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आ.4 . कुन्द : द्रव्यांचा
डॉ० कमलचन्द सोगाणी (मेवानिवृत्त प्रोफेसर, दर्शनशास्त्र)
परामर्शदाता अपभ्रश साहित्य अकादमी
जयपुर
प्रकाशक
जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी
राजरथान
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0 प्रकाशक
जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी श्रीमहावीरजी (राज) 322220
प्राप्ति स्थान
1 जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी
2 अपभ्रंश साहित्य अकादमी भट्टारकजी की नशिया
सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-302004
प्रथम बार 1000, 1989
मूल्य 1500
मुद्रक पॉपुलर प्रिन्टर्स मोती डूंगरी रोड, फतेह टीबा मार्ग, जयपुर
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प्रकाशकीय
जन-जगत् मे सर्वाधिक विश्रुत आचार्य कुन्दकुन्द के द्विसहस्राब्दी वर्ष के अन्तर्गत जनविद्या सम्थान की ओर से आचार्यश्री से सम्बन्धित यह द्वितीय प्रकाशन है।
भगवान् महावीर के सिद्धान्तो को ग्रथ रूप मे निबद्ध कर उन्हे स्थायित्व प्रदान कर आचार्य कुन्दकुन्द ने दिगम्बर जैन साहित्य और आम्नाय को तो मुरक्षित रखा ही, माय ही दार्शनिक-जगत् मे भी अमूल्य योगदान दिया ।
प्राचार्य कुन्दकुन्द की उपलब्ध सभी रचनाए तात्विक चिन्तन से प्रोत-प्रोत हैं । आचार्यश्री प्रथम जैन दार्शनिक है जिन्होने अपने ग्रन्थो मे द्रव्य की अवधारणा का विशद वर्णन किया है।
जगत् मे जो कुछ है वह 'मत्' है । सत् अर्थात् अस्तित्वशील । जो सत् है उमी की मत्ता है । इस प्रकार जगत् की प्रत्येक वस्तु 'सत्' है । जैन दर्शन के अनुसार जो मत है वह द्रव्य है । आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य का लक्षण बताया है
दव्व सल्लक्खणिय उप्पादव्ययधुवत्तसजुत । गुणपज्जयासय वा ज त भण्णति सव्वण्णहु ।।101
पचास्तिकाय,
जिमका लक्षण मत् है वह द्रव्य है । जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त है वह द्रव्य है। जो गुण और पर्याय का पाश्रय है वह द्रव्य है ।
द्रव्य छह प्रकार के है-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । प्रत्येक द्रव्य का अस्तित्व, स्वरूप, गुण और परिणमन भिन्न है, पृथक् है । छहो द्रव्यो मे जीव ही चेतन है शेप सब अचेतन-जड है। जानना-देखना जीव का स्वभाव है । वह अन्य द्रव्यो को उनके स्वभाव से जाने, उनके अपने से भिन्न स्वरूप को समझे, अपने को उनमे घुला-मिला न ममझे, यह भली-माति ममझाने के लिए, छहो द्रव्यो के स्वरूप से परिचय कराने के दृष्टिकोण से प्राचार्यों ने उनका विशद वर्णन किया है।
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गूढ, गभीर एव वृहद् ग्रथो का 'स्वाध्याय' आज की व्यस्त एव गतिशील जीवन-शैली में कठिन होता जा रहा है । 'लघु सस्करण' समय की माग है । इसी विचार से हमारे सहयोगी डॉ. कमलचन्दजी सोगाणी ने आचार्य कुन्दकुन्द के विभिन्न ग्रथो से 'द्रव्य' सम्बन्धी महत्वपूर्ण गाथारो का सकलन किया है जो आपके समक्ष 'आचार्य कुन्दकुन्द द्रव्य विचार' के रूप में प्रस्तुत है । इस प्रकार के सकलन मूल अथो की उपादेयता या महत्व को कम नही करते अपितु पाठको को वृहद् अथो से विशिष्ट विषय से सम्बन्धित सक्षिप्त, क्रमवद्ध एव प्रासगिक मामग्री 'एक ही स्थान पर' उपलब्ध करा कर विषय को सरल, सहजगम्य और मुरुचिपूर्ण रूप मे प्रस्तुत करते है।
बडे-बडे ग्रथो का आलोडन कर उनमे से कुछ विशिष्ट गाथाम्रो का चयन कर अत्यन्त सक्षेप मे 'चयनिका' के रूप मे ग्रथ का सार प्रस्तुत कर देना डॉ० सोगाणी की अपनी शैली है, पृथक् पहचान है। यह पुस्तक भी उनकी इसी शैली का निदर्शन है । इस पुस्तक की एक विशेपता और है-इसमे मूलगाथा, उमका व्याकरणिक विश्लेषण और उसके आधार से निसृत हिन्दी अनुवाद दिया गया है जिससे पाठक प्राकृत-व्याकरण को भी समझ मर्के और आचार्यश्री के मूलहार्द को भी।
हमारे आग्रह पर उन्होने अल्प समय मे ही यह सकलन तैयार किया इसके लिए हम उनके आभारी हैं।
मुद्रण के लिए पॉपुलर प्रिन्टर्स धन्यवादाह है ।
महावीर निर्वाण दिवस 2516 दीपमालिका, वि स 2046 जयपुर
ज्ञानचन्द्र खिन्दूका
सयोजक जनविद्या सस्थान समिति
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प्रस्तावना
यह बात निर्विवाद है कि हम विभिन्न वस्तुओं के सम्पर्क में आते रहते है । हम प्रांगों से रग देखते है, कानो मे ध्वनि सुनते है, नाक से गध का ग्रहण करते है, जीभ से स्वाद लेते हैं तथा स्पर्शन मे स्पर्श का अनुभव करते है। इस तरह मे हम अपनी पाचो इन्द्रियो द्वारा वस्तुओ से ससर्ग बनाये रखते है। इन्द्रियो के माध्यम से हम वस्तु-जगत् से जुड़े रहते हैं । यह वस्तु-जगत् ही प्राचार्य कुन्दकुन्द के शब्दो में पुद्गल द्रव्य है । उम पुद्गल द्रव्य मे वर्ण, रस, गध और स्पर्श वर्तमान रहते है तथा जो विभिन्न प्रकार का शब्द है, वह भी पुद्गल है (9)। पुद्गल के क्षेत्र को समझाते हुए प्राचार्य कुन्दकुन्द कहते है कि इन्द्रिया तथा इन्द्रियो द्वारा भोगे जाने योग्य विषय, शरीर, वाणी तथा अन्य भौतिक वस्तुए मनी पुद्गल पिण्ड है (113, 114)।
पदगलात्मक वम्तयो के माय-साथ हमारे चारो ओर वनस्पति, कीट, पशुपक्षी और मनुष्य भी वर्तमान है । इन सभी में एक और पुद्गल के गुण वर्तमान है तो दूसरी पोर वढना, भयभीत होना तथा सुखी-दुखी होने की स्थितिया भी दृष्टिगोचर होती है । इस तरह से यह दो द्रव्यो की मिश्रित अवस्था है। एक पोर पुद्गल द्रव्य है तो दूसरी ओर जीव द्रव्य । प्राचार्य कुन्दकुन्द इन सभी को गमार में स्थित जीव कहते है (22), यह दो द्रव्यो की मिश्रित अवस्था है। पुदगल के माय जीव की उपस्थिति ही मे यह मिश्रण उत्पन्न होता है। पुद्गल जीव को विभिन्न अशो में यावद्ध किये हुए रहता है। पुद्गल और जीव की मिश्रित अरस्था में जव पुद्गल जीव पर अधिकतम दबाव डालता है तो एक इन्द्रिय (म्पर्णन) ही का विकास हो पाता है। जैसे-जैसे यह दबाव कम होता जाता है वैम-बैंग दो इन्द्रिया (स्पर्शन और रसना), तीन इन्द्रिया (स्पर्शन, रसना और घ्राण), चार इन्द्रिया, (म्पर्शन, रमना, घ्राण और चक्षु) और पात्र इन्द्रिया (म्पर्णन, रमना, प्राण, चक्षु और कर्ण) विकसित हो जाती है (28-34)।
प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि एक इन्द्रियवाले जीवो मे केवल सुखदु यात्मक चेतना ही क्रियाणील होती है। दो इन्द्रिय मे पचेन्द्रिय तक के जीवो
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मे (शुभ-अशुभ) प्रयोजनात्मक चेतना का विकाम हो जाता है । यहा यह समझना चाहिए कि प्रयोजनात्मक चेतना मनुप में ही पूर्णस्प में प्रकट होती है। बाकी जीवो में इसका प्रकटीकरण अचेतन स्थिति में ही होता है। विचार का विकास मनुष्य की ही उपलब्धि है। विचार के विकास के माय ही उद्देश्यात्मक जीवन का विकास होकर शुभ-अशुभ प्रयोजनो मे जीने का विकास हो जाता है (24 से 28)।
यह मभव माना गया है कि जीव पर पुद्गल का दवाव कम होते-होते शून्य हो जाए । ऐसी स्थिति मे जीव अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है । ऐमा जीव ज्ञान चेतना वाला कहा गया है। इस तरह ने पुद्गल के दवाव मे रहित जीव ज्ञान-चेतना वाला रहता है और पुद्गल के दवाव से युक्त जीव प्रयोजनचेतना और (सुखदु खात्मक) फल-चेतना को लिये हुए होता है (24 से 27)। प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि कुछ जीव सुख दुखात्मक फल को, कुछ शुभअशुभ प्रयोजन को तथा कुछ ज्ञान को अनुभव करते है (25)। यहा पर यह ध्यान देने योग्य है कि जीव और पुद्गल की मिश्रित अवस्था का अनुभव ममी की सामान्य अनुभूति है, किन्तु पुदगल के दवाव मे रहित जीव की अनुभूति केवल तीर्थंकरो या योगियो की ही अनुभूति होती है।
यह सर्व-अनुभूत तथ्य है कि पौद्गलिक वस्तुप्रो मे अवस्था परिवर्तन होता है । इमी परिवर्तन को पर्याय कहा गया है। पौद्गलिक मिश्रण के कारण जीव की अवस्थाओं में भी परिवर्तन होता है। पुद्गल के निमित्त से जीव क्रिया-महित होते हैं (13)। परिवर्तन और क्रिया काल द्रव्य के कारण उत्पन्न होते हैं (138) । परिवर्तन का अर्थ है एक अवन्या के बाद दूसरी अवस्या का आना। यह काल द्रव्य के विना सभव नही है । क्रिया मे जो निमित्त है वह धर्म द्रव्य है तथा स्थिति मे जो निमित्त है वह अधर्म द्रव्य है । द्रव्यो को स्थान देने के लिए आकाश द्रव्य है । इस तरह से लोक में 6 द्रव्यो की व्यवस्था है (14, 134)। प्राचार्य कुन्दकुन्द का कहना है कि अनेक जीव, पुद्गलो का ममूह, धर्म, अधर्म,
आकाश और काल ये वास्तविक द्रव्य कहे गये हैं । ये सभी द्रव्य अनेक गुण और पर्यायो सहित होते है (6)।
__ आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जो गुण और पर्याय का आश्रय है वह द्रव्य है (139) । इमका अभिप्राय यह है कि गुण और पर्याय को छोडकर द्रव्य कोई स्वतन्त्र वस्तु नही है । दूसरे शब्दो मे द्रव्य गुणों और पर्यायो के विना नही होता, तथा गुण और पर्याएँ द्रव्य के विना नहीं होती (142,143) । उदाहरणार्थ, स्वर्ण
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से पृथक् उसके पीलेपन आदि गुणो का तथा कुण्डल आदि पर्यायो का अस्तित्व नम्भव नही है । अत यह स्पप्ट है कि जो नित्यरूप से द्रव्य मे पाया जाय वह गुण है और जो परिवर्तनशील है वह पर्याय है । सक्षेप मे, पर्याय परिणमनशील होती है और गुण नित्य । इसके अतिरिक्त गुण वस्तु मे एक साथ ही विद्यमान रहते है किन्तु पर्याएं क्रमश उत्पन्न होती हैं । वस्तु के विभिन्न आकारो को व्यजन पर्याय कहा गया है । उदाहरणार्थ-जीव का मनुष्य, देव आदि विभिन्न योनियो में जन्म लेना जीव की व्यजन पर्याए है। पर्याय का एक दूसरा भेद और है जिसे अर्थ पर्याय कहा गया है । बात यह है कि वस्तु के गुणो की अवम्याग्रो में प्रत्येक क्षण परिवर्तन होता रहता है, जैसे-जड वस्तु मे रूप प्रादि गुण तो मदेव विद्यमान रहते है, किन्तु इन गुणो की अवस्थाएं परिवर्तित होती रहती है । इमी के फलस्वरूप यह कहा जाता है कि वस्तु नई से पुरानी हो गई, मीठी मे खट्टी हो गई इत्यादि । यहा वस्तु मे रूप, रस आदि का लोप नही हुआ किन्तु उनकी अवस्थाएं बदल गई । परिवर्तन का यह क्रम अनन्त है। इस प्रकार के परिवर्तन को अर्थ पर्याय कहा गया है । अत वस्तु मे व्यजन पर्याय और अर्थ पर्याय दोनो ही सदा उपस्थित रहती है। यहा यह स्मरण रखना चाहिये कि द्रव्य का गुण-पर्याय-वाला होना द्रव्य को नित्य-अनित्य या परिणामीनिन्य मिद्ध करता है । द्रव्य गुण-अपेक्षा नित्य है और पर्याय-अपेक्षा अनित्य या परिणामी।
द्रव्य को एक दूमरी परिभाषा भी प्राचार्य कुन्दकुन्द ने दी है जो उपर्युक्त परिभाषा मे तत्वत भिन्न नही है । उसके अनुमार द्रव्य वह है जो सत् है और मत उम नहते है जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-युक्त हो (139)। अर्थात् जिसमे उत्पनि, विनाण और स्थिरता एक समय में पाई जावे वह सत् है। उदाहरणार्थस्वर्ण के ककण मे जब कुण्डल बनाये जाते है तो कुण्डल पर्याय की उत्पत्ति, ककण पर्याय का विनाश और पीले प्रादि गुणोवाले स्वर्ण की स्थिरता एक समय मे प्टिगोचर होती है। यह उदाहरण व्यजन पर्याय का है। द्रव्य का उत्पाद, व्यय और धोव्यात्मक लक्षण अथं पर्यायवाले उदाहरण मे भी घटित होता है जैसेदही मीठे से पट्टा हुआ तो रस गुण की मोठी पर्याय का व्यय (विनाश) हुना, बट्टी पर्याय का उत्पाद (उत्पत्ति) हुआ और दही की ध्रौव्यता (स्थिरता) ज्यो की त्यो रही । इस तरह से उत्पत्ति और विनाश पर्यायाश्रित है और स्थिरता गुणाश्रित । अत हम कह सकते है कि द्रव्य की ये विभिन्न परिभाषाए इस बात की द्योतक है कि द्रव्य नित्यानित्यात्मक या परिणामी-नित्य है।
प्रव्य के छ भेद है-(1) जीव, (2) पुद्गल, (3) धर्म, (4) अधर्म,
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(5) आकाश और (6) काल । किन्तु जीव और अजीव के भेद मे द्रव्य को दी भागो मे भी विभाजित किया जा सकता है क्योकि पुद्गल मे लेकर कान तक के सभी द्रव्य अजीव मे समाविष्ट है (3) । इम तरह मे प्राचार्य कुन्दकुन्द एक और अनेकत्ववादी है तो दूसरी ओर द्वित्ववादी, परन्तु यदि मत्ता मामान्य के नप्टिकोण से विचार किया जाय तो जीव-अजीव का भेद ही समाप्त हो जाता है । मना सव द्रव्यो मे व्याप्त है (140)। इम अपेक्षा में मव द्रव्य एक ही है। अपने विशेप गुणो के कारण उन सव द्रव्यो में भेद है किन्तु मत्ता की अपेक्षा गव द्रव्यों में अभेद है । यह निश्चित है कि कोई भी द्रव्य सत्ता का उल्लघन नहीं कर सकता (1)। यह सत्ता सामान्य का दृष्टिकोण प्राचार्य कुन्दकुन्द को एकत्ववादी घोपित करता है। इस तरह से एकत्ववाद, द्वित्ववाद और अनेकत्ववाद तीनो ही आचार्य कुन्दकुन्द के द्रव्य मे वर्तमान है । अब हम यहा प्रत्येक द्रव्य को पृथकापृथक् व्याख्या करेंगे।
जीव अथवा आत्मा-आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जीव अथवा प्रात्मा स्वतत्र अस्तित्ववाला द्रव्य है । अपने अस्तित्व के लिए न तो यह किमी दूसरे द्रव्य पर आश्रित है और न इस पर आश्रित कोई और दूसरा द्रव्य है, सब द्रव्यो मे जीव ही श्रेष्ठ द्रव्य है, क्योकि केवल जीव को ही हित-अहित, हेय-उपादेय, सुख-दुख आदि का ज्ञान होता है (5) । अन्य द्रव्यो-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश काल मे इस प्रकार के ज्ञान का सर्वथा अभाव होता है । द्रव्य की मामान्य परिभाषा के अनुसार आत्मा परिणामी-नित्य है । द्रव्य-गुण अपेक्षा से प्रात्मा नित्य है किन्तु पर्याय अपेक्षा से परिणामी । आत्मा के ज्ञानादि गुणो की अवस्थाए परिवर्तित होती रहती है तथा ससारी आत्मा-विभिन्न जन्म ग्रहण करता है, इन अपेक्षाओ से प्रात्मा परिणामी है और आत्मा कभी भी इन परिवर्तनो मे नष्ट नही होता, इस अपेक्षा से नित्य है (145, 146, 147) । यहा यह कहा जा सकता है कि यह लक्षण ससारी आत्मा मे तो घटित हो जाता है, किन्तु मुक्त आत्मा मे नही । किन्तु ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योकि मुक्त-आन्मा की नित्यता के विपय मे तो सदेह है ही नही और उसमे ज्ञानादि गुणो का स्वरूप परिणमन होता है इस अपेक्षा से वह परिणामी भी सिद्ध होती है । अत आत्मा द्रव्य-गुण-दृष्टि से नित्य और पर्याय- दृष्टि से परिणामी स्वीकार किया गया है।
यहा यह ध्यान देने योग्य है कि आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार आत्मा एक नही अनेक अर्थात् अनन्त माने गये है । प्रात्मा का लक्षण चैतन्य है (7) इम विशेपता के कारण आत्मा का अन्य द्रव्यो से भेद होता है । यह चैतन्य ज्ञानात्मक,
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'भावात्मक और क्रियात्मक रूप से प्रकट होता है । अत हम कह सकते हैं कि जहां चैतन्य है वहा ज्ञान है, भाव है और क्रिया है । ज्ञान या चेतना आत्मा का ग्रागन्तुक धर्म नही है किन्तु स्वभाव / स्वाभाविक धर्म है ( 53, 54 ) । श्रात्मा ज्ञान होने के साथ-साथ कर्ता और भोक्ता भी है । श्रात्मा ससार अवस्था मे अपने शुभ-अशुभ कर्मों का कर्ता है और उनके फलस्वरूप उत्पन्न सुख-दुख का भोक्ता भी है (20) । मुक्त अवस्था में आत्मा अनन्तज्ञान का स्वामी होता है, शुभ-अशुभ से परे शुद्ध त्रिया का ( राग-द्वेष-रहित क्रियाओ का ) कर्ता होता है और अनन्त श्रानन्द का भोक्ता होता है ।
प्राचार्य कुन्दकुन्द जीव को स्वदेह परिमाण स्वीकार करते है । जिस प्रकार दूध मे डाली हुई पद्मरागमरिण (लालमणि) उसे अपने रंग से प्रकाशित कर देती है, उसी प्रकार देह मे रहनेवाला जीव भी अपनी देहमात्र को प्रकाशित करता हं श्रर्थात् वह स्वदेह मे ही व्याप्त होता है, देह से बाहर नही (35) ।
प्राचार्य कुन्दकुन्द की मान्यता है कि ससारी आत्मा अनादिकाल से कर्मों से बद्ध है । इसी कारण प्रत्येक ममारी जीव जन्म-मरण के चक्कर मे पडा रहता है । इतना होते हुए भी प्रत्येक मसारी श्रात्मा वस्तुत सिद्ध समान है ( 23 ) । दोनो मे भेद केवल कर्मों के बन्धन का है । यदि कर्मों जाय तो श्रात्मा का सिद्ध-स्वरूप जो प्रनन्त ज्ञान, सुख हो जाता है ।
के वन्धन को हटा दिया
र शक्ति रूप है, प्रकट
प्राचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जीव को प्रभु ( अपने विकास मे समर्थ) कहा गया है (20) इसका अभिप्राय यह है कि जीव स्वय ही अपने उत्थान व पतन का उत्तरदायी है । वही अपना शत्रु है और वही अपना मित्र । वन्धन और मुक्ति उमी के प्राश्रित है | अज्ञानी से ज्ञानी होने का और वद्ध से मुक्त होने का सामर्थ्य उमी में है, वह सामर्थ्यं कही बाहर से नही आता, वह तो उसके प्रयास से ही प्रकट होता है ।
प्राचार्य कुन्दकुन्द ने जीवो का वर्गीकरण दो दृष्टिकोण से किया है(1) मामारिक और (2) श्राव्यात्मिक । सासारिक दृष्टिकोण से जीवो का वर्गीकरण इन्द्रियो की अपेक्षा से किया गया है (29 से 34 ) | सबसे निम्न स्तर पर एक इन्द्रिय जीव हैं जिनके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय ही है । वनस्पति वर्ग एक न्द्रिय जीवो का उदाहरण है । इनमे चेतना मवसे कम विकसित होती है । इनमे उच्चस्तर के जीवों में दो से पाच इन्द्रियो तक के जीव है। सीपी, शख, बिना पैरो के
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कोडे आदि के स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रिया होती है । (31) । नूं, खटमल, चीटी, बिच्छू आदि के स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रिया होती है । (32)। मच्छर, मक्खी, मवरा आदि जीवो के स्पर्शन, रमना, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रिया होती है । (33)। मनुष्य, पशु-पक्षी आदि जीवो के स्पर्शन, रमना, प्राण, चक्षु और कर्ण ये पाच इन्द्रिया होती है (34)।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से जीव तीन प्रकार के है-बहिरात्मा, अन्तगत्मा और परमात्मा । जो व्यक्ति यह मानता है कि इन्द्रिया ही परम सत्य है, वह वहिरात्मा है (41) । वहिरात्मा शरीर को ही आत्मा समझता है और शरीर के नष्ट होने पर अपने को नष्ट हुआ समझता है । वह इन्द्रियो के विपयो मे आसक्त रहता है, वह इच्छित वस्तु के सयोग से प्रसन्न होता है और उसके वियोग में अप्रसन्न । वह मृत्यु के भय से आक्रान्त रहता है । वह कार्माण-शरीर-स्पी काचली मे ढके हुए ज्ञान-रुपी शरीर को नहीं जानता है, इमलिए बहुत काल तक वह ससार मे भ्रमण करता है।
अन्तरात्मा अपने आत्मा को अपने शरीर मे भिन्न समझता है (41) । यह निर्भय होता है अत उसे लोकमय, परलोकभय, मरणमय आदि नही होते । उमके कुल, जाति, रूप, ज्ञान, धन, वल, तप और प्रभुता का मद नहीं होता । आत्मत्व मे रुचि पैदा होने से उसकी मासारिक पदार्थों मे आसक्ति नहीं होती और वह शीघ्र ही जन्म-मरण के चक्कर से हट जाता है ।
परमात्मा वह है जिसने आत्मोत्थान मे पूर्णता प्राप्त कर ली है और काम, क्रोधादि दोपो को नष्ट कर लिया है एव अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति और अनन्त सुख प्राप्त कर लिया है तथा जो सदा के लिए जन्म-मरण के चक्कर मे मुक्त हो गया है (41)।
प्राचार्य कुन्दकुन्द का कहना है कि साधक वहिरात्मा को छोडे और अन्तरात्मा बनकर परमात्मा की ओर अग्रसर हो (42)।
पुद्गल-जिसमे रूप, रस, गध और स्पर्श ये चारो गुण पाये जावे, वह पुद्गल है (9) । सव दृश्यमान पदार्थ पुद्गलो द्वारा निर्मित है। पुद्गल द्रव्य के दो भेद हैं- परमाणु और स्कघ । दो या दो से अधिक परमाणुओ के मेल को स्कध कहते हैं । जो पुद्गल का सबमे छोटा भाग है, जिसे इन्द्रिया ग्रहण नहीं कर मकती और जो अविभागी है, वह परमाणु है (109) । परमाणु अविनाशी तथा
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सन्दरहित होता है (109) । शब्द की उत्पत्ति स्कन्धो के परस्पर टकराने से होती है (111)।
आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार प्रत्येक परमाणु चार गुण वाला होता है । इन परमाणुओं के विभिन्न प्रकार के सयोगो मे नानाविध पदार्थ बन जाते है (110)। अत पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चारो तत्व विभिन्न प्रकार के परमाणुओ से निर्मित नहीं हैं अपितु एक ही प्रकार के परमाणुओं से उत्पन्न है । यहाँ यह वात भ्यान देने योग्य है कि प्रत्येक परमाणु मे पाच रसो (तीता, खट्टा, कडवा, मीठा
और कसला) मे में काई एक रस, पाच रूपो (काला, नीला, पीला, सफेद और लाल) मे ने कोई एक स्प, दो गन्धो (सुगन्ध और दुर्गन्ध) मे से कोई एक गन्ध, बार पशों, (रुक्ष, स्निग्ध, शीत और उष्ण) मे से कोई दो अविरोधी स्पर्श होते है (112)। परमाणु या तो रूक्ष-शीत या स्क्ष-ऊष्ण या स्निग्ध-शीत या स्निग्धउष्ण होता है । कोमल, कठोर, भारी और हल्का ये चार स्पर्श स्कन्ध अवस्था मे ही उत्पन्न होते है।
यहा यह प्रश्न उपस्थित होता है कि परमाणुप्रो मे वन्ध किस प्रकार होता है ? उसके उत्तर में प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि परमाणु के परस्पर बन्ध का कारण स्निग्धता और क्षता है । स्निग्ध-गुण और रुक्ष गुण के अनन्त अश है। जिस प्रकार वकरी, गाय, मैम और ऊँट के दूध तथा घी मे उत्तरोत्तर अधिक रूप मे स्निग्ध-गुण, रहता है और धूल, वाल तथा वजरी आदि मे उत्तरोत्तर अधिक
प मे मक्ष गुण रहता है उमी प्रकार मे परमाणुप्रो मे भी स्निग्ध और रुक्ष गुणो के न्यूनाधिक अशो का अनुमान होता है।
परमाणुमो का परस्पर वन्ध कुछ नियमो के अनुसार माना गया है । जो परमाणु स्निग्यता और रूक्षता गुण में निम्नतम है उसका बन्ध किसी भी परमाणु में नही होता । इसके अतिरिक्त जिन परमाणुप्रो मे स्निग्धता और रूक्षता के ममान अश है उनका भी किमी भी दूसरे परमाणु से वन्ध नही होता। परन्तु जिनमे स्निग्धता और ममता के अश दूसरे परमाणुओ से दो अधिक हो उनमे यापम मे बन्ध होता है जैसे दो अश वाले का चार अश वाले से, चार का छ अश वाले मे, इसी प्रकार तीन का पाच अश वाले से, पाच का सात अश वाले से, इसी तरह आगे भी जानना चाहिये (117,118) । यहा यह बात स्मरणीय है कि अधिक गुणवाला परमाणु अल्प गुणवाले परमाणु को अपने रूप में परिवर्तित कर लेता है । इस तरह परमाणुनो मे सयोग-मात्र ही नही होता वरन् उनमे परम्पर एकरूपत्व स्थापित हो जाता है ।
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धर्म-अधर्म-जीव तथा पुद्गल की तरह धर्म-प्रथमं भी दो स्वतन्त्र द्रव्य हैं । यहा धर्म का अर्थ पुण्य और अधर्म का अर्थ पाप नही । प्राचार्य सुन्दान्द मे इनका एक विशेष अर्थ है । यह बात ध्यान देने योग्य है कि द द्रव्यो में में केवल दो ही द्रव्य जीव व पुद्गल मत्रिय है (13) । मेप मव द्रव्य निश्यि है। एक प्रदेश मे दूसरे प्रदेश में गमन को क्रिया कहते हैं । इस प्रिया में जो महारक हो वह धर्म द्रव्य है (10,11) । धर्म द्रव्य उमी प्रसार किया में गहायक होता है जिम प्रकार मधलियो को चलने के लिए जल (128) । जमे हवा दूमर्ग वन्नुप्रां मे गमन क्रिया को उत्पन्न कर देती है बम धर्म द्रव्य गमन पिया उत्पन्न नही करता, वह तो गमन क्रिया का उदासीन कारण है न कि प्रेग्क कारण । धर्म द्रव्य जो स्वय नहीं चल रहे हैं उन्हें बलपूर्वक कभी नही चलाता है । यह बात म्मरण रखने योग्य है कि धर्म द्रव्य स्प, रम, गध, शब्द और स्पर्श ने रहित है । गणं लोकाकाश में व्याप्त है और अखण्ड है (127) । प्रत धर्म द्रव्य स्वय गमन नहीं करता और न अन्य द्रव्यो को गमन कराता है किन्तु जीव और पुद्गल के गमन का उदासीन कारण है। (130,132) ।
अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गलो की स्थिति मे उनी प्रकार महायक होता है जिम प्रकार चलते हुए पथिको के ठहरने में पृथ्वी (129) । यह चलते हुए जीव
और पुद्गलो को ठहरने को प्रेरित नही करती है किन्तु स्वय ठहरे हुनो को ठहरने में उदासीन रूप से कारण होती है (129) । यह भी मम्पूर्ण लोकाकाग मे व्याप्त है, अखण्ड है और स्प, रम आदि से रहित है।
आकाश-जो जीव, पुद्गल, धर्म, अवर्म और काल को स्थान देता है वह आकाश है (133)। यह आकाश एक है, सर्वव्यापक है, अबण्ड है और रूप-रसादि गुणो से रहित है । यहा यह वात ध्यान देने योग्य है कि जैसे धर्मादि द्रव्यो का आधार आकाश है उस तरह आकाश का अन्य कोई और आवार नहीं है क्योकि आकाश का अन्य आधार मानने से उसका भी कोई आधार मानना पडेगा और फिर उसका भी, इस तरह अनवस्था दोप आ जायेगा । अत उमे स्वय ही अपना आधार मानना युक्तिसगत है। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार आकाश दो भागो मे कल्पित किया गया है, लोकाकाश और अलोकाकाश । जीव, पुद्गल, धर्म-अधर्म और काल जहा ये पात्रो द्रव्य रहते हैं वह लोकाकाश है और इससे परे अलोकाकाश (134) ।
काल-जो जीवादि द्रव्यो के परिणमन मे महायक है वह काल है (135) । जैसा कि ऊपर कहा गया है कि प्रत्येक द्रव्य परिणामी-नित्य है। म
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परिणमन को व्यारा काल द्रव्य को स्वीकार किये विना नही हो सकती । काल द्रव्य किमी का बलपूर्वक परिणमन नहीं कराता, वह तो उन परिणमनणील पदार्यों के परिणमन मे सहायकमात्र होता है। जिस प्रकार शीत ऋतु मे स्वय अध्ययन-मिया करते हए पुरुप को अग्नि सहकारी है और जिस प्रकार स्वय घूमने की क्रिया करते हुए कुम्हार के चाक को नीचे की कीली सहकारी है उसी प्रकार स्वय परिणमन करते हुए पदार्थों की परिणमन-क्रिया मे काल सहकारी है ।
काल के दो भेद है (137)-1 व्यवहार काल और 2 परमार्थ (द्रव्य) कान । संकिंड, मिनिट, घटा, दिन, महिने, वर्प आदि व्यवहार काल है। यह क्षणमगुर और पगश्रित है। इसकी माप पुद्गल द्रव्य के परिणमन के बिना नही हो सकती (136)। परमार्थ काल नित्य और स्वाधित है। परिवर्तन, एक स्थान मे दूसरे स्थान में गति, धीरे और शीघ्र, युवा और वृद्ध, नवीनता और प्राचीनता प्रादि व्यवहार विना व्यवहार काल के सभव नहीं है।
यहा यह बात ध्यान देने योग्य है कि द्रव्यो के स्वरूप को समझाने के साथमाथ प्राचार्य कुन्दकुन्द का उद्देश्य मनुष्य को प्राध्यात्मिक विकास की चरम सीमा पर अग्रमर होने के लिए प्रेरित करना है जिसमे वह तनावमुक्त जीवन जी सके । उनकी प्रेरणा है कि व्यक्ति म्व-चेतना की स्वतन्त्रता को जीये। यह स्वतन्त्रता का जीवन ही ममता का जीवन है (104)। ऐसे व्यक्ति का सुख प्रात्मोत्पन्न, विपयातीत, अनुपम, अनन्त और अविच्छिन्न होता है (102)। ऐसा व्यक्ति ही परम पान्तिरूपी सुग्ष को प्राप्त कर मकता है (103)।
प्राचार्य कुन्दकुन्द का मानना है कि स्वतन्त्रता प्रात्मा का स्वभाव है। परतन्यता कारणो द्वारा थोपी हुई है। किन्तु व्यक्ति परतन्त्रता के कारणो को इतनी दृढता मे पकडे हुए है कि परतन्त्रता स्वाभाविक प्रतीत होती है, किन्तु मानसिक तनाव की उत्पत्ति इम म्वाभाविकता के लिए चुनौती है । प्रात्मा को म्वतन्य समझने की दृष्टि निश्चयनय है और उसको परतन्त्र मानने की दृष्टि व्यवहारनय है । जव आत्मा की पर से स्वतन्त्रता स्वाभाविक है तो प्रात्मा की परतन्त्रता अस्वाभाविक होगी ही । इसीलिये कहा गया है कि निश्चयनय (शुद्ध नय) वास्तविक है और व्यवहारनय अवास्तविक है (45) । ठीक ही है जो दृष्टि स्वतन्त्रता का बोध कराए वह रष्टि वास्तविक ही होगी और जो दृष्टि परतन्यता के आधार से निर्मित हो वह अवास्तविक ही रहेगी । प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि जो दृष्टि आत्मा को स्थायी, अनुपम, कर्मों के बन्ध से रहित, रागादि मे न छुना हुआ तथा अन्य से अमिश्रित देखती है वह निश्चयनयात्मक
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दृष्टि है ( 43 ) । इम तरह से निश्त्रयनय मे श्रात्मा मे पुद्गल के कोई भी गुण नही हैं । त आत्मा रसरहित, रूपरहित, गन्धरहित, तथा श्रदृश्यमान है, उसका स्वभाव चेतना है । उसका ग्रहरण विना किमी चिह्न के ( केवल अनुभव मे ) होना है और उसका श्राकार प्रतिपादित है ( 44 ) ।
प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि व्यवहार नय के अनुसार श्रात्मा श्रनेक प्रकार के पुद्गल कर्मों को करता है तथा वह अनेक प्रकार के पुद्गल कर्मो के फलो को भोगता है (79) चूंकि व्यवहारनय चेतना की परतन्त्रता में निर्मित eft है इसीलिए अज्ञानी कर्ता व्यवहारनय के श्राश्रय से चलता है । निश्चयनय के अनुसार श्रात्मा पुद्गल कर्मों को उत्पन्न नही करता है । चूंकि निश्चय-दृष्टि चेतना की स्वतन्त्रता पर ग्राश्रित दृष्टि है, इसीलिए ज्ञानी कर्ता निश्चयनय के आश्रय से चलता है । सच तो यह है कि श्रात्मा जिम भाव को अपने मे उत्पन्न करता है वह उसका कर्ता होता है । जानी का यह भाव ज्ञानमय होता है और अज्ञानी का भाव अज्ञानमय होता है (75) । जैसे कनकमय वस्तु मे कनक कुण्डल आदि वस्तु उत्पन्न होती हैं और लोहमय वस्तु मे लौह कडे आदि उत्पन्न होने है, वैसे ही अज्ञानी के अनेक प्रकार के अज्ञानमय भाव ही उत्पन्न होने है तथा ज्ञानी के सभी भाव ज्ञानमय होते है (76,77 )
