए (स्थातुम्) उन्होंने इच्छा नहीं
की । (कम्)
2.
किया (स्पृश्) ।
भुजा के बल से गर्व करते थे (दृ) और मंत्र - अस्त्र द्वारा गर्व करते थे, उन सब को राजा ने वश में किया ।
हिन्दी में अनुवाद करो
?
मा कार्षीत्कोऽपि पापानि मा च भूत्कोऽपि दुःखितः । मुच्यतां जगदप्येषा, मति मैत्री निगद्यते ।।
राम इव दशरथोऽभूद्दशरथ इव रघुरजोऽपि रघुसदृश: । अज इव दिलीपवंशश्चित्रं रामस्य कीर्तिरियम् ।।
3. वैराग्यरङ्गः परवञ्चनाय, धर्मोपदेशो जनरञ्जनाय ।
वादाय विद्याध्ययनं च मेऽभूत् कियद्भुवे हास्यकरं स्वमीश ! ||
4. हृदये वससीति मत्प्रियं, यदवोचस्तदवैमि कैतवम् ।
5. जीवितेनाऽमुना किं मे, तपसा भूयसाऽपि किम् ? श्रुतिगोचरमायासीत् स्वसूनोर्यत्पराभवः ।।
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आओ संस्कृत सीखें
2217
6. स आश्रमपदं किञ्चित्, चिरशून्यमशिश्रियत् ।
दुस्तपं च तपस्तेपे, शुष्कपत्रादिभोजनः ।। पलाशपत्राण्यादाय, स आश्रमकुटी व्यधात् । मृगाणामध्वगानां च, शीतच्छायाऽमृतप्रपाम् ।। यावत्प्रत्युपकाराय क्षमीभूतोऽस्मि यौवने ।
दैवादिहागमं तावत्पापोहमजितेन्द्रियः ॥ 9. अत्यन्तघोरनरकपातप्रतिभुवामहो ।
विषयाणां स्मरास्त्राणां, मा गास्त्वं भेदनीयताम् ।। 10. यौवने पर्यणेषीत्स, राजकन्याः कुलोद्भवाः ।
सम्पृक्तश्चाशुभत्ताभिर्लताभिरिव पादपः ।। कुमार ! किन्तु पृच्छामि, प्रष्टुमेवाहमागमम् ।
रसज्वरातुरेणेव, किं त्वयाऽत्याजि भोजनम् ।। 12. उत्फणा:फणिनस्तं धमनीनिभैरास्यैः फुत्कारपवनानमुचन् । 13. वचनं धनपालस्य चन्दनं मलयस्य च ।
सरसं हृदि विन्यस्य कोभून्नाम न निर्वृतः ।। 14. अलिप्तासिचतान्ध्रः मामसृजा मूर्च्छितस्तदा ।
असिक्तालिपतैनं वाश्चन्दनैर्बन्दिनां गणः ।। 15. कृष्णायास्मै द्वितीयस्मै, द्वितीयायासिना नृपाः ।
द्वितीयस्मात्तृतीयाच्च, देशादेत्य नमो व्यधुः ।।
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आओ संस्कृत सीखें
8218
यासम्
यास्म
यात्
पाठ - 30
आशीर्वाद परस्मैपदी - प्रत्यय
यास्व यास् यास्तम्
यास्त यास्ताम्
यासुस् आत्मनेपदी प्रत्यय सीय सीवहि
सीमहि सीष्ठास्
सीयास्थाम् सीयास्ताम्
सीरन् परस्मैपद के प्रत्यय कित् हैं। 1. नामी उपांत्य अनिट् धातु से और ऋ वर्णांत अनिट् धातु से आत्मनेपद के प्रत्यय
कित् जैसे होते हैं।
उदा. भित्सीष्ट, कृषीष्ट, तीर्षीष्ट 2. गम् धातु से आत्मनेपद के प्रत्यय विकल्प से कित् जैसे होते है। उदा. संगसीष्ट, संगसीष्ट
परस्मैपद में विशेषता 3. ऋकारांत धातु से ऋ का, य से प्रारंभ होनेवाले आशी: के प्रत्ययों पर रि होता
सीध्वम्
सीष्ट
उदा. क्रियात् 4. संयोग के बार ऋ हो ऐसे ऋकारांत धातु से तथा ऋ धातु का,, य से प्रारंभ
होनेवाले आशी: के प्रत्ययों पर गुण होता है। उदा. स्मर्यात्, अर्यात् आदि में संयोग हो और अंत में आ हो ऐसे आकारांत धातु के आ का परस्मैपद में विकल्प से ए होता है।
उदा. ग्लायात्, ग्लेयात् 6. गै (गा.), पा-पीना, स्था, सा (सो), दा संज्ञक, मा, हा (छोड़ना) ।
का परस्मैपद में नित्य ए होता है ।
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क्रिया:
कृषीय
आओ संस्कृत सीखें
219 उदा. गेयात्, पेयात् य कारादि आशी: के प्रत्ययों पर दीर्घ होते हैं।
उदा. जीयात् स्तूयात् । 7. इ (बिट्) सिवाय आशीर्वाद में हन् का वध होता है। उदा. वध्यात, आवधिषीष्ट इ (ञिट्) में घानिषीष्ट
कृ के रूप - परस्मैपद क्रियासम् क्रियास्व
क्रियास्म क्रियास्तम्
क्रियास्त क्रियात् क्रियास्ताम्
क्रियासुः आत्मनेपद कृषीवहि
कृषीमहि कृषीष्ठाः कृषीयास्थाम्
कृषीढ्वम् कृषीष्ट कृषीयास्ताम्
कृषीरन् दुह के रूप - परस्मैपद दुह्यासम्
दुह्यास्व दुह्याः दुह्यास्तम्
दुह्यास्त दुह्यात् दुह्यास्ताम्
दुह्यासुः
आत्मनेपद धुक्षीय धुक्षीवहि
धुक्षीमहि धुक्षीष्ठाः धुक्षीयास्थाम् धुक्षीध्वम् धुक्षीयास्ताम्
धुक्षीरन् वह् - उह्यात्, वक्षीष्ट मुद् - मोदिषीष्ट दसवें गण के आशी: के रुप प्रेरक के पाठ में देंगे ।
कर्मणि रूप आत्मनेपद के प्रत्यय तथा पाठ 19 के नियम 18, 19, 20 लगाकर करे। उदा. नेषीष्ट, नायिषीष्ट
दुह्यास्म
धुक्षीष्ट
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आओ संस्कृत सीखें
ईश = महादेव पार = अंत
उमा =
पार्वती
1.
2.
3.
4.
5.
6.
दासीष्ट, दायिषीष्ट ।
ग्रहीषीष्ट, ग्राहिषीष्ट ।
दर्शिषीष्ट, दृक्षीष्ट ।
घानिषीष्ट, वधिषीष्ट ।
नंसीष्ट ।
2.
220
शब्दार्थ
=
विशिष्ट शक्ति
(पुंलिंग) | लब्धि (पुंलिंग) सान्निध्य = निकटता (स्त्रीलिंग) सांध्य = संध्या संबंधी
(स्त्रीलिंग) ( नपुं. लिंग) (विशेषण)
संस्कृत में अनुवाद करो
पुष्ट
सभी लब्धियाँ जिनको वरी हैं, वे गौतम गणधर तुम्हारी लक्ष्मी को (पुष्)
सरस्वती देवी हमेशा हमारे मुखकमल में सान्निध्य करे । (कृ) यह पुत्र विद्या के पार को प्राप्त करे । ( पारम् + या)
करें ।
मैं लक्ष्मीवान् बनूँ (भू) और तू पुत्रवान बन ।
ये दुष्ट मर जाएँ । (मृ)
विवेक और पुरुषार्थ को नहीं छोड़नेवाले ऐसे तुम्हें तुम्हारा पुरुषार्थ सिद्धि प्रदान करे । (दा)
हिन्दी में अनुवाद करो
1. हे राजन् ! यूयं लक्ष्मीमवृवं द्विषोऽस्तीर्वं पृथिवीं ववृद वे तत्सुखमासिषीध्वं गुरून्स्तूयास्त तथा सान्ध्यविधिं कृषीवं ततश्चैतद्भुवनं यशोभिः स्तीर्षीवम् ।
यथा समगतोमेशे श्रीः कृष्णे समगंस्त च । संगंसीष्ट त्वयि तथा सा शुभैः संगसीष्ट च ।।
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आओ संस्कृत सीखें
समास अर्थात् पदों का संक्षेप ।
समास से भाषा संक्षिप्त बनती है और थोड़े शब्दों में भी ज्यादा कह सकते हैं।
होगा ।
221
हर भाषा में समास का प्रयोग होता है।
जो पद परस्पर अपेक्षित संबंधवाले हों, उन्हीं पदों का समास होता है। पदों में परस्पर अपेक्षा न हो तो समास नहीं होता है।
उदा.
इदं देवदत्तस्य गृहं दृश्यते
इदं देवदत्तगृहं दृश्यते - देवदत्त और गृह का संबंध होने से यहाँ समास
समास
पुस्तकं इदं देवदत्तस्य, गृहं इदं जिनदत्तस्य
यहाँ देवदत्त और गृह में संबंध नहीं होने से समास नहीं होगा ।
समास को एक पद भी कहते हैं, इसी कारण एक समास का दूसरे पद या समास के साथ समास हो सकता है।
समास एक पद कहलाता है अर्थात् एक स्वतंत्र शब्द बनता है अर्थात् समास होने पर भिन्न भिन्न विभक्तियों से प्रत्ययों का लोप हो जाता है और उस समास शब्द से ही विभक्ति के प्रत्यय लगते हैं।
समास के अंत में रहे शब्द के लिंग के अनुसार सामासिक शब्दों का लिंग होता
'देवदत्तस्य गृहम्' का समास होने पर 'देवदत्तगृह' - एक शब्द बनता है, अत: उससे विभक्ति के प्रत्यय आते हैं और रूप चलेंगे ।
उदा. प्रथमा-द्वितीय
-
★
-
देवदत्तगृहम् देवदत्तगृहेण
तृतीया
नीलं च तद् उत्पलं च - नीलोत्पलम्
रूप नीलोत्पलम्, नीलोत्पले, नीलोत्पलानि ।
रामश्च लक्ष्मणश्च - रामलक्ष्मणौ रामलक्ष्मणाभ्याम्
धवश्च खदिरश्च पलाशश्च धवखदिरपलाशाः धवखदिरपलाशान्,
"
-
देवदत्तगृहे देवदत्तगृहाभ्यां
देवदत्तगृहाणि
देवदत्तगृहैः
धवखदिरपलाशैः ।
धवश्च खदिरश्च अनयोः समाहारः धवखदिरम्, धवखदिरेण, धवखदिराय आदि
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आओ संस्कृत सीखें
धवश्च खदिरश्च पलाशश्च एतेषां समाहारः धवखदिर पलाशम् धवखदिरपलाशेन, धवखदिरपलाशाय आदि ।
समास एक पद होता है, फिर भी उसमें अलग-अलग शब्द भी पद कहलाते हैं, अतः पद संबंधी कार्य, संधि आदि अवश्य होगी। समास में संधि अवश्य करें । उदा. नीलं च तद् उत्पलं च - नीलोत्पलम्
स्फुराणि च तानि छत्राणि - स्फुरच्छत्राणि
संश्चासौ जनश्च सज्जनः
मनसः भाव मनोभावः ।
राज्ञः पुरुष - राजपुरुष: ( न् का लोप )
गिर : अर्थ - गीरर्थ = (दीर्घ, पाठ २१ नियम ७ )
-
222
विदुषां अनुचरः विद्वदनुचरः - स् का द् हुआ । समास के चार प्रकार
तत्पुरुष
और द्वन्द्व ।
बहुव्रीही, अव्ययीभाव, तत्पुरुष समास के दो भेद कर्मधारय और द्विगु होने से समास के छह भेद होते हैं। कुछ समास नित्य होते हैं। नित्य समास का विग्रह नहीं होता है, परंतु उसके अर्थ के अनुसार वाक्य करते हैं । उदा. अनुरथम् का रथस्य पश्चात्
कुछ समास में पूर्वपद की विभक्ति का लोप नहीं होता है उसे अलुप् समास कहते हैं| उदा. भस्मनि हुतम् - भस्मनिहुतम् ।
समास के कई पूर्व पद और उत्तर पद में भी कई परिवर्तन होते हैं।
समास के अंतिम पद को उत्तर पद और उसके पहले के पद को पूर्व पद कहते हैं। समास के अंत में भी कई समासांत प्रत्यय लगते हैं। समासांत प्रत्ययों का समावेश तद्धित के प्रत्ययों में किया गया है अतः तद्धित के प्रत्ययों पर जो नियम लगेंगे, वे समासांत प्रत्ययों पर भी लगेंगे ।
-
एक समान दिखाई देने वाला समास भिन्न-भिन्न प्रकार का भी हो सकता है । उदा. महाबाहु • महांश्चासौ कर्मधारय महान्तौ बाहू यस्य - महाबाहुः - बहुव्रीहि मेघस्य नादः - मेघनादः षष्ठीतत्पुरुष
बाहुश्च महाबाहुः
मेघवत् नादः यस्य स मेघनादः बहुव्रीहि
समासों का विग्रह करते समय निम्न बातें अवश्य जाननी चाहिए ।
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आओ संस्कृत सीखें
1. समास का प्रकार, शब्दों के लिंग, वचन । संपूर्ण समास का लिंग, विभक्ति, वचन । विग्रह वाक्य का प्रयोग आदि । उदा. कमले इव नेत्रे यस्य सः = कमलनेत्र: कमले इव नेत्रे यस्या: सा = कमलनेत्रा कम इव नेत्रे ययोः ते = कमलनेत्रे
कुक्कुटश्च मयूरी च = कुक्कुटमयूर्यौ
देवदत्तस्य गृहम् – देवदत्तगृहम् - तस्मिन् – देवदत्तगृहे
-
कमले इव नेत्रे यस्याः सा = कमलनेत्रा - तत्संबोधने - हे कमलनेत्रे ।
223
=
जनानां समूहः जनसमूहः । जिता: अरयः येन स = जितारिः (कर्मणि)
नष्टं स्वं यस्य स = नष्टस्व: ( कर्त्तरि )
प्रगता असवः यस्मात् स = : प्रासुकः विमलं यशो यस्य स = विमलयशाः गतं यौवनं येषां ते = गतयौवनाः
सिद्धा विद्या यस्य सः =
सिद्धविद्यः
लंबे समास में सर्व प्रथम मुख्य समास का विग्रह कर फिर छोटे समासों का विग्रह
करना चाहिए ।
उदा. शुद्धाऽकषायहदयः
शुद्धं अकषायं हृदयं यस्य स शुद्धाऽकषायहृदयः (बहुपद बहुव्रीहि)
न विद्यन्ते कषाया यस्मिन् तत् अकषायम् ।
2. स्वपापभरपूरितः
स्वपापभरेण पूरितः स्वपापभरपूरितः ।
विग्रह -
स्वस्य पापम् = स्वपापम् स्वपापस्य भरः = स्वपापभरः
3. हर्षविषादपूरितहृदयः
हर्षश्च विषादश्च हर्षविषादौ
हर्षविषादाभ्यां पूरितं हृदयं यस्य सः = हर्षविषादपूरितहृदयः ।
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पाठ - 31
बहुव्रीहि - समास 1. बार अर्थ में तथा विकल्प या संशय अर्थ में वर्तमान संख्यावाचक नाम, संख्येय
(विशेषण) में वर्तमान संख्यावाचक नाम, संख्येय (विशेषण) में वर्तमान संख्यावाचक नाम के साथ बहुव्रीहि समास होता है। उदा. द्विः दश - द्विदशा: वृक्षाः (बीस वृक्ष)
त्रिर्दश - त्रिदशा : (तीस वृक्ष)
द्विर्विंशतिः - द्विविंशा (चालीस वृक्ष) द्वौ वा त्रयो वा - द्वित्राः जनाः (दो या तीन लोग) सप्त वा अष्ट वा - सप्ताष्टाः पञ्च वा षड् वा - पञ्चषाः त्रयो वा चत्वारो वा - त्रि चतुराः । आसन्न, अदूर अधिक और अध्यर्ध नाम तथा अर्ध के बाद रहा पूरण प्रत्ययांत नाम, संख्यावाची नाम के साथ द्वितीया आदि विभक्तिवाले अन्य पद के संख्येय रूप विशेषण के रूप में बहुव्रीहि समास पाता है । उदा. आसन्ना दश येषां येभ्यो वा ते आसन्नदशा: वृक्षाः (9 या 10 वृक्ष) इसी प्रकार - आसन्नविंशाः, आसन्नत्रिंशाः, अदूरदशाः (9 या 10) अधिका दश येभ्यो येषु वा ते अधिकदशाः (ग्यारह आदि) अध्यर्धा विंशतिः येषां ते अध्यर्ध विंशाः (डेढबीस संख्या 30) अर्धपश्चमा विंशतयः येषां ते अर्ध पञ्चमविंशाः अश्वाः (साढे चार बीस अर्थात् 90 घोड़े) अव्यय नाम, संख्यावाचक नाम के साथ द्वितीया आदि विभक्तिवाले अन्य पद के संख्येय रूप विशेषण के रूप में बहव्रीहि समास पाते हैं - उप-समीपे दश येषां ते उपदशाः (9 या 11) इसी प्रकार : उपविंशाः उपचत्वारिंशाः उपचतुराः ।
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225
समानाधिकरण रहुव्रीहि : 1. एक समान विभक्ति में रहा एक या अनेक नाम तथा अव्यय दूसरे नाम के साथ
में द्वितीया आदि विभक्तिवाले अन्य पद के विशेषण के रूप में बहुव्रीहि समास पाता है - एक नाम का दूसरे नाम के साथ
द्विपद बहुव्रीहि 1. आरूढो वानरो यं स आरूढवानरो वृक्षः । 2. ऊढो रथो येन स ऊढरथोऽनड्वान् । 3. उपहतो बलिः अस्यै सा उपहतबलि: यक्षी ।
भीताः शत्रवो यस्मात् स भीतशत्रुर्नृपः। 5. चित्रा गावो यस्य स चित्रगश्चैत्रः । 6. अर्धं तृतीयमेषाम् ते अर्धतृतीया: द्वीपाः (ढाई द्वीप)। 7. वीराः पुरुषाः सन्ति अस्मिन् स वीर पुरुषको ग्राम:
अनेक नाम का दूसरे नाम के साथ
बहुपद - बहुव्रीहि 1. आरूढा बहवो वानरा यं स आरूढ बहु वानरो वृक्षः । 2. पञ्च पूला धनमस्य स पश्चपूल धनः । 3. मत्ता बहवो मातङ्गा यत्र तन्मत्तबहुमातङ्गं वनम् ।
अव्यय का दूसरे नाम के साथ
अव्यय बहुव्रीहि उच्चैर्मुखमस्य स उच्चैर्मुखः। - व्यधिकरण अन्तरङ्गानि यस्य स अन्तरङ्गः । कर्तुं कामोऽस्य स कर्तुकामः ।। अस्ति क्षीरमस्याः सा अस्तिक्षीरा गौः - समानाधिकरण
___ उष्ट्रमुखादि बहुव्रीहि उष्ट्रमुख आदि बहुव्रीहि समास स्वयंसिद्ध हैं ।
उपमान - उपमेय बहुव्रीहि 1. उष्ट्रस्य मुखमिव मुखं अस्य स उष्ट्रमुखः ।
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2. हरिणाक्षिणी इव अक्षिणी यस्याः सा हरिणाक्षी । 3. हंसगमनं इव गमनं यस्याः साः हंसगमना । 4. इभकुम्भौ इव स्तनौ यस्याः सा इभकुम्भस्तनी । 5. चन्द्र इव मुखं यस्याः सा चन्द्रमुखी । 6. कमलमिव वदनं यस्याः सा कमलवदना ।
इस प्रकार भी विग्रह कर सकते हैं उष्ट्रस्य इव मुख यस्य स उष्ट्रमुखः । उष्टवत् मुखं यस्य स उष्ट्रमुखः ।
अलुप् बहुव्रीहि उरसि (स्थितानि) लोमानि यस्य स उरसिलोमा
प्रादि बहुव्रीहि 1. प्रपतितानि पर्णानि अस्य स प्रपर्णः । 2. निर्गतं तेजो यस्मात् स निस्तेजाः । 3. उद्गता कन्धरा यस्य स उत्कन्धरः । 4. विगतो धवो यस्याः सा विधवा ।
नञ् बहुव्रीहि अविद्यमानः पुत्रोऽस्य सः अपुत्रः । न विद्यन्ते चौरा अस्मिन् सः अचौरः पन्थाः । नास्ति आदिर्यस्य सः अनादिः संसारः । असन् उत्सेध अस्य स अनुत्सेधः प्रासादः ।
व्यधिकरण बहुव्रीहि इन्दुमौलौ यस्य स इन्दुमौलिः । पऱ्या हस्ते अस्य स पद्महस्तः । असि: पार्णो यस्य सः असिपाणिः । धनुः हस्ते यस्य स धनुर्हस्तः । इन्द्रस्य उपमा यस्य यस्मिन् वा स इन्द्रोपमो राजा ।
सहार्थ बहुव्रीहि 1. सह अव्यय, तृतीयांत नाम के साथ अन्य पद के विशेषण रूप में बहुव्रीहि समास
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होता है। उदा. सह पुत्रेण सपुत्रः आगतः । सह छात्रेण सच्छात्र आगतः । सह
मदेन वर्तने समदः । सधनः । सस्मयः । 7. लोक व्यवहार में प्रचलित दिशावाचक नाम दूसरे दिशावाचक नाम के साथ
बहुव्रीहि समास होता है। यह समास उन उन दिशाओं के अंतराल को बताता
उदा. दक्षिणस्याः च पूर्वस्याः च दिशोर्यद् अन्तरालं सा दक्षिणपूर्वा दिक्(अग्निकोण) इसी प्रकार - पूर्वोत्तरा (ईशानकोण) उत्तर पश्चिमा । दक्षिण पश्चिमा ।
समास उपयोगी विधि 8. उपमान वाचक शब्द के बाद रहे उरु शब्द से स्त्री लिंग में ऊ (ऊ) प्रत्यय होता
है तथा सहित, संहित, सह, सफ, वाम और लक्ष्मण शब्द के बाद रहे उरु शब्द से भी ऊ होता है। उदा. करभ इव उरू यस्याः सा करभोरू:। रम्भोरू:। वामौ (सुन्दरौ) उरू यस्याः सा वामोरू: ।
परंतु - वृत्तौ उरू यस्याः सा वृत्तोरुः । पीनोरु: ऊ नहीं होगा । 9. गो शब्द ई (ङी), आ (आप) और ऊ (ऊ) प्रत्ययांत स्त्री लिंग शब्द, समास
के अंत में हों और गौण हो गए हो तो उनका स्वर ह्रस्व होता है। परंतु अंशि समास और ईयस् (ईयसु) प्रत्ययांत बहुव्रीहि मे स्वर ह्रस्व नही होता है । उदा. चित्रा गावो यस्य स चित्रगुः ।
प्रिया खट्वा यस्य स प्रियखट्वः । वाराणस्या निर्गतः - निर्वाराणसिः । खट्वामतिक्रान्तः - अतिखट्वः । वामोरूमतिक्रान्तः - अतिवामोरुः ।
परंतु
अर्धं पिप्पल्याः अर्धपिप्पली (अंशि तत्पुरुष)
बहवः प्रेयस्यो यस्य स बहुप्रेयसी । 10. आ (आप) प्रत्यय का स्वर, क (कच्) प्रत्यय पर विकल्प से ह्रस्व होता है ।
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कान्ता भार्या यस्य स कान्तभार्यकः, कान्तभार्याकः ।
लक्ष्मीभार्यकः, लक्ष्मीभार्याक :। प्रियखट्वकाः, प्रियवखट्वाका, प्रियखट्विका (स्त्री लिंग में इ भी होता है)
पूर्वपद विधि 11. विशेषण स्त्री लिंग शब्द, समान विभक्ति में रहे स्त्री लिंग उत्तरपद पर पुंवत् होता
है, परंतु ऊ (ऊ) प्रत्ययांत शब्द पुंवत् नहीं होता है। उदा. दर्शनीया भार्या यस्य स दर्शनीयभार्यः ।
पट्वी भार्या यस्य स पटुभार्यः । परंतु करभोरू भार्य: यहां पुंवत् नहीं होगा। 12. सर्वनाम स्त्री लिंग शब्द पुंवत् होता है।
उदा. दक्षिणपूर्वा । भवत्याः पुत्रः भवत्पुत्रः । (षष्ठी तत्पुरुष) 13. तुम् और सम् के म् का मनस् और काम उत्तरपद पर लोप होता है। उदा. भोक्तुं मनः यस्य स भोक्तुमनः
गन्तुं कामः यस्य स गन्तुकामः
सम्यग् मनः यस्य समनाः । सकाम । 14. धर्म आदि उत्तरपद में हो तो समान का स होता है। उदा. समानो धर्मः यस्य स सधर्मा, सनामा, सरूपः, सवयाः।
समासांत प्रत्यय 15. सक्थि और अक्षि अंतवाले बहुव्रीहि से अ (ट) होता है। उदा. दीर्घ सक्थि यस्य स दीर्घसक्थः। स्त्री लिंग - दीर्घसक्थी ।
विशाले अक्षिणी यस्य यस्या वा विशालाक्षः, विशालाक्षी ।
कमले इव अक्षिणी यस्य यस्या वा कमलाक्षः, कमलाक्षी । 16. संख्यावाचक शब्द अंत में हो ऐसे बहुव्रीहि से अ (ड) होता है। उदा. द्विः दश = द्विदशाः ।
इसी प्रकार द्वित्रा:, द्विचताः, पञ्चषाः । 17. न, सु, वि, उप और त्रि शब्द के बाद चतुर् शब्द हो तो ऐसे बहुव्रीहि से अ
(अप) होता है। उदा. अविद्यमानानि चत्वारि यस्य सोऽचतुरः ।
शोभनानि चत्वारि यस्य स सुचतुरः ।
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विगतानि चत्वारि यस्य स विचतुरः । उप-समीपे चत्वारो येषां ते उपचतुराः
त्रयो वा चत्वारो वा त्रिचतुराः । 18. न, सु और दुर् के बाद प्रजा हो ऐसे बहुव्रीहि से अस् होता है ।
न विद्यन्ते प्रजा यस्य सः अप्रजा: अप्रजसौ अप्रजसः ।
सुप्रजाः, दुष्प्रजाः । 19. न, सु, दुर् तथा मंद और अल्प के बाद मेधा हो ऐसे बहुव्रीहि से अस् होता है।
उदा. अमेधाः । मन्दमेधाः । आदि 20. धर्म शब्द अंत में हो ऐसे द्विपद बहुव्रीहि से अन् होता है।
समानो धर्मो यस्य स सधर्मा, सधर्माणी, सधर्माणः । 21. सु, पूति, उद् और सुरभि के बाद गंध हो ऐसे बहुव्रीहि से इ होता है ।
उदा. सुगन्धिः कायः । 22. उपमान के बाद गंध शब्द हो ऐसे बहुव्रीहि से विकल्प से इ होता है।
उत्पलस्य इव गन्धः यस्य तद् उत्पलगन्धि, उत्पलगन्धम् मुखम् । 23. बहुव्रीहि में धनुष् का धन्वन् और जाया का जानि होता है ।
उदा. पुष्पं धनुः यस्य पुष्पधन्वा (कामः) ।
___उमा जाया यस्य उमाजानिः (शम्भुः) 24. इन् अंतवाले स्त्री लिंग बहुव्रीहि से क (कच्) होता है ।
बहवो दण्डिनोडस्यां बहुदण्डिका सेना ।
बहुस्वामिका पुरी। 25. ऋकारांत नाम तथा जिन नामों से ऐ, आस्, आस्, आम् प्रत्यय नित्य हों ऐसे नाम
जिसके अंत में हों ऐसे बहुव्रीहि से क (कच्) होता है।
बहुकर्तृकः, बहुनदीको देशः, सवधूकः । ... 26. न के बाद अर्थ हो, ऐसे बहुव्रीहि से क (कच्) होता है।
उदा. न विद्यते अर्थः यस्य तद् अनर्थकं वचः । 27. कई बहुव्रीहि से विकल्प से क (कच्) होता है।
वीर पुरुष को, वीरपुरुषो ग्रामः । .. बहुस्वामिकं, बहुस्वामि नगरम् । सह कर्मणा वर्तते - सकर्मकः, सकर्मा । सपक्षक, सपक्षः ।
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आखण्डल = इंद्र आदि = प्रारंभ
उत्सेध = ऊंचाई उरु = जंघा
करभ = जानवर का बच्चा
कलम = कलमी चावल कषाय = राग-द्वेष
कुम्भ = घड़ा जन्तु = जीवजंतु धव = पति
निशाकर = चंद्र
पूल = घास का पूला मातङ्ग = हाथी
लक्ष्मण = सुंदर
शशाङ्क = चंद्र
स्मय = गर्व
|सफ = संक्लिष्ट
हरिण
= हिरण
उपमा = सदृशता
230
4.
शब्दार्थ
(पुंलिंग) | कन्धरा = गर्दन (पुंलिंग) खट्वा = पलंग
(पुंलिंग) चेष्टा = प्रवृत्ति (पुंलिंग) जीविका = आजीविका (पुंलिंग) तारा = तारा (पुंलिंग) मेधा = बुद्धि
(पुंलिंग) रम्भा = केल
-
(पुंलिंग) आतपत्र = छत्र (पुंलिंग) उरस् छाती (पुंलिंग) कज्जल = काजल (पुंलिंग) करण = इन्द्रिय (पुंलिंग) गात्र = शरीर
-
(पुंलिंग) पल = मांस
(पुंलिंग) लोमन = रोम (पुंलिंग) पूति = खराब (पुंलिंग) सहस्रजिह्न = बृहस्पति (पुंलिंग) सहस्राक्ष = इंद्र (पुंलिंग) अन्तर् = अंदर
( स्त्री लिंग) | अस्ति = है
(स्त्रीलिंग)
(स्त्रीलिंग)
(स्त्रीलिंग)
(स्त्रीलिंग)
(स्त्रीलिंग)
(स्त्रीलिंग)
(स्त्रीलिंग)
(नपुंसक लिंग)
(नपुंसक लिंग)
( नपुंसक लिंग)
( नपुंसक लिंग) (नपुंसक लिंग)
( नपुंसक लिंग)
(नपुंसक लिंग)
(विशेषण)
(पुंलिंग)
(पुंलिंग)
(अव्यय)
(अव्यय)
धातु
उद्+सह् = उत्साह रखना गण 1 आत्मने. काङ्क्ष = इच्छा करना - गण 1 परस्मै. उप+स्था = हाजिर होना गण 1 आत्मने. सम् + प्रथ् = प्रख्यात होना गण 1 आत्मने. संस्कृत में अनुवाद करो
1. नौ या ग्यारह गुर्जर सुभटों ने, मस्त हैं बहुत से हाथी ऐसे शत्रु के सैन्य में, चढ़े हुए सैनिकवाले नब्बे घोड़ों को मारा ( हन्) ।
2. हे वामोरु और हे पीनोरु ! तुम यहाँ बैठो ।
3.
तीव्र पाप के उदय में रंभा समान जंघावाली भार्यावाला अथवा शोभन भार्यावाला भी दुःख का स्थान बनता है । (दुःखास्पदम् ) अग्निकोण में रहा अग्नि सतेज होता है।
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आओ संस्कृत सीखें
5. अच्छे मनवाला प्रणाम करने की इच्छावाला कुमार पिता के पास ( पितरि ) आया। समान धर्मवा मनुष्य को देखकर समान धर्मवाले मनुष्य खुश होते हैं।
6.
7.
8.
वह कुमार तीन जगत् में (उप चतुरेषु जगत्सु) प्रख्यात था । (सम्+प्रथ्) इस जगत् में सर्वोत्तम पुरुष दो या तीन, दो या चार, तीन या चार अथवा पाँचछह होते हैं ।
9. अच्छी गंधवाले दूध और सुगंधित चावल (कलम) को छोड़कर लोग खराब गंधवाले मांस (पल) को चाहते हैं। (काङ्क्ष)
10. कुमारपाल राजा द्वारा सुस्वामीवाली इस पृथ्वी पर कोई भी मनुष्य किसी भी जीव को मारता नहीं था ।
11. बहुत हैं वीर पुरुष जिसमें, ऐसे इस गाँव को शत्रुओं का भय उपस्थित नही होता है। (उप+स्था)
231
1. भूषणाद्युपभोगेन प्रभुर्भवति न प्रभुः । परैरपरिभूताऽऽज्ञस्त्वमिव प्रभुरुच्यते ।।
2.
अद्य मे सफलं जन्म, अद्य मे सफला क्रिया । अद्य मे सफलं गात्रं, जिनेन्द्र ! तव दर्शनात् ।। 3. निरीक्षितुं रूपलक्ष्मी सहस्राक्षोऽपि न क्षमः । स्वामिन्सहस्त्रजिह्वोऽपि, शक्तो वक्तुं न ते गुणान् ।। खमिव जलं जलमिव खं, हंस इव शशी शशाङ्क इव हंसः । कुमुदाकारास्तारा: ताराकाराणि कुमुदानि ।। वदनस्य तवैणाक्षि ! लक्ष्यते पुरतः शशी । पिण्डीकृतेन बहुना कज्जलेनेव निर्मितः ।। 6. सुप्तामेकाकिनींमुग्धां विश्वस्तां त्यजतः सतीम् । उत्सेहाते कथं पादौ नैषधेरल्पमेधसः ।। अखण्डशासने राज्ञि तस्मिन्नाखण्डलोपमे । एकातपत्रैवाभूद् भूर्द्यौरिवैकनिशाकरा ।।
8. दुर्मेधसस्तस्य वचोऽल्पमेधसः, श्रुत्वेति राज्ञा जगदे सुमेधसा । अमेधसो धिग्बत मन्दमेधसो, हिंसन्ति जन्तून्निजजीविकाकृते ।। 9. भद्र ! किमसि वक्तुकामः ? |
10. शुद्धाऽकषायहृदयो जितकरणकुटुम्बचेष्टो मुक्तकुटुम्बस्नेहो योगी मोक्षपदं प्राप्य न संसारे समायाति ।
4.
5.
हिन्दी में अनुवाद करो
7.