श्राचार्य कुन्दकुन्द ने तीन प्रकार के भावों का ( शुभ, ग्रशुभ और शुद्ध ) विश्लेषण करते हुए कहा है कि शुद्ध भाव ही ग्रहण किया जाना चाहिये, व्यक्ति की उच्चतम अवस्था इसी को ग्रहण करने मे उत्पन्न होती है । जिम व्यक्ति का जीवन विषय-कपायो मे डूबा हुआ है, जिसका जीवन दुष्ट मिद्धान्न, दुष्ट बुद्धि तथा दुष्टचर्या मे जुडा हुआ है, जिसके जीवन मे क्रूरता है तथा जो कुपथ मे लीन है, वह अशुभ भाव को धारण करने वाला कहा जाता है (92) जो व्यक्ति जीवो पर दयावान है, देव, माघु तथा गुरु की भक्ति मे लीन है, जिसके जीवन मे अनुकम्पा है, जो भूखे-प्यासे तथा दुखी प्राणी को देखकर उसके साथ दयालुता मे व्यवहार करता है वह शुभ भाव वाला कहा गया है ( 91, 82, 84, 86 ) 1 जीव का शुभ भाव ही पुण्य है, और अशुभ भाव ही पाप है । आचार्य कुन्दकुन्द का कहना है कि जो व्यक्ति पाप मे उत्पन्न मानसिक तनाव को समाप्त करता है तथा पुण्य क्रियाश्रो से उत्पन्न मानसिक तनाव को समाप्त करता है वही व्यक्ति शुद्ध भाव की भूमिका पर आरूढ होता है । ऐसा व्यक्ति ही शुद्धोपयोगी कहलाता है । वही व्यक्ति पूर्णतया समतावान होता है ।
पूर्ण समतावान बनने के लिए चारित्र की माघना महत्वपूर्ण है । जो व्यक्ति निश्चयनय के आश्रय मे चलता है वही सम्यकदृष्टि होता है ( 45 ) क्योकि
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वही एक ऐगा गामिन है जिसको आत्मा के स्वतन्त्र स्वभाव पर पूर्ण श्रद्धा है । सम्यक्दृष्टि के जीवन मे एक ऐसे झुकाव का उदय होता है जो उसे चारित्र की माधना करने के लिए प्रेरित करता है । प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि जिस व्यक्ति में रागादि मावो का अशमात्र भी विद्यमान है वह अभी तक स्वतन्त्रता के महत्व को नहीं समझा है (99) । जो व्यक्ति शुद्धात्मक तत्त्व से अपरिचित है और व्रतो और नियमो को धारण कर रहा है वह परम शान्ति को प्राप्त नही कर मकता है (95,96) । जो व्यक्ति प्रात्मा के स्वभाव को समझता है वह प्रामक्ति मे रहित होता हुआ प्रात्मा की स्वतन्त्रता का उपभोग करने लग जाता है । मासक्त व्यक्ति ही परतन्त्रता का जीवन जीता है (71)। यह निश्चित है कि वस्तु के महारे मे ही मनुष्यो को आसक्तिपूर्ण विचार होता है, तो भी वास्तव मे वस्तु व्यक्ति को परतन्त्र नही बनाती है । व्यक्ति की परतन्त्रता तो वस्तु के प्रति प्रामक्ति से ही उत्पन्न होती है (70) । प्रत जो व्यक्ति आसक्तिरहित होता है वह कर्मों मे छुटकारा पा जाता है, समतामय जीवन जीता है और शुद्धोपयोगी बन जाता है (71)।
यह कहा जा चुका है कि निश्चयनय चेतना की स्वतन्त्रता से उत्पन्न दृष्टि है और व्यवहार नय चेतना की परतन्त्रता मे उत्पन्न दृष्टि है। ये दोनो ही दृष्टियां बौद्धिक है। किन्तु शुद्धात्मा का अनुभव नयातीत है, वह बुद्धि से परे है (47) । ऐमा अनुभव होने पर केवल ज्ञान का उदय होता है, वह व्यक्ति सभी इन्द्रियो की पराधीनता मे दूर हो जाता है और उसमे एक ऐसे सुख का उदय होता है जो इन्द्रियातीत होता है।
उपर्युक्त विवेचन मे स्पष्ट है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्यो का विवेचन बहुत ही मूक्ष्मता से किया है । इमी विशेषता से प्रभावित होकर आचार्य कुन्दकुन्द के द्रव्य-विचार को पाठको के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हर्प का अनुभव हो रहा है। गाथानो के हिन्दी अनुवाद को मूलानुगामी बनाने का प्रयाम किया गया है। यह दृष्टि रही है कि अनुवाद पढने से ही शब्दो की विभक्तिया एव उनके अर्थ समझ में पा जाए । अनुवाद को प्रवाहमय बनाने की भी इच्छा रही है। कहा तक मफलता मिली है, इमको तो पाठक ही बता सकेंगे । अनुवाद के अतिरिक्त गाथाम्रो का व्याकरणिक विश्लेपण भी प्रस्तुत किया गया है। इस विश्लेषण मे जिन मकेतो का प्रयोग किया गया है उनको सकेत-मूची मे देखकर समझा जा सकता है। यह प्राशा की जाती है कि इसमे प्राकृत को व्यवस्थित रूप मे सीखने मे सहायता मिलेगी तथा व्याकरण के विभिन्न नियम सहज मे ही सीखे जा सकेंगे।
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यह सर्वविदित है कि किमी भी मापा को मीसने के लिए व्याकरण का मान अत्यावश्यक है । प्रस्तुत गाथाए एव उनके व्याकरणिक विश्नेपण गे व्याकरण के साथ-साथ शब्दो के प्रयोग भी सीखने में मदद मिलेगी। गन्दी की व्याकरण और उनका अर्थपूर्ण प्रयोग दोनो ही भाषा मीलने के आधार होते है। अनुवाद एव व्याकरणिक विश्लेपण जैसा भी बन पाया है पाठको के समक्ष है। पाठको के सुझाव मेरे लिए बहुत ही काम के होगे ।
माभार
आचार्य कुन्दकुन्द द्रव्य-विचार पुस्तक को तैयार करने मे ममयमार, प्रवचनसार, पचास्तिकाय, अष्टपाहुड, नियममार के जिन मम्करणो का उपयोग किया गया है उनकी सूची अन्त मे दी गई है। इन मम्करणो के मम्पादको के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।
सुश्री प्रीति जैन, जनविद्या मम्थान, ने इस पुग्नक के अनुवाद को पटकर उपयोगी सुझाव दिए तथा इसकी प्रस्तावना को मचिपूर्वक पटा, इसके लिए आभार प्रकट करता हूँ।
मेरी धर्मपत्नी श्रीमती कमलादेवी मोगाणी ने इम पुग्नक की गाथाम्रो के चयन मे जो सुझाव दिए उसके लिए अपना आभार व्यक्त करता हूँ।
इस पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए जनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी के सयोजक श्री ज्ञानचन्द्रजी खिन्दूका ने जो व्यवस्था की है उनके लिए उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हू ।
एच-7, चितरजन मार्ग, 'सी'स्कीम, जयपुर-302001
कमलचन्द सोगाणी
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आचार्य कुन्दकुन्द : द्रव्य- विचार
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1. दव्वं सहावसिद्धं सदिति जिणा तच्चदो समक्खादो। सिद्धं तध आगमदो णेच्छदि जो सो हि परसमयो ।।
2. रण हवदि जदि सहव्वं असद्धवं हवदि तं कधं दव्वं ।
हवदि पुणो अण्णं वा तम्हा दन्वं सयं सत्ता ॥
3 दव्वं जीवमजीवं जीवो पुरण चेदगोवयोगमयो ।
पोग्गलदव्वप्पमुहं अचेदणं हवदि य अजीवं ॥
4. जाणदि पस्सदि सव्वं इच्छदि सुक्खं विभेदि दुक्खादो ।
कुन्वदि हिदमहिंदं वा भुजदि जीवो फलं तेसि ॥
5 सुहदुक्खजारपणा वा हिदपरियम्मं च अदिदभीरत्तं ।
जस्स ग विज्जदि पिच्चं तं समणा विति अज्जीवं ॥
6. जीवा पोग्गलकाया, धम्माधम्मा य काल प्रायासं । तच्चत्था इदि भणिदा, णाणागुणपज्जयेहि संजुत्ता ॥
प्राचार्य कुन्दकुन्द
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1. द्रव्य सत् (है)। (वह) इस विवरणवाला (है) । (ऐसा)
स्वभाव मे सिद्ध (है)। जितेन्द्रियो ने वास्तविक रूप से (ऐसा) कहा (है)। जो व्यक्ति आगम से स्थापित द्रव्य को ठीक इसी प्रकार स्वीकार नहीं करता है, वह निस्सन्देह असत्य दृष्टिवाला (है)।
2 यदि द्रव्य सत् नही होता है (तो) वह द्रव्य असत् होगा । अथवा
(यदि) (द्रव्य) सत् से भिन्न होता है, (तो) (वह) (सत्तारहित) (द्रव्य) नित्य कसे (होगा) ? अत द्रव्य स्वय सत्ता (है)।
3 द्रव्य (दो प्रकार का है)-जोव और अजीव । जीव चेतन (है)
(तथा) उपयोगमय (जान स्वभाववाला) (है) । इसके विपरीत अजीव अचेतन होता है (जिसके अन्तर्गत) पुद्गल द्रव्यसहित (अन्य द्रव्य है)।
4. जीव (तनावमुक्त अवस्था मे) सब को (केवल) देखता है,
जानता है, (वह) (तनावयुक्त अवस्था मे) सुख चाहता है, दुख से डरता है, उचित और अनुचित (कार्यों) को करता है तथा उनके फल को भोगता है।
5 जिसमे कभी भी सुख-दुख का ज्ञान, हित का उत्पादन तथा अहित
से भय वर्तमान नही होता है, उसको श्रमण अजीव कहते है।
6 अनेक जीव, पुद्गलो का समूह, धर्म, अधर्म, आकाश और काल
(ये) वास्तविक पदार्थ (द्रव्य) कहे गये (है)। (ये सभी) अनेक गुण और पर्यायो सहित (होते हैं)।
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7. आगासकालजीवा धम्माधम्मा य मुत्तिपरिहीणा । पुग्गलदव्वं जीवो खलु चेदणो तेसु 11
मुत्तं
8. जे खलु इंदियगेज्झा विसया जीवहि होति ते मुत्ता । सेसं हवदि प्रमुत्तं चित्तं उभयं समादियादि ॥
9. वण्णरसगंधफासा
विज्जंते पुग्गलस्स सुहमादो ।
पुढवीपरियंतस्स य सद्दो सो पोग्गलो चित्तो ॥
10-11. आगासस्सवगाहो
धम्मद्दवस्स गमहेत्तं 1 धम्मेदरदव्वस्स दु गुणो पुणो ठाणकारणदा || कालस्स वट्टणा से गुणोवप्रोगोत्ति प्रप्पणो भणिदो । या संखेवादो गुणा हि मुत्तिप्पहीणारणं ॥
12. आगासकालपुग्गलधम्माधम्मेसु णत्थि जीवगुणा तेसि श्रचेदणत्तं भणिदं जीवस्स चेदणदा 11
13. जीवा पुग्गलकाया सह सविकरिया पुग्गलकररणा जीवा खधा खलु
4
हवंति ण य सेसा । कालकररणा दु ||
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7 धर्म, अधर्म, आकाश, काल और जीव ( द्रव्य) मूर्ति से रहित ( श्रमूर्तिक) (होते है ) । पुद्गल द्रव्य मूर्त (होता है) । उनमे जीव ही चेतन ( कहा गया है) ।
8. जो पदार्थ जीवो द्वारा इन्द्रियो से ग्रहण किए जाने योग्य होते है, वे मूर्त (होते हैं)। शेप ( पदार्थ समूह ) श्रमूर्त होता है । चित्त दोनो को भली प्रकार से समझता है ।
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9 सूक्ष्म से पृथिवी तक फैले हुए पुद्गल मे (अति सूक्ष्म से प्रति स्थूल तक ) ( मूर्त गुण) – वर्ण, रस, गघ और स्पर्श वर्तमान रहते है । ( इसके अतिरिक्त) (जो ) विभिन्न प्रकार का शब्द (है), वह भी पुद्गल है ।
10-11 ( जो ) स्थान ( दिया जाता है), (वह) ग्राकाश का गुण ( है ), (जो) गमन मे निमित्तता ( है ), ( वह) धर्म द्रव्य का ( गुण) (है), और जो स्थिति (ठहरने) मे कारणता (है), (वह) तो धर्म के विरोधी (धर्म) द्रव्य का ( गुण) ( है ), ( जो ) परिणमन ( परिवर्तन) (होता है), (वह) काल (द्रव्य) का ( गुण) ( है ), (जो ) उपयोग ( ज्ञान - चैतन्य ) ( है ), ( वह ) ग्रात्मा का गुण कहा गया ( है ) | ( ये ) गुण सक्षेप से मूर्तिरहित ( श्रमूर्तिक) ( द्रव्यो) के समझे जाने चाहिये ।
12 पुद्गल, धर्म, धर्म, श्राकाश और काल मे जीव के गुण नही (रहते है ), ( क्योकि ) उनमे श्रचेतनता कही गई ( है ) । (उनके विपरीत) जीव मे चेतनता ( मानी गई है) ।
13 जीव ( श्रीर) पुद्गलराशि (दोनो ) साथ-साथ क्रियासहित होते है । किन्तु शेष (धर्म, अधर्म, आकाश और काल ) क्रियासहित नही ( होते हैं) । पुद्गल के निमित्त से जीव क्रियासहित (होते हैं) । और काल के निमित्त से ( पुद्गल ) स्कन्ध क्रियावान (होते हैं) ।
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14. एदे छद्दन्वाणि य, कालं मोत्तूण अस्थिकार्यात्त ।
रिपट्ठिा जिणसमये, काया हु बहुप्पदेसत्तं ।।
15- संखेज्जासंखेज्जा-पंतपदेसा हवंति मुत्तस्स । 16. धम्माधम्मस्स पुरणो, जीवस्स असंखदेसा हु ॥
लोयायासे ताव, इदरस्स अणंतयं हवे देसा ।
कालस्स ण कायत्तं, एगपदेसो हवे-जम्हा ।। 17. आगासमणुणिविठं पागासपदेससण्रणया भणिदं ।
सन्वेसि च अणूणं सक्कदि तं देदुमवकासं ॥
18. जस्स ण संति पदेसा पदेसमेतं व तच्चदो जादु ।
सुण्णं जाण तमत्थं अत्यंतर भूदमत्थीदो ॥
19. अण्णोण्णं पविसंता दिता प्रोगासमण्णमण्णस्स ।
मेलंता वि य णिच्चं सगं सभावं ण विजहंति ।।
20. जीवोत्ति हवदि चेदा उपभोगविसेसिदो पहू कत्ता ।
भोत्ता य देहमत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुतो ॥
21. पाणेहि चहि जीवदि जीवस्सदि जो हु जीविदो पुवं ।
सो जीवो पाणा पुण बलमिदियमाउ उस्सासो ।।
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14 जिन-सिद्धान्त मे ये छ द्रव्य (हैं) । (उनमे से) काल को छोडकर
(शेष) अस्तिकाय कहे गये (हैं) । (जो) बहुप्रदेशपना (है), (वह)
ही 'काय' (समझा जाना चाहिए)। 15-16 मूर्त (पुद्गल) (द्रव्य) के ससख्येय, असख्येय तथा अनन्त प्रदेश
होते हैं । धर्म के, अधर्म के तथा जीव के असख्य प्रदेश (होते हैं)। लोकाकाश मे (भी) इतने ही प्रदेश (है), विरोधी (अलोकाकाश) मे अनन्त प्रदेश होते है । काल के कायता नही है, क्योकि (उसके)
एकप्रदेश (ही) होता है। 17 ('प्रदेश' की धारणा को समझाने के लिए कहा गया है कि) (जहाँ)
आकाश मे (एक) अणु स्थित कहा गया (है), (वहाँ) आकाश का एक प्रदेश (है)। (वह उतना आकाश) (प्रदेश) नाम के द्वारा (कहा जाता है)। वह (आकाश का एक प्रदेश) सभी
अणुओ को स्थान देने के लिए समर्थ होता है। 18 जिसके प्रदेश नही है (या) (जिसके) वस्तुत प्रदेश मात्र भी
जानने के लिए (वर्तमान नही है), वह द्रव्य अस्तित्व से विपरीत
हुअा है, (इसलिए) (तुम) (उसको) शून्य समझो । 19 यद्यपि (सभी) (द्रव्य) एक दूसरे मे प्रवेश करते हुए (स्थित है),
एक दूसरे को स्थान देते हुए (विद्यमान हैं), तथा (एक दूसरे से) सदैव सम्पर्क करते हुए (रहते हैं) (तो) (भी) (वे) निज स्वभाव
को नही छोडते है। 20 जीव चेतनामय होता है, (वह) ज्ञान-गुण की विशेषता लिए हुए
(रहता है), (अपने विकास मे) समर्थ (होता है,) (शुभ-अशुभ क्रियाओ का) कर्ता तथा (सुख-दुख का) भोक्ता (होता है), देह जितना (रहता है), इन्द्रियो द्वारा उसका कभी भी ग्रहण नही (होता है) तथा (वह) (शुभ-अशुभ) कर्मों से युक्त (रहता है)।
21 जो निस्सन्देह चार प्राणो से जीता है, जीवेगा, तथा विगत काल
मे जिया (है), वह जीव (कहा गया है) । और (वे) चार प्राण (है)- बल, इन्द्रिय, आयु और श्वास (सॉस)।
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22 जीवा संसारत्था णिवादा चेदणप्पगा दुविहा ।
उवमोगलक्खणा वि य देहादेहप्पवीचारा ॥
23 एदे सब्वे भावा, ववहारणयं पडुच्च भणिदा हु।
सव्वे सिद्धसहावा, सुद्धणया संसिदी जीवा ॥
24. अप्पा परिणामप्पा परिणामो णाणकम्मफलभावी ।
तम्हा णाणं कम्मं फलं च प्रादा मुणेदव्यो ।
25. कम्माणं फलमेक्को एक्को कज्जंतु णाणमध एक्को ।
चेदयदि जीवरासी चेदगभावेण तिविहेण ॥
26. परिणमदि चेयणाए आदा पुण चेदणा तिधाभिमदा ।
सा पुण णाणे कम्मे फलम्मि वा कम्मणो भरिणदा ॥
27 णाणं अथवियप्पो कम्मं जीवेण जं समारद्धं ।
तमणेगविधं भणिदं फलत्ति सोक्खं व दुक्खं वा ॥
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22 जीव दो प्रकार के ( है ) - ससार ( मानसिक तनाव ) मे स्थित और ससार ( मानसिक तनाव ) से मुक्त । (वे) (सभी) चेतनास्वरूपवाले श्रीर ज्ञान-स्वभाववाले (होते हैं) । तथा (वे ) देहसहित और देहरहित भेदवाले भी (कहे गये है)
।
23 ( ससारी जीवां के) ये सभी भाव (जन्म-मरणादि) व्यवहारनय को अपेक्षा करके कहे गये ( है ) । सचमुच शुद्धनय से ससार-चक्र ( ग्रहण किए हुए) सभी जीव सिद्धस्वरूप ( लिए हुए होते है ) ।
24 ग्रात्मा परिणाम - स्वभाववाला ( कहा गया है) । परिणाम ज्ञान(चेतना), प्रयोजन - (चेतना) तथा (कर्म) - फल - (चेतना) के रूप मे होनेवाला (बताया गया है) । इसलिए ( जहाँ ) ज्ञान- (चेतना) प्रयोजन - (चेतना) व (कर्म) - फल - (चेतना) है, वहाँ आत्मा समझी जानी चाहिए ।
25 कुछ जीव कर्म के ( सुख-दुखात्मक) फल को, कुछ (शुभ-अशुभ) प्रयोजन को तथा कुछ ज्ञान को ( श्रनुभव करते है) । ( इस प्रकार ) जीव-समूह तीन प्रकार के सचेतन परिणमन से (ज्ञान, प्रयोजन और कर्म - फल को ) अनुभव करता है ।
26. आत्मा चेतनारूप मे रूपान्तरित होती है, तथा चेतना तीन प्रकार से ( रुपान्तरित) मानी गई है। फिर वह (चेतना) ज्ञान मे, प्रयोजन मे, तथा कर्म के फल मे ( रूपान्तरित ) कही गई ( है ) |
27. पदार्थ का विचार (जानना) ज्ञान - (चेतना) ( है ) । जीव के द्वारा जो ( शुभ प्रशुभ प्रयोजन) धारा गया ( है ), वह कर्म - (चेतना) ( है ) । वह ( प्रयोजन-चेतना) अनेक प्रकार की कही गई ( है ) । तथा (जो ) सुख अथवा दुख (अनुभव होता है), (वह) (कर्म) - फल - (चेतना) ( है ) ।
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28. सव्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसा हि कज्जजुर्द । पाणित्तमदिक्कता णाणं विदति ते जीवा ॥
29 एदे जीवणिकाया पंचविहा पुढविकाइयादीया | मरणपरिणामविरहिदा जीवा एगेंदिया भरिया ||
30. अंडेसु पवडढता गन्भत्था माणुसा य मुच्छ्गया । जारिसया तारिसया जीवा एगेंदिया णेया ॥
31. संवुक्कमादुवाहा संखा सिप्पी अपादगा य किमी । जाणति रस फासं जे ते बेइंदिया जीवाः ॥
32. जूगागुभीमक्कणपिपीलिया विच्छियादिया कीडा । जाणंति रसं फासं गधं तेइंदिया जीवा ॥
33 उद्दंसमसयमक्खियमधुकरभमरा रूपं रसं च गंधं फासं पुण ते
34. सुरणरणारयतिरिया
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पतगमादीया | विजाणंति ॥
वण्णरसप्फासगंधसद्दणहू ।
जलचरथलचरखचरा बलिया पचेदिया जीवा ॥
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28 वे सभी जीव (जो) स्थावरकाय* (है) कर्म के (सुख-दु खात्मक)
फल को अनुभव करते है। (वे) (सभी) (जीव) (जो) स** (है) (शुभ-अशुभ) प्रयोजन से मिली हुई (चेतना) को (अनुभव करते है) (तथा) (वे) (सभी) (जीव) (जो) प्राणित्व को पार किए हुए (है), ज्ञान का (अनुभव करते है)। पृथ्वीकायिक, जलकायिक तथा वनस्पतिकायिक जीव (पञ्चास्ति
काय, 111) ** अग्निकायिक तथा वायुकायिक (एकेन्द्रिय जीव), द्वि-इन्द्रिय से
पचेन्द्रिय तक के जीव (पञ्चास्तिकाय, 112-117) 29 ये पृथिवीकायिकादि पाँच प्रकार के जीवसमूह मन के प्रभाव से
रहित (होते है) । (ये) जीव एक इन्द्रियवाले कहे गये (है)।
30. जिस प्रकार अण्डो मे वढते हुए जीव (होते है) एव गर्भ मे स्थित
तथा वेहोश मनुष्य (होते है), उसी प्रकार एक (स्पर्शन) इन्द्रियवाले जीव समझे जाने चाहिए।
31 शबूक, मातृवाह (क्षुद्र जन्तु विशेष), शङ्ख, सीप और विना पैर
वाले कीट जो स्पर्श और रस को जानते है, वे दो इन्द्रियवाले जीव (हैं)।
32 जू, कुम्भी (एक प्रकार का जहरीला कीट), खटमल, चीटी, विच्छ आदि कीडे तीन इन्द्रियवाले जीव (है)। (वे) स्पर्श, रस और गन्ध को जानते है ।
33 मच्छर, डास, मक्खी, मधुमक्खी, भौरा, पतगा आदि (जीव)
स्पर्श, रस, गन्ध और रूप को जानते है । अत वे (चार इन्द्रियवाले जीव है)।
34 देव, मनुष्य, नारकी और तिर्यञ्च वर्ण, रस, स्पर्श, गन्ध और
शब्द के जाननेवाले (होते है)। (ये) पचेन्द्रिय गतिशील जीव जल में गमन करनेवाले, स्थल पर गमन करनेवाले और आकाश मे गमन करनेवाले होते है।
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35. जह पंउमरायरयणं खितं खीरं पभासयदि खीरं ।
तह देही देहत्थो सदेहमत्तं पभासयदि ॥
36-37-38.
जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥ गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते । तेहिं दु विसयग्गहणं तत्तो रागो वा दोसो वा ॥ जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि । इदि जिरणवरेहि भणिदो प्रणादिणिधणो सणिधणो वा ।।
39 जेसि विसयेसु रदी तेसि दुक्ख वियाण सम्भावं ।
जदि तं ण हि सन्मावं वावारो पत्थि विसयत्थं ॥
40. तिपयारो सो अप्पा पभितरबाहिरो हु हेऊरण ।
तत्थ परो झाइज्जइ अंतोवायेण चयहि बहिरप्पा ।।
41 अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो। ___ कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भण्णए देवो ॥
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35 जिस प्रकार दूध मे डाला हुआ पद्मराग रत्न दूध को प्रकाशित __ करता है, उसी प्रकार देह मे स्थित प्रात्मा स्वदेहमात्र को
प्रकाशित करता है। 36-37-38
जो जीव सचमुच ससार (मानसिक तनाव) मे स्थित (होता है), (उसमे) उस कारण से ही (अशुद्ध) भाव (समूह) उत्पन्न होता है। (अशुद्ध) भाव (समूह) से कर्म (उत्पन्न होता है) और कर्म से गतियो मे गमन होता है।
(किसी भी) गति मे गये हुए जीव से देह (उत्पन्न होता है), देह से इन्द्रियाँ उत्पन्न होती है। उनके (इन्द्रियो के) द्वारा ही विषयो का ग्रहण (होता है) । (और) उस कारण से (जीव मे) राग और द्वेप (उत्पन्न होता है)।
इस प्रकार जीव के आवागमन के समय (उसमे) मनोभाव (समूह) उत्पन्न होता है (जो) या (तो) आदि और अन्तरहित (होता है) या अन्त-सहित होता है । यह अर्हन्तो द्वारा
कहा गया है। 39 जिन (व्यक्तियो) के (जीवन मे) (इन्द्रिय) विषयो मे रस है, उनके
(जीवन मे) दुख (मानसिक तनाव) (एक) वास्तविकता (है) । (इस बात को) (तुम) समझो, क्योकि यदि वह (दु ख) वास्तविकता न (होता), (तो) (इन्द्रिय) विपयो के लिए प्रवृत्ति
(बार-बार) न (होती)। 40 निस्सन्देह (भिन्न-भिन्न) कारणो से वह आत्मा तीन प्रकार का
है-परम (आत्मा), अान्तरिक (आत्मा) और बहिर (आत्मा)। (तुम) वहिरात्मा को छोडो, (चूंकि) उस (परम) अवस्था मे
प्रातरिक (प्रात्मा) के साधन से परम (आत्मा) ध्याया जाता है। 41 (जो व्यक्ति यह मानता है कि) इन्द्रियां (ही) (परम सत्य है),
(वह) वहिरात्मा (है), (जिस व्यक्ति मे) (शरीर से भिन्न) आत्मा की विचारणा विना किसी सन्देह के है, (वह) अन्तरात्मा (है) (तथा) कर्म-कलक से मुक्त (जीव) परम आत्मा (है) ।
(परम आत्मा) (ही) देव कहा गया (है)। द्रव्य-विचार
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42 श्रारुहवि अंतरप्पा बहिरप्पा छंडिऊण तिविहेण । भाइज्जइ परमप्पा उवइट्ठे जिणर्वारिदेहि ॥
43. जो पस्सदि अप्पाणं श्रबद्धपुढं श्ररण्णयं णियदं । श्रविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणाहि ॥
44. अरसमरूवमगंध अव्वत्तं चणागुणमसद्दं । जारणमलिंगग्गहणं जीवमरिद्दिट्ठसंठाणं ॥
45. ववहारोऽभूदत्यो भूदत्यो देसिदो दु सुद्धणो । भूदत्थ मस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो ॥
46 जीवे कम्मं बद्धं पुढं चेदि ववहाररणयभणिदं । सुद्धरणयस्स टु जीवे श्रबद्धपुट्ठे हवदि कम्मं ॥
47. कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एदं तु जाण णयपक्खं । tarक्खातिक्कतो भण्णदि जो सो समयसारो ॥
48 जीवो ववगदमोहो उवलद्धो तच्चमप्परणो सम्मं । जहदि जदि रागदोसे सो अप्पाणं लहदि सुद्धं ॥
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42. अरहतो द्वारा (यह) कहा गया (है) कि (साधको द्वारा) तीन
प्रकार (मन, वचन, काय) से वहिरात्मा को छोडकर और अन्तरात्मा को ग्रहण करके परमात्मा (परम आत्मा) ध्याया जाता है।
43 जो (नय) आत्मा को स्थायी, अद्वितीय, (कर्मों के) बन्ध से रहित
(रागादि से) न छुपा हुआ, (अतरग) भेद से रहित, (तथा) (अन्य से) अमिश्रित देखता है, उसको (तुम) शद्धनय जानो।
44. आत्मा रसरहित, रूपरहित, गधरहित, शब्दरहित तथा
अदृश्यमान (है), (उसका) स्वभाव चेतना तथा ज्ञान (है), (उसका) ग्रहण विना किसी चिह्न के (केवल अनुभव से) (होता है) (और) (उसका) आकार अप्रतिपादित (है)।
45 (जीवन में महत्वपूर्ण होते हुए भी) व्यवहार (नय) अवास्तविक
है (और) (अध्यात्म मार्ग मे) शुद्धनय ही वास्तविक कहा गया (है) । वास्तविकता पर आश्रित जीव ही सम्यग्दृष्टि होता है ।
46 जीव के द्वारा कर्म वाधा हुआ (है) और पकडा हुआ (है)-इस
प्रकार (यह) व्यवहारनय के द्वारा कहा गया है, किन्तु शुद्धनय के (अनुसार) जीव के द्वारा कर्म न वाधा हुअा (और) न पकडा हुआ होता है।
47 जीव के द्वारा कर्म वाधा गया (है) और नही बाधा गया (है)
इसको तो तुम नय की दृष्टि जानो, किन्तु जो नय की दृष्टि से अतीत (है), वह समयसार (शुद्धात्मा) कहा गया (है) ।
48 (जिस व्यक्ति के द्वारा) मोह (आध्यात्मिक विस्मरण) समाप्त
किया गया (है), (उस) व्यक्ति ने पूर्णत आत्मा के सार को प्राप्त किया (है) । यदि वह राग-द्वेष (आसक्ति) को छोड देता है, (तो) (वह) अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेगा।
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49. जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा ।
सागाराणागारो खवेदि सो मोहदुग्गाँठ ॥
50. रणाहं होमि परेसि ण मे परे सन्ति णाणमहमेक्को ।
इदि जो झायदि झाणे सो अप्पाणं हवदि झादा ।।
51. देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाऽध सत्तुमित्तजणा ।
जीवस्स ण संति धुवा धुवोवोगप्पगो अप्पा ।।
52. एवं गाणप्पाणं
धुवमचलमरणालंबं
दसरणभूदं मण्णेऽहं
अदिदियमहत्यं । अप्पगं सुद्धं ।।
53. प्रादा गाणपमाणं
णेय लोगालोग
गाणं णेयप्पमाणमुद्दिळं । तम्हा रणाणं तु सवगयं ।।
54. गाणं अप्पत्ति मदं वदि गाणं विणा रण अप्पारणं ।
तम्हा रणारणं अप्पा अप्पा गाणं व अण्णं वा ।।
55. जो जाणदि सो णाणं ण हवदि णाणेण जाणगो श्रादा।
गाणं परिणमदि सयं अट्ठा पाणठ्ठिया सवे ॥
56. तिक्कालरिणच्चविसमं सथलं सव्वत्थ संभवं चित्तं ।
जुगवं जारणदि जोण्हं अहो हि माणस्स माहप्पं ॥
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49 जो गृहस्थ (तथा) मुनि इस प्रकार समझकर उच्चतम आत्मा का
ध्यान करता है, वह मोह की जटिल गांठ को नष्ट कर देता है
(और) (वह) शुद्धात्मा (हो जाता है) । 50 मै पर (द्रव्यो) के (अधीन) नही हूँ। पर (द्रव्य) मेरे (अधीन)
नहीं है। मैं (तो)केवल मात्र ज्ञान (हूँ) । इस प्रकार जो ध्यान मे
प्रात्मा को ध्याता है, वह (वास्तविक) ध्याता होता है । 51 अच्छा तो, (यह समझा जाना चाहिए कि) व्यक्ति के (जीवन मे)
(स्थूल एव सूक्ष्म) शरीर, धनादि वस्तुएँ, सुख और दुख, शत्रुजन एव मित्रजन स्थायी नही रहते है। (केवल) उपयोगमयी (चेतना
ज्ञान स्वभाववाली) प्रात्मा (ही) स्थायी (होती है)। 52 इस प्रकार मै (कुन्दकुन्द) आत्मा को ज्ञानस्वभाववाला,
दर्शनमयी, अतीन्द्रिय, श्रेष्ठ पदार्थ, स्थायी, स्थिर, बालबनरहित
तथा शुद्ध समझता हूँ। 53 आत्मा ज्ञान जितना (है) । ज्ञान ज्ञेय (जानने योग्य पदार्थ)
जितना कहा गया (है) । जेय (जानने योग्य पदार्थ) लोक और
अलोक (है) । इसलिए ज्ञान तो सव जगह विद्यमान (रहता है)। 54 प्रात्मा ज्ञान (है) । आत्मा के बिना ज्ञान नही होता है । इस
प्रकार (यह) (जिनमत मे) स्वीकृत (है) । इसलिए आत्मा ज्ञान (है), ज्ञान आत्मा (है) तथा (आत्मा) अन्य गुणरूप भी (होता
55 जो जानता है, वह जान (है) । ज्ञान के द्वारा आत्मा जाननेवाला
नही होता है । (जानने में) ज्ञान स्वय रूपान्तरित होता है। सब पदार्थ ज्ञान मे स्थित (रहते है) ।
56 (केवल ज्ञान का) प्रकाश तीनो कालो मे अविनाशी तथा अनुपम
(होता है) । (वह) सम्पूर्ण (लोक) को तथा (उसकी) विविध सभावनाओ को हर समय एक साथ जानता है । हे मनुष्यो । निश्चयपूर्वक (यह) (केवल) ज्ञान की महिमा (है) ।
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57. पत्थि परोक्खं किचिवि समंत सव्वक्खगुरगसमिद्धस्स ।
अक्खातीदस्स सदा सयमेव हि गारगजादस्स ॥
58. गेण्हदि णेव ण मुचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं ।
पेच्छदि समतदो सो जाररादि सन्वं रिगखसेसं ॥
59. सोक्खं वा पुरण दुक्खं केवलणारिणस्स गत्यि देहगदं ।
जम्हा अदिदियत्तं जादं तम्हा दु तं यं ॥
60. अस्थि अमुत्तं मुत्तं अदिदियं इंदिय च प्रत्येसु ।
गाणं च तधा सोक्खं जं तेसु परं च तं णेयं ।।
61. जं केवलत्ति वाण तं सोक्खं परिणमं च सो चेव ।
खेदो तस्स ए भणिदो जम्हा घादी खयं जादा ।
62. जादं सयं समत्तं गाणमणंतत्यवित्थिदं विमलं ।
रहिदं तु उग्गहादिहि सुहत्ति एयंतियं भरिणदं ।
63. जादो सयं स चेदा सव्वण्ह सव्वलोगदरसी य ।
पप्पोदि सुहमणंतं अव्वावाधं सगममुत्तं ॥
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57 निस्सदेह स्वय ही (केवल/दिव्य) ज्ञान को प्राप्त (व्यक्ति) के लिए
सदा इन्द्रियो (की अधीनता) से परे पहुंचे हुए ज्ञान के लिए, सब ओर से सव इन्द्रियो के गुणो से (एक साथ) सम्पन्न व्यक्ति के लिए कुछ भी परोक्ष नही है।
58 केवली भगवान् पर (वस्तु) को न ग्रहण करते है (और) न ही
छोडते है । वे सब ओर से (तथा) पूर्णरूप से सब को जानते है । (किन्तु) (इस कारण से) (वे) (स्वय) रूपान्तरित नही होते है।
59. चूकि केवलज्ञानी (शुद्धोपयोगी) के अतीन्द्रियता उत्पन्न हुई (है),
इसलिए ही (उसके जीवन मे) शरीर के द्वारा प्राप्त सुख अथवा दुख (विद्यमान) नही (होता है) । वह (बात) (वास्तव मे) समझने योग्य (है) ।
60 पदार्थों के विषय मे अतीन्द्रिय ज्ञान मीरहित (होता है) तथा
इन्द्रिय-ज्ञान मूर्छा-युक्त (होता है) और इसी तरह (अतीन्द्रियइन्द्रिय) सुख (भी) (क्रमण ) (मूर्छारहित तथा मूर्छायुक्त)
(होता है)। 61 जो केवलज्ञान (दिव्यज्ञान) (है), वह सुख (है)। (और)
निस्सन्देह (केवलज्ञान के रूप मे) वह रूपान्तरण (सुख) ही है । उसके (केवलज्ञानी के/शुद्धोपयोगी के) (जीवन मे) खेद (मानसिक तनाव) नही कहा गया (है), चूकि (उसके) घातिया (मानसिक
तनाव उत्पन्न करनेवाले) (कर्म) क्षय को प्राप्त हुए (है)। 62 जो ज्ञान पूर्ण (है), शुद्ध (है), पाप से आप उत्पन्न हुआ (है),
अनन्त पदार्थों मे फैला हुया (है) और अवग्रह आदि (की सीमाओ) से रहित है, (वह) अद्वितीय सुख कहा गया (है) ।
63 हे मनुष्य । (तू समझ कि) जो व्यक्ति स्वय जिन (हुआ है) और
सव लोक को (तथ्यात्मक और मूल्यात्मक रूप से) देखनेवाला (भी) हुआ (है), वह अनन्त, बाधारहित, निजी (आत्मा से उत्पन्न) (तथा) इन्द्रियातीत सुख को प्राप्त करता है।
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द्रव्य-विचार
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64. तिमिरहरा जइ दिट्ठी जरणस्स दोवेण णस्थि कादव्वं ।
तध सोक्खं सयमादा विसया कि तत्थ कुवंति ।।
65. सयमेव जधादिच्चो तेजो उण्हो य देवदा णभसि ।
सिद्धोवि तधा णाणं सुहं च लोगे तधा देवो ॥
66. परिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो ।
तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिभावेहि ॥
67. जे कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स ।
कम्मत्तं परिणमदे तम्हि सयं पोग्गलं दव्वं ॥
68. अण्णाणी पुण रत्तो हि सव्वदन्वेसु कम्ममझगदो ।
लिप्पदि कम्मरयेण दु कद्दममझे जहा लोहं ।
69. आदा कम्ममलिमसो धारदि पाणे पुरणो पुणो अण्णे ।
ण जहदि जाव ममत्तं देहपधाणेसु विसएसु ॥
70. वत्थु पडुच्च तं पुण अभवसाणं तु होदि जीवाणं ।
रण हि वत्थुदो दु बंधो अज्झवसाणेण बंधो ति ।।
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64 यदि मनुष्य की प्रॉख (स्वयं) (वस्तुप्रो के प्रति) अन्धेपन को
हटाने वाली (है), (तो) दीपक के द्वारा (कुछ भी) किये जाने योग्य नही (रहता है) । उसी प्रकार (जब) स्वय आत्मा ही सुख (है), (तो) वहा पर (इन्द्रियो के) विषय क्या प्रयोजन (सिद्ध) करेगे?
.
65 मि
जिस प्रकार सूर्य स्वय ही प्रकाश (है), उष्ण (है), तथा आकाश मे (एक) दिव्यशक्ति (है), उसी प्रकार सिद्ध (पूर्ण प्रात्मा) भी ज्ञान और सुख (है) तथा लोक मे दिव्य (होते है)।
66 जव आत्मा राग-द्वेप से जकडा हुआ शुभ और अशुभ (भाव) मे
रूपान्तरित होता है, (तो) ज्ञानावरणादिरूप परिणामो द्वारा कर्मरज उसमे (आत्मा मे) प्रवेश करता है।
67 आत्मा जिस भाव को उत्पन्न करता है, वह उस भाव का कर्ता
होता है । उसके (कर्ता) होने पर पुद्गल द्रव्य अपने आप कर्मत्व को प्राप्त करता है।
68. और निस्सन्देह अज्ञानी सब वस्तुनो मे प्रासक्त (होता) है । अत.
कर्म के मध्य मे फंसा हुआ कर्मरूपी रज से मलिन किया जाता है, जिस प्रकार कीचड मे (पडा हुआ) लोहा (मलिन किया जाता है)।
69 जव तक (आत्मा) (उन) (इन्द्रिय)-विषयो मे (जिनके) मूल मे
शरीर (रहता है) ममत्व को नही छोडती है, (तब तक) आत्मा कर्मों से मलिन (रहती है) और बार-बार नवीन प्राणो को धारण करती है।
70 फिर वस्तु को प्राथय करके निस्सन्देह जीवो के (आसक्तिपूर्ण)
विचार होता है, तो भी वास्तव मे वस्तु से बध नही (होता है)। अत (आसक्तिपूर्ण) विचार से ही बन्ध (होता है)।
द्रव्य-विचार
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11. रत्तो बंद कम्म मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा ।
एसो बंधसमासो जीवाणं जारण पिच्छयदो ॥
72. जो इंदियादिविजई भवीय उवयोगमप्पगं झादि ।
कम्मेहि सो ण रंजदि किह तं पारणा अणुचरंति ।।
73. परिणमदि यमलु रणादा जदि णेव खाइगं तस्स ।
गाणंत्ति तं निरिणदा खवयं कम्ममेवुत्ता ।।
74. जं भावं सुहमसुहं करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता ।
तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो अप्पा ॥
75. जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स कम्मस्स ।
गाणिस्स दु णारणमनो अण्णाणमनो अणाणिस्स ॥
76-77.
कणयमया भावादो जायते कुडलादयो भावा । अयमयया भावादो जह जायंते दु कडयादी । अण्णाणमया भावा प्रणाणिणो बहुविहा वि जायते । णारिणस्स दु गारगमया सव्वे भावा तहा होति ।
78. णिच्छयणयस्स एवं आदा अप्पारणमेव हि करेदि ।
वेदयदि पुरणो तं चेव जाण अत्ता दु अत्तारणं ॥
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71 आसक्त (व्यक्ति) कर्मों को बाँधना है, श्रासक्ति से रहित व्यक्ति कर्मो से छुटकारा पा जाता है । निस्सन्देह यह जीवो के (कर्म) वध का सक्षेप है । (तुम) (इसे ) समझो |
72 जो (व्यक्ति) इन्द्रियादि का विजेता होकर उपयोगमयी ( ज्ञानमयी) आत्मा को ध्याता है, वह कर्मों के द्वारा नही रगा जाता है । (तो) प्राण उसका अनुसरण कैसे करेंगे ?
73 यदि ज्ञाता ज्ञेय ( जानने योग्य पदार्थ ) मे कभी रूपान्तरित नही होता है, (तो) उसका ज्ञान कर्मों के क्षय से उत्पन्न (समझा जाना चाहिए ) । इसलिए जिनेन्द्रो ने उसे ही कर्मों को क्षय करता हुआ (व्यक्ति) कहा ( है )
74 आत्मा जिस शुभ-अशुभ भाव को करता है, वह उसका निस्सदेह कर्ता होता है, वह (भाव) उसका कर्म होता है, (तथा) वह ग्रात्मा ही उसका भोक्ता होता है ।
75 आत्मा जिस भाव को (अपने मे) उत्पन्न करता है, वह उस (भाव) कर्म का कर्ता होता है । जानी का ( यह भाव ) ज्ञानमय (होता है) और अज्ञानी का ( यह भाव ) अज्ञानमय होता है ।
76-77
जैसे कनकमय वस्तु से कुण्डल आदि वस्तुएँ उत्पन्न होती है ( बनती है) और लोहमय वस्तु से कडे ग्रादि उत्पन्न होते है ( बनते है ), वैसे ही अज्ञानी के अनेक प्रकार के अज्ञानमय भाव ही उत्पन्न होते है तथा ज्ञानी के सभी भाव ज्ञानमय होते है ।
78 निश्चयनय के ( अनुसार ) इस प्रकार ( कहा गया है कि ) श्रात्मा ग्रात्मा (अपने भावो) को ही करता है तथा आत्मा आत्मा (अपने भावो) को ही भोगता है, उसको ही (तुम) जानो ।
द्रव्य- विचार
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19. ववहारस्स दु श्रादा पोंग्गलकम्मं करेदि णेयविहं ।
तं चैव य वेदयदे पोग्गलकम्मं प्रणेयविहं ||
80. अप्पा उवप्रोगप्पा उवप्रोगो णारणदंसणं भरिणदो । सो हि सुहो असुहो वा उवप्रोगो अप्परगो हवदि ॥
81. जदि सो सुहो व असुहो ण हवदि श्रादा सयं सहावेण । संसारोवि रग विज्जदि सव्वेसि जीवकायाणं ||
82. देवदजदिगुरुपूजासु चेव दारणम्मि वा सुसीलेसु । उववासादिसु रत्तो सुहोवोगप्पगो
अप्पा ||
83. सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावंति हवदि दोन्हं पोग्गलमेत्तो भावो कम्मत्तणं
जीवस्स । पत्तो ॥
84. रागो जस्स पसत्थो श्रणुकंपाससिदो य परिणामो । चितम्हि णत्थि कलुषं पुण्णं जीवस्स प्रसवदि ॥
85. अरहंत सिद्धसाहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा । प्रणुगमणं पि गुरूणं पत्थरागो त्ति वुच्चति ॥
86. तिसिदं बुभुक्खिदं वा दुहिदं दट्ठूण जो दु दुहिदमणो । पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि प्रणुकंपा ॥
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79 किन्तु व्यवहारनय के ( अनुसार ) ग्रात्मा अनेक प्रकार के पुद्गल कर्मों को करता है (तथा) उस अनेक प्रकार के पुद्गल कर्म को ही भागता है ।
80 आत्मा उपयोग स्वभाववाला ( है ) । उपयोग ज्ञान-दर्शन कहा गया ( है ) और श्रात्मा का वह उपयोग शुभ अथवा अशुभ होता है ।
81 यदि वह श्रात्मा स्वय ग्रपने भाव ( स्व-सकल्प ) से शुभ रूप अथवा शुभ रूप नही होवे, (तो) किसी भी जीव के ससार (मानसिक तनाव / शाति) ही न होवे ।
82 देव, साधु (तथा) गुरु की भक्ति मे, दान मे, शीलो ( व्रतो) मे तथा उपवास आदि मे सलग्न आत्मा शुभोपयोगवाला ( कहा जाता है) ।
83. जीव का शुभ परिणाम पुण्य होता है और ( उसका ) अशुभ (परिणाम) पाप ( होता है) । दोनो कारणो से भाव ने कर्मत्व को प्राप्त किया ( है ) । (यह ) ( कर्मत्व) पुद्गल की राशि ( है )
।
84 जिसके (जीवन मे ) शुभ राग (होता है ) श्राश्रित भाव (होता है) तथा ( जिसके ) (होती है), ( उस) जीव के ( जीवन मे होता है ।
)
(और) अनुकपा पर मन मे मलिनता नही
पुण्य का आगमन
85 अरहतो, सिद्धो श्रीर साधुओ की (जो) भक्ति ( है ) तथा धर्म (नैतिक - प्राध्यात्मिक मूल्यो ) मे जो प्रवृत्ति ( है ) एव पूज्य व्यक्तियो का जो अनुसरण (है), (वे) (सब) शुभ राग ( है ) । ( आचार्यों द्वारा ) शुभ राग के अन्तर्गत ( ये ) ( बात ) कही जाती है ।
86 भूखे प्यासे प्रथवा ( किसी ) दुखी (प्राणी) को देखकर जो भी कोई दुखी मनवाला ( होकर ) उसके प्रति दयालुता से व्यवहार करता है, उसके यह अनुकपा होती है ।
द्रव्य- विचार
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87. कोधो व जदा माणो माया लोभो व चित्तमासेज्ज ।
जीवस्स कुरणदि खोहं कलुसो त्ति य तं बुधा वेति ।।
88. चरिया पमादवहुला कालुस्सं लोलदा य विसयेमु ।
परपरितावपवादो पावस्स य पासवं कुणदि ॥
89. सण्णायो य तिलेस्सा इंदियवमदा य अत्तरुवाणि ।
गाणं च दुप्पउत्त मोहो पावप्पदा होंति ॥
90. भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुद्धमेव णायव्वं ।
असुह च अट्टरुदं सुहधम्मं जिणवरिदेहि ॥
91. जो जाणादि जिरिंगदे पेच्छदि सिद्ध तधेव अरणगारे ।
जीवे य साणुकपो उवमोगो सो सुहो तस्त ।।
92. विसयकसानोगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदृढगोटिजुदो ।
उग्गो उम्मग्गपरो उवोगो जस्स सो असुहो ।
93. सुद्ध सुद्धसहावं अप्पा अप्पम्मि तं च णायच्वं ।
इदि जिणवरहिं भणियं जं सेयं तं समायरह ।
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87 जिस समय क्रोध या मान या माया या लोभ चित्त मे घटित होता
है, उस समय (वह) जीव के चित्त मे व्याकुलता उत्पन्न करता है। (यह) निस्सन्देह मलिनता (है) । ज्ञानी (ऐसा) कहते हैं ।
88 (कर्तव्य-पालन मे) लापरवाहीपूर्वक आचरण,(चित्त की) मलिनता,
(इन्द्रिय)-विषयो मे लालसा और दूसरे को पीडा देना व (उस पर) कलक लगाना-(यह सब) पाप (कर्म) के आने को प्रोत्साहित
करता है। 89 (चार) सज्ञाएँ, तीन (अशुभ) लेश्याएँ, (पच) इन्द्रियो की
अधीनता, आर्त और रौद्र ध्यान, अनुचित रूप से प्रयोग किया हुआ ज्ञान, मोह (आध्यात्मिक विमुखता)-ये सब पाप के स्थान
होते है। 90 (जो) (आत्मा का) भाव (है) (उसके) तीन प्रकार के भेद (हैं)।
(वह भाव) शुभ, अशुभ (तथा) शुद्ध ही समझा जाना चाहिए। अरहतो द्वारा (कहा गया है कि) धर्म (ध्यान) शुभ (है) तथा
आर्त और रौद्र (ध्यान) अशुभ (है)। 91 जो (व्यक्ति) अरहतो को समझता है, सिद्धो को समझता है, उसी
प्रकार (जो) साधुओ को (भी) समझता है) (तथा) जीवो पर दयावान (होता है), उसका वह उपयोग शुभ (कहा जाता है)।
92 जिस (व्यक्ति) का उपयोग विषय-कषायो मे डूबा हुमा (है),
(जिसका) (उपयोग) दुष्ट सिद्धात, दुष्ट बुद्धि, (तथा) दुष्ट चर्या से जुडा हुआ (है), (जिसका) (उपयोग) क्रूर (है) तथा कुपथ मे
लीन है, (उसका) वह (उपयोग) अशुभ (है)। 93 (जो) (आत्मा का) शुद्ध स्वभाव (है), (वह) शुद्ध (भाव) (है),
वह (शद्ध भाव) प्रात्मा के द्वारा आत्मा मे ही अनुभव किया जाना चाहिए । [तीनो (शुभ-अशुभ-शुद्ध) मे] जो श्रेष्ठ (है), (तुम) उस का आचरण करो । इस प्रकार अरहत द्वारा कहा गया (है)।
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द्रव्य-विचार
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94. उवोगो जदि हि सुहो पुष्णं जीवस्स संचयं जादि । सुहो वा तध पावं तेसिमभावे ण चयमत्थि ||
95. ग्रह पुरण अप्पा णिच्छदि पुण्णाई करेदि णिरवसेसाई । तह विण पावदि सिद्धि संसारत्थो पुरणो भणिदो ॥
96. वदणियमाणि धरता सीलाणि तहा तव च कुव्वंता । परमट्ठबाहिरा जे निव्वाणं ते ण विदंति ॥
97. सुहपरिणामो पुण्णं प्रसुहो पावत्ति भणिय मण्णेसु । परिणामोणण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये ॥
98. श्रावसहावा अण्णं सच्चित्ताचित्तमिस्सियं हवइ । तं परदव्वं भणियं अवितत्थं सव्वदरसीहि ॥
99. जस्स हिदयेणुमत्तं परदव्वहि विज्जदे रागो । सो ण विजाणदि समयं सगस्स सव्वागमधरोवि ||
100. जो सव्वसंगमुक्को णाण्णमणो श्रप्पणं सहावेण । जाणदि पस्सदि णियदं सो सगचरियं चरदि जीवो ॥
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94 यदि जीव का उपयोग शुभ (होता है), (तो) (जीव ) पुण्य सग्रह करता है और (यदि ) ( उसका ) अशुभ ( उपयोग होता है), तो उसी तरह (जीव ) पाप ( सग्रह करता है) । उन (शुभ-अशुभ) के प्रभाव मे (पुण्य-पाप कर्म का ) सग्रह नही होता है ।
95 यदि (मनुष्य) आत्मा को नही चाहता है, किन्तु ( वह) ( केवल ) सकल पुण्यो ( शुभो ) को ( ही ) करता है, तो भी ( वह) परम शाति नही पाता है और ( वह) ससार ( मानसिक तनाव / शान्ति ) मे ही स्थित कहा गया ( है ) ।
96 व्रत और नियमो को धारण करते हुए तथा शीलो और तप का पालन करते हुए ( भी ) जो (व्यक्ति) परमार्थ (शुद्ध आत्म-तत्व ) से अपरिचित ( है ), वे परम शान्ति को प्राप्त नही करते है ।
97 पर के प्रति शुभ भाव पुण्य ( है ), अशुभ (भाव) पाप ( है ) । इस प्रकार यह कहा गया ( है ) । पर मे न झुका हुआ भाव आगम मे दुख के नाश का कारण ( कहा गया है ) ।
98 आत्म-स्वभाव से अन्य ( जो ) सचित्त - श्रचित्त (तथा) मिश्रित ( द्रव्य) होता है, वह सर्वज्ञ द्वारा सच्चाईपूर्वक परद्रव्य कहा गया है ।
99 जिस (व्यक्ति) के हृदय मे परद्रव्य पर अणु के बराबर भी राग ( श्रासक्ति) विद्यमान है, वह समस्त आगमों का धारण करनेवाला ( होकर) भी आत्मा के आचरण को नही समझता है ।
100 जो व्यक्ति सम्पूर्ण श्रासक्ति से रहित (होता हुआ ) ( श्रात्मा मे ) तल्लीन ( होकर ) श्रात्मा को स्वभाव से जानता - देखता है, वह निश्चयात्मक रूप से आत्मा मे आचरण करता है ।
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101. एवं विदिदत्थो जो दव्वेसु ण रागमेदि दोसं वा।
उवयोगविसुद्धो सो खवेदि देहुन्भवं दुक्खं ॥
102. अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणंतं ।
अव्वुच्छिण्ण च सुहं सुद्धवनोगप्पसिद्धाणं ।। 103. धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो।
पावदि णिवाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं ।।
104. चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिट्ठिो ।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥
105. तह सो लद्धसहावो सवण्हू सव्वलोगपदिमहिदो ।
भूदो सयमेवादा हवदि सयंभुत्ति णिहिट्ठो ॥
106. उवयोगविसुद्धो जो विगदावरणतरायमोहरो ।
भूदो सयमेवादा जादि पर णेयभूदाण ॥
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101. इस प्रकार (जिसके द्वारा) वस्तुस्थिति (शुभ-अशुभ मे मानसिक
तनावात्मक समानता) जानी गई (है), (और जिसके फलस्वरूप) जो वस्तुओ के प्रति राग-द्वेष (आसक्ति) नहीं करता है, वह उपयोग (चैतन्य) से शुद्ध (रहता है) (तथा) देह से उत्पन्न दुख
को समाप्त कर देता है। 102 शुद्ध उपयोग (आत्मानुभव) से विभूषित (व्यक्तियो) का सुख श्रेष्ठ,
आत्मोत्पन्न, विपयातीत, अनुपम, अनन्त तथा अविच्छिन्न (होता है)।
103 यदि व्यक्ति शुद्ध (समतारूप) क्रियाओ से युक्त (होता है), (तो)
(वह) धर्म (समता) के रूप मे रूपान्तरित व्यक्ति (कहा गया है)। (प्रत ) (वह) परम शान्तिरूपी सूख को प्राप्त करता है । तथा (यदि) (वह) शुभ क्रियाओ से युक्त (होता है), (तो) स्वर्ग सुख
को (प्राप्त करता है) । 104 निस्सन्देह चारित्र धर्म (होता है) । जो समता (है), वह निश्चय
ही धर्म कहा गया (है) । (समझो) मोह (आध्यात्मिक विस्मरण)
और क्षोभ (हर्ष-शोकादि द्वन्द्वात्मक प्रवृत्ति) से रहित आत्मा का भाव ही समता (कहा गया है) । (अत समता ही चारित्र
होता है)। 105 तथा वह व्यक्ति (जिसके द्वारा) स्वय ही स्वभाव अनुभव कर
लिया गया (है), (जो) (स्वय) (ही) सर्वज्ञ हुआ (है), (जो) लोकाधिपति इन्द्र द्वारा पूजा गया (है), (वह) (वास्तव मे) स्वयभू (स्वय ही उच्चतम अवस्था पर पहुंचा हुआ) होता है ।
इस प्रकार (अर्हन्तो) द्वारा कहा गया (है)। 106 जो व्यक्ति उपयोग (ज्ञानात्मक क्रिया) मे शुद्ध (समतारूप)
(हुआ है), (उसके द्वारा) (ज्ञान पर) आवरण, (शक्ति प्रकट होने मे) वाधा (तथा) मोहरूपी (आध्यात्मिक विस्मरण एव आसक्तिरूपी) धूल नष्ट कर दी गई (है)। (अत) (वह) (व्यक्ति) स्वय ही ज्ञेय पदार्थो को पूर्ण रूप से जान लेता है।
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107. सुविदिदपदत्यसुत्तो सजमतवसजुदो विगदरागो। ___ समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवनोगोत्ति ।
108. ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसि ।
अरहताणं काले मायाचारोव्व इत्थीणं ॥
109. सवेसि खंधाणं जो अंतो तं वियाण परमाणू ।
सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागि मुत्तिभवो ॥
110. आदेशमत्तमुत्तो धादुचदुक्कस्स कारणं जो दु । ___ सो रणेमो परमाणू परिणामगुणो सयमसद्दो ।
111 सद्दो खंधप्पभवो खंधो परमाणुसंगसंघादो ।
पुछेसु तेसु जायदि सद्दो उप्पादगो णियदो ॥
112. एयरसवण्णगंधं
खधंतरिदं दव्वं
दो
फासं सद्दकारणमसइं । परमाणु तं वियाणेहि ॥
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: 107 श्रमण (जिसके द्वारा) तत्व (अध्यात्म) (तथा) (उसका प्रति
पादन करनेवाले) सूत्र-(ग्रन्थ) भली प्रकार से जान लिए गये (है), (जो) सयम और तप से सयुक्त (है), (जिसके द्वारा) राग समाप्त कर दिया गया (है), जिसके द्वारा सुख और दु ख समान (समझ लिए गए है), (वह) शुद्धोपयोगवाला (समता को प्राप्त)
कहा गया (है)। . 108 उन अरहतो के (उस) समय (अरहत अवस्था) मे खडे रहना,
वैठना, गमन करना तथा धर्म (अध्यात्म का उपदेश देना)-(ये सव क्रियाएँ (लोक कल्याण के लिए) निश्चित रूप से (होती है) जैसे कि स्त्रियो मे माताओ का (वालक के कल्याण के लिए)
आचरण (होता है)। 109 जो समस्त पुद्गल-पिण्डो का अन्तिम अश (है), उसको (तुम)
परमाणु समझो। वह (परमाणु) शाश्वत, शब्दरहित, एक (प्रदेशीय) (है), (वह) अविभाज्य और भौतिक वस्तुप्रो का
मूल (है)। 110 (अपने) विवरण से ही (जो) मूत (रूप, रसादि गुणो से युक्त)
है, जो चार मूल तत्वो (पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु) का कारण (है), परिणमन गुणवाला (है), स्वय शब्दरहित (है), वह
परमाणु समझा जाना चाहिए। 111 शब्द स्कन्धो से उत्पन्न (होता है। स्कन्ध परमाणुओ के सगम
समूह से (उत्पन्न होता है)। उनमे (आपसी) स्पर्श से शब्द उत्पन्न होता है। (वह) (स्पर्श) (शब्दो को) अवश्य उत्पन्न करनेवाला (है)।
112 यह द्रव्य (जिसमे) एक रस, (एक) वर्ण, एक गध तथा दो स्पर्श
समूह (होते है), (जो) शब्द का कारण (है), (स्वय) शब्दरहित (है) (तथा) (जिसका) स्कन्ध से सबध (रहता है), (वह) परमाणु है । उसको (तुम सब) समझो।
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द्रग्य-विचार
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113 उवभोज्जमिदिएहि य इंदिय काया मणो य कम्माणि। .