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आओ संस्कृत सीखें
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पाठ - 32
अव्ययीभाव समास परस्पर ग्रहण कर किया गया युद्ध - इस अर्थ में सप्तम्यंत नाम, दूसरे सप्तम्यंत नाम के साथ. परस्पर प्रहार कर किया गया युद्ध - इस अर्थ में तृतीयांत नाम, दूसरे तृतीयांत नाम के साथ अव्ययीभाव समास होता है। उदा. 1. केशेषु च केशेषु च मिथ: गृहीत्वा कृतं युद्धम्-केशाकेशि युद्धम्, कराकरि ।
2. दण्डैश्च दण्डैश्च मिथः प्रहत्य कृतं युद्धं - दण्डादण्डि युद्धं, गदागदि । 2. पारे, मध्ये, अग्रे और अन्तर् ये नाम षष्ठ्यंत नाम के साथ पूर्व पद की मुख्यता
से विकल्प से अव्ययीभाव समास होते हैं। गङ्गायाः पारम् पारेगङ्गम् पक्षे गङ्गापारम् (षष्ठीतत्पुरुष) गङ्गायाः मध्यम् मध्येगङ्गम् , गङ्गामध्यम् वनस्य अग्रम् अग्रेवणम , वनाग्रम्
गिरेरन्तः अन्तर्गिरि , गिर्यन्तः 3. “अवधारण" दिखाई देता हो तो यावद् नाम दूसरे नाम के साथ पूर्वपद की
मुख्यता से अव्ययी भाव समास होता है। उदा. यावन्ति अमत्राणि तावन्त इति-यावदमत्रम् अतिथिनाम् आमन्त्रयस्व । (बोलने वाले व्यक्ति को बर्तनों की संख्या मालूम है, अतः जितने बर्तन उतने अतिथि कहने से अतिथि की संख्या का निश्चय, जितने बर्तन उतने अतिथि का
ख्याल आता है। 4. अकारांत सिवाय के अव्ययी भाव समास से विभक्ति के प्रत्यय का लोप होता है। 5. अव्ययी भाव समास नपुंसक लिंग में होता है । 6. परि, अप, आ, बहिस् तथा अच् जिसके अंत में हो ऐसे अव्यय नाम, पंचम्यंत
नाम के साथ पूर्वपद की मुख्यता से अव्ययीभाव समास होते हैं। उदा. परि त्रिगर्तेभ्य: परित्रिगर्तम्, अपत्रिगतम्, अपविचारम् ।
आ ग्रामात् - आग्रामम्, बहिर्ग्रामम् । प्राग् ग्रामात् - प्राग्ग्रामम् ।
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आओ संस्कृत सीखें
1233 7. अभिमुख अर्थ में विद्यमान अभि तथा प्रति नाम लक्षण चिह्नवाची नाम के साथ
पूर्व पद की मुख्यता से अव्ययी भाव समास होते हैं । अभि अग्निम् - अभ्यग्नि । प्रत्यग्नि शलभाः पतन्ति ।
(अग्नि की ओर पतंगे गिरते हैं) 8. अनु नाम दीर्घता सूचक लक्षण नाम के साथ पूर्वपद की मुख्यता से अव्ययी भाव
समास होता है। उदा. अनु गङ्गां दीर्घा - अनुगङ्गम् वाराणसी ।
___ गंगा जितनी काशी नगरी लंबी है अर्थात् गंगा के किनारे किनारे काशी है। 9. 'समीप' अर्थ में वर्तमान अनु नाम, दूसरे नाम के साथ पूर्व पद की मुख्यता से
समास होता है ।
उदा. अनुनृपस्य - अनुनृपं पिशुनाः (राजा के पास चापलूस लोग होते हैं)। 10. भिन्न भिन्न अर्थ में अव्यय नाम, दूसरे नाम के साथ पूर्व पद की मुख्यता से नित्य
अव्ययी भाव समास होते है । उदा. स्त्रीषु निधेहि
अधिस्त्रि निधेहि । वेलायाम्
अधिवेलं भुक्ष्व । कुम्भस्य समीपम्
उपकुम्भम् उपारामम् । मक्षिकाणाम् अभावः
निर्मक्षिकम्, निरालोकम् । हिमस्य अत्ययः
अतिहिमम् । रथस्य पश्चात्
अनुरथम् । ज्येष्ठस्य अनुक्रमेण
अनुज्येष्ठं प्रविशन्तु । वृद्धानुक्रमेण
अनुवृद्धं साधून अर्चय । तृणमपि परित्यज्य
सतृणं अभ्यवहरति । सतुषम् । 11. योग्यता, वीप्सा, अर्थ की अनतिवृत्ति और सादृश्य अर्थ में वर्तमान अव्यय नाम,
दूसरे नाम के साथ पूर्व पद की मुख्यता से नित्य अव्ययीभाव समास होता है। उदा. रूपस्य योग्यम्
अनुरूपं चेष्टते । अर्थं अर्थं प्रति
प्रत्यर्थम् ।
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आओ संस्कृत सीखें
1234
दिनं दिन प्रति
--- - प्रतिदिनम् । शक्तेः अनतिक्रमण
यथाशक्ति पठ। शीलस्य सादृश्यम्
सशीलं अनयोः । 12. सादृश्य सिवाय उपर्युक्त अर्थ में यथा अव्यय, दूसरे नाम के साथ पूर्व पद की
मुख्यता से नित्य अव्ययीभाव समास होता है। रूपस्य अनुरूपम्
यथारूपम् चेष्टते । ये ये वृद्धाः तान्
यथावृद्धम् अभ्यर्चय । सूत्रस्य अनतिवृत्या
यथासूत्रम् अनुतिष्ठति ।
समासांत प्रत्यय 13. युद्ध अर्थ में हुए समास के अंत में इ (इच्) होता है ।
उदा. केशाकेशि । 14. प्रति, परस् और अनु पहले हो और अक्षि अंत में हो ऐसे अव्ययी भाव से अ
होता है। उदा. अक्षिणी प्रति - प्रत्यक्षम् ।
अक्ष्णोः परः - परोक्षम् ।
अक्ष्णो: समीपम् - अन्वक्षम् । 15. अन् अंतवाले अव्ययीभाव से अ होता है ।
राज्ञः समीपम् - उपराजम् ।
आत्मनि - अध्यात्मम् । 16. अन् अंतवाले नाम नपुंसक लिंग में हो तो विकल्प से अ होता है । उदा. उपचर्मम् - उपचर्म ।
अहः अहः प्रति - प्रत्यहम् - प्रत्यहः । 17. कई अव्ययी भाव समास में नित्य या विकल्प से अ होता है । उदा. अक्ष्णोः समीपम् - समक्षम्, प्रतिशरदम् ।
अन्तर्गिरम्, अन्तर्गिरि । उपनदम् - उपनदि ।
उपककुभम् - उपककुभ् इत्यादि । 18. इ (इच्) प्रत्ययांत व्यंजनादि उत्तर पद पर पूर्व पद का स्वर दीर्घ होता है अथवा
उसके स्थान पर आ होता है। केशाकेशि, मुष्टीमुष्टि, मुष्टा मुष्टि । अस्यसि ।
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आओ संस्कृत सीखें
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तद्धित प्रत्यय पर न् कारांत नामों का अपद में रहा अंत्य स्वरादि अवयव का लोप होता है।
उदा. उपराजम् । 19. परि और अप के साथ जुडे नाम के साथ पंचमी विभक्ति होती है, परंतु वह नाम
'वर्य' हो तो, उदा. परि अप वा पाटलिपुत्राद् वृष्टो मेघः ।
__पाटलिपुत्र को छोड़कर मेघ बरसा । 20. 'अवधि' अर्थ में वर्तमान में नाम से आ के योग में पंचमी विभक्ति होती है। उदा. आ मुक्तेः संसारः । मुक्ति तक संसार है ।
आ कुमारेभ्यो यशो गतं गौतमस्य । (कुमार तक गौतम का यश फैला) अवधि शब्द के दो अर्थ होते हैं - मर्यादा या अभिविधि आ पाटलिपुत्राद् वृष्टो मेघः
(यहाँ दोनों अर्थ ले सकते हैं ) 21. प्रभृति अर्थवाले शब्द, अन्य अर्थवाले शब्द, दिक् शब्द तथा बहिस् आरात् व
इतर शब्दों के योग में पंचमी होती है । उदा. ततः प्रभृति । ग्रीष्माद् आरभ्य ।
मैत्रात् अन्यः, चैत्रात् भिन्नः । ग्रामात् पूर्वस्यां दिशि वसति । पश्चिमः रामात् युधिष्ठिरः। प्राग्र ग्रामात्, बहिर्गामात् आराद् ग्रामात् क्षेत्रं, चैत्रात् इतरः ।
शब्दार्थ अञ्जलि = अंजलि (पुंलिंग)| वार्धि = समुद्र (पुंलिंग) अत्यय = नाश (पुंलिंग) | शलभ = पतंगा (पुंलिंग) त्रिगर्त = एक देश (पुंलिंग) | जाह्नवी = गंगा (स्त्री लिंग) पुरन्दरः = इन्द्र (पुंलिंग)| शासन = आज्ञा (स्त्री लिंग) राघव = राम
(पुंलिंग)| आशंस् = कहना, (गण 1 परस्मैपद)
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आओ संस्कृत सीखें
1. प्रतिदिन शक्ति अनुसार पढो ।
2.
संस्कृत में अनुवाद करो
शास्त्र अनुसार तप करो ।
3.
समय पर भोजन करो ।
4. मूर्खों के पास मत जाओ ।
5.
स्त्रियों में विश्वास मत करो ।
6.
आत्मा में लीन बनो ।
7. दंड द्वारा प्रहार कर युद्ध मत करो ।
8.
जंगल में मत भटको ।
9.
10. बिना सोचे मत बोल ।
236
राजा के पास बहुत बार मत जा ।
ji.
11. गाँव के बाहर न रह ।
12. रूप के अनुसार ज्ञान प्राप्त कर ।
13. ज्ञान के अनुसार गुण प्राप्त कर ।
हिन्दी में अनुवाद करो
1. प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत नरश्चरितमात्मनः किन्नु मे पशुभिस्तुल्यं किन्नु सत्पुरुषैरिति ।। 2. रामाय स्वस्त्यथाशंसेराशिषं लक्ष्मणस्य च । शिवास्ते सन्तु पन्थानः वत्स ! गच्छोपराघवम् ।। 3. तेभ्यो नमोऽञ्जलिरयं तेषां तान्समुपास्महे ।
त्वच्छासनाऽमृतरसै र्यैरात्माऽसिच्यताऽन्वहम् ।। 4. कर्माण्यवश्यं सर्वस्य फलन्त्येव चिरादपि । आपुरन्दरमाकीटं संसारस्थितिरीदृशी ।। 5. गुणैरत्यन्तविमलैः सा शीलविनयादिभिः । पत्युर्न्यलीयत हृदि मध्येवार्धीव जाह्नवी ।।
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आओ संस्कृत सीखें
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पाठ - 33
तत्पुरुष समास 1. बहुव्रीहि, अव्ययीभाव समास से भिन्न लक्षणवाला जो समास होता है, उसका
समावेश तत्पुरुष समास में होता है । तत्पुरुष समास खूब व्यापक है ।
गति तत्पुरुष 1. उपसर्ग उरी, उररी, श्रुत्, प्रादुस् आदि, च्चि प्रत्ययांत शब्द अलम्, सत, असत्,
तिरस् आदि शब्द धातु के साथ संबंध रखते हों तब गति संज्ञक हैं और धातु से
पहले जुड़ते हैं। 2. गति संज्ञक नाम और कु नाम दूसरे नाम के साथ नित्य समास होता है । उदा. प्रकृत्य, ऊरीकृत्य, उररीकृत्य, शुक्लीभूतम्
अलङ्कृत्य, सत्कृत्य, असत्कृत्य कु अव्यय पाप या अल्प अर्थ में है । कुत्सितः ब्राह्मणः - इसी प्रकार कुपुरुषः ।
ईषद् उष्णं कोष्णं, कवोष्णं, कदुष्णम् । 3. स्वरादि उत्तर पद पर तत्पुरुष समास में कु का कद् होता है ।
उदा. कुत्सितः अश्वः - कदश्वः । - अक्ष और पथिन् उत्तर पद में हो तो का होता है ।
काक्ष: कापथम् । - पुरुष पर कु का विकल्प से का होता हैं।
कापुरुषः, कुपुरुषः । - उत्तरपद पर अल्प अर्थ में कु का का होता है ।
ईषद् मधुरम् – कामधुरम् । - उष्ण शब्द पर कु का का और कव भी होता है।
कोष्णम् कवोष्णम्, कदुष्णम्। - निंदा और कृच्छ्र अर्थ में रहा दुर् नाम दूसरे नाम के साथ नित्य समास होता है निन्दितः पुरुषः दुष्पुरुषः ।
दुर्जनः
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आओ संस्कृत सीखें
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कृच्छेण कृतं - दुष्कृतम् । निन्दितं कृतं - दुष्कृतम् । पूजा अर्थ में रहा सु नाम, दूसरे नाम के साथ नित्य समास पाता है ।
शोभन: राजा - सुराजा, सुजनः । 5. अल्पार्थ आ अव्यय दूसरे नाम के साथ नित्य समास होता है । उदा. ईषत् पिङ्गलः ‘आपिङ्गलः ।
प्र आदि तत्पुरुष प्रगतः आचार्यः - प्राचार्यः । प्रवृद्धः गुरुः - प्रगुरुः। विरुद्धः पक्षः - विपक्षः । अभिप्रपन्नः मुखम् - अभिमुखः । अनुगतं अर्थेन - अन्वर्थं नाम । वियुक्तं अर्थेन - व्यर्थं वचः। उद्युक्तः सङ्ग्रामाय - उत्सङ्ग्रामः नृपः । उत्क्रान्तं सूत्रात - उत्सूत्रम् वचः ।
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आओ संस्कृत सीखें
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कृत् प्रत्यय
अ (अण) अ (टक्) अ (ड) अ (ड)
अ (ड) इन् (णिन्)
अ (टक्)
अ (टक्)
उप पद तत्पुरुष कुम्भं करोति = कुम्भकारः । भारं वहति = भारवाहः । पापं हन्ति पापघातो यतिः । तन्तून्वयति = तन्तुवायः । द्वारं पालयति = द्वारपालः । साम गायति = सामगः । सामगी । क्लेशं अपहन्ति = क्लेशापहः । तमः उपहन्ति = तमोपहः । जलं ददाति = जलदः । कुमारं हन्ति = कुमारघाती । वातं हन्ति = वातघ्नं: तैलम् । वृत्रं हन्ति = वृत्रघ्नः । शत्रु हन्ति = शत्रुघ्नः । उदरं एव बिभर्ति = उदरम्भरिः । कुक्षि एव बिभर्ति कुक्षिम्भरिः । पूजां अर्हति = पूजार्हा साध्वी । धनुर्धरति = धनुर्धरः । जलं धरति = जलधरः। पयः धरति = पयोधरः। मनः हरंति = मनोहरः प्रासादः । फलानि गृह्णाति = फलेग्रहिः वृक्षः । दिनं करोति = दिनकरः। निशां करोति = निशाकरः। रजनी करोति = रजनिकरः । यश: करोति = यशस्करी विद्या । क्रीडा करोति = क्रीडाकरः । कर्म करोति = कर्मकरः । तीर्थं करोति = तीर्थंकरः ।
अ (टक्) इ (खि) अ (अच्) अ (अच्) अ (अच्) अ (अच्) अ (अच्)
ल
ल
ल
ल
ल
ल
ल
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आओ संस्कृत सीखें
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अ (ख) अ (ख) इ (णिन्) अ (खश्)
अ (खश्)
क्षेमं करोति = क्षेमङ्करः। भद्रं करोति = भद्रङ्करः । प्रियं करोति = प्रियङ्करः । भयं करोति = भयङ्करः । प्रियं वदति = प्रियंवदः । कुलं कषति = कुलङ्कषा नदी । अभ्रं कषति = अभ्रंकषो गिरिः । (ऊंचा पर्वत) सर्वं कषति = सर्वंकषो खलः । सर्वं सहति = सर्वंसहो मुनिः । विश्वं भरति = विश्वंभरा वसुधा । पण्डितं मन्यते बन्धुम् = पण्डितमानी बन्धोः । पण्डितं आत्मानं मन्यते = पण्डितम्मन्यः । . स्तनं धयति = स्तनंधयः । अभ्रं लेढि = अभ्रंलिहः प्रासादः । विधुं तुदति = विधुन्तुदो राहुः । ललाटं तपति = ललाटंतपः सूर्यः । सूर्यमपि न पश्यन्ति = असूर्यम्पश्या राजदाराः । अनन्धो अन्धः क्रियते अनेन = अन्धंकरणः शोकः । अप्रियः प्रियः क्रियते अनेन प्रियंकरणं शीलम् । विहायसा गच्छति = विहगः पक्षी ।
खे गच्छति = खगः । उरसा गच्छति = उरगः । आशु गच्छति = आशुगः शरः । सर्वं गच्छति = सर्वंगः । गुहायां शेते = गुहाशयः । वने चरति = वनेचरः निशायां चरति = निशाचरः । निशाचरीः । स्वर्गे तिष्ठति = स्वर्गस्थः ।
अ (खश्) अ (खश्) अ (खश्) अ (खश्) अन (खनट्)
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आओ संस्कृत सीखें
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पादैः पिबति = पादपः । नृन् पाति = नृपः । आतपात् त्रायते = आतपत्रम् । सरसि रोहति = सरसिरुहम्, सरोरुहम् पद्मम् । आगमेन प्रजानाति = आगमप्रज्ञः । अपो बिभर्ति = अब्भ्रं मेघः । सुखं भजते = सुखभाक् । तमः छिनत्ति = तमश्छिद् । दिवि सीदति = दिविषद्, धुसत् । वीरं सूते = वीरसूः। ग्रामं नयति = ग्रामणीः । शत्रु जयति = शत्रुजित् । शकान् ह्वयति = शकहः । अक्षैः दीव्यति = अक्षयूः । अन्य इव दृश्यते = अन्यादृशः । अन्यादृशी । सिंह इव नर्दति = सिंहनर्दी । गज इव गच्छति = गजगामिनी नारी । उष्णं भुक्ते इत्येवं शीलः = उष्णभोजी । परेषां उपकरोति इत्येवं शील: = परोपकारी । वने वसति इत्येवं शीलः = वनवासी । मधुं पिबति इत्येवं शीलः = मधुपायी भ्रमरः । प्रतिष्ठते इत्येवं शीलः = प्रस्थायी। वृत्रं हतवान् = वृत्रहा । भ्रूण हतवान् = भ्रूणहा । मेरुं दृष्टवान् = मेरुदृश्वा । अप्सु जातं = अप्सुजम्, अब्जम् । संतोषात् जातं = संतोषजं सुखम् । द्विर्जातः = द्विजः । अनुजातः = अनुजः ।
अ (क) अ (क) अ (क) अ (क) अ (क) अ (क) (विण्) (क्विप्) (क्विप्) (क्विप्) (क्विप्) (क्विप्) (क्विप्) (क्विप्) अ (टक्) इन् (णिन्) इन् (णिन्) इन् (णिन्) इन् (णिन्) इन् (णिन्) इन् (णिन्) इन् (णिन्)
(क्विप्)
(क्विप्) वन (क्वनिप)
अ (ड) अ (ड)
(ड
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आओ संस्कृत सीखें
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ल
(ड
ल
अ (ड)
अन
मित्रं ह्वयति = मित्रह्वः । जनान् अर्दयति = जनार्दनः । मधुं सूदयति = मधुसूदनः । हुतं अश्नाति = हुताशनो वहिनः । दुःखेन गम्यते = दुर्गमः ।
अ (ख) दुःखेन जीयते = दुर्जयः । सुखेन गम्यते = सुगमः । सुखेन लभ्यते = सुलभः ।
नञ् तत्पुरुष 8. न (नञ्) अव्यय का दूसरे नाम के साथ समास होता है ।
न ब्राह्मण: अब्राह्मणः तत्सदृशः क्षत्रियादिः न शुक्ल: अशुक्लः तत्सदृशः पीतादिः न धर्मः अधर्म: तविरुद्धः पाप्मा न सितः असितः तविरुद्धः कृष्णः न अग्निः अनग्निः तदन्यः न वायुः अवायुः तदन्यः न वचनम् अवचनम् तदभावः न वीक्षणम् अवीक्षणम् तदभाव:
अंशि तत्पुरुष 9. अंश (अवयव) अर्थवाले, पूर्व, अपर, अधर और उत्तर शब्द अभिन्न (एक)
अंशी (अवयवी) नाम के साथ समास होता है। पूर्व, पूर्वो वा कायस्य-पूर्वकाय:
अपरकायः। अधरकायः । 10. सायम् अह्नः - सायाह्नः ।
मध्यम अह्नः - मध्याह्नः । मध्यं दिनस्यः - मध्यन्दिनम् ।
मध्यं रात्रे: - मध्यरात्रः । 11. सम अंश (समान भाग) में वर्तमान अर्ध (नपुं) शब्द अभिन्न अंशी नाम के साथ
विकल्प से समास होता है ।
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आओ संस्कृत सीखें
1243
उदा. अर्धं पिप्पल्या: अर्धपिप्पली ।
पक्षे षष्ठी तत्पुरुष - पिप्पल्यर्धम् । इसी प्रकार अर्धग्रामः - ग्रामार्धम् ।
अर्धापूपः - अपूपार्धम् । असम अंश में अर्ध पुंलिंग है - ग्रामार्धः, नगराधः । (ष. तत्पुरुष)
मेय तत्पुरुष 12. एकवचन में रहा कालवाची नाम और द्विगु समास में रहा कालवाची नाम,
मेयवाची नाम के साथ समास होता है । उदा. मासो जातस्यः मास जातः । एवं संवत्सरजातः ।
(एक महीने से जन्म हुआ, एक बरस से जन्म हुआ) द्विगु विषय : एको मासो जातस्य एक मासजातः
द्वे अहनी सुप्तस्य द्वयनसुप्तः (दो दिन से सोया हुआ) (द्वयोः अनो: समाहारः द्वयहः (प्रथम समाहार द्विगु कर फिर समास करे तो - द्वयहः - सुप्तस्य - द्वयहसुप्तः ।
विभक्ति तत्पुरुष
द्वितीया तत्पुरुष 1. द्वितीयांत कालवाची नाम, व्यापक (उसमें व्याप्त रहे) नाम के साथ समास पाता
मुहूर्तं सुखं - मुहूर्तसुखम् (मुहूर्त पर्यंत सुख) 2. द्वितीयांत नाम श्रित आदि नाम के साथ समास होता है । उदा. धर्मं श्रितः
.. धर्मश्रितः। संसारं अतीत: संसारातीतः। नरकं पतितः नरकपतितः । निर्वाणं गतः निर्वाणगतः । ओदनं बुभुक्षुः ओदनबुभुक्षुः ।
., तृतीया तत्पुरुष 3. तृतीयांत नाम, उससे कृत गुणवाचक विशेषण नाम के साथ समास होता है ।
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आओ संस्कृत सीखें
244
उदा.
उदा.
उदा. शङ्कुलया कृतः खण्डः = शङ्कुलाखण्डः ।
कुसुमैः कृतः सुरभिः = कुसुमसुरभिः । तृतीयांत नाम ऊन और उसके अर्थवाले नामो के साथ तथा पूर्व आदि नामो के साथ समास होता है।
माषेण ऊनम् = माषोणम्, माषविकलम् । मासेन पूर्वः = मासपूर्वः । मासावरः । भ्रात्रा तुल्यः = भ्रातृ तुल्यः । धान्येन अर्थः = धान्यार्थः ।
द्वाभ्यां अधिका दश = द्वादश । 5. कर्ता और करण अर्थ में हुए तृतीया विभक्तिवाले नाम कृदन्त नाम के साथ समास होते है।
आत्मना कृतं = आत्मकृतम् । नखैः निर्भिन्नः = नखनिर्भिन्नः । चैत्रेण नखनिर्भिन्नः = चैत्रनखनिर्भिन्नः ।
चतुर्थी तत्पुरुष 1. विकारवाचक चतुर्थी अंत नाम, प्रकृतिवाची नाम के साथ समास होता है । उदा. कुण्डलाय हिरण्यम् = कुण्डलहिरण्यम् ।
यूपाय दारु = यूपदारु । 2. चतुर्थी अंत नाम हित, सुख, रक्षित, बलि आदि नामों के साथ समास होता है। उदा. गोभ्य: हितम् = गोहितम् ।
अश्वाय घासः = अश्वघासः । धर्माय नियमः = धर्मनियमः ।
देवाय देयम् = देवदेयम् । 3. चतुर्थी अंत नाम, चतुर्थी के अर्थ में वर्तमान अर्थ नाम के साथ समास होता है। उदा. पित्रे इदम् = पित्रर्थं पयः ।
आतुराय इयम् = आतुरार्था यवागूः । उदकाय अयम् = उदकार्थो घटः ।
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आओ संस्कृत सीखें
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पंचमी तत्पुरुष 1. पंचम्यंत अंत नाम भय आदि शब्दों के साथ समास होता है । उदा. वृकाद् भयम् = वृकभयम् । चौराद् भीतिः = चौरभीतिः ।
भयाद् भीता = भयभीता । स्थानाद् भ्रष्टः = स्थानभ्रष्टः । 2. शतात् परे - पर:शता: - 100 से ज्यादा (सबसे ज्यादा) परः सहस्राः । परोलक्षाः ।
षष्ठी तत्पुरुष बहुत से षष्ठ्यन्त नामों का दूसरे नामों के साथ समास होता है ।
राज्ञः पुरुषः = राजपुरुषः । गवां स्वामी = गोस्वामी ।
मम पुत्रः = मत्पुत्रः । तव पुत्रः = त्वत्पुत्रः । गणधरस्य उक्ति : = गणधरोक्तिः ।। गुरूणाम् पूजकः = गुरुपूजकः । गुरोः सदृशः = गुरुसदृशः । भुवो भर्ताः = भूभर्ता । तीर्थस्य कर्ता = तीर्थकर्ता आदि ।
सप्तमी तत्पुरुष 1. सप्तम्यंत नाम शौण्ड आदि नामों के साथ समास होता है। उदा. पाने प्रसक्तः शौण्डः = पानशौण्डः (मद्यप-शराबी)
अक्षेषु धूर्तः = अक्षधूर्तः । वाचि पटुः = वाक्पटुः । अवसाने विरसः = अवसानविरसः । पुरुषेषु उत्तमः = पुरुषोत्तमः । नृषु श्रेष्ठः = नृश्रेष्ठः । समरे सिंह इव = समरसिंहः तीर्थे काक इव = तीर्थकाक:
कर्मधारय तत्पुरुष
विशेषण - विशेष्य कर्मधारय 1. एक समान विभक्ति में रहा विशेषण नाम विशेष्य नाम के साथ समास होता है।
नीलं च तद् उत्पलं च = नीलोत्पलम् । हराकमल कृष्णश्चासौ सारङ्गश्च = कृष्णसारङ्गः । श्यामहरिण शुक्लश्चासौ कृष्णश्च = शुक्लकृष्णः । उज्ज्वल, श्याम नीले च ते उत्पले च = नीलोत्पले । नीलानि च तानि उत्पलानि च = नीलोत्पलानि । पट्वी चासौ भार्या च पटुभार्या ।
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आओ संस्कृत सीखें
2. पूर्वं स्नातः पश्चाद् अनुलिप्तः = स्नातानुलिप्तः । छिन्नप्ररुढो वृक्षः ।
पूर्वं छिन्नः पश्चाद् प्ररूढः =
किंराजा ।
3. को (कुत्सितः) राजा
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कः (कुत्सितः) सखा - किंसखा ।
कः (कुत्सितः) पुरुषः - किंपुरुषः ।
द्विगु कर्मधारय - समाहार द्विगु
20. संख्यावाचक नाम, दूसरे नाम के साथ समाहार के अर्थ में समाहार द्विगु समास होता है ।
(समाहार द्विगु नपुंसक लिंग में है, कभी स्त्री लिंग में भी होता है)
उदा. 1 त्रयाणाम् भुवनानाम् समाहारः == त्रिभुवनम् । पञ्चानां कुमारीणां समाहारः = पञ्चकुमारि । पञ्चानां शतानां समाहारः = पञ्चशती ।
इसी प्रकार अष्टसहस्री । त्रयाणां लोकानां समाहारः = त्रिलोकी | उपमान सामान्य धर्म कर्मधारय
21. उपमानवाचि नाम सामान्य धर्मवाचि नाम के साथ कर्मधारय समास होता है
1
उदा. मेघ इव श्यामः = मेघश्यामः, व्याघ्रशूरः ।
मृगीव (मृगीवत्) चपला = मृगचपला । उपमान कर्मधारय
उपमेय
--
22. उपमेयवाचि नाम, उपमान वाचि व्याघ्र आदि शब्दों के साथ समास होता है, परंतु दोनों के सामान्य धर्म को कहना हो तो समास नही होता है।
पुरुष: व्याघ्र इव पुरुषव्याघ्रः ।
=
इसी तरह नरसिंहः । सिंह जैसा नर
मुखं चन्द्र इव =
पादः पद्मम् इव = पादपद्मम् ।
परंतु - पुरुष: व्याघ्र इव शूरः यहाँ समास नहीं होगा, क्योंकि दोनों के सामान्य धर्म ( शूरः) का कथन है ।
मुखचन्द्रः । चंद्र जैसा मुँह
मयूरव्यंसकादि तत्पुरुष 1. व्यंसकश्चासौ मयूरश्च = मयूरव्यंसकः । ठगनेवाला मोर ।
1
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आओ संस्कृत सीखें
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मुण्डश्चासौ यवनश्च = यवनमुण्डः । (विशेष्य पूर्वनिपात) शाकप्रियः पार्थिवः = शाकपार्थिवः। घृतप्रधाना रोटिः = घृतरोटिः । एकाधिका दश = एकादश । एवं द्वादश । गुडमिश्रा धाना = गुडधानाः । अश्वयुक्तो रथः = अश्वरथः । श्री वीरः (मध्यमपद विलोपी) मुखम् एव चन्द्रः = मुखचन्द्रः । स्नेहतन्तुः । प्रेम एव लतिका = प्रेमलतिका । (अवधारण तत्पुरुष) दण्ड एव पाथ = दण्ड पाथ, दंड समान सरल मार्ग । वज्रकायः । तृतीयः भाग = त्रिभागः । अन्यो देश: = देशान्तरम् । आपात एव = आपातमात्रम् ।
समासान्त 24. ऋच्, पुर्, पथिन्, अप् और धुर् अंतवाले किसी भी समास से अ होता है ।
ऋचोऽधर्म = अर्धर्चः । ऋचः = समीपम् उपर्चम् ।। श्रियाः पू: = श्रीपुरम् । जलस्य पन्थाः = जलपथः । मोक्षपथः । विशालाः पन्थानः यस्मिन् = विशालपथम् नगरम् । बहव आपो यस्मिन् = बह्वप तडागम् । राज्यस्य धू: = राज्यधुरा ।
महती धूरस्य = महाधुरं शकटम् । 25. गो अंतवाले तत्पुरुष से अ (अट्) होता है ।
राज्ञो गौः = राजगवः, राजगवी । पञ्चानां गवांनां समाहारः = पञ्चगवम् । 26. राजन् और सखि अंतवाले तत्पुरुष से अ (अट्) होता है ।
देवानां राजा = देवराजः । महाश्चासौ राजा च = महाराजः ।
राज्ञः सखा = राजसखः । 27. अहन् अंतवाले तत्पुरुष से अ (अट्) होता है ।
परमं च तद् अहश्च = परमाहः। उत्तमाहः (पुंलिंग) ।
पुण्यं च तद् अहश्च = पुण्याहम् । 28. सर्व शब्द से, अंशवाचक शब्द से, संख्यावाचक शब्द से और अव्यय के बाद
अहन् शब्द हो तो ऐसे तत्पुरुष से अ (अट्) होता है । अहन् का अह्न आदेश होता है। अह्न आदेश पुंलिंग है । उदा. सर्वं अहः = सर्वाह्नः, सर्वाहण:
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पूर्वमहः = पूर्वाह्णः । अपराह्नः । मध्याह्नः । सायाह्नः । द्वे अहनी जातस्य द्वयनजातः । .
अहः अतिक्रान्ता = अत्यह्नी कथा । 29. संख्यात, एक पुण्य, वर्षा, दीर्घ और उपर्युक्त सर्व आदि शब्दों के बाद रात्रि हो
तो ऐसे तत्पुरुष से अ होते हैं । उदा. संख्यातरात्रः । एकरात्रः ।
पुण्या चासौ रात्रिश्च = पुण्यरात्रः । वर्षाणां रात्रिः = वर्षारात्रः । दीर्घरात्रः । सर्वरात्रः । रात्रेः पूर्वम् = पूर्वरात्रः । अर्धरात्रः । द्वयोः रात्र्योः समाहारः = द्विरात्रम् ।
रात्रिमतिक्रान्तः = अतिरात्रः । 30. अन्नन्त और अहन् अंत समाहार द्विगु से अ (अट्) होता है ।
पञ्चानां तक्ष्णाम् समाहारः = पञ्चतक्षी (स्त्री), पञ्चतक्षम् (नपुं.) सप्तानां अह्नाम् समाहार : सप्ताहः (पुं.) द्वयोरह्नोः समाहारः द्वयहः ।
शब्दार्थ अनिल = पवन (पुंलिंग)| प्लव = कूदना (पुंलिंग) अरिष्टनेमि = 22वें तीर्थंकर (पुंलिंग)| प्लवग = बंदर
(पुलिंग) अग्निरथ = आगगाडी (पुंलिंग)| मञ्च = पलंग (पुंलिंग) अरिष्ट = अशुभ, पाप (नपुं.लिंग)| मलय = पर्वत का नाम (पुंलिंग) अर्घ = पूजा की सामग्री (पुंलिंग)| यदु = यदुराजा (पुंलिंग) आङगलदेश = युरोप (पुंलिंग)| यष्टि = लाठी (स्त्री लिंग) कक्ष = सुखावन (पुंलिंग)| वृन्दारक = देव (पुंलिंग) पूर = समूह
(पुंलिंग)| सुहृद् = मित्र (पुंलिंग) जयंत = इन्द्र का पुत्र (पुंलिंग)| श्यामल = काला (पुंलिंग) धुसद् = देव (पुंलिंग) हुताशन = आग
(पुंलिंग) निमेष = आंख का पलकारा (पुंलिंग)| क्षीरकण्ठ = बालक । (पुंलिंग) पटल = समूह
(पुंलिंग)| आली = श्रेणी (स्त्री लिंग)
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आओ संस्कृत सीखेंउपास्ति = सेवा (स्त्री लिंग)| वक्षस् = छाती (नपुं. लिंग) त्रिदशी = देवी (स्त्री लिंग)| वृन्द = समूह (नपुं. लिंग) पौलोमी = इंद्राणी (स्त्री लिंग)| संपादन = प्राप्त कराना (नपुं. लिंग) व्रीडा = लज्जा (स्त्री लिंग)| हैयङ्गवीन = मक्खन (नपुं. लिंग) सुधर्मा = देव सभा (स्त्री लिंग)| उद्धृत = उडा हुआ (विशेषण) अरिष्ट = पाप (नपुं. लिंग)| काञ्चन = सोने का (विशेषण) अवधान = एकाग्रता (नपुं. लिंग)| कुब्ज = कुबडा (विशेषण) ही = खेद के अर्थ में (अव्यय)| ग्रामीण = ग्रामीण (विशेषण) उपानयन = भेंट (नपुं. लिंग)| निज = अपना (विशेषण) चूडारत्नमस्तक पर का रत्न(नपुं.लिंग)| प्रतिम = समान (विशेषण) तिलक = तिलक (नपुं. लिंग)| मलीमस = मैला (विशेषण) निर्वाण = मोक्ष (नपुं. लिंग)| विकल = रहित (विशेषण) प्राभृत = भेंट (नपुं. लिंग)| श्यामल = काला (विशेषण) भरत = भरतक्षेत्र (नपुं. लिंग)।
धातु प्री = खुश होना गण 4 आत्मनेपद। ईर् = बोलना गण 10 परस्मैपद । अव+धू = दूर करना गण 10 परस्मैपद ।
संस्कृत में अनुवाद करो 1. साधा है संपूर्ण भरत जिसने, ऐसा आकाश में रहा हुआ भरत चक्रवर्ती का चक्र
अयोध्या के अभिमुख चला । आद्य प्रयाण के दिन से 60 हजार वर्ष बीतने पर चक्र मार्ग का अनुगामी भरत भी चला । सैन्य द्वारा उडी हुई धूल के संबंध से खेचरों को भी मलिन करता हुआ, हर गोकुल में विकसित दृष्टिवाली गोपाल की स्त्रियों के मक्खन रूपी अर्घ को ग्रहण करता हुआ, हर जंगल में हाथी के कुंभस्थल में पैदा हुए मोती आदि की भेंट को ग्रहण करता हुआ, गाँव-गाँव में उत्कंठित गाँव के वृद्धों को ग्रहण किए (आत्त) और नहीं ग्रहण की गई भेंटों द्वारा अनुग्रह करता हुआ,
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आओ संस्कृत सीखें
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वृक्ष पर चढ़े हुए बंदर समान ऐसे ग्रामीण बच्चों को हर्षपूर्वक देखता हुआ, मलयानिल की तरह धीरे धीरे चलता, दुर्विनीत अरिशासन पृथ्वी का ईश भरत
अयोध्या पहुँचा । (प्र + आप्) 4. आगगाड़ी द्वारा अहमदाबाद से आणंद पहुँचते हुए आधी रात हुई । 5. युरोप में दस दिन रहकर जलमार्ग से हम हिंदुस्तान वापस लौटे । 6. तीन लोक के विषय में तिलक समान श्री महावीर को मैं नमन करता हूँ। 7. विक्रम संवत् के चार सौ सित्तर वर्ष पहले आश्विन, अमावस्या की अपर रात्रि में भगवान महावीर का निर्वाण हुआ ।
हिन्दी में अनुवाद करो 1. रघु भृशं वक्षसि तेन ताडितः पपात भूमौ सह सैनिकाश्रुभिः ।
निमेषमात्रादवधूय च व्यथां सहोत्थितः सैनिकहर्षनिःस्वनैः ।। 2. मत्सूनोः क्षीरकण्ठस्य तैः शठैः पापकर्मभिः ।
राज्यमाच्छेत्तुमारेभे धिक् तान् विश्वास-घातकान् ।। 3. तेऽमी मे भ्रातर इव पांसुक्रीडासखा मृगाः ।
महिष्यस्ता इमा मातृनिभा यासामपां पयः ।। 4. कर्णपेया सुधेवान्या द्युसदां ददती मुदम् ।
मध्येसुधर्मं तत्कीर्तिरप्सरोभिरगीयत ।। 5. वपुः कुब्जीभूतं तनुरपि शनैर्यष्टिशरणा, विशीर्णा दन्ताली श्रवणविकलं
कर्णयुगलम्। निरालोकं चक्षुस्तिमिरपटलध्यामलमहो, मनो मे निर्लज्जं तदपि विषयेभ्यः स्पृहयति॥ नैवास्ति राजराजस्य यत्सुखं नैव देवराजस्य ।
तत्सुखमिहैव साधो लॊकव्यापाररहितस्य च ।। 7. वसन्ते शीतभीतेन कोकिलेन वने रुतम् ।
अन्तर्जलगता: पद्माः श्रोतुकामा इवोत्थिताः ।। 8. मध्येजम्बूद्वीपमाद्यो गिरीणां मेरुर्नाम्ना काञ्चनः शैलराजः ।
यो मूर्तानामौषधीनां निधानं यश्चावासः सर्ववृन्दारकाणाम् ।। 9. आखण्डलसमो भर्ता जयन्तप्रतिमः सुतः ।
आशीरन्या न ते योग्या पौलोमीसदृशी भव ।।
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आओ संस्कृत सीखें
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10. सीता-स्वयंवरायाथ विद्याधरनरेश्वराः ।
तत्रैत्य जनकाहूता अधिमञ्चमुपाविशन् ।। 11. ततः सखीपरिवृता दिव्यालङ्कारधारिणी ।
भूचारिणीव त्रिदशी तत्रोपेयाय जानकी ।। 12. यत्प्रातस्तन्न मध्याह्ने यन्मध्याह्ने न तन्निशि ।
निरीक्ष्यते भवेऽस्मिन्ही पदार्थानामनित्यता ।। 13. त्वदास्यलासिनी नेत्रे त्वदुपास्तिकरौ करौ ।
त्वद्गुणश्रोतृणी श्रोत्रे भूयास्तां सर्वदा मम ।। 14. यदुवंशसमुद्रेन्दुः कर्मकक्षहुताशनः ।
अरिष्टनेमि भगवान् भूयाद्वोऽरिष्टनाशनः ।। 15. भद्रे ! का त्वम् ? किमथवा देवतायतनमिदमागताऽसि? सा त्ववादीत् !