जं हवदि मुत्तमण्णं त सव्वं पुग्गलं जाणे ॥
114. देहो य मणो वारणी पोग्गलदवप्पगत्ति णिहिट्ठा ।
पोग्गलदव्वंपि पुणो पिडो परमाणुदत्वाणं ॥ 115 अपदेसो परमाणू पदेसमेत्तो य सयमसद्दो जो।
गिद्धो वा लुक्खो वा दुपदेसादित्तमणुहवदि ।
116. एगुत्तरमेगादी अणुस्स णिद्धत्तणं व लुक्खत्तं ।
परिणामादो भणिदं जाव अणंतत्तमणुहदि ॥
117 णिद्धा वा लुक्खा वा अणुपरिणामा समा व विसमा वा।
समदो दुराधिगा जदि बज्झति हि प्रादिपरिहीणा ॥
118. णिद्धत्तणेण दुगुणो चदुगुणरिणीण बंधमणुहवदि ।
लुक्खेण वा तिगुरिणदो अणु बज्झदि पंचगुणजुत्तो ।।
119. दुपदेसादि खंधा सुहुमा वा बादरा ससंठाणा ।
पुढविजलतेउवाऊ सगपरिणामेहि जायते ॥
120. अइथूलथूल थूलं थूलसुहुमं सुहुमथूलं च ।
सुहुमं अइसुहमं इदि धरादियं होदि छन्भेयं ॥
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113 इन्द्रियाँ तथा इन्द्रियो द्वारा भोगे जाने योग्य विषय शरीर, मन व
कर्म (तथा) जो (भी) अन्य भौतिक (वस्तुएँ) है वह सभी पुद्गल है। (तुम) समझो।
114 देह, मन और वाणी-(ये) (सभी) पुद्गल द्रव्य से बने हुए कहे
गये (है) और पुद्गल द्रव्य भी परमाणु द्रव्यो का पिण्ड है।
प्रदेश जितना होता है), (ह, (तीन)
115 जो परमाणु एक प्रदेश जितना (होता है), (अन्य) प्रदेशरहित
(होता है) तथा स्वय शब्दरहित (होता है), (वह) स्निग्ध अथवा रूखा (होता है) और (आपस मे) मिलकर दो, (तीन) प्रदेश आदिपने को ग्रहण करता है।
116 एक से आरभ करके एक के बाद मे अनन्त तक परमाणु के
परिणमन (स्वभाव) के कारण (उसके) स्निग्धता और रुक्षता कही गई (है)।
117 परमाणुओ का परिणमन सम (2, 4, 6. ) (हो) अथवा विषम
(3, 5, 7 ) (हो), स्निग्ध रूप (हो) अथवा रुक्षरूप (हो), (वे) यदि प्रथम अशरहित (होते है) तथा प्रत्येक सख्या से दो ही अधिक (होते है), (तो) निश्चय ही (आपस मे) बध जाते है ।
118 (जब) परमार्थ बध अनुमायुक्त (रुक्षता
118 (जब) परमाणु स्निग्धता मे दो अश (होता है), (तो) चार अश
स्निग्ध के साथ बध अनुभव करता है। और रुक्षता मे पाँच प्रशयुक्त (परमाणु) तीन-अश युक्त (रुक्षता) से बाँधा जाता है ।
119 दो प्रदेश से आरभ करके (विभिन्न) आकार सहित सूक्ष्म तथा
स्थूल स्कन्ध (होते हैं) । (परमाणु के) स्वकीय परिणमन के द्वारा (ही) पृथिवी, जल, अग्नि, वायु उत्पन्न होते है।
120 अतिस्थूलस्थल, स्थल, स्थल-सूक्ष्म, सूक्ष्म-स्थूल, सूक्ष्म-अतिसूक्ष्म__ इस प्रकार पृथिवी से प्रारभ करके (स्कन्ध के) छह भेद
होते है।
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121. भूपव्वदमादीया भणिदा अइथूलथूलमिदि खंधा ।
थूला इदि बिण्णेया सप्पीजलतेलमादीया ।। 122. छायातवमादीया थूलेदरखंधमिदि वियाणाहि ।
सुहम थूलेदि भणिया खंधा चउरक्खविसया य ॥
123. सुहमा हवंति खंधा पावोग्गा कम्मवग्गरणस्स पुणो ।
तविवरीया खधा अइसुहमा इदि पस्वेदि ॥
124. अत्तादि अत्तमझ अत्तंतं रोव इंदिए गेभं ।
अविभागी जं दव्वं परमाणू तं वियाणाहि ॥
125. एयरसरूवगंधं दो फासं तं हवे सहावगुणं ।
विहावगुणमिदि भरिणदं जिणसमये सव्वपयडतं ।।
126. अण्णनिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जायो ।
खंघसरूवेण पुणो परिणामो सो विहावपज्जायो ।
127. धम्मस्थिकायमरसं अवण्णगंधं असहमप्फासं । ___ लोगोगाढं पुळं पिहुलमसंखादियपदेसं ॥
128 उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहयरं हदि लोए ।
तह जीवपुग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाणेहि ।।
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121 भू, पर्वत आदि अतिस्थूलस्थूल स्कन्ध कहे गये (है)। घी, जल,
तेल आदि स्थूल (स्कन्ध) समझे जाने चाहिए।
122 छाया, धप ग्रादि (नेत्र के विषय होने के कारण) स्थूल-सक्ष्म
(स्कन्ध) (है)। (तुम) जानो और चार इन्द्रियो (कर्ण, घ्राण, रसना और स्पर्शन) के विपय सूक्ष्म-स्थूल स्कन्ध कहे गये (हैं)।
123 (आत्मा से) सवध योग्य कर्मवर्गणा के स्कन्ध सूक्ष्म होते है और
इसके विपरीत स्कन्ध अतिसूक्ष्म होते (है)। इस प्रकार आचार्य प्रतिपादन करते है।
124 जो स्व (ही) अादि (है), स्व (ही) मध्य (है), स्व (ही) अन्त
(है), (जो) इन्द्रिय द्वारा ग्रहण योग्य नही (है), (जो) भेदरहित (है), वह परमाणु (है) । (तुम) जानो।
125 (जिस परमाणु मे) एक रस, (एक) रूप, (एक) गध तथा दो
स्पर्श (होते हैं), वह (परमाणु) स्वभाव गुणवाला होता है। सबके लिए प्रकटता गुणवाला (स्कन्ध) जिनशासन मे विभाव
गुणवाला कहा गया (हे) । 126 (परमाणु मे) (जो) दूसरे की अपेक्षारहित परिणमन (होता है),
वह स्वभाव-परिणमन है । और (उसमे) जो स्कन्धरूप से परिणमन (होता है), वह विभाव-परिणमन (है)।
127 धर्मास्तिकाय (द्रव्य) रसरहित, वर्णरहित, गधरहित, शब्दरहित
और स्पर्शरहित (होता है)। (वह) लोक में व्याप्त रहता है, और असस्यात प्रदेशवाला (होता है) (तथा) (उसके प्रदेश) (एक
दूसरे को) छुए हुए (रहते हैं)। 128. जिस प्रकार लोक मे जल मछलियो के गमन मे उपकार करनेवाला
होता है, उसी प्रकार जीव और पुद्गलो के लिए (गमन मे उपकार करनेवाला) धर्म द्रव्य (होता है) । (इसे) (तुम) समझो।
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द्रव्य-विचार
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129 जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दवमधमक्खं ।
ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव ॥
130. ण य गच्छदि धम्मत्थी गमण ण करेदि अण्णदवियस्स ।
हवदि गती स प्पसरो जीवाणं पुग्गलाणं च ।
131. विज्जदि जेसि गमणं ठाणं पुरण तेसिमेव संभवदि ।
ते सगपरिणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुवंति ॥
132. गमरणणिमित्तं धम्म, अधम्म ठिदि जीवपोग्गलारणं च ।
अवगहण प्रायासं, जीवादी सव्वदव्वाणं ॥
133. सव्वेसि जीवाणं सेसाणं तह य पुग्गलाण च ।
ज देदि विवरमखिलं तं लोए हवदि आयासं ॥
134. पुग्गलजीवरिणबद्धो धम्माधम्मत्थिकायकालड्ढो।
वदि प्रायासे जो लोगो सो सम्वकाले दु ॥
135. सम्भावसभावाण जीवाणं तह य पोग्गलाणं च ।
परियाणसंभूदो कालो णियमेण पण्णत्तो ।
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129 जिस प्रकार (सामान्य) (गुणो मे) धर्मास्तिकाय द्रव्य (होता है),
उसी प्रकार उस अधर्मास्तिकाय नामवाले द्रव्य को (तुम) जानो। किन्तु (वह) स्थिति क्रिया मे तत्पर (जीव-पुद्गल) के लिए कारण बना हुआ (हे), जैसे पृथ्वी (जीव-पुद्गल की) (स्थिति के लिए)
(कारण होती है)। 130 धर्मास्तिकाय (द्रव्य) (स्वय) गतिशील नही (होता है) तथा दूसरे
द्रव्यो को गति प्रदान नही करता है । (उससे) (तो) जीवो और पुद्गलो की स्व (उत्पन्न) गति मे फैलाव होता है।
131 जिन (जीवो और पुद्गलो) की गति होती है, फिर उन्ही की
स्थिति होती है । अत वे (जीव और पुद्गल) अपने परिणमन के द्वारा ही गति और स्थिति को उत्पन्न करते है। (धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय द्रव्य गति-स्थिति उत्पन्न नही करते हैं ।
132 जीवो और पुद्गलो की गति मे (जो) (उदासीन) निमित्त (है),
(वह) धर्मास्तिकाय (द्रव्य) (है)। (उनकी) स्थिति मे (जो) (निमित्त) (है), (वह) अधर्मास्तिकाय (द्रव्य) (है) । जीव आदि सभी द्रव्यो के लिए (जो) ठहरने का स्थान (होता है), (वह)
आकाश (है)। 133 लोक मे सभी जीवो के लिए और पुद्गलो के लिए और इसी प्रकार
शेप द्रव्यो (धर्म, अधर्म और काल) के लिए जो पूरा स्थान देता है, वह अाकाश होता है।
134 जो (भाग) (विस्तृत) आकाश में पुद्गलो और जीवो से जुडा
हुआ (है), (जो) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और काल से युक्त है, वह सभी समय (तीनो कालो) मे 'लोक' (कहा जाता है) ।
135 (वह) काल कहा गया (है) (जिसके) (कारण) अस्तित्व भाव को
जीवो और उसी प्रकार पुद्गलो मे परिवर्तन अनिवार्यत उत्पन्न हुआ (करता है)।
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136. णत्थि चिरं वा खिप्पं मत्तारहिदं तु सा वि खलु मत्ता।
पुग्गलदव्वेण विणा तम्हा कालो पडुच्चभवो ॥
137. कालो परिणामभवो परिणामो दवकालसंभूदो ।
दोण्हं एस सहावो कालो खणभंगुरो णियदो ॥
138. जीवादीदव्वाणं परिवरणकारणं हवे कालो।
धम्मादिचउण्णाणं सहागुवणपज्जया होति । 139. दध्वं सल्लक्खणिय उत्पादध्वयधुवत्तसंजुत्तं ।
गुरणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सवण्हू ॥
140. सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया ।
भंगुष्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हदि एक्का ॥
141. उत्पत्ती व विणासो दध्वस्स य रणत्थि अस्थि सम्भावो।
विगमुप्पाद धुवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया ॥
142. पज्जयविजुदं दव्वं दवविजुत्ता य पज्जया रणत्थि ।
दोण्हं अणण्णभूदं भावं समणा पविति ॥ 143. दवेण विणा ण गुणा गुणेहि दव्वं विणा ण संभवदि ।
अव्वदिरित्तो भावो दव्वगुरगाणं हवदि तम्हा ॥ 144. भावस्स णत्थि णासो पत्थि अभावस्स चेव उप्पादो।
गुणपज्जयेसु भावा उप्पादवए पकुव्वति ॥
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136 माप के बिना 'दीर्घ काल' और 'तुरन्त' (ऐसे शब्द) नही (होते
हैं)। तथा वह माप भी पुद्गल द्रव्य के बिना नही (होता है)। इसलिए (ऐसा) काल आश्रय से उत्पन्न (है)।
137
(व्यवहार) काल पुद्गल के परिवर्तन से उत्पन्न हुआ (है), परिवर्तन द्रव्यकाल से उत्पन्न हुआ (है)। दोनो का यह स्वभाव (है) । (अत ) (व्यवहार) काल नश्वर (है), और (द्रव्यकाल) स्थायी (है)।
138 जीव आदि द्रव्यो के परिवर्तन का कारण काल होता है। धर्मादि
चार अन्य (द्रव्यो) मे स्वभावगुणपर्याय होती है ।
139 जो सत्लक्षणयुक्त (है), उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से सहित है
और (जो) गुण और पर्याय का आश्रय (है), वह द्रव्य (है) इस प्रकार सर्वज्ञ कहते है।
140 सत्ता सर्वपदार्थमय होती है, अनेक प्रकारसहित (रहती है),
अनन्त पर्यायवाली (है), उत्पाद, व्यय और ध्रुवतामय (है), एक (है), विरोधी पहलू-सहित है।
141 द्रव्य की न उत्पत्ति (होती है) और न ही (उसका) विनाश (होता
है)। (वह) (तो) अस्तित्व स्वभाववाला है । उस (द्रव्य) की पर्याये ही उत्पत्ति, नाश और ध्रुवता को प्रकाशित करती है।
142 पर्यायरहित द्रव्य नही है, द्रव्यरहित पर्याय भी (नही है), दोनो का
अस्तित्व अभिन्न बना हुआ (है) । (ऐसा) श्रमण कहते है।
143 द्रव्य के बिना गुण नही (होते है), गुण के बिना द्रव्य नही (होता
है) । अत द्रव्य और गुण का अस्तित्व अभिन्न होता है।
144 सत् (विद्यमान पदार्थ) का नाश नही (होता है), असत्
(अविद्यमान पदार्थ) का उत्पाद नही (होता है) । द्रव्य गुण-पर्यायो
के द्वारा ही उत्पाद-व्यय करते है । द्रव्य-विचार
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145 भावा जीवादीया जीवगुणा चेदणा य उवनोगो।
सुरणरणारयतिरिया जीवस्स य पज्जया बहुगा ।।
146. मणुसत्तणेण णटो देही देवो हवेदि इदरो वा।
उभयत्त जीवभावो ण णस्सदि रण जायदे अण्णो ।
147. सो चेव जादि मरणं जादि रण गट्ठो रण चेव उप्पण्णो ।
उप्पण्णो य विणो देवो मणुसो त्ति पज्जायो ।
148. अत्थो खलु दव्वमनो दवाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि ।
तेहिं पुणो पज्जाया पज्जयमूढा हि परसमया ॥
149 जे पज्जयेसु णिरदा जीवा परसमयिगति णिहिट्ठा ।
प्रादसहावम्मि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा ॥
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आचार्य पु
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145 जीव आदि सत् (विद्यमान पदार्थ) (है)। चेतना और ज्ञान जीव
के गुण (है)। जीव की अनेक पर्याय (है)-देव, मनुष्य, नारकी और तिर्यञ्च ।
146 (मरण के कारण) मनुष्यत्व से लुप्त हुआ जीव (पुनर्जन्म लेते
समय) देव अथवा अन्य कोई पर्यायवाला उत्पन्न होता है। (किन्तु) दोनो मे स्थित जीव पदार्थ (द्रव्य) न नष्ट होता है और न ही नया उत्पन्न होता है, अर्थात् जीव वही रहता है ।
147 वही (जीव) (पुनर्जन्म मे) उत्पन्न होता है (जो) मरण को प्राप्त
होता है। वह न नष्ट हुअा (है) (और) न (ही) (नया) उत्पन्न हुमा (है)। इस प्रकार मनुष्य पर्याय नष्ट हुई (है) और देव
पर्याय उत्पन्न हुई (है) । (जीव वही वर्तमान है)। 148 पदार्थ द्रव्यमय (होता है)। द्रव्य गुणस्वरूपवाले कहे गये (है)।
और उन (द्रव्यो) मे ही पर्याय (उत्पन्न होते है)। (जो) पर्यायो मे ही मोहित (ई), (वे) मूच्छित (कहे गये है)।
149 जो जीव पर्यायो में लीन (है), (वे) मूच्छित कहे गये (है)।
(तथा) जो आत्म-स्वभाव मे ठहरे हुए (है), वे जाग्रत समझे जाने चाहिए।
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संकेत-सूची
(अ) -अन्यय (इसका अर्थ =
लगाकर लिखा गया है) अक -अकर्मक क्रिया अनि अनियमित आज्ञा -प्राज्ञा फर्म कर्मवाच्य (क्रिविन)-क्रिया विशेषण अव्यय
(इसका अर्थ = लगाकर लिखा गया है) —तुलनात्मक विशेषण -पुल्लिग -प्रेरणार्थक क्रिया
भविष्य कृदन्त -भविष्यत्काल
-भाववाच्य भू -भूतकाल
-भूतकालिक कृदन्त -वर्तमानकाल -वर्तमान कृदन्त
-विशेषण विधि --विधि विधिकृ -विधि कृदन्त स -सर्वनाम संकृ --सम्बन्धक कृदन्त सक
-सकर्मक क्रिया सवि
-सर्वनाम विशेषण स्त्री -स्त्रीलिंग हे -हेत्वर्थ कृदन्त () -इम प्रकार के कोप्ठक
मे मूल शब्द रखा
गया है। [( )+ ( )+( ). ] इम प्रकार के कोष्ठक के अन्दर+ चिह्न किन्ही शब्दो मे सघि का द्योतक है । यहाँ अन्दर के कोष्ठको मे गाथा के शब्द ही रख दिए गए हैं।
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[( ) -( )-( )-] इम प्रकार के कोप्टक के अन्दर '-' चिह समाम का द्योतक है। 11 )-( )-( )] वि] • जहाँ समन्त पद विपण का कार्य करता है, वहां इन प्रकार के कोष्ठक का प्रयोग किया गया है।
1/1-प्रथमा/एकवचने 1/2-प्रथमा/बहुवचन 2/1-द्वितीया/एकवचन 2/2-द्वितीया/वहुवचन 3/1-तृतीया/एकवचन 3/2-तृतीया/वहुवचन 4/1-चतुर्थी/एकवचन 4/2-चतुर्थी/वहुवचन 5/1-पचमी/एकवचन 5/2-पचमी/बहुवचन 6/1---पष्ठी/एकवचन 6/2-पष्ठी/बहुवचन 7/1-सप्तमी/एकवचन 7/2--सप्तमी/बहुवचन 8/1-सबोधन/एकवचन 8/2-सबोधन/बहुवचन
• जहाँ फोप्ठक के बाहर केवल सग्या (जमे 1/1, 2/1 आदि) ही लिखी है वहाँ उन कोष्ठक के अन्दर का शब्द 'सजा' है।
• जहाँ कर्मवाच्य, कृदन्त आदि प्राकृत के नियमानुसार नही बने है वहाँ कोप्ठक के बाहर 'प्रनि' भी लिया गया है ।
1/1 अक
या
1/2 प्रक
या
2/1 प्रक
या
सक-उत्तम पुरुप/
एकवचन सक-उत्तम पुरुप
बहुवचन सक-मध्यम पुरुप/
एक वचन सफ-मध्यम पुरुष/
वहुवचन सक-अन्य पुम्प/
एक वचन सक-अन्य पुरुष/
बहुवचन
3/1 अक
या
3/2 अक
वा
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व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ
दव्व (दव्व) 1/1 सहावसिद्ध [(सहाव)-(सिद्ध) भूकृ 1/1 अनि सदिति [(सत्) + (इति)] सत् (मत्) 1/1 अनि इति (अ) = इस विवरणवाला जिणा (जिण) 1/2 तच्चदो (तच्च) पचमी अर्थक, 'दो'प्रत्यय = वास्तविक रूप से, समक्खादो (समक्खाद) भूकृ 1/2 अनि सिद्ध (सिद्ध) भूक 2/1 अनि प्रागमदो (आगम) पचमी अर्थक, 'दो'प्रत्यय = आगम से णेच्छदि [(ण)+ (इच्छदि)] ण (अ) = नही इच्छदि (इच्छ) व 3/1 सक जो (ज) 1/1 सवि सो (त) 1/1 सवि हि (अ) = निस्सन्देह परसमो (परसमय) 1/1 वि । वव्व = द्रव्य । सहावसिद्ध = स्वभाव से सिद्ध । सत् = मत् इति = इस विवरणवाला । जिणा= जितेन्द्रियो ने । तच्चदो वास्तविक रूप से । समक्खादो = कहा है । सिद्ध = स्थापित (द्रव्य) को । तध% ठीक इसी प्रकार । णेच्छदि = स्वीकार नही करता है । जो जो (व्यक्ति)। सो
वह । हि = निस्सन्देह । परसमोअसत्य दृष्टिवाला । 2 ण (अ) = नही हवदि (हव) व 3/1 अक जदि (प्र) = यदि सद्दध्व
[(सत्) + (दन्व)] सत् (सत्) 1/1 वि अनि दव्व (दव्व) 1/1 प्रसव [(असत् + (धुव)] असत् (असत्) 1/1 वि अनि धुव (धुव) 1/1 वि हवदि (हव) व 3/1 अक त (त) 1/1 सवि कघ (अ) = कसे दस्व (दव्व) 1/1 हवदि (हव) व 3/1 अक पुणो (अ) = पादपूरक अण्ण (अण्ण) 1/1 वि वा(प्र) = अथवा तम्हा= अत दन्व (दव्व) 1/1
सय (अ) = स्वय सत्ता (सत्ता) 1/1 __ण = नहीं। हवदि = होता है । जदि = यदि । सद्दव - सद, द्रव्य ।
असद्धव = असद, नित्य । हवदि = होता है→ होगा। त= वह । कषं % कैसे। दन्च = द्रव्य । हवदि = होता है । अण्ण = भिन्न । वा= अथवा । तम्हा = अत । दव्व = द्रव्य । सय = स्वय । सत्ता= सत्ता।
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दव्वं (दव) 1/1 जीवमजीव [ (जीव) + (अजीव)] जीव (जीव) 1/1 अजीव (अजीव) 1/1 जीवो (जीव) 1/1 पुण (प) = और चेदणोक्योगमयो [(चेदण)+ (उवयोगमयो)] [चेदण)-(उवयोगमय) 1/1 वि] पोग्गलदन्वप्पमुहं [(पोग्गल)-(दव्व)-(प्पमुह)11/1 वि] अचेवण (अचेदण) 1/1 वि हववि (हव) व 3/1 प्रक य (अ) = इसके विपरीत अजीव (अजीव) 1/1। I समास के अन्त में अर्थ होता है 'सहित' (आप्टे, सस्कृत-हिन्दी कोश)। दव्व = द्रव्य । जीवमजीव = जीव, अजीव । जीवो - जीव । पुण = और । चेदणोवयोगमयो= चेतन, उपयोगमय । पोग्गलदस्वप्पमुह - पुद्गल द्रव्य-सहित । अचेदण = अचेतन । हदि = होता है । य= इसके विपरीत । अजीव - अजीव ।
जाणदि (जाण) व 3/1 सक पस्सदि (पस्स) व 3/1 सक सम्व (सव्व) 2/1 वि इच्छदि (इच्छ) व 3/1 सक सुक्ख (सुक्ख) 2/1 विभेदि (विभेदि) व 3/1 अक अनि दुक्खादो (दुक्ख) 5/1 कुन्वदि (कुन्व) व 3/1 सक हिदमहिद [(हिद)+ (अहिद)] हिद (हिंद) 2/1 अहिद (अहिद) 2/1 वा (अ) = तथा भुजदि (भुज) व 3/1 सक जीवो (जीव) 1/1 फल (फल)2/1 तेसि (त) 6/2 स। जाणदि = जानता है। पस्सदि = देखता है । सव्व = सबको । इच्छदि = चाहता है । सुक्ख = सुख (को) । विभेदि = डरता है। दुक्खादो- दुख से । कुन्वदि = करता है । हिदमहिद - उचित और अनुचित को । वा तथा । भुजदि = भोगता है । जीवो जीव । फल = फल को । तेसि = उनके।
सुहदुक्खजाणणा [(सुह)-(दुक्ख)-(जाणणा) 1/1] वा (भ) = तथा हिदपरियम्मा [(हिद)-(परियम्म) 1/1] च (अ) = तथा अहिदीरत्त [(अहिद)-(भीरुत्त) 1/3] जस्स (ज) 6/1 स ण(अ) = नही विज्जदि (विज्ज) व 3/1 अक णिच्च (अ) = कभी भी त (त) 2/1 स समणा (समण)1/2 बिति (बू) व 3/2 स अज्जीव (अज्जीव)2/11 1 परिकर्मन् →परिकर्म-+ परिकम्म+परियम्म । 2 कभी-कमी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया
जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-134)।
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6
6.
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7.
सुंहदुक्खजारगरणा = सुख-दुख का ज्ञान । वा = तथा । हिदपरियम्मं = हित का उत्पादन । च = तथा । श्रहिदभीरतं = श्रहित से भय । जस्स = जिसका जिसमे । ग = नही । विज्जदि = वर्तमान होता है । णिच्च = कभी भी । त = उसको । समरगा = श्रमण | बिति = कहते हैं | प्रज्जीव = श्रजीव ( को ) ।
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जोवा (जीव ) 1/2 पोग्गलकाया [ ( पोग्गल ) - ( काय ) 1 / 2] धम्माधम्मा [ ( धम्म) + (अम्मा) ] [ ( धम्म ) - ( अधम्म) 1 / 2] य (श्र) = ओर काल (काल) मूलशब्द 1 / 1 श्रायास ( श्रायास ) 1 / 1 तच्चत्या ( तच्चत्थ) 1/2 इदि (M) = शब्दस्वरूपद्योतक भणिदा ( भण) भूकृ 1/2 णाणागुणपज्जयेहि [ ( णाणा ) - ( गुण ) - ( पज्जय ) 3/2] संजुत्ता (मजुत ) भू 1/2 अनि ।
जीवा = ( अनेक) जीव 1 पोग्गलकाया पुद्गलो का समूह 1 धम्माधम्मा = धर्म, अधर्म । य = ओर । काल = काल । श्रायास = आकाश । तच्चत्था = वास्तविक पदार्थ ( द्रव्य ) । भरिदा = कहे गये हैं । गाणागुणपज्जयेहि = अनेक गुण-पर्यायो से । सजुत्ता = सहित ।
=
(जीव ) 1 / 1 खलु
श्रागासकालजीवा [ ( श्रागास) - (काल) - (जीव ) 1 / 2] धम्माघम्मा [ ( धम्म) + ( श्रघम्मा ) ] [ ( धम्म ) - ( अधम्म) 1 /2] य= श्रीर मुत्तिपरिहोगा [ ( मुत्ति ) - ( परिहीण ) भूकृ 1 / 2 अनि] मुत्त (मुत्त) 1/1 वि पुग्गलदव्व [ ( पुग्गल ) - ( दव्व) 1 / 1 ] जीवो (अ) = ही चेदरणो ( चेदण) 1 / 1 तेसु (त) 7 / 2 स | आगासकालजीवा = श्राकाश, काल, जीव । य = श्रौर । मुत्तिपरिहरणा = मूर्ति से रहित पुग्गलदव्व = पुद्गल द्रव्य । जीवो = जीव । तेसु = उनमें ।
धम्माधम्मा = धर्म, अधर्म । ( श्रमूर्तिक) । मुत्त = मूतं । खलु = ही । चेदणो = चेतन ।
8
जे (ज) 1/2 सवि खलु = पादपूरक इदियगेज्झा [ ( इन्दिय ) - (गेज्झ ) विधि कृ 1/2 अनि ] विसया ( विसय ) 1/2 जीवहि (जीव ) 3 / 2 होति (हो) व 3 / 2 अक ते (त) 1/2 सवि मुत्ता (मुत्त) 1/2 वि सेस (सेस) 1 / 1 वि हवदि (हव) व 3 / 1 अक प्रमुत्त ( प्रमुत्त) 1 / 1 वि चित्त (चित्त) 1 / 1 उभय ( उमय ) 2 / 1 वि समादिर्यादि ( स + आइ समाइ→ समादि→ समादिय) व 3 / 1 सक ।
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8 = जो । इन्दियगेज्झाइन्द्रियो से ग्रहण किये जाने योग्य । विसया =
पदार्थ । जोवेहि = जीवो द्वारा । होति = होते है । ते = वे । मुत्ता = मूर्त । सेस-शेष । हवदि-होता है । अमुत्त = अमूर्त । चित्त = चित । उभय = दोनो को । समादियदि = भली प्रकार से समझता है। वण्णरसगधफासा [(वण्ण) - (रस)- (गघ) - (फास)1/2] विज्जते (विज्जते) व 3/2 अक अनि पुग्गलस्स! (पुग्गल) 6/1 सुहमादो (सुहम)5/1 पुढवीपरियतस्स ([पुढवी) - (परियत)6/1 वि] य - भी सद्दी (सद्द) 1/1 सो (त)1/1 सवि पोग्गलो (पोग्गल) 1/1 चित्तो (चित्त)1/1 वि । 1 कमी-कभी पष्ठी विमक्ति का प्रयोग सप्तमी के स्थान पर पाया
जाता है (हेम-प्राकृत व्याकरण, 3-134)। 9 वण्णरसगधफासा = वर्ण, रस, गध, स्पर्श । विज्जते = वर्तमान रहते हैं ।
पुग्गलस्स-पुद्गल के → पुद्गल मे । सुहमादो = सूक्ष्म से । पुढवीपरियतस्स-पृथिवी तक फैले हए । य = और । सहो = शब्द । सो वह ।
पोग्गलो = पुद्गलो । चित्तो = विभिन्न प्रकार का। 10-11 मागासस्सवगाहो [(पागासस्स)+ (अवगाहो)] आगासस्स (मागास)
6/1 अवगाहो (अवगाह) 1/1 धम्मद्दवस्स [(धम्म)-(व) 6/1] गमणहेदुत्त [(गमण)-(हेदुत्त) 1/1] धम्मेदरदन्वस्स [(धम्म)+ (इदर)+ (दव्वस्स)] [(धम्म)-(इदर) वि-(दव्व) 6/1] दु(प्र) = तो गणो (गुण) 1/1 पुणो और ठाणकारणदा [(ढाण)-(कारणदा) 1/1]
कालस्स (काल) 6/1 वट्टणा (वट्टणा) 1/1 से (अ) = वाक्य की शोमा, गुणोवनोगोत्ति [ (गुण)+ (उवोगो) + (त्ति)] [(गुण)(उवप्रोग) 1/1] ति (म) = शब्दस्वरूपद्योतक अप्पणो (अप्प) 6/1 भणिदो (भण) भूकृ 1/I णेया (णेय) भूकृ 1/2 अनि सखेवादो (सखेव) 5/1 गणा (गुण) 1/2 हि (अ) =ही मुतिप्पहीणाण [(मुत्ति)(प्पहीण) भूक 6/2 अनि] पागासस्सवगाहो-आकाश का, स्थान । धम्मद्दवस्स = धर्म द्रव्य का । गमणहेतुत्त = गमन मे निमित्तता । धम्मेदरदव्वस्स - धर्म के, विरोधी, द्रव्य का । दु= तो । गुणो = गुण । पुणो और । गणकारणदा= स्थिति (ठहरने) मे कारणता।
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कालस्स = काल का । वट्टणा = परिणमन (परिवर्तन) । गुणावोगोत्ति = गुण, उपयोग (ज्ञान-चैतन्य) । अप्पणो = प्रात्मा का । भणिदो = कहा गया । णेया = समझे जाने चाहिए । सखेवादो = मक्षेप में । गुणा = गुण । हि = ही । मुत्तिप्पहीणाण = मूर्तिरहित (द्रव्यो) के।
12 पागासकालपुग्गलधम्माधम्मेसु [(पागाम) + (काल) + (पुग्गल)+
(धम्म) + (अधम्मेमु)] [(पागाम)-(काल)-(पुग्गल)-(धम्म)(अधम्म )7/2] गत्यि = नही (रहते) हैं । जीवगुणा [ (जीव)-(गुण) 1/2] तेसि (त) 6/2 म अचेदणत्त (अचेदणत्त) 1/1 भाणिद (मण) भूकृ 1/1 जीवस्स (जीव) 6/I चेदणदा (चेदणदा) 1/11 1 कभी कभी पष्ठी का प्रयोग मप्तमी के स्थान पर पाया जाता है (हेम
प्राकृत व्याकरण, 3-134)। आगासकालपुग्गलधम्माघम्मेसु = आकाश, काल, पुद्गल, धर्म, अधर्म मे । णत्थि = नही रहते है । जीवगुणा = जीव के गण । तेसि = उनके- उनमे । अचेदरणत्त = अचेतनता । भणिद = कही गई है। जीवस्स= जीव के+जीव मे । चेदणदा= चेतनता ।
12
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जीवा = जीव 1/2 पुग्गलकाया [(पुग्गल)-(काय)1/2] सह (अ) = साथ-साथ, सक्किरिया |(म) वि-(निकरिया) 1/1] हवति (हव) व 3/2 अक ण (अ) = नही य = किन्तु सेसा (मेस) 1/2 वि पुग्गलकरणा [(पुग्गल)-(करण) 5/1] जीवा (जीव) 1/2 सधा (वय) 1/2 खलु (अ) = पादपूरक कालकरणा [(काल)-(करण)5/1] दु (अ) =
और। जीवा = जीव । पुग्गलकाया = पुद्गलराशि । सह = साथ-माथ । सक्किरिया = क्रिया-महित । हवति = होते है। ण = नही। य= किन्नु । सेसा = (शेप) । पुग्गलकरणा = पुद्गल के निमित्त से । जीवा = जीव । खधा = पुद्गल (स्कन्ध) । कालकरणा= काल के निमित्त से । दु= और।
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एदे (एद) 1/2 सवि छद्दन्वाणि[(छ)-(दव्व) 1/2] य = पादपूरक काल (काल) 2/1 मोत्तूण (मोत्तण) सकृ अनि प्रत्थिकात्ति [(अत्थिकाय)+ (त्ति)] अत्थिकाय (अत्थिकाय)/मूलशब्द 1/2 ति (अ) = शब्दस्वरूपद्योतक । गिठिा (णिदि) भूक 1/2 अनि जिणसमये
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[(जिण)-(समय) 7/1] काया (काय) 1/2 हु (अ)=ही बहुप्पदेसत्त
(बहुप्पदेसत्त) I/II 14 एदे- ये । छद्दन्वाणि = छ द्रव्य । काल = काल को । मोत्तूण = छोडकर ।
अत्यिकाय = अस्तिकाय । णिहिट्ठा-कहे गये है। जिणसमये-जिन-सिद्धान्त
मे । काया काय । हुम्ही । बहुप्पदेसत्त = बहुप्रदेशपना । 15-16 संखेज्जासखेज्जा-णतपदेसा [(सखेज्ज)+ (असखेज्ज) + (अणत) +
(पदेसा)] [(सबेज्ज)-(अमम्वेज्ज)-(अणत)-(पदेस) 1/2] हवति (हव) व 3/2 अक मुत्तस्स (मुत्त) 6/1 धम्माधम्मस्स [(धम्मा)+ (अधम्मस्स)] [(धम्म)-(अधम्म)) 6/1] पुणो (अ) = तथा जीवस्स (जीव) 6/1 प्रसखदेसा (प्रसखदेस) 1/2 हु (अ)- पादपूरक । लोयायासे (लोयायाम) 7/1 ताव (अ) = उतने इदरस्स (इदर) 6/1 वि प्रणतयं (अणतय) 1/1 वि य स्वार्थिक हवे (हव) व 3/2 अक देसा (देम) 1/2 कालस्स (काल) 6/1 ण (अ)-नही कायत्त (कायत्त) 11 एगपदेसो [(एग)-(पदेस) 1/1] हवे (हव) व 3/1 अक जम्हा
(म) = चूकि । 15-16 संखेज्जासखेज्जा-णतपदेसा सख्येय, असस्येय, अनन्त प्रदेश । हवति =
होते हैं। मुत्तस्स = मूर्त (पुदगल) (द्रव्य) के । धम्माधम्मस्स = धर्म के, अधर्म के । पुरणो- तथा । जीवस्स - जीव के । असखदेसाप्रसस्य प्रदेश। लोयायासे = लोकाकाश मे । ताव उतने- इतने ही । इदरस्स-विरोधी (अलोकाकाण) मे । अणतय = अनन्त । कालस्स = काल के । ए नहीं। कायत = कायता । एगपदेसो- एक प्रदेश । हवे होता है । जम्हा =