'राजन्! न जानासि माम् ? अहं कि सकलभूपालवृन्दवन्दितपादा राजलक्ष्मीस्त्वदभिका-ङ्कितवस्तुसम्पादनार्थमागता, कथय, किं ते प्रियं
कर्तव्यमिति'। 16. संभवन्ति च भवार्णवे विविधकर्मवशवर्तिनां जन्तूनामनेक शो
जन्मान्तरजातसम्बन्ध बन्धुभिः सुहृद्भिरथैश्च नानाविधैः सार्धमबाधिताः
पुनस्ते संबन्धाः। 17. अयं स बलभित्सखो दुष्यन्तः । 18. श्रान्तसुप्तस्य निद्रा हि सज्यते वज्रलेपवत् । 19. ॐ पुण्याहं पुण्याहं प्रीयन्ताम् प्रीयन्ताम् ।
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आओ संस्कृत सीखें
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| पाठ - 341
इतरेतर द्वन्द्व और समाहार द्वन्द्व 1. एक साथ बोलते समय और (च) अव्यय से जुड़े नाम समास होते है, उसे द्वन्द्व
समास कहते हैं। उदा. प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च = प्लक्षन्यग्रोधौ (इतरेतर द्वन्द्व ) .
वाक् च त्वक् च (अनयोः समाहारः) वाक्त्वचम् (समाहार द्वन्द्व ) धवश्च खदिरश्च पलाशश्च - धवखदिरपलाशाः पीठं च छत्रं च उपानच्च-(एतेषां समाहारः) पीठ च्छत्रोपानहम् समाहार द्वंद्व नपुंसक लिंग एक वचन में ही होता है ।
निम्न प्रसंगों में समाहार ही होता है : 2. सेना के अंग और क्षुद्रजंतु का बहुवचन में समाहार ही होता है । उदा. अश्वाश्च रथाश्च = अश्वरथम् ।
रथिकाश्च अश्वारोहाश्च = रथिकाश्वरोहम् । हस्तिनश्च अश्वाश्च = हस्त्यश्वम् ।
यूकाश्च लिक्षाश्च = यूकालिक्षम् । इसी तरह
यूकामत्कुणम् । दंशमशकम् । कीटपिपीलिकम् ।
एकवचन में इतरेतर होता है - अश्वरथौ 3. प्राणी के अंग और वाद्ययंत्र के अंगों का समाहार ही होता है। उदा. दन्ताश्च औष्ठौच = दन्तौष्ठम् ।
पाणी च पादौ च = पाणिपादम् । कर्णनासिकम् । शिरोग्रीवम् ।
शङ्खश्च पटहश्च = शङ्खपटहम् । भेरीमृदङ्गम् । 4. नित्य वैरवाले शब्दों का समाहार ही होता है । उदा. अहिश्च नकुलश्च = अहिनकुलम् ।
एवं मार्जारमूषकम् ब्राह्मणश्रमणम् । अश्वमहिषम् । काकोलूकम् ।
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आओ संस्कृत सीखें
1253
एकशेष 5. जिन शब्दों के विभक्ति के रूप समान होते हों उन शब्दों में से एक ही शब्द शेष
रहता है। उदा. देवश्च देवश्च = देवौ ।
देवश्च देवश्च देवश्च = देवाः । स्वसृ अर्थवाले शब्दों के साथ भ्रातृ अर्थवाले शब्द और दुहितृ अर्थवाले शब्दों के साथ पुत्र अर्थवाले शब्द शेष रहते हैं । उदा. भ्राता च स्वसा च = भ्रातरौ ।
सोदर्यश्च स्वसा च = सोदर्यो। भ्राता च भगिनी च = भ्रातरौ । पुत्रश्च दुहिता च = पुत्रौ । सुतश्च दुहिता च = सुतौ ।
पुत्रश्च सुता च = पुत्रौ । 7. माता के साथ पिता, विकल्प से शेष रहते हैं । उदा. माता च पिता च, पितरौ मातापितरौ ।
मातरपितरौ भी होता है। च वर्ग के व्यंजन तथा द्, ष् तथा ह् अंतवाले समाहार द्वंद समास से अप्रत्यय होता हैं। उदा. संपच्च विपच्च (अनयो: समाहारः) = सम्पद्विपदम् ।
वाक् च त्विट् च (अनयोः समाहारः) = वाक्त्विषम् ।
छत्रं च उपाहनच्च (अनयोः समाहारः) = छत्रोपानहम् । विद्याकृत या योनिकृत संबंध के निमित्त से बने ऋकारांत शब्दों के द्वंद्व में पूर्वपद का आ होता है। उदा. होता च पोता च = होतापोतारौ ।
माता च पिता च = मातापितरौ । ऋकारांत नाम के द्वंद्व में पुत्र उत्तर पद में हो तो आ होता है। उदा. होतापुत्रौ, माता च पुत्रश्च = मातापुत्रौ । पितापुत्रौ ।
देवता द्वंद्व में पूर्वपद का आ होता है । सूर्याचन्द्रमसौ । इन्दासोमौ । इन्द्रावरणौ ।
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आओ संस्कृत सीखें
1254
शब्दार्थ इषु = बाण
(पुंलिंग) | लक्ष = एक राजा (पुंलिंग) कुमार = शंकर का पुत्र (पुंलिंग) | व्रीहि = चावल (पुंलिंग) खदिर = खेर का वृक्ष (पुंलिंग) | व्यंसक = ठग (पुंलिंग) दंश = दंश (पुंलिंग) | व्यय = नाश
(पुंलिंग) द्वि जाति = ब्राह्मण (पुंलिंग) | विश = व्यापारी (पुंलिंग) धव = वृक्ष का नाम (पुंलिंग) | शङ्ख = शंख (पुंलिंग) नकुल = नेवला (पुंलिंग) | शूद्र = शूद्र
(पुंलिंग) न्यग्रोध = वट वृक्ष (पुंलिंग) | क्षत्रिय = क्षत्रिय (पुंलिंग) पत्रिन् = बाण
(पुंलिंग) | पणाङ्गना = वेश्या (स्त्री लिंग) पलाश = पलाश का वृक्ष (पुंलिंग) | भेरी = बड़ा नगाड़ा (स्त्री लिंग) प्रद्युम्न = कृष्ण का पुत्र (पुंलिंग) | अपत्य = संतान (नपुं. लिंग) प्लक्ष = पीपल (पुंलिंग) | छत्र = छत (नपुं. लिंग) मशक = मच्छर (पुंलिंग) | द्वंद्व = युगल _ (नपुं.) मूलराज =चौलुक्यवंशी आद्यराजा (पुं.)/ पीठ = आसन (नपुं. लिंग) धृ.ग. 10 पर धारण करना
__संस्कृत में अनुवाद करो 1. मानों बुद्धि से मयूर व्यंसक और छात्र व्यंसक न हों ऐसे वे दोनों राजा गिरते हुए
बाणों द्वारा, ऊपर गिरते पक्षियों द्वारा पीपल और वटवृक्ष की तरह शोभते थे
(राज्) । 2. स्निग्ध वाणी और चमडी को तथा आसन, छत और पादुका को धारण करते हुए
नारद ने उन दो राजाओं को शस्त्र के गिरने के भय से धव, खदिर और पलाश
में प्रवेश कर देखा। 3. वे दोनों, भाई-बहिन अथवा पुत्र-पुत्री के लिए मानों प्रहार कर रहे थे। (प्र+ह्) 4. 'कुमार के माता-पिता तथा प्रद्युम्न के माता-पिता तुझ पर क्रोध वाले हुए हैं'
इस प्रकार मूलराज बोल रहा था । (ब्रू) 5. घोड़े और रथों के आश्रित रहे हुए शत्रुओं को दंश और मच्छर तुल्य भी नहीं
मानते हुए लाखा राजा ने धनुष धारण किया ।
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आओ संस्कृत सीखें 6. लाखा राजा के बाण बरसाते समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र त्रस्त हुए।
(त्रस्) 7. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का रक्षण करते हुए मूलराजा ने भी जय के लिए
धनुष धारण किया और जय के लिए भेरी और शंख बजे । (वद्) 8. विरोध से मानों सर्प और नेवले न हों, ऐसे वे देव और असुर द्वारा स्तुति कराए गए।
हिन्दी में अनुवाद करो 1. तस्य सर्वदा देव-द्विजाति-श्रमण-गुरुशुश्रूषापरस्य निजभुजार्जितं
पूर्वपुरुषोपार्जितं च प्राज्यमर्थमर्थिजनैः सुह्यद्भि र्बान्धवै विद्वदिभश्च भुक्तशेषमुपभुजानस्य पश्चिमे वयसि वसुदत्ताभिधानायां गृहिण्यामपश्चिमः
सर्वापत्यानां तारको नाम दारकः समुदपादि। 2. वधूवरं च गायन्त्यः सर्वास्तस्थुः पणाङ्गनाः । 3. गगनं गगनाकारं सागरः सागरोपमः ।
रामरावणयो युद्धं रामरावणयोरिव ।। 4. परस्पृहा महादुःखं निःस्पृहत्वं महासुखम् ।
एतदुक्तं समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ।। 5. द्विगुरपि सद्वन्द्वोऽहं गृहे च मे सततमव्ययीभावः ।
तत्पुरुष ! कर्म धारय येनाहं स्यां बहुब्रीहिः ।
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आओ संस्कृत सीखें
पाठ 35
इच्छादर्शक् (सन्नन्त प्रक्रिया)
तुम् प्रत्यय के योग्य धातु से इच्छा के अर्थ स ( सन्) प्रत्यय होता है ।
स् के पहले सेट् धातुओं को इ लगाएँ, अनिट् को न लगाएँ और वेट् को विकल्प से लगाएँ । शोभितुमिच्छति, शुभ् + इ + स । शचितुमिच्छति, शी+इ+स स (सन्) अंतवाले धातु का एकस्वरी आद्य अंश द्विरुक्त होता है । उदा. शुशुभ + इस = शुशोभिष । शीशी + इस = शिशयिष ।
3.
शुशोभिष + अ (शव) + ते = शुशोभिषते । शिशयिषते ।
अकारांत धातु से अशित् प्रत्यय आने पर अंत्य अ का लोप होता है । उदा. शुशोभिषिष्यते, शुशोभिषिषीष्ट ।
अटिटिषिष्यति, अटिटिष्यात्
-
स्वरादि धातुओं का एकस्वरी द्वितीय अंश डबल होता है अटिटिष - अटिटिषति । कित् विधि
अटिष
रुद्, विद्, मुष्, ग्रह, स्वप् और प्रच्छ् धातु से स (सन् ) और त्वा ( क्त्वा ) प्रत्यय कित् की तरह होते है । कित् होने से गुण नहीं होगा और य्वृत् होगा। उदा. रुदित्वा = रुरुदिषति । विदित्वा = विविदिषति ।
1.
2.
4.
5.
6.
7.
8.
256
1.
मुषित्वा = मुमुषिषति । गृहीत्वा = जिघृक्षति ।
सुप्त्वा = सुषुप्सति । पृष्ट्वा
=
पिपृच्छिषति ।
नाम्यंत धातुओं से अनिट् स ( सन्) कित्वत् होता है । उदा. निनीषति, तृ - तितीर्षति, ते
नामि उपांत्य धातुओं से अनिट् स ( सन्) कित्वत् होता है । भिद् – बिभित्सति,
बुध् - बुभुत्सते । ग. 4
दीर्घ विध
धुड् आदि स (सन्) पर स्वरांत धातु, हन् धातु और इ धातु के गम् (गमु) आदेश का स्वर दीर्घ होता है । तन् का विकल्प से दीर्घ होता है ।
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आओ संस्कृत सीखें
92573, उदा. चिचीषति, तुष्टूषति ।
कृ = चिकीर्षति । हन् का जिघांसति ।
तन् का तितांसति, तितंसति । 8. सन् प्रत्यय पर इ पढना, जाना, स्मरण करना, गम् (गमु) और अद् का घस्
आदेश होता है। उदा. अध्येतुं इच्छति = अधिजिगांसते विद्याम् । जिगमिषति ग्रामम् । अधिजिगमिषति मातरम् । जिघत्सति
इ विधि 9. द्वित्व होने के बाद पूर्व के अ का स (सन्) पर इ होता है ।
पच् = पिपक्षति । पा = पिपासति ।
स्था = तिष्ठासति । 10. द्वित्व होने के बाद पूर्व के उ का, अवर्णांत ज, अंतस्था और पवर्ग पर स (सन्)
पर इ होता है। उदा. यु + इस युयुइस = यियविषति । पू का = पिपविषते ।
इट् का अपवाद 11. इव् अंतवाले धातु तथा ऋध्, भ्रस्ज, दम्भ, श्रि, यु, ऊर्गु (गण 2) भृ, ज्ञपि
(णिगंत ज्ञा धातु) सन्, तन्, पत्, वृ, दीर्घ ऋकारांत धातु तथा दरिद्रा धातु से स (सन्) के पहले इट् विकल्प से होती है । उदा. दिव् = दुवूषति, दिदेविषति ।
भ्रस्ज् = बिभक्षति, बिभर्जिषति । श्रि = शिश्रीषति, शिश्रयिषति । यु = युयूषति, यियविषति । ऊर्गु = प्रोणुनूषति, प्रोणुनविषति । भृ = बुभूर्षति, बिभरिषति । तन् = तितंसति, तितनिषति । वृ = वुवूर्षते, विवरिषते ।
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आओ संस्कृत सीखें
3258
तृ = तितीर्षति, तितरिषति । -
दरिद्रा = दिदरिद्रासति, दिदरिद्रिषति । 12. ऋ, स्मि, पू (गण 1 आत्मनेपद) अ, अश् (गण-5) कृ, गृ, दृ, धृ (गण 6 आत्मनेपद) और प्रच्छ् धातु से स (सन्) के पहले इट् होती है ।
ऋ = अरिरिषति । स्मि = सिस्मयिषते । पू = पिपविषते । अ = अजिजिषति । अश् = अशिशिषते । प्रच्छ् = पिपृच्छिषति । नृत् = निनृत्सति, निनर्तिषति ।। गम् = जिगमिषति । क्रम् = चिक्रमिषति । वृत्-वृध् = विवृत्सति । कृप् = चिक्लृप्सति । स्यन्द् = सिष्यन्त्सति । कृ = चिकरिषति । गृ = जिगरिषति । दृ = आदिदरिषते ।
धृ = आदिधरिषते । आत्मनेपद में
विवर्तिषते, विवर्धिषते । सिष्यन्स्यते, सिस्यन्दिषते ।
चिक्लृप्सते, चिकल्पिषते । 13. ग्रह् गुह् और उवर्णांत धातुओं से स (सन्) के पहले इ (इट्) नहीं होती हैं।
उदा. जिघृक्षति, जुघुक्षति, रुरूषति, लुलूषति, बुभूषति, पुपूषति
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1259 है
द्विरुक्ति का अपवाद 14. सकारादि स (सन्) पर
1. ज्ञपि का ज्ञीप् और आप का ईप् 2. ऋध् का ई 3. दम्भ का धिप् और धीप् 4. अकर्मक मुच् का विकल्प से मोक् 5. मि, मी, मा और दा संज्ञक धातु के स्वर का इत् 6. रभ, लभ, शक्, पत् और पद् के स्वर का इ होता है और सर्वत्र द्विरक्ति
नहीं होती है। 1. ज्ञीप्सति प्रति उदाहरण जिज्ञपयिषति
ईप्सति
ईर्त्यति
अदिधिषति धिप्सति, धीप्सति
दिदम्भिषति मोक्षति, मुमुक्षति मित्सति, मित्सते दित्सति, धित्सति आरिप्सते, लिप्सते, शिक्षति पित्सति
पिपतिषति पित्सते जि - जिगीषति
चि - चिकीषति, चिचीषति । 15. स्मृ और दृश् के इच्छादर्शक रूप आत्मनेपद में होते हैं । उदा. सुस्मूर्षते, दिदृक्षते ।
इच्छादर्शक - (सन्नन्त) नाम 16. सन्नंत धातु, भिक्ष धातु तथा आशंस् धातु से उ प्रत्यय लगने पर कर्तृसूचक नाम
बनता है। उदा. लिप्सते इत्येवं शीलः लिप्सुः इसी प्रकार
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आओ संस्कृत सीखें
चिकीर्षुः । जिगमिषुः । मुमुक्षुः
भिक्षु भिक्षते इत्येवंशीलः - भिक्षुः । आशंसुः । धातु से आ प्रत्यय लगकर स्त्री लिंग नाम बनते हैं । पातुं इच्छा = पिपासा
जिज्ञासा, लिप्सा, विवक्षा, चिकीर्षा, शब्दार्थ
(पुंलिंग) | व्योमन् = आकाश (पुंलिंग) सलिल = पानी
पशु = पशु
(पुंलिंग) क्षेम = कुशल
भवदत्त = व्यक्ति का नाम (पुंलिंग) आसन्न = नजदीक
व्यवहार = व्यापार
17. सन्नंत
अपहार = नाश करना
निर्घोष = आवाज
शश = खरगोश
अरण्यानी = बड़ा जंगल (स्त्री लिंग)
धरा = पृथ्वी मृगतृष्णा = मृगजल सिकता = रेती
पत्रक = पत्र विषाण = सींग
1.
3.
260
4.
5.
(पुंलिंग) पङ्गु = पंगु
(पुंलिंग) प्रतिनिविष्ट = कदाग्रही
(स्त्रीलिंग) ( स्त्री लिंग) (स्त्रीलिंग) ( नपुं. लिंग) (नपुंलिंग)
बुभुक्षा इत्यादि
( नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग)
( नपुं. लिंग)
संस्कृत में अनुवाद करो
विद्यार्थी जिस प्रकार पढ़ने के लिए इच्छा रखते हैं, उस प्रकार प्रयत्न करने के लिए इच्छा नहीं रखते हैं । (प्र+यत्)
2. करने के लिए इच्छित काम अधूरे होते हैं और मनुष्य मरने की तैयारी मे होता
है । (मृ)
यह प्रासाद गिरने की तैयारी में है, अत: तुम इसमें प्रवेश करने की इच्छा न करो ( प्र + विश्) ।
फूल इकट्ठे करने की इच्छा से सुधा बगीचे में गई ( अव + चि) ।
चोरी करने की इच्छावाला चोरी करके, (मुष)
प्रश्न पूछने की इच्छावाला प्रश्न पूछकर (प्रच्छ ) जानने की इच्छावाला जानकर
(विशेषण)
(विशेषण)
(विशेषण)
(विशेषण)
(अव्यय)
लोलुप = लालची
इतस् = यहाँ से
अर्दू
= पीड़ा करना गण 10 आत्मनेपद आ+राध् = आराधना करना गण 10 पर. गर्ह = निंदा करना (गण 1 आत्मनेपद,
गण 10 उभयपद)
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आओ संस्कृत सीखें
1261
(विद्) ग्रहण करने की इच्छावाला ग्रहण कर (ग्रह) सोने की इच्छावाला सोकर जिस प्रकार कृतकृत्य होता है, उसी प्रकार उसके दुःख से बारबार रोने की इच्छावाला ऐसा मैं, उस कन्या का इस पट्ट में आलेखन कर यहाँ लाकर कृतकृत्य बना हूँ। लोग धन इकट्ठा करने की इच्छावाले हैं किंतु देने की इच्छावाले नहीं हैं (अर्प
- अर्पिपयिष) 7. तुम मरने की इच्छा नहीं करते हो, उसी तरह दूसरों को मारने की इच्छा न करो
(मा हन् - अद्यतनी) 8. शूर्पणखा के कहने से रावण ने सीता को अपने अन्त:पुर में लाने की इच्छा की
(आ+नी-परोक्षा) और सीता के आग्रह से राम ने मृग को पकडने की इच्छा
की (ग्रह)। 9. वल्लभ के साथ युद्ध कर के किसी राजा ने अपने हाथ की शक्ति देखने की इच्छा
नहीं की (दृश्) किंतु सभी रक्षण के लिए अपने इष्ट देवता का स्मरण करने की इच्छा कर रहे थे (स्मृ)।
हिन्दी में अनुवाद करो 1. प्रारिप्सितस्य ग्रन्थस्य निर्विघ्नपरिसमाप्तये ग्रन्थकृदभीष्टदेवतां स्तौति । 2. लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन्, पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं
पिपासार्दितः। कदाचिदपि पर्यटशशविषाणमासादयेत्, न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजन
चित्तमाराधयेत्॥ 3. राजन्दुधुक्षसि यदि क्षितिधेनुमेनाम्, तेनाद्य वत्समिव लोकममुं पुषाण ।
तस्मिंश्च सम्यगनिशं परिपुष्यमाणे नानाफलं फलति कल्पलतेव भूमिः ।। क्वाहं पशोरपि पशु र्वीतराग-स्तवः क्व च ।
उत्तितीर्घररण्यानी पद्भ्यां पङ्गुरिवारम्यतः ॥ 5. सूरिरूचे भवदत्त ! तरुणः कोऽयमागतः ।
सोऽवदद्भगवन्दीक्षां जिघृक्षुर्मेऽनुजो ह्यसौ ॥ 6. मृगा वायुमिवारूढा रथनिर्घोषभीरवः ।
प्रायः प्रयान्त्यमी व्योम्नि जिहासन्तो महीमिव ।
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आओ संस्कृत सीखें
7. व्यवहाराय दिग्यात्रां चिकीर्षन्नसि सुन्दर ! । क्षेमेण कृत्वा तां शीघ्र -मागच्छेरस्मदाशिषा ।। मात्रयाऽप्यधिकं किञ्चिन्न सहन्ते जिगीषवः । इतीव त्वं धरानाथ ! धारानाथमपाकृथाः । 9. चिखादिषति यो मांसं प्राणिप्राणापहारतः । उन्मूलयत्यसौ मूलं दयाख्यं धर्मशाखिनः ।। 10. असौ धन: सार्थवाहो वसन्तपुरमेष्यति ।
ये केऽप्यत्र यियासन्ति ते चलन्तु सहामुना ॥ 11. सर्वथा निर्जिगीषेण भीतभीतेन चागसः ।
त्वया जगत्त्रयं जिग्ये महतां काऽपि चातुरी ॥ 12. क्रियाविरहितं हन्त ज्ञानमात्रमनर्थकम् ।
गतिं विना पथज्ञोऽपि नाप्नोति पुरमीप्सितम् ।। 13. न पिबामि तृषार्त्तोऽपि न च भुजे बुभुक्षितः रात्रावपि न सुप्तोहं धनोपार्जन - लोलुपः ।। 14. संपुत्रादि - परिवारो राजा दशरथोऽपि तम । गत्वा ववन्दे शुश्रूषु र्देशनां निषसाद च ।।
15. यथा भक्तिं चिकीर्षौ आत्मभावस्तथा जिघांसावपि कर्तव्यः ।
8.
262
16. स्वजनानित आसन्नान्दिदृक्षे युष्मदाज्ञया ।
17. धिग् धिग् मुमूर्षुरेवाहमकार्षं कर्म गर्हितम् ।
18. आदिशतु कुमार: सर्वमेवानुक्रमेण, किं तत्पत्रकम् ?
केन प्रेषितम् ? कस्य वा प्रेषितम् ? किमत्र कार्यं विविक्षितम् ?
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पाठ - 36|
प्रेरक - (णिगन्त प्रक्रिया) क्रिया करनेवाला कर्ता कहलाता है, कर्ता को क्रिया के लिए प्रेरणा देनेवाला प्रेरक कर्ता कहलाता है।
प्रेरक कर्ता की क्रिया बतानी हो तो धातु से इ (णिग्) प्रत्यय लगता है और धातु उभयपदी बनता है।
उदा. कृ - करोति प्रयुङ्क्ते कुर्वन्तं (प्रेरयति) - कृ + इ (णिग्) = कारि । कारि + अ (शव्) + ति = कारयति, कारयते उदा. शिष्यः धर्म बोधति - शिष्य धर्म को जानता है ।
धर्मं बोधन्तं शिष्यं गुरुः प्रेरयति
गुरु: शिष्यं धर्मं बोधयति। इ (णि) प्रत्यय पर
घट आदि धातुओं का स्वर ह्रस्व होता है । उदा. घट् - घटयति । व्यथ् - व्यथयति ।
प्रथ् - प्रथयति । त्वर- त्वरयति । हेड् - हिडयति । लग् - लगयति । नट् - नटयति । मद् - मदयति ।
ज्वर् - ज्वरयति । 2. कम्, वन्, जन्, जृ (गण ४) कनस् और रज् धातु का स्वर हस्व होता है ।
उदा. कगयति, वनयति, जनयति, जरयति, क्नसयति । उदा. रजयति मृगं व्याध; = शिकारी मृग का शिकार करता है ।
रञ् धातु का उपांत्य न् इ (णिग्) प्रत्यय पर मृग के शिकार अर्थ में लुप्त होता है। अन्यत्र नहीं । उदा. रञ्जयति सभां नटः = नट सभा को रंजित करता है
रञ्जयति रजको वस्त्रम् = रंगारे वस्त्र को रंगता है । 3. कम्, अम् और चम् सिवाय के अम् अंतवाले धातु का स्वर ह्रस्व होता है।
उदा. रम् = रमयति, गमयति, शमयति ।
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कम् = कामयति, अम् = आमयति ।
चम् = चामयति । 4. ऋ (गण 1,3) री, ही और आकारांत धातुओं से प् (पु) जुड़ता है ।
उदा. अर्पयति । रेपयति । हेपयति । दापयति । स्थापयति । 5. पा, शो, छो, सो, वे, व्ये, ह्वे, से य् जुड़ता है ।
उदा. पाययति, शाययति, वाययति, व्याययति ह्वाययति । 6. पा (रक्षण करना) से ल् जुड़ता है - पालयति । 7. रुह् के ह् का विकल्प से प् होता है ।
उदा. रोपयति, रोहयति । 8. क्री, जि तथा इ (पढ़ना) के अंत्यस्वर का आ होता है ।
उदा. क्रापयति, जापयति, अध्यापयति । 9. स्वरादि प्रत्ययों पर रभ और लभ् धातुओं से स्वर के बाद अनुनासिक होता है।
(परोक्षा व अ (शव्) छोड़कर)
उदा. रम्भयति, लम्भयति, परंतु रेभे, रभते, लेभे, लभते आदि 10. जित् या णित् प्रत्यय पर हन् का घात् होता है ।
उदा. हन्+अ (घञ्) घातः । हन् + इ (णिग्) घातयति । 11. गत्यर्थ, बोधार्थ, आहारार्थ, शब्दकर्मक (जिन धातुओं की क्रिया या कर्म, शब्द
रूप हो) और नित्य अकर्मक, धातुओं का मूल कर्ता प्रेरक भेद में कर्म होता है, परंतु नी, खाद्, अद्, ढे, शब्दाय और क्रन्द् को छोडकर । उदा. गमयति चैत्रं ग्रामम् = चैत्र को गांव भेजते हैं ।
बोधयति शिष्यं धर्मम् = शिष्य को धर्म समझाते हैं ।
भोजयति बटुं ओदनम् = बालक को चावल खिलाते हैं 1. जल्पयति मैत्रं द्रव्यम् = मैत्र को द्रव्य बुलाता हैं । 2. अध्यापयति बटुं वेदम् = बालक को वेद पढाते है ।
शाययति मैत्रं चैत्र = चैत्र मैत्र को सुलाता है । विरुद्ध उदाहरण :
पाचयति ओदनं चैत्रेण मैत्रः = मैत्र चैत्र के पास चावल पकवाता है। नाययति भारं चैत्रेण मैत्रः = मैत्र चैत्र के पास भार ले जाता है । यहाँ मूलकर्ता को तृतीया होगी।
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सकर्मक धातुओं का मूलकर्ता, यदि कर्म का प्रयोग नहीं हुआ हो तो प्रेरक भेद
में विकल्प से कर्म होता है ।
उदा. पाचयति चैत्रं चैत्रेण वा । ह्न और
उदा. विहारयति देशं गुरुं गुरुणा वा ।
6.
7.
8.
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कृ धातु का मूलकर्ता विकल्प से कर्म होता है ।
आहारयति ओदनं बालं बालेन वा ।
कारयति कटं चैत्रं चैत्रेण वा ।
कर्मणि
अनिट् (जिसके पहले इ ( इट्) न हो ) तथा अशित् प्रत्ययों पर इ ( णिच् या गि) का लोप होता है ।
=
उदा. चोरि ( गण 10 ) + य ( क्य) + ते = चोर्यते कर्मणि
प्र+ताडि+य (त्वा)
प्रताड्य परंतु चोरयित्वा । चोरि + इ (णि) चोरि = चोरयति, ते । प्रेरक
कारि + य (क्य) = कार्यते, हार्यते, योज्यते, वास्यते, दाप्यते, गम्यते 1 प्रेरक कर्मणि - आनाय्यते । प्रेरक संबंधक भूतकृदन्त प्रकार्य, कारयित्वा ।
9. सेट् त (क्त) तथा तवत् (क्तवतु) पर इ ( णिच् या णिग्) का लोप होता है ।
उदा. चोरि + त = चोरितः, चोरितवान् ।
कारि + त = कारितः, कारितवान् ।
10. लघु स्वर के बाद रहे इ ( णिच् या णिग्) का य (यप्) पर अय् होता है । उदा. सङ्कथय्य, प्रशमय्य ।
11. आम् पर इ ( णिच् या णिग्) का अय् होता है ।
उदा. चोरयाञ्चकार
प्रेरक कर्मणि प्रयोग रचना
गत्यर्थक और अकर्मक प्रेरक धातुओं का प्रधान कर्म को प्रथमा होती है । उदा. गमयति मैत्रं ग्रामम् = गम्यते मैत्रो ग्रामं चैत्रेण ।
आसयति मासं मैत्रम् = आस्यते मासं मैत्रश्चैत्रेण । गमितो मैत्रो ग्रामं चैत्रेण ।
बोधार्थ, आहारार्थ तथा शब्दकर्मक प्रेरक धातुओं के किसी भी कर्म को प्रथमा होती है।
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उदा. बोधयति शिष्यं धर्मम् - बोध्यते शिष्यो धर्मम् - शिष्यं धर्म इति वा । भोजयति अतिथिं ओदनं - भोज्यते अतिथि : ओदनम्, - अतिथिं ओदनं वा पाठयति शिष्यं ग्रन्थम्-पाठ्यते शिष्यो ग्रन्थम् - शिष्यं ग्रन्थ इति वा ।
पाठ 29 नियम 9
अद्यतनी
-
आटि + अ (ङ) यावि + ङ
11. इ ( णिच् या णिग्) के बाद में अ (ङ) आए तो
266
1. धातु का उपान्त्य स्वर ह्रस्व होता है, परंतु जिसके समान स्वर का लोप हुआ हो ऐसे धातु तथा शास्, ओणू, याच्, लोक्, ढौक् आदि धातुओं को छोड़कर ।
उदा. अटि + अ (ङ) - पाठ 35 नियम 3 से
अटिटि + अ नियम 8 से अटित् ।
-
कृ करि = चकरि + ङ
यवि = युयवि + ङ
लवि = लुलवि + ङ
कारि + अ (ङ)
लावि + ङ
2. द्वित्व होने के बाद पूर्व के स्वर का (दीर्घ न हो या बाद में संयोग न हो) लघु स्वर पर इच्छादर्शक की तरह कार्य होता है, परंतु समान स्वर का लोप हुआ हो, ऐसे धातुओं को छोडकर ।
उदा. चिकरि + ङ
यियवि + ङ
लिलवि + ङ
3. द्वित्व होने के बाद पूर्व के लघु स्वर का, यदि उसके बाद लघु स्वर हो तो दीर्घ होता है, परंतु स्वरादि धातु तथा समान लोपवाले धातुओं को छोड़कर ।
उदा. अचीकरत् । अयीयवत् । अलीलवत् ।
नियम पहले के प्रत्युदाहरण :
असुसूचत् - यहाँ समान का लोप है, क्यों कि सूच् धातु के अंत में अ समान स्वर है, अतः उपांत्य ह्रस्व नहीं हुआ ।
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शास् = अशशासत् ओण् = मा ओणिंणत् याच् = अययाचत् लोक् = अलुलोकत्
ढौक् = अडुढौकत् नियम दूसरे के प्रत्युदाहरण :
अततक्षत्-उसमें बाद का स्वर लघु नहीं है, क्योंकि उसके बाद संयोग हैं। क्ष् (क् + ष) संयुक्त हैं अतः पूर्व के अ का इ नहीं होगा। अचकथत् इसमें समान का लोप है, क्योंकि कथ के अंत में असमान है। (अचीकथत् भी होता है) अचकमत - इसमें इ (णिग्) नहीं है, परंतु पाठ २९ नियम ९ से अ (ङ) प्रत्यय लगकर रूप बना है ।
णिग् में अचीकमत होगा। नियम तीसरे के प्रत्युदाहरण :
अचिक्वणत् - इसमें पूर्व का स्वर लघु नहीं है, क्योंकि उसके पीछे संयोग है, अत: दीर्घ नहीं हुआ। ऊर्गु - औणुनवत् - यहाँ धातु स्वरादि है, अत: पूर्व के णु का स्वर उ दीर्घ नही हुआ ।
अचकथत् - असुसुखत् - इसमे समान का लोप है । 4. स्मृ, दृ, त्वर, प्रथ्, म्रद्, स्तृ और स्पश् के पूर्व के स्वर का अ होता है । उदा. असस्मरत्, अददरत्, अतत्वरत्, अपप्रथत्,
अमम्रदत्, अतस्तरत्, अपस्पशत् । 5. वेष्ट और चेष्ट के पूर्व के स्वर का विकल्प से अ होता हैं ।
उदा. अववेष्टत्, अविवेष्टत् । अचचेष्टत्, अचिचेष्टत् । 6. गण धातु के पूर्व के स्वर का ई और अ होता है ।
उदा. अजीगणत्, अजगणत् । 7. भ्राज्, भास्, भाष्, दीप, पीड्, जीव, मील्, कण, रण, वण, भण्, श्रण,
ह्वे, हेल्, लुट्, लुप और लप् का उपांत्य विकल्प से ह्रस्व होता है । उदा. अबिभ्रजत् - अबभ्राजत् ।
अबीभसत् - अबभासत् ।
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8.
9.
-
अबीभत् अदीदिपत्
अचीकणत् - अचकाणत् ।
-
अजूहवत् - अजुहावत् अजीहिठत् - अजिहेठत् अलूलुटत् - अलुलोटत्
उपांत्य ऋ वर्ण का विकल्प से ऋ होता है ।
वृत् - अवीवृतत् - अववर्तत् ।
268
कृत् - अचीकृतत्, अचिकीर्तत् ।
घ्रा के उपांत्य का विकल्प से इ होता है । उदा. अजिघ्रिपत्, अजिघ्रपत् । 10. स्था के उपांत्य का नित्य इ होता है । उदा. अतिष्ठिपत् ।
11. स्वप् का सुपू, ह्वे का हु तथा श्वि का शु विकल्प से होता है । उदा. असूषुपत् । अजूहवत् । अशूशवत् । अशिश्वयत् । 12. पा (पीना) का पीप्य होता है और द्वित्व नहीं होता है ।
-
अबभाषत् ।
अदिदीपत् ।
उदा. अपीप्यत्
आशीः कारि + यात् - कार्यात् कार्यास्ताम् कार्यासुः
आत्मनेपद कारयिषीष्ट, कारयिषीयास्ताम्, कारयिषीरन्
दसवे गण में :
अद्यतनी - अचूचुरत्, अचकथत्, अजीगणत्, अजगणत् इत्यादि पूर्व के प्रेरक के नियम लगाकर करें ।
धृ - धारण करना
उदा. ध्रियते शतम् ।
आशी: चोर्यात्, चोर्यास्ताम्, चोर्यासुः
आत्मनेपद - प्रार्थयिषीष्ट, प्रार्थयिषीयास्ताम् प्रार्थयिषीरन्
13. धारि धातु के योग में लेनदार को चतुर्थी होती है ।
(गण 6, आत्मनेपद)
-
ध्रियमाणं शतं प्रयुङ्क्ते इति - धारयति शतम् ।
चैत्राय शतं धारयति चैत्रः चैत्र के 100 रुपए मैत्र धारण करता है।
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2269.
शब्दार्थ अराति = शत्रु (पुंलिंग) | रुज् = रोग (स्त्री लिंग) ओघ = समुह (पुंलिंग) | शकुन्तलाकण्वऋषि पोषित कन्या (स्त्री) चामर = चामर (पुंलिंग) | सुरा = मदिरा (स्त्री लिंग) फणीन्द्र = शेषनाग (पुंलिंग) अपत्य = संतान (नपुं. लिंग) बन्दिन् = मंगल पाठक (पुंलिंग) | पिशित = मांस (नपुं. लिंग) लव = अंश
(पुंलिंग) | बल = सैन्य (नपुं. लिंग) विभाकर = सूर्य (पुंलिंग) | वर्त्मन् = मार्ग (नपुं. लिंग) विष्णुदास = चाणक्य (पुंलिंग) | विष = जहर (नपुं. लिंग) शक्र = इन्द्र
(पुंलिंग) | क्षमिन् = क्षमावाला (विशेषण) संश्लेष = संबंध (पुंलिंग) | दुर्विदग्ध = गर्विष्ठ (विशेषण) क्षुल्लक = बाल साधु (पुंलिंग) | वशिन् = जितेन्द्रिय
(विशेषण) इला = पृथ्वी (स्त्री लिंग) | स्फार = ज्यादा (विशेषण) कालपुरी = यमपुरी (स्त्री लिंग) | अधस् = नीचे (अव्यय) ग्रीवा = गर्दन (स्त्री लिंग) | असाम्प्रतम् = अयोग्य (अव्यय) प्रावृष् = वर्षाऋतु (स्त्री लिंग) | तत्रभवत् = आप, पूज्य (सर्वमान) बन्दि = कैदी (स्त्री लिंग) ।
धातु उप+नी पास में ले जाना,देना (गण 1 उभ.) वि+प्लु = युद्ध करना दुष् = दूषित होना गण 4 परस्मै. ..
शिक्ष = सीखना गण 1 आत्मनेपद ध्वंस् = ध्वंस होना गण 1 आत्मने. सम् + पद् = प्राप्त होना प्लु = कूदना, गण 1 आत्मनेपद
(गण 4 आत्मनेपदी) संस्कृत में अनुवाद करो 1. उस प्रकार करता हुआ राजा, उसकी रानी पुष्पवती द्वारा वरा गया, परंतु उसकी
भी उसने गणना नहीं की (गण् अद्य) । 2. हे आर्यपुत्र ! आप बिल्कुल दुःख न करो (मा-कृ अद्य. द्वितीय पुरुष एकवचन)
मैं तत्काल भाई को बताती हूँ और आपका इच्छित (त्वदीप्सितम्) कराऊंगी। 3. झुकी हुई है ग्रीवा जिनकी, ऐसे यशोभद्र आदि शिष्यों ने कहा 'हे पूज्य, पहले
(स्त्रा
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से ही आपने अपत्य संबंध क्यों नहीं बताया । (ज्ञा भूतकृदन्त)
4. अतिहर्षवाले आचार्य बोले, 'पुत्र संबंध को जानकर तुम मनक मुनि के पास सेवा नहीं कराते, इस कारण वह अपने स्वार्थ को छोड़ देता (वि + मुच्) ।
उस रंक को प्रव्रज्या प्रदान कर, उसे मोदक आदि इष्ट भोजन रुचिपूर्वक खिलाया। (भुज् - अद्य )
राजा अशोक ने उस बालक को मंगवाया (आ+नी - ह्य) और उसका नाम संप्रति किया। (कृ. अद्य.)
राजा अशोकने दश दिन के बाद संप्रति को अपने राज्य पर स्थापित किया । ( नि + निश् - अद्य.)
8.
कुमार ने वह लेख पढा ( वच् - परोक्षा) और पढ़कर ( वच्) मूक हुआ । 9. चंद्रगुप्त को जहर देकर कोई मार न दे (हन्) इस हेतु से चाणक्य ने प्रतिदिन अधिक-अधिक विषाहार खिलाया ।
10. मौर्य को बतलाकर चाणक्य द्वारा सुबंधु को उसका (मौर्य का ) प्रधान बनवाया
था। (कृ - भू.कृ)
11. राजा अशोक ने दश दिन के बाद संप्रति को अपने राज्य पर स्थापित किया । हिन्दी में अनुवाद करो 1. अज्ञः सुखमाराध्यः, सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः । ज्ञानलवदुर्विदग्धं, ब्रह्मापि नरं न रञ्जयति ।।
बिभेषि यदि संसारान्मोक्षप्राप्तिं च काङ्क्षसि तदेन्द्रियजयं कर्तुं, स्फोरय स्फारपौरुषम् ।। इतः स दैत्यः प्राप्तश्री-र्नेत एवार्हति क्षयम् । विषवृक्षोऽपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तुमसाम्प्रतम् ।। 4. दिशः प्रसादयन्नेष तेजोभिः प्रसृतैः सदा । न कस्यानन्दमसमं विदधाति विभाकरः ।।
5.
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5. “कमपि सावद्यव्यापारं न करोमि, अन्येन न कारयामि, सुखेन नीरागः सन् आसे” इति यस्य मनसि इयान् आग्रहः तस्य भण कियान् विवेक: ? ।
6. काहि पुंगणना तेषां येऽन्यशिक्षाविचक्षणाः ।
"
ये स्वं शिक्षयितुं दक्षा - स्तेषां पुंगणना नृणाम् ।।
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7. बलादप्यासितो भोक्तुं न किञ्चिद् बुभुजे च सः ।
मह्यं न रोचते किञ्चिदित्येकमवदन्मुहुः ।। 8. बुध्येत यो यथा जन्तुस्तं तथा प्रतिबोधयेत् । 9. एतावत्येव रथं स्थापय यावदवतरामि । 10. तत्रभवता वयमाज्ञप्ता: शकुन्तलाहेतो वनस्पतिभ्यः कुसुमान्याहरतेति । 11. स्व-सुख-निरभिलाष: खिद्यसे लोक हेतोः प्रतिदिनमथवा ते
वृत्तिरेवंविधैव। अनुभवति हि मूर्ना पादपस्तीव्रमुष्णं शमयति परितापं छायया
संश्रितानाम्॥ 12. पापिष्ठजनकथा हि क्रियमाणा पापं वर्धयति यशो दूषयति' लाघवमाधत्ते
मनो विप्लावयति धर्मबुद्धिं ध्वंसयतीति । 13. कृष्णसर्पशिशुना चन्दनं दूष्यते । 14. किं बहुना, अन्यदपि यत्ते मनसि वर्तते तत्सर्वमावेदय
येनाऽचिरात्संपादयामि। 15. स्वयंवरायाऽऽगता: कन्याः पितृभ्यां पर्यणायि सः । 16. राक्षसः - उत्तिष्ठ, अलमिदानीं कालहरणेन, निवेद्यतां विष्णुदासाय, एष
राक्षसश्चन्दनदासं मरणान्मोचयति । 17. समग्राण्यपि कारणानि न प्राग्जन्मजनित-कर्मोदयक्षणनिरपेक्षाणि
फलमुपनयन्ति । 18. समये प्रावृडम्भोद-वर्णं सम्पूर्णलक्षणम् ।
सुमित्राऽपि जगन्मित्रं, पुत्ररत्नमजीजनत् ।। 19. नृपति र्मोचयामास, धृतान्बन्दिरिपूनपि ।
को वा न जीवति सुखं, पुरुषोत्तमजन्मनि ।। 20. सोऽजीगमत्खेदमिलां बलौघैरबोधयद् भाररुजं फणीन्द्रम् ।
अदर्शयत्कालपुरीमरातीन भोजयत्तत्पिशितं पिशाचान् ।। 21. क्षणं सक्तः क्षणं मुक्तः क्षणं क्रुद्धः क्षणं क्षमी ।
मोहाद्यैः क्रीडयैवाहं कारितः कपिचापलम् ।।
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अपरेधुः शतबलो विद्याधरपति: सुधीः । महासत्त्वस्तत्त्वविज्ञ-श्चिन्तयामासिवानिदम् ।। विधाय सहजाऽशौच-मुपस्कारै नवं नवम् । गोपनीयमिदं हन्त, कियत्कालं कलेवरम् ।। सत्कृतोऽनेकशोप्येष सत्क्रियेत यदापि न । तदाऽपि विक्रियां याति कायः खलु खलोपमः ।। अहो बहिर्निपतितै विष्ठामुत्रकफादिभिः । हृणीयन्ते प्राणिनोऽमी, कायस्याऽन्तःस्थितै न किम् ।। रोगा: समुद्भवन्त्यस्मिन्नत्यन्तातङ्कदायिनः । दन्दशूका इव क्रूरा जरद्विटपिकोटरे ।। निसर्गाद् गत्वरश्चायं कायोब्द इव शारदः । दृष्टनष्टा च तत्रेयं यौवनश्रीस्तडिन्निभा ।। आयुः पताकाचपलं तरङ्गतरलाः श्रियः । भोगिभोगनिभा भोगाः सङ्गमाः स्वप्नसन्निभाः ।। कामक्रोधादिभिस्तापैस्ताप्यमानो दिवानिशम् । आत्मा शरीरान्तः स्थोऽसौ पच्यते पुटपाकवत् ।। विषयेप्वतिदुःखेषु सुखमानी मनागपि । नाऽहो विरज्यति जनोऽशुचिकीट इवाडशुचौ ।। दुरन्तविषयास्वाद-पराधीनमना जनः । अन्धोऽन्धुमिव पादाग्र-स्थितं मृत्युं न पश्यति ।। आपातमात्रमधुरै-विषयै विष-सन्निभैः । आत्मा मूर्च्छित एवाऽऽस्ते, स्वहिताय न चेतति ।। तुल्ये चतुर्णां पौमh पापयोरर्थकामयोः । आत्मा प्रवर्तते हन्त न पुनधर्ममोक्षयोः ।। अस्मिन्नपारे संसारपारावारे शरीरिणाम् । महारत्नमिवाऽनयं मानुष्यमतिदुर्लभम् ।। मानुष्यकेऽपि सम्प्राप्ते प्राप्यन्ते पुण्ययोगतः ।
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देवता भगवानर्हन् गुरवश्च सुसाधवः ।। मानुष्यकस्य यद्यस्य वयं नादद्महे फलम् । मुषिताः स्मः तदधुना चौरे वसति पत्तने ।।
उपदेशो न दातव्यो यादृशे तादृशे जने । पश्य वानरमूपेण सुगृही निगृहीकृता ।। दमनक आह- कथमेतत् ? सोऽब्रवीत् -
अस्ति कस्मिंश्चिद्वनोदेशे शमीवृक्षः, तस्य लम्बमानशाखायां कृतावासावरण्यचटकदम्पती वसतः स्म ।
अथ कदाचित्तयोः सुखसंस्थयो हेमन्तमेघो मन्दं मन्दं वर्षितुमारब्धः ।
अत्रान्तरे कश्चित्छाखामृगो वातासारसमाहतः प्रोद्धूषितशरीरो दन्तवीणां वादयन् वेपमानस्तच्छमीमूलमासाद्योपविष्टः । अथ तं तादृशमवलोक्य चटका प्राह, भो भद्र ! हस्तपादसमापेतो दृश्यसे पुरुषाकृतिः । शीतेन भिद्यसे मूढ! कथं न कुरुषे गृहम् ? ।।
एतच्छृत्वा तां वानरः सकोपमाह - अधमे ! कस्मान्न त्वं मौनव्रता भवसि ? 'अहो, धाय॑मस्याः अद्य मामुपहसति । सूचीमुखी दुराचारा, रण्डा पण्डितवादिनी । नाऽऽशङ्कते प्रजल्पन्ती, तत्किमेनां न हन्म्यहम्' ।। एवं प्रलप्य तामाह-मुग्धे ! किं तव ममोपरि चिन्तया । उक्तं च - वाच्यं श्रद्धासमेतस्य, पृच्छतश्च विशेषतः । प्रोक्तं श्रद्धाविहीनस्य, अरण्यरुदितोपमम् ।। तत्किं बहुना तावत् । कुलायस्थितया तयाऽभिहितः स तावत्तां शमीमारुह्य तस्याः कुलायं शतधा खण्डशोऽकरोत् । अतोऽहं ब्रवीमि - ‘उपदेशो न दातव्यः' इति ।
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आओ संस्कृत सीखें
मृगा मृगैः सङ्गमनुव्रजन्ति गावश्च गोभिस्तुरगास्तुरङ्गैः । मूर्खाश्च मूर्खे: सुधियः सुधीभिः समानशीलव्यसनेषु सख्यम् ।।
274
अपारे संसारे कथमपि समासाद्य नृभवम्, न धर्मं यः कुर्याद् विषयसुखतृष्णा - तरलितः । ब्रुडन् पारावारे प्रवरमपहाय प्रवहणम्,
स मुख्यो मूर्खाणामुपलमुपलब्धुं प्रयतते ।। विद्वानेव हि जानाति, विद्वज्जनपरिश्रमम् ।
न हि वन्ध्या विजानाति, गुर्वी - प्रसववेदनाम् ।। उदेति सविता ताम्र-स्ताम्र एवास्तमेति च ।
संपत्तौ च विपत्तौ च, महतामेकरूपता ।। अधमजातिरनिष्टसमागमः
अपयशोऽखिललोकपराभवो
प्रियवियोग- भयानि दरिद्रता ।
तावद्
भवति पापतरोः फलमीदृशम् ॥ उत्कूजन्तु वटे वटे बत बका: काका वराका अपि,
क्रां कुर्वन्तु सदा निनान्दपटवस्ते पिप्पले पिप्पले । सोऽन्यः कोऽपि रसालपल्लवनवग्रासोल्लसत्पाटवः,
क्रीडत्कोकिलकण्ठकूजनकलालीलाविलासक्रमः ।। जाड्यं धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यम्, मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति । चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिम्,
सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् । गर्जन्ति मातङ्गा वने मदभरालसाः ।
लीलोल्लालित- लाङ्गूलो यावन्नायाति केसरी ।। संतप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामाऽपि न ज्ञायते,
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मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते । स्वातौ सागरशुक्ति-सम्पुटगतं तज्जायते मौक्तिकम्,
प्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणः संवासतो जायते ।। गुणिनः स्वगुणैरेव, सेवनीयाः किमु श्रिया ।। कथं फलर्द्धिवन्ध्योऽपि, नानन्दयति चन्दनः ।। समानेऽपि हि दारिद्रये चित्तवृत्तेरहोन्तरम् । अदत्तमिति शोचन्ते, न लब्धमिति चापरे ।। न ह्येके व्यसनोदेकेऽप्याद्रियन्ते विपर्ययम् । जहाति दह्यमानोऽपि, घनसारो न सौरभम् ।। वाञ्छा सज्जनसङ्गमे परगुणे प्रीति गुरौ नम्रता, विद्यायां व्यसनं स्वयोषिति रति र्लोकापवादाद्भयम् । भक्तिश्चार्हति शक्तिरात्मदमने संसर्गमुक्तिः खले, यत्रैते निवसन्ति निर्मलगुणाः श्लाध्यास्त एव क्षितौ ।। राज्यं च सम्पदो भोगा: कुले जन्म सुरूपता ।' पाण्डित्यमायुरारोग्यं धर्मस्यैतत्फलं विदुः ।। समीहितं यन्न लभामहे वयं
प्रभो ! न दोषस्तव कर्मणो मम । दिवाप्युलूको यदि नाऽवलोकते
तदापराधः कथमंशुमालिनः ।। अनुगन्तुं सतां वर्त्म, कृत्स्नं यदि न शक्यते । स्वल्पमप्यनुगन्तव्यं, मार्गस्थो नावसीदति ।। विपद्युच्चैःस्थेयं पदमनुविधेयं च महताम्,
प्रिया न्याय्यावृत्ति-मलिनमसुभङ्गेप्यसुकरम् । असन्तो नाभ्यर्थ्याः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधारा-व्रतमिदम् ।। नरः प्रमादी शक्येऽर्थे, स्यादुपालम्भ-भाजनम् । अशक्य-वस्तु-विषये, पुरुषो नापराध्यति ।। योऽशक्येऽर्थे प्रवर्तेत, अनपेक्ष्य बलाबलम् ।
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आत्मनश्च परेषां च, स हास्यः स्याद्विपश्चिताम् ।। परोपकारः कर्तव्यः, सत्यां शक्तौ मनीषिणा । परोपकारासामर्थ्य, कुर्यात्स्वार्थे महादरम् ।। विद्यायां ध्यानयोगे च, स्वभ्यस्तेऽपि हितैषिणा । सन्तोषो नैव कर्तव्यः, स्थैर्य हितकरं तयोः ।। प्रणतेषु दयावन्तो, दीनाभ्युद्धरणे रताः । सस्नेहार्पितचित्तेषु, दत्तप्राणा हि साधवः ।। प्रत्यक्षे गुरवः स्तुत्या: परोक्षे मित्रबान्धवाः । कर्मान्ते भृत्यवर्गाश्च, पुत्रा नैव मृताः स्त्रियः ।। कश्चैकान्तं सुखमुपगतो, दुःखमेकान्ततो वा । नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा, चक्र-नेमि-क्रमेण ।।
चाणक्य:- शोभनम् । वत्स ! मणिकारश्रेष्ठिनं चन्दनदासमिदानीं द्रष्टुमिच्छामि। शिष्यः- तथेति । (निष्क्रम्य, चन्दनदासेन सह प्रविश्य) इत इतः श्रेष्ठिन् !। चन्दनदास : स्वगतम् चाणक्ये अकरुणे सहसा शब्दायितस्यापि जनस्य । निर्दोषस्याऽपि शङ्का किं पुन मम जातदोषस्य ।।
तस्माद्भणिता मया धनसेन-प्रमुखा निजनिवेशसंस्थिताः ‘कदापि चाणक्यहतको गेहं विचाययति, तस्मादवहिता निर्वहत भर्तुरमात्यराक्षसस्य गृहजनम्, मम तावद्यद्भवति तद्भवत्विति'।
शिष्यः- (उपसृत्य) उपाध्याय ! अयं श्रेष्ठी चन्दनदासः । चन्दनदास:- जयत्वार्यः । चाणक्य:- (नाट्येनावलोक्य) श्रेष्ठिन् ! स्वागतमिदमासनमास्यताम् ।
चन्दनदासः (प्रणम्य) किं न जानात्यार्यः यथानुचित उपचारो हृदयस्य परिभवादप्यधिकं दुःखमुत्पादयति, तस्मादिहैवोचितायां भूमावुपविशामि ।
चाणक्य:- भोः श्रेष्ठिन् ! मा मैवम्, संभावितमेवेदमस्मद्विधै र्भवतस्तदुपविश्यतामासन एव ।
चन्दनदासः- (स्वगतम्) उपक्षिप्तमनेन दुष्टेन किमपि (प्रकाशम्) यदार्य आज्ञापयतीति। (उपविष्टः)
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चाणक्य:- भोः श्रेष्ठिन् ! चन्दनदास ! अपि प्रचीयन्ते संव्यवहाराणां वृद्धिलाभा:?।
चन्दनदासः (स्वगतम्) अत्यादरः शङ्कनीयः, (प्रकाशम्) अथ किम्, आर्यस्य प्रसादेन अखण्डिता मे वाणिज्या ।
चाणक्य:- न खलु चन्द्रगुप्तदोषा अतिक्रान्तपार्थिव-गुणानधुना स्मारयन्ति प्रकृती:?
चन्दनदासः- (कर्णी पिधाय) शान्तं पापम्, शारद-निशा-समुद्गतेनेव पूर्णिमाचन्द्रेण चन्द्रेणाधिकं नन्दन्ति प्रकृतयः ।
चाणक्य:- भोः श्रेष्ठिन् ! यद्येवं प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रति प्रियमिच्छन्ति राजानः। चन्दनदास:- आज्ञापयतु आर्यः । कियदस्माज्जनादिष्यत इति।
चाणक्य:- भोः श्रेष्ठिन् ! चन्द्रगुप्तराज्यमिदं न नन्दराज्यम्, यतो नन्दस्यैवार्थरुचेरर्थसम्बन्धः प्रीतिमुत्पादयति, चन्द्रगुप्तस्य तु भवतामपरिक्लेश एव।
चन्दनदासः (सहर्षम्) आर्य ! अनुगृहीतोऽस्मि । चाणक्य:- संक्षेपतो राजनि अविरुद्धाभि वृत्तिभिर्वर्तितव्यम् । चन्दनदास:- आर्य ! कः पुनरधन्यो राज्ञा विरुद्ध इति आर्येणावगम्यते । चाणक्य:- भवानेव तावत्प्रथमम् ।
चन्दनदास: (कर्णी पिधाय) शान्तं पापम्, शान्तं पापम्, कीदृशस्तृणानामग्निना सह विरोध:?।
चाणक्यः- अयमीदृशो विरोधः, यस्त्वमद्यापि राजापथ्यकारिणोऽमात्यराक्षसस्य गृहजनं स्वगृहमभिनीय रक्षसि ।
चन्दनदासः- आर्य ! अलीकमेतद् केनाप्यनभिज्ञेन आर्यस्य निवेदितम् ।
चाणक्य:- भोः श्रेष्ठिन् ! अलमाशङ्कया, भीताः पूर्व-राजपुरुषा: पौराणामनिच्छतामपि गृहेषु गृहजनं निक्षिप्य देशान्तरं व्रजन्ति, ततस्तत्प्रच्छादनं दोषमुत्पादयति ।
चन्दनदास : एवमिदम्, तस्मिन्समये आसीदस्मद्गृहे अमात्यराक्षसस्य गृहजन इति।
चाणक्यः- पूर्वमनृतमिदानीमासीदिति परस्परविरोधिनी वचने । चन्दनदासः- एतावदेवास्ति मे वाक्छलम् ।
चाणक्य:- भोः श्रेष्ठिन् ! चन्द्रगुप्ते राजन्यपरिग्रहः छलानाम्, तत्समर्पय राक्षसस्य गृहजनम्, अच्छलं भवतु भवतः ।
चन्दनदास:- आर्य ! ननु विज्ञापयामि तस्मिन्समये आसीदस्मद्गृहे अमात्यराक्षसस्य गृहजन इति ।
चाणक्यः- अथेदानी क्व गतः? ।
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चन्दनदास:- न जानामि ।
चाणक्यः- (स्मितं कृत्वा) कथं न ज्ञायते नाम, भोः श्रेष्ठिन! शिरसि भयमतिदूरे तत्प्रतीकारः।
चन्दनदासः- (स्वगतम्) उपरि घनं घनरटितं दूरे, दयिता किमेतदापतितम् । हिमवति दिव्यौषधयः, शीर्षे सर्पः समाविष्टः ।।
अस्त्युज्जयिनीवर्त्मनि प्रान्तरे महान् पिप्पलीवृक्षः। तत्र हंसकाको निवसतः । कदाचिद् ग्रीष्मसमये परिश्रान्तः कश्चित्पथिकस्तत्र तरुतले धनु:काण्डं संनिधाय सुप्तः । क्षणान्तरे तन्मुखाद् वृक्षच्छायापगता। ततः सूर्यतेजसा तन्मुखं व्याप्तमवलोक्य कृपया तवृक्षस्थितेन हंसेन पक्षौ प्रसार्य पुनस्तन्मुखे छाया कृता। तता निर्भरनिद्रासुखिना तेनाऽध्वन्येन मुखव्यादानं कृतम् । अथ परसुखमसहिष्णुः स्वभावदौर्जन्येन स काकस्तस्य मुखे पुरीषोत्सर्गं कृत्वा पलायितः । ततो यावदसौ पान्थ उत्थायोर्ध्वं निरीक्षते तावत्तेनावलोकितो हंसः, काण्डेन हत्वा व्यापादितः । अत उच्यते, दुर्जनेन समं न स्थातव्यम्।
खलः करोति दर्वत्तं, नूनं फलति साधुषु । दशाननो हरेत्सीता, बन्धनं स्यान्महोदधेः ।। आचार्य-हेमचन्द्रीय-साङ्ग-शब्दानुशासनात् । विदषा शिवलालेन, रचितेयं प्रवेशिका ।। गजव्योमनभोहस्त-मिते वैक्रम-वत्सरे । अणहिलपुरे नाम, पत्तने पूर्णतामगात् ।।
श्रीमद्गुर्जरदेशेऽणहिलपुरपत्तने श्रीसिद्धराजराज्ये आचार्य -श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरविरचितसिद्धहेमचन्द्राभिधानसाङ्गशब्दानुशासनं समाश्रित्याणहिलपुरपत्तनाद् द्वादशगव्यूतिमिते दूरे उत्तरपश्चिमे दिग्विभागे वर्णासनदीतीरस्थश्रीजामपुरग्रामवास्तवश्राद्धवर्य-श्रीनेमचन्द्रश्रेष्ठि-सुश्राविका-श्रीरतिदेवीतनुज शिवलालेन महेशाने श्रीयशोविजयजैन-संस्कृत-पाठशालायां दशाब्दी यावद् धर्मशास्त्रन्याय - व्याकरणालङ्कारशास्त्राण्यभ्यस्य तत्रैव च तानि शास्त्राण्यभ्यासयता सता विक्रमसंवत् २००१ वर्षे प्रथमा हैमसंस्कृतप्रवेशिका रचयितुं प्रारब्धा, ततः २००४ वर्षेऽणहिलपुरपत्तने समागत्य तत्र निवासं कुर्वता २००५ वर्षे समाप्ति नीता। तदनन्तरं चेयं द्वितीया प्रवेशिका विरचय्य २००८ वर्षे समाप्तिं नीता । एतावता यत्र सिद्धहेमव्याकरणसमवतारस्तत्रैव हैमसंस्कृतप्रवेशिका-समवतारस्संजातः ।
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परिशिष्ट 1
पाठ 1
संस्कृत का हिन्दी अनुवाद 1. धर्म रक्षण का साधन (त्राणम्) है और शरण भी है । 2. यमुना गंगा में मिलती है। 3. हे राजा ! विजय पाओ । 4. हे पुत्र ! तुम क्या इच्छा करते हो ? 5. तुम अभी अकार्य से रुक जाओ। 6. हे पुत्री ! तुम मेरे पीछे चलो। 7. बालक स्तन से दूध पीता है । 8. राजा प्रजा के हित के लिए प्रवृत्ति करे । 9. हे वत्स ! रथ में बैठकर तेरी राजधानी की ओर प्रयाण कर । 10. हे माता ! यह पुरुष मुझे 'पुत्र' इस प्रकार कहकर आलिंगन करता है । 11. बड़ों के गुण अपने आप प्रगट होते हैं । 12. अरे ! यह बालक क्या मालूम वास्तव में क्रीड़ा करने के लिए सिंह के बच्चे को
जबरदस्ती खींच रहा है। 13. तुम्हारा शस्त्र दुःखियों के रक्षण के लिए है, निरपराध पर प्रहार करने के लिए नहीं
14. पैसे कमाने में दुःख है और कमाये हुए पैसो का रक्षण करने में भी दुःख है। 15. अगर मैं संसार समुद्र में भटक रहा हूँ, तो मेरा पुरुषार्थ कौन सा? 16. शरऋतु के समय जैसा, यह प्रात: समय अभी प्रगट हो रहा है । 17. हे पुत्री ! जिस कारण से तू मौन है, उस कारण को तू कह । 18. हे हाथ ! मैं किसी मनोरथ की इच्छा नहीं रखता हूँ, तू फिजूल में क्यों फरक रहा
है (दायाँ हाथ फरक रहा है, उसे खुद कह रहा है)। 19. हे हृदय! तू अभिलाषा वाला बन जा, अभी संदेह का निर्णय हुआ हैं जिसको
तुं अग्नि मान रहा हैं, वह तो स्पर्श करने योग्य रत्न हैं। 20. हे भगवंत ! मेरे उस प्रमाद के आचरण को आप सहन करो । वास्तव में पृथ्वी
की उपमा वाले महान् पुरुष हमेशा सब कुछ सहन करने वाले होते हैं ।
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21. पृथ्वी, समुद्र और पर्वत को पार कर सकते हैं, लेकिन राजा के मन को किसी
के द्वारा या कैसे भी, कभी भी समझ नहीं सकते। 22. वास्तव में जिसका जन्म, याचना करनेवाले मनुष्य की मनोवृत्ति को पूर्ण करने
के लिए नहीं है, उसके द्वारा यह भूमि अति भारवाली है, परंतु वृक्षों से, पर्वतों से और समुद्रों से अतिभार वाली नहीं है।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. मुनयः परिषहान्सहन्ते ।
सूर्य उदयति कुमुदानि च म्लायन्ति । 3. व्यवसायिभिर्जनैस्त्वर्यते । 4. व्याघ्रा अपि पलायन्ते ज्वलज्ज्वलनदर्शनात् । 5. स्वं न श्लाघ्यम् । 6. सूर्यस्य तापेन तङागस्थतोयं उत्क्वथति । 7. तव वपुः विभ्राजते । 8. स्पर्धमाणाय कर्मणा नमोऽस्तु वर्धमानाय ।
पाठ 2
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. साधु सदाचार का पालन करते हैं । 2. घास भी गाय के दूध के लिए समर्थ है । 3. गधे आपस में दाँतो से काटते हैं। 4. तू उस कथा को छुपा मत, (छुपाए बिना) कह । 5. जो मन को नियम में जोड़ता है, वास्तव में उसके पाप नष्ट हो जाते हैं । 6. याचकों को धन (इच्छित) देने वाले राजा ने उत्कृष्ट ख्याति प्राप्त की। 7. कमल के पराग को चूस चूस कर भ्रमर खुश हों।
वे दोनों पति-पत्नी, बार बार मीठे झरणों के पानी को पीते-पीते वृक्ष की गाढ़ छाया में आराम करते करते अलग अलग फूलों को सूंघते-सूंघते पर्वत ऊपर
चढ़े। 9. उसके बाद चोरों ने सभी मनुष्यों के अलंकार आदि को लूटना शुरू किया । 10. सूर्य के तपने पर रात्रि, लोगों की दृष्टि के आवरण के लिए कैसे समर्थ हो?
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11. बजाना, (धमेत्?) बजाना (लेकिन) ज्यादा मत बजाना, ज्यादा बजाना शोभास्पद
नहीं है (ज्यादा अच्छा नहीं है) 12. चंदन, अगरु, कस्तूरी और कपूर वगैरे की गंध से साँप की तरह काम भी अचानक मनुष्य पर आक्रमण करता हैं।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. भीममपि दन्दशूकं पिपीलिकाप्रकरो दशति । 2. वल्लयः पर्णैः फलानि गृहन्ति । 3. कुमारपालस्य कीर्ति साधवोऽपि पणायन्ति । 4. सिद्धराजः स्वीयाञ्शत्रूनधूपायत् । 5. वयं जिनं पनायामहे । 6. वणिजः कोटिभी रूप्यकै नित्यं पणन्ते । 7. दन्दशूको बिलान्निरक्रामददशच्च । 8. यूयमकार्येषु कथं सजथ । 9. तस्य चित्तमध्ययनेऽसजत् । 10. रजको राझ्या वस्त्राणि रजति ।
पाठ 3
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. कुंभकार के चक्र पर चढ़ी हुई मिट्टी के समान, मेरा मन भी बहुत समय से भटकता
2. स्त्री की खुशामद करने वाले जीव संसार में भटकते हैं। 3. जो स्त्रियों में रागी नहीं होता है, उसकी ओर ज्ञान और विवेक आता है ।
5. वास्तव में जीव जन्म लेते हैं और मरते हैं। 6. निर्धन मनुष्यों के मनोरथ (उनके) हृदय में ही लीन हो जाते हैं । 7. सभी प्राणी, इच्छित वस्तु को पाकर सुखी होते हैं । 8. आज मेरा मन वैराग्य में तल्लीन है । 9. तू ही एक मेरा भाई है, जिस कारण मेरे कार्य के लिए दुःखी हो रहा हैं। 10. जिस कारण अयोग्य भी वंदनीय होता है, वह प्रभाव वास्तव में धन का है। .
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11. उत्तम पुरुष, विद्यावान पुरुष सदैव प्रशंसनीय और पूजनीय होते है । विद्याहीन
पुरुष विद्वान मनुष्यों की सभा में शोभा नहीं पाते है । 12. सत्पुरुषों को वृद्धावस्था पहले चित्त में आती है, उसके बाद काया में आती है,
लेकिन असत्पुरुषों को वृद्धावस्था पहले काया में आती है, लेकिन चित्त में कभी
भी नहीं आती है। 13. कुपित भाग्य के बींधने पर प्राणियों के लिए धर्म ही कवच है, अत: वह (धर्म)
ही हमारा शरण हो । 14. अति दुःखदायी ऐसे विषयों में सुख मानने वाला मनुष्य, आश्चर्य है कि (उसमें)
थोड़ा भी वैराग्य पाता नहीं है, जिस प्रकार अशुचि में भी सुख मानने वाला
अशुचि का कीड़ा अशुचि में वैराग्य नही पाता है। 15. जहाँ दया नहीं, वह दीक्षा नहीं है, वह भिक्षा नहीं है, वह दान नहीं है, वह तप नहीं है, वह ध्यान नही है, (और) वह मौन नहीं है ।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. कपि र्बालानभ्यधावद्, बाला अत्रस्यन्नतो रक्षायाययस्यन्नक्लाम्यंश्च किन्तु
भीमो नाऽत्रसदत एव रक्षाया अयसन्नक्लामँश्च कौतुकेन कपिं द्रष्टुं
समयसत्। 2. स सह दीव्यद्भयो बालेभ्यः फलानि यच्छति । 3. युधि योधा इषून्निरस्यन्ति इषवश्च योधान् विध्यन्ति । 4. जीर्यतो जनस्य केशा जीर्यन्ति, दन्ता जीर्यन्ति नेत्रे श्रोत्रे च जीर्यतस्तृष्णैका न जीर्यति ।
पाठ 4
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. हे पिता ! (आपके द्वारा) भरत (का) बहुत हर्ष के साथ राज्य के लिए अभिषेक
कराया जाय । 2. हे पुत्री ! तू मुझे और सखियों को मिल । 3. ये मनुष्य मेरे रत्न और सोने वगैरे को छीन लेते हैं । 4. सभी लोग (कर्म द्वारा) लिप्त होते हैं, ज्ञान सिद्ध लिप्त नहीं होता है । 5. मैं सभी प्रकार से (मेरे) खुद के प्रमाद से लज्जा पाया हुआ हूँ, आप मेहरबानी
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7.