चूकि । 17 मागासमणुणिविट्ठ ।(पागास)+ (अणु)+ (णिविट्ठ)] अागास
(मागास) 2/1 [(अणु)-(णिविट्ठ) भूक 1/1 अनि] मागासपवेससण्णया [(आगास)-(पदेस)-(सण्णा) 3/1 अनि] भणिव (ण) भूक 1/1 सम्वेसि (सन्व) 6/2 सवि च (अ) = पादपूरक अणूण (अणु)6/2 1 कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीय का प्रयोग पाया जाता है
(हेम-प्राकृत व्याकरण, 3-137)। 2 कभी-कभी द्वितीया के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है
(हेम-प्राकृत व्याकरण, 3-134)।
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6/2 सक्कदि (मक्क) व 3/1 अक त (त) 1/1 मवि देदुमवकास [(देदु) + (अवकाम)] देदु (दा) हेक अवकाम
(अवकास) 2/1। 17 भागासमणुरिणविट्ठ = आकाण मे, अणु, स्थित । आगासपदेससाणया =
आकाश का (एक) प्रदेश, नाम द्वारा । भणिदं = कहा गया (है)। सव्वेसि अणूण = मब अणुनो को । सक्कदि = ममर्थ होता है । त= वह । देदुमवकास = स्थान देने के लिए।
18 जस्स (ज) 6/1 सण = नही सति (अम) व 3/1 अक पदेसा (पदेम)
1/2 पदेसमेत्त [(पदेम)-(मेत्त) 1/1] व(अ) = भी तच्चदो (प्र) = वस्तुत णादु (णा) हेकृ सुण्ण (मुण्ण) 1/1 जाण (जाण) विधि 2/1 सक तमत्य [(त) + (अत्य)] त (त) 1/1 सवि प्रत्य (प्रत्य) 1/1 अत्यतरभूदमत्योदो [(अत्यतर)+ (भूद)+ (अत्यीदो)] [(अत्यतर)
(भूद) भूक 1/1 अनि] अत्यीदो (अत्यि) 5/1 | 18 जस्स = जिसके । ण = नही । सति = है । पदेसा = प्रदेश । पदेसमेत्त = प्रदेश
मात्र । व= भी । तच्चदो = वस्तुत । पादु = जानने के लिए । सुण्ण = शून्य । जाण = समझो। तमत्य = वह द्रव्य । प्रत्यतरभूदमत्योदो = [ (अत्थतर) + (भूद) + (अत्थीदो)] = विपरीत, हुना, अस्तित्व से ।
19 अण्णोण्ण (अण्णोण्ण) 2/1 वि पविसता (पविस) वकृ 1/2 दिता (दा)
वकृ 1/2 प्रोगासमण्णमण्णस्स [(ोगास)+ (अण्णमण्णस्स)] - प्रोगास (प्रोगास) 2/1 अण्णमण्णस्स (अण्णमण्ण) 6/! वि मेलता (मेल) वकृ 1/2 वि= यद्यपि य= तथा णिच्च (अ) = सदैव सग (सग) 2/1 वि सभाव (समाव) 2/1 रण (अ) = नही विजहति (विजह) व 312 मक । 1 गमन अर्थ मे द्वितीया का प्रयोग है । 2 कभी-कमी द्वितीया के स्थान पर पष्ठी का प्रयोग पाया जाता है
(हेम-प्राकृत व्याकरण, 3-134) ।
19 अण्णोण्ण = एक दूसरे को एक दूसरे मे । पविसता प्रवेश करते हुए।
दिता = देते हुए । प्रोगासमण्णमण्णस्स [(ोगास)+ (अण्णमण्णस्स)] = स्थान (को), एक दूसरे को । मेलता = सम्पर्क करते हुए । वि= यद्यपि ।
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घमौर । णिच्च = मदेव । सग = निज (को) । सभाव = स्वभाव को ।
= नही । विजहति = छोडते हैं ।
20 जीवोत्ति [(जीवों) + (इति)] जीवो (जीव) 1/1 इति (अ) = शब्द
स्वरूप द्योतक हवदि (हव) व 3/1 अक चेदा (चेदा) 1/1 वि उपप्रोगविसेसिदो [(उपयोग)-(विसेसिद) भूक 1/l अनि] पहू (पहु) 1/1 वि कत्ता (कत्तु) 1/1 वि भोत्ता (भोत्तु) 1/1 वि य (अ) = तथा देहमतो [(देह)-(मत्त) 1/1 वि] हि (अ) = कभी भी नही मुत्तो
(मुत्त) 1/1 वि कम्मसजुत्तो [(कम्म)-(सजुत्त) भूकृ 1/1 अनि] 20 जीवोत्ति = जीवो+इति = जीव । हवदि = होता है। चेदा = चेतनामय ।
उपभोगविसेसिदो-ज्ञान-गुण की विशेपता लिये हुए । पहू = समर्थ ।कत्ता = कर्ता । भोत्ता = भोत्ता । य = तथा। देहमेत्तो देह जितना । ण हि = कभी भी नहीं । मुत्तो- इन्द्रियो द्वारा ग्रहण (मूर्त) । कम्मसजुत्तो = कर्मों से युक्त ।
पाणेहिं (पाण) 3/2 चहि (चदु) 3/2 वि जीवदि (जीव) व 3/1 अक जीवस्सदि (जीव) भवि 3/1 अक जो (ज) 1/1 सवि हु (अ) = तथा जीविदो (जीव) भूक 1/1 पुन्च (अ) = विगत काल मे सो (त) 1/1 सवि जीवो (जीव) 1/1 पाणा (पाण) 1/2 पुण (अ) = और बलमिदियमाउ [(बल)+ (इदिय) + (पाउ)] वल (बल) 1/1 इदिय (इदिय) 1/1 आउ (पाउ) मूलशब्द 1/1 उस्सासो (उस्सास)
1/11 21 पाहि प्राणो से। चहि - चार (से) । जीवदि = जीता है । जीव
स्सदि = जीवेगा । जो-जो । ह= तथा । जीविदो= जिया । पुन्व = विगत काल मे । सो वह । जीवो जीव । प्राणाप्राण । पुण% और । बलमिदियमाउ = वल+इदिय+प्राउ = बल, इन्द्रिय, आयु । उस्सासोश्वाम।
22 जीवा (जीव) 1/2 ससारत्था (समारत्थ) 1/2 वि रिणवादा (णिव्वाद)
भूक 1/2 अनि चेदरणप्पगा [(चेदण)+ (अप्पगा)] [(चेदण)(अप्पग) 1/2 ग स्वार्थिक वि] दुविहा (दुविह) 1/2 वि उवनोगलक्खणा[[(उवयोग)-(लक्खण) 1/2] वि] वि भी य= तथा
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देहादेहप्पवीचारा [(देह) + (प्रदेह) + (प्पवीचारा)] [[(दह)(अदेह)-(प्पवीचार) 1/2] वि] प्रविचार, पविचार = भेद (Monier williams, Saming
Dictionery)। 22 जीवा = जीव । ससारत्या = ममार मे स्थित । णिव्यादा = ममार मे मुक्त ।
चेदणप्पगा= चेतना स्वरूपवाले । दुविहा = दो प्रकार के। उवयोगलक्खरणा ज्ञान-स्वभाववाले । वि= मी । यतया । देहादेहप्पवीचारा = देहसहित और देहरहित भेदवाले ।
23 एदे (एद) 1/2 सवि सवे (मन्व) 1/2 सवि भावा (भाव) 1/2
ववहारणय (ववहारणय) 2/1 पडुच्च (अ) = अपेक्षा करके भणिदा (भण) भूकृ 1/2 -हु (अ) = सचमुच सव्वे (मब) 1/2 सवि सिद्धसहावा [ (सिद्ध)-(सहाव) 1/2] सुद्धणया (मुद्धणय) 5/1 ससिदी
(ससिदि) 1/1 जीवा (जीव) 1/21 23 एदे = ये । सव्वे = सभी । भावाभाव । ववहारणय व्यवहारनय को ।
पडुच्च (अ) = अपेक्षा करके । भरिणदा= कहे गये हैं । हु (अ) = सचमुच । सवे = सभी । सिद्धसहावा = मिद्ध स्वरूप । सुद्धणया= शुद्धनय से । ससिदी = मसार-चक्र । जीवा = जीव ।
24 अप्पा (अप्प) 1/1 परिणामप्पा [(परिणाम) + (अप्पा)]
[(परिणाम)-(अप्प) 1/1] वि] परिणामो (परिणाम) 1/1 गाणकम्मफलभावी [(णाण)-(कम्म)-(फल)-(भावि) 1/1 वि] तम्हा
(अ) = इसलिए णाण (णाण) 1/1 फम्म (कम्म) 1/1 फल (फल) 1/1 च (अ) = और प्रादा (पाद) 1/1 मुणेदव्वो (मुण) विधिक
1/11 24 अप्पा-आत्मा । परिणामप्पा = परिणाम-स्वभाववाला । परिणामो =
परिणाम । णाणकम्मफलभावी = ज्ञान-(चेतना), प्रयोजन-(चेतना), (कर्म)-फल-(चेतना) के रूप मे, होनेवाला। तम्हा= इसलिए । णाण = ज्ञान-(चेतना) । फम्म = प्रयोजन-(चेतना)। फल % (कर्म)फल-(चेतना)। घऔर । प्रादा = आत्मा । मुणेदवो = ममझी जानी चाहिए।
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25 कम्माण (कम्म) 6 / 2 फलमेक्को [ (फल) + (एक्को) ] फल ( फल ) 2 / 1 एक्को ( एक्क) 1 / 1 वि एक्को ( एक्क) 1 / 1 वि कज्ज ( कज्ज) 2 / 1. तु ( श्र) = तथा णाणमध [ ( णाण ) + (अघ ) ] णाण (जाण) 2 / 1. प्रध ( प्र ) = व एक्को ( एक्क) 1 / 1 वि चेदयदि ( चेदयदि ) व 3 / 1 सक अनि जीवरासी [ (जीव ) - ( रामि) 1 / 1] वेदगभावेण [ ( चेदग ) - (भाव) 3 / 1] तिविहेण (तिविह) 3 / 1 वि ।
25 कम्माण = कर्म के । फलमेक्को = कुछ फल को । एक्को = कुछ । कज्ज = प्रयोजन को । तु = तथा । णाणमघ णाण + अध = ज्ञान को, अव । एक्को = कुछ | चेदर्यादि = अनुभव करता है। जीवरासी = जीव समूह | चेदगभावेण = सचेतन परिणमन से ।
26
26
27
तिघा
(
अ ) = तीन प्रकार से, प्रभिमदा
परिणमदि (परिणम ) व 3 / 1 ग्रक चेदरणाए ( चेदणा) 7/1 श्रादा ( श्रादा) 1 / 1 पुरण (श्र) = तथा चेदरणा ( चेदणा ) 1 / 1 तिधाभिमदा [ ( तिघा ) + ( श्रभिमदा ) ] ( अभिमदा ) भूकृ 1 / 1 अनि सा जाणे (जाण) 7/1 कम्मे (कम्म) 7/1 फलम्मि (फल) 7/1 वा ( अ ) तथा कम्मर (कम्मणो) 6 / 1 अनि भणिदा ( भण) भूकृ 1 / 1 |
(ता ) 1 / 1 सवि पुरण ( अ ) = फिर
1
27
=
परिणमदि : स्पान्तरित होती है । चेदणाए = चेतनारूप मे । प्रादा = श्रात्मा । पुण (श्र) = तथा । चेदणा = चेतना । तिधाभिमदो = तिघा + श्रभिमदा = तीन प्रकार से, मानी गई है । सा = वह । पुरण = फिर । गाणे: = ज्ञान मे । कम्मे = कर्म मे । फलाम्मि = फल मे कम्मणो = कर्म के | भणिदा = कही गई है ।
। वा = तथा ।
त (त)
णाण (जाण) 1 / 1 श्रत्थवियप्पो [ ( श्रत्थ ) - ( वियप्प ) 1 / 1 ] कम्म (कम्म) 1 / 1 जीवेण (जीव ) 3/1 ज ( ज ) 1/1 सवि समारद्ध ( समारद्ध) भूकृ 1 / 1 अनि तमणेगविध [ ( त ) + (अणेगविध ) ] 1 / 1 सवि श्रणेगविध ( श्रणेगविध ) 1 / 1 वि भणिद ( भण) भूकृ 1 / 1 फलत्ति [ ( फल ) + (त्ति ) ] फल (फल) मूल शब्द 1 / 1 त्ति ( अ ) शब्दस्वरूप द्योतक सोक्ख (सोक्ख ) 1/1 व (श्र) = तथा दुक्ख ( दुक्ख ) 1 / 1 वा ( अ ) = प्रथवा ।
गाण
= ज्ञान- - (चेतना) । श्रत्थवियप्पो = पदार्थ का विचार । कम्म = कर्म - (चेतना) | जीवेण = जीव के द्वारा । ज = जो । समारद्ध = धारा गया
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है। तमणेगविध = त+प्रणेगविध = वह, अनेक प्रकार । भणिद = कही गई है। फलत्ति = फल = (कर्म)-फल (चेतना) । मोक्ख = मुख । =
तथा । दुक्ख = दु ख । वा (अ) = अथवा । 28 सव्वे (सव)1/2 वि खलु (अ) = वाक्य की शोभा कम्मफल [(कम्म)
(फल) 2/1] थावरफाया (धावरकाय) 1/2 वि तसा (तम) 1/2 वि हि (अ) = पादपूरक कज्जजुद [(कज्ज)-(जुद) भूक 2/1 अनि] पारिणत्तमदिक्कता [(पाणित्त)+ (आदिक्कत्ता)] पाणित्त (पाणित्त) 2/1 आदिक्कता (आदिक्कत) भूक 1/2 अनि गाण (णाण) 2/1 विदति
(विंद) व 3/2 सक ते (त) 1/2 सवि जीवा (जीव) 1/2 । 28 सवे- सभी । कम्मफल = कर्म के फल को। थावरकाया= स्थावर काय ।
तसा त्रस । फज्जजद = प्रयोजन से मिली हुई। पाणित्तमदिक्कतापाणित्त+अदिक्कता=प्राणीत्व को, पार किए हुए। णाण =ज्ञान को।
विदंति = अनुभव करते है । ते = वै । जीवा = जीव । 29 एदे (एद) 1/2 सवि जीवरिणकाया [(जीव)-(णिकाय) 1/2]
पचविहा (पचविह) 1/2 वि पुढविकाइयादीया [(पुढविकाइया)+ (आदीया)] [(पुटविकाइय)-(आदीय) 1/2] मणपरिणामविरहिदा [(मण)-(परिणाम)-(विरह) भूक 1/2] जीवा (जीव) 1/2 एगेंदिया [(एग)+ (इदिया)] [[(एग) वि-(इदिया) 1/2] वि] भरिणया
(भण) भूक 1/21 29 एदे = ये । जीवणिकाया = जीव-समूह । पचविहा=पाच प्रकार | पुढ
विकाइयादीया = पुढविकाइय+आदीया = पृथिविकायिक, आदि । मणपरिणामविरहिदो = मन के प्रभाव मे रहित । जीवा= जीव । एगेंदिया = एक इन्द्रियवाले । भणिया = कहे गये ।
30 अडेसु (अड) 7/2 पवड्ढता (पवड्ढ) व 1/2 गम्भत्या (गन्मत्य) 1/2
माणुसा (माणुस) 1/2 य = तथा मुच्छगया [(मुच्छ)-(गय) भूक 1/2 अनि] जारिसया (जारिस) 1/2 'य' स्वार्थिक तारिसया (तारिस) 1/2 जीवा (जीव) 112 एगेंदिया [(एग)+ (इदिया)] [एग) वि(इदिय) 1/2] वि णेया (णेय) विधिक 1/2 अनि । 1 समास मे दीर्घ का ह्रस्व (मुच्छा- मुच्छ) (हेम-प्राकृत व्याकरण,
1-4)।
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30 अडेसु= अण्डो मे। पवडढता = बढते हुए । गम्भत्या गर्भ में स्थित ।
माणुसा= मनुप्य । य% तथा । मुच्छगया बेहोश । जारिसया % जिस प्रकार । तारिसया = उसी प्रकार । जीवा = जीव । एगेंदिया = एक इन्द्रियवाले । भणिया = कहे गये ।
31 सरफमादुवाहा [(सवुक्क)-(मादुवाह) 1/2] सखा (सख) 1/2
सिप्पी (सिप्पि) 1/2 अपादगा (प्र-पादग) 1/2 वि य = और किमी (किमि) 1/2 जाणति (जाण) व 3/2 सक रस (रस) 2/1 फास (फास) 2/1 जे (ज) 1/2 सवि ते (त) 1/2 सवि बेइदिया [(वे) वि-(इदिय) 1/2] वि] जीवा (जीव) 1/21 सवुक्कमादुवाहा = शवूक, मातृवाह । सखा = शख । सिप्पी = सीप । अपादगा= बिना परवाले । य= और । किमी कीट । जाणति = जानते हैं । रस = रस को । फास= स्पर्श को । जे = जो । ते वे । वेइ दिया-दो इन्द्रियवाले । जीवा = जीव ।
32
गागुभीमक्करणपिपीलिया [(जूगा)-(गुभी)-(मक्कण)-(पिपीलिया) 1/1] विच्छियादिया [(विच्छिय)+ (प्रादिया)] [(विच्छिय)(पादिय) 1/2 'य' स्वार्थिक] कीडा (कीड) 1/2 जाणति (जाण) व 3/2 सक रस (रस) 2/1 फास (फास) 2/1 गघ (गघ) 2/1 तेइदिया [[(ते)-(इदिय) 1/2] वि] जीवा (जीव) 1/21 जूगागुभीमक्कणपिपीलिया = जू, कुम्भी, खटमल, चीटी। विच्छियादियाविच्छिय+यादिया = विच्छ्र, आदि । कीडा = कीडे । जाणति = जानते हैं । रस = रस को । फास = स्पर्श को । गध = गन्ध को । तेइदिया = तीन इन्द्रियवाले । जीवा = जीव ।
33 उद्दसमसयमक्खियमधुकरभमरा [(उद्दस) - (मसय) - (मक्खिय)
(मधुकर)-(भमरा) 1/2] पतगमादीया [(पतग) + (प्रादीया) ] पतग (पतग) 2/1 आदीया (आदीय) 1/2 'य' स्वार्थिक रूप (रूप) 2/1 रस (रस) 2/1 च (म) = और गध (गध) 2/1 फास (फास) पुण (अ) = पादपूरक । ते (स) 1/2 सवि विजाणति वि (अ) = प्रत. जाणति (जाण) व 3/2 सक । कमी कभी प्रथमा के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत-व्याकरण, 3-137 वृत्ति)।
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33 उद्दसमसयमक्खियमधुकरभमरा= मच्छर, डाम, मकापी, मधुमक्खी, भौरा।
पतगमादीया = पतग+यादीया पतगा यादि । स्प%प को । रसरस को । च = और । गध = गध को । फास = स्पर्ण को । पुरण = पादपूरक । तेवे । वि (अ)- प्रत । जाणति = जानते है।
34 सुरणरणारयतिरिया [(सुर)-(णर)-(णारय) वि-(तिरिय) 1/2]
वण्णरसप्फासगघसद्दण्हू [(वण्ण)-(ग्म)-(प्फास)-(गध)-(सह)(णहु) 1/2] जलचरयलचरसचरा [(जलचर)-(थलचर)-(खचर) 1/2] वलिया (वल) भूक 12 पचेदिया [(पच)-(दिय) 1/2] वि]
जीवा (जीव) 1/2 । 34 सुरणरणारयतिरिय = देव, मनुप्य, नारकी, तिर्यञ्च । वण्णरसफासगध
सद्दण्हू - वर्ण, रस, स्पर्श, गन्ध और शब्द के जाननेवाले । जलचरयलचरखचरा जल मे गमन करनेवाले, स्थल पर गमन करनेवाले, आकाश मे गमन करनेवाले । वलिया = गतिशील । पचेदिया = पचेन्द्रिय । जीवा = जीव ।
35 जह = जिस प्रकार पउमरायरयण [(पउमराय)-(रयण) 1/1] खित
(खित्त) भूक 1/! अनि सोर (खीर) 2/1 पभासयदि (पभामयदि) व 3/1 सक अनि खीर (खीर) 2/1 तह (अ) = उसी प्रकार देही (देहि) 1/1 देहत्यो (देहत्य) 1/1 सदेहमत्त [(स)-(देह)-(मत्त) 2/1] 1 कभी-कभी द्वितीया विभक्ति का प्रयोग सप्तमी के अर्थ में भी किया
है । (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-137)। 35 जह- जिस प्रकार । पउयरायरयण = पद्मराग, रत्ल । खित्त = डाला
हुआ । खीर = दूध को दूध मे । प्रभासयदि = प्रकाशित करता । खोर % दूध को । तह = उसी प्रकार । देही = आत्मा। देहत्यो देह मे स्थित।
सदेहमत्त = स्वदेह मात्र को । पभासयदि = प्रकाशित करता है । 36-37-38
जो (ज) 1/1 मवि खलु (अ) = सचमुच, संसारत्यो (ससारत्य) 1/1 वि जीवो (जीव) 1/1 तत्तो (अ) = उस कारण से दु (अ) =ही होरि हो व 3/1 अक परिणामो (परिणाम) 1/1 परिणामादो (परिणाम)511 कम्म (कम्म) 1/1 कम्मादो (कम्म) 5/1 होदि (हो) व 3/1 प्रक गदिसु (गदि) 7/1 अनि गदी (गदि) 1/11
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गदमिधिगस्स [(गदि) + (अधिगस्स)] गदि (गदि) 2/1 अधिगदस्स(अधिगद) भूक 6/1 अनि देहो (देह) 1/1 देहादो (देह) 5/1 इदियाणि (इदिय) 1/2 जायते (जाय) व 3/2 सक तेहिं (त) 3/2 स दु (अ) = ही विसयग्गहण (विपय)-(गहण) 1/1] तत्तो (अ) = उस कारण से रागो (राग) 1/1 वा (अ) = और दोसो (दोस) 1/1। जादि (जाय) व 3/1 सक जीवस्सेव [(जीवस्स)+ (एव)] जीवस्स (जीव) 6/1 एव (म) = इस प्रकार भावो (माव) 1/1 ससारचक्कवालम्मि [(ससार)-(चक्कवाल) 7/1] इदि (अ) = इस प्रकार जिएवरेहि (जिणवर) 3/2 भरिणदो (भण) भूक 1/1 अणादिणिधणो अण+आदि+णिघणो = (अणादिणिधणो)1/1 वि मणिघणो (स-णिघण) 111 वि वा (अ) = या। । कभी-कभी पष्ठी विभक्ति का प्रयोग पचमी के स्थान पर पाया
जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-134) । 36-37-38
जोजो। खलु = सचमुच । ससारत्थो ससार मे स्थित । जीवो - जीव । ततो उस कारण से । दु= ही । होदि = उत्पन्न होता । परिणामो-भाव । परिणाभादो = भाव से । कम्म = कर्म । कम्मादो कर्म से। होदि = होता है । गदिसु = गतियो मे । गदी = गमन । गदिमधिगस्स - गदि अधिगस्स = गति को→ गति मे, गए हुए (जीव) से । देहो- देह । देहादो - देह से । इदियाणि = इन्द्रियाँ । जायते - उत्पन्न होती हैं । तेहि = उनके द्वारा । दु-ही । विसयग्गहण = विषयो का ग्रहण । तत्तो- उस कारण से । रागो= राग । वा= और । दोसो द्वेष । जायदि = उत्पन्न होता है। जीवस्सेव - जीवस्स+एव = जीव के, इस प्रकार । भावो - मनोभाव । ससारचक्फवालम्मि = आवागमन के समय (मे) । इदि = इस प्रकार | जिणवहि - अर्हतो द्वारा । भणिदो = कहा गया है। प्रणादिरिणधरणोप्रादिरहित, अन्तरहित । सणिधणो % अन्तसहित । वाया।
39
जेसि (ज) 6/2 विसयसु (विसय) 7/2 रदी (रदि) 1/1 तेसि (त) 6/2 म दुक्ख (दुक्ख) 1/1 विधारण (वियाण) विधि 2/1 सक सम्भाव (समाव) 1/1 जदि (अ) = यदि त (त)1/1 सवि ण (अ) 3
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न हि (अ) = क्योकि सन्भाव (सव्भाव) 1/1 वावारो (वावार) 1/1
णत्यि (अ) = न विसयत्य (विसयत्य) चतुर्थी अर्थक 'अत्य' अव्यय । 39 जेसि = जिन के । विसयेतु = विपयो मे । रदी = रस । तेसि = उनके ।
दुक्ख = दु ख । वियाण = समझो । सम्भाववास्तविकता । जदि = यदि । त= वह । एन । हि = क्योकि । सम्भाव= वास्तविकता । वावारो= प्रवृत्ति । पत्थिन । विसयत्य = विपयो के लिए।
40 तिपयारो [(ति) वि-(पयार) 1/1] सो (त) 1/l सवि अप्पा
(अप्प) 1/1 परभितरवाहिरो [(पर)+ (अन्मितर)+ (वाहिरो)] [(पर) वि-(अम्भितर) वि-(वाहिर) 1/1 वि] हु (अ) = निस्सन्देह हेऊण (हेउ) 6/2, तत्य (अ) = उस अवस्था मे परो (पर) 1/1 वि झाइज्जइ (झा) व कर्म 3/1 सक अंतोवायेण [(अत)+ (उवायेण)] अंत (अ) = आतरिक उवायेण (उवाय) 3/1 चयहि (चय) विधि 2/1 सक बहिरप्पा (वहिरप्प) 2/1 अपभ्रंश । 1 कभी-कभी तृतीया के स्थान पर पष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया
जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-134)। 40 तिपयारो-तीन प्रकार का । सो वह । अप्पा=आत्मा । परभितर
वाहिरो पर+अभिवर+वाहिरो= परम, आन्तरिक, वहिर (आत्मा)। हु = निस्सन्देह । हेऊण = कारणो के→ कारणो से । तत्थ = उस अवस्था मे। परो= परम । झाइज्जइ = ध्याया जाता है। अतीवायेण = आतरिक के
साधन से । चयहि = छोडो । बहिरप्पा वहिरात्मा को। 41. अक्खाणि (अक्ख) 1/2 बहिरप्पा (वहिरप्प) 1/1 अतरप्पा (अतरप्प)
1/1 हु (अ) = ही अप्पसकप्पो [(अप्प)-(सकप्प) 1/1] कम्मकलकविमुक्को [(कम्म)-(कलक-(विमुक्क) 1/1 वि] परमप्पा
(परमप्प) 1/1 भण्णए (भण्ण) व कर्म 3/1 सक अनि देवो (देव) 1/1 | 41 अक्खाणि - इन्द्रियाँ । बहिरप्पा वहिरात्मा । अतरप्पा-अतरात्मा ।
हुम्ही । अप्पसकप्पो आत्मा की विचरणा । कम्मकलकविमुक्को = कर्मकलक से मुक्त । परमप्पा- परम आत्मा। भण्णए = कहा गया ।
देवो देव । 42 आरहवि (आरह) सकृ अपभ्रश अतरप्पा (अतरप्प) 2/1 अपभ्रश
वहिरप्पा (वहिरप्प) 2/1 अपभ्रश छडिऊण (छड) सकृ तिविहेण
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(तिविह) 3/1 झाइज्जइ (झा) व कर्म 3/1 सक परमप्पा (परमप्पा) 1/1 उवइट्ठ (उवइट्ठ) 1/1 वि । जिणवारदेहि (जिणवरिंद) 3/2। प्रारहवि = ग्रहण करके । अतरप्पा = अन्तरात्मा को। बहिरप्पा = बहिरात्मा को। छडिऊरण = छोडकर । तिविहेण = तीन प्रकार से । झाइज्जइ%ध्याया जाता है । परमप्पा-परमात्मा। उवइट्ठ% कहा गया । जिणवारदेहि अरहतो द्वारा ।
43
जो (ज) 1/1 सवि पस्सदि (पस्स) व 3/1 सक अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 अबढ़पुट्ठ [(अव)+ (अपुठ्ठ)] [(अवद्ध) भूक अनि-(अपुढ) भूक 2/1 अनि] अणण्णय (अणण्ण) 2/1 वि स्वार्थिक 'य' प्रत्यय णियद (णियद) 2/1 वि अविसेसमसंजतं [(अविसेस) + (असजुत्त)] अविसेस (अविसेस) 2/1 वि प्रसजुत्त (असजुत्त) भूकृ 2/1 अनि त (त) 2/1 सवि सुवनय (सुदनय) 2/1 वियाणाहि (वियाण) विधि 2/1 सक। 1 आज्ञार्थक या विधि अर्थक प्रत्ययो के होने पर कभी-कभी अन्त्यस्थ
'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति देखी जाती है (हेम-प्राकृत
व्याकरण, 3-158 वृत्ति) जो जो । पस्सदि = देखता है । अप्पाण = प्रात्मा को। अबद्धपुट्ठ = वध से रहित, न छुपा हुआ। अणण्णय = अद्वितीय । णियद - स्थायी। अविसेसमसजुत्त = अविसेस+प्रसजुत्त = भेद से रहित, अमिश्रित । त%3D उसको । सुद्धणय = शुद्धनय (को) । वियाणाहि = जानो ।
43
44
प्ररसमरूवमगध [(अरस) + (अरूव) + (अगध)] अरस (मरस) 1/1 वि अरूव (अरूव) 1/1 वि अगघ (अगप) 1/1 वि अन्वत्त (अन्वत्त) 1/1 वि चेयणागुणमसद्द [(चेयणा)+ (गुण)+ (असद्द)] [(चेयणा)(गुण) 1/1] असद्द (असह) 1/1 वि जाणलिंगग्गहण [(जाण)+ (अलिंग)+ (ग्गहण)] जाण (जाण) 1/1 [(अलिंग) वि- (ग्गहण) 1/1] जीवमणिविद्वसठाण [(जीव) + (अणिट्ठि)+ (सठाण)] जीव (जीव) 1/1 [(अणिट्टि) वि-(सठाण) 1/1] । अरसमरूवमगध = अरस + अरूव+अगध = रसरहित, रूपरहित, गधरहित। अन्वत्त = अदृश्यमान । चेयणागुणमसद्द - चेतना, स्वभाव, शब्दरहित । जाणमलिंगग्गहण =जाण+आलिंग+गहण = ज्ञान, बिना किसी
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चिह्न के, ग्रहण । जीवमरिणदिवसठाण = जीव+अणिट्टि + सठाणं = प्रात्मा, अप्रतिपादित, आकार । ववहारोऽभूदत्थो [(ववहारो) + (अभूदत्यो)] ववहारो (ववहार) 1/l अभूदत्थो (अभूदत्थ) 1/1 वि भूदत्थो (भूदत्य) 1/1 वि देसिदो (देस) भूक 1/1 दु (अ) = ही सुद्धणो [(सुद्ध) वि - (णप्र) 1/1] भूदत्यमस्सिदो [(भूदत्य) + (अस्सिदो)] भूदत्य (भूदत्थ) 2/1 अस्सिदो (अस्सिदो) 1/1 भूकृ अनि खलु (अ) = ही सम्मादिट्ठी (सम्मादिट्ठी) 1/1 वि हवदि (हव) व 3/1 अक जीवो (जीव) 1/1 | 1 कभी कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया
जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरण, 3-137) या 'अस्सिद' कर्म के
साथ कर्तृवाच्य मे प्रयुक्त होता है (आप्टे, सस्कृत-हिन्दी कोश)। ववहारोऽभूदत्यो = व्यवहार, अवास्तविक । भूदत्यो = वास्तविक । देसिदो = कहा गया। दुही। सुद्धणो= शुद्धनय । भूदत्यमस्सिदो= वास्तविकता पर आश्रित । खलु = ही। सम्मादिट्ठी = सम्यदृष्टि । हवदि होता है । जीवो जीव ।
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जीवे (जीव) 7/1 कम्म (कम्म) 1/1 बद्ध (वद्ध) भूकृ 1/1 अनि पुट्ठ (पुढ) भूकृ 1/1 अनि चेदि [(च)+ (इदि)] च (प्र) = और इदि (अ) = इस प्रकार ववहारणयभणिद [(ववहारणय)-(भण) भूक 1/1] सुद्धणयस्स (सुद्धणय) 6/1 दु (अ) = किन्तु प्रवद्धपुट्ठ [(अबद्ध) + (अपुट्ठ)] [(अवद्ध) भूकृ अनि-(अपुट्ठ) भूक 1/1 अनि] हवदि (हव) व 3/1 अक कम्म (कम्म) 1/1 | 1 कभी कभी तृतीया के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया
जाता है (हेम-प्राकृत-व्याकरण, 3-135) । जीवे = जीव मे → जीव के द्वारा। कम्म = कम्म । बद्ध = बांधा हा । पुछ % पकडा हुआ। चेदि = और, इस प्रकार । ववहारणयभणिदं = व्यवहारनय के द्वारा, कहा गया । सुद्धणयस्स = शुद्धनय के । दुही । जीवे = जीव के द्वारा । अबद्धपुट्ठ = न वाँधा हुआ, न पकडा हुआ । हवदि = होता है। कम्म = कर्म ।
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कम्म (कम्म) 1/1 बद्धमवद्ध [(वद्ध)+ (अवद्ध)] वद्ध (वद्ध) भूकृ 1/1 अनि अवद्ध (अवद्ध) भूकृ 1/1 अनि जीवे (जीव) 7/1 एद (एद)
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2/1 सवि तु (अ) = तो जाण (जाण) विधि 2/1 सक णयपक्ख [(णय)- (पक्ख) 2/1] जयपक्खातिरकतो [(णय) + (पक्ख)+ (अतिक्कतो)] [(णय)- (पक्ख) - (अतिक्कत) 1/1 वि] भण्णदि (भण्णदि) व कर्म 3/1 सक अनि जो (ज) 1/1 सवि सो (त) 1/1 सवि समयसारो (समयसार) 1/1 | 1 कभी कभी तृतीया के स्थान पर सप्तमी का प्रयोग पाया जाता है
(हेम प्राकृत व्याकरण, 3-155)। कम्म = कम । बद्धमवद्ध = वद्ध+प्रवद्ध = बांधा गया, न बांधा गया। जीवे = जीव मे + जीव के द्वारा । एद = इसको । तु=तो । जाण % जानो । रायपक्ख = नय की दृष्टि । रणयपक्खातिक्कतोनय की दृष्टि से अतीत । भण्णदि = कहा गया। जो जो। सो वह । समयसारो = समयसार।
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जीवो (जीव) 1/1 ववगदमोहो [(ववगद) भूक अनि-(मोह) 1/1] उवलद्धो (उवलद्ध) भूक 1/1 अनि तच्चमप्पणो ] (तच्च) + (अप्पणो)] तच्च (तच्च) 2/1 अप्पणो (अप्प) 6/1 सम्म (अ) = पूर्णत जहदि (जह) व 3/1 सक जदि (अ) = यदि रागदोसे [(राग)-(दोस) 2/2] सो (त) 1/1 सवि अप्पाण (अप्पाण) 2/1 लहदि (लह) व 3/1 सक सुद्ध (सुद्ध) भूक 2/1 अनि । 1 'उवलद्ध' = इसका प्रयोग कर्तृवाच्य मे हुआ है । यह विचारणीय है। जीवो = व्यक्ति ने । ववगदमोहो = मोह समाप्त किया गया। उवलद्धोप्राप्त किया। तच्चमप्पणो तच्च+अप्पणो सार को, आत्मा के। सम्म = पूर्णतः । जहदि = छोड देता है । जदि = यदि । रागदोसे = रागद्वप को । सो= वह। अप्पाण = अपने । लहदि प्राप्त कर लेता है - प्राप्त कर लेगा। सुद्ध = शुद्ध स्वरूप को।
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49 जो (ज) 1/1 सवि एव (अ) = इस प्रकार जारिणत्ता (जाण) सक झादि
(झा) व 3/1 सक पर (पर) 2/1 वि अप्पग (अप्प) 2/1 स्वार्थिक 'ग' प्रत्यय विसुद्धप्पा [(विमुद्ध) वि-(अप्प) 1/1] सागाराणागारो [(सागार) + (अणगारो)] [सागार)-(अणगार) 1/1] खवेदि (ग्वव) व 3/1 सक सो (त) 1/1 मवि मोहदुग्गठिं [(मोह)-दुग्गठि)
2/1] । 49 जो-जो । एव = इस प्रकार । जारिणत्ता समझकर । झादि = ध्यान
करता है। पर = उच्चतम (को) । अप्पग = प्रात्मा को । विसुबप्पा%D शुद्धात्मा । सागाराणगारो= सागार+अणगारो= गृहस्थ व मुनि । सवेदि = नष्ट कर देता है । सो वह । मोहदुग्गठि = मोह की जटिल गांठ को ।
50 रगाह [(ण)+अह)] ण = नही अह (अम्ह) 1/1 स होमि (हो) व
3/1 अक परेसि (पर) 6/2 वि मे (अम्ह) 6/1 म परे (पर) 2/2 वि सन्ति (अस) व 3/2 अक णाणमहमेषको [(णाण)+ (ग्रह)+ (एक्को)] णाण (णाण) 1/1 अह (अम्ह) 1/1 म एक्को (एक्क) 1/1 सवि इदि (अ) = इस प्रकार जो (ज) 1/1 सवि झायदि (झाय) व 3/1 सक झाणे (झाण) 1/1 सो (त) 1/1 मवि अप्पाण (अप्पाण) 2/1 हवदि (हव) व 3/1 अक झादा (झाउ) 1/1 वि । 1 कभी-कभी प्रथमा के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग पाया जाता है ।
(हेम-प्राकृत व्याकरण, 3-137 वृत्ति)। 50 णाह = ण+ अह = नही, मै । होमि = हूँ । परेसि = पर के । ण = नही।
मे = मेरे। परेपर को→ पर । सन्ति = हैं । पाणमहमेक्को णाण+ अह +एक्को = ज्ञान, मै, केवल मात्र । इदि = इस प्रकार । जोजो । झायदि = ध्याता है। झाणे = ध्यान मे । सो= वह । अप्पाण - प्रात्मा को । हवदि = होता है । झादा = ध्याता।
51 देहा (देह) 1/2 वा (अ) = एव दविणा (दविण) 1/2 सुहदुक्खा