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करो. (मेरे ऊपर आप प्रसन्न हो) 6. निश्चय से जो जीव मरता है, वही वापस उत्पन्न होता है ।
वहाँ सबका भाता और घास आदि समाप्त हो गया। 8. यह आश्रम द्वार है, जितने में प्रवेश कर रहा हूँ (उतने में) । 9. आश्रम स्थान शांत है और (मेरा दायाँ) हाथ हिल रहा है, यहाँ फल कहाँ से होगा
अथवा अवश्य होनेवाले (कार्य) का कारण सर्वत्र होता है । 10. मानों अंधकार अंगों को लिपटता हैं, मानों आकाश काजल को बरसाता है,
असत्पुरुषों की सेवा की तरह (मेरी) दृष्टि निष्फल हुई है, (अंधा मनुष्य बोल
रहा है)। 11. अज्ञानी मनुष्य वास्तव में अज्ञान में ही मग्न रहता है, जैसे सूअर विष्ठा में मग्न रहता है, उसी प्रकार ज्ञानी ज्ञान में मग्न रहता है, जैसे हंस मान सरोवर में मग्न रहता है।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. वैद्येन व्याधिभिः म्रियमाणस्य जनस्य व्याधि हियते । 2. गृहाद्गच्छन्पुत्रः पितरमापृच्छत । 3. वल्लभोऽद्भुतेन विनयेन शौर्येण च राजश्चित्ते न्यविशत ।
गुरुः सुधातुल्यया वाचा शिष्याणां संशयं वृश्चति, येन शिष्याः स्वीयं
मस्तकं धुवन्तो गुरुं नुवन्ति । 5. अर्जुनो द्रोणाचार्याद्धनुर्विद्यामविन्दत । 6. तेन जातेन पुत्रेण को गुणो मृतेन च कोऽवगुणो यतो यस्मिन्सति पितु भूमिरपरेणाक्रम्यते।
पाठ 5
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. स्पृहा वाले मनुष्य घास और रुई जैसे हल्के दिखते हैं । 2. जिसके हाथ जोड़े हुए हैं ऐसे स्पृहा वाले मनुष्यों द्वारा कौन कौन प्रार्थना नहीं ।
कराता है । (अर्थात् सभी कराते हैं)
फिर भी, अभी भी उनको देखकर मेरे पापों को मैं धो रहा हूँ। 4. जैसे मेघ पानी द्वारा, उसी प्रकार उसने धर्म द्वारा विश्व को खुश किया । 5. ग्रीष्म ऋतु में प्राणी मानो पकाए जाते हैं । धूल मानों तपाई जाती है, पानी मानों
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उबलता हैं, (और) पर्वत मानों धमधमते हैं (तपते हैं)। 6. दूध पिलाना आदि क्रियाओं से धाव माताओ द्वारा लालन-पालन कराता हुआ
वह राजपुत्र क्रमश: वृक्ष की तरह बढ़ा । 7. चार (तत, वितत, घन, सुषिर) प्रकार के वाद्ययंत्र में चतुर ऐसा यह गन्धर्व वर्ग .
तेरे आगे संगीत के लिए सज्ज (तैयार) खड़ा है। 8. पुत्री के वियोग रूपी नये दुःखो से क्या गृहस्थ पीड़ाते नहीं हैं ? (पीड़ाते हैं)
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. लोक उद्योतकरांस्तीर्थकरानहं कीर्तयामि । 2. यो गुरो र्दोषान्छादयति स छात्रः कथ्यते । 3. जनान्प्रीणयन्ज्याकर्षणेन च धनु —नयन्नजुनो रङ्गभूमावा गच्छत् । 4. जनो यानि कष्टानि धनाय सहति तानि कष्टानि धर्माय न सहति ।
पाठ 6
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. यदि किसी काम के लिए विलंब न हो तो अभ्युदय के लिए प्रयाण किया जाय। 2. उस राजा ने वैद्य मंडल को बुलाया । राजाओं द्वारा निष्प्रयोजन अधिकारी लोग
बुलाए नहीं जाते हैं। 3. ताजे पुष्पों की माला की तरह आपकी आज्ञा सैकड़ो राजाओं द्वारा वहन की
जाती है। 4. मृग के भय से क्या जौव नहीं बोए जाते हैं ? (बोते हैं) 5. और गंधर्वो ने मधुर मंगल गायनों द्वारा गाया । 6. जिस प्रकार (मनुष्य) कुदाल के द्वारा खोद कर भूमि में से पानी लेता है, वैसे ही
गुरु में रही हुई विद्या को सेवा करने वाला प्राप्त करता है । 7. वास्तव में वह विद्या नहीं है, वह दान नहीं है, वह शिल्प (कारीगरी) नहीं है,
वह कला नहीं है, वह स्थिरता नहीं है, यदि याचकों द्वारा धनवानों का गान नहीं होता। अर्थात् याचक धनवानों को सर्व गुण सम्पन्न कहते हैं।
. हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद सूरस्स एवास्ति हि येनेन्द्रियाणि जीयेरन्, पण्डितस्स एवास्ति हि येन धर्म आचर्येत, वक्ता स एवास्ति हि येन सत्यमुद्येत, दाता च स एवास्ति हि येनाभयं दीयेत ।
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2. परीक्षकेण छात्राः प्रश्नं पृच्छ्यन्ते छात्रैः स्मर्यते परीक्षकाय चोत्तरं दीयते । 3. तन्तून्वयति तन्तुवायः । 4. (यः) गर्ता खनेत् स पतेत् । 5. किङ्करैरयं भारो ग्रामं नेतुमुह्यते । 6. तस्य भ्रात्रा पुष्करेण नलः सर्वमप्यजीयत । 7. आचार्येण धर्मकथा कथयितुमारभ्यते ।
पाठ 7
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. जो लोग निश्चय ही मेरे विनाश के लिए चंद्रगुप्त की सेवा में तैयार थे, वे ही मेरी
सेवा क्यों कर रहे हैं? 2. उस संदेश को सुनने के लिए देव लायक हैं । 3. अंधा मनुष्य गले में डाली हुई माला को भी सर्प की शंका से हिलाता है । 4. कान में सुई के प्रवेश जैसा उसने पुत्री का जन्म सुना । 5. हे आर्यपुत्र ! आपके बिना एक मुहूर्त भी रहने के लिए मैं शक्तिमान नही हूँ,
इसलिए मेरे द्वारा भी अवश्य जंगल (अरण्य) में जाया जाए । यदि मेरी अवगणना
करके जाते हो तो जाओ, तुम्हारा इष्ट सिद्ध हो । 6. यह बडी कथा है, संक्षेप में कहना मुश्किल है।
वर्णन कराता हुआ उसका वृत्तान्त तू सुन । 8. दशरथ राजा ने सामंत और सचिवों को भी राम को लाने के लिए भेजा। 9. दुःख की बात है कि हर रोज इसी प्रकार बोलती हुई मैं तुझे भी दुखी कर रही
ना
7.
10. किस प्रयोजन से मेरे द्वारा यह भेजा गया है? इस प्रकार प्रयोजन बहुत होने से
वास्तव में मैं याद नहीं कर पाता हूँ। जितेन्द्रियता विनय का साधन है, विनय से गुणों की अधिकता प्राप्त होती है, गुण की अधिकता से लोग अनुरागी बनते है, और लोगो के अनुराग से संपत्ति होती
12. हे महानुभाव ! तू खेद मत कर, अभी वास्तव में शांत हो जा, खोज करते हुए
मेरे द्वारा तेरी प्रिया प्राप्त हुई हैं। 13. शास्त्र रूपी दीपक के बिना अदृष्ट अर्थ में दौड़ते हुए जड़ लोग कदम-कदम पर
स्खलना पाते हुए अत्यंत दुःखी होते है ।
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आओ संस्कृत सीखें
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. हंसा कुसुमान्यचिनोत्तेषां च स्रजमसृजत् । 2. स शिखरिणो गुहायामुपविश्य विद्यामसाघ्नोत्, विद्यादेव्यकथयत् वरं
वृणु, अहं वरं दातुं शक्नोमि । 3. सत्कार्येण जनस्य कीर्ति लोंकेऽश्नुते । 4. अरि-सैन्यं पराजेतुं तेऽधृष्णुवन्, यथा च दात्रैस्तृणं कृणुयुस्तथासिभिश्शत्रु
सैन्यमकृन्तन्।
अरे सुशीले ! कुथमत्र प्रस्तृणु । 6. अखिला लोका महत्त्वाय प्रस्पन्दते, किन्तु महत्त्वं मुक्तेन हस्तेन प्राप्यते । 7. दिवसैरर्जितं खाद, मूर्ख ! एकमपि द्रम्मं मा सञ्चिनु, यतः किमपि
तद्भयमापतति हि येन जन्म समाप्यते ।
पाठ 8
__ संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. गुणों में प्रयत्न करो, आडंबर करने से क्या प्रयोजन है? 2. इसका हम वध कर रहे हैं' इस की हम भक्ति कर रहे हैं, इस प्रकार जो दोनो
की बुद्धि है, उन दोनों पर भी हितबुद्धि रखनी चाहिए। 3. अगर तुम वास्तव में सुख को चाहते हो, तो मन को थोड़ा भी विषयों में लिप्त
मत करो और खराब काम मत करो। 4. हे मूढ़ ! हवा की तरह चपल मन को तू स्थिर (निश्चित) कर । 5. अहो ! अति घमण्डवाले ये चक्री पुत्र हमारा योग्य कहा हआ भी मानते नहीं
हैं । घमण्ड को धिक्कार हो ! 6. भगवान सुमतिनाथ स्वामी आपके इच्छित (विस्तारों) को पूर्ण करें ।
देशकाल के अनुसार उचित क्रिया को करता हुआ (मनुष्य) वास्तव में दुःखी
नहीं होता है। 8. आलस्य, वास्तव में मनुष्य के शरीर में रहा हुआ बड़ा शत्रु है ।
उद्यम जैसा कोई मित्र नहीं है, जिस (उद्यम) को करके (मनुष्य) दुःखी नहीं
होता है। 9. जैसे हजारों गायों में बछड़ा अपनी माता को खोज लेता है, वैसे ही पूर्व में किया
हुआ कर्म, करने वाले के पीछे चलता है ।
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10. निर्गुणी प्राणियों पर साधु दया करते हैं । वास्तव में चंद्र चाण्डाल के घर से
(गिरती) किरणों को रोक नहीं लेता है। 11. कुलवानों के साथ संगति, पंडितों के साथ मित्रता और ज्ञातिजनों के साथ मेल करने वाला मनुष्य कभी विनाश नहीं पाता है ।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद अहं भरतस्य पार्श्वे एकं शोभनं पुस्तकमपश्यमवन्वि च, अपि स मह्यं
तन्नायच्छत्। 2. लोकाः कोपं कृत्वा स्वीयां निर्बलतामाविष्कुर्वन्ति ।
भगवान् महावीरो घोरेण तपसा कर्माण्यक्षिणोत् । 4. यस्स्वस्य गुणान्छादयति परस्य च गुणान्प्रकटान्करोति, तस्य सुजनस्य यूयं पूजां कुरुत।
पाठ 9
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. मुझे छुट्टी दो, जहाँ मेरे बंधुजन है, वहाँ जाउँ। 2. उसने बर्तन बेचे । 3. हे सारथी ! घोड़ों को हांक ! पवित्र आश्रम के दर्शन करके आत्मा को तो पवित्र
करें। ___ कड़वी तुंबड़ी का पका हुआ फल भी कौन खाता है ? 5. इन फलों को आप ग्रहण करो ! 6. यह आपकी स्त्री है, इसको छोडो या अपनाओ । 7. किस कर्म से भव रूपी अटवी में भ्रमण होता है और किस कर्म से मोक्ष मिलता
है, इस प्रकार जानने के लिए, हे मूढ़ ! जो तू समझता है (इच्छा करता है) तो
जैन आगमों को देख । 8. भासुरक ! यह सब जानता है, बाहर ले जाकर जितनी देर में कहे, तब तक तेरे
द्वारा (उसे) मारा जाय । 9. हे विजया ! क्या तू इस भूषण को पहिचानती है? 10. इस विद्या को भक्ति से नम्र मन से विकल्प किए बिना ग्रहण कर । 11. मेरे भी चरित्र को संक्षेप में जान । 12. हे नृपचन्द्र ! मेरे मन के संतोष के लिए तू इस पर प्रसन्न हो जा । 13. महान् शील द्वारा वह अपने दो कुल को पवित्र करती है ।
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1288214. रत्नों की चोरी कर और देवांगनाओं का हरण कर । 15. यहाँ मेरा बहुत धन है, हे भाई ! उसको तू ग्रहण कर । 16. कर्म विपाक के परवश हुए जगत को जानने वाले मुनि दुःख में दीन नहीं बनते
हैं और सुख में विस्मित (आनंदित) नहीं होते हैं। 17. अभ्यंतर (काम क्रोधादि) शत्रुओं का मंथन करने में क्रोध के आडंबर से (आवेश
से) लाल नही हुई हो ऐसी पद्मप्रभ प्रभु के देह की कांति आपका कल्याण करे। 18. (मनुष्य) बाहर भेजने पर नौकर को जानता है । दुःख आने पर भाइयों को
जानता (पहिचानता) है, आपत्ति आने पर मित्र को जानता (पहिचानता) है, . और वैभव (ऋद्धि) का क्षय होने पर स्त्री को जानता (पहिचानता) है । 19. भववास से विमुख बनी आत्मा को मोहराजा की नौकर ऐसी इन्द्रियाँ विषम पाश
से बाँधती हैं। 20. असार पदार्थों का भी समूह वास्तव में दुर्जय है। घास द्वारा भी डोरी बनती है
जिससे हाथी भी बंध जाता है। 21. जो खुद के चरित्र द्वारा अपने पिता को खुश करता है, वह पुत्र है । जो पति का
हित चाहती है वह स्त्री है। जो सुख में और दुःख में समान क्रिया वाला है, वह मित्र है, जगत् में ये तीन वस्तु पुण्य करने वाले को प्राप्त होती हैं ।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. तं दुरात्मानं निबिडै बन्धनै र्बधान कारागृहे च निक्षिप । 2. पश्यत. मधुव्रतः पुष्पेऽलीनागधु च पिबति । 3. यदा जना असत्यं गृणन्ति तदा सतां हृदयं क्षुभ्नाति । 4. यूयं पुष्पाणां मालां ग्रथ्नीत वृथा न क्लिनीत, त्वं पुष्पं मा मुषाण, यूयन्तु
कुसुमानि मृद्गीथ ।
कलिकालसर्वज्ञप्रभुश्रीहेमचन्द्रसूरेाकरणं दृष्ट्वा पण्डिता मस्तकं धुनन्ति। 6. कन्याः स्वीयान्घटान् जलेनापृणन् । 7. तापसो वृक्षाणां पल्लवैस्स्वीयमुटजमस्तृणात् । 8. जनो वृक्षात्फलानि ग्रह्णाति कटूनि च पर्णानि परिवर्जयति, तदापि
महाद्रुमः सुजन इव पर्णान्युत्सङ्गे धारयति । 9. काले पक्वं धान्यं यथा कृषीवलो लुनाति तथा जातं प्राणिनं कृतान्तो
लुनाति ।
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10. स्ववचसा परिहृतमाहारमहं कथं गृह्णीयाम् । 11. पण्डिताः प्रियस्य वियोगविषस्य वेगं जानन्ति तत एव बिलगतं सर्पमिव
प्रेम परिहरन्ति । 12. तस्या मुखकबरीबन्धौ शोभां धरतः जाने शशिराहू मल्लयुद्धं कुरुतः ।
पाठ 10
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. सिद्धराज ने अवन्ती नगरी को घेर लिया था । 2. धन को धर्म में उपयोग में लेना चाहिए (मनुष्य को)। 3. तेरे उत्सुक चित्त को रोकना चाहिए । 4. जैसे तैसे (किसी भी प्रकार से) भी प्राणियों पर दया कर, जैसे तैसे धर्म कर, जैसे
तैसे भी शांति रख । जैसे तैसे भी कर्म का छेद कर । 5. जो रात में भी खाते हैं, वे पाप रूपी द्रह में डूबते हैं । 6. सूखे लकड़े और मूर्ख को भेद सकते हैं। फिर भी वे झुकते नहीं हैं । 7. हजारों मूों से एक बुद्धिमान ज्यादा है - विशेष है । 8. उसी के बुद्धिरूपी बाण से (उसी के) मर्म को भेद रहा हूँ। 9. क्या पता ! उनके हृदय को लज्जा भेदती नहीं है। 10. मेरे हाथियों का झुंड नगर को घेर ले । 11. मित्र के स्नेह से विह्वल बना हुआ वह अभी मुझे साहस में जोड़ता है। 12. यह स्त्री पानी ढो रही है, यह स्त्री सुगन्धित द्रव्यों को पीस रही है। 13. जिसके लिए (पैसे के लिए) पुत्र पिता को, पिता पुत्र को शत्रु की तरह मारते
हैं और मित्र, मित्र से मित्रता तोड़ते हैं ! 14. जिस (स्पृहा या विषलता) का फल, मुखशोष, मूर्छा और दीनता है, उस स्पृहा
रूपी विषलता को पंडित पुरुष ज्ञान रूपी दातरड़े से काट लेते हैं । 15. (रोहणाचल की भूमि में भी) वहाँ भी उपाय बिना रत्न के ढेर प्राप्त नहीं होते है। सामने पड़ा हुआ भी भोजन हाथ बिना (प्रयत्न बिना) वास्तव में कौन खाता है!
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. कमपि प्राणिनं न हिंस्यात् । 2. सन्तः सदसद् विविश्वन्ति ।
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3. त्वं सद्भिस्सह संपृङ्ग्धि तत्त्वं च विन्त्स्व ।
4. मरुवृक्षान्भनक्ति तथा त्वं मम मनोरथानभनक् ।
5.
इष्टस्य वियोगेऽनिष्टस्य च संयोगे मूर्खाः खिन्दतेऽपि यः प्राज्ञस्स न खिन्ते, मन्यते च हि जनः कृतस्य कर्मण: फलं भुनक्ति ।
6.
7.
8.
1.
जनोऽन्यस्य गुणानेव व्यञ्ज्यात् ।
सा हरिद्रां लवणं मरिचं चाक्षुन्त तदाहं गोधुममपिनषं त्वं चाधुना पिप्पलीं
पिण्डि ।
त्वं मामकार्यं कुर्वाणमरुणस्तच्छोभनतरमकुरुथा: ।
पाठ 11
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद
जो सत्य वचन बोलता है, जो विशेष उपशम को धारण करता है और जो शत्रु को भी मित्र समान देखता है, उसे मोक्ष मिलता है ।
290
2.
3.
4.
5.
6. हे स्त्री,
7.
8.
वह इस प्रकार विचार करता हुआ जाकर राजा को बोला ।
जाओ ! इस प्रकार प्रधान को कहो ।
यह बालक मुझे महान तेज का बीज (कारण) लगता है ।
आप ही लोक-व्यवहार में अच्छी तरह से निपुण हो ।
तेरे हृदय में से
दुख दूर हो
इस प्रकार गुणवान् चक्रवर्ती पुत्र को प्राप्त कर ।
अरे पुत्र! अरे पुत्र! अरे पुत्र इस प्रकार बोलता हुआ राजा मूर्च्छा खाकर जमीन पर गिरा और प्राणों से मुक्त हुआ ।
9.
जो मन में पश्चाताप हुआ है उसे प्रगट करना शक्य नहीं है । 10. कैकेयी ने भरत के भूषण रूप भरत नाम के पुत्र को जन्म दिया । 11. हम आपकी बुद्धि का उल्लंघन करने में समर्थ नहीं हैं ।
12. हे माता ! खेलने गए कृष्ण ने स्वेच्छा से मिट्टी खाई है ।
'कृष्ण ! सच्ची बात है ? '
इस प्रकार कौन कहता है ?
बलराम कहता है माता ! गलत बात है (मेरा) मुख देखो ।
13. हे भूपाल ! तीन भुवन का उदर बहुत बड़ा हैं, अतः उसमें समाने के लिए अशक्य
भी तेरा यश उसमें समाता है ।
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14. पहले राजा, पहले साधु और पहले तीर्थंकर, ऐसे ऋषभ स्वामी की हम स्तवना
करते हैं ।
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15. एक ही चैतन्य बाल्यावस्था में से युवावस्था और युवावस्था जाता है वैसे एक जन्म से दूसरे जन्म में (भी) जाता है ।
16. आओ, जाओ, बैठो, खड़े हो जाओ, मौन रखो, इस प्रकार आशा रूपी ग्रह से पीड़ित याचको द्वारा धनिक क्रीड़ा करते हैं।
17. क्या करूँ ! कहाँ जाउँ ! किस की शरण स्वीकार करूं ! दुष्ट-दुर्भर उदर से मैं प्राणों द्वारा भी विडंबित हुआ हूँ ।
18. आज रात्रि के प्रारंभ में ही सोया हुआ मेरा यह छोटा पुत्र अचानक महाक्रूर सर्प द्वारा डंसा गया है ।
में से वृद्धावस्था में
19. हे वत्स ! जरा से पीड़ित मनुष्य प्राय: कर दूसरों की निंदा में तत्पर होते हैं। कदम कदम पर क्रोध करते हैं और सिर्फ सोते रहते हैं ।
1.
20. सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए, सत्य भी अप्रिय लगे, ऐसा नहीं बोलना चाहिए और प्रिय भी असत्य नहीं बोलना चाहिए, यह शाश्वत धर्म है। 21. प्रहर की तरह दिन बीतता है और दिन की तरह मास व्यतीत होता है और मास की तरह वर्ष व्यतीत होता है । वर्ष की तरह यह यौवन व्यतीत होता है और यौवन की तरह जगत् का जीवन चलता रहता है ।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद
स्वं धनं दातुं दुष्करमस्ति, तपः कर्तुं न प्रतिभाति, एवमेव सुखं भोक्तुं मनोऽस्ति, अपि न भुज्यते ।
2.
अनीतिं कुर्वाणं पुरुषमापदायाति ।
3. अखिलां पृथ्वीं जेतुं त्यक्तुं च व्रतं लातुं पालयितुं च भगवच्छान्तिनाथं बिना भुवनेऽन्यः कोऽपि न शक्नोति ।
4. सिद्धहेमव्याकरणस्याष्टाप्यध्यायानहमध्यैयि ।
5.
अहं सिद्धहेमव्याकरणस्य कर्त्तारमाचार्यहेमचन्द्रं भक्त्या नौमि ।
6. प्रातविंहगा मधुरं रुवन्ति, छात्रा आनन्देनाधीयते, वायु र्मन्दं मन्दं वाति, सर्वे स्वेष्टदेवं स्तुवन्ति, अरुण उदयति, पक्षिणस्स्वीयान्नीडान् विमुच्यारण्यं यान्ति, तन्द्रिलाश्च जनाः शेरते ।
7. कार्यभारेणाधुनाखिलां रात्रिं मया न शय्यते ।
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पाठ 12
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद
1.
अहो ! प्रतापवाले भी इस शरीर का विश्वास करने की योग्यता । आप मुझे आज्ञा करो ।
2.
3. हे हृदय ! आश्वासन धर, आश्वासन धर, यह वास्तव में आर्यपुत्र है ।
4.
तू क्यो रो रहा है? तेरे रोने का क्या कारण है ?
5.
हृदय में नहीं समाते हुए शोक द्वारा वह खूब रोई ।
6.
श्वास छोड़कर (निःश्वस्य) वह धीरे से बोली, 'हे महाभाग ! मंद भाग्यवाली मैं क्या करूँ ?
7.
8.
9.
प्रताप से प्रकाशित दशरथ ने पृथ्वी पर राज्य किया ।
प्रयोजन बिना चाणक्य स्वप्न में भी चेष्टा नहीं करता है ।
विश्वास करने योग्य भी अपने वर्ग के विषय में हमारी बुद्धि विश्वास नहीं करती है ।
10. दमयंती ने रात्रि के शेष भाग में इस प्रकार का स्वप्न देखा, 'मैंने फले-फूले पत्ते वाले आम के वृक्ष पर चढ़कर भ्रमर के आवाज को सुनते हुए उसके फल खाए । ' 11. एक भी सुपुत्र द्वारा सिंहनी निर्भय होकर सोती है, जब कि दश पुत्र होने पर भी गधी भार को वहन करती है।
12. जिसके दिन तीन वर्ग से शून्य आते हैं और जाते हैं, वह लुहार की धमण की तरह श्वास लेने पर भी जीता नहीं है ।
13. जो ( तत्त्वदृष्टि ) सभी प्राणियों में रात्रि ( समान) है, उसमें संयमी जागृत होते हैं और जिसमें (मिथ्यादृष्टि) प्राणी जागृत होते हैं, वह मुनि के लिए रात्रि समान है। 14. शकुन्तला को देखकर दुष्यन्त बोलता है - अथवा मनुष्य की स्त्रियों में यह रूप कैसे संभव हो, प्रभा से देदीप्यमान ज्योति पृथ्वीतल में उदय नही पाती है।
15. जिन सत्पुरुषों के हृदय में परोपकार की क्रिया जागृत है, उनकी विपत्तियाँ नष्ट होती हैं और कदम कदम पर संपत्तियाँ होती हैं।
16. दुर्विनीतों को शिक्षा करनेवाला पौरव राजा पृथ्वी पर राज्य करता हो तब वह कौन है, जो भोली तपस्वी कन्याओं के साथ अविनय का आचरण करता है।
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हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. हे भ्रमर ! तं मागं दृष्ट्वा मा रुदिहि, यस्य वियोगे त्वं म्रियसे सा मालती
देशान्तरं गतास्ति । 2. बान्धवेषु करुणं रुदत्सु, जनो म्रियते । 3. यथाकाशे तारामण्डले चन्द्रश्चकास्ति तथा वसुधावलये मुनिमण्डले
आचार्यहेमचन्द्रश्चकास्ति । 4. यावजनः श्वसिति तावत्प्राण्यात् । 5. जैना उपवासदिने न किमपि जक्षति । 6. ये पुरुषाः पुरुषार्थं न कुर्वते ते दरिद्रति । ।
पाठ 13
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. आप यहीं पर एक मुहूर्त तक बैठो । 2. मारो ! मारो, पास में जाओ, पास में जाओ! पकड़ो पकड़ो । 3. शत्रुओं को तृण समान गिनने वाला अकेला ही रथ में बैठा । 4. क्यों भाई ! तू माता को प्रेमवाली नहीं जानता है ? 5. तृष्णा का छेद करो, क्षमा धारण करो, मद को छोडो, सत्य बोलो । 6. अयश को साफ करने की मैं इच्छा करता हूँ। 7. हे श्रेष्ठी ! भले आए, यह आसन, आप उस पर बैठो । 8. वह मूर्ख से द्वेष करता है, पंडित से नहीं । 9. स्त्री घर कहलाती है । 10. अथवा क्या ! सूर्य को परिश्रम नहीं करना पडता है, या निश्चल (चले बिना)
बैठता नहीं है। 11. शत्रु और मित्र पर समान भाव रखने वाला, सम्पूर्ण लोक को आर्द्र-करुण दृष्टि
से देखने वाला, प्रमाणसर और प्रिय बोलने वाला (मनुष्य) मोक्षमार्ग में रहता
12. जैसे दावानल से पेडों के झुंड जलते हैं, उसी प्रकार विषय की लोलुपता से मनुष्य
का विनाश होता है, इसलिए विष की तरह विषयों को दूर कर समाधि में लीन चित्त (मन) से बैठो।
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13. तपस्या के तेज से दुःसह ऐसे गुरुजन को तू प्रणाम कर, इस प्रकार हम आपको
कह रहे हैं। 14. अरे ! अरे ! राजन् ! यह आश्रम का मृग है । मारने योग्य नहीं है, मारने योग्य
नहीं है। 15. इस अशोक वृक्ष के मूल के नीचे आप तब तक बैठो, जितने में मैं आता हूँ। 16. जो पहले, पृथ्वी के रक्षण के लिए भवनों में निवास चाहते हैं बाद में उनके लिए
वृक्षों के मूल में घर बनते हैं। 17. आपने जिसको संस्कारित किया है, उसके विषय में हम सब चाहते हैं। 18. धर्म के प्रयोजन से अथवा रसनेन्द्रिय की लोलुपता से जो मनुष्य मांस खाते हैं
अथवा प्राणियों को मारते हैं, वे नरक की अग्नि में पकाए जाते हैं। 19. जो शत्रु को मित्र करता है, मित्र से द्वेष रखता है, मित्र को मारता है और खराब
काम करता है, उसे (लोग) मूर्ख मनवाला कहते हैं । 20. मानो देहधारी पुण्य का समूह न हो ! ऐसे ये मुनि हताश ऐसे मेरे द्वारा मारे गए!
कहाँ जाऊँ और क्या करूँ? 21. आपको नाथ (की तरह) स्वीकार करते हैं, आपकी स्तुति करते हैं, आपकी
उपासना करते हैं, वास्तव में आप से अन्य (कोई) रक्षण करने वाला नहीं हैं,
क्या कहूँ और क्या करूँ । 22. पहले सभा में ‘गुणवान' हैं, इस प्रकार जो कहा गया है, उसका दोष प्रतिज्ञा भंग
से डरने वाले मनुष्य को बोलना नहीं चाहिए । 23. विकसित नेत्रवाले सभी लोगों से आशीर्वाद दिया जानेवाला धन सार्थवाह
प्रतिदिन सूर्य की तरह प्रयाण करता था । 24. प्राण, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की स्थिति के लिए (आधार) प्राण हैं, उन
(प्राणों) को मारते हुए क्या नहीं मारा गया और रक्षण करते हुए किसका रक्षण नहीं हुआ।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. दिनेश ! त्वं तव मुखं हस्तौ पादौ च मृड्ढि नवानि च वसनानि वस्स्व । 2. सायं प्रातश्च गोपो धेनू यॊग्धि । 3. अधुनाखिले भारतवर्षे प्रजाः प्रजा ईशते ।
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आओ संस्कृत सीखें
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4. त्वं गुणिनं जनमीडिषे । 5. अणहिणपुरपत्तनं गुर्जर-राष्ट्रस्य राजधानी आसीत् तद्यूयं न वित्थ । 6. गोपालो यस्मिन्समये धेनूरधोक् तदा वयं व्याकरणमध्यैमहि । 7. अलि: पुष्पाद मधु लेढि । 8. प्रात: सायं च शीतलेन जलेन नयने प्रमृज्यात् । 9. कंचिदपि न द्विष्यात्, कंचिदपि न हन्यात् । 10. ये प्राणिनो घ्नन्ति ते पापेन निजमात्मानं दिहन्ति । 11. त्वमेतां वार्तामवेरपि मां नाऽवक् । 12. स खड्गेन तं मस्तकेऽहन् ।
पाठ 14 ___संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. मिथ्या धर्म को छोड़कर सद्धर्म का आचरण कर । 2. मैं, पति के साथ वृद्धो के सामने जाने में शरमाती हूँ। 3. अभक्त बालकों को भी पूज्य सलाह देते हैं, परंतु छोड़ते नहीं हैं ।
तरुणावस्था समाप्त होने के बाद इंद्रियों की हानि होने पर भी खेद की बात हैं कि वृद्ध भी विषयों की विलासिता को छोड़ते नहीं हैं । वास्तव में शिव की जटा के समूह को, अथवा आकाश को छोड़कर क्षीण भी
चंद्र पृथ्वी पर स्थान बांधता (लेता) नहीं है । 6. दुर्दशा में पड़े हुए पति को तेरे द्वारा भी छोड़ा जाय तो निश्चय ही सूर्य पश्चिम
में उगेगा। 7. अत्यंत क्रोधायमान राजाओ को वास्तव में खुद का कोई आत्मीय नहीं है। स्पर्श
किया हुआ अग्नि, अच्छी तरह से होम करने वाले को भी जला देता है । 8. अंग शिथिल हो गया है, सिर सफेद हो गया है, मुंह में दांत गिर गये है, लकड़ी
लेकर चलता है, तो भी वृद्ध मनुष्य आशा रूपी पिंड़ को छोडता नही है । 9. जैसे भ्रमर प्रभात में, अंदर बर्फवाले मचकुंद के फूल को छोड़ने में और भोगने में समर्थ नहीं है, उसी प्रकार मैं त्याग करने और भोगने में समर्थ नहीं हूँ।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. अहं मृत्योर्न बिभेमि यतोमृतमिव जिनवचनमपिबम् ।
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आओ संस्कृत सीखें
2296, 2. तपोऽग्नौ कर्मसमिधं जुहुधि । ---. . 3. ते भयान्न बिभ्यति धैर्यं च न जहति । . 4. वयं मदिरा - पानमजहीम । 5. तेऽसत्यं ब्रुवन्तो न जिह्रियति ।
- पाठ 15
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. आश्चर्यचकित दृष्टिवाले नगरजनों के द्वारा अनेक प्रकार से अभिनंदन कराता
हुआ वह राजा अत्यंत खुश हुआ। 2. हे महात्मा ! सर्व शक्ति से तुम आत्मा की रक्षा करो । 3. किसी के साथ सज्जन मनुष्य विरोध नहीं करता है। 4. नहीं दिया हुआ तृण जितना भी धन कदापि लेना नहीं। 5. जो वास्तव में थोड़ा खाता हैं, वह बहुत खाता है । 6. वास्तव में जो मनुष्य अपात्र को अमृत जैसा सत्ज्ञान देता है, वह मनुष्य सज्जनों
के बीच हँसी का पात्र बनता है और अनर्थ का मूल बनता है । 7. चलने वाले मनुष्य से कहीं पर प्रमादवश भूल होती ही है, वहाँ दुर्जन हँसते हैं
और सज्जन समाधान करते हैं । 8. बड़ों को मारकर और छोटों को भी कपट से ठगकर जो राज्य ग्रहण होता है, वह
बड़ा भी (राज्य) मुझे न मिले । हे पृथ्वी देवी ! प्रसन्न हो, फुटकर जगह दो । आकाश से भी गिरनेवाले को पृथ्वी
ही शरण है। 10. जैसे मूर्ख मनुष्य बोर के बदले में चिंतामणि दे देता है, उसी प्रकार अति खेद की
बात है कि मनुष्य जन रंजन के द्वारा सद्धर्म को छोड़ देता है। 11. ज्ञानमग्न को जो सुख होता है, उसे कहना अशक्य है। प्रिया के आलिंगन के साथ
तुलना की जाए वैसा नहीं है और चन्दन के विलेपन के साथ भी तुलना की जाए
वैसा नहीं है। 12. दान, भोग और नाश ये धन की तीन गतियाँ हैं, जो देता नहीं और खाता भी
नहीं, उसके धन की तीसरी गति (नाश) होती है। 13. सत्पुरुषों का अलंकार कौन सा? शील ! लेकिन सोने से बना हुआ नहीं।
प्रयत्न से ग्रहण करने योग्य क्या? धर्म, लेकिन धन आदि नहीं ।
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आओ संस्कृत सीखें 14. समुद्र सहित पृथ्वी को जीते बिना, अनेक प्रकार के यज्ञों द्वारा यज्ञ किये बिना
और अर्थिजनों को दान दिए बिना, मैं राजा कैसे बनूँ ? 15. अचानक क्रीड़ा के रस के भंग को सामान्य व्यक्ति भी सहन नहीं करता है, तो
लोकोत्तर तेज को धारण करनेवाला राजा क्या सहन करेगा ? 16. एकदम जल्दी से काम नहीं करें। अविवेक परम आपत्ति का स्थान है, वास्तव
में सोचकर करनेवाले को, गुणों में लब्ध संपत्ति अपने आप मिलती है। 17. कलहंस के समूह को पास में लानेवाली, अगस्ति की दृष्टि द्वारा पानी को निर्मल
करती हई, मोती की सीप में उज्ज्वल गर्भ को धारण करनेवाली शरदऋतु विचित्र
आचरण द्वारा शोभती है। 18. मलिन दो वस्त्रों को पहनती हुई, तप से शुष्क मुखवाली, एक वेणी को धारण
की हुई ऐसी शुद्ध शीलवंती, अति निर्दय ऐसे मेरे दीर्घ विरह व्रत को धारण करती
लं
19. राम सोने के मृग को नहीं पहिचान सके। नहुष राजा ने ब्राह्मणों को पालकी में
जोड़ा। ब्राह्मण की बछड़े वाली गाय की चोरी करने में अर्जुन की बुद्धि हुई, धर्मपुत्रने (युधिष्ठिर ने) दाँव में चार भाई और पटराणी दे दी । प्रायः सत्पुरुष भी विनाश के समय बुद्धि से भ्रष्ट हो जाते हैं ।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. यदि महत्वमिच्छथ तर्हि दत्त न मार्गयत । 2. जीवानां यावद् मध्ये विषमा कार्यगतिरायाति तावदितर-जनस्त्वास्तां
सुजनोऽप्यन्तरं ददाति । किल न खादति न पिबति न ददाति धर्मे च न व्ययति कृपणो न जानाति
यद् यमस्य दूतः क्षणात्प्रभवति । 4. आशाश्वतमसारं मरणान्तं च देहावासं जानन्को जनो मृत्योरुद्विज्यात् ! 5. केऽपि प्रणयिनो मनोरथान्पिप्रति केचिच्च कुक्षिमपि न बिभ्रति । 6. सर्पस्य विषं तस्य शोणितेऽवेवेट् । 7. रजकस्तडागे वस्त्राणि नेनेक्ति । 8. नृपतेरिमेऽधिकारिणो भूमिं मिमते । 9. अहमिमं ग्रन्थं निर्माय ममशक्तिममिमि । 10. भगवान् हेमचन्द्रसूरिरणहिलपुर-पत्तने सिद्धहेमव्याकरणं निरमिमीत । 11. कर्मणो मुक्तो जीव उजिहीते लोकाग्रमधितिष्ठति च।
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आओ संस्कृत सीखें
पाठ 16
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद
1.
हे मित्र ! त्याज्य वस्तुओं में पौरव राजाओं का मन प्रवृत्ति नहीं करता है। उस कारण पति के हाथ के स्पर्श का सुख भी मुझे मिला नहीं ।
2.
3.
4.
5.
पृथ्वी का शासन करते हुए राम राजा ने पृथ्वी को स्वर्ग जैसी कर दी । 6. कोई भी प्राज्ञ पुरुष स्त्रींयों को स्पृहा सहित देखने में उद्यम नहीं करता है। 7. हड्डियों में धन, मांस में सुख, चमडी में भोग, आंखों में स्त्रियाँ,
गति में वाहन, स्वर में आज्ञा मगर सत्त्व में सब कुछ प्रतिष्ठित है ।
8.
298
9.
वास्तव में दुर्दशा में गिरी हुई स्त्रीयों को धैर्य गुण कहाँ से होगा ? पहले के न्याय और पहले के धर्म में यह (राजा) तत्पर हैं ।
जब तक मनुष्य आरंभ बिना का होता है, तभी तक लक्ष्मी विपरीत मुखवाली होती है, परंतु आरंभ सहित मनुष्य के लिए लक्ष्मी स्नेही, चपल नेत्र वाली होती है।
इस पृथ्वी का राज्य पवन युक्त मेघ के समान विलास वाला है, विषयों का भोग प्रारंभ में ही मधुर है। मनुष्य के प्राण घास के अग्रभाग पर रहे हुए जल बिन्दु समान हैं, वास्तव में धर्म ही परलोक की यात्रा में परम मित्र है ।
10. दूसरों के उपकार के लिए नदियाँ बहती हैं। पर के उपकार के लिए वृक्ष फलते हैं। गाय परोपकार के लिए दूध देती है। सज्जन पुरुषों की विभूतियाँ (वैभव ) परोपकार के लिए होती हैं ।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद
1.
त्वं दध्ना सहौदनं भुङ्क्ष्व माषान्मा भुङ्क्ष्व ।
2. सोऽक्ष्णा काणोऽस्ति कर्णाभ्यां च बधिरोऽस्ति । प्रातस्तमोभिस्सह क्रोष्टारोऽपि कुञ्जेषु निविशन्ते । गोः पयः प्रकृत्यातिमधुरमस्ति बुद्धिं च पुष्णाति ।
3.
4.
5.
स्त्रियो वदनेन कमलं गत्या च हंसं जयन्ति ।
6.
सत्यः स्त्रियः पत्युराज्ञां प्रभोराज्ञामिव मन्वते ।
7.
हे वत्स ! रायं लभस्व रायम्, राया विना किमपि नास्ति जनाः कथयन्ति यद् 'वसु विना ना पशुः ' ।
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299
पाठ 17
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. हे मित्र ! यह आसन है, तू इस पर बैठ ।। 2. हर मार्ग पर राज्य के लोग कुमार को प्रणाम करते हैं। 3. जाओ, सभी प्रकार से तुम्हारा मार्ग कल्याणकारी बने । 4. वह एक पुरुष है, जो कुटुंब का भरणपोषण करता है । 5. हंस वास्तव में दूध को ग्रहण करता है और उसके साथ रहे हुए पानी को छोड़
देता है। प्रधान, राजा, मंत्री तथा सामंतों से असहाय ऐसे मुझे, अत्यधिक सैन्य जिसने दिया उसने मुझे पवित्र दिन में भेजा । जिस प्रकार स्वर्ग में असंख्य देव हैं और आकाश में असंख्य तारे हैं, वैसे ही
परमात्मा में असंख्य गुण हैं । 8. धन के साधन रूप सामग्री को प्राप्त कर स्त्री भी धन कमाती है । 9. आपको मुनि परमपुरुष मानते हैं । 10. जैसे जैसे प्रयत्न भाग्य से सिद्धि प्राप्त नहीं करता है, वैसे वैसे धीरपुरुषों के हृदय
में अधिक उत्साह होता है। 11. हर ऐक महीने में कृष्ण और शुक्ल पक्ष की चांदनी समान होती है, फिर भी उन
दोनों में से एक पक्ष शुक्ल कहलाता है, क्योंकि यश पुण्य द्वारा प्राप्त होता है । 12. विद्या और विनय युक्त ब्राह्मण में गाय, हाथी, कुत्ता और चांडाल में भी पंडित
पुरुष समान दृष्टि वाले होते हैं । 13. रात्रि में दीपक, समुद्र में द्वीप, मारवाड में वृक्ष, बर्फ में अग्नि, उसी प्रकार . कलिकाल में दुःख से प्राप्त हो ऐसे, आपके इन चरण कमलों की रज प्राप्त हुई है। 14. असंयमी इन्द्रियों को आपत्ति का मार्ग कहा है और इन्द्रियों पर जय संपत्ति का
मार्ग है, जो मार्ग इष्ट हो, उस मार्ग से जाए। 15. अग्नि, पानी, स्त्री, मूर्ख, सर्प और राजकुल ये छह तत्काल प्राण लेने वाले हैं
इसलिए इनका सेवन सावधानीपूर्वक करना चाहिए । 16. अच्छा स्वप्न देखकर सोना नहीं और दिन में अच्छे गुरु को कहना, लेकिन
खराब स्वप्न देखकर ऊपर कहा उससे विरुद्ध करना । 17. नीति में निपुण मनुष्य, निंदा या प्रशंसा करो, लक्ष्मी आओ या इच्छा से जाओ,
मृत्यु आज हो या दूसरे काल में हो, लेकिन धीर पुरुष न्याय मार्ग से एक डग भी विचलित होते हैं।
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आओ संस्कृत सीखें
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. स राजा द्विषामस्ना राक्षसानप्रीणयत् । 2. गोप्यो यथा दधि मनन्ति तथा देवा मेरुं मन्थानं कृत्वाम्भोधिममथ्नन् । 3. यदा भगवतो जन्म भवति तदा मघवा (सौधर्माधिपतिः) सकलसुराऽसुरेन्द्रैः
सह समागत्य सविनयमहट्टारकं गृहीत्वा गत्वा कनकाद्रिशृङ्गे भगवतो
जन्माभिषेकं करोति । 4. जरस्यपि जना भोगतृष्णां न जहति । 5. अस्मिन्नासनि भवानास्ताम् अस्मिँश्चासनेऽहमासै । 6. अस्य यूनो मतिः शून्या लाङ्गुलमिव वक्रास्ति । 7. आद्भिस्स्नात्वा नृपतयो ब्राह्मणेभ्यो रायं रान्ति । 8. अस्य पुंसः स्कन्धौ दृढौ स्तः दोषौ प्रशस्यौ स्तः तस्मादयं
पुमाननड्वानिवाभाति। 9. पुषा तमो हन्ति ।
पाठ 18
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. क्या होगा ? जो होना होगा वह होगा, कोई जानता नहीं कि कल क्या होगा? 2. तू जल्दी मत कर, तेरी यह इच्छा पूर्ण होगी । 3. हे मित्र वसुदत्त ! मैं क्या उत्तर दंगा ? 4. नवीन पश्चाताप रूपी अग्नि से जलते देहवाला में एक दिन भी स्वस्थ चित्तवाला
नही रहूंगा। 5. तीव्र तप करे, अरण्य में रहे, पर्वत पर रहे परंतु जब तक वह विषयों से दूर नहीं
होगा, तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं करेगा । 6. हाथी, घोड़ा और रथ से सज्ज नगर के द्वार को देखकर उसने सोचा, “अगर इसी
दरवाजे से प्रवेश के लिए राह देखूगा” तो समय का उल्लंघन होगा। 7. मेरा शोक कैसे शांत होगा ? 8.. सत्य बात कह, यदि नहीं कहेगा तो तेरा मस्तक छेद दूंगा, दुष्ट को शिक्षा करने
में हत्या नहीं है। 9. भविष्य में होने वाले अकाल को जानकर सभी दूसरे देश में गये, जहाँ जीवन
है, वह देश है।
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10. आज मैं मित्र के साथ खाना खानेवाला हूँ, इसलिए दिव्य (सुंदर) रसोई बना। 11. परलोक में सुख स्वरूप धर्म की मैं लेश भी उपेक्षा नहीं करूंगा। 12. मुझे कोई भी गलत मार्ग पर ले जाने में समर्थ नहीं है, इसलिए परलोक में सुख
देने वाले मार्ग को मैं छोडूंगा नहीं । 13. मलयकेतु (कहता हैं), ‘आर्य ! कोइ मनुष्य है, जो कुसुमपुर जाता है, अथवा
वहाँ से आता है। 14. राक्षस - (कहता हैं), ‘अब जाने आने का काम पूरा हो गया है, थोड़े दिनों में
हम सब वहाँ जायेंगे। 15. हा ! हा ! हा ! वीर ! क्या किया? इस अवसर पर मुझे अलग किया? क्या
बालक की तरह आपके पीछे पडता, या केवलज्ञान में भाग मांगता? क्या मुक्ति में जगह कम पड़ती, या क्या आपको भार रूप होता? इसलिए आप मुझे छोड़कर चले गये और इस प्रकार वीर ! वीर ! इस प्रकार कहते गौतम के मुख
में “वी' रह गया। 16. 'चाणक्य से चलित भक्तिवाले मौर्य को मैं आराम से जीत लूंगा' इस कारण अभी
जो यह व्यूह आपके द्वारा वास्तव में रचा है, वह सब (व्यूह) हे शठ! निश्चय
ही तेरे ही दूषण के लिए होगा । 17. इसके जैसा पति कौन होगा, इस प्रकार रात दिन उसके पिता जनक राजा चिंता
करते थे। 18. तुण से भी हल्की रुई है, रुई से भी हल्का याचक है, वह (याचक) वायु द्वारा
क्यों नहीं ले जाया गया? मुझ से भी प्रार्थना करेगा, मांगेगा। 19. पुत्र वनवास जाएगा और पति प्रव्रज्या लेंगे, यह सुनकर भी हे कौशल्या ! तेरा
हृदय विदीर्ण नहीं हुआ, तू वज्रमयी है। 20. प्रतिज्ञा से आप भी अगर चलायमान होते हो, तो हे प्रभो ! निश्चय ही समुद्र
मर्यादा का भंग करेगा। 21. दीपक के बिना जैसे अंधेरे में नहीं रह सकते उसी प्रकार निर्मल केवलज्ञान रूपी
प्रकाश वाले आपके बिना, इस भव में हम कैसे रहेंगे ? 22. आप रक्षण करने वाले हो तो, सज्जनों को धर्म क्रिया में विघ्न कहाँ से आएगा?
सूर्य तपता हो तो अंधकार कैसे प्रगट होगा ?
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आओ संस्कृत सीखें
23. यह (सार्थवाह) मार्ग में चोरों से रक्षण करेगा, शिकारी प्राणियों के उपद्रव से भी रक्षण करेगा और बीमारो को सगे भाई की तरह पालेगा ।
24. पत्थर फेंकने वाले को छोड़कर कुत्ता पत्थर को चाटता है, लेकिन सिंह बाण को छोडकर बाण फेकने वाले के सामने जाता है ।
1.
2.
3.
4.
5.
6.
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302
हिन्दी का संस्कृत में
अनुवाद
अहं श्वोऽहम्मदाबादं गन्तास्मि, अपि मेघो वर्षिष्यति तर्हि मया गन्तुं न शक्यते ।
2.
यदि त्वं मयाऽभिहितं हितं वचोऽमंस्यथाः, तर्हि त्वमस्यां दुःखगर्तायां नाऽपतिष्यः।
क्षमः ।
यथा विकसितं कुसुममल्प - समये म्लायति तथेदं यौवनमल्पसमये लास्यति ।
9.
8. यथोदयं प्राप्त: सूर्योऽस्तमेति तथेदं जीवितमप्येकदिनेऽस्तमेष्यत्येव । अस्मिन्मार्गेऽनेके कण्टकास्सन्ति ततोऽस्मिन्मार्गे गन्तुं ते न प्रयतिष्यन्ते । 10. मया विना रामो कथं जीविष्यति तं च विनाऽहं कथं जीविष्यामि । 11. यदि स समरादित्यकथामश्रोष्यत्तर्हि तस्य मनोऽवश्यं व्यरक्ष्यत् । 12. शिशुपालेन वरिष्यमाणा कन्या रुक्मिणी कृष्णवासुदेवेन वृता । 13. कपिं शीतेन कम्पमानं दृष्ट्वाऽवदत्सुगृही हे कपे ! यदि त्वमहमिव गृहमभन्त्स्यस्तर्हित्वमेवं शीतेन नाऽकम्पिष्यथाः ।
येयं पौर्णमास्यागामिन्यस्ति, अस्यां चैत्ये महोत्सवः प्रवर्तिष्यते ।
वयं यावज्जीवमध्येष्यामहे तत्त्वानि च भोत्स्यामहे ।
अद्य श्वो वा वयमेतान्लुण्टाकान् नूनं गृहीष्यामः ।
रामो वनमेष्यति तर्ह्यहं तमन्वेष्यामि न खलु रामं विना स्थातुं लक्ष्मणः
पाठ 19
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद
1. हाथी का वजन वास्तव में हाथियों द्वारा ही उठाया जा सकता है, दूसरों के द्वारा
नहीं।
सैकड़ों मधुर वचनों के द्वारा भी मैं उसे वह सब पूछूंगा ।
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आओ संस्कृत सीखें
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3. (हाथी के मुँह में) कवल डालना सरल है (लेकिन) हाथी के मुँह में से कवल
खींचना शक्य नहीं है । ‘मर जाऊँगा, मर जाऊँगा' इस प्रकार की भावनावाले सत्त्व बिना के जीव फिजूल
ही जीव को धारण कर मर जाते हैं। 5. अगर मैं वहाँ होता तो उन दुरात्माओं को नये नये बंधनों द्वारा शिक्षा करता । 6. आपके चरणों का अवलंबन लेने वाला अज्ञानी ऐसा भी मैं संसार का पार पा
जाऊँगा क्योंकि गाय की पूँछ को पकड़ने वाला ग्वाले का बालक नदी पार उतर
जाता है। 7. आपके साथ दीक्षा लूँगा, आपके साथ विहार करूंगा और आपके साथ दुःख
से सहन हों ऐसे परिषहों को मैं सहन करूंगा । 8. हे त्रिजगत्गुरु! आपके साथ उपसर्गों को सहन करूंगा, किसी भी हालत में मैं यहाँ
नहीं रहूंगा, मेरे ऊपर मेहरबानी करो । 9. भागे हुए अथवा विनाश पाए हुए, आपको छोड़कर गए हुए हमारे मुख को ऋषि
के हत्यारे के मुख की तरह, स्वामी किस प्रकार देखेंगे? 10. तुम्हारे बिना गए हुए हमको देखकर आज लोग भी हसेंगे, हे हृदय! पानी छांटे
हुए कच्चे घड़े की तरह तू जल्दी फूट जा। 11. मेरे द्वारा अकेली छोड़ी हुई (और बाद में) जगी हुई, यह मुग्ध नेत्रवाली
(दमयंती) मेरे साथ मानों स्पर्धा से जीवन से भी मुक्त हो जाएगी । 12. समर्पित ऐसी इसे ठगकर अन्यत्र जाने के लिए मेरा मन उत्साहित नहीं है। मेरा
जीवन या मरण इसी के साथ हो । 13. अथवा नरक जैसे जंगल में नरक के जीव की तरह अनेक दुःखो का भोगी मैं
अकेला होऊँ, परंतु वह नहीं होनी चाहिए । 14. तथा मेरे द्वारा वस्त्र में लिखी आज्ञा का अनुसरण कर यह मृगलोचना स्वयं स्वजन
के घर जाकर कुशलतापूर्वक रहेगी। 15. इस प्रकार निश्चय करके और उस रात का उल्लंघन करके नल राजा पत्नी के
जगने के समय से पहले ही जल्दी से चले गये । 16. धन से मैं पूर्ण हूँ, ऐसा जानकर खुश मत हो और धन बिना मैं खाली हूँ ऐसा
जानकर खेद मत कर। खाली को भरा हुआ और भरे हुए को खाली करने में
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आओ संस्कृत सीखें
304 विधि (कर्म) को देर नहीं होती है । ..... 17. हे वीर ! तेरे बिना अब शून्य वन समान घर में कैसे जाएँ, तेरे बिना किसके साथ
वार्तालाप करें और हे बन्धु ! अब तुम्हारे बिना किसके साथ भोजन करें
(करेंगे)। 18. हे बन्धु ! अब हमारी आँखों को अमृत के अंजन समान अतिप्रिय तेरा दर्शन कब
होगा ? हे विशाल गुणों से मनोहर ! राग रहित चित्तवाले तुम कभी हमें भी याद करना ।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. वयं श्वो ज्ञानपञ्चमीदिने शुभमुहूर्ते व्याकरणमध्ये तुं प्रारब्धास्महे
व्याकरणमधीत्य वयं सिद्धान्तमध्येष्यामहे । 2. यदि यूयं सदाचारे वय॑थ तर्हि सरस्वती-लक्ष्मीभ्यां वर्धिष्यध्वे । 3. अयं मुनिरात्मनस्तपस्तेजसा कर्माणि भयति शाश्वते च सुखे मध्यति । 4. युष्माकं कुमारैस्स्तोकेन समयेन प्रभूता विद्या ग्राहिष्यन्ते यतस्ते
विनीतास्सन्ति । 5. एतान्युप्तानि शस्यानि पक्ष्यन्ति तदा कृषीवलैर्लाविष्यन्ते । 6. अधुनेदं करोमि पश्चादेतत्करिष्यामि, एतद्विधाय पुनः श्वस्तत्कर्तास्मि एवं
स्वप्नतुल्ये जीवलोके को मंस्यते । 7. यदि रामो वने नागमिष्यद् रावणेन च सीता नाऽहारिष्यत तर्हि रामायणे
ऽलेखिष्यतापि किम् । 8. श्वः किंकरा अन्नस्येमा गोणीर्वोढारः । 9. यूयमणहिल्लपुरपत्तनं गमिष्यथ तदा तत्रस्थितान्यतिप्राचीनानि
पुस्तकभाण्डागाराणि ऐतिहासिकप्राचीनावशेषांश्च द्रक्ष्यथ । 10. रुक्मिणी नारदायाकथयदार्य ! ममाशासीद्यद्यूयं मम पुत्रस्य प्रवृत्तिमानेष्यथ.
नारदोऽकथयनुक्मिणि : शोकं मुञ्च तवापत्यस्य गवेषणामकृत्वा पुनस्त्वां
न द्रक्ष्यामि, एष निश्चयोऽस्ति, एवं कथयित्वा नारद आकाशमार्गेणोदपतत्। 11. एतानि फलानि स्प्रष्टुमप्यस्मभ्यं न कल्प्स्यते तदा खादितुं का वार्ता । 12. यथा सिंहं दृष्ट्वा हरिणा वनाङ्गणान्नश्यन्ति तथा भीमं दृष्टवा ते सर्वे योद्धारो
रणाङ्गणान्नक्ष्यन्ति ।
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आओ संस्कृत सीखें
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पाठ 20
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. शरद ऋतु के वश से चंद्र की किरणे अधिक शोभावाली होती हैं । 2. बलवानों से भी बलवान यह पृथ्वी बहरत्न वाली है। 3. विद्वानों की बुद्धि को वास्तव में दुसाध्य क्या है? 4. पुण्यशाली पुरुषो को परदेश में भी लक्ष्मी निश्चय ही साथ रहने वाली होती है।
दरिद्र (गरीब) मनुष्यो की स्त्रियाँ ज्यादातर जल्दी गर्भ धारण करने वाली होती हैं।
(गर्भ बिभ्रति इति गर्भ भृतः) । 6. अंजन का अंश भी धोए हुए सफेद कपड़े की शोभा के नाश के लिए होता है।
(श्रियाः छिद् = श्रीछिद् तस्यै श्रीछिदे) 7. अपने अपने उचित कर्म को करते कमठ और धरणेन्द्र के ऊपर समान मनोवृत्ति
रखनेवाले पार्श्वनाथ भगवान आपकी लक्ष्मी (शोभा) के लिए हों। 8. धर्म में धन की बुद्धि धारण कर, धन में कभी भी धन की बुद्धि धारण मत कर।
सद्गुरु की कही हुई शिक्षा का सेवन कर, लेकिन स्त्री की सेवा न कर । 9. मोह के अस्त्र को जिसने निष्फल किया है, ऐसे ज्ञान रूपी बख्तर को जो धारण
करता है, उसे कर्म के संग्राम की क्रीड़ा में भय कहाँ से हो? अथवा पराजय कहाँ
है?
10. आयुष्य ध्वजा समान चपल है, लक्ष्मी तरंग समान चंचल है, भोग सर्प की फणों
की तरह भयंकर हैं, संगम स्वप्न तुल्य हैं । 11. यह राजा याचकों की बड़ी आशाओं को पूर्ण करने वाला है और गाँव के नेता
याज्ञिक और उनकी स्त्रियों का नित्य पूजक है । 12. सभी गुणो की खान, पृथ्वी का भूषण ऐसे पुरुष रत्न का, विधाता सर्जन तो करता
है, लेकिन उसे क्षण भंगुर बनाता है तो वह बहुत दुःख की बात है अथवा
विधाता की अज्ञानता है। .. 13. निर्धन मनुष्य को लज्जा आती है, लज्जा वाला अपने तेज से भ्रष्ट होता है,
तेजरहित पराभव पाता है। पराभव से कंटाला आता है। कंटाले से शोक पाता है। शोक के वश हुआ बुद्धि से रहित बनता है बुद्धि रहित क्षय पाता है अहो! निर्धनता सभी दुःखों का स्थान है।
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आओ संस्कृत सीखें
2306
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. खलप्वां स्त्रियो यवक्रियो भवन्ति । 2. राज्ञो राज्यः स्वप्रासादादन्यत्र मार्ग वोन्मार्ग न जानन्ति अत: कूपवर्षाभ्व
इव भवन्ति। 3. सौन्दर्यतर्जितस्मरमिमं दृष्ट्वा स्त्रीणां ध्रुव उल्लसन्ति । 4. खलप्वे इव ग्रामण्येऽयं राजा निःस्पृहोस्ति नेर्ण्यति च । 5. यथा धनेच्छया कोऽपिखलप्वं नेच्छति तथायं राजा धनेच्छया ग्रामण्यमपि
नेच्छति। 6. ग्रामण्यां सेनानी: स्निह्यति । 7. श्रियै जनाः प्रयतन्तेऽपि धिये न प्रयतन्ते । 8. श्री: स्त्री वा किमप्यात्मनो न, इति तत्त्वविदो वदन्ति ।
पाठ 21
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. अथवा क्या अरुण अंधकार को भेदनेवाला होता, अगर सूर्य उसे आगे नहीं
करता। 2. आपकी प्रिय वाणी द्वारा ही आतिथ्य सत्कार हुआ है । 3. उद्गार (ओडकार) से जैसे आहार, उसी प्रकार वाणी द्वारा भाव मालूम पड़ते हैं। 4. शास्त्र और लोकव्यवहार का अनुसरण करनेवाली वाणी आदर पात्र है। 5. वास्तव में तिर्यंच भी अपने पुत्रो को अपने प्राणों की तरह संभालते हैं। 6. तुम भी चक्रवर्ती पुत्र प्राप्त करोगे। 7. जिसकी जैसी भावना होती है, उसको वैसी सिद्धि होती है । 8. राज्य की इच्छा करनेवाला वह मरकर मिथिला महापुरी के जनक राजा की पत्नी
की कुक्षि में पुत्र के रूप में पैदा हुआ। 9. खेद की बात है कि जड़ मनुष्यो को उदय में विवेक कैसे हो? 10. ज्ञान रूपी अमृत को छोड़कर जड़ मनुष्य इन्द्रियों के विषयों में (विषयों के लिए)
भागते हैं, जो इन्द्रियों के वश नहीं हुआ वह धीर पुरुषों में आगे गिना जाता है। 11. प्रकाश सहित सूर्य के बिना दिन भी मेरे लिए रात हो गई क्योंकि अंधकार के
समूह से वास्तव में सभी दिशाएँ अंधी हैं। 12. वाणी और मन में स्वच्छ, बड़ों का आदर करनेवाले और उचित राज कार्य में
मजबूत, ऐसे मनुष्य यहाँ राज-दरबार में हैं।
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आओ संस्कृत सीखें
19307,
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. अर्यमा प्राच्यां दिश्युदयति, प्रतीच्यां च दिश्यस्तमयति । 2. उदीच्याम्मेरुरस्ति, अवाच्याञ्च लवणसमुद्रोऽस्ति । 3. पुष्पाणि मुक्त्वा प्रौढस्त्रीणाम्मुखमाघ्रातुम्मधुलिडनेकश आयाति । 4. एभिः सम्राभिस्तुराषाड् ह्रियमश्नुते। 5. अयं पूर्जनः शास्त्रे शमे समाधौ सूनृते च प्राङस्ति । 6. धर्मभुद्भिः परिवाडिभर्धर्म उपदिश्यते । 7. काव्यं कविकीर्ति सर्वदिक्षु तनोति । 8. वृत्रघ्न आयुधं वज्रं कथयति । 9. जयसिंहस्य राज्याभिषेकादनन्तरं मन्त्रस्पृगृत्विग् मन्त्रपूतैर्जलाक्षतादिभि
मङ्गलं व्यधत्त। 10. जैना परिव्राजः पादयोरुपानही न परिदधति । 11. ब्राह्मणः क्षत्रियो विट् शूद्रश्चैते चत्वारो वर्णाः सन्ति ।
पाठ 22
संस्कृत का हिन्दी अनुवाद 1. हम किस रास्ते पर हैं? 2. बड़े मनुष्यों का प्रयत्न, अपने कार्य से ज्यादा, दूसरों के कार्य में होता है। 3. आश्चर्य है कि काम-वासना बहुत बलवान है । 4. वास्तव में घोड़े और पवन के लिए क्या दूरी है ? 5. पिता की मृत्यु के बाद प्रायः बड़ा पुत्र धुरंधर (मुख्य) होता है । 6. अधिक बलवान के द्वारा घिरे हुए को, भागने के सिवाय दूसरा रक्षण का साधन
नहीं है। 7. बुद्धि से साध्य कार्यो में बलवान भी क्या कर सकते हैं ? 8. कुमार ! सचिव का व्यवसाय बहुत गहन है, इतने मात्र से जानना शक्य नहीं है। 9. जो तुमने तीन अलंकार खरीदे हैं, उसमें से एक दिया जाय। .. 10. यह देव इस प्रकार अपने कुल की भारी प्रशंसा करता है । 11. इन्द्र और आप में इतना ही फर्क है। 12. गल गए तारोंवाली रात्रि, अब थोड़ी रह गई थी।
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आओ संस्कृत सीखें
308
13. नहीं देखे हुए ऊँचे-नीचे भूमि भाग पर तेरे पैर वास्तव में बराबर नहीं पड़ते हैं। 14. फूलों के गुच्छों की तरह मनस्वी मनुष्य की वृत्ति दो प्रकार की होती हैं, सर्व लोक
के मस्तक के ऊपर या जंगल में ही नष्ट होते हैं। 15. निर्गुणपना ही बहुत अच्छा है, गुण के गौरव को धिक्कार हो ।
देखो, दूसरे पेड़ आनंद करते हैं और चंदन के पेड़ काटे जाते हैं । 16. वर्षा ऋतु में मोर अपने पंखों को मंडल रूप करके अच्छे कंठ से मधुर गीत सहित
नृत्य करते हैं। 17. सूर्यसमान देवसूरि ने वास्तव में कुमुदचन्द्र को न जीता होता तो जगत में कौन
श्वेतांबर कमर ऊपर वस्त्र धारण कर सकते। 18. कु संसर्ग से कुलवान मनुष्यों का अभ्युदय कैसे होगा, बोर के पेड़ के पास कदली
केले का वृक्ष कितना आनंद कर सकता है? 19. इसके द्वारा आधे राजाओं को दास बनाया गया और आधे को मारा गया, आधे
हाथी और आधे घोड़े। इसके द्वारा (युद्ध में) सभी तैयार नहीं किये गये थे । 20. मन, वचन और काया में पुण्यरुपी अमृत से भरे हुए उपकार की परंपरा द्वारा
त्रिभुवन को खुश करनेवाले, दूसरों के परमाणु रूप गुण को भी पर्वत तुल्य मानकर अपने हृदय में खुश होनेवाले संतपुरुष कितने हैं।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. अस्माक सैन्य इयन्तोऽरय: कति । 2. कतिपयेऽपि देवाः कतिपया अपि नागा अस्य संनिभा नाभवन् । 3. पर्वतेषु मेरु महिष्ठः प्रथिष्ठश्चास्ति । 4. अन्नानां माषा गरिष्ठाः स्निग्धतमाश्च सन्ति । 5. पाण्डवानां भीमसेनः स्थविष्ठो द्रढिष्ठो बलिष्ठश्चासीत् । 6. हस्तस्य पञ्चाङ्गुलयः सन्ति तासां कनिष्ठा कतरा । 7. भूयाननेहा गतस्तदपि रामराज्यस्य महिमानमद्यापि जना गायन्ति । 8. अस्य शकटस्य धुरि द्वावनड्वाही संयोजितौ स्त: तयोरेकतरो
गरीयानन्यतरश्च यवीयानस्ति । 9. कृष्णस्याष्टाग्रमहिष्य आसँस्तासु कृष्णस्य प्रियतमा कतमासीत् ।
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आओ संस्कृत सीखें 10. प्लवङ्गस्य लाङ्गेलं द्राधिष्ठमुष्ट्रस्य च ह्वसिष्ठमस्ति । 11. हिन्दुस्थानस्य नगरेषु वरिष्ठं नगरं कतरज्जैनानांच तीर्थस्थानेषु वरिष्ठं तीर्थस्थानं
कतमत् । 12. चाणक्यस्य मति स्र्थेष्ठा वर्षिष्ठा चासीत् । 13. सर्वाभ्यो नदीभ्यो गङ्गानद्याः प्रथिमा द्राधिमा च साधिष्ठोऽस्ति । 14. एते सप्त छात्रास्सन्ति तेषु प्रथमे त्रयः पटिष्ठाः चरमाश्च त्रयो मन्दतमाः
सन्ति । 15. मम पार्श्वे व्याकरणस्य द्वे पुस्तके आस्तां तयोरेक तरमहं मम सहाध्यायिनयार्पयम्।
पाठ 23
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. विनय से धन से या विद्या से विद्या ग्रहण की जा सकती है, वास्तव में चौथा
कारण नही है। 2. प्रथम उम्र में बुद्धिमान मनुष्यों को आत्मा द्वारा (संपूर्ण मन लगाकर) विद्या ग्रहण
करनी चाहिए, दूसरी (मध्य) उम्र में धन कमाना चाहिए और तीसरी उम्र में धर्म
का संग्रह करना चाहिए। 3. राजा एकबार बोलता है, साधु एक बार बोलते हैं, कन्या एक बार दी जाती है,
ये तीनों एक एक बार ही होते हैं । 4. आयुष्य के बिना बत्तीस लक्षण वाला पुरुष भी प्रशंसा का पात्र नहीं है । जैसे
पानी के बिना सरोवर और सुगंध के बिना पुष्प भी प्रशंसा पात्र नही है। 5. दूसरे तीसरे राजा की कीर्ति को सहन नहीं करने वाला यह राजा, इस जगत में
दूसरे जगत में और तीसरे जगत में प्रसिद्ध है । 6. 'दो!' ऐसा वचन सुनकर शरीर में रहे हुए पाँच देवता श्री, ही धी, धृति और कीर्ति
उसी क्षण भाग जाते हैं।(अर्थात् 'तुम दो' ऐसे किसी के पास मांगना नहीं
चाहिए) 7. एक बार, दो बार, तीन बार, चार बार या पाँच बार, महान मनुष्य अपराध को
सहन करते हैं। पहला सुख तंदुरुस्ती, दूसरा सुख लक्ष्मी, तीसरा सुख यश, चौथा सुख पति के हृदय में बसी हुई पत्नी, पंचम सुख विनयवान पुत्र, छठा सुख राजा की असाधारण सौम्य दृष्टि, सातवाँ सुख बिना भय की बस्ती, ये सात सुख जिसके
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13101 घर में हैं उसके घर में प्रत्यक्ष धर्म का प्रभाव दिखता है। 9. पाँच वर्ष तक पालन करना, दश वर्ष तक ताड़न करना, लेकिन सोलहवाँ वर्ष
होने पर पुत्र को मित्र की तरह गिनना चाहिए । 10. सोलह विद्या देवियाँ आपका नित्य रक्षण करें । 11. चौबीस तीर्थंकर भगवंत मुझ पर प्रसन्न हों। 12. सभी देवो से पूजित एकसो सित्तर जिनेश्वरों को मैं वन्दन करता हूँ। 13. इस दिन से बासठवें दिन राजा जरूर आयेंगे। 14. वास्तव में बारहवें चंद्र में पुष्य नक्षत्र सभी अर्थ का साधक होता है। 15. सो रुपये वाला हजार रुपये की इच्छा करता है, हजार वाला करोड़ की इच्छा
करता है, करोड़ वाला राजा बनने की इच्छा करता है और राजा भी वास्तव
में चक्रवर्ती बनने की इच्छा करता है । 16. विक्रम के इस 2007 वर्ष में, निर्वाण प्राप्त भगवान महावीर को दो हजार चार सौ सित्तर वर्ष हुए।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. अस्य नृपस्य सैन्यमस्य नृपस्य विशांशस्यापि नास्ति । 2. अस्माद्दिनात्षष्ठे सप्तमे वा दिने स तव नगरे समेष्यति । 3. सकृद् द्विर्न किन्तु शतकृत्व ऋजुकृतं शुनो लाङ्गुलमृजु न तिष्ठति ।
त्रिषष्टि-शलाका-पुरुषचरितस्य दश पर्वाणि सन्ति तेषां चत्वारि पवाण्यहमध्यैयि। चतुर्विशतिस्तीर्थंकरा द्वादश चक्रवर्तिनो नव बलदेवा नव वासुदेवा नव प्रतिवासुदेवाश्चेति सर्वे मिलित्वा त्रिषष्टिः शलाका-पुरुषा एकस्यामवसर्पिण्या-मेकस्याञ्चोत्सर्पिण्यां भवन्ति ।
स्त्रियाः चतुःषष्टिःकलाः पुरुषस्य य द्वासप्ततिः कलाः सन्ति । 7. चैत्रमासस्य शुक्लपक्षस्य त्रयोदश्यां भगवतो महावीरस्य जन्माभवत्। 8. अयं पाठः कतिथोस्ति? इमं पाठं त्वं कतिकृत्व अध्यैथाः? 9. एतस्याचार्यस्य गच्छे अष्टशतं साधवः सन्ति । . 10. सप्तविशे वर्षेऽहं तं मोक्ष्यामि । 11. प्रायः द्वयशीतिं दिनानि सोऽत्र स्थास्यति । 12. भगवान्महावीरो द्विसप्ततितमे वर्षे मोक्षं गतवान् ।
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पाठ 24
संस्कृत का हिन्दी 1. जो सुंदर कमलवाला नहीं है वह जल नहीं है, जो लीन भ्रमरवाला नहीं है वह
कमल नहीं है, जो मधुर गुंजनवाला नहीं है वह भ्रमर नहीं है, जिसने मेरा मन हरण नहीं किया है वह गुंजन नहीं है। हिरण्यकशिपु दैत्य जिस जिस दिशा को हँसकर भी देखता था, उस दिशा में
भयभ्रांत देव नमस्कार करते थे । 3. उस यात्रा में कुतूहलवश मनुष्यों द्वारा बलभद्र और कृष्ण, शुक्ल और कृष्ण पक्ष
की तरह शुक्ल और कृष्ण देखे गये थे। 4. ऋषि ने प्रणाम करने वाले राजा का हाथ द्वारा स्पर्श किया। मानों उसके अंग पर
लगी हुई मार्ग की धूल को साफ न करते हों । 5. उस आश्रम में उन दोनों भाइयों ने प्रवेश किया और नयन कमल के लिए सूर्य
समान पिता को आगे देखा। 6. और उसके बाद नौ मास और साढ़े सात दिन अधिक धारिणी ने अपनी कान्ति
से जिसने सूर्य को भी न्यून किया है (सूर्य से भी अधिक तेजस्वी) ऐसे पुत्र को
जन्म दिया। 7. उस सार्थ को लूटने के लिए उस (अटवी में) बाघ की तरह चोर दौड़े और सार्थ
के साथ वाले सभी मनुष्य मृग की भाँति भाग गये । 8. उस दिन से सातवें दिन विवाह का मुहूर्त तय किया । 9. जिसको आश्चर्य हुआ है ऐसे राजा ने उस हार को निश्चल दृष्टि द्वारा देखकर
उत्तरीय वस्त्र के एक भाग में बाँधा । 10. राजपुत्रों के साथ अनेक प्रकार के क्रीड़ा सुख का अनुभव करनेवाले निरंकुशगतिवाले
उस बालक के पाँच वर्ष अंत:पुर में व्यतीत हुए। .. 11. युद्ध में उसके दुश्मनों द्वारा सुंदर धनुषों में बुद्धि न लगाकर निर्बलता और भय को धारण किया गया।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. भीमराजस्य पुत्री दमयन्ती स्वयंवरे नलं ववार । 2. अनुरक्तो लोको हाहा कर्तुं प्रचक्रमे तं हाहाकारं श्रुत्वा तत्रागत्य दमयन्ती
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जगाद, नाथ ! त्वां नाथामि यद् मयि प्रसीद द्यूतं च मुञ्च ।
3. तस्या वाचं नलो न शुश्राव तां च ददर्शापि न ।
4.