[(सुह)-(दुक्ख) 1/2] वाऽघ [(वा)+ (अघ)] वा (अ) = एव अध (अ) = अच्छा तो सत्तुमित्तजणा [(सत्तु)-(मित्त)-(जण) 1/2] जीवस्स (जीव) 6/1 ण (अ) = नही सति (अस) व 3/2 अक धुवा (धुव) 1/2 वि धुवोवनोगप्पगो [(धुव) + (उवप्रोगप्पगो)] [(धुव) वि-(उवप्रोगप्पगो) 1/1 वि] अप्पा (अप्प) 1/11
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51 देहा= शरीर । वा = एव । दविणा = घनादि वस्तुएँ । सुहदुक्खा = सुख
और दुख । वाऽध = वा+अघ = एव, अच्छा तो । सत्तमित्तजणा = शत्रु, मित्रजन । जीवस्स% व्यक्ति के । ण = नही । सति % रहते है । धुवा = स्थायी । धवोवोगप्पगो = ध्रुव+उवप्रोगप्पगो = स्थायी, उपयोगमयी । अप्पा आत्मा।
52 एव=इस प्रकार गाणप्पाण (णाणप्पाण) 2/1 वि दसणभूद [(दसण)
(भूद) भूक 2/1 अनि] अदिदियमहत्य [(अदिदिय)-(महत्थ) 2/1] धुवमचलमणालब [(धुव) + (अचल)+प्रणालब)] धुव (धुव) 2/1 वि अचल (अचल) 2/1 वि प्रणालब (अणालब) 2/1 वि मण्णेऽह [मण्णे)+ (प्रह)] मण्णे (मण्णे) व 1/1 सक अनि अह (अम्ह) 1/1 स अप्पग
(अप्प) 2/1 'ग' स्वार्थिक प्रत्यय सुद्ध (मुद्ध) 2/1 वि । 52 एव = इस प्रकार । णाणप्पाण = ज्ञानस्वभाववाला । दसणभूद %D
दर्गनमयो । अदिदियमहत्य = अतीन्द्रिय, श्रेष्ठ पदार्थ । धुवमचलमणालब = घुव+अचल+अणालव = स्थायी, स्थिर, पालवनरहित । मण्णेऽह =
समझता हूँ, मै । अप्पग-प्रात्मा को । सुद्ध = शुद्ध । 53 प्रादा (पाद) 1/1 णाणपमाण [(णाण)-(पमाण) 1/1] णाण (णाण)
1/1 णेयप्पमाणमुद्दिट्ट [(णेय)+ (प्पमाण) + (उद्दिट्ठ)] [(णेय) विघि कृ अनि-(प्पमाण) 1/1] उद्दिट्ठ (उद्दिढ) भूकृ 1/1 अनि णेय (णेय) विधि कृ 1/1 अनि लोगालोग [(लोग)+(अलोग)] [(लोग)(अलोग) 1/1] तम्हा (प्र) = इसलिए णाण (गाण) 1/1 तु (अ) =
तो सव्वगय [(सन्व) वि-(गय) भूक 1/1 अनि] । 33 प्रादा = आत्मा । णापमाण-ज्ञान जितना । यप्पमाणमुद्बिठ्ठ =णेय+
प्पमाण+उद्दिछ = ज्ञेय, जितना, कहा गया । णेय = ज्ञेय । लोगालोग = लोग+अलोग% लोक, अलोक । तम्हा = इसलिए । णाण = ज्ञान । तु
(अ) = तो । सन्वगय = सब जगह विद्यमान । 54 गाण (णाण) 1/1 अप्पत्ति (अप्प)+ (इति)] अप्प (अप्प) 1/1
इति (अ) = इस प्रकार मदं (मद) भूक 1/1 अनि वट्टदि (वट्ट) व 3/1 अक णारण (णाण) 1/1 विणा (अ) = बिना ण (अ) = नही अप्पाण' (अप्पाण) 2/1 तम्हा (अ) = इसलिए णाण (णाण) 1/1 अप्पा (अप्प) 1/1 अप्पा (अप्प) 1/1 णाण (णाण) 1/1 व (अ) = तथा अण्ण (अण्ण) 1/1 वि वा (अ) = भी।
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1 यहा 'अप्पा' का 'अप्प' हुआ है। आगे 'त्ति' सयुक्त अक्षर होने से
अप्पा का अप्प हुआ है (हेम-प्राकृत-व्याकरण, 1-84)। 2 विना के योग मे द्वितीया, तृतीया या पचमी विभक्ति होती है । 54 णाण = ज्ञान । अप्पत्ति = प्रात्मा, इस प्रकार । मदं = स्वीकृत । वट्टदि =
होता है। णाण = ज्ञान । विणा= विना । = नही । अप्पाणं = प्रात्मा के । तम्हा= इसलिए । णाणं = ज्ञान । अप्पा= प्रात्मा। अप्पा-आत्मा ।
पाण= ज्ञान । व= तथा । अण्ण = अन्य । वा= भी। 55 जो (ज) 1/1 सवि जाणदि (जाण) व 3/1 सक सो (त) 1/1 सवि
गाणं (गाण) 1/1 रण (प्र) = नही हवदि (हव) व 3/1 अक गाणेण (णाण) 3/1 जाणगो (जाणग) 1/1 वि मादा (आद) 1/1 पाण (णाण) 1/1 परिणमदि (परिणम) व 3/1 अक सय (अ) =स्वयं अट्ठा (अट्ठ) 1/2 पाएट्ठिया [(णाण)-(ट्ठिय) भूक 1/2 अनि] सव्वे
(सन्व) 1/2 वि । 55 जो जो । जाणदि = जानता है । सो वह । वाण = ज्ञान । ण (म) =
नही । हवदि = होता है । णाणेण = ज्ञान के द्वारा । जाणगो जाननेवाला । प्रादा = प्रात्मा । णाणं = ज्ञान । परिणमदि = रूपान्तरित होता है। सय = स्वय । अट्ठा = पदार्थ । णाणद्विया=ज्ञान में स्थित । सव्वे % सब ।
56 तिक्कालरिणच्चविसम [(तिक्काल)-(णिच्च)-(विसम) 1/1 वि]
सयलं (सयल) 2/1 वि सम्वत्थ (अ) = हर समय सभव (सभव) 2/1 चित्त (चित्त) 2/1 वि जुगव (प्र) = एक साथ जाणदि (जाण) व 3/1 सक जोण्ह (जोण्ह) 1/1 अहो (अ) = हे मनुष्यो । हि (म) निश्चयपूर्वक
णाणस्स (णाण) 6/1 माहप्प (माहप्प) 1/11 56 तिषकालणिच्चविसमं = तीनो कालो मे, अविनाशी, अनुपम । सयल =
सम्पूर्ण को। सम्वत्थ = हर समय । सभव = सभावनाओ को । चित्त% विविध (को) । जुगव = एक साथ । जाणदि = जानता है । जोह % प्रकाश । अहो हे । हि = निश्चयपूर्वक । णास्स = ज्ञान की । माहप्प %=
महिमा। 57 पत्थि (अ) = नही है परोक्ख (परोक्ख) 1/1 किचिवि (अ) = कुछ भी समत (अ) = सब ओर से सव्वक्खगुणसमिद्धस्स [(सम्व) +
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(अक्ख) + (गुण) + (समिद्धस्स)] [(सव्व) – (अक्ख) - (गुण) - (समिद्ध) भूक 4/1 अनि) अक्खातीदस्स [(अक्ख) + (अतीदस्स)] [(अक्ख)- (प्रतीद) 4/1] सदा (अ) = सदा सयमेव [(सय)+ (एव)] सय (अ) = स्वय एव (अ) ही हि (अ) = निस्सदेह
पाणजादस्स [(णाण) - (जाद) भूक 4/1] । 57 रणत्थिनही है । परोक्ख = परोक्ष । किंचिवि = कुछ भी । समत = सब
ओर से । सव्वक्खगुणसमिद्धस्स = सव इन्द्रियो के गुणो से सम्पन्न (व्यक्ति) के लिए । अक्खातीदस्स = सव इन्द्रियो से परे पहुंचे हुए (ज्ञान) के लिए। सदा-सदा । सयमेव % स्वय ही। हि-निस्सदेह । णाणजादस्स-ज्ञान को प्राप्त (व्यक्ति) के लिए ।
58. गेहदि (गेण्ह) व 3/1 सक णेव (अ) = न ही ण (अ) = न मुचदि (मुच)
व 3/1 सक पर (पर) 2/1 वि परिणमदि (परिणम) व 3/1 अक केवली (केवलि) 1/1 भगव (भगव) 1/1 पेच्छदि (पेच्छ) व 3/1 सक समतदो (प्र) = सव ओर से सो (त) 1/1 सवि जाणदि (जाण) व 3/1 सक सव्व (सव्व) 2/1 सवि गिरवसेस (क्रिविन) = पूर्ण
रूप से। 58 गेहदि = करता है→ करते हैं। वन ही । न । मुचदि =
छोडते है । = नही । परिणमदि = रूपान्तरित होते हैं। केवली= केवली। भगव = भगवान । पेच्छदि = देखते है । समतदो सब ओर से । सो वह-वे । जारणदि = जानते हैं । सव्व = सब को । णिरवसेस = पूर्ण रूप से।
59 सोक्ख (सोक्ख)1/1 वा (अ) == अथवा पुण (अ) = पादपूरक दुक्ख
(दुक्ख) 1/1 केवलणाणिस्स (केवलणाणि)6/1 णस्थि (अ) = नही है. होता है वेहगद [(देह)- (गद) भूक 1/1 अनि] जम्हा (म)%3D चूकि अदिदियत्त (अदिदियत्त)1/1 जाव (जा) भूकृ1/1 तम्हा (म) 3 इसलिए दु (म) = ही त (त) 1/1 सवि णेय (णेय) विधि कृ
1/1 भनि । 59 सोक्खं = सुख । वा अथवा । पुण (अ) = पादपूरक । दुक्ख = दुख ।
केवलणाणिस्स = केवलज्ञानी के। पत्थि = नही होता है । देहगद = शरीर के द्वारा प्राप्त । जम्हा = चूकि । प्रादिदियत्त = अतीन्द्रियता । जाव %
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य = समझने
उत्पन्न हुई। तम्हा = इमलिए । दुही । तवह । योग्य ।
60 अस्थि (अ) = है अमुत्त (अमुत्त) 1/1 वि मुत्त (मुत्त)1/1 वि अदिदिय
(अदिदिय) 1/1 वि इदिय (इदिय) 1/1 वि च (अ) = तथा प्रत्येसु (अत्थ) 7/2 णाण (णाण) 1/1 च (अ) = और तधा (अ) = इसी तरह सोक्ख (सोक्ख) 1/1 ज (ज) 1/1 सवि तेसु (त) 7/2 स पर (पर) 1/1 वि च (अ) = इसलिए त (त) 1/1 मवि णेय (णेय)
विधि कृ 1/1 अनि । 60 अत्यि(अ) = है। अमुत्त = मूर्छारहित । मुत्त = मू युक्त। अदिदिय =
अतीन्द्रिय । इदिय = इन्द्रिय-ज्ञान । च = तथा । प्रत्येसु = पदार्थों के विषय मे । णाण = ज्ञान । च तथा और इसी तरह । सोक्सं = मुख । ज= जो। तेसु= उनमे। पर = श्रेष्ठ । च = इसलिए । त= वह । य = समझने योग्य।
61 ज (ज) 1/1 सवि केवलत्ति [(केवल) + (इति)] केवल (केवल) मूल
शब्द 1/1 वि इति (अ) स्पष्टीकरण णाण (णाण) 1/1 त (त) 1/1 सवि सोक्ख (सोक्ख) 1/1 परिणम (परिणम) 2/1 च = निस्सन्देह सो (त) 1/1 सवि चेव = ही खेदो (खेद) 1/1 तस्स (त) 6/1 स ण (अ) = नही भणिदो (भण) भूकृ 1/1 जम्हा (अ) = चूकि धादी (घादि) 1/2 वि खय (खय) 2/1 जादा (जा) भूकृ 1/2 ।। 1 द्वितीया का प्रयोग प्रथमा अर्थ मे हुआ है । (हेम प्राकृत
व्याकरण, वृत्ति 3-137) तथा परिणाम का परिणम किया गया
है (हेम प्रा व्या. वृत्ति 1-67) 61 ज= जो । केवल = केवल । णाण = ज्ञान । त= वह । सोक्ख = सुख ।
परिणम = रूपान्तरण । च = निस्सदेह । सो वह । वही । खेदोखेद । तस्स = उसके । ण = नही । भणिदो- कहा गया । जम्हा= चूकि ।
घादी = घातिया कर्म । खय = क्षय को । जादा प्राप्त हुए हैं । -62 जाद (जाद) भूकृ 1/1 अनि सय (प) = आप से प्राप समत्तं (अ) =
पूर्ण णाणमणतत्थवित्थिद [(णाण) + (अणत)+ (अत्थ) + (वित्थिद)] णाण (णाण) 1/1 [(अणत) वि - (अत्थ) - (वित्थिद) 1/1 वि] विमल (विमल) 1/1 वि रहिद (रहिद) 1/1 वि तु (म) = और
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उग्गहादिहि [(उग्गह) + (आदिहि)] [(उग्गह) - (आदि) 3/2] सुहत्ति [(सुह) + (इति)] सुह (सुह) मूलशब्द 1/1 इति (अ) = स्पष्टीकरण एयतिय (एयतिय) 1/1 वि भणिद (भण) भूकृ 1/11 जाद - उत्पन्न हुआ । सय = आप से प्राप । समत्त = पूर्ण । णाणमणतत्थवित्थिद = णाण+अणत+अल्थ+वित्थिद = ज्ञान, अनन्त पदार्थों मे फैला हुआ । विमल = शुद्ध । रहिद = रहित । तु = और । उग्गहादिहि = अवग्रह आदि से । सुहत्ति = सुख । एयतिय = अद्वितीय । भरिणद = कहा गया ।
63 जादो (जा) भूकृ 1/1 सय (अ) = स्वय स (त) 1/1 सवि चेदा (चेदा)
8/1 सम्वण्हू (सव्वण्हु) 1/1 सवलोगदरसी [(सन्व)- (लोग)(दरसि) 1/1 वि] य (अ) = और पप्पोदि (पप्पोदि) व 3/1 सक अनि सुहमणत [(सुह) + (अणत)] सुह (सुह) 2/1 अणत (अणत) 2/1 वि अश्वावाध (अव्वावाघ) 2/1 वि सगममुत्त [(सग) + (अमुत्त)] सग
(सग) 2/1 वि अमुत्त (अमुत्त) 2/1 वि । 63 जादो हुआ। सयस्वय । स= वह । चेदा= हे मनुष्य । सव्वण्हू %3D
जिन । सव्वलोगदरसी= सब लोक को देखनेवाला। य% और । पप्पोदि - प्राप्त करता है। सुहमणतं- सुख, अनन्त । अव्वावाध = बाधा-रहित । सगममुत्त = सग+अमुत्त = निजी, इन्द्रियातीत ।
64 तिमिरहरा [(तिमिर)- (हर →हरा स्त्री) 1/1 वि] जइ (अ) = यदि
दिट्ठी (दिट्ठी) 1/1 जणस्स (जण) 6/1 दीवेण (दीव) 3/1 एत्यि (अ) = नही कादव्य (का) विघि कृ 1/1 तध (अ) = उसी प्रकार सोक्ख (सोक्ख) 1/I सयमादा [(सय) + (मादा)] सय (अ) = स्वय प्रादा (पाद) 1/I विसया (विसय) 1/2 किं (क) 1/1 सवि तत्य (अ) = वहा पर कुन्वति (कुन्व) व 3/2 सक । तिमिरहरा - अधेपन को हटानेवाली । जइ = यदि । दिछी = माख । जएस्समनुष्य की । दीवेण = दीपक के द्वारा । पत्थि = नही । कादव्व % किये जाने योग्य । तध= उसी प्रकार । सोक्ख = सुख । सयमादा = स्वय आत्मा । विसया - विपय । कि क्या प्रयोजन । तत्य % वहा । कुवति = करते हैं→ करेंगे । तिमिर-अधापन, आप्टे, सस्कृत हिन्दी कोश ।
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65 सयमेव [(सय) + (एव)] सय (अ) = स्वय एव (प्र) = ही जधादिच्चो
[(जघा)+ (आदिच्चो)] जहा (अ) = जिम प्रकार आदिच्चो (प्रादिच्च) 1/1 तेजो (तेज) 1/1 उण्हो (उण्ह) 1/1 य (अ) = तथा देवदा (देवदा) 1/1 रणभसि (णभसि)7/1 अनि सिद्धोवि [(सिद्धो)+ (अपि)] सिद्धो (सिद्ध) 1/1 अपि (अ) = भी तघा = उमी प्रकार खाणं (णाण) 1/1 सुह (सुह) 1/1 च (अ) = और लोगे (लोग) 7/1 तथा (प्र) = तथा देवो (देव) 1/1 वि ।
65 सयमेव = स्वय ही। जघादिच्चो= जिम प्रकार सूर्य । तेजो प्रकाश ।
उण्हो= उष्ण । य% तथा । देवदा % दिव्य शक्ति । गभसिआकाश मे। सिद्धोवि = सिद्ध भी। तथा उसी प्रकार । णाणं = ज्ञान । सुह = सुख । च = और । लोगे = लोक मे । तघा तथा । वेवो = दिव्य ।
66 परिणमदि (परिणम) व 3/1 अक जदा (अ) = जव अप्पा (अप्प) 1/1
सुहम्मि (सुह) 7/1 असुहम्मि (असुह) 7/1 रागदोसजुदो [(राग)(दोस)-(जुद) भूक 1/1 अनि] त (त) 2/1 सवि पविसदि (पविस) व 3/1 सक कम्मरय [(कम्म)-(रय) 1/1] णाणावरणादिभावेहि [(णाणावरण) + (यादि)+ (भावेहि)] [(णाणावरण)-(आदि)(भाव) 3/2]
1 'गमन' अर्थवाली क्रिया (पविसदि) के साथ द्वितीया हुआ है । 66 परिणमदि = रूपान्तरित होता है । जदा = जव । अप्पा%= प्रात्मा ।
सुहम्मि = शुभ मे। असुहम्मि = अशुभ मे । रागदोसजदो = राग-द्वेप से जकडा हुआ । त= उसको- उसमे । पविसदि= प्रवेश करता है । कम्मरय = कर्मरज । णाणावरणादिभावेहि = ज्ञानावरणादि रूप परिणामो द्वारा।
67 ज (ज) 2/1 सवि कुणदि (कुण) व 3/1 सक भावमादा [(भाव) +
(आदा)] भाव (भाव) 2/1 आदा (पाद) 1/1 कत्ता (कत्तु) 1/1 वि सो (त) 1/1 सवि होदि (हो) व 3/1 अक तस्स (त) 6/1 स भावस्स (भाव) 6/1 कम्मत्त (कम्मत) 2/1 परिणमदे (परिणम) व 3/1 सक तम्हि (त) 7/1 स सय (अ) = अपने आप पोग्गल (पोग्गल) 1/1 दन्व (दव्व) 1/11
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% जिस (को) । कुदि = उत्पन्न करता है । भावमादा = भाव को, प्रात्मा । कता = कर्ता । सो= वह । होदि = होता है । तस्स = उस (का)। भावस्स = भाव का । कम्मत्त = कर्मत्व को । परिणम = प्राप्त करता है। तम्हि = उसके होने पर । सय = अपने आप । पोग्गल = पुद्गल । दव्व = द्रव्य।
68 अण्णाणी (अण्णाणि) 1/1 वि पुण (अ) = और रत्तो (रत्त) भूकृ 1/1
अनि हि (अ) = निस्सन्देह सव्वदन्वेसु [(सव्व)-(दव्व) 7/2] कम्ममज्झगदो [(कम्म)-(मज्झ)-(गद) भूक 1/1 अनि] लिप्पदि (लिप्पदि) व कर्म 3/1 सक अनि कम्मरयेण [(कम्म)-(रय) 3/1] दु (अ) = अत कद्दममझे [(कद्दम)-(मज्झ) 7/1] जहा (अ) = जिस
प्रकार लोह (लोह) 1/1।। 68 अण्णाणी = अज्ञानी । पुरण = और । रत्तो = आसक्त । हि = निस्सन्देह ।
सव्वदन्वेसु = सव वस्तुप्रो मे । कम्ममझगदो = कर्म के मध्य मे फसा हुआ। लिप्पदि = मलिन किया जाता है । कम्मरयेण = कर्मरूपी रज से । दु= अत । कद्दममझे = कीचड मे (पडा हुआ)। जहा = जिस प्रकार । लोह = लोहा ।
69 प्रादा (प्राद) 1/1 कम्ममलिमसो [(कम्म) - (मलिमस) 1/1 वि]
धारदि (धार) व 3/1 सक पाणे (पाण) 2/2 पुणो पुणो (प्र) = बारवार अण्णे (अण्ण) 2/2 वि ण (अ) = नहीं जहदि (जह) व 3/1 सक जाव = जब तक ममत्त (ममत्त) 2/1 देहपधाणेसु [(देह)- (पधाण)
7/2 वि] विसएसु (विसम) 7/2। 69 प्रादा- आत्मा । कम्ममलिमसो = कर्मों से मलिन । धारदि = धारण करती
है । पाणे = प्राणो को । पुणो पुणो = बार-बार । अण्णे = नवीन । ण= नही । जहदि = छोडती है। जाव = जव तक। ममत्त = ममत्व को । देहपधाणेसु = मूल मे शरीर । विसएसु = विषयो मे ।
70 वत्यु (वत्यु) 2/1 पड़च्च (अ) = आश्रय करके त (त) 1/1 सवि
पुण (अ) = फिर अन्झवसाण (अज्झवसाण) 1/1 तु (अ) = निस्सदेह होदि (हो) व 3/1 अक जीवाण (जीव) 6/2 ण (अ) = नही हि (अ) = वास्तव मे वत्युदो (वत्थु) पचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय दु (अ) =
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तो भी वो (वघ) 1/1 अज्झवसाणेण (अज्झवसाण) 3/1 बघो (वघ)
1/1 ति (अ) = अत । 70 वत्यु = वस्तु को । पड़च्च = आश्रय करके । त- वह | पुण = फिर।
अज्झवसाण- विचार । तु-निस्मदेह । होदि = होता है। जीवाणजीवो के । ण% नही । हि = वास्तव में । वत्युदो वस्तु मे। दुतो भी। वधो = वध । अझवसाणेण = विचार से । बधो बघ । ति
71 रत्तो (रत्त) भूक 1/1 अनि वर्षाद (वघ) व 3/1 सक कम्म (कम्म)
1/1 मुच्चादि (मुच्चदि) व कर्म 3/1 मक अनि कम्मेहि (कम्म) 3/2 रागरहिदप्पा [(राग) + (रहिद)+ (अप्पा)] [(राग) - (रहित) वि - (अप्प) 1/1] एसो (एत) 1/1 सवि बधसमासो [(वध)(समास) 1/1] जीवाण (जीव) 6/2 जाण (जाण) विधि 2/1 सक
णिच्छयदो (णिच्छय) पचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय । 71 रत्तो = आसक्त। वदि = वाघता है । कम्मं - कर्म को। मुच्चदि
छुटकारा पा जाता है। कम्मेहि = कर्मों से । रागरहिदप्पा-प्रासक्ति से रहित व्यक्ति । एसो- यह । वधसमासो वध का सक्षेप। जीवाण = जीवो के । जाण = समझो । रिपच्छयदो निस्सदेह ।
72 जो (ज) 1/1 सवि इदियादिविजई [(इदिय)+ (आदि) + (विजइ)]
[(इदिय)- (आदि)- (विजइ) 1/1 वि] भवीय (भव) सक उवमोगभप्पग [(उवोग) + (अप्पग)] उवोग (उवयोग) 2/1 अप्पग (अप्प) 2/1 स्वार्थिक 'ग' प्रत्यय झादि (झा) व 3/1 सक कम्मेहि (कम्म) 3/2 सो (त) 1/1 सवि ण (अ) = नही रजदि (रजदि) व कर्म 3/1 सक अनि किह (अ) = कैसे त (त) 2/1 सवि पाणा (पाण)
1/2 अणुचरति (अणुचर) व 3/2 सक । 72 जो-जो । इदिदिविजई = इन्द्रियादि का विजेता। भवीय = होकर ।
उवनोगमप्पग = उवोग+अप्पग = उपयोगमयी, आत्मा को । झावि%D ध्याता है। कम्मेहि = कर्मों के द्वारा । सो वह । ण (अ) = नहीं । रदि = रगा जाता है । किह = कैसे । त= उसको । पाणा = प्राण । अणुचरति == अणुसरण करते है- करेंगे।
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73 परिणमवि (परिणाम) व 3/1 अक यमट्ठ [(णेय) + (अट्ठ) ] णेय
(णेय) विधि कृ 2/1 अनि अट्ठ (अट्ठ) 2/1 गादा (णाउ) 1/1 वि जवि = यदि णेव (अ) = कभी नही खाइग (खाइग) 1/1 वि तस्स (त) 6/1 स पाणत्ति [(णाण)+ (इति)] णाण (णाण) 1/1 इति (अ) = इसलिए तं (त) 2/1 सवि जिणिदा (जिणिद) 1/2 खवयत (खवय) वक 2/1 अनि कम्ममेवुत्ता [(कम्म) + (एव) + (उत्ता)] कम्म (कम्म) 2/1 एव (अ) = ही उत्ता' (उत्त) भूक 1/2 अनि । 1 कमी-कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग पाया जाता है।
(हे प्रा व्या 3-137) प्रे वकृ 2 क्षप् + क्षपय्-- क्षपयत्- क्षपयन्त (2/1)→ खवयत (2/1अनि)
3 यहा 'उत्ता' का प्रयोग कर्तृवाच्य मे हुआ है। 73 परिणमदि = रूपान्तरित होता है । यमठ = णेय -+ अट्ठ = जानने
योग्य पदार्थ = ज्ञेय । णादा = ज्ञाता । जदि = यदि । णव = कभी नही । खाइग% कर्मों के क्षय से उत्पन्न । तस्स = उसका । णाण = ज्ञान । इति = इसलिए । त= उसको । जिणिदा = जिनेन्द्रो ने । खवयत = क्षय
करता हुआ । कम्ममेवृत्ता = कम्म+एव+ उत्ता = कर्मों को, ही, कहा। 74 ज (ज) 2/1 सवि भाव (भाव) 2/1 सुहमसुह [(सुह) + (असुह)]
गुह (सुह) 2/1 वि अमुह (अमुह) 2/1 वि फरेदि (कर) व 3/1 सक प्रादा (पाद) 1/1 स (त) 1/1 सवि तस्स (त) 6/1 स खलु (अ) = निस्सदेह कत्ता (कत्त) 1/1 वि त (त) 1/1 सवि तस्स (त) 6/1 स होदि (हो) व 3/1 अक कम्म (कम्म) 1/1 सो (त) 1/1 सवि तस्स
(त) 6/1 स दु (अ) = ही वेदगो (वेदग) 1/1 वि अप्पा (अप्प) 1/11 74 ज=जिस (को) । भाव = भाव को । सुहमसुह = शुभ-अशुभ । करेदि %D
करता है । प्रादा= आत्मा । स= वह । तस्स = उसका । खलु = निस्सदेह । कत्ता= कर्ता। त= वह । तस्स = उसका । कम्म = कर्म । सो वह ।
तस्स उसका । दु=ही । वेदगो = भोक्ता । अप्पा= आत्मा। 75 ज (ज) 2/1 सवि कुणदि (कुण) व 3/1 सक भावमादा [(भाव)+
(प्रादा)] भाव (भाव) 2/1 आदा (पाद) 1/1 फत्ता (कत्तु) 1/1 वि सो (त) 1/1 सवि होदि (हो) व 3/1 अक तस्स (त) 6/1 स कम्मस्म (कम्म) 6/1 णाणिस्स (णाणि) 6/1 वि दु (म) = पादपूर्ति
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माणमो (णाणमन) 1/1 वि अण्णाणमत्रो (अण्णाणमन) 1/1 वि
अण्णाणिस्स (प्रणाणि) 6/1 वि । 75 ज= जो । कुणदि = उत्पन्न करता है। भावमादा= भाव को, प्रात्मा ।
कत्ता = कर्ता । सो वह । होदि = होता है । तस्स = उस (का) । कम्मस्सकर्म का । णाणिस्स% ज्ञानी का । णाणमनो= ज्ञानमय । अण्णाणमनो अजानीमय । प्रणाणिस्स= अज्ञानी का।
76-77 करणयमया (कणयमय) 5/1 वि भावादो (भाव) 5/1 जायते (जाय)
व 3/2 अक फुडलादयो [(कुडल) + (प्रादयो)] [(कुडल)-(आदि) 1/2] भावा (भाव) 1/2 अयमयया (अयमय)5/1 वि स्वार्थिक 'य' प्रत्यय जह (अ) = जैसे दु (अ) = और फडयादी [(कडय)+ (प्रादी)] [(कडय) + (आदि) 1/2)]
अण्णाणमया (अण्णाणमय) 1/2 भावा (भाव) 1/2 प्रणाणिणो (अणाणि) 6/1 बहुविहा (बहुविह) 1/2 वि (अ) = ही जायते (जाय) व 3/2 अक गाणिस्स (णाणि) 6/1 दु (अ) = तथा गाणमया (णाणमय) 1/2 सव्वे (सव्व) 1/2 सवि तहा (अ) = वैसे ही होंति
(हो) व 3/2 अक। 76-77 कणयमया = कनकमय । भावादो= वस्तु से। जायते उत्पन्न होती है। ,
कुंडलादयो = कुण्डल आदि । भावा = वस्तुएँ। अयमयया = लोहमय । भावादो = वस्तु से । जह = जैसे । जायते = उत्पन्न होती है। दु= और । कडयादी = कडे आदि ।
अण्णाणमय = अज्ञानमय । भावा= भाव । प्रणारिणणो= अज्ञानी के । बहुविहा= अनेक प्रकार के । विही । जायते = उत्पन्न होते है । पाणिस्स = ज्ञानी के । दु= तथा । णाणमया = ज्ञानमय । सवे = समी। भावा- भाव । तहा= वैसे ही । होति = होते हैं।
78 णिच्छयणयस्स (णिच्छयणय) 6/1 एव (अ) = इस प्रकार प्रादा (माद)
1/1 अप्पाणमेव [(अप्पाण)+ (एव)] अप्पाण (अप्पाण) 2/1 एव (अ) = ही हि (अ) = पादपूरक करेदि (कर) व 3/1 सक वेदयदि (वेदयदि) व 3/1 सक अनि पुरणो (अ) = तथा त (त) 2/1 सवि चेव (अ) ही जाण (जाण) विधि 2/1 सक अत्ता (अत्त) 1/1 दु (प्र) = ही अत्ताण (अत्ताण) 2/11
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78 रिणच्छयणयस्स = निश्चयनय के । एवं = इस प्रकार । मादा = आत्मा ।
अप्पाणमेव = प्रात्मा को ही। करेदि = करता है । वेदयदि = भोगता है । पुणो = तथा । त = उसको । चेव = ही । जाण = जानो । अत्ता = आत्मा। दु= ही । अत्ताण = प्रात्मा को ।
79 ववहारस्स (ववहार) 6/1 दु (अ) = किन्तु प्रादा (पाद) 1/1 पोग्गल
कम्म [(पोग्गल)-(कम्म) 2/1] करेदि (कर) व 3/1 सक यविह (यविह) 2/1 वि त (त) 21 सवि चेव (अ) = ही य (अ) = तथा
वेदयदे (वेदयदे) व 3/1 मक अणेयविह (अणेयविह) 2/1 वि। 79 ववहारस्स = व्यवहारनय के । दु= किन्तु । मादा = आत्मा। पोग्गलकम्म =
पुदगल कर्म को । फरेदि = करता है । रणेयविह = अनेक प्रकार के । त= उस (को) । चेव = ही । य= तथा । वेदयदे = भोगता है । पोग्गलकम्म % पुद्गलकर्म को । अणेयविह = अनेक प्रकार के ।
80 अप्पा (अप्प) 1/1 उवप्रोगप्पा [(उवप्रोग)+ (अप्पा)] [(उवयोग)
(अप्प) 1/1] उवनोगो (उवयोग) 1/1 णाणदसण [(णाण)-(दसण) 1/1] भणिदो (भण) भूक 1/1 सो (त) 1/1 सवि हि (अ) = पादपूरक सुहो (सुह) 1/1 वि असुहो (असुह) 1/1 वि वा (अ) = अथवा अप्पणो
(अप्प) 6/1 हवदि (हव) व 3/1 अक । 80 अप्पा = प्रात्मा। उवप्रोगप्पा = उपयोग स्वभाववाला । उवनोगो =
उपयोग । णाणदसण = ज्ञान-दर्शन । भणिदो = कहा गया। सो= वह । सुहो= शुभ । असुहो = अशुभ । वा= अथवा । उवमोगो = उपयोग । अप्पणो आत्मा का । हवदि = होता है ।
81
जवि (प्र) = यदि सो (त) 1/1 सवि सुहो (सुह) 1/1 व (म) = अथवा प्रसुहो (अमुह) 1/1 ए (अ) = नही हवदि (हव) व 3/1 अक प्रादा (पाद) 1/1 सय = स्वय सहावेण [(स) वि-(हाव) 3/1] ससारोवि [(ससारो)+ (अवि)] ससारो (ससार)1/1 अपि = ही ण = नही विज्जदि (विज्ज) व 3/1 अक सन्वेसि (सव्व) 6/2 सवि जीवकायाण (जीवकाय) 6/2। 1 हेतुमूचक वाक्यो मे विधिलिंग के स्थान पर प्राय वर्तमान काल का
प्रयोग होता है।
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रूप । ण =
81 जदि = यदि | सौ = वह । सुहो = शुभ रूप । व = श्रथवा । श्रसुहो = श्रशुभ = नही । हवदि = होता है → होवे । श्रादा = श्रात्मा । सय = स्वय । सहावेण = अपने भाव से । ससारोवि = ससार ही ण =न । विज्जदि = होता है → होवे । सव्र्व्वेसि = किसी भी । जीवकायाण
।
जीव के ।
82 देवदजविगुरुपूजासु ( ( देवद ) 2 - ( जदि ) - (गुरु) - (पूजा) 7/2] चेव (अ) = तथा दाणम्मि (दाण) 7 / 1 वा (प्र) = तथा सुसीलेसु (सुसील ) 7/2 उववासादिसु [ ( उववास ) + ( श्रादिसु ) ] [ ( उववास ) - ( श्रादि ) 7/2 अनि ] रत्ती ( रत्त) भूकृ 1 / 1 अनि सुहोवोगप्पगो [ ( सुह) + ( उवओोग ) + (अप्पगो ) ] [ ( सुह ) - (उद्योग) - ( अप्पग ) 1 / 1 वि] अप्पा ( अप्प )
1/1 1
1 देवदा' के स्थान पर 'देवद' हुआ है, समास मे दीर्घ का ह्रस्व हो सकता है । (हे प्रात्र्या 1 - 67 )
82 देवदजदिगुरुपूजासु = देव, साधु, गुरु की भक्ति मे । चेव = तथा । दाणम्मि = दान मे | वा = तथा । सुसीलेसु = शीलो मे । उववासादिसु = उपवास आदि मे । रत्तो = सलग्न । 'सुहोवोगप्पगो = शुभोपयोगवाला ।
अप्पा = श्रात्मा 1
1 / 1 श्रसुहो
==
83 सुहपरिणामो [ ( सुह) वि - (परिणाम) 1 / 1] पुण्ण ( पुण्ण) ( सुह ) 1 / 1 विपावति [ (पाव) + (इति) ] पाव (पाव) 1 / 1 इति शब्दस्वरूपद्योतक हवदि (हव) व 3 / 1 श्रक जीवस्स (जीव ) 6 / 1 दोन्ह (दो) 6/2 वि पोग्गलमेत्तो । [ ( पोग्गल ) - ( मेत्त) 1 / 1] भावो (भाव) 1 / 1 कम्मत्तण (कम्मतण ) 2 / 1 पत्तो ( पत्त ) भूकृ 1 / 1 श्रनि ।
1 पष्ठी का प्रयोग तृतीया के स्थान 3-134) I
पर हुआ है ( हे प्रा व्या
83 सुपरिणामो = शुभ परिणाम । पुण्ण = पुण्य असुहो = प्रशुभ | पाव = पाप । हवदि = होता है। जीवस्स = जीव का । दोण्ह = दोनो कारणो से । पोग्गलमेत्तो = पुद्गल की राशि । भावो = भाव ने । कम्मत्तण = = कर्मत्व को । पत्तो = प्राप्त किया ।
1 / 1 वि
84 रागो (राग) 1 / 1 जस्स ( ज ) 6 / 1 स पसत्यो ( पसत्य ) प्रणुकपाससिदो [(श्रणुकपा) - ( ससिद) भूकृ 1 / 1 अनि ] य (अ) = तथा परिणामो (परिणाम) 1 / 1 चित्तम्हि (चित्त) 7 / 1 णत्थि ( अ ) = नही है
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कलुस (कलुस) 1/1 पुण्ण (पुण्ण) 2/1 जीवस्स (जीव) 6/1 पासवदि
(पासव) व 3/1 सक। 84 रागो- राग । जस्स = जिसके । पसत्य - शुभ । अणुकपाससिदो-अनुकपा
पर आश्रित । य तथा । चितम्हि = चित्त मे । रात्थि = नही । कलुस % मलिनता । पुण्ण - पुण्य । जीवस्स = जीव के । पासवदि = प्रागमन
होता है। 85 प्ररहतसिद्धसाहुसु [(अरहत)-(सिद्ध)-(साहु) 7/2 अनि भत्ती (भत्ति)
1/1 पम्मम्मि (धम्म) 7/1 जा (जा) 1/1 सवि य (अ) = तथा खलु (अ) = वाक्यालकार चेहा (चेट्टा) 1/1 अणुगमण (अणुगमण) 1/1 'पि (अ) = पादपूर्ति गुरुण (गुरु) 6/2 पसत्यरागो [(पसत्य) भूक अनि(राग) 1/1] त्ति (अ) = समाप्तिसूचक बुच्चति (बुच्चति) व कर्म 3/2
सक अनि। 85 मरहतसिद्धसासु- अरहतो, सिद्धो और साधुनो मे । भत्ती = भक्ति ।
धम्मम्मि = धर्म मे । जा= जो । य-तथा । चेट्ठा-प्रवृत्ति । अणुगमण = अनुसरण । गुरुणं - पूज्य व्यक्तियो का । पसत्थरागो-शुम राग ।
वृच्चति = कहा जाता है। 86 तिसिद (तिसिद) मत 2/1 अनि बुभुक्खिद (बुभुक्खिद) 2/1 वि
वा (प्र) = अथवा दुहिद (दुहिद) 2/1 वि दळूण (दळूण) सकृ जो (ज) 1/1 सवि दु (अ) = भी दुहिदमणो (दुहिद) वि ~ (मण) 1/1] वि} पडिवज्जदि (पडिवज्ज) व 3/1 सक त (त) 2/1 स किवया (किवया) 3/1 अनि (क्रिविन की तरह प्रयुक्त) दयालुता से तस्सेसा [(तस्स)+ (एसा)] तस्स (त) 6/1स एसा (एता) 1/1 सवि होदि (हो) व 3/1 अक अणुकपा (अणुकपा) 1/11 । कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग पाया जाता है।
(हे प्रा व्या 3-137)
86 तिसिद = प्यासे । बभक्खिद = भूखे । वा (अ) अथवा । दुहिद %D
दुखी। दळूण - देख कर । जो-जो । दु (अ) = भी । हिदमणो - दुखी मनवाला । पडिवज्जदि = व्यवहार करता है । त= उसके प्रति । किवया = दयालुता से । तस्सेसा = उसके, यह । होदि = होती है । अणुकपा = अनुकपा।
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द्रव्य-विचार
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87 कोपो (कोच) 1/1 व (अ) = या जदा (अ) = जिस समय माणो
(माण) 1/1 माया (माया) 1/1 लोभी (लोम) 1/1 व (प्र) = या चित्तमासेज्ज (चित्त)+(प्रासेज्ज)] चित्त (चित्त) 2/1 आसेज्ज (प्रास) व 3/1 अक जीवस्स (जीव) 6/1 कुणदि (कुण) व 3/1 सक खोह (खोह) 2/1 कलुसो (कलुस) 1/1 त्ति (अ) = शब्द स्वरूपद्योतक य (अ) = निस्सन्देह त (अ) = उस समय बुधा (बुध) 1/2 वि वेंति (बू) व 3/2 सक । 1 सप्तमी के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग किया गया है। (हे प्रा
व्या 3-137)। 87 कोधो कोध । व= या । जदा = जिस समय । माणो = मान । माया 3
माया । लोभो = लोभ । व= या । चित्तमासेज्ज = चित्त मे, घटित होता है। जीवस्स = जीव के । कुणदि = उत्पन्न करता है। खोह % व्याकुलता (को) । कलुसो= मलिनता। य= निस्सन्देह । त= उस समय । बुधा%
ज्ञानी । ति = कहते हैं। 88 चरिया (चरिया) 1/1 पमादबहुला [(पमाद)-(बहुल- बहुला)1/1]
कालुस्स (कालुस्स) 1/1 लोलदा (लोल→ लोलदा) 1/1 य (अ) = और विसयेसु (विमय) 7/2 परपरितावपवादो [(पर)+ (परिताव)+ (अपवाद)] [(पर)वि - (परिताव) - (अपवाद) 1/1] पावस्स (पाव) 6/1 य(अ) = व पासव (आसव) 2/1 कुणदि (कुण) व 3/2 सक। चरिया = आचरण । पमादबहुला= लापरवाहीपूर्वक । कालुस्सं = मलिनता। लोलदा = लालसा । य= और । विसयेसु= विपयो मे । परपरितावप वादो परपरिताव+अपवादो= दूसरो को पीडा देना, कलक लगाना । पावस्स = पाप के । य=व । पासव = पाने को । कुणदि = प्रोत्साहित करता है।
89 सण्णानो (सण्णा) 1/2 य (अ) = और तिलेस्सा [(ति) - (लेस्सा)
1/1] इंदियवसदा = [(इदिय) - (वस→ वसदा) 1/1] य (अ) = और अत्तरदाणि [(अत्त) - (रुद्द) 1/2] गाण (णाण) 1/1 च (अ) = और दुप्पउत्त (दुप्पउत्त) भूकृ 1/1 अनि मोहो (मोह) 1/1 पावप्पदा
[(पाव) - (प्पद) 1/2] होति (हो) व 3/2 अक। 89 सण्णाओ= सज्ञाए । य% और । तिलेस्सा = तीन लेश्याए । इदियवसदा=
इन्द्रियो की अधीनता । अत्तरदाणि = आर्त और रौद्र ध्यान । णाणं - 78
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जान । दुप्पउत्त = अनुचित रूप से प्रयोग किया गया। मोहो = मोह ।
पावप्पदा = पाप के स्थान । होति = होते है । 90 भाव (भाव) 1/1 तिविहपयार [ (तिविह) वि - (पयार) 1/1]
सुहासह [ (सुह) + (असुह) ] [(सुह) वि- (असुह) वि ] सुद्धमेव [(सुद) + (एव)] सुद्ध (सुद्ध)1/1 वि एव (म) = ही णायव (णा) विधि 1/1 प्रसुह (असुह) 1/1 वि च (अ) = और अट्टरद्द [(अट्ट)(रुट) 1/1] सुहधम्म [ (सुह)वि- (धम्म) 1/1 ] जिणवारदेहि
(जिणवरिंद) 3/21 90 भाव = भाव । तिविहपयार = तीन प्रकार के भेद | सुहासह = शुभ, अशुभ ।
सुटमेव = शुद्ध ही। णायव्व = समझा जाना चाहिए । असुह = अशुभ । च% और । अट्टरद्द = आर्त और रौद्र । सुहधम्म = शुभ, धर्म ।
जिणवारदेहि = अरहतो द्वारा। 91 जो (ज) 1/1 सवि जाणादि (जाण) व 3/1 सक जिणिदे (जिणिद)
2/2 पेच्छदि (पेच्छ) व 3/1 सक सिद्धे (सिद्ध) 2/2 तधेव (प्र) उसी प्रकार अरणगारे (अणगार) 2/2 जीवे (जीव) 7/1 य (अ) = तथा साणकपो [ (स)+ (अणुकपो) ] [(स)- (अणुकप) 1/1 ] उवप्रोगो (उवयोग) 1/1 सो (त) 1/1 सवि सहो (सुह) 1/1 तस्स (त) 6/1 स।
1 (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-158) 91 जो जो । जाणादि = समझता है । जिणिदे = अरहतो को । पेच्छदि%D
समझता है । तघेव = उसी प्रकार । अणगारे - साघुरो को। जीवे = जीव पर । य% तथा । साणुकपो= दयासहित । उवभोगो = उपयोग । सो
वह । सुहो- शुभ । तस्स = उसका। 92 विसयकसानोगाढो (विसय) + (कसान)+ (ोगाढो)] [(विसय) -
(कसान) - (प्रोगाढ) भूकृ 1/1 अनि ] दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्ठगोट्ठिजुदो [(दुस्सुदि)- (दुच्चित्त) - (दुट्ठ) वि - (गोट्ठि) - (जुद) भूकृ 1/1 अनि] उग्गो (उग्ग)1/1 वि उम्मग्गपरो [(उम्मग्ग) - (पर)1/1 वि] उपोगो (उवोग) 1/1 जस्स (ज) 6/1 स सो (त) 1/1 सवि असुहो (असुह) 1/1 वि । 1 समास के अन्त मे अर्थ होता है 'लीन' ।
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92 विसयकसानोगाढो = विषय-कपायो मे डूबा हुा । दुम्सुदिदुच्चित्तदुठ
गोठिजुदो = दुष्ट मिद्वान्त, दुष्ट बुद्धि, दुष्ट चर्या मे जुड़ा हुआ । उग्गो = क्रूर । उम्मग्गपरो= कुपथ मे लीन । उवनोगो = उपयोग । जस्स = जिम
का । सो वह । असुहो = अशुभ । 93 सुद्ध (सुद्ध) 1/1 वि सुद्धसहाव [(मुद्ध) वि- (सहाव) 1/1] अप्पा
(अप्प) 2/1 अपभ्रण अप्पम्मि (अप्प) 7/1 त (त) 1/1 मवि च (अ)-ही णायव्व (णा) विधि कृ 1/1 इदि (अ) = इस प्रकार जिणवरेहि (जिणवर) 3/2 भरिणय (भण) भूकृ 1/1 ज (ज) 1/1 मवि सेयं (सेय) 1/1 वि तं (त) 2/1 मवि समायरह (नमायर) विधि 2/2 सक । कभी कभी मप्नमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया
जाता है (हे प्रा व्या, 3-137) । 2 कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विमक्ति का प्रयोग पाया
जाता है (हे प्रा व्या, 3-135)। सुद्ध = शुद्ध । सुद्धसहाव=शुद्ध स्वभाव । अप्पा=आत्मा को→ आत्मा में। अप्पम्मि = आत्मा मे→ प्रात्मा के द्वारा । तं = वह । च-ही। णायव्वं % अनुभव किया जाना चाहिए । इदि = इस प्रकार | जिणवरेहिं - अरहती द्वारा । भरिणयं = कहा गया। जंजो । सेय= श्रेष्ठ । त= उमको । समायरह = आचरण करो।
93
94 उवयोगो (उवयोग) 1/1 जदि (अ) = यदि हि = पादपूरक सुहो = शुभ
पुण्णं (पुण्ण) 2|| वि जीवस्स (जीव) 6/1 संचय (सचय) 2/1 जादि (जा) व 3/1 मक असहो (असुह) 1/1 वि वा (अ) = और तय (अ) = उसी प्रकार पाव (पाव)2/1 तेसिमभावे [(तमि) (अभावे)] तेसिं (त) 6/2 म अभावे (अभाव) 7/1 रण (अ) = नहीं चयमत्यि [(चय) + (अत्यि)] चय' (चय) 2/1 अत्यि (अ) = है । 1 यहा द्वितीया का प्रयोग प्रथमा अर्थ मे किया गया है।
(हे प्रा व्या 3-137) । 94 उवयोगो= उपयोग । जदि = यदि । सहो= शुभ । पुण्णं = पुण्य को ।
जीवस्त= जीव का । सचयं = मत्रह (को) । जादि = करता है । असुहो3 अशुभ । वा=और । तघ = उसी प्रकार । पाव = पाप को । तेसिमभावे 3 उनके, अभाव मे । णनही । चयमत्यि = सग्रह नही होता है।
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95 अह (म) = यदि पुण (अ) = किन्तु अप्पा (अप्प) 2/1 अपभ्रंश
णिच्छदि [(ण)+ (इच्छदि)] ण (अ) = नही इच्छदि (इच्छ) व 3/1 सक पुण्णाइ (पुण्ण) 2/2 करेदि (कर) व 3/1 सक गिरवसेसाई (णिरवसेस) 2/2 वि तह वि (प्र) = तो भी ण (अ) = नही पावदि (पाव) व 3/1 सक सिद्धि (सिद्धि) 2/1 ससारत्थो (ससारस्थ) 1/1 वि
पुणो (प्र) = ही भरिणदो (भण) भूकृ 1/11 95 ग्रह = यदि । पुण= किन्तु । अप्पा= प्रात्मा को। णिच्छदि = ण+
इच्छदि = नही, चाहता है। पुण्णाइ = पुण्यो को । फरेदि = करता है। गिरवसेसाइ = मकल (को) । तह वि = तो भी। ग = नही । पावदि = पाता है । सिद्धि = परम शान्ति । ससारत्यो ससार मे स्थित । पुणो%
ही । भरिणदो कहा गया। 96 वदणियमाणि [(वद)- (णियम)2/2] धरता (घर) वकृ 1/2 सोलारिण
(सील) 2/2 तहा (अ) = तथा तव (तव) 2/1 च (अ) = और कुवता (कुब) व 1/2 परमट्ठबाहिरा [(परमट्ठ) - (बाहिर) 1/2 वि] जे (ज) 1/2 मवि णिव्वाण (णिव्याण) 2/1 ते (त) 1/2 सवि ण
(अ) = नही विदति (विंद) व 3/2 सक । 96 वदरिणयमाणि = व्रत और नियमो को । घरता = धारण करते हुए।
सोलाणि = शीलो को । तहा = तथा । तव = तप को । च = और । कुव्वता= पालन करते हुए । परमठ्ठबाहिरा परमार्थ से अपरिचित । जे जो । रिणवाण = परम शान्ति को । तेवे । = नही । विदति = प्राप्त करते हैं ।
97 सहपरिणामो [(मुह) वि- (परिणाम) 1/1] पुण्ण (पुण्ण) 1/1
असहो (असुह) 1/1 वि पावत्ति [(पाव) + (इति)] पाव (पाव) मूलशब्द इति = इस प्रकार भणियमण्णेसु [(भणिय) + (अण्णेसु)] भणिय (मण) भूक 1/1 अण्णेमु (अण्ण) 7/2 परिणामो (परिणाम)1/1 एण्णगदो [(ण) + (अण्ण)+ (गदो)] = नही [(अण्ण) वि(गद) भूकृ 1/1 अनि] दुक्खक्खयकारणं [(दुक्ख)- (क्खय) - (कारण)
1/1] समये (समय) 7/11 97 सुहपरिणामो= शुभ, भाव । पुण्ण = पुण्य । असुहो= अशुभ । पावत्ति =
पाप, इस प्रकार । भणियमण्णेस = कहा गया, पर के प्रति । परिणामो =
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भाव । गण्णगदो पर मे न झुका हुआ । दुक्खक्खयकारण = दुख के माश का कारण । समये प्रागम मे ।
98 पावसहावा [(आद) - (सहाव) 5/1] अण्णं (अण्ण) 1/1 सवि
सच्चित्ताचित्तमिस्सिय [(सच्चित्त) + (अचित्त) - (मिस्सिय) 1/1 वि] हवइ (हव) व 3/1 अक त (त) 1|1 सवि परदवं [(पर) वि- (दब्व) 1/1] भणिय (भण) भूकृ 1/1 प्रवितत्य (क्रिविन) = सच्चाई-पूर्वक
सव्वदरसोहिं (सन्वदरसि) 3/2 वि। 98 पावसहावा = आत्म-स्वभाव से । अण्ण = अन्य । सच्चित्ताचित्तमिस्सियं =
सचित्त - प्रचित्त - मिश्रित । हवइ = होता है । त= वह । परदम्बं% पर द्रव्य । भरिणय = कहा गया। प्रवितत्यं = सच्चाई-पूर्वक ।
सव्वदरसोहि = सर्वज्ञो द्वारा। 99 जस्स (ज) 6/1 स हिदयेणुमत्त [(हिदये) + (अणुमत्त)] हिदये (हिंदय)
7/1 अणुमत्त (अणुमत्त) 1/1 परदवम्हि (परदन्व) 7/1 बिजदे (विज्ज) व 3/1 अक रागो (राग)1/1 सो (त)1/1 सवि ण (अ) = नही विजापदि (विजाण) व 3/1 सक समय (समय) 2/1 सगस्स (सग) 6/1 सव्वागमधरोवि [(सन्व)+ (मागम)+ (घरो)+ (वि)] [(सन्व) वि - (प्रागम) - (घर) 1/1 वि] वि (प्र) = भी। 1 अणुमत्त = णुमत्त । यहा स्वर का लोप है (अभिनव प्राकृत व्याकरण,
पृष्ठ 123)। 99 जस्स = जिसके । हिदयेणुमत्त = हृदय मे अणु के बराबर । परदब्बम्हि =
पर द्रव्य मे । विज्जवे = विद्यमान है । रागो = राग । सो = वह । न% नही । विजाणवि = समझता है । समयं = आचरण को। सगस्स-मात्मा
के । सव्वागमघरोवि = समस्त प्रागमो का धारण करनेवाला । 100 जो (ज)1/1 सवि सव्वसगमुक्को[(सव्व) वि-(सग) - (मुक्क) भूक1/1
अनि] णण्णमणो= अणण्णमणो (अणण्णमण) 1/1 वि अप्पण (मप्पण) 2/1 सहावेण (सहाव) 3/1 जाणदि (जाण) व 3/1 सक पस्सदि (पस्स) व 3/1 सक णियव (क्रिविन) = निश्चयात्मक रूप से सो (त) 1/1 सवि सगचरिय [(सग) - (चरिय) 2/1] घरवि (चर) 4 3/1 सक जीवो (जीव) 1/11 1 यहा स्वर का लोप है (अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ, 123) ।
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100 जो जो । सम्वसगमुक्को - सम्पूर्ण आसक्ति से रहित । (अ)णण्णमणो =
तल्लीन । मप्पण= प्रात्मा को । सहावेण = स्वभाव से । जाणदि= जानता (है) । पस्सदि = देखता है । णियद = निश्चयात्मक रूप से । सो= वह । सगचरिम = आत्मा मे, प्राचरण (को)। चरवि = करता है । जीवो %D व्यक्ति ।
101 एव (म) = इस प्रकार विदिदत्यो [(विदिद) + (अत्थो)] [(विदिद)
भूकृ पनि - (पत्य) 1/1] जो (ज) 1/1 सवि दम्वेसु (दव्व) 7/2 ए () = नही रागमेदि [(राग)+ (एदि)] राग (राग) 2/1 एदि (ए) व 3/1 सफ दोस (दोस) 2/1 वा (अ) =और उवोगविसुद्धो [(उवयोग)- (विसुद्ध) 111 वि] सो (त) I/I सवि खवेदि (खव) व 3/1 सक वेहुम्भव [(देह)+ (उन्भव)] [(देह) - (उन्मव) 2/1 वि दक्खं (दुक्ख) 2/1।
101 एव = इस प्रकार । विदिदत्यो विदिध+प्रत्थ = जानी गई, वस्तुस्थिति ।
जो जो । दम्वेसु = वस्तुमो के प्रति । = नही । रागमेदि = राग+ एदि = राग को, करता है । दोस = द्वेष को । पा= और उवमोगविसुद्धो = उपयोग से शुद्ध । सो वह । खवेदि = समाप्त कर देता है । वेहुन्भव = देह से उत्पन्न । दुक्ख - दु ख को ।
102 अइसयमादसमुत्यं [(अइसय)+ (पाद) + (समुत्थ)] अइसय (अइसय)
1/1 वि [(पाद)- (समुत्य) 1/1 वि] विसयातीद [(विसय)+ (मतीद)] [(विसय) - (प्रतीद) 1/1 वि] प्रपोवममणत [(प्रणोवम)+ (प्रणत)] अणोवम (प्रणोवम) 1/1 वि प्रणत (अणत) 1/1 वि प्रवृच्छिण्ण (अव्वुच्छिण्ण) 1/1 वि च (प्र) = तथा सह (सुह) 1/1 सुवप्रोगप्पसिद्धाण [(सुद्ध)+ (उवमोग)+ (प्पसिद्धाण)] [(मुद्ध)भूकृ पनि-(उवमोग) -(प्पसिद्ध) भूक 6/2 अनि ।
102 प्रइसयमादसमुत्थ = अइसय+भाद+समुत्थ = श्रेष्ठ, प्रात्मोत्पन्न, (मात्मा
से, उत्पन्न)। विसयातीव = विषयातीत । अरपोवममणत = अणोवम+ प्रणत = अनुपम, अनन्त । अवच्छिण्णं = अविच्छिन्न । च = तथा । सह = सुख । सुवप्रोगप्पसिद्धाण = सुद्ध+उवभोग+प्पसिद्धाण = शुद्ध, उपयोग से, विभूषित का।
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103 धम्मेण (धम्म) 3/1 परिणदप्पा [(परिणद) + (अप्पा)] [(परिणद)
भूक अनि - (अप्प) 1/1] अप्पा (अप्प) 1/1 जदि (म) = यदि सुद्धसपयोगजुदो [(सुद्ध) वि- (सपयोग) - (जुद) भूक 1/I अनि] पावदि (पाव) व 3/1 सक णिव्वारणमुहं [(णिव्वाण)- (सुह) 2/1] सुहोवजुत्तो [(सुह) + (उवजुत्तो)] [(सुह) - (उवजुत) भूक 1/1अनि] व (अ) = तथा सग्गसुह [(सग्ग) - (सुह) 2/1] । 1 कमी कभी सप्तमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग पाया जाता है।
(हे प्रा व्या 3-137)। 103 धम्मेण = धर्म के रूप मे । परिणदप्पा परिणत+अप्पा रूपान्तरित,
व्यक्ति । अप्पा व्यक्ति । जदि = यदि । सुद्धसपयोगज़दो= शुद्ध, क्रियानो से, युक्त । पावदि = प्राप्त करता है। णिवारणसुह = परम शान्तिरूपी सुख को । सुहोवजुत्तो सुह+ उवजुत्तो = शुभ क्रियानो से, युक्त । व= तथा । सग्गसुह = स्वर्ग, सुख को ।
104 चारित्त (चारित्त) 1/1 खलु (अ) = निस्सदेह धम्मो (धम्म) 1/1 धम्मो
(धम्म) 1/1 जो (ज)1/1 सवि सो (त) 1/1 सवि समोति [(समो)+ (इति)] समो (सम) 1/1 इति (अ) = निश्चय ही णिद्दिट्ठो (णिद्दिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि मोहक्खोहविहीणो [(मोह) - (क्खोह) - (विहीण) 1/1 वि] परिणामो (परिणाम) 1/1 अप्पणो (अप्पण) 6/1
हु (अ) = ही समो (सम) 1/11 104 चारित्त = चारित्र। खलु - निस्सदेह । धम्मो धर्म । धम्मो = धर्म ।
जो जो । सो वह । समोत्ति = समो+इति = समता, निश्चय ही। णिद्दिद्यो = कहा गया । मोहक्खोहविहीणो= मोह, क्षोभ से रहित । परिणामो= माव । अप्पणो = आत्मा का । हु%Dही । समो= समता ।
105 तह (अ) = तथा सो (त) 1/1 सवि लद्धसहावो [(लद्ध) भूकृ अनि -
(सहाव) 1/1] सन्वण्हू (सव्वण्ह) 1/1 वि सम्वलोगपदिमहिदो [(सव) - (लोगपदि) - (मह+महिद) भूक 1/1] भूदो (भूद) भूक 1/1 सयमेवादा [(सय)+ (एव)+ (पादा)] सय = स्वय एव (म) - हो पादा (आद) 1/1 हवदि (हव) व 3/1 अक सयभत्ति [(सयभू) + (इति)] सयभु (सयभू) 1/1 इति (अ) = इस प्रकार णिहिलो (णिहिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि ।
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105 तह = तथा । सो= वह । लसहावो स्वय ही स्वभाव अनुभव कर लिया
गया । सव्वण्हू = सर्वज्ञ । सन्वलोगपदिमहिदो = लोकाधिपति इन्द्र द्वारा पूजा गया । भूदो = हुआ । सयमेवादा = सय+ एव+प्रादा = स्वय, ही, व्यक्ति । हवदि = होता है । सयभुत्ति = स्वयभू, इस प्रकार । णिद्दिद्योकहा गया।
106 उवप्रोगविसुद्धो [(उवप्रोग) - (विसुद्ध) 1/1 वि] जो (ज) 1/1 सवि
विगदावरणतरायमोहरो [(विगद) + (आवरण) + (अतराय) + (मोह) + (रो)] [(विगद) भूकृ अनि - (आवरण) - (अतराय)(मोह) - (रअ) 1/1] भूदो (भूद) भूकृ 1/1 अनि सयमेवादा[(सय)+ (एव) + (आदा)] सय (अ) = स्वय एव (अ) = ही प्रादा (पाद) 1/1 जादि (जा) व 3/1 सक पर (अ) = पूर्णरूप से णेयभूवाणं [(णेय)(भूद)16/2] । 1 कभी कभी द्वितीया के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है
(हे प्रा व्या 3-134)।
106 उवोगविसुद्धो= उपयोग मे, शुद्ध । जो जो । विगदावरणतराय
मोहरो विगद+आवरण+अतराय+मोह+रो नष्ट कर दी गई, आवरण, बाधा, मोहरूपी धूल । भूदो= हुआ। सयमेवादा = सय+एव+ प्रादा = स्वय, ही, व्यक्ति । जादि = जान लेता है । पर = पूर्णरूप से । यभूदाण = ज्ञेय पदाथो का → ज्ञेय पदार्थों को ।
107 सुविदिदपवत्थसुत्तो [(सु)म= भली प्रकार से - (विदिद) भूक भनि -
(पयत्थ) - (सुत्त) 1/1] सजमतवसजुदो [ (सजम) - (तव)(सजुद) 1/1 वि] विगदरागो [(विगद)- (राग) 1/1] समणो (समण) 1/1 समसहदुक्खो [ (सम) वि- (सुह)- (दुक्ख) 1/1] भणिदो (भण) भूक 1/1 सुद्धोवनोगोत्ति [(सुद्ध)+ (उवनोगो) +
(इति)] [(सुद्ध) वि - (उवप्रोग) 1/1] इति (अ) = समाप्तिसूचक । 107 सुविदिदपवत्थसुत्तो = भली प्रकार से जान लिए गए, तत्त्व, सूत्र ।
सजमतवसजुदो = सयम और तप से सयुक्त । विगदरागो= राग समाप्त कर दिया गया। समणो श्रमण । समसुहदुक्खो = सुख और दु ख समान । भणिदो = कहा गया । सुखोवनोगोत्ति = शुद्धोपयोगवाला।
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108 ठाणणिसेन्जविहारा[(ठाण) - (णिसेज्ज)1 - (विहार) 1/2] धम्मवदेतो
[(धम्म) + (उवदेसो)] [(धम्म) - (उवदेम) 1/1] प (प) = तथा रिणयदयो (णियद) पचमी-अर्थक प्रो-यो प्रत्यय तेसि (त) 6/2 स भरहतारण (अरहत) 6/2 काले (काल) 7/1 मायाचारोग्य [(माया)+ (चारो)+ (ब्व)] [(माया) - (चार) 1/1] व्व (अ) = की तरह इत्थीर्ण (इत्थि) 6/21 1 यहा 'णिसेज्जा' का 'णिसेज्ज' हुमा है । समास मे दीर्घ का ह्रस्व
किया जा सकता है (हे प्रा व्या 1-67) । 2 कभी कभी षष्ठी का प्रयोग सप्तमी के स्थान पर पाया जाता है
(हे प्रा व्या 3-134)।
108 ठाणरिणसेज्जविहारा खडे रहना, बैठना, गमन करना । धम्मबदेसो धर्म
का उपदेश देना । य = तथा । णियदयो निश्चित रूप से । तेसि = उन के । अरहंताण-प्ररहतो के । काले % समय मे । मायाचारोव्य% मातामो का पाचरण, जैसे कि । इत्यीणं- स्त्रियो का→स्त्रियो मे ।
109 सन्वेसि (सव्व) 6/2 सवि खघाण (खघ) 6/2 जो (ज) 1/1 सवितो
(अत) 1/1 वि त (त) 2/1 सवि वियारण (वियाण) विधि 2/1 सक परमाणू (परमाणु) 1/1 सो (त) 1/1 सवि सस्सदो (सस्सद) 1/1 वि असद्दी (असद्द) 1/1 वि एषको (एक्क) 1/1 वि अविभागि (मविमागि)
1/1 वि मुत्तिभवो [(मुत्ति)- (भव) 1/1] ।। 109 सन्वेसि = समस्त । खंघाण = पुद्गल पिण्डो का । जो जो । प्रतो
अन्तिम प्रश। त= उसको । वियाण = समझो । परमाणु = परमाणु । सो वह । सस्सदो= शाश्वत । प्रसहो = शब्दरहित । एक्को एक । प्रविभागी= अविभाज्य । मुत्तिभवो = भौतिक वस्तुओ का मूल ।
110. प्रादेशमत्तमुत्तो [(मादेश)-(मत्त)-(मुत्त) 1/1 वि] पादुमदुरकस्स
[(धादु)-(चदुक्क) 6/1] कारण (कारण) 1/1 जो (ज) 1/1 सवि दु (म) = पादपूरक सो (त) 1/1 सवि गेमो (णेम) विधिक 1/1 पनि परमाणू (परमाणु) 1/1 परिणामगणो [(परिणाम)-(गुण) 1/1] सयमसदो [(सय)+ (असद्दो)] सय (प्र) स्वय प्रसहो (मसद्द) 1/1 वि।
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110 प्रादेशमत्तमुसो विवरण से, हो, मूतं । पादुचदुक्कस्स = मूल तत्त्व, घोर
का । कारण = कारण । जो जो । सो वह । णेमो समझा जाना चाहिए । परमाणू = परमाणु । परिणामगुणो= परिणमन, गुणवाला।
सयमसदो- सय+असद्दोस्वय, शब्दरहित । 111 सदो (सद्द) 1/1 खंघप्पभवो [(खघ)-(प्पभव) 1/1 वि] खंधो (खध)
1/1 परमाणुसगसघादो [(परमाणु)-(सग)-(सघ) 5/1] पुढे (पुट्ठ) भूक 7/2 तेसु (त) 7/2 स जायवि (जा) व 3/1 अक सद्दो (सह) 1/1 उप्पादगो (उप्पादग) 1/1 वि णियवो (णियद) भूक 1/I मनि । 1 कमी-कभी तृतीया के स्थान पर सप्तमी का प्रयोग पाया जाता है
(हे प्रा व्या 3--137)। 111 सदो शब्द । खप्पभवो स्कन्धो से उत्पन्न । खयो स्कन्ध ।
परमाणुसगसघादो परमाणुप्रो के सगम - समूह से । पुठे = स्पर्श मे→ स्पर्श से । तेस = उनमे । जायदि = उत्पन्न होता है । सदो = शब्द ।
उप्पादगो उत्पन्न करनेवाला । णियदो अवश्य । 112 एयरसवण्णगष [(एय)-(रस)-(वण्ण)-(गघ) 1/1] दो (दो) 1/1
वि फासं (फास) 1/1 सदकारणमसद [(सद्द)+ (कारण)+ (प्रसद्द)] [(सद्द)-(कारण) 1/1] प्रसद्द (असद्द) 1/1 वि खघतरिद [(संघ)+ (प्रतर)+ (इद)] [(खघ)-(प्रतर)-(इम) 1/1 सवि वव्व (दव्व) 1/I परमाणु (परमाणु) 1/1 त (त) 2/1 सवि वियाणेहि
(वियाण) विधि 2/1 सक। 112 एयरसवण्णगय = एकरस, वर्ण, गध । दो- दो । फास - स्पर्श ।
सद्दकारणमसद = सद्द+कारण+असद्द = शब्द का कारण, शन्दरहित । खपतरिव = खध+प्रतर+इद = स्कन्ध से सवध, यह । दध्वं - द्रव्य ।
परमाणु = परमाणु । त= उसको । वियाणेहि = समझो । 113 उवभोजमिविएहि [(उवभोज्ज) + (इदिएहिं)] उवभोज्ज (उवभोज्ज)
1/1 वि इदिएहिं (इदिन) 3/2 य (अ) = तथा इदिय (इदिय) मूल शब्द 1/2 काया (काया) 1/1 मरणो (मण) 1/1 य (अ) = व फम्मारिण (कम्म) 1/2 ज (ज) 1/1 सवि हवदि (हव) व 3/1 अक मुत्तमण्ण [(मुत्त)+ (अण्ण)] मुत्त (मुत्त) 1/1 वि अण्ण (अण्ण) 1/1 वित
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(त) 1/1 सवि सव्वं (सन्च) 1/1 वि पुग्गलं (पुग्गल) 1/1 जाणे ।
(जाण) विधि 2/1 सक । 113 उवभोजमिदिएहि = इन्द्रियो द्वारा भोगे जाने योग्य विषय । य = तथा ।
इदिय = इन्द्रिया। काया = शरीर । मणो मन । य% व । कम्मारिण= कर्म । ज= जो । हवदि है । मुत्तमपण = अन्य भौतिक । त= वह । सव्व = सभी । पुग्गल = पुद्गल । जाणे = समझो।
114 देहो (देह) 1/1 य (प्र) = और मणो (मण) 1/1 वाणी (वाणी) 1/1
पोग्गलदव्वप्पत्ति [(पोग्गल) + (दव) + (अप्पग) + (इति)] [(पोग्गल)-(दव)-(अप्पग) मूल शब्द 1/2] इति (अ) = पादपूरक गिद्दिदगा (णिहिट) भूक 1/2 अनि पोग्गलदम्वपि [(पोग्गल)+ (दव्व) + (अपि)] [(पोग्गल)-(दव्व) 1/1] अपि = भी पुणो और पिंडो (पिंड) 1/1 परमाणुदव्वाण [(परमाणु)-(दव्व) 6/2] ।
1 'अप्पग' समास के अन्त मे अर्थ होता है 'बना हुआ । 114 देहो = देह । य =और । मणो मन । वाणी वाणी । पोग्गलदध्वप्पत्ति
= पुद्गल द्रव्य से बने हुए । रिणविट्ठा = कहे गये । पोग्गलदव्वपि % पुद्गल द्रव्य भी । पुणो और । पिंडोपिण्ड । परमाणुदव्वाणं = परमाणु द्रव्यो का।
115 अपदेसो (अपदेस) 1/1 परमाणू (परमाणु) 1/1 पदेसमेत्तो (पदेसमेत)
1/1 वि य (प्र) = तथा सयमसद्दो [(सय) + (असद्दो)] सय (अ) = स्वय असद्दो (असद्द) 1/1 वि जो (ज) 1/1 सवि गिद्धो (णिद्ध) भूक 1/1 अनि वा (प्र) = अथवा लुपखो (लुक्ख) 1/1 वि वा (अ) = और दुपदेसादित्तमणुहवदि [(दु) + (पदेस) + (प्रादित्त) + (अणुहवदि)]
[(दु) - (पदेस) - (प्रादित्त) 2/1] अणुहदि (अणुहव) व 3/1 सक। 115 अपदेसो प्रदेशरहित । परमाण = परमाणु । पदेसमेत्तो = एक प्रदेश
जितना । य= तथा । सयमसद्दी = सय+असद्दो = स्वय, शब्दरहित । जो जो । गिद्धो- स्निग्ध । वा=अथवा । लुक्खोस्खा । वा= और । दुपदेसादित्तमणुहवदि = दो प्रदेश प्रादिपने को ग्रहण करता है ।
116 एगुत्तरमेगादी [(एगुत्तर) + (एग) + (आदी)] एगुत्तर (अ) = एक के
वाद मे [(एग) - (आदि)1 1/1] अणुस्स (अणु) 6/1 णितणं
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(णिद्धत्तण) 2/1 व (अ) = और लुक्खत्तं (लुक्खत्त) 2/1 परिणामावो (परिणाम) 5/1 भरिणद (भण) भूक 1/1 जाव (अ) = तक अणंतत्तमणुहवदि [(अणतत्त)+ (अणुवदि)] अणतत्त (अणतत्त) 1/1 अणुहवदि (अणुहव) व 3/1 सक ।
1 समास के अन्त मे 'पादि' का अर्थ होता है 'प्रारम्भ करके' । 116 एगुत्तरमेगादी = एक के बाद मे, एक से प्रारम्भ करके । अणुस्स = परमाणु
के । गिद्धत्तण = स्निग्धता । व= और । लुक्खत्त = रूक्षता । परिणामादो% परिणमन के कारण । भरिगद = कही गई । जाव= तक । अणंतत्तम
णुहदि = अणंतत्त+अणुहवदि = अनन्तता, ग्रहण करता है । 117. गिद्धा (णिद्ध) भूक 1/2 अनि वा (अ) = अथवा लुक्खा (लुक्ख) 1/2
वि अणुपरिणामा [(अणु) - (परिणाम) 1/2] समा (सम) 1/2 वि व (अ) = पादपूरक विसमा (विसम) 1/2 वि समदो (सम) पचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय दुराधिगा [(दु)+ (र) + (अधिगा)] [(दु)(र) -ही- (अधिग) 1/2 वि] जदि (अ) = यदि बज्झन्ति (वज्झन्ति) व कर्म 3/2 सक हि (अ) = निश्चय ही आदिपरिहोणा [(आदि)1- (परिहीण) भूक 1/2 अनि] ।
1 आदि = प्रथम अश 117 णिद्धा = स्निग्ध । वा अथवा । लुक्खा = रूक्ष । अणुपरिणामा
परमाणुओ का परिणमन । समा= सम । विसमा = विषम । समदो= प्रत्येक सस्या से (इसी प्रकार) । दुराधिगा = दो ही अधिक । जदि (अ) = यदि । बज्झति = वाघे जाते हैं । हि = निश्चय ही । प्राविपरिहीणा =
प्रथम अशरहित । 118 गिद्धत्तणेण! (णिद्धत्तण) 3/1 दुगुणो [ (दु) वि- (गुण) 1/1 ]
चदुगुणणिद्वेण [ (चदु) वि - (गुण)- (गिद्ध) 3/1] बघमणुहदि [(वध)+ (अणुहवदि)] वध (वघ) 2/1 अणुहवदि (अणुहव) व 3/1 मक लुक्खेण (लुक्ख) 3/1 वा (अ) = और तिगुरिणदो [(ति) - (गुणि) पचमी अर्थक दो प्रत्यय] अणु (अणु) मूल शब्द 1/1 बज्झदि (वज्झदि) व कर्म 3/1 सक अनि पचगुणतो [(पच) वि- (गुण)(जुत्त) भूक 1/1 अनि] । 1 कभी कभी सप्तमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग पाया जाता है
(हे प्रा व्या 3-137)।
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118 खितणेण = स्निग्धता से → स्निग्धता मे । दुगुणी = दो अंश । चदुग
पणिवेण = चार अश स्निग्य के साथ । बंघमणुहवदि = बघ अनुभव करता है । लुक्लेण = रूक्षता से, रूक्षता मे । वा और । तिगणिदो तीन अशयुक्त से । अणु = परमाणु । बज्झदि = बाधा जाता है । पंचगुणजुत्तोपांच अशयुक्त।
119 दुपदेसादि [(दु) वि+ (पदेस) + (आदि)] [(दु) वि - (पदेस) -
(आदि) मूल शब्द 1/1] खधा (खघ) 1/2 सुहमा (सुहम) 1/1 वि वा (अ) = तथा बादरा (बादर) 1/2 वि ससठाणा [(स) वि - (सठाण) 1/2] पुढविजलतेउवाऊ [(पुढवि)- (जल) - (तेउ) - (वाउ) 1/1] सगपरिणामेहि [(सग) वि- (परिणाम) 3/2] जायते (जा) व 3/2 सक। दुपदेसादि = दो प्रदेश से प्रारम्भ करके । खधा= स्कन्ध । सुहमा सूक्ष्म । वा तथा । बादरा= स्थूल । ससंठाणा = आकारसहित । पुढविजलतेउवाऊ = पृथिवी, जल, अग्नि, वायु । सगपरिणामेहि = स्वकीय परिणमन के द्वारा । जायते = उत्पन्न होते हैं ।
119
120 अइथूलथूल [(अइ) - (थूल) - (थूल) मूल शब्द 1/1 वि थूल (थूल)
1/1 वि थूलसुहम [(थूल) वि- (सुहुम) 1/l वि] सुहुमयूल [(सुहुम) - (थूल) 1/1 वि ] च (अ) = और सुहुम (सुहुम) 1/1 वि अइसुहम [(इ) वि - (सुहुम) 1/1 वि] इदि (प्र) = इस प्रकार धरादिय [(घरा)+ (प्रादिय)] [(घरा) - (प्रादिय) 1/1] होदि
(हो) व 3/1 अक छन्भेय [(छ) वि - (ब्मेय) 1/1] | 120 अइथूलथूल = प्रति स्थूल स्थूल । थूल = स्थूल । थूलसुहुम = स्थूल-सूक्ष्म ।
सुहमथूल = सूक्ष्म-स्थूल। च% और । सुहुम = सूक्ष्म । महसुहुम = प्रति सूक्ष्म । इदि = इस प्रकार । धरादिय पृथिवी से आरम करके । होदि%D होता है । छन्मेय = छह भेद ।