नलः स्वीयेन भ्रात्रा पुष्पकरेण सह दिदेव ।
5.
सीता हेममृगं ददर्श रामश्च तं ग्रहीतुं दधाव । रावणः सीतामपहृत्य लङ्कामानिनाय ।
6.
7.
रामो रावणेन सह युयुधे बहवश्च योधा मनुः ।
8. लक्ष्मणं मृतं मत्वान्तःपुरस्य स्त्रियश्चक्रन्दुः । सीतामसतीं ज्ञात्वा रामस्तां तत्याज ।
9.
10. पक्वं धान्यं कृषीवला लुलुवुः ।
11. भगवतो जन्म ज्ञात्वा शक्रस्स्वीयात्सिंहासनात्सप्ताष्ट पदानि दूरं गत्वा
भगवन्तं तुष्टाव ।
12. झंझावात उद्यानस्य सर्वान्वृक्षान्बभञ्ज ।
पाठ 25
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद
1.
हे ब्राह्मण ! तेरे द्वारा कलिंग में ब्राह्मण मारा गया है ? हे प्रभु! मैं कलिंग गया ही नहीं। 'निश्चय मेरे द्वारा कलिंग में ब्राह्मण मरा है' इस प्रकार सोते
हुए तुमने
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बोला है, तो ऐसा क्यों बोला है ?
सोते समय मैंने जो बोला, वह मिथ्या है ।
क्या तुम उसको इस प्रकार नहीं जानते थे कि उस लवण नाम के दानव ने ब्राह्मणों को हमेशा पराभूत किया है, मारा है और खाया है ।
'अति सुंदर वर को हम दी गई हैं' - इस प्रकार उन कन्याओं ने जाना और बहुत खुश हुई ।
कर्ण राजा ने चमडी को, शिबिराजा ने मांस को, मेघवाहन राजा ने जीव को और दधिचि ऋषि ने हड्डियों को दिया, महात्माओं को न देने योग्य (कुछ) नहीं। उस आश्रम में मृग के बच्चों का लालन-पालन करते, तप के कष्ट को नहीं जानते, उन स्त्री पुरुषों ने कितना समय व्यतीत किया।
वह भोजन नहीं खाता था, पानी भी पीता नहीं था और मौनपूर्वक योगी की तरह ध्यान में तत्पर रहता था ।
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1313 7. उसके वियोग के भय से मानों उसके रत्नों के आभूषण भी तेज बिना के हो गये
और मुकुट की मालाएँ मुर्छा गईं। 8. नियत समय रहते ग्रह जैसे एक राशि में से दूसरी राशि में जाते हैं, उसी प्रकार वे
(साधु) नियत समय रहते हुए, एक नगर से दूसरे नगर में, एक गाँव से दूसरे गाँव
में और एक वन से दूसरे वन में विचरते थे। 9. भ्रमर जैसी वृत्तिवाले वे (साधु) पारणे में (तप के पारणे) दाता को दुःख नहीं
देते हुए प्राण बचाने के लिए भिक्षा लेते थे । 10. मोह राजा की सेना के मानों चार अंग न हों वैसे चारों कषायों को क्षमादि अस्त्रों से सर्वथा जीते ।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. नलदमयन्त्यौ वन आटतुः । 2. कृष्णः कंसं जघान ।
रामो रावणं जिगाय ।
अर्जुनो द्रोणाचार्याद् धनुर्विद्यामधिजगे। 5. यथा सम्प्रति महान् जैननृपो बभूव तथा कुमारपालो महान्जैननृपो बभूव ।
चाणक्यो नन्दस्य राज्यमाच्छेत्तुं निश्चिकाय । 7. स्वीयस्यासनस्य कम्पेनेन्द्रो भगवतो जन्म जज्ञे। 8. भगवता जन्ममहोत्सवसमये स्वर्गादागद्भिरसंख्यै देवै राकाशं व्यानशे । 9. महावीरस्य बीरतामिन्द्रः स्वीयायां सभायां नुनाव देवाश्च स्वीयानि
मस्तकानि दुधुवुः। 10. सीता सेनान्योमुखेन रामाय वाचिकं प्रजिघाय। 11. रामराज्यं को न सस्मार ।
पाठ 26
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. उसके बाद सुग्रीव आदि सुभटों के साथ, लक्ष्मण सहित राम ने लंका विजय की
यात्रा के लिए गगन मार्ग से प्रस्थान किया । 2. अपने सैन्य के द्वारा दिशाओं के मुख को भी ढकनेवाले करोडों महाविद्याधर राजा
उसी समय राम के साथ चले । 3. विद्याधर द्वारा प्रयाण के लिए बजाए गए अनेक वाद्ययंत्रों ने अत्यंत गंभीर
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आवाज द्वारा आकाश को भर दिया ।
4. स्वामी के कार्य को सिद्ध करने में अभिमानी ऐसे विद्याधर, विमानों द्वारा, रथों द्वारा, घोड़ों द्वारा, हाथियों द्वारा और दूसरे वाहनों द्वारा आकाश में चले।
समुद्र के ऊपर से जा रही सेना के साथ राम क्षणभर में वेलंधर पर्वत पर वेलंधर नगर में पहुँचे ।
वहाँ समुद्र की तरह दुर्धर और उद्धत, समुद्र और सेतु राजा ने राम की अग्र सेना के साथ लडाई शुरू की ।
आप उन चार (श्रेष्ठियों) की चार पुत्री होंगी, वहाँ मनुष्य बने हुए उस (देव) के साथ तुम्हारा संगम होगा ।
और मनक मुनि के काल धर्म होने पर श्री शय्यंभवसूरि ने, शरद् ऋतु के मेघ के समान नयनों से अश्रुजल बरसाया ।
उस नगर में समान उम्र के चार वणिक् थे, वे उद्यान के वृक्ष की तरह वास्तव साथ में वृद्धि को पाए थे I
10. और उसके बाद सेवा के लिए पास में आए हुऐ और प्रणाम करते हु राजा ने क्रोध से अपना मुँह मोड़ लिया ।
11. क्या इस (हवेली) में जाऊ अथवा 'क्या इस (महल) में जाऊं इस प्रकार हवेलियों को देखते मुनि पुंगव पूरे नगर में घूमे ।
12. वह बोला, 'मैं मीठे और पके फल वन में से लाया हूँ, ओ महर्षियो ! आप खाओ!
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9.
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13. बड़े समुद्र में से मिले हुए रत्नों से देव खुश नहीं हुए, भयंकर विष से भी भयभीत नहीं हुए, अमृत के बिना रुके नहीं, वीर पुरुष निश्चित किए लक्ष्य से रुकते नहीं हैं ।
14. ग्रहण किया है भारी किराणा जिसने और साक्षात् उत्साह समान उसने एक दिन वसंतपुर जाने के लिए इच्छा की ।
15. और बुरे आशयवाले उन्होंने प्रत्येक स्थान के चैत्यों (मंदिरों) को तोड़ डाला क्योंकि उनको जन्म से ही संपत्ति से भी धर्म को ध्वंस करने में ज्यादा रस होता है। 16. उसके बाद राम ने दशरथ को कहा, 'अगर पिताजी स्वयं म्लेच्छ का संहार करने के लिए जायेंगे, तो छोटे भाई (लक्ष्मण) के साथ राम क्या करेगा ?
17. लगता है पृथ्वी पर रहे हुए देव न हो, उस प्रकार भृकुटी को बिना हिलाए राम ने, शस्त्रों द्वारा जैसे शिकारी मृग के झुंड को मारते हैं वैसे उन करोडों को मार
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डाला।
18. विद्वत्ता और राजापना कभी भी समान नहीं है (क्योंकि) राजा अपने देश में ही पूजा जाता है और विद्वान् सभी देशों में पूजे जाते हैं ।
19. सामान्य राजाओं के घर में दुर्लभ ऐसे बहुत से पुष्पों द्वारा, पत्तों द्वारा और रत्न आभूषणों द्वारा परम भक्ति से रोमांचित शरीर वाले राजा ने मुनि की पूजा की। 20. उस कुमार ने सभी प्रतिविद्याएँ सहित चौदह विद्याएँ दश वर्ष में जान लीं। सभी कलाएँ और शास्त्र को जाना । चित्रकला और वीणावादन में विशेष निपुणता प्राप्त की ।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद
राजा दशरथो दीक्षां ग्रहीतुं राज्ञीः पुत्रानमात्यांश्चाऽऽपप्रच्छे । नमस्कारं कृत्वा भरतो बभाषे 'हे प्रभोऽहं भवता सह दीक्षामुपादास्ये' । तच्छ्रुत्वा कैकेयी 'मम पतिः पुत्रश्च नूनं न स्तः' इति दध्यौ उवाच च 'हे स्वामिन् स्मरसि यत्त्वया स्वयं वरो ददे' तमधुना मह्यं देहि, दशरथ: कथयाञ्चकाराहं स्मरामि व्रतनिषेधं विना यद् मम हस्ते तद् वृणु, कैकेयी ययाचे यदि त्वं दीक्षां गृह्णासि तदा 'इमां पृथ्वीं भरताय देहि । अद्यैवेयं भूमि र्भरतेन गृह्यतामिति तामभिधाय राजा दशरथो सलक्ष्मणं राममाजुहावाभिदधे च अस्याः सारथ्येन संतुष्टोऽहं प्रथममेतस्यै वरमर्पयाञ्चकार, स वर: कैकेय्याऽधुना मृगयाञ्चक्रे यद् 'इमां पृथ्वीं भरताय देहि' ।
एतच्छ्रुत्वा रामो जहर्ष जगाद च यद् माता मम भ्रात्रे भरताय राज्यं ययाचे तत्सुष्ठु चकार ।
रामस्येदं वचः श्रुत्वा दशरथो यावन्मन्त्रिण आदिदेश तावद्भरतो बभाषे । हे स्वामिन् ! मयाऽऽदावेव भवता सह दीक्षां लातुं प्रार्थितं ततो हे तात ! कस्यापि वचसाऽन्यथा कर्तुं भवान्नार्हति ।
8. राजोवाच हे वत्स ! मम प्रतिज्ञां मिथ्या न कुरु ।
9.
रामो राजानमुवाच 'मयि सति भरतो राज्यं न ग्रहीष्यति ततोऽहं वनवासाय गच्छामि' ।
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10. इति राजानमापृच्छ्य नमस्कारं च कृत्वा भरते उच्चै रुदति सति रामो वनवासाय निर्ययौ ।
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पाठ 27 ____ संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. कर्णधार के साथ उसको मित्रता हुई। 2. तुमने उसको नहीं देखा, इसलिए इस प्रकार बोला है । 3. ऐसे जंगल के फल मैंने पहले भी खाए है। 4. ये वे सरोवर हैं, जहाँ हंस की तरह मैं ने क्रीड़ा की है, ये वे ही वृक्ष हैं, जिनके
फल मैंने बंदरों की भाँति खाए हैं। 5. पृथ्वी को एक छत्रवाली करनेवाले महापराक्रमी उस (राजा) की आज्ञा, इन्द्र के
वज्र की तरह किसी के द्वारा खंडित नहीं की गई। 6. जलचर द्वारा सागर की तरह उसका घर घोड़े, खच्चर, ऊँट और दूसरे भी वाहनों
द्वारा शोभा देता था। 7. जिससे तुमने प्रेम किया और उत्कंठा की, उसने तीर्थ में क्या दान दिया और क्या तप किया है?
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद अद्य वयमुद्यानमवाजिष्म तत्र वयं वृक्षस्य छायायामासिष्महि विहङ्गमा मधुरं मधुरमाराविषुः वयमन्तिके आम्रस्य वृक्षानै क्षिष्महि अस्माभिराम्राण्यग्राहिषताखादिषत च, आम्राणि खादित्वा वयमुद्यानस्य सौन्दर्यमीक्षमाणा अभ्रमिष्म (आटिष्म), तावत्येकस्यतरोरध ऊर्ध्वंस्थितो ध्यानस्थो महामुनिरस्माभिरैक्षि, स. मुनी रविरिवादीपि, चन्द्रमा इव
प्राकाशिष्ट वयं मुनिमवन्दिष्महि पश्चाच्च गृहं प्रत्यचालिष्म । 2. मनो! त्वमखिलां रजनीं माटीः । 3. मङ्गलपाठकानां स्तुतिं श्रुत्वा राजा जागरीत् । 4. मनुष्यभवे जन्म लब्ध्वा यूयं किमग्रहीष्ट? पुण्यं वा पापम् । 5. भरतेन प्रहितस्य दूतस्य वचांसि श्रुत्वा बाहुबलिरहसीत् ।
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पाठ 28
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद जिसने परमार्थ को जाना है, ऐसे पंडितों की तू अवज्ञा मत कर । तृण के समान हल्की लक्ष्मी उनको (पंडितों को) रोक नहीं सकती है, नये मद की रेखा से श्याम
हए हैं गंडस्थल जिनके ऐसे हाथियों को कमल के तंतु रोक नहीं सकते हैं। 2. उस राजर्षि ने इस प्रकार विचार किया, 'अहो ! उन कुमंत्रियों का मैंने सन्मान
किया, यह निश्चय ही राख में होम किया है। 'यह (ऋषि) शाप नहीं दे दे' इस हेतु से भयभीत बनी वे (स्त्रियाँ) शिकारी से
भयग्रस्त हिरणियों की भाँति एक दूसरे को मिले बिना जल्दी जल्दी भाग गई । 4. वे (राजा) उसकी ओर अभिमान से आवेश करते थे, द्वेष करते थे और देखते
थे। उनको इसने बाणों से ढक दिया (और) उनके प्राणों को भी हर लिया। 5. राजा ने रत्नों को ग्रहण किया (और) सोने को ग्रहण किया! ग्रहण करके उसको
दिया, वह चला (और) खुश हुआ । 6. 'स्वामी ! अवसर आने पर माँगुंगी, मेरा वरदान न्यास के रूप में रहे, इस प्रकार
कैकेयी बोली राजा ने भी वह (बात) कबूल की। 7. उसने हमारा वचन सुना । 8. दुष्यन्त राजा ने शकुन्तला से शादी की थी। 9. विद्यागुरुओं ने सभी शास्त्र उसको क्रमश: बताए। 10. दो घुड़सवारों को उसने देखा और पूछा, अरे ! इस सेना में खलभलाहट
(भागदौड़) क्यों हो रही हैं ? 11. 'मेरे बारे में तू अप्रसन्न न हो और मेरे बारे में तू विरुद्ध न हो' इस प्रकार वह बोला। उसने लज्जा की और सखी को बोलने का आग्रह किया।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. यः समुद्रमधुक्षत पृथ्वींचाऽदुग्ध तस्य जयकेशिनृपस्येयं पुत्र्यस्ति। 2. राजा भोजनादौ नाऽराङ्क्षीत्, जलक्रीडाद्या क्रीडया नाऽरंस्त, काय
विकारस्य च चेष्टां नाऽरौत्सीत् । 3. सा कन्या “मम पतिः कर्ण एवास्ति' इत्यबुद्ध, अतस्त्वमपि तां क न्यां
तथाऽबुद्धाः।
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4. हे राजन् ! अस्याः कन्याया विषये त्वामन्तरायो मा व्याहत । 5. वचसा कस्याऽपि मर्म मा भिद्ध्वम् । . 6. अहं युष्मानधुनैवास्मार्ष यूयं च अधुनैवाऽदृग्ध्वम् । 7. दमयन्ती हंसात्प्रशंसामश्रौषीत्, मनसा च नलमवृत । 8. हे स्वामिन् ! खलानां वचसा यथा मामत्याक्षी: तथा जिनभाषितधर्मं मा
त्याक्षीः। 9. वयमस्माकं क्षेत्रस्य भूमिममास्महि । 10. गोपालः सायं गाः स्वगृहमनेष्ट । 11. सो ऽमृताऽपि प्रतिज्ञां नात्याक्षीत् ।
पाठ 29
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. कोई भी पाप नहीं करे, कोई भी दुःखी नहीं हो, और सारा संसार मुक्त हो, ये
विचार मैत्री कहलाते हैं। 2. राम जैसे दशरथ थे, दशरथ जैसे रघुराजा थे, रघुराजा जैसे अजराजा भी थे और
अजराजा जैसा दिलीपवंश था, राम की यह कीर्ति आश्चर्यकारी है । मेरे वैराग्य का रंग दूसरों को ठगने के लिए था, धर्म का उपदेश मनुष्यो के रंजन के लिए था, विद्या का अध्ययन वाद के लिए था, हे प्रभु ! हास्य करनेवाला
(करानेवाला) मेरा खुद का कितना (चरित्र) मैं (आपको) कहूँ । 4. 'तुम मेरे हृदय में बसते हो' इस प्रकार मुझे प्रिय जो तुमने बोला, उसको मैं कपट
मानता हूँ। 5. मेरे इस जीवन से क्या? और बहुत से तप से भी क्या ? क्योंकि खुद के पुत्र की
हार कान को सुनने में आई। 6. उन्होंने लंबे समय से खाली पड़े हुए किसी आश्रम स्थान का आश्रय लिया; सूखे
पत्ते आदि का भोजन किया और घोर ऐसा तप किया । 7. उसने खाखरे के पेड़ के पत्ते लेकर रहने के लिए झोपड़ी बनाई जो कि मृगों के
लिए और मुसाफिरों के लिए (भी) ठंडी छाया देनेवाली अमृत की प्याऊ (जैसी)
थी। 8. जितने में युवावस्था में (पिता का) सामने से उपकार करने के लिए (बदला
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चुकाने के लिए) समर्थ हुआ, इतने में पापी अजितेन्द्रिय ऐसा मैं भाग्य से यहाँ
आया हूँ। 9. अहो ! अत्यंत घोर नरक में गिरने के लिए साक्षी समान, काम के बाण ऐसे
विषयों के भेद्यपने को प्राप्त न कर । 10. उसने युवावस्था में, कुल में उत्पन्न हुई राजकन्याओं से शादी की। उनसे युक्त
वह, लता से युक्त वृक्ष की तरह शोभा देता था । 11. कुमार ! परंतु मैं पूछू, पूछने के लिए ही आया हूँ, अजीर्ण के बुखार से पीड़ित
की तरह तुमने भोजन को क्यों त्याग दिया है? 12. ऊँचे फणवाले साँपों ने उसे काटने के लिए धमण समान मुख से फुत्कार करते
हुए पवन छोड़ा। 13. धनपाल का सुंदर वचन और मलय का सुंदर चंदन, हृदय में धारण कर वास्तव
में ! कौन शान्त नहीं हुआ। 14. मूर्छा पाए हुए आन्ध्रप्रदेश के राजा ने उस समय खून से पृथ्वी को लीपा और
सींचा तथा बंदीवृंद ने पानी और चंदन द्वारा उसको सींचा और लीपा । 15. तलवार से दूसरा (साथ) और दूसरा कृष्ण (कृष्ण समान) इस राजा को दूसरे और तीसरे (सर्व) देशों से आकर राजा नमस्कार करते थे ।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. राजा मुनिं दृष्ट्वाऽमोदिष्ट तस्य चाऽद्भुतं तपःसामर्थ्यं चिन्तयन्सभामगात्।
अमी ते वृक्षास्सन्ति हि येष्वावां वानरवत्स्वैरमरंस्वहि । 3. त्वं कं सुभगं दृष्टयाऽपा येन तवेदृशीदशाऽभूत् । 4. हे सुभ्र ! किं त्वं किंपाक-फलमच्छा आघ्राश्च वा सप्तच्छदपुष्पमच्छा
सीराघ्रासीश्च यतस्त्वमेवमार्तीभवसि । 5. स बहुषु देशेष्वभ्रमत् स च बहून्यद्भुतानि वस्तून्यदर्शत् ।
युद्धे योऽनशत् तमहं नाऽऽहसि तथाऽहं रणान्नाऽनेशम् ।। 7. अहं पापानि नाऽकार्ष तदाऽहं दुःख-गर्तायां किमपप्तम् ? 8. स पाणिना श्मश्रुमस्पृक्षत् ततश्च धनुरस्प्राक्षीत् । 9. ये भुजबलेनाऽदृपन् मन्त्राऽस्त्रैश्चाऽद्राप्सुः, तान्प्रत्येकं स नृपो वश्यकार्षीत्। 10. सिंहस्य भयेन गजा अदुद्रुवन् स्थातुं ते नाऽचकमन्त ।
A
2.
6
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पाठ 30
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. हे राजन् ! आप लक्ष्मी को वरें ! शत्रुओं को ढक दिया । पृथ्वी को वरें, अत:
अब सुखपूर्वक बैठ, गुरु की स्तुति करो और संध्या विधि को करो और यश द्वारा
इस भुवन को ढक दो। ... 2. जैसे पार्वती शंकर में संग वाली हुई और लक्ष्मी कृष्ण में संगम वाली हुई, उसी प्रकार वह (कन्या) तेरे संग वाली हो और शुभ के साथ संगवाली हो ।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. सकला लब्धयो यं श्रिताः स गौतमो गणभृयुष्मार्क श्रियं पुष्यात् । 2. सरस्वती देवी सदास्माकं मुखकमले सान्निध्यं क्रियात् । 3. एष पुत्रो विद्यायाः पारं यायात् । 4. अहं लक्ष्मीवान्भूयासं त्वं च पुत्रवान् भूयाः । 5. एते दुष्टा मृषीरन् । 6. विवेकमुत्साहं चाऽमुञ्चद्भयो युष्मभ्यं युष्माकं पुरुषार्थः सिद्धिं देयात् ।
पाठ 31
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. आभूषण आदि के उपभोग से प्रभु (राजा) प्रभु नहीं होता है (परंतु) शत्रुओं से
जिनकी आज्ञा पराभूत नहीं होती हैं, ऐसे आपके समान प्रभु कहलाता है । 2. हे जिनेन्द्र! आपके दर्शन से आज मेरा जन्म सफल हआ है, मेरी क्रिया सफल
हुई है और मेरा देह धारण करना सफल हुआ है। 3. हे स्वामी ! आपकी रुप लक्ष्मी को देखने के लिए इन्द्र भी समर्थ नहीं है (और)
आपके गुणों को कहने में बृहस्पति भी शक्तिशाली नहीं है। आकाश जैसा जल है (और) जल जैसा आकाश है, हंस जैसा चंद्र है और चंद्र जैसा हंस है, कुमुद जैसे आकार वाला तारा है और तारा जैसे आकारवाले फूल
है
5. हे मृगलोचना ! तुम्हारे मुख के आगे चंद्र तो पिंडीभूत काजल से बना हुआ हो,
ऐसा लगता है। 6. सोई हुई, अकेली, भोली, विश्वासवाली और सती ऐसी दमयन्ती को छोड़ते हुए
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अल्प बुद्धिवाले नल के पाँव किस तरह उत्साहवाले हो गये ? 7. जिनकी आज्ञा अखंड है ऐसे इन्द्र समान उस राजा के होने पर एक चन्द्रवाले
आकाश की तरह पृथ्वी एक छत्रवाली ही थी। 8. दुर्बुद्धि (और) अल्पबुद्धिवाले उसके वचन को सुनकर, अच्छी बुद्धि वाला राजा
इस प्रकार बोला, “वास्तव में धिक्कार है कि बुद्धि बिना के (अथवा) मंदबुद्धि
वाले, अपनी आजीविका के लिए प्राणियों को मारते हैं । 9. हे भद्र ! तुम क्या कहना चाहते हो ? 10. शुद्ध (और) कषाय रहित हृदयवाला, इन्द्रियों के वर्ग की चेष्टाओं को जीतनेवाला,
कुटुम्ब के स्नेह को छोडनेवाला योगी मोक्ष पद प्राप्त कर संसार में नहीं आता
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. आसन्न-दशा गुर्जर-सुभटा मत्त-बहु-मात्तङ्गे शत्रुसैन्ये आरूढसुभटानर्ध
पञ्चम-विंशानश्वानघ्नन् । 2. हे वामोरु ! च हे पीनोरु ! च युवामत्रोपविशतम् ।
तीव्र-पापोदये रम्भोरुभार्यो वा शोभनभार्योऽपि वा दुःखास्पदं भवेत् । 4. दक्षिणपूर्वायां दिशि स्थितोऽग्निः सतेजा भवेत् । 5. समनाः कुमारः प्रणन्तुकामः पितर्यागच्छत् 6. सधर्माणं जनं संदृश्य सधर्माणो जनास्संतुष्यन्ति । 7. स कुमार उपचतुरेषु जगत्सु समप्रथयत । 8. सर्वोत्तमपुरुषा जगति द्वित्रा द्विचतुस्त्रिचतुराः पञ्चषा वा भवन्ति । 9. उद्गन्धि दुग्धं सुगन्धींश्च कलमांस्त्यक्त्वा जनाः पूतिगन्धं पलं काङ्क्षन्ति । 10. कुमारपालेन राज्ञा सुस्वामिकायामस्यां भुवि कोऽपि जनो जन्तूनाऽहन् । 11. प्रभूतवीर-पुरुषस्यास्य ग्रामस्य शत्रूणां भयं नोपतिष्ठते ।
पाठ 32
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. वास्तव में मेरा वर्तन पशुतुल्य है या सत्पुरुषों के समान हैं', इस प्रकार मनुष्य
को अपना वर्तन हमेशा देखना चाहिए । 2. राम का कल्याण हो' (ऐसा) कहना और लक्ष्मण को आशिष कहना, तेरा मार्ग
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आओ संस्कृत सीखें
हो कल्याणकारी, हे वत्स ! अब तुम राम के पास जाओ ।
आपकी आज्ञा के पालन रूपी अमृतरस से जिन्होंने (खुद की) आत्मा का हमेशा सिंचन किया है, उनको नमस्कार हो, उनको यह अंजलि (हाथ जोड़ना) हो और उनकी हम उपासना करते हैं ।
3.
4.
5.
अत्यंत निर्मल ऐसे शील, विनय आदि गुणों द्वारा वह, समुद्र के मध्य में लीन होनेवाली गंगा नदी की तरह पति के हृदय में लीन हो गई थी । हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद
1. अनुदिनं यथाशक्ति पठ, यथासूत्रं तपोनुतिष्ठ, अधिवेलं भुङ्क्ष्व, उपमूर्खमागाः, अधिस्त्रि न विश्वसिहि, अध्यात्मं लीयस्व, दण्डादण्डि युद्धं मा कुरु, अन्तर्वणंमाट, अनुनृपं बहुशो न गच्छ, अपविचारं मा वद, बहिर्ग्रामं न वस, अनुरूपं ज्ञानं लभस्व, यथाज्ञानं गुणानाष्नुहि ।
पाठ 33
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3.
लंबे समय पश्चात् भी सब को कर्म अवश्य ही फल देते हैं, इन्द्र से लेकर कीड़े तक संसार की स्थिति ऐसी है ।
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद
उसके द्वारा छाती में प्रहार किये हुए रघु राजा, सैनिकों के आँसुओं के साथ भूमि ऊपर गिरे और पलक मात्र में व्यथा को दूर कर सैनिकों के हर्षनाद के साथ खड़े हो गये ।
पापी और शठ ऐसे उन प्रधानों ने मेरे बाल पुत्र के राज्य को छीनने का प्रारंभ किया है, उन विश्वासघातियों को धिक्कार हो ।
धूल की क्रीड़ा के मित्र समान ये मृग मेरे भाई जैसे हैं। जिनका मैंने दूध पीया है, ऐसी ये भैंसें माता समान हैं।
4. कान से पीने योग्य, अन्य अमृत समान, देवताओं को आनंद देनेवाली उसकी कीर्ति सुधर्म सभा में अप्सराओं द्वारा गायी गई ।
5. शरीर झुक गया है, काया भी लकड़ी की शरणवाली बनी है, दांत की पंक्ति गिर गई है, कर्णयुगल सुनने में असमर्थ हो गए हैं, अंधकार के समूह से श्याम बनी आँखे निस्तेज बन गई हैं, फिर भी आश्चर्य है कि निर्लज्ज ऐसा मेरा मन विषयों की इच्छा करता है।
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आओ संस्कृत सीखें
जो सुख चक्रवर्ती को भी नही है और जो सुख इन्द्र को भी नहीं है, वह सुख यहाँ लोक प्रवृत्ति से रहित साधु को है ।
6.
7.
वसंत ऋतु में ठंडी से भयभीत को यल द्वारा गाया गया, मानों कानो से सुनने की इच्छावाले न हों, इस प्रकार पानी के भीतर रहे कमल खड़े हो गए ।
8. जंबूद्वीप के मध्य में पर्वतो में मुख्य मेरु नाम का सोने का बडा पर्वत है, वह देदीप्यमान औषधियों का भंडार है और वह सभी देवों के रहने का स्थान है। 9. तुझे इन्द्र जैसा पति और जयंत जैसा पुत्र मिले, तुम इन्द्राणी जैसी बनो, दूसरी आशिष तेरे योग्य नहीं है ।
10. उसके बाद सीता के स्वयंवर के लिए जनक राजा द्वारा आमंत्रित विद्याधर राजा वहाँ आकर मंच पर बैठे ।
11. उसके बाद सखियों द्वारा घिरी हुई, दिव्य आभूषणों को धारण (पहनना) करने वाली, पृथ्वी पर चलने वाली मानों देवी न हो, ऐसी जनक राजा की पुत्री (सीता) वहाँ आई ।
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12.
जो
सुबह में है वह दोपहर में नहीं है, जो दोपहर में है वह रात में नहीं है, इस संसार में पदार्थों की अनित्यता ही दिखाई पड़ती है ।
13. मेरे दोनों नयन हमेशा (हे प्रभु) आपके मुख को निहारते रहो, मेरे दोनों हाथ आपकी सेवा में लगे रहो, और दोनों कान आपके गुणों को सुनने में मग्न हों। 14. यदुवंश रूप समुद्र में चन्द्र समान, कर्म रूपी सूखे घास के लिए अग्नि समान, अरिष्टनेमि (२२ वें) भगवान आपके पाप को नष्ट करने वाले बनें । 15. हे भद्रे ! तुम कौन हो ? अथवा इस जिनालय में क्यों आई हो ?
वह बोली, 'हे राजन् ! आप मुझे नहीं पहिचानते ? मैं वास्तव में सभी राजवृन्दों ने जिसके चरण सेवे हैं ऐसी राजलक्ष्मी हूँ, तेरी इच्छित वस्तु को प्राप्त कराने के लिए आई हूँ, कहो, आपका क्या प्रिय करूँ ?
16. इस भवसागर में जन्मांतर में भाई, मित्र व पदार्थों के साथ हुए नाना प्रकार के संबंध, विविध कर्म के पराधीन प्राणियों को पुनः वे अबाधित संबंध होते है । 17. यह उस इन्द्र का मित्र दुष्यन्त है ।
18. थकान के बाद सोने वाले को निद्रा वज्रलेप की तरह लग जाती है (आ जाती
है ) ।
19. पवित्र दिन है, पवित्र दिन हैं, खुश हो जाओ, खुश हो जाओ ।
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आओ संस्कृत सीखें 33243
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. साधिताशेषभरतं गगनस्थितं भरतचक्रवर्तिनश्चक्रमयोध्याभिमुखं चचाल। 2. आद्यप्रयाणदिनात्षष्टौ वर्षसहस्रेषु चक्रमार्गानुगो भरतोऽपि चचाल । 3. खेचरानपिसैन्योद्धृतरजः पूरपरिस्पर्शेन मलीमसीकुर्वन्,
प्रतिगोकुलं विकसदृग्गोपसुद्दशां हैयङ्गवीनार्धं गृह्णन् । प्रतिवनं कुम्भिकुम्भस्थलोद्भूतमौक्तिकप्रभृतीनि प्राभृतान्याददानः । प्रतिग्रामं सोत्कण्ठग्रामवृद्धानात्तानात्तैरुपानयनैरनुगृह्णन् । वृक्षाधिरूढान्नु प्लवंगान्ग्रामीणदारकान्सहर्ष पश्यन्, मलयानिल इव शनैः शनै गच्छन् दुर्विनीतारिशासन ऊर्वीशो भरतोऽयोध्यां
प्राप।
4. अहम्मदाबादादग्निरथेनानन्दमागच्छतोऽर्धरात्रः संजातः । 5. आङ्लदेशे दशाहं स्थित्वा वयं जलमार्गेण हिन्दुस्तानं न्यवर्तामहि । 6. त्रिलोकीतिलकं श्रीमहावीरमहं नमामि । 7. विक्रमसंवत्पूर्वे चतुःशत्यां सप्ततौ च वर्षेषु (गतेषु) आश्विनामावास्याया अपररात्रे भगवान्श्रीमहावीरो निर्वाणं प्राप ।
पाठ 34
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. हर रोज देव, ब्राह्मण, श्रमण और गुरु की सेवा में तत्पर ऐसे उसको, अपने हाथों
से उपार्जित और पूर्व पुरुषो से उपार्जित बहुत सा धन अर्थिजन मित्र, भाई और विद्वानों द्वारा भोगने के बाद बचे हुए धन को भोगनेवाले उसको अंतिम उम्र में वसुदत्ता नाम की स्त्री को सभी अपत्यो में सबसे पहला तारक नाम का पुत्र उत्पन्न
हुआ । 2. वधू और वर को गाने वाली सभी वेश्याएं खड़ी रही । 3. गगन (आकाश) गगन समान है, सागर (समुद्र) सागर समान है, राम और रावण
का युद्ध राम और रावण जैसा है । 4. पर पदार्थ की इच्छा (स्पृहा) महा दुःख है और स्पृहा (इच्छा) रहितपना (वह)
महा सुख है, सुख और दुःख का यह लक्षण संक्षेप से बताया गया है । 5. दो बैलवाला भी मैं द्वंद्व (स्त्री-पुत्र) सहित हूँ, मेरे घर में हमेशा व्यय का अभाव
है। हे पुरुष ! वह कर्म बताओ, जिससे मैं बहुत धान्यवाला बनूँ ।
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आओ संस्कृत सीखें
ॐ 325
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. धिया मयूरव्यंसक-छात्रव्यंसकौ नु तौ नृपौ पतद्भिः पत्रिभिः, पतद्भिः
पत्रिभिः प्लक्ष-न्यग्रोधाविव रराजतुः । 2. स्निग्धं वाक्त्विषं तथापीठछत्रोपानहमुद्वहन् नारदस्तौ नृपौ शस्त्रपातभयेन
धवखदिरपलाशं प्रविश्यैक्षिष्ट । 3. तौ (नृपौ) भ्रात्रोः पुत्रयोर्नु प्रजहतुः । (अत्र नैमित्तिकमधिकरणम् तस्मात्
निमित्त-सप्तमी) 4. कुमारस्य पितरौ (पार्वतीपरमेश्वरौ) प्रद्युम्नस्य च मातापितरौ
(कृष्णरुक्मिण्यौ) तुभ्यं क्रुद्धौ स्तः, इति मूलराज उवाच । 5. अश्वरथं श्रितान् द्विषो दंशमशकममन्वानो लक्षनृपश्चापं जग्राह । 6. तस्मिन्लक्षे नृपे इषून्वर्षति ब्राह्मण क्षत्रिय-विट्शूद्रास्त्रेसुः । 7. ब्राह्मण-क्षत्रिय-विट्-शूद्रंत्राता मूलराजोऽपि जयाय चापंजग्राह, जयाय
च भेरीशङ्खमुवाद । 8. विरोधतोहिनकुलं नु तौ (नृपौ) देवासुरैरस्तूयेताम् ।
पाठ 35
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. प्रारंभ किए इच्छित ग्रन्थ की समाप्ति के लिए ग्रंथकार अभीष्ट देवता की स्तुति
करता है। प्रयत्न से पीलनेवाला (मनुष्य) रेती में से भी तेल पा ले और प्यास से पीड़ित मृगजल से भी पानी पी ले, पर्यटन करने वाला (मनुष्य) किसी दिन मृग के शृंग को पा ले, लेकिन कदाग्रही मूर्ख मनुष्य के चित्त को कोई भी साध नहीं सकता
है - बदल नहीं सकता है । 3. हे राजन् ! अगर इस पृथ्वी रूपी गाय को दोहना चाहते हो, तो आज ही इस
लोक को बछडे की तरह पुष्ट करो, अच्छी तरह निरंतर पोषण होने पर यह पृथ्वी
कल्पलता की तरह अनेक प्रकार के फल देती है । 4. मूर्ख से भी मूर्ख ऐसा मैं कहाँ ? और वीतराग प्रभु का स्तवन कहाँ ? अतः मैं
चलकर बड़े जंगल को पार करने की इच्छावाले पंगु जैसा हूँ। 5. सूरि बोले, भवदत्त ! यह तरुण कौन आया है? वह बोला हे भगवन् ! दीक्षा
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आओ संस्कृत सीखें
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ग्रहण करने की इच्छा वाला मेरा छोटा भाई है। 6. रथ की आवाज से भयभीत ये मृग, पृथ्वी को जाने छोड़ने की इच्छा नहीं रखते
हो, इस प्रकार वायु ऊपर चढे हुए की तरह आकाश में चलते हैं । 7. हे सुन्दर ! व्यापार के लिए दिग्यात्रा करने की तू इच्छा रखता है (तो) हमारी
आशिष से कुशलपूर्वक दिग्यात्रा करके जल्दी आना। 8. जीतने की इच्छावाले एक मात्रा से भी अधिक, किसी को सहन नहीं करते हैं
इस हेतु से मानों हे धरानाथ ! आपने धारानाथ को हराया। 9. प्राणी के प्राणों को नष्ट करके जो मांस खाने की इच्छा करता है, वह मनुष्य धर्म
रूपी वृक्ष के दया नाम के मूल (जड़) को उखेड़ देता है । 10. ये धन सार्थवाह वसंतपुर जायेंगे (जानेवाला है) (तो) जो कोई भी वहाँ , (वसंतपुर) जाने की इच्छा रखता हो, वे इनके साथ चले जाएं। 11. सर्वथा जीतने की इच्छा से रहित और पाप से अत्यंत भयभीत आपके द्वारा तीनों
जगत जीते गए। बड़े मनुष्यों की चतुराई अपूर्व होती है। 12. क्रिया बिना का मात्र ज्ञान वास्तव में काम का नहीं है, रास्ते को जानने वाला
भी चलने की क्रिया के बिना इच्छितनगर में नहीं पहँचता है। 13. धन की प्राप्ति की लोलुपता वाला मैं, प्यासा भी पानी नहीं पीता हूँ, भूखा होने
पर (भी) खाता नही हूँ और रात में भी सोता नहीं हूँ। 14. पुत्र आदि परिवार के साथ राजा दशरथ भी जाकर उनको वंदन करने लगे और
देशना सुनने की इच्छा से बैठे । 15. भक्ति करने की इच्छावालो के ऊपर आत्मभाव होता हैं वैसे ही मारने की इच्छा
वाले के ऊपर भी आत्मभाव रखना चाहिए । 16. यहाँ से नजदीक रहनेवाले स्वजनों को आपकी आज्ञा से देखने की इच्छा रखता
17. धिक्कार हो ! धिक्कार हो ! निश्चय से मरने की इच्छा रखने वाले मैंने निंदित कर्म
किया। 18. कुमार सभी को अनुक्रम से कहे, 'वह पत्र क्या है? किसने भेजा है, इसमें कौन
सा कार्य करने के लिए कहा गया है ।
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आओ संस्कृत सीखें
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. विद्यार्थिनो यथा पिपठिषन्ति तथा न प्रयियतिषन्ते । 2. चिकीर्षितानि कर्माणि अपूर्णानि सन्ति जनश्च मुमूर्षति । 3. एष प्रासादः पिपतिषति, अतोयूयं तं न प्रविविक्षत । 4. कुसुमान्यवचिचीषया सुधा उद्यानं गताऽस्ति । 5. मुमुषिषु मुषित्वा पिपृच्छिषुः पृष्ट्वा विविदिषु विदित्वा जिघृक्षु र्गृहीत्वा
सुषुप्सु सुप्त्वेव कृतकृत्यो भवेत् तथा तस्या दुःखेनानेकशो रुरुदिषुरहं तां
कन्यामस्मिन्पट आलिख्यात्र चानीय कृतकृत्यो भवामि । 6. जना धनं संचिचीषन्ति, अपि नार्पिपयिषन्ति । 7. यूयं न मुमूर्षथ तथान्यं न जिघांसत । 8. शूर्पणखायाः कथनेन रावणो सीतां स्वान्तःपुरमानिनीषांचकार
सीतायाश्चाग्रहेण रामो मृगं जिघृक्षांचकार । 9. वल्लभेन सह् युद्ध्वा कोऽपि नृपः स्वदोःशक्तिं नादिद्दक्षतापि सर्वे रक्षणायेष्टदेवतामसुस्मूर्षन्त ।
पाठ 36
संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद 1. अज्ञानी मनुष्य को सुख से आराध सकते हैं (समझा सकते हैं) (और) विशेष
ज्ञानी मनुष्य को बहुत सुख से आराध सकते हैं। (परंतु) थोड़े ज्ञान से गर्विष्ठ
मनुष्य को ब्रह्मा भी खुश नहीं कर सकते हैं। 2. यदि तुम संसार से डरते हो और मोक्षप्राप्ति की इच्छा करते हो, तो इन्द्रिय पर
विजय पाने के लिए बड़ा पुरुषार्थ करो । 3. यहाँ से (हमारे पास से) वह दैत्य, लक्ष्मी (शोभा) को पाया है, (इसलिए) यहाँ
से (हमारे पास से) विनाश के योग्य नहीं हैं, विष वृक्ष को भी बडा करने के बाद
स्वयं ही उसे नष्ट करना अयोग्य है । 4. फैले हुए तेज द्वारा हमेशा दिशाओं को प्रसन्न करनेवाला यह सूर्य किसको अधिक
आनंद नही देता है। कोई भी पाप वाला व्यापार (क्रिया) नहीं करूंगा और दूसरे के पास नहीं कराऊँगा, सुखपूर्वक रागरहित होकर बैलूंगा - इस प्रकार जिसके मन में इतना
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आग्रह है, उसको तुम कहो - कितना विवेक है ! 6. जो दूसरों को सलाह देने में होशियार हैं, उनकी वास्तव में पुरुषों में गणना कैसी?
जो खुद को सलाह देने में होशियार हैं उन पुरुषों की पुरुषों में गणना होती है। जबरदस्ती उसे खाने के लिए बैठाया, लेकिन उसने कुछ भी खाया नही, मुझे
कुछ भी अच्छा नही लगता है, इस प्रकार बार बार यही बोलता था । 8. जो मनुष्य जिस प्रकार से बोध पाता हो, उसको उस प्रकार से बोध देना चाहिए। 9. जितने समय में मैं उतरूँ (उतने समय) नजदीक में ही रथ को खड़ा रख । 10. शकुन्तला के लिए वनस्पति में से फूल लाओ, इस प्रकार आपके द्वारा हमें आज्ञा
की हुई है। 11. अपने सुख की अभिलाषा रहित तू लोगों के लिए दुःख को झेल रहा है अथवा
प्रतिदिन तेरी प्रवृत्ति इसी प्रकार की है, वास्तव में झाड, ऊपर से तीव्र (तेज) गर्मी
सहन करता है (और) छाया द्वारा आश्रितों के परिताप (गर्मी) को मिटाता है। 12. पापी मनुष्य की कथा करने से वास्तव में पाप बढ़ता है, यश को दूषित करती
है, लघुता को धारण करते है, मन के परिणामों को बिगाड़ते हैं और धर्म बुद्धि
का नाश करते है। 13. काले सांप के बच्चे द्वारा चंदन दूषित होता हैं। 14. बहुत कहने से क्या? और भी तेरे मन में हो वह सब बता, जिससे मैं उसे जल्दी
से सम्पन्न कर लूँ। 15. स्वयंवर में आई हुई कन्याओ के साथ माता पिता के द्वारा उसकी शादी हुई। 16. राक्षस - उठ उठ, अभी काल विलंब करना छोड़ दे। विष्णुदास को निवेदन
करो कि यह राक्षस चंदनदास को मौत से छुड़ाता है । 17. सभी कारण पूर्व जन्म में किये हुए कर्मो के उदय की अपेक्षा बिना फल नही देते
18. सुमित्रा ने भी, वर्षा ऋतु के बादलों जैसे वर्ण वाले सम्पूर्ण लक्षणवाले (और)
जगत के मित्र (समान) पुत्र रत्न को जन्म दिया । 19. राजा ने पकड़े हुए मंगल पाठक और शत्रुओं को भी छुड़ा दिया, यानी उत्तम
पुरुषों के जन्म से कौन सुख से नहीं जीता है । 20. उसने सैन्य के समूह द्वारा पृथ्वी को दुःखी किया, शेषनाग को भार की पीड़ा
बताई, शत्रुओं को यमपुरी बताई और पिशाचों को शत्रुओं का मांस खिलाया ।
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आओ संस्कृत सीखें 21. मोह आदि द्वारा क्रीड़ा के हेतु से मैं क्षण में रागी बन, क्षण मे विरागी, क्षण में क्रोधी और क्षण में शांत बना ।
हिन्दी का संस्कृत में अनुवाद 1. तथा कुर्वन् राजा तस्य राझ्या पुष्पावत्याऽवार्यत किन्तु तामपि स
नाऽजीगणत्। 2. हे आर्यपुत्र ! त्वं सर्वथा दुःखं मा कृथाः, अहमचिराद् भ्रातरं बोधयिष्यामि
त्वदीप्सितं च कारयिष्ये । 3. नमद्ग्रीवा यशोभद्रादयः शिष्या ऊचुः, भवता प्रथममस्मानपत्यसम्बन्धः
कथं न ज्ञापितः। 4. भूरिहर्षः सूरिरूचे, अपत्यसम्बन्धं ज्ञात्वा नूनं यूयं मणकेन मुनिनोपास्तिं
नाऽकारयिष्यत तस्माच्च स स्वार्थं व्यमोक्ष्यत । 5. तं रथं प्रव्राज्य मोदकादीष्टभोजनं यथारुचि वयमबूभुजाम । 6. राजाऽशोकस्तं बालमानाययत्तस्य च नाम सम्प्रतिरित्यकृत । 7. राजाऽशोकः, दशाहादनन्तरं सम्प्रति स्वराज्ये न्यवीविशत् । 8. कुमारस्तं लेखं वाचयामास वाचयित्वा च तूष्णीभूतः ॥ 9. चन्द्रगुप्तं विषं दत्त्वा कोऽपि न घातयेदिति हेतुना चाणक्येन स दिनं
प्रत्यधिकाधिकं विषाहारमभोज्यत । 10. मौर्यमाज्ञाप्य चाणक्येन सुबन्धुस्तस्य सचिवः कारितोऽभूत् ।
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परिशिष्ट ___ संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद महासत्त्वशाली, तत्त्वज्ञ, सद्बुद्धिवाले, विद्याधर के स्वामी शतबल राजा एक दिन यह विचार कर रहे थे।
स्वाभाविक अपवित्र ऐसे इस शरीर को संस्कारों द्वारा पवित्र करके, खेद की बात है कि कितने समय रखेंगे?
वास्तव में खल की तरह यह काया, अनेक बार संस्कार करने पर भी जब संस्कार नहीं करते हैं, तब विकृत हो जाता है ।
आश्चर्य है कि बाहर गिरे हुए विष्ठा, मूत्र और कफ आदि से प्राणी लज्जित होते हैं परंतु काया के भीतर रही विष्ठा आदि से लज्जित नहीं होते हैं ।
जीर्ण होते वृक्ष के छिद्रों में क्रूर सर्प उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार इस शरीर में अत्यंत पीडादायी रोग पैदा होते हैं ।
शरद ऋतु के मेघ की तरह यह काया स्वभाव से ही नष्ट हो जानेवाली है और उसमें पहले देखी गई और नष्ट हुई (क्षणिक) यौवन की शोभा बिजली की तरह है ।
आयुष्य ध्वजा के समान चपल है, लक्ष्मी तरंग की तरह अस्थिर है, भोग साँप के फण समान हैं और संगम स्वप्न तुल्य है।
काम-क्रोध-आदि ताप से रात दिन तपाता हुआ शरीर के भीतर रही आत्मा, पुटपाक की तरह पकाया जाता है।
जिस प्रकार अशुचि में सुख माननेवाला विष्ठा का कीड़ा लेश भी वैराग्य नहीं पाता है, उसी प्रकार अतिदुःखदायी विषयों में सुख माननेवाला मनुष्य, आश्चर्य है कि वह लेश भी वैराग्य नहीं पाता है ।
जिस प्रकार अंधा व्यक्ति अपने पांव के सामने रहे कुए को नहीं देखता है, उसी प्रकार खराब परिणामवाले विषयों के आस्वाद में मनवाला मनुष्य अपने पाँव के आगे रही मृत्यु को नहीं देखता है ।
प्रारंभ में ही मधुर ऐसे विष समान विषयों से आत्मा मूर्च्छित ही रहती है, वह स्वहित के लिए जागृत नहीं होती है।
चारों का पुरुषार्थ समान होने पर भी खेद की बात है कि पापी ऐसे अर्थ-काम में आत्मा प्रवृत्ति करती है, परंतु धर्म और मोक्ष में प्रवृत्ति नहीं करती है ।
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आओ संस्कृत सीखें
इस अपार संसार सागर में प्राणियों को महारत्न की तरह अमूल्य मनुष्यपना अति दुर्लभ है। यदि मैं मनुष्यपने का फल प्राप्त न करूँ तो अभी पाटण मे रहते हुए भी चोरों द्वारा ठगा गया हूँ।
जैसे तैसे व्यक्ति को उपदेश नहीं देना चाहिए । देखो, मूर्ख ऐसे बंदर ने सुघरी (पक्षी) को घर रहित बना दिया ।
दमनक ने कहा 'यह कैसे?'
उसने कहा, किसी वन प्रदेश में खीजड़े का वृक्ष है, उसमें लटकनेवाली शाखा में जंगली चिड़ा व चिड़िया रहते थे ।
उसके बाद किसी समय वे दोनों सुखपूर्वक रहे हुए थे, तभी हेमंतऋतु का मेघ धीरे-धीरे बरसने लगा।
उस समय पवनयुक्त बरसात से भीगा हुआ, रोमांचित देहवाला, दांतों की वीणा को बजाता हुआ और कंपता हुआ कोई बंदर खीजड़े के झाड़ के मूल को पकड़कर बैठा।
उसके बाद उसकी इस स्थिति को देखकर सुघरी ने कहाः 'हे भद्र, तू हाथ-पांव सहित पुरुष की आकृतिवाला दिखता है तो हे मूढ़ ! ठंड़ी से क्यों दुःखी है? घर क्यों नहीं बनाता है? ___इस बात को सुनकर गुस्से में आकर उस बंदर ने कहा, 'हे अधम! तू क्यों मौन नहीं रहती है?
'अहो ! उसकी धृष्टता ! आज मुझ पर हँस रही है । सुई जैसे मुखवाली दुराचारिणी, अपने आपको पंडित माननेवाली रंडा बोलती हुई शरमाती नहीं है? तो क्यों न उसे मारूँ? इस प्रकार प्रलापकर उसको कहा 'हे मुग्धे ! तुझे मेरी चिंता करने की जरूरत नहीं है।'
कहा भी है -
'श्रद्धालु को कहो, पूछनेवाले को विशेष कहो, परंतु श्रद्धा रहित को कहना तो अरण्य रुदन जैसा ही होता है । तो (हे भाई) ज्यादा कहने से क्या फायदा?
उस समय उस बंदर ने खीजड़े के झाड़ पर चढ़कर उसके घोसले के सौ-सौ टुकड़ें कर दिए। इसलिए मैं कहता हूँ - 'जैसे तैसे व्यक्ति को उपदेश नहीं देना चाहिए।
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- (3) हिरण हिरण के साथ, गाय गाय के साथ, घोड़ा घोड़े के साथ, मूर्ख मूर्ख के साथ और समझदार समझदार के साथ संग करता है, समान आचार और आदतवालों के साथ मैत्री होती है।
अपार इस संसार में किसी भी प्रकार से मनुष्य भव को प्राप्त कर विषयसुख की तृष्णा में डूबा हुआ जो मनुष्य धर्म नहीं करता है, वह मूों में मुख्य है, वह तो समुद्र में डूबते हुए भी श्रेष्ठ जहाज को छोड़कर पत्थर पकड़ने का प्रयत्न करता है।
विद्वान मनुष्य के परिश्रम को वास्तव में विद्वान मनुष्य ही समझता है क्योंकि वंध्या स्त्री, गर्भवाली स्त्री की प्रसव वेदना को नहीं जानती है।
सूर्य उगते समय लाल होता है और अस्त समय भी लाल होता है । बड़े व्यक्ति संपत्ति और विपत्ति में एक समान होते हैं ।
नीच जाति, अनिष्ट का समागम, प्रिय वियोग, भय, दरिद्रता, अपयश और सभी लोगों का पराभव ये सभी पाप रूपी वृक्ष के फल हैं। ..
हे भाई ! कहो, सत्संगति पुरुषों को क्या नहीं करती है। वह बुद्धि की जड़ता दूर करती है, वाणी में सत्य का सिंचन करती है मान की उन्नति करती है, पाप को दूर करती है, चित्त को प्रसन्न करती है और सभी दिशाओं में कीर्ति फैलाती हैं ।
जब तक लीला से उन्नत पूंछवाला सिंह आता नहीं है, तभी तक मद से उन्मत्त बने हुए हाथी वन में गर्जना करते हैं ।
तपे हुए लोहे पर गिरे हुए पानी का नाम ही नहीं रहता है, वही पानी कमल के पत्ते पर रहा हआ मोती के आकार से शोभता है। स्वाति नक्षत्र में सीप के संपट में गिरा वह पानी मोती बनता हैं । प्रायः करके अधम, मध्यम और उत्तम गुण संगति के अनुसार होते हैं।
गुणीजन अपने गुणों से ही सेवनीय हैं, लक्ष्मी से नहीं । क्या फल की ऋद्धि से रहित चंदन का वृक्ष आनंद नहीं देता है?
दरिद्रता समान होने पर भी अहो ! चित्तवृत्ति में कितना अंतर है? कुछ नहीं दे पाए' इस कारण शोक करते हैं, तो कुछ 'कुछ नहीं मिला' इस प्रकार विचार कर शोक करते हैं।
कई (संत पुरुष) अत्यधिक दुःख में भी विपरीत आचरण नहीं करते हैं, जलता
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हुआ भी कपूर अपनी सुगंध को छोडता नहीं है । __सज्जन के संग में इच्छा, दूसरों के गुणों में प्रीति, गुरु में नम्रता, विद्या में व्यसन, अपनी स्त्री में रति, लोक निंदा से भय, अरिहंत में भक्ति, आत्मदमन में शक्ति, दुर्जन के संग से मुक्ति - जिसमें ये निर्मल गुण रहते हैं, वे इस पृथ्वी पर प्रशंसनीय हैं।
राज्य, संपत्ति, भोग, कुल में जन्म, सुंदर रूप पांडित्य, दीर्घ आयुष्य और आरोग्य-धर्म के ये फल हैं।
हे प्रभो ! हमें इच्छित की प्राप्ति नहीं होती है, उसमें आपका दोष नहीं है, वह हमारे ही कर्मों का दोष है, उल्लू दिन में नहीं देखता है तो उसमें सूर्य का दोष कैसे?
यदि सज्जनों के मार्ग का संपूर्ण अनुसरण शक्य न हो तो आंशिक भी अनुसरण करना चाहिए क्यों कि मार्ग में रहा हुआ खेद नहीं पाता है।
विपत्ति में दीन न बनना महान् पुरुषों के मार्ग का अनुसरण करना, न्याययुक्त वृत्ति को प्रिय बनाना, प्राणनाश के प्रसंग में भी मलिन कार्य को करणीय नहीं मानना, दुर्जनों से प्रार्थना नहीं करना, सज्जनों के इस विषम असि धाराव्रत को किसने बताया है?
शक्य बात में प्रमादी मनुष्य ठपके का पात्र बनता है, अशक्य बात में मनुष्य अपराध के योग्य नहीं है।
जो मनुष्य अपने और दूसरे के बल-अबल का विचार किए बिना अशक्य अर्थ में प्रवृत्ति करता है, वह विद्वानों के लिए हँसी का पात्र ही बनता है।
__ शक्ति होने पर बुद्धिशाली व्यक्ति को परोपकार करना चाहिए, परोपकार की शक्ति न हो तो स्व उपकार में विशेष आदर करना चाहिए।
विद्या और ध्यानयोग में अच्छी तरह से अभ्यास होने पर भी हितेच्छु को संतोष नहीं करना चाहिए, बल्कि उन दोनों में स्थिरता ही हितकर है।
सत्पुरुष, नम्र व्यक्तियों में दयालु, दीन का उद्धार करने में तत्पर, स्नेहपूर्वक चित्त देनेवाले के विषय में अपने प्राण भी देनेवाले होते हैं।
गुरु प्रत्यक्ष में स्तुति योग्य है। मित्र और बंधु परोक्ष में स्तुति योग्य हैं । नौकर वर्ग कार्य के अंत में स्तुति योग्य है। पुत्र स्तुति करने योग्य नहीं है और स्त्रियाँ मरने के बाद स्तुति करने योग्य हैं।
एकांत सुख और एकांत दुःख को पाया हुआ कौन है ? चक्र की धारा के समान मनुष्य ऊपर और नीचे जाता है।
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चाणक्य:- सुंदर! वत्स, मणिआर शेठ चन्दनदास को अभी देखने की इच्छा करता हूँ।
शिष्यः- वैसा ही करता हूँ। (बाहर निकलकर चन्दनदास के साथ प्रवेश करके) श्रेष्ठी ! इधर-इधर ।
चन्दनदास (अपने मन में सोचता है)
दयाहीन चाणक्य के विषय में, अचानक बुलाए हुए निर्दोष व्यक्ति को भी शंका पैदा होती है तो दोषयुक्त मुझे शंका क्यों न हो?
इसलिए मैंने अपने घर रहे धनसेन आदि को कहा है - कदाचित् वह दुष्ट चाणक्य घर की छानबीन कराए, तो मालिक अमात्यराक्षस के गृहजनों को संभालना, मेरा जो होना हो सो हो ।'
शिष्यः (पास में आकर) उपाध्याय, ये श्रेष्ठी चन्दनदास ! चन्दनदासः ‘आपकी जय हो!' चाणक्यः (देखने का नाटक करके) श्रेष्ठी ! भले पधारो । इस आसन पर बैठो।
चन्दनदासः (प्रणाम करके) क्या आप नहीं जानते हो कि अनुचित उपचार (सन्मान) हृदय को पराभव से भी अधिक दुःख पैदा करता है, इस कारण यहीं पर उचित भूमि पर बैठता हूँ।
चाणक्यः हे श्रेष्ठी ! ऐसा नहीं है, ऐसा नहीं है, हमारे द्वारा यह संभवित ही है, अतः आप इस आसन पर बैठो ।
चन्दनदासः (अपने मन में सोचता है) इस दुष्ट द्वारा कुछ बाहर लाया गया। (प्रगट बोलता है) आप जैसी आज्ञा करते हैं, ऐसा कहकर बैठ गए। चाणक्यः हे श्रेष्ठी चन्दनदास! क्या व्यापार में वृद्धि और लाभ मिल रहा है?
चन्दनदासः (मन में सोचता है) अति आदर शंका के पात्र है। (प्रगट बोलता है) हाँ ! आपकी मेहरबानी से मेरा व्यापार अखंडित है।
चाणक्य: चंद्रगुप्त राजा के दोष क्या याद अतिक्रांत राजा के गुणों की याद नहीं दिलाते हैं?
चन्दनदासः (कान बंद करके) पाप शांत हो, ऐसा न बोलो। शरद ऋतु की रात्रि में उदय पाए हुए पूर्णिमा के चंद्र समान चंद्रगुप्त राजा से प्रजा अधिक खुश हैं।
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4335 चाणक्य: हे श्रेष्ठी ! यदि ऐसा है तो खुश प्रजा से राजा प्रतिप्रिय (बदले में प्रिय वस्तु) चाहता है।
चन्दनदास: फरमाइए ! इस मनुष्य के पास से आप क्या चाहते हो?
चाणक्य: हे श्रेष्ठी! यह चंद्रगुप्त का राज्य है, नंद राजा का नही। अर्थरुचि ऐसे नंदराजा को ही अर्थ (धन) का संबंध प्रीति उत्पन्न करता है। चंद्रगुप्त राजा को तो आपका अक्लेश ही प्रीति उत्पन्न करता है।
चन्दनदासः (खुश होकर) हे आर्य ! आपके द्वारा मैं अनुगृहीत हूँ। चाणक्यः संक्षेप में राजा के विषय में अविरुद्ध वर्तन होना चाहिए।
चन्दनदास: वह कौन अभागी है, जो राजा से विरुद्ध है - ऐसा आपके द्वारा जाना गया है।
चाणक्य: पहले तुम ही ।
चन्दनदासः (कान बंद कर) पाप शांत हो, पाप शांत हो, ऐसा न बोले, ऐसा न बोलें। तृण को अग्नि के साथ विरोध कैसे?
चाणक्यः यह ऐसा विरोध है, जो तुम अभी भी राजा के अहितकारी अमात्य राक्षस के गृहजन को अपने घर में लाकर रखते हो।
चन्दनदासः आर्य! यह असत्य है, किसी अज्ञात व्यक्ति ने आपको निवेदन किया है।
चाणक्य: हे श्रेष्ठी ! शंका रहने दो । भयग्रस्त पहले के राजपुरुष, नगरजनों को नहीं चाहते हुए भी घर में अपने लोगों को छोड़कर देशांतर में जाते है, अत: उन्हें छिपाना, गुन्हा ही है।
चन्दनदासः उस समय हमारे घर में अमात्य राक्षस के गृहजन थे । चाणक्य पहले कहते थे 'असत्य है और अब कहते हो 'वे थे' ये परस्पर विरोधी वचन हैं।
चन्दनदासः इतना ही मेरी वाणी का छल कपट है।
चाणक्य: चंद्रगुप्त राजा के विषय में छल का अपरिग्रह है अतः राक्षस के गृहजनों को सौंप दो । तुम्हारे छल का अभाव हो।
चन्दनदास: हे आर्य ! मैं आपसे विनती करता हूँ कि उस समय, हमारे घर में अमात्य राक्षस के गृहजन थे।
चाणक्यः तो अब कहाँ गए?
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चन्दनदासः मुझे पता नहीं है।
चाणक्यः (थोडा हँसकर) क्यों नहीं जानते हो? हे श्रेष्ठी ! सिर पर भय है, उसका प्रतिकार अतिदूर है।
चन्दनदासः (मन में बोलता है) क्या यह दुःख आ पड़ा है। ऊपर आकाश में मेघ की गर्जना है और स्त्री दूर है । सिर पर साँप पड़ा है और दिव्य औषधियाँ हिमालय में हैं।
उज्जयिनी नगरी के मार्ग में बीच में एक बड़ा पीपल का वृक्ष है, उसके ऊपर हंस और कौआ रहता है । एक बार ग्रीष्म ऋतु में एक थका हुआ मुसाफिर उस झाड़ के नीचे धनुष में बाण जोड़कर सोया है।
थोडी देर में उसके मुख पर से झाड की छाया चली गई, अत: सूर्य के तेज से उसके मुख को व्याप्त देखकर उस वृक्ष पर रहे हंस ने दया से अपनी पाँखों को फैलाकर उसके मुख पर छाया की।
उसके बाद अत्यंत निद्राधीन उस व्यक्ति ने अपना मुख चौडा किया। . दूसरे के सुख को सहन नहीं करनेवाला कौआ अपने दुर्जन स्वभाव से उसके मुख में बीट (विष्टा) कर भाग गया। उसी समय उस मुसाफिर ने उठकर ऊपर देखा, उसने वहां रहे हँस को देखा। उसने बाण से हंस को मार दिया। इसीलिए कहा जाता है दुर्जन के साथ न रहें!'
दुर्जन व्यक्ति दुष्ट आचरण करता है और निश्चय ही उसका फल सज्जनों को मिलता है । रावण ने सीता का हरण किया और बंधन समुद्र को हुआ।
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हिन्दी साहित्यकार पू. पंन्यासप्रवर श्री रत्नसे
प्रतिक्रमण आयोगी संग्रह
श्रावक कर्तव्य
प्रवचन
मोती
श्रावका कर्तव्य
आग
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LEY
भावभावक
आओ! पूजा पवार
प्रभुदर्शन सुख संपदा
संतोषी जर- सदा सुखी
महान
ज्योतिधर
मानजनवटा
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DUTIES TOWARDS
PARENTS
पौरमास्थान
कहानियाँ
पासाला
पर्युषण के तीला प्रकाश
अदाGREAD
2dDostixonate
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96
99
बहाच्या
भाव सामायिक
रागत
सरस कहानियाँ
ओमलन मदिर पहा
म्हणजे आधा
जाज उपचान-पौवध का AIRATRARine
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शका-समाधान
बमानसल्पी श्रीमान् प्रेमरीकरणी
साव-चैत्यबंदन
जीविता-
विजन Commlandan
नवर्तव-विवेचन Goodmptedaa
SHES
Poetituainment-Ganitarge
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आओ भावयात्रा करें
कानमा
लागि
भाविक
ਹਮਣੇ
डंडल-विवेचन
निक
मंगल
Bacompahere
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न विजयजी म.सा.का अनमोल साहित्य वैभव
आओ! तत्वज्ञान सीखें
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શ્રી गौरवगाथा
परक कहानियाँ
महासलियों का जीवन-संदेश
मानवशालटा
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COLOURCTUROAD अमर-वाणी
विखरें
पवचन के
श्री आदिनापथालिनाथ
वज्ञान
कल्पसूत्र के हिन्दी प्रवचन
CAnसबीलसेमिनाजी मनिd
के महान योगी
Rite
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103
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महावीरवार
सदगुरु उपासना
चिंतनान
जैन पर्व-प्रवचन
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गुणवान बना
शिशिध-तपमाला
महान् चरित्र
Pre
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आमा पक्षण प्रतिक्रमण का
सुखी जीवन की बालिग
-प्रव
गुणानुवाद
राज्यों स्वाध्याय
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________________ पू.पंन्यासप्रवर श्री रत्नसेनविजयजी गणिवर्यका हिन्दी साहित्य 50. मनोहर कहानियाँ 1. वात्सल्य के महासागर 99. पारसप्यारोलागे 2. सामायिक सूत्र विवेचना 51. मृत्यु-महोत्सव 100. बीसवीं सदी के महान् योगी 3. चैत्यवन्दन सूत्र विवेचना 52. Chaitya-Vandan Sootra 101. अमर-वाणी 4. आलोचना सूत्र विवेचना 53. सफलता की सीढ़ियाँ 102. कर्म विज्ञान 5. श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र विवेचना 54. श्रमणाचार विशेषांक 103. प्रवचन के बिखरे फूल 6. कर्मन् की गत न्यारी 55. विविध-देववंदन (चतुर्थ आवृत्ति) 104. कल्पसूत्र के हिन्दी प्रवचन 7. आनन्दघन चौबीसी विवेचना 56. नवपद प्रवचन 105. आदिनाथ-शांतिनाथ चरित्र 8. मानवता तब महक उठेगी 57. ऐतिहासिक कहानियाँ 106. ब्रह्मचर्य 9. मानवता के दीप जलाएं 58. तेजस्वी सितारें 107. भाव सामायिक 10. जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है 59. सन्नारी विशेषांक 108. राग म्हणजे आग (मराठी) 11. चेतन ! मोहनींद अब त्यागो 60. मिच्छामि दुक्कडम 109. आओ! उपधान-पौषध करें! 12. युवानो ! जागो 61. PanchPratikraman Sootra 110. प्रभो ! मन-मंदिर पधारो 13. शांत सुधारस-हिन्दी विवेचना भाग-1 62. जीवन ने तुंजीवी जाण (गुजराती) 111. सरस कहानियाँ 14. शांत सुधारस-हिन्दी विवेचना भाग-2 63. आवो ! वार्ता कहुं (गुजराती) 112. महावीर वाणी 15. रिमझिम रिमझिम अमृत बरसे 64. अमृत की बुंदे 113. सदगुरु-उपासना [16. मृत्युकी मंगल यात्रा 65. श्रीपाल मयणा 114. चिंतनरत्न 17. जीवन की मंगल यात्रा 66. शंका और समाधान (तृतीय आवृत्ति) 115. जैन पर्व-प्रवचन [18. महाभारत और हमारी संस्कृति-1 67. प्रवचनधारा 116. नींव के पत्थर [19. महाभारत और हमारी संस्कृति-2 68. धरती तीरथ'री 117. विखुरलेले प्रवचन मोती 20. तब चमक उठेगी युवा पीढी 69. क्षमापना 118. शंका-समाधान भाग-2 21. The Light of Humanity 70. भगवान महावीर 119. श्रमण शिल्पी श्रीमद् प्रेमसूरीश्वरजी 22. अंखियाँ प्रभुदर्शन की प्यासी 71. आओ! पौषध करें 120. भाव-चैत्यवंदन 23. युवा चेतना 72. प्रवचन मोती 121. Youth will shine then 24. तब आंसू भी मोती बन जाते है 73. प्रतिक्रमण उपयोगी संग्रह 122. नव तत्त्व-विवेचन 25. शीतल नहीं छाया रे...(गुजराती) 74. श्रावक कर्तव्य-1 123. जीव विचार विवेचन 26. युवा संदेश 75. श्रावक कर्तव्य-2 124. भव आलोचना 27. रामायण में संस्कृति का अमर सन्देश-1 76. कर्म नचाए नाच 125. विविध-पूजाएँ 28. रामायण में संस्कृति का अमर सन्देश-2 77. माता-पिता 126. गुणवान्बनों 29. श्रावक जीवन-दर्शन (ततीय आवृत्ति) 78. प्रवचनरत्न 127. तीन-भाष्य 30. जीवन निर्माण 79. आओ! तत्वज्ञान सीखें 128. विविध-तपमाला 31. The Message for the Youth 80. क्रोध आबाद तो जीवन बरबाद 129. महान् चरित्र 32. यौवन-सुरक्षा विशेषांक 81. जिनशासन के ज्योतिर्धर 130. आओ! भावयात्रा करें 33. आनन्द की शोध 82. आहार : क्यों और कैसे? 131. मंगल-स्मरण 34. आग और पानी भाग-1 83. महावीर प्रभु का सचित्र जीवन 132. भाव प्रतिक्रमण-1 35. आग और पानी भाग-2 84. प्रभुदर्शन सुख संपदा 133. भाव प्रतिक्रमण-2 36. शत्रुजय यात्रा (द्वितीय आवृत्ति) 85. भाव श्रावक 134. श्रीपाल-रास और जीवन-चरित्र 37. सवाल आपके जवाब हमारे 86. महान ज्योतिर्धर 135. दंडक-विवेचन 38. जैन विज्ञान 87. संतोषी नर-सदासुखी 136. आओ ! पर्युषण-प्रतिक्रमण करें 39. आहार विज्ञान 88. आओ! पूजा पढाएँ! 137. सुखी जीवन की चाबियाँ 40. How to live true life? 89. शत्रुजय की गौरव गाथा 138. पांच प्रवचन 41. भक्ति से मुक्ति (पांचवी आवृत्ति) 90. चिंतन-मोती 139. सज्झायों का स्वाध्याय 42. आओ! प्रतिक्रमण करे 91. प्रेरक-कहानियाँ 140. वैराग्यशतक 43. प्रिय कहानियाँ 92. आई वडीलांचे उपकार 141. गुणानुवाद 44. अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेव 93. महासतियों का जीवन संदेश 142. सरलकहानियाँ 45. आओ! श्रावक बने 94. श्रीमद् आनंदघनजी पद विवेचन 143. सुख कीखोज 46. गौतमस्वामी-जंबुस्वामी 95. Duties towards Parents 144. आओ! संस्कृत सीखें! भाग-1 47. जैनाचार विशेषांक 96. चौदह गुणस्थान 145. आओ! संस्कृत सीखें! भाग-2 48. हंस श्राद्ध व्रत दीपिका 97. पर्युषण अष्टाह्निकाप्रवचन 146. आध्यात्मिक का पत्र 49. कर्म को नहीं शर्म 98. मधुर कहानियाँ 147. शंकासमाधान भाग-1|| RAJUL 425010056,25010863