121 भूपधदमादीया [(भू) + (पव्वद)+ (प्रादीया)] [(भू) - (पम्वद)
1/1] आदीया (आदीय) 1/2 भरिणदा (भण) भूकृ 1/2 अइयूल)लमिदि [(अइ) + (थूल) + (थूल)+ (इदि)] [(अइ) वि- (थूल) - (थूल) 1/1] इदि = शब्दस्वरूपद्योतक खधा (खध) 1/2 थूला (थूल) 1/2 वि इदि = शब्दस्वरूपद्योतक विण्णेया (विण्णेय) विधिक 1/2 अनि
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सप्पोजसतेलमादीया [(सप्पी) + (जल) + (तेल) + (प्रादीया)]
[(सप्पी)- (जल)-(तेल) 1/1] आदीया (मादीय) 1/2 । 121. भूपध्वदमादीया = भू, पवंत प्रादि । भरिणदा = कहे गये । अइथूलथूलमिवि =
प्रति स्थूल स्यूल । बधा= स्कन्ध । थूला= स्थूल । विण्णेया = समझे जाने चाहिए । सप्पोजलतेलमादीया = घी, जल, तेल मादि ।
122 घायातवमादीया [(छाया)+ (प्रातव) + (आदीया)] [(छाया)
(भातव) 1/1] आदीया (आदीय) 1/2 थूलेदरखधमिवि [(थूल)+ (इदर)+ (खघ) + (इदि)] [(थूल) - (इदर) - (खघ) 1/1] इदि (प्र) = शब्दस्वरूपद्योतक वियारवाहि (वियाण) विधि 2/1 सक सुहम (सुहुम) मूलशब्द 1/2 वि थूलैदि [(थूल)+ (इदि)] थूल (यूल) मूल शब्द 1/2 वि इदि (प्र) शब्दस्वरूप द्योतक भणिया (भण) भूक 1/2 खषा (वघ) 1/2 चतरपखविसया [(चउरक्ख)- (विसय)
1/2] य (म) =ौर। 122 घायातवमादीया = छाया, घूप प्रादि । यूलेवरखपमिवि= स्थूल-सूक्ष्म
स्कन्ध । वियाणाहि = जानो । सुहम - सूक्ष्म । थूलेदि= स्थूल । भणिया कहे गये । खधा= स्कन्ध । चउरक्खविसया चार इन्द्रियो के विषय । योर ।
123 सुहमा (सुहम) 1/2 वि हवति (हव) व 3/2 अक खधा (खघ) 1/2
पावोग्गा = पाप्रोग्गा = पाउग्गा (पउग्ग) 1/2 वि कम्मवग्गणस्स [(कम्म)- (वग्गण) 6/1 ] पुरषो और तग्विवरीया [ (त)(विवरीय) 1/2 वि] खधा (खघ) 1/2 अहसुहमा [(प्रइ) वि(सुहुम) 1/2 वि] इदि (म) = इस प्रकार परूववि (परूव) व
3/2 सक। 123 सुहमा = सूक्ष्म । हवति = होते है । खपा स्कन्ध । पावोग्गा = पामोग्गा =
योग्य । कम्मवग्गणस्स = कर्म वर्गणा के । पुणो मोर । तग्विवरीया - इसके विपरीत । खषा = स्कन्ध । अइसुहमा अति सूक्ष्म । इदि = इस प्रकार | परवेंदि = प्रतिपादन करते हैं ।
124 अत्तादि [(अत्त)+ (आदि)] [(अत्त) - (आदि) मूलशब्द 1/1]
प्रत्तमझ [(प्रत्त)- (मज्झ) 1/1] प्रत्तत [(अत्त) + (प्रत)]
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( ( प्रत ) - ( अत) 1 / 1 वि] णेव ( अ ) = नही इदिए - (इदिन ) 7/1 गेज्झ (गेज्झ ) विधि कृ 1 / 1 अनि श्रविभागी ( प्रविभागि) 1 / 1 वि ज (ज) 1/1 सवि दव्व ( दव्व) 1 / 1 परमाणू (परमाणु) 1 / 1 त (त) 1 / 1 सवि वियाणाहि (वियाण) विधि 2 / 1 सक |
1
कभी कभी तृतीया के स्थान पर सप्तमी का प्रयोग पाया जाता है ( हे प्रा च्या 3-135 ) ।
124 प्रत्तादि = स्व, आदि । श्रत्तमज्भ = स्व, मध्य । श्रत्तत = स्व, ग्रन्त । णेव = नही । इदिए = इन्द्रिय मे इन्द्रिय द्वारा । गेज्झ = ग्रहण योग्य | श्रविभागी = भेदरहित । ज= जो । दव्व = द्रव्य । परमाणू = परमाणु | त = वह | वियागाहि = जानो ।
125 एयरसरूवगध [ ( एय) वि - (रस) – (रुव) ( गव) 1/1] दो (दो) 1 / 1 विकास ( फास) 1 / 1 त ( त) 1 / 1 सवि हवे (हव) व 3 / 1 अक सहावगुण (सहावगुण) 1 / 1 वि विहावगुरणमिदि [ ( विहावगुण) + ( इदि ) ] विहावगुण ( विहावगुण) 1 / 1 वि इदि ( अ ) = शब्दस्वरूप द्योतक भरिणद ( भण) भूकृ 1 / 1 जिणसमये [ ( जिण) - (समय) 7/1] सव्वपयडत्तं [ ( सव्व) वि - ( पयडत्त ) 1 / 1 ] |
-
=
125 एपरसरूवगघ = एक रस, रूप, गध । दो = दो । फास = स्पर्शं । त = वह । हवे = होता है । सहावगुण = स्वभाव गुणवाला । विहावगुणमिदि विभावगुणवाला | भरिगद = कहा गया । जिणसमये = जिनशासन मे । सव्वपयडत्त = सबके लिए प्रकटता गुणवाला ।
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126 प्रणनिरावेक्खो [ ( गण ) वि- ( निरावेक्ख ) 1 / 1 ] जो (ज) 1 / 1 सवि परिणामो (परिणाम) 1 / 1 सो (त) 1 / 1 सवि सहावपज्जाश्रो [ ( सहाव ) - (पज्जा ) 1/1] खधसरूवेण [ ( खध ) - ( सरूव ) 3 / 1] पुरणो ( अ ) = और परिणामो (परिणाम) 1 / 1 सो (त) 1 / 1 विहावपज्जाओ [ ( विहाव ) - ( पज्जा ) 1 / 1 ] 1
सवि
126 श्रण्णनिरावेक्खो = दूसरो की अपेक्षारहित परिणमन । जो = जो | परिणामो = परिणमन । सो = वह । सहावपज्जाश्रो = स्वभाव परिणमन । खधसवेण = स्कन्धरूप से | पुणो = ओर | परिणामो = परिणमन | सो = वह । विहावपज्जाश्रो = विभाव-परिणमन ।
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127 धम्मत्यिकायमरस [(धम्मत्थिकाय)+ (अरम)] धम्मत्थिकाय (धम्मत्थि
फाय) 1/1 अरस (मरस) 1/1 वि अवण्णगघ [(अवण्ण) + (अगध)] अवण्ण (अवण्ण) 11 वि अगध (अगध) 1/1 वि असहमप्फास [(असद्द) + (अप्फास)] असद्द (असद्द) 1/1 वि अप्फास (अप्फास) 1/1 वि लोगोगाद [(लोग) + (ोगाढ)] [लोग - (मोगाढ) 1/1 वि] पुठं (पुट्ठ) भूक 1/1 अनि पिहुलमसखादियपदेस [(पिहुल) + (असखादियपदेस)] पिहुल (पिहुल) 1/1 वि असखादियपदेस
(प्रसखादियपदेस) 1/1 वि।। 127 धम्मत्यिकायमरसं = धर्मास्तिकाय, रसरहित । अवण्णगध = वर्णरहित,
गधरहित । असद्दमप्फांस - शब्दरहित, स्पर्शरहित । लोगोगाढ = लोक मे व्याप्त । पुळे - छुए हुए । पिहुलमसखादियपदेस = व्याप्त, असरयात प्रदेशवाला।
128 उदयं (उदय) 1/1 नह (म) - जिस प्रकार मच्छाण (मच्छ) 6/2
गमणाणुग्गहयर [(गमण) + (अणुग्गयर)] [(गमण)-(अणुग्गयर) 1/1 वि] हवदि (हव) व 3/1 अक लोए (लोअ) 7/1 तह (अ) = उसी प्रकार जीवपुग्गलाण [(जीव)-(पुग्गल) 6/2] धम्म (धम्म) 1/1
वव्व (दव्व) 1/1 वियाणेहि (वियाण) विधि 2/1 सक। 128 उदय = जल । जह = जिस प्रकार । मच्छाण = मछलियो के ।
गमणाणुग्गहयर = गमन मे उपकार करनेवाला । हवदि = होता है । लोए = लोक मे। तह- उसी प्रकार । जीवपुग्गलाण = जीव और पुद्गलो के लिए । धम्म-धर्म । दव्व = द्रव्य । वियाणेहि = समझो ।
129 जह (प्र) = जिस प्रकार हवदि (हव) व 3/1 अक धम्मदव (धम्मदव्व)
1/1 तह (अ) = उसी प्रकार त (त) 2/1 सवि जाणेह (जाण) विधि 2/2 संक दवमधमक्ख [(दब)+ (अधम)+ (अक्ख)] दव्व (दव्व) 2/1 [(अधम)-(अक्खा)1 21 वि] ठिदिकिरियाजुत्ताण [(ठिदि)(किरिया)-(जुत्त) भूकृ 4/2 अनि] कारणभूद [(कारण)-(भूद) भूक 1/l अनि तु (प्र) = किन्तु पुढवी (पुढवी) 1/1 व (अ) = की तरह ।
1 समास के अन्त में अर्थ होता है 'नामवाला'। 129 जह (अ) = जिस प्रकार । हवदि = होता है । धम्मदव्व धर्मास्तिकाय
द्रव्य । तह - उसी प्रकार | त उस को । जाणेह= जानो । दवमधमपखं
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= दन्व+अधम+अक्खं = उस अधर्मास्तिकाय नामवाले द्रव्य को । जाणेह = जानो। हिदिकिरियाजुत्ताण = स्थिति क्रिया मे तत्पर के लिए। कारणभूव = कारण बना हुआ । तु= किन्तु । पुढवी- पृथ्वी । वकी तरह ।
130. ण (अ) = नही य (प्र) = तथा गच्छदि (गच्छ) व 3/1 सक धम्मत्थी
(धम्मत्थि) 1/1 गमण (गमण) 2/1ण (प्र) = नही करेवि (कर) व 3/1 सक अण्णदवियस्सा [(अण्ण)-(दविय) 6/1] हदि (हव) व 3/1 अक गती (गति) 2/2 स (स) मूलशन्द 3/1 वि पसरो (प्पसर) 1/1 जीवाण (जीव) 6/2 पुग्गलाण (पुग्गल) 6/2 च (म) = और । 1 कभी-कभी द्वितीया के स्थान पर पष्ठी का प्रयोग पाया जाता है
(हे प्रा व्या-3-134)। 2 कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग पाया जाता है
(हे प्रा व्या-3-137) । 130 = नही । य= तथा । गच्छदि = गतिशील नही होता है । धम्मत्यो =
धर्मास्तिकाय । गमण = गति । = नही । करेदि प्रदान करता है। अण्णदवियस्स = दूसरे द्रव्यो को । हदि = होता है । गती = गति के+ गति मे । स= स्व से। पसरो- फैलाव । जीवाणं = जीवो (की) । पुग्गलाण - पुद्गलो की । च= और ।
131 विजवि (विज्ज)व 3/1 अक जेसि (ज)6/2 स गमण (गमण)1/1 ठाणं
(ठाण) 1/1 पुण (म) - फिर तेसिमेव [(तेसि) + (एव) तेसिं (त) 6/2 स एव (म) = ही सभवदि (सभव) व 3/1 अक ते (त) 1/2 सवि सगपरिणामेहि [(सग) वि- (परिणाम) 3/2] दु (प्र) = प्रत गमण (गमण) 2/1 ठाण (ठाण) 2/1 च (अ) = और कुव्वति (कुन्व) व 3/2 सक।
131 विजदि = होती है । जेसि = जिन की । गमण = गति । ठाणं = स्थिति ।
पुरण = फिर । तेसिमेव - उन्ही की । सभवदि = होती है । ते=वे । सगपरिणाहिं - अपने परिणमन के द्वारा।दु-प्रत । गमणं = गति (को)। ठाण - स्थिति को । चौर । कुवति = उत्पन्न करते हैं ।
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132 गमणिमित्त [(गमण) – (णिमित्त) 1/1] धम्म (धम्म) 1/1 अधम्म
(अधम्म) 1/1 ठिदि (ठिदि) मूलशब्द 7/1 जीवपोग्गलाण [(जीव) - (पोग्गल) 6/2] च (अ) = और अवगहण (अवगहण) 1/1 प्रायास (मायास) 1/1 जीवादीसव्वदन्वाणं [(जीव) + (आदी)+ (सव्व)+ (दब्वाण)] [(जीव) - (मादी)1- (सम्व) वि - (दन्व) 6/2] । 1 समास मे 'पादि' का 'मादी' किया जा सकता है (हे प्रा व्या
1-67) । 132 गमणिमित्तं = गति मे निमित्त । धम्म = धर्मास्तिकाय । अधम्म =
अधर्मास्तिकाय । ठिदि = स्थिति मे । जीवपोग्गलाण = जीवो, पुद्गलो की । चौर । प्रवगहण = ठहरने का स्थान । मायास = आकाश । जीवावीसव्वदव्वाण = जीव आदि सभी द्रव्यो के लिए।
133 सर्वसि (सव्व) 6/2 स जीवाणं (जीव) 6/2 सेसाण (सेस) 6/2 तह य
(म) - और इसी प्रकार पुग्गलाण (पुग्गल) 6/2 च (अ) = और ज(ज) 1/1 सवि देदि (दा) व 3/1 सक विवरमखिल [(विवर)+ (मखिल)] विवर (विवर) 2/1 अखिल (अखिल) 2/1 वि त (त) 1/1 सवि लोए
(लोप) 7/1 हवदि (हव) व 3/1 अक प्रायास (प्रायास) 1/1 | 133 सम्वेसि = सभी के लिए) । जीवाण = जीवो के लिए। सेसाण = शेष के
लिए । तह य = और इसी प्रकार । पुग्गलाण = पुद्गलो के लिए। चमौर । जंजो । देवि = देता है । विवरमखिल = पूरा स्थान । त= वह । लोए = लोक मे । हववि = होता है । प्रायास = प्राकाश ।
134
पुग्गलजीवणिबद्धो [(पुग्गल)- (जीव) - (णिबद्ध) भूक 1/1 अनि] धम्माषम्मत्यिकायकालड्ढो [(धम्म) + (प्रघम्मत्यिकाय) + (काल)+ (अड्ढो)] [(धम्म) - (अधम्मत्थिकाय) - (काल) - (अड्ढ)1/1 वि] वट्टदि (वट्ट) व 3/1 अक मायासे (मायास) 7/1 जो (ज) 1/1 सवि लोगो (लोग) 1/1 सो (त) 1/1 सवि सम्वकाले [(सन्व) वि - (काल)
7/1] द (अ) = पादपूरक । 134 पुग्गलजीवणिबढो= पुद्गल और जीवो से जुड़ा हुआ । पम्माधम्मत्यिकाय
कालड्ढो= धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल से युक्त । वट्टदि = है । मायासे = आकाश मे । जो जो। लोगो = लोक । सो = वह । सम्वकाले = सभी समय मे।
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135 सम्भावसभावाण [(सन्माव) - (सभाव)16/2] जीवाण (जीव) 6/2
तह य (अ) = उसी प्रकार पोग्गलाण (पोग्गल) 6/2 च (अ) = और परियट्टणसंभूदो [(परियट्टण) - (सभूद) भूकृ 1/1 अनि] कालो (काल) 1/1 रिणयमेण (क्रिविन) = अनिवार्यत पण्णत्तो = कहा गया । 1 कभी कभी सप्तमी के स्थान पर पष्ठी का प्रयोग पाया जाता है
(हे प्रा व्या 3-134)। 135 सम्भावसभावाण = अस्तित्व स्वभाववाले। जीवाणं = जीवो (मे) । तह
य= उसी प्रकार । पोग्गलाण = पुद्गलो मे । च (अ) = और । परियट्टण. सभूदो परिवर्तन, उत्पन्न हुआ । कालो-काल । णियमेण = अनिवार्यत । पण्णत्तो कहा गया।
136 पत्थि (अ) = नही चिर (अ) = दीर्घ काल वा = और खिप्प (अ) =
तुरन्त मत्तारहिदं [(मत्ता)- (रहिद) 1/1 वि] तु (प्र) = तथा सा (ता) 1/1 सवि वि (प्र) = भी खलु (अ) = पादपूरक मत्ता (मत्ता) 1/1 पुग्गलदव्वेण [(पुग्गल) - (दव्व) 3/1] विणा (अ) = विना सम्हा (अ) = इसलिए कालो (काल) 1/1 पड़च्चभवो [(पडुच्च) अप्राश्रय करके - (भव)11/1 वि ।
1. समास के अन्त मे। 136 णत्यि = नही । चिर = दीर्घकाल । वा= और । खिप्पं = तुरन्त । मत्ता
रहिद = माप के विना । तु= तथा । सा= वह । वि = भी । मत्ता= माप । पुग्गलदग्वेण = पुद्गल द्रव्य के । विणा = विना । तम्हा= इसलिए ।
कालो काल । पडुच्चभवो= आश्रय से उत्पन्न । 137 कालो (काल) 1/1 परिणामभवो [(परिणाम) - (भव) 1/1 वि]
परिणामो (परिणाम) 1/1 दवकालसंभूदो [(दवकाल)-(सभूद) भूकृ 1/1 अनि] दोण्ह (दो) 6/2 वि एस (एत) 1/1 सवि सहावो (सहाव) 1/1 कालो (काल) 1/1 खणमगुरो (खणभगुर)1/1 वि
णियदो (णियद) 1/1 वि ।। 137 कालो काल । परिणामभवो = परिवर्तन से उत्पन्न । परिणामो=
परिवर्तन । दन्वकालसभूदो = द्रव्य काल से उत्पन्न । दोण्हं = दोनो का । एस = यह । सहावो स्वभाव । कालो-काल । खरणभंगुरो- नश्वर । णियदो स्थायी।
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138 जीवादीदव्वाण [(जीव) + (प्रादी) + (दव्वाण)] [(जीव)-(आदी)
(दव्व) 612] परिवट्टकारण [(परिवट्टण)- (कारण) 1/1] हवे (हव) व 3/1 अक कालो (काल) 1/1 धम्मादिचउण्णाण [(धम्म) + (आदि) + (चउ) + (अण्णाण)] [(धम्म)-(आदि)-(चउ)-(अण्ण)1 6/2 वि] सहावगुणपज्जया [(स) वि-(हाव)-(गुण)-(पज्जय) 1/2] होति (हो) व 3/2 अक । 1 कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है
(हे प्रा व्या 3-134) अण्णाण→ ण्णाण (स्वरलोप, पृ 123,
अभिनव प्राकृत व्याकरण) । 138 जीवादीदव्वाण = जीव आदि द्रव्यो के । परिवदृरणकारण = परिवर्तन का
कारण । हवे = होता है । कालो = काल । धम्मादिचउण्णाण = धर्मादि चार अन्य । सहावगुणपज्जया = स्वभावगुणपर्याय । होति = होती हैं ।
139 दव्व (दब) 1/1 सल्लखरिणय (सल्लक्खणिय) 1/1 वि
उत्पादन्वयधुवत्तसजुत्त (उत्पाद) - (व्वय) - (धुवत्त)-(सजुत्त) भूक 1/1 अनि] गुणपज्जयासय [(गुण) + (पज्जय)+ (आसय)] [(गुण)(पज्जय)-(आसय) 1/1] वा (अ) = और ज (ज) 1/1सवि त (त) 1/1 सवि भण्णति (भण्ण) व 3/2 सक सव्वण्हू (सव्वण्हु)
1/2 वि । 139 दन्व = द्रव्य । सल्लक्खणिय = सत्लक्षणयुक्त । उत्पादन्वयघुवत्तसजुत्त =
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से सहित । गुरणपज्जयासय = गुण और पर्याय का आश्रय । वा= और । ज= जो । त= वह । भण्णति = कहते है । सवण्हू = सर्वज्ञ ।
140 सत्ता (सत्ता) 1/1 सव्वपयत्या [[(सव)-(पयत्था) 1/1] वि]
सविस्सरूवा (सविस्सरूवा) 1/1 वि अणतपज्जाया [(अणत) वि(पज्जाया) 1/1 वि] भगप्पादधुवत्ता [(भग)+ (उप्पाद)+ (धुवत्ता)] [[(भग)-(उप्पाद)-(घुवत्ता)] वि] सप्पडिवक्खा (सप्पडिवक्खा) 1/1
वि हवदि (हव) व 3/1 अक एक्का (एक्का) 1/1 वि। 140 सत्ता = सत्ता । सन्वपयत्था = सर्वपदार्थमय । सविस्सरूवा = अनेक प्रकार
सहित । अणतपज्जाया = अनन्त पर्यायवाली । भगुप्पादधुवत्ता= उत्पाद,
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द्रव्य विचार
Page #114
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व्यय और ध्र वतामय । सप्पडिवक्खा = विरोधी पहलू सहित । हवदि = होती है । एक्का-एक ।
141 उत्पत्ती (उप्पत्ति) 1/1 व = और विणासो (विणास) 1/1 दव्वस्स (दव्व)
6/1 य (अ) = ही गत्यि - न अस्थि (अ) = है (अस्तित्व) सन्भावो (सव्माव) 1/1 विगमुप्पादधुवत्त [(विगम)+ (उप्पाद)+ (धुवत्त) ] [(विगम)-(उप्पाद)-(धुवत्त) 2/1] करेंति (कर) व 3/2 सक तस्सेव [(तस्स) + (एव)] तस्स (त) 6/1 स एव (अ) = ही पज्जाया (पज्जाय) 1/2 । उप्पत्ती = उत्पत्ति । व% और । विणासो= विनाश | दव्वस्स = द्रव्य की। यही । पत्थिन । अत्यि = अस्तित्व । सम्भावो= स्वभाववाला । विगमुप्पादधुवत्त = नाश, उत्पत्ति, ध्र वता। करति = प्रकाशित करती हैं ।
तस्सेव उसकी ही । पज्जाया = पर्यायें । 142 पज्जयविजुद [(पज्जय)-(विजुद) 1/1 वि] दव्व (दव) 1/1
दम्वविजुत्ता [(दव्व)-(विजुत्त) 1/2 वि] य (अ) = भी पज्जया (पज्जय) 1/2 पत्थि (अ) = नही है दोण्ह (दो) 6/2 अणण्णभूद [(अणण्ण)-(भूद) भूकृ 1/1 अनि भाव (भाव) 1/1 समणा (समण)
1/2 पविति (परूव) व 3/2 सक आर्ष । 142 पज्जयविजुद = पर्यायरहित । दव्व = द्रव्य । दवविजुत्ता - द्रव्यरहित ।
य= भी । पज्जया = पर्याय । रात्थि % नही है । दोण्ह = दोनो का । अणण्णभूद = अभिन्न वना हुआ । भाव = अस्तित्व । समणा-श्रमण ।
पविति = कहते हैं । 143 दव्वेण (दव्व) 3/1 विणा (अ) = बिना । रण (अ) = नही गुणा
(गुण) 1/2 गुहिं (गुण) 3/2 दव्व (इन्व) 1/1 ण (अ) = नही सभवदि (सभव) व 3/1 अक अव्वदिरित्तो (अ-व्वदिरित्त) भूक 1/1 अनि भावो (भाव) 1/1 दव्वगुणाण [(दव्व)-(गुण) 6/2] हवदि
(हव) व 3/1 अक तम्हा = इसलिए । 143 दव्वेण = द्रव्य के । विणा= बिना । रण = नही । गुणा = गुण । गुणेहि =
गुणो के । दव्य = द्रव्य । विणा = बिना । सभवदि = होता है । अन्वदिरितो = अभिन्न । भावो= अस्तित्व । दव्वगणाण = द्रव्य और गुणो का । हवदि = होता है । तम्हा = प्रत ।
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प्राचार्य कुन्दकुन्द
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144 भावस्स (भाव) 6/1 त्यि = नही णासो (णास) 1/1 प्रभावस्स
(अभाव) 611 चेव (अ) = पादपूरक उप्पादो (उप्पाद) 1/1 गुणपज्जयेसु [(गुण)-(पज्जय)1 7/2] भावा (भाव) 1/2 उप्पादवए [(उप्पाद)(वन) 2/2] पकुवति (पकुव) व 3/2 सक । 1 कभी-कभी तृतीया के स्थान पर सप्तमी का प्रयोग पाया जाता
है (हे प्रा व्या 3-135)।
144 भावस्स- सत् का। रात्यि = नही । णासो नाश । एस्थि नही ।
प्रभावस्स = असत् का । उप्पादो- उत्पाद । गुणयज्जयेसु = गुण-पर्यायो मे → गुण-पर्यायो द्वारा । भावा = द्रव्य । उप्पादवए = उत्पाद-व्यय । पकुव्वति = करते है।
145 भावा (भाव) 1/2 जीवादीया [(जीव)+ (अदीया)] [(जीव)
(अदीय)1/2] जीवगुणा [(जीव)-(गुण) 1/2] चेदणा (चेदणा)1/1 य (अ) = और उवयोगो (उवयोग) 1/1 सुरणरणारयतिरिया [(सुर)(णर)-(णारय) वि-(तिरिय) 1/2] जीवस्स (जीव) 6/1 य (अ) =
और पज्जया (पज्जय) 1/2 बहुगा (बहुग) 1/1 वि । 145. भावा = सत् । जीवादीया = जीव आदि । जीवगुणा = जीव के गुण ।
चेदरणा = चेतना। य= और । उवयोगो = ज्ञान । सुरणरणारयतिरिया = , देव, मनुष्य, नारकी और तिर्यञ्च । जीवस्स = जीव की । य = और ।
पज्जया पर्याय । बहुगा=अनेक । 146 मणुसत्तणेण (मणुसत्तण) 3/1 णट्ठो (णट्ठ) भूक 1/1 अनि देही (देहि)
1/1 देवो (देव) 1/1 हवेदि (हव) व 3/1 अक इदरो (इदर) 1/1 वि वा (अ) = अथवा उभयत्त (उभयत्त) मूलशब्द 7/1 वि जीवभावो [(जीव)-(भाव) 1/1] ण (अ) = न णस्सदि (णस्स) व 3/1 अक
जायदे (जा→ जाय) व 3/1 अक अण्णो (अण्ण) 1/1 वि । 146 मणुसत्तणेण = मनुष्यत्व से । णट्ठो = लुप्त हुआ । देही = जीव । देवो =
देव । हवेदि = होता है । इदरो= अन्य कोई पर्यायवाला । वा = अथवा । उभयत्त = दोनो मे । जीवभावो = जीव पदार्थ । =न । णस्सदि% नष्ट होता है । णन । जायदे = उत्पन्न होता है। अण्णो % नया।
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द्रव्य-विचार
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147 सो (त) 1/1 सवि चैव (अ) = ही जादि (जा) व 3/1 अक मरणं
(मरण) 2/1 जादि (जा) व 3/1 सक ण (अ) = न गट्ठो (णट्ठ) भूक 1/अनि चेव (अ) = ही उप्पण्णी (उप्पण्ण) भूक 1/1 अनि उप्पण्णो (उप्पण्ण) भूक 1/1 अनि य (अ) = और विरणछो (विणट्ठ) भूक 1/1 अनि देवो (देव) 1/1 मणुसो (मणुस) 1/1 ति (अ) = इस
प्रकार पज्जानो (पज्जाय) 1/1। 147 सो वह । चेव ही । जादि = उत्पन्न होता है । मरण = मरण को।
जादि प्राप्त होता है । = न । रगट्ठी नष्ट हुआ । एन । चेव % ही । उप्पण्णो = उत्पन्न हुआ । उप्पण्णो = उत्पन्न हुई । य = और । विरठ्ठो नष्ट हुई। देवो% देव । मणुसो मनुष्य । ति= इस प्रकार । पज्जानो पर्याय ।
148 अत्थो (अत्थ) 1/1 खलु (अ) = पादपूरक दव्वमनो (दव्वमन) 111
दवाणि (दव्व) 1/2 गुणप्पगाणि [(गुण)+ (अप्पगाणि)] [(गुण)(अप्पग) 1/2 वि] भरिणदाणि (भण) भूक 1/2 तेहिं (त) 3/2 सवि पुणो (अ) = और पज्जाया (पज्जाय) 1/2 पज्जयमूढा [(पज्जय)
(मूढ) 1/2 वि] हि (अ) = ही परसमया (परसमय) 1/2 वि । 148 अत्यो = पदार्थ । दन्वमन्नो = द्रव्यमय । दन्वाणि = द्रव्य । गुणप्पगाणि =
गुणस्वरूपवाले । भरिणदाणि = कहे गये । तेहि = उन से । पुणो = और । पज्जाया = पर्याय । पज्जयमूढा पर्यायो मे मोहित । हि= ही।
परसमया = मूच्छित । 149 जे (ज) 1/2 सवि पज्जयेसु (पज्जय) 7/2 गिरदा (णिरद) भूकृ 1/2
अनि जीवा (जीव) 1/2 परसमयिग (परसमयिग) मूलशब्द 1/2 वि त्ति (अ) = शब्दस्वरूपद्योतक गिद्दिट्ठा (णिद्दिट्ठ) भूकृ 1/2 अनि प्रादसहावम्मि [(आद)-(सहाव)7/1] ठिदा (ठिद) भूकृ 1/2 अनि ते (त) 1/2 सवि सगसमया [(सग) वि- (समय) 1/2] मुणेदव्या
(मुण) विधि कृ 1/2 । 149 जेजो। पज्जयेसु-पर्यायो मे । णिरदा = लीन । जीवा - जीव ।
परसमयिग = मूच्छित । णिहिट्ठा - कहे गये । प्रादसहावम्मि = प्रात्म स्वभाव मे । विदा ठहरे हुए । ते वे। समगमया = जाग्रत । मुणेदव्वा समझे जाने चाहिए।
100
प्राचार्य कुन्दकुन्द
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आचार्य कुन्दकुन्द : द्रव्य/विचार व
गाया-क्रम तथा मूल ग्रन्य गाथा-कम
-
पाया
गावा
गुनगन्य गाया-प्रग
मूल ग्रन्थ गाया-त्रम
प्रपनागार26
प्रवचनमार 2 48
प्रवचनमार 2 52
प्रबननमार 2 13 प्रयननमार 2 35 पचाग्निाय 122
पचास्तिकाय 7
पनानिमाय 125
पनास्तिकाय 27 पचास्तिकाय 30 पचाम्निकाय 109
नियमसार
पनान्निसाय 97
नियममार 49
पनाम्निमाय 99
प्रवचनमार 2 33
| प्रयननमार 2 40
पचास्तिकाय 38
10-11 प्रवचनमार 2 41-42
प्रवचनगार | 31
पचाग्निकाय 124
13 पचान्तिकाय 98 14 नियमगार 34 15-16 नियममार 35-36
प्रवचनसार 2 32 पचास्तिकाय 39 । पचास्तिकाय 112 पंचाम्निकाय !13
30
द्रव्य-विचार
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गाथाक्रम
मूल ग्रन्थ गाथा-क्रम
गाथाक्रम
मूल ग्रन्य गाथा क्रम
प्रवचनमार 2 102
प्रवचनसार 2 99
प्रवचनसार 2 101
प्रवचनसार 2 100
पचास्तिकाय 114 पचास्तिकाय 115 पचास्तिकाय 116 पचास्तिकाय 117 पचास्तिकाय 33 पचास्तिकाय 128 पचास्तिकाय 129 पचास्तिकाय 130
प्रवचनसार 1 23
प्रवचनसार 1 27 प्रवचनसार 1 35 प्रवचनसार 1 51 प्रवचनमार 1 22
प्रवचनसार 1 23
प्रवचनसार 1 54 मोक्षपाहुड 4 मोक्षपाहुड 5 मोक्षपाहुड 7
प्रवचनसार 1 20 प्रवचनसार 1 53 प्रवचनसार । 60 प्रवचनसार 1 59
समयसार 14
भावपाहुड 64
समयसार 11
पचास्तिकाय 29
समयसार 141
प्रवचनसार 1 67,
समयसार 142
प्रवचनसार 1 68
प्रवचनसार 1 81
प्रवचनसार 2 95
आचार्य कुन्दकुन्द
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________________
गाथा
।
मूल ग्रन्थ गाथा-क्रम
गाथाक्रम
मूल ग्रन्थ गाथा-क्रम
क्रम
समयसार 91
समयसार 219
प्रवचनसार 2 59
समयसार 265
पचास्तिकाय 136 पचास्तिकाय 137 पचास्तिकाय 138 पचास्तिकाय 139 पचास्तिकाय 140 भावपाहुड 76 प्रवचनसार 2 65
प्रवचनसार 2 87
प्रवचनसार 2 59
प्रवचनसार 1 42
समयसार 102
प्रवचनसार 2 66
समयसार 126
भावपाहुड 77
समयसार 130
प्रवचनसार 64
समयसार 131
भावपाहुड 86
समयसार 83
समयसार 153
समयसार 84
प्रवचनसार 2 89 मोक्षपाहुड 17
0
।
प्रवचनसार 2 63
प्रवचनसार 1 46
पचास्तिकाय 167
प्रवचनसार 1 69
पचास्तिकाय 158
पचास्तिकाय 132
प्रवचनसार 1 78
84 | पचास्तिकाय 135
प्रवचनसार 1 13
103
द्रव्य-विचार
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गाथाक्रम
मूल ग्रन्थ गाथा-क्रम
गाथाक्रम
मूल ग्रन्थ गाथा-क्रम
103
प्रवचनसार 1 11
104 .
प्रवचनसार 17 प्रवचनसार 1 16
105 |
106 |
प्रवचनसार 1 15
107 |
प्रवचनसार 1 14 प्रवचनसार 1 44
108
नियमसार 22 नियमसार 23 नियमसार 24 नियमसार 26 नियमसार 27 नियमसार 28 | पचास्तिकाय 83 पचास्तिकाय 85 पचास्तिकाय 86 | पचास्तिकाय 88 | पचास्तिकाय 89
109
पचास्तिकाय 77
110
पचास्तिकाय 110
111
पचास्तिकाय 79
112
पचास्तिकाय 81
113
पचास्तिकाय 82 प्रवचनसार 2 69 प्रवचनसार 2 71
नियमसार 30
115
| पचास्तिकाय 90
प्रवचनसार 2 72
प्रवचनसार 2 36 पचास्तिकाय 23
प्रवचनसार 2 73
118 |
प्रवचनसार 2 74
119
प्रवचनसार 2 75
पचास्तिकाय 26 पचास्तिकाय 100 | नियमसार 33
120 | नियमसार 21
104
आचार्य कुन्दकुन्द
Page #121
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________________
-
गाथा
गाथा
मूल ग्रन्थ गाथा-क्रम
मूल ग्रन्थ गाथा-क्रम
क्रम
139
145
पचास्तिकाय 10 पचास्तिकाय 8
| पचास्तिकाय 16 पचास्तिकाय 17
140
141
पचाम्तिकाय 11
पचास्तिकाय 18
142
पचास्तिकाय 12
148
| प्रवचनसार 2 1 प्रवचनसार 2 2
143
149
पचास्तिकाय 13 पचास्तिकाय 15
144
.
54909
"
...
PMARA
जयपर
-
द्रव्य-विचार
Page #122
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सहायक पुस्तकें एवं कोश
1. समयसार
: प्राचार्य कुन्दकुन्द
(सपादन वलभद्र जैन)
(श्री कुन्दकुन्द भारती, दिल्ली) 2. पियमसार
: प्राचार्य कुन्दकुन्द
(सम्पादक वलभद्र जैन)
(श्री कुन्दकुन्द भारती, दिल्ली) 3. प्रवचनसार
प्राचार्य कुन्दकुन्द (सम्पादक-मनोहरलाल जैन)
परमश्रुत प्रभावक मण्डल, प्रगान 4. पंचास्तिकाय
आचार्य कन्दकन्द सम्पादक-पन्नालाल वाकलीवाल
परमश्रत प्रमावक मण्डल, अगास 5. अष्टपाहुड
सम्पादक प पन्नालाल साहित्याचार्य (कुन्दकुन्द भारती)
(श्रुत भण्डार व अन्य प्रकाशन समिति
फल्टण, महाराष्ट्र) 6 हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण : व्याख्याता, श्री प्यारचन्दजी महाराज भाग 1-2
(श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय,
मेवाडी बाजार, व्यावर) 7. प्राकृत भाषाम्रो का : डॉ आर पिशल व्याकरण
(विहार-राष्ट्रमापा-परिपद् पटना) 8 अभिनव प्राकृत व्याकरण • डॉ नेमिचन्द्र शास्त्री
(तारा पब्लिकेशन, वाराणमी) प्राकृत भाषा एवं साहित्य डॉ नेमिचन्द्र शास्त्री
का आलोचनात्मक इतिहास : (तारा पब्लिकेशन, वाराणमी) 10 प्राकृतमार्गोपदेशिका : प बेचरदास जीवराज दोशी
(मोतीलाल बनारसीदाम, दिल्ली) 11. संस्कृत निवन्ध-दशिका : वामन शिवराम आप्टे
(रामनारायण वेनीमाधव, इलाहावाद) 12. प्रौढ-रचनानुवाद कौमुदी : डॉ कपिलदेव द्विवेदी
(विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी) 13. पाइअ-सह-महण्णवो : प हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द सेठ
(प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी) 14. सस्कृत हिन्दी-कोश वामन शिवराम आप्टे
(मोतीलाल वनारसीदास, दिल्ली) 15 Sanskrata-English : M Monier Williams (Munshiram Dictionary
Manoharlal, New Delhi) 16. वृहत् हिन्दी कोश
सम्पादक कालिकाप्रसाद आदि (ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वनारस)
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